[[1254]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार चउपदे महला १ घरु १
मूलम्
रागु मलार चउपदे महला १ घरु १
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाणा पीणा हसणा सउणा विसरि गइआ है मरणा ॥ खसमु विसारि खुआरी कीनी ध्रिगु जीवणु नही रहणा ॥१॥
मूलम्
खाणा पीणा हसणा सउणा विसरि गइआ है मरणा ॥ खसमु विसारि खुआरी कीनी ध्रिगु जीवणु नही रहणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खुआरी = दुखी होने वाली करतूत। ध्रिग = घिक्कारयोग्य।1।
अर्थ: सिर्फ खाने, पीने, हसने, सोने के आहर में रहने से (जीव को) मौत भूल जाती है, (मौत के भूलने से) प्रभु-पति को बिसार के जीव वह-वह काम करता रहता है जो इसकी ख्वारी (दुख) का कारण बनते हैं। (प्रभु को बिसार के) जीना धिक्कार-योग्य हो जाता है। सदा यहाँ किसी ने टिके नहीं रहना (फिर क्यों ना जीवन सदाचारी बनाया जाए?)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणी एको नामु धिआवहु ॥ अपनी पति सेती घरि जावहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्राणी एको नामु धिआवहु ॥ अपनी पति सेती घरि जावहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु की हजूरी में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्राणी! एक परमात्मा का ही नाम स्मरण कर। (नाम-जपने की इनायत से) तू आदर सहित प्रभु के चरणों में पहुँचेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधनो सेवहि तुझु किआ देवहि मांगहि लेवहि रहहि नही ॥ तू दाता जीआ सभना का जीआ अंदरि जीउ तुही ॥२॥
मूलम्
तुधनो सेवहि तुझु किआ देवहि मांगहि लेवहि रहहि नही ॥ तू दाता जीआ सभना का जीआ अंदरि जीउ तुही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहहि नही = (मांगने से) रह नहीं सकते।2।
अर्थ: हे प्रभु! जो लोग तुझे स्मरण करते हैं (तेरा तो कुछ नहीं सँवारते, क्योंकि) तुझे वे कुछ भी नहीं दे सकते (बल्कि तुझसे) माँगते ही माँगते हैं, और तुझसे नित्य दातें लेते ही रहते हैं, तेरे दर से माँगे बिना नहीं रह सकते। तू सारे जीवों को दातें देने वाला है, जीवों के शरीरों में जिंद भी तू खुद ही है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि धिआवहि सि अम्रितु पावहि सेई सूचे होही ॥ अहिनिसि नामु जपहु रे प्राणी मैले हछे होही ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि धिआवहि सि अम्रितु पावहि सेई सूचे होही ॥ अहिनिसि नामु जपहु रे प्राणी मैले हछे होही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सि = वह लोग। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सूचे = पवित्र। अहि = दिन। निसि = रात। हछे = पवित्र। होही = हो जाते हैं।3।
अर्थ: जो लोग गुरु की शरण पड़ कर (प्रभु का नाम) जपते हैं, वे (आत्मिक जीवन देने वाला) नाम-अमृत हासिल करते हैं, वही सदाचारी जीवन वाले बन जाते हैं। (इसलिए) हे प्राणी! दिन-रात परमात्मा का नाम जपो। बुरे आचरण वाले लोग भी (नाम जप के) अच्छे बन जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेही रुति काइआ सुखु तेहा तेहो जेही देही ॥ नानक रुति सुहावी साई बिनु नावै रुति केही ॥४॥१॥
मूलम्
जेही रुति काइआ सुखु तेहा तेहो जेही देही ॥ नानक रुति सुहावी साई बिनु नावै रुति केही ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रुति = ऋतु, मौसम। देही = शरीर। साई = वही। केही = कोई लाभ ना दे सकने वाली।4।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: आत्मिक जीवन के लिए दो ही ऋतुएं हैं, जीवन पर प्रभाव डालने वाली दो ही अवस्थाएं हैं: स्मरण अवस्था और नाम-हीनता)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (मानवीय जीवन के लिए दो ही ऋतुएं हैं: स्मरण और नाम हीनता, इनमें से) जिस ऋतु के प्रभाव तले मनुष्य जीवन गुजारता है, इसके शरीर को वैसा ही सुख (अथवा दुख) मिलता है, उसी प्रभाव के मुताबिक ही इसका शरीर ढलता रहता है (इसकी ज्ञान-इंद्रिय ढलती रहती हैं)।
हे नानक! मनुष्य के लिए वही ऋतु अच्छी है (जब ये नाम स्मरण करता है)। नाम स्मरण के बिना (कुदरति की बदलती कोई भी) ऋतु इसको लाभ नहीं दे सकती।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ करउ बिनउ गुर अपने प्रीतम हरि वरु आणि मिलावै ॥ सुणि घन घोर सीतलु मनु मोरा लाल रती गुण गावै ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ करउ बिनउ गुर अपने प्रीतम हरि वरु आणि मिलावै ॥ सुणि घन घोर सीतलु मनु मोरा लाल रती गुण गावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। बिनउ = विनती। गुर अपने प्रीतम = अपने प्रीतम गुरु के पास। वरु = पति। आणि = ला के। सुणि = सुन के। घन घोर = बादलों की गरज। मोरा = मेरा। रती = रंगी हुई।1।
अर्थ: मैं अपने गुरु प्रीतम के आगे विनती करती हूँ, (गुरु ही) पति-प्रभु को ला के मिला सकता है। (जैसे बरखा ऋतु में बादलों की गड़-गड़ाहट सुन के मोर नाचने लगता है, वैसे ही) गुरु-शब्द-बादलों की गरज सुन के मेरा मन ठंडा-ठार होता है (मन के विकारों की तपश बुझ जाती है, मेरे प्राण) प्रीतम-प्रभु के प्यार में रंगीज के उसकी महिमा करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरसु घना मेरा मनु भीना ॥ अम्रित बूंद सुहानी हीअरै गुरि मोही मनु हरि रसि लीना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बरसु घना मेरा मनु भीना ॥ अम्रित बूंद सुहानी हीअरै गुरि मोही मनु हरि रसि लीना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरसु = बरखा कर। घना = हे घट! हे बादल! भीना = भीग जाए। हीअरै = हृदय में। गुरि = गुरु ने। रसि = रस में।1। रहाउ।
अर्थ: हे बादल-बरखा कर (हे गुरु! नाम की बरसात कर, ता कि) मेरा मन उसमें भीग जाए। (जिस सौभाग्यवती जीव-स्त्री को) गुरु ने अपने प्यार-वश कर लिया; उसका मन परमात्मा रस में लीन रहता है, उसके हृदय में नाम-अमृत की बूँद ठंडक देती है (सुख देती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजि सुखी वर कामणि पिआरी जिसु गुर बचनी मनु मानिआ ॥ हरि वरि नारि भई सोहागणि मनि तनि प्रेमु सुखानिआ ॥२॥
मूलम्
सहजि सुखी वर कामणि पिआरी जिसु गुर बचनी मनु मानिआ ॥ हरि वरि नारि भई सोहागणि मनि तनि प्रेमु सुखानिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। वर कामणि = पति प्रभु की (जीव-) स्त्री। जिसु मनु = जिसका मन। वरि = वर के, चुन के, पति बना के। मनि = मन में। तनि = तन में। सुखानिआ = सुख लाता है।2।
अर्थ: जिस (जीव-स्त्री) का मन गुरु के वचनों में (गुरु की वाणी में) लग जाता है, पति-प्रभु की वह प्यारी स्त्री अडोल अवस्था में आत्मिक सुख भोगती है। प्रभु को अपना पति बना के वह जीव-स्त्री भाग्यशाली हो जाती है, उसके मन में उसके तन में प्रभु का प्यार आत्मिक सुख पैदा करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवगण तिआगि भई बैरागनि असथिरु वरु सोहागु हरी ॥ सोगु विजोगु तिसु कदे न विआपै हरि प्रभि अपणी किरपा करी ॥३॥
मूलम्
अवगण तिआगि भई बैरागनि असथिरु वरु सोहागु हरी ॥ सोगु विजोगु तिसु कदे न विआपै हरि प्रभि अपणी किरपा करी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के। बैरागनि = वैराग वाली। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। सोगु = चिन्ता। विजोगु = विछोड़ा। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। प्रभि = प्रभु ने।3।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री पर हरि-प्रभु ने अपनी कृपा (की दृष्टि) की, उस पर मोह आदि की चिन्ता या प्रभु-चरणों से विछोड़ा कभी जोर नहीं डाल सकता। वह जीव-स्त्री अवगुण त्याग के प्रभु-चरणों की वैरागनि हो जाती है, सदा कायम रहने वाला हरि उसका सोहाग बन जाता है, उसका पति बन जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवण जाणु नही मनु निहचलु पूरे गुर की ओट गही ॥ नानक राम नामु जपि गुरमुखि धनु सोहागणि सचु सही ॥४॥२॥
मूलम्
आवण जाणु नही मनु निहचलु पूरे गुर की ओट गही ॥ नानक राम नामु जपि गुरमुखि धनु सोहागणि सचु सही ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवण जाणु = जनम मरन (का चक्कर)। ओट = आसरा। गही = पकड़। धनु = (धन्य) भाग्यशाली। सही = ठीक तरह।4।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने पूरे गुरु का पल्ला पकड़ा है, उसका मन (विकारों से) अडोल हो जाता है (भाव, विकारों की तरफ नहीं दौड़ता), उसके जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है। हे नानक! वही जीव-स्त्री गुरु के द्वारा प्रभु का नाम जप के सौभाग्यशाली हो जाती है, वह ठीक अर्थों में सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाती है।4।2।
[[1255]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ साची सुरति नामि नही त्रिपते हउमै करत गवाइआ ॥ पर धन पर नारी रतु निंदा बिखु खाई दुखु पाइआ ॥ सबदु चीनि भै कपट न छूटे मनि मुखि माइआ माइआ ॥ अजगरि भारि लदे अति भारी मरि जनमे जनमु गवाइआ ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ साची सुरति नामि नही त्रिपते हउमै करत गवाइआ ॥ पर धन पर नारी रतु निंदा बिखु खाई दुखु पाइआ ॥ सबदु चीनि भै कपट न छूटे मनि मुखि माइआ माइआ ॥ अजगरि भारि लदे अति भारी मरि जनमे जनमु गवाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली, अडोल। नामि = नाम में। त्रिपते = तृप्त होए हुए, माया की तृष्णा से पलटे हुए, संतुष्ट। हउमै = मैं मैं (मैं बड़ा मैं बड़ा = ये ही ख्याल)। रतु = रहित हुआ, मस्त। बिखु = जहर। चीनि = पहचान के, समझ के। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। अजगरि = अजगर में। भारि = भार तले। अजगरि भारि = बहुत बड़े भार के नीचे।1।
अर्थ: जिनकी तवज्जो अडोल हो के प्रभु के नाम में नहीं जुड़ी, वे माया की तृष्णा की तरफ से पलट नहीं सके (अतृप्त ही रहे), ‘मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं बड़ा बन जाऊँ’ - ये कह: कहके उन्होंने अपना जीवन गवा लिया। उनका मन पराए धन पराई स्त्री और पराई निंदा में मस्त रहा है, वे (सदा पर धन पर नारी पर निंदा की) जहर खाते रहे (आत्मिक खुराक बनाए रखी), और दुख ही सहेड़ते रहे। महिमा की वाणी को विचार के (भी) उनके दुनिया वाले डर और छल (-कपट) ना खत्म हुए, उनके मन में भी माया (की लगन) ही रही, उनके मुँह में भी माया (की द्वंद-कथा) ही रही। वे सदा (माया के मोह के) बेअंत बड़े भार तले लदे रहे, जनम-मरण के चक्करों में पड़ के उन्होंने जीवन व्यर्थ ही गवा लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि भावै सबदु सुहाइआ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि भेख बहु कीन्हे गुरि राखे सचु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मनि भावै सबदु सुहाइआ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि भेख बहु कीन्हे गुरि राखे सचु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। भावै = अच्छा लगता है। सुहाइआ = सुंदर हो गया। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: जिनके मन को (प्रभु की महिमा की) वाणी प्यारी लगती है उनका जीवन सुंदर बन जाता है। (पर, महिमा की वाणी से टूट के) अनेक जूनियों में भटक-भटक के अनेक जूनियों के भेस धारते रहे (भाव, जनम लेते रहे)। जिस की रक्षा गुरु ने की, उनको सदा कायम रहने वाला ईश्वर मिल गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथि तेजु निवारि न न्हाते हरि का नामु न भाइआ ॥ रतन पदारथु परहरि तिआगिआ जत को तत ही आइआ ॥ बिसटा कीट भए उत ही ते उत ही माहि समाइआ ॥ अधिक सुआद रोग अधिकाई बिनु गुर सहजु न पाइआ ॥२॥
मूलम्
तीरथि तेजु निवारि न न्हाते हरि का नामु न भाइआ ॥ रतन पदारथु परहरि तिआगिआ जत को तत ही आइआ ॥ बिसटा कीट भए उत ही ते उत ही माहि समाइआ ॥ अधिक सुआद रोग अधिकाई बिनु गुर सहजु न पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। तेजु = क्रोध। निवारि = दूर कर के। भाइआ = अच्छा लगा। परहरि = दूर कर के। जत = जिस तरफ से। तत = उसी तरफ। उत ही ते = उसी कारण से। कीट = कीड़े। अधिकाई = बहुत। सहजु = अडोल अवस्था।2।
अर्थ: क्रोध दूर कर के उन्होंने आत्म-तीर्थ में स्नान नही किया, उनको परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगा, (तृष्णा के अधीन रह के) उन्होंने प्रभु का अमूल्य-नाम सदा के लिए त्याग दिया, जिस चौरासी में से निकल के मनुष्य जन्म में आए थे, उसी चौरासी में दोबारा चले गए, जैसे विष्टा के कीड़े विष्टा में ही पैदा होते हैं, और विष्टा में ही फिर मर जाते हैं। (विषौ-विकारों के) जितने भी ज्यादा स्वाद वे लेते गए, उतने ही ज्यादा रोग उनको व्यापते गए। गुरु की शरण ना आने के कारण उनको शांत-अवस्था हासिल नहीं हुई।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवा सुरति रहसि गुण गावा गुरमुखि गिआनु बीचारा ॥ खोजी उपजै बादी बिनसै हउ बलि बलि गुर करतारा ॥ हम नीच हुोते हीणमति झूठे तू सबदि सवारणहारा ॥ आतम चीनि तहा तू तारण सचु तारे तारणहारा ॥३॥
मूलम्
सेवा सुरति रहसि गुण गावा गुरमुखि गिआनु बीचारा ॥ खोजी उपजै बादी बिनसै हउ बलि बलि गुर करतारा ॥ हम नीच हुोते हीणमति झूठे तू सबदि सवारणहारा ॥ आतम चीनि तहा तू तारण सचु तारे तारणहारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहसि = हर्ष में, पूरन खिड़ाव में। गावा = मैं गाऊँ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। बीचारा = मैं विचार करूँ। खोजी = खोज करने वाला। उपजै = पैदा हो जाता है, आत्मिक जीवन में पैदा होता है। बादी = झगड़ालू। बिनसै = आत्मिक मौत मरता है, विनाश होता है। हउ = मैं। बलि = बलिहार। गुर करतारा = हे गुरु! हे कर्तार! हुोते = थे, होते थे।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट:‘हुोते’ में अक्षर ‘ह’ पर दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘होते’ है, यहां ‘हुते’ पढ़ना है)।
दर्पण-भाषार्थ
हीण मति = मूर्ख। आतम = आत्मा, अपना आप।3।
अर्थ: हे मेरे गुरु! हे मेरे कर्तार! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, (मेहर कर) मेरी तवज्जो तेरी सेवा (-भक्ति) में टिकी रहे, पूरन आनंद में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ; गुरु की शरण पड़ कर मैं सदा यह विचार करता रहूँ कि तेरे साथ मेरी गहरी सांझ बनी रहे। (तेरे साथ गहरी जान-पहचान के प्रयत्न) खोजने वाला मनुष्य आत्मिक जीवन में जनम ले लेता है, पर (नित्य माया के) झगड़े करने वाला जीव आत्मिक मौत मर जाता है।
हे प्रभु! हम (तृष्णा में फंस के बड़े) नीचे जीवन वाले हो चुके हैं, हम मूर्ख हैं, हम झूठे पदार्थों में फंसे हुए हैं; पर तू (अपनी महिमा की) वाणी में (जोड़ के) हमारा जीवन सवारने में समर्थ है। जहाँ स्वै की विचार होती है, वहाँ तू (संसार-समुंदर की विकार-लहरों से) बचाने के लिए आ पहुँचता है। तू सदा कायम रहने वाला है, तू उद्धार करने के समर्थ है, (हमारा) उद्धार कर ले।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैसि सुथानि कहां गुण तेरे किआ किआ कथउ अपारा ॥ अलखु न लखीऐ अगमु अजोनी तूं नाथां नाथणहारा ॥ किसु पहि देखि कहउ तू कैसा सभि जाचक तू दातारा ॥ भगतिहीणु नानकु दरि देखहु इकु नामु मिलै उरि धारा ॥४॥३॥
मूलम्
बैसि सुथानि कहां गुण तेरे किआ किआ कथउ अपारा ॥ अलखु न लखीऐ अगमु अजोनी तूं नाथां नाथणहारा ॥ किसु पहि देखि कहउ तू कैसा सभि जाचक तू दातारा ॥ भगतिहीणु नानकु दरि देखहु इकु नामु मिलै उरि धारा ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसि = बैठ के, टिक के। सु थानि = श्रेष्ठ जगह में, सत्संग में। कहां = मैं कहूँ। किआ किआ = क्या क्या? , कौन कौन से? कथउ = मैं कह सकता हूँ। नाथणहारा = नाथ के रखने वाला, अपने वश में रखने वाला। किसु पहि कहउ = किस के पास मैं कहूँ? देखि = देख के। सभि = सारे। जाचकु = भिखारी। हीणु = हीन, खाली। दरि = दर से। देखहु = ध्यान करो, मेहर की निगाह करो। उरि = हृदय में। धारा = धारण करूँ, मैं टिका के रखूँ।4।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) सत्संग में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ। पर तू बेअंत है, तेरे सारे गुण मैं बयान नहीं कर सकता। तू अलख है, तू बयान से परे है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू जूनियों से रहित है। तू (बड़े-बड़े) नाथ कहलवाने वालों को भी अपने वश में रखने वाला है।
(हे प्रभु! तेरी रचना को) देख के मैं किसी के आगे यह कहने के लायक नहीं हूँ कि तू कैसा है (भाव, सारे संसार में तेरे जैसा कोई नहीं है)। सारे जीव (तेरे दर के) मँगते हैं, तू सबको दातें देने वाला है। (हे प्रभु!) तेरी भक्ति से टूटा हुआ (तेरा दास) नानक (तेरे) दर पर (आ गिरा है, इस पर) मेहर की निगाह कर। (हे प्रभु!) मुझे तेरा नाम मिल जाए, मैं (इस नाम को अपने) सीने से परो के रखूँ।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ जिनि धन पिर का सादु न जानिआ सा बिलख बदन कुमलानी ॥ भई निरासी करम की फासी बिनु गुर भरमि भुलानी ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ जिनि धन पिर का सादु न जानिआ सा बिलख बदन कुमलानी ॥ भई निरासी करम की फासी बिनु गुर भरमि भुलानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। धन = स्त्री। जिनि धन = जिस जीव-स्त्री ने। सादु = स्वाद, मिलाप का आनंद। बिलख = (विलक्ष embarrassed) व्याकुल। बदन = मुँह। निरासी = जिसकी आशाऐ पूरी ना हों, टूटे दिल वाली। भरमि = भटकना में।1।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति के मिलाप का आनंद नहीं समझा (भाव, आनंद नहीं पाया) वह सदा (दुनियावी झमेलों में ही) व्याकुल रहती है, उसका चेहरा कुम्हलाया रहता है; (दुनिया वाली आशाएं पूरी ना होने के कारण) उसका दिल टूटा सा रहता है, अपने किए कर्मों के संस्कारों का फंदा उसके गले में पड़ा रहता है; गुरु की शरण ना आने के कारण भटकना में पड़ के वह जीवन के सही रास्ते से वंचित रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरसु घना मेरा पिरु घरि आइआ ॥ बलि जावां गुर अपने प्रीतम जिनि हरि प्रभु आणि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बरसु घना मेरा पिरु घरि आइआ ॥ बलि जावां गुर अपने प्रीतम जिनि हरि प्रभु आणि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरसु = बरखा कर। घना = हे घन! हे बादल! घरि = (मेरे) हृदय में। आणि = ला के। जिनि = जिस (गुरु) ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे बादल! बरखा कर (हे गुरु! नाम की बरसात कर, तेरे नाम-वर्षा की इनायत से) मेरा पति-प्रभु मेरे हृदय में आ बसा है। मैं अपने प्रीतम गुरु से बलिहार हूँ, जिसने हरि-प्रभु से मुझे मिला दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउतन प्रीति सदा ठाकुर सिउ अनदिनु भगति सुहावी ॥ मुकति भए गुरि दरसु दिखाइआ जुगि जुगि भगति सुभावी ॥२॥
मूलम्
नउतन प्रीति सदा ठाकुर सिउ अनदिनु भगति सुहावी ॥ मुकति भए गुरि दरसु दिखाइआ जुगि जुगि भगति सुभावी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउतन = नई। सिउ = साथ। अनदिनु = हर रोज। सुहावी = सुखद। गुरि = गुरु ने। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। सुभावी = शोभा वाली।2।
अर्थ: जिस जीवों को गुरु नें प्रभु के दर्शन करवा दिए हैं, वे माया के बंधनो से आजाद हो जाते हैं, वे सदा परमात्मा की भक्ति करते और शोभा कमाते हैं, प्रभु के साथ उनकी नई प्रीत बनी रहती है। (भाव, प्यार वाली उमंग कभी कम नहीं होती), वे हर रोज प्रभु की भक्ति करते हैं जो उनको आत्मिक सुख दिए रखती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम थारे त्रिभवण जगु तुमरा तू मेरा हउ तेरा ॥ सतिगुरि मिलिऐ निरंजनु पाइआ बहुरि न भवजलि फेरा ॥३॥
मूलम्
हम थारे त्रिभवण जगु तुमरा तू मेरा हउ तेरा ॥ सतिगुरि मिलिऐ निरंजनु पाइआ बहुरि न भवजलि फेरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थारे = तेरे। त्रिभवण जगु = तीन भवनों वाला जगत। हउ = मैं। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया की कालिख से रहित। बहुरि = फिर, दोबारा। भवजलि = भवजल में, संसार समुंदर में।3।
अर्थ: हे प्रभु! हम तेरे पैदा किए हुए हैं, तीन भवनों वाला सारा ही संसार तेरा ही रचा हुआ है (अपनी रची हुई माया के मोह से तू खुद ही सब जीवों को बचाता है)। हे प्रभु! तू मेरा (मालिक) है, मैं तेरा (दास) हूँ (मुझे भी कर्मों के फंदों से बचाए रख)। अगर गुरु मिल जाए, तो माया से रहित प्रभु मिल जाता है, और संसार-समुंदर (के चक्कर) में नहीं आना पड़ता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने पिर हरि देखि विगासी तउ धन साचु सीगारो ॥ अकुल निरंजन सिउ सचि साची गुरमति नामु अधारो ॥४॥
मूलम्
अपुने पिर हरि देखि विगासी तउ धन साचु सीगारो ॥ अकुल निरंजन सिउ सचि साची गुरमति नामु अधारो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विगासी = खिल उठी। तउ = तब। साचु = सदा कायम रहने वाला, अटल। अकुल = जिसकी कोई खास कुल नहीं। सचि = सच्चे हरि में (जुड़ के)।4।
अर्थ: (जीव-स्त्री अपने प्रभु-पति को प्रसन्न करने के लिए कई तरह के धार्मिक उद्यम-रूपी श्रृंगार करती है, पर) जीव-स्त्री का श्रृंगार तब ही सदीवी समझो (तब ही सफल जानो) जब वह प्रभु-पति को देख के उल्लास में उमंग में आती है, जब सच्चे के स्मरण के द्वारा कुल-रहित माया-रहित प्रभु के साथ एक-रूप हो जाती है, जब गुरु की शिक्षा पर चल के प्रभु का नाम उसके जीवन का सहारा बन जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकति भई बंधन गुरि खोल्हे सबदि सुरति पति पाई ॥ नानक राम नामु रिद अंतरि गुरमुखि मेलि मिलाई ॥५॥४॥
मूलम्
मुकति भई बंधन गुरि खोल्हे सबदि सुरति पति पाई ॥ नानक राम नामु रिद अंतरि गुरमुखि मेलि मिलाई ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द में। पति = इज्जत। रिद = हृदय। मेलि = मेल में, संगति में।5।
अर्थ: जो जीव-स्त्री माया के बंधनो से आज़ाद हो गई, जिसके माया के बंधन गुरु ने खोल दिए, वह प्रभु की सिफति-सालाह की वाणी में तवज्जो जोड़ के (प्रभु की हजूरी में) आदर हासिल करती है; हे नानक! प्रभु का नाम सदा उसके हृदय में बसता है, गुरु की शरण पड़ कर वह प्रभु-पति के मिलाप में मिल जाती है (अभेद हो जाती है)।5।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ मलार ॥ पर दारा पर धनु पर लोभा हउमै बिखै बिकार ॥ दुसट भाउ तजि निंद पराई कामु क्रोधु चंडार ॥१॥
मूलम्
महला १ मलार ॥ पर दारा पर धनु पर लोभा हउमै बिखै बिकार ॥ दुसट भाउ तजि निंद पराई कामु क्रोधु चंडार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दारा = स्त्री। धनु = पदार्थ, माल। बिखै = विषौ। बिकार = बुरे कर्म। दुसट भाउ = बुरी नीयत। तजि = त्यागता है। चंडार = चंडाल।1।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु का शब्द हृदय में बसाता है और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल करता है, वह) पराई स्त्री (का संग), पराया धन, बहुत लालच, अहंकार, विषियों (वाली रुचि), बुरे कर्म, बुरी नीयत, पराई निंदा, काम और चंडाल क्रोध- यह सब कुछ त्याग देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महल महि बैठे अगम अपार ॥ भीतरि अम्रितु सोई जनु पावै जिसु गुर का सबदु रतनु आचार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
महल महि बैठे अगम अपार ॥ भीतरि अम्रितु सोई जनु पावै जिसु गुर का सबदु रतनु आचार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महल = शरीर। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। भीतरि = (हृदय के) अंदर। सबदु रतनु = श्रेष्ठ शब्द। आचार = नित्य की क्रिया, नित्य का आहर।1। रहाउ।
अर्थ: अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु जी हरेक शरीर में बैठे हुए हैं (मौजूद हैं), पर वही मनुष्य प्रभु जी का नाम-अमृत हासिल करता है जिसकी नित्य की क्रिया गुरु का श्रेष्ठ शब्द (अपने अंदर बसाना) हो जाए।1। रहाउ।
[[1256]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुख सुख दोऊ सम करि जानै बुरा भला संसार ॥ सुधि बुधि सुरति नामि हरि पाईऐ सतसंगति गुर पिआर ॥२॥
मूलम्
दुख सुख दोऊ सम करि जानै बुरा भला संसार ॥ सुधि बुधि सुरति नामि हरि पाईऐ सतसंगति गुर पिआर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सम = बराबर, एक समान। बुरा भला संसार = संसार का अच्छा बुरा सलूक। सुधि = सूझ। बुधि = अकल, बूझ। पाईऐ = प्राप्त की जाती है।2।
अर्थ: वह मनुष्य दुखों को एक-समान जानता है, जगत द्वारा मिलते अच्छे-बुरे सलूक को भी बराबर जान के सहता है (यह सब कुछ हरि-नाम की इनायत है)। पर यह सूझ-बूझ प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ने से ही प्राप्त होती है, साधु-संगत में रह के गुरु-चरणों से प्यार करने से ही मिलती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिनिसि लाहा हरि नामु परापति गुरु दाता देवणहारु ॥ गुरमुखि सिख सोई जनु पाए जिस नो नदरि करे करतारु ॥३॥
मूलम्
अहिनिसि लाहा हरि नामु परापति गुरु दाता देवणहारु ॥ गुरमुखि सिख सोई जनु पाए जिस नो नदरि करे करतारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। लाहा = लाभ। सिख = शिक्षा।3।
अर्थ: गुरु के सन्मुख हो के शिक्षा भी वही मनुष्य ले सकता है जिस पर कर्तार मेहर की नजर करता है। गुरु नाम की दाति देने वाला है देने के समर्थ है (जिस मनुष्य पर कर्तार की नजर होती है, उस मनुष्य को गुरु की तरफ से) दिन-रात प्रभु-नाम का लाभ मिला रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ महलु मंदरु घरु हरि का तिसु महि राखी जोति अपार ॥ नानक गुरमुखि महलि बुलाईऐ हरि मेले मेलणहार ॥४॥५॥
मूलम्
काइआ महलु मंदरु घरु हरि का तिसु महि राखी जोति अपार ॥ नानक गुरमुखि महलि बुलाईऐ हरि मेले मेलणहार ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। महलि = महल में।4।
अर्थ: यह मनुष्य शरीर परमात्मा का महल है परमात्मा का मंदिर है परमात्मा का घर है, बेअंत परमात्मा ने इसमें अपनी ज्योति टिका रखी है। (जीव अपने हृदय-महल में बसते प्रभु को छोड़ के बाहर भटकता फिरता है) हे नानक! (बाहर भटकता जीव) गुरु के द्वारा ही हृदय-महल में मोड़ के लाया जा सकता है, और तब ही मिलाने का समर्थ प्रभु उसको अपने चरणों में जोड़ लेता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवणै पाणी जाणै जाति ॥ काइआं अगनि करे निभरांति ॥ जमहि जीअ जाणै जे थाउ ॥ सुरता पंडितु ता का नाउ ॥१॥
मूलम्
पवणै पाणी जाणै जाति ॥ काइआं अगनि करे निभरांति ॥ जमहि जीअ जाणै जे थाउ ॥ सुरता पंडितु ता का नाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवणै = पवन की, हवा की। जाणै = (अगर) जान ले, जाने। जाति = असल, मूल, आदि। अगनि = (तृष्णा की) आग। भरांति = भटकना। निभरांति = भटकना का अभाव, शांति। जाणै जे थाउ = अगर (वह) जगह जान ले (जहाँ से)। जीअ = जीव-जंतु। सुरता = अच्छी तवज्जो वाला, समझदार।1।
अर्थ: (हाँ) उस मनुष्य का नाम समझदार पण्डित (रखा जा सकता) है, जो हवा पानी आदि तत्वों के मूल को जान ले (भाव, जो यह समझे कि सारे तत्वों को बनाने वाला परमात्मा स्वयं ही है, और उसके साथ गहरी सांझ डाल ले), जो अपने शरीर की तृष्णा अग्नि को शांत कर ले, जो उस असल के साथ जान-पहचान डाले जिससे सारे जीव-जंतु पैदा होते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण गोबिंद न जाणीअहि माइ ॥ अणडीठा किछु कहणु न जाइ ॥ किआ करि आखि वखाणीऐ माइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुण गोबिंद न जाणीअहि माइ ॥ अणडीठा किछु कहणु न जाइ ॥ किआ करि आखि वखाणीऐ माइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ना जाणीअहि = नहीं जाने जा सकते। माइ = हे माँ! किआ करि = किस तरह? आखि = कह के। वखाणीऐ = बयान किया जा सके।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! गोबिंद के गुण (पूरी तरह से) जाने नहीं जा सकते, (वह गोबिंद इन आँखों से) दिखता नहीं, (इस वास्ते उसके सही स्वरूप बाबत) कुछ नहीं कहा जा सकतर। हे माँ! क्या कह के उसका स्वरूप बयान किया जाए? (जो मनुष्य अपने आप को विद्वान समझ के उस प्रभु का असल स्वरूप बयान करने का प्रयत्न करते हैं, वे भूल करते हैं। इस प्रयास में कोई शोभा नहीं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊपरि दरि असमानि पइआलि ॥ किउ करि कहीऐ देहु वीचारि ॥ बिनु जिहवा जो जपै हिआइ ॥ कोई जाणै कैसा नाउ ॥२॥
मूलम्
ऊपरि दरि असमानि पइआलि ॥ किउ करि कहीऐ देहु वीचारि ॥ बिनु जिहवा जो जपै हिआइ ॥ कोई जाणै कैसा नाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरि = अंदर, नीचे। असमानि = आसमान में। पइआलि = पाताल में। देहु = (उक्तर) दे। वीचारि = विचार के। बिनु जिहवा = जीभ (के प्रयोग) के बिना, बगैर जीभ के, हरेक को सुनाए बग़ैर, दिखावे के बिना। हिआइ = हृदय में। कोई जाणै = कोई ऐसा मनुष्य ही जानता है। कैसा नाउ = नाम कैसा है, नाम जपने का आनंद कैसा है।2।
अर्थ: ऊपर नीचे आसमान में पाताल में (हर जगह परमात्मा व्यापक है, फिर भी उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। हे भाई!) विचार कर के कोई भी (अगर दे सकते हो तो) उक्तर दो कि (उस प्रभु के बारे में) कैसे कुछ कहा जा सकता है। परमात्मा का स्वरूप बयान करना तो असंभव है, (पर) अगर कोई मनुष्य दिखावा छोड़ के अपने हृदय में उसका नाम जपता रहे, तो कोई ऐसा मनुष्य ही यह समझ लेता है कि उस परमात्मा का नाम जपने में आनंद कैसा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथनी बदनी रहै निभरांति ॥ सो बूझै होवै जिसु दाति ॥ अहिनिसि अंतरि रहै लिव लाइ ॥ सोई पुरखु जि सचि समाइ ॥३॥
मूलम्
कथनी बदनी रहै निभरांति ॥ सो बूझै होवै जिसु दाति ॥ अहिनिसि अंतरि रहै लिव लाइ ॥ सोई पुरखु जि सचि समाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथनी बदनी = कहने बोलने से (बद् = बोलना। वक्ता = बोलने वाला)। रहै निभरांति = शांति बनी रहे, रोक पड़ी रहे। सो बूझै = (प्रभु के गुणों को कुछ-कुछ) वही मनुष्य समझता है। दाति = बख्शिश। अहि = दिन। निसि = रात। जि = जो। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में।3।
अर्थ: जिस मनुष्य पर परमात्मा की बख्शिश हो वह (चोंच-ज्ञान की बातें) कहने-बोलने से रूक जाता है और वह समझ लेता है (कि सारी सृष्टि का रचनहार मूल प्रभु खुद ही है)। (फिर) वह दिन-रात (हर वक्त) अपने अंतरात्मे प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है। (हे भाई!) वही है असल मनुष्य जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाति कुलीनु सेवकु जे होइ ॥ ता का कहणा कहहु न कोइ ॥ विचि सनातीं सेवकु होइ ॥ नानक पण्हीआ पहिरै सोइ ॥४॥१॥६॥
मूलम्
जाति कुलीनु सेवकु जे होइ ॥ ता का कहणा कहहु न कोइ ॥ विचि सनातीं सेवकु होइ ॥ नानक पण्हीआ पहिरै सोइ ॥४॥१॥६॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ से ‘घरु २’ के शब्द शुरू होते हैं जो गिनती में 4 हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुलीनु = अच्छी कुल का। ता का कहणा = उस मनुष्य बाबत कुछ कहना। कहहु न कोइ = कोई कुछ भी ना कहो। सनातीं विचि = नीच जाति वालों में। पण्हीआ = जूती (उपान्ह्), मेरी चमड़ी की जुतियां।4।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य उच्च जाति व ऊँची कुल का हो के (जाति-कुल का अहंकार छोड़ के) परमात्मा का भक्त बन जाए, उसका तो कहना ही क्या हुआ? (भाव, उसकी पूरी कीर्ति की ही नहीं जा सकती)।
(पर) हे नानक! (कह:) नीच जाति में भी पैदा हो के अगर कोई प्रभु का भक्त बनता है, तो (बेशक) वह मेरी चमड़ी की जुतियाँ बना के पहन ले।4।1।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ दुखु वेछोड़ा इकु दुखु भूख ॥ इकु दुखु सकतवार जमदूत ॥ इकु दुखु रोगु लगै तनि धाइ ॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ दुखु वेछोड़ा इकु दुखु भूख ॥ इकु दुखु सकतवार जमदूत ॥ इकु दुखु रोगु लगै तनि धाइ ॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विछोड़ा = परमात्मा के चरणों से विछोड़ा, प्रभु की याद से टूटे हुए। भूख = माया की तृष्णा। सकतवार = शक्तिवाले, ताकतवर। तनि = तन में। वैद भोले = हे भोले अंजान वैद्य! दारू न लाइ = दवा ना दे।1।
अर्थ: हे भोले वैद्य! तू दवा ना दे (तू किस-किस रोग का इलाज करेगा? देख, मनुष्य के लिए सबसे बड़ा) रोग है परमात्मा के चरणों से विछोड़ा, दूसरा रोग है माया की भूख। एक और भी रोग है, वह है ताकतवार जमदूत (भाव, जमदूतों का डर, मौत का डर)। और यह वह दुख है वह रोग है जो मनुष्य के शरीर में आ चिपकता है (जब तक शारीरिक रोग पैदा करने वाले मानसिक रोग मौजूद हैं, तेरी दवाई कोई असर नहीं कर सकती)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैद न भोले दारू लाइ ॥ दरदु होवै दुखु रहै सरीर ॥ ऐसा दारू लगै न बीर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
वैद न भोले दारू लाइ ॥ दरदु होवै दुखु रहै सरीर ॥ ऐसा दारू लगै न बीर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहै = टिका रहता है। बीर = हे वीर! लगै न = नहीं लगता, असर नहीं करता।1। रहाउ।
अर्थ: हे अंजान वैद्य! ऐसी दवाई देने का कोई लाभ नहीं, ऐसी दवा कोई असर नहीं करती (जिस दवाई के बरतने पर भी) शरीर का दुख-दर्द टिका रहे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खसमु विसारि कीए रस भोग ॥ तां तनि उठि खलोए रोग ॥ मन अंधे कउ मिलै सजाइ ॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥२॥
मूलम्
खसमु विसारि कीए रस भोग ॥ तां तनि उठि खलोए रोग ॥ मन अंधे कउ मिलै सजाइ ॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विसारि = भुला के। रस भोग = रसों के भोग। उठि खलोए = पैदा हो गए। रोग = कई रोग्।2।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘रोगु’ एकवचन है, शब्द ‘रोग’ बहुवचन है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जब मनुष्य ने प्रभु-पति को भुला के (विषौ-विकारों के) रस भोगने शुरू कर दिए, तो उसके शरीर में बिमारियां पैदा होने लग पड़ीं। (गलत रास्ते पर पड़े मनुष्य को सही रास्ते पर डालने के लिए, इसके) माया-मोह में अंधे हुए मन को (शारीरिक रोगों के द्वारा) सज़ा मिलती है। सो, हे अंजान वैद्य! (शारीरिक रोगों को दूर करने के लिए दी गई) तेरी दवाई का कोई लाभ नहीं (विषौ-विकारों के कारण यह रोग तो बार-बार पैदा होएंगे)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदन का फलु चंदन वासु ॥ माणस का फलु घट महि सासु ॥ सासि गइऐ काइआ ढलि पाइ ॥ ता कै पाछै कोइ न खाइ ॥३॥
मूलम्
चंदन का फलु चंदन वासु ॥ माणस का फलु घट महि सासु ॥ सासि गइऐ काइआ ढलि पाइ ॥ ता कै पाछै कोइ न खाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंदन वासु = चंदन की सुगंधि। घट = शरीर। सासु = सांस। सासि गइऐ = अगर सांस निकल जाए। काइआ = शरीर। ढलि पाइ = ढह जाती है, मिट्टी हो जाती है। ता कै पाछै = शरीर के मिट्टी हो जाने के बाद। कोइ = कोई भी मनुष्य।3।
अर्थ: चंदन का पौधा तब तक चंदन है जब तक उसमें चँदन की सुगंधि है (सुगंध के बिना यह साधारण लकड़ी ही है)। मनुष्य का शरीर तब तक मनुष्य का शरीर है जब तक इस शरीर में साँसें चल रही हैं। श्वास निकल जाने पर यह शरीर मिट्टी हो जाता है। शरीर के मिट्टी हो जाने के बाद कोई भी मनुष्य दवाई नहीं खाता (पर इस शरीर में निकल जाने वाली जीवात्मा तो विछोड़े और तृष्णा आदि रोगों में ग्रसित हुई चली जाती है। हे वैद्य! दवाई की असल आवश्यक्ता तो उस जीवात्मा को है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंचन काइआ निरमल हंसु ॥ जिसु महि नामु निरंजन अंसु ॥ दूख रोग सभि गइआ गवाइ ॥ नानक छूटसि साचै नाइ ॥४॥२॥७॥
मूलम्
कंचन काइआ निरमल हंसु ॥ जिसु महि नामु निरंजन अंसु ॥ दूख रोग सभि गइआ गवाइ ॥ नानक छूटसि साचै नाइ ॥४॥२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंचन काइआ = सोने जैसा शरीर। निरमल = विकारों से बचा हुआ। हंसु = जीवात्मा। जिसु महि = जिस (काया) में। अंसु = हिस्सा, ज्योति। सभि = सारे। नाइ = नाम में (जुड़ के)। छूटसि = (तृष्णा आदि दुखों से) निजात पा लेगा।4।
अर्थ: (हे वैद्य!) जिस शरीर में परमात्मा का नाम बसता है, परमात्मा की ज्योति (लिश्कारे मारती) है, वह शरीर सोने जैसा शुद्ध रहता है, उसमें बसती जीवात्मा भी नरोई रहती है। वह जीवात्मा अपने सारे रोग दूर करके यहाँ से जाती है।
हे नानक! सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ के ही जीव (तृष्णा आदि रोगों से) खलासी हासिल करेगा।4।2।7।
[[1257]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ दुख महुरा मारण हरि नामु ॥ सिला संतोख पीसणु हथि दानु ॥ नित नित लेहु न छीजै देह ॥ अंत कालि जमु मारै ठेह ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ दुख महुरा मारण हरि नामु ॥ सिला संतोख पीसणु हथि दानु ॥ नित नित लेहु न छीजै देह ॥ अंत कालि जमु मारै ठेह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारण = मसाले। हथि = हाथ में। पीसणु = (कुश्ता पीस के बारीक करने के लिए पत्थर का) बट्टा, सिल। नित नित = हर रोज, सदा ही। लेहु = (यह दवाई) खाओ। देह = शरीर। न छीजै = छीजता नहीं। न छीजै देह = मनुष्य का शरीर छीजता नहीं, मनुष्य जनम से नीचे की तरफ नहीं जाया जाता, पतन से बचाया जाता है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘न छीजै देह’ का पहला ‘न’ अगली तुक के साथ भी अर्थ करते वक्त बरतना है। इसको ‘देहली दीपक’ अलंकार समझो)।
दर्पण-भाषार्थ
अंत कालि = आखिरी वक्त। मारै ठेह = पटक के मारता है।1।
अर्थ: (दुनिया के) दुख-कष्ट (इन्सानी जीवन के लिए) जहर (तुल्य) हैं, (पर, हे भाई!) (अगर इस जहर का कुश्ता करने के लिए) परमात्मा का नाम तू (जड़ी-बूटियों आदि) मसाले (की जगह) बरते, (उस कुश्ते को बारीक करने के लिए) संतोख की शिला (पत्थर की सिल जिस पर मसाला पीसा जाता है) बनाए, और (जरूरतमंदों की सहायता करने के लिए) दान को अपने हाथ में पीसने वाला पत्थर का बट्टा बनाए। (हे भाई! यह तैयार हुआ कुश्ता) अगर तू सदा खाता रहे, तो इस तरह मनुष्य-जनम से नीचे की जूनियों में जाया जाता, ना ही अंत के समय मौत (का डर) पटक के मारता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा दारू खाहि गवार ॥ जितु खाधै तेरे जाहि विकार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा दारू खाहि गवार ॥ जितु खाधै तेरे जाहि विकार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गवार = हे मूर्ख! जितु खाधै = जिस (दारू) के खाने से। विकार = बुरे कर्म।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख जीव! ऐसी दवाई खा, जिसके खाने से तेरे बुरे कर्म (सारे) नाश हो जाएं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजु मालु जोबनु सभु छांव ॥ रथि फिरंदै दीसहि थाव ॥ देह न नाउ न होवै जाति ॥ ओथै दिहु ऐथै सभ राति ॥२॥
मूलम्
राजु मालु जोबनु सभु छांव ॥ रथि फिरंदै दीसहि थाव ॥ देह न नाउ न होवै जाति ॥ ओथै दिहु ऐथै सभ राति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = यह सारा (आडंबर)। छांव = परछाई। रथि फिरंदै = रथ के फिरने से, जब सूरज का रथ फिरता है जब सूरज चढ़ता है। थाव = असली जगह ठिकाना। देह = शरीर। नाउ = मशहूरी, बड़ाई। ओथै = प्रभु की हजूरी में। राति = अज्ञानता का अंधेरा। दिहु = दिन, ज्ञान की रौशनी।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘थाव’, शब्द ‘थाउ’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे गवार जीव!) दुनिया का राज धन-पदार्थ और जवानी (जिनके नशे ने तेरी आँखों के आगे अंध्धेरा किया हुआ है) यह सब कुछ अस्लियत की परछाईयां हैं, जब सूरज चढ़ता है तो (अंधेरा दूर हो के) असली जगह (प्रत्यक्ष) दिख जाती है। (तू जवानी का, मशहूरी का, नाम का, उच्च जाति का मान करता है, प्रभु के दर पर) ना शरीर, ना नाम, ना ऊँची जाति कोई भी स्वीकार नहीं है, क्योंकि उसकी हजूरी में (ज्ञान का) दिन चढ़ा रहता है, और यहाँ दुनिया में (माया के मोह की) रात हुई रहती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साद करि समधां त्रिसना घिउ तेलु ॥ कामु क्रोधु अगनी सिउ मेलु ॥ होम जग अरु पाठ पुराण ॥ जो तिसु भावै सो परवाण ॥३॥
मूलम्
साद करि समधां त्रिसना घिउ तेलु ॥ कामु क्रोधु अगनी सिउ मेलु ॥ होम जग अरु पाठ पुराण ॥ जो तिसु भावै सो परवाण ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साद = (दुनिया के पदार्थों के) स्वाद। समधां = हवन में बरते जाने वाला ईधन। त्रिसना = माया का लालच। अरु = और। तिसु = उस परमात्मा को। भावै = अच्छा लगता है। परवाण = स्वीकार करना, मान लेना।3।
अर्थ: (हे गवार जीव!) दुनिया के पदार्थों के स्वादों को हवन की लकड़ी बना, माया की तृष्णा को (हवन के लिए) घी और तेल बना; काम और क्रोध को आग बना, इन सबको इकट्ठा कर (और जला के हवन कर दे)। जो कुछ परमात्मा को भाता है उसको सिर-माथे पर मानना - यह है हवन, यही है यज्ञ, यही है पुराण आदिकों के पाठ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपु कागदु तेरा नामु नीसानु ॥ जिन कउ लिखिआ एहु निधानु ॥ से धनवंत दिसहि घरि जाइ ॥ नानक जननी धंनी माइ ॥४॥३॥८॥
मूलम्
तपु कागदु तेरा नामु नीसानु ॥ जिन कउ लिखिआ एहु निधानु ॥ से धनवंत दिसहि घरि जाइ ॥ नानक जननी धंनी माइ ॥४॥३॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपु = उद्यम आदि। नीसानु = परवाना, राहदारी। निधानु = खजाना। से = वह बँदे। दिसहि = दिखते हैं। घरि जाइ = घर में जा के, प्रभु की हजूरी में पहुँच के। जननी = माँ, जनम देने वाली, जननी। धंनी = धन्य, भाग्यशाली। माइ = माँ।4।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे चरणों में जुड़ने के लिए उद्यम आदि) तप (जीव के करणी-रूप) कागज़ है, तेरे नाम का स्मरण उस कागज़ पर लिखी राहदारी है। यह खजाना, ये लिखा हुआ परवाना जिस किसी व्यक्ति को मिल जाता है वे लोग प्रभु के दर पर पहुँच के धनवान दिखते हैं। हे नानक! ऐसे व्यक्ति को पैदा करने वाली माँ (बहुत) भाग्यशाली है।4।3।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: संख्या जहर है। पर, कई किस्म की जड़ी-बूटियों का साथ मिला के आग में इसको मारा जाता है (भावना दी जाती है), इस मिश्रण को अच्छी तरह पीसा (कुश्ता किया) जाता है। यह कुश्ता, मरा हुआ संख्या एक बढ़िया दवाई बन जाता है, जो कई रोगों को दूर कर सकता है। दुनिया के दुख-कष्ट मनुष्य पर दबाव डाल के उसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देते हैं। पर यही दुख दवाई भी बन सकते हैं। इस शब्द में वह आत्मिक विधि बताई गई है।
नोट: ‘मारण’ के बारे में (महुरे को कुश्ता करने के लिए जड़ी-बूटियाँ आदि) (Kushta is a traditional preparation originating from India and Pakistan, used as an aphrodisiac. The terms medically used for the preparation contains oxidized metals (zinc, arsenic, mercury, and lead) that are combined with a variety of herbs. Metal poisoning is a risk associated with application and use of kushta)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ बागे कापड़ बोलै बैण ॥ लमा नकु काले तेरे नैण ॥ कबहूं साहिबु देखिआ भैण ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ बागे कापड़ बोलै बैण ॥ लमा नकु काले तेरे नैण ॥ कबहूं साहिबु देखिआ भैण ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बागे = सफेद। कापड़ = कपड़े, पंख। बैण = (मीठे) बोल। बोलै = बोलती है। नैण = आँखें। भैण = हे बहन!।1।
अर्थ: (जैसे) सफेद पंखों वाली (कूँज मीठे) बोल बोलती है (वैसे) है बहन! (तेरा भी सुंदर रंग है, बोल भी मीठे हैं, तेरे नैन-नक्श भी तीखे हैं) तेरा नाम लंबा है, तेरे नेत्र काले हैं (भाव, हे जीव-स्त्री! तुझे परमात्मा ने सुंदर तीखे नैन-नक्शों वाला सुंदर शरीर दिया है, पर जिस ने ये दाति दी है) तूने कभी उस मालिक के दर्शन भी किए हैं (कि नहीं)?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊडां ऊडि चड़ां असमानि ॥ साहिब सम्रिथ तेरै ताणि ॥ जलि थलि डूंगरि देखां तीर ॥ थान थनंतरि साहिबु बीर ॥२॥
मूलम्
ऊडां ऊडि चड़ां असमानि ॥ साहिब सम्रिथ तेरै ताणि ॥ जलि थलि डूंगरि देखां तीर ॥ थान थनंतरि साहिबु बीर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊडां = मैं उड़ती हूँ। ऊडि = उड़ के। चढ़ां = मैं पहुँचती हूँ। असमानि = आसमान में। साहिब = हे साहिब! तेरै ताणि = तेरी दी हुई ताकत से। डूंगरि = पहाड़ में। देखां = मैं देखती हूँ। तीर = दरियाओं के किनारे। थान थनंतरि = हर जगह में। बीर = हे वीर!।2।
अर्थ: हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! मैं (कुँज) तेरी दी हुई ताकत से (तेरे दिए हुए पंखों से) उड़ती हूँ, और उड़ के आसमान में पहुँचती हूँ (भाव, हे प्रभु! अगर मैं जीव-स्त्री इन सुंदर अंगों का इस सुंदर शरीर का मान भी करती हूँ तो भी ये सुंदर अंग तेरे ही दिए हुए हैं, ये सुंदर शरीर तेरा ही बख्शा हुआ है)।
हे वीर! (उस दाते की मेहर से) मैं पानी में, धरती में, पहाड़ों में, दरियाओं के किनारे (जिधर भी) देखती हूँ, वह मालिक हर जगह में मौजूद है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि तनु साजि दीए नालि ख्मभ ॥ अति त्रिसना उडणै की डंझ ॥ नदरि करे तां बंधां धीर ॥ जिउ वेखाले तिउ वेखां बीर ॥३॥
मूलम्
जिनि तनु साजि दीए नालि ख्मभ ॥ अति त्रिसना उडणै की डंझ ॥ नदरि करे तां बंधां धीर ॥ जिउ वेखाले तिउ वेखां बीर ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। साजि = बना के। अति = बहुत। उडनै की डंझ = उड़ने की तमन्ना, भटकने की चाहत। डंझ = बहुत प्यास। बंधा धीर = मैं धीरज बाँधती हूँ। बीर = हे वीर!।3।
अर्थ: हे वीर! जिस (मालिक) ने यह शरीर बना के इसके साथ यह सुंदर (तीखे नैन-नक्श वाले) अंग दिए हैं, (माया की) बहुत सारी तृष्णा भी उसी ने लगाई है, भटकने की चाहत भी उसी ने ही (मेरे अंदर) पैदा की है।
जब वह मालिक मेहर की नजर करता है, तब मैं (माया की तृष्णा से) धीरज पाती हूँ (मैं भटकने से हट जाती हूँ), और जैसे-जैसे वह मुझे अपने दर्शन करवाता हूँ, वैसे-वैसे मैं दर्शन करती हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न इहु तनु जाइगा न जाहिगे ख्मभ ॥ पउणै पाणी अगनी का सनबंध ॥ नानक करमु होवै जपीऐ करि गुरु पीरु ॥ सचि समावै एहु सरीरु ॥४॥४॥९॥
मूलम्
न इहु तनु जाइगा न जाहिगे ख्मभ ॥ पउणै पाणी अगनी का सनबंध ॥ नानक करमु होवै जपीऐ करि गुरु पीरु ॥ सचि समावै एहु सरीरु ॥४॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न जाइगा = सदा नहीं निभेगा। सनबंध = मेल। करम = बख्शिश। करि = कर के, धार के। सचि = सदा में, सदा स्थिर प्रभु में।4।
अर्थ: (हे वीर!) ना यह शरीर सदा साथ निभेगा, ना ही ये सुंदर अंग ही सदा कायम रहेंगें। यह तो हवा पानी आग आदि तत्वों का मेल है (जब तत्व बिखर जाएंगे, शरीर गिर जाएगा)। हे नानक! जब मालिक की मेहर की निगाह होती है, तब गुरु पीर का पल्ला पकड़ के मालिक-प्रभु को स्मरण किया जा सकता है, तब यह शरीर उस सदा-स्थिर मालिक में लीन रहता है (तब यह सुंदर ज्ञान-इन्द्रियाँ भटकने से हट के प्रभु में टिकी रहती हूँ)।4।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला ३ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरंकारु आकारु है आपे आपे भरमि भुलाए ॥ करि करि करता आपे वेखै जितु भावै तितु लाए ॥ सेवक कउ एहा वडिआई जा कउ हुकमु मनाए ॥१॥
मूलम्
निरंकारु आकारु है आपे आपे भरमि भुलाए ॥ करि करि करता आपे वेखै जितु भावै तितु लाए ॥ सेवक कउ एहा वडिआई जा कउ हुकमु मनाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंकारु = (निर+आकार) जिसका कोई खास रूप नहीं। आकारु = यह दिखाई देता जगत। आपे = आप ही। भरमि = भटकना में (डाल के)। भुलाए = गलत रास्ते पर डाल देता है। करि = कर के। करता = कर्तार। जितु = जिस (काम) में। भावै = (उसको) अच्छा लगता है। तितु = उस (काम) में। वडिआई = इज्जत। जा कउ = जिस (सेवक) को।1।
अर्थ: हे भाई! यह सारा दिखाई देता संसार निरंकार स्वयं ही स्वयं है (परमात्मा का अपना ही स्वरूप है)। परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) भटकना के द्वारा गलत राह पर डालता है। (सारे काम) कर कर के कर्तार स्वयं ही (उन कामों को) देखता है। जिस (काम) में उसकी रजा होती है (हरेक जीव को) उस (काम) में लगाता है। जिस सेवक से अपना हुक्म मनवाता है (उसको हुक्म मीठा लगवाता है, आज्ञा में चलाता है), उसको वह यही इज्जत बख्शता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपणा भाणा आपे जाणै गुर किरपा ते लहीऐ ॥ एहा सकति सिवै घरि आवै जीवदिआ मरि रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आपणा भाणा आपे जाणै गुर किरपा ते लहीऐ ॥ एहा सकति सिवै घरि आवै जीवदिआ मरि रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाणा = रज़ा। ते = से। लहीऐ = ढूँढा जाता है, समझा जाता है। सकति = माया, माया वाली रुचि। सिवै घरि = शिव के घर में, प्रभु की तरफ। मरि रहीऐ = स्वैभाव से मरा जाता है, अपने अंदर से स्वैभाव खत्म कर लिया जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) खुद ही अपनी मर्जी जानता है, (उसकी रज़ा को) गुरु की मेहर से समझा जा सकता है। (जब प्रभु की रज़ा की समझ आ जाती है, तब) यह माया वाली रुचि परमात्मा (के चरणों) में जुड़ती है, और दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए ही अपने अंदर से स्वै भाव खत्म कर लिया जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेद पड़ै पड़ि वादु वखाणै ब्रहमा बिसनु महेसा ॥ एह त्रिगुण माइआ जिनि जगतु भुलाइआ जनम मरण का सहसा ॥ गुर परसादी एको जाणै चूकै मनहु अंदेसा ॥२॥
मूलम्
वेद पड़ै पड़ि वादु वखाणै ब्रहमा बिसनु महेसा ॥ एह त्रिगुण माइआ जिनि जगतु भुलाइआ जनम मरण का सहसा ॥ गुर परसादी एको जाणै चूकै मनहु अंदेसा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़ै = (पंडित) पढ़ता है (एकवचन)। पढ़ि = पढ़ के। वादु = चर्चा, कथा कहानी। वखाणै = कहता है, सुनाता है। महेसा = शिव। त्रिगुण माइआ = (रजो, तमो, सतो) तीन गुणों वाली माया। जिनि = जिस (माया) ने। सहसा = सहम, खतरा। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। जाणै = सांझ डालता है। मनहु = मन से। अंदेसा = फिक्र।2।
अर्थ: (पर, हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर प्रभु की रज़ा समझने की जगह, पण्डित निरे) वेद (ही) पढ़ता रहता है, और, पढ़ के (उनकी) चर्चा ही (और लोगों को) सुनाता रहता है, ब्रहमा, विष्णू, शिव (आदि देवताओं की कथा-कहानियां ही सुनाता रहता है। इसका नतीजा यह होता है कि) यह त्रैगुणी माया जिसने सारे जगत को भटका रखा है, (गलत राह पर डाला हुआ है, उसके अंदर) जनम-मरण (के चक्कर) का सहम बनाए रखती है। हाँ, जो मनुष्य (गुरु की शरण आ के) गुरु की मेहर से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, उसके मन में से (हरेक) फिक्र दूर हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम दीन मूरख अवीचारी तुम चिंता करहु हमारी ॥ होहु दइआल करि दासु दासा का सेवा करी तुमारी ॥ एकु निधानु देहि तू अपणा अहिनिसि नामु वखाणी ॥३॥
मूलम्
हम दीन मूरख अवीचारी तुम चिंता करहु हमारी ॥ होहु दइआल करि दासु दासा का सेवा करी तुमारी ॥ एकु निधानु देहि तू अपणा अहिनिसि नामु वखाणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। दीन = गरीब, निमाणे। अवीचारी = विचार हीन, बेसमझ। चिंता = फिक्र, ध्यान। करि = कर ले, बना ले। करी = मैं करता रहूँ। सेवा = भक्ति। निधानु = खजाना। अहि = दिन। निसि = रात। वखाणी = मैं उचारता रहूँ।3।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव निमाणे मूर्ख बेसमझ हैं, तू खुद ही हमारा ध्यान रखा कर। हे प्रभु! (मेरे पर) दयावान हो, (मुझे अपने) दासों का दास बना ले (ताकि) मैं तेरी भक्ति करता रहूँ। हे प्रभु! तू मुझे अपना नाम खजाना दे, मैं दिन-रात (तेरा) नाम जपता रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत नानकु गुर परसादी बूझहु कोई ऐसा करे वीचारा ॥ जिउ जल ऊपरि फेनु बुदबुदा तैसा इहु संसारा ॥ जिस ते होआ तिसहि समाणा चूकि गइआ पासारा ॥४॥१॥
मूलम्
कहत नानकु गुर परसादी बूझहु कोई ऐसा करे वीचारा ॥ जिउ जल ऊपरि फेनु बुदबुदा तैसा इहु संसारा ॥ जिस ते होआ तिसहि समाणा चूकि गइआ पासारा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहत = कहता है। परसादि = कृपा से। करे वीचारा = ख्याल बनाता है, विचार करता है। फेनु = झाग। बुदबुदा = बुलबुला। जिस ते = जिस (परमात्मा) से। तिसहि = उस में ही। पासारा = खिलारा। चूकि गइआ = समाप्त हो जाता है।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: नानक कहता है: हे भाई! तुम गुरु की कृपा से ही (सही जीवन-मार्ग) को समझ सकते हो। (जो मनुष्य समझता है, वह जगत के बारे अपने) ख्याल इस प्रकार बनाता है जैसे पानी के ऊपर झाग है बुलबुला है (जो जल्द ही मिट जाता है) वैसे ही यह जगत है। जिस (परमात्मा) से (जगत) पैदा होता है (जब) उसमें लीन हो जाता है, तब ये सारा जगत-पसारा समाप्त हो जाता है।4।1।
[[1258]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ जिनी हुकमु पछाणिआ से मेले हउमै सबदि जलाइ ॥ सची भगति करहि दिनु राती सचि रहे लिव लाइ ॥ सदा सचु हरि वेखदे गुर कै सबदि सुभाइ ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ जिनी हुकमु पछाणिआ से मेले हउमै सबदि जलाइ ॥ सची भगति करहि दिनु राती सचि रहे लिव लाइ ॥ सदा सचु हरि वेखदे गुर कै सबदि सुभाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = उन मनुष्यों को। सबदि = शब्द से। जलाइ = जला के। सची = अटल रहने वाली। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में। लाइ = लगा के। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। कै सबदि = के शब्द से। सुभाइ = प्रेम में (टिक के)।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा की रजा को मीठा करके माना है, प्रभु ने गुरु के शब्द द्वारा (उनके अंदर से) अहंकार जला के उनको (अपने चरणों में) जोड़ लिया है। वह मनुष्य दिन-रात सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति करते हैं, वे लगन लगा के सदा-स्थिर हरि में टिके रहते हैं। वे मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा प्रभु-प्रेम में (टिक के) सदा-स्थिर हरि को हर जगह बसता देखते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन रे हुकमु मंनि सुखु होइ ॥ प्रभ भाणा अपणा भावदा जिसु बखसे तिसु बिघनु न कोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन रे हुकमु मंनि सुखु होइ ॥ प्रभ भाणा अपणा भावदा जिसु बखसे तिसु बिघनु न कोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे मन = हे मन! हुकमु मंनि = हुक्म को अपने भले के लिए जान, रजा में राजी रह। बिघनु = जीवन-राह में रुकावट।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! (परमात्मा की) रजा में चला कर, (इस तरह) आत्मिक आनंद बना रहता है। हे मन! प्रभु को अपनी मर्जी प्यारी लगती है। जिस मनुष्य पर मेहर करता है (वह उसकी रजा में चलता है), उसके जीवन-राह में कोई रुकावट नहीं आती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण सभा धातु है ना हरि भगति न भाइ ॥ गति मुकति कदे न होवई हउमै करम कमाहि ॥ साहिब भावै सो थीऐ पइऐ किरति फिराहि ॥२॥
मूलम्
त्रै गुण सभा धातु है ना हरि भगति न भाइ ॥ गति मुकति कदे न होवई हउमै करम कमाहि ॥ साहिब भावै सो थीऐ पइऐ किरति फिराहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभा धातु = निजी दौड़ भाग। भाइ = प्यार में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मुकति = विकारों से मुक्ति। कमाहि = करते रहते हैं। साहिब भावै = मालिक प्रभु को अच्छा लगता है।
अर्थ: हे भाई! त्रैगुणी (माया में सदा जुड़े रहना) निरी भटकना ही है (इसमें फसे रहने से) ना प्रभु की भक्ति हो सकती है, ना ही उसके प्यार में लीन हुआ जा सकता है। (त्रैगुणी माया के मोह के कारण) ऊँची आत्मिक अवस्था नहीं हो सकती, विकारों से खलासी कभी नहीं हो सकती। मनुष्य अहंकार (बढ़ाने वाले) काम (ही करते रहते हैं)। (पर जीवों के भी क्या वश में?) जो कुछ मालिक-हरि को अच्छा लगता है वही होता है, पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जीव भटकते फिरते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर भेटिऐ मनु मरि रहै हरि नामु वसै मनि आइ ॥ तिस की कीमति ना पवै कहणा किछू न जाइ ॥ चउथै पदि वासा होइआ सचै रहै समाइ ॥३॥
मूलम्
सतिगुर भेटिऐ मनु मरि रहै हरि नामु वसै मनि आइ ॥ तिस की कीमति ना पवै कहणा किछू न जाइ ॥ चउथै पदि वासा होइआ सचै रहै समाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पइऐ किरति = किए कर्मों के संस्कारों अनुसार। फिराहि = भटकते फिरते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! अगर गुरु मिल जाए, तो मनुष्य का मन (अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेता है, उसके मन में हरि-नाम बसता है, (फिर उसका जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) उसका मूल्य नहीं पड़ सकता, उसका बयान नहीं किया जा सकता। वह मनुष्य उस अवस्था में जहाँ माया के तीन गुणों का जोर नहीं पड़ सकता, वह सदा कायम रहने वाले प्रभु में लीन हुआ रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा हरि प्रभु अगमु अगोचरु है कीमति कहणु न जाइ ॥ गुर परसादी बुझीऐ सबदे कार कमाइ ॥ नानक नामु सलाहि तू हरि हरि दरि सोभा पाइ ॥४॥२॥
मूलम्
मेरा हरि प्रभु अगमु अगोचरु है कीमति कहणु न जाइ ॥ गुर परसादी बुझीऐ सबदे कार कमाइ ॥ नानक नामु सलाहि तू हरि हरि दरि सोभा पाइ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटिऐ = अगर मिल जाए। मरि रहै = स्वै भाव दूर कर लेता है। मनि = मन में। आइ = आ के। चउथै = माया के तीन गुणों से ऊपर की अवस्था में। सचै = सदा स्थिर प्रभु में।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे। परसादी = कृपा से ही। कमाइ = कमाता है। दरि = दर पर। पाइ = पाता है (एकवचन)।4।
अर्थ: हे भाई! मेरा हरि-प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। गुरु की मेहर से ही उसकी जान-पहचान होती है (जिसको जान-पहचान हो जाती है, वह मनुष्य) गुरु के शब्द अनुसार (हरेक) कार करता है। हे नानक! तू सदा हरि-नाम स्मरण करता रह। (जो स्मरण करता है) वह प्रभु के दर पर शोभा पाता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ गुरमुखि कोई विरला बूझै जिस नो नदरि करेइ ॥ गुर बिनु दाता कोई नाही बखसे नदरि करेइ ॥ गुर मिलिऐ सांति ऊपजै अनदिनु नामु लएइ ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ गुरमुखि कोई विरला बूझै जिस नो नदरि करेइ ॥ गुर बिनु दाता कोई नाही बखसे नदरि करेइ ॥ गुर मिलिऐ सांति ऊपजै अनदिनु नामु लएइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = करता है। गुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लएइ = लेता है, जपता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसनो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की निगाह करता है, वह कोई विरला गुरु के सन्मुख हो के (यह) समझता है (कि) गुरु के बिना और कोई (नाम की) दाति देने वाला नहीं है, जिस पर मेहर की निगाह करता है, उसको (नाम) बख्शता है। अगर गुरु मिल जाए, तो (मन में) शांति पैदा हो जाती है (और मनुष्य) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन हरि अम्रित नामु धिआइ ॥ सतिगुरु पुरखु मिलै नाउ पाईऐ हरि नामे सदा समाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन हरि अम्रित नामु धिआइ ॥ सतिगुरु पुरखु मिलै नाउ पाईऐ हरि नामे सदा समाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। पाईऐ = हासिल कर लिया जाता है। नामे = नाम में ही। समाइ = लीन रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम चेते किया कर। जब गुरु मर्द मिल जाता है, तब हरि-नाम प्राप्त होता है (जिसको गुरु मिलता है) वह सदा हरि-नाम में लीन रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख सदा विछुड़े फिरहि कोइ न किस ही नालि ॥ हउमै वडा रोगु है सिरि मारे जमकालि ॥ गुरमति सतसंगति न विछुड़हि अनदिनु नामु सम्हालि ॥२॥
मूलम्
मनमुख सदा विछुड़े फिरहि कोइ न किस ही नालि ॥ हउमै वडा रोगु है सिरि मारे जमकालि ॥ गुरमति सतसंगति न विछुड़हि अनदिनु नामु सम्हालि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। फिरहि = भटकते हैं। सिरि = सिर के भार। जमकालि = जमकाल ने, आत्मिक मौत ने। समालि = हृदय में बसा के।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (परमात्मा से) विछुड़ के सदा भटकते फिरते हैं (वे यह नहीं समझते कि जिनके साथ मोह है, उनमें से) कोई भी किसी के साथ सदा साथ नहीं निभा सकता। उनके अंदर अहंकार का बड़ा रोग टिका रहता है, आत्मिक मौत ने उनको सिर के भार पटखनी दी होती है। जो मनुष्य गुरु की मति लेते हैं, वे हर वक्त परमात्मा का नाम (हृदय में) बसा के साधु-संगत से कभी नहीं विछुड़ते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभना करता एकु तू नित करि देखहि वीचारु ॥ इकि गुरमुखि आपि मिलाइआ बखसे भगति भंडार ॥ तू आपे सभु किछु जाणदा किसु आगै करी पूकार ॥३॥
मूलम्
सभना करता एकु तू नित करि देखहि वीचारु ॥ इकि गुरमुखि आपि मिलाइआ बखसे भगति भंडार ॥ तू आपे सभु किछु जाणदा किसु आगै करी पूकार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = पैदा करने वाला। नित = सदा। करि वीचारु = विचार करके। देखहि = संभाल करता है (तू)। इकि = कई। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। बखसे = बख्शता है, देता है। आपे = आप ही। कर = मैं करूँ।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! सब जीवों को पैदा करने वाला सिर्फ तू ही है, और विचार करके तू सदा संभाल भी करता है। कई जीवों को गुरु के द्वारा तूने स्वयं (अपने साथ) जोड़ा हुआ है, (गुरु उनको तेरी) भक्ति के खजाने बख्शता है। हे प्रभु! मैं और किस के आगे फरियाद करूँ? तू स्वयं ही (हमारे दिलों की) हरेक माँग जानता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु अम्रितु है नदरी पाइआ जाइ ॥ अनदिनु हरि हरि उचरै गुर कै सहजि सुभाइ ॥ नानक नामु निधानु है नामे ही चितु लाइ ॥४॥३॥
मूलम्
हरि हरि नामु अम्रितु है नदरी पाइआ जाइ ॥ अनदिनु हरि हरि उचरै गुर कै सहजि सुभाइ ॥ नानक नामु निधानु है नामे ही चितु लाइ ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरी = मेहर की निगाह से। उचरै = उचारता है। गुर कै = गुरु से, गुरु की शरण पड़ के। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में। निधानु = खजाना। नामे = नाम में। लाइ = लगाता है, जोड़ता है।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, पर उसकी मेहर की निगाह से ही मिलता है। (जिस पर मेहर की निगाह होती है, वह मनुष्य) गुरु के माध्यम से आत्मिक अडोलता में टिक के हर वक्त परमात्मा का नाम उचारता है। हे नानक! (उस मनुष्य के लिए) हरि-नाम ही खजाना है, वह नाम में ही चिक्त जोड़े रखता है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ गुरु सालाही सदा सुखदाता प्रभु नाराइणु सोई ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ वडी वडिआई होई ॥ अनदिनु गुण गावै नित साचे सचि समावै सोई ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ गुरु सालाही सदा सुखदाता प्रभु नाराइणु सोई ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ वडी वडिआई होई ॥ अनदिनु गुण गावै नित साचे सचि समावै सोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालाही = मैं सलाहता रहूँ। सोई = वह (गुरु) ही। परसादि = कृपा से। परमपदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। वडिआई = शोभा, इज्जत। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गावै = गाता है (एकवचन)। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में।1।
अर्थ: हे भाई! मैं तो सदा (अपने) गुरु को ही सलाहता हूँ, वह सारे सुख देने वाला है (मेरे लिए) वह नारायण प्रभु है। (जिस मनुष्य ने) गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, उसकी (लोक-परलोक में) बड़ी इज्जत बन गई, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के सदा गुण गाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन रे गुरमुखि रिदै वीचारि ॥ तजि कूड़ु कुट्मबु हउमै बिखु त्रिसना चलणु रिदै सम्हालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन रे गुरमुखि रिदै वीचारि ॥ तजि कूड़ु कुट्मबु हउमै बिखु त्रिसना चलणु रिदै सम्हालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। रिदै = हृदय में। तजि = छोड़ दे। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। समालि = याद रख, संभाल। चलणु = कूच, चलना।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु की शरण पड़ कर हृदय में (परमात्मा के गुणों को) विचारा कर। हे भाई! झूठ छोड़, कुटंब (का मोह) छोड़, अहंकार त्याग, आत्मिक मौत लाने वाली तृष्णा छोड़। हृदय में सदा याद रख (कि यहाँ से) कूच करना (है)।1। रहाउ।
[[1259]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु दाता राम नाम का होरु दाता कोई नाही ॥ जीअ दानु देइ त्रिपतासे सचै नामि समाही ॥ अनदिनु हरि रविआ रिद अंतरि सहजि समाधि लगाही ॥२॥
मूलम्
