[[1294]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु कानड़ा चउपदे महला ४ घरु १
मूलम्
रागु कानड़ा चउपदे महला ४ घरु १
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा मनु साध जनां मिलि हरिआ ॥ हउ बलि बलि बलि बलि साध जनां कउ मिलि संगति पारि उतरिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरा मनु साध जनां मिलि हरिआ ॥ हउ बलि बलि बलि बलि साध जनां कउ मिलि संगति पारि उतरिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। हरिआ = हरा भरा, आत्मिक जीवन वाला। हउ = मैं। बलि बलि = कुर्बान, बलिहार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा मन संत-जनों को मिल के आत्मिक जीवन वाला बन गया है। मैं संत-जनों के सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। (संत-जनों की) संगति में मिल के (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाया जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि क्रिपा करहु प्रभ अपनी हम साध जनां पग परिआ ॥ धनु धनु साध जिन हरि प्रभु जानिआ मिलि साधू पतित उधरिआ ॥१॥
मूलम्
हरि हरि क्रिपा करहु प्रभ अपनी हम साध जनां पग परिआ ॥ धनु धनु साध जिन हरि प्रभु जानिआ मिलि साधू पतित उधरिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि! प्रभ = हे प्रभु! पग = पैरों पर, चरणों में। परिआ = पड़ा रहूँ। हम = हम, मैं। धनु धनु = धन्य। पतित = विकारों में गिरे हुए मनुष्य। उधरिआ = (विकारों से) बच जाते हैं।1।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! (मेरे पर) अपनी मेहर कर, मैं संत-जनों के चरणों में लगा रहूँ। हे भाई! शाबाश है संतजनों को जिन्होंने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली हुई है। संतजनों को मिल के विकारों में गिरे हुए मनुष्य विकारों से बच जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनूआ चलै चलै बहु बहु बिधि मिलि साधू वसगति करिआ ॥ जिउं जल तंतु पसारिओ बधकि ग्रसि मीना वसगति खरिआ ॥२॥
मूलम्
मनूआ चलै चलै बहु बहु बिधि मिलि साधू वसगति करिआ ॥ जिउं जल तंतु पसारिओ बधकि ग्रसि मीना वसगति खरिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलै चलै = बार बार भटकता फिरता है। वसगति = वश में। जल तंतु = (मछलियां पकड़ने वाला) जाल। बधकि = बधिक, ने, शिकारी ने। ग्रसि = पकड़ के। मीना = मछली। खरिआ = ले गया।2।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) मन (आम तौर पर) कई तरीकों से सदा भटकता फिरता है, संत जनों को मिल के (इस तरह) वश में कर लिया जाता है, जैसे किसी शिकारी ने जाल बिछाया, और मछली को (काँटे में) फसा के काबू कर के ले गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत संत भल नीके मिलि संत जना मलु लहीआ ॥ हउमै दुरतु गइआ सभु नीकरि जिउ साबुनि कापरु करिआ ॥३॥
मूलम्
हरि के संत संत भल नीके मिलि संत जना मलु लहीआ ॥ हउमै दुरतु गइआ सभु नीकरि जिउ साबुनि कापरु करिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भल = भले। नीके = अच्छे। लहीआ = उतर जाती है। दुरतु = पाप। गइआ नीकरि = निकल गया। साबुनि = साबन से। कापरु = कपड़ा। करिआ = (मल रहत) कर लेते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक संत-जन भले और अच्छे जीवन वाले होते हैं, संत-जनों को मिल के (मन की विकारों की) मैल उतर जाती है। जैसे साबुन के साथ कपड़ा (साफ) कर लिया जाता है, (वैसे ही संतजनों की संगति में मनुष्य के अंदर से) अहंकार का विकार सारा निकल जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मसतकि लिलाटि लिखिआ धुरि ठाकुरि गुर सतिगुर चरन उर धरिआ ॥ सभु दालदु दूख भंज प्रभु पाइआ जन नानक नामि उधरिआ ॥४॥१॥
मूलम्
मसतकि लिलाटि लिखिआ धुरि ठाकुरि गुर सतिगुर चरन उर धरिआ ॥ सभु दालदु दूख भंज प्रभु पाइआ जन नानक नामि उधरिआ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। लिलाटि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। ठाकुरि = ठाकुर प्रभु ने। उर = हृदय। सभु = सारा। दालदु = गरीबी। दालदु दूखु भंज = गरीबी और दुखों का नाश करने वाला। नामि = नाम से। उधरिआ = संसार समुंदर से पार लांघ गया।4।
अर्थ: हे दास नानक! जिस व्यक्ति के माथे पर ठाकुर-प्रभू ने प्रारंभ से (धुर-दरगाह से) (गुरु-मिलने का लेख) लिख दिए, उसने अपने हृदय में गुरु के चरण बसा लिए। ऐसे व्यक्ति ने वह भगवान पाया जो सारी गरीबी व सारे कष्टों का नाश करने वाला है। वह मनुष्य प्रभू-नाम (में जुड़ कर संसार-समुद्र) पार कर गया।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ मेरा मनु संत जना पग रेन ॥ हरि हरि कथा सुनी मिलि संगति मनु कोरा हरि रंगि भेन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ मेरा मनु संत जना पग रेन ॥ हरि हरि कथा सुनी मिलि संगति मनु कोरा हरि रंगि भेन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पग रेन = चरणों की धूल। मिलि = मिल के। रंगि = रंग से। भेन = भीग गया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा मन संत जनों के चरणों की धूल (माँगता है)। हे भाई! संत जनों की संगति में मिल के (जिसने भी) परमात्मा की महिमा सुनी, उसका कोरा मन परमात्मा के प्रेम-रंग में भीग गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम अचित अचेत न जानहि गति मिति गुरि कीए सुचित चितेन ॥ प्रभि दीन दइआलि कीओ अंगीक्रितु मनि हरि हरि नामु जपेन ॥१॥
मूलम्
हम अचित अचेत न जानहि गति मिति गुरि कीए सुचित चितेन ॥ प्रभि दीन दइआलि कीओ अंगीक्रितु मनि हरि हरि नामु जपेन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचित = (अ+चित) बे-ध्यान। अचेत = गाफिल। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिति = माप, अंदाजा। गुरि = गुरु ने। सुचित = समझदार। प्रभि = प्रभु ने। दीन दइआलि = दीनों पर दया करने वाले ने। अंगीकारु = पक्ष। कीओ अंगीकारु = रक्षा की। मनि = मन मे।1।
अर्थ: हे भाई! हम जीव (परमात्मा की ओर से) बे-ध्याने गाफिल रहते हैं हम नहीं जानते कि परमात्मा किस तरह की ऊँची अवस्था वाला है और कितना बेअंत बड़ा है। (जो गुरु की शरण पड़ गए, उनको) गुरु ने समझदार चिक्त वाले बना दिया। दीनों पर दया करने वाले प्रभु ने जिसका पक्ष किया उसने अपने मन में परमात्मा का नाम जपना शुरू कर दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत मिलहि मन प्रीतम कटि देवउ हीअरा तेन ॥ हरि के संत मिले हरि मिलिआ हम कीए पतित पवेन ॥२॥
मूलम्
हरि के संत मिलहि मन प्रीतम कटि देवउ हीअरा तेन ॥ हरि के संत मिले हरि मिलिआ हम कीए पतित पवेन ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन प्रीतम संत = मेरे मन के प्यारे संत। मिलहि = अगर मिल जाएं। कटि = कट के। देवउ = मैं दे दूँ। हीअरा = हृदय। तेन = उनको। पतित पवेन = पतितों से पवित्र।2।
अर्थ: हे भाई! अगर (मेरे) मन के प्यारे संत-जन (मुझे) मिल जाएं, तो मैं उनको (अपना) हृदय काट के दे दूँ। (जिनको) परमात्मा के संत-जन मिल गए, उनको परमात्मा मिल गया। हे भाई! संत जन हम जीवों को पतितों को पवित्र कर लेते हैं।2।
[[1295]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के जन ऊतम जगि कहीअहि जिन मिलिआ पाथर सेन ॥ जन की महिमा बरनि न साकउ ओइ ऊतम हरि हरि केन ॥३॥
मूलम्
हरि के जन ऊतम जगि कहीअहि जिन मिलिआ पाथर सेन ॥ जन की महिमा बरनि न साकउ ओइ ऊतम हरि हरि केन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगि = जगत में। कहीअहि = कहे जाते हैं। सेन = भीग जाते हैं। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। ओइ = वे। केन = किए हें।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक जगत में ऊँचें जीवन वाले कहलवाते हैं, क्योंकि उनको मिलने पर पत्थर (भी अंदर से) भीग जाते हैं (पत्थर-दिल मनुष्य भी नर्म-दिल हो जाते हैं)। हे भाई! मैं संतजनों की बड़ाई बयान नहीं कर सकता।। परमातमा ने (स्वयं) उनको उच्च जीवन वाला बना दिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह हरि साह वडे प्रभ सुआमी हम वणजारे रासि देन ॥ जन नानक कउ दइआ प्रभ धारहु लदि वाखरु हरि हरि लेन ॥४॥२॥
मूलम्
तुम्ह हरि साह वडे प्रभ सुआमी हम वणजारे रासि देन ॥ जन नानक कउ दइआ प्रभ धारहु लदि वाखरु हरि हरि लेन ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साह = शाह, नाम-खजाने का मालिक। सुआमी = हे स्वामी! रासि = संपत्ति, धन-दौलत, राशि, पूंजी। देन = दे। प्रभ = हे प्रभु! लदि लेन = लाद लूं। वाखरु = वखर, सौदा।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे हरि! हे स्वामी! तू नाम खजाने का मालिक है, हम जीव उस नाम-धन के व्यापारी हैं हमें अपना नाम-संपत्ति दे। हे प्रभु! अपने दास नानक पर मेहर कर, मैं तेरा नाम-सौदा लाद सकूँ।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नाम परगास ॥ हरि के संत मिलि प्रीति लगानी विचे गिरह उदास ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नाम परगास ॥ हरि के संत मिलि प्रीति लगानी विचे गिरह उदास ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! परगास = (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश। मिलि = मिल के। गिरह = गृहस्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम की इनायत से आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश (हो जाता है)। परमात्मा के संत जनों को मिल के (जिनके अंदर परमात्मा का) प्यार बन जाता है, वे गृहस्थ में ही (माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम हरि हिरदै जपिओ नामु नरहरि प्रभि क्रिपा करी किरपास ॥ अनदिनु अनदु भइआ मनु बिगसिआ उदम भए मिलन की आस ॥१॥
मूलम्
हम हरि हिरदै जपिओ नामु नरहरि प्रभि क्रिपा करी किरपास ॥ अनदिनु अनदु भइआ मनु बिगसिआ उदम भए मिलन की आस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव, जो प्राणी। हिरदै = हृदय में। नरहरि = परमात्मा। प्रभि = प्रभु ने। किरपास = (कृपाशय) कृपाल। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बिगसिआ = खिल उठा।1।
अर्थ: हे भाई! कृपालु प्रभु ने (जब हम जीवों पर) मेहर की, हमने हृदय में उसका नाम जपा। (नाम की इनायत से) हर वक्त (हमारे अंदर) आनंद बन गया, (हमारा) मन खिल उठा, (स्मरण का और भी ज्यादा) उद्यम हो गया, (प्रभु को) मिलने की आस बनती गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम हरि सुआमी प्रीति लगाई जितने सास लीए हम ग्रास ॥ किलबिख दहन भए खिन अंतरि तूटि गए माइआ के फास ॥२॥
मूलम्
हम हरि सुआमी प्रीति लगाई जितने सास लीए हम ग्रास ॥ किलबिख दहन भए खिन अंतरि तूटि गए माइआ के फास ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सास = सांस। ग्रास = ग्रास। किलबिख = पाप। दहन भए = जल गए। फास = फंदे।2।
अर्थ: हे भाई! हम जिस जीवों के अंदर परमात्मा का प्यार बना (और) जिन्होंने हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ (नाम जपा, उनके) एक छिन में ही सारे पाप जल गए, माया के फंदे टूट गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ हम किरम किआ करम कमावहि मूरख मुगध रखे प्रभ तास ॥ अवगनीआरे पाथर भारे सतसंगति मिलि तरे तरास ॥३॥
मूलम्
किआ हम किरम किआ करम कमावहि मूरख मुगध रखे प्रभ तास ॥ अवगनीआरे पाथर भारे सतसंगति मिलि तरे तरास ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरम = कीड़े। मुगध = मूर्खं। प्रभ तास = उस प्रभु ने। तरास = उसने तार लिया।3।
अर्थ: पर, हे भाई! हम जीवों की क्या बिसात है? हम तो कीड़े हैं। हम क्या कर्म कर सकते हैं? हम मूर्खों की तो वह प्रभु (स्वयं ही) रक्षा करता है। हम अवगुणों से भरे रहते हैं, (अवगुणों के भार से) पत्थर के समान भारे हैं (हम कैसे इस संसार-समुंदर में से तैर सकते हैं?) साधु-संगत में मिल के ही पार लांघ सकते हैं, (वह मालिक) पार लंघाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेती स्रिसटि करी जगदीसरि ते सभि ऊच हम नीच बिखिआस ॥ हमरे अवगुन संगि गुर मेटे जन नानक मेलि लीए प्रभ पास ॥४॥३॥
मूलम्
जेती स्रिसटि करी जगदीसरि ते सभि ऊच हम नीच बिखिआस ॥ हमरे अवगुन संगि गुर मेटे जन नानक मेलि लीए प्रभ पास ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगदीसरि = जगत के ईसर ने। ते सभि = वे सारे। बिखिआसु = विषियों में फसे हुए। संगि = साथ। संगि गुर = गुरु की संगति में।4।
अर्थ: हे भाई! जगत के मालिक प्रभु ने जितनी भी सृष्टि रची है (इसके) सारे जीव-जंतु (हम मनुष्य कहलवाने वालों से) ऊँचे हैं, हम विषौ-विकारों में पड़ कर नीच हैं। हे दास नानक! प्रभु हमारे अवगुण गुरु की संगति में मिटाता है। गुरु हमें प्रभु के साथ मिलाता है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ मेरै मनि राम नामु जपिओ गुर वाक ॥ हरि हरि क्रिपा करी जगदीसरि दुरमति दूजा भाउ गइओ सभ झाक ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ मेरै मनि राम नामु जपिओ गुर वाक ॥ हरि हरि क्रिपा करी जगदीसरि दुरमति दूजा भाउ गइओ सभ झाक ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन ने। गुर वाक = गुरु के वचन के अनुसार। जगदीसरि = जगत के ईश्वर (मालिक) ने। दुरमति = खोटी अकल। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) और का प्यार। झाक = ताक, लालसा। सभ = सारी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) जगत के मालिक हरि ने मेहर की (उसने गुरु के वचन पर चल के प्रभु का नाम जपा, और उसके अंदर से) खोटी बुद्धि दूर हो गई, माया का मोह समाप्त हो गया, (माया वाली) सारी झाक खत्म हो गई। हे भाई! मेरे मन ने भी गुरु के वचन पर चल कर परमात्मा का नाम जपा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना रूप रंग हरि केरे घटि घटि रामु रविओ गुपलाक ॥ हरि के संत मिले हरि प्रगटे उघरि गए बिखिआ के ताक ॥१॥
मूलम्
नाना रूप रंग हरि केरे घटि घटि रामु रविओ गुपलाक ॥ हरि के संत मिले हरि प्रगटे उघरि गए बिखिआ के ताक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाना = कई किस्मों के। केरे = के। घटि घटि = हरेक शरीर में। रविओ = व्यापक है। गुपलाक = गुप्त। प्रगटे = प्रकट हो गए, दिख पड़े। ताक = भिक्ति, कपाट। बिखिआ = माया।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के कई किस्मों के रूप हैं, कई किस्मों के रंग हैं। हरेक शरीर में परमात्मा गुप्त बस रहा है। जिस मनुष्यों को परमात्मा के संत-जन मिल जाते हें, उनके अंदर परमात्मा प्रकट हो जाता है। उन मनुष्यों के माया के (मोह वाले बँद) कपाट खुल जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जना की बहुतु बहु सोभा जिन उरि धारिओ हरि रसिक रसाक ॥ हरि के संत मिले हरि मिलिआ जैसे गऊ देखि बछराक ॥२॥
मूलम्
संत जना की बहुतु बहु सोभा जिन उरि धारिओ हरि रसिक रसाक ॥ हरि के संत मिले हरि मिलिआ जैसे गऊ देखि बछराक ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरि = हृदय में। रसिक रसाक = रसिए, प्रेमी। देखि = देख के। बछराक = बछरा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस रसिए संतजनों ने अपने हृदय में परमात्मा को बसा लिया, उनकी (जगत में) बहुत शोभा होती है। जिस मनुष्यों को प्रभु के इस तरह के संतजन मिल जाते हैं, उनको परमात्मा मिल जाता है (वे इस तरह प्रसन्न-चिक्त रहते हैं) जैसे गाय को देख के उसका बछड़ा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत जना महि हरि हरि ते जन ऊतम जनक जनाक ॥ तिन हरि हिरदै बासु बसानी छूटि गई मुसकी मुसकाक ॥३॥
मूलम्
हरि के संत जना महि हरि हरि ते जन ऊतम जनक जनाक ॥ तिन हरि हिरदै बासु बसानी छूटि गई मुसकी मुसकाक ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महि = में। ते जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। जनक जनाक = जन, संत जन। हिरदै = हृदय में। बासु = सुगंधि। छूटि गई = खत्म हो गई। मुसक मुसकाक = बदबू, दुर्गंध।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने संतजनों के अंदर (प्रत्यक्ष बसता है), वे संत-जन और सब मनुष्यों के मुकाबले ऊँचे जीवन वाले होते हैं। उन्होंने अपने दिल में हरि-नाम की सुगन्धि बसा ली होती है (इसलिए उनके अंदर से विकारों की) बदबू समाप्त हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरे जन तुम्ह ही प्रभ कीए हरि राखि लेहु आपन अपनाक ॥ जन नानक के सखा हरि भाई मात पिता बंधप हरि साक ॥४॥४॥
मूलम्
तुमरे जन तुम्ह ही प्रभ कीए हरि राखि लेहु आपन अपनाक ॥ जन नानक के सखा हरि भाई मात पिता बंधप हरि साक ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! आपन अपनाक = अपने अपना के, अपने बना के। सखा = मित्र। साक = सन्बंधी।4।
अर्थ: हे प्रभु! अपने सेवकों को तू स्वयं ही (अच्छे) बनाता है; उनको तू खुद ही अपने बना के उनकी रक्षा करता है। हे नानक! प्रभु जी अपने सेवकों के मित्र हैं, भाई हैं, माँ हैं, पिता हैं, और साक-सन्बन्धी हें।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ मेरे मन हरि हरि राम नामु जपि चीति ॥ हरि हरि वसतु माइआ गड़्हि वेड़्ही गुर कै सबदि लीओ गड़ु जीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ मेरे मन हरि हरि राम नामु जपि चीति ॥ हरि हरि वसतु माइआ गड़्हि वेड़्ही गुर कै सबदि लीओ गड़ु जीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! जपि = जपा कर। चीति = चित में, अपने अंदर। वसतु = कीमती चीज़। गढ़ि = किले में। वेढ़ी = घिरी हुई। कै सबदि = शब्द से। गढ़ = किला।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा अपने अंदर जपा कर। (हे भाई! तेरे अंदर) परमात्मा का नाम एक कीमती चीज़ (है, पर वह) माया के (मोह के) किले में घिरा पड़ा है (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उस) किले को गुरु के शब्द के द्वारा जीत लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिआ भरमि भरमि बहु भ्रमिआ लुबधो पुत्र कलत्र मोह प्रीति ॥ जैसे तरवर की तुछ छाइआ खिन महि बिनसि जाइ देह भीति ॥१॥
मूलम्
मिथिआ भरमि भरमि बहु भ्रमिआ लुबधो पुत्र कलत्र मोह प्रीति ॥ जैसे तरवर की तुछ छाइआ खिन महि बिनसि जाइ देह भीति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = नाशवान (पदार्थों की खातिर)। भरमि = भटक के। भरमि भरमि भ्रमिआ = सदा ही भटकता फिरता है। लुबधो = फसा हुआ। कलत्र = स्त्री। तरवर = वृक्ष। छाइआ = छाया। तुछ = थोड़े समय के लिए ही। देह = शरीर। भीति = दीवार।1।
अर्थ: हे भाई! (जीव) नाशवान पदार्थों की खातिर सदा ही भटकता फिरता है, पुत्र स्त्री के मोह-प्यार में फसा रहता है। पर, जैसे वृक्ष की छाया थोड़े ही समय के लिए होती है, वैसे ही मनुष्य का अपना ही शरीर एक छिन में ढह जाता है (जैसे कि कच्ची) दीवार।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरे प्रान प्रीतम जन ऊतम जिन मिलिआ मनि होइ प्रतीति ॥ परचै रामु रविआ घट अंतरि असथिरु रामु रविआ रंगि प्रीति ॥२॥
मूलम्
हमरे प्रान प्रीतम जन ऊतम जिन मिलिआ मनि होइ प्रतीति ॥ परचै रामु रविआ घट अंतरि असथिरु रामु रविआ रंगि प्रीति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान प्रीतम = प्राणों से प्यारे। मनि = मन में। प्रतीति = श्रद्धा। परचै = प्रसन्न होता है। रविआ = व्यापक। घट अंतरि = शरीर में। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। रंगि = प्रेम से।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक ऊँचे जीवन वाले होते हैं, वे हमें प्राणों से भी प्यारे लगते हैं, क्योंकि उनको मिल के मन में (परमात्मा के लिए) श्रद्धा पैदा होती है, परमात्मा प्रसन्न होता है, सब शरीरों में बसता दिखता है, उस सदा कायम रहने वाले प्रभु को प्रेम-रंग में स्मरण किया जा सकता है।2।
[[1296]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत संत जन नीके जिन मिलिआं मनु रंगि रंगीति ॥ हरि रंगु लहै न उतरै कबहू हरि हरि जाइ मिलै हरि प्रीति ॥३॥
मूलम्
हरि के संत संत जन नीके जिन मिलिआं मनु रंगि रंगीति ॥ हरि रंगु लहै न उतरै कबहू हरि हरि जाइ मिलै हरि प्रीति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीके = अच्छे। रंगि रंगीति = प्रेम रंग में रंगा जाता है। रंगु = प्रेम रंग। जाइ = जा के।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त अच्छे जीवन वाले होते हैं, क्योंकि उनको मिल के मन प्रेम-रंग में रंगा जाता है। प्रभु-प्रेम का वह रंग कभी उतरता नहीं, कभी फीका नहीं पड़ता। उस प्रेम की इनायत से मनुष्य परमात्मा के चरणों में आ पहुँचता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम बहु पाप कीए अपराधी गुरि काटे कटित कटीति ॥ हरि हरि नामु दीओ मुखि अउखधु जन नानक पतित पुनीति ॥४॥५॥
मूलम्
हम बहु पाप कीए अपराधी गुरि काटे कटित कटीति ॥ हरि हरि नामु दीओ मुखि अउखधु जन नानक पतित पुनीति ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कटित कटीति = काट काट के। काटे कटित कटीति = पूरी तौर पे काट दिए। मुखि = मुँह में। अउखधु = दवाई। पतित = विकारी। पुनीति = पवित्र।4।
अर्थ: हे भाई! हम जीव बड़े पाप करते रहते हैं, हम बड़े दुष्कर्मी हें (जो भी मनुष्य गुरु की शरण आ पड़े) गुरु ने (उनके सारे पाप) पूरी तौर पर काट दिए। हे दास नानक! (कह: गुरु ने जिन्हों के) मुंह में परमात्मा का नाम-दारू दिया, उनको विकारियों से पवित्र जीवन वाला बना दिया।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नाम जगंनाथ ॥ घूमन घेर परे बिखु बिखिआ सतिगुर काढि लीए दे हाथ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नाम जगंनाथ ॥ घूमन घेर परे बिखु बिखिआ सतिगुर काढि लीए दे हाथ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! जगंनाथ = जगत का नाथ। परे = पड़े हुए थे, गिरे हुए थे। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली। बिखिआ = माया। दे = दे के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! जगत के नाथ परमात्मा का नाम जपा कर। हे भाई! (जो मनुष्य) आत्मिक मौत लाने वाली माया के चक्रवात में घिरे रहते हैं, उनको भी गुरु (अपना) हाथ दे के (हरि-नाम में जोड़ के उनमें से) निकाल लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुआमी अभै निरंजन नरहरि तुम्ह राखि लेहु हम पापी पाथ ॥ काम क्रोध बिखिआ लोभि लुभते कासट लोह तरे संगि साथ ॥१॥
मूलम्
सुआमी अभै निरंजन नरहरि तुम्ह राखि लेहु हम पापी पाथ ॥ काम क्रोध बिखिआ लोभि लुभते कासट लोह तरे संगि साथ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! अभै = अ+भय, जिसको कोई डर नहीं पोह सकता। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया की कालिख) निर्लिप। नरहरि = परमात्मा। पाथ = पत्थर। पापी पाथ = विकारों के भाग्यों से पत्थर की तरह भारी हुए पापियों को। बिखिआ लोभि = माया के लोभ में। लुभते = ग्रसे हुए। कासट = काठ, लकड़ी। कासट संगि = लकड़ी के साथ। लोह = लोहा। तरे = (नदी से) पार लांघ जाता है।1।
अर्थ: हे (हमारे) मालिक प्रभु! हे निर्भय प्रभु! हे निर्लिप प्रभु! हम जीव पापी हैं, पत्थर (हो चुके) हैं; काम क्रोध और माया के लोभ में ग्रसे रहते हैं, (मेहर कर) हमें (गुरु की संगति में रख के विकारों में डूबने से) बचा ले (जैसे) काठ (बेड़ी) की संगति में लोहा (नदी से) पार लांघ जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह वड पुरख बड अगम अगोचर हम ढूढि रहे पाई नही हाथ ॥ तू परै परै अपर्मपरु सुआमी तू आपन जानहि आपि जगंनाथ ॥२॥
मूलम्
तुम्ह वड पुरख बड अगम अगोचर हम ढूढि रहे पाई नही हाथ ॥ तू परै परै अपर्मपरु सुआमी तू आपन जानहि आपि जगंनाथ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। हाथ = गहराई, थाह। अपरंपरु = परे से परे। तू जानहि = तू जानता है। आपन = अपने आप को। जगंनाथ = हे जगत के नाथ!।2।
अर्थ: हे स्वामी! तू (हम जीवों की विक्त से) बहुत ही बड़ा है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, जीवों की ज्ञान-इंद्रिय की तेरे तक पहुँच नहीं है। हम जीव तलाश कर-करके थक गए हैं, तेरी थाह हम नहीं लगा सके। तू बेअंत है, परे से परे है। हे जगत के नाथ! अपने आप को तू आप ही जानता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्रिसटु अगोचर नामु धिआए सतसंगति मिलि साधू पाथ ॥ हरि हरि कथा सुनी मिलि संगति हरि हरि जपिओ अकथ कथ काथ ॥३॥
मूलम्
अद्रिसटु अगोचर नामु धिआए सतसंगति मिलि साधू पाथ ॥ हरि हरि कथा सुनी मिलि संगति हरि हरि जपिओ अकथ कथ काथ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अद्रिसटु = जो इन आँखों से नहीं दिखता। धिआए = ध्याता है। मिलि = मिल के। साधू पाथ = गुरु का रास्ता (पथ = रास्ता)। अकथ कथ कथा = जिसकी कथा अकथ है, जिसकी महिमा की बातें खत्म नहीं हो सकतीं।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता। (मनुष्य) उस अगोचर प्रभु का नाम साधु-संगत में मिल के गुरु का बताया हुआ रास्ता पकड़ के ही जप सकता है। साधु-संगत में मिल के ही परमात्मा की महिमा सुनी जा सकती है, उस हरि का नाम जपा जा सकता है जिसके सारे गुणों का बयान (जीवों द्वारा) नहीं हो सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरे प्रभ जगदीस गुसाई हम राखि लेहु जगंनाथ ॥ जन नानकु दासु दास दासन को प्रभ करहु क्रिपा राखहु जन साथ ॥४॥६॥
मूलम्
हमरे प्रभ जगदीस गुसाई हम राखि लेहु जगंनाथ ॥ जन नानकु दासु दास दासन को प्रभ करहु क्रिपा राखहु जन साथ ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! जगदीस = हे जगत के ईश (मालिक)। हम = हम जीवों को। जगंनाथ = हे जगत के नाथ! को = का। प्रभ = हे प्रभु! जन साथ = अपने संत जनों के साथ।4।
अर्थ: हे हमारे प्रभु! हे जगत के मालिक! हे सृष्टि के पति! हे जगत के नाथ! हम जीवों को (काम क्रोध लोभ आदि से) बचाए रख। हे प्रभु! तेरा दास नानक तेरे दासों के दासों का दास है। मेहर कर, (मुझे) अपने सेवकों की संगति में रख।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ पड़ताल घरु ५ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ पड़ताल घरु ५ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन जापहु राम गुपाल ॥ हरि रतन जवेहर लाल ॥ हरि गुरमुखि घड़ि टकसाल ॥ हरि हो हो किरपाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन जापहु राम गुपाल ॥ हरि रतन जवेहर लाल ॥ हरि गुरमुखि घड़ि टकसाल ॥ हरि हो हो किरपाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! गुपाल = गोपाल, सृष्टि का पालनहार प्रभु। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। हो = हे (मन)!।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सृष्टि के पालनहार परमात्मा (का नाम) जपा कर। हे मन! हरि का नाम रत्न हैं, जवाहर हैं, लाल हैं। हे मन! हरि का नाम (तेरे लिए एक सुंदर गहना है, इसको) गुरु की शरण पड़ कर (साधु-संगत की) टकसाल में घड़ा कर। हे मन! हरि सदा दयावान है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरे गुन अगम अगोचर एक जीह किआ कथै बिचारी राम राम राम राम लाल ॥ तुमरी जी अकथ कथा तू तू तू ही जानहि हउ हरि जपि भई निहाल निहाल निहाल ॥१॥
मूलम्
तुमरे गुन अगम अगोचर एक जीह किआ कथै बिचारी राम राम राम राम लाल ॥ तुमरी जी अकथ कथा तू तू तू ही जानहि हउ हरि जपि भई निहाल निहाल निहाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। (ष्) अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। जीह = जीभ। किआ कथै = क्या कह सकती है? बता नहीं सकती। लाल = हे सुंदर प्रभु! जी = हे प्रभु जी! अकथ = जो पूरी तरह से बयान ना किया जा सके। हउ = मैं। जपि = जप के। निहाल = प्रसन्नचिक्त।1।
अर्थ: हे प्रभु! हे सोहणे लाल! तेरे गुणों तक पहुँच नहीं हो सकती, ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, (जीव की) बेचारी एक जीभ (तेरे गुणों को) बयान नहीं कर सकती। हे प्रभु जी! तेरी महिमा बयान से परे है, तू स्वयं ही (अपनी तारीफ) जानता है। हे हरि! मैं (तेरा नाम) जप के सदा के लिए प्रसन्न-चिक्त हो गई हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरे हरि प्रान सखा सुआमी हरि मीता मेरे मनि तनि जीह हरि हरे हरे राम नाम धनु माल ॥ जा को भागु तिनि लीओ री सुहागु हरि हरि हरे हरे गुन गावै गुरमति हउ बलि बले हउ बलि बले जन नानक हरि जपि भई निहाल निहाल निहाल ॥२॥१॥७॥
मूलम्
हमरे हरि प्रान सखा सुआमी हरि मीता मेरे मनि तनि जीह हरि हरे हरे राम नाम धनु माल ॥ जा को भागु तिनि लीओ री सुहागु हरि हरि हरे हरे गुन गावै गुरमति हउ बलि बले हउ बलि बले जन नानक हरि जपि भई निहाल निहाल निहाल ॥२॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान सखा = प्राणों के मित्र। मनि = मन में। तनि = तन में। जीह = जीभ। कौ = का। तिनि = उस (मनुष्य) ने। री = हे सखी! लीओ सुहागु = सोहाग मिल गया, पति प्रभु पा लिया। हउ = मैं। बलि बले = कुर्बान।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी हम जीवों के प्राणों के मित्र हैं, हमारे साथी हैं। हे शई! मेरे मन में, मेरे तन में, मेरी जीभ के लिए परमात्मा का नाम ही धन है नाम ही राशि-पूंजी है। हे सहेली! जिसके माथे के भाग्य जाग उठे, उसने अपना पति-प्रभु पा लिया, वह गुरु की मति पर चल के सदा प्रभु के गुण गाती है। हे दास नानक! (कह:) मैं प्रभु से सदा सदके हूँ, उसका नाम जप-जप के मेरे अंदर खिड़ाव पैदा हो जाता है।2।1।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ हरि गुन गावहु जगदीस ॥ एका जीह कीचै लख बीस ॥ जपि हरि हरि सबदि जपीस ॥ हरि हो हो किरपीस ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ हरि गुन गावहु जगदीस ॥ एका जीह कीचै लख बीस ॥ जपि हरि हरि सबदि जपीस ॥ हरि हो हो किरपीस ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुन जगदीस = जगत के ईश-प्रभु के गुण। जीह = जीभ। कीचै = कर लेनी चाहिए। सबदि = गुरु के शब्द से। जपीस = जपने योग्य। किरपीस = कृपा के ईश, कृपा के मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हरि प्रभु दया का घर है। उस जगत के मालिक प्रभु के गुण सदा गाते रहो। गुरु के शब्द द्वारा उस जपने योग्य हरि का नाम सदा जपा करो, (इस काम के लिए) अपनी एक जीभ को बीस लाख जीभें बना लेना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि किरपा करि सुआमी हम लाइ हरि सेवा हरि जपि जपे हरि जपि जपे जपु जापउ जगदीस ॥ तुमरे जन रामु जपहि ते ऊतम तिन कउ हउ घुमि घुमे घुमि घुमि जीस ॥१॥
मूलम्
हरि किरपा करि सुआमी हम लाइ हरि सेवा हरि जपि जपे हरि जपि जपे जपु जापउ जगदीस ॥ तुमरे जन रामु जपहि ते ऊतम तिन कउ हउ घुमि घुमे घुमि घुमि जीस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! हम = हम जीवों को। सेवा = भक्ति। जपि जपे जापउ = जप जप के जपता रहूँ। जपहि = (जो) जपते हैं। ते = वे (बहुवचन)। हउ घुमि घुमे = मैं कुर्बान हूँ। जीस = जाता हूँ।1।
अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! मेहर कर, हम जीवों को अपनी भक्ति में लगाए रख। हे हरि! हे जगत के ईश्वर! मैं सदा तेरा नाम जपता रहूँ। हे प्रभु! जो तेरे सेवक तेरा राम-नाम जपते हैं वे ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं, मैं उनसे सदके जाता हूँ, सदा सदके जाता हूँ।1।
[[1297]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि तुम वड वडे वडे वड ऊचे सो करहि जि तुधु भावीस ॥ जन नानक अम्रितु पीआ गुरमती धनु धंनु धनु धंनु धंनु गुरू साबीस ॥२॥२॥८॥
मूलम्
हरि तुम वड वडे वडे वड ऊचे सो करहि जि तुधु भावीस ॥ जन नानक अम्रितु पीआ गुरमती धनु धंनु धनु धंनु धंनु गुरू साबीस ॥२॥२॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो करहि = तू वह कुछ करता है। जि = जो काम। भावीस = अच्छा लगता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। साबीस = शाबाश योग।2।
अर्थ: हे हरि! तू सबसे बड़ा है, तू बहुत बड़ा है, तू वह करता है जो तुझे अच्छा लगता है। हे दास नानक! (कह:) वह गुरु धन्य है, सराहनीय है, जिसकी मति ले के प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी लिया जाता है।2।2।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ भजु रामो मनि राम ॥ जिसु रूप न रेख वडाम ॥ सतसंगति मिलु भजु राम ॥ बड हो हो भाग मथाम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ भजु रामो मनि राम ॥ जिसु रूप न रेख वडाम ॥ सतसंगति मिलु भजु राम ॥ बड हो हो भाग मथाम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भजु = भजन किया कर। मनि = मन में। रूप = शकल। रेख = चक्र चिन्ह। वडाम = (सबसे) बड़ा। मिलु = मिला रह। हो = हे भाई! मथाम = माथे के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस राम की शकल जिसके चक्र-चिन्ह नहीं बताए जा सकते, जो राम सबसे बड़ा है, उसके नाम का भजन अपने मन में किया कर। हे भाई! साधु-संगत में मिल और राम का भजन कर, तेरे माथे के बड़े भाग्य हो जाएंगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु ग्रिहि मंदरि हरि होतु जासु तितु घरि आनदो आनंदु भजु राम राम राम ॥ राम नाम गुन गावहु हरि प्रीतम उपदेसि गुरू गुर सतिगुरा सुखु होतु हरि हरे हरि हरे हरे भजु राम राम राम ॥१॥
मूलम्
जितु ग्रिहि मंदरि हरि होतु जासु तितु घरि आनदो आनंदु भजु राम राम राम ॥ राम नाम गुन गावहु हरि प्रीतम उपदेसि गुरू गुर सतिगुरा सुखु होतु हरि हरे हरि हरे हरे भजु राम राम राम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस में। जितु ग्रिहि = जिस घर में। जितु मंदरि = जिस मन्दिर में। हरि जासु = हरि का जस (यश)। तितु = उस में। तितु घरि = उस घर में। आनदो आनंद = आनंद ही आनंद। हरि प्रीतम गुन = हरि प्रीतम के गुण। उपदेसि गुरू = गुरु के उपदेश से।1।
अर्थ: हे भाई! जिस हृदय-घर में जिस हृदय-मंदिर में परमात्मा की महिमा होती है, उस हृदय-धर में आनंद ही आनंद बना रहता है। हे भाई! सदा राम का भजन करता रह। हे भाई! हरि प्रीतम के नाम का गुण गाता रह, गुरु सतिगुरु के उपदेश से गुण गाता रह। राम-नाम का भजन करता रह, हरि-नाम को जपने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ सिसटि धार हरि तुम किरपाल करता सभु तू तू तू राम राम राम ॥ जन नानको सरणागती देहु गुरमती भजु राम राम राम ॥२॥३॥९॥
मूलम्
सभ सिसटि धार हरि तुम किरपाल करता सभु तू तू तू राम राम राम ॥ जन नानको सरणागती देहु गुरमती भजु राम राम राम ॥२॥३॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ सिसटि धार = सारी सृष्टि का आसरा। नानको = नानकु।2।
अर्थ: हे हरि! तू सारी सृष्टि का आसरा है, तू दया का घर है, तू सबको पैदा करने वाला है, हर जगह तू ही तू है। दास नानक तेरी शरण आया है, (दास को) गुरु की शिक्षा बख्श। हे भाई! सदा राम के नाम का भजन करता रह।2।3।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ सतिगुर चाटउ पग चाट ॥ जितु मिलि हरि पाधर बाट ॥ भजु हरि रसु रस हरि गाट ॥ हरि हो हो लिखे लिलाट ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ सतिगुर चाटउ पग चाट ॥ जितु मिलि हरि पाधर बाट ॥ भजु हरि रसु रस हरि गाट ॥ हरि हो हो लिखे लिलाट ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर पग = गुरु के पैर। चाटउ = मैं चाटता हूँ, मैं चूमता हूँ। जितु मिलि = जिस (गुरु) को मिल। पाधर = पधरा, सीधा, सपाट। हरि घाट = हरि (के मिलाप) का रास्ता। गाट = गट गट कर के। हो = हे भाई! लिलाट = माथे पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु को मिल के परमात्मा के मिलाप का सीधा रारस्ता मिल जाता है, मैं उस गुरु के चरण चूमता हूँ। हे भाई! (तू भी गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का भजन किया कर, परमात्मा का नाम-जल गट-गट कर के पीया कर। तेरे माथे के लेख उघड़ पड़ेंगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खट करम किरिआ करि बहु बहु बिसथार सिध साधिक जोगीआ करि जट जटा जट जाट ॥ करि भेख न पाईऐ हरि ब्रहम जोगु हरि पाईऐ सतसंगती उपदेसि गुरू गुर संत जना खोलि खोलि कपाट ॥१॥
मूलम्
खट करम किरिआ करि बहु बहु बिसथार सिध साधिक जोगीआ करि जट जटा जट जाट ॥ करि भेख न पाईऐ हरि ब्रहम जोगु हरि पाईऐ सतसंगती उपदेसि गुरू गुर संत जना खोलि खोलि कपाट ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खट करम = छह धार्मिक कर्म। करि = कर। बिसथार = खिलारा, विस्तार, पसारा। सिध = जोग साधना में माहिर जोगी। साधिक = साधना करने वाले। करि जट जटा = बालों की जटा धर के। भेख = धार्मिक पहरावा। ब्रहम जोगु = परमात्मा का मिलाप। खोलि कपाट = अपने मन के किवाड़ खोल लो।1।
अर्थ: हे भाई! (पंडितों की तरह शास्त्रों द्वारा बताए गए) छह कर्मों की क्रिया करके (इस तरह के) और भी बहुत सारे पसारे करके, सिध जोगी साधिकों की तरह बालों की जटा धार के, धार्मिक पहरावे पहनने से परमात्मा का मिलाप हासिल नहीं किया जा सकता। परमात्मा मिलता है साधु-संगत में। (इस वास्ते, हे भाई!) संत जनों की संगति में रह के गुरु के उपदेश से तू अपने मन के किवाड़ खोल।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू अपर्मपरु सुआमी अति अगाहु तू भरपुरि रहिआ जल थले हरि इकु इको इक एकै हरि थाट ॥ तू जाणहि सभ बिधि बूझहि आपे जन नानक के प्रभ घटि घटे घटि घटे घटि हरि घाट ॥२॥४॥१०॥
मूलम्
तू अपर्मपरु सुआमी अति अगाहु तू भरपुरि रहिआ जल थले हरि इकु इको इक एकै हरि थाट ॥ तू जाणहि सभ बिधि बूझहि आपे जन नानक के प्रभ घटि घटे घटि घटे घटि हरि घाट ॥२॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपरंपरु = परे से परे। अगाहु = अथाह, बहुत ही गहरा। भरपुरि रहिआ = सब जगह व्यापक है। थाट = बनावट, पैदायश, उत्पक्ति। आपे = स्वयं ही। सभ बिधि = सारे ढंग। घटि घटे = हरेक घट में।2।
अर्थ: हे प्रभु! हे मालिक! तू परे से परे है, तू बहुत अथाह है, तू पानी में धरती पर हर जगह व्यापक है। हे हरि! ये सारी जगत-उत्पक्ति सिर्फ तेरी ही है। (इस सृष्टि के बारे) तू सारे ढंग जानता है, तू खुद ही समझता है। हे दास नानक के प्रभु! तू हरेक शरीर में हरेक देही में मौजूद है।2।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन गोबिद माधो ॥ हरि हरि अगम अगाधो ॥ मति गुरमति हरि प्रभु लाधो ॥ धुरि हो हो लिखे लिलाधो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन गोबिद माधो ॥ हरि हरि अगम अगाधो ॥ मति गुरमति हरि प्रभु लाधो ॥ धुरि हो हो लिखे लिलाधो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! माधो = माधव, माया का पति (मा+धव। धव = पति। मा = माया)। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधो = अथाह। लाधो = मिल जाता है। हो = हे भाई! धुरि = धुर दरगाह से। लिलाधो = लिलाट पर, माथे पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! माया के पति गोबिंद का नाम जपा करो, जो अगम्य (पहुँच से परे) है और अथाह है। हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर धुर दरगाह से (प्रभु मिलाप का लेख) लिखा होता है, उसको गुरु की मति द्वारा परमात्मा मिल जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखु माइआ संचि बहु चितै बिकार सुखु पाईऐ हरि भजु संत संत संगती मिलि सतिगुरू गुरु साधो ॥ जिउ छुहि पारस मनूर भए कंचन तिउ पतित जन मिलि संगती सुध होवत गुरमती सुध हाधो ॥१॥
