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विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मारू महला १ घरु १ चउपदे
मूलम्
रागु मारू महला १ घरु १ चउपदे
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजन = हे सज्जन! हे मित्र प्रभु! होइ रहा = मैं बना रहूँ। सद = सदा। नानक = हे नानक! (कह-)। तुहारीआ = तेरी। पेखउ = मैं देखूँ। हजूरि = अपने साथ, अपने अंग संग।1।
अर्थ: हे नानक! (परमात्मा के आगे अरदास कर और कह:) हे मित्र प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। (मेहर कर, सामर्थ्य बख्श कि) मैं सदा तेरे चरणों की धूल बना रहूँ, मैं सदा तुझे अपने अंग-संग देखता रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबद ॥ पिछहु राती सदड़ा नामु खसम का लेहि ॥ खेमे छत्र सराइचे दिसनि रथ पीड़े ॥ जिनी तेरा नामु धिआइआ तिन कउ सदि मिले ॥१॥
मूलम्
सबद ॥ पिछहु राती सदड़ा नामु खसम का लेहि ॥ खेमे छत्र सराइचे दिसनि रथ पीड़े ॥ जिनी तेरा नामु धिआइआ तिन कउ सदि मिले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिछहु राती = पिछली रात, अमृत बेला। सदड़ा = प्यारा आमंत्रण। लेहि = (वे मनुष्य) ले हैं। खेमे = तंबू। सराइचे = कन्नातें। दिसनि = दिखते हैं। रथ पीड़े = तैयार रथ। सदि = बुला के, आवाज मार के, अपने आप। मिले = मिल जाते हैं।1।
अर्थ: जिस (भाग्यशाली) लोगों को अमृत बेला में परमात्मा स्वयं स्नेह भरा निमंत्रण भेजता है (प्रेरित करता है) वह उस वक्त उठ के पति-प्रभु का नाम लेते हैं। तंबू, छत्र, कन्नातें, रथ (उनके दर पर हर वक्त) तैयार दिखाई देते हैं। ये सारे (दुनियावी आदर-सम्मान वाले पदार्थ) उन्हें खुद-ब-खुद आ मिलते हैं, जिन्होंने (हे प्रभु!) तेरा नाम स्मरण किया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा मै करमहीण कूड़िआर ॥ नामु न पाइआ तेरा अंधा भरमि भूला मनु मेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा मै करमहीण कूड़िआर ॥ नामु न पाइआ तेरा अंधा भरमि भूला मनु मेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! करमहीण = भाग्यहीन, दुर्भागी। कूड़िआर = झूठे पदार्थों का ही व्यापार करने वाला। अंधा = अंधा। भरमि = भटकना में।1। रहाउ।
अर्थ: (पर) हे प्रभु! मैं अभागा (ही रहा), मैं झूठे पदार्थों का व्यापार ही करता रहा। (माया के मोह में) अंधा हो चुका मेरा मन (माया की खातिर) भटकना में ही गलत रास्ते पर पड़ा रहा, और मैं तेरा नाम प्राप्त ना कर सका।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साद कीते दुख परफुड़े पूरबि लिखे माइ ॥ सुख थोड़े दुख अगले दूखे दूखि विहाइ ॥२॥
मूलम्
साद कीते दुख परफुड़े पूरबि लिखे माइ ॥ सुख थोड़े दुख अगले दूखे दूखि विहाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साद = (अनेक पदार्थों के) स्वाद। परफुड़े = प्रफुल्लित हुए, बढ़ते गए। पूरबि = अब से पहले सारे जन्मों जन्मांतरों के जीवनकाल में। लिखे = किए कर्मों के संस्कार मन में उकरे गए। माइ = हे माँ! अगले = बहुत। दूखे दूखि = दुख ही दुख, दुख ही दुख में।2।
अर्थ: हे माँ! मैं दुनिया के अनेक पदार्थों के स्वाद भोगता रहा, अब से पहले सारे बेअंत लंबे जीवन-सफर में किए कर्मों के संस्कार मेरे मन में उकरते गए (और उन भोगों के बदले में मेरे वास्ते) दुख बढ़ते गए। सुख तो थोड़े ही भोगे, पर दुख बेअंत उग आए, अब मेरी उम्र दुख में ही गुजर रही है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विछुड़िआ का किआ वीछुड़ै मिलिआ का किआ मेलु ॥ साहिबु सो सालाहीऐ जिनि करि देखिआ खेलु ॥३॥
मूलम्
विछुड़िआ का किआ वीछुड़ै मिलिआ का किआ मेलु ॥ साहिबु सो सालाहीऐ जिनि करि देखिआ खेलु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विछुड़िआ का = उन लोगों का जो परमात्मा से विछुड़े हुए हैं। किआ वीछुड़े = और किस प्यारे पदार्थ से विछोड़ा होना है? मिलिआ का = उन जीवों का जो प्रभु-चरणों में जुड़े हुए हैं। किआ मेलु = और किस श्रेष्ठ पदार्थ से मेल बाकी रह गया? जिनि = जिनि (साहिब) ने। करि = कर के, रच के। खेलु = तमाशा, जगत रचना।3।
अर्थ: उन लोगों का जो परमात्मा से विछड़े हुए हैं और किस प्यारे पदार्थ से विछोड़ा है? (सबसे कीमती पदार्थ तो हरि-नाम ही था जिससे वे विछुड़ गए)। उन जीवों का जो प्रभु-चरणों में जुड़े हुए हैं और किस श्रेष्ठ पदार्थ के साथ मेल बाकी रह गया? (उन्हें किसी और पदार्थ की आवश्यक्ता नहीं रह गई)। (हे भाई!) सदा उस मालिक की महिमा करनी चाहिए जिसने ये जगत-तमाशा रचा है और रच के इसकी संभाल कर रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजोगी मेलावड़ा इनि तनि कीते भोग ॥ विजोगी मिलि विछुड़े नानक भी संजोग ॥४॥१॥
मूलम्
संजोगी मेलावड़ा इनि तनि कीते भोग ॥ विजोगी मिलि विछुड़े नानक भी संजोग ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजोगी = संयोगों से, परमात्मा की बख्शिश के संजोग से। मेलावड़ा = सुंदर मिलाप, मनुष्य शरीर से सुंदर मिलाप। इनि = इससे। तनि = तन से। इनि तनि = इस तन से, इस मनुष्य शरीर में आ के। भोग = मायावी पदार्थों के रसों के आनंद। मिलि = मिल के, मानव शरीर को मिल के। विजोगी = वियोग के कारण, परमात्मा की वियोग सत्ता के कारण, मौत के कारण। भी = बार बार। संजोग = अनेक संयोग, अनेक जन्मों के संयोग, अनेक जन्मों के चक्कर।4।
अर्थ: परमात्मा की बख्शिश के संयोग से इस मानव शरीर के साथ सुंदर मिलाप हुआ था, पर इस शरीर में आ के मायावी पदार्थों के रस ही भोगते रहे। जब उसकी रजा में मौत आई, मनुष्य-शरीर से विछोड़ा हो गया, (पर मायावी पदार्थों के ही भोगों के कारण) बार-बार अनेक जन्मों के चक्करों में से गुजरना पड़ा।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: श्री गुरूग्रंथ साहिब में शब्द, अष्टपदियां, सलोक, पौड़ियां आदिक काव्य के पक्ष से अलग-अलग किस्म की वाणी दर्ज है। इस मारू राग के आरम्भ मेंपहले एक ‘सलोकु’है। ‘सलोक’ से शब्द शुरू होते हैं। सारे रागों में वाणी की तरतीब यूँ है: पहला ‘शब्द’, फिर ‘अष्टपदियां’, फिर ‘छंत’ आदि। गुरु-व्यक्तियों की भी तरतीब यूँ ही है कि पहले गुरु नानक देव जी, फिर गुरु अमरदास जी, फिर गुरु रामदास जी, फिर गुरु अरजन साहिब और अंत में गुरु तेग बहादर साहिब।
इस मारू राग की विलक्षण बात यह है कि यहाँ शबदों से पहले एक शलोक दिया गया है। ये शलोक हू-ब-हू इसी रूप में गूजरी की वार म: ५ की चौथी पौड़ी का सलोक है, और वहाँ ये ‘सलोकु महला ५’ है।
इसी मारू राग में भक्त-वाणी में कबीर जी के शब्द नं: 9 के आगे दो शलोक दर्ज हैं, पर उनका शीर्षक साफ ‘सलोक कबीर जी’ है।
मौजूदा शलोक के साथ ‘महला’ का जिक्र नहीं। पर, ‘गुजरी की वार म: ५’ में से प्रत्यक्ष है कि ये शलोक गुरु अरजन साहिब का है। इस शलोक का केन्द्रिय भाव यही है जो इसके आगे दर्ज हुए गुरु नानक देव जी का है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ मिलि मात पिता पिंडु कमाइआ ॥ तिनि करतै लेखु लिखाइआ ॥ लिखु दाति जोति वडिआई ॥ मिलि माइआ सुरति गवाई ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ मिलि मात पिता पिंडु कमाइआ ॥ तिनि करतै लेखु लिखाइआ ॥ लिखु दाति जोति वडिआई ॥ मिलि माइआ सुरति गवाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। पिंडु = शरीर। कमाइआ = बनाया। तिनि = उस ने। करतै = कर्तार ने। तिनि करतै = उस कर्तार ने। लेखु = (तेरे करने योग्य काम का) लेखा जोखा। लिखु = (हे जीव!) तू लिख। दाति = (परमात्मा की) बख्शिशें। वडिआई = महिमा। सुरति = अकल, चेता, याद। गवाई = तूने गवा ली।1।
अर्थ: (जिस कर्तार की रजा के अनुसार) तेरे माता-पिता ने मिल के तेरा शरीर बनाया, उसी कर्तार ने (तेरे माथे पर ये) लेख (भी) लिख दिए कि तू (जगत में जा के) ज्योति-रूप प्रभु की बख्शिशें याद करना और उसकी महिमा भी करना (महिमा के लेख अपने अंदर लिखते रहना)। पर तूने माया (के मोह) में फंस के ये चेता ही भुला दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूरख मन काहे करसहि माणा ॥ उठि चलणा खसमै भाणा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मूरख मन काहे करसहि माणा ॥ उठि चलणा खसमै भाणा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन? काहे = क्यों? करसहि = तू करेगा, तू करता है। भाणा = रजा, हुक्म।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मूर्ख मन! तू (इन दुनियावी मल्कियतों का) मान क्यूँ करता है? (जब) पति-प्रभु का हुक्म हुआ तब (इनको छोड़ के जगत को) चले जाना पड़ेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि साद सहज सुखु होई ॥ घर छडणे रहै न कोई ॥ किछु खाजै किछु धरि जाईऐ ॥ जे बाहुड़ि दुनीआ आईऐ ॥२॥
मूलम्
तजि साद सहज सुखु होई ॥ घर छडणे रहै न कोई ॥ किछु खाजै किछु धरि जाईऐ ॥ जे बाहुड़ि दुनीआ आईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। साद = (माया के) स्वाद। सहज सुखु = अडोलता का आनंद। खाजै = खा लें। धरि = संभाल के। बाहुड़ि = दोबारा।2।
अर्थ: (हे मन! तू घरों की मल्कियतों में से सुख-शांति तलाशता है) माया के स्वाद छोड़ के आत्मिक अडोलता का आनंद पैदा हो सकता है (जिस घरों की मल्कियत को तू सुख का मूल समझ रहा है, यह) घर तो छोड़ जाने हैं, कोई भी जीव (यहाँ सदा) टिका नहीं रह सकता। (हे मूर्ख मन! तू सदा ये सोचता है कि) कुछ धन-पदार्थ खा-खर्च लें और कुछ संभाल के रखते जाएं (पर संभाल के रखते जाने का लाभ तो तब ही हो सकता है) अगर दोबारा (इस धन को बरतने के लिए) जगत में आ सकना हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सजु काइआ पटु हढाए ॥ फुरमाइसि बहुतु चलाए ॥ करि सेज सुखाली सोवै ॥ हथी पउदी काहे रोवै ॥३॥
मूलम्
सजु काइआ पटु हढाए ॥ फुरमाइसि बहुतु चलाए ॥ करि सेज सुखाली सोवै ॥ हथी पउदी काहे रोवै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सजु = (सर्जु) हार। काइआ = शरीर। पटु = रेशमी कपड़ा। फुरमाइसि = हकूमत। करि = बना के, त्याग कर के। हथी पउदी = जब (जमों के) हाथ पड़ते हैं। काहे रोवै = क्यों रोता है? रोने का कोई लाभ नहीं होता।3।
अर्थ: मनुष्य अपने शरीर पर हार रेशमी कपड़ा आदि पहनता है, हुक्म भी खूब चलाता है, सुखदाई सेज का सुख भी भोगता है (पर जिस कर्तार ने ये सब कुछ दिया उसको बिसारे रखता है, आखिर) जब जमों के हाथ पड़ता है, तब रोने पछताने का कोई लाभ नहीं हो सकता।3।
[[0990]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
घर घुमणवाणी भाई ॥ पाप पथर तरणु न जाई ॥ भउ बेड़ा जीउ चड़ाऊ ॥ कहु नानक देवै काहू ॥४॥२॥
मूलम्
घर घुमणवाणी भाई ॥ पाप पथर तरणु न जाई ॥ भउ बेड़ा जीउ चड़ाऊ ॥ कहु नानक देवै काहू ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घर = घरों का मोह। घुंमण वाणी = घुमण घेर। भाई = हे भाई! तरणु न जाई = पार नहीं लांघा जा सकता। भउ = परमात्मा का डर अदब। चढ़ाऊ = सवार, बेड़ी का मुसाफिर। काहू = किसी विरले को।4।
अर्थ: हे भाई! घरों के मोह दरिया के (पानी की लहरों के) घुम्मन-घेरियों (चक्रों की तरह) हैं, पापों के पत्थर लाद के जिंदगी की बेड़ी इन बवण्डरों में से पार नहीं लांघ सकती।
अगर परमात्मा के डर-अदब की बेड़ी तैयार की जाए, और उस बेड़ी में जीव सवार हो, तब ही (संसार-समुंदर के विकारों के बवण्डरों में से) पार लांघा जा सकता है। पर हे नानक! कह: ऐसी बेड़ी किसी विरले को ही परमात्मा देता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ घरु १ ॥ करणी कागदु मनु मसवाणी बुरा भला दुइ लेख पए ॥ जिउ जिउ किरतु चलाए तिउ चलीऐ तउ गुण नाही अंतु हरे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ घरु १ ॥ करणी कागदु मनु मसवाणी बुरा भला दुइ लेख पए ॥ जिउ जिउ किरतु चलाए तिउ चलीऐ तउ गुण नाही अंतु हरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणी = आचरण। कागदु = कागज। मसु = स्याही। मसवाणी = दवात। पए = पड़ जाते हैं, लिखे जाते हैं। दुइ = दो किस्म के। किरतु = किया हुआ काम, किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह (जो हमारे स्वभाव का रूप धार लेता है)। तउ गुण अंतु = तेरे गुणों का अंत। हरे = हे हरि!
अर्थ: हे हरि! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता (तूने आश्चर्यजनक खेल रची है कि तेरी कुदरति में जीवों का) आचरण, मानो, कागज है, मन दवात है (उस बन रहे आचरण-कागज़ पर मन के संस्कारों की स्याही से) अच्छे-बुरे (नए) लेख लिखे जा रहे हैं (भाव, मन में अब तक के इकट्ठे हुए संस्कारों की प्रेरणा से जीव जो नए अच्छे-बुरे काम करता है, वह काम आचरण-रूप कागज़ पर नए अच्छे-बुरे संस्कार उकरते जाते हैं)। (इसी तरह) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह-रूप स्वभाव ज्यों-ज्यों जीवों को प्रेरित करता है वैसे वैसे ही वह जीवन-राह पर चल सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित चेतसि की नही बावरिआ ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चित चेतसि की नही बावरिआ ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चित = हे चिक्त! चित बावरिआ = हे कमले चिक्त! बिसरत = बिसरते हुए। गलिआ = गल रहे हैं, कम हो रहे हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे कमले मन! तू परमात्मा को क्यों याद नहीं करता? ज्यों-ज्यों तू परमात्मा को बिसार रहा है, त्यों-त्यों तेरे (अंदर से) गुण घटते जा रहे हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाली रैनि जालु दिनु हूआ जेती घड़ी फाही तेती ॥ रसि रसि चोग चुगहि नित फासहि छूटसि मूड़े कवन गुणी ॥२॥
मूलम्
जाली रैनि जालु दिनु हूआ जेती घड़ी फाही तेती ॥ रसि रसि चोग चुगहि नित फासहि छूटसि मूड़े कवन गुणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैनि = रात। जेती घड़ी = जितनी भी घड़ियां हैं उम्र की। तेती = वह सारी। रसि = रस से, स्वाद से। चुगहि = तू चुगता है। फासहि = तू फसता है। मूढ़े = हे मूर्ख!।2।
अर्थ: (हे मन पंछी! परमात्मा को बिसारने से तेरी जिंदगी का हरेक) दिन और हरेक रात (तुझे माया में फसाने के लिए) जाल का काम दे रहा है, तेरी उम्र की जितनी भी घड़ियां हैं वह सारी ही (तुझे फसाने के लिए) फंदे बनती जा रही हैं। तू बड़े स्वाद ले ले के विकारों की चोग चुग रहा है और विकारों में दिन-ब-दिन और फंसता जा रहा है, हे मूर्ख मन! इनमें से कौन से गुणों के साथ खलासी हासिल करेगा?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ आरणु मनु विचि लोहा पंच अगनि तितु लागि रही ॥ कोइले पाप पड़े तिसु ऊपरि मनु जलिआ संन्ही चिंत भई ॥३॥
मूलम्
काइआ आरणु मनु विचि लोहा पंच अगनि तितु लागि रही ॥ कोइले पाप पड़े तिसु ऊपरि मनु जलिआ संन्ही चिंत भई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आरणु = भट्ठी। विचि = (इस काया) में
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘विचि’ का संबंध शब्द ‘मनु’ के साथ नहीं है, अगर होता तो शब्द ‘मनु’ का रूप ‘मन’ होना था)।
दर्पण-भाषार्थ
पंच अगनि = कामादिक पाँचों अग्नियां। तितु = उस काया भट्ठी में। तिसु ऊपरि = उस भट्ठी के ऊपर। चिंत = चिन्ता।3।
अर्थ: मनुष्य का शरीर, मानो, (लोहार की) भट्टी है, उस भट्टी में मन, मानो, लोहा है और उस पर कामादिक पाँच आग्नियां जल रही हैं, (कामादिक की तपस को तेज करने के लिए) उस पर पापों के (जलते) कोयले पड़े हुए हैं, मन (इस आग में) जल रहा है, चिन्ता की संनी है (जो इसको पकड़ के हर तरफ से जलाने में मदद दे रही है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइआ मनूरु कंचनु फिरि होवै जे गुरु मिलै तिनेहा ॥ एकु नामु अम्रितु ओहु देवै तउ नानक त्रिसटसि देहा ॥४॥३॥
मूलम्
भइआ मनूरु कंचनु फिरि होवै जे गुरु मिलै तिनेहा ॥ एकु नामु अम्रितु ओहु देवै तउ नानक त्रिसटसि देहा ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनूरु = जला हुआ लोहा। कंचनु = सोना। तिनेहा = वैसा (जो मनूर से कंचन कर सके)। अंम्रितु = अमर करने वाला, आत्मिक जीवन देने वाला। त्रिसटसि = टिक जाता है। देहा = शरीर।4।
अर्थ: पर हे नानक! अगर समर्थ गुरु मिल जाए तो वह जल के निकम्मा लोहा हो चुके मन को भी सोना बना देता है। वह आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम देता है जिसकी इनायत से शरीर टिक जाता है (भाव, इंद्रिय विकारों से हट जाती हैं)।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ बिमल मझारि बससि निरमल जल पदमनि जावल रे ॥ पदमनि जावल जल रस संगति संगि दोख नही रे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ बिमल मझारि बससि निरमल जल पदमनि जावल रे ॥ पदमनि जावल जल रस संगति संगि दोख नही रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिमल…जल = बिमल (सरोवर के) निर्मल जल मझारि बससि। बिमल = मल रहत, साफ। मझारि = में। बससि = बसता है। पदमनि = कमल, कमल का फूल। जावल = जाला। रे = हे मेंढक! संगि = संग में, साथ (करने) में। दोख = ऐब, नुक्स।1।
अर्थ: हे मेंढक! साफ सरोवर के साफ-सुथरे पानी में कमल-फूल और जाला बसते हैं। कमल फूल उस जाले और पानी की संगति में रहता है, पर उनकी संगति में उसको कोई दाग नहीं लगता (कमल-फूल हमेशा निर्लिप ही रहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दादर तू कबहि न जानसि रे ॥ भखसि सिबालु बससि निरमल जल अम्रितु न लखसि रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दादर तू कबहि न जानसि रे ॥ भखसि सिबालु बससि निरमल जल अम्रितु न लखसि रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे दादर = हे मेंढक! भखसि = तू खाता है। सिबालु = जाला। न लखसि = तू कद्र नहीं समझता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेंढक! तू कभी भी समझदारी नहीं करता। तू साफ-सुथरे पानी में बसता है, पर तू उस साफ-पवित्र पानी को पहचानता नहीं (उसकी कद्र नहीं जानता, और सदा) जाला ही खाता रहता है (जो उस साफ पानी में पड़ जाता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसु जल नित न वसत अलीअल मेर चचा गुन रे ॥ चंद कुमुदनी दूरहु निवससि अनभउ कारनि रे ॥२॥
मूलम्
बसु जल नित न वसत अलीअल मेर चचा गुन रे ॥ चंद कुमुदनी दूरहु निवससि अनभउ कारनि रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसु = बासु, वास, बसने वाले। अलीअल = भौरा। मेर = चोटी, कमल फूल की चोटी। चचा = चुसता। गुन = रस। चंद = चाँद को। कुमुदनी = अथवा कंमी (जैसे कमल का फूल सूरज की रौशनी में खिलता है वैसे ही कुमुदनी चाँद की चाँदनी में खिलती है)। निवससि = (खिल के) सिर झुकाती है। अनभउ = दिल की खींच।2।
अर्थ: हे मेंढक! (तेरा) सदा पानी का वास है, भौरा (पानी में) नहीं बसता, (फिर भी) वह (फूल की) चोटी का रस लेता है (चूसता है)। कुमुदनी चाँद को दूर से (देख के खिल उठती है और) सिर झुका देती है, क्योंकि उसके अंदर चाँद के लिए दिल से कसक है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित खंडु दूधि मधु संचसि तू बन चातुर रे ॥ अपना आपु तू कबहु न छोडसि पिसन प्रीति जिउ रे ॥३॥
मूलम्
अम्रित खंडु दूधि मधु संचसि तू बन चातुर रे ॥ अपना आपु तू कबहु न छोडसि पिसन प्रीति जिउ रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुधि = दूध में। मधु = शहद, मिठास। अंम्रित = उत्तम। संचसि = (परमात्मा) इकट्टी करता है। तू रे = हे मेंढक! बन चातुर = हे पानी के (बसने वाले) चतुर मेंढक! आपु = खुद को। पिसन = चिच्चड़। पिसन प्रीति = चिच्चड़ की प्रीति (खून से)। अपना आपु = अपने स्वभाव को।3।
अर्थ: (थन के) दूध में (परमात्मा) खण्ड और शहद (जैसी) अमृत (मिठास इकट्टी करता है), पर जैसे (थन से चिपके हुए) चिच्चड़ की (लहू के साथ) प्रीति है (दूध से नहीं, वैसे ही) हे पानी के चतुर मेंढक! तू (भी) अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता (पानी में बसते कमल के फूल की तुझे समझ नहीं, तू पानी का जाला ही खुश हो हो के खाता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडित संगि वसहि जन मूरख आगम सास सुने ॥ अपना आपु तू कबहु न छोडसि सुआन पूछि जिउ रे ॥४॥
मूलम्
पंडित संगि वसहि जन मूरख आगम सास सुने ॥ अपना आपु तू कबहु न छोडसि सुआन पूछि जिउ रे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंडित संगि = विद्वानों की संगति में। वसहि = बसते हैं। जन = लोग। आगम = वेद। सास = शास्त्र। सुने = सुन के। न छोडसि = तू नहीं छोड़ता। सुआन पूछि = कुत्ते की पूँछ।4।
अर्थ: विद्वानों की संगति में मूर्ख लोग बसते हैं, उनसे वे वेद-शास्त्र भी सुनते हैं (पर, रहते मूर्ख ही हैं। अपनी मूर्खता का स्वभाव नहीं त्यागते)। जैसे कुत्ते की पूँछ (कभी अपना टेढ़ा-पन नहीं छोड़ती, वैसे ही हे मेंढक!) तू कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि पाखंडी नामि न राचहि इकि हरि हरि चरणी रे ॥ पूरबि लिखिआ पावसि नानक रसना नामु जपि रे ॥५॥४॥
मूलम्
इकि पाखंडी नामि न राचहि इकि हरि हरि चरणी रे ॥ पूरबि लिखिआ पावसि नानक रसना नामु जपि रे ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। नामि = नाम में। पावसि = तू पाएगा। पूरबि = पूरब में, पहले जीवन काल में।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कई ऐसे पाखण्डी लोग होते हैं जो परमात्मा के नाम से प्यार नहीं डालते (सदा पाखण्ड की ओर ही रुचि रखते हैं), कई ऐसे हैं (भाग्यशाली) जो प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ते हैं।
हे नानक! तू परमात्मा का नाम अपनी जीभ से जपा कर, धुर से परमात्मा से मिली बख्शिश के अनुसार तुझे ये दाति प्राप्ति हो जाएगी।5।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ सलोकु ॥ पतित पुनीत असंख होहि हरि चरनी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ नानक जिसु मसतकि भाग ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ सलोकु ॥ पतित पुनीत असंख होहि हरि चरनी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ नानक जिसु मसतकि भाग ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: देखें राग मारू के पहले शब्द वाला नोट। ये शलोक भी गुरु अरजन साहिब जी का है, और गूजरी की वार महला ५ में पौड़ी नं: 4 का दूसरा सलोक है। इस सलोक और इसके साथ के गुरु नानक देव जी के शब्द का केन्द्रिय भाव एक ही है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सलोकु: पतित = गिरे हुए, विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। असंख = बेअंत जीव। होहि = हो जाते हैं। अठसठि = अढ़सठ। मसतकि = माथे पर।1।
अर्थ: बेअंत वह विकारी मनुष्य भी पवित्र हो जाते हैं जिनका मन परमात्मा के चरणों में लग जाता है। अढ़सठ तीर्थ परमात्मा का नाम ही है, पर, हे नानक! (ये नाम उसको ही मिलता है) जिसके माथे पर (अच्छे) भाग्य हों।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदु ॥ सखी सहेली गरबि गहेली ॥ सुणि सह की इक बात सुहेली ॥१॥
मूलम्
सबदु ॥ सखी सहेली गरबि गहेली ॥ सुणि सह की इक बात सुहेली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गहेली = ग्रसी हुई। सह की = पति प्रभु की। सुहेली = सुखदाई।1।
अर्थ: हे अपने ही रस के गुमान में मस्त सखिए! (हे मेरे कान! हे मेरी जीभ!)। पति-प्रभु की ही महिमा की ही बात सुन (और कर), ये बात सुख देने वाली है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो मै बेदन सा किसु आखा माई ॥ हरि बिनु जीउ न रहै कैसे राखा माई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जो मै बेदन सा किसु आखा माई ॥ हरि बिनु जीउ न रहै कैसे राखा माई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै बेदन = मेरे (दिल की) पीड़ा। आखा = मैं कहूँ। माई = हे माँ! जीउ = जिंद। कैसे = (और कोई) ऐसा (तरीका नहीं) जिससे। राखा = मैं घबराहट से बच सकूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! मैं किसे बताऊँ अपने दिल की पीड़ा? (बेगानी पीड़ा की सार कोई नहीं समझ सकता)। हे माँ! परमात्मा (की याद) के बिना मेरी जिंद रह नहीं सकती। स्मरण के बिना मुझे और कोई तरीका सूझता नहीं जिससे मैं इसको घबराहट से बचा सकूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ दोहागणि खरी रंञाणी ॥ गइआ सु जोबनु धन पछुताणी ॥२॥
मूलम्
हउ दोहागणि खरी रंञाणी ॥ गइआ सु जोबनु धन पछुताणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दोहागणि = दुर्भाग्य वाली। खरी = बहुत। रंञाणी = रंजाणी, दुखी। सु जोबन = वह जवानी (जो पति के साथ मिलाती है)। धन = स्त्री।2।
अर्थ: जिस स्त्री का जब वह जोबन गुजर जाता है जो उसको पति से मिल सकता है तब वह पछताती है, (इसी तरह अगर मेरी एक सांस भी प्रभु-मिलाप के बिना गुजरे तो) मैं (अपने आप को) बुरे भाग्यों वाली (समझती हूँ), मैं बड़ी दुखी (होती हूँ)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू दाना साहिबु सिरि मेरा ॥ खिजमति करी जनु बंदा तेरा ॥३॥
मूलम्
तू दाना साहिबु सिरि मेरा ॥ खिजमति करी जनु बंदा तेरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। दाना = (मेरे) दिल की जानने वाला। सिरि = सिर पर। खिजमति = ख़िदमति, सेवा
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: अरबी शब्दों में ‘ज़’ और ‘द’ उच्चारण में कई बार एक-दूसरे के लिए प्रयोग होते हैं; जैसे ‘काज़ी’ और ‘कादी’; ‘नज़रि’ और ‘नदरि’; ‘काज़ियां’ और ‘कादियां’)।
दर्पण-भाषार्थ
करी = मैं करूँ। बंदा = गुलाम।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू मेरे सिर पर मालिक है, तू मेरे दिल की जानता है (मेरी तमन्ना है कि) तेरी चाकरी करता रहूँ, मैं तेरा दास बना रहूँ, मैं तेरा गुलाम बना रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भणति नानकु अंदेसा एही ॥ बिनु दरसन कैसे रवउ सनेही ॥४॥५॥
मूलम्
भणति नानकु अंदेसा एही ॥ बिनु दरसन कैसे रवउ सनेही ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भणति = कहता है। अंदेसा = फिक्र, तौखला, चिन्ता। कैसे = (कोई) ऐसा (तरीका हो) जिससे। रवउ = मैं मिल सकूँ। सनेही = स्नेह करने वाला प्रभु, प्यारे प्रभु को।4।
अर्थ: नानक कहता है: मुझे यही चिन्ता रहती है कि मैं कहीं परमात्मा के दर्शनों से वंचित ही ना रह जाऊँ। कोई ऐसा तरीका हो जिससे मैं उस प्यारे प्रभु से मिल सकूँ।4।5।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ मुल खरीदी लाला गोला मेरा नाउ सभागा ॥ गुर की बचनी हाटि बिकाना जितु लाइआ तितु लागा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ मुल खरीदी लाला गोला मेरा नाउ सभागा ॥ गुर की बचनी हाटि बिकाना जितु लाइआ तितु लागा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुल खरीदी = मूल्य दे के खरीदा हुआ, जब से मैं प्रेम कीमति के बदले में खरीदा गया हूँ, जब से मुझे प्रभु का प्यार दे के उसके बदले में मेरा स्वै भाव ले लिया है। लाला = गुलाम। गोला = गुलाम। सभागा = सौभाग्यशाली। मेरा नाउ सभागा = ‘सौभाग्यशाली’ मेरा नाम पड़ गया है, मुझे दुनिया भी भाग्यशाली कहने लग पड़ी है। गुर की बचनी = गुरु के उपदेश के बदले। हाटि = गुरु की हाट पर, गुरु के दर पर। बिकाना = मैं बिक गया हूँ, मैंने सिर बेच दिया है, मैंने स्वै भाव दे दिया है। जितु = जिस (काम) में। तितु = उसी (काम) में।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) जब से गुरु ने मुझे मेरा प्रेम दे के उसके बदले में मेरा स्वैभाव खरीद लिया है, मैं तेरा दास हो गया हूँ, मैं तेरा गुलाम हो गया हूँ, मुझे दुनिया ही भाग्यशाली कहने लग पड़ी है। गुरु के दर पर गुरु के उपदेश के बदले मैंने स्वैभाव दे दिया है (अर्थात अहंकार त्याग दिया है), अब जिस काम में मुझे गुरु लगाता है उसी काम में मैं लगा रहता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे लाले किआ चतुराई ॥ साहिब का हुकमु न करणा जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरे लाले किआ चतुराई ॥ साहिब का हुकमु न करणा जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ चतुराई = क्या समझदारी है? पूरी समझ नहीं है।1। रहाउ।
अर्थ: (पर, हे प्रभु!) मुझे तेरे गुलाम को अभी पूरी समझ नहीं है, मुझसे, हे साहिब! तेरा हुक्म पूरे तौर पर सिरे नहीं चढ़ता (मति तो ऐसी होनी चाहिए थी कि सेवा हुक्म से ज्यादा की जाए; पर ज्यादा करना तो कहीं रहा, पूरी भी निभाई नहीं जाती)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा लाली पिउ लाला मेरा हउ लाले का जाइआ ॥ लाली नाचै लाला गावै भगति करउ तेरी राइआ ॥२॥
मूलम्
मा लाली पिउ लाला मेरा हउ लाले का जाइआ ॥ लाली नाचै लाला गावै भगति करउ तेरी राइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मा = मेरी माँ, मेरी मति। लाली = दासी, हुक्म में चलने वाली। मा लाली = तेरे हुक्म में चलने वाली मेरी मति। पिउ = मेरा पिता, संतोष, मेरे सेवक जीवन को जनम देने वाला संतोष।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जहाँ संतोष है वहीं सेवा भाव हो सकता है। संतोष सेवा भाव को जन्म देता है)।
दर्पण-भाषार्थ
हउ = मैं, मेरा सेवा भाव। लाले का जाइआ = संतोख पिता का जन्मा हुआ है। लाली नाचै = लाली नाचती है, मेरी मति उत्साह में आती है। लाला गावै = लाला गाता है, संतोष उछाल मारता है। करउ = मैं करता हूँ। राइआ = हे प्रकाश रूप प्रभु!।2।
अर्थ: (गुरु की मेहर से) तेरे हुक्म में चलने वाली (मेरी मति बनी उस मति-) माँ (ने मुझे सेवक-जीवन वाला जन्म दिया), (तेरा बख्शा हुआ संतोष) मेरा पिता बना। मुझे (मेरे सेवक-स्वभाव को) संतोष-पिता से जनम मिला। अब, हे प्रभु! ज्यों-ज्यों मैं तेरी भक्ति करता हूँ मेरा माँ (-मति) प्रसन्नता भरे हिलोरे में आती है, मेरा पिता (-संतोष) भी खुशियों भरी छलांगे लगाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीअहि त पाणी आणी मीरा खाहि त पीसण जाउ ॥ पखा फेरी पैर मलोवा जपत रहा तेरा नाउ ॥३॥
मूलम्
पीअहि त पाणी आणी मीरा खाहि त पीसण जाउ ॥ पखा फेरी पैर मलोवा जपत रहा तेरा नाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पीअहि = अगर तू पीए। हे प्रभु! अपनी रची सृष्टि में व्यापक हो के अगर तुझे पानी की जरूरत पड़े। आणी = मैं लाऊँ। मीरा = हे (मेरे) पातशाह! पीसण जाउ = मैं चक्की पीसने जाऊँ। फेरी = मैं फेरूँ।3।
अर्थ: (हे प्रभु! मुझे तो समझ नहीं कि मैं किस तरह तेरा हुक्म पूरी तरह कमा सकूँ, पर अगर तू मेहर करे तो) हे पातशाह! मैं तेरे (लोगों) के लिए खाने के लिए चक्की पीसूँ, पंखा फेरूँ, तेरे (बंदों के) पैर दबाऊँ, और सदा तेरा नाम जपता रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लूण हरामी नानकु लाला बखसिहि तुधु वडिआई ॥ आदि जुगादि दइआपति दाता तुधु विणु मुकति न पाई ॥४॥६॥
मूलम्
लूण हरामी नानकु लाला बखसिहि तुधु वडिआई ॥ आदि जुगादि दइआपति दाता तुधु विणु मुकति न पाई ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लूण हरामी = मिली तनख्वाह के बदले पूरा सही काम ना कर सकने वाला। बखसिहि = अगर तू बख्शिश करे, अगर तेरी मेहर हो। तुधु वडिआई = तुझे बड़ाई मिले, तेरी ही जै जैकार होगी। आदि = आरम्भ से। जुगादि = युगों के आरम्भ से। दइआ पति = दया का मालिक। तुधु विणु = तेरी दया के बिना।4।
अर्थ: (पर हे दया के मालिक प्रभु!) तेरा गुलाम नानक तेरी उतनी खिदमत नहीं कर सकता, जितनी तू बख्शिशें कर रहा है (तेरा गुलाम) तेरी बख्शिशों के मोह में ही फंस जाता है, खिदमत करवाने के लिए भी यदि तू स्वयं ही मेहर करे (तब मैं खिदमत कर सकूँगा, इस में भी) तेरी ही जै-जैकार होगी। तू शुरू से ही युगों के आरम्भ से ही दया का मालिक है दातें देता आया है (इन दातों के मोह से) खलासी तेरी सहायता के बिना नहीं हो सकती।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ कोई आखै भूतना को कहै बेताला ॥ कोई आखै आदमी नानकु वेचारा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ कोई आखै भूतना को कहै बेताला ॥ कोई आखै आदमी नानकु वेचारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेताला = जिन्न। वेचारा = आजिज, निमाणा सा, बिचारा।1।
अर्थ: (दुनिया के लोगों के साथ गहरी सांझ ना डाल सकने के कारण) कोई कहता है कि नानक तो कोई भूत है (क्योंकि ये लोगों से दूर रहता है) कोई कहता है कि नानक कोई जिन्न है (जो लोगों से परे परे जूह-उजाड़ में बहुत ज्यादा समय टिका रहता है)। पर कोई बंदा कहता है (नहीं) नानक है तो (हमारे जैसा) आदमी (ही) वैसे है निमाणा सा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइआ दिवाना साह का नानकु बउराना ॥ हउ हरि बिनु अवरु न जाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भइआ दिवाना साह का नानकु बउराना ॥ हउ हरि बिनु अवरु न जाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भइआ = हउ भइआ, मैं हो गया हूँ। दिवाना = मस्ताना, आशिक, प्रेमी। साह का = शाह प्रभु (के नाम) का। बउराना = कमला, झल्ला। हउ = मैं। न जाना = मैं नहीं जानता, मैं गहरी सांझ नहीं डालता।1। रहाउ।
अर्थ: मैं शाह-प्रभु के नाम का आशिक हो गया हूँ, मैं परमात्मा के बिना किसी और से गहरी सांझ नहीं डाल पाता, (इसलिए दुनिया कहती है कि) नानक झल्ला हो गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ देवाना जाणीऐ जा भै देवाना होइ ॥ एकी साहिब बाहरा दूजा अवरु न जाणै कोइ ॥२॥
मूलम्
तउ देवाना जाणीऐ जा भै देवाना होइ ॥ एकी साहिब बाहरा दूजा अवरु न जाणै कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तउ = तब। जाणीऐ = समझा जाता है। भै = दुनियाँ के डरों से। देवाना = बेपरवाह। न जाणै = नहीं पहचानता, अधीनता नहीं करता।2।
अर्थ: जब मनुष्य एक परमात्मा के बिना किसी और को नहीं पहचानता (किसी और की खुशामद मुथाजगी नहीं करता) जब वह दुनिया के डरों-फिक्रों से बेपरवाह हो जाता है, तब (दुनिया के लोगों की नजरों में) वह झल्ला समझा जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ देवाना जाणीऐ जा एका कार कमाइ ॥ हुकमु पछाणै खसम का दूजी अवर सिआणप काइ ॥३॥
मूलम्
तउ देवाना जाणीऐ जा एका कार कमाइ ॥ हुकमु पछाणै खसम का दूजी अवर सिआणप काइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइ = किसी अर्थ की नहीं।3।
अर्थ: जब मनुष्य परमात्मा की रजा को समझने लग जाता है (रजा के उलट चलने के लिए अपनी) किसी और चतुराई का आसरा नहीं लेता, जब मनुष्य सिर्फ (रजा में राजी रहने का ही) कर्म करता है, (हरेक मेहनत-कमाई में प्रभु की रजा को ही मुख्य मानता है) तब लोगों की नजरों से वह झल्ला माना जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ देवाना जाणीऐ जा साहिब धरे पिआरु ॥ मंदा जाणै आप कउ अवरु भला संसारु ॥४॥७॥
मूलम्
तउ देवाना जाणीऐ जा साहिब धरे पिआरु ॥ मंदा जाणै आप कउ अवरु भला संसारु ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिब पिआरु = साहिब का प्यार। धरे = (अपने मन में) धरता है।4।
अर्थ: जब मनुष्य अपने आप को (और सबसे) कमजोर (निम्न) समझता है, जब और जगत को अपने आप से अच्छा समझता है, जब मनुष्य मालिक-प्रभु का प्यार ही (अपने हृदय में) टिकाए रखता है, तब वह (दुनिया की निगाहों में) झल्ला बना रहता है।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ इहु धनु सरब रहिआ भरपूरि ॥ मनमुख फिरहि सि जाणहि दूरि ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ इहु धनु सरब रहिआ भरपूरि ॥ मनमुख फिरहि सि जाणहि दूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इहु घनु = परमात्मा का नाम धन। सरब = सब में। मनमुख = वह लोग जिनका मुँह अपनी ओर है, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। फिरहि = (दुनियावी धन की खातिर) भटकते फिरते हैं। सि = वह लोग।1।
अर्थ: (परमात्मा हर जगह जर्रे-जर्रे में व्यापक है विद्यमान है, उसका) ये नाम-धन (भी) सब में मौजूद है, (गुरु की शरण पड़ने से उस परमात्मा को हर जगह ही देखा जा सकता है और उसकी याद को हृदय में बसा सकते हैं), पर अपने मन के पीछे चलने वाले लोग (परमात्मा को, परमात्मा के नाम-धन को) कहीं दूर-दराज़ जगह पर समझते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो धनु वखरु नामु रिदै हमारै ॥ जिसु तू देहि तिसै निसतारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो धनु वखरु नामु रिदै हमारै ॥ जिसु तू देहि तिसै निसतारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखरु = सौदा। रिदै हमारै = हमारे हृदय में, मेरे हृदय में (बस गए)। तिसै = उस (मनुष्य) को। निसतारै = (तृष्णा के समुंदर से) पार लंघा देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू अपना नाम-धन नाम-वाणज्य देता है उसको ये नाम-धन (माया की तृष्णा के समुंदर से) पार लंघा लेता है। (मेहर कर) तेरा ये नाम-धन ये नाम-वाणज्य मेरे हृदय में भी बस जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न इहु धनु जलै न तसकरु लै जाइ ॥ न इहु धनु डूबै न इसु धन कउ मिलै सजाइ ॥२॥
मूलम्
न इहु धनु जलै न तसकरु लै जाइ ॥ न इहु धनु डूबै न इसु धन कउ मिलै सजाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तसकरु = चोर। इसु धन कउ = इस नाम धन की खातिर।2।
अर्थ: (हृदय में बसाया हुआ परमात्मा का नाम) एक ऐसा धन है जो ना जलता है ना ही इसको कोई चोर चुरा के ले जा सकता है, यह धन (पानियों-बाढ़ों में भी) डूबता नहीं और ना ही इस धन की खातिर किसी को कोई दण्ड मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु धन की देखहु वडिआई ॥ सहजे माते अनदिनु जाई ॥३॥
मूलम्
इसु धन की देखहु वडिआई ॥ सहजे माते अनदिनु जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडिआई = बड़ा गुण। सहजे = सहज में, अडोल अवस्था में। माते = मस्त रहने पर। अनदिनु = हरेक दिन। जाई = लंघता है, गुजरता है।3।
अर्थ: देखिए, इस धन का बड़ा गुण यह है कि (जिस मनुष्य के पास यह धन है, उसकी जिंदगी का) हरेक दिन अडोल अवस्था में मस्त रह कर ही गुजरता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक बात अनूप सुनहु नर भाई ॥ इसु धन बिनु कहहु किनै परम गति पाई ॥४॥
मूलम्
इक बात अनूप सुनहु नर भाई ॥ इसु धन बिनु कहहु किनै परम गति पाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनूप = सोहणी। नर भाई = हे भाई जनो! कहहु = बताओ। किनै = किसी मनुष्य ने। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: हे भाई जनो! (इस नाम-धन की बाबत) एक और सुंदर बात (भी) सुनो (वह यह है कि) इस धन (की प्राप्ति) के बिना कभी किसी को ऊँची आत्मिक अवस्था नहीं मिली।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भणति नानकु अकथ की कथा सुणाए ॥ सतिगुरु मिलै त इहु धनु पाए ॥५॥८॥
मूलम्
भणति नानकु अकथ की कथा सुणाए ॥ सतिगुरु मिलै त इहु धनु पाए ॥५॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भणति = कहता है। अकथ = वह परमात्मा जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकें। पाए = प्राप्त करता है।5।
अर्थ: नानक कहता है: जब (किसी मनुष्य को) गुरु मिल जाता है तब वह ये नाम-धन हासिल कर लेता है और फिर वह (और लोगों को) उस परमात्मा की महिमा वाली बातें सुनाता है जिसके गुण किसी पक्ष से भी बयान नहीं किए जा सकते।5।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ सूर सरु सोसि लै सोम सरु पोखि लै जुगति करि मरतु सु सनबंधु कीजै ॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ सूर सरु सोसि लै सोम सरु पोखि लै जुगति करि मरतु सु सनबंधु कीजै ॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरु = तालाब। सूर सरु = सूरज का तालाब, तपश का श्रोत, तमोगुणी स्वभाव। सोमि लै = सुखा ले, समाप्त कर दे। सूर = पिंगला नाड़ी, दाहिनी सुर, दाहिनी नासिका। सोसि लै = सुखा दे (भाव, प्राण उतार दे, सांसें बाहर निकाल दे)। सोम = चंद्रमा। सोम सरु = चंद्रमा का तालाब। ठण्डी = शांति का श्रोत, सतोगुणी स्वभाव, शांति स्वभाव। पोखि लै = पाल ले, भर ले, मजबूत कर। सोम = बाई नासिका, ईड़ा नाड़ी। पोखि लै = भर ले, ऊपर चढ़ा ले, अंदर की ओर खींच ले। जुगति = युक्ति, मर्यादा, सही ढंग। जुगति करि = (जिंदगी का) सही ढंग बना। मरतु = (मारुत्) हवा, प्राण, श्वास। जुगति करि मरतु = जीवन के सही ढंग को ‘सुआस सुखमना विच टिकाणे’ बना। सु = वह, ऐसा। सनबंधु = मेल। कीजै = करना चाहिए। मीन = मछली। चपल = चंचल। मीन की चपल = मछली की चंचलता। सिउ जुगति = जुगती से, (इस) युक्ति से। मीन की चपल मनु = मछली सी चपलता वाला मन, मछली जैसा चंचल मन। राखीऐ = संभाल के रखना चाहिए। हंसु = जीवात्मा, मन। उडै नहु = (इस तरह) भटकता नही। कंधु = शरीर। नह छीजै = छिजता नहीं, विकारों में नहीं गलता।1।
अर्थ: (हे जोगी!) तू तामसी स्वभाव को दूर कर (ये है दाहिनी नासिका के रास्ते प्राण उतारने), शांति स्वभाव को (अपने अंदर) तगड़ा कर (ये है बाई नासिका के रास्ते प्राण चढ़ाने)। सांस-सांस में नाम जपने वाला जिंदगी का सही ढंग बना (ये है असल में प्राणों को सुखमना नाड़ी में टिकाना)। (बस, हे जोगी! परमात्मा के चरणों में जुड़ने का कोई) ऐसा मेल मिलाओ। इस तरीके से मछली जैसा चंचल मन वश में रख सकते हैं, मन विकारों की तरफ नहीं दौड़ता, ना ही शरीर विकारों में पड़ कर दुखी होता है।1।
[[0992]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूड़े काइचे भरमि भुला ॥ नह चीनिआ परमानंदु बैरागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मूड़े काइचे भरमि भुला ॥ नह चीनिआ परमानंदु बैरागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूढ़ै = हे मूर्ख! काइचे = किसलिए? क्यों? भरमि = भुलेखे में पड़ कर। भुला = भूल रहा है। चीनिआ = पहचाना। परमानंदु = वह परमात्मा जो सबसे ऊँचे आनंद का मालिक है। बैरागी = माया से उपराम (हो के)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जोगी!) तू जगत की माया से वैराग हो के ऊँचे से ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक परमात्मा को अभी तक पहचान नहीं सका, हे मूर्ख! तू (प्राणायाम के) भुलेखे में पड़ के क्यों (जीवन के अस्लियत से) अलग राह पर जा रहा है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजर गहु जारि लै अमर गहु मारि लै भ्राति तजि छोडि तउ अपिउ पीजै ॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै ॥२॥
मूलम्
अजर गहु जारि लै अमर गहु मारि लै भ्राति तजि छोडि तउ अपिउ पीजै ॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। अजर = (अ+जरा) जिसको बुढ़ापा छू नहीं सकता वह परमात्मा। गहु = पकड़, रोक। अजर गहु = जरा रहित प्रभु के मिलाप के रास्ते में रुकावट डालने वाला (मोह)। जारि लै = जला दे। अमर = मौत रहित प्रभु। अमर गहु = मौत रहित हरि के मेल की राह में रुकावट डालने वाला (मन)। मारि लै = वश में कर ले। भ्राति = भ्रांति, भटकना। तजि छोडि = त्याग दे। तउ = तब। अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पीजै = पी सकते हैं।2।
अर्थ: (हे जोगी!) जरा-रहित प्रभु से मिलाप के राह में रुकावट डालने वाले मोह को (अपने अंदर से) जला दे, मौत-रहित हरि के मिलाप के रास्ते में विघन डालने वाले मन को वश में कर रख, भटकना छोड़ दे, तब ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया जा सकता है। इसी प्रकार मछली जैसा चंचल मन काबू में रखा जा सकता है, मन विकारों की तरफ दौड़ने से हट जाता है, शरीर भी विकारों में पड़ कर दुखी होने से बच जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भणति नानकु जनो रवै जे हरि मनो मन पवन सिउ अम्रितु पीजै ॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै ॥३॥९॥
मूलम्
भणति नानकु जनो रवै जे हरि मनो मन पवन सिउ अम्रितु पीजै ॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै ॥३॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भणति = कहता है। नानकु जनो = नानकु जनु, दास नानक। मनो = मनु। रवै = स्मरण करे। मन सिउ = मन से, मन (की ऐकाग्रता) से। पवन = हवा, श्वास, सांस सांस में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।3।
अर्थ: दास नानक कहता है अगर मनुष्य का मन परमात्मा का स्मरण करे, तो मनुष्य मन की एकाग्रता के साथ श्वास-श्वास (नाम जप के) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीता है। इस तरीके से मछली की चंचलता वाला मन वश में रखा जा सकता है, मन विकारों की ओर नहीं दौड़ता, और शरीर भी विकारों में खचित नहीं होता।3।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ माइआ मुई न मनु मुआ सरु लहरी मै मतु ॥ बोहिथु जल सिरि तरि टिकै साचा वखरु जितु ॥ माणकु मन महि मनु मारसी सचि न लागै कतु ॥ राजा तखति टिकै गुणी भै पंचाइण रतु ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ माइआ मुई न मनु मुआ सरु लहरी मै मतु ॥ बोहिथु जल सिरि तरि टिकै साचा वखरु जितु ॥ माणकु मन महि मनु मारसी सचि न लागै कतु ॥ राजा तखति टिकै गुणी भै पंचाइण रतु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माइआ = माया का प्रभाव। सरु = हृदय सरोवर। लहिर = लहरों से (भरपूर)। मै लहरी = मैं मैं की लहरों से। मतु = मस्त, नाको नाक भरा हुआ। बोहिथु = जहाज। जल सिरि = (मैं मैं की लहरों के) पानी के सिर पर। तरि = तैर के। साचा वखरु = सदा कायम रहने वाला नाम सौदा। जितु = जिस (बोहिथ) में। माणकु = मोती। मारसी = वश में रखेगा। सचि = सच में (जुड़े रहने से)। कतु = चीर, दरार, (मन में) चीरा। राजा = जीवात्मा। तखति = हृदय-तख़्त पर, अडोलता के तख़्त पर। गुणी = गुणों के कारण। भै पंचाइण = पंचायण के डर में। रतु = रंगा हुआ। पंचाइण = परमात्मा (पंच+अयन = पाँचों तत्वों का घर, पाँच तत्वों का श्रोत)।1।
अर्थ: (जो मनुष्य मालिक-प्रभु को अपने अंदर बसता नहीं देखता, प्रभु को अपने हृदय में नहीं बसाता) उसकी माया की तृष्णा नहीं समाप्त होती, उसका मन विकारों से नहीं हटता, उसका हृदय-सरोवर मैं-मैं की लहरों से भरा रहता है। वही जीवन-बेड़ा (संसार-समुंदर की विकार-लहरों के) पानियों पर तैर के (प्रभु-चरणों में) टिका रहता है जिसमें सदा-स्थिर रहने वाला नाम-सौदा है। जिस मन में नाम-मोती बसता है, उस मन को वह मोती विकारों से बचा लेता है, सच्चे नाम में जुड़े रहने के कारण उस मन में दरार नहीं आता (वह मन माया में डोलता नहीं); प्रभु के डर-अदब में रंगी हुई जीवात्मा प्रभु के गुणों में प्रवृति रहने के कारण अंदर ही हृदय-तख़्त पर टिका रहता है (बाहर नहीं भटकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा साचा साहिबु दूरि न देखु ॥ सरब जोति जगजीवना सिरि सिरि साचा लेखु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा साचा साहिबु दूरि न देखु ॥ सरब जोति जगजीवना सिरि सिरि साचा लेखु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! साचा = सदा कायम रहने वाला। दूरि = अपने आप से दूर। सरब = सब जीवों में। जग जीवना = जगत का जीवन प्रभु। जोति जग जीवना = जगत के जीवन प्रभु की ज्योति। सिरि सिरि = हरेक (जीव) के सिर पर। साचा = अटल, अमिट। लेखु = प्रभु का हुक्म।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु को (अपने आप से) दूर बसता ना समझ (सच्चा मालिक तेरे अपने अंदर बस रहा है)। उस जगत-के-आसरे प्रभु की ज्योति सब जीवों के अंदर मौजूद है। प्रभु का हुक्म हरेक जीव पर सदा अटल है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु रिखी मुनी संकरु इंदु तपै भेखारी ॥ मानै हुकमु सोहै दरि साचै आकी मरहि अफारी ॥ जंगम जोध जती संनिआसी गुरि पूरै वीचारी ॥ बिनु सेवा फलु कबहु न पावसि सेवा करणी सारी ॥२॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु रिखी मुनी संकरु इंदु तपै भेखारी ॥ मानै हुकमु सोहै दरि साचै आकी मरहि अफारी ॥ जंगम जोध जती संनिआसी गुरि पूरै वीचारी ॥ बिनु सेवा फलु कबहु न पावसि सेवा करणी सारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संकरु = शिव। इंदु = इंद्र देवता। तपै = तप करता है। भेखारी = भिखारी, त्यागी। मानै = मानता है। सोहै = सुशोभित होता है। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। आकी = हुक्म मानने से आकी। अफारी = आफरे हुए, अहंकारी। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। जोधे = योद्धे। जंगम = घंटी बजाने वाले शिव के उपासक जोगी। गुरि पूरै = पूरे गुरु से। वीचारी = हमने ये विचार। न पावसि = नहीं पाएगा। सारी = श्रेष्ठ।2।
अर्थ: ब्रहमा-विष्णु शिव-इंद्र और अनेक ऋषि-मुनि, चाहे कोई तप करता है चाहे कोई त्यागी है, वही परमात्मा के दर पर शोभा पाता है जो परमात्मा का हुक्म मानता है (जो परमात्मा की रजा में अपनी मर्जी लीन करता है), अपनी मन-मर्जी करने वाले अहंकारी आत्मिक मौत मरते हैं। हमने गुरु के द्वारा ये विचार (करके देख) लिया है कि जंगम हों, योद्धे हों, जती हों, सन्यासी हों, प्रभु की भक्ति के बिना कभी भी कोई अपनी मेहनत-कमाई का फल प्राप्त नहीं कर सकता। सेवा-नाम-जपना ही सबसे श्रेष्ठ करणी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निधनिआ धनु निगुरिआ गुरु निमाणिआ तू माणु ॥ अंधुलै माणकु गुरु पकड़िआ निताणिआ तू ताणु ॥ होम जपा नही जाणिआ गुरमती साचु पछाणु ॥ नाम बिना नाही दरि ढोई झूठा आवण जाणु ॥३॥
मूलम्
निधनिआ धनु निगुरिआ गुरु निमाणिआ तू माणु ॥ अंधुलै माणकु गुरु पकड़िआ निताणिआ तू ताणु ॥ होम जपा नही जाणिआ गुरमती साचु पछाणु ॥ नाम बिना नाही दरि ढोई झूठा आवण जाणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निगुरिआ = जिसका कोई गुरु ना हो, जिनको कोई जीवन-राह ना बताए। अंधुलै = अंधे ने, उसने जिसकी ज्ञान की आँखें नहीं। नही जाणिआ = पहचाना नहीं जा सकता, सांझ नहीं पाई जा सकती। साचु = सदा स्थिर प्रभु। पछाणु = जान पहचान वाला, मित्र, सहायक। दरि = प्रभु के दर पर। ढोई = आसरा, सहारा। झूठा = नाशवान। आवण जाणु = जनम मरण।3।
अर्थ: हे प्रभु! गरीबों के लिए तेरा नाम खजाना है (गरीब होते हुए भी वह बादशाहों वाला दिल रखते हैं), जिनकी कोई बाँह नहीं पकड़ता, उनका तू रहबर बनता है; जिसको कोई आदर-मान नहीं देता (नाम की दाति दे के) उनको (जगत में) आदर-सम्मान दिलाता है। जिस भी (आत्मिक आँखों से) अंधे ने गुरु-ज्योति (का पल्ला) पकड़ा है उस निआसरे का तू आसरा बन जाता है। हवन-जप आदि से परमात्मा से सांझ नहीं बनती, गुरु की दी हुई मति पर चलने से वह सदा-स्थिर प्रभु (जीव का) दर्दी बन जाता है। परमात्मा के नाम के बिना परमात्मा के दर पर सहारा नहीं मिलता, जनम-मरण का नाशवान चक्कर बना रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा नामु सलाहीऐ साचे ते त्रिपति होइ ॥ गिआन रतनि मनु माजीऐ बहुड़ि न मैला होइ ॥ जब लगु साहिबु मनि वसै तब लगु बिघनु न होइ ॥ नानक सिरु दे छुटीऐ मनि तनि साचा सोइ ॥४॥१०॥
मूलम्
साचा नामु सलाहीऐ साचे ते त्रिपति होइ ॥ गिआन रतनि मनु माजीऐ बहुड़ि न मैला होइ ॥ जब लगु साहिबु मनि वसै तब लगु बिघनु न होइ ॥ नानक सिरु दे छुटीऐ मनि तनि साचा सोइ ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति, संतोष। रतनि = रतन से। माजीऐ = साफ करना चाहिए। बहुड़ि = दोबारा। बिघनु = रुकावट। सिरु दे = सिर दे के, स्वैभाव गवा के। छुटीऐ = (मैं मैं की लहरों से) खलासी होती है।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का सदा कायम रहने वाला नाम सदा सलाहना चाहिए, सच्चे नाम की ही इनायत से संतोषी जीवन मिलता है। प्रभु की गहरी-सांझ रूप रतन से मन को चमकाना चाहिए, फिर ये (विकारों में) मैला नहीं होता। प्रभु-मालिक जब तक मन में बसा रहता है (जीवन-सफर में विकारों की ओर से) कोई रुकावट नहीं पैदा होती।
हे नानक! स्वैभाव गवाने से ही विकारों से निजात मिलती है, और वह सदा-थिर प्रभु मन में और शरीर में टिका रहता है।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ जोगी जुगति नामु निरमाइलु ता कै मैलु न राती ॥ प्रीतम नाथु सदा सचु संगे जनम मरण गति बीती ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ जोगी जुगति नामु निरमाइलु ता कै मैलु न राती ॥ प्रीतम नाथु सदा सचु संगे जनम मरण गति बीती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगति = तरीका, रहत बहत। निरमाइलु = निर्मल, पवित्र। ता कै = उस (जोगी के मन) में। राती = रक्ती भर भी। नाथ = पति प्रभु। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। सदा संगे = (जिसके) सदा साथ है। गति = आत्मिक अवस्था। बीती = बीत जाती है, समाप्त हो जाती है।1।
अर्थ: जिस जोगी की जीवन-जुगति परमात्मा का पवित्र-नाम (स्मरणा) है, उसके मन में (विकारों वाली) रक्ती भर भी मैल नहीं रह जाती। सबका प्यारा, सबका पति और सदा कायम रहने वाला प्रभु सदा उस (योगी) के हृदय में बसता है (इस वास्ते) जनम-मरण का चक्कर पैदा करने वाली उसकी आत्मिक अवस्था समाप्त हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुसाई तेरा कहा नामु कैसे जाती ॥ जा तउ भीतरि महलि बुलावहि पूछउ बात निरंती ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुसाई तेरा कहा नामु कैसे जाती ॥ जा तउ भीतरि महलि बुलावहि पूछउ बात निरंती ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुसाई = हे गो साई! हे धरती के पति प्रभु! कहा = कहाँ? कैसे = कैसे? कहा नामु = कहाँ तेरा खास नाम है? तेरा कोई विशेष नाम नहीं है। कैसे जाती = कैसे तेरी खासि जाति है? तेरी कोई खास जाति नहीं है। तउ = तू। भीतरि = धुर अंदर। महलि = महल में, अपने चरणों में। जा = जब। पूछउ = मैं पूछता हूँ। निरंती बात = भेद की बात।1। रहाउ।
अर्थ: हे धरती के पति-प्रभु! जब तू मुझे अंतरात्मे चरणों में बुलाता है (जोड़ता है) तब मैं (तुझसे) ये भेद की बात पूछता हूँ कि तेरा कहीं कोई खास नाम है और कैसे तेरे कोई विशेष जाति है (भाव, जब तू अपनी मेहर से मुझे अपने चरणों में जोड़ता है तब मुझे समझ आती है कि ना कोई तेरा खास नाम है और ना ही तेरी कोई खास जाति है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमणु ब्रहम गिआन इसनानी हरि गुण पूजे पाती ॥ एको नामु एकु नाराइणु त्रिभवण एका जोती ॥२॥
मूलम्
ब्रहमणु ब्रहम गिआन इसनानी हरि गुण पूजे पाती ॥ एको नामु एकु नाराइणु त्रिभवण एका जोती ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआन इसनानी = ज्ञान का स्नानी, परमातमा के ज्ञान (के जल) का स्नान करने वाला, प्रभु के ज्ञान-जल में अपने मन को पवित्र करने वाला। हरि पूजे = परमात्मा को पूजता है। पाती = पतरों से। एका जोती = प्रभु की एक-ज्योति का पसारा।2।
अर्थ: वह ब्राहमण ब्रहम (परमात्मा का रूप हो जाता) है जो परमात्मा के ज्ञान-जल में अपने मन को स्नान कराता है जो सदा प्रभु के गुण गाता है (मानों, पुष्प) पत्रों से प्रभु को पूजता है, जो सिर्फ परमात्मा को जो सिर्फ परमात्मा के नाम को (हृदय में सदा बसाए रखता है, जिसको) ये सारा संसार प्रभु की ज्योति का पसारा दिखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिहवा डंडी इहु घटु छाबा तोलउ नामु अजाची ॥ एको हाटु साहु सभना सिरि वणजारे इक भाती ॥३॥
मूलम्
जिहवा डंडी इहु घटु छाबा तोलउ नामु अजाची ॥ एको हाटु साहु सभना सिरि वणजारे इक भाती ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिहवा = जीभ। डंडी = तराजू की डंडी जिसके दोनों सिरों से छाबे लटकते हैं। घटु = हृदय। तोलउ = मैं तोलता हूँ। अजाची = जो जाचा ना जा सके। अजाची नामु = अतुल प्रभु का नाम। हाटु = हाट, जगत। सिरि = सिर पर। वणजारे = व्यापारी, वणज करने वाले, जीव व्यापारी। इक भाती = एक ही किस्म के। इक भाती वणजारे = प्रभु के नाम के ही व्यापारी।3।
अर्थ: (ज्यों-ज्यों) मैं अपनी जीभ को तराजू की डण्डी बनाता हूँ, अपने इस हृदय की तराजू का एक छाबा बनाता हूँ, (इस छाबे में) अतुल्य प्रभु का नाम तौलता हूँ (और दूसरे छाबे में अपने अंदर स्वै भाव को निकाल के रखता जाता हूँ, त्यों-त्यों ये जगत मुझे) एक हाट की तरह दिखता है जहाँ सारे ही जीव एक ही किस्म के (भाव, प्रभु नाम के) बनजारे दिखते हैं और सबके सिर के ऊपर (भाव, सबको जिंद-पिंड की राशि देने वाला) शाहूकार परमात्मा स्वयं खुद है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोवै सिरे सतिगुरू निबेड़े सो बूझै जिसु एक लिव लागी जीअहु रहै निभराती ॥ सबदु वसाए भरमु चुकाए सदा सेवकु दिनु राती ॥४॥
मूलम्
दोवै सिरे सतिगुरू निबेड़े सो बूझै जिसु एक लिव लागी जीअहु रहै निभराती ॥ सबदु वसाए भरमु चुकाए सदा सेवकु दिनु राती ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दोवै सिरे = जनम मरण। निबेड़े = समाप्त कर दिए। जीअहु = अंदर से, मन से। निभराती = नि+भ्रांति, भ्रांति रहित, भटकना रहित, अडोल। चुकाए = दूर कर देता है।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु का शब्द अपने हृदय में बसाता है (इस तरह अपने मन की) भटकना समाप्त करता है और दिन-रात सदा का सेवक बना रहता है, (गुरु-शब्द की इनायत से) जिस मनुष्य की तवज्जो एक परमात्मा में टिकी रहती है जो अंतरात्मे भटकना-रहित हो जाता है उसको सही जीवन-जुगति की समझ आ जाती है, सतिगुरु उसका जनम-मरण का चक्र समाप्त कर देता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊपरि गगनु गगन परि गोरखु ता का अगमु गुरू पुनि वासी ॥ गुर बचनी बाहरि घरि एको नानकु भइआ उदासी ॥५॥११॥
मूलम्
ऊपरि गगनु गगन परि गोरखु ता का अगमु गुरू पुनि वासी ॥ गुर बचनी बाहरि घरि एको नानकु भइआ उदासी ॥५॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गगनु = आकाश, चिदाकाश, चिक्त आकाश, दिमाग। गोरखु = धरती का मालिक प्रभु। ता का = उस (प्रभु) का। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे) (ठिकाना)। गुरू = गुरु (के द्वारा)। वासी = वसनीक। पुनि = पुनः , दोबारा। घरि = हृदय में। बाहरि = जगत में। उदासी = उपराम, निर्लिप।5।
अर्थ: (दुनिया के मायावी फुरनों की पहुँच से दूर) ऊँचा वह चिक्त-आकाश है (वह आत्मिक अवस्था है) जहाँ सृष्टि का पालक परमात्मा बस सकता है; उस प्रभु (के मिलाप) का वह ठिकाना अगम्य (पहुँच से परे) है (क्योंकि जीव बार-बार माया की ओर पलटता रहता है)। फिर भी गुरु के द्वारा उस ठिकाने का वाशिंदे बन जाया जाता है।
नानक गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के जगत के मोह से उपराम हो गया है, (इस तरह) अपने अंदर और सारे जगत में एक प्रभु को ही देखता है।5।11।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मारू महला १ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मारू महला १ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिनिसि जागै नीद न सोवै ॥ सो जाणै जिसु वेदन होवै ॥ प्रेम के कान लगे तन भीतरि वैदु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥
मूलम्
अहिनिसि जागै नीद न सोवै ॥ सो जाणै जिसु वेदन होवै ॥ प्रेम के कान लगे तन भीतरि वैदु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। नीद = माया के मोह की नींद। सो जाणै = ‘अंम्रित की सार’ वही जाने। वेदन = वेदना, पीड़ा, विरह की पीड़, विछोड़े के अहिसास की तड़प। कान = तीर। वैदु = वैद्य, शारीरिक रोगों का इलाज करने वाला। कारी = इलाज। जीउ = हे सज्जन!।1।
अर्थ: नाम-अमृत का व्यापारी जीव दिन-रात सचेत रहता है, वह माया के मोह की नींद में सोता नहीं। नाम-अमृत की कद्र जानता भी वही मनुष्य है जिसके अंदर परमात्मा से विछोड़े के अहिसास की तड़प हो, जिस के शरीर में प्रभु-प्रेम के तीर लगे हों। शारीरिक रोगों का इलाज करने वाला व्यक्ति बिरह-रोग का इलाज नहीं जानता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो साचा सिफती लाए ॥ गुरमुखि विरले किसै बुझाए ॥ अम्रित की सार सोई जाणै जि अम्रित का वापारी जीउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिस नो साचा सिफती लाए ॥ गुरमुखि विरले किसै बुझाए ॥ अम्रित की सार सोई जाणै जि अम्रित का वापारी जीउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिफती = महिमा के काम में। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है, जो गुरु के बताए हुए राह पर चले। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। सार = कद्र, कीमत। वापारी = विहाजने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: जिस किसी विरले व्यक्ति को गुरु के माध्यम से सदा कायम रहने वाला परमात्मा अपनी महिमा में जोड़ता है और महिमा की कद्र समझाता है, आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की कद्र वही व्यक्ति समझता है क्योंकि वह इस नाम-अमृत का व्यापारी बन जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिर सेती धन प्रेमु रचाए ॥ गुर कै सबदि तथा चितु लाए ॥ सहज सेती धन खरी सुहेली त्रिसना तिखा निवारी जीउ ॥२॥
मूलम्
पिर सेती धन प्रेमु रचाए ॥ गुर कै सबदि तथा चितु लाए ॥ सहज सेती धन खरी सुहेली त्रिसना तिखा निवारी जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिर = पति। सेती = साथ। धन = स्त्री। सबदि = शब्द में। तथा = उसी तरह। सहज = अडोल अवस्था, शांति। धन = जीव-स्त्री। खरी = बहुत। सुहेली = आसान, सखी। तिखा = तृखा, प्यास।2।
अर्थ: जैसे स्त्री (अपना आपा अर्थात स्वै वार के) अपने पति से प्यार करती है, वैसे ही जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द में चिक्त जोड़ती है, वह जीव-स्त्री आत्मिक अडोलता में टिक के बहुत सुखी हो जाती है, वह (अपने अंदर से) माया की तृष्णा माया की प्यास दूर कर लेती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहसा तोड़े भरमु चुकाए ॥ सहजे सिफती धणखु चड़ाए ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे सुंदरि जोगाधारी जीउ ॥३॥
मूलम्
सहसा तोड़े भरमु चुकाए ॥ सहजे सिफती धणखु चड़ाए ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे सुंदरि जोगाधारी जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = सहम, तौखला। चुकाए = दूर करे। सहजे = सहज, सहज में, अडोलता में (टिक के)। सिफती धणखु = महिमा का धनुष। सुंदरि = सुंदर धन, सुंदर जीव-स्त्री।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘सुंदरि’ की ‘ि’ मात्रा इसे ‘स्त्रीलिंग’ में बदलने के लिए है)।
दर्पण-भाषार्थ
जोगाधारी = जोग आधारी। जोग = परमात्मा से मिलाप। आधार = आसरा। जोगाधारी = हरि मिलाप के आसरे वाली।3।
अर्थ: जो जीव-स्त्री अडोलता में टिक के परमात्मा की महिमा का धनुष (बाण) कसती है (उसकी सहायता से अपने अंदर से) सहम-डर समाप्त कर लेती है माया वाली भटकना खत्म करती है, वह गुरु शब्द में जुड़ के (स्वैभाव को) मारती है अपने मन को वश में रखती है वह जीव-स्त्री प्रभु-मिलाप के आसरे वाली हो जाती है (भाव, प्रभु-चरणों का मिलाप उसके जीवन का आसरा बन जाता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै जलिआ मनहु विसारे ॥ जम पुरि वजहि खड़ग करारे ॥ अब कै कहिऐ नामु न मिलई तू सहु जीअड़े भारी जीउ ॥४॥
मूलम्
हउमै जलिआ मनहु विसारे ॥ जम पुरि वजहि खड़ग करारे ॥ अब कै कहिऐ नामु न मिलई तू सहु जीअड़े भारी जीउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहु = मन से। जमपुरि = जम के शहर में। करारे = करड़े, सख्त। अब कै कहिऐ = अब इस समय के कहने से। सहु = सह। जीअड़े = हे जीव!।4।
अर्थ: जो जीव अहंकार में जला रह के (आत्मिक जीवन के अंकुर को जला के) परमात्मा को अपने मन से भुला देता है उसको जम के शहर में करारे खड़ग बजते हैं (भाव, इतने आत्मिक कष्ट होते हैं, मानो, तलवारों की जोरदार चोटें बज रही हों), उस वक्त (जब मार पड़ रही होती है) तरले लेने से नाम (स्मरण का मौका) नहीं मिलता। (हे जीव! अगर तू सारी उम्र इतना गाफिल रहा है तो) वह बड़ा दुख (अब) सहता रह (उस बहुत बड़े कष्ट से तुझे कोई निकाल नहीं सकता)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ ममता पवहि खिआली ॥ जम पुरि फासहिगा जम जाली ॥ हेत के बंधन तोड़ि न साकहि ता जमु करे खुआरी जीउ ॥५॥
मूलम्
माइआ ममता पवहि खिआली ॥ जम पुरि फासहिगा जम जाली ॥ हेत के बंधन तोड़ि न साकहि ता जमु करे खुआरी जीउ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवहि = तू पड़ता है। खिआली = ख्यालों में। जम जाली = जम के जाल में। हेत = मोह। खुआरी = निरादरी।5।
अर्थ: हे जीव! अगर तू अब माया की ममता के ख्यालों में ही पड़ा रहेगा (अगर तू सारी उम्र माया जोड़ने के आहरों में ही रहेगा, तो आखिर) जम की नगरी में जम के जाल में फंसेगा, (उस वक्त) तू मोह के बंधन नहीं तोड़ पाएगा, (तभी तो) तब ही जमराज तेरी बेइज्जती करेगा।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना हउ करता ना मै कीआ ॥ अम्रितु नामु सतिगुरि दीआ ॥ जिसु तू देहि तिसै किआ चारा नानक सरणि तुमारी जीउ ॥६॥१॥१२॥
मूलम्
ना हउ करता ना मै कीआ ॥ अम्रितु नामु सतिगुरि दीआ ॥ जिसु तू देहि तिसै किआ चारा नानक सरणि तुमारी जीउ ॥६॥१॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। करता = (अब) करने वाला। कीआ = किया (बीते हुए समय में)। सतिगुरि = सतिगुरु ने। देहि = देता है। चारा = तदबीर। तिसै किआ चारा = उसको और किस तदबीर की आवश्यक्ता?।6।
अर्थ: (पर, हे प्रभु! तेरी माया के मुकाबले में मैं बेचारा क्या चीज हूँ? माया के बंधनो से बचने के लिए) ना ही मैं अब कुछ कर रहा हूँ, ना ही इससे पहले कुछ कर पाया हूँ। मुझे तो सतिगुरु ने (मेहर करके) तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शा है। जिसको तू (गुरु के द्वारा अपना अमृत-नाम) देता है उसको कोई और तदबीर करने की आवश्यक्ता ही नहीं रह जाती।
हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ।6।1।12।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ५’ का ये एक शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह बैसालहि तह बैसा सुआमी जह भेजहि तह जावा ॥ सभ नगरी महि एको राजा सभे पवितु हहि थावा ॥१॥
मूलम्
जह बैसालहि तह बैसा सुआमी जह भेजहि तह जावा ॥ सभ नगरी महि एको राजा सभे पवितु हहि थावा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। बैसालहि = तू बैठाता है। तह = वहाँ। बैसा = बैठूँ, मैं बैठता हूँ। सुआमी = हे स्वामी! जावा = जाऊँ, मैं जाता हूँ। सभ नगरी महि = सारी सृष्टि में। सभे = सारे। हहि = (बहुवचन) हैं।1।
अर्थ: हे प्रभु! (जब मैं आत्मिक अडोलता में लीन रहूँगा, तब) जहाँ तू मुझे बैठाएगा मैं वहीं बैठा रहूँगा, जहाँ तू मुझे भेजेगा मैं वहीं जाऊँगा (भाव, मैं हर वक्त तेरी रजा में रहूँगा)। हे स्वामी! सारी सृष्टि में मुझे तू ही एक पातशाह (दिखेगा, तेरी व्यापकता के कारण धरती के) सारी ही जगहें मुझे पवित्र लगेंगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा देहि वसा सच गावा ॥ जा ते सहजे सहजि समावा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा देहि वसा सच गावा ॥ जा ते सहजे सहजि समावा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! देहि = (तू ये दाति) दे। वसा = बसूँ, मैं बसूँ। सच गावा = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को गाँव (पिंड) में, साधु-संगत में। जा ते = जिस की इनायत से। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही। समावा = समाऊँ, मैं समाया रहूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू (मुझे ये दान) दे कि मैं तेरी साधु-संगत में टिका रहूँ, जिसकी इनायत से मैं सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुरा भला किछु आपस ते जानिआ एई सगल विकारा ॥ इहु फुरमाइआ खसम का होआ वरतै इहु संसारा ॥२॥
मूलम्
बुरा भला किछु आपस ते जानिआ एई सगल विकारा ॥ इहु फुरमाइआ खसम का होआ वरतै इहु संसारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपस ते = अपने आप से, अहंकार के कारण। एई = ये (अहंकार) ही। सगल = सारे। इहु = ये हुक्म। वरतै = वरत रहा है, काम कर रहा है। संसारा = संसार में।2।
अर्थ: हे भाई! अहंकार के कारण मनुष्य किसी को बुरा और किसी को अच्छा समझता है, ये अहंकार ही सारे विकारों का मूल बनती है। (साधु-संगत की इनायत से आत्मिक अडोलता में रहने वाले को दिखता है कि) ये भी पति-प्रभु का हुक्म ही हो रहा है, ये हुक्म ही सारे जगत में बरत रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इंद्री धातु सबल कहीअत है इंद्री किस ते होई ॥ आपे खेल करै सभि करता ऐसा बूझै कोई ॥३॥
मूलम्
इंद्री धातु सबल कहीअत है इंद्री किस ते होई ॥ आपे खेल करै सभि करता ऐसा बूझै कोई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इंद्री धातु = इन्द्रियों की दौड़ भाग। सबल = स+बल, बल वाली। किस ते = (परमात्मा के बिना और) किससे? खेल सभि = सारे खेल। कोई = कोई (विरला) मनुष्य (जो साधु-संगत में टिकता है)।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस ते’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! सारी सृष्टि में) ये बात कही जा रही है कि इन्द्रियों की दौड़-भाग बहुत बलवान है; पर (साधु-संगत की इनायत से सहज अवस्था में टिका हुआ) कोई विरला मनुष्य ऐसे समझता है कि (काम-वासना आदि वाली) इंद्री भी (परमात्मा के बिना) किसी और से नहीं बनी, (वह यह समझता है कि) सारे करिश्मे कर्तार स्वयं ही कर रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी एक लिव लागी दुबिधा तदे बिनासी ॥ जो तिसु भाणा सो सति करि मानिआ काटी जम की फासी ॥४॥
मूलम्
गुर परसादी एक लिव लागी दुबिधा तदे बिनासी ॥ जो तिसु भाणा सो सति करि मानिआ काटी जम की फासी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर परसादी = गुर प्रसादि, गुरु की कृपा से। लिव = लगन, प्रीत। दुबिधा = मेर तेर। तिस भाणा = उस प्रभु को अच्छा लगा। सति = ठीक, सही। जम = मौत, आत्मिक मौत। फासी = फाही।4।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत में रह के जब) गुरु की कृपा से एक परमात्मा का प्यार (हृदय में) बन जाता है, तब (मनुष्य के अंदर से) मेर-तेर दूर हो जाती है। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वह मनुष्य उसको ठीक मानता है, और, उसकी आत्मिक मौत वाली फाँसी काटी जाती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भणति नानकु लेखा मागै कवना जा चूका मनि अभिमाना ॥ तासु तासु धरम राइ जपतु है पए सचे की सरना ॥५॥१॥
मूलम्
भणति नानकु लेखा मागै कवना जा चूका मनि अभिमाना ॥ तासु तासु धरम राइ जपतु है पए सचे की सरना ॥५॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भणति = कहता है। मागै कवना = कौन माँग सकता है? कोई नहीं माँग सकता। जा = जब। चूका = समाप्त हो गया। मनि = मन में (बसता)। तासु तासु = त्राहि त्राहि, बचा ले बचा ले (त्रायस्व)। पए = पड़ गए।5।
अर्थ: नानक कहता है: (साधु-संगत की इनायत से) जब मनुष्य के मन में (बसता) अहंकार समाप्त हो जाता है तब कोई भी (उससे उसके बुरे कर्मों का) लेखा नहीं माँग सकता (क्योंकि उसके अंदर कोई बुराई रह ही नहीं जाती)। (साधु-संगत में रहने वाले व्यक्ति) उस सदा-स्थिर प्रभु की शरण पड़े रहते हैं जिसकी हजूरी में धर्मराज भी कहता रहता है: मैं तेरी शरण हूँ, मैं तेरी शरण हूँ।5।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सत्संग में टिकने से ‘सहजि अवस्था’ प्राप्त होती है जिसका नक्शा इस सारे शब्द में है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ आवण जाणा ना थीऐ निज घरि वासा होइ ॥ सचु खजाना बखसिआ आपे जाणै सोइ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ आवण जाणा ना थीऐ निज घरि वासा होइ ॥ सचु खजाना बखसिआ आपे जाणै सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवण जाणा = पैदा होना मरना। थीऐ = होता। निज घरि = अपने (असल) घर में। सचु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम। आपे = (प्रभु) आप ही।1।
अर्थ: (हे स्मरण का सदका) जनम-मरण (चक्कर) नहीं रहता, अपने असल घर में (प्रभु की हजूरी में) तवज्जो टिकी रहती है। पर सदा-स्थिर प्रभु का यह नाम-खजाना (उसने स्वयं ही) बख्शा है, वह प्रभु खुद ही जानता है (कि कौन इस दाति के योग्य है)।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ए मन हरि जीउ चेति तू मनहु तजि विकार ॥ गुर कै सबदि धिआइ तू सचि लगी पिआरु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ए मन हरि जीउ चेति तू मनहु तजि विकार ॥ गुर कै सबदि धिआइ तू सचि लगी पिआरु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेति = चेते करता रह, स्मरण कर। मनहु = मन से। तजि = छोड़ दे। सबदि = शब्द में (जुड़ के)। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। लगी = बन जाएगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा को याद करता रह। हे भाई! तू अपने मन में विचारों को त्याग दे। गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु का स्मरण किया कर। (नाम-जपने की इनायत से) सदा-स्थिर प्रभु में प्यार बनेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐथै नावहु भुलिआ फिरि हथु किथाऊ न पाइ ॥ जोनी सभि भवाईअनि बिसटा माहि समाइ ॥२॥
मूलम्
ऐथै नावहु भुलिआ फिरि हथु किथाऊ न पाइ ॥ जोनी सभि भवाईअनि बिसटा माहि समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐथे = इस लोक में, इस जनम में। नावहु = नाम से। किथाऊ = कहीं भी। जोनी सभि = सारी जूनियां। भवाइअनि = भटकती जाती हैं। बिसटा = विकारों का गंद।2।
अर्थ: हे भाई! इस जनम में प्रभु के नाम से टूटे रहने पर (ये मनुष्य जनम पाने के लिए) दोबारा कहीं भी हाथ नहीं पड़ सकता (मौका नहीं मिलता), (नाम से टूटा हुआ व्यक्ति) सारी ही जूनियों में पाया जाता है, वह सदा विकारों के गंद में पड़ा रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडभागी गुरु पाइआ पूरबि लिखिआ माइ ॥ अनदिनु सची भगति करि सचा लए मिलाइ ॥३॥
मूलम्
वडभागी गुरु पाइआ पूरबि लिखिआ माइ ॥ अनदिनु सची भगति करि सचा लए मिलाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरबि = पहले जनम में। माइ = हे माँ! अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सची भगति = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति। करि = कर के, के कारण। सचा = सदा स्थिर प्रभु।3।
अर्थ: हे माँ! जिस मनुष्य के माथे पर धुर से लेख लिखे होते हैं, उसको बड़े भाग्यों से गुरु मिलता है। हर वक्त सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति के कारण सदा-स्थिर प्रभु उसको (अपने चरणों में) जोड़े रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे नदरि करेइ ॥ नानक नामि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥४॥२॥
मूलम्
आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे नदरि करेइ ॥ नानक नामि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। साजीअनु = साजी है उसने। नदरि = निगाह। नामि = नाम में (जोड़ के)। जै = जो उसको। भावै = अच्छा लगता है। तै = तिसु, उसको। देइ = देता है।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा ने स्वयं ही सारी सृष्टि पैदा की है, वह स्वयं ही (इस पर) मेहर की निगाह करता है; जो जीव उसको अच्छा लगता है उसको (अपने) नाम में (जोड़ के लोक-परलोक की) महानता देता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ पिछले गुनह बखसाइ जीउ अब तू मारगि पाइ ॥ हरि की चरणी लागि रहा विचहु आपु गवाइ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ पिछले गुनह बखसाइ जीउ अब तू मारगि पाइ ॥ हरि की चरणी लागि रहा विचहु आपु गवाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुनह = गुनाह, पाप। बखसाइ = बख्श। जीउ = हे प्रभु जी! अब = इस जनम में। मारगि = (ठीक) रास्ते पर। लागि रहा = (ता कि) मैं लगा रहूँ। आपु = स्वै भाव, अहंकार। गवाइ = दूर करके।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! मेरे पिछले गुनाह बख्श, अब तू मुझे सही रास्ते पर चला; अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके (मैं) हरि के चरणों में टिका रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन गुरमुखि नामु हरि धिआइ ॥ सदा हरि चरणी लागि रहा इक मनि एकै भाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन गुरमुखि नामु हरि धिआइ ॥ सदा हरि चरणी लागि रहा इक मनि एकै भाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके, गुरु की शरण पड़ कर। इक मनि = एकाग्र चिक्त हो के। एकै भाइ = एक (परमात्मा) के ही प्यार में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ कर हरि का नाम स्मरण किया कर (और, अरदास किया कर- हे प्रभु! मेहर कर) मैं सदा, हे हरि! एकाग्र चिक्त हो के एक तेरे ही प्यार में टिक के तेरे चरणों में जुड़ा रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना मै जाति न पति है ना मै थेहु न थाउ ॥ सबदि भेदि भ्रमु कटिआ गुरि नामु दीआ समझाइ ॥२॥
मूलम्
ना मै जाति न पति है ना मै थेहु न थाउ ॥ सबदि भेदि भ्रमु कटिआ गुरि नामु दीआ समझाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मेरी। पति = इज्जत। थेहु = जमीन की माल्कियत। थाउ = जगह, घर घाट। सबदि = शब्द से। भेदि = भेद के। भ्रमु = भटकना। गुरि = गुरु ने। समझाइ = जीवन-राह की समझ दे के।2।
अर्थ: हे भाई! ना मेरी (कोई ऊँची) जाति है, ना (मेरी लोगों में कोई) इज्जत है, ना मेरी जमीन की कोई मल्कियत है, ना मेरा कोई घर-घाट है, (मुझ निमाणे को) गुरु ने (अपने) शब्द से भेद के मेरी भटकना काट दी है, मुझे आत्मिक जीवन की सूझ बख्श के परमात्मा का नाम दिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु लालच करदा फिरै लालचि लागा जाइ ॥ धंधै कूड़ि विआपिआ जम पुरि चोटा खाइ ॥३॥
मूलम्
इहु मनु लालच करदा फिरै लालचि लागा जाइ ॥ धंधै कूड़ि विआपिआ जम पुरि चोटा खाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लालच = अनेक लालच (बहुवचन)। लालचि = लालच में। जाइ = भटकता फिरता है। धंधै = धंधे में। कूड़ि = झूठ में। विआपिआ = फसा हुआ। जम पुरि = जम के शहर में, आत्मिक मौत के वश में। चोटा = चोटें, (चिन्ता फिक्र की) चोटें।3।
अर्थ: (हे भाई! हरि-नाम से टूटा हुआ) यह मन अनेक लालचें करता फिरता है, (माया के) लालच में लग के भटकता है। (माया के) झूठे धंधे में फंसा हुआ आत्मिक मौत में पड़ कर (चिन्ता-फिक्र की) चोटें खाता रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक सभु किछु आपे आपि है दूजा नाही कोइ ॥ भगति खजाना बखसिओनु गुरमुखा सुखु होइ ॥४॥३॥
मूलम्
नानक सभु किछु आपे आपि है दूजा नाही कोइ ॥ भगति खजाना बखसिओनु गुरमुखा सुखु होइ ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! आपे = स्वयं ही। बखसिओनु = उसने बख्शा है। गुरमुखा = गुरु के सन्मुख रहने वालों को।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश? ये जो कुछ सारा संसार दिखाई दे रहा है ये) सब कुछ परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, उसके बिना (किसी पर भी) कोई और नहीं है। गुरु के सन्मुख रहने वालों को (अपनी) भक्ति का खजाना उसने स्वयं ही बख्शा है (जिसके कारण उनको) आत्मिक आनंद बना रहता है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ सचि रते से टोलि लहु से विरले संसारि ॥ तिन मिलिआ मुखु उजला जपि नामु मुरारि ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ सचि रते से टोलि लहु से विरले संसारि ॥ तिन मिलिआ मुखु उजला जपि नामु मुरारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। रते = रंगे हुए। से = वह (बहुवचन)। संसारि = संसार में। जपि = जप के। नामु मुरारि = परमात्मा का नाम।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा (के नाम) में (सदा) रंगे रहते हैं उनकी तलाश कर (वैसे) वह जगत में कोई विरले-विरले ही होते हैं, उनको मिलने से परमात्मा का नाम जप के (लोक परलोक में) सही स्वीकार हो जाया जाता है (इज्जत मिलती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा साचा साहिबु रिदै समालि ॥ सतिगुरु अपना पुछि देखु लेहु वखरु भालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा साचा साहिबु रिदै समालि ॥ सतिगुरु अपना पुछि देखु लेहु वखरु भालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! साचा = सदा स्थिर। साहिबु = मालिक। रिदै = हृदय में। समालि = याद कर। पुछि = पूछ के। वखरु = नाम का सौदा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु को (अपने) हृदय में (सदा) याद करता रह (यही है जीवन का असल उद्देश्य; बेशक) अपने गुरु को पूछ के देख ले। हे भाई! गुरु से ये नाम का सौदा पा ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकु सचा सभ सेवदी धुरि भागि मिलावा होइ ॥ गुरमुखि मिले से न विछुड़हि पावहि सचु सोइ ॥२॥
मूलम्
इकु सचा सभ सेवदी धुरि भागि मिलावा होइ ॥ गुरमुखि मिले से न विछुड़हि पावहि सचु सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी दुनिया। सेवदी = भक्ति करती। धुरि = धुर से। धुरि भागि = धुर से लिखे भाग्य अनुसार। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पावहि = ढूँढ लेते हैं (बहुवचन)।2।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ एक परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है, सारी लुकाई उसकी ही सेवा-भक्ति करती है, धुर से लिखी किस्मत से ही (उस परमात्मा के साथ) मिलाप होता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (उसके चरणों में) जुड़ते हैं, वह (दोबारा) नहीं विछुड़ते, वह उस सदा-स्थिर प्रभु (का मिलाप) प्राप्त कर लेते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि भगती सार न जाणनी मनमुख भरमि भुलाइ ॥ ओना विचि आपि वरतदा करणा किछू न जाइ ॥३॥
मूलम्
इकि भगती सार न जाणनी मनमुख भरमि भुलाइ ॥ ओना विचि आपि वरतदा करणा किछू न जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई (जीव)। सार = कद्र। जाणनी = जानते। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। भरमि = भटकना में, भटकना के कारण। भुलाइ = गलत रास्ते पर पड़ के। वरतदा = मौजूद है। करणा न जाइ = किया नहीं जा सकता।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे लोग हैं जो अपने मन के पीछे चलते हैं, माया की भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, वह लोग प्रभु की भक्ति की कद्र नहीं समझते। (पर, हे भाई!) उन (मनमुखों) के अंदर (भी) परमात्मा स्वयं ही बसता है (और उन्हें गलत राह पर डाले रखता है, सो उसके उलट) कुछ भी किया नहीं जा सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु नालि जोरु न चलई खले कीचै अरदासि ॥ नानक गुरमुखि नामु मनि वसै ता सुणि करे साबासि ॥४॥४॥
मूलम्
जिसु नालि जोरु न चलई खले कीचै अरदासि ॥ नानक गुरमुखि नामु मनि वसै ता सुणि करे साबासि ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न चलई = न चलै, नहीं चल सकता। खले = (उसके दर पर) खड़े हो के, अदब से। कीचै = करनी चाहिए। मनि = मन में। ता = तब। सुणि = सुन के।4।
अर्थ: (तो फिर उन मनमुखों के लिए क्या किया जाए? यही कि) जिस परमात्मा के आगे (जीव की कोई) पेश नहीं चल सकती, उसके दर पर अदब से अरदास करते रहना चाहिए। हे नानक! जब गुरु के द्वारा परमात्मा का नाम मन में बसता है तब वह प्रभु (आरजू) सुन के आदर देता है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ मारू ते सीतलु करे मनूरहु कंचनु होइ ॥ सो साचा सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ मारू ते सीतलु करे मनूरहु कंचनु होइ ॥ सो साचा सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारू = रेता स्थल, तपती रेत, तृष्णा से जल रहा दिल। ते = से। सीतलु = ठंडा। मनूरहु = मनूर से, जले हुए लोहे से। कंचनु = सोना। साचा = सदा स्थिर प्रभु। जेवडु = जितना बड़ा, बराबर का।1।
अर्थ: हे मन! (परमात्मा का स्मरण) तपते रेगिस्तान (जैसे जलते दिल) को शांत कर देता है, (नाम-जपने की इनायत से) मनूर (जंग लगे लोहे जैसा मन) सोने (सा शुद्ध) बन जाता है। हे मन! उस सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करनी चाहिए, उसके बराबर का और कोई नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन अनदिनु धिआइ हरि नाउ ॥ सतिगुर कै बचनि अराधि तू अनदिनु गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन अनदिनु धिआइ हरि नाउ ॥ सतिगुर कै बचनि अराधि तू अनदिनु गुण गाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अनदिनु = हर रोज। कै बचनि = वचन से, के वचन पर चल के। गाउ = गाता रह।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हर वक्त स्मरण करता रह। गुरु के वचनों पर चल के तू प्रभु की आराधना करता रह, हर वक्त परमात्मा के गुण गाया कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि एको जाणीऐ जा सतिगुरु देइ बुझाइ ॥ सो सतिगुरु सालाहीऐ जिदू एह सोझी पाइ ॥२॥
मूलम्
गुरमुखि एको जाणीऐ जा सतिगुरु देइ बुझाइ ॥ सो सतिगुरु सालाहीऐ जिदू एह सोझी पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा। एको जाणीऐ = सिर्फ एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली जा सकती है। जा = जब। देइ बुझाइ = देय बुझाय, आत्मिक जीवन की सूझ देता है। जिदू = जिस (गुरु) से।2।
अर्थ: हे मन! जब गुरु (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्शता है (तब) गुरु के माध्यम से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन जाती है। हे मन! जिस गुरु से ये समझ प्राप्त होती है उस गुरु की सदा उपमा करनी चाहिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु छोडि दूजै लगे किआ करनि अगै जाइ ॥ जम पुरि बधे मारीअहि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥
मूलम्
सतिगुरु छोडि दूजै लगे किआ करनि अगै जाइ ॥ जम पुरि बधे मारीअहि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। दूजै = किसी और में। लगे = (जो लोग) लगे हुए हैं। करनि = करते हैं, करेंगे (बहुवचन)। अगै = परलोक में। जाइ = जा के। जम पुरि = जम राज के दरबार में। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं।3।
अर्थ: हे मन! जो लोग गुरु को छोड़ के (माया आदि) और ही (मोह) में लगे रहते हैं वे परलोक में जा के क्या करेंगे? (ऐसे बँदे तो) जमराज की कचहरी में बँधे हुए मार खाते हैं, ऐसों को तो बड़ी सजा मिलती है।3।
[[0995]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा प्रभु वेपरवाहु है ना तिसु तिलु न तमाइ ॥ नानक तिसु सरणाई भजि पउ आपे बखसि मिलाइ ॥४॥५॥
मूलम्
मेरा प्रभु वेपरवाहु है ना तिसु तिलु न तमाइ ॥ नानक तिसु सरणाई भजि पउ आपे बखसि मिलाइ ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेपरवाहु = बेमुहताज। तिलु तमाइ = तिल जितना भी लालच (तमा)। भजि पउ = दौड़ के जा पड़। बखसि = मेहर कर के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा को किसी की अधीनता नहीं, परमात्मा को कोई रक्ती जितना भी लालच नहीं (जीव ने अपने भले के वास्ते ही स्मरण करना है; सो) उस परमात्मा की शरण ही जल्दी जा पड़ो, (शरण पड़े को) वह स्वयं ही मेहर करके अपने चरणों में जोड़ता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपिओ नामु सुक जनक गुर बचनी हरि हरि सरणि परे ॥ दालदु भंजि सुदामे मिलिओ भगती भाइ तरे ॥ भगति वछलु हरि नामु क्रितारथु गुरमुखि क्रिपा करे ॥१॥
मूलम्
जपिओ नामु सुक जनक गुर बचनी हरि हरि सरणि परे ॥ दालदु भंजि सुदामे मिलिओ भगती भाइ तरे ॥ भगति वछलु हरि नामु क्रितारथु गुरमुखि क्रिपा करे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुक = सुकदेव (ऋषि ब्यास का पुत्र)। गुर बचनी = गुरु के वचन से। दालदु = गरीबी। भंजि = दूर करके। भाई = प्रेम से। भगती भाइ = भक्ति भाव से। तरे = पार लांघ गए। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला (वत्सल)। क्रितारथु = (क्रित+अर्थ) कामयाब (बनाने वाला)। गुरमुखि = गुरु से।1।
अर्थ: हे मन! राजा जनक ने, शुकदेव ऋषि ने गुरु के वचनों के द्वारा परमात्मा का नाम जपा, ये परमात्मा की शरण आ पड़े; सुदामा भक्त की गरीबी दूर करके प्रभु सुदामे को आ मिला। ये सब भक्ति भावना से संसार-समुंदर से पार हुए। परमात्मा भक्ति से प्यार करने वाला है, परमात्मा का नाम (मनुष्य के जीवन को) कामयाब बनाने वाला है। (ये नाम मिलता उनको है जिस पर) गुरु के द्वारा मेहर होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नामु जपत उधरे ॥ ध्रू प्रहिलादु बिदरु दासी सुतु गुरमुखि नामि तरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन नामु जपत उधरे ॥ ध्रू प्रहिलादु बिदरु दासी सुतु गुरमुखि नामि तरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! उधरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए। दासी सुतु = दासी का पुत्र। नामि = नाम से।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपते हुए (अनेक प्राणी) विकारों से बच जाते हैं। धुराव भक्त, प्रहिलाद भक्त, दासी का पुत्र बिदर- (ये सारे) गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में जुड़ के संसार-समुंदर से पार लांघ गए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलजुगि नामु प्रधानु पदारथु भगत जना उधरे ॥ नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु सभि दोख गए चमरे ॥ गुरमुखि नामि लगे से उधरे सभि किलबिख पाप टरे ॥२॥
मूलम्
कलजुगि नामु प्रधानु पदारथु भगत जना उधरे ॥ नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु सभि दोख गए चमरे ॥ गुरमुखि नामि लगे से उधरे सभि किलबिख पाप टरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलजुगि = कलियुग में। प्रधान = श्रेष्ठ। सभि = सारे। दोख = ऐब। चमरे = (रविदास) चमार के। नामि = नाम में। से = वह (बहुवचन)। किलबिख = पाप। टरे = टल गए।2।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम ही जगत में सबसे श्रेष्ठ पदार्थ है। भक्त जन (इस नाम की इनायत से ही) विकारों से बचते हैं। नामदेव बच गया, जैदेव बच गया, कबीर बच गया, त्रिलोचन बच गया; नाम की इनायत से (रविदास) चमार के सारे पाप दूर हो गए। हे मन! जो भी मनुष्य गुरु के द्वारा हरि-नाम में लगे वे सब विकारों से बच गए, (उनके) सारे पाप टल गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो नामु जपै अपराधी सभि तिन के दोख परहरे ॥ बेसुआ रवत अजामलु उधरिओ मुखि बोलै नाराइणु नरहरे ॥ नामु जपत उग्रसैणि गति पाई तोड़ि बंधन मुकति करे ॥३॥
मूलम्
जो जो नामु जपै अपराधी सभि तिन के दोख परहरे ॥ बेसुआ रवत अजामलु उधरिओ मुखि बोलै नाराइणु नरहरे ॥ नामु जपत उग्रसैणि गति पाई तोड़ि बंधन मुकति करे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो जो = जो जो मनुष्य। अपराधी = विकारी (भी)। सभि = सारे। दोख = पाप। परहरे = दूर करता है। वेसुआ = वेश्या। रवत = संग करने वाला। उधरिओ = बच गया। मुखि = मुँह से। नरहरे = परमात्मा, नर हरि। उग्रसैणि = उग्रसेन ने (कंस का पिता)। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। तोड़ि = तोड़ के। बंधन = मोह की फाहियां। मुकति = बंधनो से मुक्ति।3।
अर्थ: हे मन! जो जो विकारी व्यक्ति (भी) परमात्मा का नाम जपता है, परमात्मा उनके सारे विकार दूर कर देता है। (देख) वेश्या का संग करने वाला अजामल जब मुँह से ‘नारायण नर हरि’ उचारने लग पड़ा, तब वह विकारों से बच गया। परमात्मा का नाम जपते हुए उग्रसैन ने उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली, परमात्मा ने उसके बंधन तोड़ के उसको विकारों से निजात बख्शी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन कउ आपि अनुग्रहु कीआ हरि अंगीकारु करे ॥ सेवक पैज रखै मेरा गोविदु सरणि परे उधरे ॥ जन नानक हरि किरपा धारी उर धरिओ नामु हरे ॥४॥१॥
मूलम्
जन कउ आपि अनुग्रहु कीआ हरि अंगीकारु करे ॥ सेवक पैज रखै मेरा गोविदु सरणि परे उधरे ॥ जन नानक हरि किरपा धारी उर धरिओ नामु हरे ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = सेवक। कउ = को। अनुग्रहु = कृपा, दया। अंगीकारु = पक्ष। पैज = सत्कार, इज्जत। उधरे = विकारों से बच गए। जन नानक = हे दास नानक! उर = हृदय। हरे = हरि का।4।
अर्थ: हे मन! परमात्मा अपने भक्त पर (सदा) खुद मेहर करता आ रहा है, अपने भक्त का (सदा) पक्ष करता है। परमात्मा अपने सेवक की इज्जत रखता है, जो भी उसकी शरण पड़ते हैं वे विकारों से बच जाते हैं। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर प्रभु ने मेहर (की निगाह) की, उसने उसका नाम अपने हृदय में बसा लिया।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ ॥ सिध समाधि जपिओ लिव लाई साधिक मुनि जपिआ ॥ जती सती संतोखी धिआइआ मुखि इंद्रादिक रविआ ॥ सरणि परे जपिओ ते भाए गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ४ ॥ सिध समाधि जपिओ लिव लाई साधिक मुनि जपिआ ॥ जती सती संतोखी धिआइआ मुखि इंद्रादिक रविआ ॥ सरणि परे जपिओ ते भाए गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = सिद्ध, योग साधना में सिद्ध योगी। लिव लाई = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। साधिक = साधन करने वाले। मुखि = मुँह से। इंद्रादिक = इन्द्र आदिकों ने। रविआ = जपा। ते = वे (बहुवचन)। भाए = (प्रभु को) अच्छे लगे। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चल के।1।
अर्थ: हे मन! सिद्ध समाधि लगा के तवज्जो जोड़ के जपते रहे, साधिक और मुनि जपते रहे। जतियों ने प्रभु का ध्यान धरा, सतियों ने संतोखियों ने ध्यान धरा, इन्द्र आदिक देवताओं ने मुँह से प्रभु का नाम जपा। हे मन! जो गुरु की शरण पड़ कर प्रभु की शरण पड़े, जिन्होंने गुरु के रास्ते पर चल के नाम जपा, वे परमात्मा को प्यारे लगे, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नामु जपत तरिआ ॥ धंना जटु बालमीकु बटवारा गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन नामु जपत तरिआ ॥ धंना जटु बालमीकु बटवारा गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! बटवारा = डाकू, राह मारने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हुए (अनेक प्राणी संसार समुंदर से) पार लांघ गए। धन्ना जट पार लांघ गया, बाल्मीक डाकू पार लांघ गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरि नर गण गंधरबे जपिओ रिखि बपुरै हरि गाइआ ॥ संकरि ब्रहमै देवी जपिओ मुखि हरि हरि नामु जपिआ ॥ हरि हरि नामि जिना मनु भीना ते गुरमुखि पारि पइआ ॥२॥
मूलम्
सुरि नर गण गंधरबे जपिओ रिखि बपुरै हरि गाइआ ॥ संकरि ब्रहमै देवी जपिओ मुखि हरि हरि नामु जपिआ ॥ हरि हरि नामि जिना मनु भीना ते गुरमुखि पारि पइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरि = देवते। गंधरबे = देवताओं के गवईऐ। रिखि बपुरै = बेचारे ऋषि (धर्मराज) ने। संकरि = शिव ने। नामि = नाम में। भीना = भीग गया। गण = शिव जी के खास उपासक देवते जो गणेश के अधीन बताए जाते हैं।2।
अर्थ: हे मन! देवताओं ने, मनुष्यों ने, (शिव जी के उपासक-) गणों ने, देवताओं के रागियों ने नाम जपा; बेचारे धर्मराज ने हरि का गुणगान किया। शिव ने, देवताओं ने मुँह से हरि का नाम जपा। हे मन! गुरु की शरण पड़ कर जिनका मन परमात्मा के नाम-रस में भीग गया वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि कोटि तेतीस धिआइओ हरि जपतिआ अंतु न पाइआ ॥ बेद पुराण सिम्रिति हरि जपिआ मुखि पंडित हरि गाइआ ॥ नामु रसालु जिना मनि वसिआ ते गुरमुखि पारि पइआ ॥३॥
मूलम्
कोटि कोटि तेतीस धिआइओ हरि जपतिआ अंतु न पाइआ ॥ बेद पुराण सिम्रिति हरि जपिआ मुखि पंडित हरि गाइआ ॥ नामु रसालु जिना मनि वसिआ ते गुरमुखि पारि पइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़। हरि जपतिआ अंतु = हरि का नाम जपने वालों की गिनती। मुखि = मुँह से। पंडित = पण्डितों ने (बहुवचन)। रसालु = (रस+आलय) सारे रसों का घर। मनि = मन में। ते = वे (बहुवचन)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।3।
अर्थ: हे मेरे मन! तेतीस करोड़ देवताओं ने परमात्मा का नाम जपा, हरि-नाम जपने वालों (की गिनती) का अंत नहीं पाया जा सकता। वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि धर्म-पुस्तकों के लिखने वालों ने हरि-नाम जपा, पण्डितों ने मुँह से प्रभु की महिमा का गीत गाया। हे मन! गुरु की शरण पड़ कर जिनके मन में सारे रसों का श्रोत हरि-नाम टिक गया, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनत तरंगी नामु जिन जपिआ मै गणत न करि सकिआ ॥ गोबिदु क्रिपा करे थाइ पाए जो हरि प्रभ मनि भाइआ ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि नामु द्रिड़ाइओ जन नानक नामु लइआ ॥४॥२॥
मूलम्
अनत तरंगी नामु जिन जपिआ मै गणत न करि सकिआ ॥ गोबिदु क्रिपा करे थाइ पाए जो हरि प्रभ मनि भाइआ ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि नामु द्रिड़ाइओ जन नानक नामु लइआ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहर। अनत तरंगी = बेअंत लहरों वाला प्रभु। जिन = जिन्होंने। थाइ पाए = स्वीकार करता है, स्वीकार करता है। जो = जो जीव। प्रभ मनि = प्रभु के मन में। भाइआ = अच्छा लगा। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइओ = हृदय में पक्का कर दिया।4।
अर्थ: हे मेरे मन! बेअंत रचना के मालिक परमात्मा का नाम जिस प्राणियों ने जपा है, मैं उनकी गिनती नहीं कर सकता। जो प्राणी परमात्मा के मन को भा जाते हैं, परमात्मा कृपा करके (उनकी सेवा-भक्ति) स्वीकार करता है।
हे नानक! गुरु ने कृपा करके जिनके हृदय में परमात्मा का नाम दृढ़ कर दिया, (उन्होंने ही) नाम स्मरण किया है।4।2।
[[0996]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ४ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु निधानु लै गुरमति हरि पति पाइ ॥ हलति पलति नालि चलदा हरि अंते लए छडाइ ॥ जिथै अवघट गलीआ भीड़ीआ तिथै हरि हरि मुकति कराइ ॥१॥
मूलम्
हरि हरि नामु निधानु लै गुरमति हरि पति पाइ ॥ हलति पलति नालि चलदा हरि अंते लए छडाइ ॥ जिथै अवघट गलीआ भीड़ीआ तिथै हरि हरि मुकति कराइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = (असल) खजाना। लै = हासिल कर। गुरमति = गुरु की मति से। पति = इज्ज्त। हलति = इस लोक में (अत्र)। पलति = परलोक में (परत्र)। चलदा = साथ निबाहता है। अंते = आखिरी वक्त में। घट = पत्तन। अवघट = पत्तन दूर का बिखड़ा रास्ता। मुकति = निजात।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (ही असल) खजाना है; गुरु की शिक्षा पर चल के (ये खजाना) हासल कर; (जिसके पास ये खजाना होता है, वह) प्रभु की हजूरी में इज्जत पाता है। (ये खजाना) इस लोक में और परलोक में साथ निभाता है, और आखिरी वक्त भी परमात्मा (दुखों से) बचा लेता है। हे भाई! जीवन के जिस इस रास्ते में पत्तन से दूर के बिखड़े रास्ते हैं, बहुत ही संकरी गलियाँ हैं (जिनमें आत्मिक जीवन का दम घुटता जाता है) वहाँ परमात्मा ही निजात दिलवाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे सतिगुरा मै हरि हरि नामु द्रिड़ाइ ॥ मेरा मात पिता सुत बंधपो मै हरि बिनु अवरु न माइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे सतिगुरा मै हरि हरि नामु द्रिड़ाइ ॥ मेरा मात पिता सुत बंधपो मै हरि बिनु अवरु न माइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरा = हे सतिगुरु! मतै द्रिढ़ाइ = मेरे हृदय में पक्का कर। सुत = पुत्र। बंधपो = रिश्तेदार। माइ = हे माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सतिगुरु! परमात्मा का नाम मेरे हृदय में दृढ़ कर दे। हे मेरी माँ! हरि ही मेरी माँ है, हरि ही मेरा पिता है, हरि ही मेरे पुत्र हैं, हरि ही मेरा संबंधी है। हे माँ! हरि के बिना और कोई मेरा (पक्का साक) नहीं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै हरि बिरही हरि नामु है कोई आणि मिलावै माइ ॥ तिसु आगै मै जोदड़ी मेरा प्रीतमु देइ मिलाइ ॥ सतिगुरु पुरखु दइआल प्रभु हरि मेले ढिल न पाइ ॥२॥
मूलम्
मै हरि बिरही हरि नामु है कोई आणि मिलावै माइ ॥ तिसु आगै मै जोदड़ी मेरा प्रीतमु देइ मिलाइ ॥ सतिगुरु पुरखु दइआल प्रभु हरि मेले ढिल न पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरही = प्यारा। आणि = ला के। जोदड़ी = आरजू। देइ मिलाइ = देय मिलाय, मिला दे। प्रभ हरि मेले = हरि प्रभु (से) मिला देता है।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही मेरा (असल) प्यारा (मित्र) है। हे माँ! अगर कोई (उस मित्र को) ला के (मेरे साथ) मिलाप करवा सकता हो, मैं उसके आगे नित्य आरजू करता रहूँ, भला कि कहीं मेरा प्रीतम मुझे मिला दे। हे माँ! गुरु ही दयावान पुरख है जो हरि प्रभु के साथ मिला देता है और रक्ती भर भी देरी नहीं होती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन हरि हरि नामु न चेतिओ से भागहीण मरि जाइ ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि मरि जमहि आवै जाइ ॥ ओइ जम दरि बधे मारीअहि हरि दरगह मिलै सजाइ ॥३॥
मूलम्
जिन हरि हरि नामु न चेतिओ से भागहीण मरि जाइ ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि मरि जमहि आवै जाइ ॥ ओइ जम दरि बधे मारीअहि हरि दरगह मिलै सजाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = (बहुवचन) जिन्होंने। से = वह लोग (बहुवचन)। भाग हीण = बद् किस्मत (बहुवचन)। मरि जाइ = (एकवचन) मर जाता है, आत्मिक मौत मरता है। ओइ = वह लोग। भवाईअहि = भटकाए जाते हैं। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं, मरते हैं पैदा होते हैं। आवै जाइ = (एकवचन) आता है जाता है, पैदा होता है मरता है। जम दरि = जमराज के दर पर। मारीअहि = पिटाई होती है।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने कभी परमात्मा का स्मरण नहीं किया, वे बद्-किस्मत हैं। हे भाई! (नाम-हीन मनुष्य) आत्मिक मौत मरा रहता है। वह (नाम से वंचित) बंदे बार-बार जूनियों में भटकाए जाते हैं, वह जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे भाई! नाम-हीन मनुष्य पैदा होता है मरता रहता है। हे भाई! उन (नाम से वंचित हुए) बंदों की जमराज के दर बाँध कर मार-पिटाई होती है। प्रभु की दरगाह में उनको (ये) सजा मिलती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू प्रभु हम सरणागती मो कउ मेलि लैहु हरि राइ ॥ हरि धारि क्रिपा जगजीवना गुर सतिगुर की सरणाइ ॥ हरि जीउ आपि दइआलु होइ जन नानक हरि मेलाइ ॥४॥१॥३॥
मूलम्
तू प्रभु हम सरणागती मो कउ मेलि लैहु हरि राइ ॥ हरि धारि क्रिपा जगजीवना गुर सतिगुर की सरणाइ ॥ हरि जीउ आपि दइआलु होइ जन नानक हरि मेलाइ ॥४॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभू = मालिक। हम = हम जीव। सरणागती = शरण आते हैं। मो कउ = मुझे। हरि राइ = हे प्रभु पातशाह! जग जीवना = हे जगत के जीवन हरि! दइआलु = दयावान।4।
अर्थ: हे पातशाह! तू हमारा मालिक है, हम जीव तेरी शरण में हैं। हे पातशाह! मुझे (अपने चरणों में) जोड़े रख। हे हरि! हे जगत के जीवन हरि! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरु की शरण सतिगुरु की शरण में (सदा) रख। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा आप दयावान होता है, उसको (गुरु की शरण में रख के) अपने साथ मिला लेता है।4।1।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ ॥ हउ पूंजी नामु दसाइदा को दसे हरि धनु रासि ॥ हउ तिसु विटहु खन खंनीऐ मै मेले हरि प्रभ पासि ॥ मै अंतरि प्रेमु पिरम का किउ सजणु मिलै मिलासि ॥१॥
मूलम्
मारू महला ४ ॥ हउ पूंजी नामु दसाइदा को दसे हरि धनु रासि ॥ हउ तिसु विटहु खन खंनीऐ मै मेले हरि प्रभ पासि ॥ मै अंतरि प्रेमु पिरम का किउ सजणु मिलै मिलासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। दसाइदा = मैं पूछता हूँ, मैं तलाश रहा हूँ। को = कोई (सज्जन)। दसे = बताए। रासि = राशि। विटहु = से, में से। खन खंनीऐ = सदके, बलिहार। पासि = साथ, से। मै अंतरि = मेरे अंदर, मेरे हृदय में। पिरंम का = प्यारे प्रभु का। किउ = कैसे? किस तरह?।1।
अर्थ: हे भाई! मैं हरि-नाम सरमाए की तलाश करता फिरता हूँ। अगर कोई मुझे उस नाम-धन, नाम-राशि के बारे में बता दे, और, मुझे हरि-प्रभु के साथ जोड़ दे तो मैं उसके सदके जाऊँ, बलिहार जाऊँ। हे भाई! मेरे हृदय में प्यारे प्रभु का प्रेम बस रहा है। वह सज्जन मुझे कैसे मिले? मैं उससे किस प्रकार मिलूँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन पिआरिआ मित्रा मै हरि हरि नामु धनु रासि ॥ गुरि पूरै नामु द्रिड़ाइआ हरि धीरक हरि साबासि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन पिआरिआ मित्रा मै हरि हरि नामु धनु रासि ॥ गुरि पूरै नामु द्रिड़ाइआ हरि धीरक हरि साबासि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर दिया। धीरक = धीरज, हौसला।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! हे प्यारे मित्र! परमात्मा का नाम ही मुझे (असल) धन (असल) संपत्ति (प्रतीत होता है)। जिस मनुष्य के हृदय में पूरे गुरु ने प्रभु का नाम पक्का कर दिया, उसको परमात्मा धीरज देता है उसको साबाश देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि आपि मिलाइ गुरु मै दसे हरि धनु रासि ॥ बिनु गुर प्रेमु न लभई जन वेखहु मनि निरजासि ॥ हरि गुर विचि आपु रखिआ हरि मेले गुर साबासि ॥२॥
मूलम्
हरि हरि आपि मिलाइ गुरु मै दसे हरि धनु रासि ॥ बिनु गुर प्रेमु न लभई जन वेखहु मनि निरजासि ॥ हरि गुर विचि आपु रखिआ हरि मेले गुर साबासि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि हरि = हे हरि! मै = मुझे। दसे = बताए, दिखा दे। न लभई = ना मिले, नहीं मिलता। जन = हे जन! हे भाई! मनि = मन में। निरजासि = निर्णय करके। आपु = अपना आप। गुर साबासि = गुरु को शाबाश है।2।
अर्थ: हे हरि! तू खुद ही मुझे गुरु मिला दे, ता कि गुरु मुझे तेरा नाम-धन संपत्ति दिखा दे। हे सज्जनो! अपने मन में निर्णय करके देख लो, गुरु के बिना प्रभु का प्यार हासिल नहीं होता। परमात्मा ने गुरु में अपने आप को रखा हुआ है, गुरु ही उससे मिलाता है। गुरु की उपमा (बड़ाई) करो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सागर भगति भंडार हरि पूरे सतिगुर पासि ॥ सतिगुरु तुठा खोलि देइ मुखि गुरमुखि हरि परगासि ॥ मनमुखि भाग विहूणिआ तिख मुईआ कंधी पासि ॥३॥
मूलम्
सागर भगति भंडार हरि पूरे सतिगुर पासि ॥ सतिगुरु तुठा खोलि देइ मुखि गुरमुखि हरि परगासि ॥ मनमुखि भाग विहूणिआ तिख मुईआ कंधी पासि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागर = समुंदर। भंडार = खजाने। पासि = पास। तुठा = मेहरवान हुआ। खोलि = खोल के। देइ = देय, देता है। मुखि = मुँह से (उपदेश देता है)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। परगास = प्रकाश करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। तिख = प्यास, तृष्णा। मुईआ = मर गई, आत्मिक मौत मर गई। कंधी पासि = (सरोवर के) किनारे पास।3।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु के पास परमात्मा की भक्ति के समुंदर, भक्ति के खजाने मौजूद हैं। जिस गुरमुख मनुष्य पर गुरु मेहरवान होता है (ये खजाने) खोल के (उसको) दे देता है, मुँह से उसको उपदेश करता है जिसके कारण उसके अंदर रूहानी नूर प्रकट हो जाता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री बद्-किस्मत होती है, वह गुरु के नजदीक होते हुए भी वैसे ही आत्मिक मौत मरी रहती है जैसे कोई मनुष्य सरोवर के किनारे पर खड़ा हुआ भी प्यासा मर जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु दाता दातारु है हउ मागउ दानु गुर पासि ॥ चिरी विछुंना मेलि प्रभ मै मनि तनि वडड़ी आस ॥ गुर भावै सुणि बेनती जन नानक की अरदासि ॥४॥२॥४॥
मूलम्
गुरु दाता दातारु है हउ मागउ दानु गुर पासि ॥ चिरी विछुंना मेलि प्रभ मै मनि तनि वडड़ी आस ॥ गुर भावै सुणि बेनती जन नानक की अरदासि ॥४॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ मागउ = मैं माँगता हूँ। चिरी विछुंना = चिर से विछुड़ा हुआ। मै मनि तनि = मेरे मन में मेरे तन में। गुर भावै = हे गुरु! अगर तुझे अच्छा लगे।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु सब दातें देने में समर्थ है। मैं गुरु से यह ख़ैर माँगता हूँ कि मुझे चिरों से विछड़े हुए को प्रभु मिला दे, मेरे मन में मेरे हृदय में ये बड़ी तमन्ना है। हे गुरु! अगर तुझे भाए तो दास नानक की ये विनती सुन, अरदास सुन।4।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ ॥ हरि हरि कथा सुणाइ प्रभ गुरमति हरि रिदै समाणी ॥ जपि हरि हरि कथा वडभागीआ हरि उतम पदु निरबाणी ॥ गुरमुखा मनि परतीति है गुरि पूरै नामि समाणी ॥१॥
मूलम्
मारू महला ४ ॥ हरि हरि कथा सुणाइ प्रभ गुरमति हरि रिदै समाणी ॥ जपि हरि हरि कथा वडभागीआ हरि उतम पदु निरबाणी ॥ गुरमुखा मनि परतीति है गुरि पूरै नामि समाणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि हरि कथा प्रभ = हरि प्रभु की कथा। कथा = महिमा की बात। गुरमति = गुरु की मति से। रिदै = हृदय में। वडभागीआ = हे भाग्यशाली मन! पदु = दर्जा। निरबाणी = वासना रहित। गुरमुखा मनि = गुरु के सन्मुख रहने वालों के मन में। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। नामि = नाम में। सुणाइ = सुन।1।
अर्थ: हे मन! सदा हरि-प्रभु की महिमा सुनता रह। गुरु की मति पर चलने से ही ये हरि-कथा हृदय में टिक सकती है। हे भाग्यशाली मन! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की महिमा याद करता रह, (इस तरह) उत्तम और वासना-रहित आत्मिक दर्जा मिल जाता है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मन में (प्रभु की महिमा के लिए) श्रद्धा बनी रहती है, पूरे गुरु के द्वारा वे हरि नाम में लीन रहते हैं।1।
[[0997]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे मै हरि हरि कथा मनि भाणी ॥ हरि हरि कथा नित सदा करि गुरमुखि अकथ कहाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे मै हरि हरि कथा मनि भाणी ॥ हरि हरि कथा नित सदा करि गुरमुखि अकथ कहाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! मनि = मन में। भाई = प्यारी लगती है। करि = करता रह। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। अकथ कहाणी = अकथ की कहानी। अकथ = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! मुझे अपने अंदर परमात्मा की महिमा प्यारी लगती है। हे मन! परमात्मा की महिमा सदा करता रह। अकथ प्रभु की महिमा गुरु के द्वारा मिलती है (इस वास्ते हे मन! गुरु की शरण पड़ा रह)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै मनु तनु खोजि ढंढोलिआ किउ पाईऐ अकथ कहाणी ॥ संत जना मिलि पाइआ सुणि अकथ कथा मनि भाणी ॥ मेरै मनि तनि नामु अधारु हरि मै मेले पुरखु सुजाणी ॥२॥
मूलम्
मै मनु तनु खोजि ढंढोलिआ किउ पाईऐ अकथ कहाणी ॥ संत जना मिलि पाइआ सुणि अकथ कथा मनि भाणी ॥ मेरै मनि तनि नामु अधारु हरि मै मेले पुरखु सुजाणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजि = खोज के। पाईऐ = प्राप्त की जा सके। मिलि = मिल के। पाइआ = (अकथ प्रभु) मिल सकता है। सुणि = (संत जनों से) सुन के। अधारु = आसरा। मै = मुझे। पुरखु सुजाणी = सबके दिल की जानने वाला अकाल पुरख।2।
अर्थ: हे भाई! मैंने अपने मन को अपने तन को खोज के तलाश की है कि किस तरह अकथ प्रभु की महिमा की जा सके। हे भाई! संत जनों को मिल के (अकथ प्रभु का मिलाप) हासिल हो सकता है; (संत जनों से) अकथ प्रभु की महिमा सुन के मन में प्यारी लगती है। हे भाई! (संत गुरु की कृपा से) मेरे मन में परमात्मा का नाम आसरा बन गया है। (गुरु ही) मुझे सुजान अकाल-पुरख मिला सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पुरखै पुरखु मिलाइ प्रभ मिलि सुरती सुरति समाणी ॥ वडभागी गुरु सेविआ हरि पाइआ सुघड़ सुजाणी ॥ मनमुख भाग विहूणिआ तिन दुखी रैणि विहाणी ॥३॥
