२४ भैरउ

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु भैरउ महला १ घरु १ चउपदे

मूलम्

रागु भैरउ महला १ घरु १ चउपदे

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझ ते बाहरि किछू न होइ ॥ तू करि करि देखहि जाणहि सोइ ॥१॥

मूलम्

तुझ ते बाहरि किछू न होइ ॥ तू करि करि देखहि जाणहि सोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुझ ते बाहरि = तेरी मर्जी के उलट। देखहि = तू संभाल करता है। जाणहि सोइ = तू ही उस (अपने किए) को समझता है।1।
अर्थ: (जगत में) कोई भी काम तेरी मर्जी के विरुद्ध नहीं हो रहा। तू स्वयं ही सब कुछ कर-कर के संभाल करता है तू आप ही (अपने किए को) समझता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ कहीऐ किछु कही न जाइ ॥ जो किछु अहै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ कहीऐ किछु कही न जाइ ॥ जो किछु अहै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहै = है, हो रहा है। रजाइ = मर्जी, हुक्म, मर्यादा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु! जगत में) जो कुछ हो रहा है सब तेरी मर्जी के मुताबिक हो रहा है (चाहे वह जीवों के लिए सुख है चाहे दुख है। अगर जीवों को कोई कष्ट मिल रहा है, तो भी उसके विरुद्ध रोस के रूप में) हम जीव क्या कह सकते हैं? (हमें तेरी रज़ा की समझ नहीं है, इसलिए हम जीवों से) कोई गिला किया नहीं जा सकता (कोई गिला फबता नहीं है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो किछु करणा सु तेरै पासि ॥ किसु आगै कीचै अरदासि ॥२॥

मूलम्

जो किछु करणा सु तेरै पासि ॥ किसु आगै कीचै अरदासि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीचै = की जाए।2।
अर्थ: (अगर तेरी रजा में कोई ऐसी घटना घटित हो जो हम जीवों को दुखदाई लगे, तब भी तेरे बिना) किसी और के आगे आरजू नहीं की जा सकती, सो हम जीवों ने जो भी कोई तरला करना है (फरियाद करनी है) तेरे पास ही करना है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आखणु सुनणा तेरी बाणी ॥ तू आपे जाणहि सरब विडाणी ॥३॥

मूलम्

आखणु सुनणा तेरी बाणी ॥ तू आपे जाणहि सरब विडाणी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाणी = महिमा। विडाण = आश्चर्यजनक करिश्मे। विडाणी = आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाला। सरब विडाणी = हे आश्चर्य भरे करिश्मे करने वाले!।3।
अर्थ: हे सारे आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाले प्रभु! तू स्वयं ही (अपने किए हुए कामों के राज़) समझता है (हम जीवों को) यही फबता है कि हम तेरी महिमा ही करें और सुनें।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करे कराए जाणै आपि ॥ नानक देखै थापि उथापि ॥४॥१॥

मूलम्

करे कराए जाणै आपि ॥ नानक देखै थापि उथापि ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापि = बना के, पैदा करके। उथापि = गिरा के।4।
अर्थ: हे नानक! जगत को रच के भी और विनाश कर के भी प्रभु स्वयं ही संभाल करता है। प्रभु स्वयं ही सब कुछ करता है स्वयं ही (जीवों से) करवाता है और स्वयं ही (सारे भेद को) समझता है (कि क्यों यह कुछ कर और करा रहा है)।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु भैरउ महला १ घरु २ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु भैरउ महला १ घरु २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर कै सबदि तरे मुनि केते इंद्रादिक ब्रहमादि तरे ॥ सनक सनंदन तपसी जन केते गुर परसादी पारि परे ॥१॥

मूलम्

गुर कै सबदि तरे मुनि केते इंद्रादिक ब्रहमादि तरे ॥ सनक सनंदन तपसी जन केते गुर परसादी पारि परे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। कै सबदि = के शब्द से। मुनि = मौनधारी साधु, सदा चुप धार के रखने वाले। केते = कितने ही, बेअंत। इंद्रादिक = इन्द्र आदि, इन्द्र और उस जैसे और। ब्रहमादि = ब्रहमा आदि, ब्रहमा व उस जैसे और। सनक, सनंदन = ब्रहमा के पुत्र। पारि परे = (भवजल से) पार लांघ गए।1।
अर्थ: इन्द्र, ब्रहमा और उन जैसे अन्य अनेक समाधियाँ लगाने वाले साधु गुरु शब्द में जुड़ के ही (संसार-समुंदर से) पार लांघते रहे, (ब्रहमा के पुत्र) सनक सनंदन व अन्य अनेक तपी साधुगण गुरु की मेहर से ही भवजल से पार हुए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवजलु बिनु सबदै किउ तरीऐ ॥ नाम बिना जगु रोगि बिआपिआ दुबिधा डुबि डुबि मरीऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भवजलु बिनु सबदै किउ तरीऐ ॥ नाम बिना जगु रोगि बिआपिआ दुबिधा डुबि डुबि मरीऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। किउ तरीऐ = कैसे तैरा जाए? नहीं तैरा जा सकता। रोगि = रोग में, दुबिधा के रोग में। बिआपिआ = ग्रसा हुआ, फसा हुआ। दुबिधा = दो किस्मा पन, मेरे तेर। डुबि = डूब के। डुबि डुबि = बार बार डूब के। मरीऐ = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के शब्द (की अगुवाई) के बिना संसार-समुंदर से पार नहीं लांघा जा सकता, (क्योंकि) परमात्मा के नाम से वंचित रहके जगत (मेर-तेर के भेद-भाव के) रोग में फसा रहता है, और मेर-तेर (के गहरे पानियों) में बार-बार डूब के (गोते खा-खा के आखिर) आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु देवा गुरु अलख अभेवा त्रिभवण सोझी गुर की सेवा ॥ आपे दाति करी गुरि दातै पाइआ अलख अभेवा ॥२॥

मूलम्

गुरु देवा गुरु अलख अभेवा त्रिभवण सोझी गुर की सेवा ॥ आपे दाति करी गुरि दातै पाइआ अलख अभेवा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देवा = प्रकाश रूप, रोशनी का श्रोत। अभेवा = जिसका भेद ना पड़ सके। गुरि = गुरु ने। दातै = दाते ने।2।
अर्थ: गुरु (आत्मिक जीवन के) प्रकाश का श्रोत है, गुरु अलख अभेव परमात्मा (का रूप) है, (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने से ही) गुरु की बताई हुई कार कमाने से ही तीनों भवनों (में व्यापक प्रभु) की समझ आती है। नाम की दाति देने वाले गुरु ने जिस मनुष्य को स्वयं (नाम की) दाति दी, उसको अलख-अभेव प्रभु मिल गया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु राजा मनु मन ते मानिआ मनसा मनहि समाई ॥ मनु जोगी मनु बिनसि बिओगी मनु समझै गुण गाई ॥३॥

मूलम्

मनु राजा मनु मन ते मानिआ मनसा मनहि समाई ॥ मनु जोगी मनु बिनसि बिओगी मनु समझै गुण गाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजा = बलवान हाकम, इन्द्रियों का मालिक, इन्द्रियों पर काबू पा सकने वाला। मन ते = मन से, मन (के मायावी फुरनों) से। मानिआ = मान गया, मना हो गया। मनसा = मन की वासना। मनहि = मनि ही, मन में ही। जोगी = प्रभु चरणों में मिला हुआ। बिनसि = बिनस के, मर के, स्वै भाव से समाप्त हो के। बिओगी = बिरही, प्रेमी। गाई = गाए, गाता है।3।
अर्थ: (गुरु की मेहर से) जो मन अपनी शारीरिक इन्द्रियों पर काबू पाने के लायक हो गया; वह मन मायावी फुरनों के पीछे दौड़-भाग बँद करनी मान गया, उस मन की वासना उसके अपने ही अंदर लीन हो गई। (गुरु की मेहर से वह) मन प्रभु-चरणों का मिलापी हो गया, वह मन स्वैभाव से समाप्त हो के प्रभु (-दीदार) का प्रेमी हो गया, वह मन ऊँची समझ वाला हो गया, और प्रभु की महिमा करने लग पड़ा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर ते मनु मारिआ सबदु वीचारिआ ते विरले संसारा ॥ नानक साहिबु भरिपुरि लीणा साच सबदि निसतारा ॥४॥१॥२॥

मूलम्

गुर ते मनु मारिआ सबदु वीचारिआ ते विरले संसारा ॥ नानक साहिबु भरिपुरि लीणा साच सबदि निसतारा ॥४॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से, गुरु से उपदेश ले के। ते = वह लोग। भरिपुरि = सारे जगत में नाकोनाक भरा हुआ। लीण = सारे जगत में व्यापक। सबदि = शब्द में जुड़ा हुआ।4।
अर्थ: (पर,) हे नानक! जगत में वह विरले बंदे हैं जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर अपना मन वश में किया है और गुरु के शब्द को अपने अंदर बसाया है (जिन्होंने यह पदवी पा ली है), उनको मालिक प्रभु सारे जगत में (नाको-नाक) व्यापक दिखाई दे जाता है, गुरु के सच्चे शब्द की इनायत से (संसार-समुंदर के मेर-तेर के गहरे पानी में से) वे पार लांघ जाते हैं।4।1।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘घरु २’ का यह पहला शब्द है। अंक १ का यही भाव है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला १ ॥ नैनी द्रिसटि नही तनु हीना जरि जीतिआ सिरि कालो ॥ रूपु रंगु रहसु नही साचा किउ छोडै जम जालो ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला १ ॥ नैनी द्रिसटि नही तनु हीना जरि जीतिआ सिरि कालो ॥ रूपु रंगु रहसु नही साचा किउ छोडै जम जालो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैनी = आँखों में। द्रिसटि = देखने की शक्ति। हीना = कमजोर। जरि = जर ने, बुढ़ापे ने। सिरि = सिर पर। कालो = काल, मौत। रहसु = खिलना, प्रसन्नता। साचा = सदा कायम रहने वाला, रूहानी। जम जाले = जम का जाल, जम की फाही।1।
अर्थ: हे प्राणी! तेरी आँखों में देखने की (पूरी) ताकत नहीं रही, तेरा शरीर कमजोर हो गया है, बुढ़ापे ने तुझे जीत लिया है (बुढ़ापे ने तुझे मात दे दी है)। तेरे सिर पर अब मौत कूक रही है। ना तेरा ईश्वरीय-रूप बना, ना तुझे ईश्वरीय रंग चढ़ा, ना तेरे अंदर ईश्वरीय आनंद आया, (बता) जमका जाल तुझे कैसे छोड़ेगा?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणी हरि जपि जनमु गइओ ॥ साच सबद बिनु कबहु न छूटसि बिरथा जनमु भइओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्राणी हरि जपि जनमु गइओ ॥ साच सबद बिनु कबहु न छूटसि बिरथा जनमु भइओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनमु = मनुष्य का जनम। गइओ = लांघता जा रहा है। न छूटसि = तू (जम जाल से) मुक्ति नहीं पा सकेगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्राणी! परमात्मा का स्मरण कर। जिंदगी बीतती जा रही है। परमात्मा की महिमा से वंचित रह के (माया के मोह से, जम के जाल से) तू कभी बचा नहीं रह सकेगा। तेरी जिंदगी व्यर्थ चली जाएगी।1। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

तन महि कामु क्रोधु हउ ममता कठिन पीर अति भारी ॥ गुरमुखि राम जपहु रसु रसना इन बिधि तरु तू तारी ॥२॥

मूलम्

तन महि कामु क्रोधु हउ ममता कठिन पीर अति भारी ॥ गुरमुखि राम जपहु रसु रसना इन बिधि तरु तू तारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं मैं, अहंम्। मम = मेरा। ममता = मल्कियतों की चाहत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। रसु = (स्मरण का) स्वाद। रसना = जीभ से। इन बिधि = इन तरीकों से।2।
अर्थ: हे प्राणी! तेरे शरीर में काम (जोर डाल रहा) है, क्रोध (प्रबल) है, अहंकार है, मल्कियतों की तमन्ना है, इन सबकी बहुत ज्यादा पीड़ा उठ रही है (इन विकारों में डूबने से तू कैसे बचे?)।
हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का भजन कर, जीभ से (स्मरण का) स्वाद ले। इन तरीकों से (इन विकारों के गहरे पानी में से स्मरण की) तारी लगा के पार हो जा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहरे करन अकलि भई होछी सबद सहजु नही बूझिआ ॥ जनमु पदारथु मनमुखि हारिआ बिनु गुर अंधु न सूझिआ ॥३॥

मूलम्

बहरे करन अकलि भई होछी सबद सहजु नही बूझिआ ॥ जनमु पदारथु मनमुखि हारिआ बिनु गुर अंधु न सूझिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहरे = जिसे सुनाई ना देता हो। करन = कान। अकलि = मति, समझ। होछी = थोड़े दायरे वाली। सहजु = अडोल अवस्था, शांत रस। सबद सहजु = महिमा का शांत रस। मनमुखि = मन की ओर मुँह कर के, मन के पीछे चल के। अंधु = अंधा।3।
अर्थ: हे प्राणी! (महिमा के प्रति) तेरे कान बहरे (ही रहे), तेरी बुद्धि तुच्छ हो गई है (थोड़ी-थोड़ी बात पर आपे से बाहर हो जाना तेरा स्वभाव बन गया है), महिमा का शांत-रस तू समझ नहीं सका। अपने मन के पीछे लग के तूने कीमती मनुष्य-जन्म गवा लिया है। गुरु की शरण ना आने के कारण तू (आत्मिक जीवन के प्रति) अंधा ही रहा, तुझे (आत्मिक जीवन की) समझ ना आई।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहै उदासु आस निरासा सहज धिआनि बैरागी ॥ प्रणवति नानक गुरमुखि छूटसि राम नामि लिव लागी ॥४॥२॥३॥

मूलम्

रहै उदासु आस निरासा सहज धिआनि बैरागी ॥ प्रणवति नानक गुरमुखि छूटसि राम नामि लिव लागी ॥४॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उदासु = उपराम, निर्लिप। निरासा = आशाओं से निराला। सहज धिआनि = अडोलता की समाधि में। धिआनि = ध्यान में, समाधि में। बैरागी = वैरागवान, निर्मोह। छूटसि = माया की मौत से बचेगा। नामि = नाम में।4।
अर्थ: (हे प्राणी!) नानक विनती करता है (और तुझे समझाता है कि) जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है वह (विकारों के फंदों से) मुक्ति पा लेता है, प्रभु के नाम में उसकी तवज्जो टिकी रहती है, वह (दुनिया में विचरता हुआ भी दुनिया से) उपराम रहता है, आशाओं से निर्लिप रहता हहै, अडोलता की समाधि में टिका रह के वह (दुनिया से) निर्मोह रहता है।4।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला १ ॥ भूंडी चाल चरण कर खिसरे तुचा देह कुमलानी ॥ नेत्री धुंधि करन भए बहरे मनमुखि नामु न जानी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला १ ॥ भूंडी चाल चरण कर खिसरे तुचा देह कुमलानी ॥ नेत्री धुंधि करन भए बहरे मनमुखि नामु न जानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूंडी = अनुचित, बेढबी, भद्दी। कर = हाथ। खिसरे = ढीले हो गए। तुचा = त्वचा, चमड़ी। देह = शरीर (की)। नेत्री = आँखों में। करन = कान। बहरे = बोले। मनमुखि = मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति।1।
अर्थ: (हे अंधे जीव! अब बुढ़ापे में) तेरी चाल बेढबी हो चुकी है, तेरे हाथ-पैर निढाल हो चके हैं, तेरे शरीर की चमड़ी पर झुरड़ियां पड़ रही हैं, तेरी आँखों के आगे अंधेरा होने लग पड़ा है, तेरे कान बहरे हो चुके हैं, पर अभी भी अपने मन के पीछे चल के तूने परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डाली।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंधुले किआ पाइआ जगि आइ ॥ रामु रिदै नही गुर की सेवा चाले मूलु गवाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अंधुले किआ पाइआ जगि आइ ॥ रामु रिदै नही गुर की सेवा चाले मूलु गवाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत में। आइ = आ के, जनम ले के। रिदै = हृदय में। मूलु = राशि-पूंजी।1। रहाउ।
अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! तूने जगत में जन्म ले के (आत्मिक जीवन के असली लाभ के तौर पर) कुछ भी नहीं कमाया, बल्कि तूने मूल भी गवा लिया (जो पहले कोई आत्मिक जीवन था वह भी नाश कर लिया, क्योंकि) तूने परमात्मा को अपने हृदय में नहीं बसाया, और तूने गुरु द्वारा बताए हुए कर्म नहीं किए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहवा रंगि नही हरि राती जब बोलै तब फीके ॥ संत जना की निंदा विआपसि पसू भए कदे होहि न नीके ॥२॥

मूलम्

जिहवा रंगि नही हरि राती जब बोलै तब फीके ॥ संत जना की निंदा विआपसि पसू भए कदे होहि न नीके ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = रंग में, प्रेम में। राती = रंगी। फीके = खरवें। विआपसि = व्यस्त रहता है। नीके = अच्छे।2।
अर्थ: (हे अंधे जीव!) तेरी जीभ प्रभु के प्यार की याद में नहीं भीगी, जब भी बोलती है फीके बोल ही बोलती है। तू सदा भले लोगों की निंदा में व्यस्त रहता है, तेरे सारे काम पशुओं वाले होए हुए हैं, (इस तरह रहने से) ये कभी भी अच्छे नहीं हो सकेंगे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित का रसु विरली पाइआ सतिगुर मेलि मिलाए ॥ जब लगु सबद भेदु नही आइआ तब लगु कालु संताए ॥३॥

मूलम्

अम्रित का रसु विरली पाइआ सतिगुर मेलि मिलाए ॥ जब लगु सबद भेदु नही आइआ तब लगु कालु संताए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर मेलि = गुरु की संगति में। सबद भेदु = शब्द का भेद, शब्द का रस। कालु = मौत (का डर)।3।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) आत्मिक जीवन देने वाले श्रेष्ठ नाम के जाप का स्वाद उन विरले लोगों को आता है जिन्हें (परमात्मा स्वयं) सतिगुरु की संगति में मिलाता है। मनुष्य को जब तक महिमा का रस नहीं आता तब तक (ये ऐसे काम करता रहता है जिनके कारण) इसको मौत का डर सताता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन को दरु घरु कबहू न जानसि एको दरु सचिआरा ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ नानकु कहै विचारा ॥४॥३॥४॥

मूलम्

अन को दरु घरु कबहू न जानसि एको दरु सचिआरा ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ नानकु कहै विचारा ॥४॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अन को = (प्रभु के बिना) किसी और का। सचिआरा = सदा कायम रहने वाले प्रभु का। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। विचारा = विचार की बात।4।
अर्थ: नानक यह विचार की बात कहता है कि गुरु की कृपा से जो मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर ही टिका रहता है और परमात्मा के बिना किसी और का दरवाजा किसी और का घर नहीं तलाशता वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।4।3।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला १ ॥ सगली रैणि सोवत गलि फाही दिनसु जंजालि गवाइआ ॥ खिनु पलु घड़ी नही प्रभु जानिआ जिनि इहु जगतु उपाइआ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला १ ॥ सगली रैणि सोवत गलि फाही दिनसु जंजालि गवाइआ ॥ खिनु पलु घड़ी नही प्रभु जानिआ जिनि इहु जगतु उपाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैणि = रात। सोवत = कामादिक विकारों में मस्त रहता है। गलि = गले में। जंजालि = माया इकट्ठी करने के धंधे में। जानिआ = सांझ डाली। जिनि = जिस (प्रभु) ने।1।
अर्थ: हे भाई! सारी रात कामादिक विकारों की नींद में रहता है, (इन विकारों के संस्कारों के) फंदे तेरे गले में पड़ते जाते हैं। सारा दिन माया कमाने के धंधों में गुजार देता है। एक छिन एक पल एक घड़ी तू उस परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता जिसने यह सारा संसार पैदा किया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे किउ छूटसि दुखु भारी ॥ किआ ले आवसि किआ ले जावसि राम जपहु गुणकारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे किउ छूटसि दुखु भारी ॥ किआ ले आवसि किआ ले जावसि राम जपहु गुणकारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुखु = माया के मोह का दुख। किआ ले आवसि = क्या साथ ले कर आता है? खाली हाथ आता है। गुण कारी = आत्मिक गुण पैदा करने वाले।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तू माया के मोह का भारी दुख सह रहा है (यदि तू प्रभु स्मरण नहीं करता तो इस दुख से) कैसे निजात पाएगा? (दिन-रात माया की खातिर भटक रहा है, बता, जब पैदा हुआ था) कौन सी माया अपने साथ ले कर आया था? यहाँ से चलने के वक्त भी कोई चीज साथ ले के नहीं जा सकेगा। परमात्मा का नाम जप, यही है आत्मिक जीवन के गुण पैदा करने वाला।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊंधउ कवलु मनमुख मति होछी मनि अंधै सिरि धंधा ॥ कालु बिकालु सदा सिरि तेरै बिनु नावै गलि फंधा ॥२॥

मूलम्

ऊंधउ कवलु मनमुख मति होछी मनि अंधै सिरि धंधा ॥ कालु बिकालु सदा सिरि तेरै बिनु नावै गलि फंधा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊंधउ = उल्टा। कवलु = हृदय कमल। होछी = तुच्छ। मनि = मन से। मनि अंधै = अंधे मन से। धंधा = जंजाल, माया के मोह का झमेला। बिकालु = बि कालु, (मौत के उलट) जन्म।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने के कारण तेरा हृदय-कवल प्रभु की याद से उल्टा (बेमुख) होया हुआ है, तेरी समझ तुच्छ हुई पड़ी है, (माया के मोह में) अंधे हुए मन (की अगुवाई) के कारण तेरे सिर पर माया के जंजालों की गठड़ी बंधी पड़ी है। जनम-मरन (का चक्कर) सदा तेरे सिर के ऊपर टिका हुआ है। प्रभु का नाम स्मरण के बिना तेरे गले में मोह के फंदे पड़े हुए हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

डगरी चाल नेत्र फुनि अंधुले सबद सुरति नही भाई ॥ सासत्र बेद त्रै गुण है माइआ अंधुलउ धंधु कमाई ॥३॥

मूलम्

डगरी चाल नेत्र फुनि अंधुले सबद सुरति नही भाई ॥ सासत्र बेद त्रै गुण है माइआ अंधुलउ धंधु कमाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डगरी = अकड़ भरी। फुनि = भी। अंधुले = (विकारों में) अंधे। नही भाई = अच्छी नहीं लगी। त्रैगुण माइआ = त्रिगुणी माया का (प्रभाव)। अंधलउ = माया में अंधा हुआ जीव। धंधु = माया की खातिर दौड़ भाग।3।
अर्थ: अकड़-भरी तेरी चाल है, तेरी आँखें भी (विकारों में) अंधी हुई पड़ी हैं, परमात्मा की महिमा की ओर ध्यान देना तुझे अच्छा नहीं लगता। वेद-शास्त्र पढ़ता हुआ भी (तू) त्रिगुणी माया के मोह में फसा हुआ है। तू (मोह में) अंधा हुआ पड़ा है, और माया की खातिर ही दौड़-भाग करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोइओ मूलु लाभु कह पावसि दुरमति गिआन विहूणे ॥ सबदु बीचारि राम रसु चाखिआ नानक साचि पतीणे ॥४॥४॥५॥

मूलम्

खोइओ मूलु लाभु कह पावसि दुरमति गिआन विहूणे ॥ सबदु बीचारि राम रसु चाखिआ नानक साचि पतीणे ॥४॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूलु = वह आत्मिक जीवन जो पहले से पल्ले था। कह = कहाँ से? बीचारि = विचार के। साचि = सदा स्थिर प्रभु (की याद) में। पतीणे = पतीजे हुए, प्रसन्न।4।
अर्थ: हे ज्ञान-हीन जीव! बुरी मति के पीछे लग के तू वह आत्मिक जीवन भी गवा बैठा है जो पहले तेरे पल्ले था (यहाँ जन्म ले कर और) आत्मिक लाभ तो तूने क्या कमाना था? हे नानक! जिस लोगों ने महिमा की वाणी को मन में बसा के प्रभु-नाम (के स्मरण) का स्वाद चखा, वह उस सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में मस्त रहते हैं।4।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला १ ॥ गुर कै संगि रहै दिनु राती रामु रसनि रंगि राता ॥ अवरु न जाणसि सबदु पछाणसि अंतरि जाणि पछाता ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला १ ॥ गुर कै संगि रहै दिनु राती रामु रसनि रंगि राता ॥ अवरु न जाणसि सबदु पछाणसि अंतरि जाणि पछाता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै संगि = की संगति में। गुर कै संगि = गुरु की याद में। रसनि = रसना पर, जीभ पर। रंगि = प्रेम में। राता = रंगा हुआ, मस्त। अंतरि = अंदर बसता। जाणि = जान के, समझ के।1।
अर्थ: ऐसा दास दिन-रात गुरु की संगति में रहता है (भाव, गुरु को अपने मन में बसाए रखता है), परमात्मा (के नाम) को अपनी जीभ पर बसाए रखता है, और प्रभु के प्रेम में रंगा रहता है। वह दास सदा महिमा के साथ सांझ डालता है (निंदा आदि किसी) और (बल) को नहीं जानता, प्रभु को अपने अंदर बसता जान के उसके साथ सांझ डाले रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जनु ऐसा मै मनि भावै ॥ आपु मारि अपर्मपरि राता गुर की कार कमावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सो जनु ऐसा मै मनि भावै ॥ आपु मारि अपर्मपरि राता गुर की कार कमावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = दास। मै मनि = मेरे मन में। भावै = प्यारा लगता है। आपु = स्वै भाव। अपरंपरि = अपरंपर में, बेअंत प्रभु में, उसमें जो परे से परे है।1। रहाउ।
अर्थ: मेरे मन में तो (परमात्मा का) ऐसा दास प्यारा लगता है जो स्वैभाव (स्वार्थ) खत्म करके बेअंत प्रभु (के प्यार) में मस्त रहता है और सतिगुरु के द्वारा बताए हुए कर्म करता है (उन पद्चिन्हों पर चलता है जो सतिगुरु ने डाले हुए हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि बाहरि पुरखु निरंजनु आदि पुरखु आदेसो ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि रवि रहिआ सचु वेसो ॥२॥

मूलम्

अंतरि बाहरि पुरखु निरंजनु आदि पुरखु आदेसो ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि रवि रहिआ सचु वेसो ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखु = व्यापक। निरंजनु = माया के प्रभाव से रहित प्रभु। पुरख आदेसो = व्यापक प्रभु को नमस्कार। घट = शरीर, हृदय। सरब निरंतरि = एक रस सब में। सचु वेसो = जिसका स्वरूप सदा कायम रहने वाला है।2।
अर्थ: (मुझे वह दास प्यारा लगता है जो) उस अकाल पुरख को (सदा) नमस्कार करता है जो सारे संसार का आदि है। (उस दास को परमात्मा) अंदर-बाहर हर जगह व्यापक दिखाई देता है, उस प्रभु पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। (उस सेवक को) वह सदा-स्थिर प्रभु हरेक शरीर में एक-रस सब जीवों के अंदर मौजूद प्रतीत होता है।2।

[[1127]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचि रते सचु अम्रितु जिहवा मिथिआ मैलु न राई ॥ निरमल नामु अम्रित रसु चाखिआ सबदि रते पति पाई ॥३॥

मूलम्

साचि रते सचु अम्रितु जिहवा मिथिआ मैलु न राई ॥ निरमल नामु अम्रित रसु चाखिआ सबदि रते पति पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिथिआ = झूठ। राई = रक्ती भर भी। सबदि = शब्द में। पति = इज्जत।3।
अर्थ: जो लोग सदा-स्थिर प्रभु (के प्यार) में मस्त रहते हैं, जिनकी जीभ पर आत्मिक जीवन देने वाला नाम टिका रहता है, झूठ की मैल उनके अंदर रक्ती भर भी नहीं होती। वह लोग पवित्र नाम (जपते हैं), आत्मिक जीवन देने वाले नाम का स्वाद चखते हैं, महिमा की वाणी में मस्त रहते हैं, और (लोक-परलोक में) इज्जत कमाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणी गुणी मिलि लाहा पावसि गुरमुखि नामि वडाई ॥ सगले दूख मिटहि गुर सेवा नानक नामु सखाई ॥४॥५॥६॥

मूलम्

गुणी गुणी मिलि लाहा पावसि गुरमुखि नामि वडाई ॥ सगले दूख मिटहि गुर सेवा नानक नामु सखाई ॥४॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुणी = गुणवान। मिलि = मिल के। लाहा = लाभ। नामि = नाम में (जुड़ के)। मिटहि = मिट जाते हैं। सखाई = मित्र।4।
अर्थ: गुणवान (सेवक) गुणवान (सेवक) को मिल के (नाम-जपने की सांझ बना के) प्रभु-नाम का लाभ कमाता है, गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के नाम में जुड़ के आदर पाता है, गुरु की बताई हुई कार कर के उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं; हे नानक! प्रभु का नाम उसका (सदा का) मित्र बन जाता हहै।4।5।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला १ ॥ हिरदै नामु सरब धनु धारणु गुर परसादी पाईऐ ॥ अमर पदारथ ते किरतारथ सहज धिआनि लिव लाईऐ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला १ ॥ हिरदै नामु सरब धनु धारणु गुर परसादी पाईऐ ॥ अमर पदारथ ते किरतारथ सहज धिआनि लिव लाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब = सारे जीवों का। धारणु = आसरा, सहारा। परसादी = कृपा से। पाईऐ = मिलता है। अमर पदारथ ते = आत्मिक जीवन देने वाली इस कीमती चीज़ की इनायत से। ते = से। किरतारथ = कृतार्थ (कृत+अर्थ) जिसका उद्देश्य पूरा हो गया, सफल, कामयाब जीवन वाला। धिआनि = ध्यान में, समाधि में, टिकाव में (टिक के)। सहज धिआनि = आत्मिक अडोलता के टिकाव में (टिक के)।1।
अर्थ: (जैसे दुनिया वाला धन-पदार्थ इन्सान की शारीरिक आवश्यक्ताएं पूरी करता है, वैसे ही) परमात्मा का नाम हृदय में टिकाना सब जीवों के लिए (आत्मिक आवश्यक्ताएं पूरी करने के लिए) धन है (आत्मिक जीवन का) सहारा बनता है, (पर यह धन) गुरु की कृपा से मिलता है। आत्मिक जीवन देने वाले इस कीमती धन की इनायत से कामयाब जिंदगी वाले बना जाता है, आत्मिक अडोलता के ठहराव में टिके रह के तवज्जो (प्रभु-चरणों में) जुड़ी रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे राम भगति चितु लाईऐ ॥ गुरमुखि राम नामु जपि हिरदै सहज सेती घरि जाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे राम भगति चितु लाईऐ ॥ गुरमुखि राम नामु जपि हिरदै सहज सेती घरि जाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके, गुरु के बताए हुए राह पर चल के। सहज = अडोलता, शांति। सेती = साथ। सहज सेती = शांति वाला जीवन गुजारते हुए। घरि = घर में, अपने मूल में, प्रभु चरणों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा की भक्ति में जुड़ना चाहिए। हे मन! गुरु के बताए हुए जीवन-राह पर चल कर परमात्मा का नाम हृदय में स्मरण कर, (इस तरह) शांति वाला जीवन गुजारते हुए परमात्मा के चरणों में पहुँचा जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमु भेदु भउ कबहु न छूटसि आवत जात न जानी ॥ बिनु हरि नाम को मुकति न पावसि डूबि मुए बिनु पानी ॥२॥

मूलम्

भरमु भेदु भउ कबहु न छूटसि आवत जात न जानी ॥ बिनु हरि नाम को मुकति न पावसि डूबि मुए बिनु पानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। भेदु = (प्रभु से) दूरी। भउ = डर, सहम। आवत जात = पैदा होते मरते। डूबि मूए = (विकारों के पानी में) गोते खा खा के आत्मिक मौत सहेड़ ली। बिनु पानी = पानी से खाली ही रहे, विषियों से तृप्ति भी नहीं हुई।2।
अर्थ: (परमात्मा का नाम-स्मरण के बिना) भटकना, प्रभु से दूरी, डर-सहम कभी समाप्त नहीं होता, जनम-मरण का चक्कर बना रहता है, (सही जीवन की) समझ नहीं पड़ती। प्रभु का नाम स्मरण के बिना कोई व्यक्ति (माया की तृष्णा से) खलासी नहीं प्राप्त कर सकता। (विकारों के पानी में) गोते खा-खा के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, विषियों से भी तृप्ति नहीं होती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धंधा करत सगली पति खोवसि भरमु न मिटसि गवारा ॥ बिनु गुर सबद मुकति नही कब ही अंधुले धंधु पसारा ॥३॥

मूलम्

धंधा करत सगली पति खोवसि भरमु न मिटसि गवारा ॥ बिनु गुर सबद मुकति नही कब ही अंधुले धंधु पसारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = इज्जत। धंधा = माया की खातिर दौड़ भाग। भरमु = भटकना। गवारा = हे मूर्ख! अंधुले = हे अंधे! पसारा = खिलारा, तवज्जो का बिखराव।3।
अर्थ: हे मूर्ख (मन!) (निरी) माया की खातिर दौड़-भाग करते हुए तू अपनी इज्जत गवा लेगा, (इस तरह) तेरी भटकना समाप्त नहीं होगी। हे अंधे (मन!) गुरु के शब्द (के साथ प्यार करने) के बिना (माया की तृष्णा से) कभी निजात नहीं मिलेगी। यह दौड़-भाग बनी रहेगी, तवज्जो का बिखराव बना रहेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकुल निरंजन सिउ मनु मानिआ मन ही ते मनु मूआ ॥ अंतरि बाहरि एको जानिआ नानक अवरु न दूआ ॥४॥६॥७॥

मूलम्

अकुल निरंजन सिउ मनु मानिआ मन ही ते मनु मूआ ॥ अंतरि बाहरि एको जानिआ नानक अवरु न दूआ ॥४॥६॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकुल = वह जिसका कोई विशेष कुल नहीं। निरंजन = जिस पर माया का प्रभाव नहीं (निर+अंजन। अंजन = कालिख, माया की कालख)। सिउ = साथ। मानिआ = मान गया। मन ते = मन से, मन के मायावी फुरनों से। मनु मूआ = मन मर जाता है, मन का चाव उत्साह समाप्त हो जाता है।4।
अर्थ: जो मन उस प्रभु के साथ लग जाता है जो माया के प्रभाव से परे है और जिसकी कोई खास कुल नहीं है, मायावी फुरनों के प्रति उस मन का चाव-उत्साह ही समाप्त हो जाता है। हे नानक! वह मन अपने अंदर के सारे संसार में एक परमात्मा को ही पहचानता है, उस प्रभु के बिना कोई और उसको नहीं सूझता।4।6।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला १ ॥ जगन होम पुंन तप पूजा देह दुखी नित दूख सहै ॥ राम नाम बिनु मुकति न पावसि मुकति नामि गुरमुखि लहै ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला १ ॥ जगन होम पुंन तप पूजा देह दुखी नित दूख सहै ॥ राम नाम बिनु मुकति न पावसि मुकति नामि गुरमुखि लहै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होम = हवन। देही = शरीर। मुकति = (दुखों से) मुक्ति, खलासी। नामि = नाम में (जुड़ के)। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के।1।
अर्थ: (विकारों से और विकारों से पैदा हुए दुखों से) खलासी कोई मनुष्य परमात्मा के नाम का स्मरण किए बिना नहीं पा सकता, ये मुक्ति (खलासी) गुरु की शरण पड़ के प्रभु-नाम में जुड़ने से ही मिलती है। (जो मनुष्य प्रभु का स्मरण नहीं करता तो) यज्ञ-हवन, पुण्य-दान, तप-पूजा आदि कर्म करने से शरीर (फिर भी) दुखी ही रहता है दुख ही सहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा ॥ बिखु खावै बिखु बोली बोलै बिनु नावै निहफलु मरि भ्रमना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा ॥ बिखु खावै बिखु बोली बोलै बिनु नावै निहफलु मरि भ्रमना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरथे = व्यर्थ। जगि = जगत में। बिखु = जहर, विकारों का जहर। मरि = मरे, आत्मिक मौत मरता है, ऊँचे आत्मिक गुण गवा देता है। भ्रमना = भटकना।1। रहाउ।?
अर्थ: परमात्मा का नाम जपने से वंचित रह के मनुष्य का जगत में जनम (लेना) व्यर्थ हो जाता है। जो मनुष्य विषियों का जहर खाता रहता है, विषियों की नित्य बातें करता रहता है और प्रभु स्मरण से खाली रहता है, उसकी जिंदगी बेकार बनी रहती है वह आत्मिक मौत मर जाता है और सदा भटकता रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुसतक पाठ बिआकरण वखाणै संधिआ करम तिकाल करै ॥ बिनु गुर सबद मुकति कहा प्राणी राम नाम बिनु उरझि मरै ॥२॥

मूलम्

पुसतक पाठ बिआकरण वखाणै संधिआ करम तिकाल करै ॥ बिनु गुर सबद मुकति कहा प्राणी राम नाम बिनु उरझि मरै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखाणै = (और लोगों को) समझाता है। तिकाल = तीनों वक्त (सवेरे, दोपहर व शाम)। कहा = कहाँ? प्राणी = हे प्राणी! उरझि = उलझ के, (विकारों में) फस के।2।
अर्थ: (पण्डित संस्कृत) पुस्तकों के पाठ और व्याकरण आदि (अपने विद्यार्थियों आदि को) समझाता है, तीनों वक्त (हर रोज) संध्या कर्म भी करता है, पर, हे प्राणी! गुरु के शब्द के बिना उसको (विषियों के जहर से) खलासी बिल्कुल नहीं मिल सकती। परमात्मा के नाम से वंचित हो के वह विकारों में फसा रह के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

डंड कमंडल सिखा सूतु धोती तीरथि गवनु अति भ्रमनु करै ॥ राम नाम बिनु सांति न आवै जपि हरि हरि नामु सु पारि परै ॥३॥

मूलम्

डंड कमंडल सिखा सूतु धोती तीरथि गवनु अति भ्रमनु करै ॥ राम नाम बिनु सांति न आवै जपि हरि हरि नामु सु पारि परै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डंड = (जोगी वाला) डंडा। कमंडल = खप्पर, चिप्पी। सिखा = शिखा, चोटी। सूतु = जनेऊ। तीरथि गवनु = तीर्थों पर जाना, तीर्थ यात्रा। भ्रमनु = (धरती पर) भ्रमण करना।3।
अर्थ: (जोगी हाथ में) डंडा और खप्पर पकड़ लेता है, ब्राहमण चोटी रखता है, जनेऊ और धोती पहनता है, (योगी) तीर्थ-यात्रा और धरती-भ्रमण करता है।
(पर इन कामों से) परमात्मा के नाम स्मरण के बिना (मन को) शांति नहीं आ सकती। जो मनुष्य हरि का नाम सदा स्मरण करता है, वह (विषौ-विकारों के समुंदर से) पार लांघ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जटा मुकटु तनि भसम लगाई बसत्र छोडि तनि नगनु भइआ ॥ राम नाम बिनु त्रिपति न आवै किरत कै बांधै भेखु भइआ ॥४॥

मूलम्

जटा मुकटु तनि भसम लगाई बसत्र छोडि तनि नगनु भइआ ॥ राम नाम बिनु त्रिपति न आवै किरत कै बांधै भेखु भइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जटा मुकटु = जटाओं का जूड़ा। तनि = शरीर पर। भसम = राख। छोडि = छोड़ के। नगनु = नंगा। बांधै = बंधे हुए (मनुष्य) को। किरत = किए हुए कर्मों के संस्कार। किरत कै बांधै = किए हुए कर्मों के संस्कारों के बंधे हुए मनुष्य को। भेखु = धार्मिक लिबास।4।
अर्थ: जटाओं का जूड़ा कर लिया, शरीर पर राख मल ली, तन पर से कपड़े उतार के नंगा रहने लग पड़ा, पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बंधे हुए के लिए (यह सारा आडंबर) निरा बाहरी धार्मिक लिबास ही है। प्रभु का नाम जपे बिना माया की तृष्णा से मन तृप्त नहीं होता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेते जीअ जंत जलि थलि महीअलि जत्र कत्र तू सरब जीआ ॥ गुर परसादि राखि ले जन कउ हरि रसु नानक झोलि पीआ ॥५॥७॥८॥

मूलम्

जेते जीअ जंत जलि थलि महीअलि जत्र कत्र तू सरब जीआ ॥ गुर परसादि राखि ले जन कउ हरि रसु नानक झोलि पीआ ॥५॥७॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेते जीअ = जितने भी जीव हैं। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, धरती के ऊपरी आकाश में, अंतरिक्ष में। जत्र कत्र = जहाँ कहाँ, हर जगह। जन कउ = (अपने) दास को। राखि ले = रख लेता है, रक्षा करता है। झोलि = हिला के, स्वाद से।5।
अर्थ: (पर, हे प्रभु! जीवों के कुछ वश नहीं है) पानी में धरती में आकाश में जितने भी जीव बसते हैं सबमें तू स्वयं ही हर जगह मौजूद है।
हे नानक! जिस जीव को प्रभु गुरु की कृपा से (विषौ-विकारों से) बचाता है वह परमात्मा के नाम का रस बड़े स्वाद से पीता है।5।7।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु भैरउ महला ३ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु भैरउ महला ३ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाति का गरबु न करीअहु कोई ॥ ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु होई ॥१॥

मूलम्

जाति का गरबु न करीअहु कोई ॥ ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। ब्रहम = परमात्मा। बिंदे = (जो) जानता है, सांझ डाल लेता है।1।
अर्थ: हे भाई! कोई भी पक्ष (ऊँची) जाति का मान ना करना। (‘जाति’ के आसरे ब्राहमण नहीं बना जा सकता) (दरअसल) ब्राहमण वह मनुष्य है जो ब्रहम (परमात्मा) के साथ गहरी सांझ पा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाति का गरबु न करि मूरख गवारा ॥ इसु गरब ते चलहि बहुतु विकारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जाति का गरबु न करि मूरख गवारा ॥ इसु गरब ते चलहि बहुतु विकारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूरख = हे मूर्ख! ते = से। विकारा = बुराई।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘गरबु’ और ‘गरब’ में व्याकर्णिक अंतर देखना।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मूर्ख! हे गवार! (ऊँची) जाति का मान ना कर। इस गुमान-अहंकार से (भाईचारिक जीवन में) कई बुराईयाँ आरम्भ हो जाती हैं।1। रहाउ।

[[1128]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारे वरन आखै सभु कोई ॥ ब्रहमु बिंद ते सभ ओपति होई ॥२॥

मूलम्

चारे वरन आखै सभु कोई ॥ ब्रहमु बिंद ते सभ ओपति होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चारे = चार ही। वरन = वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र)। सभु कोई = हरेक मनुष्य। ते = से। बिंद = वीर्य, असल। ब्रहमु बिंद ते = परमात्मा की ज्योति रूप असल से। सभ = सारी। ओपति = उत्पक्ति।2।
अर्थ: हे भाई! हरेक मनुष्य यही कहता है कि (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ये) चारों ही (अलग-अलग) वर्ण हैं। (पर, ये लोग यह नहीं समझते कि) परमात्मा की ज्योति-रूप असल से ही सारी सृष्टि पैदा होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माटी एक सगल संसारा ॥ बहु बिधि भांडे घड़ै कुम्हारा ॥३॥

मूलम्

माटी एक सगल संसारा ॥ बहु बिधि भांडे घड़ै कुम्हारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारा। बहु बिधि = कई किस्मों के। घड़ै = घड़ता है।3।
अर्थ: हे भाई! (जैसे कोई) कुम्हार एक ही मिट्टी से कई किस्मों के बर्तन घड़ लेता है, (वैसे ही) यह संसार है (परमात्मा ने अपनी ही ज्योति से बनाया है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच ततु मिलि देही का आकारा ॥ घटि वधि को करै बीचारा ॥४॥

मूलम्

पंच ततु मिलि देही का आकारा ॥ घटि वधि को करै बीचारा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। देही = शरीर। आकारा = शक्ल। को करै = कौन कर सकता है? घटि = थोड़े। वधि = बहुत, ज्यादा।4।
अर्थ: हे भाई! पाँच तत्व मिल के शरीर की शक्ल बनती है। कोई ये नहीं कह सकता कि किसी (एक वर्ण) में बहुत तत्व हैं, और किसी (दूसरे वरण) में थोड़े तत्व हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु नानक इहु जीउ करम बंधु होई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥५॥१॥

मूलम्

कहतु नानक इहु जीउ करम बंधु होई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥५॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहतु = कहता है। जीउ = जीव। करम बंधु = अपने किए कर्मों का बँधा हुआ। भेटे = मिल के। मुकति = (कर्म के बंधनो से) मुक्ति, खलासी।5।
अर्थ: नानक कहता है: (चाहे कोई ब्राहमण है, चाहे कोई शूद्र है) हरेक जीव अपने-अपने किए कर्मों (के संस्कारों) का बँधा हुआ है। गुरु को मिले बिना (किए हुए कर्मों के संस्कारों के बंधनो से) मुक्ति नहीं होती।5।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ जोगी ग्रिही पंडित भेखधारी ॥ ए सूते अपणै अहंकारी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ जोगी ग्रिही पंडित भेखधारी ॥ ए सूते अपणै अहंकारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिही = गृहस्थी। पंडित = कई पंडित (बहुवचन)। भेखधारी = छह भेषों के साधु। ए = (बहुवचन) ये सारे। सूते = सोए हुए हैं। अपणै अहंकारी = अपने अहंकारि, अपने-अपने अहंकार में।1।
अर्थ: हे भाई! जोगी, गृहस्थी, पण्डित, भेषों वाले साधु - ये सभी अपने-अपने (किसी) अहंकार में (पड़ कर प्रभु की याद से) गाफिल हुए रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मदि माता रहिआ सोइ ॥ जागतु रहै न मूसै कोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माइआ मदि माता रहिआ सोइ ॥ जागतु रहै न मूसै कोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मदि = नशे में। माता = मस्त। रहिआ सोइ = सो रहा है। जागतु रहै = जो सचेत रहता है। मूसै = ठगता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जीव माया के (मोह के) नशे में मस्त हो के प्रभु की याद से गाफिल हुआ रहता है (और, इस के आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को कामादिक लूटते रहते हैं)। पर जो मनुष्य (प्रभु की याद की इनायत से) सचेत रहता है, उसको कोई विकार लूट नहीं सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जागै जिसु सतिगुरु मिलै ॥ पंच दूत ओहु वसगति करै ॥२॥

मूलम्

सो जागै जिसु सतिगुरु मिलै ॥ पंच दूत ओहु वसगति करै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु = जिस को। दूत = वैरी। ओहु = वह मनुष्य। वसगति = वश में।2।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य सचेत रहता है जिसको गुरु मिल जाता है। वह मनुष्य (नाम-जपने की इनायत से) कामादिक पाँचों वैरियों को अपने वश में करे रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जागै जो ततु बीचारै ॥ आपि मरै अवरा नह मारै ॥३॥

मूलम्

सो जागै जो ततु बीचारै ॥ आपि मरै अवरा नह मारै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततु = जगत का असल, परमात्मा। बीचारै = मन में बसाता है। मरै = (विकारों से) मरता है। अवरा = और लोगों को।3।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य सचेत रहता है, जो परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसाता है। वह मनुष्य (विकारों से) अपने आप को बचाए रखता है, वह मनुष्य और पर जोर-जबरदस्ती नहीं करता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जागै जो एको जाणै ॥ परकिरति छोडै ततु पछाणै ॥४॥

मूलम्

सो जागै जो एको जाणै ॥ परकिरति छोडै ततु पछाणै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = सिर्फ परमात्मा को। जाणै = गहरी सांझ डालता है। परकिरति = (प्रकृति = माया) माया (का मोह)।4।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य (माया के मोह की नींद से) सचेत रहता है जो सिर्फ परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, जो माया (के मोह) को त्यागता है, और अपने असले-प्रभु के साथ जान-पहचान बनाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चहु वरना विचि जागै कोइ ॥ जमै कालै ते छूटै सोइ ॥५॥

मूलम्

चहु वरना विचि जागै कोइ ॥ जमै कालै ते छूटै सोइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केइ = कोई विरला। जमै ते = जम से। कालै ते = काल से। जमै कालै ते = जनम मरण के चक्कर से, आत्मिक मौत से। छूटै = बच जाता है।5।
अर्थ: हे भाई! (कोई ब्राहमण हो क्षत्रिय हो वैश्य हो व शूद्र हो) चारों वरणों में कोई विरला (माया के मोह की नींद से) सचेत रहता है (किसी खास वर्ण का कोई लिहाज़ नहीं)। (जो जागता है, वह) आत्मिक मौत से बचा रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत नानक जनु जागै सोइ ॥ गिआन अंजनु जा की नेत्री होइ ॥६॥२॥

मूलम्

कहत नानक जनु जागै सोइ ॥ गिआन अंजनु जा की नेत्री होइ ॥६॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु सोइ = वही मनुष्य। जा की नेत्री = जिसकी आँखों में। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंजनु = सूरमा।6।
अर्थ: नानक कहता है: वह मनुष्य माया के मोह की नींद से जागता है जिसकी आँखों में आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा पड़ा होता है।6।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ जा कउ राखै अपणी सरणाई ॥ साचे लागै साचा फलु पाई ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ जा कउ राखै अपणी सरणाई ॥ साचे लागै साचा फलु पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। साचे = साचि ही, सदा स्थिर हरि नाम में। साचा फलु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम फल। पाई = हासिल करता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों में जोड़े रखता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में जुड़ा रहता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाला हरि-नाम हासिल करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे जन कै सिउ करहु पुकारा ॥ हुकमे होआ हुकमे वरतारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रे जन कै सिउ करहु पुकारा ॥ हुकमे होआ हुकमे वरतारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे जन = हे भाई! कै सिउ = (परमात्मा को छोड़ के और) किस के आगे? करहु = तुम करते हो। हुकमे = हुक्म में ही। होआ = (जगत) बना। वरतारा = हरेक कार व्यवहार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (कोई मुश्किल आने पर तुम परमात्मा को छोड़ कर) किसी और के आगे तरले ना करते फिरो। परमात्मा के हुक्म में ही जगत बना है, उसके हुक्म में ही हरेक घटना घटित हो रही है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहु आकारु तेरा है धारा ॥ खिन महि बिनसै करत न लागै बारा ॥२॥

मूलम्

एहु आकारु तेरा है धारा ॥ खिन महि बिनसै करत न लागै बारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आकारु = जगत। धारा = टिकाया हुआ। बिनसै = नाश हो जाता है। करत = पैदा करते हुए। बारा = बार, देर, चिर।2।
अर्थ: हे प्रभु! ये सारा जगत तेरे ही आसरे है। (जब तू चाहे) यह एक छिन में नाश हो जाता है, इसको पैदा करते हुए (तुझे) समय नहीं लगता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि प्रसादु इकु खेलु दिखाइआ ॥ गुर किरपा ते परम पदु पाइआ ॥३॥

मूलम्

करि प्रसादु इकु खेलु दिखाइआ ॥ गुर किरपा ते परम पदु पाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। प्रसादि = कृपा। ते = से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।3।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने) मेहर करके (जिस मनुष्य को यह संसार) ये तमाशा सा ही दिखा दिया है, वह मनुष्य गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत नानकु मारि जीवाले सोइ ॥ ऐसा बूझहु भरमि न भूलहु कोइ ॥४॥३॥

मूलम्

कहत नानकु मारि जीवाले सोइ ॥ ऐसा बूझहु भरमि न भूलहु कोइ ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारि जीवाले = मारता है जिंदा रखता है। सोइ = वह (स्वयं) ही। भरमि = भटकना में (पड़ के)। न भूलहु = गलत रास्ते पर ना पड़ो।4।
अर्थ: नानक कहता है: (हे भाई!) वह (परमात्मा) ही (जीवों को) मारता है और जिंदा रखता है। इस तरह (अस्लियत को) समझो, और, कोई भी भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर ना पड़ो।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ मै कामणि मेरा कंतु करतारु ॥ जेहा कराए तेहा करी सीगारु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ मै कामणि मेरा कंतु करतारु ॥ जेहा कराए तेहा करी सीगारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कामणि = स्त्री, जीव-स्त्री। कंतु = पति। करी = करूँ, मैं करती हूँ। सीगार = (आत्मिक जीवन का) श्रृंगार।1।
अर्थ: हे सखी! मैं (जीव-) स्त्री हूँ, कर्तार मेरा पति है, मैं वैसा ही श्रृंगार करती हूँ जैसे खुद करवाता है (मैं अपने जीवन को उतना ही सुंदर बना सकती हूँ, जितना वह बनवाता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जां तिसु भावै तां करे भोगु ॥ तनु मनु साचे साहिब जोगु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जां तिसु भावै तां करे भोगु ॥ तनु मनु साचे साहिब जोगु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जां = जब। तिसु भावै = उस (प्रभु-पति) को अच्छा लगता है। तां = तब। करे भोगु = (मुझे) अपने चरणों में जोड़ लेता है। साचे साहिब जोगु = सदा कायम रहने वाले मालिक के योग्य, सदा स्थिर प्रभु पति के हवाले कर दिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! मैं अपना तन अपना मन सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु के हवाले कर चुकी हूँ, जब उसकी रजा होती है मुझे अपने चरणों में जोड़ लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उसतति निंदा करे किआ कोई ॥ जां आपे वरतै एको सोई ॥२॥

मूलम्

उसतति निंदा करे किआ कोई ॥ जां आपे वरतै एको सोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसतति = शोभा। करे किआ कोई = किसी के किए हुए का मेरे पर कोई असर नहीं होता। आपे = प्रभु स्वयं ही। वरतै = (स्तुति करने वाले और निंदा करने वाले में) मौजूद है। सोइ = वही, वह स्वयं ही।2।
अर्थ: हे सखी! जब (अब मुझे निश्चय हो गया है कि) एक परमात्मा ही सबमें बैठा प्रेरणा कर रहा है (स्तुति करने वालों में भी वही, निंदा करन वालों में भी वही), किसी की की हुई स्तुति अथवा निंदा का अब मेरे पर कोई असर नहीं पड़ता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी पिरम कसाई ॥ मिलउगी दइआल पंच सबद वजाई ॥३॥

मूलम्

गुर परसादी पिरम कसाई ॥ मिलउगी दइआल पंच सबद वजाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। पिरम कसाई = प्यार की कसक। मिलउगी = मैं मिलूँगी। पंच सबद वजाई = पंच शब्द वजाय, (जैसे) पाँच किस्मों के साज बजा के (बहुत ही बढ़िया संगीतक रस बनता है, वैसे ही पूर्ण खिलाव आनंद से)।3।
अर्थ: हे सखी! गुरु की कृपा से (मेरे अंदर प्रभु-पति के लिए) प्यार की कसक बन गई है, अब मैं उस दया के श्रोत प्रभु को पूर्ण खिड़ाव आनंद के साथ मिलती हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनति नानकु करे किआ कोइ ॥ जिस नो आपि मिलावै सोइ ॥४॥४॥

मूलम्

भनति नानकु करे किआ कोइ ॥ जिस नो आपि मिलावै सोइ ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भनति = कहता है। करे किआ कोइ = कोई क्या करे? कोई क्या बिगाड़ सकता है?।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: नानक कहता है: (हे सखी!) जिस जीव को वह प्रभु स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ लेता है, कोई और जीव उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।4।4।

दर्पण-टिप्पनी

जरूरी नोट: इसी ही राग में भक्त नामदेव जी का शब्द नं: 4 पढ़ो, जिसकी पहली तुक है “मैं बउरी मेरा रामु भतारु”। भक्त नामदेव जी की वाणी के टीके में इन दोनों शबदों की सांझ के बारे में विचार पढ़ो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे ॥ दुबिधा मारि ब्रहमु बीचारे ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे ॥ दुबिधा मारि ब्रहमु बीचारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुनि = मौन धारी साधु। जि = जो। दुबिधा = दो चिक्तापन, मेर तेर। ब्रहमु = परमात्मा। बीचारे = मन में बसाता है।1।
अर्थ: हे भाई! असल मौनधारी साधु वह है जो (अपने) मन की दुविधा मिटा देता है, और दोचिक्तापन (मेर-तेर) मिटा के (उस मेर-तेर की जगह) परमात्मा को (अपने) मन में बसाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥ मनु खोजत नामु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥ मनु खोजत नामु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। खोजहु = पड़ताल करते रहो। भाई = हे भाई! खोजत = पड़ताल करते हुए। नउ निधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। पाई = प्राप्त हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने इस मन को खोजते रहा करो। मन (की दौड़-भाग) की पड़ताल करते हुए परमात्मा का नाम मिल जाता है, यह नाम ही (मानो) धरती के नौ खजाने हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ ॥ ममता लाइ भरमि भुोलाइआ ॥२॥

मूलम्

मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ ॥ ममता लाइ भरमि भुोलाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूलु = आदि। करि = कर के, बना के। करतै = कर्तार ने। ममता = (मम = मेरा) मल्कियत बनाने का स्वभाव, अपनत्व। भरमि = भ्रम में, भटकना में।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भुोलाइआ’ में अक्षर ‘भ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘भुलाइआ’ यहाँ पढ़ना है ‘भोलाइआ’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जगत रचना के) आदि मोह को बना के कर्तार ने जगत पैदा किया। जीवों में ममता चिपका के (माया की खातिर) भटकना में डाल के (उसने स्वयं ही) गलत रास्ते पर डाल दिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु मन ते सभ पिंड पराणा ॥ मन कै वीचारि हुकमु बुझि समाणा ॥३॥

मूलम्

इसु मन ते सभ पिंड पराणा ॥ मन कै वीचारि हुकमु बुझि समाणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। मन ते = मन से, मन के संस्कारों से। पिंड पराणा = शरीर के प्राण, जनम मरन के चक्कर। कै वीचारि = के विचार से। बुझि = समझ के। समाणा = (जनम मरन) समाप्त हो जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! यह मन (के मेर-तेर ममता आदि के संस्कारों) से ही सारा जनम-मरण का सिलसला बनता है। मन के (सही) विचारों से परमात्मा की रज़ा को समझ के जीव परमात्मा में लीन हो जाता है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

करमु होवै गुरु किरपा करै ॥ इहु मनु जागै इसु मन की दुबिधा मरै ॥४॥

मूलम्

करमु होवै गुरु किरपा करै ॥ इहु मनु जागै इसु मन की दुबिधा मरै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जब परमात्मा की मेहर होती है, गुरु (जीव पर) कृपा करता है, (जीव का) यह मन (माया की मोह की नींद में से) जाग उठता है, इस मन की मेर-तेर समाप्त हो जाती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन का सुभाउ सदा बैरागी ॥ सभ महि वसै अतीतु अनरागी ॥५॥

मूलम्

मन का सुभाउ सदा बैरागी ॥ सभ महि वसै अतीतु अनरागी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभाउ बैरागी = माया से निर्लिप। अतीतु = विरक्त। अनरागी = राग रहित, (अन+रागी) निर्मोह।5।
अर्थ: हे भाई! (जीव के) मन की असलियत वह प्रभु है जो माया से सदा निर्लिप रहता है। जो सबमें बसता है जो विरक्त है जो निर्मोह है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत नानकु जो जाणै भेउ ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ ॥६॥५॥

मूलम्

कहत नानकु जो जाणै भेउ ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ ॥६॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देउ = प्रकाश रूप।6।
अर्थ: नानक कहता है: जो मनुष्य (अपने इस असल के बारे में) यह भेद समझ लेता है वह (परमात्मा की याद में जुड़ के परमात्मा के नाम की इनायत से अपने अंदर से ममता की दुबिधा आदि को समाप्त करके) उस परमात्मा का रूप बन जाता है जो सबमें व्यापक है और जो माया के मोह से निर्लिप प्रकाश-रूप है।6।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ राम नामु जगत निसतारा ॥ भवजलु पारि उतारणहारा ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ राम नामु जगत निसतारा ॥ भवजलु पारि उतारणहारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगत निसतारा = संसार का पार उतारा करता है। भवजलु = संसार समुंदर। उतारणहारा = (पार) उतारने की सामर्थ्य वाला।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम दुनिया का उद्धार करता है (जीवों को) संसार-समुंदर से पार लंघाने की सामर्थ्य रखने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी हरि नामु सम्हालि ॥ सद ही निबहै तेरै नालि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर परसादी हरि नामु सम्हालि ॥ सद ही निबहै तेरै नालि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। समालि = हृदय में बसाओ। सद = सदा निबहै = साथ देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से (गुरु की कृपा का पात्र बन के) परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) संभाल। यह हरि-नाम सदा ही तेरा साथ देगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु न चेतहि मनमुख गावारा ॥ बिनु नावै कैसे पावहि पारा ॥२॥

मूलम्

नामु न चेतहि मनमुख गावारा ॥ बिनु नावै कैसे पावहि पारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न चेतहि = याद नहीं करते (बहुवचन)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे। गावारा = मूर्ख लोग। कैसे पावहि पारा = परला छोर कैसे ढूँढ सकते हैं?।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते। नाम के बिना वह किसी तरह भी (संसार के विकारों से) पार नहीं लांघ सकते।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे दाति करे दातारु ॥ देवणहारे कउ जैकारु ॥३॥

मूलम्

आपे दाति करे दातारु ॥ देवणहारे कउ जैकारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। दाति = (नाम की) बख्शिश। दातारु = दातें देने वाला प्रभु। कउ = को। जैकारु = महिमा करो।3।
अर्थ: (पर, हे भाई! ये किसी के वश की बात नहीं) नाम की बख्शिश दातार प्रभु स्वयं ही करता है, (इस वास्ते) देने की सामर्थ्य वाले प्रभु के आगे ही सिर निवाना चाहिए (प्रभु से ही नाम की दाति माँगनी चाहिए)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदरि करे सतिगुरू मिलाए ॥ नानक हिरदै नामु वसाए ॥४॥६॥

मूलम्

नदरि करे सतिगुरू मिलाए ॥ नानक हिरदै नामु वसाए ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नदरि = (मेहर की) निगाह। नानक = हे नानक! हिरदै = हृदय में।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की निगाह करता है, उसको गुरु से मिलाता है, और वह मनुष्य अपने हृदय में प्रभु का नाम बसाता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ नामे उधरे सभि जितने लोअ ॥ गुरमुखि जिना परापति होइ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ नामे उधरे सभि जितने लोअ ॥ गुरमुखि जिना परापति होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामे = नाम ही, नाम से ही। उधरे = विकारों से बचे हैं, उद्धार हुआ है। सभि = सारे। लोअ = (चौदह) लोक, चौदह लोकों के जीव। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ के। परापति होइ = (हरि नाम) मिलता है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम मिल जाता है (वे विकारों से बच जाते हैं)। हे भाई! चौदह भवनों के जितने भी जीव हैं, वे सारे परमात्मा के नाम से ही विकारों से बचते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ अपणी क्रिपा करेइ ॥ गुरमुखि नामु वडिआई देइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ अपणी क्रिपा करेइ ॥ गुरमुखि नामु वडिआई देइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करेइ = करता है। वडिआई = इज्जत। देइ = देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा अपनी कृपा करता है, उसको गुरु की शरण डाल कर (अपना) नाम देता है (यही है असल) इज्जत।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामि जिन प्रीति पिआरु ॥ आपि उधरे सभि कुल उधारणहारु ॥२॥

मूलम्

राम नामि जिन प्रीति पिआरु ॥ आपि उधरे सभि कुल उधारणहारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम नामि = परमात्मा के नाम में। सभि कुल = सारी कुलों को। उधारणहारु = विकारों से बचाने की सामर्थ्य वाला (एकवचन)।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में जिस मनुष्यों की प्रीति है जिनका प्यार है, वे स्वयं विकारों से बच गए। (उनमें से हरेक अपनी) सारी कुलों को बचाने के योग्य हो गया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु नावै मनमुख जम पुरि जाहि ॥ अउखे होवहि चोटा खाहि ॥३॥

मूलम्

बिनु नावै मनमुख जम पुरि जाहि ॥ अउखे होवहि चोटा खाहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। जमपुरि = जम राज के देश में। जाहि = जाते हैं (बहुवचन)। अउखे = दुखी। खाहि = खाते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम से टूट के जमराज के देश में जाते हैं, वे दुखी होते, (और नित्य विकारों की) चोटें सहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता देवै सोइ ॥ नानक नामु परापति होइ ॥४॥७॥

मूलम्

आपे करता देवै सोइ ॥ नानक नामु परापति होइ ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। सोइ करता = वह कर्तार ही। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को कर्तार स्वयं ही (नाम की दाति) देता है (उसको ही उसका) नाम मिलता है।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ गोविंद प्रीति सनकादिक उधारे ॥ राम नाम सबदि बीचारे ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ गोविंद प्रीति सनकादिक उधारे ॥ राम नाम सबदि बीचारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सनकादिक = सनक आदिक सनक, सनंदन, सनतकुमार, सनातन = ब्रहमा के चार पुत्र। उधारे = (संसार समुंदर से) बचाए। सबदि = गुरु के शब्द से। बीचारे = विचार की, अपने मन में बसाए।1।
अर्थ: हे भाई! सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार- ब्रहमा के इन चार पुत्रों - ने गुरु के शब्द से परमात्मा को अपने मन में बसाया, परमात्मा के (चरणों के इस) प्यार ने उनको संसार-समुंदर से पार लंघा दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ अपणी किरपा धारु ॥ गुरमुखि नामे लगै पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ अपणी किरपा धारु ॥ गुरमुखि नामे लगै पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे हरि! धारु = कर। गुरमुखि = गुरु से। नामे = नाम में ही। लगै = बना रहे।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (मेरे ऊपर) अपनी कृपा बनाए रख, ता कि गुरु की शरण पड़ कर (मेरा) प्यार (तेरे) नाम में ही बना रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि प्रीति भगति साची होइ ॥ पूरै गुरि मेलावा होइ ॥२॥

मूलम्

अंतरि प्रीति भगति साची होइ ॥ पूरै गुरि मेलावा होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = (जिस मनुष्य के) अंदर। साची = सदा कायम रहने वाली। पूरै गुरि = गुरु से। मेलावा = मिलाप।2।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु से जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा की सदा कायम रहने वाली प्रीति-भक्ति पैदा होती है, परमात्मा के साथ उसका मिलाप हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज घरि वसै सहजि सुभाइ ॥ गुरमुखि नामु वसै मनि आइ ॥३॥

मूलम्

निज घरि वसै सहजि सुभाइ ॥ गुरमुखि नामु वसै मनि आइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु चरणों में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। मनि = मन में।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के, प्रभु-प्यार में टिक के, प्रभु की हजूरी में निवास करे रखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे वेखै वेखणहारु ॥ नानक नामु रखहु उर धारि ॥४॥८॥

मूलम्

आपे वेखै वेखणहारु ॥ नानक नामु रखहु उर धारि ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। वेखै = संभाल करता है। वेखणहारु = संभाल कर सकने वाला प्रभु। उर = हृदय। धारि = धर के, टिका के।4।
अर्थ: हे नानक! सब जीवों की संभाल करने के समर्थ जो प्रभु स्वयं ही (सबकी) संभाल कर रहा है, उसका नाम अपने हृदय में परोए रख।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ कलजुग महि राम नामु उर धारु ॥ बिनु नावै माथै पावै छारु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ कलजुग महि राम नामु उर धारु ॥ बिनु नावै माथै पावै छारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलजुग महि = मलियुग में, विकारों से भरे जगत में।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: किसी खास ‘जुग’ का जिक्र नहीं कर रहे)।

दर्पण-भाषार्थ

उर = हृदय। धारु = बसाए रख। माथै = (अपने) माथे पर, मुँह पर। पावै = (वह मनुष्य) पाता है। छारु = (लोक-परलोक की निरादरी की) राख, मुकालख। माथै पावै = अपने मुँह पर डालता है, कमाता है।1।
अर्थ: हे भाई! इस विकारों-भरे जगत में (विकारों से बचने के लिए) परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रख। (जो मनुष्य) नाम से खाली (रहत है, वह लोक-परलोक की) निरादरी ही कमाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु दुलभु है भाई ॥ गुर परसादि वसै मनि आई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम नामु दुलभु है भाई ॥ गुर परसादि वसै मनि आई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुलभु = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला। भाई = हे भाई! परसादि = प्रसादि, कृपा से। मनि = मन में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (और पदार्थों के मुकाबले में) परमात्मा का नाम बहुत मुश्किल से मिलता है। (यह तो) गुरु की कृपा से (किसी भाग्यशाली के) मन में आ बसता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु जन भालहि सोइ ॥ पूरे गुर ते प्रापति होइ ॥२॥

मूलम्

राम नामु जन भालहि सोइ ॥ पूरे गुर ते प्रापति होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन सोइ = (बहुवचन) वह मनुष्य। भालहि = तलाशते हैं, खोजते हैं। ते = से। प्रापति = प्राप्ति, मेल, संजोग।2।
अर्थ: पर, हे भाई! (किसी के वश की बात नहीं) पूरे गुरु से (जिस मनुष्यों के भाग्यों में) हरि-नाम की प्राप्ति (लिखी हुई है), सिर्फ वह मनुष्य ही परमात्मा का नाम तलाशते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का भाणा मंनहि से जन परवाणु ॥ गुर कै सबदि नाम नीसाणु ॥३॥

मूलम्

हरि का भाणा मंनहि से जन परवाणु ॥ गुर कै सबदि नाम नीसाणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनहि = ठीक समझते हैं। से जन = (बहुवचन) वह मनुष्य। परवाणु = स्वीकार, आदर पाते हैं। कै सबदि = के शब्द से। नीसाणु = परवाना, राहदारी। नाम नीसाणु = हरि नाम का परवाना।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द की इनायत से (जिस मनुष्यों को) हरि-नाम (की प्राप्ति) का परवाना (मिल जाता है) वह मनुष्य परमात्मा की रज़ा को (मीठा कर के) मानते हैं, वह मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) आदर पाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सेवहु जो कल रहिआ धारि ॥ नानक गुरमुखि नामु पिआरि ॥४॥९॥

मूलम्

सो सेवहु जो कल रहिआ धारि ॥ नानक गुरमुखि नामु पिआरि ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = उस परमात्मा को। सेवहु = स्मरण करो। कल = कला, सत्ता। रहिआ धारि = टिका रहा है। पिआरि = प्यार कर, प्यार से हृदय में बसाओ।4।
अर्थ: हे नानक! जो परमात्मा सारी सृष्टि की मर्यादा को अपनी सत्ता (कला) से चला रहा है उसकी सेवा-भक्ति करो, गुरु के द्वारा उसके नाम को प्यार करो।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ कलजुग महि बहु करम कमाहि ॥ ना रुति न करम थाइ पाहि ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ कलजुग महि बहु करम कमाहि ॥ ना रुति न करम थाइ पाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कमाहि = कमाते हैं। रुति = ऋतु, मौसम। थाइ पाहि = स्वीकार होते।1।
अर्थ: जो (कर्मकांडी लोग) कलियुग में भी और-और (निहित हुए धार्मिक) कर्म करते हैं, उनके वह कर्म (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होते (क्योंकि शास्त्रों के अनुसार भी स्मरण के बिना और किसी कर्म की अब) ऋतु नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलजुग महि राम नामु है सारु ॥ गुरमुखि साचा लगै पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलजुग महि राम नामु है सारु ॥ गुरमुखि साचा लगै पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। साचा = सदा कायम रहने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (अगर शास्त्रों की मर्यादा की तरफ़ भी देखो, तो भी) कलियुग में परमात्मा का नाम (जपना) श्रेष्ठ (कर्म) है। गुरु की शरण पड़ कर (नाम स्मरण करने से परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्यार बन जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु मनु खोजि घरै महि पाइआ ॥ गुरमुखि राम नामि चितु लाइआ ॥२॥

मूलम्

तनु मनु खोजि घरै महि पाइआ ॥ गुरमुखि राम नामि चितु लाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजि = खोज के। घरै महि = हृदय घर में ही। नामि = नाम में।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़ा, उसने अपना तन अपना मन खोज के हृदय-घर में ही प्रभु को पा लिया।2।

[[1130]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआन अंजनु सतिगुर ते होइ ॥ राम नामु रवि रहिआ तिहु लोइ ॥३॥

मूलम्

गिआन अंजनु सतिगुर ते होइ ॥ राम नामु रवि रहिआ तिहु लोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा। ते = से। रवि रहिआ = व्यापक। तिहु लोइ = तीनों ही लोकों में।3।
अर्थ: आत्मिक जीवन की सूझ देने वाला सुरमा जिस मनुष्य को गुरु से मिल गया, उसको सारे जगत में परमात्मा का नाम ही व्यापक दिखाई देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिजुग महि हरि जीउ एकु होर रुति न काई ॥ नानक गुरमुखि हिरदै राम नामु लेहु जमाई ॥४॥१०॥

मूलम्

कलिजुग महि हरि जीउ एकु होर रुति न काई ॥ नानक गुरमुखि हिरदै राम नामु लेहु जमाई ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। लेहु जमाई = बीज लो।4।
अर्थ: (शास्त्रों के अनुसार भी) कलियुग में सिर्फ हरि-नाम जपने की ही ऋतु है, किसी और कर्मकांड के करने का मौसम नहीं। (इसलिए) हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर अपने दिल में परमात्मा के नाम का बीज बो लो।4।10।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: किसी कर्मकांडी को समझा रहे हैं जो स्मरण से टूट के सिर्फ कर्मकांड को ही जीवन का सही रास्ता समझ रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुबिधा मनमुख रोगि विआपे त्रिसना जलहि अधिकाई ॥ मरि मरि जमहि ठउर न पावहि बिरथा जनमु गवाई ॥१॥

मूलम्

दुबिधा मनमुख रोगि विआपे त्रिसना जलहि अधिकाई ॥ मरि मरि जमहि ठउर न पावहि बिरथा जनमु गवाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दुबिधा रोगि = मेर तेर के आत्मिक रोग में। विआपे = फसे हुए। जलहि = जलते हैं। अधिकाई = बहुत। मरि = मर के। ठउर = जनम मरण के चक्कर से ठहराव। गवाई = गवा के।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य भेदभाव के आत्मिक रोग में जकड़े हुए हैं, माया के लालच की आग में बहुत जलते हैं (इस तरह ही अपना कीमती) जनम व्यर्थ गवा के पैदा होने-मरने के चक्करों में पड़े रहते हैं, इस चक्कर में से उनको मुक्ति नहीं मिली।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे प्रीतम करि किरपा देहु बुझाई ॥ हउमै रोगी जगतु उपाइआ बिनु सबदै रोगु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे प्रीतम करि किरपा देहु बुझाई ॥ हउमै रोगी जगतु उपाइआ बिनु सबदै रोगु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! बुझाई = आत्मिक जीवन की सूझ। उपाइआ = बना दिया है। न जाई = दूर नहीं होता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, (मुझे आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श। हे प्रभु! अहंकार ने सारे जगत को (आत्मिक तौर पर) रोगी बना रखा है। यह रोग गुरु के शब्द के बिना दूर नहीं हो सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिम्रिति सासत्र पड़हि मुनि केते बिनु सबदै सुरति न पाई ॥ त्रै गुण सभे रोगि विआपे ममता सुरति गवाई ॥२॥

मूलम्

सिम्रिति सासत्र पड़हि मुनि केते बिनु सबदै सुरति न पाई ॥ त्रै गुण सभे रोगि विआपे ममता सुरति गवाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुनि = ऋषि, मौनधारी साधु। केते = कितने ही, अनेक। सुरति = आत्मिक जीवन की सूझ। न पाई = नहीं मिलती। त्रै गुण सभे = सारे त्रै गुणी जीव। ममता = अपनत्व (ने)। सुरति गवाई = (उनकी) होश भुला रखी है।2।
अर्थ: हे भाई! अनेक मुनि जन स्मृतियाँ पढ़ते हैं शास्त्र भी पढ़ते हैं, पर गुरु के शब्द के बिना आत्मिक जीवन की सूझ किसी को प्राप्त नहीं होती। सारे ही त्रै-गुणी जीव अहंकार के रोग में फंसे पड़े हैं, ममता ने उनकी होश भुला रखी है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि आपे काढि लए प्रभि आपे गुर सेवा प्रभि लाए ॥ हरि का नामु निधानो पाइआ सुखु वसिआ मनि आए ॥३॥

मूलम्

इकि आपे काढि लए प्रभि आपे गुर सेवा प्रभि लाए ॥ हरि का नामु निधानो पाइआ सुखु वसिआ मनि आए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = कई। प्रभि आपे = प्रभु ने स्वयं ही। निधाना = खजाना। मनि = मन में। आए = आ के।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर, हे भाई! कई ऐसे (भाग्यशाली) हैं जिन्हें प्रभु ने स्वयं ही (ममता में से) बचा रखा है, प्रभु ने उनको गुरु की सेवा में लगा रखा है। उन्होंने परमात्मा का नाम-खजाना पा लिया है, (इस वास्ते उनके) मन में आत्मिक आनंद आ बसा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चउथी पदवी गुरमुखि वरतहि तिन निज घरि वासा पाइआ ॥ पूरै सतिगुरि किरपा कीनी विचहु आपु गवाइआ ॥४॥

मूलम्

चउथी पदवी गुरमुखि वरतहि तिन निज घरि वासा पाइआ ॥ पूरै सतिगुरि किरपा कीनी विचहु आपु गवाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउथी पदवी = तीन गुणों के असर से ऊपर के आत्मिक मण्डल में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु के चरणों में। सतिगुरि = सतिगुरु ने। विचहु = अपने अंदर से। आपु = स्वै भाव।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य तीनों गुणों के प्रभाव से ऊपर के आत्मिक मण्डल में रह के जगत से कार-व्यवहार बनाए रखते हैं। वह सदा प्रभु-चरणों में टिके रहते हैं। पूरे गुरु ने उन पर मेहर की हुई है, (इस वास्ते उन्होंने अपने) अंदर से स्वै भाव दूर कर लिया है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकसु की सिरि कार एक जिनि ब्रहमा बिसनु रुद्रु उपाइआ ॥ नानक निहचलु साचा एको ना ओहु मरै न जाइआ ॥५॥१॥११॥

मूलम्

एकसु की सिरि कार एक जिनि ब्रहमा बिसनु रुद्रु उपाइआ ॥ नानक निहचलु साचा एको ना ओहु मरै न जाइआ ॥५॥१॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। एकसु की = एक परमात्मा की ही। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। निहचलु = अटल। साचा = सदा कायम रहने वाला। न जाइआ = नहीं पैदा होता है।5।
अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) जिस परमात्मा ने ब्रहमा विष्णू शिव (जैसे बड़े-बड़े देवता) पैदा किए, उसका ही हुक्म हरेक जीव के ऊपर चल रहा है। हे नानक! सदा कायम रहने वाला सदा अटल रहने वाला एक परमात्मा ही है, वह ना कभी मरता है ना पैदा होता है।5।1।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ मनमुखि दुबिधा सदा है रोगी रोगी सगल संसारा ॥ गुरमुखि बूझहि रोगु गवावहि गुर सबदी वीचारा ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ मनमुखि दुबिधा सदा है रोगी रोगी सगल संसारा ॥ गुरमुखि बूझहि रोगु गवावहि गुर सबदी वीचारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। दुबिधा रोगी = मेरे तेर के रोग में फसा हुआ। सगल = सारा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बूझहि = (सही जीवन जुगति को) समझ लेते हैं। गुर सबदी = गुरु के शब्द से।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा मेर-तेर के रोग में फंसा रहता है, (मन का मुरीद) सारा जगत ही इस रोग का शिकार हुआ रहता है। पर, गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (सही जीवन-जुगति को) समझ लेते हैं, गुरु के शब्द की इनायत से विचार करके वह (यह) रोग (अपने अंदर से) दूर कर लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ सतसंगति मेलाइ ॥ नानक तिस नो देइ वडिआई जो राम नामि चितु लाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ सतसंगति मेलाइ ॥ नानक तिस नो देइ वडिआई जो राम नामि चितु लाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! नानक = हे नानक! देइ = देता है। नामि = नाम में। लाइ = जोड़ता है।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु जी! (मुझे) साधु-संगत का मेल मिला। हे नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य (साधु-संगत में मिल के) परमात्मा के नाम में (अपना) चिक्त जोड़ता है (परमात्मा) उसको (लोक-परलोक की) इज्जत बख्शता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममता कालि सभि रोगि विआपे तिन जम की है सिरि कारा ॥ गुरमुखि प्राणी जमु नेड़ि न आवै जिन हरि राखिआ उरि धारा ॥२॥

मूलम्

ममता कालि सभि रोगि विआपे तिन जम की है सिरि कारा ॥ गुरमुखि प्राणी जमु नेड़ि न आवै जिन हरि राखिआ उरि धारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालि = मौत में, आत्मिक मौत में। सभि = सारे जीव। रोगि = (दुविधा के) रोग में। विआपे = ग्रसे हुए। सिरि = सिर पर। कारा = हकूमत, दब दबा। जिन = जिन्होंने। उरि = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! ममता में फसे हुए सारे जीव आत्मिक मौत में फसें रहते हैं, उनके सिर पर (जैसे) जमराज का हुक्म चल रहा है। पर गुरु के सन्मुख रहने वाले जिस मनुष्यों ने परमात्मा (की याद) को अपने हृदय में बसा रखा है, जमराज उनके नजदीक नहीं फटकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि का नामु न गुरमुखि जाता से जग महि काहे आइआ ॥ गुर की सेवा कदे न कीनी बिरथा जनमु गवाइआ ॥३॥

