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विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु बसंतु महला १ घरु १ चउपदे दुतुके
मूलम्
रागु बसंतु महला १ घरु १ चउपदे दुतुके
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माहा माह मुमारखी चड़िआ सदा बसंतु ॥ परफड़ु चित समालि सोइ सदा सदा गोबिंदु ॥१॥
मूलम्
माहा माह मुमारखी चड़िआ सदा बसंतु ॥ परफड़ु चित समालि सोइ सदा सदा गोबिंदु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहा माह = महा महा, महान महान, बड़ी बड़ी। मुमारखी = मुबारकें, वधाईयाँ। सदा बसंतु = सदा खिले रहने वाला (प्रभु = प्रकाश)। परवतु = प्रफुल्लित हो, खिल। चित = हे चिक्त! समालि = संभाल के रख। गोबिंदु = सृष्टि की सार लेने वाले प्रभु।1।
अर्थ: (हे मन! अगर तू अहंकार वाली रुचि भुला दे तो तुझे) बड़ी-बड़ी मुबारकें (हों, तेरे अंदर सदा चढ़दीकला टिकी रहे, क्योंकि तेरे अंदर) सदा खिले रहने वाला परमात्मा प्रकट हो जाए। हे मेरे चिक्त! सृष्टि की सार लेने वाले प्रभु को तू सदा (अपने अंदर) संभाल के रख और (इसकी इनायत से) खिला रह।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोलिआ हउमै सुरति विसारि ॥ हउमै मारि बीचारि मन गुण विचि गुणु लै सारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भोलिआ हउमै सुरति विसारि ॥ हउमै मारि बीचारि मन गुण विचि गुणु लै सारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भोलिआ = हे कमले (मन)! सुरति = तवज्जो। विसारि = भुला के। बीचारि = सोच समझ, होश कर। मन = हे मन! गुण विचि गुणु = गुणों में श्रेष्ठ गुण, सबसे उत्तम गुण। लै सारि = संभाल ले।1। रहाउ।
अर्थ: हे कमले मन! मैं-मैं करने वाली रुचि भुला दे। हे मन! होश कर, अहंकार को (अपने अंदर से) खत्म कर दे। (अहंकार को खत्म करने वाला यह) सबसे श्रेष्ठ गुण (अपने अंदर) संभाल ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम पेडु साखा हरी धरमु फुलु फलु गिआनु ॥ पत परापति छाव घणी चूका मन अभिमानु ॥२॥
मूलम्
करम पेडु साखा हरी धरमु फुलु फलु गिआनु ॥ पत परापति छाव घणी चूका मन अभिमानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = (रोजाना जीवन वाले) कर्म। पेडु = पेड़, वृक्ष। साखा = टहनियाँ। हरी = हरि का नाम सिरन। गिआनु = प्रभु से गहरी जान-पाहचान। पत = पत्र, पत्ते। घणी = संघनी। मान अभिमानु = मन का अहंकार। चूका = समाप्त हो गया।2।
अर्थ: (हे मन! अगर तू अहंकार भुलाने वाले रोजाना) काम (करने लग जाए, यह तेरे अंदर एक ऐसा) वृक्ष (उग जाएगा, जिसको) हरि-नाम (स्मरण) की टहनियाँ (फूटेंगीं, जिसको) धार्मिक जीवन का फूल (लगेगा और प्रभु से) गहरी जान-पहचान वाला फल (लगेगा)। परमात्मा की प्राप्ति (उस वृक्ष के) पत्ते (होंगे, और) विनम्रता (उस वृक्ष की) घनी छाया होगी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखी कुदरति कंनी बाणी मुखि आखणु सचु नामु ॥ पति का धनु पूरा होआ लागा सहजि धिआनु ॥३॥
मूलम्
अखी कुदरति कंनी बाणी मुखि आखणु सचु नामु ॥ पति का धनु पूरा होआ लागा सहजि धिआनु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखी = आँखों से। कंनी = कानों से। बाणी = महिमा। मुखि = मुँह में। आखणु = बोल। पति = इज्जत। सहजि = सहज, अडोलता में। धिआनु = ध्यान, टिकाव।3।
अर्थ: (जो भी मनुष्य अहंकार को भुलाने वाले रोजाना कर्म करेगा उसको) कुदरति में बसता ईश्वर अपनी आँखों से दिखेगा, उसके कानों में प्रभु की महिमा बसेगी, उसके मुँह में सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु का नाम ही बोल होगा। उसको लोक-परलोक की इज्जत का सम्पूर्ण धन मिल जाएगा, अडोलता में सदा उसकी तवज्जो टिकी रहेगी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माहा रुती आवणा वेखहु करम कमाइ ॥ नानक हरे न सूकही जि गुरमुखि रहे समाइ ॥४॥१॥
मूलम्
माहा रुती आवणा वेखहु करम कमाइ ॥ नानक हरे न सूकही जि गुरमुखि रहे समाइ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहा रुती = महीने की ऋतुएं। करम = (अहंकार भुलाने वाले) कर्म।4।
अर्थ: (हे भाई! अहंकार को बिसारने वाले) काम करके देख लो, ये दुनियावी ऋतुएं और महीने तो सदा आने-जाने वाले हैं (पर वह सदा प्रफुल्लित रहने वाली आत्मिक अवस्था वाली ऋतु कभी अलोप नहीं होगी)।
हे नानक! जो लोग गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के प्रभु-याद में टिके रहते हैं, उनकी आत्मा सदा खिली रहती है और यह खिलाव कभी सूखता नहीं।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ बसंतु ॥ रुति आईले सरस बसंत माहि ॥ रंगि राते रवहि सि तेरै चाइ ॥ किसु पूज चड़ावउ लगउ पाइ ॥१॥
मूलम्
महला १ बसंतु ॥ रुति आईले सरस बसंत माहि ॥ रंगि राते रवहि सि तेरै चाइ ॥ किसु पूज चड़ावउ लगउ पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रुति = ऋतु, सुहावनी ऋतु। आईले = आई है। सरस = रस सहित, खुश। माहि = में। रंगि = तेरे रंगि, हे प्रभु! तेरे प्रेम में। राते = रंगे हुए। रवहि = जो लोग स्मरण करते हैं। सि = वह लोग। चाइ = चाव में। तेरै चाइ = तेरे मिलाप की खुशी में। चढ़ावउ = मैं चढ़ाऊँ। लगउ = मैं लगूँ। पाइ = पाय, पैरों पर।1।
अर्थ: हे प्रभु! जो बंदे तेरे प्यार-रंग में रंगे जाते हैं, जो तुझे स्मरण करते हैं, वे तेरे मिलाप की खुशी में रहते हैं, उनके लिए (ये मानव जन्म, मानो, बसंत की) ऋतु आई हुई है, वह (मनुष्य जन्म वाली) इस ऋतु में सदा खिले रहते हैं। (लोग बसंत ऋतु में खिले हुए फूल ले के देवी-देवताओं की भेट चढ़ा के पूजा करते हैं। पर, मैं तेरे दासों का दास बन के तुझे स्मरण करता हूँ, तेरे बिना) मैं और किस की पूजा के लिए (फूल) भेट करूँ? (तेरे बिना) मैं और किसके चरणों में लगूँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा दासनि दासा कहउ राइ ॥ जगजीवन जुगति न मिलै काइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा दासनि दासा कहउ राइ ॥ जगजीवन जुगति न मिलै काइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासनि दासा = दासों का दास हो के। कहउ = मैं कहता हूँ, स्मरण करता हूँ। काइ = किसी और जगह से।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रकाश-रूप प्रभु! मैं तेरे दासों का दास बन के तुझे स्मरण करता हूँ। हे जगत के जीवन प्रभु! तेरे मिलाप की जुगती (तेरे दासों के बिना) किसी और जगह से नहीं मिल सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी मूरति एका बहुतु रूप ॥ किसु पूज चड़ावउ देउ धूप ॥ तेरा अंतु न पाइआ कहा पाइ ॥ तेरा दासनि दासा कहउ राइ ॥२॥
मूलम्
तेरी मूरति एका बहुतु रूप ॥ किसु पूज चड़ावउ देउ धूप ॥ तेरा अंतु न पाइआ कहा पाइ ॥ तेरा दासनि दासा कहउ राइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरति = हस्ती। देउ = मैं देऊँ। कहा पाइ = कहाँ पाया जा सकता है?।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी हस्ती एक है, तेरे रूप अनेक हैं। तुझे छोड़ के मैं और किस को धूप दूँ? तुझे छोड़ के मैं और किस की पूजा के लिए (फूल आदि) भेटा रखूँ। हे प्रभु! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे प्रकाश-रूप प्रभु! मैं तो तेरे दासों का दास बन के तुझे ही स्मरण करता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे सठि स्मबत सभि तीरथा ॥ तेरा सचु नामु परमेसरा ॥ तेरी गति अविगति नही जाणीऐ ॥ अणजाणत नामु वखाणीऐ ॥३॥
मूलम्
तेरे सठि स्मबत सभि तीरथा ॥ तेरा सचु नामु परमेसरा ॥ तेरी गति अविगति नही जाणीऐ ॥ अणजाणत नामु वखाणीऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सठि संबति = साठ साल (ब्रहमा विष्णु शिव की तीन बीसियाँ। इनका बीस = बीस साल का प्रभाव माना गया है)। सभि = सारे। गति = हालत। तेरी गति = तू कैसा है, ये बात। अविगत = जानने से परे।3।
अर्थ: हे परमेश्वर! तेरा सदा-स्थिर रहने वाला नाम ही मेरे लिए तेरे साठ साल (ब्रहमा-विष्णू-शिव की बीसियाँ) हैं और सारे तीर्थ हैं। तू किस प्रकार का है; ये बात समझी नहीं जा सकती, जानी नहीं जा सकती। ये समझने का यत्न किए बिना ही (तेरे दासों का दास बन के) तेरा नाम स्मरणा चाहिए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानकु वेचारा किआ कहै ॥ सभु लोकु सलाहे एकसै ॥ सिरु नानक लोका पाव है ॥ बलिहारी जाउ जेते तेरे नाव है ॥४॥२॥
मूलम्
नानकु वेचारा किआ कहै ॥ सभु लोकु सलाहे एकसै ॥ सिरु नानक लोका पाव है ॥ बलिहारी जाउ जेते तेरे नाव है ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेचारा = गरीब। एकसै = एक प्रभु को। सिरु नानक = नानक का सिर। लोका पाव = (उन महिमा करने वाले) लोगों के पैरों पर। जेते = जितने भी।4।
अर्थ: (सिर्फ मैं नानक ही नहीं कह रहा कि तू बेअंत है) गरीब नानक कह भी क्या सकता है? सारा संसार ही तुझ एक का सराहना कर रहा है (तेरी महिमा कर रहा है)। हे प्रभु! जितने भी तेरे नाम हैं मैं उनसे बलिहार जाता हूँ (तेरे ये बेअंत नाम तेरे बेअंत गुणों को देख-देख के तेरे बंदों ने बनाए हैं)।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ सुइने का चउका कंचन कुआर ॥ रुपे कीआ कारा बहुतु बिसथारु ॥ गंगा का उदकु करंते की आगि ॥ गरुड़ा खाणा दुध सिउ गाडि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ सुइने का चउका कंचन कुआर ॥ रुपे कीआ कारा बहुतु बिसथारु ॥ गंगा का उदकु करंते की आगि ॥ गरुड़ा खाणा दुध सिउ गाडि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चउका = रसोई से बाहर खुली जगह रोटी पकाने के लिए घेरी हुई जगह। कंचन = सोना। कुआर = करवे, गागर। रुपा = चाँदी। कारा = लकीरें, चौके के चारों तरफ हदबंदी की लकीरें। बिसथारु = सुचि रखने के लिए ऐसे और उद्यमों का विस्तार। उदक = पानी। करंते की आगि = (क्रतु = अग्नि। क्रतु = यज्ञ) यज्ञ की आग। एक विशेष वृक्ष (अरणी) के दो डंडे बना के एक डंडे में छेद कर लेते हैं, उसमें दूसरा डंडा फसा के उसका मथानी की तरह रस्सी के लपेटे दे के बड़ी तेजी से घुमाते हैं। इस तरह दोनों डंडों की रगड़ से आग पैदा होती है। यह आग सुचि (शुद्ध) मानी गई है। यज्ञों में इस आग को बरतना अच्छा बताया गया है। गरुड़ा = पके हुए चावल। गाडि = मिला के।1।
अर्थ: (जो कोई मनुष्य) सोने का चौका (तैयार करे), सोने के ही (उसमें) बरतन (बरते), (चौके को शुद्ध रखने के लिए उसके चारों तरफ) चाँदी की लकीरें (डाले) (और शुद्धि के वास्ते) इस तरह के अनेक प्रकार के कामों का पसारा (पसारे); (भोजन तैयार करने के लिए अगर वह) गंगा का (पवित्र) जल (लाए), और अरणी की लकड़ी की आग (तैयार करे); और फिर वह दूध में मिला के पके हुए चावलों का भोजन करे;।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन लेखै कबहू न पाइ ॥ जामि न भीजै साच नाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मन लेखै कबहू न पाइ ॥ जामि न भीजै साच नाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लेखै न पाइ = स्वीकार नहीं हो सकता। जामि = जब तक। नाइ = नाम में।1। रहाउ।
अर्थ: (तो भी) हे मन! ऐसी सुचि का कोई भी आडंबर स्वीकार नहीं होता। जब तक मनुष्य प्रभु के सच्चे नाम में नहीं भीगता (प्रीति नहीं बनाता, उसका कोई उद्यम प्रभु को पसंद नहीं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दस अठ लीखे होवहि पासि ॥ चारे बेद मुखागर पाठि ॥ पुरबी नावै वरनां की दाति ॥ वरत नेम करे दिन राति ॥२॥
मूलम्
दस अठ लीखे होवहि पासि ॥ चारे बेद मुखागर पाठि ॥ पुरबी नावै वरनां की दाति ॥ वरत नेम करे दिन राति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दस अठ = अठारह पुराण। मुखागर = मुँह जबानी, मुँह के आगे। पाठि = पाठ में। पुरबी = पर्वों के मौके पर, पवित्र दिवसों पर। वरनां की दाति = अलग अलग वर्णों के लिए जो दान करना लिखा है उस अनुसार दान।2।
अर्थ: अगर किसी पण्डित ने अठारह पुराण लिख के पास रखे हुए हों, यदि पाठ में वह चारों वेद ज़बानी पढ़े, यदि वह पवित्र (निहित हुए) दिवसों पर तीर्थ स्नान करे, शास्त्रों की बताई हुई मर्यादा के अनुसार अलग-अलग वर्णों के व्यक्तियों को दान-पुण्य करे, अगर वह दिन-रात व्रत रखता रहे तथा अन्य सभी नियम निभाता रहे (तो भी प्रभु को इनमें से कोई उद्यम पसंद नहीं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काजी मुलां होवहि सेख ॥ जोगी जंगम भगवे भेख ॥ को गिरही करमा की संधि ॥ बिनु बूझे सभ खड़ीअसि बंधि ॥३॥
मूलम्
काजी मुलां होवहि सेख ॥ जोगी जंगम भगवे भेख ॥ को गिरही करमा की संधि ॥ बिनु बूझे सभ खड़ीअसि बंधि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जंगम = घंटी बजाने वाले शिव उपासक। संधि = मिलवाना। करमां की संधि = धर्म शास्त्रों के अनुसार बताए कर्मकांड को करने वाले, कर्म काण्डी। खड़ीअसि = ले जाई जाती है। बंधि = बाँध के।3।
अर्थ: यदि कोई व्यक्ति काज़ी-मुल्ला-शेख बन जाए, कोई जोगी-जंगम बन के भगवे कपड़े पहन ले, कोई गृहस्थी बन के पूरा कर्मकांडी हो जाए- इनमें से हरेक को दोशियों की तरह बाँध के आगे ले जाया जाएगा, जब तक वह नाम-जपने की कद्र नहीं समझा, (जब तक वह सच्चे नाम में नहीं पतीजता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते जीअ लिखी सिरि कार ॥ करणी उपरि होवगि सार ॥ हुकमु करहि मूरख गावार ॥ नानक साचे के सिफति भंडार ॥४॥३॥
मूलम्
जेते जीअ लिखी सिरि कार ॥ करणी उपरि होवगि सार ॥ हुकमु करहि मूरख गावार ॥ नानक साचे के सिफति भंडार ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। करणी उपरि = हरेक की करणी के अनुसार, हरेक जीव के किए हुए कर्मों के अनुसार। होवगि = होगी। सार = संभाल, फैसला। हुकमु करहि = जो मनुष्य हुक्म करते हैं, अहंकार करने वाले बंदे। भंडार = खजाने।4।
अर्थ: (दरअसल बात ये है कि) जितने भी जीव हैं सबके सिर पर यही हुक्म-रूप लेख लिखा हुआ है कि हरेक की कामयाबी का फैसला उसके द्वारा किए कर्मों पर ही होगा। जो लोग शुद्ध कर्मकांड-भेस आदि पर ही गुमान करते हैं वह बहुत बड़े मूर्ख हैं।
हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की सिफतों के खजाने भरे पड़े हैं (उनमें जुड़ो। यही है स्वीकार होने वाली करणी)।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ तीजा ॥ बसत्र उतारि दिग्मबरु होगु ॥ जटाधारि किआ कमावै जोगु ॥ मनु निरमलु नही दसवै दुआर ॥ भ्रमि भ्रमि आवै मूड़्हा वारो वार ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ तीजा ॥ बसत्र उतारि दिग्मबरु होगु ॥ जटाधारि किआ कमावै जोगु ॥ मनु निरमलु नही दसवै दुआर ॥ भ्रमि भ्रमि आवै मूड़्हा वारो वार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उतारि = उतार के। दिगंबरु = नागा साधु (दिग्+अंबर। दिग = दिशा। अंबरु = कपड़ा। दिगंबर = जिसने दिशा को अपना कपड़ा बनाया है, नंगा)। होगु = (अगर) हो जाएगा। धारि = धार के। किआ = कौन सा? दसवै दुआर = प्राण दसवें द्वार पर चढ़ा के, प्राणायम करने से। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। मूड़ा = मूढ़, मूर्ख। वारो वार = बार बार।1।
अर्थ: यदि कोई मनुष्य कपड़े उतार के नांगा साधु बन जाए (तो भी व्यर्थ ही उद्यम है)। जटा धार के भी कोई जोग नहीं कमाया जा सकता। (परमात्मा के साथ जोग-योग- नहीं हो सकेगा)। दसवें द्वार में प्राण चढ़ाने से भी मन पवित्र नहीं होता। (ऐसे साधनों में लगा हुआ) मूर्ख भटक-भटक के बार-बार जनम लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकु धिआवहु मूड़्ह मना ॥ पारि उतरि जाहि इक खिनां ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एकु धिआवहु मूड़्ह मना ॥ पारि उतरि जाहि इक खिनां ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकु = एक प्रभु को। इक खिनां = एक पल में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख मन! एक परमात्मा को स्मरण कर। (नाम-जपने की इनायत से) एक पल में ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिम्रिति सासत्र करहि वखिआण ॥ नादी बेदी पड़्हहि पुराण ॥ पाखंड द्रिसटि मनि कपटु कमाहि ॥ तिन कै रमईआ नेड़ि नाहि ॥२॥
मूलम्
सिम्रिति सासत्र करहि वखिआण ॥ नादी बेदी पड़्हहि पुराण ॥ पाखंड द्रिसटि मनि कपटु कमाहि ॥ तिन कै रमईआ नेड़ि नाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = (जो मनुष्य) करते हैं। नादी = नाद बजाने वाले जोगी। बेदी = बेद पढ़ने वाले पण्डित। दिसटि = निगाह, नजर। मनि = मन में। कमाहि = जो कमाते हैं।2।
अर्थ: (पण्डित लोग) स्मृतियों और शास्त्र (और लोगों को पढ़-पढ़ के) सुनाते हैं, जोगी नाद बजाते हैं, पंडित वेद पढ़ते हैं, कोई पुराण पढ़ते हैं, पर उनकी निगाह पाखण्ड वाली है, मन में वे खोट कमाते हैं। परमात्मा ऐसे व्यक्तियों के नजदीक नहीं (फटकता)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को ऐसा संजमी होइ ॥ क्रिआ विसेख पूजा करेइ ॥ अंतरि लोभु मनु बिखिआ माहि ॥ ओइ निरंजनु कैसे पाहि ॥३॥
मूलम्
जे को ऐसा संजमी होइ ॥ क्रिआ विसेख पूजा करेइ ॥ अंतरि लोभु मनु बिखिआ माहि ॥ ओइ निरंजनु कैसे पाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजमी = संजम रखने वाला, इन्द्रियों को काबू करने का प्रयत्न करने वाला। विसेख = विशेष, खास। करेइ = (जो मनुष्य) करता है। अंतरि = अंदर, मन के अंदर। बिखिआ = माया। ओइ = एसे बंदे। पाहि = प्राप्त करें।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अगर कोई ऐसा व्यक्ति भी हो जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता हो, कोई विशेष प्रकार की क्रिया करता हो, देव-पूजा भी करे, पर अगर उसके अंदर लोभ है, अगर उसका मन माया के मोह में फसा हुआ है, तो ऐसे व्यक्ति भी माया से निर्लिप परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर सकते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीता होआ करे किआ होइ ॥ जिस नो आपि चलाए सोइ ॥ नदरि करे तां भरमु चुकाए ॥ हुकमै बूझै तां साचा पाए ॥४॥
मूलम्
कीता होआ करे किआ होइ ॥ जिस नो आपि चलाए सोइ ॥ नदरि करे तां भरमु चुकाए ॥ हुकमै बूझै तां साचा पाए ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीता होआ = सब कुछ परमात्मा का किया हुआ हो रहा है। करे किआ होइ = जीव के करने से क्या हो सकता है? जिस नो = जिस जीव को। सोइ = वह परमात्मा। नदरि = मेहर की निगाह। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर करता है। हुकमै = परमात्मा के हुक्म को।4।
अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या वश?) सब कुछ परमात्मा का ही किया हुआ हो रहा है। जीव के करने से कुछ नहीं हो सकता। जब प्रभु स्वयं (किसी जीव पर) मेहर की निगाह करता है तो उसकी भटकना दूर करता है (प्रभु की मेहर से ही जब जीव) प्रभु का हुक्म समझता है तो उसका मिलाप हासिल कर लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु जीउ अंतरु मैला होइ ॥ तीरथ भवै दिसंतर लोइ ॥ नानक मिलीऐ सतिगुर संग ॥ तउ भवजल के तूटसि बंध ॥५॥४॥
मूलम्
जिसु जीउ अंतरु मैला होइ ॥ तीरथ भवै दिसंतर लोइ ॥ नानक मिलीऐ सतिगुर संग ॥ तउ भवजल के तूटसि बंध ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरु = अंदरूनी (बंद नं: 3 में शब्द ‘अंतरि’ संबंधक है। दोनों शब्दों को योड़ कर देखें। शब्द ‘अंतरु’ विशेषण है शब्द ‘जीउ’ का)। दिसंतर = देश अंतर, और-और देशों में। लोइ = लोक में, जगत में। तउ = तब। बंध = बंधन।5।
अर्थ: जिस मनुष्य की अंदरूनी आत्मा (विकारों से) मैली हो जाती है, वह अगर तीर्थों पर जाता है अगर वह जगत में और-और देशों में भी (विरक्त रहने के लिए) चलता फिरता है (तो भी उसके माया वाले बंधन टूटते नहीं)।
हे नानक! अगर गुरु का मेल प्राप्त हो तो ही परमात्मा मिलता है, तब ही संसार-समुंदर वाले बंधन टूटते हैं।5।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह शब्द ‘महला ३’ का है। अंक ३ को ‘तीजा’ पढ़ना है जैसे कि शब्द के आरम्भ में भी लिखा गया है ये निर्देश है। इसी तरह ‘महला’ १, २, ४, ५, ९’ के अंकों को पहला, दूजा, चौथा, पंजवाँ और नौवाँ पढ़ना है।
नोट: वाणी दर्ज करने के बारे में सारे गुरु ग्रंथ साहिब में बरती गई मर्यादा के अनुसार इस राग में भी गुरु नानक साहिब के शब्द-संग्रह के उपरांत गुरु अमरदास जी के शब्द दर्ज हैं। फिर, ये अलग से शब्द गुरु अमरदास जी का यहाँ क्यों दिया गया है? उक्तर जानने के लिए, इस सारे शब्द को ध्यान से पढ़िए। इससे पहला शब्द नंबर 3 भी फिर पढ़ें। दोनों में भेस और कर्मकांड की निंदा की गई है। स्मरण को ही जनम-उद्देश्य बताया गया है। गुरु अमरदास जी ने गुरु नानक साहिब के विचारों की प्रोढ़ता की है। गुरु नानक देव जी का यह शब्द गुरु अमरदास जी के पास मौजूद था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ सगल भवन तेरी माइआ मोह ॥ मै अवरु न दीसै सरब तोह ॥ तू सुरि नाथा देवा देव ॥ हरि नामु मिलै गुर चरन सेव ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ सगल भवन तेरी माइआ मोह ॥ मै अवरु न दीसै सरब तोह ॥ तू सुरि नाथा देवा देव ॥ हरि नामु मिलै गुर चरन सेव ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तोह = तेरा (प्रकाश)। सुरि = देवते।1।
अर्थ: हे प्रभु! सारे भवनों में (सारे जगत में) तेरी माया के मोह का पसारा है। मुझे तेरे बिना कोई और नहीं दिखता, सब जीवों में तेरा ही प्रकाश है। तू देवताओं का नाथों का भी देवता है। हे हरि! गुरु के चरणों की सेवा करने से ही तेरा नाम मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे सुंदर गहिर ग्मभीर लाल ॥ गुरमुखि राम नाम गुन गाए तू अपर्मपरु सरब पाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे सुंदर गहिर ग्मभीर लाल ॥ गुरमुखि राम नाम गुन गाए तू अपर्मपरु सरब पाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाल = हे लाल! गुरमुखि = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के। सरब पाल = हे सब को पालने वाले! अपरंपरु = परे से परे, बेअंत।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सुंदर लाल! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले प्रभु! हे सब जीवों के पालने वाले प्रभु! तू बड़ा ही बेअंत है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह तेरी महिमा करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु साध न पाईऐ हरि का संगु ॥ बिनु गुर मैल मलीन अंगु ॥ बिनु हरि नाम न सुधु होइ ॥ गुर सबदि सलाहे साचु सोइ ॥२॥
मूलम्
बिनु साध न पाईऐ हरि का संगु ॥ बिनु गुर मैल मलीन अंगु ॥ बिनु हरि नाम न सुधु होइ ॥ गुर सबदि सलाहे साचु सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरु। सुधु = शुद्ध, पवित्र।2।
अर्थ: गुरु की शरण के बिना परमात्मा का साथ प्राप्त नहीं होता, (क्योंकि) गुरु के बिना मनुष्य का शरीर (विकारों की) मैल से गंदा रहता है। प्रभु का नाम-स्मरण के बिना (यह शरीर) पवित्र नहीं हो सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु की महिमा करता है वह सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ तू राखहि रखनहार ॥ सतिगुरू मिलावहि करहि सार ॥ बिखु हउमै ममता परहराइ ॥ सभि दूख बिनासे राम राइ ॥३॥
मूलम्
जा कउ तू राखहि रखनहार ॥ सतिगुरू मिलावहि करहि सार ॥ बिखु हउमै ममता परहराइ ॥ सभि दूख बिनासे राम राइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सार = संभाल। बिखु = जहर। परहराइ = दूर करा लेता है। सभि = सारे। रामराइ = हे प्रकाश रूप प्रभु!।3।
अर्थ: हे राखनहार प्रभु! जिसको तू स्वयं (विकारों से) बचाता है, जिसको तू गुरु मिलाता है और जिसकी तू संभाल करता है, वह मनुष्य अपने अंदर से अहंकार और मल्कियतें बनाने के जहर को दूर कर लेता है। हे रामराय! तेरी मेहर से उसके सारे दुख नाश हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतम गति मिति हरि गुन सरीर ॥ गुरमति प्रगटे राम नाम हीर ॥ लिव लागी नामि तजि दूजा भाउ ॥ जन नानक हरि गुरु गुर मिलाउ ॥४॥५॥
मूलम्
ऊतम गति मिति हरि गुन सरीर ॥ गुरमति प्रगटे राम नाम हीर ॥ लिव लागी नामि तजि दूजा भाउ ॥ जन नानक हरि गुरु गुर मिलाउ ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = आत्मिक अवस्था। हीर = हीरा। तजि = त्याग के। दूजा भाउ = प्रभु के बिना और का प्यार। गुर मिलाउ = गुरु का मिलाप।4।
अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर प्रभु के गुण बस जाते हैं उसकी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है वह फराख दिल हो जाता है, गुरु की मति पर चल के उसके अंदर प्रभु के नाम का हीरा चमक उठता है, माया का प्यार त्याग के उसकी तवज्जो प्रभु के नाम में जुड़ती है।
हे प्रभु! (मेरी तेरे दर पर अरदास है कि) मुझे दास नानक को गुरु मिला, गुरु का मिलाप करा दे।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ मेरी सखी सहेली सुनहु भाइ ॥ मेरा पिरु रीसालू संगि साइ ॥ ओहु अलखु न लखीऐ कहहु काइ ॥ गुरि संगि दिखाइओ राम राइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ मेरी सखी सहेली सुनहु भाइ ॥ मेरा पिरु रीसालू संगि साइ ॥ ओहु अलखु न लखीऐ कहहु काइ ॥ गुरि संगि दिखाइओ राम राइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखी सहेली = हे सखी सहेलियो! भाइ = (पढ़ना है ‘भाय’) प्रेम से। रीसालु = सुंदर। संगि = (जिसके) साथ है। साइ = (साय), वह सखी (सोहागनि है)। ओहु = वह पिर प्रभु। कहहु = बताओ। काइ = (काय), कैसे (दिखे, मिले)? गुरि = गुरु ने। संगि = साथ ही।1।
अर्थ: हे मेरी (सत्संगी) सहेलियो! प्रेम से (मेरी बात) सुनो (कि) मेरा सुंदर पति-प्रभु जिस सहेली के अंग-संग है वही सहेली (सोहागनि) है। वह (सुंदर प्रभु) बयान से परे है, उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। बताओ (हे सहेलियो!) वह (फिर) कैसे (मिले)। गुरु के वह प्रकाश-रूप प्रभु जिस सहेली को अंग-संग (बसा हुआ) दिखा दिया है (उसी को ही वह मिला है)।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलु सखी सहेली हरि गुन बने ॥ हरि प्रभ संगि खेलहि वर कामनि गुरमुखि खोजत मन मने ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मिलु सखी सहेली हरि गुन बने ॥ हरि प्रभ संगि खेलहि वर कामनि गुरमुखि खोजत मन मने ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बने = फबते हैं। वर कामनि = पति प्रभु की जीव स्त्रीयां। मने = माने, पतीज जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी सखी सहेलियो! मिल के बैठो (और प्रभु-पति के गुण गाओ) प्रभु के गुण गाने ही (मनुष्य जनम में) फबते हैं। पति-प्रभु की जो जीव-सि्त्रयाँ प्रभु-परमात्मा के साथ खेलती हैं, गुरु के माध्यम से प्रभु की तलाश करते हुए उनके मन (प्रभु की याद में) पतीज जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखी दुहागणि नाहि भेउ ॥ ओहु घटि घटि रावै सरब प्रेउ ॥ गुरमुखि थिरु चीनै संगि देउ ॥ गुरि नामु द्रिड़ाइआ जपु जपेउ ॥२॥
मूलम्
मनमुखी दुहागणि नाहि भेउ ॥ ओहु घटि घटि रावै सरब प्रेउ ॥ गुरमुखि थिरु चीनै संगि देउ ॥ गुरि नामु द्रिड़ाइआ जपु जपेउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखी = अपने मन के पीछे चलने वाली। दुहागणि = भाग्यहीन। भेउ = भेद। सरब प्रेउ = सबका प्रिय। देउ = प्रकाश रूप प्रभु। गुरि = गुरु ने।2।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाली भाग्यहीन जीव-स्त्रीयों को यह भेद-भरी बात समझ नहीं आती कि वह सबका प्यारा प्रभु हरेक शरीर के अंदर बस रहा है। गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने वाली जीव-स्त्री उस सदा कायम रहने वाले प्रकाश-प्रभु को अपने अंग-संग देखती है। गुरु ने उसके हृदय में प्रभु का नाम पक्का कर दिया है, वह उसी नाम का जाप जपती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गुर भगति न भाउ होइ ॥ बिनु गुर संत न संगु देइ ॥ बिनु गुर अंधुले धंधु रोइ ॥ मनु गुरमुखि निरमलु मलु सबदि खोइ ॥३॥
मूलम्
बिनु गुर भगति न भाउ होइ ॥ बिनु गुर संत न संगु देइ ॥ बिनु गुर अंधुले धंधु रोइ ॥ मनु गुरमुखि निरमलु मलु सबदि खोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। संगु = साथ। न देइ = (न देय) नहीं देता। अंधुले = (माया के मोह में) अंधे हुए जीव को। धंधु = जंजाल (व्यापता है)। रोइ = (रोय), (वह) दुखी होता है, रोता है। सबदि = गुरु के शब्द से। खोइ = (खोय) नाश करता है।3।
अर्थ: (हे मेरी सहेलियो!) गुरु की शरण पड़े बिना ना परमात्मा का प्यार बन सकता है ना उसकी भक्ति हो सकती है। संत गुरु की शरण के बिना वह (प्यारा प्रभु) अपना साथ नहीं बख्शता। गुरु के दर पर आए बिना माया-मोह में अंधे हुए जीव को दुनिया का जंजाल ही व्यापता है, वह सदा दुखी रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि मनु मारिओ करि संजोगु ॥ अहिनिसि रावे भगति जोगु ॥ गुर संत सभा दुखु मिटै रोगु ॥ जन नानक हरि वरु सहज जोगु ॥४॥६॥
मूलम्
गुरि मनु मारिओ करि संजोगु ॥ अहिनिसि रावे भगति जोगु ॥ गुर संत सभा दुखु मिटै रोगु ॥ जन नानक हरि वरु सहज जोगु ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। करि = कर के। संजोगु = (प्रभु से) मिलाप। अहि = दिन। निसि = रात। रावे = माणता है, भोगता है। भगति जोगु = भक्ति से हुआ मिलाप। हरि वरु = प्रभु पति। सहज जोगु = अडोल अवस्था का मिलाप।4।
अर्थ: गुरु ने (परमात्मा के साथ) संयोग बना के जिसका मन (माया के मोह से) मार दिया है, वह दिन-रात परमात्मा के भक्ति के मिलाप का रस लेता है। हे दास नानक! संत गुरु की संगति में (बैठने से जीव का) दुख मिट जाता है रोग दूर हो जाता है (क्योंकि) उसको प्रभु-पति मिल जाता है उसको अडोल अवस्था का मिलाप प्राप्त हो जाता है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ आपे कुदरति करे साजि ॥ सचु आपि निबेड़े राजु राजि ॥ गुरमति ऊतम संगि साथि ॥ हरि नामु रसाइणु सहजि आथि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ आपे कुदरति करे साजि ॥ सचु आपि निबेड़े राजु राजि ॥ गुरमति ऊतम संगि साथि ॥ हरि नामु रसाइणु सहजि आथि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजि = साज के। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। निबेड़े = फैसला करता है। राजु = हुक्म। राजि = राज के, चला के। संगि = संग में। साथि = साथ। रसाइणु = रसों का घर। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। आथि = (मिलता) है।1।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही साज के अपनी कुदरति रचता है, (इस कुदरति में) अपना हुक्म चला के सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु स्वयं ही (जीवों के किए कर्मों के) फैसले करता है। जिनको गुरु की श्रेष्ठ मति प्राप्त होती है, उनको सदा अंग-संग दिखाई देता है। सबसे उत्तम नाम-रस उनको अडोल अवस्था में (टिके रहने के कारण मिल जाता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत बिसरसि रे मन राम बोलि ॥ अपर्मपरु अगम अगोचरु गुरमुखि हरि आपि तुलाए अतुलु तोलि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मत बिसरसि रे मन राम बोलि ॥ अपर्मपरु अगम अगोचरु गुरमुखि हरि आपि तुलाए अतुलु तोलि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मत बिसरसि = कहीं भुला ना देना। अपरंपरु = जो परे से परे है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = अ+गो+चरु, जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है। अतुलु = जो तोला ना जा सके। तोलि = तोल में।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम बोल। (देखना) कहीं भुला ना देना। वह परमात्मा परे से परे है, अगम्य (पहुँच से परे) है, इन्द्रियों की पहुँच से परे है, वह तोल में अतुल है (भाव, उसके गुणों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता)। पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं उनके हृदय में प्रभु स्वयं (अपने गुणों को) तोलाता है (अपनी महिमा स्वयं उनसे करवाता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर चरन सरेवहि गुरसिख तोर ॥ गुर सेव तरे तजि मेर तोर ॥ नर निंदक लोभी मनि कठोर ॥ गुर सेव न भाई सि चोर चोर ॥२॥
मूलम्
गुर चरन सरेवहि गुरसिख तोर ॥ गुर सेव तरे तजि मेर तोर ॥ नर निंदक लोभी मनि कठोर ॥ गुर सेव न भाई सि चोर चोर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तोर = चलाए। सरेवहि = सेवा करते हैं। मोर तोर = मेर तेर। तजि = त्याग के, छोड़ के। मनि = मन में। न भाई = अच्छी नहीं लगी। सि = वह लोग। चोर चोर = बड़े चोर।2।
अर्थ: हे प्रभु! जो गुरसिख गुरु के चरणों की सेवा करते हैं, वह तेरे (सेवक) बन जाते हैं। गुरु की सेवा की इनायत से वे मेर-तेर त्याग के (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। पर जो लोग दूसरों की निंदा करते हैं, माया के लोभ में फंसे रहते हैं और मन से कठोर हैं (जिसके मन दूसरों का दुख देख के द्रवित नहीं हैं) उनको गुरु द्वारा बताई गई सेवा अच्छी नहीं लगती वे महा-चोर हैं (उनका जीवन चोरों के जीवन जैसा है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु तुठा बखसे भगति भाउ ॥ गुरि तुठै पाईऐ हरि महलि ठाउ ॥ परहरि निंदा हरि भगति जागु ॥ हरि भगति सुहावी करमि भागु ॥३॥
मूलम्
गुरु तुठा बखसे भगति भाउ ॥ गुरि तुठै पाईऐ हरि महलि ठाउ ॥ परहरि निंदा हरि भगति जागु ॥ हरि भगति सुहावी करमि भागु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुठा = प्रसन्न हुआ। भाउ = प्रेम। गुरि तुठै = अगर गुरु प्रसन्न हो जाए। महलि = महल में। परहरि = त्याग के। जागु = सचेत हो। करमि = मेहर से। भागु = हिस्सा।3।
अर्थ: जिस पर गुरु प्रसन्न होता है उनको वह प्रभु की भक्ति का प्यार बख्शता है। गुरु के प्रसन्न होने से ही प्रभु के दर पर जगह मिलती है। वह पराई निंदा त्याग के प्रभु की भक्ति में सावधानी हासिल करते हैं। (प्रभु की) मेहर से प्रभु की सोहावनी भक्ति (उनके जीवन का) हिस्सा बन जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु मेलि मिलावै करे दाति ॥ गुरसिख पिआरे दिनसु राति ॥ फलु नामु परापति गुरु तुसि देइ ॥ कहु नानक पावहि विरले केइ ॥४॥७॥
मूलम्
गुरु मेलि मिलावै करे दाति ॥ गुरसिख पिआरे दिनसु राति ॥ फलु नामु परापति गुरु तुसि देइ ॥ कहु नानक पावहि विरले केइ ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेलि = (प्रभु के) मेल में। तुसि = त्रुठि के, प्रसन्न हो के। देइ = (देय) देता है। पावहि = प्राप्त करते हैं। कोइ = (कोय), कोई कोई।4।
अर्थ: गुरु जिनको संगति में मिलाता है जिस को (नाम की) दाति देता है वह प्यारे गुरसिख दिन-रात (नाम की दाति संभाल के रखते हैं)। जिनको गुरु प्रसन्न हो के नाम बख्शता है उन्हें प्रभु का नाम जो इन्सानी-जिंदगी का असल उद्देश्य है, मिल जाता है।
पर, हे नानक! कह: यह नाम की दाति कोई विरले भाग्यशाली व्यक्ति ही प्राप्त करते हैं।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ इक तुका ॥ साहिब भावै सेवकु सेवा करै ॥ जीवतु मरै सभि कुल उधरै ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ इक तुका ॥ साहिब भावै सेवकु सेवा करै ॥ जीवतु मरै सभि कुल उधरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिब भावै = अगर मालिक को अच्छा लगे। जीवतु मरै = दुनियां में विचरता हुआ माया के मोह से उपराम होता है। सभि = सारे। उधरै = (विकारों से) बचा लेता है।1।
अर्थ: अगर मालिक-प्रभु को पसंद आए तो ही (कोई) सेवक प्रभु की सेवा (भक्ति) कर सकता है। वह सेवक जगत के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही माया की ओर से उपराम रहता है, अपने सारे कुल भी (इस मोह से) बचा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी भगति न छोडउ किआ को हसै ॥ साचु नामु मेरै हिरदै वसै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरी भगति न छोडउ किआ को हसै ॥ साचु नामु मेरै हिरदै वसै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न छोडउ = मैं नहीं छोड़ूँगा। किआ को हसै = कोई क्या (मेरे ऊपर) हस लेगा? मैं किसी की हसीं मजाक की परवाह नहीं करूँगा। मेरै हिरदै = मेरे हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरी भक्ति नहीं छोड़ूँगा (चाहे इस कारण जगत मेरी हसी-मजाक उड़ाए), मैं किसी की हसी-मज़ाक की परवाह नहीं करूँगा (मेहर कर, तेरा) सदा कायम रहने वाला नाम मेरे हृदय में बसा रहे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे माइआ मोहि प्राणी गलतु रहै ॥ तैसे संत जन राम नाम रवत रहै ॥२॥
मूलम्
जैसे माइआ मोहि प्राणी गलतु रहै ॥ तैसे संत जन राम नाम रवत रहै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह में। गलतु रहै = गलतान रहता है, डूबा रहता है। रवत रहै = स्मरण करता रहता है।2।
अर्थ: जैसे कोई प्राणी माया के मोह में डूबा रहता है (तथा किसी और तरफ वह ध्यान नहीं देता), इसी तरह संत जन परमात्मा का नाम ही स्मरण करता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै मूरख मुगध ऊपरि करहु दइआ ॥ तउ सरणागति रहउ पइआ ॥३॥
मूलम्
मै मूरख मुगध ऊपरि करहु दइआ ॥ तउ सरणागति रहउ पइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुगधु = मूर्ख। तउ = तेरी। रहउ पइआ = मैं पड़ा रहूँ।3।
अर्थ: हे प्रभु! मुझ मूर्ख अंजान पर मेहर कर, (ताकि) मैं तेरी शरण में ही पड़ा रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहतु नानकु संसार के निहफल कामा ॥ गुर प्रसादि को पावै अम्रित नामा ॥४॥८॥
मूलम्
कहतु नानकु संसार के निहफल कामा ॥ गुर प्रसादि को पावै अम्रित नामा ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहफल = व्यर्थ। को = कोई मनुष्य।4।
अर्थ: नानक कहता है: जगत के सारे काम (आखिर) व्यर्थ (साबत होते) हैं (फिर भी जीव निरे दुनियां के धंधों में ही खचित रहते हैं)। गुरु की कृपा से कोई विरला व्यक्ति प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम प्राप्त करता है।4।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह शब्द गुरु अमरदास जी का है। उनके अपने अलग संग्रह में दर्ज करने की जगह यहाँ गुरु नानक देव जी के शब्द के साथ दर्ज किया गया है। गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक देव जी की वाणी मौजूद थी। उनके ऊपरी शब्द के साथ गुरु अमरदास जी ने स्वयं ही दर्ज कर दिया था।
नोट: भक्त-वाणी गुरु नानक देव जी स्वयं ही पहली ‘उदासी’ के वक्त इकट्ठी कर के लाए थे। उनसे गुरु अंगद देव जी के द्वारा गुरु अमरदास जी के पास पहुँची। इस शब्द के साथ भक्त नामदेव जी का इसी राग का शब्द नंबर: 1 (पन्ना1195) मिला के पढ़ें:
साहिबु संकटवै सेवकु भजै॥ चिरंकाल न जीवै दोऊ कुल लजै॥१॥ तेरी भगति न छोडउ भावै लोगु हसै॥ चरन कमल मेरे हीअरै बसै॥१॥ रहाउ॥ जैसे अपने धनहि प्रानी मरनु मांडै॥ तैसे संत जनां राम नामु न छांडै॥२॥ गंगा गइआ गोदावरी संसार के कामा॥ नाराइणु सुप्रसंन होइ त सेवकु नामा॥३॥१॥
नोट: इस शब्द का हरेक बंद एक-एक तुक वाला है। दोनों छोटी तुकें मिला के एक तुक मानी गई है। तभी शीर्षक में एक शब्द ‘इक तुका’ बरता गया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला १ बसंतु हिंडोल घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
महला १ बसंतु हिंडोल घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साल ग्राम बिप पूजि मनावहु सुक्रितु तुलसी माला ॥ राम नामु जपि बेड़ा बांधहु दइआ करहु दइआला ॥१॥
मूलम्
साल ग्राम बिप पूजि मनावहु सुक्रितु तुलसी माला ॥ राम नामु जपि बेड़ा बांधहु दइआ करहु दइआला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालग्राम = विष्णू की मूर्ति।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘सालग्राम’ नेपाल धरती के दक्षिण की तरफ एक गाँव है जिसके आस पास ‘सॉल’ के बहुत सारे पेड़ हैं उस गाँव का नाम ही साल ग्राम प्रसिद्ध हो गया। उस गाँव के पास एक पहाड़ी नदी बहती है जिसका नाम है गंडकी। गंडकी में से गाँव साल ग्राम के नज़दीक गोल धारीदार पत्थर बहुत निकलते हैं। गाँव के नाम पर ही इन गोल पत्थरों का नाम भी साल ग्राम पड़ गया। एक पौराणिक कथा के अनुसार विष्णू को सालग्राम के रूप में आना पड़ा। उस कथा के मुताबक तुलसी और सालग्राम की एक साथ पूजा की रीति चली आ रही है)।
दर्पण-भाषार्थ
बिप = हे विप्र! हे ब्राहमण! पूजि = पूजा कर के। मनावहु = प्रसन्न करो। सुक्रितु = नेक आचरण, नेक कमाई। जपि = जप के। बांधहु = तैयार करो। दइआला = हे दयालु प्रभु!।1।
अर्थ: हे ब्राहमण! परमात्मा का नाम स्मरण करके (संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से पार लांघने के लिए) यह बेड़ा तैयार कर, (सदा परमात्मा के दर पर अरदास कर और कह:) हे दयालु प्रभु! (मेरे पर) दया कर (और मुझे अपने नाम की दाति दे)। हे ब्राहमण! उस दयाल प्रभु की पूजा करो, उसको प्रसन्न करो, यही है सालग्राम (की पूजा)। नेक आचरण बनाओ, यह है तुलसी की माला।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे कलरा सिंचहु जनमु गवावहु ॥ काची ढहगि दिवाल काहे गचु लावहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे कलरा सिंचहु जनमु गवावहु ॥ काची ढहगि दिवाल काहे गचु लावहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे सिंचहु = क्यों पानी सींचते हो? पानी देने का कोई लाभ नहीं। ढहगि = ढह जाएगी। गचु = चूने का पलस्तर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे ब्राहमण! मूर्ति और तुलसी की पूजा करके) तू अपना जनम (व्यर्थ) गवा रहा है (तेरा यह उद्यम यूँ ही है जैसे कोई किसान बंजर धरती को पानी दिए जाए, कल्लर में फसल नहीं उगेगी) तू व्यर्थ ही कल्लर को सींच रहा है। (गारे की) कच्ची दीवार (अवश्य ही) ढहि जाएगी (अंदरूनी आचरण को बिसार के तू बाहर तुलसी आदि की पूजा कर रहा है, तू तो गारे की कच्ची दीवार पर) चूने का पलस्तर व्यर्थ ही कर रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर हरिहट माल टिंड परोवहु तिसु भीतरि मनु जोवहु ॥ अम्रितु सिंचहु भरहु किआरे तउ माली के होवहु ॥२॥
मूलम्
कर हरिहट माल टिंड परोवहु तिसु भीतरि मनु जोवहु ॥ अम्रितु सिंचहु भरहु किआरे तउ माली के होवहु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर = (दोनों) हाथ, हाथों से की सेवा। हरिहट = रहट। माल = माल। तिसु भीतरि = उस हाथों से की सेवा में। मनु जोवहु = (जैसे रहट के आगे बैल जोते जाते हैं, वैसे ही सेवा में) मन जोड़ो। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। माली = जगत बाग़ की पालना करने वाला प्रभु।2।
अर्थ: (किसान अपने खेत के क्यारे सींचने के लिए अपने कूँए में रहट लगवाता है, बैल जोह के कूएं को चलाता है और पानी से क्यारे भरता है, इसी तरह हे ब्राहमण!) हाथों से सेवा करने को रहट और रहट की माला और उस माला में डब्बों (टिंडों) का जोड़ बना। (हाथों से सेवा वाले घड़े की माला वाले कूँएं) में अपना मन जोह, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल सींच के अपनी ज्ञान-इंद्रिय के क्यारे इस नाम-जल से नाको-नाक भर। तब तू इस जगत-बाग़ के पालनहार प्रभु का प्यारा बनेगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु दुइ करहु बसोले गोडहु धरती भाई ॥ जिउ गोडहु तिउ तुम्ह सुख पावहु किरतु न मेटिआ जाई ॥३॥
मूलम्
कामु क्रोधु दुइ करहु बसोले गोडहु धरती भाई ॥ जिउ गोडहु तिउ तुम्ह सुख पावहु किरतु न मेटिआ जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसोले = रंबे। भाई = हे भाई! किरतु = किया हुआ काम, की मेहनत। न मेटिआ जाई = व्यर्थ नहीं जाएगी।3।
अर्थ: (किसान उगी हुई खेती को खुरपी से गोडता है। फसल के हरेक पौधे को प्यार से संभाल के बचाता जाता है, और फालतू घास-बूटी नदीन को, मानो, गुस्से से बार उखाड़-उखाड़ के फेंकता जाता है, तू भी) हे भाई! अपनी शरीर-धरती को गोड़, प्यार और गुस्सा ये दो खुरपे बना (दैवी-गुणों को प्यार से बचाए रख, विकारों को गुस्से से जड़ से उखाड़ता जा)। ज्यों-ज्यों तू इस तरह गोड़ी करेगा, त्यों-त्यों आत्मिक सुख पाएगा। तेरी की हुई यह मेहनत व्यर्थ नहीं जाएगी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बगुले ते फुनि हंसुला होवै जे तू करहि दइआला ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा दइआ करहु दइआला ॥४॥१॥९॥
मूलम्
बगुले ते फुनि हंसुला होवै जे तू करहि दइआला ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा दइआ करहु दइआला ॥४॥१॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फुनि = दोबारा पलट के। प्रणवति = विनती करता है।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे दयालु प्रभु! अगर तू मेहर करे तो (तेरी मेहर से मनुष्य पाखण्डी) बगुले से सुंदर हँस बन सकता है। तेरे दासों का दास नानक विनती करता है (और कहता है कि) हे दयालु प्रभु! मेहर कर (और बगुले से हँस करने वाला अपना नाम बख्श)।4।1।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक नंबर 1 बताता है कि ‘घरु २’ का यह पहला शब्द है।
नोट: इस शब्द के शीर्षक में दो रागों का नाम आया है: बसंत और हिंडोल। इस का भाव यह है कि इन दोनों रागों को मिला के इस शब्द का कीर्तन करना है।
नोट: पिछले 8 शब्द ‘घरु १’ में गाने हैं। अब ‘घरु २’ शुरू हुआ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ हिंडोल ॥ साहुरड़ी वथु सभु किछु साझी पेवकड़ै धन वखे ॥ आपि कुचजी दोसु न देऊ जाणा नाही रखे ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ हिंडोल ॥ साहुरड़ी वथु सभु किछु साझी पेवकड़ै धन वखे ॥ आपि कुचजी दोसु न देऊ जाणा नाही रखे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहुरड़ी वथु = वह वस्तु जो पति प्रभु की तरफ से मिली है, आत्मिक जीवन की दाति। साझी = सबके साथ बाँटे जाने वाली। पेवकड़ै = पेके घर में, सांसारिक जीवन में। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। वखे = अलग अलग रहने वाली, भेदभाव करने वाली। कुचजी = जिसको अच्छी जीवन जुगति नहीं आती हो। देऊ = मैं देती हूँ। जाणा नाही = मैं नहीं जानती। नाही रखे जाणा = रखि न जाणा, संभाल के रखने की मुझे विधि नहीं।1।
अर्थ: आत्मिक जीवन की दाति जो पति-प्रभु की तरफ से मिली थी वह तो सबके साथ बाँटी जा सकने वाली (सांझी) थी, पर जगत-पेके घर में रहते हुए (माया के मोह के प्रभाव तले) मैं जीव-स्त्री भेद-भाव ही सीखती रही। मैं स्वयं ही दुष्ट रही, (भाव, मैंने सुंदर जीवन-जुगति ना सीखी। इस दुष्टता में दुख सहेड़े हैं, पर) मैं किसी और पर (इन दुखों के लिए) कोई दोष नहीं लगा सकती। (पति-प्रभु द्वारा मिली आत्मिक जीवन की दाति को) संभाल के रखने की मुझे विधि नहीं आई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे साहिबा हउ आपे भरमि भुलाणी ॥ अखर लिखे सेई गावा अवर न जाणा बाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे साहिबा हउ आपे भरमि भुलाणी ॥ अखर लिखे सेई गावा अवर न जाणा बाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। आपे = आप ही। भरमि = भटकना में। भुलाई = मैं भूली हुई हूँ, मैं गलत रास्ते पर पड़ी हुई हूँ। अखर = पिछले किए कर्मों के संस्कार रूप लेख। सेई गावा = वही अक्षर गाऊँ, वही अक्षर मैं गाती हूँ, उन ही संस्कारों वाले काम मैं बार बार करती हूँ। बाणी = बणतर, बनावट, घाड़त। न जाणा = मैं नहीं जानती।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक-प्रभु! मैं स्वयं ही (माया के मोह की) भटकना में पड़ के जीवन के सही रास्ते से भटकी हुई हूँ। (माया के मोह में फंस के जितने भी कर्म मैं जन्मों-जन्मांतरों से करती आ रही हूँ, उनके जो) संस्कार मेरे मन में उकरे हुए हैं, मैं उनको गाती चली जा रही हूँ (उनकी ही प्रेरणा से बार-बार वैसे ही कर्म करती जा रही हूँ) मैं (मन की) कोई घाड़त (घड़नी) नहीं जानती हूँ (मैं कोई ऐसा कर्म करना नहीं जानती जिनसे मेरे अंदर से माया के मोह के संस्कार समाप्त हो)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कढि कसीदा पहिरहि चोली तां तुम्ह जाणहु नारी ॥ जे घरु राखहि बुरा न चाखहि होवहि कंत पिआरी ॥२॥
मूलम्
कढि कसीदा पहिरहि चोली तां तुम्ह जाणहु नारी ॥ जे घरु राखहि बुरा न चाखहि होवहि कंत पिआरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कढि कसीदा = कसीदा काढ़ के, सुंदर चित्र बना के, शुभ गुणों के सुंदर चित्र बना के। पहिरहि = (यदि स्त्रीयां) पहनें। चोली = पटोला, प्रेम पटोला।2।
अर्थ: जो जीव-सि्त्रयाँ शुभ-गुणों के सुंदर चित्र (अपने मन में बना के) प्रेम-पटोला पहनती हैं उनको ही चतुर (सदाचारी) स्त्रियां समझो। जो सि्त्रयाँ अपने (आत्मिक जीवन का) घर संभाल के रखती हैं कोई विकार कोई बुराई नहीं चखतीं (भाव, जो बुरे रसों में प्रवृत नहीं होतीं) वे पति-प्रभु को प्यारी लगती हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे तूं पड़िआ पंडितु बीना दुइ अखर दुइ नावा ॥ प्रणवति नानकु एकु लंघाए जे करि सचि समावां ॥३॥२॥१०॥
मूलम्
जे तूं पड़िआ पंडितु बीना दुइ अखर दुइ नावा ॥ प्रणवति नानकु एकु लंघाए जे करि सचि समावां ॥३॥२॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीना = समझदार, सियाना। दुइ अखर = राम नाम, हरि नाम। नावा = नाव, बेड़ी। प्रणवति = विनती करता है। एकु = एक हरि नाम। सचि = सच में।3।
अर्थ: हे भाई! अगर तू सचमुच पढ़ा-लिखा विद्वान है समझदार है (तो यह बात पक्की तरह समझ ले कि संसार-समुंदर के विकारों के पानियों में से पार लांघने के लिए) हरि-नाम ही बेड़ी है। नानक विनती करता है कि हरि-नाम ही (संसार-समुंदर से) पार लंघाता है और मैं सदा कायम रहने वाले प्रभु के नाम में टिका रहूँ।3।2।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला १ ॥ राजा बालकु नगरी काची दुसटा नालि पिआरो ॥ दुइ माई दुइ बापा पड़ीअहि पंडित करहु बीचारो ॥१॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला १ ॥ राजा बालकु नगरी काची दुसटा नालि पिआरो ॥ दुइ माई दुइ बापा पड़ीअहि पंडित करहु बीचारो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजा = हुक्म चलाने वाला, मन। बालकु = अंजान। काची = कच्ची, मिट्टी आदि की बनी हुई जो बाहरी बैरियों का मुकाबला ना कर सके। दुसट = दुर्जन, बुरे। माई = माँ। दुइ माई = दो माताएं (बुद्धि और अविद्या)। दुइ बापा = दो पिता (परमात्मा और माया ग्रसित ईश्वर)। पढ़ीअहि = पढ़े जाते हैं, बताए जाते हैं। पंडित = हे पंडित!।1।
अर्थ: हे पण्डित! (अगर कोई विचार की बात करनी है तो) यह सोचो कि (शरीर-नगरी पर) राज करने वाला मन अंजान है, यह शरीर-नगर भी कच्चा है (बाहर से विकारों के हमलों का मुकाबला करने के योग्य नहीं है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ कमजोर हैं)। (फिर इस अंजान मन का) प्यार भी कामादिक बुरे साथियों के साथ ही है। इसकी माताएँ भी दो सुनी जाती हैं (बुद्धि और अविद्या), इसके पिता भी दो ही बताए जाते हैं (परमात्मा और माया ग्रसित जीवात्मा। आम तौर पर यह अंजान मन अविद्या और माया-ग्रसित जीवात्मा की बातों में आया रहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुआमी पंडिता तुम्ह देहु मती ॥ किन बिधि पावउ प्रानपती ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुआमी पंडिता तुम्ह देहु मती ॥ किन बिधि पावउ प्रानपती ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन बिधि = किस तरीके से? पावउ = मैं पा सकूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे पंडित जी महाराज! तुम तो और ही तरह की शिक्षा दे रहे हो, (ऐसी दी हुई मति के साथ) मैं अपने प्राणों के मालिक परमात्मा को कैसे मिल सकता हूँ?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीतरि अगनि बनासपति मउली सागरु पंडै पाइआ ॥ चंदु सूरजु दुइ घर ही भीतरि ऐसा गिआनु न पाइआ ॥२॥
मूलम्
भीतरि अगनि बनासपति मउली सागरु पंडै पाइआ ॥ चंदु सूरजु दुइ घर ही भीतरि ऐसा गिआनु न पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीतरि = (बनस्पति के) अंदर। मउली = हरी भरी रहती है। सागरु = समुंदर। पंडै = पंड में। चंदु = शीतलता। सूरजु = ईश्वरीय तेज। घर ही भीतरि = हृदय घर के अंदर ही। गिआनु = समझ।2।
अर्थ: (हे पण्डित! तू तो और ही किस्म की शिक्षा दे रहा है, तेरी दी हुई शिक्षा से अंजान मन को) यह समझ नहीं आती कि शीतलता (-शांति) और ईश्वरीय-तेज दोनों मनुष्य के शरीर के अंदर मौजूद हैं। (समझ ना आ सकने का कारण यह है कि) शरीर के अंदर विकारों की आग (मची हुई है) जवानी भी लहरें ले रही है (जैसे हरी-भरी वनस्पति के अंदर आग छुपी रहती है), मायावी वासना का समुंदर इस शरीर के अंदर ठाठा मार रहा है (मानो, समुंदर एक गाँव में छुपा हुआ है। सो, शिक्षा तो वह चाहिए जो इस अंदरूनी बाढ़ को रोक सके)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम रवंता जाणीऐ इक माई भोगु करेइ ॥ ता के लखण जाणीअहि खिमा धनु संग्रहेइ ॥३॥
मूलम्
राम रवंता जाणीऐ इक माई भोगु करेइ ॥ ता के लखण जाणीअहि खिमा धनु संग्रहेइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवंता = स्मरण करता। जाणीऐ = समझना चाहिए। इक माई = (दो माताओं में से) एक माँ अविद्या को। भोगु करेइ = खा जाए, खत्म कर दे। ता के लखण = उसके लक्षण, उसकी निशानियाँ। खिमा = दूसरों की ज्यादतियों को शांत-चिक्त सहने का गुण। संग्रहेइ = इकट्ठा करता है।3।
अर्थ: वही मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता समझा जा सकता है जो (बुद्धि और अविद्या- दो माताओं में से) एक माँ (अविद्या को) समाप्त कर दे। (जो मनुष्य अविद्या माता का समाप्त कर देता है) उसके (रोजाना जीवन के) लक्षण ये दिखते हैं कि वह दूसरों की ज्यादतियाँ ठंडे-जिगर से सहने का आत्मिक धन (सदा) इकट्ठा करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहिआ सुणहि न खाइआ मानहि तिन्हा ही सेती वासा ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा खिनु तोला खिनु मासा ॥४॥३॥११॥
मूलम्
कहिआ सुणहि न खाइआ मानहि तिन्हा ही सेती वासा ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा खिनु तोला खिनु मासा ॥४॥३॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहिआ = बताई हुई नसीहत। न खाइआ मानहि = यह नहीं मानते कि हमने कुछ खाया है (भाव, सदा तृष्णालु रहते हैं, विषौ-विकारों से कभी अघाते ही नहीं)। सेती = साथ। खिनु = छिन में। मासा = तोले का बारहवाँ हिस्सा।4।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे) दासों का दास विनती करता है (कि इन्सानी मन बेबस है) इसका संग सदा उन (ज्ञान-इंद्रिय) के साथ रहता है जो कोई शिक्षा सुनते ही नहीं हैं और जो विषौ-विकारों से कभी तृप्त भी नहीं होते। (यही कारण है कि यह मन) कभी तोला हो जाता है, कभी मासा रह जाता है (कभी मुकाबला करने की हिम्मत करता है और कभी घबरा जाता है)।4।3।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: मन में दो किस्म के संस्कार मौजूद हैं, भले भी और बुरे भी। भले संस्कार उन कर्मों का नतीजा होते हैं जो मनुष्य श्रेष्ठ बुद्धि की अगुवाई में करता है। बुरे कर्म अविद्या अधीन रहने से होते हैं। इसलिए बुद्धि और अविद्या मन की दो माताएं हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला १ ॥ साचा साहु गुरू सुखदाता हरि मेले भुख गवाए ॥ करि किरपा हरि भगति द्रिड़ाए अनदिनु हरि गुण गाए ॥१॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला १ ॥ साचा साहु गुरू सुखदाता हरि मेले भुख गवाए ॥ करि किरपा हरि भगति द्रिड़ाए अनदिनु हरि गुण गाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहु = शाहु, वह धनी जो और व्यापारियों को वणज-व्यापार करने के लिए राशि-पूंजी देता है। साचा = सदा कायम रहने वाला, सदा ही धनाढ टिके रहने वाला। भुख = माया का लालच। गवाए = दूर करता है। करि = कर के। द्रिढ़ाए = (मन में) पक्का कर देता है। अनदिनु = हर रोज।1।