मूलम्
गुर पुरखै पुरखु मिलाइ प्रभ मिलि सुरती सुरति समाणी ॥ वडभागी गुरु सेविआ हरि पाइआ सुघड़ सुजाणी ॥ मनमुख भाग विहूणिआ तिन दुखी रैणि विहाणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर पुरखै पुरखु मिलाइ प्रभ = गुर पुरखै प्रभ पुरखु मिलाय। मिलाइ = मिलाया है (जिसको)। गुर पुरखै = गुरु पुरख ने। सुरती = सूझ के मालिक प्रभु में। वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। गुरु सेविआ = गुरु की शरण पकड़ी है। सुघड़ सुजाणी हरि = सुंदर सुजान हरि। सुघड़ = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दुखी = दुखों में। रैणि = जीवन रात।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु-पुरख ने प्रभु-पुरख से मिला दिया, (प्रभु को) मिल के उसकी तवज्जो के मालिक हरि में (सदा के लिए) टिक गई। हे भाई! भाग्यशाली मनुष्यों ने गुरु का आसरा लिया, उनको सुंदर सुजान परमात्मा मिल गया। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बद्-किस्मत होते हैं (त्यागी हुई स्त्री की तरह ही उनकी) जिंदगी दुखों में बीतती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम जाचिक दीन प्रभ तेरिआ मुखि दीजै अम्रित बाणी ॥ सतिगुरु मेरा मित्रु प्रभ हरि मेलहु सुघड़ सुजाणी ॥ जन नानक सरणागती करि किरपा नामि समाणी ॥४॥३॥५॥
मूलम्
हम जाचिक दीन प्रभ तेरिआ मुखि दीजै अम्रित बाणी ॥ सतिगुरु मेरा मित्रु प्रभ हरि मेलहु सुघड़ सुजाणी ॥ जन नानक सरणागती करि किरपा नामि समाणी ॥४॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचिक दीन = निमाणे भिखारी। प्रभ = हे प्रभु! मुखि = मुँह में। दीजै = कृपा करके दें। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाली। प्रभ हरि = हे हरि! हे प्रभु! सरणागती = शरण आया हूँ। नामि = नाम में। समाणी = समाया रहूँ।4।
अर्थ: हे प्रभु! हम (जीव) तेरे (दर पर) निमाणे भिखारी हैं, हमारे मुँह में (गुरु की) आत्मिक जीवन देने वाली वाणी दे। हे हरि! हे प्रभु! मुझे सुंदर सुजान मित्र मिला। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरी शरण पड़ा हूँ, मेहर कर, मैं तेरे नाम में लीन रहूँ।4।3।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ ॥ हरि भाउ लगा बैरागीआ वडभागी हरि मनि राखु ॥ मिलि संगति सरधा ऊपजै गुर सबदी हरि रसु चाखु ॥ सभु मनु तनु हरिआ होइआ गुरबाणी हरि गुण भाखु ॥१॥
मूलम्
मारू महला ४ ॥ हरि भाउ लगा बैरागीआ वडभागी हरि मनि राखु ॥ मिलि संगति सरधा ऊपजै गुर सबदी हरि रसु चाखु ॥ सभु मनु तनु हरिआ होइआ गुरबाणी हरि गुण भाखु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्यार। बैरागीआ = हे बैरागी जीव! वडभागी = बड़े भाग्यों से। मनि = मन में। मिलि = मिल के। ऊपजै = पैदा होती है। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। चाखु = चख। सभु = सारा। हरि गुण = हरि के गुण। भाखु = उचार।1।
अर्थ: हे बैरागी जीव! बड़े भाग्यों से (तेरे अंदर) परमात्मा का प्यार बना है, अब परमात्मा (के नाम) को (अपने) मन में संभाल के रख। हे भाई! संगति में मिल के (ही नाम जपने की) श्रद्धा पैदा होती है, (तू भी संगति में टिक के) गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा के नाम का स्वाद चखता रह। (जो मनुष्य नाम-रस चखता है उसका) उसका तन मन हर वक्त खिला रहता है। हे भाई! गुरु की वाणी के द्वारा (तू भी) परमात्मा के गुण उचारा कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन पिआरिआ मित्रा हरि हरि नाम रसु चाखु ॥ गुरि पूरै हरि पाइआ हलति पलति पति राखु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन पिआरिआ मित्रा हरि हरि नाम रसु चाखु ॥ गुरि पूरै हरि पाइआ हलति पलति पति राखु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! नाम रसु = नाम का स्वाद। गुरि पूरे = पूरे गुरु के द्वारा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। पति = इज्जत। राखु = बचा ले।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे मित्र मन! सदा परमात्मा के नाम का स्वाद चखा कर। परमात्मा (का नाम) पूरे गुरु के द्वारा मिलता है (तू भी गुरु की शरण पड़, और) इस लोक और परलोक में अपनी इज्जत बचा ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु धिआईऐ हरि कीरति गुरमुखि चाखु ॥ तनु धरती हरि बीजीऐ विचि संगति हरि प्रभ राखु ॥ अम्रितु हरि हरि नामु है गुरि पूरै हरि रसु चाखु ॥२॥
मूलम्
हरि हरि नामु धिआईऐ हरि कीरति गुरमुखि चाखु ॥ तनु धरती हरि बीजीऐ विचि संगति हरि प्रभ राखु ॥ अम्रितु हरि हरि नामु है गुरि पूरै हरि रसु चाखु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआईऐ = ध्याना चाहिए। कीरति = महिमा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। बीजीऐ = बीजना चाहिए। राखा = रखवाला। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। गुरि पूरै = पुरे गुरु के द्वारा।2।
अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम ध्याना चाहिए। (हे भाई! तू) गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा (का स्वाद) चखा कर। ये शरीर (मानो) धरती है, (इसमें) परमात्मा (का नाम-बीज) बीजना चाहिए। संगति में (टिके रहने से) परमात्मा स्वयं (उस नाम-खेती का) रखवाला बनता है। हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, पूरे गुरु के द्वारा (तू भी) परमात्मा (के नाम) का स्वाद चखता रह।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख त्रिसना भरि रहे मनि आसा दह दिस बहु लाखु ॥ बिनु नावै ध्रिगु जीवदे विचि बिसटा मनमुख राखु ॥ ओइ आवहि जाहि भवाईअहि बहु जोनी दुरगंध भाखु ॥३॥
मूलम्
मनमुख त्रिसना भरि रहे मनि आसा दह दिस बहु लाखु ॥ बिनु नावै ध्रिगु जीवदे विचि बिसटा मनमुख राखु ॥ ओइ आवहि जाहि भवाईअहि बहु जोनी दुरगंध भाखु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भरि रहे = लिबड़े रहते हैं। मनि = मन में। दह दिस = दसों दिशाओं में। लाखु = (लक्ष्य) निशाना। बहु = अक्सर कर के। दह दिस बहु लाखु = अकसर करके उनका निशाना दसों दिशाएं ही है, सदा भटकते फिरते हैं। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। मनमुख राखु = मनमुखों का ठिकाना। ओइ = वह, वे। आवहि = आते हैं, पैदा होते हैं। जाहि = जाते हैं, मरते हैं। भवाईअहि = भटकाए जाते हैं। दुरगंध = गंद। भाखु = भक्ष्य, खुराक है।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे तृष्णा (की मैल) के साथ लिबड़े रहते हैं, (उनके) मन में (माया की ही) आशा (टिकी रहती है), वे आम तौर पर (माया की खातिर) भटकते रहते हैं। नाम से वंचित रह कर उनका जीना धिक्कारयोग्य है। मनमुखों का ठिकाना (विकारों के) गंद में रहता है। वे सदा पैदा होते मरते रहते हैं, अनेक जूनियों में भटकाए जाते हैं (विकारों की) गंदगी (उनकी हमेशा की) खुराक है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्राहि त्राहि सरणागती हरि दइआ धारि प्रभ राखु ॥ संतसंगति मेलापु करि हरि नामु मिलै पति साखु ॥ हरि हरि नामु धनु पाइआ जन नानक गुरमति भाखु ॥४॥४॥६॥
मूलम्
त्राहि त्राहि सरणागती हरि दइआ धारि प्रभ राखु ॥ संतसंगति मेलापु करि हरि नामु मिलै पति साखु ॥ हरि हरि नामु धनु पाइआ जन नानक गुरमति भाखु ॥४॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्राहि = बचा ले। सरणागती = सरण आए हैं। हरि प्रभ = हे हरि! हे प्रभु! राखु = रक्षा कर। मिलै = मिलता है। पति साखु = इज्जत ऐतबार। गुरमति = गुरु की शिक्षा पर चल के। भाखु = उचार।4।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! मेहर कर, (हमारी) रक्षा कर, हम तेरी शरण आए हैं, हमें बचा ले बचा ले। संतों की संगति में हमारा मिलाप बनाए रख, (वहीं ही) हरि-नाम मिलता है (जिसको नाम मिलता है उसको लोक-परलोक में) आदर मिलता है। हे दास नानक! (संतों की संगति में ही) परमात्मा का नाम-धन मिलता है। तू भी गुरु की मति ले के नाम उचारता रह।4।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ४ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि भगति भरे भंडारा ॥ गुरमुखि रामु करे निसतारा ॥ जिस नो क्रिपा करे मेरा सुआमी सो हरि के गुण गावै जीउ ॥१॥
मूलम्
हरि हरि भगति भरे भंडारा ॥ गुरमुखि रामु करे निसतारा ॥ जिस नो क्रिपा करे मेरा सुआमी सो हरि के गुण गावै जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भंडारा = खजाने। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। निसतारा = पार उतारा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
सुआमी = मालिक प्रभु। गावै = गाता है।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के पास) परमात्मा की भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं, परमात्मा गुरु के माध्यम से (ही) पार-उतारा करता है। मेरा मालिक-प्रभु जिस मनुष्य पर मेहर करता है वह मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के गुण गाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि क्रिपा करे बनवाली ॥ हरि हिरदै सदा सदा समाली ॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे जीअड़े जपि हरि हरि नामु छडावै जीउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि हरि क्रिपा करे बनवाली ॥ हरि हिरदै सदा सदा समाली ॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे जीअड़े जपि हरि हरि नामु छडावै जीउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनवाली = बनमाली, बन के फूल की माला वाला, विष्णु, परमात्मा। हिरदै = हृदय में। समाली = संभाले, संभालता है। जीअड़े = हे जिंदे! छडावै = (बंधनो से) छुड़वाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर हरि परमात्मा कृपा करता है, वह मनुष्य सदा ही सदा ही परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता है। हे मेरी जिंदे! तू परमात्मा का नाम सदा जपा कर। प्रभु का नाम ही विकारों से खलासी कराता है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख सागरु अम्रितु हरि नाउ ॥ मंगत जनु जाचै हरि देहु पसाउ ॥ हरि सति सति सदा हरि सति हरि सति मेरै मनि भावै जीउ ॥२॥
मूलम्
सुख सागरु अम्रितु हरि नाउ ॥ मंगत जनु जाचै हरि देहु पसाउ ॥ हरि सति सति सदा हरि सति हरि सति मेरै मनि भावै जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुख सागर = सुखों का समुंदर। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। मंगत जनु = भिखारी। जाचै = माँगता है (एकवचन)। हरि = हे हरि! पसाउ = प्रसाद, कृपा। सति = सदा कायम रहने वाला। मेरै मनि = मेरे मन में। भावै = प्यारा लगता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) तेरा नाम सुखों का खजाना है और आत्मिक जीवन देने वाला (अमृत) है। (तेरा) दास भिखारी (बन के तेरे दर से) माँगता है। हे हरि! मेहर कर (अपना नाम) दे। हे भाई! परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, वह सदा कायम रहने वाला प्रभु मेरे मन को प्यारा लग रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवे छिद्र स्रवहि अपवित्रा ॥ बोलि हरि नाम पवित्र सभि किता ॥ जे हरि सुप्रसंनु होवै मेरा सुआमी हरि सिमरत मलु लहि जावै जीउ ॥३॥
मूलम्
नवे छिद्र स्रवहि अपवित्रा ॥ बोलि हरि नाम पवित्र सभि किता ॥ जे हरि सुप्रसंनु होवै मेरा सुआमी हरि सिमरत मलु लहि जावै जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नवे = नौ ही। छिद्र = छेद (कान, नाक आदिक)। स्रवहि = बहते रहते हैं। अपवित्रा = गंदे। बोलि = बोल के, उचार के। सभि = सारे। कीता = कर लिए। सिमरत = स्मरण करते हुए। मलु = (विकारों की) मैल।3।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के शरीर में नाक-कान आदि नौ छेद हैं, यह) नौ के नौ छेद बहते (सिमते) रहते हैं (और विकार-वासना के कारण) अपवित्र भी हैं। (जो मनुष्य हरि-नाम उचारता है) हरि-नाम उचार के उसने ये सारे पवित्र कर लिए हैं। हे भाई! अगर मेरा मालिक प्रभु किसी जीव पर दयावान हो जाए, तो हरि-नाम स्मरण करते हुए (उसकी इन इन्द्रियों के विकारों की) मैल दूर हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु बिखमु है भारी ॥ किउ तरीऐ दुतरु संसारी ॥ सतिगुरु बोहिथु देइ प्रभु साचा जपि हरि हरि पारि लंघावै जीउ ॥४॥
मूलम्
माइआ मोहु बिखमु है भारी ॥ किउ तरीऐ दुतरु संसारी ॥ सतिगुरु बोहिथु देइ प्रभु साचा जपि हरि हरि पारि लंघावै जीउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भारी बिखमु = बहुत मुश्किल। किउ तरीऐ = कैसे पार लांघा जाए? दुतर = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है। संसारी = संसार समुंदर। बोहिथु = जहाज़। देइ प्रभु = प्रभु देता है। साचा = सदा कायम रहने वाला।4।
अर्थ: हे भाई! संसार-समुंदर से पार लांघना मुश्किल है (क्योंकि इसमें) माया का मोह बहुत ही कठिन है। फिर इससे कैसे पार लांघा जाए? हे भाई! गुरु जहाज़ (है) सदा कायम रहने वाला प्रभु (जिस मनुष्य को यह जहाज़) दे देता है, वह मनुष्य प्रभु का नाम जपता है, और गुरु उसको पार लंघा देता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू सरबत्र तेरा सभु कोई ॥ जो तू करहि सोई प्रभ होई ॥ जनु नानकु गुण गावै बेचारा हरि भावै हरि थाइ पावै जीउ ॥५॥१॥७॥
मूलम्
तू सरबत्र तेरा सभु कोई ॥ जो तू करहि सोई प्रभ होई ॥ जनु नानकु गुण गावै बेचारा हरि भावै हरि थाइ पावै जीउ ॥५॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरबत्र = सब जगह। सभु कोई = हरेक जीव। प्रभ = हे प्रभु! जनु नानकु गावै = दास नानक गाता है। बेचारा = गरीब। हरि भावै = अगर हरि को (ये काम) पसंद आ जाए। थाइ = थाय, जगह में। थाइ पावै = स्वीकार करता है।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘थाइ’ शब्द ‘थाउ’ से अधिकर्णकारक, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तू हर जगह बसता है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। हे प्रभु! जो कुछ करते हो वही होता है। हे भाई! प्रभु का दास गरीब नानक प्रभु के गुण गाता है, अगर उस को (यह काम) पसंद आ जाए तो वह इसको स्वीकार कर लेता है।5।1।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे ॥ सभि किलविख काटै हरि तेरे ॥ हरि धनु राखहु हरि धनु संचहु हरि चलदिआ नालि सखाई जीउ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ४ ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे ॥ सभि किलविख काटै हरि तेरे ॥ हरि धनु राखहु हरि धनु संचहु हरि चलदिआ नालि सखाई जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सभि = सारे। किलबिख = पाप। काटै = काटता है। राखहु = संभाल लो। संचहु = इकट्ठा करो। चलदिआ = चलते फिरते, हर वक्त। सखाई = मित्र, मददगार।1।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा जपा कर, परमात्मा तेरे सारे पाप काट सकता है। हे मन! हरि-नाम का धन संभाल के रख, हरि-नाम-धन इकट्ठा करता रह, यही धन हर वक्त मनुष्य के साथ मददगार बनता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो क्रिपा करे सो धिआवै ॥ नित हरि जपु जापै जपि हरि सुखु पावै ॥ गुर परसादी हरि रसु आवै जपि हरि हरि पारि लंघाई जीउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिस नो क्रिपा करे सो धिआवै ॥ नित हरि जपु जापै जपि हरि सुखु पावै ॥ गुर परसादी हरि रसु आवै जपि हरि हरि पारि लंघाई जीउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस नो = जिस मनुष्य पर। धिआवै = ध्याता है। हरि जपि = हरि नाम का जप। जापै = जपता है। जपि हरि = हरि नाम जप के। गुर परसादी = गुरु की कृपा से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है, वह मनुष्य उसको ध्याता है। वह मनुष्य सदा हरि-नाम का जाप जपता है और हरि-नाम जप के आत्मिक आनंद भोगता है। गुरु की कृपा से जिस मनुष्य को हरि-नाम का स्वाद आता है वह हरि-नाम सदा जप के (अपनी जीवन-बेड़ी को संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ निरंकारु सति नामु ॥ जग महि स्रेसटु ऊतम कामु ॥ दुसमन दूत जमकालु ठेह मारउ हरि सेवक नेड़ि न जाई जीउ ॥२॥
मूलम्
निरभउ निरंकारु सति नामु ॥ जग महि स्रेसटु ऊतम कामु ॥ दुसमन दूत जमकालु ठेह मारउ हरि सेवक नेड़ि न जाई जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंकारु = आकार रहित। सतिनामु = जिस का नाम सदा कामय रहने वाला है। कामु = काम। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत, मौत का डर। ठेह = जगह ही। मारउ = बेशक मार दे, अवश्य मार देता है। ठेह मारउ = बेशक जगह पर ही मार दे, अवश्य ही मार देता है। नेड़ि न जाई = नजदीक नहीं फटकता।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मारउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा को किसी का डर नहीं, परमात्मा की कोई विशेष शकल-सूरति बताई नहीं जा सकती, परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। (उसका नाम जपना) दुनियाँ में (अन्य सारे कामों से) बढ़िया और अच्छा काम है। (जो मनुष्य नाम जपता है वह) वैरी जमदूतों को आत्मिक मौत अवश्य ही मार सकता है। ये आत्मिक मौत परमात्मा की सेवा-भक्ति करने वालों के नजदीक नहीं फटकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु उपरि हरि का मनु मानिआ ॥ सो सेवकु चहु जुग चहु कुंट जानिआ ॥ जे उस का बुरा कहै कोई पापी तिसु जमकंकरु खाई जीउ ॥३॥
मूलम्
जिसु उपरि हरि का मनु मानिआ ॥ सो सेवकु चहु जुग चहु कुंट जानिआ ॥ जे उस का बुरा कहै कोई पापी तिसु जमकंकरु खाई जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस उपरि = जिस जीव पर। मानिआ = पतीजता है, प्रसन्न होता है। चहु जुग = सारे युगों में, सदा के लिए ही। चहु कुंट = चार कूटों में, सारे संसार में। जानिआ = शोभा कमाता है, प्रसिद्ध हो जाता है। कंकरु = किंकर, नौकर। जम कंकरु = जमराज का नौकर, जमदूत। खाई = खा जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! जिस सेवक पर परमात्मा प्रसन्न होता है, वह सेवक सदा के लिए सारे संसार में शोभा वाला हो जाता है। अगर कोई कुकर्मी उस सेवक की बखीली करे, उसको जमदूत खा जाता है। (वह मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ महि एकु निरंजन करता ॥ सभि करि करि वेखै अपणे चलता ॥ जिसु हरि राखै तिसु कउणु मारै जिसु करता आपि छडाई जीउ ॥४॥
मूलम्
सभ महि एकु निरंजन करता ॥ सभि करि करि वेखै अपणे चलता ॥ जिसु हरि राखै तिसु कउणु मारै जिसु करता आपि छडाई जीउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजन = (निर+अंजन) निर्लिप। सभि = सारे। करि = कर के। चलता = चोज तमाशे। कउणु मारै = कौन मार सकता है? कोई नहीं मार सकता। छडाई = बचाता है।4।
अर्थ: (हे भाई!) सब जीवों में एक ही निर्लिप कर्तार बस रहा है, अपने सारे चोज-तमाशे कर-करके वह स्वयं ही देख रहा है। कर्तार जिस मनुष्य की स्वयं रक्षा करता है, कर्तार जिसको खुद बचाता है उसको कोई मार नहीं सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ अनदिनु नामु लई करतारे ॥ जिनि सेवक भगत सभे निसतारे ॥ दस अठ चारि वेद सभि पूछहु जन नानक नामु छडाई जीउ ॥५॥२॥८॥
मूलम्
हउ अनदिनु नामु लई करतारे ॥ जिनि सेवक भगत सभे निसतारे ॥ दस अठ चारि वेद सभि पूछहु जन नानक नामु छडाई जीउ ॥५॥२॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लई = मैं लेता हूँ। जिनि = जिस (कर्तार) ने। निसतारे = पार लंघा लिए हैं। दस अठ = दस और आठ, अठारह (पुराण)। सभि = सारे। जन नानक = हे दास नानक!।5।
अर्थ: हे भाई! मैं हर वक्त (उस) कर्तार का नाम जपता हूँ, जिसने अपने सारे सेवक-भक्त संसार-समुंदर से (सदा ही) पार लंघाए हैं। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) अठारह पुराण चार वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) को पूछ के देखो (वे भी यही कहते हैं कि) परमात्मा का नाम ही जीव को बचाता है।5।2।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
डरपै धरति अकासु नख्यत्रा सिर ऊपरि अमरु करारा ॥ पउणु पाणी बैसंतरु डरपै डरपै इंद्रु बिचारा ॥१॥
मूलम्
डरपै धरति अकासु नख्यत्रा सिर ऊपरि अमरु करारा ॥ पउणु पाणी बैसंतरु डरपै डरपै इंद्रु बिचारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डरपै = डरता है, रजा में चलता है, हुक्म से बाग़ी नहीं हो सकता। नख्त्रा = तारे। अमरु = हुक्म। करारा = करड़ा। बैसंतरु = आग।1।
अर्थ: हे भाई! धरती, आकाश, तारे- इन सबके सिर पर परमात्मा का कठोर हुक्म चल रहा है (इनमें से कोई भी) रजा से आकी नहीं हो सकता। हवा, पानी, आग (आदि हरेक तत्व) रज़ा में चल रहे हैं। बेचारा इन्द्र (भी) प्रभु के आदेश में चल रहा है (भले ही लोगों के विचार में वह सारे देवताओं का राजा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका निरभउ बात सुनी ॥ सो सुखीआ सो सदा सुहेला जो गुर मिलि गाइ गुनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एका निरभउ बात सुनी ॥ सो सुखीआ सो सदा सुहेला जो गुर मिलि गाइ गुनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एका बात = एक ही बात। निरभउ = डर रहित। मिलि = मिल के। गुनी = (परमात्मा के) गुण।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (हमने) एक ही बात सुनी हुई है जो मनुष्य को डरों से रहित कर देती है (वह यह है कि) जो मनुष्य गुरु को मिल के परमात्मा के गुण गाता है (और रज़ा के अनुसार जीना सीख लेता है) वह सुखी जीवन वाला है वह सदा आराम से रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहधार अरु देवा डरपहि सिध साधिक डरि मुइआ ॥ लख चउरासीह मरि मरि जनमे फिरि फिरि जोनी जोइआ ॥२॥
मूलम्
देहधार अरु देवा डरपहि सिध साधिक डरि मुइआ ॥ लख चउरासीह मरि मरि जनमे फिरि फिरि जोनी जोइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देहधारी = जीव। अर = और। डरपहि = डरते हैं, रजा में चलते हैं। सिध = जोग साधसना में पुगे हुए जोगी। साधिक = जोग साधना करने वाले। मरि = मर के। जोनी = जूनियों में। जोइआ = धकेले जाते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! सारे जीव और देवता हुक्म में चल रहे हैं, सिद्ध और साधिक भी (हुक्म के आगे) थर-थर काँपते हैं। चौरासी लाख जूनियों के सारे जीव (जो रज़ा में नहीं चलते) जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं, बार-बार जूनियों में डाले जाते हैं।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसु सातकु तामसु डरपहि केते रूप उपाइआ ॥ छल बपुरी इह कउला डरपै अति डरपै धरम राइआ ॥३॥
मूलम्
राजसु सातकु तामसु डरपहि केते रूप उपाइआ ॥ छल बपुरी इह कउला डरपै अति डरपै धरम राइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजसु = रजो गुण। सातकु = सतो गुण। तामसु = तमो गुण। केते = बेअंत। बपुरी = बिचारी, निमाणी। कउला = लक्ष्मी। अति = बहुत।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने बेअंत जीव पैदा किए हैं जो रजो, सतो, तमो (इन तीन गुणों में विचर रहे हैं, ये सारे उसके) हुक्म में कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। (दुनिया के सारे जीवों के लिए) छलावा (बनी हुई) यह बेचारी लक्ष्मी भी रज़ा में चल रही है, धर्मराज भी हुक्म के आगे थर-थर काँपता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल समग्री डरहि बिआपी बिनु डर करणैहारा ॥ कहु नानक भगतन का संगी भगत सोहहि दरबारा ॥४॥१॥
मूलम्
सगल समग्री डरहि बिआपी बिनु डर करणैहारा ॥ कहु नानक भगतन का संगी भगत सोहहि दरबारा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डरहि = डर में। बिआपी = फसी रहती है। करणैहारा = विधाता प्रभु। संगी = साथी। सोहहि = शोभा देते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! दुनिया की सामग्री रज़ा में बँधी हुई है, एक विधाता प्रभु ही है जिस पर किसी का डर नहीं। हे नानक! कह: परमात्मा अपने भगतों की सहायता करने वाला है, उसके दरबार में भक्तगण हमेशा शोभा पाते हैं।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ पांच बरख को अनाथु ध्रू बारिकु हरि सिमरत अमर अटारे ॥ पुत्र हेति नाराइणु कहिओ जमकंकर मारि बिदारे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ पांच बरख को अनाथु ध्रू बारिकु हरि सिमरत अमर अटारे ॥ पुत्र हेति नाराइणु कहिओ जमकंकर मारि बिदारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पांच बरख को = पाँच साल (की उम्र) का। बारिकु = बालक। अमर = अटल। अटारे = अटारी पर, दर्जे पर। हेति = की खातिर, हित में। जम कंकर = (किंकर, नौकर) जम का नौकर, जमदूत। मारि बिदारे = मार भगाए।1।
अर्थ: हे भाई! धुराव पाँच वर्षों का एक अनाथ बालक था। हरि-नाम स्मरण करके उसने अटल पदवी प्राप्त कर ली। (अजामल अपने) पुत्र (को आवाज देने) की खातिर ‘नारायण, नारायण’ कहा करता था, उसने जमदूतों को मार भगा दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे ठाकुर केते अगनत उधारे ॥ मोहि दीन अलप मति निरगुण परिओ सरणि दुआरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे ठाकुर केते अगनत उधारे ॥ मोहि दीन अलप मति निरगुण परिओ सरणि दुआरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! केते = कितने ही, बेअंत। उधारे = बचा लिए। मोहि = मैं। दीन = निमाणा। अलप मति = थोड़ी मति वाला। परिओ = पड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे ठाकुर! कितने ही बेअंत जीव तू बचा रहा है। मैं निमाणा हूँ, तुच्छ बुद्धि वाला हूँ, गुण हीन हूँ। मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालमीकु सुपचारो तरिओ बधिक तरे बिचारे ॥ एक निमख मन माहि अराधिओ गजपति पारि उतारे ॥२॥
मूलम्
बालमीकु सुपचारो तरिओ बधिक तरे बिचारे ॥ एक निमख मन माहि अराधिओ गजपति पारि उतारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुपचारो = सुपच, (श्व+पच) चंडाल (कुत्ते मार के खाने वाला)। बधिक = शिकारी (कृष्ण जी को हिरन समझ के तीर मारने वाला)। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। गजपति = हाथी (जिसको तेंदूए ने पकड़ लिया था)।2।
अर्थ: (हे भाई! नाम जपने की इनायत से) बाल्मीकि चण्डाल (संसार-समुंदर से) पार लांघ गया, बेचारे शिकारी जैसों का भी उद्धार हो गया। आँख झपकने जितने समय के लिए ही गज ने अपने मन में आराधना की और उसको प्रभु ने पार लंघा दिया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीनी रखिआ भगत प्रहिलादै हरनाखस नखहि बिदारे ॥ बिदरु दासी सुतु भइओ पुनीता सगले कुल उजारे ॥३॥
मूलम्
कीनी रखिआ भगत प्रहिलादै हरनाखस नखहि बिदारे ॥ बिदरु दासी सुतु भइओ पुनीता सगले कुल उजारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रहिलादै = प्रहिलाद की। नखहि = नाखूनों से। बिदारे = चीर दिया। दासी सुतु = दासी का पुत्र। पुनीता = पवित्र। उजारे = रौशन कर लिए।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (अपने) भक्त प्रहलाद की रक्षा की, (उसने पिता) हृणाकश्यप को नाखूनों से चीर दिया। दासी का पुत्र बिदर (परमात्मा की कृपा से) पवित्र (जीवन वाला) हो गया, उसने अपनी सारी कुलें रौशन कर लीं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन पराध बतावउ अपुने मिथिआ मोह मगनारे ॥ आइओ साम नानक ओट हरि की लीजै भुजा पसारे ॥४॥२॥
मूलम्
कवन पराध बतावउ अपुने मिथिआ मोह मगनारे ॥ आइओ साम नानक ओट हरि की लीजै भुजा पसारे ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन पराध = कौन कौन से अपराध? बतावउ = बताऊँ, मैं कहूँ। मिथिआ मोह = नाशवान पदार्थों का मोह। मगनारे = मगन, डूबा हुआ, मस्त। साम = शरण। लीजै = पकड़ ले। भुजा पसारे = बाँह पसार के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! अपने कौन-कौन से अपराध बताऊँ? मैं तो नाशवान पदार्थों के मोह में डूबा रहता हूँ। हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैंने तेरी ओट पकड़ी है। मुझे अपनी बाँह पसार के पकड़ ले।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ वित नवित भ्रमिओ बहु भाती अनिक जतन करि धाए ॥ जो जो करम कीए हउ हउमै ते ते भए अजाए ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ वित नवित भ्रमिओ बहु भाती अनिक जतन करि धाए ॥ जो जो करम कीए हउ हउमै ते ते भए अजाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वित = विक्त, धन। नवित = नविक्त, निमिक्त, की खातिर। भ्रमिओ = भटकता फिरा। बहु भाती = कई तरीकों से। धाए = दौड़ भाग की। हउ हउमै = ‘मैं मैं’ के आसरे। ते = वह (बहुवचन)। ते ते = वे सारे। अजाए = व्यर्थ।1।
अर्थ: जो मनुष्य धन की खातिर (ही) कई तरह भटकता रहा, (धन की खातिर) अनेक यत्न करके दौड़-भाग करता रहा; ‘मैं मैं’ के आसरे वह जो जो भी काम करता रहा, वह सारे ही व्यर्थ चले गए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर दिन काहू काज न लाए ॥ सो दिनु मो कउ दीजै प्रभ जीउ जा दिन हरि जसु गाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अवर दिन काहू काज न लाए ॥ सो दिनु मो कउ दीजै प्रभ जीउ जा दिन हरि जसु गाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवर काहू काज = किसी और कामों में। न लाए = ना लगाए रख। मो कउ = मुझे। प्रभ जीउ = हे प्रभु जी! जा दिन = जिस दिन। जसु = यश, महिमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (जिंदगी के) दिनों में मुझे और-और कामों में ना लगाए रख। मुझे वह दिन दे, जिस दिन मैं तेरी महिमा के गीत गाता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र कलत्र ग्रिह देखि पसारा इस ही महि उरझाए ॥ माइआ मद चाखि भए उदमाते हरि हरि कबहु न गाए ॥२॥
मूलम्
पुत्र कलत्र ग्रिह देखि पसारा इस ही महि उरझाए ॥ माइआ मद चाखि भए उदमाते हरि हरि कबहु न गाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। ग्रिह = घर। देखि = देख के। पसारा = खिलारा। महि = में। उरझाए = व्यस्त रहे। मद = नशा। उदमाते = मस्त।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस ही’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पुत्र-स्त्री घर का पसारा देख के जीव इस (खिलारे) में ही व्यस्त रहते हैं। माया का नशा चख के मस्त रहते हैं, कभी भी परमात्मा के गुण नहीं गाते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह बिधि खोजी बहु परकारा बिनु संतन नही पाए ॥ तुम दातार वडे प्रभ सम्रथ मागन कउ दानु आए ॥३॥
मूलम्
इह बिधि खोजी बहु परकारा बिनु संतन नही पाए ॥ तुम दातार वडे प्रभ सम्रथ मागन कउ दानु आए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इह बिधि = इस तरीके से। खोजी = खोज की। बहु परकारा = कई प्रकार की। दातार = दातें देने वाला। संम्रथ = समर्थ, सब ताकतों का मालिक। मागन कउ = माँगने के लिए।3।
अर्थ: इस तरह कई किस्म की खोज करके देखी है (सब माया में ही प्रवृक्त दिखाई देते हैं)। सो, संत जनों के बिना (किसी और जगह) परमात्मा की प्राप्ति नहीं है। हे प्रभु! तू सब दातें देने वाला है, तू सब ताकतों का मालिक है। (मैं तेरे दर से तेरे नाम का) दान माँगने आया हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिआगिओ सगला मानु महता दास रेण सरणाए ॥ कहु नानक हरि मिलि भए एकै महा अनंद सुख पाए ॥४॥३॥
मूलम्
तिआगिओ सगला मानु महता दास रेण सरणाए ॥ कहु नानक हरि मिलि भए एकै महा अनंद सुख पाए ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगला = सारा। मानु महता = महत्वता का घमण्ड। रेण = चरण धूल। मिलि = मिल के। भए एकै = एक रूप हो गए हैं।4।
अर्थ: हे नानक! कह: मैंने सारा सम्मान सारा बड़प्पन छोड़ दिया है। मैं उन दासों की चरण धूल माँगता हूँ, मैं उन दासों की शरण आया हूँ, जो प्रभु को मिल के प्रभु के साथ एक-रूप हो गए हैं। उनकी शरण में ही बड़ा सुख बड़ा आनंद मिलता है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ कवन थान धीरिओ है नामा कवन बसतु अहंकारा ॥ कवन चिहन सुनि ऊपरि छोहिओ मुख ते सुनि करि गारा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ कवन थान धीरिओ है नामा कवन बसतु अहंकारा ॥ कवन चिहन सुनि ऊपरि छोहिओ मुख ते सुनि करि गारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन थान = कौन सी जगह? धीरिओ है = टिका हुआ है। नामा = (तेरा वह) नाम (जिसे ले ले के कोई मनुष्य तुझे गालियाँ निकालता है)। बसतु = वस्तु, चीज। चिहन = चिन्ह, निशान, जख़्म। सुनि = सुन के। मुख ते = (किसी के) मुँह से। सुनि करि गारा = गालियाँ सुन के। ऊपरि छोहिओ = तू क्रोधित हो रहा है।1।
अर्थ: (हे भाई! तेरा वह) नाम (तेरे अंदर) कहाँ टिका हुआ है (जिसको ले ले के कोई तुझे गालियाँ निकालता है?) वह अहंकार क्या चीज है (जिससे तू आफरा फिरता है)? हे भाई! सुन, तुझे वह कौन से जख़्म लगे हैं किसी के मुँह से गालियाँ सुन के, जिसके कारण तू क्रोधित हो जाता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु रे तू कउनु कहा ते आइओ ॥ एती न जानउ केतीक मुदति चलते खबरि न पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनहु रे तू कउनु कहा ते आइओ ॥ एती न जानउ केतीक मुदति चलते खबरि न पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! कहा ते = किस जगह से? एती = इतनी बात भी। न जानउ = न जानूँ, मैं नहीं जानता। केतीक = कितनी? मुदति = समय। चलते = (जूनियों में) चलते हुए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सुन (विचार कि) तू कौन है (तेरी अस्लियत क्या है?), तू कहाँ से (इस जगत में) आया है? मैं तो इतनी बात भी नहीं जानता (कि जीव को अनेक जूनियों में) चलते हुए कितना समय लग जाता है। किसी को भी ये खबर नहीं मिल सकती। (फिर, बताओ, अपने ऊपर कैसा गुमान?)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहन सील पवन अरु पाणी बसुधा खिमा निभराते ॥ पंच तत मिलि भइओ संजोगा इन महि कवन दुराते ॥२॥
मूलम्
सहन सील पवन अरु पाणी बसुधा खिमा निभराते ॥ पंच तत मिलि भइओ संजोगा इन महि कवन दुराते ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहन सील = सहनशील, सह सकने के स्वभाव वाले। पवन = हवा। अरु = और। बसुधा = धरती। खिमा = किसी की ज्यादती माफ करने वाला स्वभाव। निभराते = नि: संदेह। मिलि = मिल के। दुराते = दुरत, बुराई।2।
अर्थ: हे भाई! हवा और पानी (ये दोनों तत्व) बर्दाश्त कर सकने के स्वभाव वाले हैं। धरती तो नि: संदेह क्षमा का रूप ही है। पाँच तत्व मिल के (मनुष्य का) शरीर बनता है। इन पाँच तत्वों में से बुराई किस में है?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि रचि रचिआ पुरखि बिधातै नाले हउमै पाई ॥ जनम मरणु उस ही कउ है रे ओहा आवै जाई ॥३॥
मूलम्
जिनि रचि रचिआ पुरखि बिधातै नाले हउमै पाई ॥ जनम मरणु उस ही कउ है रे ओहा आवै जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। पुरखि = पुरख ने। बिघातै = विधाता ने। जिनि पुरख बिधातै = जिस रक्षा करने वाले प्रभु ने। नाले = साथ ही। उस ही कउ = उस (अहंकार, अहम्) को ही। रे = हे भाई! ओहा = वह (अहंकार, अहम्) ही। आवै जाई = पैदा होती मरती है।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उस ही कउ’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण शब्द ‘उसु’ की ‘ु’ मात्रा हटी हुई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस विधाता कर्तार ने यह रचना रची है, उसने (शरीर बनाने के समय) अहंकार भी साथ में ही (हरेक के अंदर) डाल दी है। उस (अहंकार) को ही जनम-मरण (का चक्कर) है, वह अहंकार ही पैदा होता मरता है (भाव, उस अहंकार के कारण ही जीव के लिए पैदा होने मरने का चक्कर बना रहता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरनु चिहनु नाही किछु रचना मिथिआ सगल पसारा ॥ भणति नानकु जब खेलु उझारै तब एकै एकंकारा ॥४॥४॥
मूलम्
बरनु चिहनु नाही किछु रचना मिथिआ सगल पसारा ॥ भणति नानकु जब खेलु उझारै तब एकै एकंकारा ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरनु = वर्ण, रंग। चिहनु = चिन्ह, निशान। मिथिआ = नाशवान। पसारा = जगत का खिलारा। भणति = कहता है। उझारै = उजाड़ता है। एकै = एक स्वयं ही। एकंकारा = एक परमात्मा।4।
अर्थ: हे भाई! यह सारा जगत पसारा नाशवान है, इस रचना में (स्थिरता का) कोई वर्ण-चिन्ह नहीं है। नानक कहता है: (हे भाई!) जब परमात्मा इस खेल को उजाड़ता है तब एक स्वयं ही स्वयं हो जाता है।4।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ मान मोह अरु लोभ विकारा बीओ चीति न घालिओ ॥ नाम रतनु गुणा हरि बणजे लादि वखरु लै चालिओ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ मान मोह अरु लोभ विकारा बीओ चीति न घालिओ ॥ नाम रतनु गुणा हरि बणजे लादि वखरु लै चालिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरु = और (शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क है। अरि = वैरी)। बीओ = दूसरा। चीति = चिक्त में। घालिओ = आने दिया, ले के आए। बणजे = व्यापार किया, खरीदे। लादि = लाद के। वखरु = सौदा।1।
अर्थ: हे भाई! मान-मोह और लोभ आदि अन्य विकारों को परमात्मा का सेवक अपने चिक्त में नहीं आने देता। वह सदा परमात्मा का नाम-रतन और परमात्मा की महिमा का व्यापार ही करता रहता है। यही सौदा वह यहाँ से लाद के ले के चलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक की ओड़कि निबही प्रीति ॥ जीवत साहिबु सेविओ अपना चलते राखिओ चीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सेवक की ओड़कि निबही प्रीति ॥ जीवत साहिबु सेविओ अपना चलते राखिओ चीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओड़कि = आखिर तक। निबही = बनी रहती है। सेविओ = स्मरण करता रहा। चलते = जगत से चलने के वक्त। चीति = चिक्त में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त की परमात्मा के साथ प्रीति आखिर तक बनी रहती है। जितना समय वह जगत में जीता है उतना समय वह अपने मालिक-प्रभु की सेवा-भक्ति करता रहता है, जगत से जाने के वक्त भी प्रभु को अपने चिक्त में बसाए रखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसी आगिआ कीनी ठाकुरि तिस ते मुखु नही मोरिओ ॥ सहजु अनंदु रखिओ ग्रिह भीतरि उठि उआहू कउ दउरिओ ॥२॥
मूलम्
जैसी आगिआ कीनी ठाकुरि तिस ते मुखु नही मोरिओ ॥ सहजु अनंदु रखिओ ग्रिह भीतरि उठि उआहू कउ दउरिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआ = आज्ञा, हुक्म। ठाकुरि = ठाकुर ने। मोरिओ = मोड़ा। सहजु = आत्मिक अडोलता। ग्रिह भीतरि = घर में। उआहू कउ = उसी तरफ को। दउरिओ = दौड़ पड़ा।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सेवक वह है जिसको मालिक-प्रभु ने जिस प्रकार का कभी हुक्म किया, उसने उस हुक्म से कभी मुँह नहीं मोड़ा। अगर मालिक ने उसको घर के अंदर टिकाए रखा, तो सेवक के लिए वहीं ही आत्मिक अडोलता और आनंद बना रहता है; (अगर मालिक ने कहा-) उठ (उस तरफ की ओर जा, तो सेवक) उस तरफ की ओर दौड़ पड़ा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगिआ महि भूख सोई करि सूखा सोग हरख नही जानिओ ॥ जो जो हुकमु भइओ साहिब का सो माथै ले मानिओ ॥३॥
मूलम्
आगिआ महि भूख सोई करि सूखा सोग हरख नही जानिओ ॥ जो जो हुकमु भइओ साहिब का सो माथै ले मानिओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुख = भूख, गरीबी। करि सूखा = सुख के कारण। सोग = ग़म। हरख = हर्ष, खुशी। साहिब का = (रहाउ की पंक्ति में शब्द ‘साहिबु’ और यहाँ ‘साहिब का’ शब्दों का जोड़ देखना)। माथै लै = माथे पर ले के।3।
अर्थ: हे भाई! अगर सेवक को मालिक प्रभु के हुक्म में नंग-भूख आ गई, तो उसको ही उसने सुख मान लिया। सेवक खुशी अथवा ग़मी की परवाह नहीं करता। सेवक को मालिक-प्रभु का जो जो हुक्म मिलता है, उसको सिर-माथे मानता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ क्रिपालु ठाकुरु सेवक कउ सवरे हलत पलाता ॥ धंनु सेवकु सफलु ओहु आइआ जिनि नानक खसमु पछाता ॥४॥५॥
मूलम्
भइओ क्रिपालु ठाकुरु सेवक कउ सवरे हलत पलाता ॥ धंनु सेवकु सफलु ओहु आइआ जिनि नानक खसमु पछाता ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवक कउ = सेवक को, सेवक पर। सवरे = सँवर गए। हलत पलाता = हलत पलत, ये लोक और परलोक। धंनु = भाग्यशाली। सफलु = कामयाब। जिनि = जिस ने। नानक = हे नानक! खसमु पछाता = पति प्रभु के साथ सांझ डाली।4।
अर्थ: हे नानक! मालिक-प्रभु जिस सेवक पर दयावान होता है, उसका यह लोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं। जिस सेवक ने पति-प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल ली, वह भाग्यशाली है, उसका दुनिया में आना सफल हो जाता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ खुलिआ करमु क्रिपा भई ठाकुर कीरतनु हरि हरि गाई ॥ स्रमु थाका पाए बिस्रामा मिटि गई सगली धाई ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ खुलिआ करमु क्रिपा भई ठाकुर कीरतनु हरि हरि गाई ॥ स्रमु थाका पाए बिस्रामा मिटि गई सगली धाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = भाग्य। खुलिआ करमु = भाग्य जाग उठे। क्रिपा ठाकुर = ठाकुर की कृपा। गाई = गाता है। स्रमु = श्रम, थकावट, दौड़ भाग। बिस्रामा = विश्राम, ठहराव। धाई = दौड़ भाग, भटकना।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर मालिक प्रभु की मेहर होती है, वह सदा परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं, उसकी दौड़भाग खत्म हो जाती है, वह मनुष्य प्रभु-चरणों में ठिकाना पा लेता है, उसकी सारी भटकना दूर हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मोहि जीवन पदवी पाई ॥ चीति आइओ मनि पुरखु बिधाता संतन की सरणाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब मोहि जीवन पदवी पाई ॥ चीति आइओ मनि पुरखु बिधाता संतन की सरणाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। जीवन पदवी = आत्मिक जीवन का दर्जा। चीति = चिक्त में। मनि = मन में। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = विधाता, निर्माता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संत जनों की शरण पड़ने के कारण मेरे मन में मेरे चिक्त में सर्व-व्यापक विधाता प्रभु आ बसा है, अब मैंने आत्मिक जीवन वाला दर्जा प्राप्त कर लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु लोभु मोहु निवारे निवरे सगल बैराई ॥ सद हजूरि हाजरु है नाजरु कतहि न भइओ दूराई ॥२॥
मूलम्
कामु क्रोधु लोभु मोहु निवारे निवरे सगल बैराई ॥ सद हजूरि हाजरु है नाजरु कतहि न भइओ दूराई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवारे = दूर कर लिए। निवरे = दूर हो गए। सगल = सारे। बैराई = वैरी। सद = सदा। हजूरि हाजरु = हाज़र हजूरि, अंग संग। नाजरु = नाज़र, (सबको) देखने वाला। कतहि = कहीं भी। दूराई = दूर।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य संतजनों की शरण पड़ता है वह अपने अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि सारे विकार) दूर कर लेता है, उसके ये सारे ही वैरी दूर हो जाते हैं। सबको देखने वाला प्रभु उसको हर वक्त अंग-संग प्रतीत होता है, किसी भी जगह से उसको वह प्रभु दूर नहीं लगता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख सीतल सरधा सभ पूरी होए संत सहाई ॥ पावन पतित कीए खिन भीतरि महिमा कथनु न जाई ॥३॥
मूलम्
सुख सीतल सरधा सभ पूरी होए संत सहाई ॥ पावन पतित कीए खिन भीतरि महिमा कथनु न जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतल = ठंढ। सभ = सारी। पावन पतित = पतितों को पवित्र, विकारियों को पवित्र। महिमा = उपमा, बड़ाई।3।
अर्थ: हे भाई! संतों की महिमा बयान नहीं की जा सकती, संत जन विकारियों को एक छिन में पवित्र कर देते हैं। संत जन जिस मनुष्य के मददगार बनते हैं, उसके अंदर हर वक्त ठंड और आनंद बना रहता है, उसकी हरेक माँग पूरी हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ भए सगल भै खोए गोबिद चरण ओटाई ॥ नानकु जसु गावै ठाकुर का रैणि दिनसु लिव लाई ॥४॥६॥
मूलम्
निरभउ भए सगल भै खोए गोबिद चरण ओटाई ॥ नानकु जसु गावै ठाकुर का रैणि दिनसु लिव लाई ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरभउ = डर रहित। सगल भै = सारे डर। ओटाई = ओट लेने से। नानकु गावै = नानक गाता है। जसु = महिमा का गीत। रैणि = रात। लिव लाई = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा के चरणों का आसरा ले लिया, उनके सारे डर दूर हो गए, वे निर्भय हो गए। हे भाई! नानक भी दिन-रात तवज्जो जोड़ के मालिक-प्रभु की महिमा के गीत गाता रहता है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ जो समरथु सरब गुण नाइकु तिस कउ कबहु न गावसि रे ॥ छोडि जाइ खिन भीतरि ता कउ उआ कउ फिरि फिरि धावसि रे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ जो समरथु सरब गुण नाइकु तिस कउ कबहु न गावसि रे ॥ छोडि जाइ खिन भीतरि ता कउ उआ कउ फिरि फिरि धावसि रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथु = सब ताकतों का मालिक। नाइकु = नायक, मालिक। न गावसि = तू नहीं गाता। छोडि जाइ = (हरेक प्राणी) छोड़ जाता है। ता कउ = उस (माया) को। उआ कउ = उस (माया) की ही खातिर। धावसि = तू दौड़ भाग कर रहा है। रे = हे भाई!।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस कउ’ में से संबंधक ‘कउ’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, जो सारे गुणों का मालिक है, तू उसकी महिमा कभी भी नहीं करता। हे भाई! उस (माया) को तो हर कोई एक छिन में छोड़ जाता है, तू भी उसी की खातिर बार-बार भटकता फिरता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने प्रभ कउ किउ न समारसि रे ॥ बैरी संगि रंग रसि रचिआ तिसु सिउ जीअरा जारसि रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अपुने प्रभ कउ किउ न समारसि रे ॥ बैरी संगि रंग रसि रचिआ तिसु सिउ जीअरा जारसि रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ कउ = प्रभु को। न समारसि = तू याद नहीं करता। बैरी संगि = वैरी के साथ। रंग रसि = मौज मस्ती के स्वाद में। तिसु कउ = उस (वैरी मोह) से। जारसि = तू जला रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! तू अपने परमात्मा को क्यों याद नहीं करता? तू (माया के मोह-) वैरी के साथ मौज-मेलों के स्वाद में मस्त है, और, उस (मोह के) साथ ही अपनी जिंदगी को जला रहा है (अपने आत्मिक जीवन को जला रहा है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै नामि सुनिऐ जमु छोडै ता की सरणि न पावसि रे ॥ काढि देइ सिआल बपुरे कउ ता की ओट टिकावसि रे ॥२॥
मूलम्
जा कै नामि सुनिऐ जमु छोडै ता की सरणि न पावसि रे ॥ काढि देइ सिआल बपुरे कउ ता की ओट टिकावसि रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि सुनिऐ = नाम सुनने से। जा कै नामि सुनिऐ = जिसका नाम सुनने से। न पावसि = तू नहीं पड़ता। देइ = देता है। काढि देइ = निकाल देता है। सिआल = सियार, गीदड़। ता की ओट = उस (शेर प्रभु) का आसरा। टिकावसि = (अपने अंदर) टिका ले।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम सुन के जमराज (भी) छोड़ जाता है, तू उसकी शरण (क्यों) नहीं पड़ता? हे भाई! तू अपने अंदर उस प्रभु का आसरा टिका ले, जो (शेर-प्रभु) बेचारे गीदड़ को निकाल देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस का जासु सुनत भव तरीऐ ता सिउ रंगु न लावसि रे ॥ थोरी बात अलप सुपने की बहुरि बहुरि अटकावसि रे ॥३॥
मूलम्
जिस का जासु सुनत भव तरीऐ ता सिउ रंगु न लावसि रे ॥ थोरी बात अलप सुपने की बहुरि बहुरि अटकावसि रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जासु = यश। भव = संसार समुंदर। तरीऐ = तैरा जाता है, उद्धार हो जाता है। रंगु = प्रेम। न लावसि = तू नहीं लगाता। अलप = थोड़ी, होछी। बहुरि बहुरि = बार बार। अटकावसि = तू (अपने मन को) फसा रहा है।3।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का यश सुन के संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है, तू उससे प्यार नहीं जोड़ता। (माया की प्रीति) सपने समान ही तुच्छ सी बात है, पर तू मुड़-मुड़ के उसी में ही अपने मन को फसा रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ प्रसादु क्रिपा निधि ठाकुर संतसंगि पति पाई ॥ कहु नानक त्रै गुण भ्रमु छूटा जउ प्रभ भए सहाई ॥४॥७॥
मूलम्
भइओ प्रसादु क्रिपा निधि ठाकुर संतसंगि पति पाई ॥ कहु नानक त्रै गुण भ्रमु छूटा जउ प्रभ भए सहाई ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा, मेहर। ठाकुर प्रसादु = प्रभु की कृपा। क्रिपानिधि = कृपा का खजाना। संत संगि = संत जनों की संगति में। पति = इज्जत। नानक = हे नानक! त्रै गुण भ्रमु = त्रै गुणी माया की खातिर भटकना। जउ = जब। सहाई = मददगार।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर कृपा के खजाने मालिक की मेहर होती है, वे संत जनों की संगति में रह कर (लोक-परलोक का) आदर कमाता है। जब प्रभु जी मददगार बनते हैं, मनुष्य की त्रैगुणी माया वाली भटकना दूर हो जाती है।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ अंतरजामी सभ बिधि जानै तिस ते कहा दुलारिओ ॥ हसत पाव झरे खिन भीतरि अगनि संगि लै जारिओ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ अंतरजामी सभ बिधि जानै तिस ते कहा दुलारिओ ॥ हसत पाव झरे खिन भीतरि अगनि संगि लै जारिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = दिलों की जानने वाला। सभ बिधि = हरेक किस्म की बात। तिस ते = उस (परमात्मा) से। कहा दुलारिओ = कहाँ कुछ छुपाया जा सकता है? हसत = हाथ (बहुवचन)। पाव = पैर। झरे = झड़ जाते हैं, जल जाते हैं। अगनि संगि = आग से, आग में। जारिओ = जलाया जाता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे मूर्ख! जिस शरीर की खातिर तू हरामखोरी करता है, वह शरीर अंत के समय) आग में डाल कर जलाया जाता है, (उसके) हाथ पैर (आदि अंग) एक छिन में जल के राख हो जाते हैं। हे मूर्ख! सब के दिलों की जानने वाला परमात्मा (मनुष्य का) हरेक किस्म (का अंदरूनी भेद) जानता है। उससे कहाँ कुछ छुपाया जा सकता है?।1।
[[1001]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूड़े तै मन ते रामु बिसारिओ ॥ लूणु खाइ करहि हरामखोरी पेखत नैन बिदारिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मूड़े तै मन ते रामु बिसारिओ ॥ लूणु खाइ करहि हरामखोरी पेखत नैन बिदारिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूढ़े = हे मूर्ख! तै = तू। मन ते = मन से। बिसारिओ = भुला दिया है। खाइ = खा के। करहि = तू करता है। हरामखोरी = हराम का माल खाने की करतूत। नैन बिदारिओ = आँखें फाड़ फाड़ के, शर्म हया उतार के। पेखत = देखता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! तूने परमात्मा को अपने मन से भुला दिया है। परमात्मा का सब कुछ दिया खा के बड़ी बेशर्मी के साथ तू हरामखोरी कर रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असाध रोगु उपजिओ तन भीतरि टरत न काहू टारिओ ॥ प्रभ बिसरत महा दुखु पाइओ इहु नानक ततु बीचारिओ ॥२॥८॥
मूलम्
असाध रोगु उपजिओ तन भीतरि टरत न काहू टारिओ ॥ प्रभ बिसरत महा दुखु पाइओ इहु नानक ततु बीचारिओ ॥२॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असाध रोगु = वह रोग जिसका इलाज ना हो सके। तन भीतरि = शरीर में। टरत न = नहीं टलता, दूर नहीं होता। काहू = और किसी तरह भी। टारिओ = टालने से, दूर करने से। नानक = हे नानक!।2।
अर्थ: हे मूर्ख! (जब हरामखोरी का यह) असाध रोग शरीर में पैदा होता है, किसी भी और तरीके से दूर करने से यह दूर नहीं होता। हे नानक! (कह:) संत जनों ने ये भेद समझा है कि परमात्मा को भुला के मनुष्य बड़ा दुख सहता है।2।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ चरन कमल प्रभ राखे चीति ॥ हरि गुण गावह नीता नीत ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोऊ ॥ आदि मधि अंति है सोऊ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ चरन कमल प्रभ राखे चीति ॥ हरि गुण गावह नीता नीत ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोऊ ॥ आदि मधि अंति है सोऊ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = सुंदर चरण। चीति = चिक्त में। गावह = गाते हैं। नीता नीत = नित्य ही। कोऊ = कोई भी। आदि = शुरू में। मधि = बीच वाले समय में। अंति = जगत के अंत में। सोऊ = वह स्वयं ही।1।
अर्थ: हे भाई! संत जनों ने प्रभु के सुंदर चरण (सदा अपने) चिक्त में बसाए होते हैं, वह सदा ही परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं परमात्मा के बिना उन्हें और कोई सहारा नहीं दिखता (जो सदा कायम रह सके। संत जनों को विश्वास है कि) वह परमात्मा ही जगत के आरम्भ में, मध्य में और जगत के अंत में कायम रहने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतन की ओट आपे आपि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतन की ओट आपे आपि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओट = आसरा। आपे = स्वयं ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही (संत जनों का) आसरा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै वसि है सगल संसारु ॥ आपे आपि आपि निरंकारु ॥ नानक गहिओ साचा सोइ ॥ सुखु पाइआ फिरि दूखु न होइ ॥२॥९॥
मूलम्
जा कै वसि है सगल संसारु ॥ आपे आपि आपि निरंकारु ॥ नानक गहिओ साचा सोइ ॥ सुखु पाइआ फिरि दूखु न होइ ॥२॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै वसि = जिसके वश में। सगल = सारा। निरंकारु = निर+आकार, जिसका कोई खास रूप नहीं बयान किया जा सकता। गहिओ = पकड़ लिया, हृदय में बगसा लिया। साचा = सदा कायम रहने वाला।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जो निरंकार सदा स्वयं ही स्वयं है, जिसमें सारा जगत है, (संत जनों ने) उस सदा कायम रहने वाले को अपने हृदय में बसाया हुआ है, वह सदा आत्मिक आनंद भोगते हैं, उन्हें कोई दुख छू नहीं सकता।2।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रान सुखदाता जीअ सुखदाता तुम काहे बिसारिओ अगिआनथ ॥ होछा मदु चाखि होए तुम बावर दुलभ जनमु अकारथ ॥१॥
मूलम्
प्रान सुखदाता जीअ सुखदाता तुम काहे बिसारिओ अगिआनथ ॥ होछा मदु चाखि होए तुम बावर दुलभ जनमु अकारथ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान दाता = जीवन देने वाला। जीअ सुख दाता = सब जीवों को सुख देने वाला। काहे = क्यों? अगिआनथ = हे अज्ञानी! होछा = जल्दी खत्म हो जाने वाला। मदु = नशा। बावर = झल्ला। अकारथ = व्यर्थ।1।
अर्थ: हे अज्ञानी! तूने क्यों उस परमात्मा को भुला दिया है जो प्राणों का दाता है, सारे सुखों को देने वाला है और सारे जीवों का सुखदाता है। जल्दी खत्म हो जाने वाले (होछे) नशे चख के तू पागल होता जा रहा है, तेरा कीमती जनम व्यर्थ जा रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे नर ऐसी करहि इआनथ ॥ तजि सारंगधर भ्रमि तू भूला मोहि लपटिओ दासी संगि सानथ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे नर ऐसी करहि इआनथ ॥ तजि सारंगधर भ्रमि तू भूला मोहि लपटिओ दासी संगि सानथ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे नर = हे मनुष्य! करहि = तू करता है। इआनथ = बेअक्ली, मूर्खता। तजि = छोड़ के। सारंगधर = जगत का आसरा प्रभु। भ्रमि = भटकना में पड़ के। भूला = गलत राह पर पड़ गया। मोहि = मोह में। दासी = माया। संगि = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मनुष्य! तू बहुत ही बुरी बुद्धिहीनता कर रहा है कि तू धरती के आसरे प्रभु को छोड़ के भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है, माया के मोह से चिपका हुआ है और माया-दासी से साथ बना रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरणीधरु तिआगि नीच कुल सेवहि हउ हउ करत बिहावथ ॥ फोकट करम करहि अगिआनी मनमुखि अंध कहावथ ॥२॥
मूलम्
धरणीधरु तिआगि नीच कुल सेवहि हउ हउ करत बिहावथ ॥ फोकट करम करहि अगिआनी मनमुखि अंध कहावथ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरणीधरु = धरती का आसरा। सेवहि = तू सेवा करता है। हउ हउ = मैं मैं, अहंकार। बिहावथ = बिहावत, (उम्र) गुजर रही है। फोकट = फोके। मनमुख = हे मनमुख! हे मन के मुरीद! अंधु = अंधा। कहावथ = कहलवा रहा है।2।
अर्थ: हे भाई! धरती के आसरे प्रभु को त्याग के तू नीच कुल वाली माया-दासी की सेवा कर रहा है, (इस माया के कारण) ‘मैं मैं’ करते हुए तेरी उम्र बीत रही है। हे मन के मुरीद मूर्ख! तू फोके कर्म कर रहा है, (आँखों के होते हुए भी) तू (आत्मिक जीवन की ओर से) अंधा कहलवा रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति होता असति करि मानिआ जो बिनसत सो निहचलु जानथ ॥ पर की कउ अपनी करि पकरी ऐसे भूल भुलानथ ॥३॥
मूलम्
सति होता असति करि मानिआ जो बिनसत सो निहचलु जानथ ॥ पर की कउ अपनी करि पकरी ऐसे भूल भुलानथ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। असति = जो सत्य नहीं है, जिसकी कोई हस्ती नहीं है। निहचलु = अटल। पर की = पराई (हो जाने वाली)। कउ = को। करि = जाने के, समझ के। पकरी = पकड़ी हुई है।3।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, तू उसकी हस्ती ही नहीं मानता, जो यह नाशवान जगत है इसको तू अटल समझता है। जिस माया ने अवश्य पराई हो जाना है इसको तू अपनी समझ के जफी मार के बैठा है। कैसी आश्चर्यजनक भूल में तू भूला हुआ है!।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खत्री ब्राहमण सूद वैस सभ एकै नामि तरानथ ॥ गुरु नानकु उपदेसु कहतु है जो सुनै सो पारि परानथ ॥४॥१॥१०॥
मूलम्
खत्री ब्राहमण सूद वैस सभ एकै नामि तरानथ ॥ गुरु नानकु उपदेसु कहतु है जो सुनै सो पारि परानथ ॥४॥१॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै नामि = सिर्फ नाम से ही। तरानथ = पार लांघता है।4।
अर्थ: हे भाई! खत्री, ब्राहमण, शूद्र, वैश्य (किसी भी वर्ण के जीव हों) सारे एक हरि-नाम से ही संसार-सागर से पार होते है। जो उपदेश गुरु नानक करता है इसको जो मनुष्य सुनता है वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।4।1।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ गुपतु करता संगि सो प्रभु डहकावए मनुखाइ ॥ बिसारि हरि जीउ बिखै भोगहि तपत थम गलि लाइ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ गुपतु करता संगि सो प्रभु डहकावए मनुखाइ ॥ बिसारि हरि जीउ बिखै भोगहि तपत थम गलि लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुपतु = गुप्त, छुप के। करता = (पाप) करता है। संगि = (जीव के सदा) साथ। डहकावए = ठगता है। मनुखाइ = मनुखाय, और मनुष्यों को। बिसारि = भुला के। बिखै = विषय भोग। भोगहि = तू भोगता है। गलि = गले से। लाइ = लगा के। तपत…लाइ = तपे हुए खम्भे को गले से लगा के, विकारों की आग में जल जल के।1।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य) छुप के (विकार) करता है, (पर देखने वाला) वह प्रभु (हर वक्त इसके) साथ होता है (विकारी मनुष्य प्रभु को ठग नहीं सकता, ये तो) मनुष्यों को ही ठगता है। हे भाई! परमात्मा को बिसार के विकारों की आग में जल-जल के तू विषय भोगता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे नर काइ पर ग्रिहि जाइ ॥ कुचल कठोर कामि गरधभ तुम नही सुनिओ धरम राइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे नर काइ पर ग्रिहि जाइ ॥ कुचल कठोर कामि गरधभ तुम नही सुनिओ धरम राइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे नर = हे मनुष्य! काइ = काय, क्यों? पर ग्रिहि = पराए घर में। जाइ = जाए, जा के। कुचल = हे गंदे! कामि = हे कामी! गरधभ = हे गधे?।1। रहाउ।
अर्थ: हे मनुष्य! पराए घर में जा के ऐसे (बुरे कर्म करता है?) हे गंदे! हे पत्थर दिल! हे विषयी! हे गधे मूर्ख! क्या तूने धर्मराज (का नाम कभी) नहीं सुना?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिकार पाथर गलहि बाधे निंद पोट सिराइ ॥ महा सागरु समुदु लंघना पारि न परना जाइ ॥२॥
मूलम्
बिकार पाथर गलहि बाधे निंद पोट सिराइ ॥ महा सागरु समुदु लंघना पारि न परना जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गलहि = गले में। बाधे = बँधे हुए हैं। निंद पोट = निंदा की पोटली। सिराइ = सिर पर। सागरु = समुंदर। न परना जाइ = पार नहीं किया जा सकता।2।
अर्थ: हे भाई! विकारों के पत्थर (तेरे) गले से बँधे पड़े हैं, निंदा की पोटली (तेरे) सिर पर है। बड़ा संसार-समुंदर (है जिसमें से) गुजरना है (इतने भार से इसमें से) पार नहीं लांघा जा सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामि क्रोधि लोभि मोहि बिआपिओ नेत्र रखे फिराइ ॥ सीसु उठावन न कबहू मिलई महा दुतर माइ ॥३॥
मूलम्
कामि क्रोधि लोभि मोहि बिआपिओ नेत्र रखे फिराइ ॥ सीसु उठावन न कबहू मिलई महा दुतर माइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम-वासना में। क्रोधि = क्रोध में। बिआपिओ = बसा हुआ है। नेत्र = आँखें। रख फिराइ = फेरे हुए हैं। सीसु = सिर। कबहू = कभी भी। मिलई = मिले, मिलता। दुतर = दुष्तर, मुश्किल, जिससे पार लांघना मुश्किल है। माइ = माया।3।
अर्थ: हे भाई! (तू) काम-क्रोध-लोभ-मोह में फसा हुआ है, तूने परमात्मा की ओर से आँखें फेर रखी हैं। (इन विकारों की तरफ से तुझे) कभी भी सिर उठाना नहीं मिलता। (तेरे आगे) माया का बड़ा समुंदर है जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूरु मुकता ससी मुकता ब्रहम गिआनी अलिपाइ ॥ सुभावत जैसे बैसंतर अलिपत सदा निरमलाइ ॥४॥
मूलम्
सूरु मुकता ससी मुकता ब्रहम गिआनी अलिपाइ ॥ सुभावत जैसे बैसंतर अलिपत सदा निरमलाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूर = सूरज। मुकता = मैल आदि से रहित। ससी = चंद्रमा। ब्रहम गिआनी = वह मनुष्य जिसने परमात्मा के साथ गहरी सांझ पा ली है। अलिपाइ = अलेप, निर्लिप, पवित्र जीवन वाला। सुभावत = शोभा पा रहा है, सुंदर जीवन वाला है। बैसंतर = आग। निरमलाइ = निर्मल।4।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के साथ गहरी सांझ डाले रखता है वह माया से इस प्रकार से निर्लिप रहता है जैसे सूरज (अच्छे-बुरे हरेक जगह अपनी रौशनी दे के) मैल आदि से साफ है, जैसे चंद्रमा भी (इसी तरह) पवित्र है। ब्रहम से जान-पहचान रखने वाला इस तरह सुंदर लगता है जैसे (हरेक किस्म की मैल को जला के भी) आग (मैल से) निर्लिप है और सदा निर्मल है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु करमु खुलिआ तिसु लहिआ पड़दा जिनि गुर पहि मंनिआ सुभाइ ॥ गुरि मंत्रु अवखधु नामु दीना जन नानक संकट जोनि न पाइ ॥५॥२॥
मूलम्
जिसु करमु खुलिआ तिसु लहिआ पड़दा जिनि गुर पहि मंनिआ सुभाइ ॥ गुरि मंत्रु अवखधु नामु दीना जन नानक संकट जोनि न पाइ ॥५॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु = जिस मनुष्य का। करम खुलिआ = भाग्य जागे। तिसु पड़दा = उसका पर्दा। लहिआ = उतर गया। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुर पहि = गुरु के पास (रह के)। मंनिआ = (परमात्मा का हुक्म) मान लिया। सुभाइ = प्रेम में (टिक के) (भाउ = प्रेम)। गुरि = गुरु ने। अवखधु = दारू, दवा। संकट जोनि = जूनों का कष्ट।5।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के भाग्य जाग उठते हैं, जिसने गुरु की शरण में रह के प्रेम से रज़ा को मान लिया उस (आँखों से माया के मोह) का पर्दा उतर जाता है। हे दास नानक! जिस को गुरु ने नाम मंत्र दे दिया, वह मनुष्य (चौरासी लाख) जूनियों के कष्ट में नहीं पड़ता।5।2।
[[1002]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे नर इन बिधि पारि पराइ ॥ धिआइ हरि जीउ होइ मिरतकु तिआगि दूजा भाउ ॥ रहाउदूजा ॥२॥११॥
मूलम्
रे नर इन बिधि पारि पराइ ॥ धिआइ हरि जीउ होइ मिरतकु तिआगि दूजा भाउ ॥ रहाउदूजा ॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इन बिधि = इस तरीके से (भाव, गुरु की शरण पड़ कर रजा में राजी रहने से)। पारि पराइ = संसार सागर से पार लांघ जाया जाता है। मिरतकु = विषय विकारों से मुर्दा, (संसार से) निर्वाण। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) अन्य से प्यार। रहाउ दूजा।
अर्थ: हे भाई! इस तरह मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। तू भी परमात्मा का ध्यान धरा कर, विकारों से विरक्त (मुर्दा) हो जा, और प्रभु के बिना और-और के प्यार को छोड़ दे। रहाउ दूजा।6।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ बाहरि ढूढन ते छूटि परे गुरि घर ही माहि दिखाइआ था ॥ अनभउ अचरज रूपु प्रभ पेखिआ मेरा मनु छोडि न कतहू जाइआ था ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ बाहरि ढूढन ते छूटि परे गुरि घर ही माहि दिखाइआ था ॥ अनभउ अचरज रूपु प्रभ पेखिआ मेरा मनु छोडि न कतहू जाइआ था ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। छूटि परे = बच गए। गुरि = गुरु ने। घर माहि = हृदय में। अनभउ = अनुभव, झलकारा। प्रभ = प्रभु का। कतहु = किसी और तरफ। न जाइआ = नहीं जाता।1।
अर्थ: (क्योंकि) गुरु ने मुझे मेरे दिल में ही भगवान का दीदार करवा दिया है, अब मैं परमात्मा की तलाश बाहर (जंगलों आदि में) करने से बच गया हूँ। जब हृदय में परमेश्वर के अद्भुत रूप का अनुभव हो गया है, तो अब मेरा मन उसका आसरा छोड़ के किसी और की तरफ नहीं भटकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानकु पाइओ रे पाइओ हरि पूरा पाइआ था ॥ मोलि अमोलु न पाइआ जाई करि किरपा गुरू दिवाइआ था ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मानकु पाइओ रे पाइओ हरि पूरा पाइआ था ॥ मोलि अमोलु न पाइआ जाई करि किरपा गुरू दिवाइआ था ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानकु = मोती। रे = हे भाई! पाइआ = पा लिया है। मोलि अमोलु = किसी भी मूल्य से ना मिल सकने वाला। मोलि = मूल्य से। करि = कर के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैंने मोती पा लिया है, मैंने पूरन परमात्मा को पा लिया है। है भाई! यह मोती बहुत अमूल्य है, किसी भी मूल्य पर नहीं मिल सकता। मुझे तो यह मोती गुरु ने दिलवा दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदिसटु अगोचरु पारब्रहमु मिलि साधू अकथु कथाइआ था ॥ अनहद सबदु दसम दुआरि वजिओ तह अम्रित नामु चुआइआ था ॥२॥
मूलम्
अदिसटु अगोचरु पारब्रहमु मिलि साधू अकथु कथाइआ था ॥ अनहद सबदु दसम दुआरि वजिओ तह अम्रित नामु चुआइआ था ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अदिसटु = इन आँखों से ना दिखने वाला। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। मिलि साधू = गुरु को मिल के। कथाइआ = महिमा करनी आरम्भ कर दी। अकथु = जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान से परे है। अनहद = बिना बजाए बजने वाला, एक रस, मतवातर। सबदु वजिओ = महिमा की वाणी पूरा प्रभाव डालने लग पड़ी। दुआरि = द्वार में। दसम दुआरि = दसवें द्वार में, दिमाग़ में। तह = वहाँ, उस दिमाग़ में। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता, हमारी ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, उसका मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। हे भाई! गुरु को मिल के मैंने उसकी महिमा करनी शुरू कर दी है। हे भाई! मेरे दिमाग़ में अब हर वक्त महिमा की वाणी प्रभाव डाल रही है; मेरे अंदर अब हर वक्त आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस टपक रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोटि नाही मनि त्रिसना बूझी अखुट भंडार समाइआ था ॥ चरण चरण चरण गुर सेवे अघड़ु घड़िओ रसु पाइआ था ॥३॥
मूलम्
तोटि नाही मनि त्रिसना बूझी अखुट भंडार समाइआ था ॥ चरण चरण चरण गुर सेवे अघड़ु घड़िओ रसु पाइआ था ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तोटि = कमी, घाटा। मनि = मन में (बस रही)। बूझी = बुझ गई। अखुट = ना खत्म होने वाले। भंडार = खजाने। चरण गुर = गुरु के चरण। अघड़ु = (अ+घड़) बिना किसी घड़त वाला (मन)। रसु = स्वाद।3।
अर्थ: हे भाई! मेरे मन में कभी ना समाप्त होने वाले नाम-खजाने भर गए हैं, इन खजानों में कभी कमी नहीं आ सकती, मन में (बस रही) तृष्णा (-आग की लाट) बुझ गई है। मैं हर वक्त गुरु के चरणों का आसरा ले रहा हूँ। मैंने नाम-अमृत का स्वाद चख लिया है, और पहले वाला बेढबी घाड़त वाला मन अब सुंदर मनमोहक बन गया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे आवा सहजे जावा सहजे मनु खेलाइआ था ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोइआ ता हरि महली महलु पाइआ था ॥४॥३॥१२॥
मूलम्
सहजे आवा सहजे जावा सहजे मनु खेलाइआ था ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोइआ ता हरि महली महलु पाइआ था ॥४॥३॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही। आवा जावा = आता जाता, कार्य व्यवहार करता है। खेलाइआ = खेलता है। कहु = कह। नानक = हे नानक! गुरि = गुरु ने। भरमु = भटकना। महली महलु = महल के मालिक का महल।4।
अर्थ: हे भाई! नाम-खजाने की इनायत से मेरा मन हर वक्त आत्मिक अडोलता में टिक के कार्य-व्यवहार कर रहा है, मन सदा आत्मिक अडोलता में खेल रहा है। हे नानक! कह: (जब से) गुरु ने मेरी भटकना दूर कर दी है, तब से मैंने सदा-स्थिर ठिकाने वाले हरि (के चरणों में) ठिकाना पा लिया है।4।3।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ जिसहि साजि निवाजिआ तिसहि सिउ रुच नाहि ॥ आन रूती आन बोईऐ फलु न फूलै ताहि ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ जिसहि साजि निवाजिआ तिसहि सिउ रुच नाहि ॥ आन रूती आन बोईऐ फलु न फूलै ताहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसहि = जिसु ही (ने)। साजि = पैदा करके। निवाजिआ = बख्शिशें की हैं। तिसहि सिउ = तिसु ही सिउ, उसी के साथ ही। रचु = प्यार। आन = (अन्य) और कोई। बोईऐ = अगर बीज बीजें। फूलै = फूल। ताहि = उसको।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा करके कई बख्शिशें की हुई हैं, उससे ही तेरा प्यार नहीं है। (तू और-और काम-काजों में लगा फिरता है, पर अगर) ऋतु कोई हो, बीज कोई और बो दें, उसे ना फूल लगता है ना फल।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन वत्र बीजण नाउ ॥ बोइ खेती लाइ मनूआ भलो समउ सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मन वत्र बीजण नाउ ॥ बोइ खेती लाइ मनूआ भलो समउ सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वत्र बीजण = बीजने के उपयुक्त समय और तैयार जमीन। नाउ = प्रभु का नाम बीज। बोइ = बोय, बीज ले। लाइ = लगा के। समउ = समय। सुआउ = लाभ।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (ये मनुष्य जीवन परमात्मा का) नाम-बीजने के लिए सही समय है। हे भाई! अपना मन लगा के (हृदय की) खेती में (नाम) बीज ले। यही सही मौका है, (इसी में) लाभ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोइ खहड़ा भरमु मन का सतिगुर सरणी जाइ ॥ करमु जिस कउ धुरहु लिखिआ सोई कार कमाइ ॥२॥
मूलम्
खोइ खहड़ा भरमु मन का सतिगुर सरणी जाइ ॥ करमु जिस कउ धुरहु लिखिआ सोई कार कमाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोइ = दूर करके। खहड़ा = जिद्द। भरमु = भटकना। जाइ = जा। करमु = कृपा, बख्शिश (का लेख)। जिस कउ = जिस के लिए, जिसके माथे पर। धुरहु = प्रभु की हजूरी से। कमाइ = कमाता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस कउ’ में से संबंधक ‘कउ’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! अपने मन की जिद्द अपने मन की भटकना दूर कर, और, गुरु की शरण जा पड़ (और परमात्मा का नाम-बीज बीज ले)। पर ये काम वही मनुष्य करता है जिसके माथे पर प्रभु की हजूरी से ये लेख लिखा हुआ हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भाउ लागा गोबिद सिउ घाल पाई थाइ ॥ खेति मेरै जमिआ निखुटि न कबहू जाइ ॥३॥
मूलम्
भाउ लागा गोबिद सिउ घाल पाई थाइ ॥ खेति मेरै जमिआ निखुटि न कबहू जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्यार। सिउ = साथ। घाल = मेहनत। थाइ पाई = स्वीकार की। थाइ = जगह में, जगह पर। खेति मेरै = मेरे हृदय खेत में। जंमिआ = उग पड़ा है। निखुटि न जाइ = समाप्त नहीं होता।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘थाइ’ शब्द ‘थाउ’ से अधिकरण कारक।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का परमात्मा से प्यार बन जाता है, (उसकी नाम-जपने की) मेहनत परमात्मा स्वीकार कर लेता है। हे भाई! मेरे हृदय-खेत में भी वह नाम-फसल उग पड़ी है जो कभी समाप्त नहीं होती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइआ अमोलु पदारथो छोडि न कतहू जाइ ॥ कहु नानक सुखु पाइआ त्रिपति रहे आघाइ ॥४॥४॥१३॥
मूलम्
पाइआ अमोलु पदारथो छोडि न कतहू जाइ ॥ कहु नानक सुखु पाइआ त्रिपति रहे आघाइ ॥४॥४॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमोलु = जो किसी मूल्य से ना मिल सके। छोडि = छोड़ के। कतहू = कहीं भी। त्रिपति रहे आघाइ = पूरी तौर पर संतोषी जीवन वाले हो गए।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों ने (प्रभु का नाम) अमूल्य पदार्थ पा लिया, वे इसको छोड़ के किसी और तरफ नहीं भटकते; वे आत्मिक आनंद भोगते हैं, वे (माया से) पूरी तरह से संतोखी जीवन वाले हो जाते हैं।4।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ फूटो आंडा भरम का मनहि भइओ परगासु ॥ काटी बेरी पगह ते गुरि कीनी बंदि खलासु ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ फूटो आंडा भरम का मनहि भइओ परगासु ॥ काटी बेरी पगह ते गुरि कीनी बंदि खलासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहि = मन में। परगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवन की सूझ। बेरी = बेड़ी। पगह ते = पैरों से। गुरि = गुरु ने। बंदि = बंदी से, कैद से, मोह की कैद से। खलासु = छुटकारा।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने जिस मनुष्य के पैरों से (मोह की) बेड़ियाँ काट दीं, जिसको मोह की कैद से आजाद कर दिया, उसके मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गई, उसका भ्रम (भटकना) का अण्डा टूट गया (उसका मन आत्मिक उड़ान लगाने के योग्य हो गया, जैसे अण्डे का कवच टूट जाने के बाद उसके अंदर का पंछी उड़ान भरने के लायक हो जाता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवण जाणु रहिओ ॥ तपत कड़ाहा बुझि गइआ गुरि सीतल नामु दीओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आवण जाणु रहिओ ॥ तपत कड़ाहा बुझि गइआ गुरि सीतल नामु दीओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवण जाणु = जनम मरन का चक्कर, भटकना। रहिओ = समाप्त हो गया। तपत कड़ाहा = तपता हुआ कड़ाहा, तृष्णा की आग के शोले। गुरि = गुरु ने। सीतल = ठंडक देने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने आत्मिक ठंड देने वाला हरि-नाम दे दिया, उसके अंदर से तृष्णा की आग के शोले बुझ गए, उसकी (माया की खातिर) भटकना समाप्त हो गई।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब ते साधू संगु भइआ तउ छोडि गए निगहार ॥ जिस की अटक तिस ते छुटी तउ कहा करै कोटवार ॥२॥
मूलम्
जब ते साधू संगु भइआ तउ छोडि गए निगहार ॥ जिस की अटक तिस ते छुटी तउ कहा करै कोटवार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब ते = जब से। साधू संगु = गुरु का मिलाप। तउ = जब। निगहार = निगाह रखने वाले, आत्मिक मौत का संदेशा लाने वाले। कहा करै = क्या कर सकता है? कोटवार = कौतवाल, जमराज।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस की, तिस ते’ में से संबंधक ‘की’ और ‘ते’ के कारण ‘जिसु’ और ‘तिसु’ शब्द की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जब (किसी भाग्यशाली मनुष्य को) गुरु का मिलाप हासिल हो जाता है, तब (उसके आत्मिक जीवन पर) निगाह रखने वाले (विकार उसको) छोड़ जाते हैं। जब परमात्मा की ओर से (आत्मिक जीवन की राह में) डाली हुई रुकावट उसकी मेहर से (गुरु के द्वारा) खत्म हो जाती है तब (उन निगाह रखने वालों का सरदार) कोतवाल (मोह) भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चूका भारा करम का होए निहकरमा ॥ सागर ते कंढै चड़े गुरि कीने धरमा ॥३॥
मूलम्
चूका भारा करम का होए निहकरमा ॥ सागर ते कंढै चड़े गुरि कीने धरमा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भारा = कर्जा। करम का = पिछले किए कर्मों का। निहकरमा = वासना रहित। ते = से। कंढै = किनारे पर। गुरि = गुरु ने। धरमा = भलाई, उपकार।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों पर गुरु ने उपकार कर दिया, वह (संसार-) समुंदर (में डूबने) से (बच के) किनारे पर पहुँच गए, उनका अनेक जन्मों के किए बुरे कर्मों का कर्ज (भाव, विकारों के संस्कारों का संग्रह) खत्म हो गया, वे बुरे कर्मों की कैद में से निकल गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु थानु सचु बैठका सचु सुआउ बणाइआ ॥ सचु पूंजी सचु वखरो नानक घरि पाइआ ॥४॥५॥१४॥
मूलम्
सचु थानु सचु बैठका सचु सुआउ बणाइआ ॥ सचु पूंजी सचु वखरो नानक घरि पाइआ ॥४॥५॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्चु = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = जीवन उद्देश्य। पूंजी = राशि। वखरो = सौदा। घरि = हृदय में।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: जिस मनुष्य पर गुरु ने मेहर की, उसने अपने) हृदय-घर में सदा कायम रहने वाला नाम-राशि को पा लिया, सदा कायम रहने वाला नाम-सौदा प्राप्त कर लिया, उसने सदा-स्थिर हरि-नाम को अपनी जिंदगी का उद्देश्य बना लिया, सदा-स्थिर हरि-चरण ही उसके लिए (आत्मिक निवास का) स्थल बन गए, बैठक बन गई।4।5।14।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ बेदु पुकारै मुख ते पंडत कामामन का माठा ॥ मोनी होइ बैठा इकांती हिरदै कलपन गाठा ॥ होइ उदासी ग्रिहु तजि चलिओ छुटकै नाही नाठा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ बेदु पुकारै मुख ते पंडत कामामन का माठा ॥ मोनी होइ बैठा इकांती हिरदै कलपन गाठा ॥ होइ उदासी ग्रिहु तजि चलिओ छुटकै नाही नाठा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुकारै = ऊँचा ऊँचा पढ़ता है। मुख ते = मुँह से। पंडत = हे पण्डित! माठा = मध्यम, ढीला। कामामन का = कमावन का, कमाने का, आत्मिक जीवन बनाने का। मोनी = मौन धारी, सदा चुप धार के रखने वाला। इकांती = एकांत में, किसी गुफा आदि में अकेला। हिरदै = हृदय में। गाठा = गाँठ। कलपन = कल्पना, मानसिक दौड़ भाग। होइ = होय, हो के। उदासी = उपराम। ग्रिहु = घर, गृहस्थ। नाठा = दौड़ भाग, भटकना।1।
अर्थ: हे पण्डित! (तेरे जैसा कोई तो) मुँह से वेद ऊँची-ऊँची आवाज़ में पढ़ता है, पर आत्मिक कमाई करने के पक्ष से ढीला है; (कोई) मौन-धारी बन के (किसी गुफा आदि में) अकेला बैठा हुआ है, (पर उसके भी) हृदय में मानसिक दौड़-भाग की गाँठ बनी हुई है; (कोई दुनियाँ से) उपराम हो के गृहस्थ छोड़ के चल पड़ा है (पर उसकी भी) भटकना खत्म नहीं हुई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ की कै पहि बात कहा ॥ आपि मुकतु मो कउ प्रभु मेले ऐसो कहा लहा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीअ की कै पहि बात कहा ॥ आपि मुकतु मो कउ प्रभु मेले ऐसो कहा लहा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ की बात = दिल की बात। कै पहि = किस के पास? कहा = कहूँ, (मैं) कहूँ। मुकतु = विकारों से मुक्त। मो कउ = मुझे। कहा = कहाँ? किस जगह? लहा = तलाशूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे पण्डित!) मैं अपने दिल की बात किस को बताऊँ? मैं ऐसा (गुरमुख) कहाँ से तलाशूँ जो स्वयं (मोह माया से) बचा हुआ हो, और मुझे (भी) परमात्मा मिला दे?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसी करि कै देही साधी मनूआ दह दिस धाना ॥ ब्रहमचारि ब्रहमचजु कीना हिरदै भइआ गुमाना ॥ संनिआसी होइ कै तीरथि भ्रमिओ उसु महि क्रोधु बिगाना ॥२॥
मूलम्
तपसी करि कै देही साधी मनूआ दह दिस धाना ॥ ब्रहमचारि ब्रहमचजु कीना हिरदै भइआ गुमाना ॥ संनिआसी होइ कै तीरथि भ्रमिओ उसु महि क्रोधु बिगाना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि कै = (तप) करके। देही साधी = शरीर साधा, शरीर को कष्ट देता रहा। दहदिस = दसों दिशाओं में। धाना = दौड़ता रहा। ब्रहमचारि = ब्रहमचारी ने। ब्रहमचजु = ब्रहमचर्य, काम-वासना को रोकने का अभ्यास। गुमाना = अहंकार। होइ कै = बन के। तीरथि = (हरेक) तीर्थ पर। बिगाना = बेगाना, मूर्खता वाला।2।
अर्थ: (हे पण्डित!) कोई तपस्वी (तप) करके (निरे) शरीर को कष्ट दे रहा है, मन (उसका भी) दसों दिशाओं में दौड़ रहा है; किसी ब्रहमचारी ने कामवासना रोकने का अभ्यास कर लिया है, (पर उसके) हृदय में (इसी बात का) अहंकार पैदा हो गया है, (कोई) सन्यासी बन के (हरेक) तीर्थ पर भ्रमण कर रहा है; उसके अंदर उसको मूर्ख बना देने वाला क्रोध पैदा हो गया है (बता, हे पण्डित! मैं ऐसा मनुष्य कहाँ से ढूँढू जो स्वयं मुक्त हो)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घूंघर बाधि भए रामदासा रोटीअन के ओपावा ॥ बरत नेम करम खट कीने बाहरि भेख दिखावा ॥ गीत नाद मुखि राग अलापे मनि नही हरि हरि गावा ॥३॥
मूलम्
घूंघर बाधि भए रामदासा रोटीअन के ओपावा ॥ बरत नेम करम खट कीने बाहरि भेख दिखावा ॥ गीत नाद मुखि राग अलापे मनि नही हरि हरि गावा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाधि = बाँध के। रामदासा = राम के दास, भक्तगण, रासधारिए। ओपावा = साधन, ढंग। करम खट = छह (धार्मिक) काम (विद्या पढ़नी और पढ़ानी, दान लेना और देना, यज्ञ करना और करवाना)। भेख = धार्मिक पहरावा। दिखावा = दिखाया। नाद = आवाज, राग। मुखि = मुँह से। अलापे = उचारे। मनि = मन में। गावा = गाया।3।
अर्थ: (हे पण्डित! कई ऐसे हैं जो अपने पैरों से) घुंघरू बाँध के रासधारिए बने हैं, पर वे भी रोटियाँ (कमाने के लिए ही ये) ढंग तरीके बरत रहे हैं; (कई ऐसे हैं जो) व्रत-नेम आदि और छह (निहित धार्मिक) कर्म करते हैं, (पर उन्होंने भी) बाहर (लोगों को ही) धार्मिक पहरावा दिखाया हुआ है; (कई ऐसे हैं जो) मुँह से (तो भजनों के) गीत-राग अलापते हैं, (पर अपने) मन (में उन्होंने कभी भी) परमात्मा की महिमा नहीं की।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरख सोग लोभ मोह रहत हहि निरमल हरि के संता ॥ तिन की धूड़ि पाए मनु मेरा जा दइआ करे भगवंता ॥ कहु नानक गुरु पूरा मिलिआ तां उतरी मन की चिंता ॥४॥
मूलम्
हरख सोग लोभ मोह रहत हहि निरमल हरि के संता ॥ तिन की धूड़ि पाए मनु मेरा जा दइआ करे भगवंता ॥ कहु नानक गुरु पूरा मिलिआ तां उतरी मन की चिंता ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरख = हर्ष, खुशी। सोग = शोक। रहत = बचे हुए। हहि = हैं (बहुवचन)। धूड़ि = चरण धूल। जा = जब। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: (हे पण्डित! सिर्फ) हरि के संत जन ही पवित्र जीवन वाले हैं, वे खुशी-ग़मी-लोभ-मोह आदि से बचे रहते हैं। जब भगवान दया करे तब मेरा मन उनके चरणों की धूल प्राप्त करता है। हे नानक! (कह: हे पण्डित!) जब पूरा गुरु मिलता है तब मन की चिन्ता दूर हो जाती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा अंतरजामी हरि राइआ ॥ सभु किछु जाणै मेरे जीअ का प्रीतमु बिसरि गए बकबाइआ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥६॥१५॥
मूलम्
मेरा अंतरजामी हरि राइआ ॥ सभु किछु जाणै मेरे जीअ का प्रीतमु बिसरि गए बकबाइआ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥६॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि राइआ = प्रभु पातशाह। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। सभु किछु = हरेक बात। जाणै = जानता है (एकवचन)। बकबाइआ = बहुत बोलना।1। रहाउ दूजा।
अर्थ: (हे पण्डित!) मेरा प्रभु-पातशाह सब के दिल की जानने वाला है (वह बाहरी भेषों, प्रयासों से नहीं पतीजता)। हे पण्डित! मेरी जीवात्मा का पातशाह सब कुछ जानता है (जिसको वह मिल जाता है, वह सारे) दिखावे के बोल बोलने भूल जाता है।1। रहाउ दूजा।6।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ कोटि लाख सरब को राजा जिसु हिरदै नामु तुमारा ॥ जा कउ नामु न दीआ मेरै सतिगुरि से मरि जनमहि गावारा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ कोटि लाख सरब को राजा जिसु हिरदै नामु तुमारा ॥ जा कउ नामु न दीआ मेरै सतिगुरि से मरि जनमहि गावारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़। को = का। राजा = (दिल पर) हकूमत करने वाला। हिरदै = हृदय में। मेरै सतिगुरि = मेरे गुरु ने। जा कउ = जिस को। से = वह लोग। मरि जनमहि = मर के पैदा होते हैं, जनम मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं। गावारा = मूर्ख।1।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के हृदय में तेरा नाम बसता है वह लाखों-करोड़ों (लोगों) सब लोगों (के दिल) का राजा बन जाता है। हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु ने नाम नहीं दिया वह जनम-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे सतिगुर ही पति राखु ॥ चीति आवहि तब ही पति पूरी बिसरत रलीऐ खाकु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे सतिगुर ही पति राखु ॥ चीति आवहि तब ही पति पूरी बिसरत रलीऐ खाकु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरु! ही = (तू) ही। पति राखु = इज्जत का रखवाला। चीति = चिक्त में। आवहि = अगर तू आ बसे। पूरी = पूर्ण। रलीऐ खाकु = मिट्टी में मिल जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सतिगुरु! तू ही (मेरी) इज्जत का रखवाला है। हे प्रभु! जब से तू (हम जीवों के) चिक्त में आ बसा है तब से ही (हमें लोक-परलोक में) पूरी इज्जत मिलती है। (तेरा नाम) भूलने से मिट्टी में मिल जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूप रंग खुसीआ मन भोगण ते ते छिद्र विकारा ॥ हरि का नामु निधानु कलिआणा सूख सहजु इहु सारा ॥२॥
मूलम्
रूप रंग खुसीआ मन भोगण ते ते छिद्र विकारा ॥ हरि का नामु निधानु कलिआणा सूख सहजु इहु सारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन भोगण = मन के भोग, मन की मौजें। ते ते = वह सारे। छिद्र = ऐब, छेद (आत्मिक जीवन में)। निधानु = खजाना। कलिआणा = कल्याण, सुख शांति। सहजु = आत्मिक अडोलता। सारा = सेष्ठ।2।
अर्थ: दुनियाई रूप रंग ख़ुशियां, मन की मौजें और विकार (आत्मिक जीवन में) छेद हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम (ही) सारे सुखों सारी खुशियों का खजाना है; ये नाम ही श्रेष्ठ (पदार्थ) है और आत्मिक स्थिरता (का मूल) है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ रंग बिरंग खिनै महि जिउ बादर की छाइआ ॥ से लाल भए गूड़ै रंगि राते जिन गुर मिलि हरि हरि गाइआ ॥३॥
मूलम्
माइआ रंग बिरंग खिनै महि जिउ बादर की छाइआ ॥ से लाल भए गूड़ै रंगि राते जिन गुर मिलि हरि हरि गाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरंग = बे+रंग, फीके। बादर = बादल। छाइआ = छाया। गूढ़ै रंगि = गाढ़े रंग में। राते = रंगे हुए। गुर मिलि = गुरु को मिल के।3।
अर्थ: हे भाई! जैसे बादलों की छाया (छिन-भंगुर है, वैसे) माया के रंग-तमाशे छिन में फीके पड़ जाते हैं; पर, हे भाई! जिन्होंने गुरु को मिल के परमात्मा की महिमा की, वह लाल (रत्न) हो गए, वे गाढ़े प्रेम-रंग में रंगे गए (उनका आत्मिक आनंद फीका नहीं पड़ता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊच मूच अपार सुआमी अगम दरबारा ॥ नामो वडिआई सोभा नानक खसमु पिआरा ॥४॥७॥१६॥
मूलम्
ऊच मूच अपार सुआमी अगम दरबारा ॥ नामो वडिआई सोभा नानक खसमु पिआरा ॥४॥७॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूच = बड़ा। अपार = बेअंत, अ+पार। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। नामो = नाम ही। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! जिन्हें पति-प्रभु प्यारा लगता है, उनके वास्ते हरि-नाम ही (दुनिया की) महानता है, नाम ही (लोक-परलोक की) शोभा है, वह उस मालिक के दरबार में पहुँचे रहते हैं जो सबसे ऊँचा है जो सबसे बड़ा है जो बेअंत है और अगम्य (पहुँच से परे) है।4।7।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओअंकारि उतपाती ॥ कीआ दिनसु सभ राती ॥ वणु त्रिणु त्रिभवण पाणी ॥ चारि बेद चारे खाणी ॥ खंड दीप सभि लोआ ॥ एक कवावै ते सभि होआ ॥१॥
मूलम्
ओअंकारि उतपाती ॥ कीआ दिनसु सभ राती ॥ वणु त्रिणु त्रिभवण पाणी ॥ चारि बेद चारे खाणी ॥ खंड दीप सभि लोआ ॥ एक कवावै ते सभि होआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओअंकारि = ओअंकार ने, सर्व व्यापक परमात्मा ने। उतपती = उत्पक्ति, सृष्टि की रचना। कीआ = बनाया। राती = रातें। वणु = जंगल। त्रिणु = तृण, तीला, घास। त्रिभवण = तीनों भवन (आकाश, मातृलोक, पाताल)। चारे खाणी = चारों ही उत्पक्ति के श्रोत (अण्डज, जेरज, उत्भुज, सेतज)। खंड = सृष्टि के खण्ड। दीप = द्वीप, जजीरे। सभि = सारे। लोआ = लोक, मण्डल। कवाउ = वचन, हुक्म। ते = से। एक कवावै ते = एक परमात्मा के हुक्म से ही।1।
अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा ने जगत की उत्पक्ति की है; दिन भी उसने बनाया; रातें भी उसने बनाई, सब कुछ उसने बनाया है। हे भाई! जंगल, (जंगल का) घास, तीनों भवन, पानी (आदि सारे तत्व), चारों वेद, चारों खाणियाँ, सृष्टि के अलग-अलग हिस्से (खण्ड), द्वीप, सारे लोग -ये सारे परमात्मा के हुक्म से ही बने हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करणैहारा बूझहु रे ॥ सतिगुरु मिलै त सूझै रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करणैहारा बूझहु रे ॥ सतिगुरु मिलै त सूझै रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! बूझहु = जान पहचान पैदा करो। त = तब, तो। सूझै = समझ पड़ती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! विधाता प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल। पर, हे भाई! जब गुरु मिल जाए तब ही ये सूझ पड़ती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण कीआ पसारा ॥ नरक सुरग अवतारा ॥ हउमै आवै जाई ॥ मनु टिकणु न पावै राई ॥ बाझु गुरू गुबारा ॥ मिलि सतिगुर निसतारा ॥२॥
मूलम्
त्रै गुण कीआ पसारा ॥ नरक सुरग अवतारा ॥ हउमै आवै जाई ॥ मनु टिकणु न पावै राई ॥ बाझु गुरू गुबारा ॥ मिलि सतिगुर निसतारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पसारा = खिलारा। अवतारा = पैदा होने। आवै जाई = आता है जाता है, भटकता फिरता है। राई = रक्ती भर भी। गुबारा = अंधेरा। मिलि सतिगुर = गुरु को मिल के। निसतारा = पार उतारा।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने ही त्रैगुणी माया का पसारा रचा है, कोई नर्कों में हैं, कोई स्वर्गों में हैं। अहंकार के कारण जीव भटकता फिरता है, (जीव का) मन रक्ती भर भी नहीं टिकता। गुरु के बिना (आत्मिक जीवन का) अंधेरा (ही अंधेरा) है। गुरु को मिल के (ही इस अंधेरे में से) पार लांघा जाता है।2।
[[1004]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ हउ करम कमाणे ॥ ते ते बंध गलाणे ॥ मेरी मेरी धारी ॥ ओहा पैरि लोहारी ॥ सो गुर मिलि एकु पछाणै ॥ जिसु होवै भागु मथाणै ॥३॥
मूलम्
हउ हउ करम कमाणे ॥ ते ते बंध गलाणे ॥ मेरी मेरी धारी ॥ ओहा पैरि लोहारी ॥ सो गुर मिलि एकु पछाणै ॥ जिसु होवै भागु मथाणै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ हउ = मैं मैं, मैं बड़ा हूँ मैं बड़ा हूँ। करम = काम। ते ते = वह सारे। बंध = बंधन। गलाणे = गले में। मेरी मेरी = ममता। धारी = हृदय में बसाई। ओहा = वह ममता ही। पैरि = पैर में। लोहारी = लोहे की बेड़ी। एकु = एक परमात्मा को। पछाणै = गहरी सांझ डालता है। जिसु मथाणै = जिसके माथे पर। भागु = भाग्य, अच्छी किस्मत।3।
अर्थ: हे भाई! अहंकार के आसरे जीव (अनेक) कर्म करते हैं, वह सारे कर्म (जीवों के) गले में फंदे बन जाते हैं। जीव अपने हृदय में ममता बसाए रखता है, वह ममता ही जीव के पैरों में लोहे की बेड़ी बन जाती है। हे भाई! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठते हैं, वह गुरु को मिल के एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो मिलिआ जि हरि मनि भाइआ ॥ सो भूला जि प्रभू भुलाइआ ॥ नह आपहु मूरखु गिआनी ॥ जि करावै सु नामु वखानी ॥ तेरा अंतु न पारावारा ॥ जन नानक सद बलिहारा ॥४॥१॥१७॥
मूलम्
सो मिलिआ जि हरि मनि भाइआ ॥ सो भूला जि प्रभू भुलाइआ ॥ नह आपहु मूरखु गिआनी ॥ जि करावै सु नामु वखानी ॥ तेरा अंतु न पारावारा ॥ जन नानक सद बलिहारा ॥४॥१॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। मनि = मन में। भूला = गलत राह पर पड़ गया। भुलाइआ = गलत राह पर डाल दिया। आपहु = आपने आप से। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला, समझदार। जि = जो कुछ। सु = वह, उस जैसा। वखानी = कहा जाता है। नाम वखानी = नाम पड़ जाता है। सद = सदा।4।
अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य प्रभु-चरणों में जुड़ता है जो प्रभु के मन को प्यारा लगता है; वही मनुष्य गलत राह पर पड़ता है जिसे प्रभु स्वयं कुमार्ग पर डालता है। अपने आप ना कोई मूर्ख है ना ही कोई समझदार। परमात्मा जो कुछ जीवों से करवाता है उसके अनुसार ही उसका नाम (मूर्ख अथवा ज्ञानी) पड़ जाता है।
हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, तेरी हस्ती के इस पार-उस पार के छोर को तलाशा नहीं जा सकता। मैं तुझसे सदा सदके जाता हूँ।4।1।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ मोहनी मोहि लीए त्रै गुनीआ ॥ लोभि विआपी झूठी दुनीआ ॥ मेरी मेरी करि कै संची अंत की बार सगल ले छलीआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ मोहनी मोहि लीए त्रै गुनीआ ॥ लोभि विआपी झूठी दुनीआ ॥ मेरी मेरी करि कै संची अंत की बार सगल ले छलीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहनी = मोह लेने वाली (माया) ने। मोहि लीए = भरमा लिए हैं। त्रैगुनीआ = माया के तीन गुण वाले जीव। लोभि = लोभ में। विआपी = फसी हुई है। झूठी दुनीआ लोभि = नाशवान जगत के लोभ में। संची = इकट्ठी की। सगल = सारे। छलीआ = ठग लिए।1।
अर्थ: (हे भाई! उस परमात्मा की पैदा की हुई) मोहनी माया ने सारे त्रै-गुणी जीवों को अपने वश में किया हुआ है, सारी दुनिया नाशवान दुनिया के लोभ में फंसी हुई है। सारे जीव (इस माया की) ममता में फंस के (इसको) एकत्र करते हैं, पर आखिरी वक्त ये सबको धोखा दे जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ निरंकारु दइअलीआ ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपलीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
निरभउ निरंकारु दइअलीआ ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपलीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआलीआ = दयालु। प्रतिपालीआ = पालता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा डर-रहित है, जिसका कोई खास स्वरूप बताया नहीं जा सकता, जो दया का घर है, वह सारे जीवों की पालना करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकै स्रमु करि गाडी गडहै ॥ एकहि सुपनै दामु न छडहै ॥ राजु कमाइ करी जिनि थैली ता कै संगि न चंचलि चलीआ ॥२॥
मूलम्
एकै स्रमु करि गाडी गडहै ॥ एकहि सुपनै दामु न छडहै ॥ राजु कमाइ करी जिनि थैली ता कै संगि न चंचलि चलीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै = एक (जीव) ने। स्रमु = श्रम, मेहनत। गाडी = गाड़ दी, दबा दी। गडहै = गड्ढे में। सुपनै = सपने में (भी)। दामु = पैसा, धन। जिनि = जिस ने। संगि = साथ। चंचलि = किसी एक जगह ना टिक सकने वाली।2।
अर्थ: हे भाई! कोई तो ऐसा है जो बड़ी मेहनत से कमा के धरती में दबा के रखता है; कोई ऐसा है जो सपने में (भी, भाव, कभी भी इसको) हाथों से नहीं छोड़ता। जिस मनुष्य ने हकूमत करके खजाना जोड़ लिया; ये कभी एक जगह ना टिकने वाली माया उसके साथ भी नहीं जाती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकहि प्राण पिंड ते पिआरी ॥ एक संची तजि बाप महतारी ॥ सुत मीत भ्रात ते गुहजी ता कै निकटि न होई खलीआ ॥३॥
मूलम्
एकहि प्राण पिंड ते पिआरी ॥ एक संची तजि बाप महतारी ॥ सुत मीत भ्रात ते गुहजी ता कै निकटि न होई खलीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्राण पिंड ते = प्राणें से शरीर से। तजि = छोड़ के। महतारी = माँ। सुत = पुत्र। भ्रात = भाई। ते = से। गुहजी = छुपा रखी। निकटि = नजदीक।3।
अर्थ: हे भाई! कोई ऐसा मनुष्य है जिसको ये माया प्राणों से शरीर से भी ज्यादा प्यारी लगती है। कोई ऐसा है जो माता-पिता का साथ छोड़ के एकत्र करता है; पुत्रों-मित्रों-भाईयों से छुपा के रखता है, पर ये उसके पास भी नहीं रुकती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होइ अउधूत बैठे लाइ तारी ॥ जोगी जती पंडित बीचारी ॥ ग्रिहि मड़ी मसाणी बन महि बसते ऊठि तिना कै लागी पलीआ ॥४॥
मूलम्
होइ अउधूत बैठे लाइ तारी ॥ जोगी जती पंडित बीचारी ॥ ग्रिहि मड़ी मसाणी बन महि बसते ऊठि तिना कै लागी पलीआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधूत = त्यागी। तारी = ताड़ी, समाधि। बीचारी = विचारवान। ग्रिहि = घर में। मसाणी = मसाणों में। बन = जंगल। ऊठि = उठ के। पलीआ = पल्ले।4।
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो त्यागी बन के समाधि लगा के बैठते हैं; कई जोगी हैं, जती हैं ज्ञानी पंण्डित हैं; (पंडित) घर में, (त्यागी) मढ़ी-मसाणों में जंगलों में टिके रहते हैं, पर ये माया उठके उनको भी चिपक जाती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटे बंधन ठाकुरि जा के ॥ हरि हरि नामु बसिओ जीअ ता कै ॥ साधसंगि भए जन मुकते गति पाई नानक नदरि निहलीआ ॥५॥२॥१८॥
मूलम्
काटे बंधन ठाकुरि जा के ॥ हरि हरि नामु बसिओ जीअ ता कै ॥ साधसंगि भए जन मुकते गति पाई नानक नदरि निहलीआ ॥५॥२॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = ठाकुर ने। जा के = जिनके। जीअ ता कै = उनके चिक्त में। साध संगि = गुरु की संगति में। मुकत = माया के बंधनो से आजाद। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। नदरि = मेहर की निगाह। निहलीआ = देखता है।5।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु ने जिस मनुष्यों के (माया के मोह के) बंधन काट दिए, उनके हृदय में परमात्मा का नाम सदा के लिए आ टिका, वह मनुष्य गुरु की संगति में रह के (माया के मोह के फंदों से) आजाद हो गए। हे नानक! परमात्मा ने उन पर मेहर की निगाह की, और उन्होंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली।5।2।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ सिमरहु एकु निरंजन सोऊ ॥ जा ते बिरथा जात न कोऊ ॥ मात गरभ महि जिनि प्रतिपारिआ ॥ जीउ पिंडु दे साजि सवारिआ ॥ सोई बिधाता खिनु खिनु जपीऐ ॥ जिसु सिमरत अवगुण सभि ढकीऐ ॥ चरण कमल उर अंतरि धारहु ॥ बिखिआ बन ते जीउ उधारहु ॥ करण पलाह मिटहि बिललाटा ॥ जपि गोविद भरमु भउ फाटा ॥ साधसंगि विरला को पाए ॥ नानकु ता कै बलि बलि जाए ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ सिमरहु एकु निरंजन सोऊ ॥ जा ते बिरथा जात न कोऊ ॥ मात गरभ महि जिनि प्रतिपारिआ ॥ जीउ पिंडु दे साजि सवारिआ ॥ सोई बिधाता खिनु खिनु जपीऐ ॥ जिसु सिमरत अवगुण सभि ढकीऐ ॥ चरण कमल उर अंतरि धारहु ॥ बिखिआ बन ते जीउ उधारहु ॥ करण पलाह मिटहि बिललाटा ॥ जपि गोविद भरमु भउ फाटा ॥ साधसंगि विरला को पाए ॥ नानकु ता कै बलि बलि जाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया के मोह की कालिख) निर्लिप। सोऊ = वही। जा ते = जिस (के दर) से। बिरथा = खाली। जात = जाता। गरभ = पेट। जिनि = जिस ने। प्रतिपारिआ = पालना की। जीउ = प्राण, जिंद। पिंडु = शरीर। दे = दे के। साजि = पैदा करके। ढकीऐ = ढका जा सकता है। उर = हृदय। अंतरि = अंदर। बिखिआ = माया। बन = पानी। ते = से। जीउ = जिंद। उधारहु = बचा लो। करण पलाह = (करुणा प्रलाप) तरस पैदा कर सकने वाले विलाप, दुहाई, गिड़ गिड़ाना। मिटहि = (बहु वचन) मिट जाते हैं। बिललाटा = विलाप। जपि = जप के। भरमु = भटकना। फाटा = फट जाता है। को = कोई मनुष्य। साध संगि = गुरु की संगति में। नानकु बलि जाए = नानक बलिहार जाता है। ता कै = उस (मनुष्य) से।1।
अर्थ: हे भाई! उसी निर्लिप परमात्मा का स्मरण करते रहो, जिस (के दर) से कोई भी जीव खाली नहीं जाता; माँ के पेट में जिस ने पालना की, प्राण और शरीर दे के पैदा करके सुंदर बना दिया।
हे भाई! उसी विधाता को हरेक छिन जपना चाहिए, जिसको स्मरण करते हुए अपने सारे अवगुणों को ढक सकते हैं। हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रखो, और इस तरह माया (सागर के लबालब भरे) पानी से (अपने) प्राणों को बचा लो।
हे भाई! (नाम-जपने की इनायत से) सारी गिड़-गिड़ाहटें और विलाप मिट जाते हैं, गोबिंद (का नाम) जप के भटकना और डर (का पर्दा) फट जाता है।
पर, हे भाई! कोई विरला मनुष्य गुरु की संगति में रह के नाम प्राप्त करता है। नानक उस मनुष्य से सदा बलिहार जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु मनि तनि आधारा ॥ जो सिमरै तिस का निसतारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम नामु मनि तनि आधारा ॥ जो सिमरै तिस का निसतारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन से। तनि = तन से। आधारा = सहारा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
निसतारा = पार उतारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम को अपने मन में अपने शरीर में (अपनी जिंदगी का) सहारा बनाए रख। जो मनुष्य (नाम) स्मरण करता है (संसार-समुंदर से) उस (मनुष्य) का पार-‘उतारा हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिआ वसतु सति करि मानी ॥ हितु लाइओ सठ मूड़ अगिआनी ॥ काम क्रोध लोभ मद माता ॥ कउडी बदलै जनमु गवाता ॥ अपना छोडि पराइऐ राता ॥ माइआ मद मन तन संगि जाता ॥ त्रिसन न बूझै करत कलोला ॥ ऊणी आस मिथिआ सभि बोला ॥ आवत इकेला जात इकेला ॥ हम तुम संगि झूठे सभि बोला ॥ पाइ ठगउरी आपि भुलाइओ ॥ नानक किरतु न जाइ मिटाइओ ॥२॥
मूलम्
मिथिआ वसतु सति करि मानी ॥ हितु लाइओ सठ मूड़ अगिआनी ॥ काम क्रोध लोभ मद माता ॥ कउडी बदलै जनमु गवाता ॥ अपना छोडि पराइऐ राता ॥ माइआ मद मन तन संगि जाता ॥ त्रिसन न बूझै करत कलोला ॥ ऊणी आस मिथिआ सभि बोला ॥ आवत इकेला जात इकेला ॥ हम तुम संगि झूठे सभि बोला ॥ पाइ ठगउरी आपि भुलाइओ ॥ नानक किरतु न जाइ मिटाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = (नाशवान) मिथ्या। वसतु = चीज। सति = सदा स्थिर रहने वाली। हितु = प्यार। सठ = शठ, हे दुष्ट! मूढ़ = हे मूर्ख! अगिआनी = हे बेसमझ! मद = नशा। माता = मस्त। बदलै = के बदले में। गवाता = गवा लिया। पराइऐ = पराए में। राता = रति हुआ। मन तन संगि = मन के संग तन के संग। जाता = जाता, चलता, दौड़ भाग करता। त्रिसना = तृष्णा। कलोल = खेल तमाशे। करत = करते हुए। ऊणी = पूरी नही। मिथिआ = नाशवान (माया खातिर ही)। सभि = सारे। हम तुम संगि = सब लोगों के साथ। पाइ = पा के। ठगउरी = ठग बूटी, धतूरा आदि जो ठग लोग इस्तेमाल करके परदेसियों को ठगते हैं। नानक = हे नानक! किरतु = किया कमाया हुआ, किए कर्मों के संस्कारों का समूह।2।
अर्थ: हे दुष्ट! हे मूर्ख! हे बेसमझ! तूने प्यार डाला नाशवान पदार्थों के साथ और उसको सदा-स्थिर रहने वाला समझ रहा है। हे मूर्ख! तू काम क्रोध लोभ (आदि विकारों) के नशे में मस्त है, और, इस तरह कौड़ी के बदले में अपना (कीमती मानव) जनम गवा रहा है।
हे मूर्ख! (सिर्फ परमात्मा ही) अपना (असल साथी है, उसको) छोड़ के पराए (हो जाने वाले धन-पदार्थ) के साथ प्यार कर रहा है। तुझे माया का नशा चढ़ा हुआ है, तू मन के पीछे लग के सिर्फ शरीर की खातिर दौड़-भाग करता है। दुनिया के मौज-मेले करते हुए तेरी तृष्णा नहीं मिटती, (तेरी तृप्ति की) आस (कभी) पूरी नहीं होती। नाशवान माया की खातिर ही तेरी सारी बातें हैं।
हे भाई! जीव इस संसार में अकेला ही आता है और यहाँ से अकेला ही चल पड़ता है; संसारी साथियों के साथ (साथ निबाहने वाले) सारे बोल झूठे ही हो जाते हैं। पर, हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही (माया के मोह की) ठग-बूटी खिला के जीव को गलत रास्ते पर डाल देता है, (जन्म-जन्मांतरों के) किए हुए कर्मों के संस्कारों के समूह को मिटाया नहीं जा सकता।2।
[[1005]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पसु पंखी भूत अरु प्रेता ॥ बहु बिधि जोनी फिरत अनेता ॥ जह जानो तह रहनु न पावै ॥ थान बिहून उठि उठि फिरि धावै ॥ मनि तनि बासना बहुतु बिसथारा ॥ अहमेव मूठो बेचारा ॥ अनिक दोख अरु बहुतु सजाई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ प्रभ बिसरत नरक महि पाइआ ॥ तह मात न बंधु न मीत न जाइआ ॥ जिस कउ होत क्रिपाल सुआमी ॥ सो जनु नानक पारगरामी ॥३॥
मूलम्
पसु पंखी भूत अरु प्रेता ॥ बहु बिधि जोनी फिरत अनेता ॥ जह जानो तह रहनु न पावै ॥ थान बिहून उठि उठि फिरि धावै ॥ मनि तनि बासना बहुतु बिसथारा ॥ अहमेव मूठो बेचारा ॥ अनिक दोख अरु बहुतु सजाई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ प्रभ बिसरत नरक महि पाइआ ॥ तह मात न बंधु न मीत न जाइआ ॥ जिस कउ होत क्रिपाल सुआमी ॥ सो जनु नानक पारगरामी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरु = और। बहु बिधि जोनी = अनेक तरह की जूनियों में। अनेता = अनेत्रा, अंधा। जह जानो = जिस असल ठिकाने पर जाना है। तह = वहाँ (प्रभु चरणों में)। रहनु न पावै = ठिकाना नहीं मिलता। थानु बिहून = निथावाँ हो के, बेआसरा हो के। उठि = उठ के। धावै = (अनेक जूनियों में) भटकता है। मनि = मन में। तनि = तन में। बासना = मनो कामना। बिसथारा = पसारा, खिलारा।
अहंमेव = (अहं+एव) मैं ही मैं ही, अहंकार। मूठो = ठगा हुआ। बेचारा = निमाणा। दोख = ऐब। सजाई = सजा, दण्ड। कीमति = मूल्य (दुनियावी पदार्थ जिनके बदले ये सजा खत्म हो सके)। तह = वहाँ नर्क में। जाइआ = स्त्री। कउ = को, पर। पारगरामी = पार लांघ सकता है।3।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में) अंधा हुआ जीव पशू-पंछी भूत-प्रेत आदि अनेक जूनियों में भटकता फिरता है; जिस असल ठिकाने पर जाना है वहाँ टिक नहीं सकता, बेआसरा हो के बार-बार उठ के (और-और जूनियों में) भटकता है।
हे भाई! (माया के मोह के कारण) मनुष्य के मन में तन में अनेक वासनाओं का पसारा पसरा रहता है, अहंकार इस बेचारे के आत्मिक जीवन को लूट लेता है। इसके अंदर ऐब पैदा हो जाते हैं, और उनकी सजा भी बहुत मिलती है (उससे बचने की दुनियावी पदार्थों की कोई) कीमत नहीं बताई जा सकती (किसी भी कीमत से इस सजा से खलासी नहीं हो सकती)।
हे भाई! परमात्मा का नाम भूलने के कारण जीव नर्क में फेंका जाता है, वहाँ ना माँ, ना कोई संबंधी, ना कोई मित्र, ना स्त्री - (कोई भी सहायता नहीं कर सकता)।
हे नानक! (कह: हे भाई!) वह मनुष्य (संसार-समुंदर से) पार लांघने योग्य हो जाता है जिस पर मालिक-प्रभु मेहरवान होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमत भ्रमत प्रभ सरनी आइआ ॥ दीना नाथ जगत पित माइआ ॥ प्रभ दइआल दुख दरद बिदारण ॥ जिसु भावै तिस ही निसतारण ॥ अंध कूप ते काढनहारा ॥ प्रेम भगति होवत निसतारा ॥ साध रूप अपना तनु धारिआ ॥ महा अगनि ते आपि उबारिआ ॥ जप तप संजम इस ते किछु नाही ॥ आदि अंति प्रभ अगम अगाही ॥ नामु देहि मागै दासु तेरा ॥ हरि जीवन पदु नानक प्रभु मेरा ॥४॥३॥१९॥
मूलम्
भ्रमत भ्रमत प्रभ सरनी आइआ ॥ दीना नाथ जगत पित माइआ ॥ प्रभ दइआल दुख दरद बिदारण ॥ जिसु भावै तिस ही निसतारण ॥ अंध कूप ते काढनहारा ॥ प्रेम भगति होवत निसतारा ॥ साध रूप अपना तनु धारिआ ॥ महा अगनि ते आपि उबारिआ ॥ जप तप संजम इस ते किछु नाही ॥ आदि अंति प्रभ अगम अगाही ॥ नामु देहि मागै दासु तेरा ॥ हरि जीवन पदु नानक प्रभु मेरा ॥४॥३॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमत = भटकता। दीनानाथ = दीनों का नाथ, निमाणों का पति। पित = पिता। माइआ = माँ। बिदारण = नाश करने वाला। जिसु भावै = जो उसे भाए। कूप = कूआँ। ते = से। प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति से। निसतारा = पार उतारा। साध = गुरु। तनु = शरीर। उबारिआ = बचाया। इस ते = इस (जीव) से। अगम = पहुंच से परे। अगामी = अगाध। मागै = माँगता है (एकवचन)। जीवन पदु = आत्मिक जीवन का दर्जा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! प्रभु दीना नाथ है, जगत का माता-पिता है, दया का घर है, (जीवों के) दुख-दर्द दूर करने वाला है, जीव भटक-भटक के (आखिर उसकी) शरण आता है। हे भाई! जो जीव उस प्रभु को अच्छा लगने लगता है उसको वह (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है। हे भाई! (संसार-रूप) अंधे कूएँ में से (प्रभु जीव को) निकालने के समर्थ है, प्रभु की प्यार-भरी भक्ति से जीव का पार-उतारा हो जाता है। हे भाई! परमात्मा ने गुरु-रूप अपना शरीर (स्वयं ही सदा) धारण किया है, और जीवों को माया की बड़ी आग से स्वयं ही सदा बचाया है। वरना इस जीव से जप तप (नाम की कमाई) और संजम (शुद्ध आचरण) की मेहनत कुछ भी नहीं हो सकती।
हे प्रभु! जगत के आरम्भ से अंत तक तू ही तू कायम रहने वाला है, तू पहुंच से परे है, तू अथाह है। तेरा दास तेरे दर से तेरा नाम माँगता है।
हे नानक! (कह: हे भाई!) मेरा हरि-प्रभु आत्मिक जीवन का दर्जा (देने वाला) है।4।3।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ कत कउ डहकावहु लोगा मोहन दीन किरपाई ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ कत कउ डहकावहु लोगा मोहन दीन किरपाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कत कउ = किस लिए? क्यों? डहकावहु = तुम अपने मन को डोलाते हो। लोगा = हे लोगो! मोहन = सुंदर परमात्मा। दीन = निमाणे। किरपाई = कृपा करता है।1।
अर्थ: हे लोगो! तुम क्यों अपने मन को डोलाते हो? सुंदर प्रभु गरीबों पर दया करने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी जानि पाई ॥ सरणि सूरो गुर दाता राखै आपि वडाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी जानि पाई ॥ सरणि सूरो गुर दाता राखै आपि वडाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसी = इस प्रकार। जानि पाई = हमने समझी है। सूरो = शूरवीर। गुर दाता = सबसे बड़ा दाता। वडाई = इज्जत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैंने तो ऐसा समझ लिया है कि परमात्मा सबसे बड़ा दाता है, शरण पड़ों की मदद करने वाला सूरमा है, (अपने सेवक की) आप इज्जत रखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगता का आगिआकारी सदा सदा सुखदाई ॥२॥
मूलम्
भगता का आगिआकारी सदा सदा सुखदाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआकारी = बात मानने वाला।2।
अर्थ: हे लोगो! परमात्मा अपने भक्तों की आरजू मानने वाला है, और (उनको) सदा सुख देने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपने कउ किरपा करीअहु इकु नामु धिआई ॥३॥
मूलम्
अपने कउ किरपा करीअहु इकु नामु धिआई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपने कउ = अपने सेवक पर। धिआई = मैं ध्याऊँ।3।
अर्थ: (हे प्रभु! मैं नानक तेरे दर का सेवक हूँ) अपने (इस) सेवक पर मेहर करनी, मैं (तेरा सेवक) तेरा नाम ही स्मरण करता रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानकु दीनु नामु मागै दुतीआ भरमु चुकाई ॥४॥४॥२०॥