मूलम्

जिन हरि का नामु न गुरमुखि जाता से जग महि काहे आइआ ॥ गुर की सेवा कदे न कीनी बिरथा जनमु गवाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु से। जाता = जाना, गहरी सांझ डाली। काहे = किस लिए? व्यर्थ ही। कीनी = की। बिरथा = व्यर्थ।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डाली, उनका जगत में आना व्यर्थ चला जाता है। जिन्होंने कभी भी गुरु की सेवा नहीं की, उन्होंने जीवन बेकार ही गवा लिया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक से पूरे वडभागी सतिगुर सेवा लाए ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि गुरबाणी सुखु पाए ॥४॥२॥१२॥

मूलम्

नानक से पूरे वडभागी सतिगुर सेवा लाए ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि गुरबाणी सुखु पाए ॥४॥२॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वह मनुष्य (बहुवचन)। इछहि = चाहते हैं, अभिलाषा रखते हैं, माँगते हैं (बहुवचन)। पाए = प्राप्त करता है (एकवचन)।4।
अर्थ: हे नानक! वह मनुष्य (गुणों के) समूचे (बर्तन) हैं, भाग्यशाली हैं, जिनको (परमात्मा ने) गुरु की सेवा में जोड़ दिया है, वह मनुष्य (परमात्मा से) जो कुछ माँगते हैं वही प्राप्त कर लेते हैं। हे भाई! जो भी मनुष्य गुरु की वाणी का आसरा लेता है, वह आत्मिक आनंद पाता है।4।2।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ दुख विचि जमै दुखि मरै दुख विचि कार कमाइ ॥ गरभ जोनी विचि कदे न निकलै बिसटा माहि समाइ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ दुख विचि जमै दुखि मरै दुख विचि कार कमाइ ॥ गरभ जोनी विचि कदे न निकलै बिसटा माहि समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंमै = पैदा होता है (एकवचन)। दुखि = दुख ममें। कमाइ = कमाता है, करता है। गरभ जोनी विचि = जनम मरण के चक्कर में (सदा पड़ा रहता है)। बिसटा = (विकारों की) गंदगी। समाइ = लीन रहता है।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य दुख में पैदा होता है दुख में मारता है दुख में ही (सारी उम्र) कार्र-व्यवहार करता रहता है। वह सदा जनम-मरन के चक्करों में पड़ा रहता है, (जब तक वह मन का मुरीद है तब तक) कभी भी वह (इस चक्कर में से) निकल नहीं सकता (क्योंकि वह) सदा विकारों की गंदगी में जुड़ा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगु ध्रिगु मनमुखि जनमु गवाइआ ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी हरि का नामु न भाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ध्रिगु ध्रिगु मनमुखि जनमु गवाइआ ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी हरि का नामु न भाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। मनमुखि = मनमुख ने, अपने मन के पीछे चलने वाले ने। न भाइआ = प्यारा ना लगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अपना जीवन गवा लेता है, उसको (लोक-परलोक में) धिक्कारें ही पड़ती हैं (उसने सारी उम्र) ना पूरे गुरु का आसरा लिया और ना ही परमात्मा का नाम उसको प्यारा लगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का सबदु सभि रोग गवाए जिस नो हरि जीउ लाए ॥ नामे नामि मिलै वडिआई जिस नो मंनि वसाए ॥२॥

मूलम्

गुर का सबदु सभि रोग गवाए जिस नो हरि जीउ लाए ॥ नामे नामि मिलै वडिआई जिस नो मंनि वसाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। लाए = (लगन) लगाता है। नामे नामि = हर वक्त हरि नाम में। मंनि = मन में।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा गायब हो गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द सारे रोग दूर कर देता है, (पर गुरु-शब्द में वही जुड़ता है) जिसको परमात्मा (शब्द की लगन) लगाता है। हे भाई! जिस मनुष्य को (शब्द की लगन लगा के उसके) मन में (अपना नाम) बसाता है, सदा हरि-नाम में टिके रहने के कारण उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है।2।

[[1131]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु भेटै ता फलु पाए सचु करणी सुख सारु ॥ से जन निरमल जो हरि लागे हरि नामे धरहि पिआरु ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु भेटै ता फलु पाए सचु करणी सुख सारु ॥ से जन निरमल जो हरि लागे हरि नामे धरहि पिआरु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटै = मिल जाता है। सचु = सदा स्थिर हरि-नाम (का स्मरण)। करणी = (करणीय) करने योग्य काम, कर्तव्य। सुख सारु = सुखों का तत्व, सबसे श्रेष्ठ सुख। नामे = नाम में ही। धरहि = धरते हैं (बहुवचन)।3।
अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर हरि-नाम का जपना ही (असल) कर्तव्य है, (नाम-स्मरण ही) सबसे श्रेष्ठ सुख है, पर यह (हरि-नाम-स्मरण) फल मनुष्य को तभी मिलता है जब इसको गुरु मिलता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ते हैं, परमात्मा के नाम में प्यार डालते हैं, वे मनुष्य पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन की रेणु मिलै तां मसतकि लाई जिन सतिगुरु पूरा धिआइआ ॥ नानक तिन की रेणु पूरै भागि पाईऐ जिनी राम नामि चितु लाइआ ॥४॥३॥१३॥

मूलम्

तिन की रेणु मिलै तां मसतकि लाई जिन सतिगुरु पूरा धिआइआ ॥ नानक तिन की रेणु पूरै भागि पाईऐ जिनी राम नामि चितु लाइआ ॥४॥३॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। मसतकि = माथे पर। लाई = मैं लगाऊँ। पूरै भागि = पूरी किस्मत से। पाईऐ = मिलती है।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को हृदय में बसाते हैं, अगर मुझे उनकी चरण-धूल मिल जाए, तो वह धूल मैं अपने माथे पर लगा लूँ। हे नानक! जो मनुष्य सदा अपना चिक्त परमात्मा के नाम में जोड़े रखते हैं, उनके चरणों की धूल बड़ी किस्मत से मिलती है।4।3।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ सबदु बीचारे सो जनु साचा जिन कै हिरदै साचा सोई ॥ साची भगति करहि दिनु राती तां तनि दूखु न होई ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ सबदु बीचारे सो जनु साचा जिन कै हिरदै साचा सोई ॥ साची भगति करहि दिनु राती तां तनि दूखु न होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बीचारे = मन में बसाता है। साचा = ठहरे हुए जीवन वाला (माया के हमलों से) अडोल चिक्त। कै हिरदै = के हृदय में। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। साची भगति = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति। करहि = करते हैं (बहुवचन)। तनि = शरीर में। न होई = पैदा नहीं होता।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को (अपने) मन में बसाता है, वह मनुष्य (माया के हमलों से) अडोल-चिक्त हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा बस जाता है, जो मनुष्य दिन-रात सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति करते हैं, उनके शरीर में कोई (विकार-) दुख नहीं पैदा होता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगतु भगतु कहै सभु कोई ॥ बिनु सतिगुर सेवे भगति न पाईऐ पूरै भागि मिलै प्रभु सोई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भगतु भगतु कहै सभु कोई ॥ बिनु सतिगुर सेवे भगति न पाईऐ पूरै भागि मिलै प्रभु सोई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहै = कहता है। (एकवचन)। सभु कोई = हरेक मनुष्य। मिलै = मिलता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। हे भाई! पूरी किस्मत से ही (किसी मनुष्य को) वह परमात्मा मिलता है, (जिस मनुष्य को मिल जाता है, उसके बारे में) हर कोई कहता है कि ये भक्त है भक्त है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख मूलु गवावहि लाभु मागहि लाहा लाभु किदू होई ॥ जमकालु सदा है सिर ऊपरि दूजै भाइ पति खोई ॥२॥

मूलम्

मनमुख मूलु गवावहि लाभु मागहि लाहा लाभु किदू होई ॥ जमकालु सदा है सिर ऊपरि दूजै भाइ पति खोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मूलु = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। लाभु = नफा, लाभ। मागहि = माँगते हैं (बहुवचन)। किदू = कैसे? जमकालु = आत्मिक मौत। दूजै भाइ = माया के प्यार में। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (अपनी) संपत्ति (ही) गवा लेते हैं, पर माँगते हैं (आत्मिक) लाभ। (बताओ, उनको) कैसे कमाई हो सकती है? लाभ कहाँ से मिले? आत्मिक मौत सदा उनके सर पर सवार रहती है। माया के प्यार में (फंस के उन्होंने लोक-परलोक की) इज्जत गवा ली होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहले भेख भवहि दिनु राती हउमै रोगु न जाई ॥ पड़ि पड़ि लूझहि बादु वखाणहि मिलि माइआ सुरति गवाई ॥३॥

मूलम्

बहले भेख भवहि दिनु राती हउमै रोगु न जाई ॥ पड़ि पड़ि लूझहि बादु वखाणहि मिलि माइआ सुरति गवाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहले = कई, अनेक। भवहि = भ्रमण करते हैं (तीर्थ आदि पर)। न जाई = दूर नहीं होता। पढ़ि = पढ़ के। लूझहि = झगड़ते हैं, बहसें करते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं। बादु = झगड़ा, बहस, चर्चा। वखाणहि = उचारते हैं, बोलते हैं। मिलि = मिल के। सुरति = आत्मिक जीवन की ओर का होश।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य कई (धार्मिक) भेस करके दिन-रात (जगह-जगह) भ्रमण करते फिरते हैं (उनको अपने इस त्याग का अहंकार हो जाता है, उनका यह) अहंकार का रोग दूर नहीं होता। (और, जो पंडित आदि लोग वेद-शास्त्र आदि) पढ़-पढ़ के (फिर अपने आप में) मिल के बहस करते हैं चर्चा करते हैं उन्होंने भी माया के मोह के कारण (आत्मिक जीवन से अपनी) होश गवा ली होती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवहि परम गति पावहि नामि मिलै वडिआई ॥ नानक नामु जिना मनि वसिआ दरि साचै पति पाई ॥४॥४॥१४॥

मूलम्

सतिगुरु सेवहि परम गति पावहि नामि मिलै वडिआई ॥ नानक नामु जिना मनि वसिआ दरि साचै पति पाई ॥४॥४॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहि = शरण पड़ते हैं। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। नामि = नाम में (जुड़े रहने के कारण)। वडिआई = (लोक परलोक की) इज्जत। मनि = मन में। दरि = दर पर। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। पति = इज्जत।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं, (परमात्मा के) नाम में जुड़े रहने के कारण उनको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है। हे नानक! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम आ बसा, उन्होंने सदा-स्थिर प्रभु के दर पर आदर कमा लिया।4।4।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ मनमुख आसा नही उतरै दूजै भाइ खुआए ॥ उदरु नै साणु न भरीऐ कबहू त्रिसना अगनि पचाए ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ मनमुख आसा नही उतरै दूजै भाइ खुआए ॥ उदरु नै साणु न भरीऐ कबहू त्रिसना अगनि पचाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आसा = (और ज्यादा माया जोड़ने की) चाहत। उतरै = खत्म होती। दूजै भाइ = माया के प्यार में। खुआए = (सही जीवन-राह से) टूटे हुए हैं। उदरु = पेट। नै = नय, नदी। साणु = की तरह। पचाए = (उनको) जलाती है।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के अंदर से (और ज्यादा माया जोड़ने की) लालसा दूर नहीं होती। माया के प्यार में वे सही जीवन-राह से टूटे रहते हैं। नदी की तरह उनका पेट (माया से) कभी नहीं भरता। तृष्णा की आग उन्हें जलाती रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा अनंदु राम रसि राते ॥ हिरदै नामु दुबिधा मनि भागी हरि हरि अम्रितु पी त्रिपताते ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सदा अनंदु राम रसि राते ॥ हिरदै नामु दुबिधा मनि भागी हरि हरि अम्रितु पी त्रिपताते ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = स्वाद में। राते = रंगे हुए, रति हुए, मस्त। हिरदै = दिल में। दुबिधा = मेर तेर। मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पी = पी के। त्रिपताते = तृप्त हो जाते हैं, अघा जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रस में भीगे रहते हैं, उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है। (माया के मोह के कारण मनुष्य के) मन में मेर-तेर टिकी रहती है, पर जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, उनकी मेर-तेर दूर हो जाती है। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी के वह (माया की तरफ से सदा) तृप्त रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे पारब्रहमु स्रिसटि जिनि साजी सिरि सिरि धंधै लाए ॥ माइआ मोहु कीआ जिनि आपे आपे दूजै लाए ॥२॥

मूलम्

आपे पारब्रहमु स्रिसटि जिनि साजी सिरि सिरि धंधै लाए ॥ माइआ मोहु कीआ जिनि आपे आपे दूजै लाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। साजी = पैदा की, रची। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक के किए अनुसार। धंधै = धंधे में। आपे = आप ही। दूजै = माया (के मोह) में।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) जिस (परमात्मा) ने जगत रचा है वह परमात्मा स्वयं ही सब जीवों को पिछली की कमाई अनुसार माया की दौड़-भाग में लगाए रखता है। जिस प्रभु ने माया का मोह बनाया है, वह स्वयं ही (जीवों को) माया के मोह में जोड़े रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस नो किहु कहीऐ जे दूजा होवै सभि तुधै माहि समाए ॥ गुरमुखि गिआनु ततु बीचारा जोती जोति मिलाए ॥३॥

मूलम्

तिस नो किहु कहीऐ जे दूजा होवै सभि तुधै माहि समाए ॥ गुरमुखि गिआनु ततु बीचारा जोती जोति मिलाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किहु = कुछ। सभि = सारे जीव। माहि = में। गुरमुखि = गुरु से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बीचारा = मन में बसाया। जोती = प्रभु की ज्योति में।3।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह के बारे में) उस परमात्मा को कुछ तभी कहा जा सकता है अगर वह हमसे बाहर का हो (बेगाना हो)। हे प्रभु! सारे जीव तेरे में ही लीन हैं (जैसे दरिया की लहरें दरिया में)। हे भाई! जिस मनुष्य ने आत्मिक जीवन की असल सूझ को विचारा है, उसकी जिंद प्रभु की ज्योति में जुड़ी रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो प्रभु साचा सद ही साचा साचा सभु आकारा ॥ नानक सतिगुरि सोझी पाई सचि नामि निसतारा ॥४॥५॥१५॥

मूलम्

सो प्रभु साचा सद ही साचा साचा सभु आकारा ॥ नानक सतिगुरि सोझी पाई सचि नामि निसतारा ॥४॥५॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। साचा = अस्तित्व वाला। आकारा = जगत। सतिगुरि = गुरु ने। सचि नामि = सदा स्थिर नाम में (जोड़ के)। निसतारा = संसार समुंदर से पार लंघा दिया।4।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, सदा ही अस्तित्व वाला है। यह सारा जगत भी सदा अस्तित्व वाला है (क्योंकि इसमें परमात्मा ही सब जगह व्यापक है)। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु ने (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शी है, उसको उसने परमात्मा के नाम में जोड़ के (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया है।4।5।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ कलि महि प्रेत जिन्ही रामु न पछाता सतजुगि परम हंस बीचारी ॥ दुआपुरि त्रेतै माणस वरतहि विरलै हउमै मारी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ कलि महि प्रेत जिन्ही रामु न पछाता सतजुगि परम हंस बीचारी ॥ दुआपुरि त्रेतै माणस वरतहि विरलै हउमै मारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = कलजुग। प्रेत = भूत प्रेत, वह रूहें जिनकी गति नहीं हुई। पछाता = सांझ डाली। सतजुगि = सतजुग में। परम हंस = सबसे ऊँचे हंस, सबसे अच्छे जीवन वाले, महापुरख। बीचारी = विचारवान, जिन्होंने नाम को मन में बसाया है। दुआपरि = द्वापर में। त्रेतै = त्रेते में। माणस = मनुष्य (बहुवचन)। वरतहि = वर्तण व्यवहार करते हैं। विरलै = किसी एक आध ने, किसी विरले ने।1।
अर्थ: हे भाई! कलियुग में प्रेत (सिर्फ वही) हैं, जिन्होंने परमात्मा को (अपने दिल में बसता) नहीं पहचाना। सतियुग में सबसे उच्च जीवन वाले वही हैं, जो आत्मिक जीवन की सूझ वाले हो गए (सारे लोग सतियुग में भी परमहंस नहीं)। द्वापर में त्रेते में भी (सतियुग और कलियुग जैसे ही) मनुष्य बसते हैं। (तब भी) किसी विरले ने ही (अपने अंदर से) अहंकार को दूर किया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि महि राम नामि वडिआई ॥ जुगि जुगि गुरमुखि एको जाता विणु नावै मुकति न पाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलि महि राम नामि वडिआई ॥ जुगि जुगि गुरमुखि एको जाता विणु नावै मुकति न पाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ने। जाता = जाना, गहरी सांझ बना ली। मुकति = विकारों से खलासी। न पाई = (किसी मनुष्य ने भी) हासिल नहीं की।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (युग चाहे कोई भी हो) हरेक युग में गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य ने (ही) परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है। (किसी भी युग में) परमात्मा के नाम के बिना किसी ने भी विकारों से मुक्ति प्राप्त नहीं की। (इस तरह) कलियुग में भी परमात्मा के नाम में जुड़ के ही (लोक-परलोक का) आदर मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरदै नामु लखै जनु साचा गुरमुखि मंनि वसाई ॥ आपि तरे सगले कुल तारे जिनी राम नामि लिव लाई ॥२॥

मूलम्

हिरदै नामु लखै जनु साचा गुरमुखि मंनि वसाई ॥ आपि तरे सगले कुल तारे जिनी राम नामि लिव लाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। लखै = देख लेता है। जनु = (जो) मनुष्य। साचा = सदा स्थिर। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। मंनि = मन में। तरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है। सगले कुल = सारी कुलें। नामि = नाम में। लिव = लगन।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम (अपने अंदर बसता) समझ लेता है, जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (हरि-नाम को अपने) मन में बसा लेता है, (वह मनुष्य संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है। हे भाई! जिस भी मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में लगन बनाई, वह स्वयं संसार-समुंदर से पार लांघ गए, उन्होंने अपनी सारी कुले भी पार लंघा लीं।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा प्रभु है गुण का दाता अवगण सबदि जलाए ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहे हिरदै नामु वसाए ॥३॥

मूलम्

मेरा प्रभु है गुण का दाता अवगण सबदि जलाए ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहे हिरदै नामु वसाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में (जोड़ के)। जलाए = जलाता है। मनि = मन में। से = (बहुवचन) वह। सोहे = सुंदर जीवन वाले बन गए। वसाए = बसा के।3।
अर्थ: हे भाई! मेरा परमात्मा गुरु बख्शने वाला है, वह (जीव को गुरु के) शब्द में (जोड़ के उसके सारे) अवगुण जला देता है। हे भाई! जिनके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह हृदय में नाम को बसा के सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरु दरु महलु सतिगुरू दिखाइआ रंग सिउ रलीआ माणै ॥ जो किछु कहै सु भला करि मानै नानक नामु वखाणै ॥४॥६॥१६॥

मूलम्

घरु दरु महलु सतिगुरू दिखाइआ रंग सिउ रलीआ माणै ॥ जो किछु कहै सु भला करि मानै नानक नामु वखाणै ॥४॥६॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरु = (प्रभु का) घर। दरु = (प्रभु का) दरवाजा। महलु = (प्रभु का) ठिकाना। रंग सिउ = आत्मिक आनंद से। करि = कर के, समझ के। नानक = हे नानक! वखाणै = (सदा) उचारता है।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु परमात्मा का घर परमात्मा का दर परमात्मा का महल दिखा देता है, वह मनुष्य प्रेम से प्रभु-चरणों के मिलाप का आनंद लेता है। हे नानक! गुरु उस मनुष्य को जो उपदेश देता है, वह मनुष्य उसको भला जान के मान लेता है और परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है।4।6।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ मनसा मनहि समाइ लै गुर सबदी वीचार ॥ गुर पूरे ते सोझी पवै फिरि मरै न वारो वार ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ मनसा मनहि समाइ लै गुर सबदी वीचार ॥ गुर पूरे ते सोझी पवै फिरि मरै न वारो वार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना (मनीषा)। मनहि = मन में ही। समाइ लै = लीन कर दे। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। वीचार = (परमात्मा के गुणों की) विचार। ते = से। पवै = पड़ती है। वारो वार = बार बार।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से (परमात्मा के गुणों को) मन में बसा के मन के (मायावी) फुरनों को (अंदर) मन में ही लीन कर दे। हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु से यह समझ हासिल हो जाती है, वह बार-बार जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे राम नामु आधारु ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सभ इछ पुजावणहारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे राम नामु आधारु ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सभ इछ पुजावणहारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! आधारु = आसरा। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पुजावणुहारु = पूरी कर सकने वाला है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम को (अपना) आसरा बना। (जो मनुष्य हरि-नाम को अपना आसरा बनाता है) वह गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। हे मन! परमात्मा हरेक इच्छा पूरी करने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ महि एको रवि रहिआ गुर बिनु बूझ न पाइ ॥ गुरमुखि प्रगटु होआ मेरा हरि प्रभु अनदिनु हरि गुण गाइ ॥२॥

मूलम्

सभ महि एको रवि रहिआ गुर बिनु बूझ न पाइ ॥ गुरमुखि प्रगटु होआ मेरा हरि प्रभु अनदिनु हरि गुण गाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = एक परमात्मा ही। रवि रहिआ = व्यापक है। बूझ = समझ। गुरमुखि = गुरु से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गाइ = गाता है।2।
अर्थ: हे भाई! सब जीवों में एक परमात्मा ही व्यापक है, पर गुरु के बिना यह समझ नहीं आती। जिस मनुष्य के अंदर गुरु के द्वारा परमात्मा प्रकट हो जाता है, वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदाता हरि एकु है होर थै सुखु न पाहि ॥ सतिगुरु जिनी न सेविआ दाता से अंति गए पछुताहि ॥३॥

मूलम्

सुखदाता हरि एकु है होर थै सुखु न पाहि ॥ सतिगुरु जिनी न सेविआ दाता से अंति गए पछुताहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होरथै = किसी और जगह से। न पाहि = पा नहीं सकते (बहुवचन)। पछुताहि = पछताते हैं (बहुवचन)।3।
अर्थ: हे भाई! सुख देने वाला सिर्फ परमात्मा ही है (जो मनुष्य परमात्मा का आसरा नहीं लेते) वे और-और जगह सुख प्राप्त नहीं कर सकते। हे भाई! गुरु (परमात्मा के नाम की दाति) देने वाला है, जिन्होंने गुरु की शरण नहीं ली, वे आखिर यहाँ से जाने के वक्त हाथ मलते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ फिरि दुखु न लागै धाइ ॥ नानक हरि भगति परापति होई जोती जोति समाइ ॥४॥७॥१७॥

मूलम्

सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ फिरि दुखु न लागै धाइ ॥ नानक हरि भगति परापति होई जोती जोति समाइ ॥४॥७॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धाइ = दौड़ के, हल्ला कर के। परापति होई = भाग्यों अनुसार मिल गई। जोति = जिंद। जोती = परमात्मा की ज्योति में। समाइ = लीन हो जाती है (एकवचन)।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु का आसरा लिया, उसने सदा आनंद पाया। कोई भी दुख हमला करके उससे नहीं चिपक सकता। हे नानक! जिस मनुष्य को सौभाग्य से परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो गई, उसकी जीवात्मा परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।4।1।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना भूला चोटा खाई ॥ मरि मरि जमै सदा दुखु पाए दर की खबरि न पाई ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना भूला चोटा खाई ॥ मरि मरि जमै सदा दुखु पाए दर की खबरि न पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बउराना = कमला, झल्ला। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। खाई = खाता है। मरि मरि जंमै = बार बार मर के पैदा होता है, जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। दर की = परमात्मा के दर की। खबरि = सूझ।1।
अर्थ: हे मन! गुरु की शरण के बिना जगत (विकारों में) झल्ला हुआ फिरता है, गलत रास्ते पर पड़ के (विकारों की) चोटें खाता रहता है, बार-बार जनम मरण के चक्करों में पड़ता है, सदा दुख सहता है, परमात्मा के दर की उसको कोई समझ नहीं पड़ती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन सदा रहहु सतिगुर की सरणा ॥ हिरदै हरि नामु मीठा सद लागा गुर सबदे भवजलु तरणा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन सदा रहहु सतिगुर की सरणा ॥ हिरदै हरि नामु मीठा सद लागा गुर सबदे भवजलु तरणा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! हिरदै = हृदय में। सद = सदा। सबदे = शब्द से। भवजलु = संसार समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा गुरु की शरण पड़ा रह। (जो मनुष्य गुरु की शरण में टिका रहता है, उसको अपने) हृदय में परमात्मा का नाम सदा प्यारा लगता है। गुरु के शब्द से वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेख करै बहुतु चितु डोलै अंतरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ अंतरि तिसा भूख अति बहुती भउकत फिरै दर बारु ॥२॥

मूलम्

भेख करै बहुतु चितु डोलै अंतरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ अंतरि तिसा भूख अति बहुती भउकत फिरै दर बारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डोलै = डोलता है। अंतरि = (उसके) अंदर। तिसा = तृष्णा। फिरै = फिरता है। दर बारु = (हरेक के घर के) दर का दरवाजा (खड़काता है)।2।
अर्थ: हे मन! (जो मनुष्य गुरु की शरण से विछुड़ के) कई (धार्मिक) भेस बनाता है, उसका मन (विकारों में ही) डोलता रहता है, उसके अंदर काम (का जोर) है, क्रोध (प्रबल) है, अहंकार (प्रभावशाली) है, उसके अंदर माया की बड़ी तृष्णा है, माया की बड़ी भूख है, वह (कुत्ते की तरह रोटी की खातिर) भौंकता फिरता है, (हरेक घर के) दर का दरवाजा (खड़काता फिरता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर कै सबदि मरहि फिरि जीवहि तिन कउ मुकति दुआरि ॥ अंतरि सांति सदा सुखु होवै हरि राखिआ उर धारि ॥३॥

मूलम्

गुर कै सबदि मरहि फिरि जीवहि तिन कउ मुकति दुआरि ॥ अंतरि सांति सदा सुखु होवै हरि राखिआ उर धारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। मरहि = मरते हैं, दुनियां की ख्वाहिशों से मरते हैं। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं। मुकति = विकारों से मुक्ति। दुआरि = प्रभु के दर पर (पहुँच)। उर = हृदय। धारि = धारण करके।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (विकारों की तरफ से) मरते हैं, वे फिर आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, उनको विकारों से निजात मिल जाती है, परमात्मा के दर पर (उनकी पहुँच हो जाती है)। उनके अंदर शांति बनी रहती है उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है, (क्योंकि उन्होंने) परमात्मा (के नाम) को अपने हृदय में टिका के रखा हुआ होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ तिसु भावै तिवै चलावै करणा किछू न जाई ॥ नानक गुरमुखि सबदु सम्हाले राम नामि वडिआई ॥४॥८॥१८॥

मूलम्

जिउ तिसु भावै तिवै चलावै करणा किछू न जाई ॥ नानक गुरमुखि सबदु सम्हाले राम नामि वडिआई ॥४॥८॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है। चलावै = जीवन-राह पर चलाता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। समाले = हृदय में बसाता है। नामि = नाम से।4।
अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के कुछ भी वश नहीं) जैसे परमात्मा को अच्छा लगता है, उसी तरह ही जीवों को जीवन-राह पर चलाता है, हम जीवों का उसके सामने कोई जोर नहीं चल सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर गुरु का शब्द हृदय में बसाता है, परमात्मा के नाम में जुड़ने के कारण उसको (लोक-परलोक की) इज्ज़त मिल जाती है।4।8।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ हउमै माइआ मोहि खुआइआ दुखु खटे दुख खाइ ॥ अंतरि लोभ हलकु दुखु भारी बिनु बिबेक भरमाइ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ हउमै माइआ मोहि खुआइआ दुखु खटे दुख खाइ ॥ अंतरि लोभ हलकु दुखु भारी बिनु बिबेक भरमाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के)। खुआइआ = (जीवन-राह से) विछुड़ गया। खाइ = खाता है, सहता है। अंतरि = अंदर। बिबेक = (अच्छे बुरे काम की) परख करने की सामर्थ्य। भरमाइआ = भटकता फिरता है।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अहंकार के कारण माया के मोह के कारण जीवन-राह से विछुड़ा रहता है जिस कारण वह दुख ही सहेड़ता है दुख ही सहता है। उसके अंदर लोभ (टिका रहता है जैसे कुत्ते को) हलक (हो जाता) है (कुक्ता खुद भी दुखी होता है और लोगों को भी दुखी करता है। इसी तरह लोभी को) बहुत दुख बना रहता है।
अच्छे-बुरे काम की परख ना कर सकने के कारण वह (माया की खातिर) भटकता फिरता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि ध्रिगु जीवणु सैसारि ॥ राम नामु सुपनै नही चेतिआ हरि सिउ कदे न लागै पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मनमुखि ध्रिगु जीवणु सैसारि ॥ राम नामु सुपनै नही चेतिआ हरि सिउ कदे न लागै पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। सैसारि = संसार में। सुपनै = सपने में भी, कभी ही। सिउ = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का जगत में जीवन (-ढंग) ऐसा ही रहता है कि उसको धिक्कारें ही पड़ती हैं। वह परमात्मा का नाम कभी भी याद नहीं करता, परमात्मा के साथ उसका कभी भी प्यार नहीं बनता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पसूआ करम करै नही बूझै कूड़ु कमावै कूड़ो होइ ॥ सतिगुरु मिलै त उलटी होवै खोजि लहै जनु कोइ ॥२॥

मूलम्

पसूआ करम करै नही बूझै कूड़ु कमावै कूड़ो होइ ॥ सतिगुरु मिलै त उलटी होवै खोजि लहै जनु कोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पसूआ करम = पशुओं वाले कर्म। करै = करता है (एकवचन)। कूड़ो = झूठ ही। त = तब। एलटी होवै = माया के मोह से तवज्जो पलटती है। जनु कोइ = कोई विरला मनुष्य। लहै = पा लेता है।2।
अर्थ: हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य पशुओं वाले काम करता है, उसको समझ नहीं आती (कि यह जीव राह गलत है)। नाशवान माया की खातिर दौड़-भाग करता-करता उसी का रूप हुआ रहता है। पर अगर उसको गुरु मिल जाए, तो उसकी तवज्जो माया की ओर से पलट जाती है (फिर वह) खोज कर के परमात्मा का मिलाप प्राप्त कर लेता है (पर ऐसा होता) कोई विरला ही है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु रिदै सद वसिआ पाइआ गुणी निधानु ॥ गुर परसादी पूरा पाइआ चूका मन अभिमानु ॥३॥

मूलम्

हरि हरि नामु रिदै सद वसिआ पाइआ गुणी निधानु ॥ गुर परसादी पूरा पाइआ चूका मन अभिमानु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। सद = सदा। निधानु = खजाना। परसादी = कृपा से। पूरा = अमोध परमात्मा। मन अभिमानु = मन का अहंकार। चूका = समाप्त हो गया।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम सदा बसा रहता है, वह मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा को मिल जाता है। गुरु की कृपा से उसको पूरन प्रभु मिल जाता है, उसके मन का अहंकार दूर हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता करे कराए आपे मारगि पाए ॥ आपे गुरमुखि दे वडिआई नानक नामि समाए ॥४॥९॥१९॥

मूलम्

आपे करता करे कराए आपे मारगि पाए ॥ आपे गुरमुखि दे वडिआई नानक नामि समाए ॥४॥९॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। मारगि = रास्ते पर। गुरमुखि = गुरु से। दे = देता है। नामि = नाम में।4।
अर्थ: (पर, हे भाई! मनुष्य के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही सब कुछ करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही (जीवों को) सही जीवन-राह पर डालता है, स्वयं ही गुरु के द्वारा इज्जत बख्शता है। हे नानक! (जिस पर परमात्मा मेहर करता है), वह हरि-नाम में लीन रहता है।4।9।19।

[[1133]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ मेरी पटीआ लिखहु हरि गोविंद गोपाला ॥ दूजै भाइ फाथे जम जाला ॥ सतिगुरु करे मेरी प्रतिपाला ॥ हरि सुखदाता मेरै नाला ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ मेरी पटीआ लिखहु हरि गोविंद गोपाला ॥ दूजै भाइ फाथे जम जाला ॥ सतिगुरु करे मेरी प्रतिपाला ॥ हरि सुखदाता मेरै नाला ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजै भाइ = (प्रभु को छोड़ कर) और के प्यार में (रहने वाले)। जम जाला = जमका जाल, आत्मिक मौत का जाल। प्रतिपाला = रक्षा।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रहलाद अपने पढ़ाने वालों को रोज कहता है:) मेरी तख्ती पर हरि का नाम लिख दो, गोबिंद का नाम लिख दो, गोपाल का नाम लिख दो। जो मनुष्य सिर्फ माया के प्यार में रहते हैं, वे आत्मिक मौत के जाल में फसे रहते हैं। मेरा गुरु मेरी रक्षा कर रहा है। सारे सुख देने वाला परमात्मा (हर वक्त) मेरे अंग-संग बसता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै ॥ सासना ते बालकु गमु न करै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै ॥ सासना ते बालकु गमु न करै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपदेसि = उपदेश से। उचरै = उचारता है, जपता है। सासना = ताड़ना, दण्ड, शारीरिक कष्ट। ते = से। गमु = ग़म। गमु न करै = घबराता नहीं, डरता नही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (अपने) गुरु की शिक्षा पर चल के प्रहलाद परमात्मा का नाम जपता है। बालक (प्रहलाद) किसी भी शारीरिक कष्ट से डरता नहीं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता उपदेसै प्रहिलाद पिआरे ॥ पुत्र राम नामु छोडहु जीउ लेहु उबारे ॥ प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ ॥२॥

मूलम्

माता उपदेसै प्रहिलाद पिआरे ॥ पुत्र राम नामु छोडहु जीउ लेहु उबारे ॥ प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपदेसै = समझाती है। प्रहिलाद = हे प्रहलाद! पुत्र = हे पुत्र! जीउ = जिंद। लेहु उबारे = बचा ले। माइ = हे माँ! न छोडा = ना छोड़ू, मैं नहीं छोड़ता। गुरि = गुरु ने। दीआ बुझाइ = समझा दिया है।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रहलाद को उसकी) माँ समझाती है: हे प्यारे प्रहलाद! हे (मेरे) पुत्र! परमात्मा का नाम छोड़ दे, अपनी जान बचा ले। (आगे से) प्रहलाद कहता है: हे मेरी माँ! सुन, मैं परमात्मा का नाम नहीं छोड़ूगा (यह नाम जपना मुझे मेरे) गुरु ने समझाया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संडा मरका सभि जाइ पुकारे ॥ प्रहिलादु आपि विगड़िआ सभि चाटड़े विगाड़े ॥ दुसट सभा महि मंत्रु पकाइआ ॥ प्रहलाद का राखा होइ रघुराइआ ॥३॥

मूलम्

संडा मरका सभि जाइ पुकारे ॥ प्रहिलादु आपि विगड़िआ सभि चाटड़े विगाड़े ॥ दुसट सभा महि मंत्रु पकाइआ ॥ प्रहलाद का राखा होइ रघुराइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संडा मरका = संड और अमरक। सभि = सारे। जाइ = जा के। चाटड़े = पढ़ने वाले लड़के। महि = में। मंत्रु पकाइआ = सलाह पक्की की। रघुराइआ = परमात्मा।3।
अर्थ: हे भाई! संड अमरक व और सभी ने जा के (हर्नाक्षस के पास) पुकार की- प्रहलाद खुद ही बिगड़ा हुआ है, (उसने) बाकी के सारे बच्चे भी बिगाड़ दिए हैं। हे भाई! (ये सुन के) उन दुष्टों ने सलाह पक्की की (कि प्रहलाद को खत्म कर दिया जाए। पर) प्रहलाद का रक्षक स्वयं परमात्मा बन गया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाथि खड़गु करि धाइआ अति अहंकारि ॥ हरि तेरा कहा तुझु लए उबारि ॥ खिन महि भैआन रूपु निकसिआ थम्ह उपाड़ि ॥ हरणाखसु नखी बिदारिआ प्रहलादु लीआ उबारि ॥४॥

मूलम्

हाथि खड़गु करि धाइआ अति अहंकारि ॥ हरि तेरा कहा तुझु लए उबारि ॥ खिन महि भैआन रूपु निकसिआ थम्ह उपाड़ि ॥ हरणाखसु नखी बिदारिआ प्रहलादु लीआ उबारि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाथि = हाथ में। खड़गु = तलवार। करि = कर के, ले के। अति अहंकारि = बड़े ही अहंकार से। कहा = कहाँ? लए उबारि = उबार लिए, (जो तुझे) बचा ले। भैआन = भयानक। उपाड़ि = फाड़ के। नखी = नाखूनों से। बिदारिआ = चीर दिया।4।
अर्थ: हे भाई! (हर्णाक्षस व हर्णाकश्यप) हाथ में तलवार पकड़ के बड़े अहंकार से (प्रहलाद पर) टूट पड़ा (और कहने लगा- बता) कहाँ है तेरा हरि, जो (तुझे) बचा ले? (ये कहने की देर थी कि एक दम) एक पल में ही (परमात्मा) भयानक रूप (धारण करके) खंभा फाड़ के निकल आया। (उसने नरसिंघ रूप में) हर्णाकश्यप को (अपने नाखूनों से) चीर डाला और प्रहलाद को बचा लिया।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना के हरि जीउ कारज सवारे ॥ प्रहलाद जन के इकीह कुल उधारे ॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारे ॥ नानक राम नामि संत निसतारे ॥५॥१०॥२०॥

मूलम्

संत जना के हरि जीउ कारज सवारे ॥ प्रहलाद जन के इकीह कुल उधारे ॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारे ॥ नानक राम नामि संत निसतारे ॥५॥१०॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारज = सारे काम। उधारे = बचा लिए। कै सबदि = के शब्द से। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। नामि = नाम में (जोड़ के)। निसतारे = पार लंघाता है।5।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा अपने भक्तों के सारे काम सँवारता है (देख! उसने) प्रहलाद की 21 कुलों का (भी) उद्धार कर दिया। हे नानक! परमात्मा अपने संतों को गुरु शब्द में जोड़ के (उनके अंदर से) आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार को समाप्त कर देता है, और, हरि-नाम में जोड़ के उनको संसार-समुंदर से पार लंघा देता है।5।10।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ आपे दैत लाइ दिते संत जना कउ आपे राखा सोई ॥ जो तेरी सदा सरणाई तिन मनि दुखु न होई ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ आपे दैत लाइ दिते संत जना कउ आपे राखा सोई ॥ जो तेरी सदा सरणाई तिन मनि दुखु न होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दैत = दैत्य, दुर्जन। आपे = आप ही (परमात्मा ने)। तिन महि = उनके मन में।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपने) संत जनों को (दुख देने के लिए उन पर) दैत्य चिपका देता है, पर वह स्वयं ही (संत जनों का) रखवाला बनता है। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी शरण में सदा टिके रहते हैं (दुष्ट भले ही कितने ही कष्ट उनकों दें) उनके मन को कोई तकलीफ़ नहीं होती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुगि जुगि भगता की रखदा आइआ ॥ दैत पुत्रु प्रहलादु गाइत्री तरपणु किछू न जाणै सबदे मेलि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जुगि जुगि भगता की रखदा आइआ ॥ दैत पुत्रु प्रहलादु गाइत्री तरपणु किछू न जाणै सबदे मेलि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग जुग = हरेक युग में। दैत पुत्रु = दैत्य (हर्णाकश्यप) का पुत्र। तरपणु = पित्रों नमिक्त पानी अर्पण करना (ये हर रोज किए जाने पाँचों यज्ञों में से एक है। हरेक हिन्दू इसका करना आवश्यक समझता है)। गाइत्री = एक बहुत ही पवित्र पंक्ति (जिसका पाठ हरेक बाहमण सवेरे शाम करता है। इसके बार-बार पाठ करने से बड़े-बड़े पाप भी नाश हो जाते हैं: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात्॥ R.V. 3.2.10l)। सबदे = गुरु के शब्द में। मेलि = जोड़ के। मिलाइआ = अपने साथ मिला लिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हरेक युग में (परमात्मा अपने) भगतों की (इज्जत) रखता आया है। (देखो) हर्णाक्षस का पुत्र प्रहलाद गायत्री (मंत्र का पाठ करना; पित्रों की प्रसन्नता के लिए) पूजा-अर्चना (करनी) ये सब कुछ भी नहीं था जानता। (परमात्मा ने उसको गुरु के) शब्द में जोड़ के (अपने चरणों में) मिला लिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदिनु भगति करहि दिन राती दुबिधा सबदे खोई ॥ सदा निरमल है जो सचि राते सचु वसिआ मनि सोई ॥२॥

मूलम्

अनदिनु भगति करहि दिन राती दुबिधा सबदे खोई ॥ सदा निरमल है जो सचि राते सचु वसिआ मनि सोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। दुबिधा = मेर तेर, भेद भाव। खोई = समाप्त कर ली। निरमल = पवित्र। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। राते = रंगे हुए, मस्त, रति हुए। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मनि = (उनके) मन में।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते हैं, उन्होंने गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) मेर-तेर समाप्त कर ली होती है। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में रति रहते हैं, जिनके मन में वह सदा-स्थिर प्रभु ही बसा रहता है उनका जीवन सदा पवित्र टिका रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूरख दुबिधा पड़्हहि मूलु न पछाणहि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ संत जना की निंदा करहि दुसटु दैतु चिड़ाइआ ॥३॥

मूलम्

मूरख दुबिधा पड़्हहि मूलु न पछाणहि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ संत जना की निंदा करहि दुसटु दैतु चिड़ाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। दुबिधा पढ़हि = भेदभाव पैदा करने वाली विद्या पढ़ते हैं। मूलु = जगत को पैदा करने वाला। बिरथा = व्यर्थ। दुसटु दैतु = दुष्ट (हर्णाक्षस) दैत्य को। चिढ़ाइआ = चिढ़ाया? (प्रहलाद के विरोध में) गुस्सा दिलाया।3।
अर्थ: हे भाई! मूर्ख लोग मेर-तेर (पैदा करने वाली विद्या ही नित्य) पढ़ते हैं, रचनहार कर्तार के साथ सांझ नहीं डालते, संतजनों की निंदा (भी) करते हैं (इस तरह अपना) जीवन व्यर्थ गवा लेते हैं। (इस तरह के मूर्ख संड अमरक आदि ने ही) दुष्ट दैत्य (हर्णाक्षस) को (प्रहलाद के विरुद्ध) भड़काया था।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहलादु दुबिधा न पड़ै हरि नामु न छोडै डरै न किसै दा डराइआ ॥ संत जना का हरि जीउ राखा दैतै कालु नेड़ा आइआ ॥४॥

मूलम्

प्रहलादु दुबिधा न पड़ै हरि नामु न छोडै डरै न किसै दा डराइआ ॥ संत जना का हरि जीउ राखा दैतै कालु नेड़ा आइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पढ़ै = पढ़ता है (एकवचन)। कालु = मौत। दैतै = दैत्य का।4।
अर्थ: पर, हे भाई! प्रहलाद मेर-तेर (पैदा करने वाली विद्या) नहीं पढ़ता, वह परमात्मा का नाम नहीं छोड़ता, वह किसी का डराया डरता नहीं। हे भाई! परमात्मा अपने संतजनों का रखवाला स्वयं है। (प्रहलाद से पंगा ले के मूर्ख हणाक्षस) दैत्य का काल (बल्कि) नजदीक आ पहुँचा।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपणी पैज आपे राखै भगतां देइ वडिआई ॥ नानक हरणाखसु नखी बिदारिआ अंधै दर की खबरि न पाई ॥५॥११॥२१॥

मूलम्

आपणी पैज आपे राखै भगतां देइ वडिआई ॥ नानक हरणाखसु नखी बिदारिआ अंधै दर की खबरि न पाई ॥५॥११॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत। देइ = देता है। नखी = नाखूनों से। बिदारिआ = चीर दिया। अंधै = (अहंकार में) अंधे हो चुके ने। दर = परमात्मा का दर। खबरि = सूझ।5।
अर्थ: हे भाई! (भगतों की इज्जत और परमात्मा की इज्जत सांझी है। भगतों के सम्मान को अपना सम्मान जान के) परमात्मा (भगतों की मदद करके) अपना सम्मान स्वयं बचाता है, (अपने) भगतों को (सदा) बड़ाई बख्शता है। (तभी तो) हे नानक! (परमात्मा ने नरसिंघ रूप धार के) हर्णाक्षस को (अपने) नाखूनों से चीर दिया। (ताकत के नशे में) अंधे हो चुके (हर्णाक्षस) ने परमात्मा के दर का भेद ना समझा।5।11।21।8।21।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु भैरउ महला ४ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु भैरउ महला ४ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन संत करि किरपा पगि लाइणु ॥ गुर सबदी हरि भजु सुरति समाइणु ॥१॥

मूलम्

हरि जन संत करि किरपा पगि लाइणु ॥ गुर सबदी हरि भजु सुरति समाइणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। पगि = पैरों में, चरणों में। लाइणु = लगाने वाला है। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। भजु = जपा कर। समाइणु = जाग (नाम की)।1।
अर्थ: हे मेरे मन! (परमात्मा स्वयं) कृपा करके (जिस मनुष्य को अपने) संत जनों के चरणों में लगाता है (वह मनुष्य हरि का नाम जपता है)। हे मन! (तू भी गुरु की शरण पड़, और) गुरु के शब्द से परमात्मा का नाम जप, अपनी तवज्जो में हरि-नाम की जाग लगा।1।

[[1134]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन हरि भजु नामु नराइणु ॥ हरि हरि क्रिपा करे सुखदाता गुरमुखि भवजलु हरि नामि तराइणु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन हरि भजु नामु नराइणु ॥ हरि हरि क्रिपा करे सुखदाता गुरमुखि भवजलु हरि नामि तराइणु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सुखदाता = सुखों का दाता। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। भवजलु = संसार समुंदर। नामि = नाम में (जोड़ के)।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! हरि का नाम जपा कर, नारायण नारायण जपा कर। सारे सुखों को देने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर कृपा करता है, उसको गुरु की शरण में रख के अपने नाम के द्वारा संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संगति साध मेलि हरि गाइणु ॥ गुरमती ले राम रसाइणु ॥२॥

मूलम्

संगति साध मेलि हरि गाइणु ॥ गुरमती ले राम रसाइणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेलि = मेल में। हरि गाइणु = हरि की महिमा। गुरमती = गुरु की मति पर चल के। रसाइणु = (रस+आयन) सारे रसों का घर।2।
अर्थ: हे मेरे मन! साधु-संगत के मेल में टिक के परमात्मा की महिमा किया कर, गुरु की मति पर चल के परमात्मा का नाम जपा कर, यह नाम ही सारे रसों का घर है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर साधू अम्रित गिआन सरि नाइणु ॥ सभि किलविख पाप गए गावाइणु ॥३॥

मूलम्

गुर साधू अम्रित गिआन सरि नाइणु ॥ सभि किलविख पाप गए गावाइणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआन सरि = ज्ञान के सरोवर में। साधू = गुरु। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। नाइणु = स्नान। सभि = सारे। किलविख = पाप।3।
अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य गुरु के आत्मिक जीवन देने वाले ज्ञान-सरोवर में स्नान करता है, उसके सारे पाप सारे एैब दूर हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू आपे करता स्रिसटि धराइणु ॥ जनु नानकु मेलि तेरा दास दसाइणु ॥४॥१॥

मूलम्

तू आपे करता स्रिसटि धराइणु ॥ जनु नानकु मेलि तेरा दास दसाइणु ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। धराइणु = आसरा। मेलि = मिला (अपने चरणों में)। दास दसाइणु = दासों का दास।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही सारी सृष्टि का रचनहार है, तू स्वयं ही सारी सृष्टि का आसरा है। दास नानक को (अपने चरणों में) मिलाए रख, (नानक) तेरे दासों का दास है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ४ ॥ बोलि हरि नामु सफल सा घरी ॥ गुर उपदेसि सभि दुख परहरी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ४ ॥ बोलि हरि नामु सफल सा घरी ॥ गुर उपदेसि सभि दुख परहरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोलि = बोला कर, जपा कर। सा घरी = वह घड़ी। उपदेसि = उपदेश से। सभि दुख = सारे दुख। परहरी = परहरि, दूर कर ले।1।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपा कर (जिस घड़ी नाम जपते हैं) वह घड़ी सौभाग्य-भरी होती है। हे मन! गुरु के उपदेश से (हरि-नाम जप के अपने) सारे दुख दूर कर ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन हरि भजु नामु नरहरी ॥ करि किरपा मेलहु गुरु पूरा सतसंगति संगि सिंधु भउ तरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन हरि भजु नामु नरहरी ॥ करि किरपा मेलहु गुरु पूरा सतसंगति संगि सिंधु भउ तरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! नामु नरहरी = परमात्मा का नाम (नरहरी = नरसिंघ)। करि = कर के। मेलहु = तू मिलाता है। संगि = साथ। सिंधु भउ = भवसागर (संधु = सागर, समुंदर)। तरी = तैर जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! हरि का, परमात्मा का नाम जपा कर (और, कहा कर- हे प्रभु!) कृपा करके जिस मनुष्य को तू पूरा गुरु मिलाता है वह सत्संगति से (मिल के तेरा नाम जप के) संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगजीवनु धिआइ मनि हरि सिमरी ॥ कोट कोटंतर तेरे पाप परहरी ॥२॥

मूलम्

जगजीवनु धिआइ मनि हरि सिमरी ॥ कोट कोटंतर तेरे पाप परहरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का आसरा। मनि = मन में। सिमरी = सिमरि। कोटु = किला, शरीर किला (एकवचन)। कोट = (बहुवचन) (अनेक) शरीर। कोट कोटंतर = कोट कोट अंतर, और-और अनेक शरीर। कोट कोटंतर पाप = अनेक जन्मों के पाप। परहरी = दूर कर देगा।2।
अर्थ: हे भाई! जगत के आसरे परमात्मा का ध्यान धरा कर, अपने मन में हरि-नाम स्मरण किया कर। परमात्मा तेरे अनेक जन्मों के पाप दूर कर देगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतसंगति साध धूरि मुखि परी ॥ इसनानु कीओ अठसठि सुरसरी ॥३॥

मूलम्

सतसंगति साध धूरि मुखि परी ॥ इसनानु कीओ अठसठि सुरसरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुखि = मुँह पर, माथे पर। परी = पड़ती है। अठसठि = अढ़सठ (तीर्थ)। सुरसरी = गंगा।3।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य के माथे पर साधु-संगत की चरण-धूल लगती है, उसने (मानो) अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लिया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम मूरख कउ हरि किरपा करी ॥ जनु नानकु तारिओ तारण हरी ॥४॥२॥

मूलम्

हम मूरख कउ हरि किरपा करी ॥ जनु नानकु तारिओ तारण हरी ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम मूरख कउ = मैं मूर्ख पर। करी = की है। तारिओ = तार लिया है। तारण हरी = तारणहार हरि ने।4।
अर्थ: हे भाई! सबका उद्धार करने की सामर्थ्य वाले हरि ने मुझ मूर्ख पर कृपा की, और (मुझे) दास नानक को भी उसने संसार-समुंदर से पार लंघा लिया (अपना नाम दे के)।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ४ ॥ सुक्रितु करणी सारु जपमाली ॥ हिरदै फेरि चलै तुधु नाली ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ४ ॥ सुक्रितु करणी सारु जपमाली ॥ हिरदै फेरि चलै तुधु नाली ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणी = (करणीय) करने योग्य काम। सुक्रितु करणी = सबसे श्रेष्ठ करने योग्य काम। सारु = (हृदय में) संभाल ले। जपमाली = माला। हिरदै = हृदय में। फेरि = फेरा कर (इस माला को)। नाली = साथ।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम अपने हृदय में) संभाल के रख, यही है सबसे श्रेष्ठ करने योग्य काम, यही है माला। (इस हरि-नाम जपने की माला को अपने) हृदय में फेरा कर। ये हरि-नाम तेरा साथ देगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपहु बनवाली ॥ करि किरपा मेलहु सतसंगति तूटि गई माइआ जम जाली ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपहु बनवाली ॥ करि किरपा मेलहु सतसंगति तूटि गई माइआ जम जाली ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामु बनवाली = परमात्मा का नाम। करि = कर के। जम जाली = जम की जाली, आत्मिक मौत लाने वाला फंदा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपते रहा करो (और, अरदास किया करो- हे प्रभु! हमें सत्संगति में मिलाए रख) जिस को तू कृपा करके साधु-संगत में रखता है, उसका माया के मोह का आत्मिक मौत लाने वाला फंदा टूट जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सेवा घाल जिनि घाली ॥ तिसु घड़ीऐ सबदु सची टकसाली ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि सेवा घाल जिनि घाली ॥ तिसु घड़ीऐ सबदु सची टकसाली ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सेवा घाल घाली = सेवा भक्ति की मेहनत की। तिसु सबदु = उस का शब्द। घड़ीऐ = घड़ा जाता है। तिसु घड़ीऐ सबदु = उसके स्मरण का उद्यम सुंदर रूप धार लेता है। सची टकसाली = जत, धीरज, ऊँची मति, आत्मिक जीवन की सूझ, भउ, आदि की सदा स्थिर टकसाल में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) ने गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम जपने की मेहनत की, (जत, धीरज, ऊँची मति, आत्मिक जीवन की सूझ, भउ, आदि की) सदा-स्थिर रहने वाली टकसाल में उस मनुष्य का हरि नाम स्मरण का उद्यम सुंदर रूप धार लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अगम अगोचरु गुरि अगम दिखाली ॥ विचि काइआ नगर लधा हरि भाली ॥३॥

मूलम्

हरि अगम अगोचरु गुरि अगम दिखाली ॥ विचि काइआ नगर लधा हरि भाली ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। गुरि = गुरु ने। दिखाली = दर्शन करा दिए। काइआ = शरीर। भाली = तलाश के, खोज के।3।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने हरि-नाम-जपने की माला हृदय में फेरी) गुरु ने उसको अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर परमात्मा (उसके अंदर ही) दिखा दिया, (गुरु की सहायता से) उसने परमात्मा को अपने शरीर-नगर के अंदर ही तलाश के पा लिया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम बारिक हरि पिता प्रतिपाली ॥ जन नानक तारहु नदरि निहाली ॥४॥३॥

मूलम्

हम बारिक हरि पिता प्रतिपाली ॥ जन नानक तारहु नदरि निहाली ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम जीव। बारिक = बच्चे। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाली = ताक के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! हम जीव तेरे बच्चे हैं तू हमारा पालनहार पिता है। मेहर की निगाह कर के (हमें) दासों को (अपने नाम की माला दे कर) संसार-समुंदर से पार लंघाओ।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ४ ॥ सभि घट तेरे तू सभना माहि ॥ तुझ ते बाहरि कोई नाहि ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ४ ॥ सभि घट तेरे तू सभना माहि ॥ तुझ ते बाहरि कोई नाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। घट = घड़े, शरीर (बहुवचन)। माहि = में। ते = से।1।
अर्थ: हे प्रभु! सारे शरीर तेरे (बनाए हुए) हैं, तू (इन) सभी में बसता है। कोई भी शरीर तेरी ज्योति के बिना नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सुखदाता मेरे मन जापु ॥ हउ तुधु सालाही तू मेरा हरि प्रभु बापु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि सुखदाता मेरे मन जापु ॥ हउ तुधु सालाही तू मेरा हरि प्रभु बापु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! हउ = मैं। सालाही = सलाहता हूँ। प्रभू = मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपा कर (वही) सारे सुख देने वाला है। हे हरि! (मेहर कर) मैं तेरी महिमा करता रहूँ, तू मेरा मालिक है, तू मेरा पिता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह देखा तह हरि प्रभु सोइ ॥ सभ तेरै वसि दूजा अवरु न कोइ ॥२॥

मूलम्

जह जह देखा तह हरि प्रभु सोइ ॥ सभ तेरै वसि दूजा अवरु न कोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। सोइ = वही। वसि = वश में। अवरु = अन्य।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस कउ’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मैं जिधर-जिधर देखता हूँ, उधर-उधर वह हरि ही बस रहा है। हे प्रभु! सारी सृष्टि तेरे वश में है, (तेरे बिना तेरे जैसा) और कोई नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस कउ तुम हरि राखिआ भावै ॥ तिस कै नेड़ै कोइ न जावै ॥३॥

मूलम्

जिस कउ तुम हरि राखिआ भावै ॥ तिस कै नेड़ै कोइ न जावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखिआ भावै = रखना चाहे, रक्षा करनी चाहे।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! जिसकी तू रक्षा करनी चाहे, कोई (वैरी आदि) उसके नजदीक नहीं आता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू जलि थलि महीअलि सभ तै भरपूरि ॥ जन नानक हरि जपि हाजरा हजूरि ॥४॥४॥

मूलम्

तू जलि थलि महीअलि सभ तै भरपूरि ॥ जन नानक हरि जपि हाजरा हजूरि ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, आकाश में, अंतरिक्ष में। सभतै = हर जगह। जन नानक = हे दास नानक!।4।
अर्थ: हे हरि! तू जल में है, तू आकाश में है तू हर जगह व्यापक है। हे दास नानक! उस हरि का नाम जपा कर, जो हर जगह हाजिर-नाजर (प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा) है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का संतु हरि की हरि मूरति जिसु हिरदै हरि नामु मुरारि ॥ मसतकि भागु होवै जिसु लिखिआ सो गुरमति हिरदै हरि नामु सम्हारि ॥१॥

मूलम्

हरि का संतु हरि की हरि मूरति जिसु हिरदै हरि नामु मुरारि ॥ मसतकि भागु होवै जिसु लिखिआ सो गुरमति हिरदै हरि नामु सम्हारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूरति = स्वरूप। हिरदै = हृदय में। मुरारि = (मुर-अरि; अरि = वैरी) परमात्मा। जिस मसतकि = जिसके माथे पर। भागु = अच्छी किस्मत। गुरमति = गुरु की शिक्षा अनुसार। समारि = सम्हारे, संभालता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भक्त जिसके हृदय में (सदा) परमात्मा का नाम बसता है परमात्मा का ही रूप हो जाता है। पर वही मनुष्य गुरु की मति ले के परमात्मा का नाम अपने हृदय में संभालता है जिसके माथे पर (धुर से) अच्छी किस्मत (के लेख) लिखा होता है।1।

[[1135]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुसूदनु जपीऐ उर धारि ॥ देही नगरि तसकर पंच धातू गुर सबदी हरि काढे मारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मधुसूदनु जपीऐ उर धारि ॥ देही नगरि तसकर पंच धातू गुर सबदी हरि काढे मारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधू सूदनु = (मधू दैत्य को मारने वाला) परमात्मा। उर = हृदय। धारि = टिका के, बसा के। देही = शरीर। नगरि = नगर में। तसकर = (बहुवचन) और। धातू = धावन वाले, भटकना में डालने वाले। सबदी = शब्द से। काढे मारि = मार के निकाल दिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (दैत्यों का विनाश करने वाले) परमात्मा का नाम हृदय में बसा के जपना चाहिए। (जो मनुष्य नाम जपता है) वह गुरु के शब्द की इनायत से (अपने) शरीर नगर में (बस रहे) भटकना में डालने वाले (कामादिक) पाँचों चोरों को मार के बाहर निकाल देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन का हरि सेती मनु मानिआ तिन कारज हरि आपि सवारि ॥ तिन चूकी मुहताजी लोकन की हरि अंगीकारु कीआ करतारि ॥२॥

मूलम्

जिन का हरि सेती मनु मानिआ तिन कारज हरि आपि सवारि ॥ तिन चूकी मुहताजी लोकन की हरि अंगीकारु कीआ करतारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेती = साथ। मानिआ = मान गया। कारज = (बहुवचन) सारे काम। सवारि = सवारे, सवारता है। चूकी = समाप्त हो गई। मुहताजी = गरज़। अंगीकारु = सहायता। करतारि = कर्तार ने।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों का मन परमात्मा (की याद) में जुड़ जाता है उनके सारे काम परमात्मा आप सँवारता है। कर्तार ने सदा उनकी सहायता की होती है (इसलिए) उनके अंदर से लोगों की अधीनता समाप्त हो चुकी होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मता मसूरति तां किछु कीजै जे किछु होवै हरि बाहरि ॥ जो किछु करे सोई भल होसी हरि धिआवहु अनदिनु नामु मुरारि ॥३॥

मूलम्

मता मसूरति तां किछु कीजै जे किछु होवै हरि बाहरि ॥ जो किछु करे सोई भल होसी हरि धिआवहु अनदिनु नामु मुरारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मता = अपने मन की सलाह। मसूरति = मश्वरा। कीजै = किया जा सकता है। हरि बाहिर = परमात्मा से बाहर का। भल = भला। होसी = होगा। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन की सलाह अपने मन का मश्वरा तब ही कोई किया जा सकता है अगर परमात्मा से बाहर कोई भी काम हो सकता हो। हे भाई! जो कुछ परमात्मा करता है वह हमारे भले के वास्ते ही होता है। (इस वास्ते, हे भाई!) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करते रहा करो।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जो किछु करे सु आपे आपे ओहु पूछि न किसै करे बीचारि ॥ नानक सो प्रभु सदा धिआईऐ जिनि मेलिआ सतिगुरु किरपा धारि ॥४॥१॥५॥

मूलम्

हरि जो किछु करे सु आपे आपे ओहु पूछि न किसै करे बीचारि ॥ नानक सो प्रभु सदा धिआईऐ जिनि मेलिआ सतिगुरु किरपा धारि ॥४॥१॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। पूछि = पूछ के। बीचारि = विचार कर के। जिनि = जिस (प्रभु) ने। धारि = धार के।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जो कुछ करता है स्वयं ही करता है खुद ही करता है, वह किसी से पूछ के नहीं करता, किसी के साथ विचार करके नहीं करता। हे नानक! उस परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए जिस ने मेहर कर के (हमें) गुरु से मिलाया है।4।1।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ४ ॥ ते साधू हरि मेलहु सुआमी जिन जपिआ गति होइ हमारी ॥ तिन का दरसु देखि मनु बिगसै खिनु खिनु तिन कउ हउ बलिहारी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ४ ॥ ते साधू हरि मेलहु सुआमी जिन जपिआ गति होइ हमारी ॥ तिन का दरसु देखि मनु बिगसै खिनु खिनु तिन कउ हउ बलिहारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = वह (बहुवचन)। हरि = हे हरि! सुआमी = हे स्वामी! जिन जपिआ = जिस को याद करने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तिन = उन्हें। देखि = देख के। बिगसै = खिल उठता है। तिन कउ = (बहुवचन) उन पर। हउ = मैं। बलिहारी = कुर्बान।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिन’ है ‘जिनि’ का बहुवचन।
नोट: ‘तिन’ है तिनि का बहुवचन (‘तिनि’ है एकवचन)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! मुझे उन गुरमुखों से मिलाप करा दे, जिनको याद करने से मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन जाए, उनका दर्शन करके मेरा मन खिला रहे। हे हरि! मैं एक-एक छिन उनसे सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हिरदै जपि नामु मुरारी ॥ क्रिपा क्रिपा करि जगत पित सुआमी हम दासनि दास कीजै पनिहारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हिरदै जपि नामु मुरारी ॥ क्रिपा क्रिपा करि जगत पित सुआमी हम दासनि दास कीजै पनिहारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। जपि = मैं जपूँ। मुरारी नामु = (मुर+अरि। अरि = वैरी) परमात्मा का नाम। जगत पित = हे जगत के पिता! सुआमी = हे स्वामी! दासनि दास कीजै = दासों का दास बना ले। पनिहारी = पानी ढोने वाला सेवक।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! हे जगत के पिता! हे स्वामी! (मेरे पर मेहर कर) मैं (सदा) तेरा नाम जपता रहूँ। (मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, मुझे अपने दासों का दास बना ले, मुझे अपने दासों का पानी ढोने वाला सेवक बना ले।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन मति ऊतम तिन पति ऊतम जिन हिरदै वसिआ बनवारी ॥ तिन की सेवा लाइ हरि सुआमी तिन सिमरत गति होइ हमारी ॥२॥

मूलम्

तिन मति ऊतम तिन पति ऊतम जिन हिरदै वसिआ बनवारी ॥ तिन की सेवा लाइ हरि सुआमी तिन सिमरत गति होइ हमारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = इज्जत। जिन हिरदै = जिस के हृदय में। बनवारी = (सारी बनस्पति है माला जिसकी) परमात्मा। हरि सुआमी = हे हरि! हे स्वामी! लाइ = जोड़े रख। तिन सिमरत = उनको याद करने से।2।
अर्थ: हे भाई! जिस (गुरमुखों) के दिल में परमात्मा का नाम (सदा) बसता है, उनकी मति श्रेष्ठ होती है, उनको (लोक-परलोक में) उत्तम आदर मिलता है। हे हरि! हे स्वामी! मुझे उन (गुरमुखों की) सेवा में लगाए रख, उनको याद करने से मुझे उच्च आत्मिक अवस्था मिल सकती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते हरि दरगह काढे मारी ॥ ते नर निंदक सोभ न पावहि तिन नक काटे सिरजनहारी ॥३॥

मूलम्

जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते हरि दरगह काढे मारी ॥ ते नर निंदक सोभ न पावहि तिन नक काटे सिरजनहारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन = जिस (मनुष्यों) ने। ते = वह लोग। काढे मारी = मार के निकाले जाते हैं। सोभ = शोभा। सिरजनहारी = विधाता ने।3।
अर्थ: हे भाई! (जिस गुरु की शरण पड़ने से ऊँची आत्मिक अवस्था मिल जाती है) जिस मनुष्यों को ऐसा साधु गुरु नहीं मिला, वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में से धक्के मार के बाहर निकाल दिए जाते हैं। वह निंदक मनुष्य (कहीं भी) शोभा नहीं पाते। विधाता ने (स्वयं) उनका नाक-कान काट दिया हुआ है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि आपि बुलावै आपे बोलै हरि आपि निरंजनु निरंकारु निराहारी ॥ हरि जिसु तू मेलहि सो तुधु मिलसी जन नानक किआ एहि जंत विचारी ॥४॥२॥६॥

मूलम्

हरि आपि बुलावै आपे बोलै हरि आपि निरंजनु निरंकारु निराहारी ॥ हरि जिसु तू मेलहि सो तुधु मिलसी जन नानक किआ एहि जंत विचारी ॥४॥२॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंजनु = निर+अंजनु, माया के मोह की कालिख से रहित (अंजन = कालख)। निरंकारु = आकार रहित; जिसका कोई खास स्वरूप बताया नहीं जा सकता। निराहारी = निर+आहारी (आहर = खुराक) जिसको किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। हरि = हे हरि! तुधु = तुझे। एहि = यह, वे। विचारी = बेचारे, निमाणे।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) जो परमात्मा माया के प्रभाव से परे रहता है, जिस परमात्मा का कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, जिस परमात्मा को (जीवों की तरह) किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं, वह परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों को) बोलने की प्रेरणा देता है, वह परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में बैठा) बोलता है।
हे नानक! (कह:) हे हरि! जिस मनुष्य को तू (अपने साथ) मिलाता है, वही तुझे मिल सकता है। इन निमाणे जीवों के वश में कुछ नहीं है।4।2।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ४ ॥ सतसंगति साई हरि तेरी जितु हरि कीरति हरि सुनणे ॥ जिन हरि नामु सुणिआ मनु भीना तिन हम स्रेवह नित चरणे ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ४ ॥ सतसंगति साई हरि तेरी जितु हरि कीरति हरि सुनणे ॥ जिन हरि नामु सुणिआ मनु भीना तिन हम स्रेवह नित चरणे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साई = वही (स्त्रीलिंग)। जितु = जिस में। कीरति = महिमा। सुनणे = सुनी जाए। भीना = भीग गया। तिन चरणे = उनके चरण। हम स्रेवह = हम सेवहि, हम सेवा करें।1।
अर्थ: हे हरि! (वही एकत्रता) तेरी साधु-संगत (कहलवा सकती) है, जिसमें, हे हरि! तेरी महिमा (तेरी स्तुति) सुनी जाती है। हे भाई! (साधु-संगत में रह के) जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम सुना है (साधु-संगत में टिक के) जिनका मन (हरि-नाम-अमृत में) भीग गया है, मैं उनके चरणों की सेवा करनी (अपना) सौभाग्य समझता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगजीवनु हरि धिआइ तरणे ॥ अनेक असंख नाम हरि तेरे न जाही जिहवा इतु गनणे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जगजीवनु हरि धिआइ तरणे ॥ अनेक असंख नाम हरि तेरे न जाही जिहवा इतु गनणे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का आसरा प्रभु। धिआइ = स्मरण करके। तरणे = (संसार समुंदर से) पार लांघते हैं। असंख = अनगिनत (संख्या = गिनती)। हरि = हे हरि! जिहवा = जीभ। इतु = इससे। जिहवा इतु = इस जीभ से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभु को हरि को स्मरण करके संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है। हे हरि! (तेरी स्तुति से बने हुए) तेरे नाम अनेक हैं अनगिनत हैं, इस जीभ से गिने नहीं जा सकते।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरसिख हरि बोलहु हरि गावहु ले गुरमति हरि जपणे ॥ जो उपदेसु सुणे गुर केरा सो जनु पावै हरि सुख घणे ॥२॥

मूलम्

गुरसिख हरि बोलहु हरि गावहु ले गुरमति हरि जपणे ॥ जो उपदेसु सुणे गुर केरा सो जनु पावै हरि सुख घणे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरसिख = हे गुरु के सिखो! ले = ले कर। केरा = का। घणो = बहुत।2।
अर्थ: हे गुरु के सिखो! गुरु की शिक्षा ले के परमात्मा का नाम उचारा करो, परमात्मा की महिमा गाया करो, हरि का नाम जपा करो। हे गुरसिखो! जो मनुष्य गुरु का उपदेश (श्रद्धा से) सुनता है, वही हरि के दर से बहुत सुख प्राप्त करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धंनु सु वंसु धंनु सु पिता धंनु सु माता जिनि जन जणे ॥ जिन सासि गिरासि धिआइआ मेरा हरि हरि से साची दरगह हरि जन बणे ॥३॥

मूलम्

धंनु सु वंसु धंनु सु पिता धंनु सु माता जिनि जन जणे ॥ जिन सासि गिरासि धिआइआ मेरा हरि हरि से साची दरगह हरि जन बणे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनु = शोभा वाला। वंसु = कुल, खानदान। जिनि = जिस ने। जन = भक्त। जणे = पैदा हुए, जनम दिया। जिन = जिन्होंने। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ। से = वह (बहुवचन)। साची = सदा कायम रहने वाली। बणे = शोभा वाले हुए।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिन’ है ‘जिनि’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! भाग्यशाली है वह कुल, धन्य है वह पिता धन्य है वह माँ जिसने भक्त-जनों को जन्म दिया। हे भाई! जिस मनुष्यों ने अपने हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ परमात्मा का नाम स्मरण किया है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा की दरगाह में शोभा वाले बन जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि अगम नाम हरि तेरे विचि भगता हरि धरणे ॥ नानक जनि पाइआ मति गुरमति जपि हरि हरि पारि पवणे ॥४॥३॥७॥

मूलम्

हरि हरि अगम नाम हरि तेरे विचि भगता हरि धरणे ॥ नानक जनि पाइआ मति गुरमति जपि हरि हरि पारि पवणे ॥४॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। धरणे = रखे हुए हैं। जनि = जन ने, (जिस) सेवक ने। पारि पवणे = पार लांघ जाते हैं।4।
अर्थ: हे हरि! (तेरे बेअंत गुणों के कारण) तेरे बेअंत ही नाम हैं, तूने अपने वह नाम अपने भगतों के हृदय में टिकाए हुए हैं। हे नानक! जिस-जिस सेवक ने गुरु की मति पर चल के परमात्मा का नाम प्राप्त किया है, वह सदा नाम जप के संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।4।3।7।

[[1136]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगली थीति पासि डारि राखी ॥ असटम थीति गोविंद जनमा सी ॥१॥

मूलम्

सगली थीति पासि डारि राखी ॥ असटम थीति गोविंद जनमा सी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगली थीति = सारी तिथियां। थीति = (तिथि) चंद्रमा के हिसाब से गिने हुए दिन। अमावस्या से पूर्णमासी तक शुक्लपक्ष (सुदी), पूर्णमासी से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष (वदी)। महा पुरुषों के जन्मदिन आम तौर पर इन तिथियों के अनुसार गिने जाने की परंपरा बनी हुई है। कृष्ण जी का जन्म भाद्रों की अष्टमी है (भाद्रों की पूणमासी के पीछे आठवां दिन)। असटम = आठवां। गोविंद जनमासी = (कृष्ण रूप में) परमात्मा का जन्म।1।
अर्थ: हे भाई! (तेरी यह बात कच्ची है कि) परमात्मा ने और सारी तिथियां एक तरफ रख दीं, और (भाद्रों वदी) अष्टमी तिथि को उसने जनम ले लिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमि भूले नर करत कचराइण ॥ जनम मरण ते रहत नाराइण ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भरमि भूले नर करत कचराइण ॥ जनम मरण ते रहत नाराइण ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भुलेखे में। भूले नर = हे गलत रास्ते पर पड़े हुए मनुष्य। कचराइण = कच्ची बातें। ते = से। नाराइण = परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़े हुए हे मनुष्य! तू ये कच्ची बातें कर रहा है (कि परमात्मा ने भादरों वदी अष्टमी को कृष्ण-रूप में जन्म लिया)। परमात्मा जन्म-मरण से परे है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि पंजीरु खवाइओ चोर ॥ ओहु जनमि न मरै रे साकत ढोर ॥२॥

मूलम्

करि पंजीरु खवाइओ चोर ॥ ओहु जनमि न मरै रे साकत ढोर ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = बना के। चोर = चोरी चोरी, छुपा के। जनमि मरै = पैदा हो के नहीं मरता, ना पैदा होता है ना मरता है। रे साकत = हे ईश्वर से टूटे हुए! रे ढोर = हे महा मूर्ख!।2।
अर्थ: हे भाई! पंजीरी बना के तू छुपा के (अपनी ओर से परमात्मा को कृष्ण-मूर्ति के रूप में) खिलाता है। हे रब से टूटे हुए मूर्ख! परमात्मा ना पैदा होता है ना मरता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल पराध देहि लोरोनी ॥ सो मुखु जलउ जितु कहहि ठाकुरु जोनी ॥३॥

मूलम्

सगल पराध देहि लोरोनी ॥ सो मुखु जलउ जितु कहहि ठाकुरु जोनी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल पराध = सारे अपराधों (का मूल)। देहि = तू देता है। लोरोनी = लोरी। सो = वह। जलउ = जल जाए। जितु = जिस (मुँह) से। कहहि = तू कहता है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जलउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्न पुरख, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! तू (कृष्ण-मूर्ति को) लोरी देता है (अपनी ओर से परमात्मा को लोरी देता है, तेरा यह काम) सारे अपराधों (का मूल है)। जल जाए (तेरा) वह मुँह जिससे तू कहता है कि मालिक-प्रभु जूनियों में आता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमि न मरै न आवै न जाइ ॥ नानक का प्रभु रहिओ समाइ ॥४॥१॥

मूलम्

जनमि न मरै न आवै न जाइ ॥ नानक का प्रभु रहिओ समाइ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न आवै न जाइ = ना आता है ना जाता है। समाइ रहिओ = सब जगह व्यापक है।4।
अर्थ: हे भाई! नानक का परमात्मा सब जगह व्यापक है, वह ना पैदा होता है ना मरता है, ना आता है ना जाता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ ऊठत सुखीआ बैठत सुखीआ ॥ भउ नही लागै जां ऐसे बुझीआ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ ऊठत सुखीआ बैठत सुखीआ ॥ भउ नही लागै जां ऐसे बुझीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊठत बैठत = उठते बैठते हर वक्त। सुखीआ = आत्मिक आनंद में। भउ = (किसी किस्म का) डर। जां = जब। ऐसे = इस तरह। बुझीआ = (मनुष्य) समझता है।1।
अर्थ: हे भाई! जब कोई मनुष्य ऐसा समझ लेता है (कि परमात्मा ही सबका रखवाला है) तब उसको किसी किस्म का कोई (मौत आदि का) डर नहीं व्याप सकता; वह उठते-बैठते हर वक्त आत्मिक आनंद में रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखा एकु हमारा सुआमी ॥ सगल घटा का अंतरजामी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राखा एकु हमारा सुआमी ॥ सगल घटा का अंतरजामी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमारा = हम जीवों का। सुआमी = मालिक। घटा का = घटों का, शरीरों का। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हम जीवों का रखवाला एक मालिक-प्रभु ही है। हमारा वह मालिक सब जीवों के दिल की जानने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ अचिंता जागि अचिंता ॥ जहा कहां प्रभु तूं वरतंता ॥२॥

मूलम्

सोइ अचिंता जागि अचिंता ॥ जहा कहां प्रभु तूं वरतंता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोइ = सोता है। जाति = जागता है। अचिंता = चिन्ता रहत हो के। जहा कहां = जहाँ कहाँ, हर जगह। प्रभु तूं = तू ही प्रभु। वरतंता = मौजूद है।2।
अर्थ: हे भाई! (जब कोई मनुष्य यह समझ लेता है कि परमात्मा ही सब जीवों का रक्षक है, तब मनुष्य हर समय ये कहने लग जाता है कि हे स्वामी!) तू प्रभु ही हर जगह मौजूद है, तब वह मनुष्य निश्चिंत हो के सोता है निश्चिंत हो के जागता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरि सुखि वसिआ बाहरि सुखु पाइआ ॥ कहु नानक गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥३॥२॥

मूलम्

घरि सुखि वसिआ बाहरि सुखु पाइआ ॥ कहु नानक गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥३॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि = घर में। सुखि = आनंद में। बाहरि = घर से बाहर। सुखु = आनंद। कहु = कह। नानक = हे नानक! गुरि = गुरु ने। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया।3।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में (ये) उपदेश दृढ़ कर दिया (कि परमात्मा ही हम जीवों का रखवाला है,) वह मनुष्य अपने घर में (भी) सुखी बसता है, वह घर से बाहर (जा के) भी आनंद पाता है।3।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ वरत न रहउ न मह रमदाना ॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ वरत न रहउ न मह रमदाना ॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहउ = मैं रहता हूँ। मह रमदाना = माह रमज़ाना, रमज़ान का महीना (जब रोज़े रखे जाते हैं)। तिसु = उस प्रभु को। सेवी = मैं स्मरण करता हूँ। रखै = रक्षा करता है। निदाना = आखिर को।1।
अर्थ: हे भाई! ना मैं (हिन्दू के) व्रतों का आसरा लेता हूँ, ना मैं (मुसलमान के) रमज़ान के महीने (में रखे रोज़ों का)। मैं तो (सिर्फ) उस परमात्मा को स्मरण करता हूँ जो आख़ीर में रक्शा करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु गुसाई अलहु मेरा ॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

एकु गुसाई अलहु मेरा ॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुसाई = गो+साई, धरती का पति। अलहु = अल्ला (मुसलमानों का नाम परमात्मा के लिए)। दुहां निबेरा = दोनों से (संबंध) तोड़ लिए हैं, दोनों से समाप्त कर लिए हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन की अगुवाई के संबंध में) मैंने हिन्दू और मुसलमान दोनों से नाता खत्म कर लिया है। मेरा तो सिर्फ वह है (जिसको हिन्दू) गोसाई (कहता है और जिसको मुसलमान) अल्लाह (कहता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हज काबै जाउ न तीरथ पूजा ॥ एको सेवी अवरु न दूजा ॥२॥

मूलम्

हज काबै जाउ न तीरथ पूजा ॥ एको सेवी अवरु न दूजा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाउ न = मैं नहीं जाता। एको सेवी = एक परमात्मा को ही मैं स्मरण करता हूँ।2।
अर्थ: मैं ना तो (मुसलमानों की तरह) काबे का हज करने जाता हूँ, ना ही मैं (हिंदूओं की तरह) तीर्थों की यात्रा करने जाता हूँ। मैं तो (सिर्फ) परमात्मा को स्मरण करता हूँ, किसी और दूसरे को नहीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजा करउ न निवाज गुजारउ ॥ एक निरंकार ले रिदै नमसकारउ ॥३॥

मूलम्

पूजा करउ न निवाज गुजारउ ॥ एक निरंकार ले रिदै नमसकारउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ न = मैं नहीं करता। निवाज = नमाज़। न गुजारउ = मैं नहीं गुजारता, मैं (नमाज़) नहीं पढ़ता। लै = लेकर। रिदै = हृदय में। नमसकारउ = मैं सिर निवाता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! मैं ना (हिन्दुओं की तरह वेद-) पूजा करता हूँ, ना (मुसलमान की तरह) नमाज़ पढ़ता हूँ। लेकर मैं हृदय में प्रभु को मैं सिर निवाता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना हम हिंदू न मुसलमान ॥ अलह राम के पिंडु परान ॥४॥

