२२ तुखारी

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी छंत महला १ बारह माहा

मूलम्

तुखारी छंत महला १ बारह माहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू सुणि किरत करमा पुरबि कमाइआ ॥ सिरि सिरि सुख सहमा देहि सु तू भला ॥ हरि रचना तेरी किआ गति मेरी हरि बिनु घड़ी न जीवा ॥ प्रिअ बाझु दुहेली कोइ न बेली गुरमुखि अम्रितु पीवां ॥ रचना राचि रहे निरंकारी प्रभ मनि करम सुकरमा ॥ नानक पंथु निहाले सा धन तू सुणि आतम रामा ॥१॥

मूलम्

तू सुणि किरत करमा पुरबि कमाइआ ॥ सिरि सिरि सुख सहमा देहि सु तू भला ॥ हरि रचना तेरी किआ गति मेरी हरि बिनु घड़ी न जीवा ॥ प्रिअ बाझु दुहेली कोइ न बेली गुरमुखि अम्रितु पीवां ॥ रचना राचि रहे निरंकारी प्रभ मनि करम सुकरमा ॥ नानक पंथु निहाले सा धन तू सुणि आतम रामा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तू सुणि = हे हरि! तू (मेरी विनती) सुन। किरत = किए हुए। करंमा = काम। पूरबि = पूर्बले किए हुए, पहले जन्मों में। कमाइआ = कमाई। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर। सहंमा = सहम, दुख। तू देहि = (जो) तू देता है। सु भला = वह (हरेक जीव के लिए) भला है। गति = हालत। दुहेली = दुखी। बेली = मदद करने वाला। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। निरंकारी रचना = निरंकार की रचना में। सु करमा = श्रेष्ठ कर्म। पंथु = रास्ता। निहाले = ताक रही है। साधन = जीव-स्त्री। आतम रामा = हे सर्व व्यापक परमात्मा! अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।
अर्थ: हे हरि! (मेरी विनती) सुन। पूर्बले कमाए हुए किए कर्मों के अनुसार हरेक जीव के सिर पर जो सुख और दुख (झेलने के लिए) तू देता है वही ठीक है।
हे हरि! मैं तेरी रची माया में (व्यस्त) हूँ। मेरा क्या हाल होगा? तेरे बिना (तेरी याद के बिना) एक घड़ी भी जीना- ये कैसी जिंदगी है? हे प्यारे! तेरे बिना मैं दुखी हूँ, (इस दुख में से निकालने के लिए) कोई मददगार नहीं है। (मेहर कर कि) गुरु की शरण पड़ कर मैं तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता रहूँ।
हम जीव निरंकार की रची हुई माया में ही फसे हुए हैं (ये कैसा जीवन है?), प्रभु को मन में बसाना ही सबसे श्रेष्ठ कर्म है (यही है मनुष्य के लिए जीवन का लक्ष्य)।
हे नानक! (कह:) हे सर्व व्यापक परमात्मा! तू (जीव-स्त्री की आरजू) सुन (और, उसको अपने दर्शन दे), जीव-स्त्री तेरा राह ताक रही है।1।

दर्पण-भाव

भाव: पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य इस जनम में भी माया के मोह में ही फसा रहता है, और, दुखी जीवन गुजारता है। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उसका आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी पी के आत्मिक आनंद पाता है। यही है जीवन-उद्देश्य।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबीहा प्रिउ बोले कोकिल बाणीआ ॥ सा धन सभि रस चोलै अंकि समाणीआ ॥ हरि अंकि समाणी जा प्रभ भाणी सा सोहागणि नारे ॥ नव घर थापि महल घरु ऊचउ निज घरि वासु मुरारे ॥ सभ तेरी तू मेरा प्रीतमु निसि बासुर रंगि रावै ॥ नानक प्रिउ प्रिउ चवै बबीहा कोकिल सबदि सुहावै ॥२॥ {पन्ना 1107}

मूलम्

बाबीहा प्रिउ बोले कोकिल बाणीआ ॥ सा धन सभि रस चोलै अंकि समाणीआ ॥ हरि अंकि समाणी जा प्रभ भाणी सा सोहागणि नारे ॥ नव घर थापि महल घरु ऊचउ निज घरि वासु मुरारे ॥ सभ तेरी तू मेरा प्रीतमु निसि बासुर रंगि रावै ॥ नानक प्रिउ प्रिउ चवै बबीहा कोकिल सबदि सुहावै ॥२॥ {पन्ना 1107}

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबीहा = पपीहा, चात्रिक। बाणीआ = मीठे बोल। साधन = जीव-स्त्री। सभि = सारे। चोलै = खाती है, माणती है। अंकि = अंक में, अंग से। प्रभ भाणी = प्रभु को प्यारी लगती है। सोहागणि = अच्छे भाग्यों वाली। नारे = नारी, जीव-स्त्री। नव घर = नौ गोलकें, नौ इन्द्रियों वाले शरीर को। थापि = टिका के, जुगति में रख के। ऊचउ = ऊँचा। महल घरु = प्रभु का निवास स्थान, प्रभु के चरण। निज घरि मुरारे = प्रभु के स्वै स्वरूप में, प्रभु के अपने घर में। निसि = रात। बासुर = दिन। रंगि = प्यार में। रावै = माणती है, सिमरती है। सबदि = शब्द से। सुहावै = सुंदर लगती है।
अर्थ: (जैसे) पपीहा ‘प्रिउ प्रिउ’ बोलता है जैसे कोयल (‘कू कू’ की मीठी) बोली बोलती है (वैसे ही जो जीव-स्त्री वैराग में आ के मीठी सुर से प्रभु-पति को याद करती है, वह) जीव-स्त्री (प्रभु-मिलाप के) सारे आनंद माणती है, और उसके चरणों में टिकी रहती है। जब वह प्रभु को अच्छी लग जाती है, (तब उसकी मेहर से) उसके चरणों में जुड़ी रहती है, वही जीव-स्त्री अच्छे भाग्यों वाली है। वह अपने शरीर को (शारीरिक इन्द्रियों को) जुगति में रख के प्रभु के अपने स्वरूप में टिक जाती है, और (मायावी पदार्थों के मोह से उठ के) प्रभु के ऊँचे ठिकाने पर जा पहुँचती है।
हे नानक! वह जीव-स्त्री प्रभु के प्यार में रंगीज के दिन-रात उसको सिमरती है, और कहती है: ये सारी सृष्टि तेरी रची हुई है, तू ही मेरा प्यारा खसम साई है। जैसे पपीहा ‘पिउ पिउ’ बोलता है जैसे कोयल मीठे बोल बोलती है, वैसे ही वह जीव-स्त्री गुरु-शब्द द्वारा (प्रभु की महिमा करके) सुंदर लगती है।2।

दर्पण-भाव

भाव: नाम की इनायत से, महिमा की इनायत से मनुष्य अपनी सारी ज्ञान-इंद्रिय को मर्यादा में रख के माया के पदार्थों के मोह से ऊँचा उठा रहता है। गुरु के शब्द के द्वारा उसका जीवन पवित्र हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू सुणि हरि रस भिंने प्रीतम आपणे ॥ मनि तनि रवत रवंने घड़ी न बीसरै ॥ किउ घड़ी बिसारी हउ बलिहारी हउ जीवा गुण गाए ॥ ना कोई मेरा हउ किसु केरा हरि बिनु रहणु न जाए ॥ ओट गही हरि चरण निवासे भए पवित्र सरीरा ॥ नानक द्रिसटि दीरघ सुखु पावै गुर सबदी मनु धीरा ॥३॥

मूलम्

तू सुणि हरि रस भिंने प्रीतम आपणे ॥ मनि तनि रवत रवंने घड़ी न बीसरै ॥ किउ घड़ी बिसारी हउ बलिहारी हउ जीवा गुण गाए ॥ ना कोई मेरा हउ किसु केरा हरि बिनु रहणु न जाए ॥ ओट गही हरि चरण निवासे भए पवित्र सरीरा ॥ नानक द्रिसटि दीरघ सुखु पावै गुर सबदी मनु धीरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि रस भिंने = हे रस भरे हरि! प्रीतम आपणे = हे मेरे प्रीतम! मनि = (मेरे) मन में। तनि = (मेरे) शरीर में। रवत रवंने = हे रमे हुए! न बीसरै = (मेरा मन) नहीं भुलाता। बिसारी = मैं बिसार सकूँ। हउ = मैं। गाए = गा के। केरा = का। रहणु न जाए = मन धीरज नहीं पकड़ता। गही = पकड़ी। द्रिसटि = दृष्टि, नज़र। दीरघ = लीं। दीरघ द्रिसटि = लंबी नजर वाला, बड़े जिगरे वाला। धीरा = धैर्य वाला।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम! हे रस भरे हरि! हे मेरे मन-तन में रमे हुए! तू (मेरी आरजू) सुन, (मेरा मन तुझे) एक घड़ी भर के लिए भी नहीं भुला सकता।
मैं एक घड़ी के लिए भी तुझे नहीं बिसार सकता, मैं (तुझसे) सदा सदके हूँ, तेरी महिमा कर कर के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (परमात्मा के बिना अंत तक साथ निभाने वाला) ना कोई मेरा (सदा का) साथी है ना ही मैं किसी का (सदा के लिए) साथी हूँ, परमात्मा की याद के बिना मेरे मन को धैर्य नहीं बँधता।
जिस मनुष्य ने परमात्मा का आसरा लिया है, जिसके हृदय में प्रभु के चरण बस गए हैं, उस का शरीर पवित्र हो जाता है। हे नानक! वह मनुष्य लंबे जिगरे वाला हो जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है, गुरु के शब्द से उसका मन धैर्यवान हो जाता है।3।

दर्पण-भाव

भाव: महिमा करते-करते मनुष्य के अंदर ऊँचा आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। मनुष्य को यकीन हो जाता है कि एक परमात्मा ही जीव के साथ सदा निभने वाला साथी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरसै अम्रित धार बूंद सुहावणी ॥ साजन मिले सहजि सुभाइ हरि सिउ प्रीति बणी ॥ हरि मंदरि आवै जा प्रभ भावै धन ऊभी गुण सारी ॥ घरि घरि कंतु रवै सोहागणि हउ किउ कंति विसारी ॥ उनवि घन छाए बरसु सुभाए मनि तनि प्रेमु सुखावै ॥ नानक वरसै अम्रित बाणी करि किरपा घरि आवै ॥४॥

मूलम्

बरसै अम्रित धार बूंद सुहावणी ॥ साजन मिले सहजि सुभाइ हरि सिउ प्रीति बणी ॥ हरि मंदरि आवै जा प्रभ भावै धन ऊभी गुण सारी ॥ घरि घरि कंतु रवै सोहागणि हउ किउ कंति विसारी ॥ उनवि घन छाए बरसु सुभाए मनि तनि प्रेमु सुखावै ॥ नानक वरसै अम्रित बाणी करि किरपा घरि आवै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरसै = बरसती है। अंम्रित धार बूँद = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल के बूँदों की धारा। सहजि = सहज अवस्था में (टिके हुए को), आत्मिक अडोलता में (टिके हुए को)। सुभाइ = प्रेम में (टिके हुए को)। सिउ = साथ। मंदरि = मन्दिर में। जा = जब। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छा लगता है। धन = जीव-स्त्री। ऊभी = ऊँची (हो हो के), उतावली। सारी = संभालती है। घरि घरि = हरेक हृदय घर में। कंतु = प्रभु पति। रावै = रंग माणती है। हउ = मुझे। कंति = कंत ने, प्रभु पति ने। उनवि = झुक के, लिफ के, नीचे आ के, तरस कर के। घन = हे घन! हे बादल! बरसु = बरस, वर्षा कर। सुभाए = प्रेम से। सुखावै = सुखाता है, सुख देता है। घरि = घर में।
अर्थ: (जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में), प्रभु की महिमा की सोहावनी बूँदों की धारा बरसती है, उस अडोल अवस्था में टिकी हुई को प्रेम में टिकी हुई को सज्जन-प्रभु आ मिलता है, प्रभु के साथ उसकी प्रीति बन जाती है। (उस जीव-स्त्री का हृदय प्रभु-देव के ठहरने के लिए मन्दिर बन जाता है) जब प्रभु को अच्छा लगता है, वह उस जीव-स्त्री के हृदय-मन्दिर में आ ठहरता है, वह जीव-स्त्री उतावली हो हो के उसके गुण गाती है, (और कहती है:) हरेक भाग्यवान के हृदय-घर में प्रभु-पति रलियां माणता है, प्रभु-पति ने मुझे क्यों भुला दिया है? (वह तरले ले ले के गुरु के आगे यूँ अरदास करती है:) हे झुके घटा बन के आए बादल! प्रेम से बरस (हे तरस करके आए गुरु पातशाह! प्रेम से मेरे अंदर महिमा की बरखा कर), प्रभु का प्यार मेरे मन में, मेरे तन में आनंद पैदा करता है।
हे नानक! जिस (सौभाग्य भरे) हृदय-घर में महिमा की वाणी की बरखा होती है, प्रभु कृपा धार के स्वयं वहाँ आ टिकता है।4।

दर्पण-भाव

भाव: महिमा की इनायत से मनुष्य का मन विकारों से अडोल रहता है, उसके अंदर हर वक्त परमात्मा के मिलाप के प्रति आर्कषण बना रहता है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

चेतु बसंतु भला भवर सुहावड़े ॥ बन फूले मंझ बारि मै पिरु घरि बाहुड़ै ॥ पिरु घरि नही आवै धन किउ सुखु पावै बिरहि बिरोध तनु छीजै ॥ कोकिल अ्मबि सुहावी बोलै किउ दुखु अंकि सहीजै ॥ भवरु भवंता फूली डाली किउ जीवा मरु माए ॥ नानक चेति सहजि सुखु पावै जे हरि वरु घरि धन पाए ॥५॥

मूलम्

चेतु बसंतु भला भवर सुहावड़े ॥ बन फूले मंझ बारि मै पिरु घरि बाहुड़ै ॥ पिरु घरि नही आवै धन किउ सुखु पावै बिरहि बिरोध तनु छीजै ॥ कोकिल अ्मबि सुहावी बोलै किउ दुखु अंकि सहीजै ॥ भवरु भवंता फूली डाली किउ जीवा मरु माए ॥ नानक चेति सहजि सुखु पावै जे हरि वरु घरि धन पाए ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहावड़े = सोहाने। बन = जंगल, बनस्पति, वृक्ष, बेल बूटे। मंझ = में। बारि = जूह, खुली ज़मीन। मै पिरु = मेरा पति प्रभु। बाहुड़ै = आ जाए। धन = स्त्री। बिरहि = बिछोड़े में। छीजै = छिज्जता है, टूटता है, दुखी होता है। अंबि = आम (के वृक्ष) पर। अंकि = हृदय में। मरु = मौत, आत्मिक मौत। माए = हे माँ! वरु = पति। घरि = हृदय घर में। धन = जीव-स्त्री। पाए = ढूँढ लिए।
अर्थ: चेत (का महीना) अच्छा लगता है, (चेत में) बसंत (का मौसम भी) प्यारा लगता है, (इस महीने) खुली जूह में बनस्पति को फूल लग जाते हैं, और (फूलों पर बैठे हुए) भँवर सुंदर लगते हैं। (मेरे हृदय का कमल-फूल भी खिल जाए, अगर) मेरा पति-प्रभु हृदय-घर में आ बसे।
जिस जीव-स्त्री का पति-प्रभु हृदय-घर में ना आ बसे, उस जीव-स्त्री को आत्मिक आनंद नहीं आ सकता, उसका शरीर (प्रभु से) विछोड़े के कारण (कामादिक वैरियों के) हमलों से कमजोर हो जाता है। (चेत्र के महीने) कोयल आमों के वृक्ष पर बैठ कर मीठे बोल बोलती है (वियोगन को ये बोल मीठे नहीं लगते, चुभवें व दुखदाई लगते हैं, और विछोड़े का) दुख उससे सहा नहीं जाता।
हे माँ! मेरा मन भँवरा (अंदर के खिले हुए हृदय-कमल को छोड़ के दुनिया के रंग-तमाशों के) फूलों और डालियों पर भटकता फिरता है। यह आत्मिक जीवन नहीं है, यह तो आत्मिक मौत है।
हे नानक! चेत्र के महीने में (बसंत के मौसम में) जीव-स्त्री अडोल अवस्था में टिक के आत्मिक आनंद पाती है, यदि जीव-स्त्री (अपने हृदय-) घर में प्रभु-पति को ढूँढ ले।

दर्पण-भाव

भाव: बसंत का मौसम सोहाना होता है। हर तरफ फूल खिले होते हैं, कोयल आम पर बैठी मीठे बोल बोलती है। पर पति से विछुड़ी नारि को ये सब कुछ चुभता प्रतीत होता है। जिस मनुष्य का मन अंदर के हृदय-कमल फूल को छोड़ के दुनिया के रंग-तमाशो में भटकता फिरता है, उसका यह जीना असल में आत्मिक मौत है। आत्मिक आनंद तब ही है जब परमात्मा हृदय में आ बसता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैसाखु भला साखा वेस करे ॥ धन देखै हरि दुआरि आवहु दइआ करे ॥ घरि आउ पिआरे दुतर तारे तुधु बिनु अढु न मोलो ॥ कीमति कउण करे तुधु भावां देखि दिखावै ढोलो ॥ दूरि न जाना अंतरि माना हरि का महलु पछाना ॥ नानक वैसाखीं प्रभु पावै सुरति सबदि मनु माना ॥६॥

मूलम्

वैसाखु भला साखा वेस करे ॥ धन देखै हरि दुआरि आवहु दइआ करे ॥ घरि आउ पिआरे दुतर तारे तुधु बिनु अढु न मोलो ॥ कीमति कउण करे तुधु भावां देखि दिखावै ढोलो ॥ दूरि न जाना अंतरि माना हरि का महलु पछाना ॥ नानक वैसाखीं प्रभु पावै सुरति सबदि मनु माना ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साखा = शाखाएं, नई फूटी टहनियां। वेस करे = सुंदर कपड़े पहने हुए हैं, नर्म नर्म कोमल पत्ते निकले हुए हैं। धन = स्त्री। देखै = देखती है, इन्तजार करती है। दुआरि = द्वार में (खड़ी)। करे = कर के। घरि = घर में। दुतर = जिस में से तैर के गुजरना मुश्किल है। तारे = पार लंघा ले, उद्धार कर। अढु = आधी कौड़ी। मोलो = मूल्य। तुधु भावां = अगर तुझे अच्छा लगने लगूँ। देखि = देख के, दर्शन कर के। दिखावै = (मुझे भी) दर्शन करा दे। ढोलो = ढोले के, प्यारे पति का। जाना = जानती हूँ। माना = मानती हूँ। महलु = ठिकाना। पछाना = पहचान लेती हूँ। वैसाखीं = वैसाख में। सबदि = शब्द में। माना = पतीज गया।
अर्थ: वैसाख (का महीना कैसा) अच्छा लगता है! (वृक्षों की) नई फूटी कोमल कोपलें टहनियां (नव-विवाहिता जैसे कोमल-कोमल पक्तों का) हार-श्रृंगार करती हैं। (इन कोमल टहनियों का हार-श्रृंगार देख के पति से विछुड़ी नारी के अंदर भी पति को मिलने की कसक पैदा होती है, और वह अपने घर के दरवाजे पर खड़ी राह देखती है। इसी तरह प्रकृति-रानी का सोहज-श्रृंगार देख के उमाह भरी) वह जीव-स्त्री अपने (हृदय-) दर पर प्रभु-पति का इन्तजार करती है (और कहती है: हे प्रभु पति!) मेहर करके (मेरे हृदय-घर में) आओ, मुझे इस बिशम संसार-समुंदर से पार लंघाओ, तेरे बिना मेरी कद्र आधी कौड़ी जितनी भी नहीं है। पर, हे मित्र प्रभु! अगर गुरु तेरे दर्शन करके मुझे भी करवा दे, और अगर मैं तुझे अच्छी लग जाऊँ, तो कौन मेरा मोल डाल सकता है? फिर तू मुझे कहीं दूर नहीं प्रतीत होगा, मुझे यकीन होगा कि तू मेरे अंदर बस रहा है, उस ठिकाने की मुझे पहचान हो जाएगी जहाँ तू बसता है।
हे नानक! वैसाख में (कुदरत रानी का साज-श्रृंगार देख के वह जीव-स्त्री) प्रभु-पति (का मिलाप) हासिल कर लेती है जिसकी तवज्जो गुरु-शब्द में जुड़ी रहती है, जिसका मन (महिमा में ही) रम जाता है।6।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा में रम जाता है, उसको कुदरत की सुंदरता भी परमात्मा के चरणों में जोड़ने के लिए सहायता करती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माहु जेठु भला प्रीतमु किउ बिसरै ॥ थल तापहि सर भार सा धन बिनउ करै ॥ धन बिनउ करेदी गुण सारेदी गुण सारी प्रभ भावा ॥ साचै महलि रहै बैरागी आवण देहि त आवा ॥ निमाणी निताणी हरि बिनु किउ पावै सुख महली ॥ नानक जेठि जाणै तिसु जैसी करमि मिलै गुण गहिली ॥७॥

मूलम्

माहु जेठु भला प्रीतमु किउ बिसरै ॥ थल तापहि सर भार सा धन बिनउ करै ॥ धन बिनउ करेदी गुण सारेदी गुण सारी प्रभ भावा ॥ साचै महलि रहै बैरागी आवण देहि त आवा ॥ निमाणी निताणी हरि बिनु किउ पावै सुख महली ॥ नानक जेठि जाणै तिसु जैसी करमि मिलै गुण गहिली ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ बिसरै = कैसे बिसरे? नहीं बिसरता। तापहि = तपते हैं। सर = की तरह। भार = भट्ठी। साधन = जीव-स्त्री। बिनउ = विनती। सारेदी = संभालती है, याद करती है। सारी = मैं याद करती हूँ। प्रभ भावा = प्रभु को अच्छी लगूँ। महलि = महल में। बैरागी = विरक्त, माया से निर्लिप। आवण देहि = अगर तू आने की आज्ञा दे। आवा = मैं (तेरे पास) आ सकती हूँ। महली = महलों में। करमि = बख्शिश से। गहिली = ग्रहण करने वाली। जाणै = जान ले, जान पहचान बना ले। गुण गहली = प्रभु के गुण ग्रहण करने वाली।
अर्थ: जेठ महीना (उनको ही) अच्छा लगता है जिन्हें प्रीतम कभी नहीं बिसरता। (जेठ में लू चलने से) भट्ठी की तरह स्थल तपने लग जाते हैं (इसी तरह कामादिक विकारों की आग से संसारी जीवों के हृदय तपते हैं, उनकी तपश अनुभव करके) गुरमुखि जीव-स्त्री (प्रभु-चरणों में) अरदास करती है, उस प्रभु के गुण (हृदय में) संभालती है, जो इस तपश से निराला अपने सदा स्थिर महल में टिका रहता है, उसके आगे जीव-स्त्री विनती करती है: हे प्रभु! मैं तेरी महिमा करती हूँ, ताकि तुझे अच्छी लगने लग जाऊँ, तू मुझे आज्ञा दे मैं भी तेरे महल में आ जाऊँ (और बाहरी तपस से बच सकूँ)।
जब तक जीव-स्त्री प्रभु से अलग रह के (विकारों की तपश से) निढाल और कमजोर है, तब तक (तपश से बचे हुए प्रभु के) महल का आनंद नहीं भोग सकती।
हे नानक! जेठ (की तपाती लू) में प्रभु की महिमा को हृदय में बसा लेने वाली जो जीव-स्त्री प्रभु के साथ जान-पहचान बना लेती है, वह उस (शांत-चिक्त प्रभु) जैसी हो जाती है, उसकी मेहर से उस में एक-रूप हो जाती है (और विकारों की तपश की लू से बची रहती है)।7।

दर्पण-भाव

भाव: कामादिक विकारों की आग से संसारी जीवों के हृदय तपते रहते हैं। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा को हृदय में बसा के परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है, उसका हृदय शांत रहता है, वह मनुष्य विकारों की तपश की लू से बचा रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसाड़ु भला सूरजु गगनि तपै ॥ धरती दूख सहै सोखै अगनि भखै ॥ अगनि रसु सोखै मरीऐ धोखै भी सो किरतु न हारे ॥ रथु फिरै छाइआ धन ताकै टीडु लवै मंझि बारे ॥ अवगण बाधि चली दुखु आगै सुखु तिसु साचु समाले ॥ नानक जिस नो इहु मनु दीआ मरणु जीवणु प्रभ नाले ॥८॥