मूलम्
नानकु दीनु नामु मागै दुतीआ भरमु चुकाई ॥४॥४॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानकु दीनु मागै = गरीब नानक माँगता है। दुतीआ = दूसरा। भरमु = भुलेखा। चुकाई = चुका के, दूर करके।4।
अर्थ: हे प्रभु! किसी और दूसरे (को तेरे जैसा समझने) का भुलेखा दूर कर के गरीब नानक (तेरे दर से) तेरा नाम माँगता है।4।4।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ मेरा ठाकुरु अति भारा ॥ मोहि सेवकु बेचारा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ मेरा ठाकुरु अति भारा ॥ मोहि सेवकु बेचारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति भारा = बहुत सारी ताकतों का मालिक। ठाकुरु = मालिक प्रभु। मोहि = मुझे, मैं। बेचारा = निमाणा।1।
अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक प्रभु बहुत सारी ताकतों का मालिक है। मैं (तो उसके दर पे एक) निमाणा सेवक हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहनु लालु मेरा प्रीतम मन प्राना ॥ मो कउ देहु दाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मोहनु लालु मेरा प्रीतम मन प्राना ॥ मो कउ देहु दाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहनु लालु = सुंदर प्यारा। प्रीतम = हे प्रीतम! प्रीतम मन प्राना = हे मन के प्रीतम! हे मेरे प्राणों के प्रीतम! मो कउ = मुझे। दाना = दान।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन के प्यारे! हे मेरे प्राणों के प्यारे! तू मेरा सुंदर प्यारा प्रभु है। मुझे (अपने नाम का) दान बख्श।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगले मै देखे जोई ॥ बीजउ अवरु न कोई ॥२॥
मूलम्
सगले मै देखे जोई ॥ बीजउ अवरु न कोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगले = सारे। जोई = जोय, खोज के। बीजउ = बीअउ, दूसरा। अवरु = अन्य।2।
अर्थ: हे भाई! अन्य सारे आसरे खोज के देख लिए हैं, कोई और दूसरा (उस प्रभु के बराबर का) नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअन प्रतिपालि समाहै ॥ है होसी आहे ॥३॥
मूलम्
जीअन प्रतिपालि समाहै ॥ है होसी आहे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअन = सारे जीवों को। प्रतिपालि = पालता है। समाहै = संबाहै, रिज़क पहुँचाता है। है = इस वक्त मौजूद है। होसी = आगे भी मौजूद रहेगा। आहे = पहले भी मौजूद था।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे जीवों को पालता है, सबको रोज़ी पहुँचाता है। वह अब भी है, आगे भी कायम रहेगा, पहले भी था।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दइआ मोहि कीजै देवा ॥ नानक लागो सेवा ॥४॥५॥२१॥
मूलम्
दइआ मोहि कीजै देवा ॥ नानक लागो सेवा ॥४॥५॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मेरे पर। देवा = हे देव! लगो = लगा रहे।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे देव! मेरे पर दया कर, मैं तेरी सेवा-भक्ति में लगा रहूँ।4।5।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ पतित उधारन तारन बलि बलि बले बलि जाईऐ ॥ ऐसा कोई भेटै संतु जितु हरि हरे हरि धिआईऐ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ पतित उधारन तारन बलि बलि बले बलि जाईऐ ॥ ऐसा कोई भेटै संतु जितु हरि हरे हरि धिआईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित उधारन = विकारों में गिरे हुओं को विकारों से उबारने वाला। तारन = (संसार समुंदर से) पार लंघाने वाला। बलि जाईऐ = कुर्बान जाना चाहिए। भेटै = मिल जाए। जितु = जिस (संत) से। धिआईऐ = ध्याया जा सके।1।
अर्थ: हे भाई! विकारियों को बचाने वाले और (संसार-समुंदर से) पार लंघाने वाले परमात्मा से सदा ही बलिहार जाना चाहिए, (हर वक्त यही प्रार्थना करनी चाहिए कि) कोई ऐसा संत मिल जाए जिससे सदा ही परमात्मा का स्मरण किया जा सके।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मो कउ कोइ न जानत कहीअत दासु तुमारा ॥ एहा ओट आधारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मो कउ कोइ न जानत कहीअत दासु तुमारा ॥ एहा ओट आधारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। कहीअत = कहलवाता हूँ। ओट = सहारा। आधार = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे (तो) कोई नहीं जानता, पर मैं तेरा दास कहलवाता हूँ। मुझे यही सहारा है, मुझे यही आसरा है (कि तू अपने दास की इज्जत रखेगा)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब धारन प्रतिपारन इक बिनउ दीना ॥ तुमरी बिधि तुम ही जानहु तुम जल हम मीना ॥२॥
मूलम्
सरब धारन प्रतिपारन इक बिनउ दीना ॥ तुमरी बिधि तुम ही जानहु तुम जल हम मीना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब धारन = हे सभी को सहारा देने वाले! सरब प्रतिपारन = हे सबको पालने वाले! बिनउ = विनती। दीना = मैं निमाणा। बिधि = जुगति, ढंग। हम = हम जीव। मीना = मछली।2।
अर्थ: हे सारे जीवों को सहारा देने वाले! हे सबको पालने वाले! मैं निमाणा एक विनती करता हूँ कि तू पानी हो और मैं तेरी मछली बना रहूँ (पर ये कैसे संभव हो सके- ये) जुगति तू स्वयं ही जानता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन बिसथीरन सुआमी आहि आइओ पाछै ॥ सगलो भू मंडल खंडल प्रभ तुम ही आछै ॥३॥
मूलम्
पूरन बिसथीरन सुआमी आहि आइओ पाछै ॥ सगलो भू मंडल खंडल प्रभ तुम ही आछै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन = हे सर्व व्यापक! बिसथीरन = हे सारे पसारे वाले! आहि = तमन्ना से। पाछै = तेरी शरण। भू = धरती। भू मंडल = धरतियों के मण्डल। भू खंडल = धरती के हिस्से। आछै = हैं।3।
अर्थ: हे सर्व-व्यापक! हे सारे पसारे के मालिक! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ। यह सारा आकार- धरती, धरतियों के चक्कर, धरती के हिस्से- ये सब कुछ तू स्वयं ही स्वयं है (तूने अपने आप से पैदा किए हैं)।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
अटल अखइओ देवा मोहन अलख अपारा ॥ दानु पावउ संता संगु नानक रेनु दासारा ॥४॥६॥२२॥
मूलम्
अटल अखइओ देवा मोहन अलख अपारा ॥ दानु पावउ संता संगु नानक रेनु दासारा ॥४॥६॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखइओ = हे नाश रहित! देवा = हे प्रकाश रूप! पावउ = मैं पाऊँ। संगु = साथ। रेनु = चरण धूल। रेनु दासारा = तेरे दासों की चरण धूल।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सदा कायम रहने वाले! हे अविनाशी! हे प्रकाश रूप! हे सुंदर स्वरूप वाले! हे अलख! हे बेअंत! तेरे संतों की संगति और दासों की चरण-धूल - (मेहर कर) मैं ये ख़ैर प्राप्त कर सकूँ।4।6।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ त्रिपति आघाए संता ॥ गुर जाने जिन मंता ॥ ता की किछु कहनु न जाई ॥ जा कउ नाम बडाई ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ त्रिपति आघाए संता ॥ गुर जाने जिन मंता ॥ ता की किछु कहनु न जाई ॥ जा कउ नाम बडाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति। अघाए = तृप्त हो गए। त्रिपति अघाए = पूरी तौर पर संतुष्ट हो जाते हैं, अघा जाते हैं। गुर…मंता = जिन्होंने गुरु उपदेश के साथ पूरी सांझ डाल ली। ता की = उन (मनुष्यों) की। नाम बडाई = नाम जपने की इज्जत (मिली)।1।
अर्थ: हे भाई! जिस संत जनों ने गुरु के उपदेश के साथ गहरी सांझ डाल ली, वे (अमूल्य नाम रूपी लाल रत्न का सौदा करके माया की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो गए। जिनको परमात्मा का नाम जपने की बड़ाई प्राप्त हो जाती है उनकी (आत्मिक अवस्था इतनी ऊँची बन जाती है कि) बयान नहीं की जा सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लालु अमोला लालो ॥ अगह अतोला नामो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
लालु अमोला लालो ॥ अगह अतोला नामो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमोला = जो किसी भी कीमत पर ना मिल सके। अगह = (अ+गह) जो पकड़ में ना आ सके। अतोला = जिसके बराबर की और कोई चीज़ नहीं। नामो = नाम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम एक ऐसा लाल है जो किसी (दुनियावी) कीमति से नहीं मिलता, जो (आसानी से) पकड़ा नहीं जा सकता, जिसके बराबर की और कोई चीज़ नहीं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविगत सिउ मानिआ मानो ॥ गुरमुखि ततु गिआनो ॥ पेखत सगल धिआनो ॥ तजिओ मन ते अभिमानो ॥२॥
मूलम्
अविगत सिउ मानिआ मानो ॥ गुरमुखि ततु गिआनो ॥ पेखत सगल धिआनो ॥ तजिओ मन ते अभिमानो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट। सिउ = साथ। मानो = मन। गुरमुखि = गुरु से। ततु = अस्लियत। गिआनो = आत्मिक जीवन की सूझ। पेखत सगल = सबको देखते हुए, सबके साथ मेल मिलाप रखते हुए। ते = से।2।
अर्थ: हे भाई! (जिनको नाम रूपी लाल प्राप्त हो गया) अदृष्ट परमात्मा के साथ उनका मन पतीज गया, गुरु की शरण पड़ कर उनको असल आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त हो गई। सारे जगत से मेल-मिलाप रखते हुए उनकी तवज्जो प्रभु-चरणों में रहती है, वे अपने मन से अहंकार दूर कर लेते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहचलु तिन का ठाणा ॥ गुर ते महलु पछाणा ॥ अनदिनु गुर मिलि जागे ॥ हरि की सेवा लागे ॥३॥
मूलम्
निहचलु तिन का ठाणा ॥ गुर ते महलु पछाणा ॥ अनदिनु गुर मिलि जागे ॥ हरि की सेवा लागे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाणा = जगह, आत्मिक ठिकाना। निहचलु = ना हिलने वाला। महलु = परमात्मा की हजूरी। पछाणा = सांझ डाल ली। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गुरि मिलि = गुरु को मिल के। जागे = माया के मोह की नींद से सचेत हो गए।3।
अर्थ: हे भाई! (जिन्हें नाम-लाल मिल गया) उनका आत्मिक ठिकाना अटल हो जाता है (उनका मन माया से डोलने से हट जाता है), वे मनुष्य गुरु से (शिक्षा ले के) प्रभु-चरणों से गहरी सांझ डाल लेते हैं। गुरु को मिल के (गुरु की शरण पड़ कर) वे हर वक्त (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं, सदा परमात्मा की सेवा-भक्ति में लगे रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन त्रिपति अघाए ॥ सहज समाधि सुभाए ॥ हरि भंडारु हाथि आइआ ॥ नानक गुर ते पाइआ ॥४॥७॥२३॥
मूलम्
पूरन त्रिपति अघाए ॥ सहज समाधि सुभाए ॥ हरि भंडारु हाथि आइआ ॥ नानक गुर ते पाइआ ॥४॥७॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्हज = आत्मिक अडोलता। सुभाए = प्रेम में (टिके हुए)। हाथि = हाथ में।4।
अर्थ: हे भाई! (जिनको नाम-लाल मिल जाता है) वे माया की तृष्णा से पूरी तरह से तृप्त रहते हैं, वे प्रभु के प्यार में टिके रहते हैं, उनकी आत्मिक अडोलता वाली समाधि बनी रहती है, (क्योंकि) परमात्मा का नाम-खजाना उनके हाथ आ जाता है।
पर, हे नानक! (ये खजाना) गुरु से ही मिलता है।4।7।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ घरु ६ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ घरु ६ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि सगल सिआणपा मिलि साध तिआगि गुमानु ॥ अवरु सभु किछु मिथिआ रसना राम राम वखानु ॥१॥
मूलम्
छोडि सगल सिआणपा मिलि साध तिआगि गुमानु ॥ अवरु सभु किछु मिथिआ रसना राम राम वखानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारी। मिलि साध = गुरु को मिल के। गुमानु = अहंकार। मिथिआ = नाशवान। रसना = जीभ से। वखानु = उच्चारण कर।1।
अर्थ: हे भाई! सारी (फोकी) चतुराईयाँ छोड़ दे, गुरु को मिल के (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर। अपनी जीभ से परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (नाम के बिना) और सब कुछ नाशवान है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन करन सुणि हरि नामु ॥ मिटहि अघ तेरे जनम जनम के कवनु बपुरो जामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन करन सुणि हरि नामु ॥ मिटहि अघ तेरे जनम जनम के कवनु बपुरो जामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! करन = कानों से। मिटहि = मिट जाएंगे। अघ = पाप (बहुवचन)। जामु = जम। बपुरा = बेचारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! कानों से परमात्मा का नाम सुना कर। (नाम की इनायत से) तेरे अनेक जन्मों के (किए हुए) पाप मिट जाएंगे। बेचारा जम भी कौन है (जो तुझे डरा सके)?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूख दीन न भउ बिआपै मिलै सुख बिस्रामु ॥ गुर प्रसादि नानकु बखानै हरि भजनु ततु गिआनु ॥२॥१॥२४॥
मूलम्
दूख दीन न भउ बिआपै मिलै सुख बिस्रामु ॥ गुर प्रसादि नानकु बखानै हरि भजनु ततु गिआनु ॥२॥१॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = दीनता, अधीनता। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता। मिलै = मिल जाता है। सुख बिस्राम = सुखों का ठिकाना। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। नानकु बखानै = नानक कहता है। ततु गिआनु = असल आत्मिक जीवन की सूझ।2।
अर्थ: हे भाई! नानक कहता है (जो मनुष्य नाम स्मरण करता है उस पर दुनिया के) दुख, मुथाजगी, (हरेक किस्म का) डर - (इनमें से कोई भी) अपना जोर नहीं डाल सकते। परमात्मा का भजन करना ही असल आत्मिक जीवन की सूझ है (पर ये नाम) गुरु की कृपा से (ही मिलता है)।2।1।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ जिनी नामु विसारिआ से होत देखे खेह ॥ पुत्र मित्र बिलास बनिता तूटते ए नेह ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ जिनी नामु विसारिआ से होत देखे खेह ॥ पुत्र मित्र बिलास बनिता तूटते ए नेह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। होत देखे खेह = राख होते देखे जाते हैं, विकारों के आग के समुंदर में जल के राख होते देखे जाते हैं। बिलास = रंग रलियाँ। बनिता = स्त्री। ए नेह = ये सारे प्यार।1।
अर्थ: (हे मेरे मन!) जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम भुला दिया, वह (विकारों की आग के समुंदर में जल के) राख होते देखे जाते हैं। पुत्र, मित्र, स्त्री (आदि संबंधी जिनसे मनुष्य दुनियां की) रंग-रलियाँ (करता है) - ये सारे प्यार (आखिर) टूट जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नामु नित नित लेह ॥ जलत नाही अगनि सागर सूखु मनि तनि देह ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन नामु नित नित लेह ॥ जलत नाही अगनि सागर सूखु मनि तनि देह ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! नित नित = सदा ही। जलत नाही = जलता नहीं। अगनि सागर = तृष्णा की आग का समुंदर। मनि = मन में। तनि = तन में। देह = शरीर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा ही परमात्मा का नाम जपा कर। (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है वह तृष्णा की) आग के समुंद्रों में जलता नहीं, उसके मन में तन में देही में सुख-आनंद बना रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरख छाइआ जैसे बिनसत पवन झूलत मेह ॥ हरि भगति द्रिड़ु मिलु साध नानक तेरै कामि आवत एह ॥२॥२॥२५॥
मूलम्
बिरख छाइआ जैसे बिनसत पवन झूलत मेह ॥ हरि भगति द्रिड़ु मिलु साध नानक तेरै कामि आवत एह ॥२॥२॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरख = वृक्ष। छाइआ = छाया। पवन = हवा। मेह = मेघ, बादल। झूलत = उड़ा के ले जाती है। द्रिढ़ु = दृढ़, हृदय में पक्की कर। मिलु साध = गुरु को मिल। तेरै कामि = तेरे काम में। एह = ये भक्ति ही।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जैसे वृक्ष की छाया नाश हो जाती है, (जल्दी ही बदलती जाती है) वैसे ही हवा भी बादलों को उड़ा के ले जाती है (और उनकी छाया समाप्त हो जाती है इसी तरह दुनियावी विलास नाशवान हैं)। हे भाई! गुरु को मिल और अपने हृदय में परमात्मा की भक्ति पक्की कर। यही तेरे काम आने वाली है।2।2।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ पुरखु पूरन सुखह दाता संगि बसतो नीत ॥ मरै न आवै न जाइ बिनसै बिआपत उसन न सीत ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ पुरखु पूरन सुखह दाता संगि बसतो नीत ॥ मरै न आवै न जाइ बिनसै बिआपत उसन न सीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखु पूरन = सर्व व्यापक परमात्मा। सुखह दाता = सारे सुखों को देने वाला। संगि = (हरेक के) साथ। नीत = सदा। आवै न जाइ = ना पैदा होता है ना मरता है। उसन = गर्मी, शोक। सीत = ठण्डक, खुशी, हर्ष। न बिआपत = जोर नहीं डाल सकती।1।
अर्थ: हे मेरे मन! वह सर्व-व्यापक परमात्मा सारे सुख देने वाला है, और सदा ही (हरेक के) साथ बसता है। वह ना पैदा होता है ना मरता है, वह नाश-रहित है। ना खुशी ना ग़मी - कोई भी उसके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नाम सिउ करि प्रीति ॥ चेति मन महि हरि हरि निधाना एह निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन नाम सिउ करि प्रीति ॥ चेति मन महि हरि हरि निधाना एह निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सिउ = साथ। मन महि = मन में। चेति = चेते कर, याद कर। निधाना = (सारे गुणों का) खजाना। रीति = जीवन मर्यादा, जिंदगी गुजारने का तरीका। निरमल = पवित्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम से प्यार डाले रख। हे भाई! जो प्रभु सारे गुणों का खजाना है उसको अपने मन में याद किया कर। जिंदगी को पवित्र रखने का यही तरीका है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिपाल दइआल गोपाल गोबिद जो जपै तिसु सीधि ॥ नवल नवतन चतुर सुंदर मनु नानक तिसु संगि बीधि ॥२॥३॥२६॥
मूलम्
क्रिपाल दइआल गोपाल गोबिद जो जपै तिसु सीधि ॥ नवल नवतन चतुर सुंदर मनु नानक तिसु संगि बीधि ॥२॥३॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपाल = सृष्टि को पालने वाला। सीधि = सिद्धि, सफलता। नवल = नया। नवतन = नया। चतुर = समझदार। नानक = हे नानक! बीधि = बेध ले, परोए रख।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा कृपा का घर है दया का श्रोत है, सृष्टि को पालने वाला गोबिंद है। जो मनुष्य (उसका नाम) जपता है उसको जिंदगी में कामयाबी प्राप्त हो जाती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा हर वक्त नया है (परमात्मा का प्यार हर वक्त नया है), परमात्मा समझदार है सुंदर है। उससे (उसके चरणों में) अपना मन परोए रख।2।3।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ चलत बैसत सोवत जागत गुर मंत्रु रिदै चितारि ॥ चरण सरण भजु संगि साधू भव सागर उतरहि पारि ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ चलत बैसत सोवत जागत गुर मंत्रु रिदै चितारि ॥ चरण सरण भजु संगि साधू भव सागर उतरहि पारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलत = चलते, विचरते हुए। गुर मंत्रु = गुरु का उपदेश। रिदै = हृदय में। भजु = भाग जा। संगि साधू = गुरु की संगति में। भव सागर = संसार समुंदर।1।
अर्थ: हे भाई! चलते फिरते, बैठते, सोए हुए, जागते हुए - हर वक्त गुरु का उपदेश हृदय में याद रख। गुरु की संगति में रह के (परमात्मा के) चरणों का आसरा ले, (इस तरह) तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।1।
[[1007]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नामु हिरदै धारि ॥ करि प्रीति मनु तनु लाइ हरि सिउ अवर सगल विसारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन नामु हिरदै धारि ॥ करि प्रीति मनु तनु लाइ हरि सिउ अवर सगल विसारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! धारि = टिकाए रख। सिउ = साथ। विसारि = बिसार के, भुला के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हृदय में टिकाए रख। हे भाई! मन लगा के तन लगा के (तन से मन से) और सारे (चिन्ता-फिक्र) भुला के परमात्मा के साथ प्यार बनाए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ मनु तनु प्राण प्रभ के तू आपन आपु निवारि ॥ गोविद भजु सभि सुआरथ पूरे नानक कबहु न हारि ॥२॥४॥२७॥
मूलम्
जीउ मनु तनु प्राण प्रभ के तू आपन आपु निवारि ॥ गोविद भजु सभि सुआरथ पूरे नानक कबहु न हारि ॥२॥४॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। आपन आपु = अपने आप को, स्वै भाव, अहंकार। निवारि = दूर कर। सभि = सारे। सुआरथ = स्वार्थ, उद्देश्य, जरूरतें। नानक = हे नानक!।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) ये जिंद, ये मन, ये शरीर, ये प्राण - (सब कुछ) परमात्मा के ही दिए हुए हैं (तू गुमान किस बात का करता है?) स्वै भाव दूर कर। गोबिंद का भजन किया कर, तेरी सारी जरूरतें भी पूरी होंगी, और, (मनुष्य जन्म की बाजी भी) कभी नहीं हारेगा।2।4।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ तजि आपु बिनसी तापु रेण साधू थीउ ॥ तिसहि परापति नामु तेरा करि क्रिपा जिसु दीउ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ तजि आपु बिनसी तापु रेण साधू थीउ ॥ तिसहि परापति नामु तेरा करि क्रिपा जिसु दीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = छोड़। आपु = स्वै भाव। बिनसी = नाश हो जाएगा। तापु = चिन्ता फिक्र, कष्ट। रेण साधू = गुरु की चरण धूल। थीउ = हो जा। करि = कर के। दीउ = (तूने) दिया है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन! स्वै भाव छोड़ दे, गुरु की चरण-धूल बन जा, तेरा सारा दुख-कष्ट दूर हो जाएगा। हे प्रभु! तेरा नाम उसी मनुष्य को मिलता है, जिसको तू स्वयं मेहर कर के देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नामु अम्रितु पीउ ॥ आन साद बिसारि होछे अमरु जुगु जुगु जीउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन नामु अम्रितु पीउ ॥ आन साद बिसारि होछे अमरु जुगु जुगु जीउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। आन साद = और सारे स्वाद। होछे = जल्दी नाश हो जाने वाले। अमरु = अटल आत्मिक जीवन के मालिक। जुगु जुगु = सदा के लिए। जीउ = जीओ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीया कर (नाम की इनायत से) और सारे (मायावी पदार्थों के) नाशवान चस्के भुला के सदा के लिए अटल आत्मिक जीवन वाली जिंदगी गुजार।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु इक रस रंग नामा नामि लागी लीउ ॥ मीतु साजनु सखा बंधपु हरि एकु नानक कीउ ॥२॥५॥२८॥
मूलम्
नामु इक रस रंग नामा नामि लागी लीउ ॥ मीतु साजनु सखा बंधपु हरि एकु नानक कीउ ॥२॥५॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामु इक = एक (प्रभु) का नाम। रस = (मायावी पदार्थों के) स्वाद। रंग = (दुनिया के) रंग तमाशे। नामि = नाम में। लीउ = लगन। बंधपु = रिश्तेदार। कीउ = किया। नानक = हे नानक!।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य ने एक परमात्मा को ही अपना सज्जन-मित्र और संबंधी बना लिया, उसकी लगन सदा परमात्मा के नाम में लगी रहती है, परमात्मा का नाम ही उसके वास्ते (मायावी पदार्थों के स्वाद हैं), नाम ही उसके लिए दुनियां के रंग-तमाशे हैं।2।5।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ प्रतिपालि माता उदरि राखै लगनि देत न सेक ॥ सोई सुआमी ईहा राखै बूझु बुधि बिबेक ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ प्रतिपालि माता उदरि राखै लगनि देत न सेक ॥ सोई सुआमी ईहा राखै बूझु बुधि बिबेक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रतिपालि = पालना कर के। उदरि = उदर में। माता उदरि = माँ के पेट में। राखै = रखता है। सोई = वही। सुआमी = मालिक। ईहा = यहाँ, इस जगत में। बूझु = (हे भाई!) समझ कर। बिबेक = परख। बुधि बिबेक = परख की बुद्धि से।1।
अर्थ: हे मन! पालना करके प्रभु माँ के पेट में बचाता है, (पेट की आग का) सेक लगने नहीं देता। वही मालिक इस जगत में भी रक्षा करता है। हे भाई! परख की बुद्धि से यह (सच्चाई) समझ ले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नाम की करि टेक ॥ तिसहि बूझु जिनि तू कीआ प्रभु करण कारण एक ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन नाम की करि टेक ॥ तिसहि बूझु जिनि तू कीआ प्रभु करण कारण एक ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! टेक = सहारा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तूं = तुझे। करण = सृष्टि। करण कारण = सृष्टि का मूल।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन! (सदा) परमात्मा के नाम का आसरा ले। उस परमात्मा को ही (सहारा) समझ, जिसने तुझे पैदा किया है। हे मन! एक प्रभु ही सारे जगत का मूल है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चेति मन महि तजि सिआणप छोडि सगले भेख ॥ सिमरि हरि हरि सदा नानक तरे कई अनेक ॥२॥६॥२९॥
मूलम्
चेति मन महि तजि सिआणप छोडि सगले भेख ॥ सिमरि हरि हरि सदा नानक तरे कई अनेक ॥२॥६॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेति = याद कर, याद करता रह। तजि = त्याग के। सगले = सारे। भेख = (दिखावे के धार्मिक) पहरावे। नानक = हे नानक! सिमरि = स्मरण करके। तरे = पार लांघ गए।2।
अर्थ: हे भाई! चतुराईयाँ छोड़ के (दिखावे के) सारे (धार्मिक) पहरावे छोड़ के अपने मन में परमात्मा को याद करता रह। हे नानक! परमात्मा का सदा स्मरण करके अनेक जीव संसार-समुंदर से पार लांघते चले आ रहे हैं।2।6।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ पतित पावन नामु जा को अनाथ को है नाथु ॥ महा भउजल माहि तुलहो जा को लिखिओ माथ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ पतित पावन नामु जा को अनाथ को है नाथु ॥ महा भउजल माहि तुलहो जा को लिखिओ माथ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। को = का। अनाथ = अ+नाथ। नाथु = पति। भउजल = संसार समुंदर। माहि = में। तुलहो = तुलहा, काम चलाने के लिए शतीरियां आदि बाँध के बनाई हुई बेड़ी। माथ = माथे पर।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम पापियों को पवित्र करने योग्य है, जो बेआसरों का आसरा है, वह परमात्मा इस भयानक संसार समुंदर में (जीव के लिए) जहाज है। (पर ये उसी को मिलता है) जिसके माथे पर (मिलाप के लेख) लिखे होते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डूबे नाम बिनु घन साथ ॥ करण कारणु चिति न आवै दे करि राखै हाथ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
डूबे नाम बिनु घन साथ ॥ करण कारणु चिति न आवै दे करि राखै हाथ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घन = बहुत, अनेक। साथ = काफले। करण कारणु = जगत का मूल (करण = जगत)। चिति = चिक्त में। दे करि = दे के।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगति गुण उचारण हरि नाम अम्रित पाथ ॥ करहु क्रिपा मुरारि माधउ सुणि नानक जीवै गाथ ॥२॥७॥३०॥
मूलम्
साधसंगति गुण उचारण हरि नाम अम्रित पाथ ॥ करहु क्रिपा मुरारि माधउ सुणि नानक जीवै गाथ ॥२॥७॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित पाथ = (पथ = रास्ता) आत्मिक जीवन देने वाला रास्ता। मुरारि = हे मुरारी! (मुर+अरि), हे परमात्मा! माधउ = (मा = माया। धउ = धव, पति) हे माया के पति प्रभु! गाथ = कथा, महिमा।2।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा (जीवों को) हाथ दे के बचाता है उसके नाम के बिना (ना जाने कितने ही) काफिले (इस संसार समुंदर में) डूब रहे हैं, (क्योंकि) जगत का मूल परमात्मा (उनके) चिक्त में नहीं बसता।1। रहाउ।
हे भाई! साधु-संगत में (टिक के) परमात्मा का नाम परमात्मा के गुण उचारते रहना- यही है आत्मिक जीवन देने वाला रास्ता। हे नानक! (कह:) हे मुरारी! मेहर कर (ता कि तेरा दास तेरी) महिमा सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता रहे।2।7।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू अंजुली महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू अंजुली महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजोगु विजोगु धुरहु ही हूआ ॥ पंच धातु करि पुतला कीआ ॥ साहै कै फुरमाइअड़ै जी देही विचि जीउ आइ पइआ ॥१॥
मूलम्
संजोगु विजोगु धुरहु ही हूआ ॥ पंच धातु करि पुतला कीआ ॥ साहै कै फुरमाइअड़ै जी देही विचि जीउ आइ पइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंजुली = दोनों हथेलियों को मिला के बनाई हुई मुद्रा, खैर माँगने के लिए अरजोई की अवस्था। संजोगु = मिलाप (प्राण और शरीर का)। विजोग = विछोड़ा (प्राण और शरीर का)। धुरहु = परमात्मा के हुक्म अनुसार। पंच धातु = (पवन, पानी, आग, मिट्टी, आकाश = ये) पाँच तत्व। करि = मिल के। पुतला = शरीर। फुरमाइड़ा = फरमाया हुआ हुक्म। कै फरमाइअड़ै = के हुक्म अनुसार। साह = शाह। साहै कै फुरमाइअड़ै = शाह के किए हुक्म अनुसार। जी = हे भाई! देही = शरीर। जीउ = जीवात्मा।1।
अर्थ: हे भाई! (प्राण और शरीर का) मिलाप और विछोड़ा परमात्मा की रजा अनुसार ही होता है। (परमात्मा के हुक्म में ही) पाँच तत्व (इकट्ठे) करके शरीर बनाया जाता है। प्रभु-पातशाह के हुक्म अनुसार ही जीवात्मा शरीर में आ टिकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिथै अगनि भखै भड़हारे ॥ ऊरध मुख महा गुबारे ॥ सासि सासि समाले सोई ओथै खसमि छडाइ लइआ ॥२॥
मूलम्
जिथै अगनि भखै भड़हारे ॥ ऊरध मुख महा गुबारे ॥ सासि सासि समाले सोई ओथै खसमि छडाइ लइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिथै = जिस जगह में। अगनि = आग। भखै = भखती है, जलती है। भड़हारे = भड़ भड़ करके, बड़ी तेज। ऊरध = उल्टा। ऊरध मुख = उलटे मुँह। गुबारे = घोर अंधेरे में। सासि = साँस से। सासि सासि = हरेक साँस से। सोई = वही जीव। समाले = याद करता है। खसमि = पति ने।2।
अर्थ: हे भाई! जहाँ (माँ के पेट में पेट की) आग बहुत जलती है, उस भयानक अंधेरे में जीव उल्टे मुँह पड़ा रहता है। जीव (वहाँ अपने) हरेक साँस के साथ परमात्मा को याद करता रहता है, उस जगह मालिक-प्रभु ने ही जीव को बचाया होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचहु गरभै निकलि आइआ ॥ खसमु विसारि दुनी चितु लाइआ ॥ आवै जाइ भवाईऐ जोनी रहणु न कितही थाइ भइआ ॥३॥
मूलम्
विचहु गरभै निकलि आइआ ॥ खसमु विसारि दुनी चितु लाइआ ॥ आवै जाइ भवाईऐ जोनी रहणु न कितही थाइ भइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विसारि = भुला के। दुनी = दुनियां में, दुनियां के पदार्थों में। आवै जाइ = पैदा होता है मरता है। भवाईऐ जोनी = जूनियों में भटकाया जाता है। कित ही = कहीं भी। थाइ = जगह में। कित ही थाइ = किसी भी जगह में। रहणु = ठिकाना।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कित ही’ में से ‘कितु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जब जीव माँ के पेट में से बाहर आ जाता है, मालिक प्रभु को भुला के दुनियां के पदार्थों में चिक्त जोड़ लेता है। (प्रभु को बिसारने के कारण) पैदा होने-मरने के चक्कर में (जीव) पड़ जाता है, जूनियों में पाया जाता है, किसी एक जगह इसको ठिकाना नहीं मिलता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिहरवानि रखि लइअनु आपे ॥ जीअ जंत सभि तिस के थापे ॥ जनमु पदारथु जिणि चलिआ नानक आइआ सो परवाणु थिआ ॥४॥१॥३१॥
मूलम्
मिहरवानि रखि लइअनु आपे ॥ जीअ जंत सभि तिस के थापे ॥ जनमु पदारथु जिणि चलिआ नानक आइआ सो परवाणु थिआ ॥४॥१॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिहरवानि = मेहरवान ने। रखि लइअनु = रख लिए हैं, बचा लिए हैं। सभि = सारे। तिस के = उस (परमात्मा) के। थापे = पैदा किए हुए। जिणि = जीत के। आइआ = जन्मा हुआ।4।
अर्थ: हे भाई! सारे जीव उस (परमात्मा) के ही पैदा किए हुए हैं, उस मेहरवान (प्रभु) ने स्वयं ही (कई जीव जनम-मरण के चक्कर से) बचाए हैं।
हे नानक! जो मनुष्य (परमात्मा के नाम से) इस कीमती जनम (की बाज़ी) को जीत के यहाँ से चलता है, वह इस जगत में आया हुआ मनुष्य परमात्मा की हजूरी में स्वीकार होता है।4।1।31।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ वैदो न वाई भैणो न भाई एको सहाई रामु हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ वैदो न वाई भैणो न भाई एको सहाई रामु हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वैदो = वैद्य, हकीम। वैदो न वाई = ना कोई वैद्य ना ही किसी वैद्य की दवा। वाई = दवाई। सहाई = मदद करने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! (दुख-दर्द के समय) सिर्फ एक परमात्मा ही मदद करने वाला होता है। ना कोई वैद्य ना ही किसी वैद्य की दवाई; ना कोई बहन ना ही कोई भाई- कोई भी मददगार नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीता जिसो होवै पापां मलो धोवै सो सिमरहु परधानु हे ॥२॥
मूलम्
कीता जिसो होवै पापां मलो धोवै सो सिमरहु परधानु हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसो = जिसु, जिस का। मलो = मैल। परधानु = शिरोमणि।2।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का स्मरण करते रहो जिसका किया हरेक काम (जगत में) हो रहा है, जो (जीवों के) पापों की मैल धोता है। हे भाई! वह परमात्मा ही (जगत में) शिरोमणि है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटे वासी सरब निवासी असथिरु जा का थानु हे ॥३॥
मूलम्
घटि घटे वासी सरब निवासी असथिरु जा का थानु हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि घटे = घटि घटि, हरेक शरीर में। वासी = बसने वाला। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। थानु = स्थान, ठिकाना।3।
अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा का ही स्मरण करो) जिसका आसन सदा अडोल रहने वाला है, जो हरेक शरीर में बसता है, जो सब जीवों में निवास रखने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवै न जावै संगे समावै पूरन जा का कामु हे ॥४॥
मूलम्
आवै न जावै संगे समावै पूरन जा का कामु हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवै न जावै = ना पैदा होता है ना मरता है। संगे = (हरेक के) साथ ही। समावै = गुप्त बसता है। पूरन = पूर्ण, मुकम्मल, अभूल। कामु = काम।4।
अर्थ: हे भाई! (उसी परमात्मा का ही स्मरण करो) जिसका हरेक काम मुकम्मल (अभूल) है, जो ना पैदा होता है ना मरता है, पर हरेक जीव के साथ गुप्त बसता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जना का राखणहारा ॥ संत जीवहि जपि प्रान अधारा ॥ करन कारन समरथु सुआमी नानकु तिसु कुरबानु हे ॥५॥२॥३२॥
मूलम्
भगत जना का राखणहारा ॥ संत जीवहि जपि प्रान अधारा ॥ करन कारन समरथु सुआमी नानकु तिसु कुरबानु हे ॥५॥२॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवहि = (बहुवचन) जीते हैं। जपि = जप के। प्रान अधारा = प्राणों का आसरा। करन कारन = जगत का मूल (करन = सृष्टि)। समरथु = सब ताकतों के मालिक। तिसु = उससे। कुरबानु = सदके। हे = है।5।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा अपने भक्तों की रक्षा करने वाला है, वह हरेक के प्राणों का आसरा है। संत जन (उसका नाम) जप के आत्मिक जीवन हासिल करते रहते हैं। वह परमात्मा इस जगत-रचना का मूल है, सारी ताकतों का मालिक है, सब का पति है। हे भाई! नानक (सदा) उससे बलिहार जाता है।5।2।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मारू महला ९ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मारू महला ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि को नामु सदा सुखदाई ॥ जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ गनिका हू गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि को नामु सदा सुखदाई ॥ जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ गनिका हू गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। सुखदाई = सुखद, आनंद देने वाला है। कउ = को। सिमरि = स्मरण करके। अजामलु = (इसने एक महात्मा के कहने पर अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ रखा था। ‘नारायण, नारायण’ कहते कहते सचमुच नारायण परमात्मा से इसका प्यार बन गया)। उधरिओ = विकारों से बच गया, उद्धार हो गया। गनिका = (तोते को ‘राम नाम’ पढ़ाते हुए इसकी अपनी तवज्जो भी परमात्मा में लग गई)। ह = भी। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा आत्मिक आनंद देने वाला है, जिस नाम को स्मरण करके अजामल विकारों से बच गया था, (इस नाम को स्मरण करके) वेश्वा ने भी उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर ली थी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंचाली कउ राज सभा महि राम नाम सुधि आई ॥ ता को दूखु हरिओ करुणा मै अपनी पैज बढाई ॥१॥
मूलम्
पंचाली कउ राज सभा महि राम नाम सुधि आई ॥ ता को दूखु हरिओ करुणा मै अपनी पैज बढाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंचाली = पाँचाल देश की राज कुमारी, द्रोपदी। राज सभा महि = राज सभा में, दुर्योधन के दरबार में। सुधि = सूझ। राम नाम सुधि = परमात्मा के नाम का ध्यान (भाई गुरदास जी ने दसवीं ‘वार’ जो ‘हा हा क्रिशन करै’ लिखी है, वह आम प्रचलित इस कहानी का हवाला है। उनका अपना सिद्धांत आखिर पर है कि ‘नाथ अनाथां बाण धुरां दी’)। को = का। हरिओ = दूर किया। करुणामै = करुणामय, तरस स्वरूप परमात्मा। पैज = इज्जत, मशहूरी।1।
अर्थ: हे भाई! दुर्याधन के राज-दरबार में द्रोपदी ने (भी) परमात्मा के नाम का ध्यान धरा था, और, तरस-स्वरूप परमात्मा ने उसका दुख दूर किया था, (और इस तरह) अपना रसूख बढ़ाया था।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह नर जसु किरपा निधि गाइओ ता कउ भइओ सहाई ॥ कहु नानक मै इही भरोसै गही आनि सरनाई ॥२॥१॥
मूलम्
जिह नर जसु किरपा निधि गाइओ ता कउ भइओ सहाई ॥ कहु नानक मै इही भरोसै गही आनि सरनाई ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह नर = जिस लोगों ने। किरपा निधि जसु = कृपा के खजाने प्रभु की महिमा। सहाई = मददगार। कहु = कह। नानक = हे नानक! इही भरोसै = इसी भरोसे पर। गही = पकड़ी। आनि = आ के।2।
अर्थ: हे भाई! जिस भी लोगों ने कृपा के खजाने परमात्मा की महिमा की, परमात्मा उनका मददगार (हो के) पहुँचा। हे नानक! कह: मैंने भी इसी ही भरोसे में आ कर परमात्मा की शरण ली है।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ९ ॥ अब मै कहा करउ री माई ॥ सगल जनमु बिखिअन सिउ खोइआ सिमरिओ नाहि कन्हाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मारू महला ९ ॥ अब मै कहा करउ री माई ॥ सगल जनमु बिखिअन सिउ खोइआ सिमरिओ नाहि कन्हाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब, जवानी का समय गुजार के। कहा = क्या? करउ = मैं करूँ। री माई = हे माँ! सगल = सारा। बिखिअन सिउ = विषौ विकारों से। कन्हाई = कन्हईया, परमात्मा।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘री’ स्त्रीलिंग है, ‘रे’ पुलिंग। ‘कहत कबीर सुनहु रे लोई’ में ‘रे’ पुलिंग है। शब्द ‘लोई’ कबीर जी की पत्नी के लिए नहीं है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! समय बीत जाने पर मैं क्या कर सकता हूँ? (भाव, वक्त बीत जाने पर मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता)। जिस मनुष्य ने सारी जिंदगी विषय-विकारों में गवा ली, और, परमात्मा का स्मरण कभी भी ना किया (वह समय बीत जाने पर फिर कुछ नहीं हो सकता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काल फास जब गर महि मेली तिह सुधि सभ बिसराई ॥ राम नाम बिनु या संकट महि को अब होत सहाई ॥१॥
मूलम्
काल फास जब गर महि मेली तिह सुधि सभ बिसराई ॥ राम नाम बिनु या संकट महि को अब होत सहाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फास = फंदा। काल = मौत। गर महि = गले में। मेली = डाल दी। तिह = उस की। सुधि = होश। बिसराई = भुला दी। या संकट महि = इस बिपता में। को = कौन? सहाई = मददगार।1।
अर्थ: हे माँ! जब जमराज (मनुष्य के) गले में मौत का फंदा डाल देता है, तब वह उसकी सारी सुध-बुध भुला देता है। उस बिपता में परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी मददगार नहीं बन सकता (जमों के फंदों से, आत्मिक मौत से सहम से सिर्फ हरि-नाम ही बचाता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो स्मपति अपनी करि मानी छिन महि भई पराई ॥ कहु नानक यह सोच रही मनि हरि जसु कबहू न गाई ॥२॥२॥
मूलम्
जो स्मपति अपनी करि मानी छिन महि भई पराई ॥ कहु नानक यह सोच रही मनि हरि जसु कबहू न गाई ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्ंपति = सम्पक्ति, धन पदार्थ। करि मानी = करके मानी थी, समझी हुई थी। पराई = बेगानी। सोच = पछतावा। मनि = मन में।2।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: भूत काल को वर्तमान समझना है, ये हालत सदा ही होती रहती है अपने आप को सामने रख के जगत की आम दशा बता रहे हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! जिस धन-पदार्थों को मनुष्य हमेशा अपना समझे रखता है (जब मौत आती है, वह धन-पदार्थ) एक छिन में बेगाना हो जाता है। हे नानक! कह: उस वक्त मनुष्य के मन में यह पछतावा रह जाता है कि परमात्मा की महिमा कभी भी ना की।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ९ ॥ माई मै मन को मानु न तिआगिओ ॥ माइआ के मदि जनमु सिराइओ राम भजनि नही लागिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मारू महला ९ ॥ माई मै मन को मानु न तिआगिओ ॥ माइआ के मदि जनमु सिराइओ राम भजनि नही लागिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! को = का। मदि = नशे में। सिराइओ = गुजारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (जब से मैंने गुरु-चरणों में प्यार डाला है, तब से मैं पछता रहा हूँ कि) मैंने अपने मन का अहंकार नहीं छोड़ा। माया के नशे में मैंने अपनी उम्र गुजार दी, और, परमात्मा के भजन में ना लगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम को डंडु परिओ सिर ऊपरि तब सोवत तै जागिओ ॥ कहा होत अब कै पछुताए छूटत नाहिन भागिओ ॥१॥
मूलम्
जम को डंडु परिओ सिर ऊपरि तब सोवत तै जागिओ ॥ कहा होत अब कै पछुताए छूटत नाहिन भागिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डंडु = डण्डा। परिओ = पड़ा। ऊपरि = ऊपर। सोवत ते = सोए रहने से। कहा होत = क्या हो सकता है? छूटत नाहिन भागिओ = भागने से (जम से) खलासी नहीं हो सकती।1।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य माया की नींद में गाफिल पड़ा रहता है) जब जमदूत का डंडा (इस के) सिर पर बजता है, तब (माया के मोह की नींद में से) सोया हुआ जागता है। पर उस वक्त के पछतावे से कुछ सँवरता नहीं, (क्योंकि उस समय जमों से) भागने पर बचाव नहीं हो सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह चिंता उपजी घट महि जब गुर चरनन अनुरागिओ ॥ सुफलु जनमु नानक तब हूआ जउ प्रभ जस महि पागिओ ॥२॥३॥
मूलम्
इह चिंता उपजी घट महि जब गुर चरनन अनुरागिओ ॥ सुफलु जनमु नानक तब हूआ जउ प्रभ जस महि पागिओ ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपजी = पैदा हुई। घट महि = हृदय में। अनुरागिओ = प्यार पाया। सुफलु = कामयाब। जउ = जब। प्रभ जस महि = प्रभु के यश में। पागिओ = (मैं) पड़ा।2।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरु के चरणों में प्यार डालता है, तब उसके हृदय में यह फुरना उठता है (कि प्रभु के भजन के बिना उम्र व्यर्थ ही बीतती रही)। हे नानक! मनुष्य की जिंदगी कामयाब तब ही होती है जब (यह गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की महिमा में जुड़ता है।2।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पुराण कथे सुणे हारे मुनी अनेका ॥ अठसठि तीरथ बहु घणा भ्रमि थाके भेखा ॥ साचो साहिबु निरमलो मनि मानै एका ॥१॥
मूलम्
बेद पुराण कथे सुणे हारे मुनी अनेका ॥ अठसठि तीरथ बहु घणा भ्रमि थाके भेखा ॥ साचो साहिबु निरमलो मनि मानै एका ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथे = कह के, सुना के। सुणे = सुन के। हारे = थक गए। अठसठि = अढ़सठ। घणा = बहुते। भ्रमि = भटक के। भेखा = कई भेषों के साधु। साचो = सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन से। एका = केवल, सिर्फ।1।
अर्थ: अनेक ऋषि मुनि (मौनधारी) वेद-पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) सुना-सुना के सुन-सुन के थक गए, सब भेषों के अनेक साधु अढ़सठ तीर्थों पर भटक-भटक के थक गए (परन्तु परमात्मा को प्रसन्न ना कर सके)। वह सदा-स्थिर रहने वाला पवित्र मालिक सिर्फ मन (की पवित्रता) के द्वारा ही पतीजता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू अजरावरु अमरु तू सभ चालणहारी ॥ नामु रसाइणु भाइ लै परहरि दुखु भारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तू अजरावरु अमरु तू सभ चालणहारी ॥ नामु रसाइणु भाइ लै परहरि दुखु भारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजरावरु = (अजर+अवर)। अजर = कभी बूढ़ा ना होने वाला। अवरु = (अत्यन्त श्रेष्ठ) अति श्रेष्ठ। रसाइण = (रस अयनु) रसों का घर, रसों का श्रोत। भाइ = प्रेम से। परहरि = दूर कर लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! सारी सृष्टि नाशवान है। (पर) तू कभी बूढ़ा नहीं होता, तू अति श्रेष्ठ है, तू मौत से रहित है। तेरा नाम सारे रसों का श्रोत है। जो जीव (तेरा नाम) प्रेम से जपता है, वह अपना बड़े से बड़ा दुख दूर कर लेता है।1। रहाउ।
[[1009]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि पड़ीऐ हरि बुझीऐ गुरमती नामि उधारा ॥ गुरि पूरै पूरी मति है पूरै सबदि बीचारा ॥ अठसठि तीरथ हरि नामु है किलविख काटणहारा ॥२॥
मूलम्
हरि पड़ीऐ हरि बुझीऐ गुरमती नामि उधारा ॥ गुरि पूरै पूरी मति है पूरै सबदि बीचारा ॥ अठसठि तीरथ हरि नामु है किलविख काटणहारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम से। उधारा = (पापों से) बचाव। गुरि = गुरु से। सबदि = शब्द से। बीचारा = श्रेष्ठ विचार। किलविख = पाप।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम (ही) पढ़ना चाहिए नाम ही समझना चाहिए, गुरु की शिक्षा ले के प्रभु के नाम से ही (पापों से) बचाव होता है। यह पूरी मति और श्रेष्ठ विचार पूरे गुरु के द्वारा पूरे गुरु के शब्द में जुड़ने से ही मिलता है कि परमात्मा का नाम अढ़सठ तीर्थों का स्नान है, और सारे पाप नाश करने के समर्थ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलु बिलोवै जलु मथै ततु लोड़ै अंधु अगिआना ॥ गुरमती दधि मथीऐ अम्रितु पाईऐ नामु निधाना ॥ मनमुख ततु न जाणनी पसू माहि समाना ॥३॥
मूलम्
जलु बिलोवै जलु मथै ततु लोड़ै अंधु अगिआना ॥ गुरमती दधि मथीऐ अम्रितु पाईऐ नामु निधाना ॥ मनमुख ततु न जाणनी पसू माहि समाना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिलोवै = मथता है। मथै = मथता है। ततु = तत्व, मख्खन, श्रेष्ठ वस्तु। अंधु = अंधा मनुष्य। दधि = दही। मथीऐ = मथें। निधाना = खजाना (सब पदार्थों का)। जाणनी = जानते हैं। पशू = पशु स्वभाव।3।
अर्थ: जो मनुष्य पानी मथता है, (सदा) पानी (ही) मथता है पर मक्खन हासिल करना चाहता है, वह (अक्ल से) अंधा है वह अज्ञानी है। अगर दही मथें तो मक्खन मिलता है (इसी तरह) अगर गुरु की मति लें तो प्रभु का नाम मिलता है जो (सारे सुखों का) खजाना है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य इस भेद को नहीं समझते, वे पशू-रुचि में टिके रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै मेरा मरी मरु मरि जमै वारो वार ॥ गुर कै सबदे जे मरै फिरि मरै न दूजी वार ॥ गुरमती जगजीवनु मनि वसै सभि कुल उधारणहार ॥४॥
मूलम्
हउमै मेरा मरी मरु मरि जमै वारो वार ॥ गुर कै सबदे जे मरै फिरि मरै न दूजी वार ॥ गुरमती जगजीवनु मनि वसै सभि कुल उधारणहार ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरी = (आत्मिक) मौत। मरु = मौत। वारो वार = बार बार। सबदे = शब्द से। मरै = (स्वैभाव से) मरता है। न मरै = ‘अहंकार’ की मौत नहीं मरता। जगजीवनु = जगत का जीवन प्रभु। मनि = (जिसके) मन में। सभि = सारे।4।
अर्थ: अहंकार और ममता निरी आत्मिक मौत है, इस आत्मिक मौत मर के जीव बार-बार पैदा होता मरता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द से (इस अहंकार और ममता की ओर से) सदा के लिए तर्क कर ले तो वह दोबारा कभी आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता। गुरु की शिक्षा की इनायत से जिस मनुष्य के मन में जगत का जीवन परमात्मा बस जाता है (खुद तो पार होता ही है) अपनी सारी कुलों को भी आत्मिक मौत से बचा लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा वखरु नामु है सचा वापारा ॥ लाहा नामु संसारि है गुरमती वीचारा ॥ दूजै भाइ कार कमावणी नित तोटा सैसारा ॥५॥
मूलम्
सचा वखरु नामु है सचा वापारा ॥ लाहा नामु संसारि है गुरमती वीचारा ॥ दूजै भाइ कार कमावणी नित तोटा सैसारा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। लाहा = कमाई। संसारि = संसार में। वीचारा = सूझ। दूजै भाइ = प्रभु के बिना किसी और के प्रेम में। तोटा = कमी (आत्मिक जीवन में)।5।
अर्थ: (जीव-वणजारा जगत-हाट में व्यापार करने आया है) सदा कायम रहने वाला (कभी नाश ना होने वाला) सौदा परमात्मा का नाम (ही) है, यही ऐसा व्यापार है जो सदा-स्थिर रहता है। जिस मनुष्य को गुरु की मति ले के ये सूझ आ जाती है वह जगत (-हाट) में नाम (की) कमाई कमाता है। पर अगर माया के प्यार में ही (सदा) मेहनत-कमाई की जाए, तो संसार में (आत्मिक जीवन की पूंजी को) घाटा ही घाटा पड़ता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साची संगति थानु सचु सचे घर बारा ॥ सचा भोजनु भाउ सचु सचु नामु अधारा ॥ सची बाणी संतोखिआ सचा सबदु वीचारा ॥६॥
मूलम्
साची संगति थानु सचु सचे घर बारा ॥ सचा भोजनु भाउ सचु सचु नामु अधारा ॥ सची बाणी संतोखिआ सचा सबदु वीचारा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सची = सदा एक रस रहने वाली, गलती ना करने वाली। भाउ = प्रेम। आधारा = आसरा। बाणी = वाणी से। संतोखिआ = (जो मनुष्य माया की तृष्णा से) संतोखी हो जाता है।6।
अर्थ: जो मनुष्य सदा-स्थिर वाणी से (माया की तृष्णा से) संतोषी हो जाता है, जो गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रखता है, परमात्मा का सदा-स्थिर नाम परमात्मा का सदा-स्थिर प्रेम उस (की जिंदगी) का आसरा बन जाता है उसके आत्मिक जीवन की चिर-स्थाई खुराक बन जाता है। उसकी संगति पवित्र, उसकी रिहायशी जगह पवित्र, उसका घर-बार पवित्र हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रस भोगण पातिसाहीआ दुख सुख संघारा ॥ मोटा नाउ धराईऐ गलि अउगण भारा ॥ माणस दाति न होवई तू दाता सारा ॥७॥
मूलम्
रस भोगण पातिसाहीआ दुख सुख संघारा ॥ मोटा नाउ धराईऐ गलि अउगण भारा ॥ माणस दाति न होवई तू दाता सारा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संघारा = व्यापते हैं। मोटा = बड़ा। गलि = गले में। सारा = श्रेष्ठ।7।
अर्थ: पर दुनियां के रस भोगने से, दुनियावी बादशाहियों से (मनुष्य को) दुख-सुख व्यापते रहते हैं। अगर (दुनिया के बड़प्पन के कारण अपना) बड़ा नाम भी रखा लें, तो भी बल्कि गले में अवगुणों का भार बंध जाता है (जिसके कारण मनुष्य संसार-समुंदर में डूबता ही है)।
हे प्रभु! तू बड़ा दाता है (सब दातें देता है), पर तेरी (मायावी) दातों से मनुष्यों की (माया से) तृप्ति नहीं होती।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरु तू धणी अविगतु अपारा ॥ गुर सबदी दरु जोईऐ मुकते भंडारा ॥ नानक मेलु न चूकई साचे वापारा ॥८॥१॥
मूलम्
अगम अगोचरु तू धणी अविगतु अपारा ॥ गुर सबदी दरु जोईऐ मुकते भंडारा ॥ नानक मेलु न चूकई साचे वापारा ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = अ+गो+चरु, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। धणी = मालिक। अविगतु = (अव्यक्तत्र) अदृष्ट। अपारा = अपार, जिसका परला किनारा ना मिल सके। दरु = दरवाजा। जोईऐ = ढूँढिए। मुकते = विकारों से मुक्ति। चूकई = खत्म होता।8।
अर्थ: हे प्रभु! तू अगम है, ज्ञान-इंद्रिय की तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती, तू सब पदार्थों का मालिक है, तू अदृष्ट है, तू बेअंत है। अगर गुरु के शब्द में जुड़ के तेरा दरवाजा तलाशें तो (तेरे दर से नाम का वह) खजाना मिलता है जो (माया के मोह से) मुक्ति देता है।
हे नानक! (नाम का व्यापार) सदा-स्थिर रहने वाला व्यापार है (इस व्यापार की इनायत से जीव-वणजारे का परमात्मा-शाह से कभी) मिलाप समाप्त नहीं होता।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ बिखु बोहिथा लादिआ दीआ समुंद मंझारि ॥ कंधी दिसि न आवई ना उरवारु न पारु ॥ वंझी हाथि न खेवटू जलु सागरु असरालु ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ बिखु बोहिथा लादिआ दीआ समुंद मंझारि ॥ कंधी दिसि न आवई ना उरवारु न पारु ॥ वंझी हाथि न खेवटू जलु सागरु असरालु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोहिथा = जहाज, बेड़ा। दीआ = ठेल दिया। मंझारि = बीच में। कंधी = किनारा। उरवारु = इस पार। वंझी = वंझ, डंडा, पतवार। हाथि = हाथ में। खेवटु = मल्लाह। असरालु = भयानक।1।
अर्थ: जगत ने अपनी जिंदगी का बेड़ा माया के जहर से लादा हुआ है, और इसको संसार-समुंदर में ठेल दिया हुआ है। (संसार का) किनारा दिखाई नहीं देता, ना इस पार का ना उस पार का। ना ही (मुसाफिर के) हाथ में वंझ है, ना (बेड़े को चलाने वाला कोई) मल्लाह है। (जिस समुंदर में से जहाज गुजर रहा है वह) समुंदर भयानक है (उस का ठाठा मारता) पानी डरावना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा जगु फाथा महा जालि ॥ गुर परसादी उबरे सचा नामु समालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा जगु फाथा महा जालि ॥ गुर परसादी उबरे सचा नामु समालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! जालि = जाल में। परसादी = कृपा से। समालि = संभाल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जगत (माया मोह के) बहुत बड़े जाल में फंसा हुआ है। (इस जाल में) जीवित वे निकलते हैं जो गुरु की मेहर से सदा-स्थिर प्रभु का नाम संभालते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरू है बोहिथा सबदि लंघावणहारु ॥ तिथै पवणु न पावको ना जलु ना आकारु ॥ तिथै सचा सचि नाइ भवजल तारणहारु ॥२॥
मूलम्
सतिगुरू है बोहिथा सबदि लंघावणहारु ॥ तिथै पवणु न पावको ना जलु ना आकारु ॥ तिथै सचा सचि नाइ भवजल तारणहारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द में (जोड़ के)। तिथै = उस आत्मिक अवस्था में, उस जगह। पावको = आग। आकारु = (दिखाई देता) जगत। नाइ = नाम में। सचि नाइ = सदा स्थिर नाम में (जोड़ के)।2।
अर्थ: गुरु जहाज है, गुरु अपने शब्द के द्वारा (जीव मुसाफिर को संसार-समुंदर में से) पार लंघाने के समर्थ है, (गुरु जिस जगह जिस आत्मिक अवस्था में पहुँचा देता है) वहाँ ना हवा ना आग ना पानी ना ये सब कुछ जो दिखाई दे रहा है (कोई प्रभाव नहीं डाल सकता)। उस अवस्था में पहुँचा हुआ जीव सदा-स्थिर प्रभु के नाम में लीन होता है जो जीव, संसार-समुंदर से पार लंघाने की ताकत रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि लंघे से पारि पए सचे सिउ लिव लाइ ॥ आवा गउणु निवारिआ जोती जोति मिलाइ ॥ गुरमती सहजु ऊपजै सचे रहै समाइ ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि लंघे से पारि पए सचे सिउ लिव लाइ ॥ आवा गउणु निवारिआ जोती जोति मिलाइ ॥ गुरमती सहजु ऊपजै सचे रहै समाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। आवागउणु = पैदा होना मरना, जनम मरन का चक्कर। निवारिआ = दूर कर दिया। सहजु = अडोल आत्मिक अवस्था।3।
अर्थ: जो लोग गुरु की शरण पड़ कर (इस समुंदर में से) गुजरते हैं, वे सदा-स्थिर परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ के उस पार किनारे पर जा पहुँचते हैं। (गुरु) उनकी ज्योति प्रभु की ज्योति में मिल के उनका जनम-मरण का चक्कर समाप्त कर देता है। गुरु की शिक्षा ले के जिस मनुष्य के अंदर अडोल आत्मिक अवस्था पैदा होती है वह सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सपु पिड़ाई पाईऐ बिखु अंतरि मनि रोसु ॥ पूरबि लिखिआ पाईऐ किस नो दीजै दोसु ॥ गुरमुखि गारड़ु जे सुणे मंने नाउ संतोसु ॥४॥
मूलम्
सपु पिड़ाई पाईऐ बिखु अंतरि मनि रोसु ॥ पूरबि लिखिआ पाईऐ किस नो दीजै दोसु ॥ गुरमुखि गारड़ु जे सुणे मंने नाउ संतोसु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिड़ाई = पटारी में। मनि = मन में। रोसु = क्रोध। दीजै = दिया जाए। गारुड़ु = (साँप के जहर को दूर करने वाला) गरुड़ मंत्र। संतोसु = संतोख, आत्मिक ठंड, शांति।4।
अर्थ: अगर साँप को पिटारी में डाल दें तो उसका जहर उसके अंदर ही टिका रहता है (दूसरों को डंक मारने के लिए) गुस्सा भी उसके मन में मौजूद रहता है (मनुष्य का मन, जैसे, साँप है। किसी धार्मिक भेस से मन का बुरा स्वभाव बदल नहीं सकता), पिछले किए कर्मों के संस्कारों के संग्रह का फल भोगना ही पड़ता है, किसी जीव को (उसके द्वारा किसी की बुराई के बारे में) दोष नहीं दिया जा सकता। अगर मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (मन रूपी साँप को वश में करने वाला) गरुड़ मंत्र (गुरु से) सुन ले, परमात्मा का नाम सुनने की आदत डाल ले तो उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागरमछु फहाईऐ कुंडी जालु वताइ ॥ दुरमति फाथा फाहीऐ फिरि फिरि पछोताइ ॥ जमण मरणु न सुझई किरतु न मेटिआ जाइ ॥५॥
मूलम्
मागरमछु फहाईऐ कुंडी जालु वताइ ॥ दुरमति फाथा फाहीऐ फिरि फिरि पछोताइ ॥ जमण मरणु न सुझई किरतु न मेटिआ जाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फहाईऐ = फसा लेते हैं। वताइ = पा के। फाथा = फसा हुआ। फाहीऐ = फस जाता है। किरतु = किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।5।
अर्थ: (दरिआ में) जाल डाल के कुंढी से मगरमछ फसा लेते हैं, वैसे ही बुरी मति में फंसा हुआ जीव माया के मोह में काबू आ जाता है (विकार करता है और) बार-बार पछताता (भी) है। उसको ये सूझता ही नहीं कि (इन विकारों के कारण) जनम-मरण का चक्कर व्यापेगा। (पर उसके भी क्या वश?) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह (जो जीव के मन में मौजूद रहता है) मिटाया नहीं जा सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै बिखु पाइ जगतु उपाइआ सबदु वसै बिखु जाइ ॥ जरा जोहि न सकई सचि रहै लिव लाइ ॥ जीवन मुकतु सो आखीऐ जिसु विचहु हउमै जाइ ॥६॥
मूलम्
हउमै बिखु पाइ जगतु उपाइआ सबदु वसै बिखु जाइ ॥ जरा जोहि न सकई सचि रहै लिव लाइ ॥ जीवन मुकतु सो आखीऐ जिसु विचहु हउमै जाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर। जाइ = दूर हो जाता है। जरा = बुढ़ापा। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। मुकतु = विकारों से आजाद।6।
अर्थ: ईश्वर ने जीवों के अंदर अहंकार का जहर डाल के जगत पैदा कर दिया है। जिस जीव के हृदय में गुरु का शब्द बस जाता है उसका यह जहर दूर हो जाता है। (वह एक ऐसी आत्मिक अवस्था में पहुँचता है जिसको) बुढ़ापा छू नहीं सकता, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।
जिस मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर हो जाए उसकी बाबत कहा जा सकता है कि वह सांसारिक जीवन जीते हुए ही माया के बंधनो से आजाद है।6।
[[1010]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंधै धावत जगु बाधिआ ना बूझै वीचारु ॥ जमण मरणु विसारिआ मनमुख मुगधु गवारु ॥ गुरि राखे से उबरे सचा सबदु वीचारि ॥७॥
मूलम्
धंधै धावत जगु बाधिआ ना बूझै वीचारु ॥ जमण मरणु विसारिआ मनमुख मुगधु गवारु ॥ गुरि राखे से उबरे सचा सबदु वीचारि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंधै = धंधे में। मुगधु = मूर्ख। गुरि = गुरु ने। वीचारि = विचार के।7।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘वीचारु’ और ‘वीचारि’ में फर्क है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: दुनिया के कार्य-व्यवहार में दौड़-भाग करता हुआ मनुष्य माया के मोह में बँध जाता है, वह (इसमें से निकलने की कोई) सोच सोच ही नहीं सकता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य ऐसा मूर्ख और बुद्धू बन जाता है कि वह जनम-मरण का चक्कर भुला ही बैठता है। जिनकी रक्षा गुरु ने की, वे सच्चे शब्द को अपने सोच-मण्डल में बसा के (मोह की जंजीरों में से) बच निकले।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूहटु पिंजरि प्रेम कै बोलै बोलणहारु ॥ सचु चुगै अम्रितु पीऐ उडै त एका वार ॥ गुरि मिलिऐ खसमु पछाणीऐ कहु नानक मोख दुआरु ॥८॥२॥
मूलम्
सूहटु पिंजरि प्रेम कै बोलै बोलणहारु ॥ सचु चुगै अम्रितु पीऐ उडै त एका वार ॥ गुरि मिलिऐ खसमु पछाणीऐ कहु नानक मोख दुआरु ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूहटु = तोता। पिंजरि = पिंजरे में। पीऐ = पीता है। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। मोख = विकारों से निजात। दुआरु = दरवाजा।8।
अर्थ: (तोता अपने मालिक के पिंजरे में पड़ कर वही बोली बोलता है जो मालिक सिखाता है, मालिक वह बोली सुन के तोते पर खुश होता है) जो जीव-तोता प्रभु के प्रेम के पिंजरे में पड़ कर वह बोल बोलता है जो इसके अंदर बोलणहार प्रभु को पसंद है, तो वह जीव-तोता सदा-स्थिर नाम की चोग चुगता है नाम-अमृत पीता है। (शरीर पिंजरे को सदा के लिए) एक बार ही त्याग जाता है (बार-बार जनम मरण में नहीं पड़ता)।
हे नानक! कह: अगर गुरु मिल जाए तो पति-परमात्मा के साथ गहरी सांझ पड़ जाती है, और माया के मोह से खलासी का दरवाजा मिल जाता है।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ सबदि मरै ता मारि मरु भागो किसु पहि जाउ ॥ जिस कै डरि भै भागीऐ अम्रितु ता को नाउ ॥ मारहि राखहि एकु तू बीजउ नाही थाउ ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ सबदि मरै ता मारि मरु भागो किसु पहि जाउ ॥ जिस कै डरि भै भागीऐ अम्रितु ता को नाउ ॥ मारहि राखहि एकु तू बीजउ नाही थाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरै = स्वै भाव से मरता है। मारि = मार लेता है। मरु = मौत, मौत का डर। भागो = भागने से। पहि = पास। जाउ = मैं जाऊँ। जिस कै डरि = जिस परमात्मा के डर से। जिस कै भै = जिस प्रभु के डर में रहने से। भागीऐ = भाग सकते हैं, बच सकते हैं (मौत के डर से)। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला। ता को = उस (प्रभु) का। बीजउ = दूसरा, कोई और।1।
अर्थ: (जब मनुष्य गुरु के) शब्द में (जुड़ के) स्वै भाव को मारता है तब वह मौत के डर को मार लेता है। (वैसे मौत से) भाग के मैं किस के पास जा सकता हूँ? जिस परमात्मा के डर में रहने से अदब में रहने से (मौत के डर से) बचा जा सकता है (उसका नाम जपना चाहिए), उसका नाम अटल आत्मिक जीवन देने वाला है।
हे प्रभु! तू स्वयं ही मारता है तू खुद ही रक्षा करता है। तेरे बिना और कोई जगह नहीं (जो मार सके अथवा मौत से बचा सके)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा मै कुचीलु काचउ मतिहीन ॥ नाम बिना को कछु नही गुरि पूरै पूरी मति कीन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा मै कुचीलु काचउ मतिहीन ॥ नाम बिना को कछु नही गुरि पूरै पूरी मति कीन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! कुचीलु = गंदा। काचउ = कच्चा, कमजोर। मति हीन = अकल से हीन। को = कोई जीव। कछु नही = किसी लायक नहीं। गुरि = गुरु ने। पूरी मति = गलती ना करने वाली अकल।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे नाम के बिना) मैं गंदा हूँ, कमजोर-दिल हूँ, बुद्धि-हीन हूँ। तेरे नाम के बिना कोई भी जीव किसी भी लायक नहीं (मति-हीन है)। (जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल गया) पूरे गुरु ने उसको वह मति दे दी जिससे वह जीवन-यात्रा में बिल्कुल गलती नहीं ना खाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवगणि सुभर गुण नही बिनु गुण किउ घरि जाउ ॥ सहजि सबदि सुखु ऊपजै बिनु भागा धनु नाहि ॥ जिन कै नामु न मनि वसै से बाधे दूख सहाहि ॥२॥
मूलम्
अवगणि सुभर गुण नही बिनु गुण किउ घरि जाउ ॥ सहजि सबदि सुखु ऊपजै बिनु भागा धनु नाहि ॥ जिन कै नामु न मनि वसै से बाधे दूख सहाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवगणि = अवगुण में। सुभर = नाको नाक। घरि = प्रभु के घर में। जाउ = मैं जाऊँ। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। धनु = परमात्मा का नाम धन। बाधे = पापों में बँधे हुए।2।
अर्थ: (प्रभु के नाम से टूट के) मैं अवगुणों से नाको-नाक भर जाता हूँ, मेरे में गुण नहीं पैदा होते, और गुणों के बिना मैं (परमात्मा के) देश में कैसे पहुँच सकता हूँ? जो मनुष्य अडोल आत्मिक अवस्था में टिकता है गुरु के शब्द में जुड़ता है उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, पर यह नाम-धन किस्मत के बिना नहीं मिलता। जिनके मन में परमात्मा का नाम नहीं बसता, वे अवगुणों से बँधे हुए दुख सहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी नामु विसारिआ से कितु आए संसारि ॥ आगै पाछै सुखु नही गाडे लादे छारु ॥ विछुड़िआ मेला नही दूखु घणो जम दुआरि ॥३॥
मूलम्
जिनी नामु विसारिआ से कितु आए संसारि ॥ आगै पाछै सुखु नही गाडे लादे छारु ॥ विछुड़िआ मेला नही दूखु घणो जम दुआरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितु = किस लिए? संसारि = संसार में। आगै पाछै = परलोक में और इस लोक में। गाडे = गाड़े। छारु = राख। घणे = बहुत। दुआरि = द्वार पर।3।
अर्थ: जिस लोगों ने परमात्मा का नाम भुला दिया वे संसार में किसलिए आए? उन्हें ना परलोक में सुख, ना इस लोक में सुख, वे तो राख से लदी हुई गाड़ियाँ हैं (उनके शरीर विकारों से भरे हुए हैं)। वे परमात्मा से विछुड़े हुए हैं, परमात्मा के साथ उनको मिलाप नसीब नहीं होता, वे जमराज के डर से काफी दुख सहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगै किआ जाणा नाहि मै भूले तू समझाइ ॥ भूले मारगु जो दसे तिस कै लागउ पाइ ॥ गुर बिनु दाता को नही कीमति कहणु न जाइ ॥४॥
मूलम्
अगै किआ जाणा नाहि मै भूले तू समझाइ ॥ भूले मारगु जो दसे तिस कै लागउ पाइ ॥ गुर बिनु दाता को नही कीमति कहणु न जाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणा नाहि = मैं नहीं जानता। मै = मुझे। मारगु = रास्ता। लागउ = मैं लगता हूँ। पाइ = पैरों पर।4।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे ये समझ नहीं कि तेरे नाम से टूट के मेरे साथ क्या होगा। मुझ भूले हुए को, हे प्रभु! तू स्वयं बुद्धि दे। मुझ गलत राह पर पड़े हुए को जो कोई रास्ता बताएगा, मैं उसके पैरों पर लगूँगा। (सही रास्ते की) दाति देने वाला गुरु के बिना और कोई नहीं है, गुरु की बख्शी हुई इस दाति का मूल्य नहीं डाला जा सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजनु देखा ता गलि मिला साचु पठाइओ लेखु ॥ मुखि धिमाणै धन खड़ी गुरमुखि आखी देखु ॥ तुधु भावै तू मनि वसहि नदरी करमि विसेखु ॥५॥
मूलम्
साजनु देखा ता गलि मिला साचु पठाइओ लेखु ॥ मुखि धिमाणै धन खड़ी गुरमुखि आखी देखु ॥ तुधु भावै तू मनि वसहि नदरी करमि विसेखु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजनु = प्रीतम प्रभु। गलि = गले से। साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। लेखु = चिट्ठी। मुखि धिमाणै = झुके हुए मुँह, सिर झुका के। धन = जीव-स्त्री। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। देखु = देख ले। नदरी = मेहर की निगाह से। करमि = बख्शिश से। बिसेखु = विशेषता, बड़ाई।5।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) मैं सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण कर रही हूँ, ये स्मरण-रूपी चिट्ठी मैंने (प्रभु-पति को) भेजी है, जब उस सज्जन-प्रभु का मैं दर्शन करूँगी तब मैं उसके गले से लग जाऊँगी।
(प्रभु की याद से टूट के) हे बेहाल हो के खड़ी जीव-स्त्री! तू भी गुरु की शरण पड़, और अपनी आँखों से उसका दर्शन कर ले।
(पर, हे प्रभु! हम जीवों के भी क्या वश?) अगर तुझे अच्छा लगे तो तू जीवों के मन आ के प्रकट होता है, तेरी मेहर की निगाह से तेरी बख्शिश से तेरे दशर्नों की बड़ाई मिलती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूख पिआसो जे भवै किआ तिसु मागउ देइ ॥ बीजउ सूझै को नही मनि तनि पूरनु देइ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ आपि वडाई देइ ॥६॥
मूलम्
भूख पिआसो जे भवै किआ तिसु मागउ देइ ॥ बीजउ सूझै को नही मनि तनि पूरनु देइ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ आपि वडाई देइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूख पिआसे = भूखा प्यासा। मागउ = मैं माँगू। किआ देइ = वह क्या दे सकता है? पूरनु = व्यापक प्रभु। जिनि = जिस प्रभु ने। देखिआ = संभाल की है।6।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य स्वयं ही (माया के मोह में) भूखा-प्यासा भटक रहा हो, मैं उससे क्या (नाम की दाति) माँग सकता हूँ? वह मुझे क्या दे सकता है? मुझे तो और कोई (दाता) नहीं सूझता, (हाँ,) वही परमात्मा दे सकता है जो जीवों के मन में तन में भरपूर है। जिस परमात्मा ने यह जगत रचा है उसने स्वयं ही इसकी संभाल करनी है। वह स्वयं ही अपने (नाम की दाति की) बड़ाई देता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नगरी नाइकु नवतनो बालकु लील अनूपु ॥ नारि न पुरखु न पंखणू साचउ चतुरु सरूपु ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ तू दीपकु तू धूपु ॥७॥
मूलम्
नगरी नाइकु नवतनो बालकु लील अनूपु ॥ नारि न पुरखु न पंखणू साचउ चतुरु सरूपु ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ तू दीपकु तू धूपु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नगरी नाइकु = शरीर नगरी का मालिक। नवतनो = नया। बालकु = बाल स्वभाव वाला, किसी के साथ वैर-विरोध ना रखने वाला। लील अनूपु = अनोखी खेलें खेलने वाला। पंखणू = पंछी। साचउ = सदा स्थिर रहने वाला। चतुरु सरूपु = बुद्धि का पुँज। दीपकु = प्रकाश देने वाला। धूपु = सुगंधि देने वाला।7।
अर्थ: परमात्मा इन शरीरों का मालिक है, (जीवों को प्यार करने में वह हर वक्त) नया है, बालक (की तरह वह निर्वैर) है, वह अनोखे करिश्मे करने में समर्थ है। परमात्मा सदा-स्थिर रहने वाला है, बुद्धि का पुँज है, (स्त्री मर्द पंछी आदि सभी में मौजूद है) पर वह कोई खास स्त्री नहीं, कोई खास मर्द नहीं, कोई खास पंछी नहीं। जगत में वही कुछ हो रहा है जो उसको भाता है।
हे प्रभु! तू सब जीवों को प्रकाश (ज्ञान) देने वाला है, तू सबको सुगन्धि (मीठा स्वभाव) देने वाला है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीत साद चाखे सुणे बाद साद तनि रोगु ॥ सचु भावै साचउ चवै छूटै सोग विजोगु ॥ नानक नामु न वीसरै जो तिसु भावै सु होगु ॥८॥३॥
मूलम्
गीत साद चाखे सुणे बाद साद तनि रोगु ॥ सचु भावै साचउ चवै छूटै सोग विजोगु ॥ नानक नामु न वीसरै जो तिसु भावै सु होगु ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाद = बाजे, गीत। तनि = तन में। सचु = सदा स्थिर प्रभु में। साचउ = सदा स्थिर रहने वाला (नाम) ही। चवै = बोलता है। सोग = शोक, चिन्ता। विजोगु = विछोड़ा। होगु = होगा।8।
अर्थ: दुनियाँ के गीत सुन के देखे हैं, स्वाद चख के देखे हैं; ये गीत और स्वाद शरीर के रोग ही पैदा करते हैं। जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु प्यारा लगता है जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करता है, उसका (प्रभु से) विछोड़ा समाप्त हो जाता है, उसकी चिन्ता दूर हो जाती है।
हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभु का नाम नहीं भूलता, उसको ये यकीन बन जाता है कि जगत में वही कुछ होता है जो प्रभु को पसन्द आता है।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ साची कार कमावणी होरि लालच बादि ॥ इहु मनु साचै मोहिआ जिहवा सचि सादि ॥ बिनु नावै को रसु नही होरि चलहि बिखु लादि ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ साची कार कमावणी होरि लालच बादि ॥ इहु मनु साचै मोहिआ जिहवा सचि सादि ॥ बिनु नावै को रसु नही होरि चलहि बिखु लादि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साची = सदा स्थिर रहने वाली, जिसमें कोई कमी ना आए। होरि = अन्य, बाकी के। बादि = व्यर्थ। साचै = सदा स्थिर प्रभु ने। मोहिआ = वश में कर रखा है। जिहवा = जीभ। सचि = सदा स्थिर प्रभु (के स्मरण) में। सादि = स्वाद में, आनंद में। को = कोई। होरि = (जो नाम रस से वंचित रहते हैं) वे लोग। लादि = लाद के, इकट्ठा करके।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (प्रभु-मालिक का गुलाम) सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति की कार करता है, (नाम-स्मरण के बिना) बाकी के लालच उसको व्यर्थ (दिखाई देते) हैं। सदा-स्थिर प्रभु ने अपने सेवक का मन प्रेम-वश किया हुआ है (इस वास्ते सेवक की) जीभ सदा-स्थिर नाम-स्मरण के स्वाद में (मगन रहती) है। (सेवक को) प्रभु के नाम के बिना और कोई रस (आकर्षित) नहीं (करता)। (सेवक को निष्चय है कि नाम-रस से वंचित रहने वाले) लोग वह चीज इकट्ठी करके ले जाते हैं जो आत्मिक जीवन के लिए जहर है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा लाला मेरे लाल को सुणि खसम हमारे ॥ जिउ फुरमावहि तिउ चला सचु लाल पिआरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा लाला मेरे लाल को सुणि खसम हमारे ॥ जिउ फुरमावहि तिउ चला सचु लाल पिआरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाला = गुलाम, सेवक। लाल को = लाल का, प्यारे प्रभु का। खसम = हे पति! चला = मैं चलता हूँ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। लाल = हे लाल!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे पति! हे मेरे प्यारे लाल! (मेरी आरज़ू) सुन। मैं अपने लाल का (भाव, तेरा) ऐसा सेवक-ग़ुलाम हूँ कि (तू) जैसे हुक्म करता है, मैं वैसे ही (जीवन-राह पर) चलता हूँ। तू ही सदा कायम रहने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु लाले चाकरी गोले सिरि मीरा ॥ गुर बचनी मनु वेचिआ सबदि मनु धीरा ॥ गुर पूरे साबासि है काटै मन पीरा ॥२॥
मूलम्
अनदिनु लाले चाकरी गोले सिरि मीरा ॥ गुर बचनी मनु वेचिआ सबदि मनु धीरा ॥ गुर पूरे साबासि है काटै मन पीरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। गोले सिरि = गुलाम के सिर पर। मीरा = मालिक (अमीर), सरदार। धीरा = धीरज पकड़ता है। मन धीरा = मन की पीड़ा।2।
अर्थ: सेवक ने हर रोज (हर वक्त) परमात्मा की भक्ति की सेवा ही संभाली हुई है, सेवक को अपने सिर पर मालिक-प्रभु (खड़ा दिखाई देता) है। सेवक ने अपना मन गुरु के वचनों से बेच दिया है, गुरु के शब्द में (टिक के) सेवक का मन धैर्य धरता है। सेवक पूरे गुरु को धन्य-धन्य कहता है जो उसके मन की पीड़ा दूर करता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
लाला गोला धणी को किआ कहउ वडिआईऐ ॥ भाणै बखसे पूरा धणी सचु कार कमाईऐ ॥ विछुड़िआ कउ मेलि लए गुर कउ बलि जाईऐ ॥३॥
मूलम्
लाला गोला धणी को किआ कहउ वडिआईऐ ॥ भाणै बखसे पूरा धणी सचु कार कमाईऐ ॥ विछुड़िआ कउ मेलि लए गुर कउ बलि जाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धणी के = मालिक का। कहउ = मैं कहूँ। पूरा = सब ताकतों का मालिक। सचु = सदा स्थिर प्रभु का स्मरण। गुर कउ = गुरु से। बलि = बलिहार, कुर्बान।3।
अर्थ: जो मनुष्य मालिक प्रभु का सेवक-गुलाम बन जाता है मैं उसकी क्या महिमा कह सकता हूँ? वह सब ताकतों का मालिक प्रभु अपनी रजा में (अपने सेवक पर) बख्शिश करता है (जिसकी इनायत से सेवक) नाम-स्मरण (की) कार करता रहता है। सेवक अपने गुरु से सदा कुर्बान जाता है जो विछुड़े जीव को परमात्मा के चरणों में मिला लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाले गोले मति खरी गुर की मति नीकी ॥ साची सुरति सुहावणी मनमुख मति फीकी ॥ मनु तनु तेरा तू प्रभू सचु धीरक धुर की ॥४॥
मूलम्
लाले गोले मति खरी गुर की मति नीकी ॥ साची सुरति सुहावणी मनमुख मति फीकी ॥ मनु तनु तेरा तू प्रभू सचु धीरक धुर की ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खरी = अच्छी। नीकी = सोहणी। फीकी = बेस्वादी। सचु = सदा स्थिर। धुर की = धर से, अपनी दरगाह से।4।
अर्थ: गुरु की सोहणी मति ले के सेवक-गुलाम की बुद्धि भी बढ़िया हो जाती है, उसकी तवज्जो सदा-स्थिर भक्ति में टिक के सुंदर हो जाती है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की मति उसको (परमात्मा से दूर ले जाने, फीका करने) के रास्ते पर डालने वाली होती है।
(पर, हे प्रभु! जीवों के क्या वश? जीवों को यह) मन और शरीर तेरा ही दिया हुआ है, हे प्रभु! तू सदा-स्थिर रहने वाला है, तू ही अपनी धुर-दरगाह से जीवों को (स्मरण की) टेक देने वाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचै बैसणु उठणा सचु भोजनु भाखिआ ॥ चिति सचै वितो सचा साचा रसु चाखिआ ॥ साचै घरि साचै रखे गुर बचनि सुभाखिआ ॥५॥
मूलम्
साचै बैसणु उठणा सचु भोजनु भाखिआ ॥ चिति सचै वितो सचा साचा रसु चाखिआ ॥ साचै घरि साचै रखे गुर बचनि सुभाखिआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचै = सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा स्थिर प्रभु का स्मरण। भाखिआ = बोली। चिहित = चिक्त में। सचै = सच्चे की (याद)। वितो = विक्त, धन। साचै घरि = सदा स्थिर रहने वाले घर में। बचनि = वचनों से।5।
अर्थ: (सेवक का) उठना-बैठना (सदा ही) सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में रहता है, नाम-जपना ही उसकी (आत्मिक) खुराक है नाम-जपना ही उसकी बोली है। सेवक के चिक्त में सदा-स्थिर प्रभु (की याद) टिकी रहती है, सदा-स्थिर प्रभु का नाम ही उसका धन है, यही रस सदा चखता रहता है। (सेवक) सदा-स्थिर प्रभु के घर में टिकाए रखता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख कउ आलसु घणो फाथे ओजाड़ी ॥ फाथा चुगै नित चोगड़ी लगि बंधु विगाड़ी ॥ गुर परसादी मुकतु होइ साचे निज ताड़ी ॥६॥
मूलम्
मनमुख कउ आलसु घणो फाथे ओजाड़ी ॥ फाथा चुगै नित चोगड़ी लगि बंधु विगाड़ी ॥ गुर परसादी मुकतु होइ साचे निज ताड़ी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घणो = बहुत। चोगड़ी = अनुचित चोग। लगि = (माया के मोह में) लग के। बंधु = (परमात्मा के साथ) संबंध। मुकतु = आजाद, स्वतंत्र। निज = अपनी। ताड़ी = तवज्जो, ध्यान, लगन।6।
अर्थ: पर अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे को (नाम-स्मरण से) बहुत आलस रहता है, वह अपने मन के सूनेपन में ही फसा रहता है। (नाम से सूने मन की अगुवाई में) फँसा हुआ मनमुख नित्य (माया-मोह की) अनुचित चोग चुगता है, (अपने मन के पीछे) लग के परमात्म से अपना संबंध खराब कर लेता है। (अपने मन की इस गुलामी में से मनमुख भी) गुरु की कृपा से स्वतंत्र हो के सदा-स्थिर प्रभु में अपनी तवज्जो जोड़ लेता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनहति लाला बेधिआ प्रभ हेति पिआरी ॥ बिनु साचे जीउ जलि बलउ झूठे वेकारी ॥ बादि कारा सभि छोडीआ साची तरु तारी ॥७॥
मूलम्
अनहति लाला बेधिआ प्रभ हेति पिआरी ॥ बिनु साचे जीउ जलि बलउ झूठे वेकारी ॥ बादि कारा सभि छोडीआ साची तरु तारी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनहति = नाश रहित प्रभु में। हेति = हित में, प्रेम में। बेधिआ = भेदा रहता है। जीउ = जिंद। जलि बलउ = जल के समाप्त हो जाए। साची = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति। तरु = (तर: a ferry boat) बेड़ी। तारी = (तारिन्ह = enabling to cross) पार लंघाने के समर्थ।7।
अर्थ: सेवक नाश-रहित प्रभु की याद में टिका रहता है, प्रभु के प्यार में (उसका मन) भेदा रहता है, (सेवक प्रभु-चरणों से) प्यार जोड़ता है। (सेवक को निष्चय है कि) झूठे विकारी लोगों की जिंद सदा-स्थिर प्रभु की याद से टूट के (विकारों में ही) जल के खत्म हो जाती है। (इस वास्ते) सेवक मोह-माया की व्यर्थ के कार्य-व्यवहार त्याग देता है। परमात्मा की भक्ति (सेवक के लिए संसार-समुंदर में से) तैराने वाली समर्थ बेड़ी है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी नामु विसारिआ तिना ठउर न ठाउ ॥ लालै लालचु तिआगिआ पाइआ हरि नाउ ॥ तू बखसहि ता मेलि लैहि नानक बलि जाउ ॥८॥४॥
मूलम्
जिनी नामु विसारिआ तिना ठउर न ठाउ ॥ लालै लालचु तिआगिआ पाइआ हरि नाउ ॥ तू बखसहि ता मेलि लैहि नानक बलि जाउ ॥८॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठउरु = ठिकाना। ठाउ = जगह। लालै = सेवक ने। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।8।
अर्थ: जिन्होंने प्रभु का नाम बिसार दिया उन्हें आत्मिक शांति के लिए कोई और जगह नहीं मिलती। सेवक ने माया का लालच त्याग दिया है, और परमात्मा का नाम-धन पा लिया है।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तुझसे सदके जाता हूँ। तू स्वयं ही मेहर करे तो जीवों को (अपने चरणों में) मिलाए।8।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ लालै गारबु छोडिआ गुर कै भै सहजि सुभाई ॥ लालै खसमु पछाणिआ वडी वडिआई ॥ खसमि मिलिऐ सुखु पाइआ कीमति कहणु न जाई ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ लालै गारबु छोडिआ गुर कै भै सहजि सुभाई ॥ लालै खसमु पछाणिआ वडी वडिआई ॥ खसमि मिलिऐ सुखु पाइआ कीमति कहणु न जाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लालै = सेवक ने, गुलाम। गारबु = अहंकार। भै = भय, डर अदब में (रह के)। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में (टिक के)। सुभाउ = अच्छा प्रेम। सुभाई = श्रेष्ठ प्रेम स्वभाव वाला। खसमि मिलिऐ = अगर पति मिल जाए।1।
अर्थ: (प्रभु का) सेवक (वह है जिस) ने अहंकार त्याग दिया है गुरु के डर-अदब में रह के सेवक अडोल आत्मिक अवस्था में टिका रहता है, प्रेम स्वभाव वाला बन जाता है। सेवक वह है जिसने मालिक के साथ गहरी सांझ डाल ली है, मालिक से बहुत आदर-मान मिलता है। अगर पति-प्रभु मिल जाए, तो सेवक को इतना आत्मिक आनंद प्राप्त होता है कि उस आनन्द का मूल्य नहीं पाया जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाला गोला खसम का खसमै वडिआई ॥ गुर परसादी उबरे हरि की सरणाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
लाला गोला खसम का खसमै वडिआई ॥ गुर परसादी उबरे हरि की सरणाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोला = गुलाम। खसमे = पति की। वडिआई = महिमा। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। उबरे = बच गए।1। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा-मालिक का सेवक गुलाम बनता है वह पति-प्रभु की ही महिमा करता रहता है। जो लोग गुरु की कृपा से परमात्मा की शरण पड़ते हैं वह (माया के मोह से) बच निकलते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाले नो सिरि कार है धुरि खसमि फुरमाई ॥ लालै हुकमु पछाणिआ सदा रहै रजाई ॥ आपे मीरा बखसि लए वडी वडिआई ॥२॥
मूलम्
लाले नो सिरि कार है धुरि खसमि फुरमाई ॥ लालै हुकमु पछाणिआ सदा रहै रजाई ॥ आपे मीरा बखसि लए वडी वडिआई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर पर, जिम्मे। धुरि = धुर से। खसमि = खसम ने। रजाई = रजा में। मीरा = मालिक। वडिआई = आदर मान।2।
अर्थ: पति-प्रभु ने धुर से ही हुक्म दे दिया अपने सेवक को सिर पर (हुक्म मानने की) कार सौंप दी (इस वास्ते प्रभु का) सेवक प्रभु का हुक्म पहचानता है और सदा उसकी रजा में रहता है। मालिक स्वय ही (सेवक पर) बख्शिशें करता है और उसको बहुत आदर-मान देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि सचा सभु सचु है गुर सबदि बुझाई ॥ तेरी सेवा सो करे जिस नो लैहि तू लाई ॥ बिनु सेवा किनै न पाइआ दूजै भरमि खुआई ॥३॥
मूलम्
आपि सचा सभु सचु है गुर सबदि बुझाई ॥ तेरी सेवा सो करे जिस नो लैहि तू लाई ॥ बिनु सेवा किनै न पाइआ दूजै भरमि खुआई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सचु = अटल। लाई लैहि = तू लगा लेता है। भरमि = भटकना में। दूजै भरमि = माया की भटकना में। खुआई = (जीवन-राह से) टूट जाता है।3।
अर्थ: हे प्रभु! तूने गुरु के शब्द के द्वारा सेवक को ये समझ दी है कि तू स्वयं सदा अटल है और तेरा सारा (नियम) अटल है। हे प्रभु! तेरी सेवा-भक्ति वही मनुष्य करता है जिसको तू स्वयं सेवा-भक्ति में जोड़ता है। तेरी सेवा-भक्ति के बिना कोई जीव तुझे नहीं पा सका, (तेरी सेवा-भक्ति के बिना जीव) माया की भटकना में पड़ कर जीवन-राह से टूटा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो किउ मनहु विसारीऐ नित देवै चड़ै सवाइआ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा साहु तिनै विचि पाइआ ॥ जा क्रिपा करे ता सेवीऐ सेवि सचि समाइआ ॥४॥
मूलम्
सो किउ मनहु विसारीऐ नित देवै चड़ै सवाइआ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा साहु तिनै विचि पाइआ ॥ जा क्रिपा करे ता सेवीऐ सेवि सचि समाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहु = मन से। चढ़ै सवाइआ = बढ़ता रहता है। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तिस दा = उस (परमात्मा) का। साहु = श्वास। तिनै = उसी ने। विचि = (शरीर) में। सेवि = सेवा कर के। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।
अर्थ: उस परमात्मा को कभी मन से भुलाना नहीं चाहिए जो सब जीवों को सब कुछ सदा देता है और उसका दिया नित्य बढ़ता रहता है। ये प्राण और ये शरीर सब उस प्रभु का ही दिया हुआ है, शरीर में साँसें भी उसी ने ही रखी है। (पर उसकी सेवा-भक्ति भी उसकी मेहर से ही की जा सकती है) जब वह कृपा करता है तब उसकी सेवा की जा सकती है, जीव सेवा-भक्ति करके सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाला सो जीवतु मरै मरि विचहु आपु गवाए ॥ बंधन तूटहि मुकति होइ त्रिसना अगनि बुझाए ॥ सभ महि नामु निधानु है गुरमुखि को पाए ॥५॥
मूलम्
लाला सो जीवतु मरै मरि विचहु आपु गवाए ॥ बंधन तूटहि मुकति होइ त्रिसना अगनि बुझाए ॥ सभ महि नामु निधानु है गुरमुखि को पाए ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवतु मरै = दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह से मर जाता है। मरि = मर के। आपु = स्वै भाव, अहंकार। तूटहि = टूट जाते हैं। मुकति = (माया के मोह से) खलासी। निधानु = खजाना (सब सुखों-पदार्थों का)। को = कोई विरला।5।
अर्थ: वह मनुष्य प्रभु का सेवक (कहलवा सकता) है जो दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ माया के मोह की ओर से मरा रहता है, माया के मोह से ऊपर रह के अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करता है। (ऐसे सेवक के माया वाले) बंधन टूट जाते हैं, माया के मोह से उसको स्वतंत्रता मिल जाती है, वह अपने अंदर से माया की तृष्णा की आग बुझा देता है।
वैसे तो परमात्मा का नाम-खजाना हरेक जीव के अंदर ही मौजूद है, पर कोई वही आदमी इस खजाने को पा सकता है जो गुरु की शरण पड़ता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाले विचि गुणु किछु नही लाला अवगणिआरु ॥ तुधु जेवडु दाता को नही तू बखसणहारु ॥ तेरा हुकमु लाला मंने एह करणी सारु ॥६॥
मूलम्
लाले विचि गुणु किछु नही लाला अवगणिआरु ॥ तुधु जेवडु दाता को नही तू बखसणहारु ॥ तेरा हुकमु लाला मंने एह करणी सारु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवगणिआरु = अवगुणों से भरा हुआ। को = कोई (भी)। सारु = श्रेष्ठ। करणी = करने योग्य काम।6।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर के बिना) सेवक में कोई गुण पैदा नहीं हो सकता, वह तो बल्कि अवगुणों से भरा रहता है। तू स्वयं ही बख्शिश करता है, और तेरा सेवक तेरा हुक्म मानता है, हुक्म मानने को ही सबसे उत्तम कार्य समझता है। हे प्रभु! तेरे जितना दाता और कोई नहीं।6।
[[1012]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सागरु अम्रित सरु जो इछे सो फलु पाए ॥ नामु पदारथु अमरु है हिरदै मंनि वसाए ॥ गुर सेवा सदा सुखु है जिस नो हुकमु मनाए ॥७॥
मूलम्
गुरु सागरु अम्रित सरु जो इछे सो फलु पाए ॥ नामु पदारथु अमरु है हिरदै मंनि वसाए ॥ गुर सेवा सदा सुखु है जिस नो हुकमु मनाए ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। अंम्रितसरु = अमृत का सरोवर, अमृत से भरा हुआ सरोवर। पदारथु = संपत्ति। अमरु = कभी ना खत्म होने वाला। मंनि = मन में।7।
अर्थ: गुरु समुंदर है, गुरु अमृत से भरा हुआ सरोवर है (‘अमृतसर’ है। सेवक इस अमृत के सरोवर गुरु की शरण पड़ता है, फिर यहाँ से) जो कुछ माँगता है वह फल ले लेता है। (गुरु की मेहर से सेवक अपने) हृदय में मन में परमात्मा का नाम बसाता है जो (असल) संपत्ति है और जो कभी खत्म होने वाला नहीं। गुरु जिस सेवक से परमात्मा का हुक्म मनाता है उस सेवक को गुरु की (इस बताई) सेवा से सदा आत्मिक आनंद मिला रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुइना रुपा सभ धातु है माटी रलि जाई ॥ बिनु नावै नालि न चलई सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ नानक नामि रते से निरमले साचै रहे समाई ॥८॥५॥
मूलम्
सुइना रुपा सभ धातु है माटी रलि जाई ॥ बिनु नावै नालि न चलई सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ नानक नामि रते से निरमले साचै रहे समाई ॥८॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूपा = चांदी। धातु = माया। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझ = समझ। नामि = नाम में। साचै = सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: (हे भाई!) सोना-चाँदी आदि सब (नाशवान) माया है (जब जीव शरीर त्यागता है तो उसके लिए तो ये सब) मिट्टी में मिल गए (क्योंकि उसके किसी काम नहीं आते)। सतिगुरु ने (प्रभु के सेवक को यह) सूझ दे दी है कि परमात्मा के नाम के बिना (सोना-चाँदी आदि कोई भी चीज़ जीव के) साथ नहीं जाती।
हे नानक! (गुरु की कृपा से) जो लोग परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, वे सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में लीन रहते हैं।8।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ हुकमु भइआ रहणा नही धुरि फाटे चीरै ॥ एहु मनु अवगणि बाधिआ सहु देह सरीरै ॥ पूरै गुरि बखसाईअहि सभि गुनह फकीरै ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ हुकमु भइआ रहणा नही धुरि फाटे चीरै ॥ एहु मनु अवगणि बाधिआ सहु देह सरीरै ॥ पूरै गुरि बखसाईअहि सभि गुनह फकीरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भइआ = (जब) हो जाता है। धुरि = धुर से, परमात्मा की हजूरी से। चीरी = चिट्ठी। फाटे चीरै = अगर चिट्ठी फट जाए।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: हमारे देश का रिवाज है कि किसी की मौत की खबर भेजने के वक्त चिट्ठी एक तरफ से थोड़ी सी फाड़ दी जाती है)।
दर्पण-भाषार्थ
सहु = सह, बर्दाश्त कर। देह = शरीर। देह सरीरै = शरीर पर। गुरि = गुरु के द्वारा। सभि = सारे। गुनहु = गुनाह, पाप। बखसाईअहि = बख्शिश लेते हैं। फकीरै = फकीर के, भिखारी के, उस मनुष्य के जो प्रभु के दर से मेहर की दाति माँगे।1।
अर्थ: जब (परमात्मा का) हुक्म हो जाता है जब (किसी की) चिट्ठी धुर (दरगाह) से फाड़ दी जाती है, तो वह (इस संसार में) नहीं रह सकता। (हे भाई! जब तक तेरा) ये मन अवगुणों (की फाँसी) में बँधा हुआ है (तब तक अपने इस) शरीर में (दुख) सह। जो मनुष्य पूरे गुरु के द्वारा परमात्मा के दर का मँगता बनता है उसके सारे गुनाह बख्शे जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किउ रहीऐ उठि चलणा बुझु सबद बीचारा ॥ जिसु तू मेलहि सो मिलै धुरि हुकमु अपारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किउ रहीऐ उठि चलणा बुझु सबद बीचारा ॥ जिसु तू मेलहि सो मिलै धुरि हुकमु अपारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किउ रहीऐ = नहीं रह सकते। अपारा = हे अपार! हे बेअंत प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! अभी-अभी वक्त है) गुरु के शब्द की विचार समझ, (यहाँ सदा) टिके नहीं रहा जा सकता, (जब प्रभु का हुक्म आया तब) यहाँ से चलना ही पड़ेगा। (पर, हे प्रभु! जीवों के क्या वश?) हे बेअंत प्रभु! तुझे वही मनुष्य मिल सकता है जिसको तू स्वयं मिलाए, धुर से तेरा (ऐसा ही) हुक्म है (ऐसी ही रज़ा है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ तू राखहि तिउ रहा जो देहि सु खाउ ॥ जिउ तू चलावहि तिउ चला मुखि अम्रित नाउ ॥ मेरे ठाकुर हथि वडिआईआ मेलहि मनि चाउ ॥२॥
मूलम्
जिउ तू राखहि तिउ रहा जो देहि सु खाउ ॥ जिउ तू चलावहि तिउ चला मुखि अम्रित नाउ ॥ मेरे ठाकुर हथि वडिआईआ मेलहि मनि चाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहा = मैं रहता हूँ। खाउ = मैं खाता हूँ। चला = मैं (जीवन-राह पर) चलता हूँ। मुखि = मुँह में (डालता हूँ)। अंम्रित नाउ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। हथि = हाथ में। मनि = मन में। चाउ = तमन्ना।2।
अर्थ: (पर, हम जीवों के वश की बात नहीं) हे प्रभु! जिस हालत में तू मुझे रखता है, मैं उसी हालत में रह सकता हूँ, जो (आत्मिक खुराक) तू मुझे देता है मैं वही खाता हूँ। (आत्मिक जीवन के रास्ते पर) जिस तरह तू मुझे चलाता है मैं उसी तरह चलता हूँ, और अपने मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम डालता हूँ। हे मेरे ठाकुर! तेरे अपने हाथ में वडिआईआँ (आदर-मान) हैं (जिसको तू बड़ाई बख्शता है जिसको तू अपने चरणों में) जोड़ता है उसके मन में (तेरी भक्ति का) चाव पैदा हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीता किआ सालाहीऐ करि देखै सोई ॥ जिनि कीआ सो मनि वसै मै अवरु न कोई ॥ सो साचा सालाहीऐ साची पति होई ॥३॥
मूलम्
कीता किआ सालाहीऐ करि देखै सोई ॥ जिनि कीआ सो मनि वसै मै अवरु न कोई ॥ सो साचा सालाहीऐ साची पति होई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = पैदा कर के। देखै = संभाल करता है। जिनि = जिस परमात्मा ने। मै = मुझे।3।
अर्थ: (परमात्मा की महिमा छोड़ के परमात्मा के) पैदा किए हुए की बड़ाई करने से कोई (आत्मिक) लाभ नहीं होगा (बड़ाई उस कर्तार की करो) जो (जगत-रचना) कर के स्वयं ही (उसकी) संभाल करता है। जिस कर्तार ने जगत रचा है वही (मेरे) मन में बसता है। मुझे उस जैसा और कोई नहीं दिखाई देता। उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा की ही महिमा करनी चाहिए (जो करता है उसको) सदा के लिए आदर मिल जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडितु पड़ि न पहुचई बहु आल जंजाला ॥ पाप पुंन दुइ संगमे खुधिआ जमकाला ॥ विछोड़ा भउ वीसरै पूरा रखवाला ॥४॥
मूलम्
पंडितु पड़ि न पहुचई बहु आल जंजाला ॥ पाप पुंन दुइ संगमे खुधिआ जमकाला ॥ विछोड़ा भउ वीसरै पूरा रखवाला ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आल जंजाला = (आलय = घर) घर के धंधे। दुइ = द्वै, दुबिधा। संगमे = साथ। खुधिआ = (माया की) भूख।4।
अर्थ: पंडित (शास्त्र, पुराण आदि धर्म-पुस्तकें सिर्फ) पढ़ के (उस अवस्था पर) नहीं पहुँचता (जहाँ परमात्मा से विछोड़ा समाप्त हो जाए, क्योंकि पढ़-पढ़ के भी) वह माया के जंजालों में बहुत फसा रहता है। (धर्म-शास्त्रों के अनुसार) पाप क्या है औरा पुण्य क्या है ये विचार करता हुआ भी वह द्वैत के फंदे में ही रहता है, माया की भूख और आत्मिक मौत (मौत का डर) उसके सिर पर कायम रहते हैं।
परमात्मा के चरणों से विछोड़ा और सहम उस मनुष्य का ही खत्म होता है जिसके मन में हर तरह से रक्षा करने वाला परमात्मा बसा रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन की लेखै पति पवै से पूरे भाई ॥ पूरे पूरी मति है सची वडिआई ॥ देदे तोटि न आवई लै लै थकि पाई ॥५॥
मूलम्
जिन की लेखै पति पवै से पूरे भाई ॥ पूरे पूरी मति है सची वडिआई ॥ देदे तोटि न आवई लै लै थकि पाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। भाई = हे भाई! दे = दे के। तोटि = घाटा। थकि पाई = जीव थक जाता है।5।
अर्थ: हे भाई! किए कर्मों का हिसाब होने पर जिन्हें इज्जत मिलती है वह सम्पूर्ण बर्तन समझे जाते हैं। ऐसे संपूर्ण गुणवान मनुष्य को परमात्मा के दर से मति भी पूरी ही मिलती है (जिसके कारण वह भूलने वाले जीवन के राह पर नहीं पड़ता) और सदा-स्थिर रहने वाली इज्जत प्राप्त होती है। (वह परमात्मा बेअंत दातों का मालिक है, जीव को) सदा देता है (उसके खजाने में) घाटा नहीं पड़ता, जीव दातें ले ले के थक जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खार समुद्रु ढंढोलीऐ इकु मणीआ पावै ॥ दुइ दिन चारि सुहावणा माटी तिसु खावै ॥ गुरु सागरु सति सेवीऐ दे तोटि न आवै ॥६॥
मूलम्
खार समुद्रु ढंढोलीऐ इकु मणीआ पावै ॥ दुइ दिन चारि सुहावणा माटी तिसु खावै ॥ गुरु सागरु सति सेवीऐ दे तोटि न आवै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खार = खारा। मणीआ = रतन। पावै = पा लिए। तिसु = उस (मणी) को। गुरु सागरु सति = सतिगुरु समुंदर। दे = देता है।6।
अर्थ: (इस बात की बहुत उपमा की जाती है कि देवताओं ने समुंदर मथा और उसमें से चौदह रत्न निकले, भला) अगर खारा समुंदर मथने से, उसमें से कोई मनुष्य रत्न ढूँढ ले (तो भी आखिर कौन सी बड़ी बात कर ली? वह रतन) दो-चार दिन ही सुंदर लगता है (अंत में) उस रत्न को कभी ना कभी मिट्टी ही खा जाती है।
(सतिगुरु असल समुंदर है) अगर सतिगुरु” समुंदर को सेवा जाए (अगर गुरु-समुंदर की शरण पड़ें, तो गुरु-समुंदर ऐसा नाम-रत्न) देता है जिसमें कभी भी कमी नहीं आ सकती।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे प्रभ भावनि से ऊजले सभ मैलु भरीजै ॥ मैला ऊजलु ता थीऐ पारस संगि भीजै ॥ वंनी साचे लाल की किनि कीमति कीजै ॥७॥
मूलम्
मेरे प्रभ भावनि से ऊजले सभ मैलु भरीजै ॥ मैला ऊजलु ता थीऐ पारस संगि भीजै ॥ वंनी साचे लाल की किनि कीमति कीजै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह लोग। ऊजले = पवित्र। सभ = सारी दुनिया। ता = तब। थीऐ = होता। संगि = साथ। वंनी = रंग। साचे = सदा स्थिर की। किनी = किस ने? किस ओर से? कीजै = की जा सकती है।7।
अर्थ: सारी दुनिया (माया के मोह की) मैल से भरी हुई है। सिर्फ वह लोग साफ-सुथरे हैं जो परमात्मा को प्यारे लगते हैं। (माया के मोह से) मलीन-मन हुआ आदमी तब ही पवित्र हो सकता है जब वह गुरु पारस की संगति में रह के (परमात्मा के नाम-अमृत से) भीगता है। सदा-स्थिर प्रभु-लाल का नाम-रंग उसको ऐसा चढ़ता है कि किसी भी तरफ से उसका मूल्य नहीं पड़ सकता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भेखी हाथ न लभई तीरथि नही दाने ॥ पूछउ बेद पड़ंतिआ मूठी विणु माने ॥ नानक कीमति सो करे पूरा गुरु गिआने ॥८॥६॥
मूलम्
भेखी हाथ न लभई तीरथि नही दाने ॥ पूछउ बेद पड़ंतिआ मूठी विणु माने ॥ नानक कीमति सो करे पूरा गुरु गिआने ॥८॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेख = भेस धारण करने से। हाथ = गहराई। तीरथि = तीर्थ पर (स्नान करने से)। दाने = दान से। पूछउ = मैं पूछता हूँ। मूठी = (सारी दुनिया) ठगी जा रही है। माने = माने। विणु माने = बिना माने, जब तक मन नहीं मानता। कीमति = कद्र।8।
अर्थ: पर उस नाम-रंग की गहराई बाहरी धार्मिक पहिरावों से नहीं पाई जा सकती, तीर्थ पर स्नान करने से दान-पून्य करने से नहीं मिलती। मैं बेद पढ़ने वालों से ये भेद पूछता हूँ (धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से नाम-रंग की गहराई की समझ नहीं पड़ती)। जब तक नाम-रंग में मन नहीं डूबता (मन नहीं भीगता तब तक सारी दुनिया ही माया-मोह में) ठगी जा रही है।
हे नानक! नाम-रंग की कद्र वही मनुष्य करता है जिसको पूरा गुरु मिलता है और (गुरु के माध्यम से परमात्मा के साथ) गहरी सांझ मिलती है।8।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ मनमुखु लहरि घरु तजि विगूचै अवरा के घर हेरै ॥ ग्रिह धरमु गवाए सतिगुरु न भेटै दुरमति घूमन घेरै ॥ दिसंतरु भवै पाठ पड़ि थाका त्रिसना होइ वधेरै ॥ काची पिंडी सबदु न चीनै उदरु भरै जैसे ढोरै ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ मनमुखु लहरि घरु तजि विगूचै अवरा के घर हेरै ॥ ग्रिह धरमु गवाए सतिगुरु न भेटै दुरमति घूमन घेरै ॥ दिसंतरु भवै पाठ पड़ि थाका त्रिसना होइ वधेरै ॥ काची पिंडी सबदु न चीनै उदरु भरै जैसे ढोरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = वह व्यक्ति जिसने अपना मुँह अपने मन की ओर किया हुआ है, अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति। लहरि = (त्याग की) लहर, (त्याग का) जोश। तजि = त्याग के। विगुचै = दुखी होता है। अवरा के = औरों के। हेरै = देखता है। ग्रिह धरमु = गृहस्थ का फर्ज। भेटै = मिलता है। घूमन घेरै = चक्रवात में (फस जाता है)। दिसंतरु = देश देश अंतर, और-और देश। पढ़ि = पढ़ के। त्रिसना = तृष्णा, माया की लालच। काची पिंडी = होछी मति देने वाला। उदरु = पेट। ढोर = पशू।1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘घरु’ और ‘घर’ में फर्क है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (त्याग के) जोश में अपना घर त्याग के (फिर रोटी आदि की खातिर) औरों के घर देखता फिरता है। गृहस्थ निभाने का फर्ज (मेहनत-कमाई करनी) छोड़ देता है (इस गलत त्याग से उसको) सतिगुरु (भी) नहीं मिलता, और अपनी दुर्मति के चक्रवात में (गोते खाता है)। (अपना घर छोड़ के) और-और देशों (का) रटन करता फिरता है, (धर्म-पुस्तकों के) पाठ पढ़-पढ़ के भी थक जाता है, (पर माया की) तृष्णा (खत्म होने की जगह बल्कि) बढ़ती जाती है। होछी मति वाला (मनमुख) गुरु के शब्द को नहीं विचारता, (और लोगों के घरों से बग़ैर काम काज वाले) पशुओं की तरह अपना पेट भरता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा ऐसी रवत रवै संनिआसी ॥ गुर कै सबदि एक लिव लागी तेरै नामि रते त्रिपतासी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा ऐसी रवत रवै संनिआसी ॥ गुर कै सबदि एक लिव लागी तेरै नामि रते त्रिपतासी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! रवत रवै = रहित रहे। सबदि = शब्द से। नामि = नाम में। रते = रंगे जा के। त्रिपतासी = तृप्त हो गया, माया की तृष्णा की ओर से तृप्ति।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! असल सन्यासी वह है जो ऐसा जीवन जीए कि गुरु के शब्द में जुड़ के उसकी लगन एक (तेरे चरणों) में लगी रहे। तेरे नाम-रंग में रंग के (माया की ओर से) उसे सदा तृप्ति रहेगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोली गेरू रंगु चड़ाइआ वसत्र भेख भेखारी ॥ कापड़ फारि बनाई खिंथा झोली माइआधारी ॥ घरि घरि मागै जगु परबोधै मनि अंधै पति हारी ॥ भरमि भुलाणा सबदु न चीनै जूऐ बाजी हारी ॥२॥
मूलम्
घोली गेरू रंगु चड़ाइआ वसत्र भेख भेखारी ॥ कापड़ फारि बनाई खिंथा झोली माइआधारी ॥ घरि घरि मागै जगु परबोधै मनि अंधै पति हारी ॥ भरमि भुलाणा सबदु न चीनै जूऐ बाजी हारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गेरू = गेरी। भेख = साधूओं वाले पहरावे। भेखारी = भिखारी। फारि = फाड़ के। खिंथा = गोदड़ी। माइआधारी = (अन्न आटा आदि) माया डालने के लिए झोली। परबोधै = उपदेश करता है। मनि = मन से। मनि अंधै = अंधे मन से, मन (माया के मोह में) अंधा होने के कारण। पति = इज्जत। हारी = गवा ली।2।
अर्थ: मनमुख बंदा गेरूआ घोलता है, उसका रंग (अपने कपड़ों पर) चढ़ाता है, धार्मिक पहरावे वाले कपड़े पहन के भिखारी बन जाता है। कपड़े फाड़ के (पहनने के लिए) गुदड़ी बनाता है, और (अन्न आटा आदि) माया डालने के लिए झोली (तैयार कर लेता है)। (खुद तो) हरेक घर में (जा के भिक्षा) माँगता है पर जगत को (सत-धर्म का, गृहस्थ मार्ग वाला) उपदेश करता है, अपना मन अंधा होने के कारण मनमुख अपनी इज्जत गवा लेता है। भटकना में (पड़ कर जीवन-राह से) विछुड़ा हुआ गुरु के शब्द को पहचानता नहीं (जैसे कोई जुआरी) जूए में बाज़ी हारता है (वैसे ही यह मनमुख अपनी मानव जनम की बाज़ी हार जाता है)।2।
[[1013]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि अगनि न गुर बिनु बूझै बाहरि पूअर तापै ॥ गुर सेवा बिनु भगति न होवी किउ करि चीनसि आपै ॥ निंदा करि करि नरक निवासी अंतरि आतम जापै ॥ अठसठि तीरथ भरमि विगूचहि किउ मलु धोपै पापै ॥३॥
मूलम्
अंतरि अगनि न गुर बिनु बूझै बाहरि पूअर तापै ॥ गुर सेवा बिनु भगति न होवी किउ करि चीनसि आपै ॥ निंदा करि करि नरक निवासी अंतरि आतम जापै ॥ अठसठि तीरथ भरमि विगूचहि किउ मलु धोपै पापै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न बूझै = नहीं समझती। पूअर = धूणियाँ। तापै = तपाता है, जलाता है। चीनसि = पहचाने। आपै = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। अंतरि आतम = अपने आप के अंदर। जापै = (उसको) सूझता है, दिखाई देता है। अठसठि = अढ़सठ। विगूचहि = दुखी होते हैं। पापै = पाप की।3।
अर्थ: (अपनी ओर से त्यागी बने हुए मनमुख के) मन में तृष्णा की (जलती) आग गुरु के बिना बुझती नहीं, पर बाहर धूणियाँ तपाता है। गुरु की बताई हुई सेवा किए बिना परमात्मा की भक्ति हो नहीं सकती (यह मनमुख) अपने आत्मिक जीवन को कैसे पहचाने? वैसे अंतरात्मे इसको समझ आ जाती है कि (किरती गृहस्तियों की) निंदा कर करके नरकी जीवन व्यतीत कर रहा है। अढ़सठ तीर्थों पर भटक के भी (मनमुख त्यागी) दुखी होते हैं, (तीर्थों पर जाने से) पापों की मैल कैसे धुल सकती है?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छाणी खाकु बिभूत चड़ाई माइआ का मगु जोहै ॥ अंतरि बाहरि एकु न जाणै साचु कहे ते छोहै ॥ पाठु पड़ै मुखि झूठो बोलै निगुरे की मति ओहै ॥ नामु न जपई किउ सुखु पावै बिनु नावै किउ सोहै ॥४॥
मूलम्
छाणी खाकु बिभूत चड़ाई माइआ का मगु जोहै ॥ अंतरि बाहरि एकु न जाणै साचु कहे ते छोहै ॥ पाठु पड़ै मुखि झूठो बोलै निगुरे की मति ओहै ॥ नामु न जपई किउ सुखु पावै बिनु नावै किउ सोहै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिभूत = राख। चढ़ाई = (शरीर पर) मल ली। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। छोहै = खिझता है। झूठो = झूठ ही। ओहै = वह पहली ही। जपई = जपता है। सोहै = शोभा देता है।4।
अर्थ: (लोक दिखावे के लिए) राख छानता है और वह राख अपने शरीर पर मल लेता है, पर (अंतरात्मे) माया का रास्ता देखता रहता है (कि कोई गृहस्थी दानी आ के माया भेट करे)। (बाहर से और व अंदर से और होने के कारण) अपने अंदर और बाहर जगत में एक परमात्मा को (व्यापक) नहीं समझ सकता, (अगर) ये सच्चा वाक्य उसको कहें तो वह खीझता है। (धर्म-पुस्तकों का) पाठ पढ़ता (तो) है पर मुँह से झूठ ही बोलता है, गुरु हीन होने के कारण उसकी मति उस पहले जैसी ही रहती है (भाव, बाहरी तौर पर त्याग करने से उसके आत्मिक जीवन में कोई बदलाव नहीं पड़ता)। जब तक परमात्मा का नाम नहीं जपता तब तक आत्मिक आनंद नहीं मिलता, प्रभु-नाम के बिना जीवन सुचज्जा (सदाचारी) नहीं बन सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूंडु मुडाइ जटा सिख बाधी मोनि रहै अभिमाना ॥ मनूआ डोलै दह दिस धावै बिनु रत आतम गिआना ॥ अम्रितु छोडि महा बिखु पीवै माइआ का देवाना ॥ किरतु न मिटई हुकमु न बूझै पसूआ माहि समाना ॥५॥
मूलम्
मूंडु मुडाइ जटा सिख बाधी मोनि रहै अभिमाना ॥ मनूआ डोलै दह दिस धावै बिनु रत आतम गिआना ॥ अम्रितु छोडि महा बिखु पीवै माइआ का देवाना ॥ किरतु न मिटई हुकमु न बूझै पसूआ माहि समाना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूंडु = सिर। मुडाई = मुना के। सिख = शिखा, चोटी। मोनि रहै = चुप धार के रखता है। दह = दस। दिस = दिशाएं। धावै = दौड़ता है, भटकता है। रत = रंगा हुआ। बिख = जहर (जो आत्मिक मौत लाता है)। देवाना = पागल, आशिक। किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह।5।
अर्थ: कोई सिर मुनवा लेता है, कोई जटाओं का जूड़ा बना लेता है, और मौन धार के बैठ जाता है (इन सारे भेषों का) घमण्ड (भी करता है)। पर आत्मिक तौर पर प्रभु के साथ गहरी सांझ के रंग में रंगे जाने के बिना उसका मन डोलता रहता है, और (माया की तृष्णा में ही) दसों-दिशाओं में दौड़ता-फिरता है। (अंतरात्मे) माया का प्रेमी (होने के कारण) परमात्मा का नाम-अमृत छोड़ देता है और (तृष्णा का वह) जहर पीता रहता है (जो इसके आत्मिक जीवन को मार डालता है)। (पर, इस मनमुख के भी क्या वश?) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह (अंदर से) समाप्त नहीं होता, (उन संस्कारों के असर तले जीव) परमात्मा की रजा को नहीं समझ सकता, (इस तरह, त्यागी बन के भी) पशु-स्वभाव में टिका रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाथ कमंडलु कापड़ीआ मनि त्रिसना उपजी भारी ॥ इसत्री तजि करि कामि विआपिआ चितु लाइआ पर नारी ॥ सिख करे करि सबदु न चीनै ल्मपटु है बाजारी ॥ अंतरि बिखु बाहरि निभराती ता जमु करे खुआरी ॥६॥
मूलम्
हाथ कमंडलु कापड़ीआ मनि त्रिसना उपजी भारी ॥ इसत्री तजि करि कामि विआपिआ चितु लाइआ पर नारी ॥ सिख करे करि सबदु न चीनै ल्मपटु है बाजारी ॥ अंतरि बिखु बाहरि निभराती ता जमु करे खुआरी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हथि = हाथ में। कमंडलु = चिप्पी। कापड़ीआ = कपड़े की लीरों का चोला पहनने वाला साधु। मनि = मन में। तजि = छोड़ के। कामि = काम-वासना तहित। विआपिआ = प्रभावित हो गया। सिख = (अनेक) सेवक। लंपटु = (माया में, विकार में) खचित। बाजारी = मसखरा। निभराती = भटकना का अभाव, शांति। खुआरी = दुर्गती।6।
अर्थ: (मनमुख मनुष्य त्यागी बन के) हाथ में कमण्डल पकड़ लेता है, कपड़े की लीरों का चोला पहन लेता है, पर मन में माया की भारी तृष्णा पैदा हुई रहती है (अपनी ओर से त्यागी बन के) अपनी स्त्री छोड़ के आए को काम-वासना ने आ दबाया, तो पराई नारि के साथ चिक्त जोड़ता है। चेले बनाता है, गुरु के शब्द को नहीं पहचानता, काम-वासना में ग्रसा हुआ है, और (इस तरह सन्यासी बनने की जगह लोगों की नजरों में) मसखरा बना हुआ है। (मनमुख के) अंदर (आत्मिक मौत लाने वाली तृष्णा का) जहर है, बाहर (लोगों को दिखाने के लिए) शांति धारण की हुई है। (ऐसे पाखण्डी को) आत्मिक मौत दुखी करती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो संनिआसी जो सतिगुर सेवै विचहु आपु गवाए ॥ छादन भोजन की आस न करई अचिंतु मिलै सो पाए ॥ बकै न बोलै खिमा धनु संग्रहै तामसु नामि जलाए ॥ धनु गिरही संनिआसी जोगी जि हरि चरणी चितु लाए ॥७॥
मूलम्
सो संनिआसी जो सतिगुर सेवै विचहु आपु गवाए ॥ छादन भोजन की आस न करई अचिंतु मिलै सो पाए ॥ बकै न बोलै खिमा धनु संग्रहै तामसु नामि जलाए ॥ धनु गिरही संनिआसी जोगी जि हरि चरणी चितु लाए ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। छादन = कपड़ा। अचिंतु = सहज सुभाय, चिन्ता किए बिना। खिमा = दूसरों की ज्यादती सहने का स्वभाव। संग्रहै = इकट्ठा करता है। तामसु = तमो गुण, क्रोध। नामि = नाम से। धनु = भाग्यशाली। गिरही = गृहस्थी।7।
अर्थ: असल सन्यासी वह है जो गुरु की बताई हुई सेवा करता है और अपने अंदर से सवै-भाव दूर करता है, (लोगों से) कपड़े और भोजन की आस बनाए नहीं रखता, सहज सुभाय जो मिल जाता है वह ले लेता है, बहुत कम व ज्यादा बोल नहीं बोलता रहता, दूसरों की ज्यादती को सहने के स्वभाव रूप धन अपने अंदर संचित करता है, प्रभु के नाम की इनायत से अंदर से क्रोध को जला देता है।
जो मनुष्य सदा परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है, वह भाग्यशाली है, (फिर) चाहे वह गृहस्थी है चाहे सन्यासी है चाहे जोगी है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस निरास रहै संनिआसी एकसु सिउ लिव लाए ॥ हरि रसु पीवै ता साति आवै निज घरि ताड़ी लाए ॥ मनूआ न डोलै गुरमुखि बूझै धावतु वरजि रहाए ॥ ग्रिहु सरीरु गुरमती खोजे नामु पदारथु पाए ॥८॥