मूलम्

ना हम हिंदू न मुसलमान ॥ अलह राम के पिंडु परान ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम। पिंड = शरीर। परान = प्राण, जिंद। के = दे (दिए हैं)।4।
अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन की अगुवाई के लिए) ना हम हिन्दू (के मुथाज) हैं, ना ही मुसलमान (के मुथाज) हैं। हमारे ये शरीर हमारे ये प्राण (उस परमात्मा) के दिए हुए हैं (जिसको मुसलमान) अल्लाह (कहता है, जिसको हिन्दू) राम (कहता है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर इहु कीआ वखाना ॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना ॥५॥३॥

मूलम्

कहु कबीर इहु कीआ वखाना ॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना ॥५॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहु = कह। कबीर = हे कबीर! गुर मिलि = गुरु को मिल के। पीर मिलि = पीर को मिल के। खुदि = अपना।5।
अर्थ: हे कबीर! कह: (हे भाई!) मैं तो ये बात खोल के बताता हूँ कि मैं अपने गुरु-पीर को मिल के अपने पति-प्रभु के साथ गहरी सांझ (नज़दीकी) बना रखी है।5।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द का शीर्षक है ‘महला ५’। पर आखिर में ‘नानक’ की जगह ‘कबीर’ है। इस का भाव यह है कि शब्द गुरु अरजन देव जी का अपना लिखा हुआ है, पर है यह कबीर जी के शब्द के प्रथाय। अब देखें इस राग में कबीर जी का शब्द नंबर 7। उसमें से नीचे लिखीं तुकें पढ़ के गुरु अरजन साहिब के इस शब्द से मिलाएं;
हमरा झगरा रहा न कोऊ॥ पंडित मुलां छाडे दोऊ॥१॥ रहाउ॥ पंडित मुलां जो लिखि दीआ॥ छाडि चले हम कछू न लीआ॥३॥
गुरु अरजन साहिब अपने शब्द में कबीर जी के दिए ख्याल की ही व्याख्या कर रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ दस मिरगी सहजे बंधि आनी ॥ पांच मिरग बेधे सिव की बानी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ दस मिरगी सहजे बंधि आनी ॥ पांच मिरग बेधे सिव की बानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिरगी = हिरनियां। दस मिरगी = दस हिरनियां, दस इंद्रिय। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। बंधि = बांध के। आनी = ले आए। पांच मिरग = (कामादिक) पाँच हिरन। बेधे = भेद डाले, बध कर दिया। सिव के बानी = शिव के तीरों से, अचूक निशाने वाले तीरों से, गुरु की वाणी से।1।
अर्थ: हे भाई! (संत जनों की सहायता से, साधु-संगत की इनायत से) आत्मिक अडोलता में टिक के मैं दसों हिरनों (इन्द्रियों) को बाँध के ले आया (वश में कर लिया)। अचूक निशाने वाले गुरु-शब्द के तीरों से मैंने पाँच (कामादिक) हिरन (भी) भेद लिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतसंगि ले चड़िओ सिकार ॥ म्रिग पकरे बिनु घोर हथीआर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतसंगि ले चड़िओ सिकार ॥ म्रिग पकरे बिनु घोर हथीआर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत संगि ले = संत जनों को (अपने) साथ ले के, साधु-संगत में टिक के। चढ़िओ सिकार = शिकार खेलने के लिए निकल पड़ा, कामादिक हिरनों को पकड़ने की तैयारी कर ली। म्रिग पकरे = (पाँचों कामादिक) हिरन काबू कर लिए। घोर = घोड़े।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संत जनों को साथ ले के मैं शिकार खेलने निकल पड़ा (साधु-संगत में टिक के मैं कामादिक हिरनों को पकड़ने की तैयारी कर ली)। बिनां घोड़ों के बिना हथियारों के (वह कामादिक) हिरन मैंने पकड़ लिए (वश में कर लिए)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आखेर बिरति बाहरि आइओ धाइ ॥ अहेरा पाइओ घर कै गांइ ॥२॥

मूलम्

आखेर बिरति बाहरि आइओ धाइ ॥ अहेरा पाइओ घर कै गांइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखेर = आखेट (hunting) शिकार खेलना। बिरति = (वृक्ति = Profession) व्यवसाय, स्वभाव। आखेर बिरति = (आखेट वृक्ति = Profession of hunting) (विषौ-विकारों का) शिकार खेलने का स्वभाव। धाइ = दौड़ के। अहेरा = शिकार, जिसको पकड़ना था वह (मन)। कै गांइ = के गाँव में। घर कै गांइ = शरीर घर के गाँव में, शरीर के अंदर ही।2।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत की इनायत से, संतजनों की सहायता से) विषौ-विकारों का शिकार खेलने वाला स्वभाव (रुचि मेरे अंदर से) दौड़ के बाहर निकल गई। (जिस मन को पकड़ना था वह मन-) शिकार मुझे अपने शरीर के अंदर ही मिल गया (और, मैं उसको काबू कर लिया)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रिग पकरे घरि आणे हाटि ॥ चुख चुख ले गए बांढे बाटि ॥३॥

मूलम्

म्रिग पकरे घरि आणे हाटि ॥ चुख चुख ले गए बांढे बाटि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिग = (कामादिक पाँचों) हिरन। घरि = घर में। घरि आणे = घर ले आए। हाटि आणे = हट्टी में ले आए, वश में कर लिए। चुख = चुख = रक्ती रक्ती कर के। ले गए = (संत जन) ले गए। बांढे बाटि = बेगाने रास्ते में, बेगाने गाँव में (मेरे अंदर से निकाल के) और जगह (ले गए), (मेरे अंदर से संत जनों ने) उन्हें बिल्कुल ही निकाल दिया।3।
अर्थ: हे भाई! (पाँचों) हिरनों को पकड़ कर अपने घर ले आया, अपनी दुकान में ले आया। (संत जन उनको) रक्ती-रक्ती कर के (मेरे अंदर से) दूर जगह ले गए (मेरे अंदर से संत जनों ने पाँचों धार्मिक हिरनों को बिल्कुल ही निकाल दिया)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहु अहेरा कीनो दानु ॥ नानक कै घरि केवल नामु ॥४॥४॥

मूलम्

एहु अहेरा कीनो दानु ॥ नानक कै घरि केवल नामु ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहेरा = शिकार, जिस (मन) को पकड़ना था वह। कै घरि = के घर में, के हृदय में।4।
अर्थ: हे भाई! संत जनों ने ये पकड़ा हुआ शिकार (ये वश में किया हुआ मेरा मन) मुझे बख्शिश के तौर पर दे दिया। अब मुझ नानक के हृदय में सिर्फ परमात्मा का नाम ही नाम है (मन वश में आ गया है, और कामादिक भी अपना जोर नहीं डाल सकते)।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ जे सउ लोचि लोचि खावाइआ ॥ साकत हरि हरि चीति न आइआ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ जे सउ लोचि लोचि खावाइआ ॥ साकत हरि हरि चीति न आइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सउ = सौ बार। लोचि = लोच के, तमन्ना से। लोचि लोचि = बड़ी तमन्ना से। जे खावाइआ = अगर (नाम भोजन) खिलाया जाए। साकत चीति = साकत के चिक्त में। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य को अगर सौ बार भी बड़ी तमन्ना से (उसका आत्मिक जीवन कायम रखने के लिए नाम-) भोजन खिलाने का प्रयत्न किया जाए, तो भी उसके चिक्त में परमात्मा का नाम (-भोजन) टिक नहीं सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना की लेहु मते ॥ साधसंगि पावहु परम गते ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संत जना की लेहु मते ॥ साधसंगि पावहु परम गते ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मते = मति, शिक्षा। साध संगि = साधु-संगत में। परम गते = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के चरणों से टूटे हुए बंदों की संगति करने की जगह) संतजनों से (सही जीवन-जुगति की) शिक्षा लिया करो। संत जनों की संगति में (रह के) तुम सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लोगे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाथर कउ बहु नीरु पवाइआ ॥ नह भीगै अधिक सूकाइआ ॥२॥

मूलम्

पाथर कउ बहु नीरु पवाइआ ॥ नह भीगै अधिक सूकाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। नीरु = पानी। भीगै = भीगता। अधिक = बहुत।2।
अर्थ: हे भाई! अगर किसी पत्थर पर बहुत सारा पानी फेंका जाए, (तो भी वह पत्थर अंदर से) भीगता नहीं, (अंदर से वह) बिल्कुल सूखा ही रहता है (यही हाल है साकत का)।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

खटु सासत्र मूरखै सुनाइआ ॥ जैसे दह दिस पवनु झुलाइआ ॥३॥

मूलम्

खटु सासत्र मूरखै सुनाइआ ॥ जैसे दह दिस पवनु झुलाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खटु = छह। मूरखै = मूर्ख को। दह दिस = दसों तरफ। दिस = दिशा। पवनु = हवा।3।
अर्थ: हे भाई! अगर किसी अनपढ़ मूर्ख को छह शास्त्र सुनाए जाएं (वह अनपढ़ बेचारा क्या समझे उन शास्त्रों को? उसके जानिब तो यूं है) जैसे उसके (चारों तरफ) दसों दिशाओं में (सिर्फ) हवा ही चल रही है (यही हाल है साकत का)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु कण खलहानु जैसे गाहन पाइआ ॥ तिउ साकत ते को न बरासाइआ ॥४॥

मूलम्

बिनु कण खलहानु जैसे गाहन पाइआ ॥ तिउ साकत ते को न बरासाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कण = अन्न के दाने। खलहानु = खलिहान, अन्न गाहने की जगह। गाहन पाइआ = गाहा जाए। ते = से। को = कोई भी मनुष्य। बरासाइआ = लाभ उठा सकता।4।
अर्थ: हे भाई! जैसे अन्न के दानों के बिना कोई खलिहान गाहा जाए (तो उसमें से दानों का बोहल नहीं बनेगा), वैसे ही परमात्मा के चरणों से टूटे हुए मनुष्य से कोई मनुष्य आत्मिक जीवन की खुराक प्राप्त नहीं कर सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तित ही लागा जितु को लाइआ ॥ कहु नानक प्रभि बणत बणाइआ ॥५॥५॥

मूलम्

तित ही लागा जितु को लाइआ ॥ कहु नानक प्रभि बणत बणाइआ ॥५॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तित ही = उस (काम) में ही। जितु = जिस (काम) में। को = कोई मनुष्य। नानक = हे नानक! प्रभि = प्रभु ने। बणत = मर्यादा।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तित ही’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण शब्द ‘तितु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर, हे भाई! (साकत के भी क्या वश?) हर कोई उस (काम) में ही लगता है जिसमें (परमात्मा द्वारा) वह लगाया जाता है। हे नानक! कह: (कोई साकत है और कोई संत है; यह) खेल प्रभु ने स्वयं ही बनाई हुई है।5।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ जीउ प्राण जिनि रचिओ सरीर ॥ जिनहि उपाए तिस कउ पीर ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ जीउ प्राण जिनि रचिओ सरीर ॥ जिनहि उपाए तिस कउ पीर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। रचिओ = बनाया है। जिनहि = जिन्होंने ही। पीर = पीड़ा, दर्द, स्नेह।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनहि’ में से ‘जिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘तिस कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) ने जिंद-प्राण (दे के जीवों के) शरीर रचे हैं, हे भाई! जिस परमात्मा ने जीव पैदा किए हैं, उसको ही (जीवों का) दर्द है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु गोबिंदु जीअ कै काम ॥ हलति पलति जा की सद छाम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरु गोबिंदु जीअ कै काम ॥ हलति पलति जा की सद छाम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ कै काम = जिंद के काम, जिंद के वास्ते लाभदायक। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। जा की = जिस (परमात्मा) की। सद = सदा। छाम = छाया, शाम, आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) का जिस (गोबिंद) का इस लोक में और परलोक में सदा (मनुष्य को) आसरा है, वह गुरु (ही) वह गोबिंद (ही) जिंद की सहायता करने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु आराधन निरमल रीति ॥ साधसंगि बिनसी बिपरीति ॥२॥

मूलम्

प्रभु आराधन निरमल रीति ॥ साधसंगि बिनसी बिपरीति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रीति = जीव मर्यादा, जीवन जुगति। निरमल = पवित्र। संगि = संगति में। बिनसी = नाश हो जाती है। बिपरीति = (स्मरण से) उलटी जीवन जुगति।2।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का स्मरणा ही पवित्र जीवन-जुगति है (ये जीवन-जुगति साधु-संगत में प्राप्त होती है)। हे भाई! साधु-संगत में रहके (स्मरण से) उल्टी जीवन-जुगति नाश हो जाती है (भाव, स्मरण ना करने की बुरी वादी खत्म हो जाती है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मीत हीत धनु नह पारणा ॥ धंनि धंनि मेरे नाराइणा ॥३॥

मूलम्

मीत हीत धनु नह पारणा ॥ धंनि धंनि मेरे नाराइणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीत = हितु, स्नेही। पारणा = परना, आसरा। धंनि = सलाहने योग्य। नाराइणा = हें नारायण! हे परमात्मा!।3।
अर्थ: हे भाई! मित्र, हितैषी, धन- यह (मनुष्य की जिंद का) सहारा नहीं हैं। हे मेरे परमात्मा! (तू ही हम जीवों का आसरा है) तू ही सलाहनेयोग्य है, तू ही सराहनीय है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ एक बिना दूजा नही जाणी ॥४॥६॥

मूलम्

नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ एक बिना दूजा नही जाणी ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानकु बोलै = नानक बोलता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। जाणी = जाणि।4।
अर्थ: हे भाई! नानक आत्मिक जीवन देने वाला (यह) वचन कहता है कि एक परमात्मा के बिना किसी और को (जिंदगी का सहारा) ना समझना।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ आगै दयु पाछै नाराइण ॥ मधि भागि हरि प्रेम रसाइण ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ आगै दयु पाछै नाराइण ॥ मधि भागि हरि प्रेम रसाइण ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले समय में। पाछै = पीछे बीत चुके समय में। दयु = (दय्, to love, feel pity) तरस करने वाला प्रभु। मधि भागि = बीच के हिस्से में, अब ही। रसाइण = सारे रसों का घर, सारे सुख देने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! आगे आने वाले समय में परमात्मा ही (हम जीवों पर) तरस करने वाला है, बीत चुके समय में भी परमात्मा ही (हमारा रखवाला था)। अब भी सारे सुखों का दाता प्रभु ही (हमारे साथ) प्यार करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभू हमारै सासत्र सउण ॥ सूख सहज आनंद ग्रिह भउण ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभू हमारै सासत्र सउण ॥ सूख सहज आनंद ग्रिह भउण ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमारै = हमारे लिए। सउण = शगन, अच्छा महूरत। सासत्र सउण = शगन बताने वाला शास्त्र। भउण = भवन, घर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रभु का नाम ही हमारे लिए अच्छा महूरत बताने वाला शास्त्र है (जिसके हृदय में प्रभु का नाम बसता है, उस) हृदय-घर में सदा आत्मिक अडोलता के सुख हैं आनंद हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना नामु करन सुणि जीवे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि अमर थिरु थीवे ॥२॥

मूलम्

रसना नामु करन सुणि जीवे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि अमर थिरु थीवे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। करन = कानों से। सुणि = सुन के। जीवे = आत्मिक जीवन हासिल कर गए। सिमरि सिमरि = सदा स्मरण करके। अमर = अ+मर, आत्मिक मौत से बचे हुए। थिरु = (विकारों से) अडोल चिक्त। थीवे = हो गए।2।
अर्थ: हे भाई! जीभ से नाम (जप के), कानों से (नाम) सुन के (अनेक ही जीव) आत्मिक जीवन प्राप्त कर गए। परमात्मा का नाम सदा स्मरण करके (अनेक जीव) आत्मिक मौत से बच गए, (विकारों के मुकाबले पर) अडोल-चिक्त बने रहे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जनम के दूख निवारे ॥ अनहद सबद वजे दरबारे ॥३॥

मूलम्

जनम जनम के दूख निवारे ॥ अनहद सबद वजे दरबारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवारे = दूर कर लिए। अनहद = (अनाहत् = अन+आहत) बिना बजाए, एक रस। सबद = (पाँचों किस्मों के साजों के) आवाज़। दरबारे = दरबार में, हृदय में।3।
अर्थ: हे भाई! (जिन्होंने परमात्मा के नाम को जीवन का आसरा बनाया, उन्होंने अपने) अनेक ही जन्मों के दुख-पाप दूर कर लिए, उनके हृदय-दरबार में यूँ एक-रस आनंद बन गया जैसे पाँचों ही किस्मों के साज़ बजने से संगीतक रस बनता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा प्रभि लीए मिलाए ॥ नानक प्रभ सरणागति आए ॥४॥७॥

मूलम्

करि किरपा प्रभि लीए मिलाए ॥ नानक प्रभ सरणागति आए ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य शगन आदि के भ्रम छोड़ के सीधे) परमात्मा की शरण आ पड़े, परमात्मा ने कृपा करके उनको अपने चरणों में जोड़ लिया।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ कोटि मनोरथ आवहि हाथ ॥ जम मारग कै संगी पांथ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ कोटि मनोरथ आवहि हाथ ॥ जम मारग कै संगी पांथ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मनोरथ = मन के रथ, मन की माँगें। आवहि हाथ = हाथों में आ जाते हैं, मिल जाते हैं। पांथ = पंध में साथ देने वाला (पंथ = रास्ता, पंध = यात्रा)। संगी = साथी। जम मारग कै = मौत के रास्ते पर, मरने के बाद।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य नाम जपता है उसके) मन की करोड़ों माँगें पूरी हो जाती हैं। मरने के बाद भी यह नाम ही उसका साथी बनता है सहायक बनता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गंगा जलु गुर गोबिंद नाम ॥ जो सिमरै तिस की गति होवै पीवत बहुड़ि न जोनि भ्रमाम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गंगा जलु गुर गोबिंद नाम ॥ जो सिमरै तिस की गति होवै पीवत बहुड़ि न जोनि भ्रमाम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोबिंद नाम = परमात्मा का नाम। जो = जो मनुष्य। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था, मुक्ति। बहुड़ि = फिर। भ्रमाम = भटकना।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु गोबिंद का नाम (ही असल) गंगा-जल है। जो मनुष्य (गोबिंद का नाम) स्मरण करता है, उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है, जो (इस नाम गंगा-जल को) पीता है दोबारा जूनियों में नहीं भटकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजा जाप ताप इसनान ॥ सिमरत नाम भए निहकाम ॥२॥

मूलम्

पूजा जाप ताप इसनान ॥ सिमरत नाम भए निहकाम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहकाम = वासना रहित।2।
अर्थ: हे भाई! हरि-नाम ही (देव-) पूजा है, नाम ही जप-तप है, नाम ही तीर्थ-स्नान है। नाम स्मरण करने से (स्मरण करने वाले) दुनियावी वासनाओं से रहत हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज माल सादन दरबार ॥ सिमरत नाम पूरन आचार ॥३॥

मूलम्

राज माल सादन दरबार ॥ सिमरत नाम पूरन आचार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सादन = (सदन) घर। पूरन आचार = स्वच्छ आचरण।3।
अर्थ: हे भाई! राज, माल, महल-माढ़ियां, दरबार लगाने (जो सुख इनमें हैं, नाम-स्मरण वालों को वह सुख नाम-स्मरण से प्राप्त होते हैं)। हे भाई! हरि-नाम स्मरण करते हुए मनुष्य का आचरण स्वच्छ बन जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक दास इहु कीआ बीचारु ॥ बिनु हरि नाम मिथिआ सभ छारु ॥४॥८॥

मूलम्

नानक दास इहु कीआ बीचारु ॥ बिनु हरि नाम मिथिआ सभ छारु ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दास = दासों ने। मिथिआ = नाशवान। छारु = राख (के तूल्य)।4।
अर्थ: हे नानक! प्रभु के सेवकों ने यह निष्चय किया होता है कि परमात्मा के नाम के बिना और सारी (माया) नाशवान है राख (के तुल्य) है।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ लेपु न लागो तिल का मूलि ॥ दुसटु ब्राहमणु मूआ होइ कै सूल ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ लेपु न लागो तिल का मूलि ॥ दुसटु ब्राहमणु मूआ होइ कै सूल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लेपु = बुरा असर। तिल का = तिल जितना भी, रक्ती भर भी। न मूलि = बिल्कुल नहीं। दुसटु = पापी, बुरा चंदरा।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की मेहर से अपने सेवक पर हुई है, बालक (गुरु) हरि गोबिंद पर दुष्ट की बुरी करतूत का) बिल्कुल भी बुरा असर नहीं हो सका (पर गुरु के प्रताप से वह) दुष्ट ब्राहमण (पेट में) शूल उठने के कारण मर गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन राखे पारब्रहमि आपि ॥ पापी मूआ गुर परतापि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जन राखे पारब्रहमि आपि ॥ पापी मूआ गुर परतापि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त, परमात्मा के सेवक। पारब्रहमि = परमात्मा ने। गुर परतापि = गुरु के प्रताप से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने अपने सेवकों की रक्षा (सदा ही) स्वयं की है। (देखो, विश्वासघाती ब्राहमण) दुष्ट गुरु के प्रताप से (स्वयं ही) मर गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपणा खसमु जनि आपि धिआइआ ॥ इआणा पापी ओहु आपि पचाइआ ॥२॥

मूलम्

अपणा खसमु जनि आपि धिआइआ ॥ इआणा पापी ओहु आपि पचाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनि = जन ने, सेवक ने। इआणा = मूर्ख। पचाइआ = जलाया, नाश किया।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने अपने सेवकों की स्वयं रक्षा की है, क्योंकि) सेवक ने अपने मालिक-प्रभु को सदा अपने हृदय में बसाया है। वह बेसमझ दुष्ट (इस ईश्वरीय भेद को समझ ना सका, और परमात्मा ने) स्वयं ही उसको मार डाला।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ मात पिता अपणे दास का रखवाला ॥ निंदक का माथा ईहां ऊहा काला ॥३॥

मूलम्

प्रभ मात पिता अपणे दास का रखवाला ॥ निंदक का माथा ईहां ऊहा काला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईहां ऊहा = इस लोक में और परलोक में। माथा काला = मुँह काला।3।
अर्थ: हे भाई! माता-पिता (की तरह) प्रभु अपने सेवक का सदा स्वयं ही रखवाला बनता है (तभी प्रभु के सेवक के) दुखदाई का मुँह लोक-परलोक दोनों जहानों में काला होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन नानक की परमेसरि सुणी अरदासि ॥ मलेछु पापी पचिआ भइआ निरासु ॥४॥९॥

मूलम्

जन नानक की परमेसरि सुणी अरदासि ॥ मलेछु पापी पचिआ भइआ निरासु ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। मलेछु = बुरी नीयत वाला। पचिआ = मारा। निरासु = जिसकी आशा पूरी नहीं हो सकी।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) अपने सेवक की परमेश्वर ने (अरदास) सुनी है (देखो, परमेश्वर के सेवक पर वार करने वाला) दुष्ट पापी (खुद ही) मर गया, और बेमुराद ही रहा।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ खूबु खूबु खूबु खूबु खूबु तेरो नामु ॥ झूठु झूठु झूठु झूठु दुनी गुमानु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ खूबु खूबु खूबु खूबु खूबु तेरो नामु ॥ झूठु झूठु झूठु झूठु दुनी गुमानु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खूबु = सुंदर, अच्छा, मीठा। झूठु = जल्दी खत्म हो जाना। दुनी = दुनिया का। गुमानु = माण, घमण्ड।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम सोहाना है, तेरा नाम मीठा है, तेरा नाम अच्छा है। (पर हे भाई!) दुनिया का मान झूठ है, जल्दी खत्म हो जाने वाला है, दुनिया के माण का क्या भरोसा?।1। रहाउ।

[[1138]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नगज तेरे बंदे दीदारु अपारु ॥ नाम बिना सभ दुनीआ छारु ॥१॥

मूलम्

नगज तेरे बंदे दीदारु अपारु ॥ नाम बिना सभ दुनीआ छारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नगज = नगज़, सुंदर, सोहाने। अपारु = बेअंत (सुंदर)। सभ = सारी। छारु = राख (के तूल्य)।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी भक्ति करने वाले बंदे सुंदर हैं, उनका दर्शन बेअंत (अमूल्य) है। हे प्रभु! तेरे नाम के बिना (जीव के लिए) सारी दुनिया (का धन-पदार्थ) राख (के तुल्य) है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचरजु तेरी कुदरति तेरे कदम सलाह ॥ गनीव तेरी सिफति सचे पातिसाह ॥२॥

मूलम्

अचरजु तेरी कुदरति तेरे कदम सलाह ॥ गनीव तेरी सिफति सचे पातिसाह ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचरजु = हैरान करने वाला काम। कदम = चरण। सलाह = सराहनीय। गनीव = ग़नीमत, अमूल्य। सचे = हे सदा कायम रहने वाले!।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी रची कुदरति एक हैरान करने वाला तमाशा है, तेरे चरण सराहनीय हैं। हे सदा कायम रहने वाले पातशाह! तेरी महिमा (एक) अमूल्य (खजाना) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीधरिआ धर पनह खुदाइ ॥ गरीब निवाजु दिनु रैणि धिआइ ॥३॥

मूलम्

नीधरिआ धर पनह खुदाइ ॥ गरीब निवाजु दिनु रैणि धिआइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीधरिआ धर = निआसरों का आसरा। पनह = पनाह, ओट। खुदाइ = परमात्मा। गरीब निवाजु = गरीबों पर मेहर करने वाला। रैणि = रात। धिआइ = स्मरण किया कर।3।
अर्थ: हे भाई! दिन-रात उस परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, वह निआसरों का आसरा है (निओटों की) ओट है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक कउ खुदि खसम मिहरवान ॥ अलहु न विसरै दिल जीअ परान ॥४॥१०॥

मूलम्

नानक कउ खुदि खसम मिहरवान ॥ अलहु न विसरै दिल जीअ परान ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक कउ = हे नानक! जिस कउ = हे नानक! जिस मनुष्य पर। खुदि = खुद, स्वयं। अलहु = अल्लाह, परमात्मा। जीअ = जिंद से।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर मालिक-प्रभु स्वयं दयावान होता है, उसकी जिंद से, उसके दिल से, उसके प्राणों से वह कभी नहीं बिसरता।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ साच पदारथु गुरमुखि लहहु ॥ प्रभ का भाणा सति करि सहहु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ साच पदारथु गुरमुखि लहहु ॥ प्रभ का भाणा सति करि सहहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साच = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। लहहु = ढूँढ लो। भाणा = रज़ा, वह बात जो प्रभु को अच्छी लगती है। सति करि = सही जान के, अपने भले के लिए समझ के। सहहु = सहो।1।
अर्थ: हे भाई! (यह) सदा कायम रहने वाला (हरि-नाम) धन गुरु की शरण पड़ कर हासिल करो। परमात्मा द्वारा बरती हुई रज़ा को (अपने) भले के लिए जान के सहो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवत जीवत जीवत रहहु ॥ राम रसाइणु नित उठि पीवहु ॥ हरि हरि हरि हरि रसना कहहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जीवत जीवत जीवत रहहु ॥ राम रसाइणु नित उठि पीवहु ॥ हरि हरि हरि हरि रसना कहहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवत जीवत जीवत = सदा ही आत्मिक जीवन वाले। रसाइणु = रस+आयन, रसों का घर? सबसे श्रेष्ठ रस। नित उठि = सदा उठ के, सदा प्रयास करके। रसना = जीभ से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम अपनी जीभ सें उचारते रहो। हे भाई! सदा ही प्रयत्न करके सब रसों से श्रेष्ठ नाम-रस पीते रहो, (इस तरह) सदा आत्मिक जीवन वाले बने रहो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिजुग महि इक नामि उधारु ॥ नानकु बोलै ब्रहम बीचारु ॥२॥११॥

मूलम्

कलिजुग महि इक नामि उधारु ॥ नानकु बोलै ब्रहम बीचारु ॥२॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलिजुग महि = कलियुग में, जगत में।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: यहाँ युगों के भेद का वर्णन नहीं चल रहां साधारण तौर पर वह नाम बरता है जो हिन्दू जनता में आम प्रचलित है)।

दर्पण-भाषार्थ

नामि = नाम से। उधारु = संसार समुंदर से पार उतारा। ब्रहम बीचारु = परमात्मा के मिलाप की सोच।2।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ हरि-नाम से ही जगत में संसार-समुंदर से पार-उतारा होता है, नानक (तुम्हें) परमात्मा के साथ मिलाप की (यही) जुगति बताता है।2।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरु सेवि सरब फल पाए ॥ जनम जनम की मैलु मिटाए ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरु सेवि सरब फल पाए ॥ जनम जनम की मैलु मिटाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवि = सेव के, शरण पड़ के। सरब फल = सारे फल (देने वाला हरि नाम)। पाए = हासल कर लेता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जिसको गुरु मिल जाता है, वह) गुरु की शरण पड़ कर सारे फल (देने वाला हरि-नाम) प्राप्त कर लेता है (और, इस तरह) जन्मों-जन्मों के विकारों की मैल दूर कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित पावन प्रभ तेरो नाउ ॥ पूरबि करम लिखे गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पतित पावन प्रभ तेरो नाउ ॥ पूरबि करम लिखे गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित पावन = (विकारों में) गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। प्रभ = हे प्रभु! गुण गाउ = गुणों का गाना। पूरबि = पिछले जनम में। करम लिखे = किए कर्मों के लिखे संस्कारों के अनुसार।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है। पर तेरे गुण गाने की दाति उसी को मिलती है जिसने पूर्बले जनम में किए कर्मों के अनुसार (गुरु की प्राप्ति उसके भाग्यों में) लिखी है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू संगि होवै उधारु ॥ सोभा पावै प्रभ कै दुआर ॥२॥

मूलम्

साधू संगि होवै उधारु ॥ सोभा पावै प्रभ कै दुआर ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। उधारु = पार उतारा। प्रभ कै दुआर = प्रभु के दर से।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में रहने से संसार-समुंदर से पार-उतारा हो जाता है, (जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह) परमात्मा के दर पर शोभा कमाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब कलिआण चरण प्रभ सेवा ॥ धूरि बाछहि सभि सुरि नर देवा ॥३॥

मूलम्

सरब कलिआण चरण प्रभ सेवा ॥ धूरि बाछहि सभि सुरि नर देवा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब कलिआण = सारे सुख। बाछहि = लोचते हैं। सभि = सारे। सुरि नर = दैवी गुणों वाले मनुष्य।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के चरणों की सेवा-भक्ति से सारे सुख प्राप्त होते हैं, (जो मनुष्य प्रभु के चरणों में शरण लेता है) उसके चरणों की धूल सारे देवता-गण सारे दैवी-गुणों वाले मनुष्य लोचते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक पाइआ नाम निधानु ॥ हरि जपि जपि उधरिआ सगल जहानु ॥४॥१२॥

मूलम्

नानक पाइआ नाम निधानु ॥ हरि जपि जपि उधरिआ सगल जहानु ॥४॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। जपि जपि = हर वक्त जप के। उधारिआ = पार लांघ गया।4।
अर्थ: हे नानक! (गुरु की शरण में रह के) नाम-खजाना मिल जाता है। (गुरु की संगति में) हरि-नाम जप-जप के सारा जगत संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।4।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ अपणे दास कउ कंठि लगावै ॥ निंदक कउ अगनि महि पावै ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ अपणे दास कउ कंठि लगावै ॥ निंदक कउ अगनि महि पावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। कंठि = गले से। अगनि महि = (निंदा की) आग में (निंदा करते वक्त निंदक के अपने अंदर ईष्या की आग जल रही होती है)। पावै = डालता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक को (सदा अपने) गले से लगाए रखता है, और (अपने सेवक के) दुखदाई को (ईष्या की भीतर-भीतर से ही धुख रही) आग में डाले रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापी ते राखे नाराइण ॥ पापी की गति कतहू नाही पापी पचिआ आप कमाइण ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पापी ते राखे नाराइण ॥ पापी की गति कतहू नाही पापी पचिआ आप कमाइण ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। राखे = रक्षा करता है। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। कतहू = कहीं भी। पचिआ = जला रहता है, अंदर-अंदर से जला बुझा रहता है। आप कमाइणु = निंदा ईष्या के अपने कमाए कर्मों के कारण।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! निंदक-दुखदाई से परमात्मा (अपने सेवक को सदा स्वयं) बचाता है। निंदक-दुखदाई की आत्मिक अवस्था कभी भी ऊँची नहीं हो सकती, (क्योंकि) निंदक-दुखदाई अपने कमाए कर्मों के अनुसार (सदा निंदा-ईष्या की आग में अंदर-अंदर से) जलता रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दास राम जीउ लागी प्रीति ॥ निंदक की होई बिपरीति ॥२॥

मूलम्

दास राम जीउ लागी प्रीति ॥ निंदक की होई बिपरीति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिपरीति = उल्टी तरफ की प्रीति, बुरे कामों से प्यार।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक की परमात्मा के साथ प्रीति बनी रहती है, पर सेवक के दुखदाई का (निंदा-ईष्या आदि) बुरे कामों से प्यार बना रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमि अपणा बिरदु प्रगटाइआ ॥ दोखी अपणा कीता पाइआ ॥३॥

मूलम्

पारब्रहमि अपणा बिरदु प्रगटाइआ ॥ दोखी अपणा कीता पाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहमि = परमात्मा ने। बिरदु = आदि कदीमी स्वभाव। दोखी = निंदक।3।
अर्थ: हे भाई! (सदा ही) परमात्मा ने (अपने सेवक की इज्जत रख कर) अपना मूल कदीमी का (यह) स्वभाव (बिरद) (जगत में) प्रकट किया है, (सेवक के) निंदक-दुखदाई ने (भी सदा) अपने किए बुरे कर्मों का फल भुगता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइ न जाई रहिआ समाई ॥ नानक दास हरि की सरणाई ॥४॥१३॥

मूलम्

आइ न जाई रहिआ समाई ॥ नानक दास हरि की सरणाई ॥४॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आइ न जाई = जो प्रभु ना पैदा होता है ना मरता है। रहिआ समाई = जो प्रभु हर जगह व्यापक है। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! जो परमात्मा ना पैदा होता है ना मरता है जो परमात्मा सब जगह व्यापक है, उसके दास (सदा ही) उसकी शरण में पड़े रहते हैं।4।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु भैरउ महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु भैरउ महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रीधर मोहन सगल उपावन निरंकार सुखदाता ॥ ऐसा प्रभु छोडि करहि अन सेवा कवन बिखिआ रस माता ॥१॥

मूलम्

स्रीधर मोहन सगल उपावन निरंकार सुखदाता ॥ ऐसा प्रभु छोडि करहि अन सेवा कवन बिखिआ रस माता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्री = श्री, लक्ष्मी। स्रीधर = श्री धर, लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा। सगल उपावन = सबको पैदा करने वाला। निरंकार = वह जिसका कोई खास स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। छोडि = छोड़ के। करहि = तू करता है। अन सेवा = (अन्य) किसी और की सेवा भक्ति। बिखिआ = माया। कवन रस = कौन से रसों में? कौन से स्वादों में। माता = मस्त।1।
अर्थ: हे मन! जो सुंदर प्रभु! लक्ष्मी का आसरा है, जो आकार-रहित प्रभूसबको पैदा करने वाला है, जो सारे सुख देने वाला है, उसको छोड़ के तू और-और की सेवा-पूजा करता है, तू माया के बुरे स्वादों में मस्त है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे मन मेरे तू गोविद भाजु ॥ अवर उपाव सगल मै देखे जो चितवीऐ तितु बिगरसि काजु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रे मन मेरे तू गोविद भाजु ॥ अवर उपाव सगल मै देखे जो चितवीऐ तितु बिगरसि काजु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाजु = भज, जपा कर। उपाव = उपाय। जो = जो भी उपाय। चितवीऐ = सोचा जाता है। तितु = उस (उपाय) से। बिगरसि = बिगड़ जाता है।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! तू (सदा) परमात्मा का नाम जपा कर। (स्मरण के बिना) और सारे उपाय (करते लोग) मैंने देखे हैं (यही) नतीजा निकलता देखा है (कि) और जो भी उपाय सोचा जाता है उस (तरीके) से (आत्मिक जीवन का) काम (बल्कि) बिगड़ता (ही) है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाकुरु छोडि दासी कउ सिमरहि मनमुख अंध अगिआना ॥ हरि की भगति करहि तिन निंदहि निगुरे पसू समाना ॥२॥

मूलम्

ठाकुरु छोडि दासी कउ सिमरहि मनमुख अंध अगिआना ॥ हरि की भगति करहि तिन निंदहि निगुरे पसू समाना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दासी कउ = माया दासी को। सिमरहि = स्मरण करते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंध = माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य। अगिआना = आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित। तिन = उनको। पसू समाना = पशुओं के समान जीवन वाले।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य, माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य, आत्मिक जीवन की सूझ से रहित मनुष्य मालिक-प्रभु को छोड़ के उसकी दासी (माया) को ही हर वक्त याद रखते हैं। ऐसे निगुरे मनुष्य, पशुओं जैसे जीवन वाले मनुष्य उन लोगों की निंदा करते हैं जो परमात्मा की भक्ति करते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीउ पिंडु तनु धनु सभु प्रभ का साकत कहते मेरा ॥ अह्मबुधि दुरमति है मैली बिनु गुर भवजलि फेरा ॥३॥

मूलम्

जीउ पिंडु तनु धनु सभु प्रभ का साकत कहते मेरा ॥ अह्मबुधि दुरमति है मैली बिनु गुर भवजलि फेरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। अहंबुधि = अहंकार भरी बुद्धि के कारण। दुरमति = दुर्मति, खोटी मति। भवजलि = संसार समुंदर में।3।
अर्थ: हे भाई! यह जिंद ये शरीर ये धन- ये सब कुछ परमात्मा का दिया हुआ है, पर परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य कहते रहते हैं कि यह हरेक चीज़ हमारी है। अहंकार वाली बुद्धि के कारण उनकी अक्ल खोटी हुई रहती है, गुरु की शरण के बिना संसार-समुंदर में उनके चक्कर लगते रहते हैं।3।

[[1139]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

होम जग जप तप सभि संजम तटि तीरथि नही पाइआ ॥ मिटिआ आपु पए सरणाई गुरमुखि नानक जगतु तराइआ ॥४॥१॥१४॥

मूलम्

होम जग जप तप सभि संजम तटि तीरथि नही पाइआ ॥ मिटिआ आपु पए सरणाई गुरमुखि नानक जगतु तराइआ ॥४॥१॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के साधन। तटि = (नदी के) किनारे पर। तीरथि = तीर्थ पर। आपु = स्वै भाव। गुरमुखि = गुरु से।4।
अर्थ: हे नानक! हवन, यज्ञ, जप-तप साधनों से, इन्द्रियों को वश में करने वाले सारे साधनों से किसी पवित्र नदी के किनारे पर किसी तीर्थ पर (स्नान करने से) परमात्मा का मिलाप नहीं हो सकता। जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ते हैं उनके अंदर से स्वै भाव (अहंम्) मिट जाता है। हे नानक! (परमात्मा) गुरु की शरण पा कर जगत (जगत के जीवों) को संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।4।1।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ बन महि पेखिओ त्रिण महि पेखिओ ग्रिहि पेखिओ उदासाए ॥ दंडधार जटधारै पेखिओ वरत नेम तीरथाए ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ बन महि पेखिओ त्रिण महि पेखिओ ग्रिहि पेखिओ उदासाए ॥ दंडधार जटधारै पेखिओ वरत नेम तीरथाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बन महि = जंगल में। त्रिण = घास का तीला, बनस्पति। ग्रिहि = घर में। उदासाए = घरों से उदास त्यागियों में। दंडधार = हाथ में डंडा रखने वाले जोगियों में। जटधारै = जटाधारी जोगी में।1।
अर्थ: हे भाई! (तब मैंने) जंगल में, बनस्पति में (प्रभु को ही बसता) देख लिया, घर में भी उसी को देख लिया, और, त्यागी में भी उसी को देख लिया। तब मैंने उसको दण्ड-धारियों में, जटा-धारियों में बसता देख लिया, व्रत-नेम व तीर्थ-यात्रा करने वालों में भी देख लिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतसंगि पेखिओ मन माएं ॥ ऊभ पइआल सरब महि पूरन रसि मंगल गुण गाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतसंगि पेखिओ मन माएं ॥ ऊभ पइआल सरब महि पूरन रसि मंगल गुण गाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत संगि = संत जनों की संगति में। मन माऐं = मन में, अपने मन में। ऊभ = आकाश में। पइआल = पाताल में। पूरन = व्यापक। रसि = आनंद से। मंगल गुण = आत्मिक आनंद देने वाले गुण। गाए = गा के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब संत जनों की संगति में परमात्मा के आनंद देने वाले गुण स्वाद से गा के मैंने उसको अपने मन में बसता देख लिया, तो आकाश-पाताल सब में वह व्यापक दिखाई दे गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोग भेख संनिआसै पेखिओ जति जंगम कापड़ाए ॥ तपी तपीसुर मुनि महि पेखिओ नट नाटिक निरताए ॥२॥

मूलम्

जोग भेख संनिआसै पेखिओ जति जंगम कापड़ाए ॥ तपी तपीसुर मुनि महि पेखिओ नट नाटिक निरताए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संनिआसे = सन्यास में। कापड़ाए = कपड़े वाले साधुओं में। तपीसुर = (तपी+इसुर) बड़े बड़े तपी।2।
अर्थ: हे भाई! (जब मैंने परमात्मा को अपने अंदर बसता देखा, तब मैंने उस परमात्मा को) जोगियों में, सारे भेषों में, सन्यासियों में, जतियों में, जंगमों में, कापड़िए साधुओं में, सबमें बसता देख लिया। तब मैंने उसको तपियों में, बड़े-बड़े तपियों में, मुनियों में, नाटक करनेवाले नटों में, रासधारियों में (सबमें बसता) देख लिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चहु महि पेखिओ खट महि पेखिओ दस असटी सिम्रिताए ॥ सभ मिलि एको एकु वखानहि तउ किस ते कहउ दुराए ॥३॥

मूलम्

चहु महि पेखिओ खट महि पेखिओ दस असटी सिम्रिताए ॥ सभ मिलि एको एकु वखानहि तउ किस ते कहउ दुराए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चहु महि = चार वेदों में। खट महि = छह शास्त्रों में। दस असटी = अठारह पुराणों में। मिलि = मिल के। वखानहि = कहते हैं। तउ = तब। कहउ = मैं कहूँ। किस ते = किससे? दुराए = दूर, छुपा हुआ।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘किस ते’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जब साधु-संगत की कृपा से मैंने परमात्मा को अपने अंदर बसता देखा, तब मैंने उसको) चार वेदों में, छह शास्त्रों में, अठारह पुराणों में, (सारी) स्मृतियों में बसता देख लिया। (जब मैंने यह देख लिया कि) सारे जीव-जंतु मिल के सिर्फ परमात्मा के ही गुण गा रहे हैं, तो अब मैं उसको किस तरह से दूर बैठा कह सकता हूँ?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगह अगह बेअंत सुआमी नह कीम कीम कीमाए ॥ जन नानक तिन कै बलि बलि जाईऐ जिह घटि परगटीआए ॥४॥२॥१५॥

मूलम्

अगह अगह बेअंत सुआमी नह कीम कीम कीमाए ॥ जन नानक तिन कै बलि बलि जाईऐ जिह घटि परगटीआए ॥४॥२॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगह = अथाह। कीम = कीमत, मूल्य। तिन कै = उनसे। बलि बलि = सदके, कुर्बान। जाईऐ = जाना चाहिए। जिह घटि = जिस (जिस) हृदय में। परगटीआए = प्रकट हो गया है।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अथाह है, अगम है, बेअंत है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता, वह किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता। हे दास नानक! (कह: हे भाई! वह प्रभु बसता तो सबमें ही है, पर) जिस-जिस (भाग्यशाली) के हृदय में वह प्रत्यक्ष हो गया है, उनसे सदके कुर्बान जाना चाहिए।4।2।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ निकटि बुझै सो बुरा किउ करै ॥ बिखु संचै नित डरता फिरै ॥ है निकटे अरु भेदु न पाइआ ॥ बिनु सतिगुर सभ मोही माइआ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ निकटि बुझै सो बुरा किउ करै ॥ बिखु संचै नित डरता फिरै ॥ है निकटे अरु भेदु न पाइआ ॥ बिनु सतिगुर सभ मोही माइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निकटि = (अपने) नजदीक (बसता)। बुझै = (जो मनुष्य) समझता है। किउ करै = नहीं कर सकता। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। संचै = इकट्ठी करता है। निकटे = नजदीक ही। अरु = और, पर। सभ = सारी दुनिया।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा को अपने) नजदीक (बसता) समझता है वह (किसी के साथ कोई) बुराई नहीं कर सकता। पर जो मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाली माया को हर वक्त जोड़ता रहता है, वह मनुष्य (हरेक तरफ से) सदा डरता फिरता है। हे भाई! परमात्मा हरेक के नजदीक तो अवश्य बसता है, पर (नित्य माया जोड़ने वाला मनुष्य) यह भेद नहीं समझता। गुरु की शरण पड़े बिना सारी दुनिया माया के मोह में फसी रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेड़ै नेड़ै सभु को कहै ॥ गुरमुखि भेदु विरला को लहै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नेड़ै नेड़ै सभु को कहै ॥ गुरमुखि भेदु विरला को लहै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु को = हरेक प्राणी। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। लहै = मिलता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (कहने को तो) हरेक प्राणी (यह) कह देता है (कि परमात्मा सबके) नजदीक है (सबके) पास है। पर कोई विरला मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर इस गहरी बात को समझता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकटि न देखै पर ग्रिहि जाइ ॥ दरबु हिरै मिथिआ करि खाइ ॥ पई ठगउरी हरि संगि न जानिआ ॥ बाझु गुरू है भरमि भुलानिआ ॥२॥

मूलम्

निकटि न देखै पर ग्रिहि जाइ ॥ दरबु हिरै मिथिआ करि खाइ ॥ पई ठगउरी हरि संगि न जानिआ ॥ बाझु गुरू है भरमि भुलानिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पर ग्रिहि = पराए घर में। जाइ = जाता है। दरबु = धन। हिरै = चुराता है। मिथिआ = नाशवान। मिथिआ करि = ये कह कह के भी कि सब कुछ नाशवान है। ठगउरी = ठग मूरी, ठग बूटी, धतूरा, सूझ बूझ खत्म कर देने वाली बूटी। संगि = (अपने) साथ। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाइआ = गलत रास्ते पड़ा रहता है।2।
अर्थ: हे भाई! (वही मनुष्य) पराए घर में (चोरी की नीयत से) जाता है, जो परमात्मा को अपने पास बसता नहीं देखता। वह मनुष्य पराया धन चुराता है, और धन को नाशवान कह: कह के भी पराया माल खाए जाता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना भटकना में पड़ कर मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, माया ठग-बूटी उस पर अपना प्रभाव डाले रखती है, (इस वास्ते वह परमात्मा को अपने) साथ बसता नहीं समझता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकटि न जानै बोलै कूड़ु ॥ माइआ मोहि मूठा है मूड़ु ॥ अंतरि वसतु दिसंतरि जाइ ॥ बाझु गुरू है भरमि भुलाइ ॥३॥

मूलम्

निकटि न जानै बोलै कूड़ु ॥ माइआ मोहि मूठा है मूड़ु ॥ अंतरि वसतु दिसंतरि जाइ ॥ बाझु गुरू है भरमि भुलाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूड़ु = झूठ। मोहि = मोह में। मूठा है = ठगा जा रहा है। मूढ़ु = मूर्ख मनुष्य (एकवचन)। अंतरि = अंदर। दिसंतरि = देस अंतरि, किसी और देश में, बाहर।3।
अर्थ: हे भाई! (वही मनुष्य) झूठ बोलता है जो परमात्मा को अपने साथ बसता नहीं समझता, वह मूर्ख माया के मोह में फंस के (अपनी आत्मिक राशि-पूंजी) लुटाए जाता है। परमात्मा का नाम-धन उसके हृदय में बसता है, पर वह (निरी माया की खातिर ही) बाहर भटकता फिरता है। हे भाई! गुरु की शरण के बिना (जगत) भटकना के कारण गलत राह पर पड़ा रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु मसतकि करमु लिखिआ लिलाट ॥ सतिगुरु सेवे खुल्हे कपाट ॥ अंतरि बाहरि निकटे सोइ ॥ जन नानक आवै न जावै कोइ ॥४॥३॥१६॥

मूलम्

जिसु मसतकि करमु लिखिआ लिलाट ॥ सतिगुरु सेवे खुल्हे कपाट ॥ अंतरि बाहरि निकटे सोइ ॥ जन नानक आवै न जावै कोइ ॥४॥३॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। करमु = बख्शिश, परमात्मा की मेहर (का लेख)। लिलाट = माथे (पर)। सेवे = शरण पड़ता है। कपाट = किवाड़, बंद हुई भिक्तियां। सोइ = वह (परमात्मा) ही। जन नानक = हे दास नानक! कोइ = (परमात्मा के बिना) कोई (और)।4।
अर्थ: हे दास नानक! जिस मनुष्य के माथे पर लिलाट पर (परमात्मा की) बख्शिश (का लेख) लिखा उघड़ पड़ता है, वह गुरु की शरण आ पड़ता है, उसके मन में किवाड़ खुल जाते हैं। उसको अपने अंदर और बाहर जगत में एक परमात्मा ही बसता दिखाई देता है, (उसको ऐसा प्रतीत होता है कि परमात्मा के बिना और) कोई ना पैदा होता है ना मरता है।4।3।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ जिसु तू राखहि तिसु कउनु मारै ॥ सभ तुझ ही अंतरि सगल संसारै ॥ कोटि उपाव चितवत है प्राणी ॥ सो होवै जि करै चोज विडाणी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ जिसु तू राखहि तिसु कउनु मारै ॥ सभ तुझ ही अंतरि सगल संसारै ॥ कोटि उपाव चितवत है प्राणी ॥ सो होवै जि करै चोज विडाणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारै = संसार में। कोटि = करोड़ों। उपाव = उपाय। चोज विडाणी = आश्चर्यजनक करिश्मों वाला।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! जिसको तू बचाए, उसको कोई मार नहीं सकता, (क्योंकि) सारे संसार में सारी (उत्पक्ति) तेरे ही अधीन है। हे भाई! जीव (अपने वास्ते) करोड़ों उपाय सोचता रहता है, पर वही कुछ होता है जो आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाला परमात्मा करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखहु राखहु किरपा धारि ॥ तेरी सरणि तेरै दरवारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राखहु राखहु किरपा धारि ॥ तेरी सरणि तेरै दरवारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। दरवारि = दर के दरवाजे पर, दर पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरी शरण में आया हूँ, मैं तेरे दर पर आया हूँ, मेहर कर के मेरी रक्षा कर, रक्षा कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि सेविआ निरभउ सुखदाता ॥ तिनि भउ दूरि कीआ एकु पराता ॥ जो तू करहि सोई फुनि होइ ॥ मारै न राखै दूजा कोइ ॥२॥

मूलम्

जिनि सेविआ निरभउ सुखदाता ॥ तिनि भउ दूरि कीआ एकु पराता ॥ जो तू करहि सोई फुनि होइ ॥ मारै न राखै दूजा कोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। एकु पराता = एक परमात्मा को पहचाना। फुनि = दोबारा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने निर्भय और सारे सुख देने वाले परमात्मा की शरण ली, उसने (अपना हरेक) डर दूर कर लिया, उसने एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली। हे प्रभु! जो कुछ तू करता है, वही होता है। (तेरे बिना) कोई दूसरा ना किसी को मार सकता है ना बचा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ तू सोचहि माणस बाणि ॥ अंतरजामी पुरखु सुजाणु ॥ एक टेक एको आधारु ॥ सभ किछु जाणै सिरजणहारु ॥३॥

मूलम्

किआ तू सोचहि माणस बाणि ॥ अंतरजामी पुरखु सुजाणु ॥ एक टेक एको आधारु ॥ सभ किछु जाणै सिरजणहारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाणि = आदत। सुजाणि = समझदार। आधारु = आसरा।3।
अर्थ: हे भाई! (अपने) मनुष्य स्वभाव के अनुसार तू क्या (कौन सी) सोचें सोचता रहता है? सर्व-व्यापक परमात्मा हरेक के दिल की जानने वाला है समझदार है। (हम जीवों की) वही टेक है वही आसरा है। जीवों को पैदा करने वाला वह प्रभु सब कुछ जानता है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु ऊपरि नदरि करे करतारु ॥ तिसु जन के सभि काज सवारि ॥ तिस का राखा एको सोइ ॥ जन नानक अपड़ि न साकै कोइ ॥४॥४॥१७॥

मूलम्

जिसु ऊपरि नदरि करे करतारु ॥ तिसु जन के सभि काज सवारि ॥ तिस का राखा एको सोइ ॥ जन नानक अपड़ि न साकै कोइ ॥४॥४॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सवारि = सवारे, सवारता है।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! कर्तार जिस मनुष्य पर मिहर की निगाह करता है, उस सेवक के वह सारे काम सवारता है। उस मनुष्य का रखवाला वह परमात्मा स्वयं ही बना रहता है। हे दास नानक! (जगत का कोई जीव) उसकी बराबरी नहीं कर सकता।4।4।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ तउ कड़ीऐ जे होवै बाहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे विसरै नरहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे दूजा भाए ॥ किआ कड़ीऐ जां रहिआ समाए ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ तउ कड़ीऐ जे होवै बाहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे विसरै नरहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे दूजा भाए ॥ किआ कड़ीऐ जां रहिआ समाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ = तब, तब ही। कड़ीऐ = कुढ़ना, खिझना, चिन्ता करनी है। विसरै = भूल जाता है। नरहरि = परमात्मा। भाए = अच्छा लगता है। किआ कड़ीऐ = चिन्ता फिक्र करने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। जां = जब।1।
अर्थ: हे भाई! अगर (जीव को यह ख्याल बना रहे कि परमात्मा मुझसे अलग) कहीं दूर है, तब (हर बात पर) चिन्ता होती है। तब भी चिन्ता करते रहते हैं जब परमात्मा (हमारे मन से) भूल जाए। जब (परमात्मा के बिना) कोई और पदार्थ (परमात्मा से ज्यादा) प्यारा लगने लग जाता है, तब (भी बंदा) झुरता रहता है। पर जब (यह यकीन बना रहे कि परमात्मा) हरेक जगह व्यापक है, तब चिन्ता-फिक्र समाप्त हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहि कड़े कड़ि पचिआ ॥ बिनु नावै भ्रमि भ्रमि भ्रमि खपिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माइआ मोहि कड़े कड़ि पचिआ ॥ बिनु नावै भ्रमि भ्रमि भ्रमि खपिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के)। कड़े कड़ि = खिझ खिझ के। पचिआ = जल मरता है। भ्रमि = भटक के। खपिआ = दुखी होता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य खिझ खिझ के आत्मिक मौत मरता रहता है। परमात्मा के नाम के बिना (माया की खातिर) भटक के भटक के भटक के दुखी होता रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तउ कड़ीऐ जे दूजा करता ॥ तउ कड़ीऐ जे अनिआइ को मरता ॥ तउ कड़ीऐ जे किछु जाणै नाही ॥ किआ कड़ीऐ जां भरपूरि समाही ॥२॥

मूलम्

तउ कड़ीऐ जे दूजा करता ॥ तउ कड़ीऐ जे अनिआइ को मरता ॥ तउ कड़ीऐ जे किछु जाणै नाही ॥ किआ कड़ीऐ जां भरपूरि समाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनिआइ = अन्याय, न्याय के विपरीत, परमात्मा के हुक्म में बाहर। को = कोई जीव। भरपूरि = हर जगह, नाको नाक। समाही = (हे प्रभु!) तू व्यापक है।2।
अर्थ: हे प्रभु! अगर (ये ख्याल टिका रहे कि परमात्मा के बिना) कोई और कुछ कर सकने वाला है, तब चिन्ता-फिक्र में फसे रहते हैं। तब भी झुरते हैं जब ये ख्याल बना रहे कि कोई प्राणी परमात्मा के हुक्म से बाहर मर सकता है। अगर यह यकीन टिक जाए कि परमात्मा हमारी आवश्यक्ताएं जानता नहीं है, तब भी झुरते रहते हैं। पर, हे प्रभु! तू तो हर जगह मौजूद है, फिर हम चिन्ता-फिक्र क्यों करें?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तउ कड़ीऐ जे किछु होइ धिङाणै ॥ तउ कड़ीऐ जे भूलि रंञाणै ॥ गुरि कहिआ जो होइ सभु प्रभ ते ॥ तब काड़ा छोडि अचिंत हम सोते ॥३॥

मूलम्

तउ कड़ीऐ जे किछु होइ धिङाणै ॥ तउ कड़ीऐ जे भूलि रंञाणै ॥ गुरि कहिआ जो होइ सभु प्रभ ते ॥ तब काड़ा छोडि अचिंत हम सोते ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिङाणै = बदो बदी, परमात्मा से बेबस। भूलि = भूल के, भुलेखे से। रंञाणै = रंज में रखता है, दुखी करता है। गुरि = गुरु ने। प्रभ ते = प्रभु से, प्रभु के हुक्म से। काड़ा = चिन्ता, खिझा। छोडि = छोड़ के। अचिंत = बेफिक्र। सोते = सोते हैं? रहते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! कुछ भी परमात्मा के हुक्म के बाहर नहीं होता, किसी को भी वह भुलेखे से दुखी नहीं करता, फिर चिन्ता-फिक्र क्यों किया जाऐ? हे भाई! गुरु ने यह बताया है कि जो कुछ होता है सब प्रभु के हुक्म से ही होता है। इस लिए हम तो चिन्ता-फिक्र छोड़ के (उसकी रज़ा में) बेफिक्र टिके हुए हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ तूहै ठाकुरु सभु को तेरा ॥ जिउ भावै तिउ करहि निबेरा ॥ दुतीआ नासति इकु रहिआ समाइ ॥ राखहु पैज नानक सरणाइ ॥४॥५॥१८॥

मूलम्

प्रभ तूहै ठाकुरु सभु को तेरा ॥ जिउ भावै तिउ करहि निबेरा ॥ दुतीआ नासति इकु रहिआ समाइ ॥ राखहु पैज नानक सरणाइ ॥४॥५॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ठाकुरु = मालिक। सभु को = हरेक जीव। करहि = तू करता है। निबेरा = फैसला। दुतीआ = दूसरा, तेरे बिना कोई और। नासति = न अस्ति, नहीं है। पैज = सत्कार, इज्जत।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों का मालिक है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। जैसे तेरी रज़ा होती है, तू (जीवों की किस्मत का) फैसला करता है। हे प्रभु! तेरे बिना (तेरे बराबर का) और कोई नहीं है, तू ही हर जगह व्यापक है। हे नानक! (प्रभु के ही दर पर अरदास किया कर कि, हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी इज्जत रख।4।5।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ बिनु बाजे कैसो निरतिकारी ॥ बिनु कंठै कैसे गावनहारी ॥ जील बिना कैसे बजै रबाब ॥ नाम बिना बिरथे सभि काज ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ बिनु बाजे कैसो निरतिकारी ॥ बिनु कंठै कैसे गावनहारी ॥ जील बिना कैसे बजै रबाब ॥ नाम बिना बिरथे सभि काज ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कैसे = कैसा? फबता नहीं। निरतकारी = नाच। कंठ = गला। जील = तंदी। सभि = सारे।1।
अर्थ: हे भाई! (नृत्य के साथ) साज़ों के बिना नृत्य नहीं फबता। गले के बिना कोई गवईया गा नहीं सकता। तंदी के बिना रबाब नहीं बज सकती। (इसी तरह) परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (दुनिया वाले और) सारे काम व्यर्थ चले जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम बिना कहहु को तरिआ ॥ बिनु सतिगुर कैसे पारि परिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नाम बिना कहहु को तरिआ ॥ बिनु सतिगुर कैसे पारि परिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहहु = बताओ। को = कौन? कैसे = कैसे?।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! बताओ, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना कौन संसार समुंदर से पार लांघ सकता है? गुरु की शरण पड़े बिना कैसे कोई पार लांघ सकता है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु जिहवा कहा को बकता ॥ बिनु स्रवना कहा को सुनता ॥ बिनु नेत्रा कहा को पेखै ॥ नाम बिना नरु कही न लेखै ॥२॥

मूलम्

बिनु जिहवा कहा को बकता ॥ बिनु स्रवना कहा को सुनता ॥ बिनु नेत्रा कहा को पेखै ॥ नाम बिना नरु कही न लेखै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिहवा = जीभ। कहा = कहाँ? को = कोई। बकता = बोलने योग्य। स्रवन = श्रवण, कान। पेखै = देख सकता है। कही न लेखै = किसी भी लेखे में नहीं, कहीं भी इज्जत नहीं पा सकता।2।
अर्थ: हे भाई! जीभ के बिना कोई बोलने योग्य नहीं हो सकता, कान के बिना कोई सुन नहीं सकता। आँखों के बिना कोई देख नहीं सकता। (इसी तरह) परमात्मा के नाम स्मरण के बिना मनुष्य की कोई बात नहीं पूछता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु बिदिआ कहा कोई पंडित ॥ बिनु अमरै कैसे राज मंडित ॥ बिनु बूझे कहा मनु ठहराना ॥ नाम बिना सभु जगु बउराना ॥३॥

मूलम्

बिनु बिदिआ कहा कोई पंडित ॥ बिनु अमरै कैसे राज मंडित ॥ बिनु बूझे कहा मनु ठहराना ॥ नाम बिना सभु जगु बउराना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमर = हुक्म। राज मंडित = राज की सजावट। ठहराना = टिक सकता है। बउराना = झल्ला।3।
अर्थ: हे भाई! विद्या प्राप्ति के बगैर कोई पंडित नहीं बन सकता। (राजाओं के) हुक्म के बिना राज की सजावटें किसी काम की नहीं। (आत्मिक जीवन की) सूझ के बिना मनुष्य का मन कहीं टिक नहीं सकता। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना सारा जगत पागल हुआ फिरता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु बैराग कहा बैरागी ॥ बिनु हउ तिआगि कहा कोऊ तिआगी ॥ बिनु बसि पंच कहा मन चूरे ॥ नाम बिना सद सद ही झूरे ॥४॥

मूलम्

बिनु बैराग कहा बैरागी ॥ बिनु हउ तिआगि कहा कोऊ तिआगी ॥ बिनु बसि पंच कहा मन चूरे ॥ नाम बिना सद सद ही झूरे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैरागु = उपरामता, निर्मोहता। हउ = अहंकार। बसि = वश में। पंच = कामादिक पाँचों। चूरे = मारा जा सके। सद = सदा।4।
अर्थ: हे भाई! अगर वैरागी के अंदर माया के प्रति निर्मोह नहीं, तो वह वैरागी कैसा? अहंकार को त्यागे बिना कोई त्याग नहीं कहलवा सकता। कामादिक पाँचों को वश में किए बिना मन मारा नहीं जा सकता। हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण के बिना मनुष्य सदा ही सदा ही चिन्ता-फिक्र में पड़ा रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर दीखिआ कैसे गिआनु ॥ बिनु पेखे कहु कैसो धिआनु ॥ बिनु भै कथनी सरब बिकार ॥ कहु नानक दर का बीचार ॥५॥६॥१९॥

मूलम्

बिनु गुर दीखिआ कैसे गिआनु ॥ बिनु पेखे कहु कैसो धिआनु ॥ बिनु भै कथनी सरब बिकार ॥ कहु नानक दर का बीचार ॥५॥६॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीखिआ = उपदेश। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बिनु पेखै = देखे बिना। कहु = बताओ। कैसो = कैसा? बिन भै = डर अदब के बिना। कथनी सरब = सारी कहनी। विकार = विकारों का मूल। नानक = हे नानक!।5।
अर्थ: हे भाई! गुरु के उपदेश के बिना आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ सकती। हे भाई! वह समाधि कैसी, अगर अपने ईष्ट के दर्शन नहीं होते? हे भाई! परमात्मा का डर-अदब हृदय में बसाए बिना मनुष्य का सारा चोंच-ज्ञान विकारों का मूल है। हे नानक! कह: हे भाई! परमात्मा के दर पर पहुँचाने वाली यही विचार है।5।6।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ हउमै रोगु मानुख कउ दीना ॥ काम रोगि मैगलु बसि लीना ॥ द्रिसटि रोगि पचि मुए पतंगा ॥ नाद रोगि खपि गए कुरंगा ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ हउमै रोगु मानुख कउ दीना ॥ काम रोगि मैगलु बसि लीना ॥ द्रिसटि रोगि पचि मुए पतंगा ॥ नाद रोगि खपि गए कुरंगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। रोगि = रोग ने। मैगलु = हाथी। बसि = वश में। रोगि = रोग में। पचि मुए = जल मरे। द्रिसटि रोगि = देखने के रोग में। नाद = (घंडे हेड़े की) आवाज़ (हिरनों को पकड़ने के लिए मढ़े हुए घड़े की) आवाज। कुरंगा = हिरन।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने) मनुष्य को अहंकार का रोग दे रखा है, काम-वासना के रोग ने हाथी को अपने वश में किया हुआ है। (दीए की ज्योति को) देखने के रोग के कारण पतंगे (दीए की ज्योति पर) जल मरते हैं। (घंडे हेड़े की) आवाज़ (सुनने) के रोग के कारण हिरन दुखी होते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जो दीसै सो सो रोगी ॥ रोग रहित मेरा सतिगुरु जोगी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जो जो दीसै सो सो रोगी ॥ रोग रहित मेरा सतिगुरु जोगी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोगी = (प्रभु में) जुड़ा हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो जो जीव (जगत में) दिखाई दे रहा है, हरेक किसी ना किसी रोग में फंसा हुआ है। (असल) जोगी मेरा सतिगुरु (सब) रोगों से रहित है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहवा रोगि मीनु ग्रसिआनो ॥ बासन रोगि भवरु बिनसानो ॥ हेत रोग का सगल संसारा ॥ त्रिबिधि रोग महि बधे बिकारा ॥२॥

मूलम्

जिहवा रोगि मीनु ग्रसिआनो ॥ बासन रोगि भवरु बिनसानो ॥ हेत रोग का सगल संसारा ॥ त्रिबिधि रोग महि बधे बिकारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीनु = मीन, मछली (पुलिंग)। ग्रसिआनो = पकड़ा हुआ। बासन = वासना, सुगंधि। हेत = मोह। त्रिबिधि रोग महि = त्रिगुणी माया के मोह में। बधे = बंधे हुए। बिकारा = विकार, एैब।2।
अर्थ: हे भाई! जीभ के रोग के कारण मछली पकड़ी जाती है, सुगंधि के रोग के कारण (फूल की सुगंधि लेने के रस के कारण) भँवरा (फूल की पंखुड़ियों में बंद हो के) नाश हो जाता है। हे भाई! सारा जगत मोह के रोग का शिकार हुआ पड़ा है, त्रैगुणी माया के मोह के रोग में बँधे हुए जीव अनेक विकार करते हैं।2।

[[1141]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोगे मरता रोगे जनमै ॥ रोगे फिरि फिरि जोनी भरमै ॥ रोग बंध रहनु रती न पावै ॥ बिनु सतिगुर रोगु कतहि न जावै ॥३॥

मूलम्

रोगे मरता रोगे जनमै ॥ रोगे फिरि फिरि जोनी भरमै ॥ रोग बंध रहनु रती न पावै ॥ बिनु सतिगुर रोगु कतहि न जावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रोगे = रोग में ही। फिरि फिरि = बार बार। भरमै = भटकता है। बंधु = बंधन। रहनु = भटकना से निजात, शांति, टिकाव। रती = रक्ती भर भी। कतहि = किसी तरह भी।3।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य किसी ना किसी आत्मिक) रोग में (फसा हुआ) ही मर जाता है, (किसी ना किसी आत्मिक) रोग में (ग्रसा हुआ) ही पैदा होता है, उस रोग के कारण ही बार-बार जूनियों में भटकता रहता है, रोग के बंधनो के कारण (जूनियों में) भटकने से रक्ती भर भी खलासी नहीं मिल सकती। हे भाई! गुरु की शरण के बिना (यह) रोग किसी तरह भी दूर नहीं होता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमि जिसु कीनी दइआ ॥ बाह पकड़ि रोगहु कढि लइआ ॥ तूटे बंधन साधसंगु पाइआ ॥ कहु नानक गुरि रोगु मिटाइआ ॥४॥७॥२०॥

मूलम्

पारब्रहमि जिसु कीनी दइआ ॥ बाह पकड़ि रोगहु कढि लइआ ॥ तूटे बंधन साधसंगु पाइआ ॥ कहु नानक गुरि रोगु मिटाइआ ॥४॥७॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। पकड़ि = पकड़ के। रोगहु = रोगों से। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा ने मेहर कर दी, उसको उसने बाँह पकड़ के रोगों से बचा लिया। जब उसने गुरु की संगति प्राप्त की, उसके (आत्मिक रोगों के सारे) बंधन टूट गए। हे नानक! कह: (जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ा,) गुरु ने (उसका) रोग मिटा दिया।4।7।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ चीति आवै तां महा अनंद ॥ चीति आवै तां सभि दुख भंज ॥ चीति आवै तां सरधा पूरी ॥ चीति आवै तां कबहि न झूरी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ चीति आवै तां महा अनंद ॥ चीति आवै तां सभि दुख भंज ॥ चीति आवै तां सरधा पूरी ॥ चीति आवै तां कबहि न झूरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। आवै = (परमात्मा) आ बसता है। सभि = सारे। भंज = नाश। न झूरी = चिन्ता फिक्र नहीं करता।1।
अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य के) हृदय में परमात्मा आ बसता है, तब उसके अंदर बड़ा आनंद बन जाता है, तब उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है, तब उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है, तब वह कभी भी कोई चिन्ता-फिक्र नहीं करता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि राम राइ प्रगटे आइ ॥ गुरि पूरै दीओ रंगु लाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अंतरि राम राइ प्रगटे आइ ॥ गुरि पूरै दीओ रंगु लाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = (जिस मनुष्य के) हृदय में। रामराइ = प्रभु पातशाह। आइ = आ के। गुरि पूरै = पूरे गुरु से। रंगु = आत्मिक आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु से जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु-पातशाह प्रकट हो जाता है, उसके अंदर रंग लगा देता है (आत्मिक आनंद बना देता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीति आवै तां सरब को राजा ॥ चीति आवै तां पूरे काजा ॥ चीति आवै तां रंगि गुलाल ॥ चीति आवै तां सदा निहाल ॥२॥

मूलम्

चीति आवै तां सरब को राजा ॥ चीति आवै तां पूरे काजा ॥ चीति आवै तां रंगि गुलाल ॥ चीति आवै तां सदा निहाल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। पूरे = सफल हो जाता है। रंगि = रंग में। निहाल = प्रसन्न।2।
अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य के) हृदय में परमात्मा आ बसता है, तब वह (मानो) सबका राजा बन जाता है, तब उसके सारे काम सफल हो जाते हैं, तब वह गाढ़े आत्मिक आनंद में मस्त रहता है, तब वह सदा प्रसन्न-चिक्त रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीति आवै तां सद धनवंता ॥ चीति आवै तां सद निभरंता ॥ चीति आवै तां सभि रंग माणे ॥ चीति आवै तां चूकी काणे ॥३॥

मूलम्

चीति आवै तां सद धनवंता ॥ चीति आवै तां सद निभरंता ॥ चीति आवै तां सभि रंग माणे ॥ चीति आवै तां चूकी काणे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा। निभरंता = भ्रांति के बिना, भटकना से बच जाता है। चूकी = समाप्त हो जाती है। काणे = काणि, अधीनता।3।
अर्थ: हे भाई! (जब परमात्मा किसी मनुष्य के) हृदय में आ बसता है, त बवह सदा के लिए नाम-धन का शाह बन जाता है, तब वह सदा के लिए माया की खातिर भटकना से बच जाता है, त बवह सारे (आत्मिक) आनंद भोगता है, तब उसे किसी की अधीनता नहीं रह जाती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीति आवै तां सहज घरु पाइआ ॥ चीति आवै तां सुंनि समाइआ ॥ चीति आवै सद कीरतनु करता ॥ मनु मानिआ नानक भगवंता ॥४॥८॥२१॥

मूलम्

चीति आवै तां सहज घरु पाइआ ॥ चीति आवै तां सुंनि समाइआ ॥ चीति आवै सद कीरतनु करता ॥ मनु मानिआ नानक भगवंता ॥४॥८॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज घरु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना। सुंनि = शून्य में, उस अवस्था में जहाँ मायावी फुरनों का शून्य ही शून्य है, अफुर अवस्था में। कीरतनु = महिमा। मानिआ = पतीज जाता है।4।
अर्थ: हे भाई! (जब परमात्मा किसी मनुष्य के) हृदय में आ प्रकट होता है, तब वह मनुष्य आत्मिक अडोलता का ठिकाना पा लेता है, तब वह उस आत्मिक अवस्था में लीन रहता है जहाँ माया वाले फुरने नहीं उठते, तबवह सदा परमात्मा की महिमा करता है, हे नानक! तब उसका मन परमात्मा के साथ पतीज जाता है।4।8।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ बापु हमारा सद चरंजीवी ॥ भाई हमारे सद ही जीवी ॥ मीत हमारे सदा अबिनासी ॥ कुट्मबु हमारा निज घरि वासी ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ बापु हमारा सद चरंजीवी ॥ भाई हमारे सद ही जीवी ॥ मीत हमारे सदा अबिनासी ॥ कुट्मबु हमारा निज घरि वासी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बापु = पिता, प्रभु पिता। सद = सदा। सद चरंजीवी = सदा चिरंजीवी, सदा ही कायम रहने वाला। भाई = सत्संगी, आत्मिक जीवन की सांझ रखने वाला। जीवी = आत्मिक जीवन वाले। अबिनासी = अटल आत्मिक जीवन वाले। कुटंबु = परिवार, इंद्रिय, बिरतियां। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु चरणों में। वासी = बसने वाला, टिके रहने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया, तब मुझे निश्चय हो गया कि) हम जीवों का प्रभु-पिता सदा कायम रहने वाला है, मेरे साथ आत्मिक सांझ रखने वाले भी सदा ही आत्मिक जीवन वाले बन गए, मेरे साथ हरि-नाम स्मरण का प्रेम रखने वाले सदा के लिए अटल जीवन वाले हो गए, (सारी इन्द्रियों का) मेरा परिवार प्रभु-चरणों में टिके रहने वाला बन गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम सुखु पाइआ तां सभहि सुहेले ॥ गुरि पूरै पिता संगि मेले ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हम सुखु पाइआ तां सभहि सुहेले ॥ गुरि पूरै पिता संगि मेले ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम। सुखु = आत्मिक आनंद। सभहि = सारे (भाई, मित्र, कुटंब)। सुहेले = सुखी। गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। संगि = साथ। मेले = मिला दिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया, मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया, तब (मेरे साथ संबंध रखने वाले मित्र, भाई सारे इंद्रिय- यह) सारे ही (आत्मिक आनंद की इनायत से) सुखी हो गए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंदर मेरे सभ ते ऊचे ॥ देस मेरे बेअंत अपूछे ॥ राजु हमारा सद ही निहचलु ॥ मालु हमारा अखूटु अबेचलु ॥२॥

मूलम्

मंदर मेरे सभ ते ऊचे ॥ देस मेरे बेअंत अपूछे ॥ राजु हमारा सद ही निहचलु ॥ मालु हमारा अखूटु अबेचलु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदर मेरे = मेरे घर, मेरी जिंद के टिके रहने वाले आत्मिक स्थान, वह अवस्था जहाँ मेरी जिंद टिकी रहती है। ते = से। देस मेरे = मेरे प्राणों के आत्मिक ठिकाने। अपूछे = (जम की) पूछ पड़ताल से परे। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। राजु = हकूमत, अपनी इन्द्रियों पर हकूमत। मालु = संपत्ति, हरि नाम की राशि। अखूटु = कभी ना खत्म होने वाला। अबेचलु = अबिचल, सदा कायम रहने वाला।2।
अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया, तब मेरी जिंद के टिके रहने वाले) ठिकाने सारी (मायावी प्रेरणाओं) से ऊँचे हो गए कि यम-राज वहाँ कुछ पूछने के लायक ही ना रहा। तब मेरी अपनी इन्द्रियों पर हकूमत सदा के लिए अटल हो गई, तब मेरे पास इतना नाम-खजाना इकट्ठा हो गया, जो खत्म ही ना हो सके, जो सदा के लिए कायम रहे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोभा मेरी सभ जुग अंतरि ॥ बाज हमारी थान थनंतरि ॥ कीरति हमरी घरि घरि होई ॥ भगति हमारी सभनी लोई ॥३॥

मूलम्

सोभा मेरी सभ जुग अंतरि ॥ बाज हमारी थान थनंतरि ॥ कीरति हमरी घरि घरि होई ॥ भगति हमारी सभनी लोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ जुग अंतरि = सारे जुगों में। बाज = मशहूरी। थान थनंतरि = थान थान अंतरि, हरेक जगह में। कीरति = महिमा, बड़ाई, कीर्ति। घरि घरि = हरेक घर में। भगति = सेवा मानता। लोई = लोगों में।3।
अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया,मुझे समझ आ गई कि यह जो प्रभु की शोभा) सारे युगों में हो रही है मेरे वास्ते भी यही शोभा है (यह जो) हरेक जगह में (प्रभु की) कीर्ति हो रही है, (यह जो) हरेक घर में (प्रभु की) महिमा हो रही है, मेरे लिए भी यही है, (यह जो) सब लोगों में (प्रभु की) भक्ति हो रही है मेरे लिए भी यही है (प्रभु-चरणों में मिलाप की इनायत से मुझे किसी शोभा मशहूरी कीर्ति आदर-मान की वासना नहीं रही)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता हमारे प्रगटे माझ ॥ पिता पूत रलि कीनी सांझ ॥ कहु नानक जउ पिता पतीने ॥ पिता पूत एकै रंगि लीने ॥४॥९॥२२॥

मूलम्

पिता हमारे प्रगटे माझ ॥ पिता पूत रलि कीनी सांझ ॥ कहु नानक जउ पिता पतीने ॥ पिता पूत एकै रंगि लीने ॥४॥९॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माझ = (हमारे) हृदय में। रलि = मिल के। सांझ = प्यार। जउ = जब। पतीने = (पुत्र पर) प्रसन्न हो गए। एकै रंगि = एक ही प्यार में। लीने = लीन हो गए, एक मेक हो गए।4।
अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया) प्रभु-पिता मेरे हृदय में प्रकट हो गए, प्रभु-पिता ने मेरे साथ इस तरह प्यार डाल लिया जैसे पिता अपने पुत्र के साथ प्यार बनाता है।
हे नानक! कह: जब पिता-प्रभु (अपने किसी पुत्र पर) दयावान होता है, तब प्रभु-पिता और जीव-पुत्र एक ही प्यार में एक-मेक हो जाते हैं।4।9।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ निरवैर पुरख सतिगुर प्रभ दाते ॥ हम अपराधी तुम्ह बखसाते ॥ जिसु पापी कउ मिलै न ढोई ॥ सरणि आवै तां निरमलु होई ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ निरवैर पुरख सतिगुर प्रभ दाते ॥ हम अपराधी तुम्ह बखसाते ॥ जिसु पापी कउ मिलै न ढोई ॥ सरणि आवै तां निरमलु होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरवैर = हे किसी से वैर ना रखने वाले! दाते = हे दातार! बखसाते = बख्शने वाले। कउ = को। ढोई = आसरा। निरमलु = पवित्र।1।
अर्थ: हे किसी से वैर ना रखने वाले गुरु पुरख! हे दातार प्रभु! हम (जीव) भूल (-चूक) करने वाले हैं, तुम (हमारी) भूलें बख्शने वाले हो। हे सतिगुरु! जिस पापी को और कहीं आसरा नहीं मिलता, जब वह तेरी शरण आ जाता है, तब वह पवित्र जीवन वाला बन जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखु पाइआ सतिगुरू मनाइ ॥ सभ फल पाए गुरू धिआइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सुखु पाइआ सतिगुरू मनाइ ॥ सभ फल पाए गुरू धिआइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनाइ = मना के, प्रसन्न कर के। पाए = हासिल कर लिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु को हृदय में बसा के (मनुष्य) सारे (इच्छित) फल हासिल कर लेता है। गुरु को प्रसन्न करके (मनुष्य) आत्मिक आनंद प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम सतिगुर आदेसु ॥ मनु तनु तेरा सभु तेरा देसु ॥ चूका पड़दा तां नदरी आइआ ॥ खसमु तूहै सभना के राइआ ॥२॥

मूलम्

पारब्रहम सतिगुर आदेसु ॥ मनु तनु तेरा सभु तेरा देसु ॥ चूका पड़दा तां नदरी आइआ ॥ खसमु तूहै सभना के राइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाब्रहम = हे पारब्रहम! आदेसु = नमस्कार। चूका = समाप्त हो गया। पड़दा = माया के मोह वाली भिक्ति। नदरी आइआ = दिख गया। राइआ = हे पातिशाह!।2।
अर्थ: हे गुरु! हे प्रभु! (तुझे मेरी) नमस्कार है। (हम जीवों का यह) मन (यह) तन तेरा ही दिया हुआ है (जो कुछ दिखाई दे रहा है) सारा तेरा ही देश है (हर जगह तू ही बस रहा है)। हे सब जीवों के पातशाह! तू (सबका) पति है। (जब किसी जीव के अंदर से माया के मोह का) पर्दा गिर जाता है तब तू उसको दिखाई दे जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु भाणा सूके कासट हरिआ ॥ तिसु भाणा तां थल सिरि सरिआ ॥ तिसु भाणा तां सभि फल पाए ॥ चिंत गई लगि सतिगुर पाए ॥३॥