अर्थ: गुरु ऐसा शाहु है जिसके पास प्रभु के नाम का धन सदा ही टिका रहता है, (इस वास्ते) गुरु सुख देने के समर्थ है, गुरु प्रभु के साथ मिला देता है, और माया इकट्ठी करने की भूख मनुष्य के मन में से निकाल देता है। गुरु मेहर करके (शरण आए सिख के मन में) प्रभु को मिलने की तमन्ना पक्की कर देता है (क्योंकि गुरु स्वयं) हर वक्त परमात्मा की महिमा करता रहता है (अपनी तवज्जो सदा प्रभु की महिमा में टिकाए रखता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत भूलहि रे मन चेति हरी ॥ बिनु गुर मुकति नाही त्रै लोई गुरमुखि पाईऐ नामु हरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मत भूलहि रे मन चेति हरी ॥ बिनु गुर मुकति नाही त्रै लोई गुरमुखि पाईऐ नामु हरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मत भूलहि = कहीं भुला ना देना। चेति = याद कर, स्मरण कर। मुकति = माया की लालच से खलासी। त्रै लोई = तीनों ही लोकों में, सारी ही सृष्टि में कहीं भी। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। नामु हरी = हरि का नाम।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा को (सदा) याद रख। (देखना, माया की भूख में फंस के) कहीं (उसको) भुला ना देना। (पर) गुरु की शरण पड़ने से ही परमात्मा का नाम मिलता है, गुरु की शरण पड़े बिना माया की भूख से खलासी नहीं हो सकती (भले ही) तीनों लोकों में ही (दौड़-भाग कर के देख ले), (इस वास्ते, हे मन! गुरु का पल्ला पकड़)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु भगती नही सतिगुरु पाईऐ बिनु भागा नही भगति हरी ॥ बिनु भागा सतसंगु न पाईऐ करमि मिलै हरि नामु हरी ॥२॥
मूलम्
बिनु भगती नही सतिगुरु पाईऐ बिनु भागा नही भगति हरी ॥ बिनु भागा सतसंगु न पाईऐ करमि मिलै हरि नामु हरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगती = लगन, दिली आकर्षण, श्रद्धा। भगति हरी = प्रभु को मिलने की तमन्ना। सत्संगु = भले लोगों की संगति। करमि = (प्रभु की) मेहर से।2।
अर्थ: दिली-आकर्षण के बिना सतिगुरु भी नहीं मिलता (भाव, गुरु की कद्र नहीं पाई जा सकती), और भाग्यों के बिना (पिछले संस्कारों की राशि-पूंजी के बिना) प्रभु को मिलने की तमन्ना (मन में) नहीं उपजती। (पिछले संस्कारों की राशि-पूंजी वाले) भाग्यों के बिना गुरमुखों की संगति नहीं मिलती (भाव, सत्संग की कद्र नहीं पड़ सकती), प्रभु की अपनी मेहर के साथ ही उसका नाम प्राप्त होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि गुपतु उपाए वेखै परगटु गुरमुखि संत जना ॥ हरि हरि करहि सु हरि रंगि भीने हरि जलु अम्रित नामु मना ॥३॥
मूलम्
घटि घटि गुपतु उपाए वेखै परगटु गुरमुखि संत जना ॥ हरि हरि करहि सु हरि रंगि भीने हरि जलु अम्रित नामु मना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि = घट में, शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। उपाए = पैदा करता है। वेखै = संभाल करता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। करहि = करते हैं। सु = वह बंदे। रंगि = रंग में, प्यार में। भीने = भीगे हुए, मस्त। मना = मनि, (उनके) मन में।3।
अर्थ: जो प्रभु स्वयं सारी सृष्टि पैदा करता है और उसकी संभाल करता है, वह हरेक शरीर में छुपा बैठा है, गुरु की शरण पड़ने वाले संत-जनों को वह हर जगह प्रत्यक्ष दिखाई देने लग जाता है। वह संत जन सदा प्रभु का नाम जपते हैं, और उसके प्यार-रंग में मस्त रहते हैं, उनके मन में प्रभु का आत्मिक जिंदगी देने वाला नाम-जल सदा बसता रहता है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ तखति मिलै वडिआई गुरमुखि से परधान कीए ॥ पारसु भेटि भए से पारस नानक हरि गुर संगि थीए ॥४॥४॥१२॥
मूलम्
जिन कउ तखति मिलै वडिआई गुरमुखि से परधान कीए ॥ पारसु भेटि भए से पारस नानक हरि गुर संगि थीए ॥४॥४॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। तखति = तख़्त पर। तखति वडिआई = तख्त पर बैठने की बड़ाई, हृदय तख़्त पर बैठे रहने की इज्जत, माया के पीछे भटकने से बचे रहने का आदर। गुरमुखि = गुरु से। परधान = प्रधान, जाने माने। पारसु = गुरु पारस। भेटि = मिल के, छू के। पारस = लोहा आदि धातुओं को सोना बना देने की स्मर्था रखने वाले। गुर संगि = गुरु के संगी। थीए = बन गए।4।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ कर जिस लोगों को हृदय-तख़्त पर बैठे रहने की (भाव, माया के पीछे भटकने से बचे रहने की) इज्जत मिलती है, उनको परमात्मा जगत में प्रसिद्ध कर देता है। हे नानक! गुरु-पारस को मिल के वे स्वयं भी पारस हो जाते हैं (उनके अंदर भी यह समर्थता आ जाती है कि माया-ग्रसित मनों को प्रभु-चरणों में जोड़ सकें), वह लोग सदा के लिए परमात्मा और गुरु के साथी बन जाते हैं (उनकी तवज्जो सदा) गुरु-प्रभु के चरणों में टिकी रहती है।4।4।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ घरु १ दुतुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु महला ३ घरु १ दुतुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माहा रुती महि सद बसंतु ॥ जितु हरिआ सभु जीअ जंतु ॥ किआ हउ आखा किरम जंतु ॥ तेरा किनै न पाइआ आदि अंतु ॥१॥
मूलम्
माहा रुती महि सद बसंतु ॥ जितु हरिआ सभु जीअ जंतु ॥ किआ हउ आखा किरम जंतु ॥ तेरा किनै न पाइआ आदि अंतु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहा महि = सब महीनों में। रुती महि = सारी ऋतुओं में। सद = सदा। सद बसंतु = सदा खिले रहने वाला परमात्मा। जितु = जिस (परमात्मा) से। सभु = हरेक। हउ = मैं। किआ आखा = मैं क्या कह सकता हूँ। किरम = कीड़ा। किरम जंतु = छोटा सा जीव। किनै = किसी ने भी। न पाइआ = नहीं पाया। आदि = शुरूवात। अंत = आखिर।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रुति’ है ‘रितु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! सारे महीनों में सारी ऋतुओं में सदा खिले रहने वाला तू स्वयं ही मौजूद है, जिस (तेरी) इनायत से हरेक जीव जीवित है (सजिंद है)। मैं तुच्छ सा जीव क्या कह सकता हूँ? किसी ने भी तेरा ना आदि पाया है ना अंत पाया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तै साहिब की करहि सेव ॥ परम सुख पावहि आतम देव ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तै साहिब की करहि सेव ॥ परम सुख पावहि आतम देव ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तै की = तेरी। साहिब की = मालिक की। करहि = करते हैं (बहुवचन)। परम = सबसे ऊँचा। पावहि = हासिल करते हैं। आतम देव = हे परमात्मा!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मालिक! हे प्रभु देव! जो मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति करते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद पाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु होवै तां सेवा करै ॥ गुर परसादी जीवत मरै ॥ अनदिनु साचु नामु उचरै ॥ इन बिधि प्राणी दुतरु तरै ॥२॥
मूलम्
करमु होवै तां सेवा करै ॥ गुर परसादी जीवत मरै ॥ अनदिनु साचु नामु उचरै ॥ इन बिधि प्राणी दुतरु तरै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। तां = तब। सेवा = भक्ति। परसादी = कृपा से। जीवत मरै = जीवित ही विकारों से अडोल हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचु = सदा कायम रहने वाला। इन बिधि = इस तरीके से। दुतरु = (दुस्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है।2।
अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश होती है तब वह (परमात्मा की) सेवा-भक्ति करता है, गुरु की कृपा से (वह मनुष्य) दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही विकारों से बचा रहता है, वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा का सदा रहने वाला नाम उचारता रहता है, और, इस तरीके से वह मनुष्य उस संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखु अम्रितु करतारि उपाए ॥ संसार बिरख कउ दुइ फल लाए ॥ आपे करता करे कराए ॥ जो तिसु भावै तिसै खवाए ॥३॥
मूलम्
बिखु अम्रितु करतारि उपाए ॥ संसार बिरख कउ दुइ फल लाए ॥ आपे करता करे कराए ॥ जो तिसु भावै तिसै खवाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। करतारि = कर्तार ने। बिरख = वृक्ष। कउ = को। आपे = स्वयं ही। करता = कर्तार। भावै = अच्छा लगता है। तिसै = उसी को।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया और आत्मिक जीवन देने वाला नाम- यह कर्तार ने (ही) पैदा किए हैं। जगत-वृक्ष को उसने ये दोनों फल लगाए हुए हैं। (सर्व-व्यापक हो के) कर्तार स्वयं ही (सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। जिस जीव को जो फल खिलाने की उसकी मर्जी होती है उसी को वही खिला देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक जिस नो नदरि करेइ ॥ अम्रित नामु आपे देइ ॥ बिखिआ की बासना मनहि करेइ ॥ अपणा भाणा आपि करेइ ॥४॥१॥
मूलम्
नानक जिस नो नदरि करेइ ॥ अम्रित नामु आपे देइ ॥ बिखिआ की बासना मनहि करेइ ॥ अपणा भाणा आपि करेइ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = (करेय) (एकवचन) करता है। देइ = (देय) देता है। बिखिआ = माया। बासना = लालसा। मनहि करेइ = रोक देता है। भाणा = रजा, मर्जी।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर कर्तार मेहर की निगाह करता है, उसको वह स्वयं ही आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम देता है, (उसके अंदर से) माया की लालसा रोक देता है। हे भाई! अपनी रज़ा परमात्मा स्वयं (ही) करता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ राते साचि हरि नामि निहाला ॥ दइआ करहु प्रभ दीन दइआला ॥ तिसु बिनु अवरु नही मै कोइ ॥ जिउ भावै तिउ राखै सोइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ राते साचि हरि नामि निहाला ॥ दइआ करहु प्रभ दीन दइआला ॥ तिसु बिनु अवरु नही मै कोइ ॥ जिउ भावै तिउ राखै सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राते = रंगे हुए। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले हरि नाम में। निहाला = प्रसन्न चिक्त। प्रभ = हे प्रभु! जिउ भावै = जैसे उसको अच्छा लगता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे सदा-स्थिर नाम में रंगे जाते हैं, वे प्रसन्न-चिक्त रहते हैं। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरे ऊपर भी) मेहर कर (मुझे भी अपना नाम बख्श)। हे भाई! उस प्रभु के बिना मुझे और कोई बेली नहीं दिखाई देता। जैसे उसकी रज़ा होती है वैसे ही वह (जीवों की) रक्षा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर गोपाल मेरै मनि भाए ॥ रहि न सकउ दरसन देखे बिनु सहजि मिलउ गुरु मेलि मिलाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर गोपाल मेरै मनि भाए ॥ रहि न सकउ दरसन देखे बिनु सहजि मिलउ गुरु मेलि मिलाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। भाए = प्यारा लगता है। सकउ = सकूँ। रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। मेलि = संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु परमेश्वर मेरे मन को प्यारा लगता है, मैं उसके दर्शन किए बिना नहीं रह सकता (दर्शनों के बिना मुझे धैर्य नहीं आता)। (जब) गुरु (मुझे अपनी) संगति में मिलाता है, (तब) मैं आत्मिक अडोलता में (टिक के उसको) मिलता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु लोभी लोभि लुभाना ॥ राम बिसारि बहुरि पछुताना ॥ बिछुरत मिलाइ गुर सेव रांगे ॥ हरि नामु दीओ मसतकि वडभागे ॥२॥
मूलम्
इहु मनु लोभी लोभि लुभाना ॥ राम बिसारि बहुरि पछुताना ॥ बिछुरत मिलाइ गुर सेव रांगे ॥ हरि नामु दीओ मसतकि वडभागे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का यह लालची मन (सदा) लालच में फसा रहता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के फिर हाथ मलता है। जो मनुष्य गुरु की बताई हुई हरि-भक्ति में रंगे जाते हैं उनको (प्रभु-चरणों से) विछुड़ों को गुरु (दोबारा) मिला देता है। जिनके माथे पर भाग्य जाग उठे उनको गुरु ने परमात्मा का नाम बख्श दिया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउण पाणी की इह देह सरीरा ॥ हउमै रोगु कठिन तनि पीरा ॥ गुरमुखि राम नाम दारू गुण गाइआ ॥ करि किरपा गुरि रोगु गवाइआ ॥३॥
मूलम्
पउण पाणी की इह देह सरीरा ॥ हउमै रोगु कठिन तनि पीरा ॥ गुरमुखि राम नाम दारू गुण गाइआ ॥ करि किरपा गुरि रोगु गवाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउण = पवन, हवा। देह = शरीर। कठिन = करड़ी। तनि = शरीर में। पीरा = पीड़ा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। दारू = दवाई। करि = कर के। गुरि = गुरु ने।3।
अर्थ: हे भाई! यह शरीर हवा पानी (आदि तत्वों) का बना हुआ है। जिस मनुष्य के इस शरीर में अहंकार का रोग है, (उसके शरीर में इस रोग की) कठिन पीड़ा बनी रहती है। गुरु के सन्मुख हो के जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, परमात्मा का नाम (उसके लिए अहम्-रोग दूर करने के लिए) दवा बन जाता है। जो भी मनुष्य (गुरु की शरण आया) गुरु ने कृपा करके उसका यह रोग दूर कर दिया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि नदीआ अगनी तनि चारे ॥ त्रिसना जलत जले अहंकारे ॥ गुरि राखे वडभागी तारे ॥ जन नानक उरि हरि अम्रितु धारे ॥४॥२॥
मूलम्
चारि नदीआ अगनी तनि चारे ॥ त्रिसना जलत जले अहंकारे ॥ गुरि राखे वडभागी तारे ॥ जन नानक उरि हरि अम्रितु धारे ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदीआ अगनी = (हंस, हेत, लोभ, कोप = यह) आग की नदियाँ। तनि = शरीर में। चारे = ये चार ही। गुरि = गुरु ने। राखै = रक्षा की। उरि = हृदय में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम।4।
अर्थ: हे भाई! (जगत में हंस, हेत, लोभ, कोप) चार आग की नदियां बह रही हैं, (जिस मनुष्यों के) शरीर में ये चारों आग प्रबल हैं, वे मनुष्य तृष्णा में जलते हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस भाग्यशाली सेवकों की गुरु ने रक्षा की, (गुरु ने उनको इन नदियों से) पार लंघा लिया, उन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम अपने हृदय में बसा लिया।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ हरि सेवे सो हरि का लोगु ॥ साचु सहजु कदे न होवै सोगु ॥ मनमुख मुए नाही हरि मन माहि ॥ मरि मरि जमहि भी मरि जाहि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ हरि सेवे सो हरि का लोगु ॥ साचु सहजु कदे न होवै सोगु ॥ मनमुख मुए नाही हरि मन माहि ॥ मरि मरि जमहि भी मरि जाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवे = स्मरण करता है। सो = वह मनुष्य। साचु = सदा स्थिर। सहज = आत्मिक अडोलता। सोगु = शोक। मुए = आत्मिक मौत मरे हुए। माहि = में। भी = फिर, दोबारा।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है वह परमात्मा का भक्त है, उसको सदा कायम रहने वाली आत्मिक अडोलता मिली रहती है, उसको कभी कोई ग़म छू नहीं सकता। पर, हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं (क्योंकि) उनके मन में परमात्मा की याद नहीं है। वह मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़-सहेड़ के जन्मों के चक्करों में पड़े रहते हैं, और बार-बार आत्मिक मौत के चुंगल में फसे रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से जन जीवे जिन हरि मन माहि ॥ साचु सम्हालहि साचि समाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
से जन जीवे जिन हरि मन माहि ॥ साचु सम्हालहि साचि समाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से जन = वह मनुष्य (बहुवचन)। जीवे = आत्मिक जीवन वाले हैं। साचु = सदा स्थिर हरि नाम। समालहि = हृदय में सम्भालते हैं। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम बसता है जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु को हृदय में बसाए रखते हैं, सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं, वे मनुष्य आत्मिक जीवन वाले हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि न सेवहि ते हरि ते दूरि ॥ दिसंतरु भवहि सिरि पावहि धूरि ॥ हरि आपे जन लीए लाइ ॥ तिन सदा सुखु है तिलु न तमाइ ॥२॥
मूलम्
हरि न सेवहि ते हरि ते दूरि ॥ दिसंतरु भवहि सिरि पावहि धूरि ॥ हरि आपे जन लीए लाइ ॥ तिन सदा सुखु है तिलु न तमाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। दिसंतरु = (देस+अंतरु) और-और देश। सिरि = सिर पर। धूरि = राख। आपे = आप ही, स्वयं ही। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = तमाय, लालच, लोभ।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, वे परमात्मा से विछुड़े रहते हैं। वे मनुष्य और-और देशों में भटकते फिरते हैं, अपने सिर में मिट्टी डालते हैं (दुखी होते रहते हैं)। हे भाई! अपने भक्तों को प्रभु स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़े रखता है उनको सदा आत्मिक आनंद प्राप्त रहता है, उनको कभी रक्ती भर भी (माया का) लालच नहीं व्यापता।2।
[[1173]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदरि करे चूकै अभिमानु ॥ साची दरगह पावै मानु ॥ हरि जीउ वेखै सद हजूरि ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरि ॥३॥
मूलम्
नदरि करे चूकै अभिमानु ॥ साची दरगह पावै मानु ॥ हरि जीउ वेखै सद हजूरि ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। चूकै = समाप्त हो जाता है। मानु = इज्जत। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। कै सबदि = के शब्द से। भरपूरि = व्यापक।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में आदर प्राप्त करता है। गुरु के शब्द के इनायत से वह मनुष्य परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता देखता है, परमात्मा उसको हर जगह बसता दिखाई देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत की करे प्रतिपाल ॥ गुर परसादी सद सम्हाल ॥ दरि साचै पति सिउ घरि जाइ ॥ नानक नामि वडाई पाइ ॥४॥३॥
मूलम्
जीअ जंत की करे प्रतिपाल ॥ गुर परसादी सद सम्हाल ॥ दरि साचै पति सिउ घरि जाइ ॥ नानक नामि वडाई पाइ ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। घरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के घर में। पति सिउ = इज्जत से। नामि = नाम से। वडाई = इज्जत।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से उस परमात्मा को सदा याद रखता है जो सारे जीवों की पालना करता है वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के घर में इज्जत से जाता है। हे नानक! नाम की इनायत से वह मनुष्य (लोक-परलोक में) आदर पाता है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ अंतरि पूजा मन ते होइ ॥ एको वेखै अउरु न कोइ ॥ दूजै लोकी बहुतु दुखु पाइआ ॥ सतिगुरि मैनो एकु दिखाइआ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ अंतरि पूजा मन ते होइ ॥ एको वेखै अउरु न कोइ ॥ दूजै लोकी बहुतु दुखु पाइआ ॥ सतिगुरि मैनो एकु दिखाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = (उस मनुष्य के) अंदर ही। पूजा = भक्ति। मन ते = मन से, जुड़े मन से। होइ = (होय) होती रहती है। एको = एक (परमात्मा) को ही। दूजै = माया के मोह में (फस के)। लोकी = दुनिया के। सतिगुरि = गुरु ने। मैनो = मुझे।1।
अर्थ: हे भाई! (जो भी मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसके) अंदर ही जुड़े मन से परमात्मा की भक्ति होती रहती है, (वह मनुष्य हर जगह) सिर्फ परमात्मा को (बसता) देखता है, (कहीं भी परमात्मा के बिना) किसी और को नहीं देखता। हे भाई! दुनियां ने माया के मोह में फंस के सदा बहुत दुख पाया है, पर गुरु ने (मेहर कर के) मुझे सिर्फ परमात्मा ही (हर जगह बसता) दिखा दिया है (और, मैं दुख से बच गया हूँ)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा प्रभु मउलिआ सद बसंतु ॥ इहु मनु मउलिआ गाइ गुण गोबिंद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरा प्रभु मउलिआ सद बसंतु ॥ इहु मनु मउलिआ गाइ गुण गोबिंद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउलिआ = (हर जगह) खिला हुआ है, (हर जगह) प्रकाशमान है। सद बसंतु = सदा खिले रहने वाला परमात्मा। गाइ = गा के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा आनन्द-स्वरूप मेरा परमात्मा (हर जगह) अपना प्रकाश कर रहा है। उस परमात्मा के गुण गा-गा के (मेरा) यह मन सदा खिला रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूछहु तुम्ह करहु बीचारु ॥ तां प्रभ साचे लगै पिआरु ॥ आपु छोडि होहि दासत भाइ ॥ तउ जगजीवनु वसै मनि आइ ॥२॥
मूलम्
गुर पूछहु तुम्ह करहु बीचारु ॥ तां प्रभ साचे लगै पिआरु ॥ आपु छोडि होहि दासत भाइ ॥ तउ जगजीवनु वसै मनि आइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर पूछहु = गुरु की शिक्षा लो। वीचारु = (परमात्मा के गुणों की) विचार। तां = तब। आपु = स्वै भाव। छोडि = छोड़ के। होहि = अगर तू हो जाए। भाइ = भावना में। दासत = (दासत्व)। शब्द ‘दास’ से भाव वाचक संज्ञा। दासत भाइ = (दासत भाय) सेवक स्वभाव में, दासत्व भाव में। तउ = तब। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभु, जगत को पैदा करने वाला प्रभु। मनि = मन में।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भाइ’ है शब्द ‘भउ’ का अधिकरण कारक एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (तुमने भी अगर दुखों से बचना है, तो) गुरु की शिक्षा लो, और, परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसाए रखो, (जब प्रभु को अपने मन में बसाओगे) तब सदा कायम रहने वाला परमात्मा के साथ (तुम्हारा) प्यार बन जाएगा। हे भाई! अगर तू स्वै भाव (अहंकार) छोड़ के सेवक-भाव में टिका रहे, तो जगत को पैदा करने वाला परमात्मा (तेरे) मन में आ बसेगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति करे सद वेखै हजूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥ इसु भगती का कोई जाणै भेउ ॥ सभु मेरा प्रभु आतम देउ ॥३॥
मूलम्
भगति करे सद वेखै हजूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥ इसु भगती का कोई जाणै भेउ ॥ सभु मेरा प्रभु आतम देउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगति = बँदगी। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। रहिआ भरपूरि = सब जगह व्यापक है। कोई = जो कोई मनुष्य। भेउ = भेद। सभु = हर जगह। आतम देउ = परमात्मा।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है, वह परमात्मा को सदा अपने अंग-संग देखता है, प्यारा प्रभु उसको हर जगह व्यापक दिखाई देता है। हे भाई! जो भी मनुष्य परमात्मा की इस भक्ति (के करिश्मे) का भेद समझ लेता है, उसको परमात्मा हर जगह बसता दिखाई दे जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सतिगुरु मेलि मिलाए ॥ जगजीवन सिउ आपि चितु लाए ॥ मनु तनु हरिआ सहजि सुभाए ॥ नानक नामि रहे लिव लाए ॥४॥४॥
मूलम्
आपे सतिगुरु मेलि मिलाए ॥ जगजीवन सिउ आपि चितु लाए ॥ मनु तनु हरिआ सहजि सुभाए ॥ नानक नामि रहे लिव लाए ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। मेलि = मिला के। मिलाए = (अपने साथ) मिलाता है। सिउ = साथ। लाए = जोड़ता है। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सुभाय, प्यार में। नामि = नाम में। लिव = लगन। रहे लाए = लगाए रखते हैं।4।
अर्थ: पर, हे भाई! (भक्ति की दाति उसकी अपनी मेहर से ही मिलती है) जगत का जीवन प्रभु स्वयं ही (मनुष्य को) गुरु मिला के (अपने चरणों में) जोड़ता है, वह स्वयं ही मनुष्य का चिक्त अपने साथ जोड़ता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, उनका मन उनका तन आत्मिक जीवन से भरपूर रहता है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ भगति वछलु हरि वसै मनि आइ ॥ गुर किरपा ते सहज सुभाइ ॥ भगति करे विचहु आपु खोइ ॥ तद ही साचि मिलावा होइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ भगति वछलु हरि वसै मनि आइ ॥ गुर किरपा ते सहज सुभाइ ॥ भगति करे विचहु आपु खोइ ॥ तद ही साचि मिलावा होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वछलु = (वात्सल्य) प्यारा। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। मनि = मन में। आइ = आ के। ते = से। सहज = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। आपु = स्वै भाव। खोहि = दूर कर के। तद = तब। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से आत्मिक अडोलता में प्रभु के प्यार में लीन रहता है, भक्ति से प्यार करने वाला प्रभु उसके मन में आ बसता है। हे भाई! जब मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव (अहम्) दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है, तब ही सदा-स्थिर परमात्मा में उसका मिलाप हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत सोहहि सदा हरि प्रभ दुआरि ॥ गुर कै हेति साचै प्रेम पिआरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भगत सोहहि सदा हरि प्रभ दुआरि ॥ गुर कै हेति साचै प्रेम पिआरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहहि = शोभते हैं। प्रभ दुआरि = प्रभु के दर पर। कै हेति = के प्यार में। साचै पिआरि = सदा स्थिर हरि के प्यार में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की बँदगी करने वाले मनुष्य सदा परमात्मा के दर पर शोभते हैं, वे सदा गुरु के प्रेम में सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम में (जुड़े रहते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति करे सो जनु निरमलु होइ ॥ गुर सबदी विचहु हउमै खोइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥ सदा सांति सुखि सहजि समाइ ॥२॥
मूलम्
भगति करे सो जनु निरमलु होइ ॥ गुर सबदी विचहु हउमै खोइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥ सदा सांति सुखि सहजि समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र जीवन वाला। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से अपने अंदर से अहंकार दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है। प्रभु स्वयं उसके मन में आ बसता है, उसके अंदर शांति बनी रहती है, वह सदा आनंद में आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचि रते तिन सद बसंत ॥ मनु तनु हरिआ रवि गुण गुविंद ॥ बिनु नावै सूका संसारु ॥ अगनि त्रिसना जलै वारो वार ॥३॥
मूलम्
साचि रते तिन सद बसंत ॥ मनु तनु हरिआ रवि गुण गुविंद ॥ बिनु नावै सूका संसारु ॥ अगनि त्रिसना जलै वारो वार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रते = रंगे हुए। सद बसंत = सदा कायम रहने वाला खिड़ाव। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। रवि = स्मरण करके। सूका = आत्मिक जीवन से वंचित। वारो वार = बार बार।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु (के प्यार) में रंगे जाते हैं, उनके अंदर सदा उल्लास बना रहता है (मन सदा प्रफुल्लित रहता है)। गोबिंद के गुण याद कर-कर के उनका मन उनका तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना जगत बहुत छोटे आकार का बना रहता है, बार-बार (माया की) तृष्णा की आग में जलता रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई करे जि हरि जीउ भावै ॥ सदा सुखु सरीरि भाणै चितु लावै ॥ अपणा प्रभु सेवे सहजि सुभाइ ॥ नानक नामु वसै मनि आइ ॥४॥५॥
मूलम्
सोई करे जि हरि जीउ भावै ॥ सदा सुखु सरीरि भाणै चितु लावै ॥ अपणा प्रभु सेवे सहजि सुभाइ ॥ नानक नामु वसै मनि आइ ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो बात, जो कुछ। भावै = पसंद आती है। सरीरि = शरीर में। भाणै = (प्रभु की) रज़ा में। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सुभाइ = प्रभु के प्रेम में।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य वही कुछ करता है जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है (जो मनुष्य प्रभु की रज़ा में चलता है), जो मनुष्य परमात्मा की मर्जी में अपना चिक्त जोड़ता है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है। हे नानक! जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु-प्यार में जुड़ के परमात्मा की भक्ति करता है, परमात्मा का नाम उसके मन में आ बसता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ माइआ मोहु सबदि जलाए ॥ मनु तनु हरिआ सतिगुर भाए ॥ सफलिओु बिरखु हरि कै दुआरि ॥ साची बाणी नाम पिआरि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ माइआ मोहु सबदि जलाए ॥ मनु तनु हरिआ सतिगुर भाए ॥ सफलिओु बिरखु हरि कै दुआरि ॥ साची बाणी नाम पिआरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। सतिगुर भाए = सतिगुर भाय, गुरु के प्यार में (टिक के)। सफलिओ = फल देने वाला। बिरखु = वृक्ष। कै दुआरि = के दर पर। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा में। नाम पिआरि = हरि नाम के प्यार में।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) माया का मोह जला देता है, गुरु के प्यार की इनायत से उसका तन आत्मिक जीवन से भरपूर हो जाता है। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा में, हरि-नाम के प्यार में (टिक के सदा) परमात्मा के दर पर (प्रभु-चरणों में) टिका रहता है उसका (शरीर-) वृक्ष सफल हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए मन हरिआ सहज सुभाइ ॥ सच फलु लागै सतिगुर भाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ए मन हरिआ सहज सुभाइ ॥ सच फलु लागै सतिगुर भाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ए मन = हे मन! (संबोधन)। सहज सुभाइ = आत्मिक अडोलता देने वाले प्रभु प्यार में। सच फलु = सदा स्थिर प्रभु का नाम फल।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! आत्मिक अडोलता देने वाले (गुर-) प्यार में (टिका रह। इस तरह तू) आत्मिक जीवन की तरावट से भरपूर हो जाएगा। हे मन! गुरु के प्यार की इनायत से (शरीर-वृक्ष को) सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम-फल लगता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे नेड़ै आपे दूरि ॥ गुर कै सबदि वेखै सद हजूरि ॥ छाव घणी फूली बनराइ ॥ गुरमुखि बिगसै सहजि सुभाइ ॥२॥
मूलम्
आपे नेड़ै आपे दूरि ॥ गुर कै सबदि वेखै सद हजूरि ॥ छाव घणी फूली बनराइ ॥ गुरमुखि बिगसै सहजि सुभाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = प्रभु स्वयं ही। कै सबदि = के शब्द से। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। घणी = संघनी। फूली = खिली हुई। बनराइ = बनस्पति। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बिगसै = खिलता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = सुभाय, प्रभु के प्यार में।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द की इनायत से (जो मनुष्य परमात्मा को) सदा अपने अंग-संग बसता देखता है (उसको समझ आ जाती है कि प्रभु) स्वयं ही (किसी को) नजदीक (दिखाई दे रहा है) स्वयं ही (किसी को) दूर बसता लगने लगता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु-प्यार में जुड़ के (सदा) आनंद-भरपूर रहता है (उसको प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि परमात्मा की ज्योति-अग्नि से ही) सारी बनस्पति सघन छाया वाली है और खिली हुई है।2।
[[1174]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु कीरतनु करहि दिन राति ॥ सतिगुरि गवाई विचहु जूठि भरांति ॥ परपंच वेखि रहिआ विसमादु ॥ गुरमुखि पाईऐ नाम प्रसादु ॥३॥
मूलम्
अनदिनु कीरतनु करहि दिन राति ॥ सतिगुरि गवाई विचहु जूठि भरांति ॥ परपंच वेखि रहिआ विसमादु ॥ गुरमुखि पाईऐ नाम प्रसादु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। सतिगुरि = गुरु ने। जूठि भरांति = भटकना की जूठ, भटकना की मैल, जूठी भ्रांति। परपंच = जगत पसारा। विसमादु = हैरान। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। प्रसादु = खैर, दान।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा की महिमा करते हैं, गुरु ने उनके अंदर से (माया की खातिर) भटकना की मैल दूर कर दी है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने से परमात्मा के नाम की दाति मिलती है (जिसको यह दाति मिलती है वह मनुष्य परमात्मा की रची हुई इस) जगत-खेल को देख के ‘वाह-वाह’ कर उठता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता सभि रस भोग ॥ जो किछु करे सोई परु होग ॥ वडा दाता तिलु न तमाइ ॥ नानक मिलीऐ सबदु कमाइ ॥४॥६॥
मूलम्
आपे करता सभि रस भोग ॥ जो किछु करे सोई परु होग ॥ वडा दाता तिलु न तमाइ ॥ नानक मिलीऐ सबदु कमाइ ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सभि = सारे। परु होग = जरूर होगा। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = लालच। सबदु कमाइ = शब्द कमा के, गुरु के शब्द अनुसार चल के।4।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा सब जगह व्यापक हो के) स्वयं ही सारे रस भोग रहा है। जो कुछ वह प्रभु करना चाहता है जरूर वही होता है। वह परमात्मा सबसे बड़ा दाता है, उसको स्वयं रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। हे नानक! गुरु के शब्द को अपने जीवन में ढाल के (ही उसको) मिला जा सकता है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ पूरै भागि सचु कार कमावै ॥ एको चेतै फिरि जोनि न आवै ॥ सफल जनमु इसु जग महि आइआ ॥ साचि नामि सहजि समाइआ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ पूरै भागि सचु कार कमावै ॥ एको चेतै फिरि जोनि न आवै ॥ सफल जनमु इसु जग महि आइआ ॥ साचि नामि सहजि समाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरे भागि = बड़ी किस्मत से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सचु कार = सदा स्थिर हरि नाम (स्मरण की) कार। एको = एक परमात्मा को। चेतै = याद करता है। सफल = कामयाब। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले हरि नाम में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य बड़ी किस्मत से सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण का कर्म करता है, जो मनुष्य सिर्फ एक परमात्मा को ही चिक्त में टिकाता है, वह बार-बार जूनियों में नहीं पड़ता। इस जगत में आया हुआ वह मनुष्य सफल जिंदगी वाला है, जो सदा-स्थिर हरि-नाम में आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि कार करहु लिव लाइ ॥ हरि नामु सेवहु विचहु आपु गवाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरमुखि कार करहु लिव लाइ ॥ हरि नामु सेवहु विचहु आपु गवाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। सेवहु = स्मरण करो। आपु = स्वै भाव।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। गुरु की शरण पड़ कर तवज्जो जोड़ कर कर्म करते रहा करो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु जन की है साची बाणी ॥ गुर कै सबदि जग माहि समाणी ॥ चहु जुग पसरी साची सोइ ॥ नामि रता जनु परगटु होइ ॥२॥
मूलम्
तिसु जन की है साची बाणी ॥ गुर कै सबदि जग माहि समाणी ॥ चहु जुग पसरी साची सोइ ॥ नामि रता जनु परगटु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साची बाणी = सदा कायम रहने वाली महिमा की वाणी। कै सबदि = के शब्द से। पसरी = बिखरी हुई है। सोइ = सोय, शोभा। नामि = नाम में। रता = रंगा हुआ। जनु = भक्त।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा गुरु के शब्द में लीन रहता है, उस मनुष्य की टेक सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वह वाणी बन जाती है जो सारे जगत में (जीवन-लौ बन के) समाई हुई है। हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगा हुआ मनुष्य (जगत में) प्रसिद्ध हो जाता है, उसकी अटल शोभा चारों युगों में पसरी रहती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि साचै सबदि रहे लिव लाइ ॥ से जन साचे साचै भाइ ॥ साचु धिआइनि देखि हजूरि ॥ संत जना की पग पंकज धूरि ॥३॥
मूलम्
इकि साचै सबदि रहे लिव लाइ ॥ से जन साचे साचै भाइ ॥ साचु धिआइनि देखि हजूरि ॥ संत जना की पग पंकज धूरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। साचै भाइ = साचै भाय, सदा स्थिर प्रभु के प्यार में। साचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। देखि = देख के। हजूरि = अंग संग (बसता)। पंकज = कमल का फूल। पग = पैर। पग पंकज = कमल फूल जैसे सुंदर चरण।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे मनुष्य हैं जो सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में तवज्जो जोड़ के रखते हैं। सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम में टिक के वे मनुष्य सदा-स्थिर-प्रभु का रूप हो जाते हैं। वे मनुष्य सदा-स्थिर-प्रभु को अपने अंग-संग बसता देख के उसका नाम स्मरण करते रहते हैं, और संत-जनों के सुंदर चरणों की धूल (अपने माथे पर लगाते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको करता अवरु न कोइ ॥ गुर सबदी मेलावा होइ ॥ जिनि सचु सेविआ तिनि रसु पाइआ ॥ नानक सहजे नामि समाइआ ॥४॥७॥
मूलम्
एको करता अवरु न कोइ ॥ गुर सबदी मेलावा होइ ॥ जिनि सचु सेविआ तिनि रसु पाइआ ॥ नानक सहजे नामि समाइआ ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर सबदी = गुरु के शब्द से। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सेविआ = स्मरण किया। तिनि = उस ने (एकवचन)। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण किया है, उसने आत्मिक आनंद पाया है, वह सदा आत्मिक अडोलता में हरि-नाम में लीन रहता है। गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के साथ) उसका मिलाप हो जाता है। उसको (हर जगह) एक कर्तार ही दिखाई देता है, उसके बिना कोई और उसको नज़र नहीं आता।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ भगति करहि जन देखि हजूरि ॥ संत जना की पग पंकज धूरि ॥ हरि सेती सद रहहि लिव लाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ बुझाइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ भगति करहि जन देखि हजूरि ॥ संत जना की पग पंकज धूरि ॥ हरि सेती सद रहहि लिव लाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ बुझाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = करते हैं (बहुवचन)। जन = सेवक (बहुवचन)। देखि = देख के। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। पग = चरण। पंकज = कमल फूल (पंक = कीचड़। ज = पैदा हुआ)। सेती = साथ। सद = सदा। लिव = लगन। सतिगुरि = गुरु ने।1।
अर्थ: हे भाई! भक्त-जन परमात्मा को अंग-संग बसता देख के उसकी भक्ति करते हैं, संत-जनों के सुंदर चरणों की धूल (अपने माथे पर लगाते हैं) वे सदा परमात्मा के साथ तवज्जो जोड़ के रखते हैं। पूरे गुरु ने उन्हें ये समझ बख्शी होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासा का दासु विरला कोई होइ ॥ ऊतम पदवी पावै सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दासा का दासु विरला कोई होइ ॥ ऊतम पदवी पावै सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पदवी = आत्मिक दर्जा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य (परमात्मा के) सेवकों का सेवक बनता है, (जो मनुष्य बनता है) वह श्रेष्ठ आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको सेवहु अवरु न कोइ ॥ जितु सेविऐ सदा सुखु होइ ॥ ना ओहु मरै न आवै जाइ ॥ तिसु बिनु अवरु सेवी किउ माइ ॥२॥
मूलम्
एको सेवहु अवरु न कोइ ॥ जितु सेविऐ सदा सुखु होइ ॥ ना ओहु मरै न आवै जाइ ॥ तिसु बिनु अवरु सेवी किउ माइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहु = स्मरण करो। जितु = जिससे। जितु सेविऐ = जिसकी भक्ति से। आवै = पैदा होता है। जाइ = जाए, मरता है। अवरु = अन्य। सेवी = मैं सेवा करूँ। माइ = माय, हे माँ!।2।
अर्थ: हे भाई! उस एक परमात्मा की भक्ति किया करो, जिस जैसा और कोई नहीं है, और जिसकी भक्ति करने से सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे (मेरी) माँ! वह परमात्मा ना कभी मरता है, ना जनम-मरण के चक्कर में पड़ता है। मैं उसके बिना किसी और की भक्ति क्यों करूँ?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से जन साचे जिनी साचु पछाणिआ ॥ आपु मारि सहजे नामि समाणिआ ॥ गुरमुखि नामु परापति होइ ॥ मनु निरमलु निरमल सचु सोइ ॥३॥
मूलम्
से जन साचे जिनी साचु पछाणिआ ॥ आपु मारि सहजे नामि समाणिआ ॥ गुरमुखि नामु परापति होइ ॥ मनु निरमलु निरमल सचु सोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचे = अटल जीवन वाले, सदा स्थिर प्रभु का रूप। साचु = सदा स्थिर प्रभु। पछाणिआ = सांझ डाली। आपु = स्वै भाव। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। सचु सोइ = वह सदा स्थिर प्रभु।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने सदा-स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाल ली, वे अटल जीवन वाले हो गए। वे मनुष्य स्वै भाव गवा के आत्मिक अडोलता में हरि-नाम में लीन रहते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम गुरु की शरण पड़ने से मिलता है, (जिसको मिलता है उसका) मन पवित्र हो जाता है, (उसको) सदा-स्थिर और पवित्र परमात्मा (ही हर जगह दिखता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि गिआनु कीआ तिसु हरि तू जाणु ॥ साच सबदि प्रभु एकु सिञाणु ॥ हरि रसु चाखै तां सुधि होइ ॥ नानक नामि रते सचु सोइ ॥४॥८॥
मूलम्
जिनि गिआनु कीआ तिसु हरि तू जाणु ॥ साच सबदि प्रभु एकु सिञाणु ॥ हरि रसु चाखै तां सुधि होइ ॥ नानक नामि रते सचु सोइ ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। जाणु = सांझ डाल ले। साच सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। सिञांणु = सिंझाण = सांझ डाल। सुधि = सूझ। नामि रते = नाम में रंग के।4।
अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (तेरे अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ पैदा की है, उसके साथ सदा गहरी सांझ डाले रख। उस सदा-स्थिर-प्रभु की महिमा की वाणी उस एक परमात्मा के साथ जान-पहचान बनाए रख। हे नानक! जब मनुष्य परमात्मा के नाम का स्वाद रखता है तब (उसके आत्मिक जीवन की) समझ प्राप्त हो जाती है। नाम में रंग के वह सदा-स्थिर-प्रभु (उसको हर जगह बसा हुआ दिखता है)।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ नामि रते कुलां का करहि उधारु ॥ साची बाणी नाम पिआरु ॥ मनमुख भूले काहे आए ॥ नामहु भूले जनमु गवाए ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ नामि रते कुलां का करहि उधारु ॥ साची बाणी नाम पिआरु ॥ मनमुख भूले काहे आए ॥ नामहु भूले जनमु गवाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। करहि = करते हैं (बहुवचन)। उधारु = पार उतारा। साची बाणी = सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा। नाम पिआरु = नाम का प्यार। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। काहे आए = क्यों आए? (भाव, जीवन व्यर्थ गवा गए)। भूले = कुमार्ग पर पड़े रहे। नामहु = नाम से। गवाए = गवा के।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगे हुए मनुष्य (अपनी सारी) कुलों का (भी) पार-उतारा कर लेते हैं। सदा-स्थिर-प्रभु की महिमा (उनके हृदय में टिकी रहती है), हरि-नाम का प्यार (उनके मन में बसा रहता है)।
पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं, नाम से टूट के जीवन व्यर्थ गवा के वे जगत में जैसे आए जैसे ना आए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवत मरै मरि मरणु सवारै ॥ गुर कै सबदि साचु उर धारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीवत मरै मरि मरणु सवारै ॥ गुर कै सबदि साचु उर धारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवत मरै = जीवित मरता है, दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ विकारों की तरफ से मर जाता है अर्थात विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। मरि = मर के, विकारों से बचा रह के। मरणु = मौत, विकारों के प्रति मौत, विकारों की मार से बचा हुआ जीवन। सवारै = सुंदर बना लेता है। कै सबदि = के शब्द से। साचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। उर = हृदय।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा सदा कायम रहने वाले हरि-नाम को अपने हृदय में बसाता है, वह मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह से बचा रहता है। विकारों के प्रति मर के वह मनुष्य विकारों से बचे हुए अपने जीवन को सुंदर बना लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सचु भोजनु पवितु सरीरा ॥ मनु निरमलु सद गुणी गहीरा ॥ जमै मरै न आवै जाइ ॥ गुर परसादी साचि समाइ ॥२॥
मूलम्
गुरमुखि सचु भोजनु पवितु सरीरा ॥ मनु निरमलु सद गुणी गहीरा ॥ जमै मरै न आवै जाइ ॥ गुर परसादी साचि समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सचु = सदा-स्थिर हरि नाम। भोजनु = (आत्मिक जीवन की) खुराक। सद = सदा। गुणी गहीरा = गुणों के मालिक गहरे जिगरे वाला प्रभु। परसादी = कृपा से। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम को (अपने आत्मिक जीवन की) खुराक बनाता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है, उसका मन पवित्र हो जाता है। गुणों का मालिक गहरे जिगरे वाला हरि सदा (सदा उसके अंदर बसता है)। वह मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, गुरु की कृपा से वह सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा सेवहु साचु पछाणै ॥ गुर कै सबदि हरि दरि नीसाणै ॥ दरि साचै सचु सोभा होइ ॥ निज घरि वासा पावै सोइ ॥३॥
मूलम्
साचा सेवहु साचु पछाणै ॥ गुर कै सबदि हरि दरि नीसाणै ॥ दरि साचै सचु सोभा होइ ॥ निज घरि वासा पावै सोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहु = स्मरण किया करो। पछाणै = सांझ डालता है। दरि = दर पर। नीसाणै = निशान, राहदारी, परवाना। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। निज घरि = अपने घर में।3।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले प्रभु की भक्ति किया करो। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा सदा-स्थिर-प्रभु के साथ सांझ डालता है, परमात्मा के दर पर उसको आदर मिलता है। सदा-स्थिर हरि-नाम (जिसके मन में बसता है) सदा-स्थिर-प्रभु के दर पर उसकी शोभा होती है। वह मनुष्य अपने घर में टिका रहता है (भटकना से बचा रहता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि अभुलु सचा सचु सोइ ॥ होरि सभि भूलहि दूजै पति खोइ ॥ साचा सेवहु साची बाणी ॥ नानक नामे साचि समाणी ॥४॥९॥
मूलम्
आपि अभुलु सचा सचु सोइ ॥ होरि सभि भूलहि दूजै पति खोइ ॥ साचा सेवहु साची बाणी ॥ नानक नामे साचि समाणी ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होरि = अन्य, और। सभि = सारे। भूलहि = गलत राह पड़े रहते हैं। दूजै = माया (के प्यार) में। पति = इज्जत। खोइ = गवा के। नामे = नाम से।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं भूलें करने वाला नहीं। और सारे जीव माया के मोह में इज्जत गवा के (जिंदगी के) गलत राह पर पड़े रहते हैं। हे भाई! सदा-स्थिर-प्रभु की भक्ति करते रहा करो।
हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा (टिकी रहती है) उस मनुष्य की तवज्जो सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहती है।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ बिनु करमा सभ भरमि भुलाई ॥ माइआ मोहि बहुतु दुखु पाई ॥ मनमुख अंधे ठउर न पाई ॥ बिसटा का कीड़ा बिसटा माहि समाई ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ बिनु करमा सभ भरमि भुलाई ॥ माइआ मोहि बहुतु दुखु पाई ॥ मनमुख अंधे ठउर न पाई ॥ बिसटा का कीड़ा बिसटा माहि समाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमा = करम, बख्शिश, मेहर। सभ = सारी लोकाई। भरमि = भटकना ने। भुलाई = गलत राह पर डाल रखी है। मोहि = मोह में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधे = (आत्मिक जीवन से) अंधे। ठउर = शांति का ठिकाना।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु की बख्शिश के बिना सारी (लोकाई) को भटकना में गलत राह पर डाल रखा है, माया के मोह में फंस के (लोकाई) बहुत दुख पाती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (माया के मोह में) अंधे हुए रहते हैं। (मोह-ग्रसित मनुष्य) आत्मिक शांति का ठिकाना प्राप्त नहीं कर सकता (विकारों में ही फसा रहता है, जैसे) गंदगी का कीड़ा गंदगी में ही मस्त रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु मंने सो जनु परवाणु ॥ गुर कै सबदि नामि नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हुकमु मंने सो जनु परवाणु ॥ गुर कै सबदि नामि नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परवाणु = (प्रभु के दर पर) स्वीकार। कै सबदि = के शब्द में। नामि = नाम में। नीसाणु = परवाना, राहदारी, आदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (परमात्मा की) रज़ा को (मीठा करके) मानता है, गुरु के शब्द से परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है, वह मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है, आदर प्राप्त करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचि रते जिन्हा धुरि लिखि पाइआ ॥ हरि का नामु सदा मनि भाइआ ॥ सतिगुर की बाणी सदा सुखु होइ ॥ जोती जोति मिलाए सोइ ॥२॥
मूलम्
साचि रते जिन्हा धुरि लिखि पाइआ ॥ हरि का नामु सदा मनि भाइआ ॥ सतिगुर की बाणी सदा सुखु होइ ॥ जोती जोति मिलाए सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचि = सदा स्थिर हरि नाम। रते = रंगे हुए। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिख के। मनि = मन मे। भाइआ = भाया, प्यारा लगा। जोती = प्रभु की ज्योति में। जोति = जीवात्मा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस के माथे पर धुर-दरगाह से भक्ति का लेख लिखा होता है, वे सदा-स्थिर हरि-नाम में रंगे रहते हैं। परमात्मा का नाम सदा उनको अपने मन में प्यारा लगता है। गुरु की वाणी की इनायत से उनके अंदर सदा आत्मिक आनंद बना रहता है, वाणी उनकी जिंद को परमात्मा की ज्योति में मिला देती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकु नामु तारे संसारु ॥ गुर परसादी नाम पिआरु ॥ बिनु नामै मुकति किनै न पाई ॥ पूरे गुर ते नामु पलै पाई ॥३॥
मूलम्
एकु नामु तारे संसारु ॥ गुर परसादी नाम पिआरु ॥ बिनु नामै मुकति किनै न पाई ॥ पूरे गुर ते नामु पलै पाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तारे = पार लंघाता है। परसादी = कृपा से। नाम पिआरु = नाम का प्यार। मुकति = विकारों से मुक्ति। ते = से। पलै पाई = प्राप्त करता है।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जगत को (विकारों भरे समुंदर से) पार लंघाता है, पर नाम का प्यार गुरु की कृपा से बनता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना किसी मनुष्य ने विकारों से मुक्ति हासिल नहीं की। नाम पूरे गुरु से मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ सतिगुर सेवा नामु द्रिड़्हाए ॥ जिन इकु जाता से जन परवाणु ॥ नानक नामि रते दरि नीसाणु ॥४॥१०॥
मूलम्
सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ सतिगुर सेवा नामु द्रिड़्हाए ॥ जिन इकु जाता से जन परवाणु ॥ नानक नामि रते दरि नीसाणु ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूझै = समझता है। बुझाए = समझ बख्शता है। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। जाता = गहरी सांझ डाल ली। से जन = वह मनुष्य (बहुवचन)। दरि = प्रभु के दर पर।4।
अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन का सही रास्ता) वह मनुष्य समझता है जिसको परमात्मा स्वयं समझाता है, परमात्मा उसको गुरु की शरण डाल के उसके हृदय में अपना नाम दृढ़ करवाता है। हे नानक! जिन्होंने एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली, वे परमात्मा के दर पर स्वीकार हो गए, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे गए, परमात्मा के दर पर उनको आदर मिला।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ आपे आपि वसै मनि आए ॥ निहचल मति सदा मन धीर ॥ हरि गुण गावै गुणी गहीर ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ आपे आपि वसै मनि आए ॥ निहचल मति सदा मन धीर ॥ हरि गुण गावै गुणी गहीर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करे = (परमात्मा) करता है। आपे = स्वयं ही। मनि = मन में। आए = आ के। निहचल = ना डोलने वाली। मन धीर = मन की धीरज। गावै = गाता है। गुणी गहीर हरि गुण = गुणों के खजाने और बड़े जिग्ररे वाले हरि के गुण।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरु मिलाता है (और गुरु के द्वारा) स्वयं ही उसके मन में आ बसता है। वह मनुष्य गुणों के खजाने बड़े जिगरे वाले हरि के गुण गाता रहता है (जिसकी इनायत से उसकी) मति (विकारों के हमलों के प्रति) अडोल रहती है, उसके मन में सदा धैर्य बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामहु भूले मरहि बिखु खाइ ॥ ब्रिथा जनमु फिरि आवहि जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नामहु भूले मरहि बिखु खाइ ॥ ब्रिथा जनमु फिरि आवहि जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामहु = नाम से। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का) जहर। खाइ = खाय, खा के। जाइ = जाए, जा के, मर के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटे हुए मनुष्य (आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का) जहर खा के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, उनकी जिंदगी व्यर्थ चली जाती है, बार-बार जूनियों में पड़े रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु भेख करहि मनि सांति न होइ ॥ बहु अभिमानि अपणी पति खोइ ॥ से वडभागी जिन सबदु पछाणिआ ॥ बाहरि जादा घर महि आणिआ ॥२॥
मूलम्
बहु भेख करहि मनि सांति न होइ ॥ बहु अभिमानि अपणी पति खोइ ॥ से वडभागी जिन सबदु पछाणिआ ॥ बाहरि जादा घर महि आणिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सांति = अडोलता। अभिमानि = अहंकार के कारण। पति = इज्जत। खोइ = गवा लेता है। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। जांदा = भटकता (मन)। आणिआ = ले आए।2।
अर्थ: हे भाई! (नाम में टूट के जो मनुष्य निरे) कई धार्मिकभेष करते हैं उनके मन में शांति नहीं आ सकती। (बल्कि भेस के) बहुत अहंकार के कारण (भेखधारी मनुष्य लोक-परलोक में) अपनी इज्जत गवा लेता है। हे भाई! वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरु के शब्द से गहरी सांझ डाल ली है (और, शब्द की इनायत से अपने) बाहर भटकते मन को अंदर की ओर मोड़ के ले आते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घर महि वसतु अगम अपारा ॥ गुरमति खोजहि सबदि बीचारा ॥ नामु नव निधि पाई घर ही माहि ॥ सदा रंगि राते सचि समाहि ॥३॥
मूलम्