मूलम्

आसाड़ु भला सूरजु गगनि तपै ॥ धरती दूख सहै सोखै अगनि भखै ॥ अगनि रसु सोखै मरीऐ धोखै भी सो किरतु न हारे ॥ रथु फिरै छाइआ धन ताकै टीडु लवै मंझि बारे ॥ अवगण बाधि चली दुखु आगै सुखु तिसु साचु समाले ॥ नानक जिस नो इहु मनु दीआ मरणु जीवणु प्रभ नाले ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आसाड़ु = आसाढ का महीना। गगनि = आकाश में। भला = अच्छा, यौवन में। सहै = सहता है। भखै = तपती है। रसु = जल। मरीऐ = मरते हैं, दुखी होते हैं। धोखै = सुलग सुलग के, त्राहि त्राहि के। सो = वह सूरज। किरतु न हारे = कर्तव्य नहीं छोड़ता। फिरै = चक्कर लगाता है। धन = कमजोर जीवात्मा। ताकै = देखती है, तलाशती है। टीडू = बींडा (एक प्रकार का कीड़ा)। लवै = टीं टीं करता है। बारि = जूह। मंझि बारे = खुली जूह में। बाधि = बाँध के। चली = चलती है। आगै = आगे सामने, जिंदगी के सफर में। साचु = सदा स्थिर प्रभु। समाले = हृदय में संभालती है। इहु मनु = सच संभालने वाला मन। मरणु जीवणु = हर वक्त साथ।
अर्थ: (जब) आसाढ का महीना पूरे यौवन में होता है, आकाश में सूरज तपता है। (ज्यों-ज्यों सूरज धरती की नमी को) सुखाता है, धरती दुख सहती है (धरती के जीव-जन्तु दुखी होते हैं), धरती आग (की तरह) धधकती है। (सूरज) आग (की तरह) पानी को सुखाता है, (हरेक जीवात्मा) त्राहि-त्राहि के दुखी होती है, फिर भी सूरज अपना कर्तव्य नहीं छोड़ता (अपना काम किए जाता है)। (सूर्य का) रथ चक्कर लगाता है, कमजोर जिंद कहीं छाया का आसरा लेती है, बींडा भी बाहर जुहू में (पेड़ो की छाया में) टीं-टीं करता है (हरेक जीव तपश से जान बचाता दिखाई देता है)।
(ऐसी मानसिक तपश का) दुख उस जीव-स्त्री के सामने (भाव, जीवन-यात्रा में) मौजूद रहता है, जो बुरे कर्मों (की पोटली सिर पर) बॉध के चलती है। आत्मिक आनंद सिर्फ उसको है जो सदा-स्थिर प्रभु को अपने हृदय में टिकाए रखती है। हे नानक! जिस जीव-स्त्री को प्रभु ने हरि-नाम स्मरण वाला मन दिया है, प्रभु के साथ उसका सदीवी साथ बन जाता है (उसको आसाढ के महीने की कहर भरी तपश जैसा विकारों का सेक छू नहीं सकता)।8।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है, उसको इस जीवन-सफर में आसाढ के महीने के कहर की तपश जैसा विकारों का सेक सता नहीं सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावणि सरस मना घण वरसहि रुति आए ॥ मै मनि तनि सहु भावै पिर परदेसि सिधाए ॥ पिरु घरि नही आवै मरीऐ हावै दामनि चमकि डराए ॥ सेज इकेली खरी दुहेली मरणु भइआ दुखु माए ॥ हरि बिनु नीद भूख कहु कैसी कापड़ु तनि न सुखावए ॥ नानक सा सोहागणि कंती पिर कै अंकि समावए ॥९॥

मूलम्

सावणि सरस मना घण वरसहि रुति आए ॥ मै मनि तनि सहु भावै पिर परदेसि सिधाए ॥ पिरु घरि नही आवै मरीऐ हावै दामनि चमकि डराए ॥ सेज इकेली खरी दुहेली मरणु भइआ दुखु माए ॥ हरि बिनु नीद भूख कहु कैसी कापड़ु तनि न सुखावए ॥ नानक सा सोहागणि कंती पिर कै अंकि समावए ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सावणि = सावन में। सरस = रस वाला हो, हरा हो। घण = बादल। आए = आई है। मै भावै = मुझे प्यारा लगता है। पिर = पति जी। सिधाए = चले गए हैं। हावै = हाहुके में, आह में। दामनि = बिजली। चमकि = चमक के। खरी = बहुत। दुहेली = दुखदाई। माए = हे माँ! कहु = बताओ। तनि = तन पर। सुखावए = सुखद है। कंती = कंत वाली, जिसको कंत प्यार करता है। अंकि = गले से लगाना, आग़ोश डालनी, बाँहों में भर लेना। समावए = लीन हो जाती है।
अर्थ: (आषाढ़ की अति दर्जे की तपश में घास आदि सूख जाते हैं। उस तपश के बाद सावन महीनें में घटाएं चढ़तीं हैं। पशु पक्षी और मनुष्य तो कहीं रहे, सूखा हुआ घास भी हरा हो जाता है। उसकी हरियाली देख के हरेक प्राणी बोल उठता है:) हे मेरे मन! सावन महीने में (वर्षा की) ऋतु आ गई है, बादल बरस रहे हैं, तू भी हरा हो (तू भी उमंग में आ)।
(परदेस गए पति की नारी का हृदय काली घटाओं को देख के तड़प उठता है। उमंग पैदा करने वाले ये सामान, विरह-वियोग में उसको दुखदाई प्रतीत होते हैं। विरह में वह यूँ कहती है:) हे माँ! (ये बादल देख-देख के) मुझे अपना पति मन में रोम-रोम में प्यारा लग रहा है, पर मेरे पति जी तो परदेस गए हुए हैं। (जब तलक) पति घर नहीं आता, मैं आहें भर रही हूँ, बिजली चमक के (बल्कि) मुझे डरा रही है। (पति के वियोग में) मेरी सूनी सेज मुझे बहुत दुखदाई हो रही है, (पति से विछोड़े का) दुख मुझे मौत (के बराबर) हो गया है।
(जिस जीव-स्त्री के अंदर प्रभु-पति का प्यार है, विरह भरी नारी की तरह) उसको प्रभु के मिलाप के बिना ना नींद, ना भूख। उसको तो कपड़ा भी शरीर पर अच्छा नहीं लगता (शरीरिक सुखों के कोई भी साधन उसके मन को बहला नहीं सकते)।
हे नानक! वही भाग्यशाली जीव-स्त्री प्रभु-पति के प्यार की हकदार हो सकती है, जो सदा प्रभु की याद में लीन रहती है।9।

दर्पण-भाव

भाव: महिमा की इनायत से जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा हो जाता है, इस प्यार के मुकाबले में शारीरिक सुखों का कोई भी साधन उसके मन को फुसला नहीं सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भादउ भरमि भुली भरि जोबनि पछुताणी ॥ जल थल नीरि भरे बरस रुते रंगु माणी ॥ बरसै निसि काली किउ सुखु बाली दादर मोर लवंते ॥ प्रिउ प्रिउ चवै बबीहा बोले भुइअंगम फिरहि डसंते ॥ मछर डंग साइर भर सुभर बिनु हरि किउ सुखु पाईऐ ॥ नानक पूछि चलउ गुर अपुने जह प्रभु तह ही जाईऐ ॥१०॥

मूलम्

भादउ भरमि भुली भरि जोबनि पछुताणी ॥ जल थल नीरि भरे बरस रुते रंगु माणी ॥ बरसै निसि काली किउ सुखु बाली दादर मोर लवंते ॥ प्रिउ प्रिउ चवै बबीहा बोले भुइअंगम फिरहि डसंते ॥ मछर डंग साइर भर सुभर बिनु हरि किउ सुखु पाईऐ ॥ नानक पूछि चलउ गुर अपुने जह प्रभु तह ही जाईऐ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। भुली = कुमार्ग पर पड़ गई। भरि जोबनि = पूरे यौवन में। नीरि = पानी के साथ। बरस रुते = बरखा की ऋतु में। रंगु माणी = रंग माणती। निसि = रात के वक्त। दादर = मेंढक। लवंते = बोलते हैं। चवै = बोलता है। भुइअंगम = साँप। डसंते = डंक मारते। साइर = समुंदर, सरोवर, तालाब। भर सुभर = नाको नाक भरे हुए। चलउ = मैं चलूँ। जह = जहाँ। तह = वहाँ।
अर्थ: भादों (का महीना) आ गया है। बरखा ऋतु में खड्ड-गड्ढे पानी से भरे हुए हैं, (इस नजारे का) आनंद लिया जा सकता है।
(पर) जो जीव-स्त्री भर-यौवन में (यौवन के घमण्ड के) भुलेखें में गलती खा गई, उसको (पति के विछोड़े में) पछताना ही पड़ा (उसे पानी भरी जगहें नहीं भातीं)।
काली स्याह रात को बरसात होती है, मेंढक टर-टर करते हैं, मोर कूहकते हैं, पपीहा भी ‘पिउ पिउ’ करता है, (पर पति से विछुड़ी) नारी को (इस सोहाने रंग से) आनंद नहीं मिलता। उसको तो (भादों में यही दिखता है कि) साँप डसते फिरते हैं, मच्छर डंक मारते हैं। चारों तरफ छप्पर-तालाब (बरसात के पानी से) नाको-नाक भरे हुए हैं (बिरही नारी को इसमें कोई सुहज-स्वाद नहीं दिखता)।
(इसी तरह जिस जीव-स्त्री को पति-प्रभु से विछोड़े का अहिसास हो जाता है, उसको) प्रभु की याद के बिना (और किसी रंग-तमाशे में) आत्मिक आनंद नहीं मिलता।
हे नानक! (कह:) मैं तो अपने गुरु की शिक्षा पर चल कर (उसके बताए हुए रास्ते पर) चलूँगी, जहाँ प्रभु-पति मिल सकता हो, वहीं जाऊँगी।10।

दर्पण-भाव

भाव: गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के जिस मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा में रम जाता है, परमात्मा की याद के बिना किसी भी रंग-तमाशे में उसको आत्मिक आनंद नहीं मिलता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुनि आउ पिरा सा धन झूरि मुई ॥ ता मिलीऐ प्रभ मेले दूजै भाइ खुई ॥ झूठि विगुती ता पिर मुती कुकह काह सि फुले ॥ आगै घाम पिछै रुति जाडा देखि चलत मनु डोले ॥ दह दिसि साख हरी हरीआवल सहजि पकै सो मीठा ॥ नानक असुनि मिलहु पिआरे सतिगुर भए बसीठा ॥११॥

मूलम्

असुनि आउ पिरा सा धन झूरि मुई ॥ ता मिलीऐ प्रभ मेले दूजै भाइ खुई ॥ झूठि विगुती ता पिर मुती कुकह काह सि फुले ॥ आगै घाम पिछै रुति जाडा देखि चलत मनु डोले ॥ दह दिसि साख हरी हरीआवल सहजि पकै सो मीठा ॥ नानक असुनि मिलहु पिआरे सतिगुर भए बसीठा ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असुनि = असू महीने में। पिरा = हे पति! साधन = स्त्री। झूरि = झुर के, सिसक सिसक के, आहें भर भर के। ता = तब ही। प्रभ = हे प्रभु! मेले = यदि तू मिलाए। दूजै भाइ = प्रभु के बिना किसी और के प्यार में। खुई = खो बैठी, जीवन के सही राह से भटक के गलत मार्ग पर पड़ गई। विगुती = दुखी हुई। मुती = छोड़ी हुई, त्यागी हुई। पिर = हे पति! कुकह काह = पिलछी और काही।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: असू की ऋतु में नदियों के किनारे उगी हुई एक विशेष प्रकार की वनस्पति जिसे पंजाबी इलाके में पिलछी और काही के नाम से जाना जाता है, सरकण्डा वगैरह, पर सफेद-सफेद रूई जैसा बूर सा आ जाता है। पिलछी और काही का ये फूलना बुढ़ापे को आँखों के आगे ला के उदासी पैदा करता है)।

दर्पण-भाषार्थ

आगै = आगे गुजर गई। घाम = धूप, तपश, गर्मी (भाव, शारीरिक गर्मी, ताकत)। पिछै = उस घाम के पीछै पीछे। जाडा = सर्दी (भाव, कमजोरी)। सहजि = अडोलता में। बसीठा = वकील, बचौला।
अर्थ: (भादों की कड़क धूप के गर्मी गुजरने के बाद) असू (की मीठी ऋतु) में (स्त्री के दिल में पति को मिलने की तमन्ना पैदा होती है। वैसे ही जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति के विछोड़े में कामादिक वैरियों के हमलों के दुख देख लिए हैं, वह अरदास करती है:) हे प्रभु पति! (मेरे हृदय में) आ बस (तुझसे विछुड़ के) मैं आहें भर-भर के आत्मिक मौत मर रही हूँ, मायावी पदार्थों के मोह में फंस के मैं गलत रास्ते पर पड़ चुकी हूँ। हे प्रभु! तुझे तभी मिला जा सकता है अगर तू खुद मिलाए।
(जब से) दुनिया के झूठे मोह में फंस के मैं दुखी हो रही हूँ, तब से, हे पति! तुझसे बिछुड़ी हुई हूँ। पिलछी और काही (के सफेद बूर की तरह मेरे केस) सफेद हो गए हैं, (मेरे शरीर की) गरमाहट आगे गुजर चुकी है (कम हो गई है), उसके पीछे-पीछे शरीरिक कमजोरी (ठंढ) आ रही है, ये तमाशा देख के मेरा मन घबरा रहा है (क्योंकि अभी तक तेरा दीदार नहीं हो सका)। (सरकंडे आदि का हाल देख के मेरा मन डोलता है, पर) हर तरफ (बनस्पति की) हरि शाखाएं देख के (ये धीरज बँधता है कि) अडोल अवस्था में (जो जीव) दृढ़ रहता है, उसी को प्रभु-मिलाप की मिठास (प्रसन्नता) मिलती है।
हे नानक! असू (की मीठी ऋतु) में (तू भी प्रार्थना कर और कह:) हे प्यारे प्रभु! (मेहर कर) गुरु के माध्यम से मुझे मिल।11।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य दुनिया के झूठे मोह में फस जाता है, वह परमात्मा के चरणों से विछुड़ा रहता है। पर जो मनुष्य परमात्मा की मेहर से गुरु की शरण पड़ता है वह माया के मोह के हमलों से अडोल हो जाता है और उसको प्रभु-मिलाप का आनंद प्राप्त होता है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कतकि किरतु पइआ जो प्रभ भाइआ ॥ दीपकु सहजि बलै तति जलाइआ ॥ दीपक रस तेलो धन पिर मेलो धन ओमाहै सरसी ॥ अवगण मारी मरै न सीझै गुणि मारी ता मरसी ॥ नामु भगति दे निज घरि बैठे अजहु तिनाड़ी आसा ॥ नानक मिलहु कपट दर खोलहु एक घड़ी खटु मासा ॥१२॥

मूलम्

कतकि किरतु पइआ जो प्रभ भाइआ ॥ दीपकु सहजि बलै तति जलाइआ ॥ दीपक रस तेलो धन पिर मेलो धन ओमाहै सरसी ॥ अवगण मारी मरै न सीझै गुणि मारी ता मरसी ॥ नामु भगति दे निज घरि बैठे अजहु तिनाड़ी आसा ॥ नानक मिलहु कपट दर खोलहु एक घड़ी खटु मासा ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कतकि = कार्तिक (के महीने) में (जब किसान मूँजी मक्की आदि सावणी की फसल काट के घर ले के आता है)। किरतु = किए कर्मों के संस्कारों का समूह। पइआ = मिल जाता है। जो = जो जीव। प्रभ भाइआ = प्रभु को अच्छा लग जाता है। दीपकु = दीया, (आत्मिक जीवन की सूझ देने वाली रौशनी का) दीया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बलै = जल उठता है। तति = तत्व ने, प्रभु के साथ गहरी जान पहचान ने। जाइआ = जला दिया। दीपक रस तेलो = आत्मिक जीवन के सूझ के आनंद का तेल। धन = जीव-स्त्री। ओमाहै = उत्साह में, उमंग में। सरसी = स+रसी, आनंद पाती हैं मारी = आत्मिक मौत मार दिया। मरै = आत्मिक मौत मर जाती है। सीझै = कामयाब होती। गुणि = गुण ने, प्रभु की महिमा ने। मारी = विकारों की तरफ से मार दी। मरसी = विकारों से बची रहेगी। दे = देता है। घरि = घर में। निज घरि = अपने घर में, अपने हृदय धर में। तिनाड़ी = उनकी। नानक = हे नानक! कपट = कपाट, किवाड़। कपट दर = दरवाजे के किवाड़। दर = दरवाजा। खटु मासा = छह महीने।12।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) कार्तिक (के महीने) में (किसान को मुँजी मकई आदि सावणी की फसल की की हुई कमाई मिल जाती है, वैसे ही हरेक जीव को अपने) किए कर्मों का फल (मन में इकट्ठे हुए संस्कारों के रूप में) मिल जाता है।
हे भाई! (अपने किए भले कर्मों के अनुसार) जो मनुष्य परमात्मा को प्यारा लग जाता है (उसके हृदय में) आत्मिक अडोलता के कारण (आत्मिक जीवन की सूझ देने वाले प्रकाश का) दीपक जग उठता है (ये दीया उसके अंदर) प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान ने जगाया हुआ होता है। जिस जीव-स्त्री का प्रभु-पति के साथ मिलाप हो जाता है (उसके अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ देने वाले प्रकाश के आनंद का (मानो, दीए में) तेल जल रहा है, वह जीव-स्त्री उत्साह उमंग में आत्मिक आनंद पाती है।
(हे भाई! जिस जीव-स्त्री के जीवन को) विकारों ने खत्म कर दिया वह आत्मिक मौत मर गई, वह (जिंदगी में) कामयाब नहीं होती, पर जिस जीव-स्त्री को प्रभु की महिमा ने (विकारों को उदास कर दिया) मार दिया वह विकारों से बची रहेगी।
हे नानक! जिनको परमात्मा अपना नाम देता है अपनी भक्ति देता है वह (वे विकारों में भटकने की बजाय) अपने हृदय-गृह में टिके रहते हैं, (उनके अंदर) सदा ही (प्रभु-मिलाप की) चाहत बनी रहती है (वे सदा अरदास करते हैं: हे पातशाह! हमें) मिल, (हमारे अंदर से विछोड़ा डालने वाले) किवाड़ खोल दे, (तुझसे) एक घड़ी (का विछोड़ा) छह महीने (का विछोड़ा प्रतीत होता) है।12।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी महिमा की दाति देता है, उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ वाली रौशनी का, मानो, दीपक जल उठता है। वह मनुष्य परमात्मा की याद से एक घड़ी-पल का विछोड़ा भी सहन नहीं कर सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंघर माहु भला हरि गुण अंकि समावए ॥ गुणवंती गुण रवै मै पिरु निहचलु भावए ॥ निहचलु चतुरु सुजाणु बिधाता चंचलु जगतु सबाइआ ॥ गिआनु धिआनु गुण अंकि समाणे प्रभ भाणे ता भाइआ ॥ गीत नाद कवित कवे सुणि राम नामि दुखु भागै ॥ नानक सा धन नाह पिआरी अभ भगती पिर आगै ॥१३॥

मूलम्

मंघर माहु भला हरि गुण अंकि समावए ॥ गुणवंती गुण रवै मै पिरु निहचलु भावए ॥ निहचलु चतुरु सुजाणु बिधाता चंचलु जगतु सबाइआ ॥ गिआनु धिआनु गुण अंकि समाणे प्रभ भाणे ता भाइआ ॥ गीत नाद कवित कवे सुणि राम नामि दुखु भागै ॥ नानक सा धन नाह पिआरी अभ भगती पिर आगै ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुण = गुणों के कारण, महिमा के कारण। अंकि = हृदय में। हरि समावए = प्रभु आ बसता है। गुण रवै = जो (जीव-स्त्री) प्रभु के गुण याद करती है। मै पिरु = मेरा पति, प्यारा प्रभु पति। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। भावए = (उसको) प्यारा लगता है। बिधाता = विधाता, निर्माता। चंचलु = नाशवान। सबाइआ = सारा। गिआनु = प्रभु के साथ जान पहचान। धिआनु = तवज्जो का टिकाव। गुण = प्रभु की महिमा। प्रभ भाणे = जब प्रभु की रजा हुई। ता = तब। गीत नाद कवित कवे = प्रभु की महिमा के गीत वाणी काव्य। सुणि = सुन के। नामि = नाम में (जुड़ने से)। नाह पिआरी = पति प्रभु को प्यारी। अभ = हृदय। नाह = नाथ, पति। अभ भगती = दिली प्यार।
अर्थ: प्रभु की महिमा की इनायत से जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु आ बसता है, उसको माघ का महीना अच्छा लगता है।
और सारा जगत तो नाशवान है, एक विधाता ही जो चतुर है समझदार है, सदा कायम रहने वाला है। ये सदा-स्थिर प्यारा प्रभु-पति उस गुणों वाली जीव-स्त्री को प्यारा लगता है जो उसके गुण चेते करती रहती है। उसको प्रभु के साथ गहरी सांझ प्राप्त होती है, उसकी तवज्जो प्रभु-चरणों में टिकती है, प्रभु के गुण उसके हृदय में आ बसते हैं; प्रभु की रज़ा के अनुसार यह सब कुछ उस जीव-स्त्री को अच्छा लगने लग जाता है।
प्रभु की महिमा के गीत वाणी कावि सुन-सुन के प्रभु के नाम में (जुड़ के) उसका और सारा दुख दूर हो जाता है।
हे नानक! वह जीव-स्त्री प्रभु-पति को प्यारी हो जाती है, वह अपना दिली प्यार प्रभु के आगे (भेट) पेश करती है।13

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा में टिका रहता है, परमात्मा के साथ उसकी पक्की प्यार की गाँठ बँध जाती है। जगत का कोई भी दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पोखि तुखारु पड़ै वणु त्रिणु रसु सोखै ॥ आवत की नाही मनि तनि वसहि मुखे ॥ मनि तनि रवि रहिआ जगजीवनु गुर सबदी रंगु माणी ॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज घटि घटि जोति समाणी ॥ दरसनु देहु दइआपति दाते गति पावउ मति देहो ॥ नानक रंगि रवै रसि रसीआ हरि सिउ प्रीति सनेहो ॥१४॥

मूलम्

पोखि तुखारु पड़ै वणु त्रिणु रसु सोखै ॥ आवत की नाही मनि तनि वसहि मुखे ॥ मनि तनि रवि रहिआ जगजीवनु गुर सबदी रंगु माणी ॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज घटि घटि जोति समाणी ॥ दरसनु देहु दइआपति दाते गति पावउ मति देहो ॥ नानक रंगि रवै रसि रसीआ हरि सिउ प्रीति सनेहो ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पोखि = पोह (के महीने) में। तुखारु = कक्कर, कोहरा। रसु = नमी। सोखै = सुखा देता है। वसहि = तू बसता। मुखे = मुख में। जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत का आसरा। माणी = माणता है। अंडज = अंडे से पैदा होने वाले जीव। जेरज = जियोर से पैदा होने वाले। सेतज = पसीने सें पैदा होने वाले। उतभुज = धरती में से उगने वाले। घटि घटि = हरेक घट में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पावउ = मैं पा लूँ, प्राप्त कर लूँ। मति = अकल। रंगि = प्यार में। रसि = रस से, आनंद से। रसीआ = प्रेमी। सनेहो = प्यार।
अर्थ: पोह (के महीने) में कोहरा पड़ता है, वह वन के घास को (हरेक वण-तृण पौधे के) रस को सुखा देता है (प्रभु की याद भुलाने से जिस मनुष्य के अंदर कोरापन जोर डालता है, वह उसके जीवन में से प्रेम-रस सुखा देता है)। हे प्रभु! तू आ के मेरे मन में मेरे तन में मेरे मुँह में क्यों नहीं बसता? (ताकि मेरा जीवन रूखा ना हो जाए)।
जिस जीव के मन में तन में सारे जगत का आसरा प्रभु आ बसता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु के मिलाप का आनंद लेता है। उसको चारों खाणियों के जीवों में हरेक घट में प्रभु की ही ज्योति समाई दिखती है।
हे दयालु दातार! मुझे अपना दर्शन दे, मुझे (उत्तम) बुद्धि दे, (जिसके वजह से) मैं ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकूँ (और तुझे हर जगह देख सकूँ)।
हे नानक! जिस मनुष्य की प्रीति जिसका प्यार परमात्मा से बन जाता है, वह प्रेमी प्रभु के प्यार में (जुड़ के) उस के गुण आनंद से याद करता है।14।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा की याद भुलाने से मनुष्य के अंदर कोरा-पन प्रभाव डाल देता है, वह कोरा-पन उसके जीवन में से प्रेम-रस को सुखा देता है। परमात्मा की महिमा ही मनुष्य के अंदर ऊँची आत्मिक अवस्था पैदा करती है और कायम रखती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माघि पुनीत भई तीरथु अंतरि जानिआ ॥ साजन सहजि मिले गुण गहि अंकि समानिआ ॥ प्रीतम गुण अंके सुणि प्रभ बंके तुधु भावा सरि नावा ॥ गंग जमुन तह बेणी संगम सात समुंद समावा ॥ पुंन दान पूजा परमेसुर जुगि जुगि एको जाता ॥ नानक माघि महा रसु हरि जपि अठसठि तीरथ नाता ॥१५॥

