[[1118]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ४ घरु १
मूलम्
केदारा महला ४ घरु १
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन राम नाम नित गावीऐ रे ॥ अगम अगोचरु न जाई हरि लखिआ गुरु पूरा मिलै लखावीऐ रे ॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन राम नाम नित गावीऐ रे ॥ अगम अगोचरु न जाई हरि लखिआ गुरु पूरा मिलै लखावीऐ रे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हे मेरे मन = हे मेरे मन! नित = नित्य, सदा। गावीऐ = गाना चाहिए, स्मरणा चाहिए। अगम = अगम्य, अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरू = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे हो। न जाई लखिआ = समझा नहीं जा सकता। लखावीऐ = समझा जा सकता है। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए। हे मन! वह परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (मनुष्य की अपनी अक्ल से वह) समझा नहीं जा सकता। जब पूरा गुरु मिलता है तब उसको समझा जा सकता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु आपे किरपा करे मेरा सुआमी तिसु जन कउ हरि लिव लावीऐ रे ॥ सभु को भगति करे हरि केरी हरि भावै सो थाइ पावीऐ रे ॥१॥
मूलम्
जिसु आपे किरपा करे मेरा सुआमी तिसु जन कउ हरि लिव लावीऐ रे ॥ सभु को भगति करे हरि केरी हरि भावै सो थाइ पावीऐ रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। कउ = को। लिव = लगन, प्रीत। लावीऐ = लगती है। सभु को = हरेक जीव। केरी = की। हरि भावै = (जो मनुष्य) हरि को अच्छा लगता है। थाइ पावीऐ = जगह पर पाया जाता है, स्वीकार होता है।1।
अर्थ: हे मेरे मन! मेरा मालिक प्रभु जिस मनुष्य पर स्वयं ही कृपा करता है, उस मनुष्य को प्रभु (अपने चरणों का) प्यार लगाता है। हे मन! (अपनी ओर से) हरेक जीव परमात्मा की भक्ति करता है, पर वही मनुष्य (उसके दर पर) स्वीकार होता है जो उसको प्यारा लगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु अमोलकु हरि पहि हरि देवै ता नामु धिआवीऐ रे ॥ जिस नो नामु देइ मेरा सुआमी तिसु लेखा सभु छडावीऐ रे ॥२॥
मूलम्
हरि हरि नामु अमोलकु हरि पहि हरि देवै ता नामु धिआवीऐ रे ॥ जिस नो नामु देइ मेरा सुआमी तिसु लेखा सभु छडावीऐ रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमोलकु = अमूल्य, जो किसी (दुनियावी) मूल्य से नहीं मिल सकता। पहि = पास। देवै = देता है। ता = तब। धिआवीऐ = स्मरण किया जा सकता है। देइ = देता है। तिसु लेखा = उस (के कर्मों का लेखा)। सभु = सारा। छडावीऐ = छुड़ाया जाता है, समाप्त किया जाता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कासरण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम किसी दुनियावी मूल्य से नहीं मिल सकता, (उसका यह नाम उस) परमात्मा के (अपने) पास है। जब परमात्मा (किसी को नाम की दाति) देता है, तब ही स्मरण किया जा सकता है।
हे मन! मेरा मालिक प्रभु जिस मनुष्य को अपना नाम देता है उस (के पिछले किए हुए कर्मों का) सारा हिसाब समाप्त हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि नामु अराधहि से धंनु जन कहीअहि तिन मसतकि भागु धुरि लिखि पावीऐ रे ॥ तिन देखे मेरा मनु बिगसै जिउ सुतु मिलि मात गलि लावीऐ रे ॥३॥
मूलम्
हरि नामु अराधहि से धंनु जन कहीअहि तिन मसतकि भागु धुरि लिखि पावीऐ रे ॥ तिन देखे मेरा मनु बिगसै जिउ सुतु मिलि मात गलि लावीऐ रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अराधहि = जपते है (बहुवचन)। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। धंनु जन = (धन्य) भाग्यशाली मनुष्य। कहीअहि = कहे जाते हैं। मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। भागु लिखि पावीऐ = अच्छी किस्मत लिख के पाई जाती है। तिन देखे = उनको देखा। बिगसै = खिल उठता है, खुश होता है। सुतु = पुत्र। मिलि मात = माँ को मिल के। गलि = गले से। लावीऐ = लगाया जाता है।3।
अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वह मनुष्य भाग्यशाली कहे जाते हैं। उनके माथे पर धुर से ही प्रभु की हजूरी से लिखी अच्छी किस्मत उनको प्राप्त हो जाती है। हे भाई! उनके दर्शन करने से मेरा मन (इस तरह) खुश होता है, जैसे पुत्र (अपनी) माँ को मिल के (खुश होता है), वह माँ के गले से चिपक जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम बारिक हरि पिता प्रभ मेरे मो कउ देहु मती जितु हरि पावीऐ रे ॥ जिउ बछुरा देखि गऊ सुखु मानै तिउ नानक हरि गलि लावीऐ रे ॥४॥१॥
मूलम्
हम बारिक हरि पिता प्रभ मेरे मो कउ देहु मती जितु हरि पावीऐ रे ॥ जिउ बछुरा देखि गऊ सुखु मानै तिउ नानक हरि गलि लावीऐ रे ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बारिक = बच्चे, बालक (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभु! मो कउ = मुझे। मती = शिक्षा। जितु = जिस (मति) से। पावीऐ = पाया जा सकता है। बछुरा = बछरा। देखि = देख के। गऊ सुखु मानै = गाय खुश होती है। हरि गलि = हरि के गले से। लावीऐ = लगाया जाता है।4।
अर्थ: हे मेरे पिता-प्रभु! हम जीव तेरे बच्चे हैं। (हे प्रभु!) मुझे ऐसी मति दे, जिससे तेरा नाम प्राप्त हो सके।
हे नानक! जैसे गाय (अपने) बछरे को देख के प्रसन्न होती है वैसे ही वह भाग्यशाली मनुष्य सुखी महसूस करता है जिसको परमात्मा अपने गले से लगा लेता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
केदारा महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन हरि हरि गुन कहु रे ॥ सतिगुरू के चरन धोइ धोइ पूजहु इन बिधि मेरा हरि प्रभु लहु रे ॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन हरि हरि गुन कहु रे ॥ सतिगुरू के चरन धोइ धोइ पूजहु इन बिधि मेरा हरि प्रभु लहु रे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे मेरे मन = हे मेरे मन! कहु = उचारा कर। धोइ = धो कर। इन बिधि = इस तरह। लहु = ढूँढ लो। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के गुण गाया कर। गुरु के चरण धो-धो के पूजा कर (भाव, अहंकार छोड़ के गुरु के चरण पड़ा रह)। हे मन! इस तरीके से प्यारे प्रभु को ढूँढ ले। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु बिखै रस इन संगति ते तू रहु रे ॥ मिलि सतसंगति कीजै हरि गोसटि साधू सिउ गोसटि हरि प्रेम रसाइणु राम नामु रसाइणु हरि राम नाम राम रमहु रे ॥१॥
मूलम्
कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु बिखै रस इन संगति ते तू रहु रे ॥ मिलि सतसंगति कीजै हरि गोसटि साधू सिउ गोसटि हरि प्रेम रसाइणु राम नामु रसाइणु हरि राम नाम राम रमहु रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभिमान = अहंकार। बिखै रस = विषियों के स्वाद। इन संगति ते = इनकी संगति से। रहु = हट जा। मिलि = मिल के। कीजै = करनी चाहिए। गोसटि = विचार। हरि गोसटि = परमात्मा के गुणों की विचार। साधू सिउ = गुरु से, गुरसिख से। रसाइणु = (रस+अयन) सारे रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस। रमहु = स्मरण करो।1।
अर्थ: हे मन! काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, विषियों के चस्के - इनसे हमेशा दूर बना रह। हे मन! साधु-संगत में मिल के हरि-गुणों की विचार करनी चाहिए। हे मेरे मन! परमात्मा का प्यार सब रसों से श्रेष्ठ रस है, परमात्मा का नाम सारे रसों का घर है। सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर।1।
[[1119]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतर का अभिमानु जोरु तू किछु किछु किछु जानता इहु दूरि करहु आपन गहु रे ॥ जन नानक कउ हरि दइआल होहु सुआमी हरि संतन की धूरि करि हरे ॥२॥१॥२॥
मूलम्
अंतर का अभिमानु जोरु तू किछु किछु किछु जानता इहु दूरि करहु आपन गहु रे ॥ जन नानक कउ हरि दइआल होहु सुआमी हरि संतन की धूरि करि हरे ॥२॥१॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतर का = अंदर का। जोरु = हैंकड़। आपन गहु = अपने आप को वश में रखो। कउ = को, पर। सुआमी = हे स्वामी! हरे = हे हरि! करि = बना दे।2।
अर्थ: हे भाई! अपने अंदर का ये गुमान-हैंकड़ दूर कर कि तू बहुत कुछ जानता है (कि तू बड़ा समझदार है)। हे भाई! अपने आप को वश में रख।
हे हरि! हे स्वामी! दास नानक पर दयावान हो। (दास नानक को) संत जनों के चरणों की धूल बनाए रख।2।1।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
केदारा महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई संतसंगि जागी ॥ प्रिअ रंग देखै जपती नामु निधानी ॥ रहाउ॥
मूलम्
माई संतसंगि जागी ॥ प्रिअ रंग देखै जपती नामु निधानी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! संत संगि = गुरु की संगति में। जागी = (माया के मोह की नींद में से) जाग उठती है। प्रिअ रंग = प्यारे (प्रभु) के करिश्मे (बहुवचन)। देखै = देखती है। जपती = जपती = जपती। निधानी = निधान वाली, खजाने की मालिक, सुखों के खजाने का मालिक। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (जो जीव-स्त्री) गुरु की संगति में (टिक के माया के मोह की नींद में से) जाग उठती है, (वह हर तरफ) प्यारे प्रभु के ही (किए) करिश्मे देखती है, (वह जीव-स्त्री परमात्मा का) नाम जपती सुखों के खजाने वाली बन जाती है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसन पिआस लोचन तार लागी ॥ बिसरी तिआस बिडानी ॥१॥
मूलम्
दरसन पिआस लोचन तार लागी ॥ बिसरी तिआस बिडानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिआस = चाहत। लोचन = आँखें। लोचन तार = आँखों की तार। तिआस = प्यास। बिडानी = बेगानी, और-और तरफ की।1।
अर्थ: हे माँ! (जो जीव-स्त्री गुरु की संगति में टिक के माया के मोह की नींद से जाग उठती है, उसके अंदर परमात्मा के) दर्शनों की तड़प बनी रहती है (दशर्नों के इन्तजार में उसकी) आँखों की तार बँधी रहती है। उसे और किसी की प्यास याद ही नहीं रहती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब गुरु पाइओ है सहज सुखदाइक दरसनु पेखत मनु लपटानी ॥ देखि दमोदर रहसु मनि उपजिओ नानक प्रिअ अम्रित बानी ॥२॥१॥
मूलम्
अब गुरु पाइओ है सहज सुखदाइक दरसनु पेखत मनु लपटानी ॥ देखि दमोदर रहसु मनि उपजिओ नानक प्रिअ अम्रित बानी ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब। सहज = आत्मिक अडोलता। दाइक = देने वाला। पेखत = देखते हुए। लपटानी = मगन हो जाता है। देखि = देख के। दमोदर = (दाम+उदर। दाम = रस्सी, तगाड़ी। उदर = पेट। जिसकी कमर पे तगाड़ी है, कृष्ण) परमात्मा। नानक = हे नानक! प्रिअ बानी = प्यारे प्रभु की महिमा की वाणी। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। रहसु = उल्लास, खुशी।2।