घर महि वसतु अगम अपारा ॥ गुरमति खोजहि सबदि बीचारा ॥ नामु नव निधि पाई घर ही माहि ॥ सदा रंगि राते सचि समाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसतु = हरि नाम पदार्थ। अगम अपारा वसतु = अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत हरि का नाम पदार्थ। खोजहि = तलाशते हैं। सबदि = शब्द से। बीचारा = प्रभु के गुणों की विचार। नव निधि = (धरती के सारे) नौ ही खजाने। रंगि = (प्रेम) रंग में। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में।3।
अर्थ: हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम पदार्थ (मनुष्य के) हृदय में ही बसता है। गुरु की मति पर चल के गुरु के शब्द द्वारा (परमात्मा के गुणों की) विचार करके (जो मनुष्य नाम-पदार्थ की) तलाश करते हैं, उन्होंने (धरती के) नौ-खजानों के तूल्य हरि-नाम को अपने हृदय में ही पा लिया। वे मनुष्य सदा प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि करे किछु करणु न जाइ ॥ आपे भावै लए मिलाइ ॥ तिस ते नेड़ै नाही को दूरि ॥ नानक नामि रहिआ भरपूरि ॥४॥११॥
मूलम्
आपि करे किछु करणु न जाइ ॥ आपे भावै लए मिलाइ ॥ तिस ते नेड़ै नाही को दूरि ॥ नानक नामि रहिआ भरपूरि ॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणु न जाइ = किया नहीं जा सकता। भावै = अच्छा लगता है। ते = से। नामि = नाम में। को = कोई जीव।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! (नाम से टूटे रहना व नाम में लीन रहना- ये सब कुछ) परमात्मा स्वयं ही करता है (जीव द्वारा अपने आप) कुछ नहीं किया जा सकता। जिस पर प्रभु स्वयं ही मेहर करता है उसको अपने साथ जोड़ लेता है। (अपने उद्यम के आसरे) ना कोई मनुष्य उसके नज़दीक है, ना कोई मनुष्य उससे दूर है। हे नानक! (जो मनुष्य उसकी मेहर से उसके) नाम में टिक जाता है, उसको वह हर जगह व्यापक दिखता है।4।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ गुर सबदी हरि चेति सुभाइ ॥ राम नाम रसि रहै अघाइ ॥ कोट कोटंतर के पाप जलि जाहि ॥ जीवत मरहि हरि नामि समाहि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ गुर सबदी हरि चेति सुभाइ ॥ राम नाम रसि रहै अघाइ ॥ कोट कोटंतर के पाप जलि जाहि ॥ जीवत मरहि हरि नामि समाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदी = शब्द से। चेति = चेत के, स्मरण करके। सुभाइ = सुभाय, प्यार से। रसि = रस से। रहै अघाइ = (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। कोट = किले, शरीर किले। कोट कोटंतर के = कोट कोट अंतर के, और-और किलों के, अनेक शरीर किलों के, अनेक जन्मों के। जलि जाहि = जल जाते हैं। जीवत मरहि = दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए विकारों से अडोल रहते हैं। नामि = नाम में।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कोट’ है ‘कोटु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से प्रेम से परमात्मा को याद कर-कर के, मनुष्य हरि-नाम के स्वाद की इनायत से (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। जो मनुष्य हरि-नाम में लीन रहते हैं, वे दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए ही माया के मोह से बचे रहते हैं, उनके अनेक जन्मों के पाप जल जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की दाति हरि जीउ जाणै ॥ गुर कै सबदि इहु मनु मउलिआ हरि गुणदाता नामु वखाणै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि की दाति हरि जीउ जाणै ॥ गुर कै सबदि इहु मनु मउलिआ हरि गुणदाता नामु वखाणै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणै = जानता है (एकवचन)। मउलिआ = खिला हुआ, आत्मिक जीवन से भरपूर। वखाणै = (वह मनुष्य) उचारता है। हरि गुण दाता नामु = हरि के गुण (हृदय में) पैदा करने वाला हरि नाम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही जानता है कि अपने नाम की दाति किसको देनी है। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु के गुणों की बख्शिश करने वाला हरि-नाम उचारता है, उसका ये मन आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवै वेसि भ्रमि मुकति न होइ ॥ बहु संजमि सांति न पावै कोइ ॥ गुरमति नामु परापति होइ ॥ वडभागी हरि पावै सोइ ॥२॥
मूलम्
भगवै वेसि भ्रमि मुकति न होइ ॥ बहु संजमि सांति न पावै कोइ ॥ गुरमति नामु परापति होइ ॥ वडभागी हरि पावै सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेसि = वेश से, भेस से। भ्रमि = (धरती पर) भ्रमण कर कर के। मुकति = विकारों से मुक्ति। संजमि = संयम से, कठिन तपों से, सिर्फ विकारों से बचने के प्रयत्नों से। सोइ = वह मनुष्य।2।
अर्थ: हे भाई! भगवे रंगों के भेस से (धरती पर) भ्रमण करने से विकारों से खलासी नहीं होती। कठिन तपस्या से निरे विकारों के प्रयत्नों से भी कोई मनुष्य आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर सकता। जो मनुष्य गुरु की मति लेता है, उसको प्रभु का नाम प्राप्त होता है, वह भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा को मिल जाता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कलि महि राम नामि वडिआई ॥ गुर पूरे ते पाइआ जाई ॥ नामि रते सदा सुखु पाई ॥ बिनु नामै हउमै जलि जाई ॥३॥
मूलम्
कलि महि राम नामि वडिआई ॥ गुर पूरे ते पाइआ जाई ॥ नामि रते सदा सुखु पाई ॥ बिनु नामै हउमै जलि जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि महि = बखेड़े भरे जगत में।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: यहाँ युगों के निर्णय का वर्णन नहीं है। युग कोई भी हो ‘नामि रते सदा सुखु पाई’। शब्द ‘सदा’ बताता है कि यहाँ ‘जुगों’ के बारे में विचार नहीं है)।
दर्पण-भाषार्थ
नामि = नाम से। ते = के द्वारा। हउमै = अहंकार में। जलि जाई = जलता है, आत्मिक जीवन राख कर लेता है।3।
अर्थ: हे भाई! इस बखेड़ों भरे जगत में परमात्मा के नाम से ही (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है। यह नाम पूरे गुरु के पास से मिलता है। हरि-नाम (के प्यार-रंग) में रंगे जा के मनुष्य सदा (हरेक युग में) सुख भोगता है। नाम के बिना मनुष्य अहंकार की आग में अपना आत्मिक जीवन राख कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडभागी हरि नामु बीचारा ॥ छूटै राम नामि दुखु सारा ॥ हिरदै वसिआ सु बाहरि पासारा ॥ नानक जाणै सभु उपावणहारा ॥४॥१२॥
मूलम्
वडभागी हरि नामु बीचारा ॥ छूटै राम नामि दुखु सारा ॥ हिरदै वसिआ सु बाहरि पासारा ॥ नानक जाणै सभु उपावणहारा ॥४॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीचारा = विचारता, सोच मण्डल में बसाता। छूटै = खत्म हो जाता है। हिरदै = हृदय में। सु = वह प्रभु। सभु = हर जगह (बसता)। उपावणहारा = विधाता।4।
अर्थ: हे भाई! जो भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा के नाम को अपनी सोच-मण्डल में बसाता है, नाम की इनायत से उसका सारा दुख समाप्त हो जाता है। हे नानक! वह मनुष्य हर जगह विधाता को बसता समझता है (वह जानता है कि जो प्रभु) हृदय में बस रहा है, बाहर जगत में भी वही पसरा हुआ है।4।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ इक तुके ॥ तेरा कीआ किरम जंतु ॥ देहि त जापी आदि मंतु ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ इक तुके ॥ तेरा कीआ किरम जंतु ॥ देहि त जापी आदि मंतु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इक तुके = एक तुक वाले शब्द। कीआ = पैदा किया हुआ। किरम = कीड़ा। किरम जंतु = निमाणा जीव। देहि = अगर तू दे। जापी = मैं जपूँ। आदि मंतु = आदि नाम मंत्र, सतिनाम।1।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरा ही पैदा किया हुआ तुच्छ जीव हूँ, अगर तू स्वयं ही दे, तब ही मैं तेरा सतिनाम-मंत्र जप सकता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण आखि वीचारी मेरी माइ ॥ हरि जपि हरि कै लगउ पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुण आखि वीचारी मेरी माइ ॥ हरि जपि हरि कै लगउ पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखि = कह के, बयान कर के। वीचारी = मैं मन में बसाऊँ। माइ = माय, हे माँ! जपि = जप के। लगउ = मैं लगूँ। हरि कै पाइ = प्रभु के चरणों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (मेरी तमन्ना ये है कि) मैं परमात्मा के गुण उचार के उनको अपने मन में बसाए रखूँ, हरि-नाम जप-जप के हरि के चरणों में जुड़ा रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर प्रसादि लागे नाम सुआदि ॥ काहे जनमु गवावहु वैरि वादि ॥२॥
मूलम्
गुर प्रसादि लागे नाम सुआदि ॥ काहे जनमु गवावहु वैरि वादि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। नामि सुआदि = नाम के स्वाद में। वैरि = वैर में। वादि = झगड़े में।2।
अर्थ: मनुष्य गुरु की कृपा से (ही) नाम के रस में जुड़ सकता है। (तुम) क्यों वैर-विरोध में अपनी जिंदगी गंवा रहे हैं? (गुरु की शरण पड़ो)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि किरपा कीन्ही चूका अभिमानु ॥ सहज भाइ पाइआ हरि नामु ॥३॥
मूलम्
गुरि किरपा कीन्ही चूका अभिमानु ॥ सहज भाइ पाइआ हरि नामु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। चूका = समाप्त हो गया। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = भाय, प्रेम में।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु ने मेहर की, उसके अंदर से अहंकार समाप्त हो गया। उसने आत्मिक अडोलता देने वाले प्रेम में टिक के परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतमु ऊचा सबद कामु ॥ नानकु वखाणै साचु नामु ॥४॥१॥१३॥
मूलम्
ऊतमु ऊचा सबद कामु ॥ नानकु वखाणै साचु नामु ॥४॥१॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबद कामु = महिमा की वाणी पढ़ने वाला काम। नानकु वखाणै = नानक उचारता है। साचु = सदा कायम रहने वाला।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु की महिमा की वाणी पढ़ने वाला काम (और सारे कामों से) उत्तम और ऊँचा है, (तभी तो) नानक सदा-स्थिर प्रभु का नाम उचारता रहता है।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ बनसपति मउली चड़िआ बसंतु ॥ इहु मनु मउलिआ सतिगुरू संगि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ बनसपति मउली चड़िआ बसंतु ॥ इहु मनु मउलिआ सतिगुरू संगि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनसपति = पेड़ पौधे घास बूटी आदि, धरती में से उगी, उत्भुज। मउली = हरी भरी हो जाती है, खिल उठती है। मउलिआ = खिल उठता है, हरा भरा हो जाता है, आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। संगि = साथ।1।
अर्थ: हे भाई! (जैसे जब) बसंत चढ़ता है तो सारी धरती हरी-भरी हो जाती है, (वैसे ही) गुरु की संगति में रह के यह मन (आत्मिक जीवन से) हरा-भरा हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह साचु धिआवहु मुगध मना ॥ तां सुखु पावहु मेरे मना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम्ह साचु धिआवहु मुगध मना ॥ तां सुखु पावहु मेरे मना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर हरि नाम। मुगध मना = हे मूर्ख मन! सुखु = आत्मिक आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मूर्ख मन! तू सदा कायम रहने वाले परमात्मा को स्मरण किया कर। तब ही, हे मेरे मन! तू आनंद पा सकेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतु मनि मउलिऐ भइआ अनंदु ॥ अम्रित फलु पाइआ नामु गोबिंद ॥२॥
मूलम्
इतु मनि मउलिऐ भइआ अनंदु ॥ अम्रित फलु पाइआ नामु गोबिंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इतु = इस से। इतु मनि = इस मन से। इतु मनि मउलिऐ = अगर ये मन आत्मिक जीवन वाला हो जाए। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल। नामु गोबिंद = गोबिंद का नाम।2।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने गुरु की संगति में) गोबिंद का नाम हासिल कर लिया, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त कर लिया, उसका ये मन खिल उठने से उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको एकु सभु आखि वखाणै ॥ हुकमु बूझै तां एको जाणै ॥३॥
मूलम्
एको एकु सभु आखि वखाणै ॥ हुकमु बूझै तां एको जाणै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = हरेक जीव। आखि = कह के। वखाणै = बताता है। एको एकु = परमात्मा एक स्वयं ही स्वयं है। एको जाणै = एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है।3।
अर्थ: हे भाई! वैसे तो हरेक मनुष्य कहता फिरता है कि (सब जगह) परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, पर जब मनुष्य परमात्मा की रज़ा को समझता है, तब ही उसके साथ गहरी सांझ डालता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत नानकु हउमै कहै न कोइ ॥ आखणु वेखणु सभु साहिब ते होइ ॥४॥२॥१४॥
मूलम्
कहत नानकु हउमै कहै न कोइ ॥ आखणु वेखणु सभु साहिब ते होइ ॥४॥२॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहत नानकु = नानक कहता है। साहिब ते = मालिक प्रभु से, मालिक की प्रेरणा से।4।
अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: (जब मनुष्य परमात्मा की रज़ा को समझ लेता है तब) मनुष्य ‘मैं मैं’ नहीं करता (तब उसे यह समझ आ जाती है कि) जीव वही कुछ कहता-देखता है जो मालिक की तरफ़ से प्रेरणा होती है।4।2।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ सभि जुग तेरे कीते होए ॥ सतिगुरु भेटै मति बुधि होए ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ सभि जुग तेरे कीते होए ॥ सतिगुरु भेटै मति बुधि होए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। भेटै = मिलता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! सारे जुग (सारे समय) तेरे ही बनाए हुए हैं (तेरे नाम की प्राप्ति युगों के भेदभाव अर्थात किसी विशेष युग में पैदा होने व भक्ति करने से नहीं होती। जिस मनुष्य को तेरी मेहर से) गुरु मिल जाता है (उसके अंदर नाम जपने वाली) मति बुद्धि पैदा हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ आपे लैहु मिलाइ ॥ गुर कै सबदि सच नामि समाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि जीउ आपे लैहु मिलाइ ॥ गुर कै सबदि सच नामि समाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! (संबोधन)। आपे = तू स्वयं ही। कै सबदि = के शब्द से। सच नामि = (तेरे) सदा कायम रहने वाले नाम में। समाइ = लीन हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (जिस मनुष्य को) तू स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, गुरु के शब्द द्वारा (वह मनुष्य) (तेरे) सदा कायम रहने वाले नाम में लीन रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि बसंतु हरे सभि लोइ ॥ फलहि फुलीअहि राम नामि सुखु होइ ॥२॥
मूलम्
मनि बसंतु हरे सभि लोइ ॥ फलहि फुलीअहि राम नामि सुखु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। बसंतु = सदा खिले रहने वाला प्रभु। सभि = सारे। लोइ = जगत में। फलहि = वह फलते हैं। फुलीअहि = उनको फूल लगते हैं, वे प्रफुल्लित होते हैं। नामि = नाम से।2।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों के) मन में सदा खिले रहने वाला प्रभु आ बसता है, वह सारे ही इस जगत में आत्मिक जीवन वाले हो जाते हैं, वह मनुष्य दुनियां में भी कामयाब होते हैं, परमात्मा के नाम की इनायत से उनके अंदर आत्मिक आनंद (भी) बना रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा बसंतु गुर सबदु वीचारे ॥ राम नामु राखै उर धारे ॥३॥
मूलम्
सदा बसंतु गुर सबदु वीचारे ॥ राम नामु राखै उर धारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को मन में बसाता है परमात्मा के नाम को दिल में टिकाए रखता है, उसके अंदर सदा आत्मिक उमंग बनी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि बसंतु तनु मनु हरिआ होइ ॥ नानक इहु तनु बिरखु राम नामु फलु पाए सोइ ॥४॥३॥१५॥
मूलम्
मनि बसंतु तनु मनु हरिआ होइ ॥ नानक इहु तनु बिरखु राम नामु फलु पाए सोइ ॥४॥३॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सदा बसंतु = सदा ही आत्मिक खिलाव। बिरखु = वृक्ष। सोइ = वह मनुष्य।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य के मन में सदा खिले रहने वाला हरि आ बसता है, उसका तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है उसका मन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे नानक! ये शरीर (मानो) वृक्ष है, (जिसके मन में बसंत आ जाती है) उस मनुष्य का ये शरीर-वृक्ष हरि-नाम-फल प्राप्त कर लेता है।4।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ तिन्ह बसंतु जो हरि गुण गाइ ॥ पूरै भागि हरि भगति कराइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ तिन्ह बसंतु जो हरि गुण गाइ ॥ पूरै भागि हरि भगति कराइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसंतु = आत्मिक उमंग। जो = जो जो मनुष्य (एकवचन)। गाइ = गाता है (एकवचन)। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। कराइ = कराता है।1।
अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, उनके अंदर आत्मिक उमंग बनी रहती है। (पर जीव के वश की बात नहीं है) बड़ी किस्मत से परमात्मा (स्वयं ही जीव से) भक्ति करवाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मन कउ बसंत की लगै न सोइ ॥ इहु मनु जलिआ दूजै दोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इसु मन कउ बसंत की लगै न सोइ ॥ इहु मनु जलिआ दूजै दोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) यह मन माया के मोह में (फंस के) मेर-तेर में (फंस के) आत्मिक मौत सहेड़ लेता है (उस मनुष्य के) इस मन को आत्मिक उमंग की छोह प्राप्त नहीं होती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु धंधै बांधा करम कमाइ ॥ माइआ मूठा सदा बिललाइ ॥२॥
मूलम्
इहु मनु धंधै बांधा करम कमाइ ॥ माइआ मूठा सदा बिललाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंधै = धंधे में। बांधा = बँधा हुआ। मूठा = ठगा हुआ, लुटा हुआ। बिललाइ = बिलकता है, दुखी होता है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का यह मन माया के धंधे में बँधा रहता है (और इस हालत में टिका रह के) कर्म कमाता है, माया (का मोह) उसके आत्मिक जीवन को लूट लेता है, वह सदा दुखी रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु छूटै जां सतिगुरु भेटै ॥ जमकाल की फिरि आवै न फेटै ॥३॥
मूलम्
इहु मनु छूटै जां सतिगुरु भेटै ॥ जमकाल की फिरि आवै न फेटै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छूटै = (माया के पँजे से) बचता है। जा = जब। भेटै = मिलता है। जम काल = मौत, आत्मिक मौत। फेटै = मार तले।3।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य को गुरु मिल जाता है तब मनुष्य का यह मन (माया के मोह के पँजे में से) बच निकलता है। फिर वह आत्मिक मौत की मार के काबू में नहीं आता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु छूटा गुरि लीआ छडाइ ॥ नानक माइआ मोहु सबदि जलाइ ॥४॥४॥१६॥
मूलम्
इहु मनु छूटा गुरि लीआ छडाइ ॥ नानक माइआ मोहु सबदि जलाइ ॥४॥४॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द से। जलाइ = जला देता है।4।
अर्थ: पर, हे भाई! (माया के मोह में से निकलना जीव के अपने वश की बात नहीं, जिस मनुष्य को) गुरु ने (माया के पँजे में से) छुड़ा लिया, उसका ये मन (माया के मोह से) बच गया। हे नानक! वह मनुष्य माया के मोह को गुरु के शब्द की सहायता से जला देता है।4।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ३ ॥ बसंतु चड़िआ फूली बनराइ ॥ एहि जीअ जंत फूलहि हरि चितु लाइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ३ ॥ बसंतु चड़िआ फूली बनराइ ॥ एहि जीअ जंत फूलहि हरि चितु लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चढ़िआ = शुरू होता है। फूली = खिल उठती है। बनराइ = बनस्पति। एहि = वे। फूलहि = प्रफुल्लित होते हैं, खिल उठते हैं, आत्मिक जीवन वाले हो जाते हैं। लाइ = लगा के, जोड़ के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जैसे जब) बसंत का मौसम शुरू होता है तब सारी बनस्पति खिल उठती है (वैसे) ये सारे जीव परमात्मा में चिक्त जोड़ के आत्मिक जीवन से खिल उठते हैं।1।
[[1177]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन बिधि इहु मनु हरिआ होइ ॥ हरि हरि नामु जपै दिनु राती गुरमुखि हउमै कढै धोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इन बिधि इहु मनु हरिआ होइ ॥ हरि हरि नामु जपै दिनु राती गुरमुखि हउमै कढै धोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इन बिधि = इस तरीके से। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। धोइ = धो के।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इन् बिधि’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है (इन्ह)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार धो के निकाल देता है और दिन-रात हर वक्त परमात्मा का नाम जपता है, इस तरीके से (उसका) यह मन आत्मिक जीवन से भरपूर हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बाणी सबदु सुणाए ॥ इहु जगु हरिआ सतिगुर भाए ॥२॥
मूलम्
सतिगुर बाणी सबदु सुणाए ॥ इहु जगु हरिआ सतिगुर भाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर बाणी = गुरु की वाणी। सुणाए = (अपने आप को) सुनाता है। सतिगुर भाए = गुरु के प्यार में (टिक के)।2।
अर्थ: हे भाई! जब यह जगत गुरु की वाणी सुनता है गुरु का शब्द सुनता है और गुरु के प्यार में मगन होता है तब यह आत्मिक जीवन से हरा-भरा हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फल फूल लागे जां आपे लाए ॥ मूलि लगै तां सतिगुरु पाए ॥३॥
मूलम्
फल फूल लागे जां आपे लाए ॥ मूलि लगै तां सतिगुरु पाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। आपे = प्रभु स्वयं ही। मूलि = जगत के आदि में। तां = तब ही।3।
अर्थ: हे भाई! (जीव के अपने वश की बात नहीं है। मनुष्य जीवन के वृक्ष को आत्मिक गुणों के) फूल-फल (तब ही) लगते हैं जब परमात्मा स्वयं ही लगाता है। (जब प्रभु की मेहर से मनुष्य को) गुरु मिलता है, तब मनुष्य सारे जगत के विधाता में जुड़ता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि बसंतु जगतु सभु वाड़ी ॥ नानक पूरै भागि भगति निराली ॥४॥५॥१७॥
मूलम्
आपि बसंतु जगतु सभु वाड़ी ॥ नानक पूरै भागि भगति निराली ॥४॥५॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = सारा। वाड़ी = बगीचा। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। निराली = (माया के मोह से) निर्लिप करने वाली।4।
अर्थ: हे भाई! यह सारा जगत (परमात्मा की) बगीची है, (इसको हरा-भरा करने वाला) बसंत भी वह स्वयं ही है। हे नानक! (माया के मोह से) निर्लिप करने वाली हरि की भक्ति बड़ी किस्मत से ही (किसी मनुष्य को मिलती है)।4।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की बाणी विटहु वारिआ भाई गुर सबद विटहु बलि जाई ॥ गुरु सालाही सद अपणा भाई गुर चरणी चितु लाई ॥१॥
मूलम्
गुर की बाणी विटहु वारिआ भाई गुर सबद विटहु बलि जाई ॥ गुरु सालाही सद अपणा भाई गुर चरणी चितु लाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विटहु = से। वारिआ = सदके। भाई = हे भाई! बलि जाई = बलि जाई, मैं कुर्बान जाता हूँ। सालाही = मैं सलाहता हूँ। सद = सदा। लाई = लाई, मैं लगाता हूँ।1।
अर्थ: हे भाई! मैं गुरु की वाणी से गुरु के शब्द से बलिहार जाता हूँ। हे भाई! मैं सदा अपने गुरु को सलाहता हूँ, मैं अपने गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन राम नामि चितु लाइ ॥ मनु तनु तेरा हरिआ होवै इकु हरि नामा फलु पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन राम नामि चितु लाइ ॥ मनु तनु तेरा हरिआ होवै इकु हरि नामा फलु पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! नामि = नाम में लाइ = जोड़। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। पाइ = प्राप्त कर के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़। हे भाई! परमात्मा का नाम-फल प्राप्त करके तेरा मन खिल उठेगा तेरा तन खिल उठेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि राखे से उबरे भाई हरि रसु अम्रितु पीआइ ॥ विचहु हउमै दुखु उठि गइआ भाई सुखु वुठा मनि आइ ॥२॥
मूलम्
गुरि राखे से उबरे भाई हरि रसु अम्रितु पीआइ ॥ विचहु हउमै दुखु उठि गइआ भाई सुखु वुठा मनि आइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। से = वे (बहुवचन)। रसु अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला रस। पीआइ = पिला के। उठि गइआ = नाश हो गया। वुठा = वश में पड़ा। आइ = आ के। मनि = मन में।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने जिस गुरमुखों की रक्षा की वे (माया के मोह के पँजे से) बच गए गुरु ने उनको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला के (बचा लिया)। हे भाई! उनके अंदर से अहंकार का दुख दूर हो गया, उनके मन में आनंद आ बसा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुरि आपे जिन्हा नो बखसिओनु भाई सबदे लइअनु मिलाइ ॥ धूड़ि तिन्हा की अघुलीऐ भाई सतसंगति मेलि मिलाइ ॥३॥
मूलम्
धुरि आपे जिन्हा नो बखसिओनु भाई सबदे लइअनु मिलाइ ॥ धूड़ि तिन्हा की अघुलीऐ भाई सतसंगति मेलि मिलाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। नो = को। बखसिओनु = बख्शा उस (परमात्मा) ने। सबदे = शब्द से। लइअनु = लिए हैं उस (परमात्मा) ने। अघुलीऐ = निर्लिप हो जाया जाता है, मुक्त हो जाते हैं। मेलि = मेल के।3।
अर्थ: हे भाई! धुर-दरगाह से परमात्मा ने स्वयं ही जिस पर बख्शिश की, उनको उसने (गुरु के) शब्द में जोड़ दिया। हे भाई! उनके चरण-धूल की इनायत से (माया से) निर्लिप हुआ जाता है (जिस पर बख्शिश करता है उन्हें) साधु-संगत में मिला के (अपने चरणों में) जोड़ लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि कराए करे आपि भाई जिनि हरिआ कीआ सभु कोइ ॥ नानक मनि तनि सुखु सद वसै भाई सबदि मिलावा होइ ॥४॥१॥१८॥१२॥१८॥३०॥
मूलम्
आपि कराए करे आपि भाई जिनि हरिआ कीआ सभु कोइ ॥ नानक मनि तनि सुखु सद वसै भाई सबदि मिलावा होइ ॥४॥१॥१८॥१२॥१८॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सभु कोइ = हरेक जीव। मनि = मन में। तनि = तन में। सद = सदा। सबदि = शब्द से। मिलावा = मिलाप।4।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने हरेक जीव को जिंद दी है वह स्वयं ही (जीवों से सब कुछ) करवाता है स्वयं ही (सबमें व्यापक हो के सब कुछ) करता है। हे नानक! (कह:) हे भाई! गुरु के शब्द से जिस मनुष्य का मिलाप परमात्मा के साथ हो जाता है, उसके मन में उसके तन में सदा आनंद बना रहता है।4।1।18।12।18।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु बसंतु महला ४ घरु १ इक तुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु बसंतु महला ४ घरु १ इक तुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ पसरी सूरज किरणि जोति ॥ तिउ घटि घटि रमईआ ओति पोति ॥१॥
मूलम्
जिउ पसरी सूरज किरणि जोति ॥ तिउ घटि घटि रमईआ ओति पोति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पसरी = बिखरी हुई। जोति = ज्योति, प्रकाश। घटि घटि = हरेक शरीर में। रमईआ = सुंदर राम। ओति पोति = (ओत = उना हुआ। प्रोत = परोया हुआ) ताने पेटे की तरह।1।
अर्थ: हे मेरी माँ! जैसे सूरज के किरण की रौशनी (सारे जगत में) बिखरी हुई है, वैसे ही सुंदर राम ताने-पेटे की तरह हरेक शरीर में मौजूद (ओत-प्रोत) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको हरि रविआ स्रब थाइ ॥ गुर सबदी मिलीऐ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एको हरि रविआ स्रब थाइ ॥ गुर सबदी मिलीऐ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रविआ = मौजूद है। स्रब = सरब, सर्व। स्रब थाइ = सरब थाय, सारी जगहों में। सबदी = शब्द से। मिलीऐ = मिला जा सकता है। माइ = हे माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! (चाहे सिर्फ) एक परमात्मा ही हर जगह मौजूद है, (फिर भी) गुरु के शब्द के द्वारा ही (उसको) मिला जा सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि अंतरि एको हरि सोइ ॥ गुरि मिलिऐ इकु प्रगटु होइ ॥२॥
मूलम्
घटि घटि अंतरि एको हरि सोइ ॥ गुरि मिलिऐ इकु प्रगटु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि = शरीर। घटि घटि अंतरि = हरेक शरीर के अंदर। एको = एक स्वयं ही। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। प्रगटु होइ = प्रत्यक्ष दिख जाता है।2।
अर्थ: हे माँ! वह एक परमात्मा ही हरेक शरीर के अंदर व्यापक है। अगर (जीव को) गुरु मिल जाए, तब वह परमात्मा प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको एकु रहिआ भरपूरि ॥ साकत नर लोभी जाणहि दूरि ॥३॥
मूलम्
एको एकु रहिआ भरपूरि ॥ साकत नर लोभी जाणहि दूरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। लोभी = लालची। जाणहि = जानते हें, समझते हैं (बहुवचन)।3।
अर्थ: हे माँ! एक परमात्मा ही हर जगह जर्रे-जर्रे में बस रहा है। पर परमात्मा से टूटे हुए माया के लालची मनुष्य समझते हैं कि वह कहीं दूर बसता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको एकु वरतै हरि लोइ ॥ नानक हरि एकुो करे सु होइ ॥४॥१॥
मूलम्
एको एकु वरतै हरि लोइ ॥ नानक हरि एकुो करे सु होइ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोइ = लोय, जगत में। एकुो = एक ही। सु = वह कुछ।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लोइ’ है अधिकरण कारक, एकवचन।
नोट: ‘एकुो’ में ‘क’ के साथ दो मात्राएं हैं। असल शब्द ‘ऐकु’ है यहाँ ‘ऐको’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! एक परमात्मा ही सारे जगत में बरत रहा है। वह सर्व-व्यापक प्रभु ही जो कुछ करता है वह होता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ४ ॥ रैणि दिनसु दुइ सदे पए ॥ मन हरि सिमरहु अंति सदा रखि लए ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ४ ॥ रैणि दिनसु दुइ सदे पए ॥ मन हरि सिमरहु अंति सदा रखि लए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रात। दुइ = दोनों। सदे = आमंत्रण, संदेशा मौत के संदेश (‘सदा’ का बहुवचन)। सदे पए = मौत के संदेशे मिल रहे हैं, मौत के बुलावे आ रहे हैं। मन = हे मन! अंति = आखिर को। रखि लीए = रक्षा करता है।1।
अर्थ: हे मेरे मन! रात और दिन दोनों मौत का संदेशा दे रहे हैं (कि उम्र बीत रही है, और, मौत नज़दीक आ रही है)। हे मन! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, हरि-नाम ही अंत में सदा रक्षा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि चेति सदा मन मेरे ॥ सभु आलसु दूख भंजि प्रभु पाइआ गुरमति गावहु गुण प्रभ केरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि हरि चेति सदा मन मेरे ॥ सभु आलसु दूख भंजि प्रभु पाइआ गुरमति गावहु गुण प्रभ केरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेति = चेते कर। सभु = सारा। दूख = सारे दुख। भंजि = नाश करके। गुरमति = गुरु की मति ले के। करे = के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा को याद किया कर, गुरु की मति ले के परमात्मा के गुण गाया कर। (जिस मनुष्य ने ये उद्यम किया, उसने) सारा आलस दूर करके अपने सारे दुख नाश कर के परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख फिरि फिरि हउमै मुए ॥ कालि दैति संघारे जम पुरि गए ॥२॥
मूलम्
मनमुख फिरि फिरि हउमै मुए ॥ कालि दैति संघारे जम पुरि गए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मुए = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। कालि = काल ने। दैति = दैत्य ने। संघारे = मार दिए। जमपुरि = जम की पुरी में।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य बार-बार अहंकार के कारण आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं। जब काल दैत्य ने उन्हें मार डाला, तब जमों के वश में पड़ गए।2।
[[1178]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि हरि हरि हरि लिव लागे ॥ जनम मरण दोऊ दुख भागे ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि हरि हरि हरि लिव लागे ॥ जनम मरण दोऊ दुख भागे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। लिव = लगन। भागे = दूर हो जाते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर परमात्मा के नाम की लगन लगती है (जिसकी इनायत से) पैदा होने व मरने के उनके दोनों दुख दूर हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जना कउ हरि किरपा धारी ॥ गुरु नानकु तुठा मिलिआ बनवारी ॥४॥२॥
मूलम्
भगत जना कउ हरि किरपा धारी ॥ गुरु नानकु तुठा मिलिआ बनवारी ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। तुठा = दयावान हुआ। बनवारी = परमात्मा।4।
अर्थ: हे भाई! अपने भक्तों पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है (उनको गुरु से मिलाता है)। हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु नानक दयावान हुआ, उसको परमात्मा मिल गया।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु रतन कोठड़ी गड़ मंदरि एक लुकानी ॥ सतिगुरु मिलै त खोजीऐ मिलि जोती जोति समानी ॥१॥
मूलम्
राम नामु रतन कोठड़ी गड़ मंदरि एक लुकानी ॥ सतिगुरु मिलै त खोजीऐ मिलि जोती जोति समानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतन = श्रेष्ठ आत्मिक गुण। कोठड़ी = सुंदर सा कोठा, सुंदर सा खजाना। रतन कोठड़ी = श्रेष्ठ आत्मिक गुणों का सुंदर सा खजाना। गढ़ = किला। मंदरि = मन्दिर में। गढ़ मंदरि = शरीर किले में, शरीर मन्दिर में। लुकानी = छुपी हुई है, गुप्त है। खोजीऐ = खोज की जा सकती है। मिलि = (गुरु को) मिल के। जोती = प्रभु की ज्योति में।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम श्रेष्ठ आत्मिक गुणों का सुंदर सा खजाना है, यह खजाना शरीर-किले में शरीर-मन्दिर में गुप्त पड़ा रहता है। जब (मनुष्य को) गुरु मिलता है तब (उस खजाने की) तलाश की जा सकती है। (गुरु को) मिल के मनुष्य की जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माधो साधू जन देहु मिलाइ ॥ देखत दरसु पाप सभि नासहि पवित्र परम पदु पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माधो साधू जन देहु मिलाइ ॥ देखत दरसु पाप सभि नासहि पवित्र परम पदु पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माधो = हे माया के पति! हे प्रभु! साधू = गुरु। सभि = सारे। नासहि = दूर हो जाते हैं। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाइ = प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माया के पति प्रभु! (मुझे) दास को गुरु मिला दे। गुरु के दर्शन करते हुए सारे पाप नाश हो जाते हैं। (जो मनुष्य गुरु के दर्शन करता है, वह) पवित्र और सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच चोर मिलि लागे नगरीआ राम नाम धनु हिरिआ ॥ गुरमति खोज परे तब पकरे धनु साबतु रासि उबरिआ ॥२॥
मूलम्
पंच चोर मिलि लागे नगरीआ राम नाम धनु हिरिआ ॥ गुरमति खोज परे तब पकरे धनु साबतु रासि उबरिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच चोर = कामादिक पाँच चोर। लागे = लगे हुए हैं, सेंध लगा रहे हैं। हिरिआ = चुरा लिया है। खोज = खुरा, निशान। पकरे = पकड़े जाते हैं। उबरिआ = बच जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के इस शरीर-) नगर में (कामादिक) पाँच चोर के मिल के सेंध लगाए रखते हैं, और (मनुष्य के अंदर से) परमात्मा का नाम-धन चुरा लेते हैं। जब कोई मनुष्य गुरु की मति ले के इनका खुरा-निशान ढूँढता है तब (ये चोर) पकड़े जाते हैं, और उस मनुष्य का नाम-धन नाम-राशि सारे का सारा बच जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाखंड भरम उपाव करि थाके रिद अंतरि माइआ माइआ ॥ साधू पुरखु पुरखपति पाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥३॥
मूलम्
पाखंड भरम उपाव करि थाके रिद अंतरि माइआ माइआ ॥ साधू पुरखु पुरखपति पाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाव = उपाय, प्रयास। रिद = हृदय। पुरख पति = सब मनुष्यों का पति, सब मनुष्यों से श्रेष्ठ। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! धर्म का दिखावा करने वाले और वहमों-भरमों वाले उपाय करके (मनुष्य) थक जाते हैं उनके हृदय में सदा माया (की तृष्णा ही टिकी रहती है)। पर जिस मनुष्य को श्रेष्ठ पुरख गुरु मिल जाता है, वह मनुष्य अपने अंदर से आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी का अंधकार दूर कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगंनाथ जगदीस गुसाई करि किरपा साधु मिलावै ॥ नानक सांति होवै मन अंतरि नित हिरदै हरि गुण गावै ॥४॥१॥३॥
मूलम्
जगंनाथ जगदीस गुसाई करि किरपा साधु मिलावै ॥ नानक सांति होवै मन अंतरि नित हिरदै हरि गुण गावै ॥४॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगंनाथ = जगत का नाथ। जगदीस = जगत का ईश्वर। गुसाई = धरती का पति। साधू = गुरु। अंतरि = अंदर, में। हिरदै = हृदय में। गावै = गाता है।4।
अर्थ: हे नानक! जगत का नाथ, जगत का मालिक, जगत का पति मेहर करके जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है, उस मनुष्य के मन में आत्मिक अडोलता बनी रहती है, वह मनुष्य अपने हृदय में सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।4।1।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शीर्षक के अनुसार यह शब्द बसंत और हिंडोल दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ४ हिंडोल ॥ तुम्ह वड पुरख वड अगम गुसाई हम कीरे किरम तुमनछे ॥ हरि दीन दइआल करहु प्रभ किरपा गुर सतिगुर चरण हम बनछे ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ४ हिंडोल ॥ तुम्ह वड पुरख वड अगम गुसाई हम कीरे किरम तुमनछे ॥ हरि दीन दइआल करहु प्रभ किरपा गुर सतिगुर चरण हम बनछे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गुसाई = धरती का पति। कीरे = कीड़े। किरम = छोटे छोटे कीड़े, कृमि। तुमनछे = तेरे (पैदा किए हुए)। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! बनछे = बांछे, चाहत रखते हैं।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू जगत का मालिक है, तू सबसे बड़ा पुरख है, हम तेरे पैदा किए हुए तुच्छ से जीव हैं। हे दीनों पर दया करने वाले हरि! हे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर (मुझे गुरु मिला) मैं गुरु सतिगुरु के चरणों (की धूल) की तमन्ना रखता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि करि क्रिपछे ॥ जनम जनम के किलविख मलु भरिआ मिलि संगति करि प्रभ हनछे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि करि क्रिपछे ॥ जनम जनम के किलविख मलु भरिआ मिलि संगति करि प्रभ हनछे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेलि = मिला। क्रिपछे = कृपा। किलविख = पाप। मिलि = मेलि, मिला के (साधारणतया ‘मिलि’ का अर्थ है ‘मिल के’)। हनछे = हच्छे, पवित्र जीवन वाले।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद जी! (मेरे पर) मेहर कर (मुझे साधु-) संगति में मिला। मैं अनेक जन्मों के पापों की मैल से लिबड़ा हुआ हूँ। हे प्रभु! (मुझे साधु-) संगति में मिला के पवित्र जीवन वाला बना।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरा जनु जाति अविजाता हरि जपिओ पतित पवीछे ॥ हरि कीओ सगल भवन ते ऊपरि हरि सोभा हरि प्रभ दिनछे ॥२॥
मूलम्
तुम्हरा जनु जाति अविजाता हरि जपिओ पतित पवीछे ॥ हरि कीओ सगल भवन ते ऊपरि हरि सोभा हरि प्रभ दिनछे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाति अविजाता = ऊँची जाति का चाहे नीच जाति का। पतित = विकारों में गिरा हुआ। पवीछे = पवित्र। पतित पवीछे = विकारियों को पवित्र करने वाला। ते = से। सगल भवन ते = सारे भवनों से। ऊपरि = ऊँचा। दिनछे = दी। सोभा = शोभा, महिमा, बड़ाई।2।
अर्थ: हे हरि! तेरा सेवक उच्च जाति का हो चाहे नीच जाति का, विकारियों को पवित्र करने वाला तेरा नाम जिसने जपा है, हे हरि! तूने उसको सारे जगत के जीवों से ऊँचा कर दिया। हे प्रभु! तूने उसको (लोक-परलोक की) बड़ाई बख्श दी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाति अजाति कोई प्रभ धिआवै सभि पूरे मानस तिनछे ॥ से धंनि वडे वड पूरे हरि जन जिन्ह हरि धारिओ हरि उरछे ॥३॥
मूलम्
जाति अजाति कोई प्रभ धिआवै सभि पूरे मानस तिनछे ॥ से धंनि वडे वड पूरे हरि जन जिन्ह हरि धारिओ हरि उरछे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजाति = नीच जाति। सभि मानस = सारे मनोरथ। तिनछे = उनके। पूरे = पूर्ण करता है। सो = वह (बहुवचन)। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। पूरे = गुणों से सम्पूर्ण। उरछे = हृदय में।3।
अर्थ: हे भाई! ऊँची जाति का हो चाहे नीच जाति का, जो जो भी मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करता है, उनके सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं। हे भाई! प्रभु के जिस सेवकों ने हरि-प्रभु को अपने हृदय में बसा लिया, वे भाग्यशाली हैं, वे सबसे बड़े हैं, वे पूरन पुरख हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम ढींढे ढीम बहुतु अति भारी हरि धारि क्रिपा प्रभ मिलछे ॥ जन नानक गुरु पाइआ हरि तूठे हम कीए पतित पवीछे ॥४॥२॥४॥
मूलम्
हम ढींढे ढीम बहुतु अति भारी हरि धारि क्रिपा प्रभ मिलछे ॥ जन नानक गुरु पाइआ हरि तूठे हम कीए पतित पवीछे ॥४॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढींढ = नीच। ढीम = मिट्टी का ढेला। मिलछे = मिल। प्रभ = हे प्रभु! तूठे = दयावान हुए।4।
अर्थ: हे हरि! हम जीव नीच हैं, हम मूर्ख हैं, हम पापों के भार तले दबे हुए हैं। हे हरि! मेहर कर, हमें मिल। हे दास नानक! (कह:) प्रभु दयावान हुआ हमें मिल गया, (गुरु ने) हमें विकारियों को पवित्र बना दिया।4।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मेरा इकु खिनु मनूआ रहि न सकै नित हरि हरि नाम रसि गीधे ॥ जिउ बारिकु रसकि परिओ थनि माता थनि काढे बिलल बिलीधे ॥१॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मेरा इकु खिनु मनूआ रहि न सकै नित हरि हरि नाम रसि गीधे ॥ जिउ बारिकु रसकि परिओ थनि माता थनि काढे बिलल बिलीधे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनूआ = अंजान मन। रहि न सकै = धीरज नहीं रख सकता। नाम रसि = नाम के स्वाद में। गीधे = गिझ गया है। बारिकु = छोटा बच्चा। रसकि = स्वाद से। थनि माता = माँ के थन पर। थनि काढे = यदि थन (उसके मुँह से) निकाल लिया जाए। बिलल बिलीधे = विलकने लग जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जब से मुझे गुरु मिला है, तब से) मेरा मन सदा परमात्मा के नाम के स्वाद में मस्त रहता है, अब यह मन एक छिन के वास्ते भी (उस स्वाद के बिना) रह नहीं सकता; जैसे छोटा बच्चा बड़े स्वाद से अपनी माँ के थन से चिपकता है, पर अगर थन (उसके मुँह में से) निकाल लें तो वह विलकने लग जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद जीउ मेरे मन तन नाम हरि बीधे ॥ वडै भागि गुरु सतिगुरु पाइआ विचि काइआ नगर हरि सीधे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोबिंद जीउ मेरे मन तन नाम हरि बीधे ॥ वडै भागि गुरु सतिगुरु पाइआ विचि काइआ नगर हरि सीधे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे गोबिंद जी! (संबोधन)। बीधे = भेद दिए गए हैं। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। सीधे = सिद्ध हो गया है, मिल गया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद जी! हे हरि! (गुरु की मेहर से) मेरा मन मेरा तन तेरे नाम में भेदे गए हैं। हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे गुरु सतिगुरु मिल गया है। (गुरु की कृपा से अब मैंने) अपने शरीर-नगर में ही परमात्मा को पा लिया है।1। रहाउ।
[[1179]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन के सास सास है जेते हरि बिरहि प्रभू हरि बीधे ॥ जिउ जल कमल प्रीति अति भारी बिनु जल देखे सुकलीधे ॥२॥
मूलम्
जन के सास सास है जेते हरि बिरहि प्रभू हरि बीधे ॥ जिउ जल कमल प्रीति अति भारी बिनु जल देखे सुकलीधे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने भी। है = हैं (बहुवचन)। सास सास = हर सांस के साथ। बिरहि = विरह में, प्यार भरे विछोड़े में। बीधे = भेदे हुए हैं। सुकलीधे = सूख जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त (की उम्र) की जितनी भी सांसें होती हैं, वे सारी परमात्मा के विरह में भेदित रहती हैं। जैसे कमल के फूल और पानी का बहुत ही गहरा प्यार होता है, पानी के दर्शनों के बिना कमल का फूल सूख जाता है (यही हाल होता है भक्त-जनों का)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन जपिओ नामु निरंजनु नरहरि उपदेसि गुरू हरि प्रीधे ॥ जनम जनम की हउमै मलु निकसी हरि अम्रिति हरि जलि नीधे ॥३॥
मूलम्
जन जपिओ नामु निरंजनु नरहरि उपदेसि गुरू हरि प्रीधे ॥ जनम जनम की हउमै मलु निकसी हरि अम्रिति हरि जलि नीधे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = माया के मोह की कालिख) पवित्र। नरहरि = परमात्मा। उपदेसि गुरू = गुरु के अपने उपदेश से। प्रीधे = परोस रखा, सामने दिखा दिया। निकसी = निकल गई, दूर हो गई। जलि = जल से। अंम्रिति जलि = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। नीधे = नहाए, आत्मिक स्नान किया।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक परमात्मा का पवित्र नाम (सदा) जपते हैं। गुरु ने (अपने) उपदेश से उनको परमात्मा के सामने (हर जगह बसता) दिखा दिया होता है। (नाम की इनायत से उनके अंदर से) जन्म-जनमांतरों की अहंकार की मैल दूर हो जाती है। वह आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम-जल में (सदा) स्नान करते रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरे करम न बिचरहु ठाकुर तुम्ह पैज रखहु अपनीधे ॥ हरि भावै सुणि बिनउ बेनती जन नानक सरणि पवीधे ॥४॥३॥५॥
मूलम्
हमरे करम न बिचरहु ठाकुर तुम्ह पैज रखहु अपनीधे ॥ हरि भावै सुणि बिनउ बेनती जन नानक सरणि पवीधे ॥४॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमरे = हम जीवों के। ठाकुर = हे ठाकुर! बिचरहु = विचारो। पैज = इज्जत, सत्कार। अपनीधे = अपने दास की। हरि = हे हरि! भावै = यदि तुझे ठीक लगे। बिनउ = (विनय) बिनती। पवीधे = पड़ा है।4।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! हम जीवों के (अच्छे-बुरे) कर्म ना विचारने; अपने सेवक दास की तुमने खुद इज्जत रखनी। हे दास नानक! (कह:) जैसे तुझे अच्छा लगे मेरी विनती आरज़ू सुन, मैं तेरी शरण पड़ा हूँ।4।3।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै तिलु घरि नही वासा पाईऐ ॥ गुरि अंकसु सबदु दारू सिरि धारिओ घरि मंदरि आणि वसाईऐ ॥१॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै तिलु घरि नही वासा पाईऐ ॥ गुरि अंकसु सबदु दारू सिरि धारिओ घरि मंदरि आणि वसाईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि भरमि = भटक भटक के। धावै = दौड़ता फिरता है। तिलु = रक्ती भर भी। घरि = घर में, शरीर घर में, एक ठिकाने पर, अडोलता में। वासा = निवास। नह पाईऐ = नहीं पाया जा सकता। गुरि = गुरु ने। अंकसु = हाथी को चलाने वाला लोहे का कुंडा जो महावत के हाथ में होता है। दारू = दवा। सिरि = सिर पर। धारिओ = रखा। घरि = घर में। मंदरि = मन्दिर में। आणि = ला के। वसाईऐ = बसाया जा सकता है।1।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) मन हरेक छिन भटक-भटक के (माया की खातिर) बहुत दौड़ता फिरता है, इस तरह यह रक्ती भर समय के लिए भी अपने शरीर-घर में (स्वै-स्वरूप में) टिक नहीं सकता। (गुरु का) शब्द (मन की भटकना दूर करने के लिए) दवाई (है। जैसे महावत हाथी को वश में रखने के लिए लोहे का डंडा अंकुश उसके सिर पर मारता है, वैसे ही) गुरु ने (जिस मनुष्य के) सिर पर अपना शब्द-अंकुश रख दिया, उसके मन को हृदय-घर में हृदय-मन्दिर में ला के टिका दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि हरि धिआईऐ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ हरि सहजि समाधि लगाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि हरि धिआईऐ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ हरि सहजि समाधि लगाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे प्रभु जी! (संबोधन)। मेलि = मिला। धिआईऐ = ध्याया जा सकता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाधि = जुड़ी हुई तवज्जो/ध्यान।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद जी! (मुझे) साधु-संगत में मिला। (साधु-संगत में मिल के) हे हरि! (तेरा नाम) स्मरण किया जा सकता है। हे हरि! जो मनुष्य (साधु-संगत की इनायत से) आत्मिक अडोलता में तवज्जो जोड़ता है, उसका अहंकार का रोग दूर हो जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरि रतन लाल बहु माणक लादे मनु भ्रमिआ लहि न सकाईऐ ॥ जिउ ओडा कूपु गुहज खिन काढै तिउ सतिगुरि वसतु लहाईऐ ॥२॥
मूलम्
घरि रतन लाल बहु माणक लादे मनु भ्रमिआ लहि न सकाईऐ ॥ जिउ ओडा कूपु गुहज खिन काढै तिउ सतिगुरि वसतु लहाईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि = हृदय घर में। भ्रमिआ = भटकता रहा। ओडा = सेंघा जो धरती को सूँघ के ही बता देता है कि यहाँ पुराना कूआँ मिट्टी के नीचे दबा हुआ है। कूपु = कूआँ। गुहज = छुपा हुआ। खिन = तुरन्त। सतिगुरि = गुरु से। वसतु = नाम पदार्थ। लहाईऐ = पा लेते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! (हरेक मनुष्य के हृदय-) घर में (परमात्मा की महिमा के) अनेक रत्न-लाल मोती भरे हुए हैं। (पर जब तक) मन (माया की खातिर) भटकता फिरता है, तब तक उनको पाया नहीं जा सकता। हे भाई! जैसे कोई सेंघा (धरती में) दबा हुआ (पुराना) कूआँ तुरंत ढूँढ लेता है, वैसे ही (मनुष्य के अंदर छुपा हुआ) नाम-पदारथ गुरु के माध्यम से मिल जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते ध्रिगु ध्रिगु नर जीवाईऐ ॥ जनमु पदारथु पुंनि फलु पाइआ कउडी बदलै जाईऐ ॥३॥
मूलम्
जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते ध्रिगु ध्रिगु नर जीवाईऐ ॥ जनमु पदारथु पुंनि फलु पाइआ कउडी बदलै जाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = (बहुवचन) जिन्होंने। साधु = साधे हुए मन वाला। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। पुंनि = पुण्य, किए हुए भले कर्मों के कारण। बदलै = की खातिर।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने साधे हुए मन वाला ऐसा गुरु नहीं पाया, उन मनुष्यों का जीना सदा धिक्कार-योग्य ही होता है (वे सदा ऐसे काम ही करते रहते हैं कि उनको जगत में फिटकारें पड़ती रहती हैं)। हे भाई! (ऐसे मनुष्यों ने) कीमती मनुष्य जनम पिछली की नेक कमाई के फल के कारण पा तो लिया, पर अब वह जनम कौड़ी के मोल (व्यर्थ गवाए) जा रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुसूदन हरि धारि प्रभ किरपा करि किरपा गुरू मिलाईऐ ॥ जन नानक निरबाण पदु पाइआ मिलि साधू हरि गुण गाईऐ ॥४॥४॥६॥
मूलम्
मधुसूदन हरि धारि प्रभ किरपा करि किरपा गुरू मिलाईऐ ॥ जन नानक निरबाण पदु पाइआ मिलि साधू हरि गुण गाईऐ ॥४॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मधुसूदन = (‘मधु’ राक्षस को मारने वाला) हे दुष्ट दमन परमात्मा! करि = कर के। निरबाण पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती, वासना रहित आत्मिक दर्जा। मिलि साधू = गुरु को मिल के।4।
अर्थ: हे दुष्ट-दमन हरि! हे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर। कृपा करके (मुझे) गुरु से मिला। हे दास नानक! (कह: जो मनुष्य) गुरु को मिल के परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य ऐसी आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।4।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ आवण जाणु भइआ दुखु बिखिआ देह मनमुख सुंञी सुंञु ॥ राम नामु खिनु पलु नही चेतिआ जमि पकरे कालि सलुंञु ॥१॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ आवण जाणु भइआ दुखु बिखिआ देह मनमुख सुंञी सुंञु ॥ राम नामु खिनु पलु नही चेतिआ जमि पकरे कालि सलुंञु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवण जाणु = जनम मरण का चक्कर। बिखिआ = माया (के मोह के कारण)। देह = शरीर। मनमुख देह = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य का शरीर। सुंञी = सूनी, (काया नाम के) बग़ैर। सुंञु = (नाम से) बग़ैर खालीपन। जमि = जम ने। कालि = काल ने, मौत ने, आत्मिक मौत ने। सलुंञु = केसों समेत, केसों से।1।
अर्थ: हे भाई! माया (के मोह) के कारण अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का जनम-मरण का चक्कर बना रहता है उन्हें कष्ट बना रहता है, उनका शरीर नाम से वंचित रहता है, उनके अंदर नाम की शुन्यता बनी रहती है। वे मनुष्य परमात्मा का नाम एक छिन के लिए भी एक पल के लिए भी याद नहीं करते। आत्मिक मौत ने हर वक्त उनको सिर से पकड़ा हुआ होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद जीउ बिखु हउमै ममता मुंञु ॥ सतसंगति गुर की हरि पिआरी मिलि संगति हरि रसु भुंञु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोबिंद जीउ बिखु हउमै ममता मुंञु ॥ सतसंगति गुर की हरि पिआरी मिलि संगति हरि रसु भुंञु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे गोबिंद जी! (संबोधन)। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। ममता = अपनत्व। मुंञु = दूर कर। मिलि = मिल के। भुंञु = मैं भुंचूँ, मैं भोगूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) गोबिंद जी! (मेरे अंदर से आत्मिक मौत लाने वाली) अहंकार और ममता का जहर दूर कर। हे हरि! साधु-संगत तेरी प्यारी है गुरु की प्यारी है। (मेहर कर) मैं साधु-संगत में मिल के तेरे नाम का रस लेता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतसंगति साध दइआ करि मेलहु सरणागति साधू पंञु ॥ हम डुबदे पाथर काढि लेहु प्रभ तुम्ह दीन दइआल दुख भंञु ॥२॥
मूलम्
सतसंगति साध दइआ करि मेलहु सरणागति साधू पंञु ॥ हम डुबदे पाथर काढि लेहु प्रभ तुम्ह दीन दइआल दुख भंञु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सत संगति साध = गुरु की सत्संगति। करि = कर के। साधू = गुरु। पंञु = मैं पड़ा रहूँ। प्रभ = हे प्रभु! दुख भंञु = दुख भंजु, दुखों का नाश करने वाला।2।
अर्थ: हे प्रभु! मेहर कर के (मुझे) गुरु की सत्संगति में मिलाए रख, मैं गुरु की शरण (सदा) पड़ा रहूँ। हे प्रभु! (पापों से भारी) पत्थर (हो चुके) हम जीवों को (पापों में) डूब रहों को निकाल ले। हे प्रभु जी! तुम दीनों पर दया करने वाले हो, तुम हमारे दुख नाश करने वाले हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि उसतति धारहु रिद अंतरि सुआमी सतसंगति मिलि बुधि लंञु ॥ हरि नामै हम प्रीति लगानी हम हरि विटहु घुमि वंञु ॥३॥
मूलम्
हरि उसतति धारहु रिद अंतरि सुआमी सतसंगति मिलि बुधि लंञु ॥ हरि नामै हम प्रीति लगानी हम हरि विटहु घुमि वंञु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = महिमा। रिद अंतरि = (मेरे) हृदय में। सुआमी = हे स्वामी! बुधि = (मेरी) बुद्धि। लंञु = रौशन हो जाए। हरि नामै = हरि नाम में। विटहु = से। घुमि वंञु = मैं सदके जाता हूँ।3।
अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! (अपनी) महिमा (मेरे) हृदय में बसाए रख। (मेहर कर) तेरी साधु-संगत में मिल के (मेरी) बुद्धि (तेरे नाम की रौशनी से) रौशन हो जाए। हे भाई! परमात्मा के नाम में मेरी प्रीति बन गई है, मैं (अब) परमात्मा से (सदा) सदके जाता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन के पूरि मनोरथ हरि प्रभ हरि नामु देवहु हरि लंञु ॥ जन नानक मनि तनि अनदु भइआ है गुरि मंत्रु दीओ हरि भंञु ॥४॥५॥७॥१२॥१८॥७॥३७॥
मूलम्
जन के पूरि मनोरथ हरि प्रभ हरि नामु देवहु हरि लंञु ॥ जन नानक मनि तनि अनदु भइआ है गुरि मंत्रु दीओ हरि भंञु ॥४॥५॥७॥१२॥१८॥७॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरि = पूरे कर। हरि प्रभ = हे हरि! हे प्रभु! लंञु = (आत्मिक) रौशनी। मनि = मन में। तनि = तन में। गुरि = गुरु ने। हरि भंञु = हरि भजन, हरि नाम।4।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! (मुझ) सेवक के उद्देश्य पूरे कर, मुझे अपना नाम बख्श, (तेरा नाम ही मेरे वास्ते) प्रकाश (है)। हे दास नानक! (कह: जिस मनुष्य को) गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र बख्शा है, उसके मन में उसके तन में आत्मिक उमंग बन गई।4।5।7।37।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ घरु १ दुतुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु महला ५ घरु १ दुतुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सेवउ करि नमसकार ॥ आजु हमारै मंगलचार ॥ आजु हमारै महा अनंद ॥ चिंत लथी भेटे गोबिंद ॥१॥
मूलम्
गुरु सेवउ करि नमसकार ॥ आजु हमारै मंगलचार ॥ आजु हमारै महा अनंद ॥ चिंत लथी भेटे गोबिंद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवउ = मैं सेवा करता हूँ। करि = कर के। आजु = अब जबकि मैंने प्रभु के गुण गाए हैं। हमारै = मेरे हृदय में। मंगलचार = आनंद का समय। महा = बड़ा। लथी = उतर गई है, दूर हो गई है। भेटै = मिल गए हैं।1।
अर्थ: हे भाई! (गुण गाने की इनायत से) मुझे गोबिंद जी मिल गए हैं, मेरी चिन्ता दूर हो गई है, अब मेरे हृदय में बहुत आनंद बन गया है, अब मेरे अंदर खुशियां ही खुशियां हैं। (हे भाई! यह सारी मेहर गुरु की ही है, इस वास्ते) मैं गुरु के आगे सीस झुका के गुरु की सेवा करता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजु हमारै ग्रिहि बसंत ॥ गुन गाए प्रभ तुम्ह बेअंत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आजु हमारै ग्रिहि बसंत ॥ गुन गाए प्रभ तुम्ह बेअंत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमारै ग्रिहि = मेरे हृदय घर में। बसंत = खिलाव, खुशी, आत्मिक आनंद। प्रभ बेअंत = हे बेअंत प्रभु! 1। रहाउ।
अर्थ: हे बेअंत प्रभु! जब से मैंने तेरी महिमा के गीत गाने शुरू किए हैं, तब से अब मेरे हृदय-घर में आत्मिक आनंद बना रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजु हमारै बने फाग ॥ प्रभ संगी मिलि खेलन लाग ॥ होली कीनी संत सेव ॥ रंगु लागा अति लाल देव ॥२॥
मूलम्
आजु हमारै बने फाग ॥ प्रभ संगी मिलि खेलन लाग ॥ होली कीनी संत सेव ॥ रंगु लागा अति लाल देव ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय में। फाग = फागुन का महीना, फागुन महीने का त्यौहार, होली। प्रभ संगी = प्रभु के संगी साथी, संत जन। मिलि = मिल के। संत सेव = संत जनों की सेवा। अति = बहुत गाढ़ी। रंगु देव = प्रभु देव के प्यार रंग।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की महिमा की इनायत से) मेरे अंदर (मानो) फागुन की होली बनी हुई है, प्रभु के संत-जन (साधु-संगत में) मिल के (ये होली) खेलने लग पड़े हैं। (हे भाई! यह होली क्या है?) संत जनों की सेवा को मैंने होली बनाया है (संतजनों की संगति की इनायत से) मेरे साथ परमात्मा के प्यार का गाढ़ा (आत्मिक) रंग चढ़ गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु मउलिओ अति अनूप ॥ सूकै नाही छाव धूप ॥ सगली रूती हरिआ होइ ॥ सद बसंत गुर मिले देव ॥३॥
मूलम्
मनु तनु मउलिओ अति अनूप ॥ सूकै नाही छाव धूप ॥ सगली रूती हरिआ होइ ॥ सद बसंत गुर मिले देव ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउलिओ = खिल उठा है, आत्मिक जीवन देने वाला बन गया है। अनूप = सुंदर। सूकै नाही = आत्मिक जीवन की तरावट खत्म नहीं होती। छाव धूप = सुख दुख वक्त। सगली रूती = सारी ऋतुओं में, हर समय। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। गुर मिले देव = गुरुदेव जी मिल गए हैं। सद बसंत = सदा आत्मिक खिलाव।3।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के गुण गाने की इनायत से) मेरा मन सुंदर खिल उठा है मेरा तन बहुत सुंदर पुल्कित हो गया है। अब सुख हों चाहे दुख हों (मेरे तन में) आत्मिक उमंग की तरावट कभी समाप्त नहीं होती। (अब मेरा मन) सारे समय ही आत्मिक जीवन से भरपूर रहता है। मुझे गुरदेव जी मिल गए हैं, मेरे अंदर सदा खिलाव बना रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरखु जमिओ है पारजात ॥ फूल लगे फल रतन भांति ॥ त्रिपति अघाने हरि गुणह गाइ ॥ जन नानक हरि हरि हरि धिआइ ॥४॥१॥
मूलम्
बिरखु जमिओ है पारजात ॥ फूल लगे फल रतन भांति ॥ त्रिपति अघाने हरि गुणह गाइ ॥ जन नानक हरि हरि हरि धिआइ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरखु = वृक्ष। जमिओ है = उग गया है। पारजात बिरखु = पारजात वृक्ष, मनोकामना पूरी करने वाला स्वर्ग का वृक्ष। भांति = कई किस्मों के। त्रिपति अघाने = (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं। गाइ = गा के। धिआइ = स्मरण करके।4।
अर्थ: हे भाई! (महिमा की इनायत से मेरे अंदर से, जैसे, सारी मनोकामना पूरी करने वाला स्वर्ग वाला) पारजात वृक्ष उग गया है, जिसको भांति-भांति के कीमती फूल और फल लगे हुए हैं। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम स्मरण करके, सदा हरि के गुण गा-गा के (मनुष्य माया के मोह से) पूरी तरह से तृप्त हो जाते हैं।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ हटवाणी धन माल हाटु कीतु ॥ जूआरी जूए माहि चीतु ॥ अमली जीवै अमलु खाइ ॥ तिउ हरि जनु जीवै हरि धिआइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ हटवाणी धन माल हाटु कीतु ॥ जूआरी जूए माहि चीतु ॥ अमली जीवै अमलु खाइ ॥ तिउ हरि जनु जीवै हरि धिआइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हटवाणी = दुकान दार। हाटु = दुकान। कीतु = करता है। माहि = में। अमली = नशेड़ी, अफीमची। खाइ = खा के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। धिआइ = स्मरण करके। अपनै रंगि = अपने मन भाते स्वाद में।1।
अर्थ: हे भाई! (जैसे कोई) दुकानदार (अपने मन-पसंद के) धन-माल की दुकान चलाता है, (जैसे किसी) जुआरिए का मन जूए में मगन रहता है, जैसे कोई अफीमची अफीम खा के सुख प्रतीत करता है, वैसे परमात्मा का भक्त परमात्मा का नाम स्मरण करके आत्मिक जीवन हासिल करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपनै रंगि सभु को रचै ॥ जितु प्रभि लाइआ तितु तितु लगै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अपनै रंगि सभु को रचै ॥ जितु प्रभि लाइआ तितु तितु लगै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। रचै = मस्त रहता है। जितु = जिस (रंग) में। प्रभि = प्रभु ने। तितु = उस (रंग) में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हरेक जीव अपने-अपने मन-भाते स्वाद में मस्त रहता है, (पर) प्रभु ने (ही) जिस (स्वाद) में लगाया है, उस उस (स्वाद) में (हरेक जीव) लगा रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघ समै मोर निरतिकार ॥ चंद देखि बिगसहि कउलार ॥ माता बारिक देखि अनंद ॥ तिउ हरि जन जीवहि जपि गोबिंद ॥२॥
मूलम्
मेघ समै मोर निरतिकार ॥ चंद देखि बिगसहि कउलार ॥ माता बारिक देखि अनंद ॥ तिउ हरि जन जीवहि जपि गोबिंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेघ = बादल। निरतकार = (नृत्य = to dance) नाच, पैल। देखि = देख के। बिगसहि = खिलती हैं। कउलार = कुसुम। हरि जन = परमात्मा के भक्त। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं (बहुवचन)। जपि = जप के।2।
अर्थ: हे भाई! घटाएं चढ़ती हैं और मोर नृत्य करते हैं, चाँद को देख के कुसम खिलती हैं, (अपने) बच्चे को देख के माँ खुश होती है, वैसे ही परमात्मा का नाम जप के परमात्मा के भक्त आत्मिक उत्साह में आते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंघ रुचै सद भोजनु मास ॥ रणु देखि सूरे चित उलास ॥ किरपन कउ अति धन पिआरु ॥ हरि जन कउ हरि हरि आधारु ॥३॥
मूलम्
सिंघ रुचै सद भोजनु मास ॥ रणु देखि सूरे चित उलास ॥ किरपन कउ अति धन पिआरु ॥ हरि जन कउ हरि हरि आधारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिंघ = शेर। रुचै = खुश होता है। सद = सदा। रणु = युद्ध। सूर = शूरवीर। उलास = उल्लास, जोश। किरपन = कंजूस। आधारु = आसरा।3।
अर्थ: हे भाई! मास का भोजन मिले तो शेर सदा खुश होता है, युद्ध देख के शूरवीर के चिक्त को जोश आता है, कंजूस को धन का बहुत लोभ होता है। (वैसे ही) परमात्मा के भक्त को परमात्मा के नाम का आसरा होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब रंग इक रंग माहि ॥ सरब सुखा सुख हरि कै नाइ ॥ तिसहि परापति इहु निधानु ॥ नानक गुरु जिसु करे दानु ॥४॥२॥
मूलम्
सरब रंग इक रंग माहि ॥ सरब सुखा सुख हरि कै नाइ ॥ तिसहि परापति इहु निधानु ॥ नानक गुरु जिसु करे दानु ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सारे। इक रंग माहि = एक नाम रंग में। नाइ = नाम रंग में। नाइ = नाम में। हरि के नाइ = हरि के नाम में। तिसहि = उस (मनुष्य) को ही। निधानु = (नामु) खजाना। करे दान = ख़ैर डालता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! (दुनिया के) सारे स्वाद परमात्मा के नाम के स्वाद में ही आ जाते हैं (नाम-रस से घटिया हैं)। सारे बड़े से बड़े सुख परमात्मा के नाम में ही हैं। हे नानक! यह नाम-खजाना उस मनुष्य को ही मिलता है, जिसको गुरु देता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ तिसु बसंतु जिसु प्रभु क्रिपालु ॥ तिसु बसंतु जिसु गुरु दइआलु ॥ मंगलु तिस कै जिसु एकु कामु ॥ तिसु सद बसंतु जिसु रिदै नामु ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ तिसु बसंतु जिसु प्रभु क्रिपालु ॥ तिसु बसंतु जिसु गुरु दइआलु ॥ मंगलु तिस कै जिसु एकु कामु ॥ तिसु सद बसंतु जिसु रिदै नामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसंतु = खिलाव, उमंग। मंगलु = आनंद, खुशी। तिस कै = उस (मनुष्य) के हृदय में। कामु = काम। सद = सदा। रिदै = हृदय में।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! आत्मिक खिलाव उस मनुष्य को प्राप्त होता है, जिस पर प्रभु दयावान होता है, जिस पर गुरु दयावान होता है। हे भाई! उस मनुष्य के हृदय में खुशी पैदा होती है, जिसको एक हरि-नाम स्मरण का सदा आहर रहता है। उस मनुष्य को खिलाव सदा ही मिला रहता है जिसके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रिहि ता के बसंतु गनी ॥ जा कै कीरतनु हरि धुनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ग्रिहि ता के बसंतु गनी ॥ जा कै कीरतनु हरि धुनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिहि ता के = उस मनुष्य के हृदय में। गनी = मैं गिनता हूँ, मैं समझता हूँ। जा कै = जिसके हृदय में। कीरतनु = महिमा के गीत। धुनी = धुनि, लगन, प्यार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं तो उस मनुष्य के हृदय में उमंग (खिड़ाव पैदा हुआ) समझता हूँ, जिसके हृदय में प्रभु की महिमा टिकी हुई है, जिसके हृदय में परमात्मा (के नाम) की लगन है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति पारब्रहम मउलि मना ॥ गिआनु कमाईऐ पूछि जनां ॥ सो तपसी जिसु साधसंगु ॥ सद धिआनी जिसु गुरहि रंगु ॥२॥
मूलम्
प्रीति पारब्रहम मउलि मना ॥ गिआनु कमाईऐ पूछि जनां ॥ सो तपसी जिसु साधसंगु ॥ सद धिआनी जिसु गुरहि रंगु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउलि = खिला रह। मना = हे मन! गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। पूछि जनां = संत जनों से पूछ के। साध संगु = गुरु का संग। धिआनी = जुड़े मन वाला। गुरहि रंगु = गुरु का प्यार।2।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा (के चरणों) के साथ प्रीति डाल के सदा खिला रह। हे मन! संत-जनों को पूछ के आत्मिक जीवन की सूझ हासिल की जाती है। हे भाई! (असल) तपस्वी वह मनुष्य है जिसको गुरु की संगति प्राप्त होती है, वह मनुष्य सदा जुड़ी हुई तवज्जो वाला जानो, जिसके अंदर गुर (-चरणों) का प्यार है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से निरभउ जिन्ह भउ पइआ ॥ सो सुखीआ जिसु भ्रमु गइआ ॥ सो इकांती जिसु रिदा थाइ ॥ सोई निहचलु साच ठाइ ॥३॥
मूलम्
से निरभउ जिन्ह भउ पइआ ॥ सो सुखीआ जिसु भ्रमु गइआ ॥ सो इकांती जिसु रिदा थाइ ॥ सोई निहचलु साच ठाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। भउ = (परमात्मा का) डर। सो = वह मनुष्य (एकवचन)। भ्रमु = भटकना। इकांती = एकांत जगह में रहने वाला। रिदा = हृदय। थाइ = एक जगह पर, शांत। निहचलु = अडोल चिक्त। साच ठाइ = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के चरणों में। ठाइ = जगह में।3।
अर्थ: हे भाई! वह लोग (दुनिया के) डरों से ऊपर हैं जिनके मन में परमात्मा का डर बसता है। वह मनुष्य सुखी जीवन वाला है जिस (के मन) की भटकना दूर हो गई। सिर्फ वह मनुष्य एकांत जगह में रहता है जिसका हृदय शांत है (एक जगह पर टिका हुआ है)। वही मनुष्य अडोल चिक्त वाला है, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका खोजै एक प्रीति ॥ दरसन परसन हीत चीति ॥ हरि रंग रंगा सहजि माणु ॥ नानक दास तिसु जन कुरबाणु ॥४॥३॥
मूलम्
एका खोजै एक प्रीति ॥ दरसन परसन हीत चीति ॥ हरि रंग रंगा सहजि माणु ॥ नानक दास तिसु जन कुरबाणु ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजै = खोजता है। परसन = छूह। हीत = हित, चाहत, प्यार। चीति = चिक्त में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। कुरबाणु = सदके।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) मैं उस मनुष्य पर से बलिहार जाता हूँ, जो (हर जगह) एक परमात्मा को ही तलाशता है, जिसके मन में एक परमात्मा का ही प्यार है, जिसके चिक्त में एक प्रभु के दर्शनों की छूह की तमन्ना है, जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के सब रसों से श्रेष्ठ हरि-नाम-रस भोगता है।4।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ जीअ प्राण तुम्ह पिंड दीन्ह ॥ मुगध सुंदर धारि जोति कीन्ह ॥ सभि जाचिक प्रभ तुम्ह दइआल ॥ नामु जपत होवत निहाल ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ जीअ प्राण तुम्ह पिंड दीन्ह ॥ मुगध सुंदर धारि जोति कीन्ह ॥ सभि जाचिक प्रभ तुम्ह दइआल ॥ नामु जपत होवत निहाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जिंद। पिंडु = शरीर। मुगध = मूर्ख। धारि = धार के, टिका के। सभि = सारे (जीव)। जाचिक = भिखारी। निहाल = प्रसन्न चिक्त।1।
अर्थ: हे प्रभु! (सब जीवों को) जिंद, प्राण, शरीर तूने ही दिए हैं। अपनी ज्योति तूने (शरीरों में) टिका के मूर्खों को सुंदर बना दिया है। हे प्रभु! सारे जीव (तेरे दर पर) भिखारी हैं, तू सब के ऊपर दया करने वाला है। तेरा नाम जपते हुए जीव प्रसन्न-चिक्त हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे प्रीतम कारण करण जोग ॥ हउ पावउ तुम ते सगल थोक ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे प्रीतम कारण करण जोग ॥ हउ पावउ तुम ते सगल थोक ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! करण = जगत। जोग = सामर्थ्य वाला। हउ = मैं। पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य वाले! हे मेरे प्रीतम! मैं तेरे दास से सारे पदार्थ हासिल कर सकता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु जपत होवत उधार ॥ नामु जपत सुख सहज सार ॥ नामु जपत पति सोभा होइ ॥ नामु जपत बिघनु नाही कोइ ॥२॥
मूलम्
नामु जपत होवत उधार ॥ नामु जपत सुख सहज सार ॥ नामु जपत पति सोभा होइ ॥ नामु जपत बिघनु नाही कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधार = पार उतारा। सहज = आत्मिक अडोलता। पति = इज्जत। बिघनु = रुकावट।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (जगत से) पार-उतारा होता है, आत्मिक अडोलता के श्रेष्ठ सुख प्राप्त हो जाते हैं, (लोक-परलोक में) इज्जत शोभा मिलती है, (जीवन-यात्रा में विकारों से) कोई रुकावट नहीं पड़ती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कारणि इह दुलभ देह ॥ सो बोलु मेरे प्रभू देहि ॥ साधसंगति महि इहु बिस्रामु ॥ सदा रिदै जपी प्रभ तेरो नामु ॥३॥
मूलम्
जा कारणि इह दुलभ देह ॥ सो बोलु मेरे प्रभू देहि ॥ साधसंगति महि इहु बिस्रामु ॥ सदा रिदै जपी प्रभ तेरो नामु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कारणि = जा बोल कारणि, जिस हरि नाम की खातिर। दुलभ = मुश्किलों से मिलने वाली। देह = शरीर। प्रभ = हे प्रभु! बिस्रामु = टिकाणा। रिदै = हृदय में। जपी = मैं जपूँ। प्रभ = हे प्रभु!।3।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! जिस हरि-नाम को जपने के लिए (तेरा मेहर से) ये दुर्लभ मनुष्य-शरीर मिला हुआ है, वह हरि-नाम मुझे बख्श। (मेरा) यह (मन) साधु-संगत में ठिकाना प्राप्त किए रहें। हे प्रभु! (मेहर कर) मैं सदा तेरा नाम जपता रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुझ बिनु दूजा कोइ नाहि ॥ सभु तेरो खेलु तुझ महि समाहि ॥ जिउ भावै तिउ राखि ले ॥ सुखु नानक पूरा गुरु मिले ॥४॥४॥
मूलम्
तुझ बिनु दूजा कोइ नाहि ॥ सभु तेरो खेलु तुझ महि समाहि ॥ जिउ भावै तिउ राखि ले ॥ सुखु नानक पूरा गुरु मिले ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु खेलु = सारा जगत तमाशा। समाहि = (सारे जीव) लीन हो जाते हैं (बहुवचन)।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे बिना मेरा कोई और (आसरा) नहीं है। ये सारा जगत-तमाशा तेरा ही बनाया हुआ है। सारे जीव तेरे में ही लीन हो जाते हैं। जैसे तुझे अच्छा लगे (मेरी) रक्षा कर। हे नानक! जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, उासको आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ प्रभ प्रीतम मेरै संगि राइ ॥ जिसहि देखि हउ जीवा माइ ॥ जा कै सिमरनि दुखु न होइ ॥ करि दइआ मिलावहु तिसहि मोहि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ प्रभ प्रीतम मेरै संगि राइ ॥ जिसहि देखि हउ जीवा माइ ॥ जा कै सिमरनि दुखु न होइ ॥ करि दइआ मिलावहु तिसहि मोहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै संगि = मेरे साथ। राइ = राजा, बादशाह। देखि = देख के। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। माइ = (माय) हे माँ! सिमरनि = स्मरण से। जा कै सिमरनि = जिस के स्मरण से। मोहि = मुझे। करि = कर के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! प्रीतम प्रभु, प्रभु पातशाह (वैसे तो हर वक्त) मेरे साथ बसता है (पर मुझे दिखाई नहीं देता)। हे माँ! मेहर करके मुझे उस प्रभु से मिला दे, जिसको देख के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर सकूँ, जिसके स्मरण से कोई दुख छू नहीं सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे प्रीतम प्रान अधार मन ॥ जीउ प्रान सभु तेरो धन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे प्रीतम प्रान अधार मन ॥ जीउ प्रान सभु तेरो धन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! प्रान अधार मन = हे मेरे प्राणों और मन के आसरे! जीउ = जिंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे मेरी जिंद और मन के आसरे प्रभु! मेरी ये जिंद मेरे यह प्राण- सब कुछ तेरा ही दी हुई संपत्ति है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ खोजहि सुरि नर देव ॥ मुनि जन सेख न लहहि भेव ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ घटि घटि घटि घटि रहिआ समाइ ॥२॥
मूलम्
जा कउ खोजहि सुरि नर देव ॥ मुनि जन सेख न लहहि भेव ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ घटि घटि घटि घटि रहिआ समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (परमात्मा) को। सुरि नर = देवी गुणों वाले मनुष्य। देव = देवता। सेख = शेष नाग। न लहहि = नहीं पा सकते (बहुवचन)। भेव = भेद। गति = हालत। मिति = माप। जा की गति मिति = जिसकी आत्मिक उच्चता और जिसका बड़प्पन। घटि घटि = हरेक शरीर में।2।
अर्थ: हे माँ! जिस परमात्मा को दैवी गुणों वाले मनुष्य और देवते तलाशते रहते हैं, जिसका भेद मुनि जन और शेष-नाग भी नहीं पा सकते, जिसकी उच्च आत्मिक अवस्था और बड़प्पन बयान नहीं किए जा सकते, हे माँ! वह परमात्मा हरेक शरीर में व्याप रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा के भगत आनंद मै ॥ जा के भगत कउ नाही खै ॥ जा के भगत कउ नाही भै ॥ जा के भगत कउ सदा जै ॥३॥
मूलम्
जा के भगत आनंद मै ॥ जा के भगत कउ नाही खै ॥ जा के भगत कउ नाही भै ॥ जा के भगत कउ सदा जै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आनंद मै = आनंदमय, आनन्द स्वरूप, आनंद भरपूर। खै = क्षय, नाश, आत्मिक मौत। भै = दुनिया के डर। जै = जीत, विकारों से मुकाबले में विजय।3।
अर्थ: हे माँ! जिस परमात्मा के भक्त सदा आनंद-भरपूर रहते हैं, जिस परमात्मा के भक्तों को कभी आत्मिक मौत नहीं आती, जिस परमात्मा के भक्तों को (दुनिया का कोई) डर सता नहीं सकता, जिस परमात्मा के भक्तों की (विकारों के मुकाबले में) सदा जीत होती है (वह परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउन उपमा तेरी कही जाइ ॥ सुखदाता प्रभु रहिओ समाइ ॥ नानकु जाचै एकु दानु ॥ करि किरपा मोहि देहु नामु ॥४॥५॥
मूलम्
कउन उपमा तेरी कही जाइ ॥ सुखदाता प्रभु रहिओ समाइ ॥ नानकु जाचै एकु दानु ॥ करि किरपा मोहि देहु नामु ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपमा = कीर्ति, बड़ाई। रहिओ समाइ = सब जगह मौजूद है। जाचै = जाचना करता है, माँगता है। दानु = ख़ैर। मोहि = मुझे।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी कोई उपमा कही नहीं जा सकती (तेरे जैसा कोई कहा नहीं जा सकता)। तू (सब जीवों को) सुख देने वाला मालिक है, तू हर जगह मौजूद है। हे प्रभु! (तेरे पास से) एक ख़ैर माँगता हूँ- मेहर करके मुझे अपना नाम बख्श।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ मिलि पाणी जिउ हरे बूट ॥ साधसंगति तिउ हउमै छूट ॥ जैसी दासे धीर मीर ॥ तैसे उधारन गुरह पीर ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ मिलि पाणी जिउ हरे बूट ॥ साधसंगति तिउ हउमै छूट ॥ जैसी दासे धीर मीर ॥ तैसे उधारन गुरह पीर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। बूट = पौधे। छूट = समाप्त हो जाती है। दासे = दास को। धीर = धैर्य, हौसला, सहारा। मीर = मालिक (का)। गुरह पीर = गुरु पीर। उधारन = उद्धार के लिए आसरा।1।
अर्थ: हे भाई! जैसे पानी को मिल के पौधे हरे हो जाते हैं (और, उसका सूखापन समाप्त हो जाता है) वैसे ही साधु-संगत में मिल के (मनुष्य के अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है। हे भाई! जैसे किसी दास को अपने मालिक का धैर्य होता है, वैक्से ही गुरु-पीर (जीवों को) पार उतारने के लिए आसरा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम दाते प्रभ देनहार ॥ निमख निमख तिसु नमसकार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम दाते प्रभ देनहार ॥ निमख निमख तिसु नमसकार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देनहार = सब कुछ दे सकने वाले। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। तिसु = उस (परमात्मा) को।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तू (जीवों को) सब कुछ दे सकने वाला दातार है। हे भाई! मैं पल-पल उस (दातार प्रभु) को नमस्कार करता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसहि परापति साधसंगु ॥ तिसु जन लागा पारब्रहम रंगु ॥ ते बंधन ते भए मुकति ॥ भगत अराधहि जोग जुगति ॥२॥
मूलम्
जिसहि परापति साधसंगु ॥ तिसु जन लागा पारब्रहम रंगु ॥ ते बंधन ते भए मुकति ॥ भगत अराधहि जोग जुगति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगु = गुरु का साथ। रंगु = प्यार। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। ते = से। बंधन ते = माया के मोह के बंधनो से। अराधहि = जपते हैं, स्मरण करते हैं। जोग = मिलाप। जोग जुगति = परमात्मा के साथ मिलाप का तरीका।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की संगति प्राप्त होती है, उस मनुष्य (के मन) को परमात्मा का प्रेम-रंग चढ़ जाता है। हे भाई! (जिस मनुष्यों को नाम-रंग चढ़ जाता है) वे मनुष्य माया के मोह के बंधनो से मुक्ति हासिल कर लेते हैं। परमात्थ्मा के भक्त परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं: यही उसके साथ मिलाप का सही तरीका है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेत्र संतोखे दरसु पेखि ॥ रसना गाए गुण अनेक ॥ त्रिसना बूझी गुर प्रसादि ॥ मनु आघाना हरि रसहि सुआदि ॥३॥
मूलम्
नेत्र संतोखे दरसु पेखि ॥ रसना गाए गुण अनेक ॥ त्रिसना बूझी गुर प्रसादि ॥ मनु आघाना हरि रसहि सुआदि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। नेत्र संतोखे = आँखों को (पराया रूप ताकने के ललक से) संतोष आ जाता है। पेखि = देख के। रसना = जीभ। गाए = गाती है। बूझी = मिट जाती है। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। आघाना = तृप्त हो जाता है। हरि रसहि सुआदि = हरि नाम रस के स्वाद से।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन कर के (मनुष्य की) आँखों को (पराया रूप देखने की लालसा खत्म हो जाती है) संतोष आ जाता है। (ज्यों-ज्यों मनुष्य की) जीभ परमात्मा के अनेक गुण गाती है, गुरु की कृपा से (उसके अंदर से माया की) तृष्णा (-अग्नि) बुझ जाती है, उसका मन हरि-नाम-रस के स्वाद से (माया के प्रति) तृप्त हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवकु लागो चरण सेव ॥ आदि पुरख अपर्मपर देव ॥ सगल उधारण तेरो नामु ॥ नानक पाइओ इहु निधानु ॥४॥६॥
मूलम्
सेवकु लागो चरण सेव ॥ आदि पुरख अपर्मपर देव ॥ सगल उधारण तेरो नामु ॥ नानक पाइओ इहु निधानु ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = हे सारे जगत के मूल! पुरख = हे सर्व व्यापक! अपरंपर = हे परे से परे! सगल उधारण = सारे जीवों का पार उतारा करने वाले। निधानु = खजाना।4।
अर्थ: हे सबके आदि प्रभु! हे सर्व-व्यापक प्रभु! हे परे से परे प्रभु! हे प्रकाश-रूप प्रभु! तेरा नाम सब जीवों का पार-उतारा (उद्धार) करने वाला है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! जो तेरा) सेवक (तेरे) चरणों की सेवा में लगता है, उसको (तेरा) ये नाम-खजाना मिल जाता है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ तुम बड दाते दे रहे ॥ जीअ प्राण महि रवि रहे ॥ दीने सगले भोजन खान ॥ मोहि निरगुन इकु गुनु न जान ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ तुम बड दाते दे रहे ॥ जीअ प्राण महि रवि रहे ॥ दीने सगले भोजन खान ॥ मोहि निरगुन इकु गुनु न जान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दे रहे = (दातें) दे रहा है। रवि रहे = मौजूद है, व्यापक है। खान = खाने के लिए। मोहि निरगुन = मैं गुणहीन ने। गुनु = उपकार। न जान = नहीं समझा।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू सबसे बड़ा दाता है, (सब जीवों को तू सब पदार्थ) दे रहा है, तू सबकी जिंद में सबके प्राणों में व्यापक है। तू खाने के लिए सारे पदार्थ दे रहा है, पर, मैंने गुणहीन ने तेरा एक भी उपकार नहीं समझा।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ कछू न जानउ तेरी सार ॥ तू करि गति मेरी प्रभ दइआर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ कछू न जानउ तेरी सार ॥ तू करि गति मेरी प्रभ दइआर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। न जानउ = मैं नहीं जानता। सार = कद्र। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। प्रभ दइआर = हे दयालु प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे दयालु प्रभु! मैं तेरी रक्ती भर भी कद्र नहीं जानता, (मेहर कर) मुझे ऊँची आत्मिक अवस्था दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाप न ताप न करम कीति ॥ आवै नाही कछू रीति ॥ मन महि राखउ आस एक ॥ नाम तेरे की तरउ टेक ॥२॥
मूलम्
जाप न ताप न करम कीति ॥ आवै नाही कछू रीति ॥ मन महि राखउ आस एक ॥ नाम तेरे की तरउ टेक ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = (निहित हुए धार्मिक) कर्म। कीति = किए। रीति = (धार्मिक) रस्म। राखउ = मैं रखता हूँ। तरउ = मैं तैरता हूँ, मैं पार लांघ जाऊँगा। टेक = आसरे।2।
अर्थ: हे प्रभु! मैंने कोई जप नहीं किए, मैंने कोई तप नहीं किए; कोई धार्मिक रीति-रस्म भी करनी मुझे नहीं आती। पर, हे प्रभु! मैं अपने मन में सिर्फ ये आस रखे बैठा हूँ, कि तेरे नाम के आसरे मैं (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाऊँगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब कला प्रभ तुम्ह प्रबीन ॥ अंतु न पावहि जलहि मीन ॥ अगम अगम ऊचह ते ऊच ॥ हम थोरे तुम बहुत मूच ॥३॥
मूलम्
सरब कला प्रभ तुम्ह प्रबीन ॥ अंतु न पावहि जलहि मीन ॥ अगम अगम ऊचह ते ऊच ॥ हम थोरे तुम बहुत मूच ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कला = सत्ता, हुनर। प्रबीन = प्रवीण, समझदार, पूर्ण। जलहि मीन = जल की मछलियां। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। ते = से। थोरे = थोड़े चिक्त वाले, छोटी सोच वाले। मूच = बड़ा, बहुत, बड़े जिगरे वाला।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारी ही ताकतों में पूरा है (हम जीव तेरा अंत नहीं पा सकते, जैसे समुंदर के) पानी की मछलियां (समुंदर का) अंत नहीं पा सकतीं। हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू ऊँचों से भी ऊँचा है। हम जीव छोटी सोच वाले हैं, तू बड़े जिगरे वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन तू धिआइआ से गनी ॥ जिन तू पाइआ से धनी ॥ जिनि तू सेविआ सुखी से ॥ संत सरणि नानक परे ॥४॥७॥
मूलम्
जिन तू धिआइआ से गनी ॥ जिन तू पाइआ से धनी ॥ जिनि तू सेविआ सुखी से ॥ संत सरणि नानक परे ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तू = तुझे। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। गनी = ग़नी, धनाढ। तू = तुझे। धनी = धनवान। ते = से। जिनि = जिस ने, जिस जिस ने। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों ने तेरा नाम स्मरण किया है, वह (असल में) दौलतमंद हैं, जिन्होंने तुझे पा लिया वे असल धनाढ हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस-जिस मनुष्य ने तेरी भक्ति की, वे सब सुखी हैं, वे तेरे संतजनों की शरण पड़े रहते हैं।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ तिसु तू सेवि जिनि तू कीआ ॥ तिसु अराधि जिनि जीउ दीआ ॥ तिस का चाकरु होहि फिरि डानु न लागै ॥ तिस की करि पोतदारी फिरि दूखु न लागै ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ तिसु तू सेवि जिनि तू कीआ ॥ तिसु अराधि जिनि जीउ दीआ ॥ तिस का चाकरु होहि फिरि डानु न लागै ॥ तिस की करि पोतदारी फिरि दूखु न लागै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि = सेवा भक्ति कर। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तू = तुझे। जीउ = जिंद। चाकरु = दास। होहि = अगर तू बन जाए। डानु = दण्ड, जम का दंड। पोतदारी = (पोतह = खजाना। पोतहदारी = खज़ानची) खजानची का काम।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा किया है, उसकी सेवा-भक्ति किया कर। जिसने तुझे जिंद दी है उसका नाम स्मरण किया कर। अगर तू उस (परमात्मा) का दास बना रहे, तो तुझे (जम आदि की ओर से किसी से भी) दण्ड नहीं लग सकता। (बेअंत भण्डारों के मालिक) उस परमात्मा का सिर्फ भण्डारी बना रह (फिर उस के दिए किसी पदार्थ के छिन जाने से) तुझे कोई दुख नहीं व्यापेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवड भाग होहि जिसु प्राणी ॥ सो पाए इहु पदु निरबाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एवड भाग होहि जिसु प्राणी ॥ सो पाए इहु पदु निरबाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एवड भाग = इतने बड़े भाग्य, बड़ी किस्मत। पदु निरबाणी = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई वासना छू ना सके। निरबाणी = वासना रहित।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के बड़े भाग्य हों, उस मनुष्य को वह आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूजी सेवा जीवनु बिरथा ॥ कछू न होई है पूरन अरथा ॥ माणस सेवा खरी दुहेली ॥ साध की सेवा सदा सुहेली ॥२॥
मूलम्
दूजी सेवा जीवनु बिरथा ॥ कछू न होई है पूरन अरथा ॥ माणस सेवा खरी दुहेली ॥ साध की सेवा सदा सुहेली ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजी = प्रभु के बिना किसी और की। बिरथा = व्यर्थ। अरथा = आवश्यक्ता, गरज। खरी = बहुत। दुहेली = दुखदाई। साध = गुरु। सुहेली = सुख देने वाली।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा को छोड़ के) किसी और की ख़िदमत में जिंदगी व्यर्थ चली जाती है, और जरूरत कोई भी पूरी नहीं होती। हे भाई! मनुष्य की खिदमत बहुत दुखदाई हुआ करती है। गुरु की सेवा सदा ही सुख देने वाली होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे लोड़हि सदा सुखु भाई ॥ साधू संगति गुरहि बताई ॥ ऊहा जपीऐ केवल नाम ॥ साधू संगति पारगराम ॥३॥
मूलम्
जे लोड़हि सदा सुखु भाई ॥ साधू संगति गुरहि बताई ॥ ऊहा जपीऐ केवल नाम ॥ साधू संगति पारगराम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई = हे भाई! (संबोधन)। गुरहि = गुरु ने। ऊहा = साधु-संगत में। जपीऐ = जपते हैं। पारगराम = पार गामिन, पार गामी, (संसार समुंदर से) पार लांघने योग्य।3।
अर्थ: हे भाई! अगर तू चाहता है कि सदा आत्मिक आनंद मिला रहे, तो, गुरु ने बताया है कि साधु-संगत किया कर। साधु-संगत में सिर्फ परमात्मा का नाम जपा जाता है, साधु-संगत में टिक के संसार-समुंदर से पार लांघने के योग्य हुआ जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल तत महि ततु गिआनु ॥ सरब धिआन महि एकु धिआनु ॥ हरि कीरतन महि ऊतम धुना ॥ नानक गुर मिलि गाइ गुना ॥४॥८॥
मूलम्
सगल तत महि ततु गिआनु ॥ सरब धिआन महि एकु धिआनु ॥ हरि कीरतन महि ऊतम धुना ॥ नानक गुर मिलि गाइ गुना ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनु = परमात्मा के साथ जान पहचान, आत्मिक जीवन की सूझ। ततु = श्रेष्ठ विचार। धिआन = समाधि। कीरतन = महिमा। धुना = लगन, तवज्जो/ध्यान। गुर मिलि = गुरु को मिल के।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के साथ जान-पहचान बनानी सब विचारों से उत्तम विचार है। परमात्मा में तवज्जो टिकाए रखनी अन्य सारी समाधियों से श्रेष्ठ समाधि है। परमात्मा की महिमा में तवज्जो जोड़नी सबसे श्रेष्ठ काम है। हे नानक! गुरु को मिल के गुण गाता रहा कर।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ जिसु बोलत मुखु पवितु होइ ॥ जिसु सिमरत निरमल है सोइ ॥ जिसु अराधे जमु किछु न कहै ॥ जिस की सेवा सभु किछु लहै ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ जिसु बोलत मुखु पवितु होइ ॥ जिसु सिमरत निरमल है सोइ ॥ जिसु अराधे जमु किछु न कहै ॥ जिस की सेवा सभु किछु लहै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु बोलत = जिस हरि नाम के उचारते हुए। होइ = हो जाता है (एकवचन)। निरमल सोइ = बेदाग़ शोभा। सभु किछु = हरेक (आवश्यक) वस्तु। लहै = (मनुष्य) प्राप्त कर लेता है।1।
अर्थ: हे भाई! (वह हरि-नाम उचारा कर) जिसको उचारने से मुँह पवित्र हो जाता है, जिसको स्मरण करने से (लोक-परलोक में) बेदाग़ शोभा मिलती है, जिसको आराधने से जम-राज कुछ नहीं कहता (डरा नहीं सकता) जिसकी सेवा-भक्ति से (मनुष्य) हरेक (आवश्यक) चीज़ हासिल कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम राम बोलि राम राम ॥ तिआगहु मन के सगल काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम राम बोलि राम राम ॥ तिआगहु मन के सगल काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोलि = उचारा कर, स्मरण किया कर। के = के। काम = वासना।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! पदा परमात्मा का नाम उचारा कर, हरि-नाम उचारा कर। अपने मन की और सारी वासनाएं छोड़ दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस के धारे धरणि अकासु ॥ घटि घटि जिस का है प्रगासु ॥ जिसु सिमरत पतित पुनीत होइ ॥ अंत कालि फिरि फिरि न रोइ ॥२॥
मूलम्
जिस के धारे धरणि अकासु ॥ घटि घटि जिस का है प्रगासु ॥ जिसु सिमरत पतित पुनीत होइ ॥ अंत कालि फिरि फिरि न रोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धारे = टिकाए हुए। धरणि = धरती। घटि घटि = हरेक शरीर में। प्रगासु = नूर, रौशनी। पतित = विकारी, विकारों में गिरा हुआ। अंत कालि = आखिरी वक्त। कालि = समय में। न रोइ = नहीं रोता।2।
अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा का नाम स्मरण किया कर) धरती और आकाश जिसके टिकाए हुए हैं, जिसका नूर हरेक शरीर में है, जिसको स्मरण करने से विकारी मनुष्य (भी) पवित्र जीवन वाला हो जाता है, (और जिसकी इनायत से) अंत के समय (मनुष्य) बार-बार दुखी नहीं होता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल धरम महि ऊतम धरम ॥ करम करतूति कै ऊपरि करम ॥ जिस कउ चाहहि सुरि नर देव ॥ संत सभा की लगहु सेव ॥३॥
मूलम्
सगल धरम महि ऊतम धरम ॥ करम करतूति कै ऊपरि करम ॥ जिस कउ चाहहि सुरि नर देव ॥ संत सभा की लगहु सेव ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊतम = श्रेष्ठ। कै ऊपरि = के ऊपर, से बढ़िया। चाहहि = चाहते हैं (बहुवचन)। सुरि नर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। देव = देवता।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस कउ’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम स्मरण किया कर) सारे धर्मों में से (नाम-स्मरण ही) सब से श्रेष्ठ धर्म है, यही कर्म अन्य सारे धार्मिक कर्मों से उत्तम है। हे भाई! (उस परमात्मा को याद किया कर) जिस को (मिलने के लिए) दैवी गुणों वाले मनुष्य और देवतागण भी अभिलाषा रखते हैं। हे भाई! साधु-संगत की सेवा करा कर (साधु-संगत में से ही नाम-जपने की दाति मिलती है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि पुरखि जिसु कीआ दानु ॥ तिस कउ मिलिआ हरि निधानु ॥ तिस की गति मिति कही न जाइ ॥ नानक जन हरि हरि धिआइ ॥४॥९॥
मूलम्
आदि पुरखि जिसु कीआ दानु ॥ तिस कउ मिलिआ हरि निधानु ॥ तिस की गति मिति कही न जाइ ॥ नानक जन हरि हरि धिआइ ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि पुरख = आदि पुरख ने, सबसे मूल सर्व व्यापक प्रभु ने। निधानु = नाम खजाना। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = बड़प्पन।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस कउ, तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ और ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सब के मूल सर्व-व्यापक प्रभु ने जिस मनुष्य को दाति बख्शी, उसको हरि-नाम का खज़ाना मिल गया। हे दास नानक! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, उसकी बाबत यह नहीं बताया जा सकता कि वह किस प्रकार का है और कितना बड़ा है।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ मन तन भीतरि लागी पिआस ॥ गुरि दइआलि पूरी मेरी आस ॥ किलविख काटे साधसंगि ॥ नामु जपिओ हरि नाम रंगि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ मन तन भीतरि लागी पिआस ॥ गुरि दइआलि पूरी मेरी आस ॥ किलविख काटे साधसंगि ॥ नामु जपिओ हरि नाम रंगि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीतरि = अंदर। पिआस = तमन्ना। गुरि = गुरु ने। दइआलि = दयालु ने। किलविख = पाप। साध संगि = साधु-संगत में। नाम रंगि = नाम के प्यार में।1।
अर्थ: हे भाई! दयालु गुरु ने मेरी (चिरों की) आस पूरी कर दी है। (अब) मेरे मन में मेरे तन में (हरि-नाम की) लगन बन गई है। गुरु की संगति में (मेरे सारे) पाप कट गए हैं (क्योंकि गुरु की कृपा से) मैं प्रेम-रंग में टिक के परमात्मा का नाम जप रहा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादि बसंतु बना ॥ चरन कमल हिरदै उरि धारे सदा सदा हरि जसु सुना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर परसादि बसंतु बना ॥ चरन कमल हिरदै उरि धारे सदा सदा हरि जसु सुना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर परसादि = गुरु की कृपा से। बसंतु = खिड़ाव, उमंग। चरन कमल = कमल के फूल जैसे सुदर चरण। हिरदै = हृदय में। उरि = (उरस्) छाती में। जसु = यश, महिमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से (मेरे अंदर) बसंत (ऋतु वाली उमंग) बन गई है। (गुरु की मेहर से) मैंने परमात्मा के सुंदर चरण अपने हृदय में बसा लिए हैं। अब मैं हर वक्त सदा परमात्मा की महिमा सुनता हूँ।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
समरथ सुआमी कारण करण ॥ मोहि अनाथ प्रभ तेरी सरण ॥ जीअ जंत तेरे आधारि ॥ करि किरपा प्रभ लेहि निसतारि ॥२॥
मूलम्
समरथ सुआमी कारण करण ॥ मोहि अनाथ प्रभ तेरी सरण ॥ जीअ जंत तेरे आधारि ॥ करि किरपा प्रभ लेहि निसतारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! सुआमी = हे मालिक! कारण करण = हे करण के कारण! हे जगत के मूल! मेहि = मुझे, मैं। प्रभ = हे प्रभु! आधारि = आसरे में। करि = कर के। प्रभ = हे प्रभु! लेहि निसतारि = पार लंघा ले।2।
अर्थ: हे सब ताकतों के मालिक! हे स्वामी! हे जगत के मूल! हे प्रभु! मैं अनाथ तेरी शरण में आया हूँ। हे प्रभु! सारे जीव-जंतु तेरे ही आसरे हैं, मेहर कर (इनको संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भव खंडन दुख नास देव ॥ सुरि नर मुनि जन ता की सेव ॥ धरणि अकासु जा की कला माहि ॥ तेरा दीआ सभि जंत खाहि ॥३॥
मूलम्
भव खंडन दुख नास देव ॥ सुरि नर मुनि जन ता की सेव ॥ धरणि अकासु जा की कला माहि ॥ तेरा दीआ सभि जंत खाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भव खंडन = हे जनम मरण के चक्करों को काटने वाले! देव = हे प्रकाश रूप। सुरि नर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। ता की = उस (परमात्मा) की। सेव = भक्ति। धरणि = धरती। जा की = जिस (परमात्मा) की। कला = सत्ता। सभि = सारे। खाहि = खते हैं (बहुवचन)। निहालि = देख।3।
अर्थ: हे जनम-मरण के चक्कर काटने वाले! हे दुखों का नाश करने वाले! हे प्रकाश-स्वरूप! सारे जीव तेरा दिया (अन्न) खाते हैं। हे भाई! धरती और आकाश जिस (परमात्मा) की कला के आसरे टिके हुए हैं, दैवी गुणों वाले मनुष्य और मुनि-जन उसकी सेवा-भक्ति करते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरजामी प्रभ दइआल ॥ अपणे दास कउ नदरि निहालि ॥ करि किरपा मोहि देहु दानु ॥ जपि जीवै नानकु तेरो नामु ॥४॥१०॥
मूलम्
अंतरजामी प्रभ दइआल ॥ अपणे दास कउ नदरि निहालि ॥ करि किरपा मोहि देहु दानु ॥ जपि जीवै नानकु तेरो नामु ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले! कउ = को। नदरि = मेहर की निगाह। करि = कर के। मोहि = मुझे। जपि = जप के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करे।4।
अर्थ: हे सबके दिलों की जानने वाले दयालु प्रभु! अपने दास को मेहर की निगाह से देख। मेहर करके मुझे (यह) दान दे कि (तेरा दास) नानक तेरा नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त करे।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ राम रंगि सभ गए पाप ॥ राम जपत कछु नही संताप ॥ गोबिंद जपत सभि मिटे अंधेर ॥ हरि सिमरत कछु नाहि फेर ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ राम रंगि सभ गए पाप ॥ राम जपत कछु नही संताप ॥ गोबिंद जपत सभि मिटे अंधेर ॥ हरि सिमरत कछु नाहि फेर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में (जुड़ने से)। जपत = जपते हुए। संताप = दुख-कष्ट। सभि = सारे। अंधेर = माया के मोह के अंधेरे। फेर = जनम मरण के चक्कर।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के प्यार में (टिकने से) सारे पाप मिट जाते हैं, परमात्मा का नाम जपने से दुख-कष्ट छू नहीं सकते, गोबिंद का नाम जपने से (माया के मोह के) सारे अंधेरे मिट जाते हैं, हरि-नाम स्मरण करने से जनम-मरण के चक्कर नहीं रह जाते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हमारै राम रंगु ॥ संत जना सिउ सदा संगु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बसंतु हमारै राम रंगु ॥ संत जना सिउ सदा संगु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय में। रंगु = प्यार। बसंत = खिलाव। सिउ = साथ। संगु = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) संत-जनों के साथ (मेरा) सदा साथ बना रहता है, (अब) मेरे अंदर परमात्मा (के नाम) का प्यार बन गया है, मेरे हृदय में उमंग पैदा हो गई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जनी कीआ उपदेसु ॥ जह गोबिंद भगतु सो धंनि देसु ॥ हरि भगतिहीन उदिआन थानु ॥ गुर प्रसादि घटि घटि पछानु ॥२॥
मूलम्
संत जनी कीआ उपदेसु ॥ जह गोबिंद भगतु सो धंनि देसु ॥ हरि भगतिहीन उदिआन थानु ॥ गुर प्रसादि घटि घटि पछानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनी = जनों ने। जह = जहाँ। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। उदिआन = उद्यान, उजाड़। प्रसादि = कृपा से। घटि घटि = हरेक शरीर में (व्यापक)। पछानु = समझ ले।2।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों ने शिक्षा दी है कि जहाँ परमात्मा का भक्त बसता है वह देश भाग्यशाली है और परमात्मा की भक्ति से वंचित स्थान उजाड़ (बिआबान के तूल्य) है। हे भाई! गुरु की कृपा से (तू उस परमात्मा को) हरेक शरीर में बसता समझ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कीरतन रस भोग रंगु ॥ मन पाप करत तू सदा संगु ॥ निकटि पेखु प्रभु करणहार ॥ ईत ऊत प्रभ कारज सार ॥३॥
मूलम्
हरि कीरतन रस भोग रंगु ॥ मन पाप करत तू सदा संगु ॥ निकटि पेखु प्रभु करणहार ॥ ईत ऊत प्रभ कारज सार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रस = स्वाद। रंगु = मौज बहार। मन = हे मन! संगु = संकोच, झिझका कर, शर्म। निकटि = नजदीक। पेखु = देख। करणहार = सब कुछ कर सकने वाला। ईत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। सार = सँवारने वाला।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा की महिमा को ही दुनिया के रसों-भोगों की मौज-बहार समझ। हे मन! पाप करते हुए सदा झिझका कर। सब कुछ कर सकने वाले प्रभु को (अपने) नजदीक बसता देख। इस लोक के और परलोक के सारे काम प्रभु ही सँवारने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल सिउ लगो धिआनु ॥ करि किरपा प्रभि कीनो दानु ॥ तेरिआ संत जना की बाछउ धूरि ॥ जपि नानक सुआमी सद हजूरि ॥४॥११॥
मूलम्
चरन कमल सिउ लगो धिआनु ॥ करि किरपा प्रभि कीनो दानु ॥ तेरिआ संत जना की बाछउ धूरि ॥ जपि नानक सुआमी सद हजूरि ॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। बाछउ = मैं माँगता हूँ। धूरि = चरण धूल। जपि = मैं जपता रहूँ।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने मेहर करके (जिस मनुष्य पर) बख्शिश की, उसकी तवज्जो प्रभु के सुंदर चरणों में जुड़ गई। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरे संत-जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ, (ताकि) हे स्वामी! (उनकी संगति की इनायत से तुझे) सदा अंग-संग समझ के जपता रहूँ।4।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ सचु परमेसरु नित नवा ॥ गुर किरपा ते नित चवा ॥ प्रभ रखवाले माई बाप ॥ जा कै सिमरणि नही संताप ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ सचु परमेसरु नित नवा ॥ गुर किरपा ते नित चवा ॥ प्रभ रखवाले माई बाप ॥ जा कै सिमरणि नही संताप ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। नित नवा = सदा नया, सदा सुंदर। ते = से। चवा = चवां, मैं उच्चारता रहूँ। जा कै सिमरणि = जिसके स्मरण से। संताप = दुख-कष्ट।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, (फिर वह प्यारा लगता है क्योंकि वह) सदा ही नया है। गुरु की मेहर से मैं सदा (उसका नाम) उचारता हूँ। हे भाई! (जैसे) माता-पिता (अपने बच्चे का ध्यान रखते हैं, वैसे ही) प्रभु जी सदा (मेरे) रखवाले हैं (वह प्रभु ऐसा है) कि उसके स्मरण से कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खसमु धिआई इक मनि इक भाइ ॥ गुर पूरे की सदा सरणाई साचै साहिबि रखिआ कंठि लाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
खसमु धिआई इक मनि इक भाइ ॥ गुर पूरे की सदा सरणाई साचै साहिबि रखिआ कंठि लाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मैं पूरे गुरु की सदा शरण पड़ा रहता हूँ (उसकी मेहर से) सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु ने (मुझे) अपने गले से लगा के (मेरी) रक्षा की हुई है, (अब) मैं एकाग्र मन से उसके प्यार में टिक के उस पति-प्रभु को स्मरण करता रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपणे जन प्रभि आपि रखे ॥ दुसट दूत सभि भ्रमि थके ॥ बिनु गुर साचे नही जाइ ॥ दुखु देस दिसंतरि रहे धाइ ॥२॥
मूलम्
अपणे जन प्रभि आपि रखे ॥ दुसट दूत सभि भ्रमि थके ॥ बिनु गुर साचे नही जाइ ॥ दुखु देस दिसंतरि रहे धाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआई = दास, सेवक (बहुवचन)। प्रभि = प्रभु ने। दुसट दूत = दुष्ट वैरी ने। सभि = सारे। भ्रमि = भटक भटक के। थके = हार गए। जाइ = जगह, स्थान। देस दिसंतरि = देश देश अंतरि, और-और देशों में, देश देशांतर। रहे धाइ = दौड़ दोड़ के थक गए।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने अपने सेवकों की सदा स्वयं रक्षा की है (सेवकों के) दुष्ट वैरी सारे भटक-भटक के हार जाते हैं। (सेवकों को) सदा-स्थिर प्रभु के रूप गुरु के बिना और कोई आसरा नहीं होता। (जो मनुष्य गुरु को छोड़ के) और-और जगहों पर भटकते फिरते हैं, उन्हें दुख (व्यापता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरतु ओन्हा का मिटसि नाहि ॥ ओइ अपणा बीजिआ आपि खाहि ॥ जन का रखवाला आपि सोइ ॥ जन कउ पहुचि न सकसि कोइ ॥३॥
मूलम्
किरतु ओन्हा का मिटसि नाहि ॥ ओइ अपणा बीजिआ आपि खाहि ॥ जन का रखवाला आपि सोइ ॥ जन कउ पहुचि न सकसि कोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरतु = किया हुआ काम। ओइ = वे। खाहि = खाते हैं। सोइ = वह (प्रभु) ही। पहुचि न सकसि = बराबरी नहीं कर सकता।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (गुरु को छोड़ के अन्य जगहों पर भटकने वाले) उन मनुष्यों का (यह) किया हुआ काम (किए इन कामों का संस्कार-समूह उनके अंदर से) मिटता नहीं। अपने किए कर्मों का फल वह स्वयं ही खाते हैं। अपने सेवक का रखवाला प्रभु स्वयं बनता है। कोई और मनुष्य प्रभु के सेवक की बराबरी नहीं कर सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभि दास रखे करि जतनु आपि ॥ अखंड पूरन जा को प्रतापु ॥ गुण गोबिंद नित रसन गाइ ॥ नानकु जीवै हरि चरण धिआइ ॥४॥१२॥
मूलम्
प्रभि दास रखे करि जतनु आपि ॥ अखंड पूरन जा को प्रतापु ॥ गुण गोबिंद नित रसन गाइ ॥ नानकु जीवै हरि चरण धिआइ ॥४॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। करि = कर के। अखंड = अटुट। पूरन = पूर्ण। जा को = जिस (परमात्मा) का। रसन = जीभ से। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। धिआइ = ध्यान धर के।4।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का अटुट व सम्पूर्ण प्रताप है, उसने (विशेष) प्रयत्न कर के अपने सेवकों की सदा स्वयं रक्षा की है। हे भाई! उस गोबिंद के गुण सदा अपनी जीभ से गाया कर। नानक (भी) उस परमात्मा के चरणों का ध्यान धर के आत्मिक जीवन हासिल करता रहता है।4।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ गुर चरण सरेवत दुखु गइआ ॥ पारब्रहमि प्रभि करी मइआ ॥ सरब मनोरथ पूरन काम ॥ जपि जीवै नानकु राम नाम ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ गुर चरण सरेवत दुखु गइआ ॥ पारब्रहमि प्रभि करी मइआ ॥ सरब मनोरथ पूरन काम ॥ जपि जीवै नानकु राम नाम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरेवत = हृदय में बसाने से, स्मरण करते हुए। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभु ने। मइआ = दइआ। सरब = सारे। मनोरथ = जरूरतें, मुरादें। काम = काम। जपि = जप के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) पारब्रहम ने मेहर की, गुरु के चरण हृदय में बसा के उस मनुष्य का हरेक दुख दूर हो जाता है, उसकी सारी मुरादें उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं। हे भाई! नानक (भी) उस परमात्मा का नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा रुति सुहावी जितु हरि चिति आवै ॥ बिनु सतिगुर दीसै बिललांती साकतु फिरि फिरि आवै जावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सा रुति सुहावी जितु हरि चिति आवै ॥ बिनु सतिगुर दीसै बिललांती साकतु फिरि फिरि आवै जावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। सुहावी = सुखद। जितु = जिस (ऋतु) में। चिति = चिक्त में। बिललांती = विलकती। साकतु = परमात्मा इसे टूटा हुआ मनुष्य। आवै जावै = पैदा होता है मरता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्यों के लिए) वह ऋतु सुंदर होती है जब परमात्मा उसके चिक्त में आ बसता है। गुरु की शरण के बिना (दुनिया) बिलकती दिखती है। परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य बार-बार पैदा होता मरता रहता है।1। रहाउ।
[[1184]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
से धनवंत जिन हरि प्रभु रासि ॥ काम क्रोध गुर सबदि नासि ॥ भै बिनसे निरभै पदु पाइआ ॥ गुर मिलि नानकि खसमु धिआइआ ॥२॥
मूलम्
से धनवंत जिन हरि प्रभु रासि ॥ काम क्रोध गुर सबदि नासि ॥ भै बिनसे निरभै पदु पाइआ ॥ गुर मिलि नानकि खसमु धिआइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। रासि = राशि, पूंजी। सबदि = शब्द से। भै = सारे डर। पदु = आत्मिक दर्जा। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई डर छू ना सके। मिलि = मिल के। नानकि = नानक ने।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा की नाम-पूंजी मौजूद है वे धनवान हैं, गुरु के शब्द की इनायत से उनके अंदर से काम-क्रोध (आदि विकार) नाश हो जाते हैं। उनके सारे डर दूर हो जाते हैं, वे ऐसा आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लेते हैं जहाँ कोई डर छू नहीं सकता। हे भाई! गुरु को मिल के नानक ने (भी) उस पति-प्रभु को स्मरण किया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगति प्रभि कीओ निवास ॥ हरि जपि जपि होई पूरन आस ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ ॥ गुर मिलि नानकि हरि हरि कहिआ ॥३॥
मूलम्
