विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारंग महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत जना की हम धूरि ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ आतम रामु रहिआ भरपूरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के संत जना की हम धूरि ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ आतम रामु रहिआ भरपूरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम, मैं। धूरि = चरणों की धूल। मिलि = मिल के। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। आतमरामु = परमात्मा। भरपूरि = सर्व व्यापक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा के संत-जनों के चरणों की धूल (हुआ रहता हूँ)। संत-जनों की संगति में मिल के सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा प्राप्त हो जाता है, और परमात्मा सब जगह बसता दिखाई देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु संतु मिलै सांति पाईऐ किलविख दुख काटे सभि दूरि ॥ आतम जोति भई परफूलित पुरखु निरंजनु देखिआ हजूरि ॥१॥
मूलम्
सतिगुरु संतु मिलै सांति पाईऐ किलविख दुख काटे सभि दूरि ॥ आतम जोति भई परफूलित पुरखु निरंजनु देखिआ हजूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाईऐ = प्राप्त कर ली जाती है। किलविख = पाप। सभि = सारे। आतम जोति = अंतरात्मा, जिंद, प्राण। परफूलित = प्रफुल्लित, खिली हुई। पुरख निरंजनु = निर्लिप प्रभु (निर+अंजनु। अंजनु = माया के मोह की कालिख)। हजूरि = हाजर नाजर।1।
अर्थ: हे भाई! जब गुरु-संत मिल जाता है, तब आत्मिक शीतलता प्राप्त हो जाती है, गुरु (मनुष्य के) सारे पाप सारे दुख काट के दूर कर देता है। (गुरु को मिलने से) प्राण खिल उठते हैं, निर्लिप और सर्व-व्यापक प्रभु अंग-संग बसता दिख जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडै भागि सतसंगति पाई हरि हरि नामु रहिआ भरपूरि ॥ अठसठि तीरथ मजनु कीआ सतसंगति पग नाए धूरि ॥२॥
मूलम्
वडै भागि सतसंगति पाई हरि हरि नामु रहिआ भरपूरि ॥ अठसठि तीरथ मजनु कीआ सतसंगति पग नाए धूरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडै भागि = बड़ी किस्मत से। अठ सठि = (8+60) अढ़सठ। मजनु = स्नान। पग धूरि = चरणों की धूल। नाए = नहा के, नहाए।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने बड़ी किस्मत से साधु-संगत प्राप्त कर ली, उसने सब जगह भरपूर परमात्मा का नाम (दिल में बसा लिया), सत्संगियों के चरणों की धूल में नहा के उसने (मानो) अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लिया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरमति बिकार मलीन मति होछी हिरदा कुसुधु लागा मोह कूरु ॥ बिनु करमा किउ संगति पाईऐ हउमै बिआपि रहिआ मनु झूरि ॥३॥
मूलम्
दुरमति बिकार मलीन मति होछी हिरदा कुसुधु लागा मोह कूरु ॥ बिनु करमा किउ संगति पाईऐ हउमै बिआपि रहिआ मनु झूरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरमति = खोटी मति। मलीन मति = (विकारों की मैल से) मैली हो चुकी मति। कुसुधु = (कु+सुधु) गंदी, मैली। कूरु = कूड़, झूठ। बिनु करमा = (प्रभु की) मेहर के बिना। बिआपि रहिआ = फसा रहता है। झूरि = झुरता है।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को माया का झूठा मोह चिपका रहता है, उसका हृदय (विकारों से) गंदा (हुआ रहता है), उसकी मति विकारों से खोटी मैली और होछी हुई रहती है। हे भाई! परमात्मा की मेहर के बिना साधु-संगत का मिलाप हासिल नहीं होता, अहंकार में फसा हुआ मनुष्य का मन सदा चिन्ता-फिक्र में टिका रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होहु दइआल क्रिपा करि हरि जी मागउ सतसंगति पग धूरि ॥ नानक संतु मिलै हरि पाईऐ जनु हरि भेटिआ रामु हजूरि ॥४॥१॥
मूलम्
होहु दइआल क्रिपा करि हरि जी मागउ सतसंगति पग धूरि ॥ नानक संतु मिलै हरि पाईऐ जनु हरि भेटिआ रामु हजूरि ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = दयावान। मागउ = मैं माँगता हूँ। पग धूरि = चरणों की धूल। संतु = गुरु। पाईऐ = पा लेते हैं। जनु हरि = हरि जनु, हरि का दास, गुरु। हजूरि = अंग संग (बसता)।4।
अर्थ: हे प्रभु जी! (मेरे पर) दयावान हो, मेहर कर। मैं (तेरे दर से) सत्संगियों के चरणों की धूल माँगता हूँ। हे नानक! जब गुरु मिल जाता है, तब परमात्मा मिल जाता है। जिसको परमात्मा का दास (गुरु) मिलता है, उसको परमात्मा अंग-संग बसता दिखता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ४ ॥ गोबिंद चरनन कउ बलिहारी ॥ भवजलु जगतु न जाई तरणा जपि हरि हरि पारि उतारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारंग महला ४ ॥ गोबिंद चरनन कउ बलिहारी ॥ भवजलु जगतु न जाई तरणा जपि हरि हरि पारि उतारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को, से। बलिहारी = सदके। भवजलु = संसार समुंदर। न जाई तरणा = पार नहीं लांघा जा सकता। जपि = जपा के। पारि उतारी = पार लंघा लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरणों से सदके जाना चाहिए। हे भाई! (परमात्मा का नाम जपने के बिना) जगत (के विकारों) के संसार-समुंदर से पार नहीं लांघा जा सकता। हे भाई! (परमात्मा का नाम) जपा कर, परमात्मा (विकार-भरे जगत से) पार लंघा देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै प्रतीति बनी प्रभ केरी सेवा सुरति बीचारी ॥ अनदिनु राम नामु जपि हिरदै सरब कला गुणकारी ॥१॥
मूलम्
हिरदै प्रतीति बनी प्रभ केरी सेवा सुरति बीचारी ॥ अनदिनु राम नामु जपि हिरदै सरब कला गुणकारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। प्रतीति = श्रद्धा। केरी = की। सेवा = भक्ति। बीचारी = परमात्मा के गुणों की विचार करने वाला। अनदिनु = हर रोज। सरब कला = सारी ताकतों का मालिक। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! सारी ताकतों के मालिक सारे गुणों के मालिक परमात्मा का नाम हर वक्त हृदय में जप के (मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के प्रति श्रद्धा बन जाती है, मनुष्य की तवज्जो सेवा-भक्ति में जुड़ी रहती है, परमात्मा के गुण मन में बसते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु अगम अगोचरु रविआ स्रब ठाई मनि तनि अलख अपारी ॥ गुर किरपाल भए तब पाइआ हिरदै अलखु लखारी ॥२॥
मूलम्
प्रभु अगम अगोचरु रविआ स्रब ठाई मनि तनि अलख अपारी ॥ गुर किरपाल भए तब पाइआ हिरदै अलखु लखारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। रविआ = मौजूद। स्रब ठाई = हर जगह। मनि = (हरेक के) मन में। तनि = (हरेक के) तन में। अलख = अदृश्य। अपारी = (अ+पार) जिसका परला किनारा नहीं ढूँढा जा सकता, बेअंत। किरपाल = दयावान।2।
अर्थ: हे भाई! (जो) परमात्मा (जीवों की) पहुँच से परे है (जीवों की) ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, (जो) सब जगह मौजूद है, सबके मन में तन में बसता है, अदृश्य है और बेअंत है वह परमात्मा तब मिल जाता है जब (मनुष्य पर) सतिगुरु जी दयावान होते हैं, तब मनुष्य उस अदृश्य प्रभु को अपने दिल में (ही) देख लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि हरि नामु सरब धरणीधर साकत कउ दूरि भइआ अहंकारी ॥ त्रिसना जलत न कबहू बूझहि जूऐ बाजी हारी ॥३॥
मूलम्
अंतरि हरि नामु सरब धरणीधर साकत कउ दूरि भइआ अहंकारी ॥ त्रिसना जलत न कबहू बूझहि जूऐ बाजी हारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब अंतरि = हरेक के अंदर। धरणी धर = धरती का आसरा प्रभु। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। जलत = जल रहे। न बूझहि = नहीं समझते। जूऐ = जूए में।3।
अर्थ: हे भाई! धरती के आसरे परमात्मा का नाम सब जीवों के अंदर मौजूद है, पर परमात्मा से टूटे हुए अहंकारी मनुष्यों को कहीं दूर बसता प्रतीत होता है। माया की तृष्णा की आग में जल रहे वह मनुष्य कभी भी (इस भेद को) नहीं समझते, उन्होंने मनुष्य-जीवन की बाज़ी हारी हुई होती है (जैसे जुआरिए ने) जूए में (अपना धन)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊठत बैठत हरि गुन गावहि गुरि किंचत किरपा धारी ॥ नानक जिन कउ नदरि भई है तिन की पैज सवारी ॥४॥२॥
मूलम्
ऊठत बैठत हरि गुन गावहि गुरि किंचत किरपा धारी ॥ नानक जिन कउ नदरि भई है तिन की पैज सवारी ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। गुरि = गुरु ने। किंचत = थोड़ी जितनी भी। नानक = हे नानक! नदरि = मेहर की निगाह। पैज = इज्जत, सत्कार।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों पर गुरु ने थोड़ी जितनी भी मेहर कर दी, वे उठते-बैठते हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। हे भाई! जिस पर परमात्मा की मेहर की निगाह हुई, परमात्मा ने उनकी (लोक-परलोक में) इज्जत रख ली।4।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ ॥ हरि हरि अम्रित नामु देहु पिआरे ॥ जिन ऊपरि गुरमुखि मनु मानिआ तिन के काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ ॥ हरि हरि अम्रित नामु देहु पिआरे ॥ जिन ऊपरि गुरमुखि मनु मानिआ तिन के काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। गुरमुखि मनु = गुरु का मन। मानिआ = पतीज जाता है। काज = सारे काम। सवारे = (गुरु) सवार देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे गुरु! मुझे परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्श हे भाई! जिस मनुष्यों पर गुरु का मन पतीज जाता है, (गुरु) उनके सारे काम सवार देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जन दीन भए गुर आगै तिन के दूख निवारे ॥ अनदिनु भगति करहि गुर आगै गुर कै सबदि सवारे ॥१॥
मूलम्
जो जन दीन भए गुर आगै तिन के दूख निवारे ॥ अनदिनु भगति करहि गुर आगै गुर कै सबदि सवारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = निमाणे। निवारे = दूर कर देता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। गुर आगै = गुरु की हजूरी में, गुरु के सन्मुख रह के। कै सबदि = के शब्द से।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य निमाणे हो के गुरु के दर पर गिर जाते हैं, (गुरु) उनके सारे दुख दूर कर देता है। वे मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं, गुरु के शब्द की इनायत से (उनके जीवन) सुंदर बन जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै नामु अम्रित रसु रसना रसु गावहि रसु बीचारे ॥ गुर परसादि अम्रित रसु चीन्हिआ ओइ पावहि मोख दुआरे ॥२॥
मूलम्
हिरदै नामु अम्रित रसु रसना रसु गावहि रसु बीचारे ॥ गुर परसादि अम्रित रसु चीन्हिआ ओइ पावहि मोख दुआरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। नामु अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। रसना = जीभ से। गावहि = गाते हें। बीचारे = मन में बसा के। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। चीन्हिआ = पहचान लिया। ओइ = वे लोग। मोख दुआरे = (माया के मोह से) खलासी का रास्ता।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बसाते हैं, जीभ से उसको सलाहते हैं, मन में उस नाम-रस को विचारते हैं, जिन्होंने गुरु की कृपा से आत्मिक जीवन देने वाले नाम-रस को (अपने अंदर) पहचान लिया, वे मनुष्य (विकारों से) खलासी पाने वाला दरवाजा खोज लेते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु पुरखु अचलु अचला मति जिसु द्रिड़ता नामु अधारे ॥ तिसु आगै जीउ देवउ अपुना हउ सतिगुर कै बलिहारे ॥३॥
मूलम्
सतिगुरु पुरखु अचलु अचला मति जिसु द्रिड़ता नामु अधारे ॥ तिसु आगै जीउ देवउ अपुना हउ सतिगुर कै बलिहारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचलु = अडोल चिक्त। अचला मति = (माया के मुकाबले पर) अडोल रहने वाला मति वाला। जिसु द्रिढ़ता = जिसके अंदर अडोलता है। अधारे = आसरा। जीउ = जिंद, प्राण। देवउ = देऊँ, मैं भेटा करता हूँ। हउ = मैं।3।
अर्थ: हे भाई! जो गुरु-पुरख अडोल-चिक्त रहने वाला है, जिसकी मति (विकारों के मुकाबले में) सदा अटल रहती है, जिसके अंदर सदा अडोलता टिकी रहती है जिसको सदा हरि-नाम का सहारा है, उस गुरु के आगे मैं अपने प्राण भेट करता हूँ, उस गुरु से मैं (सदा) सदके जाता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख भ्रमि दूजै भाइ लागे अंतरि अगिआन गुबारे ॥ सतिगुरु दाता नदरि न आवै ना उरवारि न पारे ॥४॥
मूलम्
मनमुख भ्रमि दूजै भाइ लागे अंतरि अगिआन गुबारे ॥ सतिगुरु दाता नदरि न आवै ना उरवारि न पारे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भ्रमि = भटकना में पड़ के। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) अनरू प्यार में। अगिआन गुबारे = आत्मिक जीवन की ओकर से बेसमझी का घोर अंधेरा। नदरि न आवै = (उनको) दिखाई नहीं देता, (उन्हें) कद्र नहीं पड़ती। उरवारि = (संसार समुंदर के) इस तरफ।4।
अर्थ: हे भाई! (गुरु वाला पासा छोड़ के) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया वाली दौड़-भाग के कारण माया के मोह में (ही) फसे रहते हैं, उनके अंदर आत्मिक जीवन की तरफ से बे-समझी का घोर अंधकार (बना रहता है), उनको नाम की दाति देने वाला गुरु दिखता ही नहीं, वह मनुष्य (विकारों भरे संसार-समुंदर के) ना इस पार ना उस पार (पहुँच सकते हैं, संसार-समुंदर के बीच ही गोते खाते रहते हैं)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरबे घटि घटि रविआ सुआमी सरब कला कल धारे ॥ नानकु दासनि दासु कहत है करि किरपा लेहु उबारे ॥५॥३॥
मूलम्
सरबे घटि घटि रविआ सुआमी सरब कला कल धारे ॥ नानकु दासनि दासु कहत है करि किरपा लेहु उबारे ॥५॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरबे = सबमें। घटि घटि = हरेक शरीर में। रविआ = मौजूद। सरब कला = सारी ताकतों का मालिक। कल = कला, ताकत। धारे = टिका रहा है। नानकु कहत = नानक कहता है। करि = कर के।5।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सबमें व्यापक है, हरेक शरीर में मौजूद है, सारी ताकतों का मालिक है, अपनी कला से सृष्टि को सहारा दे रहा है, उसके दर पर उसके दासों का दास नानक विनती करता है (और कहता है: हे प्रभु!) मेहर करके मुझे (इस संसार-समुंदर से) बचाए रख।5।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ ॥ गोबिद की ऐसी कार कमाइ ॥ जो किछु करे सु सति करि मानहु गुरमुखि नामि रहहु लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ ॥ गोबिद की ऐसी कार कमाइ ॥ जो किछु करे सु सति करि मानहु गुरमुखि नामि रहहु लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कार कमाइ = कार कर। करे = (परमात्मा) करता है। से = वह (काम)। सति = अटल, ठीक। करि = कर के, समझ के। मानहु = मानो। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। नामि = हरि नाम में। रहहु लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के टिके रहो।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की सेवा-भक्ति की कार इस प्रकार किया कर कि जो कुछ परमात्मा करता है उसको ठीक माना कर, और गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ी रखा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिद प्रीति लगी अति मीठी अवर विसरि सभ जाइ ॥ अनदिनु रहसु भइआ मनु मानिआ जोती जोति मिलाइ ॥१॥
मूलम्
गोबिद प्रीति लगी अति मीठी अवर विसरि सभ जाइ ॥ अनदिनु रहसु भइआ मनु मानिआ जोती जोति मिलाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति = बहुत। अवर = और प्रीत। सभ = सारी। विसरि जाइ = भूल जाती है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रहसु = आत्मिक आनंद। मानिआ = रीझ जाता है। जोती = प्रभु की ज्योति में। जोति = जिंद, प्राण।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को अपने मन में) परमात्मा से प्रीति अति मीठी लगती है, उसको (दुनिया वाली) अन्य सारी प्रीत भूल जाती हैं। (उसके अंदर) हर वक्त आत्मिक आनंद बना रहता है, उसका मन (प्रभु की याद में) रीझ जाता है, उसके प्राण परमात्मा की ज्योति के साथ एक-मेक हुए रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब गुण गाइ तब ही मनु त्रिपतै सांति वसै मनि आइ ॥ गुर किरपाल भए तब पाइआ हरि चरणी चितु लाइ ॥२॥
मूलम्
जब गुण गाइ तब ही मनु त्रिपतै सांति वसै मनि आइ ॥ गुर किरपाल भए तब पाइआ हरि चरणी चितु लाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाइ = गाता है। त्रिपतै = माया से तृप्त हो जाता है। मनि = मन में। आइ = आ के।2।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य प्रभु के गुण गाता है, तब ही उसका मन (माया की भूख से) तृप्त हो जाता है, उसके मन में शांति आ बसती है। सतिगुरु जी जब उस पर दयावान होते हैं, तब वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़ के परमात्मा के साथ मिलाप हासिल कर लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति प्रगास भई हरि धिआइआ गिआनि तति लिव लाइ ॥ अंतरि जोति प्रगटी मनु मानिआ हरि सहजि समाधि लगाइ ॥३॥
मूलम्
मति प्रगास भई हरि धिआइआ गिआनि तति लिव लाइ ॥ अंतरि जोति प्रगटी मनु मानिआ हरि सहजि समाधि लगाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रगास = रोशनी। गिआनि = आत्मिक जीवन की सूझ से। तति = जगत के मूल प्रभु में, तत्व में। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। अंतरि = (उसके) अंदर। सहजि = आत्मिक अडोलता से। हरि समाधि लगाइ = परमात्मा की याद में मन एकाग्र करके।3।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक आनंद की सूझ के द्वारा जिस मनुष्य ने जगत के मूल-प्रभु में तवज्जो जोड़ के उसका स्मरण किया, उसकी मति में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो गया, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति प्रकट हो गई, आत्मिक अडोलता के द्वारा परमात्मा की याद में मन एकाग्र करके उसका मन (उस याद में) रीझ गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै कपटु नित कपटु कमावहि मुखहु हरि हरि सुणाइ ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तुह कूटै दुख खाइ ॥४॥
मूलम्
हिरदै कपटु नित कपटु कमावहि मुखहु हरि हरि सुणाइ ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तुह कूटै दुख खाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। मुखहु = मुँह से। सुणाइ = सुना के। महा गुबारा = बहुत घोर अंधेरा। कूटै = कूटता है। खाइ = खाता है, सहता है।4।
अर्थ: पर, हे भाई! (जिस मनुष्यों के) हृदय में ठगी बसती है, वह मनुष्य (सिर्फ) मुँह से हरि-नाम सुना-सुना के (अंदर-अंदर से) ठगी का व्यवहार करते रहते हैं। हे भाई! (जिस मनुष्य के) हृदय में (सदा) लोभ बसता है, उसके हृदय में माया के मोह का घोर अंधेरा बना रहता है। वह मनुष्य इस प्रकार है जैसे वह दानो के बग़ैर सिर्फ तोह (छिलके) ही कूटता रहता है और तोह कूटने की मुश्किलें ही सहता रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब सुप्रसंन भए प्रभ मेरे गुरमुखि परचा लाइ ॥ नानक नाम निरंजनु पाइआ नामु जपत सुखु पाइ ॥५॥४॥
मूलम्
जब सुप्रसंन भए प्रभ मेरे गुरमुखि परचा लाइ ॥ नानक नाम निरंजनु पाइआ नामु जपत सुखु पाइ ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुप्रसंन = बहुत खुश। गुरमुखि = गुरु से। परचा = (परिचय) प्यार। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया की कालिख से रहित, पवित्र।5।
अर्थ: हे नानक! जब मेरे प्रभु जी (किसी मनुष्य पर) बहुत प्रसन्न होते हैं, तब वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर प्रभु जी के साथ प्यार डालता है, तब वह माया के मोह से निर्लिप करने वाला हरि-नाम मन में बसाता है, और नाम जपते हुए आत्मिक आनंद पाता है।5।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ ॥ मेरा मनु राम नामि मनु मानी ॥ मेरै हीअरै सतिगुरि प्रीति लगाई मनि हरि हरि कथा सुखानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ ॥ मेरा मनु राम नामि मनु मानी ॥ मेरै हीअरै सतिगुरि प्रीति लगाई मनि हरि हरि कथा सुखानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। मानी = मान गया है, रीझ गया है। हीअरै = हृदय में। सतिगुरि = गुरु ने। मनि = मन में। कथा = महिमा। सुखानी = अच्छी लगती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु ने मेरे दिल में परमात्मा का प्यार पैदा कर दिया है, (तब से) परमात्मा की महिमा मेरे मन को प्यारी लग रही है, (तब से) मेरा मन परमात्मा के नाम में रीझ गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल होवहु जन ऊपरि जन देवहु अकथ कहानी ॥ संत जना मिलि हरि रसु पाइआ हरि मनि तनि मीठ लगानी ॥१॥
मूलम्
दीन दइआल होवहु जन ऊपरि जन देवहु अकथ कहानी ॥ संत जना मिलि हरि रसु पाइआ हरि मनि तनि मीठ लगानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = गरीब। दइआल = दयावान। जन = दास, सेवक। अकथ = जो बयान ना की जा सके। मिलि = मिल के। रसु = स्वाद। मनि = मन मे। तनि = तन मे।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! मुझ गरीब सेवक पर दया करो, मुझ दास को कभी ना खत्म होने वाली अपनी महिमा की दाति बख्शो। हे भाई! जिस मनुष्य ने संत-जनों को मिल के परमात्मा के नाम का स्वाद चखा, उसके मन में उसके हृदय में परमात्मा की महिमा मीठी लगने लग जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कै रंगि रते बैरागी जिन्ह गुरमति नामु पछानी ॥ पुरखै पुरखु मिलिआ सुखु पाइआ सभ चूकी आवण जानी ॥२॥
मूलम्
हरि कै रंगि रते बैरागी जिन्ह गुरमति नामु पछानी ॥ पुरखै पुरखु मिलिआ सुखु पाइआ सभ चूकी आवण जानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै रंगि = के प्यार रंग में। रते = रंगे हुए। बैरागी = प्रेमी। पुरखै = पुरख को, जीव को। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। चूकी = समाप्त हो गई। आवण जानी = जनम मरन का चक्कर।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति पर चल कर परमात्मा के साथ सांझ डाल ली, वे मनुष्य परमात्मा के प्यार रंग में रंगे जाते हैं, वे मनुष्य माया के मोह से उपराम हो जाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक प्रभु मिल गया, उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
नैणी बिरहु देखा प्रभ सुआमी रसना नामु वखानी ॥ स्रवणी कीरतनु सुनउ दिनु राती हिरदै हरि हरि भानी ॥३॥
मूलम्
नैणी बिरहु देखा प्रभ सुआमी रसना नामु वखानी ॥ स्रवणी कीरतनु सुनउ दिनु राती हिरदै हरि हरि भानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैणी = आँखों से। बिरहु = प्यार भरी तमन्ना। देखा = देखूँ। प्रभ = हे प्रभु! रसना = जीभ से। वखानी = मैं उचारूँ। स्रवणी = कानों से। सुनउ = मैं सुनता रहूँ। हिरदै = हृदय में। भानी = अच्छा लग रहा है।3।
अर्थ: हे भाई! हे स्वामी! मेरे अंदर चाहत है कि आँखों से मैं तेरे दर्शन करता रहूँ, जीभ से तेरा नाम जपता रहूँ, कानों से दिन-रात तेरी महिमा सुनता रहूँ, और हृदय में तू मुझे प्यारा लगता रहे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच जना गुरि वसगति आणे तउ उनमनि नामि लगानी ॥ जन नानक हरि किरपा धारी हरि रामै नामि समानी ॥४॥५॥
मूलम्
पंच जना गुरि वसगति आणे तउ उनमनि नामि लगानी ॥ जन नानक हरि किरपा धारी हरि रामै नामि समानी ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच जना = कामादिक पाँचों को। गुरि = गुरु ने। आणे = ले आए। तउ = तब से। उनमनि = उनमन अवस्था में, विरह अवस्था में। नामि = नाम में। रामै नामि = परमात्मा के ही नाम में।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जब गुरु ने कामादिक पाँचों को (किसी अति-भाग्यशाली के) वश में कर दिया, तब विरह अवस्था में पहुँच के उसकी तवज्जो हरि-नाम में जुड़ जाती है। जिस मनुष्य पर प्रभु ने मेहर की, प्रभु के नाम में ही उसकी लीनता हो गई।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ ॥ जपि मन राम नामु पड़्हु सारु ॥ राम नाम बिनु थिरु नही कोई होरु निहफल सभु बिसथारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ ॥ जपि मन राम नामु पड़्हु सारु ॥ राम नाम बिनु थिरु नही कोई होरु निहफल सभु बिसथारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सारु = श्रेष्ठ (काम)। थिरु = टिका हुआ। निहफल = व्यर्थ। बिसथारु = पसारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर, परमात्मा का नाम पढ़ा कर, (यही) श्रेष्ठ (कर्म) है। हे मन! परमात्मा के नाम के बिना और कोई (यहाँ) सदा कायम रहने वाला नहीं है। और सारा पसारा ऐसा है जिससे (आत्मिक जीवन के लिए) कोई फल नहीं मिलता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ लीजै किआ तजीऐ बउरे जो दीसै सो छारु ॥ जिसु बिखिआ कउ तुम्ह अपुनी करि जानहु सा छाडि जाहु सिरि भारु ॥१॥
मूलम्
किआ लीजै किआ तजीऐ बउरे जो दीसै सो छारु ॥ जिसु बिखिआ कउ तुम्ह अपुनी करि जानहु सा छाडि जाहु सिरि भारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ लीजै = कुछ भी अपना नहीं बनाया जा सकता। तजीऐ = छोड़ा जा सकता। बउरे = हे कमले! छारु = राख, नाशवान। बिखिआ = माया। सा = वह (माया)। सिरि = सिर पर।1।
अर्थ: हे कमले मन! जो कुछ (जगत में) दिखाई दे रहा है वह (सब) नाशवान है, इस में ना कुछ अपना बनाया जा सकता है ना छोड़ा जा सकता है। हे कमले! जिस माया को तू अपनी समझी बैठा है, वह तो छोड़ जाएगा, (उसकी खातिर किए हुए पापों का) भार ही अपने सिर पर (ले जाएगा)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलु तिलु पलु पलु अउध फुनि घाटै बूझि न सकै गवारु ॥ सो किछु करै जि साथि न चालै इहु साकत का आचारु ॥२॥
मूलम्
तिलु तिलु पलु पलु अउध फुनि घाटै बूझि न सकै गवारु ॥ सो किछु करै जि साथि न चालै इहु साकत का आचारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउध = उम्र। घाटै = घटती जा रही है। गवारु = मूर्ख। जि = जो। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। आचारु = कर्तव्य।2।
अर्थ: हे भाई! रक्ती-रक्ती कर के, पल-पल कर के उम्र घटती जाती है, पर मूर्ख मनुष्य (यह बात) समझ नहीं सकता, (मूर्ख) वही कुछ करता रहता है जो (आखिरी समय में) इसके साथ नहीं जाता। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का सदा यही कर्तव्य रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जना कै संगि मिलु बउरे तउ पावहि मोख दुआरु ॥ बिनु सतसंग सुखु किनै न पाइआ जाइ पूछहु बेद बीचारु ॥३॥
मूलम्
संत जना कै संगि मिलु बउरे तउ पावहि मोख दुआरु ॥ बिनु सतसंग सुखु किनै न पाइआ जाइ पूछहु बेद बीचारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै संगि = के साथ। तउ = तब। मोख दुआरु = (माया के मोह से) खलासी का दरवाजा। किनै = किसी ने भी। जाइ = जा के।3।
अर्थ: हे कमले! संत-जनों के साथ मिल बैठा कर, तब ही तू (माया के मोह से) खलासी का द्वार ढूँढ सकेगा। बेशक वेद (आदिक और धर्म-पुस्तकों) का भी विचार जा के पूछ के देख लो (सब यही बताएंगे कि) साधु-संगत के बिना किसी ने भी आत्मिक आनंद नहीं पाया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राणा राउ सभै कोऊ चालै झूठु छोडि जाइ पासारु ॥ नानक संत सदा थिरु निहचलु जिन राम नामु आधारु ॥४॥६॥
मूलम्
राणा राउ सभै कोऊ चालै झूठु छोडि जाइ पासारु ॥ नानक संत सदा थिरु निहचलु जिन राम नामु आधारु ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राणा = राजा। राउ = अमीर। सभै कोऊ = हर कोई। पासारु = पसारा। निहचलु = अडोल चिक्त। आधारु = आसरा।4।
अर्थ: हे भाई! कोई राजा हो, बादशाह हो, हर कोई (यहाँ से आखिर) चला जाता है, इस नाशवान जगत-पसारे को छोड़ जाता है। हे नानक! परमात्मा के नाम को जिन्होंने अपने जीवन का आसरा बनाया है वे संत-जन (इस मोहनी माया के पसारे में) अडोल-चिक्त रहते हैं।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ घरु ३ दुपदा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ४ घरु ३ दुपदा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे पूत झगरत हउ संगि बाप ॥ जिन के जणे बडीरे तुम हउ तिन सिउ झगरत पाप ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे पूत झगरत हउ संगि बाप ॥ जिन के जणे बडीरे तुम हउ तिन सिउ झगरत पाप ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूत = हे पुत्र! काहे झगरत हउ = क्यों झगड़ा करते हो? संगि बाप = पिता से। जणे = पैदा हुए। बडीरे = बड़े किए हुए, पाले हुए। पाप = बुरा काम।1। रहाउ।
अर्थ: हे पुत्र! (दुनिया के धन की खातिर) पिता से क्यों झगड़ा करते हो? हे पुत्र! जिस माता-पिता ने पैदा किया और पाला होता है, उनके साथ (धन की खातिर) झगड़ा करना बुरा काम है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु धन का तुम गरबु करत हउ सो धनु किसहि न आप ॥ खिन महि छोडि जाइ बिखिआ रसु तउ लागै पछुताप ॥१॥
मूलम्
जिसु धन का तुम गरबु करत हउ सो धनु किसहि न आप ॥ खिन महि छोडि जाइ बिखिआ रसु तउ लागै पछुताप ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। किसहि न आप = किसी का भी अपना नहीं। महि = में। जाइ = जाता है। बिखिआ = माया। रसु = स्वाद। तउ = तब। पछुताप = पछतावा।1।
अर्थ: हे पुत्र! जिस धन का तुम गुमान करते हो, वह धन (कभी भी) किसी का अपना नहीं बना। हरेक मनुष्य माया का चस्का (आखिरी वक्त) एक छिन् में ही छोड़ के चला जाता है (जब छोड़ता है) तब उसको (छोड़ने की) आह लगती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तुमरे प्रभ होते सुआमी हरि तिन के जापहु जाप ॥ उपदेसु करत नानक जन तुम कउ जउ सुनहु तउ जाइ संताप ॥२॥१॥७॥
मूलम्
जो तुमरे प्रभ होते सुआमी हरि तिन के जापहु जाप ॥ उपदेसु करत नानक जन तुम कउ जउ सुनहु तउ जाइ संताप ॥२॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो प्रभ = जो प्रभु जी। सुआमी = मालिक। जापहु = जाप जपते रहो। नानक = हे नानक! जन = परमात्मा के सेवक। तुम कउ = तुम्हें। जउ = जो। तउ = तो। जाइ = दूर हो जाएगा। संताप = मानसिक दुख-कष्ट।2।
अर्थ: हे पुत्र! जो प्रभु जी तुम्हारे (हम सभी के) मालिक हैं, उनके नाम का जाप किया करो।
हे नानक! (कह: हे पुत्र!) प्रभु के दास जो उपदेश तुम्हें करते हैं अगर वह उपदेश तुम (ध्यान से) सुनो तो (तुम्हारे अंदर से) मानसिक दुख-कष्ट दूर हो जाए।2।1।7।
दर्पण-टिप्पनी
उथानका: गुरु अरजन साहिब को गुरूता-गद्दी मिलने पर उनके बड़े भ्राता बाबा पृथ्वी चंद ने पिता गुरु रामदास जी की विरोधता की। तब उन्होंने यह उपदेश किया। वैसे, “परथाइ साखी महा पुरख बोलदे, साझी सगल जहानै”।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ घरु ५ दुपदे पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ४ घरु ५ दुपदे पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि मन जगंनाथ जगदीसरो जगजीवनो मनमोहन सिउ प्रीति लागी मै हरि हरि हरि टेक सभ दिनसु सभ राति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि मन जगंनाथ जगदीसरो जगजीवनो मनमोहन सिउ प्रीति लागी मै हरि हरि हरि टेक सभ दिनसु सभ राति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! जगंनाथ = जगत का पति। जगदीसरो = जगत का ईश्वर। जग जीवनो = जगत का जीवन, जगत का सहारा, जगत को पैदा करने वाला। मन मोहन = मन को मोह लेने वाला। सिउ = साथ। टेक = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जगत के मालिक परमात्मा का नाम जपा कर (उसका नाम जपने से उस) मन के मोहने वाले परमात्मा के साथ प्यार बन जाता है। मुझे तो सारा दिन सारी रात उसी परमात्मा का ही सहारा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की उपमा अनिक अनिक अनिक गुन गावत सुक नारद ब्रहमादिक तव गुन सुआमी गनिन न जाति ॥ तू हरि बेअंतु तू हरि बेअंतु तू हरि सुआमी तू आपे ही जानहि आपनी भांति ॥१॥
मूलम्
हरि की उपमा अनिक अनिक अनिक गुन गावत सुक नारद ब्रहमादिक तव गुन सुआमी गनिन न जाति ॥ तू हरि बेअंतु तू हरि बेअंतु तू हरि सुआमी तू आपे ही जानहि आपनी भांति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपमा = बड़ाई। अनिक = अनेक। सुक = शुक देव ऋषि। नारद = ब्रहमा का पुत्र नारद ऋषि। ब्रहमादिक = ब्रहमा व अन्य देवते। तव = तेरे। सुआमी = हे स्वामी! गनिन न जात = गिने नहीं जा सकते। आपे = आप ही। भांति = किस्म, तरीके।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की अनेक उपमाएं हैं। हे स्वामी प्रभु! शुकदेव, नारद, ब्रहमा आदि देवतागण तेरे गुण गाते रहते हैं, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते। हे हरि! हे स्वामी! तू बेअंत है, अपनी अवस्था तू स्वयं ही जानता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कै निकटि निकटि हरि निकट ही बसते ते हरि के जन साधू हरि भगात ॥ ते हरि के जन हरि सिउ रलि मिले जैसे जन नानक सललै सलल मिलाति ॥२॥१॥८॥
मूलम्
हरि कै निकटि निकटि हरि निकट ही बसते ते हरि के जन साधू हरि भगात ॥ ते हरि के जन हरि सिउ रलि मिले जैसे जन नानक सललै सलल मिलाति ॥२॥१॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि कै निकटि = परमात्मा के नजदीक। बसते = बसते हैं। ते = वे (बहुवचन)। भगात = भक्त। सिउ = साथ। रलि मिले = एक-मेक हो गए। सललै = पानी में। सलल = पानी।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘निकट ही’ में से ‘निकटि’ की ‘टि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नजदीक बसते हें, वे मनुष्य परमात्मा के साधु-जन हैं परमात्मा के भक्त हैं। हे दास नानक! परमात्मा के वह सेवक परमात्मा के साथ एक-मेक हो जाते हैं, जैसे पानी में पानी मिल जाता है।2।1।8।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ४ ॥ जपि मन नरहरे नरहर सुआमी हरि सगल देव देवा स्री राम राम नामा हरि प्रीतमु मोरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारंग महला ४ ॥ जपि मन नरहरे नरहर सुआमी हरि सगल देव देवा स्री राम राम नामा हरि प्रीतमु मोरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! जपि = जपा कर। नरहर = (नरसिंह) परमात्मा। सगल देव देवा = सारे देवताओं का देवता। मोरा = मेरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (सबके) मालिक नरहर-प्रभु का नाम जपा कर, सर्व-व्यापक राम का नाम जपा कर, वह हरि सारे देवताओं का देवता है, वही हरि मेरा प्रीतम है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु ग्रिहि गुन गावते हरि के गुन गावते राम गुन गावते तितु ग्रिहि वाजे पंच सबद वड भाग मथोरा ॥ तिन्ह जन के सभि पाप गए सभि दोख गए सभि रोग गए कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु गए तिन्ह जन के हरि मारि कढे पंच चोरा ॥१॥
मूलम्
जितु ग्रिहि गुन गावते हरि के गुन गावते राम गुन गावते तितु ग्रिहि वाजे पंच सबद वड भाग मथोरा ॥ तिन्ह जन के सभि पाप गए सभि दोख गए सभि रोग गए कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु गए तिन्ह जन के हरि मारि कढे पंच चोरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस में। जितु ग्रिहि = जिसके (हृदय-) घर में। तितु = उस (हृदय-) घर में। पंच सबद = पाँचों किस्मों के बाजे (तार, चंम, धात, घड़े, फूक वाले बाजे)। मथोरा = माथे पर। सभि = सारे। दोख = विकार। पंच चोरा = कामादिक पाँचों (आत्मिक जीवन की संपत्ति) चुराने वाले।1।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जिस (हृदय-) घर में परमात्मा के गुण गाए जाते हैं, हरि के गुण गाए जाते हैं, उस (हृदय-) घर में (मानो) पाँच ही किस्मों के साज बज रहे हैं और आनंद बना हुआ है। (पर यह अवस्था मनुष्यों के अंदर ही बनती है जिनके) माथे के बड़े भाग्य जागते हैं। हे मन! उन मनुष्यों के सारे पाप दूर हो जाते हैं, सारे विकार दूर हो जाते हैं, सारे रोग दूर हो जाते हैं, (उनके अंदर से) काम क्रोध लोभ मोह अहंकार नाश हो जाते हैं। परमात्मा उनके अंदर से (आत्मिक जीवन की राशि चुराने वाले इन) पाँचों चोरों को मार के निकाल देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि राम बोलहु हरि साधू हरि के जन साधू जगदीसु जपहु मनि बचनि करमि हरि हरि आराधू हरि के जन साधू ॥ हरि राम बोलि हरि राम बोलि सभि पाप गवाधू ॥ नित नित जागरणु करहु सदा सदा आनंदु जपि जगदीसुोरा ॥ मन इछे फल पावहु सभै फल पावहु धरमु अरथु काम मोखु जन नानक हरि सिउ मिले हरि भगत तोरा ॥२॥२॥९॥
मूलम्
हरि राम बोलहु हरि साधू हरि के जन साधू जगदीसु जपहु मनि बचनि करमि हरि हरि आराधू हरि के जन साधू ॥ हरि राम बोलि हरि राम बोलि सभि पाप गवाधू ॥ नित नित जागरणु करहु सदा सदा आनंदु जपि जगदीसुोरा ॥ मन इछे फल पावहु सभै फल पावहु धरमु अरथु काम मोखु जन नानक हरि सिउ मिले हरि भगत तोरा ॥२॥२॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि साधू = हे परमात्मा के संत जनो! जन साधू = हे साधु जनो! जगदीसु = जगत का मालिक। मनि = मन से। बचनि = वचनों से। आराधू = आराधना करो। बोलि = बोल के। गवाधू = दूर करो। नित = सदा। जागरणु करहु = जागते रहो, (विकारों के हमलों से) सावधान रहो। जपि = जप के।
दर्पण-टिप्पनी
‘जगदीसुोरा’ अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘जगदीसुरा’, यहां ‘जगदीसोरा’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
मन इछे = मन मांगे। पावहु = हासिल करोगे। धरमु = अपने जीवन नियमों में पक्के रहना। अरथु = दुनियावी जरूरतों की सफलता। काम = कामयाबियाँ। मोखु = मुक्ती, विकारों से खलासी, मोक्ष। तोरा = तेरे।2।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा हरि का नाम उचारा करो। हे हरि के संत-जनो! जगत के मालिक-प्रभु का नाम जपा करो। हे हरि के साधु-जनो! अपने मन से (हरेक) वचन से (हरेक) कर्म से प्रभु की आराधना किया करो। हरि का नाम उचार के, राम का नाम जप के सारे पाप दूर हो कर लोगे।
हे संत जनो! सदा ही (विकारों के हमलों से) सचेत रहो। जगत के मालिक का नाम जप-जप के सदा ही आत्मिक आनंद बना रहता है। हे संत जनो! (नाम की इनायत से) सारे मन-माँगे फल हासिल करोगे, सारी मुरादें पा लोगे। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - ये चारों पदार्थ प्राप्त कर लोगे। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! जो मनुष्य तेरे (चरणों) के साथ जुड़े रहते हैं वही तेरे भक्त हैं।2।2।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ ॥ जपि मन माधो मधुसूदनो हरि स्रीरंगो परमेसरो सति परमेसरो प्रभु अंतरजामी ॥ सभ दूखन को हंता सभ सूखन को दाता हरि प्रीतम गुन गाओु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ ॥ जपि मन माधो मधुसूदनो हरि स्रीरंगो परमेसरो सति परमेसरो प्रभु अंतरजामी ॥ सभ दूखन को हंता सभ सूखन को दाता हरि प्रीतम गुन गाओु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे (मेरे) मन! माधो = (माधव, लक्ष्मी का पति) परमात्मा। मधु सूदनो = मधु सूदन, मधू राक्षस को मारने वाला। स्री रंगो = श्री रंगु, लक्ष्मी का पति। सति = सदा कायम रहने वाला। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। को = का। हंता = नाश करने वाला। दाता = देने वाला। गाओु = गाया कर।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गाओु’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गाअु’ व गाउ, यहां ‘गाओ’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन! हरेक दिल की जानने वाले प्रभु का नाम जपा कर, वही माया का पति है, वही मधू राक्षस को मारने वाला है, वही हरि लक्ष्मी का पति है, वही सबसे बड़ा मालिक है, वही सदा कायम रहने वाला है। हे मेरे मन! हरि प्रीतम के गुण गाया कर, वही सारे दुखों का नाश करने वाला है, वही सारे सुखों को देंने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि घटि घटे घटि बसता हरि जलि थले हरि बसता हरि थान थानंतरि बसता मै हरि देखन को चाओु ॥ कोई आवै संतो हरि का जनु संतो मेरा प्रीतम जनु संतो मोहि मारगु दिखलावै ॥ तिसु जन के हउ मलि मलि धोवा पाओु ॥१॥
मूलम्
हरि घटि घटे घटि बसता हरि जलि थले हरि बसता हरि थान थानंतरि बसता मै हरि देखन को चाओु ॥ कोई आवै संतो हरि का जनु संतो मेरा प्रीतम जनु संतो मोहि मारगु दिखलावै ॥ तिसु जन के हउ मलि मलि धोवा पाओु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि घटे घटि = हरेक शरीर में। बसता = बसा हुआ। जलि थले = जल थल, जल में धरती में। थान थानंतरि = थान अंतरि, हरेक जगह में। को = का। चाओु (असल शब्द है ‘चाअु’ व चाव, यहां ‘चाओ’ पढ़ना है)। संतो = संतु। मोहि = मुझे। मारगु = (सही जीवन का) रास्ता। मलि = मल के। हउ = मैं। धोवा = मैं धोऊँ। पाओु = (असल शब्द है ‘पाअु’ व पाउ, यहां ‘पाओ’ पढ़ना है)।1।
अर्थ: हे मेरे मन! वही हरेक शरीर में बसता है, जल में धरती में बसता है, हरेक जगह में बसता है, मेरे अंदर उसके दर्शनों की तमन्ना है। हे मेरे मन! अगर कोई संत मुझे आ के मिले, हरि का कोई संत आ के मिले, कोई मेरा प्यारा संत जन मुझे आ मिले, और, मुझे (परमात्मा के मिलाप का) रास्ता दिखा जाए, मैं उसके पैर मल-मल के धोऊँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन कउ हरि मिलिआ हरि सरधा ते मिलिआ गुरमुखि हरि मिलिआ ॥ मेरै मनि तनि आनंद भए मै देखिआ हरि राओु ॥ जन नानक कउ किरपा भई हरि की किरपा भई जगदीसुर किरपा भई ॥ मै अनदिनो सद सद सदा हरि जपिआ हरि नाओु ॥२॥३॥१०॥
मूलम्
हरि जन कउ हरि मिलिआ हरि सरधा ते मिलिआ गुरमुखि हरि मिलिआ ॥ मेरै मनि तनि आनंद भए मै देखिआ हरि राओु ॥ जन नानक कउ किरपा भई हरि की किरपा भई जगदीसुर किरपा भई ॥ मै अनदिनो सद सद सदा हरि जपिआ हरि नाओु ॥२॥३॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। ते = से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मेरै मनि = मेरे मन में। राआु = (असल शब्द है ‘राअु’ व राउ, यहां ‘राओ’ पढ़ना है) राजा, बादशाह। अनदिनो = हर रोज, हर वक्त।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने किसी सेवक को मिलता है, (सेवक की) श्रद्धा-भावना के साथ मिलता है, गुरु की शरण पड़ कर मिलता है। (गुरु की मेहर से जब मैंने भी) प्रभु-पातशाह के दर्शन किए, तो मेरे मन में मेरे तन में खुशी ही खुशी पैदा हो गई। हे भाई! दास नानक पर (भी) मेहर हुई है, हरि की मेहर हुई है, जगत के मालिक की कृपा हुई है, मैं अब हर वक्त सदा ही सदा ही उस हरि का नाम जप रहा हूँ।2।3।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ ॥ जपि मन निरभउ ॥ सति सति सदा सति ॥ निरवैरु अकाल मूरति ॥ आजूनी स्मभउ ॥ मेरे मन अनदिनुो धिआइ निरंकारु निराहारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ ॥ जपि मन निरभउ ॥ सति सति सदा सति ॥ निरवैरु अकाल मूरति ॥ आजूनी स्मभउ ॥ मेरे मन अनदिनुो धिआइ निरंकारु निराहारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरभउ = जिसको किसी का डर नहीं। सति = सदा कायम रहने वाला। निरवैरु = जिसका किसी के साथ वैर नहीं। अकाल मूरति = (अकाल = मौत रहित। मूरति = हस्ती, स्वरूप, अस्तित्व) जिसका वजूद जिसका अस्तित्व मौत रहित है। आजूनी = जो जूनियों में नहीं पड़ता। संभउ = (स्वयंभू) जो अपने आप से प्रकट होता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। निरंकारु = जिसका कोई खास आकार (मूर्ति, शकल) नहीं बताया जा सकता। निराहारी = (निर+आहार। आहार = भोजन, खुराक) जिसको किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं पड़ती।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, जिसको किसी से कोई डर नहीं, जो सदा सदा ही कायम रहने वाला है, जिसका किसी के साथ कोई वैर नहीं, जिसकी हस्ती मौत से परे है, जो जूनियों में नहीं आता, जो अपने-आप से प्रकट होता है। हे मेरे मन! हर वक्त उस परमात्मा का ध्यान धरा कर, जिसका कोई स्वरूप (मूर्ति, शकल) नहीं बयान किया जा सकता, जिसको किसी आहार की आवश्यक्ता नहीं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि दरसन कउ हरि दरसन कउ कोटि कोटि तेतीस सिध जती जोगी तट तीरथ परभवन करत रहत निराहारी ॥ तिन जन की सेवा थाइ पई जिन्ह कउ किरपाल होवतु बनवारी ॥१॥
मूलम्
हरि दरसन कउ हरि दरसन कउ कोटि कोटि तेतीस सिध जती जोगी तट तीरथ परभवन करत रहत निराहारी ॥ तिन जन की सेवा थाइ पई जिन्ह कउ किरपाल होवतु बनवारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = की खातिर। कोटि तेतीस = तैंतिस करोड़ देवते। सिध = सिद्ध, जोग साधना में पहुँचे हुए योगी। जती = इन्द्रियों को वश में रखने वाले। तट = नदियों के किनारे। परभवन = रटन। रहत = रहते हैं। थाइ पई = स्वीकार हो गई। जिन कउ = जिस पर। बनवारी = (जंगल के फूलों की माला वाला) परमात्मा।1।
अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा के दर्शनों की खातिर तैंतिस करोड़ देवते, सिद्ध जती जोगी भूखे रह के अनेक तीर्थों के रटन करते फिरते हैं। हे मन! उन (भाग्यशालियों) की ही सेवा स्वीकार होती है जिस पर परमात्मा स्वयं दयावान होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के हो संत भले ते ऊतम भगत भले जो भावत हरि राम मुरारी ॥ जिन्ह का अंगु करै मेरा सुआमी तिन्ह की नानक हरि पैज सवारी ॥२॥४॥११॥
मूलम्
हरि के हो संत भले ते ऊतम भगत भले जो भावत हरि राम मुरारी ॥ जिन्ह का अंगु करै मेरा सुआमी तिन्ह की नानक हरि पैज सवारी ॥२॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! ते = वह (बहुवचन)। जो = जो (लोग)। भावत = अच्छे लगते हैं। मुरारी = (मुर+अरि = मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। अंगु = पक्ष, मदद। पैज = सत्कार, इज्जत।2।
अर्थ: हे भाई! वह हरि के संत अच्छे हैं, वह हरि के भक्त श्रेष्ठ हैं जो दुष्ट-दमन परमात्मा को प्यारे लगते हैं। हे नानक! मेरा मालिक-प्रभु जिस मनुष्यों का पक्ष करता है (लोक-परलोक में) उनकी इज्जत रख लेता है।2।4।11।
[[1202]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ पड़ताल ॥ जपि मन गोविंदु हरि गोविंदु गुणी निधानु सभ स्रिसटि का प्रभो मेरे मन हरि बोलि हरि पुरखु अबिनासी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ पड़ताल ॥ जपि मन गोविंदु हरि गोविंदु गुणी निधानु सभ स्रिसटि का प्रभो मेरे मन हरि बोलि हरि पुरखु अबिनासी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! गुणी निधानु = गुणों का खजाना। प्रभो = प्रभु, मालिक। पुरखु = सर्व व्यापक। अबिनासी = नाश रहित।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! गोबिंद (का नाम) जप, हरि (का नाम) जप। हरि गुणों का खजाना है, सारी सृष्टि का मालिक है। हे मेरे मन! परमात्मा का नाम उचारा कर, वह परमात्मा सर्व-व्यापक है, नाश-रहित है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु अम्रितु हरि हरि हरे सो पीऐ जिसु रामु पिआसी ॥ हरि आपि दइआलु दइआ करि मेलै जिसु सतिगुरू सो जनु हरि हरि अम्रित नामु चखासी ॥१॥
मूलम्
हरि का नामु अम्रितु हरि हरि हरे सो पीऐ जिसु रामु पिआसी ॥ हरि आपि दइआलु दइआ करि मेलै जिसु सतिगुरू सो जनु हरि हरि अम्रित नामु चखासी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। सो = वह मनुष्य (एकवचन)। पीऐ = पीता है। पिआसी = पिलाएगा। करि = कर के। चखासी = चखेगा।1।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है (अमृत है), (यह जल) वह मनुष्य पीता है, जिसको परमात्मा (स्वयं) पिलाता है। दया का घर प्रभु जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल चखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जन सेवहि सद सदा मेरा हरि हरे तिन का सभु दूखु भरमु भउ जासी ॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै जिउ चात्रिकु जलि पीऐ त्रिपतासी ॥२॥५॥१२॥
मूलम्
जो जन सेवहि सद सदा मेरा हरि हरे तिन का सभु दूखु भरमु भउ जासी ॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै जिउ चात्रिकु जलि पीऐ त्रिपतासी ॥२॥५॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = स्मरण करते हैं (बहुवचन)। सभु = सारा। जासी = दूर हो जाएगा। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। चात्रिक = पपीहा। जलि = जल से। जलि पीऐ = जल पीने से। त्रिपतासी = तृप्त हो जाता है।2।
अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य सदा ही सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण करते रहते हैं, उनका हरेक दुख, उनका हरेक भ्रम, उनका हरेक डर दूर हो जाता है। (प्रभु का) दास नानक (भी जब) प्रभु का नाम जपता है तब आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है, जैसे पपीहा (Üवाति नक्षत्र की वर्षा का) पानी पीने से तृप्त हो जाता है।2।5।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ४ ॥ जपि मन सिरी रामु ॥ राम रमत रामु ॥ सति सति रामु ॥ बोलहु भईआ सद राम रामु रामु रवि रहिआ सरबगे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ४ ॥ जपि मन सिरी रामु ॥ राम रमत रामु ॥ सति सति रामु ॥ बोलहु भईआ सद राम रामु रामु रवि रहिआ सरबगे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! रमत = व्यापक, हर जगह मौजूद। सति = सदा कायम रहने वाला। भईआ = हे भाई! सद = सदा। रवि रहिआ = व्यापक है। सरबगे = (सर्वत्र) सब कुछ जानने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! श्री राम (का नाम) जपा कर, (उस राम का) जो सब जगह मौजूद है (व्यापक है), जो सदा ही सदा ही कायम रहने वाला है। हे भाई! सदा राम का नाम बोला करो, सब जगहों में विद्यमान है, वह सब कुछ जानने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु आपे आपि आपे सभु करता रामु आपे आपि आपि सभतु जगे ॥ जिसु आपि क्रिपा करे मेरा राम राम राम राइ सो जनु राम नाम लिव लागे ॥१॥
मूलम्
रामु आपे आपि आपे सभु करता रामु आपे आपि आपि सभतु जगे ॥ जिसु आपि क्रिपा करे मेरा राम राम राम राइ सो जनु राम नाम लिव लागे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। करता = करने वाला। सभतु = सब जगह। जगे = जगत में। राम राइ = राम राजा, प्रभु पातशाह। लिव = लगन।1।
अर्थ: हे भाई! वह राम (सब जगह) स्वयं ही स्वयं है, स्वयं ही सब कुछ पैदा करने वाला है, जगत में हर जगह खुद ही खुद मौजूद है। हे भाई! जिस मनुष्य पर वह मेरा प्यारा राम मेहर करता है, वह मनुष्य राम के नाम की लगन में जुड़ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम की उपमा देखहु हरि संतहु जो भगत जनां की पति राखै विचि कलिजुग अगे ॥ जन नानक का अंगु कीआ मेरै राम राइ दुसमन दूख गए सभि भगे ॥२॥६॥१३॥
मूलम्
राम नाम की उपमा देखहु हरि संतहु जो भगत जनां की पति राखै विचि कलिजुग अगे ॥ जन नानक का अंगु कीआ मेरै राम राइ दुसमन दूख गए सभि भगे ॥२॥६॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपमा = बड़ाई। पति = इज्जत। कलिजुग = विकारों भरा जगत। अगे = आग में, विकारों की आग में। अंगु = पक्ष। मेरै राम राइ = मेरे प्रभु पातशाह ने। सभि = सारे। गए भगे = भाग गए, भाग जाते हैं।2।
अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा के नाम की बड़ाई देखो, जो इस विकारो-भरे जगत की विकारों की आग में अपने भक्तों की स्वयं इज्जत रखता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) मेरे प्रभु-पातशाह ने (अपने जिस) सेवक का पक्ष किया, उसके सारे वैरी उसके सारे दुख दूर हो गए।2।6।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारंग महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर मूरति कउ बलि जाउ ॥ अंतरि पिआस चात्रिक जिउ जल की सफल दरसनु कदि पांउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुर मूरति कउ बलि जाउ ॥ अंतरि पिआस चात्रिक जिउ जल की सफल दरसनु कदि पांउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर मूरति = सतिगुरु का वजूद, सतिगुरु। कउ = को, से। बलि जाउ = बलिहार जाऊँ। अंतरि = (मेरे) अंदर। पिआस = चाहत, तमन्ना। चात्रिक = पपीहा। सफल दरसनु = सारे उद्देश्य पूरे करने वाले (गुरु) का दर्शन। कदि = कब।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं (तो अपने) गुरु से बलिहार जाता हूँ। जैसे पपीहे को (Üवाति नक्षत्र की बरखा के) पानी की प्यास होती है, (वैसे ही) मेरे अंदर ये चाहत रहती है कि मैं (गुरु के द्वारा) कभी उस हरि के दर्शन करूँगा जो सारी मुरादें पूरी करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथा को नाथु सरब प्रतिपालकु भगति वछलु हरि नाउ ॥ जा कउ कोइ न राखै प्राणी तिसु तू देहि असराउ ॥१॥
मूलम्
अनाथा को नाथु सरब प्रतिपालकु भगति वछलु हरि नाउ ॥ जा कउ कोइ न राखै प्राणी तिसु तू देहि असराउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। नाथ = खसम। प्रतिपालकु = पालने वाला। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। जा कउ = जिस को। तिसु = उस (मनुष्य) को। तू देहि = तू देता है। असराउ = आसरा।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू निखसमों का खसम है (निआसरों का आसरा है), तू सब जीवों की पालना करने वाला है। हे हरि! तेरा नाम ही है ‘भगति वछलु’ (भक्ति को प्यार करने वाला)। हे प्रभु! जिस मनुष्य की अन्य कोई प्राणी रक्षा नहीं कर सकता, तू (स्वयं) उसको (अपना) आसरा देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निधरिआ धर निगतिआ गति निथाविआ तू थाउ ॥ दह दिस जांउ तहां तू संगे तेरी कीरति करम कमाउ ॥२॥
मूलम्
निधरिआ धर निगतिआ गति निथाविआ तू थाउ ॥ दह दिस जांउ तहां तू संगे तेरी कीरति करम कमाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धर = आसरा। गति = अच्छी निपुण हालत, दशा। दहदिस = दसों दिशाओं में। जांउ = मैं जाता हूँ। संगे = साथ ही। कीरति = महिमा। कमाउ = मैं कमाता हूँ।2।
अर्थ: हे प्रभु! जिनका और कोई सहारा नहीं होता, तू उनका सहारा बनता है, बुरी-खराब हालत वालों की (दुर्दशा में फंसे हुओं की) तू अच्छी हालत बनाता है, जिन्हें कहीं कोई आसरा नहीं मिलता, तू उनका सहारा है। हे प्रभु! दसों दिशाओं में जिधर मैं जाता हूँ, वहाँ ही तू (मेरे) साथ ही दिखाई देता है, (तेरी मेहर से) मैं तेरी महिमा की कार कमाता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकसु ते लाख लाख ते एका तेरी गति मिति कहि न सकाउ ॥ तू बेअंतु तेरी मिति नही पाईऐ सभु तेरो खेलु दिखाउ ॥३॥
मूलम्
एकसु ते लाख लाख ते एका तेरी गति मिति कहि न सकाउ ॥ तू बेअंतु तेरी मिति नही पाईऐ सभु तेरो खेलु दिखाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकसु ते = (तुझ) एक से ही। लाख = लाखों जगत। ते = से। गति = हालत। मिति = अंदाजा। पाईऐ = पाया जा सकता। खेलु = तमाशा। दिखाउ = दिखाऊँ, मैं देखता हू।3।
अर्थ: हे प्रभु! तुझ एक से लाखों ब्रहमण्ड बनते हैं, और, लाखों ब्रहमण्डों से (फिर) तू एक स्वयं ही स्वयं बन जाता है। मैं बता नहीं सकता कि तू किस तरह का है और कितना बड़ा है। हे प्रभु! तू बेअंत है, तेरी हस्ती का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यह सारा जगत मैं तो तेरा ही रचा हुआ तमाशा देखता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधन का संगु साध सिउ गोसटि हरि साधन सिउ लिव लाउ ॥ जन नानक पाइआ है गुरमति हरि देहु दरसु मनि चाउ ॥४॥१॥
मूलम्
साधन का संगु साध सिउ गोसटि हरि साधन सिउ लिव लाउ ॥ जन नानक पाइआ है गुरमति हरि देहु दरसु मनि चाउ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधन का संगु = संत जनों का साथ। सिउ = साथ। गोसटि = गोष्ठी, विचार चर्चा। लिव = लगन, प्रीत। लाउ = लगाऊँ, मैं लगाता हूँ। जन नानक = हे दास नानक! गुरमति = गुरु की मति पर चल के। हरि = हे हरि! मनि = (मेरे) मन में। चाउ = तमन्ना, चाव, उमंग।4।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे चरणों में जुड़ने के लिए) मैं संत-जनों का संग करता हूँ, मैं संत-जनों के साथ (तेरे गुणों की) विचार-चर्चा करता रहता हूँ, तेरे संत-जनों की संगति में रह के तेरे चरणों में तवज्जो जोड़ता हूँ। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) गुरु की मति पर चलने से ही तेरा मिलाप होता है। हे हरि! (मेरे) मन में (बड़ी) तमन्ना है, (मुझे) अपने दर्शन दे।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि जीउ अंतरजामी जान ॥ करत बुराई मानुख ते छपाई साखी भूत पवान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि जीउ अंतरजामी जान ॥ करत बुराई मानुख ते छपाई साखी भूत पवान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। जान = सुजान, समझदार। मानुख ते = मनुष्यों से। साखी = देखने वाला, साक्षी। भूत = पिछले किए समय का। पवान = भवान, भविष्य का।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी हरेक के दिल की जानने वाले हैं और सुजान हैं। (जो मनुष्य) और मनुष्यों से छुपा के कोई बुरा काम करता है (वह यह नहीं जानता कि) परमात्मा तो पिछले बीते कर्मों से ले के आगे भविष्य के किए जाने वाले सारे कर्मों को देखने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैसनौ नामु करत खट करमा अंतरि लोभ जूठान ॥ संत सभा की निंदा करते डूबे सभ अगिआन ॥१॥
मूलम्
बैसनौ नामु करत खट करमा अंतरि लोभ जूठान ॥ संत सभा की निंदा करते डूबे सभ अगिआन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसनौ = विष्णू का भक्त, हरेक किस्म की स्वच्छता रखने वाला। खट करमा = शास्त्रों के अनुसार आवश्यक निहित हुए छह कर्म (दान देना और लेना, विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और कराना)। जूठान = मलीन करने वाला। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) अपने आप को वैश्णव कहलवाते हैं, (शास्त्रों में बताए हुए) छह कर्म भी करते हैं, (पर, अगर उनके) अंदर (मन को) मैला करने वाला लोभ बस रहा है (अगर वह) साधु-संगत की निंदा करते हैं (तो वे सारे मनुष्य) आत्मिक जीवन के पक्ष से बेसमझी के कारण (संसार-समुंदर में) डूब जाते हैं।1।
[[1203]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहि सोम पाकु हिरहि पर दरबा अंतरि झूठ गुमान ॥ सासत्र बेद की बिधि नही जाणहि बिआपे मन कै मान ॥२॥
मूलम्
करहि सोम पाकु हिरहि पर दरबा अंतरि झूठ गुमान ॥ सासत्र बेद की बिधि नही जाणहि बिआपे मन कै मान ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = करते हैं। सोम पाक = (स्वयं पाक) अपने हाथों से भोजन तैयार करना। हिरहि = चुराते हैं। दरबा = धन। गुमान = अहंकार। बिधि = विधि, ढंग, तरीका, मर्यादा। बिआपे = फसे हुए। मन कै मान = मन के मान में।2।
अर्थ: हे भाई! (इस तरह के वैश्णव कहलवाने वाले मनुष्य) अपने हाथों से अपना भोजन तैयार करते हैं पर पराया धन चुराते हैं, उनके अंदर झूठ बसता है अहंकार बसता है। वे मनुष्य (अपनी धर्म-पुस्तकों) वेद-शास्त्रों की आत्मिक मर्यादा नहीं समझते, वे तो अपने मन के अहंकार में ही फसे रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संधिआ काल करहि सभि वरता जिउ सफरी द्मफान ॥ प्रभू भुलाए ऊझड़ि पाए निहफल सभि करमान ॥३॥
मूलम्
संधिआ काल करहि सभि वरता जिउ सफरी द्मफान ॥ प्रभू भुलाए ऊझड़ि पाए निहफल सभि करमान ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। सफरी = मदारी। दंफान = तमाशा। ऊझड़ि = कुमार्ग। करमन = कर्म।3।
अर्थ: हे भाई! (इस तरह के वैश्णव कहलवाने वाले वैसे तो) तीन समय संध्या करते हैं, सारे व्रत भी रखते हैं (पर उनका ये सारा उद्यम ऐसे ही है) जैसे किसी मदारी का तमाशा (रोटी कमाने के लिए)। (पर, उनके भी क्या वश?) प्रभु ने स्वयं ही उनको सही रास्ते से भटकाया है, गलत राह पर डाला हुआ है, उनके सारे (किए हुए धार्मिक) कर्म व्यर्थ जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो गिआनी सो बैसनौ पड़्हिआ जिसु करी क्रिपा भगवान ॥ ओुनि सतिगुरु सेवि परम पदु पाइआ उधरिआ सगल बिस्वान ॥४॥
मूलम्
सो गिआनी सो बैसनौ पड़्हिआ जिसु करी क्रिपा भगवान ॥ ओुनि सतिगुरु सेवि परम पदु पाइआ उधरिआ सगल बिस्वान ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञानवान। पढ़िआ = विद्वान। जिसु = जिस पर। ओुनि = उस ने। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। बिस्वान = (विश्व) जगत।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओुनि’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘अुनि’ व उनि, यहां ‘ओनि’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! असल ज्ञानवान वह मनुष्य है, असल वैश्णव वह है, असल विद्वान वह है, जिस पर परमात्मा ने मेहर की है, (जिसकी इनायत से) उसने गुरु की शरण पड़ कर सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल किया है, (ऐसे मनुष्य की संगति में) सारा जगत ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ हम कथह किछु कथि नही जाणह प्रभ भावै तिवै बुोलान ॥ साधसंगति की धूरि इक मांगउ जन नानक पइओ सरान ॥५॥२॥
मूलम्
किआ हम कथह किछु कथि नही जाणह प्रभ भावै तिवै बुोलान ॥ साधसंगति की धूरि इक मांगउ जन नानक पइओ सरान ॥५॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथह = हम कह सकते हैं। नही जाणह = हम नहीं जानते। बुोलान = बोलाता है (असल शब्द है ‘बोलान’, यहां ‘बुलान’ पढ़ना है)। मांगउ = मैं माँगता हूँ। सरान = शरण।5।
अर्थ: पर, हे भाई! हम जीव (परमात्मा की रजा के बारे) क्या कह सकते हैं? हम कुछ कहना नहीं जानते। जैसे प्रभु को अच्छा लगता है वैसे ही वह हम जीवों को बोलने के लिए प्रेरित करता है। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) मैं तो प्रभु की शरण पड़ा हूँ (और उसके दर से) सिर्फ साधु-संगत (के चरणों) की धूल ही माँगता हूँ।5।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मोरो नाचनो रहो ॥ लालु रगीला सहजे पाइओ सतिगुर बचनि लहो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मोरो नाचनो रहो ॥ लालु रगीला सहजे पाइओ सतिगुर बचनि लहो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोरो = मेरा। नाचनो = माया की खातिर भटकना, माया के हाथों में नाचना। रहो = समाप्त हो गया। सहजे = आत्मिक अडोलता में। बचनि = वचन से। लहो = मिल गया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन के द्वारा आत्मिक अडोलता में टिक के मैंने सोहाना लाल प्रभु ढूँढ लिया है प्राप्त कर लिया है। अब मेरी भटकना समाप्त हो गई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुआर कंनिआ जैसे संगि सहेरी प्रिअ बचन उपहास कहो ॥ जउ सुरिजनु ग्रिह भीतरि आइओ तब मुखु काजि लजो ॥१॥
मूलम्
कुआर कंनिआ जैसे संगि सहेरी प्रिअ बचन उपहास कहो ॥ जउ सुरिजनु ग्रिह भीतरि आइओ तब मुखु काजि लजो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुआर कंनिआ = क्वारी लड़की। संगी सहेरी = सहेलियों के साथ। उपहास = हसीं से, हस हस के। प्रिअ बचन कहे = अपने प्रीतम की बातें करती है। सुरिजनु = पति। मुखु = मुँह। काजि = ढक लेती है। लजो = इज्जत से।1।
अर्थ: जैसे कोई क्वारी कन्या सहेलियों के साथ अपने (मंगेतर) प्यारे की बातें हँस-हँस के करती है, पर जब (उसका) पति घर में आता है तब (वह लड़की) लज्जा से अपना मुँह ढक लेती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ कनिको कोठारी चड़िओ कबरो होत फिरो ॥ जब ते सुध भए है बारहि तब ते थान थिरो ॥२॥
मूलम्
जिउ कनिको कोठारी चड़िओ कबरो होत फिरो ॥ जब ते सुध भए है बारहि तब ते थान थिरो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कनिको = सोना। कोठारी चढ़िओ = कुठाली में पड़ता है। कबरो = कमला। जब ते = जब से। बारहि = बारह तरह का। तब ते = तब से। थान थिरो = टिक जाता है, दोबारा कुठाली में नहीं पड़ता।2।
अर्थ: जैसे कुठाली में पड़ा हुआ सोना (सेक से) कमला हुआ फिरता है, पर जब वह बारह वंनी का शुद्ध हो जाता है, तब वह (सेक में तड़फने से) अडोल हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ दिनु रैनि तऊ लउ बजिओ मूरत घरी पलो ॥ बजावनहारो ऊठि सिधारिओ तब फिरि बाजु न भइओ ॥३॥
मूलम्
जउ दिनु रैनि तऊ लउ बजिओ मूरत घरी पलो ॥ बजावनहारो ऊठि सिधारिओ तब फिरि बाजु न भइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ दिनु = जिस दिन तक, जब तक। रैनि = (जिंदगी की) रात। तऊ लउ = उतने समय तक ही। मूरत = महूरत। बजावनहारो = बजाने वाला जीव। बाजु न भइओ = (घ्ड़ियाल) नहीं बजता।3।
अर्थ: जब तक (मनुष्य की जिंदगी की) रात कायम रहती है तब तक (उम्र के बीतते जाने की खबर देने के लिए घड़ियाल से) महूरत घड़ियाँ पल बजते रहते हैं। पर जब इनको बजाने वाला (दुनिया से) उठ चलता है, तब (उन घड़ियों पलों का) बजना समाप्त हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे कु्मभ उदक पूरि आनिओ तब ओुहु भिंन द्रिसटो ॥ कहु नानक कु्मभु जलै महि डारिओ अ्मभै अ्मभ मिलो ॥४॥३॥
मूलम्
जैसे कु्मभ उदक पूरि आनिओ तब ओुहु भिंन द्रिसटो ॥ कहु नानक कु्मभु जलै महि डारिओ अ्मभै अ्मभ मिलो ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुंभ = घड़ा। उदकि = पानी से। पूरि = भर के। आनिओ = ले आए। ओुहु = वह (पानी)। भिंन = अलग। द्रिसटे = दिखता है। जलै महि = पानी में ही। अंभै = पानी को। अंभ = पानी।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओुहु’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘अुहु’ व उहु, यहां ‘ओहु’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जैसे जब कोई घड़ा पानी से भर के लाया जाए, तब (घड़े वाला) वह (पानी कूआँ आदि के अन्य पानियों से) अलग दिखता है। हे नानक! कह: जब वह (भरा हुआ) घड़ा पानी में डाल देते हैं तब (घड़े का) पानी अन्य पानी में मिल जाता है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब पूछे किआ कहा ॥ लैनो नामु अम्रित रसु नीको बावर बिखु सिउ गहि रहा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब पूछे किआ कहा ॥ लैनो नामु अम्रित रसु नीको बावर बिखु सिउ गहि रहा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूछे = अगर (तुझे) पूछा जाए। किआ कहा = क्या बताएगा? लैनो = लेना था। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। नीको = सुंदर। बावर = हे कमले? बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया का मोह जहर। गहि रहा = चिपक रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे कमले! अब अगर तुझे पूछा जाए तो क्या बताएगा? (तूने यहाँ जगत में आ के) आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का सुंदर नाम-रस लेना था, पर तू तो आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर के साथ ही चिपक रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुलभ जनमु चिरंकाल पाइओ जातउ कउडी बदलहा ॥ काथूरी को गाहकु आइओ लादिओ कालर बिरख जिवहा ॥१॥
मूलम्
दुलभ जनमु चिरंकाल पाइओ जातउ कउडी बदलहा ॥ काथूरी को गाहकु आइओ लादिओ कालर बिरख जिवहा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। चिरंकाल = चिरों के बाद। जातउ = जा रहा हैं बदलहा = बदले में। काथूरी = कस्तूरी। को = का। लादिओ = तू लाद रहा है, तूने खरीद लिया है। बिरख जिवहा = जिवांह के पौधे।1।
अर्थ: हे झल्ले! बड़े चिरों के बाद (तुझे) दुर्लभ (मनुष्य का) जनम मिला था, पर ये तो कौड़ी के बदले जा रहा है। तू (यहाँ पर) कस्तूरी का गाहक बनने के लिए आया था, पर तूने यहाँ से कल्लर लाद लिया है, जिवांहां के बूटे लाद लिए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आइओ लाभु लाभन कै ताई मोहनि ठागउरी सिउ उलझि पहा ॥ काच बादरै लालु खोई है फिरि इहु अउसरु कदि लहा ॥२॥
मूलम्
आइओ लाभु लाभन कै ताई मोहनि ठागउरी सिउ उलझि पहा ॥ काच बादरै लालु खोई है फिरि इहु अउसरु कदि लहा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाभन कै ताई = ढूँढने के लिए। मोहनि = मन को मोहने वाली। ठागउरी = ठग-बूटी। उलझि पहा = मन जोड़ बैठा है। काच = काँच। बादरै = बदले में। खोई है = गवा रहा है। अउसरु = समय। कदि = कब? लहा = पाएगा।2।
अर्थ: हे कमले! (तू जगत में आत्मिक जीवन का) लाभ कमाने के लिए आया था, पर तू तो मन को मोहने वाली माया ठग-बूटी के साथ ही अपना मन जोड़ बैठा है, तू काँच के बदले लाल गवा रहा है। हे कमले! ये मानव जन्म वाला समय फिर कब ढूँढेगा?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल पराध एकु गुणु नाही ठाकुरु छोडह दासि भजहा ॥ आई मसटि जड़वत की निआई जिउ तसकरु दरि सांन्हिहा ॥३॥
मूलम्
सगल पराध एकु गुणु नाही ठाकुरु छोडह दासि भजहा ॥ आई मसटि जड़वत की निआई जिउ तसकरु दरि सांन्हिहा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पराध = अपराध, खुनामीआ। छोडह = हम जीव छोड़ देते हैं। दासि = दासी, माया। भजहा = भज, हम भजते हैं। मसटि = चुप, मूर्छा सा। जड़वत की निआई = जड़ (बेजान) पदार्थों की तरह। तसकरु = चोर। दरि = दर पर, दरवाजे पर। सांन्हिहा = सेंध।3।
अर्थ: हे भाई! हम जीवों में सारी कमियाँ ही हैं गुण एक भी नहीं। हम मालिक-प्रभु को छोड़ देते हैं और उसकी दासी की ही सेवा करते रहते हैं। जैसे कोई चोर सेंध के दरवाजे पर (पकड़ा जा के मार खा-खा के बेहोश हो जाता है, वैसे ही नाम-जपने की ओर से हमें) जड़-पदार्थों की तरह मूर्छा ही आई रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन उपाउ न कोऊ सूझै हरि दासा सरणी परि रहा ॥ कहु नानक तब ही मन छुटीऐ जउ सगले अउगन मेटि धरहा ॥४॥४॥
मूलम्
आन उपाउ न कोऊ सूझै हरि दासा सरणी परि रहा ॥ कहु नानक तब ही मन छुटीऐ जउ सगले अउगन मेटि धरहा ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाउ = उपाय, इलाज। परि रहा = मैं पड़ा रहता हूँ। मन = हे मन! छूटीऐ = माया के पँजे से बच सकते हैं। जउ = जब। मेटि धरहा = हम मिटा दें।4।
अर्थ: हे भाई! (इस मोहनी माया के पँजे में से निकलने के लिए मुझे तो) कोई और ढंग नहीं सूझता, मैं तो परमात्मा के दासों की शरण पड़ा रहता हूँ। हे नानक! कह: हे मन! माया के मोह में से तब ही बचा जा सकता है जब (प्रभु के सेवकों की शरण पड़ कर अपने अंदर से) हम सारे अवगुण मिटा दें।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई धीरि रही प्रिअ बहुतु बिरागिओ ॥ अनिक भांति आनूप रंग रे तिन्ह सिउ रुचै न लागिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई धीरि रही प्रिअ बहुतु बिरागिओ ॥ अनिक भांति आनूप रंग रे तिन्ह सिउ रुचै न लागिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! धीरि = धैर्य, सहने की ताकत। रही = रह गई है, समाप्त हो गई है। प्रिअ गिरागिओ = प्यारे के वैराग, प्यारे के विछोड़े का दर्द। अनिक भांति = अनेक तरीकों से। आनूप = सुंदर। रे = हे भाई! (पुलिंग)। रुचै = प्यार, खींच।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! (मेरे अंदर) प्यारे से विछोड़े का दर्द बहुत तेज़ हो गया है इसे सहने की ताकत नहीं रह गई। हे भाई! (दुनिया के) अनेक किस्मों के सुंदर-सुंदर रंग-तमाशे हैं, पर मेरे अंदर इनके लिए कोई आकर्ष नहीं रहा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसि बासुर प्रिअ प्रिअ मुखि टेरउ नींद पलक नही जागिओ ॥ हार कजर बसत्र अनिक सीगार रे बिनु पिर सभै बिखु लागिओ ॥१॥
मूलम्
निसि बासुर प्रिअ प्रिअ मुखि टेरउ नींद पलक नही जागिओ ॥ हार कजर बसत्र अनिक सीगार रे बिनु पिर सभै बिखु लागिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निसि = रात। बासुर = दिन। प्रिअ = हे प्यारे! मुखि = मुँह से। टेरउ = मैं उचारती हूँ, मैं पुकारती हूँ। कजर = काजल। बसत्र = कपड़े। सीगार = श्रृंगार, गहने। रे = हे भाई! बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर।1।
अर्थ: हे (वीर)! रात-दिन मैं (अपने) मुँह से ‘हे प्यारे! हे प्यारे! बोलती रहती हूँ, मुझे एक पल भी नींद नहीं आती, सदा जाग के (समय गुजार रही हूँ)। हे (वीर)! हार, काजल, कपड़े, अनेक गहने- ये सारे प्रभु-पति के मिलाप के बिना मुझे आत्मिक मौत लाने वाली जहर दिख रहे हैं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पूछउ पूछउ दीन भांति करि कोऊ कहै प्रिअ देसांगिओ ॥ हींओु देंउ सभु मनु तनु अरपउ सीसु चरण परि राखिओ ॥२॥
मूलम्
पूछउ पूछउ दीन भांति करि कोऊ कहै प्रिअ देसांगिओ ॥ हींओु देंउ सभु मनु तनु अरपउ सीसु चरण परि राखिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूछउ = मैं पूछती हूँ। दीन = निमाणा। दीन भांति करि = निमाणों की तरह। भांति = तरीका। प्रिअ देसांगिउ = प्यारे का देश। हीओुं = हीओ, हृदय। देंउ = मैं देती हूँ, मैं देने को तैयार हूँ। अरपउ = मैं भेटा करती हूँ। राखिओ = राखि, रख के।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘हीओुं’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘हीओु’ व हिउ, यहां ‘हिओ’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे माँ!) निमाणों की तरह मैं बार-बार पूछती फिरती हूँ, भला यदि कोई मुझे प्यारे का देश बता दे। (प्यारे का देश बताने वाले के) चरणों पर (अपना) सिर रख के मैंने अपना हृदय, अपना मन अपना तन सब कुछ भेटा करने को तैयाद हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण बंदना अमोल दासरो देंउ साधसंगति अरदागिओ ॥ करहु क्रिपा मोहि प्रभू मिलावहु निमख दरसु पेखागिओ ॥३॥
मूलम्
चरण बंदना अमोल दासरो देंउ साधसंगति अरदागिओ ॥ करहु क्रिपा मोहि प्रभू मिलावहु निमख दरसु पेखागिओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदना = नमसकार। अमोल = मूल्य के बिना, अनमोल। दासरे = निमाणा सा दास (पुलिंग)। अरदागिओ = अरदास। देंउ अरदागिओ = मैं अरदास भेट करता हूँ। मोहि = मुझे। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। पेखागिओ = मैं देखूँ।3।
अर्थ: हे भाई! मैं साधु-संगत के चरणों में नमस्कार करता हूँ, मैं साधु-संगत का बगैर किसी मूल्य के ही एक निमाणा सा दास हूँ, मैं साधु-संगत के आगे अरदास करता हूँ- (मेरे पर) मेहर करो, मुझे परमात्मा मिला दो, मैं (उसका) आँख झपकने जितने समय के लिए ही दर्शन कर लूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रिसटि भई तब भीतरि आइओ मेरा मनु अनदिनु सीतलागिओ ॥ कहु नानक रसि मंगल गाए सबदु अनाहदु बाजिओ ॥४॥५॥
मूलम्
द्रिसटि भई तब भीतरि आइओ मेरा मनु अनदिनु सीतलागिओ ॥ कहु नानक रसि मंगल गाए सबदु अनाहदु बाजिओ ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिसटि = (मेहर की) निगाह। भीतरि = मेरे हृदय में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सीतलागिओ = शीतल, शांत, ठंडा। नानक = हे नाकक! रसि = रस से, स्वाद से। मंगल = खुशी के गीत, महिमा के गीत। अनाहद = (अनआहत) बिना बजाए, एक रस, हर वक्त। सबदु बाजिओ = गुरु का शब्द बज रहा है, शबदअपना पूरा प्रभाव डाल रहा है।4।
अर्थ: हे भाई! (जब परमात्मा की मेहर की) निगाह (मेरे ऊपर) हुई, तब वह मेरे हृदय में आ बसा। अब मेरा मन हर वक्त शीतल रहता है। हे नानक! कह: अब मैं उसकी महिमा के गीत स्वाद से गाता हूँ, (मेरे अंदर) गुरु का शब्द एक-रस अपना पूरा प्रभाव डाले रखता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई सति सति सति हरि सति सति सति साधा ॥ बचनु गुरू जो पूरै कहिओ मै छीकि गांठरी बाधा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई सति सति सति हरि सति सति सति साधा ॥ बचनु गुरू जो पूरै कहिओ मै छीकि गांठरी बाधा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! सति हरि = सदा कायम रहने वाला हरि। सति साधा = अटल आत्मिक जीवन वाला गुरु। गुरू पूरै = पूरे गुरु ने। छीकि = खींच के। गांठरी = पल्ले। बाधा = बाँध लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! परमात्मा सदा ही कायम रहने वाला है, परमात्मा के संत जन भी अटल आत्मिक जीवन वाले हैं - ये जो वचन (मुझे) पूरे गुरु ने बताया है, मैंने इसको कस के अपने पल्ले से बाँध लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसि बासुर नखिअत्र बिनासी रवि ससीअर बेनाधा ॥ गिरि बसुधा जल पवन जाइगो इकि साध बचन अटलाधा ॥१॥
मूलम्
निसि बासुर नखिअत्र बिनासी रवि ससीअर बेनाधा ॥ गिरि बसुधा जल पवन जाइगो इकि साध बचन अटलाधा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निसि = रात। बासुर = दिन। नखिअत्र = तारे। बिनासी = नाशवान। रवि = सूरज। ससीअर = (शशधर) चंद्रमा। बेनाधा = नाशवान। गिरि = पहाड़। बसुधा = धरती। पवन = हवा। इकि = कई।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! रात, दिन, तारे, सूरज, चँद्रमा - ये सारे नाशवान हैं। पहाड़, धरती, हवा - हरेक चीज़ नाश हो जाएगी। सिर्फ गुरु के वच नही कभी टल नहीं सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंड बिनासी जेर बिनासी उतभुज सेत बिनाधा ॥ चारि बिनासी खटहि बिनासी इकि साध बचन निहचलाधा ॥२॥
मूलम्
अंड बिनासी जेर बिनासी उतभुज सेत बिनाधा ॥ चारि बिनासी खटहि बिनासी इकि साध बचन निहचलाधा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंड, जेर, उत्भुज, सेत = अंडों से, जियोर से, धरती से, पसीने स पैदा होने वाले। चारि = चार वेद। खटहि = छह शास्त्र भी। निहचलाधा = अटल।2।
अर्थ: रे माँ! अंडों से, ज्योर से, धरती से, पसीने से पैदा होने वाले सब जीव नाशवान हैं। चार वेद, छह शास्त्र- ये भी नाशवान हैं। सिर्फ गुरु के वच नही सदा कायम रहने वाले हैं। धर्म-पुस्तकें तो कई बनीं और कई मिटी, पर साधु के वचन, भाव, नाम-जपने की पद्धति सदा अटल रहती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज बिनासी ताम बिनासी सातकु भी बेनाधा ॥ द्रिसटिमान है सगल बिनासी इकि साध बचन आगाधा ॥३॥
मूलम्
राज बिनासी ताम बिनासी सातकु भी बेनाधा ॥ द्रिसटिमान है सगल बिनासी इकि साध बचन आगाधा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राज ताम, सातकु = राजस, तामस, सातक (माया के तीन गुण) = इन गुणों के प्रभाव में रहने वाले सारे जीव। द्रिसटिमान = जो कुछ दिखाई दे रहा है, यह सारा दिखता जगह। अगाधा = अगाध, अथाह, अंत रहित।3।
अर्थ: हे माँ! (माया के तीन गुण) राजस तामस सातक नाशवान हैं। जो कुछ (यह जगत) दिखाई दे रहा है सारा नाशवान है। सिर्फ गुरु के वच नही ऐसे हैं जो अटल हैं (भाव, आत्मिक जीवन के लिए जो मर्यादा गुरु ने बताई है वह कभी भी कहीं भी नहीं बदल सकती)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे आपि आप ही आपे सभु आपन खेलु दिखाधा ॥ पाइओ न जाई कही भांति रे प्रभु नानक गुर मिलि लाधा ॥४॥६॥
मूलम्
आपे आपि आप ही आपे सभु आपन खेलु दिखाधा ॥ पाइओ न जाई कही भांति रे प्रभु नानक गुर मिलि लाधा ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सभु खेलु = सारा (जगत-) तमाशा। कहीं भांति = (और) किसी तरीके से। रे = हे भाई! नानक = हे नानक! गुर मिलि = गुरु को मिल के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) रे भाई! जो परमात्मा (अपने जैसा) स्वयं ही स्वयं है, जिसने यह सारा जगत जगत-तमाशा दिखाया हुआ है, वह औक्र किसी भी तरीके से नहीं मिल सकता। वह प्रभु गुरु को मिल के (ही) पाया जा सकता है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि बासिबो गुर गोबिंद ॥ जहां सिमरनु भइओ है ठाकुर तहां नगर सुख आनंद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि बासिबो गुर गोबिंद ॥ जहां सिमरनु भइओ है ठाकुर तहां नगर सुख आनंद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। बासिबो = बसता है। जहा = जहाँ। सिमरनु ठाकुर = ठाकुर का स्मरण। तहां नगर = उन (हृदय) नगरों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे मन में गुरु गोबिंद बस रहा है। (मुझे इस तरह समझ आ रहा है कि) जहाँ ठाकुर-प्रभु का स्मरण होता रहता है, उनके (हृदय-) नगरों में सुख-आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहां बीसरै ठाकुरु पिआरो तहां दूख सभ आपद ॥ जह गुन गाइ आनंद मंगल रूप तहां सदा सुख स्मपद ॥१॥
मूलम्
जहां बीसरै ठाकुरु पिआरो तहां दूख सभ आपद ॥ जह गुन गाइ आनंद मंगल रूप तहां सदा सुख स्मपद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीसरै = बिसर जाता है। सभ आपद = सारी बिपदाएं, सभी आपदाएं। गाई = गाता है। संपद = ऐश्वर्य।1।
अर्थ: हे भाई! जिस हृदय में मालिक प्रभु (की याद) भूल जाती है, वहाँ सारे दुख सारी मुसीबतें आई रहती हैं। जहाँ (कोई मनुष्य) आनंद और खुशियाँ देने वाले हरि-गुण गाता रहता है, उस हृदय में खुशियाँ उस हृदय में चढ़दीकला (उत्साह) बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहा स्रवन हरि कथा न सुनीऐ तह महा भइआन उदिआनद ॥ जहां कीरतनु साधसंगति रसु तह सघन बास फलांनद ॥२॥
मूलम्
जहा स्रवन हरि कथा न सुनीऐ तह महा भइआन उदिआनद ॥ जहां कीरतनु साधसंगति रसु तह सघन बास फलांनद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रवन = कानों से। न सुनीऐ = नहीं सुनी जाती। तह = वहाँ। भइआन = भयानक, डरावना। उदिआन = जंगल। कीरतनु = महिमा। रसु = स्वाद। सघन बास = संघनी सुगंधि। फलांनद = फलों का आनंद।2।
अर्थ: हे भाई! जहाँ कानों से परमात्मा की महिमा नहीं सुनी जाती, उस हृदय में (मानो) बहुत भयानक जंगल बना हुआ है, वहाँ (मानो, ऐसा बाग़ है जहाँ) सघन-सुगंधि है और फलों का आनंद है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन कोटि बरख जीवै सगली अउध ब्रिथानद ॥ एक निमख गोबिंद भजनु करि तउ सदा सदा जीवानद ॥३॥
मूलम्
बिनु सिमरन कोटि बरख जीवै सगली अउध ब्रिथानद ॥ एक निमख गोबिंद भजनु करि तउ सदा सदा जीवानद ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि बरख = करोड़ों वर्ष। जीवै = अगर जीता है। सगली = सी। अउध = उम्र। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। जीवानद = आत्मिक जीवन जीता है।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के स्मरण के बिना अगर कोई मनुष्य करोड़ों वर्ष भी जीता रहे, (तो भी उसकी) सारी उम्र व्यर्थ जाती है। पर अगर मनुष्य गासेबिंद का भजन आँख झपकने जितने समय के लिए भी करे, तो वह सदा ही आत्मिक जीवन जीता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनि सरनि सरनि प्रभ पावउ दीजै साधसंगति किरपानद ॥ नानक पूरि रहिओ है सरब मै सगल गुणा बिधि जांनद ॥४॥७॥
मूलम्
सरनि सरनि सरनि प्रभ पावउ दीजै साधसंगति किरपानद ॥ नानक पूरि रहिओ है सरब मै सगल गुणा बिधि जांनद ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। दीजै = दे। किरपानद = कृपा से। सरब मै = सभ में, सारी सृष्टि में। बिधि = ढंग। जांनद = जानता है।4।
अर्थ: हे प्रभु! मेहर करके मुझे अपनी साधु-संगत (का मिलाप) बख्श (ताकि) मैं सदा के लिए तेरी शरण प्राप्त किए रखूँ। हे नानक! वह परमात्मा सबमें व्यापक है (अपने जीवों के अंदर अपने) सारे गुण पैदा करने का ढंग वह स्वयं ही जानता है।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मोहि राम भरोसउ पाए ॥ जो जो सरणि परिओ करुणानिधि ते ते भवहि तराए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मोहि राम भरोसउ पाए ॥ जो जो सरणि परिओ करुणानिधि ते ते भवहि तराए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब (परमात्मा की शरण पड़ कर)। भरोसउ = भरोसा, यकीन, निश्चय। मोहि = मैं। निधि = खजाना। करुणा निधि सरणि = तरस के समुंदर प्रभु की शरण। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। भवहि = भव, भव सागर, संसार समुंदर। तराए = पार लंघा दिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की शरण पड़ कर) अब मैंने परमात्मा की बाबत ये निष्चय बना लिया है कि जो जो मनुष्य उस तरस के समुंदर प्रभु की शरण पड़ता है, उन सबको परमात्मा संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखि सोइओ अरु सहजि समाइओ सहसा गुरहि गवाए ॥ जो चाहत सोई हरि कीओ मन बांछत फल पाए ॥१॥
मूलम्
सुखि सोइओ अरु सहजि समाइओ सहसा गुरहि गवाए ॥ जो चाहत सोई हरि कीओ मन बांछत फल पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुखि = सुख में, आत्मिक आनंद में। सोइओ = लीन हो गया। अरु = और (अरि = वैरी)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सहसा = सहम, चिन्ता फिक्र। गुरहि = गुरु ने। मन बांछत = मन माने।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की शरण पड़ कर अब मैंने निश्चय बना लिया है कि जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ता है वह) आत्मिक आनंद में लीन रहता है और आत्मिक अडोलता में लीन रहता है और आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, गुरु उस की सारी चिन्ता-फिक्र दूर कर देता है। वह जो कुछ चाहता है प्रभु (वही कुछ उसके वास्ते) कर देता है, वह मनुष्य मन-माँगी मुरादें हासिल कर लेता है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै जपउ नेत्र धिआनु लावउ स्रवनी कथा सुनाए ॥ चरणी चलउ मारगि ठाकुर कै रसना हरि गुण गाए ॥२॥
मूलम्
हिरदै जपउ नेत्र धिआनु लावउ स्रवनी कथा सुनाए ॥ चरणी चलउ मारगि ठाकुर कै रसना हरि गुण गाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। जपउ = मैं जपता हूँ। नेत्र = आँखों में। धिआनु = तवज्जो, ध्यान। लावउ = मैं लगाता हूँ। स्रवनी = कानों से। सुनाए = सुनता है। चलउ = चलूँ, मैं चलता हूं। मारगि ठाकुर कै = ठाकुर के रास्ते पर। रसना = जीभ। गाए = गाता है।2।
अर्थ: हे भाई! (जबसे मैं परमात्मा की शरण पड़ा हूँ, तब से अब) मैं अपने हृदय में (परमात्मा का नाम) जपता हूँ, आँखों में उसका ध्यान धरता हूँ, कानों से उसकी महिमा सुनता हूँ, पैरों से उस मालिक-प्रभु के राह पर चलता हूँ, मेरी जीभ उसके गुण गाती रहती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखिओ द्रिसटि सरब मंगल रूप उलटी संत कराए ॥ पाइओ लालु अमोलु नामु हरि छोडि न कतहू जाए ॥३॥
मूलम्
देखिओ द्रिसटि सरब मंगल रूप उलटी संत कराए ॥ पाइओ लालु अमोलु नामु हरि छोडि न कतहू जाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखओ द्रिसटि = निगाह से देख लिया है। सरब मंगल रूप = सारी खुशियों का स्वरूप प्रभु। उलटी कराए = (मेरी रुचि माया से) उल्टा दी है। अमोलु = जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। छोडि = छोड़ के। कतहू = किसी और जगह।3।
अर्थ: हे भाई! जब संतजनों ने मेरी रुचि माया की ओर से पलट दी है, मैंने अपनी आँखों से उस सारी खूबियों के मालिक-हरि को देख लिया है। मैंने परमात्मा का कीमती अमूल्य नाम पा लिया है, उस को छोड़ के (मेरा मन अब) और किसी भी तरफ नहीं जाता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन उपमा कउन बडाई किआ गुन कहउ रीझाए ॥ होत क्रिपाल दीन दइआ प्रभ जन नानक दास दसाए ॥४॥८॥
मूलम्
कवन उपमा कउन बडाई किआ गुन कहउ रीझाए ॥ होत क्रिपाल दीन दइआ प्रभ जन नानक दास दसाए ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपमा = शोभा। कहउ = कहूँ, मैं कहूँ। रीझाए = प्रसन्न करने के लिए। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा की कौन सी कीर्ति करूँ? कौन सी महिमा बयान करूँ? कौन से गुण बताऊँ? जिस के करने से वह मेरे ऊपर प्रसन्न हो जाए। हे दास नानक! दीनों पर दया करने वाला प्रभु स्वयं ही जिस पर दयावान होता है, उसको अपने दासों का दास बना लेता है।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ ओुइ सुख का सिउ बरनि सुनावत ॥ अनद बिनोद पेखि प्रभ दरसन मनि मंगल गुन गावत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ ओुइ सुख का सिउ बरनि सुनावत ॥ अनद बिनोद पेखि प्रभ दरसन मनि मंगल गुन गावत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: का सिउ = किससे? किसके आगे? बरनि = बयान कर के। पेखि प्रभ दरसन = प्रभु के दरसन देख के। मनि = मन में। मंगल = खुशियां।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओुइ’ है ‘ओुह’ का बहुवचन। अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘ओइ’, यहां ‘उइ’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! प्रभु के दर्शन करते हुए प्रभु के गुण गाते हुए मन में जो खुशिायाँ पैदा होती हैं जो आनंद-करिश्मे पैदा होते हैं, उन सुखों का बया किसी भी तरह से नहीं किया जा सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसम भई पेखि बिसमादी पूरि रहे किरपावत ॥ पीओ अम्रित नामु अमोलक जिउ चाखि गूंगा मुसकावत ॥१॥
मूलम्
बिसम भई पेखि बिसमादी पूरि रहे किरपावत ॥ पीओ अम्रित नामु अमोलक जिउ चाखि गूंगा मुसकावत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसम = हैरान। पेखि = देख के। बिसमादी = आश्चर्य रूप प्रभु। किरपावत = कृपालु हरि। पीओ = पी लिया। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। चाखि = चख के।1।
अर्थ: हे भाई! उस आश्चर्य-रूप और कृपा के श्रोत सर्व-व्यापक प्रभु के दर्शन करके मैं हैरान हो गई हूँ। जब मैंने उसका आत्मिक जीवन देने वाला अमल्य नाम-जल पीया (तब मेरी हालत ऐसे हो गई) जैसे कोई गूँगा मनुष्य (गुड़ वगैरा) चख के (सिर्फ) मुस्कराता ही है। (स्वाद बता नहीं सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे पवनु बंध करि राखिओ बूझ न आवत जावत ॥ जा कउ रिदै प्रगासु भइओ हरि उआ की कही न जाइ कहावत ॥२॥
मूलम्
जैसे पवनु बंध करि राखिओ बूझ न आवत जावत ॥ जा कउ रिदै प्रगासु भइओ हरि उआ की कही न जाइ कहावत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवनु = हवा, प्राण। बंध करि = बाँध के, रोक के। बूझ = समझ। आवत जावत = (प्राणों के) आने से जाने से। जा कउ रिदै = जिसके हृदय में। उआ की कहावत = उस की दशा।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे (कोई जोगी) अपने प्राण रोक लेता है, उनके आने-जाने की (किसी और को) समझ नहीं पड़ सकती (इसी तरह) जिस मनुष्य के दिल में परमात्मा का प्रकाश हो जाता है, उस मनुष्य की आत्मिक दशा बयान नहीं की जा सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन उपाव जेते किछु कहीअहि तेते सीखे पावत ॥ अचिंत लालु ग्रिह भीतरि प्रगटिओ अगम जैसे परखावत ॥३॥
मूलम्
आन उपाव जेते किछु कहीअहि तेते सीखे पावत ॥ अचिंत लालु ग्रिह भीतरि प्रगटिओ अगम जैसे परखावत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = अन्य, और। उपाव = उपाय, प्रयत्न। जेते = जितने भी। कहीअहि = कहे जाते हें। तेते = वे सारे। सीखे = (किसी से) सीखने से। पावत = सीखे जाते हैं। अचिंत = चिता दूर करने वाला हरि। ग्रिह भीतरि = हृदय के अंदर ही। अगम जैसे = कठिन सा। परखावत = (उसका) परखना।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (दुनियावी गुण सीखने के लिए) अन्य जितने भी प्रयत्न बताए जाते हैं, वे (और से) सीखने से ही सीखे जा सकते हैं। पर चिन्ता दूर करने वाला सुंदर प्रभु मनुष्य के हृदय-घर के अंदर ही प्रकट हो जाता है (जिसके दिल में प्रकट होता है, उसकी) करनी कठिन सा काम है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरगुण निरंकार अबिनासी अतुलो तुलिओ न जावत ॥ कहु नानक अजरु जिनि जरिआ तिस ही कउ बनि आवत ॥४॥९॥
मूलम्
निरगुण निरंकार अबिनासी अतुलो तुलिओ न जावत ॥ कहु नानक अजरु जिनि जरिआ तिस ही कउ बनि आवत ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से परे। निरंकार = जिसका कोई खास रूप नहीं बताया जा सकता। अजरु = (अ+जरु) जिसका जरा नहीं व्याप सकता (जरा = बुढ़ापा)। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जरिआ = जड़ लिया, हृदय में परो लिया। बनि आवत = फबता है, जानता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा माया के तीन गुणों की पहुँच से परे है, परमात्मा का कोई स्वरूप बताया नहीं जा सकता, परमात्मा नाश-रहित है, वह अतोल है, उसको तोला नहीं जा सकता। हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने उस सदा जवान रहने वाले (बुढ़ापा-रहत) परमात्मा को अपने मन में बसा लिया, उसकी आत्मिक दशा वह स्वयं ही जानता है (बयान नहीं की जा सकती)।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ बिखई दिनु रैनि इव ही गुदारै ॥ गोबिंदु न भजै अह्मबुधि माता जनमु जूऐ जिउ हारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ बिखई दिनु रैनि इव ही गुदारै ॥ गोबिंदु न भजै अह्मबुधि माता जनमु जूऐ जिउ हारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखई = विषयी विकारी मनुष्य। रैनि = रात। इव ही = इसी तरह (विकारों में) ही। गुदारै = गुजारता है। न भजै = नहीं स्मरण करता। अहंबुधि = अहंकार। माता = मस्त। जूऐ = जूऐ में। जिउ = (जुआरिए) की तरह।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! विषयी मनुष्य इसी तरह (विकारों में) ही दिन-रात (अपनी उम्र) गुजारता है। (विषयी मनुष्य) परमात्मा का भजन नहीं करता, अहंकार में मस्त हुआ (अपना मानव) जनम (यूँ) हार जाता है जैसे (जुआरिआ) जूए में (बाज़ी हारता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु अमोला प्रीति न तिस सिउ पर निंदा हितकारै ॥ छापरु बांधि सवारै त्रिण को दुआरै पावकु जारै ॥१॥