मूलम्
बिखु माइआ संचि बहु चितै बिकार सुखु पाईऐ हरि भजु संत संत संगती मिलि सतिगुरू गुरु साधो ॥ जिउ छुहि पारस मनूर भए कंचन तिउ पतित जन मिलि संगती सुध होवत गुरमती सुध हाधो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। संचि = इकट्ठी करके। चितै = चितवै, चितवता है। मिलि = मिल के। छुहि = छूह के। मनूर = जला हुआ लोहा। कंचन = सोना। पतित = विकारों में गिरे हुए। सुध = शुद्ध, पवित्र। सुध हाधो = शुद्ध हो जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया को संचित करके मनुष्य अनेक विकार चितवने लग जाता है। हे भाई! साधु-संगत में मिल के, गुरु सतिगुरु को मिल के हरि-नाम का भजन किया कर (इस तरह ही) सुख मिलता है। हे भाई! जैसे पारस को छू के जला हुआ लोहा सोना बन जाता है; वैसे ही विकारी मनुष्य साधु-संगत में मिल के, गुरु की मति ले के, सुच्चे जीवन वाले बन जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ कासट संगि लोहा बहु तरता तिउ पापी संगि तरे साध साध संगती गुर सतिगुरू गुर साधो ॥ चारि बरन चारि आस्रम है कोई मिलै गुरू गुर नानक सो आपि तरै कुल सगल तराधो ॥२॥५॥११॥
मूलम्
जिउ कासट संगि लोहा बहु तरता तिउ पापी संगि तरे साध साध संगती गुर सतिगुरू गुर साधो ॥ चारि बरन चारि आस्रम है कोई मिलै गुरू गुर नानक सो आपि तरै कुल सगल तराधो ॥२॥५॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कासट संगि = काठ के साथ, बेड़ी की संगति में। चारि बरन = ब्रहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र। चारि आस्रम = ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ ओर सन्यास आश्रम।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे काठ (बेड़ी, नाव) की संगति में बहुत सारा लोहा (नदी से) पार लांघ जाता है, वैसे ही विकारी मनुष्य भी साधु-संगत में गुरु की संगति में रह के (संसार-समुंदर से) तैर जाते हैं। हे नानक! (ब्राहमण, खत्री आदि) चार वर्ण (प्रसिद्ध) हैं, (ब्रहमचर्य आदि) चार आश्रम (प्रसिद्ध) हैं, (इनमें से) जो भी कोई गुरु को मिलता है, वह खुद (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है, और अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है।2।5।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ हरि जसु गावहु भगवान ॥ जसु गावत पाप लहान ॥ मति गुरमति सुनि जसु कान ॥ हरि हो हो किरपान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ हरि जसु गावहु भगवान ॥ जसु गावत पाप लहान ॥ मति गुरमति सुनि जसु कान ॥ हरि हो हो किरपान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा। गावत = गाते हुए। लहान = उतर जाते हैं। सुनि = सुना कर। कान = कानों से। हो = हे भाई! किरपाल = दयावान।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हरि के भगवान के गुण गाया करो। (हरि के) गुण गाते हुए पाप दूर हो जाते हैं। हे भाई! गुरु की मति ले के (अपने) कानो से हरि की महिमा सुना कर, हरि दयावान हो जाता है।1। रहाउ।
[[1298]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे जन धिआवहि इक मनि इक चिति ते साधू सुख पावहि जपि हरि हरि नामु निधान ॥ उसतति करहि प्रभ तेरीआ मिलि साधू साध जना गुर सतिगुरू भगवान ॥१॥
मूलम्
तेरे जन धिआवहि इक मनि इक चिति ते साधू सुख पावहि जपि हरि हरि नामु निधान ॥ उसतति करहि प्रभ तेरीआ मिलि साधू साध जना गुर सतिगुरू भगवान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। इक मनि = एक मन से। इक चिति = एक चिक्त से। ते साधू = वह भले मनुष्य। जपि = जप के। निधान = (सुखों का) खजाना। करहि = करते हैं (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभु! मिलि = मिल के। भगवान = हे भगवान!।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक एक-मन एक चिक्त हो के तेरा ध्यान करते हैं, सुखों का खजाना तेरा नाम जप-जप के वे गुरमुख मनुष्य आत्मिक आनंद लेते हैं। हे प्रभु! हे भगवान! तेरे संत जन गुरु सतिगुरु को मिल के तेरी सिफतसालह करते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कै हिरदै तू सुआमी ते सुख फल पावहि ते तरे भव सिंधु ते भगत हरि जान ॥ तिन सेवा हम लाइ हरे हम लाइ हरे जन नानक के हरि तू तू तू तू तू भगवान ॥२॥६॥१२॥
मूलम्
जिन कै हिरदै तू सुआमी ते सुख फल पावहि ते तरे भव सिंधु ते भगत हरि जान ॥ तिन सेवा हम लाइ हरे हम लाइ हरे जन नानक के हरि तू तू तू तू तू भगवान ॥२॥६॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै हिरदै = के दिल में। सुआमी = हे स्वामी! ते = वे (बहुवचन)। भव सिंधु = संसार समुंदर। जान = जानो। हम = हमें, मुझे।2।
अर्थ: हे मालिक! जिनके हृदय में तू बस जाता है, वे आत्मिक आनंद का फल हासिल करते है, वे संसार-समुंदर को पार कर जाते हैं। हे भाई! उनको भी हरि के भक्त जानो। हे हरि! हे दास नानक के भगवान! मुझे (अपने) उन संत-जनों की सेवा में लगाए रख, सेवा में लगाए रख।2।6।12
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाईऐ गुण गोपाल क्रिपा निधि ॥ दुख बिदारन सुखदाते सतिगुर जा कउ भेटत होइ सगल सिधि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गाईऐ गुण गोपाल क्रिपा निधि ॥ दुख बिदारन सुखदाते सतिगुर जा कउ भेटत होइ सगल सिधि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाईऐ = आओ मिल के गायन करें। क्रिपानिधि गुण = दया के खजाने, प्रभु के गुण। दुख बिदारन = दुखों का नाश करने वाला। जा कउ = जिस (गुरु) को। भेटत = मिलने से। होइ = होती है (एकवचन)। सिधि = कामयाबी, सफलता। सगल = सारी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु को मिलके (जिंदगी) सारी सफल हो जाती है, उस दुखों के नाश करने वाले और सुखों के देने वाले गुरु को मिल के, आओ, मिल के माया के खजाने गोपाल के गुण गाया करें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरत नामु मनहि साधारै ॥ कोटि पराधी खिन महि तारै ॥१॥
मूलम्
सिमरत नामु मनहि साधारै ॥ कोटि पराधी खिन महि तारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहि = मन को। साधारै = (विकारों के मुकाबले में) सहारा देता है। कोटि = करोड़ों। पराधी = अपराधी, पापी। तारै = (नाम) पार लंघा लेता है।1।
अर्थ: हे भाई! नाम स्मरण करने से नाम (मनुष्य के) मन को (विकारों के मुकाबले में) सहारा देता है। हरि-नाम करोड़ों पापियों को एक छिन में (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ चीति आवै गुरु अपना ॥ ता कउ दूखु नही तिलु सुपना ॥२॥
मूलम्
जा कउ चीति आवै गुरु अपना ॥ ता कउ दूखु नही तिलु सुपना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। चीति = चिक्त में। तिलु = रती भर भी।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को अपना सतिगुरु चेते रहता है (वह मनुष्य सदा हरि-नाम जपता है, जिसकी इनायत से) उसको सपने में भी रक्ती भर भी कोई दुख पोह नहीं सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ सतिगुरु अपना राखै ॥ सो जनु हरि रसु रसना चाखै ॥३॥
मूलम्
जा कउ सतिगुरु अपना राखै ॥ सो जनु हरि रसु रसना चाखै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखै = रक्षा करता है। रसना = जीभ से। चाखै = चखता है।3।
अर्थ: हे भाई! प्यारा गुरु जिस मनुष्य की रक्षा करता है, वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम-रस चखता रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुरि कीनी मइआ ॥ हलति पलति मुख ऊजल भइआ ॥४॥१॥
मूलम्
कहु नानक गुरि कीनी मइआ ॥ हलति पलति मुख ऊजल भइआ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = कह। गुरि = गुरु ने। मइआ = दया। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक मे। मुख = मुँह। ऊजल = बेदाग़।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्यों पर) गुरु ने मेहर की, उनके मुँह इस लोक में और परलोक में उज्जवल हो गए।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ आराधउ तुझहि सुआमी अपने ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सासि सासि सासि हरि जपने ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ आराधउ तुझहि सुआमी अपने ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सासि सासि सासि हरि जपने ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आराधउ = मैं आराधता हूँ, याद करता रहता हूँ। तुझहि = तुझे ही। सुआमी = हे स्वामी! सासि सासि = हरेक सांस के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) अपने मालिक! मैं (सदा) तुझे ही याद करता रहता हूं। हे हरि! उठते, बैठते, सोते, जागते, हरेक सांस के साथ मैं तेरा ही नाम जपता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता कै हिरदै बसिओ नामु ॥ जा कउ सुआमी कीनो दानु ॥१॥
मूलम्
ता कै हिरदै बसिओ नामु ॥ जा कउ सुआमी कीनो दानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता कै हिरदै = उस (मनुष्य) के दिल में। जा कउ = जिस (मनुष्य) को।1।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शता है, उसके हृदय में (उस मालिक का) नाम टिक जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता कै हिरदै आई सांति ॥ ठाकुर भेटे गुर बचनांति ॥२॥
मूलम्
ता कै हिरदै आई सांति ॥ ठाकुर भेटे गुर बचनांति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर भेटे = मालिक प्रभु को मिलता है। गुर बचनांति = गुरु के वचन से।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के उपदेश पर चल कर मालिक-प्रभु को मिल जाता है, उसके दिल में (विकारों की अग्नि) ठंडी पड़ जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब कला सोई परबीन ॥ नाम मंत्रु जा कउ गुरि दीन ॥३॥
मूलम्
सरब कला सोई परबीन ॥ नाम मंत्रु जा कउ गुरि दीन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कला = आत्मिक ताकत। परबीन = प्रवीण, समझदार। मंत्रु = उपदेश। गुरि = गुरु ने।3।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) को गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र दे दिया, वही है सारी आत्मिक ताकतों में प्रवीण।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक ता कै बलि जाउ ॥ कलिजुग महि पाइआ जिनि नाउ ॥४॥२॥
मूलम्
कहु नानक ता कै बलि जाउ ॥ कलिजुग महि पाइआ जिनि नाउ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलि जाउ = मैं सदके जाता हू। कलिजुग महि = झगड़ों भरे जगत में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।4।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: यहाँ किसी युग की बात नहीं है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने इस बखेड़ों भरे जगत में परमात्मा का नाम-खजाना पा लिया, मैं उस (मनुष्य) से बलिहार जाता हूँ।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ कीरति प्रभ की गाउ मेरी रसनां ॥ अनिक बार करि बंदन संतन ऊहां चरन गोबिंद जी के बसना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ कीरति प्रभ की गाउ मेरी रसनां ॥ अनिक बार करि बंदन संतन ऊहां चरन गोबिंद जी के बसना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = कीर्ति, महिमा। गाउ = गाया कर। रसनां = हे जीभ! करि = किया कर। बंदन = नमस्कार। ऊहां = वहाँ, संत जनों के हृदय में। बसना = बसते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी जीभ! परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर। हे भाई! संत-जनों के चरणों पे अनेक बार नमस्कार किया कर, संत-जनों के दिल में सदा परमात्मा के चरण बसते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक भांति करि दुआरु न पावउ ॥ होइ क्रिपालु त हरि हरि धिआवउ ॥१॥
मूलम्
अनिक भांति करि दुआरु न पावउ ॥ होइ क्रिपालु त हरि हरि धिआवउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनिक भांति करि = अनेक ढंग बरत के। न पावउ = मैं नहीं पा सकता। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ।1।
अर्थ: हे भाई! अनेक ढंग इस्तेमाल करके भी मैं परमात्मा का दर नहीं ढूँढ सकता। अगर परमात्मा स्वयं ही दयावान होए तो मैं उसका ध्यान धर सकता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि करम करि देह न सोधा ॥ साधसंगति महि मनु परबोधा ॥२॥
मूलम्
कोटि करम करि देह न सोधा ॥ साधसंगति महि मनु परबोधा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। करम = निहित हुए धार्मिक कर्म। करि = कर के। देह = शरीर। न सोधा = पवित्र नहीं होता, शुद्ध नहीं होता। परबोधा = (माया के मोह की नींद में से) जाग जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदिक) करोड़ों ही (निहित हुए धार्मिक) कर्म करके (मनुष्य का) शरीर पवित्र नहीं हो सकता। मनुष्य का मन साधु-संगत में ही (माया के मोह की नींद में से) जागता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसन न बूझी बहु रंग माइआ ॥ नामु लैत सरब सुख पाइआ ॥३॥
मूलम्
त्रिसन न बूझी बहु रंग माइआ ॥ नामु लैत सरब सुख पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसन = प्यास, लालच। लैत = लेते हुए, स्मरण करते। सरब = सारे।3।
अर्थ: हे भाई! (करोड़ों कर्म करके भी इस) बहु-रंगी माया की तृष्णा नहीं मिटती। पर परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सारे सुख मिल जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम जब भए दइआल ॥ कहु नानक तउ छूटे जंजाल ॥४॥३॥
मूलम्
पारब्रहम जब भए दइआल ॥ कहु नानक तउ छूटे जंजाल ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = दयावान। कहु = कह। जंजाल = माया के मोह के फंदे।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जब (किसी प्राणी पर) प्रभु जी दयावान होते हैं, तब (परमात्मा का नाम स्मरण करके उस मनुष्य की) माया के मोह के (सारे) फंदे टूट जाते हैं।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी मांगु गोबिद ते ॥ टहल संतन की संगु साधू का हरि नामां जपि परम गते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी मांगु गोबिद ते ॥ टहल संतन की संगु साधू का हरि नामां जपि परम गते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसी = इस तरह की (दाति)। ते = से। संगु साधू का = गुरु का साथ। जपि = जप के। परम गते = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से ऐसी (दाति) माँग (कि मुझे) संत जनों की टहल (करने का मौका मिलता रहे, मुझे) गुरु का साथ (मिला रहे, और) हरि-नाम जप के (मैं) सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था (प्राप्त कर सकूँ)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजा चरना ठाकुर सरना ॥ सोई कुसलु जु प्रभ जीउ करना ॥१॥
मूलम्
पूजा चरना ठाकुर सरना ॥ सोई कुसलु जु प्रभ जीउ करना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूजा = भक्ति, प्यार। कुसलु = सुख। जु = जो।1।
अर्थ: (हे भाई! ये माँग प्रभु से मांग कि मैं) प्रभु-चरणों की भक्ति करता रहूँ, प्रभु की शरण पड़ा रहूँ (यह माँग कि) जो कुछ प्रभु जी करते हैं, उसको मैं सुख समझूँ।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल होत इह दुरलभ देही ॥ जा कउ सतिगुरु मइआ करेही ॥२॥
मूलम्
सफल होत इह दुरलभ देही ॥ जा कउ सतिगुरु मइआ करेही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल = कामयाब। दुरलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाली। देही = काया, मानव शरीर। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। मइआ = दया, मेहर। करेही = करते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु जी कृपा करते हैं (वह मनुष्य परमात्मा से साधु-संगत का मिलाप और हरि-नाम का स्मरण माँगता है, इस तरह) उसका ये दुर्लभ मनुष्य-जनम सफल हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआन भरमु बिनसै दुख डेरा ॥ जा कै ह्रिदै बसहि गुर पैरा ॥३॥
मूलम्
अगिआन भरमु बिनसै दुख डेरा ॥ जा कै ह्रिदै बसहि गुर पैरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। भरमु = भटकना। दुख डेरा = दुखों का डेरा। जा कै ह्रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। बसहि = बसते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरु के चरण बसते हैं, उसके अंदर आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी दूर हो जाती है; सारे दुखों का डेरा ही उठ जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि रंगि प्रभु धिआइआ ॥ कहु नानक तिनि पूरा पाइआ ॥४॥४॥
मूलम्
साधसंगि रंगि प्रभु धिआइआ ॥ कहु नानक तिनि पूरा पाइआ ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि = प्यार से। तिनि = उस (मनुष्य) ने। पूरा = पूरा प्रभु।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस (मनुष्य) ने गुरु की संगति में (टिक के) प्यार से परमात्मा का स्मरण किया है, उसने उस पूरन परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ भगति भगतन हूं बनि आई ॥ तन मन गलत भए ठाकुर सिउ आपन लीए मिलाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ भगति भगतन हूं बनि आई ॥ तन मन गलत भए ठाकुर सिउ आपन लीए मिलाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगतन हूँ = भगतों को ही। बनि आई = फबती है। गलत = गलतान, मस्त। सिउ = से। आपन = अपने साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की) भक्ति भक्त-जनों से ही हो सकती है। उनके तन उनके मन परमात्मा की याद में मस्त रहते हैं। उनको प्रभु अपने साथ मिलाए रखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावनहारी गावै गीत ॥ ते उधरे बसे जिह चीत ॥१॥
मूलम्
गावनहारी गावै गीत ॥ ते उधरे बसे जिह चीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावनहारी = रिवाजी तौर पर गाने वाली दुनिया। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। जिह चीत = जिनके चिक्त में।1।
अर्थ: हे भाई! दुनिया रिवाजी तौर पर ही (महिमा के) गीत गाती है। पर संसार-समुंदर से पार वही लांघते हैं, जिनके हृदय में बसते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेखे बिंजन परोसनहारै ॥ जिह भोजनु कीनो ते त्रिपतारै ॥२॥
मूलम्
पेखे बिंजन परोसनहारै ॥ जिह भोजनु कीनो ते त्रिपतारै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंजन = स्वादिष्ट खाने। परोसनहारै = परोसने वाले ने, और के आगे धरने वाले ने। त्रिपतारै = अघा जाता है, तृप्त हो जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! औरों के आगे (खाना) परोसने वाले ने (तो सदा) स्वादिष्ट खाने देखे हैं, पर तृप्त वही हैं जिन्होंने वह खाए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक स्वांग काछे भेखधारी ॥ जैसो सा तैसो द्रिसटारी ॥३॥
मूलम्
अनिक स्वांग काछे भेखधारी ॥ जैसो सा तैसो द्रिसटारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काछै = (कांछित) मन बांछित। भेखधारी = स्वांग रचने वाला। सा = था। तैसो = वैसा ही। द्रिसटारी = दिखता है।3।
अर्थ: हे भाई! भेस धारी (स्वांग रचने वाला) मनुष्य (माया की खातिर) अनेक मन-इच्छित स्वांग बनाता है, पर जैसा वह (असल में) है, वैसा ही (उनको) दिखता है (जो उसको जानते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहन कहावन सगल जंजार ॥ नानक दास सचु करणी सार ॥४॥५॥
मूलम्
कहन कहावन सगल जंजार ॥ नानक दास सचु करणी सार ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहन कहावन = और-और बातें कहनी कहलवानी। जंजार = जंजाल, माया के मोह के फंदों (के कारण)। सचु = सदा स्थिर हरि नाम स्मरण। सार = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य।4।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम स्मरण के बिना) और-और बातें कहनी-कहलवानी- ये सारे प्रयास माया के मोह के फंदों के मूल हैं। हे दास नानक! परमात्मा का नाम स्मरणा ही सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ तेरो जनु हरि जसु सुनत उमाहिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ तेरो जनु हरि जसु सुनत उमाहिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनु = दास, सेवक। जसु = महिमा। सुनत = सुनते हुए। उमाहिओ = उमाह में आ जाता है, प्रसन्न-चिक्त हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा सेवक तेरी महिमा सुनते हुए उमाह में आ जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनहि प्रगासु पेखि प्रभ की सोभा जत कत पेखउ आहिओ ॥१॥
मूलम्
मनहि प्रगासु पेखि प्रभ की सोभा जत कत पेखउ आहिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहि = मन में। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की) रौशनी। पेखि = देख के। सोभा = बड़ाई। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। पेखउ = मैं देखता हूं। आहिओ = मौजूद।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु की महिमा देख के (मेरे) मन में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। मैं जिधर-किधर भी देखता हूँ, (मुझे वह हर तरफ) मौजूद (दिखाई देता) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ ते परै परै ते ऊचा गहिर ग्मभीर अथाहिओ ॥२॥
मूलम्
सभ ते परै परै ते ऊचा गहिर ग्मभीर अथाहिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। ते ऊचा = (सबसे) ऊँचा। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब जीवों से बड़ा और सब जीवों से ऊँचा है; गहरा (समुंदर) है, बड़े जिगरे वाला है, उसकी थाह नहीं लगाई जा सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओति पोति मिलिओ भगतन कउ जन सिउ परदा लाहिओ ॥३॥
मूलम्
ओति पोति मिलिओ भगतन कउ जन सिउ परदा लाहिओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में। परदा = पर्दा, दूरी। लाहिओ = दूर कर दिया।3।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) ताने में पेटे में (धागा मिला हुआ होता है, वैसे) परमात्मा अपने भगतों को मिला हुआ होता है, हे भाई! अपने सेवकों से उसने ओहला (पर्दा) दूर किया होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर प्रसादि गावै गुण नानक सहज समाधि समाहिओ ॥४॥६॥
मूलम्
गुर प्रसादि गावै गुण नानक सहज समाधि समाहिओ ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। सहल = आत्मिक अडोलता। समाहिओ = लीन रहता है।4।
अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (जो मनुष्य परमात्मा के) गुण गाता रहता है वह आत्मिक अडोलता की समाधि में लीन रहता है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ संतन पहि आपि उधारन आइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ संतन पहि आपि उधारन आइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहि = पास, के हृदय में। उधारन = (जीवों को संसार समुंदर से) पार लंघाने के लिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जगत के जीवों को) विकारों से बचाने के लिए (परमात्मा) स्वयं संत-जनों के हृदय में बसता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसन भेटत होत पुनीता हरि हरि मंत्रु द्रिड़ाइओ ॥१॥
मूलम्
दरसन भेटत होत पुनीता हरि हरि मंत्रु द्रिड़ाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसन भेटत = (संत जनों का, गुरु का) दर्शन करते हुए। पुनीता = पवित्र, अच्छे जीवन वाला। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का करता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जीव गुरु का) दर्शन करते हुए पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, (गुरु उनके हृदय में) परमात्मा का नाम दृढ़ कर देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटे रोग भए मन निरमल हरि हरि अउखधु खाइओ ॥२॥
मूलम्
काटे रोग भए मन निरमल हरि हरि अउखधु खाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमल = साफ। अउखधु = दवाई।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु से) हरि-नाम की दवाई (ले के) खाते हैं (उनके) सारे रोग काटे जाते हैं; (उनके) मन पवित्र हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असथित भए बसे सुख थाना बहुरि न कतहू धाइओ ॥३॥
मूलम्
असथित भए बसे सुख थाना बहुरि न कतहू धाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असथित = अडोल चिक्त। सुख थाना = आत्मिक अडोलता में। बहुरि = दोबार, फिर। कतहू = कहीं भी। धाइओ = भटकता, दौड़ता।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु से दवाई ले के खाने वाले मनुष्य) अडोल-चिक्त हो जाते हैं, आत्मिक आनंद में टिके रहते हैं, (इस आनंद को छोड़ के वे) दोबारा किसी और तरफ़ नहीं भटकते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि तरे कुल लोगा नानक लिपत न माइओ ॥४॥७॥
मूलम्
संत प्रसादि तरे कुल लोगा नानक लिपत न माइओ ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। कुल लोगा = (उसकी) कुल के सारे लोग। लिपत न माइओ = माया में लिप्त नहीं होता, माया का प्रभाव नहीं पड़ता।4।
अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (नाम-दवाई खा के वे सिर्फ खुद ही नहीं तैरते, उनकी) कुल के लोग भी (संसार-समुंदर से पार) लांघ जाते हैं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ बिसरि गई सभ ताति पराई ॥ जब ते साधसंगति मोहि पाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ बिसरि गई सभ ताति पराई ॥ जब ते साधसंगति मोहि पाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसरि गई = भूल गई है। सभु = सारी। ताति = ईष्या, जलन। ताति पराई = दूसरों का सुख देख के अंदर अंदर से जलने की आदत। ते = से। जब ते = जब से। मोहि = मैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब से मैंने गुरु की संगति प्राप्त की है, (तब से) दूसरों का सुख देख के अंदर-अंदर से जलने की आदत भूल गई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना को बैरी नही बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई ॥१॥
मूलम्
ना को बैरी नही बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई (मनुष्य)। सगल संगि = सबके साथ। हम कउ बनि आई = मेरा प्यार बना हुआ है।1।
अर्थ: हे भाई! (अब) मुझे कोई वैरी नहीं दिखता, कोई पराया नहीं दिखता; सबके साथ मेरा प्यार बना हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो प्रभ कीनो सो भल मानिओ एह सुमति साधू ते पाई ॥२॥
मूलम्
जो प्रभ कीनो सो भल मानिओ एह सुमति साधू ते पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भल = भला, अच्छा। सुमति = अच्छी अकल। साधू ते = गुरु से।2।
अर्थ: हे भाई! (अब) जो कुछ परमात्मा करता है, मैं उसको (सब जीवों के लिए) भला मानता हूँ। ये सुमति मैंने (अपने) गुरु से सीखी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ महि रवि रहिआ प्रभु एकै पेखि पेखि नानक बिगसाई ॥३॥८॥
मूलम्
सभ महि रवि रहिआ प्रभु एकै पेखि पेखि नानक बिगसाई ॥३॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवि रहिआ = मौजूद है। पेखि = देख के। बिगसाई = मैं खुश होता हूँ।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: जब से साधु-संगत मिली है, मुझे ऐसा दिखता है कि) एक परमात्मा ही सब जीवों में मौजूद है (तभी सबको) देख-देख के खुश होता हूँ।3।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ ठाकुर जीउ तुहारो परना ॥ मानु महतु तुम्हारै ऊपरि तुम्हरी ओट तुम्हारी सरना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ ठाकुर जीउ तुहारो परना ॥ मानु महतु तुम्हारै ऊपरि तुम्हरी ओट तुम्हारी सरना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर जीउ = हे प्रभु जी! परना = आसरा। महतु = महत्व, बड़ाई।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (मुझे) तेरा ही आसरा है। मुझे तेरे ऊपर ही माण है; फखर है, मुझे तेरी ही ओट है, मैं तेरी ही शरण आ पड़ा हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरी आस भरोसा तुम्हरा तुमरा नामु रिदै लै धरना ॥ तुमरो बलु तुम संगि सुहेले जो जो कहहु सोई सोई करना ॥१॥
मूलम्
तुम्हरी आस भरोसा तुम्हरा तुमरा नामु रिदै लै धरना ॥ तुमरो बलु तुम संगि सुहेले जो जो कहहु सोई सोई करना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। संगि = साथ। सुहेले = सुखी। कहहु = तुम कहते हो।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! मुझे तेरी ही आस है, तेरे ऊपर ही भरोसा है, मैंने तेरा ही नाम (अपने) हृदय में टिकाया हुआ है। मुझे तेरा ही ताण है, तेरे चरणों में मैं सुखी रहता हूँ। जो कुछ तू कहता है, मैं वही कुछ कर सकता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरी दइआ मइआ सुखु पावउ होहु क्रिपाल त भउजलु तरना ॥ अभै दानु नामु हरि पाइओ सिरु डारिओ नानक संत चरना ॥२॥९॥
मूलम्
तुमरी दइआ मइआ सुखु पावउ होहु क्रिपाल त भउजलु तरना ॥ अभै दानु नामु हरि पाइओ सिरु डारिओ नानक संत चरना ॥२॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मइआ = कृपा, दया। पावउ = मैं पाता हूं। क्रिपाल = कृपालु, दयावान। त = तो। भउजलु = संसार समुंदर। अभै दान = निर्भयता देने वाला। डारिओ = रख दिया है।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर से, तेरी कृपा से ही मैं सुख पाता हूँ। अगर तू दयावान हो, तो मैं इस संसार-समुंदर को पार लांघ सकता हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) निर्भयता का दान देने वाला, हरि-नाम मैंने (गुरु से) हासिल कर लिया है (इसलिए) मैंने अपना सिर गुरु के चरणों पर रखा हुआ है।2।9।
[[1300]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ साध सरनि चरन चितु लाइआ ॥ सुपन की बात सुनी पेखी सुपना नाम मंत्रु सतिगुरू द्रिड़ाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ साध सरनि चरन चितु लाइआ ॥ सुपन की बात सुनी पेखी सुपना नाम मंत्रु सतिगुरू द्रिड़ाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरु। पेखी = देख ली। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर दिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु की शरण पड़ कर प्रभु के चरणों में चिक्त जोड़ा है, (जब से) गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र (मेरे दिल में) दृढ़ कर के टिकाया है (तब से उस जगत को) सपना ही (आँखों से) देख लिया जिसके सपने की बात सुनी हुई थी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह त्रिपतानो राज जोबनि धनि बहुरि बहुरि फिरि धाइआ ॥ सुखु पाइआ त्रिसना सभ बुझी है सांति पाई गुन गाइआ ॥१॥
मूलम्
नह त्रिपतानो राज जोबनि धनि बहुरि बहुरि फिरि धाइआ ॥ सुखु पाइआ त्रिसना सभ बुझी है सांति पाई गुन गाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपतानो = अघाता। जोबनि = जवानी से। धनि = धन से। बहुरि = दोबारा। धाइआ = भटकता है। बुझी है = समाप्त हो गई है।1।
अर्थ: हे भाई! (ये मन) राज-जोबन-धन से नहीं तृप्त होता, बार-बार (इन पदार्थों के पीछे) भटकता फिरता है। पर, जब मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, और माया की सारी तृष्णा बुझ जाती है, आत्मिक आनंद मिल जाता है, शांति प्राप्त हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु बूझे पसू की निआई भ्रमि मोहि बिआपिओ माइआ ॥ साधसंगि जम जेवरी काटी नानक सहजि समाइआ ॥२॥१०॥
मूलम्
बिनु बूझे पसू की निआई भ्रमि मोहि बिआपिओ माइआ ॥ साधसंगि जम जेवरी काटी नानक सहजि समाइआ ॥२॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: की निआई = जैसा। भ्रमि = भटक के। मोहि = मोह में। बिआपिओ = फसा हुआ। साध संगि = साधु-संगत में। जेवरी = रस्सी, फंदा। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन की) सूझ के बिना मनुष्य पशू-समान ही रहता है, माया की भटकना में माया के मोह में फंसा रहता है। पर, हे नानक! साधु-संगत में बसने से जमों वाला फंदा कट जाता है, मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन हो जाता है।2।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ हरि के चरन हिरदै गाइ ॥ सीतला सुख सांति मूरति सिमरि सिमरि नित धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ हरि के चरन हिरदै गाइ ॥ सीतला सुख सांति मूरति सिमरि सिमरि नित धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। गाइ = गाया कर, महिमा करा कर। सीतला मूरति = उस प्रभु को जिसका स्वरूप ठंडा ठार है। सुख मूरति = सुख स्वरूप प्रभु। सांति मूरति = शांति स्वरूप प्रभु को। धिआइ = ध्याया कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण हृदय में (टिका के; उसके गुण) गाया कर। उस प्रभु का सदा ध्यान धरा कर, उस प्रभु का सदा स्मरण किया कर जो शांति-स्वरूप है जो सुख-स्वरूप है जो शीतल-स्वरूप है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल आस होत पूरन कोटि जनम दुखु जाइ ॥१॥
मूलम्
सगल आस होत पूरन कोटि जनम दुखु जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारी। कोटि जनम दुखु = करोड़ों जन्मों का दुख।1।
अर्थ: हे भाई! (नाम-जपने की इनायत से मनुष्य की) सारी आशाएं पूरी हो जाती हैं, करोड़ों जन्मों के दुख दूर हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंन दान अनेक किरिआ साधू संगि समाइ ॥ ताप संताप मिटे नानक बाहुड़ि कालु न खाइ ॥२॥११॥
मूलम्
पुंन दान अनेक किरिआ साधू संगि समाइ ॥ ताप संताप मिटे नानक बाहुड़ि कालु न खाइ ॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। समाइ = लीन हुआ रह। कालु = मौत, आत्मिक मौत।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की संगति में टिका रह- यही है अनेक किस्म के पुण्य-दान आदि कर्म। (संगति की इनायत से सारे) दुख-कष्ट मिट जाते हें, आत्मिक मौत (आत्मिक जीवन को) फिर नहीं खा सकती।2।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथीऐ संतसंगि प्रभ गिआनु ॥ पूरन परम जोति परमेसुर सिमरत पाईऐ मानु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कथीऐ संतसंगि प्रभ गिआनु ॥ पूरन परम जोति परमेसुर सिमरत पाईऐ मानु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथीऐ = कथना चाहिए, बात चलानी चाहिए। प्रभ गिआनु कथीऐ = प्रभु का ज्ञान कथन करना चाहिए, प्रभु के गुणों की बात चलानी चाहिए। संत संगि = संत जनों की संगति में। पूरन = सर्व व्यापक। परम जोति = सबसे ऊँची ज्योति। सिमरत = स्मरण करते हुए। पाईऐ = पाया जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संतजनों की संगति में (टिक के) परमात्मा के गुणों की बात चलानी चाहिए। हे भाई! सर्व-व्यापक सबसे ऊँचे नूर परमेश्वर का (नाम) स्मरण करते हुए (लोक-परलोक में) इज्जत हासिल की जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवत जात रहे स्रम नासे सिमरत साधू संगि ॥ पतित पुनीत होहि खिन भीतरि पारब्रहम कै रंगि ॥१॥
मूलम्
आवत जात रहे स्रम नासे सिमरत साधू संगि ॥ पतित पुनीत होहि खिन भीतरि पारब्रहम कै रंगि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहै = खत्म हो जाते हैं। आवत जात = आते जाते, पैदा होते मरते, जनम मरण के चक्कर। स्रम = श्रम, थकावट। साधू = गुरु। पतित = विकारों में गिरे हुए। होहि = हो जाते हैं (बहुवचन)। कै रंगि = के प्रेम रंग में।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में (हरि-नाम) स्मरण करते हुए जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं (भटकनों की) थकावट का नाश हो जाता है। परमात्मा के प्रेम-रंग की इनायत से विकारी मनुष्य भी एक छिन में स्वच्छ जीवन वाले हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो कथै सुनै हरि कीरतनु ता की दुरमति नास ॥ सगल मनोरथ पावै नानक पूरन होवै आस ॥२॥१॥१२॥
मूलम्
जो जो कथै सुनै हरि कीरतनु ता की दुरमति नास ॥ सगल मनोरथ पावै नानक पूरन होवै आस ॥२॥१॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो जो = जो जो मनुष्य। कथै = बयान करता है। दुरमति = खोटी मति। सगल = सारे। पावै = हासिल कर लेता है (एकवचन)।2।
अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य परमात्मा की महिमा उचारता है सुनता है, उसकी खोटी-मति का नाश हो जाता है। हे नानक! वह मनुष्य सारी मनो-कामनाएं हासिल कर लेता है, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है।2।1।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ साधसंगति निधि हरि को नाम ॥ संगि सहाई जीअ कै काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ साधसंगति निधि हरि को नाम ॥ संगि सहाई जीअ कै काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधि = खजाना। को = का। संगि = (हर वक्त) साथ। सहाई = साथी। कै काम = के काम (आता है)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में (रहने से) परमात्मा का नाम-खजाना (मिल जाता है, जो जीव के) साथ (सदा) साथी बना रहता है जो जिंद के (सदा) काम आता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत रेनु निति मजनु करै ॥ जनम जनम के किलबिख हरै ॥१॥
मूलम्
संत रेनु निति मजनु करै ॥ जनम जनम के किलबिख हरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेनु = चरण धूल। निति = नित्य। मजनु = स्नान। किलबिख = पाप। हरै = दूर कर लेता है।1।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य संत-जनों की चरण-धूल में सदा स्नान करता है, वह अपने अनेक जन्मों के पाप दूर कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जना की ऊची बानी ॥ सिमरि सिमरि तरे नानक प्रानी ॥२॥२॥१३॥
मूलम्
संत जना की ऊची बानी ॥ सिमरि सिमरि तरे नानक प्रानी ॥२॥२॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊची बानी = ऊँचा जीवन बनाने वाली वाणी। सिमरि = स्मरण करके। तारे = पार लांघ गए।2।
अर्थ: हे नानक! संत जनों की (मनुष्य के जीवन को) ऊँचा करने वाली वाणी को स्मरण कर-कर के अनेक ही प्राणी संसार-समुंदर से पार लांघते आ रहे हैं।2।2।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ साधू हरि हरे गुन गाइ ॥ मान तनु धनु प्रान प्रभ के सिमरत दुखु जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ साधू हरि हरे गुन गाइ ॥ मान तनु धनु प्रान प्रभ के सिमरत दुखु जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु (के द्वारा)। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! ये मन, ये तन, ये धन, ये जिंद, (जिस) प्रभु के (दिए हुए हैं, उसका नाम) स्मरण करने से (हरेक) दुख दूर हो जाता है, (तू) गुरु (की शरण पड़ कर) उस प्रभु के गुण गाया कर।1। रहाउं