सतिगुरु दाता राम नाम का होरु दाता कोई नाही ॥ जीअ दानु देइ त्रिपतासे सचै नामि समाही ॥ अनदिनु हरि रविआ रिद अंतरि सहजि समाधि लगाही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होरु = (गुरु के बिना कोई) और। दाता = (नाम की) दाति देने वाला। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। देइ = देता है। त्रिपतासे = तृप्त हो जाते हैं। सचै नामि = सदा स्थिर हरि नाम में। समाही = लीन रहते हैं (बहुवचन)। रविआ = मौजूद। रिद अंतरि = हृदय में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम की दाति देने वाला (सिर्फ) गुरु (ही) है, (नाम की दाति) देने वाला (गुरु के बिना) और कोई नहीं। जिस मनुष्यों को गुरु आत्मिक जीवन की दाति देता है, वे (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं, वे मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहते हैं, उनके हृदय में परमात्मा (का नाम) हर वक्त बसा रहता है, वे आत्मिक अडोलता में हमेशा टिके रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर सबदी इहु मनु भेदिआ हिरदै साची बाणी ॥ मेरा प्रभु अलखु न जाई लखिआ गुरमुखि अकथ कहाणी ॥ आपे दइआ करे सुखदाता जपीऐ सारिंगपाणी ॥३॥
मूलम्
सतिगुर सबदी इहु मनु भेदिआ हिरदै साची बाणी ॥ मेरा प्रभु अलखु न जाई लखिआ गुरमुखि अकथ कहाणी ॥ आपे दइआ करे सुखदाता जपीऐ सारिंगपाणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदी = शब्द में। भेदिआ = भेदा गया। साची बाणी = सदा स्थिर हरि की महिमा की वाणी। अलखु = जिसका सही स्वरूप समझा नहीं जा सकता। गुरमुखि = गुरु से। अकथ = जिसका मुकम्मल रूप बयान ना हो सके। अकथ कहाणी = अकथ हरि की महिमा। जपीऐ = जपा जासकता है। सारिंग पाणी = (सारिंग = धनुष। पाणी = पाणि, हाथ) जिसके हाथ में धनुष है, धर्नुधारी प्रभु।3।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु अलख है उसका सही स्वरूप समझा नहीं जा सकता। गुरु की शरण पड़ कर उस अकथ की महिमा की जा सकती है। जिस मनुष्य का यह मन गुरु के शब्द से भेद जाता है, उसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभु की महिमा टिकी रहती है। हे भाई! सारे सुख देने वाला धर्नुधारी प्रभु स्वयं ही जब मेहर करता है, तो उसका नाम जपा जा सकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवण जाणा बहुड़ि न होवै गुरमुखि सहजि धिआइआ ॥ मन ही ते मनु मिलिआ सुआमी मन ही मंनु समाइआ ॥ साचे ही सचु साचि पतीजै विचहु आपु गवाइआ ॥४॥
मूलम्
आवण जाणा बहुड़ि न होवै गुरमुखि सहजि धिआइआ ॥ मन ही ते मनु मिलिआ सुआमी मन ही मंनु समाइआ ॥ साचे ही सचु साचि पतीजै विचहु आपु गवाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहुड़ि = दोबारा। मन ही ते = अंदर से ही। मनु मिलिआ = अपने आप की सूझ पड़ गई। मन ही = मन में ही, अंदर ही। मंनु = मन। साचे ही साचि = सदा ही सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि। आपु = स्वै भाव।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख हो के मनुष्य ने आत्मिक अडोलता में (टिक के) परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसको दोबारा जनम-मरण का चक्कर नहीं रहता। उसको अपने अंदर से स्वयं की समझ हो जाती है, उसको मालिक-प्रभु मिल जाता है, उसका मन (फिर) अंदर ही लीन हो जाता है। सदा-स्थिर हरि को (हृदय में बसा के) वह हर वक्त सदा-स्थिर प्रभु में मगन रहता है, वह अपने अंदर से स्वै-भाव (अहम्) दूर कर लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको एकु वसै मनि सुआमी दूजा अवरु न कोई ॥ एकुो नामु अम्रितु है मीठा जगि निरमल सचु सोई ॥ नानक नामु प्रभू ते पाईऐ जिन कउ धुरि लिखिआ होई ॥५॥४॥
मूलम्
एको एकु वसै मनि सुआमी दूजा अवरु न कोई ॥ एकुो नामु अम्रितु है मीठा जगि निरमल सचु सोई ॥ नानक नामु प्रभू ते पाईऐ जिन कउ धुरि लिखिआ होई ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। जगि = जगत में। ते = से। धुरि = धुर दरगाह से।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ऐकुो’ में अक्षर ‘क’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ हैं असल शब्द ‘ऐकु’ है यहाँ ‘ऐको’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम परमात्मा से ही मिलता है। (मिलता उनको है) जिनके भाग्यों में धुर-दरगाह से ही (नाम की प्राप्ति का लेख) लिखा होता है। उनके मन में सदा मालिक-प्रभु ही बसा रहता है, और कोई दूसरा नहीं बसता। उनको आत्मिक जीवन देने वाला सिर्फ हरि-नाम ही मीठा लगता है। जगत में (हर जगह उनको) वही दिखाई देता है जो पवित्र है और सदा कायम रहने वाला है।5।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ गण गंधरब नामे सभि उधरे गुर का सबदु वीचारि ॥ हउमै मारि सद मंनि वसाइआ हरि राखिआ उरि धारि ॥ जिसहि बुझाए सोई बूझै जिस नो आपे लए मिलाइ ॥ अनदिनु बाणी सबदे गांवै साचि रहै लिव लाइ ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ गण गंधरब नामे सभि उधरे गुर का सबदु वीचारि ॥ हउमै मारि सद मंनि वसाइआ हरि राखिआ उरि धारि ॥ जिसहि बुझाए सोई बूझै जिस नो आपे लए मिलाइ ॥ अनदिनु बाणी सबदे गांवै साचि रहै लिव लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गण = देवताऔं की एक श्रेणी जो शिव जी की उपासक मानी जाती है। गंधरब = गंधर्व, देवताओं के रागी। नामे = नाम से ही। उधरे = संसार समुंदर से पार लांघे। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। मारि = मार के। सद = सदा। मंनि = मन में। उरि = हृदय में। आपे = आप ही। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सबदे = (गुरु के) शब्द से। गावै = गाता है (एकवचन)। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गण-गंधर्व (आदि देव-श्रेणियों के लोग) सारे परमात्मा के नाम के द्वारा ही, गुरु का शब्द मन में बसा के ही संसार-समुंदर से पार लांघे हैं। (जिन्होंने) परमात्मा को अपने हृदय में टिकाए रखा, उन्होंने (अपने अंदर से) अहंकार को समाप्त करके प्रभु के नाम को सदा अपने मन में बसा लिया।
हे भाई! वही मनुष्य (इस सही जीवन-राह को) समझता है, जिसको परमात्मा स्वयं ही समझ बख्शता है, जिसको स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ता है। वह मनुष्य गुरु की वाणी से गुरु के शब्द से (प्रभु के महिमा के गीत) गाता है, और सदा-स्थिर प्रभु में तवज्जो जोड़े रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे खिनु खिनु नामु सम्हालि ॥ गुर की दाति सबद सुखु अंतरि सदा निबहै तेरै नालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे खिनु खिनु नामु सम्हालि ॥ गुर की दाति सबद सुखु अंतरि सदा निबहै तेरै नालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! खिनु खिनु = हरेक छण। समालि = चेते करता रह। सबद सुखु = शब्द का आनंद। अंतरि = हृदय में। निबहै = साथ बनाए रखता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हर पल याद करता रह। गुरु के बख्शे हुए शब्द का आनंद तेरे अंदर टिका रहेगा। हे मन! (यह हरि-नाम) तेरा साथ सदा बनाए रखेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख पाखंडु कदे न चूकै दूजै भाइ दुखु पाए ॥ नामु विसारि बिखिआ मनि राते बिरथा जनमु गवाए ॥ इह वेला फिरि हथि न आवै अनदिनु सदा पछुताए ॥ मरि मरि जनमै कदे न बूझै विसटा माहि समाए ॥२॥
मूलम्
मनमुख पाखंडु कदे न चूकै दूजै भाइ दुखु पाए ॥ नामु विसारि बिखिआ मनि राते बिरथा जनमु गवाए ॥ इह वेला फिरि हथि न आवै अनदिनु सदा पछुताए ॥ मरि मरि जनमै कदे न बूझै विसटा माहि समाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख पाखंडु = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का दिखावा। चूकै = समाप्त। दूजै भाइ = माया के मोह में। विसारि = भुला के। बिखिआ = माया। मनि = मन से। राते = रति हुए, मस्त। हथि न आवै = नहीं मिलता। हथि = हाथ में। मारि = मर के। माहि = में।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का पाखण्ड कभी समाप्त नहीं होता। वह माया के मोह में दुख सहता रहता है। प्रभु-नाम को भुला के अपने मन में माया के साथ रंगा होने के कारण वह अपनी जिंदगी व्यर्थ गवाता है। उसको यह (मनुष्य जनम का) समय दोबारा नहीं मिलता, (इस वास्ते) सदा हाथ मलता रहता है। वह सदा जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है (सही जीवन-राह को) समझ नहीं सकता, और (विकारों की) गंदगी में लीन रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नामि रते से उधरे गुर का सबदु वीचारि ॥ जीवन मुकति हरि नामु धिआइआ हरि राखिआ उरि धारि ॥ मनु तनु निरमलु निरमल मति ऊतम ऊतम बाणी होई ॥ एको पुरखु एकु प्रभु जाता दूजा अवरु न कोई ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि नामि रते से उधरे गुर का सबदु वीचारि ॥ जीवन मुकति हरि नामु धिआइआ हरि राखिआ उरि धारि ॥ मनु तनु निरमलु निरमल मति ऊतम ऊतम बाणी होई ॥ एको पुरखु एकु प्रभु जाता दूजा अवरु न कोई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। नामि = नाम (-रंग) में। से = वे (बहुवचन)। जीवन मुकति = जिनको जीते हुए ही विकारों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उरि = हृदय में। निरमलु = पवित्र। बाणी = बोल चाल। जाता = जान लिया, गहरी सांझ डाल ली।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य हरि-नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे गुरु के शब्द को मन में बसा के (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखते हैं, वे जीवित ही (दुनिया की मेहनत-कमाई-व्यवहार करते हुए ही) विकारों से खलासी पाए रखते हैं। उनका मन पवित्र हो जाता है, उनका शरीर पवित्र हो जाता है, उनकी मति भी ऊँची हो जाती है, उनके बोल-चाल उत्तम हो जाते हैं। वे मनुष्य एक सर्व-व्यापक प्रभु के साथ गहरी सांझ डाले रखते हैं (प्रभु के बिना) कोई और दूसरा (उनको कहीं) नहीं (दिखता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करे कराए प्रभु आपे आपे नदरि करेइ ॥ मनु तनु राता गुर की बाणी सेवा सुरति समेइ ॥ अंतरि वसिआ अलख अभेवा गुरमुखि होइ लखाइ ॥ नानक जिसु भावै तिसु आपे देवै भावै तिवै चलाइ ॥४॥५॥
मूलम्
आपे करे कराए प्रभु आपे आपे नदरि करेइ ॥ मनु तनु राता गुर की बाणी सेवा सुरति समेइ ॥ अंतरि वसिआ अलख अभेवा गुरमुखि होइ लखाइ ॥ नानक जिसु भावै तिसु आपे देवै भावै तिवै चलाइ ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = करता है (एकवचन)। राता = रंगा हुआ। सेवा = भक्ति। समेइ = समाई रहती है, लीन रहती है। अंतरि = अंदर। अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। जिसु भावै = जो तिसु भावै, जो उसका प्यार लगता है। भावै = जैसे उसकी रजा होती है। चलाइ = जीवन-राह पर चलाता है।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही सब कुछ करता है और (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही मेहर की निगाह (जीवों पर) करता है। (जिस मनुष्य पर मेहर की निगाह करता है, उसका) मन (उसका) तन गुरु की वाणी (के रंग) में रंगा रहता है, उसकी तवज्जो (प्रभु की) भक्ति में लीन रहती है। उसके अंदर अलख और अभेव प्रकट हो जाता है। गुरु के सन्मुख हो के (वह अंदर बसते प्रभु को) देख लेता है।
हे नानक! जो मनुष्य प्रभु को भा जाता है उसको यह दाति बख्शता है। जै। से उसकी रज़ा होती है वह (जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ दुतुके ॥ सतिगुर ते पावै घरु दरु महलु सु थानु ॥ गुर सबदी चूकै अभिमानु ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ दुतुके ॥ सतिगुर ते पावै घरु दरु महलु सु थानु ॥ गुर सबदी चूकै अभिमानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। घरु दरु महलु = परमात्मा का घर दर महल। सु = वह। सबदी = शब्द से। चूकै = समाप्त होता है।1।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य गुरु से ही परमात्मा का घर प्रभु का दर प्रभु का महल और जगह पा सकता है। गुरु के शब्द से ही (मनुष्य के अंदर से) अहंकार समाप्त होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ लिलाटि लिखिआ धुरि नामु ॥ अनदिनु नामु सदा सदा धिआवहि साची दरगह पावहि मानु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिन कउ लिलाटि लिखिआ धुरि नामु ॥ अनदिनु नामु सदा सदा धिआवहि साची दरगह पावहि मानु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिलाटि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। अनदिनु = हर रोज। धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर, सत्कार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के लिए (उनके) माथे पर धुर-दरगाह से नाम (का स्मरण) लिखा होता है, वे मनुष्य हर वक्त सदा-सदा ही नाम स्मरण करते रहते हैं, और सदा कायम रहने वाली दरगाह में वे आदर प्राप्त करते हैं।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मन की बिधि सतिगुर ते जाणै अनदिनु लागै सद हरि सिउ धिआनु ॥ गुर सबदि रते सदा बैरागी हरि दरगह साची पावहि मानु ॥२॥
मूलम्
मन की बिधि सतिगुर ते जाणै अनदिनु लागै सद हरि सिउ धिआनु ॥ गुर सबदि रते सदा बैरागी हरि दरगह साची पावहि मानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधि = तरीका। जाणै = समझता है। सद = सदा। सिउ = साथ। सबदि = शब्द में। बैरागी = माया मोह से स्वतंत्र।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुरु से मन (को जीतने) का ढंग सीख लेता है, उसकी तवज्जो हर वक्त सदा ही परमात्मा (के चरणों) के साथ लगी रहती है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में रंगे रहते हैं, वे सदा (माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं, वे सदा-स्थिर-प्रभु की हजूरी में आदर पाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु खेलै हुकम का बाधा इक खिन महि दह दिस फिरि आवै ॥ जां आपे नदरि करे हरि प्रभु साचा तां इहु मनु गुरमुखि ततकाल वसि आवै ॥३॥
मूलम्
इहु मनु खेलै हुकम का बाधा इक खिन महि दह दिस फिरि आवै ॥ जां आपे नदरि करे हरि प्रभु साचा तां इहु मनु गुरमुखि ततकाल वसि आवै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेलै = खेलता है। बाधा = बंधा हुआ। दह दिस = दसों दिशाओं में। दिस = दिशाओं में, तरफ। नदरि = मेहर की निगाह। साचा = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। ततकाल = उसी वक्त। वसि = वश में।3।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) यह मन (परमात्मा के) हुक्म का बंधा हुआ ही (माया की खेल) खेलता रहता है, और एक छिन में ही दसों-दिशाओं में दौड़-भाग आता है। जब सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही (किसी मनुष्य पर) मेहर की निगाह करता है, तब उसका यह मन गुरु की शरण की इनायत से बड़ी जल्दी वश में आ जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मन की बिधि मन हू जाणै बूझै सबदि वीचारि ॥ नानक नामु धिआइ सदा तू भव सागरु जितु पावहि पारि ॥४॥६॥
मूलम्
इसु मन की बिधि मन हू जाणै बूझै सबदि वीचारि ॥ नानक नामु धिआइ सदा तू भव सागरु जितु पावहि पारि ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन हू = मन से ही। सबदि = शब्द से। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। भव सागरु = संसार समुंदर। जितु = जिस (नाम) से। पावहि = तू हासिल कर ले।4।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (परमात्मा के गुणों को) अपने मन में बसा के (सही जीवन-राह को) समझता है, तो वह अपने अंदर से ही इस मन को वश में रखने की विधि सीख लेता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) तू सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, जिस नाम के द्वारा तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ जीउ पिंडु प्राण सभि तिस के घटि घटि रहिआ समाई ॥ एकसु बिनु मै अवरु न जाणा सतिगुरि दीआ बुझाई ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ जीउ पिंडु प्राण सभि तिस के घटि घटि रहिआ समाई ॥ एकसु बिनु मै अवरु न जाणा सतिगुरि दीआ बुझाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभि = सारे (बहुवचन)। तिस के = उस (परमात्मा) के। घटि घटि = हरेक शरीर में। ना जाणा = मैं नहीं जानता। सतिगुरि = गुरु ने। दीआ बुझाई = समझा दिया है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (मुझे) समझ बख्शी है कि जो परमात्मा हरेक शरीर में समा रहा है, उसके ही दिए हुए ये जिंद ये शरीर ये प्राण ये सारे अंग हैं। हे भाई! उस एक के बिना मैं किसी और के साथ गहरी सांझ नहीं डालता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे नामि रहउ लिव लाई ॥ अदिसटु अगोचरु अपर्मपरु करता गुर कै सबदि हरि धिआई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे नामि रहउ लिव लाई ॥ अदिसटु अगोचरु अपर्मपरु करता गुर कै सबदि हरि धिआई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! नामि = नाम में। रहउ = मैं रहता हूं। लिव = तवज्जो, ध्यान। रहउ लाई = मैं लगाए रखता हूँ। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय।) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। अपरंपर = परे से परे। करता = कर्तार। कै सबदि = के शब्द से। धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! मैं (तो सदा) परमात्मा के नाम में ही लगन लगाए रखता हूँ। जो कर्तार (इन आँखों से) नहीं दिखता, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच हो नहीं सकती, जो बेअंत ही बेअंत है, मैं उसको गुरु के शब्द द्वारा ध्याता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु भीजै एक लिव लागै सहजे रहे समाई ॥ गुर परसादी भ्रमु भउ भागै एक नामि लिव लाई ॥२॥
मूलम्
मनु तनु भीजै एक लिव लागै सहजे रहे समाई ॥ गुर परसादी भ्रमु भउ भागै एक नामि लिव लाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीजै = भीग जाता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। परसादी = कृपा से। भ्रमु = भटकना। नामि = नाम में।2।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों की) लगन एक परमात्मा के साथ लगी रहती है उनका मन उनका तन (नाम-रस से) भीगा रहता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से सिर्फ हरि-नाम में तवज्जो जोड़े रखता है, उसकी भटकना उसका हरेक डर दूर हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बचनी सचु कार कमावै गति मति तब ही पाई ॥ कोटि मधे किसहि बुझाए तिनि राम नामि लिव लाई ॥३॥
मूलम्
गुर बचनी सचु कार कमावै गति मति तब ही पाई ॥ कोटि मधे किसहि बुझाए तिनि राम नामि लिव लाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर बचनी = गुरु के वचन पर चल के। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गति मति = ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त करने वाली सूझ। तब ही = तब ही। कोटि = करोड़ों। किसहि = किसी विरले को। तिनि = उस (मनुष्य) ने। नामि = नाम में।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किसहि’ में से ‘किसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जब मनुष्य) गुरु के वचन पर चल के सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कार करता है, तब ही वह ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकने वाली समझ सीखता है। हे भाई! करोड़ों में से किसी विरले मनुष्य को (गुरु आत्मिक जीवन की) सूझ देता है, उस मनुष्य ने (सदा के लिए) परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ ली।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह जह देखा तह एको सोई इह गुरमति बुधि पाई ॥ मनु तनु प्रान धरीं तिसु आगै नानक आपु गवाई ॥४॥७॥
मूलम्
जह जह देखा तह एको सोई इह गुरमति बुधि पाई ॥ मनु तनु प्रान धरीं तिसु आगै नानक आपु गवाई ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। सोई = वह ही। बुधि = अकल। धरीं = मैं धरता हूँ। आपु = स्वै भाव।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैं जिधर-जिधर देखता हूँ, उधर-उधर एक परमात्मा ही बसता (दिखाई देता) है - यह बुद्धि मुझे गुरु की मति से आई है। उस (गुरु) के आगे मैं स्वै-भाव गवा के अपना मन अपना शरीर अपने प्राण भेट धरता हूँ।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा दूख निवारणु सबदे पाइआ जाई ॥ भगती राते सद बैरागी दरि साचै पति पाई ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा दूख निवारणु सबदे पाइआ जाई ॥ भगती राते सद बैरागी दरि साचै पति पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। दूख निवारणु = दुखों को दूर करने वाला। सबदे = शब्द से ही। पाइआ जाई = मिल सकता है। राते = रंगे हुए। सद = सदा। बैरागी = माया के मोह से निर्लिप। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। पति = इज्जत।1।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सदा कायम रहने वाला है। (जीवों के) दुखों को दूर करने वाला है (वह प्रभु गुरु के) शब्द द्वारा मिल सकता है। (जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा की) भक्ति में रंगे रहते हैं, वे सदा निर्लिप रहते हैं, उनको सदा-स्थिर प्रभु के दर पर आदर मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन रे मन सिउ रहउ समाई ॥ गुरमुखि राम नामि मनु भीजै हरि सेती लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन रे मन सिउ रहउ समाई ॥ गुरमुखि राम नामि मनु भीजै हरि सेती लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन सिउ = मन से, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। रहउ समाई = (प्रभु के चरणों में) लीन रहता हूँ। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। नामि = नाम में। सेती = साथ। लिव = लगन।1 रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! मैं (तो गुरु के सन्मुख हो के प्रभु के चरणों में) टिका रह सकता हूँ। गुरु की शरण पड़ कर ही (मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में भीगता है, (गुरु के सन्मुख र हके ही मनुष्य) प्रभु के साथ तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा प्रभु अति अगम अगोचरु गुरमति देइ बुझाई ॥ सचु संजमु करणी हरि कीरति हरि सेती लिव लाई ॥२॥
मूलम्
मेरा प्रभु अति अगम अगोचरु गुरमति देइ बुझाई ॥ सचु संजमु करणी हरि कीरति हरि सेती लिव लाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! प्यारा प्रभु (तो) बहुत अगम्य (पहुँच से परे) है उस तक ज्ञान-इन्द्रियों की (भी) पहुँच नहीं हो सकती, (पर, जिस मनुष्य को वह प्रभु) गुरु की मति के द्वारा (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है, वह मनुष्य परमात्मा में तवज्जो जोड़ के रखता है, सदा-स्थिर हरि-नाम का स्मरण उस मनुष्य का संजम बनता है, प्रभु की महिमा उसकी कार हो जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सबदु सचु साखी आपे जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ देही काची पउणु वजाए गुरमुखि अम्रितु पाई ॥३॥
मूलम्
आपे सबदु सचु साखी आपे जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ देही काची पउणु वजाए गुरमुखि अम्रितु पाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति = सदा स्थिर प्रभु। साखी = शिक्षा। जोति = जिंद, तवज्जो, ध्यान। काची = नाशवान। पउणु = हवा, सांस। वजाए = बजा रहा है, चला रहा है। अंमितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों की तवज्जो (गुरु के द्वारा) प्रभु की ज्योति में जुड़ती है (उनको यह निष्चय बन जाता है कि) सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही (गुरु का) शब्द है प्रभु स्वयं ही (गुरु की) शिक्षा है। हे भाई! (इस) नाशवान शरीर में (जिसको) हरेक श्वास चला रही है, गुरु के द्वारा (ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पड़ता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे साजे सभ कारै लाए सो सचु रहिआ समाई ॥ नानक नाम बिना कोई किछु नाही नामे देइ वडाई ॥४॥८॥
मूलम्
आपे साजे सभ कारै लाए सो सचु रहिआ समाई ॥ नानक नाम बिना कोई किछु नाही नामे देइ वडाई ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। साजे = पैदा करता है। सभ = सारी सृष्टि। कारै = कार में, काम काज में। नामे = नाम में ही। वडाई = इजजत।4।
अर्थ: हे नानक! (गुरु के द्वारा ही यह समझ पड़ती है कि) जो प्रभु स्वयं ही सारी सृष्टि को पैदा करता है, और काम काज में लगाए रखता है वह सदा-स्थिर प्रभु सब जगह व्यापक है। प्रभु के नाम के बिना कोई भी जीव कोई अस्तित्व नहीं रखता, (कोई पायां नहीं रखता), (जीव को) आदर (प्रभु अपने) नाम से ही बख्शता है।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ हउमै बिखु मनु मोहिआ लदिआ अजगर भारी ॥ गरुड़ु सबदु मुखि पाइआ हउमै बिखु हरि मारी ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ हउमै बिखु मनु मोहिआ लदिआ अजगर भारी ॥ गरुड़ु सबदु मुखि पाइआ हउमै बिखु हरि मारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर। अजगर भारी = अजगर जितना भारी, बहुत भार से। गरुड़ु = गारुड़ी मंत्र, साँप का जहर दूर करने वाला मंत्र। मुखि = मुँह में।1।
अर्थ: हे भाई! अहंकार (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर है, (मनुष्य का) मन (इस जहर के) मोह में फसा रहता है, (इस अहंकार के) बहुत बड़े भार से लदा रहता है। गुरु का शब्द (इस जहर को मारने के लिए) गारुड़ी मंत्र है, (जिस मनुष्य ने यह शब्द मंत्र अपने) मुँह में रख लिया, परमात्मा ने उसके अंदर से यह अहंकार का जहर खत्म कर दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन रे हउमै मोहु दुखु भारी ॥ इहु भवजलु जगतु न जाई तरणा गुरमुखि तरु हरि तारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन रे हउमै मोहु दुखु भारी ॥ इहु भवजलु जगतु न जाई तरणा गुरमुखि तरु हरि तारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। तारी = बेड़ी।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! अहंकार एक बड़ा दुख है (माया का) मोह भारी दुख है (अहंकार और मोह के कारण) इस संसार-समुंदर से पार नहीं लांघा जा सकता। तू गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम की बेड़ी में (इस संसार-समुंदर से) पार लांघ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण माइआ मोहु पसारा सभ वरतै आकारी ॥ तुरीआ गुणु सतसंगति पाईऐ नदरी पारि उतारी ॥२॥
मूलम्
त्रै गुण माइआ मोहु पसारा सभ वरतै आकारी ॥ तुरीआ गुणु सतसंगति पाईऐ नदरी पारि उतारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रै गुण = रजो गुण तमो गुण सतो गुण। पसारा = खिलारा। सभ आकारी = सारे आकारों (शरीरों) में। वरतै = प्रभाव डाल रहा है। तुरीआ गुणु = वह गुण जो माया के तीन गुणों से परे है। नदरी = मेहर की निगाह से।2।
अर्थ: हे भाई! त्रै-गुणी माया का मोह (अपना) पसारा (पसार के) सार जीवों पर सारे जीवों पर अपना प्रभाव डाल रहा है। (इन तीन गुणों से ऊपर है) तुरीआ गुण (यह गुण) साधु-संगत में से हासिल होता है (जो मनुष्य इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा) मेहर की निगाह करके (उसको) संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदन गंध सुगंध है बहु बासना बहकारि ॥ हरि जन करणी ऊतम है हरि कीरति जगि बिसथारि ॥३॥
मूलम्
चंदन गंध सुगंध है बहु बासना बहकारि ॥ हरि जन करणी ऊतम है हरि कीरति जगि बिसथारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुगंध = अच्छी वासना। बहकारि = महकार, महक। कीरति = शोभा, कीर्ति। जगि = जगत में। बिसथारि = बिखेरी हुई है।3।
अर्थ: हे भाई! जैसे चंदन की सुगंधि है जैसे चँदन में से महक निकलती है, वैसे ही परमात्मा के भक्तों की करणी श्रेष्ठ होती है, (भक्तों ने) परमात्मा की महिमा (की सुगंधि) जगत में बिखेरी हुई है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिपा क्रिपा करि ठाकुर मेरे हरि हरि हरि उर धारि ॥ नानक सतिगुरु पूरा पाइआ मनि जपिआ नामु मुरारि ॥४॥९॥
मूलम्
क्रिपा क्रिपा करि ठाकुर मेरे हरि हरि हरि उर धारि ॥ नानक सतिगुरु पूरा पाइआ मनि जपिआ नामु मुरारि ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! उर = हृदय। मनि = मन में। मुरारि = परमात्मा (मुर-अरि; मुर दैत्य का वैरी)।4।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! हे हरि! (मेरे पर) मेहर कर (मेरे) हृदय में अपना नाम बसाए रख। हे नानक! जिस मनुष्य ने पूरा गुरु पा लिया, उसने (सदा) अपने मन में परमात्मा का नाम जपा।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु गिरही कि इहु मनु उदासी ॥ कि इहु मनु अवरनु सदा अविनासी ॥ कि इहु मनु चंचलु कि इहु मनु बैरागी ॥ इसु मन कउ ममता किथहु लागी ॥१॥
मूलम्
इहु मनु गिरही कि इहु मनु उदासी ॥ कि इहु मनु अवरनु सदा अविनासी ॥ कि इहु मनु चंचलु कि इहु मनु बैरागी ॥ इसु मन कउ ममता किथहु लागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिरही = गृहस्थी, घर के जंजालों में फसा हुआ। उदासी = उपराम, निर्लिप। अवरनु = अ+वरनु। चार वर्णों वाले भेद भाव से रहत। अविनासी = नाश रहित, आत्मिक मौत से बचा हुआ। चंचलु = माया की दौड़ भाग में काबू आया हुआ, जिसका मन और तन माया के प्रभाव में आकर दौड़ भाग में फसा हुआ है। ममता = अपनत्व।1।
अर्थ: हे पण्डित! (वेद-शास्त्रों की मर्यादा आदि की चर्चा की जगह ये विचार किया कर कि तेरा) यह मन घर के जंजालों में फंसा रहता है अथवा निर्लिप रहता है? हे पण्डित! (ये सोचा कर कि तेरा) यह मन (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण-भेद से ऊपर है और सदा आत्मिक मौत से बचा रहता है? क्या (तेरा) यह मन माया की दौड़-भाग के शिकंजे में फसा हुआ है अथवा इससे आजाद है (इससे उपराम है)? हे पण्डित! (ये विचार भी किया कर कि) इस मन को ममता कहाँ से आ चिपकती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडित इसु मन का करहु बीचारु ॥ अवरु कि बहुता पड़हि उठावहि भारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पंडित इसु मन का करहु बीचारु ॥ अवरु कि बहुता पड़हि उठावहि भारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंडित = हे पण्डित! कि पढ़हि = क्या पढ़ता है? उठावहि = उठाता है।1। रहाउं
अर्थ: हे पण्डित! (वेद-शास्त्र आदि की मर्यादा पर जोर देने की जगह) अपने इस मन के बारे में विचार किया कर। (अपने मन की पड़ताल छोड़ के) और बहुत सारा जो कुछ तू पढ़ता है, वह (अपने सिर पर अहंकार का) भार ही उठाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ ममता करतै लाई ॥ एहु हुकमु करि स्रिसटि उपाई ॥ गुर परसादी बूझहु भाई ॥ सदा रहहु हरि की सरणाई ॥२॥
मूलम्
माइआ ममता करतै लाई ॥ एहु हुकमु करि स्रिसटि उपाई ॥ गुर परसादी बूझहु भाई ॥ सदा रहहु हरि की सरणाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। करि = कर के, चला के। परसादी = कृपा से। भाई = हे भाई!।2।
अर्थ: हे पण्डित! (देख,) कर्तार ने (खुद इस मन को) माया की ममता चिपकाई हुई है। (कर्तार ने माया की ममता का) ये हुक्म दे के ही जगत पैदा किया हुआ है। हे भाई! गुरु की कृपा से (इस बात को) समझ, और सदा परमात्मा की शरण पड़ा रह (ताकि माया की ममता तेरे ऊपर अपना प्रभाव ना डाल सके)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो पंडितु जो तिहां गुणा की पंड उतारै ॥ अनदिनु एको नामु वखाणै ॥ सतिगुर की ओहु दीखिआ लेइ ॥ सतिगुर आगै सीसु धरेइ ॥ सदा अलगु रहै निरबाणु ॥ सो पंडितु दरगह परवाणु ॥३॥
मूलम्
सो पंडितु जो तिहां गुणा की पंड उतारै ॥ अनदिनु एको नामु वखाणै ॥ सतिगुर की ओहु दीखिआ लेइ ॥ सतिगुर आगै सीसु धरेइ ॥ सदा अलगु रहै निरबाणु ॥ सो पंडितु दरगह परवाणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो = वे मनुष्य। पंड = भार। उतारै = (अपने सिर पर से) उतार देता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। वखाणै = उचारता है, जपता है। ओहु = वह (पण्डित)। दीखिआ = शिक्षा। लेइ = लेता है (एकवचन)। सीसु = सिर। धरेइ = धरता है। अलगु = अलग। निरबानु = निर्वाण, वासना रहत।3।
अर्थ: हे पण्डित! वह (मनुष्य असल) पण्डित है जो (अपने ऊपर से) माया के तीनों गुणों का भार उतार देता है, और हर वक्त हरि-नाम ही जपता रहता है। ऐसा पंडित गुरु की शिक्षा ग्रहण करता है, गुरु के आगे अपना सिर रखे रखता है (सदा गुरु के हुक्म में चलता है)। वह सदा निर्लिप रहता है, माया के मोह से बचा रहता है। ऐसा पण्डित प्रभु की हजूरी में आदर प्राप्त करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभनां महि एको एकु वखाणै ॥ जां एको वेखै तां एको जाणै ॥ जा कउ बखसे मेले सोइ ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु होइ ॥४॥
मूलम्
सभनां महि एको एकु वखाणै ॥ जां एको वेखै तां एको जाणै ॥ जा कउ बखसे मेले सोइ ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु होइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखाणै = कहता है, उपदेश देता है। जां = जब। जा कउ = जिस मनुष्य को। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में।4।
अर्थ: हे पण्डित! (जो पण्डित वेद-शास्त्र आदि की चर्चा की जगह अपने मन को पड़तालता है स्वै अवलोकन करता है स्वै-विश्लेषण करता है, वह) यही उपदेश करता है कि सब जीवों में एक ही परमात्मा बसता है (किसी भी तरह के भेद-भाव को नहीं गिनता)। जब वह पण्डित (सब जीवों में) एक प्रभु को ही देखता है, तबवह उस एक प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेता है। पर, हे पण्डित! जिस मनुष्य पर कर्तार बख्शिश करता है, उसी को वह (अपने चरणों में) जोड़ता है, उस मनुष्य को इस लोक और परलोक में आत्मिक आनंद सदा मिला रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत नानकु कवन बिधि करे किआ कोइ ॥ सोई मुकति जा कउ किरपा होइ ॥ अनदिनु हरि गुण गावै सोइ ॥ सासत्र बेद की फिरि कूक न होइ ॥५॥१॥१०॥
मूलम्
कहत नानकु कवन बिधि करे किआ कोइ ॥ सोई मुकति जा कउ किरपा होइ ॥ अनदिनु हरि गुण गावै सोइ ॥ सासत्र बेद की फिरि कूक न होइ ॥५॥१॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन बिधि = कौन सी जुगती? कोइ = कोई मनुष्य। कूक = शोर, (मर्यादा चलाने का) शोर, हू हल्ला।5।
अर्थ: हे पण्डित! नानक कहता है: (माया के बंधनो से निजात हासिल करने के लिए आजादी पाने के लिए अपनी बुद्धि के आसरे) कोई भी मनुष्य कोई जुगति नहीं बरत सकता। जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है वही बंधनो से मुक्ति पाता है। वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है, वह फिर (अपने ऊँचे वर्ण आदि को साबित करने के लिए) वेद-शास्त्रों आदि की मर्यादा का शोर नहीं मचाता फिरता।5।1।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि मनमुख भरमाई ॥ जमकालु मारे नित पति गवाई ॥ सतिगुर सेवा जम की काणि चुकाई ॥ हरि प्रभु मिलिआ महलु घरु पाई ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि मनमुख भरमाई ॥ जमकालु मारे नित पति गवाई ॥ सतिगुर सेवा जम की काणि चुकाई ॥ हरि प्रभु मिलिआ महलु घरु पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भ्रमि भ्रमि भरमाई = सदा ही भटकता फिरता है। नित = सदा। पति = इज्जत। काणि = अधीनता। पाई = ढूँढ लिया।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा भटकता ही रहता है, उसको (आत्मिक) मौत मार लेती है, वह सदा अपनी इज्जत गवाता रहता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह जमों की अधीनता खत्म कर लेता है (वह जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता), उसको हरि-प्रभु मिल जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का महल परमात्मा का घर पा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणी गुरमुखि नामु धिआइ ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोइआ कउडी बदलै जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्राणी गुरमुखि नामु धिआइ ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोइआ कउडी बदलै जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्राणी = हे प्राणी! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जनम। दुबिधा = दो चिक्तापन, मेर तेर। बदलै = बदले में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्राणी! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (जिस मनुष्य ने अपना) कीमती (मनुष्य-) जनम माया की भटकना में गवा लिया, उसका यह जनम कौड़ियों के भाव ही चला जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा गुरमुखि लगै पिआरु ॥ अंतरि भगति हरि हरि उरि धारु ॥ भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥ दरि साचै दिसै सचिआरु ॥२॥
मूलम्
करि किरपा गुरमुखि लगै पिआरु ॥ अंतरि भगति हरि हरि उरि धारु ॥ भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥ दरि साचै दिसै सचिआरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। करि किरपा = मेहर करके, (प्रभु की) मेहर से। उरि = हृदय में। भवजलु = संसार समुंदर। सबदि = शब्द से। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। सचिआरु = सच्चे, सही रास्ते पर चलने वाले।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु की मेहर से गुरु के द्वारा (जिस मनुष्य के हृदय में) प्रभु के प्रति प्यार पनप उठता है, उसके अंदर प्रभु की भक्ति पैदा होती है, वह मनुष्य प्रभु को अपने हृदय में बसा लेता है। प्रभु उसको गुरु-शब्द के माध्यम से संसार-समुंदर से पार लंघाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पर सही स्वीकार दिखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु करम करे सतिगुरु नही पाइआ ॥ बिनु गुर भरमि भूले बहु माइआ ॥ हउमै ममता बहु मोहु वधाइआ ॥ दूजै भाइ मनमुखि दुखु पाइआ ॥३॥
मूलम्
बहु करम करे सतिगुरु नही पाइआ ॥ बिनु गुर भरमि भूले बहु माइआ ॥ हउमै ममता बहु मोहु वधाइआ ॥ दूजै भाइ मनमुखि दुखु पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = (तीर्थ यात्रा आदि निहित हुए धार्मिक) कर्म। भूले = गलत रास्ते पर पड़े रहे। दूजै भाइ = माया के मोह, (प्रभु के बिना किसी) और के प्यार में।3।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए धर्म के नाम पर किए जाने वाले) कर्म करता फिरता है, पर गुरु की शरण नहीं पड़ता, वह मनुष्य गुरु के बिना माया की भटकना में पड़ कर गलत रासते पर पड़ा रहता है। वह मनुष्य अपने अंदर अहंकार ममता और मोह को बढ़ाता जाता है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के प्यार में (फंस के सदा) दुख ही सहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता अगम अथाहा ॥ गुर सबदी जपीऐ सचु लाहा ॥ हाजरु हजूरि हरि वेपरवाहा ॥ नानक गुरमुखि नामि समाहा ॥४॥२॥११॥
मूलम्
आपे करता अगम अथाहा ॥ गुर सबदी जपीऐ सचु लाहा ॥ हाजरु हजूरि हरि वेपरवाहा ॥ नानक गुरमुखि नामि समाहा ॥४॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सबदि = शब्द से। सचु लाहा = सदा टिके रहने वाला लाभ। नामि = नाम में।4।
अर्थ: पर, हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह कर्तार स्वयं ही (ये सारी खेल खेल रहा है)। गुरु के शब्द द्वारा (उसका नाम) जपना चाहिए - यही है सदा कायम रहने वाला लाभ। हे भाई! वह कर्तार हर जगह हाजर-नाजर है और उसको किसी की अधीनता नहीं है। हे नानक! गुरु के माध्यम से ही उसके नाम में लीन हुआ जा सकता है।4।2।11।
[[1262]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ जीवत मुकत गुरमती लागे ॥ हरि की भगति अनदिनु सद जागे ॥ सतिगुरु सेवहि आपु गवाइ ॥ हउ तिन जन के सद लागउ पाइ ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ जीवत मुकत गुरमती लागे ॥ हरि की भगति अनदिनु सद जागे ॥ सतिगुरु सेवहि आपु गवाइ ॥ हउ तिन जन के सद लागउ पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकत = विकारों से बचे हुए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सद = सदा। जागे = माया के हमलों से सचेत रहते हैं। सेवहि = सेवा करते हैं (बहुवचन)। आपु = स्वै भाव। गवाइ = गवा के। हउ = मैं। लागउ = मैं लगता हूँ। पाइ = पाय, पैरों पर।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की मति अनुसार चलते हैं, वे दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए ही विकारों से बचे रहते हैं। वे हर वक्त परमात्मा की भक्ति करके माया के हमलों से सदा सचेत रहते हैं। हे भाई! जो मनुष्य स्वै-भाव दूर करके गुरु की शरण पड़ते हैं, मैं उन मनुष्यों के सदा पैर पड़ता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ जीवां सदा हरि के गुण गाई ॥ गुर का सबदु महा रसु मीठा हरि कै नामि मुकति गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ जीवां सदा हरि के गुण गाई ॥ गुर का सबदु महा रसु मीठा हरि कै नामि मुकति गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवां = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। गाई = मैं गाता हूँ। कै नामि = के नाम से। मुकति = विकारों से मुक्ति। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पाई = मैं प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं सदा परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ और आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहता हूँ। गुरु का शब्द बहुत स्वादिष्ट है मीठा है (इस शब्द की इनायत से) मैं परमात्मा के नाम में जुड़ के विकारों से मुक्ति हासिल करता हूँ, उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु अगिआनु गुबारु ॥ मनमुख मोहे मुगध गवार ॥ अनदिनु धंधा करत विहाइ ॥ मरि मरि जमहि मिलै सजाइ ॥२॥
मूलम्
माइआ मोहु अगिआनु गुबारु ॥ मनमुख मोहे मुगध गवार ॥ अनदिनु धंधा करत विहाइ ॥ मरि मरि जमहि मिलै सजाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। गुबारु = अंधेरा। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मुगध = मूर्ख। करत = करते हुए। विहाइ = (उम्र) बीतती है। मरि = मर के।2।
अर्थ: हे भाई! माया का मोह (जीवन-यात्रा में) आत्मिक-जीवन की तरफ से बेसमझी है, घोर अंधेरा है। अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य इस मोह में फसे रहते हैं। हर वक्त दुनियावी धंधे करते हुए ही उनकी उम्र गुजरती है, वे जनम-मरन के चक्करों में पड़े रहते हैं; ये सजा उनको मिलती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि राम नामि लिव लाई ॥ कूड़ै लालचि ना लपटाई ॥ जो किछु होवै सहजि सुभाइ ॥ हरि रसु पीवै रसन रसाइ ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि राम नामि लिव लाई ॥ कूड़ै लालचि ना लपटाई ॥ जो किछु होवै सहजि सुभाइ ॥ हरि रसु पीवै रसन रसाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। लालचि = लालच में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। पीवै = पीता है (एकवचन)। रसन = जीभ। रसाइ = रसा के, स्वाद ले के।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है, वह नाशवान माया की लालच में नहीं फंसता। (रज़ा के अनुसार) जो कुछ घटित होता है उसको आत्मिक अडोलता से (सहज भाव से) प्यार में (बने रह के सहता है)। वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रस जीभ से स्वाद ले-ले के पीता रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि मधे किसहि बुझाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ जो धुरि मिलिआ सु विछुड़ि न जाई ॥ नानक हरि हरि नामि समाई ॥४॥३॥१२॥
मूलम्
कोटि मधे किसहि बुझाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ जो धुरि मिलिआ सु विछुड़ि न जाई ॥ नानक हरि हरि नामि समाई ॥४॥३॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मधे = बीच। किसहि = किसी विरले को। आपे = आप ही। दे = देता है। धुरि = धुर दरगाह से। सु = वह मनुष्य। समाई = लीन रहता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किसहि’ में से ‘किसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! करोड़ों में से विरले मनुष्य को (परमात्मा) यह सूझ बख्शता है, उसको प्रभु स्वयं ही (यह दाति) देता है और आदर-सम्मान देता है। हे नानक! जो मनुष्य धुर दरगाह से (प्रभु के चरणों में) जुड़ा हुआ है, वह उससे कभी विछुड़ता नहीं। वह सदा ही परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।3।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ रसना नामु सभु कोई कहै ॥ सतिगुरु सेवे ता नामु लहै ॥ बंधन तोड़े मुकति घरि रहै ॥ गुर सबदी असथिरु घरि बहै ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ रसना नामु सभु कोई कहै ॥ सतिगुरु सेवे ता नामु लहै ॥ बंधन तोड़े मुकति घरि रहै ॥ गुर सबदी असथिरु घरि बहै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। सभु कोई = हरेक प्राणी। कहै = कहता है (एकवचन)। सेवे = सेवा करे, शरण पड़े। लहै = प्राप्त कर लेता है। मुकति घरि = मुक्ति के घर में, उस घर में जहाँ विकारों से बचा रहा जा सकता है। सबदी = शब्द से। असथिरु = अडोल चिक्त (हो के)। घरि = हृदय घर में।1।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) हर कोई जीभ से हरि-नाम उचारता है, पर मनुष्य तब ही हरि-नाम (-धन) प्राप्त करता है जब गुरु की शरण पड़ता है। (गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य माया के मोह के) बंधन तोड़ता है और उस अवस्था में टिकता है जहाँ विकारों से खलासी हुई रहती है। गुरु के शब्द द्वारा मनुष्य अडोल-चिक्त हो के हृदय-घर में टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन काहे रोसु करीजै ॥ लाहा कलजुगि राम नामु है गुरमति अनदिनु हिरदै रवीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन काहे रोसु करीजै ॥ लाहा कलजुगि राम नामु है गुरमति अनदिनु हिरदै रवीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! कलजुगि = कलियुग में, विकारों भरे जगत में। लाहा = लाभ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रवीजै = स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (परमात्मा के नाम से) रूठना नहीं चाहिए। जगत में परमात्मा का नाम (ही असल) कमाई है। हे भाई! गुरु की मति ले के हर वकत हृदय में हरि-नाम स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबीहा खिनु खिनु बिललाइ ॥ बिनु पिर देखे नींद न पाइ ॥ इहु वेछोड़ा सहिआ न जाइ ॥ सतिगुरु मिलै तां मिलै सुभाइ ॥२॥
मूलम्
बाबीहा खिनु खिनु बिललाइ ॥ बिनु पिर देखे नींद न पाइ ॥ इहु वेछोड़ा सहिआ न जाइ ॥ सतिगुरु मिलै तां मिलै सुभाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबीहा = पपीहा। बिललाइ = बिलकता है, तरले लेता है। पिर = प्रभु पति। नींद = आत्मिक शांति। सुभाइ = प्रेम से।2।
अर्थ: हे भाई! (जैसे वर्षा की बूँद के लिए) पपीहा हर पल तरले लेता है (बिलखता है), (वैसे ही जीव-स्त्री) प्रभु-पति के दर्शन किए बिना आत्मिक शांति हासिल नहीं कर सकती। (उस तरफ से) यह विछोड़ा (यह विरह) सहा नहीं जा सकता। जब कोई जीव गुरु को मिल जाता है तब वह प्रभु-प्रेम में (लीन हो के) प्रभु को मिल लेता हे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामहीणु बिनसै दुखु पाइ ॥ त्रिसना जलिआ भूख न जाइ ॥ विणु भागा नामु न पाइआ जाइ ॥ बहु बिधि थाका करम कमाइ ॥३॥
मूलम्
नामहीणु बिनसै दुखु पाइ ॥ त्रिसना जलिआ भूख न जाइ ॥ विणु भागा नामु न पाइआ जाइ ॥ बहु बिधि थाका करम कमाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनसै = नाश होता है, आत्मिक तौर पर तबाह हो जाता है। करम = (निहित हुए, धर्म के नाम पर किए जाने वाले) कर्म।3।
अर्थ: हे भाई! नाम से वंचित हुआ मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है दुख सहता रहता है, (माया की) तृष्णा-अग्नि में जलता है, उसकी (माया की यह) भूख दूर नहीं होती। हे भाई! ऊँची किस्मत के बिना परमात्मा का नाम मिलता भी नहीं। (तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए धार्मिक) कर्म कई तरीकों से कर-कर के थक जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण बाणी बेद बीचारु ॥ बिखिआ मैलु बिखिआ वापारु ॥ मरि जनमहि फिरि होहि खुआरु ॥ गुरमुखि तुरीआ गुणु उरि धारु ॥४॥
मूलम्
त्रै गुण बाणी बेद बीचारु ॥ बिखिआ मैलु बिखिआ वापारु ॥ मरि जनमहि फिरि होहि खुआरु ॥ गुरमुखि तुरीआ गुणु उरि धारु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाणी बेद बीचारु = वेदों की वाणी की विचार। बिखिआ = माया। वापारु = वणज, कार्य व्यवहार। मरि = मर के। जनमहि = जन्मते हैं (बहुवचन)। होहि = होते हैं (बहुवचन)। तुरीआ गुणु = वे गुण जो माया के तीनों से परे हैं। उरि = हृदय में।4।
अर्थ: हे भाई! (जो पंडित आदि लोग माया के) तीन गुणों में रखने वाली ही वेद-आदि धर्म-पुस्तकों पर विचार करते रहते हैं (उनके मन को) माया (के मोह) की मैल (सदा चिपकी रहती है)। (उन्होंने इस विचार को) माया कमाने काही व्यापार बनाया हुआ होता है। (ऐसे मनुष्य) जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं, और दुखी होते रहते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के हृदय में हरि-नाम का सहारा होता है, वह उस गुण उस अवस्था को हासिल कर लेता है जो माया के तीन गुणों से ऊपर है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु मानै मानै सभु कोइ ॥ गुर बचनी मनु सीतलु होइ ॥ चहु जुगि सोभा निरमल जनु सोइ ॥ नानक गुरमुखि विरला कोइ ॥५॥४॥१३॥९॥१३॥२२॥
मूलम्
गुरु मानै मानै सभु कोइ ॥ गुर बचनी मनु सीतलु होइ ॥ चहु जुगि सोभा निरमल जनु सोइ ॥ नानक गुरमुखि विरला कोइ ॥५॥४॥१३॥९॥१३॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानै = आदर सत्कार करता है। सभु कोई = हरेक प्राणी। गुर बचनी = गुरु के वचनों पर चल के। चहु जुगि सोभा = चारों युगों में कायम रहने वाली शोभा। सोभा निरमल = निर्मल शोभा पवित्र शोभा, बेदाग़ शोभा। जनु = (असल) सेवक। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु इज्जत बख्शता है उसका आदर हर कोई करता है। गुरु के वचनों की इनायत से उसका मन शांत रहता है, उसको चारों युगों में टिकी रहने वाली बेदाग़ शोभा प्राप्त होती है, वही है असल भक्त। पर, हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला ऐसा कोई विरला (ही) मनुष्य होता है।5।4।13।9।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार महला ४ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मलार महला ४ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु हरि हरि धिआइओ हिरदै मति गुरमति दूख विसारी ॥ सभ आसा मनसा बंधन तूटे हरि हरि प्रभि किरपा धारी ॥१॥
मूलम्
अनदिनु हरि हरि धिआइओ हिरदै मति गुरमति दूख विसारी ॥ सभ आसा मनसा बंधन तूटे हरि हरि प्रभि किरपा धारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। हिरदै = हृदय में। मनसा = (मनीषा) मन के फुरने। प्रभि = प्रभु ने।1।
अर्थ: हे भाई! जो गुरु की मति अनुसार (अपनी) मति को बना के हर वक्त परमात्मा का नाम अपने हृदय में स्मरण करता है, वह अपने सारे दुख दूर कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर हरि-प्रभु ने मेहर की, उसकी सारी आशाओं और मन के फुरनों के बंधन टूट गए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनी हरि हरि लागी तारी ॥ सतिगुरु देखि मेरा मनु बिगसिओ जनु हरि भेटिओ बनवारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नैनी हरि हरि लागी तारी ॥ सतिगुरु देखि मेरा मनु बिगसिओ जनु हरि भेटिओ बनवारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैनी = आँखों में। तारी = ताड़ी, रुचि, एकाग्रता। देखि = देख के। बिगसिओ = खिल उठा है। जनु = सेवक। भेटिओ = मिला। बनवारी = परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरी आँखों की तार प्रभु-चरणों में लगी रहती है। हे भाई! गुरु को देख के मेरा मन खिल उठा है, दास (नानक गुरु की कृपा से ही) बनवारी-प्रभु को मिला है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि ऐसा नामु विसारिआ मेरा हरि हरि तिस कै कुलि लागी गारी ॥ हरि तिस कै कुलि परसूति न करीअहु तिसु बिधवा करि महतारी ॥२॥
मूलम्
जिनि ऐसा नामु विसारिआ मेरा हरि हरि तिस कै कुलि लागी गारी ॥ हरि तिस कै कुलि परसूति न करीअहु तिसु बिधवा करि महतारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै कुलि = की कुल में। गारी = गाली। हरि = हे हरि! परसूति = प्रसूति, जनम। महतारी = माँ।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने ऐसा हरि-नाम बिसार दिया, जिस ने हरि-प्रभु की याद भुला दी, उसकी (सारी) कुल में ही गाली लगती है (उसकी सारी कुल ही कलंकित हो जाती है)। हे हरि! उस (नाम-हीन व्यक्ति) की कुल में (किसी को) जनम ही ना देना, (उस नाम-हीन मनुष्य) की माँ को ही विधवा कर देना (तो बेहतर है ता कि नाम-हीन घर में किसी का जनम ही ना हो)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि आनि मिलावहु गुरु साधू जिसु अहिनिसि हरि उरि धारी ॥ गुरि डीठै गुर का सिखु बिगसै जिउ बारिकु देखि महतारी ॥३॥
मूलम्
हरि हरि आनि मिलावहु गुरु साधू जिसु अहिनिसि हरि उरि धारी ॥ गुरि डीठै गुर का सिखु बिगसै जिउ बारिकु देखि महतारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आनि = ला के। हरि = हे हरि! अहि = दिन। निजि = रात। उरि = हृदय में। गुरि डीठै = गुरु को देखने से, अगर गुरु दिखाई दे जाए। बिगसै = खिल उठता है। बारिकु = बालक, बच्चा। देखि महतारी = माँ को देख के।3।
अर्थ: हे हरि! (मेहर कर, मुझे वह) साधु गुरु ला के मिला दे, जिसके हृदय में, हे हरि! दिन-रात तेरा नाम बसा रहता है। हे भाई! अगर गुरु के दर्शन हो जाएं, तो गुरु का सिख यूँ खुश होता है जैसे बच्चा (अपनी) माँ को देख के।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन पिर का इक ही संगि वासा विचि हउमै भीति करारी ॥ गुरि पूरै हउमै भीति तोरी जन नानक मिले बनवारी ॥४॥१॥
मूलम्
धन पिर का इक ही संगि वासा विचि हउमै भीति करारी ॥ गुरि पूरै हउमै भीति तोरी जन नानक मिले बनवारी ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धन = स्त्री, जीव-स्त्री। पिर = प्रभु पति। संगि = साथ। इक ही संगि = एक ही जगह में। भीति = दीवार। करारी = करड़ी, सख्त। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। तोरी = तोड़ दी। बनवारी = परमात्मा।4।
अर्थ: हे भाई! जिस जीव-स्त्री और प्रभु-पति का एक ही (हृदय-) जगह में बसेरा है, पर (दोनों के) दरमियान (जीव-स्त्री की) अहंकार की दीवार (बनी हुई) है। हे नानक! पूरे गुरु ने जिस सेवकों (के अंदर से यह) अहंकार की दीवार को तोड़ दिया, वे परमात्मा को मिल गए।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ ॥ गंगा जमुना गोदावरी सरसुती ते करहि उदमु धूरि साधू की ताई ॥ किलविख मैलु भरे परे हमरै विचि हमरी मैलु साधू की धूरि गवाई ॥१॥
मूलम्
मलार महला ४ ॥ गंगा जमुना गोदावरी सरसुती ते करहि उदमु धूरि साधू की ताई ॥ किलविख मैलु भरे परे हमरै विचि हमरी मैलु साधू की धूरि गवाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = यह सारे (बहुवचन)। करहि = करते हैं, करती हैं (बहुवचन)। की ताई = की खातिर, प्राप्त करने के लिए। किलविख = पाप। किलविख मैलु भरे = पापों की मैल से लिबड़े हुए (जीव)।1।
अर्थ: हे भाई! गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती (आदि पवित्र नदियां) ये सारी संत-जनों के चरणों की धूल हासिल करने का प्रयत्न करती रहती हैं। (ये नदियां कहती हैं कि) (अनेक) विकारों की मैल से लिवड़े हुए (जीव) हमारे में (आ के) डुबकियाँ लगाते हैं (वे अपनी मैल हमें दे जाते हैं) हमारी वह मैल संत-जनों के चरणों की धूल दूर करती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथि अठसठि मजनु नाई ॥ सतसंगति की धूरि परी उडि नेत्री सभ दुरमति मैलु गवाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तीरथि अठसठि मजनु नाई ॥ सतसंगति की धूरि परी उडि नेत्री सभ दुरमति मैलु गवाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर, तीर्थ में। नाई = बड़ाई, महिमा। मजनु = स्नान। तीर्थ नाई = महिमा के तीर्थ में। तीरथि मजनु नाई = महिमा के तीर्थ में (आत्मिक) स्नान। अठसठि मजनु = अढ़सठ (तीर्थों का) स्नान। परी = पड़ी, पड़ती है। उडि = उड़ के। नेत्री = आँखों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की) महिमा के तीर्थ में (किया हुआ आत्मिक) स्नान (ही) अढ़सठ तीर्थों का स्नान है। जिस मनुष्य की आँखों में साधु-संगत के चरणों की धूल उड़ कर पड़ती है (वह धूल उसके अंदर से) विकारों की सारी मैल दूर कर देती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाहरनवी तपै भागीरथि आणी केदारु थापिओ महसाई ॥ कांसी क्रिसनु चरावत गाऊ मिलि हरि जन सोभा पाई ॥२॥
मूलम्
जाहरनवी तपै भागीरथि आणी केदारु थापिओ महसाई ॥ कांसी क्रिसनु चरावत गाऊ मिलि हरि जन सोभा पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाहरनवी = गंगा। तपै = तपे ने। तपै भागीरथि = भगीरथ तपस्वी ने। आणी = ले आई। महसाई = महेश ने, शिव ने। मिलि = मिल के।2।
अर्थ: हे भाई! गंगा को भगीरथ तपस्वी (स्वर्गों से) ले के आए, शिव जी ने केदार तीर्थ स्थापित किया, काशी (शिव की नगरी), (वृंदावन जहाँ) कृष्ण गाएं चराता रहा - इन सबने हरि के भक्तों को मिल के ही महानता (बड़ाई) हासिल की हुई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितने तीरथ देवी थापे सभि तितने लोचहि धूरि साधू की ताई ॥ हरि का संतु मिलै गुर साधू लै तिस की धूरि मुखि लाई ॥३॥
मूलम्
जितने तीरथ देवी थापे सभि तितने लोचहि धूरि साधू की ताई ॥ हरि का संतु मिलै गुर साधू लै तिस की धूरि मुखि लाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देवी = देवी, देवताओं ने। सभि = सारे (बहुवचन)। लोचहि = लोचते हैं (बहुवचन)। मुखि = मुँह पर।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! देवताओं ने जितने भी तीर्थ-स्थान हासिल किए हुए है, वे सारे (तीर्थ) संत-जनों के चरणों की धूल की तमन्ना करते रहते हैं। जब उन्हें परमात्मा का संत गुरु साधु मिलता है, वे उसके चरणों की धूल माथे पर लगाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितनी स्रिसटि तुमरी मेरे सुआमी सभ तितनी लोचै धूरि साधू की ताई ॥ नानक लिलाटि होवै जिसु लिखिआ तिसु साधू धूरि दे हरि पारि लंघाई ॥४॥२॥
मूलम्
जितनी स्रिसटि तुमरी मेरे सुआमी सभ तितनी लोचै धूरि साधू की ताई ॥ नानक लिलाटि होवै जिसु लिखिआ तिसु साधू धूरि दे हरि पारि लंघाई ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! लोचै = लोचती है (एकवचन)। जिसु लिलाटि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। दे = दे के।4।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! तेरी पैदा की हुई जितनी भी सृष्टि है, वह सारी गुरु के चरणों की धूल प्राप्त करने की चाहत रखती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य के माथे पर लेख लिखे हों, परमात्मा उसको गुरु-साधु के चरणों की धूल दे के उसको संसार-समुंदर से पार लंघा देता।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ ॥ तिसु जन कउ हरि मीठ लगाना जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ तिस की भूख दूख सभि उतरै जो हरि गुण हरि उचरै ॥१॥
मूलम्
मलार महला ४ ॥ तिसु जन कउ हरि मीठ लगाना जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ तिस की भूख दूख सभि उतरै जो हरि गुण हरि उचरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। मीठ = मीठा, प्यारा। सभि = सारे। उचरै = उचारता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उस मनुष्य को परमात्मा (का नाम) प्यारा लगता है। जो मनुष्य प्रभु के गुण उचारता रहता है, उसकी (माया की) भूख दूर हो जाती है, उसके सारे दुख (दूर हो जाते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि मन हरि हरि हरि निसतरै ॥ गुर के बचन करन सुनि धिआवै भव सागरु पारि परै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि मन हरि हरि हरि निसतरै ॥ गुर के बचन करन सुनि धिआवै भव सागरु पारि परै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! निसतरै = पार लांघ जाता है। करन = कानों से। सुनि = सुन के। भव सागरु = संसार समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा हरि का नाम जपा कर, (जो मनुष्य जपता है, वह संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है। (जो मनुष्य) गुरु के वचन कानों से सुन के (परमात्मा का नाम) स्मरण करता है, वह मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु जन के हम हाटि बिहाझे जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ हरि जन कउ मिलिआं सुखु पाईऐ सभ दुरमति मैलु हरै ॥२॥
मूलम्
तिसु जन के हम हाटि बिहाझे जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ हरि जन कउ मिलिआं सुखु पाईऐ सभ दुरमति मैलु हरै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हाटि = दुकान पर। विहाझे = खरीदे हुए, बिके हुए। हाटि विहाझे = गुलाम, मोल खरीदे। पाईऐ = पा लिया जाता है। सभ मैलु = सारी मैल। हरै = दूर कर देता है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस सेवक पर परमात्मा मेहर करता है, मैं उसका मूल्य खरीदा हुआ गुलाम हूँ। परमात्मा के सेवक को मिलने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है (वह आत्मिक आनंद मनुष्य के अंदर से) खोटी मति की सारी मति दूर कर देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन कउ हरि भूख लगानी जनु त्रिपतै जा हरि गुन बिचरै ॥ हरि का जनु हरि जल का मीना हरि बिसरत फूटि मरै ॥३॥
मूलम्
हरि जन कउ हरि भूख लगानी जनु त्रिपतै जा हरि गुन बिचरै ॥ हरि का जनु हरि जल का मीना हरि बिसरत फूटि मरै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनु = सेवक। त्रिपतै = अघा जाता है, तृप्त हो जाता है। जा = जब। बिचरै = विचारता है, मन में बसाता है। मीना = मछली। फूटि मरै = दुखी हो के मर जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक को परमात्मा (के नाम) की भूख लगी रहती है, जब वह परमात्मा के गुण मन में बसाता है, वह तृप्त हो जाता है। हे भाई! परमात्मा का भक्त इस तरह है जैसे पानी की मछली है (पानी से विछुड़ के तड़फ के मर जाती है, वैसे ही परमात्मा का भक्त) हरि-नाम को बिसारने से बहुत दुखी होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि एह प्रीति लाई सो जानै कै जानै जिसु मनि धरै ॥ जनु नानकु हरि देखि सुखु पावै सभ तन की भूख टरै ॥४॥३॥
मूलम्
जिनि एह प्रीति लाई सो जानै कै जानै जिसु मनि धरै ॥ जनु नानकु हरि देखि सुखु पावै सभ तन की भूख टरै ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कै = अथवा, या। जिसु मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। देखि = देख के। टरै = टल जाती है, खत्म हो जाती है।4।
अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (अपने सेवक के हृदय में अपना) प्यार पैदा किया होता है (उस प्यार की कद्र) वह (स्वयं) जानता है, अथवा (वह सेवक) जानता है जिसके मन में (परमात्मा अपना प्यार) बसाता है। दास नानक उस प्रभु के दर्शन कर के आत्मिक आनंद हासिल करता है (इस आनंद की इनायत से नानक के) शरीर की सारी (मायावी) भूख दूर हो जाती है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ ॥ जितने जीअ जंत प्रभि कीने तितने सिरि कार लिखावै ॥ हरि जन कउ हरि दीन्ह वडाई हरि जनु हरि कारै लावै ॥१॥
मूलम्
मलार महला ४ ॥ जितने जीअ जंत प्रभि कीने तितने सिरि कार लिखावै ॥ हरि जन कउ हरि दीन्ह वडाई हरि जनु हरि कारै लावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव। प्रभि = प्रभु ने। तितने = वे सारे। सिरि = (हरेक के) सिर पर। लिखावै = लिखाता है। कउ = को। दीन्ह = दी है। वडाई = इज्जत। कारै = कार में, काम में। लावै = लगाता है, जोड़ता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जितने भी जीव-जंतु प्रभु ने पैदा किए हैं, सारे ही (ऐसे हैं कि) हरेक के सिर पर (करने के लिए) कार लिख रखी है। (अपने) भक्त को प्रभु ने यह वडिआइै बख्शी होती है कि प्रभु अपने भक्त को नाम-जपने की कार में लगाए रखता है।1।
[[1264]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु हरि हरि नामु द्रिड़ावै ॥ हरि बोलहु गुर के सिख मेरे भाई हरि भउजलु जगतु तरावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुरु हरि हरि नामु द्रिड़ावै ॥ हरि बोलहु गुर के सिख मेरे भाई हरि भउजलु जगतु तरावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिढ़ावै = मन पक्का करता है। गुर के सिख = हे गुरु के सिखो! भाई! और भाईयो! भउजलु जगतु = संसार समुंदर। तरावै = पार लंघाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु (मनुष्य के) हृदय में परमात्मा का नाम पक्की तरह टिका देता है। (इसलिए) हे गुरु के सिखो! हे मेरे भाईयो! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपा करो। परमात्मा संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो गुर कउ जनु पूजे सेवे सो जनु मेरे हरि प्रभ भावै ॥ हरि की सेवा सतिगुरु पूजहु करि किरपा आपि तरावै ॥२॥
मूलम्
जो गुर कउ जनु पूजे सेवे सो जनु मेरे हरि प्रभ भावै ॥ हरि की सेवा सतिगुरु पूजहु करि किरपा आपि तरावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो जनु = जो मनुष्य। पूजे सेवे = पूजता है सेवा करता है। प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है। सेवा = भक्ति। पूजहु = पूजा करो। करि = कर के।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु का आदर-सत्कार करता है गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य परमात्मा को प्यारा लगता है। हे भाई! परमात्मा की सेवा-भक्ति किया करो, गुरु की शरण पड़े रहो (जो मनुष्य यह उद्यम करता है उसको प्रभु) मेहर करके आप पार लंघा लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरमि भूले अगिआनी अंधुले भ्रमि भ्रमि फूल तोरावै ॥ निरजीउ पूजहि मड़ा सरेवहि सभ बिरथी घाल गवावै ॥३॥