मूलम्
नामु अमोला प्रीति न तिस सिउ पर निंदा हितकारै ॥ छापरु बांधि सवारै त्रिण को दुआरै पावकु जारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमोला = जो अमूल्य है। सिउ = साथ। हितकारै = प्यार करता है। छापरु त्रिण को = तिनकों का छप्पर। बाधि = बाँध के, बना के। दुआरै = (छप्पर के) दरवाजे पर। पावकु = आग। जारै = जलाता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम बहुत ही कीमती है (विषयी मनुष्य) उसके साथ प्यार नहीं डालता, दूसरों की निंदा करने में रुचि रखता है। (विषयी मनुष्य, मानो) तिनकों का छप्पर बना के (उसको) सजाता रहता है (पर उसके) दरवाजे पर आग जला देता है (जिस कारण हर वक्त उसके जलने का खतरा बना रहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालर पोट उठावै मूंडहि अम्रितु मन ते डारै ॥ ओढै बसत्र काजर महि परिआ बहुरि बहुरि फिरि झारै ॥२॥
मूलम्
कालर पोट उठावै मूंडहि अम्रितु मन ते डारै ॥ ओढै बसत्र काजर महि परिआ बहुरि बहुरि फिरि झारै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कालर पोट = कल्लर की पोटली। मूंडहि = सिर पर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से, में से। डारे = फेंक देता है। ओढै = पहनता है, ओढ़े। काजर महि = काजल में, कालिख भरे कमरे में। परिआ = बैठा हुआ। बहुरि = दोबारा। झारै = झाड़ता है।2।
अर्थ: हे भाई! (विकारों में फसा हुआ मनुष्य, मानो) कल्लर की पोटली (अपने) सिर पर उठाए फिरता है, और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अपने) मन में से (बाहर) फेंक देता है, कालिख (-भरे कमरे) में बैठा हुआ (सफेद) कपड़े पहनता है और (कपड़ों पर पड़ी कालिख़ को) बार-बार झाड़ता रहता ड्ढहै।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटै पेडु डाल परि ठाढौ खाइ खाइ मुसकारै ॥ गिरिओ जाइ रसातलि परिओ छिटी छिटी सिर भारै ॥३॥
मूलम्
काटै पेडु डाल परि ठाढौ खाइ खाइ मुसकारै ॥ गिरिओ जाइ रसातलि परिओ छिटी छिटी सिर भारै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेडु = पेड़। डाल = अहनी। पारि = पर। ठाढो = खड़ा हुआ। मुसकारै = मुस्कराता है। जाइ = जा के। रसातलि = पाताल में, गहरी जगह में। छिटी छिटी = टुकड़े टुकड़े, हड्डी हड्डी। परिओ सिर भारै = सियर भार जा पड़ा।3।
अर्थ: हे भाई! (विकारों में फसा हुआ मनुष्य, मानो, वृख की ही) अहनियों पर खड़ा हुआ (उसी) वृक्ष को काट रहा है, (साथ-साथ ही मिठाई वगैरा) खा-खा के मुस्करा रहा है। (पर वृक्ष के कट जाने पर वह मनुष्य) गहरे गड्ढे में जा गिरता है, सिर भार गिर के हड्डी-हड्डी हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरवैरै संगि वैरु रचाए पहुचि न सकै गवारै ॥ कहु नानक संतन का राखा पारब्रहमु निरंकारै ॥४॥१०॥
मूलम्
निरवैरै संगि वैरु रचाए पहुचि न सकै गवारै ॥ कहु नानक संतन का राखा पारब्रहमु निरंकारै ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। गवारै = गवार मूर्ख। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे भाई! मूर्ख (विकारी) मनुष्य उस संत-जन के साथ सदा वैर बनाए रखता है जो किसी के साथ भी वैर नहीं करता। (मूर्ख उस संत जन के साथ बराबरी करने का प्रयत्न करता है, पर) उसकी बराबरी नहीं कर सकता।
हे नानक! कह: (विकारी मूर्ख मनुष्य संत-जनों का कुछ बिगाड़ नहीं सकता, क्योंकि) संत-जनों का रखवाला निरंकार पारब्रहम (सदा स्वयं) है।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अवरि सभि भूले भ्रमत न जानिआ ॥ एकु सुधाखरु जा कै हिरदै वसिआ तिनि बेदहि ततु पछानिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अवरि सभि भूले भ्रमत न जानिआ ॥ एकु सुधाखरु जा कै हिरदै वसिआ तिनि बेदहि ततु पछानिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरि = और, अन्य। सभि = सारे। भूले = सही जीवन-राह से भटके हुए। भ्रमत = भटकते हुए। न जानिआ = आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती। सुधाखरु = शुद्ध अक्षर, पवित्र हरि नाम। जा कै हिरदै = जिस मनुष्य के हृदय में। तिनि = उस (मनुष्य) ने। बेदहि ततु = वे (आदि धर्म पुस्तकों) की अस्लियत।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य के हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसता है, उसने (समझो) वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) का तत्व समझ लिया। अन्य सारे जीव गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं, (माया की खातिर) भटकते हुए उनको (सही जीवन-राह की) सूझ नहीं पड़ती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परविरति मारगु जेता किछु होईऐ तेता लोग पचारा ॥ जउ लउ रिदै नही परगासा तउ लउ अंध अंधारा ॥१॥
मूलम्
परविरति मारगु जेता किछु होईऐ तेता लोग पचारा ॥ जउ लउ रिदै नही परगासा तउ लउ अंध अंधारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परविरति मारगु = दुनियसां के धंधों में व्यस्त रहने वाला जीवन-राह। मारगु = रास्ता। जेता = जितना ही। तेता = वह सारा ही। लोग पचारा = जगत को परचाने वाला, लोगों में अपनी इज्जत बनाए रखने वाला। जउ लउ = जब तक। परगासा = रौशनी। अंध अंधारा = घोर अंधेरा।1।
अर्थ: हे भाई! दुनिया के धंधों में व्यस्त रहने वाले जितने भी जीवन-राह हैं, ये सारे लोगों के अपनी इज्जत बनाए रखने वाले रास्ते हैं। जब तक (मनुष्य के) हृदय में (हरि-नाम की) रौशनी नहीं होती, तब तक (आत्मिक जीवन की तरफ से) घोर-अंधकार ही टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे धरती साधै बहु बिधि बिनु बीजै नही जांमै ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई है तुटै नाही अभिमानै ॥२॥
मूलम्
जैसे धरती साधै बहु बिधि बिनु बीजै नही जांमै ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई है तुटै नाही अभिमानै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जैसे = जिस तरह। साधै = साधता है, तैयार करता है। बहु बिधि = कई तरीकों से। जांमे = पैदा होता है, उगता। मुकति = विकारों से मुक्ति।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे (कोई किसान अपनी) जमीन को कई तरीकों से तैयार करता है, पर उस में बीज बीजे बिना कुछ भी नहीं उगता। (इसी तरह) परमात्मा का नाम (हृदय में बीजे) बिना मनुष्य को विकारों से निजात नहीं मिलती, उसके अंदर से अहंकार नहीं खत्म होता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीरु बिलोवै अति स्रमु पावै नैनू कैसे रीसै ॥ बिनु गुर भेटे मुकति न काहू मिलत नही जगदीसै ॥३॥
मूलम्
नीरु बिलोवै अति स्रमु पावै नैनू कैसे रीसै ॥ बिनु गुर भेटे मुकति न काहू मिलत नही जगदीसै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीरु = पानी। बिलोवै = मथता है। स्रमु = श्रम, मेहनत, थकावट। नैनू = मक्खन। कैसे रीजै = कैसे निकल सकता है? बिनु भेटे = मिले बिना। काहू = किसी को भी। जगदीसै = जगत के मालिक हरि को।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पानी को ही मथता रहता है वह सिर्फ थकावट ही मोल लेता है, (पानी के मथने से उसमें से) मक्खन नहीं निकल सकता। (वैसे ही) गुरु के मिले बिना किसी को भी मुक्ति (विकारों से खलासी) प्राप्त नहीं होती, मनुष्य परमात्मा को नहीं मिल सकता।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत इहै बीचारिओ सरब सुखा हरि नामा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जा कै लेखु मथामा ॥४॥११॥
मूलम्
खोजत खोजत इहै बीचारिओ सरब सुखा हरि नामा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जा कै लेखु मथामा ॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत = खोज करते हुए। इहै ही = यह ही। सरब = सारे। जा कै मथामा = जिसके माथे पर।4।
अर्थ: हे नानक! कह: खोज करते-करते (हमने) यही विचार की है कि परमात्मा का नाम (ही) सारे सुख देने वाला है। पर यह हरि-नाम उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे पर (हरि-नाम की प्राप्ति का) लेख (जागता) है।4।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अनदिनु राम के गुण कहीऐ ॥ सगल पदारथ सरब सूख सिधि मन बांछत फल लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अनदिनु राम के गुण कहीऐ ॥ सगल पदारथ सरब सूख सिधि मन बांछत फल लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। कहीऐ = आओ, भाई! कहा करें। सगल = सारे। सिधि = सिद्धियां। मन बांछत = मन मांगे। लहीऐ = आओ, भाई! प्राप्त करें।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! आओ, हम हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहें। (गुण-गान की इनायत से) हे भाई! आओ, सारे पदार्थ, सारे सुख, सारी सिद्धियां, सारे मन-माँगे फल हासिल करें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवहु संत प्रान सुखदाते सिमरह प्रभु अबिनासी ॥ अनाथह नाथु दीन दुख भंजन पूरि रहिओ घट वासी ॥१॥
मूलम्
आवहु संत प्रान सुखदाते सिमरह प्रभु अबिनासी ॥ अनाथह नाथु दीन दुख भंजन पूरि रहिओ घट वासी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! सिमरह = आओ, हम स्मरण करें। अनाथह नाथु = अनाथों के नाथ। दीन = गरीब। पूरि रहिओ = व्यापक है। घट वासी = सारे शरीर में बसने वाला।1।
अर्थ: हे संत जनो! आओ, हम प्राण-दाते सुख-दाते अविनाशी प्रभु (का नाम) स्मरण करें। वह प्रभु अनाथों का नाथ है, वह प्रभु गरीबों के दुखों का नाश करने वाला है, वह प्रभु सब जगह व्यापक है, वह प्रभु सारे शरीरों में मौजूद है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावत सुनत सुनावत सरधा हरि रसु पी वडभागे ॥ कलि कलेस मिटे सभि तन ते राम नाम लिव जागे ॥२॥
मूलम्
गावत सुनत सुनावत सरधा हरि रसु पी वडभागे ॥ कलि कलेस मिटे सभि तन ते राम नाम लिव जागे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। सरधा = श्रद्धा से। पी = पी के। वड भागै = बड़े भाग्यों वाले। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। सभि = सारे। ते = से। लिव = लगन। जागे = सचेत हो गए।2।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा के गुण श्रद्धा से गाते सुनते-सुनते परमात्मा का नाम-रस पी के बहुत भाग्यशाली बन जाया जाता हैं हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के (विकारों के हमलों से सदा) सचेत रहते हैं, उनके शरीर में से सारे झगड़े सारे दुख मिट जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु झूठु तजि निंदा हरि सिमरनि बंधन तूटे ॥ मोह मगन अहं अंध ममता गुर किरपा ते छूटे ॥३॥
मूलम्
कामु क्रोधु झूठु तजि निंदा हरि सिमरनि बंधन तूटे ॥ मोह मगन अहं अंध ममता गुर किरपा ते छूटे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। सिमरनि = स्मरण से। मोह मगन = मोह (के समुंदर) में डूबे रहना। अहं अंध = अहंकार में अंधे हुए रहना। ममता = अपनत्व। गुर किरपा ते = गुरु की कृपा से।3।
अर्थ: हे संत जनो! काम क्रोध झूठ निंदा छोड़ के परमात्मा का नाम स्मरण से (मनुष्य के अंदर से माया के मोह की सारी) फाहियां टूट जाती हैं। मोह में डूबे रहना, अहंकार में अंधे हुए रहना, माया के कब्जे की लालसा- यह सारे गुरु की कृपा से (मनुष्य के अंदर से) खत्म हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू समरथु पारब्रहम सुआमी करि किरपा जनु तेरा ॥ पूरि रहिओ सरब महि ठाकुरु नानक सो प्रभु नेरा ॥४॥१२॥
मूलम्
तू समरथु पारब्रहम सुआमी करि किरपा जनु तेरा ॥ पूरि रहिओ सरब महि ठाकुरु नानक सो प्रभु नेरा ॥४॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथु = सारी ताकतों का मालिक। पारब्रहम = हे पारब्रहम! सुआमी = हे स्वामी! जनु = सेवक। सरब महि = सारे जीवों में। नानक = हे नानक! नेरा = (सबके) नजदीक।4।
अर्थ: हे पारब्रहम! हे स्वामी! तू सब ताकतों का मालिक है (मेरे पर) मेहर कर (मुझे अपने नाम जपने की ख़ैर दे, मैं) तेरा दास हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) मालिक-प्रभु सब जीवों में व्यापक है, वह प्रभु सबके नजदीक बसता है।4।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ बलिहारी गुरदेव चरन ॥ जा कै संगि पारब्रहमु धिआईऐ उपदेसु हमारी गति करन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ बलिहारी गुरदेव चरन ॥ जा कै संगि पारब्रहमु धिआईऐ उपदेसु हमारी गति करन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारी = सदके, कुर्बान। जा कै संगि = जिस (गुरु) की संगति में। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मैं अपने) गुरु के चरणों से बलिहार जाता हूँ, जिसका उपदेश हम जीवों की ऊँची आत्मि्क दशा बना देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूख रोग भै सगल बिनासे जो आवै हरि संत सरन ॥ आपि जपै अवरह नामु जपावै वड समरथ तारन तरन ॥१॥
मूलम्
दूख रोग भै सगल बिनासे जो आवै हरि संत सरन ॥ आपि जपै अवरह नामु जपावै वड समरथ तारन तरन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै सगल = सारे डर, भय। अवरह = और लोगों को। तरन = बेड़ी, नाव।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हरि के संत गुरदेव की शरण पड़ता है, उसके सारे दुख सारे रोग सारे डर नाश हो जाते हैं। वह मनुष्य बड़ी सामर्थ्य वाले हरि का, सबको संसार-समुंदर से पार लंघाने योग्य हरि का नाम स्वयं जपता है व और लोगों को जपाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा को मंत्रु उतारै सहसा ऊणे कउ सुभर भरन ॥ हरि दासन की आगिआ मानत ते नाही फुनि गरभ परन ॥२॥
मूलम्
जा को मंत्रु उतारै सहसा ऊणे कउ सुभर भरन ॥ हरि दासन की आगिआ मानत ते नाही फुनि गरभ परन ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ज के मंत्रु = जिस (गुरु) का उपदेश। सहसा = सहम। ऊणे कउ = आत्मिक जीवन से वंचित को। सुभर करन = नाको नाक भर देता है। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। फुनि = दोबारा।2।
अर्थ: हे भाई! (मैं अपने गुरु के चरणों से बलिहार जाता हूँ) जिसका उपदेश मनुष्य का सहम दूर कर देता है जो गुरु आत्मिक जीवन से वंचित मनुष्यों को नाको-नाक भर देता है। (हे भाई!) जो मनुष्य हरि के दासों की रज़ा में चलते हैं, वे दोबारा जनम-मरन के चक्करों में नहीं पड़ते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगतन की टहल कमावत गावत दुख काटे ता के जनम मरन ॥ जा कउ भइओ क्रिपालु बीठुला तिनि हरि हरि अजर जरन ॥३॥
मूलम्
भगतन की टहल कमावत गावत दुख काटे ता के जनम मरन ॥ जा कउ भइओ क्रिपालु बीठुला तिनि हरि हरि अजर जरन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त के = उनके। जा कउ = जिस मनुष्य पर। बीठुला = विष्ठुल, माया के प्रभाव से परे रहने वाला। तिनि = उस (मनुष्य) ने। हरि अजर = जरा रहित हरि को। जरन = (हृदय में) परो लिया।3।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों की सेवा करते हुए परमात्मा के गुण गाते हुए (गुरु) उनके जनम-मरण के सारे दुख काट देता है। (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य पर माया से निर्लिप प्रभु दयावान होता है, उस मनुष्य ने सदा जवान रहने वाले (जरा रहि अर्थात जिसे बुढ़ापा नहीं आता, उस) परमात्मा को अपने हृदय में बसा लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रसहि अघाने सहजि समाने मुख ते नाही जात बरन ॥ गुर प्रसादि नानक संतोखे नामु प्रभू जपि जपि उधरन ॥४॥१३॥
मूलम्
हरि रसहि अघाने सहजि समाने मुख ते नाही जात बरन ॥ गुर प्रसादि नानक संतोखे नामु प्रभू जपि जपि उधरन ॥४॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि रसहि = हरि के नाम रस से। अघाने = तृप्त हो गए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मुख ते = मुँह से। जात बरन = बयान किए जा सकते। प्रसादि = कृपा से। संतोखे = संतोषी हो गए। जपि = जप के। उधरन = संसार समुंदर से पार लांघ गए।4।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य ने गुरु की कृपा से परमात्मा के नाम-रस से तृप्त हो जाते हैं, आत्मिक अडोलता में लीन हो जाते हैं (उनकी ऊँची आत्मिक अवस्था) मुँह से बयान नहीं की जा सकती। वे मनुष्य प्रभु का नाम ज पके संतोषी जीवन वाले हो जाते हैं, वे मनुष्य प्रभु का नाम ज पके संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ गाइओ री मै गुण निधि मंगल गाइओ ॥ भले संजोग भले दिन अउसर जउ गोपालु रीझाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ गाइओ री मै गुण निधि मंगल गाइओ ॥ भले संजोग भले दिन अउसर जउ गोपालु रीझाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: री = हे बहिन! (स्त्रीलिंग)। गुणनिधि = गुणों का खजाना प्रभु। मंगल = महिमा के गीत, खुशी के गीत। संजोग = मिलाप के सबब। अउसर = समय। जउ = जब। गोपालु = सृष्टि का पालनहार प्रभु। रीझाइओ = प्रसन्न कर लिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे बहिन! (प्राणों के लिए वह) भले सबब होते हैं, भाग्यशाली दिन होते हैं, सुंदर समय होते हैं, जब (कोई जिंद) सृष्टि के पालनहार प्रभु को प्रसन्न कर ले। हे बहिन! मैं भी उस गुणों के खजाने प्रभु के महिमा के गीत गा रही हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतह चरन मोरलो माथा ॥ हमरे मसतकि संत धरे हाथा ॥१॥
मूलम्
संतह चरन मोरलो माथा ॥ हमरे मसतकि संत धरे हाथा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोरलो = मेरा। मसतकि = माथे पर।1।
अर्थ: हे बहिन! मेरा माथा अब संतजनों के चरणों पर है, मेरे माथे पर संत-जनों ने अपने हाथ रखे हैं- (मेरे लिए यह बहुत भाग्यशाली समय है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधह मंत्रु मोरलो मनूआ ॥ ता ते गतु होए त्रै गुनीआ ॥२॥
मूलम्
साधह मंत्रु मोरलो मनूआ ॥ ता ते गतु होए त्रै गुनीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंत्रु = उपदेश। ता ते = उस (उपदेश) से। गतु होए = दूर हो गए। त्रै गुनीआ = माया के तीन गुण।2।
अर्थ: हे बहिन! गुरु का उपदेश मेरे अंजान मन में आ बसा है, उसकी इनायत से (मेरे अंदर से) माया के तीनों ही गुणों का प्रभाव दूर हो गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगतह दरसु देखि नैन रंगा ॥ लोभ मोह तूटे भ्रम संगा ॥३॥
मूलम्
भगतह दरसु देखि नैन रंगा ॥ लोभ मोह तूटे भ्रम संगा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = देख के। नैन = खोल के। रंगा = प्रेम। संगा = साथ।3।
अर्थ: हे बहिन! संतजनों के दर्शन करके मेरी आँखों में (ऐसा) प्रेम पैदा हो गया है कि लोभ मोह भटकना का साथ (मेरे अंदर से) समाप्त हो गया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक सुख सहज अनंदा ॥ खोल्हि भीति मिले परमानंदा ॥४॥१४॥
मूलम्
कहु नानक सुख सहज अनंदा ॥ खोल्हि भीति मिले परमानंदा ॥४॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। खोल्हि = खोल् के। भीति = दीवार, पर्दा। परमानंदा = सबसे ऊँचे आनन्द का मालिक प्रभु।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे बहिन! मेरे अंदर से अहंकार की) दीवार तोड़ के सबसे ऊँचे आनंद के मालिक-प्रभु जी मुझे मिल गए हैं (अब मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने हुए हैं।4।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैसे कहउ मोहि जीअ बेदनाई ॥ दरसन पिआस प्रिअ प्रीति मनोहर मनु न रहै बहु बिधि उमकाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कैसे कहउ मोहि जीअ बेदनाई ॥ दरसन पिआस प्रिअ प्रीति मनोहर मनु न रहै बहु बिधि उमकाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ बेदनाई = दिल की पीड़ा। मोहि = मैं। पिआस = तमन्ना। मनोहर = मन को मोह लेने वाला। प्रिअ मनोहर प्रीति = मन को मोह लेने वाले प्यारे (हरि) की प्रीत। न रहै = टिकता नहीं, धीरज नहीं आता। बहु बिधि = कई तरीकों से। उमकाई = उमंग में आता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे वीर! मैं अपने दिल की पीड़ा कैसे बगयान करूँ? (नहीं बयान कर सकती)। मेरे अंदर मन को मोह लेने वाले प्यारे प्रभु की प्रीति है उसके दर्शनों की तमन्ना है (दर्शन के बिना मेरा) मन धीरज नहीं धरता, (मेरे अंदर) कई तरीकों से उमंग उठ रही है।1। रहाउ।
[[1207]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितवनि चितवउ प्रिअ प्रीति बैरागी कदि पावउ हरि दरसाई ॥ जतन करउ इहु मनु नही धीरै कोऊ है रे संतु मिलाई ॥१॥
मूलम्
चितवनि चितवउ प्रिअ प्रीति बैरागी कदि पावउ हरि दरसाई ॥ जतन करउ इहु मनु नही धीरै कोऊ है रे संतु मिलाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चितवनि = सोच। चितवउ = मैं सोचती हूँ। बैरागी = वैरागनि होई हुई। कदि = कब? पावउ = पाऊँ, मैं पाऊँगी। करउ = करूँ, मैं करती हूँ। नही धीरै = धीरज नहीं करता। रे = हे भाई! (पुलिंग)।1।
अर्थ: हे वीर! मैं प्यार की प्रीति से वैरागनि होई हुई हूँ, मैं (हर समय यह) सोच सोचती रहती हूँ कि मैं हरि के दर्शन कब करूँगी। (इस मन को धीरज देने के लिए) मैं प्रयत्न करती रहती हूँ, पर ये मन धैर्य नहीं धरता। हे वीर! कोई ऐसा भी संत है जो मुझे प्रभु से मिला दे?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप संजम पुंन सभि होमउ तिसु अरपउ सभि सुख जांई ॥ एक निमख प्रिअ दरसु दिखावै तिसु संतन कै बलि जांई ॥२॥
मूलम्
जप तप संजम पुंन सभि होमउ तिसु अरपउ सभि सुख जांई ॥ एक निमख प्रिअ दरसु दिखावै तिसु संतन कै बलि जांई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को वश में करने के साधन। पुंन = निहित हुए धार्मिक कम्र, पुण्य। सभि = सारे। होमउ = मैं भेंट कर दूँगी। अरपउ = मैं दे दूँगी। सुख जांई = सुखों केी जगह। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। तिसु संतन कै = उस (प्रभु) के संतों से। बलि जांई = मैं सदके जाती हूँ।2।
अर्थ: हे वीर! यदि कोई आँख झपकने जितने समय के लिए ही मुझे प्यारे के दर्शन करवा दे, तो मैं उस प्यारे के उन संतों के सदके कुर्बान जाऊँ। हे वीर! मैं सारे जप सारे तप सारे संजम सारे पुण्य कुर्बान कर दूँ, सारे सुखों के साधन (प्यारे-प्रभु से मिलने के लिए संत के आगे) भेटा रख दूँगी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउ निहोरा बहुतु बेनती सेवउ दिनु रैनाई ॥ मानु अभिमानु हउ सगल तिआगउ जो प्रिअ बात सुनाई ॥३॥
मूलम्
करउ निहोरा बहुतु बेनती सेवउ दिनु रैनाई ॥ मानु अभिमानु हउ सगल तिआगउ जो प्रिअ बात सुनाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहोरा = तरला, मिन्नत। सेवउ = सेवा करूँ, मैं सेवा करूँगी। रैनाई = रात। हउ = मैं। तिआगउ = मैं छोड़ दूँगी। सुनाई = सुनाए, सुनाएगा।3।
अर्थ: हे वीर! जो कोई संत मुझे प्यारे प्रभु की महिमा की बात सुनाए, मैं उसके आगे अपना सारा मान अहंकार त्याग दूँगी। मैं उसके आगे बहुत तरला करूँगी, विनती करूँगी, मैं दिन-रात उसकी सेवा करूँगी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि चरित्र भई हउ बिसमनि गुरि सतिगुरि पुरखि मिलाई ॥ प्रभ रंग दइआल मोहि ग्रिह महि पाइआ जन नानक तपति बुझाई ॥४॥१॥१५॥
मूलम्
देखि चरित्र भई हउ बिसमनि गुरि सतिगुरि पुरखि मिलाई ॥ प्रभ रंग दइआल मोहि ग्रिह महि पाइआ जन नानक तपति बुझाई ॥४॥१॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = देख के। चरित्र = करिश्मा, तमाशा। बिसमनि = हैरान। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। पुरखि = प्रभु में। रंग = प्रेम स्वरूप। ग्रिह महि = हृदय घर में। तपति = जलन, तपश।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे वीर!) मैं यह करिश्मा देख के हैरान हो गई कि गुरु ने सतिगुरु ने मुझे अकाल-पुरख (के चरणों) में जोड़ दिया। दया का श्रोत प्यार-स्वरूप परमात्मा मैंने अपने हृदय-घर में पा लिया, (और, मेरे अंदर से माया वाली सारी) तपश मिट गई।4।1।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ रे मूड़्हे तू किउ सिमरत अब नाही ॥ नरक घोर महि उरध तपु करता निमख निमख गुण गांही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ रे मूड़्हे तू किउ सिमरत अब नाही ॥ नरक घोर महि उरध तपु करता निमख निमख गुण गांही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! अब = इस मनुष्य जनम में, अब। घोर = भयानक। उरध = उल्टा, उल्टा लटक के। निमख = आँख झपकने जितना समय। निमख निमख = पल पल, हर वक्त। गांही = तू गाता था।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! अब (जनम ले के) तू क्यों परमात्मा को नहीं स्मरण करता? (जब) तू भयानक नर्क (जैसे माँ के पेट) में (था तब तू) उल्टा (लटका हुआ) तप करता था, (वहाँ तू) हर वक्त परमात्मा के गुण गाता था।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जनम भ्रमतौ ही आइओ मानस जनमु दुलभाही ॥ गरभ जोनि छोडि जउ निकसिओ तउ लागो अन ठांही ॥१॥
मूलम्
अनिक जनम भ्रमतौ ही आइओ मानस जनमु दुलभाही ॥ गरभ जोनि छोडि जउ निकसिओ तउ लागो अन ठांही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमतो = भटकता। दुलभाही = दुर्लभ। छोडि = छोड़ के। जउ = जब। निकसिओ = निकला, जगत में आया। तउ = तब। अन = अन्य, और। अन ठांही = और जगह।1।
अर्थ: हे मूर्ख! तू अनेक ही जन्मों में भटकता आया है। अब तुझे दुर्लभ मनुष जन्म मिला है। पर माँ का पेट छोड़ के जब तू जगत में आ गया, तब तू (स्मरण को छोड़ के) और-और जगहों में व्यस्त हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहि बुराई ठगाई दिनु रैनि निहफल करम कमाही ॥ कणु नाही तुह गाहण लागे धाइ धाइ दुख पांही ॥२॥
मूलम्
करहि बुराई ठगाई दिनु रैनि निहफल करम कमाही ॥ कणु नाही तुह गाहण लागे धाइ धाइ दुख पांही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रहि = तू करता है, करे। रैनि = रात। कमाही = तू कमाता है। निहफल = जिनसे कोई फल नहीं मिलता। कणु = दाने। तुह = दानों से खाली ऊपर के छिल्लड़। धाइ धाइ = दौड़ दौड़ के। पांही = पाते हैं।2।
अर्थ: हे मूर्ख! तू दिन-रात बुराईयाँ करता है, ठगीयां करता है, तू सदा वही काम करता रहता है जिनसे कुछ भी हाथ नहीं आता। (देख, जो किसान उन) तूहों को गाहते रहते हैं, जिनमें दाने नहीं होते, वे दौड़-दौड़ के दुख (ही) पाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिआ संगि कूड़ि लपटाइओ उरझि परिओ कुसमांही ॥ धरम राइ जब पकरसि बवरे तउ काल मुखा उठि जाही ॥३॥
मूलम्
मिथिआ संगि कूड़ि लपटाइओ उरझि परिओ कुसमांही ॥ धरम राइ जब पकरसि बवरे तउ काल मुखा उठि जाही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = नाशवान (माया)। संगि = साथ। कूड़ि = झूठ में, नाशवान जगत में। कुसमांही = फूलों में, कुसुंभ के फूलों में। जब = जिस समय। पकरसि = पकड़ेगा। बवरे = हे कमले! काल मुखा = काले मुँह वाला। उठि = उठ के। जाही = तू जाएगा।3।
अर्थ: हे कमले! तू नाशवान माया के संग नाशवान जगत के साथ चिपका रहता है, तू कुसंभ के फूलों के साथ ही प्यार डाले बैठा है। जब तुझे धर्मराज आ के पकड़ेगा (जब मौत आ गई) तब (बुरे कामों की) कालिख़ ही मुँह पर लगवा के (यहाँ से) चला जाएगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो मिलिआ जो प्रभू मिलाइआ जिसु मसतकि लेखु लिखांही ॥ कहु नानक तिन्ह जन बलिहारी जो अलिप रहे मन मांही ॥४॥२॥१६॥
मूलम्
सो मिलिआ जो प्रभू मिलाइआ जिसु मसतकि लेखु लिखांही ॥ कहु नानक तिन्ह जन बलिहारी जो अलिप रहे मन मांही ॥४॥२॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो = वह (मनुष्य) ही। जो = जिस मनुष्य को। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। नानक = हे नानक! जो = जो मनुष्य। अलिप = अलिप्त, निर्लिप। मांही = में।4।
अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) वह मनुष्य (ही परमात्मा को) मिलता है जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं मिलाता है, जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभु-मिलाप के) लेख लिखे होते हैं। हे नानक! कह: मैं उन मनुष्यों से कुर्बान जाता हूँ, जो (प्रभु-मिलाप की इनायत से) मन में (माया से) निर्लिप रहते हैं।4।2।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ किउ जीवनु प्रीतम बिनु माई ॥ जा के बिछुरत होत मिरतका ग्रिह महि रहनु न पाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ किउ जीवनु प्रीतम बिनु माई ॥ जा के बिछुरत होत मिरतका ग्रिह महि रहनु न पाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किउं = कैसे? नहीं हो सकता। जीवनु = आत्मिक जीवन। प्रीतम बिनु = प्यारे प्रभु (की याद) के बिना। माई = हे माँ? बिछुरत = बिछुड़ने से। मिरतका = मुरदा। ग्रिह = घर।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! जिस परमात्मा की ज्योति शरीर से विछुड़ने से शरीर मुर्दा हो जाता है, (और मुर्दा शरीर) घर में टिका नहीं रह सकता, उस प्रीतम प्रभु की याद के बिना आत्मिक जीवन हासिल नहीं हो सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ हींअ प्रान को दाता जा कै संगि सुहाई ॥ करहु क्रिपा संतहु मोहि अपुनी प्रभ मंगल गुण गाई ॥१॥
मूलम्
जीअ हींअ प्रान को दाता जा कै संगि सुहाई ॥ करहु क्रिपा संतहु मोहि अपुनी प्रभ मंगल गुण गाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ को दाता = जिंद का दाता। हींअ को दाता = हृदय का देने वाला। प्रान को दाता = प्राणों का देने वाला। जा कै संगि = जिसके साथ, जिसकी ज्योति शरीर में होते हुए। सुहाई = (शरीर) सुंदर लगता है। संतहु = हे संत जनो! मंगल = महिमा के गीत। गाई = मैं गाऊँ।1।
अर्थ: हे संत जनो! मेरे पर अपनी मेहर करो, मैं उस परमात्मा के गुण महिमा के गीत गाता रहूँ, जो (सब जीवों को) जिंद (प्राण) देने वाला है हृदय देने वाला है प्राण देने वाला है, और, जिसकी संगति में ही (यह शरीर) सुंदर लगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन संतन के माथे मेरे ऊपरि नैनहु धूरि बांछाईं ॥ जिह प्रसादि मिलीऐ प्रभ नानक बलि बलि ता कै हउ जाई ॥२॥३॥१७॥
मूलम्
चरन संतन के माथे मेरे ऊपरि नैनहु धूरि बांछाईं ॥ जिह प्रसादि मिलीऐ प्रभ नानक बलि बलि ता कै हउ जाई ॥२॥३॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैनहु = आँखों में। धूरि = (संतों के चरणों की) धूल। बांछाई = मैं (लगानी) चाहता हूँ। जिह प्रसादि = जिस (गुरु) की कृपा से। बलि बलि ता कै = उस से सदा कुर्बान। हउ = मैं। जाई = जाईं, मैं जाता हूँ।2।
अर्थ: हे माँ! मेरी तमन्ना है कि संत जनों के चरण मेरे माथे पर टिके रहें, संत-जनों के चरणों की धूल मेरी आँखों को लगती रहे। हे नानक! (कह:) जिस संत-जनों की कृपा से परमात्मा को मिला जा सकता है, मैं उनसे सदके जाता हूँ।2।3।! 7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ उआ अउसर कै हउ बलि जाई ॥ आठ पहर अपना प्रभु सिमरनु वडभागी हरि पांई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ उआ अउसर कै हउ बलि जाई ॥ आठ पहर अपना प्रभु सिमरनु वडभागी हरि पांई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउसर = अवसर, समय, मौका। उआ अउसर कै = उस समय से। हउ = मैं। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। वडभागी = बड़े भाग्यों से। पांई = मैं पा लिया है, मैंने ढूँढ लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं उस अवसर के सदके जाता हूँ (जब मुझे संत जनों की संगति प्राप्त हुई)। (अब मुझे) आठों पहर अपने प्रभु का स्मरण (मिल गया है), और बहुत भाग्यों से मैंने हरि को पा लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भलो कबीरु दासु दासन को ऊतमु सैनु जनु नाई ॥ ऊच ते ऊच नामदेउ समदरसी रविदास ठाकुर बणि आई ॥१॥
मूलम्
भलो कबीरु दासु दासन को ऊतमु सैनु जनु नाई ॥ ऊच ते ऊच नामदेउ समदरसी रविदास ठाकुर बणि आई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भलो = अच्छा, श्रेष्ठ। को = का। दासु दासन को = दासों का दास। जनु = दास। ते = से। समदरसी = (सबको) एक सी निगाह से देखने वाला, सबमें एक ही की ज्योति देखने वाला। बणि आई = प्रीत बन गई।1।
अर्थ: हे भाई! कबीर (परमात्मा के) दासों का दास बन के भला बन गया, सैण नाई संत जनों का दास बन के उत्तम जीवन वाला हो गया। (संत जनों की संगत से) नामदेव ऊँचे से ऊँचे जीवन वाला बना, और सबमें परमात्मा की ज्योति देखने वाला बन गया, (संत जनों की कृपा से ही) रविदास की परमात्मा से प्रीति बन गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ पिंडु तनु धनु साधन का इहु मनु संत रेनाई ॥ संत प्रतापि भरम सभि नासे नानक मिले गुसाई ॥२॥४॥१८॥
मूलम्
जीउ पिंडु तनु धनु साधन का इहु मनु संत रेनाई ॥ संत प्रतापि भरम सभि नासे नानक मिले गुसाई ॥२॥४॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। साधन का = संत जनों का। रेनाई = चरण धूल। संत प्रतापि = संतों के प्रताप से। सभि = सारे। गुसाई = धरती का पति।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मेरी यह जिंद, मेरा यह शरीर, ये तन, ये धन - सब कुछ संत जनों का हो चुका है, मेरा यह मन संत जनों के चरणों की धूल बना रहता है। संत जनों के प्रताप से सारे भ्रम नाश हो जाते हैं और जगत का पति प्रभु मिल जाता है।2।4।18।
[[1208]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मनोरथ पूरे सतिगुर आपि ॥ सगल पदारथ सिमरनि जा कै आठ पहर मेरे मन जापि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मनोरथ पूरे सतिगुर आपि ॥ सगल पदारथ सिमरनि जा कै आठ पहर मेरे मन जापि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनोरथ = गरज़, जरूरतें। पूरे = पूरी करता है। सगल = सारे। सिमरनि जा कै = जिसके स्मरण से। मन = हे मन!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस परमात्मा के नाम-जपने की इनायत से सारे पदार्थ मिलते हैं (गुरु की शरण पड़ करी) आठों पहर उसका नाम जपा कर (शरण पड़े मनुष्य की) सारी आवश्यक्ताएं गुरु स्वयं पूरी करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु सुआमी तेरा जो पीवै तिस ही त्रिपतास ॥ जनम जनम के किलबिख नासहि आगै दरगह होइ खलास ॥१॥
मूलम्
अम्रित नामु सुआमी तेरा जो पीवै तिस ही त्रिपतास ॥ जनम जनम के किलबिख नासहि आगै दरगह होइ खलास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। पीवै = पीता है (एकवचन)। त्रिपतास = तृप्ति, शांति। किलबिख = पाप। नासहि = (बहुवचन) नाश हो जाते हैं। आगै = परलोक में। खलास = खत्म, आजाद, निजात, मुक्ति।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मालिक प्रभु! तेरा नाम आत्मिक-जीवन वाला है, जो मनुष्य (यह नाम जल) पीता है, उसको शांति मिलती है, उसके अनेक जन्मों के पाप नाश हो जाते हैं, आगे (तेरी) हजूरी में उसको मुक्ति हासिल होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनि तुमारी आइओ करते पारब्रहम पूरन अबिनास ॥ करि किरपा तेरे चरन धिआवउ नानक मनि तनि दरस पिआस ॥२॥५॥१९॥
मूलम्
सरनि तुमारी आइओ करते पारब्रहम पूरन अबिनास ॥ करि किरपा तेरे चरन धिआवउ नानक मनि तनि दरस पिआस ॥२॥५॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! पूरन = हे सर्व व्यापक! धिआवउ = मैं ध्याऊँ। नानक मनि तनि = नानक के मन में तन में। पिआस = तमन्ना।2।
अर्थ: हे कर्तार! हे पारब्रहम! हे सर्व-व्यापक! हे नाश-रहित! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेहर कर, मैं (सदा) तेरे चरणों में ध्यान धरता रहूँ, मुझ नानक के मन में हृदय में (तेरे) दर्शन की तमन्ना है।2।5।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन कहा लुभाईऐ आन कउ ॥ ईत ऊत प्रभु सदा सहाई जीअ संगि तेरे काम कउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन कहा लुभाईऐ आन कउ ॥ ईत ऊत प्रभु सदा सहाई जीअ संगि तेरे काम कउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! कहा लुभाईऐ = लोभ में नहीं फसना चाहिए। आन कउ = और-और पदार्थों के लिए। ईत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। सहाई = मदद करने वाला। जीअ संगि = जिंद के साथ (रहने वाला)। काम कउ = काम आने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! और-और पदार्थों की खातिर लोभ में नहीं फसना चाहिए। इस लोक में और परलोक में परमात्मा (ही) सदा सहायता करने वाला है, और, जिंद के साथ रहने वाला है। हे मन! वह प्रभु ही तेरी काम आने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु प्रिअ प्रीति मनोहर इहै अघावन पांन कउ ॥ अकाल मूरति है साध संतन की ठाहर नीकी धिआन कउ ॥१॥
मूलम्
अम्रित नामु प्रिअ प्रीति मनोहर इहै अघावन पांन कउ ॥ अकाल मूरति है साध संतन की ठाहर नीकी धिआन कउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। प्रिअ प्रीति मनोहर = मन को मोहने वाली प्यारे की प्रीति। इहै = यह ही। अघावन कउ = तृप्ति देने के लिए। पांन = पीना। ठाहर = जगह। नीकी = अच्छी, सुंदर। अकाल मूरति धिआन कउ = अकाल मूरति प्रभु का ध्यान धरने के लिए।1।
अर्थ: हे भाई! मन को मोहने वाले प्यारे प्रभु की प्रीति, प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल - यह ही पीना तृप्ति देने के लिए है। हे भाई! अकाल-मूरति प्रभु का ध्यान धरने के लिए साधु-संगत ही सुंदर जगह है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणी मंत्रु महा पुरखन की मनहि उतारन मांन कउ ॥ खोजि लहिओ नानक सुख थानां हरि नामा बिस्राम कउ ॥२॥१॥२०॥
मूलम्
बाणी मंत्रु महा पुरखन की मनहि उतारन मांन कउ ॥ खोजि लहिओ नानक सुख थानां हरि नामा बिस्राम कउ ॥२॥१॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंत्रु = उपदेश। मनहि मान उतारन कउ = मन का माण दूर करने के लिए। खोजि = खोज के। लहिओ = मिला है। बिस्राम = ठिकाना।2।
अर्थ: हे भाई! महापुरुषों की वाणी, महापुरुखों का उपदेश ही मन का मान दूर करने में समर्थ है। हे नानक! (कह: हे भाई!) आत्मिक शांति के लिए परमात्मा का नाम ही सुखों की जगह है (यह जगह साधु-संगत में) खोज करने से मिलती है।2।1।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मन सदा मंगल गोबिंद गाइ ॥ रोग सोग तेरे मिटहि सगल अघ निमख हीऐ हरि नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मन सदा मंगल गोबिंद गाइ ॥ रोग सोग तेरे मिटहि सगल अघ निमख हीऐ हरि नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! मंगल = महिमा के गीत। गाइ = गाया कर। सयोग = ग़म। अघ = पाप। निमख = आँख झपकने जितना समय। हीऐ = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर। हे भाई! अगर तू आँख झपकने जितने समय के लिए हृदय में हरि का नाम स्मरण करे, तो तेरे सारे रोग सारी चिन्ता-फिक्र सारे पाप दूर हो जाएं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि सिआनप बहु चतुराई साधू सरणी जाइ पाइ ॥ जउ होइ क्रिपालु दीन दुख भंजन जम ते होवै धरम राइ ॥१॥
मूलम्
छोडि सिआनप बहु चतुराई साधू सरणी जाइ पाइ ॥ जउ होइ क्रिपालु दीन दुख भंजन जम ते होवै धरम राइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। जाइ पाइ = जा पड़। जउ = जब। दीन = गरीब। भंजन = नाश करने वाला। ते = से। धरमराइ = धर्मराज।1।
अर्थ: हे भाई! अपनी बहुत चतुराई-समझदारी छोड़ के (यह ख्याल दूर कर के कि तू बहुत समझदार और बुद्धिमान है) गुरु की शरण जा पड़। जब गरीबों का दुख नाश करने वाला प्रभु (किसी पर) दयावान होता है, तो (उस मनुष्य के लिए) जमराज से धर्मराज बन जाता है (पवरलोक में मनुष्य को जमों का कोई डर नहीं रह जाता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस बिनु नाही को दूजा आन न बीओ लवै लाइ ॥ मात पिता भाई नानक को सुखदाता हरि प्रान साइ ॥२॥२॥२१॥
मूलम्
एकस बिनु नाही को दूजा आन न बीओ लवै लाइ ॥ मात पिता भाई नानक को सुखदाता हरि प्रान साइ ॥२॥२॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकस बिनु = एक परमात्मा के बिना। आन = अन्य, और। बीओ = दूसरा। लवै लाइ = बराबरी कर सकता। को = का। सुख दाता = सुख देने वाला। साइ = वह (हरि) ही।2।
अर्थ: हे भाई! एक परमात्मा के बिना कोई और (हम जीवों का रखवाला) नहीं है, कोई और दूसरा उस परमात्मा की बराबरी नहीं कर सकता। नानक का तो वह परमात्मा ही माता-पिता-भाई और प्राणों को सुख देने वाला है।2।2।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि जन सगल उधारे संग के ॥ भए पुनीत पवित्र मन जनम जनम के दुख हरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि जन सगल उधारे संग के ॥ भए पुनीत पवित्र मन जनम जनम के दुख हरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के संत जन, हरि के जन। सगल = सारे। उधारे = संसार समुंदर से पार लंघा लेते हैं। संग के = अपने साथ के। पुनीत = सच्चे जीवन वाले। हरे = दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के संतजन (अपने) साथ बैठने वाले सभी को संसार-समुंदर से पार लंघा लेते हैं। (संतजनों की संगति करने वाले मनुष्य) पवित्र मन वाले ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं, उनके अनेक जन्मों के दुख दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारगि चले तिन्ही सुखु पाइआ जिन्ह सिउ गोसटि से तरे ॥ बूडत घोर अंध कूप महि ते साधू संगि पारि परे ॥१॥
मूलम्
मारगि चले तिन्ही सुखु पाइआ जिन्ह सिउ गोसटि से तरे ॥ बूडत घोर अंध कूप महि ते साधू संगि पारि परे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारगि = रास्ते पर। सिउ = साथ। गोसटि = बैठना उठना, विचार चर्चा। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। तरे = पार लांघ गए। घोर अंध कूप महि = घोर अंधेरे कूएं में। ते = वे (बहुवचन)। साधू संगि = साधु-संगत में।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (साधु-संगत के) रास्ते पर चलते हें, वे सुख-आनंद पाते हैं, जिनपके साथ संत जनों का उठना-बैठना हो जाता है वे (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। जो मनुष्य (माया के मोह के) घोर अंधेरे कूएँ में डूबे रहते हैं वे भी साधु-संगत की इनायत से पार लांघ जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह के भाग बडे है भाई तिन्ह साधू संगि मुख जुरे ॥ तिन्ह की धूरि बांछै नित नानकु प्रभु मेरा किरपा करे ॥२॥३॥२२॥
मूलम्
जिन्ह के भाग बडे है भाई तिन्ह साधू संगि मुख जुरे ॥ तिन्ह की धूरि बांछै नित नानकु प्रभु मेरा किरपा करे ॥२॥३॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई = हे भाई! तिन्ह मुख = उनके मुँह। जुरे = जुड़ते हैं। धूरि = चरण धूल। बांछै = मांगता है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के अहो भाग्य (जागते) हैं, उनके मुँह साधु-संगत में जुड़ते हैं (वे मनुष्य साधु-संगत में सत्संगियों के साथ मिलते हैं)। नानक उनके चरणों की धूल सदा माँगता है (पर, यह तब ही मिल सकती है, जब) मेरा प्रभु मेहर करे।2।3।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि जन राम राम राम धिआंए ॥ एक पलक सुख साध समागम कोटि बैकुंठह पांए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि जन राम राम राम धिआंए ॥ एक पलक सुख साध समागम कोटि बैकुंठह पांए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त। धिआंए = ध्याते हैं। समागम = इकट्ठ। कोटि = करोड़ों। पांए = पा लेते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं। साधु-संगत के पल भर के सुख (को ऐसे समझते हैं कि) करोड़ों बैकुंठ हासिल कर लिए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुलभ देह जपि होत पुनीता जम की त्रास निवारै ॥ महा पतित के पातिक उतरहि हरि नामा उरि धारै ॥१॥
मूलम्
दुलभ देह जपि होत पुनीता जम की त्रास निवारै ॥ महा पतित के पातिक उतरहि हरि नामा उरि धारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जप के। पुनीता = पवित्र। त्रास = डर। निवारै = दूर करता है। पतित = विकारी, पापों में गिरा हुआ। पातिक = पाप। उतरहि = उतर जाते हैं। उरि = हृदय में। धारै = बसाता है। देह = शरीर।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाता है, नाम ज पके उसका दुर्लभ मनुष्य-शरीर पवित्र हो जाता है, (नाम उसके अंदर से) जमों का डर दूर कर देता है। हे भाई! नाम की इनायत से बड़े-बड़े विकारियों के पाप उतर जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो सुनै राम जसु निरमल ता का जनम मरण दुखु नासा ॥ कहु नानक पाईऐ वडभागीं मन तन होइ बिगासा ॥२॥४॥२३॥
मूलम्
जो जो सुनै राम जसु निरमल ता का जनम मरण दुखु नासा ॥ कहु नानक पाईऐ वडभागीं मन तन होइ बिगासा ॥२॥४॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = यश, महिमा। ता का = उस (मनुष्य) का। नासा = नाश हो जाता है। बिगासा = खिड़ाव।2।
अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य परमात्मा की पवित्र महिमा सुनता है, उसका सारी उम्र का दुख नाश हो जाता है। हे नानक! कह: (यह महिमा) बहुत भाग्यों से मिलती है (जिनको मिलती है उनके) मनों में तनों में खिड़ाव पैदा हो जाता है।2।4।23।
[[1209]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ दुपदे घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ५ दुपदे घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन घरि आवहु करउ जोदरीआ ॥ मानु करउ अभिमानै बोलउ भूल चूक तेरी प्रिअ चिरीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मोहन घरि आवहु करउ जोदरीआ ॥ मानु करउ अभिमानै बोलउ भूल चूक तेरी प्रिअ चिरीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन = हे मन को मोहने वाले! घरि = (मेरे हृदय-) घर में। करउ = मैं करती हूँ। जोदरीआ = जोदड़ी, मिन्नत। अभिमानै = अहंकार से। बोलउ = बोलती हूँ। भूल चूक = गलतियां, कमियां। प्रिअ = हे प्यारे! तेरी चिरीआ = तेरी चेरी, तेरी दासी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मोहन प्रभु! मैं मिन्नत करती हूँ मेरे हृदय-घर में आ बस। हे मोहन! मैं (सदा) मान करती रहती हूँ, मैं (सदा) अहंकार की बात करती हूँ, मैं बहुत सारी भूलें-चूकें करती हूँ, (फिर भी) हे प्यारे! मैं तेरी (ही) दासी हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकटि सुनउ अरु पेखउ नाही भरमि भरमि दुख भरीआ ॥ होइ क्रिपाल गुर लाहि पारदो मिलउ लाल मनु हरीआ ॥१॥
मूलम्
निकटि सुनउ अरु पेखउ नाही भरमि भरमि दुख भरीआ ॥ होइ क्रिपाल गुर लाहि पारदो मिलउ लाल मनु हरीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। सुनउ = सुनती हूँ। अरु = और। पेखउ = देखती हूँ। भरमि = भटक के। गुर = हे गुरु! होइ = हो के। लाहि = दूर कर। पारदो = पर्दा, भिक्ति। मिलउ = मैं मिल सकूँ। हरीआ = हरा भरा।1।
अर्थ: हे मोहन! मैं सुनती हूँ (तू) नजदीक (बसता है), पर मैं (तुझे) देख नहीं सकती। सदा भटक-भटक के मैं दुखों में फसी रहती हूँ। हे गुरु! अगर तू दयावान हो के (मेरे अंदर से माया के मोह का) पर्दा दूर कर दे, मैं (सुंदर) लाल (प्रभु) को मिल जाऊँ, और, मेरा मन (आत्मिक जीवन से) हरा-भरा हो जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक निमख जे बिसरै सुआमी जानउ कोटि दिनस लख बरीआ ॥ साधसंगति की भीर जउ पाई तउ नानक हरि संगि मिरीआ ॥२॥१॥२४॥
मूलम्
एक निमख जे बिसरै सुआमी जानउ कोटि दिनस लख बरीआ ॥ साधसंगति की भीर जउ पाई तउ नानक हरि संगि मिरीआ ॥२॥१॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितना समय। जानउ = मैं जानती हूँ। कोटि = करोड़ों। बरीआ = साल, वर्षं भीर = भीड़। जउ = जब। तउ = तब। नानक = हे नानक! संगि = साथ। मिरीआ = मिल गई।2।
अर्थ: हे भाई! अगर आँख झपकने जितने समय के लिए भी मालिक-प्रभु (मन से) भूल जाए, तो मैं ऐसे समझती हूँ कि करोड़ों दिन लाखों वर्ष गुजर गए हैं। हे नानक! (कह:) जब मुझे साधु-संगत का समागम प्राप्त हुआ, तब परमात्मा से मेल हो गया।2।1।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब किआ सोचउ सोच बिसारी ॥ करणा सा सोई करि रहिआ देहि नाउ बलिहारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब किआ सोचउ सोच बिसारी ॥ करणा सा सोई करि रहिआ देहि नाउ बलिहारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोचउ = मैं सोचूँ। किआ सोचउ = मैं कौन से सोचें सोचूँ? बिसारी = छोड़ दी है। सा = थी। बलिहारी = मैं सदके हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे अपना नाम बख्श, मैं कुर्बान जाता हूँ। (तेरो नाम की इनायत से) अब मैं और कौ-कौन सी सोचें सोचूँ? मैंने हरेक सोच बिसयार दी है। (हे भाई! उसके नाम के सदका अब मुझे यकीन बन गया है कि) जो कुछ करना चाहता हूँ वही कुछ वह कर रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चहु दिस फूलि रही बिखिआ बिखु गुर मंत्रु मूखि गरुड़ारी ॥ हाथ देइ राखिओ करि अपुना जिउ जल कमला अलिपारी ॥१॥
मूलम्
चहु दिस फूलि रही बिखिआ बिखु गुर मंत्रु मूखि गरुड़ारी ॥ हाथ देइ राखिओ करि अपुना जिउ जल कमला अलिपारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चहु दिस = चारों तरफ, सारे जगत में। बिखिआ = माया। बिखु = जहर। मूखि = मुँह में। गरुतारी = (साँप का जहर काटने वाला) गरुड़ मंत्र। देइ = दे के। राखिओ = रक्षा की। करि = कर के, बना के। अलिपारी = अलिप्त, निर्लिप।1।
अर्थ: हे भाई! सारे जगत में माया (सर्पनी) की जहर बढ़-फूल रही है (इससे वही बचता है जिसके) मुँह में गुरु के उपदेश (वाला) गरुड़-मंत्र है। हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभु अपना हाथ दे के अपना बना के रक्षा करता है, वह जगत में इस प्रकार निर्लिप रहता है जैसे पानी में कमल का फूल।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ नाही किछु मै किआ होसा सभ तुम ही कल धारी ॥ नानक भागि परिओ हरि पाछै राखु संत सदकारी ॥२॥२॥२५॥
मूलम्
हउ नाही किछु मै किआ होसा सभ तुम ही कल धारी ॥ नानक भागि परिओ हरि पाछै राखु संत सदकारी ॥२॥२॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। होसा = होसां, होऊँगा, हो सकता हूँ। कल = कला, सत्ता। धारी = टिकाई हुई है। भागि = भाग के। पाछै = शरन। राखु = रक्षा कर। हरि = हे हरि! सदकारी = सदका।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) ना तो अब ही मेरी कोई बिसात है, ना ही आगे मेरी कोई समर्थता हो सकती है। हर जगह तूने ही अपनी सत्ता टिकाई हुई है। हे हरि! (माया सर्पनी से बचने के लिए) मैं भाग के तेरे संतों की शरण पड़ा हूँ, संत-शरण के सदके मेरी रक्षा कर।2।2।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मोहि सरब उपाव बिरकाते ॥ करण कारण समरथ सुआमी हरि एकसु ते मेरी गाते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मोहि सरब उपाव बिरकाते ॥ करण कारण समरथ सुआमी हरि एकसु ते मेरी गाते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब (गुर मिलि)। मोहि = मैं। उपाव = उपाय, प्रयत्न। बिकराते = छज्ञेड़ दिण् हैं। करण = जगत। करण कारण = हे जगत के मूल! समरथ = हे सारी ताकतों के मालिक! सुआमी = हे मालिक! एकसु ते = एक तुझसे ही। गाते = गति, उच्च आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे जगत के मूल हरि! हे सारी ताकतों के मालिक स्वामी! (गुरु को मिल के) अब मैंने और सारे उपाय त्याग दिए हैं, (मुझे निश्चय हो गया है कि) सिर्फ तेरे दर से ही मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन सकती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखे नाना रूप बहु रंगा अन नाही तुम भांते ॥ देंहि अधारु सरब कउ ठाकुर जीअ प्रान सुखदाते ॥१॥
मूलम्
देखे नाना रूप बहु रंगा अन नाही तुम भांते ॥ देंहि अधारु सरब कउ ठाकुर जीअ प्रान सुखदाते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाना = कई किस्मों के। बहु = अनेक। अन = अन्य, कई और। भांते = भांति, जैसा। देंहि = तू देता है। अधारु = आसरा। ठाकुर = हे ठाकुर! जीअ दाते = हे जिंद के देने वाले! प्रान दाते = हे प्राण देने वाले! सुख दाते = हे सुख देने वाले!।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘देंहि’ में ‘ं’ वनंगी मात्र है राहबरी के लिए। जब भी कहीं वर्तमान काल मध्यम पुरुष एक वचन की क्रिया हो, तब उसके ‘ह’ के साथ बिंदी ‘ं’ का उच्चारण करना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! मैंने (जगत के) अनेक कई किस्मों के रूप-रंग देख लिए हैं, तेरे जैसा (सुंदर) और कोई नहीं है। हे ठाकुर! हे जिंद के दाते! हे प्राण दाते! हे सुख दाते! सब जीवों को तू ही आसरा देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमतौ भ्रमतौ हारि जउ परिओ तउ गुर मिलि चरन पराते ॥ कहु नानक मै सरब सुखु पाइआ इह सूखि बिहानी राते ॥२॥३॥२६॥
मूलम्
भ्रमतौ भ्रमतौ हारि जउ परिओ तउ गुर मिलि चरन पराते ॥ कहु नानक मै सरब सुखु पाइआ इह सूखि बिहानी राते ॥२॥३॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमतो = भटकते हुए। जउ = जब। हारि परिओ = थक गया। तउ = तब। गुर मिलि = गुरु को मिल के। पराते = पहचान लिए, कद्र समझ ली। सरब सुख = सारे सुख देने वाला। सूखि = सुख में, आनंद में। बिहानी = बीत रही है। राते = जिंदगी की रात।2।
अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! भटकते-भटकते जब मैं थक गया, तब गुरु को मिल के मैंने परमात्मा की कद्र समझ ली। अब मैंने सारे सुख देने वाले प्रभु को पा लिया है, और मेरी (जिंदगी की) रात सुख-आनंद में व्यतीत हो रही है।2।3।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मोहि लबधिओ है हरि टेका ॥ गुर दइआल भए सुखदाई अंधुलै माणिकु देखा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मोहि लबधिओ है हरि टेका ॥ गुर दइआल भए सुखदाई अंधुलै माणिकु देखा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। लबधिओ = पा लिया है। टेका = आसरा। दइआल = दयावान। अंधुलै = मैं अंधे ने। माणिकु = नाम मोती। देखा = देख लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब से सारे सुख देने वाले सतिगुरु जी (मेरे ऊपर) दयावान हुए हैं, मैं अंधे ने नाम-मोती देख लिया है, और, अब मैंने परमात्मा का आसरा पा लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटे अगिआन तिमर निरमलीआ बुधि बिगास बिबेका ॥ जिउ जल तरंग फेनु जल होई है सेवक ठाकुर भए एका ॥१॥
मूलम्
काटे अगिआन तिमर निरमलीआ बुधि बिगास बिबेका ॥ जिउ जल तरंग फेनु जल होई है सेवक ठाकुर भए एका ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। तिमर = अंधेरे। निरमलीआ = पवित्र। बुधि = बुद्धि, अकल। बिगास = प्रकाश। बिबेका = (अच्छे बुरे की) परख करने की शक्ति। फेनु = झाग। ठाकुर = मालिक प्रभु।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से मेरे अंदर से) आत्मिक जीवन से बेसमझी के के अंधेरे काटे गए हैं, मेरी बुद्धि निर्मल हो गई है, मेरे अंदर अच्छे-बुरे की परख की शक्ति का प्रकाश हो गया है। (मुझे समझ आ गया है कि) जैसे पानी की लहरें और झाग सब कुछ पानी ही हो जाता है, वैसे ही मालिक-प्रभु और उसके सेवक एक-रूप हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह ते उठिओ तह ही आइओ सभ ही एकै एका ॥ नानक द्रिसटि आइओ स्रब ठाई प्राणपती हरि समका ॥२॥४॥२७॥
मूलम्
जह ते उठिओ तह ही आइओ सभ ही एकै एका ॥ नानक द्रिसटि आइओ स्रब ठाई प्राणपती हरि समका ॥२॥४॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह ते = जिस जगह से। द्रिसटि आइओ = दिखा दे गया है। स्रब ठाई = सब जगह। समका = एक समान।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: गुरु की कृपा से यह समझ आ गई है कि) जिस प्रभु से यह जीव उपजता है उसमें ही लीन होता है, यह सारी रचना ही एक प्रभु का खेल-पसारा है। (गुरु की किरपा से) दिखाई दे गया है कि प्राणों का मालिक हरि सब जगह एक समान बस रहा है।2।4।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरा मनु एकै ही प्रिअ मांगै ॥ पेखि आइओ सरब थान देस प्रिअ रोम न समसरि लागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरा मनु एकै ही प्रिअ मांगै ॥ पेखि आइओ सरब थान देस प्रिअ रोम न समसरि लागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै ही प्रिअ = सिर्फ प्यारे प्रभु का (दर्शन) ही। मांगै = मांगता है (एकवचन)। पेखि = देख के। समसरि = बराबर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा मन सिर्फ प्यारे प्रभु के ही दर्शन माँगता है। मैं सारे देश सारी जगह देख आया हूँ, (उनमें से कोई भी सुंदरता में) प्यारे (प्रभु) के एक रोम जितनी भी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै नीरे अनिक भोजन बहु बिंजन तिन सिउ द्रिसटि न करै रुचांगै ॥ हरि रसु चाहै प्रिअ प्रिअ मुखि टेरै जिउ अलि कमला लोभांगै ॥१॥
मूलम्
मै नीरे अनिक भोजन बहु बिंजन तिन सिउ द्रिसटि न करै रुचांगै ॥ हरि रसु चाहै प्रिअ प्रिअ मुखि टेरै जिउ अलि कमला लोभांगै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीरे = परोसे, थाल में डाल के रखे। बिंजन = स्वादिष्ट पदार्थ। द्रिसटि = दृष्टि, निगाह। रुचांगै = रुचि। रसु = स्वाद। प्रिउ = हे प्यारे! मुखि = मुँह से। टेरै = बोलता है। अलि = भौरा। कमला = कमल का फूल। लोभांगै = ललचाता है।1।
अर्थ: हे भाई! मैं अनेक भोजन, अनेक स्वादिष्ट व्यंञन परोस के रखता हूँ, (मेरा मन) उनकी तरफ निगाह भी नहीं करता, (इसकी) उनकी ओर कोई रुचि नहीं। हे भाई! जैसे भौरा कमल के फूल के लिए ललचाता ह, वैसे ही (मेरा मन) परमातमा (के नाम) का स्वाद (ही) माँगता है, मुँह से ‘हे प्यारे प्रभु! हे प्यारे प्रभु! ’ ही बोलता रहता है।1।
[[1210]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण निधान मनमोहन लालन सुखदाई सरबांगै ॥ गुरि नानक प्रभ पाहि पठाइओ मिलहु सखा गलि लागै ॥२॥५॥२८॥
मूलम्
गुण निधान मनमोहन लालन सुखदाई सरबांगै ॥ गुरि नानक प्रभ पाहि पठाइओ मिलहु सखा गलि लागै ॥२॥५॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण निधान = हे गुणों के खजाने! लालन = हे सुंदर लाल! सरबांगै = हे सब जीवों में व्यापक! गुरि = गुरु ने। नानक = हे नानक! (कह)। पाहि = पास। पठाइओ = भेजा है। सखा = हे मित्र! गलि लागै = गले से लग के।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गुणों के खजाने! हे मन को मोहने वाले! हे सोहणे लाल! ळे सारे सुख देने वाले! हे सब जीवों में व्यापक! हे प्रभु! हे मित्र प्रभु! मुझे गुरु ने (तेरे) पास भेजा है, मुझे गले लग के मिल।2।5।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मोरो ठाकुर सिउ मनु मानां ॥ साध क्रिपाल दइआल भए है इहु छेदिओ दुसटु बिगाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मोरो ठाकुर सिउ मनु मानां ॥ साध क्रिपाल दइआल भए है इहु छेदिओ दुसटु बिगाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोरो मनु = मेरा मन। सिउ = साथ। मानां = रीझ गया है। छेदिओ = काट दिया है। दुसटु = बुरा। बिगाना = बेगानापन।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब संतजन मेरे पर प्रसन्न हुए, दयावान हुए, (तब मैंने अपने अंदर से परमात्मा से) यह दुष्ट बेगानगी को काट डाला। अब मेरा मन मालिक-प्रभु के साथ (सदा) रीझा रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम ही सुंदर तुमहि सिआने तुम ही सुघर सुजाना ॥ सगल जोग अरु गिआन धिआन इक निमख न कीमति जानां ॥१॥
मूलम्
तुम ही सुंदर तुमहि सिआने तुम ही सुघर सुजाना ॥ सगल जोग अरु गिआन धिआन इक निमख न कीमति जानां ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुघर = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। सुजाना = समझदार। सगल = सारे। अरु = और। निमख = आँख झपकने जितना समय। कीमति = मूल्य, सार, कद्र।1।
अर्थ: अब, हे प्रभु! तू ही मुझे सुंदर लगता है, तू ही समझदार प्रतीत होता है, तू ही सुंदर आत्मिक घाड़त वाला और सुजान दिखता है। जोग-साधन, ज्ञान-चर्चा करने वाले और समाधियाँ लगाने वाले- इन सभी ने, हे प्रभु! आँख झपकने जितने समय के लिए भी तेरी कद्र नहीं समझी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम ही नाइक तुम्हहि छत्रपति तुम पूरि रहे भगवाना ॥ पावउ दानु संत सेवा हरि नानक सद कुरबानां ॥२॥६॥२९॥
मूलम्
तुम ही नाइक तुम्हहि छत्रपति तुम पूरि रहे भगवाना ॥ पावउ दानु संत सेवा हरि नानक सद कुरबानां ॥२॥६॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइक = नायक, मालिक। छत्रपति = राजा। पूरि रहे = सब जगह मौजूद है। पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। दान = ख़ैर। सद = सदा।2।
अर्थ: हे भगवान! तू ही (सब जीवों का) मालिक है, तू ही (सब राजाओं का) राजा है, तू सारी सृष्टि में व्यापक है। हे नानक! (कह:) हे हरि! (मेहर कर, तेरे दर से) मैं संत जनों की सेवा की ख़ैर हासिल करूँ, मैं संत जनों से सदा सदके जाऊँ।2।6।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि चीति आए प्रिअ रंगा ॥ बिसरिओ धंधु बंधु माइआ को रजनि सबाई जंगा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि चीति आए प्रिअ रंगा ॥ बिसरिओ धंधु बंधु माइआ को रजनि सबाई जंगा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। मेरै चिति = मेरे चिक्त में प्रिअ रंगा = प्यारे के करिश्मे। माइआ को धंधु = माया का धंधा। माइआ को बंधु = माया (के मोह) का बंधन। रजनि = (उम्र की) रात। सबाई = सारी। जंगा = (कामादिकों से) युद्ध (करते हुए)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब सें साधु-संगत की इनायत से) प्यारे प्रभे करिश्मे मेरे मन में मेरे चिक्त में आ बसे हैं, मुझे माया वाली भटकना भूल गई है, माया के मोह की फाँसी समाप्त हो गई है, मेरी सारी उम्र-रात (विकारों से) जंग करती हुई बीत रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि सेवउ हरि रिदै बसावउ हरि पाइआ सतसंगा ॥ ऐसो मिलिओ मनोहरु प्रीतमु सुख पाए मुख मंगा ॥१॥
मूलम्
हरि सेवउ हरि रिदै बसावउ हरि पाइआ सतसंगा ॥ ऐसो मिलिओ मनोहरु प्रीतमु सुख पाए मुख मंगा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवउ = मैं स्मरण करता हूँ। रिदै = हृदय में। बसावउ = मैं बसाता हूँ। मनोहर = मन को मोहने वाला। सुख मुख मंगा = मुँह मांगे सुख।1।
अर्थ: हे भाई! जब से मैंने प्रभु की साधु-संगत प्राप्त की है, मैं परमात्मा का स्मरण करता रहता हूँ, मैं परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता हूँ। मन को मोहने वाला प्रीतम-प्रभु इस तरह मुझे मिल गया है कि मैंने मुँह-माँगे सुख हासिल कर लिए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रिउ अपना गुरि बसि करि दीना भोगउ भोग निसंगा ॥ निरभउ भए नानक भउ मिटिआ हरि पाइओ पाठंगा ॥२॥७॥३०॥
मूलम्
प्रिउ अपना गुरि बसि करि दीना भोगउ भोग निसंगा ॥ निरभउ भए नानक भउ मिटिआ हरि पाइओ पाठंगा ॥२॥७॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। बसि = वश में। भोगउ = मैं भोगता हूँ। भोग = प्रभु मिलाप का आनंद। निसंगा = (कामादिको की) रुकावट के बिना। पाठंगा = आसरा।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने प्यारा प्रभु मेरे (प्यार के) वश में कर दिया है, अब (कामादिकों की) रुकावट के बिना मैं उसके मिलाप का आत्मिक आनंद लेता रहता हूँ। हे नानक! (कह:) मैंने (जीवन का) आसरा प्रभु पा लिया है, मेरा हरेक डर मिट गया है, मैं (कामादिकों के हमलों के खतरे से) निडर हो गया हूँ।2।7।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि जीउ के दरसन कउ कुरबानी ॥ बचन नाद मेरे स्रवनहु पूरे देहा प्रिअ अंकि समानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि जीउ के दरसन कउ कुरबानी ॥ बचन नाद मेरे स्रवनहु पूरे देहा प्रिअ अंकि समानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। कुरबानी = सदके। बचन नाद = महिमा की वाणी की आवाजें। स्रवनह = कानों में। पूरे = भरे रहते हैं। देहा = (मेरा) शरीर। प्रिअ अंकि = प्यारे की गोद में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं प्रभु जी के दर्शनों से सदके हूँ। उसकी महिमा के गीत मेरे कानों में भरे रहते हैं, मेरा शरीर उसकी गोद में लीन रहता है (यह सारी गुरु की ही कृपा है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छूटरि ते गुरि कीई सुोहागनि हरि पाइओ सुघड़ सुजानी ॥ जिह घर महि बैसनु नही पावत सो थानु मिलिओ बासानी ॥१॥
मूलम्
छूटरि ते गुरि कीई सुोहागनि हरि पाइओ सुघड़ सुजानी ॥ जिह घर महि बैसनु नही पावत सो थानु मिलिओ बासानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छूटरि = त्यागी हुई। ते = से। गुरि = गुरु ने। सुोहागनि = सुहाग वाली, पति वाली। सुघड़ = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। जिह घरि महि = जिस घर में, जिस प्रभु चरणों में। बैसनु = बैठना। बासानी = बसने के लिए।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सुोहागनि’ अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘सोहागनि’ है यहाँ ‘सुहागनि’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे त्याग हुई से सोगनि बना दिया है, मैंने सुंदर आत्मिक घाड़त वाले सुजान प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया है। (मेरे मन को) वह (हरि-चरण-) स्थल बसने के लिए मिल गया है, जिस जगह पर (पहले कभी यह) टिकता ही नहीं था।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्ह कै बसि आइओ भगति बछलु जिनि राखी आन संतानी ॥ कहु नानक हरि संगि मनु मानिआ सभ चूकी काणि लुोकानी ॥२॥८॥३१॥
मूलम्
उन्ह कै बसि आइओ भगति बछलु जिनि राखी आन संतानी ॥ कहु नानक हरि संगि मनु मानिआ सभ चूकी काणि लुोकानी ॥२॥८॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उन्ह कै बसि = उन (संत जनों) के वश में। भगति बछलु = भक्ति से प्यार करने वाला प्रभु। जिनि = जिस (प्रभु) ने। आन = इज्जत, सत्कार। संतानी = संता की। संगि = साथ। मानिआ = रीझ गया है। चूकी = समाप्त हो गई है। काणि = अधीनता। लुोकानी = लोगों की (असल शब्द ‘लाकानी’ है यहाँ ‘लुकानी’ पढ़ना है)।2।
अर्थ: हे भाई! भक्ति से प्यार करने वाला परमात्मा जिसने (सदा अपने) संतों की इज्जत रखी है उन संत-जनों के प्यार के वश में आया रहता है। हे नानक! कह: (संत-जनों की कृपा से) मेरा मन परमात्मा के साथ रीझ गया है, (मेरे अंदर से) लोगों की अधीनता समाप्त हो गई है।2।8।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मेरो पंचा ते संगु तूटा ॥ दरसनु देखि भए मनि आनद गुर किरपा ते छूटा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मेरो पंचा ते संगु तूटा ॥ दरसनु देखि भए मनि आनद गुर किरपा ते छूटा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरो संगु = मेरा साथ। पंचा ते = कामादिक पाँचों से। देखि = देख के। मनि = मन में। किरपा ते = कृपा से। छूटा = स्वतंत्र हो गया हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मेहर से मैं (कामादिक की मार से) बच गया हूँ। अब (कामादिक) पाँचों से मेरा साथ समाप्त हो गया है (मेरे अंद रनाम-खजाना छुपा पड़ा था, गुरु के माध्यम से उसके) दर्शन करके मेरे मन में खुशियाँ ही खुशियाँ बन गई हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखम थान बहुत बहु धरीआ अनिक राख सूरूटा ॥ बिखम गार्ह करु पहुचै नाही संत सानथ भए लूटा ॥१॥
मूलम्
बिखम थान बहुत बहु धरीआ अनिक राख सूरूटा ॥ बिखम गार्ह करु पहुचै नाही संत सानथ भए लूटा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखम थान = वह जगह जहाँ पहुँचना बहुत मुश्किल है। धरीआ = (नाम खजाना) रखा हुआ है। राख = रखवाले, कामादिक रखवाले। सूरूटा = सूरमे। गार् = गार्ह, गड्ढा, खाई। करु = हाथ। सानथ = साथी।1।
अर्थ: हे भाई! जिस जगह नाम-खजाने रखे हुए थे, वहाँ पहुँचना बहुत ही मुश्किल था (क्योंकि कामादिक) अनेक सूरमे (राह में) रखवाले बने हुए थे (पहरेदार बन के खड़े थे)। (उसके चारों तरफ माया के मोह की) बड़ी गहरी खाई बनी हुई थी, (उस खजाने तक) हाथ नहीं था पहुँचता। जब संत-जन मेरे साथी बन गए, (वह ठिकाना) लूट लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुतु खजाने मेरै पालै परिआ अमोल लाल आखूटा ॥ जन नानक प्रभि किरपा धारी तउ मन महि हरि रसु घूटा ॥२॥९॥३२॥
मूलम्
बहुतु खजाने मेरै पालै परिआ अमोल लाल आखूटा ॥ जन नानक प्रभि किरपा धारी तउ मन महि हरि रसु घूटा ॥२॥९॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै पालै = मेरे पल्ले, मेरे काबू। अखूटा = अनन्त। प्रभि = प्रभु ने। घूटा = घूट घूट करके पीता।2।
अर्थ: (संत जनों की किरपा से) हरि-नाम के अमूल्य लालों के बहुत सारे खजाने मुझे मिल गए। हे दास नानक! (कह:) जब प्रभु ने मेरे ऊपर मेहर की, तब मैं अपने मन में हरि-नाम का रस पीने लग गया।2।9।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मेरो ठाकुर सिउ मनु लीना ॥ प्रान दानु गुरि पूरै दीआ उरझाइओ जिउ जल मीना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मेरो ठाकुर सिउ मनु लीना ॥ प्रान दानु गुरि पूरै दीआ उरझाइओ जिउ जल मीना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर सिउ = मालिक प्रभु से। लीना = लीन हो गया, एक मेक हो गया। प्रान दानु = आत्मिक जीवन की खैर। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। उरझाइओ = (गुरु ने ठासकुर से) अच्छी तरह जोड़ दिया है। मीना = मछली।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने मुझे आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है, मुझे ठाकुर प्रभु के साथ यूँ जोड़ दिया है जैसे मछली पानी के साथ। अब मेरा मन ठाकुर-प्रभु के साथ ऐक-मेक हुआ रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध लोभ मद मतसर इह अरपि सगल दानु कीना ॥ मंत्र द्रिड़ाइ हरि अउखधु गुरि दीओ तउ मिलिओ सगल प्रबीना ॥१॥
मूलम्
काम क्रोध लोभ मद मतसर इह अरपि सगल दानु कीना ॥ मंत्र द्रिड़ाइ हरि अउखधु गुरि दीओ तउ मिलिओ सगल प्रबीना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। अरपि = अरप के। अरपि दानु कीना = अरप के दान कर दिए हैं, सदा के लिए छोड़ दिए हैं। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाइ = (हृदय में) पक्का कर के। अउखधु = दवा दारू। गुरि = गुरु ने। तउ = तब। सगल प्रबीना = सारे गुरु में प्रवीण प्रभु।1।
अर्थ: हे भाई! जब से गुरु ने (अपना) उपदेश मेरे हृदय में पक्का कर के मुझे हरि-नाम की दवाई दी है, तब से मुझे सारे गुणों में प्रवीण गुरु मिल गया है, और, मैंने (अपने अंदर से) काम क्रोध लोभ अहंकार ईष्या (आदि सारे विकार) सदा के लिए निकाल दिए हैं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रिहु तेरा तू ठाकुरु मेरा गुरि हउ खोई प्रभु दीना ॥ कहु नानक मै सहज घरु पाइआ हरि भगति भंडार खजीना ॥२॥१०॥३३॥
मूलम्
ग्रिहु तेरा तू ठाकुरु मेरा गुरि हउ खोई प्रभु दीना ॥ कहु नानक मै सहज घरु पाइआ हरि भगति भंडार खजीना ॥२॥१०॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिहु = हृदय घर। ठाकुरु = मालिक। गुरि = गुरु ने। हउ = अहंकार। खोई = दूर कर दी है। सहज घरु = आत्मिक अडोलता वाली जगह। पाइआ = पा लिया है। खजीना = खजाने।2।
अर्थ: हे प्रभु! (अब मेरा हृदय) तेरा घर बन गया है, तू (सचमुच) मेरे (इस घर का) मालिक बन गया है। हे भाई! गुरु ने मेरे अहंकार को दूर कर दिया है, मुझे प्रभु से मिला दिया है। हे नानक! कह: (गुरु की कृपा से) मैंने आत्मिक अडोलता का श्रोत पा लिया है। मैंने परमात्मा की भक्ति के भण्डारे खजाने पा लिए हैं।2।10।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मोहन सभि जीअ तेरे तू तारहि ॥ छुटहि संघार निमख किरपा ते कोटि ब्रहमंड उधारहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मोहन सभि जीअ तेरे तू तारहि ॥ छुटहि संघार निमख किरपा ते कोटि ब्रहमंड उधारहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन! सभि = सारे। जीअ = जीव। तारहि = पार लंघाता है। संघार = मारने वाले, जालिम स्वभाव वाले बंदे। छुटहि = विकारों से अत्याचार से हट जाते हैं। निमख = आँख झपकने जितना समय। ते = से। कोटि = करोड़ों। उधारहि = तू बचखता है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मोहन प्रभु! (जगत के) सारे जीव तेरे ही (पैदा किए हुए हैं), तू ही (इनको दुखों-कष्टों आदि से) पार लंघाता है। तेरी थोड़ी जितनी मेहर (की निगाह) से बड़क्षे-बड़े निर्दयी लोग भी अत्याचारों से हट जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहि अरदासि बहुतु बेनंती निमख निमख साम्हारहि ॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन हाथ देइ निसतारहि ॥१॥
मूलम्
करहि अरदासि बहुतु बेनंती निमख निमख साम्हारहि ॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन हाथ देइ निसतारहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = (जीव) करते हैं (बहुवचन)। समारहि = (तुझे हृदय में) याद करते हैं। होहु = जब तू होता हैं दीन दुख भंजन = हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! देइ = दे के। निसतारहि = (दुख-कष्ट से) पार लंघाता है।1।
अर्थ: हे मोहन! (तेरे पैदा किए हुए जीव तेरे ही दर पे) अरदास विनती करते हैं, (तुझे ही) पल-पल हृदय में बसाते हैं। हे गरीबों के दुख नाश करने वाले मोहन! तू जब दयावान होता है, तो अपना हाथ दे के (जीवों को दुखों से) पार लंघा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ ए भूपति बपुरे कहीअहि कहु ए किस नो मारहि ॥ राखु राखु राखु सुखदाते सभु नानक जगतु तुम्हारहि ॥२॥११॥३४॥
मूलम्
किआ ए भूपति बपुरे कहीअहि कहु ए किस नो मारहि ॥ राखु राखु राखु सुखदाते सभु नानक जगतु तुम्हारहि ॥२॥११॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ए भूपति = यह राजे (बहुवचन)। बपुरे = बेचारे। किआ कहीअहि = क्या कही सकते हैं? इनकी क्या बिसात कही जा सकती है? ए = यह (बहुवचन)। मारहि = मार सकते हैं। सुखदाते = हे सुख देने वाले प्रभु! सभ = सारा। तुमारहि = तेरा ही है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस नो’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे मोहन!) इन बेचारे राजाओं की कोई बिसात नहीं कि ये किसी को मार सकें (सब तेरा ही खेल-तमाशा है)। हे सुखों के देने वाले! (हम जीवों की) रक्षा कर, रक्षा कर, रक्षा कर। सारा जगत तेरा ही (रचा हुआ) है।2।11।34।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मोहि धनु पाइओ हरि नामा ॥ भए अचिंत त्रिसन सभ बुझी है इहु लिखिओ लेखु मथामा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मोहि धनु पाइओ हरि नामा ॥ भए अचिंत त्रिसन सभ बुझी है इहु लिखिओ लेखु मथामा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैंने। पाइओ = पा लिया है। अचिंत = चिन्ता रहित, बेफिक्र। मथामा = माथे पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) अब मैंने परमात्मा का धन पा लिया है। (इस धन की इनायत से) मैं बेफिक्र हो गया हूँ, (मेरे अंदर से) सारी (माया की) तृष्णा मिट गई है (धुर-दरगाह से ही) यह (प्राप्ति का) लेख माथे पर लिखा हुआ था।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत भइओ बैरागी फिरि आइओ देह गिरामा ॥ गुरि क्रिपालि सउदा इहु जोरिओ हथि चरिओ लालु अगामा ॥१॥
मूलम्
खोजत खोजत भइओ बैरागी फिरि आइओ देह गिरामा ॥ गुरि क्रिपालि सउदा इहु जोरिओ हथि चरिओ लालु अगामा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत = ढूँढते हुए। भइओ = हो गया। फिरि = फिर फिर के। देह गिरामा = शरीर पिंड में। गुरि = गुरु ने। क्रिपालि = कृपालु ने। जोरिओ = जोड़ दिया, कर दिया। हथि = हाथ में। हथि चरिआ = मिल गया। अगामा = अगम्य (पहुँच से परे), अमूल्य।1।
अर्थ: हे भाई! तलाश करता-करता मैं तो वैरागी ही हो गया था, आखिर भटक-भटक के (गुरु की कृपा से) मैं शरीर-पिंड में आ पहुँचा। कृपालु गुरु ने ये वणज बना दिया कि (शरीर के अंदर से ही) मुझे परमात्मा का नाम अमूल्य लाल मिल गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन बापार बनज जो करीअहि तेते दूख सहामा ॥ गोबिद भजन के निरभै वापारी हरि रासि नानक राम नामा ॥२॥१२॥३५॥
मूलम्
आन बापार बनज जो करीअहि तेते दूख सहामा ॥ गोबिद भजन के निरभै वापारी हरि रासि नानक राम नामा ॥२॥१२॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = अन्य, और। करीअहि = किए जाते हैं। तेते = वह सारे। रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम के बिना) और जो-जो भी वणज व्यापार किए जाते हैं, वे सभी दुख सहने (का सबब बन जाते हैं)। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा के भजन के व्यापारी लोग (दुनिया के) डरों से बचे रहते हैं, उनके पास परमात्मा के नाम की संपत्ति टिकी रहती है।2।12।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि मिसट लगे प्रिअ बोला ॥ गुरि बाह पकरि प्रभ सेवा लाए सद दइआलु हरि ढोला ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि मिसट लगे प्रिअ बोला ॥ गुरि बाह पकरि प्रभ सेवा लाए सद दइआलु हरि ढोला ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। मिसट = मीठे। प्रिअ बोला = प्यारे प्रभु की महिमा के वचन। गुरि = गुरु ने। पकरि = पकड़ के। सद = सदा। ढोला = प्यारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब से गुरु ने (मेरी) बाँह पकड़ के (मुझे) प्रभु की सेवा-भक्ति में लगाया है, तब से मेरे मन में प्यारे-प्रभु की महिमा के वचन मीठे लगने लगे हैं। (अब मुझे ये बात समझ में आ गई है कि) प्यारा हरि सदा ही (मेरे पर) दयावान है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ तू ठाकुरु सरब प्रतिपालकु मोहि कलत्र सहित सभि गोला ॥ माणु ताणु सभु तूहै तूहै इकु नामु तेरा मै ओल्हा ॥१॥
मूलम्
प्रभ तू ठाकुरु सरब प्रतिपालकु मोहि कलत्र सहित सभि गोला ॥ माणु ताणु सभु तूहै तूहै इकु नामु तेरा मै ओल्हा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ठाकुरु = मालिक। प्रतिपालकु = पालने वाला। मोहि = मैं। कलत्र = स्त्री। सहित = समेत। सभि = सारे। गोला = गुलाम, सेवक। ताणु = आसरा, ताकत। ओला = परदा, आसरा।1।
अर्थ: हे प्रभु! (जब से गुरु ने मुझे तेरी सेवा में लगाया है, मुझे यकीन हो गया है कि) तू (हमारा) मालिक है, तू सब जीवों का पालनहार है। मैं (अपनी) स्त्री (परिवार) समेत - हम सभी तेरे गुलाम हैं। हे प्रभु! तू ही मेरा माण है, तू ही मेरा ताण है। तेरा नाम ही मेरा सहारा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे तखति बैसालहि तउ दास तुम्हारे घासु बढावहि केतक बोला ॥ जन नानक के प्रभ पुरख बिधाते मेरे ठाकुर अगह अतोला ॥२॥१३॥३६॥
मूलम्
जे तखति बैसालहि तउ दास तुम्हारे घासु बढावहि केतक बोला ॥ जन नानक के प्रभ पुरख बिधाते मेरे ठाकुर अगह अतोला ॥२॥१३॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। बैसालहि = तू (मुझे) बैठाए। तउ = तब, तो भी। घासु = घास। बढावहि = तू कटवाए। केतक बोला = कितने बोल (बोल सकता हूँ)? मुझे कोई ऐतराज नहीं। बिधाते = हे रचनहार! ठाकुर = हे मालिक! अगह = हे अथाह!।2।
अर्थ: हे दास नानक के प्रभु! हे अकाल पुरख! हे रचनहार! हे मेरे अथाह और अतोल ठाकुर! हे प्रभु! अगर तू मुझे तख्त पर बैठा दे, तो भी मैं तेरा दास हूँ, अगर तू (मुझे घसियारा बना के मुझसे) घास कटवाए, तो भी मुझे कोई ऐतराज नहीं।2।13।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ रसना राम कहत गुण सोहं ॥ एक निमख ओपाइ समावै देखि चरित मन मोहं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ रसना राम कहत गुण सोहं ॥ एक निमख ओपाइ समावै देखि चरित मन मोहं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। राम कहत गुण = राम के गुण कहते हुए। सोहं = सुंदर लगती है। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ओपाइ = पैदा करके। समावै = लीन कर लेता है। देखि = देख के। चरित = करिश्मे तमाशे। मोहे = माहा जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण उचारते हुए जीभ सुंदर लगती है। वह प्रभु आँख झपकने जितने समय में पैदा कर के (दोबारा अपने में जगत को) लीन कर सकता है। उसके चोज-तमाशे देख के मन मोहा जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु सुणिऐ मनि होइ रहसु अति रिदै मान दुख जोहं ॥ सुखु पाइओ दुखु दूरि पराइओ बणि आई प्रभ तोहं ॥१॥
मूलम्
जिसु सुणिऐ मनि होइ रहसु अति रिदै मान दुख जोहं ॥ सुखु पाइओ दुखु दूरि पराइओ बणि आई प्रभ तोहं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु सुणिऐ = जिसका (नाम) सुन के। मनि = मन में। रहसु = खुशी। अति = बहुत। रिदै मान = (जिसको) हृदय में मानने से। जोहं = ताड़ना। दुख जोहं = दुखों को ताड़ना, दुखों का नाश। दूरि पराइओ = दूर हो जाता है। प्रभ = हे प्रभु! बणि आई तोहं = तेरे साथ (प्रीत) बन जाती है।1।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य की प्रीति तेरे साथ बन जाती है, उसका सारा दुख दूर हो जाता है, वह सदा सुख भोगता है। (हे प्रभु! तू ऐसा है) जिसका नाम सुनने से मन में बहुत खुशी पैदा होती है, जिसको हृदय में बसाने से सारे दुखों का नाश हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किलविख गए मन निरमल होई है गुरि काढे माइआ द्रोहं ॥ कहु नानक मै सो प्रभु पाइआ करण कारण समरथोहं ॥२॥१४॥३७॥
मूलम्
किलविख गए मन निरमल होई है गुरि काढे माइआ द्रोहं ॥ कहु नानक मै सो प्रभु पाइआ करण कारण समरथोहं ॥२॥१४॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलविख = पाप। निरमल = पवित्र। गुरि = गुरु ने। द्रोहं = द्रोह, ठगी, छल। करण = जगत। करण कारण = जगत का मूल। समरथोहं = सारी ताकतों का मालिक।2।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने जीभ से राम-गुण गाए, उसके अंदर से) गुरु ने माया के छल निकाल दिए, उसके सारे पाप दूर हो गए, उसका मन पवित्र हो गया। हे नानक! कह: (हे भाई! गुरु की कृपा से) मैंने वह परमात्मा पा लिया है, जो जगत का मूल है जो सारी ताकतों का मालिक है।2।14।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ नैनहु देखिओ चलतु तमासा ॥ सभ हू दूरि सभ हू ते नेरै अगम अगम घट वासा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ नैनहु देखिओ चलतु तमासा ॥ सभ हू दूरि सभ हू ते नेरै अगम अगम घट वासा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैनहु = आँखों से। सभ हू दूरि = सबसे दूर (निर्लिप)। ते = से। नेरै = नजदीक। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। घट वासा = सब शरीरों में निवास।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मैंने अपनी) आँखों से (परमातमा का अजब) करिश्मा देखा है (अजब) तमाशा देखा है। वह परमात्मा (निर्लिप होने के कारण) सब जीवों से दूर (अलग) है, (सर्व-व्यापक होने के कारण वह) सब जीवों के नजदीक, वह अगम है अगम्य (पहुँच से परे) है, पर वैसे सब शरीरों में उसका निवास है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभूलु न भूलै लिखिओ न चलावै मता न करै पचासा ॥ खिन महि साजि सवारि बिनाहै भगति वछल गुणतासा ॥१॥
मूलम्
अभूलु न भूलै लिखिओ न चलावै मता न करै पचासा ॥ खिन महि साजि सवारि बिनाहै भगति वछल गुणतासा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभुलु = भूलों से रहित। लिखिओ = लिखा हुआ (हुक्म)। मता = सलाहें। पचासा = पचास, कई। साजि = पैक्दा कर के। सवारि = सुंदर बना के। बिनाहै = नाश कर देता है। भगति वछल = भक्ति को प्यार करने वाला। गुण तासा = गुणों का खजाना।1।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा भूलों से रहित है, वह कभी कोई गलती नहीं करता, ना वह कोई लिखा हुआ हुक्म चलाता है, ना वह बहुत सलाहें ही करता है। वह तरे एक छिन में पैदा करके सुंदर बना के (एक छिन में ही) नाश कर देता है। वह परमात्मा भक्ति से प्यार करने वाला है, और (बेअंत) गुणों का खजाना है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध कूप महि दीपकु बलिओ गुरि रिदै कीओ परगासा ॥ कहु नानक दरसु पेखि सुखु पाइआ सभ पूरन होई आसा ॥२॥१५॥३८॥
मूलम्
अंध कूप महि दीपकु बलिओ गुरि रिदै कीओ परगासा ॥ कहु नानक दरसु पेखि सुखु पाइआ सभ पूरन होई आसा ॥२॥१५॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध = अंधा, घोर अंधेरे वाला। कूप = कूआँ। दीपकु = दीया। गुरि = गुरु ने। रिदै = हृदय में। परगासा = प्रकाश। पेखि = देख के। सभ = सारी।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (जिस मनुष्य के) हृदय में (परमात्मा के नाम का) प्रकाश कर दिया (वहाँ मानो) घोर अंधेरे वाले कूएँ में दीया जल उठा। हे नानक! कह: (हे भाई! उस परमात्मा के) दर्शन करके मैंने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है, मेरी हरेक आशा पूरी हो गई है।2।15।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ चरनह गोबिंद मारगु सुहावा ॥ आन मारग जेता किछु धाईऐ तेतो ही दुखु हावा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ चरनह गोबिंद मारगु सुहावा ॥ आन मारग जेता किछु धाईऐ तेतो ही दुखु हावा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरनह = पैरों से। मारगु = रास्ता। सुहावा = सुखद, सुंदर। आन = अन्य, और। मारग = रास्ता। जेता = जितना ही। धाईऐ = दौड़ भाग करते हैं। तेतो = उतना ही। हावा = आहें।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पैरों से (सिर्फ) परमात्मा के रास्ते (पर चलना ही) सोहाना लगता है। और अनेक रास्तों पर जितनी भी दोड़-भाग की जाती है, उतना ही दुख लगता है, उतनी ही आहें निकलती हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेत्र पुनीत भए दरसु पेखे हसत पुनीत टहलावा ॥ रिदा पुनीत रिदै हरि बसिओ मसत पुनीत संत धूरावा ॥१॥
मूलम्
नेत्र पुनीत भए दरसु पेखे हसत पुनीत टहलावा ॥ रिदा पुनीत रिदै हरि बसिओ मसत पुनीत संत धूरावा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र। दरसु पेखे = दर्शन करने से। पेखे = देखने से। हसत = हस्त, हाथ। टहलावा = टहल, सेवा। रिदा = हृदय। रिदै = हृदय में। मसत = मस्तक, माथा। धूरावा = चरणों की धूल।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन करने से आँखें पवित्र हो जाती हैं, (परमात्मा के संत-जनों की) टहल करने से हाथ पवित्र हो जाते हैं। जिसके हृदय में परमात्मा आ बसता है वह हृदय पवित्र हो जाता है, वह माथा पवित्र हो जाता है जिस पर संतजनों की धूल लगती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब निधान नामि हरि हरि कै जिसु करमि लिखिआ तिनि पावा ॥ जन नानक कउ गुरु पूरा भेटिओ सुखि सहजे अनद बिहावा ॥२॥१६॥३९॥
मूलम्
सरब निधान नामि हरि हरि कै जिसु करमि लिखिआ तिनि पावा ॥ जन नानक कउ गुरु पूरा भेटिओ सुखि सहजे अनद बिहावा ॥२॥१६॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधान = खजाने। नामि हरि कै = हरि के नाम में। जिसु लिखिआ = जिसके (माथे पर) लिखा गया। करमि = (परमात्मा के) मेहर से (करमु = मेहर, कृपा, बख्शिश)। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कउ = को। भेटिओ = मिल गया। सुखि = आनंद में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। जन कउ = जिस मनुष्य को।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में सारे (ही) खजाने हैं, जिस मनुष्य के माथे पर (परमात्मा ने अपनी) मेहर से (नाम की प्राप्ति का लेख) लिख दिया, उस मनुष्य ने (नाम) प्राप्त कर लिया। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल गया (उसको प्रभु का नाम मिल गया, और उसकी जिंदगी) सुख में आत्मिक अडोलता में आनंद में गुजरने लग पड़ी।2।16।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ धिआइओ अंति बार नामु सखा ॥ जह मात पिता सुत भाई न पहुचै तहा तहा तू रखा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ धिआइओ अंति बार नामु सखा ॥ जह मात पिता सुत भाई न पहुचै तहा तहा तू रखा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंति बार = आखिरी समय। सखा = साथी, मित्र। जह = जहाँ। सुत = पुत्र। तू = तुझे। रखा = रखता है, सहायता करता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का) नाम ही (असल) साथी है। (जिस मनुष्य ने) अंत के समय (इस नाम को) स्मरण किया, (उसका साथी बना)। हे भाई! जहाँ माता, पिता, पुत्र, भाई कोई भी नहीं पहुँच सकता, वहाँ पर (यह हरि-नाम ही) तुझे रख सकता है (तेरी रक्षा करता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध कूप ग्रिह महि तिनि सिमरिओ जिसु मसतकि लेखु लिखा ॥ खूल्हे बंधन मुकति गुरि कीनी सभ तूहै तुही दिखा ॥१॥
मूलम्
अंध कूप ग्रिह महि तिनि सिमरिओ जिसु मसतकि लेखु लिखा ॥ खूल्हे बंधन मुकति गुरि कीनी सभ तूहै तुही दिखा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध कूप = घुप अंधेरे कूएँ। ग्रिह = हृदय घर। तिनि = उस (मनुष्य) ने। मसतकि = माथे पर। बंधन = मोह के फंदे। गुरि = गुरु ने। मुकति = खलासी। दिखा = दिया गया।1।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह के) अंधे कूएँ हृदय-घर में (सिर्फ) उस (मनुष्य) ने (ही हरि-नाम) स्मरण किया है जिसके माथे पर (नाम स्मरण का) लेख (धुर से) लिखा गया। (उस मनुष्य के) माया के मोह के फंदे खुल गए, गुरु ने उसको (मोह से) खलासी दिलवा दी, उसको ऐसा दिखाई दे गया (कि हे प्रभु!) सब जगह तू ही है तू ही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु पीआ मनु त्रिपतिआ आघाए रसन चखा ॥ कहु नानक सुख सहजु मै पाइआ गुरि लाही सगल तिखा ॥२॥१७॥४०॥
मूलम्
अम्रित नामु पीआ मनु त्रिपतिआ आघाए रसन चखा ॥ कहु नानक सुख सहजु मै पाइआ गुरि लाही सगल तिखा ॥२॥१७॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। त्रिपतिआ = तृप्त हो गया। आघाए = तृप्त हो गए। रसन = जीभ। सुख सहज = सारे सुख देने वाली आत्मिक अडोलता। गुरि = गुरु ने। तिखा = तृष्णा, प्यास।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी लिया, उसका मन शांत हो गया, उसकी जीभ नाम-जल चख के तृप्त हो गई। हे नानक! कह: (हे भाई! हरि-नाम की दाति दे के) गुरु ने मेरी सारी तृष्णा दूर कर दी है, मैंने सारे सुख देने वाली आत्मिक अडोलता हासिल कर ली है।2।17।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ गुर मिलि ऐसे प्रभू धिआइआ ॥ भइओ क्रिपालु दइआलु दुख भंजनु लगै न ताती बाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ गुर मिलि ऐसे प्रभू धिआइआ ॥ भइओ क्रिपालु दइआलु दुख भंजनु लगै न ताती बाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। ऐसे = इस तरह (हरेक सांस के साथ)। ताती बाइआ = गरम हवा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने) गुरु को मिल के यूँ (हरेक साँस के साथ) परमात्मा का स्मरण किया, सारे दुखों का नाश करने वाला परमात्मा उस पर दयावान हुआ, उस मनुष्य को (सारी उम्र) गर्म-हवा नहीं लगती (कोई दुख-कष्ट नहीं होता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते सास सास हम लेते तेते ही गुण गाइआ ॥ निमख न बिछुरै घरी न बिसरै सद संगे जत जाइआ ॥१॥
मूलम्
जेते सास सास हम लेते तेते ही गुण गाइआ ॥ निमख न बिछुरै घरी न बिसरै सद संगे जत जाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने भी। सास = सांसें। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। घरी = घड़ी। सद = सदा। जत = जहाँ जहाँ। जाइआ = जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! जितने भी सांसें हम (जीव) लेते हैं, जो मनुष्य वह सारे ही साँस (लेते हुए) परमात्मा के गुण गाता है, (जो मनुष्य परमात्मा से) आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं विछुड़ता, (जिसको उसकी याद) एक घड़ी के लिए भी नहीं भूलती, वह जहाँ भी जाता है, परमात्मा सदा उसको अपने साथ दिखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ बलि बलि बलि बलि चरन कमल कउ बलि बलि गुर दरसाइआ ॥ कहु नानक काहू परवाहा जउ सुख सागरु मै पाइआ ॥२॥१८॥४१॥