मूलम्

तिसु भाणा सूके कासट हरिआ ॥ तिसु भाणा तां थल सिरि सरिआ ॥ तिसु भाणा तां सभि फल पाए ॥ चिंत गई लगि सतिगुर पाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु भाणा = उस (प्रभु) को अच्छा लगे। कासट = काठ, लकड़ी। थल सिरि = थल के सिर पर। सरिआ = सर, सरोवर। सभि = सारे। सतिगुर पाए = गुरु के चरणों में।3
अर्थ: हे भाई! यदि उस प्रभु को ठीक लगे तो सूखे काष्ठ हरे हो जाते हैं, थल पर सरोवर बन जाता है। जब कोई मनुष्य उस प्रभु को अच्छा लग जाए, तब वह सारे फल प्राप्त कर लेता है, गुरु के चरणों में लग के (उसके अंदर से) चिन्ता दूर हो जाता है।3।

[[1142]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरामखोर निरगुण कउ तूठा ॥ मनु तनु सीतलु मनि अम्रितु वूठा ॥ पारब्रहम गुर भए दइआला ॥ नानक दास देखि भए निहाला ॥४॥१०॥२३॥

मूलम्

हरामखोर निरगुण कउ तूठा ॥ मनु तनु सीतलु मनि अम्रितु वूठा ॥ पारब्रहम गुर भए दइआला ॥ नानक दास देखि भए निहाला ॥४॥१०॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरामखोर = बेगाना हक खाने वाला। तूठा = दयाल हो जाता है। सीतलु = ठंडा, शांत। मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। वूठा = बस गया। देखि = देख के। निहाला = प्रसन्न।4।
अर्थ: हे भाई! पराया हक खाने वाले गुण-हीन मनुष्य पर भी जब परमात्मा दयालु हो जाता है, उसका मन, उसका तन शांत हो जाता है, उसके मन में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है। हे नानक! जिस सेवकों पर गुरु परमात्मा दयालु होते हैं वे दर्शन करके निहाल हो जाते हैं।4।1।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरु मेरा बेमुहताजु ॥ सतिगुर मेरे सचा साजु ॥ सतिगुरु मेरा सभस का दाता ॥ सतिगुरु मेरा पुरखु बिधाता ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरु मेरा बेमुहताजु ॥ सतिगुर मेरे सचा साजु ॥ सतिगुरु मेरा सभस का दाता ॥ सतिगुरु मेरा पुरखु बिधाता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेमुहताजु = किसी की अधीनता नहीं। सचा = सदा कायम रहने वाला। साजु = मर्यादा। सभस दा = सब जीवों का। बिधाता = विधाता प्रभु (का रूप)।1।
अर्थ: हे भाई! प्यारे गुरु को किसी की अधीनता नहीं (गुरु की अपनी कोई जाती गरज़ नहीं अपना व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं) - गुरु की यह सदा कायम रहने वाली मर्यादा है (कि वह सदा बेगर्ज है)। हे भाई! गुरु सब जीवों को (दातें) देने वाला है। गुरु और विधाता अकाल-पुरख एक-रूप है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर जैसा नाही को देव ॥ जिसु मसतकि भागु सु लागा सेव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर जैसा नाही को देव ॥ जिसु मसतकि भागु सु लागा सेव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई। देव = देवता। मसतकि = माथे पर। भागु = अच्छी किस्मत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु जैसा कोई और देवता नहीं है। जिस (मनुष्य) के माथे पर अच्छी किस्मत (जाग उठे) वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मेरा सरब प्रतिपालै ॥ सतिगुरु मेरा मारि जीवालै ॥ सतिगुर मेरे की वडिआई ॥ प्रगटु भई है सभनी थाई ॥२॥

मूलम्

सतिगुरु मेरा सरब प्रतिपालै ॥ सतिगुरु मेरा मारि जीवालै ॥ सतिगुर मेरे की वडिआई ॥ प्रगटु भई है सभनी थाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रतिपालै = पालना करता है। मारि = (माया के मोह से) मार के। जीवालै = आत्मिक जीवन देता है। वडिआई = शोभा।2।
अर्थ: हे भाई! प्यारा गुरु सब जीवों की रक्षा करता है, (जो मनुष्य उसके दर पर आता है, उसको माया के मोह से उपराम करके) मार के आत्मिक जीवन दे देता है। हे भाई! गुरु की यह ऊँची शोभा हर जगह रौशन हो गई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मेरा ताणु निताणु ॥ सतिगुरु मेरा घरि दीबाणु ॥ सतिगुर कै हउ सद बलि जाइआ ॥ प्रगटु मारगु जिनि करि दिखलाइआ ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु मेरा ताणु निताणु ॥ सतिगुरु मेरा घरि दीबाणु ॥ सतिगुर कै हउ सद बलि जाइआ ॥ प्रगटु मारगु जिनि करि दिखलाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ताणु = सहारा। निताणु = निआसरा मनुष्य। घरि = हृदय घर में। दीबाणु = आसरा। कै = से। हउ = मैं। सद = सदा। बलि जाइआ = सदके हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। प्रगटु = प्रत्यक्ष, सीधा। मारगु = रास्ता।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का और कोई भी आसरा नहीं (जब वह गुरु की शरण आ पड़ता है) गुरु (उसका) आसरा बन जाता है, गुरु उसके हृदय-घर को सहारा देता है। हे भाई! जिस (गुरु) ने आत्मिक जीवन का सीधा रास्ता दिखा दिया है, मैं उससे सदा कुर्बान जाता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि गुरु सेविआ तिसु भउ न बिआपै ॥ जिनि गुरु सेविआ तिसु दुखु न संतापै ॥ नानक सोधे सिम्रिति बेद ॥ पारब्रहम गुर नाही भेद ॥४॥११॥२४॥

मूलम्

जिनि गुरु सेविआ तिसु भउ न बिआपै ॥ जिनि गुरु सेविआ तिसु दुखु न संतापै ॥ नानक सोधे सिम्रिति बेद ॥ पारब्रहम गुर नाही भेद ॥४॥११॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। न संतापै = दुखी नहीं कर सकता। सोधे = खोज के देख लिए हैं। भेद = फर्क, अंतर।4।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) ने गुरु की शरण ली है, कोई डर उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता। हे नानक! (कह: हे भाई!) स्मृतियां-वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) खोज के देख लिए हैं (गुरु सबसे ऊँचा है) गुरु और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है।4।11।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ नामु लैत मनु परगटु भइआ ॥ नामु लैत पापु तन ते गइआ ॥ नामु लैत सगल पुरबाइआ ॥ नामु लैत अठसठि मजनाइआ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ नामु लैत मनु परगटु भइआ ॥ नामु लैत पापु तन ते गइआ ॥ नामु लैत सगल पुरबाइआ ॥ नामु लैत अठसठि मजनाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लैत = लेते हुए, जपते हुए। परगटु = रौशन। तन ते = शरीर से। सगल पुरबाइआ = सारे पर्व, सारे पवित्र दिन। अठसठि = अढ़सठ (तीर्थ)। मजनाइआ = स्नान (हो जाता है)।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन (विकारों के अंधकार में से निकल के) रौशन हो जाता है (क्योंकि) नाम स्मरण करते हुए (हरेक किस्म का) पाप शरीर से दूर हो जाता है। हे भाई! नाम स्मरण करते हुए (मानो) सारे पर्व मनाए गए, नाम जपते हुए अढ़सठ तीर्थों का स्नान हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीरथु हमरा हरि को नामु ॥ गुरि उपदेसिआ ततु गिआनु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तीरथु हमरा हरि को नामु ॥ गुरि उपदेसिआ ततु गिआनु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमरा = हमारा। को = का। गुरि = गुरु ने। ततु गिआन = ज्ञान का तत्व, आत्मिक जीवन की सूझ का निचोड़।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही हमारा तीर्थ है। गुरु ने (हमें) आत्मिक जीवन की सूझ का यह निचोड़ समझा दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु लैत दुखु दूरि पराना ॥ नामु लैत अति मूड़ सुगिआना ॥ नामु लैत परगटि उजीआरा ॥ नामु लैत छुटे जंजारा ॥२॥

मूलम्

नामु लैत दुखु दूरि पराना ॥ नामु लैत अति मूड़ सुगिआना ॥ नामु लैत परगटि उजीआरा ॥ नामु लैत छुटे जंजारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूरि पराना = दूर हो जाता है। अति मूढ़ = बड़ा मूर्ख। सुगिआना = अच्छा समझदार। परगटि = प्रकट हो जाता है। छुटे = समाप्त हो जाते हैं। जंजारा = जंजाल, मन के मोह के बंधन।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन (विकारों के अंधेरे से निकल के) प्रकाशमान हो जाता है। हे भाई! नाम स्मरण करने से (जैसे) मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है (क्योंकि) नाम जपते हुए (मन के माया के मोह के सारे) बंधन कट जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु लैत जमु नेड़ि न आवै ॥ नामु लैत दरगह सुखु पावै ॥ नामु लैत प्रभु कहै साबासि ॥ नामु हमारी साची रासि ॥३॥

मूलम्

नामु लैत जमु नेड़ि न आवै ॥ नामु लैत दरगह सुखु पावै ॥ नामु लैत प्रभु कहै साबासि ॥ नामु हमारी साची रासि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नेड़ि = नजदीक। दरगह = परमात्मा की हजूरी में। कहै साबासि = आदर सत्कार करता है। साची = सदा कायम रहने वाली। रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपने से जम (मनुष्य के) नजदीक नहीं आता, मनुष्य परमात्मा की हजूरी में टिक के आत्मिक आनंद लेता है, नाम स्मरण करने से परमात्मा (भी) आदर-मान देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम ही हम जीवों के लिए सदा कायम रहने वाली राशि-पूंजी है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि उपदेसु कहिओ इहु सारु ॥ हरि कीरति मन नामु अधारु ॥ नानक उधरे नाम पुनहचार ॥ अवरि करम लोकह पतीआर ॥४॥१२॥२५॥

मूलम्

गुरि उपदेसु कहिओ इहु सारु ॥ हरि कीरति मन नामु अधारु ॥ नानक उधरे नाम पुनहचार ॥ अवरि करम लोकह पतीआर ॥४॥१२॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सारु = श्रेष्ठ। कीरति = कीर्ति, महिमा। अधारु = आसरा। उधरे = संसार समुंदर से पार लांघ गए। पुनहचार = किए पापों की निवृक्ति के लिए प्रायश्चित कर्म। अवरि = और। लोकह पतीआर = लोगों को (अपने धार्मिक होने की) तसल्ली देने के लिए।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु ने (मुझे) यह सबसे बढ़िया उपदेश दे दिया है कि परमात्मा की महिमा परमात्मा का नाम (ही) मन का आसरा है। हे नानक! वह मनुष्य (विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं, जो नाम जपने का प्रायश्चित कर्म करते हैं। और सारे (प्रायश्चित) कर्म लोगों की तसल्ली करवाने के लिए हैं (कि हम धार्मिक बन गए हैं)।4।12।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ नमसकार ता कउ लख बार ॥ इहु मनु दीजै ता कउ वारि ॥ सिमरनि ता कै मिटहि संताप ॥ होइ अनंदु न विआपहि ताप ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ नमसकार ता कउ लख बार ॥ इहु मनु दीजै ता कउ वारि ॥ सिमरनि ता कै मिटहि संताप ॥ होइ अनंदु न विआपहि ताप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता कउ = उस (परमात्मा) को। बार = बारी। वारि दीजै = सदके कर दें। ता कै सिमरनि = उस (प्रभु) के नाम-जपने की इनायत से। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। संताप = दुख-कष्ट। न विआपहि = अपना जोर नहीं डाल सकते।1।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा के आगे लाखों बार सिर झुकाना चाहिए, अपना यह मन उस परमात्मा के आगे भेट कर देना चाहिए। हे भाई! उस परमात्मा के नाम के नाम-जपने की इनायत से (सारे) दुख-कष्ट मिट जाते हैं, (मन में) खुशी पैदा होती है, कोई भी दुख अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो हीरा निरमल नाम ॥ जासु जपत पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसो हीरा निरमल नाम ॥ जासु जपत पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीरा = कीमती पदार्थ। निरमल = पवित्र (करने वाला)। जासु जपत = जिसको जपते हुए। सभि = सारे। काम = काम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जीवों के हृदय) पवित्र करने वाला हरि-नाम ऐसा कीमती पदार्थ है कि उसको जपते हुए सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा की द्रिसटि दुख डेरा ढहै ॥ अम्रित नामु सीतलु मनि गहै ॥ अनिक भगत जा के चरन पूजारी ॥ सगल मनोरथ पूरनहारी ॥२॥

मूलम्

जा की द्रिसटि दुख डेरा ढहै ॥ अम्रित नामु सीतलु मनि गहै ॥ अनिक भगत जा के चरन पूजारी ॥ सगल मनोरथ पूरनहारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा की द्रिसटि = जिस की (मेहर की) निगाह से। ढहै = ढहि जाता है (एकवचन)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सीतलु = ठंडा, शांति देने वाला। मनि = मन में। गहै = पकड़ के रखता है। पूजारी = पुजारी, पूजा करने वाला। मनोरथ = मांगें, जरूरतें। पूरनहारी = पूरी करने वाला।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की मेहर की निगाह से (मनुष्य के अंदर से) दुखों का डेरा ढहि जाता है, (जो मनुष्य उसका) आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने) मन में बसाता है (उसका हृदय) ठंडा-ठार हो जाता है। हे भाई! अनेक ही भक्त जिस परमात्मा के चरण पूज रहे हैं, वह प्रभु (अपने भक्तों के) सारे उद्देश्य पूरे करने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिन महि ऊणे सुभर भरिआ ॥ खिन महि सूके कीने हरिआ ॥ खिन महि निथावे कउ दीनो थानु ॥ खिन महि निमाणे कउ दीनो मानु ॥३॥

मूलम्

खिन महि ऊणे सुभर भरिआ ॥ खिन महि सूके कीने हरिआ ॥ खिन महि निथावे कउ दीनो थानु ॥ खिन महि निमाणे कउ दीनो मानु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊणे = खाली। सुभर = नाको नाक।3।
अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा का नाम) खाली (हृदयों) को एक छिन में (गुणों से) लबा-लब भर देता है, (आत्मिक जीवन वाले) सूखे हुओं को एक छिन में हरे कर देता है, जिसको कहीं कोई आदर-सत्कार नहीं देता, वह परमात्मा उसको एक छिन में आदर-मान बख्श देता है।3।

[[1143]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ महि एकु रहिआ भरपूरा ॥ सो जापै जिसु सतिगुरु पूरा ॥ हरि कीरतनु ता को आधारु ॥ कहु नानक जिसु आपि दइआरु ॥४॥१३॥२६॥

मूलम्

सभ महि एकु रहिआ भरपूरा ॥ सो जापै जिसु सतिगुरु पूरा ॥ हरि कीरतनु ता को आधारु ॥ कहु नानक जिसु आपि दइआरु ॥४॥१३॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहिआ भरपूरा = पूरी तौर पर बस रहा है। जापै = जपता है। ता को = उसके हृदय में। आधारु = आसरा। दइआरु = दयावान।4।
अर्थ: हे भाई! सब जीवों में वह परमात्मा ही पूरे तौर पर बस रहा है। (पर उसका नाम) वह मनुष्य (ही) जपता है, जिसको पूरा गुरु (प्रेरित करता है)। हे नानक! कह: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं दयावान होता है उसके हृदय में परमात्मा की महिमा आसरा बन जाती है।4।13।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ मोहि दुहागनि आपि सीगारी ॥ रूप रंग दे नामि सवारी ॥ मिटिओ दुखु अरु सगल संताप ॥ गुर होए मेरे माई बाप ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ मोहि दुहागनि आपि सीगारी ॥ रूप रंग दे नामि सवारी ॥ मिटिओ दुखु अरु सगल संताप ॥ गुर होए मेरे माई बाप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। दोहागनि = (दुर्भागिनी) बुरे भाग्यों वाली। सीगारी = श्रृंगार लिया, सजा ली। दे = दे कर। नामि = नाम में (जोड़ के)। सवारी = सुंदर बना ली। अरु = और (अरि = वैरी)। संताप = कष्ट। माई = माँ।1।
अर्थ: हे सहेलियो! (मैं) बुरे भाग्यों वाली (थी) मुझे (पति-प्रभु ने) स्वयं (आत्मिक जीवन के गहनों से) सजा लिया, (मुझे सुंदर आत्मिक) रूप दे के (सुंदर) प्रेम बख्श कर (अपने) नाम में (जोड़ के उसने मुझे) सुंदर आत्मिक जीवन वाली बना लिया। हे सहेलियो! (मेरे अंदर से) दुख मिट गया है सारे कष्ट मिट गए हैं (ये सारी मेहर गुरु ने कराई है, गुरु ने ही कंत प्रभु से मिलाया है) सतिगुरु ही (मेरे वास्ते) मेरी माँ मेरा पिता बना है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखी सहेरी मेरै ग्रसति अनंद ॥ करि किरपा भेटे मोहि कंत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सखी सहेरी मेरै ग्रसति अनंद ॥ करि किरपा भेटे मोहि कंत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सखिओ! सहेरी = हे सहेलीयो! मेरै ग्रसति = मेरे (हृदय-) घर में। करि = कर के। भेटे = मिल गए हैं। मोहि = मुझे। कंत = पति (प्रभु) जी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी सखियो! हे मेरी सहेलियो! मेरे (हृदय-) घर में आत्मिक आनंद बन गया है, (क्योंकि) मेरे पति (प्रभु) जी मेहर कर के मुझे मिल गए हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपति बुझी पूरन सभ आसा ॥ मिटे अंधेर भए परगासा ॥ अनहद सबद अचरज बिसमाद ॥ गुरु पूरा पूरा परसाद ॥२॥

मूलम्

तपति बुझी पूरन सभ आसा ॥ मिटे अंधेर भए परगासा ॥ अनहद सबद अचरज बिसमाद ॥ गुरु पूरा पूरा परसाद ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तपति = (तृष्णा अग्नि की) जलन। परगासा = रौशनी। अनहद सबद = एक रस सारे साजों का राग। बिसमाद = हैरान कर देने वाली अवस्था। परसाद = कृपा।2।
अर्थ: हे सहेलियो! (अब मेरे अंदर से तृष्णा की आग की) जलन बुझ गई है, मेरी हरेक आशा पूरी हो गई है, (मेरे अंदर से माया के मोह के सारे) अंधेरे मिट गए हैं, (मेरे अंदर से आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो गया है (अब यूँ हो गया है जैसे) एक-रस सारे साजों के राग (मेरे अंदर हो रहे हैं) (मेरे अंदर) आश्चर्य और हैरान करने वाली (ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई है)। (हे सहेलियो! यह सब कुछ) पूरा गुरु ही (करने वाला है, यह) पूरे (गुरु की ही) मेहर हुई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ प्रगट भए गोपाल ॥ ता कै दरसनि सदा निहाल ॥ सरब गुणा ता कै बहुतु निधान ॥ जा कउ सतिगुरि दीओ नामु ॥३॥

मूलम्

जा कउ प्रगट भए गोपाल ॥ ता कै दरसनि सदा निहाल ॥ सरब गुणा ता कै बहुतु निधान ॥ जा कउ सतिगुरि दीओ नामु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस को, जिसके हृदय में। ता कै दरसनि = उसके दर्शन से। निहाल = प्रसन्न। ता कै = उसके अंदर। निधान = खजाना। सतिगुरि = गुरु ने।3।
अर्थ: हे सहेलियो! जिस (सौभाग्यशाली) के अंदर गोपाल-प्रभु प्रकट हो जाता है, उसके दर्शन की इनायत से सदा निहाल हो जाया जाता है। हे सहेलियो! जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा का नाम (-खजाना) दे दिया, उसके हृदय में सारे (आत्मिक) गुण पैदा हो जाते हैं उसके अंदर (मानो) भारा खजाना एकत्र हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ भेटिओ ठाकुरु अपना ॥ मनु तनु सीतलु हरि हरि जपना ॥ कहु नानक जो जन प्रभ भाए ॥ ता की रेनु बिरला को पाए ॥४॥१४॥२७॥

मूलम्

जा कउ भेटिओ ठाकुरु अपना ॥ मनु तनु सीतलु हरि हरि जपना ॥ कहु नानक जो जन प्रभ भाए ॥ ता की रेनु बिरला को पाए ॥४॥१४॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटिओ = मिल गया। सीतलु = शांत। जपना = जपते हुए। भाए = प्यारे लगे। ता की = उनकी। रेनु = चरण धूल। बिरला को = कोई विरला मनुष्य।4।
अर्थ: हे सहेलियो! जिस मनुष्य को अपना मालिक-प्रभु मिल जाता है, परमात्मा का नाम हर वक्त जपते हुए उसका मन उसका तन ठंडा-ठार हो जाता है।
हे नानक! कह: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को प्यारे लगने लग जाते हैं, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य उनके चरणों की धूल हासिल करता है।4।14।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ चितवत पाप न आलकु आवै ॥ बेसुआ भजत किछु नह सरमावै ॥ सारो दिनसु मजूरी करै ॥ हरि सिमरन की वेला बजर सिरि परै ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ चितवत पाप न आलकु आवै ॥ बेसुआ भजत किछु नह सरमावै ॥ सारो दिनसु मजूरी करै ॥ हरि सिमरन की वेला बजर सिरि परै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितवत = चितवते हुए, सोचते हुए। आलकु = आलस। भजत = भोगते हुए। बजर = बिजली, वज्र। सरि = सिर पर।1।
अर्थ: हे भाई! (गलत राह पर पड़ा हुआ मनुष्य) पाप सोचते हुए (रक्ती भर भी) ढील नहीं करता, वेश्या के द्वार पर जाने से भी थोड़ी सी शर्म नहीं करता। (माया की खातिर) सारा ही दिन मजदूरी कर सकता है, पर जब परमात्मा के स्मरण का वक्त होता है (तब ऐसा होता है जैसे इसके) सिर पर बिजली आ गिरी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ लगि भूलो संसारु ॥ आपि भुलाइआ भुलावणहारै राचि रहिआ बिरथा बिउहार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माइआ लगि भूलो संसारु ॥ आपि भुलाइआ भुलावणहारै राचि रहिआ बिरथा बिउहार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लगि = लग के, पड़ कर। भूलो = गलत राह पर पड़ा हुआ है। भुलावणहारै = गलत रास्ते पर डालने की समर्थता वाले हरि ने। राचि रहिआ = मगन हो रहा है। बिउहार = व्यवहारों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जगत माया के मोह में फंस के गलत राह पर पड़ा रहता है। (पर, जगत के भी क्या वश?) गलत राह पर डालने वाले परमात्मा ने खुद (ही जगत को) गलत मार्ग पर डाला हुआ है (इस वास्ते जगत) व्यर्थ के व्यवहारों में ही मगन रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखत माइआ रंग बिहाइ ॥ गड़बड़ करै कउडी रंगु लाइ ॥ अंध बिउहार बंध मनु धावै ॥ करणैहारु न जीअ महि आवै ॥२॥

मूलम्

पेखत माइआ रंग बिहाइ ॥ गड़बड़ करै कउडी रंगु लाइ ॥ अंध बिउहार बंध मनु धावै ॥ करणैहारु न जीअ महि आवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माइआ रंग = माया के रंग तमाशे। बिहाइ = (उम्र) बीतती है। गड़बड़ = (हिसाब में) हेरा फेरी। रंगु = प्यार। कउडी = तुच्छ माया में। लाइ = लगा के। अंध बिउहार = (माया के मोह में) अंधे कर देने वाले कार्य व्यवहार। बंध = बंधन। धावै = दौड़ता है। जीअ महि = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! माया के रंग-तमाशे देखते ही (गलत मार्ग पर पड़े मनुष्य की उम्र) बीत जाती है, तुच्छ सी माया से प्यार डाल के (रोजाना कार्य-व्यवहार में भी) हेरा-फेरी करता रहता है। हे भाई! माया के मोह में अंधा कर देने वाला कार्य-व्यवहार के बंधनो की ओर (कुमार्ग पर पड़े मनुष्य का) मन दौड़ता रहता है, पर पैदा करने वाला परमात्मा इसके हृदय को याद नहीं आता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करत करत इव ही दुखु पाइआ ॥ पूरन होत न कारज माइआ ॥ कामि क्रोधि लोभि मनु लीना ॥ तड़फि मूआ जिउ जल बिनु मीना ॥३॥

मूलम्

करत करत इव ही दुखु पाइआ ॥ पूरन होत न कारज माइआ ॥ कामि क्रोधि लोभि मनु लीना ॥ तड़फि मूआ जिउ जल बिनु मीना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करत करत = करते करते। इव ही = इसी तरह। कारज = काम (बहुवचन)। कामि = काम-वासना में। तड़फि मूआ = दुखी हो हो के आत्मिक मौत सहेड़े जाता है। मीना = मछली।3।
अर्थ: हे भाई! (कुमार्ग पर पड़ा मनुष्य) इस तरह करते-करते दुख भोगता है, माया वाले (इसके) काम कभी समाप्त नहीं होते। काम-वासना में, क्रोध में, लोभ में (इस का) मन डूबा रहता है; जैसे मछली पानी के बग़ैर तड़फ-तड़फ के मरती है, वैसे ही नाम के बिना विकारों में ग्रसित हो-हो के ये आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस के राखे होए हरि आपि ॥ हरि हरि नामु सदा जपु जापि ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ ॥ नानक सतिगुरु पूरा पाइआ ॥४॥१५॥२८॥

मूलम्

जिस के राखे होए हरि आपि ॥ हरि हरि नामु सदा जपु जापि ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ ॥ नानक सतिगुरु पूरा पाइआ ॥४॥१५॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जापि = जपता है। साध संगि = गुरु की संगति में। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: पर, हे भाई! प्रभु जी स्वयं जिस मनुष्य के रक्षक बन गए, वह मनुष्य सदा ही प्रभु का नाम जपता है। हे नानक! जिस मनुष्य को (प्रभु की कृपा से) पूरा गुरु मिल जाता है, वह साधु-संगत में रह कर परमात्मा के गुण गाता है।4।15।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ अपणी दइआ करे सो पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ साच सबदु हिरदे मन माहि ॥ जनम जनम के किलविख जाहि ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ अपणी दइआ करे सो पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ साच सबदु हिरदे मन माहि ॥ जनम जनम के किलविख जाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करे = (परमात्मा) स्वयं करता है। सो पाए = वह (मनुष्य हरि नाम) प्राप्त कर लेता है। मंनि = मन में। साच सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। किलविख = (सारे) पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं (बहुवचन)।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा अपनी मेहर करता है, वह मनुष्य (हरि-नाम का स्मरण) प्राप्त कर लेता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम अपने मन में बसा लेता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द अपने हृदय में अपने मन में टिकाए रखता है (जिसकी इनायत से मनुष्य के) अनेक जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु जीअ को आधारु ॥ गुर परसादि जपहु नित भाई तारि लए सागर संसारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम नामु जीअ को आधारु ॥ गुर परसादि जपहु नित भाई तारि लए सागर संसारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ को = जिंद का। आधारु = आसरा। परसादि = कृपा से। भाई = हे भाई! सागर = समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (मनुष्य की) जिंद का आसरा है। (इसलिए) गुरु की कृपा से (यह नाम) सदा जपा करो, (प्रभु का नाम) संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ लिखिआ हरि एहु निधानु ॥ से जन दरगह पावहि मानु ॥ सूख सहज आनंद गुण गाउ ॥ आगै मिलै निथावे थाउ ॥२॥

मूलम्

जिन कउ लिखिआ हरि एहु निधानु ॥ से जन दरगह पावहि मानु ॥ सूख सहज आनंद गुण गाउ ॥ आगै मिलै निथावे थाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। से जन = वह लोग (बहुवचन)। मानु = आदर। सहज = आत्मिक अडोलता। आगै = परमात्मा की हजूरी में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के माथे पर परमात्मा ने इस नाम-खजाने की प्राप्ति लिखी होती है, वह मनुष्य (नाम जप के) परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं। हे भाई! परमात्मा के गुण गाया करो, (गुण गाने की इनायत से) आत्मिक अडोलता के सुख आनंद (प्राप्त होते हैं), (जिस मनुष्य को जगत में) कोई भी जीव सहारा नहीं देता, उसको परमात्मा की हजूरी में जगह मिलती है।2।

[[1144]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुगह जुगंतरि इहु ततु सारु ॥ हरि सिमरणु साचा बीचारु ॥ जिसु लड़ि लाइ लए सो लागै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥३॥

मूलम्

जुगह जुगंतरि इहु ततु सारु ॥ हरि सिमरणु साचा बीचारु ॥ जिसु लड़ि लाइ लए सो लागै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुगह जुगंतरि = जुग जुग अंतर में, हरेक युग में। ततु = तत्व, अस्लियत। सारु = अस्लियत, निचोड़। साचा = सदा कायम रहने वाला। लड़ि = पल्ले से। जागै = जाग उठता है।3।
अर्थ: हे भाई! (युग चाहे कोई भी हो) हरेक युग में परमात्मा का नाम-जपना ही (आत्मिक जीवन जीने की) सही विचार है (यह नाम-जपना ही जीवन-जुगति का) तत्व है निचोड़ है। पर, जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं अपने लड़ लगा लेता है, वही लगता है, वही मनुष्य (माया के मोह की नींद में से) अनेक जन्मों में सोया हुआ जाग उठता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरे भगत भगतन का आपि ॥ अपणी महिमा आपे जापि ॥ जीअ जंत सभि तेरै हाथि ॥ नानक के प्रभ सद ही साथि ॥४॥१६॥२९॥

मूलम्

तेरे भगत भगतन का आपि ॥ अपणी महिमा आपे जापि ॥ जीअ जंत सभि तेरै हाथि ॥ नानक के प्रभ सद ही साथि ॥४॥१६॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, शोभा। आपे = स्वयं ही। जापि = (तू) जपता है। सभि = सारे। हाथि = हाथ में, वश में। प्रभ = हे प्रभु! सद = सदा। साथि = साथ।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त (तेरे सहारे हैं), तू स्वयं अपने भक्तों का (सदा रखवाला है)। (भक्तों में बैठ के) तू स्वयं ही बड़ाई करता है। हे नानक के प्रभु! सारे ही जीव-जंतु तेरे ही वश में हैं, तू सब जीवों के सदा अंग-संग रहता है।4।16।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ नामु हमारै अंतरजामी ॥ नामु हमारै आवै कामी ॥ रोमि रोमि रविआ हरि नामु ॥ सतिगुर पूरै कीनो दानु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ नामु हमारै अंतरजामी ॥ नामु हमारै आवै कामी ॥ रोमि रोमि रविआ हरि नामु ॥ सतिगुर पूरै कीनो दानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय में, मेरे वास्ते। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। आवै कामी = काम आता है, हरेक काम सँवारता है। रोमि रोमि = हरेक रोम में। रविआ = रच रहा है। सतिगुर पूरै = पूरे गुरु ने।1।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने मुझे (हरि-नाम रतन का) दान दिया है, (अब) सबके दिल की जानने वाले हरि का नाम मेरे हृदय में बस रहा है, हरि-नाम मेरे सारे काम सँवार रहा है, (गुरु की कृपा से) हरि-नाम मेरे रोम-रोम में बस गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु रतनु मेरै भंडार ॥ अगम अमोला अपर अपार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नामु रतनु मेरै भंडार ॥ अगम अमोला अपर अपार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरै = मेरे वास्ते, मेरे दिल में। रतनु = कीमती पदार्थ। भंडार = खजाने। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अमोला = जो किसी दुनियावी पदार्थ के बदले ना मिल सके। अपर अपार = बेअंत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (पूरे गुरु की कृपा से) अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का कीमती नाम मेरे हृदय में आ बसा है, यह ऐसा खजाना है जो किसी कीमत से नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु हमारै निहचल धनी ॥ नाम की महिमा सभ महि बनी ॥ नामु हमारै पूरा साहु ॥ नामु हमारै बेपरवाहु ॥२॥

मूलम्

नामु हमारै निहचल धनी ॥ नाम की महिमा सभ महि बनी ॥ नामु हमारै पूरा साहु ॥ नामु हमारै बेपरवाहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहचल धनी = सदा कायम रहने वाला मालिक। महिमा = बड़ाई। पूरा साहु = वह शाह जिसके घर में कोई किसी चीज़ की कमी ना हो। वेपरवाहु = बेमुथाज।2।
अर्थ: हे भाई! अब परमात्मा का नाम ही (मेरे सिर पर) सदा कायम रहने वाला मालिक है। हरि-नाम की महिमा ही सब जीवों के अंदर शोभा दे रही है। हे भाई! अब परमात्मा का नाम ही (मेरे लिए वह) शाह है जिसके घर में कोई कमी नहीं, हरि-नाम ही (मेरे सिर पर वह) मालिक है जिसको किसी की अधीनता नहीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु हमारै भोजन भाउ ॥ नामु हमारै मन का सुआउ ॥ नामु न विसरै संत प्रसादि ॥ नामु लैत अनहद पूरे नाद ॥३॥

मूलम्

नामु हमारै भोजन भाउ ॥ नामु हमारै मन का सुआउ ॥ नामु न विसरै संत प्रसादि ॥ नामु लैत अनहद पूरे नाद ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। सुआउ = स्वार्थ, मांग, उद्देश्य। संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। अनहद नाद = एक रस बज रहे बाजे।3।
अर्थ: हे भाई! (जब से पूरे गुरु ने मुझे नाम का दान दिया है, तब से) परमात्मा का नाम परमात्मा के नाम का प्यार ही मेरी आत्मिक खुराक बन गई है। हरि-नाम ही हर वक्त मेरे मन की मुराद हो गई है। हे भाई! गुरु-संत की कृपा से परमात्मा का नाम मुझे कभी नहीं भूलता। हे भाई! नाम जपते हुए (अंतरात्मे में ऐसा प्रतीत होता है कि) सारे संगीतमयी साज़ एक-रस बजने लग पड़े हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ किरपा ते नामु नउ निधि पाई ॥ गुर किरपा ते नाम सिउ बनि आई ॥ धनवंते सेई परधान ॥ नानक जा कै नामु निधान ॥४॥१७॥३०॥

मूलम्

प्रभ किरपा ते नामु नउ निधि पाई ॥ गुर किरपा ते नाम सिउ बनि आई ॥ धनवंते सेई परधान ॥ नानक जा कै नामु निधान ॥४॥१७॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से, साथ। नउनिधि = धरती के नौ ही खजाने। सिउ = साथ। सेई = वह लोग। जा कै = जिस के हृदय में। निधान = खजाना।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की किरपा से मुझे (उसका) नाम मिल गया है (जो मेरे लिए, मानो, धरती के सारे) नौ खजाने हैं। गुरु की कृपा से मेरा प्यार परमात्मा के नाम से बन गया है।
हे नानक! जिस मनुष्यों के हृदय में नाम-खजाना (आ बसता है), वही (असल) धनाढ हैं, वही (लोक-परलोक में) सम्मानीय व्यक्ति हैं।4।17।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ तू मेरा पिता तूहै मेरा माता ॥ तू मेरे जीअ प्रान सुखदाता ॥ तू मेरा ठाकुरु हउ दासु तेरा ॥ तुझ बिनु अवरु नही को मेरा ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ तू मेरा पिता तूहै मेरा माता ॥ तू मेरे जीअ प्रान सुखदाता ॥ तू मेरा ठाकुरु हउ दासु तेरा ॥ तुझ बिनु अवरु नही को मेरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ दाता = जिंद देने वाला, प्राण दाता। प्रान दाता = प्राण देने वाला। सुख दाता = सारे सुख देने वाला। ठाकुर = मालिक। हउ = मैं। अवरु को = कोई और।1।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे वास्ते तू ही पिता है, मेरे वास्ते तू ही माँ है। तू ही मुझे जिंद देने वाला है, तू ही मुझे प्राण देने वाला है, तू ही मुझे सारे सुख देने वाला है। तू मेरा मालिक है, मैं तेरा सेवक हूँ। तेरे बिना और कोई मेरा (आसरा) नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा करहु प्रभ दाति ॥ तुम्हरी उसतति करउ दिन राति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करि किरपा करहु प्रभ दाति ॥ तुम्हरी उसतति करउ दिन राति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभ = हे प्रभु! उसतति = महिमा। करउ = करूँ, मैं करता रहूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेहर कर के (मुझे यह) दाति बख्श (कि) मैं दिन-रात तेरी महिमा करता रहूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम तेरे जंत तू बजावनहारा ॥ हम तेरे भिखारी दानु देहि दातारा ॥ तउ परसादि रंग रस माणे ॥ घट घट अंतरि तुमहि समाणे ॥२॥

मूलम्

हम तेरे जंत तू बजावनहारा ॥ हम तेरे भिखारी दानु देहि दातारा ॥ तउ परसादि रंग रस माणे ॥ घट घट अंतरि तुमहि समाणे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंत = यंत्र, साज़। भिखारी = भिखारी। देहि = तू देता है। तउ परसादि = तेरी कृपा से। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। तुमहि = तू ही।2।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव तेरे (संगीतक) साज़ हैं, तू (इन साज़ों को) बजाने वाला है। हे दातार! हम तेरे (दर के) भिखारी हैं, तू हमें दान देता है। तेरी मेहर से ही हम (बेअंत) रंग-रस पा रहे हैं। हे प्रभु! हरेक शरीर में तू ही मौजूद है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्हरी क्रिपा ते जपीऐ नाउ ॥ साधसंगि तुमरे गुण गाउ ॥ तुम्हरी दइआ ते होइ दरद बिनासु ॥ तुमरी मइआ ते कमल बिगासु ॥३॥

मूलम्

तुम्हरी क्रिपा ते जपीऐ नाउ ॥ साधसंगि तुमरे गुण गाउ ॥ तुम्हरी दइआ ते होइ दरद बिनासु ॥ तुमरी मइआ ते कमल बिगासु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से, साथ। जपीऐ = जपा जा सकता है। साध संगि = गुरु की संगति में। गाउ = मैं गाता रहूँ। दरद बिनासु = दर्द का नाश। मइआ = कृपा। बिगासु = विगास, खुशियां, खेड़ा।3।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर से ही तेरा नाम जपा जा सकता है, (मेहर कर कि) मैं साधु-संगत में टिक के तेरे गुण गाता रहूँ।
हे प्रभु! तेरी मेहर से (ही) मेरे हरेक दर्द का नाश होता है, तेरी मेहर से (ही) मेरा हृदय-कमल खिलता है (मुझे प्रसन्नता मिलती है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ बलिहारि जाउ गुरदेव ॥ सफल दरसनु जा की निरमल सेव ॥ दइआ करहु ठाकुर प्रभ मेरे ॥ गुण गावै नानकु नित तेरे ॥४॥१८॥३१॥

मूलम्

हउ बलिहारि जाउ गुरदेव ॥ सफल दरसनु जा की निरमल सेव ॥ दइआ करहु ठाकुर प्रभ मेरे ॥ गुण गावै नानकु नित तेरे ॥४॥१८॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। जाउ = मैं जाऊँ। सफल = फल देने वाला। निरमल = पवित्र करने वाली। प्रभ = हे प्रभु! गावै = गाता रहे।4।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ, उस गुरु का दर्शन मुरादें पूरी करने वाला है, उस गुरु की सेवा जीवन को पवित्र बनाती है। हे मेरे ठाकुर! हे मेरे प्रभु! मेहर कर, (तेरा दास) नानक सदा तेरे गुण गाता रहे।4।18।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ सभ ते ऊच जा का दरबारु ॥ सदा सदा ता कउ जोहारु ॥ ऊचे ते ऊचा जा का थान ॥ कोटि अघा मिटहि हरि नाम ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ सभ ते ऊच जा का दरबारु ॥ सदा सदा ता कउ जोहारु ॥ ऊचे ते ऊचा जा का थान ॥ कोटि अघा मिटहि हरि नाम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ ते = सब (पातिशाहियों के दरबारों) से। जा का = जिस (प्रभु पातशाह) का। ता कउ = उसको। जोहारु = नमस्कार। कोटि = करोड़ों। अघा = पाप। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)।1।
अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) का दरबार सब (पातिशाहियों के दरबारों) से ऊँचा है, उस (प्रभु-पातशाह) को सदा ही सदा नमस्कार करनी चाहिए। हे भाई! जिस प्रभु-पातशाह का महल ऊँचे से ऊँचा है, उस हरि-पातिशाह के नाम की इनायत से करोड़ों पाप खत्म हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु सरणाई सदा सुखु होइ ॥ करि किरपा जा कउ मेलै सोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तिसु सरणाई सदा सुखु होइ ॥ करि किरपा जा कउ मेलै सोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरणाई = शरण पड़े को। जा कउ = जिस (मनुष्य) को। सोइ = वह (प्रभु आप) ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! वह प्रभु स्वयं ही मेहर कर के जिस मनुष्य को अपने चरणों में जोड़ता है, उस (प्रभु) की शरण में (रह के) उसको सदा आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा के करतब लखे न जाहि ॥ जा का भरवासा सभ घट माहि ॥ प्रगट भइआ साधू कै संगि ॥ भगत अराधहि अनदिनु रंगि ॥२॥

मूलम्

जा के करतब लखे न जाहि ॥ जा का भरवासा सभ घट माहि ॥ प्रगट भइआ साधू कै संगि ॥ भगत अराधहि अनदिनु रंगि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लखे न जाहि = समझे नहीं जा सकते। भरवासा = सहारा। घट = हृदय। साधू कै संगि = गुरु की संगति में। अराधहि = जपते हैं, जपते हैं। अनदिनु = हर रोज़, हर वक्त। रंगि = प्रेम से।2।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु-पातशाह के चोज-तमाशे समझे नहीं जा सकते, जिस परमात्मा का सहारा हरेक जीव के हृदय में है, वह प्रभु-पातशाह गुरु की संगति में रहने से (मनुष्य के हृदय में) प्रकट हो जाता है। उस के भक्त हर वक्त प्रेम से उसका नाम जपते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देदे तोटि नही भंडार ॥ खिन महि थापि उथापनहार ॥ जा का हुकमु न मेटै कोइ ॥ सिरि पातिसाहा साचा सोइ ॥३॥

मूलम्

देदे तोटि नही भंडार ॥ खिन महि थापि उथापनहार ॥ जा का हुकमु न मेटै कोइ ॥ सिरि पातिसाहा साचा सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देदे = देते हुए। तोटि = कमी, घाटा। थापि = पैदा कर के। उथापनहारा = नाश कर सकने वाला। न मेटै = मोड़ नहीं सकता। सिरि पातिशाहा = (सारे) बातशाहों के सिर पर। साचा = सदा कायम रहने वाला।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस की’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। तिस ही: ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (दुनिया के) पातिशाहों के सिर पर सदा कायम रहने वाला (पातिशाह) वह (परमात्मा) ही है, (जीवों को बेअंत दातें) देते हुए भी (उसके) खजानों में कभी कोई कमी नहीं आती, वह एक छिन में पैदा करके नाश करने की सामर्थ्य रखता है। हे भाई! कोई भी जीव उसका हुक्म मोड़ नहीं सकता।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस की ओट तिसै की आसा ॥ दुखु सुखु हमरा तिस ही पासा ॥ राखि लीनो सभु जन का पड़दा ॥ नानकु तिस की उसतति करदा ॥४॥१९॥३२॥

मूलम्

जिस की ओट तिसै की आसा ॥ दुखु सुखु हमरा तिस ही पासा ॥ राखि लीनो सभु जन का पड़दा ॥ नानकु तिस की उसतति करदा ॥४॥१९॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = सारा, हर जगह।4।
अर्थ: हे भाई! (दुखों से बचने के लिए हम जीवों को) जिस (परमात्मा) का आसरा है, (सुखों की प्राप्ति के लिए भी) उसी की (सहायता की) आस है। हे भाई! दुख (से बचने के लिए, और) सुख (की प्राप्ति के लिए) हम जीवों की उसके पास ही (सदा अरदास) है। हे भाई! अपने सेवक की इज्जत परमात्मा हर जगह रख लेता है, नानक उस की (ही सदा) महिमा करता है।4।19।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ रोवनहारी रोजु बनाइआ ॥ बलन बरतन कउ सनबंधु चिति आइआ ॥ बूझि बैरागु करे जे कोइ ॥ जनम मरण फिरि सोगु न होइ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ रोवनहारी रोजु बनाइआ ॥ बलन बरतन कउ सनबंधु चिति आइआ ॥ बूझि बैरागु करे जे कोइ ॥ जनम मरण फिरि सोगु न होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रोजु = हर रोज का नियम। बलन = व्यवहार। बलन बरतन कउ = वरतण व्यवहार की खातिर। चिति = चिक्त में। बूझि = (जगत के संबंध को) समझ के। कोइ = कोई मनुष्य। बैरागु = निर्मोहता। सोगु = ग़म।1।
अर्थ: हे भाई! (किसी संबंधी के मरने से मायावी संबंधों के कारण ही) रोने वाली स्त्री (रोनेको) हर रोज नियम बनाए रखती है (क्योंकि उसको विछुड़े हुए संबंधी के साथ) वरतण-व्यवहार का संबंध याद आता रहता है। पर, अगर कोई प्राणी (यह) समझ के (कि ये मायावी संबंध सदा कायम नहीं रह सकते अपने अंदर) निर्मोहता पैदा कर ले, तो उसको (किसी के) जनम (की खुशी, और, किसी के) मरने का ग़म नहीं व्यापता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिखिआ का सभु धंधु पसारु ॥ विरलै कीनो नाम अधारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिखिआ का सभु धंधु पसारु ॥ विरलै कीनो नाम अधारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। धंधु = धंधा, दुनियादारी। अधारु = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जगत में) माया का ही सारा धंधा है, माया का ही सारा पसारा है। किसी विरले मनुष्य ने (माया का आसरा छोड़ के) परमात्मा के नाम का आसरा लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिबिधि माइआ रही बिआपि ॥ जो लपटानो तिसु दूख संताप ॥ सुखु नाही बिनु नाम धिआए ॥ नाम निधानु बडभागी पाए ॥२॥

मूलम्

त्रिबिधि माइआ रही बिआपि ॥ जो लपटानो तिसु दूख संताप ॥ सुखु नाही बिनु नाम धिआए ॥ नाम निधानु बडभागी पाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिबिधि = तीनगुणों वाली। रही बिआपि = (अपना) जोर डाल रही है। लपटानो = चिपकता है। संताप = (अनेक) कष्ट। निधानु = खजाना।2।
अर्थ: हे भाई! यह त्रैगुणी माया (सारे जीवों पर अपना) जोर डाल रही है। जो मनुष्य (इस माया के साथ) चिपका रहता है, उसको (अनेक) कष्ट व्यापते रहते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना सुख हासिल नहीं होसकता। कोई विरला भाग्यशाली मनुष्य ही नाम-खजाना हासिल करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वांगी सिउ जो मनु रीझावै ॥ स्वागि उतारिऐ फिरि पछुतावै ॥ मेघ की छाइआ जैसे बरतनहार ॥ तैसो परपंचु मोह बिकार ॥३॥

मूलम्

स्वांगी सिउ जो मनु रीझावै ॥ स्वागि उतारिऐ फिरि पछुतावै ॥ मेघ की छाइआ जैसे बरतनहार ॥ तैसो परपंचु मोह बिकार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। रीझावै = रिझाता है, परचाता है। स्वागि उतारिऐ = जब स्वांग उतार दिया जाता है। मेघ = बादल। परपंचु = जगत पसारा।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य किसी स्वांगधारी (बहरूपिए, भेस करके दिखावा करने वाले) के साथ प्यार डाल लेता है, जब वह स्वांग उतार दिया जाता है तब वह (प्यार डालने वाला अस्लियत देख के) पछताता है। हे भाई! जैसे बादलों की छाया (को ठहरी हुई छाया समझ के उसका) उपयोग करना है, वैसे ही यह जगत-पसारा मोह आदि विकारों का मूल है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक वसतु जे पावै कोइ ॥ पूरन काजु ताही का होइ ॥ गुर प्रसादि जिनि पाइआ नामु ॥ नानक आइआ सो परवानु ॥४॥२०॥३३॥

मूलम्

एक वसतु जे पावै कोइ ॥ पूरन काजु ताही का होइ ॥ गुर प्रसादि जिनि पाइआ नामु ॥ नानक आइआ सो परवानु ॥४॥२०॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वसतु = नाम पदार्थ। ताही का = उसी का। प्रसादि = कृपा से। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। आइआ = जगत में पैदा हुआ।4।
अर्थ: हे भाई! अगर कोई मनुष्य परमात्मा का नाम खजाना हासिल कर ले, उसी का ही (जीवन का असल) काम सफल होता है। हे नानक! जगत में पैदा हुआ वही मनुष्य (लोक-परलोक में) स्वीकार होता है जिसने गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम हासिल कर लिया है।4।20।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ संत की निंदा जोनी भवना ॥ संत की निंदा रोगी करना ॥ संत की निंदा दूख सहाम ॥ डानु दैत निंदक कउ जाम ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ संत की निंदा जोनी भवना ॥ संत की निंदा रोगी करना ॥ संत की निंदा दूख सहाम ॥ डानु दैत निंदक कउ जाम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंदा = आचरण पर दूषण लगाने। सहाम = सहने पड़ते हैं। डानु = दण्ड, सजा। जाम = जमराज।1।
अर्थ: हे भाई! किसी गुरमुख के आचरण पर बेवजही दूषण लगाने से मनुष्य कई जूनियों में भटकता फिरता है, क्योंकि वह मनुष्य उन दुष्टों का जिकर करता-करता खुद ही अपने आप को उन दुष्टों का शिकार बना लेता है, (इसका नतीजा यह निकलता है कि यहाँ जगत में वह मनुष्य उस) निंदा के कारण (कई आत्मिक) दुख सहता रहता है (और आगे परलोक में भी) निंदक को जमराज सजा देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतसंगि करहि जो बादु ॥ तिन निंदक नाही किछु सादु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतसंगि करहि जो बादु ॥ तिन निंदक नाही किछु सादु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। करहि = करते हैं (बहुवचन)। बादु = झगड़ा। सादु = स्वाद, आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के भक्त के साथ झगड़ा खड़ा किए रखते हैं, उन निंदकों को जीवन का कोई आत्मिक आनंद नहीं आता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत की निंदा कंधु छेदावै ॥ भगत की निंदा नरकु भुंचावै ॥ भगत की निंदा गरभ महि गलै ॥ भगत की निंदा राज ते टलै ॥२॥

मूलम्

भगत की निंदा कंधु छेदावै ॥ भगत की निंदा नरकु भुंचावै ॥ भगत की निंदा गरभ महि गलै ॥ भगत की निंदा राज ते टलै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंधु = शरीर। छेदावै = (विकारों से) परो देती है। भुंचावै = भोगाती है। गरभ महि = अनेक जूनियों में। राज ते = ऊँची आत्मिक पदवी से। टलै = नीचे गिर जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! किसी गुरमुख पर कीचड़ उछालने से मनुष्य अपने ही शरीर को उन दूषणों से परो लेता है (इस तरह) गुरमुख की निंदा (निंदा करने वाले को) नर्क (का दुख) भोगाती है, उस निंदा करने के कारण मनुष्य अनेक जूनियों में गलता फिरता है, और उच्च आत्मिक पदवी से नीचे गिर जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदक की गति कतहू नाहि ॥ आपि बीजि आपे ही खाहि ॥ चोर जार जूआर ते बुरा ॥ अणहोदा भारु निंदकि सिरि धरा ॥३॥

मूलम्

निंदक की गति कतहू नाहि ॥ आपि बीजि आपे ही खाहि ॥ चोर जार जूआर ते बुरा ॥ अणहोदा भारु निंदकि सिरि धरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। खाइ = खाता है, फल पाता है। ते = से। जार = व्यभचारी। अणहोदा भारु = उन विकारों का भार जो पहले उसके अपने अंदर नहीं थे। निंदकि = निंदा करने वाले ने। सिरि = सिर पर।3।
अर्थ: हे भाई! दूसरों पर सदा कीचड़ फेंकने वाले मनुष्य की अपनी ऊँची आत्मिक अवस्था कभी भी नहीं बनती (इस तरह निंदक, निंदा का यह बुरा बीज) बीज के खुद ही उसका फल खाता है। हे भाई! निंदा करने वाला मनुष्य चोर से, व्यभचारी से जुआरी से भी बुरा साबित होता है, क्योंकि निंदक ने अपने सिर पर सदा उन विकारों का भार उठाया होता है जो पहले उसके अंदर नहीं थे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम के भगत निरवैर ॥ सो निसतरै जो पूजै पैर ॥ आदि पुरखि निंदकु भोलाइआ ॥ नानक किरतु न जाइ मिटाइआ ॥४॥२१॥३४॥

मूलम्

पारब्रहम के भगत निरवैर ॥ सो निसतरै जो पूजै पैर ॥ आदि पुरखि निंदकु भोलाइआ ॥ नानक किरतु न जाइ मिटाइआ ॥४॥२१॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरवैर = किसी के साथ भी वैर ना करने वाले। निसतरै = संसार समुंदर से पार लांघ जाता है (एकवचन)। पैर = (भक्तों के) पैर। आदि पुरखि = आदि पुरख ने। भोलाइआ = भुलाया, गलत राह पर डाल दिया। किरतु = किया हुआ काम, किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त किसी के साथ भी वैर नहीं रखते। जो भी मनुष्य उनकी शरण आता है वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। (पर, निंदक के भी क्या वश?) परमात्मा ने खुद ही निंदक को गलत राह पर डाल रखा है। हे नानक! पिछले अनेक जन्मों के किए हुए निंदा के कर्मों के संस्कारों का ढेर उसके अपने प्रयासों से मिटाया नहीं जा सकता।4।21।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ नामु हमारै बेद अरु नाद ॥ नामु हमारै पूरे काज ॥ नामु हमारै पूजा देव ॥ नामु हमारै गुर की सेव ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ नामु हमारै बेद अरु नाद ॥ नामु हमारै पूरे काज ॥ नामु हमारै पूजा देव ॥ नामु हमारै गुर की सेव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमारै = हमारे लिए, मेरे लिए। बेद = वेद (शास्त्र आदि की चर्चा)। नाद = (जोगियों के सिंगी आदि) बजाने। अरु = और (अरि = वैरी)। पूजा देव = देव पूजा।1।
अर्थ: हे भाई! (जब सेगुरू नेमेरे अंदर हरि-नाम दृढ़ किया है, तब से) परमात्मा का नाम ही मेरे लिए वेद (शास्त्र आदि की चर्चा है) और (जोगियों की सिंज्ञी आदि) बजाना हो चुका है। परमात्मा का नाम मेरे सारे काम सफल करता है, यह हरि-नाम ही मेरेवास्ते देव-पूजा है, हरि-नाम स्मरणा ही मेरे लिए गुरु की सेवा भक्ति (करने के बराबर) है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि पूरै द्रिड़िओ हरि नामु ॥ सभ ते ऊतमु हरि हरि कामु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरि पूरै द्रिड़िओ हरि नामु ॥ सभ ते ऊतमु हरि हरि कामु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। द्रिढ़िओ = (मेरे दिल में) पक्का कर दिया है। ते = से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (मेरे हृदय में) परमात्मा का नाम पक्का कर दिया है (अब मुझे निश्चय हो गया है कि) सब कामों से श्रेष्ठ काम परमात्मा के नाम का स्मरण है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु हमारै मजन इसनानु ॥ नामु हमारै पूरन दानु ॥ नामु लैत ते सगल पवीत ॥ नामु जपत मेरे भाई मीत ॥२॥

मूलम्

नामु हमारै मजन इसनानु ॥ नामु हमारै पूरन दानु ॥ नामु लैत ते सगल पवीत ॥ नामु जपत मेरे भाई मीत ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मजन = स्नान। ते = वह लोग (बहुवचन)। सगल = सारे। पवीत = अच्छे आचरण वाले।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु ने मेरे हृदय में नाम दृढ़ कर दिया है, अब) हरि-नाम जपना ही मेरेलिए पर्वों के समय तीर्थ-स्नान है, (तीर्थों पर जा कर) सब कुछ (ब्राहमणों को) दान कर देना- यह भी मेरे लिए नाम-जपना ही है। हे भाई! जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे सारे स्वच्छ आचरण वाले बन जाते हैं, नाम जपने वाले ही मेरे भाई हैं मेरे मित्र हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु हमारै सउण संजोग ॥ नामु हमारै त्रिपति सुभोग ॥ नामु हमारै सगल आचार ॥ नामु हमारै निरमल बिउहार ॥३॥

मूलम्

नामु हमारै सउण संजोग ॥ नामु हमारै त्रिपति सुभोग ॥ नामु हमारै सगल आचार ॥ नामु हमारै निरमल बिउहार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सउण = सगन (बिचारने)। संजोग = नक्षत्रोंका मेल विचारना, महूरत बिचारने। त्रिपति = तृप्ति। सुभोग = स्वादिष्ट भोगों की। आचार = कर्मकांड, तीर्थयात्रा आदि निहित हुए धर्म कर्म। बिउहारु = कार्य व्यवहार।3।
अर्थ: हे भाई! (कार्य-व्यवहारों की सफलता के लिए लोग) शगन (बिचारते हैं) महूरत (निकलवाते हैं), पर मेरे लिए तो हरि-नाम ही सब कुछ है। दुनिया के स्वादिष्ट पदार्थों को खा-खा के तृप्त होना - (यह सारा स्वाद) मेरे लिए हरि-नाम का स्मरण है। हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए) सारे धर्म-कर्म मेरे वास्ते परमात्मा का नाम ही है। यही है मेरे लिए पवित्र कार्य-व्यवहार।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै मनि वसिआ प्रभु एकु ॥ सगल जना की हरि हरि टेक ॥ मनि तनि नानक हरि गुण गाउ ॥ साधसंगि जिसु देवै नाउ ॥४॥२२॥३५॥

मूलम्

जा कै मनि वसिआ प्रभु एकु ॥ सगल जना की हरि हरि टेक ॥ मनि तनि नानक हरि गुण गाउ ॥ साधसंगि जिसु देवै नाउ ॥४॥२२॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। टेक = आसरा। मनि = मन में। तनि = तन में, शरीर में। गुण गाउ = महिमा, गुणों का गायन। साध संगि = साधु-संगत में।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (का नाम) ही सारे जीवों का सहारा है। हे नानक! जिस मनुष्य के मन में सिर्फ परमात्मा आ बसा है जो मनुष्य मन से शरीर से प्रभु की महिमा करता रहता है (वह भाग्यशाली है, पर यह काम वही मनुष्य करता है) जिसको परमात्मा साधु-संगत में रख के अपने नाम की दाति देता है।4।22।35।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ निरधन कउ तुम देवहु धना ॥ अनिक पाप जाहि निरमल मना ॥ सगल मनोरथ पूरन काम ॥ भगत अपुने कउ देवहु नाम ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ निरधन कउ तुम देवहु धना ॥ अनिक पाप जाहि निरमल मना ॥ सगल मनोरथ पूरन काम ॥ भगत अपुने कउ देवहु नाम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरधन कउ = कंगाल को। देवहु = तू देता है। धना = नाम धन। जाहि = दूर हो जाते हैं। निरमल = पवित्र। मनोरथ = जरूरतें।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (जिस) कंगाल को (अपना नाम-) धन देता है, उसके अनेक पाप दूर हो जाते हैं, उसका मन पवित्र हो जाता है, उसकी सारी माँगें पूरी हो जाती हैं, उसके सारेकाम सफल हो जाते हैं। हे प्रभु! तू अपने भक्त को (स्वयं ही) अपना नाम देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल सेवा गोपाल राइ ॥ करन करावनहार सुआमी ता ते बिरथा कोइ न जाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सफल सेवा गोपाल राइ ॥ करन करावनहार सुआमी ता ते बिरथा कोइ न जाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवा = भक्ति। सफल = फल देने वाली। करावनहार = (जीवों से) करा सकने वाला। ता ते = उस (प्रभु के दर) से। बिरथा = खाली, बेमुराद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सृष्टि के मालिक-प्रभु-पातिशाह की भक्ति (सदा) फल दायक है। वह मालिक-प्रभु सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य वाला है और जीवों से सब कुछ करवा सकता है, उसके दर से कोई खाली नहीं जाता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोगी का प्रभ खंडहु रोगु ॥ दुखीए का मिटावहु प्रभ सोगु ॥ निथावे कउ तुम्ह थानि बैठावहु ॥ दास अपने कउ भगती लावहु ॥२॥

मूलम्

रोगी का प्रभ खंडहु रोगु ॥ दुखीए का मिटावहु प्रभ सोगु ॥ निथावे कउ तुम्ह थानि बैठावहु ॥ दास अपने कउ भगती लावहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! खंडहु = तू नाश करता है। सोगु = शोक, ग़म। थानि = (आदर वाली) जगह पर।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू (अपना नाम-दारू दे के) रोगी का रोग नाश कर देता है, दुखिए का ग़म मिटा देता है, जिसको कहीं भी सहारा नहीं मिलता तू उसको (अपना नाम बख्श के) आदर वाली जगह पर बैठा देता है। हे प्रभु! अपने सेवक को तू स्वयं ही अपनी भक्ति में जोड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमाणे कउ प्रभ देतो मानु ॥ मूड़ मुगधु होइ चतुर सुगिआनु ॥ सगल भइआन का भउ नसै ॥ जन अपने कै हरि मनि बसै ॥३॥

मूलम्

निमाणे कउ प्रभ देतो मानु ॥ मूड़ मुगधु होइ चतुर सुगिआनु ॥ सगल भइआन का भउ नसै ॥ जन अपने कै हरि मनि बसै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देतो = तू देता है। मानु = आदर। मूढ़ मुगधु = महांमूर्ख। चतुर = समझदार। सुगिआनु = ज्ञान वान। भइआन = डर देने वाले, डराने वाले। भउ = डर। जनकै मनि = जन के मन में।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को कहीं भी आदर-सत्कार नहीं मिलता, उसको तू (अपनी भक्ति की दाति दे के हर जगह) इज्जत बख्शता है, (तेरी भक्ति की इनायत से) महामूर्ख मनुष्य समझदार हो जाता है ज्ञानवान हो जाता है, (उसके मन में से) सारे डराने वाले डर दूर हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा अपने सेवक के (सदा) मन में बसता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम प्रभ सूख निधान ॥ ततु गिआनु हरि अम्रित नाम ॥ करि किरपा संत टहलै लाए ॥ नानक साधू संगि समाए ॥४॥२३॥३६॥

मूलम्

पारब्रहम प्रभ सूख निधान ॥ ततु गिआनु हरि अम्रित नाम ॥ करि किरपा संत टहलै लाए ॥ नानक साधू संगि समाए ॥४॥२३॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाना। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। करि = कर के। लए = लगाता है। संगि = संगत में। समाए = लीन रहता है।4।
अर्थ: हे नानक! परमेश्वर प्रभु सारें सुखों का खजाना है, उसका आत्मिक जीवन देने वाला नाम आत्मिक जीवन की सूझ देता है राज़ समझाता है। मेहर करके जिस मनुष्य को वह स्वयं संत जनों की सेवा में जोड़ता है, वह मनुष्य (सदा) साधु-संगत में टिका रहता है।4।23।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ संत मंडल महि हरि मनि वसै ॥ संत मंडल महि दुरतु सभु नसै ॥ संत मंडल महि निरमल रीति ॥ संतसंगि होइ एक परीति ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ संत मंडल महि हरि मनि वसै ॥ संत मंडल महि दुरतु सभु नसै ॥ संत मंडल महि निरमल रीति ॥ संतसंगि होइ एक परीति ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतमंडल = साधु-संगत। मनि = मन में। वसै = आ बसता है। दुरतु = दुरित, पाप। रीति = जीवन मर्यादा, जीवन जुगति। निरमल = विकारों की मैल से साफ (रखने वाली)। संतसंगि = साधु-संगत में। एक परीति = एक परमात्मा से प्यार।1।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (रहने से) परमात्मा (मनुष्य के) मनमें आ बसता है (प्रकट हो जाता है)। साधु-संगत में टिकने से (हृदय में से) हरेककिस्म के पाप दूर हो जाते हैं। साधु-संगत में रहने से (मनुष्य की) जीवन-जुगति विकारों की मैल से स्वच्छ रखने वाली बन जाती है, साधु-संगत की इनायत से एक परमात्मा का प्यार (हृदय में पैदा) हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत मंडलु तहा का नाउ ॥ पारब्रहम केवल गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संत मंडलु तहा का नाउ ॥ पारब्रहम केवल गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तहा का = उस (जगह) का। केवल = सिर्फ। गुण गाउ = गुणोंका गायन, महिमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत उस जगह का नाम है जहाँ सिर्फ एक परमात्मा की महिमा होती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत मंडल महि जनम मरणु रहै ॥ संत मंडल महि जमु किछू न कहै ॥ संतसंगि होइ निरमल बाणी ॥ संत मंडल महि नामु वखाणी ॥२॥

मूलम्

संत मंडल महि जनम मरणु रहै ॥ संत मंडल महि जमु किछू न कहै ॥ संतसंगि होइ निरमल बाणी ॥ संत मंडल महि नामु वखाणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहै = समाप्त हो जाता है। निरमल बाणी = पवित्र करने वाली वाणी (का उच्चारण)। वखाणी = उचारा जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में रहने से जनम-मरण (का चक्र) समाप्त हो जाता है। साधु-संगतमें रहने से जमराज कोई डरावा नहीं दे सकता (क्योंकि) साधु-संगत में (जीवन को) पवित्र करने वाली वाणी का उच्चारण होता है, (वहाँ) परमात्मा का नाम (ही) उचारा जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत मंडल का निहचल आसनु ॥ संत मंडल महि पाप बिनासनु ॥ संत मंडल महि निरमल कथा ॥ संतसंगि हउमै दुख नसा ॥३॥

मूलम्

संत मंडल का निहचल आसनु ॥ संत मंडल महि पाप बिनासनु ॥ संत मंडल महि निरमल कथा ॥ संतसंगि हउमै दुख नसा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहचल = (विकारों से) अडोल। आसनु = (हृदय-) आसन। नसा = भागजाता है, दूर हो जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत का ठिकाना (ऐसा है कि वहाँ टिकने वाले विकारों के हमलों से) अडोल (रहते हैं), साधु-संगत में रहने से (सारे) पापों का नाश हो जाता है। साधु-संगत में परमात्मा की महिमा होती रहती है जो (मनुष्य को) विकारों की मैल से बचाए रखती है। साधु-संगत में रह के अहंकार (से पैदा होने वाले सारे) दुख दूर हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत मंडल का नही बिनासु ॥ संत मंडल महि हरि गुणतासु ॥ संत मंडल ठाकुर बिस्रामु ॥ नानक ओति पोति भगवानु ॥४॥२४॥३७॥

मूलम्

संत मंडल का नही बिनासु ॥ संत मंडल महि हरि गुणतासु ॥ संत मंडल ठाकुर बिस्रामु ॥ नानक ओति पोति भगवानु ॥४॥२४॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुणतास = गुणों का खजाना। ठाकुर बिस्रामु = मालिक प्रभु का निवास। ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में। ओति पोति = ताने पेटे में, जैसे ताने पेटे के धागे आपस में मिले होते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में गुणों का खजाना परमात्मा (सदा) बसता है, (इसलिए) साधु-संगत के वायु-मण्डल का कभी नाश नहीं होता। हे नानक! साधु-संगत में सदा मालिक-प्रभु का निवास है। भगवान-प्रभु (साधु-संगत में) ताने-पेटे की तरह मिला रहता है।4।24।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ रोगु कवनु जां राखै आपि ॥ तिसु जन होइ न दूखु संतापु ॥ जिसु ऊपरि प्रभु किरपा करै ॥ तिसु ऊपर ते कालु परहरै ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ रोगु कवनु जां राखै आपि ॥ तिसु जन होइ न दूखु संतापु ॥ जिसु ऊपरि प्रभु किरपा करै ॥ तिसु ऊपर ते कालु परहरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवनु = कौन सा? जां = जब। संतापु = कष्ट। तिसु ऊपार ते = उसके सिर पर से। कालु = मौत, मौत का डर। परहरै = दूर कर देता है।1।
अर्थ: हे भाई! जब परमात्मा स्वयं (किसी मनुष्य की) रक्षा करता है, उसको कोई रोग व्याप नहीं सकता, कोई दुख कोई कष्ट उसको छू नहीं सकता। हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य पर मेहर करता है, उसके सिर पर से वह मौत (का डर, आत्मिक मौत) दूर कर देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा सखाई हरि हरि नामु ॥ जिसु चीति आवै तिसु सदा सुखु होवै निकटि न आवै ता कै जामु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सदा सखाई हरि हरि नामु ॥ जिसु चीति आवै तिसु सदा सुखु होवै निकटि न आवै ता कै जामु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखाई = साथी, मित्र। चीति = चिक्त में। ता कै निकटि = उसके नजदीक। जामु = जम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही (मनुष्य का) सदा साथी है। जिस मनुष्य के चिक्त में हरि-नाम आ बसता है, वह सदा आत्मिक आनंद माणता है, जमराज उसके नज़दीक नहीं आता (उसको मौत का डर नहीं रहता। आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब इहु न सो तब किनहि उपाइआ ॥ कवन मूल ते किआ प्रगटाइआ ॥ आपहि मारि आपि जीवालै ॥ अपने भगत कउ सदा प्रतिपालै ॥२॥

मूलम्

जब इहु न सो तब किनहि उपाइआ ॥ कवन मूल ते किआ प्रगटाइआ ॥ आपहि मारि आपि जीवालै ॥ अपने भगत कउ सदा प्रतिपालै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इहु = यह जीव। न सो = नहीं था। किनहि = किसने? मूल ते = आदि से। किआ = कितना सुंदर। आपहि = आप ही। मारि = मारे, मारता है। जीवालै = जिंदा कर देता है। कउ = को। प्रतिपालै = रक्षा करता है।2।
अर्थ: हे भाई! जब ये जीव पहले था ही नहीं, तब (परमात्मा के बिना और) किसने इसको पैदा कर सकना था? (देखो,) किस आदि से (पिता की बूँद से) इसकी कैसी सुंदर सूरत (परमात्मा ने) बना दी। हे भाई! वह आप ही (जीव को) मारता है आप ही पैदा करता है। परमात्मा अपने भक्त की रक्षा करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ किछु जाणहु तिस कै हाथ ॥ प्रभु मेरो अनाथ को नाथ ॥ दुख भंजनु ता का है नाउ ॥ सुख पावहि तिस के गुण गाउ ॥३॥

मूलम्

सभ किछु जाणहु तिस कै हाथ ॥ प्रभु मेरो अनाथ को नाथ ॥ दुख भंजनु ता का है नाउ ॥ सुख पावहि तिस के गुण गाउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ किछु = हरेक ताकत। अनाथ को नाथ = निखसमों का खसम। दुख भंजनु = दुखों का नाश करने वाला। ता का = उस (परमात्मा) का। पावहि = तू प्राप्त करेगा। गाउ = गाया कर।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! यह सच जानोकि हरेकताकत उस परमात्मा के हाथों में है। हे भाई! वह प्यारा प्रभु अनाथों का नाथ है। उसका नाम ही है ‘दुख-भंजन’ (भाव, दुखों को नाश करने वाला)। हे भाई! उसके गुण गाया कर, सारे सुख प्राप्त करेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सुआमी संतन अरदासि ॥ जीउ प्रान धनु तुम्हरै पासि ॥ इहु जगु तेरा सभ तुझहि धिआए ॥ करि किरपा नानक सुखु पाए ॥४॥२५॥३८॥

मूलम्

सुणि सुआमी संतन अरदासि ॥ जीउ प्रान धनु तुम्हरै पासि ॥ इहु जगु तेरा सभ तुझहि धिआए ॥ करि किरपा नानक सुखु पाए ॥४॥२५॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी = हे मालिक प्रभु! जीउ = जिंद। पासि = हवाले। सभ = सारी लुकाई।4।
अर्थ: हे स्वामी! तू अपने संतजनों की आरजू सुन लेता है। संत जन अपनी जिंद अपने प्राण अपना धन सब कुछ तेरे हवाले करे रखते हैं। हे प्रभु! यह सारा जगत तेरा पैदा किया हुआ है, सारी लुकाई तेरा ही ध्यान धरती है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेहर कर के (जिसको तू अपना नाम बख्शता है, वह मनुष्य) आत्मिक आनंद पाता है।4।25।38।

[[1147]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ तेरी टेक रहा कलि माहि ॥ तेरी टेक तेरे गुण गाहि ॥ तेरी टेक न पोहै कालु ॥ तेरी टेक बिनसै जंजालु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ तेरी टेक रहा कलि माहि ॥ तेरी टेक तेरे गुण गाहि ॥ तेरी टेक न पोहै कालु ॥ तेरी टेक बिनसै जंजालु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = आसरे। रहा = मैं रहता हूँ। कलि माहि = विकारों भरे जगत में।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: किसी खास ‘युग’ का वर्णन नहीं है। साधारण तौर पर उसी समय का नाम ले दिया है जिसका नाम ‘कलिजुग’ पड़ा हुआ है)।

दर्पण-भाषार्थ

गाहि = (जो मनुष्य) गाते हैं। कालु = मौत, आत्मिक मौत। जंजाल = माया के मोह का फंदा।1।
अर्थ: हे प्रभु! इस विकार भरे जगत में मैं तेरे आसरे ही जीवित हूँ। हे प्रभु! (सब जीव) तेरे ही सहारे हैं, तेरे ही गुण गाते हैं। हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा आसरा है उस पर आत्मिक मौत अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। तेरे आसरे (मनुष्य की) माया के मोह का फंदा टूट जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन दुनीआ तेरी टेक ॥ सभ महि रविआ साहिबु एक ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दीन दुनीआ तेरी टेक ॥ सभ महि रविआ साहिबु एक ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन दुनीआ = परलोक में और इस लोक में। सभ महि = सारी सृष्टि में। रविआ = व्यापक है। साहिबु = मालिक प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! इस लोक में और परलोक में (हम जीवों को) तेरा ही सहारा है। हे भाई! सारी सृष्टि में मालिक प्रभु ही व्यापक है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी टेक करउ आनंद ॥ तेरी टेक जपउ गुर मंत ॥ तेरी टेक तरीऐ भउ सागरु ॥ राखणहारु पूरा सुख सागरु ॥२॥

मूलम्

तेरी टेक करउ आनंद ॥ तेरी टेक जपउ गुर मंत ॥ तेरी टेक तरीऐ भउ सागरु ॥ राखणहारु पूरा सुख सागरु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ, मैं जानता हूँ। जपउ = मैं जपता हूँ। तरीऐ = पार लांघा जाता है। भउ सागरु = संसार समुंदर। राखणहारु = रक्षा कर सकने वाला।2।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे नाम का आसरा ले के ही आत्मिक आनंद पाता हूँ और गुरु का दिया हुआ तेरा नाम-मंत्र जपता रहता हूँ। हे प्रभु! तेरे (नाम के) सहारे संसार-समुंदर से पार लांघ जाया जाता है, तू सबकी रक्षा करने के समर्थ है, तू सारे सुखों का (मानो) समुंदर है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी टेक नाही भउ कोइ ॥ अंतरजामी साचा सोइ ॥ तेरी टेक तेरा मनि ताणु ॥ ईहां ऊहां तू दीबाणु ॥३॥

मूलम्

तेरी टेक नाही भउ कोइ ॥ अंतरजामी साचा सोइ ॥ तेरी टेक तेरा मनि ताणु ॥ ईहां ऊहां तू दीबाणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! जिस को तेरे नाम का आसरा है उसको कोई डर व्याप नहीं सकता। हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला प्रभु ही सब के दिल की जानने वाला है। हे प्रभु! सब जीवों को तेरा ही आसरा है, सबके मन में तेरे नाम का ही सहारा है। इस लोक में और परलोक में तू ही जीवों का आसरा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी टेक तेरा भरवासा ॥ सगल धिआवहि प्रभ गुणतासा ॥ जपि जपि अनदु करहि तेरे दासा ॥ सिमरि नानक साचे गुणतासा ॥४॥२६॥३९॥

मूलम्

तेरी टेक तेरा भरवासा ॥ सगल धिआवहि प्रभ गुणतासा ॥ जपि जपि अनदु करहि तेरे दासा ॥ सिमरि नानक साचे गुणतासा ॥४॥२६॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरवासा = सहारा। धिआवहि = स्मरण करते हैं (बहुवचन)। गुणतासा = गुणों का खजाना। जपि = जप के। करहि = करते हैं।4।
अर्थ: हे गुणों के खजाने प्रभु! (हम जीवों को) तेरी ही टेक है तेरा ही आसरा है, सब जीव तेरा ही ध्यान धरते हैं, तेरे दास तेरा नाम जप-जप के आत्मिक आनंद पाते हैं। हे नानक! (तू भी) सदा कायम रहने वाले और गुणों के खजाने प्रभु का नाम स्मरण किया कर।4।26।39।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ प्रथमे छोडी पराई निंदा ॥ उतरि गई सभ मन की चिंदा ॥ लोभु मोहु सभु कीनो दूरि ॥ परम बैसनो प्रभ पेखि हजूरि ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ प्रथमे छोडी पराई निंदा ॥ उतरि गई सभ मन की चिंदा ॥ लोभु मोहु सभु कीनो दूरि ॥ परम बैसनो प्रभ पेखि हजूरि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रथमे = सबसे पहले। चिंदा = चिन्ता। सभु = सारे का सारा। परम = सबसे ऊँचा। बैसनो = विष्णू का भक्त, पवित्र जीवन वाला भक्त। पेखि = देख के। हजूरि = अंग संग।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा को अंग-संग बसता देख के (मनुष्य) सबसे ऊँचा वैश्णव बन जाता है, (वह मनुष्य बाहर की स्वच्छता की जगह अंदर कीपवित्रता कायम रख सकने के लिए) सबसे पहले दूसरों के ऐब ढूँढने छोड़ देता है (इस तरह उसके अपने) मन की सारी चिन्ता उतर जाती है (मन से विकारों का चिंतन उतर जाता है), वह मनुष्य (अपने अंदर से) लोभ और मोह सारे का सारा दूर कर देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो तिआगी विरला कोइ ॥ हरि हरि नामु जपै जनु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसो तिआगी विरला कोइ ॥ हरि हरि नामु जपै जनु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐसो = ऐसा। जनु सोइ = वही मनुष्य।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (इस तरह का वैश्णव ही असल त्यागी है, पर) ऐसा त्यागी (जगत में) कोई विरला मनुष्य ही होता है, वही मनुष्य (सही अर्थों में) परमात्मा का नाम जपता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अह्मबुधि का छोडिआ संगु ॥ काम क्रोध का उतरिआ रंगु ॥ नाम धिआए हरि हरि हरे ॥ साध जना कै संगि निसतरे ॥२॥

मूलम्

अह्मबुधि का छोडिआ संगु ॥ काम क्रोध का उतरिआ रंगु ॥ नाम धिआए हरि हरि हरे ॥ साध जना कै संगि निसतरे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार। संगु = साथ। रंगु = प्रभाव। धिआवे = ध्याता है। संगि = साथ।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा हाज़र-नाज़र देख के असल वैश्णव बन जाता है, वह) अहंकार का साथ छोड़ देता है, (उसके मन से) काम और क्रोध का असर दूर हो जाता है, वह मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है। हे भाई! ऐसे मनुष्य साधु-संगत में रह के संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बैरी मीत होए समान ॥ सरब महि पूरन भगवान ॥ प्रभ की आगिआ मानि सुखु पाइआ ॥ गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥३॥

मूलम्

बैरी मीत होए समान ॥ सरब महि पूरन भगवान ॥ प्रभ की आगिआ मानि सुखु पाइआ ॥ गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संमान = एक जैसे, मित्रों जैसे ही। पूरन = व्यापक। आगिआ = रजा। मानि = मान के, मीठी जान के। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया।3।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम पक्के तौर पर टिका दिया, उसने परमात्मा की रजा को मीठा जान के सदा आत्मिक आनंद पाया है, उसको भगवान सब जीवों में व्यापक दिखाई देता है, इस वास्ते उसको वैरी और मित्र एक समान (मित्र ही) दिखाई देते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा जिसु राखै आपि ॥ सोई भगतु जपै नाम जाप ॥ मनि प्रगासु गुर ते मति लई ॥ कहु नानक ता की पूरी पई ॥४॥२७॥४०॥