मूलम्
भरमि भूले अगिआनी अंधुले भ्रमि भ्रमि फूल तोरावै ॥ निरजीउ पूजहि मड़ा सरेवहि सभ बिरथी घाल गवावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = भटकना में पड़ के। भूले = गलत राह पर पड़े रहते हैं। अगिआनी = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ लोग। अंधुले = (माया के मोह में सही जीवन-राह से) अंधे। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। तोरावै = तोड़ता है। निरजीउ = निर्जीव (पत्थर की मूर्ति)। मढ़ा = समाधि। बिरथी = व्यर्थ। घाल = मेहनत।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु-परमेश्वर को भुला के) मनुष्य भटक-भटक के (मूर्ति आदि की पूजा के लिए) फूल तोड़ता फिरता है। (ऐसे मनुष्य) भटकने के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ बने रहते हैं, उन्हें सही जीवन-मार्ग नहीं दिखाई देता। (वह अंधे मनुष्य) बेजान (मूर्तियों) को पूजते हैं, समाधियों को माथे टेकते रहते हैं। (ऐसा मनुष्य अपनी) सारी मेहनत व्यर्थ गवाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमु बिंदे सो सतिगुरु कहीऐ हरि हरि कथा सुणावै ॥ तिसु गुर कउ छादन भोजन पाट पट्मबर बहु बिधि सति करि मुखि संचहु तिसु पुंन की फिरि तोटि न आवै ॥४॥
मूलम्
ब्रहमु बिंदे सो सतिगुरु कहीऐ हरि हरि कथा सुणावै ॥ तिसु गुर कउ छादन भोजन पाट पट्मबर बहु बिधि सति करि मुखि संचहु तिसु पुंन की फिरि तोटि न आवै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहम = परमात्मा। बिंदे = जानता है, सांझ डालता है। छादन = कपड़े। पाट पटंबर = रेशम, रेशमी कपड़े (पट+अंबर। अंबर = कपड़े)। सति करि = श्रद्धा से। मुखि = मुँह में। संचहु = इकट्ठे करो। मुखि संचहु = खिलाओ। तोटि = कमी। पुंन = पुण्य, भला कर्म।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, जगत उसको गुरु कहता है, गुरु जगत को परमात्मा की महिमा का उपदेश सुनाता है। हे भाई! ऐसे गुरु के आगे कई किस्मों के कपड़े, खाणे, रेश्मी कपड़े श्रद्धा से भेट किया करो। इस भले काम की तोट नहीं आती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु देउ परतखि हरि मूरति जो अम्रित बचन सुणावै ॥ नानक भाग भले तिसु जन के जो हरि चरणी चितु लावै ॥५॥४॥
मूलम्
सतिगुरु देउ परतखि हरि मूरति जो अम्रित बचन सुणावै ॥ नानक भाग भले तिसु जन के जो हरि चरणी चितु लावै ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परतखि = प्रत्यक्ष, आँखों से दिखाई देता। मूरति = स्वरूप। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले।5।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जो गुरु आत्मिक जीवन देने वाले (महिमा के) वचन सुनाता रहता है, वह तो साफ तौर पर परमात्मा का रूप ही दिखता है। उस मनुष्य के अच्छे भाग्य होते हैं जो (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है।5।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ ॥ जिन्ह कै हीअरै बसिओ मेरा सतिगुरु ते संत भले भल भांति ॥ तिन्ह देखे मेरा मनु बिगसै हउ तिन कै सद बलि जांत ॥१॥
मूलम्
मलार महला ४ ॥ जिन्ह कै हीअरै बसिओ मेरा सतिगुरु ते संत भले भल भांति ॥ तिन्ह देखे मेरा मनु बिगसै हउ तिन कै सद बलि जांत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै हीअरै = के हृदय में। ते = वे (बहुवचन)। भल भांति = अच्छी तरह, पूरी तौर पर। बिगसै = खिल उठता है। हउ = मैं। सद = सदा। तिन कै बलि = उनसे सदके।1।
अर्थ: हे भाई! जिनके हृदय में प्यारा गुरु बसा रहता है, वह मनुष्य पूरन तौर पर भले मनुष्य बन जाते हैं। हे भाई! उनके दर्शन करके मेरा मन खिल उठता है, मैं तो उनसे सदा सदके जाता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआनी हरि बोलहु दिनु राति ॥ तिन्ह की त्रिसना भूख सभ उतरी जो गुरमति राम रसु खांति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गिआनी हरि बोलहु दिनु राति ॥ तिन्ह की त्रिसना भूख सभ उतरी जो गुरमति राम रसु खांति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनी = हे ज्ञानी! सभ = सारी। खांति = (खादन्ति) खाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे ज्ञानवान मनुष्य! दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा का नाम जपा कर। जो मनुष्य गुरु की मति ले के परमात्मा का नाम-रस खाते हैं, उनकी (मायावी) सारी तृष्णा सारी भूख (सारी भूख-प्यास) दूर हो जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के दास साध सखा जन जिन मिलिआ लहि जाइ भरांति ॥ जिउ जल दुध भिंन भिंन काढै चुणि हंसुला तिउ देही ते चुणि काढै साधू हउमै ताति ॥२॥
मूलम्
हरि के दास साध सखा जन जिन मिलिआ लहि जाइ भरांति ॥ जिउ जल दुध भिंन भिंन काढै चुणि हंसुला तिउ देही ते चुणि काढै साधू हउमै ताति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखा = मित्र। भरांति = भटकना। भिंन = अलग। चुणि = चुन के। हंसुला = हंस। देही ते = शरीर से, शरीर में से। ताति = ईष्या।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त-जन (ऐसे) साधु-मित्र (हैं), जिनको मिलने से (मन की) भटकना दूर हो जाती है। हे भाई! जैसे हंस पानी और दूध को (अपनी चोंच से) चुन के अलग-अलग कर देता है, वैसे ही साधु-मनुष्य शरीर में से अहंकार और ईष्या को चुन के बाहर निकाल देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कै प्रीति नाही हरि हिरदै ते कपटी नर नित कपटु कमांति ॥ तिन कउ किआ कोई देइ खवालै ओइ आपि बीजि आपे ही खांति ॥३॥
मूलम्
जिन कै प्रीति नाही हरि हिरदै ते कपटी नर नित कपटु कमांति ॥ तिन कउ किआ कोई देइ खवालै ओइ आपि बीजि आपे ही खांति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन कै हिरदै = जिस के हृदय में। कपटी = पाखंडी। देइ = दे। ओइ = वह लोग। बीजि = बीज के।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का प्यार नहीं (बसता), वे मनुष्य पाखण्डी बन जाते हैं, वे (माया आदि की खातिर) सदा (दूसरों के साथ) ठगी करते हैं। उनको और कोई मनुष्य (आत्मिक जीवन की खुराक) ना दे सकता है ना खिला सकता है, वे लोग (ठगी का बीज) खुद बीज के खुद ही (उसका फल सदा) खाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का चिहनु सोई हरि जन का हरि आपे जन महि आपु रखांति ॥ धनु धंनु गुरू नानकु समदरसी जिनि निंदा उसतति तरी तरांति ॥४॥५॥
मूलम्
हरि का चिहनु सोई हरि जन का हरि आपे जन महि आपु रखांति ॥ धनु धंनु गुरू नानकु समदरसी जिनि निंदा उसतति तरी तरांति ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिहनु = लक्षण। आपे = आप ही। आपु = अपना आप। धनु धंनु = सलाहने योग्यं। सम दरसी = सब जीवों में एक ही ज्योति देखने वाला। सम = बराबर, एक समान। जिनि = जिस (गुरु) ने। तरांति = तैरा देता है, पार लंघाता है।4।
अर्थ: हे भाई! (ऊँचे आत्मिक जीवन का जो) लक्षण परमात्मा का होता है (नाम-जपने की इनायत से) वही लक्षण परमात्मा के भक्त का हो जाता है। प्रभु आप ही अपने आप को अपने सेवक में टिकाए रखता है।
हे भाई! सब जीवों में एक हरि की ज्योति देखने वाला गुरु नानक (हर वक्त) सलाहने-योग्य है, जिस ने खुद निंदा और खुशामद (की नदी) पार कर ली है और-और लोगों को इसमें से पार लंघा देता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ ॥ अगमु अगोचरु नामु हरि ऊतमु हरि किरपा ते जपि लइआ ॥ सतसंगति साध पाई वडभागी संगि साधू पारि पइआ ॥१॥
मूलम्
मलार महला ४ ॥ अगमु अगोचरु नामु हरि ऊतमु हरि किरपा ते जपि लइआ ॥ सतसंगति साध पाई वडभागी संगि साधू पारि पइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। ऊतमु = ऊँचा (जीवन बनाने वाला)। ते = से, के द्वारा। साध = गुरु। पाई = हासिल की। वडभागी = बड़े भाग्यों से। संगि साध = गुरु की संगति में।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, परमात्मा ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, उसका नाम (मनुष्य के जीवन को) ऊँचा (करने वाला) है। (जिस मनुष्य ने) गुरु की कृपा से (यह नाम) जपा है, (जिस मनुष्य ने) बड़े भाग्यों से गुरु की संगति प्राप्त की है, वह गुरु की संगति में रह के संसार-समुंदर से पार लांघ गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै मनि अनदिनु अनदु भइआ ॥ गुर परसादि नामु हरि जपिआ मेरे मन का भ्रमु भउ गइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरै मनि अनदिनु अनदु भइआ ॥ गुर परसादि नामु हरि जपिआ मेरे मन का भ्रमु भउ गइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। परसादि = कृपा से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु की कृपा से मैं परमात्मा का नाम जप रहा हूँ, मेरे मन का हरेक भ्रम और डर दूर हो गया है। (अब) मेरे मन में हर वक्त आनंद बना रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन हरि गाइआ जिन हरि जपिआ तिन संगति हरि मेलहु करि मइआ ॥ तिन का दरसु देखि सुखु पाइआ दुखु हउमै रोगु गइआ ॥२॥
मूलम्
जिन हरि गाइआ जिन हरि जपिआ तिन संगति हरि मेलहु करि मइआ ॥ तिन का दरसु देखि सुखु पाइआ दुखु हउमै रोगु गइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि! करि = कर के। मइआ = दया। देखि = देख के।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा की महिमा की है, जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम जपा है, उनके दर्शन करके आत्मिक आनंद मिलता है, हरेक दुख दूर हो जाता है, अहंकार का रोग मिट जाता है। हे हरि! मेहर करके (मुझे भी) उनकी संगति मिला।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो अनदिनु हिरदै नामु धिआवहि सभु जनमु तिना का सफलु भइआ ॥ ओइ आपि तरे स्रिसटि सभ तारी सभु कुलु भी पारि पइआ ॥३॥
मूलम्
जो अनदिनु हिरदै नामु धिआवहि सभु जनमु तिना का सफलु भइआ ॥ ओइ आपि तरे स्रिसटि सभ तारी सभु कुलु भी पारि पइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। सफलु = कामयाब। ओइ = वे लोग।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त (अपने) हृदय में परमात्मा का नाम जपते हैं, उनकी सारी जिंदगी कामयाब हो जाती है। वह मनुष्य खुद (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, वे सारी सृष्टि को भी पार लंघा लेते हैं, (उनकी संगति में रह के उनका) सारा खानदान भी पार लांघ जाता है।3।
[[1265]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधु आपे आपि उपाइआ सभु जगु तुधु आपे वसि करि लइआ ॥ जन नानक कउ प्रभि किरपा धारी बिखु डुबदा काढि लइआ ॥४॥६॥
मूलम्
तुधु आपे आपि उपाइआ सभु जगु तुधु आपे वसि करि लइआ ॥ जन नानक कउ प्रभि किरपा धारी बिखु डुबदा काढि लइआ ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। सभु जगु = सारा जगत। वसि = वश में। प्रभि = प्रभु ने। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला (माया के मोह का) जहर।4।
अर्थ: हे प्रभु! तूने स्वयं ही ये सारा जगत पैदा किया हुआ है, तूने खुद ही इसको वश में रखा है (और इसको डूबने से बचाता है)। हे नानक! (कह: हे भाई!) प्रभु ने जिस सेवक पर मेहर की, उसको आत्मिक मौत लाने वाले (माया के मोह के) जहर-समुंदर में डूबते को बाहर निकाल लिया।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ ॥ गुर परसादी अम्रितु नही पीआ त्रिसना भूख न जाई ॥ मनमुख मूड़्ह जलत अहंकारी हउमै विचि दुखु पाई ॥ आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ दुखि लागै पछुताई ॥ जिस ते उपजे तिसहि न चेतहि ध्रिगु जीवणु ध्रिगु खाई ॥१॥
मूलम्
मलार महला ४ ॥ गुर परसादी अम्रितु नही पीआ त्रिसना भूख न जाई ॥ मनमुख मूड़्ह जलत अहंकारी हउमै विचि दुखु पाई ॥ आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ दुखि लागै पछुताई ॥ जिस ते उपजे तिसहि न चेतहि ध्रिगु जीवणु ध्रिगु खाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। न जाई = दूर नहीं होते। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अहंकारी = अहंकार में। आवत जात = आते जाते हुए, जनम मरण के चक्करों में पड़ा। जिस ते = जिस (परमात्मा) से। चेतहि = याद करते (बहुवचन)। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने) गुरु की मेहर से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (कभी) नहीं पीया, उसकी (माया वाली) भूख-प्यास दूर नहीं होती। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य अहंकार में जलता रहता है, अहमं में फसा हुआ दुख सहता रहता है। जनम-मरण के चक्करों में पड़ा वह मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवाता है, दुखी होता है और हाथ मलता है। (ऐसे मनुष्य) जिस (प्रभु) से पैदा हुए हैं उसको (कभी) याद नहीं करते, उनकी जिंदगी धिक्कार-योग्य रहती है, उनका खाया-पीया भी उनके लिए तिरस्कार ही कमाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणी गुरमुखि नामु धिआई ॥ हरि हरि क्रिपा करे गुरु मेले हरि हरि नामि समाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्राणी गुरमुखि नामु धिआई ॥ हरि हरि क्रिपा करे गुरु मेले हरि हरि नामि समाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्राणी = हे प्राणी! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। नामि = नाम में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्राणी! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे भाई! जिस मनुष्य पर हरि कृपा करता है, उसको वह गुरु मिलाता है, और, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख जनमु भइआ है बिरथा आवत जात लजाई ॥ कामि क्रोधि डूबे अभिमानी हउमै विचि जलि जाई ॥ तिन सिधि न बुधि भई मति मधिम लोभ लहरि दुखु पाई ॥ गुर बिहून महा दुखु पाइआ जम पकरे बिललाई ॥२॥
मूलम्
मनमुख जनमु भइआ है बिरथा आवत जात लजाई ॥ कामि क्रोधि डूबे अभिमानी हउमै विचि जलि जाई ॥ तिन सिधि न बुधि भई मति मधिम लोभ लहरि दुखु पाई ॥ गुर बिहून महा दुखु पाइआ जम पकरे बिललाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरथा = व्यर्थ, निश्फल। लजाई = शर्मिन्दे। कामि = काम में। जलि जाई = जल जाता है। सिधि = सफलता। मधिम = कम, निम्न। बिललाई = बिलकता है।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का जीवन व्यर्थ जाता है, जनम-मरण के चक्करों में फसे हुए ही वे शर्म-सार हुए रहते हैं। वे मनुष्य काम-क्रोध-अहंकार में ही डूबे रहते हैं। अहंकार में फंसे हुओं का आत्मिक जीवन जल (के राख हो) जाता है। (अपने मन के पीछे चलने वाले) उन मनुष्यों को (जीवन में) सफलता हासिल नहीं होती, (सफलता वाली) बुद्धि उनको प्राप्त नहीं होती, उनकी मति नीच ही रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लोभ की लहरों में (फसा हुआ) दुख पाता है। गुरु की शरण आए बिना मनमुख मनुष्य बहुत दुख पाता है, जब उसको जम आ पकड़ते हैं तब वह बिलकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु अगोचरु पाइआ गुरमुखि सहजि सुभाई ॥ नामु निधानु वसिआ घट अंतरि रसना हरि गुण गाई ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती एक सबदि लिव लाई ॥ नामु पदारथु सहजे पाइआ इह सतिगुर की वडिआई ॥३॥
मूलम्
हरि का नामु अगोचरु पाइआ गुरमुखि सहजि सुभाई ॥ नामु निधानु वसिआ घट अंतरि रसना हरि गुण गाई ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती एक सबदि लिव लाई ॥ नामु पदारथु सहजे पाइआ इह सतिगुर की वडिआई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में (टिक के)। निधानु = खजाना। घट अंतरि = हृदय में। रसना = जीभ से। गाई = गाता है। अनंदि = आनंद में। सबदि = शब्द में। लिव लाई = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। नामु पदारथु = कीमती नाम। वडिआई = बड़प्पन, इनायत।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह आत्मिक अडोलता में (टिक के) प्रेम में (लीन हो के) उस परमात्मा का नाम (-खजाना) हासिल कर लेता है जिस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। उस मनुष्य के हृदय में नाम-खजाना आ बसता है, वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा के गुण गाता रहता है। एक परमात्मा की महिमा के शब्द में तवज्जो जोड़ के वह मनुष्य दिन-रात सदा आनंद में रहता है। आत्मिक अडोलता से वह मनुष्य कीमती हरि-नाम प्राप्त कर लेता है। हे भाई! यह सारी गुरु की ही इनायत है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर ते हरि हरि मनि वसिआ सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ मनु तनु अरपि रखउ सभु आगै गुर चरणी चितु लाई ॥ अपणी क्रिपा करहु गुर पूरे आपे लैहु मिलाई ॥ हम लोह गुर नाव बोहिथा नानक पारि लंघाई ॥४॥७॥
मूलम्
सतिगुर ते हरि हरि मनि वसिआ सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ मनु तनु अरपि रखउ सभु आगै गुर चरणी चितु लाई ॥ अपणी क्रिपा करहु गुर पूरे आपे लैहु मिलाई ॥ हम लोह गुर नाव बोहिथा नानक पारि लंघाई ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, द्वारा। मनि = मन मे। कउ = को। सद = सदा। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। अरपि = भेटा कर के। रखउ = मैं रखता हूँ। लाई = मैं लगाता हूं। गुर = हे गुरु! आपे = आप ही। लोह = लोहा। नाव = बेड़ी। बोहिथा = जहाज।4।
अर्थ: हे भाई! मैं गुरु से सदा बलिहार जाता हूँ, गुरु के द्वारा ही परमात्मा (का नाम मेरे) मन में आ बसा है। मैं अपना मन अपना तन सब कुछ गुरु के आगे भेट रखता हूँ, मैं गुरु के चरणों में अपना चिक्त जोड़ता हूँ। हे नानक! (कह:) हे पूरे गुरु! (मेरे पर) अपनी मेहर करो, मुझे खुद ही (अपने चरणों में) मिलाए रखो। हे भाई! हम जीव (विकारों से भरे हो चुके) लोहा हैं, गुरु बेड़ी है गुरु जहाज़ है जो (संसार-समुंदर से) पार लंघाता है।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला ४ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन बोलत स्रीराम नामा मिलि साधसंगति हरि तोर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि जन बोलत स्रीराम नामा मिलि साधसंगति हरि तोर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि! तेरे भक्त। मिलि = मिल के। तोर = तेरी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (तुम भी साधु-संगत में) परमात्मा का नाम-धन खरीदो, प्रभु का नाम-धन संचित करो, (यह धन ऐसा है) कि इसको चोर चुरा नहीं सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि धनु बनजहु हरि धनु संचहु जिसु लागत है नही चोर ॥१॥
मूलम्
हरि धनु बनजहु हरि धनु संचहु जिसु लागत है नही चोर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनजहु = वणज करो, खरीदो। संचहु = संचित करो।1।
अर्थ: हे हरि! तेरे भक्त तेरी साधु-संगत में मिल के तेरा नाम जपते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चात्रिक मोर बोलत दिनु राती सुनि घनिहर की घोर ॥२॥
मूलम्
चात्रिक मोर बोलत दिनु राती सुनि घनिहर की घोर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। सुनि = सुन के। घनिहर = बादल। घोर = घनघोर, गरज, शोर।2।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) पपीहे और मोर बादलों की गर्जना सुन के दिन-रात बोलते हैं, (वैसे ही तुम भी साधु-संगत में मिल के हरि का नाम जपा करो)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो बोलत है म्रिग मीन पंखेरू सु बिनु हरि जापत है नही होर ॥३॥
मूलम्
जो बोलत है म्रिग मीन पंखेरू सु बिनु हरि जापत है नही होर ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: म्रिग = पशु। मीन = मछली। पंखेरू = पक्षी।3।
अर्थ: हे भाई! (वह परमात्मा ऐसा है कि) पशु-पक्षी-मछलियां आदि (धरती पर चलने वाले, पानी में रहने वाले, आकाश में उड़ने वाले सारे ही) जो बोलते हैं, परमात्मा (की दी हुई सत्ता) के बिना (किसी) और (की सत्ता से) नहीं बोलते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक जन हरि कीरति गाई छूटि गइओ जम का सभ सोर ॥४॥१॥८॥
मूलम्
नानक जन हरि कीरति गाई छूटि गइओ जम का सभ सोर ॥४॥१॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = महिमा। सोर = शोर।4।
अर्थ: हे नानक! जिस भी हरि-सेवकों ने परमात्मा की महिमा का गीत गाना शुरू कर दिया, (उनके लिए) जमदूतों का सारा शोर समाप्त हो गया (उनको जमदूतों का कोई डर नहीं रह गया)।4।1।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पड़ताल = वह शब्द जिनको गाने के वक्त लय-ताल पलटने पड़ते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ४ ॥ राम राम बोलि बोलि खोजते बडभागी ॥ हरि का पंथु कोऊ बतावै हउ ता कै पाइ लागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ४ ॥ राम राम बोलि बोलि खोजते बडभागी ॥ हरि का पंथु कोऊ बतावै हउ ता कै पाइ लागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बडभागी = बड़े भाग्यों वाले मनुष्य। पंथु = रास्ता। हउ = मैं। ता कै पाइ = उसके पैरों पर। लागी = मैं लगता हूं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा उचारा कर। बड़े भाग्यों वाले हैं वे मनुष्य जो (परमात्मा के दर्शन करने के लिए) तलाश करते हैं। हे भाई! मैं (तो) उस मनुष्य के चरणों में लगता हूँ जो मुझे परमात्मा का रास्ता बता दे।1। रहाउ।
[[1266]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हमारो मीतु सखाई हम हरि सिउ प्रीति लागी ॥ हरि हम गावहि हरि हम बोलहि अउरु दुतीआ प्रीति हम तिआगी ॥१॥
मूलम्
हरि हमारो मीतु सखाई हम हरि सिउ प्रीति लागी ॥ हरि हम गावहि हरि हम बोलहि अउरु दुतीआ प्रीति हम तिआगी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखाई = साथी, मददगार। सिउ = साथ। हम गावहि = हम गाते हैं (मैं गाता हूँ)। हम बोलहि = हम उचारते हैं (मैं जपता हूँ)। हम = हम, मैं। दुतीआ = दूसरी।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही मेरा मित्र है मेरा मददगार है, परमात्मा के साथ (ही) मेरा प्यार बना हुआ है। मैं परमात्मा के महिमा के ही गीत गाता हूँ, मैं परमात्मा का नाम ही जपता हूँ। प्रभु के बिना किसी और के प्रति प्यार मैंने छोड़ दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमोहन मोरो प्रीतम रामु हरि परमानंदु बैरागी ॥ हरि देखे जीवत है नानकु इक निमख पलो मुखि लागी ॥२॥२॥९॥९॥१३॥९॥३१॥
मूलम्
मनमोहन मोरो प्रीतम रामु हरि परमानंदु बैरागी ॥ हरि देखे जीवत है नानकु इक निमख पलो मुखि लागी ॥२॥२॥९॥९॥१३॥९॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परमानंदु = परम आनंद का मालिक। बैरागी = माया के प्रभाव से परे रहने वाला। जीवत है = जीता है, आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। मुखि लागी = मुँह लगता है, दिखता है, दर्शन देता है।2।
अर्थ: हे भाई! सबके मन को मोह लेने वाला परमात्मा ही मेरा प्रीतम है। वह परमात्मा सबसे ऊँचे आनंद का मालिक है, माया के प्रभाव से ऊँचा रहने वाला है।
हे भाई! अगर उस परमात्मा के दर्शन आँख झपकने जितने समय के लिए भी हो जाए, एक पल भर के लिए हो जाए, तो नानक उसके दर्शन करके आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।2।9।9।13।9।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मलार महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ तू सोचहि किआ तू चितवहि किआ तूं करहि उपाए ॥ ता कउ कहहु परवाह काहू की जिह गोपाल सहाए ॥१॥
मूलम्
किआ तू सोचहि किआ तू चितवहि किआ तूं करहि उपाए ॥ ता कउ कहहु परवाह काहू की जिह गोपाल सहाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाए = अनेक उपाय (बहुवचन)। कउ = को। ता कउ = उस (मनुष्य) को। सहाए = सहाई।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की शरण छोड़ के) तू और क्या सोचें सोचता है? तू और कौन से उपाय चितवता है? तू और कौन से तरीके अपनाता है? (देख,) जिस (मनुष्य) का सहाई परमात्मा खुद बनता है उसको, बता, किसकी परवाह रह जाती है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरसै मेघु सखी घरि पाहुन आए ॥ मोहि दीन क्रिपा निधि ठाकुर नव निधि नामि समाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बरसै मेघु सखी घरि पाहुन आए ॥ मोहि दीन क्रिपा निधि ठाकुर नव निधि नामि समाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेघु = बादल। सखी = हे सखी! हे सहेली! घरि = (मेरे हृदय) घर में। पाहुन = (आदर वास्ते बहुवचन) मेहमान, नींगर, दूल्हा, प्रभु पति। मोहि दीन = मुझ गरीब को। क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! ठाकुर = हे मालिक! नवनिधि नामि = नाम में जो (मानो) नौ ही खजाने हैं। समाए = लीन कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे सहेली! (मेरे हृदय-) घर में प्रभु-पति जी टिके हैं (मेरे अंदर से तपष मिट गई है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मेरे अंदर उसकी मेहर के) बादल बरस रहे हैं। हे कृपा के खजाने प्रभु! हे मालिक प्रभु! मुझ कंगाल को अपने नाम में लीन करे रख (यह नाम ही मेरे वास्ते) नौ खजाने है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक प्रकार भोजन बहु कीए बहु बिंजन मिसटाए ॥ करी पाकसाल सोच पवित्रा हुणि लावहु भोगु हरि राए ॥२॥
मूलम्
अनिक प्रकार भोजन बहु कीए बहु बिंजन मिसटाए ॥ करी पाकसाल सोच पवित्रा हुणि लावहु भोगु हरि राए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनिक प्रकार = कई किस्मों के। कीए = तैयार किए। मिसट = मीठे। बिंजन मिसटाए = मीठे स्वादिष्ट भोजन। कीए = (स्त्री ने) तैयार किए। करी = तैयार की। पाकसाल = रसोई, (हृदय-) रसोई। सोच = सुच (से)। लावहु भोग = खाओ, पहले आप खाओ, स्वीकार करो। हरि राइ = हे प्रभु पातशाह!।2।
अर्थ: जैसे कोई स्त्री अपने पति के लिए अनेक किसमों के स्वादिष्ट खाने तैयार करती है, बड़ी स्वच्छता से रसोई साफ-सुथरी बनाती है, हे प्रभु पातशाह! (तेरे प्यार में मैंने अपने हृदय की रसोई को तैयार किया है, मेहर कर, और इसको) अब स्वीकार कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुसट बिदारे साजन रहसे इहि मंदिर घर अपनाए ॥ जउ ग्रिहि लालु रंगीओ आइआ तउ मै सभि सुख पाए ॥३॥
मूलम्
दुसट बिदारे साजन रहसे इहि मंदिर घर अपनाए ॥ जउ ग्रिहि लालु रंगीओ आइआ तउ मै सभि सुख पाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिदारे = नाश कर दिए। रहसे = खुश हुए। अपनाए = अपने बना लिए, अपनत्व दिखाया। ग्रिहि = (हृदय-) घर में। रंगीओ = रंगीला, सुंदर। सभि = सारे। इहि = यह।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे सखी! इन (शरीर रूपी) घर-मंदिरों को (जब प्रभु-पति) अपनाता है (इनमें अपना प्रकाश करता है, तब इनमें से कामादिक) दुष्ट नाश हो जाते हैं (और देवी गुण) सज्जन प्रफुल्लित हो जाते हैं। हे सखी! जब से मेरे हृदय-घर में सुंदर-लाल (प्रभु) आ बसा है, तब से मैंने सारे सुख हासिल कर लिए हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत सभा ओट गुर पूरे धुरि मसतकि लेखु लिखाए ॥ जन नानक कंतु रंगीला पाइआ फिरि दूखु न लागै आए ॥४॥१॥
मूलम्
संत सभा ओट गुर पूरे धुरि मसतकि लेखु लिखाए ॥ जन नानक कंतु रंगीला पाइआ फिरि दूखु न लागै आए ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे दास नानक! धुर-दरगाह से जिस जीव के माथे पर साधु-संगत में पूरे गुरु की ओट का लेख लिखा होता है, उसको सोहाना प्रभु-पति मिल जाता है, उसको फिर कोई दुख पोह नहीं सकता।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ खीर अधारि बारिकु जब होता बिनु खीरै रहनु न जाई ॥ सारि सम्हालि माता मुखि नीरै तब ओहु त्रिपति अघाई ॥१॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ खीर अधारि बारिकु जब होता बिनु खीरै रहनु न जाई ॥ सारि सम्हालि माता मुखि नीरै तब ओहु त्रिपति अघाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खीर = दूध। खीर अधारि = दूध के आसरे से। होता = रहता है। बिनु खीरै = दूध के बिना। सारि = सार ले के। समालि = संभाल के। मुखि = (बच्चे के) मुँह में। नीरै = परोसती है, थन देती है। त्रिपति अघाई = अच्छी तरह तृप्त हो जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! जब (कोई) बच्चा दूध के आसरे होता है (तब वह) दूध के बिना नहीं रह सकता। (जब उसकी) माँ (उसकी) सार ले के (उसकी) संभाल कर के (उसके) मुँह में अपना थन डालती है, तब वह (दूध से) अच्छी तरह तृप्त हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम बारिक पिता प्रभु दाता ॥ भूलहि बारिक अनिक लख बरीआ अन ठउर नाही जह जाता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हम बारिक पिता प्रभु दाता ॥ भूलहि बारिक अनिक लख बरीआ अन ठउर नाही जह जाता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूलहि = भूलते हैं (बहुवचन)। बारिकु = (एकवचन)। बारिक = (बहुवचन)। बरीआ = बारी। अन = अन्य, और। ठउर = जगह। जह = जहाँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! दातार प्रभु (हमारा) पिता है, हम (जीव उस के) बच्चे हैं। बच्चे अनेक बार लाखों बार भूलें करते हैं (पिता-प्रभु के बिना उनकी कोई) और जगह नहीं, जहाँ वे जा सकें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंचल मति बारिक बपुरे की सरप अगनि कर मेलै ॥ माता पिता कंठि लाइ राखै अनद सहजि तब खेलै ॥२॥
मूलम्
चंचल मति बारिक बपुरे की सरप अगनि कर मेलै ॥ माता पिता कंठि लाइ राखै अनद सहजि तब खेलै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंचल = चुलबुली, एक जगह ना टिक के रहने वाली। बपुरो की = बिचारे की। सरप = साँप। कर = हाथ। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। सहजि = अडोलता से, बेफिक्री से।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! बेचारे बच्चे की अकल होछी होती है, वह (जब माता-पिता से परे होता है तब) साँप को हाथ से पकड़ना चाहता है, आग में हाथ डालता है (और, दुखी होता है)। (पर, जब उसको) माँ गले से लगा के रखती है पिता गले से लगा के रखता है (भाव, जब उसके माता-पिता उसका ध्यान रखते हैं) तब वह आनंद से निश्चंत हो के खेलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस का पिता तू है मेरे सुआमी तिसु बारिक भूख कैसी ॥ नव निधि नामु निधानु ग्रिहि तेरै मनि बांछै सो लैसी ॥३॥
मूलम्
जिस का पिता तू है मेरे सुआमी तिसु बारिक भूख कैसी ॥ नव निधि नामु निधानु ग्रिहि तेरै मनि बांछै सो लैसी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! ग्रिहि तेरै = तेरे घर में। मनि = मन में। बांछै = मांगता है, चाहता है। लैसी = ले जाएगा।3।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! जिस (बच्चे) का तू पिता (की तरह रखवाला) है, उस बच्चे को कोई (मायावी) भूख नहीं रह जाती। तेरे घर में तेरा नाम-खजाना है (यही है) नौ खजाने! वह जो कुछ अपने मन में (तुझसे) माँगता है, वह कुछ हासिल कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता क्रिपालि आगिआ इह दीनी बारिकु मुखि मांगै सो देना ॥ नानक बारिकु दरसु प्रभ चाहै मोहि ह्रिदै बसहि नित चरना ॥४॥२॥
मूलम्
पिता क्रिपालि आगिआ इह दीनी बारिकु मुखि मांगै सो देना ॥ नानक बारिकु दरसु प्रभ चाहै मोहि ह्रिदै बसहि नित चरना ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपालि = कृपालु ने। आगिआ = आज्ञा, हुक्म। मुखि = मुँह से। दरसु प्रभ = प्रभु का दर्शन। मोहि हृदै = मेरे हृदय में। बसहि = बसते रहें।4।
अर्थ: हे भाई! कृपालु पिता-प्रभु ने यह हुक्म रखा है, कि बालक जो कुछ माँगता है वह उसको दे देता है। हे प्रभु! तेरा बच्चा नानक तेरे दर्शन चाहता है (और, कहता है: हे प्रभु!) तेरे चरण मेरे हृदय में बसे रहें।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ सगल बिधी जुरि आहरु करिआ तजिओ सगल अंदेसा ॥ कारजु सगल अर्मभिओ घर का ठाकुर का भारोसा ॥१॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ सगल बिधी जुरि आहरु करिआ तजिओ सगल अंदेसा ॥ कारजु सगल अर्मभिओ घर का ठाकुर का भारोसा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल बिधी = सारे तरीकों से। जुरि = जुड़ के। आहरु = उद्यम। अंदेसा = चिन्ता फिक्र। कारजु घर का = हृदय घर का काम, आत्मिक जीवन को अच्छा बनाने का काम। भारोसा = सहारा।1।
अर्थ: हे सखी! अब मैंने आत्मिक जीवन को सुंदर बनाने का सारा काम शुरू कर दिया है, मुझे अब मालिक प्रभु का (हर वक्त) सहारा है। मैंने अब सारे चिन्ता-फिक्र खत्म कर दिए हैं, (अब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सफलता के) सारे ढंगों ने मिल के (मेरी हरेक सफलता के लिए) उद्यम किया हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनीऐ बाजै बाज सुहावी ॥ भोरु भइआ मै प्रिअ मुख पेखे ग्रिहि मंगल सुहलावी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनीऐ बाजै बाज सुहावी ॥ भोरु भइआ मै प्रिअ मुख पेखे ग्रिहि मंगल सुहलावी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनीऐ = सुनी जा रही है। बाजै बाज = बाजे की आवाज़। सुहावी = (कानों को) सुंदर लगने वाली। भोरु = दिन, रौशनी। ग्रिह = हृदय घर। मंगल = आनंद, खुशियां। सुहलावी = सुखी।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! जब मैंने प्यारे प्रभु जी का मुँह देख लिया (दर्शन कर लिए), मेरे हृदय-घर में आनंद ही आनंद बन गया, मेरे अंदर शांति पैदा हो गई, मेरे अंदर (आत्मिक जीवन की सूझ का) दिन चढ़ गया, (मेरे अंदर इस तरह का आनंद बन गया, जैसे कि अंदर) कानों को सुंदर लगने वाली (किसी) बाजे कीआवाज़ सुनी जा रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनूआ लाइ सवारे थानां पूछउ संता जाए ॥ खोजत खोजत मै पाहुन मिलिओ भगति करउ निवि पाए ॥२॥
मूलम्
मनूआ लाइ सवारे थानां पूछउ संता जाए ॥ खोजत खोजत मै पाहुन मिलिओ भगति करउ निवि पाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनूआ लाइ = मन लगा के, पूरे ध्यान से। सवारे = सवार लिए हैं, अच्छे बना लिए हैं। थानां = सारी जगहें, सारी इंद्रिय। पूछउ = मैं पूछती हूं। जाइ = जा के। मै = मुझे। पाहुन = प्राहुना, दूल्हा, नींगर, प्रभु पति। करउ = करूँ, मैं करती हूँ। निवि = झुक के। पाए = चरणों में।2।
अर्थ: हे सखी! पूरे ध्यान से मैंने अपनी सारी इन्द्रियों को खबसूरत बना लिया है। मैं संतों के पास जा के (प्रभु-पति के मिलाप की बातें) पूछती रहती हूँ। तलाश करते-करते मुझे प्रभु-पति मिल गया है। अब मैं उसके चरणों पर गिर कर उसकी भक्ति करती रहती हूँ।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जब प्रिअ आइ बसे ग्रिहि आसनि तब हम मंगलु गाइआ ॥ मीत साजन मेरे भए सुहेले प्रभु पूरा गुरू मिलाइआ ॥३॥
मूलम्
जब प्रिअ आइ बसे ग्रिहि आसनि तब हम मंगलु गाइआ ॥ मीत साजन मेरे भए सुहेले प्रभु पूरा गुरू मिलाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रिअ = प्यारे प्रभु जी। ग्रिहि = हृदय घर में। आसनि = आसन पर। हम = मैं। मीत साजन = सज्जन मित्र, ज्ञान-इंद्रिय। सुहेले = सुखी।3।
अर्थ: हे सखी! जब से प्यारे-प्रभु जी मेरे हृदय-घर में आ बसे हैं, मेरे हृदय-तख़्त पर आ बिराजे हैं, तब से मैं उसकी महिमा के गीत गाती हूँ। गुरु ने मुझे पूर्ण प्रभु से मिला दिया है, (अब) मेरी सारी इन्द्रियों सुखद (शांत) हो गई हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी सहेली भए अनंदा गुरि कारज हमरे पूरे ॥ कहु नानक वरु मिलिआ सुखदाता छोडि न जाई दूरे ॥४॥३॥
मूलम्
सखी सहेली भए अनंदा गुरि कारज हमरे पूरे ॥ कहु नानक वरु मिलिआ सुखदाता छोडि न जाई दूरे ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखी सहेली = सहेलियां, इंद्रिय। गुरि = गुरु ने। पूरे = सफल कर दिए। वरु = पति। छोडि = छोड़ के।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे सखी!) गुरु ने मेरे सारे काम सँवार दिए हैं, मेरी सारी इन्द्रियों को आनंद प्राप्त हो गया है। सारे सुख देने वाला प्रभु-पति मुझे मिल गया है। अब वह मुझे छोड़ के कहीं दूर नहीं जाता।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ राज ते कीट कीट ते सुरपति करि दोख जठर कउ भरते ॥ क्रिपा निधि छोडि आन कउ पूजहि आतम घाती हरते ॥१॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ राज ते कीट कीट ते सुरपति करि दोख जठर कउ भरते ॥ क्रिपा निधि छोडि आन कउ पूजहि आतम घाती हरते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। कीट = कीड़े। सुरपति = देवताओं के पति, इन्द्र देवता। करि = कर के। दोख = ऐब, पाप, विकार। जठर = पेट। जठर कउ भरते = गर्भ जूनि में पड़ते हैं। क्रिपा निधि = कृपा का खजाना प्रभु। आन = और। कउ = को। हरते = चोर।1।
अर्थ: हे भाई! राजाओं से लेकर कीड़ियों तक, कीड़ियों से ले के इन्द्र देवता तक (कोई भी हो) पाप कर के (सभी) गर्भ जोनि में पड़ते हैं (किसी का लिहाज नहीं हो सकता)। हे भाई! जो भी प्राणी दया-के-समुंदर प्रभु को छोड़ कर और-और को पूजते हैं, वे ईश्वर के चोर हैं वे अपनी आत्मा के साथ घात करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिसरत ते दुखि दुखि मरते ॥ अनिक बार भ्रमहि बहु जोनी टेक न काहू धरते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिसरत ते दुखि दुखि मरते ॥ अनिक बार भ्रमहि बहु जोनी टेक न काहू धरते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसरत = भुलाते। ते = वे लोग (बहुवचन)। दुखि दुखि = दुखी हो हो के। भ्रमहि = भटकते हैं। टेक = आसरा, टिकाव। काहू टेक = किसी का भी सहारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को भुलाते हैं वे दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं। वे मनुष्य अनेक वार कई जूनियों में भटकते फिरते हैं, (इस चक्कर में से बचने के लिए) वे किसी का भी आसरा प्राप्त नहीं कर सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिआगि सुआमी आन कउ चितवत मूड़ मुगध खल खर ते ॥ कागर नाव लंघहि कत सागरु ब्रिथा कथत हम तरते ॥२॥
मूलम्
तिआगि सुआमी आन कउ चितवत मूड़ मुगध खल खर ते ॥ कागर नाव लंघहि कत सागरु ब्रिथा कथत हम तरते ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के। कउ = को। मूढ़ मुगध = मूर्ख। खर = गधे। ते = वे (बहुवचन)। कागर = कागज़। नाव = बेड़ी। कत = कहाँ! ब्रिथा = व्यर्थ।2।
अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु को छोड़ के जो किसी और को मन में बसाते हैं वे मूर्ख हैं वे गधे हैं। (प्रभु के बिना किसी अन्य की पूजा कागज़ की बेड़ी में चढ़ के समुंदर से पार लांघने के समान है) कागज़ की बेड़ी पर (चढ़ के) कैसे संसार-समुंदर से पार लांघ सकते हैं? वे बेकार में ही कहते हैं कि हम पार लांघ रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव बिरंचि असुर सुर जेते काल अगनि महि जरते ॥ नानक सरनि चरन कमलन की तुम्ह न डारहु प्रभ करते ॥३॥४॥
मूलम्
सिव बिरंचि असुर सुर जेते काल अगनि महि जरते ॥ नानक सरनि चरन कमलन की तुम्ह न डारहु प्रभ करते ॥३॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरंचि = ब्रहमा। असुर = दैत्य। सुर = देवते। जेते = जितने भी हैं। जरते = जल रहे हैं। न डारहु = परे ना हटाओ। करते = हे कर्तार!।3।
अर्थ: हे नानक! शिव, ब्रहमा, दैत्य, देवतागण- ये जितने भी हैं (परमात्मा का नाम भुला के सब) आत्मिक मौत की आग में जलते हैं (किसी का भी लिहाज़ नहीं होता)। हे भाई! प्रभु-दर पर अरदास करते रहो- हे प्रभु! अपने कमल-फूल जैसे सुंदर चरणों की शरण से (हमें) ना हटाओ।3।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार महला ५ दुपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मलार महला ५ दुपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ मेरे ओइ बैरागी तिआगी ॥ हउ इकु खिनु तिसु बिनु रहि न सकउ प्रीति हमारी लागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ मेरे ओइ बैरागी तिआगी ॥ हउ इकु खिनु तिसु बिनु रहि न सकउ प्रीति हमारी लागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागी = वैरागवान, प्रेमी। ओइ = वह, वे। तिआगी = विरक्त, माया के मोह से बचे हुए। हउ = मैं (भी)। तिसु बिनु = उस (प्रभु) के बिना। सकउ = सकूँ।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य मेरे प्रभु के प्रीतिवान होते हैं वे माया के मोह से बचे रहते हैं। हे भाई! (उनकी कृपा से) मैं (भी) उस प्रभु (की याद) के बिना एक छिन भर भी नहीं रह सकता। मेरी (भी उसके साथ) प्रीति लगी हुई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन कै संगि मोहि प्रभु चिति आवै संत प्रसादि मोहि जागी ॥ सुनि उपदेसु भए मन निरमल गुन गाए रंगि रांगी ॥१॥
मूलम्
उन कै संगि मोहि प्रभु चिति आवै संत प्रसादि मोहि जागी ॥ सुनि उपदेसु भए मन निरमल गुन गाए रंगि रांगी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उन कै संगि = उन (वैरागियों त्यागियों) की संगति में। मोहि चिति = मेरे चिक्त में। संत प्रसादि = संत जनों की कृपा से। मोहि = मुझे। जागी = जाग। सुनि = सुन के। रंगि = रंग में, प्रेम रंग में। रांगी = रंग के।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के प्रीतवान) उन (संतजनों) की संगति में (रह के) मेरे चिक्त में परमात्मा आ बसता है। संत जनों की किरपा से मुझे (माया के मोह की नींद में से) जाग आ गई है। (उनका) उपदेश सुन के मन पवित्र हो जाते हैं (प्रभु के प्रेम-) रंग में रंगीज के (मनुष्य प्रभु के) गुण गाने लग जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु देइ कीए संत मीता क्रिपाल भए बडभागीं ॥ महा सुखु पाइआ बरनि न साकउ रेनु नानक जन पागी ॥२॥१॥५॥
मूलम्
इहु मनु देइ कीए संत मीता क्रिपाल भए बडभागीं ॥ महा सुखु पाइआ बरनि न साकउ रेनु नानक जन पागी ॥२॥१॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = दे के, भेटा करके। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। रेनु = धूल। रेनु पागी = चरणों की धूल। रेन जन पागी = संत जनों के चरणों की धूल।2।
अर्थ: हे भाई! (अपना) यह मन हवाले करके संत जनों को मित्र बनाया जा सकता है, (संत जन) बड़े भाग्य वालों पर दयावान हो जाते हैं। हे नानक! (कह:) मैं संत जनों के चरणों की धूल (सदा माँगता हूँ। संत जनों की कृपा से) मैंने इतना महान आनंद प्राप्त किया है कि मैं उसको बयान नहीं कर सकता।2।1।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ माई मोहि प्रीतमु देहु मिलाई ॥ सगल सहेली सुख भरि सूती जिह घरि लालु बसाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ माई मोहि प्रीतमु देहु मिलाई ॥ सगल सहेली सुख भरि सूती जिह घरि लालु बसाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! मोहि = मुझे। देहु मिलाई = मिला दे। सगल सहेली = सारी (संत जन) सखियाँ। सुख भर सूती = पूर्ण सुख में लीन रहती हैं। जिह घरि = जिनके हृदय घर में। लालु = सोहना प्रभु। बसाई = बसता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! मुझे (भी) प्रीतम प्रभु मिला दे। जिस (संत-जन-सहेलियों) के (हृदय) घर में सुंदर प्रभु आ बसता है वे सारी सखियाँ आत्मिक आनंद में मगन रहती हें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि अवगन प्रभु सदा दइआला मोहि निरगुनि किआ चतुराई ॥ करउ बराबरि जो प्रिअ संगि रातीं इह हउमै की ढीठाई ॥१॥
मूलम्
मोहि अवगन प्रभु सदा दइआला मोहि निरगुनि किआ चतुराई ॥ करउ बराबरि जो प्रिअ संगि रातीं इह हउमै की ढीठाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मेरे अंदर। मोहि निरगुनि = मैं गुण हीन में। किआ चतुराई = कौन सी समझदारी? करउ = मैं करती हूँ। बराबरि = बराबरी। जो रातीं = जो रति होई हुई हैं। संगि = साथ। ढीठाई = ढीठता।1।
अर्थ: हे माँ! मेरे में निरे अवगुण हैं (फिर भी वह) प्रभु सदा दयावान (रहता) है। मैं गुण-हीन में कोई ऐसी समझदारी नहीं (कि उस प्रभु को मिल सकूँ, पर ज़बानी हवा में बातें करके) मैं उनकी बराबरी करती हूँ, जो प्यारे (प्रभु) के साथ रति होई हुई हैं; यह तो मेरे अहम् की ढीठता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भई निमाणी सरनि इक ताकी गुर सतिगुर पुरख सुखदाई ॥ एक निमख महि मेरा सभु दुखु काटिआ नानक सुखि रैनि बिहाई ॥२॥२॥६॥
मूलम्
भई निमाणी सरनि इक ताकी गुर सतिगुर पुरख सुखदाई ॥ एक निमख महि मेरा सभु दुखु काटिआ नानक सुखि रैनि बिहाई ॥२॥२॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भई निमाणी = मैंने माण छोड़ दिया है। ताकी = देखी है। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। सुखि = सुख में। रैनि = (जिंदगी की) रात। बिहाई = बीत रही है।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे माँ! अब) मैंने मान त्याग दिया है, मैंने सिर्फ सुखदाते गुरु सतिगुरु पुरख की शरण ताक ली है। (उस गुरु ने) आँख झपकने जितने समय में ही मेरा सारा दुख काट दिया है, (अब) मेरी (जिंदगी की) रात आनंद में बीत रही है।2।2।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ बरसु मेघ जी तिलु बिलमु न लाउ ॥ बरसु पिआरे मनहि सधारे होइ अनदु सदा मनि चाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ बरसु मेघ जी तिलु बिलमु न लाउ ॥ बरसु पिआरे मनहि सधारे होइ अनदु सदा मनि चाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरसु = (नाम की) बरखा कर। मेघ जी = हे मेघ जी! हे बादल जी! हे नाम जल के भण्डार सतिगुरु जी! तिलु = रक्ती भर भी। बिलमु = (विलम्ब) देर, ढील। मनहि सधारे = हे (मेरे) मन को आसरा देने वाले! मनि = मन में। होइ = होता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे नाम-जल के भण्डार सतिगुरु जी! (मेरे हृदय में नाम-जल की) बरखा कर। रक्ती भर भी ढील ना कर। हे प्यारे गुरु! हे मेरे मन को सहारा देने वाले गुरु! (नाम-जल की) बरखा कर। (इस बरखा से) मेरे मन में सदा खुशी होती है सदा आनंद पैदा होता है।1। रहाउ।
[[1268]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम तेरी धर सुआमीआ मेरे तू किउ मनहु बिसारे ॥ इसत्री रूप चेरी की निआई सोभ नही बिनु भरतारे ॥१॥
मूलम्
हम तेरी धर सुआमीआ मेरे तू किउ मनहु बिसारे ॥ इसत्री रूप चेरी की निआई सोभ नही बिनु भरतारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हमें, मुझे। धर = आसरा। मनहु = (अपने) मन से। किउ बिसारे = क्यों बिसारता है? ना बिसार। इसत्री रूप = स्त्री रूप, (मैं तो) स्त्री की तरह हूँ। चेरी = दासी। की निआई = की तरह। भरतारे = भतार, खसम, पति।1।
अर्थ: हे मेरे स्वामी प्रभु! मुझे तेरा ही आसरा है, तू मुझे अपने मन से ना बिसार। मैं तो स्त्री की तरह (निर्बल) हूँ, दासी की तरह (कमजोर) हूँ। (स्त्री) पति के बिना शोभा नहीं पाती, (दासी) मालिक के बगैर शोभा नहीं पाती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनउ सुनिओ जब ठाकुर मेरै बेगि आइओ किरपा धारे ॥ कहु नानक मेरो बनिओ सुहागो पति सोभा भले अचारे ॥२॥३॥७॥
मूलम्
बिनउ सुनिओ जब ठाकुर मेरै बेगि आइओ किरपा धारे ॥ कहु नानक मेरो बनिओ सुहागो पति सोभा भले अचारे ॥२॥३॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनउ = विनय, विनती। ठाकुर मेरै = मेरे ठाकुर ने। बेगि = जल्दी। धारे = धार के, कर के। सुहागो = सौभाग्य। पति = इज्जत। अचारे = काम।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे सखी!) जब से मेरे मालिक-प्रभु ने (मेरी यह) विनती सुनी, तो मेहर करके वह जल्दी (मेरे हृदय में) आ बसा। अब मेरी सौभाग्य बन गई है, मुझे इज्जत मिल गई है, मुझे शोभा मिल गई है, मेरी करणी भली हो गई।2।3।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ प्रीतम साचा नामु धिआइ ॥ दूख दरद बिनसै भव सागरु गुर की मूरति रिदै बसाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ प्रीतम साचा नामु धिआइ ॥ दूख दरद बिनसै भव सागरु गुर की मूरति रिदै बसाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम नामु = प्यारे (प्रभु) का नाम। साचा नामु = सदा कायम रहने वाला नाम। धिआइ = स्मरण किया कर। बिनसै = नाश हो जाता है, समाप्त हो जाता है। भव सागरु = संसार समुंदर। गुर की मूरति = (गुर मूरति गुर सबदु है = भाई गुरदास) गुरु का स्वरूप, गुरु का शब्द। रिदै = हृदय में। बसाइ = बसाए रख।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु का सदा नाम स्मरण किया कर। हे भाई! गुरु का शब्द (अपने) हृदय में बसाए रख। (जो मनुष्य यह उद्यम करता है, उसके लिए) दुखों-कष्टों से भरा हुआ संसार-समुंदर समाप्त हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुसमन हते दोखी सभि विआपे हरि सरणाई आइआ ॥ राखनहारै हाथ दे राखिओ नामु पदारथु पाइआ ॥१॥
मूलम्
दुसमन हते दोखी सभि विआपे हरि सरणाई आइआ ॥ राखनहारै हाथ दे राखिओ नामु पदारथु पाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हते = धिक्कारे जाते हें, जगत से तिरस्कार पाते हैं। दोखी = ईष्या करने वाले। सभि = सारे। विआपे = फसे रहते हैं। राखणहारै = रक्षा कर सकने वाले प्रभु ने। दे = देकर। नामु पदारथु = कीमती हरि नाम।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण आ पड़ता है, (उससे) वैर करने वाले जगत में धिक्कारे जाते हैं, उससे ईष्या करने वाले (भी) सारे (ईष्या और जलन में ही) फसे रहते हैं (भाव, दुखदाई, स्वयं ही दुखी होते हैं, उसका कुछ नहीं बिगाड़ते) रक्षा करने में समर्थ प्रभु ने सदा उसकी रक्षा की है, उसने प्रभु का कीमती नाम प्राप्त कर लिया होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा किलविख सभि काटे नामु निरमलु मनि दीआ ॥ गुण निधानु नानक मनि वसिआ बाहुड़ि दूख न थीआ ॥२॥४॥८॥
मूलम्
करि किरपा किलविख सभि काटे नामु निरमलु मनि दीआ ॥ गुण निधानु नानक मनि वसिआ बाहुड़ि दूख न थीआ ॥२॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। किलबिख = पाप। मनि = मन में। दीआ = टिका दिया। गुण निधानु = गुणों का खजाना। बाहुड़ि = दोबारा। न थीआ = नहीं होते।2।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य के मन में (परमात्मा ने अपना) पवित्र नाम टिका दिया, मेहर करके उसके सारे पाप उसने काट दिए। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में सारे गुणों का खजाना प्रभु आ बसा, उसको कोई दुख पोह नहीं सकते।2।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ प्रभ मेरे प्रीतम प्रान पिआरे ॥ प्रेम भगति अपनो नामु दीजै दइआल अनुग्रहु धारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ प्रभ मेरे प्रीतम प्रान पिआरे ॥ प्रेम भगति अपनो नामु दीजै दइआल अनुग्रहु धारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दीजै = दे। दइआल = दयालु, हे दया के घर प्रभु! अनुग्रहु = कृपा। धारे = धार कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! हे मेरे प्रीतम! हे मेरी जिंद से प्यारे! हे दया के श्रोत प्रभु! (मेरे ऊपर) मेहर कर। मुझे अपना प्यार बख्श, मुझे अपनी भक्ति दे, मुझे अपना नाम दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरउ चरन तुहारे प्रीतम रिदै तुहारी आसा ॥ संत जना पहि करउ बेनती मनि दरसन की पिआसा ॥१॥
मूलम्
सिमरउ चरन तुहारे प्रीतम रिदै तुहारी आसा ॥ संत जना पहि करउ बेनती मनि दरसन की पिआसा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरउ = मैं स्मरण करता हूं। प्रीतम = हे प्रीतम! रिदै = हृदय में। पहि = पास। करउ = मैं करता हूं। मनि = मन में।1।
अर्थ: हे प्रीतम! मैं तेरे चरणों का ध्यान धरता रहूँ, मेरे हृदय में तेरी आस टिकी रही। मैं संत जनों के पास बिनती करता हूँ (कि मुझे तेरे दर्शन करवा दें, मेरे) मन में (तेरे) दर्शनों की बड़ी तमन्ना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिछुरत मरनु जीवनु हरि मिलते जन कउ दरसनु दीजै ॥ नाम अधारु जीवन धनु नानक प्रभ मेरे किरपा कीजै ॥२॥५॥९॥
मूलम्
बिछुरत मरनु जीवनु हरि मिलते जन कउ दरसनु दीजै ॥ नाम अधारु जीवन धनु नानक प्रभ मेरे किरपा कीजै ॥२॥५॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरन = मौत, आत्मिक मौत। अधारु = आसरा। जीवन धनु = आत्मिक जीवन की संपत्ति। प्रभ = हे प्रभु!।2।
अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! तुमसे बिछुड़ने पर आत्मिक मौत हो जाती है, तुझे मिलने से आत्मिक जीवन मिलता है। हे प्रभु! अपने सेवक को दर्शन दे। हे नानक! (कह:) हे प्रभु मेहर कर, तेरे नाम का आसरा (मुझे मिला रहे, यही है मेरी) जिंदगी की संपत्ति।2।5।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ अब अपने प्रीतम सिउ बनि आई ॥ राजा रामु रमत सुखु पाइओ बरसु मेघ सुखदाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ अब अपने प्रीतम सिउ बनि आई ॥ राजा रामु रमत सुखु पाइओ बरसु मेघ सुखदाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब (गुरु की कृपा से)। सिउ = साथ। बनि आई = प्यार बन गया है। रमत = स्मरण करते हुए। बरसु = (नाम की बरखा) करता रह। मेघ = हे बादल! हे नाम-जल से भरपूर सतिगुरु!।1। रहाउ।
अर्थ: अब मुझे प्यारे प्रभु से प्रेम हो गया है। हे नाम-जल से भरपूर गुरु! हे सुख देने वाले गुरु! (नाम की) बरखा करता रह। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकु पलु बिसरत नही सुख सागरु नामु नवै निधि पाई ॥ उदौतु भइओ पूरन भावी को भेटे संत सहाई ॥१॥
मूलम्
इकु पलु बिसरत नही सुख सागरु नामु नवै निधि पाई ॥ उदौतु भइओ पूरन भावी को भेटे संत सहाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसरत नहीं = नहीं भूलता। सुख सागरु = सुखों का समुंदर प्रभु। नवै निधि = (जगत के सारे) नौ ही खजाने। उदौतु = प्रकाश। भावी = जो बात जरूर घटित होनी है, रजा। को = का। भेटे = मिल गए। सहाई = सहायता करने वाले।1।
अर्थ: (तेरी मेहर से) प्रभु-पातशाह का नाम स्मरण करते हुए मैंने आत्मिक आनंद हासिल कर लिया है (जो मेरे लिए दुनिया के) नौ ही खजाने हें। अब वह सुखों का समुंदर प्रभु एक पल के लिए भी नहीं भूलता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख उपजे दुख सगल बिनासे पारब्रहम लिव लाई ॥ तरिओ संसारु कठिन भै सागरु हरि नानक चरन धिआई ॥२॥६॥१०॥
मूलम्
सुख उपजे दुख सगल बिनासे पारब्रहम लिव लाई ॥ तरिओ संसारु कठिन भै सागरु हरि नानक चरन धिआई ॥२॥६॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। लिव लाई = तवज्जो/ध्यान लगा के। भै = भय, डर। भै सागरु = सारे डरों से भरपूर समुंदर। धिआई = ध्यान धर के।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु-उपदेश बरसात की इनायत से) मैंने परमात्मा में तवज्जो जोड़ ली है, मेरे अंदर सुख पैदा हो गए हैं, और, सारे दुख नाश हो गए हैं। हरि के चरणों का ध्यान धर के मैं संसार-समुंदर से पार लांघ गया हूँ जिसको तैरना मुश्किल है, और, जो अनेक डरों से भरा हुआ है।2।6।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ घनिहर बरसि सगल जगु छाइआ ॥ भए क्रिपाल प्रीतम प्रभ मेरे अनद मंगल सुख पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ घनिहर बरसि सगल जगु छाइआ ॥ भए क्रिपाल प्रीतम प्रभ मेरे अनद मंगल सुख पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घनिहर = बादल, नाम जल से भरपूर गुरु। बरसि = (नाम की) बरखा कर के। जगु छाइआ = जगत पर प्रभाव डाल रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) नाम-जल से भरपूर सतिगुरु (नाम की) बरखा कर के सारे जगत पर प्रभाव डाल रहा है। (पर जिस मनुष्य पर) मेरे प्रीतम प्रभु दयावान होते हैं, वह (उस नाम-बरखा में से) आनंद-खुशियाँ-आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिटे कलेस त्रिसन सभ बूझी पारब्रहमु मनि धिआइआ ॥ साधसंगि जनम मरन निवारे बहुरि न कतहू धाइआ ॥१॥
मूलम्
मिटे कलेस त्रिसन सभ बूझी पारब्रहमु मनि धिआइआ ॥ साधसंगि जनम मरन निवारे बहुरि न कतहू धाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसन = (माया की) प्यास। मनि = मन में। साध संगि = साधु-संगत में। बहुरि = दोबारा। कत हू = किसी भी और तरफ। धाइआ = भटकता।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में रह के जो मनुष्य परमात्मा को अपने मन में स्मरण करता है, उसके सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं; उसकी मायावी प्यास बुझ जाती है, उसके जनम-मरण के चक्कर दूर हो जाते हैं, वह दोबारा किसी भी और तरफ नहीं भटकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु नामि निरंजनि रातउ चरन कमल लिव लाइआ ॥ अंगीकारु कीओ प्रभि अपनै नानक दास सरणाइआ ॥२॥७॥११॥
मूलम्
मनु तनु नामि निरंजनि रातउ चरन कमल लिव लाइआ ॥ अंगीकारु कीओ प्रभि अपनै नानक दास सरणाइआ ॥२॥७॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नमि = नाम में। निरंजनि = निरंजन में। रातउ = रंगा हुआ। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। प्रभि = प्रभु ने।2।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य प्रभु के दासों की शरण आ पड़ा, प्रभु ने उसकी सहायता की, उसका मन उसका तन निर्लिप प्रभु के नाम (-रंग में) रंगा गया, उसने प्रभु के सुंदर चरणों में तवज्जो जोड़ ली।2।7।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ बिछुरत किउ जीवे ओइ जीवन ॥ चितहि उलास आस मिलबे की चरन कमल रस पीवन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ बिछुरत किउ जीवे ओइ जीवन ॥ चितहि उलास आस मिलबे की चरन कमल रस पीवन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ = वे लोग। चितहि = (जिस के) चिक्त में। उलास = उल्लास, चाव, तमन्ना। मिलबे की = मिलने की। चरन कमल रस पीवन = प्रभु के सुंदर चरणों का रस पीने (की चाहत)।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों के) चिक्त में परमात्मा को मिलने की और उसके सुंदर चरण-कमलों का रस पीने की आशा है और चाहत है, वे मनुष्य उससे वियोग का जीवन कभी नहीं जी सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ पिआस तुमारी प्रीतम तिन कउ अंतरु नाही ॥ जिन कउ बिसरै मेरो रामु पिआरा से मूए मरि जांहीं ॥१॥
मूलम्
जिन कउ पिआस तुमारी प्रीतम तिन कउ अंतरु नाही ॥ जिन कउ बिसरै मेरो रामु पिआरा से मूए मरि जांहीं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! अंतरु = दूरी। मूए = आत्मिक मौत मरे हुए। मरि जांहीं = आत्मिक मौत मर जाते हैं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अंतरु, है संज्ञा, एकवचन। शब्द ‘अंतरु’ और ‘अंतरि’ में फर्क स्मरणीय है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! जिस मनुष्यों के अंदर तेरे दर्शन की चाहत है, उनकी तेरे से कोई दूरी नहीं रहती। पर, हे भाई! जिस मनुष्यों को प्यारा प्रभु भूल जाता है, वे आत्मिक मौत मरे रहते हैं, वे आत्मिक मौत ही मर जाते हैं।1।
[[1269]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि तनि रवि रहिआ जगदीसुर पेखत सदा हजूरे ॥ नानक रवि रहिओ सभ अंतरि सरब रहिआ भरपूरे ॥२॥८॥१२॥
मूलम्
मनि तनि रवि रहिआ जगदीसुर पेखत सदा हजूरे ॥ नानक रवि रहिओ सभ अंतरि सरब रहिआ भरपूरे ॥२॥८॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। जगदीसुर = (जगत+ईसरु) जगत का मालिक प्रभु। हजूरे = हाजर नाजर, अंग संग। रवि रहिओ = मौजूद है। सरब = सबमें।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जगत का मालिक प्रभु जिस मनुष्यों के मन में हृदय में सदा बसा रहता है, वह उसको सदा अपने अंग-संग बसता देखते हैं। (उनको ऐसा प्रतीत होता है कि) परमात्मा सब जीवों भीतर मौजूद है, सब जगह भरपूर बसता है।2।8।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ हरि कै भजनि कउन कउन न तारे ॥ खग तन मीन तन म्रिग तन बराह तन साधू संगि उधारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ हरि कै भजनि कउन कउन न तारे ॥ खग तन मीन तन म्रिग तन बराह तन साधू संगि उधारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै भजनि = के भजन से। कउन कउन = किन किन को। न तारे = (गुरु ने) पार नहीं लंघाए। खग = पंछी। मीन = मछली। म्रिग = पशू, हिरन। बराह = सूअर। तन = शरीर। साधू संगि = गुरु की संगति में। उधारे = पार लंघाए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस-जिस ने भी हरि का भजन किया) उन सभी को (गुरु ने) परमात्मा के भजन से (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया। पंछियों के शरीर वाले, मछलियों के से शरीर धारण करने वाले? पशुओं का सा शरीर धारण करने वाले, सूअरों का शरीर धारण करने वाले- यह सब गुरु की संगति में पार लंघा दिए गए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव कुल दैत कुल जख्य किंनर नर सागर उतरे पारे ॥ जो जो भजनु करै साधू संगि ता के दूख बिदारे ॥१॥
मूलम्
देव कुल दैत कुल जख्य किंनर नर सागर उतरे पारे ॥ जो जो भजनु करै साधू संगि ता के दूख बिदारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुल = खानदान। जख्ह = देवताओं की एक किस्म। किंनर = देवताओं की एक कुल जिनका आधा शरीर घोड़े काऔर आधा मनुष्य का माना जाता है। सागर = (संसार-) समुंदर। करै = करता है (एकवचन)। ता के = उनके। बिदारे = नाश कर दिए हैं।1।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत में नाम-जपने की इनायत से) देवताओं की कुलें, दैत्यों की कुलें, जख, किंन्नर, मनुष्य- ये सारे संसार समुंदर से पार निकल गए। गुरु की संगति में रहके जो-जो प्राणी परमात्मा का भजन करता है, उन सबके सारे दुख नाश हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम करोध महा बिखिआ रस इन ते भए निरारे ॥ दीन दइआल जपहि करुणा मै नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥१३॥
मूलम्
काम करोध महा बिखिआ रस इन ते भए निरारे ॥ दीन दइआल जपहि करुणा मै नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखिआ रस = माया के चस्के। इनते = इनसे। निरारे = निराले, अलग, निर्लिप। जपहि = (जो) जपते हैं। करुणामै = तरस स्वरूप प्रभु को (करुणा = तरस)। सद = सदा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) दीनों पर दया करने वाले तरस-स्वरूप परमात्मा का नाम जो-जो मनुष्य जपते हैं, मैं उन पर से सदा कुर्बान जाता हँ। वे मनषुय काम, क्रोध, माया के चस्के- इन सबसे निर्लिप रहते हैं।2।9।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ आजु मै बैसिओ हरि हाट ॥ नामु रासि साझी करि जन सिउ जांउ न जम कै घाट ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ आजु मै बैसिओ हरि हाट ॥ नामु रासि साझी करि जन सिउ जांउ न जम कै घाट ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आजु = अब। बैसिओ = बैठा हूँ। हाट = दुकान। हरि हाट = वह हाट जहाँ हरि नाम मिलता है, साधु-संगत। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। साझी = सांझ, भाईवाली। करि = कर के। जन सिउ = संत जनों के साथ। जांउ न = मैं नहीं जाता। घाट = पत्तन। जम कै घाट = जमदूतों के घाट पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अब मैं उस हाट (साधु-संगत) में आ बैठा हूँ जहाँ हरि-नाम मिलता है। वहाँ मैंने संत-जनों के साथ सांझ डाल के हरि-नाम की संपत्ति (इकट्ठी की है, जिसकी इनायत से) मैं जमदूतों के घाटों पर नहीं जाता (भाव, मैं वह कर्म ही नहीं करता, जिनके कारण जमों के वश में पड़ना पड़े)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारि अनुग्रहु पारब्रहमि राखे भ्रम के खुल्हे कपाट ॥ बेसुमार साहु प्रभु पाइआ लाहा चरन निधि खाट ॥१॥
मूलम्
धारि अनुग्रहु पारब्रहमि राखे भ्रम के खुल्हे कपाट ॥ बेसुमार साहु प्रभु पाइआ लाहा चरन निधि खाट ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। अनुग्रहु = कृपा। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। राखे = रक्षा की। कपाट = किवाड़, दरवाजे। साहु = शाह, नाम धन का मालिक। लाहा = लाभ। निधि = खजाना, सारे सुखों का खजाना। खाट = कमाया।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके जिनकी रक्षा की (साधु-संगत की इनायत से उनके) भ्रम-भटकना के भिक्त खुल गए। उन्होंने बेअंत नाम-राशि के मालिक प्रभु को पा लिया। उन्होंने परमात्मा के चरणों (में टिके रहने) की कमाई कमा ली, जो सारे सुखों का खजाना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनि गही अचुत अबिनासी किलबिख काढे है छांटि ॥ कलि कलेस मिटे दास नानक बहुरि न जोनी माट ॥२॥१०॥१४॥
मूलम्
सरनि गही अचुत अबिनासी किलबिख काढे है छांटि ॥ कलि कलेस मिटे दास नानक बहुरि न जोनी माट ॥२॥१०॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गही = पकड़ी। अचुत सरनि = अविनाशी की शरण। अचुत = (अ+चुत। चुत्य = गिरा हुआ, नाशवान) जिस का कभी नाश नहीं होता। किलबिख = पाप। छांटि = चुन के। कलि = झगड़े। बहुरि = दोबारा। माट = मिटते, पड़ते।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस सेवकों ने) अटल अविनाशी परमात्मा का आसरा ले लिया, उन्होंने (अपने अंदर से सारे) पाप चुन-चुन के निकाल दिए, उन दासों के अंदर से सारे झगड़े कष्ट समाप्त हो गए, वे फिर जूनियों में नहीं पड़ते।2।10।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ बहु बिधि माइआ मोह हिरानो ॥ कोटि मधे कोऊ बिरला सेवकु पूरन भगतु चिरानो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ बहु बिधि माइआ मोह हिरानो ॥ कोटि मधे कोऊ बिरला सेवकु पूरन भगतु चिरानो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरीकों से। हिराने = ठगे जाते हैं (जीव)। कोटि मधे = करोड़ों में से। चिरानो = चिरों की, आदि कदीमों का।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जीव) कई तरीकों से माया के मोह में ठगे जाते हैं। करोड़ों में से कोई विरला ही (ऐसा) सेवक होता है जो आदि-कदीम से ही पूरा भक्त होता है (और माया के हाथों ठगा नहीं जाता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत उत डोलि डोलि स्रमु पाइओ तनु धनु होत बिरानो ॥ लोग दुराइ करत ठगिआई होतौ संगि न जानो ॥१॥