मूलम्
हउ बलि बलि बलि बलि चरन कमल कउ बलि बलि गुर दरसाइआ ॥ कहु नानक काहू परवाहा जउ सुख सागरु मै पाइआ ॥२॥१८॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। बलि = सदके। कउ = को, से। दरसाइआ = दर्शन। काहू = किस की? सुख सागरु = सुखों का समुंदर प्रभु।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) मैं परमात्मा के सुंदर चरणों से सदा ही सदा ही सदके जाता हूँ, गुरु के दर्शनों से बलिहार जाता हूँ। जब से मैंने (गुरु की कृपा से) सारे सुखों के समुंदर प्रभु को पा लिया है, मुझे किसी की अधीनता नहीं रही।2।18।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि सबदु लगो गुर मीठा ॥ खुल्हिओ करमु भइओ परगासा घटि घटि हरि हरि डीठा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरै मनि सबदु लगो गुर मीठा ॥ खुल्हिओ करमु भइओ परगासा घटि घटि हरि हरि डीठा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। सबदु गुर = गुरु का शब्द। करमु = बख्शिश (का द्वार)। परगासा = (आत्मिक जीवन की) रौशनी। घटि घटि = हरेक शरीर में। डीठा = मैंने देख लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे मन को गुरु का शब्द मीठा लग रहा है (शब्द की इनायत से मेरे लिए) परमात्मा की मेहर (का दरवाजा) खुल गया है, (मेरे हृदय में आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, मैंने हरेक शरीर में परमात्मा को (बसता) देख लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम आजोनी स्मभउ सरब थान घट बीठा ॥ भइओ परापति अम्रित नामा बलि बलि प्रभ चरणीठा ॥१॥
मूलम्
पारब्रहम आजोनी स्मभउ सरब थान घट बीठा ॥ भइओ परापति अम्रित नामा बलि बलि प्रभ चरणीठा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आजोनी = जो जूनियों में नहीं आता। संभउ = स्वयंभू, अपने आप सक प्रकट होने वाला। घट = शरीर। बीठा = बैइा हुआ, व्यापक। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। बलि बलि = बलिहार, सदके। चरणीठा = चरण।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के शब्द की इनायत से मुझे इस तरह दिख रहा है कि) अजूनी स्वयं भू प्रकाश पारब्रहम हरेक जगह में हरेक के शरीर में बैठा हुआ है। (गुरु के शब्द से मुझे) आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम मिल गया है, मैं परमात्मा के चरणों से बलिहार जा रहा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतसंगति की रेणु मुखि लागी कीए सगल तीरथ मजनीठा ॥ कहु नानक रंगि चलूल भए है हरि रंगु न लहै मजीठा ॥२॥१९॥४२॥
मूलम्
सतसंगति की रेणु मुखि लागी कीए सगल तीरथ मजनीठा ॥ कहु नानक रंगि चलूल भए है हरि रंगु न लहै मजीठा ॥२॥१९॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। मुखि = मुँह पर। सगल = सारे। मजनीठा = स्नान। रंगि = प्रेम रंग से। चलूल = गाढ़ा लाल। न लहै = नहीं उतरता। मजीठा = मजीठ (के रंग की तरह)।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) साधु-संगत के चरणों की धूल मेरे माथे पर लगी है (इस चरण-धूल की इनायत से मैंने तो, मानो) सारे ही तीर्थों का स्नान कर लिया है। हे नानक! कह: (हे भाई!) मैं परमात्मा के प्रेम-रंग में गाढ़ा रंगा गया हूँ। मजीठ के पक्के रंग की तरह यह हरि-प्रेम का रंग (मेरे मन से) उतरता ही नहीं है।2।19।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि हरि नामु दीओ गुरि साथे ॥ निमख बचनु प्रभ हीअरै बसिओ सगल भूख मेरी लाथे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि हरि नामु दीओ गुरि साथे ॥ निमख बचनु प्रभ हीअरै बसिओ सगल भूख मेरी लाथे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। साथे = साथ। निमख = आँख झपकने जितना समय। हीअरै = हृदय में। भूख = माया की भूख। लाथे = उतर गई है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने परमात्मा का नाम मेरे साथ साथी (के रूप में) दे दिया है। अब परमात्मा की महिमा का शब्द हर वक्त मेरे हृदय में टिका रहता है (उसकी इनायत से) मेरी माया की सारी भूख उतर गई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिपा निधान गुण नाइक ठाकुर सुख समूह सभ नाथे ॥ एक आस मोहि तेरी सुआमी अउर दुतीआ आस बिराथे ॥१॥
मूलम्
क्रिपा निधान गुण नाइक ठाकुर सुख समूह सभ नाथे ॥ एक आस मोहि तेरी सुआमी अउर दुतीआ आस बिराथे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपा निधान = हे मेहर के खजाने! गुण नाइक = हे सारे गुणों के मालिक! ठाकुर = हे मालिक! नाथे = हे नाथ! मोहि = मुझे। सुआमी = हे सवामी! दुतीआ = दूसरी। बिराथे = व्यर्थ।1।
अर्थ: हे कृपा के खजाने! हे सारे गुणों के मालिक ठाकुर! हे सारे सुखों के नाथ! हे स्वामी! (अब हरेक सुख-दुख में) मुझे सिर्फ तेरी ही (सहायता की) आशा रहती है। कोई और दूसरी आशा मुझे व्यर्थ प्रतीत होती है।1।
[[1213]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैण त्रिपतासे देखि दरसावा गुरि कर धारे मेरै माथे ॥ कहु नानक मै अतुल सुखु पाइआ जनम मरण भै लाथे ॥२॥२०॥४३॥
मूलम्
नैण त्रिपतासे देखि दरसावा गुरि कर धारे मेरै माथे ॥ कहु नानक मै अतुल सुखु पाइआ जनम मरण भै लाथे ॥२॥२०॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैण = आँखें। त्रिपतासे = तृप्त हो गई हैं। देखि = देख के। गुरि = गुरु ने। कर = (अपने) हाथ (बहुवचन)। मेरै माथै = मेरे माथे पर। अतुल = जो तोला ना जा सके। भै = सारे डर (बहुवचन)।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जब से गुरु ने मेरे माथे पर अपना हाथ रखा है, मेरी आँखें (प्रभु के) दर्शन करके तृप्त हो गई हैं। मैंने इतना सुख पा लिया है कि वह तोला-नापा नहीं जा सकता, मेरे पैदा होने-मरने के भी सारे डर उतर गए हैं।2।20।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ रे मूड़्हे आन काहे कत जाई ॥ संगि मनोहरु अम्रितु है रे भूलि भूलि बिखु खाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ रे मूड़्हे आन काहे कत जाई ॥ संगि मनोहरु अम्रितु है रे भूलि भूलि बिखु खाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! आन कत = और कहाँ? काहे = क्यों? संगि = (तेरे) साथ। मनोहरु = मन को मोहने वाला। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रे = हे (मूर्ख)! भूलि भूलि = बार बार (इसको) भूल के। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! तू और कहीं क्यों भटकता फिरता है? आत्मिक जीवन देने वाला सुंदर हरि-नाम-जल तेरे साथ है, तूने उससे टूट-टूट के (अब तक) आत्मिक मौत लाने वाला जहर ही खाया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ सुंदर चतुर अनूप बिधाते तिस सिउ रुच नही राई ॥ मोहनि सिउ बावर मनु मोहिओ झूठि ठगउरी पाई ॥१॥
मूलम्
प्रभ सुंदर चतुर अनूप बिधाते तिस सिउ रुच नही राई ॥ मोहनि सिउ बावर मनु मोहिओ झूठि ठगउरी पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चतुर = समझदार। अनूप = (अन+ऊप) उपमा रहित। बिधाते = विधाता। तिसु सिउ = उससे। रुच = रुचि, प्रीति। राई = थोड़ा सा भी। मोहनि = मन को मोहने वाली माया। बावर = हे बावरे! झूठि = झूठ में, नाशवान में। ठगउरी = ठग-बूटी।1।
अर्थ: हे बावरे! परमात्मा सुंदर है, सुजान है, उपमा-रहित है, रचनहार है; उसके साथ रक्ती भर भी प्रीति नहीं। मन को मोह लेने वाली माया से तेरा मन परचा रहता है। नाशवान जगत में फसाने वाली यह ठग-बूटी ही तूने संभाल के रखी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ दइआलु क्रिपालु दुख हरता संतन सिउ बनि आई ॥ सगल निधान घरै महि पाए कहु नानक जोति समाई ॥२॥२१॥४४॥
मूलम्
भइओ दइआलु क्रिपालु दुख हरता संतन सिउ बनि आई ॥ सगल निधान घरै महि पाए कहु नानक जोति समाई ॥२॥२१॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुख हरता = दुखों का नाश करने वाला। सिउ = साथ। बनि आई = प्रीत बनी है। निधान = खजाने। घरै महि = हृदय घर में ही। जोति = परमात्मा की ज्योति में। समाई = लीन हो गई है।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) सारे दुखों को नाश करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान हो गया, उसकी प्रीति संत-जनों के साथ बन गई। उसने सारे खजाने हृदय-घर में ही पा लिए, परमात्मा की ज्योति में उसकी (सदा के लिए) लीनता हो गई।2।21।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ ओअं प्रिअ प्रीति चीति पहिलरीआ ॥ जो तउ बचनु दीओ मेरे सतिगुर तउ मै साज सीगरीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ ओअं प्रिअ प्रीति चीति पहिलरीआ ॥ जो तउ बचनु दीओ मेरे सतिगुर तउ मै साज सीगरीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओअं प्रीति = परमात्मा की प्रीति। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति। चीति = (मेरे) चिक्त में। पहिलरीआ = पहले की, आदि कदीमों की। जो बचनु = जो उपदेश। तउ = तूने। सतिगुर = हे सतिगुरु! त्उ = तब। सीगरीआ = श्रृंगारी गई।1। रहाउ।
अर्थ: हे सतिगुरु! (वैसे तो मेरे) चिक्त में प्यारे की प्रीति शुरू की ही (आदि-कदीमों से) (टिकी हुई है), पर जब तूने उपदेश दिया (वह प्रीति जाग उठी, और) मेरा आत्मिक जीवन सुंदर बन गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम भूलह तुम सदा अभूला हम पतित तुम पतित उधरीआ ॥ हम नीच बिरख तुम मैलागर लाज संगि संगि बसरीआ ॥१॥
मूलम्
हम भूलह तुम सदा अभूला हम पतित तुम पतित उधरीआ ॥ हम नीच बिरख तुम मैलागर लाज संगि संगि बसरीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। भूलह = हम भूलते हैं। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। उधरीआ = (विकारों से) बचाने वाला। बिरख = वृक्ष। मैलागर = मलय पर्वत पर उगने वाला चंदन। लाज = इज्जत। संगि = साथ। बसरीआ = बसने वाले।1।
अर्थ: हे गुरु! हम जीव (सदा) भूलें करते हैं, तू सदा अमोध है, हम जीव विकारों में गिरे रहते हैं, तू विकारियों को बचाने वाला है। हम (अरिण्ड जैसे) नीच वृक्ष हैं तू चंदन है, जो साथ बसने वाले पौधों को भी सुगंधित कर देता है। हे गुरु! तू अपने चरणों में रहने वालों की इज्जत रखने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम ग्मभीर धीर उपकारी हम किआ बपुरे जंतरीआ ॥ गुर क्रिपाल नानक हरि मेलिओ तउ मेरी सूखि सेजरीआ ॥२॥२२॥४५॥
मूलम्
तुम ग्मभीर धीर उपकारी हम किआ बपुरे जंतरीआ ॥ गुर क्रिपाल नानक हरि मेलिओ तउ मेरी सूखि सेजरीआ ॥२॥२२॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धीर = धीरज वाले। बपुरे = बेचारे, निमाणे। जंतरीआ = जंतु। गुर = हे गुरु! सूखि = सुख वाली। सेजरीआ = हृदय सेज।2।
अर्थ: हे गुरु! तू जिगरे वाला है, धैर्यवान है, उपकार करने वाला है, हम निमाणें जीवों की कोई बिसात नहीं है। हे नानक! (कह:) हे कृपालु गुरु! जब से तूने मेरा प्रभु से मेल करवाया, तब से मेरी हृदय-सेज सुख-भरपूर हो गई है।2।22।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मन ओइ दिनस धंनि परवानां ॥ सफल ते घरी संजोग सुहावे सतिगुर संगि गिआनां ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मन ओइ दिनस धंनि परवानां ॥ सफल ते घरी संजोग सुहावे सतिगुर संगि गिआनां ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! ओइ = वे। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। ते घरी = वह घड़ियाँ। संजोग = मिलाप के समय। सुहावे = सुंदर। गिआनां = आत्मिक जीवन की सूझ।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मन! वह दिन भाग्यशाली होते हैं, (प्रभु के दर पर) स्वीकार होते हैं। (जिंदगी की) वह घड़ियाँ सफल हैं, (गुरु से) मेल के वह पल खूबसूरत होते हैं, जब गुरु की संगति में (रह के) आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त होती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंनि सुभाग धंनि सोहागा धंनि देत जिनि मानां ॥ इहु तनु तुम्हरा सभु ग्रिहु धनु तुम्हरा हींउ कीओ कुरबानां ॥१॥
मूलम्
धंनि सुभाग धंनि सोहागा धंनि देत जिनि मानां ॥ इहु तनु तुम्हरा सभु ग्रिहु धनु तुम्हरा हींउ कीओ कुरबानां ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिनको (बहुवचन)। मानां = आदर। सभु = सारा। ग्रिह = घर। हींओ = हृदय।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अक्षर ‘उ’ व ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘हींउ’, यहाँ ‘हींओ’ पढ़ना है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों को तू (अपने दर पर) आदर देता है, वे धन्य हैं, भाग्यशाली हैं, किस्मत वाले हैं। हे प्रभु! मेरा यह शरीर तेरे हवाले है, मेरा सारा घर और धन तुझ पर से बलिहार है, मैं अपना हृदय (तेरे चरणों में) सदके करता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि लाख राज सुख पाए इक निमख पेखि द्रिसटानां ॥ जउ कहहु मुखहु सेवक इह बैसीऐ सुख नानक अंतु न जानां ॥२॥२३॥४६॥
मूलम्
कोटि लाख राज सुख पाए इक निमख पेखि द्रिसटानां ॥ जउ कहहु मुखहु सेवक इह बैसीऐ सुख नानक अंतु न जानां ॥२॥२३॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। निमख = आँख झपकने जितना समय। पेखि = देख के। द्रिसटाना = निगाह, दर्शन। जउ = अगर। मुखहु = मुँह से। सेवक = हे सेवक! यह = यहाँ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) आँख झपकने जितने समय के लिए तेरे दर्शन करके (मानो) राज-भाग के लाखों-करोड़ों सुख प्राप्त हो जाते हैं। अगर तू मुँह से कहे, ‘हे सेवक! यहाँ बैठ’, (मुझे इतना आनंद आता है कि उस) आनंछ का मैं अंत नहीं जान सकता।2।23।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब मोरो सहसा दूखु गइआ ॥ अउर उपाव सगल तिआगि छोडे सतिगुर सरणि पइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब मोरो सहसा दूखु गइआ ॥ अउर उपाव सगल तिआगि छोडे सतिगुर सरणि पइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोरो = मेरा। सहसा = सहम। उपाव = = उपाय, प्रयत्न।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जब से) मैं गुरु की शरण पड़ा हूँ, (मैंने मन को काबू करने के) और सारे उपाय छोड़ दिए हैं। (गुरु की शरण की इनायत से) अब मेरा हरेक सहम हरेक दुख दूर हो गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब सिधि कारज सभि सवरे अहं रोग सगल ही खइआ ॥ कोटि पराध खिन महि खउ भई है गुर मिलि हरि हरि कहिआ ॥१॥
मूलम्
सरब सिधि कारज सभि सवरे अहं रोग सगल ही खइआ ॥ कोटि पराध खिन महि खउ भई है गुर मिलि हरि हरि कहिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। पराध = अपराध। खउ = नाश। भई है = हो जाता है। सिधि = सिद्धियाँ। अहं = अहंकार। खइआ = नाश हो गया।1।
अर्थ: हे भाई! जब से मैंने गुरु को मिल के परमात्मा का नाम जपना शुरू किया है, एक छिन में ही मेरे करोड़ों अपराधों का नाश हो गया है, मुझे सारी रिद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त हो गई हैं, मेरे सारे काम सँवर गए हैं, मेरे अंदर से अहंकार का रोग सारा ही मिट गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच दास गुरि वसगति कीने मन निहचल निरभइआ ॥ आइ न जावै न कत ही डोलै थिरु नानक राजइआ ॥२॥२४॥४७॥
मूलम्
पंच दास गुरि वसगति कीने मन निहचल निरभइआ ॥ आइ न जावै न कत ही डोलै थिरु नानक राजइआ ॥२॥२४॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच = (कामादिक) पाँचों। गुरि = गुरु ने। वसगति = वश में। निहचल = अडोल। कत ही = कहीं भी। आइ न जावै = ना आता है ना जाता है, दौड़ भाग नहीं करता। थिरु = सदा कायम रहने वाला।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (कामादिक) पाँचों को मेरा दास बना दिया है, मेरे वश में कर दिया है, (इनके मुकाबले पर) मेरा मन अहिल हो गया है निडर हो गया है। हे नानक! (कह: गुरु की कृपा से मेरा मन अब) कहीं दौड़-भाग नहीं करता, कहीं नहीं डोलता (इसको, जैसे) सदा कायम रहने वाला राज मिल गया है।2।24।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ प्रभु मेरो इत उत सदा सहाई ॥ मनमोहनु मेरे जीअ को पिआरो कवन कहा गुन गाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ प्रभु मेरो इत उत सदा सहाई ॥ मनमोहनु मेरे जीअ को पिआरो कवन कहा गुन गाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इत = इस लोक में। उत = परलोक में। सहाई = सहायता करने वाला। जीअ को = जिंद का, प्राणों का। गाई = गा के। कवन गुन = कौन कौन से गुण? कहा = कहूँ, बताऊँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु, इस लोक में और परलोक में सदा सहायता करने वाला है। मेरे मन को मोहने वाला वह मेरा प्रभु मेरे प्राणों का प्यारा है। मैं उसके कौन-कौन से गुण गा के बताऊँ?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेलि खिलाइ लाड लाडावै सदा सदा अनदाई ॥ प्रतिपालै बारिक की निआई जैसे मात पिताई ॥१॥
मूलम्
खेलि खिलाइ लाड लाडावै सदा सदा अनदाई ॥ प्रतिपालै बारिक की निआई जैसे मात पिताई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खलि = खेल में। खिलाइ = खिला के। अनदाई = आनंद देने वाला। निआई = जैसा, की तरह। पिताई = पिता।1।
अर्थ: हे भाई! जैसे माता-पिता अपने बच्चे की पालना करते हैं, वैसे ही हमारा लालन-पालन करता है, वह हमें (जगत-) तमाशे में खेलाता है, लाड-लडाता है, वह सदा ही सुख देने वाला है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु बिनु निमख नही रहि सकीऐ बिसरि न कबहू जाई ॥ कहु नानक मिलि संतसंगति ते मगन भए लिव लाई ॥२॥२५॥४८॥
मूलम्
तिसु बिनु निमख नही रहि सकीऐ बिसरि न कबहू जाई ॥ कहु नानक मिलि संतसंगति ते मगन भए लिव लाई ॥२॥२५॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितने समय। मिलि = मिले, यदि मिले। ते = वे (बहुवचन)। लिव = लगन। लाई = लगा के।2।
अर्थ: हे भाई! उस (परमात्मा की याद) के बिना आँख झपकने जितनें समय के लिए भी नहीं रहा जा सकता, उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। हे नानक! कह– जो मनुष्य साध-संगति में मिलते हैं, वे मनुष्य परमात्मा में सुरति जोड़ के मस्त रहते हैं।2।25।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अपना मीतु सुआमी गाईऐ ॥ आस न अवर काहू की कीजै सुखदाता प्रभु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अपना मीतु सुआमी गाईऐ ॥ आस न अवर काहू की कीजै सुखदाता प्रभु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीतु = मित्र। सुआमी = मालिक। गाईअै = सिफत-सालाह करनी चाहिए। अवर काहू की = किसी भी और की। कीजै = करनी चाहिए। धिआईअै = सिमरना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु बिनु निमख नही रहि सकीऐ बिसरि न कबहू जाई ॥ कहु नानक मिलि संतसंगति ते मगन भए लिव लाई ॥२॥२५॥४८॥
मूलम्
तिसु बिनु निमख नही रहि सकीऐ बिसरि न कबहू जाई ॥ कहु नानक मिलि संतसंगति ते मगन भए लिव लाई ॥२॥२५॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितने समय। मिलि = मिले, यदि मिले। ते = वे (बहुवचन)। लिव = लगन। लाई = लगा के।2।
अर्थ: हे भाई! उस (परमात्मा की याद) के बिना आँख झपकने जितनें समय के लिए भी नहीं रहा जा सकता, उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। हे नानक! कह: जो मनुष्य साधु-संगत में मिलते हैं, वे मनुष्य परमात्मा में तवज्जो जोड़ के मस्त रहते हैं।2।25।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अपना मीतु सुआमी गाईऐ ॥ आस न अवर काहू की कीजै सुखदाता प्रभु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अपना मीतु सुआमी गाईऐ ॥ आस न अवर काहू की कीजै सुखदाता प्रभु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीतु = मित्र। सुआमी = मालिक। गाईऐ = महिमा करनी चाहिए। अवर काहू की = किसी भी और की। कीजै = करनी चाहिए। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु ही अपना असल मित्र है। उसकी महिमा करनी चाहिए। (परमात्मा के बिना) किसी भी और की आस नहीं करनी चाहिए, वह प्रभु ही सारे सुख देने वाला है, उसी का स्मरण करना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूख मंगल कलिआण जिसहि घरि तिस ही सरणी पाईऐ ॥ तिसहि तिआगि मानुखु जे सेवहु तउ लाज लोनु होइ जाईऐ ॥१॥
मूलम्
सूख मंगल कलिआण जिसहि घरि तिस ही सरणी पाईऐ ॥ तिसहि तिआगि मानुखु जे सेवहु तउ लाज लोनु होइ जाईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगलु = खुशियाँ। कलिआण = सुख। जिसहि घरि = जिस (प्रभु) के ही घर मे। पाईऐ = पड़ना चाहिए। तिआगि = छोड़ के। सेवहु = खुशामद करोगे। लाज = शर्म। लोनु = लोयण, आँखें। लाज लोनु = शर्मशार आँखों वाला।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के ही घर में सारे सुख हैं खुशियाँ हैं आनंद हैं, उसकी ही शरण पड़े रहना चाहिए। हे भाई! अगर तुम उस प्रभु को छोड़ के मनुष्य की खुशामद करते फिरोगे, तो शर्मसार होने पड़ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक ओट पकरी ठाकुर की गुर मिलि मति बुधि पाईऐ ॥ गुण निधान नानक प्रभु मिलिआ सगल चुकी मुहताईऐ ॥२॥२६॥४९॥
मूलम्
एक ओट पकरी ठाकुर की गुर मिलि मति बुधि पाईऐ ॥ गुण निधान नानक प्रभु मिलिआ सगल चुकी मुहताईऐ ॥२॥२६॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओट = आसरा। पकरी = पकड़ी है। गुर मिलि = गुरु को मिल के। गुण निधान = गुणों का खजाना। चुकी = समाप्त हो गई है। मुहताईऐ = मुथाजगी।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के जिस मनुष्य ने उच्च बुद्धि प्राप्त कर ली, उसने सिर्फ मालिक-प्रभु का ही आसरा लिया। हे नानक! सारे गुणों का खजाना प्रभु जिस मनुष्य को मिल गया, उसकी सारी अधीनता समाप्त हो गई।2।26।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ ओट सताणी प्रभ जीउ मेरै ॥ द्रिसटि न लिआवउ अवर काहू कउ माणि महति प्रभ तेरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ ओट सताणी प्रभ जीउ मेरै ॥ द्रिसटि न लिआवउ अवर काहू कउ माणि महति प्रभ तेरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओट = आसरा। सताणी = ताकत वाली, तगड़ी। मेरै = मेरे अंदर। द्रिसटि न लिआवउ = मैं निगाह में नहीं लाता। तेरै माणि = मेरे माण के आसरे। तेरै महति = तेरे बड़प्पन के आसरे। प्रभ = हे प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! मेरे हृदय में तेरा बहुत ताकतवर सहारा है। हे प्रभु! तेरे माण के आसरे तेरे बड़प्पन के आसरे मैं ओर किसी को निगाह में नहीं लाता (मैं किसी की तरफ देखता भी नहीं, किसी और को तेरे बराबर का नहीं समझता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंगीकारु कीओ प्रभि अपुनै काढि लीआ बिखु घेरै ॥ अम्रित नामु अउखधु मुखि दीनो जाइ पइआ गुर पैरै ॥१॥
मूलम्
अंगीकारु कीओ प्रभि अपुनै काढि लीआ बिखु घेरै ॥ अम्रित नामु अउखधु मुखि दीनो जाइ पइआ गुर पैरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभु ने। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया जहर। घरै = घेरे में। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अउखधु = दवा। मुखि = मुँह में। गुर पैरै = गुरु के चरणों पर।1।
अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्य को अंगीकार किया, उसको उस (प्रभु) ने आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर के घेरे में से निकाल लिया। वह मनुष्य गुरु के चरणों में जा गिरा, और, (गुरु ने उसके) मुँह में आत्मिक जीवन देने वाली नाम-दवा दी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन उपमा कहउ एक मुख निरगुण के दातेरै ॥ काटि सिलक जउ अपुना कीनो नानक सूख घनेरै ॥२॥२७॥५०॥
मूलम्
कवन उपमा कहउ एक मुख निरगुण के दातेरै ॥ काटि सिलक जउ अपुना कीनो नानक सूख घनेरै ॥२॥२७॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन उपमा = कौन कौन सी बड़ाई, महिमा? कहउ = मैं कहूँ? निरगुण = गुण हीन। दातेरै = दाते के। काटि = काट के। सिलक = फंदा। जउ = जब। घनेरै = बहुत।2।
अर्थ: हे भाई! गुण-हीनों को गुण देने वाले प्रभु की मैं अपने एक मुँह से कौन-कौन सी महिमा बयान करूँ? हे नानक! जब उसने किसी भाग्यशाली को उसके माया के फंदे काट के अपना बना लिया, उसको बेअंत सुख प्राप्त हो गए।2।27।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ प्रभ सिमरत दूख बिनासी ॥ भइओ क्रिपालु जीअ सुखदाता होई सगल खलासी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ प्रभ सिमरत दूख बिनासी ॥ भइओ क्रिपालु जीअ सुखदाता होई सगल खलासी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूख बिनासी = सारे दुखों का नाश करने वाला। जीअ दाता = जिंद देने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सारे दुखों का नाश किरने वाले प्रभु का स्मरण करने से प्राण देने वाला औक्र सुख देने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर दसावान होता है, सारे ही विकारों से उसकी खलासी हो जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवरु न कोऊ सूझै प्रभ बिनु कहु को किसु पहि जासी ॥ जिउ जाणहु तिउ राखहु ठाकुर सभु किछु तुम ही पासी ॥१॥
मूलम्
अवरु न कोऊ सूझै प्रभ बिनु कहु को किसु पहि जासी ॥ जिउ जाणहु तिउ राखहु ठाकुर सभु किछु तुम ही पासी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = बताओ। को = कौन? किसु पहि = किसके पास? जासी = जाएगा। ठाकुर = हे ठाकुर! तुम ही पासी = तेरे ही पास, तेरे ही वश में।1।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम-जपने वाले मनुष्य को) परमात्मा के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं सूझता (वह सदा यही कहता है:) बता, (हे भाई! प्रभु को छोड़ के) कौन किसके पास जा सकता है? (वह सदा अरदास करता है:) हे ठाकुर! जैसे हो सके वैसे मेरी रक्षा कर, हरेक चीज़ तेरे ही पास है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाथ देइ राखे प्रभि अपुने सद जीवन अबिनासी ॥ कहु नानक मनि अनदु भइआ है काटी जम की फासी ॥२॥२८॥५१॥
मूलम्
हाथ देइ राखे प्रभि अपुने सद जीवन अबिनासी ॥ कहु नानक मनि अनदु भइआ है काटी जम की फासी ॥२॥२८॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = दे के। प्रभि = प्रभु ने। सद जीवन = अटल जीवन वाले। अबिनासी = आत्मिक मौत से रहित। मनि = मन में। फासी = फंदा।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्यों को हाथ दे के रख लिया, वे अटल आत्मिक जीवन वाले बन गए, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती। उनके मन में आनंद बना रहता है, उनकी जमों वाला फंदा काटा जाता है।2।28।51।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरो मनु जत कत तुझहि सम्हारै ॥ हम बारिक दीन पिता प्रभ मेरे जिउ जानहि तिउ पारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरो मनु जत कत तुझहि सम्हारै ॥ हम बारिक दीन पिता प्रभ मेरे जिउ जानहि तिउ पारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। तुझहि = तुझे ही। समारै = याद करता है। दीन = गरीब। प्रभ = हे प्रभु! जिउ जानहि = जैसे तू जानता है। पारै = पार उतारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेरा मन हर जगह तुझे याद करता है।
हे मेरे प्रभु पिता! हम (तेरे) गरीब बच्चे हैं, जैसे हो सके वैसे (हमें संसार-समुंदर से) पार लंघ्ज्ञा ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब भुखौ तब भोजनु मांगै अघाए सूख सघारै ॥ तब अरोग जब तुम संगि बसतौ छुटकत होइ रवारै ॥१॥
मूलम्
जब भुखौ तब भोजनु मांगै अघाए सूख सघारै ॥ तब अरोग जब तुम संगि बसतौ छुटकत होइ रवारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मांगै = (बालक) माँगता है। अघाए = (जब) अघा जाता है, तृप्त हो जाता है। सघारै = सारे। तुम संगि = तेरे साथ। छुटकत = (तुझसे) विछुड़ा हुआ। रवारै = धूल, मिट्टी।1।
अर्थ: हे प्रभु! जब (बच्चा) भूखा होता है तब (खाने के लिए) भोजन माँगता है, जब अघा जाता है, तब उसको सारे सुख (प्रतीत होते हैं)। (इसी तरह ये जीव) जब तेरे से (तेरे चरणों में) बसता है, तब इसको कोई रोग नहीं सताता, (तुझसे) विछुड़ा हुआ (ये) मिट्टी हासे जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन बसेरो दास दासन को थापिउ थापनहारै ॥ नामु न बिसरै तब जीवनु पाईऐ बिनती नानक इह सारै ॥२॥२९॥५२॥
मूलम्
कवन बसेरो दास दासन को थापिउ थापनहारै ॥ नामु न बिसरै तब जीवनु पाईऐ बिनती नानक इह सारै ॥२॥२९॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसेरो = बस, जोर। को = का। थापि = थाप के, पैदा करके। उथापनहारै = नाश करने वाला है। पाईऐ = हासिल करते हैं। बिनती सारै = विनती करता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे दासों के दास का क्या जोर चल सकता है? तू स्वयं ही पैदा करने वाला है। (तेरा दास) नानक यह (ही) विनती करता है: जब तेरा नाम नहीं भूलता, तब (आत्मिक) जीवन हासिल होता है।2।29।52।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मन ते भै भउ दूरि पराइओ ॥ लाल दइआल गुलाल लाडिले सहजि सहजि गुन गाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मन ते भै भउ दूरि पराइओ ॥ लाल दइआल गुलाल लाडिले सहजि सहजि गुन गाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। भै भउ = डरों का डर, दुनिया के डरों का सहम। दूरि पराइओ = दूर चला गया। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। लाडिले गुन = प्यारे के गुण।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब) हर वक्त आत्मिक अडोलता में टिक के सुंदर दयालु प्रेम-रस में भीगे हुए प्यारे प्रभु के गुण मैंने गाने शुरू किए, तब मेरे मन से दुनिया के खतरों का सहम दूर हो गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बचनाति कमात क्रिपा ते बहुरि न कतहू धाइओ ॥ रहत उपाधि समाधि सुख आसन भगति वछलु ग्रिहि पाइओ ॥१॥
मूलम्
गुर बचनाति कमात क्रिपा ते बहुरि न कतहू धाइओ ॥ रहत उपाधि समाधि सुख आसन भगति वछलु ग्रिहि पाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कमात = कमाते हुए। क्रिपा ते = (उसकी) मेहर से। बहुरि = दोबारा। कतहू = और कहीं भी। न धाइओ = नहीं भटकता। उपाधि = विकार। आसन = टिकाव। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। ग्रिहि = हृदय घर में।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन को (प्रभु की) कृपा से कमाते हुए (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलते हुए अब मेरा मन) और किसी भी तरफ़ नहीं भटकता, (मेरा मन) विकारों से बच गया है, प्रभु-चरणों में लीनता के सुखों में टिक गया है, मैंने भक्ति से प्यार करने वाले प्रभु को हृदय-घर में पा लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाद बिनोद कोड आनंदा सहजे सहजि समाइओ ॥ करना आपि करावन आपे कहु नानक आपि आपाइओ ॥२॥३०॥५३॥
मूलम्
नाद बिनोद कोड आनंदा सहजे सहजि समाइओ ॥ करना आपि करावन आपे कहु नानक आपि आपाइओ ॥२॥३०॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाद = राग। बिनोद = करिश्मे तमाशे। कोड = करोड़ों। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। आपे = स्वयं ही। आपि आपाइओ = स्वयं ही स्वयं।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! अब मेरा मन) सदा ही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है,– (मानो) सारे रागों और तमाशों के करोड़ों ही आनंद प्राप्त हो गए हैं, (अब इस प्रकार निश्चय हो गया है कि) परमात्मा स्वयं ही सब कुछ करने वाला है स्वयं ही (जीवों से) करवाने वाला है, सब जगह स्वयं ही स्वयं है।2।30।53।
[[1215]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अम्रित नामु मनहि आधारो ॥ जिन दीआ तिस कै कुरबानै गुर पूरे नमसकारो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अम्रित नामु मनहि आधारो ॥ जिन दीआ तिस कै कुरबानै गुर पूरे नमसकारो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। मनहि आधारो = मन का आसरा। जिनि = जिस (गुरु) ने।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम (अब मेरे) मन का आसरा (बन गया) है। जिस (गुरु) ने (यह हरि-नाम मुझे) दिया है, मैं उससे सदके जाता हूँ, उस पूरे गुरु के आगे सिर झुकाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बूझी त्रिसना सहजि सुहेला कामु क्रोधु बिखु जारो ॥ आइ न जाइ बसै इह ठाहर जह आसनु निरंकारो ॥१॥
मूलम्
बूझी त्रिसना सहजि सुहेला कामु क्रोधु बिखु जारो ॥ आइ न जाइ बसै इह ठाहर जह आसनु निरंकारो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुहेला = सुखी। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। जारो = जला दिया है। आइ न जाइ = किसी भी तरफ भटकता नहीं। ठाहर = जगह। जह = जहाँ।1।
अर्थ: हे भाई! (अमृत नाम की इनायत से) मेरी तृष्ण्एा मिट गई है, मैं आत्मिक अडोलता में (टिक के) सुखी (हो गया) हूँ, आत्मिक मौत लाने वाले क्रोध-जहर को (अपने अंदर से) जला दिया है। (अब मेरा मन) किसी भी तरफ भटकता नहीं, उस ठिकाने पर ठहरा रहता है जहाँ परमात्मा का निवास है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकै परगटु एकै गुपता एकै धुंधूकारो ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई कहु नानक साचु बीचारो ॥२॥३१॥५४॥
मूलम्
एकै परगटु एकै गुपता एकै धुंधूकारो ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई कहु नानक साचु बीचारो ॥२॥३१॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै = (परमात्मा) स्वयं ही। गुपता = छुपा हुआ। धुंधूकारो = घोर अंधेरा। आदि = (जगत के) आरम्भ में। मधि = बीच के समय में, अब। अंति = (जगत के) आखिरी वक्त में। साचु = अटल, सदा कायम रहने वाला।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! अब मेरे अंदर यह) अटल विश्वास (बन गया) है कि जगत के आरम्भ में, अब बीच के समय (वर्तमान) में, जगत के आखिर में परमात्मा स्वयं ही स्वयं है। यह प्रत्यक्ष जगह वह स्वयं ही है, (इस जगत में) छुपी हुई (आत्मा भी) वह खुद ही है, घोर अंधेरा भी (जब कोई जगत-रचना नहीं थी) वह स्वयं ही है।2।31।54।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ बिनु प्रभ रहनु न जाइ घरी ॥ सरब सूख ताहू कै पूरन जा कै सुखु है हरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ बिनु प्रभ रहनु न जाइ घरी ॥ सरब सूख ताहू कै पूरन जा कै सुखु है हरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरी = (एक) घड़ी। सरब = सारे। ताहू कै = उसके हृदय में ही। जा कै = जिसके हृदय में। हरी = परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) के हृदय में सुखों का मूल परमात्मा आ बसता है, उस मनुष्य के ही (हृदय में) सारे सुख आ बसते हैं। वह मनुष्य परमात्मा की याद के बिना एक घड़ी भी नहीं रह सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंगल रूप प्रान जीवन धन सिमरत अनद घना ॥ वड समरथु सदा सद संगे गुन रसना कवन भना ॥१॥
मूलम्
मंगल रूप प्रान जीवन धन सिमरत अनद घना ॥ वड समरथु सदा सद संगे गुन रसना कवन भना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगल = खुशियाँ। सिमरत = स्मरण करते हुए। घना = बहुत। समरथु = ताकत वाला। सद = सदा। संगे = साथ। रसना = जीभ से। गुन कवन = कौन कौन से गुण? भनां = मैं उचारूँ।1।
अर्थ: हे भाई! वह प्रभु खुशियों का रूप है, प्राणों के जीवन का आसरा है, उसको स्मरण करते हुए बहुत से आनंद प्राप्त होते हैं। हे भाई! वह प्रभु बड़ी ताकतों का मालिक है, सदा ही सदा ही (हमारे) साथ रहता है। मैं अपनी जीभ के उसके कौन-कौन से गुण बयान करूँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
थान पवित्रा मान पवित्रा पवित्र सुनन कहनहारे ॥ कहु नानक ते भवन पवित्रा जा महि संत तुम्हारे ॥२॥३२॥५५॥
मूलम्
थान पवित्रा मान पवित्रा पवित्र सुनन कहनहारे ॥ कहु नानक ते भवन पवित्रा जा महि संत तुम्हारे ॥२॥३२॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थान = जगह (बहुवचन)। मान = मानने वाले। सुननहारे = सुनने वाले। करनहारे = कहने वाले। ते भवन = वे घर (बहुवचन)। जा महि = जो (घरों) में।2।
अर्थ: हे नानक! कह: हे प्रभु! (जहाँ तेरा नाम उचारा जाता है) वह जगह पवित्र हो जाती है, तेरे नाम को मानने वाले (श्रद्धा से मन में बसाने वाले) पवित्र हो जाते हैं, तेरे नाम को सुनने वाले और जपने वाले पवित्र हो जाते हैं। जिस घरों में तेरे संत जन बसते हैं वे पवित्र हो जाते हैं।2।32।55।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ रसना जपती तूही तूही ॥ मात गरभ तुम ही प्रतिपालक म्रित मंडल इक तुही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ रसना जपती तूही तूही ॥ मात गरभ तुम ही प्रतिपालक म्रित मंडल इक तुही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। गरभ = पेट। प्रतिपालक = पालने वाला। म्रित मंडल = जगत। इक = सिर्फ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेरी जीभ सदा तेरा जाप ही जपती है। माँ के पेट में तू ही (जीवों की) पालना करने वाला है, जगत में ही सिर्फ तू ही पालनहार है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमहि पिता तुम ही फुनि माता तुमहि मीत हित भ्राता ॥ तुम परवार तुमहि आधारा तुमहि जीअ प्रानदाता ॥१॥
मूलम्
तुमहि पिता तुम ही फुनि माता तुमहि मीत हित भ्राता ॥ तुम परवार तुमहि आधारा तुमहि जीअ प्रानदाता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुमहि = मुत ही। फुनि = भी। मीत = मित्र। हित = हितैषी। आधारा = आसरा। जीअ दाता = जिंद देने वाला।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही हमारा पिता है, तू ही हमारी माँ भी है, तू ही मित्र है तू ही हितैषी है और तू ही भाई है। तू ही हमारा परिवार है, तू ही आसरा है, तू ही जिंद देने वाला है, तू ही प्राण देने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमहि खजीना तुमहि जरीना तुम ही माणिक लाला ॥ तुमहि पारजात गुर ते पाए तउ नानक भए निहाला ॥२॥३३॥५६॥
मूलम्
तुमहि खजीना तुमहि जरीना तुम ही माणिक लाला ॥ तुमहि पारजात गुर ते पाए तउ नानक भए निहाला ॥२॥३३॥५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खजीना = खजाना। जरीना = ज़र। माणिक = मोती। पारजात = स्वर्ग का वह वृक्ष जो सारी मनो-कामनाएं पूरी करने वाला माना जाता है। गुर ते = गुरु से। तउ = तब।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही (मेरे लिए) खजाना है, तू ही मेरा धन-दौलत है, तू ही (मेरे लिए) हीरे-मोती है। तू ही (स्वर्ग का) पारजात वृक्ष है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जब तू गुरु के माध्यम से मिल जाता है, तब प्रसन्न-चिक्त हुआ जाता है।2।33।56।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ जाहू काहू अपुनो ही चिति आवै ॥ जो काहू को चेरो होवत ठाकुर ही पहि जावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ जाहू काहू अपुनो ही चिति आवै ॥ जो काहू को चेरो होवत ठाकुर ही पहि जावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाहू काहू = हर किसी को। चिति = चिक्त में। आवै = याद आती है। काहू को = किसी का। चेरो = सेवक, नौकर। ठाकुर = मालिक। पहि = पास।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हर किसी को (कोई) अपना ही (प्यारा) चिक्त में आता है। जो मनुष्य किसी का सेवक होता है, (वह सेवक अपने) मालिक के पास ही (जरूरत पड़ने पर) जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपने पहि दूख अपने पहि सूखा अपुने ही पहि बिरथा ॥ अपुने पहि मानु अपुने पहि ताना अपने ही पहि अरथा ॥१॥
मूलम्
अपने पहि दूख अपने पहि सूखा अपुने ही पहि बिरथा ॥ अपुने पहि मानु अपुने पहि ताना अपने ही पहि अरथा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरथा = व्यथा, दिल का दुख। ताना = ताकत, आसरा। अरथा = जरूरतें।1।
अर्थ: हे भाई! अपने स्नेही के पास दुख फोले जाते हैं अपने स्नेही के पास ही सुख की बातें की जाती हैं, अपने स्नेही के पास दिल का दुख बताया जाता है। अपने स्नेही पर मान किया जाता है, अपने ही स्नेही का आसरा देखा जाता है, अपने स्नेही को ही अपने जरूरतें बताई जाती हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किन ही राज जोबनु धन मिलखा किन ही बाप महतारी ॥ सरब थोक नानक गुर पाए पूरन आस हमारी ॥२॥३४॥५७॥
मूलम्
किन ही राज जोबनु धन मिलखा किन ही बाप महतारी ॥ सरब थोक नानक गुर पाए पूरन आस हमारी ॥२॥३४॥५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन ही = किनि ही, किसी ने। जोबनु = जवानी। मिलखा = जमीन। महतारी = माँ। गुर = हे गुरु!।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! किसी ने राज का मान किया, किसी ने जवानी को (अपनी समझा), किसी ने धन-धरती का मान किया, किसी ने पिता-माता का आसरा देखा। हे नानक! (कह:) हे गुरु! मैंने सारे पदार्थ तुझसे प्राप्त कर लिए हैं, मेरी हरेक आशा (तेरे दर से) पूरी होती है।2।34।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ झूठो माइआ को मद मानु ॥ ध्रोह मोह दूरि करि बपुरे संगि गोपालहि जानु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ झूठो माइआ को मद मानु ॥ ध्रोह मोह दूरि करि बपुरे संगि गोपालहि जानु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झूठो = सदा साथ ना निभने वाला। को = का। मद = नशा। ध्रोह = ठगी, द्रोह। बपुरे = हे बेचारे! हे निमाणे! संगि = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे अंजान! माया का नशा माया का अहंकार झूठा है (सदा कायम रहने वाला नहीं)। (माया का) मोह (अपने अंदर से) दूर कर, (माया की खातिर) द्रोह करना दूर कर, परमात्मा को हमेशा अपने साथ बसता समझ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिआ राज जोबन अरु उमरे मीर मलक अरु खान ॥ मिथिआ कापर सुगंध चतुराई मिथिआ भोजन पान ॥१॥
मूलम्
मिथिआ राज जोबन अरु उमरे मीर मलक अरु खान ॥ मिथिआ कापर सुगंध चतुराई मिथिआ भोजन पान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = नाशवान। अरु = और। उमरे = अमीर लोग। मीर = पातशाह। कापर = कपड़े। सुगंध = सुगंधियां। भोजन पान = खाने पीने के पदार्थ।1।
अर्थ: हे भाई! राज नाशवान है जवानी नाशवान है। अमीर बादशाह मालिक खान सभ नाशवान हैं (इन हकूमतों का नशा सदा कायम नहीं रहेगा)। ये कपड़े और सुगंधियाँ सब नाशवान हैं (इनके आसरे) चतुराई करना झूठा काम है। खाने-पीने के (बढ़िया) पदार्थ सब नाशवान हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन बंधरो दास दासरो संतह की सारान ॥ मांगनि मांगउ होइ अचिंता मिलु नानक के हरि प्रान ॥२॥३५॥५८॥
मूलम्
दीन बंधरो दास दासरो संतह की सारान ॥ मांगनि मांगउ होइ अचिंता मिलु नानक के हरि प्रान ॥२॥३५॥५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन बंधरो = हे दीन बँधु! हे गरीबों के सहायता करने वाले! सारान = शरण। मांगउ = माँगू, मैं माँगता हूँ। होइ अचिंता = अचिंत हो के, बेफिक्र हो के, पूरी श्रद्धा से। मांगनि = मांग (noun)।2।
अर्थ: हे गरीबों के मददगार! मैं तेरे दासों का दास हूँ, मैं तेरे संतों की शरण हूँ। हे नानक की जिंद-जान हरि! अन्य आसरे छोड़ के मैं (तेरे दर से) माँग माँगता हूँ कि मुझे दर्शन दे।2।35।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अपुनी इतनी कछू न सारी ॥ अनिक काज अनिक धावरता उरझिओ आन जंजारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अपुनी इतनी कछू न सारी ॥ अनिक काज अनिक धावरता उरझिओ आन जंजारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इतनी कछू = रक्ती भर भी। सारी = संभाली, संभाल की। धावरता = भाग दौड़। उरझिओ = फसा रहा। आन जंजारी = और-और जंजालों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे गवार! (जो आत्मिक जायदाद) अपनी (बनती थी, उसकी) रक्ती भर भी संभाल नहीं की। (तूने सारी उम्र) अनेक कामों में, अनेक दौड़-भागों में व अन्य जंजालों में ही फसा रहा।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
दिउस चारि के दीसहि संगी ऊहां नाही जह भारी ॥ तिन सिउ राचि माचि हितु लाइओ जो कामि नही गावारी ॥१॥
मूलम्
दिउस चारि के दीसहि संगी ऊहां नाही जह भारी ॥ तिन सिउ राचि माचि हितु लाइओ जो कामि नही गावारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिउस = दिन। चारि = (शब्छ ‘चार’ और ‘चारि’ में अंतर है। चार = सुंदर)। दीसहि = दिखते हैं। संगी = साथी। ऊहां = उस जगह। जह = जहाँ। भारी = बिपता मुश्किल। राचि माचि = रच मिच के। हितु = प्यार। कामि नही = काम नहीं आता। गावारी = हे गवार!।1।
अर्थ: हे गवार! (दुनिया वाले यह) साथी चार दिनों के ही (साथी) दिखते हैं, जहाँ बिपता पड़ती है, वहाँ ये (सहायता) नहीं (कर सकते)। हे गवार! तूने उनके साथ परच के प्यार डाला हुआ है जो (आखिर) तेरे काम नहीं आ सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ नाही नाही किछु मेरा ना हमरो बसु चारी ॥ करन करावन नानक के प्रभ संतन संगि उधारी ॥२॥३६॥५९॥
मूलम्
हउ नाही नाही किछु मेरा ना हमरो बसु चारी ॥ करन करावन नानक के प्रभ संतन संगि उधारी ॥२॥३६॥५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। बसु = वश। चारी = चारा, जोर। प्रभ = हे प्रभु! संगि = साथ। उधारी = उद्धार, बचा ले।2।
अर्थ: हे सब कुछ केर सकने की सामर्थ्य वाले! हे सब कुछ करा सकने वाले! हे नानक के प्रभु! मेरी कोई बिसात नहीं, (माया के मुकाबले में) मेरा कोई वश नहीं चलता मेरा कोई जोर नहीं चलता, मुझे अपने संतों की संगति में रख के (इस संसार-समुंदर से) मेरा पार-उतारा कर।2।36।59।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मोहनी मोहत रहै न होरी ॥ साधिक सिध सगल की पिआरी तुटै न काहू तोरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मोहनी मोहत रहै न होरी ॥ साधिक सिध सगल की पिआरी तुटै न काहू तोरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहनी = माया। होरी = रोकी हुई। रहै न = रुकती नहीं। साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = सिद्ध, योग साधना में सिद्ध-हस्त योगी। काहू = किसी से। तोरी = तोड़ी हुई।21। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मोहनी माया (जीवों को) अपने मोह में फसाती रहती है, किसी भी तरफ से रोकने से नहीं रुकती। योग-साधना करने वाले साधु, जोग-साधना में सिद्ध-हस्त योगी- (माया इन) सबकी ही प्यारी है। किसी भी तरह से (उसका प्यार) तोड़ने से नहीं टूटता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खटु सासत्र उचरत रसनागर तीरथ गवन न थोरी ॥ पूजा चक्र बरत नेम तपीआ ऊहा गैलि न छोरी ॥१॥
मूलम्
खटु सासत्र उचरत रसनागर तीरथ गवन न थोरी ॥ पूजा चक्र बरत नेम तपीआ ऊहा गैलि न छोरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खटु = छह। रसनागर = रसना+अग्र, मुँह जबानी। ना थोरी = कम नहीं होती, घटती नहीं। चक्र = शरीर पर गणेश आदि के निशान। ऊहा = वहाँ भी। गैलि = पीछा। न छोरी = नहीं छोड़ती।1।
अर्थ: हे भाई! छह शास्त्र मुंह-ज़बानी उचारने से, तीर्थों का रटन करने से भी (माया वाली प्रीति) कम नहीं होती। अनेक लोग हैं देव-पूजा करने वाले, (अपने शरीर के गणेश आदि के) निशान लगाने वाले, व्रत आदि के नियम निभाने वाले, तपक रने वाले। पर माया वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती (माया से मुक्ति नहीं मिलती)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध कूप महि पतित होत जगु संतहु करहु परम गति मोरी ॥ साधसंगति नानकु भइओ मुकता दरसनु पेखत भोरी ॥२॥३७॥६०॥
मूलम्
अंध कूप महि पतित होत जगु संतहु करहु परम गति मोरी ॥ साधसंगति नानकु भइओ मुकता दरसनु पेखत भोरी ॥२॥३७॥६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध कूप महि = (माया के मोह के) अंधे कूएं में। पतित होत = गिरता है। संतहु = हे संत जनो! परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मोरी = मेरी। मुकता = (माया के पंजे से) आजाद। भोरी = थोड़ा सा ही।2।
अर्थ: हे संत जनो! जगत माया के मोह के अंधे कूएँ में गिर रहा है (तुम मेहर करो) मेरी उच्च आत्मिक अवस्था बनाओ (और मुझे माया के पँजे में से बचाओ)। हे नानक! जो मनुष्य साधु-संगत में (परमात्मा का) थोड़ा-जितना भी दर्शन करता है, (वह माया के पंजे से) आजाद हो जाता है।2।37।60।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ कहा करहि रे खाटि खाटुली ॥ पवनि अफार तोर चामरो अति जजरी तेरी रे माटुली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ कहा करहि रे खाटि खाटुली ॥ पवनि अफार तोर चामरो अति जजरी तेरी रे माटुली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा करहि = तू क्या करता है? रे = हे भाई! खाटि = कमा के। खाटुली = (माया की) अनुचित कमाई। पवनि = हवा से। अफार = अफरा हुआ, फूला हुआ। तोर चामरो = तेरा चमड़ा, तेरा शरीर। अति = बहुत। जजरी = जर जरा, पुरानी। माटुली = मेरी काया।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मूर्ख)! (माया वाली) अनुचित कमाई कमा के तू क्या करता रहता है? हे मूर्ख! (तू ध्या नही नहीं देता कि) हवा से तेरी चमड़ी फूली हुई है, और, तेरा शरीर बहुत जरज़रा हो जा रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊही ते हरिओ ऊहा ले धरिओ जैसे बासा मास देत झाटुली ॥ देवनहारु बिसारिओ अंधुले जिउ सफरी उदरु भरै बहि हाटुली ॥१॥
मूलम्
ऊही ते हरिओ ऊहा ले धरिओ जैसे बासा मास देत झाटुली ॥ देवनहारु बिसारिओ अंधुले जिउ सफरी उदरु भरै बहि हाटुली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊही ते = वहीं से ही, धरती से ही। हरिओ = चुराया है। ऊहा = वहीं धरती में ही। बासा = बाशा, शिकारी पक्षी। झाटुली = झपट। अंधुले = हे अंधे! सफरी = राही। उदरु = पेट। बहि = बैठ के। हाटुली = किसी दुकान पर।1।
अर्थ: हे मूर्ख! जैसे बाशा माँस के लिए झपट्टा मारता है, वैसे ही तू भी धरती से ही (धन झपट मार के) छीनता है, और, धरती में ही संभाल के रखता है। हे (माया के मोह में) अंधें हुए मनुष्य! तूने सारे पदार्थ देने वाले प्रभु को भुला दिया है, जैसे कोई राही किसी दुकान पर बैठ के अपना पेट भरे जाता है (और, यह चेता ही बिसार देता है कि मेरा राह खोटा हो रहा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साद बिकार बिकार झूठ रस जह जानो तह भीर बाटुली ॥ कहु नानक समझु रे इआने आजु कालि खुल्है तेरी गांठुली ॥२॥३८॥६१॥
मूलम्
साद बिकार बिकार झूठ रस जह जानो तह भीर बाटुली ॥ कहु नानक समझु रे इआने आजु कालि खुल्है तेरी गांठुली ॥२॥३८॥६१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = स्वाद। जह = जहाँ। भीर = भीड़ी, साँकरी। बाटुली = बाट, पगडंडी। आज कालि = आज कल में, जल्दी ही। गांठली = गाँठ, प्राणों की गाँठ।2।
अर्थ: हे मूर्ख! तू विकारों के स्वादों में नाशवान पदार्थों के रसों में (मस्त है) जहाँ तूने जाना है, वह रास्ता (इन रसों के स्वादों के कारण) मुश्किल होता जा रहा है। हे नानक! कह: हे मूर्ख! जल्द ही तेरे प्राणों की गाँठ खुल जानी है।2।38।61।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ गुर जीउ संगि तुहारै जानिओ ॥ कोटि जोध उआ की बात न पुछीऐ तां दरगह भी मानिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ गुर जीउ संगि तुहारै जानिओ ॥ कोटि जोध उआ की बात न पुछीऐ तां दरगह भी मानिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर = हे गुरु! संगि तुहारै = तेरी संगति में। जानिओ = समझ आई है। जोध = योद्धे। उआ की = उन (योद्धाओं) की। न पुछीऐ = नहीं पूछी जानी। तां = (अगर तेरी संगति में रहे) तो। मानिओ = आदर मिलता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे सतिगुरु जी! तेरी संगति में (रह के) ये समझ आई है कि (जो जगत में) करोड़ों सूरमे (कहलवाते थे) उनकी जहाँ बात भी नहीं पूछी जाती (अगर तेरी संगति में टिके रहें) तो उस दरगाह में भी आदर मिलता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन मूलु प्रानी का कहीऐ कवन रूपु द्रिसटानिओ ॥ जोति प्रगास भई माटी संगि दुलभ देह बखानिओ ॥१॥
मूलम्
कवन मूलु प्रानी का कहीऐ कवन रूपु द्रिसटानिओ ॥ जोति प्रगास भई माटी संगि दुलभ देह बखानिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन मूलु = (रक्त बिंदु का) गंदा सा असल। कहीऐ = कहा जा सकता है। कवन रूपु = कैसी सुंदर सूरति। द्रिसटानिओ = दिखाई देती है। संगि = साथ। देह = शरीर। बखानिओ = कहते हैं।1।
अर्थ: (रक्त-बिंदु का) जीव का गंदा सा ही आदि कहा जाता है (पर इस गंदे मूल से भी) कैसी सुंदर शकल दिख जाती है। जब मिट्टी के अंदर (प्रभु की) ज्योति का प्रकाश होता है, तो इसको दुर्लभ (मनुष्य का) शरीर कहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम ते सेव तुम ते जप तापा तुम ते ततु पछानिओ ॥ करु मसतकि धरि कटी जेवरी नानक दास दसानिओ ॥२॥३९॥६२॥
मूलम्
तुम ते सेव तुम ते जप तापा तुम ते ततु पछानिओ ॥ करु मसतकि धरि कटी जेवरी नानक दास दसानिओ ॥२॥३९॥६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुम ते = तुझसे ही (हे गुरु!)। ततु = अस्लियत, सही जीवन रास्ता। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। धरि = धर के। दास दसानिओ = दासों का दास।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे सतिगुरु!) तुझसे ही (मैंने) सेवा-भक्ति की विधि सीखी, तुझसे ही जप-तप की समझ आई, तुझसे ही सही जीवन रास्ता समझा। हे गुरु! मेरे माथे पर तूने अपना हाथ रख के मेरे माया के मोह के फंदे को काट दिया है, मैं तेरे दासों का दास हूँ।2।39।62।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि हरि दीओ सेवक कउ नाम ॥ मानसु का को बपुरो भाई जा को राखा राम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि हरि दीओ सेवक कउ नाम ॥ मानसु का को बपुरो भाई जा को राखा राम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। का को बपुरो = किस का बेचारा है? भाई = हे भाई! जा को = जिस (मनुष्य) का।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने सेवक को परमात्मा अपना नाम स्वयं देता है। हे भाई! जिस मनुष्य का रखवाला परमात्मा स्वयं बनता है, मनुष्य किसका बेचारा है (कि उसका कुछ बिगाड़ सके?)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि महा जनु आपे पंचा आपि सेवक कै काम ॥ आपे सगले दूत बिदारे ठाकुर अंतरजाम ॥१॥
मूलम्
आपि महा जनु आपे पंचा आपि सेवक कै काम ॥ आपे सगले दूत बिदारे ठाकुर अंतरजाम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महा जनु = मुखिआ। पंचा = मुखिआ। कै काम = के कमों में (सहायक होता है)। दूत = वैरी। बिदारे = तबाह करता है। अंतरजामी = सबके दिल की जाने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही अपने सेवक के काम आता है, स्वयं ही (उसके वास्ते) मुखिया है। अंतरजामी मालिक-प्रभु स्वयं ही (अपने सेवक के) सारे बैरी समाप्त कर देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे पति राखी सेवक की आपि कीओ बंधान ॥ आदि जुगादि सेवक की राखै नानक को प्रभु जान ॥२॥४०॥६३॥
मूलम्
आपे पति राखी सेवक की आपि कीओ बंधान ॥ आदि जुगादि सेवक की राखै नानक को प्रभु जान ॥२॥४०॥६३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। पति = इज्जत। बंधान = बाँध, पक्का नियम। आदि = आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। जान = सुजान, जानी जान।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही अपने सेवक की इज्जत रखता है, (उसकी इज्जत बचाने के लिए) स्वयं ही पक्के नियम घड़ देता है। हे भाई! नानक का जानी-जान प्रभु आदि से जुगादि से अपने सेवक की इज्जत रखता आया है।2।40।63।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ तू मेरे मीत सखा हरि प्रान ॥ मनु धनु जीउ पिंडु सभु तुमरा इहु तनु सीतो तुमरै धान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ तू मेरे मीत सखा हरि प्रान ॥ मनु धनु जीउ पिंडु सभु तुमरा इहु तनु सीतो तुमरै धान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत = मित्र। सखा = सहाई। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सीतो = बना है, पला है। तुमरै धान = तेरी बख्शी हुई ख़ुराक से।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरे प्राणों का सहाई है। मेरा यह मेन धन मेरी ये जिंद ये शरीर - सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। मेरा यह शरीर तेरी ही बख्शी हुई ख़ुराक से पला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम ही दीए अनिक प्रकारा तुम ही दीए मान ॥ सदा सदा तुम ही पति राखहु अंतरजामी जान ॥१॥
मूलम्
तुम ही दीए अनिक प्रकारा तुम ही दीए मान ॥ सदा सदा तुम ही पति राखहु अंतरजामी जान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीए = दिए। अनिक प्रकारा = कई किस्मों के पदार्थ। मान = आदर। पति = इज्जत। जान = जानी जान।1।
अर्थ: हे प्रभु! हे दिल के जानने वाले! हे जानी-जान! मुझे तू ही अनेक किस्मों के पदार्थ देता है, तू ही सदा-सदा मेरी इज्जत रखता है।1।
[[1217]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन संतन जानिआ तू ठाकुर ते आए परवान ॥ जन का संगु पाईऐ वडभागी नानक संतन कै कुरबान ॥२॥४१॥६४॥
मूलम्
जिन संतन जानिआ तू ठाकुर ते आए परवान ॥ जन का संगु पाईऐ वडभागी नानक संतन कै कुरबान ॥२॥४१॥६४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तू = तुझे। ठाकुर = हे मालिक! ते = वे (बहुवचन)। आए = (जगत में) आए हुए। संगु = साथ। वडभागी = बड़े भाग्यों से। कै = से। कुरबान = सदके।2।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक! जिस सेत-जनों ने तुझे जान लिया (तेरे साथ गहरी सांझ डाल ली), उनका ही जगत में आना सफल है। हे नानक! (कह:) संत जनों की संगति बहुत भाग्यों से मिलती है। मैं तो संत-जनों से सदके जाता हूँ।2।41।64।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ करहु गति दइआल संतहु मोरी ॥ तुम समरथ कारन करना तूटी तुम ही जोरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ करहु गति दइआल संतहु मोरी ॥ तुम समरथ कारन करना तूटी तुम ही जोरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। दइआल = हे दया के श्रोत! स्ंतहु = हे संत जनो! मोरी = मेरी। समरथ = सब ताकतों के मालिक। कारन करना = जगत का मूल। करना = करण, जगत। जोरी = जोड़ी।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया के श्रोत संतजनो! (मेहर कर के) मेरी उच्च आत्मिक अवस्था कर दो। तुम सब ताकतों के मालिक और जगत के मूल परमात्मा का रूप हो। परमात्मा से टूटी हुई तवज्जो को तुम ही जोड़ने वाले हो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम के बिखई तुम तारे सुमति संगि तुमारै पाई ॥ अनिक जोनि भ्रमते प्रभ बिसरत सासि सासि हरि गाई ॥१॥
मूलम्
जनम जनम के बिखई तुम तारे सुमति संगि तुमारै पाई ॥ अनिक जोनि भ्रमते प्रभ बिसरत सासि सासि हरि गाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखई = विषयी, विकारी। सुमति = श्रेष्ठ बुद्धि। संगि = संगत में। भ्रमते = भटकते। बिसरत = बिसारते हुए। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। गाई = गाया।1।
अर्थ: हे संत जनो! अनेक जन्मों के विकारियों को तुम (विकारों से) बचा लेते हो, तुम्हारी संगति में रहने से श्रेष्ठ-बुद्धि प्राप्त हो जाती है। परमात्मा को भुला के अनेक जूनियों में भटकते हुओं ने भी (तुम्हारी संगति में) हरेक साँस के साथ प्रभु की महिमा आरम्भ कर दी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो संगि मिले साधू कै ते ते पतित पुनीता ॥ कहु नानक जा के वडभागा तिनि जनमु पदारथु जीता ॥२॥४२॥६५॥
मूलम्
जो जो संगि मिले साधू कै ते ते पतित पुनीता ॥ कहु नानक जा के वडभागा तिनि जनमु पदारथु जीता ॥२॥४२॥६५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। साधू कै संगि = गुरु की संगति में। ते ते = वह सारे। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीता = पवित्र, स्वच्छ जीवन वाले। जा के = जिस (मनुष्य) के। तिनि = उस (मनुष्य) ने। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जन्म।2।
अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य गुरु की संगति में मिलते हैं, वे सारे विकारों (भरे जीवन) से (हट कर) स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं। हे नानक! कह: जिस मनुष्य के बड़े भाग्य जाग उठे, उसने (संत जनों की संगति में रह के) ये कीमती मनुष्य जन्म (विकारों के आगे) हारने से बचा लिया।2।42।65।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ ठाकुर बिनती करन जनु आइओ ॥ सरब सूख आनंद सहज रस सुनत तुहारो नाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ ठाकुर बिनती करन जनु आइओ ॥ सरब सूख आनंद सहज रस सुनत तुहारो नाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक प्रभु! जनु = (तेरा) दास। सरब = सारे। सहज = आत्मिक अडोलता। सुनत = सुनते हुए। तुहारो नाइओ = तेरा नाम।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभु! (तेरा) दास (तेरे दर पे) विनती करने आया है। तेरा नाम सुनते हुए आत्मिक अडोकलता के सारे सुख सारे आनंद सारे रस (मिल जाते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिपा निधान सूख के सागर जसु सभ महि जा को छाइओ ॥ संतसंगि रंग तुम कीए अपना आपु द्रिसटाइओ ॥१॥
मूलम्
क्रिपा निधान सूख के सागर जसु सभ महि जा को छाइओ ॥ संतसंगि रंग तुम कीए अपना आपु द्रिसटाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपा निधान = हे मेहर के खजाने! सागर = हे समुंदर! जसु = शोभा। जा को = जिसका। छाइओ = बिखरा हुआ। रंग = आनंद करिश्मे। आपु = अपने आप को। द्रिसटाइओ = प्रकट करता है।1।
अर्थ: हे दया के खजाने! हे सुखों के समुंदर! (तू ऐसा है) जिसकी शोभा सारी सृष्टि में अपना प्रभाव डालती है। संतों की संगति में तू अनेक आनंद-करिश्मे करता है, और, अपने आप को प्रकट करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनहु संगि संतन की सेवा चरन झारी केसाइओ ॥ आठ पहर दरसनु संतन का सुखु नानक इहु पाइओ ॥२॥४३॥६६॥
मूलम्
नैनहु संगि संतन की सेवा चरन झारी केसाइओ ॥ आठ पहर दरसनु संतन का सुखु नानक इहु पाइओ ॥२॥४३॥६६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैनहु संगि = आँखों के साथ। झारी = मैं झाड़ता हूँ। केसाइओ = केसों से।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर) आँखों से (दर्शन कर के) मैं संत जनों की सेवा करता रहूँ, उनके चरण अपने केसों से झाड़ता रहूँ। मैं आठों पहर संत जनों के दर्शन करता रहूँ, मुझे यह सुख मिला रहे।2।43।66।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ जा की राम नाम लिव लागी ॥ सजनु सुरिदा सुहेला सहजे सो कहीऐ बडभागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ जा की राम नाम लिव लागी ॥ सजनु सुरिदा सुहेला सहजे सो कहीऐ बडभागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा की लिव = जिस मनुष्य की लगन। सजनु = भला मनुष्य। सुरिदा = सुंदर हृदय वाला। सुहेला = सुखी। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिका हुआ। कहीऐ = कहा जा सकता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य की लगन परमात्मा के नाम के साथ लग जाती है, वह भला मनुष्य बन जाता है, वह सुंदर हृदय वाला हो जाता है, वह सुखी हो जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। उसको बहुत भाग्यशाली कहना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहित बिकार अलप माइआ ते अह्मबुधि बिखु तिआगी ॥ दरस पिआस आस एकहि की टेक हीऐं प्रिअ पागी ॥१॥
मूलम्
रहित बिकार अलप माइआ ते अह्मबुधि बिखु तिआगी ॥ दरस पिआस आस एकहि की टेक हीऐं प्रिअ पागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहित = बचा हुआ। अलप = अलिप्त, निर्लिप। ते = से। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। पिआस = तमन्ना। आस = उम्मीद। एकहि की = एक परमात्मा की ही। टेक = आसरा। हीअैं = हृदय में। प्रिअ लागी = प्यारे के पैरों की, प्यारे के चरणों की।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य की तवज्जो परमात्मा के नाम में जुड़ती है, वह) विकारों से बचा रहता है, माया से निर्लिप रहता है, आत्मिक मौत लाने वाला अहंकार-जहर वह त्याग देता है। उसको सिर्फ परमात्मा के दर्शनों की तमन्ना और इन्तजार बना रहता है, वह मनुष्य अपने हृदय में प्यारे प्रभु के चरणों का आसरा बनाए रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिंत सोइ जागनु उठि बैसनु अचिंत हसत बैरागी ॥ कहु नानक जिनि जगतु ठगाना सु माइआ हरि जन ठागी ॥२॥४४॥६७॥
मूलम्
अचिंत सोइ जागनु उठि बैसनु अचिंत हसत बैरागी ॥ कहु नानक जिनि जगतु ठगाना सु माइआ हरि जन ठागी ॥२॥४४॥६७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचिंत = चिन्ता रहित। सोइ जागनु = सो के जागना। उठि बैसनु = उठ के बैठना। सोइ…बैसनु = सोते हुए जागते हुए उठते हुए बैठे हुए। हसत = हसते हुए। बैरागी = वैराग करते हुए। जिनि = जिस (माया) ने। हरि जन = हरि के जनों ने।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के रखने वाला मनुष्य) सोता-जागता उठता-बैठता, हसता, वैराग करता - हर वक्त ही चिन्ता-रहित रहता है। हे नानक! कह: जिस माया ने सारे जगत को भरमाया है, संत जनों ने उस माया को अपने वश में रखा हुआ है।2।44।67।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अब जन ऊपरि को न पुकारै ॥ पूकारन कउ जो उदमु करता गुरु परमेसरु ता कउ मारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अब जन ऊपरि को न पुकारै ॥ पूकारन कउ जो उदमु करता गुरु परमेसरु ता कउ मारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई (मनुष्य)। पुकारै = दूषण लगाता, उंगली करता। पूकारन कउ = दूषण लगाने के लिए। ता कउ = उस (मनुष्य) को। मारै = (आत्मिक मौत) मारता है, आत्मिक जीवन तुच्छ कर देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब मनुष्य गुरु के वचनों पर चल कर हरि-नाम जपता है) तब उस सेवक पर कोई मनुष्य कोई दूषण नहीं लगा सकता। जो मनुष्य प्रभु के सेवक पर दूषणबाज़ी का प्रयत्न करता है, गुरु परमात्मा उसका आत्मिक जीवन नीच कर देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरवैरै संगि वैरु रचावै हरि दरगह ओहु हारै ॥ आदि जुगादि प्रभ की वडिआई जन की पैज सवारै ॥१॥
मूलम्
निरवैरै संगि वैरु रचावै हरि दरगह ओहु हारै ॥ आदि जुगादि प्रभ की वडिआई जन की पैज सवारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। रचावै = सहेड़ता है। हारै = हार जाता है, जीवन बाज़ी हार जाता है, आत्मिक जीवन के तोल में पूरा नहीं उतरता। जुगादि = जुगासें के आरम्भ से। वडिआई = बिरद। पैज = इज्जत।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य कभी किसी के साथ वैर नहीं करता, उसके साथ जो भी वैर कमाता है, वह मनुष्य परमात्मा की दरगाह में आत्मिक जीवन की कसौटी पर पूरा नहीं उतरता। हे भाई! जगत के आरम्भ से, जुगों की शुरूवात से ही परमात्मा का यह गुण (बिरद) चला आ रहा है कि वह अपने सेवक की इज्जत रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ भए सगल भउ मिटिआ चरन कमल आधारै ॥ गुर कै बचनि जपिओ नाउ नानक प्रगट भइओ संसारै ॥२॥४५॥६८॥
मूलम्
निरभउ भए सगल भउ मिटिआ चरन कमल आधारै ॥ गुर कै बचनि जपिओ नाउ नानक प्रगट भइओ संसारै ॥२॥४५॥६८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारा। आधारै = आसरे, आसरा लेने से। कै बचनि = के वचन से, के वचन पर चलने से। संसारै = संसार में।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुदर चरणों का आसरा लेने से प्रभु का सेवक निर्भय हो जाता है, उसका (दुनियावी) हरेक डर मिट जाता है। हे नानक! (कह:) गुरु के उपदेश पर चल के जिसने भी परमात्मा का नाम जपा, वह जगत में नामवर (मशहूर) हो गया।2।45।68।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि जन छोडिआ सगला आपु ॥ जिउ जानहु तिउ रखहु गुसाई पेखि जीवां परतापु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि जन छोडिआ सगला आपु ॥ जिउ जानहु तिउ रखहु गुसाई पेखि जीवां परतापु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन = प्रभु के सेवकों ने। आपु = स्वै भाव, अहम्। गुसाई = हे जगत के साई! पेखि = देख के। जीवां = मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (जैसे) तेरे भक्तों ने स्वै भाव त्यागा होता है (और, तेरे दर पर आरजू करते हैं वैसे ही मैं भी स्वै-भाव छोड़ के विनती करता हूँ-) हे जगत के पति! जैसे हो सके वैसे (इस माया के हाथ से) मेरी रक्षा कर। तेरा प्रताप देख के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर उपदेसि साध की संगति बिनसिओ सगल संतापु ॥ मित्र सत्र पेखि समतु बीचारिओ सगल स्मभाखन जापु ॥१॥
मूलम्
गुर उपदेसि साध की संगति बिनसिओ सगल संतापु ॥ मित्र सत्र पेखि समतु बीचारिओ सगल स्मभाखन जापु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर उपदेसि = गुरु के उपदेश से। संतापु = दुख-कष्ट। सत्र = शत्रु, वैरी। समतु = एक समान। संभाखनु = बोल चाल।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के उपदेश से, साधु-संगत की इनायत से (जिस मनुष्य के अंदर से) सारा दुख-कष्ट नाश हो जाता है, वह अपने मित्रों-वैरियों को देख के (सबमें प्रभु की ही ज्योति) एक-समान समझता है, परमात्मा के नाम का जपना ही उसकी हर वक्त की बोलचाल है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपति बुझी सीतल आघाने सुनि अनहद बिसम भए बिसमाद ॥ अनदु भइआ नानक मनि साचा पूरन पूरे नाद ॥२॥४६॥६९॥
मूलम्
तपति बुझी सीतल आघाने सुनि अनहद बिसम भए बिसमाद ॥ अनदु भइआ नानक मनि साचा पूरन पूरे नाद ॥२॥४६॥६९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपति = जलन। आघाने = तृप्त हो गए। सुनि = सुन के। अनहद = एक रस नाम की धुनि। बिसम = हैरान, आश्चर्य। मनि = मन मे। साचा = सदा कायम रहने वाला। पूरन = पूरे तौर पर। पूरे नाद = नाद पूरे हो जाते हैं, नाद बजते हें, महिमा की घनघोर होती है (जैसे, शंख पूरना = शंख बजाना)।2।
अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्यों के) मन में सदा-स्थिर प्रभु आ बसता है, (उनके अंदर की) जलन बुझ जाती है, (उनका हृदय) शांत हो जाता है, वह (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं; एक-रस नाम की धुनि सुन के वह आश्चर्य हुए रहते हैं, उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है (जैसे कि उनके अंदर) पूरे तौर पर शंख आदि नाद बज रहे हैं।2।46।69।
[[1218]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरै गुरि मोरो सहसा उतारिआ ॥ तिसु गुर कै जाईऐ बलिहारी सदा सदा हउ वारिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरै गुरि मोरो सहसा उतारिआ ॥ तिसु गुर कै जाईऐ बलिहारी सदा सदा हउ वारिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै गुरि = मेरे गुरु ने। मोरो = मेरा। सहसा = सहम, दोचिक्ता पन। कै = से। वारिआ = कुर्बान, सदके।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे गुरु ने (मेरे अंदर से हर वक्त का) सहम दूर कर दिया है। हे भाई! मैं (उस गुरु से) सदा सदा ही सदके जाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का नामु जपिओ दिनु राती गुर के चरन मनि धारिआ ॥ गुर की धूरि करउ नित मजनु किलविख मैलु उतारिआ ॥१॥
मूलम्
गुर का नामु जपिओ दिनु राती गुर के चरन मनि धारिआ ॥ गुर की धूरि करउ नित मजनु किलविख मैलु उतारिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन मे। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मजनु = स्नान। किलविख = पाप।1।
अर्थ: हे भाई! मैं दिन-रात (अपने) गुरु का नाम याद रखता हूँ, मैं अपने मन में गुरु के चरण टिकाए रखता हूँ (भाव, अदब-सत्कार से गुरु की याद हृदय में बसाए रखता हूँ)। मैं सदा गुरु के चरणों की धूल में स्नान करता रहता हूँ, (इस स्नान ने मेरे मन से) पापों की मैल उतार दी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूरे की करउ नित सेवा गुरु अपना नमसकारिआ ॥ सरब फला दीन्हे गुरि पूरै नानक गुरि निसतारिआ ॥२॥४७॥७०॥
मूलम्
गुर पूरे की करउ नित सेवा गुरु अपना नमसकारिआ ॥ सरब फला दीन्हे गुरि पूरै नानक गुरि निसतारिआ ॥२॥४७॥७०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सारे। गुरि = गुरु ने। निसतारिओ = पार लंघा दिया है।2।
अर्थ: हे भाई! मैं सदा पूरे गुरु की (बताई हुई) सेवा करता हूँ, गुरु के आगे सिर झुकाए रखता हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) पूरे गुरु ने मुझे (दुनिया के) सारे (मुँह-माँगे) फल दिए हैं, गुरु ने (मुझे जगत के विकारों से) पार लंघा लिया है।2।47।70।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ सिमरत नामु प्रान गति पावै ॥ मिटहि कलेस त्रास सभ नासै साधसंगि हितु लावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ सिमरत नामु प्रान गति पावै ॥ मिटहि कलेस त्रास सभ नासै साधसंगि हितु लावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। त्रास = डरा। सभ = सारा। हितु = प्यार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए मनुष्य जीवन की ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। जो मनुष्य साधु-संगत में प्यार डालता है, उसके सारे कष्ट मिट जाते हैं, उसका हरेक डर दूर हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि हरि हरि मनि आराधे रसना हरि जसु गावै ॥ तजि अभिमानु काम क्रोधु निंदा बासुदेव रंगु लावै ॥१॥
मूलम्
हरि हरि हरि हरि मनि आराधे रसना हरि जसु गावै ॥ तजि अभिमानु काम क्रोधु निंदा बासुदेव रंगु लावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। आराधे = आराधता है, स्मरण करता है। रसना = जीभ से। तजि = त्याग के। वासुदेव रंगु = परमात्मा का प्यार।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) सदा (अपने) मन में परमात्मा की आराधना करता रहता है, जो अपनी जीभ से प्रभु की महिमा गाता रहता है, वह मनुष्य (अपने अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार-निंदा (आदि विकार) दूर करके (अपने अंदर) परमात्मा का प्रेम पैदा कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दामोदर दइआल आराधहु गोबिंद करत सुोहावै ॥ कहु नानक सभ की होइ रेना हरि हरि दरसि समावै ॥२॥४८॥७१॥
मूलम्
दामोदर दइआल आराधहु गोबिंद करत सुोहावै ॥ कहु नानक सभ की होइ रेना हरि हरि दरसि समावै ॥२॥४८॥७१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दामोदर = दाम+उदर, परमात्मा। आराधहु = स्मरण किया करो। सुोहावै = सुंदर लगता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सुोहावै’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘सोहावै, यहां ‘सुहावै’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
रेना = चरणों की धूल। दरसि = दर्शन में।2।
अर्थ: हे भाई! दया के श्रोत परमात्मा का नाम स्मरण करते रहा करो। गोबिंद (का नाम) स्मरण करते हुए ही जीवन सुंदर बनता है। हे नानक! कह: सबकी चरण-धूल हो के मनुष्य परमात्मा के दर्शन में लीन हुआ रहता है।2।48।71।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अपुने गुर पूरे बलिहारै ॥ प्रगट प्रतापु कीओ नाम को राखे राखनहारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अपुने गुर पूरे बलिहारै ॥ प्रगट प्रतापु कीओ नाम को राखे राखनहारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारै = सदके। को = का। राखनहारै = रक्षा करने वाले ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ। (गुरु परमात्मा के) नाम का प्रताप (जगत में) प्रसिद्ध करता है। रक्षा करने की समर्थता वाला प्रभु (नाम जपने वालों को अनेक दुखों से) बचाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ कीए सेवक दास अपने सगले दूख बिदारै ॥ आन उपाव तिआगि जन सगले चरन कमल रिद धारै ॥१॥
मूलम्
निरभउ कीए सेवक दास अपने सगले दूख बिदारै ॥ आन उपाव तिआगि जन सगले चरन कमल रिद धारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिदारै = नाश कर देता है। आन = अन्य, और। उपाव = उपाय, प्रयत्न। तिआगि = त्याग के। धारै = टिकाता है। रिद = हृदय में। सगले उपाव = सारे उपाय।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से ही) प्रभु अपने सेवकों दासों को (दुखों विकारों के मुकाबले के लिए) दलेर कर देता है, (सेवकों के) सारे दुख नाश करता है। (प्रभु का) सेवक (भी) और सारे उपाय छोड़ के परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रान अधार मीत साजन प्रभ एकै एकंकारै ॥ सभ ते ऊच ठाकुरु नानक का बार बार नमसकारै ॥२॥४९॥७२॥
मूलम्
प्रान अधार मीत साजन प्रभ एकै एकंकारै ॥ सभ ते ऊच ठाकुरु नानक का बार बार नमसकारै ॥२॥४९॥७२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधार = आसरा। एकंकारै = परमात्मा (ही)। ते = से। ठाकुरु = मालिक प्रभु। बार बार = मुड़ मुड़ के।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की मेहर से नाम जपते हैं, उनको ये निश्चय हो जाता है कि) सिर्फ परमात्मा ही सिर्फ प्रभु ही प्राणों का आसरा है और सज्जन-मित्र है। हे भाई! (दास) नानक का (तो परमात्मा ही) सबसे ऊँचा मालिक है। (नानक) सदा बार-बार (परमात्मा को ही) सिर झुकाता है।2।49।72।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ बिनु हरि है को कहा बतावहु ॥ सुख समूह करुणा मै करता तिसु प्रभ सदा धिआवहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ बिनु हरि है को कहा बतावहु ॥ सुख समूह करुणा मै करता तिसु प्रभ सदा धिआवहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कौन? कहा = कहाँ? बतावहु = बताओ। सुख समूह = सारे सुखों का मूल। करुणा मै = करुणामय, तरस रूप। करता = कर्तार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! बताओ, परमात्मा के बिना और कौन (सहायता करने वाला) है और कहाँ है? वह विधाता सारे सुखों का श्रोत है, वह प्रभु करुणामय है।
हे भाई! सदा उसका स्मरण करते रहो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै सूति परोए जंता तिसु प्रभ का जसु गावहु ॥ सिमरि ठाकुरु जिनि सभु किछु दीना आन कहा पहि जावहु ॥१॥
मूलम्
जा कै सूति परोए जंता तिसु प्रभ का जसु गावहु ॥ सिमरि ठाकुरु जिनि सभु किछु दीना आन कहा पहि जावहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूति = सूत्र में। जा कै सूति = जिस के हुक्म रूपी धागे में। जसु = यश, महिमा का गीत। सिमरि = सिरा करो। जिनि = जिस (ठाकुर) ने। कहा = कहाँ? आन पहि = किसी और के पास।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के (हुक्म-रूप) धागे में सारे जीव परोए हुए हैं, उसकी महिमा के गीत गाते रहा करो। जिस (मालिक-प्रभु) ने हरेक चीज दी हुई है उसका स्मरण8 किया करो। (उसका आसरा छोड़ के) और कहाँ किसके पास जाते हो?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल सेवा सुआमी मेरे की मन बांछत फल पावहु ॥ कहु नानक लाभु लाहा लै चालहु सुख सेती घरि जावहु ॥२॥५०॥७३॥
मूलम्
सफल सेवा सुआमी मेरे की मन बांछत फल पावहु ॥ कहु नानक लाभु लाहा लै चालहु सुख सेती घरि जावहु ॥२॥५०॥७३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल = फल देने वाली। सेवा = भक्ति। मन बांछत = मन मांगे। लाहा = लाभ। लै = ले के। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु के चरणों में।2।
अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक-प्रभु की ही भक्ति सारे फल देने वाली है (उसके दर से ही) मान-माँगे फल प्रासप्त कर सकते हो। हे नानक! कह: हे भाई! (जगत से परमात्मा की भक्ति का) लाभ कमा के चलो, बड़े आनंद से प्रभु के चरणों में पहुँचोगे।2।50।73।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ ठाकुर तुम्ह सरणाई आइआ ॥ उतरि गइओ मेरे मन का संसा जब ते दरसनु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ ठाकुर तुम्ह सरणाई आइआ ॥ उतरि गइओ मेरे मन का संसा जब ते दरसनु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक प्रभु! संसा = सहम। जब ते = जब से।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभु! (मैं) तेरी शरण आया हूँ। जब से मैंने तेरे दर्शन किए हैं (तब से ही) मेरे मन से (हरेक) सहम उतर गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनबोलत मेरी बिरथा जानी अपना नामु जपाइआ ॥ दुख नाठे सुख सहजि समाए अनद अनद गुण गाइआ ॥१॥
मूलम्
अनबोलत मेरी बिरथा जानी अपना नामु जपाइआ ॥ दुख नाठे सुख सहजि समाए अनद अनद गुण गाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अन बोलत = बिना बोले। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख। जानी = तूने जान ली है। नाठे = भाग गए हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अनद = आनंद।1।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभु! तूने (सदा ही मेरे) बिना बोले मेरा दुख समझ लिया है, तूने खुद ही मुझसे अपना नाम जपाया है। जब से बड़े आनंद से मैं तेरे गुण गाता हूँ, मेरे (सारे) दुख दूर हो गए हैं, सुखों में आत्मिक अडोलता में मैं मगन रहता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह पकरि कढि लीने अपुने ग्रिह अंध कूप ते माइआ ॥ कहु नानक गुरि बंधन काटे बिछुरत आनि मिलाइआ ॥२॥५१॥७४॥
मूलम्
बाह पकरि कढि लीने अपुने ग्रिह अंध कूप ते माइआ ॥ कहु नानक गुरि बंधन काटे बिछुरत आनि मिलाइआ ॥२॥५१॥७४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पकरि = पकड़ के। ग्रिह अंध कूप ते माइआ = माया (के) अंध कूप गृह से, माया के अंधे कूएँ घर से। गुरि = गुरु ने। आनि = ला के।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) अपने (सेवकों) की बाँह पकड़ के उनको माया के (मोह के) अंधे कूएँ में से अंधेरे घर में से निकाल लेता है। हे नानक! कह: गुरु ने (जिस मनुष्य के माया के मोह के) फंदों को काट दिया, (प्रभु चरणों से) उस विछुड़े हुए को ला के (प्रभु चरणों में) मिला दिया।2।51।74।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि के नाम की गति ठांढी ॥ बेद पुरान सिम्रिति साधू जन खोजत खोजत काढी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि के नाम की गति ठांढी ॥ बेद पुरान सिम्रिति साधू जन खोजत खोजत काढी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = हालत, तासीर, प्रभाव। ठांढी = ठंढक देने वाली, शांति देने वाली। खोजत = खोज करते हुए। काढी = कही है, बताई है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम शांति देने वाली गति है; यही बातें वेदों-पुराणों-स्मृतियों और साधु-जनों ने खोज-खोज के बताई हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव बिरंच अरु इंद्र लोक ता महि जलतौ फिरिआ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी भए सीतल दूखु दरदु भ्रमु हिरिआ ॥१॥
मूलम्
सिव बिरंच अरु इंद्र लोक ता महि जलतौ फिरिआ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी भए सीतल दूखु दरदु भ्रमु हिरिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव = शिव (-लोक)। बिरंच = ब्रहमा, ब्रहम (-लोक)। अरु = और (अरि = वैरी)। ता महि = उन (लोगों) में। जलतौ = (तृष्णा की आग) जलता ही। सिमरि = स्मरण करके। सीतल = शांत, ठंडा। हिरिआ = दूर कर लिया।1।
अर्थ: हे भाई! शिव-लोक, ब्रहम-लोक, इन्द्र-लोक - इन (लोकों) में पहुँच हुआ भी तृष्णा की आग में जलता ही फिरता है। स्वामी-प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के जीव शांत मन हो जाते हैं। (नाम-जपने की इनायत से) सारा दुख-दर्द और भटकना दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो तरिओ पुरातनु नवतनु भगति भाइ हरि देवा ॥ नानक की बेनंती प्रभ जीउ मिलै संत जन सेवा ॥२॥५२॥७५॥
मूलम्
जो जो तरिओ पुरातनु नवतनु भगति भाइ हरि देवा ॥ नानक की बेनंती प्रभ जीउ मिलै संत जन सेवा ॥२॥५२॥७५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो जो = जो (भक्त)। पुरातनु = पुराने समय का। नवतनु = नए समय का, नया। भाइ = प्रेम से (भाउ = प्रेम)। प्रभ जीउ = हे प्रभु जी! मिलै = मिल जाए।1।
अर्थ: हे भाई! पुराने समय का चाहे नए समय का जो जो भी (भक्त) संसार-समुंदर से पार लांघा है, वह प्रभु-देव की भक्ति की इनायत से प्रेम की इनायत से ही लांघा है। हे प्रभु जी! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पर यही) बिनती है कि (मुझे तेरे) संतजनों की (शरण में रह के) सेवा करने का मौका मिल जाए।2।52।75।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ जिहवे अम्रित गुण हरि गाउ ॥ हरि हरि बोलि कथा सुनि हरि की उचरहु प्रभ को नाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ जिहवे अम्रित गुण हरि गाउ ॥ हरि हरि बोलि कथा सुनि हरि की उचरहु प्रभ को नाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिहवे = हे (मेरी) जीभ! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। गाउ = गाया कर। को = का।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) जीभ! परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले आत्मिक गुण गाया कर। हे भाई! परमात्मा का नाम उचारा कर, प्रभु की महिमा सुना कर, प्रभु का नाम उचारा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु रतन धनु संचहु मनि तनि लावहु भाउ ॥ आन बिभूत मिथिआ करि मानहु साचा इहै सुआउ ॥१॥
मूलम्
राम नामु रतन धनु संचहु मनि तनि लावहु भाउ ॥ आन बिभूत मिथिआ करि मानहु साचा इहै सुआउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतन धनु = कीमती धन। संचहु = इकट्ठा किया कर। मनि = मन में। तनि = तन मे। भाउ = प्रेम। आन = अन्य। बिभूत = ऐश्वर्य, धन पदार्थ। मिथिआ = नाशवान। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = उद्देश्य।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही कीमती धन है, ये धन एकत्र किया कर। अपने मन में अपने हृदय में प्रभु का प्यार बनाया कर। हे भाई! (नाम के बिना) और सारे धन-पदार्थों को नाशवान समझ। (परमात्मा का नाम ही) सदा कायम रहने वाला जीवन का लक्ष्य है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ प्रान मुकति को दाता एकस सिउ लिव लाउ ॥ कहु नानक ता की सरणाई देत सगल अपिआउ ॥२॥५३॥७६॥
मूलम्
जीअ प्रान मुकति को दाता एकस सिउ लिव लाउ ॥ कहु नानक ता की सरणाई देत सगल अपिआउ ॥२॥५३॥७६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। जीअ = जिंद। एकस सिउ = एक (परमात्मा) के साथ ही। लिव = लगन। ता की = उस (परमात्मा) की। सगल = सारे। अपिआउ = भोजन, खाने।2।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ परमात्मा (के नाम) से लगन पैदा कर, परमात्मा ही जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, मुक्ति (उच्च आत्मिक दशा) देने वाला है। हे नानक! कह: (हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़ा रह जो सारे खाने-पीने के पदार्थ देता है।2।53।76।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ होती नही कवन कछु करणी ॥ इहै ओट पाई मिलि संतह गोपाल एक की सरणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ होती नही कवन कछु करणी ॥ इहै ओट पाई मिलि संतह गोपाल एक की सरणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होती नही = नहीं हो सकती। करणी = अच्छी कार, अच्छा करतब। मिलि = मिल के। ओट = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मुझसे कोई सही काम नहीं हो सकता। संत जनों को मिल के सिर्फ परमात्मा की शरण पड़े रहना- सिर्फ यही आसरा मैंने ढूँढा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच दोख छिद्र इआ तन महि बिखै बिआधि की करणी ॥ आस अपार दिनस गणि राखे ग्रसत जात बलु जरणी ॥१॥
मूलम्
पंच दोख छिद्र इआ तन महि बिखै बिआधि की करणी ॥ आस अपार दिनस गणि राखे ग्रसत जात बलु जरणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच दोख = (कामादिक) पाँच विकार। छिद्र = ऐब। इआ तन महि = इस शरीर में। बिखै = विषौ विकार। बिआधि = विकार। बिआधि की करणी = विकारों वाली करतूत। अपार = अ+पार, बेअंत। गणि राखे = गिन के रखे हुए, थोड़े। ग्रसत जात = ग्रसा जा रहा है। बलु = ताकत को। जरणी = जरा, बुढ़ापा।1।
अर्थ: हे भाई! (कामादिक) पाँचों विकार व अन्य ऐब (जीव के) इस शरीर में टिके रहते हैं, विषौ-विकारों वाली करणी (जीव की) बनी रहती है। (जीव की) आशाएं बेअंत होती हैं, पर जिंदगी के दिन गिने-चुने होते हैं। बुढ़ापा (जीव के शारीरिक) बल को खाए जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथह नाथ दइआल सुख सागर सरब दोख भै हरणी ॥ मनि बांछत चितवत नानक दास पेखि जीवा प्रभ चरणी ॥२॥५४॥७७॥
मूलम्
अनाथह नाथ दइआल सुख सागर सरब दोख भै हरणी ॥ मनि बांछत चितवत नानक दास पेखि जीवा प्रभ चरणी ॥२॥५४॥७७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनाथह नाथ = हे अनाथों के नाथ! सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! सरब दोख भै हरणी = हे सारे ऐब और डर दूर करने वाले! मनि बांछत = मन मांगी मुराद। चितवत = चितवता रहता है। पेखि = देख के। जीवा = जीऊँ, जीवित रहूँ, आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।2।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे अनाथों के नाथ प्रभु! हे दया के सोमे प्रभु! हे सुखों के समुंदर! हे (जीवों के) सारे विकार और डर दूर करने वाले! (तेरा दास तेरे दर से यह) मन-माँगी मुराद चाहता है कि हे प्रभु! तेरे चरणों के दर्शन करके मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।2।58।77।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ फीके हरि के नाम बिनु साद ॥ अम्रित रसु कीरतनु हरि गाईऐ अहिनिसि पूरन नाद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ फीके हरि के नाम बिनु साद ॥ अम्रित रसु कीरतनु हरि गाईऐ अहिनिसि पूरन नाद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फीके = बेस्वादे। साद = (मायावी पदार्थों के) स्वाद। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। गाईऐ = गाना चाहिए। अहि = दिन। निसि = रात। पूरन नाद = नाद पूरे जाएंगे, (आत्मिक आनंद के) बाजे बजेंगे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (मायावी पदार्थों के) स्वाद फीके हैं।
हे भाई! प्रभु का कीर्तन ही आत्मिक जीवन देने वाला रस है, हरि का कीर्तन ही गाना चाहिए (जो मनुष्य गाता है, उसके अंदर) दिन-रात आत्मिक आनंद के बाजे बजते रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरत सांति महा सुखु पाईऐ मिटि जाहि सगल बिखाद ॥ हरि हरि लाभु साधसंगि पाईऐ घरि लै आवहु लादि ॥१॥
मूलम्
सिमरत सांति महा सुखु पाईऐ मिटि जाहि सगल बिखाद ॥ हरि हरि लाभु साधसंगि पाईऐ घरि लै आवहु लादि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। पाईऐ = प्राप्त करते हैं। बिखाद = दुख-कष्ट, झगड़े। साध संगि = गुरु की संगति में। घरि = हृदय घर में। लादि = लाद के।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से आत्मिक शांति मिलती है बहुत सुख प्राप्त होता है, (अंदर से) सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं। पर परमात्मा का नाम स्मरण करने का यह लाभ साधु-संगत में ही मिलता है। (जो मनुष्य गुरु की संगति में मिल के बैठते हैं वह) अपने हृदय-घर में ये कमाई कर के ले आते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ ते ऊच ऊच ते ऊचो अंतु नही मरजाद ॥ बरनि न साकउ नानक महिमा पेखि रहे बिसमाद ॥२॥५५॥७८॥