साधसंगति प्रभि कीओ निवास ॥ हरि जपि जपि होई पूरन आस ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ ॥ गुर मिलि नानकि हरि हरि कहिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। जपि = जप के। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने जिस मनुष्य का ठिकाना साधु-संगत में बना दिया है, परमात्मा का नाम जप-जप के उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है। वह प्रभु पानी में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है। गुरु को मिल के नानक ने (भी) उसी का स्मरण किया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असट सिधि नव निधि एह ॥ करमि परापति जिसु नामु देह ॥ प्रभ जपि जपि जीवहि तेरे दास ॥ गुर मिलि नानक कमल प्रगास ॥४॥१३॥
मूलम्
असट सिधि नव निधि एह ॥ करमि परापति जिसु नामु देह ॥ प्रभ जपि जपि जीवहि तेरे दास ॥ गुर मिलि नानक कमल प्रगास ॥४॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असट = आठ। सिधि = सिद्धियां, सिधों वाली आत्मिक ताकतें। नवनिधि = नौ खजाने। करमि = मेहर से। प्रभ = हे प्रभु! जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं (बहुवचन)। कमल प्रगास = हृदय खिल उठता है।4।
अर्थ: हे भाई! ये हरि-नाम ही (सिद्धों की) आठ आत्मिक शक्तियां हैं (कुबेर के) नौ-खजाने हैं। जिस मनुष्य को प्रभु ये नाम देता है उसी को उसकी मेहर से मिलता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरे दास (तेरा नाम) जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, गुरु को मिल के (नाम की इनायत से उनका) हृदय-कमल खिला रहता है।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ घरु १ इक तुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु महला ५ घरु १ इक तुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल इछा जपि पुंनीआ ॥ प्रभि मेले चिरी विछुंनिआ ॥१॥
मूलम्
सगल इछा जपि पुंनीआ ॥ प्रभि मेले चिरी विछुंनिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारी। जपि = (प्रभु का नाम) जप के। पुंनीआ = पूरी हो जाती हैं। प्रभि = प्रभु ने। मेले = मिल लिए। चिरी विछुंनिआ = चिर से विछुड़े हुओं को।1।
अर्थ: हे भाई! (जिन्होंने स्मरण किया, उनका) चिर के विछुड़े हुओं को (भी) प्रभु ने (अपने चरणों के साथ) मिला लिया, (परमात्मा का नाम) जप के उनकी सारी मुरादें पूरी हो गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम रवहु गोबिंदै रवण जोगु ॥ जितु रविऐ सुख सहज भोगु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम रवहु गोबिंदै रवण जोगु ॥ जितु रविऐ सुख सहज भोगु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवहु = स्मरण करो। गोबिंदै = गोबिंद (के नाम) को। रवण जोगु = स्मरण करने योग्य को। जितु = जिससे। जितु रविऐ = जिसका स्मरण करने से, अगर उसका स्मरण किया जाए। सुख सहज भोगु = आत्मिक अडोलता के सुखों का स्वाद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! तुम स्मरण करने योग्य गोबिंद का नाम स्मरण किया करो। अगर (उसका नाम) स्मरण किया जाए, तो आत्मिक अडोलता के सुखों का स्वाद (प्राप्त होता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा नदरि निहालिआ ॥ अपणा दासु आपि सम्हालिआ ॥२॥
मूलम्
करि किरपा नदरि निहालिआ ॥ अपणा दासु आपि सम्हालिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालिआ = देखा। समालिआ = संभाल की।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने अपने दास की (सदा) स्वयं संभाल की है। कृपा करके (प्रभु ने अपने दास को सदा) मेहर भरी निगाह से देखा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेज सुहावी रसि बनी ॥ आइ मिले प्रभ सुख धनी ॥३॥
मूलम्
सेज सुहावी रसि बनी ॥ आइ मिले प्रभ सुख धनी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेज = हृदय सेज। सुहावी = सुंदर। रसि = (मिलाप के) स्वाद से। सुख धनी = सुखों के मालिक।3।
अर्थ: हे भाई! सुखों के मालिक प्रभु जी (जिस मनुष्य को) आ के मिल लेते हैं, (प्रभु-मिलाप के) स्वाद से उनकी हृदय-सेज सोहानी बन जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा गुणु अवगणु न बीचारिआ ॥ प्रभ नानक चरण पूजारिआ ॥४॥१॥१४॥
मूलम्
मेरा गुणु अवगणु न बीचारिआ ॥ प्रभ नानक चरण पूजारिआ ॥४॥१॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूजारिआ = पुजारी बना लिया।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) प्रभु ने मेरा कोई गुण नहीं बिचारा, कोई अवगुण नहीं विचारा, (मेहर कर के उसने मुझे) अपने चरणों का पुजारी बना लिया है।4।1।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ किलबिख बिनसे गाइ गुना ॥ अनदिन उपजी सहज धुना ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ किलबिख बिनसे गाइ गुना ॥ अनदिन उपजी सहज धुना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलबिख = पाप। गाइ = गा के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहज धुना = आत्मिक अडोलता की लहर।1।
अर्थ: हे भाई! (कोई भी मनुष्य हो, परमात्मा के) गुण गा-गा के उसके सारे पाप नाश हो जाते हैं, उसके अंदर हर वक्त आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हुई रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु मउलिओ हरि चरन संगि ॥ करि किरपा साधू जन भेटे नित रातौ हरि नाम रंगि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मनु मउलिओ हरि चरन संगि ॥ करि किरपा साधू जन भेटे नित रातौ हरि नाम रंगि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउलिओ = खिल उठता है, पुल्कित हो जाता है। करि = कर के। साधू = गुरु। भेटे = मिलाता है। रातो = रंगा रहता है। रंगि = रंग में।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेहर करके जिस सेवक को गुरु मिलाता है, वह सेवक सदा हरि-नाम रंग में रंगा जाता है, उस सेवक का मन प्रभु के चरणों में (जुड़ के) आत्मिक जीवन वाला हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रगटे गुोपाल ॥ लड़ि लाइ उधारे दीन दइआल ॥२॥
मूलम्
करि किरपा प्रगटे गुोपाल ॥ लड़ि लाइ उधारे दीन दइआल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। लाइ = लगा के। उधारे = (संसार समुंदर से) पार लंघाता है।2।
अर्थ: हे भाई! मेहर कर के गोपाल-प्रभु (जिस मनुष्य के हृदय में) प्रगट होता है, दीनों पर दया करने वाला प्रभु उसको अपने पल्ले से लगा के (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु होआ साध धूरि ॥ नित देखै सुआमी हजूरि ॥३॥
मूलम्
इहु मनु होआ साध धूरि ॥ नित देखै सुआमी हजूरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध धूरि = गुरु चरणों की धूल। देखै = देखता है (एकवचन)। हजूरि = अंग संग, हाजर नाजर।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का ये मन गुरु के चरणों की धूल बनता है, वह मनुष्य स्वामी प्रभु को सदा अपने अंग-संग बसता देखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध त्रिसना गई ॥ नानक प्रभ किरपा भई ॥४॥२॥१५॥
मूलम्
काम क्रोध त्रिसना गई ॥ नानक प्रभ किरपा भई ॥४॥२॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर होती है (उसके अंदर से) काम-क्रोध-तृष्णा (आदिक विकार) दूर हो जाते हैं।4।2।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ रोग मिटाए प्रभू आपि ॥ बालक राखे अपने कर थापि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ रोग मिटाए प्रभू आपि ॥ बालक राखे अपने कर थापि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिटाए = मिटाता है। बालक = (बहुवचन) बच्चों को। राखे = रक्षा करता है। कर = हाथ (बहुवचन)। थापि = स्थापित करके, थाप दे के। कर थापि = हाथों से थापना दे के।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य पूरे गुरु की शरण आते हैं) परमात्मा स्वयं (उनके सारे) रोग मिटा देता है, उन बच्चों को अपने हाथों से थापणा दे के उनकी रक्षा करता है (जिस तरह माता-पिता अपने बच्चों की संभाल करते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांति सहज ग्रिहि सद बसंतु ॥ गुर पूरे की सरणी आए कलिआण रूप जपि हरि हरि मंतु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सांति सहज ग्रिहि सद बसंतु ॥ गुर पूरे की सरणी आए कलिआण रूप जपि हरि हरि मंतु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। ग्रिहि = (हृदय-) घर में। सद बसंतु = सदा कायम रहने वाली उमंग। कलिआण रूप हरि मंतु = सुख स्वरूप परमात्मा का नाम मंत्र। जपि = जप के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) पूरे गुरु की शरण आते हैं, सुख-स्वरूप परमात्मा का नाम-मंत्र जप के (उनके हृदय-) घर में आत्मिक अडोलता वाली शांति बनी रहती है, सदा कायम रहने वाली उमंग बनी रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोग संताप कटे प्रभि आपि ॥ गुर अपुने कउ नित नित जापि ॥२॥
मूलम्
सोग संताप कटे प्रभि आपि ॥ गुर अपुने कउ नित नित जापि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोग = चिन्ता फिक्र। संताप = दुख-कष्ट। प्रभि = प्रभु ने। कउ = को। जापि = जपा कर।2।
अर्थ: प्रभु आप ही चिन्ता व दुख मिटा देता है। अपने गुरु को रोज-रोज याद करना चाहिये।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जनु तेरा जपे नाउ ॥ सभि फल पाए निहचल गुण गाउ ॥३॥
मूलम्
जो जनु तेरा जपे नाउ ॥ सभि फल पाए निहचल गुण गाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपै = जपता है। सभि = सारे। निहचल गुण गाउ = सदा कायम रहने वाले गुणों का गायन (करके)।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य तेरा नाम जपता है, वह मनुष्य तेरे सदा कायम रहने वाले गुणों का गायन कर के सारे फल प्राप्त कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक भगता भली रीति ॥ सुखदाता जपदे नीत नीति ॥४॥३॥१६॥
मूलम्
नानक भगता भली रीति ॥ सुखदाता जपदे नीत नीति ॥४॥३॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रीति = मर्यादा।4।
अर्थ: हे नानक! भक्त-जनों की ये सुंदर जीवन-मर्यादा है, कि वे सदा ही सुखों के देने वाले परमात्मा का नाम जपते रहते हैं।4।3।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ हुकमु करि कीन्हे निहाल ॥ अपने सेवक कउ भइआ दइआलु ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ हुकमु करि कीन्हे निहाल ॥ अपने सेवक कउ भइआ दइआलु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुकम करि = हुक्म दे के। निहाल = प्रसन्न चिक्त। सेवक कउ = सेवकों पर। दइआलु = दयालु, दयावान।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवकों पर (सदा) दयावान होता है, अपने हुक्म अनुसार उनको प्रसन्न-चिक्त रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि पूरै सभु पूरा कीआ ॥ अम्रित नामु रिद महि दीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरि पूरै सभु पूरा कीआ ॥ अम्रित नामु रिद महि दीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। सभु = हरेक काम। पूरा कीआ = सिरे चढ़ा दिया। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। रिद महि = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम (जिस मनुष्य के) हृदय में बसा दिया, (उस मनुष्य का उसने) हरेक काम सफल कर दिया (उसका सारा जीवन ही सफल हो गया)।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु धरमु मेरा कछु न बीचारिओ ॥ बाह पकरि भवजलु निसतारिओ ॥२॥
मूलम्
करमु धरमु मेरा कछु न बीचारिओ ॥ बाह पकरि भवजलु निसतारिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = अच्छा काम। पकरि = पकड़ के। भवजलु = संसार समुंदर। निसतारिओ = पार लंघा दिया।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु ने) मेरा (भी) कोई (अच्छा) कर्म नहीं विचारा मेरा कोई धर्म नहीं विचारा, बाँह से पकड़ कर उसने (मुझे) संसार-समुंदर (के विकारों) से पार लंघा दिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभि काटि मैलु निरमल करे ॥ गुर पूरे की सरणी परे ॥३॥
मूलम्
प्रभि काटि मैलु निरमल करे ॥ गुर पूरे की सरणी परे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। काटि = काट के, दूर कर के।3।
अर्थ: हे भाई! जो भी मनुष्य पूरे गुरु की शरण पड़ गए, परमात्मा ने (स्वयं उनके अंदर से विकारों की) मैल काट के उनको पवित्र जीवन वाला बना लिया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि करहि आपि करणैहारे ॥ करि किरपा नानक उधारे ॥४॥४॥१७॥
मूलम्
आपि करहि आपि करणैहारे ॥ करि किरपा नानक उधारे ॥४॥४॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = तू करता है। करणैहारे = हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभु! करि = कर के। उधारे = पार लंघा ले, उद्धार कर दे।4।
अर्थ: हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभु! तू सब कुछ स्वयं ही कर रहा है। मेहर कर के (मुझे) नानक को (संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।4।4।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखु फूल फूल फूले ॥ अहं तिआगि तिआगे ॥ चरन कमल पागे ॥ तुम मिलहु प्रभ सभागे ॥ हरि चेति मन मेरे ॥ रहाउ॥
मूलम्
देखु फूल फूल फूले ॥ अहं तिआगि तिआगे ॥ चरन कमल पागे ॥ तुम मिलहु प्रभ सभागे ॥ हरि चेति मन मेरे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखु = (अंदर झाँक के) देख। फूल फूल फूले = फूल ही फूल खिले हुए हैं, खिड़ाव ही खिड़ाव है, उमंग उल्लास ही उल्लास है। अहं = अहंकार। तिआगि = त्याग के। पागे = चिपका रह। सभागे = हे भाग्यशाली (मन)! मन = हे मन!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर, अहम् दूर कर, (फिर) देख (तेरे अंदर) फूल ही फूल खिले हुए हैं (तेरे अंदर आत्मिक प्रफुल्लता है)। हे भाग्यशाली मन! प्रभु के सुंदर चरणों से चिपका रह, प्रभु के साथ जुड़ा रह। हे मेरे मन! परमात्मा को याद करता रह। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सघन बासु कूले ॥ इकि रहे सूकि कठूले ॥ बसंत रुति आई ॥ परफूलता रहे ॥१॥
मूलम्
सघन बासु कूले ॥ इकि रहे सूकि कठूले ॥ बसंत रुति आई ॥ परफूलता रहे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सघन = घनी छाया वाले। बासु = सुगंधी। कमले = नरम, कोमल। इकि = कई। रहे सूकि = सूखे रहते हैं। कठूले = (सूखी) काठ जैसे कठोर। बसंत रुति = खेड़े वाली ऋतु, मनुष्य जनम जिस में आत्मिक जीवन की उमंग प्राप्त की जा सकती है। परफूलता रहो = (जो मनुष्य नाम जपता है वह) प्रफुल्लित रहता है, खिला रहता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन! जब बसंत की ऋतु आती है, (तब वृक्ष तरावट से) घनी छाया वाले, सुगंधि वाले और कोमल हो जाते हैं, पर कई वृक्ष ऐसे भी हैं जो (बसंत के आने पर भी) सूखे रहते हैं, और सूखे काष्ठ की तरह कठोर रहते हैं (इस तरह, हे मन! चाहे आत्मिक जीवन की उमंग प्राप्त कर सकने वाली मनुष्य-जीवन की ऋतु तेरे ऊपर आई है, फिर भी जो भाग्यशाली मनुष्य हरि-नाम जपता है, वही) खिला रह सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब कलू आइओ रे ॥ इकु नामु बोवहु बोवहु ॥ अन रूति नाही नाही ॥ मतु भरमि भूलहु भूलहु ॥ गुर मिले हरि पाए ॥ जिसु मसतकि है लेखा ॥ मन रुति नाम रे ॥ गुन कहे नानक हरि हरे हरि हरे ॥२॥१८॥
मूलम्
अब कलू आइओ रे ॥ इकु नामु बोवहु बोवहु ॥ अन रूति नाही नाही ॥ मतु भरमि भूलहु भूलहु ॥ गुर मिले हरि पाए ॥ जिसु मसतकि है लेखा ॥ मन रुति नाम रे ॥ गुन कहे नानक हरि हरे हरि हरे ॥२॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब (मनुष्य जनम मिलने पर)। कलू = काल, समय, नाम बीजने का वक्त। रे = हे भाई! अन = अन्य, कोई और। अन रुति नाही = (मनुष्य जनम के बिना नाम बीजने का) और कोई समय नहीं। मतु = कहीं ऐसा ना हो। भरमि = (माया की) भटकना में पड़ कर। मतु भूलहु = मत कहीं गलत रास्ते पड़ जाओ, कुमार्ग ना पड़ जाना। गुर मिले = गुर मिलि, गुरु को मिल के (ही)। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। लेखा = (नाम की प्राप्ति का) लेख। मन = हे मन! कहे = उचारता है।2।
अर्थ: हे मेरे मन! अब मनुष्य-जन्म मिलने पर (नाम बोने का) समय तुझे मिला हुआ है। (अपने हृदय के खेत में) सिर्फ हरि-नाम बीज, सिर्फ हरि-नाम बो। (मनुष्य-जीवन के बिना) किसी और जन्म में परमात्मा का नाम नहीं बोया जा सकेगा। हे मेरे मन! देखना, (माया की) दौड़-भाग में पड़ के कहीं गलत राह पर ना पड़ जाना। हे मन! (ये मानव-जनम ही) नाम-बीजने का समय है। (पर, हे मन!) गुरु को मिल के ही हरि-नाम प्राप्त किया जा सकता है। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर (धुर से ही नाम की प्राप्ति का) लेख उघड़ता है वह मनुष्य ही सदा परमात्मा के गुण उचारता है।2।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ घरु २ हिंडोल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु महला ५ घरु २ हिंडोल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होइ इकत्र मिलहु मेरे भाई दुबिधा दूरि करहु लिव लाइ ॥ हरि नामै के होवहु जोड़ी गुरमुखि बैसहु सफा विछाइ ॥१॥
मूलम्
होइ इकत्र मिलहु मेरे भाई दुबिधा दूरि करहु लिव लाइ ॥ हरि नामै के होवहु जोड़ी गुरमुखि बैसहु सफा विछाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होइ इकत्र = (साधु-संगत में) इकट्ठे हो के। भाई = हे भाई! दुबिधा = मेर तेर, भेदभाव, दोचिक्तापन। लिव लाइ = (प्रभु चरणों में) तवज्जो/ध्यान जोड़ के। जोड़ी = जोटीदार, साथी। होवहु जोड़ी = साथी बने रहो। हरि नामे के जोड़ी = हरि नाम जपने की चौपड़ खेलने वाले साथी। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। सफा विछाइ = सफा बिछा के, चौपड़ वाला कपड़ा बिछा के। गुरमुखि सफा विछाइ = गुरु की शरण पड़े रहना = ये कपड़ा बिछा के। बैसहु = बैठो।1।
अर्थ: हे मेरे वीर! इकट्ठे हो के साधु-संगत में बैठा करो, (वहाँ प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ के (अपने मन में से) मेर-तेर मिटाया करो। गुरु की शरण पड़े रहना- यह चौपड़ का कपड़ा बिछा के मन को टिकाया करो, (साधु-संगत में) हरि-नाम स्मरण का चौपड़ खेलने वाले साथी बना करो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्ह बिधि पासा ढालहु बीर ॥ गुरमुखि नामु जपहु दिनु राती अंत कालि नह लागै पीर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इन्ह बिधि पासा ढालहु बीर ॥ गुरमुखि नामु जपहु दिनु राती अंत कालि नह लागै पीर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इन बिधि = इस तरीके से। पासा ढालहु = पासा फेंको। अंत कालि = आखिरी वक्त। पीर = पीड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे वीर! (अर्थात, हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर दिन-रात परमात्मा का नाम जपा करो, इस तरह (इस जीवन-खेल में) दाँव चलाओ (पासा फेंको)। (यदि इस तरह ये खेल खेलते रहोगे तो) जिंदगी के आखिरी समय में (जमों का) दुख नहीं सताएगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम धरम तुम्ह चउपड़ि साजहु सतु करहु तुम्ह सारी ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु जीतहु ऐसी खेल हरि पिआरी ॥२॥
मूलम्
करम धरम तुम्ह चउपड़ि साजहु सतु करहु तुम्ह सारी ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु जीतहु ऐसी खेल हरि पिआरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम धरम = धरम के कर्म, नेक काम। साजहु = बनाओ। सतु = ऊँचा आचरण। सारी = नर्द। ऐसी = ऐसी।2।
अर्थ: हे मेरे वीर! नेक काम करने को तुम चौपड़ की खेल बनाओ, ऊँचे आचरण को नरद बनाओ। (इस नरद की इनायत से) तुम (अपने अंदर से) काम को क्रोध को लोभ को और मोह को वश में करो। हे वीर! ऐसी ही खेल परमात्मा को भाती है (पसंद आती है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उठि इसनानु करहु परभाते सोए हरि आराधे ॥ बिखड़े दाउ लंघावै मेरा सतिगुरु सुख सहज सेती घरि जाते ॥३॥
मूलम्
उठि इसनानु करहु परभाते सोए हरि आराधे ॥ बिखड़े दाउ लंघावै मेरा सतिगुरु सुख सहज सेती घरि जाते ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उठि = उठ के। परभाते = प्रभात के समय, अमृत बेला में। इसनानु = हरि नाम में आत्मिक स्नान। सोए = सोए हुए भी। बिखड़े = मुश्किल। लंघावै = पार करा देता है, जिता देता है। सहज = आत्मिक अडोलता। सेती = साथ। घरि = स्वै स्वरूप में, प्रभु चरणों में।3।
अर्थ: हे मेरे वीर! अमृत बेला में उठ के (नाम-जल में) डुबकी लगाया करो, सोए हुए भी परमात्मा की आराधना में जुड़े रहो। (जो मनुष्य यह उद्यम करते हैं उन्हें) प्यारा गुरु (कामादिक वैरियों से मुकाबले के) मुश्किल पैतड़ों में कामयाब कर देता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद से प्रभु-चरणों में टिके रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपे खेलै आपे देखै हरि आपे रचनु रचाइआ ॥ जन नानक गुरमुखि जो नरु खेलै सो जिणि बाजी घरि आइआ ॥४॥१॥१९॥
मूलम्
हरि आपे खेलै आपे देखै हरि आपे रचनु रचाइआ ॥ जन नानक गुरमुखि जो नरु खेलै सो जिणि बाजी घरि आइआ ॥४॥१॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। खेलै = जगत खेल खेलता है। रचनु रचाइआ = रचना रची है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। जिणि = जीत के।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे वीर!) परमात्मा स्वयं ही जगत-खेल खेलता है, स्वयं ही यह जगत खेल देखता है। प्रभु ने स्वयं ही ये रचना रची हुई है। यहाँ जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (कामादिक के मुकाबले की जीवन-खेल) खेलता है, वह यह बाजी जीत के प्रभु-दर पर पहुँचता है।4।1।19।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शीर्षक के अनुसार यह शब्द और इसके आगे के दोनों शब्द बसंत और हिंडोल दोनों रागों में गाए जाने की हिदायत है। यह शीर्षक ध्यान से देखना। इसी तरह का ही शीर्षक है वाणी ‘ओअंकारु’ का। जैसे यहाँ ‘बसंत’ और ‘हिंडोल’ के शब्द इकट्ठे हैं, वैसे ही वहाँ ‘रामकली’ और ‘दखणी’ दोनों इकट्ठे हैं। वाणी का नाम सिर्फ ‘ओअंकारु’ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ हिंडोल ॥ तेरी कुदरति तूहै जाणहि अउरु न दूजा जाणै ॥ जिस नो क्रिपा करहि मेरे पिआरे सोई तुझै पछाणै ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ हिंडोल ॥ तेरी कुदरति तूहै जाणहि अउरु न दूजा जाणै ॥ जिस नो क्रिपा करहि मेरे पिआरे सोई तुझै पछाणै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तू है = तू ही। जाणहि = (तू) जानता है। जाणै = जानता है। करहि = (तू) करता है। सोई = वही मनुष्य।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तेरी कुदरति (ताकत) तू स्वयं ही जानता है, कोई और (तेरी सामर्थ्य को) नहीं समझ सकता। हे मेरे प्यारे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू (स्वयं) मेहर करता है, वही तेरे साथ सांझ डालता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरिआ भगता कउ बलिहारा ॥ थानु सुहावा सदा प्रभ तेरा रंग तेरे आपारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरिआ भगता कउ बलिहारा ॥ थानु सुहावा सदा प्रभ तेरा रंग तेरे आपारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। बलिहारा = सदके। सुहावा = सुंदर, सुहाना। प्रभ = हे प्रभु! रंग = खेल तमाशे। आपारा = बेअंत।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे भक्तों से सदा सदके जाता हूँ। (उनकी ही कृपा से तेरे दर पर पहुँचा जा सकता है)। हे प्रभु! जहाँ तू बसता है वह जगह हमेशा सुंदर है, बेअंत हैं तेरे रंग-तमाशे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी सेवा तुझ ते होवै अउरु न दूजा करता ॥ भगतु तेरा सोई तुधु भावै जिस नो तू रंगु धरता ॥२॥
मूलम्
तेरी सेवा तुझ ते होवै अउरु न दूजा करता ॥ भगतु तेरा सोई तुधु भावै जिस नो तू रंगु धरता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवा = भक्ति। तुझ ते = तुझसे, तेरी प्रेरणा से। तुधु भावै = (जो) तुझे अच्छा लगता है। रंगु = प्रेम रंग।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी भक्ति तेरी प्रेरणा से ही हो सकती है, (तेरी प्रेरणा के बिना) कोई भी अन्य प्राणी (तेरी भक्ति) नहीं कर सकता। तेरा भक्त (भी) वही मनुष्य (बनता है जो) तुझे प्यारा लगता है जिस (के मन) को तू (अपने प्यार का) रंग चढ़ाता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
तू वड दाता तू वड दाना अउरु नही को दूजा ॥ तू समरथु सुआमी मेरा हउ किआ जाणा तेरी पूजा ॥३॥
मूलम्
तू वड दाता तू वड दाना अउरु नही को दूजा ॥ तू समरथु सुआमी मेरा हउ किआ जाणा तेरी पूजा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाना = समझदार। को = कोई। समरथु = सब ताकतों का मालिक। किआ जाणा = मैं क्या जानता हूँ?।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू (सबसे) बड़ा दातार है, तू (सबसे) बड़ा समझदार है (तेरे बराबर का) कोई अन्य दूसरा नहीं है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू मेरा पति है, मैं तेरी भक्ति करनी नहीं जानता (तू स्वयं ही मेहर करे, तो कर सकता हूँ)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा महलु अगोचरु मेरे पिआरे बिखमु तेरा है भाणा ॥ कहु नानक ढहि पइआ दुआरै रखि लेवहु मुगध अजाणा ॥४॥२॥२०॥
मूलम्
तेरा महलु अगोचरु मेरे पिआरे बिखमु तेरा है भाणा ॥ कहु नानक ढहि पइआ दुआरै रखि लेवहु मुगध अजाणा ॥४॥२॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महलु = ठिकाना। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जीवों की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे। बिखमु = मुश्किल। भाणा = रजा। दुआरै = (तेरे) दर पर। मुगध = मूर्ख। अजाणा = अंजान।4।
अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभु! जहाँ तू बसता है वह ठिकाना हम जीवों की ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, तेरी रजा में चलना बड़ा मुश्किल काम है। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) मैं तेरे दर पर गिर गया हूँ, मुझ मूर्ख को मुझ अंजान को (तू स्वयं हाथ दे के) बचा ले।4।2।0।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोल महला ५ ॥ मूलु न बूझै आपु न सूझै भरमि बिआपी अहं मनी ॥१॥
मूलम्
बसंतु हिंडोल महला ५ ॥ मूलु न बूझै आपु न सूझै भरमि बिआपी अहं मनी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूलु = जगत का मूल प्रभु। आपु = अपना आप। भरमि = भटकना में। बिआपी = फसी हुई। अहंमनी = अहंकार (के कारण)।1।
अर्थ: हे भाई! अहंकार के कारण (जीव की बुद्धि माया की खातिर) दौड़-भाग में फसी रहती है, (तभी जीव अपने) मूल-प्रभु के साथ सांझ नहीं डालता, और अपने आप को भी नहीं समझता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता पारब्रहम प्रभ धनी ॥ मोहि निसतारहु निरगुनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पिता पारब्रहम प्रभ धनी ॥ मोहि निसतारहु निरगुनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! धनी = मालिक। मोहि = मुझे। मोहि निरगुनी = मुझ गुणहीन को।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे पिता पारब्रहम! हे मेरे मालिक प्रभु! मुझ गुणहीन को (संसार-समुंदर से) पार लंघा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओपति परलउ प्रभ ते होवै इह बीचारी हरि जनी ॥२॥
मूलम्
ओपति परलउ प्रभ ते होवै इह बीचारी हरि जनी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। ते = से। हरि जनी = हरि के जनों ने।2।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों ने तो यही विचार किया है कि जगत की उत्पक्ति और जगत का विनाश परमात्मा के हुक्म अनुसार ही होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम प्रभू के जो रंगि राते कलि महि सुखीए से गनी ॥३॥
मूलम्
नाम प्रभू के जो रंगि राते कलि महि सुखीए से गनी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाम रंगि = नाम के प्यार में। राते = रंगे हुए। कलि महि = मानव जनम में जहाँ बेअंत विकार हमले करते रहते हैं। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। गनी = गनीं, मैं गिनता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के प्यार-रंग में रंगे रहते हैं, मैं तो उनको ही सुखी जीवन वाले समझता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवरु उपाउ न कोई सूझै नानक तरीऐ गुर बचनी ॥४॥३॥२१॥
मूलम्
अवरु उपाउ न कोई सूझै नानक तरीऐ गुर बचनी ॥४॥३॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरीऐ = पार लांघा जा सकता है। बचनी = वचन से।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु के वचन पर चल कर ही संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है। कोई और तरीका नहीं सूझता (जिसकी मदद से पार हुआ जा सके)।4।3।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बसंतु हिंडोल महला ९ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बसंतु हिंडोल महला ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधो इहु तनु मिथिआ जानउ ॥ या भीतरि जो रामु बसतु है साचो ताहि पछानो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साधो इहु तनु मिथिआ जानउ ॥ या भीतरि जो रामु बसतु है साचो ताहि पछानो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! मिथिआ = नाशवान। तनु = शरीर। जानो = समझो। या भीतरि = इस (शरीर) में। बसतु है = बसता है। साचो = सदा कायम रहने वाला। ताहि = उस (परमात्मा) को।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! इस शरीर को नाशवान समझो। इस शरीर में जो पदार्थ बस रहा है, (सिर्फ) उसको सदा कायम रहने वाला जानो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु जगु है स्मपति सुपने की देखि कहा ऐडानो ॥ संगि तिहारै कछू न चालै ताहि कहा लपटानो ॥१॥
मूलम्
इहु जगु है स्मपति सुपने की देखि कहा ऐडानो ॥ संगि तिहारै कछू न चालै ताहि कहा लपटानो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संपति = संपक्ति, धन। संपति सुपने की = वह धन जो मनुष्य कई बार सपने में पा लेता है पर असलियत में नहीं होता। देखि = देख के। कहा = कहाँ? क्यों? ऐडानो = अकड़ता है, अहंकार करता है। संगि तिहारै = तेरे साथ। चालै = चलता। ताहि = उस (धन) के साथ। लपटानो = चिपका हुआ है।1।
अर्थ: हे भाई! यह जगत उस धन के समान ही है जो सपने में मिल जाता है (और, जागते ही खत्म हो जाता है) (इस जगत को धन को) देख के अहंकार क्यों करता है? यहाँ कोई भी चीज़ (अंत समय में) तेरे साथ नहीं जा सकती। फिर इससे क्यों चिपका हुआ है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उसतति निंदा दोऊ परहरि हरि कीरति उरि आनो ॥ जन नानक सभ ही मै पूरन एक पुरख भगवानो ॥२॥१॥
मूलम्
उसतति निंदा दोऊ परहरि हरि कीरति उरि आनो ॥ जन नानक सभ ही मै पूरन एक पुरख भगवानो ॥२॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह शब्द ‘बसंत’ और ‘हिंडोल’ दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = (मनुष्य की) खुशामद। निंदा = चुगली। परहरि = दूर कर, छोड़ दे। कीरति = महिमा। उरि = हृदय में। आनो = लाओ, बसाओ। पूरनु = व्यापक।2।
अर्थ: हे भाई! किसी की खुशामद किसी की निंदा- ये दोनों काम छोड़ दे। सिर्फ परमात्मा की महिमा (अपने) हृदय में बसाओ। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) सिर्फ वह भगवान पुरख ही (सलाहने-योग्य है जो) सब जीवों में व्यापक है।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ९ ॥ पापी हीऐ मै कामु बसाइ ॥ मनु चंचलु या ते गहिओ न जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बसंतु महला ९ ॥ पापी हीऐ मै कामु बसाइ ॥ मनु चंचलु या ते गहिओ न जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पापी कामु = पापों में फसाने वाली काम-वासना। हीऐ मै = (मनुष्य के) हृदय में। बसाइ = टिका रहता है। या ते = इस कारण। गहिओ न जाइ = पकड़ा नहीं जा सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पापों में फसाने वाली काम-वासना (मनुष्य के) हृदय में टिकी रहती है, इस वास्ते (मनुष्य का) चंचल मन काबू में नहीं आ सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगी जंगम अरु संनिआस ॥ सभ ही परि डारी इह फास ॥१॥
मूलम्
जोगी जंगम अरु संनिआस ॥ सभ ही परि डारी इह फास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जंगम = शिव उपासक साधु जो अपने सिर पर मोर के पँख बाँध के टल्लियाँ बजाते हुए दर-दर माँगते फिरते हैं। अरु = और। परि = ऊपर। डारी = डाली हुई, फेंकी हुई। फास = फंदा, फाही।1।
अर्थ: हे भाई! जोगी जंगम और सन्यासी (जो अपनी तरफ़ से माया का) त्याग कर गए हैं: इस सबके ऊपर ही (माया ने काम-वासना का) यह फंदा फेंका हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिहि जिहि हरि को नामु सम्हारि ॥ ते भव सागर उतरे पारि ॥२॥
मूलम्
जिहि जिहि हरि को नामु सम्हारि ॥ ते भव सागर उतरे पारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाया है, वे सभी संसार-समुंदर (के विकारों) से पार लांघ जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन नानक हरि की सरनाइ ॥ दीजै नामु रहै गुन गाइ ॥३॥२॥
मूलम्
जन नानक हरि की सरनाइ ॥ दीजै नामु रहै गुन गाइ ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीजै = दें। रहै गाइ = गाता रहे।3।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा का दास परमात्मा की शरण पड़ा रहता है (परमात्मा के दर पर वह अरजोई करता रहता है: हे प्रभु! अपने दास को अपना) नाम दे (ताकि तेरा दास तेरे) गुण गाता रहे (इस तरह वह कामादिक विकारों की मार से बचा रहता है)।3।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ९ ॥ माई मै धनु पाइओ हरि नामु ॥ मनु मेरो धावन ते छूटिओ करि बैठो बिसरामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बसंतु महला ९ ॥ माई मै धनु पाइओ हरि नामु ॥ मनु मेरो धावन ते छूटिओ करि बैठो बिसरामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! पाइओ = (गुरु से) पा लिया है। धावन ते = (माया की खातिर) दौड़ भाग करने से। छूटिओ = बच गया है। करि = कर के। बिसरामु = ठिकाना। करि बिसरामु = नाम धन में ठिकाना बना के।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! (जब का गुरु की शरण पड़ कर) मैंने नाम-धन हासिल किया है, मेरा मन (माया की खातिर) दौड़-भाग करने से बच गया है, (अब मेरा मन नाम-धन में) ठिकाना बना के बैठ गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ ममता तन ते भागी उपजिओ निरमल गिआनु ॥ लोभ मोह एह परसि न साकै गही भगति भगवान ॥१॥
मूलम्
माइआ ममता तन ते भागी उपजिओ निरमल गिआनु ॥ लोभ मोह एह परसि न साकै गही भगति भगवान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माइआ ममता = माया की ममता, माया इकट्ठी करने की लालसा। तन ते = (मेरे) शरीर से। निरमल गिआनु = निर्मल प्रभु का ज्ञान, शुद्ध-स्वरूप परमात्मा के साथ जान पहचान। परसि न साकै = (मुझे) छू नहीं सकते, मेरे नजदीक नहीं फटकते, मेरे पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। गही = पकड़ी।1।
अर्थ: हे मेरी माँ! (गुरु की किरपा से मेरे अंदर) शुद्ध-स्वरूप-परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन गई है (जिसके कारण) मेरे शरीर में से माया जोड़ने की (धन एकत्र करने की) लालसा दूर हो गई है। (जब से मैंने) भगवान की भक्ति हृदय में बसाई है लोभ और मोह ये मेरे ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम का संसा चूका रतनु नामु जब पाइआ ॥ त्रिसना सकल बिनासी मन ते निज सुख माहि समाइआ ॥२॥
मूलम्
जनम जनम का संसा चूका रतनु नामु जब पाइआ ॥ त्रिसना सकल बिनासी मन ते निज सुख माहि समाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसा = सहम, संशय। चूका = समाप्त हो गया। रतनु नामु = अमूल्य हरि नाम। जब = जब से। मन ते = मन से। निज = अपना, अपने साथ सदा बने रहने वाला।2।
अर्थ: हे मेरी माँ! जब से (गुरु की कृपा से) मैंने परमात्मा का अमूल्य नाम पाया है, मेरा जन्मों-जन्मांतरों का सहम दूर हो गया है; मेरे मन में से सारी तृष्णा समाप्त हो गई है, अब मैं उस आनंद में टिका रहता हूँ जो सदा मेरे साथ बना रहने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ होत दइआलु किरपा निधि सो गोबिंद गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि की स्मपै कोऊ गुरमुखि पावै ॥३॥३॥
मूलम्
जा कउ होत दइआलु किरपा निधि सो गोबिंद गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि की स्मपै कोऊ गुरमुखि पावै ॥३॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। दइआलु = दयावान। किरपा निधि = कृपा का खजाना प्रभु। सो = वह मनुष्य (एकवचन)। गावै = गाता है। संपै = धन। इह बिधि की संपै = इस तरह का धन। कोऊ = कोई विरला ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।3।
अर्थ: हे माँ! कृपा का खजाना गोबिंद जिस मनुष्य पर दयावान होता है, वह मनुष्य उसके गुण गाता रहता है। हे नानक! कह: (हे माँ!) कोई विरला मनुष्य इस किस्म का धन गुरु के सन्मुख रह के हासिल करता है।3।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ९ ॥ मन कहा बिसारिओ राम नामु ॥ तनु बिनसै जम सिउ परै कामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बसंतु महला ९ ॥ मन कहा बिसारिओ राम नामु ॥ तनु बिनसै जम सिउ परै कामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! कहा = कहाँ? क्यों? तनु = शरीर। बिनसै = नाश होता है। जम सिउ = जमों से। कामु = काम, वास्ता। परे = पड़ता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तू परमात्मा का नाम क्यों भुलाए बैठा है? (जब) शरीर नाश हो जाता है, (तब परमात्मा के नाम के बिना) जमों से वास्ता पड़ता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु जगु धूए का पहार ॥ तै साचा मानिआ किह बिचारि ॥१॥
मूलम्
इहु जगु धूए का पहार ॥ तै साचा मानिआ किह बिचारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहार = पहाड़। तै = तू। साचा = सदा कायम रहने वाला। मानिआ = मान लिया है। किह बिचारि = क्या विचार के? क्या समझ के?।1।
अर्थ: हे मन! यह संसार (तो, मानो) धूएँ का पहाड़ है (जिसको हवा का एक बुल्ला उड़ा के ले जाता है)। हे मन! तू क्या समझ के (इस जगत को) सदा कायम रहने वाला माने बैठा है?।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
धनु दारा स्मपति ग्रेह ॥ कछु संगि न चालै समझ लेह ॥२॥
मूलम्
धनु दारा स्मपति ग्रेह ॥ कछु संगि न चालै समझ लेह ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दारा = स्त्री। संपति = धन पदार्थ। ग्रेह = गृह, घर। संगि = साथ। कछु = कोई भी चीज़।2।
अर्थ: हे मन! (अच्छी तरह समझ ले कि) धन, स्त्री, जयदाद, घर- इनमें से कोई भी चीज़ (मौत के वक्त जीव के) साथ नहीं जाती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक भगति नाराइन होइ संगि ॥ कहु नानक भजु तिह एक रंगि ॥३॥४॥
मूलम्
इक भगति नाराइन होइ संगि ॥ कहु नानक भजु तिह एक रंगि ॥३॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इक = सिर्फ। कहु = कह। नानक = हे नानक! भजु तिह = उस परमात्मा का भजन कर। एक रंगि = एक के प्यार में (जुड़ के)।3।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) सिर्फ परमात्मा की भक्ति ही मनुष्य के साथ रहती है (इसलिए) सिर्फ परमात्मा के प्यार में (टिक के) उसका भजन किया कर।3।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ९ ॥ कहा भूलिओ रे झूठे लोभ लाग ॥ कछु बिगरिओ नाहिन अजहु जाग ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बसंतु महला ९ ॥ कहा भूलिओ रे झूठे लोभ लाग ॥ कछु बिगरिओ नाहिन अजहु जाग ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा भूलिओ = कहाँ भटक रहा है? रे = हे भाई! लोभि = लोभ में। लागि = लग के। नाहिन = नहीं। अजहु = अब भी। जागु = सचेत हो, समझदार बन।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! नाशवान दुनिया के लोभ में फंस के (हरि-नाम से टूट के) कहाँ भटकता फिरता है? अब तो समझदार बन, (और, परमात्मा का नाम जपा कर। अगर बाकी की उम्र स्मरण में गुजार ले, तो भी तेरा) कुछ बिगड़ा नहीं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम सुपनै कै इहु जगु जानु ॥ बिनसै छिन मै साची मानु ॥१॥
मूलम्
सम सुपनै कै इहु जगु जानु ॥ बिनसै छिन मै साची मानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सम = बराबर। जानु = समझ। छिन महि = एक छिन में। साची मानु = यह बात सच्ची मान।1।
अर्थ: हे भाई! इस जगत को सपने (में देखे पदार्थों) के बराबर समझ। इह बात सच्ची मान कि (यह जगत) एक छिन में नाश हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगि तेरै हरि बसत नीत ॥ निस बासुर भजु ताहि मीत ॥२॥
मूलम्
संगि तेरै हरि बसत नीत ॥ निस बासुर भजु ताहि मीत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। नीत = सदा। निसि = रात। बासुर = दिन। भजु ताहि = उसका भजन किया कर। मीत = हे मित्र!।2।
अर्थ: हे मित्र! परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है। तू दिन-रात उसका ही भजन किया कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार अंत की होइ सहाइ ॥ कहु नानक गुन ता के गाइ ॥३॥५॥
मूलम्
बार अंत की होइ सहाइ ॥ कहु नानक गुन ता के गाइ ॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बार अंत की = अंत के समय। सहाइ = सहायक, मददगार। ता के = उस (प्रभु) के।3।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) आखिरी समय में परमात्मा ही मददगार बनता है। तू (सदा) उसके गुण गाया कर।3।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ असटपदीआ घरु १ दुतुकीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु महला १ असटपदीआ घरु १ दुतुकीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगु कऊआ नामु नही चीति ॥ नामु बिसारि गिरै देखु भीति ॥ मनूआ डोलै चीति अनीति ॥ जग सिउ तूटी झूठ परीति ॥१॥
मूलम्
जगु कऊआ नामु नही चीति ॥ नामु बिसारि गिरै देखु भीति ॥ मनूआ डोलै चीति अनीति ॥ जग सिउ तूटी झूठ परीति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगु = जगत, माया ग्रसित जीव। चीति = चिक्त में। गिरै = गिरता है। देखु = (हे भाई!) देख। भीति = भिक्ति, चोगा। अनीति = बदनीति। सिउ = साथ। तूटी = टूट जाती है, सदा नहीं निभती।1।
अर्थ: (हे भाई!) देख, जिसके चिक्त में परमात्मा का नाम नहीं है वह माया-ग्रसित जीव कौए (के स्वभाव वाला) है; प्रभु का नाम भुला के (वह कौए की तरह) चौगे पर गिरता है, उसका मन (माया की ओर ही) डोलता रहता है, उसके चिक्त में (सदा) खोट ही होता है। पर दुनिया की माया के साथ यह प्रीति झूठी है, कभी भी साथ नहीं निभती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु बिखु बजरु भारु ॥ नाम बिना कैसे गुन चारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कामु क्रोधु बिखु बजरु भारु ॥ नाम बिना कैसे गुन चारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर। बजरु = बज्र, कठोर। गुन चारु = गुणों वाला आचार (आचरण)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) काम और क्रोध (मानो) जहर है (जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देता है), यह (जैसे) एक करड़ा बज्र बोझ है (जिसके नीचे दब के आत्मिक जीवन मर जाता है)। गुणों वाला आचरण (आत्मिक जीवन) परमात्मा का नाम स्मरण के बिना कभी बन ही नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरु बालू का घूमन घेरि ॥ बरखसि बाणी बुदबुदा हेरि ॥ मात्र बूंद ते धरि चकु फेरि ॥ सरब जोति नामै की चेरि ॥२॥
मूलम्
घरु बालू का घूमन घेरि ॥ बरखसि बाणी बुदबुदा हेरि ॥ मात्र बूंद ते धरि चकु फेरि ॥ सरब जोति नामै की चेरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बालू = रेत। बरखसि = बरखा होने पर। बाणी = बनावट। हेरि = देख। ते = से। धरि = बना देता है। फेरि = फेर के। नामै की = नाम की ही। चेरि = चेरी, दासी।2।
अर्थ: (हे भाई!) देख, जैसे बवंडर में रेत का घर बना हुआ हो, जैसे बरखा के वक्त बुलबुला बन जाता है (वैसे ही इस शरीर की भी हस्ती है, जिसको विधाता ने अपनी कुदरति का) चक्का घुमा के (पिता के वीर्य की) बूँद मात्र से रच दिया है (जैसे कोई कुम्हार चक्का घुमा के मिट्टी से बर्तन बना देता है)। (सो, हे भाई! यदि तूने आत्मिक मौत से बचना है तो अपनी जिंद को) उस प्रभु के नाम की दासी बना जिसकी ज्योति सब जीवों में मौजूद है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब उपाइ गुरू सिरि मोरु ॥ भगति करउ पग लागउ तोर ॥ नामि रतो चाहउ तुझ ओरु ॥ नामु दुराइ चलै सो चोरु ॥३॥
मूलम्
सरब उपाइ गुरू सिरि मोरु ॥ भगति करउ पग लागउ तोर ॥ नामि रतो चाहउ तुझ ओरु ॥ नामु दुराइ चलै सो चोरु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरिमोरु = शिरोमणी। करउ = मैं करूँ। पग तोर = तेरे चरणों में। नामि = नाम में। ओरु = पासा, आसरा। दुराइ = छुपा के। चलै = जीवन पथ पर चलता है।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जीव पैदा करके सब के सिर पर शिरोमणि है, गुरु है। मेरी यह तमन्ना है कि मैं तेरी भक्ति करूँ, मैं तेरे चरणों में लगा रहूँ, तेरे नाम-रंग में रंगा रहूँ और तेरा ही पल्ला पकड़े रखूँ। जो मनुष्य तेरे नाम को (अपनी जिंद से) दूर-दूर रख के (जीवन-पथ पर) चलता है वह तेरा चोर है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पति खोई बिखु अंचलि पाइ ॥ साच नामि रतो पति सिउ घरि जाइ ॥ जो किछु कीन्हसि प्रभु रजाइ ॥ भै मानै निरभउ मेरी माइ ॥४॥
मूलम्
पति खोई बिखु अंचलि पाइ ॥ साच नामि रतो पति सिउ घरि जाइ ॥ जो किछु कीन्हसि प्रभु रजाइ ॥ भै मानै निरभउ मेरी माइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। अंचलि पाइ = पल्ले बाँध के। कीन्सि = करता है। माइ = हे माँ!।4।
अर्थ: हे मेरी माँ! जो मनुष्य (विकारों की) जहर ही पल्ले बाँधता है वह अपनी इज्जत गवा लेता है, पर जो व्यक्ति सदा-स्थिर परमात्मा के नाम-रंग में रंगा जाता है, वह प्रभु के देश में आदर से जाता है। (उसको ये यकीन होता है कि) प्रभु जो कुछ करता है अपनी रज़ा में करता है (किसी और का उसकी रज़ा में कोई दख़ल नहीं), और जो व्यक्ति उसके डर-अदब में रहने लग जाता है वह (इस जीवन-यात्रा में काम-क्रोध आदि की ओर से) बे-फिक्र हो के चलता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामनि चाहै सुंदरि भोगु ॥ पान फूल मीठे रस रोग ॥ खीलै बिगसै तेतो सोग ॥ प्रभ सरणागति कीन्हसि होग ॥५॥
मूलम्
कामनि चाहै सुंदरि भोगु ॥ पान फूल मीठे रस रोग ॥ खीलै बिगसै तेतो सोग ॥ प्रभ सरणागति कीन्हसि होग ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामनि = स्त्री। सुदरि = सुंदर। खीलै = खेलती है, ख्लि्लियाँ उड़ाती है। बिगसै = खिली है, खुश होती है। तेतो = उतना ही (ज्यादा)। कीन्सि = करता है।5।
अर्थ: सुंदर जीव-स्त्री दुनिया के बढ़िया पदार्थों के भोग की अभिलाषा करती है, पर ये पान फूल मीठे पदार्थों के सवाद- यह सब और, और विकार और रोग ही पैदा करते हैं। जितना ज्यादा वह इन भोगों में खिल्लियाँ उड़ाती है और खुश होती है उतना ही ज्यादा दुख-रोग व्यापता है। पर, जो जीव-स्त्री प्रभु की शरण में आ जाती है (वह रजा में चलती है उसको निष्चय हो जाता है कि) जो कुछ प्रभु करता है वही होता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कापड़ु पहिरसि अधिकु सीगारु ॥ माटी फूली रूपु बिकारु ॥ आसा मनसा बांधो बारु ॥ नाम बिना सूना घरु बारु ॥६॥
मूलम्
कापड़ु पहिरसि अधिकु सीगारु ॥ माटी फूली रूपु बिकारु ॥ आसा मनसा बांधो बारु ॥ नाम बिना सूना घरु बारु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहिरसि = पहनती है। अधिकु = बहुत। माटी = मिट्टी की मूर्ति, काया। फूली = फूलती है, माण करती है। बारु = दरवाजा (जिस रास्ते से प्रभु से मिला जा सकता है)। घरु बारु = घर बार, हृदय।6।
अर्थ: जो जीव-स्त्री सुंदर-सुंदर कपड़े पहनती है बढ़-चढ़ के श्रृंगार करती है, अपनी काया को देख-देख के फूली नहीं समाती, उसका रूप उसको और ज्यादा विकारों की तरफ प्रेरित करता है, दुनियाँ की आशाएं और ख़्वाहिशें उसके (दसवें) दरवाजे को बँद कर देती हैं, परमात्मा के नाम के बिना उसका हृदय-घर सूना ही रहता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाछहु पुत्री राज कुआरि ॥ नामु भणहु सचु दोतु सवारि ॥ प्रिउ सेवहु प्रभ प्रेम अधारि ॥ गुर सबदी बिखु तिआस निवारि ॥७॥
मूलम्
गाछहु पुत्री राज कुआरि ॥ नामु भणहु सचु दोतु सवारि ॥ प्रिउ सेवहु प्रभ प्रेम अधारि ॥ गुर सबदी बिखु तिआस निवारि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाछहु = जाओ (मुझे गलत रास्ते पर डालने के प्रयत्न ना करो)। पुत्री राज कुआरि = हे पुत्री! हे राज कुमारी! हे मेरी जिंदे! दोतु = अमृत बेला, सवेरा, दिन। सवारि = सवार के, संभाल के। अधारि = आसरे से। तिआस = माया की तृष्णा।7।
अर्थ: हे जिंदे! उठ उद्यम कर, तू सारे जगत के राजा-प्रभु की अंश है, तू राज-पुत्री है, तू राज कुमारी है, अमृत बेला की संभाल कर के नित्य उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम स्मरण कर। प्रभु के प्रेम के आसरे रह के उस प्रीतम की सेवा-भक्ति कर, और गुरु के शब्द में जुड़ के माया की तृष्णा को दूर कर। यह तृष्णा जहर है जो तेरे आत्मिक जीवन को मार देगी।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहनि मोहि लीआ मनु मोहि ॥ गुर कै सबदि पछाना तोहि ॥ नानक ठाढे चाहहि प्रभू दुआरि ॥ तेरे नामि संतोखे किरपा धारि ॥८॥१॥
मूलम्
मोहनि मोहि लीआ मनु मोहि ॥ गुर कै सबदि पछाना तोहि ॥ नानक ठाढे चाहहि प्रभू दुआरि ॥ तेरे नामि संतोखे किरपा धारि ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहनि = मोहन ने। मनु मोहि = मेरा मन। तोहि = (हे प्रभु) तुझे। ठाढे = खड़े हुए। दुआरि = दर पे। नामि = नाम में। किरपा धारि = मेहर कर।8।
अर्थ: हे नानक! (प्रार्थना कर और कह:) तुझ मोहन ने (अपने करिश्मों से) मेरा मन मोह लिया है, (कृपा कर ताकि) मैं गुरु के शब्द के माध्यम से तुझे पहचान सकूँ। हे प्रभु! हम जीव तेरे दर पर खड़े (विनती करते हैं), कृपा कर, तेरे नाम में जुड़ के हम संतोष धारण कर सकें।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ मनु भूलउ भरमसि आइ जाइ ॥ अति लुबध लुभानउ बिखम माइ ॥ नह असथिरु दीसै एक भाइ ॥ जिउ मीन कुंडलीआ कंठि पाइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ मनु भूलउ भरमसि आइ जाइ ॥ अति लुबध लुभानउ बिखम माइ ॥ नह असथिरु दीसै एक भाइ ॥ जिउ मीन कुंडलीआ कंठि पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमसि = भटकता है। आइ जाइ = आता है जाता है, दौड़ भाग करता है। अति = बहुत। लुबध = लालची। लुभानउ = लालच में फसा हुआ है। बिखम माइ = मुश्किल माया, वह माया जिससे बचना बहुत मुश्किल है। एक भाइ = एक परमात्मा के प्यार में। मीन = मछली। कंठि = गले में।1।
अर्थ: (माया के मोह के कारण) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ मन भटकता है (माया की खातिर ही) दौड़-भाग करता रहता है, बड़ा लालची हुआ रहता है, उस माया के लालच में फसा रहता है, जिसके फंदे में से निकलना बहुत मुश्किल है (जब तक मन माया के अधीन रहता है, तब तक) यह कभी ठहराव की अवस्था में नहीं दिखता, एक प्रभु के प्रेम में (मगन) नहीं दिखता। जैसे मछली (भिक्ती के लालच में) अपने गले में कुंडी डलवा लेती है, (वैसे ही मन माया की गुलामी में अपने आप को फसा लेता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु भूलउ समझसि साच नाइ ॥ गुर सबदु बीचारे सहज भाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मनु भूलउ समझसि साच नाइ ॥ गुर सबदु बीचारे सहज भाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचि नाइ = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = प्रेम में। सहज भाइ = अडोलता के भाव में।1। रहाउ।
अर्थ: (माया के मोह के कारण) गलत राह पर पड़ा हुआ मन सदा-स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के ही) अपनी भूल को समझता है। (जब मन) गुरु के शब्द को विचारता है तब यह आत्मिक अडोलता के भाव में (टिकता है)।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु भूलउ भरमसि भवर तार ॥ बिल बिरथे चाहै बहु बिकार ॥ मैगल जिउ फाससि कामहार ॥ कड़ि बंधनि बाधिओ सीस मार ॥२॥
मूलम्
मनु भूलउ भरमसि भवर तार ॥ बिल बिरथे चाहै बहु बिकार ॥ मैगल जिउ फाससि कामहार ॥ कड़ि बंधनि बाधिओ सीस मार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवर तार = भौरे की तरह। बिल = इंद्रिय। बिरथे बिकार = व्यर्थ विकार। मैगल = हाथी (मदकल)। कामहार = कामातुर, काम अधीन। कड़ि = कुढ़ के, बँध के। बंधनि = बंधन से, रस्से से। सीस मार = सिर पे मार।2।
अर्थ: (माया के प्रभाव के कारण) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ मन भौरे की तरह भटकता है, मन इन्द्रियों के द्वारा बहुत सारे व्यर्थ के विकार करना चाहता है, यह मन कामातुर हाथी की तरह फंस जाता है जो जंजीरों से कड़ों से बाँधा जाता है और सिर पर चोटें सहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु मुगधौ दादरु भगतिहीनु ॥ दरि भ्रसट सरापी नाम बीनु ॥ ता कै जाति न पाती नाम लीन ॥ सभि दूख सखाई गुणह बीन ॥३॥
मूलम्
मनु मुगधौ दादरु भगतिहीनु ॥ दरि भ्रसट सरापी नाम बीनु ॥ ता कै जाति न पाती नाम लीन ॥ सभि दूख सखाई गुणह बीन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुगधौ = मूर्ख। दादरु = मेंढक। दरि भ्रसट = दर से गिरा हुआ। बीनु = बगैर, बिना। गुणह बीन = गुणहीन।3।
अर्थ: मूर्ख मन भक्ति से वंचित रहता है, (यह मूर्ख मन, मानो) मेंढक है (जो नजदीक ही उगे हुए कमल के फूल की कद्र नहीं जानता)। (गलत राह पर पड़ा हुआ मन) प्रभु के दर से गिरा हुआ है, (जैसे) श्रापित है, परमात्मा के नाम से वंचित है। जो मनुष्य नाम से ख़ाली है उसकी ना कोई अच्छी जाति मानी जाती है ना अच्छी कुल, कोई उसका नाम तक नहीं लेता, वह आत्मिक गुणों से वंचित रहता है, सारे दुख ही दुख उसके साथी बने रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु चलै न जाई ठाकि राखु ॥ बिनु हरि रस राते पति न साखु ॥ तू आपे सुरता आपि राखु ॥ धरि धारण देखै जाणै आपि ॥४॥
मूलम्
मनु चलै न जाई ठाकि राखु ॥ बिनु हरि रस राते पति न साखु ॥ तू आपे सुरता आपि राखु ॥ धरि धारण देखै जाणै आपि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकि = रोक के। सासु = एतबार। सुरता = ध्यान रखने वाला। राखु = रखवाला। धारि = धारण करके, पैदा करके। धारण = धरती, धरणी।4।
अर्थ: हे भाई! ये मन चंचल है, इसको रोक के रख ताकि यह (विकारों के पीछे) भटकता ना फिरे। परमात्मा के नाम-रस में रंगे जाने के बिना ना कभी इज्जत मिलती है ना कोई ऐतबार करता है।
सृष्टि रच के परमात्मा स्वयं ही (इसकी आवश्यक्ताएं भी) जानता है (इस वास्ते, हे भाई! प्रभु के दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) तू स्वयं ही (हम जीवों की अरदासें) सुनने वाला है, और स्वयं ही हमारा रखवाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि भुलाए किसु कहउ जाइ ॥ गुरु मेले बिरथा कहउ माइ ॥ अवगण छोडउ गुण कमाइ ॥ गुर सबदी राता सचि समाइ ॥५॥
मूलम्
आपि भुलाए किसु कहउ जाइ ॥ गुरु मेले बिरथा कहउ माइ ॥ अवगण छोडउ गुण कमाइ ॥ गुर सबदी राता सचि समाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहउ = मैं कहूँ। बिरथा = (व्यथा) दुख, पीड़ा। माइ = हे माँ! कमाइ = बिहाज के, कमा के। सचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में।5।