मूलम्

करि किरपा जिसु राखै आपि ॥ सोई भगतु जपै नाम जाप ॥ मनि प्रगासु गुर ते मति लई ॥ कहु नानक ता की पूरी पई ॥४॥२७॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। मनि = मन में। प्रगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश। ते = से। मति = शिक्षा। ता की = उस मनुष्य की। पूरी पई = सफलता हो गई।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपनी मेहर करके जिस मनुष्य की स्वयं रक्षा करता है, वही है असल भक्त, वही उस के नाम का जाप जपता है। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु से (जीवन-जुगति की) शिक्षा ले ली उसके मन में (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो गया। हे नानक! कह: उस मनुष्य का जीवन सफल हो गया।4।27।40।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ सुखु नाही बहुतै धनि खाटे ॥ सुखु नाही पेखे निरति नाटे ॥ सुखु नाही बहु देस कमाए ॥ सरब सुखा हरि हरि गुण गाए ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ सुखु नाही बहुतै धनि खाटे ॥ सुखु नाही पेखे निरति नाटे ॥ सुखु नाही बहु देस कमाए ॥ सरब सुखा हरि हरि गुण गाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धनि खाटे = अगर धन कमाया जाए। बहुतै धनि खाटे = अधिक धन कमाने से। पेखे = देखने से। निरति = नाच। नाटे = नाटक। कमाए = कमाने से, कब्जा कर लेने से। सरब = सारे। गाए = गाने से।1।
अर्थ: हे भाई! बहुत धन कमाने से (आत्मिक) आनंद नहीं मिलता, नाटकों के नाच देखने से भी आत्मिक आनंद प्राप्त नहीं होता। हे भाई! बहुत सारे देशों को जीत लेने से भी सुख नहीं मिलता। पर, हे भाई! परमात्मा की महिमा करने से सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूख सहज आनंद लहहु ॥ साधसंगति पाईऐ वडभागी गुरमुखि हरि हरि नामु कहहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सूख सहज आनंद लहहु ॥ साधसंगति पाईऐ वडभागी गुरमुखि हरि हरि नामु कहहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। पाईऐ = पा सकते हैं। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत में) गुरु की शरण पड़ कर सदा परमात्मा का नाम जपो, (और, इस तरह) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद पाओ। पर, हे भाई! बड़ी किस्मत से ही साधु-संगत मिलती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधन मात पिता सुत बनिता ॥ बंधन करम धरम हउ करता ॥ बंधन काटनहारु मनि वसै ॥ तउ सुखु पावै निज घरि बसै ॥२॥

मूलम्

बंधन मात पिता सुत बनिता ॥ बंधन करम धरम हउ करता ॥ बंधन काटनहारु मनि वसै ॥ तउ सुखु पावै निज घरि बसै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मात = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। बंधन = माया के मोह के फंदे। करम धरम = निहित हुए धार्मिक कर्म (तीर्थ, व्रत नेम आदि)। हउ = मैं, अहम्, अहंकार। काटनहार = काट सकने वाला प्रभु। मनि = मन में। तउ = तब। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।2।
अर्थ: हे भाई! माता, पिता, पुत्र, स्त्री (आदि सम्बंधी) माया के मोह के फंदे डालते हैं। (तीर्थ आदि निहित हुए) धार्मिक कर्म भी फंदे पैदा करते हैं (क्योंकि इनके कारण मनुष्य) अहंकार करता है (कि मैंने तीर्थ यात्रा आदि कर्म किए हैं)। पर जब ये फंदे काट सकने वाला परमात्मा (मनुष्य के) मन में आ बसता है तब (माता-पिता-पुत्र-स्त्री आदि सम्बंधियों में रहते हुए ही) आत्मिक आनंद पाता है (क्योंकि तब मनुष्य) परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि जाचिक प्रभ देवनहार ॥ गुण निधान बेअंत अपार ॥ जिस नो करमु करे प्रभु अपना ॥ हरि हरि नामु तिनै जनि जपना ॥३॥

मूलम्

सभि जाचिक प्रभ देवनहार ॥ गुण निधान बेअंत अपार ॥ जिस नो करमु करे प्रभु अपना ॥ हरि हरि नामु तिनै जनि जपना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। जाचिक = भिखारी (बहुवचन)। देवनहार = सब कुछ दे सकने वाला। निधानु = खजाना। करमु = मेहर, बख्शिश। तिनै जनि = उसी जन ने, उसी मनुष्य ने।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सारे जीव सब कुछ दे सकने वाले प्रभु (के दर) के (ही) भिखारी हैं, वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, बेअंत है, उसकी हस्ती का परला छोर नहीं पाया जा सकता। हे भाई! जिस मनुष्य पर प्यारा प्रभु बख्शिश करता है, उसी ही मनुष्य ने सदा परमात्मा का नाम जपा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर अपने आगै अरदासि ॥ करि किरपा पुरख गुणतासि ॥ कहु नानक तुमरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ रखहु गुसाई ॥४॥२८॥४१॥

मूलम्

गुर अपने आगै अरदासि ॥ करि किरपा पुरख गुणतासि ॥ कहु नानक तुमरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ रखहु गुसाई ॥४॥२८॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरख गुणतासि = हे गुणों के खजाने अकाल पुरख! नानक = हे नानक! गुसाई = हे सृष्टि के मालिक!।4।
अर्थ: हे नानक! अपने गुरु के दर पे (सदा) अरजोई किया कर, और, कहता रह- हे सृष्टि के मालिक! हे गुणों के खजाने अकाल पुरख! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेहर कर के जैसे तेरी रज़ा है वैसे मुझे (अपने चरणों में) रख।4।28।41।

[[1148]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ गुर मिलि तिआगिओ दूजा भाउ ॥ गुरमुखि जपिओ हरि का नाउ ॥ बिसरी चिंत नामि रंगु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ गुर मिलि तिआगिओ दूजा भाउ ॥ गुरमुखि जपिओ हरि का नाउ ॥ बिसरी चिंत नामि रंगु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = (परमात्मा के बिना) अन्य प्यार, माया का मोह। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। नामि = नाममें। रंगु = प्रेम। जनम जनम का = अनेक जनमों का।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के (अपने अंदर से) माया का मोह छोड़ दिया, जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपना शुरू कर दिया, (उसके मन की) चिन्ता समाप्त हो गई, परमात्मा के नाम में उसका प्यार बन गया, अनेक जन्मों के माया के मोह की नींद में सोया हुआ अब वह जाग गया (उसको जीवन-जुगति की समझ आ गई)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा अपनी सेवा लाए ॥ साधू संगि सरब सुख पाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करि किरपा अपनी सेवा लाए ॥ साधू संगि सरब सुख पाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। साधू संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेहर करके परमात्मा (जिस मनुष्य को) अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है, वह मनुष्य संगत में टिक के सारे आत्मिक आनंद पाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोग दोख गुर सबदि निवारे ॥ नाम अउखधु मन भीतरि सारे ॥ गुर भेटत मनि भइआ अनंद ॥ सरब निधान नाम भगवंत ॥२॥

मूलम्

रोग दोख गुर सबदि निवारे ॥ नाम अउखधु मन भीतरि सारे ॥ गुर भेटत मनि भइआ अनंद ॥ सरब निधान नाम भगवंत ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर सबदि = गुरु के शब्द से। निवारे = दूर कर लिए। अउखधु = दवाई। भीतरि = में। सारे = सम्भालता है, संभाल के रखता है। गुर भेटत = गुरु को मिलते हुए। मनि = मन में। सरब = सारे। निधन = खजाने। दोख = ऐब, विकार।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के (अपने मन में से) रोग और विकार दूर कर लिए, जो मनुष्य नाम-दारू अपने मन में संभाल के रखता है, गुरु को मिल के उसके मन में आनंद बन आता है। हे भाई! भगवान का नाम सारे सुखों का खजाना है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम मरण की मिटी जम त्रास ॥ साधसंगति ऊंध कमल बिगास ॥ गुण गावत निहचलु बिस्राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥

मूलम्

जनम मरण की मिटी जम त्रास ॥ साधसंगति ऊंध कमल बिगास ॥ गुण गावत निहचलु बिस्राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जम त्रास = जमराज का सहम। त्रास = डर, सहम। ऊंध = उल्टा हुआ, माया की तरफ परता हुआ। बिगास = खेड़ा, खिलाव। गावत = गाते हुए। निहचलु = (माया के हमलों से) अडोल। बिस्राम = ठिकाना। काम = काम।3।
अर्थ: हे भाई! (मेहर करके प्रभु जिस मनुष्य को अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है, उसके मन में से) जनम-मरण के चक्करों का सहम जम-राज का डर मिट जाता है, साधु-संगत की इनायत से उसका (पहले माया केमोह की ओर) उल्टा हुआ कमल-हृदय खिल उठता है। परमात्मा के गुण गाते हुए (उसको वह आत्मिक) ठिकाना (मिल जाता है जो माया के हमलों के मुकाबले पर) अडोल रहता है, उसके सारे काम सफल हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुलभ देह आई परवानु ॥ सफल होई जपि हरि हरि नामु ॥ कहु नानक प्रभि किरपा करी ॥ सासि गिरासि जपउ हरि हरी ॥४॥२९॥४२॥

मूलम्

दुलभ देह आई परवानु ॥ सफल होई जपि हरि हरि नामु ॥ कहु नानक प्रभि किरपा करी ॥ सासि गिरासि जपउ हरि हरी ॥४॥२९॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाली। देह = काया, मनुष्य शरीर। आईपरवानु = स्वीकार हो गई। जपि = जप के। नानक = हे नानक! प्रभि = प्रभु ने। सासि = हरेक सांस के साथ। गिरासि = हरेक ग्रास के साथ। जपउ = मैं जपता हूँ।4।
अर्थ: हे भाई! (मेहर करके प्रभु जिस मनुष्य को अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है) परमात्मा का नाम सदा जपके उस का यह दुर्लभ शरीर (लोक-परलोक में) स्वीकार हो जाता है।
हे नानक! कह: (हे भाई!) प्रभु ने (मेरे पर) मेहर की है, मैं भी हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ उसका नाम जप रहा हूँ।4।29।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ सभ ते ऊचा जा का नाउ ॥ सदा सदा ता के गुण गाउ ॥ जिसु सिमरत सगला दुखु जाइ ॥ सरब सूख वसहि मनि आइ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ सभ ते ऊचा जा का नाउ ॥ सदा सदा ता के गुण गाउ ॥ जिसु सिमरत सगला दुखु जाइ ॥ सरब सूख वसहि मनि आइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। जा का = जिस (परमात्मा) का। नाउ = नाम, बड़ाई, महिमा। ता के = उस (प्रभु) के। गाउ = गाया कर। सिमरत = स्मरण करते हुए। सगला = सारा। सरब सूख = सारे सुख (बहुवचन)। वसहि = आ बसते हैं (बहुवचन)। मनि = मनमें। आइ = आ के।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की बड़ाई सबसे ऊँची है, जिसका स्मरण करते हुए सारे दुख दूर हो जाते हैं और सारे आनंद मन में आ बसते हैं, तू सदा ही उसके गुण गाया कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि मना तू साचा सोइ ॥ हलति पलति तुमरी गति होइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सिमरि मना तू साचा सोइ ॥ हलति पलति तुमरी गति होइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मना = हे मन! साचा = सदा कायम रहने वाला। सोइ = वह (प्रभु) ही। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! तू उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को ही स्मरण किया कर (नाम-जपने की इनायत से) इस लोक में और परलोक में तेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बनी रहेगी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरख निरंजन सिरजनहार ॥ जीअ जंत देवै आहार ॥ कोटि खते खिन बखसनहार ॥ भगति भाइ सदा निसतार ॥२॥

मूलम्

पुरख निरंजन सिरजनहार ॥ जीअ जंत देवै आहार ॥ कोटि खते खिन बखसनहार ॥ भगति भाइ सदा निसतार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरख = सर्व व्यापक। निरंजन = (निर+अंजन) (माया के मोह की) कालख से रहित। आहार = खुराक़। कोटि = करोड़ों। खते = पाप (बहुवचन)। भाइ = प्यार में। (भाउ = प्यार)। निसतार = पार लंघाने वाला।2।
अर्थ: हे मन! (तू सदा उस सदा-स्थिर प्रभूका स्मरण किया कर) जो सर्व-व्यापक है, जो माया के मोह की कालिख़ से रहित है, जो सबको पैदा करने वाला है, जो सब जीवों को खाने के लिए ख़ुराक देता है, जो (जीवों के) करोड़ों पाप एक छिन में बख्श सकने वाला है, जो उन जीवों को सदा संसार-समुंदर से पार लंघा देता है जो प्रेम में टिक के उसकी भक्ति करते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा धनु साची वडिआई ॥ गुर पूरे ते निहचल मति पाई ॥ करि किरपा जिसु राखनहारा ॥ ता का सगल मिटै अंधिआरा ॥३॥

मूलम्

साचा धनु साची वडिआई ॥ गुर पूरे ते निहचल मति पाई ॥ करि किरपा जिसु राखनहारा ॥ ता का सगल मिटै अंधिआरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहनेवाली। वडिआई = इज्जत। ते = से। निहचल = (विकारों की तरफ) ना डोलने वाली। पाई = प्राप्त कर ली। करि = कर के। ता का = उस (मनुष्य) का। अंधिआरा = (माया के मोह वाला) अंधेरा।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरे गुरु से विकारों से अडोल रहने वाली नाम-जपने की मति प्राप्त कर ली, उसको सदा कायम रहने वाला नाम-धन मिल गया, उसको सदा-स्थिर रहने वाली (लोक-परलोक की) शोभा मिल गई। हे भाई! रक्षा करने वाला प्रभु जिस मनुष्य को मेहर कर के (नाम-जपने की दाति देता है) उसके अंदर से माया के मोह का सारा अंधेरा दूर हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम सिउ लागो धिआन ॥ पूरन पूरि रहिओ निरबान ॥ भ्रम भउ मेटि मिले गोपाल ॥ नानक कउ गुर भए दइआल ॥४॥३०॥४३॥

मूलम्

पारब्रहम सिउ लागो धिआन ॥ पूरन पूरि रहिओ निरबान ॥ भ्रम भउ मेटि मिले गोपाल ॥ नानक कउ गुर भए दइआल ॥४॥३०॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। निरबान = वासना रहित। भ्रम = भटकना। मेटि = मिटा के, दूर कर के। नानक कउ = हे नानक! जिस को। दइआल = दयावान।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर सतिगुरु जी दयावान होते हैं, उसकी तवज्जो परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है, उसको वासना-रहित प्रभु हर जगह बसता दिखाई देता है (व्यापक दिखता है), वह मनुष्य (अपने अंदर से) हरेक किस्म की भटकना और डर मिटा के सृष्टि के पालक प्रभु को मिल जाता है।4।30।43।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ जिसु सिमरत मनि होइ प्रगासु ॥ मिटहि कलेस सुख सहजि निवासु ॥ तिसहि परापति जिसु प्रभु देइ ॥ पूरे गुर की पाए सेव ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ जिसु सिमरत मनि होइ प्रगासु ॥ मिटहि कलेस सुख सहजि निवासु ॥ तिसहि परापति जिसु प्रभु देइ ॥ पूरे गुर की पाए सेव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। प्रगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवनकी सूझ। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। सूख निवासु = सुखों में निवास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। तिसहि = उस (मनुष्य) को ही। देइ = देता है। पाए = पाता है, जोड़ता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से (मनुष्य के) मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो जाती है (जिसका स्मरण करके सारे) कष्ट मिट जाते हैं, सुखों में आत्मिक अडोलता में टिक जाता है, वह परमात्मा जिस मनुष्य को (नाम-जपने की दाति) देता है उसी को मिलती है, (परमात्मा उस मनुष्य को) पूरे गुरु की सेवा में जोड़ देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब सुखा प्रभ तेरो नाउ ॥ आठ पहर मेरे मन गाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सरब सुखा प्रभ तेरो नाउ ॥ आठ पहर मेरे मन गाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मन = हे मन! गाउ = गाया कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम सारे सुखों का मूल है। हे मेरे मन! आठों पहर (हर वक्त) प्रभु के गुण गाया कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो इछै सोई फलु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ आवण जाण रहे हरि धिआइ ॥ भगति भाइ प्रभ की लिव लाइ ॥२॥

मूलम्

जो इछै सोई फलु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ आवण जाण रहे हरि धिआइ ॥ भगति भाइ प्रभ की लिव लाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इछै = इच्छा करता है, माँगता है। मंनि = मन में। रहे = समाप्त हो जाते हैं। धिआइ = स्मरण करके। भाइ = प्यार से (भाउ = प्यार)। लिव = लगन। लाइ = लगा के।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम (अपने) मन में बसाता है, वह मनुष्य जो कुछ (परमात्मा से) माँगता है वही फल हासिल कर लेता है। भक्ति-भाव से प्रभु में तवज्जो जोड़ के प्रभु का ध्यान धर के उसके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ तूटे माइआ मोह पिआर ॥ प्रभ की टेक रहै दिनु राति ॥ पारब्रहमु करे जिसु दाति ॥३॥

मूलम्

बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ तूटे माइआ मोह पिआर ॥ प्रभ की टेक रहै दिनु राति ॥ पारब्रहमु करे जिसु दाति ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनसे = नाश हो गए। टेक = आसरा। रहै = रहता है। जिसु = जिस मनुष्य को।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य को (अपने नाम की) दाति देता है, वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा के ही आसरे रहता है (उसके अंदर से) माया के मोह की तारें टूट जाती हैं, (उसके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (ये सारे विकार) नाश हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा अपनी सेवा लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाइ ॥४॥३१॥४४॥

मूलम्

करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा अपनी सेवा लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाइ ॥४॥३१॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! घट = शरीर, हृदय। अंतरजामी = हे सब के दिल की जानने वाले! करि = कर के। लाइ = लगाए रख। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु के दर पर अरदास किया कर और कहा कर-) हे सब कुछ करने योग्य स्वामी! हे जीवों से सब कुछ करा सकनेकी समर्थावाले स्वामी! हे सब जीवों के दिल की जानने वाले! मेहर कर के (मुझे) अपनी सेवा-भक्ति में जोड़े रख, (मैं तेरा) दास तेरी शरण आया हूँ।4।31।44।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ लाज मरै जो नामु न लेवै ॥ नाम बिहून सुखी किउ सोवै ॥ हरि सिमरनु छाडि परम गति चाहै ॥ मूल बिना साखा कत आहै ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ लाज मरै जो नामु न लेवै ॥ नाम बिहून सुखी किउ सोवै ॥ हरि सिमरनु छाडि परम गति चाहै ॥ मूल बिना साखा कत आहै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाज मरै = शर्म से मर जाता है, शर्म के कारण हल्के जीवन वाला हो जाता है। किउ सोवै = कैसे सो सकता है? नहीं हो सकता। छाडि = छोड़ के। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मूल = (वृक्ष का) आदि, जड़। साखा = टहणी। कत = कैसे? आहै = है, हो सकती है।1।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता, वह अपने आप में शर्म से हल्का पड़ जाता है (शर्म से मर जाए, जो नाम नहीं स्मरण करता)। परमात्मा का नाम स्मरण के बिना मनुष्य सुख की नींद नहीं सो सकता। (जो मनुष्य) हरि-नाम का स्मरण छोड़ के सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था (हासिल करनी) चाहता है (उसकी यह चाहत व्यर्थ है, जैसे वृक्ष की) जड़ के बिना (उस पर) कोई टहनी, शाखा नहीं उगती।1।

[[1149]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु गोविंदु मेरे मन धिआइ ॥ जनम जनम की मैलु उतारै बंधन काटि हरि संगि मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरु गोविंदु मेरे मन धिआइ ॥ जनम जनम की मैलु उतारै बंधन काटि हरि संगि मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! धिआइ = स्मरण किया कर। उतारै = दूर कर देता है। बंधन = माया के मोह के बंधन। संगि = साथ। मिलाइ = जोड़ देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु को गोविंद को (सदा) स्मरण किया करो। (यह स्मरण) अनेक जन्मों की (विकारों की) मैल दूर कर देता है, माया के मोह के फंदों को काट के (मनुष्य को) परमात्मा के साथ जोड़ देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीरथि नाइ कहा सुचि सैलु ॥ मन कउ विआपै हउमै मैलु ॥ कोटि करम बंधन का मूलु ॥ हरि के भजन बिनु बिरथा पूलु ॥२॥

मूलम्

तीरथि नाइ कहा सुचि सैलु ॥ मन कउ विआपै हउमै मैलु ॥ कोटि करम बंधन का मूलु ॥ हरि के भजन बिनु बिरथा पूलु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। नाइ = नहा के। सुचि = पवित्रता। सैलु = पत्थर, पत्थर दिल मनुष्य। विआपै = जोर डाले रखती है। कोटि करम = करोड़ों (निहित हुए धार्मिक) कर्म। मूलु = कारण, साधन। पूलु = (कर्मों का) पूला, पंड।2।
अर्थ: हे भाई! पत्थर (पत्थर-दिल मनुष्य) तीर्थ पर स्नान करके (आत्मिक) पवित्रता हासिल नहीं कर सकता, (उसके) मन को (यही) अहंकार की मैल चिपकी रहती है (कि मैं तीर्थ-यात्रा कर आया हूँ)। हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए धार्मिक कर्म मनुष्य के सिर पर) व्यर्थ के गठड़ी हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु खाए बूझै नही भूख ॥ रोगु जाइ तां उतरहि दूख ॥ काम क्रोध लोभ मोहि बिआपिआ ॥ जिनि प्रभि कीना सो प्रभु नही जापिआ ॥३॥

मूलम्

बिनु खाए बूझै नही भूख ॥ रोगु जाइ तां उतरहि दूख ॥ काम क्रोध लोभ मोहि बिआपिआ ॥ जिनि प्रभि कीना सो प्रभु नही जापिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूझै नही = नहीं समझती। जाइ = जो दूर हो जाए। उतरहि = उतर जाते हैं (बहुवचन)। मोहि = मोह में। बिआपिआ = फसा हुआ। जिनि प्रभि = जिस प्रभु ने।3।
अर्थ: हे भाई! (भोजन) खाए बिना (पेट की) भूख (की आग) नहीं बुझती (रोग से पैदा हुए) शारीरिक दुख तब ही दूर होते हैं, अगर (अंदर से) रोग दूर हो जाए। हे भाई! जिस परमात्मा ने पैदा किया है जो मनुष्य उसका नाम नहीं जपता, वह सदा काम क्रोध लोभ मोह में फसा रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु धनु साध धंनु हरि नाउ ॥ आठ पहर कीरतनु गुण गाउ ॥ धनु हरि भगति धनु करणैहार ॥ सरणि नानक प्रभ पुरख अपार ॥४॥३२॥४५॥

मूलम्

धनु धनु साध धंनु हरि नाउ ॥ आठ पहर कीरतनु गुण गाउ ॥ धनु हरि भगति धनु करणैहार ॥ सरणि नानक प्रभ पुरख अपार ॥४॥३२॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धनु धनु = भाग्य वाले। गुण गाउ = गुणों का गायन (करते हैं)। धनु = संपत्ति, धन-दौलत।4।
अर्थ: हे भाई! वे गुरमुख मनुष्य भाग्यशाली हैं, जो परमात्मा का नाम जपते हैं, जो आठों पहर परमात्मा की महिमा करते हैं, परमात्मा के गुणों का गायन करते हैं। हे नानक! जो मनुष्य बेअंत और सर्व-व्यापक प्रभु की शरण पड़े रहते हैं, उनके पास परमात्मा की भक्ति का धन विधाता के नाम का धन (सदा मौजूद) है।4।32।45।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ गुर सुप्रसंन होए भउ गए ॥ नाम निरंजन मन महि लए ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ बिनसि गए सगले जंजाल ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ गुर सुप्रसंन होए भउ गए ॥ नाम निरंजन मन महि लए ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ बिनसि गए सगले जंजाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुप्रसंन = अच्छी तरह खुश। भउ गए = हरेक डर दूर हो गया। निरंजन = (निर+अंजन) माया की कालिख से रहित प्रभु। लए = लेता है। सगले = सारे। जंजाल = माया के मोह के बंधन।1।
अर्थ: हे भाई! सतिगुरु जिस मनुष्य पर बहुत प्रसन्न होता है, उसका हरेक डर दूर हो जाता है (क्योंकि) वह मनुष्य (हर वक्त) माया-रहित परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखता है। हे भाई! दीनों पर दया करने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर कृपा करता है, (उसके अंदर से) माया के मोह के सारे बंधन नाश हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूख सहज आनंद घने ॥ साधसंगि मिटे भै भरमा अम्रितु हरि हरि रसन भने ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सूख सहज आनंद घने ॥ साधसंगि मिटे भै भरमा अम्रितु हरि हरि रसन भने ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घने = बहुत। संगि = संगति में। भै = सारे डर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। रसन = जीभ से।”ने = उचारता है।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में रह के जो मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम उचारता रहता है, उसके सारे डर-वहम दूर हो जाते हैं (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता के बड़े सुख-आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल सिउ लागो हेतु ॥ खिन महि बिनसिओ महा परेतु ॥ आठ पहर हरि हरि जपु जापि ॥ राखनहार गोविद गुर आपि ॥२॥

मूलम्

चरन कमल सिउ लागो हेतु ॥ खिन महि बिनसिओ महा परेतु ॥ आठ पहर हरि हरि जपु जापि ॥ राखनहार गोविद गुर आपि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हेतु = हित, प्यार। परेतु = अशुद्ध स्वभाव, खोटा स्वभाव। जापि = जपा कर।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के सुंदर चरणों से जिस मनुष्य का प्यार बन जाता है, उसके अंदर से (खोटा स्वभाव रूपी) बड़ा प्रेत एक छिन में खत्म हो जाता है। हे भाई! तू आठों पहर परमात्मा के नाम का जाप जपा कर, सबकी रक्षा कर सकने वाला गुरु गोविंद स्वयं (तेरी भी रक्षा करेगा)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने सेवक कउ सदा प्रतिपारै ॥ भगत जना के सास निहारै ॥ मानस की कहु केतक बात ॥ जम ते राखै दे करि हाथ ॥३॥

मूलम्

अपने सेवक कउ सदा प्रतिपारै ॥ भगत जना के सास निहारै ॥ मानस की कहु केतक बात ॥ जम ते राखै दे करि हाथ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। प्रतिपारै = पालता है। सास = सांस (बहुवचन)। निहारै = देखता है, निहारता है। मानस = मनुष्य। कहु = बताओ। केतक बात = कितनी बात, कितनी पायां? जम ते = जमों से। दे करि = दे कर।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु अपने सेवक की आप रक्षा करता है, प्रभु अपने भकतों की सांसों को ध्यान से देखता रहता है (भाव, बड़े ध्यान से भक्त-जनों की रक्षा करता है)। हे भाई! बता, मनुष्य बेचारे भक्त-जनों का क्या बिगाड़ सकते हैं? परमात्मा तो उनको हाथ दे के जमों से भी बचा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल सोभा निरमल रीति ॥ पारब्रहमु आइआ मनि चीति ॥ करि किरपा गुरि दीनो दानु ॥ नानक पाइआ नामु निधानु ॥४॥३३॥४६॥

मूलम्

निरमल सोभा निरमल रीति ॥ पारब्रहमु आइआ मनि चीति ॥ करि किरपा गुरि दीनो दानु ॥ नानक पाइआ नामु निधानु ॥४॥३३॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल = बेदाग़। रीति = जीवन जुगति। मनि = मन में। चीति = चिक्त में। गुरि = गुरु ने। निधानु = खजाना।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में चिक्त में परमात्मा आ बसता है, उसकी हर जगह बेदाग़ शोभा बनी रहती है, उसकी जीवन-जुगति सदा पवित्र होती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) मेहर करके गुरु ने जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शी, उसने नाम-खजाना हासिल कर लिया।4।33।46।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ करण कारण समरथु गुरु मेरा ॥ जीअ प्राण सुखदाता नेरा ॥ भै भंजन अबिनासी राइ ॥ दरसनि देखिऐ सभु दुखु जाइ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ करण कारण समरथु गुरु मेरा ॥ जीअ प्राण सुखदाता नेरा ॥ भै भंजन अबिनासी राइ ॥ दरसनि देखिऐ सभु दुखु जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण = जगत, सृष्टि। कारण = मूल। समरथु = सबकुछ कर सकने वाला। जीअ दाता = जिंद देने वाला। प्राण दाता = प्राण देने वाला। सुखदाता = सारे सुख देने वाला। नेरा = (सबसे) नजदीक। भै भंजन = सारे डरों को नाश करने वाला। राइ = राय, पातशाह। दरसनि देखिऐ = अगर दर्शन कर लें। जाइ = दूर हो जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु-परमेश्वर सारी सृष्टि का मूल है, सब ताकतों का मालिक है, (सबको) जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, सारे सुख देने वाला है, (सबके) नजदीक (बसता है)। हे भाई! वह पातिशाह (जीवों के सारे) डर दूर करने वाला है, वह स्वयं नाश रहित है, अगर उसके दर्शन हो जाएं, (तो मनुष्य का) सारा दुख दूर हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जत कत पेखउ तेरी सरणा ॥ बलि बलि जाई सतिगुर चरणा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जत कत पेखउ तेरी सरणा ॥ बलि बलि जाई सतिगुर चरणा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। पेखउ = मैं देखता हूँ। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं (अपने) गुरु के चरणों से सदा सदके जाता हूँ (जिसने मुझे तेरे चरणों में जोड़ा है, अब) मैं हर जगह तेरा ही आसरा देखता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरन काम मिले गुरदेव ॥ सभि फलदाता निरमल सेव ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ राम नामु रिद दीओ निवास ॥२॥

मूलम्

पूरन काम मिले गुरदेव ॥ सभि फलदाता निरमल सेव ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ राम नामु रिद दीओ निवास ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काम = कामना, इच्छा। सभि = सारे (बहुवचन)। निरमल = जीवन को पवित्र करनेवाली। करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। रिद = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! गुरदेव-प्रभु को मिल के सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, वह प्रभु सारे फल देने वाला है, उसकी सेवा-भक्ति जीवन पवित्र कर देती है। हे भाई! प्रभु अपने दासों का हाथ पकड़ के उनको अपने बना लेता है, और उनके हृदय में अपना नाम टिका देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा अनंदु नाही किछु सोगु ॥ दूखु दरदु नह बिआपै रोगु ॥ सभु किछु तेरा तू करणैहारु ॥ पारब्रहम गुर अगम अपार ॥३॥

मूलम्

सदा अनंदु नाही किछु सोगु ॥ दूखु दरदु नह बिआपै रोगु ॥ सभु किछु तेरा तू करणैहारु ॥ पारब्रहम गुर अगम अपार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोगु = शोक। बिआपै = अपना जोर डाल सकता है। करणैहारु = पैदा कर सकने की सामर्थ्य वाला।3।
अर्थ: हे गुरु-पारब्रहम! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! (जो कुछ दिखाई दे रहा है, यह) सब कुछ तेरा पैदा किया हुआ है, तू ही सब कुछ पैदा करने की सामर्थ्य वाला है। जिसके हृदय में तू अपना नाम टिकाता है (उसके अंदर) सदा आनंद बना रहता है, उसको कोई ग़म (छू नहीं सकता)। कोई दुख कोई दर्द कोई रोग उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल सोभा अचरज बाणी ॥ पारब्रहम पूरन मनि भाणी ॥ जलि थलि महीअलि रविआ सोइ ॥ नानक सभु किछु प्रभ ते होइ ॥४॥३४॥४७॥

मूलम्

निरमल सोभा अचरज बाणी ॥ पारब्रहम पूरन मनि भाणी ॥ जलि थलि महीअलि रविआ सोइ ॥ नानक सभु किछु प्रभ ते होइ ॥४॥३४॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल = बेदाग़। अचरज बाणी = विस्माद अवस्था पैदा कर सकनेवाली वाणी। पूरन = सर्वव्यापक। मनि = (जिस मनुष्य के) मनमें। भाणी = भा गई, प्यारी लगने लग जाती है। जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, अंतरिक्ष में, आकाश में। रविआ = व्यापक। ते = से।4।
अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा की विस्माद पैदा करने वालीमहिमा जिस मनुष्य के मन को मीठी लगने लग जाती है, उसकी बे-दाग़ शोभा (हर जगह पसर जाती है)। हे नानक! वह प्रभु जल में धरती में आकाश में हर जगह मौजूद है (जो कुछ जगत में हो रहा है) सब कुछ प्रभु से (प्रभूके हुक्म से ही) हो रहा है।4।34।47।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ मनु तनु राता राम रंगि चरणे ॥ सरब मनोरथ पूरन करणे ॥ आठ पहर गावत भगवंतु ॥ सतिगुरि दीनो पूरा मंतु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ मनु तनु राता राम रंगि चरणे ॥ सरब मनोरथ पूरन करणे ॥ आठ पहर गावत भगवंतु ॥ सतिगुरि दीनो पूरा मंतु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राता = रंगा हुआ। राम रंगि चरणे = रामके चरणों में प्यार में। मनोरथ = आवश्यक्ताएं, मांगें। गावत = गाते हुए। सतिगुरि = गुरु ने। मंतु = उपदेश, नाम मंत्र।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने (सारे गुणों से) भरपूर नाम-मंत्र दे दिया, (उसकी उम्र) आठों पहर भगवान के गुण गाते हुए (बीतती है), परमात्मा उसकी सारी आवश्यक्ताएं पूरी करता रहता है, उसका मन उसका तन परमात्मा के चरणों के प्यार में मस्त रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो वडभागी जिसु नामि पिआरु ॥ तिस कै संगि तरै संसारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सो वडभागी जिसु नामि पिआरु ॥ तिस कै संगि तरै संसारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम में। तिस कै संगि = उसकी संगति में। तरै = (विकारों के समुंदर से) पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कै संगि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का परमात्मा के नाम के साथ प्यार हो गया है, वह बहुत भाग्यशाली है। उस (मनुष्य) की संगति में सारा जगत (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई गिआनी जि सिमरै एक ॥ सो धनवंता जिसु बुधि बिबेक ॥ सो कुलवंता जि सिमरै सुआमी ॥ सो पतिवंता जि आपु पछानी ॥२॥

मूलम्

सोई गिआनी जि सिमरै एक ॥ सो धनवंता जिसु बुधि बिबेक ॥ सो कुलवंता जि सिमरै सुआमी ॥ सो पतिवंता जि आपु पछानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला। जि = जो मनुष्य। बुधि बिबेक = (अच्छे बुर कर्म की) परख की बुद्धि। कुलवंता = अच्छी कुल वाला। पतिवंता = इज्जत वाला। आपु = अपने आपको, अपने आचरण को।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य एक प्रभु का नाम स्मरण करता रहता है, वही आत्मिक जीवन की सूझ वाला होता है। जिस मनुष्य को अच्छे-बुरे कर्मों की परख की बुद्धि (विवेक) आ जाती है वह मनुष्य नाम-धन का मालिक बन जाता है। जो मनुष्य मालिक-प्रभु को याद करता रहता है वह (सबसे ऊँचे प्रभु को छू के) ऊँची कुल वाला बन गया। जो मनुष्य अपने आचरण को पड़तालता रहता है वह (लोक-परलोक में) इज्जत वाला हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ गुण गुोपाल दिनु रैनि धिआइआ ॥ तूटे बंधन पूरन आसा ॥ हरि के चरण रिद माहि निवासा ॥३॥

मूलम्

गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ गुण गुोपाल दिनु रैनि धिआइआ ॥ तूटे बंधन पूरन आसा ॥ हरि के चरण रिद माहि निवासा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। परम = सबसे ऊँचा। पदु = आत्मिक दर्जा। रैनि = रात। बंधन = माया के मोह के फंदे। रिद महि = हृदय में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाने आरम्भ कर दिए, उसको सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा मिल गया। उसकी माया के मोह के सब फंदे टूट गए, उसकी सब आशाएं पूरी हो गई, परमात्मा के चरण उसके हृदय में (सदा के लिए) टिक गए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक जा के पूरन करमा ॥ सो जनु आइआ प्रभ की सरना ॥ आपि पवितु पावन सभि कीने ॥ राम रसाइणु रसना चीन्हे ॥४॥३५॥४८॥

मूलम्

कहु नानक जा के पूरन करमा ॥ सो जनु आइआ प्रभ की सरना ॥ आपि पवितु पावन सभि कीने ॥ राम रसाइणु रसना चीन्हे ॥४॥३५॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा के = जिस (मनुष्य) के। पूरन करमा = पूरे भाग, अच्छी किस्मत। सो = वह (एकवचन)। पावन = पवित्र जीवन वाले। सभि = सारे। रसाइणु = (रस+आयन। रसों का घर) सब रसों से श्रेष्ठ रस। रसना = जीभ (से)। चीने = चीन्हे, पहचाना।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग उठते हैं, वह मनुष्य परमात्मा की शरण में आ पड़ता है। वह मनुष्य स्वयं स्वच्छ आचरण वाला बन जाता है (जो उसकी संगति करते हैं उन) सभी को भी पवित्र जीवन वाला बना लेता है। वह मनुष्य अपनी जीभ से सब रसों से श्रेष्ठ नाम-रस को चखता रहता है।4।35।48।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ नामु लैत किछु बिघनु न लागै ॥ नामु सुणत जमु दूरहु भागै ॥ नामु लैत सभ दूखह नासु ॥ नामु जपत हरि चरण निवासु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ नामु लैत किछु बिघनु न लागै ॥ नामु सुणत जमु दूरहु भागै ॥ नामु लैत सभ दूखह नासु ॥ नामु जपत हरि चरण निवासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लैत = लेते हुए, स्मरण करते हुए। बिघनु = रुकावट, विघन। दूखह = दुखों का।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (जिंदगी के सफर में कामादिक की) कोई रुकावट नहीं पड़ती। परमात्मा का नाम सुनने से (जीवन इतना ऊँचा हो जाता है किनाम जपने वाले मनुष्य से) जमराज दूर से ही परे हट जाता है। नाम जपने से सारे दुखों का नाश हो जाता है, और परमात्मा के चरणों में मन टिका रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरबिघन भगति भजु हरि हरि नाउ ॥ रसकि रसकि हरि के गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

निरबिघन भगति भजु हरि हरि नाउ ॥ रसकि रसकि हरि के गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरबिघन = विघनों से बचाने वाला। रसकि = आनंद से, स्वाद से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! बड़े प्रेम से सदा परमात्मा के गुण गाता रहा कर, सदा हरि का नाम जपता रहा कर। यह भक्ति जिंदगी की राह में (विकारों की) कोई रुकावट नहीं पड़ने देती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सिमरत किछु चाखु न जोहै ॥ हरि सिमरत दैत देउ न पोहै ॥ हरि सिमरत मोहु मानु न बधै ॥ हरि सिमरत गरभ जोनि न रुधै ॥२॥

मूलम्

हरि सिमरत किछु चाखु न जोहै ॥ हरि सिमरत दैत देउ न पोहै ॥ हरि सिमरत मोहु मानु न बधै ॥ हरि सिमरत गरभ जोनि न रुधै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाखु = (चक्षुस्) बुरी नजर। जोहै = ताक सकती। दैत देउ = बहुत बड़ा दैत्य (कामादिक आदि)। न पोहै = अपना जोर नहीं डाल सकता। न बधै = नहीं मार सकता, आत्मिक तौर पर नहीं मार सकता। रुधै = फसता। गरभ जोनि = जुनियों के चक्कर में।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से बुरी नजर नहींलगती, बडे से बड़ा कोई भी दैत्य अपना जोर नहीं डाल सकता, माया का मोह दुनिया का कोई मान-सम्मान आत्मिक जीवन को कुचल नहीं सकता, परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए मनुष्य जूनियों के चक्कर में नहीं फंसता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सिमरन की सगली बेला ॥ हरि सिमरनु बहु माहि इकेला ॥ जाति अजाति जपै जनु कोइ ॥ जो जापै तिस की गति होइ ॥३॥

मूलम्

हरि सिमरन की सगली बेला ॥ हरि सिमरनु बहु माहि इकेला ॥ जाति अजाति जपै जनु कोइ ॥ जो जापै तिस की गति होइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगली बेला = हरेक समय। बेला = समय। इकेला = कोई विरला। अजाति = नीच जाति का मनुष्य। गति = उच्च आत्मिक अवस्था।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जो भी समय स्मरण में गुजारा जाए वही अच्छा है) हरेक समय स्मरण के लिए दरुस्त है, पर अनेक में से कोई विरला मनुष्य ही हरि-नाम का स्मरण करता है। ऊँची जाति का हो चाहे नीच जाति का हो, जो भी मनुष्य नाम जपता है उसकी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का नामु जपीऐ साधसंगि ॥ हरि के नाम का पूरन रंगु ॥ नानक कउ प्रभ किरपा धारि ॥ सासि सासि हरि देहु चितारि ॥४॥३६॥४९॥

मूलम्

हरि का नामु जपीऐ साधसंगि ॥ हरि के नाम का पूरन रंगु ॥ नानक कउ प्रभ किरपा धारि ॥ सासि सासि हरि देहु चितारि ॥४॥३६॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपीऐ = जपा जा सकता है। साध संगि = साधु-संगत में। पूरन = पूरा। धारि = कर। सासि सासि = हरेकसांस के साथ। चितारि = चितारूँ, मैं याद करता रहूँ।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम साधु-संगत में (रह के) जपा जा सकता है, (साधु-संगत की सहायता से ही) परमात्मा के नाम का पूरा रंग (मनुष्य की जिंदगी के ऊपर चढ़ता है)। हे प्रभु! (अपने दास) नानक पर मेहर कर, हे हरि! (मुझे अपने नाम की दाति) दे (ता कि) मैं (अपने) हरेक सांस के साथ (तेरा नाम) चेते करता रहूँ।4।36।49।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ आपे सासतु आपे बेदु ॥ आपे घटि घटि जाणै भेदु ॥ जोति सरूप जा की सभ वथु ॥ करण कारण पूरन समरथु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ आपे सासतु आपे बेदु ॥ आपे घटि घटि जाणै भेदु ॥ जोति सरूप जा की सभ वथु ॥ करण कारण पूरन समरथु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही, प्रभु का अपना नाम ही। घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। जाणै = जानता है (एकवचन)। जोति सरूप = सिर्फ ज्योति ही ज्योति, सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश। जा की = जिस (परमात्मा) की। सभ वथु = सारी वस्तु, सारी सृष्टि। करण कारण = सारे जगत का मूल। पूरन = सर्व व्यापक। समरथु = सब ताकतों का मालिक।1।
अर्थ: हे मेरे मन! वह (परमात्मा) स्वयं ही (तेरे लिए) शास्त्र है, वह (परमात्मा) स्वयं ही (तेरे वास्ते) वेद है (भाव, परमात्मा का नाम ही तेरे वास्ते वेद-शास्त्र है)। हे मन! वह परमात्मा स्वयं ही हरेक शरीर में (बस रहा है), वह स्वयं ही (हरेक जीव के दिल का) भेद जानता है। हे मेरे मन! यह सारी सृष्टि जिस (परमात्मा) की (रची हुई है) वह सिर्फ नूर ही नूर है। वह ही सारे जगत का मूल है, वह सब जगह मौजूद है, वह सब ताकतों का मालिक है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ की ओट गहहु मन मेरे ॥ चरन कमल गुरमुखि आराधहु दुसमन दूखु न आवै नेरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ की ओट गहहु मन मेरे ॥ चरन कमल गुरमुखि आराधहु दुसमन दूखु न आवै नेरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओट = आसरा, सहारा। गहहु = पकड़ो, लो। मन = हेमन! च्रन कमल = कमल समान सुंदर चरण। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। दुसमन = वैरी (बहुवचन)। आवै = आता (एकवचन)। नेरे = नजदीक।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का आसरा लिए रख। गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के सुंदर चरणों की आराधना किया कर (जो मनुष्य ये उद्यम करता है, कोई) वैरी (उसके) नजदीक नहीं आता, कोई दुख (उसके) पास नहीं फटकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे वणु त्रिणु त्रिभवण सारु ॥ जा कै सूति परोइआ संसारु ॥ आपे सिव सकती संजोगी ॥ आपि निरबाणी आपे भोगी ॥२॥

मूलम्

आपे वणु त्रिणु त्रिभवण सारु ॥ जा कै सूति परोइआ संसारु ॥ आपे सिव सकती संजोगी ॥ आपि निरबाणी आपे भोगी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = प्रभु स्वयं ही। वणु = जंगल। त्रिणु = घास का तीला, बनस्पति। सारु = तत्व, मूल। जा कै सूति = जिसके सूतमें, जिसकी मर्यादा में, जिसके हुक्म में। सिव = शिव, आत्मा। सकती = शक्ति, माया, प्राकृति। संजोगी = मिलाने वाला। निरबाणी = (निर्वाण) वासना रहित, निर्लिप। भोगी = भोगने वाला, भोगों में प्रवृति।2।
अर्थ: हे मेरे मन! वह (प्रभु) स्वयं ही (हरेक) जंगल (को पैदा करने वाला) है, (सारी) बनस्पति (को पैदा करने वाला) है, वह स्वयं ही तीनों भवनों का मूल है। (वह ऐसा है) जिसके हुक्म में सारा जगत परोया हुआ है। हे मन! वह स्वयं ही जीवात्मा और प्रकृति को जोड़ने वाला है, वह स्वयं ही (सबसे अलग) वासना-रहित है, वह स्वयं ही (सब में व्यापक हो के सारे भोग) भोगने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जत कत पेखउ तत तत सोइ ॥ तिसु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ सागरु तरीऐ नाम कै रंगि ॥ गुण गावै नानकु साधसंगि ॥३॥

मूलम्

जत कत पेखउ तत तत सोइ ॥ तिसु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ सागरु तरीऐ नाम कै रंगि ॥ गुण गावै नानकु साधसंगि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जत कत = (यत्र कुत्र) जहाँ कहाँ, हर जगह। पेखउ = मैं देखता हूँ। तत तत = वहीं वहीं। सोइ = वह (परमात्मा) ही। सागरु = (संसार) समुंदर। तरीऐ = तैरा जा सकता है। कै रंगि = के प्रेम रंग से। गावै = गाता है। साध संगि = साधु-संगत में (रह के)।3।
अर्थ: हे भाई! मैं जिधर-जिधर देखता हूँ, हर जगह वह प्रभु स्वयं ही मौजूद है, उसके बिना (कहीं भी) कोई और दूसरा नहीं है। हे भाई! (उस परमात्मा के) नाम में प्यार डालने से ही इस संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है। नानक (भी) साधु-संगत में (रह के उसी परमात्मा के) गुण गाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकति भुगति जुगति वसि जा कै ॥ ऊणा नाही किछु जन ता कै ॥ करि किरपा जिसु होइ सुप्रसंन ॥ नानक दास सेई जन धंन ॥४॥३७॥५०॥

मूलम्

मुकति भुगति जुगति वसि जा कै ॥ ऊणा नाही किछु जन ता कै ॥ करि किरपा जिसु होइ सुप्रसंन ॥ नानक दास सेई जन धंन ॥४॥३७॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति = (विकारों के जनम मरन के चक्कर से) मुक्ति। भुगति = भोजन आदि। जुगति = जीने की जुगति। जा के वसि = जिस (परमात्मा) केवश में। किछु ऊणा = कोई कमी। जन = हे जन! ता कै = उस (प्रभु) के घर में। करि = करके। जिसु = जिस जिस पर। सेई जन = वह लोग (बहुवचन)। धंन = भाग्यशाली।4।
अर्थ: हे भाई! (जीवों को) मुक्ति (देनी, जीवों को खाने-पीने के लिए) भोजन (देना, जीवों को) जीवन-चाल में चलाना- यह सब कुछ जिस परमात्मा के वश में है, उसके घर में (किसी चीज़ की) कोई कमी नहीं है। हे दास नानक! मेहर कर के जिस जिस मनुष्य पर परमात्मा दयावान होता है, वही सारे लोग (असल) भाग्यशाली हैं।4।37।50।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ भगता मनि आनंदु गोबिंद ॥ असथिति भए बिनसी सभ चिंद ॥ भै भ्रम बिनसि गए खिन माहि ॥ पारब्रहमु वसिआ मनि आइ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ भगता मनि आनंदु गोबिंद ॥ असथिति भए बिनसी सभ चिंद ॥ भै भ्रम बिनसि गए खिन माहि ॥ पारब्रहमु वसिआ मनि आइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। असथिति = (भय भ्रम आदि से) अडोलता। चिंद = (भय भरमों का) चिंतन, चित चेता। भै = (बहुवचन) सारे डर। आइ = आ के।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा भक्तों के मन में सदा आत्मिक हुलारा बना रहता है (दुनिया के डरों, दुनियां की भटकनों से उनके अंदर सदा) अडोलता रहती है (दुनिया के डरों का उनको) चिक्त-चेता भी नहीं रहता। हे भाई! (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा आ बसता है एक छिन में उसके सारे डर-सहम दूर हो जाते हैं।1।

[[1151]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम संत सदा सहाइ ॥ घरि बाहरि नाले परमेसरु रवि रहिआ पूरन सभ ठाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम राम संत सदा सहाइ ॥ घरि बाहरि नाले परमेसरु रवि रहिआ पूरन सभ ठाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाइ = सहाई, मददगार। नाले = साथ ही। रवि रहिआ = व्यापक है। पूरन = व्यापक। सभ ठाइ = सब जगह।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जो) परमात्मा सब जगह पूरन तौर पर मौजूद है, (वह) परमात्मा अपने संत जनों का सदा मददगार है, घर में घर से बाहर हर जगह (संतजनों के साथ) होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु मालु जोबनु जुगति गोपाल ॥ जीअ प्राण नित सुख प्रतिपाल ॥ अपने दास कउ दे राखै हाथ ॥ निमख न छोडै सद ही साथ ॥२॥

मूलम्

धनु मालु जोबनु जुगति गोपाल ॥ जीअ प्राण नित सुख प्रतिपाल ॥ अपने दास कउ दे राखै हाथ ॥ निमख न छोडै सद ही साथ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुगति = जीवन की मर्यादा, जीने की विधि। जीअ = जिंद। दे = देकर। राखै = रक्षा करता है। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। सद = सदा।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा आँख झपकने जितने समय के लिए भी अपने सेवक का साथ नहीं छोड़ता, सदा उसके साथ रहता है, अपने सेवक को हाथ दे के बचाता है। हे भाई! परमात्मा सेवक की जिंद की पालना करता है, सदा उसके प्राणों की रक्षा करता है, उसको सारे सुख देता है। (सेवक के लिए भी) परमात्मा का नाम ही धन है, नाम ही माल है, नाम ही जवानी है और नाम जपना ही जीने की अच्छी जुगति है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सा प्रीतमु अवरु न कोइ ॥ सारि सम्हाले साचा सोइ ॥ मात पिता सुत बंधु नराइणु ॥ आदि जुगादि भगत गुण गाइणु ॥३॥

मूलम्

हरि सा प्रीतमु अवरु न कोइ ॥ सारि सम्हाले साचा सोइ ॥ मात पिता सुत बंधु नराइणु ॥ आदि जुगादि भगत गुण गाइणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा = जैसा। प्रीतमु = प्यार करने वाला। सारि = ध्यान से। समाले = संभाल करता है। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुत = पुत्र। बंधु = सन्बंधी। भगत = परमात्मा के सेवक। आदि = आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जैसा प्यार करने वाला और कोई नहीं है। वह सदा-स्थिर प्रभु बड़े ध्यान से (अपने भक्तों की) संभाल करता है। हे भाई! जगत के शुरू से जुगों के आरम्भ से भक्त परमात्मा के गुणों का गायन करते आ रहे हैं, उनके लिए परमात्मा ही माँ है, परमात्मा ही पिता है, परमात्मा ही पुत्र है परमात्मा ही सम्बंधी है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस की धर प्रभ का मनि जोरु ॥ एक बिना दूजा नही होरु ॥ नानक कै मनि इहु पुरखारथु ॥ प्रभू हमारा सारे सुआरथु ॥४॥३८॥५१॥

मूलम्

तिस की धर प्रभ का मनि जोरु ॥ एक बिना दूजा नही होरु ॥ नानक कै मनि इहु पुरखारथु ॥ प्रभू हमारा सारे सुआरथु ॥४॥३८॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धर = आसरा। मनि = मन में। जोरु = बल, सहारा। कै मनि = के मन में। पुरखारथु = पुरुषार्थ, हौसला। सारे = सवारता है।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! भक्त जनों के मन में परमात्मा का ही आसरा है परमात्मा का ही ताण है। नानक के मन में (भी) यही पुरुषार्थ है कि परमात्मा हमारे हरेक काम सँवारता है।4।38।51।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ भै कउ भउ पड़िआ सिमरत हरि नाम ॥ सगल बिआधि मिटी त्रिहु गुण की दास के होए पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ भै कउ भउ पड़िआ सिमरत हरि नाम ॥ सगल बिआधि मिटी त्रिहु गुण की दास के होए पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै कउ = डर को (संबंधक के कारण शब्द ‘भउ’ से ‘भै’ बन जाता है)। पड़िआ = पड़ गया। सिमरत = स्मरण करते हुए। सगल बिआधि = हरेक किस्म की बिमारी। त्रिहु गुण की = माया के तीनों गुणों से पैदा होने वाली। काम = काम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से डर को भी डर पड़ जाता है (डर स्मरण करने वाले के नजदीक नहीं जाता)। माया के तीनों ही गुणों से पैदा होने वाली हरेक बिमारी (भक्त-जन के अंदर से) दूर हो जाती है। प्रभु के सेवक के सारे काम सफल होते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के लोक सदा गुण गावहि तिन कउ मिलिआ पूरन धाम ॥ जन का दरसु बांछै दिन राती होइ पुनीत धरम राइ जाम ॥१॥

मूलम्

हरि के लोक सदा गुण गावहि तिन कउ मिलिआ पूरन धाम ॥ जन का दरसु बांछै दिन राती होइ पुनीत धरम राइ जाम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। पूरन धाम = सर्व व्यापक प्रभु के चरणों में ठिकाना। धाम = घर, ठिकाना। बांछै = चाहता है (एकवचन)। पुनीत = पवित्र। जाम = जमराज।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनको सर्व-व्यापक प्रभु के चरणों में ठिकाना मिला रहता है। हे भाई! धर्मराज जम राज भी दिन-रात परमात्मा के भक्त का दर्शन करने की अभिलाषा रखता है (क्योंकि उस दर्शन से वह) पवित्र हो सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध लोभ मद निंदा साधसंगि मिटिआ अभिमान ॥ ऐसे संत भेटहि वडभागी नानक तिन कै सद कुरबान ॥२॥३९॥५२॥

मूलम्

काम क्रोध लोभ मद निंदा साधसंगि मिटिआ अभिमान ॥ ऐसे संत भेटहि वडभागी नानक तिन कै सद कुरबान ॥२॥३९॥५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मद = मस्ती, मोह। साध संगि = साधु-संगत में। भेटहि = मिलते हैं (बहुवचन)। तिन कै = उन से। सद = सदा।2।
अर्थ: हे भाई! गुरमुखों की संगति में रहने से काम क्रोध लोभ मोह अहंकार (हरेक विकार मनुष्य के अंदर से) खत्म हो जाता है। पर ऐसे संत जन बड़े भाग्यों से ही मिलते हैं। हे नानक! (कह:) मैं उन संतजनों से सदा सदके जाता हूँ।2।39।52।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ पंच मजमी जो पंचन राखै ॥ मिथिआ रसना नित उठि भाखै ॥ चक्र बणाइ करै पाखंड ॥ झुरि झुरि पचै जैसे त्रिअ रंड ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ पंच मजमी जो पंचन राखै ॥ मिथिआ रसना नित उठि भाखै ॥ चक्र बणाइ करै पाखंड ॥ झुरि झुरि पचै जैसे त्रिअ रंड ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच मजमी = पाँच पीरों का उपासक, कामादिक पाँच पीरों का उपासक। पंचन = कामादिक पाँचों को। मिथिआ = झूठ। रसना = जीभ (से)। उठि = उठ के। नित उठि = सदा ही, हर रोज। भाखै = बोलता है। चक्र = गणेश आदि का निशान। पाखंड = धरमी होने का दिखावा। झुरि झुरि = माया की खातिर तरले ले के। पचै = अंदर ही अंदर जलता है। त्रिआ रंड = विधवा स्त्री, रंडी।1।
अर्थ: हे भाई! (नाम स्मरण को छोड़ के जो मनुष्य शरीर पर) गणेश आदि का निशान बना के अपने धर्मी होने का दिखावा करता है, वह (असल में) अंदर-अंदर से माया की खातिर तरले ले-ले के जलता रहता है, जैसे विधवा स्त्री (पति के बिना सदा दुखी रहती है)। वह मनुष्य (दरअसल कामादिक) पाँच पीरों का उपासक होता है क्योंकि वह इन पाँचों को (अपने हृदय में) संभाल के रखता है, और सदा गिन-मिथ के अपनी जीभ से झूठ बोलता रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के नाम बिना सभ झूठु ॥ बिनु गुर पूरे मुकति न पाईऐ साची दरगहि साकत मूठु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के नाम बिना सभ झूठु ॥ बिनु गुर पूरे मुकति न पाईऐ साची दरगहि साकत मूठु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ = सारी (दिखावे वाली धार्मिक क्रिआ)। मुकति = विकारों से मुक्ति। साची दरगहि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा की हजूरी में। साकत मूठु = साकतों का पाज़, साकतों की ठगी की पोल, परमात्मा से टूटे हुए लोगों की ठगी ठोरी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम स्मरण के बिना (और) सारी (दिखावे वाली धार्मिक क्रिया) झूठा उद्यम है। पूरे गुरु की शरण पड़े बिना विकारों से निजात नहीं मिलती। सदा कायम रहने वाले परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों का ठगी-ठोरी का पाज़ चल नहीं सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई कुचीलु कुदरति नही जानै ॥ लीपिऐ थाइ न सुचि हरि मानै ॥ अंतरु मैला बाहरु नित धोवै ॥ साची दरगहि अपनी पति खोवै ॥२॥

मूलम्

सोई कुचीलु कुदरति नही जानै ॥ लीपिऐ थाइ न सुचि हरि मानै ॥ अंतरु मैला बाहरु नित धोवै ॥ साची दरगहि अपनी पति खोवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य कुचीलु = गंदी रहन सहन वाले। जानै = पहचानता। लीपिऐ थाइ = अगर चौका पोचा किया जाए। सुचि = पवित्रता। मानै = मानता। अंतरु = अंदर का, हृदय। बाहरु = (शरीर का) बाहरी हिस्सा। पति = इज्जत।2।
अर्थ: हे भाई! असल में वही मनुष्य कुचील रहन-सहन वाला है जो इस सारी रचना में (इसके कारतार विधाता को बसता) नहीं पहचान सकता। अगर बाहर से चौका लीपा-पोता जाए, (तो उस बाहरी स्वच्छता को) परमात्मा स्वच्छ नहीं समझता। जिस मनुष्य का हृदय तो विकारों से गंदा होया हुआ है, पर वह अपने शरीर को (स्वच्छता, सुचि की खातिर) सदा धोता रहता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में अपनी इज्जत गवा लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ कारणि करै उपाउ ॥ कबहि न घालै सीधा पाउ ॥ जिनि कीआ तिसु चीति न आणै ॥ कूड़ी कूड़ी मुखहु वखाणै ॥३॥

मूलम्

माइआ कारणि करै उपाउ ॥ कबहि न घालै सीधा पाउ ॥ जिनि कीआ तिसु चीति न आणै ॥ कूड़ी कूड़ी मुखहु वखाणै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारणि = कमाने के लिए। उपाउ = उपाय, उद्यम। घालै = घरता, भेजता। सीधा पाउ = सीधे पैर। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। चीति = चिक्त में। आणै = लाता है। कूड़ी कूड़ी = झूठ मूठ। मुखहु = मुँह से।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (अपने धर्मी होने का दिखावा करने वाले मनुष्य अंदर से) माया इकट्ठी करने की खातिर (भेस और स्वच्छता आदि का) प्रयास करता है (आडंबर करता है), पर (पवित्र जीवन वाले रास्ते पर) कभी भी सीधा पैर नहीं रखता। जिस परमात्मा ने पैदा किया है, उसको अपने चिक्त में नहीं बसाता, (हाँ) झूठ-मूठ (लोगों को ठगने के लिए अपने) मुँह से (राम-राम) उचारता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो करमु करे करतारु ॥ साधसंगि होइ तिसु बिउहारु ॥ हरि नाम भगति सिउ लागा रंगु ॥ कहु नानक तिसु जन नही भंगु ॥४॥४०॥५३॥

मूलम्

जिस नो करमु करे करतारु ॥ साधसंगि होइ तिसु बिउहारु ॥ हरि नाम भगति सिउ लागा रंगु ॥ कहु नानक तिसु जन नही भंगु ॥४॥४०॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। बिउहारु = वर्तण व्यवहार, मेल जोल, उठना बैठना। सिउ = साथ। रंगु = प्यार। भंगु = कमी, तोट।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर कर्तार-विधाता मेहर करता है, साधु-संगत में उस मनुष्य का उठना-बैठना हो जाता है, परमात्मा के नाम से परमात्मा की भक्ति से उसका प्रेम बन जाता है। हे नानक! उस मनुष्य को (आत्मिक आनंद में कभी) कमी नहीं आती।4।40।53।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ निंदक कउ फिटके संसारु ॥ निंदक का झूठा बिउहारु ॥ निंदक का मैला आचारु ॥ दास अपुने कउ राखनहारु ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ निंदक कउ फिटके संसारु ॥ निंदक का झूठा बिउहारु ॥ निंदक का मैला आचारु ॥ दास अपुने कउ राखनहारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंदक = दूसरों पर कीचड़ उछालने वाला, दूसरों पर तोहमतें लगाने वाला। कउ = को। फिटके = फिटकार पाता है। बिउहार = (तोहमतें लगाने वाला) कसब, व्यवहार, मैला = गंदा, विकारों भरा। आचारु = आचरण। राखनहारु = (विकारों से) बच सकने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! संत जनों पर दूषण लगाने वाले मनुष्य को सारा जगत घिक्कारता है (क्योंकि जगत जानता है कि) तोहमतें लगाने वाले का ये व्यवहार (कसब) झूठा है। हे भाई! (दूषण लगा-लगा के) दूषण लग्राने वाला का अपना आचरण ही गंदा हो जाता है। पर परमात्मा अपने सेवक को (विकारों में गिरने से) स्वयं बचाए रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदकु मुआ निंदक कै नालि ॥ पारब्रहम परमेसरि जन राखे निंदक कै सिरि कड़किओ कालु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

निंदकु मुआ निंदक कै नालि ॥ पारब्रहम परमेसरि जन राखे निंदक कै सिरि कड़किओ कालु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुआ = आत्मिक मौत मर जाता है। कै नालि = की सुहबत में। परमेसरि = परमेश्वर ने। राखे = (सदा) रक्षा की। कै सिरि = के सिर पर। कड़किओ = कूकता रहता है। कालु = आत्मिक मौत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (संतजनों पर) दूषण लगाने वाला मनुष्य तोहमत लगाने वाले की सोहबत (संगति) में रह के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। प्रभु-परमेश्वर ने (विकारों में गिरने से सदा ही अपने) सेवकों की रक्षा की है, पर उन पर तोहमतें लगाने वालों के सिर पर आत्मिक मौत (सदा) गरजती रहती है।1। रहाउ।

[[1152]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदक का कहिआ कोइ न मानै ॥ निंदक झूठु बोलि पछुताने ॥ हाथ पछोरहि सिरु धरनि लगाहि ॥ निंदक कउ दई छोडै नाहि ॥२॥

मूलम्

निंदक का कहिआ कोइ न मानै ॥ निंदक झूठु बोलि पछुताने ॥ हाथ पछोरहि सिरु धरनि लगाहि ॥ निंदक कउ दई छोडै नाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न मानै = ऐतबार नहीं करता। बोलि = बोल के। पछताने = अफसोस करते हैं। हाथ पछोरहि = (अपने) हाथ (माथे पर) मारते हैं। धरनि = धरती। दई = परमात्मा।2।
अर्थ: हे भाई! संतजनों पर दूषण लगाने वालों की बात को कोई भी मनुष्य सच नहीं मानता, तोहमतें लगाने वाले झूठ बोल के (फिर) अफसोस ही करते हैं, (सच्चाई सामने आ जाने पर निंदक) हाथ माथे पर मारते हैं और अपना सिर धरती पर पटकते हैं (भाव, बहुत ही शर्मिन्दे होते हैं)। (पर ऊजें लगाने की दूषण लगाने की बाज़ी में दुखदाई मनुष्य ऐसा फंस जाता है कि) परमात्मा उस दुखदाई को (अपने ही बुने हुए निंदा के जाल में से) छुटकारा नहीं देता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का दासु किछु बुरा न मागै ॥ निंदक कउ लागै दुख सांगै ॥ बगुले जिउ रहिआ पंख पसारि ॥ मुख ते बोलिआ तां कढिआ बीचारि ॥३॥

मूलम्

हरि का दासु किछु बुरा न मागै ॥ निंदक कउ लागै दुख सांगै ॥ बगुले जिउ रहिआ पंख पसारि ॥ मुख ते बोलिआ तां कढिआ बीचारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न मागै = नहीं माँगता, नहीं चाहता। दुखु सांगै = बर्छी (लगने) का दुख। पंख = पंख पक्षी के। पसारि रहिआ = बिखेरे रखता है। ते = से। तां = तब। बीचारि = विचार के।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भक्त (उस दुखदाई का भी) रक्ती भर भी बुरा नहीं माँगता (ये नहीं चाहता कि उसका कोई नुकसान हो। फिर भी) दुखदाई को (अपनी ही करतूत का ऐसा) दुख मिलता है (जैसे) बरछी (के लगने) की (असहि पीड़ा होती है)। हे भाई! संतजनों पर दूषण लगाने वाला मनुष्य खुद ही बगुले की तरह पंख पसार के रखता है (अपने आप को अच्छे जीवन वाला जतलाता फिरता है, पर जैसे ही वह) मुँह से (दूषण भरे) वचन बोलता है तब वह (झूठा दुखदाई) मिथा जाता है (और लोगों द्वारा) दुत्कारा जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरजामी करता सोइ ॥ हरि जनु करै सु निहचलु होइ ॥ हरि का दासु साचा दरबारि ॥ जन नानक कहिआ ततु बीचारि ॥४॥४१॥५४॥

मूलम्

अंतरजामी करता सोइ ॥ हरि जनु करै सु निहचलु होइ ॥ हरि का दासु साचा दरबारि ॥ जन नानक कहिआ ततु बीचारि ॥४॥४१॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। निहचलु = अटल, जरूर घटित होने वाला। साचा = अडोल जीवन वाला। दरबारि = प्रभु की हजूरी में। ततु = अस्लियत। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे भाई! वह कर्तार स्वयं ही हरेक के दिल की जानता है। उसका सेवक जो कुछ करता है वह पत्थर की लकीर होता है (उस में रक्ती भर भी झूठ नहीं होता, वह किसी की बुराई वास्ते नहीं होता)। हे नानक! प्रभु के सेवकों ने विचार के ये मूलतत्तव कह दिया है कि परमात्मा का सेवक परमात्मा की हजूरी में सुर्ख-रू होता है।4।41।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ दुइ कर जोरि करउ अरदासि ॥ जीउ पिंडु धनु तिस की रासि ॥ सोई मेरा सुआमी करनैहारु ॥ कोटि बार जाई बलिहार ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ दुइ कर जोरि करउ अरदासि ॥ जीउ पिंडु धनु तिस की रासि ॥ सोई मेरा सुआमी करनैहारु ॥ कोटि बार जाई बलिहार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुइ कर = दोनों हाथ (बहुवचन)। जोरि = जोड़ कर। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। जीउ = जिंद। पिेंडु = शरीर। रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। करनैहारु = सब कुछ करने लायक। कोटि बार = करोड़ों बार। जाई = मैं जाता हूँ। बलिहार = सदके।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण की इनायत से) मैं दोनों हाथ जोड़ के (प्रभु के दर पे) अरजोई करता रहता हूँ। मेरी यह जिंद, मेरा यह शरीर यह धन- सब कुछ उस परमात्मा की बख्शी हुई पूंजी है। मेरा वह मालिक स्वयं ही सब कुछ कर सकने में समर्थ है। मैं करोड़ों बार उससे सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू धूरि पुनीत करी ॥ मन के बिकार मिटहि प्रभ सिमरत जनम जनम की मैलु हरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

साधू धूरि पुनीत करी ॥ मन के बिकार मिटहि प्रभ सिमरत जनम जनम की मैलु हरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू धूरि = गुरु की चरण धूल। पुनीत = पवित्र (जीवन वाला)। करी = बना देती है। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। हरी = दूर हो जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की चरण-धूल (मनुष्य के जीवन को) पवित्र कर देती है, (गुरु की शरण पड़ कर) प्रभु का नाम स्मरण करने से (मनुष्य के) मन के विकार दूर हो जाते हैं, अनेक जन्मों के (किए हुए कुकर्मों) की मैल उतर जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै ग्रिह महि सगल निधान ॥ जा की सेवा पाईऐ मानु ॥ सगल मनोरथ पूरनहार ॥ जीअ प्रान भगतन आधार ॥२॥

मूलम्

जा कै ग्रिह महि सगल निधान ॥ जा की सेवा पाईऐ मानु ॥ सगल मनोरथ पूरनहार ॥ जीअ प्रान भगतन आधार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल निधान = सारे खजाने। सेवा = भक्ति। मानु = इज्जत। सगल मनोरथ = सारी जरूरतें। पूरनहार = पूरी कर सकने वाला। जीअ आधार = जिंद का आसरा।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण में आ के ही ये समझ आती है कि) जिस परमात्मा के घर में सारे खजाने हैं, जिसकी सेवा-भक्ति करने से (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है, वह परमात्मा (जीवों की) सारी आवश्यक्ताएं पूरी कर सकने वाला है, वह अपने भक्तों की जिंद का प्राणों का सहारा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घट घट अंतरि सगल प्रगास ॥ जपि जपि जीवहि भगत गुणतास ॥ जा की सेव न बिरथी जाइ ॥ मन तन अंतरि एकु धिआइ ॥३॥

मूलम्

घट घट अंतरि सगल प्रगास ॥ जपि जपि जीवहि भगत गुणतास ॥ जा की सेव न बिरथी जाइ ॥ मन तन अंतरि एकु धिआइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। अंतरि सगल = सब के अंदर। प्रगास = प्रकाश। जपि = जप के। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। गुण तास = गुणोंका खजाना प्रभु। बिरथी = व्यर्थ, खाली। धिआइ = स्मरण किया कर।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण में आ के ही ये समझ आती है कि) परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है, सब जीवों के अंदर (अपनी ज्योति का) प्रकाश करता है। उस गुणों के खजाने प्रभूका नाम जप-जप के उसके भक्त आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। हे भाई! जिस प्रभु की की हुई भक्ति व्यर्थ नहीं जाती, तू अपने मन में अपने तन में उस एक का नाम स्मरण किया कर।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर उपदेसि दइआ संतोखु ॥ नामु निधानु निरमलु इहु थोकु ॥ करि किरपा लीजै लड़ि लाइ ॥ चरन कमल नानक नित धिआइ ॥४॥४२॥५५॥

मूलम्

गुर उपदेसि दइआ संतोखु ॥ नामु निधानु निरमलु इहु थोकु ॥ करि किरपा लीजै लड़ि लाइ ॥ चरन कमल नानक नित धिआइ ॥४॥४२॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपदेसि = उपदेश से, उपदेश पर चल के। निधानु = खजाना। निरमलु = (जीवन को) पवित्र करने वाला। थोकु = पदार्थ। करि = कर के। लड़ि = पल्ले से। लाइ लीजै = लगा ले। धिआइ = स्मरण करता रहे।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शिक्षा पर चलने से (मनुष्य के हृदय में) दया पैदा होती है संतोष पैदा होता है, नाम-खजाना प्रकट हो जाता है, यह (नाम-खजाना ऐसा) पदार्थ है कि यह जीवन को पवित्र कर देता है।
हे नानक! (प्रभु के दर पर अरदास किया कर और कह: हे प्रभु!) मेहर कर के (मुझे अपने) पल्ले से लगाए रख। (मैं) तेरे सुंदर चरणों का हमेशा ध्यान धरता रहूँ।4।42।55।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुर अपुने सुनी अरदासि ॥ कारजु आइआ सगला रासि ॥ मन तन अंतरि प्रभू धिआइआ ॥ गुर पूरे डरु सगल चुकाइआ ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुर अपुने सुनी अरदासि ॥ कारजु आइआ सगला रासि ॥ मन तन अंतरि प्रभू धिआइआ ॥ गुर पूरे डरु सगल चुकाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर अपने = प्यारे गुरु ने। अरदासि = बेनती। कारजु = काम। आइआ रासि = सफल हो गया। अंतरि = अंदर। गुर पूरै = पूरे गुरु ने। सगल = सारा। चुकाइआ = समाप्त कर दिया।1।
अर्थ: हे भाई! प्यारे गुरु ने (जिस मनुष्य की) विनती सुन ली, उसका (हरेक) काम मुकम्मल तौर पर सफल हो जाता है। वह मनुष्य अपने मन में अपने हृदय में परमात्मा का ध्यान धरता रहता है। पूरा गुरु उसका (हरेक) डर सारे का सारा दूर कर देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ ते वड समरथ गुरदेव ॥ सभि सुख पाई तिस की सेव ॥ रहाउ॥

मूलम्

सभ ते वड समरथ गुरदेव ॥ सभि सुख पाई तिस की सेव ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ ते = सबसे। ते = से। वड समरथ = बड़ी ताकत वाला। सभि = सारे। पाई = मैं पाता हूँ। सेव = शरण। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु सब (देवताओं) से बहुत बड़ी ताकत वाला है। मैं (तो) उस (गुरु) की शरण पड़ कर सारे सुख प्राप्त कर रहा हूँ। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा का कीआ सभु किछु होइ ॥ तिस का अमरु न मेटै कोइ ॥ पारब्रहमु परमेसरु अनूपु ॥ सफल मूरति गुरु तिस का रूपु ॥२॥

मूलम्

जा का कीआ सभु किछु होइ ॥ तिस का अमरु न मेटै कोइ ॥ पारब्रहमु परमेसरु अनूपु ॥ सफल मूरति गुरु तिस का रूपु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा का = जिस (परमात्मा) का। सभु किछु = हरेक काम। अमरु = हुक्म। न मेटै = मोड़ नहीं सकता। अनूपु = (अन+ऊप) जिसकी उपमा ना हो सके, जिसके बराबर का और कोई नहीं, बहुत ही सुंदर। सफल मूरति = जिसकी हस्ती सारे फल देने वाली है। तिस का = (तिसु का) उस परमात्मा का।2।
अर्थ: हे भाई! (जगत में) जिस (परमात्मा) का किया हुआ ही हरेक काम हो रहा है, उस (परमात्मा) का हुक्म कोई जीव मोड़ नहीं सकता। वह प्रभु परमेश्वर (ऐसा है कि उस) जैसा और कोई नहीं। उसके स्वरूप का दीदार सारे उद्देश्य पूरे करता है। हे भाई! गुरु उस परमात्मा का रूप है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै अंतरि बसै हरि नामु ॥ जो जो पेखै सु ब्रहम गिआनु ॥ बीस बिसुए जा कै मनि परगासु ॥ तिसु जन कै पारब्रहम का निवासु ॥३॥

मूलम्

जा कै अंतरि बसै हरि नामु ॥ जो जो पेखै सु ब्रहम गिआनु ॥ बीस बिसुए जा कै मनि परगासु ॥ तिसु जन कै पारब्रहम का निवासु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै अंतरि = जिस मनुष्य के हृदय में। जो जो = जो कुछ भी। पेखै = देखता है। सु = वह (देखा हुआ पदार्थ)। ब्रहम गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। बीस बिसुए = पूरी तौर पर। तिसु जन कै = उस मनुष्य के हृदय में।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के द्वारा) जिस (मनुष्य) के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, (वह मनुष्य जगत में) जो कुछ भी देखता है वह (देखा हुआ पदार्थ उसकी) परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनाता है। हे भाई! (गुरु के द्वारा) जिस मनुष्य के मन में आत्मिक जीवन का मुकम्मल प्रकाश हो जाता है, उस मनुष्य के अंदर परमात्मा का निवास हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु गुर कउ सद करी नमसकार ॥ तिसु गुर कउ सद जाउ बलिहार ॥ सतिगुर के चरन धोइ धोइ पीवा ॥ गुर नानक जपि जपि सद जीवा ॥४॥४३॥५६॥

मूलम्

तिसु गुर कउ सद करी नमसकार ॥ तिसु गुर कउ सद जाउ बलिहार ॥ सतिगुर के चरन धोइ धोइ पीवा ॥ गुर नानक जपि जपि सद जीवा ॥४॥४३॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा। करी = मैं करता हूँ। जाउ = मैं जाता हूँ। बलिहार = सदके। धोइ = धो के। पीवा = मैं पीता रहूँ। नानक = हे नानक! जपि = जप के। जीवा = मैं जीता रहूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करूँ।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) उस गुरु को मैं सदा सिर झुकाता रहता हूँ उस गुरु से मैं सदा कुर्बान जाता हूँ। मैं उस गुरु के चरण धो धो के पीता हूँ (भाव, मैं उस गुरु से अपना आपा सदके करता हूँ)। उस गुरु को सदा चेते करके मैं आत्मिक जीवन हासिल करता रहता हूँ।4।43।56।

[[1153]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु भैरउ महला ५ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु भैरउ महला ५ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परतिपाल प्रभ क्रिपाल कवन गुन गनी ॥ अनिक रंग बहु तरंग सरब को धनी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

परतिपाल प्रभ क्रिपाल कवन गुन गनी ॥ अनिक रंग बहु तरंग सरब को धनी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परतिपाल = हे प्रतिपालक! हे पालनहार! कवन गुन = कौन कौन से गुण? गनी = मैं गिनूँ। तरंग = लहरें। को = का। धनी = मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: हे सबके पालनहार प्रभु! हे कृपालु प्रभु! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? (जगत के) अनेक रंग-तमाशे (तेरे ही रचे हुए हैं), (तू एक बेअंत समुंदर है, जगत के बेअंत जीव-जंतु तेरे में से ही) लहरें उठी हुई हैं, तू सब जीवों का मालिक है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक गिआन अनिक धिआन अनिक जाप जाप ताप ॥ अनिक गुनित धुनित ललित अनिक धार मुनी ॥१॥

मूलम्

अनिक गिआन अनिक धिआन अनिक जाप जाप ताप ॥ अनिक गुनित धुनित ललित अनिक धार मुनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनिक = अनेक जीव। गिआन = धार्मिक पुस्तकों के विचार। धिआन = समाधियां। जाप = मंत्रों के जाप। ताप = धूणियां तपानी। गुनित = गुणों की विचार। ललित = सुंदर। धुनित ललित = सुंदर धुनियां। धार मुनी = मौन धारने वाले।1।
अर्थ: हे पालनहार प्रभु! अनेक ही जीव (धार्मिक पुस्तकों पर) विचार कर रहे हैं, अनेक ही जीव समाधियां लगा रहे हैं, अनेक ही जीव मंत्रों के जप कर रहे हैं और धूणियां तपा रहे हैं। अनेक जीव तेरे गुणों की विचार कर रहे हैं, अनेक जीव (तेरे कीर्तन में) मीठी सुरें लगा रहे हैं, अनेक ही जीव मौन धारी बैठे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक नाद अनिक बाज निमख निमख अनिक स्वाद अनिक दोख अनिक रोग मिटहि जस सुनी ॥ नानक सेव अपार देव तटह खटह बरत पूजा गवन भवन जात्र करन सगल फल पुनी ॥२॥१॥५७॥८॥२१॥७॥५७॥९३॥

मूलम्

अनिक नाद अनिक बाज निमख निमख अनिक स्वाद अनिक दोख अनिक रोग मिटहि जस सुनी ॥ नानक सेव अपार देव तटह खटह बरत पूजा गवन भवन जात्र करन सगल फल पुनी ॥२॥१॥५७॥८॥२१॥७॥५७॥९३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाद = आवाज़। बाज = बाजे। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। दोख = ऐब, विकार। मिटहि = मिट जाते हैं, दूर हो जाते हैं (बहुवचन)। जस = महिमा (बहुवचन)। सुनी = सुनीं। नानक = हे नानक! सेव = सेवा भक्ति। अपार देव = बेअंत प्रभु देव जी। तटह = तट, तीर्थों के तट पर, तीर्थ स्नान। खटह = छह (शास्त्रों के विचार)। पूजा = देव पूजा। गवन भवन = सारी धरती का रटन। पुनी = पुण्य।2।
अर्थ: हे प्रभु! (जगत में) अनेक राग हो रहे हैं, अनेक साज बज रहे हैं, एक-एक निमख में अनेक स्वाद पैदा हो रहे हैं। हे प्रभु! तेरी महिमा सुन के अनेक विकार और अनेक रोग दूर हो जाते हैं।
हे नानक! बेअंत प्रभु-देव की सेवा-भक्ति ही तीर्थ-यात्रा है, भक्ति ही छह शास्त्रों की विचार है, भक्ति ही देव-पूजा है, भक्ति ही देश-रटन और तीर्थ-यात्रा है। सारे फल सारे पुण्य परमात्मा की भक्ति में ही हैं।2।1।57।8।21।7।57।93।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पड़ताल = कई तालों का पलट पलट के बज सकना। इस किस्म के शब्द के गायन के समय चार ताल, तीन ताल, सूल फ़ाख्ता, झप ताल आदि कई तालें पलट-पलट के बजाए जा सकते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ असटपदीआ महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ असटपदीआ महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आतम महि रामु राम महि आतमु चीनसि गुर बीचारा ॥ अम्रित बाणी सबदि पछाणी दुख काटै हउ मारा ॥१॥