मूलम्
सभ ते ऊच ऊच ते ऊचो अंतु नही मरजाद ॥ बरनि न साकउ नानक महिमा पेखि रहे बिसमाद ॥२॥५५॥७८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरजाद = मर्यादा (का)। साकउ = सकूँ। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। महिमा = बड़ाई। पेखि = देख के। बिसमादु = हैरान।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा सबसे ऊँचा है, ऊँचों से भी ऊँचा है, उसकी सीमाओं का अंत नहीं पाया जा सकता। मैं उसकी महिमा (बड़ाई) बयान नहीं कर सकता, देख के ही हैरान रह जाता हूँ।2।55।78।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ आइओ सुनन पड़न कउ बाणी ॥ नामु विसारि लगहि अन लालचि बिरथा जनमु पराणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ आइओ सुनन पड़न कउ बाणी ॥ नामु विसारि लगहि अन लालचि बिरथा जनमु पराणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी। विसारि = भुला के। लगहि = (जो) लगते हैं (बहुवचन)। अन्य लालचि = और लालच में। जनमु पराणी = उन प्राणियों का जन्म।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जगत में जीव) परमात्मा की महिमा सुनने-पढ़ने के लिए आया है (यही है इसका असल जनम-उद्देश्य)। पर, जो प्राणी (परमात्मा का) नाम भुला के और ही लालच में लगे रहते हैं, उनका मनुष्य जन्म व्यर्थ चला जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समझु अचेत चेति मन मेरे कथी संतन अकथ कहाणी ॥ लाभु लैहु हरि रिदै अराधहु छुटकै आवण जाणी ॥१॥
मूलम्
समझु अचेत चेति मन मेरे कथी संतन अकथ कहाणी ॥ लाभु लैहु हरि रिदै अराधहु छुटकै आवण जाणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचेत मन = हे गाफिल मन! कथी = बयान की है। संतन = संतां ने। अकथ कहाणी = अकथ प्रभु की महिमा। अकथ = अ+कथ, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। रिदै = हृदय में। छुटकै = समाप्त हो जाती है।1।
अर्थ: हे मेरे गाफिल मन! होश कर, अकथ प्रभु की जो महिमा संत जनों ने बताई है उसको याद किया कर। हे भाई! परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ, यह लाभ कमाओ। (इस लाभ से) जनम-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदमु सकति सिआणप तुम्हरी देहि त नामु वखाणी ॥ सेई भगत भगति से लागे नानक जो प्रभ भाणी ॥२॥५६॥७९॥
मूलम्
उदमु सकति सिआणप तुम्हरी देहि त नामु वखाणी ॥ सेई भगत भगति से लागे नानक जो प्रभ भाणी ॥२॥५६॥७९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सकति = शक्ति, ताकत। देहि = अगर तू दे। त = तो। वखाणी = मैं उचारूँ। सेई = वह ही (बहुवचन)। प्रभ भाणी = प्रभु को भा गए।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरा ही दियश हुआ उद्यम तेरी ही दी हुई शक्ति और समझदारी (हम जीव बरत सकते हैं), अगर तू (उद्यम-शक्ति-समझदारी) बख्शे, तब ही मैं नाम जप सकता हूँ। हे भाई! वही मनुष्य भक्त (बन सकते हैं) वही परमात्मा की भक्ति में लग सकते हैं, जो प्रभु को पसंद आ जाते हैं।2।56।79।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ धनवंत नाम के वणजारे ॥ सांझी करहु नाम धनु खाटहु गुर का सबदु वीचारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ धनवंत नाम के वणजारे ॥ सांझी करहु नाम धनु खाटहु गुर का सबदु वीचारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनवंत = धनाढ, अमीर। वणजारे = व्यापारी, वणज करने वाले। सांझी = भाईवाली। सांझी करहु = सांझ डालो। वीचारे = विचार के, मन में बसा के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! असल धनाढ मनुष्य वे हैं जो परमात्मा के नाम का व्यापार करते हैं। उनके साथ सांझ बनाओ, और गुरु का शब्द अपने मन में बसा के परमात्मा का नाम-धन कमाओ।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडहु कपटु होइ निरवैरा सो प्रभु संगि निहारे ॥ सचु धनु वणजहु सचु धनु संचहु कबहू न आवहु हारे ॥१॥
मूलम्
छोडहु कपटु होइ निरवैरा सो प्रभु संगि निहारे ॥ सचु धनु वणजहु सचु धनु संचहु कबहू न आवहु हारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कपटु = ठगी, फरेब। होइ = हो के। सो प्रभु = वह प्रभु! संगि = (सब जीवों के) साथ। निहारे = देखता है। सचु = सदा कायम रहने वाला। वणजहु = वणज करो। संचहु = इकट्ठा करो। हारे = हार के।1।
अर्थ: हे भाई! (अपने अंदर से) निर्वैर हो के (दूसरों के साथ) ठगी करनी छोड़ो, वह परमात्मा (तुम्हारे) साथ (बसता हुआ, तुम्हारे हरेक काम को) देख रहा है। सदा कायम रहने वाले धन का व्यापार करो, सदा कायम रहने वाला धन एकत्र करो। कभी भी जीवन बाजी हार के नहीं आओगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खात खरचत किछु निखुटत नाही अगनत भरे भंडारे ॥ कहु नानक सोभा संगि जावहु पारब्रहम कै दुआरे ॥२॥५७॥८०॥
मूलम्
खात खरचत किछु निखुटत नाही अगनत भरे भंडारे ॥ कहु नानक सोभा संगि जावहु पारब्रहम कै दुआरे ॥२॥५७॥८०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खात = खाते हुए। खरचत = खर्चते हुए, और लोगों को बाँटते हुए। निखुटत नाही = खत्म नहीं होता। संगि = साथ। कै दुआरे = के दर पर।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के दर पर नाम-धन के) अनगिनत खजाने भरे हुए हैं, इसको स्वयं इस्तेमाल करने से व और लोगों को इस्तेमाल करवाने से कोई कमी नहीं आती। हे नानक! कह: (हे भाई!) (नाम-धन कमा के) परमात्मा के दर पर इज्जत के साथ जाओगे।5।57।80।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ प्रभ जी मोहि कवनु अनाथु बिचारा ॥ कवन मूल ते मानुखु करिआ इहु परतापु तुहारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ प्रभ जी मोहि कवनु अनाथु बिचारा ॥ कवन मूल ते मानुखु करिआ इहु परतापु तुहारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मोहि = मैं। मोहि कवनु = मैं कौन हँ? मेरी कोई बिसात नहीं। अनाथु = यतीमं ते = से। मूल = आदि। करिआ = बनाया। तुहारा = तुम्हारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (तेरी मेहर के बिना) मेरी कोई बिसात नहीं, मैं तो बेचारा अनाथ ही हूँ। किस मूल से (एक बूँद से) तूने मुझे मनुष्य बना दिया, यह तेरा ही प्रताप है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ प्राण सरब के दाते गुण कहे न जाहि अपारा ॥ सभ के प्रीतम स्रब प्रतिपालक सरब घटां आधारा ॥१॥
मूलम्
जीअ प्राण सरब के दाते गुण कहे न जाहि अपारा ॥ सभ के प्रीतम स्रब प्रतिपालक सरब घटां आधारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जिंद। दाते = हे देने वाले! अपारा = अ+पार, बेअंत। प्रीतम = हे प्रीतम! स्रब प्रतिपालक = हे सबकी पालना करने वाले! घटां = शरीरों का। आधारा = आसरा।1।
अर्थ: हे जिंद देने वाले! हे प्राण दाते! हे सब पदार्थ देने वाले! तेरे गुण बेअंत हैं, बयान नहीं किए जा सकते। हे सब जीवों के प्व्यारे! हे सबके पालनहार! तू सब शरीरों को आसरा देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोइ न जाणै तुमरी गति मिति आपहि एक पसारा ॥ साध नाव बैठावहु नानक भव सागरु पारि उतारा ॥२॥५८॥८१॥
मूलम्
कोइ न जाणै तुमरी गति मिति आपहि एक पसारा ॥ साध नाव बैठावहु नानक भव सागरु पारि उतारा ॥२॥५८॥८१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = माप। तुमरी गति मिति = तू कैसा है और कितना बड़ा है, ये बात। आपहि = तू स्वयं ही। पसारा = जगत खिलारा। नाव = बेड़ी। भव सागरु = संसार समुंदर।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू कैसा है और कितना बड़ा है; कोई जीव यह नहीं जान सकता। तू स्वयं इस जगत-पसारे को पसारने वाला है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मुझे साधु-संगत की बेड़ी में बैठा और संसार-समुंदर से पार लंघा दे।2।58।81।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ आवै राम सरणि वडभागी ॥ एकस बिनु किछु होरु न जाणै अवरि उपाव तिआगी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ आवै राम सरणि वडभागी ॥ एकस बिनु किछु होरु न जाणै अवरि उपाव तिआगी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वाला मनुष्य (ही)। किछु होरु = कोई और (उपाय)। अवरि = और (बहुवचन)। उपाव = उपाय, प्रयत्न। अवरि उपाव = और उपाय। तिआगी = छोड़ देता है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कोई बड़े भाग्यों वाला मनुष्य ही परमात्मा की शरण आता है। एक परमात्मा की शरण के बिना वह मनुष्य कोई और उपाय नहीं जानता। वह और सारे तरीके त्याग देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन बच क्रम आराधै हरि हरि साधसंगि सुखु पाइआ ॥ अनद बिनोद अकथ कथा रसु साचै सहजि समाइआ ॥१॥
मूलम्
मन बच क्रम आराधै हरि हरि साधसंगि सुखु पाइआ ॥ अनद बिनोद अकथ कथा रसु साचै सहजि समाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बच = वचन। क्रम = कर्म। साध संगि = गुरु की संगति में। अनद बिनोद = आत्मिक आनंद और खुशियां। अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। अकथ कथ रसु = अकथ प्रभु के महिमा का स्वाद। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु की शरण आने वाला मनुष्य) अपने से वचन से काम से परमात्मा की ही आराधना करता है। वह गुरु की संगति में टिक के आत्मिक आनंद पाता है। (उसके हृदय में) आत्मिक आनंद व खुशियां बनी रहती हैं। वह अकथ प्रभु की महिमा का स्वाद (लेता रहता है)। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले प्रभु में और आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा जो अपुना कीनो ता की ऊतम बाणी ॥ साधसंगि नानक निसतरीऐ जो राते प्रभ निरबाणी ॥२॥५९॥८२॥
मूलम्
करि किरपा जो अपुना कीनो ता की ऊतम बाणी ॥ साधसंगि नानक निसतरीऐ जो राते प्रभ निरबाणी ॥२॥५९॥८२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। जो = जिस मनुष्य को। ता की = उस मनुष्य की। ऊतम बाणी = ऊँची शोभा। निसतरीऐ = पार लांघा जाता है। जो = जो (संतजन)। निरबाणी = वासना रहित, निर्लिप। राते = रंगे हुए।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु) मेहर करके जिस मनुष्य को अपना (सेवक) बना लेता है, उसकी ऊँची शोभा होती है। हे नानक! जो साधु-जन निर्लिप प्रभु (के प्रेम-रंग) में रंगे रहते हैं उनकी संगति में (रहने से संसार-समुंदर से) पार लांघा जाता है।2।59।82।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ जा ते साधू सरणि गही ॥ सांति सहजु मनि भइओ प्रगासा बिरथा कछु न रही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ जा ते साधू सरणि गही ॥ सांति सहजु मनि भइओ प्रगासा बिरथा कछु न रही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा ते = जब से। साधू = गुरु। गही = (मैंने) पकड़ी है। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। प्रगासा = (आत्मिक जीवन की) रोशनी। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख दर्द।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब से (मैंने) गुरु का पल्ला पकड़ा है, (मेरे) मन में शांति और आत्मिक अडोलता पैदा हो गई है, (मेरे) मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो गया है, (मेरे मन में) कोई दुख-दरद नहीं रह गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होहु क्रिपाल नामु देहु अपुना बिनती एह कही ॥ आन बिउहार बिसरे प्रभ सिमरत पाइओ लाभु सही ॥१॥
मूलम्
होहु क्रिपाल नामु देहु अपुना बिनती एह कही ॥ आन बिउहार बिसरे प्रभ सिमरत पाइओ लाभु सही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपाल = दयावान। कही = कही है। आन = अन्य। बिसरे = भूल गए हैं। सिमरत = स्मरण करते हुए। सही = ठीक, असल।1।
अर्थ: हे भाई! जब से मैं गुरु के दर पर आया हूँ तब से (प्रभु दर पर) यही अरदास करता रहता हूँ- ‘हे प्रभु! दयावान हो, मुझे अपना नाम बख्श’। हे भाई! प्रभु का स्मरण करने से और-और व्यवहारों में मेरा मन खचित नहीं होता (और-और व्यवहार मुझे भूल गए हैं)। मैंने असल कमाई कर ली है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह ते उपजिओ तही समानो साई बसतु अही ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोइओ जोती जोति समही ॥२॥६०॥८३॥
मूलम्
जह ते उपजिओ तही समानो साई बसतु अही ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोइओ जोती जोति समही ॥२॥६०॥८३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह ते = जहाँ से, जिस प्रभु से। तही = वहीं। समानो = लीन हो गया। साई = वही (स्त्रीलिंग)। बसत्र = चीज़, नाम पदार्थ। अही = चाही है, तमन्ना रखी है। गुरि = गुरु ने। भरमु = भटकना। खोइओ = दूर कर दी है। जोति = (मेरी) जिंद। जोती = प्रभु की ज्योति में। समही = लीन रहती है।2।
अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! गुरु ने (मेरे मन की) भटकना दूर कर दी है, मेरी जिंद प्रभु की ज्योति में लीन रहती है। जिस प्रभु से ये जिंदड़ी पैदा हुई थी उएसी में टिकी रहती है, मुझे अब यह (नाम-) वस्तु ही अच्छी लगती है।2।60।83।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ रसना राम को जसु गाउ ॥ आन सुआद बिसारि सगले भलो नाम सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ रसना राम को जसु गाउ ॥ आन सुआद बिसारि सगले भलो नाम सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ से। को = का। जसु = महिमा। गाउ = गाया करो। आन = अन्य। बिसारि = भुला के। नाम सुआउ = नाम का स्वाद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (अपनी) जीभ से परमात्मा की महिमा गाया कर। (नाम के बिना) और सारे स्वाद भुला दे, (परमात्मा के) नाम का स्वाद (सब स्वादों से) अच्छा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल बसाइ हिरदै एक सिउ लिव लाउ ॥ साधसंगति होहि निरमलु बहुड़ि जोनि न आउ ॥१॥
मूलम्
चरन कमल बसाइ हिरदै एक सिउ लिव लाउ ॥ साधसंगति होहि निरमलु बहुड़ि जोनि न आउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसाइ = टिकाए रख। हिरदै = हृदय में। सिउ = साथ। लिव = लगन। होहि = तू हो जाएगा। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। बहुड़ि = बार बार।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में टिकाए रख, सिर्फ परमात्मा से तवज्जो जोड़े रख। साधु-संगत में रहके पवित्र जीवन वाला हो जाएगा, बार-बार जूनियों में नहीं आएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ प्रान अधारु तेरा तू निथावे थाउ ॥ सासि सासि सम्हालि हरि हरि नानक सद बलि जाउ ॥२॥६१॥८४॥
मूलम्
जीउ प्रान अधारु तेरा तू निथावे थाउ ॥ सासि सासि सम्हालि हरि हरि नानक सद बलि जाउ ॥२॥६१॥८४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। अधारु = आसरा। थाउ = जगह, सहारा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समालि = संभाल के, याद कर के। सद = सदा। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! मेरी जिंद और प्राणों को तेरा ही आसरा है, जिसका और कोई सहारा ना हो, तू उसका सहारा है। हे हरि! मैं तो अपनी हरेक सांस के साथ तुझे याद करता हूँ, और तुझ पर से बलिहार जाता हूँ।2।61।84।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ बैकुंठ गोबिंद चरन नित धिआउ ॥ मुकति पदारथु साधू संगति अम्रितु हरि का नाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ बैकुंठ गोबिंद चरन नित धिआउ ॥ मुकति पदारथु साधू संगति अम्रितु हरि का नाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नित = सदा। धिआउ = ध्याऊँ, मैं ध्यान धरता हूँ। साधू संगति = गुरु की संगति। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं तो सदा परमात्मा के चरणों का ध्यान धरता हूँ- (यह मेरे लिए) बैकुंठ है। गुरु की संगति में टिके रहना - (मेरे लिए चारों पदार्थों में से श्रेष्ठ) मुक्ति पदार्थ है। परमात्मा का नाम ही (मेरे लिए) आत्मिक जीवन देने वाला जल है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतम कथा सुणीजै स्रवणी मइआ करहु भगवान ॥ आवत जात दोऊ पख पूरन पाईऐ सुख बिस्राम ॥१॥
मूलम्
ऊतम कथा सुणीजै स्रवणी मइआ करहु भगवान ॥ आवत जात दोऊ पख पूरन पाईऐ सुख बिस्राम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणीजै = सुन सकें। स्रवणी = कानों से। मइआ = दया, मेहर। भगवान = हे भगवान! आवत जात दोऊ पख = पैदा होना और मरना ये दोनों पक्ष। पूरन = पूरे हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। सुख बिस्राम = सुखों का ठिकाना।1।
अर्थ: हे भगवान! (मेरे पर) मेहर कर, (ताकि) तेरी उत्तम महिमा कानों से सुनी जा सके। हे भाई! (महिमा की इनायत से) पैदा होना और मरना- ये दोनों पक्ष खत्म हो जाते हैं। सुखों के मूल परमात्मा के साथ मिलाप हो जाता है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सोधत सोधत ततु बीचारिओ भगति सरेसट पूरी ॥ कहु नानक इक राम नाम बिनु अवर सगल बिधि ऊरी ॥२॥६२॥८५॥
मूलम्
सोधत सोधत ततु बीचारिओ भगति सरेसट पूरी ॥ कहु नानक इक राम नाम बिनु अवर सगल बिधि ऊरी ॥२॥६२॥८५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोधत सोधत = विचार करते करते। ततु = अस्लियत। सरेसट पूरी = श्रेष्ठ पूर्ण, पूरी तरह से अच्छी। ऊरी = ऊणी, कमी बेशी।2।
अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! विचार करते-करते ये अस्लियत मिली है कि परमात्मा की भक्ति ही पूरी तरह से उत्तम (क्रिया) है। परमात्मा के नाम के बिना और हरेक (जीवन-) ढंग अधूरा है।2।62।85।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ साचे सतिगुरू दातारा ॥ दरसनु देखि सगल दुख नासहि चरन कमल बलिहारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ साचे सतिगुरू दातारा ॥ दरसनु देखि सगल दुख नासहि चरन कमल बलिहारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचे = हे सदा कायम रहने वाले! दातारा = हे सब दातें देने वाले! देखि = देख के। सगल = सारे। नासहि = नाश हो जाते हैं। बलिहार = सदके।1। रहाउ।
अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले! हे सतिगुरु! हे सब दातें देने वाले प्रभु! तेरे दर्शन करके (जीव के) सारे दुख नाश हो जाते हैं। मैं तेरे सुंदर चरणों से सदके जाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति परमेसरु सति साध जन निहचलु हरि का नाउ ॥ भगति भावनी पारब्रहम की अबिनासी गुण गाउ ॥१॥
मूलम्
सति परमेसरु सति साध जन निहचलु हरि का नाउ ॥ भगति भावनी पारब्रहम की अबिनासी गुण गाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा स्थिर। सति = अटल आत्मिक जीवन वाले। साध जन = संत जन। निहचलु = कभी ना डोलने वाला। भावनी = श्रद्धा (से)। अबिनासी गुण = कभी ना नाश होने वाले प्रभु के गुण। गाउ = गाया करो।1।
अर्थ: हे भाई! परमेश्वर सदा कायम रहने वाला है, (उसके) संत जन अटल जीवन वाले होते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम अटल रहने वाला है। हे भाई! (पूरी) श्रद्धा से उस परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए, उस कभी ना नाश होने वाले प्रभु के गुण गाया करो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगमु अगोचरु मिति नही पाईऐ सगल घटा आधारु ॥ नानक वाहु वाहु कहु ता कउ जा का अंतु न पारु ॥२॥६३॥८६॥
मूलम्
अगमु अगोचरु मिति नही पाईऐ सगल घटा आधारु ॥ नानक वाहु वाहु कहु ता कउ जा का अंतु न पारु ॥२॥६३॥८६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) गो = इंद्रिय; चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। मिति = माप, बड़प्पन का अंदाजा। घट = शरीर। आधारु = आसरा। वाहु वाहु कहु = महिमा करो। ता कउ = उस प्रभु को। जा का = जिस प्रभु का। पारु = परला छोर। वाहु वाह = धन्य धन्य।2।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, उस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। वह कितना बड़ा है; यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वह परमात्मा सारे शरीरों का आसरा है। हे भाई! उस प्रभु की महिमा किया करो, जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके गुणों का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता।2।63।86।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ गुर के चरन बसे मन मेरै ॥ पूरि रहिओ ठाकुरु सभ थाई निकटि बसै सभ नेरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ गुर के चरन बसे मन मेरै ॥ पूरि रहिओ ठाकुरु सभ थाई निकटि बसै सभ नेरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन मेरै = मेरे मन में। पूरि रहिओ = व्यापक है। ठाकुरु = मालिक प्रभु। निकटि = नजदीक। सभ नेरे = सबके नजदीक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु के चरण मेरे मन में बस गए हैं, (मुझे निष्चय हो गया है कि) मालिक-प्रभु हर जगह मौजूद है, (मेरे) नजदीक बस रहा है, सबक पास बस रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंधन तोरि राम लिव लाई संतसंगि बनि आई ॥ जनमु पदारथु भइओ पुनीता इछा सगल पुजाई ॥१॥
मूलम्
बंधन तोरि राम लिव लाई संतसंगि बनि आई ॥ जनमु पदारथु भइओ पुनीता इछा सगल पुजाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंधन = माया के मोह के फंदे। तोरि = तोड़ के। संत संगि = गुरु के साथ। बनि आई = प्रीत बनी है। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जनम। पुनीता = पवित्र। इछा सगल = सारी मनोकामनाएं। पुजाई = (गुरु ने) पूरी कर दीं।1।
अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु के साथ मुझे प्यार हुआ है (उसने मेरे माया के मोह के) बंधन तोड़ के मेरी तवज्जो परमात्मा के साथ जोड़ दी है, मेरा कीमती मनुष्य जनम पवित्र हो गया है। (गुरु ने) मेरी सारी मनोकामनाएं पूरी कर दी हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ क्रिपा करहु प्रभ मेरे सो हरि का जसु गावै ॥ आठ पहर गोबिंद गुन गावै जनु नानकु सद बलि जावै ॥२॥६४॥८७॥
मूलम्
जा कउ क्रिपा करहु प्रभ मेरे सो हरि का जसु गावै ॥ आठ पहर गोबिंद गुन गावै जनु नानकु सद बलि जावै ॥२॥६४॥८७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। प्रभ = हे प्रभु! जसु = महिमा। सद = सदा। बलि जावै = सदके होता है।2।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! तू जिस मनुष्य पर मेहर करता है, वह, हे हरि! तेरी महिमा के गीत गाता है। हे भाई! जो मनुष्य आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता है, दास नानक उससे सदा कुर्बान जाता है।2।64।87।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ जीवनु तउ गनीऐ हरि पेखा ॥ करहु क्रिपा प्रीतम मनमोहन फोरि भरम की रेखा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ जीवनु तउ गनीऐ हरि पेखा ॥ करहु क्रिपा प्रीतम मनमोहन फोरि भरम की रेखा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवनु = (असल) जिंदगी। तउ = तब (ही)। गनीऐ = समझढी जानी चाहिए। पेखा = (अगर) मैं देख लूँ। प्रीतम = हे प्रीतम! फोरि = तोड़ के। भरम = भटकना। रेखा = (मन पर) लकीर, पिछले संस्कार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अगर मैं (इसी मनुष्य जन्म में) परमात्मा के दर्शन कर सकूँ, तब ही (मेरा यह असल मनुष्य) जीवन समझा जा सकता है। हे प्रीतम प्रभु! हे मन को मोह लेने वाले प्रभु! (मेरे मन में से पिछले जन्मों के) भटकना के संस्कार दूर कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत सुनत किछु सांति न उपजत बिनु बिसास किआ सेखां ॥ प्रभू तिआगि आन जो चाहत ता कै मुखि लागै कालेखा ॥१॥
मूलम्
कहत सुनत किछु सांति न उपजत बिनु बिसास किआ सेखां ॥ प्रभू तिआगि आन जो चाहत ता कै मुखि लागै कालेखा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहत सुनत = कहते सुनते। बिसास = श्रद्धा, विश्वास। सेखां = विशेषता, लाभ, गुण। तिआगि = छोड़ के। आन = अन्य (पदार्थ)। ता कै मुखि = उस के मुँह पर। कालेखा = कालिख।1।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ कहने-सुनने से (मनुष्य के मन में) कोई शांति पैदा नहीं होती। श्रद्धा के बिना (ज़ुबानी कहने-सुनने का) कोई लाभ नहीं होता। जो मनुष्य (ज़बानी तो ज्ञान की बहुत सारी बातें करता है, पर) प्रभु को भुला के और-और (पदार्थों की) तड़प रखता है, उसके माथे पर (माया के मोह की) कालिख लगी रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै रासि सरब सुख सुआमी आन न मानत भेखा ॥ नानक दरस मगन मनु मोहिओ पूरन अरथ बिसेखा ॥२॥६५॥८८॥
मूलम्
जा कै रासि सरब सुख सुआमी आन न मानत भेखा ॥ नानक दरस मगन मनु मोहिओ पूरन अरथ बिसेखा ॥२॥६५॥८८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिसके पल्ले, जिसके हृदय में। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। सरब सूख = सारे सुख देने वाला। आन भेखा = और (दिखावे के) धार्मिक पहरावे, अन्य भेस। न मानत = नहीं मानता। मगन = मस्त। अरथ = अर्थ, जरूरतें। बिसेखा = विशेष तौर पर, खास।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में सारे सुख देने वाले प्रभु के नाम की संपत्ति है, वह अन्य (दिखावे के) धार्मिक भेखों को नहीं मानता फिरता। वह तो (प्रभु के) दर्शग्न में मस्त रहता है, उसका मन (प्रभु के दर्शनों से) मोहिआ जाता है। (प्रभु की कृपा से) उसकी सारी आवश्यक्ताएं विशेष तौर पर पूरी होती रहती हैं।2।65।88।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ सिमरन राम को इकु नाम ॥ कलमल दगध होहि खिन अंतरि कोटि दान इसनान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ सिमरन राम को इकु नाम ॥ कलमल दगध होहि खिन अंतरि कोटि दान इसनान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकु = सिर्फ। को = का। कलमल = पाप। दगध होहि = जल जाते हैं (बहुवचन)। कोटि = करोड़ों।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अगर सिर्फ परमात्मा के नाम का ही स्मरण किया जाए, तो एक छिन में (जीव के सारे) पाप जल जाते हैं (उसको, जैसे) करोड़ों दान और तीर्थ-स्नान (करने का फल मिल गया)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन जंजार ब्रिथा स्रमु घालत बिनु हरि फोकट गिआन ॥ जनम मरन संकट ते छूटै जगदीस भजन सुख धिआन ॥१॥
मूलम्
आन जंजार ब्रिथा स्रमु घालत बिनु हरि फोकट गिआन ॥ जनम मरन संकट ते छूटै जगदीस भजन सुख धिआन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन जंजार = अन्य (मायावी) जंजालों के लिए। ब्रिथा = व्यर्थ। स्रमु = श्रम, मेहनत। फोकट = फोके। संकट ते = कष्ट से। जगदीस = जगत का मालिक (जगत+ईश)। धिआन = तवज्जो, ध्यान।1।
अर्थ: हे भाई! (अगर मनुष्य माया के ही) और-और जंजालों के लिए व्यर्थ की दौड़-भाग करता रहता है (औक्र हरि-नाम नहीं स्मरण करता, तो) परमात्मा के नाम के बिना (निरी) ज्ञान की बातें सभ फोकी ही हैं। जब मनुष्य परमात्मा के भजन के आनंद में तवज्जो जोड़ता है, तब ही वह जनम-मरण के चक्करों के कष्ट से बचता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी सरनि पूरन सुख सागर करि किरपा देवहु दान ॥ सिमरि सिमरि नानक प्रभ जीवै बिनसि जाइ अभिमान ॥२॥६६॥८९॥
मूलम्
तेरी सरनि पूरन सुख सागर करि किरपा देवहु दान ॥ सिमरि सिमरि नानक प्रभ जीवै बिनसि जाइ अभिमान ॥२॥६६॥८९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! करि = कर के। सिमरि = स्मरण करके। प्रभ = हे प्रभु! जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करो।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सुखों के समुंदर प्रभु! हे पूरन प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेहर कर के मुझे अपने नाम की दाति दे। तेरा नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन मिलता है, और (मन में से) अहंकार नाश हो जाता है।2।66।89।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ धूरतु सोई जि धुर कउ लागै ॥ सोई धुरंधरु सोई बसुंधरु हरि एक प्रेम रस पागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ धूरतु सोई जि धुर कउ लागै ॥ सोई धुरंधरु सोई बसुंधरु हरि एक प्रेम रस पागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धूरतु = धूर्त, चतुर। सोई = वही मनुष्य। जि = जो। धुर कउ = सबके मूल के चरणों में। धुरंधरु = भार उठाने वाला, मुखी। बसुंधरु = (वसु = धन) धन धरण करने वाला, धनी। पागै = मस्त रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य (असल) चतुर है जो जगत के मूल-प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है। वही मनुष्य मुखी है वही मनुष्य धनी है, जो सिर्फ परमात्मा के प्यार-रस में मस्त रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलबंच करै न जानै लाभै सो धूरतु नही मूड़्हा ॥ सुआरथु तिआगि असारथि रचिओ नह सिमरै प्रभु रूड़ा ॥१॥
मूलम्
बलबंच करै न जानै लाभै सो धूरतु नही मूड़्हा ॥ सुआरथु तिआगि असारथि रचिओ नह सिमरै प्रभु रूड़ा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलबंच = ठगीयां। धूरतु = चतुर। मूढ़ा = मूर्ख। सुआरथु = अपनी (असल) गरज़, मतलब। असारथ = घाटे वाले काम में। रूढ़ा = सुंदर।1।
अर्थ: पर, हे भाई! जो मनुष्य (औरों के साथ) ठगीयां मारता है (वह अपना असल) लाभ नहीं समझता, वह चतुर नहीं वह मूर्ख है। वह अपने असल स्वार्थ को छोड़ के घाटे वाले काम में व्यस्त रहता है, (क्योंकि) वह सुंदर प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई चतुरु सिआणा पंडितु सो सूरा सो दानां ॥ साधसंगि जिनि हरि हरि जपिओ नानक सो परवाना ॥२॥६७॥९०॥
मूलम्
सोई चतुरु सिआणा पंडितु सो सूरा सो दानां ॥ साधसंगि जिनि हरि हरि जपिओ नानक सो परवाना ॥२॥६७॥९०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरा = सूरमा। दानां = समझदार (wise)। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। परवाना = स्वीकार।2।
अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य चतुर और समझदार है, वही मनुष्य पण्डित, शूरवीर और दाना है, जिसने साधु-संगत में टिक के हरि-नाम जपा है। हे नानक! वही मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार होता है।2।67।90।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि हरि संत जना की जीवनि ॥ बिखै रस भोग अम्रित सुख सागर राम नाम रसु पीवनि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि हरि संत जना की जीवनि ॥ बिखै रस भोग अम्रित सुख सागर राम नाम रसु पीवनि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवनि = जीवनी, जीवन रहित। बिखै भोग = विषयों के भोग। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। पीवनि = पीते हैं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पीवनि’ है वर्तमान काल, अन्नपुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त आत्मिक जीवन देने वाले सुखों के समुंदर हरि-नाम का रस (सदा) पीते रहते हैं, यही उनके लिए दुनिया वाले विषौ भोगों का स्वाद है; यह ही जिंदगी संत जनों की।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचनि राम नाम धनु रतना मन तन भीतरि सीवनि ॥ हरि रंग रांग भए मन लाला राम नाम रस खीवनि ॥१॥
मूलम्
संचनि राम नाम धनु रतना मन तन भीतरि सीवनि ॥ हरि रंग रांग भए मन लाला राम नाम रस खीवनि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संचनि = इकट्ठा करते हैं। सीवनि = परोते हैं। रांग भए = रंगे जाते हैं। खीवनि = मस्त रहते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! संत जन परमात्मा का नाम-धन एकत्र करते हैं, नाम-रत्न इकट्ठा करते हैं, और अपने मन में हृदय में (उनको) परो (सिल के) रखते हैं। परमात्मा के नाम-रंग के साथ रंग के उनका मन गाढ़े रंग वाला हुआ रहता है, वे हरि-नाम के रस से मस्त रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ मीना जल सिउ उरझानो राम नाम संगि लीवनि ॥ नानक संत चात्रिक की निआई हरि बूंद पान सुख थीवनि ॥२॥६८॥९१॥
मूलम्
जिउ मीना जल सिउ उरझानो राम नाम संगि लीवनि ॥ नानक संत चात्रिक की निआई हरि बूंद पान सुख थीवनि ॥२॥६८॥९१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीना = मछली। सिउ = से। उरझानो = लिपटी रहती है। संगि = साथ। लीवनि = लिव जोड़े रखते हैं। चात्रिक = पपीहा। निआई = की तरह। पान = पी के। थीवनि = होते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे मछली पानी से लिपटी रहती है (पानी के बिना जी नहीं सकती) वैसे ही संत जन हरि-नाम में लीन रहते हैं। हे नानक! संत जन पपीहे की तरह हैं (जैसे पपीहा स्वाति नक्षत्र की बरखा की बूँद पी के तृप्त होता है, वैसे संत जन) परमात्मा के नाम की बूँद पी के सुखी होते हैं।2।68।91।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन बेताल ॥ जेता करन करावन तेता सभि बंधन जंजाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन बेताल ॥ जेता करन करावन तेता सभि बंधन जंजाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हीन = बगैर। बेताल = भूतने, भूत प्रेत। जेता = जितना कुछ। सभि = सारे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से जो मनुष्य वंचित रहते हैं (आत्मिक-जीवन की कसवटी के अनुसार) वे भूत-प्रेत ही हैं। (ऐसे मनुष्य) जितना कुछ करते हैं और करवाते हैं, उनके सारे काम माया के फंदे माया के जंजाल (बढ़ाते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु प्रभ सेव करत अन सेवा बिरथा काटै काल ॥ जब जमु आइ संघारै प्रानी तब तुमरो कउनु हवाल ॥१॥
मूलम्
बिनु प्रभ सेव करत अन सेवा बिरथा काटै काल ॥ जब जमु आइ संघारै प्रानी तब तुमरो कउनु हवाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अन = अन्य, और (की)। काटै = गुजारता है। काल = (जिंदगी का) समय। संघारै = (जान से) मारता है। प्रानी = हे प्राणी! कउन हवाल = क्या हाल?।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति के बिना और-और की सेवा करते हुए (मनुष्य अपनी जिंदगी का) समय व्यर्थ बिताता है। हे प्राणी! (अगर तू हरि-नाम के बिना ही रहा, तो) जब जमराज आ के मारता है, तब (सोच) तेरा क्या हाल होगा?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखि लेहु दास अपुने कउ सदा सदा किरपाल ॥ सुख निधान नानक प्रभु मेरा साधसंगि धन माल ॥२॥६९॥९२॥
मूलम्
राखि लेहु दास अपुने कउ सदा सदा किरपाल ॥ सुख निधान नानक प्रभु मेरा साधसंगि धन माल ॥२॥६९॥९२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरपाल = हे कृपालु! सुख निधान = सुखों का खजाना। साधर संगि = साधु-संगत में।2।
अर्थ: हे सदा ही दया के श्रोत! अपने दास (नानक) की स्वयं रक्षा कर (और, अपना नाम बख्श)। हे नानक! (कह: हे भाई!) मेरा प्रभु सारे सुखों का खजाना है, उसका नाम-धन साधु-संगत में ही मिलता है।2।69।92।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मनि तनि राम को बिउहारु ॥ प्रेम भगति गुन गावन गीधे पोहत नह संसारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मनि तनि राम को बिउहारु ॥ प्रेम भगति गुन गावन गीधे पोहत नह संसारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। को = का। बिउहार = आहर। गीधो = गिझे हुए। संसारु = जगत (का मोह)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में हृदय में (सदा) परमात्मा का (नाम स्मरण का ही) आहर है, जो मनुष्य प्रभु-प्रेम और हरि-भक्ति (के मतवाले हैं) जो प्रभु के गुण गाने में गिझे (प्रेम से मस्त) हुए हैं, उनको जगत (का मोह) पोह नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रवणी कीरतनु सिमरनु सुआमी इहु साध को आचारु ॥ चरन कमल असथिति रिद अंतरि पूजा प्रान को आधारु ॥१॥
मूलम्
स्रवणी कीरतनु सिमरनु सुआमी इहु साध को आचारु ॥ चरन कमल असथिति रिद अंतरि पूजा प्रान को आधारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रवणी = कानों से। आचारु = नित्य की कार। असथिति = स्थित, टिकाव। रिद = हृदय। आधारु = आसरा।1।
अर्थ: हे भाई! कानों से मालिक-प्रभु की महिमा सुननी, (जीभ से मालिक का नाम) स्मरणा- संत-जनों की यह नित्य की करणी हुआ करती है। उनके हृदय में परमात्मा के सुंदर चरणों का टिकाव हमेशा बना रहता है, प्रभु की पूजा-भक्ति उनके प्राणों का आसरा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ दीन दइआल सुनहु बेनंती किरपा अपनी धारु ॥ नामु निधानु उचरउ नित रसना नानक सद बलिहारु ॥२॥७०॥९३॥
मूलम्
प्रभ दीन दइआल सुनहु बेनंती किरपा अपनी धारु ॥ नामु निधानु उचरउ नित रसना नानक सद बलिहारु ॥२॥७०॥९३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! निधानु = खजाना। उचरउ = मैं उचरता रहूँ। नित = सदा। रसना = जीभ से। सद = सदा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरी) बिनती सुन, (मेरे पर) अपनील मेहर कर। तेरा नाम ही (मेरे वास्ते सब पदार्थों का) खजाना है (मेहर कर, मैं यह नाम) जीभ से सदा उचारता रहूँ, और तुझसे सदा सदके होता रहूँ।2।70।93।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन मति थोरी ॥ सिमरत नाहि सिरीधर ठाकुर मिलत अंध दुख घोरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन मति थोरी ॥ सिमरत नाहि सिरीधर ठाकुर मिलत अंध दुख घोरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हीन = विहीन। थोरी = थोड़ी, होछी। सिरीधर = लक्ष्मी का आसरा प्रभु। अंध = (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्यों को। घोरी = घोर, भयानक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं, उनकी मति होछी सी ही बन जाती है। वे लक्ष्मी-पति मालिक-प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते। माया के मोह में अंधे हो चुके उन मनुष्यों को भयानक (आत्मिक) दुख-कष्ट होते रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के नाम सिउ प्रीति न लागी अनिक भेख बहु जोरी ॥ तूटत बार न लागै ता कउ जिउ गागरि जल फोरी ॥१॥
मूलम्
हरि के नाम सिउ प्रीति न लागी अनिक भेख बहु जोरी ॥ तूटत बार न लागै ता कउ जिउ गागरि जल फोरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। भेख = (दिखावे मात्र) धार्मिक पहरावे। जोरी = जोड़ी (प्रीत)। बार = समय। ता कउ तूटत = उस (प्रीत) के टूटते हुए। फोरी = टूटी हुई।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम से प्यार नहीं डालते, पर अनेक धार्मिक भेषों से प्रीत जोड़ी रखते हैं, उनकी इस प्रीत के टूटते देर नहीं लगती, जैसे टूटी हुई गागर में पानी नहीं ठहर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा भगति रसु दीजै मनु खचित प्रेम रस खोरी ॥ नानक दास तेरी सरणाई प्रभ बिनु आन न होरी ॥२॥७१॥९४॥
मूलम्
करि किरपा भगति रसु दीजै मनु खचित प्रेम रस खोरी ॥ नानक दास तेरी सरणाई प्रभ बिनु आन न होरी ॥२॥७१॥९४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीजै = दे। खचित = मस्त रहे। खोरी = खुमारी में। आन = अन्य, और दूसरा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेहर कर, मुझे अपनी भक्ति का स्वाद बख्श, मेरा मन तेरे प्रेम-रस की ख़ुमारी में मस्त रहे। हे प्रभु! (तेरा) दास नानक तेरी शरण आया है। हे प्रभु! तेरे बिना मेरा और कोई दूसरा सहारा नहीं है।2।71।94।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ चितवउ वा अउसर मन माहि ॥ होइ इकत्र मिलहु संत साजन गुण गोबिंद नित गाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ चितवउ वा अउसर मन माहि ॥ होइ इकत्र मिलहु संत साजन गुण गोबिंद नित गाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चितवउ = मैं चितवता रहता हूँ। वा अउसर = वह अवसर, वह समय। मिलउ = मैं मिलूँ। नित = सदा। गाहि = गाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं तो अपने मन उस मौके का इन्तजार करता रहता हूँ, जब में संतों-सज्जनों को मिलूँ जो नित्य इकट्ठे हो के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु हरि भजन जेते काम करीअहि तेते बिरथे जांहि ॥ पूरन परमानंद मनि मीठो तिसु बिनु दूसर नाहि ॥१॥
मूलम्
बिनु हरि भजन जेते काम करीअहि तेते बिरथे जांहि ॥ पूरन परमानंद मनि मीठो तिसु बिनु दूसर नाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने ही। करीअहि = किए जाते हैं। तेते = वह सारे। बिरथे = व्यर्थ, निष्फल। जाहि = जाते हैं। मनि = मन में। मीठो = मीठा।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भजन के बिना और जितने भी काम किए जाते हैं, वे सारे (जिंद के हिसाब से) व्यर्थ चले जाते हैं। सर्व-व्यापक और सब से ऊँचे आनंद के मालिक का नाम मन में मीठा लगना- यही है असल लाभदायक काम, (क्योंकि) उस परमात्मा के बिना और कोई (साथी) नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप संजम करम सुख साधन तुलि न कछूऐ लाहि ॥ चरन कमल नानक मनु बेधिओ चरनह संगि समाहि ॥२॥७२॥९५॥
मूलम्
जप तप संजम करम सुख साधन तुलि न कछूऐ लाहि ॥ चरन कमल नानक मनु बेधिओ चरनह संगि समाहि ॥२॥७२॥९५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का साधन। सुख साधन7 = सुख प्राप्त करने के साधन। कछूऐ = कुछ भी। तुलि = (गुण गाने के) बराबर। लाहि = लहहि, समझते। बेधिओ = भेद गया। संगि = साथ। समाहि = लीन रहते हैं।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जप-तप-संजम आदि हठ-कर्म और सुख की तलाश के और साधन - परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते और संत-जन इनको कुछ भी नहीं समझते (तुच्छ समझते हैं)। संत जनों का मन परमात्मा के सुंदर चरणों में भेदा रहता है, संत जन परमात्मा के चरणों में ही लीन रहते हैं।2।72।95।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मेरा प्रभु संगे अंतरजामी ॥ आगै कुसल पाछै खेम सूखा सिमरत नामु सुआमी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मेरा प्रभु संगे अंतरजामी ॥ आगै कुसल पाछै खेम सूखा सिमरत नामु सुआमी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगे = साथ ही। अंतरजामी = (हरेक के) दिल की जानने वाला। आगै = आगे आने वाले समय में, परलोक में। पाछै = गुजर चुके समय में, इस लोक में। कुसल, खेम = सुख शांति।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला मेरा प्रभु (हर वक्त मेरे) साथ है; (जिस मनुष्य को यही निश्चय बन जाता है, उसको) मालिक-प्रभु का नाम स्मरण करते हुए परलोक और इस लोक में सदा सुख-आनंद बना रहता है।1। रहाउ।
[[1223]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजन मीत सखा हरि मेरै गुन गुोपाल हरि राइआ ॥ बिसरि न जाई निमख हिरदै ते पूरै गुरू मिलाइआ ॥१॥
मूलम्
साजन मीत सखा हरि मेरै गुन गुोपाल हरि राइआ ॥ बिसरि न जाई निमख हिरदै ते पूरै गुरू मिलाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै = मेरे लिए, मेरे मन में। राइआ = राजा, बादशाह। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ते = से। पूरै गुरू = पूरे गुरु ने।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने परमात्मा से मिला दिया, उसके हृदय से परमात्मा की याद पलक झपकने जितने समय के लिए भरूी नहीं भूलती (उसे यह विश्वास रहता है कि) प्रभु ही मेरे लिए सज्जन-मित्र है, गोपाल-प्रभु-पातिशाह के गुण ही मेरे (असल) साथी हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा राखे दास अपने जीअ जंत वसि जा कै ॥ एका लिव पूरन परमेसुर भउ नही नानक ता कै ॥२॥७३॥९६॥
मूलम्
करि किरपा राखे दास अपने जीअ जंत वसि जा कै ॥ एका लिव पूरन परमेसुर भउ नही नानक ता कै ॥२॥७३॥९६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। राख = रक्षा करता है। वसि जा कै = जिसके वश में। लिव = लगन। पूरन = सर्व व्यापक। ता कै = उसके मन में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में सारे जीव-जंतु हैं, वह मेहर करके अपने दासों की रक्षा खुद करता आया है। जिस मनुष्य के अंदर सर्व-व्यापक परमात्मा की ही हर वक्त प्रीति है, उसके मन में (किसी प्रकार का कोई) डर नहीं रहता।2।73।96।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ जा कै राम को बलु होइ ॥ सगल मनोरथ पूरन ताहू के दूखु न बिआपै कोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ जा कै राम को बलु होइ ॥ सगल मनोरथ पूरन ताहू के दूखु न बिआपै कोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिस मनुष्य के हृदय में। को = का। ताहू = उस (मनुष्य) के। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा की मेहर का सहारा होता है, उस मनुष्य के सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं, उस पर कोई दुख अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जनु भगतु दासु निजु प्रभ का सुणि जीवां तिसु सोइ ॥ उदमु करउ दरसनु पेखन कौ करमि परापति होइ ॥१॥
मूलम्
जो जनु भगतु दासु निजु प्रभ का सुणि जीवां तिसु सोइ ॥ उदमु करउ दरसनु पेखन कौ करमि परापति होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निजु = खास अपना। सुणि = सुन के। जीवां = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। सोइ = शोभा। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। कौ = वास्ते। करमि = बख्शिश से, (परमात्मा की) मेहर से।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का खास अपना दास भक्त बन जाता है, मैं उसकी शोभा सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मैं उसके दर्शन करने के लिए जतन करता हूँ। पर (संत-जन का दर्शन भी परमात्मा की) मेहर से ही होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी द्रिसटि निहारउ दूसर नाही कोइ ॥ दानु देहि नानक अपने कउ चरन जीवां संत धोइ ॥२॥७४॥९७॥
मूलम्
गुर परसादी द्रिसटि निहारउ दूसर नाही कोइ ॥ दानु देहि नानक अपने कउ चरन जीवां संत धोइ ॥२॥७४॥९७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। निहारउ = मैं देखता हूँ। कउ = को। धोइ = धो के।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मेहर के सदका मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ कि (परमात्मा के बराबर का) और कोई दूसरा नहीं है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मुझे अपने दास को ये ख़ैर डाल कि मैं संत-जनों चरण धो-धो के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।2।74।97।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ जीवतु राम के गुण गाइ ॥ करहु क्रिपा गोपाल बीठुले बिसरि न कब ही जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ जीवतु राम के गुण गाइ ॥ करहु क्रिपा गोपाल बीठुले बिसरि न कब ही जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवतु = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। गाइ = गा के। गोपाल = हे गोपाल! बीठुले = हे बीठल! (वि+स्थल = माया के प्रभाव से परे टिका हुआ) हे निर्लिप प्रभु! कब ही = कभी भी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गा-गा के (मनुष्य) आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। हे सृष्टि के मालिक! हे निर्लिप प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, (मुझे तेरा नाम) कभी ना भूले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु धनु सभु तुमरा सुआमी आन न दूजी जाइ ॥ जिउ तू राखहि तिव ही रहणा तुम्हरा पैन्है खाइ ॥१॥
मूलम्
मनु तनु धनु सभु तुमरा सुआमी आन न दूजी जाइ ॥ जिउ तू राखहि तिव ही रहणा तुम्हरा पैन्है खाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! आन = अन्य। जाइ = जगह, आसरा। पैनै = (जीव) पहनता है। खाइ = खाता है।1।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक! मेरा मन मेरा शरीर मेरा धन- यह सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। (तेरे बिना) मेरा कोई और आसरा नहीं है। जैसे तू रखता है, वैसे ही (जीव) रह सकते हैं। (हरेक जीव) तेरा ही दिया पहनता है तेरा ही दिया खाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगति कै बलि बलि जाई बहुड़ि न जनमा धाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई जिउ भावै तिवै चलाइ ॥२॥७५॥९८॥
मूलम्
साधसंगति कै बलि बलि जाई बहुड़ि न जनमा धाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई जिउ भावै तिवै चलाइ ॥२॥७५॥९८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। जनमा = जनमों में। धाइ = दौड़ऋता, भटकता। जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। चलाइ = जीवन-राह पर चला।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं साधु-संगत से सदा सदके जाता हूँ, (साधु-संगत की इनायत से जीव) दोबारा जन्मों में नहीं भटकता। हे प्रभु! तेरा दास (नानक) तेरी शरण आया है, जैसे तुझे अच्छा लगे, उसी तरह (मुझे) जीवन-राह पर चला।2।75।98।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मन रे नाम को सुख सार ॥ आन काम बिकार माइआ सगल दीसहि छार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मन रे नाम को सुख सार ॥ आन काम बिकार माइआ सगल दीसहि छार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन रे = हे मन! को = का। सार = श्रेष्ठ। आन = अन्य। बिकार = बेकार, व्यर्थ। दीसहि = दिखाई देते हैं (बहुवचन)। छार = राख, निकम्मे।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम स्मरण का सुख (और सभी सुखों से) उत्तम है। हे मन! (निरी) माया की खातिर ही और-और काम (आत्मिक जीवन के लिए) व्यर्थ हैं, वे सारे राख (समान ही) दिखते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रिहि अंध कूप पतित प्राणी नरक घोर गुबार ॥ अनिक जोनी भ्रमत हारिओ भ्रमत बारं बार ॥१॥
मूलम्
ग्रिहि अंध कूप पतित प्राणी नरक घोर गुबार ॥ अनिक जोनी भ्रमत हारिओ भ्रमत बारं बार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिहि = घर मे। अंध कूप = अंधा कूआँ। पतित = गिरे हुए। घोर गुबार = घोर अंधेरा। हारिओ = थक जाता है। भ्रमत = भटकते हुए। बारे बार = बार-बार।1।
अर्थ: हे भाई! (सिर्फ माया की खातिर दौड़-भाग करने वाला) प्राणी घोर अंधेरे नर्क समान गृहस्थ के अंधे कूएँ में गिरा रहता है। वह अनेक जूनियों में भटकता बार-बार भटकता थक जाता है (जीवन-सत्ता गवा बैठता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पावन भगति बछल दीन किरपा धार ॥ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै साधसंगि उधार ॥२॥७६॥९९॥
मूलम्
पतित पावन भगति बछल दीन किरपा धार ॥ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै साधसंगि उधार ॥२॥७६॥९९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! भगति वछल = हे भक्ति से प्यार करने वाले! दीन = गरीब। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। मांगै = माँगता है। साध संगि = साधु-संगत में (रख के)। उधार = संसार समुंदर से पार लंघा ले।2।
अर्थ: हे विकारियों को पवित्र करने वाले! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे गरीबों पर मेहर करने वाले! (तेरा दास) नानक दोनों हाथ जोड़ के यह दान माँगता है कि साधु-संगत में रख के (मुझे माया-ग्रसित अंधे कूएँ में से) बचा ले।2।76।99।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ बिराजित राम को परताप ॥ आधि बिआधि उपाधि सभ नासी बिनसे तीनै ताप ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ बिराजित राम को परताप ॥ आधि बिआधि उपाधि सभ नासी बिनसे तीनै ताप ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिराजित = बिराजा हुआ, टिका हुआ। को = का। परताप = बल। आधि = मानसिक रोग। बिआधि = शरीरिक रोग। उपाधि = झगड़े बखेड़े। तीनै = यह तीनों ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा के नाम का बल आ टिकता है, उसके अंदर से आधि-बिआधि और उपाधि- ये तीनों ही ताप बिल्कुल ही समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना बुझी पूरन सभ आसा चूके सोग संताप ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी मन तन आतम ध्राप ॥१॥
मूलम्
त्रिसना बुझी पूरन सभ आसा चूके सोग संताप ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी मन तन आतम ध्राप ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोग = ग़म। संताप = कष्ट। अचुत = (अ+च्युत = ना नाश होने वाला) अविनाशी। आतम = जिंद। ध्राप = तृप्त हो जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के अंदर हरि-नाम का बल है, उसकी) तृष्णा मिट जाती है, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है, उसके अंदर से ग़म-कष्ट खत्म हो जाते हैं। अविनाशी और नाश-रहित प्रभु के गुण गाते-गाते उसका मन उसका तन उसकी जिंद (की तृष्णा) तृप्त हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध लोभ मद मतसर साधू कै संगि खाप ॥ भगति वछल भै काटनहारे नानक के माई बाप ॥२॥७७॥१००॥
मूलम्
काम क्रोध लोभ मद मतसर साधू कै संगि खाप ॥ भगति वछल भै काटनहारे नानक के माई बाप ॥२॥७७॥१००॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मद = नशा, मस्ती। मतसर = ईष्या। कै संगि = की संगति में (रख के)। खाप = नाश कर। भै = डर, भय।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे सारे डर दूर करने वाले! हे नानक के माता-पिता (ष्की तरह पालना करने वाले!) मुझे साधु-संगत में रख के (मेरे अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-अहंकार और ईष्या (आदिक विकार) नाश कर।2।77।100।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ आतुरु नाम बिनु संसार ॥ त्रिपति न होवत कूकरी आसा इतु लागो बिखिआ छार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ आतुरु नाम बिनु संसार ॥ त्रिपति न होवत कूकरी आसा इतु लागो बिखिआ छार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतुर = दुखी, व्याकुल। त्रिपति = तृप्ति, तसल्ली, शांति। कूकरी = कुक्ती (के स्वभाव वाली)। ईतु = इस में। लागो = (जगत) लगा रहता है। बिखिआ = माया। छार = राख, निकम्मी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) नाम को भुला के जगत व्याकुल हुआ रहता है, इस राख समान माया में ही लगा रहता है (चिपका रहता है) कुक्ती के स्वभाव वाली (जगत की) लालसा कभी नहीं अघाती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइ ठगउरी आपि भुलाइओ जनमत बारो बार ॥ हरि का सिमरनु निमख न सिमरिओ जमकंकर करत खुआर ॥१॥
मूलम्
पाइ ठगउरी आपि भुलाइओ जनमत बारो बार ॥ हरि का सिमरनु निमख न सिमरिओ जमकंकर करत खुआर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाइ = पा के। ठगउरी = ठग-बूटी। भुलाइओ = गगलत रास्ते डाल रखा है। बारो बार = बार-बार। निमख्र = निमेष, आँख झपकने जितना समय। कंकर = किंकर, नौकर। जम कंकर = जमदूत।1।
अर्थ: (पर, हे भाई! जीव के भी क्या वश? परमात्मा ने माया की) ठग-बूटी डाल के स्वयं ही (जगत को) गलत राह पर डाल रखा है, (कुमार्ग पर पड़ कर जीव) बार-बार जूनियों में रहता है, आँख झपकने जितने समय के लिए भी (जीव) परमातमा (के नाम) का स्मरण नहीं करता, जमदूत इसको ख्वार करते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन तेरिआ संतह की रावार ॥ नानक दासु दरसु प्रभ जाचै मन तन को आधार ॥२॥७८॥१०१॥
मूलम्
होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन तेरिआ संतह की रावार ॥ नानक दासु दरसु प्रभ जाचै मन तन को आधार ॥२॥७८॥१०१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दुख भंजन = हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! रावार = चरण धूल। जाचै = माँगता है (एकवचन)। का = को। आधार = आसरा।2।
अर्थ: हे प्रभु! हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! (दास नानक पर) दयावान हो, (तेरा दास) तेरे संत-जनों के चरणों की धूल बना रहे। (तेरा) दास नानक तेरे दर्शन माँगता है, यही (इसके) मन का तन का आसरा है।2।78।101।
[[1224]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मैला हरि के नाम बिनु जीउ ॥ तिनि प्रभि साचै आपि भुलाइआ बिखै ठगउरी पीउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मैला हरि के नाम बिनु जीउ ॥ तिनि प्रभि साचै आपि भुलाइआ बिखै ठगउरी पीउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मैला = विकारों से भरा हुआ। जीउ = जीव। तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। साचै = सदा कायम रहने वाले ने। भुलाइआ = गलत रास्ते पर डाल दिया। बिखै ठगउरी = विषियों की ठग-बूटी। पीउ = पीता रह।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना जीव विकारों में भरा रहता है। (पर, जीव के भी क्या वश?) उस सदा-स्थिर प्रभु ने आप ही इसको गलत राह पर डाला हुआ है कि विषियों की ठग-बूटी (घोट-घोट के) पीता रह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि जनम भ्रमतौ बहु भांती थिति नही कतहू पाई ॥ पूरा सतिगुरु सहजि न भेटिआ साकतु आवै जाई ॥१॥
मूलम्
कोटि जनम भ्रमतौ बहु भांती थिति नही कतहू पाई ॥ पूरा सतिगुरु सहजि न भेटिआ साकतु आवै जाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमतो = भटकता। बहु भांती = कई तरीकों से। थिति = स्थित टिकाव। कत हू = कहीं भी। सहजि = आत्मिक अडोलता में। भेटिआ = मिला। साकतु = प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य। आवै जाई = पैदा होता मरता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य कई तरीकों से करोड़ों जन्मों में भटकता रहता है, कहीं भी (इस चक्कर में से इसको) मुक्ति नहीं मिलती। आत्मिक अडोलता में (पहुँचाने वाला) पूरा गुरु इसको नहीं मिलता (इस वास्ते सदा) पैदा होता मरता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखि लेहु प्रभ सम्रिथ दाते तुम प्रभ अगम अपार ॥ नानक दास तेरी सरणाई भवजलु उतरिओ पार ॥२॥७९॥१०२॥
मूलम्
राखि लेहु प्रभ सम्रिथ दाते तुम प्रभ अगम अपार ॥ नानक दास तेरी सरणाई भवजलु उतरिओ पार ॥२॥७९॥१०२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! संम्रिथ = हे समर्थ! हे सारी ताकतों के मालिक! दाते = हे दातार! अगम = अपहुंच। अपार = बेअंत। भवजलु = संसार समुंदर।2।
अर्थ: हे सब ताकतों के मालिक प्रभु! हे सब दातें देने वाले! हम जीवों के लिए तू अगम्य (पहुँच से परे) है बेअंत है, तू स्वयं ही रक्षा कर। हे नानक! (कह: हे प्रभु! जो तेरा) दास तेरी शरण आता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।2।79।102।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ रमण कउ राम के गुण बाद ॥ साधसंगि धिआईऐ परमेसरु अम्रित जा के सुआद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ रमण कउ राम के गुण बाद ॥ साधसंगि धिआईऐ परमेसरु अम्रित जा के सुआद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमण कउ = स्मरण करने के लिए। गुण बाद = गुणानुवाद, गुणों का उच्चारण। संगि = संगति में। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। जा के = जिस (परमात्मा) के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुणों का उच्चारण- यह ही स्मरण के लिए (श्रेष्ठ दाति है)। हे भाई! जिस परमेश्वर के (नाम जपने के) रस आत्मिक-जीवन देने वाले हैं, उसका ध्यान साधु-संगत में टिक के धरना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरत एकु अचुत अबिनासी बिनसे माइआ माद ॥ सहज अनद अनहद धुनि बाणी बहुरि न भए बिखाद ॥१॥
मूलम्
सिमरत एकु अचुत अबिनासी बिनसे माइआ माद ॥ सहज अनद अनहद धुनि बाणी बहुरि न भए बिखाद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचुत = (अच्युत) नाश रहित। माद = मस्तियाँ। सहज आनद = आत्मिक अडोलता के आनंद। अनहद धुनि = एक रस टिकी रहने वाली लगन। बहुरि = दोबारा। बिखाद = दुख-कष्ट।1।
अर्थ: हे भाई! अविनाशी नाश-रहित प्रभु का नाम स्मरण करते हुए माया के सारे नशे नाश हो जाते हैं। (नाम-जपने वाले के अंदर) आत्मिक अडोलता के आनंद बने रहते हैं, महिमा की वाणी की एक-रस लहर निरंतर चलने लगती है, उसके मन में दुख-कष्ट नहीं रह जाते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनकादिक ब्रहमादिक गावत गावत सुक प्रहिलाद ॥ पीवत अमिउ मनोहर हरि रसु जपि नानक हरि बिसमाद ॥२॥८०॥१०३॥
मूलम्
सनकादिक ब्रहमादिक गावत गावत सुक प्रहिलाद ॥ पीवत अमिउ मनोहर हरि रसु जपि नानक हरि बिसमाद ॥२॥८०॥१०३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सनकादिक = (ब्रहमा के चार पुत्र) सनक, सनातन, सनंदन, सनतकुमार। गावत = गाते। सुक = शुकदेव ऋषि। पीवत = पीते हुए। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नामजल। जपि = जप के। बिसमाद = विस्माद अवस्था, आत्मिक मस्ती।2।
अर्थ: हे भाई! सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र, ब्रहमा आदि देवतागण (उस प्रभु की महिमा के गीत) गाते रहते हैं। शुकदेव ऋषि प्रहलाद भक्त आदि उसके गुण गाते हैं। हे नानक! मन को मोहने वाले हरि का आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-रस पीते हुए, हरि का नाम जप-जप के मनुष्य के अंद रवह अवस्था पैदा हो जाती है कि जहाँ यह सदा वाह-वाह की मस्ती में टिका रहता है।2।80।103।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ कीन्हे पाप के बहु कोट ॥ दिनसु रैनी थकत नाही कतहि नाही छोट ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ कीन्हे पाप के बहु कोट ॥ दिनसु रैनी थकत नाही कतहि नाही छोट ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु = अनेक। कोट = किले। रैनी = रात। दिनसु = दिन। कतहि = कहीं भी। छोट = खलासी, मुक्ति।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम से विछुड़ के) मनुष्य पापों की अनेक किले (चार दिवारियां) (अपनी जिंद के चारों तरफ) खड़ी करता जाता है। दिन-रात (पाप करते हुए) थकता नहीं (साधु-संगत के बिना और) कहीं भी (पापों से) इसकी मुक्ति नहीं मिल सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा बजर बिख बिआधी सिरि उठाई पोट ॥ उघरि गईआं खिनहि भीतरि जमहि ग्रासे झोट ॥१॥
मूलम्
महा बजर बिख बिआधी सिरि उठाई पोट ॥ उघरि गईआं खिनहि भीतरि जमहि ग्रासे झोट ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बजर = वज्र, करड़े। बिख = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। बिआधी = रोग। सिरि = सिर पर। पोट = पोटली। जमहि = जमों ने। ग्रासे = पकड़ लिए। झोट = केस, झाटा, लटें।1।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम से विछुड़ के) मनुष्य बड़े कठोर और आत्मिक मौत लाने वाले रोगों की पोटली (अपने) सिर पर उठाए रखता है। जब जमों ने (आ के) केसों से पकड़ लिया, तब एक-छिन में ही (इसकी) आँखें खुल जाती हैं (पर, तब क्या फायदा?)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पसु परेत उसट गरधभ अनिक जोनी लेट ॥ भजु साधसंगि गोबिंद नानक कछु न लागै फेट ॥२॥८१॥१०४॥
मूलम्
पसु परेत उसट गरधभ अनिक जोनी लेट ॥ भजु साधसंगि गोबिंद नानक कछु न लागै फेट ॥२॥८१॥१०४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परेत = प्रेत जून। उसट = उष्ट, ऊँठ। गरधब = गधा। लेट = लेटता। भजु = भजन कर। साध संगि = साधु-संगत मे। फेट = चोट।2।
अर्थ: हे भाई! (पापों की पोटली के कारण) जीव पशू, प्रेत, ऊँठ, गधा आदि अनेक जूनियों में भटकता फिरता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-संगत में टिक के परमात्मा का भजन किया कर, फिर (जमों की) रक्ती भर भी चोट नहीं लगेगी।2।81।104।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ अंधे खावहि बिसू के गटाक ॥ नैन स्रवन सरीरु सभु हुटिओ सासु गइओ तत घाट ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ अंधे खावहि बिसू के गटाक ॥ नैन स्रवन सरीरु सभु हुटिओ सासु गइओ तत घाट ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधे = (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्य। खावहि = खाते रहते हैं। बिसू = विष, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। गटाक = गटक के। नैन = आँखें। स्रवन = कान। हुटिओ = थक जाता है, काम करने से रह जाता है। सासु = सांस। गइओ = चला जाता है, रुक जाता है। तत घाट = तत घटिका, उस घड़ी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाले पदार्थ ही खुश हो-हो के खाते रहते हैं (आखिर मौत सिर पर आ जाती है), आँखें, कान, शरीर- हरेक अंग काम करने से रह जाता है, और, सांसें भी खत्म हो जाती हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथ रञाणि उदरु ले पोखहि माइआ गईआ हाटि ॥ किलबिख करत करत पछुतावहि कबहु न साकहि छांटि ॥१॥
मूलम्
अनाथ रञाणि उदरु ले पोखहि माइआ गईआ हाटि ॥ किलबिख करत करत पछुतावहि कबहु न साकहि छांटि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनाथ = गरीब, कमजोर। रञाणि = दुखी कर के। उदरु = पेट। पोखहि = पालते हैं। गईआ हाटि = हट जाती है, छोड़ जाती है। किलबिख = पाप। करत = करते हुए। न साकहि छांटि = छोड़ नहीं सकते।1।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य) कमजोरों को दुख दे-दे के अपना पेट पालते रहते हैं (पर मौत आने पर) वह माया भी साथ छोड़ देती है। ऐसे मनुष्य पाप करते-करते पछताते भी हैं, (पर, इन पापों को) छोड़ नहीं सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदकु जमदूती आइ संघारिओ देवहि मूंड उपरि मटाक ॥ नानक आपन कटारी आपस कउ लाई मनु अपना कीनो फाट ॥२॥८२॥१०५॥
मूलम्
निंदकु जमदूती आइ संघारिओ देवहि मूंड उपरि मटाक ॥ नानक आपन कटारी आपस कउ लाई मनु अपना कीनो फाट ॥२॥८२॥१०५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जमदूती = जमदूतों ने। देवहि = देते हैं। मूंड = सिर। मटाक = चोट। आपस कउ = अपने आप को। फाट = जख्मी।2।
अर्थ: हे भाई! (यही हाल होता है निंदक मनुष्य का। निंदक सारी उम्र संत-जनों पर दूषणबाजी करता रहता है, आखिर में जब) जमदूत निंदक को आ पकड़ते हैं, उसके सिर के ऊपर (मौत की) चोट आ चलाते हैं। हे नानक! (सारी उम्र) निंदक अपनी छुरी अपने ऊपर ही चलाता रहता है, अपने ही मन को निंदा के जख़्म लगाता रहता है।2।82।105।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ टूटी निंदक की अध बीच ॥ जन का राखा आपि सुआमी बेमुख कउ आइ पहूची मीच ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ टूटी निंदक की अध बीच ॥ जन का राखा आपि सुआमी बेमुख कउ आइ पहूची मीच ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अध बीच = अधबीच ही। टूटी अध बीच = आधे में ही टूट जाती है, जिंदगी असफल हो जाती है। बेमुख = (प्रभु के सेवक की तरफ से) जिसने अपना मुँह मोड़ा है। मीच = मींच, मौत, आत्मिक मौत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संतजनों की निंदा करने वाले मनुष्य की जिंदगी निष्फल जाती है। मालिक-प्रभु स्वयं अपने सेवक की रक्षा करने वाला है, पर जो मनुष्य संत-जनों से मुँह मोड़े रखता है, वह आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उस का कहिआ कोइ न सुणई कही न बैसणु पावै ॥ ईहां दुखु आगै नरकु भुंचै बहु जोनी भरमावै ॥१॥
मूलम्
उस का कहिआ कोइ न सुणई कही न बैसणु पावै ॥ ईहां दुखु आगै नरकु भुंचै बहु जोनी भरमावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसका = उस (निंदक) का। न सुणई = न सने, नहीं सुनता। कही = कहीं भी। बैसणु = जगह, आदर की जगह। ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। भुंचै = भोगता है। भरमावै = भटकता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उसका’ में से ‘उसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! संतजनों की निंदा करने वाले मनुष्य की बात पर कोई ऐतबार नहीं करता, उसको कहीं भी इज्जत वाली जगह नहीं मिलती। निंदक इस लोक में दुख पाता है, (क्योंकि कोई उसकी इज्जत नहीं करता), परलोक में वह नर्क भोगता है, अनेक जूनियों में भटकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगटु भइआ खंडी ब्रहमंडी कीता अपणा पाइआ ॥ नानक सरणि निरभउ करते की अनद मंगल गुण गाइआ ॥२॥८३॥१०६॥
मूलम्
प्रगटु भइआ खंडी ब्रहमंडी कीता अपणा पाइआ ॥ नानक सरणि निरभउ करते की अनद मंगल गुण गाइआ ॥२॥८३॥१०६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रगटु भइआ = प्रकट हुआ, बदनामी कमाता है। खंडी ब्रहमण्डी = जगत में। करते की = कर्तार की। मंगल = खुशियां।2।
अर्थ: हे भाई! संतजनों की निंदा करने वाले मनुष्य अपने (इस) किए का (यह) फल पाता है कि सारे जगत में बदनाम हो जाता है। हे नानक! (प्रभु का सेवक) निर्भय कर्तार की शरण पड़ा रहता है, प्रभु के गुण गाता है, उसके अंदर आहित्मक आनंद बना रहता है, आत्मिक खुशियां बनी रहती हैं।2।83।106।
[[1225]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ त्रिसना चलत बहु परकारि ॥ पूरन होत न कतहु बातहि अंति परती हारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ त्रिसना चलत बहु परकारि ॥ पूरन होत न कतहु बातहि अंति परती हारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसना = माया की लालच। चलत = चलती है, दौड़ भाग करती है। बहु परकारि = कई तरीकों से। कतहु बातहि = किसी भी बात से। अंति = आखिर। परती हारि = हार जाती है, सफल नहीं होती।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के अंदर) तृष्णा कई तरीकों से दौड़-भाग करती रहती है। किसी भी बात से (यह तृष्णा) तृप्त नहीं होती, (जिंदगी के आखिर तक) यह सफल नहीं होती (और-और बढ़ती ही रहती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांति सूख न सहजु उपजै इहै इसु बिउहारि ॥ आप पर का कछु न जानै काम क्रोधहि जारि ॥१॥
मूलम्
सांति सूख न सहजु उपजै इहै इसु बिउहारि ॥ आप पर का कछु न जानै काम क्रोधहि जारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। इहै = यह ही। इसु बिउहार = इस तृष्णा का व्यवहार है। जानै = जानती। क्रोधहि = क्रोध से। जारि = जारे, जला देती है। आप = अपना। पर का = पराया।1।
अर्थ: हे भाई! (तृष्धा के कारण मनुष्य के मन में कभी) शांति पैदा नहीं होती, आनंद नहीं बनता, आत्मिक अडोलता नहीं उपजती। बस! इस तृष्णा का (सदा) यही व्यवहार है। काम और क्रोध से (यह तृष्णा मनुष्य का अंदरला) जला देती है, किसी का लिहज़ नहीं करती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसार सागरु दुखि बिआपिओ दास लेवहु तारि ॥ चरन कमल सरणाइ नानक सद सदा बलिहारि ॥२॥८४॥१०७॥
मूलम्
संसार सागरु दुखि बिआपिओ दास लेवहु तारि ॥ चरन कमल सरणाइ नानक सद सदा बलिहारि ॥२॥८४॥१०७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। दुखि = दुख में। बिआपिओ = फसा रहता है। लेवहु तारि = तू तार लेता है। सद = सदा। बलिहारि = मैं सदके जाता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! तृष्णा के कारण जीव पर संसार-समुंदर अपना जोर डाले रखता है, (जीव) दुख में फसा रहता है। (पर, हे प्रभु!) तू अपने सेवकों को (इस संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) मैं (भी) तेरे सुंदर चरणों की शरण आया हूँ, मैं तुझसे सदा-सदा सदके जाता हूँ।2।84।107।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ रे पापी तै कवन की मति लीन ॥ निमख घरी न सिमरि सुआमी जीउ पिंडु जिनि दीन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ रे पापी तै कवन की मति लीन ॥ निमख घरी न सिमरि सुआमी जीउ पिंडु जिनि दीन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे पापी = हे पापी! (पुलिंग)। तै = तू। कवन की = किस (बुरे) की? निमख = निमेष, ऑम्ंख झपकने जितना समय। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस (प्रभु) ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे पापी! तूने किस की (बुरी) मति ले ली है? जिस मालिक-प्रभु ने तुझे यह जिंद दी, यह शरीर दिया, उसको तू बघड़ी भर के लिए भी आँख झपकने जितने समय के लिए भी याद नहीं करता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खात पीवत सवंत सुखीआ नामु सिमरत खीन ॥ गरभ उदर बिललाट करता तहां होवत दीन ॥१॥
मूलम्
खात पीवत सवंत सुखीआ नामु सिमरत खीन ॥ गरभ उदर बिललाट करता तहां होवत दीन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सवंत = सोता। खीन = क्षीण, कमजोर, आलसी। गरभ = माँ का पेट। उदर = पेट। दीन = निमाणा।1।
अर्थ: हे पापी! खाता, पीता, सोता तो तू खुश रहता है पर प्रभु का नाम स्मरण करते हुए तू आलसी हो जाता है। जब तू माँ के पेट में था, तब बिलकता था, तब तू गरीबड़ा सा बना रहता था।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा माद बिकार बाधा अनिक जोनि भ्रमीन ॥ गोबिंद बिसरे कवन दुख गनीअहि सुखु नानक हरि पद चीन्ह ॥२॥८५॥१०८॥
मूलम्
महा माद बिकार बाधा अनिक जोनि भ्रमीन ॥ गोबिंद बिसरे कवन दुख गनीअहि सुखु नानक हरि पद चीन्ह ॥२॥८५॥१०८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माद = मस्ती। बापा = बंधा हुआ। कवन दुख = कौन कौन से दुख? गनीअहि = गिने जाएं। चीन्ह = चीन्ह, पहचान करने से, सांझ डालने से।2।
अर्थ: हे पापी! बड़े-बड़े विकारों की मस्ती में बंधा हुआ तू अनेक जूनियों में भटकता आ रहा है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम भूलने से इतने दुख आते हैं कि गिने नहीं जा सकते। परमात्मा के चरणों से सांझ डालने से ही सुख मिलता है।2।85।108।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई री चरनह ओट गही ॥ दरसनु पेखि मेरा मनु मोहिओ दुरमति जात बही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई री चरनह ओट गही ॥ दरसनु पेखि मेरा मनु मोहिओ दुरमति जात बही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई री = हे माँ! ओट = आसरा। गही = पकड़ी। जात बही = बह गई है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘री’ स्त्रीलिंग है (‘कहत कबीर सुनहु री लोई’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! (जब का) परमात्मा के चरणों का आसरा लिया है, (उसके) दर्शन करके मेरा मन मोहा गया है, (मेरे अंदर से) बुरी मति बह गई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगह अगाधि ऊच अबिनासी कीमति जात न कही ॥ जलि थलि पेखि पेखि मनु बिगसिओ पूरि रहिओ स्रब मही ॥१॥
मूलम्
अगह अगाधि ऊच अबिनासी कीमति जात न कही ॥ जलि थलि पेखि पेखि मनु बिगसिओ पूरि रहिओ स्रब मही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगह = अथाह। अगाधि = बेअंत गहरा। जलि = जल में। थलि = थल पर। पेखि = देख के। बिगसिओ = प्रसन्न हो रहा है। पूरि रहिओ = व्यापक है। स्रब मही = सारी धरती में।1।
अर्थ: हे माँ! वह परमात्मा अथाह है बेअंत गहरा है, बहुत ऊँचा है, कभी नहीं मरता, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता। जल में धरती में (हर जगह उसको) देख के मेरा मन खिला रहता है। हे माँ! वह सारी सृष्टि में व्यापक है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल प्रीतम मनमोहन मिलि साधह कीनो सही ॥ सिमरि सिमरि जीवत हरि नानक जम की भीर न फही ॥२॥८६॥१०९॥
मूलम्
दीन दइआल प्रीतम मनमोहन मिलि साधह कीनो सही ॥ सिमरि सिमरि जीवत हरि नानक जम की भीर न फही ॥२॥८६॥१०९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि साधह = साधु जनों को मिल के। कीनो सही = सही किया है, देखा है। भीर = भीड़ (में)। न फही = नहीं फसते।2।
अर्थ: हे माँ! साधु-संगत में मिल के गरीबों पर दया करने वाले और मन को मोह लेने वाले प्रीतम का मैंने दर्शन किया है। हे नानक! (कह: हे माँ!) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन मिलता है, और जमों के चुंगल में नहीं फंसता।2।86।109।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई री मनु मेरो मतवारो ॥ पेखि दइआल अनद सुख पूरन हरि रसि रपिओ खुमारो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई री मनु मेरो मतवारो ॥ पेखि दइआल अनद सुख पूरन हरि रसि रपिओ खुमारो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मतवारो = मतवाला, मस्त। पेखि = देख के। रसि = रस से। रपिओ = रंगा गया है। खुमारो = मस्ती।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! मेरा मन (प्रभु के दीदार में) मस्त हो रहा है। उस दया के सोमे प्रभु का दर्शन करके मेरे अंदर पूरी तरह से आत्मिक आनंद सुख बना हुआ है, मेरा मन प्रेम-रस से रंगा गया है और मस्त है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल भए ऊजल जसु गावत बहुरि न होवत कारो ॥ चरन कमल सिउ डोरी राची भेटिओ पुरखु अपारो ॥१॥
मूलम्
निरमल भए ऊजल जसु गावत बहुरि न होवत कारो ॥ चरन कमल सिउ डोरी राची भेटिओ पुरखु अपारो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा का गीत। बहुरि = दोबारा। कारो = काला। सिउ = साथ। डोरी राची = तवज्जो जुड़ी रहती है। भेटिओ = मिल जाता है।1।
अर्थ: हे माँ! परमात्मा का यश गाते हुए जिस मनुष्य का मन निर्मल-उज्जवल हो जाता है, वह दोबारा (विकारों से) काला नहीं होता। (महिमा की इनायत से) जिस मनुष्य के मन की डोर प्रभु के सुंदर चरणों के साथ जुड़ती है, उसको बेअंत प्रभु मिल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करु गहि लीने सरबसु दीने दीपक भइओ उजारो ॥ नानक नामि रसिक बैरागी कुलह समूहां तारो ॥२॥८७॥११०॥
मूलम्
करु गहि लीने सरबसु दीने दीपक भइओ उजारो ॥ नानक नामि रसिक बैरागी कुलह समूहां तारो ॥२॥८७॥११०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। सरबसु = सर्वस्व, सारा धन पदार्थ, सब कुछ। दीपक = दीया। नामि = नाम से। रसिक = रसिया, प्रेमी। बैरागी = वैरागवान।2।
अर्थ: हे माँ! जिस मनुष्य का हाथ पकड़ के प्रभु उसको अपना बना लेता है, उसको सब कुछ बख्शता है, उसके अंदर (नाम के) दीए का प्रकाश हो जाता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में प्रीत प्रेम जोड़ने वाला मनुष्य अपनी सारी कुलों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।2।87।110।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई री आन सिमरि मरि जांहि ॥ तिआगि गोबिदु जीअन को दाता माइआ संगि लपटाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई री आन सिमरि मरि जांहि ॥ तिआगि गोबिदु जीअन को दाता माइआ संगि लपटाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = (अन्य) (प्रभु के बिना) कई और। सिमरि = स्मरण करके। मरि जांहि = मर जाते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। तिआगि = त्याग के, भुला के। जीअन को = सारे जीवों का। संगि = साथ। लपटाहि = लिपटे रहते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! सारे जीवों को दातें देने वाले परमात्मा को छोड़ के जो मनुष्य (सदा) माया के साथ चिपके रहते हैं, वह (प्रभु के बिना) और को मन में बसाए रख के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु बिसारि चलहि अन मारगि नरक घोर महि पाहि ॥ अनिक सजांई गणत न आवै गरभै गरभि भ्रमाहि ॥१॥
मूलम्
नामु बिसारि चलहि अन मारगि नरक घोर महि पाहि ॥ अनिक सजांई गणत न आवै गरभै गरभि भ्रमाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसारि = विसार के। चलहि = चलते हैं (बहुवचन)। अन मारगि = और रास्ते पर। पाहि = पड़ते हैं। गणत = गिनती। गरभै गरभि = हरेक जून में। भ्रमाहि = भटकते हैं।1।
अर्थ: हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के और (जीवन-) राह पर चलते हैं, वे भयानक नर्क में पड़े रहते हैं। उनको इतनी सजाएं मिलती रहती हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। वे हरेक जून में भटकते फिरते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से धनवंते से पतिवंते हरि की सरणि समाहि ॥ गुर प्रसादि नानक जगु जीतिओ बहुरि न आवहि जांहि ॥२॥८८॥१११॥
मूलम्
से धनवंते से पतिवंते हरि की सरणि समाहि ॥ गुर प्रसादि नानक जगु जीतिओ बहुरि न आवहि जांहि ॥२॥८८॥१११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। पतिवंते = इज्जत वाले। समाहि = लीन रहते हैं। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। बहुरि = दोबारा, फिर। आवहि = पैदा होते हैं। जांहि = मरते हैं।2।
अर्थ: हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा की शरण में टिके रहते हैं, वे धन वाले हैं, वे इज्जत वाले हैं। हे नानक! (कह: हे माँ!) गुरु की मेहर से उन्होंने जगत (के मोह) को जीत लिया है, वे बार-बार ना पैदा होते हैं ना मरते हैं।2।88।111।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि काटी कुटिलता कुठारि ॥ भ्रम बन दहन भए खिन भीतरि राम नाम परहारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि काटी कुटिलता कुठारि ॥ भ्रम बन दहन भए खिन भीतरि राम नाम परहारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुटिल = टेढ़ी चालें चलने वाला, खोटा। कुटिलता = मन का टेढ़, खोट। कुठारि = कुहाड़े से। भ्रम = भटकता। भ्रम बन = भटकना के जंगल। दहन भए = जल गए। परहारि = प्रहार, चोट से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (जिस मनुष्य के) मन का खोट (मानो) कुहाड़े से काट दिया, उसके अंदर से प्रभु के नाम की चोट से एक छिन में ही भटकना के जंगलों के जंगल ही जल (के राख हो) गए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध निंदा परहरीआ काढे साधू कै संगि मारि ॥ जनमु पदारथु गुरमुखि जीतिआ बहुरि न जूऐ हारि ॥१॥
मूलम्
काम क्रोध निंदा परहरीआ काढे साधू कै संगि मारि ॥ जनमु पदारथु गुरमुखि जीतिआ बहुरि न जूऐ हारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परहरीआ = दूर कर दी। साधू कै संगि = गुरु की संगति में। मारि = मार के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बहुरि = दोबारा। जूऐ = जूए में। हारि = हार के।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु की संगति में रह के काम क्रोध निंदा आदि विकारों को (अपने अंदर से) दूर कर देता है मार-मार के निकाल देता है गुरमुख इस कीमती मनुष्य जनम को (विकारों के मुकाबले में) कामयाब बना लेता है, फिर कभी इसको जूए में हार के नहीं जाता।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
आठ पहर प्रभ के गुण गावह पूरन सबदि बीचारि ॥ नानक दासनि दासु जनु तेरा पुनह पुनह नमसकारि ॥२॥८९॥११२॥
मूलम्
आठ पहर प्रभ के गुण गावह पूरन सबदि बीचारि ॥ नानक दासनि दासु जनु तेरा पुनह पुनह नमसकारि ॥२॥८९॥११२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावह = गाओ भाई! हम गाएं। सबदि = शब्द से। बीचारि = विचार के, मन में बसा के। दासनि दासु = दासों का दास। पुनह पुनह = बार बार।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गावह’ है वर्तमानकाल, उत्तम पुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! आओ, मिल के सर्व-व्यापक प्रभु के गुणों को गुरु-शब्द के द्वारा मन में बसा के आठों पहर उसके गुण गाते रहें। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मैं तेरे दासों का दास हूँ, (तेरे दर पर ही) बार-बार नमस्कार करता हूँ।2।89।112।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ पोथी परमेसर का थानु ॥ साधसंगि गावहि गुण गोबिंद पूरन ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ पोथी परमेसर का थानु ॥ साधसंगि गावहि गुण गोबिंद पूरन ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पोथी = वह पुस्तक जिसमें परमात्मा की महिमा लिखी हुई है, गुरवाणी। थानु = मिलने की जगह। साध संगि = गुरु की संगति में। गावहि = (जो) गाते हैं। पूरन = सर्व व्यापक। गिआनु = गहरी सांझ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरबाणी (ही) परमात्मा के मिलाप का स्थान है। जो मनुष्य गुरु की संगति में र हके परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, वे मनुष्य सर्व-व्यापक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधिक सिध सगल मुनि लोचहि बिरले लागै धिआनु ॥ जिसहि क्रिपालु होइ मेरा सुआमी पूरन ता को कामु ॥१॥
मूलम्
साधिक सिध सगल मुनि लोचहि बिरले लागै धिआनु ॥ जिसहि क्रिपालु होइ मेरा सुआमी पूरन ता को कामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = सिद्ध, जोग साधना में सिद्ध जोगी। लोचहि = तमन्ना करते आए हैं। लागै धिआनु = तवज्जो जुड़ती है। जिसहि = जिस (मनुष्य) पर। ता को = उसका। कामु = (हरेक) काम।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जोग-साधना करने वाले मनुष्य, जोग-साधना में सिद्ध-हस्त जोगी, सारे ऋषि-मुनि (परमात्मा के साथ मिलाप की) तमन्ना करते आ रहे हैं, पर किसी विरले की तवज्जो (उसमें) जुड़ती है। जिस मनुष्य पर मेरा मालिक-प्रभु स्वयं दयावान होता है, उसका (यह) काम सफल हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै रिदै वसै भै भंजनु तिसु जानै सगल जहानु ॥ खिनु पलु बिसरु नही मेरे करते इहु नानकु मांगै दानु ॥२॥९०॥११३॥
मूलम्
जा कै रिदै वसै भै भंजनु तिसु जानै सगल जहानु ॥ खिनु पलु बिसरु नही मेरे करते इहु नानकु मांगै दानु ॥२॥९०॥११३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। भै भंजनु = सारे डर दूर करने वाला। बिसरु नही = ना भूंल करते = हे कर्तार! नानकु मांगै = नानक मांगता है।2।
अर्थ: हे भाई! सारे डरों का नाश करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है उसको सारा जगत जान लेता है (सारे जगत में उसकी शोभा पसर जाती है)। (उस परमात्मा के दर पर) नानक यह दान माँगता है (कि) हे मेरे कर्तार! (मेरे मन से कभी) एक छिन वास्ते एक पल के लिए भी ना बिसर।2।90।113।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ वूठा सरब थाई मेहु ॥ अनद मंगल गाउ हरि जसु पूरन प्रगटिओ नेहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ वूठा सरब थाई मेहु ॥ अनद मंगल गाउ हरि जसु पूरन प्रगटिओ नेहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वूठा = बस गया, बसता है। थाई = जगहों में। मेहु = बरखा, आत्मिक आनंद की वर्षा। मंगल = खुखियां। गाउ = गाया करो। पूरन नेहु = सर्व व्यापक प्रभु का प्यार। प्रगटिओ = पैदा हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का यश गाया करो, (जैसे,) बरसात (टोए-टिब्बे) सब जगह होती है (वैसे ही यश गायन करने वालों के हृदयों में) आनंद और खुशियों की बरखा होती है, सर्व-व्यापक परमात्मा का प्यार (हृदय में) पैदा हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि कुंट दह दिसि जल निधि ऊन थाउ न केहु ॥ क्रिपा निधि गोबिंद पूरन जीअ दानु सभ देहु ॥१॥
मूलम्
चारि कुंट दह दिसि जल निधि ऊन थाउ न केहु ॥ क्रिपा निधि गोबिंद पूरन जीअ दानु सभ देहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुंट = कूट, पासा। दह दिसि = दसों दिशाऐं। जल निधि = (जीवन) जल का खजाना प्रभु। ऊन = खाली। केहु = कोई भी। क्रिपा निधि = हे दया के खजाने प्रभु! पूरन = हे सर्व व्रापक! जीअ दानु = जीवन दाति। देहु = तू देता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जीवन-) जल का खजाना प्रभु चारों कुंटों में दसों दिशाओं में (हर जगह मौजूद है) कोई भी जगह (उसके अस्तित्व से) खाली नहीं है। (उसका इस तरह यश गाया करो-) हे दया के खजाने! हे गोबिंद! हे सर्व-व्यापक! तू सब जीवों को ही जीवन-दाति देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति सति हरि सति सुआमी सति साधसंगेहु ॥ सति ते जन जिन परतीति उपजी नानक नह भरमेहु ॥२॥९१॥११४॥
मूलम्
सति सति हरि सति सुआमी सति साधसंगेहु ॥ सति ते जन जिन परतीति उपजी नानक नह भरमेहु ॥२॥९१॥११४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। साध संगेहु = सयाध संगति। ते जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। परतीति = श्रद्धा। भरमेहु = भटकना।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा सदा ही अटल रहने वाला है (जहाँ वह मिलता है, वह) साधु-संगत भी धुर से चली आ रही है। जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा के प्रति श्रद्धा पैदा हो जाती है, वे भी अटल धार्मिक जीवन वाले हो जाते हैं, उनको कोई भटकना नहीं रह जाती।2।91।114।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ गोबिद जीउ तू मेरे प्रान अधार ॥ साजन मीत सहाई तुम ही तू मेरो परवार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ गोबिद जीउ तू मेरे प्रान अधार ॥ साजन मीत सहाई तुम ही तू मेरो परवार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे गोबिंदजी! अधार = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू मेरे प्राणों का आसरा है। तू ही मेरा सज्जन है, तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरी मदद करने वाला है, तू ही मेरा परिवार है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करु मसतकि धारिओ मेरै माथै साधसंगि गुण गाए ॥ तुमरी क्रिपा ते सभ फल पाए रसकि राम नाम धिआए ॥१॥
मूलम्
करु मसतकि धारिओ मेरै माथै साधसंगि गुण गाए ॥ तुमरी क्रिपा ते सभ फल पाए रसकि राम नाम धिआए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। मेरै माथै = मेरे माथे पर। साध संगि = साधु-संगत में। ते = से। रसकि = प्यार से।1।
अर्थ: हे प्रभु! जब तूने मेरे माथे पर मेरे मस्तक पर (अपनी मेहर का) हाथ रखा, तब मैंने साधु-संगत में (टिक के तेरी) महिमा के गीत गाए हैं। हे प्रभु! तेरी मेहर से मैंने सारे फल हासिल किए हैं, और प्यार से तेरा नाम स्मरण किया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबिचल नीव धराई सतिगुरि कबहू डोलत नाही ॥ गुर नानक जब भए दइआरा सरब सुखा निधि पांही ॥२॥९२॥११५॥
मूलम्
अबिचल नीव धराई सतिगुरि कबहू डोलत नाही ॥ गुर नानक जब भए दइआरा सरब सुखा निधि पांही ॥२॥९२॥११५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अबिचल = ना हिलने वाली, अटल। नीव = (स्मरण करने की) नींव। सतिगुरि = सतिगुरु ने। कबहू = कभी भी। दइआरा = दयावान। निधि = खजाना। सरब सुखा निधि = सारे सुखों का खजाना प्रभु। पांही = पाहि, प्राप्त कर लेते हैं (बहुवचन)।2।
अर्थ: हे भाई! सतिगुरु ने (जिस मनुष्यों के हृदय में हरि-नाम स्मरण की) अटल नींव रख दी, वे कभी (माया में) डोलते नहीं हैं। हे नानक! (कह:) जब सतिगुरु जी दयावान होते हैं, वह सारे सुखों के खजाने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेते हैं।2।92।115।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ निबही नाम की सचु खेप ॥ लाभु हरि गुण गाइ निधि धनु बिखै माहि अलेप ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ निबही नाम की सचु खेप ॥ लाभु हरि गुण गाइ निधि धनु बिखै माहि अलेप ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निबही = सदा के लिए साथ बना रहता है। सचु = सदा कायम रहने वाला। खेप = व्यापार के लिए लदा हुआ माल। लाभु = कमाई। निधि = (सारे सुखों का) खजाना। बिखै माहि = पदार्थों में। अलेप = निर्लिप।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का सदा कायम रहने वाला व्यापार का लादा हुआ माल जिस जीव-बनजारे के साथ सदा का साथ बना लेता है, वह जीव-बंजारा (सदा) परमात्मा के गुण गाता रहता है, यही असल कमाई है, यही असल खजाना है यही असल धन है, (इसकी इनायत से) वह जीव-वणजारा (मायावी) पदार्थों में निर्लिप रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत सगल संतोखे आपना प्रभु धिआइ ॥ रतन जनमु अपार जीतिओ बहुड़ि जोनि न पाइ ॥१॥
मूलम्
जीअ जंत सगल संतोखे आपना प्रभु धिआइ ॥ रतन जनमु अपार जीतिओ बहुड़ि जोनि न पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। संतोखे = संतोख वाला जीवन प्राप्त कर लेते हैं। धिआइ = स्मरण करके। अपार रतन = बेअंत कीमती। जीतिओ = जीत लिया, विकारों के मुकाबले से बचा लिया। बहुड़ि = मुड़ के, दोबारा, फिर। न पाइ = नहीं पड़ता।1।
अर्थ: हे भाई! अपने प्रभु का ध्यान धर के सारे जीव संतोख वाला जीवन हासिल कर लेते हैं। जिस भी मनुष्य ने यह बेयंत कीमती मनुष्य-जनम विकारों के हमलों से बचा लिया, वह बार-बार जूनियों में नहीं पड़ता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भए क्रिपाल दइआल गोबिद भइआ साधू संगु ॥ हरि चरन रासि नानक पाई लगा प्रभ सिउ रंगु ॥२॥९३॥११६॥