अर्थ: हे माँ! मैं प्रभु के बिना और किसको जा के कहूँ? प्रभु स्वयं ही (जीवों को) गलत राह पर डालता है, प्रभु स्वयं ही गुरु मिलाता है, सो, मैं गुरु के दर पर ही दिल का दुख कह सकता हूँ। गुरु की सहायता से ही गुण कमा के अवगुण त्याग सकता हूँ। जो मनुष्य गुरु के शब्द में मस्त रहता है, वह उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर मिलिऐ मति ऊतम होइ ॥ मनु निरमलु हउमै कढै धोइ ॥ सदा मुकतु बंधि न सकै कोइ ॥ सदा नामु वखाणै अउरु न कोइ ॥६॥
मूलम्
सतिगुर मिलिऐ मति ऊतम होइ ॥ मनु निरमलु हउमै कढै धोइ ॥ सदा मुकतु बंधि न सकै कोइ ॥ सदा नामु वखाणै अउरु न कोइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उतम = श्रेष्ठ। धोइ = धो के। बंधि न सकै = बाँध नहीं सकता।6।
अर्थ: यदि गुरु मिल जाए तो (मनुष्य की) मति श्रेष्ठ हो जाती है, मन पवित्र हो जाता है, वह मनुष्य अपने मन में से अहंकार की मैल धो के निकाल देता है, वह विकारों से सदा बचा रहता है, कोई (विकार) उसको काबू नहीं कर सकता, वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, कोई और (शुगल उसको अपनी तरफ खींच) नहीं सकते।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु हरि कै भाणै आवै जाइ ॥ सभ महि एको किछु कहणु न जाइ ॥ सभु हुकमो वरतै हुकमि समाइ ॥ दूख सूख सभ तिसु रजाइ ॥७॥
मूलम्
मनु हरि कै भाणै आवै जाइ ॥ सभ महि एको किछु कहणु न जाइ ॥ सभु हुकमो वरतै हुकमि समाइ ॥ दूख सूख सभ तिसु रजाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाणै = रजा में। आवै जाइ = भटकता है। हुकमि = हुक्म में।7।
अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश? इस मन की कोई पेश नहीं चलती) यह मन परमात्मा की रज़ा अनुसार (माया के मोह में) भटकता फिरता है, वह प्रभु स्वयं ही सब जीवों में बसता है (उसकी रज़ा के उलट) कोई हील-हुज्जत नहीं की जा सकती। हर जगह प्रभु का हुक्म ही चल रहा है, सारी सृष्टि प्रभु के हुक्म में ही बँधी रहती है। (जीव को होने वाले) सारे दुख और सुख उस परमात्मा की रजा के अनुसार ही हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू अभुलु न भूलौ कदे नाहि ॥ गुर सबदु सुणाए मति अगाहि ॥ तू मोटउ ठाकुरु सबद माहि ॥ मनु नानक मानिआ सचु सलाहि ॥८॥२॥
मूलम्
तू अभुलु न भूलौ कदे नाहि ॥ गुर सबदु सुणाए मति अगाहि ॥ तू मोटउ ठाकुरु सबद माहि ॥ मनु नानक मानिआ सचु सलाहि ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगाहि = अगाध। सलाहि = सलाह के, महिमा करके।8।
अर्थ: हे प्रभु! तू अमोध है, गलती नहीं करता, तूझमें कभी भी कोई कमी नहीं आती। (तेरी रजा के अनुसार) गुरु जिसको अपना शब्द सुनाता है उस मनुष्य की मति भी अगाध (गहरी) हो जाती है (भाव, वह भी गहरी समझ वाला हो जाता है और किसी तरह की कोई कमी-बेशी उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती)। हे प्रभु! तू बड़ा (पालनहार) मालिक है और गुरु के शब्द में बसता है (भाव, जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है उसको तेरे दर्शन हो जाते हैं)।
उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा कर के नानक का मन (उसकी याद में) पतीज गया है।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ दरसन की पिआस जिसु नर होइ ॥ एकतु राचै परहरि दोइ ॥ दूरि दरदु मथि अम्रितु खाइ ॥ गुरमुखि बूझै एक समाइ ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ दरसन की पिआस जिसु नर होइ ॥ एकतु राचै परहरि दोइ ॥ दूरि दरदु मथि अम्रितु खाइ ॥ गुरमुखि बूझै एक समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकतु = एक (परमात्मा) में ही। परहरि = त्याग के। दोइ = द्वैत, किसी और आसरे की झाक। मथि = मथ के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के एक समाइ = एक प्रभु के नाम में लीन हो जाता है।1।
अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा के दर्शन की तमन्ना होती है, वह प्रभु के बिना और आसरे छोड़ के एक परमात्मा के नाम में ही मस्त रहता है। (जैसे दूध मथ के, बार-बार मथानी हिला के, मक्खन निकाला जाता है, वैसे ही) वह मनुष्य बार-बार स्मरण करके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस चखता है, और उसका दुख-कष्ट दूर हो जाता है। गुरु की शरण पड़ के वह (परमात्मा के सही स्वरूप को) समझ लेता है, और उस एक प्रभु के नाम में लीन रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे दरसन कउ केती बिललाइ ॥ विरला को चीनसि गुर सबदि मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरे दरसन कउ केती बिललाइ ॥ विरला को चीनसि गुर सबदि मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केती = बेअंत दुनिया। बिललाइ = तरले लेती है, विलकती है। चीनसि = पहचानता है। मिलाइ = मिल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! बेअंत दुनिया तेरे दर्शन के लिए तरले लेती है, पर कोई विरला मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (तेरे स्वरूप को) पहचानता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद वखाणि कहहि इकु कहीऐ ॥ ओहु बेअंतु अंतु किनि लहीऐ ॥ एको करता जिनि जगु कीआ ॥ बाझु कला धरि गगनु धरीआ ॥२॥
मूलम्
बेद वखाणि कहहि इकु कहीऐ ॥ ओहु बेअंतु अंतु किनि लहीऐ ॥ एको करता जिनि जगु कीआ ॥ बाझु कला धरि गगनु धरीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखाणि = व्याख्या करके। कहीऐ = स्मरणा चाहिए। किनि = किस ने? जिनि = जिस प्रभु ने। कला = (कोई दिखता) साधन। धरि = धरती। गगनु = आकाश। धरीआ = टिकाया है।2।
अर्थ: वेद आदि धर्म पुस्तक भी व्याख्या करके यही कहते हैं कि एक उस परमात्मा को स्मरणा चाहिए जो बेअंत है और जिस का अंत किसी जीव ने नहीं पाया। वह एक स्वयं ही स्वयं कर्तार है जिसने जगत रचा है, जिसने किसी दिखाई देते सहारे के बिना ही धरती और आकाश को ठहराया हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको गिआनु धिआनु धुनि बाणी ॥ एकु निरालमु अकथ कहाणी ॥ एको सबदु सचा नीसाणु ॥ पूरे गुर ते जाणै जाणु ॥३॥
मूलम्
एको गिआनु धिआनु धुनि बाणी ॥ एकु निरालमु अकथ कहाणी ॥ एको सबदु सचा नीसाणु ॥ पूरे गुर ते जाणै जाणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुनि = लगन। बाणी = महिमा। निरालमु = (निर् आलम्ब) जिसको किसी और आसरे की जरूरत नहीं। अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। नीसाणु = परवाना, राहदारी। ते = से। जाणु = सुजान मनुष्य।3।
अर्थ: समझदार मनुष्य पूरे गुरु से समझ लेता है कि परमात्मा की महिमा की लगन ही असल ज्ञान है और असल ध्यान (जोड़ना) है। एक परमात्मा ही ऐसा है जिसको किसी सहारे की आवश्यक्ता नहीं, उस अकथ प्रभु की महिमा करनी चाहिए, उसकी महिमा का शब्द ही (मनुष्य के पास जीव-पथ में) सच्चा परवाना है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको धरमु द्रिड़ै सचु कोई ॥ गुरमति पूरा जुगि जुगि सोई ॥ अनहदि राता एक लिव तार ॥ ओहु गुरमुखि पावै अलख अपार ॥४॥
मूलम्
एको धरमु द्रिड़ै सचु कोई ॥ गुरमति पूरा जुगि जुगि सोई ॥ अनहदि राता एक लिव तार ॥ ओहु गुरमुखि पावै अलख अपार ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो कोई मनुष्य अपने हृदय में यह निश्चय बैठा लेता है कि सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरणा हीएक मात्र ठीक धर्म है, वही गुरु की मति का आसरा ले के सदा के लिए (विकारों के मुकाबले पर) अडोल हो जाता है; वह मनुष्य एक-तार तवज्जो जोड़ के अविनाशी प्रभु में मस्त रहता है, गुरु की शरण पड़ के वह मनुष्य अदृष्य और बेअंत प्रभु के दर्शन कर लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको तखतु एको पातिसाहु ॥ सरबी थाई वेपरवाहु ॥ तिस का कीआ त्रिभवण सारु ॥ ओहु अगमु अगोचरु एकंकारु ॥५॥
मूलम्
एको तखतु एको पातिसाहु ॥ सरबी थाई वेपरवाहु ॥ तिस का कीआ त्रिभवण सारु ॥ ओहु अगमु अगोचरु एकंकारु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारु = मूल, तत्व। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। एकंकारु = एक स्वयं ही स्वयं।5।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है उसे यकीन बन जाता है कि सारे जगत का मालिक परमात्मा ही सदा-स्थिर) एकम्-एक पातशाह है (और उसी का ही सदा-स्थिर रहने वाला) एकम्-एक तख़्त है, वह पातिशाह सब जगहों में व्यापक है (सारे जगत की कार चलाता हुआ भी वह सदा) बेफिक्र रहता है। सारा जगत उसी प्रभु का बनाया हुआ है, वही तीनों भवनों का मूल है, पर वह अपहुँच है, मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की उस तक पहुँच नहीं हो सकती, (हर जगह) वह स्वयं ही स्वयं है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका मूरति साचा नाउ ॥ तिथै निबड़ै साचु निआउ ॥ साची करणी पति परवाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥६॥
मूलम्
एका मूरति साचा नाउ ॥ तिथै निबड़ै साचु निआउ ॥ साची करणी पति परवाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरति = स्वरूप। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। तिथै = उस प्रभु की हजूरी में। निबड़ै = निबड़ता है, चलता है। साची = सदा एक रस रहने वाली सच्ची। करणी = आचरण। पति = इज्जत। परवाणु = मंजूर, स्वीकार।6।
अर्थ: (ये सारा संसार उसी) एक परमात्मा का स्वरूप है, उसका नाम सदा-स्थिर रहने वाला है, उसकी दरगाह में सदा-स्थिर न्याय ही चलता है। जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर प्रभु की सलाह को अपना कर्तव्य बनाया है उसको सच्ची दरगाह में आदर मिलता है सम्मान मिलता है, दरगाह में वह स्वीकार होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका भगति एको है भाउ ॥ बिनु भै भगती आवउ जाउ ॥ गुर ते समझि रहै मिहमाणु ॥ हरि रसि राता जनु परवाणु ॥७॥
मूलम्
एका भगति एको है भाउ ॥ बिनु भै भगती आवउ जाउ ॥ गुर ते समझि रहै मिहमाणु ॥ हरि रसि राता जनु परवाणु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। आवउ जाउ = पैदा होना मरना (बना रहता है)। ते = से। समझि = शिक्षा ले के। मिहमाणु = मेहमान। रसि = रस में।7।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है उसको निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा की भक्ति परमात्मा के साथ प्यार ही एक-मात्र जीवन-राह है। जो मनुष्य भक्ति से वंचित है प्रभु के डर-अदब से खाली है उसको पैदा होने-मरने का चक्कर मिला रहता है। जो मनुष्य गुरु से शिक्षा ले के (जगत में) मेहमान (बन के) जीता है और परमात्मा के नाम-रस में मस्त रहता है वह मनुष्य (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होता है।7।
[[1189]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत उत देखउ सहजे रावउ ॥ तुझ बिनु ठाकुर किसै न भावउ ॥ नानक हउमै सबदि जलाइआ ॥ सतिगुरि साचा दरसु दिखाइआ ॥८॥३॥
मूलम्
इत उत देखउ सहजे रावउ ॥ तुझ बिनु ठाकुर किसै न भावउ ॥ नानक हउमै सबदि जलाइआ ॥ सतिगुरि साचा दरसु दिखाइआ ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इत उत = लोक परलोक में। देखउ = मैं देखता हूँ। सहजे = सहज में, आत्मिक अडोलता में। रावउ = मैं स्मरण करता हूँ। ठाकुर = हे ठाकुर! सबदि = शब्द से। सतिगुरि = गुरु ने।8।
अर्थ: हे ठाकुर! मैं (गुरु की कृपा से) इधर-उधर (हर जगह) तुझे ही (व्यापक) देखता हूँ और आत्मिक अडोलता में टिक के तुझे स्मरण करता हूँ, तेरे बिना मैं किसी और के साथ प्रीति नहीं जोड़ता।
हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द में जुड़ के अपने अहंकार को जला लिया है, गुरु ने उसको प्रभु के सदा के लिए टिके रहने वाले दर्शन करवा दिए हैं।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ चंचलु चीतु न पावै पारा ॥ आवत जात न लागै बारा ॥ दूखु घणो मरीऐ करतारा ॥ बिनु प्रीतम को करै न सारा ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ चंचलु चीतु न पावै पारा ॥ आवत जात न लागै बारा ॥ दूखु घणो मरीऐ करतारा ॥ बिनु प्रीतम को करै न सारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंचल = हर वक्त भटकने के स्वभाव वाला, कभी ना टिक सकने वाला। न पावै पारा = (चंचलता का) परला छोर नहीं ढूँढ सकता, चंचलता में नहीं निकल सकता। आवत जात = आते जाते को, भटकते को। बारा = देर। मरीऐ = मर जाते हैं, आत्मिक मौत आ जाती है। करतारा = हे कर्तार! को = कोई और। सारा = संभाल।1।
अर्थ: हे कर्तार! (माया के मोह में फंस के) चंचल (हो चुका) मन (अपने उद्यम से) चंचलता में से निकल नहीं सकता, (हर वक्त) भटकता फिरता है, थोड़ा सा भी समय नहीं लगता (भाव, रक्ती भर भी टिकता नहीं। इसका नतीजा ये निकलता है कि मनुष्य को) बहुत दुख सहना पड़ता है, और आत्मिक मौत हो जाती है। (इस बिपता में से) प्रीतम-प्रभु के बिना और कोई पक्ष मदद भी नहीं कर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ ऊतम किसु आखउ हीना ॥ हरि भगती सचि नामि पतीना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सभ ऊतम किसु आखउ हीना ॥ हरि भगती सचि नामि पतीना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी दुनिया। ऊतम = (मुझसे) अच्छी। हीना = बुरा। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। नामि = नाम में। पतीना = पतीज गया है।1। रहाउ।
अर्थ: सारी दुनिया अच्छी है, (क्योंकि सब में परमात्मा स्वयं मौजूद है) मैं किसी को बुरा नहीं कह सकता। (पर असल में वही मनुष्य अच्छाई प्राप्त करता है, जिसका मन) परमात्मा की भक्ति में (जुड़ता है) प्रभु के सदा-स्थिर नाम में (जुड़ के) खुश होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउखध करि थाकी बहुतेरे ॥ किउ दुखु चूकै बिनु गुर मेरे ॥ बिनु हरि भगती दूख घणेरे ॥ दुख सुख दाते ठाकुर मेरे ॥२॥
मूलम्
अउखध करि थाकी बहुतेरे ॥ किउ दुखु चूकै बिनु गुर मेरे ॥ बिनु हरि भगती दूख घणेरे ॥ दुख सुख दाते ठाकुर मेरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखध = दवा, इलाज। किउ चूके = नहीं खत्म हो सकता। दाते = हे दातार!।2।
अर्थ: दुख भी और सुख भी देने वाले हे पालनहार प्रभु! (मन को चंचलता के रोग से बचाने के लिए) मैं अनेक दवाईयाँ (भाव, कोशिशें) करके हार गई हूँ, पर प्यारे गुरु (की सहायता) के बिना ये दुख दूर नहीं होता।
परमात्मा की भक्ति के बिना (मन को) अनेक ही दुख आ घेरते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोगु वडो किउ बांधउ धीरा ॥ रोगु बुझै सो काटै पीरा ॥ मै अवगण मन माहि सरीरा ॥ ढूढत खोजत गुरि मेले बीरा ॥३॥
मूलम्
रोगु वडो किउ बांधउ धीरा ॥ रोगु बुझै सो काटै पीरा ॥ मै अवगण मन माहि सरीरा ॥ ढूढत खोजत गुरि मेले बीरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रोगु = (चंचलता का) रोग। धीरा = धैर्य। सो = वह (गुरु)। गुरि = गुरु ने। बीरा = वीर, सत्संगी, भाई।3।
अर्थ: (चंचलता का यह) रोग बहुत बड़ा है (इसके होते हुए) मुझे आत्मिक शांति नहीं मिलती। (मेरे इस) रोग को गुरु ही समझ सकता है और वही मेरा दुख काट सकता है। (इस रोग के कारण) मेरे मन में मेरे शरीर में अवगुण ही अवगुण बढ़ रहे हैं। ढूँढते हुए और तलाश करते हुए (आखिर) गुरु ने मुझे साधु-संगत मिला दी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु दारू हरि नाउ ॥ जिउ तू राखहि तिवैरहाउ ॥ जगु रोगी कह देखि दिखाउ ॥ हरि निरमाइलु निरमलु नाउ ॥४॥
मूलम्
गुर का सबदु दारू हरि नाउ ॥ जिउ तू राखहि तिवैरहाउ ॥ जगु रोगी कह देखि दिखाउ ॥ हरि निरमाइलु निरमलु नाउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहाउ = रहता हूँ। कह देखि = किस को ढूँढ के? निरमाइलु = पवित्र।4।
अर्थ: (चंचलता के रोग की) दवाई गुरु का शब्द (ही) है परमात्मा का नाम (ही) है। (हे प्रभु!) जैसे तू रखे मैं उसी तरह रह सकता हूँ (भाव, मैं उसी जीवन-पथ पर चल सकता हूँ। मेहर कर, मुझे गुरु के शब्द में अपने नाम के साथ जोड़े रख)।
जगत (स्वयं ही) रोगी है, मैं किस को ढूँढ के अपना रोग बताऊँ? एक परमात्मा ही पवित्र है, परमात्मा का नाम ही पवित्र है (गुरु की शरण पड़ के यह हरि-नाम ही खरीदना चाहिए)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घर महि घरु जो देखि दिखावै ॥ गुर महली सो महलि बुलावै ॥ मन महि मनूआ चित महि चीता ॥ ऐसे हरि के लोग अतीता ॥५॥
मूलम्
घर महि घरु जो देखि दिखावै ॥ गुर महली सो महलि बुलावै ॥ मन महि मनूआ चित महि चीता ॥ ऐसे हरि के लोग अतीता ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि महि = हृदय में। घर = प्रभु का ठिकाना। गुर महली = बड़े ठिकाने वाला। महलि = प्रभु की हजूरी में। ऐसे = इस तरह, इस तरीके से। अतीता = निर्लिप।5।
अर्थ: जो गुरु (भाव, गुरु ही) (अपने) हृदय में परमात्मा का निवास देख के और लोगों को दिखा सकता है, सबसे ऊँचे महल का वासी वह गुरु ही जीव को परमात्मा की हजूरी में बुला सकता है (और टिका सकता है)। जिस लोगों को गुरु प्रभु की हजूरी में पहुँचाता है उनके मन उनके चिक्त (बाहर भटकने से हट के) अंदर ही टिक जाते हैं, और इस तरह परमात्मा के सेवक (माया के मोह से) निर्लिप हो जाते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरख सोग ते रहहि निरासा ॥ अम्रितु चाखि हरि नामि निवासा ॥ आपु पछाणि रहै लिव लागा ॥ जनमु जीति गुरमति दुखु भागा ॥६॥
मूलम्
हरख सोग ते रहहि निरासा ॥ अम्रितु चाखि हरि नामि निवासा ॥ आपु पछाणि रहै लिव लागा ॥ जनमु जीति गुरमति दुखु भागा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरख = खुशी। सोग = ग़मी। निरासा = उपराम। चाखि = चख के। आपु = अपने आप को।6।
अर्थ: (निर्लिप होए हुए हरि के सेवक) खुशी-ग़मी से ऊपर रहते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-अमृत चख के वे लोग परमात्मा के नाम में ही (अपने मन का) ठिकाना बना लेते हैं।
जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को परख के परमात्मा की याद में तवज्जो जोड़े रखता है, वह मनुष्य-जीवन की बाज़ी जीत लेता है। गुरु की मति पर चलने से उसका (चंचलता वाला) दुख दूर हो जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि दीआ सचु अम्रितु पीवउ ॥ सहजि मरउ जीवत ही जीवउ ॥ अपणो करि राखहु गुर भावै ॥ तुमरो होइ सु तुझहि समावै ॥७॥
मूलम्
गुरि दीआ सचु अम्रितु पीवउ ॥ सहजि मरउ जीवत ही जीवउ ॥ अपणो करि राखहु गुर भावै ॥ तुमरो होइ सु तुझहि समावै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। पीवउ = मैं पीता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मरउ = मैं (विकारों की तरफ से) मर जाता हूँ, हट जाता हूँ। जीवत ही = जीते जी, दुनिया में मेहनत-कमाई करते ही। जीवउ = मैं जी उठता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है।7।
अर्थ: (मेहर करके) गुरु ने मुझे सदा-स्थिर रहने वाला नाम-अमृत दिया है, मैं (उस अमृत को सदा) पीता हूँ, (उस अमृत की इनायत से) आत्मिक अडोलता में टिक के मैं विकारों की तरफ़ से मुँह मोड़ चुका हूँ, दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए ही मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो रहा है।
यदि गुरु मेहर करे, (भाव, गुरु की कृपा से ही) (मैं अरदास करता हूँ, और कहता हूँ- हे प्रभु!) मुझे अपना (सेवक) बना के (अपने चरणों में) रख। जो व्यक्ति तेरा (सेवक) बन जाता है, वह तेरे में ही लीन हो जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोगी कउ दुखु रोग विआपै ॥ घटि घटि रवि रहिआ प्रभु जापै ॥ सुख दुख ही ते गुर सबदि अतीता ॥ नानक रामु रवै हित चीता ॥८॥४॥
मूलम्
भोगी कउ दुखु रोग विआपै ॥ घटि घटि रवि रहिआ प्रभु जापै ॥ सुख दुख ही ते गुर सबदि अतीता ॥ नानक रामु रवै हित चीता ॥८॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुख रोग = रोगों का दुख। विआपै = व्यापता, जोर डालता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। जापै = प्रतीत होता है, दिखता है। ते = से। अतीता = निर्लिप। हित = प्रेम।8।
अर्थ: जो मनुष्य दुनिया के पदार्थों को भोगने में ही मस्त रहता है उसको रोगों का दुख आ दबाता है। पर, हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा हरेक घट में व्यापक दिख जाता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के सुखों-दुखों से निर्लिप रहता है, वह चिक्त के प्यार से (सदा) परमात्मा का नाम स्मरण करता है।8।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ इक तुकीआ ॥ मतु भसम अंधूले गरबि जाहि ॥ इन बिधि नागे जोगु नाहि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ इक तुकीआ ॥ मतु भसम अंधूले गरबि जाहि ॥ इन बिधि नागे जोगु नाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इक तुकीआ = वह अष्टपदियां जिस के हरेक बंद में एक-एक तुक है। भसम = राख। अंधुले = हे अंधे! हे अकल के अंधे! मतु गरबि जाहि = कहीं तू अहंकार में ना आ जाए। गरबि = अहंकार में। गरबि जाह = तू अहंकार में आ जाए। इन बिधि = इन तरीकों से। जोगु = परमात्मा के साथ मिलाप।1।
अर्थ: हे अकल से अंधे! शरीर पर राख मल के कहीं तू अहंकार में ना जाए (कि तू कोई बहुत ही उत्तम कर्म कर रहा है) नंगे रह के (और शरीर पर राख मल के) इन ढंग-तरीकों से (परमात्मा के साथ) मिलाप नहीं हो सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूड़्हे काहे बिसारिओ तै राम नाम ॥ अंत कालि तेरै आवै काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मूड़्हे काहे बिसारिओ तै राम नाम ॥ अंत कालि तेरै आवै काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूढ़े = हे मूर्ख! काहे = किस लिए? क्यों? अंत कालि = आखिरी समय।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! तूने परमात्मा का नाम क्यों बिसार दिया है? परमात्मा का नाम ही अंत समय में तेरे काम आ सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूछि तुम करहु बीचारु ॥ जह देखउ तह सारिगपाणि ॥२॥
मूलम्
गुर पूछि तुम करहु बीचारु ॥ जह देखउ तह सारिगपाणि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूछि = पूछ के, शिक्षा ले के। देखउ = मैं देखता हूँ। सारगि पाणि = वह परमात्मा जिसके हाथ में धनुष है। सारिग = धनुष। पाणि = हाथ।2।
अर्थ: गुरु की शिक्षा ले के सोचो समझो (घर-घाट छोड़ बाहर भटकने से रब नहीं मिलता)। मैं तो जिधर देखता हूँ उधर ही (हर जगह) परमात्मा मौजूद है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ हउ आखा जां कछू नाहि ॥ जाति पति सभ तेरै नाइ ॥३॥
मूलम्
किआ हउ आखा जां कछू नाहि ॥ जाति पति सभ तेरै नाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखा = मैं कहूँ, मान करूँ। किआ हउ आखा = मैं क्या मान कर सकता हूँ? पति = इज्जत। तेरै नाइ = तेरे नाम में (लीन होना)।3।
अर्थ: हे प्रभु! (गृहस्थ में रह के ऊँची जाति अथवा दुनिया आदर-सत्कार का घमंड करना भी जीव की भारी भूल है) तेरे नाम में जुड़ना ही ऊँची जाति है तेरे नाम में जुड़ना ही दुनिया में इज्जत-मान है। हे प्रभु! मैं घमंड भी किस चीज़ पर करूँ? जो कुछ भी मैं अपना समझता हूँ ये मेरा अपना नहीं, (सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है, और है भी नाशवान)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे मालु दरबु देखि गरबि जाहि ॥ चलती बार तेरो कछू नाहि ॥४॥
मूलम्
काहे मालु दरबु देखि गरबि जाहि ॥ चलती बार तेरो कछू नाहि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरबु = धन। देखि = देख के। चलती बार = संसार से चलने के वक्त।4।
अर्थ: (हे भाई! गृहस्थ को त्याग जाने वाला सिर्फ नंगे रहने और शरीर पर राख मलने का गुमान करता है। यह भूल है। पर, गृहस्थी धन का अहंकार करता है। यह भी मूर्खता है) माल-धन देख के तू अहंकार करता है। संसार से कूच करने के वक्त (धन-माल में से) कोई भी चीज़ तेरी नहीं होगी।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच मारि चितु रखहु थाइ ॥ जोग जुगति की इहै पांइ ॥५॥
मूलम्
पंच मारि चितु रखहु थाइ ॥ जोग जुगति की इहै पांइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच = कामादिक पाँचों विकार। थाइ = जगह में, वश में। पांइ = नींव। जोग जुगति = परमात्मा के साथ मिलाप का तरीका।5।
अर्थ: (हे भाई!) कामादिक पाँचों को मार के अपने मन को वश में रख। परमात्मा के साथ मिलाप पैदा करने वाले तरीके की यही नींव है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै पैखड़ु तेरे मनै माहि ॥ हरि न चेतहि मूड़े मुकति जाहि ॥६॥
मूलम्
हउमै पैखड़ु तेरे मनै माहि ॥ हरि न चेतहि मूड़े मुकति जाहि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पैखड़ु = ढंगा, पशू के पिछले पैरों से बाँधा हुआ रस्सा जो उसको दौड़ने नहीं देता। मुकति जाहि = विकारों से स्वतंत्र हो सके।6।
अर्थ: हे मूर्ख! (यदि तू त्यागी है तो त्याग का, और, अगर तू गृहस्थी है तो यदि धन-माल का तुझे मान है, यह) अहंकार तेरे मन में है जो तेरे मन को अटकाए बैठा है जैसे पशू की पिछली लात से बँधा रस्सा (ढंगा) उसको दौड़ने नहीं देता। तू (इस अहंकार के ढंगे के कारण) परमात्मा को नहीं स्मरण करता। और, विकारों से मुक्ति स्मरण से ही हो सकती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत हरि विसरिऐ जम वसि पाहि ॥ अंत कालि मूड़े चोट खाहि ॥७॥
मूलम्
मत हरि विसरिऐ जम वसि पाहि ॥ अंत कालि मूड़े चोट खाहि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मत = कहीं ऐसा ना हो। जम वसि = जमों के वश में। पाहि = पड़ जाएं। चोट = मार कुटाई।7।
अर्थ: (हे मूर्ख! सचेत हो) परमात्मा का नाम भुला के कहीं ऐसा ना हो कि तू जमों के वश पड़ जाए, और आखिरी वक्त में (पछतावे की) मार-कूट खाए।7।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सबदु बीचारहि आपु जाइ ॥ साच जोगु मनि वसै आइ ॥८॥
मूलम्
गुर सबदु बीचारहि आपु जाइ ॥ साच जोगु मनि वसै आइ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। साच जोगु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का मिलाप।8।
अर्थ: (हे भाई!) अगर तू गुरु के शब्द को अपनी तवज्जो में टिका के रखे, तो इस तरह स्वै-भाव दूर हो सकेगा। (गुरु का शब्द विचारने की इनायत से वह प्रभु-नाम) मन में आ बसता है और सदा-स्थिर प्रभु के साथ सदा का मिलाप बना देता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि जीउ पिंडु दिता तिसु चेतहि नाहि ॥ मड़ी मसाणी मूड़े जोगु नाहि ॥९॥
मूलम्
जिनि जीउ पिंडु दिता तिसु चेतहि नाहि ॥ मड़ी मसाणी मूड़े जोगु नाहि ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। मूढ़े = हे मूर्ख! 9।
अर्थ: हे मूर्ख! जिस परमात्मा ने तुझे जिंद दी है शरीर दिया है उसको तू याद नहीं करता (और राख मल के मढ़ियों-मसाणों में डेरे लगाता है) मढ़ियों-मसाणों में बैठ के परमात्मा के साथ मिलाप नहीं बन सकता।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण नानकु बोलै भली बाणि ॥ तुम होहु सुजाखे लेहु पछाणि ॥१०॥५॥
मूलम्
गुण नानकु बोलै भली बाणि ॥ तुम होहु सुजाखे लेहु पछाणि ॥१०॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण बाणि = गुणों वाली वाणी, प्रभु की महिमा वाली वाणी। भली = अच्छी, सुंदर। सुजाख = देख सकने वाली आँखों वाला।10।
अर्थ: नानक तो परमात्मा की महिमा की वाणी उचारता है, प्रभु की महिमा वाली वाणी ही सुंदर वाणी है (यही परमात्मा के चरणों में जोड़ सकती है) इस बात को समझ (अगर तू भी प्रभु की महिमा करेगा तो) तुझे भी परमात्मा का दीदार करने वाली आत्मिक आँखें मिल जाएंगी।10।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ दुबिधा दुरमति अधुली कार ॥ मनमुखि भरमै मझि गुबार ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ दुबिधा दुरमति अधुली कार ॥ मनमुखि भरमै मझि गुबार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुबिधा = दोचिक्ती, प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक। अधुली = अंधुली, अंधी। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा। मझि = में। गुबार = अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा।1।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह के) अंधेरे में भटकता फिरता है (ठोकरें खाता फिरता है, उसको सही जीवन-पंध नहीं दिखता)। वह प्रभु के बग़ैर किसी और आसरे की झाक रखता है, (माया के मोह में) अंधी हो चुकी बुरी मति के पीछे लग के ही काम करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु अंधुला अंधुली मति लागै ॥ गुर करणी बिनु भरमु न भागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मनु अंधुला अंधुली मति लागै ॥ गुर करणी बिनु भरमु न भागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधुली मति = माया के मोह में अंधी हुई मति। भरमु = भटकना।1। रहाउ।
अर्थ: माया में अंधा हुआ मन उसी मति के पीछे चलता है जो (खुद भी) माया के मोह में अंधी हुई पड़ी है (और वह मन माया की भटकना में ही रहता है)। गुरु की बताई हुई कार किए बिना मन की यह भटकना दूर नहीं होती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखि अंधुले गुरमति न भाई ॥ पसू भए अभिमानु न जाई ॥२॥
मूलम्
मनमुखि अंधुले गुरमति न भाई ॥ पसू भए अभिमानु न जाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न भाई = पसंद नहीं आती।2।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले अंधे मूर्खों को गुरु की (दी हुई) मति पसंद नहीं आती (वे देखने को भले ही मनुष्य हैं पर स्वभाव से) पशू हो चुके हैं, (उनके अंदर से) अकड़ नहीं जाती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख चउरासीह जंत उपाए ॥ मेरे ठाकुर भाणे सिरजि समाए ॥३॥
मूलम्
लख चउरासीह जंत उपाए ॥ मेरे ठाकुर भाणे सिरजि समाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरजि = पैदा करके समाए = लीन कर लेता है।3।
अर्थ: विधाता प्रभु चौरासी लाख जूनियों में बेअंत जीव पैदा करता है, जैसे उस ठाकुर की मर्जी होती है, पैदा करता है और नाश भी कर देता है।3।;
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगली भूलै नही सबदु अचारु ॥ सो समझै जिसु गुरु करतारु ॥४॥
मूलम्
सगली भूलै नही सबदु अचारु ॥ सो समझै जिसु गुरु करतारु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचारु = आचार, अच्छे आचरण वाला जीवन।4।
अर्थ: पर वह सारी लोकाई कुमार्ग पर पड़ी रहती है जब तक गुरु का शब्द (हृदय में नहीं बसाती, और जब तक उस शब्द के अनुसार अपना) कर्तव्य नहीं बनाती। वही जीव (जीवन के सही रास्ते को) समझता है जिसका राहबर गुरु बनता है कर्तार बनता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर के चाकर ठाकुर भाणे ॥ बखसि लीए नाही जम काणे ॥५॥
मूलम्
गुर के चाकर ठाकुर भाणे ॥ बखसि लीए नाही जम काणे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काणे = अधीनता।5।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के सेवक बनते हैं वे पालनहार प्रभु को पसंद आ जाते हैं। उन्हें जमों की अधीनता नहीं रह जाती क्योंकि प्रभु ने उन पर मेहर कर दी होती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कै हिरदै एको भाइआ ॥ आपे मेले भरमु चुकाइआ ॥६॥
मूलम्
जिन कै हिरदै एको भाइआ ॥ आपे मेले भरमु चुकाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाइआ = अच्छा लगा।6।
अर्थ: जिस लोगों को अपने हृदय में एक परमात्मा ही प्यारा लगता है, उनको परमात्मा स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ लेता है, उनकी भटकना दूर हो जाती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेमुहताजु बेअंतु अपारा ॥ सचि पतीजै करणैहारा ॥७॥
मूलम्
बेमुहताजु बेअंतु अपारा ॥ सचि पतीजै करणैहारा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्चि = सच से, स्मरण से। पतीजै = प्रसन्न होता है।7।
अर्थ: सारी सृष्टि का विधाता प्रभु-स्मरण के द्वारा ही प्रसन्न किया जा सकता है, वह बेमुथाज है बेअंत है उसकी हस्ती का परला छोर नहीं पाया जा सकता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक भूले गुरु समझावै ॥ एकु दिखावै साचि टिकावै ॥८॥६॥
मूलम्
नानक भूले गुरु समझावै ॥ एकु दिखावै साचि टिकावै ॥८॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकु = एक परमात्मा। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: हे नानक! (माया के मोह में फंस के) गलत रास्ते पड़े मनुष्य को गुरु (ही) समझा सकता है। गुरु उसको एक परमात्मा का दीदार करवा देता है, उसको सदा-स्थिर परमात्मा (की याद) में जोड़ देता है।8।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला १ ॥ आपे भवरा फूल बेलि ॥ आपे संगति मीत मेलि ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला १ ॥ आपे भवरा फूल बेलि ॥ आपे संगति मीत मेलि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। मेलि = मेल में।1।
अर्थ: (गुरमुखि को दिखता है कि) परमात्मा स्वयं ही (सुगंधी लेने वाला) भौरा है, स्वयं ही बेल है और स्वयं ही बेलों पर उगे हुए फूल है। स्वयं ही संगति है स्वयं ही संगति में सत्संगी मित्रों को इकट्ठा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी भवरा बासु ले ॥ तरवर फूले बन हरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी भवरा बासु ले ॥ तरवर फूले बन हरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसी = इस तरीके से। बासु = सुगंधि। ले = लेता हैं तरवर = वृक्ष।1। रहाउ।
अर्थ: (गुरमुखि) भौरा इस तरह (प्रभु के नाम की) सुगंधि लेता है कि उसको जंगल के सारे वृक्ष हरे और फूलों से लदे हुए दिखाई देते हैं (गुरमुखि को सारी सृष्टि में हर जगह प्रभु की ही ज्योति रुमकती दिखती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे कवला कंतु आपि ॥ आपे रावे सबदि थापि ॥२॥
मूलम्
आपे कवला कंतु आपि ॥ आपे रावे सबदि थापि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवला = लक्ष्मी। कंतु = (लक्ष्मी का) पति। सबदि = (अपने) हुक्म से। थापि = पैदा करके।2।
अर्थ: (गुरमुखि को दिखता है कि) प्रभु खुद ही लक्ष्मी (माया) है और खुद ही लक्ष्मी का पति है, प्रभु खुद अपनी आज्ञा से सारी सृष्टि को पैदा करके खुद ही (दुनियां के पदार्थों को) भोग रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे बछरू गऊ खीरु ॥ आपे मंदरु थम्हु सरीरु ॥३॥
मूलम्
आपे बछरू गऊ खीरु ॥ आपे मंदरु थम्हु सरीरु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बछरू = बछड़ा। खीरु = दूध।3।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही बछड़ा है स्वयं ही (गाय का) दूध है, प्रभु स्वयं ही मंदिर है स्वयं ही (मन्दिर का) स्तम्भ (खंभा) है, (स्वयं ही जिंद है और) स्वयं ही शरीर।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करणी करणहारु ॥ आपे गुरमुखि करि बीचारु ॥४॥
मूलम्
आपे करणी करणहारु ॥ आपे गुरमुखि करि बीचारु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणहारु = सब कुछ करने के समर्थ। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।4।
अर्थ: प्रभु खुद ही करन-योग्य काम है, प्रभु खुद ही गुरु है और खुद ही गुरु के सन्मुख हो के अपने गुणों की विचार करता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू करि करि देखहि करणहारु ॥ जोति जीअ असंख देइ अधारु ॥५॥
मूलम्
तू करि करि देखहि करणहारु ॥ जोति जीअ असंख देइ अधारु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखहि = देखता है, संभाल करता है। देइ = दे के। अधारु = आसरा।5।
अर्थ: (गुरमुखि प्रभु-दर पर इस तरह अरदास करता है:) हे प्रभु! तू सब कुछ कर सकने की ताकत रखता है, तू जीव पैदा करके और बेअंत जीवों को अपनी ज्योति का सहारा दे के स्वयं ही सबकी संभाल करता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू सरु सागरु गुण गहीरु ॥ तू अकुल निरंजनु परम हीरु ॥६॥
मूलम्
तू सरु सागरु गुण गहीरु ॥ तू अकुल निरंजनु परम हीरु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण गहीरु = गुणों का गहरा (समुंदर)। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं। हीरु = हीरा।6।
अर्थ: हे प्रभु! तू गुणों का सरोवर है, तू गुणों का अथाह समुंदर है। तेरी कोई खास कुल नहीं, तेरे ऊपर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, तू सबसे श्रेष्ठ हीरा है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू आपे करता करण जोगु ॥ निहकेवलु राजन सुखी लोगु ॥७॥
मूलम्
तू आपे करता करण जोगु ॥ निहकेवलु राजन सुखी लोगु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करनजोगु = सब कुछ कर सकने वाला। निहकेवलु = वासना रहित। राजन = हे राजन!।7।
अर्थ: (गुरमुखि सदा इस प्रकार अरदास करता है:) हे राजन! तू स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है, और पैदा करने की सामर्थ्य रखता है।
हे राजन! तू पवित्र स्वरूप है, जिस पर तेरी मेहर होती है वह आत्मिक आनंद पाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक ध्रापे हरि नाम सुआदि ॥ बिनु हरि गुर प्रीतम जनमु बादि ॥८॥७॥
मूलम्
नानक ध्रापे हरि नाम सुआदि ॥ बिनु हरि गुर प्रीतम जनमु बादि ॥८॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ध्रापे = तृप्त हो जाता है, अघा जाता है। सुआदि = स्वाद में। बादि = व्यर्थ।8।
अर्थ: हे नानक! जो भी मनुष्य परमात्मा के नाम के स्वाद में मगन होता है वह माया की तरफ से तृप्त हो जाता है, (उसको निष्चय हो जाता है कि) परमात्मा के बिना प्रीतम गुरु की शरण के बिना मनुष्य-जीवन व्यर्थ चला जाता है।8।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोलु महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु हिंडोलु महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउ सत चउदह तीनि चारि करि महलति चारि बहाली ॥ चारे दीवे चहु हथि दीए एका एका वारी ॥१॥
मूलम्
नउ सत चउदह तीनि चारि करि महलति चारि बहाली ॥ चारे दीवे चहु हथि दीए एका एका वारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउ = नौ खण्ड। सत = सात द्वीप। चउदह = चौदह भवन। तीनि = तीन लोक (स्वर्ग, मातृ और पाताल)। चारि = चार युग। करि = बना के, पैदा करके। महलति = हवेली सृष्टि। चारि = खर ही खाणियों से (अंडज, जेरज, सेतज, उत्भुज)। बहाली = बसा दी। चारे दीवे = चार दीपक (चार वेद)। चहु हथि = चार ही युगों के हाथ में। एका एका वारी = अपनी अपनी बारी से।1।
अर्थ: (जब यहाँ हिन्दू राज था तो लोग हिन्दी के शब्द ही बरतते थे और कहा करते थे कि) हे प्रभु! (तूने) नौ खण्ड, सात द्वीप, चौदह भवन, तीन लोक और चार युग बना के तूने चार खाणियों के द्वारा इस (सृष्टि-) हवेली को बसा दिया है, तूने (चार वेद रूपी) चार दीए चारों युगों के हाथ में अपनी-अपनी बारी से पकड़ा दिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिहरवान मधुसूदन माधौ ऐसी सकति तुम्हारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मिहरवान मधुसूदन माधौ ऐसी सकति तुम्हारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिहरवान = हे मेहरबान प्रभु! मधुसूदन = हे मधू दैत्य को मारने वाले! माधौ = हे माधव! , हे माया के पति! (मा = माया। धव = पति)। सकति = शक्ति, स्मर्थां।1। रहाउ।
अर्थ: हे सब जीवों पर मेहर करने वाले! हे दुष्टों का नाश करने वाले! हे माया के पति प्रभु! तेरी इस तरह की ताकत है (कि जहाँ पहले हिन्दू धर्म का राज था सब लोग अपनी आम बोलचाल में हिन्दके शब्द बरतते थे, हाँ पर अब तूने मुसलमानी राज कर दिया है, साथ ही लोगों की बोली भी बदल गई है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरि घरि लसकरु पावकु तेरा धरमु करे सिकदारी ॥ धरती देग मिलै इक वेरा भागु तेरा भंडारी ॥२॥
मूलम्
घरि घरि लसकरु पावकु तेरा धरमु करे सिकदारी ॥ धरती देग मिलै इक वेरा भागु तेरा भंडारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक शरीर में। पावकु = आग, (तेरी) ज्योति। धरमु = धर्मराज। सिकदारी = सरदारी। इक वेरा = एक बार में। भागु = भाग्य, हरेक जीव का प्रारब्ध। भंडारी = भण्डारा बाँटने वाला।2।
अर्थ: हरेक शरीर में तेरी ही ज्योति व्यापक है, ये सारे जीव तेरा लश्कर हैं, और इन जीवों पर (तेरा पैदा किया हुआ) धर्मराज सरदारी करता है, (तूने इस लश्कर की पालना के लिए) धरती (-रूप) देग बना दी जिसमें से एक ही बार में (भाव, अटूट भण्डारा) मिलता है, हरेक जीव का प्रारब्ध तेरा भण्डारा बाँट रहा है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ना साबूरु होवै फिरि मंगै नारदु करे खुआरी ॥ लबु अधेरा बंदीखाना अउगण पैरि लुहारी ॥३॥
मूलम्
ना साबूरु होवै फिरि मंगै नारदु करे खुआरी ॥ लबु अधेरा बंदीखाना अउगण पैरि लुहारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नासाबूर = ना साबूर, बेसब्रा, सिदकहीन। फिरि = बार बार। नारदु = मन। अंधेरा = अंधकार। बंदीखाना = कैदखाना। पैरि = पैर में। लोहारी = लोहे की बेड़ी।3।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरा इतना बेअंत भण्डारा होते हुए भी जीव का मन) नारद (जीव के लिए) दुख पैदा करता है, सिदक-हीन मन बार-बार (पदार्थ) माँगता रहता है। लोभ जीव के लिए अंधेरे भरा कैदखाना बना हुआ है, और इसके अपने कमाए पाप इसके पैर में लोहे की बेड़ी बने हुए हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूंजी मार पवै नित मुदगर पापु करे कुोटवारी ॥ भावै चंगा भावै मंदा जैसी नदरि तुम्हारी ॥४॥
मूलम्
पूंजी मार पवै नित मुदगर पापु करे कुोटवारी ॥ भावै चंगा भावै मंदा जैसी नदरि तुम्हारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूंजी = (लोभ ग्रसित जीव की) संपत्ति। मुदगर मार = मुहलों की मार। कुोटवारी = कोतवाली। भावै = अगर तुझे अच्छा लगे।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कुोटवारी’ में से अक्षर ‘क’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘कोटवारी’ है यहाँ ‘कुटवारी’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (इस लब के कारण) जीव की संपत्ति यह है कि इसको, मानो, नित्य मुसलों की मार पड़ रही है, और इसका अपना कमाया पाप (-जीवन) इसके सिर पर कोतवाली कर रहा है। पर, हे प्रभु! (जीव के भी क्या वश?) जैसी तेरी निगाह हो वैसा ही जीव बन जाता है, तुझे अच्छा लगे तो ठीक, तुझे अच्छा लगे तो बुरा बन जाता है (ये थी लोगों की बोली जो हिन्दू-राज के समय आम तौर पर बरती जाती थी)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि पुरख कउ अलहु कहीऐ सेखां आई वारी ॥ देवल देवतिआ करु लागा ऐसी कीरति चाली ॥५॥
मूलम्
आदि पुरख कउ अलहु कहीऐ सेखां आई वारी ॥ देवल देवतिआ करु लागा ऐसी कीरति चाली ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि पुरख कउ = उसको जिसे पहले जब हिन्दू धर्म का प्रभाव था ‘आदि पुरख’ कहा जाता था। अलहु कहीऐ = अब ‘अल्लाह’ कहा जाता है मुसलमानी राज में। सेखां वारी = मुसलमानों (की राज करने) की बारी (आ गई है)। देवल = (देव = आलय) देवताओं के मन्दिर। करु = कर, टैक्स, दण्ड। कीरति = रिवाज।5।
अर्थ: पर, अब मुसलमानी राज का वक्त है। (जिसको पहले हिन्दकी बोली में) ‘आदि पुरख’ कहा जाता था अब उसको ‘अल्ला’ कहा जा रहा है। अब ये रिवाज चल पड़ा है कि (हिन्दू जिस मन्दिरों में देवताओं की पूजा करते हैं, उन) दैव-मन्दिरों पर टैक्स लगाया जा रहा है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूजा बांग निवाज मुसला नील रूप बनवारी ॥ घरि घरि मीआ सभनां जीआं बोली अवर तुमारी ॥६॥
मूलम्
कूजा बांग निवाज मुसला नील रूप बनवारी ॥ घरि घरि मीआ सभनां जीआं बोली अवर तुमारी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूजा = लोटा। निवाज = नमाज़। मुसला = मुसला। नील रूप = नीला रूप, नीले रंग के कपड़े। बनवारी = जगत का मालिक प्रभु। घरि घरि = हरेक घर में। मीआ = (शब्द पिता की जगह पिउ वास्ते शब्द) मीआं। अवर = और ही।6।
अर्थ: अब लोटा, बांग, नमाज़, मुसला (प्रधान हैं), परमात्मा की बँदगी करने वालों ने नीले वस्त्र पहने हुए हैं। अब तेरी (भाव, तेरे बँदों की) बोली ही और हो गई है, हरेक घर में सब जीवों के मुँह पर (शब्द ‘पिता’ की जगह) शब्द ‘मीआं’ प्रधान है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे तू मीर महीपति साहिबु कुदरति कउण हमारी ॥ चारे कुंट सलामु करहिगे घरि घरि सिफति तुम्हारी ॥७॥
मूलम्
जे तू मीर महीपति साहिबु कुदरति कउण हमारी ॥ चारे कुंट सलामु करहिगे घरि घरि सिफति तुम्हारी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीर = पातिशाह। महीपति = धरती का पति (मही = धरती)। कुदरति = ताकत, वटक, पेश। चारे कुंट = चारों कूटों के जीव।7।
अर्थ: हे पातशाह! तू धरती का पति है, मालिक है, अगर तू (यही पसंद करता है कि यहाँ इस्लामी राज हो जाए) तो हम जीवों की क्या ताकत है (कि गिला कर सकें)? चारों कुंटों के जीव, हे पातशाह! तुझे सलाम करते हैं (तेरे आगे ही झुकते हैं) हरेक घर में तेरी महिमा हो रही है (तेरे आगे ही तेरे पैदा किए हुए) बँदे अपनी तक़लीफें बता सकते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथ सिम्रिति पुंन दान किछु लाहा मिलै दिहाड़ी ॥ नानक नामु मिलै वडिआई मेका घड़ी सम्हाली ॥८॥१॥८॥
मूलम्
तीरथ सिम्रिति पुंन दान किछु लाहा मिलै दिहाड़ी ॥ नानक नामु मिलै वडिआई मेका घड़ी सम्हाली ॥८॥१॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किछु दिहाड़ी = थोड़ी सी मजदूरी के रूप में। लाहा = लाभ। नामु मेका घड़ी समाली = यदि मनुष्य परमात्मा का नाम एक घड़ी मात्र चेते करे।8।
अर्थ: (पर, तीर्थों मन्दिरों आदि पर रोक और गिले की भी आवश्यक्ता नहीं क्योंकि) तीर्थों के स्नान, स्मृतियों के पाठ और दान-पुण्य आदि का अगर कोई लाभ है तो वह (तिल-मात्र ही है) थोड़ी सी मजदूरी के रूप में ही। हे नानक! अगर कोई मनुष्य परमात्मा का नाम एक घड़ी मात्र. ही याद करे तो उसको (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।8।1।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह अष्टपदी ‘घरु 2’ की है। पहली 7 अष्टपदियां ‘घरु1’ की हैं। कुल जोड़ 8 है।
नोट: ये अष्टपदी राग ‘बसंत’ और राग ‘हिंडोल’ दोनों मिश्रित रागों में गाई जानी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोलु घरु २ महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु हिंडोलु घरु २ महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कांइआ नगरि इकु बालकु वसिआ खिनु पलु थिरु न रहाई ॥ अनिक उपाव जतन करि थाके बारं बार भरमाई ॥१॥
मूलम्
कांइआ नगरि इकु बालकु वसिआ खिनु पलु थिरु न रहाई ॥ अनिक उपाव जतन करि थाके बारं बार भरमाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कांइआ = शरीर। नगरि = नगर में। कांइआ नगरि = शरीर नगर में। बालकु = अंजान मन। खिनु पल = छिन भर के समय के लिए भी। थिरु = अडोल। उपाव = (शब्द ‘उवाउ’ का बहुवचन)। करि = कर के। बारं बार = बार-बार। भरमाई = भटकता फिरता है।1।
अर्थ: हे भाई! शरीर-नगर में (ये मन) एक (ऐसा) अंजान बालक बसता है जो एक पल के लिए भी टिका नहीं रह सकता। (इसको टिकाने के लिए) अनेक उपाय अनेक यत्न कर के थक जाते हैं, पर (यह मन) बार-बार भटकता फिरता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे ठाकुर बालकु इकतु घरि आणु ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ भजु राम नामु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे ठाकुर बालकु इकतु घरि आणु ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ भजु राम नामु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक! इकतु घरि = एक ठिकाने पर। आणु = ला के, टिका दे। त = तब। पाईऐ = मिलता है। भजु = स्मरण किया कर। नीसाणु = (प्रभु के दर पर पहुँचने के लिए) राहदारी, परवाना।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक! (हम जीवों के इस) अंजान मन को तू ही एक ठिकाने पर लगा (तेरी मेहर से मन भटकने से हट के ठहराव में आ सकता है)। हे भाई! जब गुरु मिलता है तब पूरन परमात्मा मिल जाता है (तब मन भी टिक जाता है)। (इस वास्ते, हे भाई! गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का नाम जपा कर (ये हरि-नाम ही परमात्मा के दर पर पहुँचने के लिए) राहदारी है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मिरतकु मड़ा सरीरु है सभु जगु जितु राम नामु नही वसिआ ॥ राम नामु गुरि उदकु चुआइआ फिरि हरिआ होआ रसिआ ॥२॥
मूलम्
इहु मिरतकु मड़ा सरीरु है सभु जगु जितु राम नामु नही वसिआ ॥ राम नामु गुरि उदकु चुआइआ फिरि हरिआ होआ रसिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिरतकु = मुर्दा। मढ़ा = मढ़, मिट्टी का ढेर। सभु जगु = सारा जगत। जितु = जिस में, यदि इसमें। गुरि = गुरु ने। उदकु = जल, पानी। हरिआ = हरा भरा, आत्मिक जीवन वाला। रसिआ = रस दार, तरावट वाला।2।
अर्थ: हे भाई! अगर इस (शरीर) में परमात्मा का नाम नहीं बसा, तो यह मुर्दा है तो यह निरा मिट्टी का ढेर है। हे भाई! सारा जगत ही नाम के बिना मुर्दा है। हे भाई! परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन देने वाला) जल है, गुरु ने (जिस मनुष्य के मुँह में ये नाम-) जल टपका दिया, वह मनुष्य फिर आत्मिक जीवन वाला हो गया, वह मनुष्य आत्मिक तरावट वाला हो गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै निरखत निरखत सरीरु सभु खोजिआ इकु गुरमुखि चलतु दिखाइआ ॥ बाहरु खोजि मुए सभि साकत हरि गुरमती घरि पाइआ ॥३॥
मूलम्
मै निरखत निरखत सरीरु सभु खोजिआ इकु गुरमुखि चलतु दिखाइआ ॥ बाहरु खोजि मुए सभि साकत हरि गुरमती घरि पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरखत निरखत = अच्छी तरह देखते देखते। सभ = सारा। गुरमुखि = गुरु ने। चलतु = तमाशा। बाहर = बाहरी स्तर, दुनिया, जगत। खोजि = खोज के। मूए = आत्मिक मौत सहेड़ बैठे। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। गुरमती = गुरु की मति पर चल के। घरि = हृदय घर में।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए सारे मनुष्य दुनिया तलाश-तलाश के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। पर गुरु ने (मुझे) एक अजब तमाशा दिखाया है, मैंने बड़े ध्यान से अपना सारा शरीर (ही) खोजा है, गुरु की मति पर चल के मैंने अपने हृदय-घर में ही परमात्मा को पा लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीना दीन दइआल भए है जिउ क्रिसनु बिदर घरि आइआ ॥ मिलिओ सुदामा भावनी धारि सभु किछु आगै दालदु भंजि समाइआ ॥४॥
मूलम्
दीना दीन दइआल भए है जिउ क्रिसनु बिदर घरि आइआ ॥ मिलिओ सुदामा भावनी धारि सभु किछु आगै दालदु भंजि समाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीना दीन = कंगालों से कंगाल, महा कंगाल। दइआल = दयावान। बिदर = कृष्ण जी का पवित्र भक्त। ये व्यास ऋषि का पुत्र था। कृष्ण जी दुर्योधन के महलों में जाने की जगह भक्त बिदर के घर ठहरे थे। “ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै।” भावनी = श्रद्धा। धारि = धार के। आगै = (घर पहुँचने से) पहले ही। दालदु = दरिद्रता, गरीबी। भंजि = दूर कर के, नाश करके।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा बड़े-बड़े गरीबों पर (सदा) दया करता आया है जैसे कि कृष्ण (गरीब) बिदर के घर आए थे। और, जब (गरीब) सुदामा श्रद्धा धार के (कृष्ण जी को) मिला था, तो (वापस उसके अपने घर पहुँचने से) पहले ही उसकी गरीबी दूर करके हरेक पदार्थ (उसके घर) पहुँच चुका था।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम की पैज वडेरी मेरे ठाकुरि आपि रखाई ॥ जे सभि साकत करहि बखीली इक रती तिलु न घटाई ॥५॥
मूलम्
राम नाम की पैज वडेरी मेरे ठाकुरि आपि रखाई ॥ जे सभि साकत करहि बखीली इक रती तिलु न घटाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: की = के कारण। पैज = इज्जत। वडेरी = बहुत बड़ी। ठाकुरि = ठाकुर ने। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। करहि = (बहुवचन) करने। बखीली = (नाम जपने वाले की) निंदा, चुगली।5।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (जपने वालों) की बहुत ज्यादा इज्जत (लोक-परलोक में होती है। भक्तों की ये इज्जत सदा से ही) मालिक-प्रभु ने स्वयं (ही) बचाई हुई है। परमात्मा से टूटे हुए सारे लोग (मिल के भक्त जनों की) निंदा करें, (तो भी परमात्मा उनकी इज्जत) रक्ती भर भी घटने नहीं देता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन की उसतति है राम नामा दह दिसि सोभा पाई ॥ निंदकु साकतु खवि न सकै तिलु अपणै घरि लूकी लाई ॥६॥
मूलम्
जन की उसतति है राम नामा दह दिसि सोभा पाई ॥ निंदकु साकतु खवि न सकै तिलु अपणै घरि लूकी लाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = परमात्मा का भक्त। उसतति = शोभा। दिसि = दिशा। दहदिसि = दसों दिशाओं में, सारे जगत में। साकतु = (एकवचन) प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य। खवि न सकै = सह नहीं सकता। घरि = हृदय घर में। लूकी = चुआती, लूती, उक्साने व भड़काने वाला कथन व हरकत, आग जलाने के लिए आग की तीली व कोई उपाय।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (जपने से परमात्मा के) सेवक की (लोक-परलोक में) शोभा होती है, (सेवक नाम की इनायत से) हर तरफ शोभा कमाता है। पर परमात्मा से टूटा हुआ निंदक मनुष्य (सेवक की हो रही शोभा को) रक्ती भर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता (इस तरह वह निंदक सेवक का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकता, वह) अपने हृदय-घर में (ही ईष्या और जलन की) आग लगाए रखता है (निंदक अपने आप ही अंदर से जलता-भुजता रहता है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन कउ जनु मिलि सोभा पावै गुण महि गुण परगासा ॥ मेरे ठाकुर के जन प्रीतम पिआरे जो होवहि दासनि दासा ॥७॥
मूलम्
जन कउ जनु मिलि सोभा पावै गुण महि गुण परगासा ॥ मेरे ठाकुर के जन प्रीतम पिआरे जो होवहि दासनि दासा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। पावै = हासिल करता है। परगासा = प्रकाश। प्रीतम पिआरे = प्रभु प्रीतम को प्यारे लगते हैं। जो = जो। होवहि = (बहुवचन) होते हैं। दासनि दासा = दासों के दास।7।
अर्थ: हे भाई! (निंदक तो अंदर-अंदर से जलता है, दूसरी तरफ़) परमात्मा का भक्त प्रभु के भक्त को मिल के शोभा कमाता है, उसके आत्मिक गुणों में (भक्त-जन को मिल के) और गुणों में बढ़ोक्तरी होती है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के दासों के दास बनते हैं, वे परमात्मा को प्यारे लगते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे जलु अपर्मपरु करता आपे मेलि मिलावै ॥ नानक गुरमुखि सहजि मिलाए जिउ जलु जलहि समावै ॥८॥१॥९॥
मूलम्
आपे जलु अपर्मपरु करता आपे मेलि मिलावै ॥ नानक गुरमुखि सहजि मिलाए जिउ जलु जलहि समावै ॥८॥१॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। अपरंपरु करता = बेअंत परमात्मा। मेलि = (गुरु की) संगति में। मिलावै = मिलाता है। गुरमुखि = गुरु से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जलहि = जल में ही।8।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा सब पर दया करने वाला है। वह साकत निंदक को भी बचाने वाला है। साकत-निंदक की ईष्या की आग बुझाने के लिए) वह बेअंत कर्तार स्वयं ही जल है, वह स्वयं ही (निंदक को भी गुरु की) संगति में (ला के) जोड़ता है। हे नानक! परमात्मा गुरु की शरण डाल के (निंदक को भी) आत्मिक अडोलता में (इस प्रकार) मिला देता है जैसे पानी पानी में मिल जाता है।8।1।9।
[[1192]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ घरु १ दुतुकीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु महला ५ घरु १ दुतुकीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि साखी मन जपि पिआर ॥ अजामलु उधरिआ कहि एक बार ॥ बालमीकै होआ साधसंगु ॥ ध्रू कउ मिलिआ हरि निसंग ॥१॥