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईत ऊत कहा लुोभावहि एक सिउ मनु लाइ ॥१॥
मूलम्
ईत ऊत कहा लुोभावहि एक सिउ मनु लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = कहाँ? लुोभावहि = तू लोभ में फस रहा है। सिउ = साथ।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लुोभावहि’ में से अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘लोभावहि’, यहां ‘लुभावहि’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! तू इधर-उधर क्यों लोभ में फंस रहा है? एक परमात्मा के साथ अपना मन जोड़।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा पवित्र संत आसनु मिलि संगि गोबिदु धिआइ ॥२॥
मूलम्
महा पवित्र संत आसनु मिलि संगि गोबिदु धिआइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत आसनु = गुरु का ठिकाना। मिलि संगि = (गुरु) के साथ मिल के।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु का ठिकाना (जीवन को) बहुत सुच्चा बनाने वाला है। गुरु को मिल के गोबिंद को (अपने मन में) ध्याया कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल तिआगि सरनि आइओ नानक लेहु मिलाइ ॥३॥३॥१४॥
मूलम्
सगल तिआगि सरनि आइओ नानक लेहु मिलाइ ॥३॥३॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि = छोड़ के।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) सारे (आसरे) छोड़ के मैं भी तेरी शरण आया हूँ मुझे अपने चरणों में जोड़े रख।3।3।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ पेखि पेखि बिगसाउ साजन प्रभु आपना इकांत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ पेखि पेखि बिगसाउ साजन प्रभु आपना इकांत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखि पेखि = (हर जगह बसता) देख देख के। बिगसाउ = मैं खिल उठता हूँ। इकांत = (सर्व व्यापक होता हुआ भी) अलग, निर्लिप, एकांत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने सज्जन प्रभु को (हर जगह बसता) देख-देख के खुश हो जाता हूँ, (वह सर्व-व्यापक होते हुए भी माया के प्रभाव से) अलग रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनदा सुख सहज मूरति तिसु आन नाही भांति ॥१॥
मूलम्
आनदा सुख सहज मूरति तिसु आन नाही भांति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु आन नाहि भांति = तिसु भांति आन नाही, उस जैसा और कोई नहीं। मूरति = स्वरूप।1।
अर्थ: हे भाई! वह सज्जन प्रभु आनंद-रूप है, सुख-स्वरूप है, आत्मिक अडोलता का स्वरूप है। उस जैसा और कोई नहीं है।1।
[[1301]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरत इक बार हरि हरि मिटि कोटि कसमल जांति ॥२॥
मूलम्
सिमरत इक बार हरि हरि मिटि कोटि कसमल जांति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। इक बार = सदा, लगातार। मिटि जांति = मिट जाते हैं।2। कसमल = पाप।2।
अर्थ: हे भाई! उस हरि प्रभु का नाम सदा स्मरण करने से करोड़ों पाप मिट जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण रमंत दूख नासहि रिद भइअंत सांति ॥३॥
मूलम्
गुण रमंत दूख नासहि रिद भइअंत सांति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! वह सज्जन-प्रभु के गुण गाते हुए (सारे) दुख नाश हो जाते हैं, हृदय में ठंड पड़ जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रिता रसु पीउ रसना नानक हरि रंगि रात ॥४॥४॥१५॥
मूलम्
अम्रिता रसु पीउ रसना नानक हरि रंगि रात ॥४॥४॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रिता रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। रसना = जीभ से। रंगि = प्रेम रंग में। रात = रति रह, रंगा रह।4।
अर्थ: हे नानक! (उस सज्जन प्रभु का) आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-जल (अपनी) जीभ से पीता रह, और हरि के प्रेम-रंग में रंगा रह।4।4।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ साजना संत आउ मेरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ साजना संत आउ मेरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजना = हे सज्जनो! संत = हे संतजनो! मेरै = मेरे घर में, मेरे पास।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! हे सज्जनो! तुम मेरे घर आओ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनदा गुन गाइ मंगल कसमला मिटि जाहि परेरै ॥१॥
मूलम्
आनदा गुन गाइ मंगल कसमला मिटि जाहि परेरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुन गाइ = (परमात्मा के) गुण गा के। मंगल = खुशियां। कसमला = पाप। मिटि जाहि = मिट जाते हैं। परेरै = दूर (हो जाते हैं)।1।
अर्थ: हे सज्जनो! (तुम्हारी संगति में परमात्मा के) गुण गा के (मेरे दिल में) आनंद पैदा हो जाता है, खुशियां बन जाती हैं, (मेरे अंदर से) सारे पाप मिट जाते हैं, दूर हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत चरन धरउ माथै चांदना ग्रिहि होइ अंधेरै ॥२॥
मूलम्
संत चरन धरउ माथै चांदना ग्रिहि होइ अंधेरै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरउ = मैं धरता हूँ। माथै = (अपने) माथे पर। चांदना = रौशनी। ग्रिहि अंधेरै = (मेरे) अंधेरे (हृदय) घर में। होइ = हो जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! जब मैं संत जनों के चरण (अपने) माथे पर रखता हूँ, मेरे अंधकार भरे (हृदय-) घर में (आत्मिक-) रौशनी होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि कमलु बिगसै गोबिंद भजउ पेखि नेरै ॥३॥
मूलम्
संत प्रसादि कमलु बिगसै गोबिंद भजउ पेखि नेरै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = संत जनों की कृपा से। कमलु = हृदय कमल फूल। बिगसै = खिल उठता है। भजउ = मैं भजता हूँ, मैं भजन करता हूँ। पेखि = देख के।3।
अर्थ: हे भाई! संत जनों की कृपा से (मेरा हृदय-) कमल खिल उठता है, गोबिंद को (अपने) नजदीक देख के मैं उसका भजन करता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ क्रिपा ते संत पाए वारि वारि नानक उह बेरै ॥४॥५॥१६॥
मूलम्
प्रभ क्रिपा ते संत पाए वारि वारि नानक उह बेरै ॥४॥५॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, के द्वारा। वारि वारि = बलिहार बलिहार (जाता हूँ)। उह बेरै = उस घड़ी (वक्त, महूरत) से।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा की मेहर से मैं संत जनों को मिला। मैं उस वक्त से ही सदा कुर्बान जाता हूँ (जब से संतों की संगति प्राप्त हुई)।4।5।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ चरन सरन गोपाल तेरी ॥ मोह मान धोह भरम राखि लीजै काटि बेरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ चरन सरन गोपाल तेरी ॥ मोह मान धोह भरम राखि लीजै काटि बेरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपाल = (गो = सृष्टि) हे सृष्टि के पालनहार! धोह = ठगी। काटि बेरी = बेड़ी काट के।1। रहाउ।
अर्थ: हे सृष्टि के पालनहार! मैं तेरे चरणों की शरण आया हूँ। (मेरे अंदर से) मोह, अहंकार, ठगी, भटकना (आदि के) फंदे काट के (मेरी) रक्षा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बूडत संसार सागर ॥ उधरे हरि सिमरि रतनागर ॥१॥
मूलम्
बूडत संसार सागर ॥ उधरे हरि सिमरि रतनागर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूडत = डूब रहे। सागर = समुंदर। उधरे = बच जाते हैं। सिमरि = स्मरण करके। रतनागर = (रतन+आकर) रत्नों की खान प्रभु।1।
अर्थ: हे रत्नों की खान हरि! संसार-समुंदर में डूब रहे जीव (तेरा नाम) स्मरण करके बच निकलते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतला हरि नामु तेरा ॥ पूरनो ठाकुर प्रभु मेरा ॥२॥
मूलम्
सीतला हरि नामु तेरा ॥ पूरनो ठाकुर प्रभु मेरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतला = शीतल, ठंडक देने वाला। पूरनो = सर्व व्यापक। ठाकुर = हे ठाकुर!।2।
अर्थ: हे हरि! तेरा नाम (जीवों के हृदय को) ठंढक देने वाला है। हे ठाकुर! तू सर्व-व्यापक है, तू मेरा प्रभु है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दरद निवारि तारन ॥ हरि क्रिपा निधि पतित उधारन ॥३॥
मूलम्
दीन दरद निवारि तारन ॥ हरि क्रिपा निधि पतित उधारन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दरद = गरीबों के दुख। निवारि = दूर करके। तारन = पार लंघाने वाला। निधि = खजाना। पतित = विकारी। उधारन = बचाने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा गरीबों का दुख दूर करके (उनको दुखों के समुंदर में से) पार लंघाने वाला है। हे भाई! हरि दया का खजाना है, विकारियों को (विकारों से) बचाने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि जनम दूख करि पाइओ ॥ सुखी नानक गुरि नामु द्रिड़ाइओ ॥४॥६॥१७॥
मूलम्
कोटि जनम दूख करि पाइओ ॥ सुखी नानक गुरि नामु द्रिड़ाइओ ॥४॥६॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। करि = सह के। पाइओ = (मनुष्य जनम) मिला। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइओ = (हृदय में) दृढ़ किया।4।
अर्थ: हे नानक! (मनुष्य) करोड़ों जन्मों के दुख सह के (मनुष्य-जन्म) हासिल करता है, (पर) सुखी (वही) है (जिसके हृदय में) गुरु ने (परमात्मा का) नाम पक्का कर दिया है।4।6।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ धनि उह प्रीति चरन संगि लागी ॥ कोटि जाप ताप सुख पाए आइ मिले पूरन बडभागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ धनि उह प्रीति चरन संगि लागी ॥ कोटि जाप ताप सुख पाए आइ मिले पूरन बडभागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनि = धन्य, सराहनीय। संगि = साथ। कोटि = करोड़ों। आइ = आ के। बडभागी = बड़े भाग्यों से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! वह प्रीत धन्य है जो (परमात्मा के) चरणों में लगती है। (उस प्रीति की इनायत से, मानो) करोड़ों जपों-तपों के सुख प्राप्त हो जाते हैं, और पूरन प्रभु जी बहुत बड़े भाग्यों से आ मिलते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि अनाथु दासु जनु तेरा अवर ओट सगली मोहि तिआगी ॥ भोर भरम काटे प्रभ सिमरत गिआन अंजन मिलि सोवत जागी ॥१॥
मूलम्
मोहि अनाथु दासु जनु तेरा अवर ओट सगली मोहि तिआगी ॥ भोर भरम काटे प्रभ सिमरत गिआन अंजन मिलि सोवत जागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। अनाथु = निमाणा। अवर ओट = और आसरा। मोहि = मैं। भोर भरम = छोटे से छोटे भ्रम भी। अंजन = सुरमा। मिलि = मिल के।1।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरा दास हूँ तेरा सेवक हूँ, मुझे और कोई आसरा नहीं (तेरे बिना) मैं और सारी ओट छोड़ चुका हूँ। हे प्रभु! तेरा नाम स्मरण करते हुए तेरे साथ गहरी सांझ का सुरमा डाल के मेरे छोटे से छोटे भ्रम भी काटे गए हैं, (तेरे चरणों में) मिल के मैं (माया के मोह की नींद में) सोई जाग उठी हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू अथाहु अति बडो सुआमी क्रिपा सिंधु पूरन रतनागी ॥ नानकु जाचकु हरि हरि नामु मांगै मसतकु आनि धरिओ प्रभ पागी ॥२॥७॥१८॥
मूलम्
तू अथाहु अति बडो सुआमी क्रिपा सिंधु पूरन रतनागी ॥ नानकु जाचकु हरि हरि नामु मांगै मसतकु आनि धरिओ प्रभ पागी ॥२॥७॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति बडो = बहुत बड़ा। क्रिपा निधि = कृपा का समुंदर। रतनागी = (रतन+आकर) रत्नों की खान। जाचकु = भिखारी। मांगै = माँगता है (एकवचन)। मसतकु = माथा। आनि = ला के (आइ = आ के)। प्रभ पागी = प्रभु के पगों (पैरों) में।2।
अर्थ: हे स्वामी! तू एक बहुत बड़ा अथाह दया-का-सागर है, तू सर्व-व्यापक है, तू रत्नों की खान है। (तेरे दर का) भिखारी नानक, हे हरि! तेरा नाम माँगता है, (नानक ने अपना) माथा, हे प्रभु! तेरे चरणों पर ला के रख दिया है।2।7।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ कुचिल कठोर कपट कामी ॥ जिउ जानहि तिउ तारि सुआमी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ कुचिल कठोर कपट कामी ॥ जिउ जानहि तिउ तारि सुआमी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुचिल = गंदे आचरण वाले। कठोर = निर्दई। कपट = ठगी करने वाले। कामी = विषई। जिउ जानहि = जिस भी ढंग से तू (पार लंघाना ठीक) जानता है। तिउ = उसी तरह। सुआमी = हे स्वामी!।1। रहाउ।
अर्थ: हे स्वामी! हम जीव गंदे आचरण वाले और दयाहीन हैं, ठगी करने वाले हैं, विषई हैं। जिस भी तरीके से तू (जीवों को पार लंघाना ठीक) समझता है, उसी तरह (इन विकारों से) पार लंघा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू समरथु सरनि जोगु तू राखहि अपनी कल धारि ॥१॥
मूलम्
तू समरथु सरनि जोगु तू राखहि अपनी कल धारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथु = सारी ताकतों का मालिक। सरनि जोगु = शरण आए की रक्षा करने योग्य। कल = सत्ता, कला, ताकत। धारि = धार के, बरत के।1।
अर्थ: हे स्वामी! तू सारी ताकतों का मालिक है, तू शरण पड़े की रक्षा करने योग्य है, तू (जीवों को) अपनी ताकत बरत के बचाता (आ रहा) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाप ताप नेम सुचि संजम नाही इन बिधे छुटकार ॥ गरत घोर अंध ते काढहु प्रभ नानक नदरि निहारि ॥२॥८॥१९॥
मूलम्
जाप ताप नेम सुचि संजम नाही इन बिधे छुटकार ॥ गरत घोर अंध ते काढहु प्रभ नानक नदरि निहारि ॥२॥८॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाप = देवताओं को वश में करने वाला मंत्र। ताप = धूणियों आदि से शरीर को कष्ट देने। सुचि = शारीरिक पवित्रता। संजम = इन्द्रियों को विकारों से बचाने के यत्न। इन बिधे = इन तरीकों से। छुटकार = (विकारों से) खलासी। गरत = (गर्त) गड्ढा। घोर अंध = घोर अंधेरा (जहाँ आत्मिक जीवन की सूझ की थोड़ी सी भी रौशनी ना मिले)। ते = से, में से। प्रभ = हे प्रभु! नदरि निहारि = मेहर भरी निगाह से देख के। निहारि = देख के।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जप, तप, व्रत-नेम, शारीरिक पवित्रता, संजम - इन तरीकों से (विकारों से जीवों की) खलासी नहीं हो सकती। हे प्रभु! तू (स्वयं ही) मेहर की निगाह से देख के (विकारों के) घोर अंधकार भरे गड्ढे में से बाहर निकाल।2।8।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाराइन नरपति नमसकारै ॥ ऐसे गुर कउ बलि बलि जाईऐ आपि मुकतु मोहि तारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नाराइन नरपति नमसकारै ॥ ऐसे गुर कउ बलि बलि जाईऐ आपि मुकतु मोहि तारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नरपति = नरों का पति, बादशाह। नमस्कारै = नमस्कार करता रहता है, सिर झुकाता रहता है। कउ = से। बलि जाईऐ = सदके जाना चाहिए। मुकतु = (दुनिया के बंधनो से) स्वतंत्र। मोहि = मुझे। तारै = (संसार = समुंदर से) पार लंघाता है (पार लंघाने की सामर्थ्य रखता है)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के बेअंत रंग देख-देख के जो गुरु) प्रभु-पातशाह को सदा सिर निवाता रहता है, जो (नाम की इनायत से) (दुनिया के बंधनो से) स्वयं निर्लिप है, और मुझे पार लंघाने की समर्थता रखता है, उस गुरु से सदा ही बलिहार जाना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन कवन कवन गुन कहीऐ अंतु नही कछु पारै ॥ लाख लाख लाख कई कोरै को है ऐसो बीचारै ॥१॥
मूलम्
कवन कवन कवन गुन कहीऐ अंतु नही कछु पारै ॥ लाख लाख लाख कई कोरै को है ऐसो बीचारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन कवन गुन = कौन कौन से गुण? कहीऐ = बयान किए जाएं। पारै = परला छोर। कई कोरै = कई करोड़ों में। को है = कोई (विरला) है। ऐसो = इस तरह। बीचारै = विचारता है।1।
अर्थ: हे भाई! लाखों लोगों में करोड़ों लोगों में से कोई विरला (ऐसा मनुष्य) होता है, जो ऐसा सोचता है कि परमात्मा के सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते, परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, परमात्मा के गुणों का परला छोर नहीं मिल सकता।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसम बिसम बिसम ही भई है लाल गुलाल रंगारै ॥ कहु नानक संतन रसु आई है जिउ चाखि गूंगा मुसकारै ॥२॥१॥२०॥
मूलम्
बिसम बिसम बिसम ही भई है लाल गुलाल रंगारै ॥ कहु नानक संतन रसु आई है जिउ चाखि गूंगा मुसकारै ॥२॥१॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसम = हैरान। भई है = हुआ जाता है। लाल गुलाल रंगारै = सुंदर प्रभु और सुंदर प्रभु के रंगों से। कहु = कह। नानक = हे नानक! रसु = (आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल का) स्वाद। आई है = आता है। चाखि = चख के। मुसकारै = मुस्करा देता है।2।
अर्थ: हे भाई! सोहाने प्रभु और सुंदर प्रभु के (आश्चर्यजनक) करिश्मों (को देख के) हैरान हो जाया जाता है। हे नानक! कह: संत जनों को (आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का) स्वाद आता है (पर, इस स्वाद को वे बयान नहीं कर सकते) जैसे (कोई) गूँगा मनुष्य (कोई स्वादिष्ट पदार्थ) चख के (सिर्फ) मुस्करा ही देता है (पर स्वाद को बयान नहीं कर सकता)।2।1।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ न जानी संतन प्रभ बिनु आन ॥ ऊच नीच सभ पेखि समानो मुखि बकनो मनि मान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ न जानी संतन प्रभ बिनु आन ॥ ऊच नीच सभ पेखि समानो मुखि बकनो मनि मान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = अन्य। पेखि = देख के। समानो = समान, एक जैसा (बसता)। मुखि = मुँह से। बकनो = उचारना। मनि = मन में। मान = मानना, बयान करना।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संतजनों ने प्रभु के बिना किसी और को (कहीं बसता) नहीं जाना। संतजन ऊँचे-नीचे सब जीवों में (सिर्फ परमात्मा को) एक समान (बसता) देख के मुँह से (परमात्मा का नाम) उचारते हैं और (अपने) मन में उसका ध्यान धरते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि पूरि रहे सुख सागर भै भंजन मेरे प्रान ॥ मनहि प्रगासु भइओ भ्रमु नासिओ मंत्रु दीओ गुर कान ॥१॥
मूलम्
घटि घटि पूरि रहे सुख सागर भै भंजन मेरे प्रान ॥ मनहि प्रगासु भइओ भ्रमु नासिओ मंत्रु दीओ गुर कान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। पूरि रहे = व्यापक हैं। सुख सागर = सुखों के समुंदर (प्रभु जी)। भै भंजन = सारे डर दूर करने वाले प्रभु जी। मेरे प्रान = मेरे प्राणों से प्यारे प्रभु जी। मनहि = मन में। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की सूझ की) रौशनी। मंत्रु गुर = गुरु का मंत्र, उपदेश। दीओ कान = कान में दिया, (हृदय में) दृढ़ किया।1।
अर्थ: हे भाई! मेरे प्राणों से प्यारे प्रभु जी, सारे डर दूर करने वाले प्रभु जी, सारे सुखों के समुंदर प्रभु जी हरेक शरीर में मौजूद हैं।
जिसके अंदर परमात्मा गुरु का शब्द पक्का कर देता है, उनके मन में (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश पैदा हो जाता है (उनके अंदर से) भटकना दूर हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करत रहे क्रतग्य करुणा मै अंतरजामी ग्यिान॥ आठ पहर नानक जसु गावै मांगन कउ हरि दान ॥२॥२॥२१॥
मूलम्
करत रहे क्रतग्य करुणा मै अंतरजामी ग्यिान॥ आठ पहर नानक जसु गावै मांगन कउ हरि दान ॥२॥२॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करत रहे = करते हैं। क्रतग्य = कृतज्ञ, (कृत = प्रभु के किए हुए उपकार। ज्ञ = जानना)।, प्रभु के किए हुए उपकारों को जानने वाले। करुणामै = (करुणा = तरस) तरस भरपूर। अंतरजामी = सबके दिलों की जानने वाला। ग्यिआन = ज्ञान, जान पहचान। गावै = गाता है (एकवचन)। मांगन कउ = माँगने के लिए।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के किए को जानने वाले (संत जन) अंतरजामी करुणामय परमात्मा के गुणों की बातें करते रहते हैं। नानक (भी) परमात्मा (के नाम) का दान माँगने के लिए आठों पहर उसकी महिमा का गीत गाता रहता है।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ कहन कहावन कउ कई केतै ॥ ऐसो जनु बिरलो है सेवकु जो तत जोग कउ बेतै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ कहन कहावन कउ कई केतै ॥ ऐसो जनु बिरलो है सेवकु जो तत जोग कउ बेतै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कई = अनेक लोग। केतै = कितने ही लोग। जो = (जो) सेवक। तत जोग कउ = तत्व के जोग को, जगत के मूल प्रभु के मिलाप को। बेतै = जानता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! ऐसा कोई विरला संत जन है, कोई विरला सेवक है, जो जगत-के-मूल-परमात्मा के मिलाप का आनंद लेता है। ज़बानी कहने कहलवाने को तो अनेक ही हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुखु नाही सभु सुखु ही है रे एकै एकी नेतै ॥ बुरा नही सभु भला ही है रे हार नही सभ जेतै ॥१॥
मूलम्
दुखु नाही सभु सुखु ही है रे एकै एकी नेतै ॥ बुरा नही सभु भला ही है रे हार नही सभ जेतै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! एकै एकी = सिर्फ एक परमात्मा को। नेत्रै = आँखों में (बसाता है), आँखों से (देखता है)। जेतै = (विकारों के मुकाबले में) जीत।1।
अर्थ: हे भाई! (जो कोई विरला संत जन प्रभु-मिलाप का आनंद पाता है, उसे) कोई दुख छू नहीं सकता, (उसके अंदर सदा) आनंद ही आनंद है, वह एक परमात्मा को ही (हर जगह) आँखों से देखता है। हे भाई! उसे कोई मनुष्य बुरा नहीं लगता, हरेक भला ही दिखता है, (दुनिया के विकारों के मुकाबले उसको) कभी हार नहीं होती, सदा जीत ही होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोगु नाही सदा हरखी है रे छोडि नाही किछु लेतै ॥ कहु नानक जनु हरि हरि हरि है कत आवै कत रमतै ॥२॥३॥२२॥
मूलम्
सोगु नाही सदा हरखी है रे छोडि नाही किछु लेतै ॥ कहु नानक जनु हरि हरि हरि है कत आवै कत रमतै ॥२॥३॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोगु = चिन्ता, गम। हरखी = हर्ष ही, खुशी ही। छोडि = (उस हर्ष को) छोड़ के। कत आवै = कहाँ आता है? (बार बार) पैदा नहीं होता। कत रमते = कहाँ जाता है? बार बार नहीं मरता।2।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य ही प्रभु-मिलाप का सुख पाता है, (उसको कभी) चिन्ता नहीं व्यापती, (उसके अंदर सदा) खुशी ही रहती है। (इस आत्मिक आनंद को) छोड़ के वह कुछ और ग्रहण नहीं करता। हे नानक! कह: परमात्मा जो इस प्रकार का सेवक बनता है वह बार-बार जन्म मरण के चक्करों में नहीं पड़ता।2।3।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ हीए को प्रीतमु बिसरि न जाइ ॥ तन मन गलत भए तिह संगे मोहनी मोहि रही मोरी माइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ हीए को प्रीतमु बिसरि न जाइ ॥ तन मन गलत भए तिह संगे मोहनी मोहि रही मोरी माइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। हीए को = हृदय का। गलत = गलतान, मस्त, गर्क। तिह संगे = उस (मोहनी के) साथ ही। मोहनी = मन को मोह लेने वाली माया। मेरी माइ = हे मेरी माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! (मैं तो सदा यही अरदास करता हूँ कि मेरे) दिल का जानी प्रभु (मुझे कभी भी) ना भूले। (उसको भुलाने से) मन को मोहने वाली माया अपने मोह में फसाने लग जाती है, शरीर और मन (दोनों ही) उस (मोहनी) के साथ ही मस्त रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जै जै पहि कहउ ब्रिथा हउ अपुनी तेऊ तेऊ गहे रहे अटकाइ ॥ अनिक भांति की एकै जाली ता की गंठि नही छोराइ ॥१॥
मूलम्
जै जै पहि कहउ ब्रिथा हउ अपुनी तेऊ तेऊ गहे रहे अटकाइ ॥ अनिक भांति की एकै जाली ता की गंठि नही छोराइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जै जै पहि = जिस जिस (मनुष्यों) के पास। कहउ = मैं कहता हूँ। ब्रिथा = तकलीफ़, मुश्किल। हउ = मैं। गहे = पकड़े हुए। रहे अटकाइ = जीवन-राह में रुके हुए हें। जाली = फंदा। गंठि = गाँठ। नही छोराइ = कोई छुड़ा नहीं सकता।1।
अर्थ: हे माँ! जिस-जिस के पास मैं अपनी ये मुश्किल बताता हूँ, वे भी सभी (इस मोहनी के पँजे में) फंसे हुए हैं और (जीवन-राह में) रुके हुए हैं। (ये मोहनी) अनेक ही रूपों का एक ही फंदा है, इसके द्वारा (डाली हुई) गाँठ को कोई नहीं खोल सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फिरत फिरत नानक दासु आइओ संतन ही सरनाइ ॥ काटे अगिआन भरम मोह माइआ लीओ कंठि लगाइ ॥२॥४॥२३॥
मूलम्
फिरत फिरत नानक दासु आइओ संतन ही सरनाइ ॥ काटे अगिआन भरम मोह माइआ लीओ कंठि लगाइ ॥२॥४॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआन = (आत्मिक जीवन से) बेसमझी। भरम = भटकना। कंठि = गले से।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! अनेक जूनियों में) भटकता-भटकता जो (मनुष्य संत जनों का) दास (बन के) संत जनों की शरण आता है, (उसके अंदर से) आत्मिक जीवन से बेसमझी, भटकना, और माया के मोह (की गाँठें) काटी जाती हैं, (प्रभु जी) उसको अपने गले से लगा लेते हैं।2।4।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ आनद रंग बिनोद हमारै ॥ नामो गावनु नामु धिआवनु नामु हमारे प्रान अधारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ आनद रंग बिनोद हमारै ॥ नामो गावनु नामु धिआवनु नामु हमारे प्रान अधारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंग = खुशियां। बिनोद = खुशी, आनंद। हमारै = हमारे अंदर, मेरे हृदय में। नामो = हरि नाम ही। प्रान अधारे = जिंदगी का सहारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के चरणों के साथ) मेरे हृदय में सदा आत्मिक आनंद का चाव बना रहता है (क्योंकि परमात्मा का) नाम मेरी जिंदगी का सहारा बन गया है, हरि-नाम ही (मेरा हर-वक्त) का गीत है, हरि-नाम ही मेरी तवज्जो का निशाना (बन चुका) है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामो गिआनु नामु इसनाना हरि नामु हमारे कारज सवारै ॥ हरि नामो सोभा नामु बडाई भउजलु बिखमु नामु हरि तारै ॥१॥
मूलम्
नामो गिआनु नामु इसनाना हरि नामु हमारे कारज सवारै ॥ हरि नामो सोभा नामु बडाई भउजलु बिखमु नामु हरि तारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सवारै = सफल करता है, सिरे चढ़ाता है। भउजलु = संसार समुंदर। बिखमु = कठिन, मुश्किल। तारै = पार लंघाता है।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के चरणों का सदका अब परमात्मा का) नाम ही (मेरे वास्ते शास्त्रों का) ज्ञान है, नाम (मेरे वास्ते) तीर्थों का सनान है हरि-नाम मेरे सारे काम सिरे चढ़ाता है। हे भाई! परमात्मा का नाम (मेरे) लिए (दुनिया की) शोभा-बड़ाई है। हे भाई! परमात्मा का नाम (ही) इस मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से पार लंघाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम पदारथ लाल अमोला भइओ परापति गुर चरनारै ॥ कहु नानक प्रभ भए क्रिपाला मगन भए हीअरै दरसारै ॥२॥५॥२४॥
मूलम्
अगम पदारथ लाल अमोला भइओ परापति गुर चरनारै ॥ कहु नानक प्रभ भए क्रिपाला मगन भए हीअरै दरसारै ॥२॥५॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अ+गम, जिस तक पहुँच ना हो सके, अगम्य (पहुँच से परे)। अमोला = जो किसी कीमत से ना मिल सके। गुर चरनारै = गुरु के चरणों की इनायत से। कहु = कह। मगन = मस्त। हीअरै = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! यह हरि-नाम एक ऐसा कीमती पदार्थ है जिस तक (अपने उद्यम से) पहुँच नहीं हो सकती, यह एक ऐसा लाल है जो किसी भी मोल में नहीं मिलता (अनमोल है)। पर यह गुरु के चरणों में टिके रह के मिल जाता है। हे नानक! कह: (गुरु के चरणों की इनायत से जिस मनुष्य पर) प्रभु जी दयावान होते हैं, वह अपने हृदय में ही प्रभु के दर्शन में मस्त रहता है।2।5।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ साजन मीत सुआमी नेरो ॥ पेखत सुनत सभन कै संगे थोरै काज बुरो कह फेरो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ साजन मीत सुआमी नेरो ॥ पेखत सुनत सभन कै संगे थोरै काज बुरो कह फेरो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेरो = (हरेक जीव के) नजदीक। पेखत = देखता है। कै संगे = के साथ ही। थोरै काज = थोड़ी सी जिंदगी के मनोरथों की खातिर। बुरो फेरो = बुरे काम। काह = क्यों?।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (सबका) सज्जन-मित्र मालिक प्रभु (हर वक्त तेरे) नजदीक (बस रहा है)। वह सब जीवों के साथ बसता है (सबके कर्म) देखता है (सबकी) सुनता है थोड़ी से जिंदगी के मनोरथों की खातिर बुरे काम क्यों किए जाएं?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम बिना जेतो लपटाइओ कछू नही नाही कछु तेरो ॥ आगै द्रिसटि आवत सभ परगट ईहा मोहिओ भरम अंधेरो ॥१॥
मूलम्
नाम बिना जेतो लपटाइओ कछू नही नाही कछु तेरो ॥ आगै द्रिसटि आवत सभ परगट ईहा मोहिओ भरम अंधेरो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेतो = जितना भी। लपटानिओ = तू चिपक रहा है। द्रिसटि आवत = दिखाई पड़ता है। आगै = परलोक में। प्रगट = प्रत्यक्ष तौर पर। ईहा = इस लोक में। मोहिओ = माया के मोह में फसा हुआ है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना और जितने भी पदार्थों के साथ तू चिपक रहा है उनमें से तेरा (आखिर) कुछ भी नहीं बनना। यहाँ तू माया के मोह में फंस रहा है, भ्रमों के अंधकार में (ठोकरें खा रहा है) पर परलोक में (यहाँ का किया हुआ) सब कुछ प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई दे जाता है।1।
[[1303]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अटकिओ सुत बनिता संग माइआ देवनहारु दातारु बिसेरो ॥ कहु नानक एकै भारोसउ बंधन काटनहारु गुरु मेरो ॥२॥६॥२५॥
मूलम्
अटकिओ सुत बनिता संग माइआ देवनहारु दातारु बिसेरो ॥ कहु नानक एकै भारोसउ बंधन काटनहारु गुरु मेरो ॥२॥६॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। देवनहारु = सब कुछ देने की सामर्थ्य वाला। बिसेरो = भुला दिया है। एकै भारोसउ = एक का भरोसा। काटनहारु = काटने की सामर्थ्य वाला।2।
अर्थ: हे भाई! तू पुत्र-स्त्री और माया के मोह में (आत्मिक जीवन के पथ पर से) रुका हुआ है, सब कुछ दे सकने वाले दातार-प्रभु को भुला रहा है। हे नानक! कह: हे भाई! सिर्फ एक (गुरु परमेश्वर का) भरोसा (रख)। प्यारा गुरु (माया के सारे) बंधन काटने की समर्थता रखने वाला है (उसी की शरण पड़ा रह)।2।6।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ बिखै दलु संतनि तुम्हरै गाहिओ ॥ तुमरी टेक भरोसा ठाकुर सरनि तुम्हारी आहिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ बिखै दलु संतनि तुम्हरै गाहिओ ॥ तुमरी टेक भरोसा ठाकुर सरनि तुम्हारी आहिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखै दलु = विषियों का दल। संतनि तुम्रै = तेरे संत जनों द्वारा। गाहिओ = गाह लिया है, वश में कर लिया है। ठाकुर = हे ठाकुर! आहिओ = चाहता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) ठाकुर! मुझे तेरी टेक है, मुझे तेरा (ही) भरोसा है, मैं (सदा) तेरी ही शरण चाहता हूँ। तेरे संत जनों की संगति से मैंने (सारे) विषौ (-विकारों) के दल को वश में कर लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम के महा पराछत दरसनु भेटि मिटाहिओ ॥ भइओ प्रगासु अनद उजीआरा सहजि समाधि समाहिओ ॥१॥
मूलम्
जनम जनम के महा पराछत दरसनु भेटि मिटाहिओ ॥ भइओ प्रगासु अनद उजीआरा सहजि समाधि समाहिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पराछत = पाप। भेटि = भेट के, भेट कर के। मिटाहिओ = मिटा लेते हैं। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश। उजीआरा = उजाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाहिओ = लीन रहते हैं।1।
अर्थ: हे (मेरे) ठाकुर! (जो भी भाग्यशाली तेरी शरण पड़ते हैं, वे) तेरे दर्शन करके जन्म-जन्मांतरों के पाप मिटा लेते हैं, (उनके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ की) रोशनी हो जाती है, आत्मिक आनंद का प्रकाश हो जाता है, वह सदा आत्मिक अडोलता की समाधि में लीन रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउनु कहै तुम ते कछु नाही तुम समरथ अथाहिओ ॥ क्रिपा निधान रंग रूप रस नामु नानक लै लाहिओ ॥२॥७॥२६॥
मूलम्
कउनु कहै तुम ते कछु नाही तुम समरथ अथाहिओ ॥ क्रिपा निधान रंग रूप रस नामु नानक लै लाहिओ ॥२॥७॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुम ते = तुझसे। समरथ = सारी ताकतों का मालिक। अथाहिओ = अथाह, बेअंत गहरा। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! लाहिओ = लाहा, लाभ।2।
अर्थ: हे मेरे ठाकुर! कौन कहता है कि तुझसे कुछ भी हासिल नहीं होता? तू सारी ताकतों का मालिक प्रभु (सुखों का) अथाह (समुंदर) है। हे नानक! (कह:) हे कृपा के खजाने! (जो मनुष्य तेरी शरण पड़ता है, वह तेरे दर से तेरा) नाम-लाभ हासिल करता है (यह नाम ही उसके वास्ते दुनिया के) रंग-रूप-रस हैं।2।7।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ बूडत प्रानी हरि जपि धीरै ॥ बिनसै मोहु भरमु दुखु पीरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ बूडत प्रानी हरि जपि धीरै ॥ बिनसै मोहु भरमु दुखु पीरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूडत प्रानी = (विकारों में) डूब रहा मनुष्य। जपि = जप के। धीरै = (पार लांघ सकने के लिए) हौसला हासिल कर लेता है। बिनसै = नाश हो जाता है। भरमु = भटकना। पीरै = पीड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (संसार-समुंदर में) डूब रहा मनुष्य (गुरु के माध्यम से) परमात्मा का नाम जप के (पार लांघ सकने के लिए) हौसला प्राप्त कर लेता है, (उसके अंदर से) माया का मोह मिट जाता है, भटकना दूर हो जाती है, दुख-दर्द नाश हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरउ दिनु रैनि गुर के चरना ॥ जत कत पेखउ तुमरी सरना ॥१॥
मूलम्
सिमरउ दिनु रैनि गुर के चरना ॥ जत कत पेखउ तुमरी सरना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। रैनि = रात। जत कत = जिधर किधर। पेखउ = मैं देखता हूँ।1।
अर्थ: हे भाई! मैं (भी) दिन-रात गुरु के चरणों का ध्यान धरता हूँ। हे प्रभु! मैं जिधर-किधर देखता हूँ (गुरु की कृपा से) मुझे तेरा ही सहारा दिख रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि हरि के गुन गाइआ ॥ गुर भेटत नानक सुखु पाइआ ॥२॥८॥२७॥
मूलम्
संत प्रसादि हरि के गुन गाइआ ॥ गुर भेटत नानक सुखु पाइआ ॥२॥८॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। गुर भेटत = गुरु को मिलते हुए।2।
अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (जो मनुष्य) परमात्मा के गुण गाने लग पड़ा, गुरु को मिल के उसने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया।2।8।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ सिमरत नामु मनहि सुखु पाईऐ ॥ साध जना मिलि हरि जसु गाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ सिमरत नामु मनहि सुखु पाईऐ ॥ साध जना मिलि हरि जसु गाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। मनहि = मन में। पाईऐ = प्राप्त कर लेते हैं। मिलि = मिल के। जसु = महिमा। गाईऐ = गाना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों की संगति में मिल के परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहना चाहिए (क्योंकि) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए मन में आनंद प्राप्त किया जा सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ रिदै बसेरो ॥ चरन संतन कै माथा मेरो ॥१॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ रिदै बसेरो ॥ चरन संतन कै माथा मेरो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! रिदै = हृदय में। बसेरो = ठिकाना। चरन संतन कै = संत जनों के चरणों में।1।
अर्थ: हे प्रभु! मेहर करके (मेरे) हृदय में (अपना) ठिकाना बनाए रख।
हे प्रभु! मेरा माथा (तेरे) संतजनों के चरणों पर टिका रहे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम कउ सिमरहु मनां ॥ गुरमुखि नानक हरि जसु सुनां ॥२॥९॥२८॥
मूलम्
पारब्रहम कउ सिमरहु मनां ॥ गुरमुखि नानक हरि जसु सुनां ॥२॥९॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। मनां = हे मन! गुरमुखि = गुरु की शरण पडत्र कर। सुनां = सुनूँ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा के गीत सुना कर।2।9।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ मेरे मन प्रीति चरन प्रभ परसन ॥ रसना हरि हरि भोजनि त्रिपतानी अखीअन कउ संतोखु प्रभ दरसन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ मेरे मन प्रीति चरन प्रभ परसन ॥ रसना हरि हरि भोजनि त्रिपतानी अखीअन कउ संतोखु प्रभ दरसन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! परसन = छूना। रसना = जीभ। भोजनि = भोजन से। त्रिपतानी = तृप्त रहती है। अखीअन कउ = आँखों को। संतोख = शांति।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (जिस मनुष्यों के अंदर)! प्रभु के चरण-छूने के लिए तड़प होती है, उनकी जीभ परमात्मा के नाम की (आत्मिक) खुराक से तृप्त रहती है, उनकी आँखों को प्रभु-दीदार की ठंड मिली रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करननि पूरि रहिओ जसु प्रीतम कलमल दोख सगल मल हरसन ॥ पावन धावन सुआमी सुख पंथा अंग संग काइआ संत सरसन ॥१॥
मूलम्
करननि पूरि रहिओ जसु प्रीतम कलमल दोख सगल मल हरसन ॥ पावन धावन सुआमी सुख पंथा अंग संग काइआ संत सरसन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करननि = कानों में। पूरि रहिओ = भरा रहता है, टिका रहता है। कलमल = पाप। मल = मैल। हरसन = दूर कर सकने वाला। पावन धावन = पैरों से दौड़ भाग। पंथा = रास्ता। सुख पंथा = सुख देने वाला रास्ता। काइआ = काया, शरीर। सरसन = स+रसन, रस सहित, हुल्लारे वाले।1।
अर्थ: हे मेरे मन! (जिस मनुष्यों के अंदर प्रभु के चरण छूने की चाहत होती है, उनके) कानों में प्रीतम-प्रभु की महिमा टिकी रहती है जो सारे पाप सारे ऐबों की मैल दूर करने के समर्थ है, उनके पैरों की दौड़-भाग मालिक-प्रभु (के मिलाप) के सुखद रास्तेपर बनी रहती है, उनके शारीरिकअंग संत जनों (के चरणों) के साथ (छू के) उल्लास में बने रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनि गही पूरन अबिनासी आन उपाव थकित नही करसन ॥ करु गहि लीए नानक जन अपने अंध घोर सागर नही मरसन ॥२॥१०॥२९॥
मूलम्