अर्थ: हे माँ! (मुझे भी) अब आत्मिक अडोलता वाला आनंद देने वाला गुरु मिल गया है। (उसके) दर्शन करके (मेरा) मन (उसके चरणों से) लिपट गया है।
हे नानक! (कह: हे माँ!) परमात्मा के दर्शन कर के मन में हुल्लास पैदा हो जाता है। हे माँ! प्यारे प्रभु की महिमा की वाणी आत्मिक जीवन देने वाली है।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
केदारा महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन बिनउ सुनु दइआल ॥ पंच दास तीनि दोखी एक मनु अनाथ नाथ ॥ राखु हो किरपाल ॥ रहाउ॥
मूलम्
दीन बिनउ सुनु दइआल ॥ पंच दास तीनि दोखी एक मनु अनाथ नाथ ॥ राखु हो किरपाल ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन बिनउ = दीन की विनती, गरीब की प्रार्थना। दइआल = हे दयाल! पंच दास = कामादिक पाँच गुलाम। तीनि = रजो, तमो, सतो, ये तीनों ही। दोखी = वैरी। अनाथ नाथ = हे अनाथों के नाथ! हो किरपाल = हे कृपालु! रहाउ।
अर्थ: हे दयालु प्रभु! हे अनाथों के नाथ! मेरी गरीब की विनती सुन- (मेरा यह) एक मन है, (कामादिक) पाँचों (कामादिकों) का गुलाम (बना हुआ) है, माया के तीन गुण इसके वैरी हैं। हे कृपाल प्रभु! (मुझे इनसे) बचा ले। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जतन गवनु करउ ॥ खटु करम जुगति धिआनु धरउ ॥ उपाव सगल करि हारिओ नह नह हुटहि बिकराल ॥१॥
मूलम्
अनिक जतन गवनु करउ ॥ खटु करम जुगति धिआनु धरउ ॥ उपाव सगल करि हारिओ नह नह हुटहि बिकराल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गवनु करउ = (मैं तीर्थों के) गवन करता हूँ। अनिक जतन करउ = अनेक प्रकार के प्रयत्न करता हूँ। खटु करम = ब्राहमणों के लिए निहित हुए आवश्यक छह कर्म (अध्यापन मध्ययनं, यजनं याजन तथा। दानां प्रतिग्रहश्चैव, षट् कर्माण्यग्रजन्मन् = M.S. 10.75)
जुगति = मर्यादा। धिआनु धरउ = मैं समाधि लगाता हूँ। उपाव सगल = सारे उपाय। करि = कर के। नह हुटहि = थकते नहीं हैं। बिकराल = डरावने (कामादिक)।1।
अर्थ: हे प्रभु! (इनसे बचने के लिए) मैं कई उपाय करता हूँ, मैं तीर्थों पर जाता हूँ, मैं छह (रोजाना) कर्मों की मर्यादा निभाता हूँ, मैं समाधियां लगाता हूँ। हे प्रभु! मैं सारे उपाय कर के थक गया हूँ, पर ये डरावने विकार (मेरे ऊपर हमले करने से) थकते नहीं हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरणि बंदन करुणा पते ॥ भव हरण हरि हरि हरि हरे ॥ एक तूही दीन दइआल ॥ प्रभ चरन नानक आसरो ॥ उधरे भ्रम मोह सागर ॥ लगि संतना पग पाल ॥२॥१॥२॥
मूलम्
सरणि बंदन करुणा पते ॥ भव हरण हरि हरि हरि हरे ॥ एक तूही दीन दइआल ॥ प्रभ चरन नानक आसरो ॥ उधरे भ्रम मोह सागर ॥ लगि संतना पग पाल ॥२॥१॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदन = सिर झुकाना। करुणापते = हे करुणा के पति! (करुणा = तरस) हे तरस के मालिक प्रभु! भव हरण = हे जनम मरण के चक्करों का नाश करने वाले! हरे = हे हरि! दीन दइआल = हें दीनों पर दया करने वाले! उधर = बच गए। सागर = समुंदर। लगि = लग के। पग = पैरों पर। पाल = पल्ले।2।
अर्थ: हे दया के मालिक प्रभु! हे जनम-मरण के चक्कर दूर करने वाले हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरे दर पर सिर झुकाता हूँ। हे दीनों पर दया करने वाले! (मेरा) सिर्फ तू ही (रखवाला) है। हे प्रभु! नानक को तेरे ही चरणों का आसरा है।
हे प्रभु! तेरे संत जनों के चरणों में लग के, तेरे संतजनों का पल्ला पकड़ के (अनेक जीव) भ्रम के मोह के समुंदर (में डूबने) से बच गए।2।1।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
केदारा महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनी आइओ नाथ निधान ॥ नाम प्रीति लागी मन भीतरि मागन कउ हरि दान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सरनी आइओ नाथ निधान ॥ नाम प्रीति लागी मन भीतरि मागन कउ हरि दान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाथ = हे नाथ! निधान = हे (सब सुखों के) खजाने! मन भीतरि = मन में। मागन कउ = माँगने के लिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे नाथ! हे (सुखों के) खजाने! मेरे मन में तेरे नाम का प्यार पैदा हो गया है। हे हरि! तेरे नाम का दान माँगने के लिए मैं तेरी शरण आया हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखदाई पूरन परमेसुर करि किरपा राखहु मान ॥ देहु प्रीति साधू संगि सुआमी हरि गुन रसन बखान ॥१॥
मूलम्
सुखदाई पूरन परमेसुर करि किरपा राखहु मान ॥ देहु प्रीति साधू संगि सुआमी हरि गुन रसन बखान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन = हे सब गुणों से भरपूर! परमेसुर = हे परम ईश्वर! हे सबसे ऊँचे मालिक! मान = सत्कार। साधू संगि = गुरु की संगति में। सुआमी = हे मालिक! रसन = जीभ से। बखान = उचारने।1।
अर्थ: हे सुखदाते! हे सर्व गुण भरपूर! हे सबसे ऊँचे मालिक! मेहर कर, (मेरी, शरण आए की) इज्जत रख ले। हे स्वामी! गुरु की संगति में (रख के मुझे अपना) प्यार बख्श। हे हरि! मेरी जीभ तेरे गुण उचारती रहे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपाल दइआल गोबिद दमोदर निरमल कथा गिआन ॥ नानक कउ हरि कै रंगि रागहु चरन कमल संगि धिआन ॥२॥१॥३॥
मूलम्
गोपाल दइआल गोबिद दमोदर निरमल कथा गिआन ॥ नानक कउ हरि कै रंगि रागहु चरन कमल संगि धिआन ॥२॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपाल = हे गोपाल! दमोदर = हे दमोदर! कथा = महिमा। गिआन = सूझ। रंगि = रंग में। रागहु = रंग दे। संगि = साथ। धिआनु = तवज्जो, ध्यान।2।
अर्थ: हे गोपाल! हे दयाल! हे गोबिंद! हे दामोदर! मुझे अपनी पवित्र महिमा की सूझ बख्श। हे हरि! नानक को अपने (प्यार-) रंग में रंग दे। (नानक की) तवज्जो तेरे सोहाने चरणों में टिकी रहे।2।1।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ हरि के दरसन को मनि चाउ ॥ करि किरपा सतसंगि मिलावहु तुम देवहु अपनो नाउ ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ हरि के दरसन को मनि चाउ ॥ करि किरपा सतसंगि मिलावहु तुम देवहु अपनो नाउ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। मनि = मन में। करि = कर के। सत संगि = साधु-संगत में। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे मन में हरि के दर्शनों की चाहत है। हे हरि! मेहर करके मुझे साधु-संगत में मिलाए रख, (और, वहाँ रख के) मुझे अपना नाम बख्श। रहाउ।
[[1120]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउ सेवा सत पुरख पिआरे जत सुनीऐ तत मनि रहसाउ ॥ वारी फेरी सदा घुमाई कवनु अनूपु तेरो ठाउ ॥१॥
मूलम्
करउ सेवा सत पुरख पिआरे जत सुनीऐ तत मनि रहसाउ ॥ वारी फेरी सदा घुमाई कवनु अनूपु तेरो ठाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करूँ। सेवा सत पुरख = गुरमुखों की सेवा। पिआरे = हे प्यारे प्रभु! जत = यत्र, जहाँ। सुनीऐ = सुना जाता है। तत = वहाँ। मनि = मन में। रहसाउ = रहसु, खिल उठना। वारी, फेरी, घुमाई = मैं चदके जाता हूँ। अनूपु = (अन+ऊप) जिस जैसा और कोई नहीं, बहुत ही सुंदर। ठाउ = जगह।1।
अर्थ: हे प्यारे हरि! (मेहर कर) मैं गुरमुखों की सेवा करता रहूँ (क्योंकि गुरमुखों की संगति में) जहाँ भी तेरा नाम सुना जाता है वहीं मन में खुशी पैदा होती है। हे प्रभु! मैं तुझसे वारने जाता हूँ, तेरे से सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ, (जहाँ तू बसता है) तेरी (वह) जगह बहुत ही सुंदर है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब प्रतिपालहि सगल समालहि सगलिआ तेरी छाउ ॥ नानक के प्रभ पुरख बिधाते घटि घटि तुझहि दिखाउ ॥२॥२॥४॥
मूलम्
सरब प्रतिपालहि सगल समालहि सगलिआ तेरी छाउ ॥ नानक के प्रभ पुरख बिधाते घटि घटि तुझहि दिखाउ ॥२॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रतिपालह = तू पालता है। समालहि = तू संभाल करता है। छाउ = आसरा। पुरख = हे सर्व व्यापक! बिधाते = हे विधाता! घटि घटि = हरेक घट में। दिखाउ = मैं देखता हूँ।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों की पालना करता है, तू सबकी संभाल करता है, सब जीवों को तेरा ही आसरा है। हे नानक के प्रभु! हे सर्व-व्यापक विधाता! (मेहर कर) मैं तुझे ही हरेक शरीर में देखता रहूँ।2।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ प्रिअ की प्रीति पिआरी ॥ मगन मनै महि चितवउ आसा नैनहु तार तुहारी ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ प्रिअ की प्रीति पिआरी ॥ मगन मनै महि चितवउ आसा नैनहु तार तुहारी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रिअ की = प्यारे प्रभु की। पिआरी = (मन को) अच्छी लगती है। मगन = मस्त। मनै महि = मन में ही। चितवउ = मैं चितवता हूँ। नैनहु = (मेरी) आँखों में। तार तुहारी = तेरी ही खींच। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु की प्रीति मेरे मन को आकर्षित करती रहती है। हे प्रभु! अपने मन में मस्त (रह के) मैं (तेरे दर्शनों की) आशाएं चितवता रहता हूँ, मेरी आँखों में (तेरे दर्शनो की) चाहत-भरा इन्तज़ार बना रहता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओइ दिन पहर मूरत पल कैसे ओइ पल घरी किहारी ॥ खूले कपट धपट बुझि त्रिसना जीवउ पेखि दरसारी ॥१॥
मूलम्
ओइ दिन पहर मूरत पल कैसे ओइ पल घरी किहारी ॥ खूले कपट धपट बुझि त्रिसना जीवउ पेखि दरसारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ = वे। मूरत = महूरत। कैसे = किस तरह के? बड़े ही सुहावने। घरी = घड़ी। किहारी = कैसी? बड़ी ही सुंदर। कपट = कपाट, किवाड़। धपट = झटपट। बुझि = बूझ के। जीवउ = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। पेखि = देख के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! वह दिन, वह पहर, वह महूरत, वह पल बहुत ही भाग्यशाली होते हैं, वह घड़ी भी बहुत भाग्यों वाली होती है, जब (मनुष्य के अंदर से) माया की तृष्णा मिट के उसके (मन के बँद हो चुके) किवाड़ झटपट खुल जाते हैं। हे भाई! प्रभु के दर्शन करके (मेरे अंदर तो) आत्मिक जीवन पैदा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउनु सु जतनु उपाउ किनेहा सेवा कउन बीचारी ॥ मानु अभिमानु मोहु तजि नानक संतह संगि उधारी ॥२॥३॥५॥
मूलम्
कउनु सु जतनु उपाउ किनेहा सेवा कउन बीचारी ॥ मानु अभिमानु मोहु तजि नानक संतह संगि उधारी ॥२॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सु = वह। उपाउ = उपाय। बीचारी = मैं विचार करूँ। तजि = त्याग के। संगि = संगति में। उधारी = उद्धार, पार उतारा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैं वह कौन सा प्रयत्न कहूँ? कौन सी बात बताऊँ? मैं वह कौन सी सेवा विचारूँ (जिस के सदका प्यारे प्रभु के दर्शन हो सकते हैं)।