मूलम्
सुणि साखी मन जपि पिआर ॥ अजामलु उधरिआ कहि एक बार ॥ बालमीकै होआ साधसंगु ॥ ध्रू कउ मिलिआ हरि निसंग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि = सुन के। साखी = (गुरु की) शिक्षा। मन = हे मन! जपि पिआर = प्यार से (परमात्मा का नाम) जपा कर। उधरिआ = (संसार समुंदर से) पार लांघ गया। कहि = कह के, स्मरण करके। एक बार = एक ही बार में, सदा के लिए। साध संगु = गुरु की संगति। कउ = को। निसंग = शर्म उतार के।1।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (गुरु की) शिक्षा सुन के प्रेम से (परमात्मा का नाम) जपा कर। अजामल (प्रभु का नाम) जप के सदा के लिए (संसार-समुंदर से) पार लांघ गया। बाल्मीकि को गुरु की संगति प्राप्त हुई (उसने भी हरि-नाम जपा, और उसका पार-उतारा हो गया)। (नाम जपने की इनायत से) ध्रुव को परमात्मा प्रत्यक्ष हो के मिल गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरिआ संता जाचउ चरन रेन ॥ ले मसतकि लावउ करि क्रिपा देन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरिआ संता जाचउ चरन रेन ॥ ले मसतकि लावउ करि क्रिपा देन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचउ = याचना, मैं माँगता हूँ। चरन रेन = चरणों की धूल। ले = लेकर। मसतकि = माथे पर। लावउ = मैं लगाऊँ। करि क्रिपा देन = देने की कृपा कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे संत जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ, देने की कृपा कर (वह चरण-धूल ले के) मैं अपने माथे पर लगाऊँगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गनिका उधरी हरि कहै तोत ॥ गजइंद्र धिआइओ हरि कीओ मोख ॥ बिप्र सुदामे दालदु भंज ॥ रे मन तू भी भजु गोबिंद ॥२॥
मूलम्
गनिका उधरी हरि कहै तोत ॥ गजइंद्र धिआइओ हरि कीओ मोख ॥ बिप्र सुदामे दालदु भंज ॥ रे मन तू भी भजु गोबिंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गनिका = वेश्वा। उधरी = (संसार समुंदर से) पार लांघ गई। कहै = कहता है। तोत = तोता। गज = हाथी। गज इंद्र = बड़ा हाथी। कीओ = कर दिया। मोख = बंधनों से आजाद। बिप्र = ब्राहमण। दालदु = गरीबी। भंज = नाश (किया)। भजु = जपा कर।2।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (ज्यों-ज्यों) तोता राम-नाम उचारता था (उसको राम-नाम सिखाने के लिए गनिका भी राम-नाम उचारती थी, और, नाम-जपने की इनायत से) गनिका (संसार-समुंदर से) पार लांघ गई। (श्राप के कारण गंधर्व से बने हुए) बड़े हाथी ने (सरोवर में तंदूए की जकड़ में फंस के) परमात्मा का ध्यान धरा, परमात्मा ने उसको (तंदूए की) जकड़ से बचा लिया। सुदामा ब्राहमण की (कृष्ण जी ने) गरीबी काट दी। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा का भजन किया कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बधिकु उधारिओ खमि प्रहार ॥ कुबिजा उधरी अंगुसट धार ॥ बिदरु उधारिओ दासत भाइ ॥ रे मन तू भी हरि धिआइ ॥३॥
मूलम्
बधिकु उधारिओ खमि प्रहार ॥ कुबिजा उधरी अंगुसट धार ॥ बिदरु उधारिओ दासत भाइ ॥ रे मन तू भी हरि धिआइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बधिकु = शिकारी। उधारिआ = (संसार समुंदर से) पार लांघ गया। खमि = तीर से। खमि प्रहार = (कृष्ण जी को) तीर से मारने वाला। कुबिजा = कुब्बी कमर वाली। अंगुसट = अंगूठा। अंगुसट धार = (कृष्ण जी के) अंगूठे के छूने से। दास = सेवक। दासत भाइ = दासत्व भाव से, सेवा भाव से।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (कृष्ण जी को) तीर से मारने वाले शिकारी को (कृष्ण जी ने संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया। (कृष्ण जी के) अंगूठे की छूह से कुबिजा का उद्धार हो गया। बिदर को (उसकी) सेवा भावना के कारण (कृष्ण जी ने) पार लंघा दिया। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा का ध्यान धरा कर।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहलाद रखी हरि पैज आप ॥ बसत्र छीनत द्रोपती रखी लाज ॥ जिनि जिनि सेविआ अंत बार ॥ रे मन सेवि तू परहि पार ॥४॥
मूलम्
प्रहलाद रखी हरि पैज आप ॥ बसत्र छीनत द्रोपती रखी लाज ॥ जिनि जिनि सेविआ अंत बार ॥ रे मन सेवि तू परहि पार ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत। बसत्र = कपड़े। बसत्र छीनत = वस्त्र छीने जाने के वक्त। जिनि = जिस ने। जिनि जिनि = जिस जिस ने। सेविआ = शरण ली, आसरा लिया, भक्ति की। अंत बार = आखिरी समय में। परहि पार = तू (संसार समुंदर से) पार लांघ जाएगा।4।
अर्थ: हे (मेरे) मन! प्रहलाद की इज्जत परमात्मा ने स्वयं रखी। (दुर्योधन की सभा में द्रोपदी को नग्न करने के लिए जब) द्रोपदी के वस्त्र उतारे जा रहे थे, तब (कृष्ण जी ने उसकी) इज्जत बचाई। हे मन! जिस-जिस ने भी मुश्किल के वक्त परमात्मा का पल्ला पकड़ा (परमात्मा ने उसकी इज्जत रखी)। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा की शरण पड़, (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंनै सेविआ बाल बुधि ॥ त्रिलोचन गुर मिलि भई सिधि ॥ बेणी कउ गुरि कीओ प्रगासु ॥ रे मन तू भी होहि दासु ॥५॥
मूलम्
धंनै सेविआ बाल बुधि ॥ त्रिलोचन गुर मिलि भई सिधि ॥ बेणी कउ गुरि कीओ प्रगासु ॥ रे मन तू भी होहि दासु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंनै = धंना (भक्त) ने। सेविआ = भक्ति की। बाल बुधि = बालकों वाली बुद्धि प्राप्त कर के, वैर विरोध वाला स्वभाव मिटा के (छोटे बच्चों की ये विशेषता होती है कि उनके अंदर किसी के वास्ते भी वैर विरोध नहीं होता)। गुर मिलि = गुरु को मिल के। सिधि = (आत्मिक जीवन में) सफलता। कउ = को। गुरि = गुरु ने। प्रगास = आत्मिक जीवन का प्रकाश। होहि = हो जा। दासु = (परमात्मा का) सेवक।5।
अर्थ: हे (मेरे) मन! धंन्ना ने (गुरु की शरण पड़ के) बालकों वाली (निर्वैर) बुद्धि प्राप्त करके परमात्मा की भक्ति की। गुरु को मिल के त्रिलोचन को भी आत्मिक जीवन की सफलता प्राप्त हुई। गुरु ने (भक्त) बैणी को आत्मिक जीवन की रौशनी बख्शी। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा का भक्त (इसी तरह) बन।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैदेव तिआगिओ अहमेव ॥ नाई उधरिओ सैनु सेव ॥ मनु डीगि न डोलै कहूं जाइ ॥ मन तू भी तरसहि सरणि पाइ ॥६॥
मूलम्
जैदेव तिआगिओ अहमेव ॥ नाई उधरिओ सैनु सेव ॥ मनु डीगि न डोलै कहूं जाइ ॥ मन तू भी तरसहि सरणि पाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहंमेव = अहंकार। उधरिओ = (संसार समुंदर से) पार लांघ गया। सेव = भक्ति (कर के)। मनु = (सैण का) मन। डीगि = गिर के। कहूँ जाइ = किसी भी जगह। मन = हे मन! तरसहि = पार लांघ जाएगा। पाइ = पा के, पड़ के।6।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (गुरु को मिल के) जैदेव ने (अपने ब्राहमण होने का) गुमान छोड़ा। सैण नाई (गुरु की शरण पड़ कर) भक्ति की इनायत से (संसार-समुंदर से) पार लांघ गया, (सैण का) मन किसी भी जगह (माया की ठोकरों से) गिर के डोलता नहीं था। हे (मेरे) मन! (गुरु की) शरण पड़ कर तू भी (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह अनुग्रहु ठाकुरि कीओ आपि ॥ से तैं लीने भगत राखि ॥ तिन का गुणु अवगणु न बीचारिओ कोइ ॥ इह बिधि देखि मनु लगा सेव ॥७॥
मूलम्
जिह अनुग्रहु ठाकुरि कीओ आपि ॥ से तैं लीने भगत राखि ॥ तिन का गुणु अवगणु न बीचारिओ कोइ ॥ इह बिधि देखि मनु लगा सेव ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह = जिस पर। अनुग्रहु = कृपा। ठाकुरि = तुझ ठाकुर ने। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। राखि लीने = (संसार समुंदर से) बचा लिए। इह बिधि = यह तरीका। देखि = देख के।7।
अर्थ: हे प्रभु! जिस भक्त-जनों पर तू ठाकुर ने स्वयं मेहर की, उनको तूने (संसार-समुंदर में से) बचा लिया, तूने उनके ना कोई गुण ना ही कोई अवगुण बिचारे। हे प्रभु! तेरी इस किस्म की दयालता देख के (मेरा भी) मन (तेरी) भक्ति में लग गया है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबीरि धिआइओ एक रंग ॥ नामदेव हरि जीउ बसहि संगि ॥ रविदास धिआए प्रभ अनूप ॥ गुर नानक देव गोविंद रूप ॥८॥१॥
मूलम्
कबीरि धिआइओ एक रंग ॥ नामदेव हरि जीउ बसहि संगि ॥ रविदास धिआए प्रभ अनूप ॥ गुर नानक देव गोविंद रूप ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एक रंग = एक के प्यार में टिक के। बसहि = (हरि जी) बसते हैं। संगि = साथ। अनूप = उपमा रहित, सोहणा, सुंदर। नानक = हे नानक! गुरदेव = सतिगुरु।8।
अर्थ: हे नानक! कबीर ने एक-रस प्यार में टिक के परमात्मा का ध्यान धरा। प्रभु जी नामदेव जी के भी साथ बसते हैं। रविदास ने भी सुंदर प्रभु का स्मरण किया। (इन सब पर गुरु ने ही कृपा की)। हे नानक! गुरु परमात्मा का रूप है (तू भी गुरु की शरण पड़ा रह)।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु महला ५ ॥ अनिक जनम भ्रमे जोनि माहि ॥ हरि सिमरन बिनु नरकि पाहि ॥ भगति बिहूना खंड खंड ॥ बिनु बूझे जमु देत डंड ॥१॥
मूलम्
बसंतु महला ५ ॥ अनिक जनम भ्रमे जोनि माहि ॥ हरि सिमरन बिनु नरकि पाहि ॥ भगति बिहूना खंड खंड ॥ बिनु बूझे जमु देत डंड ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमे = भटकते हैं। माहि = में। नरकि = नरक में। पाहि = पड़ते हैं। बिहूना = बगैर। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। डंड = सजा, दण्ड।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्म के स्मरण के बिना मनुष्य नरक में पड़े रहते हैं, अनेक जूनियों में अनेक जन्मों में भटकते फिरते हैं। भक्ति के बिना (उनका मन अनेक तरह की दौड़-भाग में) टुकड़े-टुकड़े हुआ रहता है। आत्मिक जीवन की सूझ के बिना जमराज भी उनको सजा देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद भजहु मेरे सदा मीत ॥ साच सबद करि सदा प्रीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोबिंद भजहु मेरे सदा मीत ॥ साच सबद करि सदा प्रीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे मीत = हे मेरे मित्र! साच सबद = सदा कायम रहने वाली महिमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र! सदा परमात्मा का भजन किया कर। सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा सदा प्यार बनाए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतोखु न आवत कहूं काज ॥ धूम बादर सभि माइआ साज ॥ पाप करंतौ नह संगाइ ॥ बिखु का माता आवै जाइ ॥२॥
मूलम्
संतोखु न आवत कहूं काज ॥ धूम बादर सभि माइआ साज ॥ पाप करंतौ नह संगाइ ॥ बिखु का माता आवै जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतोखु = माया की ओर से तुप्ति। कहूँ काज = किसी भी काम में। धूँम बादर = धूँए के बादल। सभि साज = सारे तमाशे। संगाइ = शर्म करता। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया जहर। माता = मस्त। आवै जाइ = पैदा होता है मरता रहता है।2।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर का मतवाला हुआ मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है, किसी भी काम में (उसको) माया से संतुष्टि नहीं मिलती। (उसे ये समझ में नहीं आता कि) माया के सारे करिश्मे-तमाशे धूँए के बादल (ही) हैं (हवा के एक ही बुल्ले से उड़ जाने वाले)। (माया में मस्त मनुष्य) पाप करता हुआ भी झिझकता नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ हउ करत बधे बिकार ॥ मोह लोभ डूबौ संसार ॥ कामि क्रोधि मनु वसि कीआ ॥ सुपनै नामु न हरि लीआ ॥३॥
मूलम्
हउ हउ करत बधे बिकार ॥ मोह लोभ डूबौ संसार ॥ कामि क्रोधि मनु वसि कीआ ॥ सुपनै नामु न हरि लीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ हउ = मैं मैं। करत = करते हुए। बधे = बढ़ते जाते हैं। कामि = काम-वासना ने। क्रोधि = क्रोध ने। वसि = वश में। सुपनै = सपने में, कभी भी।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य में कभी सपने में भी परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया, मैं मैं करते हुए उसके अंदर विकार बढ़ते जाते हैं, जगत के मोह और लोभ में वह सदा डूबा रहता है। काम-वासना ने, क्रोध ने (उसका) मन सदा अपने काबू में किया होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कब ही राजा कब मंगनहारु ॥ दूख सूख बाधौ संसार ॥ मन उधरण का साजु नाहि ॥ पाप बंधन नित पउत जाहि ॥४॥
मूलम्
कब ही राजा कब मंगनहारु ॥ दूख सूख बाधौ संसार ॥ मन उधरण का साजु नाहि ॥ पाप बंधन नित पउत जाहि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कब ही = कभी। मंगनहारु = भिखारी। बाधौ = बँधा हुआ। उधरण का = (संसार समुंदर में डूबने से) बचाने का। साजु = उद्यम। बंधन = बंधन, फँदे। पउत जाहि = पड़ते जाते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! (नाम से विहीन मनुष्य) चाहे कभी राजा है चाहे भिखारी, वह सदा जगत के दुखों-सुखों में जकड़ा रहता है। अपने मन को (संसार-समुंदर के विकारों में डूबने से) बचाने के लिए वह कोई उद्यम नहीं करता। पापों के फँदे उसको सदा पड़ते रहते हैं।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ईठ मीत कोऊ सखा नाहि ॥ आपि बीजि आपे ही खांहि ॥ जा कै कीन्है होत बिकार ॥ से छोडि चलिआ खिन महि गवार ॥५॥
मूलम्
ईठ मीत कोऊ सखा नाहि ॥ आपि बीजि आपे ही खांहि ॥ जा कै कीन्है होत बिकार ॥ से छोडि चलिआ खिन महि गवार ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईठ = ईष्ट, प्यारे। सखा = साथी। बीजि = बीज के, (अच्छे बुरे) कर्म करके। आपे = स्वयं ही। खांहि = (जीव उन किए कर्मों का) फल भोगते हैं। जा कै कीनै = जो पदार्थों के इकट्ठा करने से। होत = (पैदा) होते हैं। से = वह पदार्थ (बहुवचन)। गवार = मूर्ख मनुष्य।5।
अर्थ: हे भाई! प्यारे मित्रों में से कोई भी (आखिर तक साथ निभाने वाला) साथी नहीं बन सकता। (सारे जीव अच्छे-बुरे) कर्म स्वयं करके स्वयं ही (उन किए कर्मां का) फल भोगते हैं (कोई मित्र मदद नहीं कर सकता)। हे भाई! जिस पदार्थां को इकट्ठा करने से (मनुष्य के मन में अनेक तरह के) विकार पैदा होते हैं (जब अंत समय आता है, तब) मूर्ख एक पल में ही उन (पदार्थां) को छोड़ के (यहाँ से) चल पड़ता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहि बहु भरमिआ ॥ किरत रेख करि करमिआ ॥ करणैहारु अलिपतु आपि ॥ नही लेपु प्रभ पुंन पापि ॥६॥
मूलम्
माइआ मोहि बहु भरमिआ ॥ किरत रेख करि करमिआ ॥ करणैहारु अलिपतु आपि ॥ नही लेपु प्रभ पुंन पापि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के)। भरमिआ = भटकता है। किरत = किए हुए कर्म। किरत रेख = (पिछले) किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। करि = करे, करता है। करमिआ = (और वैसे ही) कर्म। करणैहारु = सब कुछ कर सकने वाला। अलिपतु = निर्लिप, जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। लेपु = असर, प्रभाव। पुंन = (निहित हुए) पुन्यों के कारण। पापि = पाप के कारण।6।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का स्मरण भुला के मनुष्य) माया के मोह के कारण बहुत भटकता फिरता है, (पिछले) किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (मनुष्य वैसे ही) कर्म करता जाता है। हे भाई! सब कुछ कर सकने के समर्थ परमात्मा स्वयं निर्लिप है (उसके ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता)। प्रभु पर ना तो (जीवों द्वारा निहित हुए) पुण्य कर्मों (के किए जाने से पैदा होने वाले अहंकार आदि) का असर होता है, ना किसी पाप के कारण (भाव, उस प्रभु को ना अहंकार ना विकार अपने असर तले ला सकता है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखि लेहु गोबिंद दइआल ॥ तेरी सरणि पूरन क्रिपाल ॥ तुझ बिनु दूजा नही ठाउ ॥ करि किरपा प्रभ देहु नाउ ॥७॥
मूलम्
राखि लेहु गोबिंद दइआल ॥ तेरी सरणि पूरन क्रिपाल ॥ तुझ बिनु दूजा नही ठाउ ॥ करि किरपा प्रभ देहु नाउ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! क्रिपाल = हे कृपालु! ठाउ = जगह। करि = करके।7।
अर्थ: हे दया के श्रोत गोबिंद! हे सर्व-व्यापक! हे कृपालु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी रक्षा कर। तेरे बिना मेरी और कोई जगह नहीं। हे प्रभु! मेहर करके मुझे अपना नाम बख्श।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू करता तू करणहारु ॥ तू ऊचा तू बहु अपारु ॥ करि किरपा लड़ि लेहु लाइ ॥ नानक दास प्रभ की सरणाइ ॥८॥२॥
मूलम्
तू करता तू करणहारु ॥ तू ऊचा तू बहु अपारु ॥ करि किरपा लड़ि लेहु लाइ ॥ नानक दास प्रभ की सरणाइ ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणहारु = सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य वाला। अपारु = बेअंत, जिसकी हस्ती का परला छोर नहीं मिल सकता (अ+पारु)। करि = कर के। लड़ि = पल्ले से। नानक = हे नानक!।8।
अर्थ: हे नानक! प्रभु के दास प्रभु की शरण में पड़े रहते हैं (और, उसके दर पर प्रार्थना करते हैं: हे प्रभु!) तू (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, तू सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य रखता है, तू सबसे ऊँचा है, तू बड़ा बेअंत है, मेहर कर (हमें) अपने पल्ले से लगाए रख।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंत की वार महलु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंत की वार महलु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु धिआइ कै होहु हरिआ भाई ॥ करमि लिखंतै पाईऐ इह रुति सुहाई ॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु मउलिआ अम्रित फलु पाई ॥ मिलि साधू सुखु ऊपजै लथी सभ छाई ॥ नानकु सिमरै एकु नामु फिरि बहुड़ि न धाई ॥१॥
मूलम्
हरि का नामु धिआइ कै होहु हरिआ भाई ॥ करमि लिखंतै पाईऐ इह रुति सुहाई ॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु मउलिआ अम्रित फलु पाई ॥ मिलि साधू सुखु ऊपजै लथी सभ छाई ॥ नानकु सिमरै एकु नामु फिरि बहुड़ि न धाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महलु = शरीर (यहाँ शब्द ‘महला’ की जगह शब्द ‘महलु’ का प्रयोग किया गया है)। महलु ५ = शरीर पाँचवाँ, गुरु नानक का पाँचवाँ शरीर अर्थात गुरु अरजन। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। करमि = बख्शिश के लेख से। इह रुति = नाम जपने की ये मानव जनम की ऋतु। सुहाई = सुंदर। मउलिआ = खिली हुई। छाई = कालिख़, मैल। धाई = भटकना।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करके आत्मिक जीवन वाला बन जा (जैसे पानी मिलने से वृक्ष हरा-भरा हो जाता है)। (नाम जपने से मनुष्य-जन्म का) ये खूबसूरत समय (पूर्बले किए कर्मों के अनुसार प्रभु द्वारा) लिखे बख्शिश के लेखों के अंकुरित होने से ही मिलता है। (जैसे वर्षा से) जंगल बनस्पति सारा जगत खिल उठता है, (वैसे ही उस मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है जो) अमृत-नाम रूपी फल हासिल कर लेता है। गुरु को मिल के (उसके हृदय में) सुख पैदा होता है, उसके मन की मैल उतर जाती है। नानक (भी) प्रभु का ही नाम स्मरण करता है (और जो मनुष्य स्मरण करता है उसको) बार-बार जनम-मरण के चक्करों में भटकना नहीं पड़ता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंजे बधे महाबली करि सचा ढोआ ॥ आपणे चरण जपाइअनु विचि दयु खड़ोआ ॥ रोग सोग सभि मिटि गए नित नवा निरोआ ॥ दिनु रैणि नामु धिआइदा फिरि पाइ न मोआ ॥ जिस ते उपजिआ नानका सोई फिरि होआ ॥२॥
मूलम्
पंजे बधे महाबली करि सचा ढोआ ॥ आपणे चरण जपाइअनु विचि दयु खड़ोआ ॥ रोग सोग सभि मिटि गए नित नवा निरोआ ॥ दिनु रैणि नामु धिआइदा फिरि पाइ न मोआ ॥ जिस ते उपजिआ नानका सोई फिरि होआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंजे = पाँचों कामादिक विकार। बली = बलवान। ढोआ = भेटा। जपाइअनु = उसने जपाए। विचि = उसके हृदय में। दयु = दयालु प्रभु। सभि = सारे। निरोआ = रोग रहित, आरोग्य। रैणि = रात। मोआ = मौत, जनम-मरण का चक्कर।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (प्रभु का स्मरण रूपी) सच्ची भेटा (प्रभु की हजूरी में) पेश की है, प्रभु ने उसके कामादिक पाँचों ही बड़े बली विकार बाँध दिए हैं, (जिसके कारण) उसके सारे ही रोग मिट जाते हैं, वह सदा पवित्र-आत्मा और अरोग रहता है। वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसको जनम-मरण का चक्कर नहीं लगाना पड़ता।
हे नानक! जिस परमात्मा से वह पैदा हुआ था (नाम-जपने की इनायत से) उसी का रूप हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किथहु उपजै कह रहै कह माहि समावै ॥ जीअ जंत सभि खसम के कउणु कीमति पावै ॥ कहनि धिआइनि सुणनि नित से भगत सुहावै ॥ अगमु अगोचरु साहिबो दूसरु लवै न लावै ॥ सचु पूरै गुरि उपदेसिआ नानकु सुणावै ॥३॥१॥
मूलम्
किथहु उपजै कह रहै कह माहि समावै ॥ जीअ जंत सभि खसम के कउणु कीमति पावै ॥ कहनि धिआइनि सुणनि नित से भगत सुहावै ॥ अगमु अगोचरु साहिबो दूसरु लवै न लावै ॥ सचु पूरै गुरि उपदेसिआ नानकु सुणावै ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कह माहि = किस में? समावै = लीन हो जाता है। कहनि = कहते हैं। सुहावै = सुंदर लगते हैं। लवै न लावै = बराबरी नहीं कर सकता। गुरि = गुरु ने। उपदेसिआ = नजदीक दिखा दिया है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। अगोचरु = अ+गो+चरु। गो = इंद्रिय।
अर्थ: सारे जीव पति-प्रभु के पैदा किए हुए हैं, कोई भी (अपने पैदा करने वाले के गुणों का) मूल्य नहीं डाल सकता, (कोई नहीं बता सकता कि) प्रभु कहाँ से पैदा होता है कहाँ रहता है और कहाँ लीन हो जाता है।
जो जो उस प्रभु के गुण उचारते हैं याद करते हैं वे भक्त सुंदर (जीवन वाले) हो जाते हैं।
परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, इन्द्रियों की पहुँच से परे है सबका मालिक है, कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता। नानक उस सदा-स्थिर प्रभु की महिमा सुनाता है, पूरे गुरु ने वह प्रभु नज़दीक दिखा दिया है (अंदर बसता दिखा दिया है)।3।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु बाणी भगतां की ॥ कबीर जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु बाणी भगतां की ॥ कबीर जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मउली धरती मउलिआ अकासु ॥ घटि घटि मउलिआ आतम प्रगासु ॥१॥
मूलम्
मउली धरती मउलिआ अकासु ॥ घटि घटि मउलिआ आतम प्रगासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउली = खिली हुई, टहक रही, सुंदर लग रही है। घटि घटि = हरेक घट में। मउलिआ = खिला हुआ है, चमक रहा है, भाव मार रहा है। प्रगासु = प्रकाश, ज्योति। आतम प्रगासु = आत्मा का प्रकाश, परमात्मा की ज्योति की रौशनी।1।
अर्थ: हरेक घट में उस परमात्मा का ही प्रकाश है। धरती और आकाश (उसी की ज्योति के प्रकाश से) खिले हुए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा रामु मउलिआ अनत भाइ ॥ जह देखउ तह रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राजा रामु मउलिआ अनत भाइ ॥ जह देखउ तह रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सारे जगत का मालिक) ज्योति-स्वरूप परमात्मा (अपने बनाए जगत में) अनेक तरह से अपना प्रकाश कर रहा है। मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही वह भरपूर (दिखता) है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुतीआ मउले चारि बेद ॥ सिम्रिति मउली सिउ कतेब ॥२॥
मूलम्
दुतीआ मउले चारि बेद ॥ सिम्रिति मउली सिउ कतेब ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजा = प्रकाश स्वरूप। अनत = अनंत। अनत भाइ = अनंत भाव में, बेअंत तरीकों से। जह = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तह = उधर। समाइ रहिआ = भरपूर है।1। रहाउ। दुतीआ = दूसरी बात (यह है); और (सुनो)। सिउ कतेब = मुसलमानी धर्म पुस्तकों सहित।2।
अर्थ: (सिर्फ धरती और आकाश ही नहीं) चारों वेद, स्मृतियाँ और कतेब (इस्लामी धर्म पुस्तकें) - यह सारे भी परमात्मा की ही ज्योति से प्रकट हुए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकरु मउलिओ जोग धिआन ॥ कबीर को सुआमी सभ समान ॥३॥१॥
मूलम्
संकरु मउलिओ जोग धिआन ॥ कबीर को सुआमी सभ समान ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संकरु = शिव। सभ = हर जगह। समान = एक जैसा।3।
अर्थ: जेग-समाधि लगाने वाला शिव भी (प्रभु की ज्योति की इनायत से) खिला। (सिरे की बात यह कि) कबीर का मालिक (-प्रभु) सब जगह एक जैसा ही खिल रहा है।3।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा सर्व-व्यापक है, उसी ही की ज्योति का प्रकाश हर जगह हो रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडित जन माते पड़्हि पुरान ॥ जोगी माते जोग धिआन ॥ संनिआसी माते अहमेव ॥ तपसी माते तप कै भेव ॥१॥
मूलम्
पंडित जन माते पड़्हि पुरान ॥ जोगी माते जोग धिआन ॥ संनिआसी माते अहमेव ॥ तपसी माते तप कै भेव ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = लोक।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘जन’ जब किसी श्रेणी के साथ प्रयोग होता है तो उसका अर्थ होता है ‘उस श्रेणी के आम लोग’)।
दर्पण-भाषार्थ
माते = मतवाले हुए, मस्ते हुए, अहंकारी। पढ़ि = पढ़ के। अहंमेव = अहंकार। भेव = भेद, मर्म।1।
अर्थ: पण्डित लोग पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ के अहंकार में हैं; जोगी जोग-साधना के गुमान में मतवाले फिरते हैं, सन्यासी (सन्यास के) अ हंकार में डूबे हुए हैं; तपस्वी इसलिए मस्त हुए हैं कि उन्होंने तप का भेद पा लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ मद माते कोऊ न जाग ॥ संग ही चोर घरु मुसन लाग ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सभ मद माते कोऊ न जाग ॥ संग ही चोर घरु मुसन लाग ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संग ही = साथ ही, अंदर ही। मुसन लाग = ठगने लग जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: सब जीव (किसी ना किसी विकार में) मतवाले होए हुए हैं, कोई नहीं जागता (दिखाई देता)। और, इन जीवों के अंदर से ही (उठ के कामादिक) चोर इनका (हृदय-रूप) घर लूट रहे हैं।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जागै सुकदेउ अरु अकूरु ॥ हणवंतु जागै धरि लंकूरु ॥ संकरु जागै चरन सेव ॥ कलि जागे नामा जैदेव ॥२॥
मूलम्
जागै सुकदेउ अरु अकूरु ॥ हणवंतु जागै धरि लंकूरु ॥ संकरु जागै चरन सेव ॥ कलि जागे नामा जैदेव ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुकदेउ = (सं: शुक) बयास के एक पुत्र का नाम है। ये पैदा होते हुए ही भक्त था, इसने बहुत कठिन तप किए। राजा परीक्षित को इसी ऋषि ने भागवत पुराण सुनाया था। अकूर = अक्रूर = कंस का भाई, कृष्ण जी का मामा और भक्त। लंकूरु = (सं: लांगुल) पूछल। धरि = धार के।2।
अर्थ: (जगत में कोई विरले-विरले जागे, विरले-विरले मायश के प्रभाव से बचे); जागता रहा शुकदेव ऋषि और अक्रूर भक्त; जागता रहा हनुमान पूछल धार के भी (भाव, लोग उसको पूँछ वाला ही कहते हैं)। प्रभु-चरणों की सेवा करके जागा शिव जी। (अब के समय) कलियुग में जागते रहे भक्त नामदेव और जैदेव जी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागत सोवत बहु प्रकार ॥ गुरमुखि जागै सोई सारु ॥ इसु देही के अधिक काम ॥ कहि कबीर भजि राम नाम ॥३॥२॥
मूलम्
जागत सोवत बहु प्रकार ॥ गुरमुखि जागै सोई सारु ॥ इसु देही के अधिक काम ॥ कहि कबीर भजि राम नाम ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु प्रकार = कई किस्मों का। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सारु = श्रेष्ठ। सोई = वह जागना। देही = देह धारी, जीव। अधिक = बहुत।3।
अर्थ: जागना और सोए रहना (भी) कई किस्मों का है (चोर भी तो रात को जागते ही हैं)। वह जागना श्रेष्ठ है जो गुरमुखों का जागना है (भाव, जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहके माया के हमलों की तरफ से सचेत रहता है, वही जाग रहा है)। कबीर कहता है: हे भाई! प्रभु का नाम स्मरण कर (के सचेत रह, यह स्मरण) जीव के बहुत काम आता है।3।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कबीर जी बनारस के रहने वाले थे। भक्त नामदेव जी बंबई के जिला सतारा के, और जैदेव जी बँगाल के रहने वाले। कबीर जी इन दोनों भगतों का जिक्र करते हैं। उस जमाने में इन दोनों भक्तों की शोभा सारे जमाने में पसरी हुई थी, जब कोई अखबारों का रिवाज नहीं था, कोई रेल गाड़ियाँ भी नहीं थीं।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: अगर मनुष्य प्रभु का नाम बिसार दे, तो कामादिक अनेक विकार उसके आचरण को, आत्मिक जीवन को गिरा देते हैं। कोई पण्डित हो जोगी हो, सन्यासी हो तपस्वी हो, किसी का लिहाज़ नहीं करते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोइ खसमु है जाइआ ॥ पूति बापु खेलाइआ ॥ बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ ॥१॥
मूलम्
जोइ खसमु है जाइआ ॥ पूति बापु खेलाइआ ॥ बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोइ = स्त्री (ने)। जाइआ = पैदा किया, जन्म दिया। पूति = पूत्र (मन) ने। खेलाइआ = खेलने लगाया है। स्रवण = (सं: स्रवण = flowing, trickling, oozing, दूध का बहना, सिंमना) थन। खीरु = दूध।1।
अर्थ: स्त्री ने पति को जन्म दिया है (भाव, जिस मन को माया ने जन्म दिया है, वही इसको भोगने वाला बन जाता है)। मन-पुत्र ने पिता-जीवात्मा को खेलने लगा दिया है। (यह मन) थनों के बिना ही (जीवात्मा को) दूध पिला रहा है (भाव, नाशवान पदार्थों के स्वाद में डाल रहा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखहु लोगा कलि को भाउ ॥ सुति मुकलाई अपनी माउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देखहु लोगा कलि को भाउ ॥ सुति मुकलाई अपनी माउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। भाउ = प्रभाव। सुति = पुत्र ने। मुकलाई = ब्याह ली है। माउ = माँ। कलि = प्रभु से विछोड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे लोगो! देखो, कलियुग का अजीब प्रभाव पड़ रहा है (भाव, प्रभु से विछुड़ने के कारण जीव पर अजीब दबाव पड़ रहा है)। (मन-रूप) पुत्र ने अपनी माँ (-माया) को ब्याह लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पगा बिनु हुरीआ मारता ॥ बदनै बिनु खिर खिर हासता ॥ निद्रा बिनु नरु पै सोवै ॥ बिनु बासन खीरु बिलोवै ॥२॥
मूलम्
पगा बिनु हुरीआ मारता ॥ बदनै बिनु खिर खिर हासता ॥ निद्रा बिनु नरु पै सोवै ॥ बिनु बासन खीरु बिलोवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पग = पैर। हुरीआ = छलांगे। बदन = मुँह। खिर खिर = खिल खिल। हासता = हसता है। निद्रा = मोह की नींद। पै = बेपरवाह हो के। बासन = बर्तन। बिलोवै = मथता है।2।
अर्थ: (इस मन के) कोई पैर नहीं हैं, पर छलांगे लगाता फिरता है; (इसका) मुँह नहीं, पर खिड़-खिड़ के हसता फिरता है। (जीव का असल तो ऐसा है कि इसको माया की) नींद नहीं व्याप सकती थी, पर (‘कलि को भाउ’ देखो) जीव लंबी तान के सोया हुआ है; और बर्तन के बग़ैर ही दूध दुहे जा रहा है (भाव, शेखचिल्ली की तरह सपने संजोता रहता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु असथन गऊ लवेरी ॥ पैडे बिनु बाट घनेरी ॥ बिनु सतिगुर बाट न पाई ॥ कहु कबीर समझाई ॥३॥३॥
मूलम्
बिनु असथन गऊ लवेरी ॥ पैडे बिनु बाट घनेरी ॥ बिनु सतिगुर बाट न पाई ॥ कहु कबीर समझाई ॥३॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असथन = स्तन, थन। बिनु असथन = बिना स्थनों के, थनों के बगैर (भाव, इस माया से सुख नहीं मिलता)। पैडे बिनु = (इसका असल तो एसा है कि इसको) कोई पैंडा नहीं, बगैर रास्ते के। बाट घनेरी = लंबी बाट (जीवन का सही रास्ता)।3।
अर्थ: (इस माया-रूप) गाय से सुख तो नहीं मिल सकते, पर यह (मन को) झूठे पदार्थों-रूप दूध में मोह रही है। (अपनी असल रुचि के मुताबिक तो इस जीव को कोई भटकना नहीं होनी चाहिए, पर ‘कलि का भाउ’ देखो) लंबे रास्ते (चौरासी के चक्करों में) पड़ा हुआ है। हे कबीर! (इस जगत को) समझा के बता कि सतिगुरु के बिना जीवन-सफर का सही रास्ता नहीं मिल सकता।3।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस सारे शब्द में कबीर जी माया का हाल बता रहे हैं, माया-ग्रसित जीव की दशा बयान कर रहे हैं; और ‘कलि को भाउ’ शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। यही शब्द गुरु नानक देव जी ने बरते हैं आसा राग के एक शब्द में, जहाँ आप माया-ग्रसित जगत की हालत बताते हैं; आप फरमाते हैं;
ताल मदीरे घट के घाट॥ दोलक दुनीआ वाजै वाज॥
नारदु नाचै कलि का भाउ॥ जती सती कहि राखहि पाउ॥1॥
इन शब्दों की सांझ इस नतीजे पर पहुँचाती है कि गुरु नानक देव जी के पास भक्त कबीर जी की वाणी मौजूद थी। मूर्ति-पूजा और भरमों-वहमों के अंधेरे में फंसे हुए भारत में जब गुरु नानक देव जी किसी रब-के-प्यारे की तलाश करने चले, तो ये बात कुदरती थी कि जहाँ-कहीं आपको हम-ख्याल के बारे में पता चला, उसको मिलने अथवा उसकी वाणी हासिल करने गए।
नोट: ‘बिनु सतिगुर घाट न पाई’; इस तुक से स्पष्ट होता है कि सारे शब्द में ‘कलि को भाउ’ के कारण जीव के गलत राह पर पड़ने का हाल बताया गया है। किसी असंभव व संभव बात का यहाँ वर्णन नहीं, जैसे कि टीकाकार लिख रहे हैं। ‘बाट’ से विछुड़ने का जिकर है, और असल ‘बाट’ गुरु से ही मिलती है।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: गुरु की रहिबरी के बिना मन माया की नींद में सोया रहता है। यही है कलियुग का प्रभाव।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहलाद पठाए पड़न साल ॥ संगि सखा बहु लीए बाल ॥ मो कउ कहा पड़्हावसि आल जाल ॥ मेरी पटीआ लिखि देहु स्री गुोपाल ॥१॥
मूलम्
प्रहलाद पठाए पड़न साल ॥ संगि सखा बहु लीए बाल ॥ मो कउ कहा पड़्हावसि आल जाल ॥ मेरी पटीआ लिखि देहु स्री गुोपाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पठाए = भेजा। पढ़नसाल = पाठशाला। संगि = (अपने) साथ। सखा = मित्र, साथी। बाल = बालक। कहा पढ़ावसि = तू क्यों पढ़ाता है? आल जाल = घर के धंधे (आल = घर। जाल = धंधे)। पटीआ = छोटी सी तख़्ती।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: प्रहलाद को (उसें पिता हर्णाकष्यप ने) पाठशाला में पढ़ने भेजा, (प्रहलाद ने अपने) साथ कई बालक साथ ले लिए। (जब अध्यापक कुछ और आल-जंजाल पढ़ाने लगा, तो प्रहलाद ने कहा, हे बाबा!) मुझे ऊल-जलूल क्यों पढ़ाता है? मेरी इस पटिआ पर ‘श्री गोपाल श्री गोपाल’ लिख दो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नही छोडउ रे बाबा राम नाम ॥ मेरो अउर पड़्हन सिउ नही कामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नही छोडउ रे बाबा राम नाम ॥ मेरो अउर पड़्हन सिउ नही कामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे बाबा = हे बाबा! छोडउ = मैं छोड़ता हूँ, मैं छोड़ूँगा। मेरो नही कामु = मेरा कोई काम नहीं, मुझे कोई जरूरत नहीं।1। रहाउ।
अर्थ: हे बाबा! मैं परमात्मा का नाम स्मरणा नहीं छोड़ूँगा। नाम के बिना कोई और बात पढ़ने से मेरा कोई वास्ता नहीं है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संडै मरकै कहिओ जाइ ॥ प्रहलाद बुलाए बेगि धाइ ॥ तू राम कहन की छोडु बानि ॥ तुझु तुरतु छडाऊ मेरो कहिओ मानि ॥२॥
मूलम्
संडै मरकै कहिओ जाइ ॥ प्रहलाद बुलाए बेगि धाइ ॥ तू राम कहन की छोडु बानि ॥ तुझु तुरतु छडाऊ मेरो कहिओ मानि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (प्रहलाद के अध्यापक) संडे मरके (अमरक) ने जाकर (हर्णाकश्यप को यह बात) कह दी। उसने जल्दी से प्रहलाद को बुला लिया। (अध्यापक ने प्रहलाद को समझाया) तू परमात्मा के नाम के नाम-जपने की आदत को छोड़ दे, मैं तुझे तुरंत छुड़वा लूँगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मो कउ कहा सतावहु बार बार ॥ प्रभि जल थल गिरि कीए पहार ॥ इकु रामु न छोडउ गुरहि गारि ॥ मो कउ घालि जारि भावै मारि डारि ॥३॥
मूलम्
मो कउ कहा सतावहु बार बार ॥ प्रभि जल थल गिरि कीए पहार ॥ इकु रामु न छोडउ गुरहि गारि ॥ मो कउ घालि जारि भावै मारि डारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेगि = जल्दी। बुलाए = बुलाया। बानि = आदत। मानि = मान ले। बार बार = बारंबार। प्रभि = प्रभु ने। गिरि = पहाड़। गुरहि = गुरु को। गारि = गाली। घालि जारि = जला दे। भावै = चाहे। मारि डारि = मार दे।3।
अर्थ: (प्रहलाद ने उक्तर दिया, ये बात कह कर) मुझे क्यों बार-बार परेशान करते हो? जिस प्रभु ने पानी, धरती, पहाड़ आदि सारी सृष्टि बनाई, मैं उस राम को स्मरणा नहीं छोड़ूँगा। (उसको छोड़ने से) मेरे गुरु को गाली लगती है (भाव, मेरे गुरु की बदनामी होती है)। मुझे चाहे जला भी दे, चाहे मार दे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काढि खड़गु कोपिओ रिसाइ ॥ तुझ राखनहारो मोहि बताइ ॥ प्रभ थ्मभ ते निकसे कै बिसथार ॥ हरनाखसु छेदिओ नख बिदार ॥४॥
मूलम्
काढि खड़गु कोपिओ रिसाइ ॥ तुझ राखनहारो मोहि बताइ ॥ प्रभ थ्मभ ते निकसे कै बिसथार ॥ हरनाखसु छेदिओ नख बिदार ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खड़गु = तलवार। रिसाइ = खिझ के। कोपिओ = क्रोध में आया। मोहि = मुझे। बताइ = बता। ते = से। निकसे = निकल आए। कै = कर के। कै बिसथारु = विस्तार कर के, भयानक रूप धार के। छेदिओ = चीर दिया, मार दिया। नख = नाखूनों से। बिदार = फाड़ के।4।
अर्थ: (हर्णाकश्यप) खिझ के क्रोध में आया, तलवार (म्यान से) निकाल के (कहने लगा-) मुझे वह बता जो तुझे बचाने वाला है। प्रभु भयानक रूप धार के खम्भे में से निकल आया, और उसने अपने नाखूनों से चीर के हर्णाकश्यप को मार दिया।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओइ परम पुरख देवाधि देव ॥ भगति हेति नरसिंघ भेव ॥ कहि कबीर को लखै न पार ॥ प्रहलाद उधारे अनिक बार ॥५॥४॥
मूलम्
ओइ परम पुरख देवाधि देव ॥ भगति हेति नरसिंघ भेव ॥ कहि कबीर को लखै न पार ॥ प्रहलाद उधारे अनिक बार ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देवाधिदेव = देव अधिदेव, देवताओं से बड़ा देवता। हेति = खातिर। भगति हेति = भक्ति के हित में, भक्ति से प्यार करके। भेव = रूप। कहि = कहे, कहता है। को = कोई जीव। पार = अंत। उधारे = बचाए। अनिक बार = अनेक बार, अनेक कष्टों से।5।
अर्थ: कबीर कहता है: प्रभु जी परम-पुरख हैं, देवताओं के भी बड़े देवता हैं, प्रहलाद की भक्ति से प्रसन्न होकर प्रभु ने नरसिंघ का रूप धारा, प्रहलाद को अनेक कष्टों से बचाया। कोई जीव उस प्रभु की ताकत का अंत नहीं पा सकता।5।4।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: निर्भय प्रभु का स्मरण करने से मनुष्य के अंदर निर्भयता आ जाती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु तन मन मधे मदन चोर ॥ जिनि गिआन रतनु हिरि लीन मोर ॥ मै अनाथु प्रभ कहउ काहि ॥ को को न बिगूतो मै को आहि ॥१॥
मूलम्
इसु तन मन मधे मदन चोर ॥ जिनि गिआन रतनु हिरि लीन मोर ॥ मै अनाथु प्रभ कहउ काहि ॥ को को न बिगूतो मै को आहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मधे = में। मदन = कामदेव। जिनि = जिस (कामदेव) ने। हिरि लीन = चुरा लिया है। मोर = मेरा। अनाथु = आजज़। कहउ काहि = मैं किसको कहूँ? को = कौन? मै को आहि = मैं कौन हूँ, मेरी क्या बिसात है?।1।
अर्थ: (मेरी ‘चंचल बुधि’ के कारण, अब) मेरे इस तन-मन में कामदेव चोर आ बसा है, जिसने ज्ञान-रूप मेरा रत्न (मेरे अंदर से) चुरा लिया है (भाव, जिसने मेरी समझ बिगाड़ दी है)। हे प्रभु! मैं (बड़ा) आजिज़ हो गया हूँ, (अपना दुख तेरे बिना और) किसको बताऊँ? (इस काम के हाथ से) कौन-कौन दुखी नहीं हुआ? मुझ (गरीब) की क्या बिसात है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माधउ दारुन दुखु सहिओ न जाइ ॥ मेरो चपल बुधि सिउ कहा बसाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माधउ दारुन दुखु सहिओ न जाइ ॥ मेरो चपल बुधि सिउ कहा बसाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दारुन = भयानक, डरावना। मेरो कहा बसाइ = मेरा क्या वश चल सकता है? मेरी कोई पेश नहीं पड़ती। चपल = चंचल। सिउ = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे माधो! अपनी चंचल मति के आगे मेरी कोई पेश नहीं चलती। यह अति-भयंकर दुख (अब) मुझसे सहा नहीं जाता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनक सनंदन सिव सुकादि ॥ नाभि कमल जाने ब्रहमादि ॥ कबि जन जोगी जटाधारि ॥ सभ आपन अउसर चले सारि ॥२॥
मूलम्
सनक सनंदन सिव सुकादि ॥ नाभि कमल जाने ब्रहमादि ॥ कबि जन जोगी जटाधारि ॥ सभ आपन अउसर चले सारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुकादि = शुकदेव आदि। नाभि कमल जाने = कमल की नाभि से पैदा होए हुए। ब्रमादि = ब्रहमा आदि। कबि = कवि। अउसर = अवसर। अउसर सारि = समय संभाल के, समय बिता के (‘काम से डरते-डरते) दिन कटी करके।2।
अर्थ: सनक, सनंदन, शिव, शुकदेव जैसे (बड़े-बड़े ऋषि-तपस्वी) कमल की नाभि से जन्मे ब्रहमा आदि, कवि लोग, जोगी और जटाधारी साधु- ये सब (काम से डरते-डरते) अपने-अपने समय में दिन-काट कर चले गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू अथाहु मोहि थाह नाहि ॥ प्रभ दीना नाथ दुखु कहउ काहि ॥ मोरो जनम मरन दुखु आथि धीर ॥ सुख सागर गुन रउ कबीर ॥३॥५॥
मूलम्
तू अथाहु मोहि थाह नाहि ॥ प्रभ दीना नाथ दुखु कहउ काहि ॥ मोरो जनम मरन दुखु आथि धीर ॥ सुख सागर गुन रउ कबीर ॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। थाह = (तेरे गुणों का) अंत। कहउ काहि = किसको बताऊँ? आथि = माया। जनम मरन दुखु = जनम से ले कर मरने तक का दुख, सारी उम्र का दुख। धीर = कम कर, हटा। सुख सागर = हे सुखों के सागर! रउ = रवूँ, स्मरण करूँ।3।
अर्थ: हे कबीर! (काम आदि से बचने के लिए एक ही प्रभु का आसरा है, उसके आगे इस तरह अरजोई कर-) हे सुखों के सागर प्रभु! हे दीनानाथ प्रभु! तू बड़े गहरे जिगरे वाला है, मैं (तेरे गंभीर समुंदर जैसे महा विशाल दिल की) थाह नहीं लगा सकता। मैं और किस के आगे अरज़ोई करूँ? माया से पैदा हुआ यह मेरा सारी उम्र का दुख दूर कर, ता कि मैं तेरे गुण याद कर सकूँ।3।5।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: माया के शूरवीर कामादिकों से बचने का एक-मात्र रास्ता है। वह यह कि प्रभु के दर पर गिर कर उससे उसके नाम-जपने की दाति माँगें।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाइकु एकु बनजारे पाच ॥ बरध पचीसक संगु काच ॥ नउ बहीआं दस गोनि आहि ॥ कसनि बहतरि लागी ताहि ॥१॥
मूलम्
नाइकु एकु बनजारे पाच ॥ बरध पचीसक संगु काच ॥ नउ बहीआं दस गोनि आहि ॥ कसनि बहतरि लागी ताहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइकु = शाह (जीव)। बनजारे = वणज करने वाले व्यापारी। पाच = पाँच ज्ञान-इंद्रिय। बरध = बैल। पचीसक = पच्चिस (प्रकृतियां)। संगु = साथ। काच = कच्चा। नउ = नौ दरवाजे, नौ श्रोत। बहीआं = लंबे डंडे जिनकी सहायता से छटें लादी जाती हैं। दस = ज्ञान-इंद्रिय और कर्म इन्द्रियाँ। गोनि = छूटें। आहि = हैं। कसन = कसने वाली, खींचने वाली, रस्सियाँ जिनसे छटें सिली जाती हैं। बहतरि = बहक्तर नाड़ियाँ। ताहि = उन छटों में।1।
अर्थ: जीव (मानो) एक शाह है, पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ (इस शाह के) बनजारे हैं। पच्चिस प्रकृतियाँ (काफ़िले के) बैल हैं। पर ये सारा साथ कच्चा ही है। नौ दरवाजे (मानो) बहियाँ हैं, दस इन्द्रियाँ छटें हैं, बहक्तर नाड़ियाँ (छटों को सीने के लिए) रस्सियाँ हैं जो इन (इन्द्रिय-रूपी छटों) को लगी हुई हैं।1।
[[1195]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥ जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ॥
मूलम्
मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥ जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह = जिस व्यापर से। रहाउ।
अर्थ: मुझे ऐसा व्यापार करने की आवश्यक्ता नहीं, जिस वणज के करने से मूल घटता जाए और ब्याज बढ़ता जाए (भाव, ज्यों-ज्यों उम्र गुजरे त्यों-त्यों विकारों का भार बढ़ता जाए)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात सूत मिलि बनजु कीन ॥ करम भावनी संग लीन ॥ तीनि जगाती करत रारि ॥ चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥
मूलम्
सात सूत मिलि बनजु कीन ॥ करम भावनी संग लीन ॥ तीनि जगाती करत रारि ॥ चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सात सूत = सूत सात (आशा-तृष्णा आदि) कई किस्मों के सूत्र का। मिलि = (पांच बनजारों ने) मिल के। करम भावनी = कीए हुए कर्मों के संस्कार। तीनि = तीन गुण। जगाती = मसूलिए, वसूल करने वाले। रारि = तकरार, झगड़े। चलो = चल पड़ा। हाथ झारि = हाथ झाड़ के, खाली हाथ।2।
अर्थ: (ये ज्ञान-इन्द्रियाँ) मिल के कई किस्मों के सूत्र (भाव, विकारों) का वणज कर रहे हैं, किए हुए कर्मों के संस्कारों को इन्होंने (अपनी सहायता के लिए) साथ ले लिया है (भाव, ये पिछले संस्कार और भी विकारों की तरफ़ प्रेरते जा रहे हैं)। तीन गुण (-रूपी) मसूलिए (और) झगड़ा बढ़ाते हैं, (नतीजा ये निकलता है कि) वणजारा (जीव) खाली हाथ चला जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥ दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥ कहि कबीर मन सरसी काज ॥ सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥
मूलम्
पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥ दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥ कहि कबीर मन सरसी काज ॥ सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरानी = गायब हो गई, गवा ली। टांडो = काफला (शरीर)। मन = हे मन! सरसी = सँवरेगा। सहज समानो = अगर सहज में लीन होएगा।3।
अर्थ: जब (श्वासों की) राशि छिन जाती है, तब वणज समाप्त हो जाता है, और काफ़िला (शरीर) दसों दिशाओं में बिखर जाता है। कबीर कहता है - हे मन! यदि तू सहज अवस्था में लीन हो जाए और तेरी भटकना समाप्त हो जाए तो तेरा काम सँवर जाएगा।3।6।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: मनुष्य को विकारों का वणज हमेशा घाटेवाला रहता है। ज्यों-ज्यों उम्र कम होती जाती है, त्यों-त्यों विकारों का भार बढ़ता जाता है, आखिर में जीव यहाँ से खाली हाथ चला जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु हिंडोलु घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु हिंडोलु घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥ आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥
मूलम्
माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥ आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जूठी = अपवित्र। फल लागे = लगे हुए फल, बाल बच्चे। आवहि = पैदा होते हैं। जाहि = मर जाते हैं। अभागे = बद नसीब। जूठे = अपवित्र ही।1।
अर्थ: माँ अपवित्र, पिता अपवित्र, इनके द्वारा पैदा किए हुए बाल-बच्चे भी अपवित्र; (जगत में जो भी) पैदा होते हैं वह अपवित्र, जो मरते हैं वे भी अपवित्र; अभागे जीव अपवित्र ही मर जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥ जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥ जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंडित = हे पंडित! कवनु ठाउ = कौन सी जगह? बैसि = बैठ के। हउ = मैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे पंडित! बता, वह कौन सी जगह है जो पवित्र है, जहाँ बैठ के मैं रोटी खा सकूँ (ता कि पूरी तरह से पवित्रता बनी रह सके)?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥ इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥
मूलम्
जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥ इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिहबा = जीभ। बोलत = वचन जो बोले जाते हैं। करन = कान। सभि = सारे। जूठि = अपवित्रता। लूठे = हे जले हुए! अगनि के लूठे = हे आग के जले हुए! ब्रहम अगनि = ब्राहमण होने के अहंकार की आग।2।
अर्थ: (मनुष्य की) जीभ मैली, बोल भी बुरे, कान आँखें सारे अपवित्र, (इसने ज्यादा) काम-चेष्टा (ऐसी है जिस) की मैल उतरती ही नहीं। हे ब्राहमण-पन के अहंकार की अग्नि में जले हुए! (बता, पवित्र कौन सी चीज़ हुई?)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥ जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥
मूलम्
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥ जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसि = बैठ के। परोसन लागा = (भोजन) बाँटने लगा।3।
अर्थ: आग झूठी, पानी झूठा, पकाने वाली झूठी, कड़छी झूठी जिससे (सब्ज़ी आदि) बाँटता है, वह प्राणी भी झूठा जो बैठ के खाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥ कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥
मूलम्
गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥ कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबर = पशू मल (जिससे चौके को पोचा लगाया जाता है)। कारा = चौके की बाहरी लकीरें। कहि = कहे, कहता है। तेई = वही।4।
अर्थ: गोबर झूठा, चौका झूठा, झूठी ही उस चौके के चारों तरफ़ डाली हुई (हदबंदी की) लकीरें। कबीर कहता है: सिर्फ वही मनुष्य पवित्र हैं जिन्हें परमात्मा की समझ आ गई है।4।1।7।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: त्रैगुणी माया के असर तले प्रभु को बिसार के जीव अपवित्र बने रहते हैं, हर जगह माया का प्रभाव है। लकीरें खींच के चौका बनाने से जगह पवित्र नहीं हो जाती। सिर्फ वही व्यक्ति पवित्र हैं जिनको परमात्मा की सूझ पड़ जाती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामानंद जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामानंद जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कत जाईऐ रे घर लागो रंगु ॥ मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कत जाईऐ रे घर लागो रंगु ॥ मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कत = और कहाँ? रे = हे भाई! रंगु = मौज। घर = हृदय रूप घर में ही। न चलै = भटकता नहीं है। पंगु = पिंगला, जो हिल जुल नलहीं सकता, स्थिर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! और कहाँ जाऐं? (अब) हृदय-घर में ही मौज बन गई है; मेरा मन अब डोलता नहीं, स्थिर हो गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक दिवस मन भई उमंग ॥ घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥ पूजन चाली ब्रहम ठाइ ॥ सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि ॥१॥
मूलम्
एक दिवस मन भई उमंग ॥ घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥ पूजन चाली ब्रहम ठाइ ॥ सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिवस = दिन। उमंग = चाह, तमन्ना, ख्वाहिश। घसि = घिसा के। चोआ = इत्र। बहु = कई। सुगंध = सुगंधियाँ। ब्रहम ठाइ = ठाकुर द्वारे, मन्दिर में।1।
अर्थ: एक दिन मेरे मन में भी यह चाहत पैदा हुई थी, मैंने चंदन घिसा के इत्र व अन्य कई सुगंधियाँ ले लीं, और मैं मन्दिर में पूजा करने चल पड़ी। पर अब तो मुझे वह परमात्मा (जिसको मैं मन्दिर में रहता समझती थी) मेरे गुरु ने मेरे मन में ही बसता दिखा दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहा जाईऐ तह जल पखान ॥ तू पूरि रहिओ है सभ समान ॥ बेद पुरान सभ देखे जोइ ॥ ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ॥२॥
मूलम्
जहा जाईऐ तह जल पखान ॥ तू पूरि रहिओ है सभ समान ॥ बेद पुरान सभ देखे जोइ ॥ ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोइ = ढूँढ के, खोज के। तह = वहाँ। जल पखान = (तीर्थों पर) पानी, (मन्दिरों में) पत्थर। समान = एक सा। ऊहाँ = वहाँ (तीर्थों और मन्दिरों में)। तउ = तो ही। जउ = अगर। ईहाँ = यहीं (हृदय में)।2।
अर्थ: (तीर्थों पर जाऐं चाहे मन्दिरों में जाऐं) जहाँ भी जाऐं वहाँ पानी है अथवा पत्थर हैं। हे प्रभु! तू तो हर जगह एक समान भरपूर (व्यापक) है, वेद-पुराण आदि धर्म-पुस्तकें भी खोज के देख ली हैं। सो तीर्थों पर मन्दिरों में तब ही जाने की जरूरत है अगर परमात्मा मेरे मन में ना बसता हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर मै बलिहारी तोर ॥ जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ॥ रामानंद सुआमी रमत ब्रहम ॥ गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥३॥१॥
मूलम्
सतिगुर मै बलिहारी तोर ॥ जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ॥ रामानंद सुआमी रमत ब्रहम ॥ गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारी तोर = तुझसे सदके। जिनि = जिस ने। बिकल = कठिन। भ्रम = वहम, भुलेखे। मोर = मेरे। रामानंद सुआमी = रामानंद का प्रभु। रमत = सब जगह मौजूद है। कोटि = करोड़ों। करम = (किए हुए बुरे) काम।3।1।
अर्थ: हे सतिगुरु! मैं तुझसे सदके जाता हूँ, जिसने मेरे सारे मुश्किल भुलेखे दूर कर दिए हैं। रामानंद का मालिक प्रभु हर जगह मौजूद है (और, गुरु के माध्यम से मिलता है, क्योंकि) गुरु का शब्द करोड़ों (किए हुए बुरे) कर्मों का नाश कर देता है।3।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: भक्त रामानंद जी जाति के ब्राहमण थे। पर, धर्म-नायक ब्राहमणों के द्वारा डाले हुए भुलेखों का इस शब्द में खण्डन करते हैं कि तीर्थों के स्नान और मूर्ति-पूजा से मन की अवस्था ऊँची नहीं हो सकती। अगर पूरे गुरु की शरण पड़ें, तो सारे भुलेखे दूर हो जाते हैं, और, परमात्मा हर जगह व्यापक और अपने अंदर बसता दिखता है। सतिगुरु का शब्द ही जन्मों-जन्मांतरों के किए हुए दुष्कर्मों का नाश करने में समर्थ है।
ज़रूरी नोट: इस शब्द का भाव पूरी तरह से गुरमति से मिलता है। पर, फिर भी भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन अपनी किताब में भक्त परमानन्द जी के बारे में इस प्रकार लिखते हैं;
“भक्त रामानंद जी मूर्ति-पूजक और वेदांत मत के पक्के श्रद्धालू थे। इन्होंने काशी में आ के छूआ-छात के आशय की वैरागी मत की नई शाखा चलाई। गुसाई जी ने कर्मकांड में बहुत समय तक रुचि रखी, जनेऊ-तिलक आदि चिन्हों के तो आखिर तक पाबंद रहे।”
इससे आगे भक्त जी का यह शब्द लिख के फिर यूँ कहते हैं;
“उक्त शब्द में वेदांत मत की झलक है, पर आप बैरागी थे। मन्दिर की पूजा का वर्णन उल्टा है, इससे हैरानी होती है कि यह शब्द आप के मत के विरुद्ध क्यों है आप की क्रिया कर्मकांड थी।”
और
“गुसाई जी हमेशा पीले वस्त्र पहनते थे, ये विष्णू जी का रंग माना गया है।”
शब्द के शब्द ‘रामानंद सुआमी’ को इस सज्जन जी ने समझने की कोशिश नहीं की, या फिर खण्डन करने के उतावलेपन में जान-बूझ के समझना नहीं चाहते थे, सो इन शब्दों के बारे में लिखते हैं;
“भक्त जी ने अपने आप को ‘स्वामी’ करके लिखा है, पता नहीं किस ख्याल से? हो सकता है कि यह शब्द उनके किसी चेले की रचना हो। क्या सारी आयू में रामानंद जी ने एक शब्द उचारण किया? ”
आईए, अब इन ऐतराज़ों पर ध्यान से विचार करें। ये ऐतराज़ दो हिस्सों में बाँटे जा सकते हैं, एक वह जो भक्त जी के इस शब्द के विरोध में किए गए हैं, और दूसरे वो जो उनके जीवन-चर्या के विरुद्ध हैं।
शब्द के विरोध में निम्न-लिखित ऐतराज़ है: 1. उक्त शब्द में वेदांत की झलक है। 2. मन्दिर की पूजा का जिकर उल्टा है, इससे हैरानी होती है कि ये शब्द आप के मत के विरुद्ध क्यों है। 3. भक्त जी ने अपने आप को ‘स्वामी’ कर के लिखा है, पता नहीं किस ख्याल से? हो सकता है कि यह शब्द उनके किसी चेले की रचना हो। 4. क्या सारी जीवन-काल में रामानंद जी ने सिर्फ एक ही शब्द उचारा?