मूलम्
इत उत डोलि डोलि स्रमु पाइओ तनु धनु होत बिरानो ॥ लोग दुराइ करत ठगिआई होतौ संगि न जानो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इत उत = इधर उधर। डोलि = डोल के, भटक के। स्रमु = थकावट। बिरानो = बेगाना। दुराइ = छुपा के। ठगिआई = ठगी। संगि = साथ। होतौ संगि = (जो हरि सदा) साथ रहने वाला है। जानो = जानता।1।
अर्थ: हे भाई! (माया का ठगा मनुष्य) हर तरफ भटक-भटक के थकता फिरता है (जिस शरीर और धन की खातिर भटकता है, वह) शरीर और धन (आखिर) बेगाना हो जाता है। (माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य) लोगों से छुपा-छुपा के ठगी करता रहता है (जो परमात्मा सदा) साथ रहता है उसके साथ सांझ नहीं डालता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
म्रिग पंखी मीन दीन नीच इह संकट फिरि आनो ॥ कहु नानक पाहन प्रभ तारहु साधसंगति सुख मानो ॥२॥११॥१५॥
मूलम्
म्रिग पंखी मीन दीन नीच इह संकट फिरि आनो ॥ कहु नानक पाहन प्रभ तारहु साधसंगति सुख मानो ॥२॥११॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: म्रिग = मृग, हिरन, पशु। पंखी = पक्षी। मीन = मछली। इह संकट = इन कष्टों में। फिरि आनो = भटकता फिरता है। नानक = हे नानक! पाहन = पत्थर, पत्थर चिक्त जीवों को। मानो = मान सको।2।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में फसे रहने के कारण आखिर) पशु, पक्षी, मछली - इन निम्न जूनियों के चक्करों के दुख में ही भटकता फिरता है। हे नानक! कह: हे प्रभु! हम पत्थरों को (पत्थर-दिल जीवों को) पार लंघा ले, हम साधु-संगत में (तेरी भक्ति का) आनंद लेते रहते हैं।2।11।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ दुसट मुए बिखु खाई री माई ॥ जिस के जीअ तिन ही रखि लीने मेरे प्रभ कउ किरपा आई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ दुसट मुए बिखु खाई री माई ॥ जिस के जीअ तिन ही रखि लीने मेरे प्रभ कउ किरपा आई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुसट = (कामादिक) चंदरे वैरी। मुए = मर गए। बिखु = जहर। खाई = खा के। जीअ = जीव। किरपा = कृपा, दया, तरस।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! (मेरे प्रभु को मेरे ऊपर तरस आया है, अब कामादिक) चंदरे वैरी (इस तरह) खत्म हो गए हें (जैसे) जहर खा के। हे माँ! मेरे प्रभु को (जब) तरस आता है, उसके अपने ही हैं सब जीव, वह स्वयं ही इनकी (कामादिक वैरियों से) रक्षा करता ह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरजामी सभ महि वरतै तां भउ कैसा भाई ॥ संगि सहाई छोडि न जाई प्रभु दीसै सभनी ठाईं ॥१॥
मूलम्
अंतरजामी सभ महि वरतै तां भउ कैसा भाई ॥ संगि सहाई छोडि न जाई प्रभु दीसै सभनी ठाईं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। वरतै = मौजूद है। भाई = हे भाई! कैसा = किस तरह का? संगि = साथ। सहाई = साथी। दीसै = दिखता है।1।
अर्थ: हे भाई! हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु सब जीवों में मौजूद है (जब यह निश्चय हो जाए) तो कोई डर नहीं पोह सकता। हे भाई! वह प्रभु हरेक का साथी है, वह छोड़ के नहीं जाता, वह सब जगह बसता दिखाई देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथा नाथु दीन दुख भंजन आपि लीए लड़ि लाई ॥ हरि की ओट जीवहि दास तेरे नानक प्रभ सरणाई ॥२॥१२॥१६॥
मूलम्
अनाथा नाथु दीन दुख भंजन आपि लीए लड़ि लाई ॥ हरि की ओट जीवहि दास तेरे नानक प्रभ सरणाई ॥२॥१२॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाथु = पति। दीन = गरीब, कमजोर, निमाणे। भंजन = नाश करने वाला। लड़ि = पल्ले से। जीवहि = जीते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा निखसमों का खसम है, गरीबों का दुख नाश करने वाला है, वह (जीवों को) खुद अपने लड़ लगाता है। हे नानक (कह:) हे हरि! हे प्रभु! तेरे दास तेरे आसरे जीते हैं, मैं भी तेरी ही शरण पड़ा हूँ।2।12।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ मन मेरे हरि के चरन रवीजै ॥ दरस पिआस मेरो मनु मोहिओ हरि पंख लगाइ मिलीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ मन मेरे हरि के चरन रवीजै ॥ दरस पिआस मेरो मनु मोहिओ हरि पंख लगाइ मिलीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! रवीजै = स्मरण किया कर। पिआस = तमन्ना। मोहिओ = मगन रहते हैं। पंख = पंख। पंख लगाइ = पंख लगा के, उड़ के, जल्दी। मिलीजै = मिल जाएं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के चरण स्मरण करने चाहिए (गरीबी स्वभाव में टिक के प्रभु का स्मरण करना चाहिए)। हे भाई! मेरा मन प्रभु के दीदार की तमन्ना में मगन रहता है। (जी ऐसे करता है कि उस को) उड़ के जा कर मिल लें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत मारगु पाइओ साधू सेव करीजै ॥ धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे नामु महा रसु पीजै ॥१॥
मूलम्
खोजत खोजत मारगु पाइओ साधू सेव करीजै ॥ धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे नामु महा रसु पीजै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत = तलाश करते हुए। मारगु = रास्ता। साधू = गुरु। करीजै = करनी चाहिए। धारि = धारण कर के। अनुग्रहु = दया, मेहर। सुआमी = हे स्वामी! महा रसु = बहुत स्वादिष्ट। पीजै = पीया जा सके।1।
अर्थ: हे भाई! तलाश करते-करते (गुरु से उस प्रभु के मिलाप का मैंने) रास्ता पा लिया है। हे भाई! गुरु की शरण पड़े रहना चाहिए। हे मेरे मालिक प्रभु! (मेरे ऊपर) मेहर कर, तेरा बहुत ही स्वादिष्ट नाम-जल पीया जा सके।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्राहि त्राहि करि सरनी आए जलतउ किरपा कीजै ॥ करु गहि लेहु दास अपुने कउ नानक अपुनो कीजै ॥२॥१३॥१७॥
मूलम्
त्राहि त्राहि करि सरनी आए जलतउ किरपा कीजै ॥ करु गहि लेहु दास अपुने कउ नानक अपुनो कीजै ॥२॥१३॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्राहि = बचा ले, रक्षा कर ले। करि = कर के, कह के। जलतउ = जलते के ऊपर। करु = हाथ (एकवचन)। गहि लेहु = पकड़ ले। अपुनो कीजै = अपना सेवक बना ले।2।
अर्थ: हे प्रभु! विकारों से ‘बचा ले’ ‘बचा ले’ - यह कह के (जीव) तेरी शरण आते हैं। हे प्रभु! (विकारों की आग में) जलते हुए पर (तू खुद) मेहर कर। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) दास का हाथ पकड़ ले, मुझे अपना दास बना ले।2।13।17।
[[1270]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार मः ५ ॥ प्रभ को भगति बछलु बिरदाइओ ॥ निंदक मारि चरन तल दीने अपुनो जसु वरताइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार मः ५ ॥ प्रभ को भगति बछलु बिरदाइओ ॥ निंदक मारि चरन तल दीने अपुनो जसु वरताइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। भगति बछलु = (वछलु = वत्सल) भक्ति को प्यार करने वाला। बिरदाइओ = बिरद, आदि कदीमी स्वभाव। मारि = मार के, आत्मिक मौत दे के, आत्मिक तौर पर नीचा कर के। जसु = शोभा, बड़ाई। वरताइओ = बिखेरा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) भकित से प्यार करने वाला (है– यह) परमात्मा का आदि-कदीमी स्वभाव है। (भक्ति करने वालों की) निंदा करने वालों को आत्मिक तोर पर नीचा रख के (उनके) पैरों के तले रखता है (इस तरह परमात्मा जगत में) अपनी शोभा बिखेरता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जै जै कारु कीनो सभ जग महि दइआ जीअन महि पाइओ ॥ कंठि लाइ अपुनो दासु राखिओ ताती वाउ न लाइओ ॥१॥
मूलम्
जै जै कारु कीनो सभ जग महि दइआ जीअन महि पाइओ ॥ कंठि लाइ अपुनो दासु राखिओ ताती वाउ न लाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जै जैकार = शोभा। जीअन महि = जीवों के अंदर। दइआ = प्यार। कंठि = गले से। ताती = गरम। वाउ = हवा।1।
अर्थ: हे भाई! सारे जगत में (परमात्मा अपने दासों की) शोभा बनाता है, (सब) जीवों के दिल में (अपने सेवकों के लिए) आदर-सत्कार पैदा करता है। प्रभु अपने सेवक को अपने गले से लगा के रखता है, उसको गर्म-हवा नहीं लगने देता (थोड़ी सी भी मुश्किल नहीं आने देता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंगीकारु कीओ मेरे सुआमी भ्रमु भउ मेटि सुखाइओ ॥ महा अनंद करहु दास हरि के नानक बिस्वासु मनि आइओ ॥२॥१४॥१८॥
मूलम्
अंगीकारु कीओ मेरे सुआमी भ्रमु भउ मेटि सुखाइओ ॥ महा अनंद करहु दास हरि के नानक बिस्वासु मनि आइओ ॥२॥१४॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंगीकारु= पक्ष, सहायता। मेटि = मिटा के। सुखाइओ = सुख दिया है। दास = हे सेवक जनो! बिस्वासु = विश्वास, श्रद्धा। मनि = मन में।2।
अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक प्रभु ने (अपने सेवक की सदा) सहायता की है, (सेवकों के अंदर से) भटकना और डर मिटा के (उसको) आत्मिक आनंद बख्शता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु के सेवक! तेरे मन में (प्रभु के लिए) श्रद्धा बन चुकी है। तू बेशक आत्मिक आनंद माणता रह (भाव, जिसके अंदर परमात्मा के लिए श्रद्धा-प्यार है, वह अवश्य आनंद पाता है)।2।14।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मलार महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि दीसै ब्रहम पसारु ॥ गुरमुखि त्रै गुणीआं बिसथारु ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ बिनु गुर पूरे घोर अंधारु ॥१॥
मूलम्
गुरमुखि दीसै ब्रहम पसारु ॥ गुरमुखि त्रै गुणीआं बिसथारु ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ बिनु गुर पूरे घोर अंधारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। दीसै = दिखता है। पसारु = खिलारा, पसारा। त्रै गुणीआं बिसथारु = तीन गुणों का विस्तार। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना (ही)। नाद बेद बीचारु = नाद का और वेद का विचार है। घोर अंधारु = (आत्मिक जीवन के पक्ष से) घोर अंधकार।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से (यह सारा जगत) परमात्मा का पसारा दिखता है, गुरु की शरण पड़ने से (यह भी दिखाई दे जाता है कि यह) माया के तीन गुणों का खिलारा है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ना ही (जोगियों के) नाद का (और पंडितों के) वेद का विचार है। पूरे गुरु की शरण के बिना (आत्मिक जीवन के पक्ष से) घोर अंधेरा (बना रहता) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन गुरु गुरु करत सदा सुखु पाईऐ ॥ गुर उपदेसि हरि हिरदै वसिओ सासि गिरासि अपणा खसमु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन गुरु गुरु करत सदा सुखु पाईऐ ॥ गुर उपदेसि हरि हिरदै वसिओ सासि गिरासि अपणा खसमु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! करत = करते हुए, याद करते। पाईऐ = प्राप्त किया है। गुर उपदेसि = गुरु के उपदेश से। हिरदै = हृदय में। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ। धिआईऐ = ध्याना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु को हर वक्त याद करते हुए सदा आत्मिक आनंद पाया जा सकता है। गुरु के उपदेश से परमात्मा हृदय में आ बसता है। हे मन! (गुरु की शरण पड़ कर) हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ अपने मालिक-प्रभु का नाम-स्मरण करना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर के चरण विटहु बलि जाउ ॥ गुर के गुण अनदिनु नित गाउ ॥ गुर की धूड़ि करउ इसनानु ॥ साची दरगह पाईऐ मानु ॥२॥
मूलम्
गुर के चरण विटहु बलि जाउ ॥ गुर के गुण अनदिनु नित गाउ ॥ गुर की धूड़ि करउ इसनानु ॥ साची दरगह पाईऐ मानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विटहु = से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूं। अनदिनु = (अनुदिनं) हर रोज, हर वक्त। गाउ = मैं गाता हूँ, गाऊँ। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर।2।
अर्थ: हे भाई! मैं गुरु के चरणों पर से कुर्बान जाता हूँ, मैं हर वक्त गुरु के गुण गाता हूँ, मैं गुरु के चरणों की धूल में स्नान करता हूँ। हे भाई! (गुरु की मेहर से ही) सदा कायम रहने वाली दरगाह में आदर हासिल किया जा सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु बोहिथु भवजल तारणहारु ॥ गुरि भेटिऐ न होइ जोनि अउतारु ॥ गुर की सेवा सो जनु पाए ॥ जा कउ करमि लिखिआ धुरि आए ॥३॥
मूलम्
गुरु बोहिथु भवजल तारणहारु ॥ गुरि भेटिऐ न होइ जोनि अउतारु ॥ गुर की सेवा सो जनु पाए ॥ जा कउ करमि लिखिआ धुरि आए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोहिथु = जहाज। भवजल = संसार समुंदर। तारणहारु = पार लंघा सकने वाला। गुरि भेटिऐ = अगर गुरु मिल जाए। अउतारु = अवतार, जनम। करमि = बख्शिश से। धुरि = धुर दरगाह से।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु संसार-समुंदर से पार लंघा सकने वाला जहाज है। अगर गुरु मिल जाए तो फिर जूनियों में जन्म नहीं होता। पर वह मनुष्य (ही) गुरु की सेवा (का अवसर) प्राप्त करता है, जिसके माथे पर धुर दरगाह से (प्रभु की) मेहर से (ये लेख) लिखा होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु मेरी जीवनि गुरु आधारु ॥ गुरु मेरी वरतणि गुरु परवारु ॥ गुरु मेरा खसमु सतिगुर सरणाई ॥ नानक गुरु पारब्रहमु जा की कीम न पाई ॥४॥१॥१९॥
मूलम्
गुरु मेरी जीवनि गुरु आधारु ॥ गुरु मेरी वरतणि गुरु परवारु ॥ गुरु मेरा खसमु सतिगुर सरणाई ॥ नानक गुरु पारब्रहमु जा की कीम न पाई ॥४॥१॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवनि = जिंदगी। आधारु = आसरा। वरतणि = हाथ ठोका, हर वक्त का सहारा। खसमु = मालिक। जा की = जिस की। कीम = कीमत।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु (ही) मेरी जिंदगी है, गुरु मेरा आसरा है, गुरु ही मेरा हर वक्त सहारा है, गुरु ही (मेरे मन को ढाढस देने वाला) मेरा परिवार है, गुरु मेरा राखवाला है, मैं सदा गुरु की शरण पड़ा रहता हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु परमात्मा (का रूप) है, जिसका मूल्य नहीं पड़ सकता।4।1।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ गुर के चरन हिरदै वसाए ॥ करि किरपा प्रभि आपि मिलाए ॥ अपने सेवक कउ लए प्रभु लाइ ॥ ता की कीमति कही न जाइ ॥१॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ गुर के चरन हिरदै वसाए ॥ करि किरपा प्रभि आपि मिलाए ॥ अपने सेवक कउ लए प्रभु लाइ ॥ ता की कीमति कही न जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। वसाए = बसाता है। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। कउ = को। लाइ लए = (चरणों में) लगा लिए, जोड़े रखता है। ता की = उस (प्रभु) की।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु का सेवक) गुरु के चरणों को अपने हृदय में बसाए रखता है (यह भी प्रभु की अपनी ही मेहर होती है) प्रभु ने स्वयं (ही) मेहर कर के (उसको गुरु के चरणों में) जोड़ा होता है। हे भाई! प्रभु अपने सेवक को (चरणों में) जोड़े रखता है, उस (मालिक का) बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा पूरन सुखदाते ॥ तुम्हरी क्रिपा ते तूं चिति आवहि आठ पहर तेरै रंगि राते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करि किरपा पूरन सुखदाते ॥ तुम्हरी क्रिपा ते तूं चिति आवहि आठ पहर तेरै रंगि राते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि किरपा = मेहर कर। पूरन = हे सर्व व्यापक! सुखदाते = हे सुख देने वाले! ते = से। चिति = चिक्त में। तेरै रंगि = तेरे (प्रेम) रंग में। राते = रंगे रहते रहते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे सर्व-व्यापक! हे सुख देने वाले प्रभु! मेहर कर (मेरे चिक्त में आ बस), तू अपनी मेहर से ही (जीवों के) चिक्त में आता है, (जिनकी याद में तू आ बसता है, वे) आठों पहर तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावणु सुनणु सभु तेरा भाणा ॥ हुकमु बूझै सो साचि समाणा ॥ जपि जपि जीवहि तेरा नांउ ॥ तुझ बिनु दूजा नाही थाउ ॥२॥
मूलम्
गावणु सुनणु सभु तेरा भाणा ॥ हुकमु बूझै सो साचि समाणा ॥ जपि जपि जीवहि तेरा नांउ ॥ तुझ बिनु दूजा नाही थाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाणा = रज़ा, हुक्म। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में। जपि = जप के। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। थाउ = जगह, आसरा।2।
अर्थ: हे प्रभु! जब तेरी रज़ा होती है तब ही तेरी महिमा गाई जा सकती है तेरा नाम सुना जा सकता है। (जो मनुष्य तेरे) हुक्म को समझता है, वह (तेरे) सदा-स्थिर नाम में लीन रहता है। हे प्रभु! (तेरे सेवक) तेरा नाम जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, उनको तेरे बिना और कोई सहारा नहीं होता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुख सुख करते हुकमु रजाइ ॥ भाणै बखस भाणै देइ सजाइ ॥ दुहां सिरिआं का करता आपि ॥ कुरबाणु जांई तेरे परताप ॥३॥
मूलम्
दुख सुख करते हुकमु रजाइ ॥ भाणै बखस भाणै देइ सजाइ ॥ दुहां सिरिआं का करता आपि ॥ कुरबाणु जांई तेरे परताप ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करते हुकमु = कर्तार का हुक्म। करते रजाइ = (रजाय) कर्तार की रज़ा। भाणै = रज़ा में। बखस = बख्शिश, करम, मेहर। देइ = देय, देता है। दूहां सिरिआं का = (बख्शिश और सज़ा = इन) दोनों तरफ का। जांई = मैं जाता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! यह कर्तार का हुक्म है कर्तार की रज़ा है (कभी) दुख (कभी) सुख (देता है)। अपनी रज़ा में (किसी पर) बख्शिश (करता है, किसी को) सज़ा देता है। (बख्शिश और सज़ा- इन) दोनों पक्षों का कर्तार स्वयं ही मालिक है। हे प्रभु! तेरे (इतने बड़े) प्रताप से मैं सदके जाता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी कीमति तूहै जाणहि ॥ तू आपे बूझहि सुणि आपि वखाणहि ॥ सेई भगत जो तुधु भाणे ॥ नानक तिन कै सद कुरबाणे ॥४॥२॥२०॥
मूलम्
तेरी कीमति तूहै जाणहि ॥ तू आपे बूझहि सुणि आपि वखाणहि ॥ सेई भगत जो तुधु भाणे ॥ नानक तिन कै सद कुरबाणे ॥४॥२॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तूहै = तू ही। बूझहि = समझता है। सुणि = सुन के। सेई = वह (मनुष्य) ही (बहुवचन)। तुधु = तुझे। भाणे = अच्छे लगते हैं। तिन कै = उन से। सद = सदा।4।
अर्थ: हे प्रभु! (तू इतना बड़ा है; अपनी यह) कीमत तू खुद ही जानता है। तू खुद ही (अपनी रज़ा को) समझता है, (अपने हुक्म को) सुन के तू स्वयं ही (उसकी) व्याख्या करता है। हे प्रभु! वही मनुष्य तेरे (असल) भक्त हैं जो तुझे अच्छे लगते हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं उनसे सदा सदके जाता हूँ।4।2।20।
[[1271]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ परमेसरु होआ दइआलु ॥ मेघु वरसै अम्रित धार ॥ सगले जीअ जंत त्रिपतासे ॥ कारज आए पूरे रासे ॥१॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ परमेसरु होआ दइआलु ॥ मेघु वरसै अम्रित धार ॥ सगले जीअ जंत त्रिपतासे ॥ कारज आए पूरे रासे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परमेसरु = परम+ईश्वर, सबसे बड़ा मालिक प्रभु। दइआल = दयावान। मेघु = बादल, नाम जल से भरपूर गुर उपदेश। वरसै = बरखा करता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। त्रिपतासे = तृप्त हो जाते हैं। आए रासे = रास आए, सफल हो जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा दयावान होता है (उसके हृदय में गुरु का उपदेश रूपी) बादल आत्मि्क जीवन देने वाले नाम-जल की धाराओं की बरखा करता है। (जिस पर यह बरखा होती है, वह) सारे जीव (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं। उनके सारे काम सफल हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा मन नामु सम्हालि ॥ गुर पूरे की सेवा पाइआ ऐथै ओथै निबहै नालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सदा सदा मन नामु सम्हालि ॥ गुर पूरे की सेवा पाइआ ऐथै ओथै निबहै नालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! समालि = संभाल, याद करता रह। सेवा = शरण। अेथै ओथै = इस लोक में और परलोक में।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा का नाम याद करता रह (यह नाम) पूरे गुरु की शरण पड़ने से मिलता है, और इस लोक और परलोक में (जीव का) साथ देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुखु भंना भै भंजनहार ॥ आपणिआ जीआ की कीती सार ॥ राखनहार सदा मिहरवान ॥ सदा सदा जाईऐ कुरबान ॥२॥
मूलम्
दुखु भंना भै भंजनहार ॥ आपणिआ जीआ की कीती सार ॥ राखनहार सदा मिहरवान ॥ सदा सदा जाईऐ कुरबान ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भंना = तोड़ दिया, दूर कर दिया। भै = सारे डर। सार = संभाल। राखणहार = रक्षा कर सकने वाला। जाईऐ = जाना चाहिए।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! रक्षा करने की सामर्थ्य वाला परमात्मा (जीवों पर) सदा दयावान रहता है, उसके (चरणों) से सदा सदके जाना चाहिए। (जीवों के) सारे डर नाश करने वाले उस प्रभु ने अपने पैदा किए हुए जीवों की सदा संभाल की है, और (जीवों का) हरेक दुख दूर किया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालु गवाइआ करतै आपि ॥ सदा सदा मन तिस नो जापि ॥ द्रिसटि धारि राखे सभि जंत ॥ गुण गावहु नित नित भगवंत ॥३॥
मूलम्
कालु गवाइआ करतै आपि ॥ सदा सदा मन तिस नो जापि ॥ द्रिसटि धारि राखे सभि जंत ॥ गुण गावहु नित नित भगवंत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। करतै = कर्तार ने। मन = हे मन! जपि = जपा कर। दिसटि = मेहर की दृष्टि। धारि = धार के, कर के। सभि = सारे। नित = सदा।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मन! सदा ही सदा ही उस परमात्मा का नाम जपा कर, (जिसने भी नाम जपा है) कर्तार ने (उसके सिर पर से आत्मिक) मौत दूर कर दी। हे भाई! भगवान के गुण सदा ही गाते रहो। (उस भगवान ने) मेहर निगाह करके सारे जीवों की (सदा) रक्षा की है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको करता आपे आप ॥ हरि के भगत जाणहि परताप ॥ नावै की पैज रखदा आइआ ॥ नानकु बोलै तिस का बोलाइआ ॥४॥३॥२१॥
मूलम्
एको करता आपे आप ॥ हरि के भगत जाणहि परताप ॥ नावै की पैज रखदा आइआ ॥ नानकु बोलै तिस का बोलाइआ ॥४॥३॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। जाणहि = जानते हैं (बहुवचन)। नावै की पैज = नाम की इज्जत। नानकु बोलै = नानक बोलता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘नानकु’ है कर्ता कारक, एकवचन।
नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कर्तार स्वयं ही स्वयं (हर जगह मौजूद) है उसके भक्त उसका तेज-प्रताप जानते हैं। (वह शरण-योग्य है, शरण पड़े हुओं की बाँह पकड़ता है, अपने इस) नाम की इज्जत वह (सदा ही) रखता आ रहा है। उसका दास नानक उस (कर्तार) का प्रेरित किया हुआ ही (उसकी महिमा का बोल) बोलता है।4।3।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ गुर सरणाई सगल निधान ॥ साची दरगहि पाईऐ मानु ॥ भ्रमु भउ दूखु दरदु सभु जाइ ॥ साधसंगि सद हरि गुण गाइ ॥१॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ गुर सरणाई सगल निधान ॥ साची दरगहि पाईऐ मानु ॥ भ्रमु भउ दूखु दरदु सभु जाइ ॥ साधसंगि सद हरि गुण गाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधान = खजाने। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर। जाइ = दूर हो जाता है। साध संगि = गुरु की संगति मे। गाइ = गाया कर।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘निधान’ है ‘निधानु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े रहने पर सारे खजाने (मिल जाते हैं); सदा कायम रहने वाली ईश्वरीय दरगाह में आदर मिलता है। हे भाई! गुरु की संगति में रह के सदा परमात्मा के गुण गाया कर (जो मनुष्य गाता है, उसका) भ्रम, डर, हरेक दुख-दर्द दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे गुरु पूरा सालाहि ॥ नामु निधानु जपहु दिनु राती मन चिंदे फल पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे गुरु पूरा सालाहि ॥ नामु निधानु जपहु दिनु राती मन चिंदे फल पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सालाहि = सराहा कर। मन चिंदे = मन इच्छित। पाइ = पाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! पूरे गुरु की (सदा) महिमा किया कर। (गुरु की शरण पड़ कर) दिन-रात परमात्मा का नाम जपा कर (यही है सारे सुखों का) खजाना। (जो मनुष्य जपता है, वह) मन-इच्छित फल प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर जेवडु अवरु न कोइ ॥ गुरु पारब्रहमु परमेसरु सोइ ॥ जनम मरण दूख ते राखै ॥ माइआ बिखु फिरि बहुड़ि न चाखै ॥२॥
मूलम्
सतिगुर जेवडु अवरु न कोइ ॥ गुरु पारब्रहमु परमेसरु सोइ ॥ जनम मरण दूख ते राखै ॥ माइआ बिखु फिरि बहुड़ि न चाखै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। ते = से। राखै = बचाता है। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। बहुड़ि = दोबारा। ना चाखै = नहीं चखता, स्वाद लगा लगा के नहीं खाता।2।
अर्थ: हे भाई! (बख्शिशें करने में) गुरु के बराबर को और कोई नहीं। वह गुरु पारब्रहम है, गुरु परमेश्वर है। गुरु पैदा होने-मरने के चक्करों के दुखों से बचाता है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह) आत्मिक मौत लाने वाली माया के जहर को बार-बार स्वाद लगा-लगा के नहीं चखता रहता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की महिमा कथनु न जाइ ॥ गुरु परमेसरु साचै नाइ ॥ सचु संजमु करणी सभु साची ॥ सो मनु निरमलु जो गुर संगि राची ॥३॥
मूलम्
गुर की महिमा कथनु न जाइ ॥ गुरु परमेसरु साचै नाइ ॥ सचु संजमु करणी सभु साची ॥ सो मनु निरमलु जो गुर संगि राची ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। साचै नाइ = सदा कायम रहने वाले नाम में (टिका रहता है)। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से बचाने का प्रयत्न। करणी = (करणीय) कर्तव्य। साची = सदा कायम रहने वाली महिमा। गुर संगि = गुरु की संगति में।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की बड़ाई बयान नहीं की जा सकती। गुरु परमेश्वर (का रूप) है, गुरु (परमात्मा के) सदा कायम रहने वाले नाम में (लीन रहता है)। परमात्मा का नाम स्मरण करते रहना- यही है गुरु का संयम। परमात्मा की महिमा करते रहना - यही है गुरु की करणी। जो मन गुरु की संगति में मस्त रहता है वह मन पवित्र हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु पूरा पाईऐ वड भागि ॥ कामु क्रोधु लोभु मन ते तिआगि ॥ करि किरपा गुर चरण निवासि ॥ नानक की प्रभ सचु अरदासि ॥४॥४॥२२॥
मूलम्
गुरु पूरा पाईऐ वड भागि ॥ कामु क्रोधु लोभु मन ते तिआगि ॥ करि किरपा गुर चरण निवासि ॥ नानक की प्रभ सचु अरदासि ॥४॥४॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडभागि = बड़ी किस्मत से। पाईऐ = मिलता है। मन ते = मन से, मन में से। तिआगि = त्याग के, दूर कर के। करि = कर के। निवासि = टिकाए रख। सचु = सदा स्थिर हरि नाम।4।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु बड़ी किस्मत से मिलता है, (जिसको मिलता है, वह मनुष्य अपने) मन में से काम-क्रोध-लोभ (आदिक विकार) दूर कर के (गुरु की शरण पड़ा रहता है)। हे प्रभु! (तेरे सेवक) नानक की यह अरदास है कि मेहर कर के (मुझे) गुरु के चरणों में टिकाए रख, और, अपना सदा-स्थिर नाम बख्श।4।4।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार महला ५ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मलार महला ५ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर मनारि प्रिअ दइआर सिउ रंगु कीआ ॥ कीनो री सगल सींगार ॥ तजिओ री सगल बिकार ॥ धावतो असथिरु थीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर मनारि प्रिअ दइआर सिउ रंगु कीआ ॥ कीनो री सगल सींगार ॥ तजिओ री सगल बिकार ॥ धावतो असथिरु थीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रि = री, हे सखी! गुर मना = गुरु को मना के, गुरु को प्रसन्न कर के। प्रिअ सिउ = प्यारे से। प्रिअ दइआर सिउ = प्यारे दयाल प्रभु के साथ। रंगु कीआ = आत्मिक आनंद माणा। री = हे सखी! सगल सींगार = सारे (आत्मिक) सुहज। धावतो = भटकता (मन)। असथिरु थीआ = अडोल हो गया, टिक गया।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! (जिस जीव-स्त्री ने अपने) गुरु की प्रसन्नता हासिल करके दया के श्रोत प्यारे प्रभु के साथ आत्मिक आनंद पाना शुरू कर दिया, उसने सारे (आत्मिक) श्रंृगार कर लिए (भाव, उसके अंदर ऊँचे आत्मिक गुण पैदा हो गए), उसने सारे विकार त्याग दिए, उसका (पहला) भटकता मन डोलने से हट गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे रे मन पाइ कै आपु गवाइ कै करि साधन सिउ संगु ॥ बाजे बजहि म्रिदंग अनाहद कोकिल री राम नामु बोलै मधुर बैन अति सुहीआ ॥१॥
मूलम्
ऐसे रे मन पाइ कै आपु गवाइ कै करि साधन सिउ संगु ॥ बाजे बजहि म्रिदंग अनाहद कोकिल री राम नामु बोलै मधुर बैन अति सुहीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसे = इस तरह। आपु = आपा भाव, स्वै भाव। गवाइ कै = दूर कर के। संगु = साथ, मेल जोल। बजहि = बज पड़ते हैं। म्रिदंग = ढोल। अनाहद = (अन+आहत) बिना बजाए, एक रस। कोकिल = कोयल। मधुर बैन = मीठे वचन। सुहीआ = सोहाने।1।
अर्थ: हे (मेरे) मन! तू भी इसी तरह (प्रभु का मिलाप) हासिल कर के (अपने अंदर से) स्वै-भाव दूर करके संत-जनों की संगति किया कर (तेरे अंदर ऐसा आनंद बना रहेगा, जैसे) एक-रस ढोल आदि साज़ बज रहे हैं, (तेरी जिहवा इस तरह) परमात्मा का नाम (उच्चारण करेगी, जैसे) कोयल मीठे और बहुत ही सुंदर बोल बोलती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी तेरे दरसन की सोभ अति अपार प्रिअ अमोघ तैसे ही संगि संत बने ॥ भव उतार नाम भने ॥ रम राम राम माल ॥ मनि फेरते हरि संगि संगीआ ॥ जन नानक प्रिउ प्रीतमु थीआ ॥२॥१॥२३॥
मूलम्
ऐसी तेरे दरसन की सोभ अति अपार प्रिअ अमोघ तैसे ही संगि संत बने ॥ भव उतार नाम भने ॥ रम राम राम माल ॥ मनि फेरते हरि संगि संगीआ ॥ जन नानक प्रिउ प्रीतमु थीआ ॥२॥१॥२३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पड़ताल = जहाँ कई ताल बार-बार पलटे जाते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोभ = शोभा, बड़ाई। अति अपार = बहुत बेअंत। प्रिअ = हे प्यारे प्रभु! अमोघ = सफल, सफलता के निशाने से ना पीछे हटने वाली। संगि = (तेरे) साथ। बने = बन जाते हैं। भव = संसार समुंदर। भव उतार नाम = संसार समुंद से पार लंघाने वाला नाम। भने = उचार के। रम = सुंदर। मनि = मन में। हरि संगि = हरि के साथ। संगीआ = साथी। प्रिउ = प्यारा प्रभु। थीआ = हो जाता है। प्रीतम थीआ = प्यारा हो जाता है।2।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! हे बहुत बेअंत प्रभु! तेरे दर्शनों की महिमा ऐसी है कि सफलता के निशाने से कभी पीछे नहीं हटती। संसार-समुंदर से पार लंघाने वाला तेरा नाम जप-जप के तेरे संत भी तेरे चरणों में जुड़ के (तेरे जैसे) बन जाते हैं। हे नानक! जो सेवक परमात्मा के नाम की सुंदर माला अपने मन में फेरते रहते हैं, वे परमात्मा के साथ (टिके रहने वाले) साथी बन जाते हैं, प्रभु उनको प्यारा लगने लगता है।2।1।23।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ मनु घनै भ्रमै बनै ॥ उमकि तरसि चालै ॥ प्रभ मिलबे की चाह ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ मनु घनै भ्रमै बनै ॥ उमकि तरसि चालै ॥ प्रभ मिलबे की चाह ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घनै बनै = संघने जंगल में। भ्रमै = भटकता रहता है। उमकित = उमाह में आ के। रसि = आनंद से। मिलबे की = मिलने की। चाह = तमन्ना।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) मन (संसार-रूपी) सघन जंगल में भटकता रहता है। (पर, जब इसके अंदर) परमात्मा के मिलने की तमन्ना (पैदा होती है तब यह) उमाह में आ के (आत्मिक) आनंद से (जीवन-चाल) चलता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुन माई मोहि आई कहंउ बेदन काहि ॥१॥
मूलम्
त्रै गुन माई मोहि आई कहंउ बेदन काहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रै गुण माई = तीन गुणों वाली माया। मोहि = मुझे। मोहि आई = मेरे पर वार करती है। कहंउ = मैं बताऊँ। बेदन = दुख। काहि = किस को?।1।
अर्थ: हे भाई! तीन गुणों वाली माया मेरे ऊपर (भी) हमला करती है। (गुरु के बिना) मैं (और) किसको यह तकलीफ़ बताऊँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन उपाव सगर कीए नहि दूख साकहि लाहि ॥ भजु सरनि साधू नानका मिलु गुन गोबिंदहि गाहि ॥२॥२॥२४॥
मूलम्
आन उपाव सगर कीए नहि दूख साकहि लाहि ॥ भजु सरनि साधू नानका मिलु गुन गोबिंदहि गाहि ॥२॥२॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन उपाव = और उपाय। आन = अन्य। उपाव = उपाय, प्रयत्न। सगर = सगले, सारे। साकहि लाहि = उतार सकते। साधू = गुरु। मिलु = मिला रह। गाहि = गाह के, चुभी लगा के।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु की शरण आए बिना) और सारे प्रयत्न किए, पर वे उपाय (माया के हाथों मिल रहे) दुखों को दूर नहीं कर सकते। हे भाई! गुरु की शरण पड़ा रह, और गोबिंद के गुणों में डुबकी लगा के (गोबिंद में) मिला रह।2।2।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ प्रिअ की सोभ सुहावनी नीकी ॥ हाहा हूहू गंध्रब अपसरा अनंद मंगल रस गावनी नीकी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ प्रिअ की सोभ सुहावनी नीकी ॥ हाहा हूहू गंध्रब अपसरा अनंद मंगल रस गावनी नीकी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोभ = शोभा, महिमा। सुहावनी = सुहावी, सुख देने वाली। नीकी = अच्छी। हाहा हूहू = दूवताओं के रागियों के नाम है। गंध्रब = देवताओं के रागी। अपसरा = स्वर्ग की अपसराएं। मंगल = खुशी के गीत। गावनी नीकी = मीठा गायन।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु की महिमा (हृदय को) अच्छी लगती है, सुखदाई लगती है। (मानो) हाहा हूहू गंधर्व और स्वर्ग की अप्सराएं (मिल के) आनंद देने वाले, खुशी पैदा करने वाले, रस-भरे मन-मोहक गीत गा रहे हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुनित ललित गुनग्य अनिक भांति बहु बिधि रूप दिखावनी नीकी ॥१॥
मूलम्
धुनित ललित गुनग्य अनिक भांति बहु बिधि रूप दिखावनी नीकी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुनित = धुनियां, सुरें। ललित = सुंदर। गुनग्य = (गुनज्ञ) गुणी, गुणों को जानने वाले, गुणों में प्रवीण।1।
अर्थ: हे भाई! (प्यारे प्रभु की महिमा हृदय को) अच्छी लगती है, (मानो, संगीत के) गुणी-ज्ञानी अनेक तरह से मीठी-सुरें (गा रहे हैं, और) कई किस्मों के सुंदर (नाटकीय) रूप दिखा रहे हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरि तर थल जल भवन भरपुरि घटि घटि लालन छावनी नीकी ॥ साधसंगि रामईआ रसु पाइओ नानक जा कै भावनी नीकी ॥२॥३॥२५॥
मूलम्
गिरि तर थल जल भवन भरपुरि घटि घटि लालन छावनी नीकी ॥ साधसंगि रामईआ रसु पाइओ नानक जा कै भावनी नीकी ॥२॥३॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिरि = पहाड़। तर = तरु, वृक्ष। थल = धरती। भरपुरि = भरपूर। घटि घटि = हरेक शरीर में। लालन छावनी = सोहणे लाल की छावनी, सोहणे लाल का डेरा। साध संगि = साधु-संगत में। रामईआ रस = सोहणे राम (के मिलाप) का आनंद। जा कै = जिस (मनुष्य) के अंदर। भावनी = श्रद्धा।2।
अर्थ: हे भाई! (वह प्यारा प्रभु) पहाड़, वृक्ष, धरती, पानी, चौदह भवन (सबमें) लबा-लब मौजूद है। हरेक शरीर में उस सोहणे लाल का सोहणा डेरा बसा हुआ है। पर, हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में अच्छी श्रद्धा उपजती है, वह साधु-संगत में (टिक के) सोहणे राम (के मिलाप) का आनंद प्राप्त करता है।2।3।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ गुर प्रीति पिआरे चरन कमल रिद अंतरि धारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ गुर प्रीति पिआरे चरन कमल रिद अंतरि धारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर हरि चरण। रिद अंतरि = हृदय के अंदर। धारे = (मैंने) टिका लिए हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्यारे सतिगुरु की इनायत से मैंने सुंदर चरण अपने हृदय में बसा लिए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसु सफलिओ दरसु पेखिओ गए किलबिख गए ॥ मन निरमल उजीआरे ॥१॥
मूलम्
दरसु सफलिओ दरसु पेखिओ गए किलबिख गए ॥ मन निरमल उजीआरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफलिओ = फल दे गया है। पेखिओ = देख लिया है। किलबिख = (सारे) पाप। उजीआरे = रौशन, आत्मिक जीवन की सूझ वाला।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु का दर्शन (सदा) फलदायक होता है। (जो मनुष्य गुरु के दर्शन करता है, वह परमात्मा के भी) दर्शन कर लेता है, (उसके) सारे पाप नाश हो जाते हैं। (दर्शन करने वाले मनुष्यों के) मन पवित्र हो जाते हैं, आत्मिक जीवन की सूझ वाले बन जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसम बिसमै बिसम भई ॥ अघ कोटि हरते नाम लई ॥ गुर चरन मसतकु डारि पही ॥ प्रभ एक तूंही एक तुही ॥ भगत टेक तुहारे ॥ जन नानक सरनि दुआरे ॥२॥४॥२६॥
मूलम्
बिसम बिसमै बिसम भई ॥ अघ कोटि हरते नाम लई ॥ गुर चरन मसतकु डारि पही ॥ प्रभ एक तूंही एक तुही ॥ भगत टेक तुहारे ॥ जन नानक सरनि दुआरे ॥२॥४॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसम = आश्चर्य, हैरान। भई = हो गई। अघ = पाप। कोटि = करोड़ों। हरते = दूर हो जाते हैं। लई = लेने से, स्मरण करने से। गुर चरन = गुरु के चरणों पर। मसतकु = माथा। डारि = रख के। पही = पड़ते हैं। प्रभ = हे प्रभु! टेक = आसरा।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से करोड़ों पाप दूर हो जाते हैं, आश्चर्य आश्चर्य आश्चर्यजनक आत्मिक अवस्था बन जाती है।
(जो मनुष्य) गुरु के चरणों पर माथा रख के गिर जाते हैं, उनके लिए, हे प्रभु! सिर्फ तू ही सिर्फ तू ही सहारा होता है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! तेरे) भगतों को तेरी ही टेक है, तेरे दास तेरी शरण पड़े रहते हैं।2।4।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ बरसु सरसु आगिआ ॥ होहि आनंद सगल भाग ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ बरसु सरसु आगिआ ॥ होहि आनंद सगल भाग ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरसु = बरखा कर। सरसु = रस सहित, आनंद से। आगिआ = (परमात्मा के) हुक्म में। होहि = हो जाएं। सगल भाग = सारे भाग्य (जाग उठें)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे नाम-जल से भरपूर गुरु! परमात्मा की) रज़ा में आनंद से (नाम-जल की) बरखा कर। (जिस पर ये वर्षा होती है, उनके अंदर) आत्मिक आनंद बन जाते हैं, उनके सारे भाग्य (जाग उठते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत संगे मनु परफड़ै मिलि मेघ धर सुहाग ॥१॥
मूलम्
संत संगे मनु परफड़ै मिलि मेघ धर सुहाग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत संगे = गुरु की संगति में। परफड़ै = प्रफुल्लित होता है। मिलि मेघ = बादलों को मिल के। धर = धरती।1।
अर्थ: हे भाई! जैसे बादलों की बरखा से मिल के धरती के भाग्य जाग उठते हें, वैसे ही गुरु की संगति में (मनुष्य का) मन टहक उठता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घनघोर प्रीति मोर ॥ चितु चात्रिक बूंद ओर ॥ ऐसो हरि संगे मन मोह ॥ तिआगि माइआ धोह ॥ मिलि संत नानक जागिआ ॥२॥५॥२७॥
मूलम्
घनघोर प्रीति मोर ॥ चितु चात्रिक बूंद ओर ॥ ऐसो हरि संगे मन मोह ॥ तिआगि माइआ धोह ॥ मिलि संत नानक जागिआ ॥२॥५॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घनघोर = बादलों की गरज। चात्रिक = पपीहा। ओर = तरफ। ऐसो = इस तरह। मन मोह = मन का मोह, मन का प्यार। तिआगि = त्याग के। धोह = ठगी। मिलि = मिल के। संत = गुरु।2।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) मोर की प्रीति बादलों की गरज के साथ है, (जैसे) पपीहे का चिक्त (वर्षा की) बूँद की ओर (बना रहता है), वैसे ही (तू भी) परमात्मा के साथ (अपने) मन की प्रीति जोड़। हे नानक! गुरु को मिल के माया की ठगी दूर कर के (मनुष्य का) मन (माया के मोह की नींद में से) जाग जाता है।2।5।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ गुन गुोपाल गाउ नीत ॥ राम नाम धारि चीत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ गुन गुोपाल गाउ नीत ॥ राम नाम धारि चीत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुोपाल = सृष्टि को पालने वाला। गाउ = गाया कर। नीत = सदा। चीति = चिक्त में। धारि = टिकाए रख।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सृष्टि के पालनहार प्रभु के गुण सदा गाया कर। परमात्मा का नाम अपने चिक्त में टिकाए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि मानु तजि गुमानु मिलि साधूआ कै संगि ॥ हरि सिमरि एक रंगि मिटि जांहि दोख मीत ॥१॥
मूलम्
छोडि मानु तजि गुमानु मिलि साधूआ कै संगि ॥ हरि सिमरि एक रंगि मिटि जांहि दोख मीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। मिलि = मिल के। साधूआ कै संग = संत जनों की संगति में। एक रंगी = एक के प्रेम रंग में। मीत = हे मित्र!।1।
अर्थ: हे मित्र! संत-जनों की संगति में मिल के गुमान छोड़ अहंकार त्याग। एक प्रभु के प्रेम-रंग में (रंगीज के) परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। तेरे सारे एैब दूर हो जाएंगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम भए दइआल ॥ बिनसि गए बिखै जंजाल ॥ साध जनां कै चरन लागि ॥ नानक गावै गोबिंद नीत ॥२॥६॥२८॥
मूलम्
पारब्रहम भए दइआल ॥ बिनसि गए बिखै जंजाल ॥ साध जनां कै चरन लागि ॥ नानक गावै गोबिंद नीत ॥२॥६॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखै जंजाल = विषौ विकारों के फंदे। कै चरन लागि = के चरणों में टिक के। गावै = गाता है, महिमा करता है। नीत = सदा।2।
अर्थ: हे नानक! संत जनों के चरणों से जुड़ के (जो मनुष्य) सदा गोबिंद के गुण गाता रहता है, (उसके अंदर से) विषौ-विकारों के फंदे कट जाते हैं, प्रभु जी उस पर दयावान हो जाते हैं।2।6।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ घनु गरजत गोबिंद रूप ॥ गुन गावत सुख चैन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ घनु गरजत गोबिंद रूप ॥ गुन गावत सुख चैन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घनु = बादल, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से भरपूर गुरु। गरजत = गरजता है, बरखा करता है। गावत = गाते हुए। चैन = शांति, ठंड।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब) परमात्मा का रूप गुरु, आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से भरपूर गुरु (नाम-जल की) बरखा करता है, तब प्रभु के गुण गाते हुए सुख मिलता है शांति प्राप्त होती है (जैसे ‘मोर बबीहे बोलदे, वेखि बदल काले’)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चरन सरन तरन सागर धुनि अनहता रस बैन ॥१॥
मूलम्
हरि चरन सरन तरन सागर धुनि अनहता रस बैन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि चरन सरन = प्रभु के चरणों की शरण (में रहना)। तरन सागर = (संसार-) समुंदर (से पार लंघाने के लिए) जहाज। अनहता = एक रस, लगातार। बैन = बयन, वचन, महिमा की वाणी।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) परमात्मा के चरणों की शरण (प्राप्त होती है, जो संसार-) समुंदर (से पार लंघाने के लिए) जहाज़ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पथिक पिआस चित सरोवर आतम जलु लैन ॥ हरि दरस प्रेम जन नानक करि किरपा प्रभ दैन ॥२॥७॥२९॥
मूलम्
पथिक पिआस चित सरोवर आतम जलु लैन ॥ हरि दरस प्रेम जन नानक करि किरपा प्रभ दैन ॥२॥७॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पथिक = राही, मुसाफिर। लैन = हासिल करने के लिए। दैन = देता है। करि = कर के।2।
अर्थ: (गुरु की कृपा से आत्मिक पथ के) पथिक (जीव) को तमन्ना पैदा होती है, उसका चिक्त (नाम-जल के) सरोवर (गुरु) की ओर (पलटता है)।
हे नानक! (जब नाम-जल से भरपूर गुरु नाम की बरखा करता है, तब) सेवकों के अंदर परमात्मा के दर्शनों की चाहत पैदा होती है, प्रभु मेहर कर के (उनको यह दाति) देता है।2।7।29।
[[1273]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ५ ॥ हे गोबिंद हे गोपाल हे दइआल लाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार महला ५ ॥ हे गोबिंद हे गोपाल हे दइआल लाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = हे दया के श्रोत! लाल = हे सुंदर प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद! हे गोपाल! हे दया के श्रोत! हे सुंदर प्रभु!।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रान नाथ अनाथ सखे दीन दरद निवार ॥१॥
मूलम्
प्रान नाथ अनाथ सखे दीन दरद निवार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे जिंद के मालिक! हे निखसमों के सहायता करने वाले! हे गरीबों के दर्द दूर करने वाले!।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हे सम्रथ अगम पूरन मोहि मइआ धारि ॥२॥
मूलम्
हे सम्रथ अगम पूरन मोहि मइआ धारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान नाथ = हे प्राणों के मालिक! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! पूरन = हे सर्व व्यापक! मोहि = मेरे पर। मइआ धारि = दया कर।2।
अर्थ: हे सब ताकतों के मालिक! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे सर्व व्यापक! मेरे पर मेहर कर!।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध कूप महा भइआन नानक पारि उतार ॥३॥८॥३०॥
मूलम्
अंध कूप महा भइआन नानक पारि उतार ॥३॥८॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध कूप = अंधा कूआँ, वह कूआँ जिसमें घोर अंधेरा है। भइआन = डरावना। नानक = हे नानक!।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! यह संसार) बड़ा डरावना कूँआ हैं जिसमें (माया के मोह का) घोर अंधेरा है (मुझे इसमें से) पार लंघा ले।3।8।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला १ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चकवी नैन नींद नहि चाहै बिनु पिर नींद न पाई ॥ सूरु चर्है प्रिउ देखै नैनी निवि निवि लागै पांई ॥१॥
मूलम्
चकवी नैन नींद नहि चाहै बिनु पिर नींद न पाई ॥ सूरु चर्है प्रिउ देखै नैनी निवि निवि लागै पांई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरु = सूरज। चरै = (चढ़ै) चढ़ता है। नैनी = आँखों से। पांई = पैरों पर।1।
अर्थ: चकवी (रात को) अपने प्यारे (चकवे) के बिना नहीं सो सकती, वह अपनी आँखों में नींद का आना पसंद नहीं करती। जब सूरज चढ़ता है, चकवी अपने प्यारे (चकवे) को आँखों से देखती है, झुक-झुक के उसके पैरों पर लगती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिर भावै प्रेमु सखाई ॥ तिसु बिनु घड़ी नही जगि जीवा ऐसी पिआस तिसाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पिर भावै प्रेमु सखाई ॥ तिसु बिनु घड़ी नही जगि जीवा ऐसी पिआस तिसाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिर प्रेम = प्यारे का प्रेम। सखाई = मित्र, साथी। जगि = जगत में। जीवा = मैं जी सकती। तिसाई = त्रिखा, त्रेह, प्यास, तमन्ना।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे सदा सहायता करने वाले प्रीतम प्रभु का प्रेम प्यारा लगता है। मेरे अंदर उसके मिलाप की इतनी तीव्र तमन्ना है कि मैं जगत में उसके बिना एक घड़ी के लिए भी जी नहीं सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरवरि कमलु किरणि आकासी बिगसै सहजि सुभाई ॥ प्रीतम प्रीति बनी अभ ऐसी जोती जोति मिलाई ॥२॥
मूलम्
सरवरि कमलु किरणि आकासी बिगसै सहजि सुभाई ॥ प्रीतम प्रीति बनी अभ ऐसी जोती जोति मिलाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरवरि = सरोवर में। आकासी = आकाशों में। बिगसै = खिल उठता है। सहजि सुभाई = सहज ही, बिना किसी विशेष प्रयास के। अभि = हृदय में।2।
अर्थ: कमल (फूल) सरोवर में होता है, (सूरज की) किरन आकाशों में होती है, (फिर भी उस किरण को देख के कमल फूल) सहज ही खिल उठता है। (प्रेमी के) हृदय में अपने प्रीतम की ऐसी प्रीति बनती है कि उसकी आत्मा प्रीतम की आत्मा में मिल जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चात्रिकु जल बिनु प्रिउ प्रिउ टेरै बिलप करै बिललाई ॥ घनहर घोर दसौ दिसि बरसै बिनु जल पिआस न जाई ॥३॥
मूलम्
चात्रिकु जल बिनु प्रिउ प्रिउ टेरै बिलप करै बिललाई ॥ घनहर घोर दसौ दिसि बरसै बिनु जल पिआस न जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेरै = बोलता है। चात्रिकु = पपीहा। बिललाई = बिलकता है, तरले लेता है। घनहर = बादल। घोर = गरज। दसौ दिसि = दसों दिशाओं में।3।
अर्थ: (स्वाति नक्षत्र की वर्षा के) जल के बिना पपीहा ‘प्रिउ प्रिउ’ करता है, मानो, विरलाप करता है, तरले लेता है। बादल गरज के दसों दिशाओं में (हर तरफ) बरसता है, पर पपीहे की प्यास स्वाति बूँद के बिना दूर नहीं होती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीन निवास उपजै जल ही ते सुख दुख पुरबि कमाई ॥ खिनु तिलु रहि न सकै पलु जल बिनु मरनु जीवनु तिसु तांई ॥४॥
मूलम्
मीन निवास उपजै जल ही ते सुख दुख पुरबि कमाई ॥ खिनु तिलु रहि न सकै पलु जल बिनु मरनु जीवनु तिसु तांई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीन = मछली। ते = से। पुरबि कमाई = पूर्बली कमाई के अनुसार। तिसु तांई = उस पानी से ही।4।
अर्थ: मछली पानी में पैदा होती है, पानी में बसती है, पूर्बली कमाई के अनुसार वह पानी में ही सुख-दुख सहती है, पानी के बिना वह एक छिन-पल भर तिल भर पल भर भी जी नहीं सकती। उसका मरना-जीना (उसकी सारी उम्र का बसेवा) उस पानी के साथ ही (संभव) है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन वांढी पिरु देस निवासी सचे गुर पहि सबदु पठाईं ॥ गुण संग्रहि प्रभु रिदै निवासी भगति रती हरखाई ॥५॥
मूलम्
धन वांढी पिरु देस निवासी सचे गुर पहि सबदु पठाईं ॥ गुण संग्रहि प्रभु रिदै निवासी भगति रती हरखाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। वांढी = परदेसन, विछुड़ी हुई। पहि = पास, से। सबदु = संदेश। पठांई = भेजती है। संग्रहि = इकट्ठे करके। हरखाई = खुश होती है।5।
अर्थ: पति-प्रभु (जीव-स्त्री के हृदय-) घर में ही बसता है, उससे विछुड़ी हुई जीव-स्त्री जब सच्चे-सतिगुरु के द्वारा (गुरु की वाणी के द्वारा) संदेशा भेजती है, और आत्मिक गुण इकट्ठे करती है, तब हृदय में ही बसता प्रभु-पति उसके अंदर प्रकट हो जाता है, जीव-स्त्री उसकी भक्ति के रंग में रंगीज के प्रसन्न होती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रिउ प्रिउ करै सभै है जेती गुर भावै प्रिउ पाईं ॥ प्रिउ नाले सद ही सचि संगे नदरी मेलि मिलाई ॥६॥
मूलम्
प्रिउ प्रिउ करै सभै है जेती गुर भावै प्रिउ पाईं ॥ प्रिउ नाले सद ही सचि संगे नदरी मेलि मिलाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: है जेती = जितनी ही (दुनिया) है। गुर भावे = गुरु को अच्छा लगे। सचि = सदा स्थिर प्रभु में (जोड़ के)। मेलि = (अपने शब्द में) मेल के।6।
अर्थ: जो भी लोकाई है सारी ही प्रभु-पति का नाम लेती है, पर जो जीव-स्त्री गुरु को अच्छी लगती है वह पति-प्रभु को मिल जाती है। पति-प्रभु तो सदा ही हरेक जीव-स्त्री के साथ है अंग-संग है, जो उस सदा-स्थिर में जुड़ती है गुरु मेहर की नजर करके उसको अपने शब्द में जोड़ के प्रभु के साथ मिला देता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ महि जीउ जीउ है सोई घटि घटि रहिआ समाई ॥ गुर परसादि घर ही परगासिआ सहजे सहजि समाई ॥७॥
मूलम्
सभ महि जीउ जीउ है सोई घटि घटि रहिआ समाई ॥ गुर परसादि घर ही परगासिआ सहजे सहजि समाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घर ही = घरि ही, घर में ही, हृदय में ही। सहजे = अडोल आत्मिक अवस्था में।7।
अर्थ: हरेक जीव में प्रभु की दिए हुए प्राण (की लौअ) रुमक रही है, वह प्रभु स्वयं ही हरेक की जिंद का (आसरा) है। प्रभु हरेक शरीर में व्यापक है।
गुरु की कृपा से जिस जीव के हृदय में ही प्रकट होती है वह जीव सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपना काजु सवारहु आपे सुखदाते गोसांईं ॥ गुर परसादि घर ही पिरु पाइआ तउ नानक तपति बुझाई ॥८॥१॥
मूलम्
अपना काजु सवारहु आपे सुखदाते गोसांईं ॥ गुर परसादि घर ही पिरु पाइआ तउ नानक तपति बुझाई ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोसाई = हे धरती के पति! तपति = जलन।8।
अर्थ: हे धरती के पति! हे जीवों को सुख देने वाले प्रभु! (अपने पैदा किए हुए जीवों को अपने चरणों में जोड़ना तेरा अपना ही काम है, इस) अपने काम को तू खुद ही सिरे चढ़ाता है।
हे नानक! (कह:) गुरु की कृपा से जिसके हृदय-घर में ही प्रभु-पति प्रकट हो जाता है उसकी माया की तृष्णा की जलन बुझ जाती है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ जागतु जागि रहै गुर सेवा बिनु हरि मै को नाही ॥ अनिक जतन करि रहणु न पावै आचु काचु ढरि पांही ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ जागतु जागि रहै गुर सेवा बिनु हरि मै को नाही ॥ अनिक जतन करि रहणु न पावै आचु काचु ढरि पांही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जागतु रहै = जागता रहता है, सचेत रहता है। जागि = जाग के, सचेत हो के। मै को नाही = मेरी कोई बिसात नहीं। आचु = आँच, सेक। काचु = काँच। ढहि पांही = ढल जाते हैं, नाश हो जाते हैं।1।
अर्थ: परमात्मा की ज्योति के बिना हमारे इस शरीर की कोई पायं नहीं है; (जब ज्योति निकल जाए तब) अनेक प्रयत्न करने से भी यह शरीर टिका नहीं रह सकता। जैसे आग का सेक काँच को ढाल देता है, वैसे ही शरीर (ज्योति के बिना) ढह-ढेरी हो जाते हैं। उसी मनुष्य का जीवन सफल है जो गुरु द्वारा बताई सेवा में तत्पर रह के (माया के हमलों से) सचेत रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु तन धन का कहहु गरबु कैसा ॥ बिनसत बार न लागै बवरे हउमै गरबि खपै जगु ऐसा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इसु तन धन का कहहु गरबु कैसा ॥ बिनसत बार न लागै बवरे हउमै गरबि खपै जगु ऐसा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहु = बताओ। गरबु = अहंकार। बार = चिर। बवरे = हे कमले मनुष्य! गरबि = अहंकार में। खपै = खपता है, दुखी होता है, ख्वार होता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे झल्ले मनुष्य! बता, इस शरीर का इस धन-दौलत का क्या गुमान करना हुआ? इनके विनाश होने में समय नहीं लगता। जगत व्यर्थ ही (शरीर के) अहंकार में (धन के) गुमान में दुखी होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जै जगदीस प्रभू रखवारे राखै परखै सोई ॥ जेती है तेती तुझ ही ते तुम्ह सरि अवरु न कोई ॥२॥
मूलम्
जै जगदीस प्रभू रखवारे राखै परखै सोई ॥ जेती है तेती तुझ ही ते तुम्ह सरि अवरु न कोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगदीस = हे जगत के मालिक! (जगत+ईश)। सोई = वह (प्रभु) ही। ते = से। सरि = बराबर।2।
अर्थ: हे जगत के मालिक! हे प्रभु! हे जीवों के रखवाले! तेरी (सदा) जै हो! (हे झल्ले जीव! सदा उस राखनहार प्रभु का आसरा ले)। वह (जगदीश) ही विकारों से बचाता है और जीवों के जीवन को पड़तालता रहता है।
हे प्रभु! जितनी भी लोकाई है, यह सारी ही तेरे पास से ही (दातें) माँगती है। तेरे जैसा और कोई नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ उपाइ जुगति वसि कीनी आपे गुरमुखि अंजनु ॥ अमरु अनाथ सरब सिरि मोरा काल बिकाल भरम भै खंजनु ॥३॥
मूलम्
जीअ उपाइ जुगति वसि कीनी आपे गुरमुखि अंजनु ॥ अमरु अनाथ सरब सिरि मोरा काल बिकाल भरम भै खंजनु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाइ = पैदा करके। जुगति = (जीवन का) ढंग। वसि = वश में। अंजनु = सुरमा। सिरि मोरा = (मौलि = ताज) शिरोमणी। बिकाल = जनम। खंजनु = नाश करने वाला।3।
अर्थ: परमात्मा सदा अटल है, उसके ऊपर और कोई मालिक नहीं, वह सबका शिरोमणी है, जीवों के जनम-मरण के चक्कर, भटकना और डर-सहम नाश करने वाला है। सारे जीव पैदा कर के जीवों की जीवन-जुगति उसने अपने वश में रखी हुई है, (सही आत्मिक जीवन की सूझ के लिए) वह स्वयं ही गुरु के द्वारा (ज्ञान का) सुर्मा देता है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कागद कोटु इहु जगु है बपुरो रंगनि चिहन चतुराई ॥ नान्ही सी बूंद पवनु पति खोवै जनमि मरै खिनु ताईं ॥४॥
मूलम्
कागद कोटु इहु जगु है बपुरो रंगनि चिहन चतुराई ॥ नान्ही सी बूंद पवनु पति खोवै जनमि मरै खिनु ताईं ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटु = किला। बपुरो = निमाणा, बेचारा। रंगनि = सजावट, रंगण। नानी सी = नन्ही सी, छोटी सी। पवनु = हवा, हवा का झोका। पति = शोभा, सजावट। खोवै = गवा देता है। खिनु तांई = खिन में।4।
अर्थ: यह जगत बेचारा (मानो) कागज़ का किला है जिसको (प्रभु ने अपनी) समझदारी से सजावट और रूप-रेखा दी हुई है, पर जैसे एक नन्ही सी बूँद और हवा का झोका (कागज़ के किले की) शोभा गवा देता है, वैसे ही यह जगत पल में पैदा होता है और मरता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदी उपकंठि जैसे घरु तरवरु सरपनि घरु घर माही ॥ उलटी नदी कहां घरु तरवरु सरपनि डसै दूजा मन मांही ॥५॥
मूलम्
नदी उपकंठि जैसे घरु तरवरु सरपनि घरु घर माही ॥ उलटी नदी कहां घरु तरवरु सरपनि डसै दूजा मन मांही ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपकंठि = किनारे पर। तरवरु = वृक्ष। सरपनि घरु = सपनी का घर। दूजा = प्रभु के बिना किसी अन्य आसरे की झाक। मांही = में।5।
अर्थ: जैसे किसी नदी के किनारे पर कोई घर हो अथवा पेड़ हो जब नदी का वेग उलटता है तो ना वह घर रह जाता है ना वह पेड़ सलामत रहता है। जैसे अगर किसी मनुष्य के घर में सर्पनी का घर हो तो जब भी मौका मिलता है सर्पनी उसको डंक मार देती है, इसी तरह जिस मनुष्य के मन में परमात्मा के बिना किसी और आसरे की झाक है (वह नदी की उफान आई बाढ़ की तरह है, वह घर में बस रही सर्पनी की तरह है, ये दूसरी झाक आत्मिक मौत ले के आती है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गारुड़ गुर गिआनु धिआनु गुर बचनी बिखिआ गुरमति जारी ॥ मन तन हेंव भए सचु पाइआ हरि की भगति निरारी ॥६॥
मूलम्
गारुड़ गुर गिआनु धिआनु गुर बचनी बिखिआ गुरमति जारी ॥ मन तन हेंव भए सचु पाइआ हरि की भगति निरारी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गारुड़ = साँप को वश में करने वाला मंत्र। बिखिआ = माया (का विष)। जारी = जला ली। हेंव = (हिम) बर्फ (जैसे ठंडे)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। निरारी = अनोखी।6।
अर्थ: गुरु से मिला हुआ ज्ञान, गुरु के वचन के द्वारा (प्रभु-चरणें में) जुड़ी तवज्जो, मानो, साँप को कीलने जैसा मंत्र है। जिसके पास भी यह मंत्र है उसने गुरु की मति की इनायत से माया (सर्पनी का जहर) जला लिया है। (देखो!) परमात्मा की भक्ति (एक) अनोखी (दाति) है, जिस मनुष्य ने परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम (हृदय में) बसा लिया है उसका मन उसका शरीर (भाव, इन्द्रियाँ) बर्फ जैसे शीतल हो जाते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेती है तेती तुधु जाचै तू सरब जीआं दइआला ॥ तुम्हरी सरणि परे पति राखहु साचु मिलै गोपाला ॥७॥
मूलम्
जेती है तेती तुधु जाचै तू सरब जीआं दइआला ॥ तुम्हरी सरणि परे पति राखहु साचु मिलै गोपाला ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचै = माँगती है। पति = इज्जत। साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम।7।
अर्थ: हे गोपाल! जितनी भी लोकाई है, सारी तुझसे (सब पदार्थ) माँगती है, तू सब जीवों पर दया करने वाला है। हे प्रभु! मैं तेरी शरण पड़ा हूँ, मेरी इज्जत रख ले, (मेहर कर) मुझे तेरा सदा-रहने वाला नाम मिल जाए।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाधी धंधि अंध नही सूझै बधिक करम कमावै ॥ सतिगुर मिलै त सूझसि बूझसि सच मनि गिआनु समावै ॥८॥
मूलम्
बाधी धंधि अंध नही सूझै बधिक करम कमावै ॥ सतिगुर मिलै त सूझसि बूझसि सच मनि गिआनु समावै ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाधी = जकड़ी हुई। धंधि = धंधे में। अंध = अंधी। बधिक करम = शिकारियों वाले कर्म, निर्दयी कर्म। मनि = मन में। सच गिआनु = सदा स्थिर प्रभु का ज्ञान।8।
अर्थ: माया के धंधों में बंधी हुई लोकाई (आत्मिक जीवन से) अंधी हुई पड़ी है (सही जीवन-जुगति के बारे में इसको) कुछ भी नहीं सूझता, (तभी तो) निर्दयता भरे काम करती जा रही है। अगर जीव गुरु को मिल जाए तो इस (आत्मिक जीवन के बारे में) समझ आ जाती है, इसके मन में सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा की जान-पहचान टिक जाती है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरगुण देह साच बिनु काची मै पूछउ गुरु अपना ॥ नानक सो प्रभु प्रभू दिखावै बिनु साचे जगु सुपना ॥९॥२॥
मूलम्
निरगुण देह साच बिनु काची मै पूछउ गुरु अपना ॥ नानक सो प्रभु प्रभू दिखावै बिनु साचे जगु सुपना ॥९॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुण देह = गुण हीन शरीर। सो = वह (गुरु)।9।
अर्थ: हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम के बिना गुण-हीन मनुष्य शरीर कच्चा ही रहता है (भाव, जीव को जनम-मरण मिलता रहता है), (इसलिए सही जीवन-राह पर चलने के लिए) मैं अपने गुरु से शिक्षा लेता हूँ, और गुरु परमात्मा का दीदार करवा देता है।
सदा-स्थिर प्रभु के नाम के बिना जगत सपने जैसा ही है (भाव, जैसे सपने में देखे हुए पदार्थ जाग खुलने पर अलोप हो जाते हैं, इसी तरह दुनिया में इकट्ठे किए हुए सारे ही पदार्थ अंत के समय छिन जाते हैं। एक प्रभु का नाम ही पल्ले रह सकता है)।9।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ चात्रिक मीन जल ही ते सुखु पावहि सारिंग सबदि सुहाई ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ चात्रिक मीन जल ही ते सुखु पावहि सारिंग सबदि सुहाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। मीन = मछली। ते = से। सारिंग = हिरन। सबदि = घंडे हेड़े के नाद में। सुहाई = सुख लेता है।1।
अर्थ: (हे माँ! पपीहे की पुकार सुन के मुझे पता चला कि) पपीहा और मछली पानी से सुख पाते हैं, हिरन भी (घंडे हेड़े के) शब्द से सुख लेता है (तो फिर, पति-प्रभु से विछुड़ी हुई मैं कैसे सुखी होने की आस कर सकती हूँ?)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रैनि बबीहा बोलिओ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रैनि बबीहा बोलिओ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैनि = रात (के वक्त)। माई = हे माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! (स्वाति बूँद की चाहत में) रात को पपीहा (बड़े वैराग में) बोला (उसकी व्याकुलता भरे बोल सुन के मेरे अंदर भी कसक उठी)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रिअ सिउ प्रीति न उलटै कबहू जो तै भावै साई ॥२॥
मूलम्
प्रिअ सिउ प्रीति न उलटै कबहू जो तै भावै साई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। तै = तुझे। साई = वही (प्रीति)।2।
अर्थ: (हे माँ! पपीहे, मछली, हिरन आदि की) प्रीति (अपने-अपने) प्यारे से कभी भी हटती नहीं। (यह मनुष्य ही है जिसकी प्रीति प्रभु-चरणों से हट के दुनिया की के साथ बन जाती है। हे माँ! मैंने अरदास की कि हे प्रभु!) जो तुझे भाता है वही बात होती है (मुझे अपने चरणों की प्रीति दे)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीद गई हउमै तनि थाकी सच मति रिदै समाई ॥३॥
मूलम्
नीद गई हउमै तनि थाकी सच मति रिदै समाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनि = तन में (से)। नीद = माया के मोह की नींद। सच मति = सदा स्थिर नाम स्मरण वाली मति।3।
अर्थ: (हे माँ! मेरी विनती सुन के प्रभु ने मुझ पर मेहर की) मेरे हृदय में उस सदा-स्थिर प्रीतम का नाम स्मरण करने वाली मति आ टिकी, अब मेरी माया के मोह वाली नींद खत्म हो गई है, मेरे शरीर के अंदर का अहंकार भी दूर हो गया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूखीं बिरखीं ऊडउ भूखा पीवा नामु सुभाई ॥४॥
मूलम्
रूखीं बिरखीं ऊडउ भूखा पीवा नामु सुभाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उडउ = मैं उड़ता हूँ। पीवा = मैं पीता हूँ। सुभाई = प्रेम से।4।
अर्थ: (हे माँ! पपीहे की व्याकुलता में से मुझे प्रतीत हुआ कि जैसे वह तरले ले रहा है:) मैं पेड़-पौधों पर उड़-उड़ के जाता हूँ पर (स्वाति की बूँद के बिना) भूखा (प्यासा) ही हूँ। (पपीहे के विरलाप से प्रेरित हो के अब) मैं बड़े प्यार से परमात्मा-पति का नाम-अमृत पी रही हूँ।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोचन तार ललता बिललाती दरसन पिआस रजाई ॥५॥
मूलम्
लोचन तार ललता बिललाती दरसन पिआस रजाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोचन तार = आँखों की टिक टिकी। ललता = जीभ। रजाई = रज़ा का मालिक।5।
अर्थ: (हे माँ!) रज़ा के मालिक प्रभु के दीदार की (मेरे अंदर) बड़ी तमन्ना है, मेरी जीभ (उसके दर्शनों के लिए) तरले ले रही है, (इन्तजार में) मेरी आँखों की टिक-टिकी लगी हुई है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रिअ बिनु सीगारु करी तेता तनु तापै कापरु अंगि न सुहाई ॥६॥
मूलम्
प्रिअ बिनु सीगारु करी तेता तनु तापै कापरु अंगि न सुहाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेता = उतना ही। तापै = तपता है। कापरु = कपड़ा। अंगि = शरीर पर।6।