मूलम्
आस निरास रहै संनिआसी एकसु सिउ लिव लाए ॥ हरि रसु पीवै ता साति आवै निज घरि ताड़ी लाए ॥ मनूआ न डोलै गुरमुखि बूझै धावतु वरजि रहाए ॥ ग्रिहु सरीरु गुरमती खोजे नामु पदारथु पाए ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकसु सिउ = सिर्फ एक (परमात्मा) से। लिव = लगन। निज घरि = अपने घर में, उस घर में जो सदा अपना है। वरजि = रोक के। रहाए = रखे। ग्रिहु = घर। पदारथु = संपत्ति।8।
अर्थ: असल सन्यासी वह है जो मायावी आशाओं की तरफ से निराश रहता है और एक परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है। जब मनुष्य परमात्मा का नाम-रस पीता है और अंतरात्मे प्रभु-चरणों में जुड़ता है तब इसके अंदर शांति पैदा होती है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (सही जीवन-राह) समझता है उसका मन माया की तृष्णा में डोलता नहीं, माया के पीछे दौड़ते मन को वह रोक के रखता है; गुरु की शिक्षा ले के (जंगलों में तलाशने की बजाय) शरीर-घर में खोजता है और परमात्मा का नाम-पूंजी को प्राप्त कर लेता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु महेसु सरेसट नामि रते वीचारी ॥ खाणी बाणी गगन पताली जंता जोति तुमारी ॥ सभि सुख मुकति नाम धुनि बाणी सचु नामु उर धारी ॥ नाम बिना नही छूटसि नानक साची तरु तू तारी ॥९॥७॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु महेसु सरेसट नामि रते वीचारी ॥ खाणी बाणी गगन पताली जंता जोति तुमारी ॥ सभि सुख मुकति नाम धुनि बाणी सचु नामु उर धारी ॥ नाम बिना नही छूटसि नानक साची तरु तू तारी ॥९॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महेसु = शिव। सरेसट = श्रेष्ठ, सबसे उत्तम। नामि रते = परमात्मा के नाम में रंगे हुए। वीचारी = विचारवान। खाणी = जगत उत्पक्ति की चार खानें = अंडज, जेरज, सेतज और उत्भुज (1. अंडज = अण्डों से पैदा होने वाले जीव पंक्षी आदि; 2. जेरज = ज्योर से पैदा होने, पशु मनुष्य। 3. सेतज = पसीने से और धरती की हुमस से पैदा होने वाला, जूएँ, आदि। 4.उत्भुज = धरती से पैदा होने वाले वृक्ष आदि)। बाणी = बोली, सब देशों के जीवों की अलग अलग बोलियाँ।
गगन = आकाश। पताली = पातालों में। सभि = सारे। मुकति = माया के बंधनो से मुक्ति। नाम धुनि = नाम की लहर। बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी। उर धारी = हृदय में टिका। उर = हृदय। नही छूटसि = मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। साची तारी = वह तैरना जो सदा स्थिर रहे, ऐसा तैरना जिसमें डूबने का खतरा ना रहे।9।
अर्थ: ब्रहमा हो, विष्णू हो, शिव हो, वही सबसे श्रेष्ठ हैं जो प्रभु के नाम में रंगे गए और (इस तरह) सुंदर विचारों के मालिक बन गए। हे प्रभु! (भले ही) चारों खाणियों के जीवों में और उनकी बोलियों में, पाताल-आकाश में सब जीवों के अंदर तेरी ही ज्योति है, पर जिन्होंने तेरे सदा-स्थिर नाम को अपने हृदय में टिकाया है जिनके अंदर तेरे नाम की लहर जारी है जिनकी तवज्जो तेरी महिमा की वाणी में है उन्हें ही सारे सुख हैं उनको ही माया के बंधनो से मुक्ति मिलती है।
हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना कोई भी जीव माया के मोह से नहीं बच सकता, तू भी यही तैराकी तैर जिससे कभी डूबने का खतरा ना रहेगा।9।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ मात पिता संजोगि उपाए रकतु बिंदु मिलि पिंडु करे ॥ अंतरि गरभ उरधि लिव लागी सो प्रभु सारे दाति करे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ मात पिता संजोगि उपाए रकतु बिंदु मिलि पिंडु करे ॥ अंतरि गरभ उरधि लिव लागी सो प्रभु सारे दाति करे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजोगि = संयोग से, मेल द्वारा। रकतु = लहू। बिंदु = वीर्य। पिंडु = शरीर। करे = बनाता है। अंतरि गरभ = माँ के पेट में। उरधि = उल्टा। सारे = संभाल करता है।1।
अर्थ: माता और पिता के (शारीरिक) संयोग के द्वारा परमात्मा जीव पैदा करता है, माँ का लहू और पिता का वीर्य मिलने पर परमात्मा (जीव का) शरीर बनाता है। माँ के पेट में उल्टे पड़े हुए की लगन प्रभु-चरणों में लगी रहती है। वह परमात्मा इसकी हर तरह संभाल करता है (और आवश्यक्ता अनुसार पदार्थ) देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसारु भवजलु किउ तरै ॥ गुरमुखि नामु निरंजनु पाईऐ अफरिओ भारु अफारु टरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संसारु भवजलु किउ तरै ॥ गुरमुखि नामु निरंजनु पाईऐ अफरिओ भारु अफारु टरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवजलु = समुंदर। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। निरंजनु = (निर+अंजन) जिस पर माया की कालिख असर नहीं कर सकती। अफरिओ भारु = अहंकारे हुए के पापों का भार। अफारु = असहि। टरै = टल जाता है, दूर हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: (परमात्मा के नाम के बिना) संसारी जीव संसार-समुंदर से किसी भी हालत में पार नहीं लांघ सकता क्योंकि जीव माया आदि के अहंकार के कारण आफरा रहता है। परमात्मा का नाम, जिस पर माया की कालिख का प्रभाव नहीं पड़ सकता, गुरु की शरण पड़ने पर मिलता है, (जिस मनुष्य को नाम प्राप्त होता है) उसका (अहंकार आदि का) असहि भार दूर हो जाता है (यह अहंकार आदि ही भार बन के जीव को संसार समुंदर में डुबा देता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते गुण विसरि गए अपराधी मै बउरा किआ करउ हरे ॥ तू दाता दइआलु सभै सिरि अहिनिसि दाति समारि करे ॥२॥
मूलम्
ते गुण विसरि गए अपराधी मै बउरा किआ करउ हरे ॥ तू दाता दइआलु सभै सिरि अहिनिसि दाति समारि करे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बउरा = कमला, झल्ला। हरे = हे हरि! सभै सिरि = हरेक जीव के सिर पर। अहि = दिन। निसि = रात। समारि = संभाल कर के।2।
अर्थ: हे हरि! मुझ गुनाहगार को तेरे वह उपकार भूल गए हैं, मैं (माया के मोह में) झल्ला हुआ पड़ा हूँ (तेरा स्मरण करने से) बेबस हूँ। पर तू दया का श्रोत है, हरेक जीव के सिर पर (रखवाला) है, और सबको दातें देता है।
(हे भाई!) दयालु प्रभु दिन-रात (जीवों की) संभाल करता है और दातें देता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पदारथ लै जगि जनमिआ सिव सकती घरि वासु धरे ॥ लागी भूख माइआ मगु जोहै मुकति पदारथु मोहि खरे ॥३॥
मूलम्
चारि पदारथ लै जगि जनमिआ सिव सकती घरि वासु धरे ॥ लागी भूख माइआ मगु जोहै मुकति पदारथु मोहि खरे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि पदारथ = (1. धरम = शुभ कर्म। 2. अर्थ = पदार्थ। 3. काम = कामना, इच्छा। 4. मोक्ष = मुक्ति)। लै = ले के। जगि = जगत में। सिव सकती घरि = परमात्मा की रची माया के घर में। भूख = लालच। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। मोहि = माया के मोह में। खरे = लाया जाता है, गायब हो जाता है।3।
अर्थ: (जीव परमात्मा से) चारों ही पदार्थ ले के जगत में पैदा हुआ है (फिर भी प्रभु की बख्शिश भुला के सदा) परमात्मा की पैदा की हुई माया के घर में निवास रखता है। सदा इसको माया की भूख ही चिपकी रहती है, सदा माया की राह ही देखता रहता है, माया के मोह में (फंस के चारों पदार्थों में से) मुक्ति पदार्थ गवा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करण पलाव करे नही पावै इत उत ढूढत थाकि परे ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विआपे कूड़ कुट्मब सिउ प्रीति करे ॥४॥
मूलम्
करण पलाव करे नही पावै इत उत ढूढत थाकि परे ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विआपे कूड़ कुट्मब सिउ प्रीति करे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करण पलाह = (करुणाप्रलाप) तरस पैदा करने वाला विलाप, दुहाई, विरलाप, तरले। इत उत = इधर उधर, हर तरफ। कामि = काम में। विआपे = दबाया हुआ।4।
अर्थ: (सारी उम्र जीव माया की खातिर ही) विरलाप करता रहता है (मन की तसल्ली योग्य माया) प्राप्त नहीं होती, हर तरफ माया की तलाश करता-करता थक जाता है। काम में, क्रोध में, अहंकार में दबा हुआ जीव सदा नाशवान पदार्थों के साथ ही प्रीति करता है, सदा अपने परिवार के साथ ही मोह जोड़ के रखता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खावै भोगै सुणि सुणि देखै पहिरि दिखावै काल घरे ॥ बिनु गुर सबद न आपु पछाणै बिनु हरि नाम न कालु टरे ॥५॥
मूलम्
खावै भोगै सुणि सुणि देखै पहिरि दिखावै काल घरे ॥ बिनु गुर सबद न आपु पछाणै बिनु हरि नाम न कालु टरे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कालु घरे = काल के घर में। आपु = अपने आप को। टरे = टालता।5।
अर्थ: (दुनिया के अच्छे-अच्छे पदार्थ) खाता है (विषौ) भोगता है, (शोभा-निंदा आदि के वचन) बार-बार सुनता है, (दुनिया के रंग-तमाशे) देखता है, (सुंदर-सुंदर कपड़े आदि) पहन के (लोगों को) दिखाता है; (बस! इन्हीं व्यस्तताओं में मस्त हो के) आत्मिक मौत के घर में टिका रहता है (आत्मिक मौत सहेड़ के रखता है)। गुरु के शब्द से टूटा हुआ अपने आत्मिक जीवन को पहचान नहीं सकता। परमात्मा के नाम से टूटा हुआ होने के कारण आत्मिक मौत (इसके सिर से) नहीं टलती।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेता मोहु हउमै करि भूले मेरी मेरी करते छीनि खरे ॥ तनु धनु बिनसै सहसै सहसा फिरि पछुतावै मुखि धूरि परे ॥६॥
मूलम्
जेता मोहु हउमै करि भूले मेरी मेरी करते छीनि खरे ॥ तनु धनु बिनसै सहसै सहसा फिरि पछुतावै मुखि धूरि परे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छीनि खरे = क्षीण होता जाता है। सहसै सहसा = सहम ही सहम। मुखि = मुँह पर। धूरि = मिट्टी, राख, फिटकार।6।
अर्थ: जितना ही मोह और अहंकार के कारण जीव सही जीवन-राह से भूलता जाता है, जितना ज्यादा ‘मेरी मेरी’ (माया) करता है, उतना ही ज्यादा अहंकार और ममता इसके आत्मिक जीवन को छीन के लेते जाते हैं। आखिर में ये शरीर और ये धन, (जिनकी खातिर हर वक्त सहम में रहता था,) नाश हो जाते हैं। तब जीव पछताता है, (पर उस वक्त पछताने से कुछ नहीं बनता) इसके मुँह पर धिक्कारें ही पड़ती हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरधि भइआ जोबनु तनु खिसिआ कफु कंठु बिरूधो नैनहु नीरु ढरे ॥ चरण रहे कर क्मपण लागे साकत रामु न रिदै हरे ॥७॥
मूलम्
बिरधि भइआ जोबनु तनु खिसिआ कफु कंठु बिरूधो नैनहु नीरु ढरे ॥ चरण रहे कर क्मपण लागे साकत रामु न रिदै हरे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरधि = वृद्ध, बुड्ढा। खिसिआ = खिसका, कम हो गया। कछु = बलगम। कंठु = गला। बिरूधो = रुक गया। नैनहु = आँखों से। ढरे = ढलता है, बहता है। कर = हाथ।7।
अर्थ: मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, जवानी खिसक जाती है शरीर कमजोर हो जाता है, गला बलगम से रुका रहता है, आँखों से पानी बहता रहता है, पैर (चलने से) रह जाते हैं, हाथ काँपने लग जाते हैं, (फिर भी) माया-ग्रसित जीव के हृदय में हरि परमात्मा (का नाम) नहीं (बसता)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरति गई काली हू धउले किसै न भावै रखिओ घरे ॥ बिसरत नाम ऐसे दोख लागहि जमु मारि समारे नरकि खरे ॥८॥
मूलम्
सुरति गई काली हू धउले किसै न भावै रखिओ घरे ॥ बिसरत नाम ऐसे दोख लागहि जमु मारि समारे नरकि खरे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काली हू = काले (केसों) से। न भावै = अच्छा नहीं लगता। मारि = मार के। नरकि = नर्क में। खरे = ले जाता है।8।
अर्थ: (वृद्ध हो जाने पर) अकल ठिकाने नहीं रहती, केश काले और सफेद हो जाते हैं, घर में रखा हुआ किसी को अच्छा नहीं लगता (फिर भी परमात्मा के नाम को भुलाए रखता है) परमात्मा का नाम बिसार के रखने के कारण ऐसी बुराईयाँ इससे चिपकी रहती हैं जिनके कारण जमराज इसको मार के नर्क में ले जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरब जनम को लेखु न मिटई जनमि मरै का कउ दोसु धरे ॥ बिनु गुर बादि जीवणु होरु मरणा बिनु गुर सबदै जनमु जरे ॥९॥
मूलम्
पूरब जनम को लेखु न मिटई जनमि मरै का कउ दोसु धरे ॥ बिनु गुर बादि जीवणु होरु मरणा बिनु गुर सबदै जनमु जरे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। का कउ = किसको? बादि = व्यर्थ।9।
अर्थ: (पर जीव के भी वश की बात नहीं) पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के संस्कारों का लेखा मिटता नहीं (जितना समय वह लेखा मौजूद है, उनके प्रभाव तले कुकर्म कर करके) जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। जीव बेचारा और किस को दोष दे? (दरअसल, बात ये है कि) गुरु की शरण पड़े बिना जिन्दगी व्यर्थ जाती है (विकारों में पड़ कर मनुष्य) और आत्मिक मौत सहेड़ता जाता है। गुरु शब्द से टूटने के कारण जिंदगी (विकारों में) जल जाती है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खुसी खुआर भए रस भोगण फोकट करम विकार करे ॥ नामु बिसारि लोभि मूलु खोइओ सिरि धरम राइ का डंडु परे ॥१०॥
मूलम्
खुसी खुआर भए रस भोगण फोकट करम विकार करे ॥ नामु बिसारि लोभि मूलु खोइओ सिरि धरम राइ का डंडु परे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फोकट = व्यर्थ, फोके। लोभि = लोभ में (पड़ कर)। सिरि = सिर पर। डंडु = डंडा।10।
अर्थ: जीव दुनियां की खुशियाँ लेने में, रस भोगने में, और फोके व बुरे कर्म करने में पड़ कर दुखी होता है। परमात्मा का नाम भुला के, लोभ में फंस के मूल भी गवा लेता है, आखिर इसके सिर पर धर्मराज का डण्डा पड़ता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि राम नाम गुण गावहि जा कउ हरि प्रभु नदरि करे ॥ ते निरमल पुरख अपर्मपर पूरे ते जग महि गुर गोविंद हरे ॥११॥
मूलम्
गुरमुखि राम नाम गुण गावहि जा कउ हरि प्रभु नदरि करे ॥ ते निरमल पुरख अपर्मपर पूरे ते जग महि गुर गोविंद हरे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस पर। ते = वह लोग। निरमल = पवित्र।11।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम के गुण गाते हैं। जिस पर हरि-प्रभु मेहर की निगाह करता है वह जगत में हरि-गोबिंद बेअंत पूरन सर्व-व्यापक प्रभु को स्मरण करके पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि सिमरहु गुर बचन समारहु संगति हरि जन भाउ करे ॥ हरि जन गुरु परधानु दुआरै नानक तिन जन की रेणु हरे ॥१२॥८॥
मूलम्
हरि सिमरहु गुर बचन समारहु संगति हरि जन भाउ करे ॥ हरि जन गुरु परधानु दुआरै नानक तिन जन की रेणु हरे ॥१२॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समारहु = याद रखो। भाउ = प्रेम। करे = कर के। रेणु = चरण धूल।12।
अर्थ: हे भाई! संत जनों की संगति में प्रेम जोड़ के परमात्मा का नाम स्मरण करो, गुरु के वचन (हृदय में) संभाल के रखो। परमात्मा के दर पर गुरु (का वचन) ही आदर पाता है, संत जनों की संगति ही स्वीकार पड़ती है।
हे नानक! (अरदास कर-) हे हरि! (मुझे) उन संत जनों की चरण-धूल दे।12।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मारू काफी महला १ घरु २ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मारू काफी महला १ घरु २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवउ वंञउ डुमणी किती मित्र करेउ ॥ सा धन ढोई न लहै वाढी किउ धीरेउ ॥१॥
मूलम्
आवउ वंञउ डुमणी किती मित्र करेउ ॥ सा धन ढोई न लहै वाढी किउ धीरेउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवउ = मैं आती हूँ। वंञउ = वंजउ, मैं जाती हूँ। डुंमणी = (दु+मनी) दोचिक्ती हो के। किती = कितने ही। करेउ = मैं बनाती हूँ। साधन = जीव-स्त्री। ढोई = आसरा। न लहै = नहीं ले सकती। वाढी = परदेसण, बिछुड़ी हुई। किउ धीरेउ = मैं कैसे धीरज हासिल कर सकती हूँ?।1।
अर्थ: (हे प्रीतम प्रभु! तुझसे विछुड़ के) मैं (दुविधा और) दु-चिक्ती में (डावाँडोल) होई हुई (जन्मों के चक्कर में) भटकती फिरती हूँ (दिलासा धरने के लिए) मैं अनेक मित्र बनाती हूँ, पर जब तक तुझसे विछुड़ी हुई हूँ, मुझे धरवास कैसे आए? (तुझसे विछुड़ी हुई) जीव-स्त्री (किसी और जगह) आसरा पा ही नहीं सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैडा मनु रता आपनड़े पिर नालि ॥ हउ घोलि घुमाई खंनीऐ कीती हिक भोरी नदरि निहालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मैडा मनु रता आपनड़े पिर नालि ॥ हउ घोलि घुमाई खंनीऐ कीती हिक भोरी नदरि निहालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मैडा = मेरा। रता = रंगा हुआ है। पिर = पति। हउ = मैं। घोलि घुमाई = बलिहार जाती हूँ। खंनीऐ कीती = टुकड़े टुकड़े होती हूँ। हिक = एक। भोरी = रक्ती सा समय। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = (मेरी ओर) देख।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रीतम प्रभु!) मैं तुझसे वारने जाती हूँ, कुर्बान जाती हूँ। रक्ती भर भी समय ही (मेरी ओर) मेहर की नजर से देख, ता कि मेरा मन (तुझ) अपने प्यारे पति के साथ रंगा जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेईअड़ै डोहागणी साहुरड़ै किउ जाउ ॥ मै गलि अउगण मुठड़ी बिनु पिर झूरि मराउ ॥२॥
मूलम्
पेईअड़ै डोहागणी साहुरड़ै किउ जाउ ॥ मै गलि अउगण मुठड़ी बिनु पिर झूरि मराउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेईअड़ै = पेके घर में, इस जनम में। डोहागणी = दुहागनि, बुरे भाग्यों वाली, विछड़ हुई। साहुरड़ै = साहुरे घर में, परमात्मा के देस में, प्रभु के चरणों में। किउ जाउ = मैं कैसे पहुँच सकती हूँ? गलि = गले में, गले तक। मुठड़ी = मैं ठगी गई हूँ। झूरि मराउ = झुर झुर के मरती हूँ, दुखी होती हूँ और आत्मिक मौत सहेड़ती हूँ।2।
अर्थ: (इस संसार) पेके घर में मैं (सारी उम्र) प्रभु-पति से विछुड़ी रही हूँ, मैं पति-प्रभु के देश में कैसे पहुँच सकती हूँ? (प्रभु से विछोड़े के कारण) अवगुण मेरे गले तक पहुँच गए हैं, (सारी उम्र) मुझे अवगुणों ने ठग के रखा है। पति-प्रभु के मिलाप से वंचित रह के मैं अंदर-अंदर से दुखी भी हो रही हूँ, और आत्मिक मौत भी मैंने सहेड़ ली है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेईअड़ै पिरु समला साहुरड़ै घरि वासु ॥ सुखि सवंधि सोहागणी पिरु पाइआ गुणतासु ॥३॥
मूलम्
पेईअड़ै पिरु समला साहुरड़ै घरि वासु ॥ सुखि सवंधि सोहागणी पिरु पाइआ गुणतासु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संमला = (अगर) मैं (हृदय में) संभाल लूँ। घरि = पति प्रभु के घर में। सुखि = सुख से। सवंधि = सोते हैं, शांत चिक्त रहती हैं। सोहागणी = अच्छे भाग्यों वालियां। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु।3।
अर्थ: यदि मैं (इस संसार) पेके घर में पति-प्रभु को (अपने हृदय में) संभाल के रखूँ तो पति-प्रभु के देश में मुझे उसके चरणों में जगह मिल जाए। वह भाग्यशाली (जीवन-रात) सुख से सो के गुजारती हैं जिन्होंने (पेके घर में) गुणों के खजाना पति-प्रभु को पा लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लेफु निहाली पट की कापड़ु अंगि बणाइ ॥ पिरु मुती डोहागणी तिन डुखी रैणि विहाइ ॥४॥
मूलम्
लेफु निहाली पट की कापड़ु अंगि बणाइ ॥ पिरु मुती डोहागणी तिन डुखी रैणि विहाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहाली = तुलाई। कापड़ु = (पट का ही) कपड़ा। अंगि = शरीर पर (पहनती हैं)। मुती = छोड़ी हुई, त्यागी हुई। डुखी = दुखों में। रैणि = (जिंदगी की) रात। विहाइ = बीतती है।4।
अर्थ: जिस दुर्भाग्यपूर्ण (स्त्रीयों) ने पति को भुला दिया और जो त्याग हो गई, वे अगर रेशम का लेफ लें, रेशम की तुलाई लें, और कपड़ा भी रेशम का बना के ही शरीर पर प्रयोग करें, तब भी उनकी जीवन-रात दुखों में ही बीतती है।4।
[[1015]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
किती चखउ साडड़े किती वेस करेउ ॥ पिर बिनु जोबनु बादि गइअमु वाढी झूरेदी झूरेउ ॥५॥
मूलम्
किती चखउ साडड़े किती वेस करेउ ॥ पिर बिनु जोबनु बादि गइअमु वाढी झूरेदी झूरेउ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किती = कितने ही। चखउ = मैं चखूँ। साडड़े = स्वादिष्ट पदार्थ। वेस = पहिरावे। करेउ = मैं करूँ। जोबनु = जवानी। बादि = व्यर्थ। गइअमु = मेरा (जोबन) गया। वाढी = त्यागी हुई।5।
अर्थ: अगर मैं अनेक ही स्वादिष्ट खाने खाती रहूँ, अनेक ही सुंदर पहरावे पहनती रहूँ, फिर भी पति-प्रभु से विछुड़ के मेरी जवानी व्यर्थ ही जा रही है। जब तक मैं त्यागी हुई हूँ, मैं (सारी उम्र) झुर-झुर के ही दिन काटूँगी।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचे संदा सदड़ा सुणीऐ गुर वीचारि ॥ सचे सचा बैहणा नदरी नदरि पिआरि ॥६॥
मूलम्
सचे संदा सदड़ा सुणीऐ गुर वीचारि ॥ सचे सचा बैहणा नदरी नदरि पिआरि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संदा = का। सचे संदा = सदा स्थिर पति प्रभु का। सदड़ा = प्यार भरा संदेशा। गुर वीचारि = गुरु की वाणी की विचार से। बैहणा = संगति, संग। सचे सचा बैहणा = सदा स्थिर प्रभु का सदा-स्थिर साथ। नदरी नदरि = मेहर की नजर करने वाली की निगाह से। पिआरि = प्यार में।6।
अर्थ: अगर सदा-स्थिर प्रभु का प्यार-संदेशा सतिगुरु की वाणी की विचार के माध्यम से सुनें, तो उस सदा-स्थिर प्रभु-पति का सदा के लिए साथ मिल जाता है, उस मेहर की नजर वाला प्रभु मेहर की नजर से देखता है, और उसके प्यार में लीन हो जाया जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआनी अंजनु सच का डेखै डेखणहारु ॥ गुरमुखि बूझै जाणीऐ हउमै गरबु निवारि ॥७॥
मूलम्
गिआनी अंजनु सच का डेखै डेखणहारु ॥ गुरमुखि बूझै जाणीऐ हउमै गरबु निवारि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनी = परमात्मा के साथ सांझ डालने वाला व्यक्ति। अंजनु = सुरमा। सच का = सदा स्थिर प्रभु के नाम का। डेखणहारु = वह परमात्मा जो सब जीवों की संभाल करने के समर्थ है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। बूझै = समझता है। जाणीऐ = आदर पाता है। गरबु = अहंकार। निवारि = दूर कर के।7।
अर्थ: परमात्मा से जान-पहचान डालने वाला सदा-स्थिर प्रभु के नाम का सुरमा प्रयोग करता है, और वह (उस) प्रभु का दीदार कर लेता है जो सब जीवों की संभाल करने के समर्थ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (इस भेद को) समझ लेता है वह हउमै-अहंकार दूर करके (उसकी हजूरी में) आदर पाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ भावनि तउ जेहीआ मू जेहीआ कितीआह ॥ नानक नाहु न वीछुड़ै तिन सचै रतड़ीआह ॥८॥१॥९॥
मूलम्
तउ भावनि तउ जेहीआ मू जेहीआ कितीआह ॥ नानक नाहु न वीछुड़ै तिन सचै रतड़ीआह ॥८॥१॥९॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये अष्टपदी राग मारू और राग काफी को मिला के गानी है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तउ = तुझे। भावनि = जो पसंद आ जाती हैं। जेहीआ = जैसी। मू जेहीआ = मेरे जैसी। कितीआह = अनेक ही। नाहु = नाथ, पति प्रभु। तिन = उनसे। सचै = सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: हे पति-प्रभु! जो जीव-सि्त्रयाँ तुझे अच्छी लगती हैं, वह तेरे जैसी हो जाती हैं, (पर तेरी मेहर की निगाह से वंचित हुई) मेरे जैसी भी अनेक ही हैं।
हे नानक! जो जीव-सि्त्रयाँ सदा-स्थिर प्रभु के प्यार में रंगी रहती हैं, उनके (हृदय) से पति-प्रभु कभी नहीं विछुड़ता।8।1।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पहली 8 अष्टपदियाँ घरु १ की हैं। यहाँ से ‘घरु २’ की आरम्भ होती हैं। ‘घरु २’ की यह पहली अष्टपदी है। कुल जोड़ 9 है। देखें आखिरी अंक।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ ना भैणा भरजाईआ ना से ससुड़ीआह ॥ सचा साकु न तुटई गुरु मेले सहीआह ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ ना भैणा भरजाईआ ना से ससुड़ीआह ॥ सचा साकु न तुटई गुरु मेले सहीआह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससुड़ीआह = प्यारी सासें। से = वह। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सहीआह = सहेलियां, सत्संगी।1।
अर्थ: गुरु (सत्संगी-) सहेलियों के साथ मिलाता है (सत्संगियों वाला) सदा स्थिर रहने वाला साक कभी नहीं टूटता। ना बहिनें, ना भौजाईयाँ, ना सासें - किसी का भी वैसा साक नहीं जो (सत्संगी) सहेलियों का है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिहारी गुर आपणे सद बलिहारै जाउ ॥ गुर बिनु एता भवि थकी गुरि पिरु मेलिमु दितमु मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बलिहारी गुर आपणे सद बलिहारै जाउ ॥ गुर बिनु एता भवि थकी गुरि पिरु मेलिमु दितमु मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारी = सदके। सद = सदा। जाउ = मैं जाती हूँ। एता = इतना, बहुत ज्यादा। भवि = भटक भटक के। गुरि = गुरु ने। मेलिमु = मुझे मिलाया। दितमु मिलाइ = मुझे मिला दिया।1। रहाउ।
अर्थ: मैं अपने गुरु से बलिहार हूँ, सदा सदके जाती हूँ। गुरु (के मिलाप) के बिना मैं भटक-भटक के बहुत थक गई थी, (अब) गुरु ने मुझे पति मिलाया है, मुझे (पति) मिला दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फुफी नानी मासीआ देर जेठानड़ीआह ॥ आवनि वंञनि ना रहनि पूर भरे पहीआह ॥२॥
मूलम्
फुफी नानी मासीआ देर जेठानड़ीआह ॥ आवनि वंञनि ना रहनि पूर भरे पहीआह ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देर = देवरानियां। वंञनि = चली जाती हैं। पूर = बेड़ी के मुसाफिरों के पूर। पहीआह = मुसाफिरों के। पही = राही, पांधी, मुसाफिर।2।
अर्थ: फूफियाँ, नानियां, मासियां, देवरानियां, जेठानियाँ - यह (संसार में) आती है और चली जाती हैं, सदा (हमारे साथ) नहीं रहती। इन (साकों अंगो-) राहियों के पूरों के पूर भरे हुए समूह चले जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामे तै मामाणीआ भाइर बाप न माउ ॥ साथ लडे तिन नाठीआ भीड़ घणी दरीआउ ॥३॥
मूलम्
मामे तै मामाणीआ भाइर बाप न माउ ॥ साथ लडे तिन नाठीआ भीड़ घणी दरीआउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मामाणीआं = मामियाँ। तै = और। भाइर = भाई। साथ = काफले। लडे = लादे (जा रहे हैं)। नाठी = पराहुणा, मेहमान। घणी = बहुत।3।
अर्थ: मामे, मामियाँ, भाई, पिता, और माँ - (किसी के साथ भी सच्चा साक) नहीं बन सकता। (ये भी मेहमान की तरह हैं) इन पराहुणों के काफिले के काफिले लादे हुए चले जा रहे हैं। संसार-दरिया के पक्त न पर इनकी भीड़ लगी पड़ी है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचउ रंगि रंगावलो सखी हमारो कंतु ॥ सचि विछोड़ा ना थीऐ सो सहु रंगि रवंतु ॥४॥
मूलम्
साचउ रंगि रंगावलो सखी हमारो कंतु ॥ सचि विछोड़ा ना थीऐ सो सहु रंगि रवंतु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचउ = सदा स्थिर रहने वाला। रंगि = प्रेम रंग में। रंगावलो = रंगा हुआ। सखी = हे सखी! सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से। बीऐ = होता। सहु = पति। रंगि = प्रेम से। रवंत = (अपने से) मिलाता है।4।
अर्थ: हे सहेलियो! हमारा पति-प्रभु ही सदा-स्थिर रहने वाला है और वह प्रेम-रंग में रंगा रहता है। उस सदा-स्थिर के नाम में जुड़ने से उससे विछोड़ा नहीं होता। (चरणों में जुड़ी जीव-स्त्री को) वह पति प्यार से गले लगाए रखता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभे रुती चंगीआ जितु सचे सिउ नेहु ॥ सा धन कंतु पछाणिआ सुखि सुती निसि डेहु ॥५॥
मूलम्
सभे रुती चंगीआ जितु सचे सिउ नेहु ॥ सा धन कंतु पछाणिआ सुखि सुती निसि डेहु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रुती = ऋतुएं। जितु = जिस जिस (ऋतु) में। साधन = जीव-स्त्री। सुखि = सुख में। सुती = शांत चिक्त हो गई। निसि = रात। डेहु = दिन।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रुति’ से ‘रुती’ बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो जीव-स्त्री पति-प्रभु (के साक) को पहचान लेती है उसको वह सारी ही ऋतुएं अच्छी लगती हैं जिस-जिस ऋतु में सदा-स्थिर प्रभु-पति के साथ उसका प्यार बनता है, (क्योंकि) वह जीव-स्त्री दिन-रात पूर्ण आनंद में शांत-चिक्त रहती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतणि कूके पातणी वंञहु ध्रुकि विलाड़ि ॥ पारि पवंदड़े डिठु मै सतिगुर बोहिथि चाड़ि ॥६॥
मूलम्
पतणि कूके पातणी वंञहु ध्रुकि विलाड़ि ॥ पारि पवंदड़े डिठु मै सतिगुर बोहिथि चाड़ि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतणि = पत्तन पर। पातणी = मल्लाह। वंञहु = गुजर जाओ, चले जाओ। ध्रुकि = दौड़ के। विलाड़ि = छलांग लगा के। पवंदड़े = पड़ते, पहुँचे। डिठु = देखे हैं। बोहिथि = जहाज में। चाढ़ि = चढ़ के।6।
अर्थ: (संसार-दरिया के) पत्तन पर (खड़ा) गुरु मल्लाह (जीव-राहियों को) पुकार के कह रहा है कि (प्रभु-नाम के जहाज में चढ़ो और) दौड़ के छलांग मार के पार लांघ जाओ। सतिगुरु के जहाज में चढ़ के (संसार-दरिया से) पार पहुँचे हुए (अनेक ही प्राणी) मैंने (स्वयं) देखे हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिकनी लदिआ हिकि लदि गए हिकि भारे भर नालि ॥ जिनी सचु वणंजिआ से सचे प्रभ नालि ॥७॥
मूलम्
हिकनी लदिआ हिकि लदि गए हिकि भारे भर नालि ॥ जिनी सचु वणंजिआ से सचे प्रभ नालि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिकनी = कई (जीव राहियों) ने। हिकि = कई, अनेक। लदि = लाद के। भारे = (पापों के भार से) भारे। भरनालि = समुंदर में (डूब गए)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम धन। वणंजिआ = खरीदा, व्यापार किया।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘हिक’ का बहुवचन ‘हिकि’ (हिक = एक)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सतिगुरु का आहवाहन सुन के) अनेक जीवों ने (संसार-दरिया से पार लांघने के लिए प्रभु-नाम का सौदा गुरु के जहाज में) लाद लिया है, अनेक ही लाद के पार पहुँच गए हैं, पर अनेक ही (ऐसे भी दुर्भाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरु की पुकार की परवाह ही नहीं की, और वे विकारों के भार के साथ) भारे हो के संसार-समुंदर में (डूब गए हैं)। जिन्होंने (गुरु का उपदेश सुन के) सदा-स्थिर रहने वाला नाम-सौदा खरीदा है वह (सदा-स्थिर प्रभु के) चरणों में लीन हो गए हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना हम चंगे आखीअह बुरा न दिसै कोइ ॥ नानक हउमै मारीऐ सचे जेहड़ा सोइ ॥८॥२॥१०॥
मूलम्
ना हम चंगे आखीअह बुरा न दिसै कोइ ॥ नानक हउमै मारीऐ सचे जेहड़ा सोइ ॥८॥२॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारीऐ = मारनी चाहिए। जेहड़ा = जो, जैसा। सोइ = वह मनुष्य (जो अहंकार मारता है)।8।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु चरणों में एक-मेक होने के लिए) अहंकार को दूर करनाप चाहिए (जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर अहंकार को दूर कर लिया) वह सदा-स्थिर प्रभु जैसा ही बन गया। (ऐसे भाग्यशाली लोग ये निश्चय रखते हैं कि) हम (सबसे) अच्छे नहीं कहे जा सकते, और हमसे बुरा कोई मनुष्य (जगत में) दिखता नहीं।8।2।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ ना जाणा मूरखु है कोई ना जाणा सिआणा ॥ सदा साहिब कै रंगे राता अनदिनु नामु वखाणा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ ना जाणा मूरखु है कोई ना जाणा सिआणा ॥ सदा साहिब कै रंगे राता अनदिनु नामु वखाणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ना जाणा = मैं नहीं समझता। रंगे = रंग ही, प्रेम रंग ही। राता = रंगा हुआ। अनदिनु = हर रोज। वखाणा = मैं स्मरण करता हूँ।1।
अर्थ: मैं नहीं समझ सकता कि जो (व्यक्ति परमात्मा का नाम स्मरण करता है) वह मूर्ख (कैसे) है, और जो मनुष्य नाम नहीं स्मरण करता वह समझदार कैसे है। (असल समझदारी नाम-स्मरण करने में है, इस वास्ते) मैं हर वक्त प्रभु का नाम स्मरण करता हूँ और सदा मालिक प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा मूरखु हा नावै बलि जाउ ॥ तू करता तू दाना बीना तेरै नामि तराउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा मूरखु हा नावै बलि जाउ ॥ तू करता तू दाना बीना तेरै नामि तराउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! हा = मैं हूँ। नावै = (तेरे) नाम से। जाउ = मैं जाता हूँ। दाना = (सबके दिलों की) जानने वाला। बीना = (सब जीवों के काम को) देखने वाला। नामि = नाम से। तराउ = तैरूँ, मैं पार लांघ सकता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे नाम से टूट के) मैं मति-हीन रहता हूँ (क्योंकि मुझे ये समझ नहीं होती कि इस संसार-समुंदर से) मैं तेरे नाम में जुड़ के ही पार लांघ सकता हूँ। मैं तेरे नाम से सदके जाता हूँ (तेरे नाम की इनायत से ही मुझे समझ आती है कि) तू हमारा विधाता है, तू हमारे दिल की जानता है, तू हमारे कामों को हर वक्त देखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूरखु सिआणा एकु है एक जोति दुइ नाउ ॥ मूरखा सिरि मूरखु है जि मंने नाही नाउ ॥२॥
मूलम्
मूरखु सिआणा एकु है एक जोति दुइ नाउ ॥ मूरखा सिरि मूरखु है जि मंने नाही नाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरखा सिरि मूरखु = सबसे बड़ा मूर्ख। जि = जो।2।
अर्थ: पर चाहे कोई मूर्ख है चाहे कोई समझदार है (हरेक जीव) एक ही परमात्मा में बसता है। मूर्ख और समझदार दो अलग-अलग नाम हैं ज्योति दोनों में एक ही है। जो आदमी परमात्मा का नाम स्मरणा नहीं कबूलता, वह महा मूर्ख है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर दुआरै नाउ पाईऐ बिनु सतिगुर पलै न पाइ ॥ सतिगुर कै भाणै मनि वसै ता अहिनिसि रहै लिव लाइ ॥३॥
मूलम्
गुर दुआरै नाउ पाईऐ बिनु सतिगुर पलै न पाइ ॥ सतिगुर कै भाणै मनि वसै ता अहिनिसि रहै लिव लाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआरै = दर से। पलै न पाइ = नहीं मिल सकता। भाणै = रजा में, मर्जी में (चलने से)। मनि = मन में। अहि = दिन। निसि = रात। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।3।
अर्थ: परमात्मा का नाम गुरु-दर से मिलता है, गुरु की शरण के बिना प्रभु के नाम की प्राप्ति नहीं हो सकती। अगर गुरु के हुक्म में चल के मनुष्य के मन में नाम बस जाए, तब वह दिन-रात नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजं रंगं रूपं मालं जोबनु ते जूआरी ॥ हुकमी बाधे पासै खेलहि चउपड़ि एका सारी ॥४॥
मूलम्
राजं रंगं रूपं मालं जोबनु ते जूआरी ॥ हुकमी बाधे पासै खेलहि चउपड़ि एका सारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = वह लोग। पासै = पासे में, चौपड़ की खेल में। एका सारी = एक ही नर्द, एक माया की तृष्णा की नर्द।4।
अर्थ: जो लोग राज, रंग-तमाशे, रूप, माल-धन और जवानी -सिर्फ इसी में मस्त रहते हैं उनको जुआरिए समझो। पर उनके भी क्या वश? प्रभु के हुक्म में बँधे हुए वह (मायावी पदार्थों की) चौपड़ खेल खेलते रहते हैं, एक माया की तृष्णा ही उनकी नर्द है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगि चतुरु सिआणा भरमि भुलाणा नाउ पंडित पड़हि गावारी ॥ नाउ विसारहि बेदु समालहि बिखु भूले लेखारी ॥५॥
मूलम्
जगि चतुरु सिआणा भरमि भुलाणा नाउ पंडित पड़हि गावारी ॥ नाउ विसारहि बेदु समालहि बिखु भूले लेखारी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगि = जगत में। भरमि = भटकना में। भुलाना = (जीवन-राह से) भूला हुआ। पढ़हि = पढ़ते हैं। गावारी = मूर्खों की विद्या। नाउ = परमात्मा का नाम। समालहि = संभालते हैं, याद रखते हैं। बिखु = जहर, माया की तृष्णा जो आत्मिक जीवन के लिए जहर समान है। लेखारी = विद्वान।5।
अर्थ: जो बंदा माया की भटकना में पड़ कर जीवन-राह से विछुड़ता जा रहा है वही जगत में चतुर और सयाना माना जाता है; पढ़ते हैं (माया कमाने वाली) मूर्खों की विद्या, पर अपना नाम कहलवाते हैं ‘पंडित’। (ये पण्डित) परमात्मा का नाम भुला देते हैं; और अपनी ओर से वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) को संभाल रहे हैं, ये विद्वान आत्मिक जीवन की मौत लाने वाली माया के जहर में भूले पड़े हैं।5।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कलर खेती तरवर कंठे बागा पहिरहि कजलु झरै ॥ एहु संसारु तिसै की कोठी जो पैसै सो गरबि जरै ॥६॥
मूलम्
कलर खेती तरवर कंठे बागा पहिरहि कजलु झरै ॥ एहु संसारु तिसै की कोठी जो पैसै सो गरबि जरै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंठे = दरिया के किनारे। बागा = सफेद कपड़े। झरै = झड़ता है, उड़-उड़ के पड़ता है। तिसै की = तृष्णा की। पैसै = पड़ता है, काबू आ जाता है। जरै = जलता है।6।
अर्थ: बंजर में खेती बीज के फसल की आशा व्यर्थ है। दरिया के किनारे उगे हुए वृक्षों को आसरा बनाना भूल है, जहाँ कालिख़ उड़-उड़ के पड़ती हो वहाँ जो लोग सफेद कपड़े पहनते हैं (और उन पर कालिख़ ना लगने की आस रखते हैं वे भूले हुए हैं, इस तरह) ये जगत तृष्णा की कोठी है इसमें जो फंस जाता है (वह निकल नहीं सकता) वह अहंकार में (ग़र्क होता है, उसका आत्मिक जीवन तृष्णा की आग में) जल जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रयति राजे कहा सबाए दुहु अंतरि सो जासी ॥ कहत नानकु गुर सचे की पउड़ी रहसी अलखु निवासी ॥७॥३॥११॥
मूलम्
रयति राजे कहा सबाए दुहु अंतरि सो जासी ॥ कहत नानकु गुर सचे की पउड़ी रहसी अलखु निवासी ॥७॥३॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रयति = प्रजा, जनता। कहा = कहाँ गए? सबाए = सारे। दुहु अंतरि = जमीन आसमान के अंदर, इस दुनियां में। जासी = नाश हो जाएगा। रहसी = सदा टिका रहेगा, अटल आत्मिक जीवन वाला हो जाएगा। निवासी = निवास रखने वाला, तवज्जो जोड़ी रखने वाला।7।
अर्थ: राजे और (राजाओं की) प्रजा -ये सब कहाँ हैं? (सब अपनी-अपनी वारी कूच कर जाते हैं)। इस दुनियां में जो पैदा होता है वह अंत में यहाँ से चला जाता है (पर माया की तृष्णा में फंस के जनम-मरण के चक्कर भी सहता है)। नानक कहता है: जो मनुष्य अचूक गुरु की पौड़ी का आसरा लेता है (भाव, जो नाम स्मरण करता है, और नाम-जपने की पौड़ी के द्वारा) अलख प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है वह अटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।7।3।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु २’ की 3 अष्टपदीयां, ‘घरु १’ की 8। कुल जोड़ 11 है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ घरु ५ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ३ घरु ५ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो प्रेमु मंनि वसाए ॥ साचै सबदि सहजि सुभाए ॥ एहा वेदन सोई जाणै अवरु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥
मूलम्
जिस नो प्रेमु मंनि वसाए ॥ साचै सबदि सहजि सुभाए ॥ एहा वेदन सोई जाणै अवरु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंनि = मन में। साचै सबदि = सदा स्थिर शब्द में। सुभाए = प्यार में। एहा वेदन = ये (प्रेम की) वेदना। वेदन = पीड़ा, वेदना, चुभन। सोई = वही मनुष्य। कि जाणै = क्या जानता है? नहीं जान सकता। कारी = इलाज। जीउ = हे भाई!।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) जिस मनुष्य के मन में (अपना) प्यार बसाता है, वह मनुष्य प्रभु की सदा-स्थिर महिमा की वाणी में (जुड़ा रहता है), आत्मिक अडोलता में (टिका रहता है) प्रभु प्यार में (लीन रहता है), (प्रेम की चुभन का यही एक इलाज है)। वही मनुष्य इस वेदना को समझता है, कोई और मनुष्य (जिसके अंदर ये चुभन ये वेदना नहीं है, इस पीड़ा का) इलाज नहीं जानता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मेले आपि मिलाए ॥ आपणा पिआरु आपे लाए ॥ प्रेम की सार सोई जाणै जिस नो नदरि तुमारी जीउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आपे मेले आपि मिलाए ॥ आपणा पिआरु आपे लाए ॥ प्रेम की सार सोई जाणै जिस नो नदरि तुमारी जीउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। मेले, मिलाए = मिलाता है। सार = कद्र। नदरि = मेहर की निगाह।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं (जीव को अपने चरणों के साथ) जोड़ता है, स्वयं ही मिलाता है। (जीव के हृदय में) अपना प्यार परमात्मा स्वयं ही पैदा करता है।
हे प्रभु! (तेरे) प्यार की कद्र (भी) वही जीव जान सकता है, जिस पर तेरी मेहर की निगाह होती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिब द्रिसटि जागै भरमु चुकाए ॥ गुर परसादि परम पदु पाए ॥ सो जोगी इह जुगति पछाणै गुर कै सबदि बीचारी जीउ ॥२॥
मूलम्
दिब द्रिसटि जागै भरमु चुकाए ॥ गुर परसादि परम पदु पाए ॥ सो जोगी इह जुगति पछाणै गुर कै सबदि बीचारी जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिब = (दिव्य, Divine) देवताओं वाली, ईश्वरीय, आत्मिक जीवन में रोशनी देने वाली। द्रिसटि = दृष्टि, नजर, निगाह। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर कर देती है। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा दर्जा। जुगति = युक्ति, ढंग, तरीका। कै सबदि = के शब्द द्वारा। बीचारी = विचारवान, ऊँचे जीवन की सूझ वाला।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के मन में प्रभु अपना प्यार बसाता है उसके अंदर) आत्मिक जीवन का प्रकाश देने वाली निगाह जाग उठती है (और वह निगाह उसकी) भटकना दूर कर देती है। गुरु की कृपा से (वह मनुष्य) सबसे ऊँचा आत्मिक जीवन का दर्जा प्राप्त कर लेता है। (जो मनुष्य) इस जुगति को समझ लेता है वह (सही अर्थों में) जोगी है; गुरु के शब्द की इनायत से वह ऊँचे जीवन की सूझ वाला हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजोगी धन पिर मेला होवै ॥ गुरमति विचहु दुरमति खोवै ॥ रंग सिउ नित रलीआ माणै अपणे कंत पिआरी जीउ ॥३॥
मूलम्
संजोगी धन पिर मेला होवै ॥ गुरमति विचहु दुरमति खोवै ॥ रंग सिउ नित रलीआ माणै अपणे कंत पिआरी जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजोगी = संयोगी, संयोग से, परमात्मा द्वारा निहित सबब से, पिछले संस्कारों के अनुसार। धन = जीव-स्त्री। पिर = पिता, प्रभु पति। गुरमति = गुरु की शिक्षा ले के। विचहु = अपने अंदर से। दुरमति = खोटी मति। रंग सिउ = प्रेम से। कंत पिआरी = कंत की प्यारी।3।
अर्थ: हे भाई! अच्छे भाग्यों से जिस जीव-स्त्री का प्रभु-पति के साथ मिलाप हो जाता है, वह गुरु की मति पर चल कर अपने अंदर से खोटी मति नाश कर देती है, वह प्रेम के सदका प्रभु-पति के साथ आत्मिक मिलाप का आनंद भोगती है, वह अपने प्रभु-पति की लाडली बन जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बाझहु वैदु न कोई ॥ आपे आपि निरंजनु सोई ॥ सतिगुर मिलिऐ मरै मंदा होवै गिआन बीचारी जीउ ॥४॥
मूलम्
सतिगुर बाझहु वैदु न कोई ॥ आपे आपि निरंजनु सोई ॥ सतिगुर मिलिऐ मरै मंदा होवै गिआन बीचारी जीउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाझहु = बिना। वैदु = (प्रेम की वेदना का इलाज करने वाला) वैद्य, हकीम। आपे = स्वयं ही। निरंजनु = (निर+अंजनु, माया के मोह की कालिख से रहित) निर्लिप। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। मंदा = बुरा। गिआन बीचारी = ऊँचे आत्मिक जीवन की विचार कर सकने वाला।4।
अर्थ: हे भाई! (प्रेम की वेदना का इलाज करने वाला) हकीम गुरु के बिना और कोई नहीं है (जिसका इलाज गुरु कर देता है उसको यह दिखाई दे जाता है कि) वह निर्लिप परमात्मा स्वयं ही स्वयं (हर जगह मौजूद है)। हे भाई! अगर गुरु मिल जाए तो (मनुष्य के अंदर से) बुराई मिट जाती है, मनुष्य ऊँचे आत्मिक जीवन की विचार करने के योग्य हो जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु सबदु सारु जिस नो लाए ॥ गुरमुखि त्रिसना भुख गवाए ॥ आपण लीआ किछू न पाईऐ करि किरपा कल धारी जीउ ॥५॥
मूलम्
एहु सबदु सारु जिस नो लाए ॥ गुरमुखि त्रिसना भुख गवाए ॥ आपण लीआ किछू न पाईऐ करि किरपा कल धारी जीउ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। गुरमुखि = गुरु की शरण डाल के। गवाए = दूर कर देता है। आपणा लीआ = अपने उद्यम से हासिल किया हुआ। कल = सत्ता। धारी = धारता है, पाता है।5।
अर्थ: हे भाई! गुरु का यह श्रेष्ठ शब्द जिसके हृदय में परमात्मा बसा देता है, (उसको) गुरु की शरण में डाल कर (उसके अंदर से) माया की तृष्णा माया की भूख दूर कर देता है। हे भाई! अपनी बुद्धि के बल पर (आत्मिक जीवन का) कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। परमात्मा स्वयं ही मेहर करके यह सत्ता (मनुष्य के अंदर) डालता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम निगमु सतिगुरू दिखाइआ ॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ॥ अंजन माहि निरंजनु जाता जिन कउ नदरि तुमारी जीउ ॥६॥
मूलम्
अगम निगमु सतिगुरू दिखाइआ ॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ॥ अंजन माहि निरंजनु जाता जिन कउ नदरि तुमारी जीउ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = आगम, शास्त्र। निगमु = वेद। अगम निगमु = शास्त्रों वेदों का (यह) तत्व (कि ‘आपण लीआ किछू न पाईऐ, करि किरपा कल धारी जीउ’)। सतिगुरू = गुरु के द्वारा। करि = कर के। अपनै घरि = अपने असल घर में, प्रभु के चरणों में। अंजन माहि = माया के पसारे में। जिन कउ = जिस पर।6।
अर्थ: (हे जोगी! यह निश्चय कि ‘आपण…धारी जीउ’ - यही है हमारे वास्ते ‘अगम निगमु’) प्रभु ने कृपा करके गुरु के द्वारा (जिस मनुष्य को यह) ‘अगम निगमु’ दिखा दिया, वह मनुष्य अपने असल घर में आ टिकता है।
हे प्रभु! जिस पर तेरी मेहर की निगाह होती है, वह मनुष्य इस माया के पसारे में तुझ निर्लिप को बसता हुआ पहचान लेते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि होवै सो ततु पाए ॥ आपणा आपु विचहु गवाए ॥ सतिगुर बाझहु सभु धंधु कमावै वेखहु मनि वीचारी जीउ ॥७॥
मूलम्
गुरमुखि होवै सो ततु पाए ॥ आपणा आपु विचहु गवाए ॥ सतिगुर बाझहु सभु धंधु कमावै वेखहु मनि वीचारी जीउ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सो = वह मनुष्य। ततु = तत्व, निचोड़, असल नतीजा। आपु = स्वै भाव। धंधु = माया के मोह में फसाने वाला काम काज। मनि = मन में। वीचारी = विचार के।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह (यह) अस्लियत पा लेता है, वह मनुष्य अपने अंदर से स्वै भाव दूर कर देता है। हे भाई! अपने मन में विचार कर के देख ले कि गुरु की शरण पड़े बिना हरेक जीव माया के मोह में फसने वाली दौड़-भाग ही कर रहा है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि भ्रमि भूले फिरहि अहंकारी ॥ इकना गुरमुखि हउमै मारी ॥ सचै सबदि रते बैरागी होरि भरमि भुले गावारी जीउ ॥८॥
मूलम्
इकि भ्रमि भूले फिरहि अहंकारी ॥ इकना गुरमुखि हउमै मारी ॥ सचै सबदि रते बैरागी होरि भरमि भुले गावारी जीउ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। भ्रमि = भुलेखे में। भूले = गलत राह पर पड़े हुए। इकना = कई मनुष्यों ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी मैं। रते = रंगे हुए। बैरागी = माया के मोह से उपराम, (जोगियों का एक अंग)। होरि = अन्य, और। गवारी = मूर्ख, अंजान।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो भुलेखे में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़े हुए (अपने इस गलत त्याग पर ही) मान करते फिरते हैं। कई ऐसे हैं जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लिया है। हे भाई! असल बैरागी वह हैं जो सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में रंगे हुए हैं, बाकी मूर्ख (अपने त्याग के) भुलेखे में गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि जिनी नामु न पाइआ ॥ मनमुखि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ अगै विणु नावै को बेली नाही बूझै गुर बीचारी जीउ ॥९॥
मूलम्
गुरमुखि जिनी नामु न पाइआ ॥ मनमुखि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ अगै विणु नावै को बेली नाही बूझै गुर बीचारी जीउ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखि = मन के मुरीद लोगों ने। बिरथा = व्यर्थ। अगै = परलोक में। को = कोई। बेली = मददगार। गुर बीचारी = गुरु के शब्द के विचार से। बूझै = समझता है।9।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं किया, उन मन के मुरीदों ने अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा ली है। हे भाई! परलोक में परमात्मा के नाम के बिना और कोई मददगार नहीं है। पर इस बात को गुरु के शब्द के विचार के द्वारा ही (कोई विरला मनुष्य) समझता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु सदा सुखदाता ॥ गुरि पूरै जुग चारे जाता ॥ जिसु तू देवहि सोई पाए नानक ततु बीचारी जीउ ॥१०॥१॥
मूलम्
अम्रित नामु सदा सुखदाता ॥ गुरि पूरै जुग चारे जाता ॥ जिसु तू देवहि सोई पाए नानक ततु बीचारी जीउ ॥१०॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। गुरि पूरै = पूरे गुरु से। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। जाता = जाना जाता है, समझ पड़ती है। तू देवहि = (हे प्रभु!) तू देता है। नानक = हे नानक! ततु बीचारी = अस्लियत को समझने वाला।10।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा आनंद देने वाला है। सदा से पूरे गुरु के द्वारा ही (तेरे इस नाम से) सांझ पड़ती आ रही है। हे प्रभु! वही मनुष्य तेरा नाम प्राप्त करता है जिसको तू स्वयं (ये दाति) देता है। वही मनुष्य असल जीवन-भेद को समझने-योग्य होता है।10।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यह शब्द जोगियों-बैरागियों के प्रर्थाय है। गुरु का शब्द यह बताता है कि ‘अंजन’ के बीच में रह कर ही ‘निरंजन’ को हर जगह देखना है; यही है सिख के लिए ‘अगम निगमु’।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ घरु ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ घरु ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख चउरासीह भ्रमते भ्रमते दुलभ जनमु अब पाइओ ॥१॥
मूलम्
लख चउरासीह भ्रमते भ्रमते दुलभ जनमु अब पाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमते भ्रमते = भटकते हुए। दुलभ = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला। अब = अब।1।
अर्थ: हे मूर्ख! चौरासी लाख जूनियों में भटकते-भटकते तुझे ये मानव जनम मिला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मूड़े तू होछै रसि लपटाइओ ॥ अम्रितु संगि बसतु है तेरै बिखिआ सिउ उरझाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मूड़े तू होछै रसि लपटाइओ ॥ अम्रितु संगि बसतु है तेरै बिखिआ सिउ उरझाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! होछै रसि = होछे रस में, नाशवान (पदार्थों के) स्वाद में। लपटाइओ = फसा हुआ है। अंम्रितु = अटल जीवन वाला नाम जल। तेरै संगि = तेरे साथ, तेरे अंदर। बिखिआ = माया। सिउ = साथ। उरझाइओ = उलझा हुआ, व्यस्त।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! तू नाशवान (पदार्थों के) स्वाद में फसा रहता है। अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल तेरे अंदर बसता है (तू उसको छोड़ के आत्मिक मौत लाने वाली) माया के साथ चिपका हुआ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतन जवेहर बनजनि आइओ कालरु लादि चलाइओ ॥२॥
मूलम्
रतन जवेहर बनजनि आइओ कालरु लादि चलाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनजनि आइओ = विहाजने आया, सौदा करने आया। कालरु = कल्लर, बंजर। लादि = लाद के।2।
अर्थ: हे मूर्ख! तू आया था रतन और जवाहर खरीदने के लिए, पर तू यहाँ से कल्लर लाद के ही चल पड़ा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह घर महि तुधु रहना बसना सो घरु चीति न आइओ ॥३॥
मूलम्
जिह घर महि तुधु रहना बसना सो घरु चीति न आइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह = जिस। महि = में। चीति = चिक्त में। घरु = घर में।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘घरु’ और ‘घर’ के व्याकर्णिक रूप का ध्यान रखें।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मूर्ख! जिस घर में तूने सदा रहना-बसना है, वह घर तेरे कभी चिक्त-चेते में नहीं आया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अटल अखंड प्राण सुखदाई इक निमख नही तुझु गाइओ ॥४॥
मूलम्
अटल अखंड प्राण सुखदाई इक निमख नही तुझु गाइओ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अटल = कभी ना टलने वाला। अखंड = अविनाशी। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय।4।
अर्थ: हे मूर्ख! तूने आँख झपकने जितने समय के लिए भी कभी उस परमात्मा की महिमा नहीं की, जो सदा कायम रहने वाला है, जो अविनाशी है, जो प्राण देने वाला है और जो सारे सुख देने वाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहा जाणा सो थानु विसारिओ इक निमख नही मनु लाइओ ॥५॥
मूलम्
जहा जाणा सो थानु विसारिओ इक निमख नही मनु लाइओ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जहा = जहाँ। विसारिओ = (तूने) भुला दिया है। लाइओ = जोड़ा।5।
अर्थ: हे मूर्ख! जिस जगह आखिर में अवश्य जाना है उस तरफ तूने कभी आँख झपकने जितने समय के लिए भी ध्यान नहीं दिया।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र कलत्र ग्रिह देखि समग्री इस ही महि उरझाइओ ॥६॥
मूलम्
पुत्र कलत्र ग्रिह देखि समग्री इस ही महि उरझाइओ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मूर्ख! पुत्र, स्त्री और घर का सामान देख के इसके मोह में ही तू फसा हुआ है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु को लाइओ तित ही लागा तैसे करम कमाइओ ॥७॥
मूलम्
जितु को लाइओ तित ही लागा तैसे करम कमाइओ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। ग्रिह समग्री = घर का सामान। देखि = देख के। तैसे = वैसे ही।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस ही’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘तितु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश?) जिस (काम) में कोई जीव (परमात्मा की ओर से) लाया जाता है उसमें वह लगा रहता है, वैसे ही काम वह करता रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ भइओ क्रिपालु ता साधसंगु पाइआ जन नानक ब्रहमु धिआइओ ॥८॥१॥
मूलम्
जउ भइओ क्रिपालु ता साधसंगु पाइआ जन नानक ब्रहमु धिआइओ ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब। क्रिपालु = कृपालु, दयावान। ता = तब।8।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जब परमात्मा किसी जीव पर दयावान होता है, तब उसको गुरु का साथ प्राप्त होता है, और, वह परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ करि अनुग्रहु राखि लीनो भइओ साधू संगु ॥ हरि नाम रसु रसना उचारै मिसट गूड़ा रंगु ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ करि अनुग्रहु राखि लीनो भइओ साधू संगु ॥ हरि नाम रसु रसना उचारै मिसट गूड़ा रंगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। अनुग्रहु = कृपा, दया। साधू संगि = गुरु का मिलाप। रसु = स्वाद। रसना = जीभ (से)। मिसट = मीठा।1।
अर्थ: हे भाई! दया करके जिस मनुष्य की रक्षा परमात्मा करता है, उसको गुरु का मिलाप प्राप्त होता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम का आनंद पाता है, वह अपनी जीभ से प्रभु का नाम जपता है, (उसके मन पर परमात्मा के प्यार का) मीठा गाढ़ा रंग चढ़ा रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मान को असथानु ॥ मीत साजन सखा बंधपु अंतरजामी जानु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मान को असथानु ॥ मीत साजन सखा बंधपु अंतरजामी जानु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मान को असथानु = मन का सहारा। सखा = साथी। बंधपु = रिश्तेदार। जानु = सुजान, सब कुछ जानने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला सुजान परमात्मा ही सदा मेरे मन का सहारा है। वही मेरा मित्र है, वही मेरा सज्जन है, वही मेरा साथी है, वही मेरा रिश्तेदार है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसार सागरु जिनि उपाइओ सरणि प्रभ की गही ॥ गुर प्रसादी प्रभु अराधे जमकंकरु किछु न कही ॥२॥
मूलम्
संसार सागरु जिनि उपाइओ सरणि प्रभ की गही ॥ गुर प्रसादी प्रभु अराधे जमकंकरु किछु न कही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। जिनि = जिस (प्रभु) ने। गही = पकड़ी। प्रसादी = प्रसादि, कृपा से। अराधे = आराधना करता है। कंकरु = किंकर, दास। जम कंकरु = जमदूत।2।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने) उस प्रभु का आसरा लिया है जिसने यह संसार-समुंदर पैदा किया है, वह मनुष्य गुरु की कृपा से परमात्मा की आराधना करता रहता है, उसको जमदूत भी कुछ नहीं कहते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोख मुकति दुआरि जा कै संत रिदा भंडारु ॥ जीअ जुगति सुजाणु सुआमी सदा राखणहारु ॥३॥
मूलम्
मोख मुकति दुआरि जा कै संत रिदा भंडारु ॥ जीअ जुगति सुजाणु सुआमी सदा राखणहारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोख = मुक्ति। दुआरि जा कै = जिस के दर पर। भंडारु = खजाना। जीअ जुगति = आत्मिक जीवन जीने की विधि।3।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु सदा रक्षा करने की सामर्थ्य वाला है, वह सुजान प्रभु ही आत्मिक जीवन जीने की विधि सिखाता है जिसके दर पर मुकित टिकी रहती है, जिसका खजाना संतजनों का हृदय है (जो संतजनों के हृदय में सदा बसता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूख दरद कलेस बिनसहि जिसु बसै मन माहि ॥ मिरतु नरकु असथान बिखड़े बिखु न पोहै ताहि ॥४॥
मूलम्
दूख दरद कलेस बिनसहि जिसु बसै मन माहि ॥ मिरतु नरकु असथान बिखड़े बिखु न पोहै ताहि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनसहि = नाश हो जाते हैं। माहि = में। मिरतु = मौत। असथान बिखड़े = मुश्किल जगह। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। न पोहै = असर नहीं कर सकती। ताहि = उसको।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है उसके सारे दुख-दर्द-कष्ट मिट जाते हैं। आत्मिक मौत, नर्क, हर मुश्किल जगह, आत्मिक मौत लाने वाली माया - इन में से कोई भी उस पर असर नहीं डाल सकती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिधि सिधि नव निधि जा कै अम्रिता परवाह ॥ आदि अंते मधि पूरन ऊच अगम अगाह ॥५॥
मूलम्
रिधि सिधि नव निधि जा कै अम्रिता परवाह ॥ आदि अंते मधि पूरन ऊच अगम अगाह ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिधि सिधि = करामाती ताकतें। नवनिधि = जगत के सारे ही नौ खजाने। जा कै = जिस के घर में। अंम्रिता परवाह = अमृत का प्रवाह, आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का झरना। आदि = जगत के आरम्भ में। पूरन = व्यापक। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाह = अथाह।5।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के घर में सारी ही करामाती ताकतें हैं, और सारे ही खजाने हैं, जिसके घर में आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के झरने बल रहे हैं, वही परमात्मा जगत के शुरू में, अंत में, मध्य में हर समय मौजूद है। वह परमात्मा ही सबसे ऊँचा है, अगम्य (पहुँच से परे) है, और अथाह है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिध साधिक देव मुनि जन बेद करहि उचारु ॥ सिमरि सुआमी सुख सहजि भुंचहि नही अंतु पारावारु ॥६॥
मूलम्
सिध साधिक देव मुनि जन बेद करहि उचारु ॥ सिमरि सुआमी सुख सहजि भुंचहि नही अंतु पारावारु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = सिद्ध, जोग साधना में पुगे हुए योगी। साधिक = योग साधना करने वाले साधक। देव = देवते। मुनिजन = मौन धारी साधु। बेद करहि उचारु = (वह पंडित जो) वेदों का उच्चारण करते हैं। सिमरि = स्मरण करके (ही)। सुआमी = मालिक। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सुख भुंचहि = आत्मिक आनंद भोगते हैं। पारावारु = पार आवार, इस पार उस पार का किनारा।6।
अर्थ: हे भाई! जोग साधना में सिद्धहस्त योगी, योग-साधना करने वाले साधक योगी, देवता गण, मौनधारी साधु, (वह पण्डित जो) वेदों का पाठ करते रहते हैं - (कोई भी हों) मालिक-प्रभु (का नाम) स्मरण करके (ही) आत्मिक अडोलता का आनंद पा सकते हैं, (ऐसा आनंद जिसका) अंत नहीं (जो कभी समाप्त नहीं होता) जिसका इस पार का उस पार का छोर पाया नहीं जा सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक प्राछत मिटहि खिन महि रिदै जपि भगवान ॥ पावना ते महा पावन कोटि दान इसनान ॥७॥
मूलम्
अनिक प्राछत मिटहि खिन महि रिदै जपि भगवान ॥ पावना ते महा पावन कोटि दान इसनान ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्राछत = पाप। मिटहि = मिट जाते हैं। रिदै = हृदय में। जपि = जप के। पावन = पवित्र करने वाला। कोटि = करोड़ों।7।
अर्थ: हे भाई! हृदय में भगवान (का नाम) जप के एक छिन में ही अनेक पाप मिट जाते हैं। भगवान (का नाम ही) सबसे ज्यादा पवित्र है, नाम-जपना ही करोड़ों दान हैं और करोड़ों तीर्थों के स्नान हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बल बुधि सुधि पराण सरबसु संतना की रासि ॥ बिसरु नाही निमख मन ते नानक की अरदासि ॥८॥२॥
मूलम्
बल बुधि सुधि पराण सरबसु संतना की रासि ॥ बिसरु नाही निमख मन ते नानक की अरदासि ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुधि = सूझ। पराण = प्राण, जिंद। सरबसु = सर्व+स्व, सारा धन, सब कुछ। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। बिसरु नाही = ना भूल। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ते = से। अरदासि = विनती।8।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही संतजनों की राशि-पूंजी है, बल है, बुद्धि है, सूझ-बूझ है, प्राण हैं, यही उनका सब कुछ है। नानक की भी यही विनती है: हे प्रभु! मेरे मन से तू आँख झपकने जितनें समय के लिए भी ना भूल।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ ससत्रि तीखणि काटि डारिओ मनि न कीनो रोसु ॥ काजु उआ को ले सवारिओ तिलु न दीनो दोसु ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ ससत्रि तीखणि काटि डारिओ मनि न कीनो रोसु ॥ काजु उआ को ले सवारिओ तिलु न दीनो दोसु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससत्रि = शस्त्र से। तीखण ससत्रि = तेज शस्त्र से। काटि = काट के। काटि डारिओ = काट डाला। मनि = मन में। रोसु = गुस्सा। उआ को = उस (मनुष्य) का। तिलु = रक्ती भर भी। दोसु = गिला।1।
अर्थ: (हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने वृक्ष को किसी) तेज़ धार हथियार से काट दिया (वृक्ष ने अपने) मन में (उस पर) गुस्सा ना किया, (बल्कि वृक्ष ने) उसके काम सवार दिए, और (उसको) रक्ती भर भी कोई दोश ना दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे राम रउ नित नीति ॥ दइआल देव क्रिपाल गोबिंद सुनि संतना की रीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन मेरे राम रउ नित नीति ॥ दइआल देव क्रिपाल गोबिंद सुनि संतना की रीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! रउ = रम, स्मरण कर। नित नीति = सदा ही, नित्य। सुनि = (हे मन!) सुन। रीति = जीवन मर्यादा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! दयालु, प्रकाश रूप, कृपालु गोबिंद के (संतजनों की संगति में रह के) सदा ही परमात्मा का स्मरण करता रह (वह संत जन कैसे होते हैं? उन) संत जनों की जीवन मर्यादा सुन।1। रहाउ।
[[1018]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण तलै उगाहि बैसिओ स्रमु न रहिओ सरीरि ॥ महा सागरु नह विआपै खिनहि उतरिओ तीरि ॥२॥
मूलम्
चरण तलै उगाहि बैसिओ स्रमु न रहिओ सरीरि ॥ महा सागरु नह विआपै खिनहि उतरिओ तीरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरण तलै = पैरों के नीचे। उगाहि = दबा के। बैसिओ = बैठ गया। स्रमु = श्रम, थकावट। सरीरि = शरीर में। सागरु = समुंदर। नह विआपै = अपना दबाव नहीं डाल सकता। खिनहि = एक छिन में ही। तीरि = (उस पार के) किनारे पर।2।
अर्थ: (हे मेरे मन! जो मनुष्य बेड़ी को) पैरों तले दबा के (उसमें) बैठ गया, (उस मनुष्य के) शरीर में (रास्ते की) थकावट ना रही, भयानक समुंदर (दरिया भी) उस पर अपना असर नहीं डाल सके, (बेड़ी में बैठ के वह) एक छिन में ही (उस दरिया से) उस पार किनारे पर जा उतरा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदन अगर कपूर लेपन तिसु संगे नही प्रीति ॥ बिसटा मूत्र खोदि तिलु तिलु मनि न मनी बिपरीति ॥३॥
मूलम्
चंदन अगर कपूर लेपन तिसु संगे नही प्रीति ॥ बिसटा मूत्र खोदि तिलु तिलु मनि न मनी बिपरीति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगर = ऊद की लकड़ी। संगे = साथ। खोदि = खोद के। तिलु तिलु = रक्ती रक्ती। मनि = मन में। मनी = मानी। बिपरीति = उल्टी बात, विरोधता।3।
अर्थ: (हे मेरे मन! जो मनुष्य धरती पर) चंदन अगर कपूर का लेपन (करता है, धरती) उस (मनुष्य) के साथ (कोई विशेष) प्यार नहीं करती; और (जो मनुष्य धरती पर) गूह-मूत्र (फेंकता है, धरती को) खोद के रक्ती रक्ती (करता है, उस मनुष्य के विरुद्ध अपने) मन में (धरती) बुरा नहीं मनाती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊच नीच बिकार सुक्रित संलगन सभ सुख छत्र ॥ मित्र सत्रु न कछू जानै सरब जीअ समत ॥४॥
मूलम्
ऊच नीच बिकार सुक्रित संलगन सभ सुख छत्र ॥ मित्र सत्रु न कछू जानै सरब जीअ समत ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुक्रित = भलाई। संलगन = एक जैसा ही लगा हुआ। सुख छत्र = सुखों का छत्र। सत्र = वैरी। न जानै = नहीं जानता (एकवचन)। समत = एक समान। सरब जीआ = सारे जीवों को।4।
अर्थ: (हे मेरे मन!) कोई ऊँचा हो अथवा नीचा हो, कोई बुराई करे या कोई भलाई करे (आकाश सबके साथ) एक समान ही लगा रहता है, सबके लिए सुखों का छत्र (बना रहता) है। (आकाश) ना किसी को मित्र समझता है ना किसी को वैरी, (आकाश) सारे जीवों के लिए एक-समान है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि प्रगासु प्रचंड प्रगटिओ अंधकार बिनास ॥ पवित्र अपवित्रह किरण लागे मनि न भइओ बिखादु ॥५॥
मूलम्
करि प्रगासु प्रचंड प्रगटिओ अंधकार बिनास ॥ पवित्र अपवित्रह किरण लागे मनि न भइओ बिखादु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = करके। प्रगासु = प्रकाश, रोशनी। प्रचंड = तेज़। अंधकार बिनास = अंधेरे का नाश। मनि = (सूरज के) मन में। बिखादु = दुख।5।
अर्थ: (हे मेरे मन! सूर्य) तेज़ रौशनी करके (आकाश में) प्रकट होता है और अंधकार का नाश करता है। अच्छे-बुरे सब जीवों को उसकी किरणें लगती हैं, (सूर्य के) मन में (इस बात का) दुख नहीं होता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीत मंद सुगंध चलिओ सरब थान समान ॥ जहा सा किछु तहा लागिओ तिलु न संका मान ॥६॥
मूलम्
सीत मंद सुगंध चलिओ सरब थान समान ॥ जहा सा किछु तहा लागिओ तिलु न संका मान ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीत = ठंडी। मंद = हल्की हल्की। समान = एक जैसी। सरब थान = सब जगह। जहा = जहाँ भी। सा = थी। किछु = कोई (अच्छी बुरी) चीज। तिलु = रक्ती भी। संका = शंका, झिझक। न मान = नहीं माना।6।
अर्थ: हे मेरे मन! ठंडी (हवा) सुगंधि भरी (पवन) हल्की-हल्की सब जगहों पर एक जैसी ही चलती है; जहाँ भी कोई चीज़ हो (अच्छी हो चाहे बुरी हो) वहाँ भी (सबको) लगती है, रक्ती भर भी संकोच नहीं करती।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभाइ अभाइ जु निकटि आवै सीतु ता का जाइ ॥ आप पर का कछु न जाणै सदा सहजि सुभाइ ॥७॥
मूलम्
सुभाइ अभाइ जु निकटि आवै सीतु ता का जाइ ॥ आप पर का कछु न जाणै सदा सहजि सुभाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुभाय = अच्छी भावना से। अभाइ = दुर्भावना से। जु = जो। निकटि = नजदीक। सीतु = शीत, पाला। आप का = अपना। पर का = पराया। सहजि = अडोलता मे। सुभाइ = अच्छे भाव से।7।
अर्थ: (हे मेरे मन!) जो भी मनुष्य सद्-भावना से अथवा दुर्भावना से (आग के) नज़दीक आता है, उसकी लगी ठंडक दूर हो जाती है। (आग) ये बात बिल्कुल नहीं जानती कि यह अपना है यह पराया है, (आग) अडोलता में रहती है अपने स्वभाव में रहती है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण सरण सनाथ इहु मनु रंगि राते लाल ॥ गोपाल गुण नित गाउ नानक भए प्रभ किरपाल ॥८॥३॥
मूलम्
चरण सरण सनाथ इहु मनु रंगि राते लाल ॥ गोपाल गुण नित गाउ नानक भए प्रभ किरपाल ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सनाथ = नाथ वाले, पति वाले। रंगि = प्यार में। राते = रंगे हुए। लाल रंगि = सोहाने प्रभु के प्रेम रंग में। गाउ = (हे मेरे मन!) गाया कर। नानक = हे नानक! किरपाल = दयावान।8।
अर्थ: (हे मेरे मन! इसी तरह परमात्मा के संत जन) परमात्मा के चरणों की शरण में रह के खसम वाले बन जाते हैं, वे सोहाने प्रभु में रते रहते हैं, उनका यह मन प्रभु के प्रेम-रंग में (रंगा रहता है)। (हे मेरे मन! तू भी) गोपाल प्रभु के गुण गाता रहा कर। हे नानक! (जो गुण गाते हैं उन पर) प्रभु जी दयावान हो जाते हैं।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ घरु ४ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ घरु ४ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चादना चादनु आंगनि प्रभ जीउ अंतरि चादना ॥१॥
मूलम्
चादना चादनु आंगनि प्रभ जीउ अंतरि चादना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चादना चादनु = चाँदनियों में से चाँदनी (रौशनियों में से रौशनी)। आंगनि = आँगन में। प्रभ जीउ चादना = प्रभु के नाम की रौशनी। अंतरि = अंदर, हृदय में।1।
अर्थ: (हे भाई! लोग खुशी आदि के मौके पर घरों में दीए आदि जला के रौशनी करते हैं, पर मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के नाम की रौशनी हो जाना - ये आँगन में अन्य सभी रौशनियों से उत्तम रौशनी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आराधना अराधनु नीका हरि हरि नामु अराधना ॥२॥
मूलम्
आराधना अराधनु नीका हरि हरि नामु अराधना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीका = (नक्त) सुंदर, सोहाना, अच्छा। आराधना अराधनु = स्मरणों में से स्मरण।2।
अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का ही नाम स्मरणा- ये अन्य सभी स्मरणों से बढ़िया स्मरण है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिआगना तिआगनु नीका कामु क्रोधु लोभु तिआगना ॥३॥
मूलम्
तिआगना तिआगनु नीका कामु क्रोधु लोभु तिआगना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगना = छोड़ देना।3।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में से निकलने के लिए लोग गृहस्थ त्याग जाते हैं, पर) काम-क्रोध-लोभ (आदि विकारों को हृदय में से) त्याग देना- ये अन्य सारे त्यागों में श्रेष्ठ त्याग है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागना मागनु नीका हरि जसु गुर ते मागना ॥४॥
मूलम्
मागना मागनु नीका हरि जसु गुर ते मागना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागना मागनु = माँगने में से माँगना। गुर ते = गुरु से।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु से परमात्मा की महिमा की खैर माँगना- ये अन्य सभी माँगों से उत्तम माँग है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागना जागनु नीका हरि कीरतन महि जागना ॥५॥
मूलम्
जागना जागनु नीका हरि कीरतन महि जागना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि कीरतन महि = परमात्म की महिमा महिमा के कीर्तन में।5।
अर्थ: (हे भाई! देवी आदि की पूजा के लिए लोग जगराते करते हैं, पर) परमात्मा की महिमा महिमा में जागना -यह और सभी जगरातों से श्रेष्ठतम् जगराता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लागना लागनु नीका गुर चरणी मनु लागना ॥६॥
मूलम्
लागना लागनु नीका गुर चरणी मनु लागना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लागना लागनु नीका = लगन लगने से बेहतर लगन। अन्य प्यार करने से बढ़िया प्यार।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु के चरणों में मन का प्यार बन जाना- ये अन्य सभी लगी हुई लगनों में से उच्च दर्जे की लगन है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह बिधि तिसहि परापते जा कै मसतकि भागना ॥७॥
मूलम्
इह बिधि तिसहि परापते जा कै मसतकि भागना ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इह बिधि = इस तरह। जा कै मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! ये जुगति उसी ही मनुष्य को प्राप्त होती है, जिसके माथे पर भाग्य जाग उठें।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक तिसु सभु किछु नीका जो प्रभ की सरनागना ॥८॥१॥४॥
मूलम्
कहु नानक तिसु सभु किछु नीका जो प्रभ की सरनागना ॥८॥१॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! सरनागना = शरण आ जाता है।8।
अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य परमात्मा की शरण में आ जाता है, उसको हरेक सद्-गुण प्राप्त हो जाता है।8।1।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ आउ जी तू आउ हमारै हरि जसु स्रवन सुनावना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ आउ जी तू आउ हमारै हरि जसु स्रवन सुनावना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जी = हे (सतिगुरु) जी! हमारै = मेरे (हृदय) में। जसु = यश, महिमा। स्रवन = श्रवण, कानों से। सुनावना = सुनूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! आ। मेरे हृदय-गृह में आ बस, और, मेरे कानों में परमात्मा की महिमा सुना।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधु आवत मेरा मनु तनु हरिआ हरि जसु तुम संगि गावना ॥१॥
मूलम्
तुधु आवत मेरा मनु तनु हरिआ हरि जसु तुम संगि गावना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरिआ = हरा भरा, प्राणमय, आत्मिक जीवन वाला। तुम संगि = तेरी संगति में।1।
अर्थ: हे प्यारे गुरु! तेरे आने से मेरा मन मेरा तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे सतिगुरु! तेरे चरणों में रह के ही परमात्मा का यश गाया जा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत क्रिपा ते हिरदै वासै दूजा भाउ मिटावना ॥२॥
मूलम्
संत क्रिपा ते हिरदै वासै दूजा भाउ मिटावना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत क्रिपा ते = गुरु की कृपा से। ते = से। हिरदै = हृदय में। वासै = बस जाता है। दूजा भाउ = माया का प्यार।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मेहर से परमात्मा हृदय में आ बसता है, और माया का मोह दूर किया जा सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत दइआ ते बुधि परगासै दुरमति दूख तजावना ॥३॥
मूलम्
भगत दइआ ते बुधि परगासै दुरमति दूख तजावना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। परगासै = चमक पड़ती है। बुधि परगासै = आत्मिक जीवन की सूझ आ जाती है। दुरमति = खोटी मति। दूख = ऐब, विकार। तजावना = त्यागे जाते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त की किरपा से बुद्धि में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, दुर्मति के सारे विकार त्यागे जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनु भेटत होत पुनीता पुनरपि गरभि न पावना ॥४॥
मूलम्
दरसनु भेटत होत पुनीता पुनरपि गरभि न पावना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए, करते हुए। पुनीता = पवित्र। पुनरपि = (पुनः अपि) फिर भी, बार बार। गरभि = गर्भ में, जूनियों के चक्कर में।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के दर्शन करने से जीवन पवित्र हो जाता है, बार-बार जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ा जाता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउ निधि रिधि सिधि पाई जो तुमरै मनि भावना ॥५॥
मूलम्
नउ निधि रिधि सिधि पाई जो तुमरै मनि भावना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउनिधि = दुनिया के सारे ही नौ खजाने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। तुमरै मनि = तेरे मन में। भावना = प्यारा लगता है।5।
अर्थ: हे प्रभु! जो (भाग्यशाली) मनुष्य तेरे मन को प्यारा लगने लग जाता है, वह, (मानो) दुनिया के सारे ही नौ खजाने और करामाती ताकतें हासिल कर लेता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत बिना मै थाउ न कोई अवर न सूझै जावना ॥६॥
मूलम्
संत बिना मै थाउ न कोई अवर न सूझै जावना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत बिना = गुरु के बिना। मै = मुझे। अवर = किसी और जगह। न सूझै जावना = जाना नहीं सूझता।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना मेरा और कोई आसरा नहीं, किसी और जगह जाना मुझे नहीं सूझता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि निरगुन कउ कोइ न राखै संता संगि समावना ॥७॥
मूलम्
मोहि निरगुन कउ कोइ न राखै संता संगि समावना ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। निरगुन कउ = गुण हीन को। संता संगि = संत जनों की संगति में।7।
अर्थ: हे भाई! मेरी गुण-हीन की (गुरु के बिना) और कोई बाँह नहीं पकड़ता। संत जनों की संगति में रह के ही प्रभु-चरणों में लीन हुआ जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुरि चलतु दिखाइआ मन मधे हरि हरि रावना ॥८॥२॥५॥
मूलम्
कहु नानक गुरि चलतु दिखाइआ मन मधे हरि हरि रावना ॥८॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कह = कह। नानक = हे नानक! गुरि = गुरु ने। चलतु = करिश्में, अजीब खेल। मधे = में। रावना = आनंद भोगना।8।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने (मुझे) आश्चर्यजनक तमाशा दिखा दिया है। मैं अपने मन में हर वक्त परमात्मा के मिलाप का आनंद ले रहा हूँ।8।2।5।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ जीवना सफल जीवन सुनि हरि जपि जपि सद जीवना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ जीवना सफल जीवन सुनि हरि जपि जपि सद जीवना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल = कामयाब। सुनि = सुन के। जपि = जप के। सद = सदा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जीने में उस मनुष्य का जीना कामयाब है जो हरि-नाम सुन के सदा हरि-नाम जप के जीता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीवना जितु मनु आघावै नामु अम्रित रसु पीवना ॥१॥
मूलम्
पीवना जितु मनु आघावै नामु अम्रित रसु पीवना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस (पीने) से, जिसके पीने से। आघावै = अघा जाता है। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।1।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम रस पीना चाहिए, ये पीना ऐसा है कि इसके द्वारा मन (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खावना जितु भूख न लागै संतोखि सदा त्रिपतीवना ॥२॥
मूलम्
खावना जितु भूख न लागै संतोखि सदा त्रिपतीवना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतोखि = संतोष में। त्रिपतीवना = तृप्त रहना।2।
अर्थ: हे भाई! नाम-भोजन को ही प्राणों की खुराक बनाना चाहिए क्योंकि इसकी इनायत से माया वाली भूख नहीं लगती, संतोष में सदा अघाए रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पैनणा रखु पति परमेसुर फिरि नागे नही थीवना ॥३॥
मूलम्
पैनणा रखु पति परमेसुर फिरि नागे नही थीवना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रखु पति परमेसुर = पति परमेश्वर की रख (बंबई के इलाके में सोहागनें सिर पर कपड़ा नहीं लेतीं, पति ही सिर का कपड़ा है। विधवा कपड़ा लेती हैं)। थीवना = होता है।3।
अर्थ: हे जिंदे! पति-परमेश्वर का नाम-कपड़ा ही सिर पर रख, फिर कभी नंगे सिर नहीं हो सकते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोगना मन मधे हरि रसु संतसंगति महि लीवना ॥४॥
मूलम्
भोगना मन मधे हरि रसु संतसंगति महि लीवना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मधे = में। लीनवा = पीना।4।
अर्थ: हे भाई! मन में हरि-नाम रस को ही लेना चाहिए, संतों केी संगति में रह के नाम-रस ही पीना चाहिए।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु तागे बिनु सूई आनी मनु हरि भगती संगि सीवना ॥५॥
मूलम्
बिनु तागे बिनु सूई आनी मनु हरि भगती संगि सीवना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु आनी = लाए बिना। संगि = साथ।5।
अर्थ: हे भाई! (किसी सूई की आवश्यक्ता नहीं पड़ती, किसी धागे की जरूरत नहीं पड़ती; ज्यों-ज्यों नाम जपते रहें) बिना सूई धागा लगाए ही मन परमात्मा की भक्ति में सीया जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातिआ हरि रस महि राते तिसु बहुड़ि न कबहू अउखीवना ॥६॥
मूलम्
मातिआ हरि रस महि राते तिसु बहुड़ि न कबहू अउखीवना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मातिआ = नशे में मस्त। राते = रंगे हुए। अउखीवना = (अवक्षि = to decay) घट जानी।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रस में रंगे जाते हैं वह असल नशे में मस्त हैं; ये नशा फिर कभी कम नहीं होता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलिओ तिसु सरब निधाना प्रभि क्रिपालि जिसु दीवना ॥७॥
मूलम्
मिलिओ तिसु सरब निधाना प्रभि क्रिपालि जिसु दीवना ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब निधाना = सारे खजानों का मालिक हरि। प्रभि = प्रभु ने। क्रिपालि = कृपालु ने। जिसु दीवना = जिस को दिया।7।
अर्थ: पर, हे भाई! कृपालु प्रभु ने स्वयं जिस जीव को ये नाम की दाति दी उसको ही सारे खजानों का मालिक (प्रभु) मिल गया।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखु नानक संतन की सेवा चरण संत धोइ पीवना ॥८॥३॥६॥
मूलम्
सुखु नानक संतन की सेवा चरण संत धोइ पीवना ॥८॥३॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धोइ = धो के।8।
अर्थ: हे नानक! असल आत्मिक आनंद संत-जनों की सेवा करने में ही है, संतों के चरण धो के पीने में है (भाव, गरीबी-भाव से संतो की सेवा में ही सुख है)।8।3।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ घरु ८ अंजुलीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ घरु ८ अंजुलीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु ग्रिहि बहुतु तिसै ग्रिहि चिंता ॥ जिसु ग्रिहि थोरी सु फिरै भ्रमंता ॥ दुहू बिवसथा ते जो मुकता सोई सुहेला भालीऐ ॥१॥
मूलम्
जिसु ग्रिहि बहुतु तिसै ग्रिहि चिंता ॥ जिसु ग्रिहि थोरी सु फिरै भ्रमंता ॥ दुहू बिवसथा ते जो मुकता सोई सुहेला भालीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु ग्रिहि = जिस मनुष्य के घर में। तिसै ही = उसी ही (हृदय) घर में। सु = वह मनुष्य। भ्रमंता = भटकता। बिवसथा = दशा, हालातों में। ते = से। मुकता = स्वतंत्र, आजाद, बचा हुआ। सुहेला = सुखी। भालीऐ = देखते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के घर में बहुत माया होती है (अपार धन-संपदा होती है), उस मनुष्य के (हृदय-) घर में (हर वक्त) चिन्ता रहती है (कि कहीं खोई ना जाए)। जिस मनुष्य के घर में थोड़ी माया है वह मनुष्य (माया की खातिर) भटकता फिरता है। जो मनुष्य इन दोनों हालातों से बचा रहता है, वही मनुष्य सुखी देखा जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रिह राज महि नरकु उदास करोधा ॥ बहु बिधि बेद पाठ सभि सोधा ॥ देही महि जो रहै अलिपता तिसु जन की पूरन घालीऐ ॥२॥
मूलम्
ग्रिह राज महि नरकु उदास करोधा ॥ बहु बिधि बेद पाठ सभि सोधा ॥ देही महि जो रहै अलिपता तिसु जन की पूरन घालीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिह राज महि = गुहस्त के ऐश्वर्य में (फंसा हुआ)। उदास = त्यागी पहरावे में। बहु बिधि = कई तरीकों से। सभि = सारे। देही महि = शरीर में ही, शरीर की खातिर मेहनत-कमाई करते हुए। अलिपता = निर्लिप। घालीऐ = घाल, मेहनत।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गृहस्थ के ऐश्वर्य में व्यस्त है, वह (दरअसल) नर्क (भोग रहा है); जो मनुष्य (गृहस्थ के जंजालों का) त्याग कर गया है वह सदा क्रोध का शिकार हुआ रहता है, भले ही उसने कई तरीकों से सारे वेद-शास्त्र पढ़े-विचारे हों। हे भाई! उस मनुष्य की ही मेहनत सफल होती है जो शरीर की खातिर मेहनत-कमाई करते हुए ही (माया से) निर्लिप रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागत सूता भरमि विगूता ॥ बिनु गुर मुकति न होईऐ मीता ॥ साधसंगि तुटहि हउ बंधन एको एकु निहालीऐ ॥३॥
मूलम्
जागत सूता भरमि विगूता ॥ बिनु गुर मुकति न होईऐ मीता ॥ साधसंगि तुटहि हउ बंधन एको एकु निहालीऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जागत सूता = जागते सोए हुए हर वक्त। भरमि = भटकना में। विगूता = दुखी होता है। मुकति = मुक्ति। मीता = हे मित्र! साध संगि = गुरु की संगति में। तूटहि = टूट जाते हैं। हउ बंधन = अहंकार के बंधन। निहालीऐ = देख लेते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य अहंकार के बंधनो में बँधा हुआ है वह) जागता हुआ और सोया हुआ हर वक्त भटकना में पड़ कर दुखी होता है। हे मित्र! गुरु की शरण के बिना इन बंधनो से खलासी नहीं होती। जिस मनुष्य के अहंकार के बंधन गुरु की संगति में टिक के टूट जाते हैं, वह हर जगह एक परमात्मा को ही देखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम करै त बंधा नह करै त निंदा ॥ मोह मगन मनु विआपिआ चिंदा ॥ गुर प्रसादि सुखु दुखु सम जाणै घटि घटि रामु हिआलीऐ ॥४॥
मूलम्
करम करै त बंधा नह करै त निंदा ॥ मोह मगन मनु विआपिआ चिंदा ॥ गुर प्रसादि सुखु दुखु सम जाणै घटि घटि रामु हिआलीऐ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = (कर्मकांड के अनुसार निहित हुए धार्मिक) कर्म। बंधा = बंध जाता है। मगन = डूबा हुआ। चिंदा = चिन्ता। विआपिआ = दबाया हुआ। गुरा प्रसादि = गुरु की कृपा से। सम = एक जैसा। जाणै = (जो मनुष्य) जानता है। घटि घटि = हरेक घट में। हिआलीऐ = निहारें, हेरें, देखता है।4।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य शास्त्रों के अनुसार निहित धार्मिक) कर्म करता रहता है वह इन कर्मों के जाल में जकड़ा रहता है, और, अगर वह किसी वक्त ये कर्म नहीं करता, तो कर्मकांडी लोग उसकी निंदा करते हैं। सो, उसका मन मोह में डूबा रहता है चिन्ता तले दबा रहता है। हे भाई! गुरु की किरपा से जो मनुष्य सुख और दुख को एक-समान समझता है वह हरेक शरीर में एक प्रभु को ही बसता देखता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसारै महि सहसा बिआपै ॥ अकथ कथा अगोचर नही जापै ॥ जिसहि बुझाए सोई बूझै ओहु बालक वागी पालीऐ ॥५॥
मूलम्
संसारै महि सहसा बिआपै ॥ अकथ कथा अगोचर नही जापै ॥ जिसहि बुझाए सोई बूझै ओहु बालक वागी पालीऐ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसारै महि = जगत के धंधों में। सहसा = सहम। विआपै = जोर डाले रखता है। अकथ = जिसका सही स्वरूप बताया ना जा सके। अगोचर = जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है। कथा = महिमा की बात। ओहु = वह जीव। वागी = की तरह।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जगत (के धँधों) में (मनुष्य को कोई ना कोई) सहम दबा के रखता है; उसको अकथ अगोचर परमात्मा की महिमा सूझती ही नहीं। (पर जीव के भी क्या वश?) वही मनुष्य (जीवन का सही रास्ता) समझता है जिसको परमात्मा स्वयं बख्शता है। उस मनुष्य को परमात्मा बच्चे की तरह पालता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि बहै तउ छूटै नाही ॥ जउ संचै तउ भउ मन माही ॥ इस ही महि जिस की पति राखै तिसु साधू चउरु ढालीऐ ॥६॥
मूलम्
छोडि बहै तउ छूटै नाही ॥ जउ संचै तउ भउ मन माही ॥ इस ही महि जिस की पति राखै तिसु साधू चउरु ढालीऐ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छूटै नाही = मुक्ति नहीं करती। संचे = एकत्र करता जाए। माही = में। इस ही महि = इस माया में रहते हुए ही। पति = इज्जत। ढालीऐ = झुलाया जाता है।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस ही महि’ में से ‘इसु’ की ‘स’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘जिस की’ में से संबंधक ‘की’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जब कोई मनुष्य त्यागी बन के माया को अपनी ओर से) छोड़ बैठता है तब (भी माया) खलासी नहीं करती। जब कोई मनुष्य माया एकत्र करता जाता है जब (संचय करने वाले के) मन में डर बना रहता है (कि कहीं हाथ से चली ना जाए)। इस माया में रहते हुए ही परमात्मा स्वयं जिस मनुष्य की इज्जत रखता है, उस गुरमुख के सिर पर चवर झुलाया जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो सूरा तिस ही होइ मरणा ॥ जो भागै तिसु जोनी फिरणा ॥ जो वरताए सोई भल मानै बुझि हुकमै दुरमति जालीऐ ॥७॥
मूलम्
जो सूरा तिस ही होइ मरणा ॥ जो भागै तिसु जोनी फिरणा ॥ जो वरताए सोई भल मानै बुझि हुकमै दुरमति जालीऐ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरा = सूरमा (माया के मुकाबले में)। मरणा = मौत, विकारों की ओर से मौत, उपरामता। भागै = मात खा गए। भल मानै = ठीक मानता है। बुझि = समझ के। दुरमति = खोटी मति। जालीऐ = जलाई है, जला दी है।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य माया के मुकाबले पर सूरमा बनता है उसको ही माया की तरफ से उपरामता मिलती है; पर जो मनुष्य (माया से) मात खा जाता है उसको अनेक जूनियों में भटकना पड़ता है। (सूरमा मनुष्य) उस भाणे को मीठा करके मानता है जो भाणा परमात्मा बरताता है (उसे मीठा समझता है जिसे परमात्मा करता है); वह मनुष्य रज़ा को समझ के (अपने अंदर से) खोटी मति को जला देता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु जितु लावहि तितु तितु लगना ॥ करि करि वेखै अपणे जचना ॥ नानक के पूरन सुखदाते तू देहि त नामु समालीऐ ॥८॥१॥७॥
मूलम्
जितु जितु लावहि तितु तितु लगना ॥ करि करि वेखै अपणे जचना ॥ नानक के पूरन सुखदाते तू देहि त नामु समालीऐ ॥८॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु जितु = जिस जिस काम में। लावहि = तू लगाता है (हे प्रभु!)। करि = कर के। वेखै = देखता है (परमात्मा)। जचना = जचे हुए ख्याल, वह काम जो उसको पसंद आते हैं। सुख दाते = हे सुख देने वाले! समालीऐ = याद किया जा सकता है।8।
अर्थ: हे प्रभु! तू जिस-जिस काम में जीवों को लगाता है, उसी उसी काम में जीव लगते हैं। हे भाई! परमात्मा अपनी मर्ज़ी। के काम कर कर के स्वयं ही उनको देखता है।
हे नानक को सारे गुण देने वाले प्रभु! अगर तू (अपने नाम की दाति) दे तो ही तेरा नाम हृदय में बसाया जा सकता है।8।1।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ बिरखै हेठि सभि जंत इकठे ॥ इकि तते इकि बोलनि मिठे ॥ असतु उदोतु भइआ उठि चले जिउ जिउ अउध विहाणीआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ बिरखै हेठि सभि जंत इकठे ॥ इकि तते इकि बोलनि मिठे ॥ असतु उदोतु भइआ उठि चले जिउ जिउ अउध विहाणीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरख = वृक्ष। सभि = सारे। इकि = कई। तते = गरम, खरवे, तीखे। बोलनि = बोलते हैं। असतु = डूबा हुआ (सूर्य)। उदोतु भइआ = उदय होता है, आकाश में चढ़ जाता है। उठि = उठ के। अउध = अवधि, उम्र। विहाणीआ = बीत जाती है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! जैसे सूरज के डूबने के वक्त अनेक पक्षी किसी वृक्ष पर आ के इकट्ठे होते हैं, इसी तरह) इस आकाश-वृक्ष तले सारे जीव-जंतु आ के एकत्र हुए हैं, कई कड़वे बोल बोलते हैं कई मीठे बोल बोलते हैं। डूबा हुआ सूरज जब आकाश में दोबारा उदय हो उठता है तब (पक्षी वृक्ष से) उठ के उड़ जाते हैं (वैसे ही) ज्यों-ज्यों (जीवों की) उम्र समाप्त हो जाती है (पक्षियों की तरह यहाँ से कूच कर जाते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाप करेदड़ सरपर मुठे ॥ अजराईलि फड़े फड़ि कुठे ॥ दोजकि पाए सिरजणहारै लेखा मंगै बाणीआ ॥२॥
मूलम्
पाप करेदड़ सरपर मुठे ॥ अजराईलि फड़े फड़ि कुठे ॥ दोजकि पाए सिरजणहारै लेखा मंगै बाणीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करेदड़ = करने वाले। सरपर = अवश्य। मुठे = लूटे जाते हैं, आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटा बैठते हैं। अजराइलि = इजराइल ने, मौत के फरिश्ते ने।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ये शब्द किसी मुसलमान के प्रथाय है)।
दर्पण-भाषार्थ
फड़े फड़ि = पकड़ पकड़ के। कुठे = कोह के मार दिए, बेदर्दी से मार डाले। दोजकि = नर्क में। मंगै = माँगता है (एकवचन)। बाणीआ = कर्मों का लेखा लिखने वाला धर्मराज।2।
अर्थ: हे भाई! यहाँ पाप करने वाले जीव (अपने आत्मिक जीवन की संपत्ति) जरूर लुटा जाते हैं, पाप करने वालों को मौत का फरिश्ता पकड़-पकड़ के कोह (तड़फा-तड़फा) के मारे जा रहा है (ये यकीन जानो कि ऐसों को) विधाता ने नर्क में डाल रखा है, उनसे धर्मराज (उनके किए कर्मों का) लेखा माँगता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
संगि न कोई भईआ बेबा ॥ मालु जोबनु धनु छोडि वञेसा ॥ करण करीम न जातो करता तिल पीड़े जिउ घाणीआ ॥३॥
मूलम्
संगि न कोई भईआ बेबा ॥ मालु जोबनु धनु छोडि वञेसा ॥ करण करीम न जातो करता तिल पीड़े जिउ घाणीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = (परलोक में) साथ। भईआ = भाई। बेबा = बहिन। जोबनु = जवानी। छोडि = छोड़ के। वञेसा = (वंजेसा) चल पड़ेगा। करीम = बख्शिश करने वाला। करण करता = जगत रचनहार। जातो = जाना। घाणी = कौल में पीसने के एक बार में डाले हुए तिल।3।
अर्थ: हे भाई! (जगत से जाने के वक्त) ना कोई भाई ना कोई बहिन, कोई भी जीव के साथ नहीं जाता। माल, धन, जवानी- हरेक जीव अवश्य ही यहाँ से छोड़ के चला जाएगा। जिस मनुष्यों ने जगत के रचयता बख्शिंद प्रभु के साथ सांझ डाली, वह (दुखों में) इस तरह पीढ़े जाते हैं जैसे तिलों की घाणी में तिल।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खुसि खुसि लैदा वसतु पराई ॥ वेखै सुणे तेरै नालि खुदाई ॥ दुनीआ लबि पइआ खात अंदरि अगली गल न जाणीआ ॥४॥
मूलम्
खुसि खुसि लैदा वसतु पराई ॥ वेखै सुणे तेरै नालि खुदाई ॥ दुनीआ लबि पइआ खात अंदरि अगली गल न जाणीआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खुसि खुसि = खोह खोह के, छीन छीन के। पराई = बेगानी। वसतु = वस्तु। खुदाई = ख़ुदा। दुनिया लबि = दुनिया के लब में, दुनिया के (स्वाद के) चस्कों में। खात = टोआ, गड्ढा। गल = गला। अगली = आगे घटित होने वाली।4।
अर्थ: हे भाई! तू पराया माल-धन छीन-छीन के इकट्ठा करता रहता है, तेरे साथ बसता रब (तेरी हरेक करतूत को) देखता है (तेरे हरेक बोल को) सुनता है। तू दुनिया (के स्वादों) के चस्के में फसा पड़ा है (मानो गहरे) गड्ढे में गिरा पड़ा है। आगे घटित होने वाली बात को समझता ही नहीं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जमि जमि मरै मरै फिरि जमै ॥ बहुतु सजाइ पइआ देसि लमै ॥ जिनि कीता तिसै न जाणी अंधा ता दुखु सहै पराणीआ ॥५॥
मूलम्
जमि जमि मरै मरै फिरि जमै ॥ बहुतु सजाइ पइआ देसि लमै ॥ जिनि कीता तिसै न जाणी अंधा ता दुखु सहै पराणीआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जमि = पैदा हो के। जमि जमि मरै = बार बार पैदा होता है मरता है, जनम मरण के चक्कर में पड़ा जाता है। सजाइ = सजा, दण्ड। देसि लंमै = लंबे देश में, (बार बार पैदा होने मरने के) लंबे रास्ते में। जिनि = जिस (प्रभु) ने। कीता = पैदा किया। अंधा = (माया के मोह में) अंधा (हुआ मनुष्य)। ता = तभी। सहै = सहता है। पराणीआ = प्राणी, जीव।5।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य (माया के मोह में) अंधा (हो के) उस परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता जिसने इसको पैदा किया है, तब यह (जनम-मरण के चक्कर का) दुख सहता है, इसको बहुत सजा मिलती है, यह (जनम-मरन के चक्कर के) लंबे रास्ते पर पड़ जाता है, ये बार-बार पैदा हो के (बार-बार) मरता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खालक थावहु भुला मुठा ॥ दुनीआ खेलु बुरा रुठ तुठा ॥ सिदकु सबूरी संतु न मिलिओ वतै आपण भाणीआ ॥६॥
मूलम्
खालक थावहु भुला मुठा ॥ दुनीआ खेलु बुरा रुठ तुठा ॥ सिदकु सबूरी संतु न मिलिओ वतै आपण भाणीआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खालक = खालिक, पैदा करने वाला। थावहु = जगह से, से। भुला = भूला हुआ, टूटा हुआ। मुठा = ठगा जा रहा है। खेलु = तमाशा, जादू का खेल। बुरा = खराब। रुठ = रूठा। तुठा = खुश हुआ। सिदकु = शांति, तसल्ली। सबूरी = सब्र, तृप्ति। संतु = गुरु। वतै = भटकता फिरता है। आपण भाणीआ = अपने मन की मर्जी के अनुसार।6।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु नहीं मिलता, वह अपने मन का मुरीद हो के भटकता फिरता है, उसके अंदर माया की तरफ से ना शांति है ना तृप्ति; वह मनुष्य विधाता से टूटा रहता है, वह अपने आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटा बैठता है; यह जगत-तमाशा उसको बुरा (दुखी करता है), कभी (माया के गवा बैठने पर ये) घबरा जाता है, कभी माया के मिलने पर ये खुश हो हो के बैठता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मउला खेल करे सभि आपे ॥ इकि कढे इकि लहरि विआपे ॥ जिउ नचाए तिउ तिउ नचनि सिरि सिरि किरत विहाणीआ ॥७॥
मूलम्
मउला खेल करे सभि आपे ॥ इकि कढे इकि लहरि विआपे ॥ जिउ नचाए तिउ तिउ नचनि सिरि सिरि किरत विहाणीआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउला = खुदा, रब। सभि = सारे। खेल = कई खेल। आपे = स्वयं ही। इकि = कई। विआपे = फसे हुए। नचाए = नचाता है। नचनि = नाचते हैं। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक (के) सिर पर। किरत = (पिछले जन्मों के किए कर्मों की) कमाई। विहाणीआ = बीतती है, असर डालती है।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘खेल’ है ‘खेलु’ का बहुवचन (‘खेलु’ एकवचन है)।
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही सारे खेल कर रहा है। कई ऐसे हैं जो माया के मोह की लहरों में फंसे हुए हैं, कई ऐसे हैं जिनको उसने इन लहरों में से निकाल लिया है। हे भाई! परमात्मा जैसे-जैसे जीवों को (माया के हाथों में) नचाता है, वैसे-वैसे जीव नाचते हैं। हरेक जीव के सिर पर (उसके पिछले जन्मों के किए कर्मों की) कमाई असर डाल रही है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिहर करे ता खसमु धिआई ॥ संता संगति नरकि न पाई ॥ अम्रित नाम दानु नानक कउ गुण गीता नित वखाणीआ ॥८॥२॥८॥१२॥२०॥
मूलम्
मिहर करे ता खसमु धिआई ॥ संता संगति नरकि न पाई ॥ अम्रित नाम दानु नानक कउ गुण गीता नित वखाणीआ ॥८॥२॥८॥१२॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता = तब, तो। धिआई = मैं ध्याता हूँ। नरकि = नर्क में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। दानु = खैर। कउ = को (दे)। गुण गीता = गुणों के गीत, महिमा के गीत। वखाणीआ = मैं बखानूँ।8।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं मेहर करे, तो ही मैं उस पति-प्रभु को स्मरण कर सका हूँ। (जो मनुष्य स्मरण करता है) वह संत जनों की संगति में रह के नर्क में नहीं पड़ता। हे प्रभु! नानक को आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम-दान दे, (ता कि मैं नानक) तेरी महिमा के गीत सदा गाता रहूँ।8।2।8।12।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सोलहे = 16 बँदों का शबद। आम तौर पर तो हरेक में 16 पद (बंद) हैं, पर कम–ज्यादा भी मिलते है॥ गुरू ग्रंथ साहिब जी में सोलहे अष्टपदियों के बाद में दर्ज हैं। इनको अष्टपदीयाँ ही समझना चाहिए। ‘सोलहे’ सिर्फ मारू राग में। इनमें ‘रहाउ’ की तुक नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा सचु सोई अवरु न कोई ॥ जिनि सिरजी तिन ही फुनि गोई ॥ जिउ भावै तिउ राखहु रहणा तुम सिउ किआ मुकराई हे ॥१॥
मूलम्
साचा सचु सोई अवरु न कोई ॥ जिनि सिरजी तिन ही फुनि गोई ॥ जिउ भावै तिउ राखहु रहणा तुम सिउ किआ मुकराई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। सचु = सदा स्थिर, अटल। सोई = वह परमात्मा ही। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरजी = पैदा की। तिन ही = तिनि ही। फुनि = दोबारा, पुनः। गोई = नाश की गई। मुकराई = इन्कार।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। देखें, ‘गुरबाणी व्याकरण’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वह परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, सदा अटल रहने वाला है। कोई और उस जैसा नहीं है। जिस (प्रभु) ने (ये रचना) रची है उसने ही दोबारा नाश किया है (वही इसको नाश करने वाला है)। हे प्रभु! जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू हम जीवों को रखता है, वैसे ही हम रह सकते हैं। हम जीव तेरे (हुक्म) के आगे कोई ना-नुक्कर नहीं कर सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि उपाए आपि खपाए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे वीचारी गुणकारी आपे मारगि लाई हे ॥२॥
मूलम्
आपि उपाए आपि खपाए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे वीचारी गुणकारी आपे मारगि लाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खपाए = नाश करता है। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर (किए कर्मों के लेख लिख के)। धंधै = धंधे में, मेहनत-कमाई में। वीचारी = जीवों के कर्मों को विचारने वाला। गुणकारी = (जीवों के अंदर) गुण पैदा करने वाला। मारगि = (सही जीवन-) मार्ग पर।2।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है स्वयं ही मारता है। स्वयं ही हरेक जीव को उसके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार दुनियां के धंधों में लगाता है। प्रभु स्वयं ही जीवों के कर्मों को विचारने वाला है, स्वयं ही (जीवों के अंदर) गुण पैदा करने वाला है, खुद ही (जीवों को) सही जीवन-रास्ते पर लाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे दाना आपे बीना ॥ आपे आपु उपाइ पतीना ॥ आपे पउणु पाणी बैसंतरु आपे मेलि मिलाई हे ॥३॥
मूलम्
आपे दाना आपे बीना ॥ आपे आपु उपाइ पतीना ॥ आपे पउणु पाणी बैसंतरु आपे मेलि मिलाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाना = (जीवों के दिल की) जानने वाला। बीना = (जीवों के किए कर्म) देखने वाला। आपु = अपने आप को। उपाइ = (सृष्टि में) प्रकट करके, पैदा करके। पतीना = पतीजता है, खुश होता है। बैसंतरु = आग। मेलि = (सब तत्वों को) इकट्ठा करके।3।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही सब जीवों के दिल की जानने वाला है, स्वयं ही जीवों के किए कर्मों को देखने वाला है। प्रभु स्वयं ही अपने आप को (सृष्टि के रूप में) प्रकट करके (स्वयं ही इसको देख-देख के) खुश हो रहा है। परमात्मा खुद ही (अपने आप से) हवा-पानी-आग (आदि तत्व पैदा करने वाला) है, प्रभु ने स्वयं ही (इन तत्वों को) इकट्ठा करके जगत-रचना की है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे ससि सूरा पूरो पूरा ॥ आपे गिआनि धिआनि गुरु सूरा ॥ कालु जालु जमु जोहि न साकै साचे सिउ लिव लाई हे ॥४॥
मूलम्
आपे ससि सूरा पूरो पूरा ॥ आपे गिआनि धिआनि गुरु सूरा ॥ कालु जालु जमु जोहि न साकै साचे सिउ लिव लाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससि = (शशि) चंद्रमा। सूरा = सूरज। पूरो पूरा = हर जगह पूर्ण, हर जगह अपना प्रकाश देने वाला। गिआनि = ज्ञान का मालिक। धिआनि = ध्यान का मालिक। सूरा = सूरज। जोहि न साकै = ताक नहीं सकता। लिव = लगन।4।
अर्थ: हर जगह रौशनी देने वाला परमात्मा स्वयं ही सूर्य है स्वयं ही चँद्रमा है, प्रभु खुद ही ज्ञान का मालिक और तवज्जो का मालिक सूरमा गुरु है। जिस भी जीव ने उस सदा-स्थिर प्रभु से प्रेम-लगन लगाई है जमराज उसकी ओर देख भी नहीं सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे पुरखु आपे ही नारी ॥ आपे पासा आपे सारी ॥ आपे पिड़ बाधी जगु खेलै आपे कीमति पाई हे ॥५॥
मूलम्
आपे पुरखु आपे ही नारी ॥ आपे पासा आपे सारी ॥ आपे पिड़ बाधी जगु खेलै आपे कीमति पाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पासा = चौपड़, संसार का आकार। सारी = नर्दें, जीव। कीमति = मूल्य, कद्र, परख।5।
अर्थ: (हरेक) मर्द भी प्रभु स्वयं ही है और (हरेक) स्त्री भी स्वयं ही है, प्रभु खुद ही (ये जगत रूप) चौपड़ (की खेल) है और खुद ही (चौपड़ की जीव-) नर्दें है। परमात्मा ने स्वयं ही ये जगत (चौपड़ की खेल-रूप) मैदान को तैयार किया है, स्वयं ही इस खेल को परख रहा है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे भवरु फुलु फलु तरवरु ॥ आपे जलु थलु सागरु सरवरु ॥ आपे मछु कछु करणीकरु तेरा रूपु न लखणा जाई हे ॥६॥
मूलम्
आपे भवरु फुलु फलु तरवरु ॥ आपे जलु थलु सागरु सरवरु ॥ आपे मछु कछु करणीकरु तेरा रूपु न लखणा जाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा सही स्वरूप क्या है? - ये बयान नहीं किया जा सकता। तू स्वयं ही (अपने आप से) सारी रचना रचने वाला है। तू स्वयं ही भौरा है, स्वयं ही फूल है, तू खुद ही फल है, और खुद ही वृक्ष है। तू स्वयं ही पानी है, स्वयं ही सूखी हुई धरती है, तू स्वयं ही समुंदर है स्वयं ही तालाब है। तू स्वयं ही मछली है तू स्वयं ही कछूआ है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे दिनसु आपे ही रैणी ॥ आपि पतीजै गुर की बैणी ॥ आदि जुगादि अनाहदि अनदिनु घटि घटि सबदु रजाई हे ॥७॥
मूलम्
आपे दिनसु आपे ही रैणी ॥ आपि पतीजै गुर की बैणी ॥ आदि जुगादि अनाहदि अनदिनु घटि घटि सबदु रजाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। रैणी = (रजनी) रात। पतीजै = खुश होता है। बैणी = वचनों से। अनाहदि = नाश रहित। रजाई = रजा के मालिक प्रभु का।7।
अर्थ: परमात्मा खुद ही दिन है खुद ही रात है, वह खुद ही गुरु के वचनों के द्वारा खुश हो रहा है, सारे जगत का मूल है, जुगों से भी आदि से है, उसका ना कभी नाश हो सकता है, हर वक्त हरेक शरीर में उसी रजा के मालिक की जीवन-लहर रुमक रही है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे रतनु अनूपु अमोलो ॥ आपे परखे पूरा तोलो ॥ आपे किस ही कसि बखसे आपे दे लै भाई हे ॥८॥
मूलम्
आपे रतनु अनूपु अमोलो ॥ आपे परखे पूरा तोलो ॥ आपे किस ही कसि बखसे आपे दे लै भाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनूपु = बेमिसाल। अमोलो = जिसका मूल्य ना पड़ सके। कसि = कसवटी पर लगा के। दे = देता है। लै = लेता है। दे लै = देता लेता है, लेन देन करता है, व्यापार करता है।8।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही एक ऐसा रतन है जिस जैसा और कोई नहीं और जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। प्रभु स्वयं ही उस रत्न को परखता है, और ठीक तरह तौलता है। प्रभु स्वयं ही किसी रत्न-जीव को कसौटी पर ला के स्वीकार करता है, और हे भाई! प्रभु स्वयं ही जगत की वणज-व्यापार की कार चला रहा है (रतन देता है और रतन लेता है)।8।
[[1021]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे धनखु आपे सरबाणा ॥ आपे सुघड़ु सरूपु सिआणा ॥ कहता बकता सुणता सोई आपे बणत बणाई हे ॥९॥
मूलम्
आपे धनखु आपे सरबाणा ॥ आपे सुघड़ु सरूपु सिआणा ॥ कहता बकता सुणता सोई आपे बणत बणाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सर = तीर। सरबाणा = (शरवाणि) तीर चलाने वाला, तीर अंदाज। सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। सरूपु = सुंदर रूप वाला। बकता = बोलने वाला।9।
अर्थ: परमात्मा खुद ही धनुष है (खुद ही तीर है) खुद ही तीर-अंदाज है। खुद ही कुशलता वाला-सोहाना और सयाना है। हर जगह बोलने वाला सुनने वाला वही खुद ही है जिसने ये जगत रचना रची है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउणु गुरू पाणी पित जाता ॥ उदर संजोगी धरती माता ॥ रैणि दिनसु दुइ दाई दाइआ जगु खेलै खेलाई हे ॥१०॥
मूलम्
पउणु गुरू पाणी पित जाता ॥ उदर संजोगी धरती माता ॥ रैणि दिनसु दुइ दाई दाइआ जगु खेलै खेलाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाता = जाना जाता है। उदर संजोगी = पेट के संयो के कारण। रैणि = रात। दुइ = दोनों। दाइआ = खिलौना खिलाने वाला।10।
अर्थ: हवा (जो शरीरों के लिए इस तरह है जैसे) गुरु (जीवों की आत्मा के लिए है) प्रभु स्वयं ही है। पानी (जो सब जीवों का) पिता (है, यह भी) प्रभु स्वयं ही है। धरती (जो इसके लिए जीवों की) माँ कहलवाने-योग्य है ये माँ की तरह सब चीजों को अपने पेट में रखती है और पेट में से पैदा करती है; यह भी परमात्मा स्वयं ही है (क्योंकि सब कुछ परमात्मा ने अपने आप से प्रकट किया है)। दिन और रात (जो जीवों के लिए) दोनों खेल खिलाने वाली और खेल खिलाने वाला है (और इनके प्रभाव में) जगत खेल रहा है, यह भी वह स्वयं ही है, यह सारी खेल वह खुद ही खेल रहा है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मछुली आपे जाला ॥ आपे गऊ आपे रखवाला ॥ सरब जीआ जगि जोति तुमारी जैसी प्रभि फुरमाई हे ॥११॥
मूलम्
आपे मछुली आपे जाला ॥ आपे गऊ आपे रखवाला ॥ सरब जीआ जगि जोति तुमारी जैसी प्रभि फुरमाई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाला = (मछली फसाने वाला) जाल। जगि = जगत में। प्रभि = प्रभु ने।11।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही मछली है और स्वयं ही (मछली फसाने वाला) जाल है, तू खुद ही गाय है और खुद ही गाईयों का रखवाला है। सारे जीवों में सारे जगत में तेरी ही ज्योति मौजूद है।
जगत में वही कुछ हो रहा है जैसे प्रभु ने हुक्म किया है (हुक्म कर रहा है)।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे जोगी आपे भोगी ॥ आपे रसीआ परम संजोगी ॥ आपे वेबाणी निरंकारी निरभउ ताड़ी लाई हे ॥१२॥
मूलम्
आपे जोगी आपे भोगी ॥ आपे रसीआ परम संजोगी ॥ आपे वेबाणी निरंकारी निरभउ ताड़ी लाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसीआ = रस लेने वाला। वेबाणी = बिआबान में रहने वाला, जंगल में रहने वाला त्यागी। निरंकारी = आकार रहित।12।
अर्थ: (माया से निर्लिप होने के कारण) प्रभु स्वयं ही जोगी है, (और सारे जीवों में व्यापक होने के कारण) खुद ही (सारे पदार्थों को) भोगने वाला है। सबसे बड़े संयोग (मिलाप) के कारण (सब जीवों में रमा होने के कारण) प्रभु स्वयं ही सारे रस माण रहा है। प्रभु स्वयं ही सारे उजाड़ में रहने वाला है, प्रभु स्वयं ही निराकार है, उसको किसी का डर नहीं। वह स्वयं ही अपने स्वरूप में तवज्जो जोड़ने वाला है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाणी बाणी तुझहि समाणी ॥ जो दीसै सभ आवण जाणी ॥ सेई साह सचे वापारी सतिगुरि बूझ बुझाई हे ॥१३॥
मूलम्
खाणी बाणी तुझहि समाणी ॥ जो दीसै सभ आवण जाणी ॥ सेई साह सचे वापारी सतिगुरि बूझ बुझाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाणी = जीवों की उत्पक्ति की चार खानें। बाणी = चार बाणियां। सेई = वही लोग। सतिगुरि = गुरु ने।13।
अर्थ: हे प्रभु! चारों खाणियों के जीव और उनकी बोलियाँ भी तेरे में ही समा जाती हैं। जगत में जो कुछ दिखाई दे रहा है वह पैदा होने मरने के चक्र में है। जिस लोगों को सतिगुरु ने (सही जीवन की) सूझ दी है वही कभी घाटा ना खाने वाले शाह हैं, व्यापारी हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदु बुझाए सतिगुरु पूरा ॥ सरब कला साचे भरपूरा ॥ अफरिओ वेपरवाहु सदा तू ना तिसु तिलु न तमाई हे ॥१४॥