इन ऐतराजों पर विचार:
अगर इस शब्द में वेदांत की झलक है तो वह नीचे दी गई तुकों में ही हो सकती होगी;
अ. सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि॥
आ. तू पूरि रहिओ है सभ समान॥
इ. रामानंद सुआमी रमत ब्रहम॥
पाठक-गण स्वयं ही इमानदारी से देख लें कि इन तुकों में कौन सा ख्याल गुरमति के उलट है।
रामानंद जी तो अपना मत इस शब्द में ये बता रहे हैं कि तीर्थों पर स्नान और मूर्ति-पूजा से मन के भ्रम काटे नहीं जा सकते। पर जिस लोगों ने भक्त जी के अपने शब्दों पर ऐतबार नहीं करना, उनके साथ किसी तरह की विचार-चर्चा का कोई लाभ नहीं निकल सकता।
तुक ‘रामानंद सुआमी रमत ब्रहम’ पर ऐतराज़ करने वाले सज्जन से समझा है कि भक्त रामानंद जी ने अपने आप को ‘सुआमी’ कहा है। फिर खुद ही अंदाजा लगाते हैं कि ये शब्द उनके किसी चेले की रचना होगी। यदि उक्त सज्जन जान-बूझ के भोले नहीं बन रहे, तो इस तुक का अर्थ यूँ है – रामानंद का स्वामी ब्रहम हर जगह रमा हुआ है। इसी तरह गुरु अरजन साहिब ने भी सारंग राग में शब्द नंबर 136 में अकाल पुरख के दर्शनों की तमन्ना करते हुए यूँ कहा है;
नानक सुआमी गरि मिले, हउ गुर मनाउगी॥ नानक सुआमी– नानक का स्वामी;
इसी तरह ‘रामानंद सुआमी’ का अर्थ हुआ ‘रामानंद का स्वामी’।
गुरबाणी का व्याकरण थोड़ा सा भी समझने वाला सज्जन समझ लेगा कि यहाँ शब्द ‘नानक’ संबंधकारक एकवचन है।
इसी तरह धनासरी राग के छंत में गुरू नानक देव जी कहते हैं;
नानक साहिबु अगम अगोचरु, जीवा सची नाई॥
और
नानक साहिबु अवरु न दूजा, नामि तेरे वडिआई॥
यहाँ दोनों तुकों में ‘नानक साहिबु’ का अर्थ है ‘नानक का साहिब’।
सिख धर्म का अंजान विरोधी ही यह कहेगा कि गुरु नानक देव जी ने यहाँ अपने आप को ‘साहिबु’ कहा है।
यह ऐतराज़ कोई वजनदार नहीं लगता। अगर रामानंद जी ने सारी उम्र सिर्फ यही शब्द उचारा होता, तो भी इस शब्द की सच्चाई किसी भी हालत में कम नहीं हो जाती। हो सकता है कि उन्होंने सारी उम्र सिर्फ उतने ही प्रचार पर जोर दिया हो जिसका शब्द में वर्णन है। ये तीन बंद छोटे से लगते हैं, पर ध्यान से देखें तो पता चलता है कि इनमें कितनी सारी सच्चाई छुपी हुई है: (अ) . मन्दिर में जा के किसी पत्थर की मूर्ति को चोआ-चंदन लगा के पूजने की आवश्क्ता नहीं। (आ) . तीर्थों पर नहाने से मन के भ्रम नहीं काटे जाने। (इ) . गुरु की शरण आओ। गुरु ही बताता है कि (ई) . परमात्मा हृदय-मन्दिर में बस रहा है। (उ) . और परमात्मा हर जगह बस रहा है। (ऊ) . गुरु का शब्द ही करोंड़ों कर्मों के संस्कार नाश करने के समर्थ है।
अगर वाणी उच्चारण करना ही किसी महापुरुष की आत्मिक उच्चता का मापदण्ड बनाऐंगे, बहुत बड़ी गलती कर रहे होगे। गुरु हरिगोबिंद साहिब, गुरु हरि राय साहिब, और गुरु हरि क्रिशन साहिब ने कोई भी शब्द नहीं उचारा था। गुरु अंगद साहिब संन 1539 से सन् 1552 तक 13 साल के करीब गुरुता की जिम्मेवारी निभाते रहे, 150 महीनों से ज्यादा बने। पर उनके शलोक 150 भी नहीं हैं। शलोक भी आम तौर पर दो-दो तुक वाले ही हैं। अगर ऐसे ही हिसाब लगाना है तो गुरु अंगद साहिब जी ने एक-एक महीने में दो-दो तुकें भी नहीं उचारी। पर कम वाणी के उचारने से उनमें और गुरु नानक पातशाह में कोई दूरी कोई अंतर नहीं माना जा सकता।
ऐतराज़ करने वाले सज्जन को शब्द में तो कोई ऐतराज़ वाली बात नहीं मिल सकी, ज्यादा जोर वे इसी बात पर देते गए हैं कि रामानंद जी वैरागी थे, तिलक-जनेऊ धारण करते थे, छूआ-छात को मानने वाले थे, पीले कपड़े पहनते थे इत्यादिक।
पर, सिख-इतिहास के अनुसार बाबा लहिणा जी देवी के भक्त थे, हर साल पैरों में घुँघरूँ बाँध के देवी के दर्शनों को जाते थे; देवी के भक्त के लिए छूआ-छूत को मानना अति-आवश्यक है, गले में देवी का मौली का अटा भी पहनते थे, घर आ के नौ-रात्रों में देवी की कँचके बैठाते थे, जनेऊ तो था ही आवश्यक। (गुरु) अमर दास जी 19 साल हर वर्ष तीर्थों पर जाते रहे, ब्राहमणों द्वारा बताए और सारे कर्मकांड भी करते रहे थे।
क्या सिख-धर्म के विरोधी हमें ये कहानियाँ सुना-सुना के कहे जाएंगे, और क्या हमने भी ये मान लेना है कि इन गुरु साहिबान की वाणी इनके जीवन यर्थाथ के उलट थी?
भगत रामानंद जी कभी वैरागी मत के होंगे, तिलक–जनेऊ पहनते होंगे, छूआ–छूत के हामी होंगे, और भी बहुत सी बातें कही जा सकती हैं। पर हमने तो ये देखना है कि गुरू के दर पर आ के भगत रामानंद जी क्या बन गए। वे स्वयं कहते हैं: (अ) . “सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि, (आ) . जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर, (इ) . गुर का सबदु काटै कोटि करम॥ ”
सो, जैसे बाबा लहिणा जी और (गुरु) अमर दास जी का जीवन गुरु-दर पर आ के गुरमति के अनुकूल हो गया, वैसे ही रामानंद जी का जीवन गुरु के पास आ के गुरमति के अनुसार बन गया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु बाणी नामदेउ जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु बाणी नामदेउ जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहिबु संकटवै सेवकु भजै ॥ चिरंकाल न जीवै दोऊ कुल लजै ॥१॥
मूलम्
साहिबु संकटवै सेवकु भजै ॥ चिरंकाल न जीवै दोऊ कुल लजै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संकटवै = संकट दे। भजै = भाग जाए, छोड़ जाए। चिरंकाल = बहुत समय। लजै = लज्जा लगाता है, बदनाम कराता है।1।
अर्थ: अगर मालिक अपने नौकर को कष्ट दे, और नौकर (उस कष्ट से डरता) भाग जाए, (जिंद को कष्टों से बचाने के लिए भागता) नौकर सदा तो जीवित नहीं रहता, पर (मालिक को पीठ दे के) अपनी दोनों कुलें बदनाम कर लेता है। (हे प्रभु! लोगों के इस हंसी-मजाक से डर के मैंने तेरे दर से भाग नहीं जाना)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी भगति न छोडउ भावै लोगु हसै ॥ चरन कमल मेरे हीअरे बसैं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरी भगति न छोडउ भावै लोगु हसै ॥ चरन कमल मेरे हीअरे बसैं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हसै = मजाक करे। हीअरे = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! कमल फूल जैसे कामल तेरे चरण मेरे हृदय में बसते हैं, (और मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, अब) जगत चाहे मजाक उड़ाता रहे, मैं तेरी भक्ति नहीं छोड़ूँगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे अपने धनहि प्रानी मरनु मांडै ॥ तैसे संत जनां राम नामु न छाडैं ॥२॥
मूलम्
जैसे अपने धनहि प्रानी मरनु मांडै ॥ तैसे संत जनां राम नामु न छाडैं ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनहि = धन की खातिर। प्रानी = जीव, व्यक्ति। मांडै = ठान लेता है। मरनु मांडै = मरना ठान लेता है, मरने पर तुल जाता है।2।
अर्थ: जैसे अपना धन बचाने की खातिर मनुष्य मरने पर भी तुल जाता है, वैसे ही प्रभु के भक्त भी प्रभु का नाम (धन) नहीं छोड़ते (उनके पास भी प्रभु का नाम ही धन है)।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गंगा गइआ गोदावरी संसार के कामा ॥ नाराइणु सुप्रसंन होइ त सेवकु नामा ॥३॥१॥
मूलम्
गंगा गइआ गोदावरी संसार के कामा ॥ नाराइणु सुप्रसंन होइ त सेवकु नामा ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसार के = दुनिया को खुश करने वाले। नामा = हे नाम देव! त = तब ही।3।
अर्थ: गंगा, गया, गोदावरी (आदि तीर्थों पर जाना- ये) दुनिया को ही खुश करने वाले काम हैं; पर, हे नामदेव! भक्त वही है जिस पर प्रभु स्वयं प्रसन्न हो जाए (और अपने नाम की दाति दे)।3।1।
दर्पण-भाव
भाव: प्रीत का स्वरूप- चाहे कष्ट आएं, चाहे लोग हँसी उड़ाएं, भक्त-जन प्रभु की भक्ति नहीं त्यागते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभ लहरि अति नीझर बाजै ॥ काइआ डूबै केसवा ॥१॥
मूलम्
लोभ लहरि अति नीझर बाजै ॥ काइआ डूबै केसवा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीझर = (संस्कृत: निर्झर = a spring, waterfall, mountain torrent) झील, चष्मा, पहाड़ी नदी। बाजै = बज रही हैं। केसवा = हे केशव! हे प्रभु! (केशा: प्रशस्ता: सन्ति अस्य) हे लंबे केशों वाले!।1।
अर्थ: हे सुंदर केशों वाले प्रभु! (इस संसार-समुंदर में) लोभ की लहरें बहुत ठाठा मार रही हैं, मेरा शरीर इनमें डूबता जा रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसारु समुंदे तारि गुोबिंदे ॥ तारि लै बाप बीठुला ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संसारु समुंदे तारि गुोबिंदे ॥ तारि लै बाप बीठुला ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुोबिंदे = हे गोबिंद! बाप बीठला = हे बीठल पिता! बीठुल = (सं: विष्ठल। वि+स्थल = one standing aloof) माया के प्रभाव से परे रहने वाला।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोबिंदे’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे बीठल पिता! हे गोबिंद! मुझे संसार-समुंदर में से पार लंघा ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिल बेड़ा हउ खेवि न साकउ ॥ तेरा पारु न पाइआ बीठुला ॥२॥
मूलम्
अनिल बेड़ा हउ खेवि न साकउ ॥ तेरा पारु न पाइआ बीठुला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनिल = (अनिति अनेन इति अनिल = that by means of which one breaths) हवा। खेवि न साकउ = चप्पू नहीं चला सकता। खेवि = (सं: क्षिप् = to throw, to steer. क्षिपणि = an oar, चप्पू) चप्पू लगाना (नाव चलाने के लिए)। पारु = परला छोर।2।
अर्थ: हे बीठल! (मेरी जिंदगी की) बेड़ी तूफान (भँवर) में (फंस गई है), मैं इसको चप्पू लगाने के योग्य नहीं हूँ; हे प्रभु! तेरे (इस संसार-समुंदर का) मुझे परला छोर नहीं मिलता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होहु दइआलु सतिगुरु मेलि तू मो कउ ॥ पारि उतारे केसवा ॥३॥
मूलम्
होहु दइआलु सतिगुरु मेलि तू मो कउ ॥ पारि उतारे केसवा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। उतारे = उतार, पार लंघा।3।
अर्थ: हे केशव! मेरे पर दया कर, मुझे गुरु मिला, और (इस समुंदर में से) पार लंघा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामा कहै हउ तरि भी न जानउ ॥ मो कउ बाह देहि बाह देहि बीठुला ॥४॥२॥
मूलम्
नामा कहै हउ तरि भी न जानउ ॥ मो कउ बाह देहि बाह देहि बीठुला ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरि न जानउ = मैं तैरना नहीं जानता।4।
अर्थ: (तेरा) नामदेव, हे बीठल! बिनती करता है: (समुंदर में लहरें उठ रही हैं, मेरी बेड़ी भँवर में फंस गई है, और) मैं तो तैरना भी नहीं जानता, मुझे अपनी बाँह पकड़ा, दाता! बाँह पकड़ा।4।1।2।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: दुनियावी विकारों से बचने के लिए एक-मात्र तरीका है; परमात्मा के दर पर अरदास।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज अवलि धूड़ि मणी गाडी चालती ॥ पीछै तिनका लै करि हांकती ॥१॥
मूलम्
सहज अवलि धूड़ि मणी गाडी चालती ॥ पीछै तिनका लै करि हांकती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जैसे) पहले (भाव, आगे-आगे) मैले कपड़ों से लादी हुई गाड़ी धीरे-धीरे चलती जाती है, और पीछे-पीछे (धोबिन) डंडी ले के हाँकती जाती है; (वैसे ही पहले ये आलसी शरीर धीरे-धीरे चलता है, पर ‘लाडुली’ इसको प्रेम आदि से प्रेरती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे पनकत थ्रूटिटि हांकती ॥ सरि धोवन चाली लाडुली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जैसे पनकत थ्रूटिटि हांकती ॥ सरि धोवन चाली लाडुली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जैसे (धोबिन) (उस गाड़ी को) पानी के घाट की तरफ ‘थ्रूटिटि’ कह: कह के हाँकती है, सर पर (धोबी की) लाडली (स्त्री) (कपड़े) धोने के लिए जाती है, वैसे ही प्रेमिका (जीव-स्त्री) सत्संग सरोवर पर (मन को) धोने के लिए जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धोबी धोवै बिरह बिराता ॥ हरि चरन मेरा मनु राता ॥२॥
मूलम्
धोबी धोवै बिरह बिराता ॥ हरि चरन मेरा मनु राता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: प्यार में रंगा हुआ धोबी (-गुरु सरोवर आई जिज्ञासू-स्त्रीयों के मन) पवित्र कर देता है; (उसी गुरु-धोबी की मेहर सदका) मेरा मन (भी) अकाल-पुरख के चरणों में रंगा गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भणति नामदेउ रमि रहिआ ॥ अपने भगत पर करि दइआ ॥३॥३॥
मूलम्
भणति नामदेउ रमि रहिआ ॥ अपने भगत पर करि दइआ ॥३॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: नामदेव कहता है: वह अकाल-पुरख सब जगह व्यापक है, और अपने भक्तों पर (इस तरह, भाव, गुरु के माध्यम से) मेहर करता रहता है।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘शब्द’ का भाव समूचे तौर पर बीज-रूप में ‘रहाउ’ की तुक के अंदर मिलता है। सारा शब्द ‘रहाउ’ की तुक अथवा तुकों की, मानो, व्याख्या है। ‘रहाउ’ की तुक अथवा तुकों में एक बँधा हुआ ख्याल होता है; इस ‘बँद’ की तुकों को अलग-अलग करके पहले या आगे के ‘बँद’ के साथ जोड़ने से असली अर्थों से भटक जाया जाता है।
‘रहाउ’ वाले बँद को समूचे तौर पर पढ़ना व समझना; यह हरेक शब्द के भाव को ठीक तरह विचारने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस शब्द को समझने के लिए भी इस बात का खास ख्याल रखने की जरूरत है।
आईए, अब ‘रहाउ’ की तुकों को ध्यान से देखें;
जैसे पनकत थ्रूटिटि हाकती॥ सरि धोवन चाली लाडुली॥१॥ रहाउ॥
शब्द ‘जेसै’ योजक (conjunction) है। यह बताता है कि ये पहली तुक अपने आप में संपूर्ण वाक्य नहीं है; दूसरी तुक के आरम्भिक शब्द ‘तैसे’ को बरतने से संपूर्ण वाक्य इस प्रकार बनेगा;
जैसे (धूड़ि मणी गाडी को) थ्रूटिटि (कह कह के) (हाँकने वाली) पनकत (की ओर) हांकती (है), (तैसे) लाडुली सरि धोवन चाली।
इन तुकों को ठीक तरह से समझने के लिए पाठकों का ध्यान एक और जरूरी तरफ दिलाने की आवश्यक्ता है। जाति-पाति के भ्रम ने हमारे देश के इतिहास पर एक खास बड़ा असर डाला है। जिनको नीच जाति वाले कह के पुकारा जाता था, और कई तरीकों से जिनकी निरादरी की जाती थी, जब उन्हें इस जुल्ले के नीचे से निकलने का समय मिला, वे छलांगे लगा के उस शाही झण्डे के तले जा टिके जहाँ उन्हें धर्म-भाई कहलवाने का मौका मिल गया। जब हम अपनी धरती की ओर ध्यान लगा के देखते हैं, तो हमारे वह भाई जिनको जुलाहे, चमार, धोबी, नाई, लोहार आदि का काम करने के कारण नीच जाति वाला कहा जाता था, वह बहुत सारी गिनती में इस तरफ को छोड़ गए दिखते हैं। पर कहीं-कहीं ऐसे निधड़क और उच्च-आत्माएँ भी थीं जो अपने धर्म-भाईयों के इस सलूक से घबराए नहीं, बल्कि उन्होंने कठोर व कड़वे वचन सह के भी उस भाग्य-हीन बहादुरी का सुधार करने के ही प्रयत्न करते रहे। देश की इस भाईचारिक दशा का थोड़ा सा नमूना कबीर जी स्वयं पेश करते हैं। ऊँची जाति वाले उनको गालियां तक निकालने में संकोच नहीं करते, आगे वे वह हँस के उनकी गालियों वाले शब्दों के और अर्थ कर के उनको (सद्-बुद्धि) देने का यत्न करते हैं। देखें;
गोंड कबीर जी॥ कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै॥ मन कूटै तउ जम ते छूटै॥ कुटि कुटि मनु कसवटी लावै॥ सो कूटनु मुकति बहु पावै॥१॥ कूटनु किसै कहहु संसार॥ सगल बोलन के माहि बीचारि॥१॥ रहाउ॥ नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै॥ झूठि न पतीऐ परचै साचै॥ इसु मन आगे पूरै ताल॥ इसु नाचन के मन रखवाल॥२॥ बजारी सो जु बजारहि सोधै॥ पांच पलीतह कउ परबोधै॥ नउ नाइक की भगति पछानै॥ सो बाजारी हम गुर मानै॥३॥ तसकरु सोइ जि ताति न करै॥ इंद्री कै जतनि नामु उचरै॥ कहु कबीर हम ऐसे लखन॥ धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन॥४॥७॥१०॥ (पन्ना ८७२)
जब उनको ‘जुलाहा-जुलाहा’ कह के ही भाईचारक तौर पर नीच बताने के प्रयत्न हुए, तो आपने कहा: हे भाई! ईश्वर तो खुद जुलाहा है, तुम व्यर्थ इन भुलेखों में पड़ कर उम्र बेकार में गवा रहे हो, कुछ जनम-मनोरथ पर भी विचार करो:
आसा कबीर जी॥ कोरी को काहू मरमु न जानां॥ सभु जगु आनि तनाइओ तानां॥१॥ रहाउ॥ जब तुम सुनि ले बेद पुरानां॥ तब हम इतनकु पसरिओ तानां॥१॥ धरनि अकास की करगह बनाई॥ चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई॥२॥ पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां॥ जोलाहे घरु अपना चीनां घट ही रामु पछानां॥३॥ कहतु कबीरु कारगह तोरी॥ सूतै सूत मिलाए कोरी॥४॥३॥३६॥ (पन्ना ४८४)
इस प्रकार की ही दलेरी के साथ रविदास जी ने इस भाईचारक भेदभाव का मुकाबला किया। जब ऊँची जाति वालों ने अहंकार में आकर कहा: देखो, ओए यारो! जूते टाँकने वाला चमार हो के हमें धर्म-उपदेश सुनाता है; तब आपने धैर्य से उन्हें समझाया: भाई! जगत में कोई ही विरला भाग्यशाली है जो चमार नहीं है, वरना सारे ही जूते सिल रहे हैं। मेरे पर तो दाते ने मेहर की है, मैं तो अब जूतियाँ सिलने का काम छोड़ बैठा हूँ, तुम अपना फिक्र करो। देखो, यह शरीर रूपी जूती तुम्हें मिली हुई है, दिन-रात इसको गाँठते-तरोपते रहते हो, कि कहीं यह जूती जल्दी ना टूट जाए। इस लोभ-लालच और जगत का मोह इस शरीर-जूती की गाँठ-तरोपे ही तो हैं, और क्या है?
सोरठि रविदास जी॥ चमरटा गांठि न जनई॥ लोगु गठावै पनही॥१॥ रहाउ॥ आर नही जिह तोपउ॥ नही रांबी ठाउ रोपउ॥१॥ लोगु गंठि गंठि खरा बिगूचा॥ हउ बिनु गांठे जाइ पहूचा॥२॥ रविदासु जपै राम नामा॥ मोहि जम सिउ नाही कामा॥३॥७॥ (पन्ना ६५९)
नामदेव जी भी इस मैदान में पीछे नहीं रहे। जब इन्हें भी ऐसे ही ताने मारे गए कि है तो तू कपड़े रंगने वाला और सिलने वाला छींबा ही; तो आप उक्तर देते हैं: हे भाई! अगर तुम भी ये रंगना और सिलना सीख लो, जो जाति-पाति के होछै वहम तो ना ना रहें;
आसा नामदेउ जी॥ मनु मेरो गजु जिहबा मेरी काती॥ मपि मपि काटउ जम की फासी॥१॥ कहा करउ जाती कह करउ पाती॥ राम को नामु जपउ दिन राती॥१॥ रहाउ॥ रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ॥२॥ भगति करउ हरि के गुन गावउ॥ आठ पहर अपना खसमु धिआवउ॥३॥ सुइने की सूई रुपे का धागा॥ नामे का चितु हरि सिउ लागा॥४॥३॥ (पन्ना ४८५)
जिस शब्द का अब अर्थ कर रहे हैं, इसमें भी नामदेव जी उपरोक्त ख्याल सामने रख के सुघड़ ईश्वरीय धोबी के उपकार बयान कर रहे हैं। दोबारा शब्द की ‘रहाउ’ की तुकें पढ़ें;
जैसे पनकत थ्रूटिटि हांकती॥ सरि धोवन चाली लाडुली॥१॥ रहाउ॥
धोबी सवेरे उठ के कपड़े धोने के लिए किसी नजदीक के सरोवर आदि पर जाता है। उसकी धोबिन घर का काम-काज संभाल के बाकी रहते कपड़े गड्डे आदि पर लाद लेती है और वह भी अपने धोबी के पास उसी सरोवर (घाट) पर चली जाती है।
जगत के जीवों के मन, मानो, विकारों और अहंकार की मैल से मैले होए हुए कपड़े हैं; जैसे धोबिन कपड़े धुलाने के लिए पानी के घाट की ओर मैले कपड़ों से लदी गड्डी को हाँकती हुई जाती है, इसी तरह कोई लाडली (प्रेमिका) जीव-स्त्री गुरु-धोबी के सर (घाट) पर जाती है। धोबी होने में कौन सा ताना?
‘रहाउ’ की तुकों का वारतक-रूप (Prose Order) तो पहले दिया गया है, इस शब्दों में केवल एक शब्द ‘पनकत’ का अर्थ समझना आवश्यक है, बाकी की तुक स्पष्ट हो जाएगी।
यह हम देख चुके हैं कि नामदेव जी अपने धोबी-पन का जिक्र करके उस महान धोबी की उपमा कर रहे हैं। धोबी के साथ ही साधारण ही पानी और घाट का संबंध है। सो ‘पनकत’ असल में ‘पनघट’ (पानी का घाट) है। अक्षर ‘क, ख, ग, घ का उच्चारण स्थल एक ही जगह (गले) में है, समासी शब्द में ‘घ’ का उच्चारण थोड़ा सा मुश्किल होने के कारण ‘क’ बरता गया है। ‘ट’ से ‘त’ बन जाना भी बड़ी ही साधारण सी बात है, बच्चे ‘रोटी’ को ‘लोती’ कह देते हैं।
से, यह सारा शब्द ‘पनकत’ इस्तेमाल में आ गया है। इसका संबंध भी साफ़ नजर आता है।
‘त’ –वर्ग से ‘ट’–वर्ग और ‘ट’ वर्ग से ‘त’ वर्ग बन जाने की और भी मिसालें मिलती हैं;
संस्कृत———–प्राक्रित———-पंजाबी
सुखद————–सुहद————–सुहंढणा
सथान————-ठाण—————-ठाउं थां
वरतुल————वटूअ—————-बटूआ।
ध्रिष्ट—————-ढीठ
दंड—————-डण्डा
इस शब्द में धोबी की मेहनत-कमाई का वर्णन करके आत्मिक उपदेश देने के कारण कविता का सलेश अलंकार भा प्रयोग किया गया है।
शब्द ‘धूड़िमणी गाडी’ को ‘धोबण’ के साथ प्रयोग करते वक्त इसका अर्थ करना है ‘मैले कपड़ों से भरी हुई गाड़ी’; जब इसे ‘धोबी’; गुरु के साथ प्रयोग करेंगे, तो ‘लाडुली’ प्रेमिका जीव-स्त्री के साथ इसका अर्थ होगा ‘यह मिट्टी की गाड़ी, शरीर’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु बाणी रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु बाणी रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुझहि सुझंता कछू नाहि ॥ पहिरावा देखे ऊभि जाहि ॥ गरबवती का नाही ठाउ ॥ तेरी गरदनि ऊपरि लवै काउ ॥१॥
मूलम्
तुझहि सुझंता कछू नाहि ॥ पहिरावा देखे ऊभि जाहि ॥ गरबवती का नाही ठाउ ॥ तेरी गरदनि ऊपरि लवै काउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुझहि = तुझे। पहिरावा = (शरीर की) पोशाक। ऊभि जाहि = अकड़ती हैं गरबवती = अहंकारिन। ठाउ = जगह। गरदनि = गर्दन। लवै काउ = कौआ बोलता है।1।
अर्थ: (हे काया!) तू अपने ठाठ देख के अकड़ती है, (इस अकड़ में) तुझे कुछ भी तवज्जो नहीं रही। (देख) अहंकार की कोई जगह नहीं (होती), तेरे बुरे दिन आए हुए हैं (कि तू झूठा मान कर रही है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू कांइ गरबहि बावली ॥ जैसे भादउ खू्मबराजु तू तिस ते खरी उतावली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तू कांइ गरबहि बावली ॥ जैसे भादउ खू्मबराजु तू तिस ते खरी उतावली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कांइ = क्यों? किस लिए? गरबहि = अहंकार करती है। खूंबराजु = बड़ी सारी छत्रक (कुकरमुक्ता, मशरूम)। खरी = काफी, बहुत। उतावली = जल्दी, जल्दी जानेवाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी कमली काया! तू क्यों गुमान करती है? तू तो उस कुकरमुत्ते से भी जल्दी नाश हो जाने वाली जो भाद्रों में (उगती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे कुरंक नही पाइओ भेदु ॥ तनि सुगंध ढूढै प्रदेसु ॥ अप तन का जो करे बीचारु ॥ तिसु नही जमकंकरु करे खुआरु ॥२॥
मूलम्
जैसे कुरंक नही पाइओ भेदु ॥ तनि सुगंध ढूढै प्रदेसु ॥ अप तन का जो करे बीचारु ॥ तिसु नही जमकंकरु करे खुआरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुरंक = हिरन। तनि = शरीर में। सुगंध = कस्तूरी। अप = अपना। जम कंकरु = (सं: यम किंकर) जम दूत।2।
अर्थ: (हे काया!) जैसे हिरन को ये पता नहीं होता (भेद नहीं मिलता) कि कस्तूरी की सुगंधि उसके अपने शरीर में से (आती है), पर वह परदेस में ढूँढता फिरता है (वैसे ही तुझे ये समझ नहीं आती कि सुखों का मूल प्रभु तेरे अपने अंदर ही है)। जो जीव अपने शरीर की विचार करता है (कि ये सदा-स्थिर रहने वाला नहीं), उसको जम-दूत दुखी नहीं करता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र कलत्र का करहि अहंकारु ॥ ठाकुरु लेखा मगनहारु ॥ फेड़े का दुखु सहै जीउ ॥ पाछे किसहि पुकारहि पीउ पीउ ॥३॥
मूलम्
पुत्र कलत्र का करहि अहंकारु ॥ ठाकुरु लेखा मगनहारु ॥ फेड़े का दुखु सहै जीउ ॥ पाछे किसहि पुकारहि पीउ पीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। फेड़े = किए हुए (बुरे) कर्म। पाछे = (प्राण निकल जाने के) बाद। पीउ = प्यारा। पुकारहि = तू आवाजें मारेगी।3।
अर्थ: (हे काया!) तू पुत्र और पत्नी का गुमान करती है (और प्रभु को भुला बैठी है, याद रख) मालिक प्रभु (किए हुए कर्मों का) लेखा माँगता है (भाव,) जीव अपने किए हुए दुष्कर्मों के कारण दुख सहता है। (हे काया! प्राणों के निकल जाने के बाद) तू किस को ‘प्यारा, प्यारा’ कह के आवाजें मारेगी?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू की जउ लेहि ओट ॥ तेरे मिटहि पाप सभ कोटि कोटि ॥ कहि रविदास जुो जपै नामु ॥ तिसु जाति न जनमु न जोनि कामु ॥४॥१॥
मूलम्
साधू की जउ लेहि ओट ॥ तेरे मिटहि पाप सभ कोटि कोटि ॥ कहि रविदास जुो जपै नामु ॥ तिसु जाति न जनमु न जोनि कामु ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। ओट = आसरा। कोटि = करोड़ों। जोनि कामु = जूनों से वास्ता।4।
अर्थ: (हे काया!) अगर तू गुरु का आसरा ले, तेरे करोड़ों पाप सारे के सारे नाश हो जाएं। रविदास कहता है: जो मनुष्य नाम जपता है, उसकी (नीच, निम्न श्रेणी) जाति समाप्त हो जाती है, उसका जन्म मिट जाता है, जूनियों से उसका वास्ता नहीं रहता।4।1।
दर्पण-भाव
भाव: शरीर आदि का मान झूठा है। यहाँ सदा नहीं बैठे रहना।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसंतु कबीर जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बसंतु कबीर जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरह की जैसी तेरी चाल ॥ तेरी पूंछट ऊपरि झमक बाल ॥१॥
मूलम्
सुरह की जैसी तेरी चाल ॥ तेरी पूंछट ऊपरि झमक बाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरह = (सं: सुरभि) गाय। चाल = चाल ढाल। पूंछट = पूँछ। झमक = चमकते। बाल = बाल।1।
अर्थ: (हे कुत्ते!) गाय जैसी (भोली-भाली) तेरी चाल है, तेरी पूँछ पर बाल भी सुदर चमक रहे हैं (हे कुक्ता-स्वभाव जीव! शरीफों जैसी तेरी सूरति और तेरा पहरावा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इस घर महि है सु तू ढूंढि खाहि ॥ अउर किस ही के तू मति ही जाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इस घर महि है सु तू ढूंढि खाहि ॥ अउर किस ही के तू मति ही जाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इस घर महि है = (भाव,) जो कुछ तुझे अपनी कमाई में से मिलता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे कुत्ते के स्वभाव वाले जीव!) जो कुछ अपनी हक की कमाई है, उसी को निसंग हो के इस्तेमाल कर। किसी बेगाने माल की लालसा ना करनी।1। रहाउ।
(रुखी सुखी खाइ कै ठंढा पानी पीउ। फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाऐ जीउ)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाकी चाटहि चूनु खाहि ॥ चाकी का चीथरा कहां लै जाहि ॥२॥
मूलम्
चाकी चाटहि चूनु खाहि ॥ चाकी का चीथरा कहां लै जाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चूनु = आटा। चीथरा = परोला। कहा = कहाँ?।2।
अर्थ: (हे कुत्ते!) तू चक्की चाटता है, और आटा खाता है, पर (जाते हुए) परोला कहाँ ले के जाएगा? (हे जीव! जो माया रोजाना इस्तेमाल करता है ये तो भले बर्तता रह, पर जोड़-जोड़ के आखिर कहाँ ले कर जाएगा?)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छीके पर तेरी बहुतु डीठि ॥ मतु लकरी सोटा तेरी परै पीठि ॥३॥
मूलम्
छीके पर तेरी बहुतु डीठि ॥ मतु लकरी सोटा तेरी परै पीठि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर = ऊपर। डीठि = नजर, निगाह। मतु = कहीं ऐसा ना हो। पीठि = कमर पर।3।
अर्थ: (हे स्वान!) तू छिक्के की ओर बहुत झाँक रहा है, देखना कहीं कमर पर डण्डा ना बजे। (जो जीव, बेगाने घरों की ओर देखता है; इस में से उपाधि ही निकलेगी)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर भोग भले कीन ॥ मति कोऊ मारै ईंट ढेम ॥४॥१॥
मूलम्
कहि कबीर भोग भले कीन ॥ मति कोऊ मारै ईंट ढेम ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भले = अच्छे भले। कीनु = किए हैं। मति = कहीं ऐसा ना हो। कोऊ…ढेम = कहीं दुखी होना पड़े।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (हे श्वान!) तूने बहुत कुछ खाया-उजाड़ा है, पर ध्यान रखना कहीं कोई ईट-ढेला तेरे सिर पर ना मार दे। (हे जीव! तू जो यह भोग भोगने में व्यस्त हुआ पड़ा है, इनका अंत दुखद ही होता है)।4।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: संतोष-हीनता दुखी ही करती है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: किसी कहानी के प्रयोग की तो आवश्यक्ता ही नहीं। कुत्ते का स्वभाव तो हर कोई जानता है; जब किसी दरवाजे पर टुकड़े की खातिर जाता है तो बड़ा मासूम सा बन के। पर, अगर कोई घर सूना मिल जाए, तो पहले चक्की चाटता है, वहाँ तसल्ली ना हो, तो छिक्के की ओर बड़ी हसरत से देखता है; जो कुछ घर में खाने को मिले, कुछ खाता है कुछ बिगाड़ता है; चक्की चाटने के बाद जाता हुआ थोड़े से लालच के पीछे लग के परोला भी ले के भागता है।
यही हाल लालच से हलके हुए मनुष्य का है; देखने को सुंदर शक्ल, शरीफों वाला पहरावा, पर “दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत”। अपनी की हुई कमाई पर संतोष नहीं बँधता, बेगाना धन देख के ही ललचाता है; नित्य जोड़ने की तमन्ना, नित्य इकट्ठा करने की ललक। अपने घर में आराम से रह भी रहा हो तो भी अपने से ज्यादा अमीरों को देख के मन में जलन। सारी उम्र भोगों में गुजरनी, कईयों से बखेड़े, कईयों से झगड़े मोल लेने। और भोगों का अंत? कई रोग।
सो, मनुष्य को कुत्ते से उपमा देते हैं, और समझाते हैं कि संतोष में जीओ, वरना इस लालच का अंत दुखद होता है।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु सारग चउपदे महला १ घरु १
मूलम्
रागु सारग चउपदे महला १ घरु १
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने ठाकुर की हउ चेरी ॥ चरन गहे जगजीवन प्रभ के हउमै मारि निबेरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अपुने ठाकुर की हउ चेरी ॥ चरन गहे जगजीवन प्रभ के हउमै मारि निबेरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर की = मालिक प्रभु की। हउ = मैं। चेरी = दासी। गहे = पकड़े। मारि = मार के। निबेरी = खत्म कर दी है।1। रहाउ।
अर्थ: जब से मैं अपने मालिक-प्रभु की दासी बन गई हूँ, तब से मैंने जगत के जीवन-प्रभु के चरण पकड़े हैं, उसने मेरे अहंकार को मार के समाप्त कर डाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन परम जोति परमेसर प्रीतम प्रान हमारे ॥ मोहन मोहि लीआ मनु मेरा समझसि सबदु बीचारे ॥१॥
मूलम्
पूरन परम जोति परमेसर प्रीतम प्रान हमारे ॥ मोहन मोहि लीआ मनु मेरा समझसि सबदु बीचारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन = सबमें व्यापक। जोति = रोशनी का श्रोत। बीचारे = विचार के।1।
अर्थ: जब का मोहन-प्रभु ने मेरा मन (अपने प्यार में) मोह लिया है तब से मेरा मन गुरु का शब्द विचार-विचार के ये समझ रहा है, कि परमेश्वर सबमें व्यापक है सबसे ऊँचा आत्मिक जीवन की रौशनी देने वाला है, मेरा प्यारा है और मेरे प्राणों का (सहारा) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख हीन होछी मति झूठी मनि तनि पीर सरीरे ॥ जब की राम रंगीलै राती राम जपत मन धीरे ॥२॥
मूलम्
मनमुख हीन होछी मति झूठी मनि तनि पीर सरीरे ॥ जब की राम रंगीलै राती राम जपत मन धीरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। हीन = कमजोर, निर्बल। होछी = थोड़ विक्ती। मनि = मन में। तनि = तन में। सरीरे = शरीर में। राती = रंगी हुई। धीरे = धीरज धरता है।2।
अर्थ: जब तक मैं अपने मन के पीछे चलता रहा, मैं कमजोर रहा (विकार मेरे ऊपर हावी रहे), मेरी अक्ल होछी ही रही, झूठ में ही लगी रही (इस कारण) मेरे मन में, मेरे शरीर में दुख-कष्ट उठते रहे। पर, जब से मैं रंगीले राम (के प्यार में) रंगी गई हूँ, मेरा मन उस राम को स्मरण कर-कर के धैर्य-वान होता जा रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै छोडि भई बैरागनि तब साची सुरति समानी ॥ अकुल निरंजन सिउ मनु मानिआ बिसरी लाज लुोकानी ॥३॥
मूलम्
हउमै छोडि भई बैरागनि तब साची सुरति समानी ॥ अकुल निरंजन सिउ मनु मानिआ बिसरी लाज लुोकानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागनि = वैराग वाली, माया से उपराम। समानी = लीन रहती है। अकुल = जिसकी कोई खास कुल नहीं। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = कालिख, सुरमा, माया के मोह की कालिख) माया के प्रभाव से परे। लोकु = दुनिया, जगत। लुोकानी = जगत की, दुनिया की।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लुोकानी’ में से अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘लोकानी’, यहां ‘लुकानी’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जब से (ठाकुर-प्रभु की दासी बन के) मैं अहंकार को त्याग के माया-मोह की तरफ से उपराम हो चुकी हूँ, तब से मेरी तवज्जो सदा कायम रहने वाले सदा कायम रहने वाले प्रभु की याद में लीन रहती है; मेरा मन उस प्रभु की याद में भीगा रहता है जो माया के प्रभाव से रहित है और जिसका कोई खास कुल नहीं है। (मुझे अहंकार नहीं रहा, इसलिए) मैं लोक-सम्मान (भी) भुला बैठा हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूर भविख नाही तुम जैसे मेरे प्रीतम प्रान अधारा ॥ हरि कै नामि रती सोहागनि नानक राम भतारा ॥४॥१॥
मूलम्
भूर भविख नाही तुम जैसे मेरे प्रीतम प्रान अधारा ॥ हरि कै नामि रती सोहागनि नानक राम भतारा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूर = भूत, बीता हुआ समय। भविख = भविष्य, आने वाला समय। अधारा = आसरा। नामि = नाम में। सोहागनि = अच्छे भाग्यों वाली। भतार = पति।4।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम! हे मेरे प्राणों के आसरे प्रभु! अब मुझे तेरे जैसा कोई नहीं दिखता, ना पिछले बीते हुए समय में, ना अब, और ना ही आने वाले वक्त में।
हे नानक! (कह:) जिस जीव-स्त्री ने परमात्मा को अपना पति मान लिया है, जो प्रभु के नाम में रंगी रहती है, वह सौभाग्यशाली बन जाती है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला १ ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ दुखु बिआपै ॥ जिहवा सादु न फीकी रस बिनु बिनु प्रभ कालु संतापै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला १ ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ दुखु बिआपै ॥ जिहवा सादु न फीकी रस बिनु बिनु प्रभ कालु संतापै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किउ कहीऐ = कहा नहीं जा सकता, मन को धीरज नहीं आता, जीवन सुखी नहीं हो सकता। बिआपै = जोर डाल लेता है, दबा लेता है। जिहवा = जीभ। सादु = स्वाद, मिठास। फीकी = फीके बोल बोलने वाली। संतापै = दुखी करता है। कालु = मौत (का डर)।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का स्मरण किए बिना मनुष्य सुखी जीवन नहीं जी सकता, दुख (सदा इसके मन पर) दबाव डाले रखते हैं। (स्मरण के बिना मनुष्य की) जीभ में (बोलने की) मिठास नहीं पैदा होती, मिठास के बिना होने के कारण सदा कड़वे व कठोर बोल बोलती है। प्रभु के स्मरण के बिना मौत का डर (भी) दुखी करता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब लगु दरसु न परसै प्रीतम तब लगु भूख पिआसी ॥ दरसनु देखत ही मनु मानिआ जल रसि कमल बिगासी ॥१॥
मूलम्
जब लगु दरसु न परसै प्रीतम तब लगु भूख पिआसी ॥ दरसनु देखत ही मनु मानिआ जल रसि कमल बिगासी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसु प्रीतम = प्रीतम का दर्शन। न परसै = नहीं परसता, नहीं छूता। मानिआ = रीझ जाता है। रसि = रस में, आनंद में। बिगासी = खिलता है।1।
अर्थ: जब तक मनुष्य प्रीतम-प्रभु का दीदार नहीं करता, तब तक माया की भूख और प्यास अपना जोर डाले रखती है। दीदार करते ही मन प्रभु की याद में रीझ जाता है (और ऐसे खिलता है, जैसे) कमल का फूल जल के आनंद में खिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊनवि घनहरु गरजै बरसै कोकिल मोर बैरागै ॥ तरवर बिरख बिहंग भुइअंगम घरि पिरु धन सोहागै ॥२॥
मूलम्
ऊनवि घनहरु गरजै बरसै कोकिल मोर बैरागै ॥ तरवर बिरख बिहंग भुइअंगम घरि पिरु धन सोहागै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊनवि = झुक के। घनहरु = बादल। बैरागै = वैराग में, हिल्लोरों में। तरवर = वृक्ष। बिरख = (वृषभ) बैल। बिहंग = पंछी। भुइअंगम = साँप। घरि = घर में, हृदय में। पिरु = पति। धन = स्त्री। सोहागै = सोहाग का आनंद लेती है, अपने आपको भागशाली समझती है।2।
अर्थ: जब बादल झुक-झुक के गरजता है और बरसता है तब कोयल, मोर, वृक्ष, बैल, पंछी, साँप (आदिक) उल्लास में आते हैं, (इसी तरह जिस जीव-स्त्री के) हृदय-घर में पति-प्रभु आ बसता है वह जीव-स्त्री अपने आप को भाग्यशाली समझती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुचिल कुरूपि कुनारि कुलखनी पिर का सहजु न जानिआ ॥ हरि रस रंगि रसन नही त्रिपती दुरमति दूख समानिआ ॥३॥
मूलम्
कुचिल कुरूपि कुनारि कुलखनी पिर का सहजु न जानिआ ॥ हरि रस रंगि रसन नही त्रिपती दुरमति दूख समानिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुचिल = गंदी रहित बहित वाली। कुरूपि = कुरूप, जो सुंदर ना हों। कुनारि = बुरी स्त्री। कुलखनी = बुरे लक्ष्णों वाली। सहजु = (मिलाप का) आनंद। रसन = जीभ। त्रिपती = अघाई हुई, चस्कों से पलटी हुई।3।
अर्थ: (पर, जिस जीव-स्त्री ने) पति-प्रभु के मिलाप का आनंद नहीं पाया, वह गंदी रहत-बहत वाली कुचील, कुरूप, बुरे से बुरे लक्षणों वाली कुलक्ष्णी ही रहती है। जिसकी जीभ प्रभु के आनंद के रंग में (रच के) चस्कों से नहीं मुड़ी, वह जीव-स्त्री दुर्मति के कारण दुखों में ही ग्रसी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आइ न जावै ना दुखु पावै ना दुख दरदु सरीरे ॥ नानक प्रभ ते सहज सुहेली प्रभ देखत ही मनु धीरे ॥४॥२॥
मूलम्
आइ न जावै ना दुखु पावै ना दुख दरदु सरीरे ॥ नानक प्रभ ते सहज सुहेली प्रभ देखत ही मनु धीरे ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ ते = प्रभु से, प्रभु (के मिलाप) से। सहज सुहेली = सहज का सुख पाने वाली, अडोलता का आनंद पाने वाली। धीरे = धैर्य पकड़ता है।4।
अर्थ: हे नानक! प्रभु के मिलाप से अडोलता का आनंद पाने वाली जीव-स्त्री का मन प्रभु का दीदार कर के धैर्यवान रहता है, वह जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ती, उसके ना मन को ना तन को कोई कष्ट व्यापता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारग महला १ ॥ दूरि नाही मेरो प्रभु पिआरा ॥ सतिगुर बचनि मेरो मनु मानिआ हरि पाए प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सारग महला १ ॥ दूरि नाही मेरो प्रभु पिआरा ॥ सतिगुर बचनि मेरो मनु मानिआ हरि पाए प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर बचनि = गुरु के उपदेश में। मानिआ = पतीज गया है। प्रान अधारा = जिंदगी का आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: जब से मेरा मन गुरु के (इस) वचन में यकीन ले आया है (कि) मेरा प्यारा प्रभु (मुझसे) दूर नहीं है, तब से (मुझे यह प्रतीत हो रहा है कि) मैंने अपने प्राणों का सहारा-प्रभु को ढूँढ लिया है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
इन बिधि हरि मिलीऐ वर कामनि धन सोहागु पिआरी ॥ जाति बरन कुल सहसा चूका गुरमति सबदि बीचारी ॥१॥
मूलम्
इन बिधि हरि मिलीऐ वर कामनि धन सोहागु पिआरी ॥ जाति बरन कुल सहसा चूका गुरमति सबदि बीचारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इन बिधि = इस तरीके से। हरि वर मिलीऐ = हरि पति को मिलते हैं। कामनि = हे जीव-स्त्री! सोहागु = सौभाग्य। धन = जीव-स्त्री। सहसा = भ्रम। बीचारी = विचारवान।1।
अर्थ: हे जीव-स्त्री! इस तरीके से ही (भाव, उस प्रभु के अंग-संग होने के यकीन करने पर ही) पति-प्रभु मिलता है, (जिसे मिल गया है) उस जीव-स्त्री के सौ-भाग्य जाग उठे हैं, वह पति-प्रभु को प्यारी हो गई है। गुरु की मति ले के गुरु के शब्द द्वारा वह जीव-स्त्री विचारवान हो जाती है, जाति-वर्ण-कुल (आदि के) बारे में उसका भ्रम दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु मनु मानै अभिमानु न ता कउ हिंसा लोभु विसारे ॥ सहजि रवै वरु कामणि पिर की गुरमुखि रंगि सवारे ॥२॥
मूलम्
जिसु मनु मानै अभिमानु न ता कउ हिंसा लोभु विसारे ॥ सहजि रवै वरु कामणि पिर की गुरमुखि रंगि सवारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिंसा = निर्दयता। सहजि = अडोल अवस्था में। रवै = माणती है, भोगती है, पाती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। रंगि = प्रेम में।2।
अर्थ: जिस का मन (ये) मान जाता है (कि प्रभु सदा मेरे अंग-संग है) उसको अहंकार नहीं रहता, वह निर्दयता और लालच को (अपने अंदर से) भुला देती है, पति-प्रभु की प्यारी वह जीव-स्त्री अडोल अवस्था में टिक के पति-प्रभु को मिली रहती है, गुरु की शरण पड़ कर प्रभु के प्यार में वह अपने आप को सवारती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जारउ ऐसी प्रीति कुट्मब सनबंधी माइआ मोह पसारी ॥ जिसु अंतरि प्रीति राम रसु नाही दुबिधा करम बिकारी ॥३॥
मूलम्
जारउ ऐसी प्रीति कुट्मब सनबंधी माइआ मोह पसारी ॥ जिसु अंतरि प्रीति राम रसु नाही दुबिधा करम बिकारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जारउ = मैं जला दूँ। दुबिधा = मेर तेर। बिकारी = विकारों में।3।
अर्थ: मैं परिवार और संबन्धियों के ऐसे मोह-प्यार को (अपने अंदर से) जला दूं जो (मेरे अंदर) माया के मोह का पसारा ही पसारता है। जिसके हृदय में प्रभु का प्यार नहीं, प्रभु-मिलाप का आनंद नहीं (उपजता), वह मेर-तेर और (अन्य) विकार भरे कामों में प्रवृक्त रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि रतन पदारथ हित कौ दुरै न लाल पिआरी ॥ नानक गुरमुखि नामु अमोलकु जुगि जुगि अंतरि धारी ॥४॥३॥
मूलम्
अंतरि रतन पदारथ हित कौ दुरै न लाल पिआरी ॥ नानक गुरमुखि नामु अमोलकु जुगि जुगि अंतरि धारी ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हित = प्यार। कौ = को, की खातिर। हित कौ = प्रेम पैदा करने की खातिर। दुरै न = नहीं छुपती, गुप्त नहीं रहती। लाल पिआरी = प्रभु की प्यारी। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।4।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु-चरणों का प्यार पैदा करने के लिए प्रभु की महिमा के रत्न मौजूद हैं, प्रभु की वह प्यारी जीव-स्त्री (जगत में) छुपी नहीं रहती। हे नानक! हरेक युग में ही (भाव, सदा से ही ऐसी जीव-स्त्री) गुरु की शरण पड़ कर अपने हृदय में प्रभु का अमोलक-नाम धारण करती आई है (भाव, जगत के आरंभ से ही ये मर्यादा चली आ रही है कि प्रभु की महिमा करने से प्रभु-चरणों से प्यार बनता है)।4।3।