हे भाई! संतजनों की संगति में मान-अहंकार-मोह त्याग के पार-उतारा होता है (और प्रभु का मिलाप होता है)।2।3।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ हरि हरि हरि गुन गावहु ॥ करहु क्रिपा गोपाल गोबिदे अपना नामु जपावहु ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ हरि हरि हरि गुन गावहु ॥ करहु क्रिपा गोपाल गोबिदे अपना नामु जपावहु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपाल = हे गोपाल! जपावहु = जपने में सहायता करो। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा के गुण गाते रहा करो।
हे गोपाल! हे गोविंद! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे अपना नाम जपने में सहायता कर। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काढि लीए प्रभ आन बिखै ते साधसंगि मनु लावहु ॥ भ्रमु भउ मोहु कटिओ गुर बचनी अपना दरसु दिखावहु ॥१॥
मूलम्
काढि लीए प्रभ आन बिखै ते साधसंगि मनु लावहु ॥ भ्रमु भउ मोहु कटिओ गुर बचनी अपना दरसु दिखावहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ते = से। आन = अन्य। आन बिखै ते = अन्य विषियों से। साध संगि = गुरु की संगति में। लावहु = (हे प्रभु!) तू जोड़ता है। कटिओ = काटा जाता है। गुर बचनी = गुरु के वचन से। दिखावहु = तू दिखाता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू मनुष्यों का मन साधु-संगत में लगाता है, उनको तूने अन्य विषियों में से निकाल लिया है। हे प्रभु! जिनको तू अपने दर्शन देता है, गुरु के वचन से उनका भ्रम उनका डर उनका मोह काटा जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ की रेन होइ मनु मेरा अह्मबुधि तजावहु ॥ अपनी भगति देहि दइआला वडभागी नानक हरि पावहु ॥२॥४॥६॥
मूलम्
सभ की रेन होइ मनु मेरा अह्मबुधि तजावहु ॥ अपनी भगति देहि दइआला वडभागी नानक हरि पावहु ॥२॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेन = चरण धूल। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। तजावहु = छोड़ने में सहायसता करो। दइआला = हे दयालु! वडभागी = बड़े भाग्यों के साथ। पावहु = (मिलाप) हासिल कर सकोगे।2।
अर्थ: हे दयालु प्रभु! (मेहर कर, मुझे) अपनी भक्ति (की दाति) बख्श (मेहर कर, मेरे अंदर से) अहंकार दूर कर, मेरा मन सबके चरणों की धूल हुआ रहे।
हे नानक! (कह: हे भाई!) तुम बड़े भाग्यों से (ही) परमात्मा का मिलाप हासिल कर सकते हो।2।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ हरि बिनु जनमु अकारथ जात ॥ तजि गोपाल आन रंगि राचत मिथिआ पहिरत खात ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ हरि बिनु जनमु अकारथ जात ॥ तजि गोपाल आन रंगि राचत मिथिआ पहिरत खात ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकारथ = व्यर्थ। जात = जाता है। तजि = त्याग के, भुला के। आन रंगि = और (पदार्थों) के प्यार में। राचत = मस्त। मिथिआ = व्यर्थ। पहिरत = पहनते। खात = खाते। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (के भजन) के बिना जिंदगी व्यर्थ चली जाती है। (जो मनुष्य) परमात्मा (की याद) भुला के और ही रंग में मस्त रहता है, उसका पहनना-खाना सब कुछ व्यर्थ है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनु जोबनु स्मपै सुख भुोगवै संगि न निबहत मात ॥ म्रिग त्रिसना देखि रचिओ बावर द्रुम छाइआ रंगि रात ॥१॥
मूलम्
धनु जोबनु स्मपै सुख भुोगवै संगि न निबहत मात ॥ म्रिग त्रिसना देखि रचिओ बावर द्रुम छाइआ रंगि रात ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोबनु = जवानी। संपै = दौलत। भुोगवै = (असल पाठ है ‘भोगवै’, यहाँ पढ़ना है ‘भुगवै’)। संगि = साथ। मात = मात्र, रती भर भी। म्रिग त्रिसना = मृगतृष्णा (रेतीले इलाकों में सूरज की किरणों से रेत इस तरह लगती है जैसे पानी की लहरें। प्यास से घबराए हुए हिरन आदि पशू उसे पानी समझ के उसकी तरफ दौड़ते हैं। नजदीक का रेतीला स्थल तो धरती ही दिखता है, पर दूर वाला पानी लगता है। इस भ्रम को मारीचिका भी कहते हैं। प्यासा मृग पानी की खातिर दौड़-दौड़ के कई बार जान गवा बैठता है)। बावर = कमला, पागल। द्रुम = वृक्ष। रात = रति हुआ, मस्त।1।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य यहाँ) धन-दौलत (इकट्ठी करता है), जवानी का आनंद लेता है (पर इनमें से कोई भी चीज़ जगत से चलने के वक्त) रक्ती भर भी (मनुष्य के) साथ नहीं जाती। पागल मनुष्य (माया की इस) मृग-मारीचिका को देख के मस्त रहता है (जैसे) पेड़ की छाया की मौज में मस्त है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान मोह महा मद मोहत काम क्रोध कै खात ॥ करु गहि लेहु दास नानक कउ प्रभ जीउ होइ सहात ॥२॥५॥७॥
मूलम्
मान मोह महा मद मोहत काम क्रोध कै खात ॥ करु गहि लेहु दास नानक कउ प्रभ जीउ होइ सहात ॥२॥५॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मद = नशा। कै खात = के गड्ढे में। करु = हाथ (एकवचन)। गहि लेहु = पकड़ ले। होइ = हो के। सहात = सहाई। प्रभ = हे प्रभु!।2।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य (दुनिया के) मान-मोह के भारे नशे में मोहित हुआ रहता है, काम-क्रोध के गड्ढे में गिरा रहता है।
हे प्रभु जी! (नानक की) सहायता करने वाले बन के दास नानक को हाथ पकड़ के (इस गड्ढे में गिरने से) बचा ले।2।5।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ हरि बिनु कोइ न चालसि साथ ॥ दीना नाथ करुणापति सुआमी अनाथा के नाथ ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ हरि बिनु कोइ न चालसि साथ ॥ दीना नाथ करुणापति सुआमी अनाथा के नाथ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साथ = साथ। न चालसि = नहीं जाता। दीना नाथ = हे गरीबों के पति! करुणापति = हे तरस के मालिक! हे मेहरों के साई! अनाथा के नाथ = हे निआसरों के आसरे! रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जगत से चलने के वक्त) परमात्मा के नाम के बिना और कोई (जीव के) साथ नहीं जाता। हे दीनों के नाथ! हे मेहरों के साई! हे स्वामी! हे अनाथों के नाथ! (तेरा नाम ही असल साथी है)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुत स्मपति बिखिआ रस भुोगवत नह निबहत जम कै पाथ ॥ नामु निधानु गाउ गुन गोबिंद उधरु सागर के खात ॥१॥
मूलम्
सुत स्मपति बिखिआ रस भुोगवत नह निबहत जम कै पाथ ॥ नामु निधानु गाउ गुन गोबिंद उधरु सागर के खात ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। संपति = धन, सम्पक्ति। बिखिआ = माया। पाथ = रास्ता। जम कै पाथ = जमराज के रास्ते पर पड़ कर। निधानु = खजाना। गाउ = गाया कर। उधरु = (अपने आप को) बचा ले। सागर = (संसार-) समुंदर। खात = (विकारों का) खत्ता, गड्ढा।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भुोगवत’ में से अक्षर ‘भ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘भोगवत’ यहाँ पढ़ना है ‘भुगवत’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के पास) पुत्र (होते हैं), धन (होता है), (मनुष्य) माया के अनेक रस भोगता है, पर जमराज के रास्ते पर चलने के वक्त कोई साथ नहीं निभाता। हे भाई! परमात्मा का नाम ही (साथ निभने वाला असल) खजाना है। गोबिंद के गुण गाया कर, (इस तरह अपने आप को) संसार-समुंदर के (विकारों के) गड्ढे (में गिरने) से बचा ले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनि समरथ अकथ अगोचर हरि सिमरत दुख लाथ ॥ नानक दीन धूरि जन बांछत मिलै लिखत धुरि माथ ॥२॥६॥८॥
मूलम्
सरनि समरथ अकथ अगोचर हरि सिमरत दुख लाथ ॥ नानक दीन धूरि जन बांछत मिलै लिखत धुरि माथ ॥२॥६॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! अकथ = जिसके सही स्वरूप का बयान ना हो सके। अगोचर = (अ+गो+चरु) जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। लाथ = उतर जाते हैं। दीन = गरीब। धूरि जन = संत जनों की चरण धूल। बांछत = मांगता। लिखत धुरि माथ = धुर दरगाह से माथे पर लिखे अनुसार।2।
अर्थ: हे समर्थ! हे अकथ! हे अगोचर! हे हरि! (मैं तेरी) शरण (आया हूँ), (तेरा नाम) स्मरण करने से सारे दुख दूर हो जाते हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) दास गरीब तेरे संत जनों की चरण-धूल माँगता है। यह चरण-धूल उस मनुष्य को मिलती है, जिसके माथे पर धुर-दरगाह से लिखी होती है।2।6।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
केदारा महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसरत नाहि मन ते हरी ॥ अब इह प्रीति महा प्रबल भई आन बिखै जरी ॥ रहाउ॥
मूलम्
बिसरत नाहि मन ते हरी ॥ अब इह प्रीति महा प्रबल भई आन बिखै जरी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। हरी = परमात्मा। अब = अब। महा = बहुत। प्रबल = बहुत शक्तिशाली। आनु = अन्य। बिखै = विषौ। जरी = जल गए। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के) मन से परमात्मा नहीं बिसरता, उसके अंदर आखिर यह प्यार इतना बलवान हो जाता है कि अन्य सारे विषौ (इस प्रीति-अग्नि में) जल जाते हैं। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बूंद कहा तिआगि चात्रिक मीन रहत न घरी ॥ गुन गोपाल उचारु रसना टेव एह परी ॥१॥
मूलम्
बूंद कहा तिआगि चात्रिक मीन रहत न घरी ॥ गुन गोपाल उचारु रसना टेव एह परी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूँद = (स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद। कहा तिआगि = कहाँ तयाग सकता है? नहीं छोड़ सकता। चात्रिक = पपीहा। मीन = मछली। घरी = घड़ी। रसना = जीभ से। टेव = आदत। परी = पड़ जाती है।1।
अर्थ: हे भाई! (देखो प्रीति के कारनामे!) पपीहा (स्वाति नक्षत्र की वर्षा की) बूँद को छोड़ के और (किसी) बूँद से तृप्त नहीं होता। मछली (का पानी से इतना प्यार है कि वह पानी के बिना) एक घड़ी भी जी नहीं सकती। हे भाई! अपनी जीभ से पृथ्वी के पालनहार प्रभु के गुण गाया कर। (जो मनुष्य सदा हरि-गुण उचारता है, उसको) यह आदत ही बन जाती है (फिर वह गुण उचारे बिना रह नहीं सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा नाद कुरंक मोहिओ बेधि तीखन सरी ॥ प्रभ चरन कमल रसाल नानक गाठि बाधि धरी ॥२॥१॥९॥
मूलम्