मूलम्

माघि पुनीत भई तीरथु अंतरि जानिआ ॥ साजन सहजि मिले गुण गहि अंकि समानिआ ॥ प्रीतम गुण अंके सुणि प्रभ बंके तुधु भावा सरि नावा ॥ गंग जमुन तह बेणी संगम सात समुंद समावा ॥ पुंन दान पूजा परमेसुर जुगि जुगि एको जाता ॥ नानक माघि महा रसु हरि जपि अठसठि तीरथ नाता ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माघि = माघ (महीने) में। पुनीत = पवित्र। तीरथु = पवित्र स्थान (विशेष तौर पर वह) जो किसी नदी आदि के नजदीक हो। अंतरि = हृदय में। जानिआ = पहचान लिया, पा लिया। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। गहि = ग्रहण करके। अंके = अंक में, हृदय में। सुणि = (तेरे गुण) सुन के। बंके = सुंदर। सरि = सरोवर में, तीर्थ पर। नावा = नहाऊँ, स्नान कर लेता हूँ। तह = उस आत्मिक अवस्था में। बेणी संगम = त्रिवेणी, गंगा यमुना सरस्वती तीनों पवित्र नदियों का मिलाप स्थान। जपि = जप के। जाता = गहरी सांझ डाल ली।
अर्थ: माघ (महीने) में (लोग प्रयाग आदि तीरथ पर स्नान करने में पवित्रता मानते हैं पर) जिस जीव ने अपने हृदय में ही तीर्थ पहचान लिया है उसकी जीवात्मा पवित्र हो जाती है। जो जीव परमात्मा के गुण अपने हृदय में बसा के उसके चरणों में लीन होता है, वह अडोल अवस्था में टिक जाता है जहाँ उसको सज्जन प्रभु मिल जाता है।
हे सोहाने प्रीतम प्रभु! अगर तेरे गुण मैं अपने दिल में बसा के तेरी महिमा सुन के तुझे अच्छा लगने लग जाऊँ, तो मैंने तीर्थ पर स्नान कर लिया (समझता हूँ)। तेरे चरणों में लीनता वाली अवस्था ही गंगा यमुना व सरस्वती तीनों नदियों के मिलाप की जगह है त्रिवेणी है, वहीं मैं सातों समुंदर समाए हुए मानता हूँ।
जिस मनुष्य ने हरेक युग में व्यापक परमेश्वर के साथ सांझ डाल ली उसने (तीर्थ-स्नान आदिक) सारे पून्य कर्म दान और पूजा कर्म कर लिए।
हे नानक! माघ महीने में (तीर्थ-स्नान आदि की जगह) जिसने प्रभु का नाम स्मरण करके प्रभु-नाम का महा रस पी लिया, उसने अढ़सठ ही तीर्थों का स्नान कर लिया।15।

दर्पण-भाव

भाव: माघी वाले दिन लोग प्रयाग आदि तीर्थ पर स्नान करने में पवित्रता मानते हैं। पर परमात्मा की महिमा हृदय में बसानी ही अढ़सठ तीर्थों का स्नान है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलगुनि मनि रहसी प्रेमु सुभाइआ ॥ अनदिनु रहसु भइआ आपु गवाइआ ॥ मन मोहु चुकाइआ जा तिसु भाइआ करि किरपा घरि आओ ॥ बहुते वेस करी पिर बाझहु महली लहा न थाओ ॥ हार डोर रस पाट पट्मबर पिरि लोड़ी सीगारी ॥ नानक मेलि लई गुरि अपणै घरि वरु पाइआ नारी ॥१६॥

मूलम्

फलगुनि मनि रहसी प्रेमु सुभाइआ ॥ अनदिनु रहसु भइआ आपु गवाइआ ॥ मन मोहु चुकाइआ जा तिसु भाइआ करि किरपा घरि आओ ॥ बहुते वेस करी पिर बाझहु महली लहा न थाओ ॥ हार डोर रस पाट पट्मबर पिरि लोड़ी सीगारी ॥ नानक मेलि लई गुरि अपणै घरि वरु पाइआ नारी ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। रहसी = खुश हुई, खिल उठी। सुभाइआ = अच्छा लगा। अनदिनु = हर रोज। रहसु = आनंद, खिलना। आपु = स्वै भाव। मन मोहु = मन का मोह, मन (में पैदा हुई माया) का मोह। तिसु = उस (प्रभु) को। आओ = आगमन, निवास। घरि = हृदय घर। करी = मैं करती हूँ। महली = प्रभु के घर में, प्रभु के चरणों में। लहा न = मैं नहीं ढूँढ सकती। थाओ = जगह। पाट पटंबर = पट पट अंबर, रेशम के कपड़े। पिरि = पिर ने। लोड़ी = लोड़ ली, पसंद कर ली। गुरि अपणै = अपने गुरु के द्वारा। घरि = हृदय घर में। वरु = पति प्रभु।
अर्थ: (सर्दी ऋतु की कड़ाके की ठंड के बाद बहार के फिरने पर) फागुन के महीने में (लोग होलियों के रंग-तमाशों द्वारा खुशियां मनाते हैं, पर जिस जीव-स्त्री को अपने मन में) प्रभु का प्यार मीठा लगा, उसके मन में असल आनंद पैदा हुआ है; जिसने स्वै भाव गवाया है, उसके अंदर हर वक्त ही आनंद बना रहता है।
(पर, स्वै-भाव गवाना कोई आसान खेल नहीं है) जब प्रभु स्वयं ही मेहर करता है, तो जीव अपने मन में से माया का मोह खत्म करता है, प्रभु भी मेहर करके उसके हृदय-घर में आ प्रवेश करता है।
प्रभु-मिलाप के बिना ही मैंने बहुत सारे (धार्मिक) श्रृंगार (बाहर से दिखाई देते धार्मिक कर्म) किए, पर उसके चरणों में मुझे ठिकाना ना मिला। हाँ, जिसको प्रभु-पति ने पसंद कर लिया, वह सारे हार-श्रृंगारों रेशमी कपड़ों से श्रृंगारी गई।
हे नानक! जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति ने अपने गुरु के माध्यम से (अपने साथ) मिला लिया, उसको हृदय-घर में ही पति-प्रभु मिल गया।16।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के महिमा के द्वारा अपने अंदर से स्वै भाव दूर करता है, उसको अपन-अंदर-बसता परमात्मा मिल जाता है। पर यह स्वै भाव दूर करना कोई आसान खेल नहीं, वह ही दूर करता है जिस पर परमात्मा मेहर करे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बे दस माह रुती थिती वार भले ॥ घड़ी मूरत पल साचे आए सहजि मिले ॥ प्रभ मिले पिआरे कारज सारे करता सभ बिधि जाणै ॥ जिनि सीगारी तिसहि पिआरी मेलु भइआ रंगु माणै ॥ घरि सेज सुहावी जा पिरि रावी गुरमुखि मसतकि भागो ॥ नानक अहिनिसि रावै प्रीतमु हरि वरु थिरु सोहागो ॥१७॥१॥

मूलम्

बे दस माह रुती थिती वार भले ॥ घड़ी मूरत पल साचे आए सहजि मिले ॥ प्रभ मिले पिआरे कारज सारे करता सभ बिधि जाणै ॥ जिनि सीगारी तिसहि पिआरी मेलु भइआ रंगु माणै ॥ घरि सेज सुहावी जा पिरि रावी गुरमुखि मसतकि भागो ॥ नानक अहिनिसि रावै प्रीतमु हरि वरु थिरु सोहागो ॥१७॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बे = दो। बे दस = दो और दस, बारह। बे दस माह = बारह ही महीने। रुती = ऋतुएं। थिती = तिथियां (चंद्रमा के बढ़ने घटने से एकम, दूज, तीज आदिक)। वार = दिन। भले = भाग्यशाली, सुलक्षणे, अच्छे। मूरत = महूरत। साचे = सदा स्थिर प्रभु जी (आदर वास्ते बहुवचन)। आए = आ के। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में, अडोल हुए हृदय में। सारे = सिरे चढ़ गए, सफल हो गए। बिधि = जुगति, ढंग। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सीगारी = सँवार दी, मन पवित्र कर दिया। तिसहि = उसी (प्रभु) को। रंगु = आत्मिक आनंद। घरि = हृदय में। पिरि = पिर ने। रावी = मिला ली। मसतकि = माथे पर। अहि = दिन। निसि = रात। थिरु = स्थिर, सदा कायम। सोहागो = अच्छे भाग्य।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री के अडोल हुए हृदय में सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा आ टिकता है, उसको ही बारह ही महीने, सारी ऋतुएं, सारी तिथियां, सारे दिन, सारी घड़ियां, सारे महूरत और पल भाग्यशाली लगते हैं (उसको किसी संगरांद अमावस्या आदि की ही पवित्रता का भ्रम-भुलेखा नहीं रहता)।
(वह जीव-स्त्री किसी काम को आरम्भ करने के लिए कोई खास महूरत नहीं तलाशती, उसको यह यकीन होता है कि) जब प्यारा प्रभु मिल जाए (भाव, परमात्मा का आसरा लेने से) सब काम रास आ जाते हैं, कर्तार ही (सफलता देने की) सारी विधियाँ जानता है। (पर यह सिदक-श्रद्धा का आत्मि्क सोहज परमात्मा स्वयं ही देता है) प्रभु ने स्वयं ही जीव-स्त्री की आत्मा को सँवारना है, और स्वयं ही उसको प्यार करना है। (उसकी मेहर से ही) जीव-स्त्री का प्रभु-पति के साथ मेल होता है, और वह आत्मिक आनंद पाती है।
गुरु के द्वारा जिस जीव-स्त्री के माथे का लेख उघड़ा, (उसके अनुसार) जब प्रभु-पति ने उसको अपने चरणों के साथ जोड़ा, उसकी हृदय-सेज सुंदर हो गई है। हे नानक! उस सोभाग्यवती जीव-स्त्री को प्रीतम-प्रभु दिन-रात मिला रहता है, प्रभु-पति उसका सदा के लिए कायम रहने वाला सोहाग बन जाता है।17।1।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा को अपनी जिंदगी का आसरा बनाता है, उसको किसी संग्रांद मसिया आदि की खास पवित्रता का भ्रम-भुलेखा नहीं रहता। वह मनुष्य किसी काम को आरम्भ करने के लिए कोई खास महूरत वगैरह नहीं तलाशता, उसे दृढ़ विश्वास हो जाता है कि परमात्मा का आसरा लेने से सारे काम स्वत: ही रास आ जाते हैं।&&&

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विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला १ ॥ पहिलै पहरै नैण सलोनड़ीए रैणि अंधिआरी राम ॥ वखरु राखु मुईए आवै वारी राम ॥ वारी आवै कवणु जगावै सूती जम रसु चूसए ॥ रैणि अंधेरी किआ पति तेरी चोरु पड़ै घरु मूसए ॥ राखणहारा अगम अपारा सुणि बेनंती मेरीआ ॥ नानक मूरखु कबहि न चेतै किआ सूझै रैणि अंधेरीआ ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला १ ॥ पहिलै पहरै नैण सलोनड़ीए रैणि अंधिआरी राम ॥ वखरु राखु मुईए आवै वारी राम ॥ वारी आवै कवणु जगावै सूती जम रसु चूसए ॥ रैणि अंधेरी किआ पति तेरी चोरु पड़ै घरु मूसए ॥ राखणहारा अगम अपारा सुणि बेनंती मेरीआ ॥ नानक मूरखु कबहि न चेतै किआ सूझै रैणि अंधेरीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पहिले पहरै = (रात के) पहले पहर में, (जिंदगी की रात के) पहले पहर में, उम्र के पहले पड़ाव में। सलोनड़ीए = हे सलोने नैनों वाली! हे सुंदर लोचनों वाली! रैणि = रात। अंधिआरी = अंधेरी, घोर अंधेर भरी। रैणि अंधिआरी = घौर अंधेरी रात (जिसमें आँखों को कुछ नहीं दिखता)। वखरु = सौदा। राखु = संभाल ले। मुईए = हे मरी हुई स्त्रीयां! हे आत्मिक जीवन से मरी हुई जीव स्त्रीयां! हे आत्मिक मौत सहेड़ रही जीव-स्त्री! आवै = आ रही है। कवणु = कौन? सूती = सोई हुई, माया के मोह में लिप्त। जम रसु = जमों के साथ वास्ता डालने वाला मायावी पदार्थों का रस। चूसए = चूसे, चूसती रहती है। रैणि अंधेरी = अंधेरी रात। पति = इज्जत। किआ पति तेरी = तेरी क्या इज्जत होगी? तुझे सम्मान नहीं मिलेगा। मूसए = मूसै, लूटता है। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अपारा = हे बेअंत! नानक = हे नानक! किआ सूझै = क्या सूझता है? कुछ भी नहीं दिखता।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘चूसऐ’ है वर्तमान काल, अन्न पुरख, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे सलोने नैनों वालिए! (हे जीव सि्त्रए! आत्मिक जीवन का रास्ता देखने के लिए तुझे सुंदर ज्ञान नेत्र मिले थे, पर जिंदगी की रात के) पहले हिस्से में (तेरी उन) आँखों के लिए (अज्ञानता की) अंधेरी रात (बनी रहती है)। (इस आत्मिक अंधेरे में रह के) हे आत्मिक मौत सहेड़ रही जीव-सि्त्रए! (होश कर, अपने आत्मिक जीवन का) सौदा संभाल के रख, (जो भी जीव-स्त्री यहाँ आती है, यहाँ से चले जाने की हरेक की) बारी आ जाती है। (पर, जो जीव-स्त्री माया के मोह में फंस के आत्मिक जीवन की ओर से) बेपरवाह हुई रहती है, वह जमों के साथ वास्ता डालने वाला मायावी पदार्थों का रस चूसती रहती है? (ऐसी को) जगाए भी कौन?
हे सुंदर नैनों वालिये! (अगर आत्मिक जीवन से तेरी आँखों के लिए) अंधेरी रात (ही बनी रही, तो) लोक परलोक में (कहीं भी) तुझे इज्ज़त नहीं मिलेगी। (ऐसी सोई हुई जीव-स्त्री के हृदय-घर में कामादिक हरेक) चोर सेंध लगाए रखता है (और, उसका हृदय-) घर लूट लेता है।
हे नानक! (कह:) हे रक्षा करने वाले प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे बेअंत प्रभु! मेरी बिनती सुन (मेरी जीवन-रात को विकारों को घोर अंधकार दबाए ना रखे)। हे नानक! मूर्ख मनुष्य कभी भी (परमात्मा को) याद नहीं करता (विकारों की घोर) अंधेरी (जीवन-) रात में (उसको आत्मिक जीवन का सही रास्ता) सूझता ही नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजा पहरु भइआ जागु अचेती राम ॥ वखरु राखु मुईए खाजै खेती राम ॥ राखहु खेती हरि गुर हेती जागत चोरु न लागै ॥ जम मगि न जावहु ना दुखु पावहु जम का डरु भउ भागै ॥ रवि ससि दीपक गुरमति दुआरै मनि साचा मुखि धिआवए ॥ नानक मूरखु अजहु न चेतै किव दूजै सुखु पावए ॥२॥

मूलम्

दूजा पहरु भइआ जागु अचेती राम ॥ वखरु राखु मुईए खाजै खेती राम ॥ राखहु खेती हरि गुर हेती जागत चोरु न लागै ॥ जम मगि न जावहु ना दुखु पावहु जम का डरु भउ भागै ॥ रवि ससि दीपक गुरमति दुआरै मनि साचा मुखि धिआवए ॥ नानक मूरखु अजहु न चेतै किव दूजै सुखु पावए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागु = सचेत हो। अचेती = हे अचेत जीव-स्त्री! हे गाफिल जीव-स्त्री! खाजै = खाई जा रही है। खेती = आत्मिक गुणों वाली फसल। हेती = हेतु, प्यार की इनायत से। जागत = (विकारों के हमलों से) सचेत रहने से। चोरु = (कामादिक कोई भी) चोर (एकवचन)। मगि = रास्ते पर। भागै = भाग जाता है। रवि = सूरज, ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। ससि = चँद्रमा, शीतलता, शांति। दीपक = दीए। दुआरे = उर पर। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर प्रभु। मुखि = मुँह से। धिआवए = ध्याता है (एकवचन)। नानक = हे नानक! अजहु = अभी भी। किव = कैसे? दूजे = (परमात्मा को छोड़ के) और (के प्यार) में। पावए = पा सकता है, पाए।2।
अर्थ: हे गाफिल जीव-स्त्री! (अब तो तेरी जिंदगी की रात का) दूसरा पहर गुजर रहा है (अब तो माया के मोह की नींद में से) सचेत हो। हे आत्मिक मौत सहेड़ रही जीव-सि्त्रए! (अपने आत्मिक जीवन का) सौदा संभाल के रख, (तेरे आत्मिक गुणों वाली) फसल (विकारों के मुँह आ के) खाई जा रही है।
हे भाई! हरि से गुरु से प्रेम डाल के (अपनी आत्मिक गुणों वाली) फसल संभाल के रखो, (विकारों के हमलों की ओर से) सचेत रहने से (कामादिक कोई भी विकार) चोर (आत्मिक जीवन के धन को) सेंध नहीं लगा सकता। हे भाई! (विकारों में फंस के) जमों के रास्ते पर ना चलो, और दुख ना पल्ले डालो। (विकारों से बचे रहने से) जमराज का डर-भय दूर हो जाता है।
हे भाई! जिस मनुष्य के मन में सदा कायम रहने वाला परमात्मा बसता रहता है, जो मनुष्य अपने मुँह से (परमात्मा का नाम) स्मरण करता रहता है, गुरु की मति की इनायत से उसके हृदय में ज्ञान और शांति के दीपक जलते रहते हैं।
पर, हे नानक! मूर्ख मनुष्य अभी भी परमात्मा को याद नहीं करता (जबकि उसकी जिंदगी की रात्रि का दूसरा पहर बीत रहा है। परमात्मा को भुला के) और-और (प्यार) में मनुष्य किसी भी हालत में आत्मिक आनंद नहीं पा सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीजा पहरु भइआ नीद विआपी राम ॥ माइआ सुत दारा दूखि संतापी राम ॥ माइआ सुत दारा जगत पिआरा चोग चुगै नित फासै ॥ नामु धिआवै ता सुखु पावै गुरमति कालु न ग्रासै ॥ जमणु मरणु कालु नही छोडै विणु नावै संतापी ॥ नानक तीजै त्रिबिधि लोका माइआ मोहि विआपी ॥३॥

मूलम्

तीजा पहरु भइआ नीद विआपी राम ॥ माइआ सुत दारा दूखि संतापी राम ॥ माइआ सुत दारा जगत पिआरा चोग चुगै नित फासै ॥ नामु धिआवै ता सुखु पावै गुरमति कालु न ग्रासै ॥ जमणु मरणु कालु नही छोडै विणु नावै संतापी ॥ नानक तीजै त्रिबिधि लोका माइआ मोहि विआपी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीद विआपी = (माया के मोह की) नींद अपना जोर डाले रखती है। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री। दूखि = दुख में, चिन्ता फिक्र में। संतापी = कलपती रहती है। चोग चुगै = (मनुष्य मायावी पदार्थों के) भोग भोगता रहता है। ता = तब। सुखु = आत्मिक आनंद। कालु = मौत, आत्मिक मौत। ग्रासै = खाता, अपने काबू में रखता। तीजै = जिंदगी की रात का तीसरा पहर गुजरते ही। लोका = हे लोगो! त्रिबिधि माइआ मोहि = तीन गुणों वाली माया के मोह में (तिंन गुण = रजो तमो, सतो)। विआपी = फसी रहती है।3।
अर्थ: हे भाई! जब जिंदगी की रात का तीसरा पहर भी गुजरता जा रहा है तब भी माया के मोह की नींद जीव पर अपना प्रभाव डाले रखती है; माया पुत्र स्त्री आदि कई किस्म के चिन्ता-फिक्र में मनुष्य की जीवात्मा दुखी होती रहती है।
हे भाई! मनुष्य को माया का प्यार, पुत्रों का प्यार, स्त्री का प्यार, दुनिया का प्यार (मोहे रखता है, ज्यों ज्यों मनुष्य) मायावी पदार्थों के भोग भोगता है त्यों-त्यों सदा (इनमें) फसा रहता है (और दुख पाता है)। जब मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, तब आत्मिक आनंद हासिल करता है, और गुरु की मति की इनायत से आत्मिक मौत इसको अपने काबू में नहीं रख सकती।
हे नानक! परमात्मा के नाम से टूट के मनुष्य की जिंद हमेशा दुखी होती रहती है, जनम-मरण का चक्कर इसकी खलासी नहीं करता, आत्मिक मौत इसको मुक्त नहीं करती। हे लोगो! जिंदगी की रात का तीसरा पहर गुजरते हुए भी (नाम से सूनी रहने के कारण मनुष्य की जिंद) त्रैगुणी माया के मोह में फसी रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चउथा पहरु भइआ दउतु बिहागै राम ॥ तिन घरु राखिअड़ा जुो अनदिनु जागै राम ॥ गुर पूछि जागे नामि लागे तिना रैणि सुहेलीआ ॥ गुर सबदु कमावहि जनमि न आवहि तिना हरि प्रभु बेलीआ ॥ कर क्मपि चरण सरीरु क्मपै नैण अंधुले तनु भसम से ॥ नानक दुखीआ जुग चारे बिनु नाम हरि के मनि वसे ॥४॥

मूलम्

चउथा पहरु भइआ दउतु बिहागै राम ॥ तिन घरु राखिअड़ा जुो अनदिनु जागै राम ॥ गुर पूछि जागे नामि लागे तिना रैणि सुहेलीआ ॥ गुर सबदु कमावहि जनमि न आवहि तिना हरि प्रभु बेलीआ ॥ कर क्मपि चरण सरीरु क्मपै नैण अंधुले तनु भसम से ॥ नानक दुखीआ जुग चारे बिनु नाम हरि के मनि वसे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दउत = उदय, प्रकाश। बिहागै = सूरज का (विहाग = सूरज)। दउत बिहागै = सूर्य का उदय, सूरज चढ़ जाता है, रात से दिन हो जाता है, काले केसों से धउले (सफेद) आ जाते हैं। तिन = उन्होंने। घरु राखिअड़ा = हृदय घर विकारों से बचा लिया, आत्मिक गुणों की राशि-पूंजी बचा ली। जुो = जो मनुष्य, जो जो मनुष्य। जागै = जागता रहता है, माया के हमलों से सचेत रहता है (एकवचन)। अनदिनु = हर रोज।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन’ है तिनि का बहुवचन (‘तिनि’ है एकवचन)।
नोट: ‘जुो’ में ‘ज’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘जो’, यहाँ ‘जु’ पढ़ना है।
नोट: ‘जागै’ है एकवचन और ‘जागहि’ बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर पूछि = गुरु को पूछ के, गुरु की शिक्षा पर चल के। जागे = (बहुवचन) जो जागते रहे, जो माया के मोह की नींद में ना सोए। नामि = प्रभु के नाम में। लागे = जुड़े रहे, लगे रहे। रैणि = रात, जिंदगी की रात, सारी जिंदगी। सुहेलीआ = सुखदाई, आसान। सबदु कमावहि = शब्द अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। जनमि = जनम में, जनम मरण के चक्करों में। बेलीआ = मित्र।
करि = हाथ (बहुवचन)। चरण = पैर (बहुवचन)। कंपि = काँप के। क्मपै = (एकवचन) काँपता है। अंधुले = अंधे से। नैण अंधुले = आँखें अंधी सी, आँखों से कम दिखता है। तनु = शरीर। भसम से = राख जैसा (रूखा)। जुग चारे = चारों जुगों में (कोई भी युग हो। यह अटल नियम है कि नाम के बिना दुख ही दुख है)। मनि = मन में।4।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य की जिंदगी की रात का चौथा पहर बीत रहा होता है तब रात से दिन हो जाता है (तब काले केस सफेद हो जाते हैं)। पर आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी (उन) मनुष्यों ने ही बचाई होती है जो हर वक्त (विकारों के हमलों से) सचेत रहता है।
हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शिक्षा ले के (विकारों के हमलों से) सचेत रहे, जो परमात्मा के नाम में जुड़े रहे, उनकी जिंदगी की रात (उनकी सारी उम्र) आसान गुजरती है। जो मनुष्य गुरु के शब्द के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं, वे जनम-मरण के चक्करों में नहीं आते (विकारों से बचाने के लिए) परमात्मा (स्वयं) उनका मददगार बना रहता है।
हे नानक! (जिंदगी की रात के चौथे पहर में मनुष्य के) हाथ-पैर काँपने लगते हैं, शरीर काँपने लग पड़ता है, आँखों से कम दिखता है, शरीर राख जैसा (रूखा सा) हो जाता है (जो मनुष्य अभी भी हरि नाम चेते नहीं करता है, उसे भाग्यहीन ही समझो। युग कोई भी हो ये पक्का ही जानो कि) परमात्मा का नाम बसे बिना मनुष्य चारों युगों में दुखी रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खूली गंठि उठो लिखिआ आइआ राम ॥ रस कस सुख ठाके बंधि चलाइआ राम ॥ बंधि चलाइआ जा प्रभ भाइआ ना दीसै ना सुणीऐ ॥ आपण वारी सभसै आवै पकी खेती लुणीऐ ॥ घड़ी चसे का लेखा लीजै बुरा भला सहु जीआ ॥ नानक सुरि नर सबदि मिलाए तिनि प्रभि कारणु कीआ ॥५॥२॥