अर्थ: (हे माँ! अब मैं महसूस करती हूँ कि) प्यारे प्रभु-पति के बिना मैं जितना भी श्रृंगार करती हूँ उतना ही (ज्यादा) मेरा शरीर (सुखी होने की बजाय) तपता है। (बढ़िया से बढ़िया) कपड़ा (भी मुझे अपने) शरीर पर सुखद नहीं होता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपने पिआरे बिनु इकु खिनु रहि न सकंउ बिन मिले नींद न पाई ॥७॥
मूलम्
अपने पिआरे बिनु इकु खिनु रहि न सकंउ बिन मिले नींद न पाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न पाई = नहीं पड़ती।7।
अर्थ: (हे माँ!) अपने प्यारे के बिना मैं (एक) पल भर भी (शांत-चिक्त) नहीं रह सकती, प्रभु-पति को मिले बिना मुझे नींद नहीं आती (शांति नहीं मिलती)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिरु नजीकि न बूझै बपुड़ी सतिगुरि दीआ दिखाई ॥८॥
मूलम्
पिरु नजीकि न बूझै बपुड़ी सतिगुरि दीआ दिखाई ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नजीकि = नजदीक (शब्द ‘नजीकि’ संबंधक है पर इसका संबंध ‘पिरु’ से नहीं है। देखिए, ‘भिसतु नजीकि राखु रहमाना’ —कबीर जी)। बपुड़ी = भाग्यहीन। सतिगुरि = गुरु ने।8।
अर्थ: (हे माँ!) प्रभु-पति तो (हरेक जीव-स्त्री के) नजदीक (बसता) है; पर भाग्यहीन को यह समझ नहीं आती। (सुहागिन) को (उसने अंदर ही परमात्मा) दिखा दिया है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजि मिलिआ तब ही सुखु पाइआ त्रिसना सबदि बुझाई ॥९॥
मूलम्
सहजि मिलिआ तब ही सुखु पाइआ त्रिसना सबदि बुझाई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सबदि = शब्द से।9।
अर्थ: (गुरु की कृपा से जो जीव-स्त्री) आत्मिक अडोलता में (टिक गई उसको प्रभु-पति) मिल गया (उसके दीदार होने से उसको) उस वक्त आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया, गुरु के शब्द ने उसकी तृष्णा (की आग) बुझा दी।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक तुझ ते मनु मानिआ कीमति कहनु न जाई ॥१०॥३॥
मूलम्
कहु नानक तुझ ते मनु मानिआ कीमति कहनु न जाई ॥१०॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। तुझ ते = तुझसे, तेरी मदद से।10।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु चरणों में अरदास करके कह: हे प्रभु!) तेरी मेहर से मेरा मन (तेरी याद में) रम गया है (और मेरे अंदर ऐसा आत्मिक आनंद बन गया है जिसका) मूल्य नहीं आँका जा सकता।10।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला १ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखली ऊंडी जलु भर नालि ॥ डूगरु ऊचउ गड़ु पातालि ॥ सागरु सीतलु गुर सबद वीचारि ॥ मारगु मुकता हउमै मारि ॥१॥
मूलम्
अखली ऊंडी जलु भर नालि ॥ डूगरु ऊचउ गड़ु पातालि ॥ सागरु सीतलु गुर सबद वीचारि ॥ मारगु मुकता हउमै मारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखली = बड़ा ऊँचा, बहुत लंबा शरीर। ऊंडी = ऊँचे (आकाश में उड़ती है)। भरनालि = (भरणालय = a receptacle of nutriment) समुंदर, समुंदर में।
दर्पण-टिप्पनी
सतिजुगि सति, त्रेतै जगी, दुआपरि पूजा बाहली घाला॥ कलिजुगि गुरमुखि नाउ लै, पारि पवै भवजल भरनाला॥८॥२६॥ ….. भाई गुरदास जी।
दर्पण-भाषार्थ
डूगरु = पहाड़। पातालि = पाताल में। सागरु = समुंदर। वीचारि = विचार से। मुकता = खुला। मारि = मार के।1।
अर्थ: अगर लंबा (सा ऊँची उड़ान वाला पक्षी आदि) ऊँचे आकाश में उड़ रहा है (तो वहाँ उड़ते को पानी नहीं मिल सकता क्योंकि) पानी समुंदर में है (आत्मिक शांति व शीतलता विनम्रता में है। ये उस मनुष्य को प्राप्त नहीं हो सकती जिसका दिमाग़ माया आदि के अहंकार में आसमान छू रहा हो)। किला पाताल में है, पर पहाड़ (का रास्ता) ऊँचा है (अगर कोई मनुष्य कामादिक वैरियों से बचने के लिए कोई सत्संग आदि का आसरा तलाशता है, पर चढ़ता जा रहा है अहम् व अहंकार के पर्वत पर, तो उस राह पर पड़ कर वह वैरियों की चोट से नहीं बच सकता)।
गुरु के शब्द की विचार करने से संसार-समुंदर (जो विकारों की आग से तप रहा है) ठंढा-ठार हो जाता है। (गुरु के शब्द की सहायता से) अहंकार को मारने से जीवन का रास्ता खुला होता है (विकारों की रुकावट नहीं रह जाती)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै अंधुले नावै की जोति ॥ नाम अधारि चला गुर कै भै भेति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मै अंधुले नावै की जोति ॥ नाम अधारि चला गुर कै भै भेति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोति = रोशनी। अधारि = आसरे से। चला = मैं (जीवन-राह पर) चलता हूँ। भै = डर में, अदब में। भेति = भेद से।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे माया के मोह में अंधे होए हुए को परमात्मा के नाम की रौशनी मिल गई है। अब मैं (जीवन-राह में) प्रभु के नाम के आसरे चलता हूँ, गुरु के डर-अदब में रह के चलता हूँ, (जीवन की मुश्किलों के बारे में) गुरु के (द्वारा) समझाए हुए भेद की सहायता से चलता हूँ।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर सबदी पाधरु जाणि ॥ गुर कै तकीऐ साचै ताणि ॥ नामु सम्हालसि रूड़्ही बाणि ॥ थैं भावै दरु लहसि पिराणि ॥२॥
मूलम्
सतिगुर सबदी पाधरु जाणि ॥ गुर कै तकीऐ साचै ताणि ॥ नामु सम्हालसि रूड़्ही बाणि ॥ थैं भावै दरु लहसि पिराणि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाधरु = (सीधा) रास्ता। तकीऐ = आसरे से। ताणि = ताकत से। समालसि = संभालता है। रूढ़ी = सुंदर। थैं = तुझे। पिराणि लहसि = पहचान लेता है।2।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द की इनायत से जिंदगी का सपाट रास्ता समझ लेता है, वह (इस जीवन-यात्रा में) गुरु के आसरे चलता है सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम के सहारे चलता है, वह सतिगुरु की सुंदर वाणी के द्वारा परमात्मा का नाम (हृदय में) बसाता है।
हे प्रभु! जब तेरी मेहर होती है तब वह तेरा दर पहचान के पा लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊडां बैसा एक लिव तार ॥ गुर कै सबदि नाम आधार ॥ ना जलु डूंगरु न ऊची धार ॥ निज घरि वासा तह मगु न चालणहार ॥३॥
मूलम्
ऊडां बैसा एक लिव तार ॥ गुर कै सबदि नाम आधार ॥ ना जलु डूंगरु न ऊची धार ॥ निज घरि वासा तह मगु न चालणहार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊडां = (अगर) मैं उड़ू। बैसा = (अगर) मैं बैठूँ। निज घरि = अपने घर में। तह = उस अवस्था में (टिकने से)। मगु = रास्ता।3।
अर्थ: ज्यों-ज्यों मैं (जीव-पंछी) गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु-नाम का आसरा ले के जीवन-राह में एक परमात्मा के चरणों में एक-रस तवज्जो जोड़ के उड़ानें लगाता हूँ और लगन का सहारा लेता हूँ, मेरे जीवन-रास्ते में ना संसार-समुंदर का (विकार-) जल आता है ना (अहम्-अहंकार का) पहाड़ खड़ा होता है, ना ही विकारों का कोई ऊँचा-लंबा सिलसिला आ खड़ा होता है। स्वै-स्वरूप में (अपने अंदर ही प्रभु चरणों में) मेरा निवास हो जाता है। उस आत्मिक अवस्था में ना (जनम-मरण के चक्करों वाला) रास्ता पकड़ना पड़ता है, और ना ही उस रास्ते पर चलने वाला ही कोई होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु घरि वसहि तूहै बिधि जाणहि बीजउ महलु न जापै ॥ सतिगुर बाझहु समझ न होवी सभु जगु दबिआ छापै ॥ करण पलाव करै बिललातउ बिनु गुर नामु न जापै ॥ पल पंकज महि नामु छडाए जे गुर सबदु सिञापै ॥४॥
मूलम्
जितु घरि वसहि तूहै बिधि जाणहि बीजउ महलु न जापै ॥ सतिगुर बाझहु समझ न होवी सभु जगु दबिआ छापै ॥ करण पलाव करै बिललातउ बिनु गुर नामु न जापै ॥ पल पंकज महि नामु छडाए जे गुर सबदु सिञापै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु घरि = जिस हृदय घर में। बिधि = हालत, अवस्था। बीजउ = दूसरा। न जापै = नहीं सूझता। दुबिधा = प्रभु के बिना और आसरे की झाक। छापै = छाप में, असर तले। करण पलाव = (करुणाप्रलाप) तरस भरे विलाप, दुहाई, तरले। पंकज = कमल, कमल के फूल जैसी आँख। पंकज महि = आँख के फोर में।4।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के हृदय-घर में तू प्रकट हो जाता है उसकी आत्मिक अवस्था तू ही जानता है कि उसको तेरे बिना और कोई आसरा सूझता ही नहीं।
सारा जगत प्रभु के बिना अन्य आसरों की झाक के दबाव तले दबा हुआ है। गुरु के बिना समझ नहीं आ सकती। (प्रभु के नाम का आसरा छोड़ के जगत) तरले लेता है बिलकता है। गुरु की शरण पड़े बिना नाम जप नहीं सकता। पर अगर जीव गुरु के शब्द को पहचान ले तो प्रभु का नाम इसको आँख झपकने के एक छण में (माया के दबाव से) छुड़वा लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि मूरख अंधे मुगध गवार ॥ इकि सतिगुर कै भै नाम अधार ॥ साची बाणी मीठी अम्रित धार ॥ जिनि पीती तिसु मोख दुआर ॥५॥
मूलम्
इकि मूरख अंधे मुगध गवार ॥ इकि सतिगुर कै भै नाम अधार ॥ साची बाणी मीठी अम्रित धार ॥ जिनि पीती तिसु मोख दुआर ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = अनेक। जिनि = जिस ने।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जगत में) अनेक ही मूर्ख ऐसे हैं जो माया के मोह में अंधे होए हुए हैं। पर अनेक ही ऐसे भी हैं जो गुरु के डर-अदब में चल के प्रभु-नाम का आसरा लेते हैं, वे सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की मीठी वाणी के द्वारा नाम-अमृत की धार का रस (का आनंद) लेते हैं।
जिस मनुष्य ने नाम-अमृत की धार पी है उसको माया के मोह से निजात कराने वाला दरवाजा मिल जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु भै भाइ रिदै वसाही गुर करणी सचु बाणी ॥ इंदु वरसै धरति सुहावी घटि घटि जोति समाणी ॥ कालरि बीजसि दुरमति ऐसी निगुरे की नीसाणी ॥ सतिगुर बाझहु घोर अंधारा डूबि मुए बिनु पाणी ॥६॥
मूलम्
नामु भै भाइ रिदै वसाही गुर करणी सचु बाणी ॥ इंदु वरसै धरति सुहावी घटि घटि जोति समाणी ॥ कालरि बीजसि दुरमति ऐसी निगुरे की नीसाणी ॥ सतिगुर बाझहु घोर अंधारा डूबि मुए बिनु पाणी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै = अदब में। भाइ = प्रेम में। इंद्रु = इंद्र देवता, बादल, गुरु बादल। धरति = हृदय धरती। कालरि = बंजर में। घोर = बहुत।6।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा के डर-अदब में और प्यार में टिक के परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाते हैं, गुरु के द्वारा बताई हुई कार करते हैं, (भाव,) महिमा की वाणी के द्वारा सदा-स्थिर प्रभु का नाम जपते हैं उनके ऊपर गुरु-बादल (प्रभु के रहमत की) बरखा करता है जिसके कारण उनके हृदय की धरती सुहावनी बन जाती है, उनको हरेक शरीर में परमात्मा की ज्योति व्यापक दिखाई देती है।
पर, गुरु से बेमुख की निशानी यह है कि वह बुरी मति के पीछे लग के (जैसे) कल्लर में बीज बीजता रहता है। जो मनुष्य गुरु से वंचित रहते हैं, वे अज्ञानता के घोर अंधेरे में (हाथ-पैर मारते हैं), नाम-जल के बिना वे विकारों के समुंदर में गोते खाते रहते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु कीनो सु प्रभू रजाइ ॥ जो धुरि लिखिआ सु मेटणा न जाइ ॥ हुकमे बाधा कार कमाइ ॥ एक सबदि राचै सचि समाइ ॥७॥
मूलम्
जो किछु कीनो सु प्रभू रजाइ ॥ जो धुरि लिखिआ सु मेटणा न जाइ ॥ हुकमे बाधा कार कमाइ ॥ एक सबदि राचै सचि समाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एक सबदि = एक प्रभु की महिमा के शब्द में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।7।
अर्थ: जो भी खेल रची है प्रभु ने अपनी रज़ा में रची हुई है। (जीवों के किए कर्मों के अनुसार) धुर से ही लिखा जाता है वह (किसी भी तरफ से) मिटाया नहीं जा सकता। हरेक जीव प्रभु के हुक्म में बँधा हुआ अपने पूर्बले कए हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार ही काम करता है। (यह प्रभु की मेहर है कि कोई भाग्यशाली जीव) एक परमात्मा की महिमा के शब्द में जुड़ता है, सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम में लीन रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चहु दिसि हुकमु वरतै प्रभ तेरा चहु दिसि नाम पतालं ॥ सभ महि सबदु वरतै प्रभ साचा करमि मिलै बैआलं ॥ जांमणु मरणा दीसै सिरि ऊभौ खुधिआ निद्रा कालं ॥ नानक नामु मिलै मनि भावै साची नदरि रसालं ॥८॥१॥४॥
मूलम्
चहु दिसि हुकमु वरतै प्रभ तेरा चहु दिसि नाम पतालं ॥ सभ महि सबदु वरतै प्रभ साचा करमि मिलै बैआलं ॥ जांमणु मरणा दीसै सिरि ऊभौ खुधिआ निद्रा कालं ॥ नानक नामु मिलै मनि भावै साची नदरि रसालं ॥८॥१॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिसि = दिशाएं। प्रभ = हे प्रभु! पतालं = पाताल में भी। करमि = मेहर से। बैआलं = (अव्यय आलय) जिसका घर नाश रहत है, परमात्मा अविनाशी। जांमणु = पैदा होना। सिरि = ऊपर। ऊभौ = खड़ा हुआ, तैयार। खुधिआ = भूख। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है। रसालं = रसों का घर परमात्मा।8।
अर्थ: हे प्रभु! सारी सृष्टि में तेरा ही हुक्म चल रहा है, सारी सृष्टि में छोटी से छोटी जगहों में भी तेरा ही नाम बज रहा है।
सभ जीवों में सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की ही जीवन-लहर रुमक रही है (जिस किसी को मिलता है) वह अविनाशी प्रभु अपनी मेहर से ही मिलता है।
(नाम से वंचित लोगों के) सिर पर जनम-मरण का चक्कर खड़ा दिखाई देता है, माया की भूख, माया के मोह की नींद और आत्मिक मौत खड़े हुए दिखते हैं।
हे नानक! सब रसों के श्रोत प्रभु की सदा-स्थिर मेहर भरी निगाह जिस व्यक्ति पर पड़ती है उसको प्रभु का नाम प्राप्त हो जाता है उसके मन को प्रभु प्यारा लगने लग जाता है।8।1।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह अष्टपदी ‘घरु २’ की है। कुल जोड़ 4 है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला १ ॥ मरण मुकति गति सार न जानै ॥ कंठे बैठी गुर सबदि पछानै ॥१॥
मूलम्
मलार महला १ ॥ मरण मुकति गति सार न जानै ॥ कंठे बैठी गुर सबदि पछानै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरण मुकति = आत्मिक मौत से खलासी। गति सार = ऊँची आत्मिक अवस्था की कद्र। कंठे = लांभे, किनारे पर, अलग रहती। पछाणै = पहचानती है, पहचानने का प्रयत्न करती है।1।
अर्थ: अंजान जिंद ऊँची आत्मिक अवस्था की कद्र नहीं समझती, आत्मिक मौत से बचने (का उपाय) नहीं जानती। गुरु के शब्द द्वारा समझने का प्रयत्न तो करती है पर (गुरु-शब्द से) अलग ही बैठी हुई (गुरु-शब्द में जुड़ती नहीं, लीन नहीं होती)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू कैसे आड़ि फाथी जालि ॥ अलखु न जाचहि रिदै सम्हालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तू कैसे आड़ि फाथी जालि ॥ अलखु न जाचहि रिदै सम्हालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आड़ि = (आटि) बगले की किस्म का एक पंछी। जालि = जाल में। अलखु = अदृश्य प्रभु। समालि = संभाल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे आड़ि! (आड़ि पक्षी की तरह दूसरों पर ज्यादती करने वाली हे जिंदे!) तू (माया के मोह के) जाल में कैसे फंस गई? तू अपने हृदय में अदृश्य प्रभु का नाम संभाल के उससे (आत्मिक जीवन की दाति) क्यों नहीं माँगती?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक जीअ कै जीआ खाही ॥ जलि तरती बूडी जल माही ॥२॥
मूलम्
एक जीअ कै जीआ खाही ॥ जलि तरती बूडी जल माही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ कै = जिंद की खातिर। खाही = तू खाती है। तरती = तैरती हुई। बूडी = डूब गई।2।
अर्थ: हे आड़ि! तू अपनी एक जिंद की खातिर (पानी में से चुग-चुग के) अनेक जीव खाती है (हे जिंदे! तू अपने शरीर की पालना के लिए अनेक के साथ ठगी-ठोरी करती है)। तू (जल-जंतु पकड़ने के लिए) पानी में तैरती-तैरती पानी में ही डूब जाती है (हे जिंदे! माया-जाल में दौड़-भाग करती आखिर इसी माया-जाल में ही आत्मिक मौत मर जाती है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब जीअ कीए प्रतपानी ॥ जब पकड़ी तब ही पछुतानी ॥३॥
मूलम्
सरब जीअ कीए प्रतपानी ॥ जब पकड़ी तब ही पछुतानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रतपानी = (प्र+तपानी) अच्छी तरह दुखी।3।
अर्थ: (अपने स्वार्थ की खातिर) तूने सारे जीवों को बहुत दुखी किया हुआ है, जब तू (मौत के जाल में) पकड़ी जाती है तब पछताती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब गलि फास पड़ी अति भारी ॥ ऊडि न साकै पंख पसारी ॥४॥
मूलम्
जब गलि फास पड़ी अति भारी ॥ ऊडि न साकै पंख पसारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गलि = गले में। पसारी = पसारि, बिखेर के। पंख = पंख (पक्षी के)।4।
अर्थ: जब आड़ि के गले में (किसी शिकारी का) बहुत भारी फंदा पड़ता है, तब वह पंख पसार के उड़ नहीं सकती (जब जिंद माया के मोह के जाल में फंस जाती है तब यह आत्मिक उड़ान भरने के योग्य नहीं रहती, इसकी तवज्जो ऊँची हो के प्रभु-चरणों में नहीं पहुँच सकती)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसि चूगहि मनमुखि गावारि ॥ फाथी छूटहि गुण गिआन बीचारि ॥५॥
मूलम्
रसि चूगहि मनमुखि गावारि ॥ फाथी छूटहि गुण गिआन बीचारि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसि = आनंद से। गावारि = हे गवार! हे ढीठ! मनमुखि = मन के पीछे चल के।5।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाली हे गवार जिंदे! तू बड़ी मौज से (माया का चोगा) चुगती है (और माया के जाल में फसती जाती है)। परमात्मा की महिमा को अपने सोच-मण्डल में टिका, प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल, तब ही तू (माया के मोह के जाल और आत्मिक मौत से) बच सकेगी।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवि तूटै जमकालु ॥ हिरदै साचा सबदु सम्हालु ॥६॥
मूलम्
सतिगुरु सेवि तूटै जमकालु ॥ हिरदै साचा सबदु सम्हालु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जमकालु = मौत (का सहम), आत्मिक मौत (का जाल)। साचा = सदा स्थिर रहने वाला।6।
अर्थ: (हे जिंदे!) सतिगुरु की शरण पड़, अपने हृदय में प्रभु की महिमा वाला गुर-शब्द संभाल, तब ही आत्मिक मौत वाला जाल टूट सकेगा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति साची सबदु है सारु ॥ हरि का नामु रखै उरि धारि ॥७॥
मूलम्
गुरमति साची सबदु है सारु ॥ हरि का नामु रखै उरि धारि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। उरि = हृदय में। धारि = टिका के।7।
अर्थ: (हे जिंदे!) गुरु की मति ही सदा कायम रहने वाली मति है, गुरु का शब्द ही श्रेष्ठ पदार्थ है (इस शब्द का आसरा ले के ही जीव) परमात्मा का नाम अपने हृदय में संभाल के रख सकता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से दुख आगै जि भोग बिलासे ॥ नानक मुकति नही बिनु नावै साचे ॥८॥२॥५॥
मूलम्
से दुख आगै जि भोग बिलासे ॥ नानक मुकति नही बिनु नावै साचे ॥८॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से दुख = वे (भोग जो भोगे) दुख (बन के)। मुकति = मुक्ति।8।
अर्थ: दुनियावी पदार्थों के जो भोग-बिलास (बड़े चाव से) किए जाते हैं वे जीवन-यात्रा में दुख बन-बन के आ घटित होते हैं। हे नानक! (इन दुखों से) परमात्मा के नाम के बिना खलासी नहीं हो सकती।8।2।5।
[[1276]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ असटपदीआ घरु १ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला ३ असटपदीआ घरु १ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु होवै ता सतिगुरु पाईऐ विणु करमै पाइआ न जाइ ॥ सतिगुरु मिलिऐ कंचनु होईऐ जां हरि की होइ रजाइ ॥१॥
मूलम्
करमु होवै ता सतिगुरु पाईऐ विणु करमै पाइआ न जाइ ॥ सतिगुरु मिलिऐ कंचनु होईऐ जां हरि की होइ रजाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = (परमात्मा की) मेहर। पाईऐ = मिलता है। विणु करमै = मेहर के बिना। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। कंचनु = सोना। जां = जब। रजाइ = मर्जी।1।
अर्थ: हे भाई! जब परमात्मा की मेहर होती है तब गुरु मिलता है, परमात्मा की मेहर के बिना गुरु नहीं मिल सकता। अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य (शुद्ध) सोना बन जाता है। (पर, ये तब ही होता है) जब परमात्मा की रज़ा हो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे हरि हरि नामि चितु लाइ ॥ सतिगुर ते हरि पाईऐ साचा हरि सिउ रहै समाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे हरि हरि नामि चितु लाइ ॥ सतिगुर ते हरि पाईऐ साचा हरि सिउ रहै समाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! नामि = नाम में। लाइ = लगा के रख। ते = से, के द्वारा। साचा = सदा कायम रहने वाला। सिउ = साथ। रहै समाइ = समाया रहता है, लीन रहता है, जुड़ा रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रख। सदा कायम रहने वाला परमात्मा गुरु के द्वारा मिलता है, (जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है वह मनुष्य) परमात्मा में लीन रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर ते गिआनु ऊपजै तां इह संसा जाइ ॥ सतिगुर ते हरि बुझीऐ गरभ जोनी नह पाइ ॥२॥
मूलम्
सतिगुर ते गिआनु ऊपजै तां इह संसा जाइ ॥ सतिगुर ते हरि बुझीऐ गरभ जोनी नह पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। संसा = शंका, सहम, भटकना। जाइ = दूर हो जाता है। बुझीऐ = समझा जाता है, सांझ बन जाती है। गरभ जोनी = जीवन मरण के चक्कर में।2।
अर्थ: हे भाई! जब गुरु के द्वारा (मनुष्य के अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ पैदा होती है, तब मनुष्य के मन की भटकना दूर हो जाती है। हे भाई! गुरु के माध्यम से ही परमात्मा के साथ सांझ बनती है, और, मनुष्य पैदा होने-मरने के चक्करों में नहीं पड़ता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी जीवत मरै मरि जीवै सबदु कमाइ ॥ मुकति दुआरा सोई पाए जि विचहु आपु गवाइ ॥३॥
मूलम्
गुर परसादी जीवत मरै मरि जीवै सबदु कमाइ ॥ मुकति दुआरा सोई पाए जि विचहु आपु गवाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। जीवत मरै = जीता और मरता है, दुनियावी मेहनत-कमाई करता माया के मोह से बचा रहता है। मरि = मर के, विकारों के असर से बच के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। कमाइ = कमा के, कमाई कर के, (शब्द अनुसार) आचरण बना के। मुकति = विकारों से खलासी। जि = जो मनुष्य। आपु = स्वै भाव।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह से बचा रहता है। गुरु के शब्द के अनुसार अपना जीवन बना के मनुष्य विकारों से हट के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। हे भाई! वही मनुष्य विकारों से निजात का रास्ता पा सकता है, जो अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी सिव घरि जमै विचहु सकति गवाइ ॥ अचरु चरै बिबेक बुधि पाए पुरखै पुरखु मिलाइ ॥४॥
मूलम्
गुर परसादी सिव घरि जमै विचहु सकति गवाइ ॥ अचरु चरै बिबेक बुधि पाए पुरखै पुरखु मिलाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव घरि = शिव के घर में, परमात्मा के घर में। सकति = शक्ति, माया (का प्रभाव)। अचरु = अ+चरु, ना चरा जा सकने वाला, जिसको वश में लाना बहुत मुश्किल है, बेबस मन। चरै = वश में ले आता है। बिबेक = अच्छे बुरे कर्म की परख। बुधि = अकल, सूझ। पुरखै = गुरु पुरख द्वारा। पुरखु = परमात्मा।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से मनुष्य अपने अंदर से माया का प्रभाव दूर करके परमात्मा के घर में पैदा हो जाता है (परमात्मा की याद में जुड़े रहके नया आत्मिक जीवन बना लेता है। (गुरु के द्वारा) मनुष्य इस ढीठ मन को (वश से बाहर हुए मन को) वश में ले आता है, अच्छे-बुरे कर्म के परख की सूझ हासिल कर लेता है, और, इस तरह गुरु-पुरख के द्वारा मनुष्य अकाल-पुरख को मिल जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धातुर बाजी संसारु अचेतु है चलै मूलु गवाइ ॥ लाहा हरि सतसंगति पाईऐ करमी पलै पाइ ॥५॥
मूलम्
धातुर बाजी संसारु अचेतु है चलै मूलु गवाइ ॥ लाहा हरि सतसंगति पाईऐ करमी पलै पाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धातुर = भाग जाने वाली, नाशवान। बाजी = खेल। अचेतु = गाफिल, मूर्ख। चलै = जाता है। मूलु = (आत्मिक जीवन की) संपत्ति। गवाइ = गवा के। लाहा = लाभ, नफा। पाईऐ = मिलता है। करमी = (परमात्मा की) मेहर से। पलै पाइ = प्राप्त करता है।5।
अर्थ: हे भाई! यह जगत नाशवान खेल (ही) है। (वह मनुष्य) मूर्ख है (जो इस नाशवान खेल की खातिर अपने आत्मिक जीवन का सारी) संपत्ति गवा के (यहाँ से) जाता है। हे भाई! नफा परमात्मा (का नाम है, यह लाभ) साधु-संगत में मिलता है, (पर, परमात्मा की) मेहर से ही (मनुष्य यह फायदा) हासिल करता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर विणु किनै न पाइआ मनि वेखहु रिदै बीचारि ॥ वडभागी गुरु पाइआ भवजलु उतरे पारि ॥६॥
मूलम्
सतिगुर विणु किनै न पाइआ मनि वेखहु रिदै बीचारि ॥ वडभागी गुरु पाइआ भवजलु उतरे पारि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। मनि = मन में। रिदै = हृदय में। बीचारि = विचार के। वडभागी = बड़े भाग्यों से। भवजलु = संसार समुंदर। उतरे = पार लांघ गए।6।
अर्थ: हे भाई! अपने मन में हृदय में बिचार करके देख लो, किसी भी मनुष्य ने (ये हरि-नाम-लाभ) गुरु (की शरण) के बिना हासिल नहीं किया। (जिस मनुष्यों ने) बड़े भाग्यों से गुरु को पा लिया, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि नामां हरि टेक है हरि हरि नामु अधारु ॥ क्रिपा करहु गुरु मेलहु हरि जीउ पावउ मोख दुआरु ॥७॥
मूलम्
हरि नामां हरि टेक है हरि हरि नामु अधारु ॥ क्रिपा करहु गुरु मेलहु हरि जीउ पावउ मोख दुआरु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेक = सहारा। अधारु = आसरा। हरि जीउ = हे प्रभु जी! पावउ = मैं पा लूं। मोख = मोक्ष, विकारों से निजात। मोख दुआरु = माया के मोह से खलासी का दरवाजा।7।
अर्थ: हे भाई! (मेरे वास्ते तो) हरि परमात्मा का नाम (ही) सहारा है, हरि का नाम ही आसरा है। हे प्रभु जी! मेहर करो, (मुझे) गुरु से मिलाओ, मैं (गुरु के माध्यम से माया के मोह से खलासी का) रास्ता तलाश सकूँ।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मसतकि लिलाटि लिखिआ धुरि ठाकुरि मेटणा न जाइ ॥ नानक से जन पूरन होए जिन हरि भाणा भाइ ॥८॥१॥
मूलम्
मसतकि लिलाटि लिखिआ धुरि ठाकुरि मेटणा न जाइ ॥ नानक से जन पूरन होए जिन हरि भाणा भाइ ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। लिलाटि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। ठाकुरि = ठाकुर ने, मालिक प्रभु ने। से जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। पूरन = संपूर्ण (आत्मिक जीवन वाले)। भाणा = रज़ा। भाइ = भाय, भाता है।8।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों के) माथे पर धुर-दरगाह से मालिक-प्रभु ने (गुरु-मिलाप के लेख) लिख दिए, (वह लेख किसी भी तरह से) मिटाए नहीं जा सकते। हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु-शरण की इनायत से) जिस मनुष्यों को परमात्मा की रज़ा प्यारी लग गई, वे मनुष्य संपूर्ण (पूरन आत्मिक जीवन वाले) बन गए।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ ॥ बेद बाणी जगु वरतदा त्रै गुण करे बीचारु ॥ बिनु नावै जम डंडु सहै मरि जनमै वारो वार ॥ सतिगुर भेटे मुकति होइ पाए मोख दुआरु ॥१॥
मूलम्
मलार महला ३ ॥ बेद बाणी जगु वरतदा त्रै गुण करे बीचारु ॥ बिनु नावै जम डंडु सहै मरि जनमै वारो वार ॥ सतिगुर भेटे मुकति होइ पाए मोख दुआरु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेद बाणी = (शास्त्रों) वेदों की (कर्मकांड में ही रखने वाली) वाणी मैं। वरतदा = परचा रहता है। त्रै गुण बीचारु = (माया के) तीनों गुणों का विचार। बिनु नावै = हरि नाम के बिना। डंडु = सजा। सहै = सहता है। मरि = मर के। वारो वार = बार बार। सतिगुर भेटे = (जो) गुरु को मिलता है। मुकति = (माया के मोह से) मुक्ति। मोख दुआरु = माया के मोह से मुक्ति का रास्ता।1।
अर्थ: हे भाई! जगत (कर्मकांड में रखने वाले शास्त्रों-) वेदों की वाणी में परचा रहता है, माया के तीन गुणों की (ही) विचार करता रहता है (प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता)। परमात्मा के नाम के बिना (जगत) जमदूतों की सज़ा सहता है, बार-बार जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है। (जो मनुष्य) गुरु को मिल जाता है, उसको माया के मोह से खलासी मिल जाती है वह मनुष्य माया के मोह से आजाद होने का राह ढूँढ लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन रे सतिगुरु सेवि समाइ ॥ वडै भागि गुरु पूरा पाइआ हरि हरि नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन रे सतिगुरु सेवि समाइ ॥ वडै भागि गुरु पूरा पाइआ हरि हरि नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि = शरण पड़ कर। समाइ = (हरि नाम में) लीन हुआ रह। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। धिआइ = ध्याता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु की शरण पड़ कर (परमातमा के नाम में) लीन हुआ रह। (जिस मनुष्य ने) बड़ी किस्मत से पूरा गुरु पा लिया, वह सदा हरि का नाम ध्याता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपणै भाणै स्रिसटि उपाई हरि आपे देइ अधारु ॥ हरि आपणै भाणै मनु निरमलु कीआ हरि सिउ लागा पिआरु ॥ हरि कै भाणै सतिगुरु भेटिआ सभु जनमु सवारणहारु ॥२॥
मूलम्
हरि आपणै भाणै स्रिसटि उपाई हरि आपे देइ अधारु ॥ हरि आपणै भाणै मनु निरमलु कीआ हरि सिउ लागा पिआरु ॥ हरि कै भाणै सतिगुरु भेटिआ सभु जनमु सवारणहारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपणे भाणै = अपनी रजा में। आपे = आप ही। देइ = देता है। अधारु = आसरा। निरमलु = पवित्र। सिउ = साथ। कै भाणै = की रजा में। भेटिआ = मिला। सभु = सारा। सवारणहारु = अच्छा बना देने की समर्थता वाला (गुरु)।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने अपनी रजा में ये जगत पैदा किया है, परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) आसरा देता है। (जिस मनुष्य का) मन परमात्मा ने अपनी रज़ा में (गुरु के द्वारा) पवित्र कर दिया है, उस मनुष्य का प्यार प्रभु-चरणों के साथ बन गया। सारे मनुष्य जीवन को अच्छा बना सकने वाला गुरु (उस मनुष्य को) परमात्मा की रज़ा मुताबिक मिल गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहु वाहु बाणी सति है गुरमुखि बूझै कोइ ॥ वाहु वाहु करि प्रभु सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ आपे बखसे मेलि लए करमि परापति होइ ॥३॥
मूलम्
वाहु वाहु बाणी सति है गुरमुखि बूझै कोइ ॥ वाहु वाहु करि प्रभु सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ आपे बखसे मेलि लए करमि परापति होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाहु वाहु = महिमा। सति = सदा कायम रहने वाली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। कोइ = कोई विरला। करि = कर के, कह के। सालाहीऐ = सलाहना चाहिए। तिसु जेवडु = उसके बराबर का। बखसे = बख्शिश करता है। करमि = (प्रभु की) मेहर से। परापति = मिलाप।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (ही) कोई विरला मनुष्य (ये) समझता है (कि) परमात्मा की महिमा की वाणी ही सदा कायम रहने वाली है। हे भाई! (प्रभु) ‘आश्चर्य है आश्चर्य है’- ये कह: कह के परमात्मा की सिफतसालह करते रहना चाहिए, (उसके बराबर का कोई और है ही नहीं। हे भाई! प्रभु स्वयं ही जिस मनुष्य पर) बख्शिश करता है (उसको अपने चरणों में) मिला लेता है। (उसकी) मेहर से (ही उसका) मिलाप होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा साहिबु माहरो सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अम्रितु वरसै मनु संतोखीऐ सचि रहै लिव लाइ ॥ हरि कै नाइ सदा हरीआवली फिरि सुकै ना कुमलाइ ॥४॥
मूलम्
साचा साहिबु माहरो सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अम्रितु वरसै मनु संतोखीऐ सचि रहै लिव लाइ ॥ हरि कै नाइ सदा हरीआवली फिरि सुकै ना कुमलाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। माहरो = महर, चौधरी, प्रधान। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। संतोखीऐ = संतोखी हो जाता है। सचि = सदा कायम रहने वाले नाम जल में। हरि कै नाइ = परमातमा के नाम (-जल) से। हरीआवली = (आत्मिक जीवन से) हरी भरी।4।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला प्रभु ही (सारे जगत का) प्रधान है मालिक है। जिस (मनुष्य को) गुरु ने उसके दर्शन करवा दिए; (उसके अंदर) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की बरखा होने लग जाती है, (उसका) मन संतोखी हो जाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में तवज्जो जोड़े रखता है। हे भाई! (जैसे पानी के साथ खेती हरि हो जाती है और, ना सूखती है ना कुम्हलाती है, वैसे ही जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा के दर्शन करवा दिया, उसकी जिंद) परमात्मा के नाम (-जल) की इनायत से सदा हरी-भरी (आत्मिक जीवन वाली) रहती हैं, ना कभी सूखती है, (और ना ही कभी आत्मिक मौत सहेड़ती है) ना कभी कुम्हलाती है (ना कभी डोलती है)।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सतिगुर किनै न पाइओ मनि वेखहु को पतीआइ ॥ हरि किरपा ते सतिगुरु पाईऐ भेटै सहजि सुभाइ ॥ मनमुख भरमि भुलाइआ बिनु भागा हरि धनु न पाइ ॥५॥
मूलम्
बिनु सतिगुर किनै न पाइओ मनि वेखहु को पतीआइ ॥ हरि किरपा ते सतिगुरु पाईऐ भेटै सहजि सुभाइ ॥ मनमुख भरमि भुलाइआ बिनु भागा हरि धनु न पाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। मनि = मन में। को = कोई पक्ष। पतिआइ = निर्णय करके। ते = से। पाईऐ = मिलता है। भेटै = मिलता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। भरमि = भटकना के कारण। भुलाइआ = गलत राह पर डाला होता है।5।
अर्थ: हे भाई! बेशक कई पक्ष मन में निर्णय करके देख लें, गुरु (की शरण) के बिना किसी ने भी (परमात्मा का नाम-धन) हासिल नहीं किया। गुरु (भी) मिलता है परमात्मा की मेहर से, आत्मिक अडोलता में मिलता है प्यार में मिलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को भटकना ने गलत राह पर डाला हुआ होता है। किस्मत के बिना परमात्मा का नाम-धन नहीं मिल सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण सभा धातु है पड़ि पड़ि करहि वीचारु ॥ मुकति कदे न होवई नहु पाइन्हि मोख दुआरु ॥ बिनु सतिगुर बंधन न तुटही नामि न लगै पिआरु ॥६॥
मूलम्
त्रै गुण सभा धातु है पड़ि पड़ि करहि वीचारु ॥ मुकति कदे न होवई नहु पाइन्हि मोख दुआरु ॥ बिनु सतिगुर बंधन न तुटही नामि न लगै पिआरु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभा = सारी। धातु = माया। पढ़ि = पढ़ के। करहि = करते हैं (बहुवचन)। मुकति = माया के मोह से खलासी। नहु = नहीं। नहु पाइन्हि = नहीं प्राप्त करते। मोख दुआरु = माया के मोह से मुक्ति का रास्ता। तुटही = तुटहि, टूटते (बहुवचन)। नामि = नाम में।6।
अर्थ: हे भाई! (पंडित लोग वेद आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़-पढ़ के (तीनों गुणों में रखने वाले कर्मकांड का ही) विचार करते हैं, और, यह तीन गुणों की विचार निरी माया ही है। (इस उद्यम से) कभी भी माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती, (वे लोग) माया से निज़ात पाने का रास्ता नहीं तलाश सकते। हे भाई! गुरु (की शरण) के बिना (माया के मोह के) फंदे नहीं टूटते, परमात्मा के नाम में प्यार नहीं बन सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके बेदां का अभिआसु ॥ हरि नामु चिति न आवई नह निज घरि होवै वासु ॥ जमकालु सिरहु न उतरै अंतरि कपट विणासु ॥७॥
मूलम्
पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके बेदां का अभिआसु ॥ हरि नामु चिति न आवई नह निज घरि होवै वासु ॥ जमकालु सिरहु न उतरै अंतरि कपट विणासु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंडित = कई पंडित। मोनी = समाधियां लगाने वाले, मुनि लोग। चिति = चिक्त में। निज घरि = अपने असल घर में। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत, जनम मरण का चक्कर। सिरहु = सिर से। कपट = खोट। विणासु = (आत्मिक) मौत।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पंडित’ है ‘पंडितु’ का बहुवचन (‘पंडितु’ है एक वचन)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! पंडित लोग, मुनि जन (शास्त्रों को) पढ़-पढ़ के थक जाते हैं (कर्मकांड के चक्करों में डाले रखने वाले) वेद (आदि धर्म-पुस्तकों का ही) अभ्यास करते रहते हैं, (पर, इस तरह) परमात्मा का नाम चिक्त में नहीं बसता, प्रभु चरणों में निवास नहीं होता, सिर से जनम-मरण का चक्कर समाप्त नहीं होता, मन में (माया की खातिर) ठगी (टिकी रहने के कारण) आत्मिक मौत बनी रहती है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि नावै नो सभु को परतापदा विणु भागां पाइआ न जाइ ॥ नदरि करे गुरु भेटीऐ हरि नामु वसै मनि आइ ॥ नानक नामे ही पति ऊपजै हरि सिउ रहां समाइ ॥८॥२॥
मूलम्
हरि नावै नो सभु को परतापदा विणु भागां पाइआ न जाइ ॥ नदरि करे गुरु भेटीऐ हरि नामु वसै मनि आइ ॥ नानक नामे ही पति ऊपजै हरि सिउ रहां समाइ ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नावै नो = नाम के लिए। सभु को = हरेक प्राणी। परतापदा = तमन्ना रखता है। नदरि = मेहर की निगाह। भेटीऐ = मिला जा सकता है। मनि = मन में। नामे = नाम से ही। पति = इज्जत। रहां = मैं रहता हूँ।8।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) हरेक प्राणी परमात्मा का नाम प्राप्त करने की तमन्ना रखता है, पर बढ़िया किस्मत के बग़ैर मिलता नहीं है। जब प्रभु मेहर की निगाह करता है तो गुरु मिलता है (और, गुरु के द्वारा) परमात्मा का नाम मन में आ बसता है। हे नानक (कह:) परमात्मा के नाम से (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है (मैं गुरु की कृपा से) परमात्मा के नाम के साथ सदा जुड़ा रहता हूँ।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार महला ३ असटपदी घरु २ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार महला ३ असटपदी घरु २ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि क्रिपा करे गुर की कारै लाए ॥ दुखु पल्हरि हरि नामु वसाए ॥ साची गति साचै चितु लाए ॥ गुर की बाणी सबदि सुणाए ॥१॥
मूलम्
हरि हरि क्रिपा करे गुर की कारै लाए ॥ दुखु पल्हरि हरि नामु वसाए ॥ साची गति साचै चितु लाए ॥ गुर की बाणी सबदि सुणाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारै = कार (करने) में। लाए = लगाता है। पल्रि = दूर कर के। साची = सदा कायम रहने वाली। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। साचै = सदा स्थिर हरि नाम में। सबदि = शब्द से। सुणाए = (अपनी महिमा) सुनाता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा मेहर करता है, उसको गुरु की सेवा में लगाता है, (जो गुरु) उसका दुख दूर करके उसके अंदर परमात्मा का नाम बसाता है। हे भाई! (जिस पर परमात्मा कृपा करता है उसको) गुरु की वाणी के द्वारा गुरु के शब्द से (अपना नाम) सुनाता है वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में अपना चिक्त जोड़ता है और सदा कायम रहने वाली ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे हरि हरि सेवि निधानु ॥ गुर किरपा ते हरि धनु पाईऐ अनदिनु लागै सहजि धिआनु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे हरि हरि सेवि निधानु ॥ गुर किरपा ते हरि धनु पाईऐ अनदिनु लागै सहजि धिआनु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सेवि = सेवा कर, शरण पड़ा रह। निधानु = खजाना। ते = से। अनदिनु = हर रोज। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा की भक्ति करता रह (यही है असल खजाना) हरि नाम का यह धन गुरु की कृपा से मिलता है, और हर वक्त आत्मिक अडोलता की तवज्जो जुड़ी रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु पिर कामणि करे सींगारु ॥ दुहचारणी कहीऐ नित होइ खुआरु ॥ मनमुख का इहु बादि आचारु ॥ बहु करम द्रिड़ावहि नामु विसारि ॥२॥
मूलम्
बिनु पिर कामणि करे सींगारु ॥ दुहचारणी कहीऐ नित होइ खुआरु ॥ मनमुख का इहु बादि आचारु ॥ बहु करम द्रिड़ावहि नामु विसारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिर = पति। कामणि = स्त्री। दुहचारणी = दुराचारिणी, बुरे आचरण वाली। कहीऐ = कही जाती है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। बादि = व्यर्थ। आचारु = रवईया। करम = (दिखावे के धार्मिक) कर्म। द्रिढ़ावहि = करने की ताकीद करते हैं। विसारि = भुला के।2।
अर्थ: हे भाई! (जैसे जो) स्त्री पति के बिना (शारीरिक) श्रंृगार करती है वह बुरे आचरण वाली कही जाती है और सदा दुखी होती है (वैसे ही) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का यह रवईया व्यर्थ जाता है कि वे परमात्मा का नाम भुला के और बहुत सारे दिखावे के धार्मिक कर्मों की ताकीद करते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि कामणि बणिआ सीगारु ॥ सबदे पिरु राखिआ उर धारि ॥ एकु पछाणै हउमै मारि ॥ सोभावंती कहीऐ नारि ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि कामणि बणिआ सीगारु ॥ सबदे पिरु राखिआ उर धारि ॥ एकु पछाणै हउमै मारि ॥ सोभावंती कहीऐ नारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि कामणि = गुरु के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री। पिरु = प्रभु पति। उर = हृदय। धारि = टिका के। मारि = मार के।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री को यह आत्मिक सुहज फबता है कि वह गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु-पति को अपने हृदय में बसाए रखती है, वह अपने अंदर से अहंकार को दूर कर के सिर्फ परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालती है। उस जीव-स्त्री को शोभामयी कहा जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गुर दाते किनै न पाइआ ॥ मनमुख लोभि दूजै लोभाइआ ॥ ऐसे गिआनी बूझहु कोइ ॥ बिनु गुर भेटे मुकति न होइ ॥४॥
मूलम्
बिनु गुर दाते किनै न पाइआ ॥ मनमुख लोभि दूजै लोभाइआ ॥ ऐसे गिआनी बूझहु कोइ ॥ बिनु गुर भेटे मुकति न होइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। लोभि = माया के लोभ के कारण। दूजै = (प्रभु की याद के बिना) और में। लोभाइआ = मगन रहता है। गिआनी = हे ज्ञानवान! भेटे बिनु = मिले बिना। मुकति = माया के मोह से खलासी।4।
अर्थ: हे भाई! (नाम की दाति) देने वाले गुरु के बिना किसी ने भी (परमात्मा का मिलाप) हासिल नहीं किया। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के लोभ के कारण (प्रभु की याद के बिना) और (के प्यार) में मगन रहता है। हे भाई! अगर किसी को आत्मिक जीवन की सूझ हुई है तो ये समझ लो कि गुरु को मिले बिना (माया के मोह से) मुक्ति नहीं मिलती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कहि कहणु कहै सभु कोइ ॥ बिनु मन मूए भगति न होइ ॥ गिआन मती कमल परगासु ॥ तितु घटि नामै नामि निवासु ॥५॥
मूलम्
कहि कहि कहणु कहै सभु कोइ ॥ बिनु मन मूए भगति न होइ ॥ गिआन मती कमल परगासु ॥ तितु घटि नामै नामि निवासु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि कहि कहै = कह कह के कहता है, सदा डींगें मारता है। सभु कोइ = हरेक प्राणी (बहुवचन)। गिआन = आत्मिक जीवन की समझ। गिआन मती = आत्मिक जीवन की मति से। परगासु = खिलाव। तितु = उसमें। तितु घटि = उस हृदय में। नामै निवासु = नाम का निवास। नामि = नाम से।5।
अर्थ: हे भाई! (यह) डींग (कि मैं भक्ति करता हूँ) हर कोई हर वक्त मार सकता है, पर मन वश में आए बिना भक्ति हो ही नहीं सकती। हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति से जिस हृदय-कमल में खिड़ाव हो जाता है, नाम (जपने) से उस हृदय में (सदा के लिए) नाम का निवास हो जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै भगति करे सभु कोइ ॥ ना मनु भीजै ना सुखु होइ ॥ कहि कहि कहणु आपु जाणाए ॥ बिरथी भगति सभु जनमु गवाए ॥६॥
मूलम्
हउमै भगति करे सभु कोइ ॥ ना मनु भीजै ना सुखु होइ ॥ कहि कहि कहणु आपु जाणाए ॥ बिरथी भगति सभु जनमु गवाए ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु कोइ = हरेक जीव। भीजै = भीगता, नाम जल से भीगता। कहणु = ये डींग कि मैं भक्ति करता हूं। कहि = कह के। आपु जाणाए = अपने आप को जतलाता है।6।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण आए बिना अपने) अहंकार के आसरे हर कोई भक्ति करता है पर इस तरह मनुष्य का मन नाम-जल से तर नहीं होता, ना ही उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है। यह डींग (कि मैं भक्ति करता हूँ) मार-मार के मनुष्य अपने आप को (भक्त) जाहर करता है, (पर, इस तरह की) भक्ति व्यर्थ जाती है, (मनुष्य अपना सारा) जनम गवा लेता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से भगत सतिगुर मनि भाए ॥ अनदिनु नामि रहे लिव लाए ॥ सद ही नामु वेखहि हजूरि ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरि ॥७॥
मूलम्
से भगत सतिगुर मनि भाए ॥ अनदिनु नामि रहे लिव लाए ॥ सद ही नामु वेखहि हजूरि ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। मनि = मन में। भाए = प्यारे लगे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव लाए = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। सद = सदा। वेखहि = देखते हैं (बहुवचन)। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। सबदि = शब्द से। भरपूरि = सब जगह व्यापक।7।
अर्थ: हे भाई! (दरअसल) भक्त वे हैं जो गुरु के मन को भा जाते हैं, हर वक्त हरि-नाम में तवज्जो जोड़ के रखते हैं। वे मनुष्य हरि-नाम को सदा ही अपने अंग-संग देखते हैं, गुरु के शब्द के द्वारा उनको हर जगह व्यापक दिखाई देता है।7।
[[1278]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे बखसे देइ पिआरु ॥ हउमै रोगु वडा संसारि ॥ गुर किरपा ते एहु रोगु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥१॥३॥५॥८॥
मूलम्
आपे बखसे देइ पिआरु ॥ हउमै रोगु वडा संसारि ॥ गुर किरपा ते एहु रोगु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥१॥३॥५॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। बखसे = बख्शिश करता है। देइ = देता है। संसारि = संसार में। ते = के द्वारा, से। जाइ = दूर होता है। साचे साचि = साचि ही साचि, सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर प्रभु) स्वयं कृपा करता है, (उसको अपने) प्यार (की दाति) देता है। (वैसे तो) जगत में अहंकार का बहुत बड़ा रोग है। हे नानक! गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य के अंदर से) ये रोग दूर होता है वे हर वक्त सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।8।1।3।5।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार छंत महला ५ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मलार छंत महला ५ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतम प्रेम भगति के दाते ॥ अपने जन संगि राते ॥ जन संगि राते दिनसु राते इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गोपाल गुण निधि सदा संगे सरब गुण जगदीसरै ॥ मनु मोहि लीना चरन संगे नाम रसि जन माते ॥ नानक प्रीतम क्रिपाल सदहूं किनै कोटि मधे जाते ॥१॥
मूलम्
प्रीतम प्रेम भगति के दाते ॥ अपने जन संगि राते ॥ जन संगि राते दिनसु राते इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गोपाल गुण निधि सदा संगे सरब गुण जगदीसरै ॥ मनु मोहि लीना चरन संगे नाम रसि जन माते ॥ नानक प्रीतम क्रिपाल सदहूं किनै कोटि मधे जाते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रेम के दाते = प्यार की दाति देने वाले। भगति के दाते = भक्ति की दाति देने वाले। संगि = साथ। राते = रति हुए। दिनसु राते = दिन रात। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। मनहु = (सेवकों के) मन से। वीसरै = भूलता। गुणनिधि = (सारे) गुणों का खजाना। जगदीसरै = जगत के मालिक में (जगत+ईसरै)। मोहि लीना = मोह लिया है, मस्त कर लिया है। नाम रसि = नाम के स्वाद में। माते = मस्त। सद हूँ = सदा ही। किनै = किसी विरले ने। कोटि मधे = करोड़ों में से। जाते = जाना है, सांझ डाली है।1।
अर्थ: हे भाई! प्रीतम प्रभु जी (अपने भक्तों को) प्यार की दाति देने वाले हैं, भक्ति की दाति देने वाले हैं। प्रभु जी अपने सेवकों के साथ रति रहते हैं, दिन-रात अपनें सेवकों के साथ रति रहते हैं।
हे भाई! प्रभु (अपने सेवकों के) मन से आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं भूलता। जगत का पालनहार प्रभु सारे गुणों का खजाना है, सदा (सब जीवों के) साथ है, जगत के मालिक प्रभु में सारे ही गुण हैं।
हे भाई! प्रभु अपने जनों का मन अपने चरणों में मस्त करे रखता है। (उसके) सेवक (उसके) नाम के स्वाद में मगन रहते हैं। हे नानक! प्रीतम प्रभु सदा ही दया का घर है। करोड़ों में से किसी विरले ने (उसके साथ) गहरी सांझ बनाई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतम तेरी गति अगम अपारे ॥ महा पतित तुम्ह तारे ॥ पतित पावन भगति वछल क्रिपा सिंधु सुआमीआ ॥ संतसंगे भजु निसंगे रंउ सदा अंतरजामीआ ॥ कोटि जनम भ्रमंत जोनी ते नाम सिमरत तारे ॥ नानक दरस पिआस हरि जीउ आपि लेहु सम्हारे ॥२॥
मूलम्
प्रीतम तेरी गति अगम अपारे ॥ महा पतित तुम्ह तारे ॥ पतित पावन भगति वछल क्रिपा सिंधु सुआमीआ ॥ संतसंगे भजु निसंगे रंउ सदा अंतरजामीआ ॥ कोटि जनम भ्रमंत जोनी ते नाम सिमरत तारे ॥ नानक दरस पिआस हरि जीउ आपि लेहु सम्हारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! (संबोधन)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारे = अ+पार, बेअंत। पतित = विकारों में गिरे हुए जीव। तारे = पार लंघाए हैं। पतित पावन = हे पापियों को पवित्र करने वाले! सिंधु = समुंदर। सुआमीआ = हे स्वामी! संगे = संगति में। भजु = भजन किया कर। निसंगे = शर्म उतार के। रंउ = स्मरण करता रह। ते = वे लोग (बहुवचन)। नानक = हे नानक! हरि जीउ = हे प्रभु जी! लेहु समारे = संभाल लो, अपना बना लो।2।
अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! तेरी ऊँची आत्मिक अवस्था अगम्य (पहुँच से परे) है बेअंत है। बड़े-बड़े पापियों को तू (संसार-समुंदर से) पार लंघाता आ रहा है। हे पापियों को पवित्र करने वाले! हे भक्ति के साथ प्यार करने वाले स्वामी! तू दया का समुंदर है।
(हे मन!) साधु-संगत में (टिक के) शर्म उतार के, उस अंतरजामी प्रभु का सदा भजन किया कर, स्मरण किया कर। हे भाई! जो जीव करोड़ों जनमों से जूनियों में भटकते फिरते थे, वे प्रभु का नाम स्मरण करके (जूनियों के चक्करों में से) पार लांघ गए।
हे नानक! (कह:) हे प्रभु जी! (मुझे) तेरे दर्शनों की तमन्ना है, मुझे अपना बना लो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चरन कमल मनु लीना ॥ प्रभ जल जन तेरे मीना ॥ जल मीन प्रभ जीउ एक तूहै भिंन आन न जानीऐ ॥ गहि भुजा लेवहु नामु देवहु तउ प्रसादी मानीऐ ॥ भजु साधसंगे एक रंगे क्रिपाल गोबिद दीना ॥ अनाथ नीच सरणाइ नानक करि मइआ अपुना कीना ॥३॥
मूलम्
हरि चरन कमल मनु लीना ॥ प्रभ जल जन तेरे मीना ॥ जल मीन प्रभ जीउ एक तूहै भिंन आन न जानीऐ ॥ गहि भुजा लेवहु नामु देवहु तउ प्रसादी मानीऐ ॥ भजु साधसंगे एक रंगे क्रिपाल गोबिद दीना ॥ अनाथ नीच सरणाइ नानक करि मइआ अपुना कीना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मीना = मछलियां। एकु तू है = तू स्वयं ही है। भिंन = (तुझसे) अलग। आन = (कोई) और (अन्य)। जानीऐ = जाना जा सकता। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। गहि लेवहु = पकड़ लो। तउ प्रसादी = तेरी मेहर से ही। मानीऐ = आदर मिलता है। संगे = संगति में। रंगे = रंगि, प्यार में। दीना क्रिपाल गोबिंद = दीनों पर दया करने वाला प्रभु। करि = कर के। मइआ = दया।3।
अर्थ: हे हरि! (मेहर कर, मेरा) मन तेरे सुंदर चरणों में लीन रहे। हे प्रभु! तू पानी है, तेरे सेवक (पानियों की) मछलियाँ है (तुझसे विछुड़ कर जी नहीं सकते)। हे प्रभु जी! पानी और मछलियाँ तू खुद ही है, (तुझसे) अलग कोई और नहीं जाना जा सकता। हे प्रभु! (मेरी) बाँह पकड़ ले (मुझे अपना) नाम दे। तेरी मेहर से ही (तेरे दर पर) आदर पाया जा सकता है। हे भाई! साधु-संगत में (टिक के) दीनों पर दया करने वाले प्रभु के प्रेम में जुड़ के (उसका) भजन किया कर। हे नानक! शरण आए निखसमों और नीचों को भी मेहर कर के प्रभु अपना बना लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस कउ आपु मिलाइआ ॥ भ्रम भंजन हरि राइआ ॥ आचरज सुआमी अंतरजामी मिले गुण निधि पिआरिआ ॥ महा मंगल सूख उपजे गोबिंद गुण नित सारिआ ॥ मिलि संगि सोहे देखि मोहे पुरबि लिखिआ पाइआ ॥ बिनवंति नानक सरनि तिन की जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥४॥१॥
मूलम्
आपस कउ आपु मिलाइआ ॥ भ्रम भंजन हरि राइआ ॥ आचरज सुआमी अंतरजामी मिले गुण निधि पिआरिआ ॥ महा मंगल सूख उपजे गोबिंद गुण नित सारिआ ॥ मिलि संगि सोहे देखि मोहे पुरबि लिखिआ पाइआ ॥ बिनवंति नानक सरनि तिन की जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपस कउ = अपने आप को। आपु = अपना आप। भ्रम भंजन = (जीवों की) भटकना दूर करने वाला। हरि राइआ = प्रभु पातशाह। गुण निधि = गुणों का खजाना। मंगल = खुशियां। सारिआ = संभाले, हृदय में बसाए। मिलि = मिल के। संगि = (प्रभु के) साथ। सोहे = शोभनीक हो गए, सुंदर जीवन वाले बन गए। देखि = देख के। मोहे = मस्त हो गए। पुरबि = पूर्बले जनम में। बिनवंति = विनती करता है।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-पातशाह (जीवों की) भटकना दूर करने वाला है (और जीवों को अपने साथ मिलाने वाला है। पर जीवों में भी वह स्वयं ही स्वयं है। सो, जीवों को अपने साथ मिला के वह) अपने आप को अपना आप (ही) मिलाता है।
हे भाई! मालिक-प्रभु आश्चर्य-रूप है सबके दिल की जानने वाला है। वह गुणों का खजाना प्रभु जिस अपने प्यारों से मिल जाता है, वे सदा उस गोबिंद के गुण अपने हृदय में बसाते हैं, उनके अंदर महान खुशियां और महान सुख पैदा हो जाते हैं।
पर, हे भाई! पूर्बले जन्म में (प्राप्ति का लेख) लिखा हुआ (जिनके माथे के ऊपर) उघड़ आया, वे प्रभु के साथ मिल के सुंदर जीवन वाले बन गए, वे उसका दर्शन करके उसमें मगन हो गए।
नानक विनती करता है: जिन्होने सदा परमात्मा का ध्यान धरा है, मैं उनकी शरण पड़ता हूँ।4।1।
[[1279]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार मलार की महला १ राणे कैलास तथा मालदे की धुनि ॥
मूलम्
वार मलार की महला १ राणे कैलास तथा मालदे की धुनि ॥
दर्पण-भाव
पउड़ी वार भाव
क.
परमात्मा ने अपना आप प्रकट करने के लिए ये दुनिया रची है; यह, मानो, उसका दरबार आया है, जिसमें वह स्वयं तख्त पर बैठा हुआ है।
सारी कुदरति में मौजूद है, पर है गुप्त; कोई उसका ‘स्वरूप’ नहीं बयान कर सका।
जगत को उसने धंधों में लगा रखा है और खुद छुपा बैठा है; जो बड़े-बड़े भी आए वे भी धंधों में ही रहे।
यह जगत, मानो, पहलवानों का अखाड़ा है; भलाई और बुराई का यहाँ दंगल हो रहा है; ये खेल प्रभु खुद ही करवा रहा है।
भलाई और बुराई- ये दोनों धड़े उसने स्वयं बनाए हैं; झगड़ा पैदा करने वाला भी स्वयं ही है और ‘धर्म’ राज बन के झगड़े मिटाने वाला वकील भी स्वयं ही है।
सो, जिस कर्तार ने यह बहुरंगी दुनिया बनाई है उसको स्मरण करो ता कि बुराई जोर ना डाल सके; और कोई साथी नहीं बन सकता।
जगत के दिखाई देते अघिकार और अत्याचार में केवल वही लोग सुखी हैं जो जगत के रचनहार के चरणों में जुड़े हुए हैं।
ख.
जगत-अखाड़े की इस खेल की दुनिया को समझ नहीं आई; अपनी समझ के पीछे लगने वाले जीव बुराई के वश हो के इस दंगल में हार रहे हैं।
जो बड़े-बड़े भी कहलवा गए, उन्होंने भी ना समझा कि ये तृष्णा की आग और वाद-विवाद प्रभु ने खुद पैदा किए हैं। जो मनुष्य गुरु-दर पर आ के उपदेश कमाते हैं वे अस्लियत को समझ के इस तृष्णा के असर से बचे रहते हैं।
सब कुछ प्रभु खुद करता कराता है, जीवों के कर्मों का लेखा भी स्वयं ही माँगता है; तृष्णा की आग से बचाता भी स्वयं ही है। गुरु-दर पर आने से उस प्रभु में जुड़ा जाता है।
मनमुख अहंकार के कारण दुखी होता है; अगर गुरु-शरण आ के प्रभु को ध्याए तो तृष्णा की आग बुझती है और शांति की प्राप्ति होती है।
राज, हकूमत, धन आदि का मान करने वाले आखिर में दुखी होते हैं, क्योंकि झूठ सामने आ जाता है।
जो मनुष्य माया के अधीन हो के अवगुण कमाते हैं, वे, मानो, जूए में मानव-जनम हार जाते हैं, जगत में उनका आना बेअर्थ हो जाता है।
नाम बिसार के मनमुख बे-वजह जीवन बिताते हैं; अंदर से काले, देखने में मनुष्य, दरअसल वे पशू-समान हैं।
ग.
पर जंगल में जा के समाधि लगाना, नंगे शरीर पर पाला शीत लहर को सहना, तन पर राख मलनी, बालों की जटा बढ़ा लेनी, धूणियाँ तपानीं, ये भी जीवन का सही रास्ता नहीं।
सरेवड़े सिर के बाल उखड़वाते हैं, दिन-रात गंदे रहते हैं, झूठा खाते हैं; ये भी मनुष्य का सही चलन नहीं है।
कोई राग गाते हैं, कोई रास डालते हें, कई अन्न खाना छोड़ देते हैं; पर ऐसे हठ कर्म चाहे जितने बढ़ाए चलो, प्रभु हठ-कर्मों से प्रसन्न नहीं होता।
परमात्मा गुरु के द्वारा ही मिलता है; जिसने गुरु के शब्द के द्वारा अंदर बसते प्रभु-तीर्थ पर मन को स्नान करवाया है वह सच्चा व्यापारी है, उसका जनम मुबारक है।
प्रभु भक्ति पर रीझता है, भक्ति प्रेम के आसरे हो सकती है। इस प्रेम-मार्ग पर सतिगुरु ही चलाता है।
गुरु के बिना जगत कमला हुआ फिरता है; गुरु से मनुष्य प्रभु की रज़ा में चलने की विधि सीखता है और अपनी मर्जी पर चलना छोड़ देता है।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के रब की बँदिश (रज़ा) में चलता है वह संसार-समुंदर से लांघ के दरगाह में आदर पाता है।
जब तक दुनिया का सहम है मन भटकता है; भटकना के कारण अडोल अवस्था नहीं बनती और प्रभु-चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता। एक प्रभु का डर दुनिया के डर खत्म कर देता है और यह प्रभु-डर गुरु से ही प्राप्त होता है।
घ.
जीवन-राह में विद्वता भी सहायता नहीं करती, नाम के बिना ये भी झूठ का व्यापार ही है, विकारों से बचाव नहीं हो सकता। प्रभु-दर पर माना हुआ केवल ‘नाम’ ही है और यह ‘नाम’ गुरु से ही मिलता है।
और बुद्धिमक्ता सब झूठी हैं; बल्कि, अहंकार पैदा करती हैं, जलते पर (दुबिधा का) तेल डालती हैं, प्रभु का ‘नाम’ ही सच्चा व्यापार है।
भगवा वेश कर के देश-देशांतरों में भटकते रहना जीवन-रास्ता नहीं है; ईश्वर तो अंदर बसता है और यह दीदार होता है गुरु-शब्द से।
तृष्णा की धाधकती आग में जगत जल रहा है, इसमें जीव-पंछी चोग चुग रहा है; जिसको प्रभु के हुक्म में गुरु-जहाज़ मिल जाता है वह बच जाता है।
महला ५। गुरु के शब्द की इनायत से सारे विकार उतर जाते हैं; गुरमुखों की संगति में मनुष्य विकारों से बच जाता है; पर यह सब कुछ उसकी मेहर के सदका है।
प्रभु हर जगह मौजूद है, पर मनुष्य के अंदर अज्ञान और भटकना है, दीदार नहीं होता। जिस पर मेहर करे वह ‘नाम’ स्मरण करके प्रभु में जुड़ता है।
सारे भाव का संक्षेप:
अ. (1 से 7) परमात्मा ने जगत एक अखाड़ा रचा है जहाँ भलाई और बुराई के दंगल का खेल हो रहा है। तृष्णा की आग और वाद-विवाद उसने स्वयं ही रचे हैं, इसके असर तले राज और हकूमत का मान करने वाले आखिर दुखी होते हैं और जन्म व्यर्थ गवा जाते हैं।
आ. (8 से 14) पर, जंगल में जोगियों वाला बसेरा, जीव-हिंसा के बारे में सरेवड़ों वाला वहम, अन्न का त्याग, अथवा, रासें डालनी - इन कामों से यह तृष्णा नहीं खत्म हो सकती।
इ. (15 से 22) प्रभु भक्ति से रीझता है, भक्ति प्रेम के आसरे होती है; सो, गुरु की शरण पड़ कर प्रेम-मार्ग पर चलना है, मन को अंतरात्मा के तीर्थ पर स्नान करवाना है, प्रभु की रज़ा में बँदिश में चलने की विधि सीखनी है और प्रभु के डर में रह के दुनिया के सहम गवाने हैं।
ई. (23 से 28) तृष्णा के शोलों से बचने में विद्वता भी सहायता नहीं करती, बौधित्व के और प्रयास बल्कि जलती पर तेल ही डालते हैं; भगवा वेश, देश-रटन भी दुखी ही करते हैं, एक गुरु-शब्द की इनायत से ही सारे विकार मिटते हैं, अज्ञान और भटकना दूर होती है। पर, प्रभु, गुरु मिलाता है उसको, जिस पर वह खुद मेहर करे।
प्रश्न: ‘मलार की वार’ गुरु नानक देव जी ने लिखी कब?
उक्तर: इस प्रश्न पर विचार करते समय पहले ये प्रश्न उठता है कि ‘वार’ ही लिखने का विचार कब और क्यों गुरु नानक देव जी को आया।
हमारे देश में योद्धाओं की शूरवीरता के प्रसंग गा के सुनाने का रिवाज था, इस सारे प्रसंग का नाम ‘वार’ होता था। सो, ‘वार’ आम-तौर पर जंगों-युद्धों के बारे में हुआ करती थी। जब संन् 1521 में बाबर ने हिन्दोस्तान पर हमला करके ऐमनाबाद को आग लगाई और शहर में बड़े पैमाने पर अत्याचार के साथ-साथ कत्लेआम भी किया, तब गुरु नानक देव जी ने ‘वार’ का नक्शा लोगों पर हकीकत में बीतता आँखों से देखा। और ढाढी तो ऐसे समय अपने किसी साथी किसी सूरमे मनुष्य के किसी महत्वपूर्ण जंगी-कारनामे को कविता में लिखते थे, जैसे एक कवि ने ‘नादर की वार’ लिखी है, पर गुरु नानक साहिब को एक ऐसा महान योद्धा नज़र आ रहा था जिसके इशारे पर जगत के सारे जीव कामादिक वैरियों के साथ एक महान जंग में लगे हुए हैं। ऐमनाबाद की जंग को देख के, गुरु नानक देव जी ने एक जंगी कारनामे पर ही ‘वार’ लिखी, पर उनका ‘मुख्य पात्र’ (Hero) अकाल-पुरख स्वयं था।
गुरु नानक साहिब ने तीन वारें लिखीं- मलार की वार, माझ की वार और आसा दी वार; भाव, एक वार ‘मलार’ राग में है, दूसरी ‘माझ’ राग में और तीसरी ‘आसा’ राग में है। इनमें से ‘मलार की वार’ ऐसी है जिसमें रण-भूमि का और उसमें लड़ने वाले सूरमों का वर्णन है: जैसे;
‘आपे छिंझ पवाइ मलाखाड़ा रचिआ॥
लथे भड़थु पाइ…….॥
………मारे पछाड़ि…..॥
आपि भिड़ै मारै……….॥4॥
इस विचार से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरु नानक देव जी की सबसे पहली ‘वार’ मलार की वार है; ऐमनाबाद का युद्ध देख के उन्होंने महाबली योद्धे अकाल-पुरख के उस जंग का हाल लिखा जो सारे जगत-रूप रणभूमि में हो रहा है। ऐमनाबाद के कत्लेआम की घटना 1521 में तब हुई जब गुरु नानक देव जी आखिरी तीसरी ‘उदासी’ से वापस ऐमनाबाद आए। इस तरह, यह ‘वार’ 1521 में करतारपुर में लिखी गई।
इस ‘वार’ की 28 पौड़ियाँ हैं, पर पौड़ी नंबर 27 गुरु अरजन साहिब की है, गुरु नानक साहिब की लिखी हुई 27 पउड़ियां हैं, और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुके हैं। अब इस ‘वार’ को मिलाईए ‘माझ की वार’ के साथ; उसमें भी 27 पउड़ियां हैं और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुके हैं। विषय-वस्तु भी दोनों वारों की एक जैसी ही है: ‘तृष्णा की आग’। ‘मलार की वार’ में लिखा है, ‘अगनि भखै भड़हाड़ु अनदिनु भखसी’- 26; और ‘अगनि उपाई वादु भुख तिहाइआ’-9। ‘माझ की वार’ में भी ‘तृष्णा की आग’ का ही वर्णन है: ‘त्रिसना अंदरि अगनि है नाह तिपतै भुखा तिहाइआ’-2। ‘मलार की वार’ में लिखा है कि इस तृष्णा की आग से जंगल बसेरा, सरेवड़ों वाली कुचिलता, अन्न का त्याग, विद्वता और भगवा वेश आदि बचा नहीं सकते, देखें पउड़ी नं: 15,16,17,23 और 25। माझ की वार में भी यही जिकर है, देखें पउड़ी नं: 5 और 6।
इन दोनों वारों के इस अध्ययन से ये अंदाजा लगता है कि ‘मलार की वार’ लिखने के थोड़े ही समय बाद सतिगुरु जी ने यह दूसरी ‘माझ की वार’ लिखी संन् 1521 में करतार पुर में। तीनों उदासियाँ समाप्त करके अभी करतारपुर आ के टिके ही थे; उदासियों के समय जोगियों सन्यासियों सरेवड़ों व विद्वान पण्डितों आदि को मिले, वे ख्याल अभी दिल में ताजा थे जो इन दोनों ‘वारों’ में प्रकट किए हैं जैसे कि ऊपर बताया गया है।
पर, ‘आसा दी वार’ इन ‘वारों’ से अलग किस्म की है। इस वार में 24 पउड़ियां हैं, हरेक पउड़ी में तुकें भी साढ़े चार-चार हैं। विषय वस्तु भी अलग तरह का है। सारी ‘वार’ में कहीं भी जोगियों सन्यासियों सरेवड़ों व विद्वान पण्डितों की तरफ इशारा नहीं जिनको उदासियों के समय मिले थे। एक ऐसे ‘जीवन’ की तस्वीर यहाँ दी गई है जिसकी हरेक को आवश्यक्ता है, जिसको याद रखना हरेक इन्सान को हर रोज करना जरूरी प्रतीत होता है; शायद, इसी वास्ते इस ‘वार’ का कीर्तन नित्य करना सिख मर्यादा में बताया गया है। ‘आसा की वार’ क्या है? एक ऊँचे दर्जे का जीवन फलसफा। ऐमनाबाद का कत्लेआम, सरेवड़ों की कुचिलता, पंडितों की विद्या-अहंकार- इससे दूर पीछे रह गए हें। सो, यह रचना गुरु नानक साहिब के जीवन-सफर के आखिरी हिस्से की प्रतीत होती है, रावी दरिया के तट पर किसी केवल रूहानी-एकांत में बैठे हुए।
दर्पण-टिप्पनी
‘वार’ की संरचना:
पउड़ियां:
इस ‘वार’ में 28 पउड़ियां हैं। हरेक पउड़ी में आठ-आठ तुके हैं। पउड़ी नंबर 27 गुरु अरजन यसाहिब की है। यह ‘वार’ गुरु नानक साहिब की लिखी हुई है, ये वार पहले 27 पौड़ियों की थी।
सलोक
इस ‘वार’ की 28 पउड़ियों के साथ कुल 58 शलोक हैं। पउडत्री नं: 21 के साथ 4 सलोक, बाकी 27 पउड़ियों में हरेक के साथ दो-दो शलोक हैं। गुर-व्यक्तियों अनुसार इन शलोकों का
सारे सलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए:
यह ‘वार’ गुरु नानक देव जी की है। जब लिखी गई थी तब इसकी 27 पउड़ियाँ थीं। पउड़ियों के साथ दर्ज शलोक सबसे ज्यादा गुरु अमरदास जी के ही हैं (27)। गुरु नानक देव जी के 24 हैं और गुरु अंगद साहिब जी के 5 हैं।
हरेक पउड़ी की आठ-आठ तुकें हैं। काव्य के दृष्टिकोण से सारी ‘वार’ में एकसारता है। यह नहीं हो सकता कि गुरु नानक देव जी बीच-बीच में सिर्फ 9 पौड़ियों के साथ पूरे शलोक दर्ज करते, 4 पौड़ियों के साथ एक-एक शलोक दर्ज करते, और बाकी की 14 पौड़ियाँ बिलकुल खाली रहने देते।