महा नाद कुरंक मोहिओ बेधि तीखन सरी ॥ प्रभ चरन कमल रसाल नानक गाठि बाधि धरी ॥२॥१॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाद = (घंडेहेड़े की) आवाज। कुरंक = हिरन। बेधि = भेद दिया जाता है। सर = तीर। तीखन सरी = तीक्ष्ण तीरों से, नुकीले तीरों से। रसाल = (रस+आलय, रसों का घर) मीठे। गाठि = गाँठ। बाधि धरी = बाँध ली।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रीत का और भी करिश्मा देखो!) हिरन (घंडेहेड़े की) आवाज़ से मोहित हो जाता है (उसमें इतना मस्त होता है कि शिकारी के) नुकीले तीरों से छिद जाता है। (इसी तरह) हे नानक! (जिस मनुष्य को) प्रभु के सुंदर चरण मधुर लगते हैं, (वह मनुष्य इन चरणों से अपनी पक्की) गाँठ बाँध लेता है।2।1।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ प्रीतम बसत रिद महि खोर ॥ भरम भीति निवारि ठाकुर गहि लेहु अपनी ओर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ प्रीतम बसत रिद महि खोर ॥ भरम भीति निवारि ठाकुर गहि लेहु अपनी ओर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! रिद महि = (मेरे) हृदय में। बसत = बस रही है। खोर = खोट, कोरा पन। भीति = दीवार। निवारि = दूर कर। ठाकुर = हे ठाकुर! गहि लेहु = (मेरी बाँह) पकड़ ले। ओर = तरफ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! (मेरे) हृदय में कोरापन (खोट) बसा हुआ है (जो तेरे चरणों से प्यार बनने नहीं देता)। हे ठाकुर! (मेरे अंदर से) भटकना की दीवार दूर कर (ये दीवार मुझे तेरे से दूर रख रही है)। (मेरा हाथ) पकड़ के मुझे अपने साथ (जोड़) ले (अपने चरणों में जोड़ ले)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिक गरत संसार सागर करि दइआ चारहु धोर ॥ संतसंगि हरि चरन बोहिथ उधरते लै मोर ॥१॥
मूलम्
अधिक गरत संसार सागर करि दइआ चारहु धोर ॥ संतसंगि हरि चरन बोहिथ उधरते लै मोर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधिक = कई, बहुत सारे। गरत = गड्ढे। सागर = समुंदर। चारहु = चढ़ा लो। धोर = किनारे पर। संगि = संगति में। बोहिथ = जहाज़। उधरते = बचा लेते हैं। मोर लै = मुझे लेकर।1।
अर्थ: हे प्रीतम! (तेरे इस) संसार-समुंदर में (विकारों के) अनेक गड्ढे हैं, मेहर कर के (मुझे इनसे बचा के) किनारे पर चढ़ा ले। हे हरि! संतजनों की संगति में (रख के मुझे अपने) चरणों के जहाज़ (में चढ़ा ले), (तेरे ये चरण) मुझे पार उतारने के समर्थ हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरभ कुंट महि जिनहि धारिओ नही बिखै बन महि होर ॥ हरि सकत सरन समरथ नानक आन नही निहोर ॥२॥२॥१०॥
मूलम्
गरभ कुंट महि जिनहि धारिओ नही बिखै बन महि होर ॥ हरि सकत सरन समरथ नानक आन नही निहोर ॥२॥२॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरभ कुंट महि = गर्भ कुंड में, माँ के पेट में। जिनहि = जिस (हरि) ने। धारिओ = बचाए रखा। बन = (वनां कानने जले) पानी। बिखै बन = विषियों का समुंदर। सकत = शक्ति वाला। सरन समरथ = शरण पड़े हुओं को बचा सकने की समर्थता वाला। निहोर = अधीनता। आन = अन्य।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने माँ के पेट में बचाए रखा, विषय-विकारों के समुंदर में (डूबते को बचानें वाला भी उसके बिना) कोई और नहीं है। हे नानक! परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, शरण आए को बचाने में समर्थ है, (जो मनुष्य उसकी शरण आ पड़ता है, उसको) मुथाज़ी नहीं रह जाती।2।2।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ रसना राम राम बखानु ॥ गुन गुोपाल उचारु दिनु रैनि भए कलमल हान ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ रसना राम राम बखानु ॥ गुन गुोपाल उचारु दिनु रैनि भए कलमल हान ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। बखानु = उचारा कर। रैनि = रात। कलमल = पाप। भए हान = नाश हो गए। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाल’ है यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (अपनी) जीभ से हर वक्त परमात्मा का नाम जपा कर, दिन-रात सृष्टि के पालनहार प्रभु के गुण गाया कर। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है, उसके सारे) पाप नाश हो जाते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिआगि चलना सगल स्मपत कालु सिर परि जानु ॥ मिथन मोह दुरंत आसा झूठु सरपर मानु ॥१॥
मूलम्
तिआगि चलना सगल स्मपत कालु सिर परि जानु ॥ मिथन मोह दुरंत आसा झूठु सरपर मानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि = छोड़ के। संपत = धन पदार्थ। कालु = मौत। परि = पर। जानु = समझ रख। मिथन मोह = नाशवान पदार्थों का मोह। दुरंत = (दुर+अंत) कभी ना खत्म होने वाली। झूठु = नाशवान। सरपर = अवश्य। मान = मान ले।1।
अर्थ: हे भाई! सारा धन-पदार्थ छोड़ के (आखिर हरेक प्राणी ने यहाँ से) चले जाना है। हे भाई! मौत को (सदा अपने) सिर पर (खड़ी हुई) समझ। हे भाई! नाशवान पदार्थों का मोह, कभी ना खत्म होने वाली आशाएं - इनके निष्चित तौर पर नाशवान मान।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति पुरख अकाल मूरति रिदै धारहु धिआनु ॥ नामु निधानु लाभु नानक बसतु इह परवानु ॥२॥३॥११॥
मूलम्
सति पुरख अकाल मूरति रिदै धारहु धिआनु ॥ नामु निधानु लाभु नानक बसतु इह परवानु ॥२॥३॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। पुरख = सर्व व्यापक। अकाल = अ+काल, मौत रहित। मूरति = स्वरूप। अकाल पूरति = जिसकी हस्ती मौत रहित है। रिदै = हृदय में। निधानु = खजाना। बसतु = वस्तु। परवानु = स्वीकार।2।
अर्थ: हे भाई! (अपने) हृदय में उस परमात्मा का ध्यान धरा कर जो सदा कायम रहने वाला है जो सर्व-व्यापक है और जो नाशवान अस्तित्व वाला है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम (ही असल) खजाना है (असल) कमाई है। यह वस्तु (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार होती है।2।3।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम को आधारु ॥ कलि कलेस न कछु बिआपै संतसंगि बिउहारु ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम को आधारु ॥ कलि कलेस न कछु बिआपै संतसंगि बिउहारु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। आधारु = आसरा। कलि = झगड़े। कछु = कोई भी (विकार)। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। संगि = साथ, संगति में। बिउहारु = (हरि नाम का) व्यापार। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को सदा) परमात्मा के नाम का आसरा रहता है, जो मनुष्य संत जनों की संगति में रहके हरि-नाम का वणज करता है, (दुनिया के) झगड़े-कष्ट (इनमें से) कोई भी उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि अनुग्रहु आपि राखिओ नह उपजतउ बेकारु ॥ जिसु परापति होइ सिमरै तिसु दहत नह संसारु ॥१॥
मूलम्
करि अनुग्रहु आपि राखिओ नह उपजतउ बेकारु ॥ जिसु परापति होइ सिमरै तिसु दहत नह संसारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। अनुग्रहु = कृपा। राखिओ = रक्षा की। उपजतउ = पैदा होता। बेकारु = कोई (विकार)। परापति होइ = धुर से मिले। दहत नह = नहीं जलाता। संसारु = संसार के विकारों की आग।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं मेहर कर के जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसके अंदर कोई विकार पैदा नहीं होता। हे भाई! जिस मनुष्य को नाम की दाति धुर-दरगाह से मिलती है, वही हरि-नाम स्मरण करता है, फिर उस (के आत्मिक जीवन) को संसार (भाव, संसार के विकारों की आग) जला नहीं सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख मंगल आनंद हरि हरि प्रभ चरन अम्रित सारु ॥ नानक दास सरनागती तेरे संतना की छारु ॥२॥४॥१२॥
मूलम्
सुख मंगल आनंद हरि हरि प्रभ चरन अम्रित सारु ॥ नानक दास सरनागती तेरे संतना की छारु ॥२॥४॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगल = खुशियाँ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। सारु = संभाल (हृदय में)। नानक = हे नानक! (कह-)। सरनागती = शरण आया है। छारु = चरणों की धूल।2।
अर्थ: हे भाई! हरि-प्रभु के चरण आत्मिक जीवन देने वाले हैं, इनको अपने हृदय में संभाल, (तेरे अंदर) आत्मिक सुख खुशियां आनंद (पैदा होंगे)।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरा दास तेरी शरण आया है तेरे संत जनों की चरण-धूल (माँगता है)।2।4।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम बिनु ध्रिगु स्रोत ॥ जीवन रूप बिसारि जीवहि तिह कत जीवन होत ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम बिनु ध्रिगु स्रोत ॥ जीवन रूप बिसारि जीवहि तिह कत जीवन होत ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार योग्य। स्रोत = कान। जीवन रूप = वह प्रभु जो सिर्फ जीवन ही जीवन है, जो सबका जीवन है। बिसारि = भुला के। जीवहि = (जो मनुष्य) जीते हैं। तिन = उनका। कत = कैसा?। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सुने बिना (मनुष्य के) कान धिक्कार-योग्य हैं (क्योंकि ये फिर निंदा-चुगली में ही व्यस्त रहते हैं)। हे भाई! जो मनुष्य सारे जगत के जीवन प्रभु को भुला के जीते हैं (जिंदगी के दिन गुजारते हैं), उनका जीना कैसा है? (उनके जीने को जीना नहीं कहा जा सकता)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खात पीत अनेक बिंजन जैसे भार बाहक खोत ॥ आठ पहर महा स्रमु पाइआ जैसे बिरख जंती जोत ॥१॥
मूलम्
खात पीत अनेक बिंजन जैसे भार बाहक खोत ॥ आठ पहर महा स्रमु पाइआ जैसे बिरख जंती जोत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंजन = व्यंञन, भोजन। बाहक = वाहक, ढोने वाला, उठाने वाला। खोत = गधा। स्रमु = श्रम, मेहनत, थकावट। बिरख = वृषभ, बैल। जंती = कोहलू (के आगे)। जंत = जोया हुआ।1।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम को बिसार के जो मनुष्य) अनेक अच्छे-अच्छे खाने खाते-पीते हैं, (वे ऐसे ही हैं) जैसे भार ढोने वाले गधे। (हरि-नाम को बिसारने वाले) आठों पहर (माया की खातिर दौड़-भाग करते हुए) बहुत थकते हैं, जैसे कोई बैल कोल्हू के आगे जोता हुआ होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि गुोपाल जि आन लागे से बहु प्रकारी रोत ॥ कर जोरि नानक दानु मागै हरि रखउ कंठि परोत ॥२॥५॥१३॥
मूलम्
तजि गुोपाल जि आन लागे से बहु प्रकारी रोत ॥ कर जोरि नानक दानु मागै हरि रखउ कंठि परोत ॥२॥५॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के, भुला के। जि = जो मनुष्य। आन = अन्य तरफ। से = वह लोग। रोत = रोते हैं, दुखी होते हैं। कर = हाथ (बहुवचन)। जोरि = जोड़ के। मागै = माँगता है। रखउ = मैं रखूँ। कंठि = गले में। परोत = परो के।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाल’ है यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सृष्टि के पालनहार (का नाम) त्याग के जो मनुष्य अन्य आहरों में लगे रहते हैं, वे कई तरीकों से दुखी होते रहते हैं। हे नानक! (कह:) हे हरि! (तेरा दास दोनों) हाथ जोड़ कर (तेरे नाम का) दान माँगता है (अपना नाम दे), मैं (इसको अपने) गले में परो के रखूँ।2।5।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ संतह धूरि ले मुखि मली ॥ गुणा अचुत सदा पूरन नह दोख बिआपहि कली ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ संतह धूरि ले मुखि मली ॥ गुणा अचुत सदा पूरन नह दोख बिआपहि कली ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धूरि = धूल, चरण धूल। ले = (जिस ने) ले कर। मुखि = (अपने) मुँह पर। अचुत = च्युत, to fall, अविनाशी। गुणा अचुत = अविनाशी प्रभु के गुण (हृदय में बसाने) से। पूरन = सर्व व्यापक। दोख कली = कलियुग के विकार, जगत के विकार (शब्द ‘कली’ यहाँ किसी विषोश युग का द्योतक नहीं है)। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने) संतजनों की चरण-धूल लेकर (अपने) माथे पर मल ली (और, संतों की संगति में जिसने परमात्मा के गुण गाए), अविनाशी और सर्व-व्यापक प्रभु के गुण हृदय में बसाने की इनायत से जगत के विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बचनि कारज सरब पूरन ईत ऊत न हली ॥ प्रभ एक अनिक सरबत पूरन बिखै अगनि न जली ॥१॥