मूलम्

खूली गंठि उठो लिखिआ आइआ राम ॥ रस कस सुख ठाके बंधि चलाइआ राम ॥ बंधि चलाइआ जा प्रभ भाइआ ना दीसै ना सुणीऐ ॥ आपण वारी सभसै आवै पकी खेती लुणीऐ ॥ घड़ी चसे का लेखा लीजै बुरा भला सहु जीआ ॥ नानक सुरि नर सबदि मिलाए तिनि प्रभि कारणु कीआ ॥५॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भाव यह है कि समय कोई भी हो (सतियुग हो, त्रेता हो, द्वापर हो, कलियुग हो) परमात्मा का नाम स्मरण के बिना आनंद कभी नहीं मिल सकता।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खूली = (जब) खुल गई, जब खुल जाती है। गंठि = गाँठ, जिंदगी के मिले स्वासों की गाँठ। उठो = उठ। रस कस = सारे रस, सब रसों के पदार्थ। ठाके = रोक लिए। बंधि = बाँध के। चलाइआ = जीव को आगे चला रहा है। जा = जब। प्रभ भाइआ = प्रभु को अच्छा लगता है, जब प्रभु की रजा होती है। सभसै = हरेक जीव की। पकी खेती = पकी हुई फसल। लुणीऐ = काटी जाती है, काटा जाता है। चसा = रक्ती भर समय। लीजै = लिया जाता है। सहु = सह। जीआ = हे जीव! नानक = हे नानक! सुरि नर = भले बँदे। सबदि = गुरु के शब्द में। तिनि = उसने। तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। कारणु = सबब।5।
अर्थ: हे भाई! जब जीव की जिंदगी की मिले हुई सांसों की गाँठ खुल जाती है (श्वास खत्म हो जाते हैं), तब परमात्मा की ओर से लिखा हुक्म आ जाता है (कि हे जीव!) उठ (चलने के लिए तैयार हो जा)। जीव के सारे खाने-पीने सारे सुख रोक लिए जाते हैं, जीव को बाँध के आगे चलाया जाता है (भाव, जाना चाहे अथवा ना जाना चाहे, उसको जगत से चला लिया जाता है)। जब प्रभु की रजा होती है, जीव को यहाँ से उठा लिया जाता है, (फिर) ना जीव का यहाँ कुछ दिखता है, ना कुछ सुना जाता है। हे भाई! हरेक जीव की यह वारी आ जाती है; (जैसे) पकी फसल (आखिर में) काटी ही जाती है।
हे भाई! जीव के हरेक घड़ी-पल के किए कर्मों का इससे लेखा माँगा जाता है। हे जीव! अपने किए अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।
हे नानक! उस परमात्मा ने ऐसा सबब बना रखा है कि भले मनुष्यों को गुरु के शब्द में जोड़े रखता है।5।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला १ ॥ तारा चड़िआ लमा किउ नदरि निहालिआ राम ॥ सेवक पूर करमा सतिगुरि सबदि दिखालिआ राम ॥ गुर सबदि दिखालिआ सचु समालिआ अहिनिसि देखि बीचारिआ ॥ धावत पंच रहे घरु जाणिआ कामु क्रोधु बिखु मारिआ ॥ अंतरि जोति भई गुर साखी चीने राम करमा ॥ नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िआ लमा ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला १ ॥ तारा चड़िआ लमा किउ नदरि निहालिआ राम ॥ सेवक पूर करमा सतिगुरि सबदि दिखालिआ राम ॥ गुर सबदि दिखालिआ सचु समालिआ अहिनिसि देखि बीचारिआ ॥ धावत पंच रहे घरु जाणिआ कामु क्रोधु बिखु मारिआ ॥ अंतरि जोति भई गुर साखी चीने राम करमा ॥ नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िआ लमा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तारा लंमा = पूँछ वाला तारा।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: जब पुच्छल तारा चढ़ता है, तो बड़े उत्साह से देखते हैं। सूर्य के प्रकाश में तो दिखाई नहीं देता। अंधेरा होते ही लोग्र आकाश की ओर देखने लग जाते हैं), सर्व व्यापक ईश्वरीय ज्योति।

दर्पण-भाषार्थ

किउ = कैसे, क्यों, किस तरह? निहालिआ = देखा जाए। सेवक पूर करंमा = उस सेवक के पूरे कर्म (जाग उठते हैं)। सतिगुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द से।
सचु = सदा स्थिर हरि नाम। समालिआ = हृदय में बसाया। अहि = दिन। निसि = रात। देखि = देख के। बीचारिआ = (उसके गुणों की) विचार करता है। पंच = पाँच ज्ञान-इंद्रिय। धावत रहे = भटकना से हट गए। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला जहर।
अंतरि = उसके अंदर। जोति = परमात्मा का नूर। गुर साखी = गुरु की शिक्षा से। चीने = देखता है। राम करंमा = परमात्मा के करिश्मों को। नानक = हे नानक! मारि = मार के। पतीणे = पतीज गए।1।
अर्थ: हे भाई! व्यापक-स्वरूप परमात्मा (सारे जगत में अपना) प्रकाशस कर रहा है। पर उसे आँखों से कैसे देखा जाए?
हे भाई! गुरु ने अपने शब्द के द्वारा (जिसको) दर्शन करवा दिए, उस सेवक के पूरे भाग्य जाग उठे। जिस मनुष्य को गुरु के शब्द ने (सर्व-व्यापक परमात्मा) दिखा दिया, वह सदा-स्थिर हरि-नाम को अपने हृदय में बसा लेता है। उसके दर्शन करके वह मनुष्य दिन-रात उसके गुणों को अपने चिक्त में बसाता है। वह मनुष्य (अपने असल) घर को जान लेता है, उसकी पाँचों-ज्ञान-इंद्रिय (विकारों की तरफ) भटकने से हट जाती हैं, वह मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाले काम को क्रोध को समाप्त कर देता है।
हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से उस मनुष्य के अंदर रूहानी ज्योति प्रकट हो जाती है (जो कुछ जगत में हो रहा है, उसको) वह परमात्मा के करिश्में (समझ के) देखता है।
हे नानक! (जिस मनुष्यों के अंदर) सर्व-व्यापक प्रभु की ज्योति जग उठती है, वह (अपने अंदर से) अहंकार को मार के (परमात्मा के चरणों में) सदा टिके रहते हैं।1।

[[1111]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जागि रहे चूकी अभिमानी राम ॥ अनदिनु भोरु भइआ साचि समानी राम ॥ साचि समानी गुरमुखि मनि भानी गुरमुखि साबतु जागे ॥ साचु नामु अम्रितु गुरि दीआ हरि चरनी लिव लागे ॥ प्रगटी जोति जोति महि जाता मनमुखि भरमि भुलाणी ॥ नानक भोरु भइआ मनु मानिआ जागत रैणि विहाणी ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि जागि रहे चूकी अभिमानी राम ॥ अनदिनु भोरु भइआ साचि समानी राम ॥ साचि समानी गुरमुखि मनि भानी गुरमुखि साबतु जागे ॥ साचु नामु अम्रितु गुरि दीआ हरि चरनी लिव लागे ॥ प्रगटी जोति जोति महि जाता मनमुखि भरमि भुलाणी ॥ नानक भोरु भइआ मनु मानिआ जागत रैणि विहाणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। जागि रहे = (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं। चूकी = समाप्त हो जाती है। अभिमानी = अहंकार वाली दशा। अनदिनु = हर रोज। भोरु = दिन, आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समानी = (तवज्जो) टिकी रहती है। मनि = मन में। भानी = भा जाती है, प्यारी लगती है। साबतु = संपूर्ण, गलती के बिना। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। साचु नामु = सदा स्थिर हरि नाम। गुरि = गुरु ने।
जोति = हरेक ज्योति में, हरेक जीव में। जाता = (परमात्मा को बसता) जान लिया। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। भरमि = भटकना के कारण। भुलाई = गलत रास्ते पड़ी रहती है। नानक = हे नानक! मानिआ = पतीजा रहता है। रैणि = जिंदगी की रात।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहते हैं, (उनके अंदर से) अहंकार वाली दशा समाप्त हो जाती है। (उनके अंदर) हर वक्त आत्मिक जीवन की सूझ की रौशनी बनी रहती है, (उनकी तवज्जो) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में टिकी रहती है।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों की तवज्जो सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहती है, (उनको ये दशा अपने) मन में प्यारी लगती है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सदा ही सचेत रहते हैं। गुरु ने उनको आत्मिक जीवन देने वाला सदा-स्थिर हरि-नाम बख्शा होता है, उनकी लगन परमात्मा के चरणों में लगी रहती है।
हे भाई! गुरमुखों के अंदर परमात्मा की ज्योति का प्रकाश हो जाता है, वे हरेक जीव में उसी ईश्वरीय-ज्योति को बसता समझते हैं। पर अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ी रहती है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश हुआ रहता है, उनका मन (उस रौशनी में) परचा रहता है। (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहते हुए ही उनकी जीवन की रात बीतती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउगण वीसरिआ गुणी घरु कीआ राम ॥ एको रवि रहिआ अवरु न बीआ राम ॥ रवि रहिआ सोई अवरु न कोई मन ही ते मनु मानिआ ॥ जिनि जल थल त्रिभवण घटु घटु थापिआ सो प्रभु गुरमुखि जानिआ ॥ करण कारण समरथ अपारा त्रिबिधि मेटि समाई ॥ नानक अवगण गुणह समाणे ऐसी गुरमति पाई ॥३॥

मूलम्

अउगण वीसरिआ गुणी घरु कीआ राम ॥ एको रवि रहिआ अवरु न बीआ राम ॥ रवि रहिआ सोई अवरु न कोई मन ही ते मनु मानिआ ॥ जिनि जल थल त्रिभवण घटु घटु थापिआ सो प्रभु गुरमुखि जानिआ ॥ करण कारण समरथ अपारा त्रिबिधि मेटि समाई ॥ नानक अवगण गुणह समाणे ऐसी गुरमति पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुणी = गुणों ने। घरु कीआ = ठिकाना बना लिया। एको = एक (परमात्मा) ही। रवि रहिआ = सब जगह मौजूद दिखता है। बीआ = दूसरा। ते = से। मन ही ते = मन से ही, अंतरात्मे ही। मानिआ = पतीजा रहता है।
जिनि = जिस (परमात्मा) ने। घटु घटु थापिआ = हरेक शरीर को बनाया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। करण कारण = (सारे) जगत का मूल। समरथ = सब ताकतों का मालिक। अपारा = बेअंत। त्रिबिधि = तीन किस्मों वाली, त्रैगुणी माया। मेटि = मिटा के। गुणह = गुणों में।3।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय-आकाश में ‘तारा चढ़िआ लंमा’, उसके अंदर से) सारे अवगुण समाप्त हो जाते हैं, (उसके अंदर) गुण अपना ठिकाना बनाते हैं। उस मनुष्य को एक परमात्मा ही हर जगह मौजूद दिखाई देता है, उसके बिना और कोई दूसरा नहीं दिखता।
हे भाई! (जिस मनुष्य के अंदर ‘तारा चढ़िआ लंमा’, उसको) हर जगह एक परमात्मा ही बसता दिखता है, उसके बिना कोई और उसको दिखाई नहीं देता, उस मनुष्य का मन अंतरात्मे (हरि-नाम में) परचा रहता है। जिस (परमात्मा) ने जल-थल तीनों भवन हरेक शरीर बनाए हैं वह मनुष्य उस परमात्मा के साथ गुरु के माध्यम सें गहरी सांझ बनाए रखता है।
हे नानक! (जिस मनुष्य के हृदय-आकाश में ‘तारा चढ़िआ लंमा’, वह अपने अंदर से) त्रैगुणी माया का प्रभाव मिटा के उस परमात्मा में समाया रहता है जो सारे जगत का मूल है जो सारी ताकतों का मालिक है और जो बेअंत है। हे नानक! गुरु से वह मनुष्य ऐसी मति हासिल कर लेता है कि उसके सारे अवगुण गुणों में समा जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवण जाण रहे चूका भोला राम ॥ हउमै मारि मिले साचा चोला राम ॥ हउमै गुरि खोई परगटु होई चूके सोग संतापै ॥ जोती अंदरि जोति समाणी आपु पछाता आपै ॥ पेईअड़ै घरि सबदि पतीणी साहुरड़ै पिर भाणी ॥ नानक सतिगुरि मेलि मिलाई चूकी काणि लोकाणी ॥४॥३॥

मूलम्

आवण जाण रहे चूका भोला राम ॥ हउमै मारि मिले साचा चोला राम ॥ हउमै गुरि खोई परगटु होई चूके सोग संतापै ॥ जोती अंदरि जोति समाणी आपु पछाता आपै ॥ पेईअड़ै घरि सबदि पतीणी साहुरड़ै पिर भाणी ॥ नानक सतिगुरि मेलि मिलाई चूकी काणि लोकाणी ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आवण जाण = (बहुवचन) जनम मरण का चक्कर। रहे = समाप्त हो गए। चूका = समाप्त हो गया। भोला = भोलावा, खराब जीवन चाल। मारि = मार के। साचा = सदा स्थिर, अडोल, विकारों के हमलों से अडोल, पवित्र। चोला = शरीर।
गुरि = गुरु ने। खोई = नाश कर दी। परगटु = प्रसिद्ध, शोभा वाली। चूके = समाप्त हो गए। सोग = शोक। संतापै = दुख-कष्ट। समाणी = लीन हो गई। आपु = अपने आप को। आपै = अपने आप को।
पेईअड़ै = पेके (घर) में। पेईअड़ै घरि = पेके घर में, इस लोक में। सबदि = गुरु के शब्द में। पतीणी = पतीजी रही। साहुरड़ै = परलोक में। पिर भाणी = पिर को भा गई, प्रभु पति को अच्छी लगी। सतिगुरि = गुरु ने। मेलि = मेल के। काणि = अधीनता। लोकाणी = जगत की।4।
अर्थ: हे भाई! (जिनके हृदय-आकाश में ‘तारा चढ़िआ लंमा’, उनके) जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो गए, उनकी अनुचित जीवन-चाल खत्म हो गई। वह (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके (प्रभु चरणों में) जुड़ गए, उनका शरीर (विकारों के हमलों के मुकाबले के लिए) अडोल हो गया।
हे भाई! गुरु ने जिस जीव-स्त्री का अहंकार दूर कर दिया, वह (लोक-परलोक में) शोभा वाली हो गई, उसके सारे ग़म सारे दुख-कष्ट समाप्त हो गए। उसकी जिंद परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है, वह अपने आत्मिक जीवन की सदा पड़ताल करती रहती है।
हे भाई! जो जीव-स्त्री इस लोक में गुरु के शब्द में जुड़ी रहती है, वह परलोक में (जा के) प्रभु-पति को भा जाती है। हे नानक! जिस जीव-स्त्री को गुरु ने (अपने शब्द में) जोड़ के प्रभु के साथ मिला दिया, उसको दुनिया की अधीनता नहीं रह जाती।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला १ ॥ भोलावड़ै भुली भुलि भुलि पछोताणी ॥ पिरि छोडिअड़ी सुती पिर की सार न जाणी ॥ पिरि छोडी सुती अवगणि मुती तिसु धन विधण राते ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विगुती हउमै लगी ताते ॥ उडरि हंसु चलिआ फुरमाइआ भसमै भसम समाणी ॥ नानक सचे नाम विहूणी भुलि भुलि पछोताणी ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला १ ॥ भोलावड़ै भुली भुलि भुलि पछोताणी ॥ पिरि छोडिअड़ी सुती पिर की सार न जाणी ॥ पिरि छोडी सुती अवगणि मुती तिसु धन विधण राते ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विगुती हउमै लगी ताते ॥ उडरि हंसु चलिआ फुरमाइआ भसमै भसम समाणी ॥ नानक सचे नाम विहूणी भुलि भुलि पछोताणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भोलावड़ै = बहुत भुलेखे में। भुली = गलत रास्ते पड़ गई। भुलि = गलती करके। पछोताणी = अफसोस करती रही, हाथ मलती रही। पिरि = पिर ने, प्रभु पति ने। छोडिअड़ी = त्याग दी, प्यार करना छोड़ दिया। सुती = माया के मोह की नींद में पड़ी रही। सार = कद्र।
अवगणि = औगुणों के कारण, (इस) भूल के कारण, (माया के मोह की नींद में सोए रहने की) भूल के कारण। मुती = (पति ने) त्याग दी। तिसु धन राते = उस (जीव-) स्त्री की (जीवन) रात। विधण = दुख भरी। कामि = काम में, क्रोध में। विगुती = दुखी होती रही। ताते = ताति, ईष्या।
उडरि = उड़ के। उडरि चलिआ = उड़ चला। हंसु = जीवात्मा। भसम = मिट्टी। विहूणी = वंचित, बिना।1।
अर्थ: हे भाई! (जो जीव-स्त्री परमात्मा के नाम से वंचित रहती है, वह) बहुत भुलेखे में पड़ कर जीवन-राह से टूट जाती है, बार-बार गलतियां करके पछताती रहती है। (ऐसी जीव-स्त्री) प्रभु-पति की कद्र नहीं समझती। (माया के मोह की नींद में) गाफिल हो रही (ऐसी जीव-स्त्री) को प्रभु-पति ने भी मानो त्याग दिया होता है।
हे भाई! माया के मोह में सोई हुई जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति ने प्यार करना छोड़ दिया, (माया के मोह की नींद में सोए रहने के इस) अवगुण के कारण त्याग दिया, उस जीव-स्त्री की जिंदगी की रात दुखदाई हो जाती है (उसकी सारी उम्र दुखों में बीतती है)। वह स्त्री काम में क्रोध में अहंकार में (सदा) दुखी होती रहती है, उसको अहंकार चिपका रहता है, उसको ईष्या चिपकी रहती है।
हे भाई! परमात्मा के हुक्म के अनुसार जीवात्मा (तो आखिर शरीर छोड़ के) चल पड़ती है, और शरीर मिट्टी की ढेरी हो के मिट्टी के साथ मिल जाता है। पर, हे नानक! परमात्मा के नाम से भूली हुई जीव-स्त्री सारी उम्र भूलें कर करके (अनेक दुख सहेड़ के) पछताती रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि नाह पिआरे इक बेनंती मेरी ॥ तू निज घरि वसिअड़ा हउ रुलि भसमै ढेरी ॥ बिनु अपने नाहै कोइ न चाहै किआ कहीऐ किआ कीजै ॥ अम्रित नामु रसन रसु रसना गुर सबदी रसु पीजै ॥ विणु नावै को संगि न साथी आवै जाइ घनेरी ॥ नानक लाहा लै घरि जाईऐ साची सचु मति तेरी ॥२॥

मूलम्

सुणि नाह पिआरे इक बेनंती मेरी ॥ तू निज घरि वसिअड़ा हउ रुलि भसमै ढेरी ॥ बिनु अपने नाहै कोइ न चाहै किआ कहीऐ किआ कीजै ॥ अम्रित नामु रसन रसु रसना गुर सबदी रसु पीजै ॥ विणु नावै को संगि न साथी आवै जाइ घनेरी ॥ नानक लाहा लै घरि जाईऐ साची सचु मति तेरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाह = हे नाथ! हे पति! निज घरि = अपने घर में। हउ = मैं। रुलि = भटक के, (विकारों में) दुखी हो के। बिनु नाहै = पति के बिना। न चाहै = पसंद नहीं करता। किआ कहीऐ = क्या कहना चाहिए? किआ कीजै = क्या करना चाहिए? अम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। रसन रसु = सारे रसों से श्रेष्ठ रस। रसना = जीभ से। गुर सबदी = गुरु के शब्द में जुड़ के। पीजै = पीना चाहिए।
संगि = संगी, साथी। आवै जाइ = पैदा होती है मरती है, जनम मरण के चक्कर में पड़ी रहती है। घनेरी = बहुत सारी दुनिया। नानक = हे नानक! लाहा = लाभ। घरि = घर में, प्रभु चरणों में। जाईऐ = जाना चाहिएै। साची मति = पवित्र मति। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (को स्मरण करने से)।2।
अर्थ: हे प्यारे (प्रभु-) पति! मेरी एक विनती सुन- तू अपने घर में बस रहा है, पर मैं (तुझसे विछुड़ के विकारों में) दुखी हो के राख की ढेरी हो रही हूँ।
अपने (प्रभु-) पति के बिना (प्रभु-पति से विछुड़ी जीव-स्त्री को) कोई प्यार नहीं करता। (इस हालत में फिर) क्या कहना चाहिए? क्या करना चाहिए? (हे जीव-स्त्री!) परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम (दुनिया के) सब रसों से श्रेष्ठ रस है; गुरु के शब्द के द्वारा यह नाम-रस जीभ से पीते रहना चाहिए।
हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (जीवात्मा का और) कोई संगी कोई साथी नहीं। (नाम से टूट के) बहुत सारी दुनिया जनम-मरण के चक्करों में पड़ी रहती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम-लाभ कमा के प्रभु की हजूरी में पहुँच जाया जाता है। (हे भाई!) परमात्मा का सदा स्थिर नाम (जपा कर। इसकी इनायत से) तेरी मति (विकारों के हमलों से) अडोल हो जाएगी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साजन देसि विदेसीअड़े सानेहड़े देदी ॥ सारि समाले तिन सजणा मुंध नैण भरेदी ॥ मुंध नैण भरेदी गुण सारेदी किउ प्रभ मिला पिआरे ॥ मारगु पंथु न जाणउ विखड़ा किउ पाईऐ पिरु पारे ॥ सतिगुर सबदी मिलै विछुंनी तनु मनु आगै राखै ॥ नानक अम्रित बिरखु महा रस फलिआ मिलि प्रीतम रसु चाखै ॥३॥

मूलम्

साजन देसि विदेसीअड़े सानेहड़े देदी ॥ सारि समाले तिन सजणा मुंध नैण भरेदी ॥ मुंध नैण भरेदी गुण सारेदी किउ प्रभ मिला पिआरे ॥ मारगु पंथु न जाणउ विखड़ा किउ पाईऐ पिरु पारे ॥ सतिगुर सबदी मिलै विछुंनी तनु मनु आगै राखै ॥ नानक अम्रित बिरखु महा रस फलिआ मिलि प्रीतम रसु चाखै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजन = सज्जन प्रभु जी! देसि = देश में, (जीव-स्त्री के) हृदय देश में। विदेस = परदेस। विदेसी = परदेसी, परदेस में रहने वाला। देदी = देती। सारि = चेते कर के। समाले = (हृदय में) संभालती है। तिन सजणा = उन सज्जनों को, प्रभु सज्जन जी को। मुंध = (मुगधा) अंजान जीव-स्त्री। सारेदी = सारेंदी, याद करती है। किउ प्रभ मिला = मैं कैसे प्रभु को मिलूँ? मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। न जाणउ = ना जानूँ, मैं नहीं जानती। विखड़ा = मुश्किल, कठिनाई भरा। पारे = (कठिन रास्ते के) परले पासे। सबदी = शब्द से। विछुंनी = बिछुड़ी हुई जीव-स्त्री। आगै राखै = (प्रभु पति के) आगे रख देती है, भेटा कर देती है। अंम्रित बिरखु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम वृक्ष। महारस फलिआ = बड़े मीठे फलों वाला, जिसको उच्च आत्मिक गुणों वाले बड़े मीठे फल लगे हुए हैं। मिलि प्रीतम = प्रीतम प्रभु को मिल के। रसु = स्वाद। चाखै = चखती है (एकवचन)।3।
अर्थ: हे भाई! सज्जन प्रभु जी! (हरेक जीव-स्त्री के) हृदय-देश में बस रहे हैं, (पर नाम-हीन जीव-स्त्री दुखों में घिर के उसको) परदेस में बसता जान के (दुखों से बचने के लिए) तरले-भरे संदेशे भेजती है। (नाम से टूटी हुई) अंजान जीव-स्त्री (अपने ऊपर चढ़ाए हुए सहेड़े हुए दुखों के कारण) रोती है, विरलाप करती है और उस सज्जन-प्रभु जी को बार-बार याद करती है।
(नाम से वंचित हुई) अंजान जीव-स्त्री (सहेड़े हुए दुखों के कारण) विलाप करती है, प्रभु-पति के गुण चेते करती है, (और तरले लेती है कि) प्यारे प्रभु को कैसे मिलूँ? (जिस देश में वह बसता है, उसका) रास्ता (अनेक विकारों की) मुश्किलों से भरा हुआ है, मैं वह रास्ता जानती भी नहीं हूँ, मैं उस पति को कैसे मिलूँ, वह तो (इन विकारों की रुकावटों के) उस पार रहता है।
हे नानक! (कह: हे भाई!) जो विछुड़ी हुई जीव-स्त्री गुरु के शब्द के द्वारा अपना तन अपना मन उसके हवाले कर देती है, वह उसको मिल जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला एक ऐसा वृक्ष है जिसको ऊँचे आत्मिक गुणों के फल लगे रहते हैं (गुरु के शब्द द्वारा अपना तन-मन भेटा करने वाली जीव-स्त्री) प्रीतम प्रभु को मिल के (उस वृक्ष के फलों का) स्वाद चखती रहती है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