यह मिथ भी बिल्कुल मन-घड़ंत होगी कि इन सारी 27 पउड़ियों के साथ गुरु अमरदास जी ने अपने, गुरु अंगद देव जी और गुरु नानक देव जी के शलोक दर्ज किए। उन्होंने पौड़ी नंबर 14 खाली क्यों छोड़नी थी? इस पौड़ी के साथ के दोनों श्लोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं।
सो पक्के तौर पर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ेगा कि इस ‘वार’ की सारी ही पौड़ियों के साथ शलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए थे।
पद्चिन्ह गुरु नानक जी ने डाले:
यह निर्णय पक्का हो गया कि गुरु नानक देव जी ने यह ‘वार’ सिर्फ पउड़ियों का संग्रह बनाया था। ‘वारों’ में से यह ‘वार’ उनकी पहली रचना थी। सो, ये पद्चिन्ह गुरु नानक देव जी ने ही डाले कि पहले ‘वारें’ सिर्फ पौड़ियों का संग्रह ही हुआ करती थीं। सभी ‘वारों’ के साथ शलोक गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए। कहाँ से लिए? हरेक गुरु-व्यक्ति के संग्रह में से लिए। जो शलोक इस चयन से ज्यादा हो गए, वे गुरु अरजन साहिब जी ने गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर के शीर्षक ‘सलोक वारां ते वधीक’ तहत दर्ज कर दिए।
वार मलार की महला १ राणे कैलास तथा मालदे की धुनि॥
कैलाश देव और माल देव दो सगे भाई थे, जम्मू कश्मीर के राजा व जहाँगीर का हाला भरते थे। इनको कमजोर करने के लिए जहाँगीर ने किसी भेदिए को बीच में डाल के इनको आपस में लड़वा दिया; खासा युद्ध मचा, माल देव जीत गया, कैलाश देव पकड़ा गया। पर फिर दोनों भाई सुलह करके प्यार से मिल बैठे, आधा-आधा राज बाँट लिया। ढाढियों ने इस युद्ध की ‘वार’ लिखी। इस ‘वार’ में से बतौर नमूना ये पौड़ी;
धरत घोड़ा, परबत पलाण, सिर टटर अंबर॥
नौ सौ नदी नड़िंनवै राणा जल कंबर॥
ढुका राइ अमीर देव करि मेघ अडंबर॥
आणित खंडा राणिआं कैलाशै अंदर॥
बिजली जिउं चमकाणिआं तेगां विच अंबर॥
मालदेउ कैलाश नूँ बधा करि संबर॥
फिर अधा धन मालदेउ छडिआ गढ़ अंदर॥
मालदेउ जसु खटिआ वांग शाह सिकंदर॥
जिस सुर में लोग मालदेव की ये वार गाते थे, उसी सुर में गुरु नानक देव जी की ये वार गाने की हिदायत है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला ३ ॥ गुरि मिलिऐ मनु रहसीऐ जिउ वुठै धरणि सीगारु ॥ सभ दिसै हरीआवली सर भरे सुभर ताल ॥ अंदरु रचै सच रंगि जिउ मंजीठै लालु ॥ कमलु विगसै सचु मनि गुर कै सबदि निहालु ॥ मनमुख दूजी तरफ है वेखहु नदरि निहालि ॥ फाही फाथे मिरग जिउ सिरि दीसै जमकालु ॥ खुधिआ त्रिसना निंदा बुरी कामु क्रोधु विकरालु ॥ एनी अखी नदरि न आवई जिचरु सबदि न करे बीचारु ॥ तुधु भावै संतोखीआं चूकै आल जंजालु ॥ मूलु रहै गुरु सेविऐ गुर पउड़ी बोहिथु ॥ नानक लगी ततु लै तूं सचा मनि सचु ॥१॥
मूलम्
सलोक महला ३ ॥ गुरि मिलिऐ मनु रहसीऐ जिउ वुठै धरणि सीगारु ॥ सभ दिसै हरीआवली सर भरे सुभर ताल ॥ अंदरु रचै सच रंगि जिउ मंजीठै लालु ॥ कमलु विगसै सचु मनि गुर कै सबदि निहालु ॥ मनमुख दूजी तरफ है वेखहु नदरि निहालि ॥ फाही फाथे मिरग जिउ सिरि दीसै जमकालु ॥ खुधिआ त्रिसना निंदा बुरी कामु क्रोधु विकरालु ॥ एनी अखी नदरि न आवई जिचरु सबदि न करे बीचारु ॥ तुधु भावै संतोखीआं चूकै आल जंजालु ॥ मूलु रहै गुरु सेविऐ गुर पउड़ी बोहिथु ॥ नानक लगी ततु लै तूं सचा मनि सचु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। रहसीऐ = खिल उठता है। वुठै = (पानी) बरसा। धरति = धरती। सर = सरोवर। सुभर = स+भर, नाको नाक भरा हुआ। ताल = तालाब। अंदरु = अंदरूनी मन। विगसै = खिल उठता है। निहालु = प्रसन्न। तरफ = की ओर, के पक्ष में। नदरि निहालि = ध्यान से देख के। खुधिआ = भूख। बुरी = खराब, चंदरी। विकरालु = डरावना। आल जंजालु = घर का जंजाल। मूलु रहे = राशि (मूल) बची रहती है। बोहिथु = जहाज़। सचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो मन खिल उठता है जैसे बरसात होने पर धरती सज जाती है, सारी (धरती) हरि ही हरि दिखाई देती है सरोवर और तालाब नाको नाक पानी से भर जाते हैं (इसी तरह जिसको गुरु मिलता है उसका) मन सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के प्यार में रच जाता है और मजीठ की तरह लाल (पक्के प्यार-रंग वाला) हो जाता है, उसका हृदय-कमल खिल उठता है, सच्चा प्रभु (उसके) मन में (आ बसता है) गुरु के शब्द की इनायत से वह सदा प्रसन्न रहता है।
पर, ध्यान से देखो, मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का दूसरा पक्ष ही होता है (भाव, उसकी हालत इसके उलट होती है) जाल में फसे हिरन की तरह जमकाल (भाव, मौत का डर) सदा उसके सिर पर (खड़ा) दिखाई देता है; (आत्मिक मौत उस पर अपना जोर डाले रखती है)। (माया की) चंदरी भूख-प्यास और निंदा, काम और डरावना क्रोध (उसको सदा सताते हैं, पर ये हालत उसको) इन आँखों से (तब तक) नहीं दिखती जब तक वह गुरु-शब्द में विचार नहीं करता। (हे प्रभु!) जब तुझे अच्छा लगे तब (ये आँखें) संतोष में आती है (भाव, भूख-तृष्णा खत्म होती है) और घर के जंजाल समाप्त होते हैं।
गुरु की सेवा करने से (भाव, गुरु के हुक्म में चलने से) जीव की नाम-रूपी राशि बनी रहती है, गुरु की पौड़ी (भाव, स्मरण) के द्वारा (नाम-रूपी) जहाज़ प्राप्त हो जाता है। हे नानक! जो जीव-स्त्री (इस स्मरण-रूप गुरु पउड़ी को) संभालती है वो अस्लियत पा लेती है। हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला उसके मन में सदा के लिए आ बसता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ हेको पाधरु हेकु दरु गुर पउड़ी निज थानु ॥ रूड़उ ठाकुरु नानका सभि सुख साचउ नामु ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ हेको पाधरु हेकु दरु गुर पउड़ी निज थानु ॥ रूड़उ ठाकुरु नानका सभि सुख साचउ नामु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाधरु = पधरा राह, सपाट रास्ता। हेको = एक ही। गुर पउड़ी = गुरु के द्वारा बताई हुई सीढ़ी (भाव, स्मरण)। निज = केवल अपना। रूढ़उ = सुंदर। सभि = सारे। ठाकुरु = पालनहार।
अर्थ: हे नानक! (एक प्रभु ही) सुंदर पालनहार पति है (उस प्रभु का ही) एक दर (जीव का) केवल अपनी जगह है (जहाँ कभी किसी ने दुत्कारना नहीं, इस ‘दर’ तक पहुंचने के लिए) गुरु की सीढ़ी (पौड़ी) (भाव, स्मरण ही) एक सीधा रास्ता है, (प्रभु का) सच्चा नाम (स्मरणा) ही सारे सुखों (का मूल) है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपीन्है आपु साजि आपु पछाणिआ ॥ अ्मबरु धरति विछोड़ि चंदोआ ताणिआ ॥ विणु थम्हा गगनु रहाइ सबदु नीसाणिआ ॥ सूरजु चंदु उपाइ जोति समाणिआ ॥ कीए राति दिनंतु चोज विडाणिआ ॥ तीरथ धरम वीचार नावण पुरबाणिआ ॥ तुधु सरि अवरु न कोइ कि आखि वखाणिआ ॥ सचै तखति निवासु होर आवण जाणिआ ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपीन्है आपु साजि आपु पछाणिआ ॥ अ्मबरु धरति विछोड़ि चंदोआ ताणिआ ॥ विणु थम्हा गगनु रहाइ सबदु नीसाणिआ ॥ सूरजु चंदु उपाइ जोति समाणिआ ॥ कीए राति दिनंतु चोज विडाणिआ ॥ तीरथ धरम वीचार नावण पुरबाणिआ ॥ तुधु सरि अवरु न कोइ कि आखि वखाणिआ ॥ सचै तखति निवासु होर आवण जाणिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपीन्है = (आपि ही नै) भाव, (प्रभु) ने स्वयं ही। शब्द ‘ही’ का ‘ह’ यहां से हट के ‘नै’ के साथ मिल के ‘आपि ई नै’ से इकट्ठा ‘आपीनै’ बन गया है; देखें, ‘आसा दी वार’ पउड़ी १। आपु = अपने आप को। अंबारु = आकाश। रहाइ = टिका के। निसाणिआ = ‘निसाण’ बनाया है, नगारा बनाया है। सबदु = हुक्म। चोज = तमाशे। विडाणिया = आश्चर्य। पुरब = धार्मिक मेले। सरि = बराबर। कि = क्या? होर = और सृष्टि।
अर्थ: (प्रभु ने) स्वयं ही अपने आप को प्रकट करके अपनी अस्लियत समझाई है, आकाश और धरती को अलग-अलग करके (ये आकाश उसने मानो, अपने तख़्त पर) चंदोआ ताना हुआ है; (सारे जगत रूपी दरबार पर) आकाश को स्तम्भों के बगैर टिका के अपने हूकम को नगारा बनाया है, अपनी ज्योति टिकाई है; (जीवों के कार्य-व्यवहार के लिए) रात और दिन (-रूप) आश्चर्य भरे तमाशे बना दिए हैं। पर्वों के समय तीर्थों पर नहाने आदि के धार्मिक ख्याल (भी प्रभु ने स्वयं ही जीवों के अंदर पैदा किए हैं)।
(हे प्रभु!) (तेरी इस आश्चर्यजनक खेल का) क्या बयान करें? तेरे जैसा और कोई नहीं है; तू तो सदा कायम रहने वाले तख़्त पर बैठा है और (सृष्टि) पैदा होती है (और नाश होती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु ओमाहा होइ ॥ नागां मिरगां मछीआं रसीआं घरि धनु होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु ओमाहा होइ ॥ नागां मिरगां मछीआं रसीआं घरि धनु होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सावणि = सावन (के महीने) में। ओमाहा = चाव। रसीआ = रस का आशिक। घरि = घर में।
अर्थ: हे नानक! अगर सावन के महीने बरसात हो तो चार धड़ों में उल्लास होता है: साँपों को, हिरनों को, मछलियों को और रसों के आशिकों को जिनके घर में (रस भोगने के लिए) धन हो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु वेछोड़ा होइ ॥ गाई पुता निरधना पंथी चाकरु होइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु वेछोड़ा होइ ॥ गाई पुता निरधना पंथी चाकरु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाईपुत = बैल। पंथी = राही, मुसाफिर। चाकरु = नौकर।
अर्थ: हे नानक! सावन में अगर वर्षा हो तो चार पक्षों को (उल्लास से) विछोड़ा (भी, भाव, दुख) होता है, बैलों को (क्योंकि बरसात पड़ने से ये हल में जोते जाते हैं), गरीबों को (जिनकी मेहनत मजदूरी में रुकावट आती है), राहियों को और नौकर व्यक्तियों को।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गुरु के दर से ‘नाम’ की बरखा होने पर गुरमुख और मनमुख पर अलग-अलग असर होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तू सचा सचिआरु जिनि सचु वरताइआ ॥ बैठा ताड़ी लाइ कवलु छपाइआ ॥ ब्रहमै वडा कहाइ अंतु न पाइआ ॥ ना तिसु बापु न माइ किनि तू जाइआ ॥ ना तिसु रूपु न रेख वरन सबाइआ ॥ ना तिसु भुख पिआस रजा धाइआ ॥ गुर महि आपु समोइ सबदु वरताइआ ॥ सचे ही पतीआइ सचि समाइआ ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तू सचा सचिआरु जिनि सचु वरताइआ ॥ बैठा ताड़ी लाइ कवलु छपाइआ ॥ ब्रहमै वडा कहाइ अंतु न पाइआ ॥ ना तिसु बापु न माइ किनि तू जाइआ ॥ ना तिसु रूपु न रेख वरन सबाइआ ॥ ना तिसु भुख पिआस रजा धाइआ ॥ गुर महि आपु समोइ सबदु वरताइआ ॥ सचे ही पतीआइ सचि समाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवलु = पुरातन विचार है कि ब्रहमा ने जगत पैदा किया और ब्रहमा खुद ‘कमल’ से पैदा हुआ। सो, ‘कमल ही उत्पक्ति का मूल’। कवलु छपाइआ = सृष्टि की उत्पक्ति को छुपा के, (भाव,) अभी जगत की उत्पक्ति नहीं हुई थी। किनि = किस ने? तू = तुझे। सबाइआ = सारे। रजा धाइआ = भरे पुरे। पतीआइ = पतीज के। सचि = सच्चे प्रभु में, सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा कायम रहने वाला है, तू ऐसी हस्ती का मालिक (सचिआर) है कि जिस ने (अपनी यह) हस्ती (हर जगह) पसारी हुई है; अभी सृष्टि की उत्पक्ति नहीं हुई थी जब तू (अपने आप में) समाधि लगाए बैठा था, ब्रहमा ने (भी जो जगत को रचने वाला माना जाता है यह भेद ना समझा और अपने आप को ही सबसे) बड़ा कहलवाया, उसको तेरी सार ना आई। (हे प्रभु!) तुझे किसने पैदा किया है? (भाव, तुझे जनम देने वाला कोई नहीं है)।
(हे भाई!) उस (प्रभु) का ना कोई पिता है ना माँ; ना उसका कोई (खास) स्वरूप है ना निशान; सारे रूप-रंग उसके हैं; उसको कोई भूख-प्यास नहीं है, संतुष्ट-तृप्त है।
(हे भाई!) प्रभु अपने आप को गुरु में लीन करके (अपना) शब्द (भाव, संदेश) (सारे जगत में) बाँट रहा है, और गुरु इस सदा कायम रहने वाले प्रभु में पतीज के सदा-स्थिर प्रभु में ही जुड़ा रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ वैदु बुलाइआ वैदगी पकड़ि ढंढोले बांह ॥ भोला वैदु न जाणई करक कलेजे माहि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ वैदु बुलाइआ वैदगी पकड़ि ढंढोले बांह ॥ भोला वैदु न जाणई करक कलेजे माहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करक = पीड़ा, (प्रभु से बिछोड़े का) दुख। वैदगी = दवाई देने के लिए।
अर्थ: हकीम (मरीज़ को) दवाई देने के लिए बुलाया जाता है, वह (मरीज की) बाँह पकड़ के (नाड़ी) टटोलता है (और मर्ज़ तलाशने का प्रयत्न करता है, पर) अंजान हकीम यह नहीं जानता कि (प्रभु से विछोड़े की) पीड़ा (बिरही बंदों के) दिल में हुआ करती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ वैदा वैदु सुवैदु तू पहिलां रोगु पछाणु ॥ ऐसा दारू लोड़ि लहु जितु वंञै रोगा घाणि ॥ जितु दारू रोग उठिअहि तनि सुखु वसै आइ ॥ रोगु गवाइहि आपणा त नानक वैदु सदाइ ॥२॥
मूलम्
मः २ ॥ वैदा वैदु सुवैदु तू पहिलां रोगु पछाणु ॥ ऐसा दारू लोड़ि लहु जितु वंञै रोगा घाणि ॥ जितु दारू रोग उठिअहि तनि सुखु वसै आइ ॥ रोगु गवाइहि आपणा त नानक वैदु सदाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वंञै = (वंजै) दूर हो जाए, चला जाए। रोगा घाणि = रोगों की घाणी, रोगों का ढेर। जितु दारू = जिस दवाई से। उठिअहि = उड़ाए जा सकें। तनि = शरीर में। आइ = आ के। गवाइहि = अगर तू दूर कर ले।
अर्थ: (हे भाई!) पहले (अपना ही आत्मिक) रोग ढूँढ (और उसकी) ऐसी दवाई तलाश ले जिससे सारे (आत्मिक) रोग दूर हो जाएं जिस दवाई से (सारे) रोग उठाए जा सकें और शरीर में सुख आ बसे। (हे भाई! तब ही) तू हकीमों का हकीम है (सबसे बढ़िया हकीम है) (तब ही) तू समझदार वैद्य (कहलवा सकता) है।
हे नानक! (कह: हे भाई!) अगर तू (पहले) अपना रोग दूर कर ले तो (अपने आप को) हकीम कहलवा (कहलवाने का हकदार है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु देव उपाइआ ॥ ब्रहमे दिते बेद पूजा लाइआ ॥ दस अवतारी रामु राजा आइआ ॥ दैता मारे धाइ हुकमि सबाइआ ॥ ईस महेसुरु सेव तिन्ही अंतु न पाइआ ॥ सची कीमति पाइ तखतु रचाइआ ॥ दुनीआ धंधै लाइ आपु छपाइआ ॥ धरमु कराए करम धुरहु फुरमाइआ ॥३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु देव उपाइआ ॥ ब्रहमे दिते बेद पूजा लाइआ ॥ दस अवतारी रामु राजा आइआ ॥ दैता मारे धाइ हुकमि सबाइआ ॥ ईस महेसुरु सेव तिन्ही अंतु न पाइआ ॥ सची कीमति पाइ तखतु रचाइआ ॥ दुनीआ धंधै लाइ आपु छपाइआ ॥ धरमु कराए करम धुरहु फुरमाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दस अवतारी = (अवतारीं) दस अवतारों में (दस अवतार = वराह, नरसिंह, वामन, परशराम, मछ, कछ, राम, कृष्ण, बौध और कलकी= 10)। हुकमि = हुक्म में। ईस महेसुर = शिव के 11 (रुद्र) अवतार। तिनी = उन 11 शिव अवतारों ने।
अर्थ: (परमात्मा ने स्वयं ही) ब्रहमा, विष्णु और शिव- (ये तीन) देवता पैदा किए। ब्रहमा को उसने वेद दे दिए (भाव, वेदों का कर्ता बनाया और लोगों को इनके द्वारा बताई गई) पूजा कराने में उलझा दिया। (विष्णू) दस अवतारों में राजा राम (आदि) रूप धारण करता रहा और हमले कर के दैत्यों को मारता रहा (पर, ये) सारे (अवतार प्रभु के ही) हुक्म में हुए। शिव (के 11 रुद्र) अवतारों ने सेवा की (भाव, तप साधना की, पर उन्होंने भी प्रभु का) अंत नहीं पाया।
(प्रभु ने) सदा अटल रहने वाले मूल वाली (अपनी सत्ता) पा के (यह जगत, मानो, अपना) तख़्त बनाया है, इसमें दुनिया (के जीवों) को धंधे में उलझा के (प्रभु ने) अपने आप को छुपा रखा है। (यह भी) धुर से (प्रभु का ही) फुरमान है कि धर्मराज (जीवों से अच्छे-बुरे) काम करवा रहा है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः २ ॥ सावणु आइआ हे सखी कंतै चिति करेहु ॥ नानक झूरि मरहि दोहागणी जिन्ह अवरी लागा नेहु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः २ ॥ सावणु आइआ हे सखी कंतै चिति करेहु ॥ नानक झूरि मरहि दोहागणी जिन्ह अवरी लागा नेहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। नेहु = प्यार। कंतै = पति प्रभु को।
अर्थ: हे सखी! सावन (का महीना) आया है (भाव, गुरु के द्वारा नाम-अमृत की बरखा हो रही है) पति (-प्रभु) को हृदय में परो लो। हे नानक! जिस (जीव-स्त्रीयों) का प्यार (प्रभु-पति को छोड़ के) औरों के साथ है वे दुर्भागिनियाँ दुखी होती हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ सावणु आइआ हे सखी जलहरु बरसनहारु ॥ नानक सुखि सवनु सोहागणी जिन्ह सह नालि पिआरु ॥२॥
मूलम्
मः २ ॥ सावणु आइआ हे सखी जलहरु बरसनहारु ॥ नानक सुखि सवनु सोहागणी जिन्ह सह नालि पिआरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलहरु = जलधर, बादल। सुखि = सुख में। सवनु = बेशक सावन, सावन का आनंद लें।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सवनु’ व्याकरण के अनुसार ये शब्द ‘हुकमी भविष्यत’ अन पुरख, बहुवचन है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे सखी! सावन (भाव, ‘नाम’ की बरखा का समय) आया है, बादल बरसने लगा है (भाव, गुरु मेहर कर रहा है)। हे नानक! (इस सोहावने समय) जिस (जीव-स्त्रीयों का) पति (-प्रभु) के साथ प्यार बना हुआ है वे भाग्यशाली सुखद सावन (मनाएं) (भाव, सुखी जीवन व्यतीत करें)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे छिंझ पवाइ मलाखाड़ा रचिआ ॥ लथे भड़थू पाइ गुरमुखि मचिआ ॥ मनमुख मारे पछाड़ि मूरख कचिआ ॥ आपि भिड़ै मारे आपि आपि कारजु रचिआ ॥ सभना खसमु एकु है गुरमुखि जाणीऐ ॥ हुकमी लिखै सिरि लेखु विणु कलम मसवाणीऐ ॥ सतसंगति मेलापु जिथै हरि गुण सदा वखाणीऐ ॥ नानक सचा सबदु सलाहि सचु पछाणीऐ ॥४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे छिंझ पवाइ मलाखाड़ा रचिआ ॥ लथे भड़थू पाइ गुरमुखि मचिआ ॥ मनमुख मारे पछाड़ि मूरख कचिआ ॥ आपि भिड़ै मारे आपि आपि कारजु रचिआ ॥ सभना खसमु एकु है गुरमुखि जाणीऐ ॥ हुकमी लिखै सिरि लेखु विणु कलम मसवाणीऐ ॥ सतसंगति मेलापु जिथै हरि गुण सदा वखाणीऐ ॥ नानक सचा सबदु सलाहि सचु पछाणीऐ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मलाखाड़ा = मल अखाड़ा, पहलवानों के घुलने की जगह। भड़थू = शोर। मचिआ = मचा, चढ़दीकला में है। मसवाणी = (मसु = स्याही) दवात।
अर्थ: (प्रभु ने) खुद ही छिंज डलवा के (भाव, जगत रचना कर के) (यह जगत, मानो) पहलवानों के दंगल के लिए स्थल बनाया है; (जीव-रूप पहलवान) शोर मचा के (यहाँ) उतरे हैं (भाव, बेअंत जीव बड़ी तेजी से दबादब जगत में जनम ले के चले आ रहे हैं)। (इनमें से) वे मनुष्य जो गुरु के सन्मुख हैं चढ़दीकला में हैं, (पर) मन के पीछे चलने वाले कच्चे मूर्खों को पटख़नी दे के (भाव, मुँह भार) मारता है; (जीवों में व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही लड़ रहा है, स्वयं ही मार रहा है उसने खुद ही (यह छिंझ का) कारज रचा है।
सब जीवों का मालिक एक प्रभु ही है, इस बात की समझ गुरु के सन्मुख होने से आती है, अपने हुक्म अनुसार ही (हरेक जीव के) सिर पर कलम-दवात के बिना ही (रज़ा का) लेख लिख रहा है।
(उस प्रभु का) मिलाप सत्संग में ही हो सकता है जहाँ सदा प्रभु के गुण कथे जाते हैं। हे नानक! (गुरु का) सच्चा शब्द गा के सदा कायम रहने वाला प्रभु पहचाना जा सकता है (भाव, प्रभु की सार पड़ती है, प्रभु के साथ जान-पहचान बनती है)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ अवरि करेंदा वंन ॥ किआ जाणा तिसु साह सिउ केव रहसी रंगु ॥ रंगु रहिआ तिन्ह कामणी जिन्ह मनि भउ भाउ होइ ॥ नानक भै भाइ बाहरी तिन तनि सुखु न होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ अवरि करेंदा वंन ॥ किआ जाणा तिसु साह सिउ केव रहसी रंगु ॥ रंगु रहिआ तिन्ह कामणी जिन्ह मनि भउ भाउ होइ ॥ नानक भै भाइ बाहरी तिन तनि सुखु न होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊंनवि = झुक के। अवरि = और-और, कई तरह के। वंन = रंग। तिसु साह सिउ = उस शाह से (जो झुक झुक के आया है)। केव = कैसे? रंगु = प्यार। भाउ = प्रेम। भाइ बाहरी = प्रेम से वंचित। भउ = डर, अदब।
अर्थ: (गुरु-रूप बादल) झुक झुक के आया है (भाव, मेहर करने के लिए तैयार है) और कई तरह के रंग दिखा रहा है (भाव, गुरु कई किसम के करिश्मे करता है); पर, क्या पता मेरा उस (नाम-खजाने के) शाह के साथ कैसे साथ बना रहेगा।
(उस मेहरों के सांई के साथ) उन (जीव-) स्त्रीयों का प्यार टिका रहता है जिनके मन में उसका डर और प्यार है। हे नानक! जो डर और प्यार से वंचित हैं उनके शरीर में सुख नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ वरसै नीरु निपंगु ॥ नानक दुखु लागा तिन्ह कामणी जिन्ह कंतै सिउ मनि भंगु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ वरसै नीरु निपंगु ॥ नानक दुखु लागा तिन्ह कामणी जिन्ह कंतै सिउ मनि भंगु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निपंगु = (नि+पंगु। पंग = पंक, कीचड़) कीचड़ रहित, साफ। भंगु = तोट, विछोड़ा। मनि = मन में।
अर्थ: (गुरु-बादल) झुक झुक के आया है और साफ जल बरसा रहा है; पर, हे नानक! उन (जीव-) स्त्रीयों को (फिर भी) दुख व्याप रहा है जिनके मन में पति-प्रभु से विछोड़ा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ दोवै तरफा उपाइ इकु वरतिआ ॥ बेद बाणी वरताइ अंदरि वादु घतिआ ॥ परविरति निरविरति हाठा दोवै विचि धरमु फिरै रैबारिआ ॥ मनमुख कचे कूड़िआर तिन्ही निहचउ दरगह हारिआ ॥ गुरमती सबदि सूर है कामु क्रोधु जिन्ही मारिआ ॥ सचै अंदरि महलि सबदि सवारिआ ॥ से भगत तुधु भावदे सचै नाइ पिआरिआ ॥ सतिगुरु सेवनि आपणा तिन्हा विटहु हउ वारिआ ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ दोवै तरफा उपाइ इकु वरतिआ ॥ बेद बाणी वरताइ अंदरि वादु घतिआ ॥ परविरति निरविरति हाठा दोवै विचि धरमु फिरै रैबारिआ ॥ मनमुख कचे कूड़िआर तिन्ही निहचउ दरगह हारिआ ॥ गुरमती सबदि सूर है कामु क्रोधु जिन्ही मारिआ ॥ सचै अंदरि महलि सबदि सवारिआ ॥ से भगत तुधु भावदे सचै नाइ पिआरिआ ॥ सतिगुरु सेवनि आपणा तिन्हा विटहु हउ वारिआ ॥५॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गुरु अमरदास जी की मारू की वार की पउड़ी नं: 10 में शब्द ‘दोवै तरफ़ा’ प्रयोग करते हैं। यह ‘वार’ उनके पास मौजूद थी।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरफा = पक्ष, धड़े (‘गुरमुख’ और ‘मनमुख’ जिनका वर्णन पिछली पउड़ी में आया है)। वादु = झगड़ा। परविरति = दुनिया में मन का फस जाना। निरविरति = दुनिया से मन अलग रहना। हाठा = तरफ, पक्ष में। रैबारिआ = रहबर, विचौला। सूर = सूरमे। नाइ = नाम में। महलि = हजूरी में। सवारिआ = सही स्वीकार हो गए।
अर्थ: (‘गुरमुख’ और ‘मनमुख’) दोनों किस्मों के जीव पैदा करके (दोनों में) प्रभु स्वयं मौजूद है, धार्मिक उपदेश (-वेद वाणी) भी उसने खुद ही किया है (और इस तरह ‘गुरमुख’ और ‘मनमुख’ के अंदर अलग-अलग ‘विचार’ डाल के, दोनों धड़ों के) अंदर झगड़ा भी उसने खुद ही डाला है। जगत के धंधों में खचित होना और जगत से निर्लिप रहना- ये दोनों पक्ष उसने खुद ही बना दिए हैं और खुद ही ‘धर्म’ (-रूप हो के दोनों के बीच) विचोला बना हुआ है; पर, मन के पीछे चलने वाले मूर्ख झूठ के व्यापारी हैं वे जरूर प्रभु की दरगाह में बाजी हार जाते हैं।
जिन्होंने गुरु की मति का आसरा लिया वे गुरु-शब्द की इनायत से शूरवीर बन गए क्योंकि उन्होंने काम और क्रोध को जीत लिया; वे गुरु-शब्द के द्वारा सच्चे प्रभु की हजूरी में सही स्वीकार हो गए। (हे प्रभु!) वह तेरे भक्त तुझे अच्छे लगते हैं, क्योंकि वे तेरे सदा कायम रहने वाले नाम में प्यार पाते हैं।
जो मनुष्य अपने सतिगुरु को सेवते हैं (भाव, जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलते हैं), मैं उन पर से बलिहार जाता हूँ।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ वरसै लाइ झड़ी ॥ नानक भाणै चलै कंत कै सु माणे सदा रली ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ वरसै लाइ झड़ी ॥ नानक भाणै चलै कंत कै सु माणे सदा रली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रली = आनंद। लाइ = लगा के। कै भाणे = के हुक्म में।
अर्थ: (गुरु-बादल) झुक-झुक के आया है और झड़ी लगा के बरस रहा है (भाव, गुरु ‘नाम’-उपदेश की बरखा कर रहा है); पर, हे नानक! (इस उपदेश को सुन के) जो मनुष्य पति (-प्रभु) की रज़ा में चलता है वही (उस ‘उपदेश’-बरखा का) आनंद लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ किआ उठि उठि देखहु बपुड़ें इसु मेघै हथि किछु नाहि ॥ जिनि एहु मेघु पठाइआ तिसु राखहु मन मांहि ॥ तिस नो मंनि वसाइसी जा कउ नदरि करेइ ॥ नानक नदरी बाहरी सभ करण पलाह करेइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ किआ उठि उठि देखहु बपुड़ें इसु मेघै हथि किछु नाहि ॥ जिनि एहु मेघु पठाइआ तिसु राखहु मन मांहि ॥ तिस नो मंनि वसाइसी जा कउ नदरि करेइ ॥ नानक नदरी बाहरी सभ करण पलाह करेइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बपुड़ें = हे बेचारे लोगो! मेघ = बादल। मेघै हथि = बादल के हाथ में। पठाइआ = भेजा है। मंनि = मन में। नदरि = नज़र (अरबी के ‘ज़’ का उच्चारण ‘द’ भी है; इसी तरह ‘काग़ज़’ और ‘काग़द’)। करणपलाह = (संस्कृत: करुणा+प्रलाप। करुणा = तरस। प्रलाप = विलाप) वह विलाप जो तरस पैदा करे, तरले, दुहाई।
अर्थ: हे बेचारे लोगो! इस बादल को उठ-उठ के क्या देखते हो, इसके अपने वश में कुछ भी नहीं (कि ये बरखा कर सके)। (हे भाई!) जिस मालिक ने यह बादल भेजा है उसको अपने मन में चेते करो।
(पर यह किसी के वश की बात नहीं) जिस जीव पर प्रभु स्वयं मेहर की नज़र करता है उसके मन में (अपना आप) बसाता है। हे नानक! प्रभु के मेहर की नज़र के बिना सारी सृष्टि तरले ले रही है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सो हरि सदा सरेवीऐ जिसु करत न लागै वार ॥ आडाणे आकास करि खिन महि ढाहि उसारणहार ॥ आपे जगतु उपाइ कै कुदरति करे वीचार ॥ मनमुख अगै लेखा मंगीऐ बहुती होवै मार ॥ गुरमुखि पति सिउ लेखा निबड़ै बखसे सिफति भंडार ॥ ओथै हथु न अपड़ै कूक न सुणीऐ पुकार ॥ ओथै सतिगुरु बेली होवै कढि लए अंती वार ॥ एना जंता नो होर सेवा नही सतिगुरु सिरि करतार ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सो हरि सदा सरेवीऐ जिसु करत न लागै वार ॥ आडाणे आकास करि खिन महि ढाहि उसारणहार ॥ आपे जगतु उपाइ कै कुदरति करे वीचार ॥ मनमुख अगै लेखा मंगीऐ बहुती होवै मार ॥ गुरमुखि पति सिउ लेखा निबड़ै बखसे सिफति भंडार ॥ ओथै हथु न अपड़ै कूक न सुणीऐ पुकार ॥ ओथै सतिगुरु बेली होवै कढि लए अंती वार ॥ एना जंता नो होर सेवा नही सतिगुरु सिरि करतार ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वार = देर (देखें, आसा दी वार, १।१।)। आडाणे = अडे हुए, तने हुए। पति = इज्जत। ओथै = उस अवस्था में जब सारे किए हुए कर्म सामने आते हैं।
अर्थ: (हे भाई!) उस प्रभु को सदा स्मरण करें जिसको (जगत) बनाने में देर नहीं लगती; यह तने हुए आकाश बना के एक पलक में नाश करके (दोबारा) बनाने में समर्थ है। प्रभु स्वयं ही जगत पैदा करके स्वयं ही इस रचना का ख़्याल रखता है। पर, जो मनुष्य (ऐसे प्रभु को बिसार के) अपने मन के पीछे चलता है (और विकारों में प्रवृति होता है) उससे आगे जा के उसके किए कर्मों का लेखा माँगा जाता है (विकारों के कारण) उसको मार पड़ती है। गुरु के हुक्म में चलने वाले बंदे का लेखा बाइज्जत निपटता है क्योंकि गुरु उसको महिमा के खजाने बख्शता है।
किए हुए कर्मों का लेखा होने के वक्त किसी और की पेश नहीं जाती, और उस वक्त किसी कूक-पुकार का भी कोई फायदा नहीं होता। उस वक्त वास्ते तो सतिगुरु ही मददगार होता है क्योंकि आखिर गुरु ही विकारों से बाहर निकालता है।
किसी और किस्म की सेवा इन जीवों के लिए लाभदायक नहीं है, अकाल-पुरख का भेजा हुआ सतिगुरु ही जीवों के सिर पर हाथ रखता है।6।
[[1281]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा जिस नो तू पूकारदा तिस नो लोचै सभु कोइ ॥ अपणी किरपा करि कै वससी वणु त्रिणु हरिआ होइ ॥ गुर परसादी पाईऐ विरला बूझै कोइ ॥ बहदिआ उठदिआ नित धिआईऐ सदा सदा सुखु होइ ॥ नानक अम्रितु सद ही वरसदा गुरमुखि देवै हरि सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा जिस नो तू पूकारदा तिस नो लोचै सभु कोइ ॥ अपणी किरपा करि कै वससी वणु त्रिणु हरिआ होइ ॥ गुर परसादी पाईऐ विरला बूझै कोइ ॥ बहदिआ उठदिआ नित धिआईऐ सदा सदा सुखु होइ ॥ नानक अम्रितु सद ही वरसदा गुरमुखि देवै हरि सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (नौट: पपीहा बरखा = बूँद का प्यासा होता है; सो, इसकी उस मनुष्य के साथ उपमा दी गई है जिसमें प्रभु से मिलने की तड़प होती है)। वससी = बरसेगा। वणु = जंगल। त्रिणु = तृण, घास। वणु त्रिणु = सारी बनस्पति। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य।
अर्थ: हे बिरही जीव! जिस प्रभु को मिलने के लिए तू तरले ले रहा है, उसको मिलने की तमन्ना हरेक जीव रखता है, जब वह प्रभु स्वयं मेहर कर के (‘नाम’ की) बरखा करेगा तो सारी सृष्टि (सारी बनस्पति) हरी हो जाएगी।
कोई विरला बंदा समझता है कि (‘नाम-अमृत’) गुरु की कृपा से मिलता है; अगर बैठते-उठते हर वक्त प्रभु को स्मरण करें तो सदा ही सुख प्राप्त होता है। हे नानक! प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की बरखा तो सदा ही हो रही है, पर वह प्रभु यह दाति उस मनुष्य को देता है जो गुरु के सन्मुख रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ कलमलि होई मेदनी अरदासि करे लिव लाइ ॥ सचै सुणिआ कंनु दे धीरक देवै सहजि सुभाइ ॥ इंद्रै नो फुरमाइआ वुठा छहबर लाइ ॥ अनु धनु उपजै बहु घणा कीमति कहणु न जाइ ॥ नानक नामु सलाहि तू सभना जीआ देदा रिजकु स्मबाहि ॥ जितु खाधै सुखु ऊपजै फिरि दूखु न लागै आइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ कलमलि होई मेदनी अरदासि करे लिव लाइ ॥ सचै सुणिआ कंनु दे धीरक देवै सहजि सुभाइ ॥ इंद्रै नो फुरमाइआ वुठा छहबर लाइ ॥ अनु धनु उपजै बहु घणा कीमति कहणु न जाइ ॥ नानक नामु सलाहि तू सभना जीआ देदा रिजकु स्मबाहि ॥ जितु खाधै सुखु ऊपजै फिरि दूखु न लागै आइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलमलि = व्याकुल। मेदनी = धरती। सचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने। कंनु दे = कान दे के, ध्यान से। धीरक = धैर्य। वुठा = बसा हुआ। छहबर = झड़ी। अनु = अन्न, अनाज। संबाहि = इकट्ठा कर के, पहुँचा के।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘भूत काल’ का अर्थ ‘वर्तमान’ में करना है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जब) धरती (वर्षा के बग़ैर) व्याकुल होती है तो एक-मन हो के प्रार्थना करती है तो सदा-स्थिर सच्चा प्रभु (इस आरजू को) ध्यान से सुनता है, और सहज ही अपने सदा के बने स्वभाव अनुसार (धरती को) धीरज देता है; इन्द्र को आज्ञा देता है, वह झड़ी लगा के बरखा करता है; बेअंत अनाज (-रूप) धन पैदा होता है। (प्रभु की इस बख्शिश का) मूल्य नहीं पाया जा सकता।
हे नानक! जो प्रभु सब जीवों को रिजक पहुँचाता है उसके नाम की सराहना करो; इस नाम-भोजन के खाने से सुख पैदा होता है (सुख भी ऐसा कि) फिर कभी दुख आ के नहीं लगता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि जीउ सचा सचु तू सचे लैहि मिलाइ ॥ दूजै दूजी तरफ है कूड़ि मिलै न मिलिआ जाइ ॥ आपे जोड़ि विछोड़िऐ आपे कुदरति देइ दिखाइ ॥ मोहु सोगु विजोगु है पूरबि लिखिआ कमाइ ॥ हउ बलिहारी तिन कउ जो हरि चरणी रहै लिव लाइ ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतु है ऐसी बणत बणाइ ॥ से सुखीए सदा सोहणे जिन्ह विचहु आपु गवाइ ॥ तिन्ह सोगु विजोगु कदे नही जो हरि कै अंकि समाइ ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि जीउ सचा सचु तू सचे लैहि मिलाइ ॥ दूजै दूजी तरफ है कूड़ि मिलै न मिलिआ जाइ ॥ आपे जोड़ि विछोड़िऐ आपे कुदरति देइ दिखाइ ॥ मोहु सोगु विजोगु है पूरबि लिखिआ कमाइ ॥ हउ बलिहारी तिन कउ जो हरि चरणी रहै लिव लाइ ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतु है ऐसी बणत बणाइ ॥ से सुखीए सदा सोहणे जिन्ह विचहु आपु गवाइ ॥ तिन्ह सोगु विजोगु कदे नही जो हरि कै अंकि समाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजै = (प्रभु को छोड़ के) और में लगने से। कूड़ि = झूठ में लगने से, माया के मोह में फसने से। पूरबि = पिछले समय में। अंकि = गोद में। विछोड़िऐ = विछोड़े हुए को। समाइ = लीन।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू सदा कायम रहने वाला है, जो तेरा रूप हो जाता है तू उसको (अपने में) मिला लेता है। जो मनुष्य माया में लगा हुआ है उसका (सत्य के उलट) दूसरा पक्ष है (भाव, वह दूसरी तरफ, झूठ की ओर जाता है, और) झूठ से (भाव, झूठ में लग के) प्रभु नहीं मिलता, प्रभु को मिला नहीं जा सकता। (झूठ में लगे हुए बंदे को) मोह चिन्ता विछोड़ा व्यापता है, वह (दोबारा) वही काम करता जाता है जो पिछले किए कर्मों के अनुसार (उसके माथे पर) लिखा है; पर, प्रभु बिछोड़े हुए जीव को भी स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ता है, स्वयं ही अपनी यह बड़ाई दिखाता है।
जो मनुष्य प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़ के रखते हैं, मैं उन पर से सदके हूँ; प्रभु ने ऐसी बनतर बना रखी है (कि उसके चरणों में जुड़ने वाले इस तरह जगत से निर्लिप रहते हैं) जैसे पानी में कमल का फूल अछोह रहता है। जो मनुष्य अपने अंदर से आपा-भाव गवाते हैं वे सदा सुखी रहते हैं और सुंदर लगते हैं (सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं)। जो प्रभु की गोद में टिके रहते हैं उनको कभी चिन्ता और विछोड़ा नहीं व्यापता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ नानक सो सालाहीऐ जिसु वसि सभु किछु होइ ॥ तिसै सरेविहु प्राणीहो तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुरमुखि हरि प्रभु मनि वसै तां सदा सदा सुखु होइ ॥ सहसा मूलि न होवई सभ चिंता विचहु जाइ ॥ जो किछु होइ सु सहजे होइ कहणा किछू न जाइ ॥ सचा साहिबु मनि वसै तां मनि चिंदिआ फलु पाइ ॥ नानक तिन का आखिआ आपि सुणे जि लइअनु पंनै पाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ नानक सो सालाहीऐ जिसु वसि सभु किछु होइ ॥ तिसै सरेविहु प्राणीहो तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुरमुखि हरि प्रभु मनि वसै तां सदा सदा सुखु होइ ॥ सहसा मूलि न होवई सभ चिंता विचहु जाइ ॥ जो किछु होइ सु सहजे होइ कहणा किछू न जाइ ॥ सचा साहिबु मनि वसै तां मनि चिंदिआ फलु पाइ ॥ नानक तिन का आखिआ आपि सुणे जि लइअनु पंनै पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = तौखला। चिंदिआ = चितवा हुआ। लइअनु = लिए हैं उसने (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। पंनै = लेखे में। वसि = वश में। सरेवहु = स्मरण करते रहो। मनि = मन में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मूलि न = बिल्कुल नहीं। होवई = होए, होता। सहजै = रजा अनुसार। जि = जो मनुष्य।
अर्थ: हे नानक! जिस प्रभु के वश में हरेक बात है उसकी सदा बड़ाई करनी चाहिए, उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं, हे लोगो! उस प्रभु को ही स्मरण करो।
(अगर) गुरु के द्वारा हरि-प्रभु मन में आ बसे तो (मन में) सदा ही सुख बना रहता है, तौखला (व्याकुलता) बिल्कुल नहीं रहता, सारी चिन्ता मन में से निकल जाती है, जो कुछ (जगत में) बरत रहा है वह रज़ा में ही हो रहा दिखता है उस पर कोई ऐतराज़ (मन में) उठता ही नहीं। अगर सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मन में आ बसे तो मन में चितवा हुआ (हरेक) फल हासिल होता है।
हे नानक! जिनको प्रभु ने अपने लेखे में लिख लिया है (भाव, जिस पर मेहर की नज़र करता है) उनकी अरदास ध्यान से सुनता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ अम्रितु सदा वरसदा बूझनि बूझणहार ॥ गुरमुखि जिन्ही बुझिआ हरि अम्रितु रखिआ उरि धारि ॥ हरि अम्रितु पीवहि सदा रंगि राते हउमै त्रिसना मारि ॥ अम्रितु हरि का नामु है वरसै किरपा धारि ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ हरि आतम रामु मुरारि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ अम्रितु सदा वरसदा बूझनि बूझणहार ॥ गुरमुखि जिन्ही बुझिआ हरि अम्रितु रखिआ उरि धारि ॥ हरि अम्रितु पीवहि सदा रंगि राते हउमै त्रिसना मारि ॥ अम्रितु हरि का नामु है वरसै किरपा धारि ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ हरि आतम रामु मुरारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूझणहार = समझने योग्य, वे मनुष्य जो ये समझने के समर्थ हैं। अरि = हृदय में। धारि = धार के, संभाल के। आतम रामु = सब जगह व्यापक आत्मा, परमात्मा। मुरारि = (मुर+अरि) मुर दैत्य का वैरी (कृष्ण), प्रभु। बूझनि = समझते हैं। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीवहि = पीते हैं। मारि = मार के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से।
अर्थ: ‘अमृत’ की बरखा हो रही है (पर इस भेद को) वही समझते हैं जो समझने-योग्य हैं; जिन्होंने गुरु से (यह भेद) समझ लिया है। वे ‘अमृत’ हृदय में संभाल के रखते हैं; वे मनुष्य अहंकार और (माया की) तृष्णा मिटा के, प्रभु के प्यार में रंगे हुए सदा ‘अमृत’ पीते हैं। (वह अमृत क्या है?) ‘अमृत’ प्रभु का ‘नाम’ है और इसकी बरखा होती है प्रभु की कृपा से। हे नानक! सबमें व्यापक मुरारी परमात्मा सतिगुरु के माध्यम से ही नज़र आता है।2।
[[1282]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अतुलु किउ तोलीऐ विणु तोले पाइआ न जाइ ॥ गुर कै सबदि वीचारीऐ गुण महि रहै समाइ ॥ अपणा आपु आपि तोलसी आपे मिलै मिलाइ ॥ तिस की कीमति ना पवै कहणा किछू न जाइ ॥ हउ बलिहारी गुर आपणे जिनि सची बूझ दिती बुझाइ ॥ जगतु मुसै अम्रितु लुटीऐ मनमुख बूझ न पाइ ॥ विणु नावै नालि न चलसी जासी जनमु गवाइ ॥ गुरमती जागे तिन्ही घरु रखिआ दूता का किछु न वसाइ ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अतुलु किउ तोलीऐ विणु तोले पाइआ न जाइ ॥ गुर कै सबदि वीचारीऐ गुण महि रहै समाइ ॥ अपणा आपु आपि तोलसी आपे मिलै मिलाइ ॥ तिस की कीमति ना पवै कहणा किछू न जाइ ॥ हउ बलिहारी गुर आपणे जिनि सची बूझ दिती बुझाइ ॥ जगतु मुसै अम्रितु लुटीऐ मनमुख बूझ न पाइ ॥ विणु नावै नालि न चलसी जासी जनमु गवाइ ॥ गुरमती जागे तिन्ही घरु रखिआ दूता का किछु न वसाइ ॥८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘आपु’ और ‘आपि’ में फर्क है। देखें, ‘गुरबाणी व्याकरण’
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। हउ = मैं। जिनि = जिस (गुरु ने)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मुसै = ठगा जा रहा है। बूझ = समझ। जासी = जाएगा। वसाइ = वश, जोर।
अर्थ: परमात्मा अतुल है, उसके सारे गुण जाचे नहीं जा सकते। पर, उसके गुणों की विचार करे बिना उसकी प्राप्ति भी नहीं होती। प्रभु के गुणों की विचार सतिगुरु के शब्द द्वारा ही हो सकती है (जो मनुष्य विचार करता है वह) उसके गुणों में मगन रहता है।
अपने आप को प्रभु स्वयं ही तोल सकता है (भाव, प्रभु कितना बड़ा है यह बात वह स्वयं ही जानता है) वह खुद ही (अपने सेवकों को गुरु का) मिलाया मिलता है। प्रभु का मूल्य नहीं पड़ सकता; (वह कितना बड़ा है इस बारे) कोई बात कही नहीं जा सकती। मैं कुर्बान हूँ अपने गुरु से जिसने (मुझे सच्ची सूझ दे दी है)।
(गुरु की मति के बिना) जगत ठगा जा रहा है, अमृत लूटा जा रहा है, मन के पीछे चलने वाले लोगों को यह समझ नहीं पड़ती। प्रभु के नाम के बिना (कोई अन्य चीज़ मनुष्य के) साथ नहीं जाएगी (सो, ‘नाम’ से भूला हुआ मनुष्य अपना जनम व्यर्थ गवा के जाएगा)।
जो मनुष्य गुरु की मति ले कर (माया के मोह की नींद में से) जाग जाते हैं वे अपना घर (भाव, अपना शरीर, विकारों से) बचा के रखते हैं, इन दूतों (विकारों) का उन पर कोई जोर नहीं चलता।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा ना बिललाइ ना तरसाइ एहु मनु खसम का हुकमु मंनि ॥ नानक हुकमि मंनिऐ तिख उतरै चड़ै चवगलि वंनु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा ना बिललाइ ना तरसाइ एहु मनु खसम का हुकमु मंनि ॥ नानक हुकमि मंनिऐ तिख उतरै चड़ै चवगलि वंनु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिख = प्यास। चवगलि = चार गुना। वंनु = रंग।
अर्थ: हे पपीहे! न बिलक, अपना मन ना तरसा और मालिक का हुक्म मान (उसके हुक्म में बरखा होगी) हे नानक! प्रभु की रज़ा में चलने से ही (माया की) प्यास मिटती है और चौगुना रंग चढ़ता है (भाव, मन पूरे तौर पर खिलता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ बाबीहा जल महि तेरा वासु है जल ही माहि फिराहि ॥ जल की सार न जाणही तां तूं कूकण पाहि ॥ जल थल चहु दिसि वरसदा खाली को थाउ नाहि ॥ एतै जलि वरसदै तिख मरहि भाग तिना के नाहि ॥ नानक गुरमुखि तिन सोझी पई जिन वसिआ मन माहि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ बाबीहा जल महि तेरा वासु है जल ही माहि फिराहि ॥ जल की सार न जाणही तां तूं कूकण पाहि ॥ जल थल चहु दिसि वरसदा खाली को थाउ नाहि ॥ एतै जलि वरसदै तिख मरहि भाग तिना के नाहि ॥ नानक गुरमुखि तिन सोझी पई जिन वसिआ मन माहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूकण पाहि = तू बिलक रहा है। चहु दिसि = चारों तरफ। फिराइ = तू फिरता है। सार = कद्र। न जाणही = तू नहीं जानता। एतै जलि वरसदै = इतना पानी बरसा। त्रिख = प्यास से।
अर्थ: हे पपीहे! पानी में तू बसता है, पानी में ही तू चलता-फिरता है (भाव, हे जीव! उस सर्व-व्यापक हरि में ही तू जीता-बसता है), पर उस पानी की तुझे कद्र नहीं, इस वास्ते तू बिलक रहा है। चारों तरफ ही जलों में थलों में बरखा हो रही है कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ बरखा नहीं होती; इतनी बरसात होते हुए भी जो प्यासे मर रहे हैं उनके भाग्य (अच्छे) नहीं हैं।
हे नानक! गुरु के द्वारा जिनके हृदय में प्रभु आ बसता है उन्हें ये समझ आ जाती है (कि प्रभु हर जगह बसता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाथ जती सिध पीर किनै अंतु न पाइआ ॥ गुरमुखि नामु धिआइ तुझै समाइआ ॥ जुग छतीह गुबारु तिस ही भाइआ ॥ जला बि्मबु असरालु तिनै वरताइआ ॥ नीलु अनीलु अगमु सरजीतु सबाइआ ॥ अगनि उपाई वादु भुख तिहाइआ ॥ दुनीआ कै सिरि कालु दूजा भाइआ ॥ रखै रखणहारु जिनि सबदु बुझाइआ ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाथ जती सिध पीर किनै अंतु न पाइआ ॥ गुरमुखि नामु धिआइ तुझै समाइआ ॥ जुग छतीह गुबारु तिस ही भाइआ ॥ जला बि्मबु असरालु तिनै वरताइआ ॥ नीलु अनीलु अगमु सरजीतु सबाइआ ॥ अगनि उपाई वादु भुख तिहाइआ ॥ दुनीआ कै सिरि कालु दूजा भाइआ ॥ रखै रखणहारु जिनि सबदु बुझाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = साधना में माहिर जोगी। जुग छतीह = (भाव,) अनेक युग। गुबारु = अंधेरा। बिंबु = जल। असरालु = भयानक। नीलु अनीलु = (भाव,) बेअंत। सरजीतु = सदा जीवित रहने वाला। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरि = सिर पर। भाइआ = भाया, अच्छा लगा। तिस ही = उस (प्रभु) को ही। वादु = झगड़ा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) नाथ, जती, सिद्धहस्त जोगी, पीर (कई हो गुजरे हैं, पर) किसी ने तेरा अंत नहीं पाया (भाव, तू कैसा है और कब से है, कितना है; ये बात कोई बता नहीं सका। कई यत्न कर चुके)। गुरु की शिक्षा पर चलने वाले मनुष्य (ऐसे निश्फल उद्यम छोड़ के, केवल तेरा) नाम स्मरण करके तेरे (चरणों में) लीन रहते हैं।
(हे भाई!) यह बात उस प्रभु को ऐसे ही अच्छी लगी है कि अनेक युग अंधेरा ही अंधेरा था (भाव, ये नहीं कहा जा सकता कि जब जगत की रचना हुई थी तब क्या था); फिर भयानक जल ही जल- ये खेल भी उसी ने बनाई; और, वह सदा जीवित रहने वाला प्रभु स्वयं बेअंत ही बेअंत और पहुँच से परे है।
(हे भाई!) (जब उसने जगत-रचना कर दी, तब) तृष्णा की आग, वाद-विवाद की भूख-प्यास भी उसने खुद ही पैदा कर दी। दुनिया (भाव, जीवों) के सिर पर मौत (का डर भी उसने पैदा किया है, क्योंकि इनको) यह दूसरा (भाव, प्रभु को छोड़ के यह दिखाई देता जगत) प्यारा लग रहा है। पर, रखने के समर्थ प्रभु जिसने (गुरु के द्वारा) शब्द की सूझ बख्शी है (इन अग्नि, वाद, भूख, प्यास और काल आदि से) रक्षा भी खुद ही करता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ इहु जलु सभ तै वरसदा वरसै भाइ सुभाइ ॥ से बिरखा हरीआवले जो गुरमुखि रहे समाइ ॥ नानक नदरी सुखु होइ एना जंता का दुखु जाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ इहु जलु सभ तै वरसदा वरसै भाइ सुभाइ ॥ से बिरखा हरीआवले जो गुरमुखि रहे समाइ ॥ नानक नदरी सुखु होइ एना जंता का दुखु जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ तै = हर जगह। भाइ = प्रेम से। भाउ = प्रेम। सुआइ = स्वभाव अनुसार, रज़ा अनुसार। वरसै = बरसता है। से = वही। नदरि = परमात्मा की मेहर की निगाह से।
अर्थ: (प्रभु का नाम रूप) यह जल (भाव, बरसात) हर जगह बरस रहा है और बरसता भी है प्रेम से अपनी मौज से (भाव, किसी भेद-भाव के बग़ैर), पर, केवल वही (जीव-रूप) वृक्ष हरे होते हैं जो गुरु के सन्मुख हो के (इस ‘नाम’ बरखा में) लीन रहते हैं।
हे नानक! प्रभु की मेहर की नजर से सुख पैदा होता है और इन जीवों का दुख दूर होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ भिंनी रैणि चमकिआ वुठा छहबर लाइ ॥ जितु वुठै अनु धनु बहुतु ऊपजै जां सहु करे रजाइ ॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ जीआं जुगति समाइ ॥ इहु धनु करते का खेलु है कदे आवै कदे जाइ ॥ गिआनीआ का धनु नामु है सद ही रहै समाइ ॥ नानक जिन कउ नदरि करे तां इहु धनु पलै पाइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ भिंनी रैणि चमकिआ वुठा छहबर लाइ ॥ जितु वुठै अनु धनु बहुतु ऊपजै जां सहु करे रजाइ ॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ जीआं जुगति समाइ ॥ इहु धनु करते का खेलु है कदे आवै कदे जाइ ॥ गिआनीआ का धनु नामु है सद ही रहै समाइ ॥ नानक जिन कउ नदरि करे तां इहु धनु पलै पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भिंनी = भीगी हुई। भिंनी रैणि = भीगी हुई रात के वक्त। करे रजाइ = मर्जी करता है, प्रभु को भाता है। जुगति = जीने की जुगति। समाइ = आ बसती है। खेलु = तमाशा। पलै पाइ = देता है, बख्शिश है। वुठा = बरसा। छहबर = झड़ी। जिसु = जिससे। जितु वुठै = जिसके बरसने से। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी जान पहचान रखने वाला मनुष्य।
अर्थ: जब प्रभु को भाता है (तब) भीगी हुई रात में (बादल) चमकता है और झड़ी लगा के बरसता है, इसके बरसने से बहुत अन्न (-रूप) धन पैदा होता है। इस धन के बरसने से मन तृप्त होता है और जीवों में जीने की जुगति आती है (भाव, अन्न खाने से जीव जीते हैं)। पर, यह (अन्न-रूप) धन तो कर्तार का एक तमाशा है जो कभी पैदा होता है कभी नाश हो जाता है। परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले लोगों के लिए प्रभु का नाम ही धन है जो सदा टिका रहता है।
हे नानक! जिस पर प्रभु मेहर की नज़र करता है उनको यह धन बख्शता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपि कराए करे आपि हउ कै सिउ करी पुकार ॥ आपे लेखा मंगसी आपि कराए कार ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ हुकमु करे गावारु ॥ आपि छडाए छुटीऐ आपे बखसणहारु ॥ आपे वेखै सुणे आपि सभसै दे आधारु ॥ सभ महि एकु वरतदा सिरि सिरि करे बीचारु ॥ गुरमुखि आपु वीचारीऐ लगै सचि पिआरु ॥ नानक किस नो आखीऐ आपे देवणहारु ॥१०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपि कराए करे आपि हउ कै सिउ करी पुकार ॥ आपे लेखा मंगसी आपि कराए कार ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ हुकमु करे गावारु ॥ आपि छडाए छुटीऐ आपे बखसणहारु ॥ आपे वेखै सुणे आपि सभसै दे आधारु ॥ सभ महि एकु वरतदा सिरि सिरि करे बीचारु ॥ गुरमुखि आपु वीचारीऐ लगै सचि पिआरु ॥ नानक किस नो आखीऐ आपे देवणहारु ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावारु = मूर्ख। सभसै = सबको। सिरि सिरि = हरेक सिर पर।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘आपि’ और ‘आपु’ में फर्क समझने योग्य है। आपु = अपने आप को)।
दर्पण-भाषार्थ
हउ = मैं। कै सिउ = किसके पास? पुकार = फरियाद। थीऐ = होता है। भावै = अच्छा लगता है। आपे = स्वयं ही। आधारु = आसरा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस नो’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: प्रभु (सब कुछ) स्वयं ही कर रहा है और (जीवों से) स्वयं ही करवा रहा है (सो, इस अग्नि, वाद, भूख, प्यास, काल आदि के बारे) किसी और के पास फरियाद नहीं की जा सकती। (जीवों से) स्वयं ही (भूख, प्यास आदि वाले) काम करवा रहा है और (इन किए कामों का) लेखा भी खुद ही माँगता है। मूर्ख जीव (ऐसे ही) हैंकड़ दिखाता है (असल में) वही कुछ होता है जो उस प्रभु को अच्छा लगता है। (इन अग्नि, भूख आदि से) अगर प्रभु खुद ही बचाए तो बचा जा सकता है, यह बख्शिश वह खुद ही करने वाला है। जीवों की संभाल प्रभु स्वयं ही करता है, स्वयं ही (जीवों की अरदासें) सुनता है और हरेक जीव को आसरा देता है। सब जीवों में प्रभु स्वयं ही मौजूद है और हरेक जीव का ध्यान रखता है।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, और उसका प्यार (इन भूख प्यास आदि वाले पदार्थों की जगह) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में बनता जाता है। पर, हे नानक! यह दाति वह स्वयं ही देता है, किसी और के आगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता।10।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा एहु जगतु है मत को भरमि भुलाइ ॥ इहु बाबींहा पसू है इस नो बूझणु नाहि ॥ अम्रितु हरि का नामु है जितु पीतै तिख जाइ ॥ नानक गुरमुखि जिन्ह पीआ तिन्ह बहुड़ि न लागी आइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा एहु जगतु है मत को भरमि भुलाइ ॥ इहु बाबींहा पसू है इस नो बूझणु नाहि ॥ अम्रितु हरि का नामु है जितु पीतै तिख जाइ ॥ नानक गुरमुखि जिन्ह पीआ तिन्ह बहुड़ि न लागी आइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूझणु = समझ। जितु पीतै = जिस के पीने से। भरमि = भुलेखे में, भटकना में। भुलाइ = भुल जाए, विछुड़ जाए। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। तिख = प्यास। जितु पीतै = जिसको पीने से। जिन्ह = जिन्होंने। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चल के।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस नो’ में से ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (शब्द पपीहा सुन के) कहीं कोई भुलेखा खा जाए, पपीहा यह जगत है, यह पपीहा (-जीव) पशू (-स्वभाव) है, इसको ये समझ नहीं (कि) परमात्मा का नाम (ऐसा) अमृत है जिसको पीने से (माया की) प्यास मिट जाती है।
हे नानक! जिस लोगों ने गुरु के सन्मुख हो के (नाम-अमृत) पीया है उनको दोबारा (माया की) प्यास नहीं लगती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मलारु सीतल रागु है हरि धिआइऐ सांति होइ ॥ हरि जीउ अपणी क्रिपा करे तां वरतै सभ लोइ ॥ वुठै जीआ जुगति होइ धरणी नो सीगारु होइ ॥ नानक इहु जगतु सभु जलु है जल ही ते सभ कोइ ॥ गुर परसादी को विरला बूझै सो जनु मुकतु सदा होइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मलारु सीतल रागु है हरि धिआइऐ सांति होइ ॥ हरि जीउ अपणी क्रिपा करे तां वरतै सभ लोइ ॥ वुठै जीआ जुगति होइ धरणी नो सीगारु होइ ॥ नानक इहु जगतु सभु जलु है जल ही ते सभ कोइ ॥ गुर परसादी को विरला बूझै सो जनु मुकतु सदा होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोइ = जगत में। वूठै = बरसात होने से। जुगति = जीवन जुगती। धरणी = धरती। सीगारु = श्रृंगार, सुंदरता। जलु = (भाव,) जिंदगी का मूल, प्रभु। सभु कोइ = हरेक जीव। परसादी = कृपा से। मुकतु = (माया के मोह से) आजाद।
अर्थ: (चाहे) ‘मलार’ राग ठंडा राग है (भाव, शीतलता देने वाला है), पर (असल) शांति तब ही आती है जब (इस राग के द्वारा) प्रभु की महिमा करें। यदि प्रभु अपनी दया करे तो (यह शांति) सारे जगत में (यूँ) फैल जाए, जैसे वर्षा होने पर जीवों में जीवन-जुगति (भाव, सत्ता) आ जाती है और धरती को भी हरी-भरी सुंदरता मिल जाती है।
हे नानक! (असल में) यह जगत परमात्मा का रूप है (क्योंकि) हरेक जीव परमात्मा से ही पैदा होता है; पर कोई विरला व्यक्ति (यह बात) गुरु की मेहर से समझता है (और जो समझ लेता है) वह मनुष्य विकारों से रहित हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सचा वेपरवाहु इको तू धणी ॥ तू सभु किछु आपे आपि दूजे किसु गणी ॥ माणस कूड़ा गरबु सची तुधु मणी ॥ आवा गउणु रचाइ उपाई मेदनी ॥ सतिगुरु सेवे आपणा आइआ तिसु गणी ॥ जे हउमै विचहु जाइ त केही गणत गणी ॥ मनमुख मोहि गुबारि जिउ भुला मंझि वणी ॥ कटे पाप असंख नावै इक कणी ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सचा वेपरवाहु इको तू धणी ॥ तू सभु किछु आपे आपि दूजे किसु गणी ॥ माणस कूड़ा गरबु सची तुधु मणी ॥ आवा गउणु रचाइ उपाई मेदनी ॥ सतिगुरु सेवे आपणा आइआ तिसु गणी ॥ जे हउमै विचहु जाइ त केही गणत गणी ॥ मनमुख मोहि गुबारि जिउ भुला मंझि वणी ॥ कटे पाप असंख नावै इक कणी ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मणी = बड़ाई। वणी = बनों में। धणी = मालिक। गणी = मैं गिनूँ। गरबु = अहंकार। कूड़ा = व्यर्थ। सची = सदा कायम रहने वाली। मेदनी = धरती, सृष्टि। आवागउण = जनम मरण। गणी = मैं गिनता हूँ। मोहि = मोह में। गुबारि = अंधेरे में। असंख = अनगिनत।
अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला बेपरवाह (बेमुथाज) मालिक है; तू स्वयं ही सब कुछ (करने कराने योग्य) है, किस दूसरे को मैं तेरे जैसा मानूँ? (दुनिया की किसी बड़ाई को प्राप्त करके) मनुष्य का (कोई) अहंकार करना व्यर्थ है तेरी बड़ाई ही सदा कायम रहने वाली है, तूने ही ‘जनम मरण’ (की मर्यादा) बना के सृष्टि पैदा की है।
जो मनुष्य अपने गुरु के कहे पर चलता है उसका (जगत में) आना सफल है। अगर मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर हो जाए तो (तृष्णा आदि के अधीन हो के) तौखले करने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती।
(पर) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य मोह-रूप अंधेरे में (इस तरह) भटक रहा है, जैसे (राह से) भूला हुआ मनुष्य जंगलों में (भटकता है)। प्रभु अपने ‘नाम’ का यह किनका मात्र दे के बेअंत पाप काट देता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा खसमै का महलु न जाणही महलु देखि अरदासि पाइ ॥ आपणै भाणै बहुता बोलहि बोलिआ थाइ न पाइ ॥ खसमु वडा दातारु है जो इछे सो फल पाइ ॥ बाबीहा किआ बपुड़ा जगतै की तिख जाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा खसमै का महलु न जाणही महलु देखि अरदासि पाइ ॥ आपणै भाणै बहुता बोलहि बोलिआ थाइ न पाइ ॥ खसमु वडा दातारु है जो इछे सो फल पाइ ॥ बाबीहा किआ बपुड़ा जगतै की तिख जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न जाणही = तू नहीं जानता। आपणै भाणै = अपने मन की मर्जी में चल के। थाइ न पाइ = स्वीकार नहीं होता। बपुड़ा = बेचारा। तिख = प्यास।
अर्थ: हे (जीव) पपीहे! तू अपने मालिक का घर नहीं जानता (तभी माया की तृष्णा से आतुर हो रहा है), (मालिक का) घर देखने के लिए प्रार्थना कर। (जब तक) तू अपने (मन की) मर्जी के पीछे चल के बहुत ज्यादा बोलता है, यह बोलना स्वीकार नहीं होता। (हे जीव!) मालिक बहुत बख्शिशें करने वाला है (उसके दर पर पड़ने से) जो माँगें सो मिल जाता है।
यह (जीव) पपीहा बेचारा क्या है? (प्रभु के दर पर अरजोई करने से) सारे जगत की (माया की) प्यास मिट जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ बाबीहा भिंनी रैणि बोलिआ सहजे सचि सुभाइ ॥ इहु जलु मेरा जीउ है जल बिनु रहणु न जाइ ॥ गुर सबदी जलु पाईऐ विचहु आपु गवाइ ॥ नानक जिसु बिनु चसा न जीवदी सो सतिगुरि दीआ मिलाइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ बाबीहा भिंनी रैणि बोलिआ सहजे सचि सुभाइ ॥ इहु जलु मेरा जीउ है जल बिनु रहणु न जाइ ॥ गुर सबदी जलु पाईऐ विचहु आपु गवाइ ॥ नानक जिसु बिनु चसा न जीवदी सो सतिगुरि दीआ मिलाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भिंनी रैणि = (ओस-) भीगी रात के समय, अमृत वेला। सहजे = अडोल अवस्था में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ के)। सुभाइ = स्वाभाविक ही, जुड़े मन की मौज से। जलु = (भाव) प्रभु नाम। चसा = (भाव) पलक भर भी। जीउ = जिंद। सबदी = शब्द से। आपु = स्वै भाव। गवाइ = दूर करके। सतिगुरि = गुरु ने।
अर्थ: (जब) (जीव-) पपीहा अमृत बेला में अडोल अवस्था में प्रभु-चरणों में जुड़ के (जुड़े) मन की मौज से अरजोई करता है कि प्रभु का नाम मेरी जिंद है, ‘नाम’ के बिना मैं जी नहीं सकता, (तो इस तरह) मन में से स्वैभाव गवा के गुरु के शब्द से नाम-अमृत मिलता है। हे नानक! जिस प्रभु के बिना एक पलक भर भी जीया नहीं जा सकता, सतिगुरु ने (अरजोई करने वाले को) वह प्रभु मिला दिया है (भाव, मिला देता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ खंड पताल असंख मै गणत न होई ॥ तू करता गोविंदु तुधु सिरजी तुधै गोई ॥ लख चउरासीह मेदनी तुझ ही ते होई ॥ इकि राजे खान मलूक कहहि कहावहि कोई ॥ इकि साह सदावहि संचि धनु दूजै पति खोई ॥ इकि दाते इक मंगते सभना सिरि सोई ॥ विणु नावै बाजारीआ भीहावलि होई ॥ कूड़ निखुटे नानका सचु करे सु होई ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ खंड पताल असंख मै गणत न होई ॥ तू करता गोविंदु तुधु सिरजी तुधै गोई ॥ लख चउरासीह मेदनी तुझ ही ते होई ॥ इकि राजे खान मलूक कहहि कहावहि कोई ॥ इकि साह सदावहि संचि धनु दूजै पति खोई ॥ इकि दाते इक मंगते सभना सिरि सोई ॥ विणु नावै बाजारीआ भीहावलि होई ॥ कूड़ निखुटे नानका सचु करे सु होई ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खंड = हिस्से। असंख = बेअंत। सिरजी = पैदा की। ते = से। इकि = (शब्द ‘इक’ का बहुवचन) कई। सदावहि = कहलवाते हैं। दूजै = माया के मोह में। पति = इज्जत। सिरि = सिर पर। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। कूड़ = माया के सौदे। गोविंदु = धरती की सार लेने वाला। गोई = नाश की। मेदनी = धरती, सृष्टि। संचि = इकट्ठा करके। बाजारीआ = मसखरे, बहुरूपिए। भीहावलि = डरावनी (धरती)।
अर्थ: (इस सृष्टि के) बेअंत धरतियां और पाताल हैं, मुझसे गिने नहीं जा सकते। (हे प्रभु!) तू (इस सृष्टि को) पैदा करने वाला है तू ही इसकी सार लेने वाला है, तूने ही पैदा की है तू ही नाश करता है। सृष्टि की चौरासी लाख जूनियाँ तुझसे ही पैदा हुई हैं।
(यहाँ) कई अपने-आप को राजे-ख़ान और मलिक कहते हैं और कहलवाते हैं, कई धन एकत्र करके (अपने आप को) शाह कहलवाते हैं, (पर) इस दूसरे मोह में पड़ कर इज्जत गवा लेते हैं। यहाँ कई दाते हैं कई मँगते हैं (पर, क्या दाते और क्या मँगते) सबके सिर पर वह प्रभु ही पति है।
(चाहे राजे कहलवाएं अथवा शाहूकार कहलवाएं) प्रभु के नाम के बिना जीव (मानो) बहु-रूपिए हैं (धरती इनके भार से) भय-भीत हुई है। हे नानक! (ये राजे और शाहूकार आदि) झूठ के सौदे खत्म हो जाते हैं (भाव, तृष्णा के अधीन हो के राज-धन का घमण्ड झूठा है।) जो कुछ सदा स्थिर रहने वाला प्रभु करता है वही होता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा गुणवंती महलु पाइआ अउगणवंती दूरि ॥ अंतरि तेरै हरि वसै गुरमुखि सदा हजूरि ॥ कूक पुकार न होवई नदरी नदरि निहाल ॥ नानक नामि रते सहजे मिले सबदि गुरू कै घाल ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा गुणवंती महलु पाइआ अउगणवंती दूरि ॥ अंतरि तेरै हरि वसै गुरमुखि सदा हजूरि ॥ कूक पुकार न होवई नदरी नदरि निहाल ॥ नानक नामि रते सहजे मिले सबदि गुरू कै घाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हजूरि = अंग संग। घाल = मेहनत। महलु = परमात्मा की हजूरी। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। होवई = होती, हो। नदरी = मेहर की निगाह रखने वाला। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सबदि = शब्द में (जुड़ के)।
अर्थ: हे (जीव-) पपीहे! गुणवान (जीव-स्त्री) को ईश्वर का घर मिल जाता है, पर गुणहीन उससे सदा दूर रहती है। हे (जीव-) पपीहे! तेरे अंदर ही रब बसता है, गुरु के सन्मुख होने से सदा अंग-संग दिखता है (गुरु की शरण पड़ने से) किसी कूक-पुकार की जरूरत नहीं रहती, मेहर के साई की मेहरों से निहाल हो जाया जाता है। हे नानक! प्रभु के नाम में रंगे हुए बंदे गुरु के शब्द में (जुड़ के) घाल-कमाई करके आत्मिक अडोलता में टिके रह के उसको मिल जाते हैं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ बाबीहा बेनती करे करि किरपा देहु जीअ दान ॥ जल बिनु पिआस न ऊतरै छुटकि जांहि मेरे प्रान ॥ तू सुखदाता बेअंतु है गुणदाता नेधानु ॥ नानक गुरमुखि बखसि लए अंति बेली होइ भगवानु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ बाबीहा बेनती करे करि किरपा देहु जीअ दान ॥ जल बिनु पिआस न ऊतरै छुटकि जांहि मेरे प्रान ॥ तू सुखदाता बेअंतु है गुणदाता नेधानु ॥ नानक गुरमुखि बखसि लए अंति बेली होइ भगवानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ दान = आत्मिक जीवन की दाति। नेधानु = निधान, खजाना। जल = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल, अमृत। पिआस = तृष्णा। छुटकि जांहि = घबरा जाते हैं। प्रान = जिंद।
अर्थ: (जब) (जीव-) पपीहा (प्रभु के आगे) विनती करता है कि - (हे प्रभु!) मेहर करके मुझे जीवन-दाति बख्श; तेरे नाम-अमृत के बिना (मेरी) तृष्णा खत्म नहीं होती, (तेरे नाम के बिना) मेरी जिंद व्याकुल हो जाती है। तू सुख देने वाला है, तू बेअंत है, तू गुण बख्शने वाला है, और तू सारे गुणों का खजाना है। हे नानक! (यह बिनती सुन के) भगवान गुरु के सन्मुख हुए मनुष्य पर मेहर करता है और अंत के समय उसका सहायक बनता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे जगतु उपाइ कै गुण अउगण करे बीचारु ॥ त्रै गुण सरब जंजालु है नामि न धरे पिआरु ॥ गुण छोडि अउगण कमावदे दरगह होहि खुआरु ॥ जूऐ जनमु तिनी हारिआ कितु आए संसारि ॥ सचै सबदि मनु मारिआ अहिनिसि नामि पिआरि ॥ जिनी पुरखी उरि धारिआ सचा अलख अपारु ॥ तू गुणदाता निधानु हहि असी अवगणिआर ॥ जिसु बखसे सो पाइसी गुर सबदी वीचारु ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे जगतु उपाइ कै गुण अउगण करे बीचारु ॥ त्रै गुण सरब जंजालु है नामि न धरे पिआरु ॥ गुण छोडि अउगण कमावदे दरगह होहि खुआरु ॥ जूऐ जनमु तिनी हारिआ कितु आए संसारि ॥ सचै सबदि मनु मारिआ अहिनिसि नामि पिआरि ॥ जिनी पुरखी उरि धारिआ सचा अलख अपारु ॥ तू गुणदाता निधानु हहि असी अवगणिआर ॥ जिसु बखसे सो पाइसी गुर सबदी वीचारु ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाइ कै = पैदा करके। सरब जंजालु = निरा जंजाल, निरा विकारों में फसाने वाला मूल। नामि = नाम का। छोडि = छोड़ के। होहि = होते हैं। तिनी = उन्होंने। कितु = किस लिए? संसारि = संसार में। सबदि = शब्द से। मारिआ = वश में लाया। अहि = दिन। निसि = रात। पिआरि = प्यार से (गुजारते हैं)। पुरखी = पुरखों ने। उरि = हृदय में। निधानु = (सारे गुणों का) खजाना। हहि = तू है। गुर शबदी = गुरु के सबद से।
अर्थ: (प्रभु) स्वयं ही जगत बना के (जीवों के) गुणों और अवगुणों का लेखा करता है, (माया के) तीनों गुण (भी जो) निरे जंजाल (भाव, विकारों में फसाने वाले) ही हैं (ये भी प्रभु ने खुद ही रचे हैं, इसमें फंस के जगत) प्रभु के नाम में प्यार नहीं डालता; (इस वास्ते जीव) गुण छोड़ के अवगुण कमाते हैं और (आखिर) प्रभु की हजूरी में शर्मिंदे होते हैं। ऐसे जीव (जैसे) जूए में मनुष्य-जन्म हार जाते हैं, उनका जगत में आना किसी अर्थ का नहीं होता।
(पर) जिस मनुष्यों ने (गुरु के) सच्चे-शब्द के द्वारा अपना मन वश में कर लिया है, जो दिन-रात प्रभु के नाम में प्यार डालते हैं, जिन्होंने अपने हृदय में सदा कायम रहने वाला अदृश्य और बेअंत प्रभु बसाया है (वे इस तरह विनती करते हैं) - हे प्रभु! तू गुणों का दाता है, तू गुणों का खजाना है, हम जीव गुणहीन हैं”।
गुरु के शब्द से (ऐसी स्वच्छ) विचार वह मनुष्य प्राप्त करता है जिस पर (परमात्मा खुद) मेहर करता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ राति न विहावी साकतां जिन्हा विसरै नाउ ॥ राती दिनस सुहेलीआ नानक हरि गुण गांउ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ राति न विहावी साकतां जिन्हा विसरै नाउ ॥ राती दिनस सुहेलीआ नानक हरि गुण गांउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटा हुआ। विहावी = बीतती। सुहेलीआ = सुखी जीव स्त्रीयां।
अर्थ: जो लोग परमात्मा के चरणों से विछड़े हुए हैं, जिनको कर्तार का नाम भूला हुआ है उनकी रात बीतने में नहीं आती (भाव, उनकी जिंदगी रूपी रात दुखों में ही बीतती है; वे इतने दुखी होते हैं कि उनको उम्र भारी प्रतीत होती है)। पर, हे नानक! जो जीव-सि्त्रयाँ प्रभु के गुण गाती हैं उनके दिन-रात (भाव, सारी उम्र) सुख में गुजरते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ रतन जवेहर माणका हभे मणी मथंनि ॥ नानक जो प्रभि भाणिआ सचै दरि सोहंनि ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ रतन जवेहर माणका हभे मणी मथंनि ॥ नानक जो प्रभि भाणिआ सचै दरि सोहंनि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हभे = सारे। मथंनि = माथे पर। प्रभ भाणिआ = जो प्रभु को भा गए हैं। दरि = दर पर। सचै दरि = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। सोहंनि = शोभती है।