मूलम्
सबदु बुझाए सतिगुरु पूरा ॥ सरब कला साचे भरपूरा ॥ अफरिओ वेपरवाहु सदा तू ना तिसु तिलु न तमाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अफरिओ = अटल हुक्म वाला। तिसु = उस (प्रभु) को। तिलु = तिल जितना भी। तमाई = तमा, लालच।14।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरा रूप) पूरा सतिगुरु (तेरी महिमा की) वाणी (तेरे पैदा किए हुए जीवों को) समझाता है। हे सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु! तू सारी ताकतों का मालिक है, तू (अपनी सारी रचना में) हर जगह मौजूद है। कोई जीव तेरे हुक्म को मोड़ नहीं सकता, (इतने बड़े पसारे का मालिक हो के भी) तू सदा बेफिक्र है।
(हे भाई! परमात्मा अपने पैदा किए हुए जीवों के लिए सब कुछ करता है, पर) उस को (अपने लिए) कोई रक्ती भर भी लालच नहीं है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालु बिकालु भए देवाने ॥ सबदु सहज रसु अंतरि माने ॥ आपे मुकति त्रिपति वरदाता भगति भाइ मनि भाई हे ॥१५॥
मूलम्
कालु बिकालु भए देवाने ॥ सबदु सहज रसु अंतरि माने ॥ आपे मुकति त्रिपति वरदाता भगति भाइ मनि भाई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कालु = मौत। बिकालु = जनम। सहज रसु = आत्मिक अडोलता का आनंद। माने = भोगा है, पाया है। मुकति दाता = विकारों से खलासी देने वाला। त्रिपति दाता = माया की ओर से संतोष देने वाला। वर दाता = बख्शिशें करने वाला। भाइ = प्रेम से। मनि = मन मे। भगति भाइ = जिसको परमात्मा की भक्ति प्यारी लगी है।15।
अर्थ: (परमात्मा की कृपा से जो मनुष्य) अपने हृदय में उसकी महिमा की वाणी बसाता है और आत्मिक अडोलता का रस लेता है, जनम और मरण उसके नजदीक नहीं फटकते (उसको देख के पागल हो जाते हैं सहम जाते हैं)। (प्रभु की बख्शी हुई प्रभु-चरणों की) प्रीति से जिस मनुष्य के मन में प्रभु की भक्ति का प्यार जाग उठता है, उसको प्रभु (स्वयं ही विकारों से) निजात देने वाला है स्वयं ही (माया की तृष्णा से) तृप्ति देने वाला है, और स्वयं ही सब बख्शिशें करने वाला है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि निरालमु गुर गम गिआना ॥ जो दीसै तुझ माहि समाना ॥ नानकु नीचु भिखिआ दरि जाचै मै दीजै नामु वडाई हे ॥१६॥१॥
मूलम्
आपि निरालमु गुर गम गिआना ॥ जो दीसै तुझ माहि समाना ॥ नानकु नीचु भिखिआ दरि जाचै मै दीजै नामु वडाई हे ॥१६॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप। गुर गम गिआना = गुरु के द्वारा जिसकी जान पहचान बनती है। भिखिआ = नाम की खैर। दरि = (तेरे) दर से। जाचै = मांगता है। मै = मुझे।16।
अर्थ: हे प्रभु! (इतना बेअंत जगत रच के) तू स्वयं (इसके मोह से) निर्लिप है। हे प्रभु! (तेरे रूप) गुरु के द्वारा ही तेरे साथ जान-पहचान हो सकती है। (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सब तेरे में ही लीन हो जाता है।
गरीब नानक तेरे दर से (नाम की) ख़ैर माँगता है। हे प्रभु! मुझे अपना नाम दे, यही मेरे वास्ते सबसे ऊँची इज्जत है।16।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ आपे धरती धउलु अकासं ॥ आपे साचे गुण परगासं ॥ जती सती संतोखी आपे आपे कार कमाई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ आपे धरती धउलु अकासं ॥ आपे साचे गुण परगासं ॥ जती सती संतोखी आपे आपे कार कमाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धउलु = बैल (जो धरती को अपने सींगों पर उठा के खड़ा हुआ माना जाता है), धरती का आसरा। कार = (जत सत संतोख की) कार।1।
अर्थ: (सारा जगत प्रभु के अपने आप से प्रकट हुआ है, इस वास्ते प्रभु) स्वयं ही धरती है स्वयं धरती का आसरा है, स्वयं ही आकाश है। प्रभु स्वयं ही अपने सदा-स्थिर रहने वाले गुणों का प्रकाश करने वाला है। स्वयं ही जती है, स्वयं ही दानी है, स्वयं ही संतोषी है, स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के जत-सत-संतोख के अभ्यास की) कार कमाने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु करणा सो करि करि वेखै ॥ कोइ न मेटै साचे लेखै ॥ आपे करे कराए आपे आपे दे वडिआई हे ॥२॥
मूलम्
जिसु करणा सो करि करि वेखै ॥ कोइ न मेटै साचे लेखै ॥ आपे करे कराए आपे आपे दे वडिआई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु करणा = जिस परमात्मा का रचा हुआ जगत। वेखै = संभाल करता है। लेखै = लेख को, हुक्म को। साचे = सदा स्थिर प्रभु के।2।
अर्थ: जिस कर्तार का यह रचा हुआ संसार है वह इसको रच-रच के स्वयं ही इसकी संभाल करता है। कोई जीव उस परमात्मा के सदा-स्थिर रहने वाले हुक्म की उलंघना नहीं कर सकता। (जीवों में व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही सब कुछ कर रहा है, स्वयं ही जीवों से (अपने हुक्म अनुसार काम) करवा रहा है। स्वयं ही (जिनको अपने नाम की दाति देता है उनको) आदर दे रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच चोर चंचल चितु चालहि ॥ पर घर जोहहि घरु नही भालहि ॥ काइआ नगरु ढहै ढहि ढेरी बिनु सबदै पति जाई हे ॥३॥
मूलम्
पंच चोर चंचल चितु चालहि ॥ पर घर जोहहि घरु नही भालहि ॥ काइआ नगरु ढहै ढहि ढेरी बिनु सबदै पति जाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चालहि = मोह लेते हैं। जोहहि = देखते हैं। घरु = अपना हृदय घर। काइआ = शरीर। पति = इज्जत।3।
अर्थ: (प्रभु की अपनी रजा में ही) भरमा देने वाले पाँच कामादिक चोर (जीवों के) मन को मोह लेते हैं। (जिनके मन कामादिक आदि मोह लेते हैं) वे पराए घरों में देखते हैं, अपने हृदय-घर को नहीं खोजते। (विकारों में फसे हुओं का आखिर) शरीर शहर गिर जाता है, गिर के ढेरी हो जाता है; गुरु के शब्द से वंचित रहने के कारण उनकी इज्जत जाती रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर ते बूझै त्रिभवणु सूझै ॥ मनसा मारि मनै सिउ लूझै ॥ जो तुधु सेवहि से तुध ही जेहे निरभउ बाल सखाई हे ॥४॥
मूलम्
गुर ते बूझै त्रिभवणु सूझै ॥ मनसा मारि मनै सिउ लूझै ॥ जो तुधु सेवहि से तुध ही जेहे निरभउ बाल सखाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिभवणु = तीन भवनों में व्यापक परमात्मा। मनसा = मन का फुरना। लूझै = मुकाबला करता है। बाल सखाई = सदा का साथी।4।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर से जो मनुष्य) गुरु का ज्ञान हासिल करता है उसको तू तीनों भवनों मेुं व्यापक दिखाई दे जाता है, वे मनुष्य मन के मायावी फुरने मार के मन से मुकाबला करता है (और इसको वश में रखता है)। हे प्रभु! जो लोग तुझे स्मरण करते हैं वह तेरे जैसे हो जाते हैं, तू किसी से ना डरने वाला उनका सदा का साथी बन जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सुरगु मछु पइआला ॥ आपे जोति सरूपी बाला ॥ जटा बिकट बिकराल सरूपी रूपु न रेखिआ काई हे ॥५॥
मूलम्
आपे सुरगु मछु पइआला ॥ आपे जोति सरूपी बाला ॥ जटा बिकट बिकराल सरूपी रूपु न रेखिआ काई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मछु = मातृ लोक। पइआला = पाताल। बाला = बड़ा। बिकट = (विकट = formidable) भयानक। बिकराल = डरावनी। सरूपी = सुंदर रूप वाला। रेखिआ = रेखा, लकीर, चक्र चिन्ह।5।
अर्थ: (सारी सृष्टि प्रभु के अपने आप से प्रकट होने के कारण) प्रभु स्वयं ही स्वर्ग-लोक है, स्वयं ही मातृ लोक है, स्वयं ही पाताल लोक है। स्वयं ही सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश है और सबसे बड़ा है। भयानक और डरावनी बालों की जटा धारने वाला भी स्वयं ही है। फिर भी उस का ना कोई खास रूप है ना कोई खास चक्र-चिन्ह है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद कतेबी भेदु न जाता ॥ ना तिसु मात पिता सुत भ्राता ॥ सगले सैल उपाइ समाए अलखु न लखणा जाई हे ॥६॥
मूलम्
बेद कतेबी भेदु न जाता ॥ ना तिसु मात पिता सुत भ्राता ॥ सगले सैल उपाइ समाए अलखु न लखणा जाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कतेबी = पश्चिमी मजहबी किताबें। सुत = पुत्र। सैल = शैल, पहाड़। समाए = लीन कर लेता है।6।
अर्थ: ना ही हिन्दू धर्म की वेद आदिक धर्म पुस्तकों ने ना ही पश्चिमी मतों की कुरान आदि किताबों ने परमात्मा की हस्ती की गहराई को समझा है। उस परमात्मा की ना कोई माँ, ना उसका कोई खास पुत्र ना कोई भाई है। बड़ऋे बड़े पहाड़ आदिक पैदा करके (जब चाहे) सारे ही अपने में लीन कर लेता है। उसका स्वरूप बयान से परे है, बियान नहीं किया जा सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि करि थाकी मीत घनेरे ॥ कोइ न काटै अवगुण मेरे ॥ सुरि नर नाथु साहिबु सभना सिरि भाइ मिलै भउ जाई हे ॥७॥
मूलम्
करि करि थाकी मीत घनेरे ॥ कोइ न काटै अवगुण मेरे ॥ सुरि नर नाथु साहिबु सभना सिरि भाइ मिलै भउ जाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरि = देवते। सिरि = सिर पर। भाइ = प्रेम से।7।
अर्थ: (परमात्मा से टूट के) अनेक (देवी-देवताओं को) मैं अपने मित्र बना-बना के हार गई हूँ, (मेरे अंदर से) कोई (ऐसा मित्र) मेरे अवगुण दूर नहीं कर सका। वह परमात्मा ही सारे देवताओं और मनुष्यों का पति है, वही सब जीवों के सर पर मालिक है। प्यार के द्वारा जिस बंदे को वह मिल जाता है उसका (पापों-विकारों का सारा) सहम दूर हो जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूले चूके मारगि पावहि ॥ आपि भुलाइ तूहै समझावहि ॥ बिनु नावै मै अवरु न दीसै नावहु गति मिति पाई हे ॥८॥
मूलम्
भूले चूके मारगि पावहि ॥ आपि भुलाइ तूहै समझावहि ॥ बिनु नावै मै अवरु न दीसै नावहु गति मिति पाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारगि = (सही जीवन-) राह पर। भुलाइ = भुलाय, भुला के, गलत रास्ते पर डाल के। मै = मुझे। अवरु = कोई और। नावहु = नाम से, नाम स्मरण से। गति मिति = प्रभु की गति और प्रभु की मिति, प्रभु कैसा है और कितना बड़ा बेअंत है = ये समझ।8।
अर्थ: हे प्रभु! भटके हुए गलत रास्ते पर पड़े हुए बंदों को तू स्वयं ही सही मार्ग पर लगाता है। तू खुद ही गलत रास्ते पर डाल के फिर खुद ही (सीधे राह की) समझ बख्शता है (भटकना से बचने के लिए) तेरे नाम के बिना मुझे और कोई साधन दिखाई नहीं देता। तेरा नाम स्मरण करने से ही पता चलता है कि तू कैसा (दयालु) है, कितना बड़ा (बेअंत) है।8।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गंगा जमुना केल केदारा ॥ कासी कांती पुरी दुआरा ॥ गंगा सागरु बेणी संगमु अठसठि अंकि समाई हे ॥९॥
मूलम्
गंगा जमुना केल केदारा ॥ कासी कांती पुरी दुआरा ॥ गंगा सागरु बेणी संगमु अठसठि अंकि समाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केल = खेल, श्री कृष्ण जी के खेलने की जगह, बिंद्रावन। केदारा = गढ़वाल के इलाके में केदारनाथ तीर्थ। कांती = कांची, जिसका प्रसिद्ध नाम ‘कांची वरम’ है, सात पुरियों में से एक पवित्र पुरी। पुरी दुआरका = द्वारका पुरी। गंगा सागरु = (सागरु = समुंदर) जहाँ गंगा समुंदर में पड़ती है। बेणी संगमु = त्रिवेणी (गंगा यमुना सरस्वती) के मेल की जगह। अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। अंकि = अंक में, स्वरूप में।9।
अर्थ: गंगा, जमुना, बिंद्रावन, केदार, काशी, कांति, द्वारका पुरी, सागर-गंगा, त्रिवेणी का संगम आदिक अढ़सठ तीर्थ उस कर्तार प्रभु की अपनी ही गोद में टिके हुए हैं।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सिध साधिकु वीचारी ॥ आपे राजनु पंचा कारी ॥ तखति बहै अदली प्रभु आपे भरमु भेदु भउ जाई हे ॥१०॥
मूलम्
आपे सिध साधिकु वीचारी ॥ आपे राजनु पंचा कारी ॥ तखति बहै अदली प्रभु आपे भरमु भेदु भउ जाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = जोग साधना में माहिर योगी। साधिक = योग साधना करने वाले। पंचा कारी = पँचों को बनाने वाला। तखति = तख्त पर। अदली = न्याय करने वाला।10।
अर्थ: (प्रभु के स्वयं से पैदा हुई सृष्टि में कहीं त्यागी हैं तो कहीं राजा हैं, सो,) प्रभु स्वयं ही योग-साधना में सिद्ध-हस्त योगी है, स्वयं ही योग-साधना करने वाला है, स्वयं ही योग-साधना की विचार करने वाला है। प्रभु स्वयं ही राजा है स्वयं ही (अपने राज में) पँच-चौधरी बनाने वाला है। न्याय करने वाला प्रभु स्वयं ही तख़्त पर बैठा हुआ है, (उसकी अपनी ही मेहर से जगत में से) भटकना, (परस्पर) दूरियां और डर-सहम दूर होता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे काजी आपे मुला ॥ आपि अभुलु न कबहू भुला ॥ आपे मिहर दइआपति दाता ना किसै को बैराई हे ॥११॥
मूलम्
आपे काजी आपे मुला ॥ आपि अभुलु न कबहू भुला ॥ आपे मिहर दइआपति दाता ना किसै को बैराई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किसै को = किसी का। बैराई = वैरी।11।
अर्थ: (सब जीवों में स्वयं ही व्यापक होने के कारण) प्रभु स्वयं ही काज़ी है स्वयं ही मुल्ला है (जीव तो माया के मोह में फंस के भूलें करते रहते हैं, पर सबमें व्यापक होते हुए भी प्रभु) आप अमोध है, वह कभी गलती नहीं करता। वह किसी के साथ वैर भी नहीं करता, वह सदा मेहर का मालिक है दया का श्रोत है सब जीवों को दातें देता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥ सभसै दाता तिलु न तमाई ॥ भरपुरि धारि रहिआ निहकेवलु गुपतु प्रगटु सभ ठाई हे ॥१२॥
मूलम्
जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥ सभसै दाता तिलु न तमाई ॥ भरपुरि धारि रहिआ निहकेवलु गुपतु प्रगटु सभ ठाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभसै = हरेक जीव का। तमाई = तमा, लालच। भरपुरि = भरपूर, नाको नाक व्यापक। निहकेवलु = (निष्कैवल्य) शुद्ध स्वरूप, पवित्र। ठाई = जगहों में।12।
अर्थ: प्रभु जिस जीव पर बख्शिश करता है उसको बड़ाई देता है, हरेक जीव को दातें देने वाला है (उसको किसी जीव से किसी किस्म का) रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। सब जीवों में व्यापक हो के सबको आसरा दे रहा है (सबमें होते हुए भी स्वयं) पवित्र हस्ती वाला है। दिखाई देता जगत हो अथवा अदृश्य, प्रभु हर जगह मौजूद है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ सालाही अगम अपारै ॥ साचे सिरजणहार मुरारै ॥ जिस नो नदरि करे तिसु मेले मेलि मिलै मेलाई हे ॥१३॥
मूलम्
किआ सालाही अगम अपारै ॥ साचे सिरजणहार मुरारै ॥ जिस नो नदरि करे तिसु मेले मेलि मिलै मेलाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु। मुरारि = परमात्मा (मुर+अरि)।13।
अर्थ: परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, उसके गुणों का उस पार का छोर नहीं मिल सकता, वह सदा-स्थिर रहने वाला है, सब जीवों को पैदा करने वाला है, और दैत्यों को नाश करने वाला है। मैं उसकी कौन-कौन सी कीर्ति बयान कर सकता हूँ? जिस जीव पर मेहर की नजर करता है उसको अपने चरणों में जोड़ लेता है, वह जीव प्रभु के चरणों में मिला रहता है, प्रभु खुद ही मिलाए रखता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु महेसु दुआरै ॥ ऊभे सेवहि अलख अपारै ॥ होर केती दरि दीसै बिललादी मै गणत न आवै काई हे ॥१४॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु महेसु दुआरै ॥ ऊभे सेवहि अलख अपारै ॥ होर केती दरि दीसै बिललादी मै गणत न आवै काई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआरै = (प्रभु के) दर पर। महेसु = शिव। ऊभे = खड़े हुए। होर केती = और बेअंत दुनिया। दरि = प्रभु के दर पर। मै = मुझसे। काई गणत = कोई गिनती।14।
अर्थ: (बड़े-बड़े देवते भी) क्या ब्रहमा, क्या विष्णु, और क्या शिव - सारे उस अलख और अपार प्रभु के दर पर खड़े हुए सेवा में हाजिर रहते हैं। और भी इतनी बेअंत दुनिया उसके दर पर तरले लेती दिखाई दे रही है कि मुझसे कोई गिनती नहीं हो सकती।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साची कीरति साची बाणी ॥ होर न दीसै बेद पुराणी ॥ पूंजी साचु सचे गुण गावा मै धर होर न काई हे ॥१५॥
मूलम्
साची कीरति साची बाणी ॥ होर न दीसै बेद पुराणी ॥ पूंजी साचु सचे गुण गावा मै धर होर न काई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सची = सदा सिथर रहने वाली। कीरति = महिमा, कीर्ति। पूंजी = संपत्ति, धन-दौलत। धर = आसरा।15।
अर्थ: परमात्मा की महिमा और महिमा की वाणी ही सदा-स्थिर रहने वाली संपत्ति है। वेद-पुराण आदिक धर्म-पुस्तकों में भी इस राशि-पूंजी के बिना और सदा-स्थिर रहने वाला पदार्थ नहीं दिखता। प्रभु का नाम ही अटल पूंजी है, मैं सदा उस अटल प्रभु के गुण गाता हूँ, मुझे उसके बिना और कोई आसरा नहीं दिखता।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुगु जुगु साचा है भी होसी ॥ कउणु न मूआ कउणु न मरसी ॥ नानकु नीचु कहै बेनंती दरि देखहु लिव लाई हे ॥१६॥२॥
मूलम्
जुगु जुगु साचा है भी होसी ॥ कउणु न मूआ कउणु न मरसी ॥ नानकु नीचु कहै बेनंती दरि देखहु लिव लाई हे ॥१६॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगु जुगु = कोई भी युग हो। देखहु = (हे प्रभु!) तू संभाल करता है।16।
अर्थ: प्रभु हरेक युग में कायम रहने वाला है, अब भी मौजूद है, सदा ही कायम रहेगा। जगत में और जो भी जीव आया वह (आखिर) मर गया, जो भी आएगा वह (अवश्य) मरेगा।
गरीब नानक विनती करता है: हे प्रभु! तू अपने दरबार में बैठा सब जीवों की बड़े ध्यान से संभाल कर रहा है।16।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ दूजी दुरमति अंनी बोली ॥ काम क्रोध की कची चोली ॥ घरि वरु सहजु न जाणै छोहरि बिनु पिर नीद न पाई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ दूजी दुरमति अंनी बोली ॥ काम क्रोध की कची चोली ॥ घरि वरु सहजु न जाणै छोहरि बिनु पिर नीद न पाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजी = परमात्मा के बिना अन्य आसरे की झाक। दुरमति = बुरी मति। कची चोली = नाशवान शरीर। घरि = हृदय घर में। खसम = प्रभु। सहजु = आत्मिक अडोलता। छोडहि = अंजान जीव-स्त्री। नीद = आत्मिक शांति।1।
अर्थ: प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक ऐसी दुर्मति है कि इसमें फसी हुई जीव-स्त्री अंधी और बहरी हो जाती है (ना वह आँखों से परमात्मा को देख सकती है, ना वह कानों से परमात्मा की महिमा सुन सकती है)। उसका शरीर काम-क्रोध आदि में गलता रहता है। पति-प्रभु उसके हृदय-घर में बसता है, पर वह अंजान जीव-स्त्री उसको पहचान नहीं सकती, आत्मिक अडोलता उसके अंदर ही है पर वह समझ नहीं सकती। पति-प्रभु से विछुड़ी हुई को शांति नसीब नहीं होती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि अगनि जलै भड़कारे ॥ मनमुखु तके कुंडा चारे ॥ बिनु सतिगुर सेवे किउ सुखु पाईऐ साचे हाथि वडाई हे ॥२॥
मूलम्
अंतरि अगनि जलै भड़कारे ॥ मनमुखु तके कुंडा चारे ॥ बिनु सतिगुर सेवे किउ सुखु पाईऐ साचे हाथि वडाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगनि = तृष्णा आग। भड़कारे = भड़ भड़ करके। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।2।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया) की खातिर चारों तरफ़ भटकता है, उसके अंदर तृष्णा की आग भड़-भड़ करके जलती है। सतिगुरु की बताई हुई सेवा करे बिना आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता, यह बड़ाई सदा-स्थिर प्रभु के अपने हाथ में है (जिस पर मेहर करे उसी को देता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु अहंकारु निवारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ गिआन खड़गु लै मन सिउ लूझै मनसा मनहि समाई हे ॥३॥
मूलम्
कामु क्रोधु अहंकारु निवारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ गिआन खड़गु लै मन सिउ लूझै मनसा मनहि समाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तसकर = चोर। सबदि = शब्द से। खड़गु = तलवार। लूझै = लड़ता है। मनहि = मन में।3।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य अपने अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार दूर करता है, गुरु के शब्द में जुड़ के कामादिक पाँच चोरों को मारता है, गुरु से मिले ज्ञान की तलवार ले के अपने मन के साथ लड़ाई करता है, उसके मन का मायावी फुरना मन में ही समाप्त हो जाता है (भाव, मन में मायावी फुरने उठते ही नहीं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा की रकतु पिता बिदु धारा ॥ मूरति सूरति करि आपारा ॥ जोति दाति जेती सभ तेरी तू करता सभ ठाई हे ॥४॥
मूलम्
मा की रकतु पिता बिदु धारा ॥ मूरति सूरति करि आपारा ॥ जोति दाति जेती सभ तेरी तू करता सभ ठाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मा = माँ। रकतु = लहू। बिदु = बिंदु, वीर्य की बूँद। जेती = जितनी भी।4।
अर्थ: हे अपार प्रभु! माँ के रक्त और पिता के वीर्य की बूँद को मिला के तूने मनुष्य का बुत बना दिया, सुंदर चेहरा बना दिया। हरेक जीव के अंदर तेरी ही ज्योति है, जो भी पदार्थों की बख्शिश है सब तेरी ही है, तू विधाता हर जगह मौजूद है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुझ ही कीआ जमण मरणा ॥ गुर ते समझ पड़ी किआ डरणा ॥ तू दइआलु दइआ करि देखहि दुखु दरदु सरीरहु जाई हे ॥५॥
मूलम्
तुझ ही कीआ जमण मरणा ॥ गुर ते समझ पड़ी किआ डरणा ॥ तू दइआलु दइआ करि देखहि दुखु दरदु सरीरहु जाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। देखहि = तू संभाल करता है। सरीरहु = शरीर में से।5।
अर्थ: हे प्रभु! जनम और मरण (का सिलसिला) तूने ही बनाया है, जिस मनुष्य को गुरु से यह सूझ पड़ जाए वह फिर मौत से नहीं डरता। हे प्रभु! तू दया का घर है, जिस मनुष्य की ओर तू निगाह करके देखता है उसके शरीर में से दुख-दर्द दूर हो जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज घरि बैसि रहे भउ खाइआ ॥ धावत राखे ठाकि रहाइआ ॥ कमल बिगास हरे सर सुभर आतम रामु सखाई हे ॥६॥
मूलम्
निज घरि बैसि रहे भउ खाइआ ॥ धावत राखे ठाकि रहाइआ ॥ कमल बिगास हरे सर सुभर आतम रामु सखाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निज घरि = अपने हृदय घर में। खाइआ = समाप्त कर दिया। धावत = माया के पीछे भटकने को। ठाकि = रोक के। सर = तालाब, ज्ञान इन्द्रियाँ। सुभर = नाको नाक भरे हुए (नाम अमृत से)। आतमरामु = परमात्मा।6।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) जो मनुष्य अपने हृदय (में बसते परमात्मा की याद) में टिके रहते हैं वे मौत का डर समाप्त कर लेते हैं, वे अपने मन को माया के पीछे दौड़ने से बचा लेते हैं और (माया की ओर से) रोक के (प्रभु-चरणों में) टिकाते हैं, उनके हृदय-कमल खिल उठते हैं, हरे हो जाते हैं, उनके (ज्ञान-इन्द्रिय-रूप) तालाब (नाम-अमृत से) लबालब भरे रहते हैं, सार्व-व्यापक परमात्मा उनका (सदा के लिए) मित्र बन जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ किउ रहीऐ चलणा परथाए ॥ सचा अमरु सचे अमरा पुरि सो सचु मिलै वडाई हे ॥७॥
मूलम्
मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ किउ रहीऐ चलणा परथाए ॥ सचा अमरु सचे अमरा पुरि सो सचु मिलै वडाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंडल = संसार। परथाए = परलोक में। अमरापुरि = उस पुरी में जो सदा अटल है।7।
अर्थ: जो भी जीव जगत में आते हैं वह मौत (का परवाना अपने सिर पर) लिखा के ही आते हैं। किसी भी हालत में कोई भी जीव यहाँ सदा नहीं रह सकता, हरेक ने अवश्य परलोक में जाना है। परमात्मा का यह सदा-कायम रहने वाला हुक्म (अमर) है। जो लोग सदा-स्थिर प्रभु की सदा-स्थिर पुरी में टिके रहते हैं उनको सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है, उनको (प्रभु-मिलाप की यह) महिमा मिलती है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि उपाइआ जगतु सबाइआ ॥ जिनि सिरिआ तिनि धंधै लाइआ ॥ सचै ऊपरि अवर न दीसै साचे कीमति पाई हे ॥८॥
मूलम्
आपि उपाइआ जगतु सबाइआ ॥ जिनि सिरिआ तिनि धंधै लाइआ ॥ सचै ऊपरि अवर न दीसै साचे कीमति पाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबाइआ = सारा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरिआ = पैदा किया। तिनि = उस (प्रभु) ने।8।
अर्थ: यह सारा जगत प्रभु ने स्वयं ही पैदा किया है। जिस (प्रभु) ने (जगत) पैदा किया है उसने (स्वयं ही) इसको माया की दौड़-भाग में लगा दिया है। उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के (सिर) पर और कोई (ताकत) नहीं दिखती जो उस सदा-स्थिर (की सामर्थ्य) का मूल्य डाल सके।8।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐथै गोइलड़ा दिन चारे ॥ खेलु तमासा धुंधूकारे ॥ बाजी खेलि गए बाजीगर जिउ निसि सुपनै भखलाई हे ॥९॥
मूलम्
ऐथै गोइलड़ा दिन चारे ॥ खेलु तमासा धुंधूकारे ॥ बाजी खेलि गए बाजीगर जिउ निसि सुपनै भखलाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोइल = नदियों के किनारे वह जगहें जहाँ मुश्किल के दिनों में लोग अपने पशू-मवेशियों को चराने के लिए आ टिकते हैं। धुंधूकारे = घोर अंधेरे में, अज्ञानता के अंधकार में। निसि = रात के समय। सुपनै = सपने में। भखलाई = बड़ बड़ाता है।9।
अर्थ: (जैसे मुश्किल के दिनों में दरियाओं के किनारे पशू-मवेशियों को चराने आए लोगों का वहाँ थोड़े दिनों के लिए ही ठिकाना होता है, वैसे ही) यहाँ जगत में जीवों का चार दिनों का ही बसेरा है। यह जगत एक खेल है, एक तमाशा है, पर (जीव माया के मोह के कारण अज्ञानता के) घोर अंधेरे में फसे पड़े हैं। बाज़ीगरों की तरह जीव (माया की) बाज़ी खेल के चले जाते हैं, (इस खेल में से किसी के हाथ-पल्ले कुछ नहीं पड़ता) जैसे रात के सपने में कोई व्यक्ति (धन पा के) बड़-बड़ाता है (पर सपना टूट जाने पर पल्ले कुछ भी नहीं रहता)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन कउ तखति मिली वडिआई ॥ निरभउ मनि वसिआ लिव लाई ॥ खंडी ब्रहमंडी पाताली पुरीई त्रिभवण ताड़ी लाई हे ॥१०॥
मूलम्
तिन कउ तखति मिली वडिआई ॥ निरभउ मनि वसिआ लिव लाई ॥ खंडी ब्रहमंडी पाताली पुरीई त्रिभवण ताड़ी लाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तखति = तख़्त पर। मनि = मन में। ताड़ी लाई हे = व्यापक है।10।
अर्थ: जो परमात्मा सारे खण्डों-ब्रहमण्डों-पातालों-मण्डलों में तीनों ही भवनों में गुप्त रूप में व्यापक है वह निर्भय प्रभु जिस मनुष्यों के मन में बस जाता है जो मनुष्य उस प्रभु की याद में जुड़ते हैं (वह, मानो, आत्मिक मण्डल में बादशाह बन जाते हैं) उनको तख़्त पर बैठने की महिमा मिलती है (वे सदा अपने हृदय-तख़्त पर बैठते हैं)।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साची नगरी तखतु सचावा ॥ गुरमुखि साचु मिलै सुखु पावा ॥ साचे साचै तखति वडाई हउमै गणत गवाई हे ॥११॥
मूलम्
साची नगरी तखतु सचावा ॥ गुरमुखि साचु मिलै सुखु पावा ॥ साचे साचै तखति वडाई हउमै गणत गवाई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नगरी = शरीर। तखतु = हृदय। गणत = माया की सोचें।11।
अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु के सन्मुख हो के सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है, उसका ये शरीर उसका यह हृदय-तख़्त सदा-स्थिर प्रभु का निवास-स्थान बन जाता है। उस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु के सदा-स्थिर तख़्त पर (माया की ओर से सदा अडोल रहने वाले हृदय-तख़्त पर बैठने की) बड़ाई महिमा मिलती है। वह मनुष्य अहंकार और माया की सोचें दूर कर लेता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गणत गणीऐ सहसा जीऐ ॥ किउ सुखु पावै दूऐ तीऐ ॥ निरमलु एकु निरंजनु दाता गुर पूरे ते पति पाई हे ॥१२॥
मूलम्
गणत गणीऐ सहसा जीऐ ॥ किउ सुखु पावै दूऐ तीऐ ॥ निरमलु एकु निरंजनु दाता गुर पूरे ते पति पाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीऐ = जी में, मन में। दूऐ = दूसरे भाव में। तीऐ = त्रिगुणी माया में।12।
अर्थ: जब तलक माया की सोचें सोचते रहें प्राणों में सहम बना ही रहता है, ना ही प्रभु के बिना किसी अन्य झाक में और ना ही त्रिगुणी माया की लगन में - सुख कहीं नहीं मिलता। जिस मनुष्य ने पूरे गुरु की शरण पड़ कर इज्जत कमा ली (उसको निश्चय हो जाता है कि) सब दातें देने वाला एक परमात्मा ही है जो पवित्र-स्वरूप है और जिस पर माया की कालिख़ का प्रभाव नहीं पड़ता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुगि जुगि विरली गुरमुखि जाता ॥ साचा रवि रहिआ मनु राता ॥ तिस की ओट गही सुखु पाइआ मनि तनि मैलु न काई हे ॥१३॥
मूलम्
जुगि जुगि विरली गुरमुखि जाता ॥ साचा रवि रहिआ मनु राता ॥ तिस की ओट गही सुखु पाइआ मनि तनि मैलु न काई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। गही = पकड़ी।13।
अर्थ: हरेक युग में (भाव, युग चाहे कोई भी हो) किसी उस विरले ने ही सदा-स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाली है जो गुरु की शरण पड़ा है। वह सदा-स्थिर प्रभु हर जगह मौजूद है। (गुरु के माध्यम से जिसका) मन (उस प्रभु के प्रेम-रंग में) रंगा गया है, जिसने उस सदा-स्थिर प्रभु का पल्ला पकड़ा है उसको आत्मिक आनंद मिल गया है, उसके मन में उसके तन में (विकारों की) कोई मैल नहीं रह जाती।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीभ रसाइणि साचै राती ॥ हरि प्रभु संगी भउ न भराती ॥ स्रवण स्रोत रजे गुरबाणी जोती जोति मिलाई हे ॥१४॥
मूलम्
जीभ रसाइणि साचै राती ॥ हरि प्रभु संगी भउ न भराती ॥ स्रवण स्रोत रजे गुरबाणी जोती जोति मिलाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसाइणि = रसों के घर प्रभु के नाम में। भराती = भटकना। स्रवण = कान।14।
अर्थ: जिस मनुष्य की जीभ सब रसों के श्रोत सदा-स्थिर प्रभु के नाम-रंग में रंगी जाती है, हरि परमात्मा उसका (सदा के लिए) साथी बन जाता है, उसको कोई डर नहीं व्यापता, उसको कोई भटकना नहीं रह जाती। सतिगुरु की वाणी सुनने में उसके कान सदा मस्त रहते हैं, उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रखि रखि पैर धरे पउ धरणा ॥ जत कत देखउ तेरी सरणा ॥ दुखु सुखु देहि तूहै मनि भावहि तुझ ही सिउ बणि आई हे ॥१५॥
मूलम्
रखि रखि पैर धरे पउ धरणा ॥ जत कत देखउ तेरी सरणा ॥ दुखु सुखु देहि तूहै मनि भावहि तुझ ही सिउ बणि आई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! मैं जिधर देखता हूँ उधर सब जीव तेरी ही शरण पड़ते हैं। जिस मनुष्य की प्रीति सिर्फ तेरे साथ ही निभ रही है (भाव, जिसने अन्य सारे आसरे छोड़ के सिर्फ एक तेरा ही आसरा पकड़ा है) वह मनुष्य धरती पर अपनी जीवन-पथ समाप्त करते हुए बड़े ही ध्यान से पैर रखता है (विकारों की ओर बिल्कुल ही नहीं पड़ता), तू ही उसके मन को प्यारा लगने लगता है, (उसको निश्चय हो जाता है कि) तू ही सुख देता है तू ही दुख देता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंत कालि को बेली नाही ॥ गुरमुखि जाता तुधु सालाही ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥१६॥३॥
मूलम्
अंत कालि को बेली नाही ॥ गुरमुखि जाता तुधु सालाही ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥१६॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई भी। सालाही = सालाहते हैं।16।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं वे यह समझ लेते हैं कि जगत में आखिरी वक्त कोई (साक-संबंधी) साथी नहीं बन सकता, (इस वास्ते, हे प्रभु!) वह तेरी ही महिमा करते हैं। हे नानक! वे मनुष्य प्रभु के नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे माया के मोह से उपराम रहते हैं, वे सदा अपने हृदय-गृह में टिक के प्रभु-चरणों में जुड़े रहते हैं।16।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ आदि जुगादी अपर अपारे ॥ आदि निरंजन खसम हमारे ॥ साचे जोग जुगति वीचारी साचे ताड़ी लाई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ आदि जुगादी अपर अपारे ॥ आदि निरंजन खसम हमारे ॥ साचे जोग जुगति वीचारी साचे ताड़ी लाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = हे सृष्टि के मूल प्रभु! जुगादी = हे जुगों के आदि से मौजूद प्रभु! अपर = हे प्रभु जिससे परे और कोई नहीं। अपारे = हे प्रभु जिसका परला किनारा नहीं दिखता। निरंजन = हे माया के प्रभाव से परे प्रभु! साचे = हे सदा स्थिर! जोग जुगति = जीवों को अपने साथ मिलाने की जुगति। वीचारी = हे विचारने वाले हरि! साचे ताड़ी लाई हे = हे अपने आप में तवज्जो जोड़ी रखने वाले सदा स्थिर प्रभु!।1।
अर्थ: हे सारी रचना के मूल! हे जुगों के शुरू से मौजूद प्रभु! हे अपर और अपार हरि! हे निरंजन! हे हमारे खसम! हे सदा-स्थिर प्रभु! हे मिलाप की जुगती को विचारने वाले! (जब तूने संसार की रचना नहीं की थी) तूने अपने आप में समाधि लगाई हुई थी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केतड़िआ जुग धुंधूकारै ॥ ताड़ी लाई सिरजणहारै ॥ सचु नामु सची वडिआई साचै तखति वडाई हे ॥२॥
मूलम्
केतड़िआ जुग धुंधूकारै ॥ ताड़ी लाई सिरजणहारै ॥ सचु नामु सची वडिआई साचै तखति वडाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुंधूकारै = धुंधूकार में, एकसार घुप अंधकार में, उस अवस्था में जिसकी बाबत कुछ भी पता नहीं लग सकता। सिरजणहारै = विधाता ने। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। तखति = तख्त पर।2।
अर्थ: (जगत-रचना से पहले) विधाता ने अनेक ही युग उस अवस्था में समाधि लगाई जिसकी बाबत कुछ भी पता नहीं चल सकता। उस विधाता का नाम सदा-स्थिर रहने वाला है, उसकी बड़ाई सदा कायम रहने वाली है, वह बड़ाई का मालिक प्रभु सदा टिके रहने वाले तख़्त पर बैठा हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतजुगि सतु संतोखु सरीरा ॥ सति सति वरतै गहिर ग्मभीरा ॥ सचा साहिबु सचु परखै साचै हुकमि चलाई हे ॥३॥
मूलम्
सतजुगि सतु संतोखु सरीरा ॥ सति सति वरतै गहिर ग्मभीरा ॥ सचा साहिबु सचु परखै साचै हुकमि चलाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतजुगि = सतियुग के प्रभाव में। सरीरा = शरीर में, मनुष्यों में (बरते)। सति = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। गहिर = गहरा। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। साचै हुकमि = अपने अटल हुक्म में। चलाई हे = जगत की कार चलाता है।3।
अर्थ: (जगत रचना करके) वह सदा-स्थिर रहने वाला, गहरा और बड़े जिगरे वाला प्रभु (हर जगह) व्यापक हो रहा है। जिस प्राणियों के अंदर (उस विधाता की मेहर के सदका) सत्य और संतोख (वाला जीवन उघड़ता) है, वह, मानो, सतियुग में (बस रहे हैं)। सदा-स्थिर रहने वाला मालिक (सब जीवों की) सही परख करता है, वह सृष्टि की कार को अपने अटल हुक्म में चला रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत संतोखी सतिगुरु पूरा ॥ गुर का सबदु मने सो सूरा ॥ साची दरगह साचु निवासा मानै हुकमु रजाई हे ॥४॥
मूलम्
सत संतोखी सतिगुरु पूरा ॥ गुर का सबदु मने सो सूरा ॥ साची दरगह साचु निवासा मानै हुकमु रजाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सत संतोखी = सत्य और संतोष का मालिक। मने = मानता है। सूरा = सूरमा। रजाई = रजा के मालिक प्रभु का।4।
अर्थ: पूरा गुरु (भी) सत और संतोख का मालिक है। जो मनुष्य गुरु का शब्द मानता है (अपने हृदय में टिकाता है) वह सूरमा (बन जाता) है (विकार उसको जीत नहीं सकते)। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में सदा का निवास प्राप्त कर लेता है, वह उस रजा के मालिक प्रभु का हुक्म मानता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतजुगि साचु कहै सभु कोई ॥ सचि वरतै साचा सोई ॥ मनि मुखि साचु भरम भउ भंजनु गुरमुखि साचु सखाई हे ॥५॥
मूलम्
सतजुगि साचु कहै सभु कोई ॥ सचि वरतै साचा सोई ॥ मनि मुखि साचु भरम भउ भंजनु गुरमुखि साचु सखाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। सभु कोई = हरेक जीव (जो सतियुग के प्रभाव तले है)। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। भरम भउ भंजनु = (जीवों की) भटकना और डर दूर करने वाला प्रभु। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है। सखाई = मित्र।5।
अर्थ: जो जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करता है वह, मानो, सतियुग में है। वह सदा-स्थिर-प्रभु की याद में टिका हुआ ही जगत की कार करता है, उसको हर जगह सदा-स्थिर प्रभु ही दिखता है। उसके मन में उसके मुँह में सदा-स्थिर-प्रभु उसका सदा साथी बन जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रेतै धरम कला इक चूकी ॥ तीनि चरण इक दुबिधा सूकी ॥ गुरमुखि होवै सु साचु वखाणै मनमुखि पचै अवाई हे ॥६॥
मूलम्
त्रेतै धरम कला इक चूकी ॥ तीनि चरण इक दुबिधा सूकी ॥ गुरमुखि होवै सु साचु वखाणै मनमुखि पचै अवाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रेतै = त्रेते में, त्रेते के प्रभाव में। धरम कला = धर्म की एक ताकत। चूकी = समाप्त हो जाती है। चरण = पैर। सूकी = शूकती है, प्रबल हो जाती है। दुबिधा = मेर तेर। साचु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम। वखाणै = स्मरण करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। पचै = दुखी होता है। अवाई = अवैड़ापन।6।
अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर से धर्म की एक ताकत समाप्त हो जाती है, जिसके अंदर धर्म के तीन पैर रह जाते हैं और मेर-तेर अपना जोर डाल लेती है, वह मानो, त्रेते युग में बस रहा है। अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति (मेर-तेर के) अवैड़ेपन में दुखी होता है, जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करता है (और, वह मानो, सतियुग में है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखि कदे न दरगह सीझै ॥ बिनु सबदै किउ अंतरु रीझै ॥ बाधे आवहि बाधे जावहि सोझी बूझ न काई हे ॥७॥
मूलम्
मनमुखि कदे न दरगह सीझै ॥ बिनु सबदै किउ अंतरु रीझै ॥ बाधे आवहि बाधे जावहि सोझी बूझ न काई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कदे = कोई भी समय हो। सीझै = कामयाब होता, स्वीकार होता। अंतरु = अंतरात्मा, हृदय। रीझै = रीझ में आता, (स्मरण के) उत्साह में आता।7।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला बँदा कभी परमात्मा की हजूरी में आदर नहीं पाता, उसकी अंतरात्मा कभी भी (स्मरण की) उत्साह में नहीं आती। ऐसे व्यक्ति अपने मन की वासना में बँधे हुए जगत में आते हैं और बँधे हुए ही यहाँ से चले जाते हैं, उन्हें (सही जीवन-मार्ग की) कोई सूझ नहीं होती।7।
[[1024]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
दइआ दुआपुरि अधी होई ॥ गुरमुखि विरला चीनै कोई ॥ दुइ पग धरमु धरे धरणीधर गुरमुखि साचु तिथाई हे ॥८॥
मूलम्
दइआ दुआपुरि अधी होई ॥ गुरमुखि विरला चीनै कोई ॥ दुइ पग धरमु धरे धरणीधर गुरमुखि साचु तिथाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआपरि = द्वापर में, द्वापर के प्रभाव में। होई = हो जाती है। चीनै = पहचानता है। दुइ = दो। पग = पैर। धरणीधर = धरती का आसरा। तिथाई = वहीं ही, प्रभु चरणों में ही।8।
अर्थ: जिस लोगों के अंदर दया आधी रह गई (दया का गुण कम हो गया) जिनके हृदय में धरती का आसरा धर्म सिर्फ दो पैर टिकाता है (भाव, जिनके अंदर सुरी संपदा और असुरी संपदा एक समान हो गई) वह, मानो, द्वापर में बसते हैं। पर जो कोई विरला बँदा गुरु की शरण पड़ता है वह (जीवन के सही राह को) पहचानता है, वह उसी आत्मिक अवस्था में टिका रहता है जहाँ सदा-स्थिर प्रभु उसके अंदर प्रत्यक्ष बसता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजे धरमु करहि परथाए ॥ आसा बंधे दानु कराए ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई थाके करम कमाई हे ॥९॥
मूलम्
राजे धरमु करहि परथाए ॥ आसा बंधे दानु कराए ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई थाके करम कमाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परथाए = किसी गरज वास्ते। बंधे = बँधे हुए। मुकति = (आशा के बंधनो से) खलासी।9।
अर्थ: राजा गण किसी मतलब के लिए धर्म कमाते हैं, दुनियावी (लोग) आशाओं में बँधे हुए दान-पुण्य करते हैं (ये सब कुछ कमर-टूटी हुई दया के कारण ही करते हैं, ये लोक और परलोक के सुख ही तलाशते हैं)। (दान-पुण्य आदि के) कर्म कर के थक जाते हैं, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (दुनिया के सुखों की आशाओं से) उनको खलासी नहीं मिलती (इसलिए आत्मिक आनंद नहीं मिलता)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम धरम करि मुकति मंगाही ॥ मुकति पदारथु सबदि सलाही ॥ बिनु गुर सबदै मुकति न होई परपंचु करि भरमाई हे ॥१०॥
मूलम्
करम धरम करि मुकति मंगाही ॥ मुकति पदारथु सबदि सलाही ॥ बिनु गुर सबदै मुकति न होई परपंचु करि भरमाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगाही = माँगते हैं। सालाही = महिमा से। परपंच = जगत की खेल।10।
अर्थ: विधाता ने यह जगत-रचना करके जीवों को अजीब भुलेखे में डाला हुआ है कि (दान-पुण्य तीर्थ आदिक) कर्म कर के मुक्ति माँगते हैं। पर, मुक्ति देने वाला नाम पदार्थ गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु की महिमा करने से ही मिलता है। (ये पक्की बात है कि समय का नाम चाहे सतियुग रख लो चाहे त्रेता रख लो और चाहे द्वापर) गुरु के शब्द के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ ममता छोडी न जाई ॥ से छूटे सचु कार कमाई ॥ अहिनिसि भगति रते वीचारी ठाकुर सिउ बणि आई हे ॥११॥
मूलम्
माइआ ममता छोडी न जाई ॥ से छूटे सचु कार कमाई ॥ अहिनिसि भगति रते वीचारी ठाकुर सिउ बणि आई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु कार = सदा स्थिर प्रभु का स्मरण रूप कार। अहि = दिन। निसि = रात।11।
अर्थ: (समय कोई भी हो) माया का अपनत्व त्यागा नहीं जा सकता। सिर्फ वही बंदे (इस ममता के पँजे में से) निजात पाते हैं जो सदा-स्थिर प्रभु के नाम-जपने की कार करते हैं, जो दिन-रात परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगे रहते हैं, जो उसके गुणों की विचार करते हैं और (इस तरह) जिनकी प्रीति मालिक-प्रभु के साथ बनी रहती है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि जप तप करि करि तीरथ नावहि ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि ॥ हठि निग्रहि अपतीजु न भीजै बिनु हरि गुर किनि पति पाई हे ॥१२॥
मूलम्
इकि जप तप करि करि तीरथ नावहि ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि ॥ हठि निग्रहि अपतीजु न भीजै बिनु हरि गुर किनि पति पाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई मनुष्य। हठि = हठ से (किए कर्मों द्वारा)। निग्रहि = इन्द्रियों को रोकने के प्रयत्न से। अपतीजु = ना पतीजने वाला मन।12।
अर्थ: हे प्रभु! अनेक लोग ऐसे हैं जो जप करते हैं तप तापते हैं तीर्थों पर जाते हैं (और इस तरह इस लोक में और परलोक में इज्जत हासिल करनी चाहते हैं)। (पर, हे प्रभु! उनके भी क्या वश?) जैसे तेरी रजा है तू उनको इस राह पर चला रहा है। (वे बिचारे नहीं समझते कि) जबरन इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करने से ये कभी ना पतीजने वाला मन तेरे नाम-रस में आनंदित नहीं हो सकता।
गुरु की शरण पड़े बिना किसी ने कभी प्रभु की हजूरी में इज्जत नहीं प्राप्त की (समय और युग का नाम चाहे कुछ भी हो)।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कली काल महि इक कल राखी ॥ बिनु गुर पूरे किनै न भाखी ॥ मनमुखि कूड़ु वरतै वरतारा बिनु सतिगुर भरमु न जाई हे ॥१३॥
मूलम्
कली काल महि इक कल राखी ॥ बिनु गुर पूरे किनै न भाखी ॥ मनमुखि कूड़ु वरतै वरतारा बिनु सतिगुर भरमु न जाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इक कल = धरम की एक ही शक्ति। राखी = रह जाता है। भाखी = बताई, समझाई। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले बँदे के अंदर। कूड़ु = झूठ, माया का मोह। कूड़ु वरतै वरतारा = माया का मोह अपना जोर डाले रखता है।13।
अर्थ: पूरे गुरु के बिना कभी किसी ने यह बात नहीं समझाई कि (अगर धरम-सत्ता के चार हिस्से कर दिए जाएं और अगर किसी मनुष्य के अंदर) धर्म की सिर्फ एक ही सत्ता रह जाए तो वह मनुष्य, मानो, कलियुग में बसता है, अपने मन के पीछे चलने वाले उस मनुष्य के अंदर माया का मोह ही अपना प्रभाव डाल के रखता है (उसके अंदर सदा माया की भटकना बनी रहती है) सतिगुरु की शरण पड़े बिना उसकी यह भटकना दूर नहीं होती।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु वेपरवाहु सिरंदा ॥ ना जम काणि न छंदा बंदा ॥ जो तिसु सेवे सो अबिनासी ना तिसु कालु संताई हे ॥१४॥
मूलम्
सतिगुरु वेपरवाहु सिरंदा ॥ ना जम काणि न छंदा बंदा ॥ जो तिसु सेवे सो अबिनासी ना तिसु कालु संताई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरंदा = विधाता (का रूप)। काणि = अधीनता। छंदा बंदा = बँदों की अधीनता।14।
अर्थ: सतिगुरु विधाता का रूप है, गुरु दुनियाँ की नजरों में बहुत ऊँचा है, गुरु को जमका डर नहीं, गुरु को दुनिया के बँदों की अधीनता नहीं। जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा करता है वह नाश-रहित हो जाता है (उसको कभी आत्मिक मौत नहीं आती) मौत का डर उसको कभी नहीं सताता।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर महि आपु रखिआ करतारे ॥ गुरमुखि कोटि असंख उधारे ॥ सरब जीआ जगजीवनु दाता निरभउ मैलु न काई हे ॥१५॥
मूलम्
गुर महि आपु रखिआ करतारे ॥ गुरमुखि कोटि असंख उधारे ॥ सरब जीआ जगजीवनु दाता निरभउ मैलु न काई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपना आप। करतारे = कर्तार ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले। उधारे = (परमात्मा) उद्धारता है।15।
अर्थ: कर्तार ने अपना आप गुरु में छुपा रखा है, वह जगत की जिंदगी का आसरा है वह सब जीवों को दातें देता है, उसको किसी का डर नहीं, उसको (माया-मोह आदि की) कोई मैल नहीं लग सकती। वह कर्तार गुरु के द्वारा करोड़ों और असंख जीवों को (संसार-समुंदर में डूबने से) बचा लेता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगले जाचहि गुर भंडारी ॥ आपि निरंजनु अलख अपारी ॥ नानकु साचु कहै प्रभ जाचै मै दीजै साचु रजाई हे ॥१६॥४॥
मूलम्
सगले जाचहि गुर भंडारी ॥ आपि निरंजनु अलख अपारी ॥ नानकु साचु कहै प्रभ जाचै मै दीजै साचु रजाई हे ॥१६॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचहि = माँगते हैं। साचु = सदा स्थिर नाम। कहै = स्मरण करता है। रजाई = हे रज़ा के मालिक प्रभु! 16।
अर्थ: सारे जीव गुरु के खजाने में से (उस प्रभु का नाम) माँगते हैं जो स्वयं माया के प्रभाव से ऊपर है जो अलख है और बेअंत है।
हे रजा के मालिक प्रभु! नानक (भी गुरु के दर पर पड़ कर) तेरा सदा-स्थिर नाम स्मरण करता है और माँगता है कि मुझे अपने सदा-स्थिर रहने वाले नाम की दाति दे।16।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ साचै मेले सबदि मिलाए ॥ जा तिसु भाणा सहजि समाए ॥ त्रिभवण जोति धरी परमेसरि अवरु न दूजा भाई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ साचै मेले सबदि मिलाए ॥ जा तिसु भाणा सहजि समाए ॥ त्रिभवण जोति धरी परमेसरि अवरु न दूजा भाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचै = सदा स्थिर रहने वाले (प्रभु) ने। सबदि = शब्द में। तिसु = उस (प्रभु) को। भाणा = अच्छा लगा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। परमेसरि = परमेश्वर ने। भाई = हे भाई!।1।
अर्थ: परमेश्वर ने अपनी ज्योति तीनों भवनों में टिका के रखी है; हे भाई! कोई और उस प्रभु जैसा नहीं है। उस सदा-स्थिर प्रभु ने जिस लोगों को (अपने चरणों में) मिलाया जिन्हें गुरु के शब्द में जोड़ा तब जब उसे अच्छा लगा, वह लोग अडोल आत्मिक अवस्था में लीन हो गए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस के चाकर तिस की सेवा ॥ सबदि पतीजै अलख अभेवा ॥ भगता का गुणकारी करता बखसि लए वडिआई हे ॥२॥
मूलम्
जिस के चाकर तिस की सेवा ॥ सबदि पतीजै अलख अभेवा ॥ भगता का गुणकारी करता बखसि लए वडिआई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस के = जिस (प्रभु) के। पतीजै = खुश होता है। अभेवा = जिसका भेद ना पाया जा सके। गुणकारी = आत्मिक गुण देने वाला।2।
अर्थ: जब (भक्तजन) गुरु के शब्द में जुड़ते हैं, जब उस प्रभु के सेवक बन के उसकी सेवा-भक्ति करते हैं, तब वह अलख और अभेव प्रभु (उनकी इस मेहनत पर) प्रसन्न होता है। कर्तार अपने भक्तों में आत्मिक गुण पैदा करता है, स्वयं उन पर बख्शिश करता है उनको महातम देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देदे तोटि न आवै साचे ॥ लै लै मुकरि पउदे काचे ॥ मूलु न बूझहि साचि न रीझहि दूजै भरमि भुलाई हे ॥३॥
मूलम्
देदे तोटि न आवै साचे ॥ लै लै मुकरि पउदे काचे ॥ मूलु न बूझहि साचि न रीझहि दूजै भरमि भुलाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दे = दे के। साचे = सदा स्थिर प्रभु के (भण्डारों में)। काचे = छोटे जीव, तुच्छ जीव। साचि = सदा स्थिर प्रभु (के नाम) में।3।
अर्थ: (जीवों को दातें) दे दे के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के (भण्डारों में) कमी नहीं आती (घाटा नहीं पड़ता), पर तुच्छ जीव दातें ले ले के (भी) मुकर जाते हैं, (अपने जीवन के) मूल-प्रभु (के खुल-दिले-स्वाभाव) को नहीं समझते, सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने की जीवों में रीझ पैदा नहीं होती, प्रभु के बिना और आसरों की झाक में भटक के गलत राह पर पड़े रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि जागि रहे दिन राती ॥ साचे की लिव गुरमति जाती ॥ मनमुख सोइ रहे से लूटे गुरमुखि साबतु भाई हे ॥४॥
मूलम्
गुरमुखि जागि रहे दिन राती ॥ साचे की लिव गुरमति जाती ॥ मनमुख सोइ रहे से लूटे गुरमुखि साबतु भाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जागि रहे = माया के मोह से सचेत रहते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे। साबतु = बची हुई पूंजी वाले।4।
अर्थ: जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं वे हर वक्त माया के मोह से सचेत रहते हैं, गुरु की शिक्षा ले के वे सदा-स्थिर प्रभु की लगन (का आनंद) पहचान लेते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे अपने आत्मिक जीवन की पूंजी को (माया के हमलों से) बचा के रखते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया के मोह में गाफिल टिके रहते हैं, और आत्मिक गुणों की संपत्ति लुटा बैठते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूड़े आवै कूड़े जावै ॥ कूड़े राती कूड़ु कमावै ॥ सबदि मिले से दरगह पैधे गुरमुखि सुरति समाई हे ॥५॥
मूलम्
कूड़े आवै कूड़े जावै ॥ कूड़े राती कूड़ु कमावै ॥ सबदि मिले से दरगह पैधे गुरमुखि सुरति समाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़े = झूठ ही, माया के मोह में ही। आवै = पैदा होता है। राती = रति हुई (जीव-स्त्री)। से = वह लोग। पैधे = सरोपा हासल करते हैं, सम्मान पाते हैं।5।
अर्थ: जो जीव-स्त्री माया के मोह के रंग में रंगी रहती है, वह माया के मोह में ग्रसी ही पैदा होती है, यहाँ (संसार में) हमेशा माया के मोह का ही व्यापार करती है, माया के मोह में फसी हुई ही दुनिया से चली जाती है। जो लोग गुरु के शब्द में जुड़े रहते हैं उन्हें परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है। गुरु की शरण पड़ने वाले लोगों की तवज्जो (प्रभु की याद में) टिकी रहती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूड़ि मुठी ठगी ठगवाड़ी ॥ जिउ वाड़ी ओजाड़ि उजाड़ी ॥ नाम बिना किछु सादि न लागै हरि बिसरिऐ दुखु पाई हे ॥६॥
मूलम्
कूड़ि मुठी ठगी ठगवाड़ी ॥ जिउ वाड़ी ओजाड़ि उजाड़ी ॥ नाम बिना किछु सादि न लागै हरि बिसरिऐ दुखु पाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ि = माया के मोह में। ठगी ठग = ठगों ने ठग ली। वाड़ी = बगीची। ओजाड़ी = उजाड़ में, जिसको कोई वाली वारिस नहीं है, बिना पति की, निखसमी। सादि = स्वाद वाला, स्वादिष्ट। हरि बिसरिऐ = हरि को बिसारने से।6।
अर्थ: जो जीव-स्त्री माया की तृष्णा में मोही रहती है उसके आत्मिक जीवन की बगीची को कामादिक ठग, ठग लेते हैं, जैसे कोई फुलवाड़ी कहीं उजाड़ में (बिना किसी वाली वारिस रखवाले की होने के कारण) उजड़ जाती है। (भले वह माया के मोह में फसी रहती है फिर भी) परमात्मा के नाम के बिना कोई भी चीज स्वादिष्ट नहीं लग सकती (कोई भी आकर्षण अच्छा नहीं लग सकता), प्रभु का नाम भूलने के कारण वह सदा दुख ही पाती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजनु साचु मिलै आघाई ॥ नाम रतनु साची वडिआई ॥ चीनै आपु पछाणै सोई जोती जोति मिलाई हे ॥७॥
मूलम्
भोजनु साचु मिलै आघाई ॥ नाम रतनु साची वडिआई ॥ चीनै आपु पछाणै सोई जोती जोति मिलाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। आघाई = तृप्त हो जाता है। साची = सदा अटल रहने वाली। आपु = अपने आप को।7।
अर्थ: जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु का नाम (आत्मिक जिंदगी के लिए) भोजन मिलता है, वह (तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है, जिसको परमात्मा का नाम-रत्न मिल जाता है, उसको (लोक-परलोक में) सदा-स्थिर रहने वाली इज्जत मिलती है। जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, वही (अपने जीवन के लक्ष्य को) पहचानता है, उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।7।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
नावहु भुली चोटा खाए ॥ बहुतु सिआणप भरमु न जाए ॥ पचि पचि मुए अचेत न चेतहि अजगरि भारि लदाई हे ॥८॥
मूलम्
नावहु भुली चोटा खाए ॥ बहुतु सिआणप भरमु न जाए ॥ पचि पचि मुए अचेत न चेतहि अजगरि भारि लदाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नावहु = नाम से। भरमु = भटकना। पचि = दुखी हो के। अचेत = गाफिल। अजगरि भारि = बहुत ही ज्यादा भार तले।8।
अर्थ: जो जीव-स्त्री परमात्मा के नाम से टूटी रहती है वह दुख सहती है (दुनिया के कामों में चाहे वह) बहुत समझदारी (दिखाए), उसकी (माया की) भटकना दूर नहीं होती। जो लोग परमात्मा की याद से बेखबर रहते हैं परमात्मा को याद नहीं करते, (वे माया के मोह में) दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं, वे (मोह के) बहुत ही भारे बोझ तले लदे रहते हैं।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु बाद बिरोधहि कोई नाही ॥ मै देखालिहु तिसु सालाही ॥ मनु तनु अरपि मिलै जगजीवनु हरि सिउ बणत बणाई हे ॥९॥
मूलम्
बिनु बाद बिरोधहि कोई नाही ॥ मै देखालिहु तिसु सालाही ॥ मनु तनु अरपि मिलै जगजीवनु हरि सिउ बणत बणाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाद = झगड़े। मै = मुझे। सालाही = मैं उसकी कीर्ति करूँ। अरपि = भेटा करके। जग जीवन = जगत का जीवन, परमात्मा। बणत = संबंध।9।
अर्थ: (माया के मोह में फसे हुओं का जिधर-किधर भी हाल देखो) झगड़ों से विरोध से कोई भी खाली नहीं है (और अगर तुम्हें यकीन नहीं आता तो) मुझे कोई ऐसा दिखाओ, मैं उसका आदर करता हूँ। अपना मन और शरीर भेटा करने से ही (भाव, अपने मन की अगुवाई और ज्ञान-इंद्रिय की भटकना को छोड़ के ही) जगत का जीवन परमात्मा मिलता है, तब ही उसके साथ सांझ बनती है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की गति मिति कोइ न पावै ॥ जे को वडा कहाइ वडाई खावै ॥ साचे साहिब तोटि न दाती सगली तिनहि उपाई हे ॥१०॥
मूलम्
प्रभ की गति मिति कोइ न पावै ॥ जे को वडा कहाइ वडाई खावै ॥ साचे साहिब तोटि न दाती सगली तिनहि उपाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = आत्मिक अवस्था। मिति = माप, गिनती। को = कोई व्यक्ति। वडाई = मान, अहंकार। खावै = (उसके आत्मिक जीवन को) खा जाता है। दाती = दातों में। तोटि = कमी, घाटा। तिनहि = तिनि ही, उस (परमात्मा) ने ही।10।
अर्थ: कोई आदमी नहीं जान सकता कि परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है। अगर कोई मनुष्य अपने आप को बड़ा कहलवा के (ये घमण्ड करे कि मैं प्रभु की गति-मिति पा सकता हूँ तो यह) घमण्ड उसके आत्मिक जीवन को तबाह कर देता है। सारी सृष्टि सदा-स्थिर रहने वाले मालिक ने पैदा की है (सबको दातें देता है, पर उसकी) दातों में कमी नहीं होती।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडी वडिआई वेपरवाहे ॥ आपि उपाए दानु समाहे ॥ आपि दइआलु दूरि नही दाता मिलिआ सहजि रजाई हे ॥११॥
मूलम्
वडी वडिआई वेपरवाहे ॥ आपि उपाए दानु समाहे ॥ आपि दइआलु दूरि नही दाता मिलिआ सहजि रजाई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेपरवाह = बेपरवाह प्रभु की। समाहे = संबाहे, पहुँचाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रजाई = रजा का मालिक।11।
अर्थ: (परमात्मा की यह एक) बड़ी भारी खूबी है कि (इतने बड़े जगत-परिवार का मालिक-पति हो के भी) बे-परवाह है (प्रबंध करने में घबराता नहीं), स्वयं ही पैदा करता है और स्वयं ही सबको रिजक पहुँचाता है। सब दातों का मालिक प्रभु दया का श्रोत है, किसी भी जीव से दूर नहीं है, वह रजा का मालिक जिस जीव को मिल जाता है वह (भी) आत्मिक अडोलता में टिक जाता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि सोगी इकि रोगि विआपे ॥ जो किछु करे सु आपे आपे ॥ भगति भाउ गुर की मति पूरी अनहदि सबदि लखाई हे ॥१२॥
मूलम्
इकि सोगी इकि रोगि विआपे ॥ जो किछु करे सु आपे आपे ॥ भगति भाउ गुर की मति पूरी अनहदि सबदि लखाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = अनेक जीव। सोगी = शोक में ग्रसे हुए। विआपे = दबाए हुए। भाउ = प्रेम। अनहदि = अमर प्रभु में। सबदि = गुरु के शब्द से।12।
अर्थ: (सृष्टि के) अनेक जीव सोग में ग्रसे रहते हैं, अनेक जीव रोग तले दबाए रहते हैं, जो कुछ करता है प्रभु स्वयं ही करता है। जो मनुष्य गुरु की पूरी मति के द्वारा परमात्मा की भक्ति करता है परमात्मा के साथ प्रेम गाठता है, वह उस अमर प्रभु में लीन रहता है, गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु उसको अपने आप की समझ दे देता है (और उसको कोई सोग कोई रोग नहीं व्यापता)।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि नागे भूखे भवहि भवाए ॥ इकि हठु करि मरहि न कीमति पाए ॥ गति अविगत की सार न जाणै बूझै सबदु कमाई हे ॥१३॥
मूलम्
इकि नागे भूखे भवहि भवाए ॥ इकि हठु करि मरहि न कीमति पाए ॥ गति अविगत की सार न जाणै बूझै सबदु कमाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अविगति = गिरती हुई (निम्न) आत्मिक अवस्था। सार = कद्र। कमाई = कमा के।13।
अर्थ: अनेक लोग (जगत त्याग के) नंगे रहते हैं, भूख काटते हैं (त्याग के भुलेखे के) भटकाए हुए (जगह-जगह) भटकते फिरते हैं। अनेक लोग (किसी निहित आत्मिक उन्नति की प्राप्ति की खातिर) अपने शरीर पर जोर-जबरदस्ती कर-कर के मरते हैं। पर ऐसा कोई मनुष्य (मनुष्य जीवन की) कद्र नहीं समझता, ऐसे किसी व्यक्ति को अच्छे-बुरे आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। वही व्यक्ति समझता है जो गुरु का शब्द कमाता है (जो गुरु के शब्द अनुसार अपना जीवन ढालता है)।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि तीरथि नावहि अंनु न खावहि ॥ इकि अगनि जलावहि देह खपावहि ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई कितु बिधि पारि लंघाई हे ॥१४॥
मूलम्
इकि तीरथि नावहि अंनु न खावहि ॥ इकि अगनि जलावहि देह खपावहि ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई कितु बिधि पारि लंघाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। देह = शरीर। खपावहि = मुश्किल करते हैं। कितु बिधि = किस तरीके से?।14।
अर्थ: अनेक लोग (जगत त्याग के) तीर्थ (तीर्थों) पर स्नान करते हैं, और अन्न नहीं खाते (दूधाधारी बनते हैं)। अनेक लोग (त्यागी बन के) आग जलाते हैं (धूणियाँ तपाते हैं और) अपने शरीर को (तपों का) कष्ट देते हैं पर परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (माया के बंधनो से) खलासी नहीं मिलती। स्मरण के बिना और किसी तरीके से कोई मनुष्य संसार-समुंदर से पार नहीं लांघ सकता।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति छोडहि उझड़ि जाई ॥ मनमुखि रामु न जपै अवाई ॥ पचि पचि बूडहि कूड़ु कमावहि कूड़ि कालु बैराई हे ॥१५॥
मूलम्
गुरमति छोडहि उझड़ि जाई ॥ मनमुखि रामु न जपै अवाई ॥ पचि पचि बूडहि कूड़ु कमावहि कूड़ि कालु बैराई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उझड़ि = गलत मार्ग पर। अवाई = अवैड़ा। जाई = जा के, जाए। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति। बूडहि = डूबता है। कूड़ि = माया के मोह में (फंसने के कारण)। बैराई = वैरी।15।
अर्थ: (कई व्यक्ति ऐसे हैं जो) कुर्मागी हो कर गुरु की मति पर चलना छोड़ देते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला अवैड़ा मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपता। परमात्मा के नाम से टूटे हुए बंदे (निरा) माया का ही धंधा करते रहते हैं, ऐसे व्यक्ति दुखी हो-हो के (माया के मोह के समुंदर में ही) गोते खाते रहते हैं (माया के मोह के) झूठे धंधों में (फसे रहने के कारण) आत्मिक मौत उनकी वैरनि बन जाती है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमे आवै हुकमे जावै ॥ बूझै हुकमु सो साचि समावै ॥ नानक साचु मिलै मनि भावै गुरमुखि कार कमाई हे ॥१६॥५॥
मूलम्
हुकमे आवै हुकमे जावै ॥ बूझै हुकमु सो साचि समावै ॥ नानक साचु मिलै मनि भावै गुरमुखि कार कमाई हे ॥१६॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवै = पैदा होता है। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। साचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है।16।5।
अर्थ: हरेक जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार ही (जगत में) आता है, उसके हुक्म अनुसार (यहाँ से) चला जाता है। जो जीव उसकी रजा को समझ लेता है वह उस सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (स्मरण की) कार करता है उसको सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है, उसके मन को प्रभु प्यारा लगने लग जाता है।16।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ आपे करता पुरखु बिधाता ॥ जिनि आपे आपि उपाइ पछाता ॥ आपे सतिगुरु आपे सेवकु आपे स्रिसटि उपाई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ आपे करता पुरखु बिधाता ॥ जिनि आपे आपि उपाइ पछाता ॥ आपे सतिगुरु आपे सेवकु आपे स्रिसटि उपाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = पैदा करने वाला, विधाता। जिनि = जिस (कर्तार) ने। उपाइ = पैदा करके। पछाता = संभाल की है, संभाल का फर्ज पहचान रहा है।1।
अर्थ: कर्तार स्वयं ही सृष्टि को पैदा करने वाला है और स्वयं ही इसमें व्यापक है। उस कर्तार ने स्वयं ही जगत पैदा करके इसकी संभाल का फर्ज भी पहचाना है। प्रभु खुद ही सतिगुरु है खुद ही सेवक है, प्रभु ने स्वयं ही ये सृष्टि रची है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे नेड़ै नाही दूरे ॥ बूझहि गुरमुखि से जन पूरे ॥ तिन की संगति अहिनिसि लाहा गुर संगति एह वडाई हे ॥२॥
मूलम्
आपे नेड़ै नाही दूरे ॥ बूझहि गुरमुखि से जन पूरे ॥ तिन की संगति अहिनिसि लाहा गुर संगति एह वडाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरे = सारे गुणों के मालिक। अहि = दिन। निसि = रात। लाहा = लाभ।2।
अर्थ: (सर्व-व्यापक होने के कारण प्रभु) स्वयं ही (हरेक जीव के) नजदीक है किसी से भी दूर नहीं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के यह भेद समझ लेते हैं वे अचूक आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। गुरु की संगति करने के कारण उन्हें ये महत्वता मिलती है कि उनकी संगत से भी दिन-रात लाभ ही लाभ मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुगि जुगि संत भले प्रभ तेरे ॥ हरि गुण गावहि रसन रसेरे ॥ उसतति करहि परहरि दुखु दालदु जिन नाही चिंत पराई हे ॥३॥
मूलम्
जुगि जुगि संत भले प्रभ तेरे ॥ हरि गुण गावहि रसन रसेरे ॥ उसतति करहि परहरि दुखु दालदु जिन नाही चिंत पराई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। प्रभू = हे प्रभु! रसन = जीभ। रसेरे = रस आनंद से। परहरि = दूर कर के। चिंत = आशा।3।
अर्थ: हे प्रभु! हरेक युग में तेरे संत नेक बँदे होते हैं, वे जीभ से रस ले के तेरे गुण गाते हैं। तेरे बिना उन्हें किसी और की आस नहीं होती, हे प्रभु! वह तेरी महिमा करते हैं (अपने अंदर से) दुख-दरिद्रता दूर कर लेते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओइ जागत रहहि न सूते दीसहि ॥ संगति कुल तारे साचु परीसहि ॥ कलिमल मैलु नाही ते निरमल ओइ रहहि भगति लिव लाई हे ॥४॥
मूलम्
ओइ जागत रहहि न सूते दीसहि ॥ संगति कुल तारे साचु परीसहि ॥ कलिमल मैलु नाही ते निरमल ओइ रहहि भगति लिव लाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ = वे। परीसहि = बाँटते हैं। कलिमल = पाप।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वह (संत जन माया के हमलों से सदा) सचेत रहते हैं, वह गफ़लत की नींद में कभी भी सोते नहीं दिखते। उनकी संगति अनेक कुल तार देती है क्योंकि वह सबको सदा-स्थिर प्रभु का नाम बाँटते हैं। (उनके अंदर) पापों की मैल (रक्ती भर भी) नहीं होती, वह पवित्र जीवन वाले होते हैं, वह प्रभु की भक्ति में व्यस्त रहते हैं, प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़े रखते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बूझहु हरि जन सतिगुर बाणी ॥ एहु जोबनु सासु है देह पुराणी ॥ आजु कालि मरि जाईऐ प्राणी हरि जपु जपि रिदै धिआई हे ॥५॥
मूलम्
बूझहु हरि जन सतिगुर बाणी ॥ एहु जोबनु सासु है देह पुराणी ॥ आजु कालि मरि जाईऐ प्राणी हरि जपु जपि रिदै धिआई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि के जनो! सासु = श्वास। पुराणी = पुराने हो जाने वाले!।5।
अर्थ: हे प्राणियो! हरि-जनों की संगति में रह के सतिगुरु की वाणी में जुड़ के (ये पक्की बात) समझ लो कि ये जवानी ये सांस ये शरीर सब पुराने हो जाने वाले हैं। हे प्राणी! (जो भी पैदा हुआ है उसने) थोड़े ही समय में मौत के वश आ जाना है, (इस वास्ते) परमात्मा का नाम जपो और हृदय में उसका ध्यान धरो।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडहु प्राणी कूड़ कबाड़ा ॥ कूड़ु मारे कालु उछाहाड़ा ॥ साकत कूड़ि पचहि मनि हउमै दुहु मारगि पचै पचाई हे ॥६॥
मूलम्
छोडहु प्राणी कूड़ कबाड़ा ॥ कूड़ु मारे कालु उछाहाड़ा ॥ साकत कूड़ि पचहि मनि हउमै दुहु मारगि पचै पचाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ कबाड़ा = कूड़ का कबाड़ा, माया के मोह की बातें। उछाहाड़ा = उछल के, उत्साह से। पचहि = दुखी होते हैं। दुहु मारगि = द्वैत के मार्ग पर, अन्य आसरों की झाक के रास्ते में।6।
अर्थ: हे प्राणी! निरी माया के मोह की बातें छोड़ो। जिस मनुष्य के अंदर निरा माया का मोह ही है उसको आत्मिक मौत पहुँच-पहुँच के मारती है। माया-ग्रसित जीव माया के मोह में दुखी होते हैं। जिस मनुष्य के मन में अहंकार है वह मेर-तेर के रास्ते पर पड़ कर दुखी होता है, अहंकार उसको ख्वार करता है।6।
[[1026]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडिहु निंदा ताति पराई ॥ पड़ि पड़ि दझहि साति न आई ॥ मिलि सतसंगति नामु सलाहहु आतम रामु सखाई हे ॥७॥
मूलम्
छोडिहु निंदा ताति पराई ॥ पड़ि पड़ि दझहि साति न आई ॥ मिलि सतसंगति नामु सलाहहु आतम रामु सखाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताति = ईष्या। पड़ि पड़ि = पड़ पड़ कर। दझहि = जलते हैं। आतम रामु = परमात्मा।7।
अर्थ: (हे भाई!) पराई ईष्या और पराई निंदा छोड़ दो। (जो निंदा और ईष्या करते हैं वे निंदा और ईष्या की जलन में) पड़-पड़ कर जलते हैं (उनको अपने आप को भी) आत्मिक शांति नहीं मिलती। (हे भाई!) सत-संगति में मिल के प्रभु के नाम की महिमा करो (जो लोग महिमा करते हैं) परमात्मा उनका (सदा का) साथी बन जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडहु काम क्रोधु बुरिआई ॥ हउमै धंधु छोडहु ल्मपटाई ॥ सतिगुर सरणि परहु ता उबरहु इउ तरीऐ भवजलु भाई हे ॥८॥
मूलम्
छोडहु काम क्रोधु बुरिआई ॥ हउमै धंधु छोडहु ल्मपटाई ॥ सतिगुर सरणि परहु ता उबरहु इउ तरीऐ भवजलु भाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लंपटाई = लंपट होना, खचित होना। ता = तब ही।8।
अर्थ: हे भाई! काम-क्रोध आदि मंद-कर्म त्यागो, अहंकार की उलझन छोड़ो, (विकारों में) खचित होने से बचो। (पर इन विकारों से) तब ही बच सकोगे अगर सतिगुरु का आसरा लोगे। इसी तरह ही (भाव, गुरु की शरण पड़ कर ही) संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगै बिमल नदी अगनि बिखु झेला ॥ तिथै अवरु न कोई जीउ इकेला ॥ भड़ भड़ अगनि सागरु दे लहरी पड़ि दझहि मनमुख ताई हे ॥९॥
मूलम्
आगै बिमल नदी अगनि बिखु झेला ॥ तिथै अवरु न कोई जीउ इकेला ॥ भड़ भड़ अगनि सागरु दे लहरी पड़ि दझहि मनमुख ताई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै = विकारों वाले रास्ते में। बिमल अगनि नदी = केवल आग की नदी। बिखु = जहर। झेला = लाटें। पड़ि = पड़ के। पाई = वहाँ।9।
अर्थ: निंदा तात पराई कोम क्रोध बुराई वाले जीवन में पड़ कर केवल आग की नदी में से गुजरने वाला जीवन-राह बन जाता है वहाँ वह लाटें निकलती हैं जो आत्मिक जीवन को मार-मुकाती हैं। उस आत्मिक बिपता में कोई और साथी नहीं बनता, अकेली अपनी जीवात्मा ही दुख सहती है। (निंदा-ईष्या-काम-क्रोध आदि की) आग का समुंदर इतने शोले भड़काता है इतनी लाटें छोड़ता हैं कि अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे उस में पड़ कर जलते हैं (आत्मिक जीवन तबाह कर लेते हैं और दुखी होते हैं)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पहि मुकति दानु दे भाणै ॥ जिनि पाइआ सोई बिधि जाणै ॥ जिन पाइआ तिन पूछहु भाई सुखु सतिगुर सेव कमाई हे ॥१०॥
मूलम्
गुर पहि मुकति दानु दे भाणै ॥ जिनि पाइआ सोई बिधि जाणै ॥ जिन पाइआ तिन पूछहु भाई सुखु सतिगुर सेव कमाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहि = पास। भाणै = रजा में।10।
अर्थ: (इस आग के समुंदर से) मुक्ति (का उपाय) गुरु के पास ही है, गुरु अपनी रजा में (परमात्मा के नाम की) ख़ैर डालता है, जिसने यह ख़ैर प्राप्त की वह (वह इस समुंदर में से बच निकलने का) भेद समझ लेता है। जिन्हें गुरु से नाम-दान मिलता है, हे भाई! उनसे पूछ के देख लो (वे बताते हैं कि) सतिगुरु की बताई हुई सेवा करने से आत्मिक आनंद मिलता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बिनु उरझि मरहि बेकारा ॥ जमु सिरि मारे करे खुआरा ॥ बाधे मुकति नाही नर निंदक डूबहि निंद पराई हे ॥११॥
मूलम्
गुर बिनु उरझि मरहि बेकारा ॥ जमु सिरि मारे करे खुआरा ॥ बाधे मुकति नाही नर निंदक डूबहि निंद पराई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरझि बेकारा = विकारों में फस के।11।
अर्थ: गुरु की शरण पड़े बिना जीव विकारों में फंस के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, (आत्मिक) मौत (उनके) सिर पर (बार-बार) चोट मारती है और (उनको) दुखी करती (रहती है)। (निंदा के फंदे में) बँधे हुए निंदक लोगों को (निंदा की वादी में से) मुक्ति नसीब नहीं होती, पराई निंदा (के समुंदर में) सदा गोते खाते रहते हैं।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलहु साचु पछाणहु अंदरि ॥ दूरि नाही देखहु करि नंदरि ॥ बिघनु नाही गुरमुखि तरु तारी इउ भवजलु पारि लंघाई हे ॥१२॥
मूलम्
बोलहु साचु पछाणहु अंदरि ॥ दूरि नाही देखहु करि नंदरि ॥ बिघनु नाही गुरमुखि तरु तारी इउ भवजलु पारि लंघाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नंदरि = नजर, निगाह।12।
अर्थ: (हे भाई!) सदा-स्थिर प्रभु का नाम जपो, उसको अपने अंदर बसता प्रतीत करो। ध्यान लगा के देखो, वह तुमसे दूर नहीं है। गुरु की शरण पड़ कर (नाम जपो, नाम स्मरण की) तैराकी तैरो (जीवन-यात्रा में कोई) रुकावट नहीं आएगी। गुरु इस तरह (भाव, नाम जपा के) संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही अंदरि नामु निवासी ॥ आपे करता है अबिनासी ॥ ना जीउ मरै न मारिआ जाई करि देखै सबदि रजाई हे ॥१३॥
मूलम्
देही अंदरि नामु निवासी ॥ आपे करता है अबिनासी ॥ ना जीउ मरै न मारिआ जाई करि देखै सबदि रजाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ना मरै = आत्मिक मौत नहीं मरता।13।
अर्थ: परमात्मा का नाम हरेक जीव के शरीर के अंदर निवास रखता है, अविनाशी कर्तार स्वयं ही (हरेक के अंदर) मौजूद है। (जीव उस परमात्मा की ही अंश है, इस वास्ते) जीवात्मा ना मरती है, ना ही इसको कोई मार सकता है। रजा का मालिक कर्तार (जीव) पैदा करके अपने हुक्म में (सबकी) संभाल करता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओहु निरमलु है नाही अंधिआरा ॥ ओहु आपे तखति बहै सचिआरा ॥ साकत कूड़े बंधि भवाईअहि मरि जनमहि आई जाई हे ॥१४॥
मूलम्
ओहु निरमलु है नाही अंधिआरा ॥ ओहु आपे तखति बहै सचिआरा ॥ साकत कूड़े बंधि भवाईअहि मरि जनमहि आई जाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओहु = परमात्मा।14।
अर्थ: वह परमात्मा शुद्ध-स्वरूप है, उसमें (माया के मोह आदि का) रक्ती भर भी अंधेरा नहीं है। वह सत्य-स्वरूप प्रभु स्वयं ही (हरेक के) हृदय तख़्त पर बैठा हुआ है। पर माया-गसित जीव माया के मोह में बँध के भटकना में पड़े हुए हैं, मरते हैं पैदा होते हैं, उनका ये आवागवन का चक्र बना रहता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर के सेवक सतिगुर पिआरे ॥ ओइ बैसहि तखति सु सबदु वीचारे ॥ ततु लहहि अंतरगति जाणहि सतसंगति साचु वडाई हे ॥१५॥
मूलम्
गुर के सेवक सतिगुर पिआरे ॥ ओइ बैसहि तखति सु सबदु वीचारे ॥ ततु लहहि अंतरगति जाणहि सतसंगति साचु वडाई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरगति = अपने अंदर ही।15।
अर्थ: गुरु से प्यार करने वाले गुरु के सेवक (माया-मोह से निर्लिप रह के) हृदय-तख़्त पर बैठे रहते हैं, गुरु के शब्द को अपनी सोच के मण्डल में टिकाते हैं, वे जगत के मूल प्रभु को पा लेते हैं, अपने अंदर बसता पहचान लेते हैं, साधु-संगत में टिक के सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करते हैं, और आदर पाते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि तरै जनु पितरा तारे ॥ संगति मुकति सु पारि उतारे ॥ नानकु तिस का लाला गोला जिनि गुरमुखि हरि लिव लाई हे ॥१६॥६॥
मूलम्
आपि तरै जनु पितरा तारे ॥ संगति मुकति सु पारि उतारे ॥ नानकु तिस का लाला गोला जिनि गुरमुखि हरि लिव लाई हे ॥१६॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = सेवक। गोला = गुलाम।16।
अर्थ: (जो मनुष्य नाम स्मरण करता है) वह स्वयं संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, अपने पित्रों को (पिता-दादा आदि बुजुर्गों को) भी पार लंघा लेता है। उसकी संगति में आने वालों को भी माया के बंधनो से स्वतंत्रता मिल जाती है, वह सेवक उनको पार लंघा देता है। जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ी है नानक (भी) उस (भाग्यशाली) का सेवक है गुलाम है।16।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ केते जुग वरते गुबारै ॥ ताड़ी लाई अपर अपारै ॥ धुंधूकारि निरालमु बैठा ना तदि धंधु पसारा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ केते जुग वरते गुबारै ॥ ताड़ी लाई अपर अपारै ॥ धुंधूकारि निरालमु बैठा ना तदि धंधु पसारा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केते = अनेक ही। वरते = गुजर गए। गुबारे = घोर अंधेरे में। ताड़ी लाई = अपने आप में टिका रहा। अपारै = अपार प्रभु ने। अपर = जिससे परे और कोई नहीं। धुंधूकारि = घुप अंधेरे में। निरालमु = निर्लिप। तदि = तब। धंधु = माया वाली दौड़ भाग।1।
अर्थ: अनेक ही युग घोर अंधकार में गुजर गए, (भाव, सृष्टि-रचना से पहले बेअंत समय ऐसी हालत थी जिसके बाबत कुछ भी समझ नहीं आ सकती), तब अपर-अपार परमात्मा ने (अपने आप में) समाधि लगाई हुई थी। उस घुप अंधेरे में प्रभु स्वयं निर्लिप बैठा हुआ था, तब ना जगत का पसारा था और ना ही माया वाली दौड़-भाग थी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुग छतीह तिनै वरताए ॥ जिउ तिसु भाणा तिवै चलाए ॥ तिसहि सरीकु न दीसै कोई आपे अपर अपारा हे ॥२॥
मूलम्
जुग छतीह तिनै वरताए ॥ जिउ तिसु भाणा तिवै चलाए ॥ तिसहि सरीकु न दीसै कोई आपे अपर अपारा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिनै = जिस ही, उस परमात्मा ने ही। तिसहि = तिसु ही, उस प्रभु का ही।2।
अर्थ: (घोर अंधकार के) छक्तिस युग उस परमात्मा ने ही बरताए रखे, जैसे उसे अच्छा लगा उसी तरह (उस घुप अंधेरे वाली कार ही) चलाता रहा। वह परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, उससे परे और कोई हस्ती नहीं, उसका परला छोर नहीं पाया जा सकता, कोई भी उसके बराबर का नहीं दिखता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुपते बूझहु जुग चतुआरे ॥ घटि घटि वरतै उदर मझारे ॥ जुगु जुगु एका एकी वरतै कोई बूझै गुर वीचारा हे ॥३॥
मूलम्
गुपते बूझहु जुग चतुआरे ॥ घटि घटि वरतै उदर मझारे ॥ जुगु जुगु एका एकी वरतै कोई बूझै गुर वीचारा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुग चतुआरे = चार जुगों में। उदर मझारे = पेट में, हरेक के हृदय में। एका एकी = अकेला स्वयं ही। कोई = कोई विरला।3।
अर्थ: (अब जब उसने जगत-रचना रच ली है, तो भी, हे भाई! उसी को) चारों जुगों (जगत के अंदर) गुप्त व्यापक जानो। वह हरेक शरीर के अंदर हरेक के हृदय में मौजूद है। वह अकेला स्वयं ही हरेक युग में (सारी सृष्टि के अंदर) रम रहा है; इस भेद को कोई वह विरला व्यक्ति समझता है जो गुरु (की वाणी) की विचार करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिंदु रकतु मिलि पिंडु सरीआ ॥ पउणु पाणी अगनी मिलि जीआ ॥ आपे चोज करे रंग महली होर माइआ मोह पसारा हे ॥४॥
मूलम्
बिंदु रकतु मिलि पिंडु सरीआ ॥ पउणु पाणी अगनी मिलि जीआ ॥ आपे चोज करे रंग महली होर माइआ मोह पसारा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य की बूँद। रकतु = रक्त, लहू। पिंडु = शरीर। सरीआ = पैदा हुआ। महली = शरीरों का मालि प्रभु।4।
अर्थ: (उस परमात्मा के हुक्म में ही) पिता के वीर्य की बूँद और माता के पेट के लहू ने मिल के (मनुष्य का) शरीर बना दिया। हवा-पानी-आग (आदि तत्वों ने मिल के) जीव रच दिए। हरेक शरीर में बैठा परमात्मा स्वयं ही सब चोज-तमाशे कर रहा है, उसने स्वयं ही माया के मोह का खिलारा पसारा हुआ है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरभ कुंडल महि उरध धिआनी ॥ आपे जाणै अंतरजामी ॥ सासि सासि सचु नामु समाले अंतरि उदर मझारा हे ॥५॥
मूलम्
गरभ कुंडल महि उरध धिआनी ॥ आपे जाणै अंतरजामी ॥ सासि सासि सचु नामु समाले अंतरि उदर मझारा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरध = उल्टा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समाले = संभालता है, याद करता है।5।
अर्थ: (उस प्रभु के हुक्म अनुसार ही) जीव माँ के पेट में अल्टा (लटक के) प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है, प्रभु अंतरजामी स्वयं ही (जीव के दिल की) जानता है। जीव माँ के पेट के अंदर हर सांस में सदा-स्थिर परमात्मा का नाम चेते करता रहता है।5।
[[1027]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पदारथ लै जगि आइआ ॥ सिव सकती घरि वासा पाइआ ॥ एकु विसारे ता पिड़ हारे अंधुलै नामु विसारा हे ॥६॥
मूलम्
चारि पदारथ लै जगि आइआ ॥ सिव सकती घरि वासा पाइआ ॥ एकु विसारे ता पिड़ हारे अंधुलै नामु विसारा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगि = जगत में। सिव सकती घरि = शिव की शक्ति के घर में, प्रभु की रची माया के घर में। एकु = एक परमात्मा को। अंधुलै = अंधे जीव ने।6।
अर्थ: (परमात्मा से) चार पदार्थ ले कर जीव जगत में आया है, (पर यहाँ आ के) प्रभु की रची हुई माया के घर में ठिकाना बना बैठा है (भाव, माया के मोह में फंस जाता है, माया के मोह में) अंधे हुए जीव ने प्रभु का नाम भुला दिया है। जो जीव नाम भुलाता है वह मानव जनम की बाजी हार जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालकु मरै बालक की लीला ॥ कहि कहि रोवहि बालु रंगीला ॥ जिस का सा सो तिन ही लीआ भूला रोवणहारा हे ॥७॥
मूलम्
बालकु मरै बालक की लीला ॥ कहि कहि रोवहि बालु रंगीला ॥ जिस का सा सो तिन ही लीआ भूला रोवणहारा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लीला = खेल। कहि कहि = कह कह के। तिन ही = तिनि ही, उस (प्रभु) ने ही।7।
अर्थ: (देखो माया के मोह का प्रभाव! जब किसी के घर में कोई) बालक मरता है, तो (माता-पिता-बहिन-भाई आदि संबंधी जन) उस बालक की प्यार-भरी खेलें याद करते हैं, और यह कह: कह के रोते हैं कि बालक बहुत ही हस-मुख था। जिस प्रभु का भेजा हुआ वह बालक था उसने वह वापस ले लिया (उसको याद कर-कर के) रोने वाला (माया के मोह में फंस के जीवन-राह से) टूट जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरि जोबनि मरि जाहि कि कीजै ॥ मेरा मेरा करि रोवीजै ॥ माइआ कारणि रोइ विगूचहि ध्रिगु जीवणु संसारा हे ॥८॥
मूलम्
भरि जोबनि मरि जाहि कि कीजै ॥ मेरा मेरा करि रोवीजै ॥ माइआ कारणि रोइ विगूचहि ध्रिगु जीवणु संसारा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कि कीझे = क्या कर सकता है? रोइ = रो रो के। विगूचहि = दुखी होते हैं।8।
अर्थ: जब कोई भर जवानी में मर जाते हैं तो भी क्या किया जा सकता है? ये कह: कह के रोया जाता ही है कि वह मेरा (प्यारा) था। (जो रोते भी हैं वह भी अपनी कमियां याद कर कर के) माया की खातिर रो-रो के दुखी होते हैं। जगत में ऐसा जीवन धिक्कारयोग्य हो जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काली हू फुनि धउले आए ॥ विणु नावै गथु गइआ गवाए ॥ दुरमति अंधुला बिनसि बिनासै मूठे रोइ पूकारा हे ॥९॥
मूलम्
काली हू फुनि धउले आए ॥ विणु नावै गथु गइआ गवाए ॥ दुरमति अंधुला बिनसि बिनासै मूठे रोइ पूकारा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हू = से। फुनि = दोबारा। गथु = पूंजी (गत्थ = प्र:)। बिनसि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। मूठे = ठगे जा के।9।
अर्थ: (जवानी गुजर जाती है) काले केसों से फिर धौले आ जाते हैं (इस उम्र तक भी) प्रभु के नाम से टूटा रह के मनुष्य अपने आत्मिक जीवन की संपत्ति गवाए जाता है। बुरी मति के पीछे लग के माया के मोह में अंधा हुआ जीव आत्मिक मौत सहेड़ के आत्मिक मौत मरता रहता है। माया का ठगा हुआ माया की खातिर ही रो-रो के पुकारता है (उस उम्र तक भी माया के रोने रोता रहता है)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु वीचारि न रोवै कोई ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होई ॥ बिनु गुर बजर कपाट न खूलहि सबदि मिलै निसतारा हे ॥१०॥
मूलम्
आपु वीचारि न रोवै कोई ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होई ॥ बिनु गुर बजर कपाट न खूलहि सबदि मिलै निसतारा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। बजर = बज्र, करड़े। कपाट = किवाड़, भिक्त।10।
अर्थ: जो कोई मनुष्य अपने आप को विचारता है (अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है) वह पछताता नहीं है। पर यह समझ किसी को तब ही होती है जब उसको गुरु मिल जाए। (माया के मोह के कारण मनुष्य की अक्ल पर पर्दा पड़ा रहता है; अक्ल मानो, करड़े किवाड़ों में बंद रहती है) गुरु के बिना (वे) करड़े किवाड़ नहीं खुलते। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है वह (इस कैद में से) मुक्ति हासिल कर लेता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरधि भइआ तनु छीजै देही ॥ रामु न जपई अंति सनेही ॥ नामु विसारि चलै मुहि कालै दरगह झूठु खुआरा हे ॥११॥
मूलम्
बिरधि भइआ तनु छीजै देही ॥ रामु न जपई अंति सनेही ॥ नामु विसारि चलै मुहि कालै दरगह झूठु खुआरा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छीजै = कमजोर हो जाता है। देही = शरीर। जपई = जपै, जपता है। अंति = आखिर में। सनेही = प्यार करने वाला, मित्र। मुहि कालै = काले मुँह से।11।
अर्थ: मनुष्य बुढा हो जाता है, (उसका) शरीर भी कमजोर हो जाता है (पर माया का मोह इतना प्रबल है कि अभी भी) परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता जो (सब साक-संबंधियों के साथ छोड़ जाने पर भी) अंत को प्यारा साथी बनता है। परमात्मा का नाम भुला के मनुष्य बदनामी का टीका माथे पर लगा के यहाँ से चल पड़ता है, पल्ले झूठ ही है (पल्ले माया का मोह ही है, इस वास्ते) प्रभु की हजूरी में ख़्वार ही होता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु विसारि चलै कूड़िआरो ॥ आवत जात पड़ै सिरि छारो ॥ साहुरड़ै घरि वासु न पाए पेईअड़ै सिरि मारा हे ॥१२॥
मूलम्
नामु विसारि चलै कूड़िआरो ॥ आवत जात पड़ै सिरि छारो ॥ साहुरड़ै घरि वासु न पाए पेईअड़ै सिरि मारा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़िआरे = झूठ का बनजारा। पड़ै = पड़ता है। छारो = राख। घरि = घर में। सिरि = सिर पर।12।
अर्थ: (सारी उम्र) झूठ का व्यापार करने वाला व्यक्ति परमात्मा का नाम भुला के (यहाँ से आत्मिक गुणों से खाली हाथ) चल पड़ता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़े हुए के सिर पर राख ही पड़ती है (धिक्कारें पड़ती हैं)। (यहाँ से गए को) परमात्मा के दर पर कोई जगह नहीं मिलती, (जब तक) जगत में (रहा, यहाँ) भी सिर पर चोटें ही खाता रहा।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाजै पैझै रली करीजै ॥ बिनु अभ भगती बादि मरीजै ॥ सर अपसर की सार न जाणै जमु मारे किआ चारा हे ॥१३॥
मूलम्
खाजै पैझै रली करीजै ॥ बिनु अभ भगती बादि मरीजै ॥ सर अपसर की सार न जाणै जमु मारे किआ चारा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाजै = खाते हैं। पैझै = पहनते हैं। रली = रंग रलियाँ। अभ = अंदरूनी (अभ्यंतर)। बादि = व्यर्थ। सर अपसर = अच्छा बुरा समय। सार = समझ, परख। चारा = जोर, पेश।13।
अर्थ: (अच्छा) खाते हैं, (अच्छा) पहनते हैं, (दुनिया की) मौज मनाते हैं (इन ही व्यस्तताओं में) हृदय परमात्मा की भक्ति से सूना रहने के कारण व्यर्थ ही आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। जो व्यक्ति (इस तरह अंधा हो के) अच्छे-बुरे समय की सूझ नहीं जानता, उसको जम दुखी करता है, और उसकी कोई पेश नहीं चलती।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परविरती नरविरति पछाणै ॥ गुर कै संगि सबदि घरु जाणै ॥ किस ही मंदा आखि न चलै सचि खरा सचिआरा हे ॥१४॥
मूलम्
परविरती नरविरति पछाणै ॥ गुर कै संगि सबदि घरु जाणै ॥ किस ही मंदा आखि न चलै सचि खरा सचिआरा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परविरती = (प्रवृक्ति) दुनिया वाली व्यस्तता। नरविरती = (निवृक्ति) उपरामता। घरु = वह ठिकाना जहाँ मन शांत रह सकता है।14।
अर्थ: जो मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ दुनिया से उपराम रहना जानता है, जो गुरु की संगति में रह के गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ मिलाप-अवस्था वाली सांझ डाले रखता है, जीवन-यात्रा में किसी को बुरा नहीं कहता, सदा-स्थिर-प्रभु में टिका रहता है वह सच का व्यापारी व्यक्ति (प्रभु की हजूरी में) खरा (सिक्का माना जाता) है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साच बिना दरि सिझै न कोई ॥ साच सबदि पैझै पति होई ॥ आपे बखसि लए तिसु भावै हउमै गरबु निवारा हे ॥१५॥
मूलम्
साच बिना दरि सिझै न कोई ॥ साच सबदि पैझै पति होई ॥ आपे बखसि लए तिसु भावै हउमै गरबु निवारा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिझै = कामयाब होता। पैझै = सिरोपा मिला। पति = इज्जत। तिसु = उस प्रभु को।15।
अर्थ: सदा-स्थिर-प्रभु के नाम के बिना कोई मनुष्य (प्रभु के) दर पे (जिंदगी की पड़ताल में) कामयाब नहीं होता। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में जुड़ने से सिरोपा मिलता है सम्मान मिलता है। (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस पर प्रभु स्वयं बख्शिश करता है, वह उसको प्यारा लगने लग जाता है और वह अहम्-अहंकार (अपने अंदर से) दूर करता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर किरपा ते हुकमु पछाणै ॥ जुगह जुगंतर की बिधि जाणै ॥ नानक नामु जपहु तरु तारी सचु तारे तारणहारा हे ॥१६॥१॥७॥
मूलम्
गुर किरपा ते हुकमु पछाणै ॥ जुगह जुगंतर की बिधि जाणै ॥ नानक नामु जपहु तरु तारी सचु तारे तारणहारा हे ॥१६॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। बिधि = (संसार समुंदर से पार लांघने की) विधि। सचु = सदा स्थिर प्रभु।16।
अर्थ: गुरु की मेहर से ही मनुष्य परमात्मा के हुक्म को पहचानता है और युगों-युगांतरों से चली आ रही उस विधि से सांझ डालता है (जिससे संसार-समुंदर से सही सलामत पार लांघा जा सकता है। वह विधि है परमात्मा का नाम स्मरणा)। हे नानक! (कह: हे भाई! परमात्मा का) नाम जपो (नाम स्मरण की) तैराकी तैरो, (इस तरह) सदा-स्थिर-प्रभु और पार लंघाने में समर्थ प्रभु (संसार-समुंदर में से) पार लंघा लेता है।16।1।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ हरि सा मीतु नाही मै कोई ॥ जिनि तनु मनु दीआ सुरति समोई ॥ सरब जीआ प्रतिपालि समाले सो अंतरि दाना बीना हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ हरि सा मीतु नाही मै कोई ॥ जिनि तनु मनु दीआ सुरति समोई ॥ सरब जीआ प्रतिपालि समाले सो अंतरि दाना बीना हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = जैसा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सुरति = सूझ। समाई = टिका दिया है। समाने = संभाल करता है। दाना = दिल की जानने वाला। बीना = देखने वाला।1।
अर्थ: मुझे परमात्मा जैसा और कोई मित्र नहीं दिखता, (परमात्मा ही है) जिसने मुझे यह शरीर दिया यह (मन) जीवात्मा दी और मेरे अंदर तवज्जो टिका दी। (वह सिर्फ प्रभु ही है जो) सारे जीवों की पालना करके सबकी संभाल करता है, वह सब जीवों के अंदर मौजूद है, सबके दिलों की जानता है, सबके किए कर्मों को देखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सरवरु हम हंस पिआरे ॥ सागर महि रतन लाल बहु सारे ॥ मोती माणक हीरा हरि जसु गावत मनु तनु भीना हे ॥२॥
मूलम्
गुरु सरवरु हम हंस पिआरे ॥ सागर महि रतन लाल बहु सारे ॥ मोती माणक हीरा हरि जसु गावत मनु तनु भीना हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हंस पिआरे = प्यारे के हंस। सागर = समुंदर। भीना = खुश होता है।2।
अर्थ: (पर वह मित्र-प्रभु गुरु की शरण पड़ने से मिलता है) गुरु सरोवर है, हम जीव उस प्यारे (सरोवर) के हंस हैं (गुरु के हो के रहने वाले हंसों को गुरु मान-सरोवर में मोती मिलते हैं)। (गुरु समुंदर है) उस समुंदर में (परमात्मा की महिमा के) रतन हैं, लाल हैं, मोती-माणक हैं, हीरे हैं। (गुरु-समुंदर में टिक के) परमात्मा के गुण गाने से मन (हरि के प्रेम-रंग में) भीग जाता है, शरीर (भी) भीग जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि अगम अगाहु अगाधि निराला ॥ हरि अंतु न पाईऐ गुर गोपाला ॥ सतिगुर मति तारे तारणहारा मेलि लए रंगि लीना हे ॥३॥
मूलम्
हरि अगम अगाहु अगाधि निराला ॥ हरि अंतु न पाईऐ गुर गोपाला ॥ सतिगुर मति तारे तारणहारा मेलि लए रंगि लीना हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगाहु = अथाह। रंगि = रंग में, प्रेम में।3।
अर्थ: (सब जीवों में व्यापक होते हुए भी) परमात्मा जीवों की पहुँच से परे है, अथाह है, उसके गुणों (के समुंदर) की थाह नहीं मिलती, वह निर्लिप है। सृष्टि के रखवाले, सबसे बड़े हरि के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। सब जीवों को संसार-समुंदर से पार लंघाने में समर्थ प्रभु सतिगुरु की मति दे कर पार लंघा लेता है। जिस जीव को वह अपने चरणों में जोड़ता है वह उसके प्रेम-रंग में लीन हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बाझहु मुकति किनेही ॥ ओहु आदि जुगादी राम सनेही ॥ दरगह मुकति करे करि किरपा बखसे अवगुण कीना हे ॥४॥
मूलम्
सतिगुर बाझहु मुकति किनेही ॥ ओहु आदि जुगादी राम सनेही ॥ दरगह मुकति करे करि किरपा बखसे अवगुण कीना हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनेही = कैसी? सनेही = प्यार करने वाला।4।
अर्थ: वह परमात्मा सारे जगत का मूल है, जुगों के आरम्भ से है, सबमें व्यापक और सबसे प्यार करने वाला है (वह स्वयं ही गुरु से मिलाता है), गुरु को मिले बिना (माया के मोह-समुंदर से) मुकित नहीं मिलती। वह परमात्मा मेहर करके हमारे किए अवगुणों को बख्शता है, हमें अवगुणों से मुक्ति देता है और अपनी हजूरी में रखता है।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु दाता मुकति कराए ॥ सभि रोग गवाए अम्रित रसु पाए ॥ जमु जागाति नाही करु लागै जिसु अगनि बुझी ठरु सीना हे ॥५॥
मूलम्
सतिगुरु दाता मुकति कराए ॥ सभि रोग गवाए अम्रित रसु पाए ॥ जमु जागाति नाही करु लागै जिसु अगनि बुझी ठरु सीना हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जागाति = मसूलीआ। करु = कर, मसूल। ठरु = ठंडा, ठरा हुआ।5।
अर्थ: (परमात्मा की मेहर से मिला हुआ) सतिगुरु आत्मिक जीवन के गुणों की दाति देता है, विकारों से बचाता है, हमारे हृदय में अमृत-नाम का रस डाल के हमारे रोग दूर करता है। (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य की तृष्णा-अग्नि बुझ जाती है जिसकी छाती (नाम की ठंड से) ठंडी-ठार हो जाती है, जम-मसूलिया उसके नजदीक नहीं फटकता, उसको (जम का) कर नहीं देना पड़ता (क्योंकि उसको गुरु की किरपा से स्मरण के बिना और कोई मायावी वस्तु सौदा अपने जीवन-बेड़े में लादा ही नहीं)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ हंस प्रीति बहु धारी ॥ ओहु जोगी पुरखु ओह सुंदरि नारी ॥ अहिनिसि भोगै चोज बिनोदी उठि चलतै मता न कीना हे ॥६॥
मूलम्
काइआ हंस प्रीति बहु धारी ॥ ओहु जोगी पुरखु ओह सुंदरि नारी ॥ अहिनिसि भोगै चोज बिनोदी उठि चलतै मता न कीना हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। हंस = जीवात्मा। ओहु जोगी = वह जीवात्मा जोगी की तरह फेरा डाल के चले जाने वाला। अहि = दिन। निसि = रात। बिनोदी = रंग रलियां मानने वाला।6।
अर्थ: यह जीवात्मा (मानो) एक जोगी है (जो जोगी वाली फेरी डाल के जगत से चला जाता है)। यह काया (जैसे) एक सुंदर स्त्री है (पर जगत में आ के) पक्षी जीवात्मा काया-नारि से बहुत प्रीति बना लेता है। रंग-रलियों में मस्त जोगी-जीवात्मा दिन-रात काया को भोगता है (दरगाह से संदेशा बुलावा आने पर) चलने के वक्त (जोगी-जीव काया नारि से) सलाह भी नहीं करता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रिसटि उपाइ रहे प्रभ छाजै ॥ पउण पाणी बैसंतरु गाजै ॥ मनूआ डोलै दूत संगति मिलि सो पाए जो किछु कीना हे ॥७॥
मूलम्
स्रिसटि उपाइ रहे प्रभ छाजै ॥ पउण पाणी बैसंतरु गाजै ॥ मनूआ डोलै दूत संगति मिलि सो पाए जो किछु कीना हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छाजै = ऊपर छाया कर रहा है, रक्षा कर रहा है। गाजै = गरजता है। बैसंतरु = आग। दूत = कामादिक वैरी। पाए = भुगतता है। कीना = (अपना) किया।7।
अर्थ: जगत पैदा करके प्रभु सब जीवों की रक्षा करता है, हवा पानी आग (आदि सब तत्वों से शरीर रच के सबके अंदर) प्रकट रहता है, (पर उस रखवाले प्रभु को भुला के) मूर्ख मन कामादिक वैरियों की संगति में मिल के भटकता है, और अपने किए का फल पाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु विसारि दोख दुख सहीऐ ॥ हुकमु भइआ चलणा किउ रहीऐ ॥ नरक कूप महि गोते खावै जिउ जल ते बाहरि मीना हे ॥८॥
मूलम्
नामु विसारि दोख दुख सहीऐ ॥ हुकमु भइआ चलणा किउ रहीऐ ॥ नरक कूप महि गोते खावै जिउ जल ते बाहरि मीना हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूप = कूआँ। मीना = मछली।8।
अर्थ: परमात्मा का नाम भुला के दोखों (विकारों) में फंस जाया जाता है दुख सहने पड़ते हैं। जब प्रभु का हुक्म (बुलावा) आता है, यहाँ से चलना पड़ता है, फिर यहाँ रह ही नहीं सकते। (परमात्मा की याद से टूट के सारी उम्र) नर्कों के कूएँ में गोते खाता रहता है (इस तरह तड़फता है) जैसे पानी से बाहर निकल के मछली (तड़फती है)।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चउरासीह नरक साकतु भोगाईऐ ॥ जैसा कीचै तैसो पाईऐ ॥ सतिगुर बाझहु मुकति न होई किरति बाधा ग्रसि दीना हे ॥९॥
मूलम्
चउरासीह नरक साकतु भोगाईऐ ॥ जैसा कीचै तैसो पाईऐ ॥ सतिगुर बाझहु मुकति न होई किरति बाधा ग्रसि दीना हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकतु = माया ग्रसित जीव। चउरासीह नर्क = चौरासी लाख जूनियों रूपी नर्क। किरति बाधा = अपने किए कर्मों का बँधा हुआ।9।
अर्थ: माया-ग्रसित जीव (परमात्मा को भुला के) चौरासी लाख जूनियों के चक्कर में दुख भोगता है, (विधाता की रजा का नियम ही ऐसा है कि) जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं। गुरु की शरण पड़े बिना (चौरासी के चक्करों में से) मुक्ति नहीं होती, अपने किए कर्मों का बँधा जीव उस चक्कर में फंसा ही रहता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खंडे धार गली अति भीड़ी ॥ लेखा लीजै तिल जिउ पीड़ी ॥ मात पिता कलत्र सुत बेली नाही बिनु हरि रस मुकति न कीना हे ॥१०॥
मूलम्
खंडे धार गली अति भीड़ी ॥ लेखा लीजै तिल जिउ पीड़ी ॥ मात पिता कलत्र सुत बेली नाही बिनु हरि रस मुकति न कीना हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। सुत = पुत्र।10।
अर्थ: (इस विकार भरे जगत में सही इन्सानी जीवन का रास्ता, मानो) एक बड़ी ही तंग गली (में से गुजरता है जहाँ बहुत ही संकोच करके संजोअ के चलना पड़ता) है (वह रास्ता, जैसे) खंडे की धार (जैसा तेज) है (जिसके ऊपर से गुजरते हुए थोड़ा सा भी डोलने से विकारों के समुंदर में गिर जाते हैं)। किए कर्मों का हिसाब भी पूरा करना पड़ता है (भाव, जब तक मन में विकारों के संस्कार मौजूद हैं, तब तक विकारों से मुक्ति नहीं मिलती) जैसे तिलों को (कोल्हू में) पीड़ने से ही तेल निकलता है (वैसे ही दुख के कोल्हू में पड़ कर विकारों से मुक्ति मिलती है)। इस दुख में माता-पिता-पत्नी-पुत्र कोई भी सहायक नहीं हो सकता। परमात्मा के नाम-रस की प्राप्ति के बिना (विकारों से) मुक्ति नहीं मिलती।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीत सखे केते जग माही ॥ बिनु गुर परमेसर कोई नाही ॥ गुर की सेवा मुकति पराइणि अनदिनु कीरतनु कीना हे ॥११॥
मूलम्
मीत सखे केते जग माही ॥ बिनु गुर परमेसर कोई नाही ॥ गुर की सेवा मुकति पराइणि अनदिनु कीरतनु कीना हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केते = कितने ही। पराइणि = आसरा। अनदिनु = हर रोज।11।
अर्थ: जगत में (चाहे) अनेक ही मित्र साथी (बना लें), पर गुरु के बिना परमात्मा के बिना (विकारों के समुंदर में डूबते जीव का) कोई मददगार नहीं बनता। गुरु की बताई हुई सेवा ही (विकारों से) मुक्ति का आसरा बनता है। (जो व्यक्ति) हर वक्त प्रभु की महिमा करता है (वह विकारों से स्वतंत्र हो जाता है)।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूड़ु छोडि साचे कउ धावहु ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु ॥ साच वखर के वापारी विरले लै लाहा सउदा कीना हे ॥१२॥
मूलम्
कूड़ु छोडि साचे कउ धावहु ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु ॥ साच वखर के वापारी विरले लै लाहा सउदा कीना हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साच = सदा स्थिर रहने वाला। लाहा = लाभ।12।
अर्थ: (हे भाई!) माया का मोह छोड़ के सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को मिलने का उद्यम करो (माया की ओर से नहीं तरसोगे), जो कुछ (प्रभु-दर से) माँगोगे वही मिल जाएगा। (पर माया इतनी प्रबल है कि) सदा-कायम रहने वाले नाम-वस्तु के व्यापार वाले (जगत में) कोई एक-आध ही होते हैं। जो मनुष्य ये वाणज्य करता है वह (उच्च आत्मिक अवस्था का) लाभ कमा लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु वखरु लै चलहु ॥ दरसनु पावहु सहजि महलहु ॥ गुरमुखि खोजि लहहि जन पूरे इउ समदरसी चीना हे ॥१३॥
मूलम्
हरि हरि नामु वखरु लै चलहु ॥ दरसनु पावहु सहजि महलहु ॥ गुरमुखि खोजि लहहि जन पूरे इउ समदरसी चीना हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सम दरसी = एक ही (प्यार की) निगाह से देखने वाला।13।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम का सौदा (यहाँ से) खरीद के चलो, परमात्मा के दर्शन पाओगे, उसकी दरगाह से (वह दाति मिलेगी जिसकी इनायत से) अडोल आत्मिक अवस्था में टिके रहोगे। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे लोग (आत्मिक गुणों में) पूर्ण (हो के प्रभु का नाम-सौदा) हासिल कर लेते हैं, और इस तरह प्यार करने वाले परमात्मा को (अपने अंदर बसता ही) पहचान लेते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ बेअंत गुरमति को पावहि ॥ गुर कै सबदि मन कउ समझावहि ॥ सतिगुर की बाणी सति सति करि मानहु इउ आतम रामै लीना हे ॥१४॥
मूलम्
प्रभ बेअंत गुरमति को पावहि ॥ गुर कै सबदि मन कउ समझावहि ॥ सतिगुर की बाणी सति सति करि मानहु इउ आतम रामै लीना हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई विरला। आतमरामै = आतम राम में, सर्व व्यापक हरि में।14।
अर्थ: कोई विरले (भाग्यशाली) लोग गुरु की मति ले कर बेअंत गुणों के मालिक परमात्मा को पा लेते हैं, गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने) मन को (विकारों की तरफ दौड़ने से हटाने के लिए) समझाते हैं। हे भाई! सतिगुरु की वाणी में पूर्ण श्रद्धा बनाओ। इस तरह (भाव, गुरु की वाणी में श्रद्धा बनाने से) सर्व-व्यापक परमात्मा में लीन हुआ जाता है (और विकारों की ओर की दौड़ भटकना समाप्त हो जाती है)।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारद सारद सेवक तेरे ॥ त्रिभवणि सेवक वडहु वडेरे ॥ सभ तेरी कुदरति तू सिरि सिरि दाता सभु तेरो कारणु कीना हे ॥१५॥
मूलम्
नारद सारद सेवक तेरे ॥ त्रिभवणि सेवक वडहु वडेरे ॥ सभ तेरी कुदरति तू सिरि सिरि दाता सभु तेरो कारणु कीना हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारद = सारदा, सरस्वती देवी। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर। कारणु = जगत।15।
अर्थ: हे प्रभु! नारद (आदि बड़े-बड़े ऋषिगण) और शारदा (जैसी बेअंत देवियाँ) सब तेरे (ही दर के) सेवक हैं, इस त्रिभवनी संसार में बड़े से बड़े कहलवाने वाले भी तेरे दर के सेवक हैं। यह सारी रचना तेरी ही रची हुई है, यह सारा संसार तेरा ही बनाया हुआ है। तू हरेक जीव के सिर पर राज़क है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि दरि सेवहि दरदु वञाए ॥ ओइ दरगह पैधे सतिगुरू छडाए ॥ हउमै बंधन सतिगुरि तोड़े चितु चंचलु चलणि न दीना हे ॥१६॥
मूलम्
इकि दरि सेवहि दरदु वञाए ॥ ओइ दरगह पैधे सतिगुरू छडाए ॥ हउमै बंधन सतिगुरि तोड़े चितु चंचलु चलणि न दीना हे ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरि = प्रभु के दर पर। इकि = अनेक जीव। वञाए = वंजाए, भेज के, दूर करके। ओइ = ओय, वह लोग। पैधे = आदर पाते हैं। सतिगुरि = सतिगुरु ने। चलणि न दीना = भटकने नहीं दिया।16।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अनेक ही जीव (तेरे नाम की इनायत से अपना) दुख-दर्द दूर करके तेरे दर पर तेरी सेवा-भक्ति करते हैं। जिनको सतिगुरु (विकारों के पँजे से) छुड़ा लेता है उनको परमात्मा की दरगाह में आदर-सत्कार मिलता है। जिस (भाग्यशालियों) के अहंकासर के बंधन सतिगुरु ने तोड़ दिए, उनके चँचल मन को गुरु ने (विकारों की तरफ) भटकने नहीं दिया।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर मिलहु चीनहु बिधि साई ॥ जितु प्रभु पावहु गणत न काई ॥ हउमै मारि करहु गुर सेवा जन नानक हरि रंगि भीना हे ॥१७॥२॥८॥
मूलम्
सतिगुर मिलहु चीनहु बिधि साई ॥ जितु प्रभु पावहु गणत न काई ॥ हउमै मारि करहु गुर सेवा जन नानक हरि रंगि भीना हे ॥१७॥२॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चीनहु = देख लो। बिधि = तरीका। जितु = जिस तरीके से। गणत = लेखा। हरि रंगि = प्रभु के प्रेम रंग में।17।
अर्थ: हे भाई! तुम गुरु को मिलो, और (गुरु से) वह ढंग-तरीका सीख लो जिसकी सहायता से परमात्मा को मिल सको, और कर्मों का लेखा भी कोई ना रह जाए। अपने अहंकार को मार कर गुरु द्वारा बताई हुई सेवा करो।
हे दास नानक! (जो मनुष्य गुरु द्वारा बताई हुई सेवा करता है) वह परमात्मा के प्रेम-रंग में भीग जाता है।17।2।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ असुर सघारण रामु हमारा ॥ घटि घटि रमईआ रामु पिआरा ॥ नाले अलखु न लखीऐ मूले गुरमुखि लिखु वीचारा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ असुर सघारण रामु हमारा ॥ घटि घटि रमईआ रामु पिआरा ॥ नाले अलखु न लखीऐ मूले गुरमुखि लिखु वीचारा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असुर = दैत्य, कामादिक (असुर)। सघारण = संघारण, मारने (वाला)। घटि घटि = हरेक घट में। रमईआ = सुंदर राम। नाले = साथ ही, हरेक जीव के अंदर ही। अलखु = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। मूलो = बिल्कुल ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। लिखु = (अपने हृदय में) परो के। वीचारा = गुणों की विचार।1।
अर्थ: हमारा परमात्मा (हमारे मनों में से कामादिक) दैत्यों का नाश करने में समर्थ है। वह प्यारा सुंदर राम हरेक शरीर में बसता है। हर वक्त हमारे अंदर मौजूद है, फिर भी वह अलख है, उसका स्वरूप बिल्कुल ही बयान नहीं किया जा सकता। (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर उसके गुणों की विचार (अपने हृदय में) परो लो।1।
[[1029]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि साधू सरणि तुमारी ॥ करि किरपा प्रभि पारि उतारी ॥ अगनि पाणी सागरु अति गहरा गुरु सतिगुरु पारि उतारा हे ॥२॥
मूलम्
गुरमुखि साधू सरणि तुमारी ॥ करि किरपा प्रभि पारि उतारी ॥ अगनि पाणी सागरु अति गहरा गुरु सतिगुरु पारि उतारा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = वह मनुष्य जिसने अपने मन को सुधार कर लिया है। प्रभि = प्रभु ने। अति = बहुत।2।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के तेरी शरण पड़ते हैं वे अपने मन को साधु लेते हैं (विकारों से रोक लेते हैं)। (जिस भी मनुष्य ने गुरु की ओर मुँह किया उसको) प्रभु ने मेहर करके संसार-समुंदर से पार लंघा लिया। यह संसार एक बड़ा ही गहरा समुंदर है इसमें पानी (की जगह विकारों की) आग (भड़क रही) है। इसमें से सतिगुरु ही पार लंघा सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख अंधुले सोझी नाही ॥ आवहि जाहि मरहि मरि जाही ॥ पूरबि लिखिआ लेखु न मिटई जम दरि अंधु खुआरा हे ॥३॥
मूलम्
मनमुख अंधुले सोझी नाही ॥ आवहि जाहि मरहि मरि जाही ॥ पूरबि लिखिआ लेखु न मिटई जम दरि अंधु खुआरा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। दरि = दर पे। अंधु = माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले और माया के मोह में अंधे हुए लोगों को (इस तृष्णा-अग्नि के समुंदर की) समझ नहीं आती। वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ते हैं और बार-बार आत्मिक मौत मरते हैं। (पर वे बिचारे भी क्या करें?) पिछले जन्मों-जन्मांतरों के किए कर्मों के संस्कारों के लिखे लेख (जो उनके मन में उकरे हुए हैं) मिटते नहीं। माया के मोह में अंधा हुआ जीव जम के दर पर दुखी हेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि आवहि जावहि घरि वासु न पावहि ॥ किरत के बाधे पाप कमावहि ॥ अंधुले सोझी बूझ न काई लोभु बुरा अहंकारा हे ॥४॥
मूलम्
इकि आवहि जावहि घरि वासु न पावहि ॥ किरत के बाधे पाप कमावहि ॥ अंधुले सोझी बूझ न काई लोभु बुरा अहंकारा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = अनेक जीव। घरि = घर में, हृदय में, अंतरात्मे, आत्मिक अडोलता में। अंधुले = माया के मोह में अंधे हुए जीवों को।4।
अर्थ: (इसी तरह माया के मोह में फंस के) अनेक ही जीव पैदा होते हैं मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं, पर अपने अंतरात्मे अडोलता नहीं प्राप्त कर सकते। वे पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बँधे हुए (और-और) पाप किए जाते हैं। माया का लोभ और अहंकार बड़ी बुरी बला है, इसमें अँधे हुए जीव को कोई सूझ-बूझ नहीं आ सकती (कि किस राह पर पड़ा हुआ है)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिर बिनु किआ तिसु धन सीगारा ॥ पर पिर राती खसमु विसारा ॥ जिउ बेसुआ पूत बापु को कहीऐ तिउ फोकट कार विकारा हे ॥५॥
मूलम्
पिर बिनु किआ तिसु धन सीगारा ॥ पर पिर राती खसमु विसारा ॥ जिउ बेसुआ पूत बापु को कहीऐ तिउ फोकट कार विकारा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। किआ = क्या लाभ? पिर = पति। को = कौन? फोकट = फोके, व्यर्थ।5।
अर्थ: जो स्त्री, पति से विछुड़ी हुई हो उसका हार-श्रृंगार किस अर्थ का? उसने तो अपना पति बिसार रखा है और वह पराए मर्द से रंग-रलियाँ मनाती है। (ये हार-श्रृंगार उसको और भी ज्यादा नर्क में डालता है)। जैसे किसी वैश्या के पुत्र के पिता का नाम नहीं बताया जा सकता (वह जगत में हास्यास्पद ही होता है, इसी तरह पति-प्रभु से विछुड़ी हुई जीव-स्त्री के) और-और किये हुए कर्म फोके और विकार ही हैं (इनमें से उसे मायूसी ही मिलती है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेत पिंजर महि दूख घनेरे ॥ नरकि पचहि अगिआन अंधेरे ॥ धरम राइ की बाकी लीजै जिनि हरि का नामु विसारा हे ॥६॥
मूलम्
प्रेत पिंजर महि दूख घनेरे ॥ नरकि पचहि अगिआन अंधेरे ॥ धरम राइ की बाकी लीजै जिनि हरि का नामु विसारा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिंजर = शरीर। प्रेत = विकारी जीवात्मा। पचहि = दुखी होते हैं। लीजै = वसूल की जाती है। जिनि = जिस मनुष्य ने।6।
अर्थ: (जो जीव प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते वे, मानो, प्रेत-जून में हैं। उनके ये मानव शरीर भी प्रेत के रहने का पिंजर ही है) इन प्रेत-पिंजरों में वह बेअंत दुख सहते हैं। अज्ञानता के अंधकार में पड़ कर वह (आत्मिक मौत के) नर्क में दुखी होते हैं।
जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम भुला दिया है (उसके सिर पर विकारों का कर्जा चढ़ जाता है, वह मनुष्य धर्मराज का करजाई हो जाता है) उससे धर्मराज के इस कर्जे की वसूली की जाती है (भाव, विकारों के कारण उसको दुख ही सहने पड़ते हैं)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूरजु तपै अगनि बिखु झाला ॥ अपतु पसू मनमुखु बेताला ॥ आसा मनसा कूड़ु कमावहि रोगु बुरा बुरिआरा हे ॥७॥
मूलम्
सूरजु तपै अगनि बिखु झाला ॥ अपतु पसू मनमुखु बेताला ॥ आसा मनसा कूड़ु कमावहि रोगु बुरा बुरिआरा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपै = तपता है। झाला = आग की लपटें। अपतु = पत+हीन। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। बेताला = भूतना।7।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य, मानो, भूत है (मनुष्य-शरीर होते हुए भी अंतरात्मे) पशु है, उसे कहीं आदर नहीं मिलता। (मनमुख के अंदर, मानो, माया के मोह का) सूरज तपता रहता है, उसके अंदर विषौली तृष्णा-अग्नि की लपटें निकलती रहती हैं।