महलि बुलाइड़ीए बिलमु न कीजै ॥ अनदिनु रतड़ीए सहजि मिलीजै ॥ सुखि सहजि मिलीजै रोसु न कीजै गरबु निवारि समाणी ॥ साचै राती मिलै मिलाई मनमुखि आवण जाणी ॥ जब नाची तब घूघटु कैसा मटुकी फोड़ि निरारी ॥ नानक आपै आपु पछाणै गुरमुखि ततु बीचारी ॥४॥४॥

मूलम्

महलि बुलाइड़ीए बिलमु न कीजै ॥ अनदिनु रतड़ीए सहजि मिलीजै ॥ सुखि सहजि मिलीजै रोसु न कीजै गरबु निवारि समाणी ॥ साचै राती मिलै मिलाई मनमुखि आवण जाणी ॥ जब नाची तब घूघटु कैसा मटुकी फोड़ि निरारी ॥ नानक आपै आपु पछाणै गुरमुखि ततु बीचारी ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महलि = महल में, प्रभु की हजूरी में। बुलाइड़ीए = हे बुलाई हुई! आमंत्रित। बिलमु = विलम्ब, देर। न कीजै = नहीं करनी चाहिए। अनुदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। मिलीजै = मिले रहना चाहिए, टिके रहना चाहिए।
सुख = सुख में, आनंद में। रोसु = गिला। रोसु न कीजै = गुस्सा नहीं नहीं करना चाहिए, गिला नहीं करना चाहिए। गरबु = अहंकार। निवारि = दूर कर के। साचै = सदा कायम रहने वाले प्रभु में। राती = रति हुई, प्रेम रंग में रंगी हुई। मिलाई = (गुरु की) मिलाई हुई। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। आवण जाणी = जनम मरण के चक्कर में।
नाची = नाचने लगी। घूघटु = घूँघट। मटुकी फोड़ि = शरीर के मोह को तोड़ के। निरारी = निराली, निर्लिप, अलग। आपै आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = पहचानता है, पड़तालता है। ततु = अस्लियत, असल जीवन भेद। बीचारी = बिचारने वाला।4।
अर्थ: हे प्रभु की हजूरी में बुलाई हुई (जीव-सि्त्रए)! देर नहीं करनी चाहिए। हे हर वक्त प्रेम-रंग में रंगे हुए! आत्मिक अडोलता में टिके रहना चाहिए (भाव, हे भाई! जो जीव-स्त्री हर वक्त परमात्मा के प्यार रंग में रंगी रहती है, जो प्रभु की याद में कभी ढील नहीं करती, जो हर वक्त आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है, उस जीव-स्त्री को परमात्मा अपने चरणों से जोड़ता है)।
हे भाई! आत्मिक आनंद में आत्मिक अडोलता में टिके रहना चाहिए, (किसी अपने उद्यम पर गर्व करके इस बात का) शिकवा नहीं करना चाहिए (कि मेरा उद्यम जल्दी सफल क्यों नहीं होता। जो भी जीव-स्त्री प्रभु का मिलाप हासिल करती है) अहंकार दूर करके (ही प्रभु में) लीन होती है। जिसको गुरु मिलाता है वही मिलती है, वह सदा कायम रहने वाले प्रभु के प्रेम रंग में रंगी रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाली जनम-मरण के चक्करों में पड़ी रहती है।
हे भाई! (जैसे) जब कोई स्त्री नाचने लग जाए तो वह घूँघट नहीं करती, (वैसे ही जो जीव-स्त्री प्रभु-प्यार की राह पर चलती है वह) शरीर का मोह छोड़ के (माया से) निर्लिप हो जाती है। हे नानक! गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य सदा अपने जीवन को पड़तालता रहता है, उस असल जीवन-राह को अपने विचार-मण्डल में टिकाए रखता है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला १ ॥ मेरे लाल रंगीले हम लालन के लाले ॥ गुरि अलखु लखाइआ अवरु न दूजा भाले ॥ गुरि अलखु लखाइआ जा तिसु भाइआ जा प्रभि किरपा धारी ॥ जगजीवनु दाता पुरखु बिधाता सहजि मिले बनवारी ॥ नदरि करहि तू तारहि तरीऐ सचु देवहु दीन दइआला ॥ प्रणवति नानक दासनि दासा तू सरब जीआ प्रतिपाला ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला १ ॥ मेरे लाल रंगीले हम लालन के लाले ॥ गुरि अलखु लखाइआ अवरु न दूजा भाले ॥ गुरि अलखु लखाइआ जा तिसु भाइआ जा प्रभि किरपा धारी ॥ जगजीवनु दाता पुरखु बिधाता सहजि मिले बनवारी ॥ नदरि करहि तू तारहि तरीऐ सचु देवहु दीन दइआला ॥ प्रणवति नानक दासनि दासा तू सरब जीआ प्रतिपाला ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगीले = अनेक करिश्मे करने वाले, चोज करने वाले। हम = मैं, हम। लाले = गोले, गुलाम। गुरि = गुरु ने। अलखु = अ+लखु, जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अवरु = और। भाले = तलाशता।
जा = जब। तिसु भाइआ = उस (प्रभु) को अच्छा लगा। प्रभि = प्रभु ने। जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत का आसरा। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = विधाता, निर्माता। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बनवारी = परमात्मा (बन+माली, सारी बनस्पति है जिसकी माला)।
नदरि = मेहर की निगाह। तारहि = (तू संसार समुंदर से) पार लंघाता है। तरीऐ = पार हुआ जा सकता है। सचु = सदा स्थिर नाम। दीन दइआला = हे दीनों पर दया करने वाले! प्रणवति = विनती करता है। दासनिदासा = दासों के दास। सरब = सारे।1।
अर्थ: हे भाई! मनमोहक प्रभु जी अनेक करिश्मे करने वाले हैं, मैं उस सुंदर प्रभु का (सदा के लिए) गुलाम हूँ। हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरु ने अलख प्रभु की सूझ बख्श दी, (वह मनुष्य उसको छोड़ के) किसी और की तलाश नहीं करता।
हे भाई! जब प्रभु की रज़ा हुई, जब प्रभु ने (किसी जीव पर) कृपा की, तब गुरु ने उसको अलख प्रभु का ज्ञान दिया। तब उसको आत्मिक अडोलता में टिक के वह परमात्मा मिल जाता है जो जगत का सहारा है जो सब दातें देने वाला है जो सर्व-व्यापक है और विधाता है।
हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! जब तू अपना सदा-स्थिर नाम देता है, जब तू मेहर की निगाह करता है, जब तू (स्वयं संसार-समुंदर से) पार लंघाता है, तब ही पार लांघ सकते हैं। तेरे दासों का दास विनती करता है कि तू सारे जीवों की रक्षा करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरिपुरि धारि रहे अति पिआरे ॥ सबदे रवि रहिआ गुर रूपि मुरारे ॥ गुर रूप मुरारे त्रिभवण धारे ता का अंतु न पाइआ ॥ रंगी जिनसी जंत उपाए नित देवै चड़ै सवाइआ ॥ अपर्मपरु आपे थापि उथापे तिसु भावै सो होवै ॥ नानक हीरा हीरै बेधिआ गुण कै हारि परोवै ॥२॥

मूलम्

भरिपुरि धारि रहे अति पिआरे ॥ सबदे रवि रहिआ गुर रूपि मुरारे ॥ गुर रूप मुरारे त्रिभवण धारे ता का अंतु न पाइआ ॥ रंगी जिनसी जंत उपाए नित देवै चड़ै सवाइआ ॥ अपर्मपरु आपे थापि उथापे तिसु भावै सो होवै ॥ नानक हीरा हीरै बेधिआ गुण कै हारि परोवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरपुरि = भरपूर है, सबमें व्यापक है। धारि रहे = (प्रभु की सारी सृष्टि को) आसरा दे रहे हैं। सबदे = (गुरु के) शब्द से (ये समझ आती है)। रवि रहिआ = सब जीवों में मौजूद है। गुर रूपि = बड़ी हस्ती वाला प्रभु। मुरारे = (मुर+अरि) परामात्मा। त्रिभवन धारे = तीनों भवनों को आसरा दे रहा है। ता का = उस (परमात्मा) का। रंगी = कई रंगों के। जिनसी = कई जिनसों के। चढ़ै सवाइआ = (उसका दिया दान) बढ़ता रहता है।
अपरंपरु = परे से परे प्रभु, जिसका परला छोर नहीं मिल सकता। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। हीरा = पवित्र हो चुका जीवात्मा। हीरै = महान ऊँचे परमात्मा में। बेधिआ = भेद जाता है। गुण कै हारि = गुणों के हार में।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से (ये समझ आ जाती है कि सब जीवों को) बहुत ही प्यार करने वाला परमात्मा सब में व्यापक है, (सारी सृष्टि को) आसरा दे रहा है, बड़ी हस्ती वाला है और सब जीवों में मौजूद है।
हे भाई! सबसे बड़ी हस्ती वाला परमात्मा तीन भवनों को सहारा दे रहा है, (किसी भी जीव ने अभी तक) उस (के गुणों) का अंत नहीं पाया। वह परमात्मा अनेक रंगों के अनेक किस्मों के जीव पैदा करता है, (सब जीवों को) सदा (दान) देता है, और उसका भण्डारा हमेशा बढ़ता ही रहता है।
हे भाई! परमात्मा बहुत बेअंत है, वह स्वयं ही पैदा करके स्वयं ही नाश करता है। (जगत में) वही कुछ होता है जो उसको अच्छा लगता है। हे नानक! (कह: हे भाई! जो जीव उस परमात्मा के) गुणों के हार में (अपने आप को) परो लेता है वह पवित्र हो चुकी जीवात्मा महान ऊँचे परमात्मा में एक-रूप हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गुणहि समाणे मसतकि नाम नीसाणो ॥ सचु साचि समाइआ चूका आवण जाणो ॥ सचु साचि पछाता साचै राता साचु मिलै मनि भावै ॥ साचे ऊपरि अवरु न दीसै साचे साचि समावै ॥ मोहनि मोहि लीआ मनु मेरा बंधन खोलि निरारे ॥ नानक जोती जोति समाणी जा मिलिआ अति पिआरे ॥३॥

मूलम्

गुण गुणहि समाणे मसतकि नाम नीसाणो ॥ सचु साचि समाइआ चूका आवण जाणो ॥ सचु साचि पछाता साचै राता साचु मिलै मनि भावै ॥ साचे ऊपरि अवरु न दीसै साचे साचि समावै ॥ मोहनि मोहि लीआ मनु मेरा बंधन खोलि निरारे ॥ नानक जोती जोति समाणी जा मिलिआ अति पिआरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुणहि = (परमात्मा के) गुणों में। समाणे = लीन हो जाते हैं। मसतकि = (जिस के) माथे पर। नाम नीसाणो = (प्रभु के) नाम (की प्राप्ति) का निशान (लग जाता है, लेख लिखा जाता है)। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (स्मरण करके)। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। चूका = समाप्त हो गया। आवण जाणो = जनम मरण का चक्कर।
सचु पछाता = सदा स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाल ली। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। मनि भावै = (उस के) मन को प्यारा लगता है। साचे ऊपरि = सदा स्थिर प्रभु से बड़ा। साचे साचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभु में।
मोहनि = मोहन प्रभु ने। खोलि = खोल के, तोड़ के। निरारे = निर्लिप (कर देता है)। जोती = ज्योति रूपप्रभु में। जा = जब।3।
अर्थ: हे भाई! जिनके माथे पर परमात्मा की प्राप्ति का लेख लिखा होता है, वह मनुष्य परमात्मा के गुण उचार के उन गुणों में लीन हुए रहते हैं।
हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम उचार के सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन हुआ रहता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।
हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहने वाला मनुष्य सदा कायम प्रभु के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है, सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, उसको सदा-स्थिर प्रभु का मिलाप प्राप्त हो जाता है, उसके मन में वह प्यारा लगता रहता है। उस मनुष्य को सदा-स्थिर परमात्मा से बड़ा और कोई नहीं दिखता, वह हर वक्त सदा-स्थिर प्रभु में लीन हो रहा होता है।
हे भाई! उस मोहन (प्रभु) ने मेरा मन (भी) मोह लिया है। हे नानक! कह: हे भाई! जब (कोई बहुत भाग्यशाली मनुष्य उस) अति-प्यारे-परमात्मा को मिल लेता है, उसकी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है, प्रभु उसके (माया के मोह के) बंधन काट के उसको (माया से) निर्लिप कर देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच घरु खोजि लहे साचा गुर थानो ॥ मनमुखि नह पाईऐ गुरमुखि गिआनो ॥ देवै सचु दानो सो परवानो सद दाता वड दाणा ॥ अमरु अजोनी असथिरु जापै साचा महलु चिराणा ॥ दोति उचापति लेखु न लिखीऐ प्रगटी जोति मुरारी ॥ नानक साचा साचै राचा गुरमुखि तरीऐ तारी ॥४॥५॥

मूलम्

सच घरु खोजि लहे साचा गुर थानो ॥ मनमुखि नह पाईऐ गुरमुखि गिआनो ॥ देवै सचु दानो सो परवानो सद दाता वड दाणा ॥ अमरु अजोनी असथिरु जापै साचा महलु चिराणा ॥ दोति उचापति लेखु न लिखीऐ प्रगटी जोति मुरारी ॥ नानक साचा साचै राचा गुरमुखि तरीऐ तारी ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सच घरु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा का घर, सच्चे का घर। खोजि = खोज के। गुर थानो = गुरु क स्थान। साचा गुर थानो = सदा स्थिर साधु-संगत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने से। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से, गुरु की शरण पड़ने से।
देवै = (गुरु) देता है। सचु दानो = सदा स्थिर हरि नाम का दान। सो = वह मनुष्य। सद = सदा। दाणा = समझदार, सयाना। अमरु = कभी ना मरने वाला। जापै = प्रतीत होता है। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा स्थिर। चिराणा महलु = आदि का ठिकाना।
दोति = (द्योति) ज्योति, नूर, प्रकाश। उचापति लेखु = (विकारों के) कर्ज़े का लेख। न लिखीऐ = नहीं लिखा जाता। मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा। नानक = हे नानक! साचा = सदा स्थिर हरि रूप। राचा = रचा हुआ, मस्त, लीन। तरीऐ = तैरा जा सकता है।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को सदा-स्थिर साधु-संगत प्राप्त हो जाती है, वह मनुष्य (साधु-संगत में) खोज करके सदा कायम रहने वाले परमात्मा का ठिकाना पा लेता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा के साथ गहरी सांझ प्राप्त होती है, अपने मन के पीछे चलने वाले को (यह दाति) नहीं मिलती।
हे भाई! (गुरु जिस मनुष्य को) सदा दातें देने वाले बड़े समझदार सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम-दान देता है, वह मनुष्य उस अमर अजोनी और सदा स्थिर प्रभु (का नाम सदा) जपता रहता है, उस मनुष्य को परमात्मा का आदि का सदा-स्थिर ठिकाना मिल जाता है।
हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर) परमात्मा की ज्योति प्रकट हो जाती है, उस ज्योति की इनायत से उस मनुष्य का विकारों के कर्ज़े का हिसाब लिखना बंद हो जाता है (भाव, वह मनुष्य विकारों से हट जाता है), वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाता है वह मनुष्य हर वक्त सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।
हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से ही (माया के मोह के समुंदर में से) ये तैराकी की जा सकती है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला १ ॥ ए मन मेरिआ तू समझु अचेत इआणिआ राम ॥ ए मन मेरिआ छडि अवगण गुणी समाणिआ राम ॥ बहु साद लुभाणे किरत कमाणे विछुड़िआ नही मेला ॥ किउ दुतरु तरीऐ जम डरि मरीऐ जम का पंथु दुहेला ॥ मनि रामु नही जाता साझ प्रभाता अवघटि रुधा किआ करे ॥ बंधनि बाधिआ इन बिधि छूटै गुरमुखि सेवै नरहरे ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला १ ॥ ए मन मेरिआ तू समझु अचेत इआणिआ राम ॥ ए मन मेरिआ छडि अवगण गुणी समाणिआ राम ॥ बहु साद लुभाणे किरत कमाणे विछुड़िआ नही मेला ॥ किउ दुतरु तरीऐ जम डरि मरीऐ जम का पंथु दुहेला ॥ मनि रामु नही जाता साझ प्रभाता अवघटि रुधा किआ करे ॥ बंधनि बाधिआ इन बिधि छूटै गुरमुखि सेवै नरहरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ए अचेत मन = हे अचेत मन! हे लापरवाह मन! गुणी समाणिआ = (परमात्मा के) गुणों में लीन हो।
बहु साद = अनेक स्वादों में। लुभाणे = लुभावने, फसने वाले। किरत कमाणे = अपने किए कर्मों के अनुसार। दुतरु = (दुस्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है। डरि = डर से। मरीऐ = मरते हैं, सहमे रहते हैं। पंथु = रास्ता। दुहेला = दुखदाई।
मनि = मन में। जाता = जाना, सांझ डाली। साझ = सांझ, शाम का समय। प्रभाता = सवेरे। अवघटि = मुश्किल रास्ते में। रुधा = रुका हुआ, फसा हुआ। किआ करे = क्या कर सकता है? बेबस हो जाता है। बंधनि = बंधन से (एकवचन), (माया के मोह की) रस्सी से। इनि बिधि = इस तरीके से। छूटै = बंधन में से निकल सकता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सेवो = स्मरण करो। नरहरे = परमात्मा।1।
अर्थ: हे मेरे मन! हे मेरे गाफिल मन! हे मेरे अंजान मन! तू होश कर। हे मेरे मन! बुरे कर्म करने छोड़ दे, (परमात्मा के) गुणों (की याद) में लीन रहा कर।
हे मेरे मन! जो मनुष्य अनेक (पदार्थों के) स्वादों में फसे रहते हैं, वे अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (परमात्मा से विछुड़े रहते हैं। इन संस्कारों के कारण ही) उन विछुड़े हुओं का (अपने आप परमात्मा के साथ) मिलाप नहीं हो सकता। हे मेरे मन! इस संसार-समुंदर से पार लांघना बहुत मुश्किल है, (अपने उद्यम से) पार नहीं लांघा जा सकता। जमों के डर से सहम बना रहता है। हे मेरे मन! जमों की तरफ ले जाने वाला रास्ता बहुत दुखदाई है।
हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने अपने मन में सवेरे शाम (किसी भी वक्त) परमात्मा के साथ सांझ नहीं डाली, वह (माया के मोह के) मुश्किल राह में फंस जाता है (इसमें से निकलने के लिए) वह कुछ भी नहीं कर सकता। (पर हाँ, माया के मोह की) रस्सी के साथ बँधा हुआ वह इस तरीके से निजात पा सकता है कि गुरु की शरण में आकर परमात्मा का स्मरण करे।1।

[[1113]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए मन मेरिआ तू छोडि आल जंजाला राम ॥ ए मन मेरिआ हरि सेवहु पुरखु निराला राम ॥ हरि सिमरि एकंकारु साचा सभु जगतु जिंनि उपाइआ ॥ पउणु पाणी अगनि बाधे गुरि खेलु जगति दिखाइआ ॥ आचारि तू वीचारि आपे हरि नामु संजम जप तपो ॥ सखा सैनु पिआरु प्रीतमु नामु हरि का जपु जपो ॥२॥

मूलम्

ए मन मेरिआ तू छोडि आल जंजाला राम ॥ ए मन मेरिआ हरि सेवहु पुरखु निराला राम ॥ हरि सिमरि एकंकारु साचा सभु जगतु जिंनि उपाइआ ॥ पउणु पाणी अगनि बाधे गुरि खेलु जगति दिखाइआ ॥ आचारि तू वीचारि आपे हरि नामु संजम जप तपो ॥ सखा सैनु पिआरु प्रीतमु नामु हरि का जपु जपो ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आल = आलय, घर। आल जंजाल = घर के जंजाल, घर के मोह के फंदे। सेवहु = स्मरण करो, स्मरण करते रहो। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। निराला = निर्लिप।
एकंकारु = इक ओअंकार, जो एक स्वयं ही स्वयं और सर्व व्यापक है। साचा = सदा कायम रहने वाला। जिंनि = जिस ने (छंत की चाल पूरी रखने के लिए एक मात्रा बढ़ा के जिनि’ को जिंनि’ लिखा गया है)। पउणु = हवा। अगनि = आग। बाधे = (मर्यादा में) बँधे हुए। गुरि दिखाइआ = (जिसको) गुरु ने दिखा दिया है। जगति = जगत में। खेलु = (परमात्मा का रचा हुआ) तमाशा।
आचारि = आचारी, कर्मकांडी, निहित विशेष मर्यादा में चलने वाला, आचार्य। आचार = धार्मिक निहित मर्यादा। वीचारि = विचारवान, ज्ञानवान। आपे = आप ही। सखा = मित्र। सैनु = सज्जन। जपो = जपता रह।2।
अर्थ: हे मेरे मन! घर के मोह के फंदों को छज्ञेड़ दे। हे मेरे मन! उस परमात्मा को स्मरण करता रह, जो सब में व्यापक भी है और निर्लिप भी है।
हे मेरे मन! उस एक सर्व व्यापक और सदा-स्थिर परमात्मा (का नाम) स्मरण करता रह, जिसने सारा जगत पैदा किया है और हवा पानी आग (आदि तत्वों) को (मर्यादा में) बाँधा हुआ है। हे मेरे मन! (वही मनुष्य नाम स्मरण करता है जिसको) गुरु ने जगत में (परमात्मा का यह) तमाशा दिखा दिया है (और नाम में जोड़ा हुआ है)।
हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा जपता रह जपता रह, यही है मित्र, यही है सज्जन, यही है प्यारा प्रीतम। हे मेरे मन! परमात्मा का नाम ही है अनेक संजम, अनेक जप और अनेक तप। हे मेरे मन! नाम जपने से ही तू धार्मिक मर्यादा में चलने वाला है, नाम जपने से ही तू ऊँची आत्मिक जीवन की विचार का मालिक है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए मन मेरिआ तू थिरु रहु चोट न खावही राम ॥ ए मन मेरिआ गुण गावहि सहजि समावही राम ॥ गुण गाइ राम रसाइ रसीअहि गुर गिआन अंजनु सारहे ॥ त्रै लोक दीपकु सबदि चानणु पंच दूत संघारहे ॥ भै काटि निरभउ तरहि दुतरु गुरि मिलिऐ कारज सारए ॥ रूपु रंगु पिआरु हरि सिउ हरि आपि किरपा धारए ॥३॥

मूलम्

ए मन मेरिआ तू थिरु रहु चोट न खावही राम ॥ ए मन मेरिआ गुण गावहि सहजि समावही राम ॥ गुण गाइ राम रसाइ रसीअहि गुर गिआन अंजनु सारहे ॥ त्रै लोक दीपकु सबदि चानणु पंच दूत संघारहे ॥ भै काटि निरभउ तरहि दुतरु गुरि मिलिऐ कारज सारए ॥ रूपु रंगु पिआरु हरि सिउ हरि आपि किरपा धारए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थिरु = (प्रभु चरणों में) अडोल। न खावही = ना खाए (मध्यम पुरख, एकवचन), तू नहीं खाएगा। चोट = (विकारों की) चोट। गुण गावहि = (अगर तू परमात्मा के) गुण गाता रहे। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। समावही = तू समा जाएगा।
गाइ = गा के। गुण राम = राम के गुण। रसाइ = रसा के, स्वाद से। रसीअहि = तू रस जाएगा, तेरे अंदर रस जाएंगे। अंजनु = सुरमा। गुर गिआन अंजनु = गुरु के ज्ञान का सुरमा, गुरु की बख्शी आत्मिक सूझ का अंजन। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। सारहे = अगर तू डाल ले (आँखों में)। दीपकु = दीया। त्रै लोक = तीन लोक (धरती आकाश और पाताल) सारा जगत। त्रै लोक दीपकु = सारे जगत का दीया, सारे जगत को रौशनी देने वाला प्रभु। सबदि = गुरु के शब्द से। दूत = वैरी। पंच दूत = कामादिक पाँच वैरी। संघारहे = संघारे, तू मार लेगा।
भै = सारे डर (बहुवचन)। काटि = काट के। तरहि = तू पार लांघ जाएगा। दुतरु = (वह संसार समुंदर) जिससे पार लांघना मुश्किल है। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। सारए = सार देता है, (प्रभु) सवार देता है। कारज = सारे काम। सिउ = साथ। धारए = धारे, धारता है।3।
अर्थ: हे मेरे मन! तू (परमात्मा के चरणों में) अडोल टिके रहा कर, (इस तरह) तू (विकारों की) चोट नहीं खाएगा। हे मेरे मन! (यदि तू परमात्मा के) गुण गाता रहे, तो तू आत्मिक अडोलता में लीन रहेगा।
हे मन! प्रेम से परमात्मा के गुण गाने से (गुण) तेरे अंदर रस जाएंगे। (हे मेरे मन!) यदि तू गुरु की बख्शी हुई आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा (अपनी आत्मिक आँखों में) डाल ले, तो सारे जगत को रौशनी देने वाला दीपक (-प्रभु तेरे अंदर जल उठेगा), गुरु के शब्द की इनायत से (तेरे अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश (हो जाएगा)। तू (कामादिक) पाँच वैरियों को (अपने अंदर से) मार लेगा।
हे मेरे मन! (अगर तू परमात्मा के गुण गाता रहेगा, तो अपने अंदर से दुनिया के सारे) डर काट के निर्भय हो जाएगा, इस संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा जिसमें से पार लांघना मुश्किल है।
हे मन! अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा जीव के सारे काम सँवार देता है। हे मन! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है उसका (सुंदर आत्मिक) रूप हो जाता है, परमात्मा के साथ उसका प्यार बन जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए मन मेरिआ तू किआ लै आइआ किआ लै जाइसी राम ॥ ए मन मेरिआ ता छुटसी जा भरमु चुकाइसी राम ॥ धनु संचि हरि हरि नाम वखरु गुर सबदि भाउ पछाणहे ॥ मैलु परहरि सबदि निरमलु महलु घरु सचु जाणहे ॥ पति नामु पावहि घरि सिधावहि झोलि अम्रित पी रसो ॥ हरि नामु धिआईऐ सबदि रसु पाईऐ वडभागि जपीऐ हरि जसो ॥४॥