मूलम्
भए क्रिपाल दइआल गोबिद भइआ साधू संगु ॥ हरि चरन रासि नानक पाई लगा प्रभ सिउ रंगु ॥२॥९३॥११६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु का साथ, गुरु का मिलाप। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। सिउ = साथ। रंगु = प्यार।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभु जी दयावान होते हैं, उसको गुरु का मिलाप हासिल होता है। वह मनुष्य प्रभु के चरणों की प्रीति की संपत्ति हासिल कर लेता है, उसका प्रभु के साथ प्यार बन जाता है।2।93।116।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई री पेखि रही बिसमाद ॥ अनहद धुनी मेरा मनु मोहिओ अचरज ता के स्वाद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई री पेखि रही बिसमाद ॥ अनहद धुनी मेरा मनु मोहिओ अचरज ता के स्वाद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: री माई = हे माँ! पेखि = देख के। बिसमाद = हैरान। अनहद धुनी = जिसकी जीवन लहर एक रस व्याप रही है।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! (प्रभु के करिश्मे) देख के मैं हैरान हो रही हूँ। जिस प्रभु की जीवन-लहर एक-रस (सारे जगत में) रुमक रही है उसने मेरा मन मोह लिया है, उसके (मिलाप के) आनंद भी हैरान करने वाले हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मात पिता बंधप है सोई मनि हरि को अहिलाद ॥ साधसंगि गाए गुन गोबिंद बिनसिओ सभु परमाद ॥१॥
मूलम्
मात पिता बंधप है सोई मनि हरि को अहिलाद ॥ साधसंगि गाए गुन गोबिंद बिनसिओ सभु परमाद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंधप = सबंधी। मनि = मन में। को = का। अहिलाद = खुशी, हुलारा। साध संगि = साधु-संगत में। सभु = सारा। परमाद = प्रमाद, भुलेखा, गलती।1।
अर्थ: हे माँ! (सब जीवों का) माता-पिता संबंधी वह प्रभु ही है। (मेरे) मन में उस प्रभु (के मिलाप) का हुलारा आ रहा है। हे माँ! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में (टिक के) उसकी महिमा के गीत गाए हैं, उसका सारा भ्रम-भुलेखा दूर हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डोरी लपटि रही चरनह संगि भ्रम भै सगले खाद ॥ एकु अधारु नानक जन कीआ बहुरि न जोनि भ्रमाद ॥२॥९४॥११७॥
मूलम्
डोरी लपटि रही चरनह संगि भ्रम भै सगले खाद ॥ एकु अधारु नानक जन कीआ बहुरि न जोनि भ्रमाद ॥२॥९४॥११७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै = डर (बहुवचन)। खाद = खाए जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। अधारु = आसरा। भ्रमाद = भटकते।2।
अर्थ: हे दास नानक! जिस मनुष्य के चिक्त की डोर प्रभु के चरणों के साथ जुड़ी रहती है, उसके सारे भ्रम सारे डर समाप्त हो जाते हैं। जिसने सिर्फ हरि-नाम को अपनी जिंदगी का आसरा बना लिया, वह बार-बार जूनियों में नहीं भटकता।2।94।117।
[[1227]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई री माती चरण समूह ॥ एकसु बिनु हउ आन न जानउ दुतीआ भाउ सभ लूह ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई री माती चरण समूह ॥ एकसु बिनु हउ आन न जानउ दुतीआ भाउ सभ लूह ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माती = मस्त रहती है। समूह = पूरन तौर पर, सारी की सारी। आन = अन्य, और। जानउ = मैं जानती। भाउ = प्यार। दुतीआ = दूसरा, किसी और का। लहू = जला दिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! मैं तो प्रभु के चरणों में पूरी तरह से मस्त रहती हूँ। उस एक के बिना मैं किसी और को जानती-पहचानती ही नहीं, (अपने अंदर से) औरों का प्यार मैं सरा जला चुकी हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिआगि गुोपाल अवर जो करणा ते बिखिआ के खूह ॥ दरस पिआस मेरा मनु मोहिओ काढी नरक ते धूह ॥१॥
मूलम्
तिआगि गुोपाल अवर जो करणा ते बिखिआ के खूह ॥ दरस पिआस मेरा मनु मोहिओ काढी नरक ते धूह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के। ते = वे (बहुवचन)। बिखिआ = माया। पिआस = तमन्ना, चाहत। ते = से। धूह = खींच के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! प्रभु को भुला के और जो जो भी काम किए जाते हैं, वे सारे माया (के मोह) के कूएं में फेंके जाते हैं। हे माँ! मेरा मन तो गोपाल के दर्शनों की चाहत में मगन रहता है। मुझे उसने नर्कों में से खींच के निकाल लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि मिलिओ सुखदाता बिनसी हउमै हूह ॥ राम रंगि राते दास नानक मउलिओ मनु तनु जूह ॥२॥९५॥११८॥
मूलम्
संत प्रसादि मिलिओ सुखदाता बिनसी हउमै हूह ॥ राम रंगि राते दास नानक मउलिओ मनु तनु जूह ॥२॥९५॥११८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। हूह = शोर। रंगि = प्रेम में। राते = रंगे गए। मउलिओ = हरा भरा हो जाता है, खिल उठता है। जूह = खुली धरती जिसमें पशू आदि चरते हैं।2।
अर्थ: हे दास नानक! जिस मनुष्य को गुरु की कृपा से सारे सुखों को देने वाला प्रभु मिल जाता है, (उसके अंदर से) अहंकार का शोर समाप्त हो जाता है। जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, उनका मन उनका तन (इस प्रकार से) हरा-भरा हो जाता है (जैसे बरसात होने से) जूह (घास से हरि हो जाती है)।2।95।118।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ बिनसे काच के बिउहार ॥ राम भजु मिलि साधसंगति इहै जग महि सार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ बिनसे काच के बिउहार ॥ राम भजु मिलि साधसंगति इहै जग महि सार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काच के = काँच के, तुच्छ माया के (जिसने साथ अवश्य छोड़ना होता है)। मिलि = मिल के। सार = श्रेष्ठ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! काँच (-समान माया की खातिर) सारी दौड़-भाग व्यर्थ जाती हैं। साधु-संगत में मिल के परमात्मा का भजन किया कर। जगत में यही काम श्रेष्ठ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईत ऊत न डोलि कतहू नामु हिरदै धारि ॥ गुर चरन बोहिथ मिलिओ भागी उतरिओ संसार ॥१॥
मूलम्
ईत ऊत न डोलि कतहू नामु हिरदै धारि ॥ गुर चरन बोहिथ मिलिओ भागी उतरिओ संसार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईत = इस लोक में। ऊत = उस लोक में। कतहू = कहीं भी। हिरदै = हृदय में। बोहिथ = जहाज। भागी = किस्मत से।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रख (इसकी इनायत से) ना इस लोक में ना परलोक में कहीं भी डोलेगा। जिस मनुष्य को किस्मत से गुरु के चरणों का जहाज मिल जाता है, वह संसार (समुंदर) से पार लांघ जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलि थलि महीअलि पूरि रहिओ सरब नाथ अपार ॥ हरि नामु अम्रितु पीउ नानक आन रस सभि खार ॥२॥९६॥११९॥
मूलम्
जलि थलि महीअलि पूरि रहिओ सरब नाथ अपार ॥ हरि नामु अम्रितु पीउ नानक आन रस सभि खार ॥२॥९६॥११९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। पूरि रहिओ = व्यापक है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। आन रस = और (सारे) रस। सभि = खारे, कड़वे।2।
अर्थ: हे नानक! जो प्रभु जल में थल में आकाश में भरपूर है, जो सब जीवों का खसम है, जो बेअंत है, उसका आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहा कर, (हरि-नाम-जल के मुकाबले पर) और सारे रस कड़वे हैं।2।96।119।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ ता ते करण पलाह करे ॥ महा बिकार मोह मद मातौ सिमरत नाहि हरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ ता ते करण पलाह करे ॥ महा बिकार मोह मद मातौ सिमरत नाहि हरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता ते = इसलिए। करण पलाह = करुणा प्रलाप, तरस भरे विलाप, तरले। करे = करता है। मद = अहंकार। मातौ = मस्त।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य मोह अहंकार (आदि) बड़े-बड़े विकारों में मगन रहता है, परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता, इसलिए (सदा) करुणा-प्रलाप करता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि जपते नाराइण तिन के दोख जरे ॥ सफल देह धंनि ओइ जनमे प्रभ कै संगि रले ॥१॥
मूलम्
साधसंगि जपते नाराइण तिन के दोख जरे ॥ सफल देह धंनि ओइ जनमे प्रभ कै संगि रले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधसंगि = साधु-संगत में। दोख = पाप। जरे = जल जाते हैं। देह = शरीर। ओइ = वे। धंनि = भाग्यशाली, धन्य। कै संगि = के साथ।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में (टिक के) परमात्मा का नाम जपते रहते हैं, उनके (अंदर से सारे) पाप जल जाते हैं। जो मनुष्य प्रभु के साथ (के चरणों में) जुड़े रहते हैं, वे भाग्यशाली हैं, उनका जनम उसका शरीर सफल हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पदारथ असट दसा सिधि सभ ऊपरि साध भले ॥ नानक दास धूरि जन बांछै उधरहि लागि पले ॥२॥९७॥१२०॥
मूलम्
चारि पदारथ असट दसा सिधि सभ ऊपरि साध भले ॥ नानक दास धूरि जन बांछै उधरहि लागि पले ॥२॥९७॥१२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म अर्थ काम मोक्ष। असट दसा = अठारह। सिधि = सिद्धियां। भले = गुरमुख। धूरि = चरणों की धूल। बांछै = मांगता है। उधरहि = पार लांघ जाते हैं। लागि = लग के। पले = पल्ले।2।
अर्थ: हे भाई! (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- यह) चार पदार्थ और अठारह सिद्धियाँ (लोग इनती खातिर तरले-मिन्नतें करते फिरते हैं, पर इन) सबसे संत जन श्रेष्ठ हैं। दास नानक तो संत जनों के चरणों की धूल (नित्य) माँगता है। (संत जनों के) लड़ लग के (अनेक जीव संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।2।97।120।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि के नाम के जन कांखी ॥ मनि तनि बचनि एही सुखु चाहत प्रभ दरसु देखहि कब आखी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि के नाम के जन कांखी ॥ मनि तनि बचनि एही सुखु चाहत प्रभ दरसु देखहि कब आखी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = संत जन। कांखी = चाहवान। मनि = मन से। तनि = तन से। बचनि = वचनों से। देखहि = देख सकें। आखी = आँखों से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक परमात्मा के नाम के चाहवान रहते हैं। अपने मन से, तन से वचन से वे सदा यही सुख माँगते हैं कि कब अपनी आँखों से परमात्मा के दर्शन करेंगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू बेअंतु पारब्रहम सुआमी गति तेरी जाइ न लाखी ॥ चरन कमल प्रीति मनु बेधिआ करि सरबसु अंतरि राखी ॥१॥
मूलम्
तू बेअंतु पारब्रहम सुआमी गति तेरी जाइ न लाखी ॥ चरन कमल प्रीति मनु बेधिआ करि सरबसु अंतरि राखी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। जाइ न लाखी = लखी नहीं जा सकती। बेधिआ = भेदा गया। सरबसु = सर्वस्व, स्व धन, सारा धन, सब कुछ। करि = समझ के, मान के। राखी = रखी।1।
अर्थ: हे पारब्रहम! हे मालिक प्रभु! तेरा अंत नहीं पाया जा सकता, तू किस तरह का है; ये बात बयान नहीं की जा सकती। (पर तेरे संत जनों का) मन तेरे सुंदर चरणों की प्रीति में परोया रहता है। इस प्रीत को ही वह (जगत का) सारा धन-पदार्थ समझ के अपने अंदर थ्अकाए रखते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पुरान सिम्रिति साधू जन इह बाणी रसना भाखी ॥ जपि राम नामु नानक निसतरीऐ होरु दुतीआ बिरथी साखी ॥२॥९८॥१२१॥
मूलम्
बेद पुरान सिम्रिति साधू जन इह बाणी रसना भाखी ॥ जपि राम नामु नानक निसतरीऐ होरु दुतीआ बिरथी साखी ॥२॥९८॥१२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ से। भाखी = उचारी। जपि = जप के। निसतरीऐ = पार लांघा जाता है। होर साखी = और बात, और शिक्षा। दुतीआ = दूसरी।2।
अर्थ: हे नानक! वेद-पुराण स्मृतियां (आदि धम्र-पुस्तकों का पाठ) संत-जन, अपनी जीभ से यही महिमा की वाणी ही उचारते हैं, यही उनके लिए परमात्मा का नाम स्मरण करके (ही) संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। इसके बिना और कोई दूसरील बात व्यर्थ है।2।98।121।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माखी राम की तू माखी ॥ जह दुरगंध तहा तू बैसहि महा बिखिआ मद चाखी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माखी राम की तू माखी ॥ जह दुरगंध तहा तू बैसहि महा बिखिआ मद चाखी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माखी = मक्खी। राम की = परमात्मा की (पैदा की हुई)। जह = जहाँ। दुरगंध = बदबू, (गंदगी की बदबू), (विकारों की बदबू)। बैसहि = बैठती है। बिखिआ = हे माया! महा मद राखी = तू बड़ा नश चखती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माया! तू मक्खी है, परमात्मा की पैदा की हुई मक्खी (के स्वभाव वाली)। (जैसे मक्खी सदा गंदगी पर बैठती है, वैसे) जहाँ विकारों की बदबू होती है तू वहाँ बैटती है, तू सदा विकारों का नशा ही रखती रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कितहि असथानि तू टिकनु न पावहि इह बिधि देखी आखी ॥ संता बिनु तै कोइ न छाडिआ संत परे गोबिद की पाखी ॥१॥
मूलम्
कितहि असथानि तू टिकनु न पावहि इह बिधि देखी आखी ॥ संता बिनु तै कोइ न छाडिआ संत परे गोबिद की पाखी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तै = तू। पाखी = पक्ष से, पासे, शरण। असथानि = जगह में। इह बिधि = ये हालत। आखी = आँखों से।1।
अर्थ: हे माया! हमने अपनी आँखों से तेरा यह हाल देखा है कि तू किसी भी एक जगह पर नहीं टिकती। संतों के बिना तूने किसी को भी (दुखी करने से) नहीं छोड़ा (वह भी इस वास्ते बचते हें कि) संत परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत सगले तै मोहे बिनु संता किनै न लाखी ॥ नानक दासु हरि कीरतनि राता सबदु सुरति सचु साखी ॥२॥९९॥१२२॥
मूलम्
जीअ जंत सगले तै मोहे बिनु संता किनै न लाखी ॥ नानक दासु हरि कीरतनि राता सबदु सुरति सचु साखी ॥२॥९९॥१२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तै मोहे = तूने अपने वश में किए हुए हैं। किनै = किसी ने भी। न लाखी = नहीं समझी। कीरतनि = कीर्तन में। राता = रंगा हुआ। सचु = सदा स्थिर प्रभु को। साखी = देखता है, साक्षात करता है।2।
अर्थ: हे माया! (जगत के सारे ही) जीव तूने अपने वश में किए हुए हैं, संतों के बिना किसी भी और ने ये बात नहीं समझी। हे नानक! परमात्मा का संत परमात्मा की महिमा (के रंग) में रंगा रहता है, संत (गुरु के) शब्द को अपनी तवज्जो में टिका के सदा-स्थिर प्रभु के दर्शन करता रहता है।2।99।122।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई री काटी जम की फास ॥ हरि हरि जपत सरब सुख पाए बीचे ग्रसत उदास ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई री काटी जम की फास ॥ हरि हरि जपत सरब सुख पाए बीचे ग्रसत उदास ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई री = हे माँ! काटी = काटी गई। फास = फंदा। जम की फासी = जमों की फाही, आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का फंदा। जपत = जपते हुए। सरब = सारे। बीचे ग्रसत = गृहस्थ में ही (रहते हुए)।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! परमात्मा का नाम जपते हुए (जिस भाग्यशालियों की) आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह की फाँसी काटी गई, उन्होंने सारे सुख पा लिए, वे गृहस्थ में रहते हुए ही (माया के मोह से) उपराम रहते हैं।1। रहाउ।
[[1228]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा लीने करि अपुने उपजी दरस पिआस ॥ संतसंगि मिलि हरि गुण गाए बिनसी दुतीआ आस ॥१॥
मूलम्
करि किरपा लीने करि अपुने उपजी दरस पिआस ॥ संतसंगि मिलि हरि गुण गाए बिनसी दुतीआ आस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। लीने करि = बना लिए। पिआस = चाहत। संगि = साथ। दुतीआ = दूसरी।1।
अर्थ: हे माँ! मेहर कर के (जिनको परमात्मा ने) अपने बना लिया, उनके अंदर प्रभु के दर्शन की तमन्ना पैदा हो जाती है, वे मनुष्य साधु-संगत में मिल के परमात्मा की परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं, (उनके अंदर से परमात्मा के बिना) कोई और दूसरी टेक खत्म हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा उदिआन अटवी ते काढे मारगु संत कहिओ ॥ देखत दरसु पाप सभि नासे हरि नानक रतनु लहिओ ॥२॥१००॥१२३॥
मूलम्
महा उदिआन अटवी ते काढे मारगु संत कहिओ ॥ देखत दरसु पाप सभि नासे हरि नानक रतनु लहिओ ॥२॥१००॥१२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदिआन = जंगल। अटवी = जंगल। ते = से। मारगु = रास्ता। संत = संतों ने। सभि = सारे। लहिओ = पा लिया।2।
अर्थ: हे नानक! जिनको संत जनों ने (सही जीवन-) राह बता दिया, उनको उनके बड़े संघने जंगल (जैसे संसार-वन) से बाहर निकाल लिया। (परमात्मा का) दर्शन करके उन मनुष्यों के सारे पाप नाश हो गए, उन्होंने प्रभु का नाम-रत्न पा लिया।2।100।123।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ माई री अरिओ प्रेम की खोरि ॥ दरसन रुचित पिआस मनि सुंदर सकत न कोई तोरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ माई री अरिओ प्रेम की खोरि ॥ दरसन रुचित पिआस मनि सुंदर सकत न कोई तोरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरिओ = अड़ गया है, मस्त हो गया है। खोरि = खुमारी में, मस्ती में। रुचित = लगन लगी हुई है। पिआस = तमन्ना। मनि = मन में। तोरि = तोड़ के। तोरि न सकत = तोड़ नहीं सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (मेरा मन प्रीतम प्रभु के) प्यार के नशे में मस्त रहता है। मेरे मन में उसके दर्शन की लगन लगी रहती ह, उस सुंदर (के दर्शन) की चाहत बनी रहती है (यह लगन यह चाहत ऐसी है कि इसको) कोई तोड़ नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रान मान पति पित सुत बंधप हरि सरबसु धन मोर ॥ ध्रिगु सरीरु असत बिसटा क्रिम बिनु हरि जानत होर ॥१॥
मूलम्
प्रान मान पति पित सुत बंधप हरि सरबसु धन मोर ॥ ध्रिगु सरीरु असत बिसटा क्रिम बिनु हरि जानत होर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान = प्राण, जिंद जान। मान = सहारा। पति = इज्जत। सुत = पुत्र। पित = पिता। बंधप = सन्बंधी। सरबसु = सर्वस्व, स्व धन, सारा धन, सब कुछ। मोर = मेरा। प्रिगु = धिक्कार योग्य। असत = अस्थि, हड्डियां। क्रिम = कृमि, गंदगी वाले कीड़े।1।
अर्थ: हे माँ! अब मेरे वास्ते प्रभु प्रीतम ही जिंद है, आसरा है, इज्जत है, पिता है, पुत्र है, सन्बंधी है, धन है, मेरा सब कुछ वही वही है। जो मनुष्य परमात्मा के बिना और-और सांझ बनाए रखता है, उसका शरीर धिक्कार-योग्य हो जाता है (क्योकि फिर यह मानव-शरीर सिर्फ) हड्डियां, गंदगी और कृमि ही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ क्रिपाल दीन दुख भंजनु परा पूरबला जोर ॥ नानक सरणि क्रिपा निधि सागर बिनसिओ आन निहोर ॥२॥१०१॥१२४॥
मूलम्
भइओ क्रिपाल दीन दुख भंजनु परा पूरबला जोर ॥ नानक सरणि क्रिपा निधि सागर बिनसिओ आन निहोर ॥२॥१०१॥१२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख दूर करने वाला। परा पूरबला = आदि कदीमों का, जोर = सहारा। क्रिपा निधि = कृपा का खजाना। क्रिपा सागर = कृपा का समुंदर। आन = और। निहोर = अधीनता।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे माँ!) जिससे कोई आदि कदीमी का (परा-पूर्बला) जोड़ होता है, गरीबों के दुख दूर करने वाला प्रभु उस पर दयावान होता है, वह मनुष्य दया के खजाने मेहर के समुंदर प्रभु की शरण पड़ता है, उसकी अन्य (सारी) अधीनता समाप्त हो जाती है।2।101।124।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ नीकी राम की धुनि सोइ ॥ चरन कमल अनूप सुआमी जपत साधू होइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ नीकी राम की धुनि सोइ ॥ चरन कमल अनूप सुआमी जपत साधू होइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीकी = अच्छी (कार), सोहणी (कार)। धुनि = (हृदय में) लगन। सोइ = (परमात्मा की) शोभा, महिमा। अनूप = (अन+ऊप = उपमा-रहित) बहुत सुंदर। जपत = जपते हुए। साधू = गुरमुख, भला। होइ = हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की लगन (हृदय में बना), परमात्मा की महिमा करनी- यह एक सुंदर (काम) है। हे भाई! सुंदर मालिक प्रभु के सुंदर चरण जपते हुए मनुष्य भला नेक बन जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितवता गोपाल दरसन कलमला कढु धोइ ॥ जनम मरन बिकार अंकुर हरि काटि छाडे खोइ ॥१॥
मूलम्
चितवता गोपाल दरसन कलमला कढु धोइ ॥ जनम मरन बिकार अंकुर हरि काटि छाडे खोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चितवता = चितवता हुआ, मन में बसाता हुआ। कलमला = पाप। धोइ = धो के। कढु = (अपने अंदर से) दूर कर दे। बिकार अंकुर = विकारों के अंकुर। छाडे खोइ = नाश कर देता है।1।
अर्थ: हे भाई! जगत के पालनहार प्रभु के दर्शनों की तमन्ना मन में बसाता हुआ (भाव, बसा के) (अपने अंदर से सारे) पाप धो के दूर कर ले। (अगर तू हरि-दर्शन की चाहत अपने अंदर पैदा करेगा तो) परमात्मा (तेरे अंदर से) जनम मरण के (सारी उम्र के) विकारों के फूट रहे बीज काट के नाश कर देगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परा पूरबि जिसहि लिखिआ बिरला पाए कोइ ॥ रवण गुण गोपाल करते नानका सचु जोइ ॥२॥१०२॥१२५॥
मूलम्
परा पूरबि जिसहि लिखिआ बिरला पाए कोइ ॥ रवण गुण गोपाल करते नानका सचु जोइ ॥२॥१०२॥१२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परा पूरबि = पूर्बले भाग्यों मुताबिक। पूरबि = पूर्बले समय में। जिसहि = जिस के माथे पर। रवणु = याद करना, स्मरणा। करते = कर्तार के। सचु = सदा कायम रहने वाला। जोइ = जो प्रभु।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! जो परमात्मा सदा कायम रहने वाला है उस कर्तार गोपाल के गुन गाने- यह दाति कोई वह विरला मनुष्य हासिल करता है जिसके माथे पर पूर्बले समय से (ये लेख) लिखे होते हैं।2।102।125।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि के नाम की मति सार ॥ हरि बिसारि जु आन राचहि मिथन सभ बिसथार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि के नाम की मति सार ॥ हरि बिसारि जु आन राचहि मिथन सभ बिसथार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाम की मति = नाम स्मरण करने वाली बुद्धि। सार = श्रेष्ट। बिसारि = भुला के। जु = जो मनुष्य। आन = और-और (कामों) में। राचहि = मस्त रहते हैं। मिथन = मिथ्या, नाशवान, व्यर्थं बिसथार = विस्तार, खिलारे, खलजगन।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम स्मरण (की ओर प्रेरित करने) वाली बुद्धि (अन्य कार्यों की तरफ प्रेरित करने वाली बुद्धियों से) श्रेष्ठ है। जो मनुष्य परमात्मा को भुला के और-और आहरों में सदा व्यस्त रहते हैं उनके सारे पसारे (आखिर) व्यर्थ जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगमि भजु सुआमी पाप होवत खार ॥ चरनारबिंद बसाइ हिरदै बहुरि जनम न मार ॥१॥
मूलम्
साधसंगमि भजु सुआमी पाप होवत खार ॥ चरनारबिंद बसाइ हिरदै बहुरि जनम न मार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगमि = साधु-संगत में। भजु = भजन किया कर। खार = ख्वार, नाश। चरनारबिंद = (चरन+अरविंद; अरविंद = कमल फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। बसाइ = बसाए रख। हिरदै = हृदय में। बहुरि = दोबारा। जनम न मार = ना जनम ना मरन।1।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (टिक के) मालिक-प्रभु का भजन किया कर (नाम-जपने की इनायत से) सारे पाप नाश हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण अपने हृदय में बसाए रख, दोबारा जनम-मरण का चक्कर नहीं होगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि अनुग्रह राखि लीने एक नाम अधार ॥ दिन रैनि सिमरत सदा नानक मुख ऊजल दरबारि ॥२॥१०३॥१२६॥
मूलम्
करि अनुग्रह राखि लीने एक नाम अधार ॥ दिन रैनि सिमरत सदा नानक मुख ऊजल दरबारि ॥२॥१०३॥१२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। अनुग्रह = कृपा। अधार = आसरा। रैनि = रात। सिमरत = स्मरण करते हुए। दरबारि = प्रभु की हजूरी में।2।
अर्थ: हे नानक! मेहर करके जिस मनुष्यों की प्रभु रक्षा करता है, उनको अपने नाम का सहारा देता है। दिन-रात सदा स्मरण करते हुए उनके मुँह प्रभु के दरबार में उज्जवल हो जाते हैं।2।103।126।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मानी तूं राम कै दरि मानी ॥ साधसंगि मिलि हरि गुन गाए बिनसी सभ अभिमानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मानी तूं राम कै दरि मानी ॥ साधसंगि मिलि हरि गुन गाए बिनसी सभ अभिमानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मान = आदर, सत्कार। मानी = सत्कार वाली, आदर वाली। कै दरि = के दर पर। साध संगि = सयाध संगति में। मिलि = मिल के। गाए = (जिस ने) गाए। अभिमानी = अहंकार वाली मति।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जिंदे! जिस जीव-स्त्री ने) साधु-संगत में मिल के परमात्मा के गुण गाने आरम्भ कर दिए, उसके अंदर से अहंकार वाली मति सारी समाप्त हो गई। (हे जिंदे! अगर तू भी यह उद्यम करे, तो) तू परमात्मा के दर पर अवश्य सत्कार हासिल करेगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारि अनुग्रहु अपुनी करि लीनी गुरमुखि पूर गिआनी ॥ सरब सूख आनंद घनेरे ठाकुर दरस धिआनी ॥१॥
मूलम्
धारि अनुग्रहु अपुनी करि लीनी गुरमुखि पूर गिआनी ॥ सरब सूख आनंद घनेरे ठाकुर दरस धिआनी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। अनुग्रहु = कृपा। करि लीनी = बना ली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के। गिआनी = ज्ञान वाली। घनेरे = बहुत। धिआनी = तवज्जो जोड़ने वाली।1।
अर्थ: हे जिंदे! प्रभु ने मेहर करके (जिस जीव-स्त्री को) अपनी बना लिया, वह गुरु के सन्मुख र हके आत्मिक जीवन की पूरी सूझ वाली हो गई। उसके हृदय में सारे सुख अनेक आनंद पैदा हो गए, उसकी तवज्जो मालिक-प्रभु के दर्शनों में जुड़ने लग गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकटि वरतनि सा सदा सुहागनि दह दिस साई जानी ॥ प्रिअ रंग रंगि रती नाराइन नानक तिसु कुरबानी ॥२॥१०४॥१२७॥
मूलम्
निकटि वरतनि सा सदा सुहागनि दह दिस साई जानी ॥ प्रिअ रंग रंगि रती नाराइन नानक तिसु कुरबानी ॥२॥१०४॥१२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। निकटि वरतनि = नजदीक टिकी रहने वाली। सा = वह जीव-स्त्री। सुहागनि = सोहाग भाग्य वाली। दह दिस = दसों दिशाओं में, चारों तरफ। जानी = प्रकट हो जाती है। साई = वही। रंग रंगि = करिश्मों के रंग में प्रिअ रंग रंगि = प्यारे के करिश्मों के रंग में। रती = रंगी हुई।2।
अर्थ: हे जिंदे! जो जीव-स्त्री सदा प्रभु-चरणों में टिकने लग गई, वह सदा के लिए सोहाग-भाग वाली हो गई, वही सारे जगत में प्रकट हो गई। हे नानक! (कह:) मैं उस जीव-स्त्री से सदके हूँ जो प्यारे प्रभु के करिश्मों के रंग में रंगी रहती है।2।104।127।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ तुअ चरन आसरो ईस ॥ तुमहि पछानू साकु तुमहि संगि राखनहार तुमै जगदीस ॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ तुअ चरन आसरो ईस ॥ तुमहि पछानू साकु तुमहि संगि राखनहार तुमै जगदीस ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तूअ चरन आसरो = तेरे चरणों का आसरा। ईस = ईश, हे ईश्वर! तुमहि = तू ही। पछानू = जान पहिचान। सवाकु = रिश्ता, सन्बंध। जगदीस = हे जगत के ईश्वर! तुमै = तू ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे ईश्वर! (हम जीवों को) तेरे चरणों का (ही) आसरा है। तू ही (हमारा) जान-पहचान वाला है, तेरे साथ ही हमारा मेल-मिलाप है। हे जगत के ईश्वर! तू ही (हमारी) रक्षा कर सकने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू हमरो हम तुमरे कहीऐ इत उत तुम ही राखे ॥ तू बेअंतु अपर्मपरु सुआमी गुर किरपा कोई लाखै ॥१॥
मूलम्
तू हमरो हम तुमरे कहीऐ इत उत तुम ही राखे ॥ तू बेअंतु अपर्मपरु सुआमी गुर किरपा कोई लाखै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहीऐ = (यह) कहा जाता है, हर कोई यही कहता है। इत उत = लोक परलोक में। अपरंपरु = परे से परे। सुआमी = हे मालिक प्रभु! कोई = कोई विरला। लाखै = लखता है, समझता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! हरेक जीव यही कहता है कि तू हमारा है हम तेरे हैं, तू ही इस लोक और परलोक में रखवाला है। हे मालिक-प्रभु! तू ही बेअंत है, परे से परे है। किसी विरले मनुष्य ने गुरु की मेहर से ये बात समझी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु बकने बिनु कहन कहावन अंतरजामी जानै ॥ जा कउ मेलि लए प्रभु नानकु से जन दरगह माने ॥२॥१०५॥१२८॥
मूलम्
बिनु बकने बिनु कहन कहावन अंतरजामी जानै ॥ जा कउ मेलि लए प्रभु नानकु से जन दरगह माने ॥२॥१०५॥१२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु बकने = बोले बिना। अंतरजामी = हरेक दिल की जानने वाला। जानै = जानता है। जा कउ = जो (मनुष्यों) को। नानकु = नाक (कहता) है। से = वे (बहुवचन)। माने = आदर पाते हैं।
अर्थ: नानक (कहता है: हे भाई!) प्रभु हरेक के दिल की जानने वाला है, हमारे बोले बिना, हमारे कहे-कहाए बिना (हमारी जरूरतें) जान लेता है। वह प्रभु! जिस को (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, वह मनुष्य उसकी हजूरी में आदर-सम्मान प्राप्त करते हैं।2।105।128।
[[1229]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ५ चउपदे घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारंग महला ५ चउपदे घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि भजि आन करम बिकार ॥ मान मोहु न बुझत त्रिसना काल ग्रस संसार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि भजि आन करम बिकार ॥ मान मोहु न बुझत त्रिसना काल ग्रस संसार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भजि = भजन किया कर। आन करम = अन्य कर्मं बिकार = बेकार, व्यर्थ। काल = आत्मिक मौत। काल ग्रसत = आत्मिक मौत का ग्रसा हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का भजन किया कर, (भजन के बिना) अन्य काम (जिंद के लिए) व्यर्थ हैं। (अन्य कर्मों से) अहंकार और मोह (पैदा होता है), तृष्णा नहीं मिटती, दुनिया आत्मिक मौत में फसी रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खात पीवत हसत सोवत अउध बिती असार ॥ नरक उदरि भ्रमंत जलतो जमहि कीनी सार ॥१॥
मूलम्
खात पीवत हसत सोवत अउध बिती असार ॥ नरक उदरि भ्रमंत जलतो जमहि कीनी सार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोवत = सोते हुए। अउध = उम्र। बिती = बीत जाती है। असार = बेसमझी में। उदरि = पेट में। जलतो = जलता, दुखी होता। जमहि = जमों ने। सार = संभाल।1।
अर्थ: हे भाई! खाते पीते हसते हुए सोए हुए (इस तरह मनुष्य की) उम्र बेसमझी में बीतती जाती है। नर्क समान हरेक जून में (जीव) भटकता है दुखी होता है, जमों के वश पड़ा रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर द्रोह करत बिकार निंदा पाप रत कर झार ॥ बिना सतिगुर बूझ नाही तम मोह महां अंधार ॥२॥
मूलम्
पर द्रोह करत बिकार निंदा पाप रत कर झार ॥ बिना सतिगुर बूझ नाही तम मोह महां अंधार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर द्रोह = दूसरों से ठगी। पाप रत = पापों में मस्त। कर झार = हाथ झाड़ के, हाथ धो के। बूझ = आत्मिक जीवन की समझ। तम मोह = मोह का अंधेरा। अंधार = अंधेरा।2।
अर्थ: हे भाई! (भजन से टूट के) मनुष्य दूसरों से ठगी करता है, निंदा आदि कुकर्म करता है, बेपरवाह हो के पापों में मस्त रहता है। गुरु की शरण के बिना (मनुष्य को) आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती, मोह के घोर अंधकार में पड़ा रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखु ठगउरी खाइ मूठो चिति न सिरजनहार ॥ गोबिंद गुपत होइ रहिओ निआरो मातंग मति अहंकार ॥३॥
मूलम्
बिखु ठगउरी खाइ मूठो चिति न सिरजनहार ॥ गोबिंद गुपत होइ रहिओ निआरो मातंग मति अहंकार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। ठगउरी = ठग बूटी माया। मूठो = लूटा जाता है। चिति = चिक्त में। गुपत = छुपा हुआ। निआरो = अलग। मातंग = हाथी।3।
अर्थ: हे भाई! आत्मक मौत लाने वाली माया-ठग-बूटी खा के मनुष्य (की आत्मिक संपत्ति) लूटा जाता है, इसके मन में परमात्मा की याद नहीं होती, अहंकार की मति के कारण हाथी की तरह (फूला रहता है, इसके अंदर ही) परमात्मा छुपा बैठा है, पर उससे अलग ही रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि क्रिपा प्रभ संत राखे चरन कमल अधार ॥ कर जोरि नानकु सरनि आइओ गुोपाल पुरख अपार ॥४॥१॥१२९॥
मूलम्
करि क्रिपा प्रभ संत राखे चरन कमल अधार ॥ कर जोरि नानकु सरनि आइओ गुोपाल पुरख अपार ॥४॥१॥१२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। अधार = आसरा। कर = हाथ (बहुवचन)। जोरि = जोड़ के। गुोपाल (असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है)। अपार = हे बेअंत!।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी ने मेहर करके अपने संतों को अपने सुंदर चरणों के आसरे (इस ‘बिखु ठगउरी’ से) बचाए रखा है।
हे गोपाल! हे अकाल पुरख! हे बेअंत! छोनों हाथ जोड़ कर नानक (तेरी) शरण आया है (इसकी भी रक्षा कर)।4।1।129।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ घरु ६ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ५ घरु ६ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभ बचन बोलि गुन अमोल ॥ किंकरी बिकार ॥ देखु री बीचार ॥ गुर सबदु धिआइ महलु पाइ ॥ हरि संगि रंग करती महा केल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुभ बचन बोलि गुन अमोल ॥ किंकरी बिकार ॥ देखु री बीचार ॥ गुर सबदु धिआइ महलु पाइ ॥ हरि संगि रंग करती महा केल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोलि = उचारा कर। किंकरी = दासी (किंकर = दास)। किंकरी बिकार = हे विकारों की दासी! री = हे जीव-स्त्री! महलु = प्रभु चरणों में जगह। संगि = साथ। रंग करती = आनंद भोगती। केल = आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे विकारों की दासी (हो चुकी जीव-स्त्री)! होश कर (बिचार के देख)। परमात्मा के अमूल्य गुण (सभी वचनों से) शुभ वचन हैं: इनका उच्चारण किया कर। (हे जीव-स्त्री!) गुरु का शब्द अपने मन में टिकाए रख (और, शब्द की इनायत से) प्रभु-चरणों में ठिकाना प्राप्त कर। (जो जीव-स्त्री प्रभु-चरणों में टिकती है, वह) परमात्मा में जुड़ के बड़े आत्मिक आनंद भोगती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुपन री संसारु ॥ मिथनी बिसथारु ॥ सखी काइ मोहि मोहिली प्रिअ प्रीति रिदै मेल ॥१॥
मूलम्
सुपन री संसारु ॥ मिथनी बिसथारु ॥ सखी काइ मोहि मोहिली प्रिअ प्रीति रिदै मेल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथनी = नाशवान। सखी = हे सखी! काइ = क्यों? मोहि = मोह में। मोहिली = मोह में फसी है। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति। रिदै = हृदय में।1।
अर्थ: हे सखी! यह जगत सपने जैसा है, (इसका सारा) पसारा नाशवान है। तू इस के मोह में क्यों फसी हुई है? प्रीतम प्रभु की प्रीति अपने हृदय में बसाए रख।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब री प्रीति पिआरु ॥ प्रभु सदा री दइआरु ॥ कांएं आन आन रुचीऐ ॥ हरि संगि संगि खचीऐ ॥ जउ साधसंग पाए ॥ कहु नानक हरि धिआए ॥ अब रहे जमहि मेल ॥२॥१॥१३०॥
मूलम्
सरब री प्रीति पिआरु ॥ प्रभु सदा री दइआरु ॥ कांएं आन आन रुचीऐ ॥ हरि संगि संगि खचीऐ ॥ जउ साधसंग पाए ॥ कहु नानक हरि धिआए ॥ अब रहे जमहि मेल ॥२॥१॥१३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआरु = दयालु। कांऐं = क्यों? आन आन = और-और (पदार्थों में)। रुचीऐ = प्रीत बनाई हुई है। संगि = साथ। खचीऐ = मस्त रहना चाहिए। जउ = जब। रहे = समाप्त हो जाता है। जमहि मेल = जमों से वाह।2।
अर्थ: हे सखी! प्रभु सदा ही दया का घर है, वह सब जीवों से प्रीत करता है प्यार करता है। हे सखी! (उसको भुला के) और-और पदार्थों में प्यार नहीं डालना चाहिए। सदा परमात्मा के प्यार में ही मस्त रहना चाहिए। हे नानक! कह: जब (कोई भाग्यशाली मनुष्य) साधु-संगत का मिलाप करता है और परमात्मा का ध्यान धरता है, तब जमों से उसका सामना नहीं पड़ता।2।1।130।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ कंचना बहु दत करा ॥ भूमि दानु अरपि धरा ॥ मन अनिक सोच पवित्र करत ॥ नाही रे नाम तुलि मन चरन कमल लागे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ कंचना बहु दत करा ॥ भूमि दानु अरपि धरा ॥ मन अनिक सोच पवित्र करत ॥ नाही रे नाम तुलि मन चरन कमल लागे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंचना = सोना। दत करा = दान किया। भूमि = जमीन। अरपि = अर्पित करके। धरा = धर दी, दे दी। सोच = स्वच्छता। करत = करता। रे मन = हे मन! तुलि = समान, बराबर। लागे = लागि, लगा रह।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! अगर कोई मनुष्य बहुत सोना दान करता है, जमीन अरप के दान करता है, कई तरह के स्वच्छता भरी क्रियाओं से (शरीर को) पवित्र करता है, (यह उद्यम) परमात्मा के नाम के बराबर नहीं हैं। हे मन! परमात्मा के सुंदर चरणों में जुडा रह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि बेद जिहव भने ॥ दस असट खसट स्रवन सुने ॥ नही तुलि गोबिद नाम धुने ॥ मन चरन कमल लागे ॥१॥
मूलम्
चारि बेद जिहव भने ॥ दस असट खसट स्रवन सुने ॥ नही तुलि गोबिद नाम धुने ॥ मन चरन कमल लागे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिहव भने = जीभ से उचारता है। दस असट = अठसरह पुराण। खसट = छह शास्त्र। स्रवन = कानों से। नाम धुने = नाम की धुनि। मन = हे मन!।1।
अर्थ: हे मन! अगर कोई मनुष्य चारों वेद अपनी जीभ से उचारता रहता है, अठारह पुराण और छह शास्त्र कानों से सुनता रहता है (यह काम) परमात्मा की लगन के बराबर नहीं हैं। हे मन! प्रभु के सुंदर चरणों में प्रीत बनाए रख।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरत संधि सोच चार ॥ क्रिआ कुंटि निराहार ॥ अपरस करत पाकसार ॥ निवली करम बहु बिसथार ॥ धूप दीप करते हरि नाम तुलि न लागे ॥ राम दइआर सुनि दीन बेनती ॥ देहु दरसु नैन पेखउ जन नानक नाम मिसट लागे ॥२॥२॥१३१॥
मूलम्
बरत संधि सोच चार ॥ क्रिआ कुंटि निराहार ॥ अपरस करत पाकसार ॥ निवली करम बहु बिसथार ॥ धूप दीप करते हरि नाम तुलि न लागे ॥ राम दइआर सुनि दीन बेनती ॥ देहु दरसु नैन पेखउ जन नानक नाम मिसट लागे ॥२॥२॥१३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संधि = संधिआ। सोच चार = स्वच्छाचार, पवित्रतता (शरीरिक)। क्रिआ कुंटि = चार कुंटों में भ्रमण। निराहार = भूखे रह के। पाकसार = पाकशाल, रसोई। अपरस = अ+परस, किसी से नहीं छूना। निवली करम = (कब्ज से बचने के लिए) पेट की आँतों को चक्कर देना। न लागे = नहीं पहुँचते। राम दइआर = हे दयाल हरि! दीन बेनती = गरीब की विनती। पेखउ = मैं देखूँ। मिसट = मीठा।2।
अर्थ: हे मन! व्रत, संध्या, शारीरिक पवित्रता, (तीर्थ-यात्रा आदि के लिए) चार कुंटों में भूखे रहके भटकते फिरना, बिना किसी से छूए अपनी रसोई तैयार करनी, (आँतों को घुमाने का अभ्यास), निवली कर्म करना, और ऐसे पसारे पसारने, (देव-पूजा के लिए) धूपें-धुखानीं दीए जगाने- ये सारे ही उद्यम परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं करते।
हे दास नानक! (कह:) हे दया के श्रोत प्रभु! मेरी गरीब की विनती सुन। अपने दर्शन दे, मैं तुझे अपनी आँखों से (सदा) देखता रहूँ, तेरा नाम मुझे मीठा लगता रहे।2।2।131।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ राम राम राम जापि रमत राम सहाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ राम राम राम जापि रमत राम सहाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापि = जपा कर। रमत = जपते हुए। सहाई = मददगार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा सदा परमात्मा (के नाम का जाप) जपा कर, (नाम) जपते हुए (वह) परमात्मा (हर जगह) सहायता करने वाला है।1। रहाउ।
[[1230]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतन कै चरन लागे काम क्रोध लोभ तिआगे गुर गोपाल भए क्रिपाल लबधि अपनी पाई ॥१॥
मूलम्
संतन कै चरन लागे काम क्रोध लोभ तिआगे गुर गोपाल भए क्रिपाल लबधि अपनी पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै चरन = के चरणों में। तिआगे = त्याग के। लबधि = जिस वस्तु को ढूँढते थे।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य संत-जनों के चरण लगते हैं, काम, क्रोध लोभ (आदि विकार) छोड़ देते हैं, उन पर गुर-गोपाल मेहरवान होता है, उनको अपनी वह नाम-वस्तु मिल जाती है जिसकी (अनेक जन्मों से) तलाश करते आ रहे थे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनसे भ्रम मोह अंध टूटे माइआ के बंध पूरन सरबत्र ठाकुर नह कोऊ बैराई ॥ सुआमी सुप्रसंन भए जनम मरन दोख गए संतन कै चरन लागि नानक गुन गाई ॥२॥३॥१३२॥
मूलम्
बिनसे भ्रम मोह अंध टूटे माइआ के बंध पूरन सरबत्र ठाकुर नह कोऊ बैराई ॥ सुआमी सुप्रसंन भए जनम मरन दोख गए संतन कै चरन लागि नानक गुन गाई ॥२॥३॥१३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध = अंधे (करने वाले)। बंध = बंधन, फंदे। पूरन = व्यापक। सरबत्र = सब जगह। बैराई = वैरी। सुप्रसंन = दयावान। दोख = पाप। लागि = लग के। गाई = गाती है।2।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य संत जनों के चरणों से लग के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उन पर मालिक-प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं, उनके जनम-मरण के चक्कर और पाप सभ समाप्त हो जाते हैं। उनके अंदर से भ्रम और मोह के अंधेरे नाश हो जाते हैं, माया के मोह के फंदे टूट जाते हैं, प्रभु-मालिक उनको हर जगह व्यापक दिखाई देता है, कोई भी उन्हें वेरी नहीं लगता।2।3।132।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ हरि हरे हरि मुखहु बोलि हरि हरे मनि धारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ हरि हरे हरि मुखहु बोलि हरि हरे मनि धारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखहु = मुँह से। बोलि = उचारा कर। मनि = मन में। धारे = बसाए रख।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा सदा ही परमात्मा का नाम अपने मुँह से उचारा कर और अपने मन में बसाए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रवन सुनन भगति करन अनिक पातिक पुनहचरन ॥ सरन परन साधू आन बानि बिसारे ॥१॥
मूलम्
स्रवन सुनन भगति करन अनिक पातिक पुनहचरन ॥ सरन परन साधू आन बानि बिसारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रवन = कानों से। पातिक = पाप। पुनहचरन = (पापों की निर्विति के लिए किए गए) पछतावे के कर्म, पश्चाताप वाले कर्म। साधू = गुरु। आन = अन्य। बानि = आदत।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम कानों से सुनना प्रभु की भक्ति करनी - यही है अनेक पापों को दूर करने के लिए किए हुए पछतावे-मात्र धार्मिक कर्म। हे भाई! गुरु की शरण पड़े रहना- ये उद्यम अन्य (बुरी) आदतों को (मन में से) दूर कर देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चरन प्रीति नीत नीति पावना महि महा पुनीत ॥ सेवक भै दूरि करन कलिमल दोख जारे ॥ कहत मुकत सुनत मुकत रहत जनम रहते ॥ राम राम सार भूत नानक ततु बीचारे ॥२॥४॥१३३॥
मूलम्
हरि चरन प्रीति नीत नीति पावना महि महा पुनीत ॥ सेवक भै दूरि करन कलिमल दोख जारे ॥ कहत मुकत सुनत मुकत रहत जनम रहते ॥ राम राम सार भूत नानक ततु बीचारे ॥२॥४॥१३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीति नीति = नित्य नित्य, सदा सदा। पावन = पवित्र। भै = डर। कलिमल = पाप। दोख = पाप। जारे = जला देता है। मुकत = विकारों से बचा हुआ। रहत = सद जीवन मर्यादा रखते हुए। रहते = बच जाते हैं। सार भूत = सब से श्रेष्ठ पदार्थ। ततु = अस्लियत।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सदा सदा प्रभु के चरणों से प्यार बनाए रखना- ये जीवन को बहुत ही पवित्र बना देता है। प्रभु-चरणों से प्रीति सेवक के सारे डर दूर करने वाली है, सेवक के सारे पाप विकार जला देती है।
हे भाई! प्रभु का नाम स्मरण करने वाले और सुनने वाले विकारों से बचे रहते हैं, सदाचार (अच्छी रहन-सहन) रखने वाले जूनियों से बच जाते हैं। हे भाई! नानक (सारी विचारों का यह) सारांश बताता है कि परमात्मा का नाम सबसे श्रेष्ठ है।2।4।133।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ नाम भगति मागु संत तिआगि सगल कामी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ नाम भगति मागु संत तिआगि सगल कामी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागु = मांगता रह। कामी = काम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! और सारे काम छोड़ के (भी) संत जनों से परमात्मा के नाम की भक्ति माँगता रहा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति लाइ हरि धिआइ गुन गुोबिंद सदा गाइ ॥ हरि जन की रेन बांछु दैनहार सुआमी ॥१॥
मूलम्
प्रीति लाइ हरि धिआइ गुन गुोबिंद सदा गाइ ॥ हरि जन की रेन बांछु दैनहार सुआमी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाइ = लगा के। गाइ = गाया कर। रेन = चरण धूल। बांछु = मांगता रह, चाहत कर। दैनहार = देने की समर्थता वाले से।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोबिंद’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! प्यार से परमात्मा के नाम का ध्यान धरा कर, सदा गोबिंद के गुण गाता रहा कर। उस सब कुछ दे सकने वाले मालिक-प्रभु से संतजनों के चरणों की धूल माँगता रहा कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब कुसल सुख बिस्राम आनदा आनंद नाम जम की कछु नाहि त्रास सिमरि अंतरजामी ॥ एक सरन गोबिंद चरन संसार सगल ताप हरन ॥ नाव रूप साधसंग नानक पारगरामी ॥२॥५॥१३४॥
मूलम्
सरब कुसल सुख बिस्राम आनदा आनंद नाम जम की कछु नाहि त्रास सिमरि अंतरजामी ॥ एक सरन गोबिंद चरन संसार सगल ताप हरन ॥ नाव रूप साधसंग नानक पारगरामी ॥२॥५॥१३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सारे। कुसल = सुख। बिस्राम = विश्राम, ठिकाना। त्रास = डर। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। ताप हरन = दुख दूर करने वाला। नाव = नाँव, बेड़ी। नाव रूप = नाँव जैसा है। पारगरामी = (संसार समुंदर से) पार लंघाने वाला।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सारे सुखों का सारी खुशियों का, सारे आनंदों का श्रोत है। हरेक के दिल की जानने वाले प्रभु का नाम स्मरण किया कर, जमों का (भी) कोई डर नहीं रह जाता।
हे नानक! एक परमात्मा के चरणों की शरण जगत के सारे दुख-कष्ट दूर करने योग्य है। (यह शरण साधु-संगत में ही मिलती है, और) साधु-संगत बेड़ी की तरह (संसार-समुंदर से) पार लंघाने वाली है।2।5।134।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ गुन लाल गावउ गुर देखे ॥ पंचा ते एकु छूटा जउ साधसंगि पग रउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ गुन लाल गावउ गुर देखे ॥ पंचा ते एकु छूटा जउ साधसंगि पग रउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुन लाल = सुंदर प्रभु के गुण। गावउ = मैं गाता हूँ। गुर देखे = गुरु के दर्शन करके। पंचा ते = (कामादिक) पाँचों से। एकु = मन। जउ = जब। साध संगि = साधु-संगत में। पग रउ = मैं पकड़ू (हरि के चरण)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब गुरु का दर्शन करके मैं सुंदर हरि के गुण गाता हूँ, जब गुरु की संगति में टिक के मैं (प्रभु के चरण) पकड़ता हूँ, तब (मेरा यह) मन (कामादिक) पाँचों (के पँजे) से निकल जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रिसटउ कछु संगि न जाइ मानु तिआगि मोहा ॥ एकै हरि प्रीति लाइ मिलि साधसंगि सोहा ॥१॥
मूलम्
द्रिसटउ कछु संगि न जाइ मानु तिआगि मोहा ॥ एकै हरि प्रीति लाइ मिलि साधसंगि सोहा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिसटउ = दृष्टमान, दिखाई देता जगत। संगि = साथ। जाइ = जाता। मानु = अहंकार। मिलि = मिल के। सोहा = जीवन सुंदर बन जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! (यह जो) दिखाई देता जगत (है, इस में से) कुछ भी (किसी के) साथ नहीं जाता (इसलिए इसका) मान और मोह छोड़ दे। साधु-संगत में मिल के एक परमात्मा के चरणों के साथ प्रीत जोड़ (इस तरह जीवन) सुंदर बन जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइओ है गुण निधानु सगल आस पूरी ॥ नानक मनि अनंद भए गुरि बिखम गार्ह तोरी ॥२॥६॥१३५॥
मूलम्
पाइओ है गुण निधानु सगल आस पूरी ॥ नानक मनि अनंद भए गुरि बिखम गार्ह तोरी ॥२॥६॥१३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण निधान = गुणों का खजाना हरि। मनि = मन में। गुरि = गुरु ने। बिखम = मुश्किल। गार्ह = गांठ। तोरी = तोड़ दी है।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैंने गुणों का खजाना प्रभु पा लिया है, मेरी सारी आशा पूरी हो गई है। गुरु ने (मेरे अंदर से माया के मोह की) कठिन गाँठ खोल दी है, अब मेरे मन में आनंद ही आनंद बन गए हैं।2।6।135।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ मनि बिरागैगी ॥ खोजती दरसार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ मनि बिरागैगी ॥ खोजती दरसार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। बिरागैरी = वैरागवान होगी (मेरी जिंद), (मेरी जिंद) वैरागवान होती है। खोजती = खोज करती करती। दरसार = दर्शन।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! (प्रभु के) दर्शनों के प्रयत्न करती-करती मेरी जिंद मन में वैराग वाली होती जा रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू संतन सेवि कै प्रिउ हीअरै धिआइओ ॥ आनंद रूपी पेखि कै हउ महलु पावउगी ॥१॥
मूलम्
साधू संतन सेवि कै प्रिउ हीअरै धिआइओ ॥ आनंद रूपी पेखि कै हउ महलु पावउगी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि कै = सेवा करके। प्रिउ = प्यारा प्रभु। हीअरै = हृदय में। पेखि कै = देख के, दर्शन कर के। हउ = मैं। महलु = (प्रभु चरणों में) ठिकाना। पावउगी = मैं प्राप्त करूँगी।1।
अर्थ: हे सखी! संत जनों की सेवा करके (साधु-संगत की इनायत से) मैंने प्यारे प्रभु को अपने हृदय में बसा लिया है, और, उस आनंद-स्वरूप के दर्शन करके मैंने उसके चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम करी सभ तिआगि कै हउ सरणि परउगी ॥ नानक सुआमी गरि मिले हउ गुर मनावउगी ॥२॥७॥१३६॥
मूलम्
काम करी सभ तिआगि कै हउ सरणि परउगी ॥ नानक सुआमी गरि मिले हउ गुर मनावउगी ॥२॥७॥१३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काम करी = काम कार, काम धंधे। गर = गले से। गुर मनावउगी = मैं गुरु की प्रसन्नता हासिल करूँगी।2।
अर्थ: हे सखी! (जगत के) काम-धंधों का सारा मोह छोड़ के मैं प्रभु की शरण पड़ी रहती हूँ। हे नानक! (कह: हे सखी! जिस गुरु की कृपा से) मालिक-प्रभु जी (मेरे) गले से आ लगे हैं, मैं (उस) गुरु की प्रसन्नता प्राप्त करती रहती हूँ।2।7।136।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ ऐसी होइ परी ॥ जानते दइआर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ ऐसी होइ परी ॥ जानते दइआर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसी = ऐसी हालत। होइ परी = हो गई है। जानते = जानता है। दइआर = दयालु प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मेरे मन की हालत) ऐसी हो गई है (और, इस हालत को) दयालु प्रभु (स्वयं) जानता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातर पितर तिआगि कै मनु संतन पाहि बेचाइओ ॥ जाति जनम कुल खोईऐ हउ गावउ हरि हरी ॥१॥
मूलम्
मातर पितर तिआगि कै मनु संतन पाहि बेचाइओ ॥ जाति जनम कुल खोईऐ हउ गावउ हरि हरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मातर = माँ। पितर = पिता। तिआगि कै = (मोह) छोड़ के। पाहि = पास। बेचाइओ = बेच दिया है। खोईऐ = गवा दी है। हउ = मैं। गावउ = गाता रहता हूँ।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के उपदेश की इनायत से) माता-पिता (आदि संबन्धियों का मोह) छोड़ के मैंने अपना मन संत जनों के हवाले कर दिया है, मैंने (ऊँची) जाति कुल जनम (का गुमान) छोड़ दिया है, और मैं (हर वक्त) परमात्मा की महिमा ही करता हूँ (अपने कुल आदि को सराहने की जगह)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोक कुट्मब ते टूटीऐ प्रभ किरति किरति करी ॥ गुरि मो कउ उपदेसिआ नानक सेवि एक हरी ॥२॥८॥१३७॥
मूलम्
लोक कुट्मब ते टूटीऐ प्रभ किरति किरति करी ॥ गुरि मो कउ उपदेसिआ नानक सेवि एक हरी ॥२॥८॥१३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। टूटीऐ = टूट गई है। किरति = कृत्य, निहाल। करी = कर दिया है। गुरि = गुरु ने। मो कउ = मुझे। नानक = हे नानक! सेवि = सेवा कर, शरण पड़ा रह।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से मेरी प्रीति) लोगों से कुटुंब से टूट गई है, प्रभु ने मुझे निहाल-निहाल कर दिया है। गुरु ने मुझे शिक्षा दी है कि सदा एक परमात्मा की शरण पड़ा रह।2।8।137।
[[1231]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ ॥ लाल लाल मोहन गोपाल तू ॥ कीट हसति पाखाण जंत सरब मै प्रतिपाल तू ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ५ ॥ लाल लाल मोहन गोपाल तू ॥ कीट हसति पाखाण जंत सरब मै प्रतिपाल तू ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाल = सुंदर। मोहन = मोह लेने वाला। गोपाल = हे जगत के रक्षक! कीट = कीड़े। हसति = हाथी। पाखाण = पत्थर। सरब मै = सबमें व्यापक। प्रतिपाल = पालने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे जगत-रक्षक प्रभु! तू सुंदर है, तू सुंदर है, तू मन को मोह लेने वाला है। हे सबके पालनहार! कीड़े, हाथी, पत्थरों के (में बसते) जंतु- इन सबमें ही तू मौजूद है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह दूरि पूरि हजूरि संगे ॥ सुंदर रसाल तू ॥१॥
मूलम्
नह दूरि पूरि हजूरि संगे ॥ सुंदर रसाल तू ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरि = व्यापक। हजूरि = हाजर नाजर, प्रत्यक्ष। संगे = साथ। रसाल = सब रसों का घर (आलय)।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (किसी जीव से) दूर नहीं है, तू सबमें व्यापक है, तू प्रत्यक्ष दिखता है, तू (सब जीवों के) साथ है। तू सुंदर है, तू सब रसों का श्रोत है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह बरन बरन नह कुलह कुल ॥ नानक प्रभ किरपाल तू ॥२॥९॥१३८॥
मूलम्
नह बरन बरन नह कुलह कुल ॥ नानक प्रभ किरपाल तू ॥२॥९॥१३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! किरपाल = दयावान।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! लोगों द्वारा निहित हुए) वर्णों में से तेरा कोई वर्ण नहीं है (लोगों द्वारा मिथी हुई) कुलों में से तेरी कोई कुल नहीं है (तू किसी विशेष कुल व वर्ण का पक्ष नहीं करता) तू (सब पर) दयावान रहता है।2।9।138।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग मः ५ ॥ करत केल बिखै मेल चंद्र सूर मोहे ॥ उपजता बिकार दुंदर नउपरी झुनंतकार सुंदर अनिग भाउ करत फिरत बिनु गोपाल धोहे ॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग मः ५ ॥ करत केल बिखै मेल चंद्र सूर मोहे ॥ उपजता बिकार दुंदर नउपरी झुनंतकार सुंदर अनिग भाउ करत फिरत बिनु गोपाल धोहे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केल = रंग तमाशे। बिखै = विषौ विकार। सूर = सूरज (देवता)। दुंदर = झगड़ालू, खरूदी। नउपरी = नूपुर, झांझरें। झुनंतकार = छनकार। अनिग = अनेक। भाउ = हाव भाव। धोहे = ठग लेती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (माया अनेक तरह के) रंग-तमाशे करती है, (जीवों को) विषौ-विकारों संग जोड़ती है, चंद्रमा-सूर्य आदि सब देवते इसने अपने जाल में फसा रखे हैं। हे भाई! (माया के प्रभाव के कारण जीवों के अंदर) झगड़ालू विकार पैदा हो जाते हैं, झांझरों की छनकार की तरह माया जीवों को प्यारी लगती है, यह माया अनेक हाव-भाव करती फिरती है। जगत-रक्षक प्रभु के बिना माया ने सभी जीवों को ठग लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीनि भउने लपटाइ रही काच करमि न जात सही उनमत अंध धंध रचित जैसे महा सागर होहे ॥१॥
मूलम्
तीनि भउने लपटाइ रही काच करमि न जात सही उनमत अंध धंध रचित जैसे महा सागर होहे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउने = भवनों में। लपटाइ रही = चिपकी रहती है। काच करमि = कच्चे कर्म से। न जात सही = सही नहीं जाती। उनमत = मस्त। अंध = अंधे। धंध रचित = घंधों में फसा हुआ। होहे = धक्के।1।
अर्थ: हे भाई! माया तीनों भवनों (के जीवों) को चिपकी रहती है, (पुण्य, दान, तीर्थ आदि) कच्चे कर्मों की (इस माया की चोट को) सहा नहीं जा सकता। जीव माया के मोह में मस्त और अंधे हुए रहते हैं, जगत के धंधों में व्यस्त रहते हैं (इस तरह धक्के खाते हैं) जैसे बड़े समुंदर में धक्के पड़ते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उधरे हरि संत दास काटि दीनी जम की फास पतित पावन नामु जा को सिमरि नानक ओहे ॥२॥१०॥१३९॥३॥१३॥१५५॥
मूलम्
उधरे हरि संत दास काटि दीनी जम की फास पतित पावन नामु जा को सिमरि नानक ओहे ॥२॥१०॥१३९॥३॥१३॥१५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधरे = बच गए। फास = फंदा। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। जा को = जिस (प्रभु) का। ओहे = उसी प्रभु को।2।
अर्थ: हे भाई! (माया के असर से) परमात्मा के संत प्रभु के दास (ही) बचते हैं, प्रभु ने उनकी जमों वाली (आत्मिक मौत के) फंदे काट दिए होते हैं। हे नानक! जिस प्रभु का नाम ‘पतित पावन’ (पापियों को पवित्र करने वाला) है, उसी का नाम स्मरण किया कर।2।10।139।155।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सारंग महला ९ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सारंग महला ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु तेरो को न सहाई ॥ कां की मात पिता सुत बनिता को काहू को भाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिनु तेरो को न सहाई ॥ कां की मात पिता सुत बनिता को काहू को भाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेरो = तेरा। को = कोई (व्यक्ति)। सहाई = सहायक। कां की = किस की? मात = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। कौ = कौन? काहू को = किसी का। भाई = भ्राता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के बिना तेरा (और) कोई भी सहायता करने वाला नहीं है। हे भाई! कौन किसी की माँ? कौन किसी का पिता? कौन किसी का पुत्र? कौन किसी की पत्नी? (जब शरीर से साथ समाप्त हो जाता है तब) कौन किसी का भाई बनता है? (कोई नहीं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनु धरनी अरु स्मपति सगरी जो मानिओ अपनाई ॥ तन छूटै कछु संगि न चालै कहा ताहि लपटाई ॥१॥
मूलम्
धनु धरनी अरु स्मपति सगरी जो मानिओ अपनाई ॥ तन छूटै कछु संगि न चालै कहा ताहि लपटाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरनी = धरती। अरु = और (अरि = वैरी)। संपति = सम्पक्ति, पदार्थं सगरी = सारी। अपनाई = अपना। छूटै = छिन जाता है, साथ छूट जाता है। संगि = (जीव के) साथ। कहा = क्यों? लपटाई = चिपका रहता है।1।
अर्थ: हे भाई! यह धन धरती सारी मायश जिन्हें (तू) अपनी समझे बैठा है, जब शरीर से साथ छूटता है, कोई भी चीज़ (जीव के) साथ नहीं जाती। फिर जीव क्यों इनके साथ चिपका रहता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ रुचि न बढाई ॥ नानक कहत जगत सभ मिथिआ जिउ सुपना रैनाई ॥२॥१॥
मूलम्
दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ रुचि न बढाई ॥ नानक कहत जगत सभ मिथिआ जिउ सुपना रैनाई ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छीन = गरीब। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। ता सिउ = उस (प्रभु) से। रुचि = प्यार। न बढाई = नहीं बढ़ाता। मिथिआ = नाशवान। रैनाई = रात का।2।
अर्थ: हे भाई! जो प्रभु गरीबों पर दया करने वाला है, जो सदा (जीवों के) दुखों का नाश करने वाला है, तू उससे प्यार नहीं बढ़ाता। नानक कहता है: हे भाई! जैसे रात का सपना होता है वैसे ही सयारा जगत नाशवान है।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ९ ॥ कहा मन बिखिआ सिउ लपटाही ॥ या जग महि कोऊ रहनु न पावै इकि आवहि इकि जाही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारंग महला ९ ॥ कहा मन बिखिआ सिउ लपटाही ॥ या जग महि कोऊ रहनु न पावै इकि आवहि इकि जाही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = क्यों? मन = हे मन! बिखिआ = माया। सिउ = से। लपटाही = चिपका हुआ है। या जग महि = इस जगत में। इकि = कई। आवहि = आते हैं, पैदा होते हैं। जाही = जाते हैं, मरते हैं।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मन! तू क्यों माया से (ही) चिपका रहता है? (देख) इस दुनिया में (सदा के लिए) कोई भी टिका नहीं रह सकता। अनेक पैदा होते रहते हैं, अनेक ही मरते रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कां को तनु धनु स्मपति कां की का सिउ नेहु लगाही ॥ जो दीसै सो सगल बिनासै जिउ बादर की छाही ॥१॥
मूलम्
कां को तनु धनु स्मपति कां की का सिउ नेहु लगाही ॥ जो दीसै सो सगल बिनासै जिउ बादर की छाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कां को = किस का? संपति = माया। का सिउ = किससे? नेहु = प्यार। लगाही = तू लगा रहा है। सगल = सारा। बिनासै = नाश हो जाने वाला है। बदर = बादल। छाही = छाया।1।
अर्थ: हे मन (देख) सदा के लिए ना किसी का शरीर रहता है, ना धन रहता है, ना माया रहती है। तू किससे प्यार बनाए बैठा है? जैसे बादलों की छाया है, वैसे ही जो कुछ दिख रहा है सभ नाशवान है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि अभिमानु सरणि संतन गहु मुकति होहि छिन माही ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु सुखु सुपनै भी नाही ॥२॥२॥
मूलम्
तजि अभिमानु सरणि संतन गहु मुकति होहि छिन माही ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु सुखु सुपनै भी नाही ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = छोड़। गहु = पकड। होहि = तू हो जाएगा। सुपनै = सपने में।2।
अर्थ: हे मन! अहंकार छोड़, और, संत जनों की शरण पड़। (इस तरह) एक छिन में तू (माया के बंधनो से) स्वतंत्र हो जाएगा। हे दास नानक! (कह: हे मन!) परमात्मा के भजन के बिना कभी सपने में भी सुख नहीं मिलता।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ९ ॥ कहा नर अपनो जनमु गवावै ॥ माइआ मदि बिखिआ रसि रचिओ राम सरनि नही आवै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारंग महला ९ ॥ कहा नर अपनो जनमु गवावै ॥ माइआ मदि बिखिआ रसि रचिओ राम सरनि नही आवै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = क्यों? गवावै = गवाता है। मदि = नशे में। बिखिआ रसि = माया के रस में। रचिओ = व्यस्त रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पता नहीं मनुष्य क्यों अपना जीवचन व्यर्थ में बरबाद करता है। माया की मस्ती में माया के स्वाद में व्यस्त रहता है, और, परमात्मा की शरण नहीं पड़ता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु संसारु सगल है सुपनो देखि कहा लोभावै ॥ जो उपजै सो सगल बिनासै रहनु न कोऊ पावै ॥१॥
मूलम्
इहु संसारु सगल है सुपनो देखि कहा लोभावै ॥ जो उपजै सो सगल बिनासै रहनु न कोऊ पावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारा। देखि = देख के। कहा = क्यों? लोभावै = लोभ में फसता है। उपजै = पैदा होता है। बिनासै = नाश हो जाता है। कोऊ = कोई भी जीव। रहनु न पावै = सदा के लिए नहीं टिक सकता।1।
अर्थ: हे भाई! यह सारा जगत सपने जैसा है, इसको देख के, पता नहीं, मनुष्य क्यों लोभ में फंस जाता है। यहाँ तो जो कोई पैदा होता है वह हरेक ही नाश हो जाता है। यहाँ सदा के लिए कोई नहीं टिक सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिआ तनु साचो करि मानिओ इह बिधि आपु बंधावै ॥ जन नानक सोऊ जनु मुकता राम भजन चितु लावै ॥२॥३॥
मूलम्
मिथिआ तनु साचो करि मानिओ इह बिधि आपु बंधावै ॥ जन नानक सोऊ जनु मुकता राम भजन चितु लावै ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = नाशवान। साचो = सदा कायम रहने वाला। करि = कर के, ख्याल करके। इह बिधि = इस तरह। आपु = अपने आप को। बंधावै = फसाता है। सोऊ जनु = वही मनुष्य। मुकता = मोह के बंधनो से स्वतंत्र। चितु लावै = चिक्त जोड़ता है।2।
अर्थ: हे भाई! यह शरीर नाशवान है, पर जीव इसको सदा कायम रहने वाला समझे रहता है, इस तरह अपने आप को (मोह की फंदों में) फसाए रखता है। हे दास नानक! वही मनुष्य मोह के बंधनो से स्वतंत्र रहता है, जो परमात्मा के भजन में अपना चिक्त जोड़ के रखता है।2।3।
[[1232]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ९ ॥ मन करि कबहू न हरि गुन गाइओ ॥ बिखिआसकत रहिओ निसि बासुर कीनो अपनो भाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारंग महला ९ ॥ मन करि कबहू न हरि गुन गाइओ ॥ बिखिआसकत रहिओ निसि बासुर कीनो अपनो भाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन करि = मन से, मन लगा के। कबहू = कभी भी। बिखिआसकत = (बिख्या+आसक्त। बिख्या = माया। आसक्त = लंपट) माया के साथ लिपटा हुआ। निस = रात। बासुर = दिन। अपनो भाइओ = जो अपने आप को अच्छा लगता था।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं मन लगा के कभी भी तेरे गुण नहीं गाता रहा। मैं दिन-रात माया में ही मगन रहा, वही कुछ करता रहा, जो मुझे अपने आप को अच्छा लगता था।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर उपदेसु सुनिओ नहि काननि पर दारा लपटाइओ ॥ पर निंदा कारनि बहु धावत समझिओ नह समझाइओ ॥१॥
मूलम्
गुर उपदेसु सुनिओ नहि काननि पर दारा लपटाइओ ॥ पर निंदा कारनि बहु धावत समझिओ नह समझाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे हरि! मैंने कानों से गुरु की शिक्षा (कभी) नहीं सुनी, पराई स्त्री के लिए काम-वासना रखता रहा। दूसरों की निंदा करने के लिए बहुत दौड़-भाग करता रहा। समझाने पर भी मैं (कभी) नहीं समझा (कि ये काम बुरा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा कहउ मै अपुनी करनी जिह बिधि जनमु गवाइओ ॥ कहि नानक सभ अउगन मो महि राखि लेहु सरनाइओ ॥२॥४॥३॥१३॥१३९॥४॥१५९॥
मूलम्
कहा कहउ मै अपुनी करनी जिह बिधि जनमु गवाइओ ॥ कहि नानक सभ अउगन मो महि राखि लेहु सरनाइओ ॥२॥४॥३॥१३॥१३९॥४॥१५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = क्या? कहाउ = मैं कहूँ। करनी = आचरण। जिह बिधि = जिस तरीके से। कहि = कहे, कहता है। मो महि = मेरे अंदर।2।
अर्थ: हे हरि! जिस तरह मैंने अपना जीवन व्यर्थ गवा लिया, वह मैं कहाँ तब अपनी करतूत बताऊँ? नानक कहता है: हे प्रभु! मेरे अंदर सारे अवगुण ही हैं। मुझे अपनी शरण में रख।2।4।3।13।139।4।159।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु सारग असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु सारग असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु किउ जीवा मेरी माई ॥ जै जगदीस तेरा जसु जाचउ मै हरि बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिनु किउ जीवा मेरी माई ॥ जै जगदीस तेरा जसु जाचउ मै हरि बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! किउ जीवा = मैं कैसे जी सकूँ? मेरी जिंद व्याकुल होती है। जगदीस = हे जगत के ईश! (जगदीस = जगत+ईस। ईस = मालिक)। जसु = महिमा। जाचउ = मैं माँगता हूँ। रहनु न जाई = रहा नहीं जा सकता, मन डोलता हैं1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! परमात्मा के नाम के बिना मेरी जिंद व्याकुल होती है। हे जगत के मालिक! तेरी ही सदा जै (जीत) है। मैं (तुझसे) तेरी महिमा (की दाति) माँगता हूँ।
परमात्मा के नाम स्मरण के बिना मेरा मन घबराता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की पिआस पिआसी कामनि देखउ रैनि सबाई ॥ स्रीधर नाथ मेरा मनु लीना प्रभु जानै पीर पराई ॥१॥
मूलम्
हरि की पिआस पिआसी कामनि देखउ रैनि सबाई ॥ स्रीधर नाथ मेरा मनु लीना प्रभु जानै पीर पराई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिआसी = मिलाप के लिए उतावली। कामनि = स्त्री। रैनि = रात। सबाई = सारी। स्रीधर = (श्री धर, श्री = लक्ष्मी। धर = आसरा), हे लक्ष्मी के आसरे! हे प्रभु! नाथ = हे पति प्रभु! पीर = पीड़ा।1।
अर्थ: जैसे स्त्री को अपने पति से मिलने की चाहत होती है वह सारी रात उसका इन्तजार करती है, वैसे ही मुझे हरि के दीदार की है, मैं सारी उम्र ही उसका इन्तजार करती चली आ रही हूँ। हे लक्ष्मी-पति! हे (जगत के) नाथ! मेरा मन तेरी याद में मस्त है।
(हे माँ!) परमात्मा ही पराई पीड़ समझ सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गणत सरीरि पीर है हरि बिनु गुर सबदी हरि पांई ॥ होहु दइआल क्रिपा करि हरि जीउ हरि सिउ रहां समाई ॥२॥
मूलम्
गणत सरीरि पीर है हरि बिनु गुर सबदी हरि पांई ॥ होहु दइआल क्रिपा करि हरि जीउ हरि सिउ रहां समाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गणत = चिन्ता, गिनती, फिक्र। सरीरि = शरीर में, हृदय में। पांई = मैं पा सकती हूँ। रहां समाई = समाई रहूँ, लीन रहूँ।2।
अर्थ: (हे माँ!) परमात्मा की याद के बिना मेरे हृदय में (और ही) चिन्ता-फिक्रें-तकलीफें टिकी रहती हैं। वह परमात्मा गुरु के शब्द से ही मिल सकता है।
हे प्यारे हरि! मेरे पर दयावान हो, मेरे ऊपर कृपा कर, मैं तेरी याद में लीन रहूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी रवत रवहु मन मेरे हरि चरणी चितु लाई ॥ बिसम भए गुण गाइ मनोहर निरभउ सहजि समाई ॥३॥
मूलम्
ऐसी रवत रवहु मन मेरे हरि चरणी चितु लाई ॥ बिसम भए गुण गाइ मनोहर निरभउ सहजि समाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहत रवहु = चाल चलो। बिसम = हैरान, आश्चर्य, मगन। मनोहर = मन को मोह लेनें वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में।3।
अर्थ: हे मेरे मन! ऐसा रास्ता पकड़ कि (तू) परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहे। मन को मोहने वाले परमात्मा के गुण गा के (भाग्यशाली व्यक्ति आनंद में) मस्त रहते हैं, दुनिया वाले डर-सहम से निडर हो के वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै नामु सदा धुनि निहचल घटै न कीमति पाई ॥ बिनु नावै सभु कोई निरधनु सतिगुरि बूझ बुझाई ॥४॥
मूलम्
हिरदै नामु सदा धुनि निहचल घटै न कीमति पाई ॥ बिनु नावै सभु कोई निरधनु सतिगुरि बूझ बुझाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुनि = लगन। निहचल = अडोल। निरधनु = कंगाल। सतिगुरि = गुरु ने। बूझ = समझ।4।
अर्थ: (हे मेरे मन!) अगर हृदय में प्रभु का नाम बस जाए, अगर (प्रभु-प्यार की) सदीवी अटल लहर चल जाए, तब वह कभी कम नहीं होती, दुनिया का कोई सुख, दुनिया का कोई पदार्थ उसकी बराबरी नहीं कर सकता। सतिगुरु ने मुझे बख्श दी है कि परमात्मा के नाम के बिना हरेक जीव कंगाल (ही) है (चाहे उसके पास कितना ही धन-पदार्थ हो)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतम प्रान भए सुनि सजनी दूत मुए बिखु खाई ॥ जब की उपजी तब की तैसी रंगुल भई मनि भाई ॥५॥
मूलम्
प्रीतम प्रान भए सुनि सजनी दूत मुए बिखु खाई ॥ जब की उपजी तब की तैसी रंगुल भई मनि भाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनि = सुन। सजनी = हे सखी! प्रान = जिंद। दूत = कामादिक विकार। खाई = खा के। रंगुल = रंगली। मनि = मन में। भाई = भा गई, प्यारी लगी है।5।
अर्थ: हे सहेलिऐ! (हे सत्संगी सज्जन!) सुन! (गुरु की कृपा से) मेरे मन को प्रीतम, प्यारा लग रहा है, मैं उसके प्रेम में रंगी गई हूँ, जब से (प्रभु-चरणों में प्रीति) पैदा हुई है, तब से वैसी ही कायम है (कम नहीं हुई), मेरी जिंद प्रीतम-प्रभु के साथ एक-मेक हो गई है, कामादिक वैरी (मेरी बाबत तो) मर गए हैं, उन्होंने (जैसे) जहर खा लिया है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज समाधि सदा लिव हरि सिउ जीवां हरि गुन गाई ॥ गुर कै सबदि रता बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥६॥
मूलम्
सहज समाधि सदा लिव हरि सिउ जीवां हरि गुन गाई ॥ गुर कै सबदि रता बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाधि = टिकाव, एकाग्रता। जीवां = मैं जीवित हूँ, मेरे अंदर धैर्य पैदा होता है। बैरागी = वैरागवान, प्रेमी। ताड़ी लाई = टिक जाता है।6।
अर्थ: गुरु के शब्द में रंगे जा के मैं (प्रभु-चरणों का) प्रेमी बन गया हूँ, अब मैं अपने अंदर ही प्रभु की याद में जुड़ा रहता हूँ, मैं सदा प्रभु में लगन लगाए रखता हूँ, और आत्मिक अडोलता में टिका रहता हूँ, ज्यों-ज्यों मैं हरि के गुण गाता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन विकसित होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुध रस नामु महा रसु मीठा निज घरि ततु गुसांईं ॥ तह ही मनु जह ही तै राखिआ ऐसी गुरमति पाई ॥७॥
मूलम्
सुध रस नामु महा रसु मीठा निज घरि ततु गुसांईं ॥ तह ही मनु जह ही तै राखिआ ऐसी गुरमति पाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुध = पवित्र। गुसांई = हे धरती के पति!।7।
अर्थ: हे धरती के मालिक प्रभु! मुझे सतिगुरु की ऐसी मति प्राप्त हो गई है कि जहाँ (अपने चरणों में) तूने मेरा मन जोड़ा है वहीं पर जुड़ा हुआ है। हे प्रभु! पवित्रता का रस देने वाला तेरा नाम मुझे बहुत ही स्वादिष्ट रस वाला प्रतीत हो रहा है मुझे मीठा लग रहा है, तू जगत-का-मूल मुझे मेरे हृदय में ही मिल गया है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनक सनादि ब्रहमादि इंद्रादिक भगति रते बनि आई ॥ नानक हरि बिनु घरी न जीवां हरि का नामु वडाई ॥८॥१॥
मूलम्
सनक सनादि ब्रहमादि इंद्रादिक भगति रते बनि आई ॥ नानक हरि बिनु घरी न जीवां हरि का नामु वडाई ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सनक सनादि = सनक, सनंदन, सनतकुमार, सनातन (ये चारों ब्रहमा के पुत्र हैं)। रते = रंगे गए। बनि आई = प्रीत बन गई।8।
अर्थ: इन्द्र जैसे देवता, ब्रहमा और उसके पुत्र सनक जैसे महापूरुष जब परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगे गए, तब उनकी प्रीति प्रभु-चरणों के साथ बन गई।
हे नानक! (कह:) परमात्मा के नाम से एक घड़ी-मात्र विछुड़ने पर भी मेरे प्राण व्याकुल हो जाते हैं। परमात्मा का नाम ही मेरे वास्ते (सबसे श्रेष्ठ) आदर-मान है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला १ ॥ हरि बिनु किउ धीरै मनु मेरा ॥ कोटि कलप के दूख बिनासन साचु द्रिड़ाइ निबेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला १ ॥ हरि बिनु किउ धीरै मनु मेरा ॥ कोटि कलप के दूख बिनासन साचु द्रिड़ाइ निबेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किउ धीरै = कैसे धैर्य करे? कोटि = करोड़। कलप = चार युगों का समुदाय। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। द्रिढ़ाइ = दृढ़ करने से, मन में टिकाने से। निबेरा = दुखों से निबेड़ा, दुख समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा के नाम से विछुड़ के मेरा मन (अब) किसी भी तरह से धैर्य नहीं धरता (टिकता नहीं) क्योंकि इसको अनेक दुख-रोग आ व्याप्ते हैं। पर अगर करोड़ों युगों के दुख नाश करने वाले और सदा ही स्थिर रहने वाले परमात्मा को (मन में) टिका लें तो सारे दुखों-रोगों का नाश हो जाता है (मन ठिकाने पर आ जाता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधु निवारि जले हउ ममता प्रेमु सदा नउ रंगी ॥ अनभउ बिसरि गए प्रभु जाचिआ हरि निरमाइलु संगी ॥१॥
मूलम्
क्रोधु निवारि जले हउ ममता प्रेमु सदा नउ रंगी ॥ अनभउ बिसरि गए प्रभु जाचिआ हरि निरमाइलु संगी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवारि = दूर कर के। हउ = मैं, अहम्। ममता = अपनत्व। नउ रंगी = नए रंग वाला, सदा नया रहने वाला। अन भउ = औरों का डर सहम। बिसरि गए = बिसर गया, भूल जाता है। जाचिआ = माँगा। निरमाइलु = पवित्र। संगी = साथी।1।
अर्थ: जिस मनुष्य ने प्रभु (के दर से नाम का दान) माँगा है, पवित्र-स्वरूप प्रभु उसका (सदा के लिए) साथी बन गया है, उसके क्रोध को (अपने अंदर से) निकाल दिया है, उसका अहंकार और ममता जल जाती है, नित्य नया रहने वाला प्रेम (उसके हृदय में जाग उठता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंचल मति तिआगि भउ भंजनु पाइआ एक सबदि लिव लागी ॥ हरि रसु चाखि त्रिखा निवारी हरि मेलि लए बडभागी ॥२॥
मूलम्
चंचल मति तिआगि भउ भंजनु पाइआ एक सबदि लिव लागी ॥ हरि रसु चाखि त्रिखा निवारी हरि मेलि लए बडभागी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंचल = सदा भटकते रहने वाली। तिआगि = त्याग के। भउ भंजनु = डर सहम का नाश करने वाला। लिव = लगन। चाखि = चख के। त्रिखा = (माया की) तृष्णा।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने एक परमात्मा की महिमा के शब्द में तवज्जो जोड़ी है उसने (मायावी पदार्थों के पीछे) भटकने वाली मति (की अगवाई) त्याग के डर नाश करने वाला परमात्मा पा लिया है। परमात्मा के नाम का स्वाद चख के उसने (अपने अंदर से माया की) प्यास दूर कर ली है, उस अति भाग्यशाली मनुष्य को प्रभु ने अपने चरणों में मिला लिया है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
अभरत सिंचि भए सुभर सर गुरमति साचु निहाला ॥ मन रति नामि रते निहकेवल आदि जुगादि दइआला ॥३॥
मूलम्
अभरत सिंचि भए सुभर सर गुरमति साचु निहाला ॥ मन रति नामि रते निहकेवल आदि जुगादि दइआला ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभरत = ना भरे जा सकने वाले, जिनकी तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती थी। सिंचि = (परमात्मा का नाम-जल) सींच के। सुभर = नाको नाक भरे हुए। सर = तलाब, ज्ञान-इंद्रिय। निहाला = दर्शन कर लिया। रति = प्रीति। नामि = नाम में। निहकेवल नामि = पवित्र प्रभु के नाम में। जुगादि = जुगों के आदि से।3।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की मति ले के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का दर्शन कर लिया, प्रभु का नाम-जल सींच के उसकी वह ज्ञान-इंद्रिय नाको-नाक भर गई जिनकी तृष्णा पहले कभी खत्म नहीं होती थी। जिनके मन की प्रीति प्रभु के नाम में बन जाती है वे उस परमात्मा के प्यार में (सदा के लिए) रंगे जाते हैं जो शुद्ध-स्वरूप है और सदा से ही दया का श्रोत है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहनि मोहि लीआ मनु मोरा बडै भाग लिव लागी ॥ साचु बीचारि किलविख दुख काटे मनु निरमलु अनरागी ॥४॥
मूलम्
मोहनि मोहि लीआ मनु मोरा बडै भाग लिव लागी ॥ साचु बीचारि किलविख दुख काटे मनु निरमलु अनरागी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहनि = मोहन (प्रभु) ने। मोरा = मेरा। बीचारि = विचार के। किलविख = पाप। अनरागी = प्रेमी।4।
अर्थ: मेरे अच्छे भाग्यों के कारण (गुरु की कृपा से) मेरी लगन (प्रभु चरणों में) लग गई है, मन को मोह लेने वाले प्रभु ने मेरा मन (अपने प्रेम में) मोह लिया है। सदा-स्थिर प्रभु (के गुणों) को सोच-मण्डल में लाने के कारण मेरे सारे पाप-दुख कट गए हैं, मेरा मन पवित्र हो गया है, (प्रभु-चरणों का) प्रेमी हो गया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहिर ग्मभीर सागर रतनागर अवर नही अन पूजा ॥ सबदु बीचारि भरम भउ भंजनु अवरु न जानिआ दूजा ॥५॥
मूलम्
गहिर ग्मभीर सागर रतनागर अवर नही अन पूजा ॥ सबदु बीचारि भरम भउ भंजनु अवरु न जानिआ दूजा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। रतनागर = रत्नों की खान। अन पूजा = किसी और की पूजा।5।
अर्थ: गुरु के शब्द को विचार के मैंने समझ लिया है कि सिर्फ परमात्मा ही डर-सहम का नाश करने वाला है, कोई और (देवी-देवता आदि) दूसरा नहीं है। मैं किसी और की पूजा नहीं करता, सिर्फ उसको ही पूजता हूँ जो बड़े गहरे और बड़े जिगरे वाला है, जो बेअंत रत्नों की खान-समुंदर है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनूआ मारि निरमल पदु चीनिआ हरि रस रते अधिकाई ॥ एकस बिनु मै अवरु न जानां सतिगुरि बूझ बुझाई ॥६॥
मूलम्
मनूआ मारि निरमल पदु चीनिआ हरि रस रते अधिकाई ॥ एकस बिनु मै अवरु न जानां सतिगुरि बूझ बुझाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनूआ = अनुचित मन, गलत राह पर पड़ा हुआ मन। मारि = (विकारों की अंश) मार के। पदु = आत्मिक दर्जा। चीन्हिआ = चीनह्या, पहचान लिया। अधिकाई = बहुत। सतिगुरि = गुरु ने। बूझ = समझ।6।
अर्थ: गुरु ने मुझे बख्श दी है, (अब) एक परमात्मा के बिना मैं किसी और को (उस जैसा) नहीं जानता, अब मैं प्रभु के नाम-रंग में बहुत रंगा गया हूँ, मन (में से विकारों की अंश) मार के मैंने पवित्र आत्मिक दर्जे से गहरी सांझ डाल ली है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरु अनाथु अजोनी गुरमति एको जानिआ ॥ सुभर भरे नाही चितु डोलै मन ही ते मनु मानिआ ॥७॥
मूलम्
अगम अगोचरु अनाथु अजोनी गुरमति एको जानिआ ॥ सुभर भरे नाही चितु डोलै मन ही ते मनु मानिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य, अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = अ+गो+चरु, जिस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। अनाथु = जिसके ऊपर और कोई मालिक पति नही, अपने आप का आप ही मालिक। मन ही ते = मन से ही अपने अंदर से ही। मानिआ = पतीज गया, टिक गया।7।
अर्थ: गुरु की मति ले के सिर्फ उस प्रभु के साथ ही गहरी सांझ डाली है जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं, जो स्वयं ही अपना खसम-मालिक है, और जो जूनियों में नहीं आता। (इस सांझ की इनायत से) मेरी ज्ञान-इंद्रिय (नाम-रस से) नाको-नाक भर गई हैं, अब मेरा मन (माया की तरफ) डोलता नहीं है, अपने अंदर ही टिक गया है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी अकथउ कथीऐ कहउ कहावै सोई ॥ नानक दीन दइआल हमारे अवरु न जानिआ कोई ॥८॥२॥
मूलम्
गुर परसादी अकथउ कथीऐ कहउ कहावै सोई ॥ नानक दीन दइआल हमारे अवरु न जानिआ कोई ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। अकथउ = जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। कथीऐ = कहा जा सकता, स्मरण किया जा सकता है। कहउ = मैं कहता हूँ, मैं महिमा करता हूँ। सोई = वह प्रभु स्वयं ही। कहावै = महिमा करता है। दइआल = हे दयालु!।8।
अर्थ: परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है। गुरु की कृपा से ही उसका स्मरण किया जा सकता है। मैं तब ही उसकी महिमा कर सकता हूँ जब वह स्वयं ही महिमा करवाता है।
हे नानक! (कह:) हे मेरे दीन दयालु प्रभु! मुझे तेरे जैसा और कोई नहीं दिखता, मैंने तेरे साथ ही सांझ डाली है।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ३ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ३ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे हरि कै नामि वडाई ॥ हरि बिनु अवरु न जाणा कोई हरि कै नामि मुकति गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे हरि कै नामि वडाई ॥ हरि बिनु अवरु न जाणा कोई हरि कै नामि मुकति गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! हरि कै नामि = हरि के नाम में (जुड़ने से)। वडाई = इज्जत। न जाणा = मैं नहीं जानता। मुकति = विकारों से मुक्ति। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन परमात्मा के नाम में (जुड़ने से लोक-परलोक का) सम्मान मिलता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मैं किसी और के साथ गहरी सांझ नहीं डालता। प्रभु के नाम से ही विकारों से मुक्ति और ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि भउ भंजनु जमकाल निखंजनु हरि सेती लिव लाई ॥ हरि सुखदाता गुरमुखि जाता सहजे रहिआ समाई ॥१॥
मूलम्
सबदि भउ भंजनु जमकाल निखंजनु हरि सेती लिव लाई ॥ हरि सुखदाता गुरमुखि जाता सहजे रहिआ समाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = (गुरु के) शब्द से। भउ भंजन = डर नाश करने वाला हरि। जमकाल निखंजनु = मौत (आत्मिक मौत) नाश करने वाला प्रभु। सेती = साथ। लिव = लगन। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। जाता = जाना जाता है, गहरी सांझ डाली जा सकती है। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से डर दूर करने वाला और आत्मिक मौत नाश करने वाला हरि मिल जाता है, परमात्मा के साथ लगन लग जाती है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से सारे सुख देने वाले हरि के साथ सांझ बन जाती है, (गुरु की शरण पड़ के मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगतां का भोजनु हरि नाम निरंजनु पैन्हणु भगति बडाई ॥ निज घरि वासा सदा हरि सेवनि हरि दरि सोभा पाई ॥२॥
मूलम्
भगतां का भोजनु हरि नाम निरंजनु पैन्हणु भगति बडाई ॥ निज घरि वासा सदा हरि सेवनि हरि दरि सोभा पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजन = माया के मोह की कालिख) निर्लिप। पैनणु = पोशाक। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु चरणों में। सेवनि = सेवते हैं, स्मरण करते हैं। दरि = दर पे।2।
अर्थ: हे भाई! निर्लिप हरि-नाम (ही) भक्त जनों (की आत्मा) की खुराक है, प्रभु की भक्ति उनके वास्ते पोशाक है और इज्जत है। जो मनुष्य सदा प्रभु का स्मरण करते हैं, वे प्रभु-चरणों में टिके रहते हैं, परमात्मा के दर पर उनको इज्जत मिलती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख बुधि काची मनूआ डोलै अकथु न कथै कहानी ॥ गुरमति निहचलु हरि मनि वसिआ अम्रित साची बानी ॥३॥
मूलम्
मनमुख बुधि काची मनूआ डोलै अकथु न कथै कहानी ॥ गुरमति निहचलु हरि मनि वसिआ अम्रित साची बानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। अकथु = वह प्रभु जिसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। कहानी = महिमा। निहचलु = अटल, अडोल। मनि = मन में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। साची बानी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की बुद्धि होछी होती है, उसका मन (माया में) डोलता रहता है, वह कभी अकथ प्रभु की महिमा नहीं करता। हे भाई! गुरु की मति पर चलने से मनुष्य अडोल-चिक्त हो जाता है, उसके मन में परमात्मा आ बसता है, उसके मन में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल बसता है, सदा-स्थिर प्रभु की महिमा बसती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन के तरंग सबदि निवारे रसना सहजि सुभाई ॥ सतिगुर मिलि रहीऐ सद अपुने जिनि हरि सेती लिव लाई ॥४॥
मूलम्
मन के तरंग सबदि निवारे रसना सहजि सुभाई ॥ सतिगुर मिलि रहीऐ सद अपुने जिनि हरि सेती लिव लाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरंग = लहरें, दौड़ भाग। सबदि = शब्द से। निवारे = दूर होते हैं। रसना = जीभ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मिलि = मिल के। सद = सदा। जिनि = जिस (गुरु) ने।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द की इनायत से मन की तरंगों (की बेवजह की उड़ान, दौड़ भाग) दूर कर ली जाती हैं (मन रसों-कसों के पीछे नहीं दौड़ता)। हे भाई! अपने गुरु (के चरणों) में जुड़े रहना चाहिए, क्योंकि (उस) गुरु ने अपनी तवज्जो सदा परमात्मा में जोड़ रखी है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु सबदि मरै ता मुकतो होवै हरि चरणी चितु लाई ॥ हरि सरु सागरु सदा जलु निरमलु नावै सहजि सुभाई ॥५॥
मूलम्
मनु सबदि मरै ता मुकतो होवै हरि चरणी चितु लाई ॥ हरि सरु सागरु सदा जलु निरमलु नावै सहजि सुभाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। मरै = स्वै भाव दूर करता है। ता = तब। मुकतो = मुक्त, विकारों से स्वतंत्र। लाई = लगा के। सरु = तालाब। सागरु = समुंदर। निरमलु = पवित्र। नावै = स्नान करता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाई = सुभाय, प्रेम में।5।
अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य का) मन गुरु के शब्द के द्वारा स्वै भाव दूर करता है तब (वह मनुष्य) प्रभु के चरणों में चिक्त जोड़ के विकारों के पँजे में से निकल जाता है। हे भाई! परमात्मा (मानो, ऐसा) सरोवर है समुंदर है (जिसका) जल पवित्र रहता है, (जो मनुष्य इसमें) स्नान करता है, वह आत्मिक अडोलता में प्रेम में लीन रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदु वीचारि सदा रंगि राते हउमै त्रिसना मारी ॥ अंतरि निहकेवलु हरि रविआ सभु आतम रामु मुरारी ॥६॥
मूलम्
सबदु वीचारि सदा रंगि राते हउमै त्रिसना मारी ॥ अंतरि निहकेवलु हरि रविआ सभु आतम रामु मुरारी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वीचारि = मन में बसा के। रंगि = प्रेम में। राते = रंगे हुए। मारी = मार के। निहकेवल = शुद्ध स्वरूप परमात्मा। रविआ = व्यापक। सभु = हर जगह। आतमरामु = परमात्मा। मुरारी = (मुर+अरि) वाहिगुरु।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने मन में बसा के (और, शब्द की इनायत से अपने अंदर से) अहंकार और तृष्णा को खत्म करके सदा (प्रभु के) प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, उनके अंदर शुद्ध-स्वरूप हरि आ बसता है, (उनको) हर जगह परमात्मा ही दिखता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक सेवि रहे सचि राते जो तेरै मनि भाणे ॥ दुबिधा महलु न पावै जगि झूठी गुण अवगण न पछाणे ॥७॥
मूलम्
सेवक सेवि रहे सचि राते जो तेरै मनि भाणे ॥ दुबिधा महलु न पावै जगि झूठी गुण अवगण न पछाणे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि रहे = सेवा भक्ति करते रहते हैं। सचि = सदा स्थिर नाम में। तेरै मनि = तेरे मन में। भाणे = अच्छे लगते हैं। दुबिधा = दो चिक्तापन, मेर तेर। महलु = प्रभु चरणों में जगह। जगि = जगत में।7।
अर्थ: पर, हे प्रभु! वही सेवक तेरी सेवा-भक्ति करते हैं और तेरे सदा-स्थिर नाम में रंगे रहते हैं, जो तुझे प्यारे लगते हैं। हे भाई! मेर-तेर (द्वैत भाव) में फसी हुई जीव-स्त्री परमात्मा के चरणों में जगह नहीं ले सकती, वह दुनियां में भी अपना ऐतबार गवाए रखती है, वह ये नहीं पहचान सकती कि जो कुछ मैं कर रही हूँ वह अच्छा है या बुरा।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मेलि लए अकथु कथीऐ सचु सबदु सचु बाणी ॥ नानक साचे सचि समाणे हरि का नामु वखाणी ॥८॥१॥
मूलम्
आपे मेलि लए अकथु कथीऐ सचु सबदु सचु बाणी ॥ नानक साचे सचि समाणे हरि का नामु वखाणी ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। अकथु = वह प्रभु जिसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। कथीऐ = महिमा की जा सकती है। सचु सबदु सचु बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। साचे साचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में सदा ही। वखाणी = उचार के।8।
अर्थ: हे भाई! जब प्रभु स्वयं ही अपने चरणों में जोड़े, तब ही उस अकथ प्रभु की महिमा की जा सकती है, तब ही उसका सदा-स्थिर शब्द उसकी सदा-स्थिर वाणी का उच्चारण किया जा सकता है। हे नानक! (जिनको प्रभु स्वयं अपने चरणों से जोड़ता है; वे मनुष्य) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के सदा ही उस सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं।8।1।