मूलम्
गुर बचनि कारज सरब पूरन ईत ऊत न हली ॥ प्रभ एक अनिक सरबत पूरन बिखै अगनि न जली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बचनि = वचन से। सरब = सारे। ईत ऊत = इधर उधर। हली = डोलता। बिखै अगनि = विषियों की आग (में)। जली = जलता।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने संतों की चरण-धूल अपने माथे पर लगाई) गुरु के उपदेश का सदका उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं, उसका मन इधर-उधर नहीं डोलता, (उसको इस तरह दिख जाता है कि) एक परमात्मा अनेक रूपों में सब जगह व्यापक है, वह मनुष्य विकारों की आग में नहीं जलता (उसका आत्मिक जीवन विकारों की आग में तबाह नहीं होता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहि भुजा लीनो दासु अपनो जोति जोती रली ॥ प्रभ चरन सरन अनाथु आइओ नानक हरि संगि चली ॥२॥६॥१४॥
मूलम्
गहि भुजा लीनो दासु अपनो जोति जोती रली ॥ प्रभ चरन सरन अनाथु आइओ नानक हरि संगि चली ॥२॥६॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। जोति = जीवात्मा। जोती = प्रभु की ज्योति में। अनाथु = निमाणा। संगि = साथ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) प्रभु अपने जिस दास को (उसकी) बाँह पकड़ कर अपने चरणों में जोड़ लेता है, उसकी जिंद प्रभु के चरणों में लीन हो जाती है। जो अनाथ (प्राणी भी) प्रभु के चरणों की शरण में आ जाता है, वह प्राणी प्रभु की याद में ही जीवन-राह पर चलता है।2।6।14।
[[1122]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम की मन रुचै ॥ कोटि सांति अनंद पूरन जलत छाती बुझै ॥ रहाउ॥
मूलम्
केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम की मन रुचै ॥ कोटि सांति अनंद पूरन जलत छाती बुझै ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = मन को। रुचै = रुची, चाहत, लगन। कोटि = किले में, हृदय के किले में। जलत = (विकारों की) जल रही (आग)। छाती = हृदय। बूझै = (आग) बुझ जाती है। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन को परमात्मा के नाम की लगन लग जाती है, उसके हृदय में पूर्ण-शांति आनंद बना रहता है, उसके हृदय में (विकारों की पहले से) जल रही आग बुझ जाती है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत मारगि चलत प्रानी पतित उधरे मुचै ॥ रेनु जन की लगी मसतकि अनिक तीरथ सुचै ॥१॥
मूलम्
संत मारगि चलत प्रानी पतित उधरे मुचै ॥ रेनु जन की लगी मसतकि अनिक तीरथ सुचै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत मारगि = गुरु के (बताए हुए) राह पर। चलत = चल रहा है। पतित = विकारों में गिरे हुए। मुचै = बहुत, अनेक। उधरे = (विकारों से) बच जाते हैं। रेनु = चरण धूल। जन = प्रभु का भक्त। मसतकि = माथे पर। सुचै = सुचि, पवित्रता।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है, (उसकी संगति में रह के) अनेक विकारी मनुष्य (विकारों से) बच जाते हैं। जिस मनुष्य के माथे पर परमात्मा के सेवक की चरण-धूल लगती है, (उसके अंदर, मानो) अनेक तीर्थों (के स्नान) की पवित्रता हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल धिआन भीतरि घटि घटहि सुआमी सुझै ॥ सरनि देव अपार नानक बहुरि जमु नही लुझै ॥२॥७॥१५॥
मूलम्
चरन कमल धिआन भीतरि घटि घटहि सुआमी सुझै ॥ सरनि देव अपार नानक बहुरि जमु नही लुझै ॥२॥७॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीतरि = में। धिआन भीतरि = ध्यान में, याद में। घटि = घट में। घटि घटहि = हरेक शरीर में। सुझै = दिखता है। देव = प्रकाश रूप प्रभु। अपार = बेअंत। बहुरि = दोबारा। लुझै = झगड़ता।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य की सुररति प्रभु के सुंदर चरणों के ध्यान में टिकी रहती है, उसको मालिक-प्रभु हरेक शरीर में बसता दिख जाता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रकाश-रूप बेअंत प्रभु की शरण में आ जाता है, जमदूत दोबारा उसके साथ कोई झगड़ा नहीं डालता।2।7।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केदारा छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
केदारा छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलु मेरे प्रीतम पिआरिआ ॥ रहाउ॥
मूलम्
मिलु मेरे प्रीतम पिआरिआ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! हे मेरे प्रीतम! (मुझे) मिल। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरि रहिआ सरबत्र मै सो पुरखु बिधाता ॥ मारगु प्रभ का हरि कीआ संतन संगि जाता ॥ संतन संगि जाता पुरखु बिधाता घटि घटि नदरि निहालिआ ॥ जो सरनी आवै सरब सुख पावै तिलु नही भंनै घालिआ ॥ हरि गुण निधि गाए सहज सुभाए प्रेम महा रस माता ॥ नानक दास तेरी सरणाई तू पूरन पुरखु बिधाता ॥१॥
मूलम्
पूरि रहिआ सरबत्र मै सो पुरखु बिधाता ॥ मारगु प्रभ का हरि कीआ संतन संगि जाता ॥ संतन संगि जाता पुरखु बिधाता घटि घटि नदरि निहालिआ ॥ जो सरनी आवै सरब सुख पावै तिलु नही भंनै घालिआ ॥ हरि गुण निधि गाए सहज सुभाए प्रेम महा रस माता ॥ नानक दास तेरी सरणाई तू पूरन पुरखु बिधाता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरि रहिआ = मौजूद है। सरबत्र मै = सब जगह, सबमें। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। बिधाता = विधाता, निर्माता। मारगु = रास्ता। हरि कीआ = हरि ने ही बनाया। संगि = संगति में। जाता = जाना जाता है।
घटि घटि = हरेक शरीर में। नदरि = नजर से। निहालिआ = देखा जाता है। सरब सुख = सारे सुख। तिलु = रक्ती भर भी। घालिआ = की हुई मेहनत।
निधि = खजाना। गाए = जो गाता है। सहज सुभाए = आत्मिक अडोलता और प्रेम में। माता = मस्त।1।
अर्थ: हे भाई! वह सर्व-व्यापक विधाता हर जगह मौजूद है। हे भाई! प्रभु (को मिलने) का रास्ता प्रभु ने स्वयं ही बनाया है (वह रास्ता यह है कि) संत-जनों की संगति में ही उसके साथ गहरी सांझ पड़ सकती है।
हे भाई! संत-जनों की संगति में ही विधाता अकाल-पुरख के साथ जान-पहचान हो सकती है। (संतजनों की संगति में रह के ही उसको) हरेक शरीर में आँखों से देखा जा सकता है। जो मनुष्य (संतजनों की संगति की इनायत से प्रभु की) शरण आता है, वह सारे सुख हासिल कर लेता है। प्रभु उस मनुष्य की की हुई मेहनत को रक्ती भर भी नहीं गवाता।
हे भाई! जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्यार से गुणों के खजाने प्रभु के गुण गाता है, वह सबसे ऊँचे प्रेम-रस में मस्त रहता है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे दास तेरी शरण में रहते हैं। तू सब गुणों से भरपूर है, तू सर्व-व्यापक है, तू (सारे जगत का) रचनहार है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि प्रेम भगति जन बेधिआ से आन कत जाही ॥ मीनु बिछोहा ना सहै जल बिनु मरि पाही ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ दूख किनि सहीऐ चात्रिक बूंद पिआसिआ ॥ कब रैनि बिहावै चकवी सुखु पावै सूरज किरणि प्रगासिआ ॥ हरि दरसि मनु लागा दिनसु सभागा अनदिनु हरि गुण गाही ॥ नानक दासु कहै बेनंती कत हरि बिनु प्राण टिकाही ॥२॥
मूलम्
हरि प्रेम भगति जन बेधिआ से आन कत जाही ॥ मीनु बिछोहा ना सहै जल बिनु मरि पाही ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ दूख किनि सहीऐ चात्रिक बूंद पिआसिआ ॥ कब रैनि बिहावै चकवी सुखु पावै सूरज किरणि प्रगासिआ ॥ हरि दरसि मनु लागा दिनसु सभागा अनदिनु हरि गुण गाही ॥ नानक दासु कहै बेनंती कत हरि बिनु प्राण टिकाही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = जो मनुष्य (बहुवचन)। बेधिआ = भेदे जाते हैं। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। आन कत = और कहाँ? किसी भी और जगह नहीं। जाही = जाहिं, जा सकते। मीनु = मछली। बिछोहा = (पानी का) विछोड़ा। मरि पाही = (मछलियाँ) मर जाती हैं (बहुवचन)।
किउ रहीऐ = कैसे रहा जा सकता है? नहीं रहा जा सकता। किनि = किस तरफ? किसी भी ओर नहीं। किनि सहीऐ = किसी भी तरफ से सहा नहीं जा सकता, किसी भी तरह सहन योग्य नहीं है। चात्रिक = पपीहा। बूँद = (स्वाति नक्षत्र की वर्षा की) बूँद। रैनि = रात। कब = कब? प्रगासिआ = प्रकाश करे।
दरसि = दर्शन में। सभागा = सौभाग्यवान। अनदिनु = हर रोज। गाही = गाहि, गाते हैं। कहै = कहता है। कत = कहाँ? टिकाही = टिक सकते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हरि की प्रेमा-भक्ति में रम जाते हैं, वे (हरि को छोड़ के) किसी और जगह नहीं जा सकते। (जैसे) मछली (पानी का) विछोड़ा सह नहीं सकती, पानी के बिना मछलियाँ मर जाती हैं।
हे भाई! (जिस के मन प्रेमा-भक्ति में भेदे गए, उनसे किसी तरफ से भी) परमात्मा (की याद) के बिना नहीं रहा जा सकता, किसी भी तरह से विछोड़े का दुख सहा नहीं जा सकता। (जैसे) पपीहा हर वक्त स्वाति बूँद के लिए तरसता है (जैसे) जब तक रात खत्म ना हो, जब तक सूरज की रौशनी ना आ जाए, चकवी को सुख नहीं मिल सकता।
हे भाई! (प्रभु-प्रेम में भेदे हुए मनुष्यों के लिए) वह दिन भाग्यशाली होता है जब उनका मन प्रभु के दीदार में जुड़ता है, वह हर वक्त प्रभु के गुण गाते रहते हैं। दास नानक विनती करता है - (हे भाई! जिनके मन प्रभु-प्रेम में भेदे हुए हैं, उनके) प्राण परमात्मा की याद के बिना कहीं भी धैर्य नहीं पा सकते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सास बिना जिउ देहुरी कत सोभा पावै ॥ दरस बिहूना साध जनु खिनु टिकणु न आवै ॥ हरि बिनु जो रहणा नरकु सो सहणा चरन कमल मनु बेधिआ ॥ हरि रसिक बैरागी नामि लिव लागी कतहु न जाइ निखेधिआ ॥ हरि सिउ जाइ मिलणा साधसंगि रहणा सो सुखु अंकि न मावै ॥ होहु क्रिपाल नानक के सुआमी हरि चरनह संगि समावै ॥३॥
मूलम्
सास बिना जिउ देहुरी कत सोभा पावै ॥ दरस बिहूना साध जनु खिनु टिकणु न आवै ॥ हरि बिनु जो रहणा नरकु सो सहणा चरन कमल मनु बेधिआ ॥ हरि रसिक बैरागी नामि लिव लागी कतहु न जाइ निखेधिआ ॥ हरि सिउ जाइ मिलणा साधसंगि रहणा सो सुखु अंकि न मावै ॥ होहु क्रिपाल नानक के सुआमी हरि चरनह संगि समावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सास = श्वास। देहुरी = शरीर। कत पावै = कैसे पा सकती है? नहीं पा सकती। दरस बिहूना = प्रभु के दर्शनों के बिना।