सरनि गही पूरन अबिनासी आन उपाव थकित नही करसन ॥ करु गहि लीए नानक जन अपने अंध घोर सागर नही मरसन ॥२॥१०॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गही = पकड़ी। उपाव = उपाय। आन = अन्य, और। करु = हाथ (एकवचन)। गहि लीए = पकड़ लिए। अंध घोर = घोर अंधेरा। सागर = समुंदर। मरसन = (आत्मिक) मौत।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन जिस मनुष्यों ने सर्व-व्यापक नाश-रहित परमात्मा की शरण पकड़ ली, वह (इस शरण को छोड़ के उसके मिलाप के लिए) और-और उपाय करके थकते नहीं फिरते। हे नानक! (कह:) प्रभु ने जिस अपने सेवकों का हाथ पकड़ लिया होता है, वह सेवक (माया के मोह के) घोर-अंधकार भरे संसार-समुंदर में आत्मिक मौत नहीं सहते।2।10।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ कुहकत कपट खपट खल गरजत मरजत मीचु अनिक बरीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ कुहकत कपट खपट खल गरजत मरजत मीचु अनिक बरीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुहकत = कुहकते हैं (मोरों की तरह)। खपट = नाश करने वाले, आत्मिक जीवन को तबाह करने वाले। कपट = खोट। खल = दुष्ट (कामादिक)। गरजत = गरजते हैं। मीचु = मौत, आत्मिक मौत। मरजत = मारती है। बरीआ = बारी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का) नाश करने वाले खोट भड़के रहते हैं, (जिनके अंदर कामादिक) दुष्ट गरजते रहते हैं, (उनको) मौत अनेक बार मारती रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं मत अन रत कुमित हित प्रीतम पेखत भ्रमत लाख गरीआ ॥१॥
मूलम्
अहं मत अन रत कुमित हित प्रीतम पेखत भ्रमत लाख गरीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहं = अहंकार। मत = मस्त हुए। अन = अन्य, और-और (रस)। रत = रति हुए, रंगे हुए। कुमित = खोटे मित्र। हित = प्यार। पेखत = देखते। भ्रमत = भटकते। गरी = गली। लाख गरीआ = (कामादिक विकारों की) लाखों गलियां।1।
अर्थ: हे भाई! (ऐसे मनुष्य) अहंकार में मस्त हुए (प्रभु को भुला के) अन्य (रसों) में रति (रंगे) रहते हैं, (ऐसे मनुष्य) खोटे मित्रों से प्यार डालते हैं, खोटों को अपना मित्र बनाते हैं, (ऐसे मनुष्य कामादिक विकारों की) लाखों गलियों को झाकते भटकते फिरते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनित बिउहार अचार बिधि हीनत मम मद मात कोप जरीआ ॥ करुण क्रिपाल गुोपाल दीन बंधु नानक उधरु सरनि परीआ ॥२॥११॥३०॥
मूलम्
अनित बिउहार अचार बिधि हीनत मम मद मात कोप जरीआ ॥ करुण क्रिपाल गुोपाल दीन बंधु नानक उधरु सरनि परीआ ॥२॥११॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनित बिउहार = ना नित्य रहने वाले पदार्थों का कार्य व्यवहार। अचार = आचरण। बिधि हीनत = मर्यादा से वंचित। मम = ममता। मद = नशा। मात = मस्त हुए। कोप = क्रोध। जरीआ = जलते। करुण = (करुणा = तरस) हे तरस रूप! क्रिपाल = हे दया के घर! गुोपालु = हे गुपाल! दीन बंधु = गरीबों का हितैषी। उधरु = (विकारों से) बचाए रख।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपालु’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (ऐसे मनुष्य) नाशवान पदार्थों के कार्य-व्यवहार में ही व्यस्त रहते हैं, उनका आचरण अच्छी मर्यादा से वंचित रहता है, वे (माया की) ममता के नशे में मस्त रहते हैं, और क्रोध की आग में जलते रहते हैं।
हे नानक! (कह:) हे तरस-रूप प्रभु! हे दया के घर प्रभु! हे सृष्टि के मालिक! तू गरीबों का प्यारा है, (मैं तेरी) श्रण आ पड़ा हूँ, (मुझे इन कामादिक दुष्टों से) बचाए रख।2।11।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ जीअ प्रान मान दाता ॥ हरि बिसरते ही हानि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ जीअ प्रान मान दाता ॥ हरि बिसरते ही हानि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ दाता = जिंद देने वाला। प्रान दाता = प्राण देने वाला। मान दाता = इज्जत देने वाला। बिसरते = भूलते हुए। हानि = हानि, घाटा, आत्मिक घाटा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (तुझे) जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, इज्जत देने वाला है। (ऐसे) परमात्मा को विसारते ही (आत्मिक जीवन) में घाटा ही घाटा पड़ता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद तिआगि आन लागहि अम्रितो डारि भूमि पागहि ॥ बिखै रस सिउ आसकत मूड़े काहे सुख मानि ॥१॥
मूलम्
गोबिंद तिआगि आन लागहि अम्रितो डारि भूमि पागहि ॥ बिखै रस सिउ आसकत मूड़े काहे सुख मानि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के, भुला के। आन = अन्य, और-और (पदार्थों में)। लागहि = तू लग रहा है। अंम्रितो = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। डारि = डोल के, उड़ेल के, गिरा के। भूमि पागहि = धरती पर फेंक रहा है। बिखै रस सिउ = विषौ विकारों के स्वादों से। आसकत = लंपट, चिपका हुआ। मूढ़े = हे मूर्ख! काहे = कैसे? मानि = मान कर सकता है।1।
अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा (की याद) छोड़ के तू और-और (पदार्थों) में लगा रहता है, तू आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल उड़ेल के धरती पर फेंक रहा है, विषौ-विकारों के स्वाद से चिपका हुआ तू कैसे सुख हासिल कर सकता है?।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कामि क्रोधि लोभि बिआपिओ जनम ही की खानि ॥ पतित पावन सरनि आइओ उधरु नानक जानि ॥२॥१२॥३१॥
मूलम्
कामि क्रोधि लोभि बिआपिओ जनम ही की खानि ॥ पतित पावन सरनि आइओ उधरु नानक जानि ॥२॥१२॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम (-वासना) में। बिआपिओ = फसा हुआ। खानि = खान में, श्रोत। जनम ही की खानि = जन्मों के ही चक्करों का श्रोत। पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! उधरु = बचा ले। जानि = (अपने) जान के।2।
अर्थ: हे मूर्ख! तू (सदा) काम में, क्रोध में, लोभ में फंसा रहता है। (ये काम, क्रोध, लोभ आदि तो) जन्मों के चक्करों का ही साधन हैं।
हे नानक! (कह:) हे विकारियों को पवित्र करने वाले प्रभु! (मैं तेरी) शरण आया हूँ, (मुझे अपने दर पर गिरा) समझ के (इन विकारें से बचाए रख)।2।12।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ अविलोकउ राम को मुखारबिंद ॥ खोजत खोजत रतनु पाइओ बिसरी सभ चिंद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ अविलोकउ राम को मुखारबिंद ॥ खोजत खोजत रतनु पाइओ बिसरी सभ चिंद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अविलोकउ = मैं देखता हूँ। को = का। मुखारबिंद = (मुख+अरविंद। अरविंद = कमल का फूल) कमल के फूल जैसा सुंदर मुख। खोजत = खोजते हुए। चिंद = चिन्ता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के द्वारा) तलाश करते-करते (मैंने परमात्मा का नाम-) रतन पा लिया है (जिसकी इनायत से मेरे अंदर से) सारी चिन्ता दूर हो गई है। (अब मेरी यही तमन्ना रहती है कि) मैं प्रभु का सुंदर मुखड़ा (सदा) देखता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल रिदै धारि ॥ उतरिआ दुखु मंद ॥१॥
मूलम्
चरन कमल रिदै धारि ॥ उतरिआ दुखु मंद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = दिल में। धारि = धार के, टिका के। मंद = बुरा, चंदरा।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के सुंदर चरण हृदय में बसा के (मेरे अंदर से) बुरा (सारा) दुख दूर हो गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज धनु परवारु मेरै सरबसो गोबिंद ॥ साधसंगमि लाभु पाइओ नानक फिरि न मरंद ॥२॥१३॥३२॥
मूलम्
राज धनु परवारु मेरै सरबसो गोबिंद ॥ साधसंगमि लाभु पाइओ नानक फिरि न मरंद ॥२॥१३॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै = मेरे वास्ते। सरबसो = (सर्वस्व = सारा धन) सब कुछ। साध संगमि = गुरु की संगति में। मरंद = आत्मिक मौत आती।2।
अर्थ: हे भाई! (अब) मेरे वास्ते परमात्मा (का नाम ही) सब कुछ है, (नाम ही मेरे वास्ते) राज (है, नाम ही मेरे वास्ते) धन (है, नाम ही मेरा) परिवार है। हे नानक! (जिस मनुष्यों ने) गुरु की संगति में (टिक के परमात्मा के नाम का) लाभ कमा लिया, उनको फिर आत्मिक मौत नहीं आती।2।13।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ पूजहो नामु अराधि ॥ गुर सतिगुर चरनी लागि ॥ हरि पावहु मनु अगाधि ॥ जगु जीतो हो हो गुर किरपाधि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ पूजहो नामु अराधि ॥ गुर सतिगुर चरनी लागि ॥ हरि पावहु मनु अगाधि ॥ जगु जीतो हो हो गुर किरपाधि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुजहो = पूजहु, पूजा भक्ति करो। आराधि = आराध के, स्मरण करके। लागि = लग के। पावहु = पा लोगे, मिलाप हासिल कर लोगे। अगाधि = अथाह। जीतो = जीता जा सकेगा। हो = हे भाई! गुर किरपाधि = गुरु की कृपा से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु सतिगुरु की चरणी लग के प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के प्रभु की पूजा-भक्ति किया करो, (इस तरह उस) अथाह मन (के मालिक) प्रभु का मिलाप हासिल कर लोगे। हे भाई! गुरु की कृपा से (प्रभु का स्मरण करने से) जगत (का मोह) जीता जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक पूजा मै बहु बिधि खोजी सा पूजा जि हरि भावासि ॥ माटी की इह पुतरी जोरी किआ एह करम कमासि ॥ प्रभ बाह पकरि जिसु मारगि पावहु सो तुधु जंत मिलासि ॥१॥
मूलम्
अनिक पूजा मै बहु बिधि खोजी सा पूजा जि हरि भावासि ॥ माटी की इह पुतरी जोरी किआ एह करम कमासि ॥ प्रभ बाह पकरि जिसु मारगि पावहु सो तुधु जंत मिलासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरह। सा = वही। जि = जो। हरि भावासि = हरि को अच्छी लगती है। पुतरी = पुतली। जोरी = जोड़ी, बनाई। एह = ये पुतली। किआ करम = कौन से कर्म? कमासि = कर सकती हैं। प्रभ = हे प्रभु! पकरि = पकड़ के। मारगि = रास्ते पर। तुधु = तुझे। मिलासि = मिल जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जगत में) अनेक पूजाएं (हो रही हैं) मैंने (इनकी) कई तरह से खोज-तलाश की है, (पर) वही पूजा (श्रेष्ठ) है जो परमात्मा को अच्छी लगती है (जिससे परमात्मा प्रसन्न होता है)। (पर, ऐसी पूजा भी प्रभु स्वयं ही करवाता है)। हे भाई! (परमात्मा ने मनुष्य की यह) मिट्टी की पुतली बना दी (पुतलियों का मालिक पुतलियों को खुद ही नचाता है), ये जीव-पुतली (पुतलियां घड़ने वाले प्रभु की प्रेरणा के बिना) कोई काम नहीं कर सकती। हे प्रभु! जिस जीव को (उसकी) बाँह पकड़ के तू (जीवन के सही) रास्ते पर चलाता है, वह जीव तुझे मिल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर ओट मै कोइ न सूझै इक हरि की ओट मै आस ॥ किआ दीनु करे अरदासि ॥ जउ सभ घटि प्रभू निवास ॥ प्रभ चरनन की मनि पिआस ॥ जन नानक दासु कहीअतु है तुम्हरा हउ बलि बलि सद बलि जास ॥२॥१॥३३॥
मूलम्
अवर ओट मै कोइ न सूझै इक हरि की ओट मै आस ॥ किआ दीनु करे अरदासि ॥ जउ सभ घटि प्रभू निवास ॥ प्रभ चरनन की मनि पिआस ॥ जन नानक दासु कहीअतु है तुम्हरा हउ बलि बलि सद बलि जास ॥२॥१॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मैं = मुझे। दीनु = निमाणा, गरीब। जउ = जब। घटि = घट में, शरीर में। मनि = मन में। कहीअतु है = कहलवाता है, कहा जाता है। हउ = मैं। बलि बलि = सदके। सद = सदा। जास = जाता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के बिना) मुझे कोई और आसरा नहीं सूझता, मुझे सिर्फ प्रभु की ओट है प्रभु की (सहायता की) आस है। हे भाई! जब हरेक शरीर में प्रभु का ही निवास है (तो उसकी प्रेरणा के बिना) बेचारा जीव कोई अरदास भी नहीं कर सकता। हे भाई! (उसकी मेहर से ही मेरे) मन में प्रभु के चरणों (के मिलाप) की तमन्ना है।
हे प्रभु! दास नानक तेरा दास कहलवाता है (इसकी इज्जत रख, इसको अपने चरणों में जोड़े रख)। हे प्रभु! मैं तुझसे सदा सदके जाता हूँ कुर्बान जाता हूँ।2।1।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगत उधारन नाम प्रिअ तेरै ॥ नव निधि नामु निधानु हरि केरै ॥ हरि रंग रंग रंग अनूपेरै ॥ काहे रे मन मोहि मगनेरै ॥ नैनहु देखु साध दरसेरै ॥ सो पावै जिसु लिखतु लिलेरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जगत उधारन नाम प्रिअ तेरै ॥ नव निधि नामु निधानु हरि केरै ॥ हरि रंग रंग रंग अनूपेरै ॥ काहे रे मन मोहि मगनेरै ॥ नैनहु देखु साध दरसेरै ॥ सो पावै जिसु लिखतु लिलेरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रिअ = हे प्यारे प्रभु! जगत उधारन = जगत (के जीवों) को (विकारों से) बचा सकने वाला। तेरै = तेरे (हाथ) में। नवनिधि = (धरती के) नौ (ही) खजाने। निधानु = खजाना। हरि केरै = हरि के। रंग रंग रंग = अनेक ही रंग। हरि अनूपेरै = सुंदर हरि। अनूप = (अन+ऊप) जिस जैसा सुंदर कोई और नहीं, बहुत सुंदर। मोहि = मोह में। मगनेरै = मगन, मस्त। नैनहु = आँखों से। साध दरसेरै = गुरु का दर्शन। जिसु लिलेरै = जिस के माथे पर (लिलार = लिलाट, माथा)।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! जगत (के जीवों को विकारों से) बचाने वाला तेरा नाम तेरे (ही हाथ) में है। हे भाई! परमात्मा का नाम-खजाना (मानो, धरती के) नौ खजाने हैं। हे मन! सुंदर हरि के (इस जगत में) अनेक ही रंग-तमाशे हैं, तू (इन रंगों के) मोह में क्यों मस्त हो रहा है? हे भाई! (अपनी) आँखों से गुरु के दर्शन किया कर, (पर जीव के भी क्या वश? गुरु का दर्शन) वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसके माथे पर (इस दर्शन का) लेख लिखा होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवउ साध संत चरनेरै ॥ बांछउ धूरि पवित्र करेरै ॥ अठसठि मजनु मैलु कटेरै ॥ सासि सासि धिआवहु मुखु नही मोरै ॥ किछु संगि न चालै लाख करोरै ॥ प्रभ जी को नामु अंति पुकरोरै ॥१॥
मूलम्
सेवउ साध संत चरनेरै ॥ बांछउ धूरि पवित्र करेरै ॥ अठसठि मजनु मैलु कटेरै ॥ सासि सासि धिआवहु मुखु नही मोरै ॥ किछु संगि न चालै लाख करोरै ॥ प्रभ जी को नामु अंति पुकरोरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवउ = मैं सेवा करता हूँ। बांछउ = मैं चाहता हूँ। करेरै = करती है। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = स्नान। कटेरै = काटती है। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। नही मोरै = नहीं मोड़ता। संगि = साथ। करोरै = करोड़ों। को = का। अंति = आखिर को, अंत के समय (जब अन्य हरेक पदार्थ का साथ समाप्त हो जाता है)। पुकरोरै = पुकरता है, मदद करता है, साथ निभाता है।1।
अर्थ: हे भाई! मैं (तो) संत जनों के चरणों की ओट लेता हूँ। मैं (संतजनों के चरणों की) धूल माँगता हूँ (ये चरण-धूल मनुष्य का जीवन) पवित्र कर देती है। (ये चरण-धूल ही) अढ़सठ तीर्थों का स्नान है (संत जनों की चरण-धूर का स्नान जीवों के मन की) मैल दूर करता है। हे भाई! (अपने) हरेक सांस के साथ परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (जो मनुष्य नाम स्मरण करता है, उसकी ओर से परतात्मा अपना) मुँह नहीं मोड़ता। हे भाई! (जमा किए हुए) लाखों-करोड़ों रुपयो में से कुछ भी (आखिरी वक्त मनुष्य के) साथ नहीं जाता। आखिरी समय में (जब हरेक पदार्थ का साथ खत्म हो जाता है) परमात्मा का नाम ही साथ निभाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा मानि एक निरंकेरै ॥ सगल तिआगहु भाउ दूजेरै ॥ कवन कहां हउ गुन प्रिअ तेरै ॥ बरनि न साकउ एक टुलेरै ॥ दरसन पिआस बहुतु मनि मेरै ॥ मिलु नानक देव जगत गुर केरै ॥२॥१॥३४॥
मूलम्
मनसा मानि एक निरंकेरै ॥ सगल तिआगहु भाउ दूजेरै ॥ कवन कहां हउ गुन प्रिअ तेरै ॥ बरनि न साकउ एक टुलेरै ॥ दरसन पिआस बहुतु मनि मेरै ॥ मिलु नानक देव जगत गुर केरै ॥२॥१॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, मन का फुरना। मानि = शांति कर। निरंकेरै = निरंकार में। भाउ = प्यार। दूजेरै = दूसरे पदार्थ में। कहां = मैं कहूँ। प्रिआ = हे प्यारे प्रभु! साकउ = सकूँ। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। टुलेरै = टोल, (दिया हुआ) पदार्थ, किया हुआ उपकार। मनि मेरै = मेरे मन में। मिलु नानक = नानक को मिल। देव जगत गुर केरै = हे जगत के गुरदेव!।2।
अर्थ: हे भाई! (अपने) मन के फुरने को सिर्फ निरंकार (की याद) में शांत कर ले। (प्रभु के बिना) और-और पदार्थ में (डाला हुआ) प्यार सारा ही छोड़ दे।
हे प्यारे प्रभु! तेरे अंदर (अनेक ही) गुण (हैं), मैं (तेरे) कौन-कौन से गुण बता सकता हूँ? मैं तो तेरे एक उपकार को भी बयान नहीं कर सकता। हे जगत के गुरदेव! मेरे मन में तेरे दर्शनों की बहुत तमन्ना है, (मुझे) नानक को मिल।2।1।34।
[[1305]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी कउन बिधे दरसन परसना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी कउन बिधे दरसन परसना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधे = बिधि, तरीका, ढंग। परसना = (चरणों की) छोह।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मुझे बता) ऐसा कौन सा तरीका है जिससे प्रभु के दर्शन (हो जाएं, प्रभु के चरणों की) छूह मिल जाए?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस पिआस सफल मूरति उमगि हीउ तरसना ॥१॥
मूलम्
आस पिआस सफल मूरति उमगि हीउ तरसना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिआस = तमन्ना। सफल मूरति = वह प्रभु जिसकी हस्ती (जीवों को सारे) फल देने वाली है। उमगि = उमंग में आ के। हीउ = हृदय।1।
अर्थ: हे भाई! सब जीवों को मन-माँगी मुरादें देने वाले प्रभु के दर्शनों की मेरी तमन्ना है इन्तजार है। उमंग में मेरा दिल (दर्शनों के लिए) तरस रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन लीन पिआस मीन संतना हरि संतना ॥ हरि संतना की रेन ॥ हीउ अरपि देन ॥ प्रभ भए है किरपेन ॥ मानु मोहु तिआगि छोडिओ तउ नानक हरि जीउ भेटना ॥२॥२॥३५॥
मूलम्
दीन लीन पिआस मीन संतना हरि संतना ॥ हरि संतना की रेन ॥ हीउ अरपि देन ॥ प्रभ भए है किरपेन ॥ मानु मोहु तिआगि छोडिओ तउ नानक हरि जीउ भेटना ॥२॥२॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = निमाणा। मीन = मछली। रेन = चरण धूल। अरपि देन = भेट कर लिया जाए। किरपेन = कृपालु। तिआगि छोडिओ = त्याग दिया। भेटना = मिलता है।2।
अर्थ: (उक्तर:) अगर निमाणे हो के संत जनों के चरणों पर गिर जाएं (यदि प्रभु के दर्शनों की इतनी चाहत हो, जैसे) मछली को (पानी की) प्यास होती है, यदि संत-जनों के चरणों की धूल की खातिर अपना हृदय (भी) भेट कर दें, तो, हे भाई! प्रभु दयावान होता है। हे नानक! (जब किसी ने अपने अंदर से) अहंकार और मोह त्याग दिया, तब (उस को) प्रभु जी मिल जाते हैं।2।2।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ रंगा रंग रंगन के रंगा ॥ कीट हसत पूरन सभ संगा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ रंगा रंग रंगन के रंगा ॥ कीट हसत पूरन सभ संगा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीट = कीड़ा। हसत = हाथी। पूरन = व्यापक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (इस जगत-तमाशे में) अनेक ही रंगों में (बस रहा है) कीड़ी से लेकर हाथी तक सबके साथ बसता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरत नेम तीरथ सहित गंगा ॥ जलु हेवत भूख अरु नंगा ॥ पूजाचार करत मेलंगा ॥ चक्र करम तिलक खाटंगा ॥ दरसनु भेटे बिनु सतसंगा ॥१॥
मूलम्
बरत नेम तीरथ सहित गंगा ॥ जलु हेवत भूख अरु नंगा ॥ पूजाचार करत मेलंगा ॥ चक्र करम तिलक खाटंगा ॥ दरसनु भेटे बिनु सतसंगा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहित = समेत। हेवत = बर्फ। अरु = और। पूजाचार = पूजा+आचार, पूजा आदि के कर्म। मेलंगा = अंगों को मेल के, आसन जमा के। खाटंगा = खट अंगों पर, (दोनों लातें, दोनों बाँहें, छाती, सिर) इन छह अंगों पर। दरसनु सत संगा = साधु-संगत का दर्शन।1।
अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा के दर्शन करने के लिए) कोई व्रत नेम रख रहा है, कोई गंगा समेत सारे तीर्थों का स्नान करता है; कोई (ठंडे) पानी और बर्फ (की ठंढ सह रहा है), कोई भूख काटता है कोई नंगा रहता है; कोई आसन जमा के पूजा आदि कर्म करता है; कोई अपने शरीर के छह अंगों पर चक्र-तिलक आदि लगाने के कर्म करता है। पर, साधु-संगत के दर्शन किए बिना (ये सारे कर्म व्यर्थ हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हठि निग्रहि अति रहत बिटंगा ॥ हउ रोगु बिआपै चुकै न भंगा ॥ काम क्रोध अति त्रिसन जरंगा ॥ सो मुकतु नानक जिसु सतिगुरु चंगा ॥२॥३॥३६॥
मूलम्
हठि निग्रहि अति रहत बिटंगा ॥ हउ रोगु बिआपै चुकै न भंगा ॥ काम क्रोध अति त्रिसन जरंगा ॥ सो मुकतु नानक जिसु सतिगुरु चंगा ॥२॥३॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हठि = हठ से। निग्रहि = इन्द्रियों को रोकने के यत्न से। बिटंगा = टांगों के बिना, सिर के भार, सिर बल। हउ रोगु = अहंकार का रोग। बिआपै = जोर डाल लेता है। चुकै न = खत्म नहीं होता। भंगा = तोट, कमी, दूरी। त्रिसन = तृष्णा। जरंगा = जलते हैं अंग। मुकतु = (विकारों से) स्वतंत्र।2।
अर्थ: हे भाई! (अनेक रंगों में व्यापक उस प्रभु के दर्शन करने के लिए) कोई मनुष्य हठ से इन्द्रियों को रोकने के प्रयत्न से सिर के बल होया हुआ है। (पर इस तरह बल्कि) अहंकार का रोग (मनुष्य पर अपना) जोर डाल लेता है, (उसके अंदर से आत्मिक जीवन की) कमी खत्म नहीं होती, काम-क्रोध-तृष्णा (की आग) में जलता रहता है। हे नानक! (काम-क्रोध-तृष्णा से) वह मनुष्य बचा रहता है जिसको सोहाना गुरु मिल जाता है।2।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिख बूझि गई गई मिलि साध जना ॥ पंच भागे चोर सहजे सुखैनो हरे गुन गावती गावती गावती दरस पिआरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तिख बूझि गई गई मिलि साध जना ॥ पंच भागे चोर सहजे सुखैनो हरे गुन गावती गावती गावती दरस पिआरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिख = तृष्णा, माया की प्यास। मिलि = मिल के। पंच चोर = (आत्मिक जीवन के सरमाए चुराने वाले कामादिक) पाँच चोर। हरे गुन = हरि के गुण। सहजे सुखैनो = बड़ी आसानी से। दरस पिआरि = दर्शन के प्यार में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संत जनों को मिल के (मेरे अंदर से माया की) तृष्णा बिल्कुल ही समाप्त हो गई है। प्रभु के दर्शनों की तमन्ना में प्रभु के गुण गाते-गाते बड़ी ही आसानी से (कामादिक) पाँचों चोर (मेरे अंदर से) भाग गए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसी करी प्रभ मो सिउ मो सिउ ऐसी हउ कैसे करउ ॥ हीउ तुम्हारे बलि बले बलि बले बलि गई ॥१॥
मूलम्
जैसी करी प्रभ मो सिउ मो सिउ ऐसी हउ कैसे करउ ॥ हीउ तुम्हारे बलि बले बलि बले बलि गई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मो सिउ = मुझसे, मेरे साथ। हउ = मैं। करउ = मैं करूँ। हीओु = हृदय (असल शब्द ‘हीउ’ है यहां ‘हीओ’ पढ़ना है)। बलि बले = कुर्बान।1।
अर्थ: हे प्रभु! जिस तरह की मेहर तूने मेरे ऊपर की है (उसके बदले में मैं) वैसी ही (तेरी सेवा) मैं कैसे कर सकता हूँ? हे प्रभु! मेरा दिल तुझसे सदके जाता है, कुर्बान जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पहिले पै संत पाइ धिआइ धिआइ प्रीति लाइ ॥ प्रभ थानु तेरो केहरो जितु जंतन करि बीचारु ॥ अनिक दास कीरति करहि तुहारी ॥ सोई मिलिओ जो भावतो जन नानक ठाकुर रहिओ समाइ ॥ एक तूही तूही तूही ॥२॥१॥३७॥
मूलम्
पहिले पै संत पाइ धिआइ धिआइ प्रीति लाइ ॥ प्रभ थानु तेरो केहरो जितु जंतन करि बीचारु ॥ अनिक दास कीरति करहि तुहारी ॥ सोई मिलिओ जो भावतो जन नानक ठाकुर रहिओ समाइ ॥ एक तूही तूही तूही ॥२॥१॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पै = पड़ कर। संत पाइ = संत जनों के पैरों पर। धिआइ = (तेरा नाम) स्मरण करके। केहरो = कौन सा? जितु = जिस (जगह) में। कीरति = महिमा। करहि = करते हैं (बहुवचन)। भावतो = प्यारा लगता है। ठाकुर = हे ठाकुर! रहिओ समाइ = व्यापक है।2।
अर्थ: हे प्रभु! पहले (तेरे) संत-जनों के पैरों में पड़ कर (और, तेरा नाम) स्मरण कर-कर के मैंने (तेरे संग) प्रीति बनाई है। हे प्रभु! तेरी वह जगह बहुत ही आश्चर्यजनक होगी जहाँ (बैठ के) तू (सारे) जीवों की संभाल करता है। तेरे अनेक ही दास तेरी महिमा करते रहते हैं। हे दास नानक! (कह:) हे ठाकुर! तुझे वही (दास) मिल सका है जो तुझे प्यारा लगा। हे ठाकुर! तू हर जगह व्यापक है, हर जगह सिर्फ तू ही है।2।1।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ८ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ८ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिआगीऐ गुमानु मानु पेखता दइआल लाल हां हां मन चरन रेन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तिआगीऐ गुमानु मानु पेखता दइआल लाल हां हां मन चरन रेन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगीऐ = त्याग देना चाहिए। पेखता = देख रहा है। दइआल = दया का घर प्रभु। हां हां मन = हे मन! रेन = धूल।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (अपने अंदर से) गुमान-अहंकार दूर कर लेना चाहिए। दया-का-घर सुंदर प्रभु (हमारे हरेक काम को) देख रहा है। हे मन! (सबके) चरणों की धूल (बना रह)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि संत मंत गुपाल गिआन धिआन ॥१॥
मूलम्
हरि संत मंत गुपाल गिआन धिआन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंत = उपदेश। गिआन = गहरी सांझ। धिआन = तवज्जो, ध्यान।1।
अर्थ: हे भाई! हरि-गोपाल के संत जनों के उपदेश की गहरी विचार में तवज्जो जोड़े रख।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै गोबिंद गाइ चरन कमल प्रीति लाइ दीन दइआल मोहना ॥ क्रिपाल दइआ मइआ धारि ॥ नानकु मागै नामु दानु ॥ तजि मोहु भरमु सगल अभिमानु ॥२॥१॥३८॥
मूलम्
हिरदै गोबिंद गाइ चरन कमल प्रीति लाइ दीन दइआल मोहना ॥ क्रिपाल दइआ मइआ धारि ॥ नानकु मागै नामु दानु ॥ तजि मोहु भरमु सगल अभिमानु ॥२॥१॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। लाइ = जोड़े रख। मोहना = मन को मोह लेने वाला प्रभु। क्रिपाल = हे कृपालु! मइआ धारि = मेहर कर। नानकु मागै = नानक माँगता है। तजि = त्याग के। भरमु = भटकना।2।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद के गुण (अपने) दिल में (सदा) गाया कर, दीनों पर दया करने वाले मोहन प्रभु के सुंदर चरणों से प्रीति बनाए रख।
हे कृपा के श्रोत प्रभु! (मेरे पर सदा) मेहर कर (तेरा दास) नानक (अपने अंदर से) मोह-भ्रम और गुमान दूर कर के (तेरे दर से तेरा) नाम-दान माँगता है।2।1।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ प्रभ कहन मलन दहन लहन गुर मिले आन नही उपाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ प्रभ कहन मलन दहन लहन गुर मिले आन नही उपाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ कहन = प्रभु की महिमा। मलन दहन = (विकारों की) मैल को जलाने के समर्थ (महिमा)। लहन = प्राप्ति। गुर मिलै = गुरु को मिल के। आन = अन्य, कोई और। उपाउ = तरीका, उपाय, ढंग।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के (ही, विकारों की) मैल को जलाने की सामर्थ्य वाली प्रभु की महिमा प्राप्त होती है। और कोई तरीका (इसकी प्राप्ति का) नहीं है।1। रहाउ।
[[1306]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तटन खटन जटन होमन नाही डंडधार सुआउ ॥१॥
मूलम्
तटन खटन जटन होमन नाही डंडधार सुआउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तटन = (तट = तीथ। का किनारा) तीर्थ स्नान। खटन = (खट = छह) रोजाना छह कर्मों का अभ्यास (दान लेना और देना, विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और कराना)। जटन = बालों की जटा सिर पर धारण करनी। होमन = हवन यज्ञ करने। डंड धार = डंडा धारी जोगी बनना। सुआउ = स्वार्थ, प्रयोजन।1।
अर्थ: हे भाई! तीर्थों के स्नान, ब्राहमणों वाले छह कर्मों का रोजाना अभ्यास, बालों की जटा धारण करनी, हवन-यज्ञ करने, डंडा-धारी जोगी बनना - (मेरा इन कामों से कोई) वास्ता नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जतन भांतन तपन भ्रमन अनिक कथन कथते नही थाह पाई ठाउ ॥ सोधि सगर सोधना सुखु नानका भजु नाउ ॥२॥२॥३९॥
मूलम्
जतन भांतन तपन भ्रमन अनिक कथन कथते नही थाह पाई ठाउ ॥ सोधि सगर सोधना सुखु नानका भजु नाउ ॥२॥२॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भांतन = अनेक भांति के। तपन = तप साधने। भ्रमन = धरती पर भ्रमण करना। कथते = कहते हुए। थाह = गहराई। ठाउ = जगह। सोधि = सोध के, विचार के। सोधना = विचारें। सगर = सगल, सारी। भजु नाउ = नाम स्मरण किया कर।2।
अर्थ: हे भाई! (धूणियां आदि तपा के) तप करने, धरती का भ्रमण करते रहना- इस तरह के अनेक किस्मों के प्रयत्न करने से, अनेक व्याख्यान करने से (परमात्मा के गुणों की) गहराई को नहीं पाया जा सकता, (सुख-शांति की अथाह सीमा को) नहीं आँका जा सकता। हे नानक! सारी विचारें विचार के (यही बात स्पष्ट हुई है कि) परमात्मा का नाम स्मरण किया करो (इसी में ही) आनंद है।2।2।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पावनु भगति बछलु भै हरन तारन तरन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पतित पावनु भगति बछलु भै हरन तारन तरन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पतित पावनु = विकारियों को पवित्र करने वाला। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। भै हरन = सारे डर दूर करने वाला। तरन = बेड़ी, जहाज़। तारन तरन = (जीवों को संसार समुंदर से) पार लंघाने के जहाज।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू विकारियों को पवित्र करने वाला है, तू भक्ति-भाव से प्यार करने वाला है, तू (जीवों के सारे) डर दूर करने वाला है, तू (जीवन को संसार-समुंदर से) पार लंघाने के लिए जहाज है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैन तिपते दरसु पेखि जसु तोखि सुनत करन ॥१॥
मूलम्
नैन तिपते दरसु पेखि जसु तोखि सुनत करन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैन = आँखें। तिपते = तृप्त हो जाते हैं। पेखि = देख के। सुनत = सुनते हुए। करन = कान। तोखि = संतोखे जाते हैं, शांति हासिल करते हैं।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे दर्शन करके (मेरी) आँखें तृप्त हो जाती हैं, मेरे कान तेरा यश सुन के ठंडक हासिल करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रान नाथ अनाथ दाते दीन गोबिद सरन ॥ आस पूरन दुख बिनासन गही ओट नानक हरि चरन ॥२॥१॥४०॥
मूलम्
प्रान नाथ अनाथ दाते दीन गोबिद सरन ॥ आस पूरन दुख बिनासन गही ओट नानक हरि चरन ॥२॥१॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान नाथ = हे (जीवों के) प्राणों के नाथ! अनाथ नाथे = हे अनाथों के दातार! दीन दाते = हे दीनों के दातार! आस पूरन = हे (सबकी) आशाएं पूरी करने वाले! गही = पकड़ी है। हरि = हे हरि!।2।
अर्थ: हे (जीवों के) प्राणों के नाथ! हे अनाथों के दाते! हे दीनों के दाते! हे गोबिंद! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे नानक! (कह:) हे हरि! हे (सब जीवों की) आशाएं पूरी करने वाले! हे (सबके) दुख नाश करने वाले! मैंने तेरे चरणों की ओट ली है।2।1।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ चरन सरन दइआल ठाकुर आन नाही जाइ ॥ पतित पावन बिरदु सुआमी उधरते हरि धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ चरन सरन दइआल ठाकुर आन नाही जाइ ॥ पतित पावन बिरदु सुआमी उधरते हरि धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल ठाकुर = हे दया के घर मालिक प्रभु! आन = अन्य, और। जाइ = जगह। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। बिरदु = आदि कदीमी स्वभाव। सुआमी = हे स्वामी! उधरते = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। धिआइ = स्मरण करके।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया-के-घर ठाकुर प्रभु! (मैं तेरे) चरणों की शरण (आया हूँ। दुनिया के विकारों से बचने के लिए तेरे बिना) और कोई जगह नहीं। हे स्वामी! विकारियों को पवित्र करना तेरा आदि-कदीमी स्वभाव है। हे हरि! तेरा नाम स्मरण कर-कर के (अनेक जीव संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैसार गार बिकार सागर पतित मोह मान अंध ॥ बिकल माइआ संगि धंध ॥ करु गहे प्रभ आपि काढहु राखि लेहु गोबिंद राइ ॥१॥
मूलम्
सैसार गार बिकार सागर पतित मोह मान अंध ॥ बिकल माइआ संगि धंध ॥ करु गहे प्रभ आपि काढहु राखि लेहु गोबिंद राइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गार = जिल्लण, गारा। सागर = समुंदर। पतित = गिरे हुए। अंध = अंधा, जिसको जीवन का सही रास्ता नहीं दिख सकता। बिकल = व्याकुल, घबराए हुए। संगि = साथ। माइआ धंध = माया के धंधे। करु = हाथ। गहे = पकड़ के। गोबिंद राए = हे प्रभु पातशाह!।1।
अर्थ: हे प्रभु पातशाह! जगत विकारों की गार है, विकारों का समुंदर है, माया के मोह और गुमान से अंधे हुए जीव (इसमें) गिरे रहते हैं, माया के झमेलों से व्याकुल हुए रहते हैं। हे प्रभु! (इनका) हाथ पकड़ के तू खुद (इनको इस कीचड़ में से) निकाल, तू स्वयं (इनकी) रक्षा कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथ नाथ सनाथ संतन कोटि पाप बिनास ॥ मनि दरसनै की पिआस ॥ प्रभ पूरन गुनतास ॥ क्रिपाल दइआल गुपाल नानक हरि रसना गुन गाइ ॥२॥२॥४१॥
मूलम्
अनाथ नाथ सनाथ संतन कोटि पाप बिनास ॥ मनि दरसनै की पिआस ॥ प्रभ पूरन गुनतास ॥ क्रिपाल दइआल गुपाल नानक हरि रसना गुन गाइ ॥२॥२॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनाथ नाथ = हे अनाथों के नाथ! सनाथ संतन = हे संतों के सहारे! कोटि = करोड़ों। मनि = (मेरे) मन में। पिआस = प्यास, तमन्ना। गुन तास = हे गुणों के खजाने! क्रिपाल = हे कृपा के घर। रसना = जीभ।2।
अर्थ: हे अनाथों के नाथ! हे संतों के सहारे! हे (जीवों के) करोड़ों पाप नाश करने वाले! (मेरे) मन में (तेरे) दर्शनों की तमन्ना है। हे पूरन प्रभु! हे गुणों के खजाने! हे कृपालु! हे दयालु! हे गोपाल! हे हरि! (मेहर कर) नानक की जीभ (तेरे) गुण गाती रहे।2।2।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ वारि वारउ अनिक डारउ ॥ सुखु प्रिअ सुहाग पलक रात ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ वारि वारउ अनिक डारउ ॥ सुखु प्रिअ सुहाग पलक रात ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वारि डारि = वारि डारउ, मैं सदके करती हूँ। वारउ = मैं वारती हूँ। अनिक = अनेक (और सुख)। प्रिअ सुहाग रात = प्यार के सोहाग की रात। सुख पलक = पल भर का सुख।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! (पतिव्रता स्त्री की तरह) मैं प्यारे प्रभु-पति के सोहाग की रात के सुख से (और) अनेक (सुख) वारती हूँ, सदके रहती हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनिक मंदर पाट सेज सखी मोहि नाहि इन सिउ तात ॥१॥
मूलम्
कनिक मंदर पाट सेज सखी मोहि नाहि इन सिउ तात ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कनिक = सोना। कनिक मंदर = सोने के महल। पाट = रेशम। पाट सेज = रेशम की सेज। सखी = हे सखी! मोहि = मुझे। तात = प्रयोजन।1।
अर्थ: हे सहेलिए! सोने के महल और रेशमी कपड़ों की सेज- इनके साथ मुझे कोई लगन नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकत लाल अनिक भोग बिनु नाम नानक हात ॥ रूखो भोजनु भूमि सैन सखी प्रिअ संगि सूखि बिहात ॥२॥३॥४२॥
मूलम्
मुकत लाल अनिक भोग बिनु नाम नानक हात ॥ रूखो भोजनु भूमि सैन सखी प्रिअ संगि सूखि बिहात ॥२॥३॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकत = मोती। हात = (आत्मिक) मौत। सैन = सोना। प्रिअ संगि = प्यारे के साथ। सूखि = सुख में। बिहाति = (उम्र) गुजारती है।2।
अर्थ: हे नानक! मोती, हीरे (मायावी पदार्थों के) अनेक भोग परमात्मा के नाम के बिना (आत्मिक) मौत (का कारण) हैं। (इसलिए) हे सहेलिए! रूखी रोटी (खानी और) जमीन पर सोना (अच्छा है क्योंकि) प्यारे, प्रभु की संगति में जिंदगी सुख में बीतती है।2।3।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ अहं तोरो मुखु जोरो ॥ गुरु गुरु करत मनु लोरो ॥ प्रिअ प्रीति पिआरो मोरो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ अहं तोरो मुखु जोरो ॥ गुरु गुरु करत मनु लोरो ॥ प्रिअ प्रीति पिआरो मोरो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहं = अहंकार। तोरो = तोड़ो, नाश कर दो। जोरो = जोड़ो। मुखु जोरो = (सत्संगियों से) मुँह जोड़ो, संगति में मिल बैठा कर। करत = करते हुए। गुरु गुरु करत = गुरु गुरु करते हुए, गुरु को हृदय में बसाते हुए। लोरो = लोड़, तलाश, खोज। मनु लोरो = मन को खोजा करो। मोरो = मोड़ो, तवज्जो पलटा कर। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति (की ओर)।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! (साधु-संगत में) मिल के बैठा कर (साधु-संगत की बरकत से अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर। हे सहेली! गुरु को हर वक्त अपने अंदर बसाते हुए (अपने) मन को खोजा कर, (इस तरह अपने मन को) प्यारे प्रभु की प्रीति की ओर पल्टाया कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रिहि सेज सुहावी आगनि चैना तोरो री तोरो पंच दूतन सिउ संगु तोरो ॥१॥
मूलम्
ग्रिहि सेज सुहावी आगनि चैना तोरो री तोरो पंच दूतन सिउ संगु तोरो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिहि = (हृदय-) घर में। सुहावी = सुख देने वाली, सुंदर। आगनि = आंगन में, (हृदय-) आँगन में। चैना = चैन, शांति। तोरो = तोड़। री = हे सखी! सिउ = साथ। संगु = साथ।1।
अर्थ: हे सहेली! (साधु-संगत में मन की खोज और प्रभु की प्रीति की सहायता से अपने अंदर से) (कामादिक) पाँच-वैरियों से (अपना) साथ तोड़ने का सदा प्रयत्न किया कर, (इस तरह तेरे) हृदय-घर में (प्रभु-मिलाप की) सुंदर सेज बन जाएगी, तेरे (हृदय के) आँगन में शांति आ टिकेगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आइ न जाइ बसे निज आसनि ऊंध कमल बिगसोरो ॥ छुटकी हउमै सोरो ॥ गाइओ री गाइओ प्रभ नानक गुनी गहेरो ॥२॥४॥४३॥
मूलम्
आइ न जाइ बसे निज आसनि ऊंध कमल बिगसोरो ॥ छुटकी हउमै सोरो ॥ गाइओ री गाइओ प्रभ नानक गुनी गहेरो ॥२॥४॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आइ न जाइ = न आए ना जाए, ना आता है ना जाता है, भटकता नहीं। निज आसनि = अपने आसन पर। ऊंध = (प्रभु से) उल्टा हुआ। कमल = (हृदय-) कमल फूल। बिगसोरो = खिल उठता है। सोरो = शोर। री = हे सखी! गाइओ = (जिस ने) गाया। गुनी गहेरो = गुणों का खजाना।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सखी! जिस जीव-स्त्री ने गुणों के खजाने प्रभु की महिमा के गीत गाने शुरू कर दिए, (उसके अंदर से) अहंकार का शोर खत्म हो गया, उसका (प्रभु से) पल्टा हुआ हृदय-कमल-फूल (सीधा हो के, प्रभु की ओर मुख कर के) खिल उठता है, वह सदा अपने आसन पर बैठी रहती है (अडोल-चिक्त रहती है), उसकी भटकना समाप्त हो जाती है।2।4।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा मः ५ घरु ९ ॥ तां ते जापि मना हरि जापि ॥ जो संत बेद कहत पंथु गाखरो मोह मगन अहं ताप ॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा मः ५ घरु ९ ॥ तां ते जापि मना हरि जापि ॥ जो संत बेद कहत पंथु गाखरो मोह मगन अहं ताप ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तां ते = इस वास्ते। मना = हे मन! जापि = जपा कर। संत बेद = गुरु के वचन। पंथु = (जिंदगी का) रास्ता। गाखरो = मुश्किल, कठिन। मगन = मस्त। अहं = अहंकार। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (अगर अहंकार के ताप से बचना है) तो परमात्मा का नाम जपा कर, सदा जपा कर, यही उपदेश गुरु के वचन करते हैं। (नाम जपे बिना जिंदगी का) रास्ता बहुत मुश्किल है (इसके बिना) मोह में डूबे रहा जाता है, अहंकार का ताप चढ़ा रहता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो राते माते संगि बपुरी माइआ मोह संताप ॥१॥