[[1234]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ३ ॥ मन मेरे हरि का नामु अति मीठा ॥ जनम जनम के किलविख भउ भंजन गुरमुखि एको डीठा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ३ ॥ मन मेरे हरि का नामु अति मीठा ॥ जनम जनम के किलविख भउ भंजन गुरमुखि एको डीठा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अति = बहुत। किलविख = पाप। भउ = डर। किलविख भंजन = पापों का नाश करने वाला। भउ भंजन = डर दूर करने वाला प्रभु। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (जिस मनुष्य को) गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम बहुत प्यारा लगने लग जाता है, वह मनुष्य अनेकापें जन्मों के पाप और दुख नाश करने वाले प्रभु को ही (हर जगह) देखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि कोटंतर के पाप बिनासन हरि साचा मनि भाइआ ॥ हरि बिनु अवरु न सूझै दूजा सतिगुरि एकु बुझाइआ ॥१॥
मूलम्
कोटि कोटंतर के पाप बिनासन हरि साचा मनि भाइआ ॥ हरि बिनु अवरु न सूझै दूजा सतिगुरि एकु बुझाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = किले। कोटि = करोड़ों। कोटि कोटंतरु के = करोड़ों शरीर किलों के, करोड़ों जन्मों के। साचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में। सतिगुरि = गुरु ने। बुझाइआ = समझ बख्शी।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) सतिगुरु ने एक परमात्मा की समझ बख्श दी, उसको परमात्मा के बिना और कोई दूसरा (कहीं बसता) नहीं सूझता, करोड़ों जन्मों के पाप नाश करने वाला सदा-स्थिर प्रभु ही उसको (अपने) मन में प्यारा लगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेम पदारथु जिन घटि वसिआ सहजे रहे समाई ॥ सबदि रते से रंगि चलूले राते सहजि सुभाई ॥२॥
मूलम्
प्रेम पदारथु जिन घटि वसिआ सहजे रहे समाई ॥ सबदि रते से रंगि चलूले राते सहजि सुभाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन घटि = जिनके हृदय में। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। सबदि = शब्द में। से = वह (बहुवचन)। रंगि चलूले = रंग में गूढ़े रंगे हुए। सुभाई = सुभाय, प्रेम में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में (प्रभु का) अमूल्य प्रेम आ बसता है, वे सदा आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। गुरु के शब्द-रंग में गाढ़े रंगे हुए वे मनुष्य आत्मिक अडोलता और प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसना सबदु वीचारि रसि राती लाल भई रंगु लाई ॥ राम नामु निहकेवलु जाणिआ मनु त्रिपतिआ सांति आई ॥३॥
मूलम्
रसना सबदु वीचारि रसि राती लाल भई रंगु लाई ॥ राम नामु निहकेवलु जाणिआ मनु त्रिपतिआ सांति आई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। सबदु वीचारि = शब्द को मन में बसा के। रसि = रस में। रंगु = प्रेम। निहकेवलु = शुद्ध स्वरूप प्रभु। जाणिआ = सांझ डाल ली। त्रिपतिआ = तृप्त हो गया, अघा गया।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द मन में बसा के जिस मनुष्य की जीभ नाम के स्वाद में गिझ जाती है, नाम-रंग लगा के गाढ़ी रंगी जाती है, वह मनुष्य शुद्ध-स्वरूप हरि के नाम के साथ गहरी सांझ डाल लेता है, उसका मन (माया के प्रति) तृप्त हो जाता है, उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडित पड़्हि पड़्हि मोनी सभि थाके भ्रमि भेख थके भेखधारी ॥ गुर परसादि निरंजनु पाइआ साचै सबदि वीचारी ॥४॥
मूलम्
पंडित पड़्हि पड़्हि मोनी सभि थाके भ्रमि भेख थके भेखधारी ॥ गुर परसादि निरंजनु पाइआ साचै सबदि वीचारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़ि = पढ़ के। सभि = सारे। भ्रमि = भटकना में पड़ के। परसादि = कृपा से। निरंजनु = निर्लिप प्रभु। साचै सबदि = सच्चे शब्द में, सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। वीचारी = विचारता है, मन में बसाता है।4।
अर्थ: पर, हे भाई! पण्डित लोग (वेद आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के थक जाते हैं, समाधियाँ लगाने वाले (समाधियां लगा-लगा के) थक जाते हैं, भेखधारी मनुष्य धार्मिक भेखों में भटक-भटक के थक जाते हैं (उनको हरि-नाम की दाति प्राप्त नहीं होती)। जो मनुष्य गुरु की कृपा से सदा-स्थिर प्रभु के शब्द में तवज्जो जोड़ता है वह मनुष्य निर्लिप प्रभु का मिलाप हासिल कर लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवा गउणु निवारि सचि राते साच सबदु मनि भाइआ ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाईऐ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥५॥
मूलम्
आवा गउणु निवारि सचि राते साच सबदु मनि भाइआ ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाईऐ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवागउणु = जनम मरन का चक्कर (आवा = आना, पैदा होना। गउणु = जाना, मरना)। निवारि = दूर कर के। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। साच सबदु = सदा स्थिर प्रभु का शब्द, सदा स्थिर हरि की महिमा। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगा। पाईऐ = प्राप्त करते हैं। जिनि = जिस (गुरु) ने। आपु = स्वै भाव।5।
अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) ने (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर किया हुआ है, उस गुरु की शरण पड़ कर (ही) सदा आत्मिक आनंद मिलता है। जिस मनुष्यों को सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाला गुरु-शब्द मन में प्यारा लगता है, वह (गुरु-शब्द की इनायत से) जनम-मरण के चक्कर मिटा के सदा-स्थिर प्रभु (के नाम-रंग) में रंगे रहते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचै सबदि सहज धुनि उपजै मनि साचै लिव लाई ॥ अगम अगोचरु नामु निरंजनु गुरमुखि मंनि वसाई ॥६॥
मूलम्
साचै सबदि सहज धुनि उपजै मनि साचै लिव लाई ॥ अगम अगोचरु नामु निरंजनु गुरमुखि मंनि वसाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु के शब्द से। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर। मनि = मन में। साचै = सदा कायम रहने वाले हरि में। लिव = लगन। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के मोह की कालिख से रहित, निर्लिप। गुरमुखि = गुरु से। मंनि = मनि, मन में।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ के अपने मन में सदा-स्थिर प्रभु में तवज्जो जोड़े रखता है, (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हो जाती है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही अगम्य (पहुँच से परे) अगोचर और निर्लिप प्रभु का नाम अपने मन में बसाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस महि सभु जगतो वरतै विरला एकु पछाणै ॥ सबदि मरै ता सभु किछु सूझै अनदिनु एको जाणै ॥७॥
मूलम्
एकस महि सभु जगतो वरतै विरला एकु पछाणै ॥ सबदि मरै ता सभु किछु सूझै अनदिनु एको जाणै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकस महि = एक (प्रभु) में ही। पछाणे = समझ लेता है, सांझ डालता है। सबदि = शब्द से। मरै = स्वै भाव दूर करे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (गुरु के सन्मुख रहने वाला ही) कोई विरला मनुष्य एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है (और समझ लेता है कि) सारा संसार एक परमात्मा (के हुक्म) में ही काम कर रहा है। जब कोई मनुष्य गुरु के शब्द के माध्यम से (अपने अंदर से) आपा-भाव दूर करता है, तब उसको (ये) सारी सूझ आ जाती है, तबवह हर वक्त सिर्फ परमात्मा के साथ ही गहरी सांझ डाले रखता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो नदरि करे सोई जनु बूझै होरु कहणा कथनु न जाई ॥ नानक नामि रते सदा बैरागी एक सबदि लिव लाई ॥८॥२॥
मूलम्
जिस नो नदरि करे सोई जनु बूझै होरु कहणा कथनु न जाई ॥ नानक नामि रते सदा बैरागी एक सबदि लिव लाई ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वही। होरु = कोई और तरीका (समझने का)। नामि = नाम में। बैरागी = वैरागवान। सबदि = शब्द में। लिव = लगन। लाई = लगा के।8।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वही (जीवन का सही रास्ता) समझता है (प्रभु की मेहर के बिना कोई) और (रास्ता) बताया नहीं जा सकता। हे नानक! (हरि की कृपा से ही) प्रभु की महिमा वाले गुरु-शब्द में तवज्जो जोड़ के हरि-नाम में मगन रहने वाले मनुष्य (दुनिया के मोह से) सदा निर्लिप रहते हैं।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ३ ॥ मन मेरे हरि की अकथ कहाणी ॥ हरि नदरि करे सोई जनु पाए गुरमुखि विरलै जाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला ३ ॥ मन मेरे हरि की अकथ कहाणी ॥ हरि नदरि करे सोई जनु पाए गुरमुखि विरलै जाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अकथ = बयान करने से कभी ना खत्म होने वाली। कहाणी = कहानी, गुणों का वर्णन, महिमा। नदरि = मेहर की निगाह। सोई = वही। गुरमुखि विरलै = गुरु के सन्मुख रहने वाले किसी विरले मनुष्य ने। जाणी = जान ली है, कद्र समझी है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की कृपा करता है वही मनुष्य प्रभु की कभी ना समाप्त होने वाली महिमा (की दाति) हासिल करता है। गुरु के सन्मुख रहने वाले किसी विरले मनुष्य ने (इसकी) महानता समझी है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि गहिर ग्मभीरु गुणी गहीरु गुर कै सबदि पछानिआ ॥ बहु बिधि करम करहि भाइ दूजै बिनु सबदै बउरानिआ ॥१॥
मूलम्
हरि गहिर ग्मभीरु गुणी गहीरु गुर कै सबदि पछानिआ ॥ बहु बिधि करम करहि भाइ दूजै बिनु सबदै बउरानिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीरु = बड़े जिगरे वाला। गुणी गहीरु = सारे गुणों का खजाना। कै सबदि = के शब्द से। बहु बिधि = कई तरीकों से। करहि = करते हैं। भाइ दूजै = (प्रभु के बिना) किसी और प्यार में (टिके रह के)। बउरानिआ = कमले।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से ये बात समझ में आती है कि परमात्मा बड़े ही गहरे जिगरे वाला है और सारे गुणों का खजाना है। जो मनुष्य (प्रभु के बिना) और-और के प्यार में (टिके रह के) कई तरीकों से (निहित हुए धार्मिक) कर्म (भी) करते हैं, वे मनुष्य गुरु के शब्द के बिना झल्ले (पागल) ही रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि नामि नावै सोई जनु निरमलु फिरि मैला मूलि न होई ॥ नाम बिना सभु जगु है मैला दूजै भरमि पति खोई ॥२॥
मूलम्
हरि नामि नावै सोई जनु निरमलु फिरि मैला मूलि न होई ॥ नाम बिना सभु जगु है मैला दूजै भरमि पति खोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम (-जल) में। नावै = स्नान करता है। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। मूलि न = बिल्कुल नहीं। सभु जगु = सारा जगत। दूजै भरमि = और-और भटकना में। पति = इज्जत। खोई = गवा लेता है।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-जल) में (आत्मिक) स्नान करता रहता है, वही मनुष्य पवित्र (जीवन वाला) होता है, वह दोबारा कभी भी (विकारों की मैल से) मैला नहीं होता। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना सारा जगत (पापों की मैल से) लिबड़ा रहता है, अन्य भटकनों में पड़ कर अपनी इज्जत गवा लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ द्रिड़ां किआ संग्रहि तिआगी मै ता बूझ न पाई ॥ होहि दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ नामो होइ सखाई ॥३॥
मूलम्
किआ द्रिड़ां किआ संग्रहि तिआगी मै ता बूझ न पाई ॥ होहि दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ नामो होइ सखाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिढ़ां = मैं (अपने मन में) पक्की करूँ, दृढ़ करूँ। संग्रहि = इकट्ठी कर के। तिआगी = मैं त्याग दूँ, मैं छोड़ दूँ। बूझ = समझ। होहि = अगर तू हो जाए। करि = कर के। हरि जीउ = हे प्रभु जी! नामो = नाम ही। सखाई = मित्र।3।
अर्थ: हे प्रभु! मैं कौन सी बात अपने मन में दृढ़ कर लूँ; कौन से गुण (हृदय में) एकत्र कर के कौन से अवगुण त्याग दूँ? - मुझे अपने आप तो समझ नहीं आ सकती। हे प्रभु जी! मेहर कर के अगर तू (स्वयं मेरे ऊपर) दयावान हो जाए (तब ही मुझे समझ आती है कि तेरा) नाम ही असल साथी बनता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा सचु दाता करम बिधाता जिसु भावै तिसु नाइ लाए ॥ गुरू दुआरै सोई बूझै जिस नो आपि बुझाए ॥४॥
मूलम्
सचा सचु दाता करम बिधाता जिसु भावै तिसु नाइ लाए ॥ गुरू दुआरै सोई बूझै जिस नो आपि बुझाए ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा सचु = सदा ही कायम रहने वाला। करम बिधाता = (जीवों के किए) कर्मों अनुसार, (जीवों को) जन्म देने वाला। नाइ = नाम में। गुरू दुआरै = गुरु के दर पर आ के, गुरु से।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सदा ही कायम रहने वाला है, जो सब दातें देने वाला है, उसको जो जीव प्यारा लगता है उसको अपने नाम से जोड़ता है। गुरु के दर पर आ के वही मनुष्य (जीवन का सही रास्ता) समझता है जिसको प्रभु स्वयं समझ बख्शता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि बिसमादु इहु मनु नही चेते आवा गउणु संसारा ॥ सतिगुरु सेवे सोई बूझै पाए मोख दुआरा ॥५॥
मूलम्
देखि बिसमादु इहु मनु नही चेते आवा गउणु संसारा ॥ सतिगुरु सेवे सोई बूझै पाए मोख दुआरा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = देख के। बिसमादु = हैरान करने वाला जगत तमाशा। नही चेते = प्रभु को याद नहीं करता। आवागउणु = जनम मरन (का चक्कर)। संसारा = संसार चक्र। सोई = वही मनुष्य। मोख दुआरा = विकारों से मुक्ति का राह।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन यह हैरान कर देने वाला जगत-तमाशा देख के परमात्मा को याद नहीं करता, उसके लिए जनम-मरण का चक्कर संसार-चक्र बना रहता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वही (जीवन का सही रास्ता) समझता है, वही विकारों से मुक्ति का रास्ता पाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह दरु सूझै से कदे न विगाड़हि सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ सचु संजमु करणी किरति कमावहि आवण जाणु रहाई ॥६॥
मूलम्
जिन्ह दरु सूझै से कदे न विगाड़हि सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ सचु संजमु करणी किरति कमावहि आवण जाणु रहाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन्ह = जिनको। दरु = प्रभु का दरवाजा। से = वे (बहुवचन)। विगाड़हि = (अपना जीवन) बिगाड़ते। सतिगुरि = गुरु ने। बूझ = सूझ, सूझ। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का प्रयत्न। करणी किरति = करने योग्य काम। रहाई = समाप्त हो जाता है।6।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु ने (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श दी, जिनको परमात्मा का दरवाजा दिखाई दे गया, वे कभी भी (विकारों में अपना जीवन) खराब नहीं करते। वे मनुष्य हरि-नाम स्मरण और विकारों से बचे रहने का प्रयत्न आदि कर्तव्य करते रहते हैं, (इस तरह उनका) जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।6।
[[1235]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
से दरि साचै साचु कमावहि जिन गुरमुखि साचु अधारा ॥ मनमुख दूजै भरमि भुलाए ना बूझहि वीचारा ॥७॥
मूलम्
से दरि साचै साचु कमावहि जिन गुरमुखि साचु अधारा ॥ मनमुख दूजै भरमि भुलाए ना बूझहि वीचारा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह लोग। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। साचु कमावहि = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करते हें। अधारा = आसरा। साचु = सदा स्थिर हरि नाम। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भुलाए = गलत राह पर पड़े हुए।7।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु के द्वारा सदा-स्थिर हरि-नाम का आसरा मिल जाता है, वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पे (चरणों में) टिक के सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करते हें। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया की भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, उनको (आत्मिक जीवन वाली सही) विचार नहीं सूझती।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे गुरमुखि आपे देवै आपे करि करि वेखै ॥ नानक से जन थाइ पए है जिन की पति पावै लेखै ॥८॥३॥
मूलम्
आपे गुरमुखि आपे देवै आपे करि करि वेखै ॥ नानक से जन थाइ पए है जिन की पति पावै लेखै ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। करि = कर के। आपे = आप ही। थाइ पए = स्वीकार हो गए। पति = इज्जत। पावै लेखै = लेखे में डालता है, स्वीकार करता है।8।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (जीव को) गुरु की शरण में डाल के स्वयं ही (अपने नाम की दाति) देता है, स्वयं ही (ये सारा तमाशा) कर-कर के देखता है। हे नानक! वही व्यक्ति स्वीकार होते हैं, जिनकी इजजत प्रभु स्वयं ही रखता है।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ५ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुसाईं परतापु तुहारो डीठा ॥ करन करावन उपाइ समावन सगल छत्रपति बीठा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुसाईं परतापु तुहारो डीठा ॥ करन करावन उपाइ समावन सगल छत्रपति बीठा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुसाई = हे गो+साई! हे धरती के मालिक! परतापु = समरथा। करन करावन = तू सब कुछ करने योग्य और जीवों से करवाने की समर्थता वाला है। उपाइ = पैदा कर के। समावन = समा लेने वाला। सगल = सब जीवों का। छत्रपति = राजा। बीठा = बैठा हुआ है, व्यापक है।1। रहाउ।
अर्थ: हे जगत के पति! (मैंने) तेरी (अजब) ताकत सामर्थ्य देखी है। तू सब कुछ कर सकने योग्य है, (जीवों से) करवा सकने में समर्थ है, तू (जगत) पैदा करके फिर इसको अपने आप में लीन कर लेने वाला है। तू सब जीवों पर बादशाह (बन के) बैठा हुआ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राणा राउ राज भए रंका उनि झूठे कहणु कहाइओ ॥ हमरा राजनु सदा सलामति ता को सगल घटा जसु गाइओ ॥१॥
मूलम्
राणा राउ राज भए रंका उनि झूठे कहणु कहाइओ ॥ हमरा राजनु सदा सलामति ता को सगल घटा जसु गाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राउ = राजा। रंका = कंगाल। उनि = उन्होंने। सलामति = कायम रहने वाला। ता को जसु = उसका यश। सगल घटा = सारे शरीरों ने।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु की रजा अनुसार) राजे बादशाह कंगाल हो जाते हैं। उन राजाओं ने तो अपने आप को झूठा ही राजा कहलिवाया। हे भाई! हमारा प्रभु-पातशाह सदा कायम रहने वाला है। सारे ही जीवों ने उसका (सदा) यश गाया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपमा सुनहु राजन की संतहु कहत जेत पाहूचा ॥ बेसुमार वड साह दातारा ऊचे ही ते ऊचा ॥२॥
मूलम्
उपमा सुनहु राजन की संतहु कहत जेत पाहूचा ॥ बेसुमार वड साह दातारा ऊचे ही ते ऊचा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपमा = महिमा, बड़ाई। संतहु = हे संत जनो! जेत कहत = जो उपमा करते हैं। पाहूचा = (उसके चरणों में) पहुँच जाते हैं।2।
अर्थ: हे संत जनो! उस प्रभु-पातशाह की महिमा सुनो। जितने भी जीव उसकी बड़ाई कहते हैं वे उसके चरणों में पहुँचते हैं। उसकी ताकत का अंदाजा नहीं लग सकता, सब जीवों को दातें देने वाला वह बड़ा शाहु है, वह ऊँचों से ऊँचा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवनि परोइओ सगल अकारा पावक कासट संगे ॥ नीरु धरणि करि राखे एकत कोइ न किस ही संगे ॥३॥
मूलम्
पवनि परोइओ सगल अकारा पावक कासट संगे ॥ नीरु धरणि करि राखे एकत कोइ न किस ही संगे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवनि = पवन से, प्राणों से, श्वासों से। अकारा = जगत, शरीर। पावक = आग। कासट = काठ, लकड़ी। संगे = साथ। नीरु = पानी। धरणि = धरती। एकत = एक जगह, इकट्ठे। संगे = साथ।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सारे शरीरों को श्वासों की हवा के साथ परो के रखा हुआ है, उसने आग को लकड़ी के साथ बाँध रखा है। उसने पानी और धरती एक साथ रखे हुए हैं। (इनमें से) कोई किसी के साथ (वैर नहीं कर सकता। पानी धरती को डूबाता नहीं, आग काठ को जलाती नहीं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि कथा राजन की चालै घरि घरि तुझहि उमाहा ॥ जीअ जंत सभि पाछै करिआ प्रथमे रिजकु समाहा ॥४॥
मूलम्
घटि घटि कथा राजन की चालै घरि घरि तुझहि उमाहा ॥ जीअ जंत सभि पाछै करिआ प्रथमे रिजकु समाहा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में राजन की = प्रभु पातशाह की। तुझहि = तेरे ही (दर्शन की)। उमाहा = चाव, उत्साह। सभि = सारे। पाछै = पीछे से, बाद में। प्रथमे = पहले। समाहा = पहुँचा।4।
अर्थ: हे भाई! उस प्रभु-पातशाह की महिमा की कहानी हरेक के शरीर में चल रही है। हे प्रभु! हरेक हृदय में तेरे मिलाप के लिए उत्साह है। तू सारे जीवों को बाद में पैदा करता है, पहले उनके लिए रिज़क पहुँचाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करणा सु आपे करणा मसलति काहू दीन्ही ॥ अनिक जतन करि करह दिखाए साची साखी चीन्ही ॥५॥
मूलम्
जो किछु करणा सु आपे करणा मसलति काहू दीन्ही ॥ अनिक जतन करि करह दिखाए साची साखी चीन्ही ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु ने) आप ही। मसलति = सलाह, मश्वरा। काहू = किस ने? दीनी = दीन्ही, दी। करि = कर के। करह = हम करते हैं। दिखाए = दिखाए। साखी = शिक्षा, सबक। चीनी = चीन्ही, पहचानी, समझी।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘करह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मैंने यह अटल सबक सीख लिया है (कि परमात्मा का प्रताप बेअंत है) जो कुछ वह करता है वह स्वयं ही करता है, किसी ने कभी उसको कोई सलाह नहीं दी। हम जीव चाहे (अपनी बुद्धि के प्रगटावे के लिए) दिखावे के अनेक यत्न करते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि भगता करि राखे अपने दीनी नामु वडाई ॥ जिनि जिनि करी अवगिआ जन की ते तैं दीए रुड़्हाई ॥६॥
मूलम्
हरि भगता करि राखे अपने दीनी नामु वडाई ॥ जिनि जिनि करी अवगिआ जन की ते तैं दीए रुड़्हाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि राखे अपने = अपने बना के रक्षा की। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। अवगिआ = निरादरी। ते = वे (बहुवचन)। तै = तू। दीए रुढ़ाई = रोढ़ दिए, मोह के समुंदर में डुबो दिए।6।
अर्थ: हे भाई! (ये परमात्मा का प्रताप है कि) परमातमा अपने भक्तों की अपना बना के रक्षा करता है, भक्तों को अपना नाम बख्शता है, बड़ाई देता है। हे प्रभु! जिस-जिस ने कभी तेरे भगतों की निरादरी की, तूने उनको (विकारों के समुंदर में) बहा दिया।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकति भए साधसंगति करि तिन के अवगन सभि परहरिआ ॥ तिन कउ देखि भए किरपाला तिन भव सागरु तरिआ ॥७॥
मूलम्
मुकति भए साधसंगति करि तिन के अवगन सभि परहरिआ ॥ तिन कउ देखि भए किरपाला तिन भव सागरु तरिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकति भए = विकारों से बच निकले। करि = कर के। सभि = सारे। परहरिआ = दूर कर दिए। कउ = को। देखि = देख के। किरपाला = दयावान। भव सागरु = संसार समुंदर।7।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत कर के (विकारी भी) विकारों से बच निकले, प्रभु ने उनके सारे अवगुण नाश कर दिए। गुरु की संगति में आने वालों को देख के प्रभु जी सदा मेहरवान होते हैं, और, वे लोग संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम नान्हे नीच तुम्हे बड साहिब कुदरति कउण बीचारा ॥ मनु तनु सीतलु गुर दरस देखे नानक नामु अधारा ॥८॥१॥
मूलम्
हम नान्हे नीच तुम्हे बड साहिब कुदरति कउण बीचारा ॥ मनु तनु सीतलु गुर दरस देखे नानक नामु अधारा ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाने = नान्हे, बहुत छोटे। साहिब = मालिक। कुदरति = ताकत, सामर्थ्य। कुदरति कउण = क्या ताकत है? बीचारा = मैं विचार सकूँ (तेरा प्रताप)। गुर दरस = गुरु का दर्शन। आधारा = आसरा।8।
अर्थ: हे मालिक-प्रभु! तू बहुत बड़ा है, हम जीव (तेरे सामने) बहुत ही छोटे और तुच्छ से (कीट समान) हैं। मेरी क्या ताकत है कि तेरे प्रताप का अंदाजा लगा सकूँ? हे नानक! कह: गुरु के दर्शन करके मनुष्य का मन-तन ठंडा-ठार हो जाता है, और, मनुष्य को प्रभु का नाम-आसरा मिल जाता है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला ५ असटपदी घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग महला ५ असटपदी घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगाधि सुनहु जन कथा ॥ पारब्रहम की अचरज सभा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अगम अगाधि सुनहु जन कथा ॥ पारब्रहम की अचरज सभा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम कथा = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु की महिमा। अगाधि = अथाह। जन = हे जनो! अचरज = आश्चर्यजनक, हैरान कर देने वाली। सभा = कचहरी, दरबार।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह परमात्मा की महिमा सुना करो। उस परमात्मा का दरबार हैरान करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा सतिगुर नमसकार ॥ गुर किरपा ते गुन गाइ अपार ॥ मन भीतरि होवै परगासु ॥ गिआन अंजनु अगिआन बिनासु ॥१॥
मूलम्
सदा सदा सतिगुर नमसकार ॥ गुर किरपा ते गुन गाइ अपार ॥ मन भीतरि होवै परगासु ॥ गिआन अंजनु अगिआन बिनासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर नमसकार = गुरु को सिर झुकाओ। ते = से, के द्वारा। गुन अपार गाइ = बेअंत प्रभु के गुण गा के। परगासु = रोशनी। गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा। अगिआन = आत्मिक जीवन प्रति बेसमझी।1।
अर्थ: हे संत जनो! सदा ही गुरु के दर पर सिर झुकाया करो। गुरु की मेहर से बेअंत प्रभु के गुण गा के मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश पैदा हो जाता है, (गुरु से मिला हुआ) आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा आत्मिक जीवन के प्रति अज्ञानता का नाश कर देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिति नाही जा का बिसथारु ॥ सोभा ता की अपर अपार ॥ अनिक रंग जा के गने न जाहि ॥ सोग हरख दुहहू महि नाहि ॥२॥
मूलम्
मिति नाही जा का बिसथारु ॥ सोभा ता की अपर अपार ॥ अनिक रंग जा के गने न जाहि ॥ सोग हरख दुहहू महि नाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिति = हद बंदी, अंदाजा, माप। जा का = जिस (परमात्मा) का। बिसथारु = जगत पसारा। अपर = परे से परे (अ+पर)। रंग = करिश्मे। सोग = गम। हरख = खुशी।2।
अर्थ: हे संत जनो! जिस परमात्मा का (यह सारा) जगत-पसारा (बनाया हुआ) है उस (की सामर्थ्य) की सीमा को नहीं आँका जा सकता उस प्रभु की बड़ाई बेअंत है बेअंत है। हे संत जनो! जिस परमात्मा के अनेक ही करिश्मे-तमाशे हैं, जो गिने नहीं जा सकते, वह परमात्मा खुशी और ग़मी दोनों से परे रहता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक ब्रहमे जा के बेद धुनि करहि ॥ अनिक महेस बैसि धिआनु धरहि ॥ अनिक पुरख अंसा अवतार ॥ अनिक इंद्र ऊभे दरबार ॥३॥
मूलम्
अनिक ब्रहमे जा के बेद धुनि करहि ॥ अनिक महेस बैसि धिआनु धरहि ॥ अनिक पुरख अंसा अवतार ॥ अनिक इंद्र ऊभे दरबार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहमे = कई ब्रहमा (बहुवचन)। जा के = जिस (प्रभु) के पैदा किए हुए। करहि = करते हैं। धुनि करहि = उचारते हें (ध्वनि = आवाज)। महेस = महेश, शिव। बैसि = बैठ के। अंसा = अंश, कुछ हिस्सा। अंसा अवतार = वह अवतार जिनमें परमात्मा की थोड़ी सी आत्मिक ताकत अवतरित हुई हो। अवतार = उतरे हुए, अवतरित हुए। ऊभे = खड़े हुए।3।
अर्थ: हे संत जनो! (उस प्रभु का दरबार हैरान कर देने वाला है) जिसके पैदा किए हुए अनेक ही ब्रहमा गण, (उसके दर पर) वेदों का उच्चारण कर रहे हैं, अनेक ही शिव बैठ के उसका ध्यान धर रहे हैं, और अनेक ही छोटे-छोटे उसके अवतार है, अनेक ही इन्द्र और देवतागण उसके दर पर खड़े रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक पवन पावक अरु नीर ॥ अनिक रतन सागर दधि खीर ॥ अनिक सूर ससीअर नखिआति ॥ अनिक देवी देवा बहु भांति ॥४॥
मूलम्
अनिक पवन पावक अरु नीर ॥ अनिक रतन सागर दधि खीर ॥ अनिक सूर ससीअर नखिआति ॥ अनिक देवी देवा बहु भांति ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवन = हवा। पावक = आग। अरु = और (अरि = वैरी)। नीर = पानी। सागर = समुंदर। दधि = दही। खीर = दूध। सूर = सूरज। ससीअर = शशधर, चंद्रमा। नखिआति = तारे, नक्षत्र। बहु भांति = कई किस्मों के।4।
अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है, उसके पैदा किए हुए) अनेक ही हवा पानी और आग (आदि) हैं, (उसके पैदा किए हुए) अनेक ही रत्नों के, दही के, दूध के समुंदर हैं। (उसके बनाए हुए) अनेक ही सूर्य चँद्रमा और तारे हैं, और कई किस्मों के अनेक ही देवियाँ और देवतागण हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक बसुधा अनिक कामधेन ॥ अनिक पारजात अनिक मुखि बेन ॥ अनिक अकास अनिक पाताल ॥ अनिक मुखी जपीऐ गोपाल ॥५॥
मूलम्
अनिक बसुधा अनिक कामधेन ॥ अनिक पारजात अनिक मुखि बेन ॥ अनिक अकास अनिक पाताल ॥ अनिक मुखी जपीऐ गोपाल ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसुधा = धरती। कामधेन = (धेनु = गाय) मनों कामना पूरी करने वाली गउएं। पारजात = स्वर्ग का एक वृक्ष जो मन माँगी मुरादें पूरी करने वाला माना जाता है। मुखि = मुँह में। बेन = बाँसुरी। मुखि बेन = मुँह में बाँसुरी रखने वाला, कृष्ण। मुखी = मुँह से। जपीऐ = जपा जा रहा है।5।
अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार आश्चर्यजनक है, उसके पैदा की हुई) अनेक धरतियाँ और अनेक ही मनोकामना पूरी करने वाली स्वर्ग की गउएं हैं, अनेक ही पारजात वृक्ष और अनेक ही कृष्ण हैं, अनेक ही आकाश और अनेक ही पाताल हैं। हे संत जनो! उस गोपाल को अनेक ही मुँहों द्वारा जपा जा रहा है। (अनेक जीव उसका नाम जपते हैं)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक सासत्र सिम्रिति पुरान ॥ अनिक जुगति होवत बखिआन ॥ अनिक सरोते सुनहि निधान ॥ सरब जीअ पूरन भगवान ॥६॥
मूलम्
अनिक सासत्र सिम्रिति पुरान ॥ अनिक जुगति होवत बखिआन ॥ अनिक सरोते सुनहि निधान ॥ सरब जीअ पूरन भगवान ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगति = तरीका, ढंग। बखिआन = व्याख्यान, उपदेश। सरोते = श्रोते, सुनने वाले। सुनहि = सुनते हैं (बहुवचन)। निधान = खजाना हरि। सरब जीअ = सब जीवों में। पूरन = व्यापक।6।
अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है,) अनेक शास्त्रों-स्मृतियों और पुराणों के द्वारा अनेक (ढंग) -तरीकों से (उसके गुणों का) उपदेश हो रहा है। हे संत जनो! अनेक ही सुनने वाले उस गुणों के खजाने प्रभु की तारीफ सुना रहे हैं। हे संत जनो! वह भगवान सारे ही जीवों में व्यापक है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक धरम अनिक कुमेर ॥ अनिक बरन अनिक कनिक सुमेर ॥ अनिक सेख नवतन नामु लेहि ॥ पारब्रहम का अंतु न तेहि ॥७॥
मूलम्
अनिक धरम अनिक कुमेर ॥ अनिक बरन अनिक कनिक सुमेर ॥ अनिक सेख नवतन नामु लेहि ॥ पारब्रहम का अंतु न तेहि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरम = धर्मराज। कुमेर = कुबेर, धन का देवता। बरन = वरुण, समुंदर का देवता। कनिक = सोना। सेख = शेशनाग। नवतन = नया। लेहि = लेते हैं। तेहि = उन्होंने।7।
अर्थ: (हे संत जनो! उस परमात्मा के पैदा किए हुए) अनेक धर्मराज हैं अनेक ही धन के देवता कुबेर हैं, अनेक समुंदर के देवता वरुण हैं और अनेक ही सोने के सुमेर पर्वत है, अनेक ही उसके बनाए हुए शेशनाग हैं जो (हर रोज उसका) नया ही नाम लेते हैं। हे संत जनो! उनमें से किसी ने भी उसके (के गुणों) का अंत नहीं पाया।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक पुरीआ अनिक तह खंड ॥ अनिक रूप रंग ब्रहमंड ॥ अनिक बना अनिक फल मूल ॥ आपहि सूखम आपहि असथूल ॥८॥
मूलम्
अनिक पुरीआ अनिक तह खंड ॥ अनिक रूप रंग ब्रहमंड ॥ अनिक बना अनिक फल मूल ॥ आपहि सूखम आपहि असथूल ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तह = वहाँ। खंड = धरतियों के टोटे। बना = जंगल। आपहि = आप ही। सूखम = सूक्ष्म, अदृश्य। असथूल = स्थूल, दृश्यमान।8।
अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है, उसके पैदा किए हुए) अनेक रूपों-रंगों के ब्रहमंड हैं अनेक पुरीयाँ हैं। उसके पैदा किए हुए अनेक जंगल और उनमें उगने वाले अनेक किस्मों के फल और कंद-मूल हें। वह परमात्मा ही स्वयं ही अदृश्य है, वह स्वयं ही इस दिखाई देते जगत-तमाशे के रूप में दृश्यमान है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जुगादि दिनस अरु राति ॥ अनिक परलउ अनिक उतपाति ॥ अनिक जीअ जा के ग्रिह माहि ॥ रमत राम पूरन स्रब ठांइ ॥९॥
मूलम्
अनिक जुगादि दिनस अरु राति ॥ अनिक परलउ अनिक उतपाति ॥ अनिक जीअ जा के ग्रिह माहि ॥ रमत राम पूरन स्रब ठांइ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगादि = जुग आदि। परलउ = जगत का नाश। उतपाति = उत्पक्ति, पैदायश। जीअ = जीव। रमत = व्यापक। स्रब ठांइ = सब जगहों में।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा के बनाए हुए अनेक ही युग आदिक हैं, अनेक ही दिन हैं और अनेक ही रातें हैं। वह अनेक बार जगत का नाश करता है और अनेक बार जगत-उत्पक्ति करता है। हे संतजनो! (वह परमात्मा ऐसा गृहस्थी है) कि उसके घर में अनेक ही जीव हैं, वह सब जगहों में व्यापक है सब जगहों में मौजूद है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक माइआ जा की लखी न जाइ ॥ अनिक कला खेलै हरि राइ ॥ अनिक धुनित ललित संगीत ॥ अनिक गुपत प्रगटे तह चीत ॥१०॥
मूलम्
अनिक माइआ जा की लखी न जाइ ॥ अनिक कला खेलै हरि राइ ॥ अनिक धुनित ललित संगीत ॥ अनिक गुपत प्रगटे तह चीत ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा की = जिस (परमात्मा) की (रची हुई)। लखी न जाइ = समझी नहीं जा सकती। कला = ताकत। हरि राइ = प्रभु पातशाह। ललित = सुंदर। धुनित = धुनियां हो रही हैं। गुपत चीत = चित्र गुप्त। तह = वहां।, उसके दरबार में।10।
अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है) जिस की (रची हुई) अनेक रंगों की माया समझी नहीं जा सकती, वह प्रभु-पातशाह अनेक करिश्मे रच रहा है। (उसके दर पर) अनेक सुरीले रागों की धुनियां चल रही हैं। वहँ अनेक ही चित्र-गुप्त प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ ते ऊच भगत जा कै संगि ॥ आठ पहर गुन गावहि रंगि ॥ अनिक अनाहद आनंद झुनकार ॥ उआ रस का कछु अंतु न पार ॥११॥
मूलम्
सभ ते ऊच भगत जा कै संगि ॥ आठ पहर गुन गावहि रंगि ॥ अनिक अनाहद आनंद झुनकार ॥ उआ रस का कछु अंतु न पार ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा के संगि = जिस के साथ, जिसके दर पर। गावहि = गाते हैं। रंगि = प्रेम से। अनाहद = बिना बजाए बज रहे। झुनकार = मीठी आवाज। उआ का = उसका।11।
अर्थ: हे संत जनो! वह परमात्मा सबसे ऊँचा है जिसके दर पर अनेक भक्त प्रेम से आठों पहर उसकी महिमा के गीत गाते रहते हैं। उसके दर पर बिना बजाए बाजे बज रहे साजों की मीठी सुर का आनंद बना रहता है, उस आनंद का अंत अथवा परला छोर नहीं पाया जा सकता (वह आनंद अमुक है)।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति पुरखु सति असथानु ॥ ऊच ते ऊच निरमल निरबानु ॥ अपुना कीआ जानहि आपि ॥ आपे घटि घटि रहिओ बिआपि ॥ क्रिपा निधान नानक दइआल ॥ जिनि जपिआ नानक ते भए निहाल ॥१२॥१॥२॥२॥३॥७॥
मूलम्
सति पुरखु सति असथानु ॥ ऊच ते ऊच निरमल निरबानु ॥ अपुना कीआ जानहि आपि ॥ आपे घटि घटि रहिओ बिआपि ॥ क्रिपा निधान नानक दइआल ॥ जिनि जपिआ नानक ते भए निहाल ॥१२॥१॥२॥२॥३॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम। निरबानु = वासना रहित। जानहि = तू जानता है। आपे = आप ही। घटि घटि = हरेक घट में। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! दइआल = हे दया के घर! जिनि = जिस जिस ने। ते = वे सारे। निहाल = प्रसन्न चिक्त।12।
अर्थ: हे संत जनो! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, उसका स्थान भी अटल है। वह ऊँचों से ऊँचा है, पवित्र-स्वरूप है, वासना-रहित है।
हे नानक! (कह:) हे प्रभु! अपने रचे (जगत) को तू स्वयं ही जानता है, तू स्वयं ही हरेक शरीर में मौजूद है। हे दया के खजाने! हे दया के श्रोत! जिस जिस ने (तेरा नाम) जपा है, वह सब प्रसन्न-चिक्त रहते हैं।12।1।2।2।3।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारग छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥ घटि घटि पूरन है अलिपाता ॥ घटि घटि पूरनु करि बिसथीरनु जल तरंग जिउ रचनु कीआ ॥ हभि रस माणे भोग घटाणे आन न बीआ को थीआ ॥ हरि रंगी इक रंगी ठाकुरु संतसंगि प्रभु जाता ॥ नानक दरसि लीना जिउ जल मीना सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥१॥
मूलम्
सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥ घटि घटि पूरन है अलिपाता ॥ घटि घटि पूरनु करि बिसथीरनु जल तरंग जिउ रचनु कीआ ॥ हभि रस माणे भोग घटाणे आन न बीआ को थीआ ॥ हरि रंगी इक रंगी ठाकुरु संतसंगि प्रभु जाता ॥ नानक दरसि लीना जिउ जल मीना सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि में। देखीऐ = दिखता है। अनभै = अनभय पद, वह अवस्था जिसमें कोई डर नहीं रह जाता। घटि घटि = हरेक शरीर में। अलिपाता = निर्लिप। पूरनु = व्यापक। करि = कर के। बिसथीरनु = जगत पसारा। तरंग = लहरें। रचनु कीआ = रचना रची है। हभि = सारे। घटाणे = हरेक घट में। आन = और। बीआ = दूसरा। को = कोई भी। रंगी = सब रंगों का रचने वाला। इक रंगी = एक रस व्यापक। संगि = संगति में। जाता = जाना जाता है। दरसि = दर्शन में। मीना = मछली।1।
अर्थ: हे भाई! निर्भयता की अवस्था देने वाला प्रभु सारी सृष्टि में बसता दिख रहा है। वह प्रभु हरेक शरीर में व्यापक है, फिर भी निर्लिप रहता है। जैसे पानी की लहरों (में पानी मौजूद है) परमात्मा जगत-रचना का खिलारा रच के स्वयं हरेक शरीर में व्यापक है। हरेक शरीर में व्यापक हो के वह सारे रस भोगता है, (उसके बिना कहीं भी) कोई दूसरा नहीं है।
हे भाई! सब रंगों का रचने वाला वह मालिक-हरि एक-रस सबमें व्यापक है। संत-जनों की संगति में टिक के उस प्रभु के साथ सांझ डाली जा सकती है। हे नानक! मैं उसके दर्शन में इस तरह लीन रहता हूँ जैसे मछली पानी में। निर्भयता का दान देने वाला वह प्रभु सारी सृष्टि में दिखाई दे रहा है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कउन उपमा देउ कवन बडाई ॥ पूरन पूरि रहिओ स्रब ठाई ॥ पूरन मनमोहन घट घट सोहन जब खिंचै तब छाई ॥ किउ न अराधहु मिलि करि साधहु घरी मुहतक बेला आई ॥ अरथु दरबु सभु जो किछु दीसै संगि न कछहू जाई ॥ कहु नानक हरि हरि आराधहु कवन उपमा देउ कवन बडाई ॥२॥
मूलम्
कउन उपमा देउ कवन बडाई ॥ पूरन पूरि रहिओ स्रब ठाई ॥ पूरन मनमोहन घट घट सोहन जब खिंचै तब छाई ॥ किउ न अराधहु मिलि करि साधहु घरी मुहतक बेला आई ॥ अरथु दरबु सभु जो किछु दीसै संगि न कछहू जाई ॥ कहु नानक हरि हरि आराधहु कवन उपमा देउ कवन बडाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपमा = (मा = मापना। उपमा = किसी के बराबर का कोई बताना) बराबर के बताने का उद्यम। देउ = दो, मैं दूँ। कउन उपमा देउ = मैं क्या बताऊँ कि उस जैसा और कौन है? मैं उसकी कोई बराबरी नहीं बता सकता। पूरन = व्यापक। स्रब ठाई = सब जगह। मन मोहन = मन को मोहने वाला। घट घट सोहण = हरेक शरीर को सुंदर बनाने वाला। खिंचे = खींच लेता है। छाई = राख, कुछ भी नहीं रह जाता।
मिलि करि = मिल के। साधहु = हे संत जनो! घरी मुहतक = घड़ी आधी घड़ी तक। बेला = (यहाँ से चले जाने का) वक्त। दरबु = द्रव्य, धन। अरथु दरबु = धन पदार्थ। संगि = साथ। जाई = जाता।2।
अर्थ: हे संत जनो! मैं उस परमात्मा के बराबर किसी को भी नहीं बता सकता। वह कितना बड़ा है; यह भी नहीं बता सकता। वह सर्व व्यापक है, सब जगह मौजूद है। वह प्रभु सर्व-व्यापक है, सबके मनों की आकर्षित करने वाला है, सब शरीरों को (अपनी ज्योति से) सुंदर बनाने वाला है। जब वह अपनी ज्योति खींच लेता है, तब कुछ भी नहीं रह जाता।
हे संत जनो! घड़ी आधी घड़ी को (हरेक जीव का यहाँ से चले जाने का) वक्त आ ही जाता है, फिर क्यों ना मिल के उसके नाम की आराधना करो? हे संत जनो! धन-पदार्थ ये सब कुछ जो दिखाई दे रहा है, कोई भी चीज़ (किसी के) साथ नहीं जाती। हे नानक! कह: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। मैं उसके बराबर का किसी को नहीं बता सकता। वह कितना बड़ा है; यह भी नहीं बता सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूछउ संत मेरो ठाकुरु कैसा ॥ हींउ अरापउं देहु सदेसा ॥ देहु सदेसा प्रभ जीउ कैसा कह मोहन परवेसा ॥ अंग अंग सुखदाई पूरन ब्रहमाई थान थानंतर देसा ॥ बंधन ते मुकता घटि घटि जुगता कहि न सकउ हरि जैसा ॥ देखि चरित नानक मनु मोहिओ पूछै दीनु मेरो ठाकुरु कैसा ॥३॥
मूलम्
पूछउ संत मेरो ठाकुरु कैसा ॥ हींउ अरापउं देहु सदेसा ॥ देहु सदेसा प्रभ जीउ कैसा कह मोहन परवेसा ॥ अंग अंग सुखदाई पूरन ब्रहमाई थान थानंतर देसा ॥ बंधन ते मुकता घटि घटि जुगता कहि न सकउ हरि जैसा ॥ देखि चरित नानक मनु मोहिओ पूछै दीनु मेरो ठाकुरु कैसा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूछउ = मैं पूछता हूँ। संत = हे संत! हे गुरु! कैसा = किस तरह का? हींउ = हृदय, मन। अरापउ = अर्पित करूँ, मैं भेट करता हूँ। सदेसा = संदेशा, खबर। कह = कहाँ? मोहन परवेसा = मोहन प्रभु का ठिकाना। पूरन = सर्व व्यापक। ब्रहमाई = ब्रहम। पूरन ब्रहमाई = पूरन ब्रहम। थान थानंतर = थान थान अंतर, सब जगहों में। ते = से। मुकता = आजाद। घटि घटि = हरेक शरीर में। जुगता = मिला हुआ। कहि न सकउ = कह ना सकूँ, मैं बता नहीं सकता। जैसा = जिस तरह का। देखि = देख के। चरित = चोज तमाशे। पूछै = पूछता है। दीनु = गरीब सेवक।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु से) मैं पूछता हूँ- हे गुरु! मेरा मालिक प्रभु किस प्रकार का है? मुझे (ठाकुर की) खबर बता, मैं अपना हृदय (तेरे चरणों में) भेटा करता हूँ। हे गुरु! मुझे बता कि प्रभु जी किस तरह के हैं और उस मोहन-प्रभु का ठिकाना कहाँ है।
(आगे से उक्तर मिलता है:) वह पूर्ण प्रभु सब जगहों में सब देशों में सुख देने वाला है और (हरेक जीव के) अंग-संग बसता है। प्रभु हरेक शरीर में मिला हुआ है (फिर भी मोह के) बंधनो से आजाद है। पर जिस प्रकार का वह प्रभु है मैं बता नहीं सकता। हे नानक! (कह:) उसके चोज-तमाशे देख के मेरा मन (उसके प्यार में) मोहा गया है।
हे भाई! गरीब दास पूछता है: हे गुरु! बता, मेरा मालिक-प्रभु किस प्रकार का है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥ धंनि सु रिदा जिह चरन बसाइआ ॥ चरन बसाइआ संत संगाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥ भइआ प्रगासु रिदै उलासु प्रभु लोड़ीदा पाइआ ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि वूठा महा अनंद सहजाइआ ॥ कहु नानक मै पूरा पाइआ करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥४॥१॥
मूलम्
करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥ धंनि सु रिदा जिह चरन बसाइआ ॥ चरन बसाइआ संत संगाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥ भइआ प्रगासु रिदै उलासु प्रभु लोड़ीदा पाइआ ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि वूठा महा अनंद सहजाइआ ॥ कहु नानक मै पूरा पाइआ करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। अपुने पहि = अपने (सेवक) के पास। धंनि = भाग्यशाली। रिदा = हृदय। जिह = जिस (मनुष्य) ने। संत संगाइआ = साधु-संगत में (रह के)। अगिआन अंधेरु = आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा। प्रगासु = रौशनी। रिदै = हृदय में। उलासु = उल्लास, खुशी। लोड़ीदा = जिसको चिरों से माँग रहे थे। नाठा = भाग गया। घर महि = हृदय घर में। वूठा = आ बसा। सहजाइआ = आत्मिक अडोलता का। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु मेहर करके अपने सेवक के पास (स्वयं) आ जाता है। जो मनुष्य प्रभु के चरणों को अपने हृदय में बसा लेता है, उसका हृदय भाग्यशाली होता है।
हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में (टिक के) प्रभु के चरण (अपने हृदय में) बसा लेता है, वह (अपने अंदर से) आत्मिक जीवन की तरफ से अज्ञानता का अंधेरा दूर कर लेता है। (उसके अंदर) आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, उसके हृदय में सदा उत्साह बना रहता है (क्योंकि) जिस प्रभु को पाने की वह चिरकाल से अभिलाषा कर रहा था उसको मिल जाता है। उसके अंदर से दुख दूर हो जाता है, उसके हृदय-घर में सुख आ बसता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता का आनंद पैदा हो जाता है।
हे नानक! कह: मैंने भी वह पूरन-प्रभु पा लिया है। वह तो मेहर करके अपने सेवक के पास स्वयं ही आ जाता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग की वार महला ४ राइ महमे हसने की धुनि
मूलम्
सारंग की वार महला ४ राइ महमे हसने की धुनि
दर्पण-भाव
क भाव:
पउड़ी-वार:
परमात्मा ने ये जगत-खेल अपने-आप से पैदा की है, त्रै-गुणी माया और उसका मोह भी उसने खुद ही बनाया है। जो मनुष्य गुरु-दर पे आ के उसकी रज़ा में चलते हैं वे माया के मोह से बच जाते हैं।
ये खेल भी उसी की है कि किसी मनुष्य को उसने गुरमुख बना दिया है जो गुरु के शब्द की इनायत से प्रभु को मन में बसाता है और माया के अंधकार में ठोकरें नहीं खाता।
यह भी उसी की रज़ा है कि कई मनुष्य मन के मुरीद हैं, वे सदा कपट की कमाई करते हैं और पुत्र-स्त्री के मोह में फस के भटकते दुखी होते हैं।
गुरमुख तमन्ना से सदा नाम जपता हैऔर मन-पंछी को वश में रखता है, इसकी इनायत से वह सुख भोगता है क्योंकि ‘नाम’ सुखों का खजाना है।
गुरमुख मनुष्य उठते-बैठते हर वक्त प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ के रखता है, ‘नाम’ उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, ‘नाम’ में जुड़ के ही उसको सुख प्रतीत होता है।
नाम में तवज्जो जोड़ना ही गुरमुख के लिए ऊँची कुल वाली इज्जत है। नाम में तवज्जो जोड़ने से ही उसके अंदर प्रफुल्लता और शांति उपजती है, माया के ओर से वह तृप्त रहता है और नाम जपने का चाव उसके मन में पैदा होता है।
नाम में तवज्जो जोड़ने से गुरमुख को ना करामाती ताकतों की लालसा रहती है ना ही धन-पदार्थ की। माया, मानो, उसकी दासी बन जाती है; संतोख और अडोलता में वह महिमा की मौज लेता है।
नाम में तवज्जो जोड़ने से गुरमुख का मन पवित्र हो जाता है, मनुष्य जीवन का असल भेद वह समझ लेता है, सदा खिले-माथे रहता है, ना पाप और ना ही मौत का डर कोई उसके नजदीक फटकता है।
अगर नाम-स्मरण में मन लग जाए तो जीवन का सही रास्ता साफ-स्पष्ट दिखाई दे जाता है, कोई अड़चन नहीं आती, मन में सुख उपजता है और यह यकीन बन जाता है कि ‘स्मरण’ ही सही रास्ता है।
स्मरण में लगे हुए मन वाले लोगों की कुलें और साथी भी माया के असर से बच जाते हैं। जिन्होंने नाम में मन जोड़ लिया उनकी दुख और माया वाली भूख मिट जाती है।
नाम में लगन लगने से अच्छी मति चमक उठती है, अहंकार दूर हो जाता है, नाम स्मरण का चाव पैदा हो जाता है और मन में शांति आ बसती है।
अगर स्मरण में मन जुड़ जाए तो नाम में लिव लगती है, प्रभु की महिमा वाली आदत बन जाती है, विकारों की तरफ से रुचि हट जाती है, यह यकीन बन जाता है कि नाम-जपना ही जीवन का सही रास्ता है।
प्रभु हर जगह बस रहा है, हमारे अंदर भी मौजूद है, पर पूरा गुरु ही यह दीदार करवा सकता है, और गुरु मिलता है प्रभु की मेहर से।
शरीर पर राख लगाई हुई हो, गोदड़ी, झोली आदि साधुओं वाला भेस बनाया हुआ हो, पर मन में माया का अंधकार हो, वह मनुष्य स्मरण से वंचित रह के, मानो, जूए में बाज़ी हार के जाता है।
अंदर मैल कपट और झूठ हो, पर बाहर से शरीर को (तीर्थों आदि पर) स्नान करवाता रहे, इस तरह अंदरूनी कपट छुप नहीं सकता। हरेक जीव को अपने किए कर्मों का फल खाना ही पड़ता है।
नीम का अंदरूनी कड़वापन बाहर से अमृत से धोने पर नहीं जाता, साँप की डंक मारने वाली आदत दूध पिलाने से दूर नहीं होती, पत्थर का अंदरूनी कोरा-पन बाहरी स्नान से नहीं मिटता, वैसे ही मनमुख का हाल समझो।
मनमुख की एक ‘निंदा’ की आदत को ही ले लें- लोगों में बदनामी कमाता है, उसका मुँह भ्रष्ट हुआ रहता है, ज्यों-ज्यों किसी भले मनुष्य की निंदा करके उसकी शोभा कम करने का प्रयत्न करता है, उसके अपने अंदरूनी गुण नष्ट होते चले जाते हैं; निंदा की आदत वह छोड़ता नहीं और दिन-ब-दिन ज्यादा दुखी होता है।
गुरु के सन्मुख हो के जिनके अंदर नाम-स्मरण का चाव पैदा हो जाता है उनको किसी जप, तप, तीथ्र, संयम की जरूरत नहीं रह जाती, उनका हृदय पवित्र हो जाता है, प्रभु के गुण गाते वह प्रभु के चरणों में जुड़े हुए सुंदर लगते हैं।
प्रभु का मिलाप सत्संग में से होता है गुरु की कृपा से; जैसे पारस को छूने से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही गुरु की छोह से प्रभु का ‘नाम’ मिल जाता है।
गुरु, मानो, अमृत का वृक्ष है, नाम-अमृत का रस गुरु से ही मिलता है; जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, उसके अंदर ईश्वरीय ज्योति जाग उठती है, वह रब के साथ एक-रूप हो जाता है, मौत का डर उसे नहीं रह जाता।
क्या अमीर और क्या गरीब, सब माया को इकट्ठा करने के आहर (काम) में लगे हुए हैं, यदि दाँव लगे तो पराया धन भी चुरा लेते हैं, माया से इतना प्यार कि पुत्र-स्त्री का भी विश्वास नहीं करते। पर यह माया अपने मोह में फसा के (आगे) चली जाती है और इसको इकट्ठा करने वाले सिसकियाँ भरते रह जाते हैं।
पर, बँदगी करने वालों के मन में धन आदि का मोह घर नहीं कर सकता, वे रब-लेखे खर्च भी करते हैं; उन्हें तोट भी नहीं आती और रहते भी सुखी हैं।
राज और बादशाही, किले और सुंदर इमारतें, सोने से सजे हुए बढ़िया घोड़े, कई किस्मों के स्वादिष्ट खाने - जो मनुष्य इनके देवनहार को बिसार के मन की मौजों में लगता है वह दुख ही पाता है।
शरीर के श्रृंगार के लिए रंग-बिरंगे रेश्मी कपड़े, बढ़िया दुलीचियों पर महफ़िलें - इनसे भी मन में शांति नहीं आ सकती, क्योंकि शांति देने वाला और दुख से बचाने वाला हरि-नाम ही है।
जो मनुष्य नाम स्मरण करते हैं, वे जगत में अटल आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं; जो असल फल जीवन में कमाना था वह फल वे कमा लेते हैं, सदा कायम रहने वाली उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं।
नाम-जपने वाले सदा प्रभु के पास बसते हैं, हर वक्त प्रभु के साथ रचे-मिचे रहते हैं, उनके मन से नाम का रंग कभी नहीं उतरता।
पर, मन का मुरीद मनुष्य नाम नहीं स्मरण करता, सदा आत्मिक मौत सहेड़ के रखता है, विकारों में लगे रहने के कारण अपने जीवन का रास्ता मुश्किल और डरावना बना लेता है।
स्मरण करने वालों पर कोई विकार दबाव नहीं डाल सकता, यमराज भी उनका आदर करता है, उनके अंदर सदा उल्लास रहता है और वे जगत में भी आदर पाते हैं।
जिनको प्रभु नाम की लगन लगाता है, वे प्रभु-दर से सदा दीदार की दाति माँगते हैं; गुरु की कृपा से उनको हर जगह प्रभु ही दिखाई देता है।
लंबी उमर समझ के मनुष्य प्रभु को बिसार के दुनियां की आशाएं बनाता रहता है, महल-माढ़ियों को सजाने में मस्त रहता हैऔर अगर वश चले तो औरों का धन ठग लेता है। मूर्ख को ये चेता ही नहीं आता कि जिंदगी की घड़ियां घटती जा रही हैं।
मनमुख तो आशा के चक्र में पड़ के दुखी होता है; पर गुरु के राह पर चलने वाला व्यक्ति आशाओं से ऊपर रहता है, सो निराशता और अफसोस उसके नजदीक नहीं फटकते, वह रज़ा में खुश रहता है।
मोह में फसा हुआ मनमुख पत्नी व पुत्रों को देख के खुश होता है, ठग-ठग के धन लाता है। पर एक तरफ तो धन से वैर-विरोध पैदा होता है, दूसरा, धन की खातिर किए पापों की मन में फिटकार पड़ती है और इस तरह दुख पाता है।
जिस मनुष्य को प्रभु की मेहर से ये समझ आ जाती है कि पत्नी-पुत्र-धन आदि का साथ नाशवान है, वह पूरे गुरु की शरण पड़ता है और प्रभु के नाम में लीन होता है।
जिसको गुरु से नाम की ख़ैर मिलती है उसका हृदय खिल उठता है, कोई उसकी प्रतियोगता (रीस) नहीं कर सकता। उसका नाम से प्यार और हृदय का उल्लास हमेशा बढ़ते जाते हैं।
‘पउड़ी महला ५’॥ जिस मनुष्य को गुरु ने प्रभु से मिला दिया, नाम उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, सत्संग की ओट ले के वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।
पूरे गुरु के शब्द से प्रभु की बड़ाई देखने वाले मनुष्य के अंदर उल्लास पैदा हो जाता है, शांति आ जाती है, उसको हर जगह प्रभु ही दिखाई देता है और वह रज़ा में प्रसन्न रहता है।
लड़ीवार भाव:
(1 से 5 तक) यह जगत-खेल प्रभु ने अपने आप से बनाई है, त्रैगुणी माया और उसका मोह भी प्रभु ने स्वयं ही रचा है। उसकी रजा में ही कोई मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के नाम स्मरण करता है और माया के अंधेरे में ठोकरें नहीं खाता, कोई मन का मुरीद हो के पत्नी-पुत्रों के मोह में फस के दुखी होता है। गुरमुख नाम-स्मरण के मन-पंछी को वश में रखता है, नाम उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है।
(6 से 13 तक) अगर नाम में तवज्जो जोड़ें तो मन में उल्लास और शांति पैदा होती है, नाम जपने का चाव पैदा होता है, संतोख वाला जीवन हो जाता है, मन पवित्र हो जाता है। अगर मन नाम-स्मरण में लग जाए तो यह यकीन बन जाता है कि नाम-जपना ही जिंदगी का सही रास्ता है, माया वाली भूख समाप्त हो जाती है, स्मरण का चाव पैदा हो जाता है, विकारों की तरफ से रुचि हट जाती है; ये सारी इनायत गुरु के द्वारा ही प्राप्त होती है।
(14 से 20) धार्मिक भेस, तीर्थ स्नान आदि निहित हुए बाहरी धार्मिक कर्म मन की मैल को दूर नहीं कर सकते। अपने मन के पीछे चलने की जगह इस मन को गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलाने से ही जिंदगी का सही रास्ता मिलता है। गुरु मनुष्य को परमात्मा के स्मरण में जोड़ता है।
(21 से 36) दुनिया की ओर ध्यान मार के देखो, लंबी उम्र समझ के हरेक मनुष्य माया इकट्ठी करने में लगा हुआ है, बेगाना हक छीनने में भी संकोच नहीं करता। पर, माया में से आत्मिक सुख नहीं मिल सकता। गुरु की कृपा से जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है, वह सुखी है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। यह दाति परमात्मा की अपनी मेहर से ही मिलती है।
मुख्य भाव:
परमात्मा की सेवा-भक्ति ही मनुष्य के जीवन का असल उद्देश्य है, आत्मिक आनंद हासिल करने का एक यही तरीका है। बेअंत धन-पदार्थ एकत्र करने से भी यह आनंद नहीं मिल सकता, क्योंकि माया का मोह तो मन को विकारों की मैल से मलीन किए जाता है। धार्मिक भेस, तीर्थ-स्नान आदि के उद्यम मन की इस मैल को दूर नहीं कर सकते। जिस पर परमात्मा मेहर करे वह गुरु की शरण पड़ कर गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा की याद में जुड़ता है।
दर्पण-टिप्पनी
‘वार’ की संरचना:
यह ‘वार’ गुरु रामदास जी की लिखी हुई है। इसमें उनकी 35 पौड़ियां हैं। सो, इस ‘वार’ की पहले 35 पौड़ियां ही थीं। पउड़ी नं: 34 के साथ पउड़ी नं. 35 गुरु अरजन साहिब ने लिख के अपनी तरफ़ से दर्ज कर दी। उस पउड़ी का शीर्षक है ‘पउड़ी महला ५’।
हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं। सारी ही ‘वार’ में सारी पौड़ियों की काव्य-चाल तकरीबन एक-किस्म की है।
इस ‘वार’ में एक अनोखी बात यह है कि हरेक पउड़ी में शब्द ‘नानक’ बरता गया है। जो पउड़ी नं: 34 गुरु अरजन साहिब ने लिख के अपनी ओर से दर्ज की है उसमें भी शब्द ‘नानक’ प्रयोग हुआ है।
महला ५ की पउड़ी नंबर ३५
यह सारी ‘वार’ तो गुरु रामदास जी की लिखी हुई है। इसमें उनकी पौड़ी नं: 34 के साथ गुरु अरजन देव जी ने पउड़ी नं: 35 अपनी तरफ से दर्ज की है। यह पउड़ी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में और कहीं नहीं है। सो, यह केवल पउड़ी नं: 34 के संबन्ध में ही लिखी गई है। पाठकों की सहूलत के लिए वह दोनों पौड़ियां नं: 34 और 35 एक साथ यहाँ दी जा रही है, ताकि पाठक स्वयं इनका गहरा संबन्ध समझ सकें;
गुर पूरे की दाति, नित देवै, चढ़ै सवाईआ॥ तुसि देवै आपि दइआलु, न छपै छपाईआ॥ हिरदे कवलु प्रगासु, उनमनि लिव लाईआ॥ जे को करे उस दी रीस, सिर छाई पाईआ॥ नानक अपड़ि कोइ न सकई, पूरे सतिगुर की वडिआईआ॥३४॥
इसके साथ ही आगे पउड़ी नं: 35 (गुरु अरजन साहिब जी)
पउड़ी महला ५॥ सचु खाणा, सचु पैनणा, सचु नामु अधारु॥ गुरि पूरै मेलाइआ प्रभू देवणहारु॥ भागु पूरा तिन् जागिआ जपिआ निरंकारु॥ साधू संगति लगिआ तरिआ संसारु॥ नानक सिफति सालाह करि प्रभ का जैकारु॥३५॥
नोट: ‘गुर पूरे की दाति’– वह कौन सी दाति है? इसका विस्तार से वेरवा गुरु अरजन देव जी वाली पौड़ी नं: 35 में है।
‘वार’ की पहली शकल:
यह ‘वार’ पहले सिर्फ ‘पउडियों’ का संग्रह था। काव्य-रचना के दृष्टिकोण से देखें, हरेक पौड़ी में पाँच-पाँच तुकें हैं, तुकों का आकार तकरीबन एक-सा है।
जिस गुरु-व्यक्ति ने ‘वार’ के अंदरूनी स्वरूप को इतने ध्यान से तैयार किया, इस ‘वार’ की हरेक पौड़ी के साथ शलोक दर्ज करने के समय भी उनके द्वारा उसी एक-सुरता की उम्मीद रखी जा सकती थी। पर शलोकों का आकार एक जैसा नहीं है, शलोकों की तुकें एक जितनी नहीं हैं।
पउड़ी नं: 26 के साथ दूसरा शलोक गुरु अरजन साहिब का है। आखिरी पउड़ी के साथ दोनों शलोक गुरु अरजन साहिब के हैं। अगर गुरु राम दास जी अपनी लिखी ‘वार’ की हरेक पौड़ी के साथ शलोक भी खुद ही दर्ज करते तो पौड़ी नं: 26 के साथ एक ही शलोक दर्ज ना करते, और आखिरी पउड़ी को खाली ना रहने देते।
दरअसल, बात यह है कि पहले ‘वार’ सिर्फ पौड़ियों का संग्रह थी। हरेक पौड़ी के साथ सलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए थे। हरेक गुरु-व्यक्ति के लिखे शलोकों के संग्रह में से ले के। उन संग्रहों में से जो सलोक बढ़ गए, वह श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर में इकट्ठे दर्ज कर दिए गए। उनका शीर्षक ही ये बात स्पष्ट कर देता है: ‘सलोक वारां ते वधीक’।
सारंग की वार महला ४ राइ महमे हसने की धुनि
महमा और हसना दो राजपूत सरदार थे; महमा कांगड़े का रहने वाला और हसना धौले का। हसने ने चालाकी से महमे को अकबर के पास कैद करवा दिया; पर महमे ने अपनी बहादुरी के कारनामे दिखा के बादशाह को प्रसन्न कर लिया और शाही फौज ले के हसने पर हमला कर दिया। काफी समय तक दोनों पक्षों में लड़ाई उपरांत महमे की जीत हुई। ढाढियों ने इस जंग की वार लिखी; इस वार की सुर पर गुरु राम दास जी की रची हुई सारंग राग की वार को गाने की हिदायत है।
उस वार में से बतौर नमूना निम्न-लिखित पौड़ी है;
महमा हसना राजपूत राइ भारे भटी॥ हसने बे–ईमानगी नाल महमे थटी॥ भेड़ दुहां दा मचिआ सर वगे सफटी॥ महम पाई फतह रण गल हसने घटी॥ बंन् हसने नूं छडिआ जस महमे खट्टी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला २ ॥ गुरु कुंजी पाहू निवलु मनु कोठा तनु छति ॥ नानक गुर बिनु मन का ताकु न उघड़ै अवर न कुंजी हथि ॥१॥
मूलम्
सलोक महला २ ॥ गुरु कुंजी पाहू निवलु मनु कोठा तनु छति ॥ नानक गुर बिनु मन का ताकु न उघड़ै अवर न कुंजी हथि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाहू = माया की पाह। निवलु = पशुओं के पैरों पर लगाने वाला ताला। ताकु = दरवाजा। उघड़ै = खुलता। अवर हथि = किसी और के हाथ में।
अर्थ: (मनुष्य का) मन (मानो) कोठा है और शरीर (इस कोठे की) छत है, (माया की) पाह (इस मन कोठे को) ताला (लगा हुआ) है, (इस ताले को खोलने के लिए) गुरु कुँजी है (भाव, मन पर से माया का प्रभाव गुरु ही दूर कर सकता है)। हे नानक! सतिगुरु के बिना मन का दरवाजा खुल नहीं सकता, और किसी और के हाथ में (इसकी) कूँजी नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ न भीजै रागी नादी बेदि ॥ न भीजै सुरती गिआनी जोगि ॥ न भीजै सोगी कीतै रोजि ॥ न भीजै रूपीं मालीं रंगि ॥ न भीजै तीरथि भविऐ नंगि ॥ न भीजै दातीं कीतै पुंनि ॥ न भीजै बाहरि बैठिआ सुंनि ॥ न भीजै भेड़ि मरहि भिड़ि सूर ॥ न भीजै केते होवहि धूड़ ॥ लेखा लिखीऐ मन कै भाइ ॥ नानक भीजै साचै नाइ ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ न भीजै रागी नादी बेदि ॥ न भीजै सुरती गिआनी जोगि ॥ न भीजै सोगी कीतै रोजि ॥ न भीजै रूपीं मालीं रंगि ॥ न भीजै तीरथि भविऐ नंगि ॥ न भीजै दातीं कीतै पुंनि ॥ न भीजै बाहरि बैठिआ सुंनि ॥ न भीजै भेड़ि मरहि भिड़ि सूर ॥ न भीजै केते होवहि धूड़ ॥ लेखा लिखीऐ मन कै भाइ ॥ नानक भीजै साचै नाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न भीजै = भीगता नहीं, प्रसन्न नहीं होता। नादी = नाद से, नाद बजाने से। बेदि = वेदों से, वेद पढ़ने से। सुरती = समाधि (लगाने) से। गिआनी = ज्ञान की बातें करने से। जोगि = जोगे साधना से। रोजि = हर रोज, सदा। रंगि = रंग तमाशे से। तीरथि = तीर्थों पर (नहाने से)। भविऐ = नंगे भटकने से। पुंनि = पुण्य करने से। सुंनि = सुंन्न अवस्था में, चुप चाप रह के। भेड़ि = युद्ध में। भिड़ि = भिड़ के, लड़ के। सूर = सूरमे। केते = कई लोग। होवहि धूड़ि = मिट्टी में लिबड़ते हैं। लेखा = हिसाब, हमारे अच्छे बुरे होने की परख। लेखा लिखीऐ = लेखा लिखा जाता है, हमारे अच्छे बुरे होने की परख की जाती है। मन कै भाइ = मन की भावना अनुसार, मन की अवस्था के अनुसार। साचै नाइ = सच्चे नाम से, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम से।
अर्थ: राग गाने से, नाद बजाने से अथवा वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ने से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता; ना ही, समाधि लगाने से ज्ञान-चर्चा करने से या जोग का कोई साधन करने से। ना ही वह प्रसन्न होता है रोज शोक मनाने से (जैसे श्रावग सरेवड़े करते हैं); रूप, माल-धन और रंग-तमाशे में व्यस्त रहने से भी प्रभु (जीव पर) खुश नहीं होता; ना ही वह भीगता है तीर्थ पर नहाने से अथवा नंगे घूमने से। दान-पुण्य करने से ईश्वर रीझता नहीं, और बाहर (जंगलों में) सुंन-मुंन बैठने से भी नहीं पसीजता।
योद्धे लड़ाई में लड़ कर मरते हैं (इस तरह भी) प्रभु प्रसन्न नहीं होता, कई लोग (राख आदि मल के) मिट्टी में लिबड़ते हैं (इस तरह भी वह) खुश नहीं होता।
हे नानक! परमात्मा प्रसन्न होता है अगर उस सदा कायम रहने वाले के नाम में (जुड़ें), (क्योंकि, जीवों के अच्छे-बुरे होने की) परख मन की भावना के अनुसार की जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ नव छिअ खट का करे बीचारु ॥ निसि दिन उचरै भार अठार ॥ तिनि भी अंतु न पाइआ तोहि ॥ नाम बिहूण मुकति किउ होइ ॥ नाभि वसत ब्रहमै अंतु न जाणिआ ॥ गुरमुखि नानक नामु पछाणिआ ॥३॥
मूलम्
महला १ ॥ नव छिअ खट का करे बीचारु ॥ निसि दिन उचरै भार अठार ॥ तिनि भी अंतु न पाइआ तोहि ॥ नाम बिहूण मुकति किउ होइ ॥ नाभि वसत ब्रहमै अंतु न जाणिआ ॥ गुरमुखि नानक नामु पछाणिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नव = नौ व्याकरण। छिअ = छह शास्त्र। खट = छह वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरुक्त, ज्योतिष)। निसि = रात। भार अठार = अठारह परवों वाला महाभारत ग्रंथ। तिनि = उसने। तोहि = तेरा। बिहूण = बगैर। मुकति = विकारों से मुक्ति। नाभि = कमल की नाभि। वसत = बसते हुए। ब्रहमै = ब्रहमा ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के, गुरु के बताए राह पर चल के।
अर्थ: जो मनुष्य (इतना विद्वान हो कि) नौ व्याकरणों, छह शास्त्रों और छह वेदांगों की विचार करे (भाव, इन पुस्तकों के अर्थ समझ ले), अठारह पर्वों वाले महाभारत ग्रंथ को दिन-रात पढ़ता रहे, उस ने भी (हे प्रभु!) तेरा अंत नहीं पाया, (तेरे) नाम के बिना मन विकारों से मुक्ति नहीं पा सकता।
कमल की नाभि में बसता ब्रहमा परमात्मा के गुणों का अंदाजा ना लगा सका। हे नानक! गुरु के बताए हुए राह पर चल के ही (प्रभु का) नाम (स्मरण का महातम) समझा जा सकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे आपि निरंजना जिनि आपु उपाइआ ॥ आपे खेलु रचाइओनु सभु जगतु सबाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिअनु माइआ मोहु वधाइआ ॥ गुर परसादी उबरे जिन भाणा भाइआ ॥ नानक सचु वरतदा सभ सचि समाइआ ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे आपि निरंजना जिनि आपु उपाइआ ॥ आपे खेलु रचाइओनु सभु जगतु सबाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिअनु माइआ मोहु वधाइआ ॥ गुर परसादी उबरे जिन भाणा भाइआ ॥ नानक सचु वरतदा सभ सचि समाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। जिनि = जिस (निरंजन) ने। आपु = अपने आप को। रचाइओनु = रचाया उसने। सिरजिअनु = सिरजे उसने। जिन = जिनको। सचि = सच में। निरंजन = (निर+अंजन) माया रहित।
अर्थ: माया-रहित प्रभु स्वयं ही (जगत का मूल) है उसने अपने आप को (जगत के रूप में) प्रकट किया है; ये सारा ही जगत-तमाशा उसने स्वयं ही रचा है।
माया के तीन गुण उसने स्वयं ही बनाए हैं (और जगत में) माया का मोह (भी उसने खुद ही) प्रबल किया है, (इस त्रै-गुणी माया के मोह में से सिर्फ) वह (जीव) बचते हैं जिस को सतिगुरु की कृपा से (प्रभु की) रज़ा मीठी लगती है।
हे नानक! सदा कायम रहने वाला प्रभु (हर जगह) मौजूद है, और सारी सृष्टि उस सदा-स्थिर में टिकी हुई है (भाव, उसके हुक्म के अंदर रहती है)।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला २ ॥ आपि उपाए नानका आपे रखै वेक ॥ मंदा किस नो आखीऐ जां सभना साहिबु एकु ॥ सभना साहिबु एकु है वेखै धंधै लाइ ॥ किसै थोड़ा किसै अगला खाली कोई नाहि ॥ आवहि नंगे जाहि नंगे विचे करहि विथार ॥ नानक हुकमु न जाणीऐ अगै काई कार ॥१॥
मूलम्
सलोक महला २ ॥ आपि उपाए नानका आपे रखै वेक ॥ मंदा किस नो आखीऐ जां सभना साहिबु एकु ॥ सभना साहिबु एकु है वेखै धंधै लाइ ॥ किसै थोड़ा किसै अगला खाली कोई नाहि ॥ आवहि नंगे जाहि नंगे विचे करहि विथार ॥ नानक हुकमु न जाणीऐ अगै काई कार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेक = अनेक, अलग अलग। धंधे = धंधे में। अगला = बहुत (धंधा)। आवहि = (जीव जगत में) आते हैं। विचे = बीच में ही, (नंगे आने और नंगे जाने के) बीच के हिस्से में ही, (भाव, यह जानते हुए भी कि जीव नंगे आते और नंगे ही चले जाते हैं)। नंगे = (भाव,) खाली हाथ। विथार = विस्तार, खिलारे। काई = कौन सी? अगै = आगे, परलोक में।
अर्थ: हे नानक! प्रभु स्वयं (जीवों को) पैदा करता है और खुद ही (इनको) अलग-अलग (स्वभाव वाले) रखता है; (पर) सब जीवों का पति एक (खुद) ही है (इसलिए) किसी जीव को बुरा नहीं कहा जा सकता।
प्रभु खुद ही सब जीवों का पति है (मालिक है), (खुद ही जीवों को) धंधों में जोड़ के (खुद ही) देख रहा है; कोई जीव (माया के धंधों से) बचा हुआ नहीं है, किसी को कम किसी को ज्यादा (धंधा उसने चिपकाया हुआ) है।
(जीव जगत में) खाली-हाथ आते हैं और खाली हाथ (यहाँ से) चले जाते हैं, ये देख के भी (माया के) पसारे पसारते जाते हैं। हे नानक! (यहाँ से जा के) परलोक में कौन सी कार (करने को) मिलेगी- (इस संबन्ध में प्रभु का) हुक्म नहीं जाना जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ जिनसि थापि जीआं कउ भेजै जिनसि थापि लै जावै ॥ आपे थापि उथापै आपे एते वेस करावै ॥ जेते जीअ फिरहि अउधूती आपे भिखिआ पावै ॥ लेखै बोलणु लेखै चलणु काइतु कीचहि दावे ॥ मूलु मति परवाणा एहो नानकु आखि सुणाए ॥ करणी उपरि होइ तपावसु जे को कहै कहाए ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ जिनसि थापि जीआं कउ भेजै जिनसि थापि लै जावै ॥ आपे थापि उथापै आपे एते वेस करावै ॥ जेते जीअ फिरहि अउधूती आपे भिखिआ पावै ॥ लेखै बोलणु लेखै चलणु काइतु कीचहि दावे ॥ मूलु मति परवाणा एहो नानकु आखि सुणाए ॥ करणी उपरि होइ तपावसु जे को कहै कहाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनसि थापि, जिनसि थापि = जिनस जिनस के (शरीर) बना के, भांति भांति के शरीर रच-रच के। उथापै = उखेड़ता है, नाश करता है। एते = इतने, कई किस्मों के। जेते जीअ = जितने भी जीव हैं, (भाव, सारे ही जीव)। अउधूती = भिखारी। आपे = आप ही। भिखिआ = भिक्षा, ख़ैर। लेखै = लेखे में, हिसाब में (भाव, गिने चुने समय के लिए है)। काइतु = क्यों? किसलिए? कीचहि = किए जाएं। कीचहि दावे = दावे किए जाएं, अपना हक जमाया जाए। मूलु = जड़, तत्व। मूलु मति = मति का मूल। परवाणा = जाना माना। करणी = व्यवहारिक जीवन, किए हुए कर्म। तपावसु = न्याय, निबेड़ा।
अर्थ: भांति-भांति के शरीर बना-बना के प्रभु स्वयं ही जीवों को (जगत में) भेजता है और (फिर यहाँ से) ले जाता है; प्रभु स्वयं ही पैदा करता है स्वयं ही नाश करता है, यह कई किसमों के (जीवों के) रूप खुद ही बनाता है।
ये सारे ही जीव (जो जगत में) चलते-फिरते हैं (यह सारे प्रभु के दर के) भिखारी हैं, प्रभु स्वयं ही इनको ख़ैर डालता है। हरेक जीव का बोलना-चालना गिने-चुने समय के लिए है, किस लिए इतने दावे किए जा रहे हैं? नानक कह के सुनाता है कि बुद्धिमक्ता की जानी-मानी सिरे की बात यही है; चाहे और जो कुछ भी कोई कहता रहे (दरअसल बात यह है कि) हरेक के अपने किए कर्मों के अनुसार निबेड़ा होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गुरमुखि चलतु रचाइओनु गुण परगटी आइआ ॥ गुरबाणी सद उचरै हरि मंनि वसाइआ ॥ सकति गई भ्रमु कटिआ सिव जोति जगाइआ ॥ जिन कै पोतै पुंनु है गुरु पुरखु मिलाइआ ॥ नानक सहजे मिलि रहे हरि नामि समाइआ ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गुरमुखि चलतु रचाइओनु गुण परगटी आइआ ॥ गुरबाणी सद उचरै हरि मंनि वसाइआ ॥ सकति गई भ्रमु कटिआ सिव जोति जगाइआ ॥ जिन कै पोतै पुंनु है गुरु पुरखु मिलाइआ ॥ नानक सहजे मिलि रहे हरि नामि समाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह गुरु की तरफ है, गुरु के सन्मुख मनुष्य। चलतु = तमाशा, खेल, करिश्मा। परगटी आइआ = प्रगट किए हैं। मंनि = मन में। सकति = माया (का प्रभाव)। भ्रमु = भटकना। सिव जोति = ईश्वरीय ज्योति। पोतै = खजाने में। गुरु पुरखु = महा पुरख सतिगुरु। जिन कै पोतै = जिनके खजाने में, जिनके भाग्यों में। पुंनु = (पिछली की) भलाई, नेक कमाई, नेकी। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। नामि = नाम में।
अर्थ: (प्रभु की जगत-रचना में) कोई मनुष्य गुरु के सन्मुख है यह करिश्मा भी उस (प्रभु) ने (ही) रचाया है (गुरमुखि मनुष्य में प्रभु ने अपने) गुण प्रकट किए हैं, (जिनकी इनायत से वह गुरमुखि) सदा सतिगुरु की वाणी उचारता है और प्रभु को मन में बसाए रखता है, उसके अंदर रूहानी-ज्योति जाग उठती है; (उसके अंदर से) माया (का अंधकार) दूर हो जाता है और भटकना समाप्त हो जाती है (भाव, जिंदगी के राह पर वह माया के अंधेरे में ठोकरें नहीं खाता)।
जिनके भाग्यों में (पिछली की) नेक कमाई है (उनको प्रभु) महापुरुष सतिगुरु मिला देता है; और, हे नानक! वे आत्मिक अडोलता में टिक के (प्रभु में) मिले रहते हैं, प्रभु के नाम में टिके रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला २ ॥ साह चले वणजारिआ लिखिआ देवै नालि ॥ लिखे उपरि हुकमु होइ लईऐ वसतु सम्हालि ॥ वसतु लई वणजारई वखरु बधा पाइ ॥ केई लाहा लै चले इकि चले मूलु गवाइ ॥ थोड़ा किनै न मंगिओ किसु कहीऐ साबासि ॥ नदरि तिना कउ नानका जि साबतु लाए रासि ॥१॥
मूलम्
सलोक महला २ ॥ साह चले वणजारिआ लिखिआ देवै नालि ॥ लिखे उपरि हुकमु होइ लईऐ वसतु सम्हालि ॥ वसतु लई वणजारई वखरु बधा पाइ ॥ केई लाहा लै चले इकि चले मूलु गवाइ ॥ थोड़ा किनै न मंगिओ किसु कहीऐ साबासि ॥ नदरि तिना कउ नानका जि साबतु लाए रासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साह वणजारिआ = शाह (-प्रभु) के (भेजे हुए) व्यापारी (जीव)। चले = (शाह की तरफ से) चल पड़े (और यहाँ जगत में आए)। लिखिआ = (किए कर्मों के अनुसार माथे पर) लिखा हुआ (लेख)। लिखे उपरि = उस लिखे लेख अनुसार। हुक्म होइ = प्रभु का हुक्म बरतता है। वसतु = (नाम रूप) वखर, वस्तु। वणजारई = वणजारों ने, व्यापारियों ने। इकि = कई जीव। साबतु = पूरी की पूरी। रासि = पूंजी, (श्वासों की) पूंजी। लाए = लगा ली, खर्च कर डाली, बरत ली।
अर्थ: शाह (प्रभु) के (भेजे हुए जो-जो जीव-) व्यापारी (शाह से) चल पड़ते हैं (और यहाँ जगत में आते हैं, उनको प्रभु उनके कर्मों के अनुसार माथे पर) लिखे हुए लेख साथ दे कर भेजता है। उस लिखे लेख के अनुसार प्रभु का हुक्म बरतता है और नाम-रूपी वखर (वस्तु, माल, असबाब) संभाल लिया जाता है। जो मनुष्य ‘नाम’ का व्यापार करते हैं उन्होंने नाम-पदार्थ हासिल कर लिया और प्राप्त करके पल्ले बाँध लिया। कई (जीव-व्यापारी यहाँ से) नफा कमा के जाते हैं, पर कई असल राशि-पूंजी भी गवा जाते हैं (दोनों पक्षों में से) कम चीज़ किसी ने नहीं माँगी (भाव, नाम-व्यापरियों को ‘नाम’ बहुत प्यारा लगता है और माया-धारी को ‘माया’)। फिर, इनमें से शाबाशी किसने ली (मेहर की नज़र किस पर हुई)?
मेहर की नज़र, हे नानक! उन पर हुई जिन्होंने (श्वासों की) सारी राशि-पूंजी (नाम का व्यापार करने में) लगा दी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ जुड़ि जुड़ि विछुड़े विछुड़ि जुड़े ॥ जीवि जीवि मुए मुए जीवे ॥ केतिआ के बाप केतिआ के बेटे केते गुर चेले हूए ॥ आगै पाछै गणत न आवै किआ जाती किआ हुणि हूए ॥ सभु करणा किरतु करि लिखीऐ करि करि करता करे करे ॥ मनमुखि मरीऐ गुरमुखि तरीऐ नानक नदरी नदरि करे ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ जुड़ि जुड़ि विछुड़े विछुड़ि जुड़े ॥ जीवि जीवि मुए मुए जीवे ॥ केतिआ के बाप केतिआ के बेटे केते गुर चेले हूए ॥ आगै पाछै गणत न आवै किआ जाती किआ हुणि हूए ॥ सभु करणा किरतु करि लिखीऐ करि करि करता करे करे ॥ मनमुखि मरीऐ गुरमुखि तरीऐ नानक नदरी नदरि करे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुड़ि = जुड़ के, (शरीर जिंद को) मिल के; (भाव, जनम ले के)। जुड़ि जुड़ि = बार बार जनम ले के। विछुड़े = (जिंद शरीर से) विछुड़ती है (भाव, जीव मरते हैं)। विछुड़ि = शरीर से अलग हो के, मर के। जीवि जीवि = कई बार पैदा हो के। आगै पाछै = अब वाले जनम से पहले का और इससे आगे। गणत = गिनती, लेखा। सभु करणा = सारा जगत। किरतु = पिछले किए कर्मों का समूह। किरतु करि = किए कर्मों के अनुसार। मरीऐ = जनम मरण के चक्कर में पड़ता है। नदरि = (मेहर की) नजर करने वाला प्रभु। करि करि, करे करे = बार बार करता जा रहा है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य।
अर्थ: आत्मा और शरीर इकट्ठे हो के विछुड़ जाते हैं, विछुड़ के फिर मिलते हैं, (भाव,) जीव पैदा होते हैं मरते हैं, मरते हैं फिर पैदा होते हैं। (ये पैदा होने-मरने का सिलसिला इतना लंबा होता है कि जीव इस चक्कर में) कईयों के पिता और कईयों के पुत्र बनते हैं, कई (बार) गुरु और चेले बनते हैं। यह लेखा गिना नहीं जा सकता कि जो कुछ अब हम इस वक्त हैं इससे पहले हमारा कौन सा जनम था और आगे कौन सा होगा।
पर, ये सारी जगत (-रचना-रूप लेखा जो लिखा जा रहा है ये जीवों के) किए कर्मों के अनुसार लिखा जाता है, कर्तार ये खेल इस तरह खेलता जा रहा है। मनमुख इस जनम-मरण के चक्र में पड़ा रहता है और गुरमुखि इसमें से पार लांघ जाता है क्योंकि, हे नानक! मेहर का मालिक प्रभु उस पर मेहर की नजर करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ मनमुखि दूजा भरमु है दूजै लोभाइआ ॥ कूड़ु कपटु कमावदे कूड़ो आलाइआ ॥ पुत्र कलत्रु मोहु हेतु है सभु दुखु सबाइआ ॥ जम दरि बधे मारीअहि भरमहि भरमाइआ ॥ मनमुखि जनमु गवाइआ नानक हरि भाइआ ॥३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ मनमुखि दूजा भरमु है दूजै लोभाइआ ॥ कूड़ु कपटु कमावदे कूड़ो आलाइआ ॥ पुत्र कलत्रु मोहु हेतु है सभु दुखु सबाइआ ॥ जम दरि बधे मारीअहि भरमहि भरमाइआ ॥ मनमुखि जनमु गवाइआ नानक हरि भाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह अपने मन की तरफ है, जो अपने मन के पीछे लगता है, मन का मुरीद, मन मर्जी वाला। दूजा भरमु = (प्रभु को छोड़ के) और तरफ की भटकना। दूजै = और तरफ ने। लोभाइआ = लुभा लिया, भरमा लिया। कूड़ो = झूठ ही। आलाइआ = बोलते हैं। कलत्रु = स्त्री। हेतु = हित। सबाइआ = सारा। दरि = दर पर, दरवाजे पर। मारीअहि = मारे जाते है, मार खाते हैं। भरमहि = भटकते हैं, ठोकरें खाते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: संस्कृत में ‘कलत्रु’ शब्द नपुंसक लिंग Neutral Gender है, पुरानी पंजाबी में पुलिंग के तौर पर इस्तेमाल किया गया है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मन के मुरीद मनुष्यों को और ही तरफ की ललक लग जाती है, उनको औरों ने भरमा लिया होता है, वे झूठ और ठगी कमाते हैं और झूठ ही (मुँह से) बोलते हैं; (उनके मन में) पुत्रों का मोह-प्यार (बसता है) (उनके मन में) स्त्री (बसती) है (और ये रास्ता) केवल दुखों का (मूल) है; (ईश्वर द्वारा) भ्रम में डाले हुए (मनमुख) ठोकरें खाते हैं, (जैसे) जम के दरवाजे पर बँधे हुए मार खा रहे हैं।
हे नानक! मन के मुरीद मनुष्य (अपनी) जिंदगी व्यर्थ गवा लेते हैं, प्रभु को ऐसे ही भाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला २ ॥ जिन वडिआई तेरे नाम की ते रते मन माहि ॥ नानक अम्रितु एकु है दूजा अम्रितु नाहि ॥ नानक अम्रितु मनै माहि पाईऐ गुर परसादि ॥ तिन्ही पीता रंग सिउ जिन्ह कउ लिखिआ आदि ॥१॥
मूलम्
सलोक महला २ ॥ जिन वडिआई तेरे नाम की ते रते मन माहि ॥ नानक अम्रितु एकु है दूजा अम्रितु नाहि ॥ नानक अम्रितु मनै माहि पाईऐ गुर परसादि ॥ तिन्ही पीता रंग सिउ जिन्ह कउ लिखिआ आदि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = (बहुवचन) वे मनुष्य। रते = रंगे हुए। अंम्रितु = अमर करने वाला जल, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। रंग सिउ = मौज से, स्वाद से। आदि = आरम्भ से, धुर से।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्यों को तेरे नाम की शोभा (करने का सौभाग्य) मिला है वे मनुष्य अपने मन में (तेरे नाम के रंग से) रंगे रहते हैं। हे नानक! (उनके लिए) एक नाम ही अमृत है और किसी चीज़ को वे अमृत नहीं मानते।
हे नानक! (यह नाम) अमृत (हरेक मनुष्य के) मन में ही है, पर मिलता है गुरु की कृपा से; जिनके भाग्यों में धुर से लिखा हुआ है; उन्होंने ही स्वाद से पीया है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
महला २ ॥ कीता किआ सालाहीऐ करे सोइ सालाहि ॥ नानक एकी बाहरा दूजा दाता नाहि ॥ करता सो सालाहीऐ जिनि कीता आकारु ॥ दाता सो सालाहीऐ जि सभसै दे आधारु ॥ नानक आपि सदीव है पूरा जिसु भंडारु ॥ वडा करि सालाहीऐ अंतु न पारावारु ॥२॥
मूलम्
महला २ ॥ कीता किआ सालाहीऐ करे सोइ सालाहि ॥ नानक एकी बाहरा दूजा दाता नाहि ॥ करता सो सालाहीऐ जिनि कीता आकारु ॥ दाता सो सालाहीऐ जि सभसै दे आधारु ॥ नानक आपि सदीव है पूरा जिसु भंडारु ॥ वडा करि सालाहीऐ अंतु न पारावारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीता = पैदा किया हुआ जीव। करे = जो पैदा करता है। सोइ = उसी को। एकी बाहरा = एक प्रभु के बिना। जिनि = जिस (कर्तार) ने। आकारु = ये दिखाई देता जगत। जि = जो। सभसै = सबको। आधारु = आसरा। सदीव = सदा ही (कायम रहने वाला)। जिसु भंडारु = जिसका खजाना। पारावारु = परला और उरला छोर, (पार+अवार)।
अर्थ: पैदा किए हुए जीव की बड़ाई करने का क्या लाभ? उस (प्रभु) की महिमा करो जो (सबको पैदा) करता है; (क्योंकि) हे नानक! उस एक प्रभु के बिना कोई और दाता नहीं है।
जिस कर्तार ने यह सारा जगत बनाया है उसकी उपमा करो, उस एक दातार के गुण गाओ जो हरेक जीव को आसरा देता है।
हे नानक! वह प्रभु स्वयं सदा ही कायम रहने वाला है, उसका खजाना भी सदा भरा रहता है। उसको बड़ा कहो, उसकी उपमा करो, उस (की महिमा बड़ाई) का अंत नहीं पाया जा सकता, इस पार और उस पार का किनारा नहीं मिल सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि का नामु निधानु है सेविऐ सुखु पाई ॥ नामु निरंजनु उचरां पति सिउ घरि जांई ॥ गुरमुखि बाणी नामु है नामु रिदै वसाई ॥ मति पंखेरू वसि होइ सतिगुरू धिआईं ॥ नानक आपि दइआलु होइ नामे लिव लाई ॥४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि का नामु निधानु है सेविऐ सुखु पाई ॥ नामु निरंजनु उचरां पति सिउ घरि जांई ॥ गुरमुखि बाणी नामु है नामु रिदै वसाई ॥ मति पंखेरू वसि होइ सतिगुरू धिआईं ॥ नानक आपि दइआलु होइ नामे लिव लाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधान = खजाना। सेविऐ = अगर सेवें, अगर स्मरण करें। पति = इज्जत। पंखेरू = पंछी। नामे = नाम में ही। गुरमुखि बाणी नामु है = गुरमुखि की वाणी प्रभु का नाम है, गुरमुख नाम ही उचारता है। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। वसि = वश में।
अर्थ: परमात्मा का नाम (सारे सुखों का) खजाना है, जो नाम स्मरण करें तो सुख मिलता है।
मैं माया-रहित प्रभु का नाम स्मरण करूँ और इज्जत से (अपने) घर में जाऊँ - (गुरमुख की सदा यही तमन्ना होती है) गुरमुख सदा नाम ही उचारता है और नाम को हृदय में बसाता है। (ज्यों ज्यों) गुरु के द्वारा (गुरमुखि) नाम स्मरण करता है, पंछी (की तरह उड़ने वाली ये) मति (उसके) वश में आ जाती है।
हे नानक! (गुरमुख पर) प्रभु स्वयं दयाल होता है और वह नाम में ही लगन लगाए रखता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला २ ॥ तिसु सिउ कैसा बोलणा जि आपे जाणै जाणु ॥ चीरी जा की ना फिरै साहिबु सो परवाणु ॥ चीरी जिस की चलणा मीर मलक सलार ॥ जो तिसु भावै नानका साई भली कार ॥ जिन्हा चीरी चलणा हथि तिन्हा किछु नाहि ॥ साहिब का फुरमाणु होइ उठी करलै पाहि ॥ जेहा चीरी लिखिआ तेहा हुकमु कमाहि ॥ घले आवहि नानका सदे उठी जाहि ॥१॥
मूलम्
सलोक महला २ ॥ तिसु सिउ कैसा बोलणा जि आपे जाणै जाणु ॥ चीरी जा की ना फिरै साहिबु सो परवाणु ॥ चीरी जिस की चलणा मीर मलक सलार ॥ जो तिसु भावै नानका साई भली कार ॥ जिन्हा चीरी चलणा हथि तिन्हा किछु नाहि ॥ साहिब का फुरमाणु होइ उठी करलै पाहि ॥ जेहा चीरी लिखिआ तेहा हुकमु कमाहि ॥ घले आवहि नानका सदे उठी जाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु सिउ = उस (प्रभु) से।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘जिसु’ ‘तिसु’ की (ु) मात्रा कई संबंधकों के साथ बनी रहती है; जैसे कि संबंधक ‘सिउ’ के साथ; पर कई संबंधकों के साथ ये ‘ु’ की मात्रा हट जाती है, जैसे कि तीसरी तुक में ‘जिस की’)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो। जाणु = अंतरजामी। चीरी = चिट्ठी, परवाना, हुक्म। ना फिरै = मोड़ी नहीं जा सकती। परवाणु = जाना माना। मीर = पातशाह। सलार = फौज के सरदार। कार = काम। हथि = हाथ में, वश में। करला = रास्ता, राह। करलै = रास्ते पर। पाहि = पड़ जाते हैं।
अर्थ: जो अंतरजामी प्रभु स्वयं ही (हरेक के दिल की) जानता है उसके आगे बोलना फबता नहीं (भाव, उसके आगे बोला नहीं जा सकता), वह जाना-माना मालिक है क्योंकि उसका हुक्म कोई मोड़ नहीं सकता। पातशाह मालिक और फौजों के सरदार सबको उसके हुक्म में चलना पड़ता है, (इस वास्ते) हे नानक! वही काम अच्छा (मानना चाहिए) जो उस प्रभु को अच्छा लगता है।
इन जीवों के वश में कुछ नहीं क्योंकि इन्होंने तो उसके हुक्म में ही चलना है, (जिस वक्त) मालिक का हुक्म होता है (ये जीव) उठ के रास्ते पर पड़ जाते हैं। जिस तरह का हुक्म लिखा हुआ आता है, (जीव) उसी तरह हुक्म की पालना करते हैं। हे नानक! (उस मालिक के) भेजे हुए (यहाँ जगत में) आ जाते हैं उसके बुलाए हुए (यहाँ से) उठ के चल पड़ते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला २ ॥ सिफति जिना कउ बखसीऐ सेई पोतेदार ॥ कुंजी जिन कउ दितीआ तिन्हा मिले भंडार ॥ जह भंडारी हू गुण निकलहि ते कीअहि परवाणु ॥ नदरि तिन्हा कउ नानका नामु जिन्हा नीसाणु ॥२॥
मूलम्
महला २ ॥ सिफति जिना कउ बखसीऐ सेई पोतेदार ॥ कुंजी जिन कउ दितीआ तिन्हा मिले भंडार ॥ जह भंडारी हू गुण निकलहि ते कीअहि परवाणु ॥ नदरि तिन्हा कउ नानका नामु जिन्हा नीसाणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बखसीऐ = बख्शी जाती है, बख्शीश के तौर पर मिलती है। पोतेदार = खजानची। भंडार = खजाने। जह भंडारी हू = जिस (हृदय-रूप) भण्डारियों में से। निकलहि = प्रकट होते हैं। ते = वे (हृदय)। कीअहि = किए जाते हैं। परवाणु = स्वीकार। नदरि = मेहर की निगाह। नीसाणु = झण्डा।
अर्थ: वही मनुष्य असल खजानों के मालिक हैं, जिनको प्रभु की महिमा (प्रभु के दर से) बख्शिश के तौर पर मिली है; जिनको प्रभु (नाम के खजाने की) कूँजी खुद देता है उनको (महिमा के) खजानों के खजाने मिल जाते हैं। (फिर इस महिमा की इनायत से) जिस (हृदय-रूप) खजानों में से (प्रभु के) गुण निकलते हैं वे (प्रभु के दर पर) स्वीकार किए जाते हैं।
हे नानक! जिनके पास प्रभु का नाम (-रूप) झण्डा है, उन पर मेहर की निगाह होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नामु निरंजनु निरमला सुणिऐ सुखु होई ॥ सुणि सुणि मंनि वसाईऐ बूझै जनु कोई ॥ बहदिआ उठदिआ न विसरै साचा सचु सोई ॥ भगता कउ नाम अधारु है नामे सुखु होई ॥ नानक मनि तनि रवि रहिआ गुरमुखि हरि सोई ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नामु निरंजनु निरमला सुणिऐ सुखु होई ॥ सुणि सुणि मंनि वसाईऐ बूझै जनु कोई ॥ बहदिआ उठदिआ न विसरै साचा सचु सोई ॥ भगता कउ नाम अधारु है नामे सुखु होई ॥ नानक मनि तनि रवि रहिआ गुरमुखि हरि सोई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजन) माया रहित। निरमला = मल रहित, पवित्र। सुणिऐ = अगर सुनें। मंनि = मनि, मन में। जनु कोई = कोई (विरला) मनुष्य। अधारु = आसरा। नामे = नाम में ही। गुरमुखि मनि तनि = गुरमुख के मन में तन में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। रवि रहिआ = बसा रहता है।
अर्थ: (प्रभु का) नाम माया (के प्रभाव से) रहत है और पवित्र है, अगर ये नाम सुनें (भाव, अगर इस नाम में तवज्जो जोड़ें) और जोड़-जोड़ के मन में बसा लें तो सुख (प्राप्त) होता है; (पर) कोई विरला मनुष्य (इस बात को) समझता है; (जो गुरमुख ये बात समझ लेता है उसको) वह सदा कायम रहने वाला सच्चा प्रभु उठते-बैठते कभी भी भूलता नहीं है; (गुरमुख) भगतों को (आत्मिक जीवन के लिए) नाम का आसरा हो जाता है, नाम में जुड़ने से ही उनको सुख (प्रतीत) होता है।
हे नानक! गुरमुख के मन में और तन में वह प्रभु सदा बसा रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला १ ॥ नानक तुलीअहि तोल जे जीउ पिछै पाईऐ ॥ इकसु न पुजहि बोल जे पूरे पूरा करि मिलै ॥ वडा आखणु भारा तोलु ॥ होर हउली मती हउले बोल ॥ धरती पाणी परबत भारु ॥ किउ कंडै तोलै सुनिआरु ॥ तोला मासा रतक पाइ ॥ नानक पुछिआ देइ पुजाइ ॥ मूरख अंधिआ अंधी धातु ॥ कहि कहि कहणु कहाइनि आपु ॥१॥
मूलम्
सलोक महला १ ॥ नानक तुलीअहि तोल जे जीउ पिछै पाईऐ ॥ इकसु न पुजहि बोल जे पूरे पूरा करि मिलै ॥ वडा आखणु भारा तोलु ॥ होर हउली मती हउले बोल ॥ धरती पाणी परबत भारु ॥ किउ कंडै तोलै सुनिआरु ॥ तोला मासा रतक पाइ ॥ नानक पुछिआ देइ पुजाइ ॥ मूरख अंधिआ अंधी धातु ॥ कहि कहि कहणु कहाइनि आपु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! तुलीअहि = तोले जाते हैं, तुलते हैं। तोल तुलीअहि = तोल तोले जाते हैं, तोल में पूरे उतरते हैं। जीउ = जिंद, स्वै। पिछै = पिछले छाबे में, तकड़ी के दूसरे छाबे में। बोल = वचन, प्रभु की महिमा के वचन। इकसु बोल न पुजहि = महिमा के एक-वचन से तोल पूरा नहीं हो सकता (पूजा नहीं जा सकता)। पूरे = पूर्ण प्रभु को। पूरा करि = तोल पूरा कर के। वडा आखणु = प्रभु को बड़ा कहना, प्रभु की महिमा करनी। भारा तोलु = वजनदार चीज। कंडै = काँटे पर। पाइ = रख के। देइ पुजाइ = पूरा कर दिखाता है, घर पूरा कर देता है। धातु = दौड़ भाग। अंधी धातु = अंधों वाली दौड़ भाग। कहाइनि = कहलाते हैं। आपु = अपने आप को। कहि कहि कहणु = कह कह के कहना, बार बार कहना।
अर्थ: हे नानक! अगर तराजू के दूसरे छाबे में जिंद रख दें तो तोल पूरा हो जाता है (भाव, मनुष्य के जीवन की प्रवानगी का एक ही माप-दण्ड है कि स्वै-भाव प्रभु पर से वार दिया जाए); अगर मनुष्य (प्रभु की महिमा के द्वारा मनुष्य-जीवन की प्रवानगी वाले तोल से अपने आप को) बराबर करके (प्रभु को) मिल जाए तो महिमा के शब्द के (और कोई उद्यम) बराबर (तुल्य और कुछ) नहीं हो सकता। प्रभु की महिमा वज़नदार चीज़ है (जिससे जिंद वाला छाबा प्रवानगी के तोल से बराबर का हो जाता है), (वरना, महिमा के बिना) और हर तरह की बुद्धि तुच्छ व अन्य (सभी प्रकार के) वचन हल्के हैं (बुद्धि व वचनों की मदद से जिंद वाला छाबा पूरा नहीं उतर सकता) (भला कोई) सोनियारा तोले-मासे-रक्तियाँ डाल के धरती-पानी और पर्वतों के भार को (छोटे से) तराजू में कैसे तोल सकता है? (यही हाल अन्य सभी मतों और बातों का समझें, जो, मानो, तोले मासे और रक्ती ही हैं); (पर) हे नानक! अगर (सोनियारे को) पूछें तो (वह बातों से) घर पूरा कर देता है।
(अंधे मूर्ख लोग प्रभु की महिमा छोड़ के) अपने आप को बड़ा कहलवाते हैं, और बार-बार (अपने आप को अच्छा) कहना मूर्ख अंधों की अंधों वाली दौड़-भाग है (भाव, ठोकरें खा के चोटें ही लगवाते रहते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ आखणि अउखा सुनणि अउखा आखि न जापी आखि ॥ इकि आखि आखहि सबदु भाखहि अरध उरध दिनु राति ॥ जे किहु होइ त किहु दिसै जापै रूपु न जाति ॥ सभि कारण करता करे घट अउघट घट थापि ॥ आखणि अउखा नानका आखि न जापै आखि ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ आखणि अउखा सुनणि अउखा आखि न जापी आखि ॥ इकि आखि आखहि सबदु भाखहि अरध उरध दिनु राति ॥ जे किहु होइ त किहु दिसै जापै रूपु न जाति ॥ सभि कारण करता करे घट अउघट घट थापि ॥ आखणि अउखा नानका आखि न जापै आखि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखणि अउखा सुनणि अउखा = (प्रभु का स्वरूप) किसी तरह से भी बयान करना मुश्किल है। आखि न जापी आखि = आखि आखि न जापी। न जापी = लगता नहीं, अनुभव नहीं होता, समझ में नहीं आता। आखि आखि = कह कह के, बार बार बयान करते हैं। भाखहि = उचारते हैं। अरध = नीचे। उरध = ऊपर। अरध उरध = ऊपर नीचे हो के, बड़ी मेहनत से। किहु = कुछ, कोई (पंच-तत्वी) स्वरूप। न जापै = नहीं दिखता। सभि = सारे। अउघट = मुश्किल। घट = जगह। थापि = बना के, थाप के।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पहली और पाँचवीं तुक का हू-ब-हू एक ही भाव है; ‘आखि न जापी आखि’, ‘आखि न जापै आखि’, ‘जापी’, ‘जापै’; ‘आखणि अउखा सुनणि अउखा’, ‘आखणि अउखा’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (परमात्मा का स्वरूप) किसी भी तरह से बयान करना मुश्किल है, बार-बार बयान करने से भी समझ में नहीं आता। कई लोग बड़ी मेहनत से दिन-रात (लग के) (प्रभु का स्वरूप) बार-बार बयान करते हैं (और स्वरूप बयान करने वाले) शब्द बोलते हैं; पर, अगर कोई (पाँच-तत्वी) स्वरूप ही हो, और दिखाई भी दे, उसका ना तो कोई रूप प्रतीत होता है ना ही कोई जाति दिखती है।
हे नानक! मुश्किल-आसान जगहें (हरेक किस्म के बर्तन) स्वयं रच के प्रभु खुद ही (जगत के) सारे सबब बनाता है; उसका स्वरूप बयान करना मुश्किल है, बार-बार बयान करने से भी समझ में नहीं आता।2।
[[1240]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ मनु रहसीऐ नामे सांति आई ॥ नाइ सुणिऐ मनु त्रिपतीऐ सभ दुख गवाई ॥ नाइ सुणिऐ नाउ ऊपजै नामे वडिआई ॥ नामे ही सभ जाति पति नामे गति पाई ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ नानक लिव लाई ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ मनु रहसीऐ नामे सांति आई ॥ नाइ सुणिऐ मनु त्रिपतीऐ सभ दुख गवाई ॥ नाइ सुणिऐ नाउ ऊपजै नामे वडिआई ॥ नामे ही सभ जाति पति नामे गति पाई ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ नानक लिव लाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइ = प्रभु नाम। नाइ सुणिऐ = यदि नाम सुनें, अगर नाम में तवज्जो लगायें। रहसीऐ = खिल उठता है। नामे = नाम में ही। गति = ऊंची आत्मिक अवस्था।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘नाइ’ और ‘नाउ’ का फर्क याद रखने योग्य है, शब्द ‘नाउ’ से शब्द ‘नाय’ अधिकरण कारक, एकवचन है। ‘नाइ’ अधिकरण कारक, एकवचन। ‘सुणिअै’ है पूर्व पूरन कारदंतक Locative Absolute.