रहणा = जीना। चरन कमल = सुंदर चरणों में। बेधिआ = भेदा गया। रसिक = रसिया, प्रेमी। बैरागी = वैरागवान। नामि = नाम में। लिव = लगन। कतहु = कहीं से भी। निखेधिआ = निरादर किया गया।
सिउ = साथ। जाइ = जा के। अंकि = शरीर में। मावै = समाता है। होहु = तुम होते हो। सुआमी = हे स्वामी! संगि = साथ। समावै = लीन रहता है।3।
अर्थ: हे भाई! जैसे सांस (आए) बिना मनुष्य का शरीर कहीं शोभा नहीं पा सकता, (वैसे ही परमात्मा के) दर्शनों के बिना साधु-जन (शोभा नहीं पा सकते)। (प्रभु के दर्शनों के बिना मनुष्य का मन) एक छिन के लिए भी टिक नहीं सकता।
हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना जो जीना है, वह जीना नर्क (का दुख) सहने (के तुल्य) है। पर, जिस मनुष्य का मन परमात्मा के सुंदर चरणों में बिछ जाता है, वह परमात्मा के नाम का रसिया हो जाता है, हरि-नाम का प्रेमी हो जाता है, हरि-नाम में उसकी लगन लगी रहती है, उसकी कहीं भी निरादरी नहीं होती।
हे भाई! साधु-संगत में टिके रहना (और, साधु-संगत की इनायत से) प्रभु के साथ मिलाप हो जाना (इससे ऐसा आत्मिक आनंद पैदा होता है कि) वह आनंद छुपा नहीं रह सकता।
हे नानक के मालिक प्रभु! जिस मनुष्य पर तू दयावान होता है, वह तेरे चरणों में लीन रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत प्रभ मिले हरि करुणा धारे ॥ निरगुणु नीचु अनाथु मै नही दोख बीचारे ॥ नही दोख बीचारे पूरन सुख सारे पावन बिरदु बखानिआ ॥ भगति वछलु सुनि अंचलुो गहिआ घटि घटि पूर समानिआ ॥ सुख सागरुो पाइआ सहज सुभाइआ जनम मरन दुख हारे ॥ करु गहि लीने नानक दास अपने राम नाम उरि हारे ॥४॥१॥
मूलम्
खोजत खोजत प्रभ मिले हरि करुणा धारे ॥ निरगुणु नीचु अनाथु मै नही दोख बीचारे ॥ नही दोख बीचारे पूरन सुख सारे पावन बिरदु बखानिआ ॥ भगति वछलु सुनि अंचलुो गहिआ घटि घटि पूर समानिआ ॥ सुख सागरुो पाइआ सहज सुभाइआ जनम मरन दुख हारे ॥ करु गहि लीने नानक दास अपने राम नाम उरि हारे ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ मिले = प्रभु जी मिल गए (आदर बोधक बहुवचन)। करुणा = तरस, दया। धारे = धार के। निरगुण = गुण हीन। अनाथु = निमाणा। दोख = ऐब, कमियां। सारे = सौंप दिए। पावन = पवित्र (करना)। बिरदु = आदि कदीमी स्वभाव, मूल स्वभाव। बखानिआ = कहा जाता है। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। सुनि = सुन के। अंचलुो = आँचल, पल्ला (असल शब्द है ‘अंचलु’। यहाँ ‘अंचलो’ पढ़ना है)। गहिआ = (मैंने) पकड़ लिया। घटि घटि = हरेक शरीर में। पूर = पूरे तौर पर।
सागरुो = (असल शब्द है ‘सागरु’, यहाँ पढ़ना है ‘सागरो) समुंदर। सहज सुभाइआ = आत्मिक अडोलता के स्वभाव से, बिना किसी हठ आदि के यत्न के। हारे = थक गए। करु = हाथ (बहुवचन)। गहि = पकड़ के। उरि = हृदय में। हारे = हार।4।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु जी की) तलाश करते-करते (आखिर) प्रभु जी (स्वयं ही) दया कर के (मुझे) मिल गए (प्रभु का मिलाप प्रभु जी की मेहर से ही होता है)। मेरे में कोई गुण नहीं था, मैं नीच जीवन वाला था, मैं अनाथ था। पर, प्रभु जी ने मेरे अवगुणों की तरफ ध्यान नहीं दिया।
हे भाई! प्रभु ने मेरे अवगुण नहीं विचारे, मुझे पूर्ण सुख उसने दे दिए, (तभी तो यह) कहा जाता है कि (पतितों को) पवित्र करना (प्रभु जी का) मूल कदीमी स्वभाव (बिरद) है। ये सुन के कि प्रभु भक्ति को प्यार करने वाला है, मैंने उसका पल्ला पकड़ लिया (और भक्ति की दाति माँगी)। हे भाई! प्रभु हरेक शरीर में पूरी तरह से व्यापक है।
हे भाई! जब मैंने उसका आँचल पकड़ लिया, तब वह सुखों का समुंदर प्रभु मुझे स्वयं ही आगे हो के मिल गया। जनम से मरने तक के मेरे सारे ही दुख थक गए (हार गए, समाप्त हो गए)। हे नानक! (कह: हे भाई!) प्रभु अपने दासों का हाथ पकड़ कर उनको अपने साथ मिला लेता है। परमात्मा का नाम (उन सेवकों के) हृदय में हार बना रहता है।4।1।
[[1123]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु केदारा बाणी कबीर जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु केदारा बाणी कबीर जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना ॥ लोहा कंचनु सम करि जानहि ते मूरति भगवाना ॥१॥
मूलम्
उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना ॥ लोहा कंचनु सम करि जानहि ते मूरति भगवाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिबरजित = मना, वर्जित। उसतति = स्तुति, बड़ाई, खुशामद। अभिमाना = अहंकार। कंचनु = सोना। सम = बराबर। ते = वे लोग।1।
अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की खुशामद करनी अथवा किसी के ऐब फरोलने- ये दोनों ही काम बुरे हैं। (यह ख्याल भी) छोड़ दो (कि कोई तुम्हारा) आदर (करता है अथवा कोई) अकड़ (दिखाता है)। जो मनुष्य लोहे और सोने को एक समान जानते हैं, वे भगवान का रूप हैं। (सोना-आदर। लोहा-निरादरी)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा जनु एकु आधु कोई ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु बिबरजित हरि पदु चीन्है सोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा जनु एकु आधु कोई ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु बिबरजित हरि पदु चीन्है सोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकु आधु = कोई विरला। हरि पदु = ईश्वरीय मिलाप की अवस्था। चीनै = पहचानता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! कोई विरला मनुष्य ही तेरा हो के रहता है। (जो तेरा बनता है) उसको काम, क्रोध, लोभ, मोह (आदि विकार) बुरे लगते हैं। (जो मनुष्य इन्हें त्यागता है) वही मनुष्य प्रभु-मिलापवाली अवस्था से सांझ पाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥ चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ ॥२॥
मूलम्
रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥ चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रजु गुण = माया के वह गुण जो मोह अहंकार आदि के मूल हैं। तम गुण = वह गुण जिसके कारण आत्मिक जीवन की सांसे दब जाएं। (तम = सांसों का दब जाना, दम घुटना)। सत गुण = माया के गुणों में पहला गुण जिसका नतीजा शांति, दया, दान, क्षमा, प्रसन्नता आदि है। इस अवस्था में मनुष्य शांति, दया आदि पर जोर देता है, और इनके कारण साथ ही उसको जीवन उल्लास आता है।2।
अर्थ: कोई जीव रजो गुण में है, कोई तमो गुण में हैं, कोई सतो गुण में हैं। पर (जीवों के भी क्या वश?) ये सब कुछ, हे प्रभु! तेरी माया ही कही जा सकती है। जो मनुष्य (इनसे ऊपर) चौथी अवस्था (प्रभु मिलाप) के साथ जान-पहचान करता है, उसी को ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ॥ त्रिसना अरु माइआ भ्रमु चूका चितवत आतम रामा ॥३॥
मूलम्
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ॥ त्रिसना अरु माइआ भ्रमु चूका चितवत आतम रामा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहकामा = कामना रहित। सुचि = पवित्रता, शारीरिक स्वच्छता। संजम = इन्द्रियों पर काबू करने के यत्न। चितवत = स्मरण करते हुए।3।
अर्थ: जो मनुष्य सदा सर्व-व्यापक प्रभु को स्मरण करता है, उसके अंदर से माया की तृष्णा और भटकना दूर हो जाती है, इसलिए वह सदा तीर्थ-व्रत-सुचि-संजम आदि नियमों से निष्काम रहता है, (भाव, इन कर्मों के करने की उसको चाहत नहीं रहती)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह मंदरि दीपकु परगासिआ अंधकारु तह नासा ॥ निरभउ पूरि रहे भ्रमु भागा कहि कबीर जन दासा ॥४॥१॥
मूलम्
जिह मंदरि दीपकु परगासिआ अंधकारु तह नासा ॥ निरभउ पूरि रहे भ्रमु भागा कहि कबीर जन दासा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंदरि = मन्दिर में, घर में। दीपकु = दीया। परगासिआ = जग उठा। तह = वहाँ। पूरि रहे = प्रकट हुए।4।
अर्थ: प्रभु का जन, प्रभु का दास कबीर कहता है: जिस घर में दीपक जल जाए, वहाँ अंधेरा दूर हो जाता है, वैसे ही जिस हृदय में निर्भय प्रकट हो जाए उसकी भटकना मिट जाती है।4।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: संत का कर्तव्य- विकारों से मनुष्य परहेज़ करता है; ना किसी की निंदा, ना किसी की खुशामद, तीर्थ व्रत आदि से बेपरवाह; कोई भटकना नहीं रह जाती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥ संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥
मूलम्
किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥ संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनजिआ = व्यापर किया, वणज किया। संतहु = संतों ने। खेप = सौदा।1।
अर्थ: कई लोग कांसे, तांबे आदि का व्यापार करते हैं, कई लौंग सुपारी आदि का व्यापार करते हैं। प्रभु के संतों ने परमात्मा के नाम का व्यापार किया है; मैंने भी यही सौदा लादा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के नाम के बिआपारी ॥ हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के नाम के बिआपारी ॥ हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिआपारी = व्यापारी। हाथि चढ़िया = मिल गया। संसारी = संसार में ग्रसे रहने वाली तवज्जो/ध्यान।1। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के नाम का वणज करते हैं, उनको प्रभु का नाम-रूपी अमोलक हीरा मिल जाता है। और, उनकी वह रुचि समाप्त हो जाती है, जो सदा संसार में ही जोड़े रखती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचे लाए तउ सच लागे साचे के बिउहारी ॥ साची बसतु के भार चलाए पहुचे जाइ भंडारी ॥२॥
मूलम्
साचे लाए तउ सच लागे साचे के बिउहारी ॥ साची बसतु के भार चलाए पहुचे जाइ भंडारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिउहारी = व्यापारी। चलाए = लाद लिए। भंडारी = (ईश्वरीय) खजाने में।2।
अर्थ: सच्चे नाम का व्यापार करने वाले बँदे तब ही सच्चे नाम में लगते हैं, जब प्रभु स्वयं उनको इस वणज में लगाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाली नाम-वस्तु के लदे हुए चलते हैं, और प्रभु की हजूरी में जा पहुँचते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ॥ आपै दह दिस आप चलावै निहचलु है बिआपारी ॥३॥
मूलम्