मूलम्
जो राते माते संगि बपुरी माइआ मोह संताप ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राते = रंगे हुए। माते = मस्त। संगि माइआ = माया के साथ। बपुरी = बेचारी। संताप = कष्ट।1।
अर्थ: हे मन! जो मनुष्य बुरी माया के साथ रति-मस्त रहते हैं, उनको (माया के) मोह के कारण (अनेक) दुख-कष्ट व्यापते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु जपत सोऊ जनु उधरै जिसहि उधारहु आप ॥ बिनसि जाइ मोह भै भरमा नानक संत प्रताप ॥२॥५॥४४॥
मूलम्
नामु जपत सोऊ जनु उधरै जिसहि उधारहु आप ॥ बिनसि जाइ मोह भै भरमा नानक संत प्रताप ॥२॥५॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। जिसहि = जिस को। उधारहु = पार लंघाता है। भै = (सारे) डर। संत प्रताप = गुरु के प्रताप से।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! जिस (मनुष्य) को तू स्वयं (संसार-समुंदर से) पार लंघाता है, वह मनुष्य (तेरा) नाम जपते हुए पार लांघाता है। हे नानक! गुरु के प्रताप से (मनुष्य के अंदर से माया का) मोह दूर हो जाता है, सारे डर मिट जाते हैं, भटकना समाप्त हो जाती है।2।5।44।
[[1307]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसो दानु देहु जी संतहु जात जीउ बलिहारि ॥ मान मोही पंच दोही उरझि निकटि बसिओ ताकी सरनि साधूआ दूत संगु निवारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसो दानु देहु जी संतहु जात जीउ बलिहारि ॥ मान मोही पंच दोही उरझि निकटि बसिओ ताकी सरनि साधूआ दूत संगु निवारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानु = (नाम की) दाति। संतहु = हे संत जनों! जात = जाती है। जीउ = जिंद। बलिहारि = सदके, कुर्बान। मान = अहंकार। पंच = (कामादिक) पाँच (चोर)। दोही = ठगी हुई। उरझि = (कामादिक में) फस के। निकटि = (इन कामादिकों के) नजदीक। ताकी = (अब) देखी है। साधूआ = संत जनों की। दूत संगु = (कामादिक) वैरियों का साथ। निवारि = दूर करो।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनों! मुझे इस तरह का दान दो (जो पाँचों कामादिक वैरियों से बचा के रखे, मेरी) जिंद (नाम की दाति से) सदके जाती है। (ये जिंद) अहंकार में मस्त रहती है, (कामादिक) पाँच (चोरों के हाथों) ठगी जाती है, (उन कामादिकों में ही) फंस के (उनके ही) नजदीक टिकी रहती है। मैंने (इनसे बचने के लिए) संत जनों की शरण ताकी है। (हे संत जनो! मेरा इन कामादिक) वैरियों वाला साथ दूर करो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि जनम जोनि भ्रमिओ हारि परिओ दुआरि ॥१॥
मूलम्
कोटि जनम जोनि भ्रमिओ हारि परिओ दुआरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमिओ = भटकता फिरा। दुआरि = (तुम्हारे) दर पे।1।
अर्थ: हे संत जनों! (कामादिक पाँचों वैरियों के प्रभाव तले रह के मनुष्य की जिंद) करोड़ों जन्मों-जूनियों में भटकती रहती है। (हे संत जनो!) मैं और आसरे छोड़ के तुम्हारे द्वारे आया हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरपा गोबिंद भई मिलिओ नामु अधारु ॥ दुलभ जनमु सफलु नानक भव उतारि पारि ॥२॥१॥४५॥
मूलम्
किरपा गोबिंद भई मिलिओ नामु अधारु ॥ दुलभ जनमु सफलु नानक भव उतारि पारि ॥२॥१॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधारु = आसरा। दुलभ = मुश्किल से मिलने वाला। सफलु = कामयाब। भव = संसार समुंदर।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, उसको (कामादिक वैरियों का मुकाबला करने के लिए परमात्मा का) नाम-आसरा मिल जाता है, उसका ये दुर्लभ (मानव) जनम सफल हो जाता है। हे नानक! (प्रभु चरणों में अरदास करके कह: हे प्रभु! मुझे अपने नाम का आसरा दे के) संसार-समुंदर से पार लंघा ले।2।1।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ घरु ११ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ घरु ११ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज सुभाए आपन आए ॥ कछू न जानौ कछू दिखाए ॥ प्रभु मिलिओ सुख बाले भोले ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सहज सुभाए आपन आए ॥ कछू न जानौ कछू दिखाए ॥ प्रभु मिलिओ सुख बाले भोले ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाए = प्यार से, प्यार के प्रेरे हुए। आपन = आपने आप। जानौ = मैं जानता। न कछू जानौ (न) कछू दिखाए = ना मैं कुछ जानता हूँ, ना मैंने कुछ दिखाया है (ना मेरी मति-बुद्धि ऊँची है, ना मेरी करणी ऊँची है)। बाले भोले = भोले बालक को।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (किसी) आत्मिक अडोलता वाले प्यार की प्रेरणा से (प्रभु जी) अपने आप ही (मुझे) आ मिले हैं, मैं तो ना-कुछ जानता-बूझता हूँ, ना मैं कोई अच्छी करणी दिखा सका हूँ। मुझे भोले बालक को, सुखों का मालिक प्रभु (स्वयं ही) आ मिला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजोगि मिलाए साध संगाए ॥ कतहू न जाए घरहि बसाए ॥ गुन निधानु प्रगटिओ इह चोलै ॥१॥
मूलम्
संजोगि मिलाए साध संगाए ॥ कतहू न जाए घरहि बसाए ॥ गुन निधानु प्रगटिओ इह चोलै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजोगि = संजोग ने। साध संगाए = साधु-संगत में। कतहू = किसी भी और तरफ। घरहि = घर में ही। गुन निधानु = गुणों का खजाना प्रभु। इह चोलै = इस शरीर में।1।
अर्थ: हे भाई! (किसी बीते हुए वक्त के) संजोग ने (मुझे) साधु-संगत में मिला दिया, (अब मेरा मन) किसी भी और तरफ नहीं जाता, (हृदय-) घर में ही टिका रहता है। (मेरे इस शरीर में गुणों का खजाना प्रभु प्रकट हो गया है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन लुभाए आन तजाए ॥ थान थनाए सरब समाए ॥ रसकि रसकि नानकु गुन बोलै ॥२॥१॥४६॥
मूलम्
चरन लुभाए आन तजाए ॥ थान थनाए सरब समाए ॥ रसकि रसकि नानकु गुन बोलै ॥२॥१॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लुभाए = लुभा लिए, आकर्षित कर लिया। आन = अन्य, और (प्यारे, आसरे)। तजाए = छोड़ दिए हें। थान थनाए = स्थान स्थान में, हरेक जगह में। सरब = सबमें। रसकि = स्वाद से, आनंद से।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के) चरणों ने (मुझे अपनी ओर) आकर्षित कर लिया है, मुझसे अन्य सारे मोह-प्यार छुड़वा लिए हैं, (अब मुझे ऐसा दिखाई देता है कि वह प्रभु) हरेक जगह में सब में बस रहा है। (अब उसका दास) नानक बड़े आनंद से उसके गुण उचारता रहता है।2।1।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ गोबिंद ठाकुर मिलन दुराईं ॥ परमिति रूपु अगम अगोचर रहिओ सरब समाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ गोबिंद ठाकुर मिलन दुराईं ॥ परमिति रूपु अगम अगोचर रहिओ सरब समाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुराईं = कठिन, मुश्किल। परमिति = मिति से परे, अंदाजे से परे, जिसकी हस्ती का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद को ठाकुर को मिलना बहुत मुश्किल है। वह परमात्मा (वैसे तो) सबमें समाया हुआ है (पर) उसका स्वरूप अंदाजे से परे है, वह अगम्य (पहुँच से परे) है, उस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहनि भवनि नाही पाइओ पाइओ अनिक उकति चतुराई ॥१॥
मूलम्
कहनि भवनि नाही पाइओ पाइओ अनिक उकति चतुराई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहनि = कहने से, (सिर्फ) जुबानी बातें करने से। भवणि = भ्रमण से, तीर्थ यात्रा आदि करने से। उकति = दलील, युक्ति।1।
अर्थ: हे भाई! (निरी ज्ञान की) बातें करने से, (तीर्थ आदि पर) भ्रमण से परमात्मा नहीं मिलता, अनेक युक्तियों और चतुराईयों से भी नहीं मिलता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जतन जतन अनिक उपाव रे तउ मिलिओ जउ किरपाई ॥ प्रभू दइआर क्रिपार क्रिपा निधि जन नानक संत रेनाई ॥२॥२॥४७॥
मूलम्
जतन जतन अनिक उपाव रे तउ मिलिओ जउ किरपाई ॥ प्रभू दइआर क्रिपार क्रिपा निधि जन नानक संत रेनाई ॥२॥२॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाव = उपाय। रे = हे भाई! तउ = तब। जउ = जब। दइआर = दयाल। क्रिपार = कृपाल। क्रिपानिधि = कृपा का खजाना। रेनाई = चरण धूल।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! अनेक प्रयत्न और अनेक तरीकों से भी परमात्मा नहीं मिलता। वह तब ही मिलता है जब उसकी अपनी कृपा होती है। हे दास नानक! दयाल, कृपाल, कृपा के खजाना प्रभु संत जनों की चरण-धूल में रहने से मिलता है।2।2।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ माई सिमरत राम राम राम ॥ प्रभ बिना नाही होरु ॥ चितवउ चरनारबिंद सासन निसि भोर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ माई सिमरत राम राम राम ॥ प्रभ बिना नाही होरु ॥ चितवउ चरनारबिंद सासन निसि भोर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! सिमरत = स्मरण करते हुए। चितवउ = मैं चितवता हूँ। चरनारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। सासन = हरेक सांस के साथ। निसि = रात। भोर = दिन।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! प्रभु के बिना (मेरा) और कोई (आसरा) नहीं है। उसका नाम हर वक्त स्मरण करते हुए मैं दिन-रात हरेक सांस के साथ उसके सुंदर चरणों का ध्यान धरता रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाइ प्रीति कीन आपन तूटत नही जोरु ॥ प्रान मनु धनु सरबसुो हरि गुन निधे सुख मोर ॥१॥
मूलम्
लाइ प्रीति कीन आपन तूटत नही जोरु ॥ प्रान मनु धनु सरबसुो हरि गुन निधे सुख मोर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाइ = लगा के, जोड़ के। कीन आपन = अपना बना लिया है। जोरु = जोड़, मिलाप। सरबसुो = (सर्वश्व), सारा धन पदार्थ, सब कुछ। गुन निधे = गुणों का खजाना हरि। मोर = मेरा।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सरबसुो’ में से अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द ‘सरबसु’ है, यहाँ ‘सरबसो’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! (उस परमात्मा के साथ) प्यार डाल के (मैंने उसको) अपना बना लिया है (अब यह) प्रीति की गाँठ टूटेगी नहीं। मेरे लिए गुणों का खजाना हरि ही सुख है, जिंद है, मन है, धन है, मेरा सब कुछ वही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईत ऊत राम पूरनु निरखत रिद खोरि ॥ संत सरन तरन नानक बिनसिओ दुखु घोर ॥२॥३॥४८॥
मूलम्
ईत ऊत राम पूरनु निरखत रिद खोरि ॥ संत सरन तरन नानक बिनसिओ दुखु घोर ॥२॥३॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईत = यहाँ। ऊत = वहाँ। निरखत = (मैं) देखता हूँ। रिद खोरि = हृदय की खोड़ में, हृदय के गुप्त स्थान में। तरन = बेड़ी, जहाज। घोर = बहुत भारी।2।
अर्थ: हे नानक! यहाँ-वहाँ हर जगह परमात्मा ही व्यापक है, मैं उसको अपने हृदय के गुप्त स्थान में (बैठा) देख रहा हूँ। (जीवों को पार लंघाने के लिए वह) जहाज़ है, संतों की शरण में (जिन्हें मिल जाती है, उनका) सारा बड़े से बड़ा दुख भी नाश हो जाता है।2।3।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ जन को प्रभु संगे असनेहु ॥ साजनो तू मीतु मेरा ग्रिहि तेरै सभु केहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ जन को प्रभु संगे असनेहु ॥ साजनो तू मीतु मेरा ग्रिहि तेरै सभु केहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। प्रभु = मालिक। संगे = (तेरे) साथ। असनेहु = नेहु, प्यार। साजनो = साजन, सज्जन। ग्रिहि तेरै = तेरे घर में। सभ केहु = सब कुछ, हरेक पदार्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू अपने सेवक के सिर पर रखवाला है, (तेरे सेवक का तेरे) साथ प्यार (बना रहता है)। हे प्रभु! तू (ही) मेरा सज्जन है, तू (ही) मेरा मित्र है, तेरे घर में हरेक पदार्थ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानु मांगउ तानु मांगउ धनु लखमी सुत देह ॥१॥
मूलम्
मानु मांगउ तानु मांगउ धनु लखमी सुत देह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानु = इज्जत। मागउ = मैं माँगता हूं। तानु = ताकत, आसरा। लखमी = माया। सुत = पुत्र। देह = शरीर, शारीरिक अरोग्यता।1।
अर्थ: हे प्रभु! मैं (तेरे दर से) इज्जत माँगता हूँ, (तेरा) आसरा माँगता हूँ, धन-पदार्थ माँगता हूं, पुत्र माँगता हूं, शारीरिक आरोग्यता माँगता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकति जुगति भुगति पूरन परमानंद परम निधान ॥ भै भाइ भगति निहाल नानक सदा सदा कुरबान ॥२॥४॥४९॥
मूलम्
मुकति जुगति भुगति पूरन परमानंद परम निधान ॥ भै भाइ भगति निहाल नानक सदा सदा कुरबान ॥२॥४॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकति = (विकारों से) मुक्ति, खलासी। जुगति = जीवन विधि। भुगति = खुराक, भोजन। परमानंद = परम आनंद, सबसे उच्च आनंद का मालिक। निधान = खजाना। भै = डर में, अदब में। भाइ = प्यार में। निहाल = प्रसन्न।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही विकारों से खलासी देने वाला है, तू ही जीवन-युक्ति सिखाता है, तू ही भोजन देने वाला है, तू ही सबसे ऊँचे आनंद और सुखों का खजाना है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मैं तुझ पर से) सदा ही सदके जाता हूँ, (जो मनुष्य तेरे) डर में प्यार में (टिक के तेरी) भक्ति (करते हैं, वे) निहाल (हो जाते हैं)।2।4।49।
[[1308]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ५ ॥ करत करत चरच चरच चरचरी ॥ जोग धिआन भेख गिआन फिरत फिरत धरत धरत धरचरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ५ ॥ करत करत चरच चरच चरचरी ॥ जोग धिआन भेख गिआन फिरत फिरत धरत धरत धरचरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करत करत = हर वक्त करते रहते। चरच चरच चरचरी = चर्चा ही चर्चा। जोग धिआन = जोग समाधियां लगाने वाले। भेख = (छह) भेषों के साधु। गिआन = (शास्त्रों के) जानने वाले। फिरत फिरत = सदा भ्रमण करने वाले। धरत = धरती। धरचरी = धरती पर फिरने वाले।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अनेक योग-समाधियाँ लगाने वाले (छह) भेषों के साधु (शास्त्रों के) ज्ञाता सदा धरती पर घूमते फिरते हैं, (जहाँ जाते हैं) चर्चा ही चर्चा करते फिरते हैं, (पर प्रभु के भजन के बिना यह सब कुछ वयर्थ है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं अहं अहै अवर मूड़ मूड़ मूड़ बवरई ॥ जति जात जात जात सदा सदा सदा सदा काल हई ॥१॥
मूलम्
अहं अहं अहै अवर मूड़ मूड़ मूड़ बवरई ॥ जति जात जात जात सदा सदा सदा सदा काल हई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहं अहं = अहंकार ही अहंकार। अवर = और। अहै = है। मूढ़ = मूर्ख। बवरई = बवरे, झल्ले। जति = यत्र, जहाँ (भी)। जात = जाए। काल = मौत, आत्मिक मौत। हई = (टिकी रहती) है।1।
अर्थ: हे भाई! (ऐसे अनेक ही) और हैं, (उनके अंदर) अहंकार ही अहंकार, (नाम से वंचित वे) मूर्ख हैं, मूर्ख हैं, बावरे हैं। (वे धरती पर घूमते-फिरते हैं, इसको धर्म का कर्म समझते हैं, पर वे) जहाँ भी जाते हैं, जहाँ भी जाते हैं, सदा ही सदा ही आत्मिक मौत (उन पर सवार रहती) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानु मानु मानु तिआगि मिरतु मिरतु निकटि निकटि सदा हई ॥ हरि हरे हरे भाजु कहतु नानकु सुनहु रे मूड़ बिनु भजन भजन भजन अहिला जनमु गई ॥२॥५॥५०॥१२॥६२॥
मूलम्
मानु मानु मानु तिआगि मिरतु मिरतु निकटि निकटि सदा हई ॥ हरि हरे हरे भाजु कहतु नानकु सुनहु रे मूड़ बिनु भजन भजन भजन अहिला जनमु गई ॥२॥५॥५०॥१२॥६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानु = अहंकार। तिआगु = त्याग, छोड़। मिरतु = मौत। निकटि = नजदीक। हई = है। भाजु = भजन कर। कहत नानकु = नानक कहता है। अहिला = कीमती। गई = (व्यर्थ) जा रहा है।2।
अर्थ: हे मूर्ख! (इन समाधियों का) माण, (भेस का) माण (शास्त्रों के ज्ञान का) अहंकार छोड़ दे, (इस तरह आत्मिक) मौत सदा (तेरे) नजदीक है, सदा (तेरे) पास है। (तुझे) नानक कहता है: हे मूर्ख! परमात्मा का भजन कर, हरि का भजन कर। भजन के बिना कीमती मनुष्या-जन्म (व्यर्थ) जा रहा है।2।5।50।12।62।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा असटपदीआ महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा असटपदीआ महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि मन राम नामु सुखु पावैगो ॥ जिउ जिउ जपै तिवै सुखु पावै सतिगुरु सेवि समावैगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि मन राम नामु सुखु पावैगो ॥ जिउ जिउ जपै तिवै सुखु पावै सतिगुरु सेवि समावैगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! पावैगो = पावै, पाता है। जपै = जपता है। सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ के। समावैगो = समावै, लीन रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (परमात्मा का) नाम (सदा) जपा कर (जो मनुष्य जपता है, वह) सुख पाता है। ज्यों-ज्यों (मनुष्य हरि-नाम) जपता है, त्यों-त्यों आनंद पाता है, और गुरु की शरण पड़ कर (हरि-नाम में) लीन रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जनां की खिनु खिनु लोचा नामु जपत सुखु पावैगो ॥ अन रस साद गए सभ नीकरि बिनु नावै किछु न सुखावैगो ॥१॥
मूलम्
भगत जनां की खिनु खिनु लोचा नामु जपत सुखु पावैगो ॥ अन रस साद गए सभ नीकरि बिनु नावै किछु न सुखावैगो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खिनु खिनु = हर वक्त। लोचा = चाहत। जपत = जपते हुए। अन रस साद = अन्य रसों का स्वाद। नीकरि गए = निकल गए, दूर हो गए।1।
अर्थ: हे मन! भक्त जनों की हर वक्त (नाम जपने की) चाहत बनी रहती है, (परमात्मा का भक्त) हरि-नाम जपते हुए आनंद प्राप्त करता है। (उसके अंदर से) और सारे रसों के स्वाद निकल जाते हैं, हरि-नाम के बिना (भक्त को) और कुछ अच्छा नहीं लगता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति हरि हरि मीठा लागा गुरु मीठे बचन कढावैगो ॥ सतिगुर बाणी पुरखु पुरखोतम बाणी सिउ चितु लावैगो ॥२॥
मूलम्
गुरमति हरि हरि मीठा लागा गुरु मीठे बचन कढावैगो ॥ सतिगुर बाणी पुरखु पुरखोतम बाणी सिउ चितु लावैगो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरु कढावैगो = गुरु निकलवाए, गुरु निकलवाता है। पुरखोतम = सबसे उत्तम (अकाल-) पुरख। सिउ = से। लावैगो = लगाता है।2।
अर्थ: हे मन! गुरु की मति की इनायत से (भक्त को) परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग जाता है, गुरु (उसके मुँह से महिमा के) मीठे वचन (ही) निकलवाता है। गुरु की वाणी के द्वारा श्रेष्ठ पुरख परमात्मा को (मिल जाता है, इसलिए भक्त सदा) गुरु की वाणी के साथ (अपना) चिक्त लगाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरबाणी सुनत मेरा मनु द्रविआ मनु भीना निज घरि आवैगो ॥ तह अनहत धुनी बाजहि नित बाजे नीझर धार चुआवैगो ॥३॥
मूलम्
गुरबाणी सुनत मेरा मनु द्रविआ मनु भीना निज घरि आवैगो ॥ तह अनहत धुनी बाजहि नित बाजे नीझर धार चुआवैगो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रविआ = द्रवित हो गया, नरम हो गया। भीना = भीग गया। निज घरि = अपने (असल) घर में। तह = उस (हृदय-घर) में। अनहत = एक रस, लगातार। धुनी = सुर। बाजहि = बजते रहते हैं। नीझर = निर्झर, चश्मा। चुआवैगो = चोआवै, (निरंतर) टपकती रहती है, जारी रहती है।3।
अर्थ: मेरा मन (नाम-रस में) भीग जाता है, (बाहर भटकने की जगह) अपने असल स्वरूप में टिका रहता है। हृदय में इस तरह आनंद बना रहता है, (मानो) उसके दिल में एक-रस सुर में बाजे बजते रहते हैं, (मानो) चश्मे (के पानी) की धार चलती रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु इकु तिल तिल गावै मनु गुरमति नामि समावैगो ॥ नामु सुणै नामो मनि भावै नामे ही त्रिपतावैगो ॥४॥
मूलम्
राम नामु इकु तिल तिल गावै मनु गुरमति नामि समावैगो ॥ नामु सुणै नामो मनि भावै नामे ही त्रिपतावैगो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिल तिल = हर वक्त। गावै = गाता रहता है। नामि = नाम में। नामो = नाम ही। मनि = मन में। भावे = प्यारा लगता है। नामे = नाम में ही। त्रिपतावैगो = तृपत रहता हैं4।
अर्थ: हे मन! (परमात्मा का भक्त) हर वक्त हरेक सांस के साथ परमात्मा का नाम जपता रहता है, गुरु की मति ले के (भक्त का) मन (सदा) नाम में लीन रहता है। भक्त (हर वक्त परमात्मा का) नाम सुनता है, नाम ही (उसके) मन में प्यारा लगता है, नाम के द्वारा ही (भक्त माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनिक कनिक पहिरे बहु कंगना कापरु भांति बनावैगो ॥ नाम बिना सभि फीक फिकाने जनमि मरै फिरि आवैगो ॥५॥
मूलम्
कनिक कनिक पहिरे बहु कंगना कापरु भांति बनावैगो ॥ नाम बिना सभि फीक फिकाने जनमि मरै फिरि आवैगो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कनिक = सोना। कापरु = कपड़ा। भांति = कई किस्मों का। बनावैगो = बनावै, बनाता है। सभि = सारे। फीक फिकानै = बहुत ही फीके। जनमि = पैदा हो के।5।
अर्थ: (हे मेरे मन! माया-ग्रसित मनुष्य) सोने (आदि कीमती धातुओं) के अनेक कँगन (आदि गहने) पहनता है (अपने शरीर को सजाने के लिए) कई किस्म का कपड़ा बनाता है, (परमात्मा के) नाम के बिना (ये) सारे (उद्यम) बिल्कुल बे-स्वादे हैं। (ऐसा मनुष्य सदा) पैदा होने-मरने के चक्करों में पड़ा रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ पटल पटल है भारी घरु घूमनि घेरि घुलावैगो ॥ पाप बिकार मनूर सभि भारे बिखु दुतरु तरिओ न जावैगो ॥६॥
मूलम्
माइआ पटल पटल है भारी घरु घूमनि घेरि घुलावैगो ॥ पाप बिकार मनूर सभि भारे बिखु दुतरु तरिओ न जावैगो ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पटल = पर्दा। घूमनि घेरि = घुम्मनघेरी, चक्रवात। घुलावैगो = घुलता है, दुखी होता है। मनूर = जला हुआ जंग लगा लोहा। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर। दुतरु = दुष्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल होता है।6।
अर्थ: हे मेरे मन! माया (के मोह) का पर्दा बड़ा कड़ा परदा है, (इस मोह के पर्दे के कारण मनुष्य के लिए उसका) घर (समुंद्री) चक्रवात बन जाता है, (इसमें डूबने से बचने के लिए मनुष्य सारी उम्र) मुशक्कत करता है। (मोह में फंस के किए हुए) पाप विकार जले हुए लोहे जैसे भारे (बोझ) बन जाते हैं, (इनके कारण) आत्मिक मौत लाने वाले जहर-रूप (संसार-समुंदर से) पार लांघना मुश्किल हो जाता है, (माया-ग्रसित मनुष्य द्वारा उसमें से) पार नहीं लांघा जा सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ बैरागु भइआ है बोहिथु गुरु खेवटु सबदि तरावैगो ॥ राम नामु हरि भेटीऐ हरि रामै नामि समावैगो ॥७॥
मूलम्
भउ बैरागु भइआ है बोहिथु गुरु खेवटु सबदि तरावैगो ॥ राम नामु हरि भेटीऐ हरि रामै नामि समावैगो ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ = डर, अदब। बैरागु = प्यार, लगन। बोहिथु = जहाज। खेवटु = मल्लाह। सबदि = शब्द से। तरावैगो = तरावै, पार लंघा देता है। भेटीऐ = मिल सकते हैं। रामै नामि = परमात्मा के मान में।7।
अर्थ: हे मेरे मन! (हृदय में परमात्मा का) अदब और प्यार (संसार-समुंदर में से पार लांघने के लिए) जहाज़ बन जाता है (जिस मनुष्य के अंदर प्यार है डर है, उसको) गुरु मल्लाह (अपने) शब्द के द्वारा पार लंघा लेता है। हे भाई! परमात्मा का नाम (जप के) परमात्मा को मिला जा सकता है; (जिस मनुष्य के अंदर अदब और प्यार है, वह) सदा प्रभु के नाम में लीन रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआनि लाइ सवालिआ गुर गिआनै लाइ जगावैगो ॥ नानक भाणै आपणै जिउ भावै तिवै चलावैगो ॥८॥१॥
मूलम्
अगिआनि लाइ सवालिआ गुर गिआनै लाइ जगावैगो ॥ नानक भाणै आपणै जिउ भावै तिवै चलावैगो ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआनि = अज्ञानता में। लाइ = लगा के, जोड़ के। गुर गिआनै = गुरु के बताए हुए ज्ञान में। भाणै = रज़ा में। भावै = अच्छा लगता है।8।
अर्थ: पर, हे नानक! जैसे परमात्मा की रज़ा होती है वैसे ही (जीव को जीवन-राह पर) चलाता है, (कभी जीव को) अज्ञानता में फसा के (माया के मोह की नींद में) सुलाए रखता है, कभी गुरु की बख्शी हुई आत्मिक सूझ में टिका के (उस नींद में से) जगा देता है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन हरि हरि नामु तरावैगो ॥ जो जो जपै सोई गति पावै जिउ ध्रू प्रहिलादु समावैगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन हरि हरि नामु तरावैगो ॥ जो जो जपै सोई गति पावै जिउ ध्रू प्रहिलादु समावैगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! तरावैगो = तरावै, पार लंघा देता है। जो जो = जो जो मनुष्य। सोई = वह ही। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। समावैगो = समावै, लीन हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर, हरि-नाम (मनुष्य को संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। जो जो मनुष्य हरि-नाम जपता है, वह ही ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है (और, परमात्मा में लीन हो जाता है) जैसे ध्रूव और प्रहलाद (अपने-अपने समय में प्रभु में) लीन होते रहे हैं।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिपा क्रिपा क्रिपा करि हरि जीउ करि किरपा नामि लगावैगो ॥ करि किरपा सतिगुरू मिलावहु मिलि सतिगुर नामु धिआवैगो ॥१॥
मूलम्
क्रिपा क्रिपा क्रिपा करि हरि जीउ करि किरपा नामि लगावैगो ॥ करि किरपा सतिगुरू मिलावहु मिलि सतिगुर नामु धिआवैगो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! करि = कर के। नामि = नाम में। लगावैगो = जोड़ लेता है। मिलि = मिल के। धिआवैगो = स्मरण करता है।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! मेहर कर, मेहर कर, मेहर कर (और, अपने नाम में जोड़े रख। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही) मेहर करके (जीव को अपने) नाम में जोड़ता है। हे प्रभु जी! मेहर करके गुरु मिलाओ। गुरु को मिल के ही (जीव तेरा) नाम स्मरण कर सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम की हउमै मलु लागी मिलि संगति मलु लहि जावैगो ॥ जिउ लोहा तरिओ संगि कासट लगि सबदि गुरू हरि पावैगो ॥२॥
मूलम्
जनम जनम की हउमै मलु लागी मिलि संगति मलु लहि जावैगो ॥ जिउ लोहा तरिओ संगि कासट लगि सबदि गुरू हरि पावैगो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मलनु = मैल। कासट = काठ, लकड़ी, बेड़ी। लगि सबदि = शब्द में लग के।2।
अर्थ: हे भाई! (जीव को) अनेक जन्मों के अहंकार की मैल चिपकती आती है, साधु-संगत में मिल के यह मैल उतर जाती है। जैसे लोहा काठ (की बेड़ी) के साथ लग के (नदी से) पार लांघ जाता है, वैसे ही गुरु के शब्द में जुड़ के (मनुष्य) परमात्मा को मिल जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगति संत मिलहु सतसंगति मिलि संगति हरि रसु आवैगो ॥ बिनु संगति करम करै अभिमानी कढि पाणी चीकड़ु पावैगो ॥३॥
मूलम्
संगति संत मिलहु सतसंगति मिलि संगति हरि रसु आवैगो ॥ बिनु संगति करम करै अभिमानी कढि पाणी चीकड़ु पावैगो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि रसु = हरि नाम का आनंद। करम = (नाम के बिना अन्य) कर्म। कढि = निकाल के।3।
अर्थ: हे भाई! संत जनों की संगति साधु-संगत में मिल बैठा करो, साधु-संगत में मिल के परमात्मा के नाम का आनंद आने लग जाता है। पर अहंकारी मनुष्य साधु-संगत से वंचित रह के (और-और) कम्र करता है, (ऐसा मनुष्य अपने बर्तन में से) पानी निकाल के (उसमें) कीचड़ डाले जा रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जना के हरि रखवारे जन हरि रसु मीठ लगावैगो ॥ खिनु खिनु नामु देइ वडिआई सतिगुर उपदेसि समावैगो ॥४॥
मूलम्
भगत जना के हरि रखवारे जन हरि रसु मीठ लगावैगो ॥ खिनु खिनु नामु देइ वडिआई सतिगुर उपदेसि समावैगो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रखवारे = रखवाले। मीठ = मीठा, स्वादिष्ट। खिनु खिनु = हरेक छिन, हर वक्त। देइ = देता है। उपदेसि = उपदेश में।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी अपने भक्तों के स्वयं खुद रखवाले बने रहते हैं, (तभी तो) भक्त जनों को हरि-नाम का रस मीठा लगता है। प्रभु (अपने भक्तों को) हरेक छिन (जपने के लिए अपना) नाम देता है (नाम की) बड़ाई देता है। भक्त गुरु के उपदेश (शब्द) में लीन हुआ रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जना कउ सदा निवि रहीऐ जन निवहि ता फल गुन पावैगो ॥ जो निंदा दुसट करहि भगता की हरनाखस जिउ पचि जावैगो ॥५॥
मूलम्
भगत जना कउ सदा निवि रहीऐ जन निवहि ता फल गुन पावैगो ॥ जो निंदा दुसट करहि भगता की हरनाखस जिउ पचि जावैगो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को, के आगे। निवि = झुक के। रहीऐ = रहना चाहिए। जन निवहि = भक्त जन झुकते हैं। ता = तब। फल गुन = आत्मिक गुणों का फल। पावैगो = पावै, पाता है। करहि = करते हैं। जिउ = की तरह। पचि जावैगो = ख्वार होता है।5।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के भगतों के आगे सदा सिर झुकाना चाहिए, भक्त जन (खुद भी) विनम्रता में रहते हैं। (जब मनुष्य विनम्र होता है) तब (ही) आत्मिक गुणों के फल प्राप्त करता है। जो बुरे मनुष्य भक्त जनों की निंदा करते हैं (वे खुद ही ख्वार होते हैं, निंदक मनुष्य सदा) हर्णाकष्यप की तरह दुखी होता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम कमल पुतु मीन बिआसा तपु तापन पूज करावैगो ॥ जो जो भगतु होइ सो पूजहु भरमन भरमु चुकावैगो ॥६॥
मूलम्
ब्रहम कमल पुतु मीन बिआसा तपु तापन पूज करावैगो ॥ जो जो भगतु होइ सो पूजहु भरमन भरमु चुकावैगो ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहम = ब्रहमा। कमल पुतु = कमल का पुत्र (ब्रहमा कमल की नाभि में पैदा हुआ माना जाता है)। मीन = मछली (मछोदरी का पुत्र माना जाता है ऋषि ब्यास को)। पूजहु = आदर सत्कार करो। भरमन भरमु = बड़ी से बड़ी भटकना। चुकावैगौ = चुका लेता है।6।
अर्थ: हे भाई! ब्रहमा कमल-नाभि में से पैदा हुआ माना जाता है, बयास ऋषि मछली (मछोदरी) का पुत्र कहा जाता है (पर इतनी नीच जगह से जन्मे माने जा के भी, परमात्मा की भक्ति का) तप करने के कारण (ब्रहमा भी और बयास भी जगत में अपनी) पूजा करवा रहा है। हे भाई! जो जो भी कोई भक्त बनता है, उसका आदर सत्कार करो। (भक्त जनों का सत्कार) बड़ी से बड़ी भटकना दूर कर देता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जात नजाति देखि मत भरमहु सुक जनक पगीं लगि धिआवैगो ॥ जूठन जूठि पई सिर ऊपरि खिनु मनूआ तिलु न डुलावैगो ॥७॥
मूलम्
जात नजाति देखि मत भरमहु सुक जनक पगीं लगि धिआवैगो ॥ जूठन जूठि पई सिर ऊपरि खिनु मनूआ तिलु न डुलावैगो ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जातन जाति = जातियों में से उच्च जाति। देखि = देख के। मत भरमहु = भुलेखा ना खाओ। सुक = शुकदेव (जाति का ब्राहमण था)। पगीं = पैरों पर। लगि = लग के। जूठन जूठि = बुरी से बुरी जूठ।7।
अर्थ: हे भाई! ऊँची से ऊँची जाति देख के (भी) भुलेखा ना खा जाओ (कि भक्ति ऊँची जाति का हक है। देखो) शुकदेव (ब्राहमण, राजा) जनक के पैरों पर लग के नाम स्मरण कर रहा है (नाम-जपने की विधि सीख रहा है। जब वह जनक के पास भक्ति की शिक्षा लेने आया, लंगर बाँटा जा रहा था। शुकदेव को बाहर ही खड़ा कर दिया गया। लंगर खा रहे लोगों की पत्तलों की) सारी जूठ (सुकदेव के) सिर पर पड़ी (देखो, फिर भी सुकदेव ब्राहमण होते हुए भी अपने) मन को एक छिन के लिए भी डोलने नहीं दे रहा।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनक जनक बैठे सिंघासनि नउ मुनी धूरि लै लावैगो ॥ नानक क्रिपा क्रिपा करि ठाकुर मै दासनि दास करावैगो ॥८॥२॥
मूलम्
जनक जनक बैठे सिंघासनि नउ मुनी धूरि लै लावैगो ॥ नानक क्रिपा क्रिपा करि ठाकुर मै दासनि दास करावैगो ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनक जनक = कई जनक (राजा जनक की पीढ़ी के कई जनक)। बैठे = बैठते आए। सिंघासनि = सिंहासन पर, राज गद्दी पर। लै = लेकर। धूरि = चरणों की धूल। लावैगो = लगाता है। ठाकुर = हे ठाकुर! मै = मुझे, मेरे जैसों को। करावैगो = करावै, कराता है, बना लेता है।8।
अर्थ: हे भाई! अनेक जनक (अपनी-अपनी बारी में जिस) राजगद्दी पर बैठने आ रहे थे (उस पर बैठा हुआ उसी खानदान का भक्त राजा जनक राजा होते हुए भी भक्ति करने वाले) नौ ऋषियों की चरण-धूल (अपने माथे पर) लगा रहा है। हे नानक! (कह:) हे ठाकुर! (मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, (मुझे अपना कोई भक्त मिला दे, जो) मुझे तेरे दासों का दास बना ले।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ मनु गुरमति रसि गुन गावैगो ॥ जिहवा एक होइ लख कोटी लख कोटी कोटि धिआवैगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ मनु गुरमति रसि गुन गावैगो ॥ जिहवा एक होइ लख कोटी लख कोटी कोटि धिआवैगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसि = रस से, आनंद से, स्वाद से। मनु गावैगो = (जिस मनुष्य का) मन गाता है। जिहवा = (उसकी) जीभ। होइ = हा के, बन के। कोटी = करोड़ों। धिआवैगो = जपती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) मन गुरु की मति (ले के) स्वाद से (परमात्मा के) गुण गाने लग जाता है (उसके अंदर इतना प्यार जागता है कि उसकी) जीभ एक से (मानो) लाखों-करोड़ों बन के (नाम) जपने लग जाती है (नाम जपती थकती ही नहीं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस फनी जपिओ सेखनागै हरि जपतिआ अंतु न पावैगो ॥ तू अथाहु अति अगमु अगमु है मति गुरमति मनु ठहरावैगो ॥१॥
मूलम्
सहस फनी जपिओ सेखनागै हरि जपतिआ अंतु न पावैगो ॥ तू अथाहु अति अगमु अगमु है मति गुरमति मनु ठहरावैगो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहस फनी = हजार फनों से। सेखनागे = शेशनाग ने। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। ठहरावैगो = ठहरावै, ठहराता है, ठिकाने पर ले आता है, भटकने से हटाता है।1।
अर्थ: हे भाई! (उस आत्मिक आनंद के प्रेरे हुए ही) शेशनाग ने (अपने हजार) फनों से (सदा हरि-नाम) जपा है। पर, हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए कोई परमात्मा (के गुणों) का अंत नहीं पा सकता। हे प्रभु! तू अथाह (समुंदर) है, तू सदा ही अगम्य (पहुँच से परे) है। हे भाई! गुरु की मति से (नाम जपने वाले मनुष्य का) मन भटकने से हट जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन तू जपिओ तेई जन नीके हरि जपतिअहु कउ सुखु पावैगो ॥ बिदर दासी सुतु छोक छोहरा क्रिसनु अंकि गलि लावैगो ॥२॥
मूलम्
जिन तू जपिओ तेई जन नीके हरि जपतिअहु कउ सुखु पावैगो ॥ बिदर दासी सुतु छोक छोहरा क्रिसनु अंकि गलि लावैगो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तू = तुझे। नीके = अच्छे (जीवन वाले)। जपतिअहु कउ = जपने वालों को। दासी सुतु = दासी का पुत्र। छोक छोहरा = छोहरा। अंकि = छाती से। गलि = गले से।2।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों ने तुझे जपा है, वही मनुष्य अच्छे (जीवन वाले) बने हैं। हे भाई! नाम जपने वालों को हरि (आत्मिक) आनंद बख्शता है। (देखो, एक) दासी का पुत्र बिदर छोकरा सा ही था, (पर नाम जपने की इनायत से) कृष्ण उसको छाती से लगा रहा है, गले से लगा रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जल ते ओपति भई है कासट कासट अंगि तरावैगो ॥ राम जना हरि आपि सवारे अपना बिरदु रखावैगो ॥३॥
मूलम्
जल ते ओपति भई है कासट कासट अंगि तरावैगो ॥ राम जना हरि आपि सवारे अपना बिरदु रखावैगो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। ओपति = उत्पक्ति। कासट = काठ, लकड़ी। अंगि = (अपने) शरीर पर। तरावै = तैराता है। बिरदु = आदि कदीमी स्वभाव। रखावैगो = रखावै, कायम रखता है।3।
अर्थ: हे भाई! पानी से काठ की उत्पक्ति होती है (इस इज्जत को पालने के लिए पानी उस) काठ को (अपनी छाती पर रखे रखता है) तैराता रहता है (डूबने नहीं देता)। (इसी तरह) परमात्मा अपने सेवकों को खुद सुंदर जीवन वाला बनाता है, अपना आदि-कदीमी स्वभाव कायम रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम पाथर लोह लोह बड पाथर गुर संगति नाव तरावैगो ॥ जिउ सतसंगति तरिओ जुलाहो संत जना मनि भावैगो ॥४॥
मूलम्
हम पाथर लोह लोह बड पाथर गुर संगति नाव तरावैगो ॥ जिउ सतसंगति तरिओ जुलाहो संत जना मनि भावैगो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। लोह = लोह। नाव = बेड़ी। तरावैगो = तरावै, पार लंघाता है। मनि = मन में। भावैगो = प्यारा लगता है।4।
अर्थ: हे भाई! हम जीव पत्थर (की तरह पापों से भारे वज़नी) हैं, लोहे (की तरह विकारों का भार उठाए हुए) हैं, (पर, प्रभु स्वयं मेहर कर के) गुरु की संगति में रख के (संसार-समुंदर से) पार लंघाता है (जैसे) बेड़ी (पत्थरों को लोहे को नदी से पार लंघाती है) जैसे साधु-संगत की इनायत से (कबीर) जुलाहा पार लांघ गया। हे भाई! परमात्मा अपने संत-जनों के मन में (सदा) प्यारा लगता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खरे खरोए बैठत ऊठत मारगि पंथि धिआवैगो ॥ सतिगुर बचन बचन है सतिगुर पाधरु मुकति जनावैगो ॥५॥
मूलम्
खरे खरोए बैठत ऊठत मारगि पंथि धिआवैगो ॥ सतिगुर बचन बचन है सतिगुर पाधरु मुकति जनावैगो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खरे खरोए = खड़े खड़े। मारगि = रास्ते में। पंथि = रास्ते में। धिआवैगो = ध्याता है। सतिगुर बचन = गुरु के वचनों में (मगन)। पाधरु = सपाट रास्ता। पाधरु मुकति = मुक्ति का सपाट रास्ता। मुकति = विकारों से खलासी। जनावैगो = जताता है, बताता है।5।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का मन गुरु की मति ले के स्वाद से हरि-गुण-गान करने लग जाता है, वह मनुष्य) खड़े-खड़े, बैठे हए, उठते, रास्ते में (चलते हुए, हर वक्त परमात्मा का नाम) जपता रहता है। (वह मनुष्य सदा) गुरु के वचनों में (मगन रहता) है, गुरु का उपदेश (उसको विकारों से) खलासी का सीधा रास्ता बताता रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासनि सासि सासि बलु पाई है निहसासनि नामु धिआवैगो ॥ गुर परसादी हउमै बूझै तौ गुरमति नामि समावैगो ॥६॥
मूलम्