मूलम्

ए मन मेरिआ तू किआ लै आइआ किआ लै जाइसी राम ॥ ए मन मेरिआ ता छुटसी जा भरमु चुकाइसी राम ॥ धनु संचि हरि हरि नाम वखरु गुर सबदि भाउ पछाणहे ॥ मैलु परहरि सबदि निरमलु महलु घरु सचु जाणहे ॥ पति नामु पावहि घरि सिधावहि झोलि अम्रित पी रसो ॥ हरि नामु धिआईऐ सबदि रसु पाईऐ वडभागि जपीऐ हरि जसो ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ लै आइआ = (पैदा होने के समय अपने साथ) क्या ले के तू आया था? लै = लेकर। जाइसी = तू जाएगा। ता = तब। छुटसी = (माया के मोह से) छुटकारा हासिल करेगा। जा = जब। भरमु = (माया की खातिर) भटकना। चुकाइसी = तू दूर कर लेगा।
संचि = संचय कर, इकट्ठा कर। वखरु = सौदा। गुर सबदि = गुरु के शब्द से। भाउ = प्रेम, प्यार। पछाणहे = पहचाने, अगर तू पहचान ले। मैलु = विकारों की मैल। परहरि = दूर कर के। सबदि = गुरु के शब्द से। सचु महलु = सदा स्थिर ठिकाना। सचु घरु = सदा स्थिर घर। जाणहे = तू जान लेगा, तू पा लेगा।
पति = (लोक परलोक की) इज्जत। घरि = घर में, (असल) घर में, प्रभु की हजूरी में। सिधावहि = तू पहुँच जाएगा। झोलि = हिला के, नितार के, प्रेम से। अंम्रित रसो = अमृत रस, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। धिआईऐ = ध्याना चाहिए। रसु = स्वाद। पाईऐ = मिल सकता है। वडभागि = बड़ी किस्मत से। जपीऐ = जपा जा सकता है। हरि जसो = हरि यश।4।
अर्थ: हे मेरे मन! ना तू (जन्म के समय) अपने साथ कुछ ले कर आया था, ना तू (यहाँ से चलने के वक्त) अपने साथ कुछ लेकर जाएगा (व्यर्थ ही माया के मोह के फंदों में फंस रहा है)। हे मन! (माया के मोह के फदों से) तभी तेरा छुटकारा होगा, जब तू (माया की खातिर) भटकना को छोड़ देगा।
हे मेरे मन! परमात्मा के नाम का धन इकट्ठा किया कर, नाम का सौदा (किया कर)। हे मन! अगर तू गुरु के शब्द के द्वारा (अपने अंदर प्रभु का) प्यार पहचान ले, तो शब्द की इनायत से (विकारों की) मैल दूर कर के तू पवित्र हो जाएगा। तू सदा कायम रहने वाला घर-महल ढूँढ लेगा।
हे मेरे मन! आत्मिक जीवनदेने वाला नाम-रस मजे लगा के पीया कर, तू (लोक-परलोक की) इज्जत (लोक-परलोक की) प्रसिद्धि कमा लेगा, प्रभु की हजूरी में पहुँच जाएगा। हे मन! (सदा) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, (नाम का) स्वाद गुरु के शब्द द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। हे मन! बड़ी किस्मत से (ही) परमात्मा की महिमा की जा सकती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए मन मेरिआ बिनु पउड़ीआ मंदरि किउ चड़ै राम ॥ ए मन मेरिआ बिनु बेड़ी पारि न अ्मबड़ै राम ॥ पारि साजनु अपारु प्रीतमु गुर सबद सुरति लंघावए ॥ मिलि साधसंगति करहि रलीआ फिरि न पछोतावए ॥ करि दइआ दानु दइआल साचा हरि नाम संगति पावओ ॥ नानकु पइअ्मपै सुणहु प्रीतम गुर सबदि मनु समझावओ ॥५॥६॥

मूलम्

ए मन मेरिआ बिनु पउड़ीआ मंदरि किउ चड़ै राम ॥ ए मन मेरिआ बिनु बेड़ी पारि न अ्मबड़ै राम ॥ पारि साजनु अपारु प्रीतमु गुर सबद सुरति लंघावए ॥ मिलि साधसंगति करहि रलीआ फिरि न पछोतावए ॥ करि दइआ दानु दइआल साचा हरि नाम संगति पावओ ॥ नानकु पइअ्मपै सुणहु प्रीतम गुर सबदि मनु समझावओ ॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदरि = मन्दिर पर, कोठे पर। किउ चढ़ै = कैसे (कोई) चढ़ सकता है? (कोई) नहीं चढ़ सकता। न अंबड़ै = नहीं पहुँच सकता। पारि = (नदी के) उस पार।
पारि = परले पासे, उस पार, (विकारों की लहरों से भरपूर संसार समुंदर के) उस पार। अपारु = बेअंत प्रभु। सबद सुरति = शब्द की सूझ, शब्द की समझ। लंघावए = (पार) लंघाती है। मिलि = मिल के। करहि रलीआ = यदि तू आत्मिक आनंद पाए। न पछोताणए = नहीं पछताता। दइआल = हे दयालु प्रभु! साचा दानु = सदा स्थिर नाम का दान। पावओ = मैं प्राप्त करूँ। नाम संगति = नाम का साथ। नानकु पइअंपै = नानक विनती करता है। प्रीतम = हे प्रीतम! समझावओ = मैं समझाऊँ।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पछोताणए’ है वर्तमान काल, अन्नपुरख, एकवचन।
नोट: शब्द ‘प्रीतमु’ और ‘प्रीतम’ का व्याकर्णिक अंतर है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! (जैसे) सीढ़ियों के बगैर (कोई भी मनुष्य) कोठे (की छत) पर नहीं चढ़ सकता (वैसे ही उच्च आत्मिक ठिकाने पर बसते परमात्मा तक नाम-जपने की सीढ़ी के बिना पहुँच नहीं हो सकती)। हे मेरे मन! बेड़ी के बिना कोई मनुष्य नदिया के उस पार नहीं पहुँच सकता।
हे मन! सज्जन प्रभु! बेअंत प्रभु, प्रीतम प्रभु (विकारों की लहरों से भरपूर संसार-समुंदर के) उस पार (बसता है)। गुरु के शब्द की सूझ (ही इस संसार-समुंदर के उस पार) लंघा सकती है। हे मन! यदि तू साधु-संगत में मिल के आत्मिक आनंद लेता रहे (तो भी तू इस संसार-समुंदर के परले पासे पहुँच जाए। जो भी मनुष्य साधु-संगत में मिल के नाम जपता है, उसको) दोबारा पछताना नहीं पड़ता (क्योंकि उसको संसार-समुंदर की विकार-लहरों की चोटें दुख नहीं दे सकतीं)।
नानक विनती करता है: हे दयालु प्रभु! (मेरे ऊपर) दया कर, मुझे अपने सदा-स्थिर नाम का दान दे, मैं तेरे नाम की संगति हासिल करी रखूँ। हे प्रीतम! (मेरी विनती) सुन (मेहर कर) मैं गुरु के शब्द द्वारा अपने मन को (आत्मिक जीवन की) सूझ देता रहूँ।5।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी छंत महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

तुखारी छंत महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि पिरी पिआरु किउ पिर बिनु जीवीऐ राम ॥ जब लगु दरसु न होइ किउ अम्रितु पीवीऐ राम ॥ किउ अम्रितु पीवीऐ हरि बिनु जीवीऐ तिसु बिनु रहनु न जाए ॥ अनदिनु प्रिउ प्रिउ करे दिनु राती पिर बिनु पिआस न जाए ॥ अपणी क्रिपा करहु हरि पिआरे हरि हरि नामु सद सारिआ ॥ गुर कै सबदि मिलिआ मै प्रीतमु हउ सतिगुर विटहु वारिआ ॥१॥

मूलम्

अंतरि पिरी पिआरु किउ पिर बिनु जीवीऐ राम ॥ जब लगु दरसु न होइ किउ अम्रितु पीवीऐ राम ॥ किउ अम्रितु पीवीऐ हरि बिनु जीवीऐ तिसु बिनु रहनु न जाए ॥ अनदिनु प्रिउ प्रिउ करे दिनु राती पिर बिनु पिआस न जाए ॥ अपणी क्रिपा करहु हरि पिआरे हरि हरि नामु सद सारिआ ॥ गुर कै सबदि मिलिआ मै प्रीतमु हउ सतिगुर विटहु वारिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर, मेरे अंदर, मेरे हृदय में। पिरी = पिर का, प्रभु पति का। किउ जीवीऐ = कैसे जीया जा सकता है? आत्मिक जीवन प्राप्त नहीं हो सकता। जब लगु = जब तक। दरसु = दर्शन। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। किउ पीवीऐ = नहीं पीया जा सकता। हरि बिनु जीवीऐ = (क्यों) हरि बिनु जीवीऐ, प्रभु मिलाप के बिना आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता। रहनु न जाइ = रहा नहीं जा सकता, शांति नहीं मिलती, बेचैन हो रहा है (मन)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। प्रिउ प्रिउ करे = प्यारे (प्रभु) को बार बार याद करती है। पिआस = तृष्णा, माया की तृष्णा (जैसे स्वाति नछत्र की वर्षा = बूँद के बिना पपीहे की प्यास नहीं बुझती)।
करहु = करते हो। हरि पिआरे = हे प्यारे हरि! सद = सदा। सारिआ = संभाला है, याद किया है। कै सबदि = के शब्द से। मै = मुझे। हउ = मैं। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान।1।
अर्थ: (हे सखिए!) मेरे हृदय में प्रभु-पति का प्यार बस रहा है। प्रभु-पति के मिलाप के बिना आत्मिक जीवन (कभी) नहीं मिल सकता। (हे सखी!) जब तक प्रभु-पति के दर्शन नहीं होते, (तब तक) आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीया नहीं जा सकता।
(हे सखी! प्रभु-पति के दर्शनों के बिना) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (कभी भी) पीया नहीं जा सकता, प्रभु-पति की याद के बिना आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता, प्रभु-पति के मिलाप के बिना आत्मिक शांत नहीं मिल सकती। (हे सखी! जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु-पति का प्यार बसता है, वह) हर वक्त दिन रात प्रभु-पति को बार-बार याद करती रहती है। (हे सखी!) प्रभु-पति के मिलाप के बिना (माया की) तृष्णा दूर नहीं होती (जैसे स्वाति-नक्षत्र की वर्षा-बूँद के बिना पपीहे की प्यास नहीं मिटती)।
हे प्यारे हरि! (जिस जीव पर) तू अपनी मेहर करता है, वह हर वक्त हरि-नाम को (अपने हृदय में) बसाए रखता है।
हे भाई! मैं (अपने) गुरु से सदा सदके जाता हूँ, (क्योंकि) गुरु के शब्द की इनायत से मुझे (भी) प्रभु-प्रीतम मिल गया है।1।

[[1114]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब देखां पिरु पिआरा हरि गुण रसि रवा राम ॥ मेरै अंतरि होइ विगासु प्रिउ प्रिउ सचु नित चवा राम ॥ प्रिउ चवा पिआरे सबदि निसतारे बिनु देखे त्रिपति न आवए ॥ सबदि सीगारु होवै नित कामणि हरि हरि नामु धिआवए ॥ दइआ दानु मंगत जन दीजै मै प्रीतमु देहु मिलाए ॥ अनदिनु गुरु गोपालु धिआई हम सतिगुर विटहु घुमाए ॥२॥

मूलम्

जब देखां पिरु पिआरा हरि गुण रसि रवा राम ॥ मेरै अंतरि होइ विगासु प्रिउ प्रिउ सचु नित चवा राम ॥ प्रिउ चवा पिआरे सबदि निसतारे बिनु देखे त्रिपति न आवए ॥ सबदि सीगारु होवै नित कामणि हरि हरि नामु धिआवए ॥ दइआ दानु मंगत जन दीजै मै प्रीतमु देहु मिलाए ॥ अनदिनु गुरु गोपालु धिआई हम सतिगुर विटहु घुमाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखां = मैं देखती हूँ। पिरु = पति। रसि = रस से, स्वाद से। रवा = मैं याद करती हूँ। मेरे अंतरि = मेरे अंदर, मेरे हृदय में। विगासु = खुशी, खिड़ाव। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। नित = सदा। चवा = मैं उचारती हूँ।
प्रिउ चवा पिआरे = प्यारे पति को याद करती हूँ। सबदि = गुरु के शब्द में (जोड़ के)। निसतारे = (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है। त्रिपति = (माया की भूख से) तृप्ति। आवए = आए, आती। कामणि = (जीव-) स्त्री। धिआवए = ध्याती है।
मंगत जन दीजै = भिखारी दास को दो। मै = मुझे। देहु मिलाए = मिला दे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गोपालु = (गो = सृष्टि) सृष्टि के पालक। धिआई = मैं ध्याता हूँ। विटहु = से। घुमाए = सदके, कुर्बान।2।
अर्थ: हे सखी! जब मैं प्यारे प्रभु-पति के दर्शन करती हूँ, तब मैं बड़े स्वाद से उस हरि के गुण याद करती हूँ, मेरे हृदय में खुशी पैदा हो जाती है। (तभी तो, हे सखी!) उस सदा कायम रहने वाले प्यारे प्रभु का नाम सदा उचारती रहती हूँ।
हे सखी! मैं प्यारे प्रीतम का नाम (सदा) उचारती हूँ। वह प्रीतम-प्रभु गुरु के शब्द द्वारा (जीव-स्त्री को संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। (हे सखी! उस प्रीतम के) दर्शन किए बिना (माया से) तृप्ति नहीं होती। हे सखी! गुरु के शब्द द्वारा जिस जीव-स्त्री का (आत्मिक) श्रंृगार बना रहता है (भाव, जिसका हृदय पवित्र हो जाता है) वह हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरती रहती है।
हे भाई! मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ, हर वक्त प्रभु के रूप गुरु को अपने हृदय में बसाए रखता हूँ (और गुरु के दर पर नित्य अरदास करता हूँ- हे गुरु!) दया कर, मुझे अपने मँगते दास को ये दान दे कि मुझे प्रीतम-प्रभु मिला दे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम पाथर गुरु नाव बिखु भवजलु तारीऐ राम ॥ गुर देवहु सबदु सुभाइ मै मूड़ निसतारीऐ राम ॥ हम मूड़ मुगध किछु मिति नही पाई तू अगमु वड जाणिआ ॥ तू आपि दइआलु दइआ करि मेलहि हम निरगुणी निमाणिआ ॥ अनेक जनम पाप करि भरमे हुणि तउ सरणागति आए ॥ दइआ करहु रखि लेवहु हरि जीउ हम लागह सतिगुर पाए ॥३॥

मूलम्

हम पाथर गुरु नाव बिखु भवजलु तारीऐ राम ॥ गुर देवहु सबदु सुभाइ मै मूड़ निसतारीऐ राम ॥ हम मूड़ मुगध किछु मिति नही पाई तू अगमु वड जाणिआ ॥ तू आपि दइआलु दइआ करि मेलहि हम निरगुणी निमाणिआ ॥ अनेक जनम पाप करि भरमे हुणि तउ सरणागति आए ॥ दइआ करहु रखि लेवहु हरि जीउ हम लागह सतिगुर पाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम जीव। पाथर = पत्थर (बहुवचन)। नाव = बेड़ी। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। भवजलु = संसार समुंदर। तारीऐ = पार लंघा ले। गुर सबदु = गुरु का शब्द। सुभाइ = प्यार में (जोड़ के)। मै = मुझे। मूढ़ = मूर्ख।
मुगध = मूर्ख, अज्ञानी। मिति = माप, तेरी मिति, तेरा नाम, तू कितना बड़ा है ये बात। अगंमु = अगम्य (पहुँच से परे)। वड = बड़ा। दइआलु = दया का घर। करि = कर के। निरगुणी = गुण हीन। निमाणिआ = निआसरों को। करि = कर के। भरमे = भटकते रहे। तउ = तेरी। हम लागह = हम लगे रहें। पाए = पैरों पर।3।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव (पापों से भारे हो चुके) पत्थर है, गुरु बेड़ी है। (हम जीवों को गुरु की शरण में डाल के) आत्मिक मौत लाने वाले संसार-समुंदर से पार लंघा ले। हे प्रभु! अपने प्यार में (जोड़ के) गुरु का शब्द दे, और मुझ मूर्ख को (संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।
हे प्रभु! हम जीव मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं। तू कितना बड़ा है; हम इस बात को नहीं समझ सकते। (गुरु की शरण पड़ कर अब यह) समझा है कि तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू सबसे बड़ा है। हे प्रभु! तू दया का घर है। हम गुण-हीन निमाणे जीवों को तू स्वयं मेहर करके (अपने चरणों में) मिलाता है।
हे प्रभु जी! पाप कर कर के हम अनेक जन्मों में भटकते रहे हैं, अब (तेरी मेहर से) तेरी शरण आए हैं। हे हरि जीउ! मेहर करो, रक्षा करो कि हम गुरु के चरणों में लगे रहें।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर पारस हम लोह मिलि कंचनु होइआ राम ॥ जोती जोति मिलाइ काइआ गड़ु सोहिआ राम ॥ काइआ गड़ु सोहिआ मेरै प्रभि मोहिआ किउ सासि गिरासि विसारीऐ ॥ अद्रिसटु अगोचरु पकड़िआ गुर सबदी हउ सतिगुर कै बलिहारीऐ ॥ सतिगुर आगै सीसु भेट देउ जे सतिगुर साचे भावै ॥ आपे दइआ करहु प्रभ दाते नानक अंकि समावै ॥४॥१॥

मूलम्

गुर पारस हम लोह मिलि कंचनु होइआ राम ॥ जोती जोति मिलाइ काइआ गड़ु सोहिआ राम ॥ काइआ गड़ु सोहिआ मेरै प्रभि मोहिआ किउ सासि गिरासि विसारीऐ ॥ अद्रिसटु अगोचरु पकड़िआ गुर सबदी हउ सतिगुर कै बलिहारीऐ ॥ सतिगुर आगै सीसु भेट देउ जे सतिगुर साचे भावै ॥ आपे दइआ करहु प्रभ दाते नानक अंकि समावै ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोह = लोहा। मिलि = (गुरु पारस को) मिल के। कंचनु = सोना। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = जीवात्मा, जिंद। मिलाइ = मिला के। काइआ = शरीर। गढ़ = किला। सोहिआ = सोहाना बन गया है।
प्रभि = प्रभु ने। मोहिआ = मोह लिया है, अपने प्रेम में जकड़ लिया है। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ। किउ विसारीऐ = नहीं बिसारना चाहिए। अगोचरु = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती (अ+गो+चरु)। सबदी = शब्द से। हउ = मैं। कै = से।
सीसु = सिर। देउ = मैं दे दूँ। भावे = अच्छा लगे। प्रभ = हे प्रभु! दाते = हे दातार! अंकि = अंक में, गोद में, चरणों में। समावै = लीन हो जाता है।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु पारस है हम जीव लोहा हैं, (जैसे लोहा पारस को) छू के सोना बन जाता है, (वैसे ही गुरु के द्वारा) परमात्मा की ज्योति में (अपनी) जिंद मिला के (हम जीवों का) शरीर-किला सुंदर बन जाता है।
हे भाई! (जिस जीव को) मेरे प्रभु ने अपने प्रेम में जोड़ लिया, उसका शरीर-किला सुंदर हो जाता है, उस प्रभु को (हरेक) साँस के साथ (हरेक) ग्रास के साथ (याद रखना चाहिए, उसको) कभी भुलाना नहीं चाहिए। हे भाई! मैंने उस अदृष्ट अगोचर (परमात्मा के चरणों) को गुरु के शब्द की इनायत से अपने हृदय में बसा लिया है। मैं गुरु से सदके जाता हूँ। हे भाई! अगर सदा-स्थिर प्रभु के रूप गुरु को अच्छा लगे, तो मैं अपना सिर गुरु के आगे भेट कर दूँ।
हे नानक! (कह:) हे दातार! हे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू स्वयं मेहर करता है, वह तेरे चरणों में लीन हो जाता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला ४ ॥ हरि हरि अगम अगाधि अपर्मपर अपरपरा ॥ जो तुम धिआवहि जगदीस ते जन भउ बिखमु तरा ॥ बिखम भउ तिन तरिआ सुहेला जिन हरि हरि नामु धिआइआ ॥ गुर वाकि सतिगुर जो भाइ चले तिन हरि हरि आपि मिलाइआ ॥ जोती जोति मिलि जोति समाणी हरि क्रिपा करि धरणीधरा ॥ हरि हरि अगम अगाधि अपर्मपर अपरपरा ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला ४ ॥ हरि हरि अगम अगाधि अपर्मपर अपरपरा ॥ जो तुम धिआवहि जगदीस ते जन भउ बिखमु तरा ॥ बिखम भउ तिन तरिआ सुहेला जिन हरि हरि नामु धिआइआ ॥ गुर वाकि सतिगुर जो भाइ चले तिन हरि हरि आपि मिलाइआ ॥ जोती जोति मिलि जोति समाणी हरि क्रिपा करि धरणीधरा ॥ हरि हरि अगम अगाधि अपर्मपर अपरपरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! अगाधि = हे अथाह हरि! अपरंपर = हे परे से परे हरि! अपरपरा = जिसका परला छोर नहीं मिलता। धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। जगदीस = (जगत ईस) हे जगत के मालिक! ते जन = (बहुवचन) वह मनुष्य। भउ = भवजल, संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल (संसार समुंदर)। तरा = तैर जाते हैं, पार लांघ जाते हैं।
तिन तरिआ = उन मनुष्यों ने तैरा, वह लोग पार लांघे। सुहेला = आसानी से। गुर वाकि सतिगुर = गुर सतिगुरु वाक, गुरु के वचन अनुसार, गुरु की शिक्षा पर चल के। भाइ = प्रेम में, प्रेम के आसरे। चले = जीवन सफर में चलते रहे, जीवन व्यतीत करते रहे।
जोती जोति मिलि = प्रकाश रूप ज्योति में मिल के। मिलि = मिल के। जोति समाणी = उनकी जीवात्मा लीन हो गई। करि = करी, की। धरणी धरा = धरती का आसरा हरि। धरणी = धरती। धरा = आसरा।1।
अर्थ: हे हरि! हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे अथाह हरि! हे बेअंत हरि! हे परे से परे हरि! हे जगत के मालिक हरि! जो मनुष्य तेरा नाम स्मरण करते हैं वह मनुष्य इस मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं
हे भाई! जिस मनुष्यों ने (सदा) परमात्मा का नाम स्मरण किया है, वे मनुष्य इस मश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से आसानी से पार लांघ जाते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरु सतिगुरु की शिक्षा पर चल कर प्रेम के आसरे जीवन व्यतीत करते रहे, उनको परमात्मा ने स्वयं (अपने चरणों में) मिला लिया।
हे हरि! हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे अथाह हरि! हे परे से परे हरि! हे बेअंत हरि! हे धरती के आसरे हरि! जिस पर तूने कृपा की, उनकी जीवात्मा तेरी ज्योति में मिल के तेरी ही ज्योति में लीन हुई रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम सुआमी अगम अथाह तू घटि घटि पूरि रहिआ ॥ तू अलख अभेउ अगमु गुर सतिगुर बचनि लहिआ ॥ धनु धंनु ते जन पुरख पूरे जिन गुर संतसंगति मिलि गुण रवे ॥ बिबेक बुधि बीचारि गुरमुखि गुर सबदि खिनु खिनु हरि नित चवे ॥ जा बहहि गुरमुखि हरि नामु बोलहि जा खड़े गुरमुखि हरि हरि कहिआ ॥ तुम सुआमी अगम अथाह तू घटि घटि पूरि रहिआ ॥२॥