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: यदि (प्रभु के) नाम में तवज्जो जोड़े रखें तो मन खिल उठता है, नाम में (जुड़ने से अंदर) शांति पैदा होती है। अगर नाम में ध्यान लग जाए तो मन (माया से) तृप्त हो जाता है और सारे दुख दूर हो जाते हैं; अगर प्रभु का नाम सुनते रहें तो (मन में) नाम (जपने का चाव) पैदा हो जाता है, नाम (स्मरण) में ही बड़ाई (प्रतीत होती) है।
गुरमुख मनुष्य नाम (स्मरण) में ही उच्च कुल वाली इज्जत समझता है, नाम स्मरण करके ही ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल करता है; हे नानक! गुरमुख (सदा) नाम स्मरण करता है और (नाम में ही) लगन लगाए रखता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला १ ॥ जूठि न रागीं जूठि न वेदीं ॥ जूठि न चंद सूरज की भेदी ॥ जूठि न अंनी जूठि न नाई ॥ जूठि न मीहु वर्हिऐ सभ थाई ॥ जूठि न धरती जूठि न पाणी ॥ जूठि न पउणै माहि समाणी ॥ नानक निगुरिआ गुणु नाही कोइ ॥ मुहि फेरिऐ मुहु जूठा होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक महला १ ॥ जूठि न रागीं जूठि न वेदीं ॥ जूठि न चंद सूरज की भेदी ॥ जूठि न अंनी जूठि न नाई ॥ जूठि न मीहु वर्हिऐ सभ थाई ॥ जूठि न धरती जूठि न पाणी ॥ जूठि न पउणै माहि समाणी ॥ नानक निगुरिआ गुणु नाही कोइ ॥ मुहि फेरिऐ मुहु जूठा होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रागीं = राग (गाने) से। वेदीं = वेद (आदि धर्म पुस्तकें पढ़ने) से। भेदी = भेदों से। की भेदी = के भेदों से। चंद सूरज की भेदी = चँद्रमा और सूर्य के अलग अलग माने गए पवित्र दिनों (के समय अलग-अलग किस्म की पूजा) से। अंनी = अन्न (छोड़ देने) से, व्रत रखने से। नाई = (तीर्थों पर) नहाने से। वर्हिऐ = वर्हियै, बरसने से। धरती = धरती (का रटन करने) से, व गुफा आदि बनाने से। पाणी = पानी (में खड़े हो के तप करने) से। पउण = हवा, सांस। पउणै माहि समाणी = श्वासों में लीन होने से, प्राणायाम करने से, साँसों को रोकने के अभ्यास से। निगुरिआ = उन मनुष्यों में जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलते। मुहि फेरिऐ = अगर (गुरु की ओर से) मुँह फेर के रखें। जूठा = (निंदा आदि से) अपवित्र।1।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर नहीं चलते, (उनके अंदर आत्मिक जीवन ऊँचा करने वाला) कोई गुण नहीं (बढ़ता-फूलता)। अगर गुरु की ओर से मुँह मोड़ के रखें, तो मुँह (निंदा आदि करने की गंदी मैल से) अपवित्र हुआ रहता है।
(हे भाई! रागों का गायन मनुष्य के अंदर कई तरह के हिल्लोरे पैदा करता है, पर मनुष्य के अंदर टिकी हुई निंदा की वादी की) यह मैल रागों (के गायन) से भी दूर नहीं होती, वेद (आदि धर्म-पुस्तकों के पाठ) से भी नहीं (धुलती)। (अमावस, संग्रांद, पूर्णमासी आदि) चँद्रमा और सूर्य के माने हुए अलग-अलग पवित्र दिन-त्यौहारों (के वक्त अलग-अलग किस्म की पूजा) से (मनुष्य के अंदर टिकी हुई निंदा आदि की) यह मैल साफ नहीं होती। हे भाई! अन्न (का त्याग करने) से (तीर्थों के) स्नान करने से भी यह मैल नहीं जाती। (इन्द्र देवते की पूजा से भी) यह अंदरूनी मैल दूर नहीं होती चाहे (ये माना जा रहा है कि उस देवते के द्वारा ही) सब जगह वर्षा होती है (और धरती व वनस्पति आदि की बाहरी मैल धुल जाती है)।
(हे भाई! रमते साधु बन के) धरती रटन करने से, धरती में गुफा बना के बैठने से अथवा पानी (में खड़े हो के तप) करके भी ये मैल नहीं धुलती, और, हे भाई! प्राणायाम करने से (समाधियां लगाने से) भी (मनुष्य के अंदर टिकी हुई निंदा आदि करने की) यह मैल दूर नहीं होती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ नानक चुलीआ सुचीआ जे भरि जाणै कोइ ॥ सुरते चुली गिआन की जोगी का जतु होइ ॥ ब्रहमण चुली संतोख की गिरही का सतु दानु ॥ राजे चुली निआव की पड़िआ सचु धिआनु ॥ पाणी चितु न धोपई मुखि पीतै तिख जाइ ॥ पाणी पिता जगत का फिरि पाणी सभु खाइ ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ नानक चुलीआ सुचीआ जे भरि जाणै कोइ ॥ सुरते चुली गिआन की जोगी का जतु होइ ॥ ब्रहमण चुली संतोख की गिरही का सतु दानु ॥ राजे चुली निआव की पड़िआ सचु धिआनु ॥ पाणी चितु न धोपई मुखि पीतै तिख जाइ ॥ पाणी पिता जगत का फिरि पाणी सभु खाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जे कोइ = यदि कोई मनुष्य। भरि जाणै = चुल्ला व चुल्ली भरना जानता हो, (जिसे) चुल्ली भरने का पता हो कि कैसे भरनी है। सुरता = विद्वान मनुष्य। गिआन = विचार। जतु = मन को कामना वासना से रोकना। गिरही = गृहस्थी। सतु = उच्च आचरण। दानु = सेवा। निआव = न्याय। पाणी = पानी से। धोपई = धुलता। मुखि = मुँह से। तिख = प्यास। जगत का पिता = सारी रचना का मूल कारण। सभु = सारे जगत को। खाइ = नाश करता है, पर्लय का कारण बनता है।
अर्थ: हे नानक! (सिर्फ पानी से चुल्लियां करने से आत्मिक जीवन की सुच्चता नहीं आ सकती, पर) यदि कोई मनुष्य (सच्ची चुल्ली) भरनी जान ले तो (दरअसल सुच्ची) पवित्र चुल्लियां ये हैं: विद्वान के लिए चुल्ली विचार की है (भाव, विद्वान की विद्वता पवित्र है अगर उसके अंदर विचार भी है), जोगी का काम-वासना से बचे रहना जोगी के लिए पवित्र चुल्ली है, ब्राहमण के लिए चुल्ली संतोख है और गृहस्थी के लिए चुली है उच्च आचरण और सेवा। राजा के न्याय चुल्ली है।
पानी से (चुल्ली करने से) मन नहीं धुल सकता, (हाँ) मुँह से पानी पीने से प्यास मिट जाती है; (पर पानी की चुल्ली से पवित्रता आने की जगह तो बल्कि सूतक का भ्रम पैदा होना चाहिए क्योंकि) पानी से सारा संसार पैदा होता है और पानी ही सारे जगत को नाश करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ सभ सिधि है रिधि पिछै आवै ॥ नाइ सुणिऐ नउ निधि मिलै मन चिंदिआ पावै ॥ नाइ सुणिऐ संतोखु होइ कवला चरन धिआवै ॥ नाइ सुणिऐ सहजु ऊपजै सहजे सुखु पावै ॥ गुरमती नाउ पाईऐ नानक गुण गावै ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ सभ सिधि है रिधि पिछै आवै ॥ नाइ सुणिऐ नउ निधि मिलै मन चिंदिआ पावै ॥ नाइ सुणिऐ संतोखु होइ कवला चरन धिआवै ॥ नाइ सुणिऐ सहजु ऊपजै सहजे सुखु पावै ॥ गुरमती नाउ पाईऐ नानक गुण गावै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिधि रिधि = रिद्धि सिद्धि, करामाती ताकतें। नउ निधि = नौ खजाने (भाव, सारे जगत के पदार्थ)। मन चिंदिआ = मन का चितवा हुआ। कवला = माया। सहजु = अडोल अवस्था, आत्मिक अडोलता।
अर्थ: प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़े रखें तो सारी करामाती ताकतें पीछे लगी फिरती हैं (सहज ही प्राप्त हो जाती हैं); जगत के सारे पदार्थ हासिल हो जाते हैं, जो कुछ मन चितवता है मिल जाता है; (मन में) संतोख पैदा हो जाता है, माया भी सेवा करने लग जाती है, वह अवस्था पैदा हो जाती है जहाँ मन डोलता नहीं, और इस अडोल अवस्था में (पहुँच के) सुख प्राप्त हो जाता है।
पर, हे नानक! गुरु की मति लेने पर ही नाम मिलता है, (और गुरु के राह पर चल के मनुष्य सदा प्रभु के) गुण गाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला १ ॥ दुख विचि जमणु दुखि मरणु दुखि वरतणु संसारि ॥ दुखु दुखु अगै आखीऐ पड़्हि पड़्हि करहि पुकार ॥ दुख कीआ पंडा खुल्हीआ सुखु न निकलिओ कोइ ॥ दुख विचि जीउ जलाइआ दुखीआ चलिआ रोइ ॥ नानक सिफती रतिआ मनु तनु हरिआ होइ ॥ दुख कीआ अगी मारीअहि भी दुखु दारू होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक महला १ ॥ दुख विचि जमणु दुखि मरणु दुखि वरतणु संसारि ॥ दुखु दुखु अगै आखीऐ पड़्हि पड़्हि करहि पुकार ॥ दुख कीआ पंडा खुल्हीआ सुखु न निकलिओ कोइ ॥ दुख विचि जीउ जलाइआ दुखीआ चलिआ रोइ ॥ नानक सिफती रतिआ मनु तनु हरिआ होइ ॥ दुख कीआ अगी मारीअहि भी दुखु दारू होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुखि = दुख में। वरतणु = कार्य व्यवहार, बरतना। संसारि = संसार में। अगै = आगे आगे, सामने, ज्यों ज्यों दिन गुजरते हैं। पढ़ि = पढ़ के। करहि पुकार = पुकार करते हैं, विलकते हैं। हरिआ = हरा, शांति वाला। अगी = आग से। मारीअहि = मारते हैं।
अर्थ: जीव का जनम दुख में और मौत भी दुख में होती है (भाव, जनम से मरने तक सारी उम्र जीव दुख में ही फसा रहता है) दुख में (ग्रसा हुआ ही) जगत में सारे काम-काज करता है। (विद्या) पढ़-पढ़ के भी (जीव) विलकते ही हैं, (जो कुछ) सामने (प्राप्त होता है उसको) दुख ही दुख कहा जा सकता है। (जीव के भाग्यों में) दुखों की (जैसे) गठड़ियाँ खुली हुई हैं, (इसके किसी भी उद्यम में से) कोई सुख नहीं निकलता; (सारी उम्र) दुखों में जिंद जलाता रहता है (आखिर,) दुखों का मारा हुआ रोता हुआ ही (यहां से) चल पड़ता है।
हे नानक! अगर प्रभु की महिमा में रंगे जाएं तो मन-तन हरे हो जाते हैं। जीव दुखों की तपश से (आत्मिक मौत) मरते हैं, पर फिर इसका इलाज भी दुख ही है। (सवेरे चारपाई पर सुख से सोया रहे तो यह दुख बन जाता है; पर अगर सवेरे उठ के बाहर जा के कसरत आदि करके कष्ट उठाए तो वह सुखदायी बनता है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ नानक दुनीआ भसु रंगु भसू हू भसु खेह ॥ भसो भसु कमावणी भी भसु भरीऐ देह ॥ जा जीउ विचहु कढीऐ भसू भरिआ जाइ ॥ अगै लेखै मंगिऐ होर दसूणी पाइ ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ नानक दुनीआ भसु रंगु भसू हू भसु खेह ॥ भसो भसु कमावणी भी भसु भरीऐ देह ॥ जा जीउ विचहु कढीऐ भसू भरिआ जाइ ॥ अगै लेखै मंगिऐ होर दसूणी पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! दुनीआ रंगु = दुनिया का आनंद। भसु = राख, स्वाह। भसू हू भसु = निरी राख ही राख। खेह = राख। देह = शरीर। भसू भरिआ = राख से लिबड़ा हुआ। जाइ = जाता है। अगै = परलोक में, मरने के बाद। लेखै मंगिऐ = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) जब पिछले किए हुए कर्मों का लेखा माँगा जाता है। होर दसूणी = और दसगुनी (राख)। पाइ = पाय, लेता है।
अर्थ: हे नानक! दुनिया का रंग-तमाशा राख (के समान) है, सिर्फ राख ही राख है, निरी स्वाह स्वाह है। (इन रंग-तमाशों में लग के जीव, जैसे) राख ही राख कमाता है, (जैसे-जैसे इस राख को इकट्ठा करता है त्यों-त्यों) इसका शरीर (विकारों की) राख से और ज्यादा लिबड़ता जाता है।
(मरने पर) जब जिंद (शरीर) में से अलग की जाती है, तो यह जिंद (विकारों की) राख के साथ लिबड़ी हुई ही (यहाँ से) जाती है, और परलोक में जब किए कर्मों का लेखा होता है (तब) और दस गुना ज्यादा राख (भाव, शर्मिंदगी) इसको मिलती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ सुचि संजमो जमु नेड़ि न आवै ॥ नाइ सुणिऐ घटि चानणा आन्हेरु गवावै ॥ नाइ सुणिऐ आपु बुझीऐ लाहा नाउ पावै ॥ नाइ सुणिऐ पाप कटीअहि निरमल सचु पावै ॥ नानक नाइ सुणिऐ मुख उजले नाउ गुरमुखि धिआवै ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ सुचि संजमो जमु नेड़ि न आवै ॥ नाइ सुणिऐ घटि चानणा आन्हेरु गवावै ॥ नाइ सुणिऐ आपु बुझीऐ लाहा नाउ पावै ॥ नाइ सुणिऐ पाप कटीअहि निरमल सचु पावै ॥ नानक नाइ सुणिऐ मुख उजले नाउ गुरमुखि धिआवै ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुचि = पवित्रता। संजमो = इंद्रियों को अच्छी तरह वश में लाना। घटि = हृदय में। आपु = आपने आप को। लाहा = लाभ। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य।
अर्थ: अगर नाम में तवज्जो जोड़ के रखें तो पवित्रता प्राप्त होती है, मन को वश में करने की समर्थता आ जाती है, जम (भी, भाव, मौत का डर) नजदीक नहीं फटकता, हृदय में (प्रभु की ज्योति का) प्रकाश हो जाता है (और आत्मिक जीवन की अज्ञानता का) अंधकार दूर हो जाता है, अपनी असलियत की समझ आ जाती है और प्रभु का नाम (जो मनुष्य जीवन का असल) लाभ (है) कमा लेते हैं, सारे पाप नाश हो जाते हैं, पवित्र सच्चा प्रभु मिल जाता है।
हे नानक! अगर नाम में ध्यान जोड़ें तो माथे खिले रहते हैं। पर, ये नाम वही मनुष्य स्मरण कर सकता है जो गुरु के बताए हुए राह पर चलता है।8।
[[1241]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला १ ॥ घरि नाराइणु सभा नालि ॥ पूज करे रखै नावालि ॥ कुंगू चंनणु फुल चड़ाए ॥ पैरी पै पै बहुतु मनाए ॥ माणूआ मंगि मंगि पैन्है खाइ ॥ अंधी कमी अंध सजाइ ॥ भुखिआ देइ न मरदिआ रखै ॥ अंधा झगड़ा अंधी सथै ॥१॥
मूलम्
सलोक महला १ ॥ घरि नाराइणु सभा नालि ॥ पूज करे रखै नावालि ॥ कुंगू चंनणु फुल चड़ाए ॥ पैरी पै पै बहुतु मनाए ॥ माणूआ मंगि मंगि पैन्है खाइ ॥ अंधी कमी अंध सजाइ ॥ भुखिआ देइ न मरदिआ रखै ॥ अंधा झगड़ा अंधी सथै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि = घर में। नाराइणु = ठाकुर की मूर्ति। सभा नालि = और मूर्तियों समेत। नावालि = नहला के, स्नान करा के। कुंगू = केसर। माणूआ = मनुष्यों से। अंधी कंमी = अंधे कामों में, अज्ञानता भरे कामों में। जिस कामों के करने से मनुष्य की मति अंधेरे में ही रहती है। अंध = अज्ञानता, अंधेरा। सजाइ = दण्ड। न देइ = नहीं देता। रखै = बचाता। झगड़ा = रेड़का। सथै = सथ में, सभा में।
अर्थ: (ब्राहमण अपने) घर में बहुत सारी मूर्तियों समेत ठाकुरों की मूर्ति की स्थापना करता है, उसकी पूजा करता है, उसको स्नान करवाता है; केसर चंदन और फूल (उस मूर्ति के आगे) भेट करता है, उसके पैरों पर सिर रख-रख के उसको प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है; (पर, रोटी कपड़ा और) मनुष्यों से माँग-माँग के खाता और पहनता है।
अज्ञानता वाले काम करने से (यही) सज़ा मिलती है कि और भी अज्ञानता बढ़ती जाती है, (मूर्ख यह नहीं जानता कि कि ये मूर्ति) ना भूखे को कुछ दे सकती है ना (भूख से मरते हुए को) मरने से बचा सकती है। (फिर भी मूर्ति-पूजक) अज्ञानियों की सभा में अज्ञानता वाला ये लंबा सिलसिला चलता ही जाता है (भाव, फिर भी लोक आँखें बंद करके प्रभु को छोड़ के मूर्ति-पूजा करते ही जा रहे हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ ॥ सभे सुरती जोग सभि सभे बेद पुराण ॥ सभे करणे तप सभि सभे गीत गिआन ॥ सभे बुधी सुधि सभि सभि तीरथ सभि थान ॥ सभि पातिसाहीआ अमर सभि सभि खुसीआ सभि खान ॥ सभे माणस देव सभि सभे जोग धिआन ॥ सभे पुरीआ खंड सभि सभे जीअ जहान ॥ हुकमि चलाए आपणै करमी वहै कलाम ॥ नानक सचा सचि नाइ सचु सभा दीबानु ॥२॥
मूलम्
महला १ ॥ सभे सुरती जोग सभि सभे बेद पुराण ॥ सभे करणे तप सभि सभे गीत गिआन ॥ सभे बुधी सुधि सभि सभि तीरथ सभि थान ॥ सभि पातिसाहीआ अमर सभि सभि खुसीआ सभि खान ॥ सभे माणस देव सभि सभे जोग धिआन ॥ सभे पुरीआ खंड सभि सभे जीअ जहान ॥ हुकमि चलाए आपणै करमी वहै कलाम ॥ नानक सचा सचि नाइ सचु सभा दीबानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरती = तवज्जो का जोड़ना। सुधि = सूझ, सद्बुद्धि। अमर = हुक्म। खान = खाने। माणस = मनुष्य। देव = देवता। पुरीआ = धरतियां। खंड = ब्रहमण्ड के हिस्से। जीअ जहान = जगत के जीव-जंतु। हुकमि = आज्ञा में। कलाम = (हुक्म की) कलम। करमी = (जीवों के) कर्मों के अनुसार। वहै = चलती है। सचि नाइ = सच्चे नाम से, सच्चे नाम में जुड़ने से। दीबानु = कचहरी।
अर्थ: जोग-मत के अनुसार तवज्जो जोड़नी, वेद पुराण (आदि के पाठ), तप साधन करने, (भजनों के) गीत और (उनकी विचारें), ऊँची मति और सद्-बुद्धि, तीर्थ-स्थान (आदि के स्नान), बादशाहियां और हकूमतें, खुशियां और अच्छे खाने, मनुष्य और देवते, योग की समाधियां, धरतियों के मण्डल और हिस्से, सारे जगत के जीव-जंतु - इन सब को परमात्मा अपनी आज्ञा में चलाता है, पर उसके हुक्म की कलम जीवों के किए कर्मों के अनुसार बहती है। हे नानक! वह प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसका दरबार सदा स्थिर रहने वाला है, उसके नाम में जुड़ने से उसकी प्राप्ति होती है। (भाव, कई जीव जोग के द्वारा तवज्जो जोड़ते हैं, कई वेद-पुराणों के पाठ करते हैं, कोई तप साधते हैं, कोई भजन गाते हैं, कोई ज्ञान-चर्चा करते हैं, कोई ऊँची अक्ल दौड़ाते हैं, कोई तीर्थों पर स्नान कर रहे हैं, कोई बादशाह बन के हकूमतें कर रहे हैं, कोई मौजें मना रहे हैं, कोई बढ़िया स्वादिष्ट खाने खा रहे हैं, कोई मनुष्य हैं कोई देवते, कोई समाधियां लगा रहे हैं - सारे जगत के जीव-जंतु अलग-अलग आहर में लगे हुए हैं। यह जो कुछ हो रहा है, प्रभु के हुक्म में हो रहा है, पर जीवों की ये अलग-अलग किस्म की रुचि उनके अपने किए कर्मों के अनुसार है, फल प्रभु की रजा में मिल रहा है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ सुखु ऊपजै नामे गति होई ॥ नाइ मंनिऐ पति पाईऐ हिरदै हरि सोई ॥ नाइ मंनिऐ भवजलु लंघीऐ फिरि बिघनु न होई ॥ नाइ मंनिऐ पंथु परगटा नामे सभ लोई ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ नाउ मंनीऐ जिन देवै सोई ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ सुखु ऊपजै नामे गति होई ॥ नाइ मंनिऐ पति पाईऐ हिरदै हरि सोई ॥ नाइ मंनिऐ भवजलु लंघीऐ फिरि बिघनु न होई ॥ नाइ मंनिऐ पंथु परगटा नामे सभ लोई ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ नाउ मंनीऐ जिन देवै सोई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइ मंनिऐ = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) यदि नाम मान लें, अगर ये मान लें कि नाम स्मरणा जिंदगी का असल उद्देश्य है, अगर मन नाम में पतीज जाए। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। भवजलु = संसार समुंदर। बिघनु = रुकावट। पंथु = (जिंदगी का असल) रास्ता। परगटा = प्रत्यक्ष। लोई = रोशनी, आत्मिक जीवन की समझ। सतिगुरि मिलिऐ = (पूरन पूरब कारदंतक) अगर गुरु मिल जाए। नाउ मंनीऐ = नाम को मान लेना चाहिए, ये मान लेना चाहिए कि नाम स्मरणा जिंदगी का ‘प्रकट पंथ’ है। सोई = वह प्रभु।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जिन्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (पढ़ना है ‘जिन्ह’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: यदि मन नाम-स्मरण में पतीज जाए तो (मन में) सुख पैदा होता है, नाम में (पतीजने से) ही उच्च आत्मिक अवस्था बनती है, इज्जत मिलती है और हृदय में वह प्रभु (आ बसता है), संसार-समुंदर से पार लांघ जाया जाता है, और (जिंदगी के राह में) कोई रोक नहीं पड़ती, जीवन का रास्ता प्रत्यक्ष साफ दिखने लग जाता है क्योंकि नाम में सारी रौशनी है (आत्मिक जीवन की सूझ है)।
(पर) हे नानक! अगर सतिगुरु मिले तो ही नाम-स्मरण जिंदगी का ‘प्रकट पंथ’ माना जा सकता है (और ये दाति उनको ही मिलती है) जिनको वह प्रभु स्वयं देता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ पुरीआ खंडा सिरि करे इक पैरि धिआए ॥ पउणु मारि मनि जपु करे सिरु मुंडी तलै देइ ॥ किसु उपरि ओहु टिक टिकै किस नो जोरु करेइ ॥ किस नो कहीऐ नानका किस नो करता देइ ॥ हुकमि रहाए आपणै मूरखु आपु गणेइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ पुरीआ खंडा सिरि करे इक पैरि धिआए ॥ पउणु मारि मनि जपु करे सिरु मुंडी तलै देइ ॥ किसु उपरि ओहु टिक टिकै किस नो जोरु करेइ ॥ किस नो कहीऐ नानका किस नो करता देइ ॥ हुकमि रहाए आपणै मूरखु आपु गणेइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर के भार हो के। इक पैरि = एक पैर के भार खड़े हो के। धिआए = ध्यान धरे। पउणु मारि = पवन को रोक के, प्राणायाम कर के। मनि = मन में। मुंडी = गर्दन। तले = नीचे। टिक टिकै = टेक टिकाता है, टेक बनाता है। जोरु = ताण, ताकत। किस नो कहीऐ = किसी को कहा नहीं जा सकता। रहाए = रखता है। आपु = अपने आप को। हुकमि आपणै = अपने हुक्म में। गणेइ = समझने लग जाता है।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य सिर के बल हो के सारी धरतियों और धरती के सारे हिस्सों में फिरे, अगर एक पैर के भार खड़ा हो के ध्यान धरे, अगर प्राण रोक के मन में जप करे, अगर अपना सिर गर्दन के नीचे रखे (भाव, अगर शीर्षासन करके सिर के भार खड़ा रहे) - (तो भी इनमें से) किस साधन पर वह टेक रखता है? (भरोसा कर सकता है?) किस उद्यम को अपनी शक्ति बनाता है? (भाव, ये सारे भरोसे तुच्छ हैं, इनका आसरा कमजोर है)।
हे नानक! यह बात नहीं कही जा सकती कि कर्तार किसको मान-सम्मान बख्शता है। (प्रभु सब जीवों को) अपने हुक्म में चलाता है, पर मूर्ख अपने आप को (बड़ा) समझने लग जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ है है आखां कोटि कोटि कोटी हू कोटि कोटि ॥ आखूं आखां सदा सदा कहणि न आवै तोटि ॥ ना हउ थकां न ठाकीआ एवड रखहि जोति ॥ नानक चसिअहु चुख बिंद उपरि आखणु दोसु ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ है है आखां कोटि कोटि कोटी हू कोटि कोटि ॥ आखूं आखां सदा सदा कहणि न आवै तोटि ॥ ना हउ थकां न ठाकीआ एवड रखहि जोति ॥ नानक चसिअहु चुख बिंद उपरि आखणु दोसु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि कोटि = करोड़ों बार। कोटी हू कोटि कोटि = करोड़ों बार से भी ज्यादा करोड़ों बार। आखां = अगर मैं कहूं। आखूँ = मुँह से। कहणि = कहने में। तोटि = कमी। न ठाकीआ = ना मैं रूका रहूँ। जोति = नूर। एवड जोति = इतनी सत्ता। रखहि = तू डाल दे। चसिअहु = एक चसे से (चसा = पल, बहुत ही कम मात्रा)। चसिअहु चुख बिंद = एक चसे से भी बहुत कम अल्प बिंदु के बराबर। उपरि = ज्यादा। दोसु = भूल गलती।
अर्थ: अगर मैं करोड़ों-करोड़ों बार कहूँ कि परमात्मा सचमुच है, और करोड़ों बार से ज्यादा करोड़ों बार (यही बात) कहूँ, और मैं यही बात सदा ही अपने मुँह से कहता रहूँ, मेरे कहने में कोई कमी ना आए; (हे प्रभु!) अगर तू मेरे में इतनी सत्ता (ताकत) डाल दे कि मैं कहता-कहता ना तो थकूँऔर ना ही किसी के रोके रुकूँ, तो भी, हे नानक! (कह:) यह सारा प्रयत्न तेरी रक्ती भर कीर्ति के बराबर होता है, यदि मैं कहूँ कि इससे ज्यादा कीर्ति मैंने की है तो (यह मेरी) भूल है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ कुलु उधरै सभु कुट्मबु सबाइआ ॥ नाइ मंनिऐ संगति उधरै जिन रिदै वसाइआ ॥ नाइ मंनिऐ सुणि उधरे जिन रसन रसाइआ ॥ नाइ मंनिऐ दुख भुख गई जिन नामि चितु लाइआ ॥ नानक नामु तिनी सालाहिआ जिन गुरू मिलाइआ ॥१०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ कुलु उधरै सभु कुट्मबु सबाइआ ॥ नाइ मंनिऐ संगति उधरै जिन रिदै वसाइआ ॥ नाइ मंनिऐ सुणि उधरे जिन रसन रसाइआ ॥ नाइ मंनिऐ दुख भुख गई जिन नामि चितु लाइआ ॥ नानक नामु तिनी सालाहिआ जिन गुरू मिलाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुलु = खानदान। उधरै = (भवजल से) बच निकलता है। सबाइआ = सारा। रसन = जीभ। रसाइआ = एक रस कर लिया है। नामि = नाम में।
अर्थ: अगर मन नाम स्मरण में पतीज जाए तो (ऐसे मनुष्य की) सारी कुल सारा परिवार (भवजल में से) बच जाता है। नाम में मन पतीजने से जिस लोगों ने नाम को हृदय में बसा लिया है उनकी सारी संगति (संसार-समुंदर से) पार उतर जाती है। नाम में पतीज के जिन्होंने जीभ को नाम के साथ एक-रस कर लिया वे नाम सुन के (माया के प्रभाव से) बच जाते हैं। नाम में पतीज के जिन्होंने नाम में मन जोड़ लिया उनके दुख दूर हो जाते हैं उनकी (माया वाली) भूख मिट जाती है।
पर, हे नानक! वही लोग नाम स्मरण करते हैं जिनको प्रभु सतिगुरु मिलाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ सभे राती सभि दिह सभि थिती सभि वार ॥ सभे रुती माह सभि सभि धरतीं सभि भार ॥ सभे पाणी पउण सभि सभि अगनी पाताल ॥ सभे पुरीआ खंड सभि सभि लोअ लोअ आकार ॥ हुकमु न जापी केतड़ा कहि न सकीजै कार ॥ आखहि थकहि आखि आखि करि सिफतीं वीचार ॥ त्रिणु न पाइओ बपुड़ी नानकु कहै गवार ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ सभे राती सभि दिह सभि थिती सभि वार ॥ सभे रुती माह सभि सभि धरतीं सभि भार ॥ सभे पाणी पउण सभि सभि अगनी पाताल ॥ सभे पुरीआ खंड सभि सभि लोअ लोअ आकार ॥ हुकमु न जापी केतड़ा कहि न सकीजै कार ॥ आखहि थकहि आखि आखि करि सिफतीं वीचार ॥ त्रिणु न पाइओ बपुड़ी नानकु कहै गवार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिह = दिन। थिती = चाँद के बढ़ने घटने से गिने जाने वाले महीनों की तारीखें। वार = हफते के दिनों के नाम। माह = महीने। धरतीं = धरतियां। लोअ लोअ = हरेक लोक (14 लोकों) के। आकार = स्वरूप, शरीर, जीव-जंतु। केतड़ा = कितना बड़ा? कहि न सकीजै = बयान नहीं किया जा सकता। कार = प्रभु की रचना। त्रिणु = तृण समान, रक्ती भर भी। बपुड़ी गवार = बेचारे गवारों ने। आखि आखि आखहि = बेअंत बार कहते हैं। थकहि = थक जाते हैं। बपुड़ी = बेचारों ने। नानक कहै = नानक कहता है।
अर्थ: रातें, दिन, तिथियां, वार, ऋतुएं, महीने; धरतियां और धरतियों पर पैदा हुए सारे पदार्थ, हवा, पानी, आग, धरती की निचली तरफ (के पदार्थ), धरतियों के मण्डल, ब्रहमण्ड के बेअंत हिस्से, हरेक लोक के (बेअंत किस्मों के) जीव-जन्तु - यह सारी रचना (कितनी है) बयान नहीं की जा सकती, (इस रचना को बनाने वाले प्रभु का) हुक्म कितना बड़ा है - यह भी पता नहीं लग सकता।
परमात्मा की सिफतों की विचार कर के लोग बार-बार बेअंत बार (उसकी वडिआईयाँ) बयान करते हैं और (बयान कर-कर के) थक जाते हैं, पर, नानक कहता है, बेचारे गँवारों ने प्रभु का रक्ती भर भी अंत नहीं पाया।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ अखीं परणै जे फिरां देखां सभु आकारु ॥ पुछा गिआनी पंडितां पुछा बेद बीचार ॥ पुछा देवां माणसां जोध करहि अवतार ॥ सिध समाधी सभि सुणी जाइ देखां दरबारु ॥ अगै सचा सचि नाइ निरभउ भै विणु सारु ॥ होर कची मती कचु पिचु अंधिआ अंधु बीचारु ॥ नानक करमी बंदगी नदरि लंघाए पारि ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ अखीं परणै जे फिरां देखां सभु आकारु ॥ पुछा गिआनी पंडितां पुछा बेद बीचार ॥ पुछा देवां माणसां जोध करहि अवतार ॥ सिध समाधी सभि सुणी जाइ देखां दरबारु ॥ अगै सचा सचि नाइ निरभउ भै विणु सारु ॥ होर कची मती कचु पिचु अंधिआ अंधु बीचारु ॥ नानक करमी बंदगी नदरि लंघाए पारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखीं परणै = आँखों के भार। सभु आकारु = सारा जगत। माणसां = मनुष्यों को। करहि अवतार = पैदा होते हैं, बनते हें। जोध = योद्धे, सूरमे। सुणी = मैं सुनूं। दरबारु = प्रभु की हजूरी। सचि नाइ = सच्चे नाम से, नाम स्मरण से। भै विणु = डर रहित। सारु = जगत का मूल। कचु पिचु = कच्चा पिल्ला। अंधु बीचारु = अंधों वाला अंदाजा, अंधों की तरह टटोलना। करमी = प्रभु की मेहर से। नदरि = मेहर की नजर से।
अर्थ: अगर मैं आँखों के भार हो के फिरूँ और सारा जगत (घूम के) देख लूँ, और मैं ज्ञानवान पंडितों से वेदों के गहरे भेद पूछ लूँ; और देवताओं को जा के पूछूँ, उन लोगों को जा के पूछूँ जो बड़े-बड़े योद्धा बनते हैं; अगर समाधि लगाने वाले सिद्ध-हस्त योगियों की सारी मतें जा के सुनूँ कि प्रभु का दरबार मैं कैसे जा के देखूँ - (इन सभी उद्यमों के) समक्ष (एक ही सुमति है कि) सदा कायम रहने वाला प्रभु, जो निर्भय है जिसको किसी का डर नहीं और जो सारे जगत का मूल है, स्मरण के द्वारा ही मिलता है; (स्मरण के बिना) और सारी मतें कच्ची हैं, अन्य सारे उद्यम कच्चे-पिल्ले हैं (स्मरण से टूटे हुए) अंधों की अंधी-टटोलबाजी ही है।
हे नानक! ये स्मरण प्रभु की मेहर से मिलता है, प्रभु अपनी मेहर की नजर से ही पार लंघाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ दुरमति गई मति परगटी आइआ ॥ नाउ मंनिऐ हउमै गई सभि रोग गवाइआ ॥ नाइ मंनिऐ नामु ऊपजै सहजे सुखु पाइआ ॥ नाइ मंनिऐ सांति ऊपजै हरि मंनि वसाइआ ॥ नानक नामु रतंनु है गुरमुखि हरि धिआइआ ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ दुरमति गई मति परगटी आइआ ॥ नाउ मंनिऐ हउमै गई सभि रोग गवाइआ ॥ नाइ मंनिऐ नामु ऊपजै सहजे सुखु पाइआ ॥ नाइ मंनिऐ सांति ऊपजै हरि मंनि वसाइआ ॥ नानक नामु रतंनु है गुरमुखि हरि धिआइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरमति = बुरी मति। परगटी आइआ = प्रगट हो जाती है। नाइ मंनिऐ =, नाउ उपजै = (देखें पउड़ी नं: 6 की तीसरी तुक) अगर नाम में मन पतीज जाए तो (मन में) नाम (जपने की तमन्ना) पैदा हुई रहती है। मंनि = मन में। रतंनु = कीमती मोती। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु के सन्मुख है।
अर्थ: अगर मन नाम स्मरण में पतीज जाए तो दुमर्ति दूर हो जाती है और (अच्छी) मति चमक उठती है, अहंकार दूर हो जाता है, सारे ही (मन के) रोग नाश हो जाते हैं, अगर नाम में मन पतीज जाए तो (मन में) नाम (जपने का चाव) पैदा हो जाता है और अडोल अवस्था में पहुँच के सुख प्राप्त होता है, मन में ठंड बरत जाती है, प्रभु मन में आ बसता है। हे नानक! (प्रभु का) नाम (जैसे) एक कीमती मोती है, पर हरि-नाम स्मरण करता वह मनुष्य है जो गुरु के सन्मुख होता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ होरु सरीकु होवै कोई तेरा तिसु अगै तुधु आखां ॥ तुधु अगै तुधै सालाही मै अंधे नाउ सुजाखा ॥ जेता आखणु साही सबदी भाखिआ भाइ सुभाई ॥ नानक बहुता एहो आखणु सभ तेरी वडिआई ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ होरु सरीकु होवै कोई तेरा तिसु अगै तुधु आखां ॥ तुधु अगै तुधै सालाही मै अंधे नाउ सुजाखा ॥ जेता आखणु साही सबदी भाखिआ भाइ सुभाई ॥ नानक बहुता एहो आखणु सभ तेरी वडिआई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। सुजाखा = आँखें देने वाला। जेता आखणु = जितना कुछ (बयान किया) है। साही = श्याही, सियाही से (लिख के)। सबदि = शब्द से (बोल के)। भाखिआ = मैंने कहा है। भाइ सुभाइ = प्यार भरे स्वभाव से, प्यार की खींच में। बहुता एहो आखणु = सिरे की बात यही है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: कई सज्जन शब्द ‘साही’ को दो शब्दों में बाँट के ‘सा+ही’ पाठ करते हैं और शब्द ‘सा’ को ‘आखणु’ का सर्वनाम समझते हैं, और अर्थ इस तरह करते हैं: जो कहना होता है वह सारा ही…..। पर व्याकरण के मुताबिक ‘आखणु’ पुलिंग है और ‘सा’ स्त्रीलिंग है, जैसे,
‘सोई चंदु चढ़हि से तारै सोई दिनीअरु तपत रहै॥
सा धरती सो पवनु झुलारै………॥’……;रामकली महला १
पुलिंग के लिए ‘सो’ अथवा ‘सोई’, स्त्रीलिंग के लिए ‘सा’ अथवा ‘साई’: ‘साई भली कार’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! अगर कोई और तेरे बराबर का हो तो ही मैं उसके सामने तेरा जिकर करूँ (पर तेरे जैसा और कोई है ही नही, सो) तेरी महिमा मैं तेरे आगे ही कर सकता हूँ (तेरे जैसा मैं तुझे ही कह सकता हूँ, और ज्यों-ज्यों मैं तेरी कीर्ति करता हूँ) तेरा नाम मुझ (आत्मिक जीवन से) अंधे की आँखों के लिए रौशनी देता है। लिख के अथवा बोल के जो कुछ मैंने तेरी कीर्ति में कहा है, वह सब तेरे प्यार के आकर्षण में ही कहा है, वरना सबसे बड़ी बात कहनी नानक को यही फबती है कि (जो कुछ है) सब तेरी ही बड़ाई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ जां न सिआ किआ चाकरी जां जमे किआ कार ॥ सभि कारण करता करे देखै वारो वार ॥ जे चुपै जे मंगिऐ दाति करे दातारु ॥ इकु दाता सभि मंगते फिरि देखहि आकारु ॥ नानक एवै जाणीऐ जीवै देवणहारु ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ जां न सिआ किआ चाकरी जां जमे किआ कार ॥ सभि कारण करता करे देखै वारो वार ॥ जे चुपै जे मंगिऐ दाति करे दातारु ॥ इकु दाता सभि मंगते फिरि देखहि आकारु ॥ नानक एवै जाणीऐ जीवै देवणहारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जां = जब। न सिआ = नहीं था, अस्तित्व में नहीं आया था। चाकरी = नौकरी, कमाई। किआ = कौन सी? कार = मेहनत-कमाई। सभि = सारे। वारो वार = बार बार, सदा। देखै = संभाल करता है। जे चुपै = अगर चुप कर रहें। जे मंगीऐ = अगर कुछ मांगें। फिरि = फिर के, घूम के। आकारु = जगत। एवै = इस तरह। जाणीऐ = समझ पड़ती है।
अर्थ: जब जीव अस्तित्व में नहीं आया था तब ये कौन सी कमाई कर सकता था, और जब पैदा हुआ तब भी कौन सी मेहनत-कमाई की? (भाव, जीव के कुछ वश नहीं), जिसने पैदा किया है वह स्वयं ही सारे सबब बनाता है और सदा जीवों की संभाल करता है, चाहे चुप कर रहें चाहे माँगें, दाता देने वाला कर्तार खुद ही दातें देता है।
जब जीव सारा जगत फिर के (ये बात) देख लेते हैं (तो कहते हैं कि) एक परमात्मा दाता है और सारे जीव उसके मँगते हैं। हे नानक! इस तरह समझ आ जाती है कि दातें देने वाला प्रभु (सदा ही) जीवित रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ सुरति ऊपजै नामे मति होई ॥ नाइ मंनिऐ गुण उचरै नामे सुखि सोई ॥ नाइ मंनिऐ भ्रमु कटीऐ फिरि दुखु न होई ॥ नाइ मंनिऐ सालाहीऐ पापां मति धोई ॥ नानक पूरे गुर ते नाउ मंनीऐ जिन देवै सोई ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ सुरति ऊपजै नामे मति होई ॥ नाइ मंनिऐ गुण उचरै नामे सुखि सोई ॥ नाइ मंनिऐ भ्रमु कटीऐ फिरि दुखु न होई ॥ नाइ मंनिऐ सालाहीऐ पापां मति धोई ॥ नानक पूरे गुर ते नाउ मंनीऐ जिन देवै सोई ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरति = जाग, चेता, समझ, लगन। सुखि = सुख में। सोई = सोता है, टिकता है। भ्रम = भटकना (देखें पौड़ी नं: 2 की तीसरी तुक)। धोई = धुल जाती है। नाउ मंनीऐ = (देखें पउड़ी नं: 9 की पाँचवीं तुक) नाम (का स्मरण, जीवन का सही रास्ता) माना जा सकता है।
अर्थ: अगर मन नाम में पतीज जाए तो (अंदर नाम की) लगन पैदा हुई रहती है और नाम में ही मति (पवित्र होती) है, मनुष्य प्रभु के गुण कहने लग जाता है और नाम में सुख-आनंद से टिकता है, भटकना काटी जाती है, और फिर कोई दुख नहीं व्यापता; प्रभु की महिमा करने लग जाता है और पापों वाली मति धुल जाती है।
हे नानक! पूरे सतिगुरु से यह निश्चय आता है कि नाम (-स्मरण जीवन का सही रास्ता) है (ये दाति उनको मिलती है) जिनको वह प्रभु खुद देता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ सासत्र बेद पुराण पड़्हंता ॥ पूकारंता अजाणंता ॥ जां बूझै तां सूझै सोई ॥ नानकु आखै कूक न होई ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ सासत्र बेद पुराण पड़्हंता ॥ पूकारंता अजाणंता ॥ जां बूझै तां सूझै सोई ॥ नानकु आखै कूक न होई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूकारंता = पुकारता है, और लोगों को ऊँचा बोल बोल के सुनाता है। अजाणंता = अ+जाणंता, नहीं जानता, खुद कुछ नहीं समझता। जा = जब। सोई = वह प्रभु ही। सूझै = दिखे। कूक = ऊँचा ऊँचा बोलना। न होई = नहीं होता, खत्म हो जाता है।
अर्थ: (जब तक मनुष्य) शास्त्रों वेद पुराण (आदि धर्म-पुस्तकों को निरा) पढ़ता रहता है (तब तक) ऊँचा-ऊँचा बोलता है (और लोगों को सुनाता है) पर खुद समझता कुछ नहीं, (पर) जब (धर्म-पुस्तकों के उपदेश का) भेद पा लेता है तब (इसे हर जगह) प्रभु ही दिखाई देता है, और, नानक कहता है इसकी (प्रर्दशन वाली ऊँचा-ऊँचा बोल के सुनाने वाली ढोंगी) आवाज बंद हो जाती हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ जां हउ तेरा तां सभु किछु मेरा हउ नाही तू होवहि ॥ आपे सकता आपे सुरता सकती जगतु परोवहि ॥ आपे भेजे आपे सदे रचना रचि रचि वेखै ॥ नानक सचा सची नांई सचु पवै धुरि लेखै ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ जां हउ तेरा तां सभु किछु मेरा हउ नाही तू होवहि ॥ आपे सकता आपे सुरता सकती जगतु परोवहि ॥ आपे भेजे आपे सदे रचना रचि रचि वेखै ॥ नानक सचा सची नांई सचु पवै धुरि लेखै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। सकता = जोर वाला। सुरता = तवज्जो वाला। सकती = अपनी सत्ता (के धागे) में। वेखै = संभाल करता है, देखभाल करता है। नांई = बड़ाई (अरबी ‘स्ना’ का पंजाबी रूप ‘नाई’ और ‘असनाई’ हैं, देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। लेखै पवै = स्वीकार होता है।
अर्थ: जब मैं तेरा बन जाता हूँ तब जगत में सब कुछ मुझे अपना प्रतीत होता है (क्योंकि उस वक्त) मेरा अपनत्व नहीं होता, मुझे तू ही दिखाई देता है, तू खुद ही जोर का मालिक, तू खुद ही सूझ का मालिक मुझे लगता है, तू खुद ही जगत को अपनी सत्ता (के धागे) में परोने वाला प्रतीत होता है।
हे नानक! प्रभु स्वयं ही (जीवों को यहाँ) भेजता है, स्वयं ही (यहाँ से वापस) बुला लेता है, सृष्टि पैदा करके आप ही संभाल कर रहा है, वह सदा-स्थिर रहने वाला है, उसकी बड़ाई सदा कायम रहने वाली है, उसके नाम का नाम-जपना ही उसकी हजूरी में स्वीकार होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नामु निरंजन अलखु है किउ लखिआ जाई ॥ नामु निरंजन नालि है किउ पाईऐ भाई ॥ नामु निरंजन वरतदा रविआ सभ ठांई ॥ गुर पूरे ते पाईऐ हिरदै देइ दिखाई ॥ नानक नदरी करमु होइ गुर मिलीऐ भाई ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नामु निरंजन अलखु है किउ लखिआ जाई ॥ नामु निरंजन नालि है किउ पाईऐ भाई ॥ नामु निरंजन वरतदा रविआ सभ ठांई ॥ गुर पूरे ते पाईऐ हिरदै देइ दिखाई ॥ नानक नदरी करमु होइ गुर मिलीऐ भाई ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलखु = (अ+लख) जिसका कोई खास चिन्ह ना दिखे, अदृश्य। लख = (संस्कृत लख्य, to see, to indicate, characterise) बयान करना। रविआ = व्यापक है। देइ दिखाई = दिखा देता है। नदरी = (प्रभु की कृपा भरी) निगाह से। करमु = मेहर, बख्शिश। गुर मिलीऐ = अगर गुरु को मिलें।
अर्थ: माया-रहित प्रभु का नाम (ऐसा है जिस) का कोई खास चिन्ह नहीं दिखता, (तो फिर) उसको बयान कैसे किया जाए?
हे भाई! निरंजन का नाम सब जगह व्यापक है और मौजूद है, (हमारे) साथ (भी) है, पर वह मिले कैसे?
(यह नाम) पूरे सतिगुरु से मिलता है, (पूरा गुरु प्रभु का नाम हमारे) हृदय में दिखा देता है।
हे नानक! (कह:) हे भाई! जब (प्रभु की मेहर भरी) निगाह से मेहर हो तो गुरु मिलता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ कलि होई कुते मुही खाजु होआ मुरदारु ॥ कूड़ु बोलि बोलि भउकणा चूका धरमु बीचारु ॥ जिन जीवंदिआ पति नही मुइआ मंदी सोइ ॥ लिखिआ होवै नानका करता करे सु होइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ कलि होई कुते मुही खाजु होआ मुरदारु ॥ कूड़ु बोलि बोलि भउकणा चूका धरमु बीचारु ॥ जिन जीवंदिआ पति नही मुइआ मंदी सोइ ॥ लिखिआ होवै नानका करता करे सु होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = विवाद वाली सृष्टि, वह दुनिया जो ईश्वर से विछुड़ी हुई है (गुरु आशय के अनुसार वह समय ‘कलियुग’ है जब गुरु परमात्मा बिसर जाए, जैसे: ‘इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता’)। कुते मुही = कुत्ते के मुँह वाली, कुत्ते की तरह जिसे खाने का हलक लगा हो। मुरदारु = हराम, रिश्वत आदि हराम चीज। कूड़ु = झूठ। चूका = खत्म हो गया। पति = इज्जत। सोइ = शोभा। मंदी सोइ = बदनामी। लिखिआ होवै = माथे के लिखे लेख ही उघड़ते हैं। खाजु = मन भाता खाना।
अर्थ: ईश्वर से विछुड़ी हुई दुनिया को कुत्ते की तरह खाने का हलक लगा रहता है और रिश्वत आदि हराम चीज़ इसका मन-पसंद खाना हो जाता है (जेसे कुत्ते का मन-पसंद खाना मुरदार है), (ये दुनिया) सदा झूठ बोलती है, (जैसे, मुरदार खाने वाले कुत्ते की तरह) भौंक रही है, (इस तरह इसके अंदर से) धर्म (की अंश) और (ईश्वरीय गुणों की) विचार समाप्त हो जाती है, जब तक ऐसे लोग (जगत में) जीते हैं इनकी (कोई व्यक्ति) इज्जत नहीं (करता), जब मर जाते हैं, (लोग इनको) बुरों के रूप में ही याद करते हैं।
(पर) हे नानक! (इनके भी क्या वश? पिछले किए कर्मों के अनुसार) माथे पर लिखा लेख ही उघड़ता है (और उस लेख के अनुसार) जो कुछ कर्तार करता है वही होता है।1।
[[1243]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ रंना होईआ बोधीआ पुरस होए सईआद ॥ सीलु संजमु सुच भंनी खाणा खाजु अहाजु ॥ सरमु गइआ घरि आपणै पति उठि चली नालि ॥ नानक सचा एकु है अउरु न सचा भालि ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ रंना होईआ बोधीआ पुरस होए सईआद ॥ सीलु संजमु सुच भंनी खाणा खाजु अहाजु ॥ सरमु गइआ घरि आपणै पति उठि चली नालि ॥ नानक सचा एकु है अउरु न सचा भालि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंना = स्त्रीयां। बोधीआ = सलाहकार। पुरस = पुरुष। सईआद = शिकारी, जालिम। सीलु = मीठा स्वभाव। संजमु = जुगति में रहना। सचु = हृदय की पवित्रता, दिल की सफाई। भंनी = दूर हो रही है। खाजु = मन पसन्द खाना। अहाजु = ना हजम होने वाला, हराम। सरमु = शर्म। घरि आपणे = कहीं अपने घर में, कहीं अपने वतन को। पति = इज्जत, अणख। सचा = सदा कायम रहने वाला।
अर्थ: (ईश्वर से विछुड़ के) मनुष्य जालिम हो रहे हैं और सि्त्रयाँ इस जुल्म की सलाहकार बन रही हैं, मीठा स्वभाव, जगत में रहना, दिल की सफाई - ये सब बातें दूर हो गई हैं और रिश्वत आदि हराम माल इन लोगों का मन-पसनंद खाना हो गया है, शर्म-हया अपने वतन से कहीं (दूर) चली गई है (भाव, इन मनुष्यों से कहीं दूर हो गई है) अणख भी शर्म-हया के साथ ही चली गई है।
हे नानक! (अगर ‘सील संजम सुच’ आदि गुण ढूँढने हैं, तो उनका श्रोत) सिर्फ सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही है, (इन गुणों के लिए) कोई और जगह ना तलाशो (भाव, प्रभु के बिना किसी अन्य जगह ये गुण नहीं मिल सकते)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ बाहरि भसम लेपन करे अंतरि गुबारी ॥ खिंथा झोली बहु भेख करे दुरमति अहंकारी ॥ साहिब सबदु न ऊचरै माइआ मोह पसारी ॥ अंतरि लालचु भरमु है भरमै गावारी ॥ नानक नामु न चेतई जूऐ बाजी हारी ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ बाहरि भसम लेपन करे अंतरि गुबारी ॥ खिंथा झोली बहु भेख करे दुरमति अहंकारी ॥ साहिब सबदु न ऊचरै माइआ मोह पसारी ॥ अंतरि लालचु भरमु है भरमै गावारी ॥ नानक नामु न चेतई जूऐ बाजी हारी ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरि = (भाव,) शरीर पर। भसम = राख। अंतरि = मन में। गुबारी = अंधेरा। खिंथा = गोदड़ी, खफ़नी। साहिब सबदु = प्रभु की महिमा की वाणी। पसारी = खिलारा। भरमु = भटकना। भरमै = भटकता है, ठोकरें खाता है। गावारी = मूर्ख।
अर्थ: जो मनुष्य शरीर पर (तो) राख मल लेता है (पर उसके) मन में (माया के मोह का) अंधेरा है, (बाहर) गोदड़ी और झोली (आदि) के कई भेस करता है और दुर्मति के कारण (इस भेस का) अहंकार करता है, प्रभु की महिमा की वाणी नहीं उचारता, (सिर्फ) माया के मोह का पसारा ही (बनाए बैठा) है, उसके मन में लालच है भटकना है, मूर्ख ठोकरें खाता फिरता है, प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता, हे नानक! (ऐसा मनुष्य, जैसे) जूए में (मनुष्य-जन्म की) बाज़ी हार जाता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ लख सिउ प्रीति होवै लख जीवणु किआ खुसीआ किआ चाउ ॥ विछुड़िआ विसु होइ विछोड़ा एक घड़ी महि जाइ ॥ जे सउ वर्हिआ मिठा खाजै भी फिरि कउड़ा खाइ ॥ मिठा खाधा चिति न आवै कउड़तणु धाइ जाइ ॥ मिठा कउड़ा दोवै रोग ॥ नानक अंति विगुते भोग ॥ झखि झखि झखणा झगड़ा झाख ॥ झखि झखि जाहि झखहि तिन्ह पासि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ लख सिउ प्रीति होवै लख जीवणु किआ खुसीआ किआ चाउ ॥ विछुड़िआ विसु होइ विछोड़ा एक घड़ी महि जाइ ॥ जे सउ वर्हिआ मिठा खाजै भी फिरि कउड़ा खाइ ॥ मिठा खाधा चिति न आवै कउड़तणु धाइ जाइ ॥ मिठा कउड़ा दोवै रोग ॥ नानक अंति विगुते भोग ॥ झखि झखि झखणा झगड़ा झाख ॥ झखि झखि जाहि झखहि तिन्ह पासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लख जीवणु = लाखों वर्षों की जिंदगी। किआ खुसीआ = चाहे कितनी ही खुशियां हों। विछुड़िआ = शरीर और प्राणों के विछुड़ने के वक्त। विसु = विष, जहर (भाव, बहुत ही दुखद)। जाइ = (जीव) चल पड़ता है। खाजै = खाएं। कउड़ा = (मौत के विछोड़े का) कड़वा (घूँट)। चिति न आवै = याद नहीं रहता, बिसर जाता है। धाइ धाइ = गहरा असर डालता है। कउड़तणु = (भाव) विछोड़ा। मिठा कउड़ा = भोगों का मिलना और विछुड़ना। रोग = दुखदाई। भोग = भोगों के कारण। विगुते = ख्वार होते हैं। झखि झखि झखणा = बार बार झखें मारनी, बार बार विषौ भोगने। झगड़ा = रेड़का, ये लंबा चक्कर। झगड़ा झाख = झखें मारने का ये लंबा चक्र, विषौ भोगने ये लंबा चस्का। झखि झखि जाहि = झखें मार मार के (विषौ भोग = भोग के) यहाँ जगत से जाते हैं। तिन पासि = उन विषई पदार्थों के पास ही। झखहि = टक्करें मारते हें, भटकते हैं, वासना से बँधे रहते हैं।
अर्थ: लाखों लोगों से प्यार हो, लाखों सालों की जिंदगी हो, चाहे कितनी ही खुशियां और कितने ही चाव हों, पर मरने के वक्त बंदा एक घड़ी में ही उठ के चल पड़ता है और इनसे जुदाई बहुत दुखदाई होती है।
अगर सैकड़ों वर्ष भी स्वादिष्ट भोग भोगते रहें तो भी इनसे विछुड़ने का कड़वा घूँट भरना ही पड़ता है। भोगे हुए भोग तो भूल जाते हैं, पर इनसे विछुड़ने की चोट गहरा असर कर जाती है।
हे नानक! इन भोगों का मिलना और छिन जाना दोनों बातें ही दुखदाई हैं क्योंकि भोगों के कारण आखिर लोग दुखी ही होते हैं। नित्य-नित्य विषौ भोगने से विषौ भोगने का एक लंबा चस्का बन जाता है, विषौ भोग-भोग के जीव यहाँ जगत से चले जाते हैं, (और, वासना बंधे हुए) उन विषियों के ईर्द-गिर्द ही चक्कर मारते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ कापड़ु काठु रंगाइआ रांगि ॥ घर गच कीते बागे बाग ॥ साद सहज करि मनु खेलाइआ ॥ तै सह पासहु कहणु कहाइआ ॥ मिठा करि कै कउड़ा खाइआ ॥ तिनि कउड़ै तनि रोगु जमाइआ ॥ जे फिरि मिठा पेड़ै पाइ ॥ तउ कउड़तणु चूकसि माइ ॥ नानक गुरमुखि पावै सोइ ॥ जिस नो प्रापति लिखिआ होइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ कापड़ु काठु रंगाइआ रांगि ॥ घर गच कीते बागे बाग ॥ साद सहज करि मनु खेलाइआ ॥ तै सह पासहु कहणु कहाइआ ॥ मिठा करि कै कउड़ा खाइआ ॥ तिनि कउड़ै तनि रोगु जमाइआ ॥ जे फिरि मिठा पेड़ै पाइ ॥ तउ कउड़तणु चूकसि माइ ॥ नानक गुरमुखि पावै सोइ ॥ जिस नो प्रापति लिखिआ होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कापड़ु काठु = कपड़े और लकड़ी का सामान (पर्दे और कुर्सियां आदि)। रांगि = रंग से। गच = चूने से। बागे बाग = बग्गे ही बग्गे, सफेद ही सफेद। साद = स्वाद। सहज = सुख। साद करि = स्वादों से। खेलाइआ = खिलाया, परचाया। पासहु = पास से। कहणु = उलामा। कउड़ा = वे विषौ भोग जो आखिर में दुखदाई साबित होते हैं। तिनि = उस ने। तिनि कउड़ै = उस विषौ भोग के दुखद चस्के। तनि = शरीर में। मिठा = प्रभु का नाम रूप स्वादिष्ट पदार्थ। पेड़ै पाइ = पल्ले पड़े, मिल जाए। कउड़तणु = विषौ भोगों से पैदा हुआ दुख। माइ = हे माँ! सोइ = वह।
अर्थ: (मनुष्य ने) कपड़े और लकड़ी का सामान रंग से रंग लिया, घरों को चूने से सफेद ही सफेद बना लिया, (ऐसे) स्वादों और सुखों से मन को बहलाता रहा, (पर इन कामों के कारण) हे प्रभु! तेरे से उलाहमा लिया (कि मनुष्य जन्म का उद्देश्य ना कमाया), विषौ-विकार जो आखिर दुखदाई होते हैं स्वादिष्ट जान के भोगता रहा, उसी विषौ-भोग ने शरीर में रोग पैदा कर दिए।
हे माँ! अगर प्रभु का नाम-रूपी स्वादिष्ट भोजन दोबारा मिल जाए, तो विषौ-भोगों से पैदा होया हुआ दुख दूर हो जाता है; पर, हे नानक! यह ‘मीठा’ नाम उसी गुरमुखि को मिलता है जिसके भाग्यों में इसकी प्राप्ति लिखी हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिन कै हिरदै मैलु कपटु है बाहरु धोवाइआ ॥ कूड़ु कपटु कमावदे कूड़ु परगटी आइआ ॥ अंदरि होइ सु निकलै नह छपै छपाइआ ॥ कूड़ै लालचि लगिआ फिरि जूनी पाइआ ॥ नानक जो बीजै सो खावणा करतै लिखि पाइआ ॥१५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिन कै हिरदै मैलु कपटु है बाहरु धोवाइआ ॥ कूड़ु कपटु कमावदे कूड़ु परगटी आइआ ॥ अंदरि होइ सु निकलै नह छपै छपाइआ ॥ कूड़ै लालचि लगिआ फिरि जूनी पाइआ ॥ नानक जो बीजै सो खावणा करतै लिखि पाइआ ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरु = बाहरी क्षेत्र (शरीर)। लालचि = लालच में। करतै = कर्तार ने। लिखि = लिख के। पाइआ = (भाग्यों में) दे दिया है।
अर्थ: जिस मनुष्यों के हृदय साफ नहीं, धोखा है, पर शरीर को बाहर से धो-धो के रखते हैं, वे (अपने हरेक कार्य-व्यवहार में) झूठ और धोखा ही बरतते हैं, पर झूठ उघड़ आता है, (क्योंकि) मन के अंदर जो कुछ होता है वह जाहिर हो जाता है, छुपाया छुप नहीं सकता।
झूठ लालच में लगने से (नतीजा यह निकलता है कि मनुष्य) बार-बार जूनियों में जा पड़ता है।
हे नानक! जो कुछ (मनुष्य अपने कर्मों का) बीज बीजता है वही (फल) खाता है, कर्तार ने (यह रज़ा जीवों के माथे पर) लिख के रख दी है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः २ ॥ कथा कहाणी बेदीं आणी पापु पुंनु बीचारु ॥ दे दे लैणा लै लै देणा नरकि सुरगि अवतार ॥ उतम मधिम जातीं जिनसी भरमि भवै संसारु ॥ अम्रित बाणी ततु वखाणी गिआन धिआन विचि आई ॥ गुरमुखि आखी गुरमुखि जाती सुरतीं करमि धिआई ॥ हुकमु साजि हुकमै विचि रखै हुकमै अंदरि वेखै ॥ नानक अगहु हउमै तुटै तां को लिखीऐ लेखै ॥१॥
मूलम्
सलोक मः २ ॥ कथा कहाणी बेदीं आणी पापु पुंनु बीचारु ॥ दे दे लैणा लै लै देणा नरकि सुरगि अवतार ॥ उतम मधिम जातीं जिनसी भरमि भवै संसारु ॥ अम्रित बाणी ततु वखाणी गिआन धिआन विचि आई ॥ गुरमुखि आखी गुरमुखि जाती सुरतीं करमि धिआई ॥ हुकमु साजि हुकमै विचि रखै हुकमै अंदरि वेखै ॥ नानक अगहु हउमै तुटै तां को लिखीऐ लेखै ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस श्लोक में वेदों के ज्ञान और गुरु नानक देव जी की शिक्षा में अंतर स्पष्ट कर दिया गया है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेदीं = वेदों ने। आणी = ले के आए। कथा कहाणी = (भाव,) शिक्षा। पापु पुंन बीचारु = ये विचार कि पाप क्या है और पुण्य क्या है। दे दे लैणा = खुद हाथ से दे के ही लेना है, अपना दिया ही आगे लिया जाता है। लै लै देणा = जो किसी से लेते हैं वह मोड़ना पड़ेगा। नरकि = नर्क में। अवतार = पैदा होना, जगह मिलनी। मधिम = मध्यम, नीची, निम्न। जातीं जिनसी भरमि = जातियों के और जिनसों के भ्रम में। ततु = अस्लियत, जगत का मूल परमात्मा। वखाणी = बयान करने वाली। गिआन धिआन विचि = तत्तव के ज्ञान और तत्तव के ध्यान के संबंध में, प्रभु के गुणों की विचार करने से प्रभु में तवज्जो जोड़ने से। आई = प्रकट हुई, उचारी गई। गुरमुखि आखी = गुरु ने उचारी। जाती = समझी। सुरतीं = ध्यान लगाने वालों ने, जिन्होंने इसमें तवज्जो जोड़ी। करमि = प्रभु की मेहर से। वेखै = संभाल करता है। अगहु = पहले। को = कोई, जीव। लिखीऐ लेखै = लेखे में लिखा जाता है, स्वीकार होता है।
अर्थ: (जो) शिक्षा वेद ले के आए (भाव, वेदों ने दी) (उस में यह) विचार है कि पाप क्या है और पुंन्य क्या है, (उसने यह बताया है कि हाथों से) दे के ही (दोबारा वापस) लिया जाता है और जो कुछ किसी से लेते हैं वह (अगले जनम में) मोड़ना पड़ता है, (अपने किए कर्मों के अनुसार) दुनिया ऊँची-नीच जातियों और किस्मों के वहिमों में दुखी होती है।
(पर, जो) वाणी गुरु ने उचारी है, (जिसके गहरे भेद को) गुरु ने समझा है और (जिसको) ध्यान लगाने वालों ने जपा है वह वाणी नाम-अमृत से भरी हुई है, और प्रभु के गुण बयान करती है, यह वाणी प्रभु के गुणों की विचार करने और प्रभु में तवज्जो जोड़ने से प्रकट हुई है। (ये वाणी बताती है कि) परमात्मा ने अपना हुक्म (-रूप सत्ता) रच के (सब जीवों को) अपने हुक्म में ही रखा है और हुक्म में ही संभाल करता है। हे नानक! (इस वाणी की इनायत से) पहले (जीव का) अहंकार दूर होता है तब जीव प्रभु की हजूरी में स्वीकार होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ बेदु पुकारे पुंनु पापु सुरग नरक का बीउ ॥ जो बीजै सो उगवै खांदा जाणै जीउ ॥ गिआनु सलाहे वडा करि सचो सचा नाउ ॥ सचु बीजै सचु उगवै दरगह पाईऐ थाउ ॥ बेदु वपारी गिआनु रासि करमी पलै होइ ॥ नानक रासी बाहरा लदि न चलिआ कोइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ बेदु पुकारे पुंनु पापु सुरग नरक का बीउ ॥ जो बीजै सो उगवै खांदा जाणै जीउ ॥ गिआनु सलाहे वडा करि सचो सचा नाउ ॥ सचु बीजै सचु उगवै दरगह पाईऐ थाउ ॥ बेदु वपारी गिआनु रासि करमी पलै होइ ॥ नानक रासी बाहरा लदि न चलिआ कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेदु पुकारे = वेद पुकार के कहता है (भाव, वेदों की शिक्षा यह है कि)। बीउ = बीज, मूल, कारण। जो = जो कुछ। खांदा जीउ = (बीजे हुए फल) खाने वाला जीव। जाणै = जान लेता है। गिआनु = गुरु का (दिया हुआ) ज्ञान, उच्च विचार। सलाहे = प्रभु की महिमा करता है। वडा करि = (प्रभु को) बड़ा कह कह के। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। पाईऐ थाउ = जगह मिलती है, स्वीकार हो जाता है। वपारी = व्यापार की बातें करने वाला। रासि = (असल) पूंजी। करमी = प्रभु की मेहर से। बाहरा = बाहर का, वंचित। लदि = लाद के, नफा कमा के।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पिछले शलोक की तरह इसमें भी वेदों में बताए हुए कर्मकांड और गुरु (नानक देव जी) द्वारा दिए गए ज्ञान का आपस में अंतर स्पष्ट किया गया है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वेदों की शिक्षा ये है कि (जीव का किया हुआ) पुण्य कर्म (उसके वास्ते) स्वर्ग (मिलने) का कारण (बनता) है और पाप (जीव के लिए) नर्क (में पड़ने) का कारण हो जाता है; (अपने किए हुए पुण्य और पाप का फल) खाने वाला (हरेक) जीव (खुद ही) जान लेता है कि जो कुछ कोई बीजता है वही उगता है। (इस तरह, इस कर्मकांड की शिक्षा में प्रभु की महिमा और प्रभु की मेहर को कोई जगह नहीं दी गई है)।
(पर गुरु का बख्शा हुआ) ज्ञान परमात्मा को महान कह के (उसकी) महिमा करता है (और बताता है कि) प्रभु का नाम सदा कायम रहने वाला है, जो मनुष्य प्रभु का नाम (हृदय में) बीजता है उसके अंदर नाम ही प्रफुल्लित होता है और उसको प्रभु की हजूरी में आदर मिलता है।
(सो, पाप और पुण्य के फल बता के) वेद तो व्यापार की बातें करता है; (पर, मनुष्य के लिए असल) राशि-पूंजी (प्रभु के गुणों का) ज्ञान है और यह ज्ञान प्रभु की मेहर से (गुरु से) मिलता है; हे नानक! (इस ज्ञान-रूप) पूंजी के बिना कोई मनुष्य (जगत से) लाभ कमा के नहीं जाता।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ निमु बिरखु बहु संचीऐ अम्रित रसु पाइआ ॥ बिसीअरु मंत्रि विसाहीऐ बहु दूधु पीआइआ ॥ मनमुखु अभिंनु न भिजई पथरु नावाइआ ॥ बिखु महि अम्रितु सिंचीऐ बिखु का फलु पाइआ ॥ नानक संगति मेलि हरि सभ बिखु लहि जाइआ ॥१६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ निमु बिरखु बहु संचीऐ अम्रित रसु पाइआ ॥ बिसीअरु मंत्रि विसाहीऐ बहु दूधु पीआइआ ॥ मनमुखु अभिंनु न भिजई पथरु नावाइआ ॥ बिखु महि अम्रितु सिंचीऐ बिखु का फलु पाइआ ॥ नानक संगति मेलि हरि सभ बिखु लहि जाइआ ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरखु = वृक्ष। संचीऐ = सींचें। पाइआ = पाया, पा के। बिसीअरु = साँप। मंत्रि = मंत्र से। विसाहीऐ = ऐतबार करें। मनमुख = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अभिंनु = ना भीगने वाला, कोरा, रूखा। बिखु = जहर। सिंचीऐ = सींचें।
अर्थ: (अगर) नीम (के) वृक्ष को अमृत-रस डाल के (भी) बहुत सींचें (तो भी नीम का कड़वापन नहीं जाता); अगर बहुत सारा दूध पिला के मंत्र वश करके साँप को ऐतबारी बनाएं (भाव, साँप पर विश्वास करें,) (फिर भी वह डंक मारने का स्वभाव नहीं छोड़ता); (जैसे) पत्थर को स्नान कराएं (तो भी वह कोरे का कोरा, इसी तरह) मन के पीछे चलने वाला मनुष्य कोरा ही रहता है (उसका हृदय कभी) भीगता नहीं; अगर जहर को अमृत से सींचें (तो भी वह अमृत नहीं बन जाता) जहर का ही असर रहता है।
(पर) हे नानक! अगर प्रभु (गुरमुखों की) संगति मिलाए तो (मन में से माया के मोह वाली) सारी जहर उतर जाती है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ मरणि न मूरतु पुछिआ पुछी थिति न वारु ॥ इकन्ही लदिआ इकि लदि चले इकन्ही बधे भार ॥ इकन्हा होई साखती इकन्हा होई सार ॥ लसकर सणै दमामिआ छुटे बंक दुआर ॥ नानक ढेरी छारु की भी फिरि होई छार ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ मरणि न मूरतु पुछिआ पुछी थिति न वारु ॥ इकन्ही लदिआ इकि लदि चले इकन्ही बधे भार ॥ इकन्हा होई साखती इकन्हा होई सार ॥ लसकर सणै दमामिआ छुटे बंक दुआर ॥ नानक ढेरी छारु की भी फिरि होई छार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरणि = मरने ने, मौत ने। मूरतु = महूरत। वारु = दिन (हफते का)। इकि = कई जीव। साखती = घोड़े की पूँछ में डालने वाला गोल रस्सा जो चलने के वक्त डाला जाता है चाहे काठी पहले ही डाली हुई हो। साखती होई = (भाव) तैयारी हो गई। सार = संभाल। सार होई = चलने का बुलावा आ गया। सणे = समेत। दमामे = धौंसे। बंक = बाँके, सुंदर। छुटे = साथ छूट गया। छारु = राख, मिट्टी।
अर्थ: मौत ने (कभी) महूरत नहीं पूछा, कभी ये बात नहीं पूछी कि आज कौन सी तारीख है कौन सा वार है। कई जीवों ने (यहाँ से चलने के लिए, जैसे, अपना सामान) लाद लिया है, कई लाद के चल पड़े हैं और कई जीवों ने (सामान के) भार बाँध लिए हैं। कई जीवों की तैयारी हो गई है, और कई जीवों को चलने के बुलावे आ गए हैं; फौजें, दमामे और बाँके घर यहीं रह जाते हैं।
हे नानक! यह शरीर जो मिट्टी की मुट्ठी थी (जो मिट्टी से बना था) दोबारा मिट्टी में जा मिला।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ नानक ढेरी ढहि पई मिटी संदा कोटु ॥ भीतरि चोरु बहालिआ खोटु वे जीआ खोटु ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ नानक ढेरी ढहि पई मिटी संदा कोटु ॥ भीतरि चोरु बहालिआ खोटु वे जीआ खोटु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संदा = दा। कोटु = किला। भीतरि = अंदर। खोटु = खोटा कर्म। वे जीआ = हे जिंदे!
अर्थ: हे नानक! यह शरीर मिट्टी का किला था, सो आखिर मिट्टी का ये निर्माण गिर ही गया। हे जिंदे! तू (इस शरीर की खातिर) नित्य खोट ही कमाता रहा और अपने अंदर तूने चोर-मन को बैठाए रखा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिन अंदरि निंदा दुसटु है नक वढे नक वढाइआ ॥ महा करूप दुखीए सदा काले मुह माइआ ॥ भलके उठि नित पर दरबु हिरहि हरि नामु चुराइआ ॥ हरि जीउ तिन की संगति मत करहु रखि लेहु हरि राइआ ॥ नानक पइऐ किरति कमावदे मनमुखि दुखु पाइआ ॥१७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिन अंदरि निंदा दुसटु है नक वढे नक वढाइआ ॥ महा करूप दुखीए सदा काले मुह माइआ ॥ भलके उठि नित पर दरबु हिरहि हरि नामु चुराइआ ॥ हरि जीउ तिन की संगति मत करहु रखि लेहु हरि राइआ ॥ नानक पइऐ किरति कमावदे मनमुखि दुखु पाइआ ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुसटु = एैब, पाप। नकवढे = कटे हुए नाक वाले, बेशर्म। करूप = खराब रूप वाले, अपंग। काले मुह = काले मुँह वाले, भ्रष्ट हुए मुँह वाले। हिरहि = चुराते हैं। चुराइआ = चुराया जाता है, चोरी हो जाता है। किरति = मेहनत-कमाई अनुसार, पिछले किए काम अनुसार। पइऐ किरति = पिछले किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों अनुसार। भलके = नित्य। दरबु = द्रव्य, धन।
अर्थ: जिस (मन के मुरीद) मनुष्यों के मन में दूसरों की निंदा करने का बुरा स्वभाव होता है उनकी कहीं इज्जत नहीं होती (वे हर जगह) हल्के पड़ते हें; माया (के इस विकार में ग्रसे होने) के कारण वे बहुत कुरूप और भ्रष्ट मुँह वाले प्रतीत होते हैं और सदा दुखी रहते हैं।
जो मनुष्य सदा नित्य उठ के (भाव, स्वभावत:) दूसरों का धन चुराते हैं (भाव, जो निंदा करके दूसरों की इज्जत रूप धन छीनने का प्रयत्न करते हैं) उन (के अपने अंदर) का हरि-नाम (-रूप धन) चोरी हो जाता है। हे हरि जीउ! हे हरि राय! हमारी सहायता करो, हमें उनकी संगति ना दो।
हे नानक! मन के मुरीद मनुष्य पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (अब भी निंदा के कर्म) कमाते हैं और दुख पाते हैं।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ सभु कोई है खसम का खसमहु सभु को होइ ॥ हुकमु पछाणै खसम का ता सचु पावै कोइ ॥ गुरमुखि आपु पछाणीऐ बुरा न दीसै कोइ ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआईऐ सहिला आइआ सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ सभु कोई है खसम का खसमहु सभु को होइ ॥ हुकमु पछाणै खसम का ता सचु पावै कोइ ॥ गुरमुखि आपु पछाणीऐ बुरा न दीसै कोइ ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआईऐ सहिला आइआ सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ को = हरेक जीव। खसमहु = पति से। सचु = सदा कायम रहने वाला (खसम, पति)। कोइ = कोई जीव। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। धिआईऐ = स्मरण करें। सहिला = आसान, सुखी जीवन वाला। सोइ = वह मनुष्य।
अर्थ: हरेक जीव पति-प्रभु का है पति-प्रभु से हरेक जीव पैदा होता है; जब जीव पति का हुक्म पहचानता है तो सदा कायम रहने वाले प्रभु को प्राप्त कर लेता है। अगर गुरु के हुक्म में चल के स्वै की सूझ हो जाए तो (जगत में) कोई जीव बुरा नहीं लगता। हे नानक! (जगत में) पैदा हुआ जीव सुखी जीवन वाला होता है जो गुरु के सन्मुख हो के नाम स्मरण करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ सभना दाता आपि है आपे मेलणहारु ॥ नानक सबदि मिले न विछुड़हि जिना सेविआ हरि दातारु ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ सभना दाता आपि है आपे मेलणहारु ॥ नानक सबदि मिले न विछुड़हि जिना सेविआ हरि दातारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाता = देने वाला। आपे = स्वयं ही। मेलणहारु = (अपने साथ) मिलाने वाला। सबदि = शब्द में। सेविआ = स्मरण किया।
अर्थ: सब जीवों को (रोज़ी-रोटी आदि) देने वाला और (अपने साथ) मिलाने वाला प्रभु स्वयं ही है। हे नानक! जिन्होंने (सारे पदार्थ) देने वाले प्रभु को स्मरण किया है, जो गुरु के शब्द में जुड़े रहते हैं वे कभी प्रभु से विछुड़ते नहीं हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गुरमुखि हिरदै सांति है नाउ उगवि आइआ ॥ जप तप तीरथ संजम करे मेरे प्रभ भाइआ ॥ हिरदा सुधु हरि सेवदे सोहहि गुण गाइआ ॥ मेरे हरि जीउ एवै भावदा गुरमुखि तराइआ ॥ नानक गुरमुखि मेलिअनु हरि दरि सोहाइआ ॥१८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गुरमुखि हिरदै सांति है नाउ उगवि आइआ ॥ जप तप तीरथ संजम करे मेरे प्रभ भाइआ ॥ हिरदा सुधु हरि सेवदे सोहहि गुण गाइआ ॥ मेरे हरि जीउ एवै भावदा गुरमुखि तराइआ ॥ नानक गुरमुखि मेलिअनु हरि दरि सोहाइआ ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उगवि आइआ = प्रगट हो जाता है। नाउ उगवि आइआ = नाम (का चाव) पैदा हो जाता है। प्रभ भाइआ = प्रभु को प्यारे लगते हैं। सोहहि = सुंदर लगते हैं, शोभा देते हैं। एवै = इस तरह। मेलिअनु = उसी (प्रभु) ने मेले हैं। दरि = दर से, हजूरी में, चरणों में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होते हैं उनके हृदय में शांति होती है, (उनके मन में) नाम (जपने का चाव) पैदा हुआ रहता है। (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य) मेरे प्रभु को प्यारे लगते हैं, उन्होंने (जैसे) जप कर लिए हैं, तप साधु लिए हैं, तीर्थों पर नहा लिया है और मन को वश में करने के साधन साधु लिए हैं गुरमुखों का हृदय पवित्र होता है, वे प्रभु का स्मरण करते हैं और प्रभु की महिमा करके सुंदर लगते हैं। प्यारे प्रभु को भी यही बात भाती है, वह गुरमुखों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।
हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को प्रभु ने स्वयं अपने साथ मिला लिया होता है, वे प्रभु के दर पर सुंदर लगते हैं (शोभते हैं)।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ धनवंता इव ही कहै अवरी धन कउ जाउ ॥ नानकु निरधनु तितु दिनि जितु दिनि विसरै नाउ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ धनवंता इव ही कहै अवरी धन कउ जाउ ॥ नानकु निरधनु तितु दिनि जितु दिनि विसरै नाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इव ही = इसी तरह ही, ऐसे ही। धन कउ = धन के लिए, धन एकत्र करने के लिए। जाउ = जाऊँ। निरधनु = कंगाल। तितु दिनि = उस दिन में, उस दिन। जितु दिनि = जिस दिन।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘तितु’ और ‘जितु’, ‘तिसु’ और ‘जिसु’ के अधिकरण कारक एकवचन हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: धनवान मनुष्य (सदा) यूँ ही कहता है कि मैं और धन कमाने के लिए जाऊँ। पर, नानक तो उस दिन कंगाल (होगा) जिस दिन इसको परमात्मा का नाम बिसरेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सूरजु चड़ै विजोगि सभसै घटै आरजा ॥ तनु मनु रता भोगि कोई हारै को जिणै ॥ सभु को भरिआ फूकि आखणि कहणि न थम्हीऐ ॥ नानक वेखै आपि फूक कढाए ढहि पवै ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ सूरजु चड़ै विजोगि सभसै घटै आरजा ॥ तनु मनु रता भोगि कोई हारै को जिणै ॥ सभु को भरिआ फूकि आखणि कहणि न थम्हीऐ ॥ नानक वेखै आपि फूक कढाए ढहि पवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विजोगि = विछोड़े से, (दिन के) गुजरने से। सभसै = हरेक जीव की। आरजा = उम्र। रता = रंगा हुआ। भोगि = (माया के) भोगने में। सभु को = हरेक जीव। फूकि = अहंकार से। आखणि कहणि = कहने से कथन करने से, समझाने से। थंमीऐ = रोका जाता। आपि = प्रभु स्वयं। फूक = प्राण, श्वास। जिणै = जीतता है।
अर्थ: सूरज चढ़ता है (और डूबता है, इस तरह दिनों के) गुजरने से हरेक जीव की उम्र घट रही है, जिसका मन तन माया के भोगों में व्यस्त है वह तो मानव-जनम की बाजी हार जाता है, और, कोई (विरला, विरला, कोई एक) जीत के जाता है। (माया के कारण) हरेक जीव अहंकार से अफरा हुआ है, समझाने से अकड़ने से रुकता नहीं। हे नानक! परमात्मा स्वयं (जीव की अकड़ को) देख रहा है, जब वह इसकी सांसें समाप्त कर देता है तो यह (अहंकारी) धरती पर गिर जाता है (भाव, मिट्टी में मिल जाता है)।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सतसंगति नामु निधानु है जिथहु हरि पाइआ ॥ गुर परसादी घटि चानणा आन्हेरु गवाइआ ॥ लोहा पारसि भेटीऐ कंचनु होइ आइआ ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ नाउ पाईऐ मिलि नामु धिआइआ ॥ जिन्ह कै पोतै पुंनु है तिन्ही दरसनु पाइआ ॥१९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सतसंगति नामु निधानु है जिथहु हरि पाइआ ॥ गुर परसादी घटि चानणा आन्हेरु गवाइआ ॥ लोहा पारसि भेटीऐ कंचनु होइ आइआ ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ नाउ पाईऐ मिलि नामु धिआइआ ॥ जिन्ह कै पोतै पुंनु है तिन्ही दरसनु पाइआ ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिथहु = जिस जगह से, (भाव,) सत्संगति में से। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। घटि = हृदय में। पारसि = पारस से। कंचनु = सोना। सतिगुरि मिलिऐ = (पूरन कारदंतक, Locative Absolute) अगर गुरू मिले। मिलि = (गुरु को) मिल के। पोतै = खजाने में, भागों में (देखें पउड़ी नं: 2 की चौथी तुक)। तिनी = उन्होंने।
अर्थ: सत्संग में परमात्मा का नाम-रूप खजाना है, सत्संग में ही परमात्मा मिलता है, (सत्संग में रहने से) सतिगुरु की कृपा से हृदय में (प्रभु के नाम का) प्रकाश हो जाता है और (माया के मोह का) अंधेरा दूर हो जाता है। (जैसे) पारस से छूने पर लोहा सोना बन जाता है, (इसी तरह) हे नानक! अगर सतिगुरु मिल जाए (तो गुरु की छोह से) नाम मिल जाता है, (गुरु को) मिल के नाम स्मरण किया जाता है। पर (प्रभु का) दीदार उनको प्राप्त होता है जिनके भाग्यों में (पिछली की हुई) अच्छाई मौजूद है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ ध्रिगु तिना का जीविआ जि लिखि लिखि वेचहि नाउ ॥ खेती जिन की उजड़ै खलवाड़े किआ थाउ ॥ सचै सरमै बाहरे अगै लहहि न दादि ॥ अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ॥ अकली साहिबु सेवीऐ अकली पाईऐ मानु ॥ अकली पड़्हि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु ॥ नानकु आखै राहु एहु होरि गलां सैतानु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ ध्रिगु तिना का जीविआ जि लिखि लिखि वेचहि नाउ ॥ खेती जिन की उजड़ै खलवाड़े किआ थाउ ॥ सचै सरमै बाहरे अगै लहहि न दादि ॥ अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ॥ अकली साहिबु सेवीऐ अकली पाईऐ मानु ॥ अकली पड़्हि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु ॥ नानकु आखै राहु एहु होरि गलां सैतानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। नाउ = (तावीत व जंत्र मंत्र आदि की शकल में) प्रभु का नाम। किआ थाउ = (भाव,) कोई जगह नहीं, कहीं नहीं बनता। सरम = उद्यम। दादि = कद्र, शाबाश। बादि = व्यर्थं। सेवीऐ = स्मरण करें। मानु = इज्जत। कीचै दानु = (वह समझ) और लोगों को भी सिखाऐं
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम (तावीत व अन्य जंत्र-मंत्र की शकल में) बेचते हैं उनके जीवन को लाहनत है (धिक्कार है, अगर वे बँदगी भी करते हैं तो भी उनकी ‘नाम’ वाली फसल इस तरह साथ-साथ उजड़ती जाती है, और) जिनकी फसल (साथ-साथ) उजड़ती जाए उनका खलिहान कहाँ बनना हुआ? (भाव, उस बँदगी का अच्छा नतीजा नहीं निकल सकता, क्योंकि वे बँदगी के सही रास्ते से भटके हुए हैं)। सही मेहनत के बिना प्रभु की हजूरी में भी उनकी कद्र नहीं होती। (परमात्मा का नाम-स्मरण करना बड़ी सुंदर अकल की बात है, पर तावीत-धागे बना के देने में लग जाने पर यह) अकल व्यर्थ गवा लेना है; इसको अक्ल नहीं कहते।
अकल यह है कि परमात्मा का स्मरण करें और इज्जत कमाएं, अकल यह है कि (प्रभु की महिमा वाली वाणी) पढ़ें (इसके गहरे भेद) समझें और-और लोगों को समझाएं। नानक कहता है: जिंदगी का सही रास्ता सिर्फ यही है, (स्मरण से) लाभ की बातें (बताने वाला) शैतान है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ जैसा करै कहावै तैसा ऐसी बनी जरूरति ॥ होवहि लिंङ झिंङ नह होवहि ऐसी कहीऐ सूरति ॥ जो ओसु इछे सो फलु पाए तां नानक कहीऐ मूरति ॥२॥
मूलम्
मः २ ॥ जैसा करै कहावै तैसा ऐसी बनी जरूरति ॥ होवहि लिंङ झिंङ नह होवहि ऐसी कहीऐ सूरति ॥ जो ओसु इछे सो फलु पाए तां नानक कहीऐ मूरति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसी बनी जरूरति = आवश्यक्ता ऐसी बनी हुई है, नियम ऐसा बना हुआ है। कहावै = कहलवाता है। लिंङ = लिंग, नरोए अंग। झिंङ = झिंग, झड़े हुए शिथिल अंग। ऐसी कहीऐ सूरति = ऐसी सूरति मनुष्य की सूरत कहें, मनुष्य का शरीर ऐसा ही होना चाहिए। ओसु = उस प्रभु को। ओसु इछे = उस प्रभु को मिलने के लिए चाहत रखता है। मूरति = मनुष्य जामा, मनुष्य अस्तित्व।
अर्थ: ऐसी ही मर्यादा बनी हुई है कि मनुष्य जिस प्रकार के कर्म करता है वैसा ही उसका नाम पड़ जाता है। (इस मर्यादा के अनुसार असल में) वही शरीर मनुष्य-शरीर कहलवाने के योग्य होता है जिसके नरोए अंग होते हैं, जिसके अंग शिथिल नहीं होते।
(इस तरह) हे नानक! वही अस्तित्व मनुष्य-अस्तित्व कहा जाना चाहिए जिसके अंदर प्रभु के मिलने की चाहत हो (तड़प हो), और (इस तमन्ना अनुसार प्रभु-मिलाप-रूप) फल प्राप्त हो जाए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सतिगुरु अम्रित बिरखु है अम्रित रसि फलिआ ॥ जिसु परापति सो लहै गुर सबदी मिलिआ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै हरि सेती रलिआ ॥ जमकालु जोहि न सकई घटि चानणु बलिआ ॥ नानक बखसि मिलाइअनु फिरि गरभि न गलिआ ॥२०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सतिगुरु अम्रित बिरखु है अम्रित रसि फलिआ ॥ जिसु परापति सो लहै गुर सबदी मिलिआ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै हरि सेती रलिआ ॥ जमकालु जोहि न सकई घटि चानणु बलिआ ॥ नानक बखसि मिलाइअनु फिरि गरभि न गलिआ ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित बिरखु = अमृत का वृक्ष, आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल का वृक्ष। रसि = रस से। जिसु = जिस को। जिसु परापति = जिसको मिलना (संयोगों में लिखा हुआ है)। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। कै भाणै = की रज़ा में। सेती = साथ। जोहि न सकई = देख नहीं सकता, घूर नहीं सकता। बखसि = बख्शिश करके। मिलाइअनु = मिलाए हैं उसने। गरभि = गर्भ में (भाव, जूनियों में)।
अर्थ: गुरु (जैसे) अमृत का वृक्ष है जो अमृत के रस से फला हुआ है (भाव, जिसको अमृत-रस-रूप फल लगा हुआ है, जिससे नाम-अमृत का रस मिलता है)। (यह नाम-रस रूप अमृत-फल) गुरु के शब्द से ही मिलता है, पर वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसके भाग्यों में प्राप्त करना धुर से लिखा हुआ है। जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है, वह परमात्मा के साथ एक-रूप हुआ रहता है। उस मनुष्य को जमकाल घूर नहीं सकता (भाव, मौत का डर उसको छू नहीं सकता) क्योंकि उसके हृदय में ईश्वरीय-ज्योति जाग उठती है।
हे नानक! जिस लोगों को उस प्रभु ने बख्शिश करके अपने साथ मिलाया है वे बार-बार जूनियों में नहीं गलते।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ सचु वरतु संतोखु तीरथु गिआनु धिआनु इसनानु ॥ दइआ देवता खिमा जपमाली ते माणस परधान ॥ जुगति धोती सुरति चउका तिलकु करणी होइ ॥ भाउ भोजनु नानका विरला त कोई कोइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ सचु वरतु संतोखु तीरथु गिआनु धिआनु इसनानु ॥ दइआ देवता खिमा जपमाली ते माणस परधान ॥ जुगति धोती सुरति चउका तिलकु करणी होइ ॥ भाउ भोजनु नानका विरला त कोई कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआन = प्रभु के गुणों की विचार, जीवन आदर्श की समझ। धिआनु = प्रभु के चरणों में चिक्त जोड़ना। जपमाली = माला। परधान = जाने माने, पंच, सिर पर तुरने वाले, नायक, नेता, नायक। जुगति = जीने की विधि। करणी = उच्च आचरण। भाउ = प्रेम। त = पर। खिमा = सहने का स्वभाव।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने सच को व्रत बनाया (भाव, सच धारण करने का प्रण लिया है), संतोख जिनका तीर्थ है, जीवन-उद्देश्य की समझ और प्रभु-चरणों में चिक्त जोड़ने को जिन्होंने तीर्थों का स्नान समझा है, दया जिनका ईष्ट-देव है, (दूसरों की ज्यादती) सहने की आदत (क्षमा) जिनकी माला है; (सदाचारी जीवन) जीने की जुगति जिनके लिए (देव-पूजा के वक्त पहनने वाली) धोती है, तवज्जो (को पवित्र रखना) जिनका (स्वच्छ) चौका है, ऊँचे आचरण का जिन्होंने माथे पर तिलक लगाया हुआ है, और प्रेम जिस (की आत्मा) की ख़ुराक है, हे नानक! वे मनुष्य सबसे अच्छे हैं; पर, ऐसा मनुष्य है कोई विरला-विरला।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला ३ ॥ नउमी नेमु सचु जे करै ॥ काम क्रोधु त्रिसना उचरै ॥ दसमी दसे दुआर जे ठाकै एकादसी एकु करि जाणै ॥ दुआदसी पंच वसगति करि राखै तउ नानक मनु मानै ॥ ऐसा वरतु रहीजै पाडे होर बहुतु सिख किआ दीजै ॥२॥
मूलम्
महला ३ ॥ नउमी नेमु सचु जे करै ॥ काम क्रोधु त्रिसना उचरै ॥ दसमी दसे दुआर जे ठाकै एकादसी एकु करि जाणै ॥ दुआदसी पंच वसगति करि राखै तउ नानक मनु मानै ॥ ऐसा वरतु रहीजै पाडे होर बहुतु सिख किआ दीजै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेम = नियम, नित्य कर्म। उचरै = उच्चरै (उच+चरै, उच+चरै) अच्छी तरह खा जाए। दसे दुआर = दसों ही इंद्रिय। ठाकै = रोक के रखे। एकु करि जाणै = एक परमात्मा को हर जगह समझे। पंच = कामादिक पाँच विकार। वसगति करि राखै = काबू में रखे। मानै = मानता है, पतीजता है, वासना के पीछे दौड़ने से रुकता है, अमोड़पन से हटता है। वरतु = (रोटी ना खाने का) इकरार, प्रण, व्रत। रहीजै = निभाएं। सिख = शिक्षा।
अर्थ: जो मनुष्य सच धारण करने के नियम को नउमी (का व्रत) बनाए, काम-क्रोध और लालच को अच्छी तरह दूर कर ले; अगर दसों ही इन्द्रियों को (विकारों से) रोक के रखे (इस उद्यम को) दसमी (तिथि का व्रत) बनाए, एक परमात्मा को हर जगह व्यापक समझे- यह उसकी ऐकादशी का व्रत हो, पाँच-कामादिकों को काबू में रखे- और यह उसका द्वादशी का व्रत हो, तो, हे नानक! मन पतीज जाता है।
हे पण्डित! अगर इस तरह का व्रत निभा सकें तो किसी और शिक्षा की आवश्यक्ता नहीं पड़ती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ भूपति राजे रंग राइ संचहि बिखु माइआ ॥ करि करि हेतु वधाइदे पर दरबु चुराइआ ॥ पुत्र कलत्र न विसहहि बहु प्रीति लगाइआ ॥ वेखदिआ ही माइआ धुहि गई पछुतहि पछुताइआ ॥ जम दरि बधे मारीअहि नानक हरि भाइआ ॥२१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ भूपति राजे रंग राइ संचहि बिखु माइआ ॥ करि करि हेतु वधाइदे पर दरबु चुराइआ ॥ पुत्र कलत्र न विसहहि बहु प्रीति लगाइआ ॥ वेखदिआ ही माइआ धुहि गई पछुतहि पछुताइआ ॥ जम दरि बधे मारीअहि नानक हरि भाइआ ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूपति = (भू = धरती। पति = खसम) धरती का पति, प्रभु। राजे = बादशाह ने। रंग = रंक, कंगाल। राइ = अमीर। संचहि = इकट्ठी करते हैं। बिखु = जहर। करि करि = संचि कर कर के, जोड़ जोड़ के। हेतु = (माया से) हित। पर = पराया। दरबु = धन। कलत्र = पत्नी। विसहहि = विसाह करना, ऐतबार करना। धुहि गई = छल के चली गई। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं (देखें पौड़ी नं: 3 की चौथी तुक)।
अर्थ: पातशाह, राजे, कंगाल और अमीर - सब माया-रूप जहर इकट्ठा करते हैं। संचित कर करके (इससे) हित बढ़ाते हैं (और अगर दाँव लगे तो) दूसरों का धन (भी) चुरा लेते हैं, माया से (इतना) ज्यादा हित जोड़ते हैं कि पुत्र और पत्नी का ऐतबार भी नहीं करते; (पर जब) आँखों के सामने ही माया ही माया छल के (भाव, अपने मोह में फसा के) चली जाती है तो (इसको जोड़ने वाले) आहें भरते हैं; (भाव, ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे) जम के दरवाजे पर बँधे हुए मार खा रहे हैं। हे नानक! (किसी के वश की बात नहीं) प्रभु का ऐसे ही अच्छा लगता है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ गिआन विहूणा गावै गीत ॥ भुखे मुलां घरे मसीति ॥ मखटू होइ कै कंन पड़ाए ॥ फकरु करे होरु जाति गवाए ॥ गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ ॥ ता कै मूलि न लगीऐ पाइ ॥ घालि खाइ किछु हथहु देइ ॥ नानक राहु पछाणहि सेइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ गिआन विहूणा गावै गीत ॥ भुखे मुलां घरे मसीति ॥ मखटू होइ कै कंन पड़ाए ॥ फकरु करे होरु जाति गवाए ॥ गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ ॥ ता कै मूलि न लगीऐ पाइ ॥ घालि खाइ किछु हथहु देइ ॥ नानक राहु पछाणहि सेइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विहूणा = वंचित, खाली, बग़ैर। गिआन = आत्मिक जीवन की समझ। घरे = घर में ही, घर की खातिर ही, रोटी की खातिर ही। मखटू = निखट्टू, जो कमा ना सके। कंन पड़ाए = कान फटवा लेता है, जोगी बन जाता है। फकरु करे = फकीर बन जाता है। जाति गवाए = कुल की अणख छोड़ बैठता है। होरु = एक और मनुष्य। सदाए = कहलवाता है। ता कै पाइ = उसके पैर पर। मूलि न = बिल्कुल नहीं। घालि = मेहनत कर के, मेहनत से कमा के। पछाणहि = पहचानते हैं। सेई = वही लोग (बहुवचन)।
अर्थ: (पण्डित का ये हाल है कि) परमात्मा के भजन तो गाता है पर खुद समझ से वंचित है (भाव, भजन गाने को वह रोजी का साधन बनाए रखता है, समझ ऊँची नहीं हो सकी)। भूख के मारे हुए मुल्ला की मस्जिद भी रोजी की ही खातिर है (भाव, मुलला ने बाँग नमाज़ आदि मस्जिद की क्रिया को रोटी का साधन ही बनाया हुआ है) (तीसरा एक) और है जो (हड-हराम) आलसी होने के कारण कान फड़वा लेता है, फकीर बन जाता है, कुल की अणख गवा बैठता है, (वैसे तो अपने आप को) गुरु-पीर कहलवाता है (पर रोटी दर-दर) माँगता-फिरता है; ऐसे लोगों के पैरों में भी कभी नहीं लगना चाहिए।
जो-जो मनुष्य मेहनत से कमा के (स्वयं) खाते हैं और उस कमाई में से कुछ (और लोगों को भी) देते हैं, हे नानक! ऐसे बंदे ही जिंदगी का सही रास्ता पहचानते हैं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ मनहु जि अंधे कूप कहिआ बिरदु न जाणन्ही ॥ मनि अंधै ऊंधै कवलि दिसन्हि खरे करूप ॥ इकि कहि जाणहि कहिआ बुझहि ते नर सुघड़ सरूप ॥ इकना नाद न बेद न गीअ रसु रस कस न जाणंति ॥ इकना सुधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥ नानक से नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंति ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ मनहु जि अंधे कूप कहिआ बिरदु न जाणन्ही ॥ मनि अंधै ऊंधै कवलि दिसन्हि खरे करूप ॥ इकि कहि जाणहि कहिआ बुझहि ते नर सुघड़ सरूप ॥ इकना नाद न बेद न गीअ रसु रस कस न जाणंति ॥ इकना सुधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥ नानक से नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधे कूप = अंधे कूएँ, बहुत ही मूर्ख। बिरदु = (मानवीय) फर्ज। कहिआ = बताने पर भी, कहने पर भी। मनि अंधै = अंधे मन के कारण। ऊंधै कवलि = उल्टे हुए (हृदय) कंवल के कारण। खरे करूप = बहुत कुरूप। कहि जाणहि = बात कहनी जानते हैं। सुघड़ = सु+घड़, अच्छी घाड़त वाले, निपुण। नाद रसु = नाद का रस। बेद रसु = वेद का रस। गीअ रसु = गीत का रस। रस कस = मीठे कसैले रस। सुधि = सूझ। बुधि = बुद्धि। सर = सार, समझ। भेउ = भेद। अखर का भेउ = पढ़ने की विधि। असलि खर = निरे गधे। गरबु = अहंकार। जि = जो।
अर्थ: जो मनुष्य मन से अंधे कूँए हैं (भाव, महा मूर्ख हैं), वे बताने पर भी मानवीय फर्ज को नहीं जानते; मन अंधा होने के कारण और हृदय-कमल (धर्म से) उल्टा होने के कारण वह लोग बहुत बुरे लगते हैं। कई मनुष्य ऐसे हैं जो बात करनी भी जानते हैं और किसी का कहा समझते भी हैं वे मनुष्य निपुण और सुंदर लगते हैं।
कई लोगों को (तो) ना जोगियों के नाद का रस, ना वेद का शौक, ना राग के प्रति आकर्षण - किसी तरह के कोमल कला की तरफ रुचि ही नहीं है, ना सूझ, ना बुद्धि, ना अकल की सार, और एक अक्षर भी पढ़ना नहीं जानते। हे नानक! जिनमें कोई भी गुण ना हो और अहंकार किए जाएं, वे मनुष्य सिर्फ गधे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गुरमुखि सभ पवितु है धनु स्मपै माइआ ॥ हरि अरथि जो खरचदे देंदे सुखु पाइआ ॥ जो हरि नामु धिआइदे तिन तोटि न आइआ ॥ गुरमुखां नदरी आवदा माइआ सुटि पाइआ ॥ नानक भगतां होरु चिति न आवई हरि नामि समाइआ ॥२२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गुरमुखि सभ पवितु है धनु स्मपै माइआ ॥ हरि अरथि जो खरचदे देंदे सुखु पाइआ ॥ जो हरि नामु धिआइदे तिन तोटि न आइआ ॥ गुरमुखां नदरी आवदा माइआ सुटि पाइआ ॥ नानक भगतां होरु चिति न आवई हरि नामि समाइआ ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संपै = धन। जो = क्योंकि वह। तोटि = कमी, घाटा। सुटि पाइआ = हाथों से देते हैं। चिति = चिक्त में। आवई = आए, आता। नामि = नाम में। अरथि = अर्थ में, की खातिर।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलते हैं उनके लिए धन-पदार्थ माया आदि सब कुछ पवित्र है क्योंकि वे रब लेखे भी खर्चते हैं और (जरूरतमंदों को) देते हैं (ज्यों-ज्यों बाँटते हैं त्यो-त्यों) सुख पाते हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं (और माया जरूरतमंदों को देते हैं) उनको (माया की) कमी नहीं आती; गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को (ये बात) साफ दिखती है, (इस वास्ते) वे माया (और लोगों को भी) हाथों से देते हैं।
हे नानक! भक्ति करने वाले बंदों को (प्रभु के नाम के बिना कुछ) और चिक्त नहीं आता (भाव, धन आदि का मोह उनके मन में घर नहीं कर सकता) वे प्रभु के नाम में लीन रहते हैं।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ४ ॥ सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ सचै सबदि जिन्हा एक लिव लागी ॥ गिरह कुट्मब महि सहजि समाधी ॥ नानक नामि रते से सचे बैरागी ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ४ ॥ सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ सचै सबदि जिन्हा एक लिव लागी ॥ गिरह कुट्मब महि सहजि समाधी ॥ नानक नामि रते से सचे बैरागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिरह = गृहस्थ। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। नामि = नाम में। बैरागी = विरक्त।
अर्थ: वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं जो अपने गुरु के बताए हुए राह पर चलते हैं, गुरु के सच्चे शब्द के द्वारा जिनकी तवज्जो एक परमात्मा में लगी रहती है, जो गृहस्थ-परिवार में रहते हुए भी अडोल अवस्था में टिके रहते हैं। हे नानक! वे मनुष्य असल विरक्त हैं जो प्रभु के नाम में रंगे हुए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ गणतै सेव न होवई कीता थाइ न पाइ ॥ सबदै सादु न आइओ सचि न लगो भाउ ॥ सतिगुरु पिआरा न लगई मनहठि आवै जाइ ॥ जे इक विख अगाहा भरे तां दस विखां पिछाहा जाइ ॥ सतिगुर की सेवा चाकरी जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ आपु गवाइ सतिगुरू नो मिलै सहजे रहै समाइ ॥ नानक तिन्हा नामु न वीसरै सचे मेलि मिलाइ ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ गणतै सेव न होवई कीता थाइ न पाइ ॥ सबदै सादु न आइओ सचि न लगो भाउ ॥ सतिगुरु पिआरा न लगई मनहठि आवै जाइ ॥ जे इक विख अगाहा भरे तां दस विखां पिछाहा जाइ ॥ सतिगुर की सेवा चाकरी जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ आपु गवाइ सतिगुरू नो मिलै सहजे रहै समाइ ॥ नानक तिन्हा नामु न वीसरै सचे मेलि मिलाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गणतै = लेखा करने से, बता बता के, तारीफ़ कर करके। थाइ न पाइ = स्वीकार नहीं होता। सादु = स्वाद, रस, आनंद। सचि = सच में, प्रभु के नाम में। भाउ = प्यार। आइओ = आया। हठि = हठ से। विख = कदम। भाइ = रज़ा अनुसार। आपु = स्वै भाव। सहजे = सहज में, आत्मिक अडोलता में ही।
अर्थ: अगर ये कहते रहे कि हमने फलाना काम किया, वह सेवा की तो इस तरह सेवा नहीं हो सकती, इस तरह किया हुआ कोई भी काम सफल नहीं होता। जिस मनुष्य को सतिगुरु के शब्द का आनंद नहीं आता, प्रभु के नाम में उसका प्यार नहीं बन सकता। जिसको गुरु प्यारा नहीं लगता वह मन के हठ से ही (गुरु के दर पर) आता है (भाव, गुरु-दर पे जाने का उसको कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि) अगर वह एक कदम आगे को उठाता है तो दस कदम पीछे जा पड़ता है।
अगर मनुष्य सतिगुरु के भाणे में चले, तब ही गुरु की सेवा-चाकरी स्वीकार होती है। जो मनुष्य स्वै-भाव मिटा के गुरु के दर पर जाए तो वह अडोल अवस्था में टिका रहता है। हे नानक! ऐसे लोगों को प्रभु का नाम नहीं भूलता, वे सदा कायम रहने वाले प्रभु में जुड़े रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ खान मलूक कहाइदे को रहणु न पाई ॥ गड़्ह मंदर गच गीरीआ किछु साथि न जाई ॥ सोइन साखति पउण वेग ध्रिगु ध्रिगु चतुराई ॥ छतीह अम्रित परकार करहि बहु मैलु वधाई ॥ नानक जो देवै तिसहि न जाणन्ही मनमुखि दुखु पाई ॥२३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ खान मलूक कहाइदे को रहणु न पाई ॥ गड़्ह मंदर गच गीरीआ किछु साथि न जाई ॥ सोइन साखति पउण वेग ध्रिगु ध्रिगु चतुराई ॥ छतीह अम्रित परकार करहि बहु मैलु वधाई ॥ नानक जो देवै तिसहि न जाणन्ही मनमुखि दुखु पाई ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मलूक = बादशाह। गढ़ = किले। गच गीरीआ = चूने-गच इमारतें, वह इमारतें जिनमें पकड़ चूने की हो (गीर = पकड़)। साखति = घोड़े की पूँछ में डालने वाला रस्सा, दुमची। वेग = रफतार। मैल = विष्टा।
अर्थ: (जो लोग अपने आप को) ख़ान और बादशाह कहलवाते हैं (तो भी क्या हुआ?) कोई (यहाँ सदा) नहीं रह सकता; अगर किले, सुंदर घर और चूने की इमारतें हों (तो भी क्या है?) कोई चीज़ (मनुष्य के मरने पर) साथ नहीं जाती, अगर सोने की दुमचियां वाले और हवा जैसी तेज़ रफतार वाले घोड़े हों (तो भी इन पर गुमान और) अकड़ दिखानी धिक्कार-योग्य है, अगर कई किस्मों के सुंदर-स्वादिष्ट खाने खाए हों (तो भी) बहुत विष्टा ही बढ़ाते हैं!