जो लोग दुनियां की आशाओं और मन के मायावी फुरनों में फंस के माया के मोह की कमाई ही करते रहते हैं, उनको (मोह का यह) अत्यंत बुरा रोग चिपका रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मसतकि भारु कलर सिरि भारा ॥ किउ करि भवजलु लंघसि पारा ॥ सतिगुरु बोहिथु आदि जुगादी राम नामि निसतारा हे ॥८॥
मूलम्
मसतकि भारु कलर सिरि भारा ॥ किउ करि भवजलु लंघसि पारा ॥ सतिगुरु बोहिथु आदि जुगादी राम नामि निसतारा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। सिरि = सिर पर। बोहिथु = जहाज। नामि = नाम से।8।
अर्थ: जिस मनुष्य के माथे पर सिर पर (पापों के) कल्लर का बहुत सारा भार रखा हो, वह संसार-समुंदर में से कैसे पार लांघेगा? दुनिया के आरम्भ से ही जुगों में आदि से ही सतिगुरु जहाज है जो जीवों को परमात्मा के नाम में जोड़ के पार लंघा देता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र कलत्र जगि हेतु पिआरा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ जम के फाहे सतिगुरि तोड़े गुरमुखि ततु बीचारा हे ॥९॥
मूलम्
पुत्र कलत्र जगि हेतु पिआरा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ जम के फाहे सतिगुरि तोड़े गुरमुखि ततु बीचारा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। जगि = जगत में। हेतु = हित, मोह। पासारा = खिलारा। सतिगुरि = सतिगुरु ने।9।
अर्थ: जगत में माया का मोह रूप पसारा पसरा हुआ है, (सब जीवों का) पुत्र से स्त्री से मोह है प्यार है (पर यह मोह आत्मिक मौत का कारण बनता है), इस आत्मिक मौत के फंदे सतिगुरु ने (उस मनुष्य के गले में) तोड़ डाले हैं जो गुरु के सन्मुख रह के मूल-प्रभु को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूड़ि मुठी चालै बहु राही ॥ मनमुखु दाझै पड़ि पड़ि भाही ॥ अम्रित नामु गुरू वड दाणा नामु जपहु सुख सारा हे ॥१०॥
मूलम्
कूड़ि मुठी चालै बहु राही ॥ मनमुखु दाझै पड़ि पड़ि भाही ॥ अम्रित नामु गुरू वड दाणा नामु जपहु सुख सारा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ि = माया के मोह में। दाझै = जलता है। पड़ि = पड़ कर। भाही = आग में। दाणा = दानशमंद, समझदार। सारा = श्रेष्ठ।10।
अर्थ: जो जीव-स्त्री माया के मोह में (पड़ कर आत्मिक जीवन की पूंजी) लुटा बैठती है, वह (सही जीवन-राह से भटक के) कई और राहों में भटकती फिरती है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है वह तृष्णा की आग में पड़-पड़ कर जलता है (दुखी होता है)। (इस रोग से बचाने के लिए) गुरु (जो) बहुत समझदार (हकीम) है आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम देता है। (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर) नाम जपो (इसी में) श्रेष्ठ सुख है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु तुठा सचु द्रिड़ाए ॥ सभि दुख मेटे मारगि पाए ॥ कंडा पाइ न गडई मूले जिसु सतिगुरु राखणहारा हे ॥११॥
मूलम्
सतिगुरु तुठा सचु द्रिड़ाए ॥ सभि दुख मेटे मारगि पाए ॥ कंडा पाइ न गडई मूले जिसु सतिगुरु राखणहारा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। मारगि = रास्ते पर। कंडा = अहंकार का काँटा। पाइ = पाय, पैर में। गडई = चुभता। मूले = बिल्कुल।11।
अर्थ: जिस मनुष्य पर गुरु प्रसन्न होता है उसके (हृदय में) सदा-स्थिर हरि-नाम पक्का कर देता है, उसके सारे दुख मिटा देता है, उसको जिंदगी के सही रास्ते पर डाल देता है। सतिगुरु जिस मनुष्य का रखवाला बनता है (जिंदगी के राहों में गुजरते हुए) उसके पैरों में काँटा नहीं चुभता (उसको अहंकार का काँटा दुखी नहीं करता)।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेहू खेह रलै तनु छीजै ॥ मनमुखु पाथरु सैलु न भीजै ॥ करण पलाव करे बहुतेरे नरकि सुरगि अवतारा हे ॥१२॥
मूलम्
खेहू खेह रलै तनु छीजै ॥ मनमुखु पाथरु सैलु न भीजै ॥ करण पलाव करे बहुतेरे नरकि सुरगि अवतारा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेहू = राख में। छीजै = छिजता है, कमजोर होता है। सैलु = शैल, पत्थर, पहाड़। करण पलाव = (करुणाप्रलाप) तरले, दुहाई, तरस भरे विलाप। अवतारा = पैदा होता।12।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पत्थर दिल ही रहता है कभी (भक्ति-भाव में) नहीं भीगता, सारी उम्र माया के मोह में ही उसका शरीर आखिर नाश हो जाता है (उसका श्रेष्ठ मनुष्य जीवन) राख में मिल जाता है। (जीवन का समय बीत जाने पर अगर वह) बहुत सारे तरले भी करे (तो किसी अर्थ के नहीं) वह कभी नर्क में और कभी स्वर्ग में पैदा ही होता रहता है (भाव, जनम-मरण के चक्कर में पड़ कर दुख-सुख भोगता रहता है)।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ बिखु भुइअंगम नाले ॥ इनि दुबिधा घर बहुते गाले ॥ सतिगुर बाझहु प्रीति न उपजै भगति रते पतीआरा हे ॥१३॥
मूलम्
माइआ बिखु भुइअंगम नाले ॥ इनि दुबिधा घर बहुते गाले ॥ सतिगुर बाझहु प्रीति न उपजै भगति रते पतीआरा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर। भुइअंगम = साँप। इनि = इस ने। पतीआरा = पतीजता।13।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़े बिना) माया के मोह-रूपी साँप का जहर जीवों के अंदर टिका रहता है (और जीवों को आत्मिक मौत मारता रहता है)। इसने दुविधा में डाल के अनेक घर गला दिए हैं (मोह ने प्रभु के बिना और ही आसरों की झाक में पड़ कर अनेक जीवन बर्बाद कर दिए हैं)। गुरु के बिना मनुष्य के हृदय में प्रभु-चरणों के प्रति प्रीति पैदा नहीं होती। जो मनुष्य (गुरु के द्वारा) परमात्मा के भक्ति-रंग में रंगे जाते हैं उनका मन प्रभु की याद में प्रसन्न रहता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत माइआ कउ बहु धावहि ॥ नामु विसारि कहा सुखु पावहि ॥ त्रिहु गुण अंतरि खपहि खपावहि नाही पारि उतारा हे ॥१४॥
मूलम्
साकत माइआ कउ बहु धावहि ॥ नामु विसारि कहा सुखु पावहि ॥ त्रिहु गुण अंतरि खपहि खपावहि नाही पारि उतारा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत = माया ग्रसित मनुष्य। धावहि = दौड़ते हैं। विसारि = बिसार के।14।
अर्थ: माया-ग्रसित जीव माया इकट्ठी करने की खातिर बहुत दौड़-भाग करते हैं (क्योंकि वे इसी में सुख तलाशने की आशा रखते हैं) पर परमात्मा का नाम भुला के आत्मिक आनंद कहाँ से ले सकते हैं? वे माया के तीन गुणों में ही फसे रह के दुखी होते हैं (और लोगों को भी) दुखी करते हैं। दुखों के इस समुंदर में से वे दूसरे छोर पर नहीं पहुँच सकते।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूकर सूकर कहीअहि कूड़िआरा ॥ भउकि मरहि भउ भउ भउ हारा ॥ मनि तनि झूठे कूड़ु कमावहि दुरमति दरगह हारा हे ॥१५॥
मूलम्
कूकर सूकर कहीअहि कूड़िआरा ॥ भउकि मरहि भउ भउ भउ हारा ॥ मनि तनि झूठे कूड़ु कमावहि दुरमति दरगह हारा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूकर = कुत्ते। सूकर = सूअर। भउकि = भौंक के। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। भउ भउ भउ = भटक भटक के। हारा = थक जाते हैं।15।
अर्थ: निरे झूठ के व्यापारी व्यक्ति (देखने में तो मनुष्य हैं, पर दरअसल वे) कुत्ते और सूअर ही (अपने आपको कहलवाते हैं) (क्योंकि कुक्तों और सूअरों की तरह माया की खातिर) भौंक-भौंक के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, सारी उम्र भटकते-भटकते थक टूट जाते हैं। उनके मन में माया का मोह, उनके शरीर में माया का मोह, सारी उम्र वह मोह की कमाई ही करते हैं। इस बुरी मति के पीछे लग के परमात्मा की दरगाह में वे जीवन-बाज़ी हार जाते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु मिलै त मनूआ टेकै ॥ राम नामु दे सरणि परेकै ॥ हरि धनु नामु अमोलकु देवै हरि जसु दरगह पिआरा हे ॥१६॥
मूलम्
सतिगुरु मिलै त मनूआ टेकै ॥ राम नामु दे सरणि परेकै ॥ हरि धनु नामु अमोलकु देवै हरि जसु दरगह पिआरा हे ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेकै = आसरा देता है। परेकै = पड़े हुए को।16।
अर्थ: अगर सतिगुरु मिल जाए तो मनुष्य को परमात्मा का नाम दे के उसके (डोलते) मन को सहारा देता है। गुरु उसको परमात्मा का नाम-रूप अमूल्य (कीमती) धन देता है, परमात्मा की महिमा (की दाति) देता है (जिसकी इनायत से उसको) प्रभु की दरगाह में आदर-प्यार मिलता है।16।
[[1030]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु साधू सरणाई ॥ सतिगुर बचनी गति मिति पाई ॥ नानक हरि जपि हरि मन मेरे हरि मेले मेलणहारा हे ॥१७॥३॥९॥
मूलम्
राम नामु साधू सरणाई ॥ सतिगुर बचनी गति मिति पाई ॥ नानक हरि जपि हरि मन मेरे हरि मेले मेलणहारा हे ॥१७॥३॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सधू = गुरु। गति = हालत। मिति = मर्यादा। मन = हे मन!।17।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा का नाम मिलता है। गुरु के वचनों पर चलने से ये समझ आ जाती है कि परमात्मा कैसा (दयालु) है और कितना बड़ा (बेअंत) है। हे नानक! (अपने मन को समझा और कह:) हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जप (नाम जपने वाले भाग्यशाली को) मेलनहार प्रभु अपने चरणों में मिला देता है।17।3।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ घरि रहु रे मन मुगध इआने ॥ रामु जपहु अंतरगति धिआने ॥ लालच छोडि रचहु अपर्मपरि इउ पावहु मुकति दुआरा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ घरि रहु रे मन मुगध इआने ॥ रामु जपहु अंतरगति धिआने ॥ लालच छोडि रचहु अपर्मपरि इउ पावहु मुकति दुआरा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि = घर में, अपने आप में, अडोलता में। मुगध = हे मूर्ख! अंतरगति = अंदर ही टिके रह के। धिआने = ध्यान से, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। रचहु = लीन रहो। अपरंपरि = अपरंपर (प्रभु) में, उस प्रभु में जो परे से परे है।1।
अर्थ: हे अंजान मूर्ख मन! अडोलता में टिका रह। अपने अंदर ही टिका रह के और तवज्जो जोड़ के प्रभु का नाम जप। (हे मन! माया का) लालच छोड़ के उस प्रभु में लीन रह जो परे से परे है (जिससे आगे कोई और हस्ती नहीं है)। इसी तरह तू (माया की लालच से) मुक्ति पाने का रास्ता तलाश लेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु बिसरिऐ जमु जोहणि लागै ॥ सभि सुख जाहि दुखा फुनि आगै ॥ राम नामु जपि गुरमुखि जीअड़े एहु परम ततु वीचारा हे ॥२॥
मूलम्
जिसु बिसरिऐ जमु जोहणि लागै ॥ सभि सुख जाहि दुखा फुनि आगै ॥ राम नामु जपि गुरमुखि जीअड़े एहु परम ततु वीचारा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जमु = मौत, आत्मिक मौत। जोहणि लागै = देखने लग पड़ता है। सभि = सारे। फुनि = दोबारा, उनकी जगह। आगै = जीवन-राह में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जीअड़े = हे जिंदे! परम ततु = सबसे बड़ा मूल्य, परमात्मा।2।
अर्थ: जिस प्रभु के भूल जाने से मौत घूरने लग जाती है सारे सुख दूर हो जाते हैं और उनकी जगह जीवन-पथ में दुख ही दुख पैदा हो जाते हैं, हे जिंदे! गुरु की शरण पड़ कर उस प्रभु का नाम जप, और जगत के मूल प्रभु को अपनी सोच-मण्डल में टिका के रख।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु जपहु रसु मीठा ॥ गुरमुखि हरि रसु अंतरि डीठा ॥ अहिनिसि राम रहहु रंगि राते एहु जपु तपु संजमु सारा हे ॥३॥
मूलम्
हरि हरि नामु जपहु रसु मीठा ॥ गुरमुखि हरि रसु अंतरि डीठा ॥ अहिनिसि राम रहहु रंगि राते एहु जपु तपु संजमु सारा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = (अपने) अंदर। अहि = दिन। निसि = रात। राम रंगि = परमात्मा के रंग में। सारा = श्रेष्ठ।3।
अर्थ: हे जिंदे! सदा परमात्मा का नाम जप (जपने से ही समझ पड़ेगी कि नाम जपने का) मीठा स्वाद है। गुरु की शरण पड़ कर ये नाम-रस अपने ही अंदर अनुभव किया जा सकता है। (हे भाई!) दिन-रात परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहो, ये नाम-रंग ही श्रेष्ठ जप है, श्रेष्ठ तप है, श्रेष्ठ संयम है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु गुर बचनी बोलहु ॥ संत सभा महि इहु रसु टोलहु ॥ गुरमति खोजि लहहु घरु अपना बहुड़ि न गरभ मझारा हे ॥४॥
मूलम्
राम नामु गुर बचनी बोलहु ॥ संत सभा महि इहु रसु टोलहु ॥ गुरमति खोजि लहहु घरु अपना बहुड़ि न गरभ मझारा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टोलहु = ढूँढो। घरु = वह जगह जहाँ हमेशा टिके रह सकें। बहुड़ि = बार बार।4।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की वाणी के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करो (आत्मिक आनंद मिलेगा, पर ये आनंद साधु-संगत में प्राप्त होता है) साधु-संगत में जा के इस आनंद की तलाश करो। गुरु की मति पर चल कर अपना वह आत्मिक ठिकाना ढूँढो जहाँ पहुँच के दोबारा जनम-मरण के चक्कर में ना पड़ना पड़े।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु तीरथि नावहु हरि गुण गावहु ॥ ततु वीचारहु हरि लिव लावहु ॥ अंत कालि जमु जोहि न साकै हरि बोलहु रामु पिआरा हे ॥५॥
मूलम्
सचु तीरथि नावहु हरि गुण गावहु ॥ ततु वीचारहु हरि लिव लावहु ॥ अंत कालि जमु जोहि न साकै हरि बोलहु रामु पिआरा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्चु = सदा स्थिर रहने वाला। तीरथि = तीर्थ पर। ततु = मूल प्रभु। अंत कालि = आखिरी समय में। जमु = मौत (का डर)।5।
अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु का नाम (स्मरण करो), परमात्मा के गुण गाओ (यही है तीर्थ-स्नान, इस) तीरथ में स्नान करो। परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ो, परमात्मा के गुणों को विचारो। प्यारे प्रभु का नाम स्मरण करो, आखिरी समय मौत का डर छू नहीं सकेगा।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु पुरखु दाता वड दाणा ॥ जिसु अंतरि साचु सु सबदि समाणा ॥ जिस कउ सतिगुरु मेलि मिलाए तिसु चूका जम भै भारा हे ॥६॥
मूलम्
सतिगुरु पुरखु दाता वड दाणा ॥ जिसु अंतरि साचु सु सबदि समाणा ॥ जिस कउ सतिगुरु मेलि मिलाए तिसु चूका जम भै भारा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाणा = समझदार। जिसु अंतरि = जिस (गुरु) के अंदर। सबदि = प्रभु की महिमा में। मेलि = संगति में। भै भारा = डर सहम का भार।6।
अर्थ: गुरु अकाल-पुरख (का रूप) है, सब दातें देने के समर्थ है, बहुत समझदार है, उसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभु हमेशा बसता है, वह परमात्मा की महिमा में हमेशा लीन रहता है। वह गुरु जिस मनुष्य को अपनी संगति में मिलाता है उस (के सिर) पर से जमों का डर दूर हो जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच ततु मिलि काइआ कीनी ॥ तिस महि राम रतनु लै चीनी ॥ आतम रामु रामु है आतम हरि पाईऐ सबदि वीचारा हे ॥७॥
मूलम्
पंच ततु मिलि काइआ कीनी ॥ तिस महि राम रतनु लै चीनी ॥ आतम रामु रामु है आतम हरि पाईऐ सबदि वीचारा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। काइआ = शरीर। तिसु महि = उस (शरीर) में। लै चीनी = चीन्ह ले, पहचान ले। सबदि = गुरु के शब्द से।7।
अर्थ: (हे भाई! अपने) इस शरीर में, जो परमात्मा ने पाँच (विरोधी) तत्वों को मिला के बनाया है, परमात्मा का नाम-रतन खोज के तलाश ले। (ज्यों-ज्यों) गुरु के शब्द द्वारा विचार करें, (त्यों-त्यों ये समझ आ जाती है कि) आत्मा और परमात्मा एक-रूप हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत संतोखि रहहु जन भाई ॥ खिमा गहहु सतिगुर सरणाई ॥ आतमु चीनि परातमु चीनहु गुर संगति इहु निसतारा हे ॥८॥
मूलम्
सत संतोखि रहहु जन भाई ॥ खिमा गहहु सतिगुर सरणाई ॥ आतमु चीनि परातमु चीनहु गुर संगति इहु निसतारा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन भाई = हे भाई जनो! संतोखि = संतोख में। गहहु = ग्रहण करो। चीनि = पहचान के। परातमु = पर आतमु, परम आत्मा, परमात्मा।8।
अर्थ: हे भाई! जनो! सेवा और संतोष में जीवन बिताओ। गुरु की शरण पड़ कर दूसरों की ज्यादती सहने का गुण ग्रहण करो। अपनी आत्मा को पहचान के दूसरों की आत्मा को भी पहचानो। गुरु की संगति में रहने से ये निर्णय आता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत कूड़ कपट महि टेका ॥ अहिनिसि निंदा करहि अनेका ॥ बिनु सिमरन आवहि फुनि जावहि ग्रभ जोनी नरक मझारा हे ॥९॥
मूलम्
साकत कूड़ कपट महि टेका ॥ अहिनिसि निंदा करहि अनेका ॥ बिनु सिमरन आवहि फुनि जावहि ग्रभ जोनी नरक मझारा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ = माया का मोह। टेक = आसरा। ग्रभ = गर्भ।9।
अर्थ: माया-ग्रसित लोग माया के मोह में और छल में (अपने जीवन का) आसरा (तलाशते हैं), वह दिन-रात अनेक किस्मों की पराई निंदा करते रहते हैं। स्मरण से वंचित रह कर वे (इस निंदा आदि कर कर के गलत रास्ते पड़ कर) जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाते हैं, गरभ-जून के नर्कों में पड़ते हैं।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत जम की काणि न चूकै ॥ जम का डंडु न कबहू मूकै ॥ बाकी धरम राइ की लीजै सिरि अफरिओ भारु अफारा हे ॥१०॥
मूलम्
साकत जम की काणि न चूकै ॥ जम का डंडु न कबहू मूकै ॥ बाकी धरम राइ की लीजै सिरि अफरिओ भारु अफारा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काणि = डर। चूकै = खत्म होती। बीजै = ली जाती है, वसूल की जाती है। अफरिओ = अहंकारी के (सिर पर)। अफारा = असहि।10।
अर्थ: माया-ग्रसित जीवों के अंदर से जम का डर दूर नहीं होता, जम की सजा उनके सिर से नहीं टलती। अहंकारियों के सिर पर (विकारों का) असहि भार टिका रहता है (यह, मानो, उनके सिर पर कर्जा है) धर्मराज के इस कर्जे का लेखा उनके पास से लिया ही जाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गुर साकतु कहहु को तरिआ ॥ हउमै करता भवजलि परिआ ॥ बिनु गुर पारु न पावै कोई हरि जपीऐ पारि उतारा हे ॥११॥
मूलम्
बिनु गुर साकतु कहहु को तरिआ ॥ हउमै करता भवजलि परिआ ॥ बिनु गुर पारु न पावै कोई हरि जपीऐ पारि उतारा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को साकतु = कौन सा साकत? भवजलि = भवजल में। पारु = परला किनारा। पारि = परले किनारे का।11।
अर्थ: गुरु की शरण के बिना कोई भी माया-ग्रसित जीव (माया-मोह के समुंदर से) पार नहीं लांघ सकता (माया की मस्ती के कारण वह) ‘हउ हउ मैं मैं’ करता संसार-समुंदर में डूबा रहता है। गुरु के बिना कोई मनुष्य (इस समुंदर का) परला किनारा नहीं ढूँढ सकता। परमात्मा का नाम जपना चाहिए, (नाम जपने से ही) उस पार के किनारे पर पहुँचा जा सकता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की दाति न मेटै कोई ॥ जिसु बखसे तिसु तारे सोई ॥ जनम मरण दुखु नेड़ि न आवै मनि सो प्रभु अपर अपारा हे ॥१२॥
मूलम्
गुर की दाति न मेटै कोई ॥ जिसु बखसे तिसु तारे सोई ॥ जनम मरण दुखु नेड़ि न आवै मनि सो प्रभु अपर अपारा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वह (प्रभु) ही। मनि = मन में। अपर = जिससे परे और कोई नहीं।12।
अर्थ: जिस मनुष्य पर गुरु बख्शिश करता है उसको (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है, कोई आदमी गुरु की इस बख्शिश के राह में रुकावट नहीं डाल सकता। (गुरु की मेहर से) जिस मनुष्य के मन में वह अपर-अपार प्रभु आ बसता है जनम-मरण का दुख उसके नजदीक नहीं फटकता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर ते भूले आवहु जावहु ॥ जनमि मरहु फुनि पाप कमावहु ॥ साकत मूड़ अचेत न चेतहि दुखु लागै ता रामु पुकारा हे ॥१३॥
मूलम्
गुर ते भूले आवहु जावहु ॥ जनमि मरहु फुनि पाप कमावहु ॥ साकत मूड़ अचेत न चेतहि दुखु लागै ता रामु पुकारा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। भूले = टूटे हुए, भटके हुए। अचेत = गाफिल, बेपरवाह। ता = से।13।
अर्थ: हे भाई! अगर गुरु के दर से टूटे रहोगे तो (संसार में बार-बार) पैदा होते मरते रहोगे, जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहोगे और पाप-कर्म करते रहोगे। माया-ग्रसित मूर्ख गाफिल मनुष्य परमात्मा को याद नहीं करते, जब कोई दुख व्यापता है तो उस वक्त ‘हाय राम! हाय राम! ’ पुकारते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखु दुखु पुरब जनम के कीए ॥ सो जाणै जिनि दातै दीए ॥ किस कउ दोसु देहि तू प्राणी सहु अपणा कीआ करारा हे ॥१४॥
मूलम्
सुखु दुखु पुरब जनम के कीए ॥ सो जाणै जिनि दातै दीए ॥ किस कउ दोसु देहि तू प्राणी सहु अपणा कीआ करारा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि दाते = जिस दाते ने। कउ = को। प्राणी = हे प्राणी! सहु = सहार। करारा = सख्त।14।
अर्थ: हे प्राणी! पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के अनुसार दुख-सुख भोगे जाते हैं, इस भेद को वही परमात्मा जानता है जिसने (जिसने ये दुख-सुख भोगने के लिए) दिए हैं। हे प्राणी! (होने वाले दुखों के कारण) तू किसी और को दोष नहीं दे सकता, ये अपने ही किए कर्मों का कठोर फल सह।14।
[[1031]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै ममता करदा आइआ ॥ आसा मनसा बंधि चलाइआ ॥ मेरी मेरी करत किआ ले चाले बिखु लादे छार बिकारा हे ॥१५॥
मूलम्
हउमै ममता करदा आइआ ॥ आसा मनसा बंधि चलाइआ ॥ मेरी मेरी करत किआ ले चाले बिखु लादे छार बिकारा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। बिखु = जहर। छारु = राख।15।
अर्थ: जीव दुनियां की आशाओं और मन के मायावी फुरनों में बँधा चला आ रहा है, (जन्म-जन्मांतरों से) अहंम् और ममता अहंकार-भरी बातें करता आ रहा है। ‘ये माया मेरी है ये माया मेरी है’- यह कह: कह के यहाँ से अपने साथ भी कुछ नहीं ले जा सकता। विकारों की राख और विकारों का जहर ही लाद लेता है (जो इसके आत्मिक जीवन को मार देता है)।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की भगति करहु जन भाई ॥ अकथु कथहु मनु मनहि समाई ॥ उठि चलता ठाकि रखहु घरि अपुनै दुखु काटे काटणहारा हे ॥१६॥
मूलम्
हरि की भगति करहु जन भाई ॥ अकथु कथहु मनु मनहि समाई ॥ उठि चलता ठाकि रखहु घरि अपुनै दुखु काटे काटणहारा हे ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकथु = वह प्रभु जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते। मनहि = मन ही, मन में ही। चलता = भटकता। ठाकि = रोक के। घरि अपुनै = अपने घर में।16।
अर्थ: हे भाई जनो! परमात्मा की भक्ति करो। उस परमात्मा को याद करते रहो जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते, (इस तरह ये विकारी) मन (रब) मन में ही लीन हो जाएगा। हे भाई! इस मन को जो (माया के पीछे) उठ-उठ के भागता है रोक के अपने अडोल आत्मिक ठिकाने में काबू कर के रखो। (इस तरह) सारे दुख काटने के समर्थ प्रभु दुख दूर कर देगा।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि गुर पूरे की ओट पराती ॥ गुरमुखि हरि लिव गुरमुखि जाती ॥ नानक राम नामि मति ऊतम हरि बखसे पारि उतारा हे ॥१७॥४॥१०॥
मूलम्
हरि गुर पूरे की ओट पराती ॥ गुरमुखि हरि लिव गुरमुखि जाती ॥ नानक राम नामि मति ऊतम हरि बखसे पारि उतारा हे ॥१७॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पराती = पहचानी। गुरमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह गुरु की ओर है। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।17।
अर्थ: जिस मनुष्य ने परमात्मा की और पूरे गुरु की शरण की कद्र पहचान ली है, जिस ने गुरु के सन्मुख हो के गुरु के द्वारा परमात्मा में तवज्जो जोड़नी सीख समझ ली है, हे नानक! परमात्मा के नाम में जुड़ के उसकी मति श्रेष्ठ हो जाती है, परमात्मा उस पर मेहर करता है और उसको (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।17।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ सरणि परे गुरदेव तुमारी ॥ तू समरथु दइआलु मुरारी ॥ तेरे चोज न जाणै कोई तू पूरा पुरखु बिधाता हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ सरणि परे गुरदेव तुमारी ॥ तू समरथु दइआलु मुरारी ॥ तेरे चोज न जाणै कोई तू पूरा पुरखु बिधाता हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरदेव = हे गुर देव! हे सबसे बड़े देवते! हे प्रभु! मुरारी = (मुर+अरि, मुर दैत्य का वैरी) दैत्यों का नाश करने वाला। चोज = करिश्मे, तमाशे। पूरा = सारे गुणों का मालिक। बिधाता = पैदा करने वाला।1।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, तू (कामादिक) वैरियों को मारने वाला है, तू सब ताकतों का मालिक है, तू दया का श्रोत है। कोई जीव तेरे करिश्मों को समझ नहीं सकता, तू सब गुणों का मालिक है, तू सबमें व्यापक है, तू सृष्टि को पैदा करने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू आदि जुगादि करहि प्रतिपाला ॥ घटि घटि रूपु अनूपु दइआला ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि सभु तेरो कीआ कमाता हे ॥२॥
मूलम्
तू आदि जुगादि करहि प्रतिपाला ॥ घटि घटि रूपु अनूपु दइआला ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि सभु तेरो कीआ कमाता हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = जगत के आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। घटि घटि = (तू) हरेक घट में (है)। रूपु अनूपु = तेरा रूप एसा है कि उस जैसा कोई और रूप नहीं (अन+ऊप। ऊप = उपमा)। तेरो = तेरा।2।
अर्थ: जगत के शुरू से ही जुगों के आरम्भ से ही तू (सब जीवों की) पालना करता आ रहा है, तू हरेक शरीर में मौजूद है, तेरा रूप ऐसा है कि उस जैसा और किसी का नहीं, तू दया का श्रोत है। जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू संसार की कार चला रहा है, हरेक जीव तेरा ही प्रेरित हुआ (कर्म) करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि जोति भली जगजीवन ॥ सभि घट भोगै हरि रसु पीवन ॥ आपे लेवै आपे देवै तिहु लोई जगत पित दाता हे ॥३॥
मूलम्
अंतरि जोति भली जगजीवन ॥ सभि घट भोगै हरि रसु पीवन ॥ आपे लेवै आपे देवै तिहु लोई जगत पित दाता हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोति जग जीवन = जगत के जीवन प्रभु की ज्योति। भली = शोभा दे रही है। सभि = सारे। तिहु लोई = तीनों भवनों में। लोई = लोक, भवन (‘कहत कबीर सुनहु रे लोई’। रे लोई = हे जगत!)। जगत पित = जगत का पिता।3।
अर्थ: जगत के जीवन प्रभु की ज्योति हरेक के अंदर शोभा दे रही है, सारे शरीरों में व्यापक हो के प्रभु स्वयं ही अपने नाम का रस पी रहा है, भोग रहा है। यह हरि-नाम-रस स्वयं ही (जीवों में बैठा) ले रहा है, स्वयं ही (जीवों को यह नाम-रस) देता है। जगत का पिता प्रभु तीनों ही भवनों में मौजूद है और सब दातें दे रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगतु उपाइ खेलु रचाइआ ॥ पवणै पाणी अगनी जीउ पाइआ ॥ देही नगरी नउ दरवाजे सो दसवा गुपतु रहाता हे ॥४॥
मूलम्
जगतु उपाइ खेलु रचाइआ ॥ पवणै पाणी अगनी जीउ पाइआ ॥ देही नगरी नउ दरवाजे सो दसवा गुपतु रहाता हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाइ = पैदा करके। जीउ = जीवात्मा। पाइआ = रख दिया। देही = शरीर। दरवाजे = कान नाक आदि छेद, कर्म इंद्रिय। दसवा = दसवाँ दरवाजा (जहाँ से गुजर के परमात्मा के घर पहुँचा जाता है)। रहाता = रखता है।4।
अर्थ: जगत पैदा करके प्रभु ने (मानो, एक) खेल बना दी है, हवा पानी आग (आदि तत्वों को इकट्ठा करके और शरीर बना के उस में) जीवात्मा टिका दी है। इस शरीर-नगरी को उसने नौ दरवाजे (तो प्रकट रूप में) लगा दिए हैं, (जिस दरवाजे से उसके घर में पहुँचते हैं) वह दसवाँ दरवाजा (उसने) गुप्त रखा हुआ है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि नदी अगनी असराला ॥ कोई गुरमुखि बूझै सबदि निराला ॥ साकत दुरमति डूबहि दाझहि गुरि राखे हरि लिव राता हे ॥५॥
मूलम्
चारि नदी अगनी असराला ॥ कोई गुरमुखि बूझै सबदि निराला ॥ साकत दुरमति डूबहि दाझहि गुरि राखे हरि लिव राता हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि नदी = (हिंसा, मोह, लोभ व क्रोध = ये) चारों नदियां। असराला = भयानक। निराला = विरला, बिल्कुल अलग। साकत = माया ग्रसित जीव। दाझहि = जलते हैं। गुरि = गुरु ने। राता = रति हुआ, मस्त।5।
अर्थ: (इस जगत में निर्दयता मोह लोभ और क्रोध) चार आग की भयानक नदियां हैं। पर कोई विरला मनुष्य जो गुरु की शरण पड़ता है वह गुरु के शब्द में जुड़ के इस बात को समझता है, (वरना) माया-ग्रसित जीव बुरी मति के पीछे लग के (इन नदियों में) गोते खाते हैं जलते हैं। जिन्हें गुरु ने (इन अग्नि-नदियों से) बचा लिया वह परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपु तेजु वाइ प्रिथमी आकासा ॥ तिन महि पंच ततु घरि वासा ॥ सतिगुर सबदि रहहि रंगि राता तजि माइआ हउमै भ्राता हे ॥६॥
मूलम्
अपु तेजु वाइ प्रिथमी आकासा ॥ तिन महि पंच ततु घरि वासा ॥ सतिगुर सबदि रहहि रंगि राता तजि माइआ हउमै भ्राता हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपु = (आप्) पानी। तेजु = आग। वाइ = वायु, हवा। पंच ततु = पाँच तत्वी शरीर। तिन महि = इन तत्वों के मेल में। घरि = इस शरीर घर में। रंगि राता = प्रभु के प्रेम रंग में रति। भ्राता = भ्रांति।6।
अर्थ: पानी आग हवा धरती और आकाश- इन पाँचों के मेल से परमात्मा ने पंच-तत्वी घर बना दिया है उस घर में जीवात्मास का निवास कर दिया है। जो जीव सतिगुरु के शब्द में जुड़ते हैं वह माया के अहंकार और माया की खातिर भटकना छोड़ के परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु भीजै सबदि पतीजै ॥ बिनु नावै किआ टेक टिकीजै ॥ अंतरि चोरु मुहै घरु मंदरु इनि साकति दूतु न जाता हे ॥७॥
मूलम्
इहु मनु भीजै सबदि पतीजै ॥ बिनु नावै किआ टेक टिकीजै ॥ अंतरि चोरु मुहै घरु मंदरु इनि साकति दूतु न जाता हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतीजै = प्रसन्न होता है, खिला रहता है। टेक = आसरा। चोरु = (विकारों में फसा हुआ) चोर मन। मुहै = लूटता है। इनि = इस ने। इनि साकति = इस साकत ने। दूतु = वैरी।7।
अर्थ: जिस मनुष्य का ये मन गुरु के शब्द में भीग जाता है (शब्द में खुश हो के जुड़ता है) वह परमात्मा के नाम में जुड़ के प्रसन्न होता है, परमात्मा के नाम के बिना वह और कोई आसरा नहीं तलाशता। पर जो मनुष्य माया-ग्रसित है उसके अंदर (विकारी मन-) चोर का घर-घाट लुटता जाता है, इस माया-ग्रसित जीव ने इस चोर को पहचाना ही नहीं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुंदर दूत भूत भीहाले ॥ खिंचोताणि करहि बेताले ॥ सबद सुरति बिनु आवै जावै पति खोई आवत जाता हे ॥८॥
मूलम्
दुंदर दूत भूत भीहाले ॥ खिंचोताणि करहि बेताले ॥ सबद सुरति बिनु आवै जावै पति खोई आवत जाता हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुंदर = शोर मचाने वाले। दूत = कामादिक वैरी। भीहाले = भयानक। बेताले = प्रेत। खिंचोताणि = अपनी अपनी तरफ खींचोतान। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।8।
अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर शोर मचाने वाले और डरावने भूतों जैसे कामादिक वैरी बसते हों और वह भूत अपनी-अपनी तरफ को खिंचातानी कर रहे हों, वह मनुष्य गुरु के शब्द में तवज्जो-सूझ से वंचित रह के पैदा होता मरता रहता है, अपनी इज्जत गवा लेता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूड़ु कलरु तनु भसमै ढेरी ॥ बिनु नावै कैसी पति तेरी ॥ बाधे मुकति नाही जुग चारे जमकंकरि कालि पराता हे ॥९॥
मूलम्
कूड़ु कलरु तनु भसमै ढेरी ॥ बिनु नावै कैसी पति तेरी ॥ बाधे मुकति नाही जुग चारे जमकंकरि कालि पराता हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भसमै = भसम की, राख की। मुकति = मुक्ति, खलासी। जुग चारे = चारों युगों में ही, कभी भी। जम कंकरि = जम के किंकर (दास) ने, जम दूत ने। कालि = काल ने, आत्मिक मौत ने। पराता = पहचाना।9।
अर्थ: हे जीव! तू सारी उम्र झूठ (रूपी) कल्लर का ही (व्यापार करता है), शरीर भी आखिर राख की ढेरी हो जाने वाला है (तेरे पल्ले क्या पड़ा है?)। परमात्मा के नाम से टूट के तू अपनी इज्जत गवा लेता है। माया के मोह में बंधे हुए की मुक्ति प्रभु के नाम के बिना कभी भी नहीं हो सकेगी (ऐसे है जैसे) काल-जमदूत ने तुझे (खास तौर पर) पहचाना हुआ है (कि यह मेरा शिकार है)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम दरि बाधे मिलहि सजाई ॥ तिसु अपराधी गति नही काई ॥ करण पलाव करे बिललावै जिउ कुंडी मीनु पराता हे ॥१०॥
मूलम्
जम दरि बाधे मिलहि सजाई ॥ तिसु अपराधी गति नही काई ॥ करण पलाव करे बिललावै जिउ कुंडी मीनु पराता हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छरि = दर पर। मिलहि = मिलती हैं। गति = हालत, दशा। करण पलाव = (करुणा प्रलाप) तरस भरे विलाप, तरले। मीनु = मछली। पराता = पड़ जाता है, फस जाता है।10।
अर्थ: (झूठ-कल्लर के व्यापारी को) जम के दर पर बँधे हुए को सजाएं मिलती हैं, उस (बिचारे) दुष्कर्मी का बुरा हाल होता है, बिलकता है, करुणाप्रलाप करता है (पर मोह के फंदे मे से मुक्ति नहीं मिलती) जैसे मछली कुंडी में फंस जाती है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकतु फासी पड़ै इकेला ॥ जम वसि कीआ अंधु दुहेला ॥ राम नाम बिनु मुकति न सूझै आजु कालि पचि जाता हे ॥११॥
मूलम्
साकतु फासी पड़ै इकेला ॥ जम वसि कीआ अंधु दुहेला ॥ राम नाम बिनु मुकति न सूझै आजु कालि पचि जाता हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पड़ै = पड़ता है। जम वसि = जम के वश में। अंधु = (माया के मोह में) अंधा। दुहेला = दुखी। आजु कालि = आज भी कल भी, हर रोज। पचि जाता = खुआर होता है।11।
अर्थ: माया-ग्रसित माया के मोह में अंधा हुआ जीव जम के वश में पड़ा हुआ दुखी होता है, उसकी अपनी अकेली जान ही उस फंदे में फसी होती है। (वह माया-ग्रसित जीव प्रभु-नाम से वंचित रहता है, और) हरि-नाम के बिना मुक्ति का कोई तरीका नहीं सूझ सकता, नित्य (मोह के फंदे में ही) दखी होता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बाझु न बेली कोई ॥ ऐथै ओथै राखा प्रभु सोई ॥ राम नामु देवै करि किरपा इउ सललै सलल मिलाता हे ॥१२॥
मूलम्
सतिगुर बाझु न बेली कोई ॥ ऐथै ओथै राखा प्रभु सोई ॥ राम नामु देवै करि किरपा इउ सललै सलल मिलाता हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेली = मदद करने वाला, मित्र। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में सललै = पानी में।12।
अर्थ: सतिगुरु के बिना (जीवन-राह बताने वाला) कोई मददगार नहीं बनता (गुरु ही बताता है कि) लोक-परलोक में परमात्मा ही (जीव की) रक्षा करने वाला है। (सतिगुरु) मेहर कर के परमात्मा का नाम बख्शता है, इस तरह (जीव परमात्मा के चरणों में इस तरह मिल जाता है जैसे) पानी में पानी मिल जाता है।12।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
भूले सिख गुरू समझाए ॥ उझड़ि जादे मारगि पाए ॥ तिसु गुर सेवि सदा दिनु राती दुख भंजन संगि सखाता हे ॥१३॥
मूलम्
भूले सिख गुरू समझाए ॥ उझड़ि जादे मारगि पाए ॥ तिसु गुर सेवि सदा दिनु राती दुख भंजन संगि सखाता हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उझड़ि = गलत रास्ते पर। मारगि = (ठीक) रास्ते पर। दुख भजन = दुखों को नाश करने वाला प्रभु। संगि = साथ। सखाता = सखा, साथी।13।
अर्थ: भूले हुए लोगों को शिक्षा दे के गुरु (सही जीवन-राह की) समझ बख्शता है, गलत राह पर जाते को (ठीक) राह पर डालता है। (हे भाई! तू) दिन-रात उस गुरु की बताई हुई कार कर। गुरु दुखों का नाश करने वाले परमात्मा में जोड़ के प्रभु के साथ मित्रता बना देता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की भगति करहि किआ प्राणी ॥ ब्रहमै इंद्रि महेसि न जाणी ॥ सतिगुरु अलखु कहहु किउ लखीऐ जिसु बखसे तिसहि पछाता हे ॥१४॥
मूलम्
गुर की भगति करहि किआ प्राणी ॥ ब्रहमै इंद्रि महेसि न जाणी ॥ सतिगुरु अलखु कहहु किउ लखीऐ जिसु बखसे तिसहि पछाता हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहमै = ब्रहमा ने। इंद्रि = इन्द्र ने। महेसि = महेश ने। अलखु = (अलक्ष्य) अदृष्य, जिस के कोई खास चक्र चिन्ह नहीं। तिसहि = उस ने ही।14।
अर्थ: (संसारी जीव) गुरु की भक्ति की क्या कद्र जान सकते हैं? ब्रहमा ने, इन्द्र ने, शिव ने (भी यह कद्र) नहीं समझी। गुरु अलख (-प्रभु का रूप) है, उसको समझा नहीं जा सकता। गुरु जिस पर मेहर करता है वही (गुरु की) पहचान करता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि प्रेमु परापति दरसनु ॥ गुरबाणी सिउ प्रीति सु परसनु ॥ अहिनिसि निरमल जोति सबाई घटि दीपकु गुरमुखि जाता हे ॥१५॥
मूलम्
अंतरि प्रेमु परापति दरसनु ॥ गुरबाणी सिउ प्रीति सु परसनु ॥ अहिनिसि निरमल जोति सबाई घटि दीपकु गुरमुखि जाता हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसनु = छोह, मेल। अहि = दिन। निसि = रात। निरमल = पवित्र। सबाई = सारी दुनिया में। घटि = (अपने) हृदय घट में।15।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में (गुरु का) प्रेम है उसको (परमात्मा का) दीदार प्राप्त होता है, जिसकी प्रीति गुरु की वाणी के साथ बन गई उसको प्रभु-चरणों की छोह मिल जाती है। उसको सारी ही लोकाई में प्रभु की पवित्र ज्योति व्यापक दिखती है, गुरु की शरण पड़ कर उसको अपने हृदय में दिन-रात (ज्ञान का) दीया (जगमगाता) दिखता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजन गिआनु महा रसु मीठा ॥ जिनि चाखिआ तिनि दरसनु डीठा ॥ दरसनु देखि मिले बैरागी मनु मनसा मारि समाता हे ॥१६॥
मूलम्
भोजन गिआनु महा रसु मीठा ॥ जिनि चाखिआ तिनि दरसनु डीठा ॥ दरसनु देखि मिले बैरागी मनु मनसा मारि समाता हे ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महा रसु = बड़े स्वाद वाला। जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। देखि = देख के। बैरागी = प्रेमी जीव। मनसा = मन का मायावी फुरना (मनीषा = इच्छा, ख्वाहिश)।16।
अर्थ: (गुरु के द्वारा मिला हुआ परमात्मा का) ज्ञान एक ऐसी (आत्मिक) खुराक है जो मीठी है और बहुत ही स्वादिष्ट है, जिसने यह स्वाद चखा है उसने परमात्मा के दीदार कर लिए हैं। जो प्रेमी (गुरु के द्वारा परमात्मा के) दर्शन करके उसके चरणों में जुड़ते हैं, उनका मन (अपनी) कामनाओं को मार के (सदा के लिए परमात्मा की याद में) लीन हो जाता है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवहि से परधाना ॥ तिन घट घट अंतरि ब्रहमु पछाना ॥ नानक हरि जसु हरि जन की संगति दीजै जिन सतिगुरु हरि प्रभु जाता हे ॥१७॥५॥११॥
मूलम्
सतिगुरु सेवहि से परधाना ॥ तिन घट घट अंतरि ब्रहमु पछाना ॥ नानक हरि जसु हरि जन की संगति दीजै जिन सतिगुरु हरि प्रभु जाता हे ॥१७॥५॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह लोग। परधाना = जाने माने हुए। तिन = उन लोगों ने। नानक = नानक को।17।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की बताई हुई सेवा करते हैं वह हर जगह आदर पाते हैं, वह हरेक शरीर के अंदर परमात्मा को बसता पहचान लेते हैं।
(नानक की अरदास है कि) जिस लोगों ने सतिगुरु को परमात्मा का रूप समझ लिया है उन हरि के जनों की संगति नानक को भी मिल जाए (उनकी संगति में ही रह के) परमात्मा की महिमा की दाति मिलती है।17।5।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ साचे साहिब सिरजणहारे ॥ जिनि धर चक्र धरे वीचारे ॥ आपे करता करि करि वेखै साचा वेपरवाहा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ साचे साहिब सिरजणहारे ॥ जिनि धर चक्र धरे वीचारे ॥ आपे करता करि करि वेखै साचा वेपरवाहा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचे = हे सदा स्थिर रहने वाले! सिरजणहारे = हे विधाता! जिनि = जिस तू ने। धर = धरती। धरे = टिकाए हैं। वीचारे = सोच विचार के। करि करि = पैदा कर कर के। वेखै = संभाल करता है।1।
अर्थ: हे सदा-स्थिर रहने वाले मालिक! हे जगत के रचनहार! जिस तू ने धरती के चक्कर बनाए हैं, तूने स्वयं ही सोच-विचार के (अपनी-अपनी जगह) टिकाए हैं! कर्तार खुद ही जगत की रच-रच के संभाल करता है, वह सदा कायम रहने वाला है, (जगत का इतना बड़ा पसारा होते हुए भी) वह बेफिक्र है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेकी वेकी जंत उपाए ॥ दुइ पंदी दुइ राह चलाए ॥ गुर पूरे विणु मुकति न होई सचु नामु जपि लाहा हे ॥२॥
मूलम्
वेकी वेकी जंत उपाए ॥ दुइ पंदी दुइ राह चलाए ॥ गुर पूरे विणु मुकति न होई सचु नामु जपि लाहा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेकी वेकी = अलग अलग किस्म के। पंद = नसीहत, शिक्षा। पंदी = शिक्षक। दुइ = दो। दुइ पंदी = अच्छी और बुरी दो किस्मों की शिक्षा देने वाले, गुरमुखि और मनमुखि। दइ राह = जीवन के दो रास्ते (अच्छे और बुरे)। मुकति = (विकारों से) मुक्ति। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। लाहा = लाभ।2।
अर्थ: परमात्मा ने रंग-बिरंगे जीव पैदा कर दिए हैं। कोई गुरमुख बना दिए हैं कोई मनमुख बना दिए हैं। गुरमुखता और मनमुखता- ये दोनों रास्ते चला दिए हैं। पूरे गुरु की शरण पड़े बिना (बुरे रास्ते से) मुक्ति नहीं मिलती। (गुरु के द्वारा) सदा-स्थिर नाम जप के ही (मनुष्य जीवन में आत्मिक) लाभ कमाया जा सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पड़हि मनमुख परु बिधि नही जाना ॥ नामु न बूझहि भरमि भुलाना ॥ लै कै वढी देनि उगाही दुरमति का गलि फाहा हे ॥३॥
मूलम्
पड़हि मनमुख परु बिधि नही जाना ॥ नामु न बूझहि भरमि भुलाना ॥ लै कै वढी देनि उगाही दुरमति का गलि फाहा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। परु = परंतु। बिधि = (उस पर अमल करने की) विधि। भरमि = माया की भटकना में। देनि = देते हैं। उगाही = गवाही। गलि = गले में।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले व्यक्ति (धार्मिक पुस्तकें) पढ़ते हैं, पर वह (उस पढ़े हुए पर अमल करने की) विधि नहीं सीखते। वे परमात्मा के नाम की (कद्र) नहीं समझते, (माया की) भटकना में (पड़ कर) गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। रिश्वत ले के झूठी गवाहियाँ दे देते हैं, दुर्मति का फंदा उनके गले में पड़ा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिम्रिति सासत्र पड़हि पुराणा ॥ वादु वखाणहि ततु न जाणा ॥ विणु गुर पूरे ततु न पाईऐ सच सूचे सचु राहा हे ॥४॥
मूलम्
सिम्रिति सासत्र पड़हि पुराणा ॥ वादु वखाणहि ततु न जाणा ॥ विणु गुर पूरे ततु न पाईऐ सच सूचे सचु राहा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वादु = बहस, चर्चा। ततु = तत्व, जगत का मूल प्रभु, अस्लियत। सुचे = पवित्र जीवन वाले। साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम (स्मरण करके)। सच राहा = सच का रास्ता, सही जीवन रास्ता।4।
अर्थ: (पण्डित लोग भी) स्मृतियाँ-शास्त्र-पुराण पढ़ते हैं (पर) चर्चा (ही) करते हैं, अस्लियत को नहीं समझते। पूरे गुरु की शरण पड़े बिना अस्लियत मिल ही नहीं सकती। जो लोग सदा-स्थिर (नाम स्मरण करते हैं) वे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, वे सही जीवन-राह को पकड़ लेते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ सालाहे सुणि सुणि आखै ॥ आपे दाना सचु पराखै ॥ जिन कउ नदरि करे प्रभु अपनी गुरमुखि सबदु सलाहा हे ॥५॥
मूलम्
सभ सालाहे सुणि सुणि आखै ॥ आपे दाना सचु पराखै ॥ जिन कउ नदरि करे प्रभु अपनी गुरमुखि सबदु सलाहा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी लोकाई। दाना = सब के दिलों की जानने वाला। पराखै = परखता है।5।
अर्थ: (ज़बानी-ज़बानी तो) सारी दुनिया परमात्मा की महिमा करती है (दूसरों से) सुन-सुन के (प्रभु के महातम) बयान करती है। पर सदा-स्थिर प्रभु हरेक के दिल की जानने वाला है (हरेक द्वारा की हुई भक्ति को) वह खुद ही परखता है। जिस पर प्रभु अपनी मेहर की नजर करता है, वह गुरु की शरण पड़ कर शब्द को (हृदय में बसाते हैं) महिमा को (दिल में बसाते हैं)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि आखै केती बाणी ॥ सुणि कहीऐ को अंतु न जाणी ॥ जा कउ अलखु लखाए आपे अकथ कथा बुधि ताहा हे ॥६॥
मूलम्
सुणि सुणि आखै केती बाणी ॥ सुणि कहीऐ को अंतु न जाणी ॥ जा कउ अलखु लखाए आपे अकथ कथा बुधि ताहा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केती = बहुत सारी दुनिया। सुणि = सुन के। को = कोई जीव। अलखु = अदृष्ट परमात्मा। अकथ = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। ताहा = उसी की।6।
अर्थ: (दूसरों से) सुन-सुन के बेअंत दुनिया महिमा की वाणी भी बोलती है। सुन-सुन के प्रभु के गुणों का कथन कर लेते हैं, पर कोई जीव उसके गुणों का अंत नहीं जानता। जिस मनुष्य को वह अदृष्य प्रभु अपना स्वयं दिखाता है, उस मनुष्य को वह बुद्धि मिल जाती है जिससे वह उस अकथ प्रभु की कथा-कहानियाँ करता रहता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमे कउ वाजहि वाधाए ॥ सोहिलड़े अगिआनी गाए ॥ जो जनमै तिसु सरपर मरणा किरतु पइआ सिरि साहा हे ॥७॥
मूलम्
जनमे कउ वाजहि वाधाए ॥ सोहिलड़े अगिआनी गाए ॥ जो जनमै तिसु सरपर मरणा किरतु पइआ सिरि साहा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाजहि = बजते हैं (बाजे)। वाधाए = वधाईयाँ। सोहिलड़े = खुशी के गीत। सरपर = अवश्य। किरतु = किए कर्मों के संस्कारों का संचय। साहा = (मौत का) महूरत।7।
अर्थ: (जब कोई जीव पैदा होता है तो उसके) पैदा होने पर बाजे बजते हैं, वधाईयाँ (शुभ-कामनाएं, मुबारकें) मिलती हैं, ज्ञान से वंचित लोग खुशी के गीत गाते हैं। पर जो जीव पैदा होता है, उसने मरना भी अवश्य है। हरेक जीव के किए कर्मों के अनुसार (मौत का) महूरत उसके माथे पर लिखा जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजोगु विजोगु मेरै प्रभि कीए ॥ स्रिसटि उपाइ दुखा सुख दीए ॥ दुख सुख ही ते भए निराले गुरमुखि सीलु सनाहा हे ॥८॥
मूलम्
संजोगु विजोगु मेरै प्रभि कीए ॥ स्रिसटि उपाइ दुखा सुख दीए ॥ दुख सुख ही ते भए निराले गुरमुखि सीलु सनाहा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। दुखा सुख = दुख और सुख। निराले = निर्लिप। सीलु = मीठा स्वभाव। सनाहा = युद्ध के दौरान शरीर के बचाव के लिए पहने जाने वाले लोहे की जाली के कपड़े, संजोअ, ज़िरह बक्तर।8।
अर्थ: (पैदा हो के परिवार में) मिलना और (मर कर परिवार से) विछुड़ना - ये खेल परमात्मा ने बना दी है। जगत पैदा करके दुख-सुख भी उसी ने ही दिए हैं। जो लोग गुरु की शरण पड़ कर मीठे स्वभाव वाला संजोअ (कवच) पहनते हैं वे दुख-सुख से निर्लिप रहते हैं।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीके साचे के वापारी ॥ सचु सउदा लै गुर वीचारी ॥ सचा वखरु जिसु धनु पलै सबदि सचै ओमाहा हे ॥९॥
मूलम्
नीके साचे के वापारी ॥ सचु सउदा लै गुर वीचारी ॥ सचा वखरु जिसु धनु पलै सबदि सचै ओमाहा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीके = अच्छे। जिसु पलै = जिसके पास है।9।
अर्थ: सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम विहाजने वाले लोग अच्छे जीवन वाले होते हैं गुरु की बताई विचार पर चल के यहाँ से सदा-स्थिर रहने वाला सौदा ले के जाते हैं। जिस मनुष्य के पल्ले सदा-स्थिर रहने वाला सौदा है धन है वह सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द द्वारा आत्मिक उत्साह प्राप्त करते हैं।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काची सउदी तोटा आवै ॥ गुरमुखि वणजु करे प्रभ भावै ॥ पूंजी साबतु रासि सलामति चूका जम का फाहा हे ॥१०॥
मूलम्
काची सउदी तोटा आवै ॥ गुरमुखि वणजु करे प्रभ भावै ॥ पूंजी साबतु रासि सलामति चूका जम का फाहा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सउदी = सौदों में। तोटा = घाटा। वणजु = व्यापार। चूका = समाप्त हो जाता है।10।
अर्थ: सिर्फ मायावी होछे व्यापार (वणज) करने से (आत्मिक जीवन में) घाटा पड़ता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला व्यक्ति वह (आत्मिक) व्यापार करता है जो प्रभु को पसंद आता है। उसकी संपत्ति उसकी राशि-पूंजी अमन-अमान रहती है, आत्मिक मौत का फंदा उसके गले से कट जाता है।10।
[[1033]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु को बोलै आपण भाणै ॥ मनमुखु दूजै बोलि न जाणै ॥ अंधुले की मति अंधली बोली आइ गइआ दुखु ताहा हे ॥११॥
मूलम्
सभु को बोलै आपण भाणै ॥ मनमुखु दूजै बोलि न जाणै ॥ अंधुले की मति अंधली बोली आइ गइआ दुखु ताहा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक (मनमुख) मनुष्य। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै = प्रभु के बिना किसी और आसरे की तलाश में। अंधली = अंधी। ताहा = उसको।11।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला हरेक मनुष्य प्रभु के बिना और आसरे की झाक में अपने स्वार्थ के स्वभाव में ही (सब वचन) बोलता है, (परमात्मा की महिमा के बोल) बोलना नहीं जानता। माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य की बुद्धि अंधी व बहरी हो जाती है (उसको ना कहीं परमात्मा दिखता है, ना ही उसकी महिमा वह सुनता है)। उसको जनम-मरण के चक्करों में दुख मिलता रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुख महि जनमै दुख महि मरणा ॥ दूखु न मिटै बिनु गुर की सरणा ॥ दूखी उपजै दूखी बिनसै किआ लै आइआ किआ लै जाहा हे ॥१२॥
मूलम्
दुख महि जनमै दुख महि मरणा ॥ दूखु न मिटै बिनु गुर की सरणा ॥ दूखी उपजै दूखी बिनसै किआ लै आइआ किआ लै जाहा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुखी = दुखों में ही।12।
अर्थ: मनमुख मनुष्य दुखों में ग्रसित हुआ पैदा होता है (सारी उम्र दुख सह-सह के) दुखों में ही मरता है। गुरु की शरण पड़े बिना (ये जन्म-जन्मांतरों का लंबा) दुख मिट नहीं सकता। दुखों में पैदा होता और दुखों में ही मरता है, सदाचारी आत्मिक जीवन ना ही ले के यहाँ आता है, ना ही यहाँ से ले के जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सची करणी गुर की सिरकारा ॥ आवणु जाणु नही जम धारा ॥ डाल छोडि ततु मूलु पराता मनि साचा ओमाहा हे ॥१३॥
मूलम्
सची करणी गुर की सिरकारा ॥ आवणु जाणु नही जम धारा ॥ डाल छोडि ततु मूलु पराता मनि साचा ओमाहा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरकारा = हकूमत, अगवाई। धारा = रास्ता। पराता = पहचाना। ओमाहा = उत्साह।13।
अर्थ: गुरु की अगुवाई में चलना ही सही जीवन-रास्ता है, इस तरह जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, आत्मिक मौत के रास्ते से भी बचा जाता है। जो मनुष्य (गुरु की रहनुमाई में) टहनियों को छोड़ कर मूल को पहचान लेता है (प्रभु की रची हुई माया का मोह छोड़ कर विधाता प्रभु के साथ जान-पहचान बनाता है) उसके मन में सदा-स्थिर रहने वाला उत्साह पैदा हो जाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के लोग नही जमु मारै ॥ ना दुखु देखहि पंथि करारै ॥ राम नामु घट अंतरि पूजा अवरु न दूजा काहा हे ॥१४॥
मूलम्
हरि के लोग नही जमु मारै ॥ ना दुखु देखहि पंथि करारै ॥ राम नामु घट अंतरि पूजा अवरु न दूजा काहा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंथि करारै = कठिन रास्ते में (पड़ कर)। काहा = बखेड़ा।14।
अर्थ: जो लोग परमात्मा के सेवक बनते हैं उनको जम नहीं मार सकता (आत्मिक मौत नहीं मार सकती), वह (आत्मिक मौत के) कठिन रास्ते पर (नहीं पड़ते और) दुख नहीं देखते। उनके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है (वे अंतरात्मे परमात्मा की) भक्ति करते हैं। उनको (माया का) कोई और बखेड़ा नहीं होता।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओड़ु न कथनै सिफति सजाई ॥ जिउ तुधु भावहि रहहि रजाई ॥ दरगह पैधे जानि सुहेले हुकमि सचे पातिसाहा हे ॥१५॥
मूलम्
ओड़ु न कथनै सिफति सजाई ॥ जिउ तुधु भावहि रहहि रजाई ॥ दरगह पैधे जानि सुहेले हुकमि सचे पातिसाहा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओड़ु = आखिरी किनारा, खात्मा। सजाई = सुंदर। रजाई = रजा में। पैधे = सिरोपा ले के। जानि = जाते हैं।15।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त जैसे तुझे अच्छे लगते हैं तेरी रजा में रहते हैं, वे तेरी सुंदर तारीफ करते रहते हैं उनके इस उद्यम का खात्मा नहीं होता। हे सदा-स्थिर रहने वाले पातशाह! तेरे हुक्म के अनुसार वे तेरी हजूरी में सम्मान-सहित आसानी से पहुँचते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ कहीऐ गुण कथहि घनेरे ॥ अंतु न पावहि वडे वडेरे ॥ नानक साचु मिलै पति राखहु तू सिरि साहा पातिसाहा हे ॥१६॥६॥१२॥
मूलम्
किआ कहीऐ गुण कथहि घनेरे ॥ अंतु न पावहि वडे वडेरे ॥ नानक साचु मिलै पति राखहु तू सिरि साहा पातिसाहा हे ॥१६॥६॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथनि = कहते हैं। किआ कहीऐ = कुछ कहा नहीं जा सकता।16।
अर्थ: हे प्रभु! अनेक ही जीव तेरे गुण कथन करते हैं, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। (दुनिया में) बड़े-बड़े (देवते आदि कहलवाने वाले भी) तेरे गुणों का अंत नहीं पा सकते। हे प्रभु! तू पातशाहों के सिर पर भी पातशाह है (मेरी अरदास है) मुझे नानक को तेरा सदा-स्थिर रहने वाला नाम मिल जाए, मेरी इज्जत रख।16।6।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ दखणी ॥ काइआ नगरु नगर गड़ अंदरि ॥ साचा वासा पुरि गगनंदरि ॥ असथिरु थानु सदा निरमाइलु आपे आपु उपाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ दखणी ॥ काइआ नगरु नगर गड़ अंदरि ॥ साचा वासा पुरि गगनंदरि ॥ असथिरु थानु सदा निरमाइलु आपे आपु उपाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। गढ़ = किला। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। पुरि = पुर में, शहर में। गगनंदरि = गगन अंदर, गगन में, आकाश में, दिमाग में। निरमाइलु = निर्मल, पवित्र। आपु = अपने आप को। उपाइदा = प्रकट करता है, टिकाता है।1।
अर्थ: (लोग अपने बसने के लिए शहर बसाते हैं और रक्षा के लिए किले बनाते हैं, इन) शहरों और किलों (की गिनती) में (मनुष्य का) शरीर भी एक शहर है (ये शहर परमात्मा ने अपने बसने के लिए बसाया है), इस शरीर में इसके दसवाँ-द्वार में प्रभु का सदा-स्थिर निवास है। वह परमात्मा पवित्र-स्वरूप है, उसका ठिकाना सदा कायम रहने वाला है, वह स्वयं ही अपने आप को (शरीरों के रूप में) प्रकट करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंदरि कोट छजे हटनाले ॥ आपे लेवै वसतु समाले ॥ बजर कपाट जड़े जड़ि जाणै गुर सबदी खोलाइदा ॥२॥
मूलम्
अंदरि कोट छजे हटनाले ॥ आपे लेवै वसतु समाले ॥ बजर कपाट जड़े जड़ि जाणै गुर सबदी खोलाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हटनाले = बाजार (जहाँ साथ साथ हाट हैं)। छजे = छज्जे। लेवै = लेता है, खरीदता है। बजर कपाट = मजबूत दरवाजे। जड़ि जाणै = बंद करने जानता है।2।
अर्थ: इस (शरीर-) किले के अंदर ही, मानो, सजाये हुए और बाजार हैं जिनमें प्रभु खुद ही सौदा खरीदता है और संभालता है। (माया के मोह के) मजबूत किवाड़ भी अंदर जड़े हुए हैं, परमात्मा खुद ही ये किवाड़ बंद करने जानता है और खुद ही गुरु-शब्द में (जीव को जोड़ के किवाड़) खुला देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीतरि कोट गुफा घर जाई ॥ नउ घर थापे हुकमि रजाई ॥ दसवै पुरखु अलेखु अपारी आपे अलखु लखाइदा ॥३॥
मूलम्
भीतरि कोट गुफा घर जाई ॥ नउ घर थापे हुकमि रजाई ॥ दसवै पुरखु अलेखु अपारी आपे अलखु लखाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घर जाई = घर की जगह। नउ घर = नौ इन्द्रियाँ। दसवै = दसवें घर में।3।
अर्थ: इस (शरीर) किले गुफा में परमात्मा की रिहायश की जगह है। रज़ा के मालिक प्रभु ने अपने हुक्म में ही (इस किले में) नौ घर बना दिए हैं (जो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं)। दसवें घर में (जो गुप्त है) सर्व-व्यापक लेखे से रहित और बेअंत प्रभु खुद बसता है। वह अदृश्य प्रभु स्वयं ही अपने आप के दर्शन करवाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउण पाणी अगनी इक वासा ॥ आपे कीतो खेलु तमासा ॥ बलदी जलि निवरै किरपा ते आपे जल निधि पाइदा ॥४॥
मूलम्
पउण पाणी अगनी इक वासा ॥ आपे कीतो खेलु तमासा ॥ बलदी जलि निवरै किरपा ते आपे जल निधि पाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इक वासा = इकट्ठे बसाए हैं। जलि = पानी के साथ। निवरै = बुझ जाती है। जल निधि = समुंदर (में)।4।
अर्थ: (इस शरीर में उसने) हवा, पानी, आग (आदि तत्वों) को एक साथ बसा दिया है। (जगत रचना का) यह खेल और तमाश उसने खुद ही रचा हुआ है। जो जलती हुई आग उसकी कृपा से पानी से बुझ जाती है वही आग (बड़वा अग्नि) उसने समुंदर में टिका रखी है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरति उपाइ धरी धरम साला ॥ उतपति परलउ आपि निराला ॥ पवणै खेलु कीआ सभ थाई कला खिंचि ढाहाइदा ॥५॥
मूलम्
धरति उपाइ धरी धरम साला ॥ उतपति परलउ आपि निराला ॥ पवणै खेलु कीआ सभ थाई कला खिंचि ढाहाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरमसाला = धर्म कमाने की जगह। उतपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। पवणै = स्वासों का।5।
अर्थ: धरती पैदा करके परमात्मा ने इसको धर्म कमाने की स्थली बना दी है। जगत की उत्पक्ति और प्रलय करने वाला परमात्मा स्वयं ही है, पर खुद इस उत्पक्ति और प्रलय से निर्लिप रहता है। हर जगह (भाव, सब जीवों में) उसने श्वासों की खेल रची हुई है (भाव, श्वासों के आसरे जीव जीवित रखे हुए हैं), खुद ही (इन श्वासों की) ताकत खींच के (निकाल के शरीरों की खेल को) गिरा देता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार अठारह मालणि तेरी ॥ चउरु ढुलै पवणै लै फेरी ॥ चंदु सूरजु दुइ दीपक राखे ससि घरि सूरु समाइदा ॥६॥
मूलम्
भार अठारह मालणि तेरी ॥ चउरु ढुलै पवणै लै फेरी ॥ चंदु सूरजु दुइ दीपक राखे ससि घरि सूरु समाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भार अठारह = सारी बनस्पति। ढुलै = झूलता है। पवणै = पवन का। ससि = चंद्रमा। सूरु = सूर्य।6।
अर्थ: हे प्रभु! सारी सृष्टि की वनस्पति (तेरे आगे फूल भेटा करने वाली) तेरी मालिन है (जो हवा) फेरियाँ लेती है (भाव, हर तरफ चलती है, उस) वायु का (मानो) चवर (तेरे ऊपर) झूल रहा है। (अपने जगत-महल में) तूने खुद ही चाँद और सूरज (मानो) दो दीए (जला) रखे हैं, चँद्रमा के घर में सूरज समाया हुआ है (सूरज की किरणें चँद्रमा में पड़ कर चँद्रमा को रौशनी दे रही हैं)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंखी पंच उडरि नही धावहि ॥ सफलिओ बिरखु अम्रित फलु पावहि ॥ गुरमुखि सहजि रवै गुण गावै हरि रसु चोग चुगाइदा ॥७॥
मूलम्
पंखी पंच उडरि नही धावहि ॥ सफलिओ बिरखु अम्रित फलु पावहि ॥ गुरमुखि सहजि रवै गुण गावै हरि रसु चोग चुगाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंखी पंच = (गुरमुख वृक्ष के) पाँच ज्ञानेन्द्रिय पक्षी। उडरि = उड़ के। रवै = स्मरण करता है।7।
अर्थ: गुरु (मानो) फल देने वाला वृक्ष है (इस वृक्ष से जो) गुरमुख आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त करते हैं, उनकी (ज्ञानेन्द्रियाँ) पक्षी उड़ के बाहर (विकारों की ओर) दौड़ते नहीं फिरते। गुरु के सन्मुख रहने वाला जीव-पक्षी आत्मिक अडोलता में रह कर नाम स्मरण करता है और प्रभु के गुण गाता है। प्रभु स्वयं ही उसको अपना नाम-रस (रूपी) चोग चुगाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झिलमिलि झिलकै चंदु न तारा ॥ सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा ॥ अकथी कथउ चिहनु नही कोई पूरि रहिआ मनि भाइदा ॥८॥
मूलम्
झिलमिलि झिलकै चंदु न तारा ॥ सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा ॥ अकथी कथउ चिहनु नही कोई पूरि रहिआ मनि भाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झिलमिल = बड़ी चमक के साथ। झिलकै = झिलमिलाता है। गैणारा = आकाश। अकथी = वह अवस्था जिसका बयान ना हो सके। कथउ = मैं बताता हूँ।8।
अर्थ: (‘सफल बिरख’ अर्थात सफल वृक्ष गुरु से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त करने वाले गुरमुख के अंदर आत्म-प्रकाश पैदा होता है जो) ऐसा झिलमिल-झिलमिल करके चमकता है कि उसकी चमक तक ना चाँद, ना कोई तारा, ना सूरज की किरण, और ना ही आकाश की बिजली पहुँच सकती है (बराबरी कर सकती है)। (मैं उस प्रकाश का) बयान तो कर रहा हूँ (पर वह प्रकाश) बयान से बाहर है उसका कोई निशान नहीं दिया जा सकता। (जिस मनुष्य के अंदर वह प्रकाश अपना) ज़हूर करता है उसके मन को वह बहुत भाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पसरी किरणि जोति उजिआला ॥ करि करि देखै आपि दइआला ॥ अनहद रुण झुणकारु सदा धुनि निरभउ कै घरि वाइदा ॥९॥
मूलम्
पसरी किरणि जोति उजिआला ॥ करि करि देखै आपि दइआला ॥ अनहद रुण झुणकारु सदा धुनि निरभउ कै घरि वाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रुणझुणकारु = एक रस मीठी आवाज। वाइदा = बजाता है।9।
अर्थ: (जिस मनुष्य के अंदर ‘सफल बिरख’ गुरु की मेहर से) ईश्वरीय ज्योति की किरण प्रकाशमान होती है उसके अंदर (आत्मिक) रौशनी होती है। दया का श्रोत प्रभु स्वयं ही यह करिश्मे कर कर के देखता है। (उस गुरमुख के अंदर, मानो) एक-रस मीठी-मीठी सुर वाला गीत चल पड़ता है जिसकी धुनि सदा (उसके अंदर जारी रहती है)। (वह गुरमुख अपने अंदर, मानो, ऐसा साज़) बजाने लग जाता है (जिसकी इनायत से) वह निडरता के आत्मिक ठिकाने में (टिक जाता है)।9।
[[1034]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनहदु वाजै भ्रमु भउ भाजै ॥ सगल बिआपि रहिआ प्रभु छाजै ॥ सभ तेरी तू गुरमुखि जाता दरि सोहै गुण गाइदा ॥१०॥
मूलम्
अनहदु वाजै भ्रमु भउ भाजै ॥ सगल बिआपि रहिआ प्रभु छाजै ॥ सभ तेरी तू गुरमुखि जाता दरि सोहै गुण गाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनहदु = एक रस, लगातार। छाजै = छा रहा है, पसर रहा है, व्यापक है।10।
अर्थ: (उस गुरमुख के हृदय में) एक-रस (महिमा का बाजा बजता रहता है, उसके अंदर से) भटकनें और डर-सहम दूर हो जाते हैं (उसको प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा सारे संसार में मौजूद है और सब पर (अपनी रक्षा की) छाया कर रहा है।
हे प्रभु! यह सारी रचना तेरी है (और तू ही इसकी रक्षा करने वाला है) - (‘सफल बिरख’ गुरु से नाम-फल प्राप्त करने वाला) गुरमुख ये बात समझ लेता है, वह गुरमुख तेरे गुण गाता है और तेरे दर पर शोभा पाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि निरंजनु निरमलु सोई ॥ अवरु न जाणा दूजा कोई ॥ एकंकारु वसै मनि भावै हउमै गरबु गवाइदा ॥११॥
मूलम्
आदि निरंजनु निरमलु सोई ॥ अवरु न जाणा दूजा कोई ॥ एकंकारु वसै मनि भावै हउमै गरबु गवाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से रहित। एकंकारु = एक अकाल पुरख।11।
अर्थ: उस गुरमुख ने जान लिया है कि वह पवित्र स्वरूप परमात्मा ही सारी सृष्टि का आदि है और माया के प्रभाव से ऊपर है, उस जैसा दूसरा और कोई नहीं है। उस गुरमुख के मन में वही एक अकाल-पुरख बसता है और मन को प्यारा लगता है (इसकी इनायत से वह अपने अंदर से) हउमै-अहंकार दूर कर लेता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रितु पीआ सतिगुरि दीआ ॥ अवरु न जाणा दूआ तीआ ॥ एको एकु सु अपर पर्मपरु परखि खजानै पाइदा ॥१२॥
मूलम्
अम्रितु पीआ सतिगुरि दीआ ॥ अवरु न जाणा दूआ तीआ ॥ एको एकु सु अपर पर्मपरु परखि खजानै पाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। अपर = जिससे परे कोई नही। परंपर = परे से परे।12।
अर्थ: जिस गुरमुख को सतिगुरु नें नाम-अमृत दिया उसने लेकर पीया उसको जगत में कहीं भी परमात्मा के बिना और कोई दूसरा नहीं दिखता, (उसके अंदर कोई मेर-तेर नहीं रह जाती)। (उस गुरमुख को निष्चय हो जाता है कि हर जगह) एक ही एक अपर-अपार परमात्मा स्वयं ही है, वह खुद ही (जीवों के कर्मों को) परख के (और पसंद करके उनको) अपने खजाने में मिला लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआनु धिआनु सचु गहिर ग्मभीरा ॥ कोइ न जाणै तेरा चीरा ॥ जेती है तेती तुधु जाचै करमि मिलै सो पाइदा ॥१३॥
मूलम्
गिआनु धिआनु सचु गहिर ग्मभीरा ॥ कोइ न जाणै तेरा चीरा ॥ जेती है तेती तुधु जाचै करमि मिलै सो पाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। चीरा = पल्लार, पाट, खिलारा। जाचै = माँगती है। करमि = कृपा से।13।
अर्थ: हे गहरे और बड़े जिगरे वाले! तेरे साथ जान-पहचान डालनी और तेरे चरणों में जुड़ना ही सदा-स्थिर रहने वाला (उद्यम) है। (तू एक ऐसा बेअंत समुंदर है कि) तेरे पसारे को कोई समझ नहीं सकता। जितनी भी सृष्टि है ये सारी की सारी तुझसे ही (हरेक पदार्थ) माँगती है। वह ही जीव कुछ प्राप्त करता है जिसको तेरी बख्शिश से कुछ मिलता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु धरमु सचु हाथि तुमारै ॥ वेपरवाह अखुट भंडारै ॥ तू दइआलु किरपालु सदा प्रभु आपे मेलि मिलाइदा ॥१४॥
मूलम्
करमु धरमु सचु हाथि तुमारै ॥ वेपरवाह अखुट भंडारै ॥ तू दइआलु किरपालु सदा प्रभु आपे मेलि मिलाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। हाथि = हाथ में। भंडारै = खजाने में।14।
अर्थ: हे बेपरवाह प्रभु! (लोग अपनी-अपनी समझ के अनुसार धार्मिक निहित कर्म करते हैं, पर) तेरे सदा-स्थिर-नाम का जपना ही असल धर्म है, और यह नाम तेरे कभी ना समाप्त होने वाले खजाने में मौजूद है। हे प्रभु! तू सदा दया का कृपा का घर है, सब का मालिक (प्रभु) है, तू खुद ही (अपने खजाने में से यह दाति दे के) अपनी संगति में मिला लेता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे देखि दिखावै आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ आपे जोड़ि विछोड़े करता आपे मारि जीवाइदा ॥१५॥
मूलम्
आपे देखि दिखावै आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ आपे जोड़ि विछोड़े करता आपे मारि जीवाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उथापे = नाश करता है, उखेड़ता है।15।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही (जीवों की) संभाल करके स्वयं ही (जीवों को) अपने दर्शन कराता है। खुद ही पैदा करता है खुद नाश करता है। कर्तार स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ता है, स्वयं ही (चरणों से) विछोड़ता है, स्वयं ही (किसी को) आत्मिक मौत मारता है, स्वयं ही आत्मिक जीवन देता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेती है तेती तुधु अंदरि ॥ देखहि आपि बैसि बिज मंदरि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती हरि दरसनि सुखु पाइदा ॥१६॥१॥१३॥
मूलम्
जेती है तेती तुधु अंदरि ॥ देखहि आपि बैसि बिज मंदरि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती हरि दरसनि सुखु पाइदा ॥१६॥१॥१३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: मारू दखणी = दखणी किस्म की मारू रागिनी।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेती = वह सारी (दुनिया)। बैसि = बैठ के। बिज मंदरि = पक्के मन्दिर में।16।
अर्थ: ये जितनी भी सृष्टि है सारी की सारी तेरे हुक्म के अंदर चल रही है। तू अपने सदा-स्थिर महल में बैठ के खुद ही सबकी संभाल कर रहा है। हे हरि! तेरा दास नानक तेरा चिर-स्थाई नाम स्मरण करता है (तेरे दीदार के लिए तेरे दर पर) विनती करता है (जिसको तेरा दीदार नसीब होता है, वह उस) दीदार की इनायत से आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।16।1।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ दरसनु पावा जे तुधु भावा ॥ भाइ भगति साचे गुण गावा ॥ तुधु भाणे तू भावहि करते आपे रसन रसाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ दरसनु पावा जे तुधु भावा ॥ भाइ भगति साचे गुण गावा ॥ तुधु भाणे तू भावहि करते आपे रसन रसाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पावा = पाऊँ, मैं पा सकूँ। भावा = मैं अच्छा लगूँ। भाइ = भाय, प्रेम से। भाणे = (जो) अच्छे लगे। भावहि = (उनको) अच्छा लगता है। करते = हे कर्तार! रसन = जीभ। रसाइदा = रसीली बनाता है।1।
अर्थ: हे सदा-स्थिर (चिर-स्थाई) प्रभु! अगर मैं तुझे अच्छा लगूँ, तो ही तेरे दर्शन कर सकता हूँ, और तेरे प्रेम में (जुड़ के) तेरी भक्ति (कर सकता हूँ, तथा) तेरे गुण गा सकता हूँ। हे कर्तार! जो लोग तुझे प्यारे लगते हैं उन्हें तू प्यारा लगता है। तू स्वयं ही उनकी जीभ में (अपने नाम का) रस पैदा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोहनि भगत प्रभू दरबारे ॥ मुकतु भए हरि दास तुमारे ॥ आपु गवाइ तेरै रंगि राते अनदिनु नामु धिआइदा ॥२॥
मूलम्
सोहनि भगत प्रभू दरबारे ॥ मुकतु भए हरि दास तुमारे ॥ आपु गवाइ तेरै रंगि राते अनदिनु नामु धिआइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकतु = विकारों से स्वतंत्र। हरि = हे हरि! आप = स्वै भाव। गवाइ = गवाय, गवा के। अनदिनु = हर रोज।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त तेरे दरबार में सुंदर लगते हैं। हे हरि! तेरे दास (माया के बंधनो से) स्वतंत्र हो जाते हैं। वे स्वै भाव मिटा के तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं, और हर रोज (हर समय) तेरा नाम स्मरण करते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईसरु ब्रहमा देवी देवा ॥ इंद्र तपे मुनि तेरी सेवा ॥ जती सती केते बनवासी अंतु न कोई पाइदा ॥३॥
मूलम्
ईसरु ब्रहमा देवी देवा ॥ इंद्र तपे मुनि तेरी सेवा ॥ जती सती केते बनवासी अंतु न कोई पाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईसरु = शिव। तपे = तप करने वाले।3।
अर्थ: शिव, ब्रहमा अनेक देवी-देवते, इन्द्र देवता, तपी लोग, ऋषि-मुनि -ये सब तेरी ही सेवा-भक्ति करते हैं (भाव, चाहे ये कितने ही बड़े गिने जाएं, पर तेरे सामने ये तेरे साधारण से सेवक हैं)। अनेक जतधारी, और अनेक ही बनों में बसने वाले त्यागी (तेरे गुण गाते हैं, पर तेरे गुणों का) कोई भी अंत नहीं पा सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विणु जाणाए कोइ न जाणै ॥ जो किछु करे सु आपण भाणै ॥ लख चउरासीह जीअ उपाए भाणै साह लवाइदा ॥४॥
मूलम्
विणु जाणाए कोइ न जाणै ॥ जो किछु करे सु आपण भाणै ॥ लख चउरासीह जीअ उपाए भाणै साह लवाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाणै = मर्जी से, रजा में। साह = श्वास। लवाइदा = लेने देता है।4।
अर्थ: जब तक परमात्मा स्वयं समझ ना बख्शे कोई जीव (परमात्मा की भक्ति करने की) सूझ प्राप्त नहीं कर सकता। परमात्मा जो कुछ करता है अपनी रजा में (अपनी मर्जी से) करता है। परमात्मा ने चौरासी लाख जूनियों में जीव पैदा किए हैं, वह अपनी मर्जी से ही इन जीवों को साँस लेने देता है (इनको जीवित रखता है)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तिसु भावै सो निहचउ होवै ॥ मनमुखु आपु गणाए रोवै ॥ नावहु भुला ठउर न पाए आइ जाइ दुखु पाइदा ॥५॥
मूलम्
जो तिसु भावै सो निहचउ होवै ॥ मनमुखु आपु गणाए रोवै ॥ नावहु भुला ठउर न पाए आइ जाइ दुखु पाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहचउ = जरूर। आपु = अपने आप को। गणाए = बड़ा जताता है। नावहु = नाम से।5।
अर्थ: (जगत में) वही कुछ अवश्य होता है जो उस कर्तार को अच्छा लगता है, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस अस्लियत को नहीं समझता, वह) अपने आप को बड़ा जताता है (और अहंकार में ही) दुखी होता है। परमात्मा के नाम से टूटा हुआ (मनमुख) कहीं आत्मिक शांति का ठिकाना नहीं पा सकता, पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है, और (इस चक्कर में ही) दुख पाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल काइआ ऊजल हंसा ॥ तिसु विचि नामु निरंजन अंसा ॥ सगले दूख अम्रितु करि पीवै बाहुड़ि दूखु न पाइदा ॥६॥
मूलम्
निरमल काइआ ऊजल हंसा ॥ तिसु विचि नामु निरंजन अंसा ॥ सगले दूख अम्रितु करि पीवै बाहुड़ि दूखु न पाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हंसा = जीव। तिसु विचि = उस (काया) में। अंम्रितु करि = नाम अमृत की इनायत से। पीवै = पी लेता है, खत्म कर लेता है। बाहुड़ि = फिर, दोबारा।6
अर्थ: वह शरीर पवित्र है जिस में पवित्र (जीवन वाली) जीवात्मा बसती है (क्योंकि) उस (शरीर) में परमात्मा का नाम बसता है, (वह जीवात्मा सही अर्थों में) माया-रहित प्रभु का अंश है। प्रभु के नाम-अमृत की इनायत से वह मनुष्य अपने सारे दुख मिटा लेता है, और दोबारा वह कभी दुख नहीं पाता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु सादहु दूखु परापति होवै ॥ भोगहु रोग सु अंति विगोवै ॥ हरखहु सोगु न मिटई कबहू विणु भाणे भरमाइदा ॥७॥
मूलम्
बहु सादहु दूखु परापति होवै ॥ भोगहु रोग सु अंति विगोवै ॥ हरखहु सोगु न मिटई कबहू विणु भाणे भरमाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सादहु = स्वाद से। भोगहु = माया के भोगों से। विगोवै = दुखी होता है। हरखहु = खुशी से।7।
अर्थ: बहुत ज्यादा (भोगों के) स्वादों से दुख ही मिलता है (क्योंकि) भोगों से (आखिर) रोग पैदा होते हैं और आखिर में मनुष्य दुखी होता है। (माया की) खुशियों से भी चिन्ता ही पैदा होती है जो कभी नहीं मिटती। परमात्मा की रज़ा में चले बिना मनुष्य भटकना में पड़ा रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआन विहूणी भवै सबाई ॥ साचा रवि रहिआ लिव लाई ॥ निरभउ सबदु गुरू सचु जाता जोती जोति मिलाइदा ॥८॥
मूलम्
गिआन विहूणी भवै सबाई ॥ साचा रवि रहिआ लिव लाई ॥ निरभउ सबदु गुरू सचु जाता जोती जोति मिलाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विहूणी = बगैर। सबाई = सारी दुनिया। साचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। जाता = पहचान लिया।8।
अर्थ: चिर-स्थाई रहने वाला परमात्मा सारी सृष्टि में गुप्त व्यापक है, पर इस बात से वंचित रह के सारी दुनिया भटक रही है। जिस मनुष्य ने गुरु का शब्द, जो निर्भयता देने वाला है, अपने हृदय में बसाया है उसने सदा-स्थिर प्रभु को सदार सृष्टि में बसता पहचान लिया है। गुरु का शब्द उसकी तवज्जो को परमात्मा की ज्योति में मिला देता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अटलु अडोलु अतोलु मुरारे ॥ खिन महि ढाहे फेरि उसारे ॥ रूपु न रेखिआ मिति नही कीमति सबदि भेदि पतीआइदा ॥९॥
मूलम्
अटलु अडोलु अतोलु मुरारे ॥ खिन महि ढाहे फेरि उसारे ॥ रूपु न रेखिआ मिति नही कीमति सबदि भेदि पतीआइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फेरि = दोबारा, फिर। मिति = मर्यादा, माप, मिनती। भेदि = भेद के।9।
अर्थ: मुर (आदि दैत्यों) का वैरी परमात्मा (मुरारी) चिर-स्थाई रहने वाला है, माया के मोह में कभी डोलने वाला नहीं, उसका स्वरूप कभी तोला-नापा नहीं जा सकता। वह (अपने रचे हुए जगत को) एक छिन में गिरा सकता है और दोबारा पैदा कर सकता है। उसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, उसके कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं कहे जा सकते, वह कितना बड़ा है और कैसा है; ये भी बयान से परे है। जो मनुष्य (अपने मन को गुरु के) शब्द में भेद लेता है वह उस परमात्मा (की याद) में पतीज जाता है।9।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
हम दासन के दास पिआरे ॥ साधिक साच भले वीचारे ॥ मंने नाउ सोई जिणि जासी आपे साचु द्रिड़ाइदा ॥१०॥
मूलम्
हम दासन के दास पिआरे ॥ साधिक साच भले वीचारे ॥ मंने नाउ सोई जिणि जासी आपे साचु द्रिड़ाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधिक = साधना करने वाले। जिणि = जीत के। साचु = सदा स्थिर नाम। द्रिढ़ाइदा = मन में पक्का करता है।10।
अर्थ: मैं प्यारे प्रभु के उन दासों का दास हूँ जो उसके मिलने के प्रयत्न करते रहते हैं जो उस सदा-स्थिर परमात्मा के गुणों की विचार करते हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपना मान लेता है (भाव, नाम-जपने को जीवन का उद्देश्य निश्चत कर लेता है) वह (जगत में से जीवन की बाज़ी) जीत के जाता है। (पर ये खेलें जीव के अपने वश की नहीं) परमात्मा स्वयं ही अपना सदा-स्थिर नाम जीवों के दिल में दृढ़ कराता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पलै साचु सचे सचिआरा ॥ साचे भावै सबदु पिआरा ॥ त्रिभवणि साचु कला धरि थापी साचे ही पतीआइदा ॥११॥
मूलम्
पलै साचु सचे सचिआरा ॥ साचे भावै सबदु पिआरा ॥ त्रिभवणि साचु कला धरि थापी साचे ही पतीआइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचिआरा = सच के वणजारे। साचे = सदा स्थिर प्रभु को। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में।11।
अर्थ: जिस मनुष्यों के पास चिर-स्थाई रहने वाला नाम है, वह उस सदा स्थ्रि प्रभु का रूप हो जाते हैं, वे चिर-स्थाई नाम के वनजारे हैं। जिस मनुष्य को प्रभु की महिमा का शब्द प्यारा लगता है वह सदा-स्थिर प्रभु को अच्छा लगता है। वह सदा-स्थिर प्रभु सारी सृष्टि में (व्यापक है), उसने अपनी सत्ता दे के सृष्टि रची है। (सदा-स्थिर नाम का वाणज्य कराने वाले मनुष्य) उस सदा-स्थिर प्रभु की याद में ही खुश रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडा वडा आखै सभु कोई ॥ गुर बिनु सोझी किनै न होई ॥ साचि मिलै सो साचे भाए ना वीछुड़ि दुखु पाइदा ॥१२॥
मूलम्
वडा वडा आखै सभु कोई ॥ गुर बिनु सोझी किनै न होई ॥ साचि मिलै सो साचे भाए ना वीछुड़ि दुखु पाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनै = किसी को भी। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। वीछुड़ि = विछुड़ के।12।
अर्थ: (वैसे तो) हरेक जीव कहता है कि परमात्मा सबसे बड़ा है पर सतिगुरु की शरण पड़े बिनाकिसी को सही समझ नहीं पड़ती। जो मनुष्य (गुरु से) सदा-स्थिर-प्रभु में जुड़ता है वह सदा-स्थिर-प्रभु को प्यारा लगता है। वह (उसके चरणों से विछुड़ता नहीं) विछुड़ के दुख नहीं पाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुरहु विछुंने धाही रुंने ॥ मरि मरि जनमहि मुहलति पुंने ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई मेलि न पछोताइदा ॥१३॥
मूलम्
धुरहु विछुंने धाही रुंने ॥ मरि मरि जनमहि मुहलति पुंने ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई मेलि न पछोताइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुराहु = धुर से ही। धाही = धाड़ें मार के (जोर से चिल्ला चिल्ला के)। मुहलति = जिंदगी का समय। पुंनै = पुग जाने पर।13।
अर्थ: पर जो लोग आदि से ही प्रभु से विछुड़े चले आ रहे हैं वे ढाहें मार-मार के रोते आ रहे हैं। जब-जब जिंदगी का समय समाप्त हो जाता है वे मरते हैं पैदा होते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं (इस चक्कर में पड़े रहते हैं)। जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है उसको (अपना नाम बख्श के) बड़ाई देता है, उसको अपने चरणों में मिला लेता है, वह मनुष्य (दोबारा कभी नहीं विछुड़ता है) ना पछताता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता आपे भुगता ॥ आपे त्रिपता आपे मुकता ॥ आपे मुकति दानु मुकतीसरु ममता मोहु चुकाइदा ॥१४॥
मूलम्
आपे करता आपे भुगता ॥ आपे त्रिपता आपे मुकता ॥ आपे मुकति दानु मुकतीसरु ममता मोहु चुकाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुगता = भोगने वाला। त्रिपता = तृप्त हुआ। मुकता = भोगों से स्वतंत्र। मुकतीसरु = मुकती ईसर, मुक्ति का मालिक। चुकाइदा = समाप्त कर देता है।14।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है, (सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही सारे पदार्थों को भोगने वाला है, फिर खुद ही इन भोगों से तृप्त हो जानें वाला है और खुद ही पदार्थों के मोह से स्वतंत्र हो जाने वाला है। प्रभु स्वयं ही मुक्ति का मालिक है, स्वयें ही विकारों से मुक्ति की दाति देता है, स्वयं ही जीवों के अंदर से माया की ममता और माया के मोह को दूर करता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाना कै सिरि दानु वीचारा ॥ करण कारण समरथु अपारा ॥ करि करि वेखै कीता अपणा करणी कार कराइदा ॥१५॥
मूलम्
दाना कै सिरि दानु वीचारा ॥ करण कारण समरथु अपारा ॥ करि करि वेखै कीता अपणा करणी कार कराइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाना कै सिरि = सब दानों के सिर पर, सब बख्शिशों से उत्तम। करण कारण = जगत को रचने वाला। वेखै = संभाल करता है। करणी = करने योग्य।15।
अर्थ: परमात्मा इस जगत को रचने वाला है, सारी ताकतों का मालिक है और बेअंत है, वह जीवों को अपने गुणों की विचार बख्शता है और उसकी यह दाति उसकी और सब दातों से श्रेष्ठ है। सारी सृष्टि पैदा करके वह स्वयं ही इसकी संभाल करता है, और जीवों से वह कार करवाता है, जो कराने योग्य हो।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से गुण गावहि साचे भावहि ॥ तुझ ते उपजहि तुझ माहि समावहि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१६॥२॥१४॥
मूलम्
से गुण गावहि साचे भावहि ॥ तुझ ते उपजहि तुझ माहि समावहि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१६॥२॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह लोग। ते = से। मिलि = मिल के।16।
अर्थ: जो जीव सदा-स्थिर प्रभु को प्यारे लगते हैं वे उसके गुण गाते हैं। हे प्रभु! सारे जीव-जंतु तुझसे पैदा होते हैं और तेरे में ही लीन हो जाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य चिर-स्थाई-प्रभु को स्मरण करता है (उसके दर पर) विनतियाँ करता है, वह उस सदा-स्थिर परमात्मा को मिल के आत्मिक आनंद पाता है।16।2।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ अरबद नरबद धुंधूकारा ॥ धरणि न गगना हुकमु अपारा ॥ ना दिनु रैनि न चंदु न सूरजु सुंन समाधि लगाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ अरबद नरबद धुंधूकारा ॥ धरणि न गगना हुकमु अपारा ॥ ना दिनु रैनि न चंदु न सूरजु सुंन समाधि लगाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरबद = (अर्बुद) दस करोड़ (साल)। नरबद = न+अरबद, जिसके लिए शब्द ‘अरबद’ भी ना प्रयोग किया जा सके, गिनती से परे। धुंधूकारा = घोर अंधेरा।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: घोर अंधकार में पता नहीं चल सकता कि यहाँ क्या कुछ पड़ा है) उस हालत की बाबत कोई भी मनुष्य कुछ नहीं बता सकता।
दर्पण-भाषार्थ
धरणि = धरती। गगना = आकाश। रैनि = रात। सुंन = शून्य। सुंन समाधि = वह समाधि जिसमें प्रभु के अपने आप के बिना और कुछ भी नहीं था।1।
अर्थ: (जगत की रचना से पहले बेअंत समय जिसकी गिनती के वास्ते) अरबद नरबद (शब्द भी नहीं बरते जा सकते, ऐसे) घोर अंधेरे की हालत थी (भाव, ऐसे हालात थे) जिसके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। तब ना धरती थी, ना आकाश था, ना ही कहीं बेअंत प्रभु का हुक्म चल रहा था। तब ना दिन था, ना रात थी, ना चाँद था, ना सूरज था। तब परमात्मा अपने आप में ही (माना ऐसी) समाधि लगाए बैठा था जिसमें कोई किसी किस्म का फुरना नहीं था।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाणी न बाणी पउण न पाणी ॥ ओपति खपति न आवण जाणी ॥ खंड पताल सपत नही सागर नदी न नीरु वहाइदा ॥२॥
मूलम्
खाणी न बाणी पउण न पाणी ॥ ओपति खपति न आवण जाणी ॥ खंड पताल सपत नही सागर नदी न नीरु वहाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाणी = जगत उत्पक्ति के चार श्रोत: अण्डज, उत्भुज, जेरज और सेतज। बाणी = जीवों की चार बाणियाँ। ओपति = उत्पक्ति। खपति = नाश, प्रलय। सपत = सप्त, सात। सागर = समुंदर।2।
अर्थ: जब ना जगत-रचना की चार-खाणियाँ थीं ना जीवों की चार बाणियाँ थीं। तब ना हवा थी, ना पानी था, ना उत्पक्ति थी ना पर्लय था, ना जन्म था ना मरना था। तब ना धरती के नौ-खण्ड थे ना पाताल था, ना सात-समुंदर थे ना ही नदियों में पानी बह रहा था।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना तदि सुरगु मछु पइआला ॥ दोजकु भिसतु नही खै काला ॥ नरकु सुरगु नही जमणु मरणा ना को आइ न जाइदा ॥३॥
मूलम्
ना तदि सुरगु मछु पइआला ॥ दोजकु भिसतु नही खै काला ॥ नरकु सुरगु नही जमणु मरणा ना को आइ न जाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तदि = तब। मछु = मातृ लोक। पइआला = पाताल। खै = क्ष्य, नाश करने वाला। काला = काल।3।
अर्थ: तब ना स्वर्ग-लोक था, ना मातृ-लोक था और ना ही पाताल था। तब ना कोई दोज़क था ना बहिश्त था, ना ही मौत लाने वाला काल था। तब ना स्वर्ग था ना नर्क था, ना जनम था ना मरण था, ना कोई पैदा होता था ना कोई मरता था।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु महेसु न कोई ॥ अवरु न दीसै एको सोई ॥ नारि पुरखु नही जाति न जनमा ना को दुखु सुखु पाइदा ॥४॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु महेसु न कोई ॥ अवरु न दीसै एको सोई ॥ नारि पुरखु नही जाति न जनमा ना को दुखु सुखु पाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महेसु = शिव। को = कोई जीव।4।
अर्थ: तब ना कोई ब्रहमा था ना विष्णू था और ना ही शिव था। तब एक परमात्मा ही परमात्मा था, और कोई व्यक्ति नहीं था दिखता। तब ना कोई स्त्री था ना ही कोई मर्द था तब ना कोई जाति थी ना ही किसी जाति में कोई जन्म लेता था। ना कोई दुख भोगने वाला जीव ही था।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना तदि जती सती बनवासी ॥ ना तदि सिध साधिक सुखवासी ॥ जोगी जंगम भेखु न कोई ना को नाथु कहाइदा ॥५॥
मूलम्
ना तदि जती सती बनवासी ॥ ना तदि सिध साधिक सुखवासी ॥ जोगी जंगम भेखु न कोई ना को नाथु कहाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सती = उच्च आचरण बनाने का प्रयत्न करने वाला। जती = जत धारण करने का प्रयत्न करने वाला। बनवासी = जंगल में रहने वाला त्यागी। सिध = जोग साधना में सिद्धहस्त जोगी। साधिक = साधना करने वाला। सुख वासी = सुखों में रहने वाला, गृहस्थी। जंगम = शिव उपासक जोगियों का एक वेश। नाथु = जोगियों का गुरु।5।
अर्थ: तब ना कोई जती था ना कोई सती था ना ही कोई त्यागी था। तब ना कोई सिद्ध था ना साधिक थे और ना ही कोई गृहस्थी था। तब ना कोई जोगियों का ना जंगमों का भेस था, ना ही कोई जोगियों का गुरु कहलवाने वाला था।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप संजम ना ब्रत पूजा ॥ ना को आखि वखाणै दूजा ॥ आपे आपि उपाइ विगसै आपे कीमति पाइदा ॥६॥
मूलम्
जप तप संजम ना ब्रत पूजा ॥ ना को आखि वखाणै दूजा ॥ आपे आपि उपाइ विगसै आपे कीमति पाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: तब ना कहीं जप हो रहे थे ना तप हो रहे थे, ना कहीं संजम साधे जा रहे थे ना व्रत रखे जा रहे थे ना ही पूजा की जा रही थी। तब कोई ऐसा जीव नहीं था जो परमात्मा के बिना किसी और का जिक्र कर सकता। तब परमात्मा खुद ही अपने आप में प्रकट हो के खुश हो रहा था और अपने बड़प्पन का मूल्य खुद ही डालता था।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना सुचि संजमु तुलसी माला ॥ गोपी कानु न गऊ गुोआला ॥ तंतु मंतु पाखंडु न कोई ना को वंसु वजाइदा ॥७॥
मूलम्
ना सुचि संजमु तुलसी माला ॥ गोपी कानु न गऊ गुोआला ॥ तंतु मंतु पाखंडु न कोई ना को वंसु वजाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के साधन। गोपी = ग्वालनि। कानु = कृष्ण। गुोआला = गायों का रखवाला, गोपाला। वंसु = बाँसुरी।7।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ लगी हुई हैं, असल शब्द ‘गोआला’ है, यहाँ पढ़ना है ‘गुआला’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: तब ना कहीं स्वच्छता रखी जा रही थी, ना कहीं कोई संजम किया जा रहा था, ना कहीं तुलसी की माला थी। तब ना कहीं कोई गोपी था ना कोई कान्हा था, ना कोई गऊ थी ना गऊऔं का (रखवाला) ग्वाला था। तब ना कोई तंत्र-मंत्र आदि पाखण्ड था ना ही कोई बाँसुरी बजा रहा था।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम धरम नही माइआ माखी ॥ जाति जनमु नही दीसै आखी ॥ ममता जालु कालु नही माथै ना को किसै धिआइदा ॥८॥
मूलम्
करम धरम नही माइआ माखी ॥ जाति जनमु नही दीसै आखी ॥ ममता जालु कालु नही माथै ना को किसै धिआइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माखी = शहद, मीठी। आखी = आँखों से। ममता = अपनत्व, ये ख्याल कि मेरी चीज है।8।
अर्थ: तब ना कहीं धार्मिक कर्मकांड ही थे ना कहीं मीठी माया थी। तब ना कहीं कोई (ऊँची-नीची) जाति थी और ना ही किसी जाति में कोई जन्म लेता आँखों से देखा जा सकता था। तब ना कहीं माया थी ना ममता का जाल था, ना कहीं किसी के सिर पर काल (कूकता था)। ना कोई जीव किसी का स्मरण-ध्यान धरता था।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदु बिंदु नही जीउ न जिंदो ॥ ना तदि गोरखु ना माछिंदो ॥ ना तदि गिआनु धिआनु कुल ओपति ना को गणत गणाइदा ॥९॥
मूलम्
निंदु बिंदु नही जीउ न जिंदो ॥ ना तदि गोरखु ना माछिंदो ॥ ना तदि गिआनु धिआनु कुल ओपति ना को गणत गणाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंदु = स्तुति, बड़ाई, खुशामद। माछिंदे = मछिन्द्र नाथ। कुल ओपति = कुलों की उत्पक्ति। गणत = लेखा।9।
अर्थ: तब ना कहीं निंदा थी ना खुशामद थी, ना कोई जीवात्मा थी ना कोई जिंद थी। तब ना गोरख था ना माछिन्द्र नाथ था। तब ना कहीं (धार्मिक पुस्तकों की) ज्ञान-चर्चा थी ना कहीं समाधि-स्थित ध्यान था, तब ना कहीं कुलों की उत्पक्ति थी और ना ही कोई (अच्छी कुल में पैदा होने का) मान करता था।9।
[[1036]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरन भेख नही ब्रहमण खत्री ॥ देउ न देहुरा गऊ गाइत्री ॥ होम जग नही तीरथि नावणु ना को पूजा लाइदा ॥१०॥
मूलम्
वरन भेख नही ब्रहमण खत्री ॥ देउ न देहुरा गऊ गाइत्री ॥ होम जग नही तीरथि नावणु ना को पूजा लाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देउ = देवता।10।
अर्थ: तब ना कोई ब्राहमण खत्री आदि वर्ण थे ना कहीं जोगी-जंगम आदि भेख थे। तब ना कोई देवता था ना ही देवताओं के मन्दिर थे। तब ना कोई गऊ थी ना कहीं गायत्री थी। ना कहीं हवन थे ना यज्ञ हो रहे थे, ना कहीं तीर्थों का स्नान था और ना कोई (देव-) पूजा कर रहा था।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना को मुला ना को काजी ॥ ना को सेखु मसाइकु हाजी ॥ रईअति राउ न हउमै दुनीआ ना को कहणु कहाइदा ॥११॥
मूलम्
ना को मुला ना को काजी ॥ ना को सेखु मसाइकु हाजी ॥ रईअति राउ न हउमै दुनीआ ना को कहणु कहाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसाइकु = शेख। राउ = राजा। रईअति = प्रजा।11।
अर्थ: तब ना कोई मौलवी था ना काज़ी था, ना कोई शेख था ना हाज़ी था। तब ना कहीं प्रजा थी ना कोई राजा था, ना कहीं दुनियावी अहंकार था, ना ही कोई इस तरह की बातें ही करने वाला था।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भाउ न भगती ना सिव सकती ॥ साजनु मीतु बिंदु नही रकती ॥ आपे साहु आपे वणजारा साचे एहो भाइदा ॥१२॥
मूलम्
भाउ न भगती ना सिव सकती ॥ साजनु मीतु बिंदु नही रकती ॥ आपे साहु आपे वणजारा साचे एहो भाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव = शिव, चेतंन। सकती = जड़ पदार्थ। बिंदु = वीर्य। रकती = रक्त, लहू।12।
अर्थ: तब ना कहीं प्रेम था ना कहीं भक्ति थी, ना कहीं जड़ था ना चेतन्न था। ना कहीं कोई सज्जन था ना मित्र था, ना कहीं पिता का वीर्य था ना माता का रक्त ही था। तब परमात्मा स्वयं ही शाह था स्वयं ही शाहूकार (वणज करने वाला), तब उस सदा-स्थिर प्रभु को यही कुछ अच्छा लगता था।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद कतेब न सिम्रिति सासत ॥ पाठ पुराण उदै नही आसत ॥ कहता बकता आपि अगोचरु आपे अलखु लखाइदा ॥१३॥
मूलम्
बेद कतेब न सिम्रिति सासत ॥ पाठ पुराण उदै नही आसत ॥ कहता बकता आपि अगोचरु आपे अलखु लखाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कतेब = पश्चिमी मजहबों की किताबें (कुरान, अंजील, तौरेत व जंबूर)। उदै = सूरज का चढ़ना। आसत = सूरज का डूबना, अस्त। अगोचरु = अ+गो+चर। जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच न हो सके (गो = इंद्रिय। चर = पहुँच)।13।
अर्थ: तब ना कहीं शास्त्र-स्मृतियाँ और वेद थे, ना कहीं कुरान अंजील आदि पश्चिमी पुस्तकें थीं। तब कहीं पुराणों का पाठ भी नहीं थे। तब ना कहीं सूरज का चढ़ना था ना डूबना था। तब ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाला परमात्मा खुद ही बोलने-चालने वाला था, खुद ही अदृश्य था, और खुद ही अपने आप को प्रकट करने वाला था।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा तिसु भाणा ता जगतु उपाइआ ॥ बाझु कला आडाणु रहाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए माइआ मोहु वधाइदा ॥१४॥
मूलम्
जा तिसु भाणा ता जगतु उपाइआ ॥ बाझु कला आडाणु रहाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए माइआ मोहु वधाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु भाणा = उस प्रभु को अच्छा लगा। आडाणु = पसारा। रहाइआ = टिकाया।14।
अर्थ: जब उस परमात्मा को अच्छा लगा तब उसने जगत पैदा कर दिया। इस सारे जगत-पसारे को उसने (किसी दिखाई देते) सहारे के बिना ही (अपनी-अपनी जगह) टिका दिया। तब उसने ब्रहमा विष्णू और शिव भी पैदा कर दिए, (जगत में) माया का मोह भी बढ़ा दिया।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरले कउ गुरि सबदु सुणाइआ ॥ करि करि देखै हुकमु सबाइआ ॥ खंड ब्रहमंड पाताल अर्मभे गुपतहु परगटी आइदा ॥१५॥
मूलम्
विरले कउ गुरि सबदु सुणाइआ ॥ करि करि देखै हुकमु सबाइआ ॥ खंड ब्रहमंड पाताल अर्मभे गुपतहु परगटी आइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। देखै = संभाल करता है। अरंभे = बनाए। गुपतहु = गुप्त हालत से।15।
अर्थ: जिस किसी विरले व्यक्ति को गुरु ने उपदेश सुनाया (उसे ये समझ आ गई कि) परमात्मा जगत पैदा करके खुद ही संभाल कर रहा है, हर जगह उसका ही हुक्म चल रहा है। उस परमात्मा ने स्वयं ही खंड-ब्रहमंड पाताल आदिक बनाए हैं और वह स्वयं ही गुप्त अवस्था से प्रकट हुआ है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता का अंतु न जाणै कोई ॥ पूरे गुर ते सोझी होई ॥ नानक साचि रते बिसमादी बिसम भए गुण गाइदा ॥१६॥३॥१५॥
मूलम्
ता का अंतु न जाणै कोई ॥ पूरे गुर ते सोझी होई ॥ नानक साचि रते बिसमादी बिसम भए गुण गाइदा ॥१६॥३॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। बिसमादी = हैरान। बिसम = हैरान।16।
अर्थ: पूरे गुरु के माध्यम से ये समझ आ जाती है कि कोई भी जीव परमात्मा की ताकत का अंत नहीं जान सकता। हे नानक! जो लोग उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (के नाम-रंग) में रंगे जाते हैं वह (उसकी बेअंत ताकत और करिश्मे देख-देख के) हैरान ही हैरान होते हैं और उसके गुण गाते रहते हैं।16।3।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ आपे आपु उपाइ निराला ॥ साचा थानु कीओ दइआला ॥ पउण पाणी अगनी का बंधनु काइआ कोटु रचाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ आपे आपु उपाइ निराला ॥ साचा थानु कीओ दइआला ॥ पउण पाणी अगनी का बंधनु काइआ कोटु रचाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। निराला = अलग, निर्लिप। साचा = सदा स्थिर प्रभु। बंधनु = मेल। कोटु = किला।1।
अर्थ: (परमात्मा) आप ही अपने आप को (जगत के रूप में) पैदा करके (माया के मोह से) निर्लिप (भी) रहता है। हवा पानी आग (आदि तत्वों) का मेल करके वह परमात्मा शरीर-किला रचता है और सदा स्थिर दयालु प्रभु इस शरीर को (अपने रहने के लिए) जगह बनाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउ घर थापे थापणहारै ॥ दसवै वासा अलख अपारै ॥ साइर सपत भरे जलि निरमलि गुरमुखि मैलु न लाइदा ॥२॥
मूलम्
नउ घर थापे थापणहारै ॥ दसवै वासा अलख अपारै ॥ साइर सपत भरे जलि निरमलि गुरमुखि मैलु न लाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घर = गोलकें, इंद्रिय। थापणहारै = बनाने की सामर्थ्य रखने वाले ने। दसवै = दसवें घर में, दसवें द्वार में। अपारै = अपार (प्रभु) का। साइर = सायर, समुंदर। सपत = सात। सपत साइर = (काया कोट के) सात समुंदर (पाँच ज्ञान-इंद्रिय और दो मन व बुद्धि)। जलि निरमलि = (नाम के) निर्मल जल से। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला व्यक्ति।2।
अर्थ: बनाने की ताकत रखने वाले प्रभु ने इस शरीर के नौ घर (कर्म-इन्द्रिए) बनाए हैं। दसवें घर (दसवाँ द्वार) में उस अदृश्य और बेअंत प्रभु की रिहायश है। (जीव माया के मोह में फंस के अपने आप को मलीन कर लेते हैं, पर) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसका मन और उसकी बुद्धि - यह सातों ही सरोवर प्रभु के नाम के पवित्र जल से भरे रहते हैं, इसलिए उसको माया की मैल नहीं लगती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रवि ससि दीपक जोति सबाई ॥ आपे करि वेखै वडिआई ॥ जोति सरूप सदा सुखदाता सचे सोभा पाइदा ॥३॥
मूलम्
रवि ससि दीपक जोति सबाई ॥ आपे करि वेखै वडिआई ॥ जोति सरूप सदा सुखदाता सचे सोभा पाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवि = सूरज। ससि = चँद्रमा। दीपक = दीए। सबाई = सारी।3।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही सूरज चँद्रमा (जगत के) दीए बना के अपनी बड़ाई (महानता) देखता है, इन सूरज, चँद्रमा (आदि) दीयों में सारी सृष्टि में उसकी अपनी ही ज्योति (रौशनी कर रही) है। वह प्रभु सदा प्रकाश ही प्रकाश है, वह सदा (जीवों को) सुख देने वाला है। जो जीव उसका रूप हो जाता है उसको प्रभु स्वयं शोभा देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गड़ महि हाट पटण वापारा ॥ पूरै तोलि तोलै वणजारा ॥ आपे रतनु विसाहे लेवै आपे कीमति पाइदा ॥४॥
मूलम्
गड़ महि हाट पटण वापारा ॥ पूरै तोलि तोलै वणजारा ॥ आपे रतनु विसाहे लेवै आपे कीमति पाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गढ़ = किला। पटण = शहर। तोलि = तोलने से। विसाहे = खरीदता है।4।
अर्थ: (प्रभु के रचे हुए इस शरीर-) किले में (ज्ञान-इन्द्रियाँ जैसे) शहर की हाट हैं जहाँ (प्रभु स्वयं ही) व्यापार कर रहा है। (प्रभु का नाम ही एक ऐसा तोल है जिसके द्वारा किए हुए वणज में कोई घाटा नहीं पड़ता, इस) पूरे तोल द्वारा प्रभु-वणजारा (शरीर-किले में बैठ के) स्वयं ही नाम-सौदा (वखर) तौलता है, आप ही नाम-रत्न का व्यापार करता है, आप ही नाम रतन का (ठीक) मूल्य डालता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीमति पाई पावणहारै ॥ वेपरवाह पूरे भंडारै ॥ सरब कला ले आपे रहिआ गुरमुखि किसै बुझाइदा ॥५॥
मूलम्
कीमति पाई पावणहारै ॥ वेपरवाह पूरे भंडारै ॥ सरब कला ले आपे रहिआ गुरमुखि किसै बुझाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भंडारै = खजाने में। कला = सत्ता। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।5।
अर्थ: प्रभु किसी (विरले भाग्यशाली) को गुरु के माध्यम से ये समझ बख्शता है कि वह स्वयं ही अपनी सारी सत्ता (अपने अंदर) रख के सब जीवों में व्याप रहा है और कद्र समझने वाला प्रभु अपने नाम-रतन की कद्र पा रहा है। (जिसको ये समझ देता है वह) उस बेपरवाह परमात्मा के भरे खजाने में से नाम-रतन प्राप्त करता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदरि करे पूरा गुरु भेटै ॥ जम जंदारु न मारै फेटै ॥ जिउ जल अंतरि कमलु बिगासी आपे बिगसि धिआइदा ॥६॥
मूलम्
नदरि करे पूरा गुरु भेटै ॥ जम जंदारु न मारै फेटै ॥ जिउ जल अंतरि कमलु बिगासी आपे बिगसि धिआइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटै = मिलता है। जंदारु = अवैड़ा, जालिम। फेटै = फेट, चोट। बिगासी = खिलता है।6।
अर्थ: जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की निगाह करता है उसको पूरा सतिगुरु मिल जाता है, ज़ालिम जम उस को कोई चोट नहीं पहुँचाता। जैसे पानी में कमल का फूल खिलता है (निर्लिप रहता है) वैसे प्रभु स्वयं ही उस मनुष्य के अंदर खिल के (अपने आप को) स्मरण करता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे वरखै अम्रित धारा ॥ रतन जवेहर लाल अपारा ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ प्रेम पदारथु पाइदा ॥७॥
मूलम्
आपे वरखै अम्रित धारा ॥ रतन जवेहर लाल अपारा ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ प्रेम पदारथु पाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है उसके अंदर प्रभु) स्वयं ही नाम-अमृत की धाराओं की बरखा करता है, जिसमें प्रभु के बेअंत गुण-रूप रतन जवाहर और लाल होते हैं। गुरु मिल जाए तो पूरा प्रभु मिल जाता है। (जिस मनुष्य को गुरु के द्वारा पूरा परमात्मा मिलता है वह) प्रभु-प्रेम का अमूल्य सौदा प्राप्त कर लेता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेम पदारथु लहै अमोलो ॥ कब ही न घाटसि पूरा तोलो ॥ सचे का वापारी होवै सचो सउदा पाइदा ॥८॥
मूलम्
प्रेम पदारथु लहै अमोलो ॥ कब ही न घाटसि पूरा तोलो ॥ सचे का वापारी होवै सचो सउदा पाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लहै = पा लेता है। सचो = सच ही, सदा स्थिर नाम ही।8।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) जो मनुष्य प्रभु-प्रेम का कीमती सौदा हासिल कर लेता है, उसका ये सौदा कम नहीं होता, (जब कभी भी तौला जाए उसका) तोल पूरा ही निकलेगा (भाव, माया के भले ही कई कमले हों, उसके अंदर बसा हुआ प्रभु-चरणों के प्रति प्रेम डोलता नहीं)। जो मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम का व्यापार करने लग जाता है, वह इस सदा-स्थिर नाम का सौदा ही लादता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा सउदा विरला को पाए ॥ पूरा सतिगुरु मिलै मिलाए ॥ गुरमुखि होइ सु हुकमु पछाणै मानै हुकमु समाइदा ॥९॥
मूलम्
सचा सउदा विरला को पाए ॥ पूरा सतिगुरु मिलै मिलाए ॥ गुरमुखि होइ सु हुकमु पछाणै मानै हुकमु समाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई बंदा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। समाइदा = लीन हो जाता है।9।
अर्थ: (पर जगत में) कोई विरला व्यक्ति सदा-स्थिर रहने वाला यह सौदा प्राप्त करता है। जिसको पूरा सतिगुरु मिल जाता है गुरु उसको यह सौदा दिला देता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है और जो रज़ा को (सिर-माथे) मानता है वह (रज़ा के मालिक में ही) लीन हो जाता है।9।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमे आइआ हुकमि समाइआ ॥ हुकमे दीसै जगतु उपाइआ ॥ हुकमे सुरगु मछु पइआला हुकमे कला रहाइदा ॥१०॥
मूलम्
हुकमे आइआ हुकमि समाइआ ॥ हुकमे दीसै जगतु उपाइआ ॥ हुकमे सुरगु मछु पइआला हुकमे कला रहाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाइआ = मर गया। मछु = मातृ लोक। पइआला = पाताल। कला = सत्ता।10।
अर्थ: (रज़ा को मान लेने वाले बँदे को यह निष्चय हो जाता है कि) जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार (जगत में) आता है हुक्म अनुसार समा जाता है (जगत से चला जाता है)। उसे ये दिखता है कि सारा जगत हुक्म में ही पैदा होता है। प्रभु के हुक्म अनुसार ही स्वर्ग-लोक मातृ लोक और पाताल लोक बनता है, प्रभु अपने हुक्म में ही अपनी सत्ता से इस (जगत) को आसरा दिए रखता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमे धरती धउल सिरि भारं ॥ हुकमे पउण पाणी गैणारं ॥ हुकमे सिव सकती घरि वासा हुकमे खेल खेलाइदा ॥११॥
मूलम्
हुकमे धरती धउल सिरि भारं ॥ हुकमे पउण पाणी गैणारं ॥ हुकमे सिव सकती घरि वासा हुकमे खेल खेलाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धउल = धौल, बैल। गैणारं = आकाश। सिव सकती घरि = शिव की शक्ति के घर में।11।
अर्थ: प्रभु के हुक्म में ही धरती बनी जिसका भार बैल के सिर पर (समझा जाता है)। हुक्म में ही हवा पानी (आदि तत्व बने) और आकाश बना। प्रभु के हुक्म अनुसार ही जीवात्मा का माया के घर में बसेरा हुआ। प्रभु अपने हुक्म में ही (जगत के सारे) करिश्मे कर रहा है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमे आडाणे आगासी ॥ हुकमे जल थल त्रिभवण वासी ॥ हुकमे सास गिरास सदा फुनि हुकमे देखि दिखाइदा ॥१२॥
मूलम्
हुकमे आडाणे आगासी ॥ हुकमे जल थल त्रिभवण वासी ॥ हुकमे सास गिरास सदा फुनि हुकमे देखि दिखाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आडाणे = बिखेरे हुए हैं, फैलाए हुए हैं। गिरास = ग्रास। फुनि = दोबारा, फिर, और।12।
अर्थ: प्रभु के हुक्म में ही आकाश (की चादर) तन गई, हुक्म में ही पानी धरती व तीनों भवन बने जिनमें वह स्वयं ही व्यापक है। प्रभु अपने हुक्म अनुसार ही जीवों को साँसें देता है और सदा रिज़क देता है। प्रभु अपनी रजा में ही जीवों की संभाल कर के सबको देखने की ताकत देता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमि उपाए दस अउतारा ॥ देव दानव अगणत अपारा ॥ मानै हुकमु सु दरगह पैझै साचि मिलाइ समाइदा ॥१३॥
मूलम्
हुकमि उपाए दस अउतारा ॥ देव दानव अगणत अपारा ॥ मानै हुकमु सु दरगह पैझै साचि मिलाइ समाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानव = दैत्य, राक्षस। पैड़ै = आदर पाता है।13।
अर्थ: प्रभु ने अपने हुक्म में ही (विष्णू के) दस अवतार पैदा किए, अनगिनत और बेअंत देवते बनाए और दैत्य बनाए। जो जीव प्रभु के हुक्म को मान लेता है वह उसकी दरगाह में आदर पाता है। प्रभु उसको अपने सदा-स्थिर नाम में जोड़ के अपने (चरणों) में लीन कर लेता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमे जुग छतीह गुदारे ॥ हुकमे सिध साधिक वीचारे ॥ आपि नाथु नथीं सभ जा की बखसे मुकति कराइदा ॥१४॥
मूलम्
हुकमे जुग छतीह गुदारे ॥ हुकमे सिध साधिक वीचारे ॥ आपि नाथु नथीं सभ जा की बखसे मुकति कराइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुदारे = गुजारे।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘ज़’ और ‘द’ को आपस में मिल जाना। काज़ी का कादी; काज़ीआ कादीआ; कागज़ कागद; नज़रि, नदरि। ‘वखतु न पाइओ कादीआ’)।
दर्पण-भाषार्थ
वीचारे = विचारवान। जा की = जिस नाथ प्रभु की।14।
अर्थ: प्रभु ने अपने हुक्म के अनुसार ही (‘धुंधूकारा’ के) छक्तिस युग गुजार दिए, अपने हुक्म में ही वह सिध-साधक और विचारवान पैदा कर देता है। सारी सृष्टि का वह स्वयं ही पति है, सारी सृष्टि उसी के हुक्म में बँधी हुई है। जिस जीव परवह मेहर करता है उसको माया के बंधनो से मुक्ति दे देता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कोटु गड़ै महि राजा ॥ नेब खवास भला दरवाजा ॥ मिथिआ लोभु नाही घरि वासा लबि पापि पछुताइदा ॥१५॥
मूलम्
काइआ कोटु गड़ै महि राजा ॥ नेब खवास भला दरवाजा ॥ मिथिआ लोभु नाही घरि वासा लबि पापि पछुताइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटु = किला। नेब = नायब। खवास = दरबारी, मुसाहिब। भला = अच्छा सुंदर। लबि = लालच के कारण। पापि = पाप के कारण।15।
अर्थ: (प्रभु के हुक्म में ही) शरीर किला बना है जिसको (मुँह एक) खूबसूरत सा दरवाजा लगा हुआ है, इस किले में वह खुद ही राजा है, कर्म-इन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ उसकी दरबारी हैं। पर झूठा लोभ (चौकीदार होने के कारण) जीव को प्रभु की हजूरी में पहुँचने नहीं देता। लोभ के कारण पाप के कारण जीव पछताता रहता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतु संतोखु नगर महि कारी ॥ जतु सतु संजमु सरणि मुरारी ॥ नानक सहजि मिलै जगजीवनु गुर सबदी पति पाइदा ॥१६॥४॥१६॥
मूलम्
सतु संतोखु नगर महि कारी ॥ जतु सतु संजमु सरणि मुरारी ॥ नानक सहजि मिलै जगजीवनु गुर सबदी पति पाइदा ॥१६॥४॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारी = करिंदे। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का उद्यम। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जगजीवनु = जगत का जीवन प्रभु।16।
अर्थ: जिस शरीर-नगर में सेवा, संतोख, जत, उच्च आचरण और संजम (जैसे उत्तम) कारिंदे हैं (उसमें बसता जीव) परमात्मा की शरण में टिका रहता है। हे नानक! अडोल आत्मिक अवस्था में टिके उस जीव को जगत का जीवन प्रभु मिल जाता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह प्रभु की हजूरी में इज्जत पाता है।16।4।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ सुंन कला अपर्मपरि धारी ॥ आपि निरालमु अपर अपारी ॥ आपे कुदरति करि करि देखै सुंनहु सुंनु उपाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ सुंन कला अपर्मपरि धारी ॥ आपि निरालमु अपर अपारी ॥ आपे कुदरति करि करि देखै सुंनहु सुंनु उपाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपरंपर = वह प्रभु जो परे से परे है, जिससे परे और कुछ भी नहीं। अपरंपरि = अपरंपर ने, उस प्रभु ने जिससे परे और कुछ भी नहीं। सुंन = (शून्य), वह जिसके बिना और शून्य ही शून्य है, वह प्रभु जिसके बिना कुछ भी नहीं, प्रभु आप ही आप है। संन अपरंपरि = उस परमात्मा ने जिससे परे और कुछ भी नहीं और जो सिर्फ आप ही आप है। कला = सत्ता। धरी = धारण की हुई है। निरालमु = (निरालम्ब) जो अपने सहारे स्वयं ही है, जिसको किसी और सहारे की जरूरत नहीं (आलंब = सहारा)। अपार = जिसका परला किनारा नहीं पाया जा सकता। सुंनहु सुंनु = बिलकुल शून्य हालत, पूरी तरह से वह हालत जब उसके अपने आपे के बिना और कुछ भी नहीं होता।1।
अर्थ: उस परमात्मा ने, जिससे परे और कुछ भी नहीं और जो केवल स्वयं ही स्वयं है, अपनी ताकत खुद ही बनाई हुई है। वह अपर और अपार प्रभु अपने सहारे आप ही है (उसे किसी और आसरे की आवश्यक्ता नहीं पड़ती)। वह परमात्मा सिर्फ वह हालत भी खुद ही पैदा करता है जब उसके अपने आपे के बिना और कुछ भी नहीं होता, और आप ही अपनी कुदरति रच के देखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउणु पाणी सुंनै ते साजे ॥ स्रिसटि उपाइ काइआ गड़ राजे ॥ अगनि पाणी जीउ जोति तुमारी सुंने कला रहाइदा ॥२॥
मूलम्
पउणु पाणी सुंनै ते साजे ॥ स्रिसटि उपाइ काइआ गड़ राजे ॥ अगनि पाणी जीउ जोति तुमारी सुंने कला रहाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंनै ते = शून्य से ही, केवल अपने आप से ही। काइआ गढ़ राजे = शरीर किलों के राजे, जीव। जीउ = जीवात्मा। सुंने = शून्य में ही, केवल अपने आप में ही।2।
अर्थ: हवा पानी (आदि तत्व) वह केवल अपने आप से पैदा करता है। सृष्टि पैदा करके (अपने आप से ही) शरीर और शरीर-किलों के राजे (जीव) पैदा करता है। हे प्रभु! आग पानी आदि तत्वों के बने शरीर में जीवात्मा तेरी ही ज्योति है। तू केवल अपने आप में अपनी शक्ति टिकाए रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सुंने वरते जुग सबाए ॥ इसु पद वीचारे सो जनु पूरा तिसु मिलीऐ भरमु चुकाइदा ॥३॥
मूलम्
सुंनहु ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सुंने वरते जुग सबाए ॥ इसु पद वीचारे सो जनु पूरा तिसु मिलीऐ भरमु चुकाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महेसु = शिव। वरते = बीत गए। सबाए = सारे। पद = अवस्था, आत्मिक अवस्था। वीचारे = अपने सोच मण्डल में टिकाता है। पूरा = जो गलती बिल्कुल नहीं करता।3।
अर्थ: ब्रहमा विष्णू शिव केवल अपने आप से ही परमात्मा ने पैदा किए। सारे अनेक जुग केवल उसके अपने आप में ही बीतते गए। जो मनुष्य इस (हैरान कर देने वाली) हालत को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है वह (और-और आसरे ढूँढने की) गलती नहीं करता। ऐसे पूर्ण मनुष्य की संगति करनी चाहिए वह औरों की भटकना भी दूर कर देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु सपत सरोवर थापे ॥ जिनि साजे वीचारे आपे ॥ तितु सत सरि मनूआ गुरमुखि नावै फिरि बाहुड़ि जोनि न पाइदा ॥४॥
मूलम्
सुंनहु सपत सरोवर थापे ॥ जिनि साजे वीचारे आपे ॥ तितु सत सरि मनूआ गुरमुखि नावै फिरि बाहुड़ि जोनि न पाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सपत सरोवर = सात सरोवर (पांच ज्ञान-इंद्रिय, मन और बुद्धि)। जिनि = जिस परमात्मा ने। वीचारे = अपने सोच मण्डल में रखता है। तितु = उस में। सत सरि = शांति के सर में। तितु सत सरि = उस शांति के सर (प्रभु) में। बाहुड़ि = दोबारा।4।