अर्थ: हे नानक! जो जीव प्रभु को प्यारे लगने लगे हैं वे उस सदा स्थिर रहने वाले के दर पर शोभा पाते हैं, उनके माथे पर (जैसे) सारे रत्न जवाहर मोती और मणिं हैं (भाव, गुणों के कारण उनके माथे पर नूर ही नूर है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सचा सतिगुरु सेवि सचु सम्हालिआ ॥ अंति खलोआ आइ जि सतिगुर अगै घालिआ ॥ पोहि न सकै जमकालु सचा रखवालिआ ॥ गुर साखी जोति जगाइ दीवा बालिआ ॥ मनमुख विणु नावै कूड़िआर फिरहि बेतालिआ ॥ पसू माणस चमि पलेटे अंदरहु कालिआ ॥ सभो वरतै सचु सचै सबदि निहालिआ ॥ नानक नामु निधानु है पूरै गुरि देखालिआ ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सचा सतिगुरु सेवि सचु सम्हालिआ ॥ अंति खलोआ आइ जि सतिगुर अगै घालिआ ॥ पोहि न सकै जमकालु सचा रखवालिआ ॥ गुर साखी जोति जगाइ दीवा बालिआ ॥ मनमुख विणु नावै कूड़िआर फिरहि बेतालिआ ॥ पसू माणस चमि पलेटे अंदरहु कालिआ ॥ सभो वरतै सचु सचै सबदि निहालिआ ॥ नानक नामु निधानु है पूरै गुरि देखालिआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो कुछ। सतिगुर अगै = गुरु के सन्मुख हो के। घालिआ = कमाई की। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। सभो = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सबदि = शब्द से। निधानु = खजाना। गुरि = गुरु ने। साखी = शिक्षा, वाणी। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी। बेतालिआ = बेताल, भूतप्रेत, सही जीवन चाल से उखड़े हुए। चंमि = चमड़ी से। निहालिआ = देखा, नजर आया।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने सच्चे गुरु के हुक्म में चल के सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की आराधना की, जो कमाई उन्होंने गुरु के सन्मुख हो के की है वह अंत समय (जब और सारे रास्ते खत्म हो जाते हैं) उनका साथ आ देती है। सच्चा प्रभु उनके सिर पर रखवाला होता है, इसलिए मौत का डर उनको छू नहीं सकता, गुरु की वाणी-रूप ज्योति (उन्होंने अपने अंदर) जगाई हुई है, वाणी रूपी दीया प्रज्जवलित किया हुआ है।
पर जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं वे प्रभु के नाम से वंचित होए हुए हैं और झूठ के व्यापारी हैं, बेताले भटकते फिरते हैं; वे (दरअसल) पशू हैं अंदर से काले हैं (देखने को) मनुष्य चमड़ी में लिपटे हुए हैं (भाव, देखने में मनुष्य दिखते हैं)।
(पर, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता) हर जगह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु स्वयं बसता है; ये बात गुरु के सच्चे शब्द के द्वारा ही देखी जा सकती है। हे नानक! प्रभु का नाम ही (असल) खजाना है जो पूरे गुरु ने (किसी भाग्यशाली को) दिखाया है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबीहै हुकमु पछाणिआ गुर कै सहजि सुभाइ ॥ मेघु वरसै दइआ करि गूड़ी छहबर लाइ ॥ बाबीहे कूक पुकार रहि गई सुखु वसिआ मनि आइ ॥ नानक सो सालाहीऐ जि देंदा सभनां जीआ रिजकु समाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबीहै हुकमु पछाणिआ गुर कै सहजि सुभाइ ॥ मेघु वरसै दइआ करि गूड़ी छहबर लाइ ॥ बाबीहे कूक पुकार रहि गई सुखु वसिआ मनि आइ ॥ नानक सो सालाहीऐ जि देंदा सभनां जीआ रिजकु समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबीहै = पपीहे ने। बाबीहे = पपीहे की।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इन दोनों शब्दों के ‘जोड़’ और ‘अर्थ’ में अंतर देखने योग्य है)।
दर्पण-भाषार्थ
समाइ = संबाहि, पहुँचा के, इकट्ठा कर के। सहजि = आत्मिक अडोलता में टिक के। गुर कै सुभाइ = गुरु के अनुसार चल के। छहबर = झड़ी। रहि गई = खत्म हो जाती है। मनि = मन में। जि = जो प्रभ।
अर्थ: जिस (जीव-) पपीहे ने आत्मिक अडोलता में टिक के गुरु के अनुसार चल के प्रभु का हुक्म समझा है, (सतिगुरु-) बादल मेहर कर के लंबी झड़ी लगा के (उस पर ‘नाम’-अमृत की) बरखा करता है, उस (जीव-) पपीहे की कूक पुकार खत्म हो जाती है, उसके मन में सुख आ बसता है।
हे नानक! जो प्रभु सब जीवों को रोज़ी पहुँचाता है, उसकी ही महिमा करनी चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ चात्रिक तू न जाणही किआ तुधु विचि तिखा है कितु पीतै तिख जाइ ॥ दूजै भाइ भरमिआ अम्रित जलु पलै न पाइ ॥ नदरि करे जे आपणी तां सतिगुरु मिलै सुभाइ ॥ नानक सतिगुर ते अम्रित जलु पाइआ सहजे रहिआ समाइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ चात्रिक तू न जाणही किआ तुधु विचि तिखा है कितु पीतै तिख जाइ ॥ दूजै भाइ भरमिआ अम्रित जलु पलै न पाइ ॥ नदरि करे जे आपणी तां सतिगुरु मिलै सुभाइ ॥ नानक सतिगुर ते अम्रित जलु पाइआ सहजे रहिआ समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कित पीतै = क्या पीने से? (‘सतिगुरु’ और ‘सतिगुर’ इन दोनो शब्दों के ‘जोड़’ और ‘अर्थ’ में फर्क देखने योग्य है)। सहजे = अडोलता में। न जाणही = तू नहीं जानता। दूजै भाइ = माया के मोह में। सतिगुर ते = गुरु से। अंम्रित जलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पलै न पाइ = नहीं मिलता। सुभाइ = उसकी रजा में।
अर्थ: हे पपीहे (जीव)! तुझे नहीं पता कि तेरे अंदर कौन सी प्यास है (जो तुझे भटकना में डाल रही है; ना ही तुझे यह पता है कि) क्या पीने से यह प्यास मिटेगी; तू माया के मोह में भटक रहा है, तुझे (प्यास मिटाने के लिए) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल नहीं मिलता।
अगर अकाल-पुरख अपनी मेहर की नजर करे तो उसकी रज़ा में गुरु मिल जाता है। हे नानक! गुरु से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल मिलता है (और उसकी इनायत से) अडोल अवस्था में टिके रहा जा जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इकि वण खंडि बैसहि जाइ सदु न देवही ॥ इकि पाला ककरु भंनि सीतलु जलु हेंवही ॥ इकि भसम चड़्हावहि अंगि मैलु न धोवही ॥ इकि जटा बिकट बिकराल कुलु घरु खोवही ॥ इकि नगन फिरहि दिनु राति नींद न सोवही ॥ इकि अगनि जलावहि अंगु आपु विगोवही ॥ विणु नावै तनु छारु किआ कहि रोवही ॥ सोहनि खसम दुआरि जि सतिगुरु सेवही ॥१५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इकि वण खंडि बैसहि जाइ सदु न देवही ॥ इकि पाला ककरु भंनि सीतलु जलु हेंवही ॥ इकि भसम चड़्हावहि अंगि मैलु न धोवही ॥ इकि जटा बिकट बिकराल कुलु घरु खोवही ॥ इकि नगन फिरहि दिनु राति नींद न सोवही ॥ इकि अगनि जलावहि अंगु आपु विगोवही ॥ विणु नावै तनु छारु किआ कहि रोवही ॥ सोहनि खसम दुआरि जि सतिगुरु सेवही ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वणखंडि = बन के खंड में, जंगल के किसी हिस्से में। सदु = आवाज। हेंवही = सहते हैं (‘जलु हेवत भूख अरु नंगा’ = कानड़ा म: ५)। इकि = कई (बहुवचन)। जाइ = जा के। अंगि = शरीर पर (शब्द ‘अंगि’ और छेवीं तुक के ‘अंगु’ का जोड़ और अर्थ विचारने = योग्य हैं)। बिकट = मुश्किल। बिकराल = डरावनी। आपु = अपने आप को। विगोवही = दुखी होते हैं। छारु = राख।
अर्थ: कई मनुष्य जंगल में किसी एकांत में जा बैठते हैं और मौन धार लेते हैं, कई पाला-ओस तोड़ के ठंडा पानी सहते हैं (भाव, उस ठंडे पानी में बैठते हैं, जिस पर बर्फ जमी हुई है), कई मनुष्य शरीर पर राख मलते हैं और (शरीर की) मैल कभी नहीं धोते (भाव, स्नान नहीं करते); कई मनुष्य मुश्किल डरावनी जटें बढ़ा लेते हैं (फकीर बन के अपनी) कुल और अपना घर गवा लेते हैं; कई लोग दिन रात नंगे फिरते हैं, कई सोते भी नहीं हैं। कई मनुष्य आग से अपना शरीर जलाते हैं (भाव, धूणियाँ जलाते हैं और इस तरह) अपना आप दुखी करते हैं।
पर प्रभु के नाम से वंचित रह के मनुष्य-शरीर व्यर्थ गवाया, वे अब क्या कह के रोएं? (स्मरण का मौका गवा के पछताने का कोई लाभ नहीं होता)
केवल वह जीव मालिक प्रभु की हजूरी में शोभायमान होते हैं जो गुरु के हुक्म में चलते हैं।15।
[[1285]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा अम्रित वेलै बोलिआ तां दरि सुणी पुकार ॥ मेघै नो फुरमानु होआ वरसहु किरपा धारि ॥ हउ तिन कै बलिहारणै जिनी सचु रखिआ उरि धारि ॥ नानक नामे सभ हरीआवली गुर कै सबदि वीचारि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबीहा अम्रित वेलै बोलिआ तां दरि सुणी पुकार ॥ मेघै नो फुरमानु होआ वरसहु किरपा धारि ॥ हउ तिन कै बलिहारणै जिनी सचु रखिआ उरि धारि ॥ नानक नामे सभ हरीआवली गुर कै सबदि वीचारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरि = (प्रभु के) दर पर। मेघै = (गुरु) बादल को। उरि = हृदय में।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘भूतकाल क्रिया’ का अर्थ ‘वर्तमान’ काल में करना है)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जब जीव-) पपीहा अमृत बेला में अरजोई करता है तो उसकी अरदास प्रभु के दर पर सुनी जाती है (प्रभु की ओर से गुरु-) बादलों को हुक्म देता है कि (इस आरजू करने वाले पर) मेहर करके (‘नाम’ की) बरखा करो।
जिस मनुष्यों ने सदा कायम रहने वाले प्रभु को अपने दिल में बसाया है, मैं उनसे सदके जाता हूँ। हे नानक! सतिगुरु के शब्द द्वारा (‘नाम’ की) विचार करने से (भाव, नाम स्मरण करने से) ‘नाम’ की इनायत से सारी सृष्टि हरी-भरी हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ बाबीहा इव तेरी तिखा न उतरै जे सउ करहि पुकार ॥ नदरी सतिगुरु पाईऐ नदरी उपजै पिआरु ॥ नानक साहिबु मनि वसै विचहु जाहि विकार ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ बाबीहा इव तेरी तिखा न उतरै जे सउ करहि पुकार ॥ नदरी सतिगुरु पाईऐ नदरी उपजै पिआरु ॥ नानक साहिबु मनि वसै विचहु जाहि विकार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इव = इस तरह। तिखा = माया की तृष्णा। सउ = सौ बार। करहि पुकार = तू तरले करे। नदरी = परमात्मा की मेहर की नजर से। पाईऐ = मिलता है। उपजै = पैदा होता है। मनि = मन में। जाहि = दूर हो जाते हैं।
अर्थ: हे (जीव-) पपीहे! अगर तू सौ बार तरले ले तो भी इस तरह तेरी (माया की) तृष्णा मिट नहीं सकती, (केवल) प्रभु की मेहर की नजर से ही गुरु मिलता है, और मेहर से ही हृदय में प्यार पैदा होता है। हे नानक! (जब अपनी मेहर से) मालिक प्रभु (जीव के) मन में आ बसता है तो (उसके अंदर से) सारे विकार नाश हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इकि जैनी उझड़ पाइ धुरहु खुआइआ ॥ तिन मुखि नाही नामु न तीरथि न्हाइआ ॥ हथी सिर खोहाइ न भदु कराइआ ॥ कुचिल रहहि दिन राति सबदु न भाइआ ॥ तिन जाति न पति न करमु जनमु गवाइआ ॥ मनि जूठै वेजाति जूठा खाइआ ॥ बिनु सबदै आचारु न किन ही पाइआ ॥ गुरमुखि ओअंकारि सचि समाइआ ॥१६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इकि जैनी उझड़ पाइ धुरहु खुआइआ ॥ तिन मुखि नाही नामु न तीरथि न्हाइआ ॥ हथी सिर खोहाइ न भदु कराइआ ॥ कुचिल रहहि दिन राति सबदु न भाइआ ॥ तिन जाति न पति न करमु जनमु गवाइआ ॥ मनि जूठै वेजाति जूठा खाइआ ॥ बिनु सबदै आचारु न किन ही पाइआ ॥ गुरमुखि ओअंकारि सचि समाइआ ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरहु = धुर से ही। भदु = सिर मुनवाना। वेजाति = कुजाति मनुष्य। आचारु = अच्छी रहन-सहन। ओअंकारि = अकाल-पुरख में। तीरथि = प्रभु तीर्थ पर (देखें पउड़ी 18, लाइन 4)। उझड़ = उजाड़ वाले रास्ते पर, गलत जीवन-राह पर। खुआइआ = सही रास्ते से टूटे हुए हैं। मुखि = मुँह में। हथी = हाथों से ही। कुचिल = गंदे। भाइआ = अच्छा लगा। पति = इज्जत। मनि जूठै = झूठे मन के कारण, ‘नाम’ के बग़ैर के कारण। किन ही = किनि ही, किसी ने ही। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कई लोग (जो) जैनी (कलहवाते हैं) प्रभु ने उजाड़ की ओर डाल के शुरू से ही गलत राह पर डाल दिए हैं; उनके मुँह पर कभी प्रभु का नाम नहीं आता, ना ही वह (प्रभु) तीर्थ पर स्नान करते हैं; वे सिर नहीं मुँडवाते, हाथों से सिर (के बाल) उखाड़ लेते हैं, दिन-रात गंदे रहते हैं; उन्हें गुरु-शब्द अच्छा नहीं लगता। यह लोग जनम (व्यर्थ ही) गवाते हैं, कोई काम ऐसा नहीं करते जिससे अच्छी जाति समझे जा सकें अथवा इज्जत पा सकें; ये कुजाति लोग मन से भी झूठे हैं और झूठा भोजन ही खाते हैं।
(हे भाई!) गुरु के शब्द के बिना किसी ने भी अच्छी रहन-सहन नहीं पाई। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है वह सदा-स्थिर रहने वाले अकाल पुरख में टिका रहता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ सावणि सरसी कामणी गुर सबदी वीचारि ॥ नानक सदा सुहागणी गुर कै हेति अपारि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ सावणि सरसी कामणी गुर सबदी वीचारि ॥ नानक सदा सुहागणी गुर कै हेति अपारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरसी = स+रसी, रस वाली। सावणि = सावन (के महीने) में। कामणी = स्त्री, जीव-स्त्री। सबदी = शब्द से। वीचारि = विचार करके। हेति अपारि = अपार हित के कारण।
अर्थ: (जैसे) सावन के महीने में (वर्षा से सारे पौधे हरे हो जाते हैं; वैसे ही) जीव-स्त्री सतिगुरु के शब्द से ‘नाम’ की विचार कर के (‘नाम’ की बरसात से) रस वाली (रसिए जीवन वाली) हो जाती है। हे नानक! सतिगुरु के साथ अपार प्यार करने से जीव-स्त्री सदा सोहागवती रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सावणि दझै गुण बाहरी जिसु दूजै भाइ पिआरु ॥ नानक पिर की सार न जाणई सभु सीगारु खुआरु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ सावणि दझै गुण बाहरी जिसु दूजै भाइ पिआरु ॥ नानक पिर की सार न जाणई सभु सीगारु खुआरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दझै = जलती है। गुण बाहरी = गुणों से वंचित। दूजै भाइ = दूसरी तरफ, माया की ओर। सार = कद्र। जाणई = जानती, जाने।
अर्थ: (जैसे) सावन के महीने में (वर्षा होने पर अन्य सभी वण-तृण हरे हो जाते हैं, पर आक और जिवाह झुलस जाते हैं, वैसे ही नाम-अमृत की बरसात होने पर) गुण-विहीन जीव-स्त्री (बल्कि) जलती है क्योंकि उसका प्यार दूसरी तरफ है। हे नानक! स्त्री को पति की कद्र नहीं पड़ी, उसका (अन्य) सारा श्रृंगार (उसको) दुखी करने वाला ही है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सचा अलख अभेउ हठि न पतीजई ॥ इकि गावहि राग परीआ रागि न भीजई ॥ इकि नचि नचि पूरहि ताल भगति न कीजई ॥ इकि अंनु न खाहि मूरख तिना किआ कीजई ॥ त्रिसना होई बहुतु किवै न धीजई ॥ करम वधहि कै लोअ खपि मरीजई ॥ लाहा नामु संसारि अम्रितु पीजई ॥ हरि भगती असनेहि गुरमुखि घीजई ॥१७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सचा अलख अभेउ हठि न पतीजई ॥ इकि गावहि राग परीआ रागि न भीजई ॥ इकि नचि नचि पूरहि ताल भगति न कीजई ॥ इकि अंनु न खाहि मूरख तिना किआ कीजई ॥ त्रिसना होई बहुतु किवै न धीजई ॥ करम वधहि कै लोअ खपि मरीजई ॥ लाहा नामु संसारि अम्रितु पीजई ॥ हरि भगती असनेहि गुरमुखि घीजई ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभेउ = जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। पतीजई = पतीजै, पतीजता, खुश होता। इकि = कई। गावहि = गाते हैं। नचि = नाच के। पूरहि ताल = ताल देते हैं, जोड़ी के ताल से अपने पैरों का ताल मिलाते हैं। किवै = किसी तरह भी। संसारि = संसार में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। परीआ = रागनियां। धीजई = धीरज आती। कै लोअ = कई लोक (धरतियों) के। घीजई = भीगता है। वधहि = बढ़ते हैं। असनेहि = स्नेह से, प्यार से (शब्द ‘असनेहि’ का अर्थ ‘प्यार’ गलत है; इसी ही पउड़ी में देखो ‘हठि’ हठ से; ‘रागि’ = राग से)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
नोट: शब्द ‘वधहि’ का ‘बंधे हैं’ करना गलत है। ‘वधहि’ वर्तमान काल, अन्य-पुरुष, बहुवचन है; जैसे इसी पउड़ी का शब्द ‘गावहि’, ‘पूरहि’, ‘खाहि’ हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जीवों के) हठ से (भाव, किसी हठ-करम से) वह सच्चा प्रभु राजी नहीं होता जो अदृश्य है और जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। कई लोग राग-रागनियां गाते हैं, पर प्रभु राग से भी नहीं प्रसन्न होता; कई लोग नाच-नाच के ताल पूरते हैं, पर (इस तरह भी) भक्ति नहीं की जा सकती; कई मूर्ख लोग अन्न नहीं खाते, पर (बताओ) इनका क्या किया जाए? (इनको कैसे समझाएं कि इस तरह प्रभु खुश नहीं किया जा सकता)। (जीव की) बढ़ी हुई तृष्णा (इन हठ-कर्मों से) किसी भी तरह से शांत नहीं की जा सकती; चाहे कई और धरतियों (के बँदों के) कर्मकांड (यहाँ) बढ़ जाएं (तब भी) खप के ही मरते हैं।
जगत में प्रभु का ‘नाम’ ही कमाई है, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल ही पीना चाहिए। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु की बँदगी से तथा प्रभु के प्यार से भीगता है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि मलार रागु जो करहि तिन मनु तनु सीतलु होइ ॥ गुर सबदी एकु पछाणिआ एको सचा सोइ ॥ मनु तनु सचा सचु मनि सचे सची सोइ ॥ अंदरि सची भगति है सहजे ही पति होइ ॥ कलिजुग महि घोर अंधारु है मनमुख राहु न कोइ ॥ से वडभागी नानका जिन गुरमुखि परगटु होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि मलार रागु जो करहि तिन मनु तनु सीतलु होइ ॥ गुर सबदी एकु पछाणिआ एको सचा सोइ ॥ मनु तनु सचा सचु मनि सचे सची सोइ ॥ अंदरि सची भगति है सहजे ही पति होइ ॥ कलिजुग महि घोर अंधारु है मनमुख राहु न कोइ ॥ से वडभागी नानका जिन गुरमुखि परगटु होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सोइ = शोभा। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में।
अर्थ: (आम प्रचलित ख्याल यह है कि जब कोई मनुष्य ‘मलार’ राग गाता है तो घटा छा जाती है और बरसात होने लगती है, पर) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के मलार राग गाते हैं (नाम-जल की वर्षा के साथ) उनका मन और शरीर ठंडे हो जाते हैं (भाव, उनके मन में और इन्द्रियों में शांति आ जाती है) क्योंकि सतिगुरु के शब्द से वे उस एक प्रभु को पहचानते हैं (प्रभु के साथ गहरी सांझ डालते हैं) जो सदा कायम रहने वाला है। उनका मन और तन सच्चे का रूप हो जाता है (भाव, मन और शरीर सच्चे के प्रेम में रंगे जाते हैं), सच्चा प्रभु उनके मन में बस जाता है और सच्चे का रूप हो जाने के कारण उनकी शोभा सदा-स्थिर हो जाती है। उनके अंदर सदा-स्थिर भक्ति पैदा होती है, सदा आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उनको इज्जत मिलती है।
कलियुग में (भाव, इस विषौ-विकारों से भरे जगत में विकारों का) घोर अंधकार है, (अपने) मन के पीछे चलने वाले लोगों को (इस अंधकार में से निकलने के लिए) रास्ता नहीं मिलता।
हे नानक! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जिनके अंदर परमात्मा गुरु के माध्यम से प्रकट होता है।1।
[[1286]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ इंदु वरसै करि दइआ लोकां मनि उपजै चाउ ॥ जिस कै हुकमि इंदु वरसदा तिस कै सद बलिहारै जांउ ॥ गुरमुखि सबदु सम्हालीऐ सचे के गुण गाउ ॥ नानक नामि रते जन निरमले सहजे सचि समाउ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ इंदु वरसै करि दइआ लोकां मनि उपजै चाउ ॥ जिस कै हुकमि इंदु वरसदा तिस कै सद बलिहारै जांउ ॥ गुरमुखि सबदु सम्हालीऐ सचे के गुण गाउ ॥ नानक नामि रते जन निरमले सहजे सचि समाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इंदु = राजा इन्द्र, (भाव) बादल। करि = कर के। मनि = मन में। कै हुकमि = के हुक्म अनुसार। सद = सदा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। समालीऐ = हृदय में संभाला जा सकता है। नामि = नाम में। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में टिक के। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समाउ = लीनता।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस कै’ में से संबंधक ‘कै’ के कारण शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा उड़ गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जब मेहर करके इन्द्र बरखा करता है, लोगों के मन में खुशी पैदा होती है, पर मैं उस प्रभु से सदके जाता हूँ जिसके हुक्म से इन्द्र बरखा करता है।
गुरु के सन्मुख होने से ही (प्रभु के महिमा का) शब्द (हृदय में) संभाला जा सकता है और सदा-स्थिर हरि के गुण गाए जा सकते हैं। हे नानक! वे मनुष्य पवित्र हैं जो प्रभु के नाम में रंगे हुए हैं, वे आत्मिक अडोलता के द्वारा सदा-स्थिर प्रभु में जुड़े रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ पूरा सतिगुरु सेवि पूरा पाइआ ॥ पूरै करमि धिआइ पूरा सबदु मंनि वसाइआ ॥ पूरै गिआनि धिआनि मैलु चुकाइआ ॥ हरि सरि तीरथि जाणि मनूआ नाइआ ॥ सबदि मरै मनु मारि धंनु जणेदी माइआ ॥ दरि सचै सचिआरु सचा आइआ ॥ पुछि न सकै कोइ जां खसमै भाइआ ॥ नानक सचु सलाहि लिखिआ पाइआ ॥१८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ पूरा सतिगुरु सेवि पूरा पाइआ ॥ पूरै करमि धिआइ पूरा सबदु मंनि वसाइआ ॥ पूरै गिआनि धिआनि मैलु चुकाइआ ॥ हरि सरि तीरथि जाणि मनूआ नाइआ ॥ सबदि मरै मनु मारि धंनु जणेदी माइआ ॥ दरि सचै सचिआरु सचा आइआ ॥ पुछि न सकै कोइ जां खसमै भाइआ ॥ नानक सचु सलाहि लिखिआ पाइआ ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमि = बख्शिश से। मंनि = मन में। गिआनि = ज्ञान से। जणेदी = पैदा करने वाली। माइआ = माँ। सलाहि = कीर्ति कर के। हरि सरि = प्रभु रूप तालाब में, हरि नाम के समुंदर में। जाणि = जान के, समझ के। मनूआ = सोहाना मन। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ, परमात्मा के साथ जान पहचान। गिआनि = प्रभु के साथ गहरी सांझ से। धिआनि = अडोल जुड़ी तवज्जो से। तीरथि = तीर्थ पर। जाणि = जान के, सूझ हासिल कर के। सबदि = शब्द से। मारि = मार के, वश में ला के। दरि सचै = सदा कायम रहने वाले प्रभु के दर पर। सचिआरु = सही रास्ते पर चलने वाला।
अर्थ: जिस ने पूरे गुरु का हुक्म माना है उसको पूरा प्रभु मिल जाता है; पूरे (भाव, अचूक) प्रभु की बख्शिश से प्रभु को स्मरण करके महिमा की वाणी वह मनुष्य अपने मन में बसाता है; पूरन आत्मिक समझ और अडोल तवज्जो की इनायत से वह अपने मन की मैल दूर करता है (इस तरह उसका) सुंदर (हुआ) मन आत्मिक जीवन की सूझ हासिल करके प्रभु-रूप सरोवर में प्रभु-रूप तीर्थ पर स्नान करता है।
उस मनुष्य की माँ भाग्यों वाली है, जो गुरु-शब्द से मन को वश में ला के (माया के मोह से, जैसे) मर जाता है; वह मनुष्य सच्चे प्रभु की हजूरी में सच्चा और सत्य का व्यापारी माना जाता है। उस मनुष्य के जीवन पर कोई और उंगली नहीं उठा सकता क्योंकि वह पति-प्रभु को भा जाता है। हे नानक! सदा-स्थिर प्रभु के गुण गा के वह (महिमा-रूप माथे पर) लिखे (भाग्य) हासिल कर लेता है।18।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस पौड़ी की चौथी तुक में शब्द ‘हरि सरि’ को ध्यान से पढ़ें। रामकली राग की वाणी ‘सदु’ की पाँचवीं पौड़ी में भी यही शब्द ‘हरि सरि पावऐ’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ कुलहां देंदे बावले लैंदे वडे निलज ॥ चूहा खड न मावई तिकलि बंन्है छज ॥ देन्हि दुआई से मरहि जिन कउ देनि सि जाहि ॥ नानक हुकमु न जापई किथै जाइ समाहि ॥ फसलि अहाड़ी एकु नामु सावणी सचु नाउ ॥ मै महदूदु लिखाइआ खसमै कै दरि जाइ ॥ दुनीआ के दर केतड़े केते आवहि जांहि ॥ केते मंगहि मंगते केते मंगि मंगि जाहि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ कुलहां देंदे बावले लैंदे वडे निलज ॥ चूहा खड न मावई तिकलि बंन्है छज ॥ देन्हि दुआई से मरहि जिन कउ देनि सि जाहि ॥ नानक हुकमु न जापई किथै जाइ समाहि ॥ फसलि अहाड़ी एकु नामु सावणी सचु नाउ ॥ मै महदूदु लिखाइआ खसमै कै दरि जाइ ॥ दुनीआ के दर केतड़े केते आवहि जांहि ॥ केते मंगहि मंगते केते मंगि मंगि जाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुलह = टोपी (भाव, वह सेहली-टोपी जो एक मुरशिद अपने किसी चेले को अपने पीछे अपनी गद्दी पर बैठाने के समय देता है)।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इस शलोक के होते हुए गुरु घर में ‘सेहली टोपी’ का रिवाज बताना निरी बनावटी बात है)।
नोट: ‘समाहि’ पड़ते हैं (यहॉ। पाठ ‘समाइ’ नहीं है, ‘समाय’ और ‘समाहि’ में फर्क है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिकलि = कमर से। दुआई = आशीशें, दुआएं। महदूदु = हद में लाई हुई चीज, एक जाना माना परवाना। दर = (पीरों मुरशिदों के) दरवाजे। बावले = मूर्ख। निलज = बेशर्म। न मावई = घुस नहीं सकता, नहीं समा रहा। देन्हि = देते हैं। सि = वह लोग भी। न जापई = समझा नहीं जा सकता, न जापे। जाइ = जा के। कै दरि = के दर पर।
अर्थ: वे लोग मूर्ख हैं जो (चेलों को) (सेहली-) टोपी देते हैं (और अपने आप को मशहूर करने के लिए अपनी जगह गद्दी देते हैं; यह सेहली टोपी) लेने वाले भी बदीद हैं (जो केवल सेहली टोपी से अपने आप को इनायत देने के समर्थ समझ लेते हैं) (इनकी हालत तो इस तरह है जैसे) चूहा (खुद तो) बिल में (घुस) नहीं सकता (और ऊपर से) कमर के साथ छज (छन्ना) बाँध लेता है।
हे नानक! (इस तरह की गद्दियाँ स्थापित करके) जो और लोगों को आशीशें देते हैं वे भी मर जाते हैं और आशिर्वाद लेने वाले भी मर जाते हैं, पर परमात्मा की रजा समझी नहीं जा सकती कि वह (मर के) कहाँ जा पड़ते हैं (भाव, सिर्फ सेहली टोपी और आर्शीवाद प्रभु की हजूरी में स्वीकार होने के लिए काफी नहीं हैं; मुर्शिद की चेले को आशीश और सेहली टोपी जीवन का सही रास्ता नहीं है)।
मैंने तो सिर्फ ‘नाम’ को ही हाड़ी की फसल बनाया है और सच्चा ‘नाम’ ही साउणी की फसल, (भाव, ‘नाम’ ही मेरे जीवन-सफर की पूंजी है), यह मैंने एक ऐसा पट्टा लिखाया है जो पति-प्रभु की हजूरी में जा पहुँचता है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पीर अपने चेलों से हाड़ी-साउणी की फसल के वक्त जा के कार-भेट लेते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: दुनिया के (पीरों-मुरशिदों के तो) बड़े अड्डे हैं, कई यहाँ आते हैं और जाते हैं; कई भिखारी इनसे माँगते हैं और कई माँग-माँग के चले जाते हैं (पर प्रभु का ‘नाम’-रूप पट्टा इनसे नहीं मिल सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सउ मणु हसती घिउ गुड़ु खावै पंजि सै दाणा खाइ ॥ डकै फूकै खेह उडावै साहि गइऐ पछुताइ ॥ अंधी फूकि मुई देवानी ॥ खसमि मिटी फिरि भानी ॥ अधु गुल्हा चिड़ी का चुगणु गैणि चड़ी बिललाइ ॥ खसमै भावै ओहा चंगी जि करे खुदाइ खुदाइ ॥ सकता सीहु मारे सै मिरिआ सभ पिछै पै खाइ ॥ होइ सताणा घुरै न मावै साहि गइऐ पछुताइ ॥ अंधा किस नो बुकि सुणावै ॥ खसमै मूलि न भावै ॥ अक सिउ प्रीति करे अक तिडा अक डाली बहि खाइ ॥ खसमै भावै ओहो चंगा जि करे खुदाइ खुदाइ ॥ नानक दुनीआ चारि दिहाड़े सुखि कीतै दुखु होई ॥ गला वाले हैनि घणेरे छडि न सकै कोई ॥ मखीं मिठै मरणा ॥ जिन तू रखहि तिन नेड़ि न आवै तिन भउ सागरु तरणा ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ सउ मणु हसती घिउ गुड़ु खावै पंजि सै दाणा खाइ ॥ डकै फूकै खेह उडावै साहि गइऐ पछुताइ ॥ अंधी फूकि मुई देवानी ॥ खसमि मिटी फिरि भानी ॥ अधु गुल्हा चिड़ी का चुगणु गैणि चड़ी बिललाइ ॥ खसमै भावै ओहा चंगी जि करे खुदाइ खुदाइ ॥ सकता सीहु मारे सै मिरिआ सभ पिछै पै खाइ ॥ होइ सताणा घुरै न मावै साहि गइऐ पछुताइ ॥ अंधा किस नो बुकि सुणावै ॥ खसमै मूलि न भावै ॥ अक सिउ प्रीति करे अक तिडा अक डाली बहि खाइ ॥ खसमै भावै ओहो चंगा जि करे खुदाइ खुदाइ ॥ नानक दुनीआ चारि दिहाड़े सुखि कीतै दुखु होई ॥ गला वाले हैनि घणेरे छडि न सकै कोई ॥ मखीं मिठै मरणा ॥ जिन तू रखहि तिन नेड़ि न आवै तिन भउ सागरु तरणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सउ मणु, पंजि सै (मण) = (भाव) बहुत सारा कई मनों में। डकै = डकारता है। फूकै = फूकें मारता है, शूकता है। साहि गइऐ = जब जिंद निकल जाती है। पछुताइ = (भाव,) वह डरावनी फूके मारनी समाप्त हो जाती है। फूकि = फूकें मार के, (भाव,) अहंकार में। मिटी = समाई। भानी = अच्छी लगी। गुला = गुल्ली। गैणि = आकाश में। सकता = बलवान। सीहु = शेर। मिरिआ = मृगों को। सताणा = तगड़ा। घुरै = घुरने में। बुकि = बुक के, गरज के। ओहा = वह चिड़िया ही। ओहो = वह (आक तिड्डा ही)। आक तिड्डा = धतूरे पर बैठने वाला टिड्डा। सुखि कीतै = मौज माणने से। मखीं = मक्खियों ने। मिठै = मिठास में। भउ सागरु = संसार समुंदर। पिछै पै = पीछे चल के। खाइ = खाती है। सै = सैंकड़ों।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
नोट: ‘ओहा’ स्त्रीलिंग है और ‘ओहो’ पुलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हाथी कितना ही घी-गुड़ और कई मन दाना खाता है; (तृप्त हो के) डकारता है, फुंकारे मारता है, मिट्टी (सूंड से) उड़ाता है, पर जब साँस निकल जाते हैं तब वह डकारना फूंके मारना खत्म हो जाता है। (धन-पदार्थ के घमण्ड में) अंधी और कमली (हुई दुनिया भी हाथी ही की तरह) फूंके मार-मार के मरती है; (आत्मिक मौत सहेड़ती है)। अगर (अहंकार गवा के) पति में समाए तो पति को भाती है।
चिड़ी की चोग है आधा दाना (भाव, बहुत थोड़ा सा) (एक थोड़ी सी चोग चुग के) वह आकाश में उड़ती है और बोलती है; यदि वह मालिक प्रभु को याद करती है और उसको भाती है तो वह चिड़िया ही अच्छी है (डकार और फूकें मारने वाले हाथी से बेहतर तो एक छोटी सी चिड़िया ही है)।
एक बली शेर सैकड़ों मृगों को मारता है, उस शेर के पीछे कई और जंगली पशू भी पेट भरते हैं। ताकत के गुमान में वह शेर अपने घुरने में नहीं समाता, पर जब उसके साँस निकल जाते हैं तब उसका गरजना खत्म हो जाता है। वह अंधा किसको गरज-गरज के सुनाता है? पति-प्रभु को तो उसका गरजना अच्छा नहीं लगता। (इस शेर के मुकाबले पर, देखिए,) आक टिड्डा, धतूरे से प्यार करता है, धतूरे की डाली पर बैठ के धतूरा ही खाता है; पर अगर वह मालिक प्रभु को याद करता है तो उसको भाता है तो (दहाड़-दहाड़ के और लोगों को डराने वाले शेर से तो) वह आक टिड्डा ही अच्छा है।
हे नानक! दुनिया (में जीना) चार दिनों का है, यहाँ पर मौज माणने से दुख ही निकलता है, (इस दुनिया की मिठास ऐसी है कि ज़बानी ज्ञान की) बातें करने वाले तो बहुत हैं पर (इस मिठास को) कोई छोड़ नहीं सकता।
मक्खियां इस मिठास पर मरती हैं। पर, हे प्रभु! जिनको तू बचाऐ, उनके नजदीक यह मिठास नहीं फटकती, वे संसार-समुंदर से (साफ) तैर के निकल जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अगम अगोचरु तू धणी सचा अलख अपारु ॥ तू दाता सभि मंगते इको देवणहारु ॥ जिनी सेविआ तिनी सुखु पाइआ गुरमती वीचारु ॥ इकना नो तुधु एवै भावदा माइआ नालि पिआरु ॥ गुर कै सबदि सलाहीऐ अंतरि प्रेम पिआरु ॥ विणु प्रीती भगति न होवई विणु सतिगुर न लगै पिआरु ॥ तू प्रभु सभि तुधु सेवदे इक ढाढी करे पुकार ॥ देहि दानु संतोखीआ सचा नामु मिलै आधारु ॥१९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अगम अगोचरु तू धणी सचा अलख अपारु ॥ तू दाता सभि मंगते इको देवणहारु ॥ जिनी सेविआ तिनी सुखु पाइआ गुरमती वीचारु ॥ इकना नो तुधु एवै भावदा माइआ नालि पिआरु ॥ गुर कै सबदि सलाहीऐ अंतरि प्रेम पिआरु ॥ विणु प्रीती भगति न होवई विणु सतिगुर न लगै पिआरु ॥ तू प्रभु सभि तुधु सेवदे इक ढाढी करे पुकार ॥ देहि दानु संतोखीआ सचा नामु मिलै आधारु ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगोचरु = (गो = इंद्रिय। चरु = पहुँच। गोचरु = जिस तक इन्द्रियों की पहुँच हो सके) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। धणी = मालिक। वीचारु = समझ। इकना नो = कई जीवों को। इक पुकार = एक ऐसी आरजू। संतोखीआ = मैं संतोषी हो जाऊँ। आधारु = आसरा। सभि = सारे। एवै भावदा = ऐसे ही अच्छा लगता है। तुधु = तुझे।
अर्थ: हे प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे)! तू (मनुष्य की) इन्द्रि्रयों की पहुँच से परे है, तू सबका मालिक है, सदा स्थिर है, अदृश्य है और बेअंत है। सारे जीव भिखारी हैं तू दाता है, तू एक ही सबको देने वाला है।
जिस मनुष्यों ने गुरु की मति के द्वारा (उच्च) समझ हासिल करके तुझे स्मरण किया है उन्होंने सुख प्राप्त किया है; पर, हे प्रभु! कई जीवों को तूने माया से प्यार करना ही दिया है, तुझे इस तरह ही अच्छा लगता है।
सतिगुरु के शब्द से हृदय में प्रेम-प्यार पैदा करके ही परमात्मा की महिमा की जा सकती है। प्रेम के बिना बँदगी नहीं हो सकती, और प्रेम सतिगुरु के बिना नहीं मिलता।
तू सबका मालिक है, सारे जीव तुझे ही स्मरण करते हैं; मैं (तेरा) ढाढी (तेरे आगे) एक यही अरजोई करता है -हे प्रभु! मुझे अपना ‘नाम’ बख्श, मुझे तेरा नाम सदा कायम रहने वाला नाम ही (जिंदगी का) आसरा मिले, (जिसकी इनायत से) मैं संतोष वाला हो जाऊँ।19।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ राती कालु घटै दिनि कालु ॥ छिजै काइआ होइ परालु ॥ वरतणि वरतिआ सरब जंजालु ॥ भुलिआ चुकि गइआ तप तालु ॥ अंधा झखि झखि पइआ झेरि ॥ पिछै रोवहि लिआवहि फेरि ॥ बिनु बूझे किछु सूझै नाही ॥ मोइआ रोंहि रोंदे मरि जांहीं ॥ नानक खसमै एवै भावै ॥ सेई मुए जिन चिति न आवै ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ राती कालु घटै दिनि कालु ॥ छिजै काइआ होइ परालु ॥ वरतणि वरतिआ सरब जंजालु ॥ भुलिआ चुकि गइआ तप तालु ॥ अंधा झखि झखि पइआ झेरि ॥ पिछै रोवहि लिआवहि फेरि ॥ बिनु बूझे किछु सूझै नाही ॥ मोइआ रोंहि रोंदे मरि जांहीं ॥ नानक खसमै एवै भावै ॥ सेई मुए जिन चिति न आवै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राती दिन = दिन रात से; भाव ज्यों ज्यों दिन रात बीतते हैं। कालु = जिंदगी का समय। काइआ = शरीर। छिजै = पुराना हो रहा है, बिरध हो रहा है। परालु = पराली की तरह थोथा कमजोर। वरतणि = जगत का बरतण व्यवहार। जंजालु = फंदा, जाल। तप तालु = तप की विधि, बंदगी का तरीका। झेरि = झेड़े में, चक्कर में। लिआवहि फेरि = वापस ले आएं। रोंहि = रोते हैं। मरि जांही = खपते हैं।
अर्थ: ज्यों ज्यों रात दिन बीतते हैं उम्र का समय कम होता है, शरीर बुड्ढा होता जाता है और कमजोर पड़ता जाता है; जगत का वर्तण-व्यवहार (जीव के लिए) सारा जंजाल बनता जाता है (इसमें) भूले हुए को बँदगी की विधि बिसर जाती है। (जगत के वर्तण-व्यवहार में) अंधा हुआ जीव (इसमें) झखें मार-मार के (किसी लंबे) झमेले में पड़ता है, और, (उसके मरने के) बाद (उसके सन्बंधी) रोते हैं (और विरलाप करते हैं कि उसे कैसे) वापस ले आएं।
समझने के बिना जगत को (वर्तण-व्यवहार में) कुछ सूझता नहीं, (मरने वाला तो) मर गया, (पीछे बचे हुए) रोते हैं और रो-रो के खपते हैं। पर, हे नानक! पति-प्रभु को ऐसा ही अच्छा लगता है (कि जीव इसी तरह खपते रहें)।
(असल में) आत्मिक मौत मरे हुए वही हैं जिनके हृदय में प्रभु नहीं बसता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ मुआ पिआरु प्रीति मुई मुआ वैरु वादी ॥ वंनु गइआ रूपु विणसिआ दुखी देह रुली ॥ किथहु आइआ कह गइआ किहु न सीओ किहु सी ॥ मनि मुखि गला गोईआ कीता चाउ रली ॥ नानक सचे नाम बिनु सिर खुर पति पाटी ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ मुआ पिआरु प्रीति मुई मुआ वैरु वादी ॥ वंनु गइआ रूपु विणसिआ दुखी देह रुली ॥ किथहु आइआ कह गइआ किहु न सीओ किहु सी ॥ मनि मुखि गला गोईआ कीता चाउ रली ॥ नानक सचे नाम बिनु सिर खुर पति पाटी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वादी = वाद विवाद करने वाला, (वाद = झगड़ा) झगड़ों का मूल (जैसे ‘धन’ से ‘धनी’)। वंनु = रंग। दुखी देह = बेचारा शरीर। कह = कहाँ? किहु न सीओ = यह कुछ वह नहीं था। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। गोईआ = कहीं। रली = रलियां। सिर खुर = सिर से पैरों तक, सारी की सारी। पति = इज्जत।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ऐसा मालूम होता है कि इस शब्द के उच्चारण के वक्त गुरु नानक साहिब के सामने अभी ऐमनाबाद के कत्लेआम की घटना ताज़ा थी, जहाँ स्त्रीयों की बेइज्जती के बारे में उन्होंने ये दर्द भरे वचन उचारे थे = ‘इकना पेरण सिरखुर पाटे इकना वासु मसाणी’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जब मनुष्य मर जाता है तो उसका वह) प्रीत-प्यार समाप्त हो जाता है (जो वह अपने सम्बन्धियों के साथ करता था) झगड़ों का मूल वैर भी खत्म हो जाता है; (शरीर का सुंदर) रंग-रूप नाश हो जाता है, बेचारा शरीर भी भूल जाता है (आग व मिट्टी आदि के हवाले हो जाता है)। (उसके संबन्धि व भाईचारे के लोग) मन में (विचार करते हैं) और मुँह से बातें करते हैं कि वह कहाँ से आया था और कहाँ चला गया। (भाव जहाँ से आया था वहीं चला गया) वह ऐसा नहीं था और इस प्रकार का था (भाव, उसमें फलाणे ऐब नहीं थे, और उसमें फलाणे गुण थे), वह बड़े चाव से रलियां माण गया है।
पर, हे नानक! (लोग जो चाहे कहें) परमात्मा के नाम के बिना (लोगों द्वारा होई हुई) सारी की सारी इज्जत बेकार हो गई (समझो)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता अंते होइ सखाई ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना नावै सार न पाई ॥ सतिगुरु सेवहि से परवाणु जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ सो साहिबु सो सेवकु तेहा जिसु भाणा मंनि वसाई ॥ आपणै भाणै कहु किनि सुखु पाइआ अंधा अंधु कमाई ॥ बिखिआ कदे ही रजै नाही मूरख भुख न जाई ॥ दूजै सभु को लगि विगुता बिनु सतिगुर बूझ न पाई ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए जिस नो किरपा करे रजाई ॥२०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता अंते होइ सखाई ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना नावै सार न पाई ॥ सतिगुरु सेवहि से परवाणु जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ सो साहिबु सो सेवकु तेहा जिसु भाणा मंनि वसाई ॥ आपणै भाणै कहु किनि सुखु पाइआ अंधा अंधु कमाई ॥ बिखिआ कदे ही रजै नाही मूरख भुख न जाई ॥ दूजै सभु को लगि विगुता बिनु सतिगुर बूझ न पाई ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए जिस नो किरपा करे रजाई ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखाई = सखा, मित्र। बउराना = कमला सा। सार = कद्र, सूझ। जोति = जिंद, सोच, ध्यान। मंनि = मन में। कहु किनि = बता किसने? (भाव,) किसी ने नहीं। अंधु = अंधापन, अंधों वाला काम। बिखिआ = माया। विगुता = दुखी होता है। रजाई = रजा का मालिक प्रभु। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। नावै = नाम की। जिसु मंनि = जिसके मन में। सभु को = हरेक जीव। लगि = लग के। दूजै = (परमात्मा के बिना) अन्य (के प्यार) में। बूझ = समझ। जोती = परमात्मा में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा सुख देने वाला है, आखिर (‘नाम’ ही) मित्र बनता है। पर, जगत, गुरु के बिना कमला सा हो रहा है, (क्योंकि गुरु के बिना इसको) नाम की कद्र नहीं पड़ती।
जो लोग गुरु के कहे अनुसार चलते हैं (और इस तरह) जिन्होंने प्रभु में अपनी तवज्जो जोड़ी हुई है वे (प्रभु-दर पर) स्वीकार हैं। जिस मनुष्य को प्रभु अपना भाणा (मीठा करके) मनाता है वह सेवक वैसा ही हो जाता है जैसा प्रभु मालिक है।
अपनी मर्जी के मुताबिक चलके कभी कोई मनुष्य सुख नहीं पाता, अंधा सदा अंधों वाले काम ही करता है; मूर्ख की (माया की) भूख कभी खत्म नहीं होती, माया में कभी वह तृप्त नहीं होता। माया में लग के हर कोई दुखी ही होता है, गुरु के बिना समझ नहीं पड़ती (कि माया का मोह दुख का मूल है)।
जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है वह गुरु के कहे अनुसार चलता है और सुख पाता है।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ सरमु धरमु दुइ नानका जे धनु पलै पाइ ॥ सो धनु मित्रु न कांढीऐ जितु सिरि चोटां खाइ ॥ जिन कै पलै धनु वसै तिन का नाउ फकीर ॥ जिन्ह कै हिरदै तू वसहि ते नर गुणी गहीर ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ सरमु धरमु दुइ नानका जे धनु पलै पाइ ॥ सो धनु मित्रु न कांढीऐ जितु सिरि चोटां खाइ ॥ जिन कै पलै धनु वसै तिन का नाउ फकीर ॥ जिन्ह कै हिरदै तू वसहि ते नर गुणी गहीर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पलै पाइ = मिल जाए।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘धनु पलै पाइ’ और ‘पलै धनु वसै’ में शब्द ‘पल्ला’ सांझा होने से ऐसा प्रतीत होता है कि शब्द ‘धन’ का अर्थ दोनों जगहों पर एक ही है। पर, ‘धनु पलै पाइ’ में ‘नाम धन’ का जिकर नहीं है। ‘सरमु धरमु दुइ’, ये शब्द बताते हैं कि गुरु नानक साहिब के सामने यह घटना मौजूद है जिस बाबत उन्होंने उचारा था ‘सरमु धरमु दुइ छपि खलोऐ’। आरम्भ में यह बताया गया है कि यह ‘वार’ ऐमनाबाद के कत्लेआम के तुरंत बाद ही लिखी गई लगती है, पर यह बात भी मजेदार है कि गुरु अरजन साहिब जी ने गुरु नानक देव जी के कुछ शलोक भी यहाँ दर्ज किए हैं जो उसी ही घटना की याद दिलवाते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
कांढीऐ = कहा जाता है। सरमु = इज्जत। दुइ = दोनों। जितु = जिस (धन) से। सिरि = सिर पर। खाइ = खाता है, सहता है। कै पलै = के पल्ले में। हिरदै = हृदय में। गुणी गहीर = गुणों के समुंदर।
अर्थ: हे नानक! (जगत समझता है कि) अगर धन मिल जाए तो इज्जत बनी रहती है और धर्म कमाया जा सकता है। पर, जिस (धन) के कारण सिर पर चोटें पड़ें वह धन मित्र (भाव, श्रम धर्म में सहायक) नहीं कहा जा सकता। जिनके पास धन है उनका नाम ‘कंगाल’ है; (वे आत्मिक जीवन में कंगाल हैं); और, हे प्रभु! जिनके हृदय में तू स्वयं आप बसता है वे हैं गुणों के समुंदर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ दुखी दुनी सहेड़ीऐ जाइ त लगहि दुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥ रूपी भुख न उतरै जां देखां तां भुख ॥ जेते रस सरीर के तेते लगहि दुख ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ दुखी दुनी सहेड़ीऐ जाइ त लगहि दुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥ रूपी भुख न उतरै जां देखां तां भुख ॥ जेते रस सरीर के तेते लगहि दुख ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुनी = दुनिया, माया। रूपी = रूप से, रूप देख देख के। रस = चस्के। दुखी = दुखों से। सहेड़ीऐ = जोड़ी जाती है। लगहि = लगते हैं। तेते = उतने ही।
अर्थ: दुख सह-सह के धन इकट्ठा किया जाता है, अगर यह गायब हो जाए तो भी दुख ही मारते हैं। हे नानक! प्रभु के सच्चे नाम के बिना किसी की तृष्णा मिटती नहीं। ‘रूप’ देखने से (रूप देखने की) तृष्णा नहीं जाती (बल्कि) ज्यों-ज्यों देखते जाएं त्यों-त्यों और तृष्णा बढ़ती जाती है। जिस्म के जितने भी ज्यादा चस्के हैं, उतने ही ज्यादा इसको दुख व्यापते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ अंधी कमी अंधु मनु मनि अंधै तनु अंधु ॥ चिकड़ि लाइऐ किआ थीऐ जां तुटै पथर बंधु ॥ बंधु तुटा बेड़ी नही ना तुलहा ना हाथ ॥ नानक सचे नाम विणु केते डुबे साथ ॥३॥
मूलम्
मः १ ॥ अंधी कमी अंधु मनु मनि अंधै तनु अंधु ॥ चिकड़ि लाइऐ किआ थीऐ जां तुटै पथर बंधु ॥ बंधु तुटा बेड़ी नही ना तुलहा ना हाथ ॥ नानक सचे नाम विणु केते डुबे साथ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधी कंमी = उन कामों के कारण जो विचारहीन हो के किए जाएं। अंधु = अंधा, विचार से वंचित। तनु = (भाव,) ज्ञान-इंद्रिय। पथर बंधु = पत्थरों का बाँध, (भाव,) प्रभु के नाम की विचार। तुलहा = हल्की हल्की लकड़ियों का बँधा हुआ गट्ठा जो दरिया के किनारे पर लोग बेड़ी की जगह बरतते हैं। हाथ = गहराई, थाह। साथ = काफले। मनि अंधे = अगर मन अंधा हो जाए। चिकड़ि लाइऐ = अगर कीचड़ लगाया जाए। केते = अनेक।
अर्थ: ज्यों-ज्यों विचार-हीन हो के बुरे काम किए जाएं, त्यों त्यों मन अंधा (भाव, विचारों से वंचित) होता जाता है; और मन विचार-हीन हुआ ज्ञान-इंद्रिय भी अंधी हो जाती हैं (भाव, आँखें-कान आदि भी बुरी तरफ ले चलते हैं)। सो, जब पत्थरों का बाँध (भाव, प्रभु के नाम के विचार का पक्का आसरा) टूट जाता है तब कीचड़ लगाने से कुछ नहीं बनता (भाव, और-और आसरे ढूँढने से)। (जब) बाँध टूट गया, ना बेड़ी रही, ना तुलहा रहा, ना (पानी का) थाह लग सका (भाव, पानी भी बहुत गहरा हुआ), (ऐसी हालत में) हे नानक! प्रभु के सच्चे नाम (-रूपी बाँध, बेड़ी, तुलहे) के बिना कई काफिले के काफिले डूब जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ लख मण सुइना लख मण रुपा लख साहा सिरि साह ॥ लख लसकर लख वाजे नेजे लखी घोड़ी पातिसाह ॥ जिथै साइरु लंघणा अगनि पाणी असगाह ॥ कंधी दिसि न आवई धाही पवै कहाह ॥ नानक ओथै जाणीअहि साह केई पातिसाह ॥४॥
मूलम्
मः १ ॥ लख मण सुइना लख मण रुपा लख साहा सिरि साह ॥ लख लसकर लख वाजे नेजे लखी घोड़ी पातिसाह ॥ जिथै साइरु लंघणा अगनि पाणी असगाह ॥ कंधी दिसि न आवई धाही पवै कहाह ॥ नानक ओथै जाणीअहि साह केई पातिसाह ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रुपा = चांदी। घोड़ी पातिसाह = घोड़ों वाले, (भाव,) रसालयों के मालिक बादशाह। साइरु = समुंदर। असगाह = बहुत गहरा, अथाह। कंधी = किनारा। धाही = धाहें मार के (रोना)। कहाह = शोर। धाही कहाह = हाय हाय का शोर। सिरि = सिर पर, से बड़े।
अर्थ: लाखों मन सोना हो और लाखों मन चाँदी- ऐसे लाखों धनवानों से भी बड़े धनी हों, लाखों सिपाहियों की फौजें हों लाखों बाजे बजते हों, नेजे-बरदार लाखों फौजी रसालियों के मालिक बादशाह हों; पर, जहाँ (विकारों की) आग और पानी का अथाह समुंदर पार करना पड़ता है, (इस समुंदर का) किनारा भी नहीं दिखता, हाय-हाय की कुरलाहट का शोर भी मचा हुआ है, वहाँ, हे नानक! परखे जाते हैं कि (असल में) कौन धनी हैं और कौन बादशाह हैं (भाव, दुनिया का धन और बादशाही विकारों की आग में जलने और विकारों की लहरों में डूबने से बचा नहीं सकते; धन और बादशाहियत होते हुए भी ‘हाय-हाय’ नहीं मिटती)।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इकन्हा गलीं जंजीर बंदि रबाणीऐ ॥ बधे छुटहि सचि सचु पछाणीऐ ॥ लिखिआ पलै पाइ सो सचु जाणीऐ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु गइआ जाणीऐ ॥ भउजल तारणहारु सबदि पछाणीऐ ॥ चोर जार जूआर पीड़े घाणीऐ ॥ निंदक लाइतबार मिले हड़्हवाणीऐ ॥ गुरमुखि सचि समाइ सु दरगह जाणीऐ ॥२१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इकन्हा गलीं जंजीर बंदि रबाणीऐ ॥ बधे छुटहि सचि सचु पछाणीऐ ॥ लिखिआ पलै पाइ सो सचु जाणीऐ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु गइआ जाणीऐ ॥ भउजल तारणहारु सबदि पछाणीऐ ॥ चोर जार जूआर पीड़े घाणीऐ ॥ निंदक लाइतबार मिले हड़्हवाणीऐ ॥ गुरमुखि सचि समाइ सु दरगह जाणीऐ ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गलीं = गले में। जंजीर = ‘बिखिया’ (माया) के बंधन (देखें पिछली पौड़ी “बिखिआ कदे ही रजै नाही”)। बंदि = बंदीखाने में। गइआ जाणीऐ = यहाँ से चलने पर समझ पड़ती है (भाव, जब माया से विछोड़ा होने लगता है तब समझ आती है कि माया के मोह के कितने पक्के जंजीर पड़े हुए थे)। निबेड़ु = निर्णय, न्याय। भउजलु = संसार समुंदर। जार = व्यभचारी। लाइतबार = चुग़लखोर। हढ़वाणी = हाथकड़ी, काठ। सरि = सदा स्थिर हरि नाम से। पलै पाइ = मिलता है। समाइ = लीन हो के।
अर्थ: (जो ‘बिखिआ’ में लगे रहे) उनके गलों में (माया के मोह के बंधन-रूप) जंजीरें पड़ी हुई हैं, वह, (मानो,) ईश्वर के बँदीखाने में (कैद) हैं; अगर सच्चे प्रभु की पहचान आ जाए (अगर सदा-स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ बन जाए) तो सदा-स्थिर हरि-नाम के द्वारा ही (इन जंजीरों में) बंधे हुए छूट सकते हैं। इसलिए उस सच्चे प्रभु के साथ सांझ बनाएं, तब ही (नाम-स्मरण-रूप) लिखा हुआ (लेख) मिलता है यह सारा निर्णय प्रभु के हुक्म में ही होता है, और इस की समझ (यहाँ जगत से) चलते वक्त ही पड़ती है। (सो,) गुरु के शब्द के द्वारा उस प्रभु के साथ गहरी सांझ डालनी चाहिए जो संसार-समुंदर से पार लंघाने से समर्थ है।
चोरों व्यभचारियों और जूए-बाज़ (आदि विकारियों का हाल इस प्रकार होता है जैसे) कोल्हू में पीढ़े जा रहे हों, निंदकों और चुग़लख़ोरों को (मानो, निंदा और चुग़ली की) हथकड़ी लगी हुई है (भाव, इस बुरी वादी में से वे अपने आप को निकाल नहीं सकते)।
पर जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हैं वे प्रभु में लीन हो के प्रभु की हजूरी में आदर पाएं।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः २ ॥ नाउ फकीरै पातिसाहु मूरख पंडितु नाउ ॥ अंधे का नाउ पारखू एवै करे गुआउ ॥ इलति का नाउ चउधरी कूड़ी पूरे थाउ ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ कलि का एहु निआउ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः २ ॥ नाउ फकीरै पातिसाहु मूरख पंडितु नाउ ॥ अंधे का नाउ पारखू एवै करे गुआउ ॥ इलति का नाउ चउधरी कूड़ी पूरे थाउ ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ कलि का एहु निआउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एवै = इस तरह। गुआउ = गुफ़तगू, वार्तालाप, वचन। इलति = शरारत। कूड़ी = झूठी औरत। पूरे थाउ = सबसे आगे जगह मिलती है। निआउ = न्याय। पारखू = अच्छी परख कर सकने वाला
अर्थ: कंगाल का नाम बादशाह (रखा जाता है), मूख का नाम पण्डित (रखा जाता है), अंधे को पारखू (कहा जाता है) - (बस! जगत) इस तरह की (उल्टी) बातें करता है। शरारत (करने वाले) का नाम चौधरी (पड़ जाता है) और झूठी औरत सबसे आगे जगह घेरती है (भाव, हर जगह प्रधान बनती है)। हे नानक! यह है न्याय कलियुग का (भाव, जहाँ यह रवईया बरता जाता है वहाँ कलियुग का पहरा जानो)। पर, गुरु के सन्मुख होने से ही ये समझ आती है (कि यह तरीका व्यवहार गलत है। मन के पीछे चलने वाले लोग इस रवईए के आदी हुए रहते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ हरणां बाजां तै सिकदारां एन्हा पड़्हिआ नाउ ॥ फांधी लगी जाति फहाइनि अगै नाही थाउ ॥ सो पड़िआ सो पंडितु बीना जिन्ही कमाणा नाउ ॥ पहिलो दे जड़ अंदरि जमै ता उपरि होवै छांउ ॥ राजे सीह मुकदम कुते ॥ जाइ जगाइन्हि बैठे सुते ॥ चाकर नहदा पाइन्हि घाउ ॥ रतु पितु कुतिहो चटि जाहु ॥ जिथै जीआं होसी सार ॥ नकीं वढीं लाइतबार ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ हरणां बाजां तै सिकदारां एन्हा पड़्हिआ नाउ ॥ फांधी लगी जाति फहाइनि अगै नाही थाउ ॥ सो पड़िआ सो पंडितु बीना जिन्ही कमाणा नाउ ॥ पहिलो दे जड़ अंदरि जमै ता उपरि होवै छांउ ॥ राजे सीह मुकदम कुते ॥ जाइ जगाइन्हि बैठे सुते ॥ चाकर नहदा पाइन्हि घाउ ॥ रतु पितु कुतिहो चटि जाहु ॥ जिथै जीआं होसी सार ॥ नकीं वढीं लाइतबार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तै = और। सिकदार = अहलकार। एना पढ़िआ नाउ = इनका नाम है ‘पढ़े हुए’।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पाला हुआ हिरन और बाज़ अपने ही जाति-भाईयों को ला फसाता है वैसे ही अहलकार अपने ही हम-जिनस मनुष्यों का लहू पीते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फांधी = फंदा, फाही। अगै = प्रभु की हजूरी में। थाउ नाही = स्वीकार नहीं हैं। बीना = समझदार। पहिलो दे = सबसे पहला। मुकदम = मुसाहिब, अहलकार। नहदा = नहुंद्रां, नाखूनी पँजे। घाउ = घाव, जख़्म। रतु पितु = लहू और पिता। कुतिहो = (मुकदम) कुक्तों से। लाइतबार = बेइतबारे। सार = परख, कद्र। नकीं वढीं = कटे हुए नाक से, नक कटे।
अर्थ: हिरन, बाज़ और अहलकार- इनका नाम लोग ‘पढ़े हुए’ रखते हैं (पर ये कैसी विद्या है? यह तो) फंदा लिए हुए है जिस में अपनी ही जाति-भाईयों को फसाते हैं; प्रभु ही हजूरी में ऐसे पढ़े हुए मंजूर नहीं हैं।
जिस-जिस ने ‘नाम’ की कमाई की है वही विद्वान है पंडित है और समझदार है (क्यों वृक्ष की) जड़ सबसे पहले (जमीन के) अंदर पैदा होती है तब ही (वृक्ष उग के) बाहर छाया बनती है (सो, सुखदाती विद्या वही है अगर पहले मनुष्य अपने मन में ‘नाम’ बीजे)।
(‘नाम’ से वंचित विद्या का हाल देखो), राजे (मानो) शेर हैं (उनके, पढ़े हुए) अहलकार (मानो) कुत्ते हैं, बैठे-सोए हुओं को (भाव, वक्त-बेवक्त जनता को) जा जगाते हैं (भाव, तंग करते हैं)। ये अहलकार (जैसे, शेरों के) नाखूनी पँजे नहुंद्रां हैं, जो (लोगों का) घात करते हैं, (राजे-शेर इन अहिलकार) कुक्तों से (लोगों का) लहू पीते हैं।
पर जहाँ जीवों की (करणी की) परख होती है, वहाँ ऐसे (पढ़े हुए लोग) बे-ऐतबारों के नाक-कटे (समझे जाते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपि उपाए मेदनी आपे करदा सार ॥ भै बिनु भरमु न कटीऐ नामि न लगै पिआरु ॥ सतिगुर ते भउ ऊपजै पाईऐ मोख दुआर ॥ भै ते सहजु पाईऐ मिलि जोती जोति अपार ॥ भै ते भैजलु लंघीऐ गुरमती वीचारु ॥ भै ते निरभउ पाईऐ जिस दा अंतु न पारावारु ॥ मनमुख भै की सार न जाणनी त्रिसना जलते करहि पुकार ॥ नानक नावै ही ते सुखु पाइआ गुरमती उरि धार ॥२२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपि उपाए मेदनी आपे करदा सार ॥ भै बिनु भरमु न कटीऐ नामि न लगै पिआरु ॥ सतिगुर ते भउ ऊपजै पाईऐ मोख दुआर ॥ भै ते सहजु पाईऐ मिलि जोती जोति अपार ॥ भै ते भैजलु लंघीऐ गुरमती वीचारु ॥ भै ते निरभउ पाईऐ जिस दा अंतु न पारावारु ॥ मनमुख भै की सार न जाणनी त्रिसना जलते करहि पुकार ॥ नानक नावै ही ते सुखु पाइआ गुरमती उरि धार ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेदनी = धरती। सार = संभाल। भरमु = भटकना (रूपी जंजीर, देखें पौड़ी नं: 21)। मोख दुआर = (बंदीखाने में से) मुक्ति का द्वार। सहजु = अडोल अवस्था। उरि = हृदय में। नामि = नाम में। मिलि = मिल के। जोती = परमात्मा में। भैजलु = संसार समुंदर। पारावारु = पार+अवारु, इस पार उस पार का छोर। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। सार = कद्र। न जाणनी = नहीं जानते। जलते = जलते। करहि = करते हैं। ते = से। उरि = हृदय में।
अर्थ: (जो प्रभु) खुद जगत पैदा करता है और खुद ही इसकी संभाल करता है, (उसका) डर रखे बिना (माया के पीछे) भटकना (-रूपी बंधन) काटा नहीं जाता, ना ही उसके नाम में प्यार बनता है। प्रभु का डर गुरु की शरण पड़ने से होता है और (‘रबाणी बंद’ में से) खलासी का रास्ता मिलता है (क्योंकि प्रभु का) डर रखने से बेअंत प्रभु की ज्योति में ज्योति मिलाने से मन की अडोलता प्राप्त होती है। इस डर के कारण गुरमति द्वारा (उच्च) विचार बनती है, और, संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है, इस डर से ही डर-रहित प्रभु मिलता है जिसका अंत नहीं पाया जा सकता जिसका इस पार उस पार का किनारा नहीं मिलता।
अपने मन के पीछे चलने वाले लोगों को प्रभु के डर (में रहने की) सार नहीं पड़ती (नतीजा यह निकलता है कि वह माया की) तृष्णा (आग) में जलते-विलकते हैं। हे नानक! प्रभु के ‘नाम’ से ही सुख मिलता है और (यह ‘नाम’) गुरु की मति पर चलने से ही हृदय में टिकता है।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ रूपै कामै दोसती भुखै सादै गंढु ॥ लबै मालै घुलि मिलि मिचलि ऊंघै सउड़ि पलंघु ॥ भंउकै कोपु खुआरु होइ फकड़ु पिटे अंधु ॥ चुपै चंगा नानका विणु नावै मुहि गंधु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ रूपै कामै दोसती भुखै सादै गंढु ॥ लबै मालै घुलि मिलि मिचलि ऊंघै सउड़ि पलंघु ॥ भंउकै कोपु खुआरु होइ फकड़ु पिटे अंधु ॥ चुपै चंगा नानका विणु नावै मुहि गंधु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सादै = स्वाद का। गंढु = संबंध। लबै = लब का। मालै = माल (धन) से। घुलि मिलि = अच्छी तरह मिल के। मिचलि = मेल, एक मेकता, तदाकारता। ऊघै = ऊंघने वाले को, निंद्रा में रहने वाले को। सउड़ि = सिकुड़ी हुई जगह। भउकै = भौंकता है, बहुत बोलता है। कोपु = क्रोध। फकड़ुपिटे = बद्ज़बानी बोलता है। मुहि = मुँह में।
अर्थ: रूप की काम (-वासना) से मित्रता है, भूख का संबंध स्वाद से है। लोभ की धन के साथ अच्छी मिली हुई एकमेकता है (नींद से) ऊँघ रहे को सिकुड़ी हुई जगह ही पलंघ है। क्रोध बहुत बोलता है, (क्रोध में) अंधा (हुआ व्यक्ति) ख्वार हो के बद्-ज़बानी ही करता है।
हे नानक! प्रभु के नाम के बिना (मनुष्य के) मुँह में (बद्-कलामी की) बद्बू ही होती है (बोलने से ज्यादा) इसका चुप रहना ठीक है।1।
दर्पण-भाव
भाव: जहाँ नाम-हीनता है वहाँ सहज ही बद्कलामी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ राजु मालु रूपु जाति जोबनु पंजे ठग ॥ एनी ठगीं जगु ठगिआ किनै न रखी लज ॥ एना ठगन्हि ठग से जि गुर की पैरी पाहि ॥ नानक करमा बाहरे होरि केते मुठे जाहि ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ राजु मालु रूपु जाति जोबनु पंजे ठग ॥ एनी ठगीं जगु ठगिआ किनै न रखी लज ॥ एना ठगन्हि ठग से जि गुर की पैरी पाहि ॥ नानक करमा बाहरे होरि केते मुठे जाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनै = किसी ने (भी)। लज = इज्जत। मुठे = ठगे। एनी ठगीं = इन (पाँचों) ठगों ने। रखी = बचाई। से ठग = वे ठग, वह समझदार लोग। ठगन्हि = ठग लेते हैं, चाल में नहीं आते। जि = जो। पाहि = पड़ते हैं। होरि = अन्य, और। होरि केते = और अनेक। मुठै जाहि = (आत्मिक जीवन के सरमाए से) लूटे जा रहे हैं। करमा बाहरे = भाग्यहीन व्यक्ति।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: राज, धन, सुंदरता, (ऊँची) जाति, और जवानी -यह पाँचों ही (मानो) ठग हैं, इन ठगों ने जगत को ठग लिया है (जो भी इनके अड्डे चढ़ा) किसी ने (इनसे) अपनी इज्जत नहीं बचाई।
इन (ठगों) को भी वह ठग (भाव, समझदार लोग) दाँव लगा जाते हैं (भाव, वह बंदे इनकी चाल में नहीं आते) जो सतिगुरु की शरण में आते है। (पर) हे नानक! और बड़े भाग्यहीन (इनके हाथों में खेल के) लूटे जा रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ पड़िआ लेखेदारु लेखा मंगीऐ ॥ विणु नावै कूड़िआरु अउखा तंगीऐ ॥ अउघट रुधे राह गलीआं रोकीआं ॥ सचा वेपरवाहु सबदि संतोखीआं ॥ गहिर गभीर अथाहु हाथ न लभई ॥ मुहे मुहि चोटा खाहु विणु गुर कोइ न छुटसी ॥ पति सेती घरि जाहु नामु वखाणीऐ ॥ हुकमी साह गिराह देंदा जाणीऐ ॥२३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ पड़िआ लेखेदारु लेखा मंगीऐ ॥ विणु नावै कूड़िआरु अउखा तंगीऐ ॥ अउघट रुधे राह गलीआं रोकीआं ॥ सचा वेपरवाहु सबदि संतोखीआं ॥ गहिर गभीर अथाहु हाथ न लभई ॥ मुहे मुहि चोटा खाहु विणु गुर कोइ न छुटसी ॥ पति सेती घरि जाहु नामु वखाणीऐ ॥ हुकमी साह गिराह देंदा जाणीऐ ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लेखेदारु = लेखा रखने वाला, चतुराई की बातें करने वाला। कूड़िआरु = झूठ का व्यापारी। तंगीऐ = मुश्किल डालता है। अउघट = मुश्किल। रुधे = रोके हुए। मुहे = मुँह पर ही। मुहे मुहि = मुँहो मुँह। साह = (भाव) जिंदगी। गिराह = ग्रास (भाव,) रोजी। सचा = सदा कायम रहने वाला। वेपरवाहु = बेमुथाज। सबदि = शब्द से। हाथ = गहराई। पति = इज्जत। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु के दर पर।
अर्थ: जो मनुष्य विद्वान भी हो और चतुराई की बातें भी करना जानता हो (‘तृष्णा’ के बारे में) उससे भी लेखा लिया जाता है (भाव, ‘तृष्णा’ उससे भी लेखा लेती है, निरी विद्या और चतुराई ‘तृष्णा’ से बचा नहीं सकती), (क्योंकि) प्रभु के नाम के बिना (पढ़ा हुआ भी) झूठ का ही व्यापारी है, दुखी होता हैं कठिनाईयाँ ही उठाता है। उसकी (जिंदगी के) गलियां और रास्ते (तृष्णा की आग से) रुके हुए हैं (उनके बीच में से पार लांघना) मुश्किल है। गुरु-शब्द के द्वारा संतोषी बंदों को सदा कायम रहने वाला बे-मुहताज परमात्मा मिलता है। प्रभु (मानो) बड़ा गहरा (समुंदर) है, (विद्या और चुराई के आसरे) उसकी थाह नहीं लगाई जा सकती। (बल्कि, ‘पढ़ा कूड़ियार’ विद्या के गुमान में रह के तृष्णा की) भरपूर चोटें खाता है; (भले ही पढ़ा हुआ हो) कोई मनुष्य गुरु (की शरण) के बिना (तृष्णा से) बच नहीं सकता।
(परमात्मा का) नाम स्मरणा चाहिए (अगर नाम स्मरण करें) तो बेशक इज्जत से प्रभु के दर पर पहुँचो। (नाम-जपने की इनायत से) यह निश्चय बनता है कि प्रभु अपने हुक्म में जीवों को जीवन और रोज़ी देता है।23।
[[1289]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ पउणै पाणी अगनी जीउ तिन किआ खुसीआ किआ पीड़ ॥ धरती पाताली आकासी इकि दरि रहनि वजीर ॥ इकना वडी आरजा इकि मरि होहि जहीर ॥ इकि दे खाहि निखुटै नाही इकि सदा फिरहि फकीर ॥ हुकमी साजे हुकमी ढाहे एक चसे महि लख ॥ सभु को नथै नथिआ बखसे तोड़े नथ ॥ वरना चिहना बाहरा लेखे बाझु अलखु ॥ किउ कथीऐ किउ आखीऐ जापै सचो सचु ॥ करणा कथना कार सभ नानक आपि अकथु ॥ अकथ की कथा सुणेइ ॥ रिधि बुधि सिधि गिआनु सदा सुखु होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ पउणै पाणी अगनी जीउ तिन किआ खुसीआ किआ पीड़ ॥ धरती पाताली आकासी इकि दरि रहनि वजीर ॥ इकना वडी आरजा इकि मरि होहि जहीर ॥ इकि दे खाहि निखुटै नाही इकि सदा फिरहि फकीर ॥ हुकमी साजे हुकमी ढाहे एक चसे महि लख ॥ सभु को नथै नथिआ बखसे तोड़े नथ ॥ वरना चिहना बाहरा लेखे बाझु अलखु ॥ किउ कथीऐ किउ आखीऐ जापै सचो सचु ॥ करणा कथना कार सभ नानक आपि अकथु ॥ अकथ की कथा सुणेइ ॥ रिधि बुधि सिधि गिआनु सदा सुखु होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउणै = पवन का, हवा का। जीउ = जीव। तिन = इन जीवों को। किआ = क्या? किआ खुसीआ किआ पीड़ = क्या सुख औरक्या दुख? (भाव, अगर तत्वों की ओर देखें तो सब जीवों के एक-समान ही हैं, फिर इनको सुख और दुख क्यों अलग-अलग हैं?) आकासी = आकाशों में, (भाव,) हुक्म कर रहे हैं। इकि = कई लोग। दरि = (राजाओं के) दर पर। आरजा = उम्र। जहीर = (अरबी) दुखी। फकीर = कंगाल। नथै नथिआ = नथुनी में जकड़ा हुआ। जापै = प्रतीत होता है, दिखता है। करना = जीवों का काम आदि करना। कथना = बोलना। कार = प्रभु द्वारा मिथी हुई किरति। सुणेइ = सुनता है।
अर्थ: हवा पनी और आग (आदि तत्वों का मेल मिला के और उसमें जीवात्मा डाल के प्रभु ने) जीव बनाया, (तत्व सब जीवों में एक समान हैं, पर आश्चर्यजनक खेल यह है कि) इनको कईयों को दुख और कईयों को सुख (मिल रहे हैं)। कई धरती पर हैं (भाव, साधारण सी हालत में हैं) कई (मानो) पाताल में पड़े हुए हैं (भाव, कई उभरे हुए उच्च दर्जे पर हैं) कई (मानो) आकाश में हैं (भाव, कई हुक्म चला रहे हैं), और कई (राजाओं के) दरबार में वज़ीर बने हुए हैं।
कई लोगों की बड़ी उमर है, कई (कम उम्र में) मर के दुखी होते हैं। कई लोग (और लोगों को भी) दे के स्वयं भी बरतते हैं (पर, उनका धन) खत्म नहीं होता, कई सदा कंगाल फिरते हैं।
प्रभु अपने हुक्म अनुसार एक पलक में लाखों जीव पैदा करता है लाखों नाश करता है, हरेक जीव (अपने किए कर्मों के अनुसार रज़ा-रूपी) नाथ में जकड़ा हुआ है। जिस पर वह बख्शिश करता है उसके बंधन तोड़ता है। पर, प्रभु खुद कर्मों के लेखे से ऊपर है, उसका कोई रंग-रूप नहीं है और कोई चक्र-चिन्ह नहीं है। उसके स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता; वैसे वह हर जगह अस्तित्व वाला दिखता है। हे नानक! जीव जो कुछ कर रहे हैं और बोल रहे हैं वह सब प्रभु द्वारा रची हुई कार ही है, और वह स्वयं ऐसा है जिसका बयान नहीं किया जा सकता।
जो मनुष्य उस अकथ प्रभु की बातें सुनता है (भाव, गुण गाता है) उसको ऊँची समझ प्राप्त होती है उसको सुख मिलता है (मानो) उसको रिद्धियाँ-सिद्धियाँ मिल गई हों।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ अजरु जरै त नउ कुल बंधु ॥ पूजै प्राण होवै थिरु कंधु ॥ कहां ते आइआ कहां एहु जाणु ॥ जीवत मरत रहै परवाणु ॥ हुकमै बूझै ततु पछाणै ॥ इहु परसादु गुरू ते जाणै ॥ होंदा फड़ीअगु नानक जाणु ॥ ना हउ ना मै जूनी पाणु ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ अजरु जरै त नउ कुल बंधु ॥ पूजै प्राण होवै थिरु कंधु ॥ कहां ते आइआ कहां एहु जाणु ॥ जीवत मरत रहै परवाणु ॥ हुकमै बूझै ततु पछाणै ॥ इहु परसादु गुरू ते जाणै ॥ होंदा फड़ीअगु नानक जाणु ॥ ना हउ ना मै जूनी पाणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजरु = जो जरा ना जा सके, वह हालत जिसको सहना मुश्किल है, मन का वह वेग जिसको बर्दाश्त करना मुश्किल है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: कई सज्जन इसका अर्थ यूँ करते हें: ‘आतम रस जो अजर वस्तु है।’ पर, प्रश्न उठता है कि ‘आतमरस’ क्यों ‘अजर’ है? क्या यह कोई ऐसी अयोग्य अवस्था पैदा कर देता है जो बर्दाश्त नहीं होती? फिर, अगर ‘बँदगी’ भी किसी गलत राह पर डाल सकती है तो यह सही रास्ता कैसे हुआ? जहाँ ‘नाम’ है वहाँ ‘अहंकार’ नहीं, वहाँ प्रभु से ‘विछोड़ा’ नहीं, वहाँ तो प्रभु से ‘मिलाप’ है; और यह अवस्था बुरी नहीं होती, यहाँ कोई ‘अहंकार’ नहीं आ सकता, ‘अहंकार’ और ‘नाम’ तो इकट्ठे रह ही नहीं सकते। सो, ‘आतम रस’ कोई ऐसी अवस्था नहीं जिस पर किसी बँदिश की जरूरत पड़े, जिससे कोई खतरा हो सकता हो। क्रोध और श्राप वाली अवस्था ‘नाम’ और ‘आतम रस’ से बहुत नीचे दर्जे की अवस्था है। आतम-रसिया क्रोध में नहीं आता, श्राप नहीं देता; जब वह श्राप देने की हालत में हो, तब वह ‘आतम रसिया’ नहीं होता)।
दर्पण-भाषार्थ
बंधु = बंधन, हद बंदी। नउ कुल बंधु = नौ गोलकों (नाक-कान आदि ज्ञान और कर्म इंद्रिय) को हदबंदी मिल जाती है, (भाव,) ये सारी इंद्रिय अपनी सही सीमा में रहती हैं। प्राण = स्वास स्वास। थिरु = अडोल। कंधु = शरीर। थिरु कंधु = शरीर अडोल हो जाता है, (भाव,) विकारों में डोलता नहीं। परसादु = कृपा, मेहर। होंदा = जो कहे ‘मैं हूँ’, (भाव) अहंकार वाला, अहंकारी। फड़ीअगु = पकड़ा जाएगा। जाणु = जान ले, समझ ले। जूनी पाणु = जूनियों में पड़ना, जनम मरन का चक्कर।
अर्थ: जब मनुष्य मन की उस अवस्था पर काबू पा लेता है जिस पर काबू पाना कठिन होता है (भाव, जब मनुष्य मन को विकारों में गिरने से रोक लेता है, जब मनुष्य श्वास-श्वास प्रभु को स्मरण करता है तो इसके नौ की नौ (कर्म और ज्ञान) इन्द्रियाँ जायज़ सीमा में रहती हैं, इसका शरीर विकारों से अडोल हो जाता है।
कहाँ से आया और कहाँ इसने जाना है? (भाव, इसका ‘जनम-मरण का चक्कर’ मिट जाता है), जीवत-भाव (फायदे वाली ख्वाहिशों) से मर के (प्रभु के दर पर) स्वीकार हो जाता है। तब जीव परमात्मा की रज़ा को समझ लेता है, अस्लियत को पहचान लेता है; ये मेहर इसको गुरु से मिलती है।