हे नानक! जो दातार प्रभु ये सारी चीज़ें देता है अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य उसके साथ गहरी सांझ नहीं डालते (इसलिए) दुख ही पाते हैं।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ पड़्हि पड़्हि पंडित मुोनी थके देसंतर भवि थके भेखधारी ॥ दूजै भाइ नाउ कदे न पाइनि दुखु लागा अति भारी ॥ मूरख अंधे त्रै गुण सेवहि माइआ कै बिउहारी ॥ अंदरि कपटु उदरु भरण कै ताई पाठ पड़हि गावारी ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए जिन हउमै विचहु मारी ॥ नानक पड़णा गुनणा इकु नाउ है बूझै को बीचारी ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ पड़्हि पड़्हि पंडित मुोनी थके देसंतर भवि थके भेखधारी ॥ दूजै भाइ नाउ कदे न पाइनि दुखु लागा अति भारी ॥ मूरख अंधे त्रै गुण सेवहि माइआ कै बिउहारी ॥ अंदरि कपटु उदरु भरण कै ताई पाठ पड़हि गावारी ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए जिन हउमै विचहु मारी ॥ नानक पड़णा गुनणा इकु नाउ है बूझै को बीचारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुोनी = मुनि, औरों के साथ बात ना करने वाले, मौनधारी। देसंतरु = देस+अंतरु, और-और देश। भेखधारी = भेखी साधु। दूजै भाइ = प्रभु के बिना और (भाव, माया) में प्यार के कारण। त्रै गुण = रजो गुण, तमो गुण, सतो गुण (जब किसी आदर-सम्मान धन आदि के लिए मनुष्य दौड़-भाग करता है तो ‘रजो’ गुण प्रबल होता है, जब काम-क्रोध निंदा-ईष्या आदि मन की नीच लहरों में बहता जाता है तब ‘तमो’ गुण का प्रभाव होता है; कई बार मनुष्य दान-पुण्य हमदर्दी आदि तरंगों के असर में शांति-सहज हो जाता है, उस वक्त ‘सतो’ गुण प्रधान होता है)। कपटु = खोट। उदरु = पेट। कै ताई = की खातिर। को वीचारी = कोई विचारवान। गुनणा = विचारना।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मुोनी’ में से अक्षर ‘म’ के साथ ‘ु’ और ‘ो’ मात्राएं हैं, यहाँ पढ़ना है ‘मोनी’; असल शब्द ‘मुनि’ है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मुनि और पण्डित (वेद आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के थक गए, भेखधारी साधु धरती का रटन कर के थक गए; इतना (व्यर्थ) तकलीफ़ें ही सहते रहे, (जब तक) प्रभु के बग़ैर किसी और के प्यार में मन फसा हुआ है (पंडित क्या और साधु क्या, कोई भी चाहे हो) प्रभु का नाम प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि माया के व्यापारी बने रहने के कारण मूर्ख अंधे मनुष्य तीन गुणों को ही सीते हैं (भाव, तीनों गुणों में ही रहते हैं)। वह मूर्ख (बाहर तो) रोजी कमाने की खातिर (धर्म-पुस्तकों का) पाठ करते हैं, पर (उनके) मन में खोट ही टिका रहता है।
जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है वह सुख पाता है (क्योंकि गुरु के राह पर चलने वाले मनुष्य) मन में से अहंकार दूर कर लेते हैं। हे नानक! सिर्फ परमात्मा का नाम ही पढ़ने और विचारने-योग्य है, पर कोई विचारवान ही इस बात को समझता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ नांगे आवणा नांगे जाणा हरि हुकमु पाइआ किआ कीजै ॥ जिस की वसतु सोई लै जाइगा रोसु किसै सिउ कीजै ॥ गुरमुखि होवै सु भाणा मंने सहजे हरि रसु पीजै ॥ नानक सुखदाता सदा सलाहिहु रसना रामु रवीजै ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ नांगे आवणा नांगे जाणा हरि हुकमु पाइआ किआ कीजै ॥ जिस की वसतु सोई लै जाइगा रोसु किसै सिउ कीजै ॥ गुरमुखि होवै सु भाणा मंने सहजे हरि रसु पीजै ॥ नानक सुखदाता सदा सलाहिहु रसना रामु रवीजै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ कीजै = क्या किया जा सकता है? कोई ना = नुकर नहीं की जा सकती। किसै सिउ = किसी से? रोसु = गिला, रोश। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। सहजे = सहज अवस्था में रह के, अडोल रह के। रसना = जीभ से। नांगे = (भाव,) खाली हाथ।
अर्थ: जगत में हरेक जीव खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही यहाँ से चला जाता है; प्रभु ने यही हुक्म रखा है, इसमें कोई ना-नुकर नहीं की जा सकती; (यह जिंद) जिस प्रभु की दी हुई चीज़ है वही वापस ले जाता है, (इस बारे में) किसी से कोई गिला (-शिकवा) नहीं किया जा सकता।
गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य प्रभु की रज़ा को मानता है, और (किसी प्यारे के मरने पर भी) अडोल रहके नाम-अमृत पीता है।
हे नानक! सदा सुख देने वाले प्रभु को स्मरण करो, और जीभ से प्रभु का नाम जपो।2।
[[1247]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गड़्हि काइआ सीगार बहु भांति बणाई ॥ रंग परंग कतीफिआ पहिरहि धर माई ॥ लाल सुपेद दुलीचिआ बहु सभा बणाई ॥ दुखु खाणा दुखु भोगणा गरबै गरबाई ॥ नानक नामु न चेतिओ अंति लए छडाई ॥२४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गड़्हि काइआ सीगार बहु भांति बणाई ॥ रंग परंग कतीफिआ पहिरहि धर माई ॥ लाल सुपेद दुलीचिआ बहु सभा बणाई ॥ दुखु खाणा दुखु भोगणा गरबै गरबाई ॥ नानक नामु न चेतिओ अंति लए छडाई ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गढ़ि = किले पर। काइआ = शरीर। बहु भांति = कई किस्मों के। रंग परंग = रंग बिरंगी। कतीफिआ = (अरबी: कतीफ़त) रेश्मी कपड़े। धर माई = माया धारी। सुपेद = सफेद। सभा = मजलिस। गरबै = अहंकार में, अकड़ में। गरबाई = गरब में, अहंकार में। अंति = आखिर को।
अर्थ: माया-धारी मनुष्य शरीर (-रूप) किले पर कई तरह के श्रृंगार बनाते हैं, रंग-बिरंगे रेशमी कपड़े पहनते हैं, लाल और सफेद गलीचों पर बैठ कर बड़ी-बड़ी सभाएं लगाते हैं, अहंकार में ही अकड़ में ही (सदा रहते हैं)। (इसलिए उनको) खाने और भोगने को दुख ही मिलता है (भाव, मन में शांति नहीं होती, क्योंकि) हे नानक! वे परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते जो आखिर (दुख से) निजात दिलवाता है।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ सहजे सुखि सुती सबदि समाइ ॥ आपे प्रभि मेलि लई गलि लाइ ॥ दुबिधा चूकी सहजि सुभाइ ॥ अंतरि नामु वसिआ मनि आइ ॥ से कंठि लाए जि भंनि घड़ाइ ॥ नानक जो धुरि मिले से हुणि आणि मिलाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ सहजे सुखि सुती सबदि समाइ ॥ आपे प्रभि मेलि लई गलि लाइ ॥ दुबिधा चूकी सहजि सुभाइ ॥ अंतरि नामु वसिआ मनि आइ ॥ से कंठि लाए जि भंनि घड़ाइ ॥ नानक जो धुरि मिले से हुणि आणि मिलाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि समाइ = गुरु के शब्द में लीन हो के। सुखि सुती = सुख में टिक गई। प्रभि = प्रभु ने। गलि लाइ = गले से लगा के, बड़े प्यार से। दुबिधा = दोचिक्तापन। (दो+विधा, दो किस्म का)। जि = जिन्होंने। भंनि घड़ाइ = मन के पहले स्वभाव को तोड़ के नए सिरे से घड़ा है। धुरि = पहले से। आणि = ला के। हुणि = इस जनम में। सुभाइ = प्रेम में।
अर्थ: जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द में लीन हो के अडोल अवस्था में टिकती है, उसको प्रभु ने स्वयं ही प्यार से मिला लिया है, आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिके रहने के कारण उसका दोचिक्ता-पन दूर हो जाता है, उसके अंदर मन में प्रभु का नाम आ बसता है।
उन जीवों को प्रभु अपने गले से लगा लेता है जो (जो अपने मन के पहले वाले स्वभाव को) तोड़ के (नए सिरे से घड़ के) सुंदर बनाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य धुर से ही प्रभु के साथ मिले चले आ रहे हैं, उनको इस जनम में भी ला के अपने साथ मिलाए रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ किआ जपु जापहि होरि ॥ बिसटा अंदरि कीट से मुठे धंधै चोरि ॥ नानक नामु न वीसरै झूठे लालच होरि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ किआ जपु जापहि होरि ॥ बिसटा अंदरि कीट से मुठे धंधै चोरि ॥ नानक नामु न वीसरै झूठे लालच होरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ जापहि = जपने का क्या लाभ? किआ जपु जापहि = जप जपने का कोई लाभ नहीं। होरि = (किसी) और (रस) में। कीट = कीड़े। से = वह लोग। मुठे धंधै चोरि = धंधे रूप चोर से ठगे हुए। धंधै = धंधे ने, जंजाल ने। चोरि = चोर ने। होरि लालच = (प्रभु के बिना) और-और ख्वाहिशें। झूठे = व्यर्थ।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने प्रभु का नाम बिसारा है, किसी और रस में पड़ कर जप, जपने का, उनको कोई लाभ नहीं मिल सकता, क्योंकि जिनको दुनिया के जंजाल-रूप चोर ने ठगा हुआ वे (ऐसे विलूं-विलूं करते) हैं जैसे विष्टा में कीड़े।
हे नानक! (यही अरदास कर कि) प्रभु का नाम ना भूले, और सारे लालच व्यर्थ हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नामु सलाहनि नामु मंनि असथिरु जगि सोई ॥ हिरदै हरि हरि चितवै दूजा नही कोई ॥ रोमि रोमि हरि उचरै खिनु खिनु हरि सोई ॥ गुरमुखि जनमु सकारथा निरमलु मलु खोई ॥ नानक जीवदा पुरखु धिआइआ अमरा पदु होई ॥२५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नामु सलाहनि नामु मंनि असथिरु जगि सोई ॥ हिरदै हरि हरि चितवै दूजा नही कोई ॥ रोमि रोमि हरि उचरै खिनु खिनु हरि सोई ॥ गुरमुखि जनमु सकारथा निरमलु मलु खोई ॥ नानक जीवदा पुरखु धिआइआ अमरा पदु होई ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालाहनि = सराहना करते हैं। मंनि = मन में (बसाते हैं)। असथिरु = अटल जीवन वाले।, अडोल आत्मिक जीवन वाले, वे जो माया के हाथों में नहीं नाचते। जगि = जगत में। हिरदै = हृदय में। चितवै = चेते करता है (एकवचन)। रोमि रोमि = हरेक रोम से, पूरी तौर पर तन से मन से। उचरै = उचारता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सकारथा = सफल, कामयाब। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। खोई = दूर कर लेता है, नाश कर लेता है। जीवदा = सदा कायम रहने वाला। पुरखु = सर्व व्यापक। पदु = दर्जा। अमरा पदु = अटल आत्मिक जीवन वाला दर्जा।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करते हैं, परमात्मा का नाम (अपने) मन में (बसाए रखते हैं) वही जगत में अटल आत्मिक जीवन वाले बनते हैं।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला जो मनुष्य (अपने) हृदय में हर वक्त परमात्मा को याद करता है (परमात्मा के बिना) किसी और को (मन में) नहीं बसाता, जो मनुष्य रोम-रोम प्रभु को याद करता है हर छिन उस परमात्मा को ही याद करता रहता है, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है, वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है (वह मनुष्य अपने अंदर से विकारों की मैल) दूर कर लेता है।
हे नानक! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले सर्व-व्यापक परमात्मा को याद करता रहता है उसको अटल आत्मिक जीवन वाला दर्जा मिल जाता है (वह मनुष्य आत्मिक जीवन की उस उच्चता पर पहुँच जाता है जहाँ माया के हल्ले उसको डोला नहीं सकते)।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ जिनी नामु विसारिआ बहु करम कमावहि होरि ॥ नानक जम पुरि बधे मारीअहि जिउ संन्ही उपरि चोर ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ जिनी नामु विसारिआ बहु करम कमावहि होरि ॥ नानक जम पुरि बधे मारीअहि जिउ संन्ही उपरि चोर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारीअहि = मार खाते हैं। जम पुरि = जम की पुरी में, जमराज की हजूरी में। होर करम = और-और (करम)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस मनुष्यों ने परमात्मा को भुला दिया है और अन्य कई तरह के काम करते हैं, हे नानक! वे मनुष्य जमराज के सामने बँधे हुए इस तरह मार खाते हैं जैसे सेंध पर (रंगे हाथ) पकड़े गए चोर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ धरति सुहावड़ी आकासु सुहंदा जपंदिआ हरि नाउ ॥ नानक नाम विहूणिआ तिन्ह तन खावहि काउ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ धरति सुहावड़ी आकासु सुहंदा जपंदिआ हरि नाउ ॥ नानक नाम विहूणिआ तिन्ह तन खावहि काउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिन तन = उन के शरीरों को। काउ = कौए (भाव, विषौ विकार)।
अर्थ: परमात्मा का नाम स्मरण करने वाले बंदों को धरती और आकाश सुहावने लगते हैं (क्योंकि उनके अंदर शांति-शीतलता बनी रहती है); पर, हे नानक! जो मनुष्य नाम से वंचित हैं, उनके शरीर को विषौ-विकार कौऐ ही खाते रहते हैं (और, उनके अंदर विषौ-विकार होने के कारण उनको प्रभु की कुदरति में कोई सुंदरता सोहावनी नहीं लगती)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नामु सलाहनि भाउ करि निज महली वासा ॥ ओइ बाहुड़ि जोनि न आवनी फिरि होहि न बिनासा ॥ हरि सेती रंगि रवि रहे सभ सास गिरासा ॥ हरि का रंगु कदे न उतरै गुरमुखि परगासा ॥ ओइ किरपा करि कै मेलिअनु नानक हरि पासा ॥२६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नामु सलाहनि भाउ करि निज महली वासा ॥ ओइ बाहुड़ि जोनि न आवनी फिरि होहि न बिनासा ॥ हरि सेती रंगि रवि रहे सभ सास गिरासा ॥ हरि का रंगु कदे न उतरै गुरमुखि परगासा ॥ ओइ किरपा करि कै मेलिअनु नानक हरि पासा ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। भाउ करि = प्रेम कर के, प्रेम से। निज = बिलकुल अपना। बाहुड़ि = फिर, दोबारा। आवनी = (आवन्ही) आते। बिनासा = नाश। रंगि = प्रेम से। रवि रहे = रच मिच जाते हैं। सास गिरासा = सांस लेते हुए और ग्रास लेते हुए, हरेक सांस के साथ खाते पीते हुए। रंगु = प्यार। ओइ = वे लोग। मेलिअनु = मेल लिए हैं उस (प्रभु) ने। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने वाला मनुष्य।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ शब्द ‘ओहु’ का एक वचन है, ‘ओइ’ बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य प्रेम से परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं वे बिलकुल अपने (हृदय-रूप, प्रभु की हजूरी-रूप) महल में टिके रहते हैं, वे लोग बार-बार ना जूनियों में आते हैं ना मरते हैं; सांस-सांस, खाते-पीते (हर वक्त) वे प्रेम से प्रभु में रचे-मिचे रहते हैं; उन गुरमुखों के अंदर हरि-नाम का प्रकाश हो जाता है, हरि-नाम का रंग कभी (उनके मन से) उतरता नहीं है।
हे नानक! प्रभु ने अपनी मेहर करके उनको अपने साथ मिला लिया होता है, वे सदा प्रभु के नजदीक बसते हैं।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ जिचरु इहु मनु लहरी विचि है हउमै बहुतु अहंकारु ॥ सबदै सादु न आवई नामि न लगै पिआरु ॥ सेवा थाइ न पवई तिस की खपि खपि होइ खुआरु ॥ नानक सेवकु सोई आखीऐ जो सिरु धरे उतारि ॥ सतिगुर का भाणा मंनि लए सबदु रखै उर धारि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ जिचरु इहु मनु लहरी विचि है हउमै बहुतु अहंकारु ॥ सबदै सादु न आवई नामि न लगै पिआरु ॥ सेवा थाइ न पवई तिस की खपि खपि होइ खुआरु ॥ नानक सेवकु सोई आखीऐ जो सिरु धरे उतारि ॥ सतिगुर का भाणा मंनि लए सबदु रखै उर धारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सादु = स्वाद, रस। थाइ न पवई = स्वीकार नहीं होता। उतारि = उतार के। सिरु धरे उतारि = अपना सिर उतार के रख दे, अपनी चतुराई चालाकी छोड़ दे। उरधारि = हृदय में टिका के।
अर्थ: जब तक मनुष्य का यह मन (माया की) लहरों में (डोलता रहता है) तब तक इसके अंदर बहुत अहंकार है बड़ा गुमान होता है, इसको सतिगुरु के शब्द का रस नहीं आता, प्रभु के नाम में इसका प्यार नहीं बनता, इसकी की हुई सेवा स्वीकार नहीं होती (और अहंकार के कारण) खिझ-खिझ के दुखी रहता है।
हे नानक! वही मनुष्य असली सेवक कहलवाता है जो अपनी चतुराई-चालाकी छोड़ देता है, सतिगुरु का भाणा (मर्जी) स्वीकार करता है और गुरु-शब्द को हृदय में परोए रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सो जपु तपु सेवा चाकरी जो खसमै भावै ॥ आपे बखसे मेलि लए आपतु गवावै ॥ मिलिआ कदे न वीछुड़ै जोती जोति मिलावै ॥ नानक गुर परसादी सो बुझसी जिसु आपि बुझावै ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ सो जपु तपु सेवा चाकरी जो खसमै भावै ॥ आपे बखसे मेलि लए आपतु गवावै ॥ मिलिआ कदे न वीछुड़ै जोती जोति मिलावै ॥ नानक गुर परसादी सो बुझसी जिसु आपि बुझावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जो काम। खसमै भावै = मालिक प्रभु को अच्छा लगता है। चाकरी = नौकरी, सेवा। आपतु = स्वै भाव, अहंकार। जोति = आत्मा। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। बुझसी = (इस भेद को) समझ लेता है।
अर्थ: जो काम मालिक-प्रभु को पसंद आ जाए, वही काम सेवक का जप है तप है और सेवा-चाकरी है; जो मनुष्य स्वै भाव मिटाता है उसको प्रभु स्वयं मेहर करके (अपने साथ) मिला लेता है, और (प्रभु-चरणों में) मिला हुआ ऐसा व्यक्ति दोबारा कभी विछुड़ता नहीं है उसकी आत्मा प्रभु की आत्मा के साथ एक-मेक हो जाती है।
हे नानक! (इस भेद को) गुरु की कृपा से वही मनुष्य समझता है जिसको प्रभु स्वयं समझ बख्शता है।2।
[[1248]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सभु को लेखे विचि है मनमुखु अहंकारी ॥ हरि नामु कदे न चेतई जमकालु सिरि मारी ॥ पाप बिकार मनूर सभि लदे बहु भारी ॥ मारगु बिखमु डरावणा किउ तरीऐ तारी ॥ नानक गुरि राखे से उबरे हरि नामि उधारी ॥२७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सभु को लेखे विचि है मनमुखु अहंकारी ॥ हरि नामु कदे न चेतई जमकालु सिरि मारी ॥ पाप बिकार मनूर सभि लदे बहु भारी ॥ मारगु बिखमु डरावणा किउ तरीऐ तारी ॥ नानक गुरि राखे से उबरे हरि नामि उधारी ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। लेखे विचि = हुक्म में, निहित मर्यादा में, उस मर्यादा में जो प्रभु ने संसार की जुगति को चलाने के लिए मिथ दी है। मनमुख = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सिरि = सिर पर। मनूर = जला हुआ व जंग लगा लोहा (भाव, व्यर्थ भार)। मारगु = रास्ता, जीवन-यात्रा का मार्ग। बिखमु = मुश्किल। गुरि = गुरु ने। उबरे = बच निकले। नामि = नाम ने। किउ तरीऐ = पार लंघाना मुश्किल है।
अर्थ: हरेक जीव (को उस) मर्यादा के अंदर (चलना पड़ता है जो प्रभु ने जीवन-जुगति के लिए मिथी हुई) है, पर मन का मुरीद मनुष्य अहंकार करता है (भाव, उस मर्यादा से आकी होने का प्रयत्न करता है), कभी प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता (जिसके कारण) जमकाल (उसके) सिर पर (चोट) मारता है (भाव, वह सदा आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है)।
पापों और दुष्कर्मों के व्यर्थ व बोझल भार से लदे हुए जीवों के लिए जिंदगी का रास्ता बहुत मुश्किल और डरावना हो जाता है (इस संसार-समुंदर में से) उनके द्वारा तैरा नहीं जा सकता। हे नानक! जिनकी सहायता गुरु ने की है वे बच निकलते हैं, प्रभु के नाम ने उनको बचा लिया होता है।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ विणु सतिगुर सेवे सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ मोह ठगउली पाईअनु बहु दूजै भाइ विकार ॥ इकि गुर परसादी उबरे तिसु जन कउ करहि सभि नमसकार ॥ नानक अनदिनु नामु धिआइ तू अंतरि जितु पावहि मोख दुआर ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ विणु सतिगुर सेवे सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ मोह ठगउली पाईअनु बहु दूजै भाइ विकार ॥ इकि गुर परसादी उबरे तिसु जन कउ करहि सभि नमसकार ॥ नानक अनदिनु नामु धिआइ तू अंतरि जितु पावहि मोख दुआर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वारो वार = बार बार। ठगउली = ठग-बूटी, वह बूटी जो ठग किसी को खिला के बेहोश करके लूट लेते हैं। पाईअनु = पाई है उस (प्रभु) ने। बहु विकार = कई बुरे कर्मं। दूजै भाइ = (प्रभु को छोड़ के) किसी और के प्यार में। इकि = कई लोग। उबरे = बच जाते हैं। सभि = सारे जीव। करहि नमसकार = सिर झुकाते हैं। अनदिनु = हर रोज। अंतरि = हृदय में। जितु = जिस (स्मरण) की इनायत से। मोख दुआर = (मोह ठग-बूटी से) बचने का राह।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सतिगुरु के बताए हुए राह पर चले बिना सुख नहीं मिलता (गुरु से टूटे हुए जीव) बार-बार पैदा होते मरते हैं, मोह की ठग-बूटी उस प्रभु ने (ऐसी) डाली है कि (ईश्वर से बे-ध्यान हो के) माया के प्यार में (फंस के) बहुत सारे बुरे कर्म करते हैं, पर कई (भाग्यशाली लोग) सतिगुरु की कृपा से (इस ठग-बूटी से) बच जाते हैं, (जो जो बचता है) उसको सारे लोग सिर झुकाते हैं।
हे नानक! तू भी हर रोज (अपने) हृदय में प्रभु का नाम स्मरण कर, जिस (स्मरण की) इनायत से तू (इस ‘मोह ठगउली’ से) बचने का साधन हासिल कर लेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ माइआ मोहि विसारिआ सचु मरणा हरि नामु ॥ धंधा करतिआ जनमु गइआ अंदरि दुखु सहामु ॥ नानक सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ जिन्ह पूरबि लिखिआ करामु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ माइआ मोहि विसारिआ सचु मरणा हरि नामु ॥ धंधा करतिआ जनमु गइआ अंदरि दुखु सहामु ॥ नानक सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ जिन्ह पूरबि लिखिआ करामु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह के कारण। सचु = अटल, सदा कायम रहने वाला। अंदरि = मन में। सहामु = सहता है। सेवि = सेवा करके, हुक्म में चल के। पूरबि = आदि से। करामु = कर्म, काम (भाव, गुरु की सेवा करने का काम)। सुखु = आत्मिक आनंद।
अर्थ: मौत अटल है, प्रभु का नाम सदा-स्थिर रहने वाला है; पर, यह बात जिस मनुष्य ने माया के मोह में (फंस के) भुला दी है, उसका सारा जीवन माया के धंधे करते हुए गुजर जाता है और वह अपने मन में दुख सहता है।
हे नानक! आदि से जिनके माथे पर (गुरु सेवा का लेख) लिखा हुआ है उन्होंने गुरु के हुक्म में चल के आत्मिक आनंद पाया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ लेखा पड़ीऐ हरि नामु फिरि लेखु न होई ॥ पुछि न सकै कोइ हरि दरि सद ढोई ॥ जमकालु मिलै दे भेट सेवकु नित होई ॥ पूरे गुर ते महलु पाइआ पति परगटु लोई ॥ नानक अनहद धुनी दरि वजदे मिलिआ हरि सोई ॥२८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ लेखा पड़ीऐ हरि नामु फिरि लेखु न होई ॥ पुछि न सकै कोइ हरि दरि सद ढोई ॥ जमकालु मिलै दे भेट सेवकु नित होई ॥ पूरे गुर ते महलु पाइआ पति परगटु लोई ॥ नानक अनहद धुनी दरि वजदे मिलिआ हरि सोई ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लेखु = चित्र, पापों विकारों का मन में संचय। दरि = दर पर, हजूरी में। सद = सदा। ढोई = पहुँच, आसरा। भेट दे मिलै = भेटा आगे रख के मिलता है, आदर सत्कार करता है। महलु = ठिकाना, असल घर, प्रभु का मिलाप। पति = इज्जत। लोई = जगत में, लोक में (कहत कबीर सुनहु रे लोई। रे लोई = हे जगत!)। अनहद = (अन+हद) एक रस, बिना बजाए बजने वाले। धुनी = सुर। अनहद धुनी = एक रस सुर वाले बाजे। दरि = दर पर, हजूरी में, प्रभु की हजूरी में रहने वाली अवस्था में।
अर्थ: अगर हरि-नाम (स्मरण-रूपी) लेखा पढ़ें तो फिर विकार आदि के संस्कारों का चित्र मन में नहीं बनता; प्रभु की हजूरी में सदा पहुँच बनी रहती है, किसी विकार के बारे में कोई पूछ नहीं सकता (भाव, कोई भी ऐसा बुरा कर्म नहीं किया होता जिस के बाबत कोई उंगली उठा सके); जम काल (चोट करने की जगह) आदर-सत्कार करता है और सदा के लिए सेवक बन जाता है।
पर यह मेल वाली अवस्था पूरे गुरु से हासिल होती है और जगत में इज्जत बन जाती है। हे नानक! जब वह प्रभु मिल जाता है, उसकी हजूरी में (टिके रहने पर, अंदर, जैसे) एक-रस सुर वाले बाजे बजने लग जाते हैं।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ गुर का कहिआ जे करे सुखी हू सुखु सारु ॥ गुर की करणी भउ कटीऐ नानक पावहि पारु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ गुर का कहिआ जे करे सुखी हू सुखु सारु ॥ गुर की करणी भउ कटीऐ नानक पावहि पारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। पारु = (‘भउ’ के) उस पार। पावहि = तू पा लेगा।
अर्थ: अगर मनुष्य सतिगुरु के बताए हुए हुक्म की पालना करे तो सुखों में से चुनिंदा श्रेष्ठ सुख मिलता है। सतिगुरु के द्वारा बताया हुआ कर्म करने से डर दूर हो जाता है, हे नानक! (यदि तू गुरु वाली ‘करणी’ करेगा तो) तू (‘भउ’ का) उस पार का किनारा पा लेगा (भाव, ‘भउ’-सागर से पार लांघ जाएगा)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सचु पुराणा ना थीऐ नामु न मैला होइ ॥ गुर कै भाणै जे चलै बहुड़ि न आवणु होइ ॥ नानक नामि विसारिऐ आवण जाणा दोइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ सचु पुराणा ना थीऐ नामु न मैला होइ ॥ गुर कै भाणै जे चलै बहुड़ि न आवणु होइ ॥ नानक नामि विसारिऐ आवण जाणा दोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ बना प्यार। मैला = विकारों से गंदा। पुराणा = कमजोर।
अर्थ: (हे भाई! यदि मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के साथ प्यार डाल ले तो) परमात्मा के साथ बना हुआ वह प्यार कभी कमजोर नहीं होता। (जिस हृदय में) परमात्मा का नाम (बसता है, वह हृदय कभी) विकारों से गंदा नहीं होता।
अगर मनुष्य गुरु की रज़ा में चले तो दोबारा उसको जनम (मरन का चक्कर) नहीं होता। हे नानक! अगर नाम बिसार दें तो जनम-मरीण दोनों बने रहते हैं (भाव, जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ मंगत जनु जाचै दानु हरि देहु सुभाइ ॥ हरि दरसन की पिआस है दरसनि त्रिपताइ ॥ खिनु पलु घड़ी न जीवऊ बिनु देखे मरां माइ ॥ सतिगुरि नालि दिखालिआ रवि रहिआ सभ थाइ ॥ सुतिआ आपि उठालि देइ नानक लिव लाइ ॥२९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ मंगत जनु जाचै दानु हरि देहु सुभाइ ॥ हरि दरसन की पिआस है दरसनि त्रिपताइ ॥ खिनु पलु घड़ी न जीवऊ बिनु देखे मरां माइ ॥ सतिगुरि नालि दिखालिआ रवि रहिआ सभ थाइ ॥ सुतिआ आपि उठालि देइ नानक लिव लाइ ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगत जनु = भिखारी (मै भिखारी)। जाचै = माँगता है। दानु = खैर। हरि = हे प्रभु! सुभाइ = स्वै भाइ, प्यार से। दरसनि = दर्शनों से, दीदार करने से। त्रिपताइ = तृप्त हो जाया जाता है, संतोख पैदा होता है। न जीवऊ = मैं जी नहीं सकता। माइ = हे माँ! सतिगुरि = गुरु ने। सभि थाइ = हर जगह। लिव लाइ = लगन लगा के। उठालि = जगा के।
अर्थ: हे प्रभु! मैं जाचक (मैं मँगता) एक ख़ैर माँगता हूँ, अपने हाथ से (वह ख़ैर) मुझे दे, मुझे, हे हरि! तेरे दीदार की प्यास है, दीदार से ही (मेरे अंदर) शीतलता आ सकती है।
हे माँ! मैं हरि के दर्शनों के बिना मरता हूँ एक पल भर घड़ी भर भी जी नहीं सकता।
जब मेरे गुरु ने मेरा प्रभु मेरे अंदर ही दिखा दिया तो वह सब जगह व्यापक दिखाई देने लग पड़ा।
हे नानक! (अपने नाम की) लगन लगा के वह स्वयं ही (माया में) सोए हुओं को जगा के (नाम की) दाति देता है।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणन्ही ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ थाउ कुथाउ न जाणनी सदा चितवहि बिकार ॥ दरगह लेखा मंगीऐ ओथै होहि कूड़िआर ॥ आपे स्रिसटि उपाईअनु आपि करे बीचारु ॥ नानक किस नो आखीऐ सभु वरतै आपि सचिआरु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणन्ही ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ थाउ कुथाउ न जाणनी सदा चितवहि बिकार ॥ दरगह लेखा मंगीऐ ओथै होहि कूड़िआर ॥ आपे स्रिसटि उपाईअनु आपि करे बीचारु ॥ नानक किस नो आखीऐ सभु वरतै आपि सचिआरु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। कुथाउ = खराब जगह। चितवहि = सोचते हैं। दरगह = प्रभु की हजूरी में। उपाईअनु = उपाई है उस प्रभु ने। किस नो आखीऐ = किसी को भी बुरा नहीं कहा जा सकता। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है। होहि = होते हैं। होहि कूड़िआर = नाशवान पदार्थों के व्यापारी ही साबित होते हैं। सचिआरु = सत्य का श्रोत प्रभु।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जाणनी, ओना’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है; जिसे पढ़ना है ‘जाणन्ही, ओन्हा’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले लोग सही बात करनी भी नहीं जानते क्योंकि उनके मन में काम क्रोध और अहंकार (प्रबल) होता है; वे सदा ही बुरी बातें ही सोचते हैं, उचित-अनुचित जगह भी नहीं समझते (भाव, उन्हें यह समझ भी नहीं होती कि यह काम यहाँ करना फबता भी है अथवा नहीं); जब प्रभु की हजूरी में किए कर्मों का हिसाब पूछा जाता है तब वह झूठे साबित होते हैं।
पर, हे नानक! उस प्रभु ने स्वयं ही सारी सृष्टि पैदा की है, (भाव, सबमें व्यापक हो के) वह स्वयं ही हरेक विचार कर रहा है, सब जगह वह सच का श्रोत प्रभु स्वयं (ही) मौजूद है, सो, किसी (मनमुख) को (भी बुरा) नहीं कहा जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ हरि गुरमुखि तिन्ही अराधिआ जिन्ह करमि परापति होइ ॥ नानक हउ बलिहारी तिन्ह कउ जिन्ह हरि मनि वसिआ सोइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ हरि गुरमुखि तिन्ही अराधिआ जिन्ह करमि परापति होइ ॥ नानक हउ बलिहारी तिन्ह कउ जिन्ह हरि मनि वसिआ सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = वह लोग जो गुरु के सन्मुख रहते हैं। करमि = (प्रभु की) मेहर से। परापति होइ = मिला होता है, भाग्यों में लिखा होता है। हउ बलिहारी = मैं सदके। मनि = मन में। सोइ हरि = वह प्रभु।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रह के उन मनुष्यों ने प्रभु को स्मरण किया है जिनके भाग्यों में प्रभु की मेहर से ‘स्मरण’ लिखा हुआ है। हे नानक! (कह:) मैं उन लोगों से सदके हूँ, जिनके मन में वह प्रभु बसता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आस करे सभु लोकु बहु जीवणु जाणिआ ॥ नित जीवण कउ चितु गड़्ह मंडप सवारिआ ॥ वलवंच करि उपाव माइआ हिरि आणिआ ॥ जमकालु निहाले सास आव घटै बेतालिआ ॥ नानक गुर सरणाई उबरे हरि गुर रखवालिआ ॥३०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आस करे सभु लोकु बहु जीवणु जाणिआ ॥ नित जीवण कउ चितु गड़्ह मंडप सवारिआ ॥ वलवंच करि उपाव माइआ हिरि आणिआ ॥ जमकालु निहाले सास आव घटै बेतालिआ ॥ नानक गुर सरणाई उबरे हरि गुर रखवालिआ ॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ लोकु = सारा जगत। बहु जीवन = लंबी उम्र। जाणिआ = जान के, समझ के। गढ़ = किले। बलवंच = ठगीयां। उपाव = उपाय, हीले। हिरि = चुरा के। आणिआ = लाए हैं। निहाले = देखता है, ध्यान से देखता है, गिनता है। आव = उम्र। बेतालिआ = भूतने जैसे मनुष्य की, सही जीवन चाल से टूटे हुए मनुष्य की। सास = सांस (बहुवचन)। जीवन कउ = जीने के लिए। चितु = दिल, तमन्ना।
अर्थ: लंबी जिंदगी समझ के सारा जग (भाव, हरेक दुनियादार मनुष्य) आशाएं बनाता है, सदा जीने की तमन्ना (रखता है और) किले-मड़ियां आदि सजाता (रहता) है, ठगीयां और अन्य कई उपाय कर कर के (दूसरों का) माल ठग के ले के आता है, (ऊपर से) जमराज (इसकी) सांसें गिनता जा रहा है, जीवन-ताल से टूटे हुए इस मनुष्य की उम्र घटती चली जा रही है।
हे नानक! (आशाओं के इस लंबे जाल में से) वही बचते हैं जो गुरु की शरण पड़ते हैं जिनका रखवाला गुरु अकाल-पुरख स्वयं बनता है।30।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ पड़ि पड़ि पंडित वादु वखाणदे माइआ मोह सुआइ ॥ दूजै भाइ नामु विसारिआ मन मूरख मिलै सजाइ ॥ जिन्हि कीते तिसै न सेवन्ही देदा रिजकु समाइ ॥ जम का फाहा गलहु न कटीऐ फिरि फिरि आवहि जाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ सतिगुरु मिलिआ तिन आइ ॥ अनदिनु नामु धिआइदे नानक सचि समाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ पड़ि पड़ि पंडित वादु वखाणदे माइआ मोह सुआइ ॥ दूजै भाइ नामु विसारिआ मन मूरख मिलै सजाइ ॥ जिन्हि कीते तिसै न सेवन्ही देदा रिजकु समाइ ॥ जम का फाहा गलहु न कटीऐ फिरि फिरि आवहि जाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ सतिगुरु मिलिआ तिन आइ ॥ अनदिनु नामु धिआइदे नानक सचि समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वादु = बहस, झगड़ा, चर्चा। सुआइ = स्वाद में। सजाइ = सजा। जिन्हि = जिस (प्रभु) ने। समाइ देदा = पहुँचता है (-संबाहि)। जाइ = जनम ले के। आवहि जाइ = जनम ले के आते हैं। सचि = सच में, सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। गलहु = गले से।
अर्थ: पंडित (धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के (सिर्फ) चर्चा ही करते हैं और माया के मोह के चस्के में (फसे रहते हैं; माया के प्यार में) प्रभु का नाम भुलाए रखते हैं (इस वास्ते) मूर्ख मन को सजा मिलती है; जिस (प्रभु) ने पैदा किया है जो (सदा) रिज़क पहुँचाता है उसको याद नहीं करते, (इस कारण) उनके गले से जमों की फाँसी काटी नहीं जाती, वे (जगत में) बार-बार पैदा होते (मरते) हैं।
जिनके भाग्यों में धुर से (स्मरण का लेख) लिखा हुआ है उन्हें गुरु आ मिलता है, हे नानक! वे सदा-स्थिर प्रभु में लीन रह के हर रोज नाम स्मरण करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सचु वणजहि सचु सेवदे जि गुरमुखि पैरी पाहि ॥ नानक गुर कै भाणै जे चलहि सहजे सचि समाहि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ सचु वणजहि सचु सेवदे जि गुरमुखि पैरी पाहि ॥ नानक गुर कै भाणै जे चलहि सहजे सचि समाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के। सचि = सच में, सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा कायम रहने वाला नाम। वणजहि = व्यापार करते हैं। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिक के।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के (गुरु के) चरणों में लगते हैं, वे प्रभु के नाम का व्यापार करते हैं, नाम स्मरण करते हैं। हे नानक! जो गुरु के हुक्म में चलते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिक के सच्चे नाम में लीन हो जाते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ऊपर दिए गए ‘समाइ’ और यहाँ के ‘समाहि’ में अंतर है, याद रखें)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आसा विचि अति दुखु घणा मनमुखि चितु लाइआ ॥ गुरमुखि भए निरास परम सुखु पाइआ ॥ विचे गिरह उदास अलिपत लिव लाइआ ॥ ओना सोगु विजोगु न विआपई हरि भाणा भाइआ ॥ नानक हरि सेती सदा रवि रहे धुरि लए मिलाइआ ॥३१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आसा विचि अति दुखु घणा मनमुखि चितु लाइआ ॥ गुरमुखि भए निरास परम सुखु पाइआ ॥ विचे गिरह उदास अलिपत लिव लाइआ ॥ ओना सोगु विजोगु न विआपई हरि भाणा भाइआ ॥ नानक हरि सेती सदा रवि रहे धुरि लए मिलाइआ ॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति घणा = बहुत ज्यादा। मनमुखि = मन का मुरीद मनुष्य, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। निरास = (निर+आस) आशाओं से निराले। परम = सबसे ऊँचा। गिरह = घर, गृहस्थ। विचे = बीच में ही। अलिपत = (अ+लिप्त) जो लिपे नहीं जाते, जिस पर असर नहीं होता, निराले, अछोह। ओना = (ओन्हा)। सोगु = शोक, अफसोस। विजोगु = विछोड़ा। न विआपई = ना व्यापे, दबाव नहीं डालता। भाणा = रजा। भाइआ = अच्छा लगता है। रवि रहे = रले मिले रहते हैं। धुरि = धर से, हजूरी से। सेती = साथ, से।
अर्थ: मन के पीछे चलने वाला मनुष्य आशाओं में चिक्त जोड़ता है (भाव, आशाएं बनाता रहता है, पर) आशाओं (चितवनी) में बहुत ज्यादा दुख होता है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलते हैं वे आशाएं नहीं चितवते, इसलिए उन्हें बहुत ही ऊँचा सुख मिलता है; वे गृहस्थ में रहते हुए ही (प्रभु चरणों में) ध्यान जोड़ते हैं और आशाओं से ऊपर रहते हैं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता, सो, उनको (माया का) विछोड़ा नहीं सताता और ना ही (इस वियोग से पैदा होने वाला) ग़म आ के दबाव डालता है, उन्हें प्रभु की रज़ा अच्छी लगती है; हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा के साथ रले-मिले रहते हैं, उनको धुर से ही प्रभु ने अपने साथ मिला लिया होता है।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ पराई अमाण किउ रखीऐ दिती ही सुखु होइ ॥ गुर का सबदु गुर थै टिकै होर थै परगटु न होइ ॥ अंन्हे वसि माणकु पइआ घरि घरि वेचण जाइ ॥ ओना परख न आवई अढु न पलै पाइ ॥ जे आपि परख न आवई तां पारखीआ थावहु लइओु परखाइ ॥ जे ओसु नालि चितु लाए तां वथु लहै नउ निधि पलै पाइ ॥ घरि होदै धनि जगु भुखा मुआ बिनु सतिगुर सोझी न होइ ॥ सबदु सीतलु मनि तनि वसै तिथै सोगु विजोगु न कोइ ॥ वसतु पराई आपि गरबु करे मूरखु आपु गणाए ॥ नानक बिनु बूझे किनै न पाइओ फिरि फिरि आवै जाए ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ पराई अमाण किउ रखीऐ दिती ही सुखु होइ ॥ गुर का सबदु गुर थै टिकै होर थै परगटु न होइ ॥ अंन्हे वसि माणकु पइआ घरि घरि वेचण जाइ ॥ ओना परख न आवई अढु न पलै पाइ ॥ जे आपि परख न आवई तां पारखीआ थावहु लइओु परखाइ ॥ जे ओसु नालि चितु लाए तां वथु लहै नउ निधि पलै पाइ ॥ घरि होदै धनि जगु भुखा मुआ बिनु सतिगुर सोझी न होइ ॥ सबदु सीतलु मनि तनि वसै तिथै सोगु विजोगु न कोइ ॥ वसतु पराई आपि गरबु करे मूरखु आपु गणाए ॥ नानक बिनु बूझे किनै न पाइओ फिरि फिरि आवै जाए ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शलोक की दूसरी तुक से ऐसा लगता है कि गुरु अमरदास जी ने यह गुरु रामदास जी को गुरुता-गद्दी सौंपते वक्त संन् 1574 में लिखीं थीं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमाण = अमानत। गुर थै = गुरु में। होरथै = किसी और के अंदर। माणकु = मोती। परख = सार, कद्र। अढु = आधी कौड़ी। पलै न पाइ = नहीं मिलती। थावहु = से, पास से। परखाइ लइओु = परखवा लेना, कोई भी चाहे मूल्यांकन करवा लेवे। वथु = नाम वस्तु, नाम सेती। नउ निधि = नौ खजाने। तिथै = उस मन तन में। गरबु = अहंकार। आपु गणाए = अपने आप को अच्छा जानता है। घरि घरि = हरेक घर में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लइओु’ ‘पाइओ’ में फर्क याद रखने योग्य है। ‘लइउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एकवचन, Imperative mood, Third Person, Singular Number.
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: बेगानी अमानत संभाल नहीं लेनी चाहिए, इसके देने से ही सुख मिलता है; सतिगुरु का शब्द सतिगुरु में ही टिक सकता है, किसी और के अंदर (पूरे जोबन में) नहीं चमकता; (क्योंकि) अगर एक मोती किसी अंधे को मिल जाए तो वह उसको बेचने के लिए घर-घर फिरता है, आगे से उन लोगों को उस मोती की कद्र नहीं होती, (इस लिए इस अंधे को) आधी कौड़ी भी नहीं मिलती।
मोती की कद्र यदि स्वयं करनी ना आती हो, तो बेशक कोई पक्ष किसी पारखी से (उसका) मूल्यांकन करवा के देख ले। उस पारखी से प्रेम लगाने से वह नाम-मोती मिला रहता है (भाव, हाथ से व्यर्थ नहीं जाता) और (जैसे) नौ खजाने प्राप्त हो जाते हैं।
(हृदय) घर में (नाम) धन होते हुए भी जगत भूखा (भाव, तृष्णा का मारा) मर रहा है, ये समझ गुरु के बिना नहीं आती; जिसके मन में तन में ठंड डालने वाला शब्द बसता है उसको (प्रभु से) विछोड़ा नहीं होता और ना ही सोग व्यापता है।
(पर, यह नाम-) वस्तु मूर्ख के लिए तो बेगानी रहती है (भाव, मूर्ख के हृदय में नहीं बसती) वह अहंकार करता हैऔर अपने आप को बड़ा जताता है। हे नानक! जब तक (गुरु-शब्द के द्वारा) समझ नहीं पड़ती, तब तक किसी ने (ये नाम धन) प्राप्त नहीं किया (और इस नाम-धन के बिना जीव) बार-बार पैदा होता मरता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मनि अनदु भइआ मिलिआ हरि प्रीतमु सरसे सजण संत पिआरे ॥ जो धुरि मिले न विछुड़हि कबहू जि आपि मेले करतारे ॥ अंतरि सबदु रविआ गुरु पाइआ सगले दूख निवारे ॥ हरि सुखदाता सदा सलाही अंतरि रखां उर धारे ॥ मनमुखु तिन की बखीली कि करे जि सचै सबदि सवारे ॥ ओना दी आपि पति रखसी मेरा पिआरा सरणागति पए गुर दुआरे ॥ नानक गुरमुखि से सुहेले भए मुख ऊजल दरबारे ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मनि अनदु भइआ मिलिआ हरि प्रीतमु सरसे सजण संत पिआरे ॥ जो धुरि मिले न विछुड़हि कबहू जि आपि मेले करतारे ॥ अंतरि सबदु रविआ गुरु पाइआ सगले दूख निवारे ॥ हरि सुखदाता सदा सलाही अंतरि रखां उर धारे ॥ मनमुखु तिन की बखीली कि करे जि सचै सबदि सवारे ॥ ओना दी आपि पति रखसी मेरा पिआरा सरणागति पए गुर दुआरे ॥ नानक गुरमुखि से सुहेले भए मुख ऊजल दरबारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। सरसे = (स+रसे) खिल उठे, प्रसन्न हो गए। सजण = गुरमुख। धुरि = धुर से, आदि से। जि = जिनको। रविआ = प्रकट हुआ, बसा। निवारे = दूर किए। अंतरि उरधारे = हृदय में धार के। बखीली = चुगली। सचै = सच्चे प्रभु ने। सबदि = गुरु शब्द द्वारा। पति = इज्जत। सहेले = सुखी। दरबारे = प्रभु की हजूरी में। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य।
अर्थ: वे गुरमुख प्यारे संत खिले माथे रहते हैं, उनके मन में खुशी बनी रहती है, जिनको प्रीतम प्रभु मिल जाता है; जो धुर से प्रभु के साथ मिले हुए होते हैं, जिनको कर्तार ने खुद अपने साथ मिलाया है, वे कभी उससे विछुड़ते नहीं हैं।
जिनके अंदर गुरु का शब्द बसता है, जिनको गुरु मिल जाता है, उनके सारे दुख दूर हो जाते हैं, (उनके अंदर यह तमन्ना होती है:) मैं सुख देने वाले प्रभु की सदा महिमा करूँ, मैं प्रभु को सदा हृदय में संभाल के रखूँ।
जिनको गुरु-शब्द के द्वारा सच्चे प्रभु ने खुद सुंदर बना दिया है, कोई मनमुख उनकी क्या निंदा कर सकता है? प्यारा प्रभु उनकी इज्जत खुद रखता है, वह सदा गुरु के दर पर प्रभु की शरण में टिके रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इसतरी पुरखै बहु प्रीति मिलि मोहु वधाइआ ॥ पुत्रु कलत्रु नित वेखै विगसै मोहि माइआ ॥ देसि परदेसि धनु चोराइ आणि मुहि पाइआ ॥ अंति होवै वैर विरोधु को सकै न छडाइआ ॥ नानक विणु नावै ध्रिगु मोहु जितु लगि दुखु पाइआ ॥३२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इसतरी पुरखै बहु प्रीति मिलि मोहु वधाइआ ॥ पुत्रु कलत्रु नित वेखै विगसै मोहि माइआ ॥ देसि परदेसि धनु चोराइ आणि मुहि पाइआ ॥ अंति होवै वैर विरोधु को सकै न छडाइआ ॥ नानक विणु नावै ध्रिगु मोहु जितु लगि दुखु पाइआ ॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखै = मनुष्य की। मिलि = (स्त्री को) मिल के। कलत्रु = स्त्री। विगसै = खुश होता है। मोहि = मोह के कारण। देसि = अपने देश में से। परदेसि = और देश में से। आणि = ला के। मुहि = मुँह में। अंति = आखिर को। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जितु = जिस में।
अर्थ: मनुष्य की (अपनी) पत्नी के साथ बड़ी प्रीत होती है, (पत्नी को) मिल के बड़ा मोह करता है; नित्य (अपने) पुत्र को और (अपनी) पत्नी को देखता है और माया के मोह के कारण खुश होता है; देस-परदेस से धन ठग के ला के उनको खिलाता है;
आखिर, ये धन वैर-विरोध पैदा कर देता है (और धन की खातिर किए पापों से) कोई बचा नहीं सकता। हे नानक! नाम से वंचित रह के ये मोह धिक्कार-योग्य है, क्योंकि इस मोह में लग के मनुष्य दुख पाता है।32।
[[1250]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि अम्रितु नामु है जितु खाधै सभ भुख जाइ ॥ त्रिसना मूलि न होवई नामु वसै मनि आइ ॥ बिनु नावै जि होरु खाणा तितु रोगु लगै तनि धाइ ॥ नानक रस कस सबदु सलाहणा आपे लए मिलाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि अम्रितु नामु है जितु खाधै सभ भुख जाइ ॥ त्रिसना मूलि न होवई नामु वसै मनि आइ ॥ बिनु नावै जि होरु खाणा तितु रोगु लगै तनि धाइ ॥ नानक रस कस सबदु सलाहणा आपे लए मिलाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के पास। अंम्रितु = निर्मल पवित्र भोजन, आत्मिक जीवन देने वाला भोजन। जितु खाधे = जिसके खाने से। भुख = तृष्णा, माया की भूख। मनि = मन में। बिनु नावै = नाम को बिसार के। जि होर खाणा = खाने पीने का और जो भी चस्का है। तितु = उस (चस्के) के कारण। धाइ = दौड़ के, गहरा असर करके। रस कस = कई तरह के रस चस्के। सालाहणा = महिमा।
अर्थ: गुरु के पास प्रभु का नाम एक ऐसा पवित्र भोजन है जिसके खाने से (माया की) भूख सारी दूर हो जाती है, (माया की) तृष्णा बिल्कुल ही नहीं रहती, मन में प्रभु का नाम आ बसता है। प्रभु का नाम बिसार के खाने-पीने का जो भी कोई और चस्का (मनुष्य को लगता) है उससे (तृष्णा का) रोग शरीर में बड़ा गहरा असर डाल के आ ग्रसता है।
हे नानक! अगर मनुष्य (माया के) अनेक किस्म के स्वादों की जगह गुरु के शब्द को प्रभु की महिमा को ग्रहण करे तो प्रभु स्वयं ही इसको अपने साथ मिला लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ जीआ अंदरि जीउ सबदु है जितु सह मेलावा होइ ॥ बिनु सबदै जगि आन्हेरु है सबदे परगटु होइ ॥ पंडित मोनी पड़ि पड़ि थके भेख थके तनु धोइ ॥ बिनु सबदै किनै न पाइओ दुखीए चले रोइ ॥ नानक नदरी पाईऐ करमि परापति होइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ जीआ अंदरि जीउ सबदु है जितु सह मेलावा होइ ॥ बिनु सबदै जगि आन्हेरु है सबदे परगटु होइ ॥ पंडित मोनी पड़ि पड़ि थके भेख थके तनु धोइ ॥ बिनु सबदै किनै न पाइओ दुखीए चले रोइ ॥ नानक नदरी पाईऐ करमि परापति होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। सबदु = प्रभु की महिमा की वाणी। जितु = जिससे। सह = पति का। जगि = जगत में। परगटु = रोशनी। मोनी = मुनि लोक। भेख = भेखों वाले। तनु धोइ = (तीर्थों पर) शरीर को धो के। नदरि = मेहर की नजर से। करमि = बख्शिश से।
अर्थ: प्रभु की महिमा ही जीवों के अंदर जिंदगी है, इस महिमा से पति-प्रभु से (जीव का) मिलाप होता है; प्रभु की महिमा से टूट के जगत में (आत्मिक जीवन से) अंधेरा है, शब्द से ही (अंधेरा दूर हो के, आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश होता है।
मुनि जन और पंडित (धार्मिक पुस्तकें) पढ़-पढ़ के हार गए, भेषधारी साधु तीर्थों पर स्नान कर-कर के थक गए, पर महिमा की वाणी के बिना किसी को भी पति-प्रभु नहीं मिला, सब दुखी हो के रो के यहाँ से गए।
हे नानक! महिमा भी प्रभु की मेहर की नजर से मिलती है, प्रभु की बख्शिश से ही प्राप्त होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इसत्री पुरखै अति नेहु बहि मंदु पकाइआ ॥ दिसदा सभु किछु चलसी मेरे प्रभ भाइआ ॥ किउ रहीऐ थिरु जगि को कढहु उपाइआ ॥ गुर पूरे की चाकरी थिरु कंधु सबाइआ ॥ नानक बखसि मिलाइअनु हरि नामि समाइआ ॥३३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इसत्री पुरखै अति नेहु बहि मंदु पकाइआ ॥ दिसदा सभु किछु चलसी मेरे प्रभ भाइआ ॥ किउ रहीऐ थिरु जगि को कढहु उपाइआ ॥ गुर पूरे की चाकरी थिरु कंधु सबाइआ ॥ नानक बखसि मिलाइअनु हरि नामि समाइआ ॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति नेहु = बहुत प्यार। बहि = बैठ के। मंदु = बुरी सलाह, विकार की चितवनी। चलसु = नाश हो जाएगी। जगि = जगत में। को उपाइआ = कोई उपाय। कढहु = ढूँढो। चाकरी = सेवा। थिरु = सदा कायम। कंधु = शरीर। सबाइआ = सारा। बखसि = मेहर कर के। मिलाइअनु = मिलाए हैं उस (प्रभु) ने। नामि = नाम में। सेवा = भक्ति। थिरु = अटल, अडोल, (विकारों से मुकाबले में) शक्तिशाली।
अर्थ: (अगर) मनुष्य का (अपनी) स्त्री के साथ बहुत प्यार है (तो इसका नतीजा आम तौर पर यही निकलता है कि) बैठ के कोई विकार की चितवनी ही चितवता है (और नाशवान से मोह बढ़ता जाता है); पर, मेरे प्रभु की रज़ा यह है कि जो कुछ (आँखों से) दिखता है ये सब नाश हो जाना है।
फिर कोई ऐसा उपाय तलाशो जिससे जगत में हमेशा टिके रह सकें (भाव, सदा टिके रहने वाले प्रभु से एक-सुर हो सकें), (वह उपाय) पूरे सतिगुरु की (बताई हुई) सेवा-भक्ति ही है जिस के कारण सारा शरीर (भाव, सारी ज्ञान-इंद्रिय) (विकारों के मुकाबले में) अडोल रह सकती हैं।
हे नानक! जिस पर उस प्रभु ने मेहर करके (अपने साथ) मिलाया है वे उस हरि के नाम में लीन रहते हैं।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ माइआ मोहि विसारिआ गुर का भउ हेतु अपारु ॥ लोभि लहरि सुधि मति गई सचि न लगै पिआरु ॥ गुरमुखि जिना सबदु मनि वसै दरगह मोख दुआरु ॥ नानक आपे मेलि लए आपे बखसणहारु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ माइआ मोहि विसारिआ गुर का भउ हेतु अपारु ॥ लोभि लहरि सुधि मति गई सचि न लगै पिआरु ॥ गुरमुखि जिना सबदु मनि वसै दरगह मोख दुआरु ॥ नानक आपे मेलि लए आपे बखसणहारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हेतु = प्यार, हित। अपारु = बेअंत। अपारु हेतु = बेअंत प्यार (जो गुरु जीवों के साथ करता है)। लोभि = लोभ में। लोभि लहरि = लोभ रूप लहर में फस के। सुधि मति = बुद्धि होश। सचि = सच्चे प्रभु में। मोख दुआरु = (माया के मोह से) बचने का राह। भउ = डर, अदब।
अर्थ: माया के मोह में पड़ के मनुष्य गुरु का अदब भुला देता है, और (यह भी) बिसार देता है कि गुरु (कितना) बेअंत प्यार (इससे करता है); लोभ-लहर में फंस के इसकी अकल-होश गुम हो जाती है, सदा-स्थिर प्रभु में इसका प्यार नहीं बनता।
गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मन में गुरु का शब्द बसता है, उनको प्रभु की हजूरी प्राप्त हो जाती है, उनको माया के मोह से बचने का राह मिल जाता है; हे नानक! बख्शणहार प्रभु स्वयं ही गुरमुखों को अपने साथ मिला लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ नानक जिसु बिनु घड़ी न जीवणा विसरे सरै न बिंद ॥ तिसु सिउ किउ मन रूसीऐ जिसहि हमारी चिंद ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ नानक जिसु बिनु घड़ी न जीवणा विसरे सरै न बिंद ॥ तिसु सिउ किउ मन रूसीऐ जिसहि हमारी चिंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरै न बिंद = एक घड़ी भी नहीं निभती। विसरै सरै न बिंद = (जिसे) बिसर के एक घड़ी भी नहीं सरता। जिसहि = जिस को। चिंद = फिक्र, चिन्ता।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस प्रभु के बिना एक घड़ी भी नहीं जीया जा सकता, जिसको एक घड़ी के लिए भी बिसार के नहीं निभती, हे मन! जिस प्रभु को हमारा (हर वक्त) फिक्र है, उससे रूठना ठीक नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ सावणु आइआ झिमझिमा हरि गुरमुखि नामु धिआइ ॥ दुख भुख काड़ा सभु चुकाइसी मीहु वुठा छहबर लाइ ॥ सभ धरति भई हरीआवली अंनु जमिआ बोहल लाइ ॥ हरि अचिंतु बुलावै क्रिपा करि हरि आपे पावै थाइ ॥ हरि तिसहि धिआवहु संत जनहु जु अंते लए छडाइ ॥ हरि कीरति भगति अनंदु है सदा सुखु वसै मनि आइ ॥ जिन्हा गुरमुखि नामु अराधिआ तिना दुख भुख लहि जाइ ॥ जन नानकु त्रिपतै गाइ गुण हरि दरसनु देहु सुभाइ ॥३॥
मूलम्
मः ४ ॥ सावणु आइआ झिमझिमा हरि गुरमुखि नामु धिआइ ॥ दुख भुख काड़ा सभु चुकाइसी मीहु वुठा छहबर लाइ ॥ सभ धरति भई हरीआवली अंनु जमिआ बोहल लाइ ॥ हरि अचिंतु बुलावै क्रिपा करि हरि आपे पावै थाइ ॥ हरि तिसहि धिआवहु संत जनहु जु अंते लए छडाइ ॥ हरि कीरति भगति अनंदु है सदा सुखु वसै मनि आइ ॥ जिन्हा गुरमुखि नामु अराधिआ तिना दुख भुख लहि जाइ ॥ जन नानकु त्रिपतै गाइ गुण हरि दरसनु देहु सुभाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झिमझिमा = एक रस बरसने वाला, झड़ी लगा के बरसना। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य। काड़ा = काढ़ा, गर्मी। वुठा = बसता हैं। छहबर = झड़ी। हरीआवली = (हरी+आवली), हरियाली, सब्जी वाली। जंमिआ = पैदा होता है। बोहल = दानों के ढेर। पावै थाइ = स्वीकार करता है। कीरति = महिमा। भगति = बँदगी। त्रिपतै = तृप्त होता है। सुभाइ = स्वभाव अनुसार, मेहर से। अचिंतु = अ+चिंत, जिसे कोई चिन्ता छू नहीं सकती। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के हरि का नाम स्मरण करता है (उसके लिए, जैसे) झिमझिम बरसने वाला सावन (का महीना) आ जाता है, जब झड़ी लगा के वर्षा होती है, गर्मी और लोगों की भूख और दुख सब दूर कर देता है, (क्योंकि) सारी धरती पर हरियाली ही दिखती है और ढेरों के ढेर अन्न पैदा होता है, (इसी तरह, गुरमुख को) अचिंत प्रभु खुद ही मेहर करके अपने नजदीक लाता है, उसकी मेहनत को खुद ही स्वीकार करता है।
हे संत जनो! उस प्रभु को याद करो जो आखिर (इन दुखों-भूखों से) खलासी दिलाता है। प्रभु की महिमा और बँदगी में ही (असल) आनंद है, सदा के लिए मन में सुख आ बसता है। जिस गुरमुखों ने नाम स्मरण किया है उनके दुख दूर हो जाते हैं, उनकी तृष्णा समाप्त हो जाती है। दास नानक भी प्रभु के गुण गा-गा के ही (माया की ओर से) तृप्त है (और अरज़ोई करता है:) हे हरि! मेहर कर के दीदार दे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गुर पूरे की दाति नित देवै चड़ै सवाईआ ॥ तुसि देवै आपि दइआलु न छपै छपाईआ ॥ हिरदै कवलु प्रगासु उनमनि लिव लाईआ ॥ जे को करे उस दी रीस सिरि छाई पाईआ ॥ नानक अपड़ि कोइ न सकई पूरे सतिगुर की वडिआईआ ॥३४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गुर पूरे की दाति नित देवै चड़ै सवाईआ ॥ तुसि देवै आपि दइआलु न छपै छपाईआ ॥ हिरदै कवलु प्रगासु उनमनि लिव लाईआ ॥ जे को करे उस दी रीस सिरि छाई पाईआ ॥ नानक अपड़ि कोइ न सकई पूरे सतिगुर की वडिआईआ ॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाति = बख्शिश। चढै सवाइआ = बढ़ती है। तुसि = त्रुठ के, प्रसन्न हो के। न छपै छपाइआ = छुपाए नहीं छुपती। उनमन = उन्मन में, चढ़दीकला में, पूर्ण खिलाव में। सिरि = सिर पर। छाई = राख। सिरि छाई पाइआ = नामोशी कमाता है।
अर्थ: पूरे सतिगुरु की दी हुई (नाम की) दाति जो वह सदा देता है बढ़ती रहती है; (गुरु की मेहर की नजर के कारण यह दाति) दयालु प्रभु खुद प्रसन्न हो के देता है, और किसी के छुपाने से छुपती नहीं;
(जिस मनुष्य पर गुरु की तरफ से बख्शिश हो उसके) हृदय का कमल फूल खिल उठता है, वह पूरन खिलाव में टिका रहता है (उसके हृदय में आनंदमयी अवस्था बनी रहती है); जो मनुष्य उसकी बराबरी करने का प्रयत्न करता है वह नामोशी ही कमाता है।
हे नानक! पूरे गुरु की बख्शी हुई बड़ाई की कोई मनुष्य बराबरी नहीं कर सकता।34।
[[1251]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ अमरु वेपरवाहु है तिसु नालि सिआणप न चलई न हुजति करणी जाइ ॥ आपु छोडि सरणाइ पवै मंनि लए रजाइ ॥ गुरमुखि जम डंडु न लगई हउमै विचहु जाइ ॥ नानक सेवकु सोई आखीऐ जि सचि रहै लिव लाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ अमरु वेपरवाहु है तिसु नालि सिआणप न चलई न हुजति करणी जाइ ॥ आपु छोडि सरणाइ पवै मंनि लए रजाइ ॥ गुरमुखि जम डंडु न लगई हउमै विचहु जाइ ॥ नानक सेवकु सोई आखीऐ जि सचि रहै लिव लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमरु = अ+मरु, अटल। वेपरवाहु = बे मुथाज। हुजति = दलील। आपु = स्वै भाव। रजाइ = रज़ा। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।
अर्थ: परमात्मा अटल है, बे-मुथाज, उसके साथ कोई चालाकी नहीं चल सकती, ना ही (उसके हुक्म के आगे) कोई दलील पेश की जा सकती है; गुरमुख मनुष्य स्वै-भाव छोड़ के उसकी शरण पड़ता है, उसकी रज़ा के आगे सिर झुकाता है, (तभी तो) गुरमुख को जमराज प्रताड़ित नहीं कर सकता, उसके मन में से अहंकार दूर हो जाता है।
हे नानक! प्रभु का सेवक उसको कहा जा सकता है जो (स्वै-भाव छोड़ के) सच्चे प्रभु में ध्यान जोड़े रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ दाति जोति सभ सूरति तेरी ॥ बहुतु सिआणप हउमै मेरी ॥ बहु करम कमावहि लोभि मोहि विआपे हउमै कदे न चूकै फेरी ॥ नानक आपि कराए करता जो तिसु भावै साई गल चंगेरी ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ दाति जोति सभ सूरति तेरी ॥ बहुतु सिआणप हउमै मेरी ॥ बहु करम कमावहि लोभि मोहि विआपे हउमै कदे न चूकै फेरी ॥ नानक आपि कराए करता जो तिसु भावै साई गल चंगेरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोति = जिंद, प्राण। सूरति = शरीर। विआपे = ग्रसे हुए, फसे हुए। फेरी = जनम मरण का चक्कर। साई = वही। गल = बात। मेरी = ममता।
अर्थ: (हे प्रभु!) ये जिंद और ये शरीर सब तेरी ही बख्शी हुई दाति है, (तेरा शुकर करने की बजाए) बड़ी-बड़ी चालाकियां (करनी) अहंम् और ममता के कारण ही है। अगर मनुष्य (तेरी याद भुला के) लोभ और मोह में फसे हुए अन्य कर्म करते हैं, अहंकार के कारण उनका जनम-मरण का चक्र खत्म नहीं होता; (पर) हे नानक! (किसी को बुरा नहीं कहा जा सकता), कर्तार सब कुछ खुद करा रहा है, जो उसको अच्छा लगता है उसको अच्छी बात समझना (-यही है जीवन का सही रास्ता)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी मः ५ ॥ सचु खाणा सचु पैनणा सचु नामु अधारु ॥ गुरि पूरै मेलाइआ प्रभु देवणहारु ॥ भागु पूरा तिन जागिआ जपिआ निरंकारु ॥ साधू संगति लगिआ तरिआ संसारु ॥ नानक सिफति सलाह करि प्रभ का जैकारु ॥३५॥
मूलम्
पउड़ी मः ५ ॥ सचु खाणा सचु पैनणा सचु नामु अधारु ॥ गुरि पूरै मेलाइआ प्रभु देवणहारु ॥ भागु पूरा तिन जागिआ जपिआ निरंकारु ॥ साधू संगति लगिआ तरिआ संसारु ॥ नानक सिफति सलाह करि प्रभ का जैकारु ॥३५॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह पौड़ी पाँचवे सतिगुरु गुरु अरजन साहिब जी की है, जो पौड़ी नं: 34 की और ज्यादा व्याख्या करने के लिए है (देखें मलार की वार महला १ पौड़ी नं: 27)
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाणा = खुराक। पैनणा = पोशाक। आधारु = आसरा। गुरि = गुरु ने। निरंकारु = आकार रहित प्रभु, वह प्रभु जिसका कोई खास स्वरूप नहीं। जैकारु = बड़ाई। करि = कर के।
अर्थ: पूरे सतिगुरु ने (जिस मनुष्य को) सब दातें देने वाला सतिगुरु मिला दिया है उसकी (जिंद की) खुराक और पोशाक प्रभु का नाम हो जाता है, नाम ही उसका आसरा हो जाता है (जैसे खुराक और पोशाक शरीर के लिए आवश्यक हैं)।
उन लोगों की किस्मत पूरी खुल जाती है जो निरंकार को स्मरण करते हैं।
हे नानक! सत्संग का आसरा ले के, परमात्मा की महिमा परमात्मा की बड़ाई कर के वे मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ सभे जीअ समालि अपणी मिहर करु ॥ अंनु पाणी मुचु उपाइ दुख दालदु भंनि तरु ॥ अरदासि सुणी दातारि होई सिसटि ठरु ॥ लेवहु कंठि लगाइ अपदा सभ हरु ॥ नानक नामु धिआइ प्रभ का सफलु घरु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ सभे जीअ समालि अपणी मिहर करु ॥ अंनु पाणी मुचु उपाइ दुख दालदु भंनि तरु ॥ अरदासि सुणी दातारि होई सिसटि ठरु ॥ लेवहु कंठि लगाइ अपदा सभ हरु ॥ नानक नामु धिआइ प्रभ का सफलु घरु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समालि = संभाल, सार ले। मुचु = बहुत। उपाइ = पैदा कर। दालदु = गरीबी, दरिद्रता। तरु = तार ले। दातारि = दातार ने। सिसटि = सृष्टि। ठरु = ठंड, शांति। अपदा = मुसीबत। हरु = दूर कर। सफलु = फल देने वाला। भंनि = तोड़ के, दूर कर के।
अर्थ: हे प्रभु! अपनी मेहर कर और सारे जीवों की संभाल कर; बहुत सारा अन्न-पानी पैदा कर, जीवों के दुख-दरिद्र दूर कर के बचा ले - (सृष्टि की यह) अरदास दातार ने सुनी और सृष्टि शांत हो गई। (इसी तरह) हे प्रभु! जीवों को अपने नजदीक रख और (इनकी) सारी बिपता दूर कर दे।
हे नानक! (कह: हे भाई!) प्रभु का नाम स्मरण कर, उसका घर मुरादें पूरी करने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ वुठे मेघ सुहावणे हुकमु कीता करतारि ॥ रिजकु उपाइओनु अगला ठांढि पई संसारि ॥ तनु मनु हरिआ होइआ सिमरत अगम अपार ॥ करि किरपा प्रभ आपणी सचे सिरजणहार ॥ कीता लोड़हि सो करहि नानक सद बलिहार ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ वुठे मेघ सुहावणे हुकमु कीता करतारि ॥ रिजकु उपाइओनु अगला ठांढि पई संसारि ॥ तनु मनु हरिआ होइआ सिमरत अगम अपार ॥ करि किरपा प्रभ आपणी सचे सिरजणहार ॥ कीता लोड़हि सो करहि नानक सद बलिहार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेघ = बादल। वुठे = बरसे, बरखा की। करतारि = कर्तार ने। उपाइओनु = पैदा किया उसने। अगला = बहुत। संसारि = संसार में। कीता लोड़हि = जो तू करना चाहता है।
अर्थ: जब कर्तार ने हुक्म दिया, सोहाने बादल आ के बरस पड़े, और उस प्रभु ने बेअंत रिज़क (जीवों के लिए) पैदा किया, सारे जगत में ठंड पड़ गई, (इसी तरह कर्तार की मेहर से गुरु-बादल के उपदेश की बरसात से बेअंत नाम-धन पैदा हुआ और गुरु की शरण आने वाले भाग्यशालियों के अंदर ठंड पड़ी) अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु का स्मरण करने से उनका तन-मन खिल उठा।
हे नानक! (अरजोई कर-) हे सदा कायम रहने वाले विधाता प्रभु! अपनी मेहर कर (मुझे भी यही नाम-धन दे), जो तू करना चाहता है वही तू करता है, मैं तुझसे सदके हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ वडा आपि अगमु है वडी वडिआई ॥ गुर सबदी वेखि विगसिआ अंतरि सांति आई ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे है भाई ॥ आपि नाथु सभ नथीअनु सभ हुकमि चलाई ॥ नानक हरि भावै सो करे सभ चलै रजाई ॥३६॥१॥ सुधु ॥
मूलम्
पउड़ी ॥ वडा आपि अगमु है वडी वडिआई ॥ गुर सबदी वेखि विगसिआ अंतरि सांति आई ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे है भाई ॥ आपि नाथु सभ नथीअनु सभ हुकमि चलाई ॥ नानक हरि भावै सो करे सभ चलै रजाई ॥३६॥१॥ सुधु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगंमु = (अ+गंमु) अगम्य (पहुँच से परे), जिस तक पहुँच ना हो सके। वडिआई = गुण, प्रतिभा। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। विगसिआ = खिल उठा, अंदर खिड़ाव पैदा हुआ। अंतरि = मन में। सभु = हर जगह। आपे = आप ही। वरतदा = मौजूद है। भाई = हे भाई! सभ = सारी सृष्टि। नथीअनु = नाथी है उसने, एक धागे में परोई हुई है, वश में रखी हुई है। हुकमि = हुक्म में। रजाई = (उसकी) रज़ा में।
अर्थ: प्रभु (इतना) बड़ा है (कि) उस तक पहुँच नहीं हो सकती, उसकी बड़ाई भी बड़ी है (भाव, उस बड़े ने जो रचना रची है वह भी बेअंत है); जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द द्वारा (उसकी महिमा) देखी है उसके अंदर आनंद की अनुभति पैदा हो गई है, शांति आ बसी है।
हे भाई! (अपनी रची हुई रचना में) हर जगह प्रभु खुद ही मौजूद है; प्रभु स्वयं पति है, सारी सृष्टि को उसने अपने वश में रखा हुआ है, अपने हुक्म में चला रहा है।
हे नानक! जो प्रभु को अच्छा लगता है वही करता है, सारी सृष्टि उसकी रज़ा में चल रही है।36।1। सुधु।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु सारंग बाणी भगतां की ॥ कबीर जी ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु सारंग बाणी भगतां की ॥ कबीर जी ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा नर गरबसि थोरी बात ॥ मन दस नाजु टका चारि गांठी ऐंडौ टेढौ जातु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कहा नर गरबसि थोरी बात ॥ मन दस नाजु टका चारि गांठी ऐंडौ टेढौ जातु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबसि = तू अहंकार करता है। नर = हे मनुष्य! थोरी बात = थोड़ी सी बात के पीछे। मन = मण (भार)। नाजु = अनाज। टका चारि = चार टके, थोड़ी सी माया। गांठी = पल्ले। ऐडौ = इतना।1। रहाउ।
अर्थ: हे बँदे! थोड़ी सी बात के पीछे (भाव, इस कुछ दिनों की जिंदगी के पीछे) क्यों माण कर रहा है? दस मन दाने या चार टके जो पल्ले आ गए (तो क्या हुआ? क्यों) इतना अकड़ के चलता है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुतु प्रतापु गांउ सउ पाए दुइ लख टका बरात ॥ दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥१॥
मूलम्
बहुतु प्रतापु गांउ सउ पाए दुइ लख टका बरात ॥ दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गांउ = गाँव। बरात = जागीर। साहिबी = सरदारी। बन = जंगल के। हर पात = हरे पत्ते।1।
अर्थ: अगर इससे भी ज्यादा प्रताप हो गया तो सौ गाँवों की मालिकी हो गई या (लाख) दो लाख टके की जागीर मिल गई, हे बंदे! तो भी चार दिन की सरदारी कर लोगे (और आखिर में छोड़ जाओगे) जैसे जंगल के हरे पत्ते (चार दिन ही हरे रहते हैं, और सूख-सड़ जाते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना कोऊ लै आइओ इहु धनु ना कोऊ लै जातु ॥ रावन हूं ते अधिक छत्रपति खिन महि गए बिलात ॥२॥
मूलम्
ना कोऊ लै आइओ इहु धनु ना कोऊ लै जातु ॥ रावन हूं ते अधिक छत्रपति खिन महि गए बिलात ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधिक = ज्यादा। छत्रपति = राजे। गए बिलात = चले गए, गायब हो गए।2।
अर्थ: (दुनिया का) यह माल-धन ना कोई बंदा (पैदा होने के वक्त) अपने साथ ले के आया है और ना ही कोई (मरने के वक्त) यह धन साथ ले के जाता है। रावण से भी बड़े-बड़े राजे एक पलक में यहाँ से चल बसे।2।
[[1252]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत सदा थिरु पूजहु जो हरि नामु जपात ॥ जिन कउ क्रिपा करत है गोबिदु ते सतसंगि मिलात ॥३॥
मूलम्
हरि के संत सदा थिरु पूजहु जो हरि नामु जपात ॥ जिन कउ क्रिपा करत है गोबिदु ते सतसंगि मिलात ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपात = जपते। मिलात = मिलते हैं।3।
अर्थ: (हे बँदे! जनम-मरण का चक्कर हरेक के सिर पर है, सिर्फ) प्रभु के संत ही हैं जो सदा अटल रहते हैं (जो बार-बार मौत का शिकार नहीं होते), उनकी सेवा करो, वह प्रभु का नाम (खुद स्मरण करते हैं और औरों से) जपाते हैं। परमात्मा जिस पर मेहर करता है उनको (ऐसे) संत-जनों की संगति में मिलाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मात पिता बनिता सुत स्मपति अंति न चलत संगात ॥ कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात ॥४॥१॥
मूलम्
मात पिता बनिता सुत स्मपति अंति न चलत संगात ॥ कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनिता = पत्नी। सतु = पुत्र। संपति = धन। संगात = साथ। बउरे = हे कमले! अकारथ = व्यर्थ।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे कमले! माता, पिता, पत्नी, पुत्र, धन - इनमें से कोई भी आखिर में साथ नहीं जाती। (एक प्रभु ही साथी बनता है) प्रभु का नाम स्मरण कर, (स्मरण के बिना) जीवन व्यर्थ जा रहा है।4।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: धन, सम्पक्ति, संबंधियों का मान झूठा है, सदा साथ नहीं निभता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजास्रम मिति नही जानी तेरी ॥ तेरे संतन की हउ चेरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राजास्रम मिति नही जानी तेरी ॥ तेरे संतन की हउ चेरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजास्रम = राज+आश्रम (राज = बड़ा, ऊँचा। आश्रम = स्थान, महल, ठिकाना) हे ऊँचे स्थान वाले प्रभु! मिति = अंदाजा, माप, अंत। हउ = मैं। चेरी = दासी।1। रहाउ।
अर्थ: हे ऊँचे महल वाले (प्रभु!) मुझसे तेरी कुदरति का अंत नहीं पाया जा सकता, (तेरे संत ही तेरे गुणों का जिकर करते हैं, सो) मैं तेरे संतों की ही दासी बना रहूँ (यही मेरी तमन्ना है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हसतो जाइ सु रोवतु आवै रोवतु जाइ सु हसै ॥ बसतो होइ होइ सुो ऊजरु ऊजरु होइ सु बसै ॥१॥
मूलम्
हसतो जाइ सु रोवतु आवै रोवतु जाइ सु हसै ॥ बसतो होइ होइ सुो ऊजरु ऊजरु होइ सु बसै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हसतो = हसता। बसतो = बसा हुआ। ऊजरु = उजाड़। सु = वह (जगह)। बसै = बस जाता है।1।
अर्थ: (आश्चर्यजनक खेल है) जो हँसता जाता है वह रोता हुआ (वापस) आता है; जो रोता जाता है वह हँसता हुआ मुड़ता है। जो कभी बसता (नगर) होता है, वह उजड़ जाता है, और उजड़ी हुई जगह वस जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै ॥ धरती ते आकासि चढावै चढे अकासि गिरावै ॥२॥
मूलम्
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै ॥ धरती ते आकासि चढावै चढे अकासि गिरावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूआ = कूँआ। कूप = कूँआ। मेरु = पर्वत।2।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा की खेल आश्चर्यजनक है) पानी (भरी जगहों को) रेतीला बना देता है, रेतीली जगहों में कुआं बना देता है, और कूँओं (की जगह) से पहाड़ कर देता है। ज़मीन पर पड़े हुए को आसमान पर चढ़ा देता है, आसमान पर चढ़े हुए को नीचे गिरा देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी ॥ खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी ॥३॥
मूलम्
भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी ॥ खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेखारी = भिखारी। राजु = बादशाही, हकूमत। खल = नीच, निर्दय, मूढ़। करिबो = कर देता है (कर देगा)। मुगधारी = मूर्ख।3।
अर्थ: भिखारी (को राजा बना के उस) से राज करवाता है, राजे को मँगता बना देता है; महाँ मूर्ख से विद्वान बना देता है और पण्डित को मूर्ख कर देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारी ते जो पुरखु करावै पुरखन ते जो नारी ॥ कहु कबीर साधू को प्रीतमु तिसु मूरति बलिहारी ॥४॥२॥
मूलम्
नारी ते जो पुरखु करावै पुरखन ते जो नारी ॥ कहु कबीर साधू को प्रीतमु तिसु मूरति बलिहारी ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करावै = पैदा कराता है। पुरखन ते = मनुष्यों से।4।
अर्थ: (जो प्रभु) स्त्री से मर्द पैदा करता है, मर्दों (की बिंद) से स्त्रीयां पैदा कर देता है, हे कबीर! कह: मैं उस सुंदर स्वरूप से सदके जाता हूँ, वह संतजनों का प्यारा है।4।2।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: दुनिया में कभी सुख है कभी दुख। ना सुख में अहंकार करे, ना दुख में नीचे उतर जाए। सुख-दुख का यह चक्कर प्रभु के हाथ में है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: नारी से पुरख और पुरख से नारी पैदा करने का विचार गुरु नानक देव जी ने बताया है। सतिगुरु जी भी अकाल पुरख की अगाध कथा बयान करते समय ये ख्याल प्रकट कररते हैं;
रामकली महला १॥ सागर महि बूँद, महि बूँद सागरु, कवणु बूझै बिधि जाणै॥ उतभुज चलत आपि करि चीनै, आपे ततु पछाणै॥१॥ ऐसा गिआनु बीचारै कोई॥ तिस ते मुकति परम गति होई॥१॥ रहाउ॥ दिन महि रैणि, रैणि महि दिनीअरु, उसनु सीत बिधि सोई॥ ता की गति मिति अवरु न जाणै, गुर बिनु समझ न होई॥२॥ पुरख महि नारि, नारि महि पुरखा, बूझहु ब्रहम गिआनी॥ धुनि महि धिआनु, धिआन महि जानिआ, गुरमुखि अकथ कहानी॥३॥ मन महि जोति जोति महि मनूआ, पंच मिले गुरभाई॥ नानक तिन के सद बलिहारी, जिन एक सबदि लिव लाई॥४॥९॥ (पंना 878)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग बाणी नामदेउ जी की ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारंग बाणी नामदेउ जी की ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काएं रे मन बिखिआ बन जाइ ॥ भूलौ रे ठगमूरी खाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काएं रे मन बिखिआ बन जाइ ॥ भूलौ रे ठगमूरी खाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे! काऐं = क्यों? बिखिआ = माया। बन = जंगल। भूलौ = भुलेखे में पड़ा हुआ है। ठगमूरी = ठग-बूटी, धतूरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तू माया-जंगल में क्यों जा फसा है? तू तो भुलेखे में पड़ के ठग-बूटी खाए जा रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे मीनु पानी महि रहै ॥ काल जाल की सुधि नही लहै ॥ जिहबा सुआदी लीलित लोह ॥ ऐसे कनिक कामनी बाधिओ मोह ॥१॥
मूलम्
जैसे मीनु पानी महि रहै ॥ काल जाल की सुधि नही लहै ॥ जिहबा सुआदी लीलित लोह ॥ ऐसे कनिक कामनी बाधिओ मोह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीनु = मछली। काल जाल की = मौत रूपी जाल की। सुधि = सूझ। लीलित = निकलती है। लोह = लोहे की कुंडी। कनिक = सोना। कामनी = स्त्री।1।
अर्थ: जैसे मछली पानी में (निष्चिंत हो के) रहती (है और) मौत-जाल से अज्ञान रहती है (भाव, ये नहीं समझती कि ये जाल मेरी मौत का कारण बनेगा), जीभ के स्वाद के पीछे लोहे की कुंडी निगल लेती है (और पकड़ी जाती है); वैसे ही (हे भाई!) तू सोने और स्त्री के मोह में फंसा हुआ है (और अपनी आत्मिक मौत सहेड़ रहा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ मधु माखी संचै अपार ॥ मधु लीनो मुखि दीनी छारु ॥ गऊ बाछ कउ संचै खीरु ॥ गला बांधि दुहि लेइ अहीरु ॥२॥
मूलम्
जिउ मधु माखी संचै अपार ॥ मधु लीनो मुखि दीनी छारु ॥ गऊ बाछ कउ संचै खीरु ॥ गला बांधि दुहि लेइ अहीरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मधू = शहद। संचै = इकट्ठा करती है। मुखि = मुँह से। छारु = राख। बाछ कउ = बछड़े के लिए। खीरु = दूध। दुहि लेइ = दूह लेता है। अहीरु = गुज्जर।2।
अर्थ: जैसे मक्खी बहुत सारा शहद इकट्ठा करती है, पर मनुष्य (आ के) शहद ले लेता है और उस मक्खी के मुँह में राख डालता है (भाव, उस मक्खी को कुछ भी नहीं देता); जैसे गऊ अपने बछड़े के लिए दूध (थनों में) इकट्ठा करती है, पर, अहिर बछड़े का मुंह बाँध के दूध दुह लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ कारनि स्रमु अति करै ॥ सो माइआ लै गाडै धरै ॥ अति संचै समझै नही मूड़्ह ॥ धनु धरती तनु होइ गइओ धूड़ि ॥३॥
मूलम्
माइआ कारनि स्रमु अति करै ॥ सो माइआ लै गाडै धरै ॥ अति संचै समझै नही मूड़्ह ॥ धनु धरती तनु होइ गइओ धूड़ि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रमु = श्रम, मेहनत। गाडै = (धरती में) दबा देता है। मूढ़ = मूर्ख। धूड़ि = धूल, मिट्टी।3।
अर्थ: वैसे ही मूर्ख मनुष्य माया की खातिर बहुत मेहनत करता है, उसको कमा के धरती में छुपा के रखता है, मूर्ख बहुत ज्यादा एकत्र किए जाता है पर समझता नहीं कि धन जमीन में ही दबा पड़ा रहता है और (मौत के आने पर) शरीर मिट्टी हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध त्रिसना अति जरै ॥ साधसंगति कबहू नही करै ॥ कहत नामदेउ ता ची आणि ॥ निरभै होइ भजीऐ भगवान ॥४॥१॥
मूलम्
काम क्रोध त्रिसना अति जरै ॥ साधसंगति कबहू नही करै ॥ कहत नामदेउ ता ची आणि ॥ निरभै होइ भजीऐ भगवान ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जरै = जलता है। ता ची = उस (प्रभु) की। आणि = ओट, आसरा।4।
अर्थ: (मूर्ख मन) काम-क्रोध और तृष्णा में बहुत खिझता है, कभी भी साधु-संगत में नहीं बैठता। नामदेव कहता है: हे भाई! उस (प्रभु) की ओट (ले) (जो सदा तेरे साथ निभने वाला है) निडर हो के भगवान का स्मरण करना चाहिए।4।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: माया का साथ कच्चा है। इसके मोह में जीवन व्यर्थ जाता है। साधु-संगत के आसरे प्रभु का स्मरण करना चाहिए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बदहु की न होड माधउ मो सिउ ॥ ठाकुर ते जनु जन ते ठाकुरु खेलु परिओ है तो सिउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बदहु की न होड माधउ मो सिउ ॥ ठाकुर ते जनु जन ते ठाकुरु खेलु परिओ है तो सिउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: की न = क्यों नहीं? बदहु = मिथते, लाते। होड = शर्त। मो सिउ = मेरे साथ। बदहु….सिउ = हे माधो! मेरे साथ शर्त क्यों नहीं लगाते? हे माधो! मेरे साथ शर्त लगा के देख ले; हे माधो! मेरे साथ बहस कर के देख ले, जो मैं कहता हूँ ठीक है। खेलु = जगत रूपी खेल। तो सिउ = तेरे से। खेलु…सिउ = खेल सारा तेरे साथ (सांझा) हुआ है; ये तेरी और हमारी सांझी खेल है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माधव! मेरे साथ विचार कर के देख ले (यह बात सच्ची है कि) यह जगत-खेल तेरी और हमारे जीवों की सांझी खेल है (क्योंकि) मालिक से सेवक और सेवक से मालिक (की पीढ़ी चलती है, भाव, अगर मालिक हो तभी उसका कोई सेवक बन सकता है, और अगर सेवक हो तो ही उसका कोई मालिक कहलवा सकेगा। सो, मालिक-प्रभु और सेवक की हस्ती सांझी है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपन देउ देहुरा आपन आप लगावै पूजा ॥ जल ते तरंग तरंग ते है जलु कहन सुनन कउ दूजा ॥१॥
मूलम्
आपन देउ देहुरा आपन आप लगावै पूजा ॥ जल ते तरंग तरंग ते है जलु कहन सुनन कउ दूजा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देउ = देवता। आपन = तू स्वयं ही। तरंग = लहरें। दूजा = अलग अलग।1।
अर्थ: हे माधव! तू खुद ही देवता है, खुद ही मन्दिर है, तू खुद ही (जीवों को अपनी) पूजा में लगाता है। पानी से लहरें (उठती हैं), लहरों (के मिलने) से पानी (की हस्ती) है, ये सिर्फ कहने को और सुनने में ही अलग-अलग हैं (भाव, यह सिर्फ कहने मात्र बात है कि यह पानी है, और ये लहरें हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपहि गावै आपहि नाचै आपि बजावै तूरा ॥ कहत नामदेउ तूं मेरो ठाकुरु जनु ऊरा तू पूरा ॥२॥२॥
मूलम्
आपहि गावै आपहि नाचै आपि बजावै तूरा ॥ कहत नामदेउ तूं मेरो ठाकुरु जनु ऊरा तू पूरा ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तूरा = बाजा। ऊरा = कम।2।
अर्थ: (हे माधो!) तू खुद ही गाता है, तू खुद ही नाचता है, तू स्वयं ही बाजा बजाता है। नामदेव कहता है: हे माधो! तू मेरा मालिक है, (यह ठीक है कि मैं) तेरा दास (तुझसे बहुत) छोटा हूँ और तू सम्पूर्ण है (पर, अगर दास ना हो तो तू मालिक कैसे कहलवाए? सो, मुझे अपना सेवक बनाए रख)।2।2।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जीवात्मा और परमात्मा का असल एक ही है, विक्त में फर्क है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दास अनिंन मेरो निज रूप ॥ दरसन निमख ताप त्रई मोचन परसत मुकति करत ग्रिह कूप ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दास अनिंन मेरो निज रूप ॥ दरसन निमख ताप त्रई मोचन परसत मुकति करत ग्रिह कूप ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनिंन = (सं: अनन्य) जिसका प्रेम किसी और के साथ ना हो। निज = अपना। निमख = (सं: निमेष) आँख झपकने जितने समय के लिए। ताप त्रई = तीनों ही ताप (आधि, व्याधि, उपाधि)। मोचन = नाश करने वाला। परसत = (चरण) छूने से। ग्रिह कूप = घर (के जंजाल) रूपी कूँआं।1। रहाउ।
अर्थ: (हे नामदेव!) जो (मेरा) दास मेरे बिना किसी और के साथ प्यार नहीं करता, वह मेरा अपना स्वरूप है; उसका एक पल भर का दर्शन तीनों ही ताप दूर कर देता है, उस (के चरणों) की छोह गृहस्थ के जंजाल-रूपी कूएं में से निकाल लेती है।1। रहाउ।
[[1253]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी बांधी भगतु छडावै बांधै भगतु न छूटै मोहि ॥ एक समै मो कउ गहि बांधै तउ फुनि मो पै जबाबु न होइ ॥१॥
मूलम्
मेरी बांधी भगतु छडावै बांधै भगतु न छूटै मोहि ॥ एक समै मो कउ गहि बांधै तउ फुनि मो पै जबाबु न होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझसे। गहि = पकड़ के। बांधै = बाँध ले। तउ = तब। फुनि = दोबारा, फिर। मो पै = मुझसे। जबाबु = उज़र, ना नुकर।1।
अर्थ: मेरे द्वारा बाँधी हुई (मोह की) गाँठ को मेरा भक्त खोल लेता है, पर जब मेरा भक्त (मेरे साथ प्रेम की गाँठ) बाँधता है वह मुझसे खुल नहीं सकती। अगर मेरा भक्त एक बार मुझे पकड़ के बाँध ले, तो मैं आगे से कोई आना-कानी नहीं कर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै गुन बंध सगल की जीवनि मेरी जीवनि मेरे दास ॥ नामदेव जा के जीअ ऐसी तैसो ता कै प्रेम प्रगास ॥२॥३॥
मूलम्
मै गुन बंध सगल की जीवनि मेरी जीवनि मेरे दास ॥ नामदेव जा के जीअ ऐसी तैसो ता कै प्रेम प्रगास ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुन बंध = (भक्त के) गुणों का बँधा हुआ। जीवनि = जिंदगी। जा के जीअ = जिसके चिक्त में (प्रीत के भेद की यह सोच)। ता कै = उसके हृदय में। प्रगास = रोशनी।2।
अर्थ: मैं (अपने भक्त के) गुणों का बँधा हुआ हूँ, मैं सारे जगत के जीवों की जिंदगी (का आसरा) हूँ, पर मेरे भक्त मेरी जिंदगी (का आसरा) हैं।
हे नामदेव! जिसके मन में ये ऊँची सोच आ गई है, उसके अंदर मेरे प्यार का प्रकाश भी उतना ही बड़ा (भाव, बहुत अधिक) हो जाता है।2।3।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रीत का भाव: प्रीत की इनायत से, भक्त प्रभु का रूप हो जाता है, प्रभु अपने भक्त की प्रीति में बँध जाता है। ‘भगति वसि केसव’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारंग ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तै नर किआ पुरानु सुनि कीना ॥ अनपावनी भगति नही उपजी भूखै दानु न दीना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तै नर किआ पुरानु सुनि कीना ॥ अनपावनी भगति नही उपजी भूखै दानु न दीना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नर = हे मनुष्य! तै किआ कीना = तूने क्या किया? तूने क्या कमाया? सुनि = सुन के। पावनी = (स: अपायिन् transient, perishable) नाशवान। अन पावनी = जो नाशवान ना हो, सदा कायम रहने वाली। उपजी = पैदा हुई।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पुराण आदि धर्म-पुस्तकें सुन के तूने कमाया तो कुछ भी नहीं, तेरे अंदर ना तो प्रभु की अटल भक्ति पैदा हुई और ना ही किसी जरूरतमंद की सेवा की।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु न बिसरिओ क्रोधु न बिसरिओ लोभु न छूटिओ देवा ॥ पर निंदा मुख ते नही छूटी निफल भई सभ सेवा ॥१॥
मूलम्
कामु न बिसरिओ क्रोधु न बिसरिओ लोभु न छूटिओ देवा ॥ पर निंदा मुख ते नही छूटी निफल भई सभ सेवा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छूटिओ = खत्म हुआ। देव = हे देव! निफल = व्यर्थ, निष्फल।1।
अर्थ: हे भाई! (धर्म पुस्तकें सुन के भी) ना काम गया, ना क्रोध गया, ना लोभ खत्म हुआ, ना मुँह से पराई निंदा (करने की आदत) ही गई, (पुराण आदि पढ़ने की) सारी मेहनत ही ऐसे गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाट पारि घरु मूसि बिरानो पेटु भरै अप्राधी ॥ जिहि परलोक जाइ अपकीरति सोई अबिदिआ साधी ॥२॥
मूलम्
बाट पारि घरु मूसि बिरानो पेटु भरै अप्राधी ॥ जिहि परलोक जाइ अपकीरति सोई अबिदिआ साधी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाट = रास्ता। बाट पारि = राह मार के, डाके मार के। मूसि = ठग के। बिरानो = बेगाना। जिहि = जिस काम से। अपकीरति = (अप+कीरति) बदनामी। अबिदिआ = अ+विद्या, अज्ञानता, मूर्खता।2।
अर्थ: (पुराण आदि सुन के भी) पापी मनुष्य डाके मार-मार के पराए घर लूट-लूट के ही अपना पेट भरता रहा, और (सारी उम्र) वही मूर्खता करता रहा जिससे अगले जहान में भी बदनामी (का टीका) ही मिले।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिंसा तउ मन ते नही छूटी जीअ दइआ नही पाली ॥ परमानंद साधसंगति मिलि कथा पुनीत न चाली ॥३॥१॥६॥
मूलम्
हिंसा तउ मन ते नही छूटी जीअ दइआ नही पाली ॥ परमानंद साधसंगति मिलि कथा पुनीत न चाली ॥३॥१॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिंसा = निर्दयता। जीअ = जीवों के साथ। दइआ = दया, प्यार। पुनीत = पवित्र।3।
अर्थ: हे परमानंद! (धर्म पुस्तकें सुन के भी) तेरे मन में से निर्दयता ना गई, तूने लोगों से प्यार का सलूक ना किया, और सत्संग में बैठ के तूने कभी प्रभु की पवित्र (करने वाली) बातें ना चलाई (भाव, तुझे सत्संग करने का शौक ना हुआ)।3।1।6।
दर्पण-टिप्पनी
भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन ने उपरोक्त शब्द के बारे में इस प्रकार लिखा है:
“भक्त परमानंद जी कनौजिए कुब्ज़ ब्राहमणों में से थे। आप स्वामी वल्लभाचार्य के चेले बने। इन्होंने वैश्णव मत को खासा आगे बढ़ाया। आप कवि भी बेहतरीन थे, आपका तख़्लस (कवि-छाप) सारंग था। इन्होंने कृष्ण-उपमा में काफी कविता रची है।
“एक शब्द सारंग राग में छपी हुई मौजूदा बीड़ में पढ़ने को मिलता है, जो वैश्णव मत के बिल्कुल अनुकूल है; पर गुरमति वैश्णव मति का जोरदार खण्डन करती है। भक्त जी फरमाते है;
हिंसा तउ मन ते नही छूटी, जीअ दइआ नही पाली।
परमानंद साध संगति मिलि, कथा, पुनीत न चाली॥
“यह मर्यादा वैश्णव और जैन मत वालों की है, गुरमति इस सिद्धांत का खण्डन करती है। सिख धर्म जीव हिंसा व अहिंसा का प्रचारक नहीं है, गुरु का मत राज-योग है, खड़गधारी होना सिख धर्म है। जीव अहिंसा वैश्णवों जैनियों बौद्धियों के धार्मिक नियम हैं।”
विरोधी सज्जन ने अपने तर्क को साबित करने के लिए शब्द में से उतना ही हिस्सा लिया है, जिससे किसी पाठक को भुलेखा पड़ सके। बल्कि विरोधी सज्जन भी गलती कर गए हैं: सिर्फ एक ही तुक लेनी थी, दूसरी तुक तो उनकी मदद नहीं करती। शब्द ‘हिंसा’ और ‘जीअ दइआ’ का अर्थ करने में जल्दबाजी से काम लिया गया है। सारे शब्द को जरा ध्यान से पढ़ें। भक्त जी कहते हैं: अगर परमात्मा और परमात्मा के पैदा किए हुए लोगों के साथ प्यार नहीं बना तो धर्म-पुस्तकें पढ़ने से कोई फायदा नहीं हुआ।
आगे भी सारे शब्द में इसी विचार की व्याख्या है। यहाँ शब्द ‘हिंसा’ का अर्थ है ‘निर-दयता’, और ‘जीअ दइआ’ का अर्थ है ‘लोगों से प्यार’। यही शब्द गुरु नानक देव जी और गुरु अरजन साहिब ने भी बरते हैं;
हंसु हेतु लोभु कोपु, चारे नदीआ अगि॥
पावहि दझहि नानका, तरीऐ करमी लगि॥२॥२०॥ (महला १, माझ की वार) हंसु– हिंसा, निर्दयता।
मनि संतोख सरब जीअ दइआ॥
इन बिधि बरतु संपूरन भइआ॥११॥ (महला २ थिती गउड़ी)
जीअ दइआ= ख़लकति से प्यार।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छाडि मन हरि बिमुखन को संगु ॥
मूलम्
छाडि मन हरि बिमुखन को संगु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! को = का। संगु = साथ। हरि बिमुखन को संगु = उनका साथ जो परमात्मा की तरफ से बेमुख हैं।
अर्थ: हे (मेरे) मन! उन लोगों का साथ छोड़ दे, जो परमात्मा की ओर से बेमुख हैं।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में जिस भी भक्त की वाणी दर्ज हुई है, आम तौर पर उसका नाम उसकी वाणी के शुरू होने से पहले लिख दिया गया है। पर ये किसी शब्द की एक ही तुक है, इसके आरम्भ में इसके उच्चारण करने वाले भक्त का नाम भी नहीं दिया गया, और ना ही सारा शब्द है जहाँ उसका नाम पता लग सके। अगर गुरु ग्रंथ साहिब जी के बाहर से और कोई प्रमाण ना लिया जाए तो ये किस की उचारी हुई तुक समझी जाए?
इसका उक्तर अगले शब्द के आरम्भ में लिखे शीर्षक से मिलता है; भाव, यह एक तुक सूरदास जी की है। पर, ये अगला शीर्षक भी जरा सा ध्यान से देखने वाला है, शीर्षक इस प्रकार है;
‘सारंग महला ५ सूरदास’
अगर अगला शब्द भक्त सूरदास जी का होता, तो शब्द ‘महला ५’ ये शीर्षक ना होता। शब्द ‘महला ५’ बताता है कि यह अगला शब्द गुरु अरजन साहिब जी का ही अपना उचारा हुआ है।
यहाँ किस संबंध में इस शब्द की आवश्यक्ता पड़ी?
ऊपर दी हुई एक तुक की व्याख्या करने के लिए, कि हरि से बेमुख हुए लोगों का संग कैसे छोड़ना है। सो, इस शीर्षक में सूरदास जी को संबोधन करके गुरु अरजन देव जी का अगला शब्द उचार के फरमाते हैं कि ज्यों-ज्यों ‘हरि के संग बसे हरि लोक’ त्यों-त्यों ‘आन बसत सिउ काजु न कछूअै’; इस तरह सहज ही हरि से बिछुड़े हुए लोगों से साथ छूट जाता है, किसी से नफरत करने की जरूरत नहीं पड़ती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग महला ५ सूरदास ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारंग महला ५ सूरदास ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संग बसे हरि लोक ॥ तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के संग बसे हरि लोक ॥ तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि लोक = परमात्मा की बंदगी करने वाले। अरपि = भेटा कर के, वार के। सरबसु = (संस्कृत: सर्वस्व। स्व+धन, सब कुछ, all in all) अपना सब कुछ। सहज = अडोलता। धुनि = सुर। झोक = हुलारा, झूला झूलना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे सूरदास!) परमात्मा की बँदगी करने वाले बँदे (सदा) परमात्मा के साथ बसते हैं (इस तरह सहज-सुभाय बेमुखों से उनका साथ छूट जाता है); वह अपना तन-मन अपना सब कुछ (इस प्यार से) सदके कर देते हैं, उनको आनंद के हिलोरे आते हैं, सहज अवस्था की तार (उनके अंदर बँध जाती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनु पेखि भए निरबिखई पाए है सगले थोक ॥ आन बसतु सिउ काजु न कछूऐ सुंदर बदन अलोक ॥१॥
मूलम्
दरसनु पेखि भए निरबिखई पाए है सगले थोक ॥ आन बसतु सिउ काजु न कछूऐ सुंदर बदन अलोक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरबिखई = विषियों से रहित। थोक = पदार्थ। आन = और। काजु = गरज। बदन = मुंह। अलोक = देख के।1।
अर्थ: (हे सूरदास!) भक्ति करने वाले लोग प्रभु का दीदार करके विषौ-विकारों से बच जाते हैं, उनको सारे पदार्थ मिल जाते हैं (भाव, उनकी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं); प्रभु के सुंदर मुख का दीदार कर के उनको दुनिया की किसी और चीज़ की कोई गरज़ नहीं रह जाती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिआम सुंदर तजि आन जु चाहत जिउ कुसटी तनि जोक ॥ सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो दीनो इहु परलोक ॥२॥१॥८॥
मूलम्
सिआम सुंदर तजि आन जु चाहत जिउ कुसटी तनि जोक ॥ सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो दीनो इहु परलोक ॥२॥१॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिआम = साँवले रंग वाला। तजि = छोड़ के। कुसटी तनि = कोहड़ी के शरीर पर। प्रभि = प्रभु ने। हथि = (अपने) हाथ में। इहु = यह लोक, इस लोक में सुख।2।
अर्थ: (हे सूरदास!) जो मनुष्य सुंदर साँवले सज्जन (प्रभु) को बिसार के और-और पदार्थों की लालसा करते हैं, वे उस जोक की तरह हैं, जो किसी कोहड़ी के शरीर पर (लग के गंद ही चूसती है)। पर, हे सूरदास! जिस का मन प्रभु ने खुद अपने हाथ में ले लिया है उनको उसने यह लोक और परलोक दोनों बख्शे हैं (भाव, वे लोक-परलोक दोनों जगह आनंद में रहते हैं)।2।1।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘महला ५’ से जाहिर होता है कि यह शब्द गुरु अरजन साहिब जी का है। शब्द ‘सूरदास’ बताता है कि सतिगुरु जी ने सूरदास जी की उचारी हुई पिछली तुक के संबंध में यह शब्द उचारा है।
नोट: चाहे भक्त सूरदास जी की एक ही तुक दर्ज की है, पर गिनती में उसको सारे शब्द की तरह गिना गया है, तभी अब तक की गिनती आठ ‘8’ बनती है।
अगर सतिगुरु जी ने सूरदास जी का सारा शब्द दर्ज करवाया होता, तो इस शब्द के आरम्भ में ‘महला ५’ ना होता, इस के साथ शब्द ‘सूरदास’ की जरूरत नहीं थी। कई विद्वानों का विचार है कि दो सूरदास हुए हैं, पर जो भी है उसकी तुक सिर्फ एक ही तुक गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है। यह शब्द सतिगुरु अरजन देव जी का अपना उचारा हुआ है। सूरदास का नहीं।
नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन भक्त सूरदास जी के बारे में इस प्रकार लिखते हैं;
‘भक्त सूरदास जी जाति के ब्राहमण थे। आप का जन्म संवत् 1586 बिक्रमी का पता लगता है। इनका असल नाम मदन मोहन था, पहले आप संधीला के हाकिम रहे। आप जी के दो शब्द राग सारंग भक्त-वाणी संग्रह में आए हैं। एक शब्द तो पूरा है और दूसरे की मात्र एक पंक्ति लिखी है। परन्तु बन्नो वाली बीड़ में संपूर्ण है। करतारपुर वाली बीड़ में सारा शब्द लिख के ऊपर दोबारा हड़ताल फेरी है। पर उक्त तुक पर हाड़ताल फिरने से रह गई है, इसलिए एक ही पंक्ति उसकी नकल अनुसार लिखी हुई मिलती है। भक्त जी के सिद्धांत नीचे दिए जा रहे हैं;
सिआम सुंदर तजि आन जु चाहत, जिउ कुसटी तनि जोक॥
सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो, दीनो इहु परलोक॥ ….. (सारंग सूरदास)
“उक्त शब्द से सिवाय कृष्ण-भक्ति के और कुछ भी साबित नहीं होता। दूसरे शब्द की एक ही पंक्ति है, वह इस प्रकार है: ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ इस शब्द से यह सिद्ध; होता है कि कृष्ण जी की भक्ति से वंचितों को भक्त जी बे-मुख कर के पुकारते हैं, औरों के संग से हटाते हैं। सो, नतीजा यह निकला कि भक्त सूरदास जी गुरमति के किसी सिद्धांत की भी प्रौढ़ता नहीं करते, बल्कि खण्डन करते हैं।”
आईए अब इस उपरोक्त खोज को विचारें। विरोधी सज्जन के ख्याल अनुसार;
अकेली तुक और दूसरा शब्द दोनों ही भक्त सूरदास जी के उचारे हुए हैं।
पहली तुक में सूरदास जी कृष्ण जी की भक्ति से वंचितों को बेमुख कर के पुकारते हैं।
दूसरे शब्द से सिवाय कृष्ण-भक्ति के और कुछ साबित नहीं होता।
करतारपुर वाली बीड़ में पहली अकेली तुक नहीं है। सारा शब्द लिख के ऊपर से दोबारा हड़ताल फेरी है, पर उपरोक्त तुक पर हड़ताल फिरने से सहज ही रह गई, जिस के कारण उसकी नकल अनुसार गुरु ग्रंथ साहिब में एक ही पंक्ति लिखी हुई मिलती है।
पाठकों को यहाँ यह मजेदार बात बतानी आवश्यक है कि विरोधी सज्जन जी ने भक्त जी के शब्द देने के वक्त पहले दूसरा शब्द दिया है। यह एक गहरी भेद वाली बात है। बहस में बढ़िया हथियार वही जो वक्त सिर काम दे जाए। अगर पहली तुक पर पहले विचार करते, तो इसमें से कृष्ण जी की भक्ति साबित नहीं हो सकती थी। सो, उन्होंने दूसरे शब्द में से ‘सिआम सुंदर’ पेश कर के अन्जान पाठकों को बहकाने की कोशिश की है। यह तरीका इमानदारी भरा नहीं है। अगर श्रद्धा डोल गई है, तो भी सच्चाई ढूँढने के लिए हमने किसी टेढ़े-मेढ़े रास्ते का आसरा नहीं लेना। पहली तुक है, “छाडि मन हरि बिमुखन को संगु”। यहाँ अगर शब्द ‘हरि’ का अर्थ कृष्ण करना है, तो फिर श्री गुरु ग्रंथ साहिब के हरेक पन्ने पर लगभग बीस बार आ चुका है। किसी भी खींच-घसीट से शब्द ‘हरि’ का अर्थ ‘कृष्ण’ नहीं किया जा सकता। और, किसी भी दलील से यह साबित नहीं हिकया जा सकता कि यहाँ सूरदास जी कृष्ण-भक्ति से वंचितों को बे-मुख कह रहे हैं।
दूसरे शब्द का शब्द ‘सिआम सुंदर’ देख के विरोधी सज्जन जी को यहाँ भी कृष्ण-भक्ति के सिवाय और कुछ नहीं मिला। यहाँ उन्होंने एक गलती कर ली, अथवा जान-बूझ के मानने से इन्कार किया है। इस शब्द का शीर्षक है ‘सारंग महला ५ सूरदास’। यह शब्द ‘महला ५’ का है, गुरु अरजन साहिब जी का है।
इस सच्चाई को ना मान के भी सिर्फ शब्द ‘सिआम सुंदर’ से यह साबित नहीं हो जाता कि इस शब्द में कृष्ण-भक्ति है। बाकी की शब्दावली से आँखें नहीं मूँदी जा सकती– हरि, हरि लोक, प्रभि।
और गुरु अरजन साहिब ने तो और जगहों पर भी शब्द ‘सिआम सुंदर’ साफ तौर बरता है। देखो;
दरसन कउ लोचै सभु कोई॥ पूरै भागि परापति होई॥१॥ रहाउ॥
सिआम सुंदर तजि नीद किउ आई॥ महा मोहनी दूता लाई॥१॥
सुणि साजन संत जन भाई॥ चरन सरण नानक गति पाई॥५॥३४॥४०॥ (पन्ना 745, सूही महला ५)
भक्त सूरदास जी की तुक “छाडि मन हरि बिमुखन को संगु” के गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज होने के बारे तो विरोधी सज्जन ने एक अजीब ही बात लिख दी है। जब प्रिंसीपल जोध सिंह जी करतारपुर वाली बीड़ के दर्शन करने के लिए गए थे, तो खालसा कालेज में मास्टर केहर सिंह जी को और मुझे भी अपने साथ ले गए थे। इनके सबब से मैं भी दर्शन कर सका। शुरू से लेकर ततकरे (विषयवस्तु, विषय-तालिका) समेत आखिर तक हरेक पन्ने को अच्छी तरह देखने का मौका मिला। सूरदास जी की पंक्ति के बारे में विरोधी सज्जन लिखते हैं कि शब्द लिखा है और उस पर हड़ताल (लकीर) फिरी हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने कहीं से सुनी सुनाई बात लिख दी है। वरना, उस बीड़ में सिर्फ एक ही पंक्ति दर्ज है, और हड़ताल का कहीं नामो-निशान भी नहीं।
शब्द का शीर्षक स्पष्ट रूप से ‘सारंग महला ५ सूरदास’ लिखा हुआ है। इसे सूरदास जी का कहे जाना सामने दिखती सच्चाई से आँख्चों मूँदने वाली बात है। अकेले ‘सूरदास’ का नाम नहीं है, ‘महला ५’ भी मौजूद है। यहाँ विचारयोग ये है कि;
अ. क्या ये शब्द गुरु अरजन साहिब और भक्त सूरदास का मिश्रित है?
आ. क्या ये शब्द सूरदास जी का है? तो फिर, शब्द ‘महला ५’ के क्या भाव हुए?
इ. क्या ये शब्द ‘महला ५’ का है? तो फिर, शब्द ‘सूरदास’ क्यों?
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में से ‘छाडि मन’ वाली तुक ध्यान से पढ़ें। उसके लिखने वाले का नाम नहीं दिया गया। हम इसे भक्त सूरदास जी का रचा हुआ इस वास्ते कहते हैं कि भक्त जी की रची हुई वाणी में एक पदा ऐसा भी है, जिसकी आरम्भ की यह तुक है। पर फर्ज करें, सूरदास जी की रचना कहीं से मिल ही ना सकती हो, तो हम केवल श्री गुरु ग्रंथ साहिब में से कैसे ढूँढे कि यह तुक किसने लिखी थी? इसका उक्तर यह है कि ऊपर वाली तुक के रचयता का नाम बाद वाले शब्द के शीर्षक से तलाशना है। नीचे का बाद वाला शब्द गुरु अरजन साहिब जी का है, और यह सूरदास जी की उचारी हुई ऊपर वाली तुक के सम्बंध में है।
यहाँ से एक और बात भी साबित हो रही है। गुरु अरजन देव जी ने सूरदास जी की सिर्फ एक ही तुक दर्ज की है। अगर सारा शब्द दर्ज करते, तो नीचे दिए शब्द के शीर्षक को सिर्फ ‘सारंग महला ५’ ही लिखते, क्योंकि उस सारे शब्द के आखिरी शब्द ‘सूरदास’ से पता चल जाता है कि ऊपर वाला शब्द ‘सूरदास’ जी का है।
दूसरे शब्द के आखिर में शब्द ‘सूरदास’ देख के यह भुलेखा अवश्य लग जाता है। सहज ही पाठक यह मिथ लेता है कि शब्द ‘सूरदास’ जी का है। पर असल बात ये नहीं है। फरीद जी के शलोकों में कई शलोक ऐसे हैं जो अमरदास जी और गुरु अरजन साहिब जी के उचारे हुए हैं, पर वहाँ शब्द ‘नानक’ की जगह ‘फरीद’ बरता गया है। सतिगुरु जी ने फरीद जी के दिए ख्याल की खूब व्याख्या करनी मुनासिब समझी, इस वास्ते अपने उचारे शलोक में ‘फरीद’ शब्द बरता, क्योंकि वे शलोक फरीद जी के संबंध में थे। हाँ, पाठकों को गलतफहमी से बचाने के लिए शीर्षक में ‘महला ३’ और ‘महला ५’ लिख दिया। इसी तरह चुँकि ये शब्द सूरदास जी की ऊपर दी गई पंक्ति “छाडि मन हरि बिमुखन को संगु” के सम्बंध में है, इसमें शब्द ‘नानक’ की जगह शब्द ‘सूरदास’ दिया है, पर, पाठकों को किसी तरह के भुलेखे से बचाने के लिए शीर्षक में ‘महला ५’ लिख दिया है। इसके साथ ही शब्द ‘सूरदास’ लिखने की जरूरत इसलिए पड़ी है कि ऊपर वाली तुक अकेली होने के कारण उसके करते सूरदास जी का नाम उस में नहीं था।
उपरोक्त सारी विचार से निम्न-लिखित नतीजे पर पहुँचते हैं;
“छाडि मन हरि बिमुखन को संगु” यह अकेली तुक ही गुरु अरजन साहिब ने गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज की है; यह तुक भक्त सूरदास जी की है, और, इसमें कृष्ण-भक्ति का कोई वर्णन नहीं है।
दूसरा शब्द गुरु अरजन साहिब का अपना रचा हुआ है। भक्त सूरदास जी की तुक ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ के संबन्ध में उचारा है, इस वास्ते शब्द ‘नानक’ की जगह ‘सूरदास’ बरता है। और, शीर्षक में भी ‘सारंग महला ५’ के साथ ‘सूरदास’ लिखा है। इस शब्द में भी कृष्ण-भक्ति नहीं है।
पाठकों की दिलचस्पी और जानकारी के लिए हम एक और प्रमाण पेश करते हैं, जिससे ये बात स्पष्ट हो जाएगी कि पहली अकेली तुक समझने के लिए पाठक सज्जन १४३० पृष्ठ वाली बीड़ का १२५१ अंक खोल के सामने रख लें। जहाँ इस राग की ‘वार’ समाप्त होती है, वहाँ आगे लिखा है ‘रागु सारंग वाणी भगतां की, कबीर जी’। पहला शब्द ‘कहा नर गरबसि थोरी बात’ से आरम्भ होता है। इस शब्द के 4 ‘बंद’ हैं, और, जहाँ आखिरी तुक ‘कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात’ खत्म होती है, वहाँ दो अंक लिखे हुए हैं, अंक 4 और अंक 1। इनका भाव यह है कि यहाँ शब्द का चौथा पदा समाप्त हुआ है और पहला शब्द भी खत्म हो गया है। आगे दूसरा शब्द शुरू होता है। इसके आखिर पर हैं अंक 4 और अंक 2। इनका भाव यह है कि कबीर जी का यह दूसरा शब्द चार बँद वाला है, और यह दूसरा शब्द है।
इससे आगे शीर्षक है ‘सारंग वाणी नामदेउ जी की’। इनके अंकों को भी ध्यान से देखें। तुक ‘निरभै होइ भजीअै भगवान’ पर नामदेव जी का 4 बंद वाला पहला शब्द समाप्त होता है, और अंक।4।1। लिखा गया है। दूसरा शब्द दो बंदों वाला है, उसके समाप्त होने पर अंक।2।2। लिखे गए हैं। तीसरा शब्द भी दो बंदों वाला ही है, उसके आखिर में।2।3। लिखा है।
इससे आगे नया शीर्षक है ‘सारंग’। यह सिर्फ एक शब्द है तीन बंदों वाला। आखिरी तुक है ‘परमानंद साध संगति मिलि, कथा पुनीत न चाली’।3।1।6। यहाँ अंक 3 का मतलब है कि इस शब्द के तीन बंद है। अंक 1 का भाव है कि यह परमानन्द जी का सिर्फ एक शब्द है। और अंक 6 का तात्पर्य है कि अब तक भगतों के कुल छह शब्द आए हैं – कबीर 2, नामदेव 3 और परमानन्द 1। कुल जोड़–6।
इससे आगे अकेली तुक है ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’। इसके आखिर में गिनती का कोई अंक नहीं दिया गया। आगे चलिए। अगला शीर्षक है ‘सारंग महला ५ सूरदास’। इसके आखिर में अंक।2।1।8। दिया गया है। यहाँ अंक 2 का भाव है यह शब्द दो बंदों वाला है। अंक 8 का मतलब है अब तक आठ शब्द आ चुके हैं। पाठक ध्यान रखें कि गिनती के वक्त अकेली तुक ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ को पूरा शब्द माना गया है। अंक 1 और 8 के बीच का अंक है 1। इसका भाव यह हुआ कि यह शब्द अकेला है। जिस भी व्यक्ति का यह शब्द है, एक ही शब्द है।
हमने यहाँ देखा है कि अंक 8 जाहिर करता है जो अकेली तुक ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ को गिनती में पूरे शब्द के तौर पर गिना गया है पर अंक 1 बताता है कि जो शब्द ‘सारंग महला ५ सूरदास’ शीर्षक वाला है, यह जिस भी व्यक्ति का है अकेला शब्द है। अगर ‘छाडि मन’ वाली तुक, और यह दूसरा शब्द दोनों ही सूरदास जी के होते, तो आखिर अंक इस प्रकार होता–।2।2।8। पहला अंक नं: 2 शब्द के बंदों की गिनती है। दूसरा अंक 2 इन दोनों शबदों की गिनती का होना था और तीसरा अंक नं: 8 सारे शबदों की गिनती का है। सो, यह बात साफ तौर पर सिद्ध हो गई है कि पहली तुक सूरदास जी की है, और दूसरा मुकम्मल शब्द गुरु अरजन साहिब का है;
अकेली तुक के बाद फिर मूल-मंत्र का दर्ज होना भी बताता है कि आगे शब्द का रचयता बदल गया है।
सबसे आखिरी शब्द को देखें। आखिर अंक।2।1।4। इनका भाव यूँ है: शब्द के दो बंद हैं गिनती में यह कबीर जी का अकेला शब्द है। और, सारे शबदों का जोड़ 9 है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारंग कबीर जीउ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सारंग कबीर जीउ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥ मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥ मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी। हितु = मोह। फन = छल।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा के बिना कोई और इस मन की सहायता करने वाला नहीं हो सकता। माता, पिता, भाई, पुत्र, पत्नी - इन सबके साथ जो मोह डाला हुआ है, ये छल के साथ ही मोह डाला है (भाव, ये मोह ऐसे पदार्थों के साथ है जो छल ही हैं, सदा साथ निभने वाले नहीं है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥ कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥
मूलम्
आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥ कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगे कउ = अगले आने वाले जीवन के लिए। तुलहा = बेड़ा। बिसासा = ऐतबार। भांडा = शरीर। ठनका = ठोकर।1।
अर्थ: (हे भाई!) इस धन का (जो तूने कमाया है) कोई ऐतबार नहीं (कि कब नाश हो जाए, सो) आगे के लिए कोई और (भाव, नाम धन का) बेड़ा बाँधो। (धन तो कहाँ रहा) इस शरीर का कोई विश्वास नहीं, इसको थोड़ी सी ठोकर लगी (कि ढहि-ढेरी हो जाता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥ कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥
मूलम्
सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥ कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = सेवक, भक्त। सभ जन = सत्संगी (Plural)। पंखेरू = पंछी।2।
अर्थ: हे संत जनो! (जब माँगो) गुरमुखों (के चरणों) की धूल माँगो, (इसी में से) सारे धर्मों और पुन्यों के फल मिलेंगे। कबीर कहता है: हे संतजनो! सुनो, यह मन इस तरह है जैसे जंगल का कोई उड़ने वाला पक्षी (जिसको टिकाने के लिए गुरमुखों की संगति में लाओ)।2।1।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह बात विचारणीय है कि कबीर जी का यह शब्द आखिर में अलग से क्यों दर्ज किया गया है।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: दुनियावी साथ सदा नहीं निभता। शरीर भी यहीं रह जाता है। साधु-संगत में प्रभु का भजन करो, यही है सदा सहाई।