अर्थ: परमात्मा ने (जीवों की पाँच ज्ञान-इंद्रिय, मन और बुद्धि - इन) सात सरोवरों को भी अपने आप से ही बनाया है। जिस परमात्मा ने जीव पैदा किए हैं वह स्वयं ही उनको अपनी सोच मण्डल में रखता है। जिस मनुष्य का मन गुरु की शरण पड़ कर उस शांति के सर (प्रभु) में स्नान करता है, वह दोबारा जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु चंदु सूरजु गैणारे ॥ तिस की जोति त्रिभवण सारे ॥ सुंने अलख अपार निरालमु सुंने ताड़ी लाइदा ॥५॥
मूलम्
सुंनहु चंदु सूरजु गैणारे ॥ तिस की जोति त्रिभवण सारे ॥ सुंने अलख अपार निरालमु सुंने ताड़ी लाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गैणारे = आकाश। सुंने = शून्य में ही, केवल अपने आप में ही।5।
अर्थ: चाँद सूरज आकाश भी प्रभु के केवल अपने ही आप से बने। उसकी अपनी ही ज्योति सारे तीनों भवनों में पसर रही है। वह अदृष्ट और बेअंत परमात्मा केवल अपने आप में किसी अन्य आसरे से बेमुहताज रहता है, और अपने ही आप में मस्त रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु धरति अकासु उपाए ॥ बिनु थमा राखे सचु कल पाए ॥ त्रिभवण साजि मेखुली माइआ आपि उपाइ खपाइदा ॥६॥
मूलम्
सुंनहु धरति अकासु उपाए ॥ बिनु थमा राखे सचु कल पाए ॥ त्रिभवण साजि मेखुली माइआ आपि उपाइ खपाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। कल = कला, सत्ता। मेखुली = तड़ागी। खपाइदा = नाश करता है।6।
अर्थ: परमात्मा ने धरती आकाश केवल अपने आप से ही पैदा किए। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु अपनी ताकत के सहारे ही बिना किसी और स्तम्भ के टिकाए रखता है। तीनों भवन पैदा करके परमात्मा स्वयं ही इनको माया की तड़ागी (में बाँधे रखता है)। स्वयं ही पैदा करता है स्वयं ही नाश करता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु खाणी सुंनहु बाणी ॥ सुंनहु उपजी सुंनि समाणी ॥ उतभुजु चलतु कीआ सिरि करतै बिसमादु सबदि देखाइदा ॥७॥
मूलम्
सुंनहु खाणी सुंनहु बाणी ॥ सुंनहु उपजी सुंनि समाणी ॥ उतभुजु चलतु कीआ सिरि करतै बिसमादु सबदि देखाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंनहु = शून्य से ही, केवल अपने आप से ही। उपजी = पैदा हुई। सुंनि = केवल उसके अपने आप में। सिरि = सिर से, सबसे पहले। उतभुज चलतु = उत्भुज का तमाशा, जैसे धरती में से बनस्पति अपने आप ही उग पड़ती है इस तरह का जगत रचना का करिश्मा। करतै = कर्तार ने। बिसमादु = हैरान करने वाला चरित्र। सबदि = अपने शब्द (हुक्म) द्वारा।7।
अर्थ: प्रभु केवल अपने आप से ही जीव-उत्पक्ति की चार खाणियां बनाता है और जीवों की वाणी रचता है। उसके केवल अपने आप से ही सृष्टि पैदा होती है और उसके आपे में ही समा जाती है। सबसे पहले कर्तार ने जगत-रचना का कुछ ऐसा करिश्मा रचा जैसे धरती में बनस्पति अपने आप उग पड़ती है। अपने हुक्म से यह हैरान करने वाला तमाशा दिखा देता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु राति दिनसु दुइ कीए ॥ ओपति खपति सुखा दुख दीए ॥ सुख दुख ही ते अमरु अतीता गुरमुखि निज घरु पाइदा ॥८॥
मूलम्
सुंनहु राति दिनसु दुइ कीए ॥ ओपति खपति सुखा दुख दीए ॥ सुख दुख ही ते अमरु अतीता गुरमुखि निज घरु पाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुइ = दोनों। ओपति = उत्पक्ति। खपति = नाश, पर्लय। अमरु = जिसको मौत ना आए, जिसको आत्मिक मौत छू ना सके। अतीत = (माया के प्रभाव से) परे लांघा हुआ।8।
अर्थ: केवल अपने आप से ही परमात्मा ने दोनों दिन और रात बना दिए। खुद ही जीवों को जनम और मरण, सुख और दुख देता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर सुखों-दुखों से निर्लिप हो जाता है वह अटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है, वह उस घर को ढूँढ लेता है जो सदा उसका अपना बना रहता है (भाव, वह सदा के लिए प्रभु के चरणों में जुड़ जाता है)।8।
[[1038]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम वेदु रिगु जुजरु अथरबणु ॥ ब्रहमे मुखि माइआ है त्रै गुण ॥ ता की कीमति कहि न सकै को तिउ बोले जिउ बोलाइदा ॥९॥
मूलम्
साम वेदु रिगु जुजरु अथरबणु ॥ ब्रहमे मुखि माइआ है त्रै गुण ॥ ता की कीमति कहि न सकै को तिउ बोले जिउ बोलाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिगु = ऋग वेद। जुजरु = यजुर्वेद। ब्रहमे मुखि = ब्रहमा के मुँह से। ता की = उस (परमात्मा) की।9।
अर्थ: ब्रहमा के द्वारा साम, ऋग, यजुर व अर्थव- ये चारों वेद प्रभु ने अपने आप से ही प्रकट किए, माया के तीन गुण भी उसके अपने आप से ही पैदा हुए। कोई जीव उस परमात्मा का मूल्य नहीं आँक सकता। जीव उसी तरह ही बोल सकता है जैसे जीव प्रभु स्वयं प्रेरणा करता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु सपत पाताल उपाए ॥ सुंनहु भवण रखे लिव लाए ॥ आपे कारणु कीआ अपर्मपरि सभु तेरो कीआ कमाइदा ॥१०॥
मूलम्
सुंनहु सपत पाताल उपाए ॥ सुंनहु भवण रखे लिव लाए ॥ आपे कारणु कीआ अपर्मपरि सभु तेरो कीआ कमाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सपत = ’सात। लिव लाए = लगन लगा के, ध्यान से। अपरंपरि = अपरंपर ने। सभु = हरेक जीव।10।
अर्थ: प्रभु ने केवल अपने आप से ही सात पाताल (और सात आकाश) पैदा किए, केवल अपने आप से ही तीनों भवन बना के पूरे ध्यान से उनकी संभाल करता है। उस परमात्मा ने जिससे परे और कुछ भी नहीं है खुद ही जगत रचना का आरम्भ किया।
हे प्रभु! हरेक जीव तेरा ही प्रेरित हुआ कर्म करता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥ जनम मरण हउमै दुखु पाइआ ॥ जिस नो क्रिपा करे हरि गुरमुखि गुणि चउथै मुकति कराइदा ॥११॥
मूलम्
रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥ जनम मरण हउमै दुखु पाइआ ॥ जिस नो क्रिपा करे हरि गुरमुखि गुणि चउथै मुकति कराइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रज तम सत = माया के तीनों गुण। कल = कला। छाया = आसरा, साया। गुणि चउथै = चौथे गुण में।11।
अर्थ: (माया के तीन गुण) रजो तमो और सतो (हे प्रभु!) तेरी ही ताकत के आसरे बने। जीवों के वास्ते पैदा होना और मरना तूने स्वयं ही बनाए, अहंकार का दुख भी तूने स्वयं ही (जीवों के अंदर) डाल दिया है।
परमात्मा जिस जीव पर मेहर करता है उसको गुरु की शरण डाल के (तीनों गुणों से ऊपर) चौथी अवस्था में पहुँचाता है और (माया के मोह से) मुक्ति देता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनहु उपजे दस अवतारा ॥ स्रिसटि उपाइ कीआ पासारा ॥ देव दानव गण गंधरब साजे सभि लिखिआ करम कमाइदा ॥१२॥
मूलम्
सुंनहु उपजे दस अवतारा ॥ स्रिसटि उपाइ कीआ पासारा ॥ देव दानव गण गंधरब साजे सभि लिखिआ करम कमाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानव = दैत्य। गण = शिव जी के खास उपासक। गंधरब = गंधर्व, देवताओं के रागी। सभि = सारे।12।
अर्थ: प्रभु के केवल अपने आप से ही (विष्णू के) दस अवतार पैदा हुए। (केवल अपने आप से ही परमात्मा ने) सृष्टि पैदा करके यह जगत-पसारा फैलाया।
देवते, दैत्य, शिव के गण, (देवताओं के रागी) गंधर्व- ये सारे ही केवल अपने आप से पैदा किए।
सब जीव धुर से ही प्रभु के हुक्म में ही अपने किए कर्मों के लिखे संस्कारों के अनुसार कर्म कमा रहे हैं।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि समझै रोगु न होई ॥ इह गुर की पउड़ी जाणै जनु कोई ॥ जुगह जुगंतरि मुकति पराइण सो मुकति भइआ पति पाइदा ॥१३॥
मूलम्
गुरमुखि समझै रोगु न होई ॥ इह गुर की पउड़ी जाणै जनु कोई ॥ जुगह जुगंतरि मुकति पराइण सो मुकति भइआ पति पाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर की पउड़ी = गुरु के बताए हुए राह पर चलना। कोई = कोई विरला। पराइण = आसरा। जुगह जुगंतरि = अनेक जुगों से। पति = इज्जत।13।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा की इस बेअंत कला को) समझता है (वह उसकी याद से नहीं टूटता, और) उसको कोई रोग (विकार) पोह नहीं सकता। पर कोई विरला व्यक्ति गुरु की बताई हुई इस (स्मरण की) सीढ़ी (का भेद) समझता है। जुगों जुगों से ही (गुरु की यह सीढ़ी जीवों की) मुक्ति का साधन बनी आ रही है। (जो मनुष्य नाम-जपने की इस सीढ़ी का आसरा लेता है) वह विकारों से निजात हासिल कर लेता है और प्रभु की दरगाह में इज्जत पाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच ततु सुंनहु परगासा ॥ देह संजोगी करम अभिआसा ॥ बुरा भला दुइ मसतकि लीखे पापु पुंनु बीजाइदा ॥१४॥
मूलम्
पंच ततु सुंनहु परगासा ॥ देह संजोगी करम अभिआसा ॥ बुरा भला दुइ मसतकि लीखे पापु पुंनु बीजाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच ततु = पाँच तत्वों से बना शरीर। देह = शरीर। संजोगी = संजोग से, संबंध बनने से। दुइ = दोनों। मसतकि = माथे पर।14।
अर्थ: पाँच तत्वों से बना हुआ ये मनुष्य का शरीर केवल प्रभु के अपने आप से ही प्रकट हुआ। इस शरीर के संयोग के कारण जीव कर्मों में व्यस्त हो जाता है। प्रभु के हुक्म अनुसार ही जीव के किए अच्छे और बुरे कर्मों के संस्कार उसके माथे पर लिखे जाते हैं, इस तरह जीव पाप और पुण्य (के बीज) बीजता है (और उनका फल भोगता है)।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतम सतिगुर पुरख निराले ॥ सबदि रते हरि रसि मतवाले ॥ रिधि बुधि सिधि गिआनु गुरू ते पाईऐ पूरै भागि मिलाइदा ॥१५॥
मूलम्
ऊतम सतिगुर पुरख निराले ॥ सबदि रते हरि रसि मतवाले ॥ रिधि बुधि सिधि गिआनु गुरू ते पाईऐ पूरै भागि मिलाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निराले = निर्लिप। सतिगुर पुरख सबदि रते = जो बंदे सतिगुर पुरख के शब्द में रंगे रहते हैं। हरि रसि = हरि के रस में। रिधि सिधि = आत्मिक ताकतें। गुरू ते = गुरु से।15।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु पुरख के शब्द में रति रहते हैं जो प्रभु के नाम-रस में मस्त रहते हैं, वह मनुष्य ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं, वे माया के प्रभाव से निर्लिप रहते हैं।
आत्मिक शक्तियाँ ऊँची बुद्धि और परमात्मा के साथ गहरी सांझ (की दाति) गुरु से ही मिलती है। अच्छे भाग्यों से गुरु (शरण आए जीव को प्रभु-चरणों में) जोड़ देता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मन माइआ कउ नेहु घनेरा ॥ कोई बूझहु गिआनी करहु निबेरा ॥ आसा मनसा हउमै सहसा नरु लोभी कूड़ु कमाइदा ॥१६॥
मूलम्
इसु मन माइआ कउ नेहु घनेरा ॥ कोई बूझहु गिआनी करहु निबेरा ॥ आसा मनसा हउमै सहसा नरु लोभी कूड़ु कमाइदा ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। घनेरा = बहुत। निबेरा = फैसला। निबेरा करहु = (माया का नेह) खत्म कर दो। मनसा = (मनीषा, desire, wish) कामना। सहसा = सहम।16।
अर्थ: हे ज्ञानवान पुरुषो! इस मन को माया का बहुत मोह चिपका रहता है; (इसके राज़ को) समझो और इस मोह को खत्म करो। जो मनुष्य लोभ के प्रभाव तहत नित्य माया के मोह का धंधा ही करता रहता है उसको (दुनियां की) आशाएं-कामनाएं-अहंकार-सहम (आदि) चिपके रहते हैं।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर ते पाए वीचारा ॥ सुंन समाधि सचे घर बारा ॥ नानक निरमल नादु सबद धुनि सचु रामै नामि समाइदा ॥१७॥५॥१७॥
मूलम्
सतिगुर ते पाए वीचारा ॥ सुंन समाधि सचे घर बारा ॥ नानक निरमल नादु सबद धुनि सचु रामै नामि समाइदा ॥१७॥५॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। वीचार = प्रभु के गुणों की विचार। सचे घर बारा = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की हजूरी। नादु = राग। धुनि = तुकांत। रामै नामि = परमात्मा के नाम में।17।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु से परमात्मा के गुणों की विचार (की दाति) प्राप्त कर लेता है, वह उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की हजूरी में टिका रहता है, उसके चरणों में तवज्जो जोड़ के रखता है। हे नानक! उस मनुष्य के अंदर सदा-स्थिर प्रभु बसा रहता है महिमा की लहर बनी रहती है जीवन को पवित्र करने वाला राग (जैसा) होता रहता है। वह मनुष्य सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।17।5।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ जह देखा तह दीन दइआला ॥ आइ न जाई प्रभु किरपाला ॥ जीआ अंदरि जुगति समाई रहिओ निरालमु राइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ जह देखा तह दीन दइआला ॥ आइ न जाई प्रभु किरपाला ॥ जीआ अंदरि जुगति समाई रहिओ निरालमु राइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आइ न जाई = आय न जाई, ना पैदा होता है ना मरता है। देखा = मैं देखता हूँ। जुगति = जीवन की विधि। समाई = एक हुई है। निरालमु = (निरालम्ब) जिसको किसी आसरे की आवश्क्ता नहीं। राइआ = राजा, परमात्मा।1।
अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मुझे दीनों पर दया करने वाला परमात्मा दिखाई देता है। वह कृपा का श्रोत प्रभु ना पैदा होता है, ना मरता है। सब जीवों के अंदर (उसी की सिखलाई हुई) जीवन-विधि गुप्त रूप में बरत रही है (भाव, हरेक जीव उसी परमात्मा के आसरे जी रहा है, पर) वह पातशाह स्वयं और आसरों से बेमुथाज रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगु तिस की छाइआ जिसु बापु न माइआ ॥ ना तिसु भैण न भराउ कमाइआ ॥ ना तिसु ओपति खपति कुल जाती ओहु अजरावरु मनि भाइआ ॥२॥
मूलम्
जगु तिस की छाइआ जिसु बापु न माइआ ॥ ना तिसु भैण न भराउ कमाइआ ॥ ना तिसु ओपति खपति कुल जाती ओहु अजरावरु मनि भाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छाइआ = छाया, परछाई, अक्स, प्रतिबिंब। भराउ = भाई। कमाइआ = कामा, नौकर। ओपति = जनम। खपति = नाश। अजरावरु = (अजर+अवरु)। अजर = जरा रहित, जिसको बुढ़ापा ना आ सके। अवरु = श्रेष्ठ। मनि = (जगत के जीवों के) मन में।2।
अर्थ: (दरअसल सदा टिकी रहने वाली हस्ती तो परमात्मा स्वयं है) जगत उस परमात्मा की छाया है (जब चाहे अपनी इस परछाई को अपने आप में ही गायब कर लेता है। वह परमात्मा का ना कोई पिता ना माँ, ना कोई बहिन ना भाई ना ही कोई सेवक। ना उसको जनम ना मौत, ना उसकी कोई कुल ना कोई जाति। उसको बुढ़ापा नहीं व्याप सकता, वह महान श्रेष्ठ हस्ती है (जगत के सब जीवों के) मन में वही प्यारा लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू अकाल पुरखु नाही सिरि काला ॥ तू पुरखु अलेख अगम निराला ॥ सत संतोखि सबदि अति सीतलु सहज भाइ लिव लाइआ ॥३॥
मूलम्
तू अकाल पुरखु नाही सिरि काला ॥ तू पुरखु अलेख अगम निराला ॥ सत संतोखि सबदि अति सीतलु सहज भाइ लिव लाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। अलेख = जिसकी तस्वीर ना बनाई जा सके। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। पुरखु = सब जीवों में व्यापक। सत = दान, सेवा। सत संतोखि = सेवा और संतोख में (रह के)। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। सीतलु = ठंडा, शांत। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = भाव से। सहज भाइ = आत्मिक अडोलता के भाव से, पूर्ण आत्मिक अडोलता में (टिक के)।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों में व्यापक हो के भी मौत-रहित है, तेरे सिर पर मौत सवार नहीं हो सकती। तू सर्व-व्यापक है। जिस मनुष्य ने सेवा-संतोख (वाले जीवन) में (रह के) गुरु के शब्द (में जुड़ के) पूरन अडोल आत्मिक अवस्था में (टिक के) तेरे चरणों में तवज्जो जोड़ी है उस का हृदय ठंडा-ठार हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै वरताइ चउथै घरि वासा ॥ काल बिकाल कीए इक ग्रासा ॥ निरमल जोति सरब जगजीवनु गुरि अनहद सबदि दिखाइआ ॥४॥
मूलम्
त्रै वरताइ चउथै घरि वासा ॥ काल बिकाल कीए इक ग्रासा ॥ निरमल जोति सरब जगजीवनु गुरि अनहद सबदि दिखाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरताइ = वरता के, बाँट के, पसारा पसार के। घरि = घर में। बिकाल = (काल के विपरीत) जन्म। ग्रासा = ग्रास, भोजन मुँह में डालने की एक मात्रा। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभु। गुरि = गुरु ने। अनहद = एक रस। सबदि = शब्द से।4।
अर्थ: माया के तीन गुणों का पसारा पसार के प्रभु स्वयं (इसके ऊपर) चौथे घर में टिका रहता है (जहाँ तीन गुणों की पहुँच नहीं हो सकती)। जनम और मरन उसने एक ग्रास कर लिए हुए हैं (उसको ना जनम है ना मौत)। सारे जीवों में परमात्मा की पवित्र ज्योति (प्रकाश कर रही है), वह जगत की जिंदगी का सहारा है। जिस मनुष्य को गुरु ने एक-रस अपने शब्द में जोड़ा है उसको उस (जगजीवन) का दीदार करवा दिया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतम जन संत भले हरि पिआरे ॥ हरि रस माते पारि उतारे ॥ नानक रेण संत जन संगति हरि गुर परसादी पाइआ ॥५॥
मूलम्
ऊतम जन संत भले हरि पिआरे ॥ हरि रस माते पारि उतारे ॥ नानक रेण संत जन संगति हरि गुर परसादी पाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माते = मस्त। रेण = चरणों की धूल।5।
अर्थ: जो लोग परमात्मा के प्यारे हैं वे श्रेष्ठ जीवन वाले हैं वह संत हैं वह भले हैं, वह परमात्मा के नाम-रस में मस्त रहते हैं, परमात्मा उन्हें संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है। हे नानक! उन संत-जनों की संगति कर उनके चरणों की धूल ले, उन्होंने गुरु की किरपा से परमात्मा को पा लिया है।5।
[[1039]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू अंतरजामी जीअ सभि तेरे ॥ तू दाता हम सेवक तेरे ॥ अम्रित नामु क्रिपा करि दीजै गुरि गिआन रतनु दीपाइआ ॥६॥
मूलम्
तू अंतरजामी जीअ सभि तेरे ॥ तू दाता हम सेवक तेरे ॥ अम्रित नामु क्रिपा करि दीजै गुरि गिआन रतनु दीपाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। गुरि = गुरु ने। दीपाइआ = रौशन किया।6।
अर्थ: हे प्रभु! सारे जीव तेरे (ही पैदा किए हुए) हैं, तू सबके दिल की जानने वाला है। हे प्रभु! हम जीव तेरे दर के सेवक हैं, तू हम सबको दातें देने वाला है। कृपा करके हमें आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम दे। (जिसके ऊपर तू कृपा करता है) गुरु ने उसके ऊपर तेरे ज्ञान का रत्न रौशन कर दिया है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच ततु मिलि इहु तनु कीआ ॥ आतम राम पाए सुखु थीआ ॥ करम करतूति अम्रित फलु लागा हरि नाम रतनु मनि पाइआ ॥७॥
मूलम्
पंच ततु मिलि इहु तनु कीआ ॥ आतम राम पाए सुखु थीआ ॥ करम करतूति अम्रित फलु लागा हरि नाम रतनु मनि पाइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनु = शरीर। आतम राम = सर्व व्यापक ज्योति। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल।7।
अर्थ: (सर्व-व्यापक परमात्मा की रजा में) पाँच तत्वों ने मिल के यह (मनुष्य का) शरीर बनाया, जिस मनुष्य ने उस सर्व-व्यापक प्रभु को पा लिया उसके अंदर आत्मिक आनंद बन गया। (परमात्मा के साथ संबंध बनाने वाले उसके) कामों को उसके उद्यम को वह नाम-फल लगा जिस ने उसको आत्मिक जीवन बख्शा, उसने अपने मन में ही परमात्मा का नाम-रतन पा लिया।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना तिसु भूख पिआस मनु मानिआ ॥ सरब निरंजनु घटि घटि जानिआ ॥ अम्रित रसि राता केवल बैरागी गुरमति भाइ सुभाइआ ॥८॥
मूलम्
ना तिसु भूख पिआस मनु मानिआ ॥ सरब निरंजनु घटि घटि जानिआ ॥ अम्रित रसि राता केवल बैरागी गुरमति भाइ सुभाइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूख पिआस = माया की भूख प्यास। रसि = स्वाद में। बैरागी = विरक्त। भाइ = प्रेम में। सुभाइआ = सुंदर लगा जाता है।8।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन (परमात्मा की याद में) पतीज जाता है उसको माया की भूख-प्यास नहीं रहती, वह निरंजन को सब जगह हरेक घट में पहचान लेता है। वह आत्मिक जीवन देने वाले सिर्फ नाम-रस में ही मस्त रहता है, दुनिया के रसों से उपराम रहता है। गुरु की मति से परमात्मा के प्रेम में जुड़ के उसका आत्मिक जीवन सुंदर लगने लग जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिआतम करम करे दिनु राती ॥ निरमल जोति निरंतरि जाती ॥ सबदु रसालु रसन रसि रसना बेणु रसालु वजाइआ ॥९॥
मूलम्
अधिआतम करम करे दिनु राती ॥ निरमल जोति निरंतरि जाती ॥ सबदु रसालु रसन रसि रसना बेणु रसालु वजाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधिआतम = (अध्यातम = the Supreme Spirit or the relation between the Supreme and the individual soul) जीवात्मा और परमात्मा का परस्पर गहरा संबंध बनाने वाले। निरंतरि = (निर+अंतर = having no intervening space) एक रस। रसालु = (रस+आलस) रस का घर, आत्मिक आनंद देने वाला। रसन रसि = रसों के रस में, महा श्रेष्ठ रस में। रसना = जीभ। बेणु = बँसरी।9।
अर्थ: वह मनुष्य दिन-रात वही कर्म करता है जो उसकी जिंद को परमात्मा के साथ जोड़े रखते हैं, वह परमात्मा की पवित्र ज्योति को हर जगह एक-रस पहचान लेता है। सब रसों के श्रोत गुरु-शब्द को (वह अपने हृदय में बसाता है)। उसकी जीभ महान श्रेष्ठ रस नाम में (रसी) रहती है। वह (अपने अंदर आत्मिक आनंद की, मानो) एक रसीली बाँसुरी बजाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेणु रसाल वजावै सोई ॥ जा की त्रिभवण सोझी होई ॥ नानक बूझहु इह बिधि गुरमति हरि राम नामि लिव लाइआ ॥१०॥
मूलम्
बेणु रसाल वजावै सोई ॥ जा की त्रिभवण सोझी होई ॥ नानक बूझहु इह बिधि गुरमति हरि राम नामि लिव लाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिभवण सोझी = तीनों भवनों में व्यापक प्रभु की सूझ। गुरमति = गुरु की मति से।10।
अर्थ: पर यह रसीली बाँसुरी वही मनुष्य बजा सकता है जिसको तीन भवनों में व्यापक परमात्मा की सूझ पड़ जाती है। हे नानक! तू भी गुरु की मति ले के यह सलीका सीख ले। जिस किसी ने भी गुरु की मति ली है उसकी तवज्जो परमात्मा के नाम में जुड़ी रहती है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे जन विरले संसारे ॥ गुर सबदु वीचारहि रहहि निरारे ॥ आपि तरहि संगति कुल तारहि तिन सफल जनमु जगि आइआ ॥११॥
मूलम्
ऐसे जन विरले संसारे ॥ गुर सबदु वीचारहि रहहि निरारे ॥ आपि तरहि संगति कुल तारहि तिन सफल जनमु जगि आइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरारे = निर्लिप। जगि = जगत में।11।
अर्थ: जगत में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो गुरु के शब्द को अपनी तवज्जो में टिकाते हैं और (दुनियां में विचरते हुए भी माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं। वह संसार-समुंदर से खुद पार लांघ जाते हैं, अपनी कुलों को और उनको भी पार लंघा लेते हैं जो उनकी संगति करते हैं। जगत में ऐसे लोगों का आना लाभदायक है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरु दरु मंदरु जाणै सोई ॥ जिसु पूरे गुर ते सोझी होई ॥ काइआ गड़ महल महली प्रभु साचा सचु साचा तखतु रचाइआ ॥१२॥
मूलम्
घरु दरु मंदरु जाणै सोई ॥ जिसु पूरे गुर ते सोझी होई ॥ काइआ गड़ महल महली प्रभु साचा सचु साचा तखतु रचाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से। महल महली = महल का मालिक। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।12।
अर्थ: वही व्यक्ति परमात्मा का घर परमात्मा का दर परमात्मा का महल पहचान लेता है जिसको पूरे गुरु से (ऊँची) समझ मिलती है। उसको समझ आ जाती है कि ये शरीर परमात्मा के किले हैं महल हैं। वह महलों का मालिक प्रभु सदा-स्थिर रहने वाला है (मनुष्य का शरीर) उसने अपने बैठने के लिए तख़्त बनाया हुआ है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर दस हाट दीवे दुइ साखी ॥ सेवक पंच नाही बिखु चाखी ॥ अंतरि वसतु अनूप निरमोलक गुरि मिलिऐ हरि धनु पाइआ ॥१३॥
मूलम्
चतुर दस हाट दीवे दुइ साखी ॥ सेवक पंच नाही बिखु चाखी ॥ अंतरि वसतु अनूप निरमोलक गुरि मिलिऐ हरि धनु पाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चतुर दस हट = चौदह भवन रूप हाट। दीवे दुइ = दो दीए, सूरज और चँद्रमा। साखी = गवाह। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। वसतु अनूप = वह चीज जिस जैसी और कोई नहीं। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।13।
अर्थ: यह बेमिसाल और अमूल्य नाम-धन हरेक शरीर महल के अंदर मौजूद है। अगर गुरु मिल जाए तो अंदर से ही यह धन प्राप्त हो जाता है। (जिनको यह नाम-धन मिल जाता है वह प्रभु के जाने-माने सेवक कहलवाते हैं) वह जाने-पहचाने सेवक (फिर) उस माया-जहर को नहीं चखते जो आत्मिक मौत लाती है (वे अटल आत्मिक जीवन के मालिक बन जाते हैं) चौदह लोक और चाँद व सूरज इस बात के गवाह हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तखति बहै तखतै की लाइक ॥ पंच समाए गुरमति पाइक ॥ आदि जुगादी है भी होसी सहसा भरमु चुकाइआ ॥१४॥
मूलम्
तखति बहै तखतै की लाइक ॥ पंच समाए गुरमति पाइक ॥ आदि जुगादी है भी होसी सहसा भरमु चुकाइआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तखति = तख्त पर, सिंहासन पर, हृदय तख्त पर। लाइक = यौग्य, हकदार। पंच = पाँचों कामादिक। पाइक = सेवक। सहसा = सहम। भरमु = भटकना।14।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की मति पर चलता है उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसकी सेवक बन के उसके वश में रहती हैं, वह हृदय-तख़्त पर बैठने-योग्य हो जाता है और हृदय-तख़्त पर बैठा रहता है (भाव, ना उसकी ज्ञान-इंद्रिय माया की तरफ डोलती हैं ना ही उसका मन विकारों की ओर जाता है)। जो परमात्मा सृष्टि के आदि से भी पहले का है जुगों से भी आदि से है, अब भी मौजूद है और सदा के लिए कायम रहेगा वह परमात्मा गुरु की मति पर चलने वाले मनुष्य के अंदर प्रकट होकर उसका सहम और उसकी भटकना दूर कर देता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तखति सलामु होवै दिनु राती ॥ इहु साचु वडाई गुरमति लिव जाती ॥ नानक रामु जपहु तरु तारी हरि अंति सखाई पाइआ ॥१५॥१॥१८॥
मूलम्
तखति सलामु होवै दिनु राती ॥ इहु साचु वडाई गुरमति लिव जाती ॥ नानक रामु जपहु तरु तारी हरि अंति सखाई पाइआ ॥१५॥१॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिव जाती = लगन से सांझ डाल ली। तरु तारी = तैराकी करो, ऐसा तैरो, संसार समुंदर से पार लांघने के प्रयत्न करो। सखाई = मददगार।15।
अर्थ: हृदय-तख़्त पर बैठे मनुष्य को दिन-रात आदर मिलता है। जिस मनुष्य ने गुरु की मति पर चल कर परमात्मा के चरणों के साथ लगन की सांझ डाल ली उसको ये आदर सदा के लिए मिला रहता है ये इज्जत सयदा के लिए मिली रहती है।
हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम जपो। (संसार समुंदर से पार लांघने के लिए स्मरण की) तैराकी तैरो। जो मनुष्य स्मरण करता है वह उस हरि को मिल जाता है जो आखिर तक साथी बना रहता है।15।1।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ हरि धनु संचहु रे जन भाई ॥ सतिगुर सेवि रहहु सरणाई ॥ तसकरु चोरु न लागै ता कउ धुनि उपजै सबदि जगाइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ हरि धनु संचहु रे जन भाई ॥ सतिगुर सेवि रहहु सरणाई ॥ तसकरु चोरु न लागै ता कउ धुनि उपजै सबदि जगाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संचहु = इकट्ठा करो। तसकरु = चोर। धुनि = तुकांत।1।
अर्थ: हे भाई जनो! परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करो (पर ये धन गुरु के बताए राह पर चलने से मिलता है, इस वास्ते) गुरु की बताई हुई सेवा करके गुरु की शरण में टिके रहो। (जो मनुष्य ये आत्मिक रास्ता पकड़ता है) उसको कोई (कामादिक) चोर नहीं लगता (कोई चोर उस पर अपना दाव नहीं लगा सकता क्योंकि) गुरु ने अपने शब्द के द्वारा उसको जगा दिया है और उसके अंदर (नाम-जपने की) ध्वनि पैदा हुई रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू एकंकारु निरालमु राजा ॥ तू आपि सवारहि जन के काजा ॥ अमरु अडोलु अपारु अमोलकु हरि असथिर थानि सुहाइआ ॥२॥
मूलम्
तू एकंकारु निरालमु राजा ॥ तू आपि सवारहि जन के काजा ॥ अमरु अडोलु अपारु अमोलकु हरि असथिर थानि सुहाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असथिर = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। थानि = जगह में।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू एक स्वयं ही स्वयं है, तुझे किसी सहारे की आवश्यक्ता नहीं, तू सारी सृष्टि का राजा है, अपने सेवकों के काम तू खुद सवारता है। हे हरि! तुझे मौत नहीं छू सकती, तुझे माया डुला नहीं सकती, तू बेअंत है, तेरा मूल्य नहीं डाला जा सकता। तू ऐसी जगह शोभायमान है जो हमेशा कायम रहने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही नगरी ऊतम थाना ॥ पंच लोक वसहि परधाना ॥ ऊपरि एकंकारु निरालमु सुंन समाधि लगाइआ ॥३॥
मूलम्
देही नगरी ऊतम थाना ॥ पंच लोक वसहि परधाना ॥ ऊपरि एकंकारु निरालमु सुंन समाधि लगाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। पंच लोक = संत जन।3।
अर्थ: मनुष्य का शरीर, मानो, एक शहर है। जिस-जिस शरीर-शहर में जाने-माने संत-जन रहते हैं, वह-वह शरीर-शहर (परमात्मा के बसने के लिए) श्रेष्ठ जगह है। जो परमात्मा सब जीवों के सिर पर रखवाला है, जो एक स्वयं ही स्वयं (अपने जैसा) है, जिसको और किसी आसरे-सहारे की आवश्यक्ता नहीं, वह परमात्मा (उस शरीर-शहर में, मानो) ऐसी समाधि लगाए बैठा है जिसमें कोई मायावी फुरने नहीं उठते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही नगरी नउ दरवाजे ॥ सिरि सिरि करणैहारै साजे ॥ दसवै पुरखु अतीतु निराला आपे अलखु लखाइआ ॥४॥
मूलम्
देही नगरी नउ दरवाजे ॥ सिरि सिरि करणैहारै साजे ॥ दसवै पुरखु अतीतु निराला आपे अलखु लखाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउ दरवाजे = नौ गोलकें (कान, नाक आदि)। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक के। अलखु = अदृष्ट।4।
अर्थ: विधाता प्रभु ने हरेक शरीर-शहर को नौ-नौ दरवाजे लगा दिए हैं (इन दरवाजों के द्वारा शरीर-शहर में बसने वाली जीवात्मा बाहरी दुनियां से अपना संबंध बनाए रखती है। एक दसवाँ दरवाजा भी है जिसके द्वारा परमात्मा और जीवात्मा का मेल होता है, उस) में वह परमात्मा खुद टिकता है जो सर्व-व्यापक है जो माया के प्रभाव से परे है, जो निर्लिप है जो अदृष्ट है। (पर जीव को अपना आप) वह स्वयं ही दिखाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरखु अलेखु सचे दीवाना ॥ हुकमि चलाए सचु नीसाना ॥ नानक खोजि लहहु घरु अपना हरि आतम राम नामु पाइआ ॥५॥
मूलम्
पुरखु अलेखु सचे दीवाना ॥ हुकमि चलाए सचु नीसाना ॥ नानक खोजि लहहु घरु अपना हरि आतम राम नामु पाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलेखु = जिसकी कोई तस्वीर ना बनाई जा सके। सचे = सदा स्थिर रहने वाले का। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नीसाना = परवाना। लहहु = ढूँढ लो।5।
अर्थ: हरेक शरीर-शहर में रहने वाला परमात्मा ऐसा है कि उसका कोई चित्र नहीं बना सकता (वह सदा-स्थिररहने वाला है और) उस सदा-स्थिर प्रभु का दरबार भी सदा-स्थिर है। (जगत की सारी कार वह) अपने हुक्म में चला रहा है (उसके हुक्म का) परवाना अटल है। हे नानक! (सर्व-व्यापक प्रभु हरेक शरीर-घर में मौजूद है) अपना हृदय-घर खोज के उसको ढूँढ लो। (जिस-जिस मनुष्य ने ये खोज-बीन की है) उसने उस सर्व-व्यापक प्रभु का नाम-धन हासिल कर लिया है।5।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब निरंजन पुरखु सुजाना ॥ अदलु करे गुर गिआन समाना ॥ कामु क्रोधु लै गरदनि मारे हउमै लोभु चुकाइआ ॥६॥
मूलम्
सरब निरंजन पुरखु सुजाना ॥ अदलु करे गुर गिआन समाना ॥ कामु क्रोधु लै गरदनि मारे हउमै लोभु चुकाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजन = (निर+अंजन) जिस पर माया की कालिख का असर ना पड़ सके। अदलु = न्याय। गरदनि = गर्दन।6।
अर्थ: वह सुजान प्रभु सब शरीरों में व्यापक होता हुआ भी माया के प्रभाव से परे है, और (हरेक बात में) न्याय करता है। जो मनुष्य गुरु के बख्शे इस ज्ञान में अपने आप को लीन करता है वह अपने अंदर से काम और क्रोध का बिल्कुल ही नाश कर देता है, उसने अहंकार और लोभ को भी समाप्त कर लिया है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचै थानि वसै निरंकारा ॥ आपि पछाणै सबदु वीचारा ॥ सचै महलि निवासु निरंतरि आवण जाणु चुकाइआ ॥७॥
मूलम्
सचै थानि वसै निरंकारा ॥ आपि पछाणै सबदु वीचारा ॥ सचै महलि निवासु निरंतरि आवण जाणु चुकाइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचै थानि = सदा स्थिर रहने वाली जगह पर। निरंतरि = दूरी के बिना, एक रस। महलि = महल में।7।
अर्थ: वह परमात्मा जिसका कोई विशेष रूप नहीं बताया जा सकता एक ऐसी जगह पर बिराजमान है जो हमेशा कायम रहने वाली है। वह आप ही अपने आप को विचारता है और स्वयं ही समझता है। जिस जीव ने उस सदा-स्थिर प्रभु के चरणों (महल) में अपना ठिकाना सदा के लिए बना लिया (भाव, जो मनुष्य सदा उसकी याद में जुड़ा रहता है) परमात्मा उसके पैदा होने मरने के चक्करों को समाप्त कर देता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना मनु चलै न पउणु उडावै ॥ जोगी सबदु अनाहदु वावै ॥ पंच सबद झुणकारु निरालमु प्रभि आपे वाइ सुणाइआ ॥८॥
मूलम्
ना मनु चलै न पउणु उडावै ॥ जोगी सबदु अनाहदु वावै ॥ पंच सबद झुणकारु निरालमु प्रभि आपे वाइ सुणाइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलै = भटकता है, डोलता है। पउण = हवा, वाशना। अनाहदु = एक रस। वावै = बजाता है। झुणकारु = एक रस मीठी आवाज। पंच सबद झुणकारु = पाँच किस्म के साजों से मिल के पैदा होने वाली एक रस मीठी सुर। निरालमु = (निर+आलम्ब) (किसी साज़ आकद के) आसरे के बिना। प्रभि = प्रभु ने। वाइ = बजा के।8।
अर्थ: उस मनुष्य का मन (माया की खातिर) नहीं भटकता, माया की तृष्णा उसको जगह-जगह नहीं भटकाए फिरती। प्रभु-चरणों में जुड़ा हुआ वह मनुष्य (अपने अंदर) एक-रस महिमा (का बाजा) बजाता रहता है, जिसकी इनायत से उसके अंदर, मानो, एक मीठा-मीठा एक-रस राग होता रहता है जैसे पाँच-किस्मों के साजों के एक साथ बजाने से पैदा होता है, उस राग को बाहर से किसी साज़ के आसरे की जरूरत नहीं पड़ती। यह राग (अंदर बसते) प्रभु ने स्वयं ही बजा के उसको सुनाया है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ बैरागा सहजि समाता ॥ हउमै तिआगी अनहदि राता ॥ अंजनु सारि निरंजनु जाणै सरब निरंजनु राइआ ॥९॥
मूलम्
भउ बैरागा सहजि समाता ॥ हउमै तिआगी अनहदि राता ॥ अंजनु सारि निरंजनु जाणै सरब निरंजनु राइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागा = वैराग, विछोड़े का अहसास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अनहदि = एक रस टिके रहने वाले प्रभु में। अंजनु = सुरमा। सारि = डाल के।9।
अर्थ: उस मनुष्य के अंदर परमात्मा का डर-अदब पैदा होता है, परमात्मा का प्यार उपजता है, (जिसके कारण) वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। वह मनुष्य अहंकार दूर करके अविनाशी प्रभु (के नाम-रंग) में रंगा रहता है। (प्रभु के नाम का) सुरमा डाल के वह पहचान लेता है कि वह राजन-प्रभु स्वयं माया के प्रभाव से परे है और (शरण पड़े) सब जीवों को भी माया के प्रभाव से बचा लेता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुख भै भंजनु प्रभु अबिनासी ॥ रोग कटे काटी जम फासी ॥ नानक हरि प्रभु सो भउ भंजनु गुरि मिलिऐ हरि प्रभु पाइआ ॥१०॥
मूलम्
दुख भै भंजनु प्रभु अबिनासी ॥ रोग कटे काटी जम फासी ॥ नानक हरि प्रभु सो भउ भंजनु गुरि मिलिऐ हरि प्रभु पाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।10।
अर्थ: प्रभु जीवों के डर और दुख नाश करने वाला है और स्वयं कभी नाश होने वाला नहीं। वह जीवों के रोग काटता है, जम के फंदे तोड़ता है। हे नानक! वह हरि, वह भय-भंजन प्रभु तभी मिलता है जब गुरु मिल जाए।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालै कवलु निरंजनु जाणै ॥ बूझै करमु सु सबदु पछाणै ॥ आपे जाणै आपि पछाणै सभु तिस का चोजु सबाइआ ॥११॥
मूलम्
कालै कवलु निरंजनु जाणै ॥ बूझै करमु सु सबदु पछाणै ॥ आपे जाणै आपि पछाणै सभु तिस का चोजु सबाइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवलु = ग्रास (a mouthful)। कालै कवलु = काल का ग्रास (बना लेता है), मौत का डर खत्म कर लेता है। करमु = बख्शिश। चोज = तमाशा।11।
अर्थ: जो मनुष्य माया-रहित परमात्मा के साथ सांझ डाल लेता है वह मौत को ग्रास लेता है (निवाला बना लेता है वह मौत का डर समाप्त कर लेता है), वह परमात्मा की बख्शिश को समझ लेता है, वह प्रभु की महिमा की वाणी के साथ जान-पहचान डालता है। (उसको ये निश्चय बन जाता है कि) परमात्मा स्वयं सब जीवों के दिल की जानता है और पहचानता है, यह सारा जगत-तमाशा उसी का रचा हुआ है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे साहु आपे वणजारा ॥ आपे परखे परखणहारा ॥ आपे कसि कसवटी लाए आपे कीमति पाइआ ॥१२॥
मूलम्
आपे साहु आपे वणजारा ॥ आपे परखे परखणहारा ॥ आपे कसि कसवटी लाए आपे कीमति पाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कसि = घिसा के।12।
अर्थ: (यह जगत, मानो, एक शहर है जहाँ जीव प्रभु के नाम का व्यापार करने आते हैं) परमात्मा स्वयं ही (राशि-पूंजी देने वाला) शाहूकार है स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के) व्यापारी है, वह स्वयं ही इस सौदे को परखता है क्योंकि वह खुद ही इसे परखने की योग्यता रखता है। (हरेक जीव-वणजारे के किए हुए वणज को व्यापार को) प्रभु स्वयं ही परखता है जैसे सोनियारा सोने को कसौटी पर घिसा के परखता है, और फिर प्रभु स्वयं ही (उस वस्तु का) मूल्य डालता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि दइआलि दइआ प्रभि धारी ॥ घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ पुरखु अतीतु वसै निहकेवलु गुर पुरखै पुरखु मिलाइआ ॥१३॥
मूलम्
आपि दइआलि दइआ प्रभि धारी ॥ घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ पुरखु अतीतु वसै निहकेवलु गुर पुरखै पुरखु मिलाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआलि प्रभि = दयालु प्रभु ने। बनवारी = जगत का मालिक। अतीतु = निर्लिप। निहकेवलु = (निश्केवल्य) पवित्र, शुद्ध स्वरूप। गुरपुरखै = गुरु पुरख ने। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु।13।
अर्थ: जिस मनुष्य पर दया-के-घर प्रभु ने मेहर की उसे पक्का यकीन हो गया कि जगत का मालिक प्रभु हरेक शरीर में व्यापक है। हरेक शरीर में बसते हुए भी वह माया के प्रभाव से परे है और पवित्र स्वरूप है। (जिस पर प्रभु की मेहर हुई) उसको सतिगुरु पुरख ने वह सर्व-व्यापक प्रभु मिला दिया।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु दाना बीना गरबु गवाए ॥ दूजा मेटै एकु दिखाए ॥ आसा माहि निरालमु जोनी अकुल निरंजनु गाइआ ॥१४॥
मूलम्
प्रभु दाना बीना गरबु गवाए ॥ दूजा मेटै एकु दिखाए ॥ आसा माहि निरालमु जोनी अकुल निरंजनु गाइआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। दूजा = प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक। माहि = में। जोनी = मानव जूनि वाला, मनुष्य। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं।14।
अर्थ: प्रभु सब जीवों के दिलों की जानता है सब के किए काम देखता है (जिस पर मेहर करे उसका) अहंकार मिटाता है, उसके अंदर से और सभी आसरों की झाक दूर कर देता है, और उसको एक अपना आप दिखा देता है। वह मनुष्य दुनियां की आशाओं में (विचरता हुआ भी) आशाओं के आसरे से बेमुथाज हो जाता है क्योंकि वह उस प्रभु की महिमा करता रहता है जो माया के प्रभाव से परे है और जिसकी कोई खास कुल नहीं।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै मेटि सबदि सुखु होई ॥ आपु वीचारे गिआनी सोई ॥ नानक हरि जसु हरि गुण लाहा सतसंगति सचु फलु पाइआ ॥१५॥२॥१९॥
मूलम्
हउमै मेटि सबदि सुखु होई ॥ आपु वीचारे गिआनी सोई ॥ नानक हरि जसु हरि गुण लाहा सतसंगति सचु फलु पाइआ ॥१५॥२॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेटि = मिटा के। सबदि = शब्द द्वारा। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। लाहा = लाभ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।15।
अर्थ: जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है वही असल ज्ञानवान है, वह मनुष्य अहंकार को दूर करके गुरु के शब्द में जुड़ता है और इस तरह उसको आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।
हे नानक! परमात्मा की महिमा करनी परमात्मा के गुण गाने- (जगत में यही असल) कमाई है। जो मनुष्य साधु-संगत में आता है वह यह सदा-कायम रहने वाला फल पा लेता है।15।2।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ सचु कहहु सचै घरि रहणा ॥ जीवत मरहु भवजलु जगु तरणा ॥ गुरु बोहिथु गुरु बेड़ी तुलहा मन हरि जपि पारि लंघाइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ सचु कहहु सचै घरि रहणा ॥ जीवत मरहु भवजलु जगु तरणा ॥ गुरु बोहिथु गुरु बेड़ी तुलहा मन हरि जपि पारि लंघाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु नाम। कहहु = स्मरण करो। सचै घरि = सच्चे के घर में, सदा स्थिर प्रभु के घर में। मरहु = विकारों से बचे रहोगे। भवजलु = संसार समुंदर। बोहिथु = जहाज। तुलहा = नदी पार करने के लिए लकड़ी आदि का बनाया हुआ जुगाड़, बेड़ी। मन = हे मन!।1।
अर्थ: (हे भाई!) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरण करो, (नाम-जपने की इनायत से उस) सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में जगह मिली रहेगी, जीवन-यात्रा में विकारों के हमलों से बचे रहोगे, और संसार-समुंदर से पार लांघ जाओगे। हे मन! (संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए) गुरु जहाज है, गुरु बेड़ी है, (गुरु की शरण पड़ कर) हरि-नाम जप, (जिस जिस ने नाम जपा है गुरु ने उसको) पार लंघा दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै ममता लोभ बिनासनु ॥ नउ दर मुकते दसवै आसनु ॥ ऊपरि परै परै अपर्मपरु जिनि आपे आपु उपाइआ ॥२॥
मूलम्
हउमै ममता लोभ बिनासनु ॥ नउ दर मुकते दसवै आसनु ॥ ऊपरि परै परै अपर्मपरु जिनि आपे आपु उपाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। नउ दर = नौ गोलकें (नाक कान आदि)। मुकते = विकारों के असर से स्वतंत्र। दसवै = दसवें द्वार में। अपरंपरु = परे से परे प्रभु। आपु = अपने आप को।2।
अर्थ: परमात्मा का नाम अहंकार ममता और लोभ का नाश करने वाला है, (नाम जपने की इनायत से) शरीर के नौ दरवाजों (गोलकों) के विषयों से निजात मिली रहती है, तवज्जो दसवें द्वार में टिकी रहती है (भाव, दसवें द्वार के द्वारा परमात्मा के साथ संबंध बना रहता है)। जिस परमात्मा ने अपने आप को (सृष्टि के रूप में) प्रकट किया है जो परे से परे है और बेअंत है वह उस दसवाँ द्वार में प्रत्यक्ष हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति लेवहु हरि लिव तरीऐ ॥ अकलु गाइ जम ते किआ डरीऐ ॥ जत जत देखउ तत तत तुम ही अवरु न दुतीआ गाइआ ॥३॥
मूलम्
गुरमति लेवहु हरि लिव तरीऐ ॥ अकलु गाइ जम ते किआ डरीऐ ॥ जत जत देखउ तत तत तुम ही अवरु न दुतीआ गाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिव = लगन, तवज्जो। अकलु = अखंड (कला = हिस्सा)। ते = से। देखउ = मैं देखता हूँ। दुतीआ = दूसरा, कोई अन्य।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति ग्रहण करो (गुरु की मति के द्वारा) परमात्मा में तवज्जो जोड़ने से संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है। (एक-रस व्यापक) अखण्ड प्रभु की महिमा करने से जम से डरने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती। (हे प्रभु! यह तेरे स्मरण के सदके ही है कि) मैं जिधर-जिधर देखता हूँ उधर-उधर तू ही तू दिखता है। मुझे तेरे जैसा और कोई नहीं दिखाई देता, मैं तेरी स्तुति करता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु हरि नामु सचु है सरणा ॥ सचु गुर सबदु जितै लगि तरणा ॥ अकथु कथै देखै अपर्मपरु फुनि गरभि न जोनी जाइआ ॥४॥
मूलम्
सचु हरि नामु सचु है सरणा ॥ सचु गुर सबदु जितै लगि तरणा ॥ अकथु कथै देखै अपर्मपरु फुनि गरभि न जोनी जाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। जितै लगि = जिस में लग के। अकथु = वह प्रभु जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। फुनि = दोबारा, फिर।4।
अर्थ: परमात्मा का नाम सदा-स्थिर रहने वाला है, उसका ओट-आसरा भी सदा-स्थिर रहने वाला है। गुरु का शब्द (भी) सदा-स्थिर रहने वाला (साधन) है, शब्द में जुड़ के ही संसार-समुंदर में से पार लांघा जा सकता है। परमात्मा का स्वरूप् बयान से परे है, जो मनुष्य उस परे से परे परमात्मा की महिमा करता है वह उसके दर्शन कर लेता है, वह मनुष्य फिर गर्भ जोनि में नहीं आता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सच बिनु सतु संतोखु न पावै ॥ बिनु गुर मुकति न आवै जावै ॥ मूल मंत्रु हरि नामु रसाइणु कहु नानक पूरा पाइआ ॥५॥
मूलम्
सच बिनु सतु संतोखु न पावै ॥ बिनु गुर मुकति न आवै जावै ॥ मूल मंत्रु हरि नामु रसाइणु कहु नानक पूरा पाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सच बिनु = सदा स्थिर प्रभु के नाम के बिना। रसाइणु = सब रसों का घर (रस+आयन)।5।
अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण के बिना (कोई मनुष्य दूसरों की) सेवा व संतोख (का आत्मिक गुण) प्राप्त नहीं कर सकता। गुरु की शरण के बिना विकारों से खलासी नहीं मिलती, मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है। हे नानक! हरि का नाम स्मरण कर जो सब मंत्रों का मूल है और सब रसों को श्रोत है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर नाम स्मरण करता है) उसको पूर्ण प्रभु मिल जाता है।5।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सच बिनु भवजलु जाइ न तरिआ ॥ एहु समुंदु अथाहु महा बिखु भरिआ ॥ रहै अतीतु गुरमति ले ऊपरि हरि निरभउ कै घरि पाइआ ॥६॥
मूलम्
सच बिनु भवजलु जाइ न तरिआ ॥ एहु समुंदु अथाहु महा बिखु भरिआ ॥ रहै अतीतु गुरमति ले ऊपरि हरि निरभउ कै घरि पाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अथाहु = जिसकी थाह ना मिल सके। बिखु = जहर। अतीतु = निर्लिप। ऊपरि = ‘महा बिखु’ से ऊपर।6।
अर्थ: यह संसार-समुंदर बहुत ही गहरा है और (विकारों के) जहर से भरा हुआ है। सदा-स्थिर परमात्मा के नाम स्मरण के बिना इसमें से पार नहीं लांघा जा सकता। जो मनुष्य गुरु की मति लेता है वह विकारों से निर्लिप रहता है वह जहर भरे समुंदर से ऊपर-ऊपर रहता है, उसको परमात्मा मिल जाता है और वह ऐसे (आत्मिक) ठिकाने में पहुँच जाता है जहाँ वह विकारों के डर-सहम से परे हो जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूठी जग हित की चतुराई ॥ बिलम न लागै आवै जाई ॥ नामु विसारि चलहि अभिमानी उपजै बिनसि खपाइआ ॥७॥
मूलम्
झूठी जग हित की चतुराई ॥ बिलम न लागै आवै जाई ॥ नामु विसारि चलहि अभिमानी उपजै बिनसि खपाइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हित = मोह। बिलम = विलम्ब, ढील। विसारि = बिसार के। चलहि = जाते हैं।7।
अर्थ: जगत के (पदार्थोंके) मोह की समझदारी व्यर्थ ही जाती है क्योंकि (जगत की माया का साथ समाप्त होने में) ज्यादा समय नहीं लगता और मनुष्य इस मोह के कारण जनम-मरण में पड़ जाता है। माया का गुमान करने वाले व्यक्ति परमात्मा का नाम भुला के (यहाँ से खाली हाथ) चल पड़ते हैं। (जो भी प्रभु का नाम बिसारता है वह) पैदा होता है मरता है पैदा होता है मरता है और दुखी होता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपजहि बिनसहि बंधन बंधे ॥ हउमै माइआ के गलि फंधे ॥ जिसु राम नामु नाही मति गुरमति सो जम पुरि बंधि चलाइआ ॥८॥
मूलम्
उपजहि बिनसहि बंधन बंधे ॥ हउमै माइआ के गलि फंधे ॥ जिसु राम नामु नाही मति गुरमति सो जम पुरि बंधि चलाइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गलि = गले में। बंधि = बाँध के।8।
अर्थ: जिस लोगों के गले में अहंकार और माया के फंदेपड़े रहते हैं, वे इन बंधनो में बँधे हुए जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं। जिस मनुष्य को सतिगुरु की मति के द्वारा परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं हुआ, वह मोह के बंधनो में बाँध के जम के शहर में धकेला जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बिनु मोख मुकति किउ पाईऐ ॥ बिनु गुर राम नामु किउ धिआईऐ ॥ गुरमति लेहु तरहु भव दुतरु मुकति भए सुखु पाइआ ॥९॥
मूलम्
गुर बिनु मोख मुकति किउ पाईऐ ॥ बिनु गुर राम नामु किउ धिआईऐ ॥ गुरमति लेहु तरहु भव दुतरु मुकति भए सुखु पाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भव = संसार समुंदर। दुतरु = जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है।9।
अर्थ: गुरु की शरण के बिना (अहंकार माया के बंधनो से) खलासी किसी भी हालत में नहीं मिल सकती, क्योंकि, गुरु की शरण में आए बिना परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया जा सकता। (हे भाई!) गुरु की मति पर चल कर (नाम स्मरण करो, इस तरह) उस संसार-समुंदर में से पार लांघ जाओगे जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है। जो लोग (नाम स्मरण करके) विकारों से बच निकले उनको आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति क्रिसनि गोवरधन धारे ॥ गुरमति साइरि पाहण तारे ॥ गुरमति लेहु परम पदु पाईऐ नानक गुरि भरमु चुकाइआ ॥१०॥
मूलम्
गुरमति क्रिसनि गोवरधन धारे ॥ गुरमति साइरि पाहण तारे ॥ गुरमति लेहु परम पदु पाईऐ नानक गुरि भरमु चुकाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिसनि = कृष्ण ने। गोवरधन = विंद्रावन के नजदीक एक पहाड़। इसको कृष्ण जी ने अपनी उंगली पर उठा लिया था। धारे = उठा लिया। साइरि = समुंदर में। पाहण = पत्थर। श्री राम चंद्र जी ने समुंदर में पत्थर तैराए थे। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। गुरि = गुरु ने।10।
अर्थ: गुरु की मति पर चल कर नाम स्मरण करने से बड़ी ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल हो जाती है (बड़ा आत्मिक बल प्राप्त हो जाता है) इसी गुरमति की इनायत से कृष्ण (जी) ने गौवर्धन पर्वत को (उंगलियों पर) उठा लिया था और (श्री राम चंद्र जी ने) पत्थर समुंदर में तैरा दिए थे। हे नानक! (जो भी मनुष्य गुरु की शरण आया) गुरु ने उसकी भटकना समाप्त कर दी।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति लेहु तरहु सचु तारी ॥ आतम चीनहु रिदै मुरारी ॥ जम के फाहे काटहि हरि जपि अकुल निरंजनु पाइआ ॥११॥
मूलम्
गुरमति लेहु तरहु सचु तारी ॥ आतम चीनहु रिदै मुरारी ॥ जम के फाहे काटहि हरि जपि अकुल निरंजनु पाइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु का नाम। चीनहु = परखो। रिदै = हृदय में। जपि = जप के। अकुल = जिसका कोई विशेष कुल नहीं। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से ऊपर।11।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति ग्रहण करो और सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करो, इस तरह संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए तैरो। अपने आत्मिक जीवन को ध्यान से देखो और परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ। परमात्मा का नाम जप के जप के देश ले जाने वाले बंधन काटे जाते हैं। जो भी मनुष्य नाम जपता है उसको वह परमात्मा मिल जाता है जिसका कोई विशेष कुल नहीं है और जो माया के प्रभाव से ऊपर है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति पंच सखे गुर भाई ॥ गुरमति अगनि निवारि समाई ॥ मनि मुखि नामु जपहु जगजीवन रिद अंतरि अलखु लखाइआ ॥१२॥
मूलम्
गुरमति पंच सखे गुर भाई ॥ गुरमति अगनि निवारि समाई ॥ मनि मुखि नामु जपहु जगजीवन रिद अंतरि अलखु लखाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच = सत्य, संतोष, दया, धर्म व धैर्य। सखे = मित्र। अगनि = तृष्णा की आग। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। नामु जगजीवन = जगजीवन का नाम। अलखु = अदृष्य।12।
अर्थ: गुरु की मति पर चलने से सत-संतोख आदि पाँचों मनुष्य के आत्मिक साथी बन जाते हैं गुर-भाई बन जाते हैं। गुरु की मति तृष्णा की आग को दूर कर के नाम में जोड़ देती है। (हे भाई!) जगत के जीवन प्रभु का नाम अपने मन में अपने मुँह से जपते रहो। (जो मनुष्य जपता है वह) अपने दिल में अदृष्ट प्रभु के दर्शन कर लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि बूझै सबदि पतीजै ॥ उसतति निंदा किस की कीजै ॥ चीनहु आपु जपहु जगदीसरु हरि जगंनाथु मनि भाइआ ॥१३॥
मूलम्
गुरमुखि बूझै सबदि पतीजै ॥ उसतति निंदा किस की कीजै ॥ चीनहु आपु जपहु जगदीसरु हरि जगंनाथु मनि भाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में। उसतति = स्तुति, खुशामद। आपु = अपने आप को। जगदीसरु = जगत का ईश्वर, प्रभु। मनि = मन में।13।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (ये जीवन-जुगति) समझ लेता है वह गुरु के शब्द में जुड़ कर आत्मिक शांति हासिल कर लेता है। यह फिर ना किसी की खुशामद स्तुति करता है ना किसी की निंदा करता है। (हे भाई!) अपने आत्मिक जीवन को (हमेशा) पड़तालते रहो, और जगत के मालिक (का नाम) जपते रहो। (जो मनुष्य नाम जपता है) उसको जगत का नाथ हरि अपने मन में प्यारा लगने लग जाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो ब्रहमंडि खंडि सो जाणहु ॥ गुरमुखि बूझहु सबदि पछाणहु ॥ घटि घटि भोगे भोगणहारा रहै अतीतु सबाइआ ॥१४॥
मूलम्
जो ब्रहमंडि खंडि सो जाणहु ॥ गुरमुखि बूझहु सबदि पछाणहु ॥ घटि घटि भोगे भोगणहारा रहै अतीतु सबाइआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहमंडि = जगत में। खंडि = शरीर में।14।
अर्थ: जो परमात्मा सारी सृष्टि में बसता है उसको अपने शरीर में बसता पहचानो। गुरु की शरण पड़ कर यह भेद समझो, गुरु के शब्द में जुड़ कर इस अस्लियत को पहचानो। दुनिया के सारे पदार्थों को भोग सकने वाला परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक हो के सारे भोग भोग रहा है, फिर भी सारी सृष्टि से निर्लिप रहता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति बोलहु हरि जसु सूचा ॥ गुरमति आखी देखहु ऊचा ॥ स्रवणी नामु सुणै हरि बाणी नानक हरि रंगि रंगाइआ ॥१५॥३॥२०॥
मूलम्
गुरमति बोलहु हरि जसु सूचा ॥ गुरमति आखी देखहु ऊचा ॥ स्रवणी नामु सुणै हरि बाणी नानक हरि रंगि रंगाइआ ॥१५॥३॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूचा = स्वच्छ, पवित्र करने वाला। आखी = आँखों से। स्रवणी = कानों से।15।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति के द्वारा परमात्मा की महिमा करो जो जीवन को पवित्र बना देती है। गुरु की शिक्षा पर चल कर उस सबसे ऊँचे परमात्मा को अपनी आँखों से (अंदर-बाहर हर जगह) देखो। हे नानक! जो मनुष्य अपने कानों से परमात्मा का नाम सुनता है प्रभु की महिमा सुनता है वह परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है।125।3।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ कामु क्रोधु परहरु पर निंदा ॥ लबु लोभु तजि होहु निचिंदा ॥ भ्रम का संगलु तोड़ि निराला हरि अंतरि हरि रसु पाइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ कामु क्रोधु परहरु पर निंदा ॥ लबु लोभु तजि होहु निचिंदा ॥ भ्रम का संगलु तोड़ि निराला हरि अंतरि हरि रसु पाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परहरु = त्याग दे। पर = पराई। तजि = तज के, त्याग के। निचिंदा = निष्चिंत, बेफिकर।1।
अर्थ: (हे भाई! अपने अंदर से) काम क्रोध और पराई निंदा दूर कर, लब और लोभ त्याग के निष्चिंत हो जा (भाव, अगर तू काम, क्रोध, पराई निंदा, लब और लोभ दूर कर लेगा, तो तेरा मन हर वक्त शांत रहेगा)। जो मनुष्य (इन विकारों की कई किस्मों की) भटकनों की जंजीरों को तोड़ के निर्लिप हो जाता है वह परमात्मा को अपने अंदर ही पा लेता है, वह परमात्मा का नाम-रस प्राप्त करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसि दामनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै ॥ अहिनिसि जोति निरंतरि पेखै ॥ आनंद रूपु अनूपु सरूपा गुरि पूरै देखाइआ ॥२॥
मूलम्
निसि दामनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै ॥ अहिनिसि जोति निरंतरि पेखै ॥ आनंद रूपु अनूपु सरूपा गुरि पूरै देखाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निसि = रात के वक्त। दामनि = बिजली। चंदाइणु = रौशनी। अहि = दिन। निरंतरि = एक रस, व्यापक, हर जगह। गुरि = गुरु ने।2।
अर्थ: जैसे रात के वक्त बिजली की चमक से मनुष्य (अंधेरे में) रौशनी देख लेता है, इसी तरह (गुरु की शरण पड़ कर नाम-जपने की इनायत से) दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा की ज्योति को हर जगह व्यापक देख सकता है। वह आनंद-रूप और आनंद-स्वरूप प्रभु (जिस किसी ने देखा है) पूरे गुरु ने ही दिखाया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर मिलहु आपे प्रभु तारे ॥ ससि घरि सूरु दीपकु गैणारे ॥ देखि अदिसटु रहहु लिव लागी सभु त्रिभवणि ब्रहमु सबाइआ ॥३॥
मूलम्
सतिगुर मिलहु आपे प्रभु तारे ॥ ससि घरि सूरु दीपकु गैणारे ॥ देखि अदिसटु रहहु लिव लागी सभु त्रिभवणि ब्रहमु सबाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससि = चँद्रमा। ससि घरि = चँद्रमा के घर में, हृदय में। सूरु = सूरज, प्रकाश। गैणारे = हृदय आकाश में। दीपकु = दीया। देखि = देख के। सभु = हर जगह। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। सबाइआ = सब जगह, सारे।3।
अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु की शरण पड़ो (जो मनुष्य गुरु को मिलता है उसको) परमात्मा स्वयं ही (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है, उसके शांत हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, उसके हृदय-क्षितिज (हृदय-आकाश) में (मानो) दीया जग उठता है। (हे भाई! अपने अंदर) अदृष्ट प्रभु को देख के उसमें तवज्जो जोड़े रखो। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसको) हर जगह सारे त्रिभवणी जगत में परमात्मा ही परमात्मा दिखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित रसु पाए त्रिसना भउ जाए ॥ अनभउ पदु पावै आपु गवाए ॥ ऊची पदवी ऊचो ऊचा निरमल सबदु कमाइआ ॥४॥
मूलम्
अम्रित रसु पाए त्रिसना भउ जाए ॥ अनभउ पदु पावै आपु गवाए ॥ ऊची पदवी ऊचो ऊचा निरमल सबदु कमाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनभउ पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ मनुष्य के अंदर ऊँची सूझ पैदा होती है। आपु = स्वै भाव। पदवी = दर्जा।4।
अर्थ: जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस प्राप्त करता है उसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है उसका सहम दूर हो जाता है, उसको वह आत्मिक अवस्था मिल जाती है जहाँ ज्ञान का प्रकाश होता है, वह स्वै भाव दूर कर लेता है। वह बड़ी ऊँची आत्मिक अवस्था पा लेता है, ऊँचे से ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल करता है, जीवन को पवित्र करने वाला गुरु-शब्द वह मनुष्य अपने अंदर कमाता है (भाव, गुरु-शब्द के अनुसार जीवन-घाड़त घड़ता है)।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्रिसट अगोचरु नामु अपारा ॥ अति रसु मीठा नामु पिआरा ॥ नानक कउ जुगि जुगि हरि जसु दीजै हरि जपीऐ अंतु न पाइआ ॥५॥
मूलम्
अद्रिसट अगोचरु नामु अपारा ॥ अति रसु मीठा नामु पिआरा ॥ नानक कउ जुगि जुगि हरि जसु दीजै हरि जपीऐ अंतु न पाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच।) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। जसु = महिमा।5।
अर्थ: अदृश्य और बेअंत प्रभु का नाम मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, पर वह नाम बड़ा ही रसीला बड़ा ही मीठा और बड़ा ही प्यारा है। (मेरी नानक की अरदास है कि, हे प्रभु! मुझे) नानक को सदा ही अपनी महिमा की दाति दे। (ज्यों-ज्यों) प्रभु का नाम जपें (त्यों-त्यों वह बेअंत दिखाई देने लगता है, पर उसकी ताकतों का) अंत नहीं पाया जा सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि नामु परापति हीरा ॥ हरि जपते मनु मन ते धीरा ॥ दुघट घट भउ भंजनु पाईऐ बाहुड़ि जनमि न जाइआ ॥६॥
मूलम्
अंतरि नामु परापति हीरा ॥ हरि जपते मनु मन ते धीरा ॥ दुघट घट भउ भंजनु पाईऐ बाहुड़ि जनमि न जाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन ते = मन से। धीरा = धीरज वाला हो गया, टिक गया। दुघट = दुर्घट, मुश्किल। घट = रास्ता। भउ भंजनु = डर नाश करने वाला प्रभु। बाहुड़ि = दाबारा, फिर।6।
अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम बस जाता है जिसको नाम-हीरा मिल जाता है, परमात्मा का नाम स्मरण करते-स्मरण करते उसका मन अंदर से ही धैर्य-शांति हासिल कर लेता है। (नाम-जपने की इनायत से) मुश्किल जीवन-पथ का डर नाश करने वाला परमात्मा मिल जाता है (जिसको मिल जाता है) वह दोबारा जनम में नहीं आता वह पुनः जनम-मरण में नहीं पड़ता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति हेति गुर सबदि तरंगा ॥ हरि जसु नामु पदारथु मंगा ॥ हरि भावै गुर मेलि मिलाए हरि तारे जगतु सबाइआ ॥७॥
मूलम्
भगति हेति गुर सबदि तरंगा ॥ हरि जसु नामु पदारथु मंगा ॥ हरि भावै गुर मेलि मिलाए हरि तारे जगतु सबाइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगति हेति = भक्ति की खातिर, भक्ति करने वाले। गुर सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। तरंग = लहरें, वलवले, उत्साह। मंगा = मैं माँगता हूँ। गुर मेलि = गुरु की संगति में।7।
अर्थ: हे प्रभु! मैं (तेरे दर से) तेरी महिमा (की दाति) माँगता हूँ, तेरे नाम (की) संपत्ति माँगता हूँ, मैं यह माँगता हूँ कि गुरु के शब्द में जुड़ के तेरी भक्ति करने के लिए मेरे अंदर उत्साह पैदा हो। (जो भाग्यशाली जीव) परमात्मा को अच्छा लगता है उसको वह गुरु की संगति में मिलाता है। परमात्मा (चाहे तो) सारे जगत को (विकारों के समुंदर से) पार लंघा लेता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि जपु जपिओ सतिगुर मति वा के ॥ जमकंकर कालु सेवक पग ता के ॥ ऊतम संगति गति मिति ऊतम जगु भउजलु पारि तराइआ ॥८॥
मूलम्
जिनि जपु जपिओ सतिगुर मति वा के ॥ जमकंकर कालु सेवक पग ता के ॥ ऊतम संगति गति मिति ऊतम जगु भउजलु पारि तराइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। वा के = उस के (पास)। कंकर = (किंकर) दास, सेवक। पग ता के = उसके पैरों के। गति = आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, रहन सहन।8।
अर्थ: जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का जाप जपा है सतिगुरु की शिक्षा ने (समझो) उसके अंदर घर कर लिया है। काल और जम के सेवक उसके चरणों के दास बन गए हैं। उसकी संगति (और लोगों को भी) श्रेष्ठ बना देती है, उसकी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है, उसका रहन-सहन ऊँचा हो जाता है। वह और लोगों को भी संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु भवजलु जगतु सबदि गुर तरीऐ ॥ अंतर की दुबिधा अंतरि जरीऐ ॥ पंच बाण ले जम कउ मारै गगनंतरि धणखु चड़ाइआ ॥९॥
मूलम्
इहु भवजलु जगतु सबदि गुर तरीऐ ॥ अंतर की दुबिधा अंतरि जरीऐ ॥ पंच बाण ले जम कउ मारै गगनंतरि धणखु चड़ाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुबिधा = मानसिक खींचतान, अशांति। जरीऐ = जला ली जाती है। पंच बाण = पाँच तीर (सत, संतोख, दया, धर्म व धैर्य)। गगनंतरि = चिक्त आकाश में। चढ़ाइआ = कस लिया, निशाना बाँधा।9।
अर्थ: गुरु के शब्द में जुड़ के इस संसार-समुंदर से पार लांघ सकते हैं। (गुरु के शब्द की इनायत से मनुष्य की) अंदरूनी अशांति अंदर ही जल जाती है। वह मनुष्य अपने चिक्त-आकाश में (गुरु के शब्द-रूप) धनुष को ऐसा कसता है कि (सत, संतोख, दया, धर्म व धैर्य के) पाँच तीर ले के जम को (मौत के डर को, आत्मिक मौत को) मार लेता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत नरि सबद सुरति किउ पाईऐ ॥ सबद सुरति बिनु आईऐ जाईऐ ॥ नानक गुरमुखि मुकति पराइणु हरि पूरै भागि मिलाइआ ॥१०॥
मूलम्
साकत नरि सबद सुरति किउ पाईऐ ॥ सबद सुरति बिनु आईऐ जाईऐ ॥ नानक गुरमुखि मुकति पराइणु हरि पूरै भागि मिलाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत नरि = साकत मनुष्य, माया ग्रसित मनुष्य के अंदर। सुरति = लगन। पराइणु = आसरा।10।
अर्थ: पर माया-ग्रसित मनुष्य के अंदर गुरु के शब्द की लगन ही पैदा नहीं होती, शब्द से लगन के बिना (माया के मोह में फंस के) वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ना ही (माया के मोह से) खलासी का उपाय है, और पूरी किस्मत से ही परमात्मा गुरु मिलाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ सतिगुरु है रखवाला ॥ भगति परापति गुर गोपाला ॥ धुनि अनंद अनाहदु वाजै गुर सबदि निरंजनु पाइआ ॥११॥
मूलम्
निरभउ सतिगुरु है रखवाला ॥ भगति परापति गुर गोपाला ॥ धुनि अनंद अनाहदु वाजै गुर सबदि निरंजनु पाइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुनि = ध्वनि, आवाज, तुकांत। अनाहदु = एक रस, सदा लगातार। वाजै = बजती है, अपना प्रभाव डालती है। शबदि = शब्द से।11।
अर्थ: निर्भय (परमात्मा का रूप) सतिगुरु (जिस मनुष्य का) रखवाला बनता है उसको गुरु से परमात्मा की भक्ति (की दाति) मिल जाती है। उस मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद की एक-रस ध्वनि (तुकांत) चल पड़ती है, गुरु के शब्द में जुड़ के मनुष्य उस परमात्मा से मिल जाता है जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ सो सिरि नाही लेखा ॥ आपि अलेखु कुदरति है देखा ॥ आपि अतीतु अजोनी स्मभउ नानक गुरमति सो पाइआ ॥१२॥
मूलम्
निरभउ सो सिरि नाही लेखा ॥ आपि अलेखु कुदरति है देखा ॥ आपि अतीतु अजोनी स्मभउ नानक गुरमति सो पाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। लेखा = किए कर्मों का हिसाब। अलेखु = जिसकी तस्वीर ना बनाई जा सके। संभउ = स्वयंभु, अपने आप से प्रकट होने वाला।12।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अंतर’ इस सोलहे में आए शब्द ‘अंतर, अंतरु और अंतरि’ ध्यान से विचारने योग्य है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: परमात्मा को कोई डर व्याप नहीं सकता क्योंकि उसके सिर पर किसी और का हुक्म नहीं है। वह प्रभु स्वयं अलेख है (भाव, कोई और व्यक्ति उससे किए कर्मों का हिसाब नहीं माँग सकता)। अपनी रची हुई सारी कुदरति में वह ही व्यापक दिखाई दे रहा है। (सारी कुदरति में व्यापक होते हुए भी) वह निर्लिप है, जूनियों से रहित है, और अपने आप से ही प्रकट होने की ताकत रखता है। हे नानक! गुरु की मति पर चलने से ही वह परमात्मा मिलता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतर की गति सतिगुरु जाणै ॥ सो निरभउ गुर सबदि पछाणै ॥ अंतरु देखि निरंतरि बूझै अनत न मनु डोलाइआ ॥१३॥
मूलम्
अंतर की गति सतिगुरु जाणै ॥ सो निरभउ गुर सबदि पछाणै ॥ अंतरु देखि निरंतरि बूझै अनत न मनु डोलाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरु = अंदरूनी, हृदय। अनत = (अन्यत्र) किसी और तरफ।13।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के साथ गहरी सांझ डाल लेता है वह अपनी अंदरूनी आत्मिक हालत को समझने लग जाता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह निर्भय परमात्मा को (हर जगह बसता) पहचान लेता है। वह मनुष्य अपना अंदरूनी (हृदय) परख के प्रभु को एक-रस सब जगह व्यापक समझता है, (इसलिए) उसका मन किसी और (आसरे की झाक) की तरफ नहीं डोलता।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ सो अभ अंतरि वसिआ ॥ अहिनिसि नामि निरंजन रसिआ ॥ नानक हरि जसु संगति पाईऐ हरि सहजे सहजि मिलाइआ ॥१४॥
मूलम्
निरभउ सो अभ अंतरि वसिआ ॥ अहिनिसि नामि निरंजन रसिआ ॥ नानक हरि जसु संगति पाईऐ हरि सहजे सहजि मिलाइआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभ अंतरि = (अभ्यन्तर = the inside of anything, mind) मन में, हृदय में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।14।
अर्थ: जिस मनुष्य का हृदय दिन-रात माया-रहित प्रभु के नाम में रसा हुआ रहता है, निरभउ परमात्मा उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। हे नानक! उस परमात्मा की महिमा संगति (में बैठने से) मिलती है। (महिमा करने वाले बंदे को) परमात्मा अडोल आत्मिक अवस्था में मिलाए रखता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि बाहरि सो प्रभु जाणै ॥ रहै अलिपतु चलते घरि आणै ॥ ऊपरि आदि सरब तिहु लोई सचु नानक अम्रित रसु पाइआ ॥१५॥४॥२१॥
मूलम्
अंतरि बाहरि सो प्रभु जाणै ॥ रहै अलिपतु चलते घरि आणै ॥ ऊपरि आदि सरब तिहु लोई सचु नानक अम्रित रसु पाइआ ॥१५॥४॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलिपतु = निर्लिप। चलते = चंचल मन को। घरि = घर में। आणै = लाता है। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। तिहु लोई = तीनों लोकों में।15।
अर्थ: (महिमा करने वाला व्यक्ति) उस परमात्मा को अपने अंदर व बाहर (सारी सृष्टि में) व्यापक समझता है, वह माया के मोह से निर्लिप रहता है, और (माया की ओर) दौड़ते (मन) को (मोड़ के अपने) अंदर ही ले आता है। हे नानक! उस मनुष्य को सदा-स्थिर परमात्मा सब जीवों का रखवाला व सबका मूल और तीनों भवनों में व्यापक (की हकीकत) दिखाई दे जाती है। वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल कर लेता है।15।4।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला १ ॥ कुदरति करनैहार अपारा ॥ कीते का नाही किहु चारा ॥ जीअ उपाइ रिजकु दे आपे सिरि सिरि हुकमु चलाइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला १ ॥ कुदरति करनैहार अपारा ॥ कीते का नाही किहु चारा ॥ जीअ उपाइ रिजकु दे आपे सिरि सिरि हुकमु चलाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करनैहार = रचने वाला। अपारा = बेअंत। किहु = कुछ भी। चारा = ज़ेर, उज़र। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर।1।
अर्थ: इस सारी सृष्टि को रखने वाला परमात्मा बेअंत है (उसकी ताकतों का परला किनारा नहीं मिल सकता। कोई जीव उसकी ताकत के आगे अड़ना चाहे, तो) उसके पैदा किए हुए जीवकी पेश नहीं चलती। वह परमात्मा सारे जीव पैदा करके स्वयं ही (सबको) रिजक देता है और स्वयं ही हरेक पर अपना हुक्म चला रहा है (हरेक को अपने हुक्म में चला रहा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु चलाइ रहिआ भरपूरे ॥ किसु नेड़ै किसु आखां दूरे ॥ गुपत प्रगट हरि घटि घटि देखहु वरतै ताकु सबाइआ ॥२॥
मूलम्
हुकमु चलाइ रहिआ भरपूरे ॥ किसु नेड़ै किसु आखां दूरे ॥ गुपत प्रगट हरि घटि घटि देखहु वरतै ताकु सबाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरपूर = पूर्ण तौर पर व्यापक। घटि घटि = हरेक के घट में। वरतै = मौजूद है। ताकु = स्वयं ही स्वयं।2।
अर्थ: परमात्मा (सारी सृष्टि में अपना) हुक्म वरता रहा है, और सारी ही सृष्टि में पूरी तौर से व्यापक है। मैं क्या बताऊँ कि किस के वह नजदीक है और किस से दूर? (भाव, परमात्मा हरेक जीव के अंदर भी बस रहा है और निर्लिप भी है)। (हे भाई!) हरेक शरीर में हरि को गुप्त भी और प्रकट भी बसता देखो। वह सारी रचना में एक स्वयं ही स्वयं मौजूद है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस कउ मेले सुरति समाए ॥ गुर सबदी हरि नामु धिआए ॥ आनद रूप अनूप अगोचर गुर मिलिऐ भरमु जाइआ ॥३॥
मूलम्
जिस कउ मेले सुरति समाए ॥ गुर सबदी हरि नामु धिआए ॥ आनद रूप अनूप अगोचर गुर मिलिऐ भरमु जाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरति समाए = (उसकी) तवज्जो (प्रभु में) जुड़ती है। अनूप = उपमा रहित, जिस जैसा और कोई नहीं। भरमु = भटकना।3।
अर्थ: जिस जीव को परमात्मा अपने साथ मिलाता है उसकी तवज्जो (प्रभु चरणों में) जुड़ती है, वह जीव गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करता है। उसको हर जगह वह परमात्मा दिखाई देता है जो आनंद-स्वरूप है जो बेमिसाल है और जिस तक मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। गुरु की शरण पड़ने के कारण उसकी भटकना दूर हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन तन धन ते नामु पिआरा ॥ अंति सखाई चलणवारा ॥ मोह पसार नही संगि बेली बिनु हरि गुर किनि सुखु पाइआ ॥४॥
मूलम्
मन तन धन ते नामु पिआरा ॥ अंति सखाई चलणवारा ॥ मोह पसार नही संगि बेली बिनु हरि गुर किनि सुखु पाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। चलणवारा = साथ चलने वाला। मोह पसार = मोह के पसारे। बेली = साथी। किनि = किस ने? किसी ने नहीं।4।
अर्थ: जिस मनुष्य को अपने मन से अपने शरीर से अपने धन-पदार्थ से ज्यादा प्यारा परमात्मा का नाम लगता है, परमात्मा उसका आखिर तक साथी बनता है उसके साथ जाता है। जगत के मोह के पसारे किसी मनुष्य के साथ साथी नहीं बन सकते। परमात्मा के नाम के बिना गुरु की शरण के बिना कभी किसी ने सुख प्राप्त नहीं किया।4।
[[1043]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस कउ नदरि करे गुरु पूरा ॥ सबदि मिलाए गुरमति सूरा ॥ नानक गुर के चरन सरेवहु जिनि भूला मारगि पाइआ ॥५॥
मूलम्
जिस कउ नदरि करे गुरु पूरा ॥ सबदि मिलाए गुरमति सूरा ॥ नानक गुर के चरन सरेवहु जिनि भूला मारगि पाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरा = सूरमा। जिनि = जिस (गुरु) ने। सरेवहु = पूजो। मारगि = सही रास्ते पर।5।
अर्थ: जिस मनुष्य पर पूरा गुरु मेहर की नजर करता है, उसको अपने शब्द में जोड़ता है, वह मनुष्य गुरु की मति के आसरे (विकारों का मुकाबला करने के लिए) शूरवीर हो जाता है। हे नानक! जिस गुरु ने भूले हुए जीव को सही जीवन-रास्ते पर डाला है (भाव, जो गुरु भटकते जीव को ठीक रास्ते पर डाल देता है) उस गुरु की शरण पहुँचो (भाव, स्वै भाव गवा के उस गुरु का पल्ला पकड़ो)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जनां हरि धनु जसु पिआरा ॥ गुरमति पाइआ नामु तुमारा ॥ जाचिकु सेव करे दरि हरि कै हरि दरगह जसु गाइआ ॥६॥
मूलम्
संत जनां हरि धनु जसु पिआरा ॥ गुरमति पाइआ नामु तुमारा ॥ जाचिकु सेव करे दरि हरि कै हरि दरगह जसु गाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा। जाचिकु = भिखारी। हरि कै दरि = हरि के दर पर।6।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम गुरु की मति पर चलने से ही मिलता है, जिस संत-जनों को ही मिलता है उनको यह नाम-धन प्यारा लगता है उनको तेरी महिमा प्यारी लगती है।
प्रभु के दर का मँगता प्रभु के दर पर टिक कर प्रभु की सेवा-भक्ति करता है, प्रभु की हजूरी में (जुड़ के प्रभु की) महिमा करता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु मिलै त महलि बुलाए ॥ साची दरगह गति पति पाए ॥ साकत ठउर नाही हरि मंदर जनम मरै दुखु पाइआ ॥७॥
मूलम्
सतिगुरु मिलै त महलि बुलाए ॥ साची दरगह गति पति पाए ॥ साकत ठउर नाही हरि मंदर जनम मरै दुखु पाइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महलि = महल में, अपनी हजूरी में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। हरि मंदर ठउर = हरि के महल का ठिकाना। जमन मरै = अनेक जन्मों में पड़ता है और मरता है।7।
अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, परमात्मा उसको अपनी हजूरी में बुलाता है (भाव, अपने चरणों में जोड़े रखता है)। वह मनुष्य प्रभु के चरणों में जुड़ के ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त करता है (लोक-परलोक में) इज्जत पाता है। पर माया-ग्रसित व्यक्ति को परमात्मा के महल का ठिकाना नहीं मिलता, वह जन्मों के चक्कर में पड़ कर दुख सहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवहु सतिगुर समुंदु अथाहा ॥ पावहु नामु रतनु धनु लाहा ॥ बिखिआ मलु जाइ अम्रित सरि नावहु गुर सर संतोखु पाइआ ॥८॥
मूलम्
सेवहु सतिगुर समुंदु अथाहा ॥ पावहु नामु रतनु धनु लाहा ॥ बिखिआ मलु जाइ अम्रित सरि नावहु गुर सर संतोखु पाइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाहा = लाभ। बिखिआ = माया। अंम्रितसरि = नाम अमृत के सरोवर में।8।
अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु अथाह समुंदर है (उसमें प्रभु के गुणों के रतन भरे हुए हैं), गुरु की सेवा करो। गुरु से नाम-रतन नाम-धन हासिल कर लोगे (यही मनुष्य के जीवन का) लाभ (है)। (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर) नाम-अमृत के सरोवर में (आत्मिक) स्नान करो, (इस तरह) माया (के मोह) की मैल (मन से) धुल जाएगी (तृष्णा समाप्त हो जाएगी और) गुरु सरोवर का संतोख (-जल) प्राप्त हो जाएगा।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर सेवहु संक न कीजै ॥ आसा माहि निरासु रहीजै ॥ संसा दूख बिनासनु सेवहु फिरि बाहुड़ि रोगु न लाइआ ॥९॥
मूलम्
सतिगुर सेवहु संक न कीजै ॥ आसा माहि निरासु रहीजै ॥ संसा दूख बिनासनु सेवहु फिरि बाहुड़ि रोगु न लाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरासु = दुनियां की आशाओं से निर्लिप। संसा = सहम। बाहुड़ि = दोबारा, फिर।9।
अर्थ: (हे भाई! पूरी श्रद्धा से) गुरु की बताई हुई सेवा करो, (गुरु के हुक्म में रक्ती भर भी) शक ना करो (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने से) दुनियां की आशाओं से निर्लिप रह के जीया जा सकता है। परमात्मा (का नाम) स्मरण करो जो सारे सहम और दुख नाश करने वाला है। जो मनुष्य स्मरण करता है उसको दोबारा (मोह का) रोग नहीं व्यापता।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचे भावै तिसु वडीआए ॥ कउनु सु दूजा तिसु समझाए ॥ हरि गुर मूरति एका वरतै नानक हरि गुर भाइआ ॥१०॥
मूलम्
साचे भावै तिसु वडीआए ॥ कउनु सु दूजा तिसु समझाए ॥ हरि गुर मूरति एका वरतै नानक हरि गुर भाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडीआए = आदर देता है।10।
अर्थ: जो मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को अच्छा लग जाता है उसको वह (गुरु के माध्यम से अपने नाम की दाति दे के) इज्जत बख्शता है। गुरु केू बिना कोई और नहीं जो सही रास्ता बता सके। गुरु और परमात्मा दोनों की एक ही हस्ती है जो जगत में काम कर रही है। हे नानक! जो हरि को अच्छा लगता है वह गुरु को अच्छा लगता है, और गुरु को भाता है वही हरि-प्रभु को पसंद है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचहि पुसतक वेद पुरानां ॥ इक बहि सुनहि सुनावहि कानां ॥ अजगर कपटु कहहु किउ खुल्है बिनु सतिगुर ततु न पाइआ ॥११॥
मूलम्
वाचहि पुसतक वेद पुरानां ॥ इक बहि सुनहि सुनावहि कानां ॥ अजगर कपटु कहहु किउ खुल्है बिनु सतिगुर ततु न पाइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाचहि = पढ़ते हैं। इकि = कई, अनेक। बहि = बैठ के। कानां = कानों से। अजगर = बहुत भारा। कपटु = कपाट, किवाड़, दरवाजा।11।
अर्थ: (गुरु से टूट के पंडित लोग) वेद पुराण आदि (धर्म-) पुस्तकें पढ़ते हैं, जो कुछ वे सुनाते हैं उसको अनेक व्यक्ति बैठ के ध्यान से सुनते हैं। पर इस तरह (मन को काबू रखने वाला माया के मोह का) करड़ा किवाड़ किसी भी हालत में खुल नहीं सकता, (क्योंकि) गुरु की शरण के बिना अस्लियत नहीं मिलती।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहि बिभूति लगावहि भसमै ॥ अंतरि क्रोधु चंडालु सु हउमै ॥ पाखंड कीने जोगु न पाईऐ बिनु सतिगुर अलखु न पाइआ ॥१२॥
मूलम्
करहि बिभूति लगावहि भसमै ॥ अंतरि क्रोधु चंडालु सु हउमै ॥ पाखंड कीने जोगु न पाईऐ बिनु सतिगुर अलखु न पाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिभूति = राख। भसम = राख। जोगु = मिलाप। अलखु = अदृष्ट।12।
अर्थ: (एक वे भी हैं जो त्यागी बन के जंगलों में जा के बैठते हैं, लकड़ियाँ जला के) राख तैयार करते हैं और वह राख (अपने शरीर पर) मल लेते हैं। पर उनके अंदर (हृदय में) चण्डाल क्रोध बसता है अहंकार बसता है। (सो, त्याग के) ये पाखंड करने से परमात्मा का मिलाप प्राप्त नहीं हो सकता। गुरु की शरण पड़े बिना अदृश्य प्रभु नहीं मिलता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथ वरत नेम करहि उदिआना ॥ जतु सतु संजमु कथहि गिआना ॥ राम नाम बिनु किउ सुखु पाईऐ बिनु सतिगुर भरमु न जाइआ ॥१३॥
मूलम्
तीरथ वरत नेम करहि उदिआना ॥ जतु सतु संजमु कथहि गिआना ॥ राम नाम बिनु किउ सुखु पाईऐ बिनु सतिगुर भरमु न जाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदिआना = जंगलों में (निवास)। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयत्न।13।
अर्थ: (त्यागी बन के) जंगलों में निवास करते हैं तीर्थों पर स्नान करते हैं व्रतों के नियम धारते हैं, ज्ञान की बातें करते हैं जत सत संजम के साधन करते हैं, पर परमात्मा के नाम के बिना आत्मिक आनंद प्राप्त नहीं होता, सतिगुरु के बिना मन की भटकना दूर नहीं होती।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निउली करम भुइअंगम भाठी ॥ रेचक कु्मभक पूरक मन हाठी ॥ पाखंड धरमु प्रीति नही हरि सउ गुर सबद महा रसु पाइआ ॥१४॥
मूलम्
निउली करम भुइअंगम भाठी ॥ रेचक कु्मभक पूरक मन हाठी ॥ पाखंड धरमु प्रीति नही हरि सउ गुर सबद महा रसु पाइआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निउली करम = आंतों को तेजी से घुमा के पेट साफ रखने की क्रिया। भुइअंगम = जोगी द्वारा मिथी गई भुजंगमा नाड़ी। यह सुखमना नाड़ी की जड़ में रह के किवाड़ का काम देती है। साढे तिंन कुंडल (चक्र) मार के साँप की तरह (सोई) लेटी हुई है। इसी मिथि के कारण इसको कुंडलनी कहते हैं। योगाभ्यास से कुंडलनी जागती है और सुखमना के रास्ते दसवाँ द्वार को जाती है। ज्यों-ज्यों यह ऊपर को चढ़ती है जोगी को आनंद आता है। भाठी = (जोगियों की बोली में) दसवाँ द्वार जिसमें से अमृत की धारा चोना वे मानते हैं। रेचक = प्राणायाम के अभ्यास के वक्त प्राण (श्वास) बाहर निकालने। कुंभक = प्राण (सुखमना नाड़ी में) टिका के रखने। कुंभक = प्राण ऊपर को खींचने। मन हाठी = मन के हठ से। सउ = से।14।
अर्थ: (यह लोग) नियोली कर्म करते हैं, कुण्डलनी को दसवाँ द्वार में खोलना बताते हैं, मन के हठ से (प्राणायाम के अभ्यास में) प्राण ऊपर चढ़ाते हैं, सुखमनां में रोक के रखते हैं और फिर नीचे उतारते हैं पर ये धार्मिक कर्म निरे पाखण्ड धर्म ही हैं, इसके द्वारा परमात्मा के साथ प्रीति नहीं बन सकती, गुरु-शब्द वाला महान (आनंद देने वाला) रस नहीं मिलता।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुदरति देखि रहे मनु मानिआ ॥ गुर सबदी सभु ब्रहमु पछानिआ ॥ नानक आतम रामु सबाइआ गुर सतिगुर अलखु लखाइआ ॥१५॥५॥२२॥
मूलम्
कुदरति देखि रहे मनु मानिआ ॥ गुर सबदी सभु ब्रहमु पछानिआ ॥ नानक आतम रामु सबाइआ गुर सतिगुर अलखु लखाइआ ॥१५॥५॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतम रामु = व्यापक प्रभु।15।
अर्थ: (एक वे हैं जो) कुदरति में बस रहे प्रभु को देखते हैं उनका मन उस दीदार में प्रसन्न होता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वे हर जगह गुरु को बसता पहचानते हैं। हे नानक! उनको सारी सृष्टि में व्यापक परमात्मा दिखता है। गुरु ही अदृष्ट परमात्मा के दीदार करवाता है।15।5।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमी सहजे स्रिसटि उपाई ॥ करि करि वेखै अपणी वडिआई ॥ आपे करे कराए आपे हुकमे रहिआ समाई हे ॥१॥
मूलम्
हुकमी सहजे स्रिसटि उपाई ॥ करि करि वेखै अपणी वडिआई ॥ आपे करे कराए आपे हुकमे रहिआ समाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में, बिना किसी खास प्रयत्न के। करि = कर के। आपे = स्वयं ही। हुकमे = हुक्म में ही। रहिआ समाई = हर जगह मौजूद है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपने हुक्म से ये सृष्टि पैदा कर दी है। (जगत उत्पक्ति के काम) कर कर के अपनी बड़ाई (स्वयं ही) देख रहा है। आप ही सब कुछ कर रहा है, (जीवों से) खुद ही करवा रहा है, अपनी रजा के अनुसार (सारी सृष्टि में) व्यापक हो रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु जगतु गुबारा ॥ गुरमुखि बूझै को वीचारा ॥ आपे नदरि करे सो पाए आपे मेलि मिलाई हे ॥२॥
मूलम्
माइआ मोहु जगतु गुबारा ॥ गुरमुखि बूझै को वीचारा ॥ आपे नदरि करे सो पाए आपे मेलि मिलाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुबारा = अंधेरा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। को = कोई विरला। नदरि = मेहर की निगाह। सो पाए = वह मनुष्य (ये विचार) प्राप्त करता है। मेलि = (गुरु के साथ) मेल के।2।
अर्थ: हे भाई! (सृष्टि में प्रभु स्वयं ही) माया का मोह पैदा करने वाला है (जिसने) जगत में घोर अंधेरा बना रखा है। इस विचार को गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य ही समझता है। हे भाई! जिस जीव पर प्रभु स्वयं ही मेहर की निगाह करता है, वही, यह सूझ प्राप्त करता है कि प्रभु स्वयं ही (गुरु से) मिला के (अपने चरणों में) मिलाता है।2।
[[1044]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मेले दे वडिआई ॥ गुर परसादी कीमति पाई ॥ मनमुखि बहुतु फिरै बिललादी दूजै भाइ खुआई हे ॥३॥
मूलम्
आपे मेले दे वडिआई ॥ गुर परसादी कीमति पाई ॥ मनमुखि बहुतु फिरै बिललादी दूजै भाइ खुआई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दे = देता है। परसादी = कृपा से। कीमति = कद्र, मूल्य। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली लुकाई। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) अन्य के प्यार में। खुआई = टूटी हुई है।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (मनुष्य को गुरु से) मिलाता है और इज्जत बख्शता है। गुरु की कृपा से (वह मनुष्य इस मानव जनम की) कद्र समझता है। मन की मुरीद दुनिया माया के प्यार के कारण (सही जीवन-राह से) टूटी हुई बहुत विलकती फिरती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै माइआ विचे पाई ॥ मनमुख भूले पति गवाई ॥ गुरमुखि होवै सो नाइ राचै साचै रहिआ समाई हे ॥४॥
मूलम्
हउमै माइआ विचे पाई ॥ मनमुख भूले पति गवाई ॥ गुरमुखि होवै सो नाइ राचै साचै रहिआ समाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विचे = (इस सृष्टि के) बीच में ही। मनमुख = मन का मुरीद जीव। भूले = गलत राह पर पड़े हुए। पति = इज्जत। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। नाइ = नाम में। रचै = मस्त रहता है। साचै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। समाई = लीन।4।
अर्थ: हे भाई! (यह सृष्टि पैदा करके प्रभु ने स्वयं ही) इसके बीच में ही अहंकार और माया पैदा कर दी है। मन के पीछे चलने वाली दुनिया ने (अहंकार माया के कारण) गलत रास्ते पर पड़ के अपनी इज्जत गवा ली है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह परमात्मा के नाम में मस्त रहता है (और नाम की इनायत से वह) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर ते गिआनु नाम रतनु पाइआ ॥ मनसा मारि मन माहि समाइआ ॥ आपे खेल करे सभि करता आपे देइ बुझाई हे ॥५॥
मूलम्
गुर ते गिआनु नाम रतनु पाइआ ॥ मनसा मारि मन माहि समाइआ ॥ आपे खेल करे सभि करता आपे देइ बुझाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मनसा = मनीषा, मन का फुरना। मारि = मार के। मन माहि = मन में ही। समाइआ = लीन हो गया, भटकने से हट गया। सभि = सारे। देइ = देता है। बुझाई = समझ।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु से आत्मिक जीवन की सूझ और परमात्मा का कीमती नाम हासिल कर लेता है, वह अपने मन के फुरने को मार के अंतरात्मे ही लीन रहता है, उसको परमात्मा स्वयं ही यह समझ बख्श देता है कि सारे खेल परमात्मा स्वयं ही कर रहा है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवे आपु गवाए ॥ मिलि प्रीतम सबदि सुखु पाए ॥ अंतरि पिआरु भगती राता सहजि मते बणि आई हे ॥६॥
मूलम्
सतिगुरु सेवे आपु गवाए ॥ मिलि प्रीतम सबदि सुखु पाए ॥ अंतरि पिआरु भगती राता सहजि मते बणि आई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। मिलि = मिल के। सबदि = गुरु के शब्द से। राता = रंगा हुआ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सहजि मते = आत्मिक अडोलता में टिकने वाली मति के कारण। बणि आई = प्रभु से प्रीति बन आई है।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य स्वै भाव दूर करके गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य प्रीतम प्रभु को मिल के गुरु के शब्द द्वारा आत्मिक आनंद लेता है। उसके अंदर परमात्मा का प्यार बना रहता है, वह मनुष्य परमात्मा की भक्ति में रंगा रहता है। आत्मिक अडोलता वाली बुद्धि के कारण प्रभु के साथ उसकी प्रतीति बनी रहती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूख निवारणु गुर ते जाता ॥ आपि मिलिआ जगजीवनु दाता ॥ जिस नो लाए सोई बूझै भउ भरमु सरीरहु जाई हे ॥७॥
मूलम्
दूख निवारणु गुर ते जाता ॥ आपि मिलिआ जगजीवनु दाता ॥ जिस नो लाए सोई बूझै भउ भरमु सरीरहु जाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाता = पहचाना। जगजीवनु = जगत का जीवन प्रभु। भउ = डर। भरमु = भटकना। सरीरहु = शरीर में से।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु के द्वारा जिस मनुष्य ने दुखों के नाश करने वाले प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल ली, सब दातें देने वाला और जगत का आसरा प्रभु स्वयं उसको आ मिला। वही मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त करता है, जिसको प्रभु स्वयं भक्ति में जोड़ता है। उस मनुष्य के अंदर से हरेक किस्म का डर हरेक भ्रम दूर हो जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे गुरमुखि आपे देवै ॥ सचै सबदि सतिगुरु सेवै ॥ जरा जमु तिसु जोहि न साकै साचे सिउ बणि आई हे ॥८॥
मूलम्
आपे गुरमुखि आपे देवै ॥ सचै सबदि सतिगुरु सेवै ॥ जरा जमु तिसु जोहि न साकै साचे सिउ बणि आई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी मैं। जरा = बुढ़ापा। जमु = मौत, आत्मिक मौत। जोहि न साकै = देख नहीं सकता। सिउ = साथ।8।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही गुरु के सन्मुख रखता है जिस को स्वयं ही भक्ति की दाति देता है, वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ा रहता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ा रहता है। सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ उसकी ऐसी प्रीति बन जाती है कि उस प्रीति को ना बुढ़ापा और ना ही आत्मिक मौत देख सकते हैं (भाव, ना वह प्रीति कभी कमजोर होती है और ना ही वहाँ विकारों को आने का मौका मिलता है)।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना अगनि जलै संसारा ॥ जलि जलि खपै बहुतु विकारा ॥ मनमुखु ठउर न पाए कबहू सतिगुर बूझ बुझाई हे ॥९॥
मूलम्
त्रिसना अगनि जलै संसारा ॥ जलि जलि खपै बहुतु विकारा ॥ मनमुखु ठउर न पाए कबहू सतिगुर बूझ बुझाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसना = माया का लालच। जलै = जल रहा है (एकवचन)। जलि जलि = बार बार जल के। खपै = दुखी हो रहा है। मनमुखु = मन का मुरीद। कबहू = कभी भी। बूझ = आत्मिक जीवन की सूझ।9।
अर्थ: हे भाई! जगत माया की तृष्णा की आग में जल रहा है, विकारों में जल-जल के बहुत दुखी हो रहा है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस आग से बचाव का) रास्ता कभी भी नहीं पा सकता। (वही मनुष्य बचाव का राह पाता है जिसको) गुरु आत्मिक जीवन की सूझ देता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ साचै नामि सदा लिव लागी ॥ अंतरि नामु रविआ निहकेवलु त्रिसना सबदि बुझाई हे ॥१०॥
मूलम्
सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ साचै नामि सदा लिव लागी ॥ अंतरि नामु रविआ निहकेवलु त्रिसना सबदि बुझाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवनि = (बहुवचन) जो सेवते हैं, जो शरण आते हैं। से = (बहुवचन) वह। नामि = नाम में। साचै नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। लिव = लगन। निहकेवलु = वासना रहित, पवित्र। सबदि = शब्द से।10।
अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं, जो गुरु की शरण पड़ते हैं, सदा-स्थिर प्रभु के नाम में उनकी तवज्जो सदा जुड़ी रहती है। उनके अंदर परमात्मा का पवित्र करने वाला नाम सदा टिका रहता है, गुरु के शब्द से (उन्होंने अपने अंदर से) तृष्णा (की आग) बुझा ली होती है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा सबदु सची है बाणी ॥ गुरमुखि विरलै किनै पछाणी ॥ सचै सबदि रते बैरागी आवणु जाणु रहाई हे ॥११॥
मूलम्
सचा सबदु सची है बाणी ॥ गुरमुखि विरलै किनै पछाणी ॥ सचै सबदि रते बैरागी आवणु जाणु रहाई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सची = सदा स्थिर रहने वाली। गुरमुखि = उस मनुष्य ने जो गुरु के सन्मुख रहता है। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा में। रते = रंगे हुए। बैरागी = माया के मोह से उपराम। आवणु जाणु = पैदा होना मरना। रहाई = समाप्त हो जाता है।11।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले किसी विरले मनुष्य ने ये बात समझ ली है कि सदा-स्थिर पदार्थ गुरु-शब्द ही है, सदा-स्थिर वस्तु महिमा की वाणी ही है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में रंगे रहते हैं, वे माया से उपराम रहते हैं, उनका पैदा होना मरना (चक्कर) समाप्त हो जाता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदु बुझै सो मैलु चुकाए ॥ निरमल नामु वसै मनि आए ॥ सतिगुरु अपणा सद ही सेवहि हउमै विचहु जाई हे ॥१२॥
मूलम्
सबदु बुझै सो मैलु चुकाए ॥ निरमल नामु वसै मनि आए ॥ सतिगुरु अपणा सद ही सेवहि हउमै विचहु जाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूझै = समझ लेता है। चुकाए = दूर कर लेता है। मनि = मन में। आए = आ के। सद = सदा। सेवहि = सेवते हैं (बहुवचन)। विचहु = अंदर से।12।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को समझ लेता है (भाव, अपनी बुद्धि का हिस्सा बना लेता है) वह (अपने अंदर विकारों की) मैल दूर कर लेता है। परमात्मा का पवित्र नाम उसके मन में आ बसता है। जो मनुष्य सदा अपने गुरु की शरण पड़े रहते हैं, उनके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर ते बूझै ता दरु सूझै ॥ नाम विहूणा कथि कथि लूझै ॥ सतिगुर सेवे की वडिआई त्रिसना भूख गवाई हे ॥१३॥
मूलम्
गुर ते बूझै ता दरु सूझै ॥ नाम विहूणा कथि कथि लूझै ॥ सतिगुर सेवे की वडिआई त्रिसना भूख गवाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। बूझै = (सही जीवन की राह) समझता है। ता = तब। दरु = (प्रभु का) दरवाजा। सूझै = सूझाता है, दिखाई देता है। कथि = कह के। कथि कथि = (और लोगों को) व्याख्यान कर कर के। लूझै = (अंदर से तृष्णा की आग में) जलता रहता है।13।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरु से (सही जीवन-राह का उपदेश) समझ लेता है, तब उसको परमात्मा का दर दिखाई देता है (भाव, यह दिखाई दे जाता है कि हरि-नाम ही प्रभु-मिलाप का साधन है उपाय है)। पर जो मनुष्य नाम से टूटा हुआ है वह (और लोगों को) व्याख्यान कर कर के (स्वयं अंदर से तृष्णा की आग में) जलता रहता है। हे भाई! गुरु के शरण पड़ने की इनायत यह है कि मनुष्य (अपने अंदर से माया की) तृष्णा (माया की) भूख दूर कर लेता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे आपि मिलै ता बूझै ॥ गिआन विहूणा किछू न सूझै ॥ गुर की दाति सदा मन अंतरि बाणी सबदि वजाई हे ॥१४॥
मूलम्
आपे आपि मिलै ता बूझै ॥ गिआन विहूणा किछू न सूझै ॥ गुर की दाति सदा मन अंतरि बाणी सबदि वजाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। दाति = बख्शिश। अंतरि = अंदर। सबदि = गुरु के शब्द से। वजाई = प्रभाव डाला।14।
अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही जीव को मिल जाए, तब ही वह (सही जीवन-राह को) समझता है। आत्मिक जीवन की सूझ के बिना मनुष्य को (माया की तृष्णा की भूख के बिना और) कुछ नहीं सूझता। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में गुरु की बख्शी (आत्मिक जीवन की सूझ की) दाति सदा बसती है, वह मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा की महिमा का प्रभाव अपने अंदर बनाए रखता है (जैसे बज रहे बाजों के कारण कोई और छोटी मोटी आवाज नहीं सुनती)।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥ कोइ न मेटै धुरि फुरमाइआ ॥ सतसंगति महि तिन ही वासा जिन कउ धुरि लिखि पाई हे ॥१५॥
मूलम्
जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥ कोइ न मेटै धुरि फुरमाइआ ॥ सतसंगति महि तिन ही वासा जिन कउ धुरि लिखि पाई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = प्रभु की हजूरी से। मेटै = मिट सकता। तिन ही वासा = उनका ही निवास। कउ = को। लिखि = लिख के। पाई = (ये दाति भाग्यों में) डाल दी है।15।
अर्थ: (हे भाई! सारी खेल परमात्मा की रज़ा में हो रही है) धुर दरगाह से (रज़ा के अनुसार जीव के माथे पर जो लेख) लिखे जाते हैं, वही कर्म जीव कमाता रहता है। धुर से हुए हुक्म को कोई जीव मिटा नहीं सकता। हे भाई! साधु-संगत में उन मनुष्यों को ही बैठने का अवसर मिलता है, जिनके माथे पर धुर से लिख के यह बख्शिश सौंपी जाती है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपणी नदरि करे सो पाए ॥ सचै सबदि ताड़ी चितु लाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती भीखिआ नामु दरि पाई हे ॥१६॥१॥
मूलम्
अपणी नदरि करे सो पाए ॥ सचै सबदि ताड़ी चितु लाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती भीखिआ नामु दरि पाई हे ॥१६॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा। ताड़ी = समाधि में, एकाग्रता में। भीखिआ = खैर, भिक्षा। दरि = प्रभु के दर से।16।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत में टिकने की दाति) वह मनुष्य हासिल करता है, जिस पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में अपना मन जोड़ता है; यही है (उसकी जोगियों वाली) समाधि।
हे भाई! (प्रभु का) दास नानक विनती करता है (कि वह मनुष्य प्रभु के) दर पर (हाजिर रह के) प्रभु के नाम की भिक्षा प्राप्त कर लेता है।16।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ एको एकु वरतै सभु सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ एको रवि रहिआ सभ अंतरि तिसु बिनु अवरु न कोई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ एको एकु वरतै सभु सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ एको रवि रहिआ सभ अंतरि तिसु बिनु अवरु न कोई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है। सोई = वह ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। रवि रहिआ = व्यापक है। अंतरि = अंदर। अवरु = कोई और।1।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ एक वह परमात्मा ही हर जगह मौजूद है। गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (इस भेद को) समझता है कि सब जीवों के अंदर एक परमात्मा ही व्यापक है, उस (परमात्मा) के बिना और कोई दूसरा नहीं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
लख चउरासीह जीअ उपाए ॥ गिआनी धिआनी आखि सुणाए ॥ सभना रिजकु समाहे आपे कीमति होर न होई हे ॥२॥
मूलम्
लख चउरासीह जीअ उपाए ॥ गिआनी धिआनी आखि सुणाए ॥ सभना रिजकु समाहे आपे कीमति होर न होई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव। आखि = कह के। समाहे = पहुँचाता है। आपे = आप ही। होर = किसी और तरफ से। कीमति = मूल्य।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा ने ही) चौरासी लाख जूनियों के जीव पैदा किए हैं। समझदार मनुष्य और समाधियाँ लगाने वाले भी (यही बात) कह के सुना गए हैं। वह परमात्मा खुद ही सब जीवों को रिज़क पहुँचाता है। उस परमात्मा के बराबर की और कोई हस्ती नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु अंधु अंधारा ॥ हउमै मेरा पसरिआ पासारा ॥ अनदिनु जलत रहै दिनु राती गुर बिनु सांति न होई हे ॥३॥
मूलम्
माइआ मोहु अंधु अंधारा ॥ हउमै मेरा पसरिआ पासारा ॥ अनदिनु जलत रहै दिनु राती गुर बिनु सांति न होई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधु अंधारा = घोर अंधेरा। हउमै मेरा पासारा = अहंकार और ममता का पसारा। अनदिनु = हर रोज। जलत रहै = जलता रहता है।3।
अर्थ: हे भाई! (जगत में हर जगह) माया का मोह (भी प्रबल) है, (मोह के कारण जगत में) घोर अंधेरा बना हुआ है। (हर तरफ) अहंकार और ममता का पसारा पसरा हुआ है। जगत हर वक्त दिन-रात (तृष्णा की आग में) जल रहा है। गुरु की शरण के बिना शांति प्राप्त नहीं होती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे जोड़ि विछोड़े आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ सचा हुकमु सचा पासारा होरनि हुकमु न होई हे ॥४॥
मूलम्
आपे जोड़ि विछोड़े आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ सचा हुकमु सचा पासारा होरनि हुकमु न होई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थापि = पैदा करके। उथापै = नाश करता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। होरनि = किसी और तरफ से।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) जोड़ के (यहाँ परिवारों में इकट्ठे करके) खुद ही (इनको आपस से) विछोड़ देता है। आप ही पैदा करके आप ही नाश करता है। हे भाई! परमात्मा का हुक्म अटल है, (उसके हुक्म में पैदा हुआ यह) जगत-पसारा भी सच-मुच अस्तित्व वाला है। किसी और द्वारा (ऐसा) हुक्म नहीं चलाया जा सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे लाइ लए सो लागै ॥ गुर परसादी जम का भउ भागै ॥ अंतरि सबदु सदा सुखदाता गुरमुखि बूझै कोई हे ॥५॥
मूलम्
आपे लाइ लए सो लागै ॥ गुर परसादी जम का भउ भागै ॥ अंतरि सबदु सदा सुखदाता गुरमुखि बूझै कोई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) आप ही। सो = वह मनुष्य। परसादी = कृपा से। जम = मौत। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। कोई = विरला।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, वह मनुष्य (प्रभु की भक्ति में) लगता है। गुरु की कृपा से (उसके अंदर से) मौत का डर दूर हो जाता है। उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद देने वाला गुरु-शब्द बसा रहता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला ही कोई मनुष्य (इस भेद को) समझता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मेले मेलि मिलाए ॥ पुरबि लिखिआ सो मेटणा न जाए ॥ अनदिनु भगति करे दिनु राती गुरमुखि सेवा होई हे ॥६॥
मूलम्
आपे मेले मेलि मिलाए ॥ पुरबि लिखिआ सो मेटणा न जाए ॥ अनदिनु भगति करे दिनु राती गुरमुखि सेवा होई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेलि = (गुरु से) मिला के। पुरबि = पूर्बले जनम में। सो = वह लेख। अनदिनु = हर रोज। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सेवा = भक्ति।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (पूर्बले लिखे अनुसार जीव को गुरु-चरणों में) जोड़ के (अपने साथ) मिलाता है। पूर्बले किए कर्मों के अनुसार जो लेख (माथे पर) लिखा जाता है, वह (जीव से) मिटाया नहीं जा सकता। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करता है, गुरु की शरण पड़ने से ही भक्ति हो सकती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवि सदा सुखु जाता ॥ आपे आइ मिलिआ सभना का दाता ॥ हउमै मारि त्रिसना अगनि निवारी सबदु चीनि सुखु होई हे ॥७॥
मूलम्
सतिगुरु सेवि सदा सुखु जाता ॥ आपे आइ मिलिआ सभना का दाता ॥ हउमै मारि त्रिसना अगनि निवारी सबदु चीनि सुखु होई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि = सेव के, शरण पड़ कर। जाता = पहचान लिया, सांझ डाल ली। आइ = आ के। मारि = मार के। निवारी = दूर कर ली। चीनि = पहचान के।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर सदा आत्मिक आनंद पाया जा सकता है, सबको दातें देने वाला प्रभु भी (गुरु की शरण पड़ने से) आप ही आ मिलता है। (गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार मार के तृष्णा की आग बुझा लेता है। हे भाई! गुरु के शब्द को पहचान के ही सुख मिल सकता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कुट्मबु मोहु न बूझै ॥ गुरमुखि होवै त आखी सूझै ॥ अनदिनु नामु रवै दिनु राती मिलि प्रीतम सुखु होई हे ॥८॥
मूलम्
काइआ कुट्मबु मोहु न बूझै ॥ गुरमुखि होवै त आखी सूझै ॥ अनदिनु नामु रवै दिनु राती मिलि प्रीतम सुखु होई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कुटंबु = परिवार। अखी = आँखों से। सूझै = सूझता है, दिख जाता है। रवै = स्मरण करता है। मिलि = मिल के।8।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) शरीर का मोह (ग्रस रहा है) परिवार (का मोह ग्रस रहा है) (वह मनुष्य आत्मिक जीवन की खेल को) नहीं समझता। अगर मनुष्य गुरु की शरण पड़ जाए, तो इसको इन आँखों से सब कुछ दिखाई दे जाता है। वह मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा का नाम जपने लग जाता है, प्रीतम प्रभु को मिल के उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख धातु दूजै है लागा ॥ जनमत की न मूओ आभागा ॥ आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ बिनु गुर मुकति न होई हे ॥९॥
मूलम्
मनमुख धातु दूजै है लागा ॥ जनमत की न मूओ आभागा ॥ आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ बिनु गुर मुकति न होई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। धातु = माया। दूजै = माया (के प्यार) में। जनमत = पैदा होते ही। की न = क्यों ना? आभागा = बद नसीब। आवत जात = पैदा होते मरते। मुकति = (जनम मरन के चक्कर में से) मुक्ति।9।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को माया (ग्रसे रखती है, वह मनुष्य) माया (के आहर) में व्यस्त रहता है। पर वह बदनसीब पैदा होते ही क्यों ना मर गया? वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ा हुआ व्यर्थ जनम गवा जाता है। गुरु के बिना (इस चक्कर में से) खलासी नहीं होती।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कुसुध हउमै मलु लाई ॥ जे सउ धोवहि ता मैलु न जाई ॥ सबदि धोपै ता हछी होवै फिरि मैली मूलि न होई हे ॥१०॥
मूलम्
काइआ कुसुध हउमै मलु लाई ॥ जे सउ धोवहि ता मैलु न जाई ॥ सबदि धोपै ता हछी होवै फिरि मैली मूलि न होई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कुसुध = अपवित्र। सउ = सौ बार। धोवहि = धोते रहें। सबदि = शब्द से। धोपै = धोई जाए। मूलि न = बिल्कुल नहीं।10।
अर्थ: हे भाई! वह शरीर अपवित्र है जिसको अहंकार की मैल लगी हुई है। अगर (ऐसे शरीर को तीर्थों आदि पर लोग) सौ-सौ बार भी धोते रहें, तो भी इसकी मैल दूर नहीं होती। (यदि मनुष्य का हृदय) गुरु के शब्द से धोया जाए, तो शरीर पवित्र हो जाता है, दोबारा शरीर (अहंकार की मैल से) कभी गंदा नहीं होता।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच दूत काइआ संघारहि ॥ मरि मरि जमहि सबदु न वीचारहि ॥ अंतरि माइआ मोह गुबारा जिउ सुपनै सुधि न होई हे ॥११॥
मूलम्
पंच दूत काइआ संघारहि ॥ मरि मरि जमहि सबदु न वीचारहि ॥ अंतरि माइआ मोह गुबारा जिउ सुपनै सुधि न होई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। संघारहि = नाश करते रहते हैं। मरि = मर के। मरि मरि = मर मर के, बार बार मर के। जंमहि = पैदा होते हैं। वीचारहि = (बहुवचन) विचारते। गुबारा = अंधेरा। सुधि = सूझ।11।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने मन में नहीं बसाते, कामादिक पाँचों वैरी उनके शरीर को गलाते रहते हैं; और वे जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। उनके अंदर माया के मोह का अंधेरा पड़ा रहता है, उनको अपने आप की सूझ नहीं होती, वे ऐसे हैं जैसे सपने में हैं।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि पंचा मारि सबदि है लागे ॥ सतिगुरु आइ मिलिआ वडभागे ॥ अंतरि साचु रवहि रंगि राते सहजि समावै सोई हे ॥१२॥
मूलम्
इकि पंचा मारि सबदि है लागे ॥ सतिगुरु आइ मिलिआ वडभागे ॥ अंतरि साचु रवहि रंगि राते सहजि समावै सोई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। मारि = मार के। सबदि = शब्द में। आइ = आ के। अंतरि = हृदय में। साचु = सदा स्थिर प्रभु। रवहि = स्मरण करते हैं। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावै = लीन हो जाता है। सोई = वही मनुष्य।12।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे भाग्यशाली हैं, जिनको गुरु आ मिला है, वे कामादिक पाँचों को मार के गुरु के शब्द में लीन रहते हैं; अपने हृदय में सदा-स्थिर प्रभु को याद करते रहते हैं, वे प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। (हे भाई! जो मनुष्य प्रेम-रंग में रंगा जाता है) वही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की चाल गुरू ते जापै ॥ पूरा सेवकु सबदि सिञापै ॥ सदा सबदु रवै घट अंतरि रसना रसु चाखै सचु सोई हे ॥१३॥
मूलम्
गुर की चाल गुरू ते जापै ॥ पूरा सेवकु सबदि सिञापै ॥ सदा सबदु रवै घट अंतरि रसना रसु चाखै सचु सोई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चाल = जीवन चाल, जीवन जुगति। ते = से। जापै = सीखी जा सकती है। सबदि = शब्द से, शब्द में जुड़ने से ही। सिञापै = पहचाना जाता है। रवै = बसाए रखता है। घट अंतरि = हृदय में। रसना = जीभ से। रसु सचु = सदा स्थिर रस, सदा स्थिर नाम रस। चाखै = चखता है (एकवचन)।13।
अर्थ: हे भाई! गुरु वाली जीवन-जुगति गुरु से ही सीखी जा सकती है। गुरु के शब्द में जुड़ा हुआ मनुष्य ही पूरन सेवक पहचाना जाता है; वही मनुष्य अपनी जीभ से सदा-स्थिर नाम-रस चखता रहता है और अपने हृदय में गुरु का शब्द सदा बसाए रखता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै मारे सबदि निवारे ॥ हरि का नामु रखै उरि धारे ॥ एकसु बिनु हउ होरु न जाणा सहजे होइ सु होई हे ॥१४॥
मूलम्
हउमै मारे सबदि निवारे ॥ हरि का नामु रखै उरि धारे ॥ एकसु बिनु हउ होरु न जाणा सहजे होइ सु होई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारे = समाप्त कर देता है। सबदि = शब्द से। निवारे = स्वै भाव दूर करता है। उरि = हृदय में। रखै धारे = टिकाए रखता है। हउ = मैं। जाणा = मैं जानता। सहजे = अडोलता में, रज़ा में ही।14।
अर्थ: हे भाई! (पूर्ण सेवक) गुरु के शब्द के माध्यम से अपने अहंकार को मार मुकाता है, स्वै भाव को दूर कर देता है, और परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखता है। (पूर्ण सेवक यही यकीन रखता है:) एक परमात्मा के बिना मैं किसी और को (उस जैसा) नहीं समझता, जो कुछ उसकी रज़ा में हो रहा है वही ठीक हो रहा है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सतिगुर सहजु किनै नही पाइआ ॥ गुरमुखि बूझै सचि समाइआ ॥ सचा सेवि सबदि सच राते हउमै सबदे खोई हे ॥१५॥
मूलम्