सासनि सासि सासि बलु पाई है निहसासनि नामु धिआवैगो ॥ गुर परसादी हउमै बूझै तौ गुरमति नामि समावैगो ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासनि = सांस के होते हुए। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। बलु = (आत्मिक) ताकत। निहसासनि = सांस ना लेते हुए भी, नि: श्वास हो के भी, शरीर त्याग के भी। परसादी = कृपा से। बूझै = (आग) बुझ जाती है। तौ = तब। नामि = नाम में।6।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को हरि-नाम की लगन लग जाती है), वह मनुष्य साँस के होते हुए हरेक साँस के साथ (नाम जप-जप के आत्मिक) बल हासिल करता रहता है, नि: श्वास अवस्था में भी वह परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है। (जब) गुरु की कृपा से (उसके अंदर से) (अहंकार की आग) बुझ जाती है, तब गुरु की मति की इनायत से वह हरि-नाम में लीन रहता है।6।
[[1310]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु दाता जीअ जीअन को भागहीन नही भावैगो ॥ फिरि एह वेला हाथि न आवै परतापै पछुतावैगो ॥७॥
मूलम्
सतिगुरु दाता जीअ जीअन को भागहीन नही भावैगो ॥ फिरि एह वेला हाथि न आवै परतापै पछुतावैगो ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ को = (आत्मिक) जीवन का। जीअन को = सब जीवों का। भावैगो = अच्छा लगता। हाथि = हाथ में। परतापै = दुखी होता है।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु सब जीवों के आत्मिक-जीवन का दाता है, पर बद्-किस्मत मनुष्य को गुरु प्यारा नहीं लगता। (वह गुरु की शरण पड़ के आत्मिक जीवन की दाति नहीं लेता। जिंदगी का समय गुजर जाता है) दोबारा यह समय हाथ नहीं आता, तब दुखी होता है और हाथ मलता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को भला लोड़ै भल अपना गुर आगै ढहि ढहि पावैगो ॥ नानक दइआ दइआ करि ठाकुर मै सतिगुर भसम लगावैगो ॥८॥३॥
मूलम्
जे को भला लोड़ै भल अपना गुर आगै ढहि ढहि पावैगो ॥ नानक दइआ दइआ करि ठाकुर मै सतिगुर भसम लगावैगो ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। भल = भला। लोड़ै = चाहता है। ढहि = गिर के। ठाकुर = हे ठाकुर! मै = मुझे। भसम = चरणों की धूल।8।
अर्थ: हे भाई! यदि कोई मनुष्य अपना भला चाहता है (तो उसे चाहिए कि वह) गुरु के दर पर स्वैभाव गवा के पड़ा रहे। हे नानक! (तू भी कह:) हे मेरे ठाकुर! (मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, मेरे माथे पर गुरु के चरणों की धूल लगी रहे।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ मनु हरि रंगि राता गावैगो ॥ भै भै त्रास भए है निरमल गुरमति लागि लगावैगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ मनु हरि रंगि राता गावैगो ॥ भै भै त्रास भए है निरमल गुरमति लागि लगावैगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि = प्रेम रंग में। राता = रति हुआ, रंगा हुआ। गावैगो = गावै, गाता रहता है। भै = सारे डर। त्रास = डर, सहम। निरमल = मल रहित, पवित्र। लागि = पाह (कपड़े को रंग चढ़ाने से पहले ‘पाह’ दी जाती है, नमक व सोडे के घोल में डुबोया जाता है)। लगावैगो = लगाता है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य अपने मन को परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगने के लिए मन को) गुरु की मति की ‘पाह’ (लाग) देता है, (उसका) मन प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा जाता है (इस रंग में रंगीज़ के वह मनुष्य सदा परमात्मा के गुण) गाता रहता है, उसके सारे (मलीन) डर और सहम पवित्र (अदब-सत्कार) बन जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रंगि राता सद बैरागी हरि निकटि तिना घरि आवैगो ॥ तिन की पंक मिलै तां जीवा करि किरपा आपि दिवावैगो ॥१॥
मूलम्
हरि रंगि राता सद बैरागी हरि निकटि तिना घरि आवैगो ॥ तिन की पंक मिलै तां जीवा करि किरपा आपि दिवावैगो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। बैरागी = विरक्त, माया के मोह से उपराम। निकटि = नजदीक। घरि = (हृदय-) घर में। पंक = चरण धूल। जीवा = मैं जी उठता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल कर लेता हूँ। करि = कर के।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के प्यार रंग में रंगा हुआ मनुष्य माया के मोह के प्रति उपराम रहता है, प्रभु (प्रेम-रंग में रंगे मनुष्यों के सदा) नजदीक बसता है, उनके (हृदय-) घर में आ टिकता है। हे भाई! अगर मुझे उन (भाग्यशाली मनुष्यों) की चरण-धूल मिले, तो मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता हूँ। (पर ये चरण-धूल प्रभु) स्वयं ही कृपा करके दिलवाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुबिधा लोभि लगे है प्राणी मनि कोरै रंगु न आवैगो ॥ फिरि उलटिओ जनमु होवै गुर बचनी गुरु पुरखु मिलै रंगु लावैगो ॥२॥
मूलम्
दुबिधा लोभि लगे है प्राणी मनि कोरै रंगु न आवैगो ॥ फिरि उलटिओ जनमु होवै गुर बचनी गुरु पुरखु मिलै रंगु लावैगो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुबिधा = मेर तेर। लोभि = लोभ में। मनि कोरै = कोरे मन पर। रंगि = प्रेम रंग। फिरि = दोबारा। उलटिओ = (जब जरूरत आदि से मन) पलटता है। जनमु = नया जनम। बचनी = वचन से। लावैगो = लगाता है, चढ़ाता है।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य मेर-तेर में लोभ में फसे रहते हैं, उनके कोरे मन पर (प्रभु का प्यार-) रंग नहीं चढ़ सकता। फिर जब गुरु के वचनों के द्वारा (उनका मन दुबिधा-लोभ आदि से) पलटता है, (तब उन्हें नया आत्मिक) जनम मिलता है। हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरु पुरख मिल जाता है (उसके मन को प्रभु-प्यार का) रंग चढ़ा देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इंद्री दसे दसे फुनि धावत त्रै गुणीआ खिनु न टिकावैगो ॥ सतिगुर परचै वसगति आवै मोख मुकति सो पावैगो ॥३॥
मूलम्
इंद्री दसे दसे फुनि धावत त्रै गुणीआ खिनु न टिकावैगो ॥ सतिगुर परचै वसगति आवै मोख मुकति सो पावैगो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फुनि = बार बार। धावत = भटकती हैं। त्रैगुणीआ = तीन गुणों में फसा हुआ मन। परचै = पतीजता है, प्रसन्न होता है। वसगति = वश में। मोख मुकति = विकारों से निजात। सो = वह मनुष्य।3।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य की ये दसों इंद्रिय मुड़-मुड़ के भटकती-फिरती हें। (माया के) तीन गुणों में ग्रसित मन रक्ती भर समय के लिए भी (एक जगह पर) नहीं टिकता। जब गुरु (किसी मनुष्य पर) प्रसन्न होता है तो उसका मन वश में आ जाता है, वह मनुष्य विकारों से मुक्ति हासिल कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओअंकारि एको रवि रहिआ सभु एकस माहि समावैगो ॥ एको रूपु एको बहु रंगी सभु एकतु बचनि चलावैगो ॥४॥
मूलम्
ओअंकारि एको रवि रहिआ सभु एकस माहि समावैगो ॥ एको रूपु एको बहु रंगी सभु एकतु बचनि चलावैगो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओअंकारि = आअंकार में, सर्व व्यापक प्रभु में। सभु = सारा जगत। एकस माहि = एक (प्रभु) में ही। एकसु बचनि = एक (अपने ही) हुक्म में। बचनि = हुक्म में।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा एक स्वयं ही सब जगह व्यापक है, उस एक सर्व-व्यापक में ही सारा जगत लीन हो जाता है। वह परमात्मा (कभी) एक स्वयं ही स्वयं होता है, वह खुद ही (जगत रच के) अनेक रंगों वाला बन जाता है। सारे जगत को वह प्रभु एक अपने ही हुक्म में चला रहा है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि एको एकु पछाता गुरमुखि होइ लखावैगो ॥ गुरमुखि जाइ मिलै निज महली अनहद सबदु बजावैगो ॥५॥
मूलम्
गुरमुखि एको एकु पछाता गुरमुखि होइ लखावैगो ॥ गुरमुखि जाइ मिलै निज महली अनहद सबदु बजावैगो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। लखावैगो = लखावै, लखै,? समझ लेता है। जाइ = जा जा के। निज महली = अपने (असल) ठिकाने में। अनहद = (अन+आहत। बिना बजाए बज रहा) एक रस। सबदु बजावैगो = शब्द का प्रबल प्रभाव (अपने अंदर) टिकाए रखता है।5।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (हर जगह) एक परमात्मा को ही (बसता) पहचानता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख हो के (मनुष्य) यह भेद समझ लेता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु-चरणों में जा पहुँचता है, वह (अपने अंदर) गुरु के शब्द का निरंतर प्रबल प्रभाव डाले रखता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत सभ सिसटि उपाई गुरमुखि सोभा पावैगो ॥ बिनु गुर भेटे को महलु न पावै आइ जाइ दुखु पावैगो ॥६॥
मूलम्
जीअ जंत सभ सिसटि उपाई गुरमुखि सोभा पावैगो ॥ बिनु गुर भेटे को महलु न पावै आइ जाइ दुखु पावैगो ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ सिसिट = सारी सृष्टि। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बिन गुर भेटे = गुरु को मिले बिना। को = कोई मनुष्य। महलु = प्रभु चरणों में जगह। आइ जाइ = आ के जा के, जनम मरण के चक्कर में पड़ के।6।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) सारे जीव-जंतु (प्रभु के पैदा किए हुए हैं), सारी सृष्टि (प्रभु ने ही) पैदा की है, (पर) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (लोक-परलोक में) बड़ाई हासिल करता है। हे भाई! गुरु को मिले बिना कोई भी मनुष्य प्रभु के चरणों में जगह नहीं ले सकता (बल्कि) जनम-मरन के चक्करों में पड़ कर दुख ही भोगता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेक जनम विछुड़े मेरे प्रीतम करि किरपा गुरू मिलावैगो ॥ सतिगुर मिलत महा सुखु पाइआ मति मलीन बिगसावैगो ॥७॥
मूलम्
अनेक जनम विछुड़े मेरे प्रीतम करि किरपा गुरू मिलावैगो ॥ सतिगुर मिलत महा सुखु पाइआ मति मलीन बिगसावैगो ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे प्रीतम = हे मेरे प्रीतम प्रभु! करि = कर के। सतिगुर मिलत = गुरु के मिलने पर। मलीन = विकारों से मैली हो चुकी। बिगसावैगो = खिला देता है।7।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! (जीव) अनेक ही जनम (तेरे चरणों से) विछुड़े रहते हैं। गुरु (ही) मेहर कर के (उनको तेरे साथ) मिलाता है। हे भाई! गुरु को मिलते (ही मनुष्य) बहुत आनंद प्राप्त कर लेता है। (मनुष्य की विकारों में) मैली हो चुकी मति को (गुरु) खुशी उल्लास में ले आता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि क्रिपा करहु जगजीवन मै सरधा नामि लगावैगो ॥ नानक गुरू गुरू है सतिगुरु मै सतिगुरु सरनि मिलावैगो ॥८॥४॥
मूलम्
हरि हरि क्रिपा करहु जगजीवन मै सरधा नामि लगावैगो ॥ नानक गुरू गुरू है सतिगुरु मै सतिगुरु सरनि मिलावैगो ॥८॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगजीवन = हे जगत के जीवन प्रभु! मै सरधा = मेरी श्रद्धा। नामि = (तेरे) नाम में। मै = मुझे। सरनि = प्रभु की शरण में।8।
अर्थ: हे जगत के जीवन हरि! मेहर कर, (गुरु) मेरी श्रद्धा (तेरे) नाम में बनाए रखे। हे नानक! (कह: प्रभु-चरणों में जुड़ने के लिए) गुरु ही (साधन) है, गुरु ही (विचोलिया) है। गुरु ही मुझे प्रभु की शरण में टिकाए रख सकता है।8।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ मन गुरमति चाल चलावैगो ॥ जिउ मैगलु मसतु दीजै तलि कुंडे गुर अंकसु सबदु द्रिड़ावैगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ मन गुरमति चाल चलावैगो ॥ जिउ मैगलु मसतु दीजै तलि कुंडे गुर अंकसु सबदु द्रिड़ावैगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरमति = गुरु की शिक्षा (ही)। चाल = (सही जीवन की) चाल। मैगलु = हाथी। दीजै = रखा जाता है। तलि कुंडे = कुंडे के नीचे। अंकसु = (हाथी को चलाने वाला) कुंडा, अंकुश। द्रिढ़ावैगो = दृढ़ाए, हृदय में पक्का करे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! (तुझे) गुरु की शिक्षा (ही सही जीवन की) चाल चला सकती है। हे भाई! गुरु का शब्द (जैसे, वह) अंकुश है (जिससे हाथी को नियंत्रित किया जाता है)। जैसे मस्त हाथी को अंकुश के तले रखा जाता है (वैसे ही गुरु अपना) शब्द (मनुष्य के) हृदय में दृढ़ कर देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलतौ चलै चलै दह दह दिसि गुरु राखै हरि लिव लावैगो ॥ सतिगुरु सबदु देइ रिद अंतरि मुखि अम्रितु नामु चुआवैगो ॥१॥
मूलम्
चलतौ चलै चलै दह दह दिसि गुरु राखै हरि लिव लावैगो ॥ सतिगुरु सबदु देइ रिद अंतरि मुखि अम्रितु नामु चुआवैगो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलतै चलै चलै = बार बार भटकता है। दह दिसि = दसों दिशाओं में। दिसि = दिशाएं। राखै = रक्षा करता है। लिव = लगन। लावैगो = लगाता है। देइ = देता है। रिद अंतरि = हृदय में। मुखि = मुँह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल।1।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का मन) मुड़-मुड़ के दसों-दिशाओं में भटकता फिरता है, गुरु (इसको) भटकने से बचाता है (इसके अंदर) परमात्मा के प्रति प्यार पैदा करता है। गुरु (अपना) शब्द (मनुष्य के) हृदय में टिका देता है, और उस के मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल चुआता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसीअर बिसू भरे है पूरन गुरु गरुड़ सबदु मुखि पावैगो ॥ माइआ भुइअंग तिसु नेड़ि न आवै बिखु झारि झारि लिव लावैगो ॥२॥
मूलम्
बिसीअर बिसू भरे है पूरन गुरु गरुड़ सबदु मुखि पावैगो ॥ माइआ भुइअंग तिसु नेड़ि न आवै बिखु झारि झारि लिव लावैगो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसीअर = साँप। बिसू = जहर। गरुड़ = गारुड़ मंत्र। भुइअंग = सपनी। बिखु = जहर। झारि = झाड़ के।2।
अर्थ: हे भाई! साँप जहर से लबा-लब भरे होते हैं (उनके असर से बचाने के लिए) गारुड़ मंत्र है (इसी तरह) गुरु (अपना) शब्द (-मंत्र जिस मनुष्य के) मुँह में डाल देता है, माया-रूपी सर्पनी उसके नजदीक भी नहीं फटकती। (गुरु-शब्द-मंत्र की इनायत से उसका) जहर झाड़-झाड़ के (उसके अंदर) परमात्मा की लगन पैदा कर देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुआनु लोभु नगर महि सबला गुरु खिन महि मारि कढावैगो ॥ सतु संतोखु धरमु आनि राखे हरि नगरी हरि गुन गावैगो ॥३॥
मूलम्
सुआनु लोभु नगर महि सबला गुरु खिन महि मारि कढावैगो ॥ सतु संतोखु धरमु आनि राखे हरि नगरी हरि गुन गावैगो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआन = कुक्ता। नगर = शरीर नगर। सबला = स+बला, बलवान। मारि = मार के। आनि = ला के। हरि नगरी = हरि की नगरी में, साधु-संगत में।3।
अर्थ: हे भाई! लोभ-कुक्ता (मनुष्य के) शरीर-नगर में बलवान हुआ रहता है, पर, गुरु एक छिन में (इस कुत्ते को) मार के (उसके अंदर से) निकाल देता है। (गुरु ने) सत-संतोख-धर्म (ये गुण) साधु-संगत-नगरी में ला के रखे हुए हैं (लोभ-कुत्ते से बचने के लिए मनुष्य) साधु-संगत में परमात्मा के गुण गाता रहता है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पंकज मोह निघरतु है प्रानी गुरु निघरत काढि कढावैगो ॥ त्राहि त्राहि सरनि जन आए गुरु हाथी दे निकलावैगो ॥४॥
मूलम्
पंकज मोह निघरतु है प्रानी गुरु निघरत काढि कढावैगो ॥ त्राहि त्राहि सरनि जन आए गुरु हाथी दे निकलावैगो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंकज = कीचड़। निघरतु है = धसता जाता है। काढि = निकाल के। कढावैगो = किनारे लगा देता है। त्राहि त्राहि = बचा ले बचा ले। हाथी = हाथ। दे = दे के।4।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य (माया के) मोह के दल-दल में धंसता जाता है, गुरु (इस गारे में) धंस रहे मनुष्य को (दल-दल में से) निकाल के किनारे लगा देता है। ‘बचा ले, बचा ले’-ये कहते हुए (जो) मनुष्य (गुरु की) शरण आते हैं, गुरु अपना हाथ पकड़ा के उनको (माया के मोह के कीचड़ में से) बाहर निकाल लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुपनंतरु संसारु सभु बाजी सभु बाजी खेलु खिलावैगो ॥ लाहा नामु गुरमति लै चालहु हरि दरगह पैधा जावैगो ॥५॥
मूलम्
सुपनंतरु संसारु सभु बाजी सभु बाजी खेलु खिलावैगो ॥ लाहा नामु गुरमति लै चालहु हरि दरगह पैधा जावैगो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुपनंतरु = (सुपन+अंतर) अंदरूनी सपना, मन का सपना, मन की भटकना। सभु = सारा (संसार)। खिलावैगो = खिलावै, (परमात्मा स्वयं) खेला रहा है। लाहा = लाभ, कमाई। लै = ले के। चालहु = (जगत से) चलो। पैधा = इज्जत से। जावैगो = जाता है।5।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘अंतर’ और ‘अंतरि’ में फर्क है, देखें बंद नं: 8 में ‘रिद अंतरि’)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! यह संसार (मनुष्य के) मन की भटकना (का मूल) है, (जीवों को परचाने के लिए) सारा जगत (एक) खेल (सी ही) है। यह खेल (जीवों को परमात्मा स्वयं) खेला रहा है। (इस खेल में परमात्मा का) नाम (ही) लाभ है। हे भाई! गुरु की मति से ये लाभ कमा के जाओ। (जो मनुष्य ये लाभ कमा के यहाँ से जाता है, वह) परमात्मा की हजूरी में इज्जत से जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै करै करावै हउमै पाप कोइले आनि जमावैगो ॥ आइआ कालु दुखदाई होए जो बीजे सो खवलावैगो ॥६॥
मूलम्
हउमै करै करावै हउमै पाप कोइले आनि जमावैगो ॥ आइआ कालु दुखदाई होए जो बीजे सो खवलावैगो ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करै करावै = करता कराता, हर वक्त करता। आनि = ला के। जमावैगो = जमाता है, बीजता है। कालु = मौत। जो = जो। कोइले = पाप। बीजे = बीजे होते हैं। खवलावैगो = फल भुगताता है।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सारी उम्र ‘हउ हउ’ ही करता रहता है, वह मनुष्य (अपनी मानसिक खेती में) खुद ला-ला के पाप बोता (बीजता) रहता है। जब मौत आती है; (वे बीजे हुए कमाए हुए पाप) दुखदाई बन जाते हैं (पर उस वक्त क्या हो सकता है?) जो कोयले-पाप बीजे हुए होते हैं (सारी उम्र किए होते हैं) उनका फल खाना पड़ता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतहु राम नामु धनु संचहु लै खरचु चले पति पावैगो ॥ खाइ खरचि देवहि बहुतेरा हरि देदे तोटि न आवैगो ॥७॥
मूलम्
संतहु राम नामु धनु संचहु लै खरचु चले पति पावैगो ॥ खाइ खरचि देवहि बहुतेरा हरि देदे तोटि न आवैगो ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! संचहु = संचित करो, इकट्ठा करो। लै = ले के। चले = चलते हैं। पति = इज्जत। पावैगो = पल्ले डालता है, देता है। खाइ = (स्वयं) खा के। खरचि = खर्च के, (और लोगों को) बाँट के। देवहि = (संत जन) देते हैं। देदे = देते हुए। तोटि = कमी।7।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करते रहो, (जो मनुष्य जीवन-यात्रा में उपयोग के लिए नाम-) खर्च ले के चलते हैं (नाम की राशि ले कर चलते हैं) (परमात्मा उनको) आदर-सत्कार देता है। वे मनुष्य (ये नाम-धन खुद) खुला बरत के (और लोगों को भी) बहुत बाँटते हैं, इस हरि-नाम-धन के बाँटने से इसमें कमी नहीं होती।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम धनु है रिद अंतरि धनु गुर सरणाई पावैगो ॥ नानक दइआ दइआ करि दीनी दुखु दालदु भंजि समावैगो ॥८॥५॥
मूलम्
राम नाम धनु है रिद अंतरि धनु गुर सरणाई पावैगो ॥ नानक दइआ दइआ करि दीनी दुखु दालदु भंजि समावैगो ॥८॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिद अंतरि = हृदय में। दीनी = (नाम धन की दाति) दी। करि = कर के। दालदु = गरीबी। भंजि = तोड़ के, नाश करके, समाप्त कर के।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) ये नाम-धन गुरु की शरण पड़ने से मिलता है, जिस मनुष्य के हृदय में ये नाम-धन बसता है, जिस मनुष्य को परमात्मा नाम-धन की दाति मेहर कर के देता है, वह अपना हरेक दुख दूर कर के (आत्मिक) गरीबी को खत्म कर के नाम में लीन रहता है।8।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा महला ४ ॥ मनु सतिगुर सरनि धिआवैगो ॥ लोहा हिरनु होवै संगि पारस गुनु पारस को होइ आवैगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कानड़ा महला ४ ॥ मनु सतिगुर सरनि धिआवैगो ॥ लोहा हिरनु होवै संगि पारस गुनु पारस को होइ आवैगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनु = (जिस मनुष्य का) मन। धिआवैगो = (हरि नाम का) स्मरण करता है। हिरनु = (हिरण्य) सोना। संगि पारस = पारस के साथ (छू के)। गुनु पारस को = पारस का गुण।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) मन गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है (वह प्रभु-चरणों की छोह से ऊँचे जीवन वाला हो जाता है, जैसे) पारस से (छू के) लोहा सोना बन जाता है, पारस की छूह का गुण उसमें आ जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु महा पुरखु है पारसु जो लागै सो फलु पावैगो ॥ जिउ गुर उपदेसि तरे प्रहिलादा गुरु सेवक पैज रखावैगो ॥१॥
मूलम्
सतिगुरु महा पुरखु है पारसु जो लागै सो फलु पावैगो ॥ जिउ गुर उपदेसि तरे प्रहिलादा गुरु सेवक पैज रखावैगो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा लागै = जो मनुष्य छूता है। उपदेसि = उपदेश से। तरे प्रहिलादा = प्रहलाद आदि कई तैर गए। पैज = इज्जत।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु (भी) बहुत बड़ा पुरख है, (गुरु भी) पारस है। जो मनुष्य (गुरु के चरणों में) लगता है वह (श्रेष्ठ) फल प्राप्त करता है, जैसे गुरु के उपदेश की इनायत से प्रहलाद (आदि कई) पार लांघ गए। हे भाई! गुरु अपने (सेवक) की इज्जत (अवश्य) रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बचनु बचनु है नीको गुर बचनी अम्रितु पावैगो ॥ जिउ अ्मबरीकि अमरा पद पाए सतिगुर मुख बचन धिआवैगो ॥२॥
मूलम्
सतिगुर बचनु बचनु है नीको गुर बचनी अम्रितु पावैगो ॥ जिउ अ्मबरीकि अमरा पद पाए सतिगुर मुख बचन धिआवैगो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीको = अच्छा, श्रेष्ठ, उत्तम। गुर बचनी = गुरु के वचनों से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अंबरीकि = अंबरीक ने। अमरापद = अमर पद, वह दर्जा जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती। मुख बचन = मुँह के वचन। सतिगुर मुख बचन = गुरु के मुँह के वचन। धिआवैगो = ध्यावे, उचार रहा है।2।
अर्थ: हे भाई! यकीन जान कि गुरु का वचन (बहुत) श्रेष्ठ है। गुरु के वचन की इनायत से (मनुष्य) आत्मिक जीवन देने वाला नाम हासिल कर लेता है। (जो भी मनुष्य) गुरु का उचारा हुआ शब्द हृदय में बसाता है (वह ऊँचा आत्मिक जीवन प्राप्त करता है) जैसे अंबरीक ने वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर सरनि सरनि मनि भाई सुधा सुधा करि धिआवैगो ॥ दइआल दीन भए है सतिगुर हरि मारगु पंथु दिखावैगो ॥३॥
मूलम्
सतिगुर सरनि सरनि मनि भाई सुधा सुधा करि धिआवैगो ॥ दइआल दीन भए है सतिगुर हरि मारगु पंथु दिखावैगो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। सुधा = अमृत। सुधा सुधा करि = आत्मिक जीवन दाता निश्चय कर के। दइआल दीन = दीनों पर दया करने वाले। मारगु पंथु = आत्मिक जीवन का रास्ता।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की शरण पड़े रहना (अपने) मन में पसंद आ जाता है, वह (गुरु के वचन को) आत्मिक-जीवन-दाता निश्चय करके (उसको) अपने अंदर बसाए रखता है। हे भाई! गुरु दीनों पर दया करने वाला है, गुरु परमात्मा के मिलाप का रास्ता दिखा देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर सरनि पए से थापे तिन राखन कउ प्रभु आवैगो ॥ जे को सरु संधै जन ऊपरि फिरि उलटो तिसै लगावैगो ॥४॥
मूलम्
सतिगुर सरनि पए से थापे तिन राखन कउ प्रभु आवैगो ॥ जे को सरु संधै जन ऊपरि फिरि उलटो तिसै लगावैगो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह लोग। थापे = थापना दी गई, आदर दिया गया। को = कोई। सरु = तीर। संधै = निशाना बाँधता है। उलटो = पलटा हुआ।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, उनको आदर मिलता है, परमात्मा उनकी रक्षा करने के लिए स्वयं पहुँचता है। अगर कोई मनुष्य उन सेवकों पर तीर चलाता है, वह तीर पलट के उसी को ही आ लगता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि हरि हरि हरि सरु सेवहि तिन दरगह मानु दिवावैगो ॥ गुरमति गुरमति गुरमति धिआवहि हरि गलि मिलि मेलि मिलावैगो ॥५॥
मूलम्
हरि हरि हरि हरि हरि सरु सेवहि तिन दरगह मानु दिवावैगो ॥ गुरमति गुरमति गुरमति धिआवहि हरि गलि मिलि मेलि मिलावैगो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरु = सरोवर, तालाब। हरि सरु = वह सरोवर जिसमें हरि-नाम-जल का प्रवाह चल रहा है, साधु-संगत। हरि सरु सेवहि = (जो मनुष्य) साधु-संगत की सेवा करते हैं। मानु = आदर। गुरमति = गुरु की मति ले के। गलि = गले से। मिलि = मिल के। मेलि = मेल में, अपने साथ।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा ही साधु-संगत का आसरा लिए रखते हैं, परमात्मा उनको अपनी हजूरी में आदर दिलवाता है। जो मनुष्य सदा ही गुरु की शिक्षा पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, परमात्मा उनके गले से मिल के उनको अपने साथ एक-मेक कर लेता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नादु बेदु है गुरमुखि गुर परचै नामु धिआवैगो ॥ हरि हरि रूपु हरि रूपो होवै हरि जन कउ पूज करावैगो ॥६॥
मूलम्
गुरमुखि नादु बेदु है गुरमुखि गुर परचै नामु धिआवैगो ॥ हरि हरि रूपु हरि रूपो होवै हरि जन कउ पूज करावैगो ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य, गुरु की शरण। गुर परचै = गुरु की प्रसन्नता से। रूपो = रूप ही। होवै = हो जाता है। पूज = पूजा, आदर।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के लिए गुरु की शरण ही नाद है गुरु की शरण ही वेद है। गुरु की शरण पड़े रहने वाला मनुष्य गुरु की प्रसन्नता प्राप्त करके हरि-नाम स्मरण करता है। वह मनुष्य परमात्मा का ही रूप हो जाता है, परमात्मा (भी हर जगह) उसकी इज्जत कराता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत नर सतिगुरु नही कीआ ते बेमुख हरि भरमावैगो ॥ लोभ लहरि सुआन की संगति बिखु माइआ करंगि लगावैगो ॥७॥
मूलम्
साकत नर सतिगुरु नही कीआ ते बेमुख हरि भरमावैगो ॥ लोभ लहरि सुआन की संगति बिखु माइआ करंगि लगावैगो ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत नर = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। कीआ = बनाया। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। बेमुख = गुरु से मुँह घुमा के रखने वाले मनुष्य। भरमावैगो = भटकना में डाले रखता है। सुआन = कुक्ता। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। करंगि = करंग पर, मुर्दे पर।7।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य गुरु को (अपना आसरा) नहीं बनाते, वे गुरु से मुँह घुमाए रखते हैं, प्रभु उनको भटकना में डाले रखता है, (उनके अंदर) लोभ की लहर चलती रहती है, (यह लहर) कुत्ते के स्वभाव जैसी है, (जैसे कुक्ता) मुर्दे पर जाता है (मुर्दे को खुश हो के खाता है, वैसे ही लोभ-लहर का प्रेरा हुआ मनुष्य) आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर को चिपका रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु सभ जग का तारकु लगि संगति नामु धिआवैगो ॥ नानक राखु राखु प्रभ मेरे सतसंगति राखि समावैगो ॥८॥६॥ छका १ ॥
मूलम्
राम नामु सभ जग का तारकु लगि संगति नामु धिआवैगो ॥ नानक राखु राखु प्रभ मेरे सतसंगति राखि समावैगो ॥८॥६॥ छका १ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तारकु = तैराने वाला। लगि = लग के। प्रभ मेरे = हे मेरे प्रभु! राखि = रख के। समावैगो = (अपने आप में) लीन किए रखता है।8।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सारे जगत का पार लंघाने वाला है। (जो मनुष्य) साधु-संगत में टिक के हरि-नाम स्मरण करता है (वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है)। हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे मेरे प्रभु! (मुझे भी साधु-संगत में) रखे रख। हे भाई! (परमात्मा प्राणी को) साधु-संगत में रख के (अपने में) लीन करे रखता है।8।6। छका1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़ा छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कानड़ा छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
से उधरे जिन राम धिआए ॥ जतन माइआ के कामि न आए ॥ राम धिआए सभि फल पाए धनि धंनि ते बडभागीआ ॥ सतसंगि जागे नामि लागे एक सिउ लिव लागीआ ॥ तजि मान मोह बिकार साधू लगि तरउ तिन कै पाए ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी बडभागि दरसनु पाए ॥१॥
मूलम्
से उधरे जिन राम धिआए ॥ जतन माइआ के कामि न आए ॥ राम धिआए सभि फल पाए धनि धंनि ते बडभागीआ ॥ सतसंगि जागे नामि लागे एक सिउ लिव लागीआ ॥ तजि मान मोह बिकार साधू लगि तरउ तिन कै पाए ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी बडभागि दरसनु पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। जिन = जिन्होंने। कामि = काम में। सभि = सारे। धनि धंनि = सराहनीय। ते = वह बंदे। सत संगि = साधु-संगत में। जागे = माया के मोह की नींद में से जाग उठे। नामि = नाम में, नाम स्मरण में। एक सिउ = एक परमात्मा से। लिव = लगन, प्यार। तजि = त्याग के। साधू = भले मनुष्य। तरउ = मैं तैरता हूं। लगि तिन कै पाए = उनके चरणों में लग के। बिनवंति = विनती करता है। बडभागि = बड़ी किस्मत से।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम स्मरण किया, वे (विकारों की मार से) बच गए (आखिरी वक्त भी हरि-नाम ही उनका साथी बना)। माया (इकट्ठी करने) के प्रयत्न (तो) किसी के काम नहीं आते (माया यहीं ही धरी रह जाती है)। हे भाई! जिन्होंने प्रभु का नाम स्मरण किया, उन्होंने (मनुष्य जीवन के) सारे फल प्राप्त कर लिए, वे मनुष्य भाग्यशाली होते हैं, वे मनुष्य शोभा कमा के जाते हैं। वे मनुष्य साधु-संगत में टिक के (माया के हमलों से) सचेत रहे, वह हरि नाम में जुड़े रहे, उनकी (सदा) एक परमात्मा के साथ तवज्जो जुड़ी रही।
नानक विनती करता है: हे मेरे मालिक प्रभु! (जो मनुष्य अपने अंदर से) माण मोह विकार त्याग के ऊँचे आचरण वाले बन जाते हैं, (मुझे उनकी) शरण में (रख), उनके चरणों में लग के मैं (भी संसार-समुंदर से) पार लांघ सकूँ। बड़ी किस्मत से (ऐसे साधु जनों के) दर्शन प्राप्त होते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलि साधू नित भजह नाराइण ॥ रसकि रसकि सुआमी गुण गाइण ॥ गुण गाइ जीवह हरि अमिउ पीवह जनम मरणा भागए ॥ सतसंगि पाईऐ हरि धिआईऐ बहुड़ि दूखु न लागए ॥ करि दइआ दाते पुरख बिधाते संत सेव कमाइण ॥ बिनवंति नानक जन धूरि बांछहि हरि दरसि सहजि समाइण ॥२॥
मूलम्
मिलि साधू नित भजह नाराइण ॥ रसकि रसकि सुआमी गुण गाइण ॥ गुण गाइ जीवह हरि अमिउ पीवह जनम मरणा भागए ॥ सतसंगि पाईऐ हरि धिआईऐ बहुड़ि दूखु न लागए ॥ करि दइआ दाते पुरख बिधाते संत सेव कमाइण ॥ बिनवंति नानक जन धूरि बांछहि हरि दरसि सहजि समाइण ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि साधू = संत जनों को मिल के। भजह = आओ हम भजन करें। नाराइण = परमात्मा (नार = जाल। अयन = घर। समुंदर में जिसका घर है, विष्णु)। रसकि = स्वाद से। सुआमी = मालिक प्रभु। गाइ = गा के। जीवह = हम आत्मिक जीवन प्राप्त करें। अमिउ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल, अमृत। पीवह = आओ हम पीएं। भागए = भागे, दूर हो जाता है। सत संगि = साधु-संगत में। पाईऐ = मिलता है। धिआईऐ = ध्याना चाहिए। बिधाते = हे विधाता! दाते = हे दातार! कमाइण = कमाने का अवसर। जन धूरि = संत जनों की चरण धूल। बाछहि = (जो मनुष्य) माँगते हैं। दरसि = दर्शन में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाइण = लीनता।2।
अर्थ: हे भाई! आओ, संत जनों को मिल के सदा परमात्मा का भजन किया करें, और पूरे आनंद से मालिक-प्रभु के गुण गाया करें। हे भाई! प्रभु के गुण गा-गा के आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-जल हम पीते रहें और आत्मिक जीवन हासिल करें। (हरि-नाम-जल की इनायत से) जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! (संत-जनों की संगति में) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, सत्संग में (ही) परमात्मा मिलता है, और पुनः कोई दुख छू नहीं सकता।
हे दातार! हे सर्व-व्यापक विधाता! (मेरे पर) मेहर कर, संत जनों की सेवा करने का अवसर दे। नानक विनती करता है (जो मनुष्य) संत जनों के चरणों की धूल माँगते हैं वे परमात्मा के दर्शन में आत्मिक अडोलता में लीनता हासिल कर लेते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगले जंत भजहु गोपालै ॥ जप तप संजम पूरन घालै ॥ नित भजहु सुआमी अंतरजामी सफल जनमु सबाइआ ॥ गोबिदु गाईऐ नित धिआईऐ परवाणु सोई आइआ ॥ जप ताप संजम हरि हरि निरंजन गोबिंद धनु संगि चालै ॥ बिनवंति नानक करि दइआ दीजै हरि रतनु बाधउ पालै ॥३॥
मूलम्
सगले जंत भजहु गोपालै ॥ जप तप संजम पूरन घालै ॥ नित भजहु सुआमी अंतरजामी सफल जनमु सबाइआ ॥ गोबिदु गाईऐ नित धिआईऐ परवाणु सोई आइआ ॥ जप ताप संजम हरि हरि निरंजन गोबिंद धनु संगि चालै ॥ बिनवंति नानक करि दइआ दीजै हरि रतनु बाधउ पालै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगले जंत = हे सारे प्राणियो! गोपालै = गोपाल को, सृष्टि के पालनहार को। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयत्न। घाल = मेहनत। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। सबाइआ = सारा ही। गाईऐ = गाना चाहिए, महिमा करनी चाहिए। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। आइआ = जगत में पैदा हुआ। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = कालिख, माया के मोह की कालिख) निर्लिप। संगि = (जीव के) साथ। करि = कर के। दीजै = दे। बाधउ = मैं बाँध लूं। पालै = (अपने) पल्ले।3।
अर्थ: हे सारे प्राणियो! सृष्टि के पालनहार प्रभु का भजन किया करो। (यह भजन ही) जप-तप-संजम आदि सारी मेहनत है। हे प्राणियो! सदा अंतरजामी मालिक प्रभु का भजन किया करो (भजन की इनायत से) सारा ही जीवन कामयाब हो जाता है। हे प्राणियो! गोबिंद की महिमा करनी चाहिए, सदा स्मरण करना चाहिए, (जो स्मरण-भजन करता है) वही जगत में पैदा हुआ स्वीकार समझो।
हे प्राणियो! माया-रहत हरि का नाम-जपना ही जप-तप-संजम (आदि उद्यम) है। परमात्मा का (नाम-) धन ही (मनुष्य के) साथ जाता है। नानक विनती करता है (और कहता है = हे प्रभु!) मेहर करके (मुझे अपना) नाम-रतन दे, मैं (अपने) पल्ले बाँध लूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंगलचार चोज आनंदा ॥ करि किरपा मिले परमानंदा ॥ प्रभ मिले सुआमी सुखहगामी इछ मन की पुंनीआ ॥ बजी बधाई सहजे समाई बहुड़ि दूखि न रुंनीआ ॥ ले कंठि लाए सुख दिखाए बिकार बिनसे मंदा ॥ बिनवंति नानक मिले सुआमी पुरख परमानंदा ॥४॥१॥
मूलम्
मंगलचार चोज आनंदा ॥ करि किरपा मिले परमानंदा ॥ प्रभ मिले सुआमी सुखहगामी इछ मन की पुंनीआ ॥ बजी बधाई सहजे समाई बहुड़ि दूखि न रुंनीआ ॥ ले कंठि लाए सुख दिखाए बिकार बिनसे मंदा ॥ बिनवंति नानक मिले सुआमी पुरख परमानंदा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगलचार = खुशी के गीत, खुशियां। चोज = खुशी के करिश्मे। करि = कर के। परमानंद = परम आनंद का मालिक प्रभु, वह प्रभु जो सबसे ऊँचे आनंद का मालिक है। प्रभ मिले = प्रभु जी मिल पड़े। सुखहगामी = सुख पहुँचाने वाले। इछ = इच्छा। पुंनीआ = पूरी हो जाती है। बजी बधाई = वधाई बज पड़ती है, चिक्त उल्लास में आ जाता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता। बहुड़ि = दोबारा। मंदा = बुरा, विकार।4।
अर्थ: हे भाई! सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु जी मेहर करके (जिस जीव-स्त्री को) मिल जाते हैं, (उसके हृदय में) आत्मिक आनंद खुशियाँ पैदा हो जाती हैं। हे भाई! सुख देने वाले मालिक-प्रभु जी (जिस जीव-स्त्री को) मिल जाते हैं, (उसके) मन की (हरेक) इच्छा पूरी हो जाती है, उसके चिक्त में उल्लास सा बना रहता है, वह आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है, वह फिर कभी किसी दुख के कारण घबराती नहीं।
नानक विनती करता है: हे भाई! सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु जी (जिस जीव-स्त्री को) मिल जाते हैं, जिसको गले से लगा लेते हैं, उसको (सारे) सुख दिखाते हैं, उसके अंदर से सारे विकार सारी बुराईयाँ नाश हो जाती हैं।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानड़े की वार महला ४ मूसे की वार की धुनी
मूलम्
कानड़े की वार महला ४ मूसे की वार की धुनी
दर्पण-भाव
वार का भाव
पउड़ी वार:
त्यागी क्या और गृहस्थी क्या? - सबमें परमात्मा स्वयं बस रहा है। सब जीवों में खुद ही व्यापक हो के सब काम कर रहा है साधु-संगत में बैठ के ही मनुष्य उस सर्व-व्यापक परमात्मा की महिमा कर सकता है।
परमात्मा सब जीवों में व्यापक है। कोई गरीब है कोई अमीर है, हरेक में वह खुद ही मौजूद है। गरीब क्या और अमीर क्या? सब उसके दर के भिखारी हैं।
अनेक किस्मों की और रंग-बिरंगी यह सृष्टि परमात्मा ने स्वयं बनाई है, और, इस में हर जगह वह स्वयं मौजूद है। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है उसको गुरु से मिलाता है, और, गुरु के द्वारा उसको अपना ज्ञान बख्शता है।
इस जगत-पसारे में सारे जीव परमात्मा के नाम का वणज करने आए हुए हैं। जीवों के लिए यही वणज है सबसे बढ़िया वणज। गुरु की शरण पडत्र कर जो मनुष्य यह नाम-वणज करता है वह मानव-जीवन का उद्देश्य हासिल कर लेता है।
जो मनुष्य गुरु की मति पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं, वे उस परमात्मा के साथ एक-मेक हो जाते हैं उसका रूप बन जाते हैं। भाग्यशाली हैं वे मनुष्य।
परमात्मा का नाम मनुष्य को आत्मिक जीवन देता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम स्मरण करता है, उस पर जगत की माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। यह आश्चर्यजनक खेल है कि परमात्मा सबमें व्यापक होता हुआ सदा निर्लिप भी रहता है।
जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल कर परमात्मा का नाम जपता है उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद हिल्लोरे मारता रहता है। उसकी आत्मा बलवान हो जाती है, जगत के विकार उस पर अपना जोर नहीं छाल सकते।
साधु-संगत गुरु की पाठशाला है। उस पाठशाला में वाणी के द्वारा गुरु पाठशाला में आए सिखों को परमात्मा की महिमा की विधि सिखाता है। महिमा की इनायत से ही परमात्मा के दर्शन होते हैं।
जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है। गुरु के बताए हुए राह पर चल के मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है, और उसके साथ एक-रूप हो जाता है।
गुरु के डाले हुए पद्चिन्हों पर चल के ही मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन हो सकता है। मनुष्य की सारी जिंदगी में वही वक्त भाग्यशाली होता है जब मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है। परमात्मा की सेवा-भक्ति ही जिंदगी का असल उद्देश्य है।
अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य जिंदगी की बाजी हार के जाता है। भाग्यशाली है वह जो गुरु के हुक्म में चल के नाम जपता है, उसको कोई दुख-दर्द पोह नहीं सकता।