मूलम्

आतम महि रामु राम महि आतमु चीनसि गुर बीचारा ॥ अम्रित बाणी सबदि पछाणी दुख काटै हउ मारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आतम महि = (हरेक) जीवात्मा में। चीनसि = पहचान करता है, समझता है। सबदि = गुरु के शब्द से। हउ = अहंकार।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य पर धुर से ही बख्शिश करता है वह) वह गुरु के शब्द की विचार से यह समझ लेता है कि हरेक जीवात्मा में परमात्मा मौजूद है, परमात्मा में ही हरेक जीव (जीता) है। वह मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी की कद्र समझ लेता है, वह (अपने अंदर से) अहंकार को खत्म कर लेता है (और अहंकार से पैदा होने वाले सारे) दुख दूर कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक हउमै रोग बुरे ॥ जह देखां तह एका बेदन आपे बखसै सबदि धुरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नानक हउमै रोग बुरे ॥ जह देखां तह एका बेदन आपे बखसै सबदि धुरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुरे = बहुत बुरे। देखां = मैं देखता हूँ। जह = जहाँ। एका = यही। बेदन = वेदना, दुख, मतभेद के कारण दूरी बन जाना। धेरे = धुर से।1। रहाउ।
अर्थ: हे नानक! अहंकार से पैदा होने वाले (आत्मिक) रोग बहुत खराब हैं। मैं तो (जगत में) जिधर देखता हूँ उधर इस अहंकार की पीड़ा ही देखता हूँ। धुर से जिसको स्वयं ही बख्शता है उसको गुरु के शब्द में (जोड़ता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे परखे परखणहारै बहुरि सूलाकु न होई ॥ जिन कउ नदरि भई गुरि मेले प्रभ भाणा सचु सोई ॥२॥

मूलम्

आपे परखे परखणहारै बहुरि सूलाकु न होई ॥ जिन कउ नदरि भई गुरि मेले प्रभ भाणा सचु सोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परखहारै = परखने की ताकत रखने वाले परमात्मा ने। बहुरि = दोबारा। सूलाकु = लोहे की तीखी सीख जिससे सोने की परख के समय छेद किए जाते हैं। गुरि = गुरु ने। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का रूप)।2।
अर्थ: परखने की ताकत रखने वाले परमात्मा ने स्वयं ही जिनको परख (के स्वीकार कर) लिया है, उनको दोबारा (अहंकार का) कष्ट नहीं होता। जिस पर परमात्मा की मेहर निगाह हो गई, उनको गुरु ने (प्रभु-चरणों में) जोड़ लिया। जो मनुष्य प्रभु को प्यारा लगने लग जाता है, वह उस सदा-स्थिर प्रभु का रूप ही हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउणु पाणी बैसंतरु रोगी रोगी धरति सभोगी ॥ मात पिता माइआ देह सि रोगी रोगी कुट्मब संजोगी ॥३॥

मूलम्

पउणु पाणी बैसंतरु रोगी रोगी धरति सभोगी ॥ मात पिता माइआ देह सि रोगी रोगी कुट्मब संजोगी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैसंतर = आग। सभोगी = भोगों समेत। देह = शरीर।3।
अर्थ: (अहंकार का रोग इतना बली है कि) हवा, पानी, आग (आदि तत्व भी) इस रोग में ग्रसे हुए हैं, ये धरती भी अहंम् रोग का शिकार है जिसमें से प्रयोग के बेअंत पदार्थ पैदा होते हैं। (अपने-अपने) परिवारों के संबंधों के कारण माता-पिता-माया-शरीर- ये सारे ही अहंकार के रोग में फसे हुए हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोगी ब्रहमा बिसनु सरुद्रा रोगी सगल संसारा ॥ हरि पदु चीनि भए से मुकते गुर का सबदु वीचारा ॥४॥

मूलम्

रोगी ब्रहमा बिसनु सरुद्रा रोगी सगल संसारा ॥ हरि पदु चीनि भए से मुकते गुर का सबदु वीचारा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरुद्रा = स+रुद्रा, शिव समेत। रुद्र = शिव। चीनि = पहचान के।4।
अर्थ: (साधारण जीवों की बात ही क्या है? बड़े-बड़े कहलवाने वाले देवते) ब्रहमा, विष्णू और शिव भी अहंकार के रोग में हैं, सारा संसार ही इस रोग में ग्रसा हुआ है। इस रोग से वही स्वतंत्र होते हैं जिन्होंने परमात्मा के साथ मिलाप-अवस्था की कद्र समझ के गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाया है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोगी सात समुंद सनदीआ खंड पताल सि रोगि भरे ॥ हरि के लोक सि साचि सुहेले सरबी थाई नदरि करे ॥५॥

मूलम्

रोगी सात समुंद सनदीआ खंड पताल सि रोगि भरे ॥ हरि के लोक सि साचि सुहेले सरबी थाई नदरि करे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सनदीआ = स+नदीआ, नदियों समेत। रोगि = रोग से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ के)।5।
अर्थ: सारी नदियों समेत सातों समुंदर (अहंकार के) रोगी हैं, सारी धरतियाँ और पाताल - ये भी (अहंकार-) रोग से भरे पड़े हैं। जो लोग परमात्मा के हो जाते हैं वे उस सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं और सुखी जीवन गुजारते हैं, प्रभु हर जगह उन पर मेहर की नजर करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोगी खट दरसन भेखधारी नाना हठी अनेका ॥ बेद कतेब करहि कह बपुरे नह बूझहि इक एका ॥६॥

मूलम्

रोगी खट दरसन भेखधारी नाना हठी अनेका ॥ बेद कतेब करहि कह बपुरे नह बूझहि इक एका ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खट = छह। दरसन = दर्शन, भेस (जोगी, सन्यासी, जंगम, बौधी, सरेवड़े, बैरागी)। नाना = अनेक। कह = क्या? कतेब = पश्चिमी धर्मों की पुस्तकें (कुरान, अंजील, तौरेत, जंबूर)।6।
अर्थ: छह ही भेषों के धारण करने वाले (जोगी-जंगम आदि) व अन्य अनेक किस्मों के हठ साधना करने वाले भी अहंम्-रोग में फंसे हुए हैं। वेद और कुरान आदि धर्म-पुस्तकें भी उनकी सहायता करने में अस्मर्थ हो जाती हैं, क्योंकिवे उस परमात्मा को नहीं पहचानते जो एक स्वयं ही स्वयं (सारी सृष्टि का कर्ता और इसमें व्यापक) है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिठ रसु खाइ सु रोगि भरीजै कंद मूलि सुखु नाही ॥ नामु विसारि चलहि अन मारगि अंत कालि पछुताही ॥७॥

मूलम्

मिठ रसु खाइ सु रोगि भरीजै कंद मूलि सुखु नाही ॥ नामु विसारि चलहि अन मारगि अंत कालि पछुताही ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंद = जमीन में पैदा हुई गाजर, मूली आदि। मूलि = सब्जी की जड़ें (खाने में)। अन = अन्य।7।
अर्थ: जो मनुष्य (गृहस्थ में रह के) हरेक किस्म के स्वादिष्ट पदार्थ खाता है वह (भी अहंकार-) रोग में लिबड़ा हुआ है, जो मनुष्य (जगत त्याग के जंगल में जा बैठता है उसको भी निरे) गाजर-मूली (खा लेने) से आत्मिक सुख नहीं मिल जाता। (गृहस्थी हों चाहे त्यागी) परमात्मा का नाम भुला के जो जो भी और (अन्य) रास्ते पर चलते हैं वे आखिर पछताते ही हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीरथि भरमै रोगु न छूटसि पड़िआ बादु बिबादु भइआ ॥ दुबिधा रोगु सु अधिक वडेरा माइआ का मुहताजु भइआ ॥८॥

मूलम्

तीरथि भरमै रोगु न छूटसि पड़िआ बादु बिबादु भइआ ॥ दुबिधा रोगु सु अधिक वडेरा माइआ का मुहताजु भइआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बादु बिबादु = झगड़ा। अधिक = बहुत।8।
अर्थ: जो मनुष्य तीर्थों पर भटकता फिरता है उसका भी (अहम्-) रोग नहीं मिटता, पढ़ा हुआ मनुष्य भी इससे नहीं बचा, उसको झगड़ा-बहस (रूप हो के अहंकार का रोग) चिपका हुआ है। परमात्मा के बिना किसी और आसरे की झाक एकबड़ा भारा रोग है, इसमें फसा हुआ मनुष्य सदा माया का मुहताज बना रहता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि साचा सबदि सलाहै मनि साचा तिसु रोगु गइआ ॥ नानक हरि जन अनदिनु निरमल जिन कउ करमि नीसाणु पइआ ॥९॥१॥

मूलम्

गुरमुखि साचा सबदि सलाहै मनि साचा तिसु रोगु गइआ ॥ नानक हरि जन अनदिनु निरमल जिन कउ करमि नीसाणु पइआ ॥९॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। मनि = मन मे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करमि = (प्रभु की) मेहर से। नीसाणु = (महिमा का) निशान।9।
अर्थ: जो (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा करता है, उसके मन में सदा कायम रहने वाला प्रभु सदा बसता है, इस वास्ते उसका (अहंकार का) रोग दूर हो जाता है।
हे नानक! परमात्मा के भक्त सदा पवित्र जीवन वाले होते हैं, क्योंकि प्रभु की मेहर से उनके माथे पर नाम-स्मरण का निशान (चमक मारता) है।9।1।

[[1154]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिनि करतै इकु चलतु उपाइआ ॥ अनहद बाणी सबदु सुणाइआ ॥ मनमुखि भूले गुरमुखि बुझाइआ ॥ कारणु करता करदा आइआ ॥१॥

मूलम्

तिनि करतै इकु चलतु उपाइआ ॥ अनहद बाणी सबदु सुणाइआ ॥ मनमुखि भूले गुरमुखि बुझाइआ ॥ कारणु करता करदा आइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उसने। तिनि करतै = उस कर्तार ने। चलतु = जगत तमाशा। अनहद = एक रस कायम रहने वाला। बाणी = तरंग, वलवला। अनहद बाणी = (शब्द ‘शबदु’ का विशेषण) एक रस वलवले वाला। सबदु = गुरु शब्द। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। भूले = गलत राह पर पड़े रहे, सही जीवन-राह से टूटे रहे। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। कारणु = (यह) सबब।1।
अर्थ: हे भाई! (यह जगत) उस कर्तार ने एक तमाशा रचा हुआ है, (उसने स्वयं ही गुरु के द्वारा जीवों को) एक-रस वलवले वाला गुर-शब्द सुनाया है। अपने मनके पीछे चलने वाले मनुष्य (सही जीवन के राह से) टूटे रहते हैं, गुरु के सन्मुख रहने वालों को (परमात्मा आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श देता है। यह सबब कर्तार (सदा से ही) बनाता आ रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का सबदु मेरै अंतरि धिआनु ॥ हउ कबहु न छोडउ हरि का नामु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर का सबदु मेरै अंतरि धिआनु ॥ हउ कबहु न छोडउ हरि का नामु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरै अंतरि = मेरे अंदर, मेरे हृदय में। धिआनु = मेरा ध्यान, मेरी तवज्जो, मेरी तवज्जो का निशाना। हउ = मैं। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मेरे) गुरु का शब्द मेरे अंदर बस रहा है, मेरी तवज्जो का निशाना बन चुका है। (गुरु के शब्द द्वारा प्राप्त किया हुआ) परमात्मा का नाम मैं कभी नहीं छोड़ूंगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता प्रहलादु पड़ण पठाइआ ॥ लै पाटी पाधे कै आइआ ॥ नाम बिना नह पड़उ अचार ॥ मेरी पटीआ लिखि देहु गोबिंद मुरारि ॥२॥

मूलम्

पिता प्रहलादु पड़ण पठाइआ ॥ लै पाटी पाधे कै आइआ ॥ नाम बिना नह पड़उ अचार ॥ मेरी पटीआ लिखि देहु गोबिंद मुरारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पठाइआ = भेजा। लै = लेकर। पाटी = तख्ती। कै = के पास। नह पढ़उ = मैं नहीं पढ़ता। अचार = और कार्य व्यवहार। मुरारि = परमात्मा (मुर+अरि)।2।
अर्थ: हे भाई! (देखो, प्रहलाद के) पिता ने प्रहलाद को पढ़ने के लिए (पाठशाला में) भेजा। प्रहलाद तख़्ती लेकर अध्यापक (पांधे) के पास पहुँचा। (अध्यापक तो कुछ और ही पढ़ाने लगे, पर प्रहलाद ने कहा-) मैं परमात्मा के नाम के बिना और कोई कार्य-व्यवहार नहीं पढ़ूँगा, आप मेरी पट्टी पर परमात्मा का नाम ही लिख के दो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्र प्रहिलाद सिउ कहिआ माइ ॥ परविरति न पड़हु रही समझाइ ॥ निरभउ दाता हरि जीउ मेरै नालि ॥ जे हरि छोडउ तउ कुलि लागै गालि ॥३॥

मूलम्

पुत्र प्रहिलाद सिउ कहिआ माइ ॥ परविरति न पड़हु रही समझाइ ॥ निरभउ दाता हरि जीउ मेरै नालि ॥ जे हरि छोडउ तउ कुलि लागै गालि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। माइ = माँ ने। परविरति = प्रवृक्ति, वह जिसमें तू लगा हुआ है। जे छोडउ = अगर मैं छोड़ दूँ। तउ = तब, तो। कुलि लागै गालि = कुल को गाली लगती है, कुल की बदनामी होती है।3।
अर्थ: हे भाई! माँ ने (अपने) पुत्र प्रहलाद को कहा- तू जिस (हरि के नाम) में व्यस्त हुआ पड़ा है, वह ना पढ़ (बहुत) समझाती रही (पर, प्रहलाद ने उक्तर दिया-) किसी भी से ना डरने वाला परमात्मा (सदा) मेरे साथ है, अगर मैं परमात्मा (का नाम) छोड़ दूँ, तो सारी कुल को ही दाग़ लगेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहलादि सभि चाटड़े विगारे ॥ हमारा कहिआ न सुणै आपणे कारज सवारे ॥ सभ नगरी महि भगति द्रिड़ाई ॥ दुसट सभा का किछु न वसाई ॥४॥

मूलम्

प्रहलादि सभि चाटड़े विगारे ॥ हमारा कहिआ न सुणै आपणे कारज सवारे ॥ सभ नगरी महि भगति द्रिड़ाई ॥ दुसट सभा का किछु न वसाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रहलादि = प्रहलाद ने। सभि = सारे। चाटड़े = पढ़ने वाले बच्चे, चेले, विद्यार्थी। कारज = काम (बहुवचन)। द्रिढ़ाई = दृढ़ कर दी है। वसाई = वश, जोर।4।
अर्थ: हे भाई! (अध्यापकों ने सोचा कि) प्रहलाद ने (तो) सारे ही विद्यार्थी बिगाड़ दिए हैं, हमारा कहा ये सुनता ही नहीं, अपने काम ठीक किए जा रहा है, सारे शहर में इसने परमात्मा की भक्ति लोगों के दिलों में दृढ़ करवा दी है। हे भाई! दुष्टों की जुण्डली का प्रहलाद पर कोई जोर नहीं चल रहा।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संडै मरकै कीई पूकार ॥ सभे दैत रहे झख मारि ॥ भगत जना की पति राखै सोई ॥ कीते कै कहिऐ किआ होई ॥५॥

मूलम्

संडै मरकै कीई पूकार ॥ सभे दैत रहे झख मारि ॥ भगत जना की पति राखै सोई ॥ कीते कै कहिऐ किआ होई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संडै = संड ने। मरकै = अमरक ने। मारि = मार के। रहे मारि = मार रहे। पति = इज्ज्त। कै कहिऐ = के कहने पर। किआ होई = क्या हो सकता है? कीते = पैदा किए हुए।5।
अर्थ: हे भाई! (आखिर) संडे ने और अमरक ने (हर्णाकष्यप के पास) जाकर शिकायत की। सारे दैत्य अपना जोर लगा के थक गए (पर उनकी पेश ना पड़ी)। हे भाई! अपने भक्तों की इज्जत वह स्वयं ही रखता है। उसके पैदा किए हुए किसी (दुखदाई) का जोर नहीं चल सकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरत संजोगी दैति राजु चलाइआ ॥ हरि न बूझै तिनि आपि भुलाइआ ॥ पुत्र प्रहलाद सिउ वादु रचाइआ ॥ अंधा न बूझै कालु नेड़ै आइआ ॥६॥

मूलम्

किरत संजोगी दैति राजु चलाइआ ॥ हरि न बूझै तिनि आपि भुलाइआ ॥ पुत्र प्रहलाद सिउ वादु रचाइआ ॥ अंधा न बूझै कालु नेड़ै आइआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरत संजोगी = (पिछले) किए हुए कर्मों के संयोग से। दैति = दैत्य (हर्णाकष्यप) ने। तिनि = उस (परमात्मा) ने। भुलाइआ = गलत राह पर डाल रखा था। वादु = झगड़ा। अंधा = (राज के मद में) अंधा हो चुका। कालु = मौत।6।
अर्थ: हे भाई! पिछले किए कर्मों के संजोग से दैत्य (हर्णाकश्यप) ने राज चला लिया, (राज के मद में) वह परमात्मा को (कुछ भी) नहीं था समझता (पर उसके भी क्या वश?) उस कर्तार ने (स्वयं ही) उसको गलत रास्ते पर डाल रखा था। (सो) उसने (अपने) पुत्र प्रहलाद के साथ झगड़ा खड़ा कर लिया। (राज के मद में) अंधा हुआ (हर्णाकश्यप यह) नहीं था समझता (कि उसकी) मौत नजदीक आ गई है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहलादु कोठे विचि राखिआ बारि दीआ ताला ॥ निरभउ बालकु मूलि न डरई मेरै अंतरि गुर गोपाला ॥ कीता होवै सरीकी करै अनहोदा नाउ धराइआ ॥ जो धुरि लिखिआ सुो आइ पहुता जन सिउ वादु रचाइआ ॥७॥

मूलम्

प्रहलादु कोठे विचि राखिआ बारि दीआ ताला ॥ निरभउ बालकु मूलि न डरई मेरै अंतरि गुर गोपाला ॥ कीता होवै सरीकी करै अनहोदा नाउ धराइआ ॥ जो धुरि लिखिआ सुो आइ पहुता जन सिउ वादु रचाइआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारि = दरवाजे पर। ताला = ताला। मूलि = बिल्कुल। डरई = डरता। कीता = (प्रभु का) पैदा किया हुआ। सरीकी = (प्रभु के साथ ही) बराबरी। अनहोदा = (सामर्थ्य) ना होते हुए। नाउ = बड़ा नाम। धुरि = धुर दरगाह से। सुो = (असल शब्द है ‘सो’। यहाँ पढ़ना है ‘सु’)।7।
अर्थ: हे भाई! (हर्णाकश्यप ने) प्रहलाद को कोठे में बंद करवा दिया, और दरवाजे पर ताला लगवा दिया। पर निडर बालक बिल्कुल नहीं था डरता, (वह कहता था-) मेरा गुरु मेरा परमात्मा मेरे हृदय में बसता है। हे भाई! परमात्मा का पैदा किया हुआ जो मनुष्य परमात्मा के साथ बराबरी करने लग जाता है, वह (अपनी) समर्थता से बड़ा अपना नाम रखवा लेता है। (हर्णाकश्यप ने) प्रभु के भक्त से झगड़ा छेड़ लिया। धुर दरगाह से जो होनी लिखी थी, उसका समय आ पहुँचा।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता प्रहलाद सिउ गुरज उठाई ॥ कहां तुम्हारा जगदीस गुसाई ॥ जगजीवनु दाता अंति सखाई ॥ जह देखा तह रहिआ समाई ॥८॥

मूलम्

पिता प्रहलाद सिउ गुरज उठाई ॥ कहां तुम्हारा जगदीस गुसाई ॥ जगजीवनु दाता अंति सखाई ॥ जह देखा तह रहिआ समाई ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरज = गदा (डंडे जैसा ही एक शस्त्र जिसका सिर बहुत ही मोटा और भारा होता है)। जगदीस = जगत का मालिक। गुसाई = धरती का साई। जगजीवनु = जगत का जीवन। अंति = आखिरी समय पर। सहाई = सहायक। देखा = मैं देखता हूँ। तह = वहीं ही।8।
अर्थ: सो, हे भाई! पिता (हर्णाकश्यप) ने प्रहलाद पर गदा उठा ली, (और कहने लगा- बता,) कहाँ है तेरा जगदीश? कहाँ है तेरा गोसाई? (जो तुझे अब बचाए)। (प्रहलाद ने उक्तर दिया-) जगत का आसरा दातार प्रभु ही आखिर (हरेक जीव का मददगार बनता है।) मैं तो जिधर देखता हूँ, वह उधर ही मौजूद है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थम्हु उपाड़ि हरि आपु दिखाइआ ॥ अहंकारी दैतु मारि पचाइआ ॥ भगता मनि आनंदु वजी वधाई ॥ अपने सेवक कउ दे वडिआई ॥९॥

मूलम्

थम्हु उपाड़ि हरि आपु दिखाइआ ॥ अहंकारी दैतु मारि पचाइआ ॥ भगता मनि आनंदु वजी वधाई ॥ अपने सेवक कउ दे वडिआई ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाड़ि = फाड़ के। आपु = अपना आप। मारि = मार के। पचाइआ = ख्वार किया। मनि = मन में। वधाई = चढ़दी कला, बढ़ोक्तरी। वजी = बजी, प्रबल हो गई। दे = देता है।9।
अर्थ: हे भाई! (उस वक्त) खम्भा फाड़ के परमात्मा ने अपने आप को प्रकट कर दिया, (राज के मद में) मस्त हुए (हर्णाकश्यप) दैत्य का मार डाला। हे भाई! भगतों के मन में (सदा) आनंद (सदा) चढ़दीकला बनी रहती है। (भक्त जानते हैं कि) परमात्मा अपने भक्तों को (लोक-परलोक में) इज्जत देता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जमणु मरणा मोहु उपाइआ ॥ आवणु जाणा करतै लिखि पाइआ ॥ प्रहलाद कै कारजि हरि आपु दिखाइआ ॥ भगता का बोलु आगै आइआ ॥१०॥

मूलम्

जमणु मरणा मोहु उपाइआ ॥ आवणु जाणा करतै लिखि पाइआ ॥ प्रहलाद कै कारजि हरि आपु दिखाइआ ॥ भगता का बोलु आगै आइआ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। लिखि = (सब जीवों के माथे पर) लिख के। कै कारजि = के काम के लिए। आपु = अपना आप। दिखाइआ = प्रकट किया। आगै आइआ = पूरा हुआ।10।
अर्थ: हे भाई! कर्तार ने स्वयं ही जनम-मरण का चक्कर बनाया है, स्वयं ही जीवों के अंदर माया का मोह पैदा किया हुआ है। (जगत में) आना (जगत से) चले जाना-ये लेख कर्तार ने स्वयं ही हरेक जीव के माथे पर लिख रखा है। (हर्णाकश्यप के भी क्या वश?) प्रहलाद का काम संवारने के लिए परमात्मा ने अपने आप को (नरसिंह रूप में) प्रकट किया। (इस तरह) भगतों का वचन पूरा हो गया (कि ‘अपुने सेवक कउ दे बड़ाई’)।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव कुली लखिमी कउ करहि जैकारु ॥ माता नरसिंघ का रूपु निवारु ॥ लखिमी भउ करै न साकै जाइ ॥ प्रहलादु जनु चरणी लागा आइ ॥११॥

मूलम्

देव कुली लखिमी कउ करहि जैकारु ॥ माता नरसिंघ का रूपु निवारु ॥ लखिमी भउ करै न साकै जाइ ॥ प्रहलादु जनु चरणी लागा आइ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देव कुली = देवताओं की सारी कुल, सारे देवता। लखिमी = लक्ष्मी। कउ = को। करहि = करते हैं, करने लग पड़े। जैकारु = नमस्कार, बड़ाई। माता = हे माता! निवारु = दूर कर। भउ = डर। करै = करती है। भउ करै = डरती है, डरती थी। न जाइ साकै = जा नहीं सकती। आइ = आ के।11।
अर्थ: हे भाई! सारे देवताओं ने लक्ष्मी की उपमा की (और कहा-) हे माता! (प्रेरणा कर के कह: हे प्रभु!) नरसिंह वाला रूपदूर कर। (पर) लक्ष्मी भी डरती थी, वह भी (नरसिंह के नजदीक) नहीं जा सकती थी। (परमात्मा का) भक्त प्रहलाद (नरसिंह के) चरणों में आ लगा।11।

[[1155]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि नामु निधानु द्रिड़ाइआ ॥ राजु मालु झूठी सभ माइआ ॥ लोभी नर रहे लपटाइ ॥ हरि के नाम बिनु दरगह मिलै सजाइ ॥१२॥

मूलम्

सतिगुरि नामु निधानु द्रिड़ाइआ ॥ राजु मालु झूठी सभ माइआ ॥ लोभी नर रहे लपटाइ ॥ हरि के नाम बिनु दरगह मिलै सजाइ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। निधानु = खजाना। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। सभ = सारी। रहे लपटाइ = चिपके रहे हैं। दरगह = प्रभु की हजूरी में।12।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा का नाम खजाना पक्का कर दिया (उसको दिखाई दे जाता है कि) दुनिया का राज-माल और सारी माया -ये सब कुछ नाशवान है। पर लालची लोग इसके साथ ही चिपके रहते हैं। परमात्मा के नाम के बिना (उनको) परमात्मा की हजूरी में सजा मिलती है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहै नानकु सभु को करे कराइआ ॥ से परवाणु जिनी हरि सिउ चितु लाइआ ॥ भगता का अंगीकारु करदा आइआ ॥ करतै अपणा रूपु दिखाइआ ॥१३॥१॥२॥

मूलम्

कहै नानकु सभु को करे कराइआ ॥ से परवाणु जिनी हरि सिउ चितु लाइआ ॥ भगता का अंगीकारु करदा आइआ ॥ करतै अपणा रूपु दिखाइआ ॥१३॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कराइआ = परमात्मा का प्रेरित हुआ। से = वह (बहुवचन)। सिउ = साथ। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। करतै = कर्तार ने।13।
अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: (जीवों के भी क्या वश?) हरेक जीव परमात्मा का प्रेरित हुआ ही (कर्म) करता है। जिन्होंने (यहाँ) परमात्मा (के नाम) से चिक्त जोड़ा, वे प्रभु की हजूरी में स्वीकार हो गए। हे भाई! धुर से ही परमात्मा अपने भक्तों का पक्ष करता आ रहा है। कर्तार ने (स्वयं ही अपने भक्तों को) अपना दर्शन दिए हैं (और उनकी सहायता की है)।13।1।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ३ ॥ गुर सेवा ते अम्रित फलु पाइआ हउमै त्रिसन बुझाई ॥ हरि का नामु ह्रिदै मनि वसिआ मनसा मनहि समाई ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ३ ॥ गुर सेवा ते अम्रित फलु पाइआ हउमै त्रिसन बुझाई ॥ हरि का नामु ह्रिदै मनि वसिआ मनसा मनहि समाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। गुर सेवा ते = गुरु की सेवा से, गुरु की शरण पड़ने से। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल। त्रिसन = तृष्णा, माया का लालच। हृदै = हृदय में। मनि = मन में। मनसा = मनका फुरना (मनीषा)। मनहि = मनि ही, मन में ही। समाई = लीन हो जाती है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम फल प्राप्त कर लिया, उसने (अपने अंदर से) अहंकार और तृष्णा (की आग) बुझा ली। परमात्मा का नाम उसके हृदय में उसके मन में बस गया, उसके मन का (मायावी) फुरना मन में ही लीन हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ क्रिपा करहु मेरे पिआरे ॥ अनदिनु हरि गुण दीन जनु मांगै गुर कै सबदि उधारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ क्रिपा करहु मेरे पिआरे ॥ अनदिनु हरि गुण दीन जनु मांगै गुर कै सबदि उधारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। दीन जनु = गरीब सेवक। मांगै = माँगता है (एकवचन)। कै सबदि = के शब्द से। उधारे = उद्धार, (संसार समुंदर से) पार लंघा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभु जी! (मुझ गरीब पर) मेहर कर। (तेरे दर का) गरीब सेवक (तुझसे) हर वक्त तेरे गुण (गाने की दाति) माँगता है। हे प्रभु! मुझे गुरु के शब्द के द्वारा (विकारों से) बचाए रख।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना कउ जमु जोहि न साकै रती अंच दूख न लाई ॥ आपि तरहि सगले कुल तारहि जो तेरी सरणाई ॥२॥

मूलम्

संत जना कउ जमु जोहि न साकै रती अंच दूख न लाई ॥ आपि तरहि सगले कुल तारहि जो तेरी सरणाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। जोहि न साकै = ताक नहीं सकता। रती = रक्ती भर भी। अंच = आँच, सेक। न लाई = नहीं लगाता। तरहि = तैर जाते हैं (बहुवचन)। सगले = सारे।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों की तरफ जमराज (भी) ताक नहीं सकता, (दुनिया के) दुखों का रक्ती भर भी सेका (उनको) लग नहीं सकता। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ते हैं, वह स्वयं (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगता की पैज रखहि तू आपे एह तेरी वडिआई ॥ जनम जनम के किलविख दुख काटहि दुबिधा रती न राई ॥३॥

मूलम्

भगता की पैज रखहि तू आपे एह तेरी वडिआई ॥ जनम जनम के किलविख दुख काटहि दुबिधा रती न राई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत। आपे = स्वयं ही। वडिआई = बड दिली, उपमा, महिमा। किलविख = पाप। काटहि = तू काट देता है। दुबिधा = मेर तेर, दोचिक्ता मन। राई = रक्ती भर भी।3।
अर्थ: हे प्रभु! अपने भकतों की (लोक-परलोक में) इज्जत तू स्वयं ही रखता है, यह तेरी प्रतिभा है। तू उनके (पिछले) अनेक ही जन्मों के पाप और दुख काट देता है, उनके अंदर रक्ती भर भी राई भर भी मेर-तेर नहीं रह जाती (दुबिधा समाप्त हो जाती है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम मूड़ मुगध किछु बूझहि नाही तू आपे देहि बुझाई ॥ जो तुधु भावै सोई करसी अवरु न करणा जाई ॥४॥

मूलम्

हम मूड़ मुगध किछु बूझहि नाही तू आपे देहि बुझाई ॥ जो तुधु भावै सोई करसी अवरु न करणा जाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम जीव। मुगध = मूर्ख। बूझहि = (हम) समझते। देहि = तू देता है। बुझाई = (आत्मिक जीवन की) समझ। जो = जो काम। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। करसी = (हरेक जीव) करेगा। अवरु = और काम।4।
अर्थ: हे भाई! हम (जीव) मूर्ख हैं अन्जान हैं, हम (आत्मिक जीवन का सही रास्ता) (रक्ती भर) नहीं समझते, तू स्वयं ही (हमें यह) समझा देता है। हे प्रभु! जो काम तुझे अच्छा लगता है, वह (हरेक जीव) करता है, (उससे उलट) और कोई काम नहीं किया जा सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगतु उपाइ तुधु धंधै लाइआ भूंडी कार कमाई ॥ जनमु पदारथु जूऐ हारिआ सबदै सुरति न पाई ॥५॥

मूलम्

जगतु उपाइ तुधु धंधै लाइआ भूंडी कार कमाई ॥ जनमु पदारथु जूऐ हारिआ सबदै सुरति न पाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाइ = पैदा कर के। धंधै = (दुनिया के) धंधों में। भूंडी = बुरी। जूऐ = जूए में। सबदै = शब्द से। सुरति = आत्मिक जीवन की सूझ।5।
अर्थ: हे प्रभु! (तूने स्वयं ही) जगत को पैदा करके (तूने स्वयं ही इसको माया के) धंधे में लगा रखा है, (तेरी प्रेरणा से जगत माया के मोह की) बुरी कार कर रहा है। (माया के मोह में फंस के जगत ने) कीमती मानव जनम को (जुआरिए की तरह) जूए में हार दिया है, गुरु के शब्द से (जगत ने) आत्मिक जीवन की सूझ हासिल नहीं की।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि मरहि तिन किछू न सूझै दुरमति अगिआन अंधारा ॥ भवजलु पारि न पावहि कब ही डूबि मुए बिनु गुर सिरि भारा ॥६॥

मूलम्

मनमुखि मरहि तिन किछू न सूझै दुरमति अगिआन अंधारा ॥ भवजलु पारि न पावहि कब ही डूबि मुए बिनु गुर सिरि भारा ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मरहि = मर जाते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरा = अंधकार। भवजलु = संसार समुंदर। डूबि मुए = (विकारों में) डूब के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। सिरि भारा = सिर के भार।6।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, उनको आत्मिक जीवन की रक्ती भर भी समझ नहीं पड़ती। बुरी मति का, आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी का (उनके अंदर) अंधकार छाया रहता है। वे मनुष्य गुरु की शरण पड़ बिना विकारों में सिर के भार डूब के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, वे कभी भी संसार-समुंदर से पार नहीं लांघ सकते।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचै सबदि रते जन साचे हरि प्रभि आपि मिलाए ॥ गुर की बाणी सबदि पछाती साचि रहे लिव लाए ॥७॥

मूलम्

साचै सबदि रते जन साचे हरि प्रभि आपि मिलाए ॥ गुर की बाणी सबदि पछाती साचि रहे लिव लाए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। रते = रंगे हुए। प्रभि = प्रभु ने। बाणी = आतम तरंग, वलवला। सबदि = शब्द से। पछाती = सांझ डाल ली। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। रहे लाए = लगाए रखते हैं।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में रंगे रहते हैं वे सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाते हैं। प्रभु ने स्वयं ही उनको अपने साथ मिला लिया होता है। गुरु के शब्द से उन्होंने गुरु के आत्म-तरंग के साथ सांझ पा ली होती है। वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में तवज्जो जोड़े रखते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं आपि निरमलु तेरे जन है निरमल गुर कै सबदि वीचारे ॥ नानकु तिन कै सद बलिहारै राम नामु उरि धारे ॥८॥२॥३॥

मूलम्

तूं आपि निरमलु तेरे जन है निरमल गुर कै सबदि वीचारे ॥ नानकु तिन कै सद बलिहारै राम नामु उरि धारे ॥८॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र। है = हैं। वीचारे = गुणों की विचार करके। सद = सदा। बलिहारै = सदके। उरि = हृदय में।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘निरमलु’ एकवचन है और ‘निरमल’ बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं पवित्र स्वरूप है। तेरे सेवक गुरु के शब्द द्वारा (तेरे गुणों का) विचार कर के पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। हे भाई! नानक उन मनुष्यों से सदा सदके जाता है, जो परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रखते हैं।8।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ महला ५ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु रिदै सोई वड राजा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु पूरे काजा ॥ जिसु नामु रिदै तिनि कोटि धन पाए ॥ नाम बिना जनमु बिरथा जाए ॥१॥

मूलम्

जिसु नामु रिदै सोई वड राजा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु पूरे काजा ॥ जिसु नामु रिदै तिनि कोटि धन पाए ॥ नाम बिना जनमु बिरथा जाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसुरिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। काजा = काम। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कोटि = करोड़ों। कोटि धन = करोंड़ों किस्मों के धन। बिरथा = व्यर्थ।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है वही (सब राजाओं से) बड़ा राजा है, उस मनुष्य के सारे काम सफल हो जाते हैं, उसने (मानो) करोड़ों किस्मों के धन प्राप्त कर लिए। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्यका जीवन व्यर्थ चला जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु सालाही जिसु हरि धनु रासि ॥ सो वडभागी जिसु गुर मसतकि हाथु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तिसु सालाही जिसु हरि धनु रासि ॥ सो वडभागी जिसु गुर मसतकि हाथु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु = उस (मनुष्य) को। सालाही = मैं सालाहता हूँ। रासि = राशि, पूंजी। जिसु मसतकि = जिस मनुष्य के माथे पर। गुर हाथु = गुरु का हाथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं उस मनुष्य की सराहना करता हूँ जिसके पास परमात्मा का नाम-धन संपत्ति है। जिस मनुष्य के माथे पर गुरु का हाथ टिका हुआ हो, वह बहुत भाग्यशाली है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु रिदै तिसु कोट कई सैना ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सहज सुखैना ॥ जिसु नामु रिदै सो सीतलु हूआ ॥ नाम बिना ध्रिगु जीवणु मूआ ॥२॥

मूलम्

जिसु नामु रिदै तिसु कोट कई सैना ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सहज सुखैना ॥ जिसु नामु रिदै सो सीतलु हूआ ॥ नाम बिना ध्रिगु जीवणु मूआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोट कई-कई किले। सैना = फौजें। सहज सुखैना = आत्मिक अडोलता के सुख। मूआ = आत्मिक मौत मरा हुआ।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, वह (मानो) कई किलों और फौजों (का मालिक हो जाता है), उसको आत्मिक अडोलता के सारे सुख मिल जाते हैं, उसका हृदय (पूर्ण तौर पर) शांत रहता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है उसका जीवन धिक्कारयोग्य हो जाता है।2।

[[1156]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु रिदै सो जीवन मुकता ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सभ ही जुगता ॥ जिसु नामु रिदै तिनि नउ निधि पाई ॥ नाम बिना भ्रमि आवै जाई ॥३॥

मूलम्

जिसु नामु रिदै सो जीवन मुकता ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सभ ही जुगता ॥ जिसु नामु रिदै तिनि नउ निधि पाई ॥ नाम बिना भ्रमि आवै जाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवन मुकता = जीते ही मुक्त, दुनियावी मेहनत-कमाई करते हुए ही माया के मोह से बचा हुआ। जुगता = सही जीवन की विधि। तिनि = उसने। नउनिधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। भ्रमि = भटकना में (पड़ के)।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यके हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह दुनियावी मेहनत-कमाई करता हुआ भी माया के प्रभाव से परे रहता है, उसको अच्छे जीवन की सारी विधि आ जाती है, उस मनुष्य ने (मानो, धरती के सारे ही) नौ खजाने प्राप्त कर लिए होते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य माया की भटकना में पड़ कर जनम-मरण के चक्करों में पड़ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु रिदै सो वेपरवाहा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सद ही लाहा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु वड परवारा ॥ नाम बिना मनमुख गावारा ॥४॥

मूलम्

जिसु नामु रिदै सो वेपरवाहा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सद ही लाहा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु वड परवारा ॥ नाम बिना मनमुख गावारा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा। लाहा = लाभ, आत्मिक जीवन की कमाई। मनमुख = अपनेमन के पीछे चलने वाला। गावारा = मूर्ख।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह बेमुथाज टिका रहता है। (किसी की खुशामद नहीं करता), उसको ऊँचे आत्मिक जीवन की कमाई सदा ही प्राप्त रहती है, उस मनुष्य का बड़ा परिवार बन जाता है (भाव, सारा ही जगत उसको अपना दिखाई देता है)। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य अपने मन का मुरीद बन जाता है, (जीवन की सही जुगति से) मूर्ख ही रह जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु रिदै तिसु निहचल आसनु ॥ जिसु नामु रिदै तिसु तखति निवासनु ॥ जिसु नामु रिदै सो साचा साहु ॥ नामहीण नाही पति वेसाहु ॥५॥

मूलम्

जिसु नामु रिदै तिसु निहचल आसनु ॥ जिसु नामु रिदै तिसु तखति निवासनु ॥ जिसु नामु रिदै सो साचा साहु ॥ नामहीण नाही पति वेसाहु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। निहचल = ना डोलने वाला, (माया के हमलों से) अडोल। आसनु = हृदय तख्त। तखति = तख्त पर। तिसु निवासनु = उस (मनुष्य) का आत्मिक ठिकाना। साचा = सदा कायम रहने वाला। सारु = नाम धन का साहूकार। पति = इज्जत। वेसाहु = ऐतबार।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, उसका हृदय-तख्त माया के हमलों से अडोल हो जाता है, (आत्मिक अडोलता के ऊँचे) तख्त पर उसका (सदा के लिए) निवास हो जाता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले नाम-धन का शाह बन जाता है। हे भाई! नाम से वंचित मनुष्य की ना कहीं इज्जत होती है ना ही कहीं ऐतबार बनता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु रिदै सो सभ महि जाता ॥ जिसु नामु रिदै सो पुरखु बिधाता ॥ जिसु नामु रिदै सो सभ ते ऊचा ॥ नाम बिना भ्रमि जोनी मूचा ॥६॥

मूलम्

जिसु नामु रिदै सो सभ महि जाता ॥ जिसु नामु रिदै सो पुरखु बिधाता ॥ जिसु नामु रिदै सो सभ ते ऊचा ॥ नाम बिना भ्रमि जोनी मूचा ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाता = जाना जाता है, प्रकट हो जाता है, शोभा प्राप्त करता है। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु (का रूप)। बिधाता = विधाता (का रूप)। ते = से। ऊचा = ऊँचे आत्मिक जीवन वाला। भ्रमि = भटकता है, भ्रमै। मूचा = बहुत। जोनी मूचा = बहुत सारी जूनियों में।6।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह सब लोगों में शोभा कमाता है, वह मनुष्य सर्व-व्यापक विधाता का रूप हो जाता है, वह सबसे ऊँचे आत्मिक जीवन वाला बन जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य अनेक जूनियों में भटकता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु रिदै तिसु प्रगटि पहारा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु मिटिआ अंधारा ॥ जिसु नामु रिदै सो पुरखु परवाणु ॥ नाम बिना फिरि आवण जाणु ॥७॥

मूलम्

जिसु नामु रिदै तिसु प्रगटि पहारा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु मिटिआ अंधारा ॥ जिसु नामु रिदै सो पुरखु परवाणु ॥ नाम बिना फिरि आवण जाणु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पहारा = दुकान, लोहार की दुकान जिसमें लोहे आदि से कुछ घड़ते हैं, आत्मिक जीवन की घाड़त की मेहनत। प्रगटि = प्रगटै, प्रकट हो जाती है। अंधारा = माया के मोह का अंधेरा। परवाणु = स्वीकार। फिरि = बार बार। आवण जाणु = जनम मरण का चक्कर।7।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, उसकी आत्मिक जीवन की घाड़त की मेहनत (सब जगह) प्रकट हो जाती है, उसके अंदर से माया के मोह का अंधकार मिट जाता है, वह मनुष्य (परमात्मा की दरगाह में) स्वीकार हो जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना बार-बार जनम-मरण का चक्कर बना रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिनि नामु पाइआ जिसु भइओ क्रिपाल ॥ साधसंगति महि लखे गुोपाल ॥ आवण जाण रहे सुखु पाइआ ॥ कहु नानक ततै ततु मिलाइआ ॥८॥१॥४॥

मूलम्

तिनि नामु पाइआ जिसु भइओ क्रिपाल ॥ साधसंगति महि लखे गुोपाल ॥ आवण जाण रहे सुखु पाइआ ॥ कहु नानक ततै ततु मिलाइआ ॥८॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उस (मनुष्य) ने। जिसु = जिस (मनुष्य) पर। लखे = समझ लेता है, देख लेता है। रहे = खत्म हो जातेहैं। नानक = हे नानक! ततै = जगतके मूल परमात्मा में। ततु = जीवात्मा।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोपाल’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा दयावान हो गया, उसने हरि-नाम हासिल कर लिया, साधु-संगत में (टिक के) उसने सृष्टि के पालनहार के दर्शनकर लिए, उसके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो गए, उसने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया। हे नानक! कह: उस मनुष्य की जिंद परमात्मा के साथ ऐक-मेक हो गई।8।1।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ कोटि बिसन कीने अवतार ॥ कोटि ब्रहमंड जा के ध्रमसाल ॥ कोटि महेस उपाइ समाए ॥ कोटि ब्रहमे जगु साजण लाए ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ कोटि बिसन कीने अवतार ॥ कोटि ब्रहमंड जा के ध्रमसाल ॥ कोटि महेस उपाइ समाए ॥ कोटि ब्रहमे जगु साजण लाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। ध्रमसाल = धर्म कमाने वाली जगह। महेस = शिव। उपाइ = पैदा कर के। समाए = लीन कर लिए। ब्रहमे = कई ब्रहमा (बहुवचन)। साजण = पैदा करने के काम पर, साजना करने के काम पर।1।
अर्थ: हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा है जिसने) करोड़ों ही विष्णू-अवतार बनाए, करोड़ों ब्रहमण्ड जिसके धर्म-स्थान हैं, जो करोड़ों शिव पैदा करके (अपने में ही) लीन कर देता है, जिसने करोड़ों ही ब्रहमे जगत पैदा करने के काम पर लगाए हुए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो धणी गुविंदु हमारा ॥ बरनि न साकउ गुण बिसथारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसो धणी गुविंदु हमारा ॥ बरनि न साकउ गुण बिसथारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धणी = मालिक। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हमारा मालिक प्रभु ऐसा (बेअंत) है कि मैं उसके गुणों का विस्तार (फैलाव) बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि माइआ जा कै सेवकाइ ॥ कोटि जीअ जा की सिहजाइ ॥ कोटि उपारजना तेरै अंगि ॥ कोटि भगत बसत हरि संगि ॥२॥

मूलम्

कोटि माइआ जा कै सेवकाइ ॥ कोटि जीअ जा की सिहजाइ ॥ कोटि उपारजना तेरै अंगि ॥ कोटि भगत बसत हरि संगि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै = जिस के दर पर। सेवकाइ = सेविकाएं, दासियां। जीअ = जीव (बहुवचन)। सिहजाइ = सेज। उपारजना = उत्पक्तियां। तेरै अंगि = तेरे अंग में, तेरे आपे में। संगि = साथ।2।
अर्थ: हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा मालिक है कि) करोड़ों ही लक्षि्मयां उसके घर में दासियां हैं, करोड़ों ही जीव उसकी सेज हैं। हे प्रभु! करोड़ों ही उत्पक्तियाँ तेरे स्वै में समा जाती हैं। हे भाई! करोड़ों ही भक्त प्रभूके चरणों में बसते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि छत्रपति करत नमसकार ॥ कोटि इंद्र ठाढे है दुआर ॥ कोटि बैकुंठ जा की द्रिसटी माहि ॥ कोटि नाम जा की कीमति नाहि ॥३॥

मूलम्

कोटि छत्रपति करत नमसकार ॥ कोटि इंद्र ठाढे है दुआर ॥ कोटि बैकुंठ जा की द्रिसटी माहि ॥ कोटि नाम जा की कीमति नाहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छत्रपति = राजे। ठाढे = खड़े हुए। जाकी = जिस परमात्मा की। द्रिसटी माहि = निगाह में।3।
अर्थ: हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा मालिक है कि) करोड़ों राजे उसके आगे सिर झुकाते हैं, करोड़ों इन्द्र उसके दर पर खड़े हैं, करोड़ों ही बैकुंठ उसकी (मेहर की) निगाह में हैं, उसके करोड़ों ही नाम हैं, (वह ऐसा है) कि उसका मूल्य नहीं आँका जा सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि पूरीअत है जा कै नाद ॥ कोटि अखारे चलित बिसमाद ॥ कोटि सकति सिव आगिआकार ॥ कोटि जीअ देवै आधार ॥४॥

मूलम्

कोटि पूरीअत है जा कै नाद ॥ कोटि अखारे चलित बिसमाद ॥ कोटि सकति सिव आगिआकार ॥ कोटि जीअ देवै आधार ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै = जिस के दर पर। अखारे = जगत अखाड़े। चलित = तमाशे। बिसमाद = हैरान करने वाले। सकति = माया, लक्ष्मी। शिव = शिव, जीव। जीअ = जीव (बहुवचन)। आधार = आसरा।4।
अर्थ: हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा है कि) उसके दर पर करोड़ों (संख आदि) नाद पूरे (बजाए) जाते हैं, उसके करोड़ों ही जगत-अखाड़े हैं, उसके रचे हुए करिश्मे-तमाशे हैरान करने वाले हैं। करोड़ों शिव और करोड़ों शक्तियाँ उसके हुक्म में चलने वाली हैं। हे भाई! वह मालिक करोड़ों जीवों को आसरा दे रहा है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि तीरथ जा के चरन मझार ॥ कोटि पवित्र जपत नाम चार ॥ कोटि पूजारी करते पूजा ॥ कोटि बिसथारनु अवरु न दूजा ॥५॥

मूलम्

कोटि तीरथ जा के चरन मझार ॥ कोटि पवित्र जपत नाम चार ॥ कोटि पूजारी करते पूजा ॥ कोटि बिसथारनु अवरु न दूजा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मझार = में। पवित्र = स्वच्छ जीवन वाला जीव। बिसथारनु = विस्तार, खिलारा। अवरु = अन्य। चार = सुंदर।5।
अर्थ: हे भाई! (हमारा वह गोबिंद ऐसा धनी है) कि करोड़ों ही तीर्थ उसके चरणों में हैं (उसके चरणों में जुड़े रहना ही करोड़ों तीर्थों के स्नान के बराबर है), करोड़ों जीव उसका सुंदर नाम जपते हुए अच्छे जीवन वाले हो जाते हैं, करोड़ों पुजारी उसकी पूजा कर रहे हैं, उस मालिक ने करोड़ों ही जीवों का पासारा पसारा हुआ है, (उसके बिना) कोई और दूसरा नहीं है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि महिमा जा की निरमल हंस ॥ कोटि उसतति जा की करत ब्रहमंस ॥ कोटि परलउ ओपति निमख माहि ॥ कोटि गुणा तेरे गणे न जाहि ॥६॥

मूलम्

कोटि महिमा जा की निरमल हंस ॥ कोटि उसतति जा की करत ब्रहमंस ॥ कोटि परलउ ओपति निमख माहि ॥ कोटि गुणा तेरे गणे न जाहि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल हंस = पवित्र जीवन वाले जीव। ब्रहमंस = (सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार) ब्रहमा के पुत्र। परलउ = नाश। ओपति = उत्पक्ति। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय।6।
अर्थ: हे भाई! (वह हमारा गोबिंद ऐसा है) कि करोड़ों ही पवित्र जीवन वाले जीव उस की महिमा कर रहे हैं, सनक आदि ब्रहमा के करोड़ों ही पुत्र उसकी स्तुति कर रहे हैं, वह गोबिंद आँख के एक फोर में करोड़ों (जीवों की) उत्पक्ति और नाश (करता रहता) है। हे प्रभु! तेरे करोड़ों ही गुण हैं (हम जीवों द्वारा) गिने नहीं जा सकते।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि गिआनी कथहि गिआनु ॥ कोटि धिआनी धरत धिआनु ॥ कोटि तपीसर तप ही करते ॥ कोटि मुनीसर मुोनि महि रहते ॥७॥

मूलम्

कोटि गिआनी कथहि गिआनु ॥ कोटि धिआनी धरत धिआनु ॥ कोटि तपीसर तप ही करते ॥ कोटि मुनीसर मुोनि महि रहते ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनी = समझदार मनुष्य, आत्मिक जीवन की सूझ वाले। गिआनु = परमात्मा के गुणों की विचार। धिआनी = समाधि लगाने वाले। तपीसर = तपी ईसर, बड़े बड़े ऋषि मुनि। मुोनि = चुप।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मुोनि’ में से अक्षर ‘म’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘मोनि’, यहां ‘मुनि’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (हमारा वह गोबिंद ऐसा है कि) आत्मिक जीवन की सूझ वाले करोड़ों ही मनुष्य उसके गुणों का विचार बयान करते रहते हैं, समाधियाँ लगाने वाले करोड़ों ही साधु (उसमें) तवज्जो जोड़ी रखते हैं, (उसका दर्शन करने के लिए) करोड़ों ही बड़े-बड़े तपी तप करते रहते हैं, करोड़ों ही बड़े-बड़े मुनि मौन धारे रखते हैं।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

अविगत नाथु अगोचर सुआमी ॥ पूरि रहिआ घट अंतरजामी ॥ जत कत देखउ तेरा वासा ॥ नानक कउ गुरि कीओ प्रगासा ॥८॥२॥५॥

मूलम्

अविगत नाथु अगोचर सुआमी ॥ पूरि रहिआ घट अंतरजामी ॥ जत कत देखउ तेरा वासा ॥ नानक कउ गुरि कीओ प्रगासा ॥८॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट। नाथु = पति प्रभु। अगोचर = (अ+गो+चर) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। घट = शरीर = (बहुवचन)। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। जत कत = जहाँ कहाँ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। कउ = को। गुरि = गुरु ने। प्रगासा = आत्मिक रोशनी।8।
अर्थ: हे भाई! हमारा वह पति-प्रभु अदृष्य है, हमारा वह स्वामी ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, सब जीवों के दिल की जानने वाला वह प्रभु सब शरीरों में मौजूद है। हे प्रभु! (मुझे) नानक को गुरु ने (ऐसा आत्मिक) प्रकाश बख्शा है कि मैं जिधर-किधर देखता हूँ मुझे तेरा ही निवास दिखाई देता है।8।2।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरि मो कउ कीनो दानु ॥ अमोल रतनु हरि दीनो नामु ॥ सहज बिनोद चोज आनंता ॥ नानक कउ प्रभु मिलिओ अचिंता ॥१॥

मूलम्

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरि मो कउ कीनो दानु ॥ अमोल रतनु हरि दीनो नामु ॥ सहज बिनोद चोज आनंता ॥ नानक कउ प्रभु मिलिओ अचिंता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। मो कउ = मुझे। अमोल = जो किसी भी मूल्य में ना मिल सके। सहज बिनोद = आत्मिक अडोलता के आनंद। आनंता = बेअंत। अचिंता = (जीवों के मन की) चिन्ता दूर करने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे (यह) दाति बख्शी है, (गुरु ने मुझे वह) नाम-रतन दिया है जो किसी भी मूल्य से नहीं मिल सकता। (मुझे) नानक को (गुरु की कृपा से) चिन्ता दूर करने वाला परमात्मा आ मिला है, (अब मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता के बेअंत आनंद-तमाशे बने रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक कीरति हरि साची ॥ बहुरि बहुरि तिसु संगि मनु राची ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कहु नानक कीरति हरि साची ॥ बहुरि बहुरि तिसु संगि मनु राची ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहु = कहो। नानक = हे नानक! कीरति = महिमा। साची = सदा स्थिर रहने वाली। बहुरि बहुरि = बारबार। तिसु संगि = उस (महिमा) से। राची = जोड़ी रख।1। रहाउ।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा की सदा कायम रहने वाली उपमा किया कर। अपने मन को बार-बार उस (महिमा) से जोड़े रख।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत हमारै भोजन भाउ ॥ अचिंत हमारै लीचै नाउ ॥ अचिंत हमारै सबदि उधार ॥ अचिंत हमारै भरे भंडार ॥२॥

मूलम्

अचिंत हमारै भोजन भाउ ॥ अचिंत हमारै लीचै नाउ ॥ अचिंत हमारै सबदि उधार ॥ अचिंत हमारै भरे भंडार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचिंत भाउ = चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा का प्यार। हमारै = मेरे वास्ते। लीचै = लिया जाता है। अचिंत नाउ = अचिंत प्रभु का नाम। अचिंत सबदि = चिन्ता दूर करने वाले प्रभु की महिमा से। उधार = उद्धार, पार उतारा।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से अब) चिन्ता दूर करने वाले प्रभूका प्यार ही मेरे लिए (आत्मिक जीवन की) ख़ुराक है, मेरे अंदर अचिंत प्रभु का नाम ही सदा लिया जा रहा है, अचिंत प्रभु की महिमा की वाणी द्वारा विकारों से मेरा बचाव हो रहा है। (गुरु की कृपा से) मेरे अंदर चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा के नाम-खजाने भरे गए हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत हमारै कारज पूरे ॥ अचिंत हमारै लथे विसूरे ॥ अचिंत हमारै बैरी मीता ॥ अचिंतो ही इहु मनु वसि कीता ॥३॥

मूलम्

अचिंत हमारै कारज पूरे ॥ अचिंत हमारै लथे विसूरे ॥ अचिंत हमारै बैरी मीता ॥ अचिंतो ही इहु मनु वसि कीता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरे = सफल होते हैं। विसूरे = चिन्ता झोरे। मीता = मित्र। अचिंतो ही = चिन्ता दूर करने वाला हरि का नाम ले के ही। वसि = काबू में।3।
अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा के नाम की इनायत से मेरे सारे काम सफल हो रहे हैं, (मेरे अंदर से सारे) चिन्ता-फिक्र समाप्त हो गए हैं, अब मुझे वैरी भी मित्र दिखाई दे रहे हैं। चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम ले कर ही मैंने अपना यह मन वश में कर लिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत प्रभू हम कीआ दिलासा ॥ अचिंत हमारी पूरन आसा ॥ अचिंत हम्हा कउ सगल सिधांतु ॥ अचिंतु हम कउ गुरि दीनो मंतु ॥४॥

मूलम्

अचिंत प्रभू हम कीआ दिलासा ॥ अचिंत हमारी पूरन आसा ॥ अचिंत हम्हा कउ सगल सिधांतु ॥ अचिंतु हम कउ गुरि दीनो मंतु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हमें, मुझे। दिलासा = हौसला। हमा कउ = मेरे वास्ते। सिधांतु = सिद्धांत, धर्म का निचोड़। अचिंतु = चिन्ता दूर करने वाले प्रभु का नाम। गुरि = गुरु ने। मंतु = उपदेश।4।
अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा ने मुझे हौसला बख्शा है, मेरी सारी आशाएं पूरी हो गई हैं। चिन्ता दूर करने वाले प्रभु का नाम जपना ही मेरे वास्ते सारे धर्मों का निचोड़ है। हे भाई! यह नाम-मंत्र मुझे गुरु ने दिया है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत हमारे बिनसे बैर ॥ अचिंत हमारे मिटे अंधेर ॥ अचिंतो ही मनि कीरतनु मीठा ॥ अचिंतो ही प्रभु घटि घटि डीठा ॥५॥

मूलम्

अचिंत हमारे बिनसे बैर ॥ अचिंत हमारे मिटे अंधेर ॥ अचिंतो ही मनि कीरतनु मीठा ॥ अचिंतो ही प्रभु घटि घटि डीठा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैर = वैर विरोध (बहुवचन)। अंधेर = माया के मोह के अंधेरे। अचिंते ही = चिन्ता दूर करने वाले प्रभु का नाम (जप के) ही। मनि = मन में। घटि घटि = हरेक शरीर में।5।
अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा के नाम जप के (मेरे अंदर से सारे) वैर विरोध नाश हो गए हैं, (मेरे अंदर से) माया के मोह के अंधेरे दूर हो गए हैं। हे भाई! चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम जप के ही मेरे मन को परमात्मा की महिमा प्यारी लग रही है, और उस परमात्मा को मैंने हरेक हृदय में बसता देख लिया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत मिटिओ है सगलो भरमा ॥ अचिंत वसिओ मनि सुख बिस्रामा ॥ अचिंत हमारै अनहत वाजै ॥ अचिंत हमारै गोबिंदु गाजै ॥६॥

मूलम्

अचिंत मिटिओ है सगलो भरमा ॥ अचिंत वसिओ मनि सुख बिस्रामा ॥ अचिंत हमारै अनहत वाजै ॥ अचिंत हमारै गोबिंदु गाजै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगलो = सारा। बिस्रामा = विश्राम, ठिकाना। अनहत = एक रस, लगातार, बिना साज़ बजाए। वाजै = बज रहा है, राग हो रहा है। गाजै = गरज रहा है, पूरा प्रभाव डाल रहा है।6।
अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम की इनायत से मेरी सारी भटकना समाप्त हो गई है, (जब से) अचिंत प्रभु मेरे मन में आ बसा है, मेरे अंदर आत्मिक आनंद का (पक्का) ठिकाना बन गया है। अब मेरे अंदर चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम का एक-रस निरंतर बाजा बज रहा है, मेरे अंदर गोबिंद का नाम ही हर वक्त गूँज रहा है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत हमारै मनु पतीआना ॥ निहचल धनी अचिंतु पछाना ॥ अचिंतो उपजिओ सगल बिबेका ॥ अचिंत चरी हथि हरि हरि टेका ॥७॥

मूलम्

अचिंत हमारै मनु पतीआना ॥ निहचल धनी अचिंतु पछाना ॥ अचिंतो उपजिओ सगल बिबेका ॥ अचिंत चरी हथि हरि हरि टेका ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतीआना = पतीज गया है भटकने से हट गया है। निहचल धनी = सदा कायम रहने वाला मालिक। पछाना = पहचान लिया है, सांझ डाल ली है। बिबेका = अच्छेबुरेकाम की परख। चरी = चढ़ी है। हथि = हाथ में। टेक = आसरा।7।
अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम की इनायत से मेरा मन भटकने से हट गया है, अचिंत हरि-नाम जप के मैंने सदा कायम रहने वाले मालिक-प्रभु के साथ सांझ डाल ली है। चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम जप के ही मेरे अंदर अच्छे-बुरे काम की सारी पहचान (करने की क्षमता अर्थात विवेक) पैदा हो गई है। इस अचिंत हरि-नामकी मुझे सदा के लिए टेक मिल गई है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत प्रभू धुरि लिखिआ लेखु ॥ अचिंत मिलिओ प्रभु ठाकुरु एकु ॥ चिंत अचिंता सगली गई ॥ प्रभ नानक नानक नानक मई ॥८॥३॥६॥

मूलम्

अचिंत प्रभू धुरि लिखिआ लेखु ॥ अचिंत मिलिओ प्रभु ठाकुरु एकु ॥ चिंत अचिंता सगली गई ॥ प्रभ नानक नानक नानक मई ॥८॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। अचिंता = चिन्ता दूर करने वाला हरि नाम। चिंत सगली = सारी चिन्ता। प्रभ मई = प्रभु का रूप।8।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर प्रभु ने चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम की प्राप्ति का लेख धुर दरगाह से लिख दिया है, उसको वह सबका मालिक प्रभु मिल जाता है। हे भाई! चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम जप के मेरी सारी चिन्ता दूर हो गई है, अब मैं नानक सदा के लिए प्रभु में लीन हो गया हूँ।8।3।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु धनु मेरे हरि को नाउ ॥ गांठि न बाधउ बेचि न खाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इहु धनु मेरे हरि को नाउ ॥ गांठि न बाधउ बेचि न खाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरे = मेरे पास। को = का। गांठि = गाँठ। गांठि न बाधउ = मैं पल्ले गाँठ बांध के नहीं रखता, मैं कंजूसों की तरह छुपा के नहीं रखता। बेचि न खाउ = मैं इस को बेच के भी नहीं खाता, मैं इस धन को फजूल में नहीं खरचता, मैं इस धन का दिखावा भी नहीं करता।1। रहाउ।
अर्थ: प्रभु का यह नाम मेरे लिए धन है (जैसे लोग धन को जीवन का सहारा बना लेते हैं, मेरे जीवन का सहारा प्रभु का नाम ही है, पर) मैं ना तो इसे छुपा के रखता हूँ, और ना ही दिखावे के लिए इस्तेमाल करता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाउ मेरे खेती नाउ मेरे बारी ॥ भगति करउ जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥

मूलम्

नाउ मेरे खेती नाउ मेरे बारी ॥ भगति करउ जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारी = वाड़ी, बगीची। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। जनु = (मैं) दास।1।
अर्थ: (कोई मनुष्य खेती-बाड़ी को आसरा मानता है, पर) मेरे लिए प्रभु का नाम ही खेती है, और नाम ही बगीची है। हे प्रभु! मैं तेरा दास तेरी ही शरण हूँ, और तेरी भक्ति करता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाउ मेरे माइआ नाउ मेरे पूंजी ॥ तुमहि छोडि जानउ नही दूजी ॥२॥

मूलम्

नाउ मेरे माइआ नाउ मेरे पूंजी ॥ तुमहि छोडि जानउ नही दूजी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माइआ = धन। पूंजी = राशि। दूजी = और कोई राशि-पूंजी।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम ही मेरे लिए माया है और राशि-पूंजी है (व्यापार करनेके लिए। भाव, व्यापार शारीरिक निर्वाह के वास्ते है, मेरी जिंदगी का सहारा नहीं है)। हे प्रभु! तुझे विसार के मैं किसी और राशि-पूंजी के साथ सांझ नहीं डालता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाउ मेरे बंधिप नाउ मेरे भाई ॥ नाउ मेरे संगि अंति होइ सखाई ॥३॥

मूलम्

नाउ मेरे बंधिप नाउ मेरे भाई ॥ नाउ मेरे संगि अंति होइ सखाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंधिप = सम्बंधी। भाई = भ्राता। संगि = साथ। सखाई = सहाई, सहायता करने वाला।3।
अर्थ: प्रभु का नाम ही मेरे लिए रिश्तेदार है, नाम ही मेरा भाई है; नाम ही मेरा आखिर में सहायता करने वाला बन सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ महि जिसु रखै उदासु ॥ कहि कबीर हउ ता को दासु ॥४॥१॥

मूलम्

माइआ महि जिसु रखै उदासु ॥ कहि कबीर हउ ता को दासु ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु = जिस (मनुष्य) को। उदासु = निर्लिप। ता को = उसका।4।
अर्थ: कबीर कहता है: मैं उस मनुष्य का सेवक हूँ जिसको प्रभु माया में रहते हुए को माया से निर्लिप रखता है।4।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: मनुष्य जीवन निर्वाह के लिए धन कमाना शुरू करता है। सहजे ही इससे इतना मोह बन जाता है कि धन ही जिंदगी का आसरा बन जाता है। अपने शरीर के निर्वाह के लिए अपने हाथ से ही कमाई करनी है, किसी और पर अपना भार नहीं डालना, पर धन को जिंदगी का मनोरथ नहीं बना लेना; यह है उपदेश इस शब्द में।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नांगे आवनु नांगे जाना ॥ कोइ न रहिहै राजा राना ॥१॥

मूलम्

नांगे आवनु नांगे जाना ॥ कोइ न रहिहै राजा राना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न रहि है = नहीं रहेगा।1।
अर्थ: (जगत में) नंगे आना है, और नंगे ही (यहाँ से) चले जाना है। कोई राजा हो, अमीर हो, किसी ने यहाँ सदा नहीं रहना।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रामु राजा नउ निधि मेरै ॥ स्मपै हेतु कलतु धनु तेरै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रामु राजा नउ निधि मेरै ॥ स्मपै हेतु कलतु धनु तेरै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामु राजा = सारे जगत का मालिक प्रभु!

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘राजा’ संबोधन में नहीं है, वह है ‘राजन’; जैसे ‘राजन! कउन तुमारै आवै’)।

दर्पण-भाषार्थ

नउ निधि = नौ खजाने, जगत का सारा धन माल। मेरे = मेरे लिए, मेरे हृदय में। संपै हेतु = ऐश्वर्य का मोह। कलतु = कलत्र, स्त्री। तेरै = तेरे लिए, तेरे मन में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे लिए तो जगत के मालिक प्रभु का नाम ही जगत का सारा धन-माल है (भाव, प्रभु मेरे हृदय में बसता है, यही मेरे लिए सब कुछ है)। पर तेरे लिए ऐश्वर्य का मोह, स्त्री धन- (यही जिंदगी का सहारा हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवत संग न जात संगाती ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी ॥२॥

मूलम्

आवत संग न जात संगाती ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगाती = साथ। दरि = दर पर।2।
अर्थ: अगर दरवाजे पर हाथी बँधे हुए हैं, तो भी क्या हुआ? (इनका हमारे साथ जाना तो कहीं रहा, यह अपना शरीर भी) जो जन्म के समय साथ आता है (चलने के वक्त) साथ नहीं जाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लंका गढु सोने का भइआ ॥ मूरखु रावनु किआ ले गइआ ॥३॥

मूलम्

लंका गढु सोने का भइआ ॥ मूरखु रावनु किआ ले गइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गढु = गढ़, किला।3।
अर्थ: (लोग कहते हैं कि) लंका का किला सोने का बना हुआ था (पर इसके गुमान में रहने वाला) मूर्ख रावण (मरने के वक्त) अपने साथ कुछ भी नहीं ले के गया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर किछु गुनु बीचारि ॥ चले जुआरी दुइ हथ झारि ॥४॥२॥

मूलम्

कहि कबीर किछु गुनु बीचारि ॥ चले जुआरी दुइ हथ झारि ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहि = कहै, कहता है। गुनु = गुण। दुइ हथ झारि = दोनों हाथ झाड़ के, खाली हाथ।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! कोई भलाई की बात भी विचार, (धन पर गुमान करने वाला बँदा) जुआरिए की तरह (जगत से) खाली हाथ चल पड़ता है।4।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: लोगों में आम प्रचलित ख्यालों को उनके सामने रख के भक्त जी जीवन का सही रास्ता बताते हैं। लंका का किला समूचा सोने का बना हुआ था अथवा नहीं, इस बात से भक्त जी का वास्ता नहीं है। लोगों में यही बात मशहूर है कि रावण की लंका सोने की थी, और लोग रावण के अंत का हाल भी जानते हैं कि महलों में कोई दीया जलाने वाला भी नहीं रह गया। सो, इसी प्रसिद्ध कहानी को सामने रख के समझाते हैं कि धन-पदार्थ का आसरा लेना कच्ची बात है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैला ब्रहमा मैला इंदु ॥ रवि मैला मैला है चंदु ॥१॥

मूलम्

मैला ब्रहमा मैला इंदु ॥ रवि मैला मैला है चंदु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इंदु = देवताओं का राजा इन्द्र। रवि = सूर्य।1।
अर्थ: ब्रहमा (भले ही जगत को पैदा करने वाला मिथा जाता है पर) ब्रहमा भी मैला, इन्द्र भी मैला (चाहे वह देवताओं का राजा माना गया है)। (दुनिया को रौशनी देने वाले) सूर्य और चंद्रमा भी मैले हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैला मलता इहु संसारु ॥ इकु हरि निरमलु जा का अंतु न पारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मैला मलता इहु संसारु ॥ इकु हरि निरमलु जा का अंतु न पारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मलता = मलीन।1। रहाउ।
अर्थ: ये (सारा) संसार मैला है, मलीन है, केवल परमात्मा ही पवित्र है, (इतना पवित्र है कि उसकी पवित्रता का) अंत नहीं पाया जा सकता, उस पार का छोर नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैले ब्रहमंडाइ कै ईस ॥ मैले निसि बासुर दिन तीस ॥२॥

मूलम्

मैले ब्रहमंडाइ कै ईस ॥ मैले निसि बासुर दिन तीस ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईस = ईश, राजे। ब्रहमंडाइ कै = ब्रहमण्डों के। निसि = रात। बासरु = दिन। तीस = गिनती के तीस।2।
अर्थ: ब्रहमण्डों के राजा (भी हो जाएं तो भी) मैले हैं; रात-दिन, महीने के तीसों दिन सब मैले हैं (बेअंत जीव-जंतु विकारों से इनको मैला किए जा रहे हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैला मोती मैला हीरु ॥ मैला पउनु पावकु अरु नीरु ॥३॥

मूलम्

मैला मोती मैला हीरु ॥ मैला पउनु पावकु अरु नीरु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीरु = हीरा। पावकु = आग।3।
अर्थ: (इतने कीमती होते हुए भी) मोती के हीरे भी मैले हैं, हवा, आग और पानी भी मैले हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैले सिव संकरा महेस ॥ मैले सिध साधिक अरु भेख ॥४॥

मूलम्

मैले सिव संकरा महेस ॥ मैले सिध साधिक अरु भेख ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संकरा = शिव। महेस = शिव। सिध = जोग साधनों में सिद्धहस्त योग। साधिक = जोग के साधन करने वाले। भेख = कई भेषों के साधु।4।
अर्थ: शिव-शंकर-महेश भी मैले हैं (भले ही ये महान देवता माने गए हैं)। सिध, साधक और भेखधारी साधु सब मैले हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैले जोगी जंगम जटा सहेति ॥ मैली काइआ हंस समेति ॥५॥

मूलम्

मैले जोगी जंगम जटा सहेति ॥ मैली काइआ हंस समेति ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंगम = शैव मत का एक पंथ जो जोगियों की एक शाखा है। जंगम अपने सिर पर साँप के शक्ल की रस्सी और धातुका चँद्रमा पहनते हैं। कानों में मुंद्रों की जगह पीतल के फूल जिसे मोर-पंखों से सजाया होता है, पहनते हैं। जंगमों के दो धड़े हैं: विरक्त और गृहस्थी। सहेति = समेत। काइआ = शरीर। हंस = जीवात्मा।5।
अर्थ: जोगी, जंगम, जटाधारी सब अपवित्र हैं; यह शरीर भी मैला और जीवात्मा भी मैला हुआ पड़ा है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर ते जन परवान ॥ निरमल ते जो रामहि जान ॥६॥३॥

मूलम्

कहि कबीर ते जन परवान ॥ निरमल ते जो रामहि जान ॥६॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परवान = स्वीकार। रामहि = परमात्मा को।6।
अर्थ: कबीर कहता है: सिर्फ वह मनुष्य (प्रभु के दर पर) स्वीकार हैं, सिर्फ वह मनुष्य पवित्र हैं जिन्होंने परमात्मा के साथ सांझ डाली है।6।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु करि मका किबला करि देही ॥ बोलनहारु परम गुरु एही ॥१॥

मूलम्

मनु करि मका किबला करि देही ॥ बोलनहारु परम गुरु एही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मका = मक्का, अरब देश का एक शहर जहाँ मुसलमान हज करने जाते हैं। किबला = काबे की चार दिवारी जिसकी ज़िआरत करते हैं। किबला = (क्रिया विशेषण) सामने, सन्मुख। 2. जिसकी तरफ मुँह करें, ऐसा धर्म मन्दिर, काबा। मक्के में मुसलमानों का प्रसिद्ध मन्दिर। परम गुरु = बड़ा पीर।1।
अर्थ: हे मुल्ला! मन को मक्का और परमात्मा को किबला बना। (अंतहकर्ण मक्का है और सब शरीरों का स्वामी कर्तार उसमें पूज्य है)। बोलने वाला जीवात्मा बाँग देने वाला और नायक हो के नमाज़ पढ़ने वाला परम गुरु (इमाम) है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु रे मुलां बांग निवाज ॥ एक मसीति दसै दरवाज ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कहु रे मुलां बांग निवाज ॥ एक मसीति दसै दरवाज ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे मुलां = हे मुल्ला! दसै दरवाज = दस दरवाजों वाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे मुल्ला! यह दस दरवाजों (इन्द्रियों) वाला शरीर ही असल मस्जिद है, इसमें टिक के बाँग दे और नमाज़ पढ़।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिसिमिलि तामसु भरमु कदूरी ॥ भाखि ले पंचै होइ सबूरी ॥२॥

मूलम्

मिसिमिलि तामसु भरमु कदूरी ॥ भाखि ले पंचै होइ सबूरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिसिमिलि = (बिसमिलु, बिसमिल्ला, अल्लाह के नाम पर। बकरा आदि पशू मारने के वक्त मुसलमान मुँह से ‘बिसमिल्ला’ कहता है, भाव यह, कि रब के आगे भेट करता है। यहाँ इसका अर्थ ‘जीव को कष्ट दे के मारना’ बन गया है) मार दे। तामसु = तामसी स्वभाव, क्रोध आदि वाला स्वभाव। कदूरी = कुदरति, मन की मैल। भाखि ले = खा ले, खत्म कर दे। पंचै = कामादिक पाँचों को। सबूरी = सब्र, धैर्य, शांति।2।
अर्थ: (हे मुल्ला! पशू की कुर्बानी देने की जगह अपने अंदर से) क्रोध भरा स्वभाव, भटकना और कदूरत दूर कर, कामादिक पाँचों को समाप्त कर दे, तेरे अंदर शांति पैदा होगी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिंदू तुरक का साहिबु एक ॥ कह करै मुलां कह करै सेख ॥३॥

मूलम्

हिंदू तुरक का साहिबु एक ॥ कह करै मुलां कह करै सेख ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कह = क्या?।3।
अर्थ: मुल्ला व शेख (बनने से प्रभु की हजूरी में) कोई खास बड़ा दर्जा नहीं मिल जाता। हिन्दू व मुसलमान दोनों का मालिक प्रभु स्वयं ही है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर हउ भइआ दिवाना ॥ मुसि मुसि मनूआ सहजि समाना ॥४॥४॥

मूलम्

कहि कबीर हउ भइआ दिवाना ॥ मुसि मुसि मनूआ सहजि समाना ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दिवाना = पागल। मुसि मुसि = धीरे-धीरे। मनूआ = अंजान मन। सहजि = सहज अवस्था में।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (मेरी ये बातें तंग-दिल लोगों को पागलों वाली लगती हैं; लोगों के लिए तो) मैं पागल हो गया हूँ, पर मेरा मन आहिस्ता-आहिस्ता (अंदर से हज कर के ही) अडोल अवस्था में टिक गया है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गंगा कै संगि सलिता बिगरी ॥ सो सलिता गंगा होइ निबरी ॥१॥

मूलम्

गंगा कै संगि सलिता बिगरी ॥ सो सलिता गंगा होइ निबरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलिता = नदी। बिगरी = बिगड़ गई। निबरी = निबड़ गई, समाप्त हो गई, स्वै को मिटा लिया।1।
अर्थ: (अगर जिंद के मालिक प्रभु के चरणों से लगना बिगड़ना ही है तो) नदी भी गंगा के साथ मिल के बिगड़ जाती है, पर वह नदी तो गंगा का रूप हो के अपना आप समाप्त कर देती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिगरिओ कबीरा राम दुहाई ॥ साचु भइओ अन कतहि न जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिगरिओ कबीरा राम दुहाई ॥ साचु भइओ अन कतहि न जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम दुहाई = राम की दोहाई दे के, प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के। अन कतहि = और किसी भी जगह।1। रहाउ।
अर्थ: कबीर अपने प्रभु का स्मरण हर वक्त कर रहा है (पर लोगों की बाबत) कबीर बिगड़ गया है (लोग नहीं जानते कि राम की दोहाई दे दे के) कबीर राम का रूप हो गया है, अब (राम को छोड़ के) किसी और तरफ़ नहीं भटकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चंदन कै संगि तरवरु बिगरिओ ॥ सो तरवरु चंदनु होइ निबरिओ ॥२॥

मूलम्

चंदन कै संगि तरवरु बिगरिओ ॥ सो तरवरु चंदनु होइ निबरिओ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष।2।
अर्थ: (साधारण) वृक्ष भी चँदन के साथ (लग के) बिगड़ जाता है, पर वह वृक्ष चँदन का रूप हो के अपना आप मिटा लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारस कै संगि तांबा बिगरिओ ॥ सो तांबा कंचनु होइ निबरिओ ॥३॥

मूलम्

पारस कै संगि तांबा बिगरिओ ॥ सो तांबा कंचनु होइ निबरिओ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंचनु = सोना।3।
अर्थ: ताँबा भी पारस से छू के रूप बदल लेता है, पर वह ताँबा सोना ही बन जाता है और अपना आप खत्म कर देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन संगि कबीरा बिगरिओ ॥ सो कबीरु रामै होइ निबरिओ ॥४॥५॥

मूलम्

संतन संगि कबीरा बिगरिओ ॥ सो कबीरु रामै होइ निबरिओ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (इसी तरह) कबीर भी संतों की संगति में रह के बिगड़ गया है। पर, यह कबीर अब प्रभूके साथ ऐक-मेक हो गया है, और स्वै भाव समाप्त कर चुका है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माथे तिलकु हथि माला बानां ॥ लोगन रामु खिलउना जानां ॥१॥

मूलम्

माथे तिलकु हथि माला बानां ॥ लोगन रामु खिलउना जानां ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हथि = हाथ में। बानां = धार्मिक पहरावा। लोगन = लोगों ने।1।
अर्थ: (लोग) माथे पर तिलक लगा लेते हैं, हाथ में माला पकड़ लेते हैं, धार्मिक पहरावा बना लेते हैं, (और समझते हैं कि परमात्मा के भक्त बन गए हैं) लोगों ने परमात्मा को खिलौना (भाव, अंजान बालक) समझ लिया है (कि इन बातों से उसे परचाया जा सकता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ हउ बउरा तउ राम तोरा ॥ लोगु मरमु कह जानै मोरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जउ हउ बउरा तउ राम तोरा ॥ लोगु मरमु कह जानै मोरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = अगर। हउ = मैं। राम = हे राम! मरमु = भेद।1। रहाउ।
अर्थ: (मैं) कोई धार्मिक भेस नहीं बनाता, मैं मन्दिर आदि में जा के किसी देवते की पूजा नहीं करता, लोग मुझे पागल कहते हैं; पर हे मेरे राम! अगर मैं (लोगों के हिसाब से) पागल हूँ, तो भी (मुझे इस बात से संतुष्टि है कि) मैं तेरा (सेवक) हूँ। दुनिया भला मेरे दिल का भेद क्या जान सकती है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोरउ न पाती पूजउ न देवा ॥ राम भगति बिनु निहफल सेवा ॥२॥