सो, हे नानक! ये समझ लो कि वही फंसता है जो कहता है ‘मैं हूँ’ ‘मैं हूँ’ जहाँ ‘हउ’ नहीं वहाँ ‘मैं’ नहीं, वहाँ दुनिया में पड़ने (के लिए दुख भी) नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ पड़्हीऐ नामु सालाह होरि बुधीं मिथिआ ॥ बिनु सचे वापार जनमु बिरथिआ ॥ अंतु न पारावारु न किन ही पाइआ ॥ सभु जगु गरबि गुबारु तिन सचु न भाइआ ॥ चले नामु विसारि तावणि ततिआ ॥ बलदी अंदरि तेलु दुबिधा घतिआ ॥ आइआ उठी खेलु फिरै उवतिआ ॥ नानक सचै मेलु सचै रतिआ ॥२४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ पड़्हीऐ नामु सालाह होरि बुधीं मिथिआ ॥ बिनु सचे वापार जनमु बिरथिआ ॥ अंतु न पारावारु न किन ही पाइआ ॥ सभु जगु गरबि गुबारु तिन सचु न भाइआ ॥ चले नामु विसारि तावणि ततिआ ॥ बलदी अंदरि तेलु दुबिधा घतिआ ॥ आइआ उठी खेलु फिरै उवतिआ ॥ नानक सचै मेलु सचै रतिआ ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होरि बुधीं = और बुद्धियां। गरबि = अहंकार में। गुबारु = अंधा। तावणि = कड़ाहे में। उठी खेलु = खेल खत्म हो जाती है, मर जाता है। उवतिआ = अवैड़ा। सचे रतिआ = सच्चे में रंगा हुआ। मिथिआ = व्यर्थ। किन ही = किनि ही, किसी ने ही। पारावारु = पार+अवार, परला उरला किनारा। सचु = सत्य, सदा स्थिर हरि नाम। भाइआ = अच्छा लगता। ततिआ = तला जाता है। सचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु का ‘नाम’ पढ़ना चाहिए, महिमा पढ़नी चाहिए, ‘नाम’ के बिना और बुद्धिमक्ता व्यर्थ हैं; (‘नाम’ ही सच्चा व्यापार है, इस) सच्चे व्यापार के बिना जीवन व्यर्थ जाता है।
(इन और-और किस्मों की बुद्धियों और चतुराईयों से) कभी किसी ने प्रभु का अंत नहीं पाया, उसका परला-उरला किनारा नहीं पाया, (हाँ, इन अक्लों के कारण) सारा जगत अहंकार में अंधा हो जाता है, इन (नाम-हीन विद्वानों) को ‘सत्य’ (भाव, ‘नाम’ स्मरणा) अच्छा नहीं लगता। (ज्यों-ज्यों) ये नाम भुला के चलते हैं (‘अहंकार’ के कारण, मानो,) कड़ाहे में तले जाते हैं (इनके हृदय में पैदा होई हुई) दुविधा, मानो, जलती हुई आग में तेल डाला जाता है (भाव, ‘दुविधा’ के कारण विद्या से पैदा हुआ अहंकार और ज्यादा दुखी करता है)। (ऐसा व्यक्ति जगत में) आता है और मर जाता है (भाव, व्यर्थ जीवन गुजार जाता है, और सारी उम्र) अवैड़ा ही भ्रमित होता फिरता है।
हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में उस बँदे का मेल होता है जो उस सच्चे (के प्यार) में रंगा होता है।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ पहिलां मासहु निमिआ मासै अंदरि वासु ॥ जीउ पाइ मासु मुहि मिलिआ हडु चमु तनु मासु ॥ मासहु बाहरि कढिआ ममा मासु गिरासु ॥ मुहु मासै का जीभ मासै की मासै अंदरि सासु ॥ वडा होआ वीआहिआ घरि लै आइआ मासु ॥ मासहु ही मासु ऊपजै मासहु सभो साकु ॥ सतिगुरि मिलिऐ हुकमु बुझीऐ तां को आवै रासि ॥ आपि छुटे नह छूटीऐ नानक बचनि बिणासु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ पहिलां मासहु निमिआ मासै अंदरि वासु ॥ जीउ पाइ मासु मुहि मिलिआ हडु चमु तनु मासु ॥ मासहु बाहरि कढिआ ममा मासु गिरासु ॥ मुहु मासै का जीभ मासै की मासै अंदरि सासु ॥ वडा होआ वीआहिआ घरि लै आइआ मासु ॥ मासहु ही मासु ऊपजै मासहु सभो साकु ॥ सतिगुरि मिलिऐ हुकमु बुझीऐ तां को आवै रासि ॥ आपि छुटे नह छूटीऐ नानक बचनि बिणासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निंमिआ = निर्मित हुआ, बना, आरम्भ हुआ। जीउ पाइ = जिंद हासिल करके, भाव, जब जान पड़ी। गिरासु = ग्रास, खुराक। सासु = साँस। को = कोई (भाव,) जीव। आवै रासि = रास आता है, सफल होता है। आपि छुटे = अपने जोर से बचा। बचनि = वचन से, (इस किस्म की) चर्चा से। बिणासु = हानि।
अर्थ: सबसे पहले माँस (भाव, पिता के वीर्य) से ही (जीव के अस्तित्व का) आरम्भ होता है, (फिर) माँस (भाव, माँ के पेट) में ही इसका बसेवा होता है; जब (पुतले में) जान पड़ती है तब भी (जीभ-रूपी) माँस मुँह में मिलता है (इसके शरीर की सारी ही घाड़त) हड्डी चमड़ी और शरीर सब कुछ मास (ही बनता है)।
जब (माँ के पेट-रूप) माँस में से बाहर भेजा जाता है तो भी स्तन (-रूप) माँस खुराक मिलती है; इसका मुँह भी माँस का है जीभ भी मास की है, माँस में ही साँस लेता है। जब जवान होता है और ब्याहा जाता है तो भी (स्त्री-रूप) माँस ही घर ले के आता है; (फिर) माँस से ही (बच्चा-रूप) माँस पैदा होता है; (सो, जगत का सारा) साक-संबंध माँस से ही है।
(माँस खाने व ना खाने पर निर्णय समझने की जगह) यदि सतिगुरु मिल जाए तो प्रभु की रज़ा समझें तब जीव (का जगत में आना) सफल होता है (नहीं तो जीव का पैदा होने से लेकर मरने तक माँस से इतना गहरा वास्ता पड़ता है कि) अपने जोर से इससे बचने से कोई मुक्ति नहीं होती, और हे नानक! (इस किस्म की) चर्चा से (सिर्फ) हानि ही होती है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ मासु मासु करि मूरखु झगड़े गिआनु धिआनु नही जाणै ॥ कउणु मासु कउणु सागु कहावै किसु महि पाप समाणे ॥ गैंडा मारि होम जग कीए देवतिआ की बाणे ॥ मासु छोडि बैसि नकु पकड़हि राती माणस खाणे ॥ फड़ु करि लोकां नो दिखलावहि गिआनु धिआनु नही सूझै ॥ नानक अंधे सिउ किआ कहीऐ कहै न कहिआ बूझै ॥ अंधा सोइ जि अंधु कमावै तिसु रिदै सि लोचन नाही ॥ मात पिता की रकतु निपंने मछी मासु न खांही ॥ इसत्री पुरखै जां निसि मेला ओथै मंधु कमाही ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ बाहर का मासु मंदा सुआमी घर का मासु चंगेरा ॥ जीअ जंत सभि मासहु होए जीइ लइआ वासेरा ॥ अभखु भखहि भखु तजि छोडहि अंधु गुरू जिन केरा ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ मासु पुराणी मासु कतेबीं चहु जुगि मासु कमाणा ॥ जजि काजि वीआहि सुहावै ओथै मासु समाणा ॥ इसत्री पुरख निपजहि मासहु पातिसाह सुलतानां ॥ जे ओइ दिसहि नरकि जांदे तां उन्ह का दानु न लैणा ॥ देंदा नरकि सुरगि लैदे देखहु एहु धिङाणा ॥ आपि न बूझै लोक बुझाए पांडे खरा सिआणा ॥ पांडे तू जाणै ही नाही किथहु मासु उपंना ॥ तोइअहु अंनु कमादु कपाहां तोइअहु त्रिभवणु गंना ॥ तोआ आखै हउ बहु बिधि हछा तोऐ बहुतु बिकारा ॥ एते रस छोडि होवै संनिआसी नानकु कहै विचारा ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ मासु मासु करि मूरखु झगड़े गिआनु धिआनु नही जाणै ॥ कउणु मासु कउणु सागु कहावै किसु महि पाप समाणे ॥ गैंडा मारि होम जग कीए देवतिआ की बाणे ॥ मासु छोडि बैसि नकु पकड़हि राती माणस खाणे ॥ फड़ु करि लोकां नो दिखलावहि गिआनु धिआनु नही सूझै ॥ नानक अंधे सिउ किआ कहीऐ कहै न कहिआ बूझै ॥ अंधा सोइ जि अंधु कमावै तिसु रिदै सि लोचन नाही ॥ मात पिता की रकतु निपंने मछी मासु न खांही ॥ इसत्री पुरखै जां निसि मेला ओथै मंधु कमाही ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ बाहर का मासु मंदा सुआमी घर का मासु चंगेरा ॥ जीअ जंत सभि मासहु होए जीइ लइआ वासेरा ॥ अभखु भखहि भखु तजि छोडहि अंधु गुरू जिन केरा ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ मासु पुराणी मासु कतेबीं चहु जुगि मासु कमाणा ॥ जजि काजि वीआहि सुहावै ओथै मासु समाणा ॥ इसत्री पुरख निपजहि मासहु पातिसाह सुलतानां ॥ जे ओइ दिसहि नरकि जांदे तां उन्ह का दानु न लैणा ॥ देंदा नरकि सुरगि लैदे देखहु एहु धिङाणा ॥ आपि न बूझै लोक बुझाए पांडे खरा सिआणा ॥ पांडे तू जाणै ही नाही किथहु मासु उपंना ॥ तोइअहु अंनु कमादु कपाहां तोइअहु त्रिभवणु गंना ॥ तोआ आखै हउ बहु बिधि हछा तोऐ बहुतु बिकारा ॥ एते रस छोडि होवै संनिआसी नानकु कहै विचारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झगड़े = चर्चा करता है। गिआनु = ऊँची समझ, आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = ऊँची सोच, ध्यान। बाणे = बाण अनुसार, आदत अनुसार। फड़ु = पाखण्ड। सि लोचन = वह आँखें। रकतु = लहू। निपंने = पैदा हुए। निसि = रात को। मंधु = मंद। बाहर का मासु = बाहर से लाया हुआ मास। जीइ = जीव ने। अभखु = ना खाने वाली चीज़। केरा = का। कतेबीं = मुसलमानों की मज़हबी किताबों में। कमाणा = बरता जाता है। जगि = यज्ञ में। काजि = शादी ब्याह में। तोइअहु = पानी से। बिकारा = तब्दीलियां। संनिआसी = त्यागी। मारि = मार के। छोडि = छोड़ के। बैसि = बैठ के। नकु पकड़हि = नाक बँद कर लेते हैं। राती = रात को, छुप के। माणस खाणे = लोगों का लहू पीने की सोचें सोचते हैं। सूझै = सूझता (इनको)। किआ कहीऐ = समझने का कोई लाभ नहीं। कहै = (अगर कोई) कहे, अगर कोई समझाए। सुआमी = हे स्वामी! हे पण्डित! सभि = सारे। लइआ वासेरा = डेरा लगाया हुआ है। भखु = खाने योग्य चीज़। चतुरु = समझदार। सुहावै = शोभता है, अच्छा माना जाता है। ओइ = वे सारे। नरकि = नर्क में। सुरगि = स्वर्ग में। धिङाणा = (धिंगांणा) जोर जबरदस्ती की बात। रस = चस्के। एते रस = इतने सारे पदार्थों के चस्के। छोडि = छोड़ के। विचारा = विचार की बात। त्रिभवणु = सारा जगत।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (अपनी तरफ़ से माँ का त्यागी) मूर्ख (पण्डित) मास-मास कह के चर्चा करता है, पर, ना इसको आत्मिक जीवन की समझ ना ही इसको सूझ है (वरना, ये ध्यान से बिचारे कि) माँस और साग में क्या फर्क है, और किस (के खाने) में पाप है। (पुराने समय में भी, लोग) देवताओं के स्वभाव के अनुसार (भाव, देवताओं को खुश करने के लिए) गैंडा मार के हवन और यज्ञ करते थे। जो मनुष्य (अपनी ओर से) माँस त्याग के (जब कभी कहीं माँस देखते हैं तो) बैठ के अपना नाक बँद कर लेते हैं (कि माँस की बदबू आ गई है) वे रात को मनुष्य को खा जाते हैं (भाव, छुप के मनुष्यों का लहू पीने के मनसूबे घड़ते हैं); (माँस ना खाने का यह) पाखण्ड करके लोगों को दिखाते हैं, वैसे इनको खुद ना समझ है ना ही सूझ है। पर, हे नानक! किसी अंधे मनुष्य को समझाने का कोई लाभ नहीं, (यदि कोई इसको) समझाए भी, तो भी ये समझाए समझते नहीं हैं।
(अगर कहो अंधा कौन है तो) अंधा वह है जो अंधों वाले काम करता है, जिसके दिल में वह आँखें नहीं हैं (भाव, जो समझ से विहीन है), (नहीं तो सोचने वाली बात है कि खुद भी तो) माता और पिता के रक्त से हुए हैं और मछली (आदि) के माँस से परहेज़ करते हैं (भाव, माँस से ही पैदा हो के मांस से परहेज़ करने का क्या भाव? पहले भी तो माता-पिता के मास से ही शरीर पला है)। (फिर,) जब रात को औरत और मर्द इकट्ठे होते हैं तब भी (माँस के साथ ही) मंद (भाव, भोग) करते हैं। हम सारे माँस के पुतले हैं, हमारा आरम्भ माँस से ही हुआ, हम माँस से ही पैदा हुए, (माँस का त्यागी) पण्डित (माँस की चर्चा छेड़ के ऐसे ही अपने आप को) समझदार कहलवाता है, (दरअसल,) इसको ना समझ है ना ही सूझ है। (भला बताओ,) पंडित जी! (ये क्या कि) बाहर से लाया हुआ माँस बुरा और घर का (बरता हुआ) माँस अच्छा? (फिर) सारे जीव-जंतु माँस से पैदा हुए हैं, जिंद ने (अर्थात प्राणों ने माँस में ही) डेरा लगाया हुआ है; सो, जिनको रास्ता बताने वाला खुद अंधा है वह ना-खाने-योग्य चीज (भाव, पराया हक) तो खाते हैं और खाने-योग्य चीज (भाव, जिस चीज से जिंदगी का आरम्भ हुआ) को त्यागते हैं। हम सभी माँस के पुतले हैं, हमारा आरम्भ माँस से ही हुआ है, हम माँस से ही पैदा हुए, (माँस का त्यागी) पंडित (माँस की चर्चा छेड़ के ऐसे ही अपने आप को) समझदार कहलवाता है, (असलियत में) इसको ना समझ है ना सूझ है।
पुराणों में माँस (का वर्णन) है, मुसलमानी मज़हबी किताबों में भी माँस (के प्रयोग का जिक्र) है; जगत के आरम्भ से माँस का उपयोग होता चला आया है। यज्ञ में, (शादी) ब्याह आदि कारजों में (माँस का प्रयोग) प्रधान है, उन जगहों पर माँस बरता जाता रहा है। औरत, मर्द, शाह, पातिशाह… सारे माँस से ही पैदा हुए हें। अगर ये सारे (माँस से बनने के कारण) नर्क में पड़ते दिखते हैं तो उनसे (माँस-त्यागी पंडित को) दान भी नहीं लेना चाहिए। (नहीं तो) देखिए, ये आश्चर्य भरे धक्केशाही की बात है कि दान देने वाले नर्क में जाएं और लेने वाले स्वर्ग में। (दरअसल) हे पंडित! तू खासा चतुर है, तुझे खुद को (माँस खाने के मामले की) समझ नहीं है, पर तू लोगों को समझाता है।
हे पंडित! तुझे ये पता ही नहीं कि माँस कहाँ से पैदा हुआ। (देख,) पानी से अन्न पैदा होता है, कमाद गन्ना उगता है और कपास उगती है, पानी से ही सारा संसार पैदा होता है। पानी कहता है कि मैं कई तरीकों से भलाई करता हूँ (भाव, जीव को पालने के लिए कई किसमों की खुराक़-पोशाक पैदा करता हूँ), ये सारी तब्दीलियां (भाव, बेअंत किस्मों के पदार्थ) पानी में ही हैं। सो, नानक यह विचार की बात बताता है (कि अगर सच्चा त्यागी बनना है तो) इन सारे पदार्थों के चस्के छोड़ के त्यागी बने (क्योंकि माँस की उत्पक्ति भी पानी से ही है और अन्न-कमाद आदि की उत्पक्ति भी पानी से ही है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हउ किआ आखा इक जीभ तेरा अंतु न किन ही पाइआ ॥ सचा सबदु वीचारि से तुझ ही माहि समाइआ ॥ इकि भगवा वेसु करि भरमदे विणु सतिगुर किनै न पाइआ ॥ देस दिसंतर भवि थके तुधु अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर का सबदु रतंनु है करि चानणु आपि दिखाइआ ॥ आपणा आपु पछाणिआ गुरमती सचि समाइआ ॥ आवा गउणु बजारीआ बाजारु जिनी रचाइआ ॥ इकु थिरु सचा सालाहणा जिन मनि सचा भाइआ ॥२५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हउ किआ आखा इक जीभ तेरा अंतु न किन ही पाइआ ॥ सचा सबदु वीचारि से तुझ ही माहि समाइआ ॥ इकि भगवा वेसु करि भरमदे विणु सतिगुर किनै न पाइआ ॥ देस दिसंतर भवि थके तुधु अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर का सबदु रतंनु है करि चानणु आपि दिखाइआ ॥ आपणा आपु पछाणिआ गुरमती सचि समाइआ ॥ आवा गउणु बजारीआ बाजारु जिनी रचाइआ ॥ इकु थिरु सचा सालाहणा जिन मनि सचा भाइआ ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिसंतर = देश+अंतर, देशांतर, और-और देश। आपु = अपना आप। बाजारु = दिखावा। आवागउणु = जनम मरण का चक्कर। हउ = मैं। आखा = कहूँ। किन ही = किनि ही, किसी ने ही। इकि = कई। भवि = भटकना। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। बाजारी = दिखावा करने वाला, दिखावे का ढोंग रचने वाला, पाखण्डी। जिन मनि = जिनके मन में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘आपु’ और ‘आपि’ के जोड़ और अर्थ में फर्क समझने योग्य है।
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) मेरी एक जीभ है, मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? तेरा अंत किसी ने नहीं पाया, जो मनुष्य तेरी महिमा का शब्द विचारते हैं वे तेरे में ही लीन हो जाते हैं।
कई मनुष्य भगवा भेस बना के भटकते फिरते हैं, पर गुरु की शरण आए बिना (हे प्रभु!) तुझे किसी ने नहीं पाया, ये लोग (बाहर) देश-देशांतरों में भटकते खप गए, पर तुमने अपने आप को (जीव के) अंदर छुपा रखा है। सतिगुरु का शब्द (मानो) एक चमकता मोती है (जिस किसी को प्रभु ने) यह मोती बख्शा है, उसके हृदय में (प्रभु ने) खुद प्रकाश करके (उसको अपना आप) दिखाया है; (वह भाग्यशाली मनुष्य) अपनी अस्लियत को पहचान लेते हैं और गुरु की शिक्षा के माध्यम से सच्चे प्रभु में लीन हो जाते हैं।
(पर) जिस (भेषधारियों ने) दिखावे का ढोंग रचा हुआ है उन पाखण्डियों को जनम-मरण (का चक्कर) मिलता है; और, जिनको मन में सच्चा प्रभु प्यारा लगता है वे सदा स्थिर रहने वाले एक प्रभु के गुण गाते हैं।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ नानक माइआ करम बिरखु फल अम्रित फल विसु ॥ सभ कारण करता करे जिसु खवाले तिसु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ नानक माइआ करम बिरखु फल अम्रित फल विसु ॥ सभ कारण करता करे जिसु खवाले तिसु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = किए हुए कर्मों के अनुसार। बिरखु = (शरीर रूप) वृक्ष। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। विसु = (आत्मिक मौत लाने वाला मोह रूप) जहर। कारण = सबब, वसीले।
अर्थ: हे नानक! (जीवों के किए) कर्मों अनुसार (मनुष्य-शरीर रूप) माया का (रचा) वृक्ष (उगता) है (इसको) अमृत (भाव, नाम सुख) और जहर (भाव, मोह-दुख) दो किस्मों के फल लगते हैं। कर्तार स्वयं (अमृत और विष दो किस्मों के फलों के) सारे वसीले बनाता है, जिस जीव को जो फल खिलाता है उसको (वही खाना पड़त है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ नानक दुनीआ कीआं वडिआईआं अगी सेती जालि ॥ एनी जलीईं नामु विसारिआ इक न चलीआ नालि ॥२॥
मूलम्
मः २ ॥ नानक दुनीआ कीआं वडिआईआं अगी सेती जालि ॥ एनी जलीईं नामु विसारिआ इक न चलीआ नालि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलीई = जली हुईयों ने, चंदरियों ने। अगी सेती = आग से। जालि = जला दे। एनी = इन्होंने।
अर्थ: हे नानक! दुनिया की वडियाइयो को आग से जला दे। इन चंदरियों ने (मनुष्य से) प्रभु का नाम भुलवा दिया है (पर, इनमें से) एक भी (मरणोपरांत) साथ नहीं जाती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सिरि सिरि होइ निबेड़ु हुकमि चलाइआ ॥ तेरै हथि निबेड़ु तूहै मनि भाइआ ॥ कालु चलाए बंनि कोइ न रखसी ॥ जरु जरवाणा कंन्हि चड़िआ नचसी ॥ सतिगुरु बोहिथु बेड़ु सचा रखसी ॥ अगनि भखै भड़हाड़ु अनदिनु भखसी ॥ फाथा चुगै चोग हुकमी छुटसी ॥ करता करे सु होगु कूड़ु निखुटसी ॥२६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सिरि सिरि होइ निबेड़ु हुकमि चलाइआ ॥ तेरै हथि निबेड़ु तूहै मनि भाइआ ॥ कालु चलाए बंनि कोइ न रखसी ॥ जरु जरवाणा कंन्हि चड़िआ नचसी ॥ सतिगुरु बोहिथु बेड़ु सचा रखसी ॥ अगनि भखै भड़हाड़ु अनदिनु भखसी ॥ फाथा चुगै चोग हुकमी छुटसी ॥ करता करे सु होगु कूड़ु निखुटसी ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक का अलग अलग। निबेड़ = निर्णय, फैसला। जरवाणा = ज़ालिम।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘जरवाणा’ बाबर के ऐमनाबाद वाले कत्लेआम का चेता करवाता लगता है। ‘जरवाणा कंनि् चढ़िआ नचसी’, ये शब्द मुग़ल फौजी सिपाहियों के अत्याचार आँखों के आगे लाते प्रतीत होते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
बोहिथु = जहाज। भड़हाड़ु = भड़कते शोले। अनदिनु = हर रोज। होगु = होगा। तेरै हथि = तेरे हाथ में। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगता। कालु = मोत। बंनि = बाँध के। जरु = बुढ़ापा। कंन्हि = कांधे पर। सचा = सदा कायम रहने वाला। भखै = भख रहा है, जल रहा है। हुकमी = प्रभु के हुकमि अनुसार ही।
अर्थ: (हे प्रभु! सारे जगत को तू) अपने हुक्म में चला रहा है (कहीं भेखी दिखावे का ढोंग रच रहे हैं, कहीं तुझे प्यार करने वाले तेरी महिमा कर रहे हैं; इनके कर्मों के अनुसार ‘आवागवन’ और तेरा प्यार तेरे ही हुक्म में) अलग-अलग फैसला (होता है), सारा फैसला तेरे ही हाथ में है, तू ही (मेरे) मन को प्यारा लगता है।
जब मौत, बाँध के (जीव को) ले चलती है, कोई इसको रख नहीं सकता; ज़ालिम बुढ़ापा (हरेक के) कंधे पर चढ़ के नाचता है (भाव, मौत का संदेशा दे रहा है जिसके आगे किसी की पेश नहीं चलती)। सतिगुरु ही सच्चा जहाज़ है सच्चा बेड़ा है जो (मौत के डर से) बचाता है।
(जगत की तृष्णा की) आग के शोले भड़क रहे हैं, हर वक्त भड़कते रहते हैं (इन शोलों में) फसा हुआ जीव चोगा चुग रहा है; प्रभु के हुक्म अनुसार ही इसमें से बच सकता है क्योंकि जो कुछ कर्तार करता है वही होता है। झूठ (का व्यापार, भाव, तृष्णा-अधीन हो के मायावी पदार्थों के पीछे दौड़ना) जीव के साथ नहीं निभता।26।
[[1291]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ घर महि घरु देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु ॥ पंच सबद धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु नीसाणु ॥ दीप लोअ पाताल तह खंड मंडल हैरानु ॥ तार घोर बाजिंत्र तह साचि तखति सुलतानु ॥ सुखमन कै घरि रागु सुनि सुंनि मंडलि लिव लाइ ॥ अकथ कथा बीचारीऐ मनसा मनहि समाइ ॥ उलटि कमलु अम्रिति भरिआ इहु मनु कतहु न जाइ ॥ अजपा जापु न वीसरै आदि जुगादि समाइ ॥ सभि सखीआ पंचे मिले गुरमुखि निज घरि वासु ॥ सबदु खोजि इहु घरु लहै नानकु ता का दासु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ घर महि घरु देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु ॥ पंच सबद धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु नीसाणु ॥ दीप लोअ पाताल तह खंड मंडल हैरानु ॥ तार घोर बाजिंत्र तह साचि तखति सुलतानु ॥ सुखमन कै घरि रागु सुनि सुंनि मंडलि लिव लाइ ॥ अकथ कथा बीचारीऐ मनसा मनहि समाइ ॥ उलटि कमलु अम्रिति भरिआ इहु मनु कतहु न जाइ ॥ अजपा जापु न वीसरै आदि जुगादि समाइ ॥ सभि सखीआ पंचे मिले गुरमुखि निज घरि वासु ॥ सबदु खोजि इहु घरु लहै नानकु ता का दासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरु = प्रभु के रहने की जगह। सुजाणु = समझदार। पंच सबद = पाँच किस्म के साज़ों की आवाज़ (तार, धात, घड़ा, चंमड़ा और फूक से बजने वाले साज़)। धुनि = सुर, आवाज़। धुनिकार = एक रस सुर।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘कार’ का भाव समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।
दर्पण-भाषार्थ
नीसाणु = नगारा। तार = ऊँची सुर। घोर = घनघोर। बाजिंत्र = बाजे। तह = उस अवस्था में। सुखमन कै घरि = (भाव, मिलाप अवस्था में) (सुखमना के घर में जहाँ जोगी प्राण टिकाते हैं)। सुंनि = शून्य में, अफुर अवस्था में, वह अवस्था जहाँ मन के फुरने शून्य हों। मनसा = मन का फुरना। कमलु = हृदय कमल। अंम्रिति = नाम अमृत से। सखीआ = ज्ञान-इंद्रिय। पंचे = सत, संतोख, दया, धर्म, धीरज। निज घरि = सिर्फ अपने घर में। घर महि = हृदय घर में। तखति = तख्त पर। साचि तखत = सदा कायम रहने वाले तख़्त पर। सुनि = सुन के। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ी रखता है। मनहि = मनि ही, मन में ही। सभि = सारी (बहुवचन)। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने वाला मनुष्य। खोजि = खोज कर के, समझ के। लहै = पा लेता है, ढूँढ लेता है। ता का = उस (मनुष्य) का।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मनहि’ में से ‘मनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वह है समझदार सतिगुरु पुरख जो हृदय-घर में परमात्मा के रहने की जगह दिखा देता है; (जब मनुष्य) उस घर में (पहुँचता है) तब गुरु का शब्द-रूप नगारा बजता है (भाव, गुरु-शब्द का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि कोई और आकर्षण उस पर असर नहीं डाल सकता, तब मानो,) पाँच किस्म के साजों की एक-रस संगीतक आवाज़ उठती है (जो मस्ती पैदा करती है) इस अवस्था में (पहुँच के) मनुष्य (बेअंत कुदरति के करिश्मे) द्वीपों, लोकों, पातालों, खण्डों और मण्डलों को देख के हैरान होता है; (इस सारी कुदरति का) पातशाह सच्चे तख़्त पर बैठा दिखता है, उस हालत में पहुँचने से, मानो, साज़ों की ऊँची सुर की घनघोर झड़ी लगी हुई रहती है, इस ईश्वरीय मिलाप में बैठा मनुष्य (मानो) राग सुन-सुन के अफुर अवस्था में तवज्जो जोड़े रखता है (भाव, ईश्वरीय मिलाप की मौज में इतना मस्त होता है कि जगत का कोई फुरना उसके मन में नहीं उठता)। यहाँ पर (इस अवस्था में) बेअंत प्रभु के गुण ज्यों-ज्यों विचारे जाते हैं, त्यों-त्यों मन का फुरना मन में ग़रक होता जाता है; ये मन किसी और तरफ़ नहीं जाता क्योंकि हृदय-रूप कमल-फूल (माया से) पलट के नाम-अमृत से भर जाता है; उस प्रभु में, जो सबका आदि है और जुगों के बनने से भी पहले का है, मन इस तरह लीन होता है कि प्रभु की याद (किसी वक्त) नहीं भूलती, जीभ हिलाए बग़ैर ही स्मरण होता रहता है।
(इस तरह) गुरु के सन्मुख होने पर मनुष्य पूरी तरह से अपने घर में टिक जाता है (जहाँ से इसको कोई बेदख़ल नहीं कर सकता, इसकी) सारी ज्ञान-इंद्रिय और पाँचों (दैवी गुण, भाव, सत-संतोख-दया-धर्म-धैर्य) संगी बन जाते हैं। सतिगुरु के शब्द को समझ के जो मनुष्य इस (सिर्फ अपने) घर को पा लेता है, नानक उसका सेवक है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ चिलिमिलि बिसीआर दुनीआ फानी ॥ कालूबि अकल मन गोर न मानी ॥ मन कमीन कमतरीन तू दरीआउ खुदाइआ ॥ एकु चीजु मुझै देहि अवर जहर चीज न भाइआ ॥ पुराब खाम कूजै हिकमति खुदाइआ ॥ मन तुआना तू कुदरती आइआ ॥ सग नानक दीबान मसताना नित चड़ै सवाइआ ॥ आतस दुनीआ खुनक नामु खुदाइआ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ चिलिमिलि बिसीआर दुनीआ फानी ॥ कालूबि अकल मन गोर न मानी ॥ मन कमीन कमतरीन तू दरीआउ खुदाइआ ॥ एकु चीजु मुझै देहि अवर जहर चीज न भाइआ ॥ पुराब खाम कूजै हिकमति खुदाइआ ॥ मन तुआना तू कुदरती आइआ ॥ सग नानक दीबान मसताना नित चड़ै सवाइआ ॥ आतस दुनीआ खुनक नामु खुदाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिलमिलि = बिजली की चमक। बिसीआर = बहुत। फानी = नाश होने वाली। कालूबि अकल = अकल का कालब, अक्ल का पुतला, (भाव,) मूर्ख। मन = (फारसी) मैं। गोर = कब्र (भाव, मौत)। कमतरीन = बहुत ही बुरा। पुराब = पुर+आब, पानी से भरा हुआ। खाम = कच्चा। हिकमति = कारीगरी। सग = कुक्ता। दीबान = दरबार का। आतस = आतिश, आग। खुनक = ठंढा। मन न मानी = मैंने याद ही ना रखा। एकु चीजु = एक चीज़, अपना नाम। अवर = और। न भाइआ = अच्छी नहीं लगतीं। कूजै = कटोरा, प्याला। खुदाइआ = हे खुदा! तुआना तू = तू बलवान है। मन कुदरती आइआ = मैं तेरी कुदरति से (जगत में) आया हूँ। मसताना = मस्त। चढ़ै सवाइआ = बढ़ती रहे।
अर्थ: बिजली की चमक (की तरह) दुनिया (की चमक) बहुत है, पर है नाश हो जाने वाली, (जिस चमक को देख के) मुझ मूर्ख को मौत याद ही ना रही। मैं कमीना हूँ, मैं बहुत ही बुरा हूँ, पर, हे ख़ुदा! तू दरिया (-दिल) है; मुझे अपना एक ‘नाम’ दे, और चीज़ें ज़हर (जैसी) हैं, ये मुझे अच्छी नहीं लगतीं।
हे ख़ुदा! (मेरा शरीर) कच्चा कूज़ा (प्याला) है जो पानी से भरा हुआ है, यह तेरी (अजीब) कारीगरी है, (हे ख़ुदा!) तू तुआना (बलवान) है, मैं तेरी कुदरति से (जगत में) आया हूँ। हे ख़ुदा! नानक तेरे दरबार का कुक्ता है और मस्ताना है (मेहर कर, ये मस्ती) नित्य बढ़ती रहे, (क्योंकि) दुनिया आग (की तरह) है और तेरा नाम ठंढ डालने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी नवी मः ५ ॥ सभो वरतै चलतु चलतु वखाणिआ ॥ पारब्रहमु परमेसरु गुरमुखि जाणिआ ॥ लथे सभि विकार सबदि नीसाणिआ ॥ साधू संगि उधारु भए निकाणिआ ॥ सिमरि सिमरि दातारु सभि रंग माणिआ ॥ परगटु भइआ संसारि मिहर छावाणिआ ॥ आपे बखसि मिलाए सद कुरबाणिआ ॥ नानक लए मिलाइ खसमै भाणिआ ॥२७॥
मूलम्
पउड़ी नवी मः ५ ॥ सभो वरतै चलतु चलतु वखाणिआ ॥ पारब्रहमु परमेसरु गुरमुखि जाणिआ ॥ लथे सभि विकार सबदि नीसाणिआ ॥ साधू संगि उधारु भए निकाणिआ ॥ सिमरि सिमरि दातारु सभि रंग माणिआ ॥ परगटु भइआ संसारि मिहर छावाणिआ ॥ आपे बखसि मिलाए सद कुरबाणिआ ॥ नानक लए मिलाइ खसमै भाणिआ ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभो = सारा। चलतु = तमाशा। सबदि = गुरु के शब्द से। नीसाणु = नगारा। निकाणिआ = बेमुथाज। छावाणिआ = साइबान। वखाणिआ = कहा जा सकता है। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जाणिआ = सांझ डाली जा सकती है। सभि = सारे। उधारु = पार उतारा, बचाव। परगटु = प्रकट। संसारि = संसार में। बखसि = मेहर कर के। खसमै = खसम को, पति को। भाणिआ = अच्छे लगते हैं।
अर्थ: यह सारा (जगत परमात्मा का) तमाशा हो रहा है, इसको तमाशा ही कहा जा सकता है, (इस तमाशे को रचने वाला) पारब्रहम परमात्मा सतिगुरु के माध्यम से जाना जाता है, सतिगुरु के शब्द (-रूप) नगारे से सारे विकार उतर जाते हैं (भाग जाते हैं), सतिगुरु की संगति में (रहने से, विकारों से) बचाव हो जाता है और बेमुथाज हो जाया जाता है। (गुरु की इनायत से) दातार प्रभु को स्मरण कर-कर के, (मानो) सारे रंग भोग लेते हैं (भाव, स्मरण के आनंद के मुकाबले में दुनियावी रंग फीके पड़ जाते हैं) (स्मरण करने वाला मनुष्य) जगत में भी प्रकट हो जाता है, प्रभु की मेहर की छतरी (सायबान) उस पर, मानो, तन जाती है।
मैं प्रभु से सदके हूँ, वह (गुरु से) खुद ही मेहर करके अपने साथ जोड़ लेता है। हे नानक! जो लोग पति-प्रभु को प्यारे लगते हैं उनको अपने साथ मिला लेता है।27।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कई विद्वान ये मानते हैं कि जब सतिगुरु नानक देव जी ने ‘वार’ उचारी; साथ-साथ ही ‘पउड़ियों’ के साथ सलोक भी उचारे। यह विचार ठीक नहीं है। ‘आसा दी वार’ और ‘माझ की वार’ में इस बारे विचार की जा चुकी है। यह पउड़ी नं: 27 एक और सबूत है। गुरु नानक देव जी की कुल पौड़ियां 27 हैं, पर यह पौड़ी गुरु अरजन साहिब ने ‘नई’ मिलाई, इसके साथ के शलोक गुरु नानक साहिब जी के ही हैं; क्या ये शलोक उन्होंने ‘पउड़ी’ के बग़ैर ही लिख दिए? ‘काव्य रचना’ के नियम से ये बात मेल नहीं खा सकती कि ‘मूल’ तो हो ही ना, पर उसके साथ संबंध रखने वाली ‘शाखा’ बना दी जाए। अस्लियत यह है कि ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियों’ में है। ‘सलोकों’ और ‘वार’ की ‘पौड़ियों’ को रचने का मौका एक नहीं है।
पर, यहाँ एक और प्रश्न उठता है: गुरु अरजन साहिब ने यह ‘नई पौड़ी’ क्यों मिलाई? कई विद्वान यह कह देते हैं कि फरीद जी और कबीर जी के शलोकों में जहाँ कहीं गुरु साहिब के अपने शलोक आए हैं, उनका कारण ये है कि भगतों के साथ-लगते शलोकों में कोई ना कोई कमी रह गई थी। कितना अनुचित और नीचे दर्जे का और बेअदबी भरा ख्याल है; वाणी के जिस ‘संग्रह’ को सिख अपना ‘गुरु’ मानता है उसी में कई अंग ‘कमी’ वाले बता रहा है। वह सुंदरता कैसी जिसमें कमी रह गई? हिन्दू भाई के इसी कच्चपने का भक्त नामदेव जी ने निषोध किया था। देखें, राग गौंड में “आज नामे बीठुल देखिआ”; एक तरफ़ शिव जी को अपना ‘ईष्ट’ मानना और साथ ही यह भी कहना कि वह क्रोध में आकर लोगों के लड़कों को श्राप दे के मार देता था। पर अगर विद्वान सज्जनों ने अभी भी इसी विचार पर अड़ना है तो क्या यह पउड़ी नं: 27 भी गुरु अरजन साहिब को इसीलिए दर्ज करनी पड़ी कि गुरु नानक साहिब की ‘वार’ में कोई ‘कमी’ रह गई थी? एक ही ‘संग्रह’ में जगह-जगह पैतड़े बदलना थिड़कना ही पड़ेगा।
फिर, यह ‘पउड़ी’ गुरु अरजन साहिब जी ने क्यों दर्ज की? इस बात का उक्तर तलाशने के लिए पढ़ें पउड़ी नं: 23, 24, 25 और 26। इन पौड़ियों में इस बात पर जोर है कि विद्वता, बुद्धिमक्ता, भगवा वेश और देश रटन जिंदगी का सही रास्ता नहीं हैं, ‘सतिगुरु बोहिथु बेड़ु’ है जो तृष्णा-अग्नि से बचाता है। पउड़ी नं: 26 में यह मानो इशारे मात्र वर्णन था। गुरु अरजन साहिब ने पउड़ी नं: 27 में इसकी और भी स्पष्ट व्याख्या कर दी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ धंनु सु कागदु कलम धंनु धनु भांडा धनु मसु ॥ धनु लेखारी नानका जिनि नामु लिखाइआ सचु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ धंनु सु कागदु कलम धंनु धनु भांडा धनु मसु ॥ धनु लेखारी नानका जिनि नामु लिखाइआ सचु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भांडा = दवात। मसु = स्याही। धनु = धन्य, भाग्यशाली, मुबारक। सु = वह (एकवचन)। सचु = सदा कायम रहने वाला।
अर्थ: मुबारिक है वह कागज़ और कलम, मुबारक है वह दवात और स्याही; और, हे नानक! मुबारक है वह लिखने वाला जिसने प्रभु का सच्चा नाम लिखाया (प्रभु की महिमा लिखाई)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ आपे पटी कलम आपि उपरि लेखु भि तूं ॥ एको कहीऐ नानका दूजा काहे कू ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ आपे पटी कलम आपि उपरि लेखु भि तूं ॥ एको कहीऐ नानका दूजा काहे कू ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) तू स्वयं ही तख़्ती (पट्टी) है, तू स्वयं ही कलम है, (पट्टी पर महिमा का) लेख भी तू स्वयं ही है।
हे नानक! (महिमा करने-कराने वाला) एक प्रभु को ही कहना चाहिए। और दूसरा कैसे हो सकता है?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तूं आपे आपि वरतदा आपि बणत बणाई ॥ तुधु बिनु दूजा को नही तू रहिआ समाई ॥ तेरी गति मिति तूहै जाणदा तुधु कीमति पाई ॥ तू अलख अगोचरु अगमु है गुरमति दिखाई ॥ अंतरि अगिआनु दुखु भरमु है गुर गिआनि गवाई ॥ जिसु क्रिपा करहि तिसु मेलि लैहि सो नामु धिआई ॥ तू करता पुरखु अगमु है रविआ सभ ठाई ॥ जितु तू लाइहि सचिआ तितु को लगै नानक गुण गाई ॥२८॥१॥ सुधु
मूलम्
पउड़ी ॥ तूं आपे आपि वरतदा आपि बणत बणाई ॥ तुधु बिनु दूजा को नही तू रहिआ समाई ॥ तेरी गति मिति तूहै जाणदा तुधु कीमति पाई ॥ तू अलख अगोचरु अगमु है गुरमति दिखाई ॥ अंतरि अगिआनु दुखु भरमु है गुर गिआनि गवाई ॥ जिसु क्रिपा करहि तिसु मेलि लैहि सो नामु धिआई ॥ तू करता पुरखु अगमु है रविआ सभ ठाई ॥ जितु तू लाइहि सचिआ तितु को लगै नानक गुण गाई ॥२८॥१॥ सुधु
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = हालत। मिति = माप। गति मिति = कैसा है और कितना बड़ा है। अगोचरु = इन्द्रियों की पहुँच से परे। गुर गिआनि = गुरु के बख्शे ज्ञान से। रविआ = व्यापक। जितु = जिस (काम) में। अगिआनु = आत्मिक जीवन की तरफ से बेसमझी। भरमु = भटकना। पुरख = व्यापक। सचिआ = हे सदा कायम रहने वाले! लाइहि = तू लगाता है। को = कोई जीव। तितु = उस (काम) में।
अर्थ: हे प्रभु! जगत की बणतर तूने खुद ही बनाई है और तू खुद ही इसमें हर जगह मौजूद है; तेरे जैसा तेरे बिना और कोई नहीं, तू ही हर जगह गुप्त बरत रहा है। तू किस तरह का है और कितना बड़ा है; यह बात तू खुद ही जानता है, अपना मूल्य तू स्वयं ही डाल सकता है। तू अदृश्य है, तू (मानवीय) इन्द्रियों की पहुँच से परे है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, गुरु की मति तेरे दीदार करवाती है।
मनुष्य के अंदर जो अज्ञान, दुख और भटकना है ये गुरु के बताए ज्ञान द्वारा दूर होते हें।
हे प्रभु! जिस पर तू मेहर करता है उसको अपने साथ मिला लेता है वह तेरा नाम स्मरण करता है। तू सबको बनाने वाला है, सब में मौजूद है (फिर भी) अगम्य (पहुँच से परे) है, और है सब जगह व्यापक। हे नानक! (कह:) हे सच्चे प्रभु! जिधर तू जीव को लगाता है उधर ही वह लगता है तू (जिसको प्रेरता है) वही तेरे गुण गाता है।28।1। सुधु।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मलार बाणी भगत नामदेव जीउ की ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मलार बाणी भगत नामदेव जीउ की ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवीले गोपाल राइ अकुल निरंजन ॥ भगति दानु दीजै जाचहि संत जन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सेवीले गोपाल राइ अकुल निरंजन ॥ भगति दानु दीजै जाचहि संत जन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवीले = मैंने तुझे स्मरण किया है। गोपाल = (गो = धरती। पाल = पालनहार) सृष्टि की रक्षा करने वाले परमात्मा। अकुल = अ+कुल, जिसका कोई खास कुल नहीं। निरंजन = (निर+अंजन) जो माया की कालिख से रहित है, जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। दीजै = कृपा करके दे। जाचहि = मांगते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: वह परमात्मा (मानो) एक बहुत बड़ा राजा है (जिसका इतना बड़ा शामियाना है कि) यह चारों दिशाएं (उस शामियाने की मानो) कनातें हैं, (राजाओं के राज-महलों में तस्वीर घर होते हैं, परमात्मा एक ऐसा राजा है कि) सारा बैकुंठ उसका (जैसे) तस्वीर-घर है, और सारे ही जगत में उसका हुक्म एक-सार चल रहा है।
(राजाओं की रानियों का जोबन तो चार दिनों का होता है, परमात्मा एक ऐसा राजा है) जिसके महल में लक्ष्मी है, जो सदा जवान रहती है (जिसका जोबन कभी नाश होने वाला नहीं), ये चाँद-सूर्य (उसके महल के, मानो) छोटे से दीपक हैं, जिस काल का हाला हरेक जीव के सिर पर है (जिस काल का हाला हरेक जीव को भरना पड़ता है, जिस काल से जगत का हरेक जीव थर-थर काँपता है) और जो काल (इस जगत-रूप शहर के सिर पर) कोतवाल है, वह काल बेचारा (उस परमात्मा के घर में, जैसे, एक) खिलौना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जां चै घरि दिग दिसै सराइचा बैकुंठ भवन चित्रसाला सपत लोक सामानि पूरीअले ॥ जां चै घरि लछिमी कुआरी चंदु सूरजु दीवड़े कउतकु कालु बपुड़ा कोटवालु सु करा सिरी ॥ सु ऐसा राजा स्री नरहरी ॥१॥
मूलम्
जां चै घरि दिग दिसै सराइचा बैकुंठ भवन चित्रसाला सपत लोक सामानि पूरीअले ॥ जां चै घरि लछिमी कुआरी चंदु सूरजु दीवड़े कउतकु कालु बपुड़ा कोटवालु सु करा सिरी ॥ सु ऐसा राजा स्री नरहरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: च = का। चो = का। ची = की। चे = के। जां चै धरि = जिसके घर में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘घरि’ व्याकरण के अनुसार अधिकरण कारक है; इसके साथ शब्द ‘चे’ भी ‘चै’ बन गया है। ‘चे’ और ‘के’ और ‘दे’ का एक ही भाव है; इसी तरह ‘चै’, ‘दै’ और ‘कै’ का भी एक ही अर्थ है। इसी ही शब्द के बंद नंबर 2 में ‘चै’ की जगह ‘कै’ है।
दर्पण-भाषार्थ
कुआरी = सदा जवान, कभी बुढी ना होने वाली, सदा सुंदर टिकी रहने वाली। दीवड़े = सुंदर दीए। दिग दिसै = (शब्द ‘दिस’ व्याकरण के अनुसार विशेष हालातों में ‘दिक’ ‘दिग’ बन जाता है, ‘दिश’ और ‘दिग’ के अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता), सारी दिशाएं, चारों दिशाओं की। सराइचा = कनात। चित्र = तस्वीर। साला = शाला, घर। चित्रसाला = तस्वीर घर। सपत लोक = (भाव,) सारी सृष्टि। सामानि = एक समान। पूरीअले = भरपूर है, व्यापक है, मौजूद है। कउतकु = खिलौना। बपुड़ा = बेचारा। कोटवालु = कोतवाल, शहर का रखवाला। सु = वह (काल)। करा = कर, हाला। सिरि = सब के सिरों पर। नरहरी = परमात्मा।1।
अर्थ: मैंने तो उस प्रभु का स्मरण किया है, जो सारी सृष्टि का रक्षक है, जिसकी कोई खास कुल नहीं है, जिस पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती और (जिस के दर पर) सारे भक्त मँगते हैं (और कहते हैं कि हे दाता! हमें) अपनी भक्ति की दाति बख्श।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जां चै घरि कुलालु ब्रहमा चतुर मुखु डांवड़ा जिनि बिस्व संसारु राचीले ॥ जां कै घरि ईसरु बावला जगत गुरू तत सारखा गिआनु भाखीले ॥ पापु पुंनु जां चै डांगीआ दुआरै चित्र गुपतु लेखीआ ॥ धरम राइ परुली प्रतिहारु ॥ सुो ऐसा राजा स्री गोपालु ॥२॥
मूलम्
जां चै घरि कुलालु ब्रहमा चतुर मुखु डांवड़ा जिनि बिस्व संसारु राचीले ॥ जां कै घरि ईसरु बावला जगत गुरू तत सारखा गिआनु भाखीले ॥ पापु पुंनु जां चै डांगीआ दुआरै चित्र गुपतु लेखीआ ॥ धरम राइ परुली प्रतिहारु ॥ सुो ऐसा राजा स्री गोपालु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुलालु = कुंभिआर, कुम्हार, बर्तन घड़ने वाला। चतुरमुख = चार मुँह वाला। डांवड़ा = सच्चे में ढालने वाला। जिनि = जिस (ब्रहमा) ने। बिस्व संसारु = सारा जगत। राचीले = रचा है, सिरजा है। जां कै घरि = जिस के घर में। ईसरु = शिव। बावला = कमला। सारखा = (संस्कृत: सार्ष्टि Possessing the same station condition or rank) जैसा, बराबर का। भाखीले = (जिसने) उचारा है। तत सारखा गिआनु भाखीले = जिसने अस्लियत बताई है, जो मौत की याद दिलाता है। जां चै दुआरे = जिसके दरवाजे पर। डांगीआ = चौबदार। लेखीआ = मुनीम, लेखा लिखने वाला। प्रतिहारु = दरबार। चित्रगुपतु = (one of the beings in yama’s world recording the vices and virtues of mankind) जमराज का वह दूत जो मनुष्यों के किए अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब लिखता है। परुली = प्रलय लाने वाला।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सुो’– असल शब्द ‘सो’ है, यहाँ इसको ‘सु’ पढ़ना है; इस वास्ते ‘ो’ और ‘ु’ दोनों मात्राएं प्रयोग की गई हें।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सृष्टि का मालिक वह परमात्मा एक ऐसा राजा है कि (कि लोगों के ख्याल के अनुसार) जिस ब्रहमा ने सारा संसार पैदा किया है, चार मुँहों वाला वह ब्रहमा भी उसके घर में बर्तन घड़ने वाला एक कुम्हार ही है (भाव, उस परमात्मा के सामने लोगों का जाना-माना ब्रहमा भी इतनी ही हस्ती रखता है जितनी कि किसी गाँव के चौधरी के सामने गाँव का गरीब कुम्हार)। (इन लोगों की नजरों में तो) शिव जी जगत का गुरु (है), जिसने (जगत के जीवों के लिए) असल समझने-योग्य उपदेश सुनाया है (भाव, जो सारे जीवों को मौत का संदेशा पहुँचाता है, जो सब जीवों का नाश-कर्ता माना जा रहा है), ये शिव जी (सृष्टि के मालिक) उस परमात्मा के घर में (जैसे) एक बावला सा मसखरा है। (राजाओं के राज-महलों के दरवाजों पर चौबदार खड़े होते हैं, जो राजाओं की हजूरी में जाने वालों को रोकते व आज्ञा देते हैं, घट-घट में बसने वाले राजन-प्रभु ने ऐसा नियम बनाया है कि हरेक जीव का किया) अच्छा या बुरा काम उस प्रभु के महल के दर पर चौबदार है (भाव, हरेक जीव के अंदर हृदय-घर में प्रभु बस रहा है, पर जीव के अपने किए अच्छे-बुरे काम ही उस प्रभु से दूरी बना देते हैं)। जिस चित्रगुप्त का सहम हरेक जीव को लगा हुआ है, (वह) चित्रगुप्त उसके घर में एक मुनीम (जितनी हस्ती रखता) है। (लोगों के हिसाब से) पर्लय लाने वाला धर्मराज उस प्रभु के महल का एक (मामूली सा) दरबान है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जां चै घरि गण गंधरब रिखी बपुड़े ढाढीआ गावंत आछै ॥ सरब सासत्र बहु रूपीआ अनगरूआ आखाड़ा मंडलीक बोल बोलहि काछे ॥ चउर ढूल जां चै है पवणु ॥ चेरी सकति जीति ले भवणु ॥ अंड टूक जा चै भसमती ॥ सुो ऐसा राजा त्रिभवण पती ॥३॥
मूलम्
जां चै घरि गण गंधरब रिखी बपुड़े ढाढीआ गावंत आछै ॥ सरब सासत्र बहु रूपीआ अनगरूआ आखाड़ा मंडलीक बोल बोलहि काछे ॥ चउर ढूल जां चै है पवणु ॥ चेरी सकति जीति ले भवणु ॥ अंड टूक जा चै भसमती ॥ सुो ऐसा राजा त्रिभवण पती ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गण = शिव जी के विशेष सेवकों का संघ, जो गणेश की निगरानी में रहता है। गंधरब = देवताओं के रागी। गावंत आछै = गा रहे हैं। गरूआ = बड़ा। अनगरूआ = छोटा सा। काछे = (कांक्षित) मन इच्छित, सुंदर। मंडलीक = (मंडलीक = A tributary king) वह राजे जो किसी बड़े महाराजे के आगे हाला भरते हों। जां चै = जां चै (घरि), जिसके दरबार में। चेरी = दासी। सकति = माया। जीति ले = (जिस ने) जीत लिया है। अंड = ब्रहमंड, सृष्टि। अंड टूक = ब्रहमण्ड का टुकड़ा, धरती। भसमती = चूल्हा।3।
अर्थ: तीन भवनों का मालिक परमात्मा एक ऐसा राजा है, जिसके दर पर (शिव जी के) गण-देवताओं के रागी और सारे ऋषी - ये बेचारे ढाढी (बन के उसकी सिफतों की वारें) गाते हैं। सारे शास्त्र (जैसे) बहु-रूपीये हैं, (यह जगत, जैसे, उसका) छोटा सा अखाड़ा है, (इस जगत के) राजे उसका हाला भरने वाले हैं, (उसकी कीर्ति के) सुंदर बोल बोलते हैं। वह प्रभु एक ऐसा राजा है कि उसके दर पर पवन चौर-बरदार है, माया उसकी दासी है जिसने सारा जगत जीत लिया है, यह धरती उसके लंगर में, मानो, चूल्हा है (भाव, सारी धरती के जीवों को वह खुद ही रिज़क देने वाला है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जां चै घरि कूरमा पालु सहस्र फनी बासकु सेज वालूआ ॥ अठारह भार बनासपती मालणी छिनवै करोड़ी मेघ माला पाणीहारीआ ॥ नख प्रसेव जा चै सुरसरी ॥ सपत समुंद जां चै घड़थली ॥ एते जीअ जां चै वरतणी ॥ सुो ऐसा राजा त्रिभवण धणी ॥४॥
मूलम्
जां चै घरि कूरमा पालु सहस्र फनी बासकु सेज वालूआ ॥ अठारह भार बनासपती मालणी छिनवै करोड़ी मेघ माला पाणीहारीआ ॥ नख प्रसेव जा चै सुरसरी ॥ सपत समुंद जां चै घड़थली ॥ एते जीअ जां चै वरतणी ॥ सुो ऐसा राजा त्रिभवण धणी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूरमा = (कौजले ऊर्मि वेगो स स्य) विष्णु का दूसरा अवतार, कछुआ, जिसने धरती को स्तम्भ बन के रखा हुआ है। जब देवता और दैत्य क्षीर = समुंदर मथने लगे उन्होंने मंद्राचल को मथानी के रूप में बरता। पर मथानी इतनी भारी थी कि नीचे धसती जाती थी। विष्णु ने कछूए का रूप धारण करके मंद्राचल के नीचे पीठ दी। पालु = पलंघ। सहस्र = हजार। फनी = फनों वाला। बासकु = शेशनाग। वालूआ = तनियां। पाणीहारीआ = पानी भरने वाले। नख = नाखून। प्रसेव = पसीना। नख प्रसेव = नाखूनों का पसीना। जा चै = जा चै (घरि)। सुरसरी = देव नदी, गंगा। सपत = सात। घड़थली = घड़वंजी। वरतणी = बर्तन।4।
अर्थ: तीनों भवनों का मालिक वह प्रभु एक ऐसा राजा है कि विष्णु का कछु-अवतार जिसके घर में, जैसे, एक पलंघ है; हजार फनों वाला शेशनाग जिसकी सेज की तनियों (का काम देता) है; जगत की सारी बनस्पति (उसको फूल भेट करने वाली) मालिन है, छिआन्नवे करोड़ बादल उसका पानी भरने वाले (नौकर) हैं, गंगा उसके दर पर उसके नाखूनों का पसीना है, और सातों ही समुंदर उसके पनघट (घड़वंजी) हैं, जगत के ये सारे जीव-जंतु उसके बर्तन हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जां चै घरि निकट वरती अरजनु ध्रू प्रहलादु अ्मबरीकु नारदु नेजै सिध बुध गण गंधरब बानवै हेला ॥ एते जीअ जां चै हहि घरी ॥ सरब बिआपिक अंतर हरी ॥ प्रणवै नामदेउ तां ची आणि ॥ सगल भगत जा चै नीसाणि ॥५॥१॥
मूलम्
जां चै घरि निकट वरती अरजनु ध्रू प्रहलादु अ्मबरीकु नारदु नेजै सिध बुध गण गंधरब बानवै हेला ॥ एते जीअ जां चै हहि घरी ॥ सरब बिआपिक अंतर हरी ॥ प्रणवै नामदेउ तां ची आणि ॥ सगल भगत जा चै नीसाणि ॥५॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकट वरती = नजदीक रहने वाला, निज का सेवक। नै = एक ऋषि का नाम है। हेला = खेल। बानवै = बावन, बावन बीर। हहि = हैं। घरी = घर में। जां चै घरी = जां चै घरि, जिसके घर में। तां ची = उसकी। आणि = ओट। जा चै नीसाणि = जिसके निशान तले, जिसके झण्डे तले।5।
अर्थ: वह प्रभु एक ऐसा राजा है जिसके घर में उसके नजदीक रहने वाले अर्जुन, प्रहलाद, अंबरीक, नारद, नेजै (जोग-साधना में) सिद्धहस्त योगी, ज्ञानवान मनुष्य, शिव जी के गण-देवताओं के रागी, बावन बीर आदि उसकी (एक साधारण सी) खेल हैं। जगत के यह सारे जीव-जंतु उस प्रभु के घर में हैं, वह हरि-प्रभु सब में व्यापक है, सबके अंदर बसता है।
नामदेव विनती करता है: मुझे उस परमात्मा की ओट का आसरा है सारे भक्त जिसके झंडे तले (आनंद ले रहे) हैं।5।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: नामदेव जी परमात्मा के अनन्य भक्त थे, देवी-देवते अवतार आदि की पूजा की वे हमेशा निषोध करते रहे। गौंड राग में आप लिखते हैं;
हउ तउ एकु रमईआ लै हउ॥
आन देव बदलावनि दै हउ॥
पर, हिन्दू कौम में बेअंत देवी-देवताओं की पूजा आदि काल से चली आ रही है। इस शब्द में भक्त जी लोगों को इस तरह की (ईश्वर को छोड़ के) अन्य-पूजा और अनेक की पूजा से मना करते हैं, और कहते हें कि उस परमात्मा का आसरा लो जो सारी सृष्टि का मालिक है और यह सारे देवी-देवता जिस के दर पर साधारण से सेवक मात्र हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार ॥ मो कउ तूं न बिसारि तू न बिसारि ॥ तू न बिसारे रामईआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार ॥ मो कउ तूं न बिसारि तू न बिसारि ॥ तू न बिसारे रामईआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न बिसारे = ना बिसार। रामईआ = हे सुंदर राम!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सुंदर राम! मुझे तू ना बिसारना, मुझे तू ना भुलाना, मुझे तू ना बिसारना।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलावंती इहु भ्रमु जो है मुझ ऊपरि सभ कोपिला ॥ सूदु सूदु करि मारि उठाइओ कहा करउ बाप बीठुला ॥१॥
मूलम्
आलावंती इहु भ्रमु जो है मुझ ऊपरि सभ कोपिला ॥ सूदु सूदु करि मारि उठाइओ कहा करउ बाप बीठुला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आलावंती = (आलय = घर, ऊँचा घर, ऊँची जाति) हम घर वाले हैं, हम ऊँचे घराने वाले हैं, हम ऊँची जाति वाले हैं। भ्रमु = वहम, भुलेखा। कोपिला = कोप किया है, क्रोध किया है, गुस्से हो गए हैं। सूदु = शूद्र। सूदु सूदु करि = “शूद्र आ गया, शूद्र आ गया” कह कह के। मारि = मार कुटाई कर के। कहा करउ = मैं क्या करूँ? इनके आगे मेरे अकेले की पेश नहीं चलती। बाप बीठुला = हे बीठुला (सं: विष्ठल One situated at a distance) माया के प्रभाव से परे है।1।
अर्थ: (इन पण्डियों को) यह वहम है कि ये ऊँची जाति वाले हैं, (इस करके ये) सारे मेरे ऊपर गुस्से हो गए हैं; शूद्र-शूद्र कह: कह के और मार-पीट के मुझे इन्होंने उठा दिया है। हे मेरे बीठल पिता! इनके आगे मेरे अकेले की पेश नहीं चलती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूए हूए जउ मुकति देहुगे मुकति न जानै कोइला ॥ ए पंडीआ मो कउ ढेढ कहत तेरी पैज पिछंउडी होइला ॥२॥
मूलम्
मूए हूए जउ मुकति देहुगे मुकति न जानै कोइला ॥ ए पंडीआ मो कउ ढेढ कहत तेरी पैज पिछंउडी होइला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = अगर। कोइला = कोई भी। पंडीआ = पांडे, पुजारी। मो कउ = मुझे। ढेढ = नीच। पैज = इज्जत। पिछंउडी होइला = पिछेतरी हो रही है, पीछे पड़ रही है, कम हो गई है।2।
अर्थ: यदि तूने मुझे मरने के बाद मुक्ति दे दी, तेरी मुक्ति का किसी को पता नहीं लगना; ये पांडे मुझे नीच कह रहे हैं, इस तरह तो तेरी अपनी ही इज्जत कम हो रही है (क्या तेरी बँदगी करने वाला कोई व्यक्ति नीच रह सकता है?)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू जु दइआलु क्रिपालु कहीअतु हैं अतिभुज भइओ अपारला ॥ फेरि दीआ देहुरा नामे कउ पंडीअन कउ पिछवारला ॥३॥२॥
मूलम्
तू जु दइआलु क्रिपालु कहीअतु हैं अतिभुज भइओ अपारला ॥ फेरि दीआ देहुरा नामे कउ पंडीअन कउ पिछवारला ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अतिभुज = बड़ी भुजाओं वाला, बहुत बली। अपारला = बेअंत। नामे कउ = नामदेव की ओर। पंडीअन कउ = पांडों की तरफ, पुजारियों की ओर। पिछवारला = पिछला पासा, पीठ।3।
अर्थ: (हे सुहणे राम!) तू तो (सब पर, चाहे कोई नीच कुल का हो अथवा ऊँची कुल का) दया करने वाला है, तू मेहर का घर है, (फिर तू) है भी बहुत बली और बेअंत। (क्या तेरे सेवक पर कोई तेरी मर्जी के बिना धक्का कर सकता है?) (मेरी नामदेव जी की आरजू सुन के प्रभु ने) देहुरा मुझ नामदेव की तरफ फेर दिया, और पांडों की ओर पीठ हो गई।3।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अगर नामदेव जी किसी बीठुल मूर्ति के पुजारी होते, तो वह पूजा आखिर तो बीठुल के मन्दिर में जा के ही हो सकती थी, और बीठुल के मन्दिर में रोजाना जाने वाले नामदेव को ये पांडे धक्के क्यों मारते? इस मन्दिर में से धकके खा के नामदेव बीठुल के आगे पुकार कर रहा है, यह मन्दिर जरूर बीठुल का ही होगा। यहाँ धक्के पड़ने से साफ जाहिर है कि नामदेव इससे पहले कभी किसी मन्दिर में नहीं गया, ना ही किसी मन्दिर में रखी किसी बीठुल-मूर्ति का वह पुजारी था। बीठुल मूर्ति कृष्ण जी की है, पर ‘रहाउ’ की तुक में नामदेव अपने ‘बीठुल’ को ‘रमईआ’ कह के बुलाते हैं। किसी एक अवतार की मूर्ति का पुजारी अपने ईष्ट को दूसरे अवतार के नाम से याद नहीं कर सकता। सो, यहाँ नामदेव उसी महान ‘बाप’ को बुला रहा है जिस को राम, बीठुल, मुकंद आदि सारे प्यारे नामों से बुलाया जा सकता है।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: स्मरण का नतीजा- निर्भयता और स्वाभिमान।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार बाणी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार बाणी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चमारं ॥ रिदै राम गोबिंद गुन सारं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चमारं ॥ रिदै राम गोबिंद गुन सारं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नागर = नगर के। बिखिआत = (विख्यात = well known avowed) मशहूर, प्रत्यक्ष, जानी मानी। रिदै = हृदय में। सारं = मैं संभालता हूं, मैं चेते करता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे नगर के लोगो! यह बात तो जानी-मानी है कि मेरी जाति है चमार (जिसको तुम लोग बहुत नीची समझते हो, पर) मैं अपने हृदय में प्रभु के गुण याद करता रहता हूँ (इसलिए मैं नीच नहीं रह गया)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरसरी सलल क्रित बारुनी रे संत जन करत नही पानं ॥ सुरा अपवित्र नत अवर जल रे सुरसरी मिलत नहि होइ आनं ॥१॥
मूलम्
सुरसरी सलल क्रित बारुनी रे संत जन करत नही पानं ॥ सुरा अपवित्र नत अवर जल रे सुरसरी मिलत नहि होइ आनं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरसरी = (सं: सुरसरित्) गंगा। सलल = पानी। क्रित = बनाया हुआ। बारुनी = (सं: वारुणी) शराब। रे = हे भाई! पानं नही करत = नहीं पीते। सुरा = शराब। नत = भले ही। अवर = और। आनं = और अलग।1।
अर्थ: हे भाई! गंगा के (भी) पानी से बनाया हुआ शराब गुरमुखि लोग नहीं पीते (भाव, वह शराब ग्रहण करने योग्य नहीं, इसी तरह अहंकार भी अवगुण ही है, चाहे वह ऊँची और पवित्र जाति का किया जाए), पर, हे भाई! अपवित्र शराब और चाहे और (गंदा) पानी भी हो, वह गंगा (के पानी) में मिल के (उससे) अलग नहीं रह जाते (इसी तरह नीच कुल का व्यक्ति भी परम-पवित्र-प्रभु में जुड़ के उससे अलग नहीं रह जाता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर तारि अपवित्र करि मानीऐ रे जैसे कागरा करत बीचारं ॥ भगति भागउतु लिखीऐ तिह ऊपरे पूजीऐ करि नमसकारं ॥२॥
मूलम्
तर तारि अपवित्र करि मानीऐ रे जैसे कागरा करत बीचारं ॥ भगति भागउतु लिखीऐ तिह ऊपरे पूजीऐ करि नमसकारं ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तर = वृक्ष। तर तारि = ताड़ी के वृक्ष जिस में नशा देने वाला रस निकलता है। कागरा = कागज़। करत बीचारं = विचार करते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! ताड़ी के वृक्ष अपवित्र माने जाते हैं, उसी तरह उन पेड़ों से बने हुए कागज़ों के बारे में भी लोग विचार करते हैं (भाव, उन कागज़ों को भी अपवित्र समझते हैं), पर, जब भगवान की महिमा उन पर लिखी जाती है तो उनकी पूजा की जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा ॥ अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा ॥३॥१॥
मूलम्
मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा ॥ अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुट बांढला = (चमड़ी) कूटने और काटने वाला। ढोर = मरे हुए पशू। नितहि = सदा। बिप्र = ब्राहमण। तिहि = उसको। डंडउति = डंडवत, नमस्कार। नाम सरणाइ = नाम की शरण में। तिहि = उस कुल में।3।
अर्थ: मेरी जाति के लोग (चंमड़ा) कूटने और काटने वाले बनारस के इर्द-गिर्द (रहते हैं, और) नित्य मरे पशू ढोते हैं; पर, (हे प्रभु!) उसी कुल में पैदा होया हुआ तेरा सेवक रविदास तेरे नाम की शरण आया है, उसको अब बड़े-बड़े ब्राहमण नमस्कार करते हैं।3।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक में रविदास जी लिखते हैं: ‘मैं राम के गुण संभालता हूं, मैं गोबिंद के गुण संभालता हूँ’ पर अगर अवतार-पूजा के दृष्टिकोण से देखें तो ‘राम’ श्री राम चंद्र जी का नाम है, और ‘गोबिंद’ श्री कृष्ण जी का नाम है। इन दोनों शब्दों के एक साथ प्रयोग से साफ स्पष्ट है कि रविदास जी किसी विशेष अवतार के उपासक नहीं थे। वे उस परमात्मा के भक्त थे, जिसके लिए ये सारे शब्द बरते जा सकते हैं, और, सतिगुरु जी ने भी बरते हें।
दर्पण-भाव
भाव: स्मरण नीचों को ऊँचा कर देता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार ॥ हरि जपत तेऊ जना पदम कवलास पति तास सम तुलि नही आन कोऊ ॥ एक ही एक अनेक होइ बिसथरिओ आन रे आन भरपूरि सोऊ ॥ रहाउ॥
मूलम्
मलार ॥ हरि जपत तेऊ जना पदम कवलास पति तास सम तुलि नही आन कोऊ ॥ एक ही एक अनेक होइ बिसथरिओ आन रे आन भरपूरि सोऊ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेऊ = वही मनुष्य। जना = (प्रभु के) सेवक। पदम कवलास पति = (पद्मापति कमलापति)। पदमा = लक्ष्मी, माया। कमला = लक्ष्मी, माया। पदमापति = परमात्मा। कवलापति = परमात्मा, माया का पति। तास सम = उस प्रभु के समान, उस प्रभु जैसा। तास तुलि = उस परमात्मा के बराबर का। कोऊ आन = कोई अन्य। होइ = हो के, बन के। बिसथरिओ = पसरा हुआ, वयापक। रे = हे भाई! आन आन = (सं: अयन अयन) घर घर में, घट घट में। सोऊ = वही प्रभु। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य माया के पति परमात्मा को स्मरण करते हैं, वे प्रभु के (अनन्य) सेवक बन जाते हैं, उनको उस प्रभु जैसा, उस प्रभु के बराबर का, कोई और नहीं दिखता (इस वास्ते वे किसी का दबाव नहीं मानते)। हे भाई! उनको एक परमात्मा ही अनेक रूपों में व्यापक, घट घट में भरपूर दिखता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै भागवतु लेखीऐ अवरु नही पेखीऐ तास की जाति आछोप छीपा ॥ बिआस महि लेखीऐ सनक महि पेखीऐ नाम की नामना सपत दीपा ॥१॥
मूलम्
जा कै भागवतु लेखीऐ अवरु नही पेखीऐ तास की जाति आछोप छीपा ॥ बिआस महि लेखीऐ सनक महि पेखीऐ नाम की नामना सपत दीपा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिस के घर में। भागवतु = परमात्मा की महिमा। अवरु = (प्रभु के बिना) कोई और। आछोप = अछूत, अछोह। छीपा = धोबी। पेखीऐ = देखने में आता है। नामना = बड़ाई। सपत दीपा = सप्त द्वीपों में, सारे संसार में।1।
अर्थ: जिस (नामदेव) के घर में प्रभु की महिमा लिखी जा रही है, (प्रभु-नाम के बिना) कुछ और देखने में नहीं आता (ऊँची जाति वालों के लिए तो) उसकी जाति छींबा है और वह अछूत है (पर उसकी उपमा तीनों लोकों में हो रही है); (ऋषि) ब्यास (के धर्म-पुस्तक) में लिखा मिलता है, सनक (आदि के पुस्तक) में भी देखने में आता है कि हरि-नाम की बड़ाई सारे संसार में होती है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: चुँकि यह बहस उच्च जाति वालों से है, इसलिए उन्होंने अपने ही घर में से ब्यास-सनक आदि का हवाला दिया है। रविदास जी खुद इनके श्रद्धालु नहीं हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै ईदि बकरीदि कुल गऊ रे बधु करहि मानीअहि सेख सहीद पीरा ॥ जा कै बाप वैसी करी पूत ऐसी सरी तिहू रे लोक परसिध कबीरा ॥२॥
मूलम्
जा कै ईदि बकरीदि कुल गऊ रे बधु करहि मानीअहि सेख सहीद पीरा ॥ जा कै बाप वैसी करी पूत ऐसी सरी तिहू रे लोक परसिध कबीरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिसके कुल में। बकरीदि = वह ईद जिस पर गऊ की कुर्बानी देते हैं (बकर = गऊ)। बधु करहि = ज़बह करते हैं, कुर्बानी देते हैं। मानीअहि = माने जाते हैं, पूजे जाते हें। जा कै = जिसके खानदान में। बाप = पिता दादे, बड़े बुर्जुगों ने। ऐसी सरी = ऐसी हो सकी। तिहू लोक = तीनों ही लोकों में, सारे जगत में। परसिध = मशहूर।2।
अर्थ: हे भाई! जिस (कबीर) की जाति के लोग (मुसलमान बन कर) ईद-बकरीद के समय (अब) गऊएं हलाल करते हैं और जिनके घरों में अब शेखों शहीदों और पीरों की मान्यता होती है, जिस (कबीर) की जाति के बड़े-बुर्जुगों ने यह कर दिखाया, उनकी ही जाति में पैदा हुए पुत्र से ऐसा हो गया (कि इस्लामी हकूमत के दबाव से निडर रह के हरि-नाम स्मरण करके) सारे संसार में मशहूर हो गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा के कुट्मब के ढेढ सभ ढोर ढोवंत फिरहि अजहु बंनारसी आस पासा ॥ आचार सहित बिप्र करहि डंडउति तिन तनै रविदास दासान दासा ॥३॥२॥
मूलम्
जा के कुट्मब के ढेढ सभ ढोर ढोवंत फिरहि अजहु बंनारसी आस पासा ॥ आचार सहित बिप्र करहि डंडउति तिन तनै रविदास दासान दासा ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढेढ = नीच जाति के लोग। अजहु = अभी तक। आचार = कर्मकांड। आचार सहित = कर्म काण्डी, शास्त्रों की मर्यादा पर चलने वाले। तिन तनै = उनके पुत्र (रविदास) को। दासान दासा = प्रभु के दासों का दास।3।
अर्थ: जिसके खानदान के नीच लोग बनारस के आसपास (बसते हैं और) अभी तक मरे हुए पशू ढोते हैं, उनकी ही कुल में पैदा हुए पुत्र रविदास को, जो प्रभु के दासों का दास बन गया है, शास्त्रों की मर्यादा अनुसार चलने वाले ब्राहमण नमस्कार करते हैं।3।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: फरीद जी और कबीर जी की सारी वाणी पढ़ के देखो, एक बात साफ प्रत्यक्ष ही दिखती है। फरीद जी हर जगह मुसलमानी शब्दों का प्रयोग करते हैं: मल-कुलमौत, पुरसलात (पुलसिरात), अक्ल सुजान, गिरावान, मरग आदिक सब इस्लामी शब्द ही हैं; विचार भी इस्लामी कल्चर वाले ही दिए हैं, जैसे, ‘मिटी पर्ठ अतोलवी कोइ न होसी मितु’; यहाँ मुर्दे दबाने की तरफ इशारा है। पर, कबीर जी की वाणी पढ़ो, सभी शब्द हिन्दुओं वाले हैं, सिर्फ वहीं इस्लामी शब्दावली मिलेगी जहाँ किसी मुसलमान के साथ बहस है। परमात्मा के लिए आम तौर पर वही नाम बरते हैं जो हिन्दू लोग अपने अवतारों के लिए प्रयोग करते हैं, और, जो नाम सतिगुरु जी ने भी बहुत बार बरते हैं: पीतांबर, राम, हरि, नारायण, सारंगधर, ठाकुर आदिक।
इस उपरोक्त विचार से सहज ही यह अंदाजा लग सकता है, कि फरीद जी मुसलमानी घर और मुसलमानी ख्यालों में पले थे; कबीर जी हिन्दू घर और हिन्दू सभ्यता में। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि फरीद जी मुसलमान थे, और कबीर जी हिन्दू। हाँ, हिन्दू कुरीतियों और कुरस्मों को उन्होंने दिल खोल के नशर किया है; यह बात भी यही जाहिर करती है कि हिन्दू घर में जन्म होने और पलने के कारण कबीर जी हिंदू रस्मों और मर्यादा को अच्छी तरह जानते थे।
रविदास जी के इस शब्द के दूसरे बंद में से कई सज्जन गलती खा जाते हैं के कबीर जी मुसलमान थे। पर आसा राग में कबीर जी का अपना शब्द पढ़ के देखो; वे लिखते हैं;
‘सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ, मै न बदउगा भाई॥ जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा, आपन ही कटि जाई॥२॥ सुंनति कीए तुरकु जे होइगा, अउरति का किआ करीऐ॥ अरध सरीरी नारि न छोडै, ता ते हिंदू ही रहीऐ॥३॥’
यहाँ स्पष्ट है कि कबीर जी की सुन्नत नहीं हुई थी, यदि वे मुसलमानी घर में पलते, तो छोटी उमर में ही माता-पिता सुन्नत करवा देते, जैसा कि इस्लामी शरह कहती है। कबीर जी मुसलमानी पक्ष का वर्णन करते हुए घर की संगिनी के लिए मुसलमानी शब्दावली ‘अउरति’ बरतते हैं, पर अपना पक्ष बताने के समय हिंदू-शब्दावली ‘अरध सरीरी नारि’ का प्रयोग करते हैं।
पर, क्या रविदास जी ने कबीर जी को मुसलमान बताया है? नहीं। ध्यान से पढ़ के देखिए। ‘रहाउ’ की तुक में रविदास जी उन मनुष्यों की आत्मिक अवस्था बयान करते हैं, जो हरि-नाम स्मरण करते हैं। कहते हैं: उनको हर जगह प्रभु ही दिखता है, उनको प्रभु ही सबसे बड़ा दिखता है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि वे निडर और प्रभु के साथ एक-मेक हो जाते हैं। आगे नामदेव की, कबीर की और अपनी मिसाल देते हैं: हरि-नाम की इनायत से नामदेव जी की वह शोभा हुई जो सनक और ब्यास जैसे ऋषि लिख गए, कबीर इस्लामी राज के दबाव से निडर रह के हरि-नाम स्मरण करके प्रसिद्ध हुआ, अपनी कुल के अन्य जुलाहों की तरह मुसलमान नहीं बना; हरि-नाम की इनायत ने ही रविदास जी को इतना ऊँचा किया कि ऊँची कुल के ब्राहमण उनके चरणों में लगते रहे।
सतिगुरु जी ने फरीद जी को ‘शेख’ लिखा है, शब्द ‘शेख’ इस्लामी है, पर कबीर जी को ‘भक्त’ लिखते हैं, ‘भक्त’ शब्द हिंदका है।
सो, रविदास जी के इस शब्द से यह अंदाजा लगाना कि कबीर जी मुसलमान थे, भारी गलती करने वाली बात है।
दर्पण-भाव
भाव: स्मरण नीचों को ऊँचा कर देता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलार ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मलार ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलत पिआरो प्रान नाथु कवन भगति ते ॥ साधसंगति पाई परम गते ॥ रहाउ॥
मूलम्
मिलत पिआरो प्रान नाथु कवन भगति ते ॥ साधसंगति पाई परम गते ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान नाथु = जिंद का सांई। कवन भगति ते = और किस भक्ति से? और किस तरह की भक्ति करने से? भाव, किसी और तरह की भक्ति करने से नहीं। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। रहाउ।
अर्थ: साधु-संगत में पहुँच के मैंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली है, (वरना) जिंद का सांई प्यारा प्रभु किसी और तरह की भक्ति से नहीं था मिल सकता। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैले कपरे कहा लउ धोवउ ॥ आवैगी नीद कहा लगु सोवउ ॥१॥
मूलम्
मैले कपरे कहा लउ धोवउ ॥ आवैगी नीद कहा लगु सोवउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा लउ = कब तक? भाव, बस कर दूँगा, अब नहीं करूँगा। मैले कपरे धोवउ = मैं दूसरों के मैले कपड़े धोऊँगा, मैं दूसरों की निंदा करूँगा। आवैगी…सोवउ = कहा लगु आवैगी नीद कहा लगु सोवउ, कब तक नींद आएगी और कब तक सोऊँगा? ना अज्ञानता की नींद आएगी और ना ही सोऊँगा।1।
अर्थ: (साधु-संगत की इनायत से) अब मैंने पराई निंदा करनी छोड़ दी है, (सत्संग में रहने के कारण) ना मुझे अज्ञानता की नींद आएगी और ना ही मैं गाफिल होऊँगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोई जोई जोरिओ सोई सोई फाटिओ ॥ झूठै बनजि उठि ही गई हाटिओ ॥२॥
मूलम्
जोई जोई जोरिओ सोई सोई फाटिओ ॥ झूठै बनजि उठि ही गई हाटिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोई जोई जोरिओ = जो कुछ मैंने जोड़ा था, जितनी दुष्कर्मों की कमाई की थी। सोई सोई = वह सारा (लेखा)। झूठै बनजि = झूठे वणज में (लग के जो दुकान खोली थी)।2।
अर्थ: (साधु-संगत में आने से पहले) मैंने जितनी भी बुरे-कर्मों की कमाई की हुई थी (सत्संग में आ के) उस सारी की सारी का लेखा समाप्त हो गया है, झूठे वणज में (लग के मैंने जो दुकान खोली हुई थी, साधु-संगत की कृपा से) वह दुकान ही उठ गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु रविदास भइओ जब लेखो ॥ जोई जोई कीनो सोई सोई देखिओ ॥३॥१॥३॥
मूलम्
कहु रविदास भइओ जब लेखो ॥ जोई जोई कीनो सोई सोई देखिओ ॥३॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = कह। रविदास = हे रविदास! भइओ जब लेखो = (साधु-संगत में) जब (मेरे किए कर्मों का) लेखा हुआ, साधु-संगत में जब मैंने अपने अंदर झाँक के देखा।3।
अर्थ: (ये तब्दीली कैसे आई?) हे रविदास! कह: (साधु-संगत में आ कर) जब मैंने अपने अंदर झाँका, तब जो-जो कर्म मैंने किए हुए थे वे सब कुछ प्रत्यक्ष दिखाई दे गए (और मैं बुरे-कर्मों से शर्मा के इनसे दूर हट गया)।3।3
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: साधु-संगत ही एक ऐसा स्थान है जहाँ मन ऊँची अवस्था में पहुँच सकता है, और पराई निंदा, अज्ञानता, झूठ आदि विकारों से तर्क करके इनका सफाया कर सकता है।3।