इसमें रक्ती भर भी शक नहीं कि जो मनुष्य नाम स्मरण करता है वह परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाता है। भाग्यशाली वही मनुष्य है जो साधु-संगत में मिलता है, संगति मेंसे ही गुरु से स्मरण का उपदेश मिलता है।
सर्व-व्यापक और सर्व-पालक विधाता प्रभु ही सदा साथ निभने वाला साथी है। जो मनुष्य उसका नाम स्मरण करता है उसको निश्चय हो जाता है कि परमात्मा हरेक शरीर के अंदर मौजूद है।
गुरु की संगति में मिल के परमात्मा का नाम जपने से मनुष्य-जीवन के रारस्ते में कोई विकार अपना जोर नहीं डाल सकते, मन की सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं।
महिमा की इनायत से मनुष्य की अनेक जन्मों की विकारों की मैल उतर जाती है। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है वह संसार-समुंदर में से पार लांघ जाता है, अपने साथियों-सन्बंधियों को भी पार लंघा लेता है।
लड़ी-वार भाव:
(1 से 5) यह रंग-बिरंगी सृष्टि प्रभु ने खुद बनाई है और इसमें हर जगह वह स्वयं बस रहा है।
(6 से 10) हरेक जगह व्यापक होते हुए भी परमात्मा निर्लिप रहता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर गुरु की संगति में रह के उसका नाम जपता है, उस पर जगत की माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।
(11 से 15) उसी मनुष्य की जिंदगी कामयाब है जो गुरु की संगति में रह के परमात्मा की महिमा में भी समय खर्च करता है, उसके अनेक जन्मों के विकारों की मैल दूर हो जाती है।
मुख्य भाव:
गुरु की संगति में परमात्मा का नाम जपने से जगत के विकार अपना जोर नहीं डाल सकते। जिंदगी की वही घड़ी भाग्यशली है जो परमात्मा की याद में गुजरे।
दर्पण-टिप्पनी
वार की संरचना:
यह ‘वार’ गुरु रामदास जी की उचारी हुई है, इसमें 15 पउड़ियां और 80 शलोक हैं, ये सारे शलोक भी गुरु रामदास जी के हैं।
पाँचवीं, दसवी और पन्द्रहवीं पउड़ी में शब्द ‘नानक’ बरता हुआ है। जिसका भाव यह है कि लड़ी वार इस वार के तीन हिस्से हैं।
हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुके हैं। तुकों का आकार लगभग एक जितना ही है। पर, श्लोकों का आकार बड़ा-छोटा है। सहज ही यही अनुमान लग सकता है कि जब यह ‘वार’ लिखी गई थी, उस वक्त के शलोक नहीं हैं।
सलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए:
गुरु रामदास जी की ‘आठ’ ‘वारें’ हैं, निम्न-लिखित रागों में–सिरी राग, गउड़ी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठि, बिलावल, सारंग और कानड़ा।
सिरी राग– इस राग की ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं 15 के साथ एक ही शलोक गुरु अरजन साहिब जी का है और एक शलोक गुरु अंगद देव जी का। अगर गुरु रामदास जी खुद ही सलोक भी पौड़ियों के साथ दर्ज करते, तो पौड़ी नं: 15 के साथ भी दो ही शलोक दर्ज करते। अधूरी ना रहने देते। सारे सलोक गुरु अरजन साहिब ने स्वयं ही दर्ज किए हैं।
गउड़ी– पौड़ी नं: 32 के साथ दोनों ही शलोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं। यहाँ भी वही दलील काम करती है। सारे सलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए।
बिहागड़ा– इस ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं: 14 के साथ दोनों सलोक गुरु अरजन देव जी के हैं।। सारे ही सलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए।
सारंग– इस ‘वार’ की 36 पौड़ियां हैं। नं: 35 गुरु अरजन साहिब की है। पौड़ी नं: 26 के साथ एक शलोक गुरु अरजन साहिब जी का है, और पौड़ी नंबर 36 के साथ दोनों शलोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं। उपरोक्त दलील के अनुसार सारे ही शलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए थे।
आठ ‘वारों’ में से चार ‘वारें’ प्रत्यक्ष रूप से ऐसी मिलती हैं जहाँ शलोक गुरु रामदास जी ने दर्ज नहीं किए। बाकी की चार ‘वारें’ –वडहंस, सोरठि, बिलावल और कानड़ा – में भी काव्य-दृष्टिकोण से वही नियम मानना पड़ेगा। इन ‘वारों’ में भी शलोक गुरु अरजन साहिब जी ने ही दर्ज किए थे।
यह नियम बाँधा गुरु नानक देव जी ने स्वयं:
गुरु नानक देव जी द्वारा सबसे पहले लिखी हुई ‘वार’ मलार राग में दर्ज है। इस ‘वार’ में 28 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं: 27 गुरु अरजन साहिब की है। बाकी 27 गुरु नानक देव जी की हैं।
पौड़ी नं: 5,6,7,8,9,10,11,12 और 13 के साथ सारे ही शलोक गुरु अमरदास जी के हैं। पौड़ी नं: 14 के साथ के दोनों ही शलोक गुरु अरजन देप जी के हैं। फिर पौड़ी नं: 15,16,17 और 18 के साथ के सारे ही शलोक गुरु अमरदास जी के। बस! सीधी और साफ बात है कि ये सलोक गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए।
सारी ही ‘वारों’ में यही तरीका बरता गया।
कानड़े की वार महला ४ मूसे की वार की धुनी
गुरु रामदास जी की इस वार को मूसे की वार की सुर में गाना है।
मूसा एक शूरवीर था, इसकी मंगेतर किसी राजे के साथ बयाही गई। मूसे ने उस राजा पर हमला बोल के राजा और उस अपनी मंगेतर को पकड़ कर ले आया। पर, जब उसने स्त्री से पूछा कि तू किसके साथ रहना चाहती है, उसने उक्तर दिया कि जिसके साथ मैं ब्याही गई हूँ। मूसे ने ये सुन के राजा को और स्त्री को माफ करके बा–इज्जत उन्हें वापस भेज दिया। मूसे की इस बहादुरी और खुलदिली पर ढाढियों ने वारें लिखीं, जिसकी बतौर नमूने एक पौड़ी इस प्रकार है;
त्रै सै सठ मरातबा इक गुरीए डगै॥ चढ़िआ मूसा पातशाह सभ जग परखै॥ चंद चिटे बड हाथीआ कहु कित वरगे॥ रुत पछाती बगलिआं घट काली अगै॥ एही कीती मूसिआ किन करी न अगै॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ राम नामु निधानु हरि गुरमति रखु उर धारि ॥ दासन दासा होइ रहु हउमै बिखिआ मारि ॥ जनमु पदारथु जीतिआ कदे न आवै हारि ॥ धनु धनु वडभागी नानका जिन गुरमति हरि रसु सारि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ राम नामु निधानु हरि गुरमति रखु उर धारि ॥ दासन दासा होइ रहु हउमै बिखिआ मारि ॥ जनमु पदारथु जीतिआ कदे न आवै हारि ॥ धनु धनु वडभागी नानका जिन गुरमति हरि रसु सारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। उर = हृदय। धारि = धार के, टिका के। बिखिआ = माया। मारि = मार के। जनमु पदारथु = कीमती मानव जनम। हारि = बाजी हार के। न आवै = नहीं आता। जिन = जिन्होंने। रसु = स्वाद। सारि = संभाला है, चखा है।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम (असल) खजाना (है) सतिगुरु की शिक्षा पर चल कर (इसको अपने) हृदय में परोए रख। (इस नाम की इनायत से) अहंकार (-रूप) माया (के प्रभाव) को (अपने अंदर से) खत्म कर के (परमात्मा के) सेवकों का सेवक बना रह। (जो मनुष्य यह उद्यम करता है, वह) मानव-जनम का कीमती उद्देश्य हासिल करके (जगत से मनुष्य-जीवन की बाज़ी) हार के कभी नहीं आता।
हे नानक! धन्य है वे भाग्यशाली मनुष्य, जिन्होंने सतिगुरु की शिक्षा पर चल कर परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है।1।
[[1313]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ गोविंदु गोविदु गोविदु हरि गोविदु गुणी निधानु ॥ गोविदु गोविदु गुरमति धिआईऐ तां दरगह पाईऐ मानु ॥ गोविदु गोविदु गोविदु जपि मुखु ऊजला परधानु ॥ नानक गुरु गोविंदु हरि जितु मिलि हरि पाइआ नामु ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ गोविंदु गोविदु गोविदु हरि गोविदु गुणी निधानु ॥ गोविदु गोविदु गुरमति धिआईऐ तां दरगह पाईऐ मानु ॥ गोविदु गोविदु गोविदु जपि मुखु ऊजला परधानु ॥ नानक गुरु गोविंदु हरि जितु मिलि हरि पाइआ नामु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुणी निधानु = गुणों का खजाना। गुरमति = गुरु की शिक्षा पर चलना। मानु = आदर। जपि = जप के। ऊजला = रौशन। परधानु = जाना माना। जितु = जिस (गुरु) में। मिलि = मिल के।2।
अर्थ: (हे भाई!) सिर्फ परमात्मा ही सारे गुणों का खजाना है। जब गुरु की शिक्षा पर चल कर परमात्मा को स्मरण किया जाए तो परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है। (हे भाई!) सदा प्रभु का नाम जप-जप के (लोक-परलोक में) सही स्वीकार हुआ जाता है और प्रधानता मिलती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु परमात्मा (का रूप) है; उस (गुरु) में मिल के (गुरु के बताए हुए राह पर चल के) परमात्मा का नाम प्राप्त होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तूं आपे ही सिध साधिको तू आपे ही जुग जोगीआ ॥ तू आपे ही रस रसीअड़ा तू आपे ही भोग भोगीआ ॥ तू आपे आपि वरतदा तू आपे करहि सु होगीआ ॥ सतसंगति सतिगुर धंनु धनुो धंन धंन धनो जितु मिलि हरि बुलग बुलोगीआ ॥ सभि कहहु मुखहु हरि हरि हरे हरि हरि हरे हरि बोलत सभि पाप लहोगीआ ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तूं आपे ही सिध साधिको तू आपे ही जुग जोगीआ ॥ तू आपे ही रस रसीअड़ा तू आपे ही भोग भोगीआ ॥ तू आपे आपि वरतदा तू आपे करहि सु होगीआ ॥ सतसंगति सतिगुर धंनु धनुो धंन धंन धनो जितु मिलि हरि बुलग बुलोगीआ ॥ सभि कहहु मुखहु हरि हरि हरे हरि हरि हरे हरि बोलत सभि पाप लहोगीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = (योग साधना में) सिद्धस्थ योगी, निपुण योगी। साधिको = साधिकु, योग साधना करने वाला। जुग जोगीआ = जोग जोगीआ, जोग में जुड़ने वाला। रसीअड़ा = रस लेने वाला। भोग = मायावी पदार्थ। वरतदा = मौजूद। जितु मिलि = जिस (सत्संगति) में मिल के। बुलग = (महिमा के) बोल। सभि = सारे।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही (जोग साधना में) सिद्धस्थ योगी है, तू स्वयं ही साधना करने वाला साधक है, तू स्वयं ही जोग में जुड़ने वाला है, तू स्वयं ही (मायावी पदार्थों के) रस चखने वाला है, तू स्वयं ही (मायावी पदार्थों के) भोग-भोगने वाला है, (क्योंकि जोगियों में भी और गृहस्थियों में भी हर जगह) तू स्वयं ही स्वयं मौजूद है, जो कुछ तू करता है, वही होता है।
हे भाई! गुरु की साधु-संगत धन्य है धन्य है जिसमें मिल के परमात्मा की महिमा के बोल बोले जा सकते हैं। (हे भाई! साधु-संगत में बैठ के) सारे (अपने मुँह से सदा हर वक्त परमात्मा का नाम जपने से सारे पिछले किए) पाप दूर हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि हरि हरि नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥ हउमै ममता नासु होइ दुरमति कढै धोइ ॥ नानक अनदिनु गुण उचरै जिन कउ धुरि लिखिआ होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि हरि हरि नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥ हउमै ममता नासु होइ दुरमति कढै धोइ ॥ नानक अनदिनु गुण उचरै जिन कउ धुरि लिखिआ होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। कोइ = कोई विरला मनुष्य। ममता = अपनत्व। धोइ = धो के। अनदिनु = हर रोज। धुरि = धुर दरगाह से।
अर्थ: (हे भाई!) सदा ही परमात्मा का नाम (नाम-जपने की दाति) कोई विरला मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल कर हासिल करता है, (जो मनुष्य यह दाति प्राप्त करता है, उसके अंदर से) अहंकार और ममता का नाश हो जाता है (वह मनुष्य अपने अंदर से नाम की इनायत से) दुर्मति (की मैल) धो के निकाल देता है; हे नानक! (वह मनुष्य) हर वक्त (परमात्मा के) गुण उचारता है (पर, हे भाई! वही मनुष्य परमात्मा के गुण उचारते हैं) जिनके भाग्यों में धुर-दरगाह से (किए कर्मों के अनुसार नाम-स्मरण के संस्कारों का लेख) लिखा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि आपे आपि दइआलु हरि आपे करे सु होइ ॥ हरि आपे आपि वरतदा हरि जेवडु अवरु न कोइ ॥ जो हरि प्रभ भावै सो थीऐ जो हरि प्रभु करे सु होइ ॥ कीमति किनै न पाईआ बेअंतु प्रभू हरि सोइ ॥ नानक गुरमुखि हरि सालाहिआ तनु मनु सीतलु होइ ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि आपे आपि दइआलु हरि आपे करे सु होइ ॥ हरि आपे आपि वरतदा हरि जेवडु अवरु न कोइ ॥ जो हरि प्रभ भावै सो थीऐ जो हरि प्रभु करे सु होइ ॥ कीमति किनै न पाईआ बेअंतु प्रभू हरि सोइ ॥ नानक गुरमुखि हरि सालाहिआ तनु मनु सीतलु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआलु = (दया+आलय) दया का घर, दया का श्रोत। आपै = आप ही। वरतदा = मौजूद। जेवडु = बराबर का। अवरु = और, अन्य। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छा लगता है। थीऐ = होता है। किनै = किसी ने भी। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के। सीतलु = (विकारों) ठंढक (विकार अग्नि से उलट गुणों की शीतलता)।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही दया का श्रोत है (जगत में) वही कुछ होता है जो वह परमात्मा स्वयं ही करता है। (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (हर जगह) मौजूद है, कोई और उसके बराबर का नहीं है। जो कुछ प्रभु को अच्छा लगता है वही होता है, जो कुछ वह प्रभु करता है वही होता है। हे भाई! उस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, किसी (मनुष्य) ने उसका मूल्य नहीं पाया।
हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के परमात्मा की महिमा की है, उसका तन उसका मन (विकारों से पलट के गुणों की शीतलता से) ठंडा-ठार हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सभ जोति तेरी जगजीवना तू घटि घटि हरि रंग रंगना ॥ सभि धिआवहि तुधु मेरे प्रीतमा तू सति सति पुरख निरंजना ॥ इकु दाता सभु जगतु भिखारीआ हरि जाचहि सभ मंग मंगना ॥ सेवकु ठाकुरु सभु तूहै तूहै गुरमती हरि चंग चंगना ॥ सभि कहहु मुखहु रिखीकेसु हरे रिखीकेसु हरे जितु पावहि सभ फल फलना ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सभ जोति तेरी जगजीवना तू घटि घटि हरि रंग रंगना ॥ सभि धिआवहि तुधु मेरे प्रीतमा तू सति सति पुरख निरंजना ॥ इकु दाता सभु जगतु भिखारीआ हरि जाचहि सभ मंग मंगना ॥ सेवकु ठाकुरु सभु तूहै तूहै गुरमती हरि चंग चंगना ॥ सभि कहहु मुखहु रिखीकेसु हरे रिखीकेसु हरे जितु पावहि सभ फल फलना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि में। जोति = नूर। जगजीवना = हे जगत के जीवन दाते! घटि घटि = हरेक शरीर में। रंग रंगना = (प्रेम की) रंगत चढ़ाने वाला। सभि = सारे जीव। सति = सदा कायम रहने वाला। पुरख = हे सर्व व्यापक! निरंजन = हे निर्लिप! सभु = सारा। जाचहि = मांगते हैं। सभ मंग = हरेक माँग, हरेक जरूरत। चंग चंगना = बहुत ही अच्छा, बहुत ही प्यारा। रिखीकेसु = (रिखीक+ईश, ऋषिक+ईश) इन्द्रियों का मालिक प्रभु। जितु = जिस (हरि नाम) से।
अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभु! सारी सृष्टि में तेरा ही नूर (प्रकाश है), तू हरेक शरीर में (मौजूद है, और अपने नाम की) रंगत चढ़ाने वाला है। हे मेरे प्रीतम! सारे जीव तुझे (ही) स्मरण करते हैं। हे सर्व-व्यापक (और फिर भी) निर्लिप प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है। हे प्रभु! तू ही दातें देने वाला है, सारा जगत (तेरे दर का) भिखारी है। हे हरि! हरेक माँग (जीव तुझसे ही) माँगते हैं। तू स्वयं ही मालिक है। हे हरि! गुरु की मति पर चलने से तू बहुत प्यारा लगता है।
हे भाई! परमात्मा (सारे) इन्द्रियों का मालिक है, तुम सभी अपने मुँह से उसकी महिमा करो, उसका नाम जपो, उसके नाम की इनायत से ही (जीव) सारे फल प्राप्त करते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥ जो इछहि सो फलु पाइसी गुर सबदी लगै धिआनु ॥ किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥ गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥ हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥ जो इछहि सो फलु पाइसी गुर सबदी लगै धिआनु ॥ किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥ गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥ हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! पावहि = तू हासिल करेगा। इछहि = तू चाहेगा। पाइसी = देगा। सबदी = शब्द से। किलविख = पाप। सभि = सारे। कटीअहि = काटे जाते हैं। चूकै = समाप्त हो जाता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। कमलु = (हृदय का) कमल फूल। विगसिआ = खिल उठता है। सभु = हर जगह। पछानु = पहचान योग्य। जपि = मैं जपूँ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, परमात्मा की हजूरी में आदर हासिल करेगा। (परमात्मा से) जो तू माँगेगा वही फल (वह) देगा। (पर) गुरु के शब्द से (प्रभु में) तवज्जो जुड़ सकती है। (जिस मनुष्य की जुड़ती है, उसके) सारे पाप-विकार काटे जाते हैं; (उसके अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है, अहम् दूर हो जाता है। हे मेरे मन! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का हृदय-कमल-फूल खिल उठता है, वह हर जगह परमात्मा को बसता पहचानने-योग्य हो जाता है।
हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे प्रभु दास (नानक) पर मेहर कर, (मैं तेरा दास भी) नाम जपता रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि हरि नामु पवितु है नामु जपत दुखु जाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन मनि वसिआ आइ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै तिन दालदु दुखु लहि जाइ ॥ आपणै भाणै किनै न पाइओ जन वेखहु मनि पतीआइ ॥ जनु नानकु दासन दासु है जो सतिगुर लागे पाइ ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि हरि नामु पवितु है नामु जपत दुखु जाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन मनि वसिआ आइ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै तिन दालदु दुखु लहि जाइ ॥ आपणै भाणै किनै न पाइओ जन वेखहु मनि पतीआइ ॥ जनु नानकु दासन दासु है जो सतिगुर लागे पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवितु = (आत्मिक जीवन को) स्वच्छ (बनाने वाला)। पूरबि = पहले जनम में। मनि = मन में। आइ = आ के। कै भाणै = की रजा में। दालदु = दलिद्र, गरीबी। जन = हे जनों! पतीआइ = तसल्ली कर के। लागे पाए = चरणों में लगे हुए हैं।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन को) पवित्र बनाने योग्य है, नाम जपने से (हरेक) दुख दूर हो जाता है। (पर यह नाम) उन (मनुष्यों) के मन में आ के बसता है जिनके भाग्यों में शुरू से (पिछले किए कर्मों के अनुसार नाम जपने के संस्कारों का लेखा) लिखा होता है। (हे भाई!) जो जो मनुष्य गुरु की रजा में चलता है उनका दुख-दरिद्र दूर हो जाता है। पर, हे भाई! अपने मन में तसल्ली कर के देख लो, अपने मन की मर्जी में चल के किसी ने भी हरि-नाम प्राप्त नहीं किया।
हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों में पड़े रहते हैं, दास नानक उनके दासों का दास है।2।
[[1314]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तूं थान थनंतरि भरपूरु हहि करते सभ तेरी बणत बणावणी ॥ रंग परंग सिसटि सभ साजी बहु बहु बिधि भांति उपावणी ॥ सभ तेरी जोति जोती विचि वरतहि गुरमती तुधै लावणी ॥ जिन होहि दइआलु तिन सतिगुरु मेलहि मुखि गुरमुखि हरि समझावणी ॥ सभि बोलहु राम रमो स्री राम रमो जितु दालदु दुख भुख सभ लहि जावणी ॥३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तूं थान थनंतरि भरपूरु हहि करते सभ तेरी बणत बणावणी ॥ रंग परंग सिसटि सभ साजी बहु बहु बिधि भांति उपावणी ॥ सभ तेरी जोति जोती विचि वरतहि गुरमती तुधै लावणी ॥ जिन होहि दइआलु तिन सतिगुरु मेलहि मुखि गुरमुखि हरि समझावणी ॥ सभि बोलहु राम रमो स्री राम रमो जितु दालदु दुख भुख सभ लहि जावणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थनंतरि = थान अंतरि। थान थनंतरि = थान थान अंतरि हरेक जगह। करते = हे कर्तार! रंग परंग = कई रंगों की। सिसटि = सृष्टि। साजी = पैदा की। बहु बिधि = कई किस्म की। जोति = रौशनी। वरतहि = तू मौजूद है। तुधै = तू ही। मुखि गुरमुखि = गुरु के मुँह से। सभि = सारे।
अर्थ: हे कर्तार! तू हरेक जगह में व्यापक है, संसार की सारी रचना तेरा ही रची हुई है। सारी सृष्टि तूने कई रंगों में बनाई है, कई किस्मों की पैदा की है।
हे कर्तार! सारी सृष्टि में तेरा ही नूर है, और नूर में तू खुद ही मौजूद है। तू स्वयं ही (जगत के जीवों को) गुरु की शिक्षा में जोड़ता है। जिस पर तू दयावान होता है, उनको तू गुरु मिलाता है, और, गुरु के मुँह से तू उन्हें अपना ज्ञान देता है।
हे भाई! तुम सब सुंदर राम का नाम जपो, सुंदर राम का नाम जपो, जिसकी इनायत से सारे दुख-भूख-दरिद्रता दूर हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि अम्रितु नाम रसु हरि अम्रितु हरि उर धारि ॥ विचि संगति हरि प्रभु वरतदा बुझहु सबद वीचारि ॥ मनि हरि हरि नामु धिआइआ बिखु हउमै कढी मारि ॥ जिन हरि हरि नामु न चेतिओ तिन जूऐ जनमु सभु हारि ॥ गुरि तुठै हरि चेताइआ हरि नामा हरि उर धारि ॥ जन नानक ते मुख उजले तितु सचै दरबारि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि अम्रितु नाम रसु हरि अम्रितु हरि उर धारि ॥ विचि संगति हरि प्रभु वरतदा बुझहु सबद वीचारि ॥ मनि हरि हरि नामु धिआइआ बिखु हउमै कढी मारि ॥ जिन हरि हरि नामु न चेतिओ तिन जूऐ जनमु सभु हारि ॥ गुरि तुठै हरि चेताइआ हरि नामा हरि उर धारि ॥ जन नानक ते मुख उजले तितु सचै दरबारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। रसु = स्वाद। उर = हृदय। धारि = टिकाए रख। वीचारि = विचार से। मनि = मन में। बिखु हउमै = (आत्मिक जीवन को खत्म करने वाला) अहंकार जहर। मारि = मार के। जूऐ = जूए (की खेल) में। हारि = हारा, हरा दिया, व्यर्थ गवा लिया। गुरि तुठै = च्रसन्न हुए गुरु ने। ते = वह लोग। मुख उजले = उज्जवल मुख वाले। तितु दरबारि = उस दरबार में। सचै दरबारि = सदा कायम रहने वाले दरबार में।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है; इस नाम-जल को इसके स्वाद को अपने हृदय में संभाले रख। (पर) गुरु के शब्द के विचार से (ये बात) समझ लो (कि) परमात्मा साधु-संगत में बसता है। (जिस मनुष्य ने अपने) मन में परमात्मा का नाम स्मरणा शुरू कर दिया, (उसने अपने अंदर से आत्मिक मौत लाने वाले) अहंकार-जहर को मार के निकाल दिया। (हे भाई!) जिस लोगों ने परमात्मा का नाम याद नहीं किया, उन्होंने (अपना) सारा (मनुष्य-) जीवन (मानो) जूए (की खेल) में हार दिया।
हे दास नानक! उस सदा कायम रहने वाले दरबार में वे मनुष्य सुर्ख-रू होते हैंजिन्होंने परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाया, जिस पर गुरु ने मेहर करके हरि-नाम का स्मरण सिखाया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि कीरति उतमु नामु है विचि कलिजुग करणी सारु ॥ मति गुरमति कीरति पाईऐ हरि नामा हरि उरि हारु ॥ वडभागी जिन हरि धिआइआ तिन सउपिआ हरि भंडारु ॥ बिनु नावै जि करम कमावणे नित हउमै होइ खुआरु ॥ जलि हसती मलि नावालीऐ सिरि भी फिरि पावै छारु ॥ हरि मेलहु सतिगुरु दइआ करि मनि वसै एकंकारु ॥ जिन गुरमुखि सुणि हरि मंनिआ जन नानक तिन जैकारु ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि कीरति उतमु नामु है विचि कलिजुग करणी सारु ॥ मति गुरमति कीरति पाईऐ हरि नामा हरि उरि हारु ॥ वडभागी जिन हरि धिआइआ तिन सउपिआ हरि भंडारु ॥ बिनु नावै जि करम कमावणे नित हउमै होइ खुआरु ॥ जलि हसती मलि नावालीऐ सिरि भी फिरि पावै छारु ॥ हरि मेलहु सतिगुरु दइआ करि मनि वसै एकंकारु ॥ जिन गुरमुखि सुणि हरि मंनिआ जन नानक तिन जैकारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = कीर्ति, महिमा। करणी = (करणीय) करने योग्य काम। सारु = श्रेष्ठ। विचि कलिजुग = विवाद वाला संसार में, विकारों ग्रसित जगत में। पाईऐ = मिलती है। उरि = हृदय में। भंडारु = खजाना। जि = जो। करम = (निहित) धार्मिक कर्म। होइ = होता है। जलि = पानी में। मलि = मल मल के। सिरि = सिर पर। छारु = राख। करि = कर के। मनि = मन में। मंनिआ = गहरी सांझ डाल ली। जैकारु = सदा शोभा।
अर्थ: हे भाई! इस विकार-ग्रसित जगत में परमात्मा का नाम जपना, परमात्मा की महिमा करनी ही सबसे श्रेष्ठ करने-योग्य काम है। पर गुरु की मति पर चलने से ही यह महिमा मिलती है यह हरि-नाम हृदय में (परोए रखने के लिए) हार मिलता है। हे भाई! बड़े भाग्यशाली हैं वे मनुष्य जिन्होंने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, (गुरु ने) उनको हरि-नाम खजाना सौंप दिया है। हे भाई! परमात्मा का नाम छोड़ के जो और-और (निहित धार्मिक) कर्म किए जाते हैं (उनके कारण पैदा हुए) अहंकार में (फंस के मनुष्य) सदा दुखी होता रहता है। (देखो) हाथी को पानी में मल-मल के नहलाया जाता है, फिर भी वह (अपने) सिर पर राख (ही) डाल लेता है।
हे प्रभु! मेहर करके (जीवों को) गुरु से मिला। (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, उसके) मन में परमात्मा आ बसता है। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम सुन कर (उसके साथ) गहरी सांझ डाली है उनको हर वक्त (लोक-परलोक में) शोभा मिलती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ राम नामु वखरु है ऊतमु हरि नाइकु पुरखु हमारा ॥ हरि खेलु कीआ हरि आपे वरतै सभु जगतु कीआ वणजारा ॥ सभ जोति तेरी जोती विचि करते सभु सचु तेरा पासारा ॥ सभि धिआवहि तुधु सफल से गावहि गुरमती हरि निरंकारा ॥ सभि चवहु मुखहु जगंनाथु जगंनाथु जगजीवनो जितु भवजल पारि उतारा ॥४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ राम नामु वखरु है ऊतमु हरि नाइकु पुरखु हमारा ॥ हरि खेलु कीआ हरि आपे वरतै सभु जगतु कीआ वणजारा ॥ सभ जोति तेरी जोती विचि करते सभु सचु तेरा पासारा ॥ सभि धिआवहि तुधु सफल से गावहि गुरमती हरि निरंकारा ॥ सभि चवहु मुखहु जगंनाथु जगंनाथु जगजीवनो जितु भवजल पारि उतारा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखरु = सौदा, खरीदने की चीज़। नाइकु = सरदार। वरतै = मौजूद है। करते = हे कर्तार! सचु = अस्तित्व वाला। पासारा = जगत खिलारा। सभि = सारे जीव। सफल = कामयाब। चवहु = बोलो। मुखहु = मुँह से। जगजीवनो = जगत का जीवन। जितु = जिससे। भवजल = संसार समुंदर।
अर्थ: हे भाई! (जगत का यह) खेल परमात्मा ने खुद बनाया है, (और इसमें) परमात्मा स्वयं ही (हर जगह) मौजूद है। (यह जगत-खेल में) परमात्मा का नाम (खरीदने के लिए सबसे) बढ़िया सौदा है, सारा जगत (हरेक जीव इस सौदे का) व्यापार करने वाला है। परमात्मा स्वयं हम बणजारों का सरदार है।
हे कर्तार! यह सारा तेरा (बनाया हुआ जगत-) पसारा सचमुच अस्तित्व वाला है, इसमें हर जगह तेरा ही नूर है, और उस नूर में तू स्वयं ही है। हे निरंकार! सारे जीव तेरा ही ध्यान धरते हैं। जो गुरु की शिक्षा पर चल के (तेरी महिमा के गीत) गाते हैं वे मानव-जीवन का उद्देश्य हासिल कर लेते हैं।
हे भाई! वह परमात्मा ही जगत का खसम है जगत का नाथ है जगत की जिंदगी (का सहारा) है सारे (अपने) मुँह से (उसका नाम) बोलो। उस (का नाम उचारने) से संसार-समुंदर से पार लांघा जाया जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हमरी जिहबा एक प्रभ हरि के गुण अगम अथाह ॥ हम किउ करि जपह इआणिआ हरि तुम वड अगम अगाह ॥ हरि देहु प्रभू मति ऊतमा गुर सतिगुर कै पगि पाह ॥ सतसंगति हरि मेलि प्रभ हम पापी संगि तराह ॥ जन नानक कउ हरि बखसि लैहु हरि तुठै मेलि मिलाह ॥ हरि किरपा करि सुणि बेनती हम पापी किरम तराह ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हमरी जिहबा एक प्रभ हरि के गुण अगम अथाह ॥ हम किउ करि जपह इआणिआ हरि तुम वड अगम अगाह ॥ हरि देहु प्रभू मति ऊतमा गुर सतिगुर कै पगि पाह ॥ सतसंगति हरि मेलि प्रभ हम पापी संगि तराह ॥ जन नानक कउ हरि बखसि लैहु हरि तुठै मेलि मिलाह ॥ हरि किरपा करि सुणि बेनती हम पापी किरम तराह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! हरि के गुण = हे हरि! तेरे गुण। अथाह = (ऐसा समुंदर) जिसकी थाह ना पड़ सके। अगम = (इतने बेअंत कि उनके अंत तक) पहुँचा ना जा सके। किउ करि = कैसे? जपह = हम जपें। इआणिआ = अंजाने। अगाह = अगाध, (वह समुंदर) जिसकी गहराई को ना मापा जा सके। कै पगि = के कदम पर। पाह = हम पड़ जाएं। हम तराह = हम तैर सकें। कउ = को। तुठै = अगर तू प्रसन्न हो। मेलि मिलाह = (तेरे) मिलाप में हम मिल सकते हैं। किरम = कीड़े।
अर्थ: हे प्रभु! हे हरि! हम जीवों की (सिर्फ) एक जीभ है, पर तेरे गुण बेअंत हैं (एक ऐसा समुंदर है) जिसकी थाह नहीं पाई जा सकती। हे प्रभु! तू बहुत अगम्य (पहुँच से परे) है और गहरा है हम अंजान जीव तुझे कैसे जप सकते हैं? हे हरि! हमें कोई श्रेष्ठ बुद्धि बख्श जिसके सदका हम गुरु के चरणों पर गिर जाएं। हे प्रभु! हे हरि! हमें साधु-संगत मिला कि (सत्संगियों की) संगति में हम पापी (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएं। हे हरि! (अपने) दास नानक पर मेहर कर, अगर तू मेहर करे तो ही हम तेरे चरणों में मिल सकते हैं। हे हरि! कृपा कर, (हमारी) विनती सुन, हम पापी हम कीड़े (इस संसार-समुंदर से) पार लांघ सकें।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि करहु क्रिपा जगजीवना गुरु सतिगुरु मेलि दइआलु ॥ गुर सेवा हरि हम भाईआ हरि होआ हरि किरपालु ॥ सभ आसा मनसा विसरी मनि चूका आल जंजालु ॥ गुरि तुठै नामु द्रिड़ाइआ हम कीए सबदि निहालु ॥ जन नानकि अतुटु धनु पाइआ हरि नामा हरि धनु मालु ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि करहु क्रिपा जगजीवना गुरु सतिगुरु मेलि दइआलु ॥ गुर सेवा हरि हम भाईआ हरि होआ हरि किरपालु ॥ सभ आसा मनसा विसरी मनि चूका आल जंजालु ॥ गुरि तुठै नामु द्रिड़ाइआ हम कीए सबदि निहालु ॥ जन नानकि अतुटु धनु पाइआ हरि नामा हरि धनु मालु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगजीवना = हे जगत के जीवन! हे जगत की जिंदगी के आसरे! दइआलु = दया का घर। हरि = हे हरि! भाईआ = अच्छी लगी। किरपालु = दयावान। मनसा = मन का फुरना। मनि = मन में (टिका हुआ)। आल = (आलय) घर। आल जंजाल = घर के बूँधन, घर का मोह। गुरि = गुरु ने। गुरि तुठै = प्रसन्न हुए गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = (हृदय में) दृढ़ कर दिया। हम = हमें। सबदि = शब्द से। नानकि = नानक ने। अतुटु = कभी ना खत्म होने वाला। पाइआ = ढूँढ लिया, पा लिया।
अर्थ: हे जगत के जिंदगी के आसरे हरि! मेहर कर (हमें) दया का श्रोत गुरु मिला। हे भाई! जब हरि स्वयं (हम पर) दयावान हुआ, तब गुरु की (बताई हुई) सेवा हमें अच्छी लगने लगी, सारी आशा और तृष्णा बिसर गई, मन में (टिका हुआ) घर का मोह (भी) खत्म हो गया। हे भाई! प्रसन्न हुए गुरु ने परमात्मा का नाम (हमारे मन में) पक्का कर दिया, अपने शब्द से हमें (उसने) निहाल कर दिया। (गुरु की कृपा से) दास नानक ने परमात्मा का नाम-धन हासिल कर लिया है जो कभी खत्म होने वाला नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि तुम्ह वड वडे वडे वड ऊचे सभ ऊपरि वडे वडौना ॥ जो धिआवहि हरि अपर्मपरु हरि हरि हरि धिआइ हरे ते होना ॥ जो गावहि सुणहि तेरा जसु सुआमी तिन काटे पाप कटोना ॥ तुम जैसे हरि पुरख जाने मति गुरमति मुखि वड वड भाग वडोना ॥ सभि धिआवहु आदि सते जुगादि सते परतखि सते सदा सदा सते जनु नानकु दासु दसोना ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि तुम्ह वड वडे वडे वड ऊचे सभ ऊपरि वडे वडौना ॥ जो धिआवहि हरि अपर्मपरु हरि हरि हरि धिआइ हरे ते होना ॥ जो गावहि सुणहि तेरा जसु सुआमी तिन काटे पाप कटोना ॥ तुम जैसे हरि पुरख जाने मति गुरमति मुखि वड वड भाग वडोना ॥ सभि धिआवहु आदि सते जुगादि सते परतखि सते सदा सदा सते जनु नानकु दासु दसोना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपरंपरु = परे से परे, बेअंत। ते = वह लोग। हरे होना = हरि का रूप हो जाते हैं। सुआमी = हे स्वामी! कटोना = करोड़ों। तुम जैसे = तेरे जैसे। हरि = हे हरि! पुरख = हे सर्व व्यापक! जाने = जाने जाते हैं। मुखि = मुखी, श्रेष्ठ। सभि = सारे। सते = सति, सदा कायम रहने वाला, अस्तित्व वाला (अस् = to exist)। दास दसोना = दासों का दास।
अर्थ: हे हरि! तू बड़ों से (भी) बड़ा है बहुत ऊँचा है सबसे ऊपर बड़ा है। (हे भाई!) हरि परमात्मा बेअंत है, जो मनुष्य उसका ध्यान धरते हैं, वे लोग उस हरि को सदा स्मरण करके उसका रूप ही हो जाते हैं।
हे स्वामी! जो मनुष्य तेरी महिमा का गीत गाते हैं सुनते हैं, वे (अपने) करोड़ों पाप नाश कर लेते हैं। हे सर्व-व्यापक हरि! वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली गिने जाते हैं (सब मनुष्यों में) मुखी माने जाते हैं, सतिगुरु की मति पर चल के वे मनुष्य तेरे जैसे ही जाने जाते हैं।
हे भाई! जो परमात्मा आदि से जुगादि (जुगों के आदि) से अस्तित्व वाला है; जो (अब भी) प्रत्यक्ष कायम है और सदा ही कायम रहने वाला है, तुम सारे उसका स्मरण करते रहो। दास नानक उस (हरि के) दासों का दास है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हमरे हरि जगजीवना हरि जपिओ हरि गुर मंत ॥ हरि अगमु अगोचरु अगमु हरि हरि मिलिआ आइ अचिंत ॥ हरि आपे घटि घटि वरतदा हरि आपे आपि बिअंत ॥ हरि आपे सभ रस भोगदा हरि आपे कवला कंत ॥ हरि आपे भिखिआ पाइदा सभ सिसटि उपाई जीअ जंत ॥ हरि देवहु दानु दइआल प्रभ हरि मांगहि हरि जन संत ॥ जन नानक के प्रभ आइ मिलु हम गावह हरि गुण छंत ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हमरे हरि जगजीवना हरि जपिओ हरि गुर मंत ॥ हरि अगमु अगोचरु अगमु हरि हरि मिलिआ आइ अचिंत ॥ हरि आपे घटि घटि वरतदा हरि आपे आपि बिअंत ॥ हरि आपे सभ रस भोगदा हरि आपे कवला कंत ॥ हरि आपे भिखिआ पाइदा सभ सिसटि उपाई जीअ जंत ॥ हरि देवहु दानु दइआल प्रभ हरि मांगहि हरि जन संत ॥ जन नानक के प्रभ आइ मिलु हम गावह हरि गुण छंत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जग जीवना = जगत की जिंदगी का आसरा। मंत = उपदेश। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। आइ = आ के। अचिंत = अचानक, अपने आप। आपै = आप ही। घटि घटि = हरेक शरीर में। कवलाकंत = लक्ष्मी का पति। भिखिआ = खैर, दान। सिसटि = सृष्टि। मांगहि = माँगते हैं। गावह = हम गाते हैं। छंत = गीत।
अर्थ: हे भाई! (जो) हरि (सारे) जगत की जिंदगी का आसरा (है वह) हमारे हृदय में भी बसता है; हमने गुरु के उपदेश पर चल के उसे जपा है। वह है तो अगम्य (पहुँच से परे) और ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे (पर, गुरु की शिक्षा के अनुसार नाम-जपने की इनायत से) वह हरि हमें अपने आप आ मिला है। हे भाई! वह हरि स्वयं ही हरेक शरीर में बसता है, (हर जगह) वह स्वयं ही स्वयं है और उसकी हस्ती का अंत नहीं पाया जा सकता। वह हरि स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के) सारे रस भोग रहा है, वह स्वयं ही माया का मालिक है। हे भाई! यह सारी दुनिया उसने स्वयं पैदा की है, ये सारे जीव-जंतु उसने खुद ही पैदा किए हुए हैं, और, (सब जीवों को रिजक का) ख़ैर भी वह खुद ही डालता है।
हे दया के श्रोत हरि-प्रभु (हमें भी वह नाम-) दान दे, जो (तेरे) संत जन (सदा तुझसे) माँगते (रहते) हैं। हे दास नानक के (मालिक) प्रभु! (हमें) आ के मिल, (मेहर कर) हम तेरी महिमा के गीत गाते रहें।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि प्रभु सजणु नामु हरि मै मनि तनि नामु सरीरि ॥ सभि आसा गुरमुखि पूरीआ जन नानक सुणि हरि धीर ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि प्रभु सजणु नामु हरि मै मनि तनि नामु सरीरि ॥ सभि आसा गुरमुखि पूरीआ जन नानक सुणि हरि धीर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै मनि तनि सरीरि = मेरे मन में तन में शरीर में। सभि आसा = सारी आशाएं। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चल के। सुणि = सुन के। धीर = धीरज, शांति।
अर्थ: हे भाई! हरि प्रभु (ही असल) मित्र है, हरि का नाम ही (साथ निभने वाला) मित्र है; मेरे मन में मेरे तन में मेरे दिल में (हरि का) नाम बस रहा है। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के (हरि-नाम स्मरण करते हुए) सारी आशाऐ पूरी हो जाती है, हरि का नाम सुन के (मन में) शांति पैदा होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि ऊतमु हरिआ नामु है हरि पुरखु निरंजनु मउला ॥ जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन सेवे चरन नित कउला ॥ नित सारि समाल्हे सभ जीअ जंत हरि वसै निकटि सभ जउला ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाइसी जिसु सतिगुरु पुरखु प्रभु सउला ॥ सभि गावहु गुण गोविंद हरे गोविंद हरे गोविंद हरे गुण गावत गुणी समउला ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि ऊतमु हरिआ नामु है हरि पुरखु निरंजनु मउला ॥ जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन सेवे चरन नित कउला ॥ नित सारि समाल्हे सभ जीअ जंत हरि वसै निकटि सभ जउला ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाइसी जिसु सतिगुरु पुरखु प्रभु सउला ॥ सभि गावहु गुण गोविंद हरे गोविंद हरे गोविंद हरे गुण गावत गुणी समउला ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरिआ = हरा करने वाला, जीवन रस देने वाला, आत्मिक जीवन देने वाला। पुरखु = सर्व व्यापक। निरंजनु = निर्लिप। मउला = मिला हुआ। कउला = लक्ष्मी। सारि समाले = अच्छी तरह संभाल करता है। निकटि = नजदीक। जउला = अलग। सउला = प्रसन्न। सभि = सारे। समउला = समाया जाता है, लीन हुआ जाता है। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु। निकटि = नजदीक। जउला = अलग। सउला = प्रसन्न। सभि = सारे। समउला = समा जाया जाता है। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबमें व्यापकि है सबमें मिला हुआ है और निर्लिप (भी) है, उसका नाम श्रेष्ठ है (ऊँचा जीवन बनाने वाला है) और आत्मिक जीवन देने वाला है। जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा (का नाम) जपते हैं, लक्ष्मी (भी) हर वक्त उसके चरणों की सेवा करती है (उन पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)।
हे भाई! परमात्मा सब जीवों की अच्छी तरह संभाल करता है, वह (सब जीवों के) नजदीक बसता है, (फिर सबसे) अलग भी है। पर ये बात वह मनुष्य समझता है जिसको परमात्मा स्वयं समझ देता है जिस पर गुरु मेहर करता है जिस पर सर्व-व्यापक प्रभु किरपा करता है।
हे भाई! तुम सारे, धरती की सार लेने वाले उस हरि के गुण सदा गाते रहो। गुण गाते-गाते उस गुणों के मालिक प्रभु में लीन हुआ जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ सुतिआ हरि प्रभु चेति मनि हरि सहजि समाधि समाइ ॥ जन नानक हरि हरि चाउ मनि गुरु तुठा मेले माइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ सुतिआ हरि प्रभु चेति मनि हरि सहजि समाधि समाइ ॥ जन नानक हरि हरि चाउ मनि गुरु तुठा मेले माइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेति = याद करता रह, स्मरण करता रह। मनि = मन में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाधि समाइ = समाधी में समाया रह, सदा टिका रह। चाउ = तमन्ना। तुठा = प्रसन्न हुआ। माइ = हे माँ!