मूलम्

तोरउ न पाती पूजउ न देवा ॥ राम भगति बिनु निहफल सेवा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तोरउ न = मैं नहीं तोड़ता। देवा = देवता।2।
अर्थ: (देवताओं के आगे भेटा धरने के लिए) ना ही मैं (फूल) पत्र तोड़ता हूँ, ना ही मैं किसी देवी-देवता की पूजा करता हूँ, (मैं जानता हूँ कि) प्रभु की बँदगी के बिना किसी और की पूजा (करनी) व्यर्थ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु पूजउ सदा सदा मनावउ ॥ ऐसी सेव दरगह सुखु पावउ ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु पूजउ सदा सदा मनावउ ॥ ऐसी सेव दरगह सुखु पावउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूजउ = मैं पूजता हूँ। दरगह = प्रभु की हजूरी में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस तुक में शब्द ‘पूजउ’, ‘मनावउ’ और ‘पावउ’ वर्तमान काल एकवचन में हैं। इनका अर्थ है पूजता हूँ, मनाता हूँ, पाता हूँ, जैसे ‘गुरु को पूजना और मनाना’ कोई आगे आने वाले जन्म का कर्म नहीं, अब के समय में मानव जन्म के समय का कर्तव्य है, जैसे ‘दरगह सुखु पावउ’ भी हाल के समय से ही सम्बंध रखता है, किसी आगे आने वाले जन्म के साथ सम्बँध रखने वाली घटना नहीं है। सो, ‘दरगह’ का भाव है ‘प्रभु के चरणों में जुड़ने वाली अवस्था’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं अपने सतिगुरु के आगे सिर झुकाता हूँ, उसी को सदा प्रसन्न करता हूँ, और इस सेवा की इनायत से प्रभु की हजूरी में जुड़ के सुख भोगता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोगु कहै कबीरु बउराना ॥ कबीर का मरमु राम पहिचानां ॥४॥६॥

मूलम्

लोगु कहै कबीरु बउराना ॥ कबीर का मरमु राम पहिचानां ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हिन्दू-) जगत कहता है, कबीर पागल हो गया है (क्योंकि ना ये तिलक आदि चिन्ह का इस्तेमाल करता है और ना ही फूल-पत्ते आदि ले के किसी मन्दिर में भेट करने जाता है), पर कबीर के दिल का भेद कबीर का परमात्मा जानता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी ॥ सुंन सहज महि बुनत हमारी ॥१॥

मूलम्

उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी ॥ सुंन सहज महि बुनत हमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उलटि = (माया से) पलट के। दोऊ = जाति और कुल दोनों को। सुंनि = अफुर अवस्था। सहज = अडोल अवस्था। बुनत = ताणी, मन की लगन, लिव, ध्यान।1।
अर्थ: (नाम की इनायत से मन को माया से) उल्टा के मैंने जाति और कुल दोनों ही बिसार दिए हैं (मुझे ये बात समझ आ गई है कि प्रभु-मिलाप का किसी विशेष जाति व कुल से सम्बँध नहीं है)। मेरी लगन अब उस अवस्था में टिकी हुई है, जहाँ माया के फुरने नहीं हैं, जहाँ अडोलता ही अडोलता है।1।

[[1159]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥ पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥ पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झगरा = वास्ता, सम्बंध।1। रहाउ।
अर्थ: (ज्यों-ज्यों मैं नाम-जपने की ताणी उन रहा हूँ) मैंने पंडित और मुल्ला दोनों ही छोड़ दिए हैं। दोनों (के द्वारा बताए गए कर्मकांड और शरहके रास्ते) के साथ अब मेरा कोई वास्ता नहीं रहा (भाव, कर्मकांड और शरह ये दोनों ही नाम-स्मरण के मुकाबले में तुच्छ हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥ जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥

मूलम्

बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥ जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुनि बुनि = बुन बुन के, प्रभूके चरणों में ध्यान लगाने वाली ताणी उन उन के। आपु = अपने आप को। जह नही आपु = जहाँ स्वै भाव नहीं। तहा होइ = उस अवस्था में टिक के।2।
अर्थ: (प्रभु चरणों में टिकी तवज्जो की ताणी) उन-उन के मैं अपने आप को पहना रहा हूँ, मैं वहाँ पहुँच के प्रभु की महिमाकर रहा हूँ जहाँ स्वै भाव नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥ छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥

मूलम्

पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥ छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जे लिख दीआ = (कर्मकांड और शरह की बातें) जो उन्होंने लिख दी हैं।3।
अर्थ: (कर्मकांड और शरह के बारे में) पण्डितों और मौलवियों ने जो कुछ लिखा है, मुझे किसी की भी आवश्यक्ता नहीं रही, मैंने ये सब कुछ छोड़ दिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥ आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥

मूलम्

रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥ आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इखलासु = प्रेम, पवित्रता। निरखि ले = देख ले, दीदार कर ले, दीदार हो सकता है। मीरा = मीर, परमात्मा।4।
अर्थ: अगर हृदय में प्रेम हो, तो ही प्रभु के दीदार हो सकते हैं (कर्मकांड और शरह सहायता नहीं करते)। हे कबीर! जो भी प्रभु को मिले हैं स्वै को खोज-खोज के ही मिले हैं (कर्मकांड और शरह की सहायता से नहीं मिले)।4।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी जाति के जुलाहे थे। अपने पेशे का दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि ज्यों-ज्यों मैं प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ने की ताणी उन रहा हूँ, त्यों-त्यों मुझे हिन्दुओं के कर्मकांड और मुसलमानों की शरह का आवश्यक्ता नहीं रही। ईश्वर को मिलने के लिए, बस, एक ही गुर है कि मनुष्य अपने आप की खोज करे और हृदय में प्रभूका प्रेम बसाए।
नोट: जो महापुरुष मुसलमानों के राज काल में और हिन्दू सभ्यता के गढ़ काशी में रहते हुए इतनी दलेरी से सच की आवाज़ बुलन्द कर सकता है, दोनों धर्मों के धर्म के रखवालों का उसके विरुद्ध हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है।
नोट: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक पढ़ने के वक्त पाठकों को पहले ये ख्याल पैदा होता है कि ‘पंडित मुलां’ छोड़ने का भाव अच्छी तरह स्पष्ट नहीं हुआ। पर तीसरी तुक में जा के प्रश्न कुछ-कुछ हल हो जाता है कि पंडितों के बताए हुए कर्मकांड और मौलवियों की बताई शरह का ही कबीर जी वर्णन कर रहे हैं। वैसे कोई ऐसी रम्ज़ की बात यहाँ नहीं, जिसको समझने में कोई भुलेखा रह जाए और कोई उलट-पलट बात समझ ली जाए। सो, सतिगुरु जी ने इसी राग के शब्द नंबर 11 के साथ अपनी तरफ से शब्द दर्ज किया है, पर यहाँ ऐसी आवश्यक्ता नहीं पड़ी। पर, इस शब्द की खुली व्याख्या गुरु अरजन साहिब ने कर दी है, और इसी ही राग के अपने शबदों में उस शब्द को दर्ज कर दिया है। चुँकि वह शब्द केवल कबीर जी के इस शब्द की व्याख्या के लिए है, इसलिए उस में आखिर में कबीर जी का ही नाम उन्होंने दिया है जैसे शब्द नंबर 12 में किया है शीर्षक ‘भैरउ महला ५’ ये पक्का यकीन दिलवाता है कि शब्द सतिगुरु अरजन देव जी का ही उचारा हुआ है वह शब्द इस प्रकार है;
भैरउ महला ५॥ वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥ एकु गुसाई अलहु मेरा॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा॥१॥ रहाउ॥ हज काबै जाउ न तीरथ पूजा॥ एको सेवी अवरु न दूजा॥२॥ पूजा करउ न निवाज गुजारउ॥ एक निरंकार ले रिदै नमसकारउ॥३॥ ना हम हिंदू न मुसलमान॥ अलह राम के पिंडु परान॥४॥ कहु कबीर इहु कीआ वखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ (पन्ना ११३६)
ये बात प्रत्यक्ष है कि गुरु अरजन साहिब का ये शब्द कबीर जी के ऊपर लिखे शब्द के सम्बन्ध में है। ये तब ही सम्भव था जब गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ तैयार करने से काफी समय पहले कबीर जी का यह शब्द सतिगुरु जी के पास मौजूद हो। सो, यह ख्याल गलत है कि जब ‘बीड़’ लिखी जा रही थी, तब भगतों की रूहों ने आ के साथ-साथ में अपने शब्द लिखवाए थे। इस भैरव राग की ही मिसाल लें। ‘बीड़’ में गुरु अरजन साहिब जी ने पहले गुरु नानक देव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास जी और अपने शब्द दर्ज किए; अष्टपदियाँ और छंद आदि भी दर्ज कर लिए। यह शब्द नंबर 3 भी दर्ज हो गया। अगर इससे बाद में आए कबीर जी, तो उनका शब्द नंबर 7 के साथ संबन्ध रखने वाला गुरु अरजन साहिब का शब्द नंबर 3 कबीर जी के आने से पहले ही कैसे उचारा गया और दर्ज हो गया? दरअसल बात ये है कि कबीर जी की सारी वाणी गुरु नानक देव जी के पास मौजूद थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरधन आदरु कोई न देइ ॥ लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

निरधन आदरु कोई न देइ ॥ लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरधन = धन हीन को, कंगाल को। कोई = कोई धन वाला मनुष्य। ओहु = वह धनी मनुष्य। चिति न धरेइ = कंगाल के यत्नों पर ध्यान ही नहीं देता।1। रहाउ।
अर्थ: कोई (धनी) मनुष्य किसी कंगाल मनुष्य का आदर नहीं करता। कंगाल मनुष्य चाहे लाखों प्रयत्न (धनवान को प्रसन्न करने के) करे, वह धनी मनुष्य (उसके यत्नों की) परवाह नहीं करता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥ आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥

मूलम्

जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥ आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरधन = धनी। सरधन कै = धनी मनुष्य के घर।1।
अर्थ: यदि कभी कोई गरीब बंदा किसी धनवान के घर चला जाए, आगे वह धनवान बैठा (उस गरीब से) पीठ मोड़ लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥ दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥

मूलम्

जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥ दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर अगर धनी मनुष्य गरीब के घर जाए, वह आदर देता है, स्वागत करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥ प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥

मूलम्

निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥ प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कला = खेल, रज़ा।3।
अर्थ: प्रभु की यह रजा (जिसके कारण कोई गरीब रह गया और कोई धनी बन गया) मिटाई नहीं जा सकती, वैसे कंगाल और धनवान दोनों भाई भाई ही हैं (धनी को इतना गुमान नहीं करना चाहिए)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर निरधनु है सोई ॥ जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥

मूलम्

कहि कबीर निरधनु है सोई ॥ जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै हिरदै = जिसके हृदय में।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (असल में) वह मनुष्य ही कंगाल है जिसके हृदय में प्रभूका नाम नहीं है (क्योंकि धन यहीं रह जाता है, और नाम-धन ने साथ निभना है; दूसरा, कितना ही धन मनुष्य इकट्ठा करता जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता, मन भूखा कंगाल ही रहता है)।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा ते भगति कमाई ॥ तब इह मानस देही पाई ॥ इस देही कउ सिमरहि देव ॥ सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥

मूलम्

गुर सेवा ते भगति कमाई ॥ तब इह मानस देही पाई ॥ इस देही कउ सिमरहि देव ॥ सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। देही = शरीर। पाई = पा ली। देही कउ = शरीर की खातिर।1।
अर्थ: हे भाई! अगर तू गुरु की सेवा से बँदगी की कमाई करे, तो ही यह मनुष्य-शरीर मिला हुआ समझ। इस शरीर के लिए तो देवते भी तरसते हैं। तुझे ये शरीर (मिला है, इससे) नाम स्मरण कर, हरि का भजन कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भजहु गुोबिंद भूलि मत जाहु ॥ मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भजहु गुोबिंद भूलि मत जाहु ॥ मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुोबिंद = (असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है)। लाहु = लाभ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद को स्मरण करो, ये बात भुला ना देनी। यह नाम-जपना ही मनुष्य-जन्म की कमाई है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥ जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥ जब लगु बिकल भई नही बानी ॥ भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥

मूलम्

जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥ जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥ जब लगु बिकल भई नही बानी ॥ भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। कालि = काल ने। ग्रसी = दबोच ली, पकड़ ली। काइआ = शरीर। बिकल = विकल।2।
अर्थ: जब तक बुढ़ापा-रूपी रोग नहीं आ गया, जब तक तेरे शरीर को मौत ने नहीं जकड़ा, जब तक तेरी ज़बान थिरकने नहीं लग जाती, (उससे पहले पहले ही) हे मेरे मन! परमात्मा का भजन कर ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब न भजसि भजसि कब भाई ॥ आवै अंतु न भजिआ जाई ॥ जो किछु करहि सोई अब सारु ॥ फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥

मूलम्

अब न भजसि भजसि कब भाई ॥ आवै अंतु न भजिआ जाई ॥ जो किछु करहि सोई अब सारु ॥ फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अब = अब। भाई = हे भाई! अंतु = आखिरी समय। सारु = संभाल कर।3।
अर्थ: हे भाई! यदि तू इस वक्त भजन नहीं करता, तो फिर कब करेगा? जब मौत (सिर पर) आ पहुँची उस वक्त तो भजन हो नहीं सकेगा। जो कुछ (भजन-स्मरण) तू करना चाहता है, अभी ही कर ले, (यदि समय गुजर गया) तो फिर अफसोस ही करेगा, और इस पछतावे में से खलासी नहीं होगी।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥ तिन ही पाए निरंजन देव ॥ गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥ बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥

मूलम्

सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥ तिन ही पाए निरंजन देव ॥ गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥ बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कपाट = किवाड़। बाट = रास्ता।4।
अर्थ: (पर जीव के भी क्या वश?) जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं बँदगी में जोड़ता है, वही उसका सेवक बनता है, उसी को प्रभु मिलता है, सतिगुरु को मिल के उसके मन के किवाड़ खुलते हैं, और वह दोबारा जनम (मरण) के चक्कर में नहीं आता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥ घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥ कहत कबीरु जीति कै हारि ॥ बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥

मूलम्

इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥ घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥ कहत कबीरु जीति कै हारि ॥ बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउसरु = अवसर, मौका। बार = बारी। कै = चाहे, अथवा।5।
अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! मैं तुझे कई तरीकों से चिल्ला-चिल्ला के बता रहा हूँ, (तेरी मर्जी है इस मनुष्य जनम की बाज़ी) जीत के जा चाहे हार के जा। तू अपने हृदय में विचार करके देख ले (प्रभु को मिलने का) यह मानव-जनम ही मौका है, यही बारी है (यहाँ से टूट के समय नहीं मिलना)।5।1।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥ तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥ ईत ऊत की सोझी परै ॥ कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥

मूलम्

सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥ तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥ ईत ऊत की सोझी परै ॥ कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिव की पुरी = कल्याण-स्वरूप प्रभु के शहर में। सारु बुधि = श्रेष्ठ मति। तह = उस शिव पुरी में। तुम्ह = (हे जोगी!) तुम भी। मिलि = मिल के, पहुँच के। ईत ऊत की सोझी = इस लोक और परलोक की समझ, ये समझ कि अब का जीवन कैसा बने और परलोक के जीवन पर इसका क्या असर पड़ेगा। करम मेरा = मेरा काम, ममता के काम, अपनत्व के काम। मरै = ख्वार होता है।1।
अर्थ: (इस नाम की इनायत से) मेरी मति श्रेष्ठ (बन के) कल्याण-स्वरूप प्रभु के देश में बसने लग गई है। (हे जोगी!) तुम भी उस देश में पहुँच के प्रभु के नाम की ही विचार करो, (जो मनुष्य उस देश में पहुँचता है, भाव, जो मनुष्य प्रभु-चरणों में जुड़ा रहता है उसको) ये समझ आ जाती है कि अब वाला जीवन कैसा होना चाहिए, और इसका असर अगले जीवन पर क्या पड़ता है; उस देश में पहुँचा हुआ कोई भी मनुष्य ममता में फंसने वाले काम नहीं करता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥ राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥ राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निज पद ऊपरि = उस घर में जो केवल मेरा अपना है। मोरा ब्रहम गिआनु = मेरे लिए ब्रहम ज्ञान है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जोगी!) मेरी तवज्जो उस (प्रभु के चरण-रूप) घर में जुड़ी हुई है जो मेरा अपना असली घर है, प्रकाश-रूप प्रभु का नाम (हृदय में बसना) ही मेरे लिए ब्रहम-ज्ञान है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥ रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥ पछम दुआरै सूरजु तपै ॥ मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥

मूलम्

मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥ रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥ पछम दुआरै सूरजु तपै ॥ मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूल = जगत का मूल प्रभु। मूल दुआरै = जगत के मूल प्रभु के दर पर (टिक के)। बंधिआ = मैंने बाँध लिया है। बंधु = बांध, (माया की बाढ़ को रोकने के लिए) बाँध। रवि = सूरज, सूर्य की तपश, तपश, तमो गुणी स्वभाव। गहि = पकड़ के, हासिल करके। चंदु = ठंड, शीतलता, शांति। राखिआ = मैंने रख दी है, मैंने कायम कर दी है। पछम दुआरै = पश्चिम की ओर के दरवाजे पर, उधर जिधर अंधेरा है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: सूर्य उगने के वक्त उगने के कारण पश्चिम की ओर उस वक्त अंधेरा होता है।

दर्पण-भाषार्थ

मेर = (संस्कृत: मेरु name of a fabulous mountain round which all the planets are said to revolve) एक पहाड़ जिसके चारों तरफ आकाश के सारे ग्रह चक्कर खाते माने गए हैं। डंड = (संस्कृत: दण्ड) The sceptre of a king, the rod as a symbol of authority and punishment, शाही आशा, शाही चोब।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: राज दरबारों के दरवाजे पर चौबदार (सरकारी नौकर) खड़ा होता है।

दर्पण-भाषार्थ

मेर डंड = वह जिसका ‘डंड’ मेरु जैसा है, वह प्रभु जिसका शाही चोब ‘मेरु’ जैसा है (सं: मेरु इव दण्डो यस्य), वह प्रभु जिसकी शाही चोब के चारों तरफ सारा जगत चक्कर लगाता है जैसे सारे ग्रह मेरु के इर्द-गिर्द।
सिर ऊपरि = दसवाँ द्वार में, दिमाग में, मन में।2।
अर्थ: (हे जोगी! इस नाम की इनायत से) मैंने जगत के मूल प्रभु के दर पर टिक के (माया की बाढ़ के आगे) बाँध लगा लिया है। मैंने शांति-स्वभाव को ग्रहण करके इसको (अपने) तमो गुणी स्वभाव पर टिका दिया है। जहाँ (पहले अज्ञानता का) अंधेरा ही अंधेरा था, उसके दरवाजे पर अब ज्ञान का सूरज चमक रहा है। वह प्रभु, जिसके हुक्म में सारा जगत है, अब मेरे मन में बस रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥ तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥ खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥ कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥

मूलम्

पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥ तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥ खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥ कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पसचम दुआरे की = उस स्थान के दरवाजे की जहाँ अंधेरा है। सिल ओड़ = सिल का आखिरी सिरा। पसचम…ओड़ = उस सिल का आखिरी सिरा (मिल गया है) जो अंधेरे स्थान के दरवाजे के आगे (जड़ी हुई थी)। खिड़की = ताकी, रोशनी का प्रबंध।3।
अर्थ: (नाम की इनायत से, हे जोगी!) मुझे उस शिला का आखिरी सिरा (मिल गया है) जो अज्ञानता की अंधेरी जगह के दरवाजे (के आगे जड़ा हुआ था), क्योंकि इस शिला पर मुझे (रोशनी देने वाली) एक और खिड़की मिल गई है, इस खिड़की के ऊपर ही है दसवाँ द्वार (जहाँ मेरा प्रभु बसता है)। कबीर कहता है: अब ऐसी दशा बनी हुई है जो खत्म नहीं हो सकती।3।2।10।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: घरों में हवा और रोशनी के लिए खिड़कियां रखी जाती हैं।
नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में होता है, बाकी के ‘बंद’ रहाउ की तुक का विकास होते हैं। ‘रहाउ’ की पंक्ति में कबीर जी कहते हैं कि मेरी तवज्जो उस घर में जुड़ गई है जो घर पूरी तरह से मेरा अपना है। प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का नाम हृदय में बसाना ही मेरे लिए ‘ब्रहम-ज्ञान’ है। इस अवस्था का क्या स्वरूप है? इस अवस्था में पहुँच के व्यवहारिक जीवन कैसा बन जाता है? – इसकी व्याख्या शब्द के तीन ‘बंदों’ में है: 1. मति श्रेष्ठ हो के प्रभु में टिकती है और ‘मेर-तेर’ को मिटा देती है; 2. मन विकारों से रुक जाता है, अंदर ठंड पड़ जाती है, अज्ञानता दूर हो जाती है, प्रभु चरणों की ओर लगन बन जाती है; 3. अज्ञानता के अंधेरे में से निकल के रौशनी मिल जाती है, तवज्जो ऐसी ऊँची हो जाती है कि सदा एक-रस बनी रहती है।
शब्द में सारे शब्द जोगियों वाली बोली वाले बरते हैं, क्योंकि किसी जोगी से बातचीत की गई है। जोगी को समझाते हैं कि प्रभु का नाम हृदय में बसना ही सबसे ऊँचा ज्ञान है, और यही नाम जीवन में सुंदर तब्दीली लाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥ गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥ काल पुरख का मरदै मानु ॥ तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥

मूलम्

सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥ गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥ काल पुरख का मरदै मानु ॥ तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काल सिउ = मौत (के सहम) से। जुरै = जुट गए, लड़ै, मुकाबला करे। काल = मौत, जम। काल पुरख = जम राज। मानु = अहंकार। मरदै = मल दे।1।
अर्थ: असल मुल्ला वह है जो अपने मन से मुकाबला करता है (भाव, मन को वश में करने का प्रयत्न करता है), गुरु के बताए हुए उपदेश पर चल के मौत (और सहम) का मुकाबला करता है, जो जम-राज का (यह) मान (कि सारा जगत उससे थर-थर काँपता है) नाश कर देता है। मैं ऐसे मुल्ला के आगे सदा सिर झुकाता हूँ।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

है हजूरि कत दूरि बतावहु ॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

है हजूरि कत दूरि बतावहु ॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूरि = कहीं सातवें आसमान पर। दुंदर = शोर मचाने वाले कामादिक।1। रहाउ।
अर्थ: (हे मुल्ला!) रब हर जगह हाजर-नाज़र है, तुम उसको दूर (किसी सातवें आसमान पर) क्यों (बैठा) बताते हो? अगर उस सुंदर रब को मिलना है, तो कामादिक शोर डालने वाले विकारों को काबू में रखो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजी सो जु काइआ बीचारै ॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै ॥ सुपनै बिंदु न देई झरना ॥ तिसु काजी कउ जरा न मरना ॥२॥

मूलम्

काजी सो जु काइआ बीचारै ॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै ॥ सुपनै बिंदु न देई झरना ॥ तिसु काजी कउ जरा न मरना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ की अगनी ब्रहम = काया की ब्राहमाग्नि, काया में प्रभु की ज्योति। ब्रहम अगनि = प्रभु की ज्योति। परजारै = अच्छी तरह रौशन करे। बिंदु = वीर्य। जरा = बुढ़ापा।2।
अर्थ: असली काज़ी वह है जो अपने शरीर को खोजे, शरीर में प्रभु की ज्योति को रौशन करे, सपने में भी काम की वासना मन में ना आने दे। ऐसे काज़ी को बुढ़ापे और मौत का डर नहीं रह जाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सुरतानु जु दुइ सर तानै ॥ बाहरि जाता भीतरि आनै ॥ गगन मंडल महि लसकरु करै ॥ सो सुरतानु छत्रु सिरि धरै ॥३॥

मूलम्

सो सुरतानु जु दुइ सर तानै ॥ बाहरि जाता भीतरि आनै ॥ गगन मंडल महि लसकरु करै ॥ सो सुरतानु छत्रु सिरि धरै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुरतानु = सुल्तान। दुइ सर = दो तीर (ज्ञान और वैराग)। आनै = लाए। गगन मंडल = दसवाँ द्वार में, दिमाग़ में, मन में। लसकरु = शुभ गुणों की फौज।3।
अर्थ: असल सुल्तान (बादशाह) वह है जो (ज्ञान और वैराग के) दो तीर तानता है, बाहरी दुनियाँ के पदार्थों की ओर भटकते मन को अंदर की ओर मोड़ लेता है, प्रभु-चरणों में जुड़ के अपने अंदर भले गुण पैदा करता है। वह सुल्तान अपने सिर पर (असल) छत्र झुलवाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोगी गोरखु गोरखु करै ॥ हिंदू राम नामु उचरै ॥ मुसलमान का एकु खुदाइ ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ ॥४॥३॥११॥

मूलम्

जोगी गोरखु गोरखु करै ॥ हिंदू राम नामु उचरै ॥ मुसलमान का एकु खुदाइ ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ ॥४॥३॥११॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘मुलां’ के दोनों अक्षर ‘म’ और ‘ल’ लेकर अर्थ किए गए हैं; ‘मन’ और ‘लरै’।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम नामु = मूर्ति में कल्पित श्री राम चंद्र जी का नाम। एकु = अपना।4।
अर्थ: जोगी (प्रभु को विसार के) गोरख-गोरख जपता है, हिन्दू (श्री रामचंद्र जी की मूर्ति में ही कल्पित) राम का नाम उचारता है, मुसलमान ने (सातवें आसमान में बैठा हुआ) निरा अपना (मुसलमानों का ही) रब मान रखा है। पर मेरा कबीर का प्रभु वह है, जो सबमें व्यापक है (और सबका सांझा है)।4।3।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के बंद नंबर 2 की तुकों को सामने रख के रामकली की वार महला ३ की पउड़ी नं: 12 के साथ दर्ज किया हुआ गुरु नानक देव जी का शलोक नंबर 5 पढ़ के देखो। एक तो तुकें ही सांझी हैं; दूसरे पखंडी आदि शब्दों का अर्थ करने में वही तरीका बरता है जो कबीर जी ने शब्द ‘मुलां’ आदि के लिए।
महला १॥ सो पाखंडी, जि काइआ पखाले॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले॥ सुपनै बिंदु न देई झरणा॥ तिसु पाखंडी जरा न मरणा॥४॥१२॥ (पन्ना ९५३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ जो पाथर कउ कहते देव ॥ ता की बिरथा होवै सेव ॥ जो पाथर की पांई पाइ ॥ तिस की घाल अजांई जाइ ॥१॥

मूलम्

महला ५ ॥ जो पाथर कउ कहते देव ॥ ता की बिरथा होवै सेव ॥ जो पाथर की पांई पाइ ॥ तिस की घाल अजांई जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पांई = पैरों पर। घाल = मेहनत।1।
अर्थ: जो मनुष्य पत्थर (की मूर्ति) को ईश्वर कहते हैं, उनकी की हुई सेवा व्यर्थ जाती है। जो मनुष्य पत्थर (की मूर्ति) के पैरों में नत्मस्तक होते हैं, उनकी मेहनत बेकार चली जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाकुरु हमरा सद बोलंता ॥ सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ठाकुरु हमरा सद बोलंता ॥ सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा।1। रहाउ।
अर्थ: हमारा ठाकुर सदा बोलता है, वह प्रभु सारे जीवों को दातें देने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि देउ न जानै अंधु ॥ भ्रम का मोहिआ पावै फंधु ॥ न पाथरु बोलै ना किछु देइ ॥ फोकट करम निहफल है सेव ॥२॥

मूलम्

अंतरि देउ न जानै अंधु ॥ भ्रम का मोहिआ पावै फंधु ॥ न पाथरु बोलै ना किछु देइ ॥ फोकट करम निहफल है सेव ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर बसता। देउ = प्रभु। अंधु = अंधा मनुष्य। फंधु = फंदा, जाल। फोकट = फोके।2।
अर्थ: अंधा मूर्ख अपने अंदर बसते रब को नहीं पहचानता, भ्रम का मारा हुआ और-और जाल बिछाता है। यह पत्थर ना बोलता है, ना कुछ दे सकता है, (इसको स्नान करवाने और भोग आदि लगवाने के) सारे काम व्यर्थ हैं, (इसकी सेवा में से कोई फल नहीं मिलता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे मिरतक कउ चंदनु चड़ावै ॥ उस ते कहहु कवन फल पावै ॥ जे मिरतक कउ बिसटा माहि रुलाई ॥ तां मिरतक का किआ घटि जाई ॥३॥

मूलम्

जे मिरतक कउ चंदनु चड़ावै ॥ उस ते कहहु कवन फल पावै ॥ जे मिरतक कउ बिसटा माहि रुलाई ॥ तां मिरतक का किआ घटि जाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: यदि कोई मनुष्य मुर्दे को चंदन (रगड़ के) लगा दे, उस मुर्दे को (इस सेवा का) कोई फल नहीं मिल सकता। और, यदि कोई मुर्दे को विष्टा में पलीत कर दे, तो भी उस मुर्दे का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर हउ कहउ पुकारि ॥ समझि देखु साकत गावार ॥ दूजै भाइ बहुतु घर गाले ॥ राम भगत है सदा सुखाले ॥४॥४॥१२॥

मूलम्

कहत कबीर हउ कहउ पुकारि ॥ समझि देखु साकत गावार ॥ दूजै भाइ बहुतु घर गाले ॥ राम भगत है सदा सुखाले ॥४॥४॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुकारि = पुकार के। साकत = हे साकत! दूजै भाइ = प्रभु को छोड़ के किसी और के प्यार में।4।
अर्थ: कबीर कहता है: मैं पुकार-पुकार के कहता हूँ ‘हे ईश्वर से टूटे हुए मूर्ख! समझ के देख, रब को छोड़ के औरों से प्यार डाल के बहुत सारे जीव तबाह हो गए। सदा सुखी जीवन वाले सिर्फ वही हैं जो प्रभु के भक्त हैं।4।4।12।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शीर्षक ‘महला ५’ बताता है कि यह शब्द गुरु अरजन देव जी का अपना उचारा हुआ है। ये अंदाजे लगाने के लिए हमारे पास गुरबाणी में से कोई ऐसा सबूत नहीं है कि सतिगुरु जी ने कबीर जी के किसी शब्द की अदला-बदली करके ये शब्द लिखा है। इतनी बड़ी गिनती में वाणी उचार सकने वाले सतिगुरु जी को कबीर जी के किसी एक शब्द का आसरा लेने के जरूरत नहीं हो सकती थी। ये शब्द पूरी तरह से सतिगुरु जी का अपना है, हमें इसके ऊपर लिखे ‘महला ५’ पर यकीन होना चाहिए। अगर ‘मिला-जुला’ शब्द होता, तो शीर्षक में ये बात लिखी हुई होती, जैसे गउड़ी राग में कबीर जी के 14वें शब्द का शीर्षक इस प्रकार है: ‘गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५’। वह शब्द मिला-जुला है, और उसकी आखिरी दो तुकें गुरु अरजन साहिब जी की हैं।
फिर, इस शब्द की यहाँ क्या आवश्यक्ता पड़ी?
कबीर जी का शब्द नंबर 11 ध्यान से पढ़ के देखें। सारे शब्द में मुलां काज़ी आदि का ही जिक्र है, और बड़ा ही स्पष्ट और खुला जिक्र है। आखिरी बंद में हिन्दू का इशारे मात्र के लिए जिकर है। लिखा है ‘हिंदू राम नामु उचरै’। विचार को अच्छी तरह से स्पष्ट नहीं किया गया है। चाहे कबीर जी ने आखिरी तुक में अपना आशय प्रकट कर दिया है ‘कबीर का सुआमी रहिआ समाइ’। फिर भी अंजान पाठक को भुलेखा पड़ सकता है।
इसी भुलेखे की गुंजायश को दूर करने के लिए सतिगुरु अरजन देव जी ने स्पष्ट लिख दिया है कि उस तुक (‘हिंदू राम नामु उचरै’) से कबीर जी का भाव ‘रामचंद्र जी की मूर्ति’ से है। किसी एक मूर्ति में ईश्वर को बैठा मिथ लेना भूल है।
नोट: गुरु अरजन देव जी ने भी शब्द ‘राम’ ही बरता है ‘राम भक्त है सदा सुखाले’; कबीर जी ने भी ‘हिंदू राम नामु उचरै’ में शब्द ‘राम’ ही बरता है। पर सतिगुरु जी ने ‘कबीर का सुआमी रहिआ समाइ’ में इशारे मात्र बताई बात को अपने इस शब्द में विस्तार से समझा दिया है कि हिन्दू तो श्री राम चंद्र जी की मूर्ति की पूजा करते हुए ‘राम-राम’ कहते हैं, पर कबीर जी उस ‘राम’ को स्मरण करते हैं जो ‘रहिआ समाइ’ और जो ‘सरब जीआ कउ दानु देता’।
यह शब्द तो सतिगुरु जी का अपना उचारा हुआ है। पर इसके आखिर में ‘नानक’ की जगह शब्द ‘कबीर’ बरता गया है, क्योंकि ये शब्द कबीर जी के शब्द नं: 11 के प्रथाय ही उचारने की आवश्यक्ता पड़ी थी। इस बात को और गहराई से समझने के लिए मेरी पुस्तक ‘गुरमति प्रकाश’ में पढ़ें ‘धंने भक्त दी ठाकुर पूजा’ और ‘सूरदास’। (सिंघ ब्रदर्ज, अमृतसर से मिलेगी)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल महि मीन माइआ के बेधे ॥ दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥ काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥ भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥

मूलम्

जल महि मीन माइआ के बेधे ॥ दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥ काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥ भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीन = मछलियां। बेधे = भेदे हुए। दीपक = दीए। पतंग = पतंगे। कुंचर = हाथी। बिआपै = दबाव डाल लेती है। भुइअंगम = साँप। भ्रिंग = भौरे। खापे = खपे हुए।1।
अर्थ: पानी में रहने वाली मछलियाँ माया में भेदी हुई हैं, दीयों पर (जलने वाले) पतंगे माया में परोए हुए हैं। काम-वासना रूपी माया हाथी को अपने वश में किए रखती है; साँप और भौरे भी माया में दुखी हो रहे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥ जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥ जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डहकाई = भरमाती है, भटकना में डालती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! माया इतनी बलवान, मोहने वाली है कि जितने भी जीव (जगत में) हैं,? सब को डोला देती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥ साकर माखी अधिक संतापे ॥ तुरे उसट माइआ महि भेला ॥ सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥

मूलम्

पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥ साकर माखी अधिक संतापे ॥ तुरे उसट माइआ महि भेला ॥ सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिग = जंगल के पशू। साकर = शक्कर, मीठा। संतापे = दुख देती है। तुरे = घोड़े। उसट = ऊँठ। भेला = घिरे हुए, ग्रसे हुए।2।
अर्थ: पंछी, जंगल के पशू सब माया में रंगे पड़े हैं। शक्कर-रूपी माया मक्खी को बड़ा दुखी कर रही है। घोड़े-ऊँठ सब माया में फसे हुए हैं। चौरासी सिध भी माया में खेल रहे हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिअ जती माइआ के बंदा ॥ नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥ तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥ माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥

मूलम्

छिअ जती माइआ के बंदा ॥ नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥ तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥ माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छिअ जती = छह जती (हनूमान, भीष्म पितामह, लक्ष्मण, भैरव, गोरख, दक्तात्रैय)। बंदा = गुलाम। रखीसर = बड़े बड़े ऋषि।3।
अर्थ: जती भी माया के ही गुलाम हैं। नौ नाथ सूरज (देवता) और चंद्रमा (देवता) बड़े-बड़े तपी और ऋषि सब माया में सोए पड़े हैं। मौत (का सहम) और पाँचों विकार भी माया में ही (जीवों को व्यापते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुआन सिआल माइआ महि राता ॥ बंतर चीते अरु सिंघाता ॥ मांजार गाडर अरु लूबरा ॥ बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥

मूलम्

सुआन सिआल माइआ महि राता ॥ बंतर चीते अरु सिंघाता ॥ मांजार गाडर अरु लूबरा ॥ बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिआल = सिआर, गीदड़। बंतर = बंदर। माजार = बिल्ले। गाडर = भेड़ें।4।
अर्थ: कुत्ते, गीदड़, बंदर, चीते, शेर सब माया में रंगे हुए हैं। बिल्ले, भेड़ें, लोमड़ी, वृक्ष, कंद-मूल सब माया के अधीन हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ अंतरि भीने देव ॥ सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥ कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥ तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥

मूलम्

माइआ अंतरि भीने देव ॥ सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥ कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥ तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागर = समुंदर (में बसते जीव)। इंद्रा = इन्द्र (-पुरी, भाव, स्वर्ग में रहने वाले देवते आदि)। धरतेव = धरती (के जीव)। उदरु = पेट।5।
अर्थ: देवतागण भी माया (के मोह) में भीगे हुए हैं। समुंदर, स्वर्ग, धरती इन सबके जीव भी माया में ही हैं। कबीर कहता है: (सिरे की बात यह है कि) जिसके भी पेट लगा हुआ है उसको (भाव, हरेक जीव को) माया व्याप रही है। जब गुरु मिले तब ही जीव माया के प्रभाव से बचता है।5।5।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु मेरी मेरी करै ॥ तब लगु काजु एकु नही सरै ॥ जब मेरी मेरी मिटि जाइ ॥ तब प्रभ काजु सवारहि आइ ॥१॥

मूलम्

जब लगु मेरी मेरी करै ॥ तब लगु काजु एकु नही सरै ॥ जब मेरी मेरी मिटि जाइ ॥ तब प्रभ काजु सवारहि आइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नही सरै = सिरे नहीं चढ़ता, सफल नहीं होता।1।
अर्थ: जब तक मनुष्य ममता के चक्कर में रहता है, तब तक इसके (आत्मिक जीवन का) एक भी काम नहीं सँवरता। जब इसकी ममता मिट जाती है तब प्रभु जी (इसके हृदय में) बस के जीवन का लक्ष्य पूरा कर देते हैं।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा गिआनु बिचारु मना ॥ हरि की न सिमरहु दुख भंजना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा गिआनु बिचारु मना ॥ हरि की न सिमरहु दुख भंजना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: की न = क्यों नहीं? दुख भंजना हरि = दुखों का नाश करने वाला प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सब दुखों का नाश करने वाले प्रभु को क्यों नहीं स्मरण करता? हे मन! कोई ऐसी ऊँची समझ की बात सोच (जिससे तू नाम-जपने की ओर पलट सके)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु सिंघु रहै बन माहि ॥ तब लगु बनु फूलै ही नाहि ॥ जब ही सिआरु सिंघ कउ खाइ ॥ फूलि रही सगली बनराइ ॥२॥

मूलम्

जब लगु सिंघु रहै बन माहि ॥ तब लगु बनु फूलै ही नाहि ॥ जब ही सिआरु सिंघ कउ खाइ ॥ फूलि रही सगली बनराइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिंघु = (अहंकार) शेर। बन = हृदय रूप जंगल। सिआरु = निम्रता रूप गीदड़।2।
अर्थ: जब तक हृदय-रूपी जंगल में अहंकार-शेर रहता है तब तक ये हृदय-फुलवाड़ी खिलती नहीं (हृदय में कोमल गुण उघड़ते नहीं)। पर, जब (नम्रता रूप) गीदड़ (अहंकार-) शेर को खा जाता है, तब (हृदय की सारी) बनस्पति को बहार आ जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीतो बूडै हारो तिरै ॥ गुर परसादी पारि उतरै ॥ दासु कबीरु कहै समझाइ ॥ केवल राम रहहु लिव लाइ ॥३॥६॥१४॥

मूलम्

जीतो बूडै हारो तिरै ॥ गुर परसादी पारि उतरै ॥ दासु कबीरु कहै समझाइ ॥ केवल राम रहहु लिव लाइ ॥३॥६॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूडै = डूब जाता है। तिरै = तैरता है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘दासु कबीरु’’ ‘दास’ हिन्दू बोली का शब्द है, मुसलमान ये शब्द नहीं प्रयोग करते। कबीर जी हिन्दू घर में जन्मे-पले थे, मुसलमान नहीं थे।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य (किसी अहंकार में आ के) यह समझता है कि मैंने बाज़ी जीत ली है, वह संसार समुंदर में डूब जाता है। पर जो मनुष्य गरीबी स्वभाव में चलता है, वह तैर जाता है वह अपने गुरु की मेहर से पार लांघ जाता है। सेवक कबीर समझा के कहता है: हे भाई! सिर्फ परमात्मा के चरणों में मन जोड़े रखो।3।6।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतरि सैइ सलार है जा के ॥ सवा लाखु पैकाबर ता के ॥ सेख जु कहीअहि कोटि अठासी ॥ छपन कोटि जा के खेल खासी ॥१॥

मूलम्

सतरि सैइ सलार है जा के ॥ सवा लाखु पैकाबर ता के ॥ सेख जु कहीअहि कोटि अठासी ॥ छपन कोटि जा के खेल खासी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतरि सैइ सलार = सात हजार फरिश्ते जिनको खुदा ने ज़बराईल फरिश्ते के साथ हज़रत मुहम्मद साहिब के पास बड़ी आयत पहुँचाने के लिए भेजा था। खेल खासी = खास खेल, हाज़र वाश, मुसाहिब। सेख = शेख, बुजुर्ग, विद्वान।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस खुदा के सात हजार फरिश्ते (जैसा कि तू बताता है), उसके सवा लाख पैग़ंबर (तू कहता है), अठासी करोड़ उसके (दर पर रहने वाले) बुजुर्ग आलिम शेख कहे जा रहे हैं, और छप्पन करोड़ जिसके मुसाहिब (तू बताता है, उसके दरबार तक)।1।;

विश्वास-प्रस्तुतिः

मो गरीब की को गुजरावै ॥ मजलसि दूरि महलु को पावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मो गरीब की को गुजरावै ॥ मजलसि दूरि महलु को पावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मजलसि = दरबार। दूरि = (भाव,) सातवें आसमान पर। को = कौन?।1। रहाउ।
अर्थ: मेरी ग़रीब की अर्ज कौन पहुँचाएगा? (फिर तू कहता है कि उसका) दरबार दूर (सातवें आसमान पर) है। (मैं तो गरीब जुलाहा हूँ, उसका) घर (मेरा) कौन ढूँढेगा?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेतीस करोड़ी है खेल खाना ॥ चउरासी लख फिरै दिवानां ॥ बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ॥ उनि भी भिसति घनेरी पाई ॥२॥

मूलम्

तेतीस करोड़ी है खेल खाना ॥ चउरासी लख फिरै दिवानां ॥ बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ॥ उनि भी भिसति घनेरी पाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेल = ख़ौल, आदमियों का गिरोह। दिवाना = खाना बदोश। खेल खाना = (ख़ैल ख़ानह) घर में रहने वाले सेवक। किछु नदरि दिखाई = थोड़ी सी आँखें दिखाई। उनि = उस आदम ने। घनेरी = थोड़े ही समय के लिए। भिसति घनेरी पाई = बहिश्त में से जल्दी ही निकाला गया।2।
अर्थ: (बैकुंठ की बाते बताने वाले भी कहते हैं कि) तैतीस करोड़ देवते उसके सेवक हैं (उन्होंने ने भी मेरी कहाँ सुननी है?) चौरासी लाख जूनियों के जीव (उससे टूट के) झल्ले हुए फिरते हैं। (हे भाई! तुम बताते हो कि खुदा ने बाबा आदम को बहिश्त में रखा था, पर, तुम्हारे ही कहने के मुताबिक) जब बाबा आदम को रब ने (उसकी हुक्म-अदूली पर, आज्ञा ना मानने पर) थोड़ी सी आँख दिखाई, तो वह आदम भी बहिश्त में थोड़ा समय ही रह पाया (वहाँ से जल्दी ही निकाल दिया गया, और जो बाबा आदम जैसे निकाल दिए गए, तो बताओ, मुझ गरीब को वहाँ कोई कितना वक्त रहने देगा?)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिल खलहलु जा कै जरद रू बानी ॥ छोडि कतेब करै सैतानी ॥ दुनीआ दोसु रोसु है लोई ॥ अपना कीआ पावै सोई ॥३॥

मूलम्

दिल खलहलु जा कै जरद रू बानी ॥ छोडि कतेब करै सैतानी ॥ दुनीआ दोसु रोसु है लोई ॥ अपना कीआ पावै सोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खलहलु = खलबली, घबराहट, गड़बड़। जा कै दिल = जिस मनुष्य के दिल में। जरद = ज़र्द, पीला। रू = मुँह। बानी = वंन, रंगत। लोई = जगत। रोसु = गुस्सा।3।
अर्थ: (हे भाई!) जो भी मनुष्य अपनी धर्म-पुस्तकों (के बताए हुए राह) को छोड़ के गलत रास्ते पर चलता है, जिसके भी दिल में (विकारों की) गडबड़ है, उसके मुँह की रंगत पीली पड़ जाती है (भाव, वह ही प्रभु-दर से धकेला जाता है); मनुष्य अपना किया आप ही पाता है, पर (अंजान-पने में) दुनिया को दोष देता है, जगत पर गुस्सा करता है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: चुँकि किसी मुसलमान के साथ चर्चा हो रही है, इस वास्ते धर्म-पुस्तकों के लिए शब्द ‘कतेब’ बरता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम दाते हम सदा भिखारी ॥ देउ जबाबु होइ बजगारी ॥ दासु कबीरु तेरी पनह समानां ॥ भिसतु नजीकि राखु रहमाना ॥४॥७॥१५॥

मूलम्

तुम दाते हम सदा भिखारी ॥ देउ जबाबु होइ बजगारी ॥ दासु कबीरु तेरी पनह समानां ॥ भिसतु नजीकि राखु रहमाना ॥४॥७॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भिखारी = भिखारी। देउ = देऊँ, (यदि) मैं दूं। जबाबु = उक्तर, ना नुकर। देउ जबाबु = (जो कुछ, हे प्रभु! तू देता है, उसके आगे) यदि मैं ना नुकर करूँ। बजगारी = गुनाहगारी। पनह = पनाह, ओट, आसरा। नजीकि = (अपने) नजदीक। भिसतु = (यही है मेरा) बहिश्त।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: संबंधक ‘नजीकि’ का शब्द ‘भिसतु’ के साथ कोई संबंध नहीं है। अगर होता, तो उसके आखिर में ‘ु’ मात्रा ना रह जाती। फिर उसका रूप यूँ होना था– ‘भिसत नजीकि’)।

दर्पण-भाषार्थ

रहमाना = हे रहम करने वाले!।4।
अर्थ: (हे मेरे प्रभु! मुझे किसी बहिश्त व बैकुंठ की आवश्यक्ता नहीं है) तू मेरा दाता है, मैं सदा (तेरे दर का) भिखारी हूँ (जो कुछ तू मुझे दे रहा है वही ठीक है, तेरी किसी भी दाति के आगे) अगर मैं ना-नुकर करूँ तो यह मेरी गुनहगारी होगी। मैं तेरा दास कबीर तेरी शरण में आया हूँ। हे रहम करने वाले! मुझे अपने चरणों के नजदीक रख, (यही मेरे लिए) बहिश्त है।4।7।15।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द को ध्यान से पढ़ने से ऐसा लगता है जैसे कोई मुसलमान मनुष्य कबीर जी को मुसलमान बनने के लिए प्रेरित कर रहा है, और कहता है कि मुसलमान बनने से बहिश्त मिलेगा। अपने खुदा की प्रतिभा भी वह बताता है कि उसके सात हजार फरिश्ते हैं, सवा लाख पैग़ंबर हैं, इत्यादिक; वह ख़ुदा सातवें आसमान पर रहता है। कबीर जी इस शब्द में उक्तर देते हैं कि मैं एक गरीब जुलाहा हूँ, मुसलमान बन के भी मैंने गरीब ही रहना है। तुम अपने खुदा का दरबार सातवें आसमान पर बता रहे हो; मुझ गरीब की वहाँ किसी ने भी सिफारिश नहीं पहुँचानी और ना ही मैं इतनी दूर तक पहुँच सकूँगा। प्रभु-चरणों में जुड़े रहना ही मेरे लिए बहिश्त है।
नोट: शब्द ‘दास’ का प्रयोग बताता है कि कबीर जी हिन्दू घर में जन्मे-पले थे, मुसलमान नहीं थे।
नोट: इस शब्द में मुसलमानों के निहित हुए बहिश्त को रद्द कर के अगले शब्द में हिन्दुओं के कल्पित बैकुंठ का वर्णन करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु कोई चलन कहत है ऊहां ॥ ना जानउ बैकुंठु है कहां ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सभु कोई चलन कहत है ऊहां ॥ ना जानउ बैकुंठु है कहां ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु कोई = हर कोई, हरेक बंदा। ऊहां = उस बैकुंठ में। ना जानउ = मैं नहीं जानता, मुझे तो पता नहीं। कहा = कहाँ?।1। रहाउ।
अर्थ: हर कोई कह रहा है कि मैंने उस बैकुंठ में पहुँचना है। पर मुझे समझ नहीं आई, (इनका वह) बैकुंठ कहाँ है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आप आप का मरमु न जानां ॥ बातन ही बैकुंठु बखानां ॥१॥

मूलम्

आप आप का मरमु न जानां ॥ बातन ही बैकुंठु बखानां ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरमु = भेद। बातन ही = निरी बातों से। बखानां = बयान कर रहे हैं।1।
अर्थ: (इन लोगों ने) अपने आप का तो भेद नहीं पाया, निरी बातों से ही ‘बैकुंठ’ कह रहे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु मन बैकुंठ की आस ॥ तब लगु नाही चरन निवास ॥२॥

मूलम्

जब लगु मन बैकुंठ की आस ॥ तब लगु नाही चरन निवास ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन!।2।
अर्थ: हे मन! जब तक तेरी बैकुंठ पहुँचने की उम्मीदें हैं, तब तक प्रभु के चरणों में निवास नहीं हो सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खाई कोटु न परल पगारा ॥ ना जानउ बैकुंठ दुआरा ॥३॥

मूलम्

खाई कोटु न परल पगारा ॥ ना जानउ बैकुंठ दुआरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाई = किले के चारों तरफ चौड़ी गहरी खाई जो किले की रक्षा के लिए पानी से भरी रखी जाती है। कोटु = किला। परल = (सं: पल्ल। a large granary. पल्लि = a town a city) शहर। पगारा = (सं: प्राकार = a rampart) फसील, शहर की बड़ी चार दीवारी।3।
अर्थ: मुझे तो पता नहीं (इन लोगों के) बैकुंठ का दरवाजा कैसा है, किस तरह का शहर है, कैसी उसकी फसील है, और किस तरह की उसके चारों तरफ की खाई है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कमीर अब कहीऐ काहि ॥ साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥८॥१६॥

मूलम्

कहि कमीर अब कहीऐ काहि ॥ साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥८॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कमीर = कबीर। काहि = किस को? आहि = है।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (ये लोग समझते नहीं कि आगे कहीं बैकुंठ नहीं है) अब किसे कहें कि साधु-संगत ही बैकुंठ है? (और वह बैकुंठ यहीं है)।4।8।16।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कई सज्जन ‘परलप गारा’ पाठ करके अर्थ करते हैं ‘गारे से अच्छी तरह से लीपा हुआ’। पर यह जचता नहीं है। किले को गारे से लीपने में कोई खूबसूरती नहीं लगती। लोगों का मिथा हुआ बैकुंठ एक सुंदर सोहाना शहर होना चाहिए, गारे से लिपे हुए कच्चे कोठे तो धरती पर भी कंगाल लोगों के ही हैं। वह बैकुंठ भी कैसा जहाँ कच्चे कोठे होंगे?

विश्वास-प्रस्तुतिः

किउ लीजै गढु बंका भाई ॥ दोवर कोट अरु तेवर खाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किउ लीजै गढु बंका भाई ॥ दोवर कोट अरु तेवर खाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ लीजै = कैसे जीता जाए? काबू करना बड़ा मुश्किल है। गढु = गढ़, किला। बंका = पक्का। भाई = हे भाई! दोवर कोट = द्वैत की दोहरी दीवार (फसील)। तेवर खाई = तीन गुणों की तेवर खाई। खाई = गहरी और चौड़ी खाली जगह जो किले की हिफाजत के लिए होती है, और पानी के साथ भरी रहती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! यह (शरीर-रूप) पक्का किला काबू करना बहुत मुश्किल है। इसे चारों तरफ द्वैत की दोहरी दीवार और तीन गुणों की तिहरी खाई है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांच पचीस मोह मद मतसर आडी परबल माइआ ॥ जन गरीब को जोरु न पहुचै कहा करउ रघुराइआ ॥१॥

मूलम्

पांच पचीस मोह मद मतसर आडी परबल माइआ ॥ जन गरीब को जोरु न पहुचै कहा करउ रघुराइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पांच = पाँच (कामादिक)। पचीस = सांख मत के माने हुए 25 तत्व। मद = अहंकार का नशा। मतसर = ईष्या। आडी = आड़, छही, जिसका आसरा ले के फौजें लड़ती हैं।1।
अर्थ: बलशाली माया का आसरा ले के पाँच कामादिक, पचीस तत्व, मोह, अहंकार, ईष्या (की फौज लड़ने को तैयार है)। हे प्रभु! मेरी गरीब की कोई पेश नहीं चलती, (बताओ,) मैं क्या करूँ?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामु किवारी दुखु सुखु दरवानी पापु पुंनु दरवाजा ॥ क्रोधु प्रधानु महा बड दुंदर तह मनु मावासी राजा ॥२॥

मूलम्

कामु किवारी दुखु सुखु दरवानी पापु पुंनु दरवाजा ॥ क्रोधु प्रधानु महा बड दुंदर तह मनु मावासी राजा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किवारी = किवाड़ का रखवाला, किवाड़ खोलने वाला। दरवानी = पहरेदार। दुंदर = धुरंधर, लड़ाका, झगड़ालू। तह = उस किले में। मावासी = आकी।2।
अर्थ: काम (इस किले के) दरवाजे का मालिक है, दुख और सुख पहरेदार हैं, पाप और पुण्य (किले के) दरवाजे हैं, बड़ा ही झगड़ालू क्रोध (किले का) चौधरी है। ऐसे किले में मन राजा आकी हो के बैठा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाद सनाह टोपु ममता को कुबुधि कमान चढाई ॥ तिसना तीर रहे घट भीतरि इउ गढु लीओ न जाई ॥३॥

मूलम्

स्वाद सनाह टोपु ममता को कुबुधि कमान चढाई ॥ तिसना तीर रहे घट भीतरि इउ गढु लीओ न जाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सनाह = ज़िरह बकतर, संजोअ, लोहे की जाली की पोशाक जो जंग के समय पहनी जाती है। ममता = अपनत्व। कुबुधि = खोटी मति। चढाई = तानी हुई है। तिसना = तृष्णा, लालच। घट भीतरि = हृदय में।3।
अर्थ: (जीभ के) चस्के (मन राजे ने) संजोअ (पहनी हुई है), ममता का टोप (पहना हुआ है), दुर्मति की कमान कसी हुई है, तृष्णा के तीर अंदर ही अंदर कसे हुए हैं। ऐसा किला (मुझसे) जीता नहीं जा सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम पलीता सुरति हवाई गोला गिआनु चलाइआ ॥ ब्रहम अगनि सहजे परजाली एकहि चोट सिझाइआ ॥४॥

मूलम्

प्रेम पलीता सुरति हवाई गोला गिआनु चलाइआ ॥ ब्रहम अगनि सहजे परजाली एकहि चोट सिझाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहम अगनि = रूहानी ज्योति। सहजे = सहज अवस्था में (पहुँच के)। परजाली = अच्छी तरह जलाई।4।
अर्थ: (पर जब मैंने प्रभु-चरणों के) प्रेम का पलीता लगाया, (प्रभु-चरणों में जुड़ी) तवज्जो को हवाई बनाया, (गुरु के बख्शे) ज्ञान का गोला चलाया, सहज अवस्था में पहुँच के अंदर ईश्वरीय-ज्योति जलाई, तो एक ही चोट से कामयाबी हो गई।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा ॥ साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा ॥५॥

मूलम्

सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा ॥ साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुइ = दोनों।5।
अर्थ: सत और संतोष को ले के मैंने काल के फंदे, दुनियां के डरों के फंदे, काट डाले हैं। सतगुरु व सत्संग की मेहर से मैंने क़िले का बाग़ी राजा पकड़ लिया है।5।

[[1162]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवत भीरि सकति सिमरन की कटी काल भै फासी ॥ दासु कमीरु चड़्हिओ गड़्ह ऊपरि राजु लीओ अबिनासी ॥६॥९॥१७॥

मूलम्

भगवत भीरि सकति सिमरन की कटी काल भै फासी ॥ दासु कमीरु चड़्हिओ गड़्ह ऊपरि राजु लीओ अबिनासी ॥६॥९॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगवत भीरि = भगवान का स्मरण करने वालों की भीड़, साधु-संगत। सकति = ताकत। अबनासी = नाश ना होने वाला।6।
अर्थ: प्रभु का दास कबीर अब किले के ऊपर चढ़ बैठा है (शरीर को वश में कर चुका है), और कभी ना नाश होने वाली आत्मिक बादशाहियत हासिल कर चुका है।6।9।17।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पचीस = साँख मत के माने हुए 25 तत्व:
♦ प्रक्रिति (प्रकृति, कुदरत जिससे सब वस्तुएं बनी हैं और जो खुद किसी से नहीं बनी और जो सत-रज-तम तीन गुणों की सम अवस्था रूप है)।
♦ महतत्व (यह तत्व शरीर में बुद्धि के रूप में टिका हुआ है; प्रकृति में हिलजुल के कारण यह तत्व पैदा हुआ)।
♦ अहंकार (जिसका रूप ‘अहम्’ है)।
♦ से 8. पाँच तनमात्र (रूप, रस, गंध, स्पर्ष, शब्द)। (तनमात्र = साँख मत के अनुसार पाँच तत्वों का आदि रूप जिनमें कोई मिलावट ना हुई हो– रूप, रस, गंध, स्पर्ष, शब्द। साँख अनुसार प्रकृति से महतत्व पैदा हुआ, महतत्व से अहंकार और अहंकार से 16 पदार्थ– पाँच ज्ञान-इंद्रिय, कर्म इन्द्रियाँ, पाँच तनमात्र और एक मन।)
♦ से 19. ज्ञान-इंद्रिय– पाँच ज्ञान-इंद्रिय, पाँच कर्म इंद्रिय, एक मन।
♦ से 24. पंच महा भूत– पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश।
♦ पुरुष (चेतन शक्ति)
साँख अनुसार जगत नित्य है, परिणाम-रूप प्रवाह के साथ सदा बदलता रहता है। प्रकृति को पुरुष की, पुरुष को प्रकृति की सहायता की आवश्यक्ता रहती है। एकेले दोनों ही निष्फल हैं। जीवात्मा हरेक शरीर में अलग-अलग हैं।
बुद्धि, अहंकार, ग्यारह इन्द्रियाँ, पाँच तनमात्र– इन अठारहों का समुदाय सूक्ष्म शरीर है। यही सूक्ष्म शरीर कर्म और ज्ञान का आसरा है। स्थूल शरीर के नाश होने से इसका नाश नहीं होता। कर्म और ज्ञान वासना का प्रेरित हुआ सूक्ष्म शरीर एक स्थूल शरीर में से निकल के दूसरे में जा के प्रवेश करता है। प्रलय तक इसका नाश नहीं होता। प्रलय के समय यह प्रकृति में लीन हो जाता है। सृष्टि की उत्पक्ति के समय फिर नए सिरे से पैदा हो जाता है।
जब पुरुष विवेक से अपने आप को प्रकृति और उसके कामों से अलग देखता है, तब बुद्धि के कारण प्राप्त हुए संतापों से दुखी नहीं होता इस भिन्नता का नाम मुक्ति है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर ॥ जंजीर बांधि करि खरे कबीर ॥१॥

मूलम्

गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर ॥ जंजीर बांधि करि खरे कबीर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुसाइनि = जगत की माता। गोसाई = जगत का मालिक।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘गोसाई’ से ‘गुसाइन’ स्त्रीलिंग है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (ये विरोधी लोग) मुझे कबीर को जंजीरों से बाँध के गहरी गंभीर गंगा माता में (डुबोने के लिए) ले गए (भाव, उस गंगा में ले गए जिसको ये ‘माता’ कहते हैं और उस माता से जान से मरवाने का अपराध करवाने लगे)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ ॥ चरन कमल चितु रहिओ समाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ ॥ चरन कमल चितु रहिओ समाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहिर = गहरी। खरे = ले गए। डिगै = डोलता। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य का मन प्रभु के सुंदर चरणों में लीन रहे, उसका मन (किसी कष्ट के समय) डोलता नहीं, उसके शरीर को (कष्ट दे दे के) डराने का कोई लाभ नहीं हो सकता। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥ म्रिगछाला पर बैठे कबीर ॥२॥

मूलम्

गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥ म्रिगछाला पर बैठे कबीर ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिगछाला = मृग छाला, हिरन की खाल।2।
अर्थ: (पर डूबने की बजाए) गंगा की लहरों से मेरी जंजीर टूट गई, मैं कबीर (उस जल पर इस प्रकार तैरने लग पड़ा जैसे) मृगछाला पर बैठा हुआ हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि क्मबीर कोऊ संग न साथ ॥ जल थल राखन है रघुनाथ ॥३॥१०॥१८॥

मूलम्

कहि क्मबीर कोऊ संग न साथ ॥ जल थल राखन है रघुनाथ ॥३॥१०॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रघुनाथ = परमात्मा।3।
अर्थ: कबीर कहता है: (हे भाई! तुम्हारे निहित हुए कर्मकांड व तीर्थ स्नान) कोई भी संगी नहीं बन सकते, कोई भी साथी नहीं हो सकते। पानी और धरती हर जगह एक परमात्मा ही रखने-योग्य है।3।10।18।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी सारी उम्र धार्मिक ज़ाहरदारी, भेख, कर्मकांड आदि को व्यर्थ कहते रहे। हिन्दूऔं के गढ़ बानारस में रहते हुए भी ये लोगों से नहीं डरे। यह कुदरती बात थी कि ऊँची जाति के लोग इनके विरोध बन जाते। उनकी तरफ से आए किसी कष्ट का इस शब्द में वर्णन है, और फरमाते हैं कि जो मनुष्य प्रभु चरणों में जुड़ा रहे वह किसी मुसीबत में डोलता नहीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ कबीर जीउ असटपदी घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ कबीर जीउ असटपदी घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥ जा महि जोति करे परगास ॥ बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥ जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥

मूलम्

अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥ जा महि जोति करे परगास ॥ बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥ जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अ+गम, जिस तक पहुँच ना हो सके। द्रुगम = दुर+गम, जिस तक पहुँचना मुश्किल हो। गढ़ि = किले में। बास = बसेरा। जा महि = जिस (मनुष्य के हृदय) में। जिह पउढ़े = जिस ठिकाने में, जिस हृदय में।1।
अर्थ: (नाम जपने की इनायत से) जिस हृदय में बाल-स्वभाव प्रभु गोबिंद आ बसता है, जिस मनुष्य के अंदर प्रभु अपनी ज्योति की रौशनी करता है उसके अंदर, मानो, बिजली चमक उठती है, वहाँ सदा खिड़ाव ही खिड़ाव हो जाता है, वह मनुष्य एक ऐसे किले में बसेरा बना लेता है जहाँ (विकार आदि की) पहुँच नहीं हो सकती, जहाँ (विकारों का) पहुँचना बहुत मुश्किल होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥ जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥ जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जीव। जरा = बुढ़ापा। मरनु = मौत। भ्रमु = भटकना।1। रहाउ।
अर्थ: (जब) यह जीव परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ता है, तो इसका बुढ़ापा (बुढ़ापे का डर) समाप्त हो जाता है, मौत (का सहम) समाप्त हो जाता है और भटकना दूर हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥ हउमै गावनि गावहि गीत ॥ अनहद सबद होत झुनकार ॥ जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥

मूलम्

अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥ हउमै गावनि गावहि गीत ॥ अनहद सबद होत झुनकार ॥ जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अबरन बरन सिउ = नीच और ऊँची जाति से। अबरन = नीच जाति। सिउ = साथ। हउमै गीत गावनि = सदा अहंकार की बातें करते रहते हैं। अनहद = एक रस। झुनकार = सुंदर राग।2।
अर्थ: पर, जिस मनुष्यों के मन में इसी ख्याल की लगन है कि फलाना नीच जाति का फलाना उच्च जाति का है, वे सदा अहंकार भरी बातें करते रहते हैं।
जिस हृदय में श्री गोपाल प्रभु जी बसते हैं, वहाँ प्रभु की महिमा का एक रस, मानो, राग होता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खंडल मंडल मंडल मंडा ॥ त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥ अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥ पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥

मूलम्

खंडल मंडल मंडल मंडा ॥ त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥ अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥ पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंडा = बनाए हैं। त्रिअ असथान = तीनों भवन। अभ अंत = (‘राम राम’ के साथ ‘लिव’ लगाने वाले) हृदय में। अभ = हृदय। अंत = अंतरि। धरनीधर मंत = धरती के आसरे प्रभु के भेद का।3।
अर्थ: जो प्रभु सारे खंडों का, मंडलों का सृजन करने वाला है, जो (फिर) तीनों भवनों का, तीन गुणों का नाश करने वाला भी है, जिस तक मनुष्य की इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, वह प्रभु उस मनुष्य के हृदय में बसता है (जिसने परमात्मा के नाम के साथ लगन लगाई हुई है)। पर, कोई जीव धरती-के-आसरे उस प्रभु के भेद का अंत नहीं पा सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदली पुहप धूप परगास ॥ रज पंकज महि लीओ निवास ॥ दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥ जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥

मूलम्

कदली पुहप धूप परगास ॥ रज पंकज महि लीओ निवास ॥ दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥ जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कदली = केला। पुहप = फूल। धूप = सुगंधि। रज = मकरंद, फूल के अंदर की धूल। पंकज = कमल फूल। (पंक = कीचड़। ज = पैदा हुआ। कीचड़ में उगा हुआ)। दुआदस दल अभ = बारह पक्तियों वाला (कमल फूल रूपी) हृदय, पूरी तौर पर खिला हृदय। दुआदस = बारह। दल = पक्तियां। कमला कंत = लक्ष्मी का पति, परमात्मा।4।
अर्थ: (नाम-जपने की इनायत से) जिस हृदय में माया-का-पति प्रभु आ बसता है उस मनुष्य के पूरी तौर पर खिले हुए हृदय में प्रभु का मंत्र इस प्रकार बस जाता है जैसे केले के फूलों में सुगंधि का वास होता है, जैसे कमल-फूल में मकरंद आ निवास करता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरध उरध मुखि लागो कासु ॥ सुंन मंडल महि करि परगासु ॥ ऊहां सूरज नाही चंद ॥ आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥

मूलम्

अरध उरध मुखि लागो कासु ॥ सुंन मंडल महि करि परगासु ॥ ऊहां सूरज नाही चंद ॥ आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरध = नीचे। उरध = ऊपर। मुखि लागो = दिखता है। कास = प्रकाश, रोशनी।5।
अर्थ: (जो मनुष्य प्रभु के नाम में लगन लगाता है) उसको आकाश-पाताल हर जगह प्रभु का ही प्रकाश दिखाई देता है, उसकी अफुर समाधि में (भाव, उसके टिके हुए मन में) परमात्मा अपनी रौशनी करता है (इतनी रौशनी कि) सूरज और चँद्रमा का प्रकाश उसकी बराबरी नहीं कर सकता (वह रोशनी सूरज और चाँद जैसी नहीं है)। सारे जगत का मूल माया-रहित प्रभु उसके हृदय में उमाह पैदा करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥ मान सरोवरि करि इसनानु ॥ सोहं सो जा कउ है जाप ॥ जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥

मूलम्

सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥ मान सरोवरि करि इसनानु ॥ सोहं सो जा कउ है जाप ॥ जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमंडि = सारे जगत में। पिंडि = शरीर में। जानु = जानता है। मानसरोवरि = मानसरोवर में। करि = करे, करता है। जा कउ = जिस मनुष्य का। सो हं सो = वह मैं वह।6।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में सदा ये लगन है कि वह प्रभु और मैं एक हूँ (भाव, मेरे अंदर प्रभु की ज्योति बस रही है), (इस लगन की इनायत से) जिस पर ना पुण्य ना पाप कोई भी प्रभाव नहीं पड़ सकता (भाव, जिसको ना कोई पाप-विकार आकर्षित कर सकते हैं, और ना ही पुण्य कर्मों के फल की लालसा है) वह मनुष्य (लगन की इनायत से) सारे जगत में उसी प्रभु को पहचानता है जिसको अपने शरीर में (बसता देखता है), वह (प्रभु नाम-रूप) मान-सरोवर में स्नान करता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबरन बरन घाम नही छाम ॥ अवर न पाईऐ गुर की साम ॥ टारी न टरै आवै न जाइ ॥ सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥

मूलम्

अबरन बरन घाम नही छाम ॥ अवर न पाईऐ गुर की साम ॥ टारी न टरै आवै न जाइ ॥ सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घाम = गरमी, धूप। छाम = छाया। घाम छाम = दुख सुख। साम = शरण। टारी = टाली हुई। न टरै = हटती नहीं।7।
अर्थ: (लगन के सदका) वह मनुष्य सदा अफुर अवस्था में टिका रहता है, सहज अवस्था में जुड़ा रहता है। यह अवस्था किसी के हटाए नहीं हट सकती, सदा कायम रहती है। उस मनुष्य के अंदर किसी ऊँची-नीच जाति का भेदभाव नहीं रहता, कोई दुख-सुख उसको नहीं व्यापते। पर यह आत्मिक हालत गुरु की शरण पड़ने से मिलती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मधे जानै जे कोइ ॥ जो बोलै सो आपै होइ ॥ जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥ कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥

मूलम्

मन मधे जानै जे कोइ ॥ जो बोलै सो आपै होइ ॥ जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥ कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंत्रि = (गुरु के) मंत्र द्वारा। मनि = मन में।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द का केन्द्रिय विचार ‘रहाउ’ की तुक में है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कबीर कहता है: जो मनुष्य प्रभु को अपने मन में बसता पहचान लेता है, जो मनुष्य प्रभु की महिमा करता है, वह प्रभु का ही रूप हो जाता है; जो मनुष्य गुरु के शब्द से प्रभु की ज्योति को अपने मन में पक्का करके टिका लेता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।8।1।

दर्पण-टिप्पनी

भक्त-वाणी विरोधी सज्जन जी इस शब्द के बारे में लिखते हैं: “इस शब्द के अंदर जोग-अभ्यास का पूर्ण मंडन है, पर गुरमति इसका जोरदार खंडन करती है। सिख धर्म में उक्त हठ योग कर्म को निंदा गया है, पर भक्त जी प्रचार करते हैं।”
शब्द के अर्थ पाठकों के सामने है। बड़ा कठिन शब्द है। ठीक अर्थ समझने का प्रयत्न ना करने के कारण ही शायद विरोधी सज्जन भुलेखा खा गए हैं। जब पाठक सज्जन इस असूल को याद रखेंगे कि ‘रहाउ’ की तुक वाले केन्द्रिय-विचार की सारे शब्द में व्याख्या की गई है, तो यहाँ किसी जोग-अभ्यास के प्रचार का भुलेखा नहीं रह जाएगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि सूर जा कै परगास ॥ कोटि महादेव अरु कबिलास ॥ दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥ ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥

मूलम्

कोटि सूर जा कै परगास ॥ कोटि महादेव अरु कबिलास ॥ दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥ ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। सूर = सूरज। जा कै = जिस के दर पर। महादेव = शिव। कबिलास = कैलाश। मरदनु = मालिश, चरण मलना।1।
अर्थ: (मैं उस प्रभु के दर से माँगता हूँ) जिस के दर पे करोड़ों सूरज रौशनी कर रहे हैं, जिसके दर पर करोड़ों शिव जी और कैलाश हैं; और करोड़ों ही ब्रहमा जिसके दर पर वेद उचार रहे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ जाचउ तउ केवल राम ॥ आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जउ जाचउ तउ केवल राम ॥ आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = जब। जाचउ = मैं माँगता हूँ। आन = अन्य। काम = गरज़।1। रहाउ।
अर्थ: मैं जब भी माँगता हूँ, सिर्फ प्रभु के दर से ही माँगता हूँ, मुझे किसी और देवते के साथ कोई गर्ज नहीं है।1। रहाउ।

[[1163]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥ सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥ नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥ धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥

मूलम्

कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥ सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥ नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥ धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चराक = चिराग़, दीए की रोशनी, रौशनी। सुर तेतीस = तैतिस करोड़ देवते। उजोवहि = खाते हैं। पाक = भोजन। ठाढे = खड़े हैं। प्रतिहार = दरबान।2।
अर्थ: (मैं उस प्रभु का जाचक हूँ) जिस के दर पर करोड़ों चँद्रमा रौशनी करते हैं, जिसके दर पर तैतीस करोड़ देवते भोजन करते हैं, करोड़ों ही नौ ग्रह जिसके दरबार में खड़े हुए हैं, और करोड़ों ही धर्म-राज जिसके दरबान हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥ बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥ समुंद कोटि जा के पानीहार ॥ रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥

मूलम्

पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥ बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥ समुंद कोटि जा के पानीहार ॥ रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बासक = शेशनाग। बिसथरहि = बिछाते हैं। पानीहार = पानी भरने वाले। रोमावलि = रोमों की कतार, जिस्म के रोम। अठारह भार = सारी बनस्पति।3।
अर्थ: (मैं केवल उस प्रभु के दर का मँगता हूँ) जिसके चौबारे में करोड़ों हवाएं चलती हैं, करोड़ों शेषनाग जिसकी सेज बिछाते हैं, करोड़ों समुंदर जिसका पानी भरने वाले हैं, और बनस्पति के करोड़ों ही अठारह भार जिसके जिस्म के, मानो, रोम हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि कमेर भरहि भंडार ॥ कोटिक लखिमी करै सीगार ॥ कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥ इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥

मूलम्

कोटि कमेर भरहि भंडार ॥ कोटिक लखिमी करै सीगार ॥ कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥ इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कमेर = धन का देवता। हिरहि = होरहि, ताक रहे हैं।4।
अर्थ: (मैं उस प्रभु से ही माँगता हूँ) जिसके खजाने करोड़ों ही कुबेर देवते भरते हैं, जिसके दर पर करोड़ों ही लक्षि्मयां श्रृंगार कर रही हैं, करोड़ों ही पाप और पुण्य जिसकी ओर ताक रहे हैं (कि हमें आज्ञा करें) और करोड़ों ही इन्द्र देवते जिसके दर पर सेवा कर रहे हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥ नगरी नगरी खिअत अपार ॥ लट छूटी वरतै बिकराल ॥ कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥

मूलम्

छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥ नगरी नगरी खिअत अपार ॥ लट छूटी वरतै बिकराल ॥ कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छपन कोटि = छप्पन करोड़। खिअत = चमक। लट छूटी = लटें खोल के। बिकराल = डरावनी (काली देवियाँ)। कला = शक्तियां।5।
अर्थ: (मैं केवल उस गोपाल का जाचक हूँ) जिसके दर पर छप्पन करोड़ बादल दरबान हैं, और जो जगह-जगह पर चमक रहे हैं; जिस गोपाल के दर पर करोड़ों शक्तियाँ खेल कर रही हैं, और करोड़ों ही कालिका (देवियां) केस खोल के भयानक रूप धार के जिसके दर पर मौजूद हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि जग जा कै दरबार ॥ गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥ बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥ तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥

मूलम्

कोटि जग जा कै दरबार ॥ गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥ बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥ तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंध्रब = देवताओं के रागी।6।
अर्थ: (मैं उस प्रभु से ही माँगता हूँ) जिसके दरबार में करोड़ों ही यज्ञ हो रहे हैं, और करोड़ों गंधर्व जै-जैकार गा रहे हैं, करोड़ों ही विद्याएं जिसके बेअंत गुण बयान कर रही हैं, पर फिर भी परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पा सकती।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बावन कोटि जा कै रोमावली ॥ रावन सैना जह ते छली ॥ सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥ दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥

मूलम्

बावन कोटि जा कै रोमावली ॥ रावन सैना जह ते छली ॥ सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥ दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बावन = बावन अवतार। जह ते = जिस श्री राम चंद्र से। सहस = हजारों। मथिआ = (जिस श्री कृष्ण जी ने) नाश किया।7।
अर्थ: (मैं उस प्रभु का जाचक हूँ) करोड़ों ही वामन अवतार जिसके शरीर के, मानो, रोम हैं, जिसके दर पर करोड़ों ही वह (श्री रामचंद्र जी) हैं जिससे रावण की सेना हारी थी; जिसके दर पर करोड़ों ही वह (कृष्ण जी) हैं जिसको भागवत पुराण बयान कर रहा है, और जिसने दुर्योधन का अहंकार तोड़ा था।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥ अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥ कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥ देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥

मूलम्

कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥ अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥ कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥ देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंद्रप = काम देवता। लवै न धरहि = (सुंदरता की) बराबरी नहीं कर सकते। अंतर अंतरि मनसा = लोगों के हृदयों की अंदरूनी वासना। अंतर = अंदर का, हृदय। अंतरि = अंदर। हरहि = (जो कामदेव) चुरा लेते हैं।8।
अर्थ: कबीर कहता है: (मैं उससे माँगता हूँ) जिसकी सुंदरता की बराबरी वह करोड़ों कामदेव भी नहीं कर सकते जो नित्य जीवों के हृदयों की अंदरूनी वासना चुराते रहते हैं; (और, मैं माँगता क्या हूँ? वह भी) सुन, हे धर्नुधारी प्रभु! मुझे वह आत्मिक अवस्था बख्श जहाँ मुझे कोई किसी (देवी-देवते) का डर ना रहे, (बस) मैं यही दान माँगता हूँ।8।2।18।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ बाणी नामदेउ जीउ की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ बाणी नामदेउ जीउ की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे जिहबा करउ सत खंड ॥ जामि न उचरसि स्री गोबिंद ॥१॥

मूलम्

रे जिहबा करउ सत खंड ॥ जामि न उचरसि स्री गोबिंद ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे = हे भाई! सत = सौ। खंड = टुकड़े। करउ = मैं कर दूँ। जामि = जब।1।
अर्थ: हे भाई! अगर अब कभी मेरी जीभ प्रभु का नाम ना जपे तो मैं इसके सौ टुकड़े कर दूँ (भाव, मेरी जीभ इस तरह नाम के रंग में रंगी गई है कि मुझे अब यकीन है कि ये कभी नाम को नहीं बिसारेगी)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रंगी ले जिहबा हरि कै नाइ ॥ सुरंग रंगीले हरि हरि धिआइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रंगी ले जिहबा हरि कै नाइ ॥ सुरंग रंगीले हरि हरि धिआइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगी ले = मैंने रंग ली है। नाइ = नाम में सुरंग = सुंदर रंग से।1। रहाउ।
अर्थ: मैंने अपनी जीभ को परमात्मा के नाम में रंग लिया है, प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के मैंने इसको सुंदर रंग में रंग लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथिआ जिहबा अवरें काम ॥ निरबाण पदु इकु हरि को नामु ॥२॥

मूलम्

मिथिआ जिहबा अवरें काम ॥ निरबाण पदु इकु हरि को नामु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अन्य आहरों में लगी हुई जीभ व्यर्थ है (क्योंकि) परमात्मा का नाम ही वासना-रहित अवस्था पैदा करता है (और-और आहर बल्कि वासना पैदा करते हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंख कोटि अन पूजा करी ॥ एक न पूजसि नामै हरी ॥३॥

मूलम्

असंख कोटि अन पूजा करी ॥ एक न पूजसि नामै हरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अन पूजा = अन्य (देवताओं आदि की) पूजा। नामै = नाम के साथ।3।
अर्थ: अगर मैं करोड़ों असंखों अन्य (देवी-देवताओं की) पूजा करूँ, तो भी वह (सारी मिल के) परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणवै नामदेउ इहु करणा ॥ अनंत रूप तेरे नाराइणा ॥४॥१॥

मूलम्

प्रणवै नामदेउ इहु करणा ॥ अनंत रूप तेरे नाराइणा ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणा = करने योग्य काम।4।
अर्थ: नामदेव विनती करता है: (मेरी जीभ के लिए) यही काम करने योग्य है (कि प्रभु के गुण गाए और कहे-) ‘हे नारायण! तेरे बेअंत रूप हैं’।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: केवल एक परमात्मा का नाम स्मरण करो। और करोड़ों देवताओं की पूजा प्रभु-याद की बराबरी नहीं कर सकती।

दर्पण-टिप्पनी

भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन इस शब्द के बारे में यूँ लिखते हैं: “उक्त रचना से ऐसा प्रकट होता है कि यह निर्गुण-स्वरूप व्यापक प्रभु की उपासना और भक्ति है। असल में है यह वेदांत मत।”
विरोधियों ने हर हाल में विरोध करने का फैसला किया हुआ लगता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर धन पर दारा परहरी ॥ ता कै निकटि बसै नरहरी ॥१॥

मूलम्

पर धन पर दारा परहरी ॥ ता कै निकटि बसै नरहरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। परहरी = त्याग दी है। निकटि = नजदीक। नरहरी = परमात्मा।1।
अर्थ: (नारायण का भजन करके) जिस मनुष्य ने पराए धन व पराई स्त्री का त्याग किया है, परमात्मा उसके अंग-संग बसता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो न भजंते नाराइणा ॥ तिन का मै न करउ दरसना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जो न भजंते नाराइणा ॥ तिन का मै न करउ दरसना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का भजन नहीं करते, मैं उनके दर्शन नहीं करता (भाव, मैं उनकी संगति में नहीं बैठता, मैं उनके साथ उठना-बैठना नहीं रखता)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कै भीतरि है अंतरा ॥ जैसे पसु तैसे ओइ नरा ॥२॥