मूलम्

तुम सुआमी अगम अथाह तू घटि घटि पूरि रहिआ ॥ तू अलख अभेउ अगमु गुर सतिगुर बचनि लहिआ ॥ धनु धंनु ते जन पुरख पूरे जिन गुर संतसंगति मिलि गुण रवे ॥ बिबेक बुधि बीचारि गुरमुखि गुर सबदि खिनु खिनु हरि नित चवे ॥ जा बहहि गुरमुखि हरि नामु बोलहि जा खड़े गुरमुखि हरि हरि कहिआ ॥ तुम सुआमी अगम अथाह तू घटि घटि पूरि रहिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी = मालिक। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। तू पूरि रहिआ = तू व्यापक है। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अभेउ = जिसका भेद ना पाया जा सके, अ+भेव। अगंमु = अगम्य (पहुँच से परे)। बचनि = वचन से। गुर बचनि = गुरु के वचन से। लहिआ = पा लिया।
धनु धंनु = धन्य हैं धन्य हैं। ते जन = (बहुवचन) वह मनुष्य। मिलि = मिल के। रवे = याद किए। बिबेक = परख, अच्छे बुरे की परख। बिबेक बुधि = परख कर सकने वाली बुद्धि से। बीचारि = (प्रभु के गुणों को) विचार के, मन में बसा के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। गुर सबदि = गुरु के शब्द से। खिनु खिनु = हरेक छिन, हर वक्त। चवे = उचारे।
ज = जब। बहहि = बैठते हैं (बहुवचन)। खड़े = खड़े हुए हैं। कहिआ = स्मरण किया। सुआमी = मालिक।2।
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे अथाह प्रभु! तू (सबका) मालिक है; तू हरेक शरीर में व्यापक है। हे भाई! अदृष्ट, अभेव और अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु गुरु सतिगुरु के वचनों से मिल जाता है।
हे भाई! वह पूरन-पुरख भाग्यशाली हैं, जिन्होंने गुरु-संत की संगति में मिल के परमात्मा के गुण याद किए हैं। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य अच्छे-बुरे कर्म की परख कर सकने वाली बुद्धि से परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसा के गुरु के शब्द की इनायत से परमात्मा के गुणों को सदा हर पल स्मरण करते रहते हैं।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य जब (कहीं) बैठते हैं तो परमात्मा का नाम उचारते हैं, जब खड़े होते हैं तब भी वे हरि-नाम ही उचारते हैं (भाव, गुरमुख मनुष्य बैठे-खड़े हर समय परमात्मा का नाम याद रखते हैं)।
हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे अथाह प्रभु! तू (सब जीवों का) मालिक है; और तू हरेक शरीर में व्यापक है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥ तिन के कोटि सभि पाप खिनु परहरि हरि दूरि करे ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जिन मनि चिति इकु अराधिआ ॥ तिन का जनमु सफलिओ सभु कीआ करतै जिन गुर बचनी सचु भाखिआ ॥ ते धंनु जन वड पुरख पूरे जो गुरमति हरि जपि भउ बिखमु तरे ॥ सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥३॥

मूलम्

सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥ तिन के कोटि सभि पाप खिनु परहरि हरि दूरि करे ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जिन मनि चिति इकु अराधिआ ॥ तिन का जनमु सफलिओ सभु कीआ करतै जिन गुर बचनी सचु भाखिआ ॥ ते धंनु जन वड पुरख पूरे जो गुरमति हरि जपि भउ बिखमु तरे ॥ सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं, स्मरण करते हैं। ते = (बहुवचन) वह मनुष्य। गुरमति = गुरु की मति पर चल के। कोटि पाप = करोड़ों पाप। सभि = सारे। परहरि = दूर कर के।
दोख = ऐब, अवगुण। बिनसे = नाश हो जाते हैं। मनि = मन में। चिति = चित में। इकु = एक परमात्मा को। सफलिओ = कामयाब। सभ = सारा। करतै = कर्तार ने। बचनी = वचन से। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। भाखिआ = उचारा, जपा।
धंनु = भाग्यशाली। पूरे = सब गुणों वाले। जपि = जप के। भउ = भव सागर, संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल से तैरा जा सकने वाला। ते = पार हो गए।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त (परमात्मा की) सेवा-भक्ति करते हैं, वे (परमात्मा की हजूरी में) आदर-सत्कार पाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति पर चल कर प्रभु की सेवा-भक्ति की, परमात्मा ने उनके सारे पाप एक छिन में दूर कर दिए।
हे भाई! जिस मनुष्यों ने अपने मन में अपने चिक्त में एक परमात्मा का स्मरण किया, उनके सारे पाप उनके सारे अवगुण नाश हो गए। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु के वचनों पर चल कर सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण किया, कर्तार ने उनका सारा जनम सफल कर दिया।
हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, महापुरख हैं, गुणों के पात्र हैं, जो गुरु की मति पर चल कर इस मुश्किल तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।
हे भाई! परमात्मा के भक्त (परमात्मा की) सेवा-भक्ति करते हैं, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर-सत्कार पाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति पर चल के प्रभु की सेवा-भक्ति की (परमात्मा ने उनके सारे पाप एक छिन में ही दूर कर दिए)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥ हमरै हाथि किछु नाहि जा तू मेलहि ता हउ आइ मिला ॥ जिन कउ तू हरि मेलहि सुआमी सभु तिन का लेखा छुटकि गइआ ॥ तिन की गणत न करिअहु को भाई जो गुर बचनी हरि मेलि लइआ ॥ नानक दइआलु होआ तिन ऊपरि जिन गुर का भाणा मंनिआ भला ॥ तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥४॥२॥

मूलम्

तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥ हमरै हाथि किछु नाहि जा तू मेलहि ता हउ आइ मिला ॥ जिन कउ तू हरि मेलहि सुआमी सभु तिन का लेखा छुटकि गइआ ॥ तिन की गणत न करिअहु को भाई जो गुर बचनी हरि मेलि लइआ ॥ नानक दइआलु होआ तिन ऊपरि जिन गुर का भाणा मंनिआ भला ॥ तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = (अन्तर+या) अंदर तक पहुँच वाला, अंदर की जानने वाला। जिउ = जैसे, जिस तरह। चलावहि = (जीवन-राह पर) तू चलाता है। हउ = मैं। चला = चलता हूँ। हाथि = हाथ में। जा = जब। आइ = आ के। मिला = मैं मिलता हूँ।
कउ = को। हरि = हे हरि! सुआमी = हे स्वामी! सभु = सारा। छुटकि गइआ = खत्म हो गया, समाप्त हो जाता है। गणत = दंत कथा, नुक्ताचीनी, कर्मों की गिनती विचार। को = कोई पक्ष। भाई = हे भाई! गुर बचनी = गुरु के वचनों से।
नानक = हे नानक! भला = भला जान के। भाणा = हुक्म, रज़ा।4।
अर्थ: हे हरि! तू स्वयं सब के दिल की जानने वाला है। हे प्यारे! जैसे तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है, मैं उसी तरह ही चलता हूँ। हे हरि! हम जीवों के वश में कुछ भी नहीं। जब तू (मुझे अपने चरणों में) मिलाता है, तब (ही) मैं आ के मिलता हूँ।
हे हरि! हे स्वामी! जिनको तू (अपने चरणों में) जोड़ता है, उनके (पिछले किए कर्मों का) सारा लेख समाप्त हो जाता है (उनके अंदर से पिछले किए सारे बुरे कर्मों के संस्कार मिट जाते हैं)। हे भाई! जिस मनुष्यों को परमात्मा गुरु के वचन पर चला के (अपने साथ) मिलाता है, कोई भी पक्ष उनके (पिछले कर्मों की) विचार मत करना (क्योंकि उनके अंदर से तो वे सारे संस्कार मिट जाते हैं)।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु की रज़ा को मीठी कर के मानते हैं, परमात्मा उन पर स्वयं दयावान होता है।
हे हरि! तू स्वयं सब के दिल की जानने वाला है। हे प्यारे! जैसे तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है, मैं उसी तरह चलता हूँ।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला ४ ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥ तिन तू धिआइआ मेरा रामु जिन कै धुरि लेखु माथु ॥ जिन कउ धुरि हरि लिखिआ सुआमी तिन हरि हरि नामु अराधिआ ॥ तिन के पाप इक निमख सभि लाथे जिन गुर बचनी हरि जापिआ ॥ धनु धंनु ते जन जिन हरि नामु जपिआ तिन देखे हउ भइआ सनाथु ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला ४ ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥ तिन तू धिआइआ मेरा रामु जिन कै धुरि लेखु माथु ॥ जिन कउ धुरि हरि लिखिआ सुआमी तिन हरि हरि नामु अराधिआ ॥ तिन के पाप इक निमख सभि लाथे जिन गुर बचनी हरि जापिआ ॥ धनु धंनु ते जन जिन हरि नामु जपिआ तिन देखे हउ भइआ सनाथु ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला। जगदीसु = जगत का ईश, जगत का मालिक। नाथु = खसम, पति। तू = तुझे। जिन कै = जिनके भाग्यों में। धुरि = धुर से, प्रभु की हजूरी से। लेखु = (स्मरण के संस्कारों का) लेख। माथु = माथा।
तिन कउ = जिस के लिए। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। सभि पाप = सारे पाप। गुरबचनी = गुरु के वचन पर चल के। जापिआ = जपा। ते जन = (वह लोग)। तिन देखे = उनको देख के, उनके दर्शन करके। हउ = मैं। सनाथु = नाथ वाला, पति वाला।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला है, तू जगत का मालिक है, तू सारी (सृष्टि) का खसम है। हे प्रभु! धुर दरगाह से जिनके भाग्यों में (हरि-स्मरण के संस्कारों का) लेख लिखा हुआ है, जिनका माथा भाग्यशाली है, उन्होंने तुझे स्मरण किया है। हे भाई! उन्होंने मेरे राम को स्मरण किया है।
हे भाई! मालिक-हरि ने जिनके भाग्यों में धुर से स्मरण का लेख लिख दिया है, वह (सदा) हरि-नाम का स्मरण करते हैं। हे भाई! जिन्होंने गुरु के वचन पर चल के परमात्मा का नाम जपा है, उनके सारे सारे पाप आँख झपकने जितने समय में दूर हो जाते हैं।
हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, मुबारक हैं, जो परमात्मा का नाम जपते हैं। उनके दर्शन करके मैं (भी) पति वाला (कहलवाने योग्य) हो गया हूँ (क्योंकि मैं भी पति-प्रभु का नाम जपने लग गया हूँ)।
हे प्रभु! तू जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला है, तू जगत का मालिक है, तू सारी (सृष्टि) का पैदा करने वाला है, तू सृष्टि का खसम पति है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥ जिन जपिआ हरि मनि चीति हरि जपि जपि मुकतु घणी ॥ जिन जपिआ हरि ते मुकत प्राणी तिन के ऊजल मुख हरि दुआरि ॥ ओइ हलति पलति जन भए सुहेले हरि राखि लीए रखनहारि ॥ हरि संतसंगति जन सुणहु भाई गुरमुखि हरि सेवा सफल बणी ॥ तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥२॥

मूलम्

तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥ जिन जपिआ हरि मनि चीति हरि जपि जपि मुकतु घणी ॥ जिन जपिआ हरि ते मुकत प्राणी तिन के ऊजल मुख हरि दुआरि ॥ ओइ हलति पलति जन भए सुहेले हरि राखि लीए रखनहारि ॥ हरि संतसंगति जन सुणहु भाई गुरमुखि हरि सेवा सफल बणी ॥ तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि (मही = धरती। तलि = तल पर)। धरती के तल पर, आकाश में। भरपूरि = व्यापक। साचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। जपि जपि = बार बार जप के। घणी = बहुत सारी दुनिया।
ते = वे (बहुवचन)। मुकत = विकारों से स्वतंत्र। तिन के मुख = उनके मुँह। ऊजल = रौशन। दुआरि = द्वारे पर, दर पर। ओइ = वे लोग। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। सुहेले = सुखी। रखनहारि = राखनहार ने, बचाने की समर्थता वाले ने।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले ने। सफल = फल वाली, कामयाब।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, तू सब जीवों के सिर पर है, तू सदा कायम रहने वाला मालिक है। हे भाई! जिस मनुष्यों ने अपने मन में अपने चिक्त में परमात्मा का नाम (सदा) जपा (वे विकारों से बच गए)। हे भाई! प्रभु का नाम बार-बार जपके बेअंत दुनिया मुक्त हो जाती है।
हे भाई! जो प्राणी परमात्मा का नाम जपते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, परमात्मा के दर पर उनके मुँह उज्जवल होते हैं (प्रभु के द्वार पर वे आदर-मान पाते हैं)। वे लोग इस लोक में और परलोक में सुखी जीवन वाले हो जाते हैं। बचाने की समर्थता वाले परमात्मा ने उन्हें स्वयं (विकारों से) बचा लिया होता है।
हे हरि! हे संत जनो! हे साधु-संगत! हे भाई! सुनो- गुरु की शरण पड़ कर ही परमात्मा की की हुई सेवा-भक्ति सफल होती है।
हे प्रभु! तू जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, तू सब जीवों के सिर पर है, तू सदा कायम रहने वाला मालिक है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥ वणि त्रिणि त्रिभवणि सभ स्रिसटि मुखि हरि हरि नामु चविआ ॥ सभि चवहि हरि हरि नामु करते असंख अगणत हरि धिआवए ॥ सो धंनु धनु हरि संतु साधू जो हरि प्रभ करते भावए ॥ सो सफलु दरसनु देहु करते जिसु हरि हिरदै नामु सद चविआ ॥ तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥३॥

मूलम्

तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥ वणि त्रिणि त्रिभवणि सभ स्रिसटि मुखि हरि हरि नामु चविआ ॥ सभि चवहि हरि हरि नामु करते असंख अगणत हरि धिआवए ॥ सो धंनु धनु हरि संतु साधू जो हरि प्रभ करते भावए ॥ सो सफलु दरसनु देहु करते जिसु हरि हिरदै नामु सद चविआ ॥ तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। रविआ = व्यापक, मौजूद। वणि = बन में। त्रिणि = तृण में, घास के तीले में। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। मुखि = मुँह से। चविआ = उचारा।
सभि = सारे जीव। चवहि = उचारते हैं। करते = कर्तार ने। असंख = जिनकी संख्या नहीं गिनी जा सकती, अनगिनत। धिआवए = ध्यावै, ध्यान लगाती है (एकवचन)। करते भावए = कर्तार को भाती है।
सफलु = कामयाब। सो = वह मनुष्य। दरसनु = (उस मनुष्य के) दर्शन। करते = हे कर्तार! जिसु हिरदै = जिस हृदय में। सद = सदा। चविआ = उचारा।
अर्थ: हे हरि! हरेक जगह में एक तू ही तू मौजूद है।
हे प्रभु! जंगल में, तिनकों में, त्रिभवणी जगत में- हर जगह तू ही तू बस रहा है। हे भाई! सारी सृष्टि (भाव, सारी सृष्टि के जीव) अपने मुँह से हरि-नाम ही उचार रही है।
हे भाई! असंखों जीव अनगिनत जीव सारे ही कर्तार का नाम सदा उचार रहे हैं। हे भाई! (सारी सृष्टि) हरि का नाम स्मरण कर रही है। हे भाई! हरि का वह संत हरि का वह साधु धन्य है धन्य है, जो हरि-प्रभु को जो कर्तार को प्यारा लगता है (भा जाता है)।
हे कर्तार! जिसके हृदय में (तू बसता है), जो सदा (तेरा) नाम उचारता है, वह मनुष्य कामयाब (जीवन वाला) है, (मुझे उसका) दर्शन बख्श। हे हरि! हरेक जगह पर एक तू ही तू मौजूद है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥ जिस कै मसतकि गुर हाथु तिसु हिरदै हरि गुण टिकहि ॥ हरि गुण हिरदै टिकहि तिस कै जिसु अंतरि भउ भावनी होई ॥ बिनु भै किनै न प्रेमु पाइआ बिनु भै पारि न उतरिआ कोई ॥ भउ भाउ प्रीति नानक तिसहि लागै जिसु तू आपणी किरपा करहि ॥ तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥४॥३॥

मूलम्

तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥ जिस कै मसतकि गुर हाथु तिसु हिरदै हरि गुण टिकहि ॥ हरि गुण हिरदै टिकहि तिस कै जिसु अंतरि भउ भावनी होई ॥ बिनु भै किनै न प्रेमु पाइआ बिनु भै पारि न उतरिआ कोई ॥ भउ भाउ प्रीति नानक तिसहि लागै जिसु तू आपणी किरपा करहि ॥ तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भंडार = खजाने। असंख = बेअंत। सुआमी = हे स्वामी! जिस कै मसतकि = जिसके माथे पर। गुर हाथु = गुरु का हाथु। टिकहि = टिक जाते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस कै मसतकि’ में से संबंधक ‘कै’ के कारण ‘जिसु’ का ‘ु’ हट गया है।

दर्पण-भाषार्थ

तिस कै हिरदै = उस (मनुष्य) के हृदय में। भउ = डर अदब। भावनी = श्रद्धा, प्यार। बिनु भै = डर अदब के बिना।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘बिनु भै’ में से संबंधक के कारण ‘भउ’ से ‘भै’ बन जाता है।

दर्पण-भाषार्थ

नानक = हे नानक! तिसहि = उस (मनुष्य) को।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिसहि’ में क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे स्वामी! (तेरे घर में) तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं, (पर यह खजाने) उस (मनुष्य) को मिलते हैं जिसको तू (स्वयं) देता है। हे भाई! जिस (मनुष्य) के माथे पर गुरु का हाथ हो, उसके हृदय में परमात्मा के गुण टिके रहते हैं।
हे भाई! जिस (मनुष्य) के अंदर (परमात्मा का) डर-अदब है (परमात्मा के लिए) श्रद्धा-प्यार है, उसके हृदय में परमात्मा के गुण टिके रहते हैं। हे भाई! परमात्मा के डर-अदब के बिना किसी भी मनुष्य ने (परमात्मा का) प्रेम प्राप्त नहीं किया। कोई भी मनुष्य (परमात्मा के) डर-अदब के बिना (संसार-समुंदर से) पार नहीं लांघ सका (कोई भी विकारों से बच नहीं सका)।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) उसी मनुष्य के हृदय में तेरा डर-अदब तेरा प्रेम-प्यार पैदा होता है जिस पर तू अपनी मेहर करता है। हे मेरे स्वामी! (तेरे घर में) तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे हुए हैं, (पर ये खजाने) उस (मनुष्य) को मिलते हैं जिसको तू (स्वयं) देता है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी महला ४ ॥ नावणु पुरबु अभीचु गुर सतिगुर दरसु भइआ ॥ दुरमति मैलु हरी अगिआनु अंधेरु गइआ ॥ गुर दरसु पाइआ अगिआनु गवाइआ अंतरि जोति प्रगासी ॥ जनम मरण दुख खिन महि बिनसे हरि पाइआ प्रभु अबिनासी ॥ हरि आपि करतै पुरबु कीआ सतिगुरू कुलखेति नावणि गइआ ॥ नावणु पुरबु अभीचु गुर सतिगुर दरसु भइआ ॥१॥

मूलम्

तुखारी महला ४ ॥ नावणु पुरबु अभीचु गुर सतिगुर दरसु भइआ ॥ दुरमति मैलु हरी अगिआनु अंधेरु गइआ ॥ गुर दरसु पाइआ अगिआनु गवाइआ अंतरि जोति प्रगासी ॥ जनम मरण दुख खिन महि बिनसे हरि पाइआ प्रभु अबिनासी ॥ हरि आपि करतै पुरबु कीआ सतिगुरू कुलखेति नावणि गइआ ॥ नावणु पुरबु अभीचु गुर सतिगुर दरसु भइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नावणु = स्नान, तीर्थ स्नान। पुरबु = (पर्वन्) पवित्र दिन, उजाले पक्ष की पहली, पूरनमाशी।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नावणु’ है संज्ञा, कर्ताकारक, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अभीचु = (अभिजित् = पूर्ण जीत देने वाला) वह लगन जो किसी मुहिम के आरम्भ के लिए शुभ समझा जाता है। पुरबु अभीचु = वह पवित्र दिन जब तीर्थ स्नान वैरियों पर विजय देने वाला माना जाता है।
गुर सतिगुर दरसु = गुरु का सतिगुरु के दर्शन। दुरमति मैलु = खोटी मति की मैल। हरी = (taken away) दूर हो गई। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरु = अंधेरा। अंतरि = अंदर। प्रगासी = प्रकट हो गई। जोति प्रगासी = ज्योति ने प्रकाश किया। जनम मरण दुख = जनम मरण के दुख। बिनसे = नाश हो गए। अबिनासी = नाश रहित।
आपि करतै = कर्तार ने स्वयं। कीआ = किया। कुलखेति = कुलखेत से। नावणि = नावण ते, नावण (के मौके) पर, तीर्थ स्नान के समय पर।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नावणि’ है ‘नावण’ का अधिकरण कारक, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरु के सतिगुरु के दर्शन हो गए, (यह गुरु-दर्शन उस मनुष्य के लिए) तीर्थ-स्नान है, (उस मनुष्य के लिए) अभीच (नक्षत्र का) पवित्र दिन है। (गुरु के दर्शन की इनायत से उस मनुष्य की) खोटी मति की मैल काटी जाती है, (उस मनुष्य के अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी वाला अंधकार दूर हो जाता है।
हे भाई! (जिस मनुष्य ने) गुरु के दर्शन कर लिए, (उसने अपने अंदर से) अज्ञान (-अंधेरा) दूर कर लिया, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति ने अपना प्रकाश कर दिया, (गुरु के दर्शन की इनायत से उस मनुष्य ने) अविनाशी प्रभु (का मिलाप) हासिल कर लिया, उस मनुष्य के जनम से मरने तक के सारे दुख नाश हो गए।
हे भाई! गुरु (अमरदास अभिजीत पर्व के) तीर्थ स्नान (के समय) पर कुलखेत पर गया, हरि ने कर्तार ने स्वयं (गुरु के जाने के इस उद्यम को वहाँ इकट्ठे हुए लोगों के लिए) पवित्र दिन बना दिया। हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरु के सतिगुरु के दर्शन हो गए, (यह गुरु-दर्शन उस मनुष्य के वास्ते) तीर्थ-स्नान है, (उस मनुष्य के लिए) अभीच (नक्षत्र का) पवित्र दिन है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारगि पंथि चले गुर सतिगुर संगि सिखा ॥ अनदिनु भगति बणी खिनु खिनु निमख विखा ॥ हरि हरि भगति बणी प्रभ केरी सभु लोकु वेखणि आइआ ॥ जिन दरसु सतिगुर गुरू कीआ तिन आपि हरि मेलाइआ ॥ तीरथ उदमु सतिगुरू कीआ सभ लोक उधरण अरथा ॥ मारगि पंथि चले गुर सतिगुर संगि सिखा ॥२॥

मूलम्

मारगि पंथि चले गुर सतिगुर संगि सिखा ॥ अनदिनु भगति बणी खिनु खिनु निमख विखा ॥ हरि हरि भगति बणी प्रभ केरी सभु लोकु वेखणि आइआ ॥ जिन दरसु सतिगुर गुरू कीआ तिन आपि हरि मेलाइआ ॥ तीरथ उदमु सतिगुरू कीआ सभ लोक उधरण अरथा ॥ मारगि पंथि चले गुर सतिगुर संगि सिखा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगि = मार्ग पर, रास्ते पर। पंथि = रास्ते पर। गुर संगि = गुरु के साथ। सिखा = अनेक सिख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बणी = बनी रहती थी। खिनु खिनु = हरेक छिन। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। विखा = कदम। निमख निमख = हरेक निमेष में। विखा विखा = हरेक कदम पर।
केरी = की। सभु लोक = सारी लुकाई।
तीरथ उदमु = तीर्थों पर जाने का उद्यम। अरथा = वासते। उधरण अरथा = उद्धार के लिए, बचाने के वास्ते, गलत रास्ते पर पड़ने से बचाने के लिए।2।
अर्थ: हे भाई! अनेक सिख गुरु (अमरदास जी) के साथ उस लंबे राह में गए। हे भाई! हरेक छिन, निमख-निमख, कदम-कदम पर हर रोज परमात्मा की भक्ति (का अवसर) बना रहता था।
हे भाई! (उस सारे राह में) सदा परमात्मा की भक्ति का उद्यम बना रहता था, बहुत सारी दुनिया (गुरु का) दर्शन करने आती थी। जिस (भाग्यशाली मनुष्यों) ने गुरु के दर्शन किए, परमात्मा ने स्वयं उनको (अपने चरणों में) जोड़ लिया (भाव, जो मनुष्य गुरु का दर्शन करते हैं, उनको परमात्मा अपने साथ मिला लेता है)।
हे भाई! (तीर्थों पर इकट्ठी हुई) सारी लुकाई को (गलत रास्ते पर) बचाने के लिए सतिगुरु ने तीर्थों पर जाने का उद्यम किया था। सतिगुरु के साथ अनेक सिख उस लंबे रास्ते में गए (थे)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथम आए कुलखेति गुर सतिगुर पुरबु होआ ॥ खबरि भई संसारि आए त्रै लोआ ॥ देखणि आए तीनि लोक सुरि नर मुनि जन सभि आइआ ॥ जिन परसिआ गुरु सतिगुरू पूरा तिन के किलविख नास गवाइआ ॥ जोगी दिग्मबर संनिआसी खटु दरसन करि गए गोसटि ढोआ ॥ प्रथम आए कुलखेति गुर सतिगुर पुरबु होआ ॥३॥