अर्थ: (हे भाई! जागते हुए मेहनत-कमाई करते हुए नाम-जपने की ऐसी आदत बना कि) सोए हुए भी (अपने) मन में परमात्मा को याद कर (याद करता रहे), (इस तरह) सदा आत्मिक अडोलता में (आत्मिक अडोलता की) समाधि में टिका रहे। हे माँ! दास नानक के मन में भी परमात्मा को मिलने की तमन्ना है, गुरु (ही) प्रसन्न हो के मेल कराता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि इकसु सेती पिरहड़ी हरि इको मेरै चिति ॥ जन नानक इकु अधारु हरि प्रभ इकस ते गति पति ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि इकसु सेती पिरहड़ी हरि इको मेरै चिति ॥ जन नानक इकु अधारु हरि प्रभ इकस ते गति पति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकसु सेती = एक के साथ ही। पिरहड़ी = सुंदर प्यार। मेरै चिति = मेरे चिक्त में। आधारु = आसरा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) सिर्फ एक परमात्मा के साथ ही मेरा सुंदर प्यार है, एक परमात्मा ही (सदा) मेरे चिक्त में बसता है। एक प्रभु ही (मेरी जिंदगी का) आसरा है, एक प्रभु से ही ऊँची आत्मिक अवस्था मिलती है (और लोक-परलोक की) इज्जत हासिल होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ पंचे सबद वजे मति गुरमति वडभागी अनहदु वजिआ ॥ आनद मूलु रामु सभु देखिआ गुर सबदी गोविदु गजिआ ॥ आदि जुगादि वेसु हरि एको मति गुरमति हरि प्रभु भजिआ ॥ हरि देवहु दानु दइआल प्रभ जन राखहु हरि प्रभ लजिआ ॥ सभि धंनु कहहु गुरु सतिगुरू गुरु सतिगुरू जितु मिलि हरि पड़दा कजिआ ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ पंचे सबद वजे मति गुरमति वडभागी अनहदु वजिआ ॥ आनद मूलु रामु सभु देखिआ गुर सबदी गोविदु गजिआ ॥ आदि जुगादि वेसु हरि एको मति गुरमति हरि प्रभु भजिआ ॥ हरि देवहु दानु दइआल प्रभ जन राखहु हरि प्रभ लजिआ ॥ सभि धंनु कहहु गुरु सतिगुरू गुरु सतिगुरू जितु मिलि हरि पड़दा कजिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंचे सबद = पाँचों ही किस्मों के साज़ जो मिल के एक आश्चर्य भरा सुरीला राग पैदा करते हैं। गुरमति = गुरु का उपदेश। अनहद = वह राग जो बिना साज़ बजाए होता रहे, एक रस राग। आनद मूलु = आनंद का श्रोत। सभु = हर जगह। सबदी = शब्द से। गजिआ = गरज के प्रकट हो गया, जोरसे प्रकट हो गया (जैसे बादल गरजने पर और आवाज़ें सुनाई नहीं देती)। वेसु = स्वरूप, हस्ती। जुगादि = जुगों के आदि से। भजिआ = स्मरण किया। हरि = हे हरि! जन लजिआ = (अपने) दास की इज्जत। सभि = सारे। जितु = जिससे। मिलि हरि = परमात्मा को मिल के। पड़दा कजिआ = इज्जत बची रहती है।
अर्थ: हे भाई! जिस बड़े भाग्यशाली मनुष्य की मति में गुरु का उपदेश बस जाता है उसके अंदर (आत्मिक आनंद का) एक-रस बाजा बज जाता है (उसके अंदर, मानो) पाँचों ही किस्मों के साज़ बज उठते हैं। गुरु के शब्द की इनायत से (उसके अंदर) परमात्मा गरज उठता है और वह हर जगह आनंद के श्रोत परमात्मा को (बसता) देखता है। (हे भाई! जो मनुष्य) गुरु की मति ले के परमात्मा का भजन करता है (उसको यह निश्चय आ जाता है कि सृष्टि के) आदि से जुगादि से परमात्मा की एक ही अटल हस्ती है।
हे हरि! हे दया के श्रोत प्रभु! तू अपने दासों को (अपने नाम का) दान देता है, (और, इस तरह विकारों के मुकाबले में उनकी) इज्जत रखता है।
हे भाई! तुम सभी गुरु को धन्य-धन्य कहो, गुरु को धन्य-धन्य कहो जिससे परमात्मा को मिल के (विकारों के मुकाबले में) इज्जत बच जाती है।7।
[[1316]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ४ ॥ भगति सरोवरु उछलै सुभर भरे वहंनि ॥ जिना सतिगुरु मंनिआ जन नानक वड भाग लहंनि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ४ ॥ भगति सरोवरु उछलै सुभर भरे वहंनि ॥ जिना सतिगुरु मंनिआ जन नानक वड भाग लहंनि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उछलै = उछाला आ रहा है। सुभर भरे = नाको नाक भरे हुए। वहंनि = बह रहे हैं। मंनिआ = श्रद्धा लाए। लहंनि = पा रहे हैं, ढूँढ रहे हैं।
अर्थ: हे भाई! गुरु (एक ऐसा) सरोवर है जिसमें भक्ति उछाले मार रही है, (गुरु एक ऐसी नदी है जिसमें परमात्मा की महिमा के) लबा-लब भरे हुए बहाव चल रहे हैं। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य गुरु में श्रद्धा बनाते हैं वे बहुत भाग्यों से (परमात्मा के गुणों के मोती) ढूँढ लेते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि हरि नाम असंख हरि हरि के गुन कथनु न जाहि ॥ हरि हरि अगमु अगाधि हरि जन कितु बिधि मिलहि मिलाहि ॥ हरि हरि जसु जपत जपंत जन इकु तिलु नही कीमति पाइ ॥ जन नानक हरि अगम प्रभ हरि मेलि लैहु लड़ि लाइ ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि हरि नाम असंख हरि हरि के गुन कथनु न जाहि ॥ हरि हरि अगमु अगाधि हरि जन कितु बिधि मिलहि मिलाहि ॥ हरि हरि जसु जपत जपंत जन इकु तिलु नही कीमति पाइ ॥ जन नानक हरि अगम प्रभ हरि मेलि लैहु लड़ि लाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असंख = अनगिनत। कथनु न जाइ = बयान नहीं किए जा सकते। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = अथाह (समुंदर)। कितु बिधि = किस तरीके से? मिलहि = मिलते हैं। मिलाहि = (और लोगों को) मिलाते हैं। जसु = महिमा का गीत। जपतु = जपते हुए। जपंत = (औरों से) जपाते हुए। न पाइ = नहीं पड़ सकती। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! लड़ि लाइ = (अपने) पल्ले से लगा के।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम अनगिनत हैं, परमात्मा के गुण (भी बेअंत हैं), बयान नहीं किए जा सकते, परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, (मानो) अथाह (समुंदर) है। उसके सेवक भक्त उसको कैसे मिलते हैं? (और लोगों को) कैसे मिलाते हैं? हे भाई! (परमात्मा के सेवक) परमात्मा की महिमा के गीत गाते हुए (स्वयं भी उसको मिलते हैं, और-और लोगों को भी) जपाते हुए (उनकी भी उससे मुलाकात करवाते हैं)। (पर, परमात्मा के गुणों की) कीमत रक्ती भर भी नहीं पड़ सकती। (हे भाई! उसके दर पर अरदास ही करनी चाहिए कि) हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि प्रभु! अपने दास नानक को अपने लड़ लगा के (अपने चरणों में) मिला ले।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि अगमु अगोचरु अगमु हरि किउ करि हरि दरसनु पिखा ॥ किछु वखरु होइ सु वरनीऐ तिसु रूपु न रिखा ॥ जिसु बुझाए आपि बुझाइ देइ सोई जनु दिखा ॥ सतसंगति सतिगुर चटसाल है जितु हरि गुण सिखा ॥ धनु धंनु सु रसना धंनु कर धंनु सु पाधा सतिगुरू जितु मिलि हरि लेखा लिखा ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि अगमु अगोचरु अगमु हरि किउ करि हरि दरसनु पिखा ॥ किछु वखरु होइ सु वरनीऐ तिसु रूपु न रिखा ॥ जिसु बुझाए आपि बुझाइ देइ सोई जनु दिखा ॥ सतसंगति सतिगुर चटसाल है जितु हरि गुण सिखा ॥ धनु धंनु सु रसना धंनु कर धंनु सु पाधा सतिगुरू जितु मिलि हरि लेखा लिखा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। किउ करि = कैसे? पिखा = मैं देखूँ। वखरु = (रूप = रेखा वाली कोई) चीज़। सु = वह। वरनीऐ = वर्णन किया जा सकता है। रिखा = रेखा। बुझाए = समझाए। बुझाइ = समझ। देइ = दे के। दिखा = देखता है। चटसाल = पाठशाला। जितु = जिस में। सिखा = सीखे जा सकते हैं। रसना = जीभ। कर = हाथ (बहुवचन)। पाधा = अध्यापक। जितु = जिससे। मिलि हरि = हरि को मिल के। लिखा = लिखा जा सकता है।
अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा के दर्शन कैसे कर सकता हूँ? वह तो अगम्य (पहुँच से परे) है, उसतक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। अगर कोई खरीदे जा सकने वाला पदार्थ हो तो (उसकी रूप-रेखा) बयान की जा सकती है, पर उस परमात्मा का ना कोई रूप है ना रेखा है। वही मनुष्य उसके दर्शन कर सकता है जिसको प्रभु स्वयं मति दे के समझाता है। (और, यह मति मिलती है साधु-संगत में) साधु-संगत सतिगुरु की पाठशाला है जिसमें परमात्मा के गुण सीखे जा सकते हैं। हे भाई! धन्य है वह जीभ (जो परमात्मा का नाम जपती है) धन्य हैं वह हाथ (जो साधु-संगत में पंखे आदि की सेवा करते हैं) धन्य है वह पांधा (शिक्षक) गुरु जिसके माध्यम से परमात्मा को मिल के उसकी महिमा की बातें की जाती हैं।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि नामु अम्रितु है हरि जपीऐ सतिगुर भाइ ॥ हरि हरि नामु पवितु है हरि जपत सुनत दुखु जाइ ॥ हरि नामु तिनी आराधिआ जिन मसतकि लिखिआ धुरि पाइ ॥ हरि दरगह जन पैनाईअनि जिन हरि मनि वसिआ आइ ॥ जन नानक ते मुख उजले जिन हरि सुणिआ मनि भाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हरि हरि नामु अम्रितु है हरि जपीऐ सतिगुर भाइ ॥ हरि हरि नामु पवितु है हरि जपत सुनत दुखु जाइ ॥ हरि नामु तिनी आराधिआ जिन मसतकि लिखिआ धुरि पाइ ॥ हरि दरगह जन पैनाईअनि जिन हरि मनि वसिआ आइ ॥ जन नानक ते मुख उजले जिन हरि सुणिआ मनि भाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। भाइ = प्रेम में। सतिगुर भाइ = गुरु के अनुसार (रह के)। पवितु = (जीवन को) पवित्र करने वाला। जाइ = दूर हो जाता है। मसतकि = माथे पर। जिन पाइ = जिन्होंने प्राप्त किया। लिखिआ धुरि = धुर से लिखे लेख। पैनाईअनि = पहनाए जाते हैं, सत्कार दिया जाता है। मनि = मन में। आइ = आ के। ते = वे लोग। मुख उजले = उज्जवल मुख वाले, सही रास्ते पर चलने वाले। भाइ = प्यार से।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पैनाईअनि’ है वर्तमान काल, करम वाच, अन्य-पुरुष, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है, (पर यह नाम) गुरु के अनुसार रह के जपा जा सकता है।
प्रभु का नाम जीवन को पवित्र करने वाला है, इसको जपते हुए-सुनते हुए (हरेक) दुख दूर हो जाता है, (पर यह) हरि-नाम उन मनुष्यों ने ही स्मरण किया है जिन्होंने (पिछले किए कर्मों के अनुसार) माथे पर धुर दरगाह से लिखे हुए लेख प्राप्त किए हैं। जिनके मन में परमात्मा आ बसता है, परमात्मा की हजूरी में उनको आदर मिलता है। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्यों ने प्रेम से अपने मन में परमात्मा (का नाम) सुना है वह (लोक-परलोक में) सही स्वीकार होते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि हरि नामु निधानु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ जिन धुरि मसतकि लिखिआ तिन सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ तनु मनु सीतलु होइआ सांति वसी मनि आइ ॥ नानक हरि हरि चउदिआ सभु दालदु दुखु लहि जाइ ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि हरि नामु निधानु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ जिन धुरि मसतकि लिखिआ तिन सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ तनु मनु सीतलु होइआ सांति वसी मनि आइ ॥ नानक हरि हरि चउदिआ सभु दालदु दुखु लहि जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मसतकि = माथे पर। सीतलु = ठंडा ठार। मनि = मन में। चउदिआ = उचारते हुए, स्मरण करते हुए, जपते हुए। दालदु = दरिद्र।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे सुखों का) खजाना है, (पर) यह मिलता है गुरु की शरण पड़ने से। और, गुरु मिलता है उन मनुष्यों को, जिनके माथे पर (पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार गुरु-मिलाप का) लेख लिखा होता है। उनके मन में शांति बनी रहती है उनका मन उनका तन ठंडा-ठार टिका रहता है (उनके अंदर विकारों की तपश नहीं होती)।
हे नानक! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपते हुए हरेक दरिद्र दूर हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हउ वारिआ तिन कउ सदा सदा जिना सतिगुरु मेरा पिआरा देखिआ ॥ तिन कउ मिलिआ मेरा सतिगुरू जिन कउ धुरि मसतकि लेखिआ ॥ हरि अगमु धिआइआ गुरमती तिसु रूपु नही प्रभ रेखिआ ॥ गुर बचनि धिआइआ जिना अगमु हरि ते ठाकुर सेवक रलि एकिआ ॥ सभि कहहु मुखहु नर नरहरे नर नरहरे नर नरहरे हरि लाहा हरि भगति विसेखिआ ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हउ वारिआ तिन कउ सदा सदा जिना सतिगुरु मेरा पिआरा देखिआ ॥ तिन कउ मिलिआ मेरा सतिगुरू जिन कउ धुरि मसतकि लेखिआ ॥ हरि अगमु धिआइआ गुरमती तिसु रूपु नही प्रभ रेखिआ ॥ गुर बचनि धिआइआ जिना अगमु हरि ते ठाकुर सेवक रलि एकिआ ॥ सभि कहहु मुखहु नर नरहरे नर नरहरे नर नरहरे हरि लाहा हरि भगति विसेखिआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। वारिआ = कुर्बान, सदके। धुरि = धुर से। मसतकि = माथे पर। लेखिआ = लिखा। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। गुरमती = गुरु की मति से। रेखिआ = रेखा, चिन्ह, निशान। गुर बचनि = गुरु के वचन से, गुरु के हुक्म में चल के। ते ठाकुर सेवक = ठाकुर के वह सेवक। रलि = (ठाकुर में) मिल के। सभि = सारे। नरहरे = जीवों के मालिक। लाहा = लाभ, नफा। विसेखिआ = विशेष, बढ़िया।
अर्थ: हे भाई! मैं सदके जाता हूँ सदा ही उन (मनुष्यों) पर से, जिन्होंने मेरे प्यारे गुरु का दर्शन (सदा) किया है, (पर) प्यारा गुरु उनको ही मिलता है, जिनके माथे पर (उनके पिछले किए कर्मों के अनुसार) धुर-दरगाह से (गुरु मिलाप का) लेख लिखा होता है। वह मनुष्य गुरु की शिक्षा पर चल कर उस अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा का स्मरण करते रहते हैं जिसकी कोई रूप-रेखा बयान नहीं की जा सकती। हे भाई! जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चल के उस अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा का ध्यान करते हैं, परमात्मा के वह सेवक (परमात्मा में) मिल के (उसके साथ) एक-रूप हो जाते हैं।
हे भाई! तुम सभी (अपने) मुँह से सदा परमात्मा का नाम उचारते रहो। परमात्मा का नाम जपने का यह फायदा और सारे फायदों से बढ़िया है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ राम नामु रमु रवि रहे रमु रामो रामु रमीति ॥ घटि घटि आतम रामु है प्रभि खेलु कीओ रंगि रीति ॥ हरि निकटि वसै जगजीवना परगासु कीओ गुर मीति ॥ हरि सुआमी हरि प्रभु तिन मिले जिन लिखिआ धुरि हरि प्रीति ॥ जन नानक नामु धिआइआ गुर बचनि जपिओ मनि चीति ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ राम नामु रमु रवि रहे रमु रामो रामु रमीति ॥ घटि घटि आतम रामु है प्रभि खेलु कीओ रंगि रीति ॥ हरि निकटि वसै जगजीवना परगासु कीओ गुर मीति ॥ हरि सुआमी हरि प्रभु तिन मिले जिन लिखिआ धुरि हरि प्रीति ॥ जन नानक नामु धिआइआ गुर बचनि जपिओ मनि चीति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमु = स्मरण कर। रवि रहे = जो (हर जगह) व्यापक है। रमीति = जो रमा हुआ है। घटि घटि = हरेक शरीर में। आतम रामु = परमात्मा। प्रभि = प्रभु ने। खेलु = जगत तमाशा। रंगि = (अपनी) मौज में। रीति = (अपने ही) ढंग से। निकटि = नजदीक। जगजीवना = जगत की जिंदगी (का सहारा)। परगासु = प्रकाश, सूझ बूझ। मीति = मित्र ने। धुरि = धुर से। गुर बचनि = गुरु के वचन से। मनि = मन मे। चीति = चिक्त में।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने अपनी मौज में अपने ही ढंग से यह जगत खेल बनाई है, जो परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है, जो हर जगह रमा हुआ है, उसका नाम सदा स्मरण कर, सदा स्मरण कर। (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर) मित्र-गुरु ने सूझ-बूझ पैदा की (उसको समझ आ जाती है कि) जगत का जीवन प्रभु (हरेक के) नजदीक बसता है। (पर) स्वामी प्रभु उनको ही मिलता है जिनके माथे पर (पिछले किए कर्मों के अनुसार) धुर से ही परमात्मा के साथ प्यार का लेख लिखा होता है। हे दास नानक! जिस मनुष्यों ने गुरु के वचनों से (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के) मन में चिक्त में नाम जपा है (दरअसल उन्होंने ही) नाम स्मरण किया है।1।
[[1317]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि प्रभु सजणु लोड़ि लहु भागि वसै वडभागि ॥ गुरि पूरै देखालिआ नानक हरि लिव लागि ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि प्रभु सजणु लोड़ि लहु भागि वसै वडभागि ॥ गुरि पूरै देखालिआ नानक हरि लिव लागि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोड़ि लहु = ढूँढ लो। भागि = किस्मत से। वडभागि = बड़ी किस्मत से। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। लिव = लगन, तवज्जो, ध्यान।
अर्थ: (हे भाई! , गुरु की शरण पड़ के) मित्र प्रभु को ढूँढ लो, (वह मित्र प्रभु) किस्मत से बड़ी किस्मत से (हृदय में आ) बसता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने (उसके) दर्शन करवा दिए, उसकी तवज्जो (हर वक्त) हरि-प्रभु में लगी रहती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ धनु धनु सुहावी सफल घड़ी जितु हरि सेवा मनि भाणी ॥ हरि कथा सुणावहु मेरे गुरसिखहु मेरे हरि प्रभ अकथ कहाणी ॥ किउ पाईऐ किउ देखीऐ मेरा हरि प्रभु सुघड़ु सुजाणी ॥ हरि मेलि दिखाए आपि हरि गुर बचनी नामि समाणी ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ जो जपदे हरि निरबाणी ॥१०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ धनु धनु सुहावी सफल घड़ी जितु हरि सेवा मनि भाणी ॥ हरि कथा सुणावहु मेरे गुरसिखहु मेरे हरि प्रभ अकथ कहाणी ॥ किउ पाईऐ किउ देखीऐ मेरा हरि प्रभु सुघड़ु सुजाणी ॥ हरि मेलि दिखाए आपि हरि गुर बचनी नामि समाणी ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ जो जपदे हरि निरबाणी ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनु धनु = धन्य धन्य, भाग्यशाली। सुहावी = सुखावीं, सुलक्षणी, सुंदर। जितु = जिस (घड़ी) में। मनि = मन में। भाणी = प्यारी लगी। प्रभ अकथ कहाणी = अकथ प्रभु की महिमा की बात। पाइऐ = मिलता है। किउ = कैसे? सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। नामि = नाम में। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान। निरबाणी = वासना रहित, निर्लिप।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के लिए वह) घड़ी भाग्यशाली होती है मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूरा करने वाली होती है। जिस में (मनुष्य को अपने) मन में परमात्मा की सेवा-भक्ति अच्छी लगती है।
हे मेरे गुरु के सिखो! तुम मुझे भी अकथ प्रभु की महिमा की बातें सुनाओ (और बताओ कि) वह सुंदर समझदार प्रभु कैसे मिल सकता है कैसे उसका दर्शन हो सकता है।
हे भाई! गुरु के वचनों पर चल के जिस मनुष्यों की तवज्जो परमात्मा के नाम में लीन होती है उनको परमात्मा स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ के अपना दर्शन करवाता है। हे भाई! नानक उनसे सदके जाता है जो निर्लिप परमात्मा (का नाम हर वक्त) जपते हैं।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हरि प्रभ रते लोइणा गिआन अंजनु गुरु देइ ॥ मै प्रभु सजणु पाइआ जन नानक सहजि मिलेइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हरि प्रभ रते लोइणा गिआन अंजनु गुरु देइ ॥ मै प्रभु सजणु पाइआ जन नानक सहजि मिलेइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रते = रंगे हुए। लोइणा = आँखें। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंजनु = सुरमा। देइ = देता है। मै प्रभु = मेरा प्रभु, प्यारा प्रभु। सहजि = आत्मिक अडोलता में।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्यों को) गुरु आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा देता है, उनकी आँखें प्रभु के प्यार में रंगी जाती हैं, उनको प्यारा प्रभु मिल जाता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ गुरमुखि अंतरि सांति है मनि तनि नामि समाइ ॥ नामु चितवै नामो पड़ै नामि रहै लिव लाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ चिंता गई बिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै त्रिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामे रतिआ नामो पलै पाइ ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ गुरमुखि अंतरि सांति है मनि तनि नामि समाइ ॥ नामु चितवै नामो पड़ै नामि रहै लिव लाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ चिंता गई बिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै त्रिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामे रतिआ नामो पलै पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है। अंतरि = अंदर। मनि तनि = मन से तन से, तन मन से। नामि = नाम में। चितवै = चेते करता है। लिव = लगन। लाइ = लगा के। पाईऐ = मिलता है। गई बिलाइ = दूर हो जाती है। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। नामे = नाम में ही। नामो = नाम ही। पलै पाइ = मिलता है।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है उसके अंदर शांति बनी रहती है वह मन से तन से (हर वक्त परमात्मा के) नाम में लीन रहता है, वह (सदा) नाम चेते करता है वह सदा नाम ही पढ़ता है, वह हरि-नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।
(हे भाई! अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा का) कीमती नाम हासिल हो जाता है (जिसको हासिल होता है उसके अंदर से) चिन्ता दूर हो जाती है। अगर गुरु मिल जाए तो (मनुष्य के अंदर) नाम (का बूटा) उग पड़ता है (जिसकी इनायत से माया की) प्यास (माया की) भूख सारी दूर हो जाती है।
हे नानक! अगर परमात्मा के नाम में रंगे रहें तो ही नाम मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे वसगति कीता ॥ इकि मनमुख करि हाराइअनु इकना मेलि गुरू तिना जीता ॥ हरि ऊतमु हरि प्रभ नामु है गुर बचनि सभागै लीता ॥ दुखु दालदु सभो लहि गइआ जां नाउ गुरू हरि दीता ॥ सभि सेवहु मोहनो मनमोहनो जगमोहनो जिनि जगतु उपाइ सभो वसि कीता ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे वसगति कीता ॥ इकि मनमुख करि हाराइअनु इकना मेलि गुरू तिना जीता ॥ हरि ऊतमु हरि प्रभ नामु है गुर बचनि सभागै लीता ॥ दुखु दालदु सभो लहि गइआ जां नाउ गुरू हरि दीता ॥ सभि सेवहु मोहनो मनमोहनो जगमोहनो जिनि जगतु उपाइ सभो वसि कीता ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाइ कै = पैदा करके। वसगति = वश में। इकि = कई जीव। मनमुख = (अपने) मन के मुरीद। करि = कर के। हाराइअनु = उस ने (जीवन बाजी में) हरा दिए। मेलि = मिला के। ऊतमु = (जीवन को) ऊँचा करने वाला। गुरबचनि = गुरु के उपदेश से। सभागै = भाग्यशाली (मनुष्य) ने। सभि = सारे। जिनि = जिस (प्रभु) ने। वसि = (अपने) वश में।
अर्थ: हे प्रभु! तूने स्वयं ही जगत पैदा करके (इसको) स्वयं ही तूने (अपने) वश में रखा हुआ है।
हे भाई! कई जीवों को मन का मुरीद बना के उस (परमात्मा) ने (जीवन-खेल में) हार दे दी है, पर कईयों को गुरु मिला के (उसने ऐसा बना दिया है कि) उन्होंने (जीवन की बाज़ी) जीत ली है।
हे भाई! परमात्मा का नाम (मनुष्य के जीवन को) ऊँचा करने वाला है, पर किसी भाग्यशाली ने (ही) गुरु के उपदेश से (यह नाम) स्मरण किया है। जब गुरु ने परमात्मा का नाम (किसी भाग्यशाली को) दिया, तो उसका सारा दुख सारा दरिद्र दूर हो गया।
हे भाई! तुम सभी उस मन-मोहन प्रभु का जग-मोहन प्रभु का नाम स्मरण किया करो, जिसने जगत पैदा करके यह सारा अपने वश में रखा हुआ है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ मन अंतरि हउमै रोगु है भ्रमि भूले मनमुख दुरजना ॥ नानक रोगु वञाइ मिलि सतिगुर साधू सजना ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ मन अंतरि हउमै रोगु है भ्रमि भूले मनमुख दुरजना ॥ नानक रोगु वञाइ मिलि सतिगुर साधू सजना ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ मनु तनु तामि सगारवा जां देखा हरि नैणे ॥ नानक सो प्रभु मै मिलै हउ जीवा सदु सुणे ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ मनु तनु तामि सगारवा जां देखा हरि नैणे ॥ नानक सो प्रभु मै मिलै हउ जीवा सदु सुणे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमि = (माया की) भटकना में पड़ के। भूले = गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। वञाए = दूर कर। मिलि = मिल के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: वारां ते वधीक सलोक महला ४ में नंबर 29 पर यह शलोक मिलता है, थोड़ा सा फर्क है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तामि = तब ही। सगारवा = गौरा, आदर योग। देखा = मैं देख सकूँ। नैणे = आँखों से। मै = मुझे। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। सदु = (उसकी) आवाज़, महिमा की बात। सुणे = सुन के।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले दुराचारी मनुष्य भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं (क्योंकि) उनके मन में अहंकार (का) रोग (टिका रहता) है। हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-सज्जन गुरु को मिल के (ही यह) रोग दूर (दूर किया जा सकता है)।1।
महला ४। हे भाई! (मेरा यह) मन और शरीर तब ही आदर-योग हो सकता है, जब मैं (अपनी) आँखों से परमात्मा के दर्शन कर सकूँ। हे नानक! (कह: हे भाई! जब) वह प्रभु मुझे मिलता है, तब मैं उसकी महिमा की बात सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जगंनाथ जगदीसर करते अपर्मपर पुरखु अतोलु ॥ हरि नामु धिआवहु मेरे गुरसिखहु हरि ऊतमु हरि नामु अमोलु ॥ जिन धिआइआ हिरदै दिनसु राति ते मिले नही हरि रोलु ॥ वडभागी संगति मिलै गुर सतिगुर पूरा बोलु ॥ सभि धिआवहु नर नाराइणो नाराइणो जितु चूका जम झगड़ु झगोलु ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जगंनाथ जगदीसर करते अपर्मपर पुरखु अतोलु ॥ हरि नामु धिआवहु मेरे गुरसिखहु हरि ऊतमु हरि नामु अमोलु ॥ जिन धिआइआ हिरदै दिनसु राति ते मिले नही हरि रोलु ॥ वडभागी संगति मिलै गुर सतिगुर पूरा बोलु ॥ सभि धिआवहु नर नाराइणो नाराइणो जितु चूका जम झगड़ु झगोलु ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगंनाथ = हे जगत के नाथ! जगदीसर = हे जगत के ईश्वर! करते = हे कर्तार! अपरंपरु = हे बेअंत! पुरख = सर्व व्यापक। अतोलु = जिसकी हस्ती का अंदाजा ना लग सके। ऊतमु = जीवन को ऊँचा बनाने वाला। अमोलु = जो किसी (माया आदि की) कीमत से ना मिल सके। हिरदै = हृदय में। रोलु = शक। मिलै = मिलता है। पूरा बोलु = पूरन उपदेश। सभि = सारे। जितु = जिस (स्मरण) से। झगड़ु झगोलु = झगड़ा रगड़ा।
अर्थ: हे जगत के नाथ! हे जगत के मालिक! हे बेअंत कर्तार! तू सर्व-व्यापक है, तेरी हस्ती का अंदाजा नहीं लग सकता।
हे मेरे गुरु के सिखो! परमात्मा का नाम स्मरण किया करो, परमात्मा का नाम जीवन को ऊँचा करने वाला है (पर) वह नाम किसी मूल्य से नहीं मिलता। जिस मनुष्यों ने दिन-रात (हर वक्त) अपने हृदय में हरि-नाम स्मरण किया, वे मनुष्य परमात्मा के साथ एक-रूप हो गए, इसमें कोई शक नहीं है। (पर) बड़े भाग्यों से मनुष्य गुरु की संगति में मिलता है (और संगति में से उसको) गुरु का पूर्ण उपदेश मिलता है (जिसकी इनायत से वह हरि-नाम स्मरण करता है)।
(सो, हे भाई! गुरु की संगति में मिल के) सभी परमात्मा का नाम स्मरण किया करो जिसकी इनायत से जम का रगड़ा-झगड़ा समाप्त हो जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हरि जन हरि हरि चउदिआ सरु संधिआ गावार ॥ नानक हरि जन हरि लिव उबरे जिन संधिआ तिसु फिरि मार ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हरि जन हरि हरि चउदिआ सरु संधिआ गावार ॥ नानक हरि जन हरि लिव उबरे जिन संधिआ तिसु फिरि मार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चउदिआ = उचारते हुओं को। सरु = तीर। संधिआ = चलाया, निशाना साधा। गावार = मूर्खों ने। लिव = तवज्जो, ध्यान। उबरे = बच गए। जिनि = जिस (मूर्ख) ने। फिरि = पलट के। मार = मौत, आत्मिक मौत।1।
अर्थ: हे नानक! मूर्ख मनुष्य ही परमात्मा का नाम जपने वाले संत-जनों पर तीर चलाते हैं। पर, वे संत-जन तो परमात्मा में तवज्जो जोड़ के बच निकलते हैं। जिस (मूर्ख) ने (तीर) चलाया होता है, उसको ही पलट के मौत आती है (भाव, संत से वैर करने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं)।1।
[[1318]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ अखी प्रेमि कसाईआ हरि हरि नामु पिखंन्हि ॥ जे करि दूजा देखदे जन नानक कढि दिचंन्हि ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ अखी प्रेमि कसाईआ हरि हरि नामु पिखंन्हि ॥ जे करि दूजा देखदे जन नानक कढि दिचंन्हि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रेमि = प्रेम ने। कसाईआ = कसक डाली, खींच डाली। पिखंन्हि = देखते हैं। दूजा = प्रभु के बिना कुछ और। कढि दिचंन्हि = निकाल दिए जाते हैं।2।
अर्थ: म: ४। (हे भाई! वही लोग हर जगह) परमात्मा का नाम देखते हैं, जिनकी आँखों को प्रेम ने कसक डाली होती है। पर, हे नानक! जो मनुष्य (प्रभु को छोड़ के) और-और को देखते हैं वे प्रभु की हजूरी में से निकाल दिए जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जलि थलि महीअलि पूरनो अपर्मपरु सोई ॥ जीअ जंत प्रतिपालदा जो करे सु होई ॥ मात पिता सुत भ्रात मीत तिसु बिनु नही कोई ॥ घटि घटि अंतरि रवि रहिआ जपिअहु जन कोई ॥ सगल जपहु गोपाल गुन परगटु सभ लोई ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जलि थलि महीअलि पूरनो अपर्मपरु सोई ॥ जीअ जंत प्रतिपालदा जो करे सु होई ॥ मात पिता सुत भ्रात मीत तिसु बिनु नही कोई ॥ घटि घटि अंतरि रवि रहिआ जपिअहु जन कोई ॥ सगल जपहु गोपाल गुन परगटु सभ लोई ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। अपरंपरु = परे से परे, बेअंत। सुत = पुत्र। भ्रात = भाई। घटि घटि = हरेक घट में। रवि रहिआ = व्यापक है। जन = हे संत जनो! सगल = सारे। लोई = सृष्टि में।
अर्थ: (हे भाई!) वह बेअंत (परमात्मा) ही जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, वह सारे जीवों की पालना करता है, जो कुछ वह करता है वही होता है। (हे भाई! सदा साथ निभने वाला) माता-पिता-पुत्र-भाई-मित्र उस (परमात्मा) के बिना और कोई नहीं है। हे संत जनो! कोई पक्ष भी जप के देख लो (जो भी जपता है उसको निश्चय हो जाता है कि वह परमात्मा) हरेक शरीर में (सबके) अंदर व्यापक है। हे भाई! सारे उस गोपाल प्रभु के गुण याद करते रहो, वह प्रभु सारी सृष्टि में प्रत्यक्ष (बसता दिखाई दे रहा) है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ गुरमुखि मिले सि सजणा हरि प्रभ पाइआ रंगु ॥ जन नानक नामु सलाहि तू लुडि लुडि दरगहि वंञु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ गुरमुखि मिले सि सजणा हरि प्रभ पाइआ रंगु ॥ जन नानक नामु सलाहि तू लुडि लुडि दरगहि वंञु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह कर के, गुरु के सन्मुख रह के। से = वह लोग। सजणा = अच्छे जीवन वाले मनुष्य। प्रभ रंगु = परमात्मा का प्यार। सालाहि = महिमा करा कर। लुडि लुडि = बेफिक्र हो के। वंञु = जा।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (प्रभु की याद में) जुड़े रहते हैं (और इस तरह जिन्होंने) परमात्मा का प्रेम हासिल कर लिया, वह अच्छे जीवन वाले बन जाते हैं। हे भाई! तू भी प्रभु की महिमा (सदा) करता रह, परमात्मा की हजूरी में बेफिक्र हो के जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ हरि तूहै दाता सभस दा सभि जीअ तुम्हारे ॥ सभि तुधै नो आराधदे दानु देहि पिआरे ॥ हरि दातै दातारि हथु कढिआ मीहु वुठा सैसारे ॥ अंनु जमिआ खेती भाउ करि हरि नामु सम्हारे ॥ जनु नानकु मंगै दानु प्रभ हरि नामु अधारे ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ हरि तूहै दाता सभस दा सभि जीअ तुम्हारे ॥ सभि तुधै नो आराधदे दानु देहि पिआरे ॥ हरि दातै दातारि हथु कढिआ मीहु वुठा सैसारे ॥ अंनु जमिआ खेती भाउ करि हरि नामु सम्हारे ॥ जनु नानकु मंगै दानु प्रभ हरि नामु अधारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभस दा = सब जीवों का। सभि = सारे। जीअ = जीव। देहि = तू देता है। पिआरे = हे प्यारे! दातै = दाते ने। दातारि = दातार ने। वुठा = बसा। सैसारे = संसार में। जंमिआ = पैदा हुआ। खेती भाउ = प्रेम रूप खेती। करि = कर के, करने से। समारे = संभाले। अधारे = आसरा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तू ही सारे जीवों को दातें देने वाला है, सारे जीव तेरे ही (पैदा किए हुए) हैं। सारे जीव (दुनिया के पदार्थों के लिए) तुझे ही याद करते हैं, और, हे प्यारे! तू (सबको) दान देता है। (हे भाई!) हरि दाते ने हरि दातार ने (जब अपनी मेहर का) हाथ निकाला तब जगत में (गुरु के उपदेश की) वर्षा हुई। (जो मनुष्य गुरु की शरण आता है) प्रेम- (रूप) खेती करने से (उसके अंदर परमात्मा का नाम-) फसल उग जाती है, (वह हर वक्त) परमात्मा का नाम (हृदय में) बसाता है।
हे प्रभु! (तेरा) दास नानक (भी तेरे नाम की) ख़ैर (तुझसे) माँगता है, तेरा नाम (दास नानक की जिंदगी का) आसरा (बना रहे)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इछा मन की पूरीऐ जपीऐ सुख सागरु ॥ हरि के चरन अराधीअहि गुर सबदि रतनागरु ॥ मिलि साधू संगि उधारु होइ फाटै जम कागरु ॥ जनम पदारथु जीतीऐ जपि हरि बैरागरु ॥ सभि पवहु सरनि सतिगुरू की बिनसै दुख दागरु ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इछा मन की पूरीऐ जपीऐ सुख सागरु ॥ हरि के चरन अराधीअहि गुर सबदि रतनागरु ॥ मिलि साधू संगि उधारु होइ फाटै जम कागरु ॥ जनम पदारथु जीतीऐ जपि हरि बैरागरु ॥ सभि पवहु सरनि सतिगुरू की बिनसै दुख दागरु ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरीऐ = पूरी हो जाती है। जपीऐ = जपना चाहिए। सुख सागरु = सुखों का समुंदर प्रभु। आराधीअहि = आराधने चाहिए। सबदि = शब्द से। रतनागरु = रत्नों की खान। मिलि = मिल के। उधारु = पार उतारा। फाटै = फट जाता है, दरार डालता है। कागरु = (लेखे वाला) कागज़। जीतीऐ = जीत लेना है। जपि = जप के। बैरागरु = प्यार का श्रोत। सभि = सारे। बिनसै = नाश हो जाता है। दागरु = दाग़, निशान।
अर्थ: (हे भाई!) सुखों के समुंदर परमात्मा का नाम जपना चाहिए गुरु के शब्द से रत्नों की खान प्रभु की आराधना करनी चाहिए, प्रभु के चरणों की आराधना करनी चाहिए। (स्मरण-आराधना की इनायत से) मन की (हरेक) इच्छा पूरी हो जाती है (मन की वासनाएं समाप्त हो जाती हैं)। हे भाई! गुरु की संगति में मिल के (नाम-जपने से संसार-समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है, यमराज का (लेखे वाला) कागज़ फट जाता है। प्यार के श्रोत परमात्मा का नाम जप के कीमती मनुष्य-जनम की बाज़ी जीत ली जाती है।
हे भाई! सभी गुरु की शरण पड़े रहो (गुरु की शरण पड़ कर नाम जपने से मन में) दुखों का निशान ही मिट जाता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ हउ ढूंढेंदी सजणा सजणु मैडै नालि ॥ जन नानक अलखु न लखीऐ गुरमुखि देहि दिखालि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ हउ ढूंढेंदी सजणा सजणु मैडै नालि ॥ जन नानक अलखु न लखीऐ गुरमुखि देहि दिखालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। अलखु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। न लखीऐ = बयान नहीं किया जा सकता। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे। देहि दिखालि = दर्शन करवा देते हैं।1।
अर्थ: (हे सहेलिए!) मैं सज्जन (प्रभु) को (बाहर) ढूँढ रही थी (पर, गुरु के माध्यम से समझ आई है कि वह) सज्जन (प्रभु तो) मेरे साथ ही है (मेरे अंदर ही बसता है)। हे दास नानक! (कह: हे सहेलिए!) वह प्रभु अलख है उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। गुरु के सन्मुख रहने वाले (संत जन उसके) दर्शन करवा देते हैं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: फरीद जी के शलोकों में नंबर: 121 पर भी यही श्लोक मिलता है, बस थोड़ा सा फर्क है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ नानक प्रीति लाई तिनि सचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ नानक प्रीति लाई तिनि सचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिनि सचै = उस सदा कायम रहने वाले ने स्वयं (ही)। पाईऐ = पा लेते हैं। रसि = रस में। रसन = जीभ। रसाई = रसी रहती है।2।
म: ४। हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने (अपना) प्यार (स्वयं ही) पैदा किया है (वह मनुष्य) उस (की याद) के बिना रह नहीं सकता। (जिस गुरु की) जीभ परमात्मा के नाम-रस में सदा रसी रहती है (जब वह) गुरु मिलता है तब वह पूरन प्रभु भी मिल जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ कोई गावै को सुणै को उचरि सुनावै ॥ जनम जनम की मलु उतरै मन चिंदिआ पावै ॥ आवणु जाणा मेटीऐ हरि के गुण गावै ॥ आपि तरहि संगी तराहि सभ कुट्मबु तरावै ॥ जनु नानकु तिसु बलिहारणै जो मेरे हरि प्रभ भावै ॥१५॥१॥ सुधु ॥
मूलम्
पउड़ी ॥ कोई गावै को सुणै को उचरि सुनावै ॥ जनम जनम की मलु उतरै मन चिंदिआ पावै ॥ आवणु जाणा मेटीऐ हरि के गुण गावै ॥ आपि तरहि संगी तराहि सभ कुट्मबु तरावै ॥ जनु नानकु तिसु बलिहारणै जो मेरे हरि प्रभ भावै ॥१५॥१॥ सुधु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोई = जो कोई मनुष्य। गावै = गाता है। को = जो कोई मनुष्य। उचरि = उचार के, बोल के। मन चिंदिआ = मन इच्छित (फल)। आवणु जाणा = पैदा होना मरना। तरहि = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। संगी = साथियों को। तराहि = पार लंघाते हैं। कुटंबु = परिवार। तरावै = पार लंघा लेता है। प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है।
अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य (परमात्मा के महिमा के गीत) गाता है अथवा सुनता है अथवा बोल के (और लोगों को) सुनाता है, उसके अनेक जन्मों की (विकारों की) मैल उतर जाती है वह मन-इच्छित फल पा लेता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसका पैदा होने मरने का चक्कर समाप्त हो जाता है।
(हे भाई! परमात्मा के महिमा के गीत गाने वाले मनुष्य) स्वयं (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, साथियों को पार लंघा लेते हैं। (हे भाई! महिमा करने वाला मनुष्य अपने) सारे परिवार को पार लंघा लेता है।
हे भाई! दास नानक उस मनुष्य से सदा सदके जाता है जो (महिमा करने की इनायत से) प्यारे प्रभु को प्यारा लगता है।15।1। सुधु।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु कानड़ा बाणी नामदेव जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु कानड़ा बाणी नामदेव जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसो राम राइ अंतरजामी ॥ जैसे दरपन माहि बदन परवानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसो राम राइ अंतरजामी ॥ जैसे दरपन माहि बदन परवानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम राइ = राम राय, प्रकाश-रूप परमात्मा, शुद्ध स्वरूप हरि। अंतरजामी = (अन्तर+या। या = जाना, पहुँचना। अंतर = अंदर) हरेक जीव के धुर अंदर तक पहुँचने वाला, हरेक के अंदर बैठा हुआ, हरेक के दिल की बात जानने वाला। दरपन = शीशा। बदन = मुँह। परवानी = प्रत्यक्ष।1। रहाउ।
अर्थ: शुद्ध स्वरूप परमात्मा ऐसा है कि वह हरेक जीव के अंदर बैठा हुआ है (पर, हरेक के अंदर बसता भी ऐसे) प्रत्यक्ष (निर्लिप रहता है) जैसे शीशे में (शीशा देखने वाले का) मुँह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसै घटा घट लीप न छीपै ॥ बंधन मुकता जातु न दीसै ॥१॥
मूलम्
बसै घटा घट लीप न छीपै ॥ बंधन मुकता जातु न दीसै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटा घट = हरेक घट में। लीप = माया का लेप, माया का असर। छीपे = (संस्कृत: क्षेप, painting, besmearing) लेप, दाग़। न जातु = कभी भी नहीं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जातु’, इस शब्द के मेल को ध्यान से देखें, आखिर में ‘ु’ की मात्रा है। जिस शब्द ‘जाति’ का अर्थ है ‘कुल’, उसके आखिर में मात्रा ‘ि’ लगी होती है। इस तरह शब्द ‘जातु’ और ‘जाति’ अलग अलग शब्द हैं। (संस्कृत शब्द ‘जातु’ का अर्थ है: at all, ever, at any time, possibly. ‘न जातु–not at all, never, not at any time) कभी भी, किसी वक्त।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: शुद्ध स्वरूप परमात्मा ऐसा है कि वह हर एक जीव के अंदर है (पर) उस पर माया का कोई असर नहीं होता। वह माया के बंधनों में फसा हुआ नहीं नजर आता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पानी माहि देखु मुखु जैसा ॥ नामे को सुआमी बीठलु ऐसा ॥२॥१॥
मूलम्
पानी माहि देखु मुखु जैसा ॥ नामे को सुआमी बीठलु ऐसा ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीठलु = जो माया के प्रभाव से परे है, पर निर्लिप भी है।2[
अर्थ: तुम जैसे पानी में (अपना) मुँह देखते हो, (मुँह पानी में टिका हुआ दिखाई देता है पर उस पर पानी का कोई असर नहीं होता), इसी तरह है नामे का मालिक (जिसको नामा) बीठल (कहता) है।2।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में नामदेव जी परमात्मा के सिर्फ इस गुण पर जोर दे रहे हैंकि वह हरेक जीव के अंदर बसा हुआ भी माया के बंधनो में कभी नहीं फसा। आखिर में कहते हैं कि मैं तो ऐसे ‘राम’ को ही ‘बीठल’ कहता हूँ।
दक्षिण में लोग किसी मंदिर में स्थापित बीठल को पूजते होंगे, जिसको वे ईट पर बैठा विष्णू व कृष्ण समझते हैं। पर, हरेक कवि को अधिकार है कि वह नए अर्थों में भी शब्द का प्रयोग कर ले। जैसे गुरु गोबिंद सिंह जी ने शब्द ‘भगौती’ को अकाल पुरख के अर्थों में प्रयोग किया है। नामदेव जी इस शब्द में ‘बीठल’ का अर्थ ‘ईट पर बैठा कृष्ण’ नहीं करते, उनका भाव है ‘वह प्रभु जो माया के प्रभाव से दूर व परे है’। दूसरी मजेदार बात ये है कि शब्द ‘राम’ और ‘बीठल’ को एक ही भाव में बरतते हैं। अगर कृष्ण जी की किसी बीठुल-मूर्ति के पुजारी होते तो उसको ‘राम’ ना कहते। जिसको ‘रहाउ’ की तुक में ‘राम राइ’ कहा है, उसी को आखिरी बंद में ‘बीठल’ कहते हैं। अभी भी वक्त है कि हम स्वार्थी लोगों की चालों को समझें, और श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को समझने में गलतियों से बचें।