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ॥ आपै दह दिस आप चलावै निहचलु है बिआपारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपहि = प्रभु स्वयं ही। पासारी = पंसारी, सौदा बेचने वाला। दहदिस = दसों दिशाओं में। निहचलु = सदा स्थिर रहने वाला।3।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही रत्न है, स्वयं ही हीरा है, स्वयं ही मोती है, वह स्वयं ही इस की हाट को चला रहा है; वह स्वयं ही सदा-स्थिर रहने वाला सौदागर है, वह स्वयं ही जीव-बन्जारों को (जगत में) दसों दिशाओं में चला रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु करि बैलु सुरति करि पैडा गिआन गोनि भरि डारी ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ॥४॥२॥
मूलम्
मनु करि बैलु सुरति करि पैडा गिआन गोनि भरि डारी ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरति = (प्रभु चरणों में जुड़ी हुई) तवज्जो/ध्यान। गोनि = थैली। भरि डारी = भर ली। निबही = ठिकाने तक पहुँच गई है।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनों! सुनो, मेरा वणजा हुआ नाम-सौदा बड़ा लाभदायक रहा है। मैंने अपने मन को बैल बना के, (प्रभु के चरणों में जुड़ी अपनी) तवज्जो से जीवन-पथ पर चल के (गुरु के बताए हुए) ज्ञान की थैली भर ली है।4।2।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: संत का कर्तव्य- संसार की ओर सदा दौड़ती तवज्जो प्रभु में टिक जाती है। जैसे दुनियादार मायावी वाणज्य-व्यापार के लिए तन से मन से दौड़-भाग करता है, वैसे ही प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ व्यक्ति प्रभु-प्रीति को ही अपने जीवन का निशाना समझता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ ॥ मनु मतवार मेर सर भाठी अम्रित धार चुआवउ ॥१॥
मूलम्
री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ ॥ मनु मतवार मेर सर भाठी अम्रित धार चुआवउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: री कलवारि = हे कलालण! री गवारि = हे गवाँरन! मूढ = मूर्ख। पवनु = चंचल (मन), (“संतहु मन पवनै सुखु बनिआ….” सोरठि कबीर)। उलटो पवनु = उल्टा हुआ चंचल (मन), बिगड़ा हुआ चंचल मन। फिरावउं = मैं फिरा रहा हूँ, मैं मोड़ रहा हूँ, मैं बिगड़ी के कारण मना कर रहा हूँ। मतवार = मतवाला, मस्त। मेर = 1. सबसे ऊँचा पर्वत जिसमें सोना और हीरे आदि मिलते माने जाते हैं: समेरु पर्वत। 2. माला का सबसे ऊपरवाला मणका; 3. शरीर का सबसे ऊँचा शिरोमणि हिस्सा, दिमाग़, दसवाँ द्वार। सर = बराबर, जैसा। भाठी = भट्ठी, जिसमें अर्क शराब आदि निकाली जाती है। अम्रित धार = (नाम) अमृत की धाराएं। चुआवउ = मैं चुआ रहा हूँ, टपका रहा हूँ, निकाल रहा हूँ।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘री’ ‘स्त्रीलिंग’ है, इसके मुकाबले में शब्द ‘रे’ पुलिंग है। ‘रे लोई! ’ में शब्द ‘लोई’ पुलिंग ही हो सकता है। सो, राग आसा के शब्द “करवतु भला…” में शब्द ‘लोई’ कबीर जी की पत्नी के लिए नहीं है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे (माया का) नशा बाँटने वाली! हे गँवारन! हे मेरी मूर्ख बुद्धि! मैं तो (नाम-अमृत की मौज में) अपने टेढ़े चलते चंचल मन को (माया की ओर से) मना कर रहा हूँ। (प्रभु-चरणों में जुड़ी) तवज्जो की भट्ठी बना के मैं ज्यों-ज्यों धारा चुआता हूँ, त्यों-त्यों मेरा मन (उसमें) मस्त होता जा रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलहु भईआ राम की दुहाई ॥ पीवहु संत सदा मति दुरलभ सहजे पिआस बुझाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बोलहु भईआ राम की दुहाई ॥ पीवहु संत सदा मति दुरलभ सहजे पिआस बुझाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भईआ = हे भाई! हे सज्जन! दुहाई = और बातें छोड़ के एक ही बात को बार बार कहते जाने को दोहाई डालना कहा जाता है। राम की दुहाई = और ख्याल छोड़ के परमात्मा के नाम का ही बार बार उच्चारण। बोलहु राम की दुहाई = बार बार प्रभु के नाम का जाप जपो। संत = हे संत जनो! पीवहु = (प्रभु के नाम का जाप रूपी अमृत) पीयो। दुरलभ = दुर्लभ, जो बहुत मुश्किल से मिले। सदा मति दुरलभ = (हे संतजनो! राम की दोहाई रूपी अमृत पीने से) तुम्हारी मति सदा के लिए ऐसी बन जाएगी जो मुश्किल से मिलती है। सहजे = सहज अवस्था में (पहुँचा के)। पिआस बुझाई = (यह अमृत माया की) प्यास बुझा देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! बार-बार प्रभु के नाम का जाप जपो; हे संतजनो! (प्रभु के नाम का जाप-रस अमृत) पीयो। इस नाम-रस अमृत (के पीने) से तुम्हारी मति हमेशा के लिए ऐसी बन जाएगी जो मुश्किल से बना करती है, (यह अमृत) सहज अवस्था में (पहुँचा के, माया की) प्यास बुझा देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै बिचि भाउ भाइ कोऊ बूझहि हरि रसु पावै भाई ॥ जेते घट अम्रितु सभ ही महि भावै तिसहि पीआई ॥२॥
मूलम्
भै बिचि भाउ भाइ कोऊ बूझहि हरि रसु पावै भाई ॥ जेते घट अम्रितु सभ ही महि भावै तिसहि पीआई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै बिचि = प्रभु के अदब में (रहने से)। भाउ = (प्रभु से) प्यार। भाइ = (उस) प्यार द्वारा। कोऊ = कोई विरले विरले। हरि रसु = हरि नाम अमृत का स्वाद। भाई = हे भाई! घर = शरीर, जीव। भावै = (जो उस प्रभु को) अच्छा लगता है। तिसहि = उसको ही।2।
अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य हरि-नाम अमृत का स्वाद चखता है, प्रभु के डर में रहके उसके अंदर प्रभु का प्रेम पैदा होता है। उस प्रेम की इनायत से वह विरले (भाग्यशाली) लोग यह बात समझ लेते हैं कि जितने भी जीव हैं, उन सब के अंदर ये नाम-अमृत मौजूद है। पर, जो जीव उस प्रभु को अच्छा लगता है उसी को ही वह अमृत पिलाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नगरी एकै नउ दरवाजे धावतु बरजि रहाई ॥ त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूल्है ता मनु खीवा भाई ॥३॥
मूलम्
नगरी एकै नउ दरवाजे धावतु बरजि रहाई ॥ त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूल्है ता मनु खीवा भाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नगरी एकै = इस अपने शरीर रूप नगर में ही। धावत = भटकते मन को। त्रिकुटी = त्योड़ी, खिझ। दसवा दरु = दसवां दरवाजा, दिमाग़। खूलै = खुल जाता है, (प्रभु के चरणों से) संबंध जोड़ लेता है। खीवा = मस्त। भाई = हे सज्जन!।3।
अर्थ: हे भाई! (‘राम की दुहाई’ की इनायत से) जो मनुष्य इस नौ-दरवाजों वाले शरीर के अंदर ही भटकते मन को माया की ओर से रोक के रखता है, उसकी त्रिकुटी (खिझ) समाप्त हो जाती है (भाव, माया के कारण पैदा हुई खिझ खत्म हो जाती है), उसकी तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ जाती है और (उस मिलाप में उसका) मन मगन रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभै पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी ॥ उबट चलंते इहु मदु पाइआ जैसे खोंद खुमारी ॥४॥३॥
मूलम्
अभै पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी ॥ उबट चलंते इहु मदु पाइआ जैसे खोंद खुमारी ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभै पद = निर्भयता वाली अवस्था, मन की वह हालत जहाँ दुनिया का कोई डर नहीं सताता। तह = वहाँ, उस अवस्था में। कहि = कहे, कहता है। बीचारी = विचार के, सोच समझ के। उबट = (संस्कृत: उद्वत् = an elevation, hill, प्राक्रित रूप है ‘उबट’) मुश्किल घाटी, औखी घाटी, कठिन चढ़ाई की ओर। मदु = नशा। खुमारी = मस्ती, नशा। खोंद = (क्षौद्) दाख का रस, अंगूरी शराब। खोंद खुमारी = अंगूरी शराब का नशा।4।
अर्थ: अब कबीर यह बात बड़े विश्वास के साथ कहता है: (‘राम की दुहाई’ की इनायत से) मन में वह हालत पैदा हो जाती है जहाँ इसको (दुनियावी) डर नहीं सताते, मन के सारे कष्ट नाश हो जाते हैं। (पर यह नाम-अमृत हासिल करने वाला रास्ता, मुश्किल और पहाड़ी है, औखी घाटी है) इस कठिन चढ़ाई के राह पर चढ़ते हुए यह नशा प्राप्त होता है (और यह नशा इस प्रकार है) जैसे अंगूरी शराब का नशा होता है।4।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। सारे शब्द में ‘राम की दुहाई’ का विकास है। नाम-जपने की इनायत से जो तब्दीली जीवन में पैदा होती है, उसका वर्णन शब्द के चारों बँदों (छंदों) में किया गया है। शब्द त्रिकुटी, पवन आदि से जल्दबाजी में यह नतीजा निकालना ठीक नहीं है कि कबीर जी किसी योगाभ्यास व प्राणायाम की हामी भरते हैं।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: स्मरण का नतीजा- माया की तृष्णा समाप्त हो जाती है, मन नाम-अमृत की धारा में मस्त रहता है, माया के मोह के कारण उपजी खिझ दूर हो जाती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी ॥ फूटी आखै कछू न सूझै बूडि मूए बिनु पानी ॥१॥
मूलम्
काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी ॥ फूटी आखै कछू न सूझै बूडि मूए बिनु पानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लीने = ग्रसे हुए। एकै गति = एक प्रभु (के मेल) की अवस्था। फूटी आखै = आँख फूट जाने के कारण, अंधा हो जाने के कारण। बूडि मूए = डूब कर मर गए।1।
अर्थ: (हे अंजान!) काम, क्रोध, तृष्णा आदि में ग्रसे रह के तू यह नहीं समझा कि प्रभु के साथ मेल कैसे हो सकेगा। माया में तू अंधा हो रहा है, (माया के बिना) कुछ और तुझे सूझता ही नहीं। तू पानी के बिना ही (सूखे में ही) डूब मरा।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
चलत कत टेढे टेढे टेढे ॥ असति चरम बिसटा के मूंदे दुरगंध ही के बेढे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चलत कत टेढे टेढे टेढे ॥ असति चरम बिसटा के मूंदे दुरगंध ही के बेढे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कत = किसलिए? क्यों? असति = (सं: अस्थि) हड्डी। चरम = चर्म, चमड़ी। मूंदे = भरे हुए। बेढे = लिबड़े हुए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे अंजान जीव!) क्यों अकड़-अकड़ के चलता है? है तो तू हड्डियों, चमड़ी और विष्ठा से भरा हुआ, और र्दुगंध से लिबड़ा हुआ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम न जपहु कवन भ्रम भूले तुम ते कालु न दूरे ॥ अनिक जतन करि इहु तनु राखहु रहै अवसथा पूरे ॥२॥
मूलम्
राम न जपहु कवन भ्रम भूले तुम ते कालु न दूरे ॥ अनिक जतन करि इहु तनु राखहु रहै अवसथा पूरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुम ते = तुझसे। राखहु = पाल रहे हो, रक्षा कर रहे हो। रहै = रह जाता है, नाश हो जाता है। अवसथा = अवस्था, उम्र।2।
अर्थ: (हे अंजान!) तू प्रभु को नहीं स्मरण करता, किन भुलेखों में भूला हुआ है? (क्या तेरा यह ख्याल है कि मौत नहीं आएगी?) मौत तुझसे दूर नहीं। जिस शरीर को अनेक प्रयत्न करके पाल रहा है, यह उम्र पूरी होने पर ढह जाएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपन कीआ कछू न होवै किआ को करै परानी ॥ जा तिसु भावै सतिगुरु भेटै एको नामु बखानी ॥३॥
मूलम्