मूलम्

प्रथम आए कुलखेति गुर सतिगुर पुरबु होआ ॥ खबरि भई संसारि आए त्रै लोआ ॥ देखणि आए तीनि लोक सुरि नर मुनि जन सभि आइआ ॥ जिन परसिआ गुरु सतिगुरू पूरा तिन के किलविख नास गवाइआ ॥ जोगी दिग्मबर संनिआसी खटु दरसन करि गए गोसटि ढोआ ॥ प्रथम आए कुलखेति गुर सतिगुर पुरबु होआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रथम = पहले। कुलखेति = कुलखेत पर, कुरूक्षेत्र पर। गुर पुरब = गुरु का पवित्र दिन, गुरु के कुलखेत आने से संबंध रखने वाला पवित्र दिन। होआ = हो गया, बन गया। संसारि = संसार में। त्रै लोआ = तीनों लोक, तीन लोकों के जीव, बेअंत लोक।
तीनि लोक = (धरती आकाश पाताल) तीनों लोक, बेअंत लोक। सुरि नर = दैवी स्वभाव वाले मनुष्य। मुनि जन = अनेक ऋषि स्वभाव वाले बंदे। सभि = सारे। परसिआ = (दर्शन) परसिआ, दर्शन किए। किलविख = पाप।
दिगंबर = (दिग = दिशा। अंबर = वस्त्र, कपड़े। चारों ही दिशाएं जिनके पहनने वाले कपड़े हैं) नांगे। खटु = छह। दरसन = भेख। खटु दरसनु = छह भेख (जोगी, सन्यासी, जंगम, बोधी, सरेवड़े, बैरागी) छहों भेषों के साधु। गोसटि = चर्चा, विचार। ढोआ = भेटा।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु (अमरदास) जी पहले कुरूक्षेत्र पर पहुँचे। (वहाँ के लोगों के लिए वह दिन) गुरु सतिगुरु से संबंध रखने वाला पवित्र दिन बन गया। संसार में (भाव, दूर-दूर तक) (सतिगुरु जी के कुरूक्षेत्र आने की) ख़बर हो गई, बेअंत लोग (दर्शनों के लिए) आ गए।?
हे भाई! (गुरु अमरदास जी के) दर्शन करने के लिए बहुत लोग आ पहुँचे। दैवी-स्वभाव वाले मनुष्य, ऋषि-स्वभाव वाले मनुष्य बहुत सारे आ के एकत्र हुए। हे भाई! जिस (भाग्यशाली मनुष्यों) ने पूरे गुरु सतिगुरु के दर्शन किए, उनके (पिछले सारे) पाप नाश हो गए।
हे भाई! जोगी, नांगे, सन्यासी (सारे ही) छह भेषों के साधु (दर्शन करने आए)। कई किस्म के परस्पर शुभ-विचार (वह साधु लोग अपनी ओर से गुरु के दर पर) भेटा पेश कर के गए। हे भाई! गुरु (अमरदास) जी पहले कुरूक्षेत्र पहुँचे। (वहाँ के लोगों के लिए वह दिन) गुरु सतिगुरु के साथ संबंध रखने वाला पवित्र दिन बन गया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुतीआ जमुन गए गुरि हरि हरि जपनु कीआ ॥ जागाती मिले दे भेट गुर पिछै लंघाइ दीआ ॥ सभ छुटी सतिगुरू पिछै जिनि हरि हरि नामु धिआइआ ॥ गुर बचनि मारगि जो पंथि चाले तिन जमु जागाती नेड़ि न आइआ ॥ सभ गुरू गुरू जगतु बोलै गुर कै नाइ लइऐ सभि छुटकि गइआ ॥ दुतीआ जमुन गए गुरि हरि हरि जपनु कीआ ॥४॥

मूलम्

दुतीआ जमुन गए गुरि हरि हरि जपनु कीआ ॥ जागाती मिले दे भेट गुर पिछै लंघाइ दीआ ॥ सभ छुटी सतिगुरू पिछै जिनि हरि हरि नामु धिआइआ ॥ गुर बचनि मारगि जो पंथि चाले तिन जमु जागाती नेड़ि न आइआ ॥ सभ गुरू गुरू जगतु बोलै गुर कै नाइ लइऐ सभि छुटकि गइआ ॥ दुतीआ जमुन गए गुरि हरि हरि जपनु कीआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुतीआ = दूसरी जगह, फिर। जमुन = यमुना (नदी) पर। गुरि = गुरु (अमरदास जी) ने। जागाती = मसूली, सरकारी मसूल उगराहने वाले। दे = देकर। गुर पिछै = गुरु के अनुसार चलने वालों को।
सभ = सारी लोकाई। छुटी = (मसूल देने से) बच गई। जिनि = जिस (जिस) ने। गुर बचनि = गुरु के हुक्म पर। गुर मारगि = गुरु के बताए रास्ते पर। गुर पंथि = गुरु के राह पर। जो चाले = जो (मनुष्य) चले। तिन नेड़ि = उनके नजदीक। जमु जागाती = मसूलीया जमराज।
सभ जगतु = सारी दुनिया, सारी लोकाई। नाइ लइऐ = अगर नाम लिया जाए। सभि = सारे जीव। छुटकि गइआ = (जम जागाती की धौंस से) बच गए।4।
अर्थ: हे भाई! फिर (गुरु अमरदास जी) यमुना नदी पर पहुँचे। सतिगुरु जी ने (वहाँ भी) परमात्मा का नाम ही जपा और जपाया। (यात्रियों से) सरकारी मसूल उगराहने वाले भी भेटा रख के (सतिगुरु जी को) मिले। अपने आप को गुरु का सिख कहलवाने वाले सबको (उन मसूलियों ने बिना मसूल लिए) पार लंघा दिया।
गुरु के पीछे चलने वाली सारी लोकाई मसूल भरने से बच गई। (इसी तरह) हे भाई! जिस-जिस ने परमात्मा का नाम स्मरण किया, जो मनुष्य गुरु के वचनों पर चलते हैं, गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलते हैं, जमराज (रूपी) मसूलिया उनके नजदीक नहीं फटकता।
हे भाई! (जो) लोकाई गुरु का आसरा लेती है, (जमराज मसूलिया उसके नज़दीक नहीं आता)। हे भाई! अगर गुरु का नाम लिया जाए (यदि गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम जपा जाए) तो (नाम लेने वाले) सारे (जम-जागाती की धौंस से) बच जाते हैं।
हे भाई! फिर (गुरु अमरदास जी) यमुना नदी पर पहुँचे। सतिगुरु जी ने (वहाँ भी) परमात्मा का नाम जपा और जपाया।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रितीआ आए सुरसरी तह कउतकु चलतु भइआ ॥ सभ मोही देखि दरसनु गुर संत किनै आढु न दामु लइआ ॥ आढु दामु किछु पइआ न बोलक जागातीआ मोहण मुंदणि पई ॥ भाई हम करह किआ किसु पासि मांगह सभ भागि सतिगुर पिछै पई ॥ जागातीआ उपाव सिआणप करि वीचारु डिठा भंनि बोलका सभि उठि गइआ ॥ त्रितीआ आए सुरसरी तह कउतकु चलतु भइआ ॥५॥

मूलम्

त्रितीआ आए सुरसरी तह कउतकु चलतु भइआ ॥ सभ मोही देखि दरसनु गुर संत किनै आढु न दामु लइआ ॥ आढु दामु किछु पइआ न बोलक जागातीआ मोहण मुंदणि पई ॥ भाई हम करह किआ किसु पासि मांगह सभ भागि सतिगुर पिछै पई ॥ जागातीआ उपाव सिआणप करि वीचारु डिठा भंनि बोलका सभि उठि गइआ ॥ त्रितीआ आए सुरसरी तह कउतकु चलतु भइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रितीआ = (दो जगहों पर हो के) तीसरी जगह। सुरसरी = गंगा। तह = वहाँ (गंगा पर)। कउतकु = तमाशा। चलतु = अजब खेल। सभ = सारी लोकाई। मोही = मस्त हो गई। देखि = देख के। दरसनु गुर संत = गुरु संत के दर्शन। किनै = किसी (भी मसूलीए) ने।
आढु दामु = आधी कौड़ी। बोलक = (मसूलिया की) गोलकों में। मुंदणि = मुँह बंद हो जाना। मोहण मुंदणि = इस तरह मोहे गए कि मुँह से बोलने योग्य ना रहे। हम किआ करह = हम क्या करें? मांगह = हम माँगें। सभ = सारी दुनिया। भागि = भाग के। सतिगुर पिछै पई = गुरु की शरण जा पड़ी है।
करि वीचारु = विचार के। उपाव = कई तरह के उपाय, कई तरीके (सोचे)। सभि = सारे (जागाती)। उठि = उठ के।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (दो तीर्थों से होकर सतिगुरु अमरदास जी) तीसरी जगह गंगा पहुँचे। वहाँ एक अजीब तमाशा हुआ। संत-गुरु (अमरदास जी) के दर्शन करके सारी दुनिया मस्त हो गई। किसी (भी मसूलिए) ने (किसी भी यात्री से) आधी कौड़ी (मसूल भी) वसूल ना किया।
हे भाई! (मसूलियों की) गोलकों में आधी कौड़ी महसूल ना पड़ा। मसूलिए यूँ हैरान से हो के बोलने के योग्य ना रहे, (कहने लगे) - हे भाई! हम (अब) क्या करें? हम किससे (मसूल) माँगें? ये सारी दुनिया ही भाग के गुरु की शरण जा पड़ी है (और, जो अपने आप को गुरु का सिख बता रहे हैं, उनसे हम महसूल ले नहीं सकते)।
हे भाई! मसूलियों ने कई उपाय सोचे, कई तरह से विचार किया, (आखिर उन्होंने) विचार करके देख लिया (कि महसूल उगराहने में हमारी पेश नहीं जा सकती), अपनी गोलकें बँद करके वे सारे उठ के चले गए।
हे भाई! (दो तीर्थों से होकर सतिगुरु अमरदास जी) तीसरी जगह गंगा पहुँचे। वहाँ एक अजीब तमाशा हुआ।5।

[[1117]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि आए नगर महा जना गुर सतिगुर ओट गही ॥ गुरु सतिगुरु गुरु गोविदु पुछि सिम्रिति कीता सही ॥ सिम्रिति सासत्र सभनी सही कीता सुकि प्रहिलादि स्रीरामि करि गुर गोविदु धिआइआ ॥ देही नगरि कोटि पंच चोर वटवारे तिन का थाउ थेहु गवाइआ ॥ कीरतन पुराण नित पुंन होवहि गुर बचनि नानकि हरि भगति लही ॥ मिलि आए नगर महा जना गुर सतिगुर ओट गही ॥६॥४॥१०॥

मूलम्

मिलि आए नगर महा जना गुर सतिगुर ओट गही ॥ गुरु सतिगुरु गुरु गोविदु पुछि सिम्रिति कीता सही ॥ सिम्रिति सासत्र सभनी सही कीता सुकि प्रहिलादि स्रीरामि करि गुर गोविदु धिआइआ ॥ देही नगरि कोटि पंच चोर वटवारे तिन का थाउ थेहु गवाइआ ॥ कीरतन पुराण नित पुंन होवहि गुर बचनि नानकि हरि भगति लही ॥ मिलि आए नगर महा जना गुर सतिगुर ओट गही ॥६॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। महा जना = बड़े लोग, मुखिया लोग। नगर महा जना = नगर के मुखिया लोग। ओट = शरण। गही = पकड़ी। पुछि = (गुरु को) पूछ के। सही कीता = निर्णय निकाला। गुरु सतिगुरु गुरु गोविंद सिम्रिति = गुरु सतिगुरु को, गुरु गोविंद का (हृदय में बसाना ही) असल समृति है।
सभनी = सारे महान व्यक्तियों ने। सुकि = सुकदेव ने। प्रहिलादि = प्रहलाद ने। स्री रामि = श्री राम (चंद्र) ने। करि = कर के, कह कह के। करि गुर गोविदु = ‘गुर गोविंद’ उचार उचार के। देही = शरीर। देही नगरि = शरीर नगर में। देही कोटि = शरीर किले में। वटवारे = राह मार, डाकू। थाउ थेहु = सारा ही निशान।
कीरतन नित होवहि = नित्य कीर्तन हो रहे हैं, हर वक्त कीर्तन होने लग जाएं। गुर बचनि = गुरु के उपदेश से। नानकि = (गुरु) नानक से। लही = पा ली, ढूँढ ली।6।
अर्थ: हे भाई! नगर के मुखी जन मिल के (गुरु अमरदास जी के पास) आए। (उन्होंने) गुरु की ओट ली, सतिगुरु का पल्ला पकड़ा। (गुरु से) पूछ के उन पाँचों ने ये निर्णय कर लिया कि ‘गुरु सतिगुरु’ ‘गुरु गोविंद’ को (हृदय में बसाना ही असल) स्मृति है।
हे भाई! उन सारे महा जनों (मुखिया जनों) ने (गुरु से पूछ कर) ये निर्णय कर लिया (कि जैसे) सुक देव ने प्रहलाद ने श्री राम चंद्र ने ‘गोविंद, गोविंद’ कह: कह के ‘गुर गोविंद’ का नाम स्मरण किया था (वैसे ही गुर गोविंद को स्मरणा ही असल) स्मृतियाँ और शास्त्र हैं। (उन सुकदेव, प्रहलाद श्रीराम ने) शरीर-नगर में बसने वाले शरीर-किले में बसने वाले (कामादिक) पांच चोरों को पाँच डाकुओं को (मार के) उनका (अपने अंदर से) निशान ही मिटा दिया था।
हे भाई! (नगर के पँचों ने गुरु) नानक के द्वारा गुरु के उपदेश के द्वारा परमात्मा की भक्ति करने की दाति हासिल कर ली। (नगर में) सदा कीर्तन होने लग पड़े- (यही उन मुखी जनों के लिए) पुराणों के पाठ और पुण्य-दान (हो गए)।
हे भाई! नगर मुखिया मनुष्य मिल के (गुरु अमरदास जी के पास) आए। (उन्होंने) गुरु की ओट ली, (उन्होंने) सतिगुरु का पल्ला पकड़ा।6।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुखारी छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

तुखारी छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोलि घुमाई लालना गुरि मनु दीना ॥ सुणि सबदु तुमारा मेरा मनु भीना ॥ इहु मनु भीना जिउ जल मीना लागा रंगु मुरारा ॥ कीमति कही न जाई ठाकुर तेरा महलु अपारा ॥ सगल गुणा के दाते सुआमी बिनउ सुनहु इक दीना ॥ देहु दरसु नानक बलिहारी जीअड़ा बलि बलि कीना ॥१॥

मूलम्

घोलि घुमाई लालना गुरि मनु दीना ॥ सुणि सबदु तुमारा मेरा मनु भीना ॥ इहु मनु भीना जिउ जल मीना लागा रंगु मुरारा ॥ कीमति कही न जाई ठाकुर तेरा महलु अपारा ॥ सगल गुणा के दाते सुआमी बिनउ सुनहु इक दीना ॥ देहु दरसु नानक बलिहारी जीअड़ा बलि बलि कीना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घोलि = मैं सदके। घुमाई = मैं वारने। लालना = हे लालन! हे सुंदर लाल! गुरि = गुरु के द्वारा। सुणि = सुन के। भीना = (नाम रस में) भीग गया है।
जल मीना = पानी की मछली (पानी के बिना जी नहीं सकती)। रंगु = प्रेम। मुरारा = हे मुरारी! (मुर+अरि = मुर दैत्य का वैरी) हे परमात्मा! ठाकुर = हे ठाकुर! हे मालिक! अपारा = अ+पार, बेअंत।
दाते = हे देने वाले! सुआमी = हे मालिक! बिनउ = विनय, विनती। बिनउ दीना = दीन की विनती। बलिहारी = कुर्बान। जीअड़ा = छोटी सी जीवात्मा। बलि बलि = कुर्बान।1।
अर्थ: हे सुंदर लाल! गुरु के द्वारा (गुरु की शरण पड़ कर) मैंने अपना (यह) मन (तुझको) दे दिया है, मैं तुझसे सदके जाता हूँ। हे लाल! तेरी महिमा की वाणी सुन के मेरा मन (तेरे नाम-रस से) भीग गया है।
हे मुरारी! (मेरा यह) मन (तेरे नाम-रस से यूँ) भीग गया है (मेरे अंदर तेरा इतना) प्यार बन गया है (कि इस नाम-जल के बिना यह मन जी ही नहीं सकता) जैसे पानी की मछली (पानी के बिना नहीं रह सकती)। हे मेरे मालिक! तेरा मूल्य नहीं आँका जा सकता (तू किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता), तेरे ठिकाने का दूसरा छोर नहीं मिल सकता।
हे सारे गुण देने वाले मालिक! मेरी गरीब की एक विनती सुन- (मुझे) नानक को अपने दर्शन बख्श, मैं तुझसे सदके हूँ, मैं अपनी यह निमाणी सी जिंद तुझ पर से वारता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु तनु मनु तेरा सभि गुण तेरे ॥ खंनीऐ वंञा दरसन तेरे ॥ दरसन तेरे सुणि प्रभ मेरे निमख द्रिसटि पेखि जीवा ॥ अम्रित नामु सुनीजै तेरा किरपा करहि त पीवा ॥ आस पिआसी पिर कै ताई जिउ चात्रिकु बूंदेरे ॥ कहु नानक जीअड़ा बलिहारी देहु दरसु प्रभ मेरे ॥२॥

मूलम्

इहु तनु मनु तेरा सभि गुण तेरे ॥ खंनीऐ वंञा दरसन तेरे ॥ दरसन तेरे सुणि प्रभ मेरे निमख द्रिसटि पेखि जीवा ॥ अम्रित नामु सुनीजै तेरा किरपा करहि त पीवा ॥ आस पिआसी पिर कै ताई जिउ चात्रिकु बूंदेरे ॥ कहु नानक जीअड़ा बलिहारी देहु दरसु प्रभ मेरे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि गुण = सारे गुण। वंञा = मैं (सदके) जाता हूँ। खंनीऐ वंञा = मैं टुकड़े-टुकड़े होता हूँ। प्रभ मेरे = हे मेरे प्रभु! निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। द्रिसटि = दृष्टि, निगाह। पेखि = देख के। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सुनीजै = सुना जाता है। करहि = अगर तू करे। त = तो। पीवा = पीऊँ, मैं पी सकता हूँ।
पिआसी = प्यासी। आस पिआसी = (प्रभु पति के दर्शनों की) आस की प्यासी। कै ताई = की खातिर। पिर कै ताई = प्रभु पति (के दर्शन) की खातिर। चात्रिकु = पपीहा। बूंदेरे = (स्वाति नक्षत्र की वर्षा की) बूँद के लिए।2।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! (मेरा) यह शरीर तेरा (दिया हुआ है), (मेरा) यह मन तेरा (बख्शा हुआ है), सारे गुण भी तेरे ही बख्शे मिलते हैं। मैं तेरे दर्शनों से कुर्बान जाता हूँ।
हे मेरे प्रभु! (मैं) तेरे दर्शन (से सदके जाता हूँ)। आँख झपकने जितने समय के लिए ही (मेरी ओर) निगाह कर। (तुझे) देख के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। हे प्रभु! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला सुनते हैं। अगर तू (मेरे ऊपर) मेहर करे तो ही मैं (तेरा नाम-जल) पी सकता हूँ।
हे मेरे प्रभु-पति! तेरे दर्शनों की खातिर मेरे अंदर तमन्ना पैदा हो रही है, उस चाहत की (जैसे) प्यास लगी हुई है (दर्शनों के बिना वह प्यास मिटती नहीं), जैसे पपीहा (स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की) बूँद का इन्तजार करता रहता है। हे नानक! कह: हे मेरे प्रभु! मुझे (अपने) दर्शन दे, मैं अपनी यह जिंद तुझसे कुरबान करता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू साचा साहिबु साहु अमिता ॥ तू प्रीतमु पिआरा प्रान हित चिता ॥ प्रान सुखदाता गुरमुखि जाता सगल रंग बनि आए ॥ सोई करमु कमावै प्राणी जेहा तू फुरमाए ॥ जा कउ क्रिपा करी जगदीसुरि तिनि साधसंगि मनु जिता ॥ कहु नानक जीअड़ा बलिहारी जीउ पिंडु तउ दिता ॥३॥

मूलम्

तू साचा साहिबु साहु अमिता ॥ तू प्रीतमु पिआरा प्रान हित चिता ॥ प्रान सुखदाता गुरमुखि जाता सगल रंग बनि आए ॥ सोई करमु कमावै प्राणी जेहा तू फुरमाए ॥ जा कउ क्रिपा करी जगदीसुरि तिनि साधसंगि मनु जिता ॥ कहु नानक जीअड़ा बलिहारी जीउ पिंडु तउ दिता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। साहिबु = मालिक। अमिता = सीमा से परे का। प्रान हित = मेरे प्राणों का हितैषी। हित चिता = मेरे चिक्त का हितैषी मेरी जीवात्मा की हितैषी।
सुखदाता = सुख देने वाला। प्रान दाता = प्राण देने वाला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। जाता = पहचानता है, सांझ डालता है। सगल = सारे। रंग = आत्मिक आनंद। करमु = कर्म। फुरमाए = फरमाया, हुक्म किया होता है।
जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। जगदीसुरि = जगत के ईश्वर को, जगत के मालिक ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। साध संगि = गुरु की संगति में। जिता = जीत लिया। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तउ दिता = तेरा दिया हुआ।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, तू बेअंत बड़ा शाहु है। हे प्रभु! तू (हमारा) प्रीतम है, (हमारा) प्यारा है। तू हमारे प्राणों का रक्षक है, तू हमारी जीवात्मा का रखवाला है।
हे प्रभु! तू (हमें) जिंद देने वाला है, सारे सुख देने वाला है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के तेरे साथ गहरी सांझ डालता है, उसके अंदर सारे आत्मिक आनंद पैदा हो जाते हैं। हे प्रभु! जिस तरह का हुक्म तूने किया होता है, जीव वही काम करता है।
हे भाई! जगत के मालिक प्रभु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उसने गुरु की संगति में (रह के अपने) मन को वश में कर लिया।
हे नानक! कह: (हे प्रभु! मेरी यह) निमाणी जिंद तुझसे सदके है। ये जिंद ये शरीर तेरा ही दिया हुआ है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरगुणु राखि लीआ संतन का सदका ॥ सतिगुरि ढाकि लीआ मोहि पापी पड़दा ॥ ढाकनहारे प्रभू हमारे जीअ प्रान सुखदाते ॥ अबिनासी अबिगत सुआमी पूरन पुरख बिधाते ॥ उसतति कहनु न जाइ तुमारी कउणु कहै तू कद का ॥ नानक दासु ता कै बलिहारी मिलै नामु हरि निमका ॥४॥१॥११॥

मूलम्

निरगुणु राखि लीआ संतन का सदका ॥ सतिगुरि ढाकि लीआ मोहि पापी पड़दा ॥ ढाकनहारे प्रभू हमारे जीअ प्रान सुखदाते ॥ अबिनासी अबिगत सुआमी पूरन पुरख बिधाते ॥ उसतति कहनु न जाइ तुमारी कउणु कहै तू कद का ॥ नानक दासु ता कै बलिहारी मिलै नामु हरि निमका ॥४॥१॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुण = गुण हीन। का सदका = की इनायत से। संतन का सदका = संतों की शरण पड़ने की इनायत से। सतिगुरि = सतिगुरु ने। मोहि पापी = मेरे पापी का।
ढाकनहारे = हे (हमारे पर्दे) ढकने की समर्थता वाले! जीअ दाते = हे जिंद देने वाले! प्रान दाते = हे प्राण देने वाले! सुखदाते = हे सुख देने वाले! अबिगत = हे अविगत! हे अदृष्ट! पूरन = हे सब गुणों से भरपूर प्रभु! पुरख = हे सर्व व्यापक! बिधाते = हे विधाता!
उसतति = स्तुति, महिमा, बड़ाई। कउणु कहै = कौन कह सकता है? कोई नहीं बता सकता। कद का = कब का? ता कै = उस (गुरु) से। निमका = निमेष मात्र, आँख झपकने जितने समय के लिए।4।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! संत जनों की शरण पड़ने की इनायत से तूने मुझ गुणहीन को (भी विकारों से) बचा लिया है। सतिगुरु ने मुझ पापी का पर्दा ढक लिया है (मेरे पाप जग-जाहिर नहीं होने दिए)।
हे हम जीवों के मालिक! हे सब जीवों का पर्दा ढकने की समर्थता वाले! हे जिंद देने वाले! हे प्राण देने वाले! हे सुख देने वाले! हे नाश-रहित स्वामी! हे अदृष्य स्वामी! हे सब गुणों से भरपूर प्रभु! हे सर्व व्यापक! हे विधाता! तेरी स्तुति बयान नहीं की जा सकती। कोई नहीं बता सकता कि तू कब का है।
दास नानक उस (गुरु) से कुर्बान है (जिसकी कृपा से) परमात्मा का नाम आँख झपकने जितने समय में ही मिल जाता है।4।1।11।