मूलम्

जिन कै भीतरि है अंतरा ॥ जैसे पसु तैसे ओइ नरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भीतरि = अंदर, मन में। अंतरा = (परमात्मा से) दूरी।2।
अर्थ: (पर) जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा से दूरी बनी हुई है वे मनुष्य पशुओं के समान ही हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणवति नामदेउ नाकहि बिना ॥ ना सोहै बतीस लखना ॥३॥२॥

मूलम्

प्रणवति नामदेउ नाकहि बिना ॥ ना सोहै बतीस लखना ॥३॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाकहि बिना = नाक के बिना। बतीस लखना = बक्तिस लक्षणों वाले, वह मनुष्य जिसमें सुंदरता के बक्तिस ही लक्षण मिलते हों।3।
अर्थ: नामदेव विनती करता है: मनुष्य में सुंदरता के भले ही बक्तिस के बक्तिस ही लक्षण हों, पर अगर उसका नाक ना हो तो वह सुंदर नहीं लगता (वैसे, और सारे गुण हों, धन आदि भी हो, अगर नाम नहीं स्मरण करता तो किसी काम का नहीं)।3।2।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: स्मरण से टूटे हुए बंदे पशू के समान हैं। उनका संग नहीं करना चाहिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूधु कटोरै गडवै पानी ॥ कपल गाइ नामै दुहि आनी ॥१॥

मूलम्

दूधु कटोरै गडवै पानी ॥ कपल गाइ नामै दुहि आनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कटोरै = कटोरे में। गडवै = लोटे में। कपल गाइ = गोरी गाय। दुहि = दुह के। आनी = ले आए।1।
अर्थ: (हे गोबिंद राय! तेरे सेवक) नामे (नामदेव) ने गोरी गाय दुही है, लोटे में पानी डाला है और कटोरे में दूध डाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूधु पीउ गोबिंदे राइ ॥ दूधु पीउ मेरो मनु पतीआइ ॥ नाही त घर को बापु रिसाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दूधु पीउ गोबिंदे राइ ॥ दूधु पीउ मेरो मनु पतीआइ ॥ नाही त घर को बापु रिसाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोबिंदे राइ = हे प्रकाश रूप गोबिंद! पतीआइ = धीरज आ जाए। घर को बापु = (इस) घर का पिता, (इस शरीर रूप) घर का मालिक, मेरी आत्मा। रिसाइ = (सं: रिष् = to be injured) दुखी होगा (देखें गउड़ी वार कबीर जी ‘नातर खरा रिसै है राइ’)।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रकाश-रूप गोबिंद! दूध पी लो (ताकि) मेरे मन में ठंड पड़ जाए; (हे गोबिंद! तू अगर दूध) नहीं (पीएगा) तो मेरी आत्मा दुखी होगी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुोइन कटोरी अम्रित भरी ॥ लै नामै हरि आगै धरी ॥२॥

मूलम्

सुोइन कटोरी अम्रित भरी ॥ लै नामै हरि आगै धरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुोइन कटोरी = सोने की कटोरी, पवित्र हुआ हृदय। अम्रित = नाम अमृत। सुोइन…भरी = अमृत से भरपूर पवित्र हुआ हृदय।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सुोइन’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘सोइन’, यहां ‘सुइन’ पढ़ना है) सोने की।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: नाम-अमृत की भरी हुई पवित्र हृदय-रूप कटोरी नामे ने ले के (अपने) हरि के आगे रख दी है, (भाव, प्रभु की याद से निर्मल हुआ हृदय नामदेव ने अपने प्रभु के आगे खोल के रख दिया, नामदेव दिल की उमंगों से प्रभु के आगे अरदास करता है और कहता है कि मेरा दूध पी ले)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु भगतु मेरे हिरदे बसै ॥ नामे देखि नराइनु हसै ॥३॥

मूलम्

एकु भगतु मेरे हिरदे बसै ॥ नामे देखि नराइनु हसै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एकु भगत = अनन्य भक्त। देखि = देख के। हसै = हसता है, प्रसन्न होता है।3।
अर्थ: नामे को देख-देख के परमात्मा खुश होता है (और कहता है:) मेरा अनन्य भक्त सदा मेरे हृदय में बसता है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

दूधु पीआइ भगतु घरि गइआ ॥ नामे हरि का दरसनु भइआ ॥४॥३॥

मूलम्

दूधु पीआइ भगतु घरि गइआ ॥ नामे हरि का दरसनु भइआ ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि = घर में। घरि गइआ = घर में गया, स्वै स्वरूप में टिक गया।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रीत का स्वरूप-जिससे प्यार हो, उसकी सेवा करने से दिल में ठंड पड़ती है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (गोबिंद राय को) दूध पिला के भक्त (नामदेव) स्वै-स्वरूप में टिक गया, (उस स्वै-स्वरूप में) मुझ (नामे) को परमात्मा का दीदार हुआ।4।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के बारे में पाँचवें संस्करण में विस्तार से चर्चा कर दी गई है।
(नोट: राग आसा में नाम देव जी का एक शब्द है जहाँ वे कहते हैं कि मन को गज़, जीभ को कैंची बना के जम का फंदा काटता जा रहा हूँ। वहीं कहते हैं कि सोने की सूई ले के, उसमें चाँदी का धागा डाल के, मैंने अपना मन प्रभु के साथ सिल दिया है। सोना कीमती धातु भी है और सारी धातुओं में पवित्र भी मानी गई है। जैसे उस शब्द में ‘सुोइने की सूई’ का अर्थ है, ‘गुरु का पवित्र शब्द’, वैसे ही यहाँ भी ‘सुोइन’ से ‘पवित्रता’ का भाव ही लेना है। दोनों शबदों का रचयता एक ही है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै बउरी मेरा रामु भतारु ॥ रचि रचि ता कउ करउ सिंगारु ॥१॥

मूलम्

मै बउरी मेरा रामु भतारु ॥ रचि रचि ता कउ करउ सिंगारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बउरी = कमली, झल्ली। भतारु = पति। रचि रचि = सजधज के। ता कउ = उस भतार की खातिर, उस पति को मिलने के लिए।1।
अर्थ: (मैं अपने प्रभु-पति की नारि बन चुकी हूँ) प्रभु में पति है और मैं (उसकी खातिर) कमली हो रही हूँ, उसको मिलने के लिए मैं (भक्ति और भले गुणों के) सुंदर-सुंदर श्रृंगार कर रही हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भले निंदउ भले निंदउ भले निंदउ लोगु ॥ तनु मनु राम पिआरे जोगु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भले निंदउ भले निंदउ भले निंदउ लोगु ॥ तनु मनु राम पिआरे जोगु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंदउ लोगु = जगत बेशक निंदा करे। जोगु = लायक, वास्ते।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘निंदउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष और एकवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मेरा तन, मेरा मन मेरे प्यारे प्रभु के हो चुके हैं, अब जगत बेशक मुझे बुरा कहे जाए (ना मेरे कान ये निंदा सुनने की परवाह करते हैं; ना मेरा मन निंदा सुन के दुखी होता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादु बिबादु काहू सिउ न कीजै ॥ रसना राम रसाइनु पीजै ॥२॥

मूलम्

बादु बिबादु काहू सिउ न कीजै ॥ रसना राम रसाइनु पीजै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बादु बिबादु = झगड़ा, बहस। रसाइनु = रसों का घर, श्रेष्ठ रस।2।
अर्थ: (कोई निंदा करता रहे) किसी के साथ झगड़ा करने की आवश्यक्ता नहीं, जीभ से प्रभु के नाम का श्रेष्ठ अमृत पीना चाहिए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब जीअ जानि ऐसी बनि आई ॥ मिलउ गुपाल नीसानु बजाई ॥३॥

मूलम्

अब जीअ जानि ऐसी बनि आई ॥ मिलउ गुपाल नीसानु बजाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ जानि = मन में समझ के। ऐसी बनि आई = ऐसी हालत बन गई है। मिलउ = मैं मिल रही हूँ। नीसानु बजाई = ढोल बजा के, लोगों की निंदा से बेपरवाह हो के।3।
अर्थ: अब हृदय में प्रभु के साथ जान-पहचान करके (मेरे अंदर) ऐसी हालत बन गई है कि मैं लोगों की निंदा से बेपरवाह हो के अपने प्रभु को मिल रही हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उसतति निंदा करै नरु कोई ॥ नामे स्रीरंगु भेटल सोई ॥४॥४॥

मूलम्

उसतति निंदा करै नरु कोई ॥ नामे स्रीरंगु भेटल सोई ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसतति = शोभा, बड़ाई। स्रीरंगु = (सं: श्री रंग, an epithet of Vishnu। श्री = लक्ष्मी। रंग = प्यार)। लक्ष्मी से प्यार करने वाला। भेटल = मिल गया है।4।
अर्थ: कोई मुझे अच्छा कहे, चाहे कोई बुरा कहे (इस बात की मुझै परवाह नहीं रही), मुझे नामे को (लक्ष्मी का पति) परमात्मा मिल गया है।4।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रीत का स्वरूप- तन और मन, प्यार में इतने मस्त हो जाएं कि कोई अच्छा कहे अथवा बुरा कहे, इस बात की परवाह ही ना रहे। ना कान निंदा सुनने की परवाह करें, ना मन निंदा सुन के दुखी हो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहू खीरि खाड घीउ न भावै ॥ कबहू घर घर टूक मगावै ॥ कबहू कूरनु चने बिनावै ॥१॥

मूलम्

कबहू खीरि खाड घीउ न भावै ॥ कबहू घर घर टूक मगावै ॥ कबहू कूरनु चने बिनावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खीरि = खीर, दूध चावल इकट्ठे पके हुए (शब्द ‘खीरु’ का अर्थ है दूध, इसका योग अलग है)। न भावै = अच्छा नहीं लगता। कूरनु = कूड़ा। चने = छोले। बिनावै = चुनवाता है।1।
अर्थ: कभी (कोई जीव ऐसी मौज में है कि उसको) खीर, खंड, घी (जैसे स्वादिष्ट पदार्थ) भी अच्छे नहीं लगते; पर कभी (उससे) घर-घर के टुकड़े मंगवाता है (कभी उसको मँगता बना देता है, और वह घर-घर टुकड़े माँगता फिरता है), कभी (उससे) कचरे फलुरवाता है, और (उनमें से) दाने चुनवाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ रामु राखै तिउ रहीऐ रे भाई ॥ हरि की महिमा किछु कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जिउ रामु राखै तिउ रहीऐ रे भाई ॥ हरि की महिमा किछु कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महिमा = प्रतिभा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस हालत में परमात्मा (हम जीवों को) रखता है उसी हालत में (अमीरी की अकड़ और गरीबी की घबराहट से निर्लिप) रहना चाहिए। ये बात बताई नहीं जा सकती कि परमात्मा कितना बड़ा है (हमारे दुखों-सुखों का भेद वही जानता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहू तुरे तुरंग नचावै ॥ कबहू पाइ पनहीओ न पावै ॥२॥

मूलम्

कबहू तुरे तुरंग नचावै ॥ कबहू पाइ पनहीओ न पावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुरे = घोड़े। तुरंग = घोड़े। पाइ = पैरों पर। पनहीओ = जूता भी।2।
अर्थ: कभी (कोई मनुष्य इतना अमीर है कि वह) सुंदर घोड़े नचाता है (भाव, कभी उसके पास इतनी सुंदर चाल वाले घोड़े हैं कि चलने के वक्त, मानो, वह नाच रहे हैं), पर कभी उसके पैरों को जूती (पहनने के लिए) भी नहीं मिलती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहू खाट सुपेदी सुवावै ॥ कबहू भूमि पैआरु न पावै ॥३॥

मूलम्

कबहू खाट सुपेदी सुवावै ॥ कबहू भूमि पैआरु न पावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाटु = चारपाई। सुपेदी = सफेद बिछौने। पैआरु = पराली। न पावै = हासिल नहीं कर सकता।3।
अर्थ: कभी किसी मनुष्य को सफेद बिछौने वाले पलंघों पर सुलाता है, पर कभी उसको जमीन पर (बिछाने के लिए) पराली भी नहीं मिलती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनति नामदेउ इकु नामु निसतारै ॥ जिह गुरु मिलै तिह पारि उतारै ॥४॥५॥

मूलम्

भनति नामदेउ इकु नामु निसतारै ॥ जिह गुरु मिलै तिह पारि उतारै ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिस को।4।
अर्थ: नामदेव कहता है: प्रभु का एक नाम ही है जो (इन दोनों हालातों से अछोह रख के) पार लंघाता है, जिस मनुष्य को गुरु मिलता है उसको प्रभु (अमीरी की आकड़ और गरीबी की घबराहट) से पार उतारता है।4।5।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: धन-पदार्थ का गुमान कूडा है; ना अमीरी में आफरे, और ना गरीबी आने पर घबराना चाहिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हसत खेलत तेरे देहुरे आइआ ॥ भगति करत नामा पकरि उठाइआ ॥१॥

मूलम्

हसत खेलत तेरे देहुरे आइआ ॥ भगति करत नामा पकरि उठाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हसत खेलत = हस्ता खेलता, बड़े चाव से। देहुरे = मंदिर में (सं: देवालय)। करत = करता।1।
अर्थ: मैं बड़े चाव से तेरे अंदर आया था, पर (चुँकि ये लोग ‘मेरी जाति हीनड़ी’ समझते हैं, इन लोगों ने) मुझे नामे को भक्ति करते को (बाँह से) पकड़ कर (मन्दिर में से) उठा दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीनड़ी जाति मेरी जादिम राइआ ॥ छीपे के जनमि काहे कउ आइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हीनड़ी जाति मेरी जादिम राइआ ॥ छीपे के जनमि काहे कउ आइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीनड़ी = बहुत हीनी, बहुत नीची। जादम राइआ = हे जादम राय! (सं: यादव an epithet of ज्ञrtishna) हे यादव कुल के श्रोमणी! हे कृष्ण! हे प्रभु! काहे कउ = किस लिए? क्यों? आइआ = मैं पैदा हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं छींबे (धोबी) के घर क्यों पैदा हो गया? (लोग) मेरी जाति को बड़ी नीच (कहते हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लै कमली चलिओ पलटाइ ॥ देहुरै पाछै बैठा जाइ ॥२॥

मूलम्

लै कमली चलिओ पलटाइ ॥ देहुरै पाछै बैठा जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पलटाइ = पलट के, मुड़ के। जाइ = जा के।2।
अर्थ: मैं अपनी कंबली ले के (वहाँ से) वापस चल पड़ा, और (हे प्रभु!) मैं तेरे मन्दिर के पिछली तरफ जा के बैठ गया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै ॥ भगत जनां कउ देहुरा फिरै ॥३॥६॥

मूलम्

जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै ॥ भगत जनां कउ देहुरा फिरै ॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = की खातिर, वास्ते।3।
अर्थ: (पर प्रभु की आश्चर्यजनक लीला हुई) ज्यों-ज्यों नामा अपने प्रभु के गुण गाता है, (उसका) मन्दिर (उसके) भगतों की खातिर, (उसके) सेवकों की खातिर फिरता जा रहा है।3।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भक्त नाम देव जी ने अपनी उम्र का ज्यादा हिस्सा पंडरपुर में गुजारा; वहाँ के वाशिंदे जानते ही थे कि नामदेव धोबी है, और शूद्र है। शूद्र को मन्दिर में जाने की मनाही थी। किसी दिन बँदगी की मौज में नामदेव मन्दिर चले गए, आगे ऊँची जाति वालों ने बाँह से पकड़ कर बाहर निकाल दिया। अगर नामदेव किसी बीठुल, किसी ठाकुर की मूर्ति के पुजारी होते और पूजा करते होते तो रोज आने वाले नामदेव को उन लोगों ने किसी एक दिन ‘हीनड़ी जाति’ का जान के क्यों बाहर निकालना था? ये एक दिन की घटना ही बताती है कि नामदेव जी ना मन्दिर जाया करते थे, ना शूद्र होने की वजह से उच्च जाति वालों की तरफ से उन्हें वहाँ जाने की आज्ञा थी। यह तो एक दिन किसी मौज में आए हुए चले गए और आगे से धक्के नसीब हुए।

दर्पण-भाव

भाव: नाम-जपने की इनायत- निर्भयता। उच्च जाति वालों की तरफ से शूद्र कहलवाने और इस कारण ऊपर से हो रही ज्यादतियों के विरुद्ध प्रभु के आगे रोस।
ज्यों-ज्यों यह रोस शूद्र-कहलवाते मनुष्य के अंदर स्वैमान पैदा करता है, उच्च-जातिए की अकड़ कम होती जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ नामदेउ जीउ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ नामदेउ जीउ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसी भूखे प्रीति अनाज ॥ त्रिखावंत जल सेती काज ॥ जैसी मूड़ कुट्मब पराइण ॥ ऐसी नामे प्रीति नराइण ॥१॥

मूलम्

जैसी भूखे प्रीति अनाज ॥ त्रिखावंत जल सेती काज ॥ जैसी मूड़ कुट्मब पराइण ॥ ऐसी नामे प्रीति नराइण ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिखावंत = प्यासा। सेती = साथ। काज = गरज, आवश्यक्ता। मूढ़ = मूर्ख बंदे। कुटंब = परिवार। पराइण = आसरे।1।
अर्थ: जैसे भूखे मनुष्य को अन्न प्यारा लगता है, जैसे प्यासे को पानी की आवश्यक्ता होती है, जैसे कोई मूर्ख अपने परिवार पर आश्रित हो जाता है, वैसे ही (मुझ) नामे का प्रभु के साथ प्यार है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामे प्रीति नाराइण लागी ॥ सहज सुभाइ भइओ बैरागी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नामे प्रीति नाराइण लागी ॥ सहज सुभाइ भइओ बैरागी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज सुभाइ = सहज में ही, बिना किसी खास प्रयत्न के। बैरागी = विरक्त।1। रहाउ।
अर्थ: (मेरी) नामदेव की प्रीति परमात्मा के साथ लग गई है, (उस प्रीति की इनायत से, नामदेव) किसी बाहरी भेस आदि को अपनाए बिना ही बैरागी बन गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसी पर पुरखा रत नारी ॥ लोभी नरु धन का हितकारी ॥ कामी पुरख कामनी पिआरी ॥ ऐसी नामे प्रीति मुरारी ॥२॥

मूलम्

जैसी पर पुरखा रत नारी ॥ लोभी नरु धन का हितकारी ॥ कामी पुरख कामनी पिआरी ॥ ऐसी नामे प्रीति मुरारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रत = रति हुई, प्यार पाने वाली। हितकारी = हित करने वाला, प्रेम करने वाला। कामी = विषयी। कामनी = स्त्री।2।
अर्थ: जैसे कोई नारि पराए मनुष्य के साथ प्यार डाल लेती है, जैसे किसी लोभी मनुष्य को धन प्यारा लगता है, जैसे किसी विषयी बँदे को स्त्री अच्छी लगती है, वैसे ही नामे को परमात्मा मीठा लगता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साई प्रीति जि आपे लाए ॥ गुर परसादी दुबिधा जाए ॥ कबहु न तूटसि रहिआ समाइ ॥ नामे चितु लाइआ सचि नाइ ॥३॥

मूलम्

साई प्रीति जि आपे लाए ॥ गुर परसादी दुबिधा जाए ॥ कबहु न तूटसि रहिआ समाइ ॥ नामे चितु लाइआ सचि नाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साई = वही (असल)। जि = जो। दुबिधा = मेर तेर। न तूटसि = वह प्रीति कभी टूटती नहीं। सचि = सच में। नाइ = नाम में।3।
अर्थ: पर असल सच्चा प्यारा वह है जो प्रभु सवयं (किसी मनुष्य के हृदय में) पैदा करे, उस मनुष्य की मेर-तेर गुरु की कृपा से मिट जाती है, उसका प्रभु से प्रेम कभी टूटता नहीं, हर वक्त वह प्रभु-चरणों में जुड़ा रहता है। (मुझ नामे पर भी प्रभु की मेहर हुई है और) नामे का चिक्त सदा कायम रहने वाले हरि-नाम में टिक गया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसी प्रीति बारिक अरु माता ॥ ऐसा हरि सेती मनु राता ॥ प्रणवै नामदेउ लागी प्रीति ॥ गोबिदु बसै हमारै चीति ॥४॥१॥७॥

मूलम्

जैसी प्रीति बारिक अरु माता ॥ ऐसा हरि सेती मनु राता ॥ प्रणवै नामदेउ लागी प्रीति ॥ गोबिदु बसै हमारै चीति ॥४॥१॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राता = रंगा हुआ। चीति = चित्त में।4।
अर्थ: जैसे माता-पुत्र का प्यार होता है, वैसे मेरा मन प्रभु! (-चरणों) के साथ रंगा गया है। नामदेव विनती करता है: मेरी प्रभु के साथ प्रीति लग गई है, प्रभु (अब सदा) अब मेरे चिक्त में बसता है।4।1।7।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रीति का स्वरूप- उसकी याद कभी ना भूले, सहज ही किसी और तरफ चिक्त ना जाए। इस प्रीति की इनायत से अंदर से मेर-तेर मिट जाती है। पर यह मिलती है उसकी अपनी मेहर से।

[[1165]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर की नारि तिआगै अंधा ॥ पर नारी सिउ घालै धंधा ॥ जैसे सि्मबलु देखि सूआ बिगसाना ॥ अंत की बार मूआ लपटाना ॥१॥

मूलम्

घर की नारि तिआगै अंधा ॥ पर नारी सिउ घालै धंधा ॥ जैसे सि्मबलु देखि सूआ बिगसाना ॥ अंत की बार मूआ लपटाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घालै धंधा = बुरे कर्म करता है, झख मारता है। सूआ = तोता। बिगसाना = खुश होता है। लपटाना = (पर तन विकार में) फस के।1।
अर्थ: अंधा (पापी) अपनी पत्नी का त्याग कर देता है, और पराई औरत के साथ झखें मारता है, (पराई नारि को देख के वह ऐसे खुश होता है) जैसे तोता सिंबल वृक्ष को देख के खुश होता है (पर उस सिंबल से उस तोते को कुछ हासिल नहीं होता); आखिर में ऐसा विकारी मनुष्य (इस विकार) में ग्रसा हुआ ही मर जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापी का घरु अगने माहि ॥ जलत रहै मिटवै कब नाहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पापी का घरु अगने माहि ॥ जलत रहै मिटवै कब नाहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगने माहि = आग में।1। रहाउ।
अर्थ: विकारी बँदे का ठिकाना सदा उस आग में रहता है जो आग सदा जलती रहती है, कभी बुझती नहीं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि की भगति न देखै जाइ ॥ मारगु छोडि अमारगि पाइ ॥ मूलहु भूला आवै जाइ ॥ अम्रितु डारि लादि बिखु खाइ ॥२॥

मूलम्

हरि की भगति न देखै जाइ ॥ मारगु छोडि अमारगि पाइ ॥ मूलहु भूला आवै जाइ ॥ अम्रितु डारि लादि बिखु खाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमारगि = गलत रास्ते पर। मूलहु = जगत के मूल प्रभु से। डारि = डोल के। लादि = लाद के, संच के।2।
अर्थ: जहाँ प्रभु की भक्ति होती है (विकारी मनुष्य) वह जगह जा के नहीं देखता, (जीवन का सीधा) राह छोड़ के (विकारों के) उल्टे रास्ते पर पड़ता है, जगत के मूल प्रभु से टूट के जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है, नाम-अमृत डोल के (गिरा के) (विकारों का) जहर लाद के खाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ बेस्वा के परै अखारा ॥ कापरु पहिरि करहि सींगारा ॥ पूरे ताल निहाले सास ॥ वा के गले जम का है फास ॥३॥

मूलम्

जिउ बेस्वा के परै अखारा ॥ कापरु पहिरि करहि सींगारा ॥ पूरे ताल निहाले सास ॥ वा के गले जम का है फास ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अखारा = अखाड़ा, तमाशा। पूरे ताल = नाचती है। निहाले = देखती है, ध्यान से देखती है। सास = सूर।3।
अर्थ: जैसे वैश्या के मुजरे होते हैं, (सुंदर-सुंदर) पोशाकें पहन के श्रृंगार करती हैं। वैश्या नाचती है, और बड़े ध्यान से अपने सुर को तोलती है, (बस, इस विकारी जीवन के कारण) उसके गले में जमों का फंदा पड़ता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा के मसतकि लिखिओ करमा ॥ सो भजि परि है गुर की सरना ॥ कहत नामदेउ इहु बीचारु ॥ इन बिधि संतहु उतरहु पारि ॥४॥२॥८॥

मूलम्

जा के मसतकि लिखिओ करमा ॥ सो भजि परि है गुर की सरना ॥ कहत नामदेउ इहु बीचारु ॥ इन बिधि संतहु उतरहु पारि ॥४॥२॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। करमा = बख्शिश (का लेख)। भजि = दौड़ के। परि है = पड़ता है। इन बिधि = इस तरीके से, गुरु की शरण पड़ कर।4।
अर्थ: नामदेव यह एक विचार के वचन कहता है: जिस मनुष्य के माथे पर प्रभु की बख्शिश (का लेख) लिखा हुआ है (भाव, पिछले किए कर्मों के अनुसार धुर से बख्शिश होती है) वह (विकारों से) हट के सतिगुरु की शरण पड़ता है। हे संत जनो! गुरु की शरण पड़ कर ही (संसार-समुंदर के विकारों से) पार लांघ सकोगे।4।2।8।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: विकारी का जीवन- विकारों की ना-बुझने वाली आगसदा उसको जलाती रहती है। प्रभु की मेहर हो तो गुरु की शरण पड़ने से खलासी होती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संडा मरका जाइ पुकारे ॥ पड़ै नही हम ही पचि हारे ॥ रामु कहै कर ताल बजावै चटीआ सभै बिगारे ॥१॥

मूलम्

संडा मरका जाइ पुकारे ॥ पड़ै नही हम ही पचि हारे ॥ रामु कहै कर ताल बजावै चटीआ सभै बिगारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संडा मरका = शुक्राचार्य के दो पुत्र संड और अमरक जो प्रहलाद को पढ़ाने के लिए नियुक्त किए गए थे। पचि हारे = थक के हार गए। कर = हाथों से। चटीआ = विद्यार्थी।1।
अर्थ: (प्रहलाद के दोनों उस्ताद, अध्यापक) संड और अमरक ने (हर्णाकश्यप् के पास) जा के फरियाद की- हम थक-हार गए हैं, प्रहलाद पढ़ता नहीं, वह हाथों से ताल बजाता है, और राम-नाम गाता है, और सारे विद्यार्थी भी उसने बिगाड़ दिए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामा जपिबो करै ॥ हिरदै हरि जी को सिमरनु धरै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम नामा जपिबो करै ॥ हिरदै हरि जी को सिमरनु धरै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपिबो करै = सदा जपता रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: (प्रहलाद) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करता है, परमात्मा के नाम का स्मरण अपने हृदय में धारण किए रखता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बसुधा बसि कीनी सभ राजे बिनती करै पटरानी ॥ पूतु प्रहिलादु कहिआ नही मानै तिनि तउ अउरै ठानी ॥२॥

मूलम्

बसुधा बसि कीनी सभ राजे बिनती करै पटरानी ॥ पूतु प्रहिलादु कहिआ नही मानै तिनि तउ अउरै ठानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बसुधा = धरती। पटरानी = बड़ी रानी (प्रहलाद की माँ)। तिनि = उस (प्रहलाद) ने। अउरै = कोई और बात ही। ठानी = मन में पक्की की हुई है।2।
अर्थ: (प्रहलाद की माँ) बड़ी रानी (प्रहलाद के आगे) तरले करती है (और समझाती है कि तेरे पिता) राजे ने सारी धरती अपने वश में की हुई है (उसकी आज्ञा का उलंघन ना कर), पर पुत्र प्रहलाद (माँ का) कहा नहीं मानता, उसने तो कोई और ही बात मन में दृढ़ की हुई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुसट सभा मिलि मंतर उपाइआ करसह अउध घनेरी ॥ गिरि तर जल जुआला भै राखिओ राजा रामि माइआ फेरी ॥३॥

मूलम्

दुसट सभा मिलि मंतर उपाइआ करसह अउध घनेरी ॥ गिरि तर जल जुआला भै राखिओ राजा रामि माइआ फेरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंतर उपाइआ = सलाह पका ली। करसह = हम कर देंगे। करसह…घनेरी = उम्र समाप्त कर देंगे, मार डालेंगे। गिरि = पहाड़। तर = वृक्ष। जुआला = आग। भै राखिओ = डरों से बचा लिया। रामि = राम ने। माइआ फेरी = माया का स्वभाव उलट दिया।3।
अर्थ: दुष्टों की जुण्डली ने मिल के सलाह कर ली- (अगर प्रहलाद नहीं मानता तो) हम इसे मार डालेंगे; पर जगत के मालिक प्रभु ने अपनी माया का स्वभाव ही बदल डाला, (प्रभु ने प्रहलाद को) पहाड़, वृक्ष, पानी, आग (इन सबके) डर से बचा लिया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काढि खड़गु कालु भै कोपिओ मोहि बताउ जु तुहि राखै ॥ पीत पीतांबर त्रिभवण धणी थ्मभ माहि हरि भाखै ॥४॥

मूलम्

काढि खड़गु कालु भै कोपिओ मोहि बताउ जु तुहि राखै ॥ पीत पीतांबर त्रिभवण धणी थ्मभ माहि हरि भाखै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खड़गु = तलवार। कालु = मौत। भै = (अंदर से) डर से। कोपिओ = गुस्से में आया। मोहि = मुझे। तुहि = तुझे। पीतांबर = पीले कपड़ों वाला कृष्ण, प्रभु। त्रिभवण धणी = तीनों भवनों का मालिक, परमात्मा। भाखै = बोलता है।4।
अर्थ: (अब अंदर से) डरा हुआ (पर बाहर से) क्रोधवान हो के, मौत-रूप तलवार निकाल के (बोला-) मुझे बताओ जो तुझे (इस तलवार से) बचा सकता है; (आगे से) जगत का मालिक परमात्मा खम्भे में से बोलता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरनाखसु जिनि नखह बिदारिओ सुरि नर कीए सनाथा ॥ कहि नामदेउ हम नरहरि धिआवह रामु अभै पद दाता ॥५॥३॥९॥

मूलम्

हरनाखसु जिनि नखह बिदारिओ सुरि नर कीए सनाथा ॥ कहि नामदेउ हम नरहरि धिआवह रामु अभै पद दाता ॥५॥३॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभु ने। नखह = नाखूनों से। बिदारिओ = चीर डाला। सनाथा = स+नाथ, पति वाले। नरहरि = परमात्मा। अभै पद दाता = निडरता का दर्जा देने वाला।5।
अर्थ: नामदेव कहता है: जिस प्रभु ने हर्णाकश्यप को नाखूनों से चीर दिया, देवताओं और मनुष्यों को ढारस दी (सांत्वना दी), मैं भी उसी प्रभु को स्मरण करता हूँ; प्रभु ही निर्भयता का दर्जा बख्शने वाला है।5।3।9।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: नाम-जपने की महिमा- दुनिया का कोई डर पोह नहीं सकता।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द को इसी राग में दिए हुए गुरु अमरदास जी के शब्द (पन्ना 1133) के साथ मिला के पढ़िए;
भैरउ महला ३॥ मेरी पटीआ लिखहु हरि गोविंद गोपाला॥ दूजै भाइ फाथे जम जाला॥ सतिगुरु करे मेरी प्रतिपाला॥ हरि सुखदाता मेरै नाला॥१॥ गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै॥ सासना ते बालकु गमु न करै॥१॥ रहाउ॥ माता उपदेसै प्रहिलाद पिआरे॥ पुत्र राम नामु छोडहु जीउ लेहु उबारे॥ प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ॥२॥ संडा मरका सभि जाइ पुकारे॥ प्रहिलादु आपि विगड़िआ सभि चाटड़े विगाड़े॥ दुसट सभा महि मंत्रु पकाइआ॥ प्रहलाद का राखा होइ रघुराइआ॥३॥ हाथि खड़गु करि धाइआ अति अहंकारि॥ हरि तेरा कहा तुझु लए उबारि॥ खिन महि भैआनु रूपु निकसिआ थंम् उपाड़ि॥ हरणाखसु नखी बिदारिआ प्रहलादु लीआ उबारि॥४॥ संत जना के हरि जीउ कारज सवारे॥ प्रहलाद जन के इकीह कुल उधारे॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारे॥ नानक राम नामि संत निसतारे॥५॥१०॥२०॥ (पन्ना ११३३)
जिस मनुष्य ने भक्त प्रहलाद की साखी कभी ना सुनी हो, उसको नामदेव जी का शब्द पढ़ के असल साखी समझने के लिए कई बातें पूछने की आवश्यक्ता रह जाती है। उन सारे सवालों के जवाब गुरु अमरादास जी ने इस शब्द में दे दिए हैं। दोनों शबदों की ‘रहाउ’ की तुक पढ़ के देखें; नामदेव जी ने जो बात खोल के नहीं थी बताई, गुरु अमरदास जी ने कितने सुंदर शब्दों में वह बयान कर दी है। नामदेव जी के शब्द का दूसरा बँद पढ़ के गुरु अमरदास जी के शब्द का दूसरा बँद पढ़ें, मन में उल्लास पैदा होता है, नामदेव जी के बरते हुए शब्द ‘बिनती’ को गुरु अमरदास जी ने किस तरह प्यार भरे शब्दों में समझाया है।
ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि नामदेव जी का यह शब्द गुरु अमरदास जी के सामने मौजूद है। ये ख्याल गलत है कि भगतों के शब्द गुरु अरजन देव जी ने एकत्र किए थे।
नामदेव जी के इस शब्द में कुछ ऐसे शब्दों के प्रयोग हुए मिलते हैं जो गुरबाणी को खोज-विचार के पढ़ने वालों के लिए बड़े ही मजेदार हैं। बंद नंबर–3 में नामदेव जी लिखते हैं “राजा रामि माइआ फेरी”। प्रहलाद जी की साखी सतियुग के समय की बताई जाती है, श्री राम अवतार त्रेते युग में हुए, यह साखी श्री रामचंद्र जी के पहले की है। सो, शब्द “राजा रामि’ श्री राम चंद्र जी के बाबत नहीं है। यही शब्द भक्त रविदास जी ने भी कई बार बरता है, सिर्फ इतने प्रयोग से ये ख्याल बना लेना भारी गलती का सबब है कि रविदास जी श्री राम चंद्र जी के उपासक थे।
बँद नंबर–8 में उसी “राजा राम” के प्रथाय नामदेव जी कहते हैं “पीत पीतांबर त्रिभवण धणी, थंभ माहि हरि भाखै”। शब्द ‘पीतांबर’ कृष्ण जी का नाम है। पर भक्त नामदेव जी यहाँ कृष्ण जी का वर्णन नहीं कर रहे। कृष्ण जी द्वापर में हुए, श्री रामचंद्र जी के भी बाद में। और यह साखी है सतियुग की। जैसे इस शब्द के शब्द ‘पीतांबर’ से ये फैसला कर लेना भारी भूल है कि नामदेव जी कृष्ण जी के उपासक थे, वैसे ही उनके द्वारा बरते गए शब्द ‘बीठुल’ से उनको कृष्ण जी की बीठुल-मूर्ति का पुजारी समझ लेना भी गलत है। नामदेव जी के किसी भी शब्द से ये जाहिर नहीं होता कि उन्होंने कभी किसी बिठुल मूर्ति की पूजा की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुलतानु पूछै सुनु बे नामा ॥ देखउ राम तुम्हारे कामा ॥१॥

मूलम्

सुलतानु पूछै सुनु बे नामा ॥ देखउ राम तुम्हारे कामा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बे = हे! देखउ = मैं देखूं, मैं देखना चाहता हूँ।1।
अर्थ: (मुहम्मद-बिन-तुग़लक) बादशाह पूछता है: हे नामे! सुन, मैं तेरे राम के काम देखना चाहता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामा सुलताने बाधिला ॥ देखउ तेरा हरि बीठुला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नामा सुलताने बाधिला ॥ देखउ तेरा हरि बीठुला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुलताने = सुल्तान ने। बाधिआ = बाँध लिया। बीठुला = माया से रहित, प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: बादशाह ने मुझे (नामे को) बाँध लिया (और कहने लगा-) मैं तेरा हरि, तेरा बीठल, देखना चाहता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिसमिलि गऊ देहु जीवाइ ॥ नातरु गरदनि मारउ ठांइ ॥२॥

मूलम्

बिसमिलि गऊ देहु जीवाइ ॥ नातरु गरदनि मारउ ठांइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसमिलि = मरी हुई। नातर = नहीं तो। ठांइ = इसी जगह पर, अभी ही।2।
अर्थ: (मेरी यह) मरी हुई गाय जीवित कर दे, नहींतो तुझे भी यहीं (अभी) मार दूँगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादिसाह ऐसी किउ होइ ॥ बिसमिलि कीआ न जीवै कोइ ॥३॥

मूलम्

बादिसाह ऐसी किउ होइ ॥ बिसमिलि कीआ न जीवै कोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बादिसाह = हे बादशाह!।3।
अर्थ: (मैंने कहा-) बादशाह! ऐसी बात कैसे हो सकती है? कभी कोई मरा हुआ मुड़ के नहीं जीया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा कीआ कछू न होइ ॥ करि है रामु होइ है सोइ ॥४॥

मूलम्

मेरा कीआ कछू न होइ ॥ करि है रामु होइ है सोइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (तथा एक बात और भी है) वही कुछ होता है जो परमात्मा करता है, मेरा किया कुछ नहीं हो सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादिसाहु चड़्हिओ अहंकारि ॥ गज हसती दीनो चमकारि ॥५॥

मूलम्

बादिसाहु चड़्हिओ अहंकारि ॥ गज हसती दीनो चमकारि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहंकारि = अहंकार में। चमकारि दीनो = प्रेर दिया, उकसाया।5।
अर्थ: बदशाह (यह उक्तर सुन के) अहंकार में आया, उसने (मेरे पर) एक बड़ा हाथी उकसा के चढ़ा दिया।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदनु करै नामे की माइ ॥ छोडि रामु की न भजहि खुदाइ ॥६॥

मूलम्

रुदनु करै नामे की माइ ॥ छोडि रामु की न भजहि खुदाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: की न = क्यों नहीं?।6।
अर्थ: (मेरी) नामे की माँ रोने लगी (और कहने लगी- हे बच्चा!) तू राम छोड़ के खुदा-खुदा क्यों नहीं कहने लग जाता?।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हउ तेरा पूंगड़ा न तू मेरी माइ ॥ पिंडु पड़ै तउ हरि गुन गाइ ॥७॥

मूलम्

न हउ तेरा पूंगड़ा न तू मेरी माइ ॥ पिंडु पड़ै तउ हरि गुन गाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूंगड़ा = बच्चा। पिंडु पड़ै = अगर शरीर भी नाश हो जाए।7।
अर्थ: (मैंने उक्तर दिया-) ना मैं तेरा पुत्र हूँ, ना तू मेरी माँ है; अगर मेरा शरीर भी नाश हो जाए, तो भी नामा हरि के गुण गाता रहेगा।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करै गजिंदु सुंड की चोट ॥ नामा उबरै हरि की ओट ॥८॥

मूलम्

करै गजिंदु सुंड की चोट ॥ नामा उबरै हरि की ओट ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गजिंदु = हाथी, बड़ा हाथी। उबरै = बच गया।8।
अर्थ: हाथी अपनी सुंड की चोट करता है, पर नामा बच निकलता है; नामे को परमात्मा का आसरा है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजी मुलां करहि सलामु ॥ इनि हिंदू मेरा मलिआ मानु ॥९॥

मूलम्

काजी मुलां करहि सलामु ॥ इनि हिंदू मेरा मलिआ मानु ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इनि = इस ने। मलिआ = तोड़ दिया है।9।
अर्थ: (बादशाह सोचता है:) मुझे (मेरे मज़हब के नेता) काजी और मौलवी सलाम करते हैं, पर इस हिन्दू ने मेरा माण तोड़ दिया है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादिसाह बेनती सुनेहु ॥ नामे सर भरि सोना लेहु ॥१०॥

मूलम्

बादिसाह बेनती सुनेहु ॥ नामे सर भरि सोना लेहु ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सर भरि = तोल बराबर।10।
अर्थ: (हिन्दू लोग मिल के आए, और कहने लगे,) हे बादशाह! हमारी अर्ज सुन, नामदेव के बराबर का तोल के सोना ले लो (और इसे छोड़ दो)।10।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

मालु लेउ तउ दोजकि परउ ॥ दीनु छोडि दुनीआ कउ भरउ ॥११॥

मूलम्

मालु लेउ तउ दोजकि परउ ॥ दीनु छोडि दुनीआ कउ भरउ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मालु = रिश्वत का धन। भरउ = इकट्ठी करूँ।11।
अर्थ: (उसने उक्तर दिया) अगर मैं रिश्वत लूँ तो दोज़क में पड़ता हूँ, (क्योंकि इस तरह तो) मैं मज़हब छोड़ के दौलत इकट्ठी करता हूँ।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावहु बेड़ी हाथहु ताल ॥ नामा गावै गुन गोपाल ॥१२॥

मूलम्

पावहु बेड़ी हाथहु ताल ॥ नामा गावै गुन गोपाल ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पावहु = पैरों में। हाथहु = हाथों से।12।
अर्थ: नामदेव के पैरों में बेड़ियाँ हैं, पर फिर भी वह हाथों से ताल दे दे के परमात्मा के गुण गाता है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गंग जमुन जउ उलटी बहै ॥ तउ नामा हरि करता रहै ॥१३॥

मूलम्

गंग जमुन जउ उलटी बहै ॥ तउ नामा हरि करता रहै ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर गंगा और जमुना उल्टी भी बहनें लग जाएं, तो भी नामा हरि के गुण गाता रहेगा (और दबाव में आ के खुदा खुदा नहीं कहेगा)।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात घड़ी जब बीती सुणी ॥ अजहु न आइओ त्रिभवण धणी ॥१४॥

मूलम्

सात घड़ी जब बीती सुणी ॥ अजहु न आइओ त्रिभवण धणी ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिभवण धनी = त्रिलोकी का मालिक प्रभु।14।
अर्थ: (बादशाह ने गाय जिंदा करने के लिए एक पहर की मोहलत दी हुई थी) जब (घड़ी पर) सात घड़ियां गुज़री सुनी, तो (मैंने नामे ने सोचा कि) अभी तक भी त्रिलोकी का मालिक प्रभु नहीं आया।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाखंतण बाज बजाइला ॥ गरुड़ चड़्हे गोबिंद आइला ॥१५॥

मूलम्

पाखंतण बाज बजाइला ॥ गरुड़ चड़्हे गोबिंद आइला ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाखंतण = पंख। बाज = बाजा। बजाइला = बजाया। आइला = आया।15।
अर्थ: (बस! उसी वक्त) पंखों के फड़कने की आवाज़ आई, विष्णू भगवान गरुड़ पर चढ़ कर आ गया।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने भगत परि की प्रतिपाल ॥ गरुड़ चड़्हे आए गोपाल ॥१६॥

मूलम्

अपने भगत परि की प्रतिपाल ॥ गरुड़ चड़्हे आए गोपाल ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परि = ऊपर।16।
अर्थ: प्रभु जी गरुड़ पर चढ़ कर आ गए, और उन्होंने अपने भक्त की रक्षा कर ली।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहि त धरणि इकोडी करउ ॥ कहहि त ले करि ऊपरि धरउ ॥१७॥

मूलम्

कहहि त धरणि इकोडी करउ ॥ कहहि त ले करि ऊपरि धरउ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहहि = अगर तू कहे। इकोडी = टेढ़ी, उल्टी। ले करि = पकड़ के। ऊपरि धरउ = मैं टांग दूँ।17।
अर्थ: (गोपाल ने कहा- हे नामदेव!) अगर तू कहे तो मैं धरती टेढ़ी कर दूँ, अगर तू कहे तो इसको पकड़ के उल्टा दूँ,।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहि त मुई गऊ देउ जीआइ ॥ सभु कोई देखै पतीआइ ॥१८॥

मूलम्

कहहि त मुई गऊ देउ जीआइ ॥ सभु कोई देखै पतीआइ ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतीआइ = परता के, तसल्ली कर के।18।
अर्थ: अगर तू कहे तो मरी हुई गाया जीवित कर दूँ, और यहाँ हरेक व्यक्ति तसल्ली से देख ले।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामा प्रणवै सेल मसेल ॥ गऊ दुहाई बछरा मेलि ॥१९॥

मूलम्

नामा प्रणवै सेल मसेल ॥ गऊ दुहाई बछरा मेलि ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेलम = (अरबी) सलम, बाँधना (रस्सी के साथ)। सेल = (फारसी) सूल, खुर, पिछले पैर।19।
अर्थ: (गोपाल की इस कृपा पर) मैंने नामे ने (उन लोगों को) विनती की- (गऊ के पास उसका) बच्चा कर दो। (तो उन्होंने) बछड़ा छोड़ के गाय का दूध दुह लिया।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूधहि दुहि जब मटुकी भरी ॥ ले बादिसाह के आगे धरी ॥२०॥

मूलम्

दूधहि दुहि जब मटुकी भरी ॥ ले बादिसाह के आगे धरी ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुहि = दुह के (दूध)।20।
अर्थ: दूध दुह के जब उन्होंने मटकी भर ली तो वह ले के बादशाह के आगे रख दी।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादिसाहु महल महि जाइ ॥ अउघट की घट लागी आइ ॥२१॥

मूलम्

बादिसाहु महल महि जाइ ॥ अउघट की घट लागी आइ ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउघट की घट = मुश्किल घड़ी।21।
अर्थ: बादशाह महलों में चला गया (और वहाँ उस पर) मुश्किल घड़ी आ गई (भाव, वह सहम गया)।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजी मुलां बिनती फुरमाइ ॥ बखसी हिंदू मै तेरी गाइ ॥२२॥

मूलम्

काजी मुलां बिनती फुरमाइ ॥ बखसी हिंदू मै तेरी गाइ ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फुरमाइ = हुक्म कर। बखसी = मुझे बख्श। हिंदू = हे हिन्दू!।22।
अर्थ: अपने काज़ियों और मौलवियों के ज़रिए उसने विनती (भेज डाली) - हे हिंदू! मुझे हुक्म कर (जो हुक्म तू देगा मैं करूँगा), मुझे बख्श, मैं तेरी गाय हूँ।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामा कहै सुनहु बादिसाह ॥ इहु किछु पतीआ मुझै दिखाइ ॥२३॥

मूलम्

नामा कहै सुनहु बादिसाह ॥ इहु किछु पतीआ मुझै दिखाइ ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतीआ = तसल्ली।23।
अर्थ: नामा कहता है: हे बादशाह! सुन, मुझे एक तसल्ली करवा दे,।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इस पतीआ का इहै परवानु ॥ साचि सीलि चालहु सुलितान ॥२४॥

मूलम्

इस पतीआ का इहै परवानु ॥ साचि सीलि चालहु सुलितान ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परवान = माप, अंदाजा। साचि = सच में। सीलि = अच्छे स्वभाव में।24।
अर्थ: इस इकरार का माप ये होगा कि हे बादशाह! तू (आगे से) सच्चाई पर चलेगा, अच्छे स्वभाव में रहेगा।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामदेउ सभ रहिआ समाइ ॥ मिलि हिंदू सभ नामे पहि जाहि ॥२५॥

मूलम्

नामदेउ सभ रहिआ समाइ ॥ मिलि हिंदू सभ नामे पहि जाहि ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हर जगह, घर घर में।25।
अर्थ: (यह करिश्मा सुन देख के) घर-घर में नामदेव की बातें होने लगीं, (नगर के) सारे हिन्दू मिल के नामदेव के पास आए (और कहने लगे-)।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ अब की बार न जीवै गाइ ॥ त नामदेव का पतीआ जाइ ॥२६॥

मूलम्

जउ अब की बार न जीवै गाइ ॥ त नामदेव का पतीआ जाइ ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर अबकी बार गाय ना जिंदा होती तो नामदेव का ऐतबार जाता रहना था।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामे की कीरति रही संसारि ॥ भगत जनां ले उधरिआ पारि ॥२७॥

मूलम्

नामे की कीरति रही संसारि ॥ भगत जनां ले उधरिआ पारि ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रही = कायम हो गई। संसारि = संसार में।27।
अर्थ: पर प्रभु ने अपने भगतों को, अपने सेवकों को चरणों से लगा के पार कर दिया है, नामदेव की शोभा जगत में बनी रही है;।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल कलेस निंदक भइआ खेदु ॥ नामे नाराइन नाही भेदु ॥२८॥१॥१०॥

मूलम्

सगल कलेस निंदक भइआ खेदु ॥ नामे नाराइन नाही भेदु ॥२८॥१॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेदु = दुख।28।
अर्थ: (यह शोभा सुन के) निंदकों को बड़ा कष्ट और बड़ा दुख हुआ है (क्योंकि वे यह नहीं जानते कि) नामदेव और परमात्मा में कोई दूरी नहीं रह गई।28।1।10।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इसी ही राग के शब्द नंबर 6 की आखिरी तुक में शब्द ‘भक्त जनां’ आया है, यहाँ भी बंद नं: 27 में यही शब्द है। दोनों जगहों पर नामदेव जी अपनी आपबीती सुना के आम असूल की बात सुनाते हैं कि प्रभु अपने भक्तों की इज्जत रखता है।
नोट: बंद नं: 14,15, 16 में नामदेव जी परमात्मा का यह स्वरूप बिलकुल पुराणों के अनुसार हिन्दुओं वाला बताते हैं, क्योंकि एक मुसलमान बादशाह जान से मारने का डरावा देता है और चाहता है कि नामदेव मुसलमान बन जाए। नामदेव जी की माँ समझाती भी है, पर, वे निडर हैं। वैसे भी नामदेव जी परमात्मा के किसी खास स्वरूप के पुजारी नहीं हैं। इसी ही राग में आखिरी शब्द में देखिए, परमात्मा को ‘अब्दाली’ कह के कहते हैं कि मेरे छैणे तूने ही छिनवाए थे। जहाँ हिन्दू अपनी ऊँची जाति का मान कर के नामदेव को मन्दिर से बाहर निकालते हैं, वहाँ नामदेव जी प्रभु को ‘कलंदर, अब्दाली’ कह के मुसलमानी पहरावे और मुसलमानी शब्दों में याद करते हैं।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: स्मरण करने वालों को कोई डर नहीं सता सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरु २ ॥ जउ गुरदेउ त मिलै मुरारि ॥ जउ गुरदेउ त उतरै पारि ॥ जउ गुरदेउ त बैकुंठ तरै ॥ जउ गुरदेउ त जीवत मरै ॥१॥

मूलम्

घरु २ ॥ जउ गुरदेउ त मिलै मुरारि ॥ जउ गुरदेउ त उतरै पारि ॥ जउ गुरदेउ त बैकुंठ तरै ॥ जउ गुरदेउ त जीवत मरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो रब मिल जाता है, (संसार-समुंदर से मनुष्य) पार लांघ जाता है, (यहाँ से) तैर के बैकुंठ में जा पहुँचता है, (दुनिया में) रहते हुए (विकारों से उसका मन) मरा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति सति सति सति सति गुरदेव ॥ झूठु झूठु झूठु झूठु आन सभ सेव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सति सति सति सति सति गुरदेव ॥ झूठु झूठु झूठु झूठु आन सभ सेव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति = सदा स्थिर रहने वाली। गुरदेव = गुरु (की सेवा)। आन = अन्य।1। रहाउ।
अर्थ: और सब (देवताओं की) सेवा-पूजा व्यर्थ है, व्यर्थ है, व्यर्थ है। ये यकीन जानो कि गुरु की सेवा ही सदा-स्थिर रहने वाला उद्यम है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ त नामु द्रिड़ावै ॥ जउ गुरदेउ न दह दिस धावै ॥ जउ गुरदेउ पंच ते दूरि ॥ जउ गुरदेउ न मरिबो झूरि ॥२॥

मूलम्

जउ गुरदेउ त नामु द्रिड़ावै ॥ जउ गुरदेउ न दह दिस धावै ॥ जउ गुरदेउ पंच ते दूरि ॥ जउ गुरदेउ न मरिबो झूरि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दहदिस = दसों दिशाओं में। पंच = कामादिक।2।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो वह नाम जपने का स्वभाव पक्का कर देता है, (फिर मन) दसों दिशाओं में नहीं दौड़ता, पाँच कामादिक से बचा रहता है, (चिन्ता-फिक्र में) झुर-झुर के नहीं खपता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ त अम्रित बानी ॥ जउ गुरदेउ त अकथ कहानी ॥ जउ गुरदेउ त अम्रित देह ॥ जउ गुरदेउ नामु जपि लेहि ॥३॥

मूलम्

जउ गुरदेउ त अम्रित बानी ॥ जउ गुरदेउ त अकथ कहानी ॥ जउ गुरदेउ त अम्रित देह ॥ जउ गुरदेउ नामु जपि लेहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = उस प्रभु की जो बयान नहीं हो सकता। अंम्रित = पवित्र। देह = शरीर।3।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य के बोल मीठे हो जाते हैं, अकथ प्रभु की बातें करने लग जाता है, शरीर पवित्र हो रहता है, (क्योंकि फिर यह सदा) नाम जपता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ भवन त्रै सूझै ॥ जउ गुरदेउ ऊच पद बूझै ॥ जउ गुरदेउ त सीसु अकासि ॥ जउ गुरदेउ सदा साबासि ॥४॥

मूलम्

जउ गुरदेउ भवन त्रै सूझै ॥ जउ गुरदेउ ऊच पद बूझै ॥ जउ गुरदेउ त सीसु अकासि ॥ जउ गुरदेउ सदा साबासि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीसु = सिर, दिमाग़, मन। अकासि = आकाश में, ऊँचे ठिकाने में, प्रभु चरणों में।4।
अर्थ: अगर गुरु ईश्वर मिल जाए तो मनुष्य को तीनों भवनों की सूझ हो जाती है (भाव, यह समझ आ जलाती है कि प्रभु तीनों भवनों में ही मौजूद है), ऊँची आत्मिक अवस्था से जान-पहचान हो जाती है, मन प्रभु-चरणों में टिका रहता है (हर जगह से) सदा शोभा मिलती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ सदा बैरागी ॥ जउ गुरदेउ पर निंदा तिआगी ॥ जउ गुरदेउ बुरा भला एक ॥ जउ गुरदेउ लिलाटहि लेख ॥५॥

मूलम्

जउ गुरदेउ सदा बैरागी ॥ जउ गुरदेउ पर निंदा तिआगी ॥ जउ गुरदेउ बुरा भला एक ॥ जउ गुरदेउ लिलाटहि लेख ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लिलाटहि = माथे पर।5।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य (दुनिया में रहता हुआ ही) सदा विरक्त रहता है, किसी की निंदा नहीं करता, अच्छे-बुरे सब से प्यार करता है। गुरु को मिल के ही माथे के अच्छे लेख उघड़ते हैं।5।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ कंधु नही हिरै ॥ जउ गुरदेउ देहुरा फिरै ॥ जउ गुरदेउ त छापरि छाई ॥ जउ गुरदेउ सिहज निकसाई ॥६॥

मूलम्

जउ गुरदेउ कंधु नही हिरै ॥ जउ गुरदेउ देहुरा फिरै ॥ जउ गुरदेउ त छापरि छाई ॥ जउ गुरदेउ सिहज निकसाई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंधु = शरीर। न हिरै = (कामादिक कोई भी) चुराता नहीं। छापरि = छपरी, कुल्ली, घर। सिहज = मंजा, चारपाई, पलंग। निकसाई = निकाल दी।6।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो शरीर (विकारों में पड़ के) विनाश नहीं (भाव, मनुष्य विकारों में प्रवृक्त नहीं होता, और ना ही उसकी सत्ता व्यर्थ जाती है); ऊँची जाति आदि के माण वाले मनुष्य गुरु की शरण आए बँदे पर दबाव नहीं डाल सकते, जैसे कि वह देहुरा नामदेव की तरफ पलट गया था जिसमें से उसे धक्के दे के निकाल दिया गया था; गुरु की शरण पड़े गरीब की रक्षा के लिए रब खुद पहुँचता है जैसे कि नामदेव की कुल्ली बनी थी, ईश्वर स्वयं सहाई होता है जैसे कि बादशाह के डरावे देने पर पलंग दरिया में से निकलवा दिया।6।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: बादशाह ने नामदेव को चारपाई दी थी, वह उसने दरिया में फेंक दिया। बादशाह को पता लगा, उसने कहा वापस करो। नामदेव ने दोबारा दरिया में से निकाल दिया)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ त अठसठि नाइआ ॥ जउ गुरदेउ तनि चक्र लगाइआ ॥ जउ गुरदेउ त दुआदस सेवा ॥ जउ गुरदेउ सभै बिखु मेवा ॥७॥

मूलम्

जउ गुरदेउ त अठसठि नाइआ ॥ जउ गुरदेउ तनि चक्र लगाइआ ॥ जउ गुरदेउ त दुआदस सेवा ॥ जउ गुरदेउ सभै बिखु मेवा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। तनि = शरीर पर। दुआदस सेवा = बारह शिव लिंगों की पूजा।7।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो अठारह तीर्थों का स्नान हो गया (जानो), शरीर पर चक्कर लग गए समझो (जैसे बैरागी द्वारिका जा के लगाते हैं), बारह ही शिव-लिंगों की पूजा हो गई समझो; उस मनुष्य के लिए सारे जहर भी मीठे फल बन जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ त संसा टूटै ॥ जउ गुरदेउ त जम ते छूटै ॥ जउ गुरदेउ त भउजल तरै ॥ जउ गुरदेउ त जनमि न मरै ॥८॥

मूलम्

जउ गुरदेउ त संसा टूटै ॥ जउ गुरदेउ त जम ते छूटै ॥ जउ गुरदेउ त भउजल तरै ॥ जउ गुरदेउ त जनमि न मरै ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो दिल के संसे मिट जाते हैं, जमों से (ही) खलासी हो जाती है, संसार-समुंदर से मनुष्य पार लांघ जाता है, जनम-मरन से बच जाता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ गुरदेउ अठदस बिउहार ॥ जउ गुरदेउ अठारह भार ॥ बिनु गुरदेउ अवर नही जाई ॥ नामदेउ गुर की सरणाई ॥९॥१॥२॥११॥

मूलम्

जउ गुरदेउ अठदस बिउहार ॥ जउ गुरदेउ अठारह भार ॥ बिनु गुरदेउ अवर नही जाई ॥ नामदेउ गुर की सरणाई ॥९॥१॥२॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठ दस = अठारह (स्मृतियों का बताया हुआ)। अठारह भार = सारी बनस्पति (के पत्र, फूल आदि पूजा के लिए भेट)। जाई = जगह।9।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो अठारह स्मृतियों के बताए कर्मकांड की आवश्यक्ता नहीं रह जाती, सारी बनस्पति ही (प्रभु-देव की नित्य भेट होती दिखाई दे जाती है)। सतिगुरु के बिना और कोई जगह नहीं (जहाँ मनुष्य जीवन का सही रास्ता पा सके), नामदेव (और सब आसरे-सहारे छोड़ के) गुरु की शरण पड़ा है।9।1।2।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: नामदेव जी तो यहाँ साफ कह रहे हैं कि और देवी-देवताओं की पूजा बिल्कुल व्यर्थ है, एक सतिगुरु की शरण ही समर्थ है; पर यह आश्चर्यजनक खेल है कि लोग नामदेव जी के अपने इन शब्दों पर ऐतबार करने की जगह स्वार्थी लोगों की घड़ी हुई कहानियाँ पढ़-सुन के यही रटन लगाए जा रहे हैं कि नामदेव ने किसी बीठल-मूर्ति की पूजा की और ठाकुर को दूध पिलाया।

दर्पण-भाव

भाव: गुरु के बताए हुए राह पर चलना ही जीवन का सही रास्ता है; और देवी-देवताओं की पूजा बिल्कुल ही निष्फल है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैरउ बाणी रविदास जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

भैरउ बाणी रविदास जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु देखे उपजै नही आसा ॥ जो दीसै सो होइ बिनासा ॥ बरन सहित जो जापै नामु ॥ सो जोगी केवल निहकामु ॥१॥

मूलम्

बिनु देखे उपजै नही आसा ॥ जो दीसै सो होइ बिनासा ॥ बरन सहित जो जापै नामु ॥ सो जोगी केवल निहकामु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आसा = (पारस = प्रभु से छूने की) तमन्ना। बरन = वर्णन, प्रभु के गुणों का वर्णन, महिमा। सहित = समेत। जापै = जपता है। निहकामु = कामना रहित, वासना रहित।1।
अर्थ: (पर, पारस प्रभु के चरण छूने आसान काम नहीं है, क्योंकि वह इन आँखों से नहीं दिखाई देता, और) उसको देखे बिना (उस पारस-प्रभु के चरण छूने की) तमन्ना पैदा नहीं होती, (इस दिखाई देते संसार के साथ ही मोह बना रहता है,) और, और यह जो कुछ दिखाई देता है यह सब नाश हो जाने वाला है। जो मनुष्य प्रभु के गुण गाता है, और, प्रभु का नाम जपता है, सिर्फ वही असल जोगी है और वह कामना-रहित हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परचै रामु रवै जउ कोई ॥ पारसु परसै दुबिधा न होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

परचै रामु रवै जउ कोई ॥ पारसु परसै दुबिधा न होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परचै = परच जाता है, गिझ जाता है, विकारों से हट जाता है। जउ = जब। परसै = छूता है।1। रहाउ।
अर्थ: जब कोई मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है तो उसका मन प्रभु में परच जाता है; जब पारस-प्रभु को वह छूता है (वह, मानो, सोना हो जाता है), और, उसकी मेर-तेर समाप्त हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो मुनि मन की दुबिधा खाइ ॥ बिनु दुआरे त्रै लोक समाइ ॥ मन का सुभाउ सभु कोई करै ॥ करता होइ सु अनभै रहै ॥२॥

मूलम्

सो मुनि मन की दुबिधा खाइ ॥ बिनु दुआरे त्रै लोक समाइ ॥ मन का सुभाउ सभु कोई करै ॥ करता होइ सु अनभै रहै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाइ = खा जाता है, समाप्त कर देता है। दुबिधा = दोचिक्तापन, मेर तेर, प्रभु से विछुड़ना। त्रैलोक = तीनों लोकों में व्यापक प्रभु में। बिनु दुआरे = जिस प्रभु का दस द्वारों वाला शरीर नहीं है। सभु कोइ = हरेक जीव। करता होइ = (नाम स्मरण वाला मनुष्य) कर्तार का रूप हो जाता है। अनभै = भय रहित अवस्था में।2।
अर्थ: (नाम-स्मरण वाला) वह मनुष्य (असल) ऋषि है, वह (नाम की इनायत से) अपने मन की मेर-तेर मिटा लेता है, और उस प्रभु में समाया रहता है जिसका कोई खास शरीर नहीं है। (जगत में) हरेक मनुष्य अपने-अपने मन का स्वभाव बरतता है (अपने मन के पीछे चलता है, पर नाम-स्मरण वाला मनुष्य अपने मन के पीछे चलने के जगह, नाम की इनायत से) कर्तार का रूप हो जाता है, और, उस अवस्था में टिका रहता है जहाँ कोई डर-भय नहीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फल कारन फूली बनराइ ॥ फलु लागा तब फूलु बिलाइ ॥ गिआनै कारन करम अभिआसु ॥ गिआनु भइआ तह करमह नासु ॥३॥

मूलम्

फल कारन फूली बनराइ ॥ फलु लागा तब फूलु बिलाइ ॥ गिआनै कारन करम अभिआसु ॥ गिआनु भइआ तह करमह नासु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारन = वास्ते। बनराइ = बनस्पति। फूली = फूलती है, खिलती है। बिलाइ = दूर हो जाती है। करम = दुनिया की मेहनत-कमाई। अभिआसु = बार बार करना। करम अभिआसु = दुनिया की रोजाना की मेहनत-कमाई। गिआनै कारन = ज्ञान की खातिर, प्रभु में परचने की खातिर, ऊँचे जीवन में सूझ वास्ते, जीवन का सही रास्ता ढूँढने के लिए। तह = उस अवस्था में पहुँच के। करमह नासु = कर्मों का नाश, मेहनत-कमाई के मोह का नाश।3।
अर्थ: (जगत की सारी) बनस्पति फल देने के लिए खिलती है; जब फल लगता है फूल दूर हो जाता है। इसी तरह दुनिया की रोजाना की मेहनत-कमाई ज्ञान की खातिर है (प्रभु में परचने के लिए है, उच्च-जीवन की सूझ के लिए है), जब ऊँचे-जीवन की समझ पैदा हो जाती है, तो उस अवस्था में पहुँच के मेहनत-कमाई का (मायावी-उद्यमों का) मोह मिट जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घ्रित कारन दधि मथै सइआन ॥ जीवत मुकत सदा निरबान ॥ कहि रविदास परम बैराग ॥ रिदै रामु की न जपसि अभाग ॥४॥१॥

मूलम्

घ्रित कारन दधि मथै सइआन ॥ जीवत मुकत सदा निरबान ॥ कहि रविदास परम बैराग ॥ रिदै रामु की न जपसि अभाग ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रित = घृत, घी। दधि = दही। मथै = मथती है। सइआन = सयानी स्त्री। निरबान = निर्वाण, वासना रहित। की न = क्यों नहीं? अभाग = हे भाग्यहीन!।4।
अर्थ: समझदार स्त्री घी की खातिर दही मथती है (वैसे ही जो मनुष्य नाम जप के प्रभु-चरणों में परचता है वह जानता है कि दुनिया का जीवन-निर्वाह, दुनिया की मेहनत-कमाई प्रभु-चरणों में जुड़ने के लिए ही है। सो, वह मनुष्य नाम की इनायत से) माया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही मुक्त होता है और सदा वासना-रहित रहता है। रविदास यह सबसे ऊँचे वैराग (की प्राप्ति) की बात बताता है; हे भाग्य-हीन! प्रभु तेरे हृदय में ही है, तू उसको क्यों याद नहीं करता?।4।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है, बाकी के शब्द में उसकी व्याख्या।
नोट: पाठक जन ‘रहाउ’ की तुक का ध्यान रखें। सारे शब्द में उस जीवन का विस्तार है जो नाम के स्मरण करने से बनता है; इसी केन्द्रिया-विचार के इर्द-गिर्द ही सारे शब्द ने रहना है। किसी कर्मकांड का कोई जिकर रविदास जी ने ‘रहाउ’ की तुक में नहीं छेड़ा। इस बंद नंबर.3 में यह बड़ी ही गलत बात होगी अगर शब्द ‘करम’ का अर्थ ‘कर्मकांड’ करेंगे।

दर्पण-भाव

मुख्य भाव: जो मनुष्य नाम स्मरण करता है उसका मन प्रभु में परच जाता है; पारस-प्रभु को छू के वह, मानो, सोना हो जाता है।
बाकी के शब्द में उस सोना बन गए मनुष्य के जीवन की तस्वीर दी है: 1. ‘निहकामु’, वासना रहित हो जाता है; 2. दुबिधा मिट जाती है और वह निर्भय हो जाता है; 3. मेहनत-कमाई का मोह मिट जाता है; 4. सिरे की बात ये कि जीवित ही मुक्त हो जाता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जब भी किसी कवि की किसी लिखत के बारे में कोई शक पैदा हो, तो उसको समझने का सही तरीका यही हो सकता है कि उस पहेली को उसी की बाकी और रचनाओं में से समझा जाए। कवि जहाँ अपनी बोली को बरतता, और सँवारता-श्रृंगारता है, वहीं वह पुराने शब्दों, पुराने मुहावरों और पुराने बरते दृष्टांतों को नए तरीके से भी बरतता और बरत सकता है। गुरु गोबिंद सिंह जी के शब्द ‘भगौती’ के प्रयोग से कई लोग ये गलती खाने लग पड़े कि सतिगुरु जी ने देवी-पूजा अथवा शस्त्र-पूजा की। पर जब इस शब्द को उनकी अपनी ही (गुरु गोबिंद सिंह जी की) रचना में बरत के ध्यान से देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि शब्द ‘भगौती’ परमात्मा की बाबत उन्होंने बरता है। रामकली राग में दी वाणी ‘सदु’ से कई लोग घबराते थे कि इसमें कर्मकांड करने की आज्ञा की है, पर यह सिर्फ भुलेखा ही था (पढें मेरी पुस्तक ‘सदु स्टीक’)। यह वाणी उन महाँपुरुषों की है जो हमसे दूर उच्च चोटी पर खेल रहे थे, ऊँचे-विचार-मण्डलों में उड़ानें भर रहे थे। इसको समझने के लिए इसमें जुड़ना पड़ेगा, माया में खेलते मन को थोड़ा सा रोक के इधर काफी समय देना पड़ेगा, तब ही उनकी गहराई में पहुँचने की आस हो सकती है।
वेदांती लोगों ने यह प्रचार किया है कि ये जगत मिथ्या है, असल में इस जगत की कोई हस्ती ही नहीं है, माया का पर्दा पड़ने के कारण जीव को यह भ्रम हो गया है कि जगत की कोई हस्ती है। उन्होंने ये बात समझाने के लिए रस्सी और साँप का दृष्टांत दिया कि अंधेरे के कारण रस्सी को साँप समझा गया, असल में साँप कहीं है ही नहीं था। रविदास जी ने भी यही दृष्टांत बरत लिया। पर इस बात से ये भाव नहीं लिया जा सकता कि रविदास जी वेदांती थे। ये दृष्टांत वेदांतियों की जागीर नहीं हो गया। देखें राग सोरठि, शब्द– ‘जब हम होते’। कर्मकांडियों ने फल और फूल का दृष्टांत बरता, रविदास जी ने भी इसको बरत लिया; पर इसका ये मतलब नहीं निकल सकता कि रविदास जी कर्मकांडी थे। आखिर रविदास जी कौन सी उच्च-कुल के ब्राहमण थे कि वे किसी कर्मकांड से चिपके रहते? ना जनेऊ पहनने का अधिकार, ना मन्दिर में जाने की आज्ञा, ना किसी श्राद्ध के वक्त ब्राहमण ने उनके घर का खाना, ना संध्या-तर्पण-गायत्री आदि का उनको कोई हक। फिर, वह कौन सा कर्मकांड था जिसका शौक रविदास जी को हो सकता था?
रविदास जी ने इस शब्द में नाम-जपने वाले व्यक्ति के ऊँचे जीवन का वर्णन किया है।
इसी ही राग में दिया हुआ गुरु अमरदास जी का निम्न-लिखित शब्द रविदास जी के इस शब्द का आनंद लेने के लिए बहुत ही सहायक सिद्ध होगा।
रागु भैरउ महला ३॥ सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे॥ दुबिधा मारि ब्रहमु बीचारे॥१॥ इसु मन कउ कोई खोजहु भाई॥ मनु खोजत नामु नउ निधि पाई॥१॥ रहाउ॥ मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ॥ ममता लाइ भरमि भुोलाइआ॥२॥ इसु मन ते सभ पिंड पराणा॥ मन कै वीचारि हुकमु बूझि समाणा॥३॥ करमु होवै गुरु किरपा करै॥ इहु मनु जागै इसु मन की दुबिधा मरै॥४॥ मन का सुभाउ सदा बैरागी॥ सभ महि वसै अतीतु अनरागी॥५॥ कहत नानकु जो जाणै भेउ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ॥६॥५॥ (पन्ना 1128–1129)
जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर हो उस पर गुरु कृपा करता है, उसका मन माया के मोह में से जाग उठता है। जो बात रविदास जी ने ‘करमह नासु’ में इशारे मात्र कही है, वह गुरु अमरदास जी ने दूसरे बंद से पाँचवें बंद तक स्पष्ट शब्दों में समझा दी है कि ‘करमह नासु’ का भाव है ‘मोह ममता का नाश’।
नोट: इन दोनों शबदों को इकट्ठे रख के पढ़ने से ये बात यकीनन पक्की नहीं हो गई कि गुरु अमरदास जी का ये शब्द भक्त रविदास जी के शब्द की प्रथाय है? दूसरे शब्दों में ये कह लो कि ये शब्द उचारने के वक्त गुरु अमरदास जी के पास भक्त रविदास जी का शब्द मौजूद था। दोनों शबदों के कई शब्दों व तुकों में सांझ सबब से नहीं बन गई। ये विचार समूचे तौर पर गलत है कि भक्तों की वाणी गुरु अरजन देव जी ने एकत्र की थी। सतिगुरु नानक देव जी ने पहली ‘उदासी’ के समय बनारस जा के भक्त रविदास जी के सारे शब्द लिख लिए। अपनी वाणी के साथ संभाल के ये शब्द गुरु नानक देव जी ने गुरु अंगद देव जी को दिए। उनसे ये सारी वाणी गुरु अमरदास जी को मिली।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: नाम-जपने की बड़ाई-नाम-जपने की इनायत से मनुष्य माया के मोह वाला विकार (हठ) छोड देता है, वासना-रहित (निर्वाण) हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामदेव ॥ आउ कलंदर केसवा ॥ करि अबदाली भेसवा ॥ रहाउ॥

मूलम्

नामदेव ॥ आउ कलंदर केसवा ॥ करि अबदाली भेसवा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आउ = आइए, स्वागतम्। कलंदर = हे कलंदर! केसवा = हे केशव! हे सुदर केसों वाले प्रभु! करि = कर के। अबदाली भेसवा = अब्दाली फकीरों वाला सुंदर भेस। रहाउ।
अर्थ: हे (सुंदर जुल्फों वाले) कलंदर प्रभु! हे सुंदर केशों वाले प्रभु! तू अब्दालनी फकीरों वाला पहरावा पहन के (आया है); आईए, (स्वागत है, आ, मेरे हृदय-मस्जिद में आ बैठ)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि आकास कुलह सिरि कीनी कउसै सपत पयाला ॥ चमर पोस का मंदरु तेरा इह बिधि बने गुपाला ॥१॥

मूलम्

जिनि आकास कुलह सिरि कीनी कउसै सपत पयाला ॥ चमर पोस का मंदरु तेरा इह बिधि बने गुपाला ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (तुझ) ने। कुलह = कुल्ला, टोपी। सिरि = सिर पर। कउसै = खड़ावें। प्याला = पाताल। चमर पोस = चमड़े की पोशाक वाले, सारे जीव-जंतु। मंदरु = घर। गुपाला = हे धरती के रक्षक!।1।
अर्थ: (हे कलंदर! हे केशव! तू आ, तू) जिस ने (सात) आसमानों को कुल्ला (बना के अपने) सिर पर पहना हुआ है, जिसने सात पातालों को अपनी खड़ावें (बना के) पहनी हुई हैं। हे कलंदर-प्रभु! सारे जीव-जंतु तेरे बसने के लिए निवास-स्थान (घर) हैं। हे धरती के रक्षक! तू इस तरह का बना हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छपन कोटि का पेहनु तेरा सोलह सहस इजारा ॥ भार अठारह मुदगरु तेरा सहनक सभ संसारा ॥२॥

मूलम्

छपन कोटि का पेहनु तेरा सोलह सहस इजारा ॥ भार अठारह मुदगरु तेरा सहनक सभ संसारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छपन कोटि = छप्पन करोड़। मेघ माला = छपपन करोड़ बादल। पेहन = चोगा। सोलह सहस = सोलह हजार (आलम)। इजारा = तंबा। भार अठारह = बनस्पति के अठारह भार, सारी बनस्पति। मुदहरु = मुतहिरा, सलोतर, मुदगर, डंडा जो फकीर लोग आम तौर पर हाथ में रखते हैं। सहनक = मिट्टी की रकेबी।2।
अर्थ: (ओ मायावी प्रभू!) छप्पन करोड़ (मेघ माला) तेरा जामा है, सोलह हजार आलम का तेरा पतलून है; हे केशव (प्रभू)! पूरी वनस्पति तुम्हारी मुद्गर है, और पूरी दुनिया आपकी प्लाटून है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देही महजिदि मनु मउलाना सहज निवाज गुजारै ॥ बीबी कउला सउ काइनु तेरा निरंकार आकारै ॥३॥

मूलम्

देही महजिदि मनु मउलाना सहज निवाज गुजारै ॥ बीबी कउला सउ काइनु तेरा निरंकार आकारै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देही = (मेरा) शरीर। महजिदि = मस्जिद। मउलाना = मौलवी, मुल्लां। सहज = अडोलता। सहज निवाज = अडोलता रूप नमाज़। कउला = माया। सउ = साथ। काइनु = निकाह, विवाह। निरंकार = हे निरंकार! हे आकार रहित प्रभु! आकार = जगत। निरंकार आकारै = हे सारे जगत के निरंकार!।3।
अर्थ: (हे कलंदर प्रभु! आ, मेरी मस्जिद में आ) मेरा शरीर (तेरे लिए) मस्जिद है, मेरा मन (तेरे नाम की बाँग देने वाला) मुल्ला है, और (तेरे चरणों में जुड़ा रह के) अडोलता की नमाज़ पढ़ रहा है। हे सारे जगत के मालिक निरंकार! बीबी लक्ष्मी के साथ तेरा निकाह हुआ है (भाव, यह सारी माया तेरे चरणों की ही दासी है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति करत मेरे ताल छिनाए किह पहि करउ पुकारा ॥ नामे का सुआमी अंतरजामी फिरे सगल बेदेसवा ॥४॥१॥

मूलम्

भगति करत मेरे ताल छिनाए किह पहि करउ पुकारा ॥ नामे का सुआमी अंतरजामी फिरे सगल बेदेसवा ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छिनाए = छिनवा दिए। किह पहि = और किस के पास? पुकारा = पुकार, शिकायत, फरियाद। फिरै = फिरता है, व्यापक है। सगल बेदेसवा = सारे देशों में।4।
अर्थ: (हे कलंदर प्रभु!) मुझे भक्ति करते को तूने मन्दिर में से निकलवाया, (तुझे छोड़ के मैं और) किस के आगे दिल की बातें करूँ? (हे भाई!) नामदेव का मालिक-परमात्मा हरेक जीव के अंदर की जानने वाला है, और सारे देशों में व्यापक है।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: नाम-जपने की इनायत- निडरता, उच्च-जाति वाले लोगों की ज्यादतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बँदगी वाले मुसलमान फकीर केस (जुल्फें) रखते हैं, इस लिए ‘कलंदर’ के साथ शब्द ‘केसव’ भी बरता है। अब्दाली फकीर सिर पर कुल्ला (ऊँची नोक वाली टोपी) पहनते हैं; बड़ा चोला, लंबा तंबा आदि उनकी पोशाक होती है। नामदेव जी किसी अब्दाली फकीर को देख के परमात्मा को भी अब्दाली के रूप में बयान करते हैं। जब बादशाह ने डरावे दिए, तो नामदेव जी कहने लगे कि मेरे इज्जत रखने के लिए ‘गरुड़ चढ़े गोबिंदु आइला’। निडर हो के एक कट्टर मुसलमान के सामने परमात्मा का वह स्वरूप बताते हैं जो हिन्दू पुराणों में मिथा हुआ है। पर जब मन्दिर में से निकाले जाने का वर्णन करते हैं तो अपने प्रभु को मुसलमानी रूप में बयान करते हैं। किसी खास स्वरूप के पुजारी नहीं हैं, उनका परमात्मा ‘सगल बेदेसवा’ में फिरने वाला (व्यापक) है।
नोट: इस्लामी विचार के अनुसार कोई अठारह हजार व कोई सोलह हजार आलम (जहान) कहते हैं। कई विद्वान सज्जन इसका अर्थ ‘सोलह हजार गोपियाँ’ करते आ रहे हैं। पर यह बिल्कुल ही गलत और बेजोड़ सा है; प्रभु का स्वरूप बयान करते हुए सारे आकाश, सारे पाताल, सारे जीव-जंतु, सारी मेघ-मालाएं, सारी बनस्पति, सारा संसार उस प्रभु के बाहरी लिबास का हिस्सा बताते हैं। बेअंत जीव पैदा करने वाले प्रभु के ‘इजार’ के लिए ‘सोलह हजार गोपियां’ कोई महिमा की बात नहीं है; ये तो सुल्तान को मीयाँ कहने वाली बात भी नहीं।
नोट: शब्द ‘छीने’ और छिनाऐ’ अलग-अलग अर्थ वाले हैं। किसी उस ‘कलंदर’ को संबोधन नहीं कर रहे, जिसने नामदेव के छैने ‘छीने’; सर्व-व्यापक प्रभु का अब्दाली भेस बयान करते हुए कहते हैं कि तूने ही मेरे छैणे ‘छिनवाए’। नामदेव जी ने शब्द ‘ताल छिनाऐ’ उसी प्रकार बरता है जिस तरह कबीर जी ने ‘यह माला अपुनी लीजै’ बरता है। ना कबीर जी गले में माला डाले फिरते थे, ना ही नामदेव जी हाथ में छैणे लिए फिरते थे। छैणे आम तौर पर मन्दिरों में ही आरती के वक्त बजाए जाते हैं; सो, ‘ताल छिनाऐ’ का भाव है कि मन्दिर में से धक्के दिलवाए, मन्दिर में से निकलवा दिया। (देखें बिलावल कबीर जी: ‘नित उठि कोरी गागरि’; और सोरठि कबीर जी: ‘भूखे भगति न कीजै’ में मेरा लिखा नोट)।