आपन कीआ कछू न होवै किआ को करै परानी ॥ जा तिसु भावै सतिगुरु भेटै एको नामु बखानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परानी = प्राणी, जीव। भेटै = मिलता है। बखानी = उचारता है।3।
अर्थ: (पर) जीव के भी क्या वश? जीव का अपना किया कुछ नहीं हो सकता। जब प्रभु की रजा होती है (जीव को) गुरु मिलता है (और, गुरु की मेहर से) ये प्रभु के नाम को ही स्मरण करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलूआ के घरूआ महि बसते फुलवत देह अइआने ॥ कहु कबीर जिह रामु न चेतिओ बूडे बहुतु सिआने ॥४॥४॥
मूलम्
बलूआ के घरूआ महि बसते फुलवत देह अइआने ॥ कहु कबीर जिह रामु न चेतिओ बूडे बहुतु सिआने ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलूआ = बालू, रेत। घरूआ = छोटा सा घर। फुलवत = फूलता, गुमान करता। देह = शरीर। अइआने = हे अंजान! जिह = जिन्होंने।4।
अर्थ: हे अंजान! (यह तेरा शरीर रेत के घर के समान है) तू रेत के घर में बसता है, और इस शरीर पर गर्व करता है। हे कबीर! कह: जिस लोगों ने प्रभु का स्मरण नहीं किया, वह बड़े-बड़े समझदार भी (संसार-समुंदर में) डूब गए।4।4।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: असारता-शरीर के गुमान में ईश्वर को भुला देना मूर्खता है। यह तो रेत के घर जैसा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान ॥ भाउ भगति सिउ काजु न कछूऐ मेरो कामु दीवान ॥१॥
मूलम्
टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान ॥ भाउ भगति सिउ काजु न कछूऐ मेरो कामु दीवान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेढी = टेढ़ी। चले = चलते हैं। बीरे = पान के बीड़े। खान लागे = खाने लगते हैं, खाने में मस्त हैं। भाउ = प्यार। सिउ = साथ। कछूऐ काजु न = कोई काम नहीं, कोई आवश्यक्ता नहीं। दीवान = कचहरी, हकूमत।1।
अर्थ: (अहंकार में) टेढ़ी पगड़ी बाँधता है, अकड़ कर चलता है, पान के बीड़े खाता है, (और कहता है:) मेरा काम है हकूमत करनी, परमात्मा से प्यार अथवा प्रभु की भक्ति की मुझे कोई जरूरत नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु बिसारिओ है अभिमानि ॥ कनिक कामनी महा सुंदरी पेखि पेखि सचु मानि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामु बिसारिओ है अभिमानि ॥ कनिक कामनी महा सुंदरी पेखि पेखि सचु मानि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभिमानि = अहंकार में। कनिक = सोना। कामनी = स्त्री। महा = बड़ी। पेखि = देख के। सचु = सदा टिके रहने वाले। मानि = माने, मानता है, समझता है।1। रहाउ।
अर्थ: मनुष्य अहंकार में (आ के) परमात्मा को भुला देता है। सोना और बड़ी सुंदर स्त्री देख के ये मान बैठता है कि ये सदा रहने वाले हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लालच झूठ बिकार महा मद इह बिधि अउध बिहानि ॥ कहि कबीर अंत की बेर आइ लागो कालु निदानि ॥२॥५॥
मूलम्
लालच झूठ बिकार महा मद इह बिधि अउध बिहानि ॥ कहि कबीर अंत की बेर आइ लागो कालु निदानि ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मद = अहंकार। इह बिधि = इस तरीके से, इन तरीकों से। अउध = उम्र। बिहानि = गुजरती है, बीतती है। कहि = कहे, कहता है। बेर = समय। आइ लागो = आ पहुँचता है। कालु = मौत। निदानि = आखिर में, सिरे पर।2।
अर्थ: (माया का) लालच, झूठ, विकार, बड़ा अहंकार- इन बातों से ही (सारी) उम्र गुजर जाती है। कबीर कहता है: आखिर उम्र खत्म होने पर मौत (सिर पर) आ ही पहुँचती है।2।5।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: असारता- धन, स्त्री, हकूमत के मान में ईश्वर को बिसार के मनुष्य जीवन को व्यर्थ गवा लेता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ ॥ इतनकु खटीआ गठीआ मटीआ संगि न कछु लै जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ ॥ इतनकु खटीआ गठीआ मटीआ संगि न कछु लै जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउबति बजाइ = हकूमत का नगारा बजा के, हकूमत करके। चले = चल पड़े। इतनक खटीआ = माया इतनी कमाई। गठीआ = गाठें बाँध लीं। मटीआ = मिट्टी में (दबा रखीं)।1। रहाउ।
अर्थ: मनुष्य (यदि राजा भी बन जाए तो भी) थोड़े ही दिन राज भोग के (यहाँ से) चल पड़ता है। यदि इतना धन भी जोड़ ले तो भी कोई चीज़ (आखिर में जीव के) साथ नहीं जाती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिहरी बैठी मिहरी रोवै दुआरै लउ संगि माइ ॥ मरहट लगि सभु लोगु कुट्मबु मिलि हंसु इकेला जाइ ॥१॥
मूलम्
दिहरी बैठी मिहरी रोवै दुआरै लउ संगि माइ ॥ मरहट लगि सभु लोगु कुट्मबु मिलि हंसु इकेला जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिहरी = दहलीज। मिहरी = पत्नी। दुआरै = बाहरी दरवाजे तक। माइ = माँ। मरहट = मरघट। हंसु = जीवात्मा।1।
अर्थ: (जब मर जाता है तब) घर की दहलीज़ पर बैठी पत्नी रोती है, बाहरी दरवाजे तक उसकी माँ (उसके मुर्दा शरीर का) साथ करती है, मरघट तक और लोग व परिवार के व्यक्ति जाते हैं। पर जीवात्मा अकेली ही जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आइ ॥ कहतु कबीरु रामु की न सिमरहु जनमु अकारथु जाइ ॥२॥६॥
मूलम्
वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आइ ॥ कहतु कबीरु रामु की न सिमरहु जनमु अकारथु जाइ ॥२॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वे = वह। बित = धन। पुर = नगर। पाटन = शहर। बहुरि = फिर कभी। आइ = आ के। की न = क्यों नहीं? अकारथ = व्यर्थ।2।
अर्थ: वह (अपने) पुत्र, धन, नगर शहर वापस कभी आ के नहीं देख सकता। कबीर कहता है: (हे भाई!) परमात्मा का स्मरण क्यों नहीं करता? (स्मरण के बिना) जीवन व्यर्थ चला जाता है।2।6।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: असारता- धन, हकूमत, पुत्र, स्त्री आदि सबसे आखिर में साथ छूट जाता है। इनके मोह में ही फसे रहने से जीवन व्यर्थ जाता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: साधारण तौर पर दुनिया की असारता का वर्णन करते हुए भी कबीर जी हिन्दका शब्द ‘मरहट’ (मरघट) प्रयोग करते हैं। पालन-पोषण जो हिन्दू घर में हुआ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु केदारा बाणी रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु केदारा बाणी रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खटु करम कुल संजुगतु है हरि भगति हिरदै नाहि ॥ चरनारबिंद न कथा भावै सुपच तुलि समानि ॥१॥
मूलम्
खटु करम कुल संजुगतु है हरि भगति हिरदै नाहि ॥ चरनारबिंद न कथा भावै सुपच तुलि समानि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खट करम = मनु स्मृति में बताए छह कर्म हरेक ब्राहमण के लिए आवश्यक हैं; (अध्यापनमध्यनं याजनं तथा। दान प्रतिग्रहश्चैव, षट् कर्माणयग्रजन्मन: MS 10.75) विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और करवाना, दान देना और लेना। संजुगतु = संयुक्त, समेत, सहित। चरनारबिंद = चरन+अरबिंद, चरण कमल। सु पच = (श्व+पच) चंडाल, जो कुत्ते को पचा ले, जो कुत्ते का माँस खाते हैं। तुलि = तूल्य, बराबर। समानि = जैसा।1।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य ऊँचे ब्राहमण कुल का हो, और, नित्य छह कर्म करता हो; पर अगर उसके हृदय में परमात्मा की भक्ति नहीं, यदि उसको प्रभु के सुंदर चरणों की बातें अच्छी नहीं लगतीं, तो वह चण्डाल के बराबर है, चण्ण्डाल जैसा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे चित चेति चेत अचेत ॥ काहे न बालमीकहि देख ॥ किसु जाति ते किह पदहि अमरिओ राम भगति बिसेख ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे चित चेति चेत अचेत ॥ काहे न बालमीकहि देख ॥ किसु जाति ते किह पदहि अमरिओ राम भगति बिसेख ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे अचेत चित = हे गाफ़ल मन! काहे न = क्यों नहीं? पदहि = दर्जे पर। अमरिओ = पहुँचा हुआ। बिसेख = विशेषता, महत्वता, बड़ाई।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे गाफिल मन! प्रभु को स्मरण कर। हे मन! तू बाल्मीकि की तरफ क्यों नहीं देखता? एक नीच जाति से बहुत बड़े दर्जे पर पहुँच गया-ये महिमा परमात्मा की भक्ति के कारण ही थी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुआन सत्रु अजातु सभ ते क्रिस्न लावै हेतु ॥ लोगु बपुरा किआ सराहै तीनि लोक प्रवेस ॥२॥
मूलम्
सुआन सत्रु अजातु सभ ते क्रिस्न लावै हेतु ॥ लोगु बपुरा किआ सराहै तीनि लोक प्रवेस ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआन सत्रु = कुक्तों का वैरी, कुक्तों को मार के खा जाने वाला। अजातु = नीच, चाण्डाल। हेतु = प्यार। बपुरा = बेचारा, निमाणा। सराहै = कीर्ति करे।2।
अर्थ: (बाल्मीक) कुक्तों का वैरी था, सब लोगों से ज्यादा चण्डाल था, पर उसने प्रभु से प्यार किया। बेचारा जगत उसकी क्या स्तुति कर सकता है? उसकी शोभा तीनों लोकों में बिखर गई।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजामलु पिंगुला लुभतु कुंचरु गए हरि कै पासि ॥ ऐसे दुरमति निसतरे तू किउ न तरहि रविदास ॥३॥१॥
मूलम्
अजामलु पिंगुला लुभतु कुंचरु गए हरि कै पासि ॥ ऐसे दुरमति निसतरे तू किउ न तरहि रविदास ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लुभतु = लुब्धक, शिकारी। कुंचरु = हाथी। दुरमति = बुरी मति वाले।
अजामल = कन्नौज देश का एक दुराचारी ब्राहमण, जिसने एक वैश्या के साथ विवाह किया था। उस वैश्या के उदर से 10 पुत्र जन्मे। छोटे पुत्र का नाम नारायण होने के कारण अजामल नारायण का भक्त बन गया, और मुक्ति का अधिकारी हो गया।
कुंचरु = हाथी, गज। एक गंधर्व जो दैवल ऋषि के श्राप से हाथी बन गया था। वरुण देवता के तालाब में तंदूए ने इसको ग्रस लिया था। जब निर्बल हो के ये डूबने लगा, तब कमल सूँड में लेकर ईश्वर को जपते हुए ने सहायता के लिए पुकार की थी। भगवान ने तेंदुए के बंधनो से गजराज को मुक्त किया था। ये कथा भागवत के आठवें खण्ड के दूसरे अध्याय में है।
पिंगला = जनकपुरी में एक गनिका रहती थी, जिसका नाम पिंगला था। उसने एक दिन धनी सुंदर जवान देखा, उस पर मोहित हो गई। पर वह उसके पास नहीं आया। पिंगुला की सारी रात बैचेनी में बीती। अंत को उसके मन में वैराग पैदा हुआ कि यदि ऐसा प्रेम मैं परमेश्वर के प्रति करती, तो कितना अच्छा फल मिलता। पिंगुला ईश्वर के स्मरण में लग के मुक्त हो गई।3।
अर्थ: अजामल, पिंगुला, शिकारी, कुंचर- ये सारे (मुक्त हो के) प्रभु-चरणों में जा पहुँचे। हे रविदास! अगर ऐसी बुरी मति वालों का उद्धार हो गया तो तू (इस संसार-सागर से) क्यों ना पार लांघेगा?।3।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: नाम-जपने की महिमा। स्मरण बड़े-बड़े पापियों को तार देता है। स्मरण से विहीन मनुष्य असल में नीच है।