बिनु सतिगुर सहजु किनै नही पाइआ ॥ गुरमुखि बूझै सचि समाइआ ॥ सचा सेवि सबदि सच राते हउमै सबदे खोई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। किनै = किसी ने भी। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सेवि = स्मरण करके। सबदि सच = सच्चे शब्द में, सदा स्थिर की महिमा की वाणी मैं। राते = मस्त। सबदे = शब्द द्वारा ही।15।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण के बिना किसी मनुष्य ने आत्मिक अडोलता प्राप्त नहीं की। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही इसको समझता है और सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की वाणी में रति हुए मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण कर के गुरु के शब्द के द्वारा ही अहंकार दूर कर लेते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे गुणदाता बीचारी ॥ गुरमुखि देवहि पकी सारी ॥ नानक नामि समावहि साचै साचे ते पति होई हे ॥१६॥२॥
मूलम्
आपे गुणदाता बीचारी ॥ गुरमुखि देवहि पकी सारी ॥ नानक नामि समावहि साचै साचे ते पति होई हे ॥१६॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (तू) स्वयं ही। बीचारी = विचार के, योग्य समझ के। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। देवहि = तू देता है। पकी सारी = पक्की नर्दें, जीवन खेल में माहिर। नामि साचै = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। समावहि = लीन रहते हैं। ते = से। पति = इज्जत।16।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही (योग्य पात्र) विचार के (जीवों को अपने) गुणों की दाति देने वाला है; जिन्हें तू गुरु के द्वारा (अपने गुणों की दाति) देता है वे इस जीवन-खेल में माहिर हो जाते हैं। हे नानक1 वह मनुष्य नाम में लीन रहते हैं, सदा-स्थिर प्रभु से ही उनको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है।16।2।
[[1046]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ जगजीवनु साचा एको दाता ॥ गुर सेवा ते सबदि पछाता ॥ एको अमरु एका पतिसाही जुगु जुगु सिरि कार बणाई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ जगजीवनु साचा एको दाता ॥ गुर सेवा ते सबदि पछाता ॥ एको अमरु एका पतिसाही जुगु जुगु सिरि कार बणाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जग जीवन = जगत का जीवन, जगत का सहारा। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। ते = से। सबदि = गुरु के शब्द से। पछाता = पहचाना जाता है। अमरु = हुक्म। पतिसाही = राज। जुगु जुगु = हरेक युग में। सिरि = (हरेक जीव के) सिर पर। कार बणाई = करने योग्य कार निश्चित की हुई है।1।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सदा कायम रहने वाला है और (सारे) जगत का सहारा है, वही सब जीवों को दातें देने वाला है। गुरु की शरण पड़ने से, गुरु के शब्द से ही उसके साथ गहरी सांझ पड़ सकती है। उसी का ही (जगत में) हुक्म चल रहा है, उसी की ही (जगत में) राज सत्ता है। हरेक युग में हरेक जीव के सिर पर वही परमात्मा करने योग्य कार निश्चित करता आ रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो जनु निरमलु जिनि आपु पछाता ॥ आपे आइ मिलिआ सुखदाता ॥ रसना सबदि रती गुण गावै दरि साचै पति पाई हे ॥२॥
मूलम्
सो जनु निरमलु जिनि आपु पछाता ॥ आपे आइ मिलिआ सुखदाता ॥ रसना सबदि रती गुण गावै दरि साचै पति पाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। पछाता = पड़ताला। आपे = आप ही। आइ = आ के। रसना = जीभ। सबदि = शब्द में। रती = रंगी हुई। गावै = गाता है (एकवचन)। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। पति = इज्जत।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना आरम्भ कर दिया, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन गया, सारे सुख देने वाला परमात्मा खुद ही उस मनुष्य से आ मिलता है। गुरु के शब्द में रति हुई उस मनुष्य की जीभ सदा परमात्मा के गुण गाती रहती है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा के दर पर इज्जत प्राप्त करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नामि मिलै वडिआई ॥ मनमुखि निंदकि पति गवाई ॥ नामि रते परम हंस बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि नामि मिलै वडिआई ॥ मनमुखि निंदकि पति गवाई ॥ नामि रते परम हंस बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नामि = नाम से। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। निंदकि = निंदक ने। नामि = नाम मे। परम हंस = सबसे ऊँचे हंस (दूध और पानी को अपनी चोंच से अलग अलग कर सकने वाले हँस की तरह भलाई और बुराई की परख कर सकने वाले मनुष्य)। बैरागी = माया से उपराम। निज घरि = अपने (असल) घर में।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हरि-नाम की इनायत से (लोक-परलोक में) नाम कमाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले निंदक मनुष्य ने (सब जगह अपनी) इज्जत गवा ली है। हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगे रहने वाले मनुष्य परम हँस हैं, (असल) बैरागी हैं, वे हर वक्त परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़े रखते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि मरै सोई जनु पूरा ॥ सतिगुरु आखि सुणाए सूरा ॥ काइआ अंदरि अम्रित सरु साचा मनु पीवै भाइ सुभाई हे ॥४॥
मूलम्
सबदि मरै सोई जनु पूरा ॥ सतिगुरु आखि सुणाए सूरा ॥ काइआ अंदरि अम्रित सरु साचा मनु पीवै भाइ सुभाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। मरै = (जो मनुष्य विकारों से) मरता है। आखि = कह के। सूरा = शूरवीर, सूरमा। काइआ = काया, शरीर। अंम्रित सरु = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल का तालाब (चश्मा)। साचा = सदा कायम रहने वाला। पीवै = पीता है। भाइ = भाय, प्यार से। सुभाई = सुभाय, प्रेम से।4।
अर्थ: हे भाई! (विकारों का मुकाबला सफलता के साथ करने वाले) शूरवीर गुरु ने कह कर (हरेक प्राणी को) सुना दिया है कि जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के विकारों की मार से बचा रहता है, (विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता, विकारों से विरक्त हुआ, विकारों की तरफ से मरा हुआ) वही मनुष्य पूर्ण है। हे भाई! उस मनुष्य के शरीर में ही सदा-स्थिर प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का चश्मा है (जिसमें से) उसका मन बड़े प्रेम-प्यार से (नाम-जल) पीता रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पड़ि पंडितु अवरा समझाए ॥ घर जलते की खबरि न पाए ॥ बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ पड़ि थाके सांति न आई हे ॥५॥
मूलम्
पड़ि पंडितु अवरा समझाए ॥ घर जलते की खबरि न पाए ॥ बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ पड़ि थाके सांति न आई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़ि = पढ़ के। पंडितु = (एकवचन)। अवरा = और लोगों को। जलते की = जल रहें की। न पाईऐ = नहीं पाया जा सकता।5।
अर्थ: हे भाई! पंडित (धर्म पुस्तकें) पढ़ के और लोगों को समझाता है, पर (माया की तृष्णा-आग से अपना हृदय-) घर जल रहे का उसको पता नहीं लगता। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा का नाम नहीं मिलता (नाम के बिना हृदय में ठंड नहीं पड़ सकती)। पंडित लोग (और लोगों को उपदेश करने के लिए धर्म पुस्तक) पढ़-पढ़ के थक गए, उनके अंदर शांति पैदा ना हुई।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि भसम लगाइ फिरहि भेखधारी ॥ बिनु सबदै हउमै किनि मारी ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती भरमि भेखि भरमाई हे ॥६॥
मूलम्
इकि भसम लगाइ फिरहि भेखधारी ॥ बिनु सबदै हउमै किनि मारी ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती भरमि भेखि भरमाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। लगाइ = लगाय, लगा के। भेख धारी = साधूओं वाला पहरावा बरतने वाले। किनि = किसने? अनदिनु = हर रोज। भरमि = भटकना में। भेखि = धार्मिक पहरावे में।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो साधूओं वाला पहिरावा पहन के (शरीर पर) राख मल के चलते फिरते हैं। पर गुरु के शब्द के बिना कोई भी मनुष्य अहंकार खत्म नहीं कर सका। (साधु-भेस में होते हुए भी) वह हर-वक्त दिन-रात (तृष्णा की आग में) जलते फिरते हैं, वह भ्रम में भेस के भुलेखे में भटकते फिरते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि ग्रिह कुट्मब महि सदा उदासी ॥ सबदि मुए हरि नामि निवासी ॥ अनदिनु सदा रहहि रंगि राते भै भाइ भगति चितु लाई हे ॥७॥
मूलम्
इकि ग्रिह कुट्मब महि सदा उदासी ॥ सबदि मुए हरि नामि निवासी ॥ अनदिनु सदा रहहि रंगि राते भै भाइ भगति चितु लाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदासी = निर्मोह। मुए = दुनिया से मरे हुए। नामि = नाम में। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। भै = अदब से। भाइ = प्रेम से।7।
अर्थ: पर, हे भाई! कई ऐसे हैं जो गृहस्थ में परिवार में (रहते हुए ही) सदा निर्मोह हैं, वह गुरु के शब्द की इनायत से माया के मोह से मरे हुए हैं, वह सदा प्रभु के नाम में लीन रहते हैं। वे हर वक्त सदा ही प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं; प्रभु के अदब और प्यार के सदका वह प्रभु की भक्ति में चिक्त जोड़े रखते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु निंदा करि करि विगुता ॥ अंतरि लोभु भउकै जिसु कुता ॥ जमकालु तिसु कदे न छोडै अंति गइआ पछुताई हे ॥८॥
मूलम्
मनमुखु निंदा करि करि विगुता ॥ अंतरि लोभु भउकै जिसु कुता ॥ जमकालु तिसु कदे न छोडै अंति गइआ पछुताई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। करि = कर के। विगुता = दुखी होता है। अंतरि जिसु = जिस के अंदर। भउकै = भौंकता है, और माया माँगता है। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। अंति = आखिर में।8।
अर्थ: हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य (दूसरों की) निंदा कर कर के दुखी होता रहता है, उसके अंदर लोभ जोर डाले रखता है, जैसे कुक्ता (नित्य) भौंकता रहता है। हे भाई! आत्मिक मौत ऐसे मनुष्य की कभी मुक्ति नहीं करती, आखिर में मरने के वक्त भी वह यहां से हाथ मलता ही जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचै सबदि सची पति होई ॥ बिनु नावै मुकति न पावै कोई ॥ बिनु सतिगुर को नाउ न पाए प्रभि ऐसी बणत बणाई हे ॥९॥
मूलम्
सचै सबदि सची पति होई ॥ बिनु नावै मुकति न पावै कोई ॥ बिनु सतिगुर को नाउ न पाए प्रभि ऐसी बणत बणाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द में (लीन होने से)। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा में जुड़ने से। सची = सदा स्थिर रहने वाली। पति = इज्जत। मुकति = (लोभ आदि विकारों से) मुक्ति। को = कोई मनुष्य। प्रभि = प्रभु ने। बणत = मर्यादा।9।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने ऐसी मर्यादा बना रखी है कि गुरु (की शरण पड़े) बिना कोई मनुष्य प्रभु का नाम प्राप्त नहीं कर सकता, और, नाम (जपे) बिना कोई मनुष्य (लोभ आदि विकारों से) निजात नहीं पा सकता। सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में जुड़ने से सदा कायम रहने वाली इज्जत मिल जाती है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि सिध साधिक बहुतु वीचारी ॥ इकि अहिनिसि नामि रते निरंकारी ॥ जिस नो आपि मिलाए सो बूझै भगति भाइ भउ जाई हे ॥१०॥
मूलम्
इकि सिध साधिक बहुतु वीचारी ॥ इकि अहिनिसि नामि रते निरंकारी ॥ जिस नो आपि मिलाए सो बूझै भगति भाइ भउ जाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। सिध = सिद्ध, योग साधनों में माहिर जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। वीचारी = चर्चा करने वाले। अहि = दिन। निसि = रात। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। बूझै = (सही जीवन-राह) समझता है। भाइ = प्रेम से।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई (ऐसे हैं जो) योग-साधना में माहिर जोगी (कहलवाते) हैं, कई (अभी) जोग-साधना कर रहे हैं, कई चर्चा (आदि) करने वाले हैं। कई दिन-रात निरंकार के नाम में रंगे रहते हैं। जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं अपने चरणों में जोड़ लेता है वह (सही जीवन-राह) समझ लेता है। प्रभु की भक्ति और प्रभु के प्रेम की इनायत से (उसके अंदर से) हरेक किस्म का डर दूर हो जाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसनानु दानु करहि नही बूझहि ॥ इकि मनूआ मारि मनै सिउ लूझहि ॥ साचै सबदि रते इक रंगी साचै सबदि मिलाई हे ॥११॥
मूलम्
इसनानु दानु करहि नही बूझहि ॥ इकि मनूआ मारि मनै सिउ लूझहि ॥ साचै सबदि रते इक रंगी साचै सबदि मिलाई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = करते हैं (बहुवचन)। बूझहि = समझे। मनूआ = अनुचित मन। मारि = मार के। मनै सिउ = मन ही से। लूझहि = युद्ध करते हैं। इक रंगी = एक (प्रभु) के प्रेम रंग वाले।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘बूझहि’ है बूझै’ का बहुवचन (‘बूझै’ है एकवचन)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! अनेक प्राणी तीर्थों पर स्नान करते हैं, दान करते हैं (पर इन कर्मों से वे सही जीवन-राह) नहीं समझ सकते। कई ऐसे हैं जो अपने मन को (विकारों की तरफ से) मार के सदा मन के साथ ही युद्ध करते रहते हैं। वे एक प्रभु के प्रेम-रंग वाले बँदे सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में रति रहते हैं। गुरु के शब्द के द्वारा सदा कायम रहने वाले परमात्मा में उनका मेल हुआ रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सिरजे दे वडिआई ॥ आपे भाणै देइ मिलाई ॥ आपे नदरि करे मनि वसिआ मेरै प्रभि इउ फुरमाई हे ॥१२॥
मूलम्
आपे सिरजे दे वडिआई ॥ आपे भाणै देइ मिलाई ॥ आपे नदरि करे मनि वसिआ मेरै प्रभि इउ फुरमाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही, आप ही। सिरजे = पैदा करता है। दे = देता है। भाणै = रजा में। देइ मिलाई = मिला देता है। नदरि = मेहर की निगाह। मनि = मन में। मेरै प्रभि = मेरे प्रभु ने।12।
अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के वश की बात नहीं)। प्रभु स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही इज्जत देता है; खुद ही अपनी रज़ा के अनुसार (जीवों को अपने चरणों में) जोड़ लेता है। प्रभु खुद ही मेहर की निगाह करता है और जीव के मन में आ बसता है; प्रभु ने ऐसा ही हुक्म कायम किया हुआ है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवहि से जन साचे ॥ मनमुख सेवि न जाणनि काचे ॥ आपे करता करि करि वेखै जिउ भावै तिउ लाई हे ॥१३॥
मूलम्
सतिगुरु सेवहि से जन साचे ॥ मनमुख सेवि न जाणनि काचे ॥ आपे करता करि करि वेखै जिउ भावै तिउ लाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = सेवा करते हैं, शरण पड़ते हैं। से = वह (बहुवचन)। साचे = ठहरे हुए आत्मिक जीवन वाले। मनमुख = मन के मुरीद व्यक्ति। सेवि न जाणनि = सेवा करनी नहीं जानते, शरण पड़ना नहीं जानते। काचे = कमजोर आत्मिक जीवन वाले। आपे = स्वयं ही। करि = कर के। जिउ भावै = जैसे उसको अच्छा लगे।13।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के दर पर पहुँचते हैं, वे मनुष्य ठहराव वाले आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। पर मन के मुरीद गुरु के दर पर पहुँचना नहीं जानते, वे कमजोर जीवन वाले रह जाते हैं। (पर, जीवों के भी क्या वश?) कर्तार स्वयं ही यह करिश्मे कर कर के देख रहा है। जैसे उसको अच्छा लगता है, वह वैसे ही जीवों को कारे लगा रहा है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुगि जुगि साचा एको दाता ॥ पूरै भागि गुर सबदु पछाता ॥ सबदि मिले से विछुड़े नाही नदरी सहजि मिलाई हे ॥१४॥
मूलम्
जुगि जुगि साचा एको दाता ॥ पूरै भागि गुर सबदु पछाता ॥ सबदि मिले से विछुड़े नाही नदरी सहजि मिलाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगि = युग में। जुगि जुगि = हरेक युग में। साचा = सदा कायम रहने वाला। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। गुर सबदु = गुरु का शब्द। पछाता = कद्र समझता है। सबदि = शब्द में। नदरी = मेहर की निगाह से। सहजि = आत्मिक अडोलता में।14।
अर्थ: हे भाई! हरेक युग में सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही (नाम की दाति) देने वाला है। (जिसको यह दाति देता है वह मनुष्य) बड़ी किस्मत से गुरु के शब्द (की कद्र) को समझ लेता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में लीन हो जाते हैं वे वहाँ से फिर विछुड़ते नहीं। हे भाई! प्रभु उन्हें अपनी मेहर की निगाह से आत्मिक अडोलता में मिलाए रखता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै माइआ मैलु कमाइआ ॥ मरि मरि जमहि दूजा भाइआ ॥ बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई मनि देखहु लिव लाई हे ॥१५॥
मूलम्
हउमै माइआ मैलु कमाइआ ॥ मरि मरि जमहि दूजा भाइआ ॥ बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई मनि देखहु लिव लाई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मैलु = विकारों की मैल। कमाइआ = इकट्ठी की। मरि = मर के। मरि मरि = बार बार मर के। जंमहि = पैदा होते हैं (बहुवचन)। दूजा = दूसरा पासा, माया का मोह। भाइआ = प्यारा लगता है। मुकति = मुक्ति, खलासी। मनि = मन मे। लाई = लगा के। मनि लिव लाई = मन में लगन लगा के, मन में गहरी विचार करके।15।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य माया के अहंकार के कारण विकारों की मैल इकट्ठी करते रहते हैं, वे सदा जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं, उन्हें वह दूसरा पासा ही प्यारा लगता है। पर, तुम बेशक अपने मन में गहरी विचार करके देख लो, गुरु की शरण पड़े बिना (विकारों की मैल से) निजात नहीं मिल सकती।15।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तिसु भावै सोई करसी ॥ आपहु होआ ना किछु होसी ॥ नानक नामु मिलै वडिआई दरि साचै पति पाई हे ॥१६॥३॥
मूलम्
जो तिसु भावै सोई करसी ॥ आपहु होआ ना किछु होसी ॥ नानक नामु मिलै वडिआई दरि साचै पति पाई हे ॥१६॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु = उस (प्रभु) को। भावै = अच्छा लगता है। करसी = वह करेगा। आपहु = अपने आप से, जीव के अपने उद्यम से। होसी = होगा। नानक = हे नानक! दरि साचै = सदा कायम रहने वाले प्रभु के दर पर।16।
अर्थ: हे भाई! (ये सारी जगत-खेल प्रभु के हाथ में है) जो कुछ उसको अच्छा लगता है, वही वह करेगा। जीव के अपने प्रयासों से ना अब तक कुछ हो सका है ना ही आगे कुछ हो सकेगा। हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मिल जाता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पर आदर प्राप्त करता है।16।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ जो आइआ सो सभु को जासी ॥ दूजै भाइ बाधा जम फासी ॥ सतिगुरि राखे से जन उबरे साचे साचि समाई हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ जो आइआ सो सभु को जासी ॥ दूजै भाइ बाधा जम फासी ॥ सतिगुरि राखे से जन उबरे साचे साचि समाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। जासी = चला जाएगा। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) अन्य के प्यार में। भाइ = भाय, प्यार। बाधा = बँधा हुआ। जम = मौत, आत्मिक मौत। सतिगुरि = गुरु ने। उबरे = बच गए। साचे = साचि, सदा स्थिर प्रभु में।1।
अर्थ: हे भाई! जो भी जीव (जगत में) पैदा होता है वह हरेक ही (अवश्य इस जगत से) कूच (भी) कर जाता है, (पर) माया के मोह के कारण (जीव) आत्मिक मौत के बंधनो में बँध जाता है। गुरु ने जिनकी रक्षा की, वह मनुष्य (माया के मोह से) बच निकलते हैं; वे सदा ही सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता करि करि वेखै ॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥ गुरमुखि गिआनु तिसु सभु किछु सूझै अगिआनी अंधु कमाई हे ॥२॥
मूलम्
आपे करता करि करि वेखै ॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥ गुरमुखि गिआनु तिसु सभु किछु सूझै अगिआनी अंधु कमाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। लेखै = लेख में, प्रवानगी में। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। अंधु = अंधों वाला काम।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (ये सारा खेल) कर्तार स्वयं ही कर कर के देख रहा है; जिस मनुष्य पर वह मेहर की निगाह करता है वही मनुष्य उसकी परवानगी में है। जिस मनुष्य को गुरु के द्वारा आत्मिक जीवन की सूझ पड़ जाती है उसको (आत्मिक जीवन के बारे में) हरेक बात की समझ आ जाती है। ज्ञान से वंचित मनुष्य अंधों वाले काम ही करता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख सहसा बूझ न पाई ॥ मरि मरि जमै जनमु गवाई ॥ गुरमुखि नामि रते सुखु पाइआ सहजे साचि समाई हे ॥३॥
मूलम्
मनमुख सहसा बूझ न पाई ॥ मरि मरि जमै जनमु गवाई ॥ गुरमुखि नामि रते सुखु पाइआ सहजे साचि समाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = सहम। बूझ = (आत्मिक जीवन की) सूझ। मरि = मर के। जंमै = पैदा होता है (एकवचन)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। नामि = नाम में। सहसे = आत्मिक अडोलता में। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।
अर्थ: हे भाई! मन के मुरीद मनुष्य को (हर वक्त कोई ना कोई) सहम (खाए जाता है, क्योंकि) उसको आत्मिक जीवन की समझ नहीं होती वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, वह अपना मानव जन्म व्यर्थ गवा जाता है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, वे आत्मिक आनंद पाते हैं, वे आत्मिक अडोलता में सदा-स्थिर प्रभु में हर वक्त टिके रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंधै धावत मनु भइआ मनूरा ॥ फिरि होवै कंचनु भेटै गुरु पूरा ॥ आपे बखसि लए सुखु पाए पूरै सबदि मिलाई हे ॥४॥
मूलम्
धंधै धावत मनु भइआ मनूरा ॥ फिरि होवै कंचनु भेटै गुरु पूरा ॥ आपे बखसि लए सुखु पाए पूरै सबदि मिलाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंधै = धंधे में, दुनिया की व्यस्तता में। धावत = दौड़ते हुए। मनूरा = जला हुआ लोहे का चूरा। कंचन = सोना। भेटै = मिलता है। पूरै सबदि = पूरन प्रभु की महिमा में।4।
अर्थ: हे भाई! दुनियां के धंधों में दौड़-भाग करते हुए मनुष्य जला हुआ लोहा बन जाता है (ऐसे जला रहता है जैसे जला हुआ लोहा), पर जब उसे पूरा गुरु मिलता है, तब वह दोबारा (शुद्ध) सोना बन जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं बख्शिश करता है वह मनुष्य आत्मिक आनंद पाता है, वह पूरन प्रभु की महिमा में लीन रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरमति झूठी बुरी बुरिआरि ॥ अउगणिआरी अउगणिआरि ॥ कची मति फीका मुखि बोलै दुरमति नामु न पाई हे ॥५॥
मूलम्
दुरमति झूठी बुरी बुरिआरि ॥ अउगणिआरी अउगणिआरि ॥ कची मति फीका मुखि बोलै दुरमति नामु न पाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरमति = खोटी मति वाली जीव-स्त्री। बुरी = खराब। बुरिआरि = बुराई का ठिकाना। अउगणिआरी = अवगुणों भरी। कची = कमजोर, सदा बहकने वाली। मुखि = मुँह से।5।
अर्थ: हे भाई! खोटी मति वाली जीव-स्त्री झूठ में बुराई में मस्त रहती है, वह बुराई का अड्डा बनी रहती है, वह सदा ही अवगुणों से भरी रहती है। उसकी मति सदा (विकारों में) बहकती है, वह मुँह से कठोर वचन बोलती है, खोटी मति के कारण उसको परमात्मा का नाम नसीब नहीं होता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउगणिआरी कंत न भावै ॥ मन की जूठी जूठु कमावै ॥ पिर का साउ न जाणै मूरखि बिनु गुर बूझ न पाई हे ॥६॥
मूलम्
अउगणिआरी कंत न भावै ॥ मन की जूठी जूठु कमावै ॥ पिर का साउ न जाणै मूरखि बिनु गुर बूझ न पाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंत न भावै = कंत को पसंद नहीं आती। जूठी = गंदी। जूठु = गंद, गंदा काम। साउ = आनंद। मूरखि = (स्त्रीलिंग) मूर्ख जीव-स्त्री। बूझ = (आत्मिक जीवन की) समझ।6।
अर्थ: हे भाई! अवगुण-भरी जीव-स्त्री पति-प्रभु को अच्छी नहीं लगती, मन की गंदी वह जीव-स्त्री सदा गंदा काम ही करती है, वह मूर्ख जीव-स्त्री पति-रूप के मिलाप का आनंद नहीं जानती। गुरु के बिना उसको आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरमति खोटी खोटु कमावै ॥ सीगारु करे पिर खसम न भावै ॥ गुणवंती सदा पिरु रावै सतिगुरि मेलि मिलाई हे ॥७॥
मूलम्
दुरमति खोटी खोटु कमावै ॥ सीगारु करे पिर खसम न भावै ॥ गुणवंती सदा पिरु रावै सतिगुरि मेलि मिलाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोटु = खोटा काम। सीगारु = श्रृंगार, शारीरिक सजावट। पिर न भावै = पिर को नहीं भाती। रावै = मिला रहता है। सतिगुरि = गुरु ने। मिलि = (अपने साथ) मिला के।7।
अर्थ: हे भाई! खोटी मति वाली जीव-स्त्री सदा खोट से भरी रहती है सदा खोट ही कमाती है (खोटा काम करती है), (दुराचारिन स्त्री की तरह वह बाहर से धार्मिक) सजावट करती है, पर पति-प्रभु को पसंद नहीं आती। गुणवान जीव-स्त्री को पति-प्रभु सदा मिला रहता है, उसको गुरु (-चरणों) में मिला के (अपने साथ) मिलाए रखता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे हुकमु करे सभु वेखै ॥ इकना बखसि लए धुरि लेखै ॥ अनदिनु नामि रते सचु पाइआ आपे मेलि मिलाई हे ॥८॥
मूलम्
आपे हुकमु करे सभु वेखै ॥ इकना बखसि लए धुरि लेखै ॥ अनदिनु नामि रते सचु पाइआ आपे मेलि मिलाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = हर जगह। लेखै बखसि लए = लेखे में बख्श लेता है, लेखा नहीं पूछता। अनदिनु = हर रोज। नामि = नाम में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। आपे = स्वयं ही।8।
अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा हर जगह स्वयं ही हुक्म कर के (अपने प्रेरित किए हुए जीवों का हरेक काम) देख रहा है। धुर से अपने हुक्म में ही कई जीवों को लेखे में बख्श लेता है; वह जीव हर वक्त उसके नाम में रंगे रहते हैं, उन्हें वह सदा-स्थिर प्रभु मिला रहता है। प्रभु स्वयं ही उनको (गुरु से) मिला के अपने चरणों में जोड़े रखता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै धातु मोह रसि लाई ॥ गुरमुखि लिव साची सहजि समाई ॥ आपे मेलै आपे करि वेखै बिनु सतिगुर बूझ न पाई हे ॥९॥
मूलम्
हउमै धातु मोह रसि लाई ॥ गुरमुखि लिव साची सहजि समाई ॥ आपे मेलै आपे करि वेखै बिनु सतिगुर बूझ न पाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धातु = माया। मोह रसि = मोह के रस में। साची लिव = सदा स्थिर रहने वाली लगन। सहजि = आत्मिक अडोलता में। आपे = (प्रभु) स्वयं ही। करि = कर के।9।
अर्थ: हे भाई! माया (जीव को) अहंकार में मोह के रस में लगाए रखती है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को प्रभु-चरणों की सदा-स्थिर लगन आत्मिक अडोलता में टिकाए रखती है। पर, हे भाई! प्रभु स्वयं ही (जीव को अपने चरणों में) जोड़ता है, स्वयं ही यह खेल करके देख रहा है; ये समझ गुरु के बिना नहीं पड़ती।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि सबदु वीचारि सदा जन जागे ॥ इकि माइआ मोहि सोइ रहे अभागे ॥ आपे करे कराए आपे होरु करणा किछू न जाई हे ॥१०॥
मूलम्
इकि सबदु वीचारि सदा जन जागे ॥ इकि माइआ मोहि सोइ रहे अभागे ॥ आपे करे कराए आपे होरु करणा किछू न जाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। इकि जन = कई मनुष्य। इकि अभागे = कई बद्किस्मत जीव। मोहि = मोह में। करणा न जाई = किया नहीं जा सकता।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे मनुष्य हैं जो गुरु के शब्द को विचार के (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं, कई ऐसे बद्किस्मत हैं जो सदा माया के मोह में गाफिल हुए रहते हैं। (पर, जीवों के भी क्या वश?) प्रभु खुद ही (सबमें व्यापक हो के सब कुछ) करता है, खुद ही (जीवों से) करवाता है (उसकी रजा के विरुद्ध) और कुछ भी किया नहीं जा सकता।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालु मारि गुर सबदि निवारे ॥ हरि का नामु रखै उर धारे ॥ सतिगुर सेवा ते सुखु पाइआ हरि कै नामि समाई हे ॥११॥
मूलम्
कालु मारि गुर सबदि निवारे ॥ हरि का नामु रखै उर धारे ॥ सतिगुर सेवा ते सुखु पाइआ हरि कै नामि समाई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कालु = मौत, आत्मिक मौत। सबदि = शब्द से। निवारे = (स्वै भाव) दूर करता है। उर = हृदय। धारे राखै = बसाए रखता है। ते = से। नामि = नाम में। कै नामि = के नाम में।11।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से आत्मिक मौत को मार के (अपने अंदर से स्वै भाव) दूर करता है, और परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखता है, वह मनुष्य गुरु की शरण की इनायत से आत्मिक आनंद पाता है, परमात्मा के नाम में सदा टिका रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूजै भाइ फिरै देवानी ॥ माइआ मोहि दुख माहि समानी ॥ बहुते भेख करै नह पाए बिनु सतिगुर सुखु न पाई हे ॥१२॥
मूलम्
दूजै भाइ फिरै देवानी ॥ माइआ मोहि दुख माहि समानी ॥ बहुते भेख करै नह पाए बिनु सतिगुर सुखु न पाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजै भाइ = माया के प्यार में। देवानी = पागल हुई दुनिया। माहि = में। समानी = ग्रसी रहती है। भेख = धार्मिक पहरावे।12
अर्थ: हे भाई! जो जीव-स्त्री माया के मोह में झल्ली हुई भटकती फिरती है वह माया के मोह में और दुखों में ग्रसी रहती है; अगर वह बहुत सारे धार्मिक पहिरावे भी धारण कर ले, वह सुख प्राप्त नहीं कर सकती, गुरु की शरण पड़े बिना वह सुख नहीं मिल सकता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किस नो कहीऐ जा आपि कराए ॥ जितु भावै तितु राहि चलाए ॥ आपे मिहरवानु सुखदाता जिउ भावै तिवै चलाई हे ॥१३॥
मूलम्
किस नो कहीऐ जा आपि कराए ॥ जितु भावै तितु राहि चलाए ॥ आपे मिहरवानु सुखदाता जिउ भावै तिवै चलाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। जितु = जिस पर। जितु राहि = जिस राह पर। तितु राहि = उस राह पर। भावै = उसको अच्छा लगता है।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस नो’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जब (परमात्मा) स्वयं (ही जीवों से सब कुछ) करवा रहा है, तो उसके बिना किसी और के पास पुकार नहीं की जा सकती। जिस राह पर चलाना उसको अच्छा लगता है उस राह पर ही (जीवों को) चलाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता आपे भुगता ॥ आपे संजमु आपे जुगता ॥ आपे निरमलु मिहरवानु मधुसूदनु जिस दा हुकमु न मेटिआ जाई हे ॥१४॥
मूलम्
आपे करता आपे भुगता ॥ आपे संजमु आपे जुगता ॥ आपे निरमलु मिहरवानु मधुसूदनु जिस दा हुकमु न मेटिआ जाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = पैदा करने वाला। भुगता = (जीवों में बैठ के) भोगने वाला। संजमु = परहेज, संकोच। जुगता = (सब पदार्थों में) मिला हुआ। मधु सूदन = (मधू दैत्य को मारने वाला, दैत्यों का नाश करने वाला) दुष्ट दमन परमात्मा।14।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस दा’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दा’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्म स्वयं ही (जीवों को) पैदा करने वाला है, खुद ही (जीवों में बैठ के पदार्थों को) भोगने वाला है। प्रभु खुद ही (पदार्थों के भोगने से) परहेज (करने वाला) है, स्वयं ही सब जीवों में और पदार्थों में व्यापक है। वह स्वयं ही पवित्र है, स्वयं ही दया करने वाला है, स्वयं ही विकारियों का नाश करने वाला है, (वह ऐसा है) जिसके हुक्म की अवहेलना नहीं की जा सकती।14।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
से वडभागी जिनी एको जाता ॥ घटि घटि वसि रहिआ जगजीवनु दाता ॥ इक थै गुपतु परगटु है आपे गुरमुखि भ्रमु भउ जाई हे ॥१५॥
मूलम्
से वडभागी जिनी एको जाता ॥ घटि घटि वसि रहिआ जगजीवनु दाता ॥ इक थै गुपतु परगटु है आपे गुरमुखि भ्रमु भउ जाई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। जिनी = जिन्होंने। एको जाता = एक परमात्मा को ही (व्यापक) जाना है। घटि घटि = हरेक शरीर में। इकथै = किसी जगह में। गुपतु = छुपा हुआ। आपे = प्रभु स्वयं ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से।15।
अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जिन्होंने उस एक परमात्मा को (हर जगह) जाना है (जिन्होंने यह समझा है कि) जगत का सहारा दातार हरेक शरीर में बस रहा है। किसी जगह वह छुपा हुआ (बस रहा) है, किसी जगह प्रत्यक्ष दिखा दे रहा है; गुरु के द्वारा (ये निश्चय करके मनुष्य का) भ्रम और डर दूर हो जाता है (फिर ना कोई वैरी दिखता है और ना ही किसी से डर लगता है)।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि हरि जीउ एको जाता ॥ अंतरि नामु सबदि पछाता ॥ जिसु तू देहि सोई जनु पाए नानक नामि वडाई हे ॥१६॥४॥
मूलम्
गुरमुखि हरि जीउ एको जाता ॥ अंतरि नामु सबदि पछाता ॥ जिसु तू देहि सोई जनु पाए नानक नामि वडाई हे ॥१६॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। देहि = देता है। नामि = नाम में। वडाई = इज्जत।16।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है उसके अंदर प्रभु का नाम बसता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा को (हर जगह) पहचानता है।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस मनुष्य को तू अपना नाम देता है, वही मनुष्य तेरा नाम प्राप्त करता है। नाम से उसको (लोक-परलोक की) इज्जत प्राप्त होती है।16।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ सचु सालाही गहिर ग्मभीरै ॥ सभु जगु है तिस ही कै चीरै ॥ सभि घट भोगवै सदा दिनु राती आपे सूख निवासी हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ सचु सालाही गहिर ग्मभीरै ॥ सभु जगु है तिस ही कै चीरै ॥ सभि घट भोगवै सदा दिनु राती आपे सूख निवासी हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। सालाही = मैं महिमा करता हूँ। गहिर = गहरा, अथाह। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। कै चीरै = के पल्ले में, के हुक्म में। सभि = सारे। सभि घट भोगवै = सारे शरीरों को भोग रहा है, सारे शरीरों में मौजूद है। आपे = स्वयं ही। सूख निवासी = सुखों का निवास स्थान, सुखों का श्रोत।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मैं तो उस अथाह और बड़े जिगरे वाले परमात्मा की महिमा करता हूँ जो सदा कायम रहने वाला है, सारा जगत जिस के हुक्म में चल रहा है, जो सारे शरीर में मौजूद है और जो खुद ही सारे सुखों का श्रोत है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ आपे आइ वसिआ घट अंतरि तूटी जम की फासी हे ॥२॥
मूलम्
सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ आपे आइ वसिआ घट अंतरि तूटी जम की फासी हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। सची = सदा कायम रहने वाली। नाई = (स्ना) महिमा, बड़ाई। परसादी = कृपा से। मंनि = मन में। वसाई = बसाया जाता है। घट अंतरि = हृदय में। जम की फासी = मौत का फंदा, जनम मरण का चक्कर।2।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसकी महिमा भी सदा कायम रहने वाली है। गुरु की कृपा से उसको मन में बसाया जा सकता है। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु खुद ही (मेहर कर के) आ बसता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किसु सेवी तै किसु सालाही ॥ सतिगुरु सेवी सबदि सालाही ॥ सचै सबदि सदा मति ऊतम अंतरि कमलु प्रगासी हे ॥३॥
मूलम्
किसु सेवी तै किसु सालाही ॥ सतिगुरु सेवी सबदि सालाही ॥ सचै सबदि सदा मति ऊतम अंतरि कमलु प्रगासी हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवी = मैं शरण पड़ू। तै = और। सालाही = मैं सलाहूँ। सबदि = गुरु के शब्द से। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। कमलु = हृदय कमल फूल। प्रगासी = खिला रहता है।3।
अर्थ: (हे भाई! अगर तू पूछे कि) मैं किस की सेवा करता हूँ और किसकी महिमा करता हूँ (तो इसका उक्तर यह है कि) मैं सदा गुरु की शरण पड़ा रहता हूँ और गुरु के शब्द से (परमात्मा की) महिमा करता हूं। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी की इनायत से मनुष्य की बुद्धि सदा श्रेष्ठ रहती है और मनुष्य के अंदर उसका हृदय-कमल फूल खिला रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही काची कागद मिकदारा ॥ बूंद पवै बिनसै ढहत न लागै बारा ॥ कंचन काइआ गुरमुखि बूझै जिसु अंतरि नामु निवासी हे ॥४॥
मूलम्
देही काची कागद मिकदारा ॥ बूंद पवै बिनसै ढहत न लागै बारा ॥ कंचन काइआ गुरमुखि बूझै जिसु अंतरि नामु निवासी हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। काची = नाशवान। कागद मिकदारा = कागज़ की तरह। बारा = चिर, समय। कंचन = सोना, सोने की तरह सुंदर अरोग्य। काइआ = काया। गुरमुखि = गुरु से।4।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य का ये सारा शरीर कागज़ की तरह नाशवान है, (जैसे कागज़ के ऊपर पानी की एक) बूँद पड़ जाए तो (कागज़) गल जाता है (इसी तरह इस शरीर का) नाश होते हुए भी देर नहीं लगती। पर जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के (सही जीवन-राह) समझ लेता है जिस के अंदर परमात्मा का नाम बस जाता है, उसका ये शरीर (विकारों से बचा रह के) शुद्ध सोना बना रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा चउका सुरति की कारा ॥ हरि नामु भोजनु सचु आधारा ॥ सदा त्रिपति पवित्रु है पावनु जितु घटि हरि नामु निवासी हे ॥५॥
मूलम्
सचा चउका सुरति की कारा ॥ हरि नामु भोजनु सचु आधारा ॥ सदा त्रिपति पवित्रु है पावनु जितु घटि हरि नामु निवासी हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा (पवित्र) रहने वाला। कारा = लकीरें। भोजनु = खुराक। सचु = सदा स्थिर प्रभु। आधारा = आसरा, सहारा। त्रिपति = तृप्ति, संतोख। पावनु = पवित्र। जितु = जिस में। घटि = हृदय में। जितु घटि = जिस हृदय में।5।
अर्थ: हे भाई! जिस हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, वह हृदय (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहता है उसका हृदय सदा पवित्र है, वह हृदय ही सदा (स्वच्छ) रहने वाला चौका है, प्रभु-चरणों में बनी हुई लगन उस चौके की लकीरें हैं (जो विकारों को, बाहर से आ के चौके को भ्रष्ट करने से अपवित्र करने से रोकते हैं)। ऐसे हृदय की खुराक परमात्मा का नाम है, सदा स्थिर परमात्मा ही उस हृदय की खुराक है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ तिन बलिहारी जो साचै लागे ॥ हरि गुण गावहि अनदिनु जागे ॥ साचा सूखु सदा तिन अंतरि रसना हरि रसि रासी हे ॥६॥
मूलम्
हउ तिन बलिहारी जो साचै लागे ॥ हरि गुण गावहि अनदिनु जागे ॥ साचा सूखु सदा तिन अंतरि रसना हरि रसि रासी हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। तिन = उनसे। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। गावहि = (बहुवचन) गाते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागे = जाग हुए, (माया के हमलों की ओर से) सचेत रह के। अंतरि = अंदर। रसना = जीभ। रसि = रस में। रासी = रसी हुई, भीगी हुई।6।
अर्थ: हे भाई! मैं उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा में जुड़े रहते हैं, जो हर वक्त (माया के हमलों से) सचेत रह के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। उनके अंदर सदा टिके रहने वाला आनंद बना रहता है, उनकी जीभ नाम-रस में रसी रहती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि नामु चेता अवरु न पूजा ॥ एको सेवी अवरु न दूजा ॥ पूरै गुरि सभु सचु दिखाइआ सचै नामि निवासी हे ॥७॥
मूलम्
हरि नामु चेता अवरु न पूजा ॥ एको सेवी अवरु न दूजा ॥ पूरै गुरि सभु सचु दिखाइआ सचै नामि निवासी हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेता = मैं याद करता हूँ। पूजा = पूजूँ, मैं पूजा करता हूँ। सेवी = सेवा करूँ। पूरे गुरि = पूरे गुरु ने। सभु = हर जगह। सचै नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में।7।
अर्थ: हे भाई! मैं तो परमात्मा का नाम ही सदा याद करता हूँ, मैं किसी और की पूजा नहीं करता। मैं एक परमात्मा की ही सेवा-भक्ति करता हूँ, किसी और दूसरे की सेवा मैं नहीं करता। हे भाई! (जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने सदा कायम रहने वाला हरि परमात्मा हर जगह दिखा दिया, वह सदा-स्थिर प्रभु के नाम में लीन रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमि भ्रमि जोनी फिरि फिरि आइआ ॥ आपि भूला जा खसमि भुलाइआ ॥ हरि जीउ मिलै ता गुरमुखि बूझै चीनै सबदु अबिनासी हे ॥८॥
मूलम्
भ्रमि भ्रमि जोनी फिरि फिरि आइआ ॥ आपि भूला जा खसमि भुलाइआ ॥ हरि जीउ मिलै ता गुरमुखि बूझै चीनै सबदु अबिनासी हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। फिरि फिरि = बार बार। खसमि = पति ने। भूला = गलत राह पर पड़ गया। भुलाइआ = गलत रास्ते पर डाल दिया। जा = जब। ता = तब। गुरमुखि = गुरु से। चीनै = परखता है।8।
अर्थ: हे भाई! जीव भटक-भटक के बार-बार जूनियों में पड़ा रहता है, (जीव के भी क्या वश?) जब मालिक प्रभु ने इसे गलत राह पर डाल दिया, तो ये जीव भी भटक गया। हे भाई! जब परमात्मा इसको मिलता है (इस पर दया करता है) तब गुरु की शरण पड़ कर ये (सही जीवन-राह) समझता है, तब अविनाशी प्रभु की महिमा की वाणी को (अपने हृदय में) तोलता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामि क्रोधि भरे हम अपराधी ॥ किआ मुहु लै बोलह ना हम गुण न सेवा साधी ॥ डुबदे पाथर मेलि लैहु तुम आपे साचु नामु अबिनासी हे ॥९॥
मूलम्
कामि क्रोधि भरे हम अपराधी ॥ किआ मुहु लै बोलह ना हम गुण न सेवा साधी ॥ डुबदे पाथर मेलि लैहु तुम आपे साचु नामु अबिनासी हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम (के कीचड़) से। क्रोधि = क्रोध (के कीचड़) से। भरे = लिबड़े हुए। अपराधी = भूलनहार। बोलह = हम बोलें। लै = लेकर। किआ मुहु लै = कौन से मुँह ले के? किस मुँह से? बाधी = की। तुम आपे = तूने खुद ही। साचु = सदा स्थिर।9।
अर्थ: हे प्रभु! हम भूलनहार जीव काम-क्रोध (के कीचड़) से लिबड़े रहते हैं। तेरे आगे अर्ज करते हुए ही शर्म आती है। ना हमारे अंदर कोई गुण हैं, ना हमने कोई सेवा- भक्ति की है। (पर तू सदा दयालु है, मेहर कर) तू खुद हम डूब रहे पत्थरों को (विकारों में डूब रहे पत्थर-दिलों को) अपने नाम में लगा ले। तेरा नाम ही सदा अटल है और नाश रहित है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना कोई करे न करणै जोगा ॥ आपे करहि करावहि सु होइगा ॥ आपे बखसि लैहि सुखु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१०॥
मूलम्
ना कोई करे न करणै जोगा ॥ आपे करहि करावहि सु होइगा ॥ आपे बखसि लैहि सुखु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणै जोगा = कर सकने की सामर्थ्य वाला। आपे करहि = तू खुद ही करता है। बखसि लैहि = जिस पर तू दयावान होता है। नामि = नाम में। निवासी = निवास रखने वाला।10।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरी प्रेरणा के बिना) कोई भी जीव कुछ नहीं कर सकता, करने की सामर्थ्य भी नहीं रखता। जगत में वही कुछ हो सकता है जो तू खुद ही करता है और (जीवों से) करवाता है। जिस मनुष्य पर तू ही दयावान होता है, वह आत्मिक आनंद पाता है और सदा ही तेरे नाम में लीन रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु तनु धरती सबदु बीजि अपारा ॥ हरि साचे सेती वणजु वापारा ॥ सचु धनु जमिआ तोटि न आवै अंतरि नामु निवासी हे ॥११॥
मूलम्
इहु तनु धरती सबदु बीजि अपारा ॥ हरि साचे सेती वणजु वापारा ॥ सचु धनु जमिआ तोटि न आवै अंतरि नामु निवासी हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदु अपारा = बेअंत प्रभु की महिमा (का बीज)। बीज = (क्रिया)। सेती = साथ। सचु धनु = सदा कायम रहने वाला (नाम-) धन। जंमिआ = उग पड़ा, पैदा हो गया। तोटि = कमी। अंतरि = अंदर।11।
अर्थ: हे भाई! (अपने) इस शरीर को धरती बना, इस में बेअंत प्रभु की महिमा के बीज डाल। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ ही (उसके नाम का) वणज-व्यापार किया कर। (इस तरह) सदा कायम रहने वाला (नाम-) धन पैदा होता है, उसमें कभी कमी नहीं होती। (जो मनुष्य यह उद्यम करता है, उसके) अंदर परमात्मा का नाम सदा बसा रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ अवगणिआरे नो गुणु कीजै ॥ आपे बखसि लैहि नामु दीजै ॥ गुरमुखि होवै सो पति पाए इकतु नामि निवासी हे ॥१२॥
मूलम्
हरि जीउ अवगणिआरे नो गुणु कीजै ॥ आपे बखसि लैहि नामु दीजै ॥ गुरमुखि होवै सो पति पाए इकतु नामि निवासी हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु! नो = को। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सो = वह मनुष्य। पति = इज्जत। इकतु = एक में। नामि = नाम में। इकतु नामि = सिर्फ एक नाम में।12।
अर्थ: हे प्रभु जी! गुण-हीन जीव में गुण पैदा कर, तू स्वयं ही मेहर कर और इसको अपना नाम बख्श। हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह (लोक-परलोक में) इज्जत कमाता है; वह सदा प्रभु के नाम में लीन रहता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि हरि धनु समझ न होई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ गुरमुखि होवै सो धनु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१३॥
मूलम्
अंतरि हरि धनु समझ न होई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ गुरमुखि होवै सो धनु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। परसादी = कृपा से। कोई = कोई विरला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। पाए = पा लेता है। सद = सदा। नामि = नाम में।13।
अर्थ: हे भाई! हरेक मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम-धन मौजूद है, पर मनुष्य को ये समझ नहीं है। कोई विरला मनुष्य गुरु की कृपा से (यह भेद) समझता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (अपने अंदर यह) धन पा लेता है, फिर वह सदा ही नाम में टिका रहता है।13।
[[1049]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनल वाउ भरमि भुलाई ॥ माइआ मोहि सुधि न काई ॥ मनमुख अंधे किछू न सूझै गुरमति नामु प्रगासी हे ॥१४॥
मूलम्
अनल वाउ भरमि भुलाई ॥ माइआ मोहि सुधि न काई ॥ मनमुख अंधे किछू न सूझै गुरमति नामु प्रगासी हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनल = आग, तृष्णा की आग। वाउ = हवा, तृष्णा का झख्खड़। भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत रास्ते पर पड़ जाता है। मोहि = मोह के कारण। सुधि = सूझ, आत्मिक जीवन की सूझ। काई = रक्ती भर भी। मनमुख = मन के मुरीद को। गुरमति = गुरु की मति पर चलने से।14।
अर्थ: हे भाई! (जगत में तृष्णा की) आग (जल रही है), (तृष्णा का) तूफान (मच रहा है), भटकना में पड़ कर मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। माया के मोह के कारण मनुष्य को रक्ती भर भी (इस गलती की) समझ नहीं होती। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले अंधे मनुष्य को (आत्मिक जीवन के बारे में) कुछ नहीं सूझता। जो मनुष्य गुरु की मति लेता है उसके अंदर परमात्मा का नाम चमक पड़ता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख हउमै माइआ सूते ॥ अपणा घरु न समालहि अंति विगूते ॥ पर निंदा करहि बहु चिंता जालै दुखे दुखि निवासी हे ॥१५॥
मूलम्
मनमुख हउमै माइआ सूते ॥ अपणा घरु न समालहि अंति विगूते ॥ पर निंदा करहि बहु चिंता जालै दुखे दुखि निवासी हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। सूते = गाफिल हुए रहते हैं। न समालहि = संभालते नहीं, विकारों से नहीं बचाते। घरु = हृदय गृह। अंतिम = आखिर। विगूते = दुखी होते हैं। पर = पराई। करहि = करते हैं (बहुवचन)। जालै = जलाती है (एकवचन)। दुखे = दुख में ही।15।
अर्थ: हे भाई! मन के मुरीद मनुष्य अहंकार में माया (के मोह) में (सही जीवन से) गाफिल हुए रहते हैं, (विकारों से) हो रहे हमलों से वे अपना हृदय-घर नहीं बचाते, आखिर दुखी रहते है। (हे भाई! मन के मुरीद मनुष्य) दूसरों की निंदा करते हैं (अपने अंदर की) चिन्ता उनको बहुत जलाती रहती है, वे सदा ही दुखों में पड़े रहते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करतै कार कराई ॥ आपे गुरमुखि देइ बुझाई ॥ नानक नामि रते मनु निरमलु नामे नामि निवासी हे ॥१६॥५॥
मूलम्
आपे करतै कार कराई ॥ आपे गुरमुखि देइ बुझाई ॥ नानक नामि रते मनु निरमलु नामे नामि निवासी हे ॥१६॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। करतै = कर्तार ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रख के। देइ = देता है। बुझाई = समझ। नानक = हे नानक! नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। नामे नामि = नाम ही नाम में, सदा नाम में ही।16।
अर्थ: (पर, हे भाई! मनमुखों के भी क्या वश?) कर्तार ने खुद ही उनसे (ये निंदा की) कार सदा करवाई है। कर्तार खुद ही गुरु के सन्मुख करके मनुष्य को (सही आत्मिक जीवन की) समझ देता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, उनका मन पवित्र हो जाता है। वे सदा परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं।16।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ एको सेवी सदा थिरु साचा ॥ दूजै लागा सभु जगु काचा ॥ गुरमती सदा सचु सालाही साचे ही साचि पतीजै हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ एको सेवी सदा थिरु साचा ॥ दूजै लागा सभु जगु काचा ॥ गुरमती सदा सचु सालाही साचे ही साचि पतीजै हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवी = मैं सेवा भक्ति करता हूँ। थिरु = कायम। साचा = सदा कायम रहने वाला। दूजै = अन्य में। काचा = कमजोर जीवन वाला। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सालाही = मैं सलाहता हूँ। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। पतीजै = पतीज जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! मैं सिर्फ उस परमात्मा की ही सेवा-भक्ति करता हूँ, जो एक ही सदा कायम रहने वाला है। जगत (उस प्रभु की भक्ति छोड़ के) माया के मोह में लगा रहता है और कमजोर आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे भाई! मैं गुरु की मति की इनायत से सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता हूँ, (मेरा मन) सदा स्थिर प्रभु (की याद) में मस्त रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे गुण बहुते मै एकु न जाता ॥ आपे लाइ लए जगजीवनु दाता ॥ आपे बखसे दे वडिआई गुरमति इहु मनु भीजै हे ॥२॥
मूलम्
तेरे गुण बहुते मै एकु न जाता ॥ आपे लाइ लए जगजीवनु दाता ॥ आपे बखसे दे वडिआई गुरमति इहु मनु भीजै हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। बखसे = बख्शिश करता है। दे = देता है। गुरमति = गुरु की शिक्षा में। भीजै = भीग जाता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे अनेक ही गुण (उपकार) हैं, मैं तो तेरे एक उपकार को ही नहीं समझ सका (कद्र नहीं पाई)। हे भाई! जगत का जीवन दातार प्रभु स्वयं ही (मेहर करके जीव को अपने चरणों में) जोड़ता है। जिस मनुष्य पर खुद ही बख्शिश करता है उसको (नाम की) बड़ाई देता है, उसका मन गुरु की शिक्षा में भीग जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ लहरि सबदि निवारी ॥ इहु मनु निरमलु हउमै मारी ॥ सहजे गुण गावै रंगि राता रसना रामु रवीजै हे ॥३॥
मूलम्
माइआ लहरि सबदि निवारी ॥ इहु मनु निरमलु हउमै मारी ॥ सहजे गुण गावै रंगि राता रसना रामु रवीजै हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द में। निवारी = दूर की। निरमलु = पवित्र। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। गावै = गाता है (एकवचन)। रंगि = प्रेम रंग में। रसना = जीभ। रवीजै = जपती है।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु के शबदों के द्वारा (अपने अंदर से) माया की लहर दूर कर ली, अहंकार को मार के उसका यह मन पवित्र हो जाता है। वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाता रहता है, प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता है।, उसकी जीभ परमात्मा का नाम जपती रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी मेरी करत विहाणी ॥ मनमुखि न बूझै फिरै इआणी ॥ जमकालु घड़ी मुहतु निहाले अनदिनु आरजा छीजै हे ॥४॥
मूलम्
मेरी मेरी करत विहाणी ॥ मनमुखि न बूझै फिरै इआणी ॥ जमकालु घड़ी मुहतु निहाले अनदिनु आरजा छीजै हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करत = करते हुए। विहाणी = उम्र बीती। मनमुखि = मन के पीछे चलने वाली दुनिया। फिरै = भटकती फिरती है। इआणी = बेसमझ। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। घड़ी मुरतु = (उसकी उम्र की) हरेक घड़ी हरेक पल (मुहतु = महूरत)। निहाले = देखता रहता है। अनदिनु = हर रोज। आरजा = उम्र। छीजै = घटती जाती है, छिजती जाती है।4।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाली बेसमझ जीव-स्त्री (सही जीवन-राह को) नहीं समझती, (माया की खातिर) भटकती फिरती है, उसकी सारी उम्र ‘मेरी माया’ ‘मेरी माया’ करते हुए बीत जाती है। आत्मिक मौत उसकी जिंदगी की हरेक घड़ी हरेक पल को गौर से देखती रहती है (भाव, ऐसी जीव-स्त्री सदा आत्मिक मौत मरती रहती है) उसकी उम्र एक-एक दिन कर के (व्यर्थ ही) कम होती जाती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि लोभु करै नही बूझै ॥ सिर ऊपरि जमकालु न सूझै ॥ ऐथै कमाणा सु अगै आइआ अंतकालि किआ कीजै हे ॥५॥
मूलम्
अंतरि लोभु करै नही बूझै ॥ सिर ऊपरि जमकालु न सूझै ॥ ऐथै कमाणा सु अगै आइआ अंतकालि किआ कीजै हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = अंदर, मन में। करै = करती है। जमकालु = मौत। ऐथै = इस लोक में। आगै आइआ = सहना पड़ता है। अंत कालि = आखिरी वक्त। किआ कीजै = क्या किया जा सकता है? कुछ नहीं किया जा सकता।5।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री अपने अंदर लोभ करती रहती है, उसको (सही जीवन-राह) नहीं सूझता। उसके सिर पर मौत खड़ी रहती है, पर उसको इसकी समझ नहीं आती। इस जीवन में जीव-स्त्री जो कुछ कर्म कमाती है (उसका फल) भुगतना पड़ता है (सारी उम्र लोभ-लालच में गवाने से) अंत के समय कुछ नहीं किया जा सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो सचि लागे तिन साची सोइ ॥ दूजै लागे मनमुखि रोइ ॥ दुहा सिरिआ का खसमु है आपे आपे गुण महि भीजै हे ॥६॥
मूलम्
जो सचि लागे तिन साची सोइ ॥ दूजै लागे मनमुखि रोइ ॥ दुहा सिरिआ का खसमु है आपे आपे गुण महि भीजै हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जो लोग। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। साची = सदा स्थिर रहने वाली। सोइ = शोभा। दूजै = माया में। लागे = लागि, लग के। मनमुखि = मन का मुरीद मनुष्य। रोइ = रोता है, दुखी होता है। दुहा सिरिआ का = स्मरण और माया के मोह का (कोई नाम में जुड़ता है, कोई माया के मोह में फसता है = ये दोनों छोर)। आपे = स्वयं ही।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ते हैं, उनको सदा कायम रहने वाली शोभा मिलती है। पर माया के मोह में लग के मन का मुरीद जीव दुखी रहता है। (पर जीवों के भी क्या वश? कोई नाम में जुड़ता है, कोई माया के मोह में फसा रहता है) इन दोनों छोरों का मालिक प्रभु स्वयं ही है। वह खुद ही अपने गुणों में पतीजता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै सबदि सदा जनु सोहै ॥ नाम रसाइणि इहु मनु मोहै ॥ माइआ मोह मैलु पतंगु न लागै गुरमती हरि नामि भीजै हे ॥७॥
मूलम्
गुर कै सबदि सदा जनु सोहै ॥ नाम रसाइणि इहु मनु मोहै ॥ माइआ मोह मैलु पतंगु न लागै गुरमती हरि नामि भीजै हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। सोहै = शोभा पाता है। रसाइणि = रसायण में, सबसे उत्तम रस में (रस+आयन, रसों का घर)। मोहै = मस्त रहता है। पतंगु = रक्ती भर भी। नामि = नाम में।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा अपना जीवन सुंदर बनाता है, उसका यह मन श्रेष्ठ नाम-रस में मस्त रहता है, उसको माया के मोह की मैल रक्ती भर भी नहीं लगती, गुरु की मति की इनायत से (उसका मन) परमात्मा के नाम में भीगा रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभना विचि वरतै इकु सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ हउमै मारि सदा सुखु पाइआ नाइ साचै अम्रितु पीजै हे ॥८॥
मूलम्
सभना विचि वरतै इकु सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ हउमै मारि सदा सुखु पाइआ नाइ साचै अम्रितु पीजै हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वही परमात्मा। परसादी = कृपा। मारि = मार के। नाइ = नाम से। नाइ साचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।8।
अर्थ: हे भाई! एक वही परमात्मा सब जीवों में मौजूद है, पर गुरु की कृपा से ही वह (किसी भाग्यशाली के हृदय में) प्रकट होता है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके सदा आत्मिक आनंद पाता है। हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया जा सकता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किलबिख दूख निवारणहारा ॥ गुरमुखि सेविआ सबदि वीचारा ॥ सभु किछु आपे आपि वरतै गुरमुखि तनु मनु भीजै हे ॥९॥
मूलम्
किलबिख दूख निवारणहारा ॥ गुरमुखि सेविआ सबदि वीचारा ॥ सभु किछु आपे आपि वरतै गुरमुखि तनु मनु भीजै हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलबिख = (सारे) पाप। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। सबदि = शब्द में। आपे = आप ही। भीजै = भीगता है।9।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा (सारे) पाप और दुख दूर करने के समर्थ है, उसकी सेवा-भक्ति गुरु के सन्मुख हो के गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ के ही की जा सकती है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का तन और मन (परमात्मा की भक्ति में) रसा रहता है। (गुरमुख मनुष्य को ही यह निश्चय आता है कि) परमात्मा सब कुछ स्वयं ही कर रहा है; हर जगह स्वयं ही मौजूद है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ अगनि जलै संसारे ॥ गुरमुखि निवारै सबदि वीचारे ॥ अंतरि सांति सदा सुखु पाइआ गुरमती नामु लीजै हे ॥१०॥
मूलम्
माइआ अगनि जलै संसारे ॥ गुरमुखि निवारै सबदि वीचारे ॥ अंतरि सांति सदा सुखु पाइआ गुरमती नामु लीजै हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलै = जल रही है, भड़क रही है। संसारे = संसारि, संसार में। निवारे = दूर करता है। वीचारे = विचार के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। लीजै = लिया जा सकता है।10।
अर्थ: हे भाई! माया (की तृष्णा) की आग जगत में भड़क रही है, गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ के (इस तृष्णा अग्नि को अपने अंदर से) दूर कर लेता है, उसके अंदर सदा ठंड बनी रहती है, वह आत्मिक आनंद पाता है। हे भाई! गुरु की मति पर चलने से ही परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इंद्र इंद्रासणि बैठे जम का भउ पावहि ॥ जमु न छोडै बहु करम कमावहि ॥ सतिगुरु भेटै ता मुकति पाईऐ हरि हरि रसना पीजै हे ॥११॥
मूलम्
इंद्र इंद्रासणि बैठे जम का भउ पावहि ॥ जमु न छोडै बहु करम कमावहि ॥ सतिगुरु भेटै ता मुकति पाईऐ हरि हरि रसना पीजै हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इंद्रासणि = इंद्र के आसन पर। भउ = भय। पावहि = पाते हैं, मानते हैं। करम = अनेक (निहित धार्मिक) कर्म। कमावहि = कमाते हैं, करते हैं। भेटै = मिलता है। ता = तब। मुकति = (भय से) मुक्ति। रसना = जीभ से। पीजै = पीया जा सकता है।11।
अर्थ: हे भाई! (लोगों के कल्पित देवताओं के राजे) इन्द्र जैसे भी अपने तख्त पर बैठे हुए (इस तृष्णा की अग्नि के कारण) आत्मिक मौत का सहम बर्दाश्त कर रहे हैं। (जो लोग नाम नहीं स्मरण करते, पर अन्य निहित हुए अनेक धार्मिक) कर्म करते हैं, आत्मिक मौत (उनको भी) नहीं छोड़ती। जब (मनुष्य को) गुरु मिलता है, तब (इस आत्मिक मौत से) मुक्ति मिलती है। हे भाई! (गुरु के द्वारा ही) जीभ से हरि-नाम-रस पीया जा सकता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखि अंतरि भगति न होई ॥ गुरमुखि भगति सांति सुखु होई ॥ पवित्र पावन सदा है बाणी गुरमति अंतरु भीजै हे ॥१२॥
मूलम्
मनमुखि अंतरि भगति न होई ॥ गुरमुखि भगति सांति सुखु होई ॥ पवित्र पावन सदा है बाणी गुरमति अंतरु भीजै हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखि = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। पावन = पवित्र करने वाली। अंतरु = हृदय (शब्छ ‘अंतरि’ ‘अंदर’ है और ‘अंतरु’ हृदय के लिए प्रयोग होता है इस फर्क को याद रखें)।12।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के हृदय में परमात्मा की भक्ति पैदा नहीं हो सकती। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, उसके अंदर परमात्मा की याद है, उसके अंदर ठंढ है, उसके अंदर आत्मिक आनंद है। हे भाई! गुरु की वाणी सदा मनुष्य के मन को पवित्र करने में समर्थ है। गुरु की मति पर चलने से ही हृदय पतीजता है।12।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु महेसु वीचारी ॥ त्रै गुण बधक मुकति निरारी ॥ गुरमुखि गिआनु एको है जाता अनदिनु नामु रवीजै हे ॥१३॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु महेसु वीचारी ॥ त्रै गुण बधक मुकति निरारी ॥ गुरमुखि गिआनु एको है जाता अनदिनु नामु रवीजै हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महेसु = शिव। वीचारी = बिचार के देख ले। बधक = बँधक, बँधे हुए। मुकति = (आत्मिक मौत से) खलासी। निरारी = अलग। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। अनदिनु = हर रोज। रवीजै = स्मरणा चाहिए।13।
अर्थ: हे भाई! बिचार के देख लो - ब्रहमा हो, विष्णू हो, शिव हो (कोई भी हो, जो प्राणी) माया के तीन गुणों में बँधे हुए हैं (आत्मिक मौत से) मुक्ति (उनसे) अलग हो जाती है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह सिर्फ यही आत्मिक जीवन की सूझ हासिल करता है कि हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पड़हि हरि नामु न बूझहि ॥ माइआ कारणि पड़ि पड़ि लूझहि ॥ अंतरि मैलु अगिआनी अंधा किउ करि दुतरु तरीजै हे ॥१४॥
मूलम्
बेद पड़हि हरि नामु न बूझहि ॥ माइआ कारणि पड़ि पड़ि लूझहि ॥ अंतरि मैलु अगिआनी अंधा किउ करि दुतरु तरीजै हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। कारणि = की खातिर। पढ़ि = पढ़ के। लूझहि = जलते हैं, खिझते हैं। अंतरि = अंदर। किउ करि = कैसे? दुतरु = (दुष्तर) मुश्किल से तैरा जा सकने वाला। तरीजै = तैरा जा सकता है।14।
अर्थ: हे भाई! (पंण्डित लोग) वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ते हैं, (पर अगर वे) परमात्मा के नाम को (जीवन का उद्देश्य) नहीं समझते, तो वे माया (कमाने) के लिए ही (वेदा आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़-पढ़ के (माया के कम चढ़ावे को देख कर अंदर-अंदर से ही) खिझते रहते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर (माया के मोह की) मैल है (वह वेद-पाठी पंडित भी हो, तो भी) वह अंधा बेसमझ है, इस तरह यह दुश्तर संसार-समुंदर तैरा नहीं जा सकता।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद बाद सभि आखि वखाणहि ॥ न अंतरु भीजै न सबदु पछाणहि ॥ पुंनु पापु सभु बेदि द्रिड़ाइआ गुरमुखि अम्रितु पीजै हे ॥१५॥
मूलम्
बेद बाद सभि आखि वखाणहि ॥ न अंतरु भीजै न सबदु पछाणहि ॥ पुंनु पापु सभु बेदि द्रिड़ाइआ गुरमुखि अम्रितु पीजै हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेद बाद = वेदों के झगड़े, वेदों की बहसें। सभि = सारे (पंडित लोग)। आखि = कह के। वखाणहि = व्याख्या करते हैं। अंतरु = अंदरूनी, हृदय। न भीजै = नहीं भीगता, नहीं खिलता। सभु = सारा, निरा। बेदि = वेद ने। द्रिढ़ाइआ = दृढ़ करवाया है, बार बार ताकीद की है, बार बार ध्यान दिलवाया है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से ही। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस। पीजै = पीया जा सकता है।15।
अर्थ: हे भाई! सारे (पण्डित लोक) वेद (आदि धम्र पुस्तकों) की चर्चा उचार के (औरों के सामने) व्याख्या करते हैं, (इस तरह) ना (उनका अपना) हृदय भीगता है, ना ही वे महिमा की वाणी की कद्र समझते हैं। हे भाई! वेदों ने बार-बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि कौन सा पुण्य कर्म है और कौन सा ‘पाप कर्म’ है। आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल तो गुरु के शरण पड़ कर ही पीया जा सकता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे साचा एको सोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ नानक नामि रते मनु साचा सचो सचु रवीजै हे ॥१६॥६॥
मूलम्
आपे साचा एको सोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ नानक नामि रते मनु साचा सचो सचु रवीजै हे ॥१६॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सोई = वही। अवरु = कोई और। नामि = नाम में। रते = रति हुए, रंगे हुए। साचा = अडोल, अहिल। सचो सचु = सिर्फ सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही। रवीजै = स्मरणा चाहिए।16।
अर्थ: हे भाई! (अपने जैसा) सिर्फ वह परमत्मा स्वयं ही है जो सदा कायम रहने है, उसके बिना (उस जैसा) है उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे गए हैं, उनका मन अडोल हो जाता है।
(इस वासते, हे भाई!) सदा कायम रहने वाले परमात्मा को ही स्मरणा चाहिए।16।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ सचै सचा तखतु रचाइआ ॥ निज घरि वसिआ तिथै मोहु न माइआ ॥ सद ही साचु वसिआ घट अंतरि गुरमुखि करणी सारी हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ सचै सचा तखतु रचाइआ ॥ निज घरि वसिआ तिथै मोहु न माइआ ॥ सद ही साचु वसिआ घट अंतरि गुरमुखि करणी सारी हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचै = सदा कायम रहने वाले (प्रभु) ने। सचा = सदा कायम रहने वाला। निज घरि = अपने घर में, अपने स्वरूप में। तिथै = उसी स्वै स्वरूप में, उस ‘निज घर’ में। सद = सदा। घट अंतरि = हृदय में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सारी = श्रेष्ठ। करणी = (करणीय) करने योग्य काम।1।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने (अपने ‘निज घर’ में बैठने के लिए) सदा कायम रहने वाला तख्त बना रखा है, उस स्वै-स्वरूप में वह अडोल बैठा है, वहाँ माया का मोह असर नहीं कर सकता। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य (हरि-नाम जपने का) श्रेष्ठ करने-योग्य कर्म करता है, उसके हृदय में वह सदा-स्थिर प्रभु हमेशा के लिए आ बसता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा सउदा सचु वापारा ॥ न तिथै भरमु न दूजा पसारा ॥ सचा धनु खटिआ कदे तोटि न आवै बूझै को वीचारी हे ॥२॥
मूलम्
सचा सउदा सचु वापारा ॥ न तिथै भरमु न दूजा पसारा ॥ सचा धनु खटिआ कदे तोटि न आवै बूझै को वीचारी हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरि नाम। तिथै = उस सौदे में, उस व्यापार में। भरमु = भटकना। दूजा पसारा = माया का पसारा। खटिआ = कमाया। तोटि = कमी, घाटा। को = कोई। वीचारी = विचारवान।2।
अर्थ: हे भाई! नाम-धन कमाना ही सदा-स्थिर सौदा है सदा-स्थिर व्यापार है, उस सौदे-व्यापार में कोई भटकना नहीं, कोई माया का पसारा नहीं। यह सदा-स्थिर नाम-धन कमाने से कभी घाटा नहीं पड़ता। पर इस बात को कोई विरला विचारवान ही समझता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचै लाए से जन लागे ॥ अंतरि सबदु मसतकि वडभागे ॥ सचै सबदि सदा गुण गावहि सबदि रते वीचारी हे ॥३॥
मूलम्
सचै लाए से जन लागे ॥ अंतरि सबदु मसतकि वडभागे ॥ सचै सबदि सदा गुण गावहि सबदि रते वीचारी हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाए = (इस सौदे व्यापार में) लगा दिए। से = वह (बहुवचन)। अंतरि = (उनके) अंदर। सबदु = महिमा की वाणी। मसतकि = माथे पर। सबदि = शब्द से, वाणी के द्वारा। गावहि = गाते हैं। रते = रंगे हुए।3।
अर्थ: हे भाई! (इस नाम-धन के व्यापार में) वही मनुष्य लगते हैं, जिनको सदा-स्थिर परमात्मा ने स्वयं लगाया है। उनके हृदय में गुरु का शब्द बसता है, उनके माथे पर अच्छे भाग्य जाग उठते हैं। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से सदा हरि-गुण गाते रहते हैं, वह मनुष्य गुरु-शब्द (के रंग) में रंगे रहते हैं, वह उच्च विचार के मालिक बन जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचो सचा सचु सालाही ॥ एको वेखा दूजा नाही ॥ गुरमति ऊचो ऊची पउड़ी गिआनि रतनि हउमै मारी हे ॥४॥
मूलम्
सचो सचा सचु सालाही ॥ एको वेखा दूजा नाही ॥ गुरमति ऊचो ऊची पउड़ी गिआनि रतनि हउमै मारी हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालाही = मैं सालाहूँ। वेखा = देखूँ। गुरमति = गुरु की मति पर चल के। गिआनि = ज्ञान से। रतनि = रतन से। गिआनि रतनि = ज्ञान रतन से, श्रेष्ठ ज्ञान से।4।
अर्थ: हे भाई! मैं तो सदा उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की ही महिमा करता हूँ। मैं तो (हर जगह) सिर्फ उस परमात्मा को ही देखता हूँ, (मुझे उसके बिना) कोई और नहीं (दिखाई देता)। हे भाई! गुरु की मति पर चल कर (परमात्मा की महिमा करनी - यह ही परमात्मा के चरणों तक पहुँचने के लिए) सबसे ऊँची सीढ़ी है। इस श्रेष्ठ ज्ञान की इनायत से मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार मार खत्म कर देता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु सबदि जलाइआ ॥ सचु मनि वसिआ जा तुधु भाइआ ॥ सचे की सभ सची करणी हउमै तिखा निवारी हे ॥५॥
मूलम्
माइआ मोहु सबदि जलाइआ ॥ सचु मनि वसिआ जा तुधु भाइआ ॥ सचे की सभ सची करणी हउमै तिखा निवारी हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। सचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। जा = अथवा, जब। तुधु = तुझे। भाइआ = अच्छा लगा। तिखा = तृष्णा, प्यास। निवारी = दूर कर दी।5।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) माया का मोह जला डाला, जब वह मनुष्य तुझे अच्छा लग पड़ा तब तेरा सदा-स्थिर नाम उस के मन में बस गया।
हे भाई! जिस मनुष्य ने (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लिया, माया की तृष्णा दूर कर ली, उसको अभूल परमात्मा की सारी कार अभूल प्रतीत होने लग गई।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु सभु आपे कीना ॥ गुरमुखि विरलै किन ही चीना ॥ गुरमुखि होवै सु सचु कमावै साची करणी सारी हे ॥६॥
मूलम्
माइआ मोहु सभु आपे कीना ॥ गुरमुखि विरलै किन ही चीना ॥ गुरमुखि होवै सु सचु कमावै साची करणी सारी हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = सारा। आपे = आप ही। विरलै किन ही = किसी विरले ने ही। चीना = पहचाना। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। सारी = श्रेष्ठ।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘विरलै किन ही’ के बारे में। ‘किन ही’ में से ‘जिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! माया का सारा मोह परमात्मा ने स्वयं ही पैदा किया है, पर ये बात किसी उस विरले ने ही पहचानी है जो गुरु के सन्मुख रहता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ जाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के नाम जपने की कमाई करता है, उसको नाम-स्मरण वाली कार ही श्रेष्ठ लगती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार कमाई जो मेरे प्रभ भाई ॥ हउमै त्रिसना सबदि बुझाई ॥ गुरमति सद ही अंतरु सीतलु हउमै मारि निवारी हे ॥७॥
मूलम्
कार कमाई जो मेरे प्रभ भाई ॥ हउमै त्रिसना सबदि बुझाई ॥ गुरमति सद ही अंतरु सीतलु हउमै मारि निवारी हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ भाई = प्रभु को अच्छी लगी। सबदि = शब्द की इनायत से। हरेक = मिटा दी। सद = सदा। अंतरु = हृदय, अंदरूनी। सीतलु = शांत। मारि = मार के।7।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने वह कार करनी आरम्भ कर दी जो मेरे प्रभु को पसंद आती है (जिस मनुष्य ने प्रभु की रजा में चलना आरम्भ कर दिया), जिसने गुरु के शब्द द्वारा (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लिया, माया की तृष्णा मिटा ली, गुरु की मति पर चल कर उसका हृदय सदा ही शांत रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचि लगे तिन सभु किछु भावै ॥ सचै सबदे सचि सुहावै ॥ ऐथै साचे से दरि साचे नदरी नदरि सवारी हे ॥८॥
मूलम्
सचि लगे तिन सभु किछु भावै ॥ सचै सबदे सचि सुहावै ॥ ऐथै साचे से दरि साचे नदरी नदरि सवारी हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। सभु किछु = (परमात्मा का किया) हरेक काम। सचै सबदे = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। सुहावै = सुंदर जीवन वाला बन जाता है। ऐथै = इस लोक में। से = वह (बहुवचन)। दरि = प्रभु के दर पर। साचे = सही रास्ते पर चलने वाले। नदरी = मेहर की निगाह करने वाला प्रभु।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में जुड़ते हैं, उनको परमात्मा का किया हुआ हरेक काम भला प्रतीत होता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से सदा-स्थिर प्रभु में टिक के मनुष्य अपना जीवन सुंदर बना लेता है। (नाम-जपने की इनायत से जो मनुष्य) इस लोक में सही स्वीकार हो जाते हैं, वे मनुष्य प्रभु की हजूरी में भी सही स्वीकार हो जाते हैं। मेहर की निगाह वाले परमात्मा की मेहर की नज़र उनका जीवन सँवार देती है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु साचे जो दूजै लाइआ ॥ माइआ मोह दुख सबाइआ ॥ बिनु गुर दुखु सुखु जापै नाही माइआ मोह दुखु भारी हे ॥९॥
मूलम्
बिनु साचे जो दूजै लाइआ ॥ माइआ मोह दुख सबाइआ ॥ बिनु गुर दुखु सुखु जापै नाही माइआ मोह दुखु भारी हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु साचे = सदा स्थिर प्रभु से टूटके। दूजै = माया (के प्यार) में। सबाइआ = सारे। जापै नाही = समझ नहीं पड़ती।9।
अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु (के नाम) से टूट कर जो मनुष्य माया के प्यार में मस्त रहता है, उसको माया के मोह के सारे दुख (चिपके रहते हैं), माया के मोह का बहुत सारा दुख उसको बना रहता है। गुरु की शरण के बिना ये समझ नहीं आती कि दुख कैसे दूर हो और सुख कैसे मिले।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा सबदु जिना मनि भाइआ ॥ पूरबि लिखिआ तिनी कमाइआ ॥ सचो सेवहि सचु धिआवहि सचि रते वीचारी हे ॥१०॥
मूलम्
साचा सबदु जिना मनि भाइआ ॥ पूरबि लिखिआ तिनी कमाइआ ॥ सचो सेवहि सचु धिआवहि सचि रते वीचारी हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगा। पूरबि = पूर्बले जनम में। लिखिआ = किए कर्मों के संस्कार। तिनी = उन्होंने। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं (बहुवचन)। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। रते = रंगे हुए। वीचारी = ऊँची सूझ वाले।10।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी प्यारी लगने लग जाती है, वही मनुष्य पूर्बले जनम में किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (नाम स्मरण की) कमाई करते हैं। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं, सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करते हैं, सदा-स्थिर प्रभु के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, और ऊँची सूझ वाले हो जाते हैं।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की सेवा मीठी लागी ॥ अनदिनु सूख सहज समाधी ॥ हरि हरि करतिआ मनु निरमलु होआ गुर की सेव पिआरी हे ॥११॥
मूलम्
गुर की सेवा मीठी लागी ॥ अनदिनु सूख सहज समाधी ॥ हरि हरि करतिआ मनु निरमलु होआ गुर की सेव पिआरी हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज समाधी = आत्मिक अडोलता वाली समाधि।11।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की (बताई) सेवा प्यारी लगती है, वह हर वक्त आत्मिक आनंद पाता है, उसकी आत्मिक अडोलता वाली समाधि बनी रहती है, परमात्मा का नाम जपते उसका मन पवित्र हो जाता है, गुरु की शरण पड़े रहना उसको अच्छा लगता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से जन सुखीए सतिगुरि सचे लाए ॥ आपे भाणे आपि मिलाए ॥ सतिगुरि राखे से जन उबरे होर माइआ मोह खुआरी हे ॥१२॥
मूलम्
से जन सुखीए सतिगुरि सचे लाए ॥ आपे भाणे आपि मिलाए ॥ सतिगुरि राखे से जन उबरे होर माइआ मोह खुआरी हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। सचे = सचि, सदा स्थिर प्रभु में। लाए = जोड़ दिए। आपे = स्वयं ही। भाणे = अच्छे लगे। से = वह (बहुवचन)। उबरे = बच गए। होर = बाकी की दुनिया।12।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु ने सदा-स्थिर प्रभु की याद में जोड़ दिया, वे सुखी जीवन व्यतीत करते हैं, (ये परमात्मा की अपनी ही मेहर है, प्रभु को) स्वयं ही (ऐसे मनुष्य) अच्छे लगे, और, स्वयं ही उसने (अपने चरणों में) जोड़ लिए। हे भाई! गुरु ने जिस मनुष्यों की रक्षा की, वे मनुष्य (माया के मोह से) बच गए, बाकी की दुनिया माया के मोह का संताप ही (सारी उम्र) सहती रही।12।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि साचा सबदि पछाता ॥ ना तिसु कुट्मबु ना तिसु माता ॥ एको एकु रविआ सभ अंतरि सभना जीआ का आधारी हे ॥१३॥
मूलम्
गुरमुखि साचा सबदि पछाता ॥ ना तिसु कुट्मबु ना तिसु माता ॥ एको एकु रविआ सभ अंतरि सभना जीआ का आधारी हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सबदि = गुरु के शब्द से। पछाता = पहचान लिया, सांझ डाल ली। तिसु = उस (परमात्मा) का। कुटंबु = परिवार। माता = माँ। एको एकु = वह स्वयं ही स्वयं। रविआ = व्यापक है। अंतरि = अंदर। आधारी = आसरा देने वाला।13।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर गुरु के शब्द से सदा स्थिर परमात्मा के साथ सांझ डाल ली (उसको यह समझ आ गई कि) उस (परमात्मा) का ना कोई (खास) परिवार है ना उसकी माँ है, वह स्वयं ही स्वयं सब जीवों में व्यापक है और सब जीवों का आसरा है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै मेरा दूजा भाइआ ॥ किछु न चलै धुरि खसमि लिखि पाइआ ॥ गुर साचे ते साचु कमावहि साचै दूख निवारी हे ॥१४॥
मूलम्
हउमै मेरा दूजा भाइआ ॥ किछु न चलै धुरि खसमि लिखि पाइआ ॥ गुर साचे ते साचु कमावहि साचै दूख निवारी हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरा = ममता। दूजा = माया का मोह। भाइआ = पसंद आया। धुरि = धुर दरगाह से। खसमि = मालिक प्रभु ने। लिखि = लिख के। ते = से। साचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। कमावहि = कमाते हैं (बहुवचन)। साचै = सदा स्थिर प्रभु ने। दूख = सारे दुख। निवारी = दूर कर दिए हैं।14।
अर्थ: हे भाई! (कई ऐसे हैं जिनको) अहंकार अच्छा लगता है, ममता प्यारी लगती है, माया का मोह पसंद है; पर मालिक-प्रभु ने धुर से ही यह मर्यादा चला रखी है कि कोई भी चीज़ (किसी के साथ) नहीं जाती। अभूल गुरु से (शिक्षा ले कर) जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करते हैं, सदा-स्थिर परमात्मा ने उनके सारे दुख दूर कर दिए।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा तू देहि सदा सुखु पाए ॥ साचै सबदे साचु कमाए ॥ अंदरु साचा मनु तनु साचा भगति भरे भंडारी हे ॥१५॥
मूलम्
जा तू देहि सदा सुखु पाए ॥ साचै सबदे साचु कमाए ॥ अंदरु साचा मनु तनु साचा भगति भरे भंडारी हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब, अथवा। सुखु = आत्मिक आनंद। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। सबदे = गुरु के शब्द से। साचु कमाए = नाम जपने की कमाई करता है। अंदरु = हृदय। साचा = अडोल। भंडारी = खजाने।15।
अर्थ: हे प्रभु! जब तू (किसी मनुष्य को अपने नाम की दाति) देता है (वह मनुष्य) सदा आत्मिक आनंद पाता है। गुरु के शब्द से वह तेरे सदा-स्थिर स्वरूप में टिक के तेरा सदा-स्थिर नाम स्मरण करता है। उस मनुष्य का हृदय अडोल हो जाता है, उसका मन अडोल हो जाता है, उसका शरीर (विकारों से) अडोल हो जाता है, (उसके अंदर) भक्ति के भण्डारे भर जाते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे वेखै हुकमि चलाए ॥ अपणा भाणा आपि कराए ॥ नानक नामि रते बैरागी मनु तनु रसना नामि सवारी हे ॥१६॥७॥
मूलम्
आपे वेखै हुकमि चलाए ॥ अपणा भाणा आपि कराए ॥ नानक नामि रते बैरागी मनु तनु रसना नामि सवारी हे ॥१६॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। वेखै = देखता है। हुकमि = हुक्म में। भाणा = रज़ा। नामि = नाम रंग में। रते = रंगे हुए। बैरागी = बैरागवान, माया से निर्लिप। रसना = जीभ। नामि = नाम ने।16।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों की) संभाल कर रहा है (सबको अपने) हुक्म में चला रहा है, अपनी रज़ा (जीवों से) खुद कराता है। हे नानक! जो मनुष्य उसके नाम-रंग में रंगे रहते हैं वे माया से निर्लिप रहते हैं, उनके मन उनके तन उनकी जीभ को परमात्मा के नाम ने सुंदर बना दिया होता है।16।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ आपे आपु उपाइ उपंना ॥ सभ महि वरतै एकु परछंना ॥ सभना सार करे जगजीवनु जिनि अपणा आपु पछाता हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ आपे आपु उपाइ उपंना ॥ सभ महि वरतै एकु परछंना ॥ सभना सार करे जगजीवनु जिनि अपणा आपु पछाता हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। आपु = अपने आप को। उपाइ = पैदा करके। उपंना = प्रगट हुआ है। महि = में। परछंना = गुप्त, छुपा हुआ, सूक्ष्म रूप में। सार = संभाल। जग जीवनु = जगत का आसरा प्रभु। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने सदा अपने जीवन को पड़ताला है (आत्मावलोकन किया है वह जानता है कि) परमात्मा स्वयं ही अपने आप को पैदा करके प्रकट हुआ, परमात्मा स्वयं ही सबके अंदर गुप्त रूप में व्यापक है और वह जगत का सहारा प्रभु सब जीवों की संभाल करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सिरि सिरि धंधै आपे लाए ॥ जिसु भावै तिसु आपे मेले जिनि गुरमुखि एको जाता हे ॥२॥
मूलम्
जिनि ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सिरि सिरि धंधै आपे लाए ॥ जिसु भावै तिसु आपे मेले जिनि गुरमुखि एको जाता हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। महेसु = शिव। उपाए = पैदा किए। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक (जीव) के सिर पर। धंधै = धंधे में। जिसु भावै = जो उसे अच्छा लगे। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर एक परमात्मा को हर जगह बसता पहचान लिया (वह समझता है कि) जिस परमात्मा ने ब्रहमा-विष्णू व शिव पैदा किए, वह स्वयं ही हरेक जीव को धंधे में लगाता है और जो उसको अच्छा लगता है उसको स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवा गउणु है संसारा ॥ माइआ मोहु बहु चितै बिकारा ॥ थिरु साचा सालाही सद ही जिनि गुर का सबदु पछाता हे ॥३॥
मूलम्
आवा गउणु है संसारा ॥ माइआ मोहु बहु चितै बिकारा ॥ थिरु साचा सालाही सद ही जिनि गुर का सबदु पछाता हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवागउणु = आवागवन, पैदा होना मरने का चक्कर। चितै = चितवता है। थिरु = टिका रहने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। सालाही = सलाहने योग्य। सद = सदा। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल ली (वह जानता है कि) यह जगत जनम-मरण का चक्कर ही है, यहाँ माया का मोह प्रबल है (जिसके कारण जीव) विकार चितवता रहता है। (यहाँ) सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही सदा सराहनीय है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि मूलि लगे ओनी सुखु पाइआ ॥ डाली लागे तिनी जनमु गवाइआ ॥ अम्रित फल तिन जन कउ लागे जो बोलहि अम्रित बाता हे ॥४॥
मूलम्
इकि मूलि लगे ओनी सुखु पाइआ ॥ डाली लागे तिनी जनमु गवाइआ ॥ अम्रित फल तिन जन कउ लागे जो बोलहि अम्रित बाता हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। मूलि = मूल में, आदि में, जगत के रचनहार में। ओनी = उन्होंने। डाली = डालियों में, शाखाओं में, मायावी पदार्थों में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। कउ = को। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। अंम्रित बाता = आत्मिक जीवन देने वाली बातें।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो जगत के रचनहार प्रभु की याद में जुड़े रहते हैं, वह आत्मिक आनंद पाते हैं। पर जो मनुष्य मायावी पदार्थों में लगे रहते हैं, उन्होंने अपना जीवन गवा लिया है। आत्मिक जीवन देने वाले फल उनको ही लगते हैं जो आत्मिक जीवन देने वाले (महिमा के) बोल बोलते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम गुण नाही किआ बोलह बोल ॥ तू सभना देखहि तोलहि तोल ॥ जिउ भावै तिउ राखहि रहणा गुरमुखि एको जाता हे ॥५॥
मूलम्
हम गुण नाही किआ बोलह बोल ॥ तू सभना देखहि तोलहि तोल ॥ जिउ भावै तिउ राखहि रहणा गुरमुखि एको जाता हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ बोल बोलहि = हम क्या बोल बोल सकते हैं? हम बोलने लायक नहीं हैं, हमें बोलते हुए भी शर्म आती है। तोलहि = तू (सबके कर्मों को) जाँचता तोलता है। राखहि = तू रखता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला।5।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव गुण-हीन हैं, (अपने बुरे कर्मों के कारण) हम बोलने के भी लायक नहीं हैं। तू सब जीवों (के कर्मों) को देखता है परखता है। जैसे तेरी रजा होती है तू हमें रखता है, हम उसी तरह रह सकते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य तेरे साथ ही सांझ डालता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा तुधु भाणा ता सची कारै लाए ॥ अवगण छोडि गुण माहि समाए ॥ गुण महि एको निरमलु साचा गुर कै सबदि पछाता हे ॥६॥
मूलम्
जा तुधु भाणा ता सची कारै लाए ॥ अवगण छोडि गुण माहि समाए ॥ गुण महि एको निरमलु साचा गुर कै सबदि पछाता हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब, अथवा। तुधु भाणा = तुझे अच्छा लगे। कारै = कार में। छोडि = छोड़ के। निरमलु = पवित्र। साचा = सदा कायम रहने वाला। कै सबदि = के शब्द से।6।
अर्थ: हे प्रभु! जब तुझे अच्छा लगे, तब तू (सब जीवों को) सच्ची कार में लगाता है, (जिनको लगाता है, वे) अवगुण छोड़ के तेरे गुणों में लीन हुए रहते हैं। हे भाई! प्रभु के गुणों में चिक्त जोड़ने से गुरु के शब्द से वह पवित्र अविनाशी प्रभु ही (हर जगह) दिखता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह देखा तह एको सोई ॥ दूजी दुरमति सबदे खोई ॥ एकसु महि प्रभु एकु समाणा अपणै रंगि सद राता हे ॥७॥
मूलम्
जह देखा तह एको सोई ॥ दूजी दुरमति सबदे खोई ॥ एकसु महि प्रभु एकु समाणा अपणै रंगि सद राता हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखा = देखूँ। दूजी = माया की झाक वाली। दुरमति = खोटी मति। सबदे = शब्द से। एकसु महि = एक अपने आप में। समाणा = लीन है। रंगि = मौज में। राता = मस्त।7।
अर्थ: हे भाई! मैं जिधर देखता हूँ, उधर सिर्फ वह परमात्मा ही दिख रहा है। प्रभु के बिना किसी और को देखने के लिए खोटी मति गुरु के शब्द से नाश हो जाती है। (शब्द की इनायत से इस तरह दिख जाता है कि) अपने आप में परमात्मा आप ही समाया हुआ है, वह सदा अपनी मौज में रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कमलु है कुमलाणा ॥ मनमुखु सबदु न बुझै इआणा ॥ गुर परसादी काइआ खोजे पाए जगजीवनु दाता हे ॥८॥
मूलम्
काइआ कमलु है कुमलाणा ॥ मनमुखु सबदु न बुझै इआणा ॥ गुर परसादी काइआ खोजे पाए जगजीवनु दाता हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ कमलु = शरीर में हृदय कमल फूल। मनमुख = मन के पीछे चलने वाला। इआणा = बेसमझ। परसादी = कृपा से। पाए = पा लेता है।8।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला बेसमझ मनुष्य गुरु के शब्द से सांझ नहीं डालता, (इस वास्ते उसके) शरीर में उसका हृदय-कमल-फूल कुम्हलाया रहता है। जो मनुष्य गुरु की कृपा से अपने शरीर को खोजता है (अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है) वह जगत के सहारे परमात्मा को पा लेता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोट गही के पाप निवारे ॥ सदा हरि जीउ राखै उर धारे ॥ जो इछे सोई फलु पाए जिउ रंगु मजीठै राता हे ॥९॥
मूलम्
कोट गही के पाप निवारे ॥ सदा हरि जीउ राखै उर धारे ॥ जो इछे सोई फलु पाए जिउ रंगु मजीठै राता हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोट = किला, शरीर किला, शरीर। गह = पकड़ करने वाला। कोट गही के पाप = शरीर को ग्रसने वाले पाप। निवारे = दूर कर लेता है। राखै = रखता है। उह धारे = धर धारि, हृदय में टिका के। रंगु मजीठै = मजीठ का रंग। राता = रति हुआ, रंगा हुआ।9।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को सदा अपने दिल में बसाए रखता है, वह (अपने अंदर से) शरीर को ग्रसने वाले पाप दूर कर लेता है। वह मनुष्य जिस (फल) की इच्छा करता है वह फल हासिल कर लेता है, उसका मन नाम-रंग में इस तरह रंगा रहता है जैसे मजीठ का (पक्का) रंग है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु गिआनु कथे न होई ॥ फिरि फिरि आवै ठउर न कोई ॥ गुरमुखि गिआनु सदा सालाहे जुगि जुगि एको जाता हे ॥१०॥
मूलम्
मनमुखु गिआनु कथे न होई ॥ फिरि फिरि आवै ठउर न कोई ॥ गुरमुखि गिआनु सदा सालाहे जुगि जुगि एको जाता हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। गिआनु कथे = ज्ञान की बातें करता है। न होई = (उसके हृदय में ज्ञान) नहीं है, उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ नहीं है। ठउर = ठिकाना। सालाहे = महिमा करता है। जुगि जुगि = हरेक युग में।10।
अर्थ: हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य ज्ञान की बातें तो करता है, (पर उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ) नहीं है। वह बार-बार जन्मों के चक्कर में पड़ा रहता है, उसे कहीं ठिकाना नहीं मिलता। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (गुरु से) आत्मिक जीवन की सूझ (प्राप्त करके) सदा परमात्मा की महिमा करता है, उसको हरेक जुग में एक ही परमात्मा बसता समझ आता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु कार करे सभि दुख सबाए ॥ अंतरि सबदु नाही किउ दरि जाए ॥ गुरमुखि सबदु वसै मनि साचा सद सेवे सुखदाता हे ॥११॥
मूलम्
मनमुखु कार करे सभि दुख सबाए ॥ अंतरि सबदु नाही किउ दरि जाए ॥ गुरमुखि सबदु वसै मनि साचा सद सेवे सुखदाता हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। सबादे = सारे। अंदरि = अंदर, हृदय में। दरि = (प्रभु के) दर पर। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। सद = सदा। सेवे = सेवा भक्ति करता है।11।
अर्थ: हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य वही काम करता है जिससे सारे दुख ही दुख घटित हों। उसके अंदर गुरु का शब्द नहीं बसता, वह परमात्मा के दर पर नहीं पहुँच सकता। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के मन में गुरु का शब्द बसता है सदा स्थिर प्रभु बसता है, वह सदा सुखों के दाते प्रभु की सेवा-भक्ति करता है।11।
[[1052]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह देखा तू सभनी थाई ॥ पूरै गुरि सभ सोझी पाई ॥ नामो नामु धिआईऐ सदा सद इहु मनु नामे राता हे ॥१२॥
मूलम्
जह देखा तू सभनी थाई ॥ पूरै गुरि सभ सोझी पाई ॥ नामो नामु धिआईऐ सदा सद इहु मनु नामे राता हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। थाई = जगहों में। गुरि = गुरु से। नामो नामु = नाम ही नाम। धिआईऐ = ध्याना चाहिए। नामे = नाम में ही।12।
अर्थ: हे प्रभु! मैं जिधर देखता हूँ, तू सब जगहों में बसता मुझे दिखाई देता है, मुझे ये सारी समझ पूरे गुरु से मिली है। हे भाई! सदा ही सदा ही परमात्मा का नाम ही नाम स्मरणा चाहिए। (जो मनुष्य स्मरण करता है उसका) यह मन नाम में ही रंगा जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामे राता पवितु सरीरा ॥ बिनु नावै डूबि मुए बिनु नीरा ॥ आवहि जावहि नामु नही बूझहि इकना गुरमुखि सबदु पछाता हे ॥१३॥
मूलम्
नामे राता पवितु सरीरा ॥ बिनु नावै डूबि मुए बिनु नीरा ॥ आवहि जावहि नामु नही बूझहि इकना गुरमुखि सबदु पछाता हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राता = रंगा हुआ। नामे = नाम रंग में। डूबि मुए = डूब के मर गए, विकारों में डूब के आत्मिक मौत मर गए। बिनु नीरा = पानी के बिना ही (विकारों का बिल्कुल ही मुकाबला करने-योग्य नहीं रहते)। आवहि = पैदा होते हैं। जावहि = मर जाते हैं। नही बूझहि = कद्र नहीं समझते। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।13।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है, उसका शरीर (विकारों की मैल से) पवित्र रहता है; पर जो मनुष्य नाम से टूटे रहते हैं, वे (विकारों में) डूबके (आत्मिक मौत) मरे रहते हैं, वे विकारों का रक्ती भर भी मुकाबला नहीं कर सकते। जो मनुष्य हरि नाम की कद्र नहीं समझते, वे जगत में आते हैं और (खाली ही) चले जाते हैं। पर कई ऐसे हैं जो गुरु की शरण पड़ कर गुरु-शब्द से सांझ डालते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरै सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ विणु नावै मुकति किनै न पाई ॥ नामे नामि मिलै वडिआई सहजि रहै रंगि राता हे ॥१४॥
मूलम्
पूरै सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ विणु नावै मुकति किनै न पाई ॥ नामे नामि मिलै वडिआई सहजि रहै रंगि राता हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। बूझ = समझ। मुकति = विकारों से मुक्ति। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रंगि = प्रेम रंग में।14।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (हमें ये) समझ बख्शी है कि परमात्मा के नाम के बिना किसी भी मनुष्य ने (विकारों से) मुक्ति हासिल नहीं की। जो मनुष्य हर वक्त नाम में लीन रहता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह प्रेम-रंग में रंगा रहता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ नगरु ढहै ढहि ढेरी ॥ बिनु सबदै चूकै नही फेरी ॥ साचु सलाहे साचि समावै जिनि गुरमुखि एको जाता हे ॥१५॥
मूलम्
काइआ नगरु ढहै ढहि ढेरी ॥ बिनु सबदै चूकै नही फेरी ॥ साचु सलाहे साचि समावै जिनि गुरमुखि एको जाता हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढहि = ढह के। चूकै = खत्म होती। फेरी = जनम मरण का चक्कर। साचु = सदा स्थिर प्रभु। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! यह शरीर-नगर (आखिर) गिर जाता है, और ढह-ढेरी हो जाता है। पर गुरु-शब्द (को मन में बसाए) बिना (जीवात्मा का) जनम-मरण का चक्कर समाप्त नहीं होता। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है वह सदा-स्थिर परमात्मा की महिमा करता रहता है, वह सदा-स्थिर (की याद) में लीन रहता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ साचा सबदु वसै मनि आए ॥ नानक नामि रते निरंकारी दरि साचै साचु पछाता हे ॥१६॥८॥
मूलम्
जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ साचा सबदु वसै मनि आए ॥ नानक नामि रते निरंकारी दरि साचै साचु पछाता हे ॥१६॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। आए = आ के। नामि = नाम में। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। साचु पछाता = सदा स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाल ली।16।
अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य (महिमा की दाति) हासिल करता है, जिस पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, सदा स्थिर परमात्मा की महिमा का शब्द उसके मन में आ बसता है। हे नानक! जो मनुष्य निरंकार के नाम में रंगे रहते हैं, जो सदा-स्थिर प्रभु के साथ सांझ डालते हैं वे उस सदा स्थिर के दर पर (स्वीकार हो जाते हैं)।16।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे ३ ॥ आपे करता सभु जिसु करणा ॥ जीअ जंत सभि तेरी सरणा ॥ आपे गुपतु वरतै सभ अंतरि गुर कै सबदि पछाता हे ॥१॥
मूलम्
मारू सोलहे ३ ॥ आपे करता सभु जिसु करणा ॥ जीअ जंत सभि तेरी सरणा ॥ आपे गुपतु वरतै सभ अंतरि गुर कै सबदि पछाता हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (तू) खुद ही। सभु जिसु करणा = जिसु सभु करणा, जिसका (ये) सारा जगत है। सभि = सारे। गुपतु = छुपा हुआ, सूक्ष्म रूप में। वरतै = मौजूद है। कै सबदि = के शब्द से।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही वह कर्तार है जिसका (रचा हुआ यह) सारा जगत है। सारे जीव तेरी ही शरण में हैं। हे भाई! प्रभु खुद ही सब जीवों के अंदर गुप्त रूप में मौजूद है। गुरु के शब्द से उसके साथ सांझ पड़ सकती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के भगति भरे भंडारा ॥ आपे बखसे सबदि वीचारा ॥ जो तुधु भावै सोई करसहि सचे सिउ मनु राता हे ॥२॥
मूलम्
हरि के भगति भरे भंडारा ॥ आपे बखसे सबदि वीचारा ॥ जो तुधु भावै सोई करसहि सचे सिउ मनु राता हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भंडारा = खजाने। सबदि = शब्द से। वीचारा = (ये) समझ। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। करसहि = (जीव) करेंगे। सिउ = साथ।2।
अर्थ: हे भाई! हरि के खजाने में भक्ति के भंडारे भरे पड़े हैं। गुरु के शब्द से स्वयं ही प्रभु यह सूझ बख्शता है।
हे प्रभु! जो तुझे अच्छा लगता है, वही कुछ जीव करते हैं। हे भाई! (प्रभु की रजा से ही) जीव का मन उस सदा-स्थिर प्रभु के साथ जुड़ सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे हीरा रतनु अमोलो ॥ आपे नदरी तोले तोलो ॥ जीअ जंत सभि सरणि तुमारी करि किरपा आपि पछाता हे ॥३॥
मूलम्
आपे हीरा रतनु अमोलो ॥ आपे नदरी तोले तोलो ॥ जीअ जंत सभि सरणि तुमारी करि किरपा आपि पछाता हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। करि = कर के।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (कीमती) हीरा है खुद ही अमोलक रत्न है। प्रभु स्वयं ही अपनी मेहर की निगाह से (इस हीरे की) परख करता है। हे प्रभु! सारे ही जीव तेरी ही शरण में हैं। तू स्वयं ही कृपा करके (अपने साथ) गहरी सांझ पैदा करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो नदरि होवै धुरि तेरी ॥ मरै न जमै चूकै फेरी ॥ साचे गुण गावै दिनु राती जुगि जुगि एको जाता हे ॥४॥
मूलम्
जिस नो नदरि होवै धुरि तेरी ॥ मरै न जमै चूकै फेरी ॥ साचे गुण गावै दिनु राती जुगि जुगि एको जाता हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = धुर से। फेरी = जनम मरण का चक्कर। सारे गुण = सदा स्थिर रहने वाले गुण। जुगि जुगि = हरेक युग में (बसता)।4।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य पर धुर से तेरी हजूरी से तेरी मेहर की निगाह हो, वह बार-बार पैदा होता-मरता नहीं, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।
हे भाई! (जिस पर उसकी निगाह हो, वह) दिन-रात सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाता है, हरेक युग में वह उस प्रभु को ही (बसता) समझता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहि सभु जगतु उपाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु देव सबाइआ ॥ जो तुधु भाणे से नामि लागे गिआन मती पछाता हे ॥५॥
मूलम्
माइआ मोहि सभु जगतु उपाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु देव सबाइआ ॥ जो तुधु भाणे से नामि लागे गिआन मती पछाता हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह में, मोह के अधीन। उपाइआ = पैदा किया है। सबाइआ = सारे। तुधु भाणे = तुझे अच्छा लगे। से = वह (बहुवचन)। नामि = नाम में। गिआन मती = आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति के द्वारा। पछाता = सांझ डाली है।5।
अर्थ: हे प्रभु! ब्रहमा, विष्णू, सारे ही देवता गण (जो भी जगत में पैदा हुआ है) यह सारा ही जगत तूने माया के मोह में (ही) पैदा किया है (सब पर माया का प्रभाव है)। जो तुझे अच्छे लगते हैं, वह तेरे नाम में जुड़ते हैं। आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति के द्वारा ही तेरे साथ जान-पहचान बनती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाप पुंन वरतै संसारा ॥ हरखु सोगु सभु दुखु है भारा ॥ गुरमुखि होवै सो सुखु पाए जिनि गुरमुखि नामु पछाता हे ॥६॥
मूलम्
पाप पुंन वरतै संसारा ॥ हरखु सोगु सभु दुखु है भारा ॥ गुरमुखि होवै सो सुखु पाए जिनि गुरमुखि नामु पछाता हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसारा = जगत में। हरखु = खुशी। सोगु = गमी। सभु = हर जगह। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सुखु = आत्मिक आनंद। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।6।
अर्थ: हे भाई! सारे जगत में (माया के प्रभाव तहत ही) पाप और पुण्य हो रहा है। (माया के मोह में ही) हर जगह कहीं खुशी और कहीं ग़मी है (माया के मोह का) बहुत सारा दुख (जगत को व्याप रहा है)। जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम के साथ सांझ डाली है, जो गुरु के सन्मुख रहता है वही आत्मिक आनंद पाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरतु न कोई मेटणहारा ॥ गुर कै सबदे मोख दुआरा ॥ पूरबि लिखिआ सो फलु पाइआ जिनि आपु मारि पछाता हे ॥७॥
मूलम्
किरतु न कोई मेटणहारा ॥ गुर कै सबदे मोख दुआरा ॥ पूरबि लिखिआ सो फलु पाइआ जिनि आपु मारि पछाता हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह। कै सबद = के शब्द से ही। मोख दुआरा = (‘किरत’ से) मुक्ति का दरवाजा। पूरबि = पूर्बले जनम में। आपु = स्वै भाव। मारि = मार के।7।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य पिछले किए कर्मों की कमाई मिटा नहीं सकता। (पिछले किए कर्मों से) मुक्ति का रास्ता गुरु के शब्द द्वारा ही मिलता है। जिस मनुष्य ने स्वै भाव मिटा के (हरि-नाम के साथ) सांझ डाल ली, उसने भी जो कुछ पूर्बले जनम में कमाई की, वही फल अब प्राप्त किया।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहि हरि सिउ चितु न लागै ॥ दूजै भाइ घणा दुखु आगै ॥ मनमुख भरमि भुले भेखधारी अंत कालि पछुताता हे ॥८॥
मूलम्
माइआ मोहि हरि सिउ चितु न लागै ॥ दूजै भाइ घणा दुखु आगै ॥ मनमुख भरमि भुले भेखधारी अंत कालि पछुताता हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह के कारण। सिउ = साथ। दूजै भाइ = माया के प्यार के कारण। घणा = बहुत। आगै = परलोक में, जीवन-यात्रा में। मनमुख = मन के मुरीद। भरमि = भटकना के कारण। भुले = गलत राह पर पड़े रहते हैं। भेखधारी = धार्मिक पहरावा रखने वाले। अंत कालि = आखिरी समय।8।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह के कारण परमात्मा के साथ मन जुड़ नहीं सकता। माया के मोह में फसे रहने से जीवन-सफर में बहुत दुख होता है। मन के मुरीद मनुष्य धार्मिक पहरावा पहन के भी भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं। आखिरी वक्त में पछताना पड़ता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कै भाणै हरि गुण गाए ॥ सभि किलबिख काटे दूख सबाए ॥ हरि निरमलु निरमल है बाणी हरि सेती मनु राता हे ॥९॥
मूलम्
हरि कै भाणै हरि गुण गाए ॥ सभि किलबिख काटे दूख सबाए ॥ हरि निरमलु निरमल है बाणी हरि सेती मनु राता हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै भाणै = की रजा में (रह के)। सभि = सारे। किलबिख = पाप। सबाए = सारे। निरमलु = मल रहित, विकारों की मैल से रहित। सेती = साथ।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की रजा में रह के परमात्मा के गुण गाता है, वह अपने सारे पाप सारे दुख (अपने अंदर से) काट देता है। उस का मन उस प्रभु के साथ रंगा रहता है, जो विकारों की मैल से रहित है और जिसकी महिमा की वाणी भी पवित्र है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो नदरि करे सो गुण निधि पाए ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाए ॥ गुण अवगण का एको दाता गुरमुखि विरली जाता हे ॥१०॥
मूलम्
जिस नो नदरि करे सो गुण निधि पाए ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाए ॥ गुण अवगण का एको दाता गुरमुखि विरली जाता हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण निधि = गुणों का खजाना। मेरा = ‘मेरी मेरी’ का भाव, ममता। ठाकि रहाए = रोक के रखता है। दाता = देने वाला। विरली = बहुत कम लोगों ने, विरलों ने।10।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य पर मेहर की निगाह करता है वह उस गुणों के खजाने हरि का मिलाप हासिल कर लेता है, वह मनुष्य अपने अंदर से अहंकार और ममता (के प्रभाव) को रोक देता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले विरलों (कुछ एक ने ही) ये समझ लिया है कि गुण देने वाला और अवगुण पैदा करने वाला सिर्फ परमात्मा ही है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा प्रभु निरमलु अति अपारा ॥ आपे मेलै गुर सबदि वीचारा ॥ आपे बखसे सचु द्रिड़ाए मनु तनु साचै राता हे ॥११॥
मूलम्
मेरा प्रभु निरमलु अति अपारा ॥ आपे मेलै गुर सबदि वीचारा ॥ आपे बखसे सचु द्रिड़ाए मनु तनु साचै राता हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपारा = बेअंत। सबदि = शब्द से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। साचै = सदा स्थिर प्रभु में।11।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु बड़ा बेअंत है और विकारों के प्रभाव से परे है। गुरु के शब्द द्वारा (अपने गुणों की) विचार बख्श के वह स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है। जिस पर वह स्वयं ही बख्शिश करता है, उसके हृदय में अपना सदा-स्थिर नाम पक्का कर देता है; उस मनुष्य का मन उसका तन सदा-स्थिर हरि-नाम में रंगा जाता है।11।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु मैला विचि जोति अपारा ॥ गुरमति बूझै करि वीचारा ॥ हउमै मारि सदा मनु निरमलु रसना सेवि सुखदाता हे ॥१२॥
मूलम्
मनु तनु मैला विचि जोति अपारा ॥ गुरमति बूझै करि वीचारा ॥ हउमै मारि सदा मनु निरमलु रसना सेवि सुखदाता हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोति अपारा = बेअंत प्रभु की ज्योति। बूझै = समझता है। करि = कर के। मारि = मार के। रसना = जीभ से। सेवि = जप के।12।
अर्थ: हे भाई! (विकारों के कारण मनुष्य का) मन और तन गंदा हुआ रहता है, (फिर भी उसके) अंदर बेअंत परमात्मा की ज्योति मौजूद है। जब गुरु की मति से वह विचार करके (आत्मिक जीवन के भेद को) समझता है, तब अहंकार को दूर करके, और जीभ से सुखों के दाते प्रभु का नाम जप के, उसका मन सदा के लिए पवित्र हो जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गड़ काइआ अंदरि बहु हट बाजारा ॥ तिसु विचि नामु है अति अपारा ॥ गुर कै सबदि सदा दरि सोहै हउमै मारि पछाता हे ॥१३॥
मूलम्
गड़ काइआ अंदरि बहु हट बाजारा ॥ तिसु विचि नामु है अति अपारा ॥ गुर कै सबदि सदा दरि सोहै हउमै मारि पछाता हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गढ़ = किला। काइआ = शरीर। हट = हाट (बहुवचन। मन ज्ञान-इंद्रिय आदि)। तिसु विचि = इस (शरीर किले) में। अति अपारा = बहुत कीमती। कै = सबदि = के शब्द से (खरीद फरोख़्त की)। दरि = (प्रभु के) दर से। सोहै = शोभा देता है, आदर पाता है। मारि = मार के।13।
अर्थ: हे भाई! इस शरीर किले में (मन, ज्ञान-इंद्रिय आदि) कई हाट हैं कई बाजार हैं (जहाँ परमात्मा के नाम-सौदे का सौदा किया जा सकता है)। इस (शरीर-किले) के बीच (ही) परमात्मा का बहुत कीमती नाम-पदार्थ है। जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (इस नाम-रतन को परख के खरीदता है, वह मनुष्य) परमात्मा के दर पर सदा आदर पाता है, (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर के (वह मनुष्य इस नाम-रतन की) कद्र समझता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतनु अमोलकु अगम अपारा ॥ कीमति कवणु करे वेचारा ॥ गुर कै सबदे तोलि तोलाए अंतरि सबदि पछाता हे ॥१४॥
मूलम्
रतनु अमोलकु अगम अपारा ॥ कीमति कवणु करे वेचारा ॥ गुर कै सबदे तोलि तोलाए अंतरि सबदि पछाता हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतनु = नाम रतन। अमोलकु = अ+मोलकु, कोई दुनियावी पदार्थ जिसके बराबर की कीमत का ना हो। सबदे = शब्द से। तोलि = तोल के, परख के। तोलाए = (जो मनुष्य) व्यापार करता है, खरीदता है। अंतरि = अपने अंदर ही। सबदि = शब्द से।14।
अर्थ: हे भाई! कोई भी दुनियावी पदार्थ अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा के नाम-रतन के बराबर की कीमत का नहीं है। जीव बेचारा इस नाम-रत्न का मूल्य पा ही नहीं सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा इस नाम-रतन को परख के खरीदता है, वह शब्द की इनायत से अपने अंदर ही इसको पा लेता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिम्रिति सासत्र बहुतु बिसथारा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ मूरख पड़हि सबदु न बूझहि गुरमुखि विरलै जाता हे ॥१५॥
मूलम्
सिम्रिति सासत्र बहुतु बिसथारा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ मूरख पड़हि सबदु न बूझहि गुरमुखि विरलै जाता हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसथारा = (कर्मकांड आदि का) पसारा। पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)।15।
अर्थ: हे भाई! स्मृतियां-शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तक हरि-नाम के बिना और) बहुत सारे विचारों का खिलारा खिलारते हैं, (पर उनमें) माया का मोह ही है (कर्मकांड का ही) पसारा पसरा हुआ है। (नाम की ओर से टूटे हुए) मूर्ख (उन पुस्तकों को) पढ़ते हैं, पर महिमा की वाणी की कद्र नहीं समझते। गुरु के सन्मुख रहने वाले विरले मनुष्य ने (शब्द की कद्र) समझ ली है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता करे कराए ॥ सची बाणी सचु द्रिड़ाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई जुगि जुगि एको जाता हे ॥१६॥९॥
मूलम्
आपे करता करे कराए ॥ सची बाणी सचु द्रिड़ाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई जुगि जुगि एको जाता हे ॥१६॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सची बाणी = महिमा की वाणी से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्का करता है। जुगि जुगि = हरेक युग में।16।
अर्थ: (पर हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) कर्तार स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। (जिस पर मेहर करता है) महिमा की वाणी से (उसके हृदय में) सदा-स्थिर हरि-नाम पक्का कर देता है। हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभु का नाम मिल जाता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है। वह मनुष्य हरेक युग में एक परमात्मा को ही व्यापक समझता है।16।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ सो सचु सेविहु सिरजणहारा ॥ सबदे दूख निवारणहारा ॥ अगमु अगोचरु कीमति नही पाई आपे अगम अथाहा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ सो सचु सेविहु सिरजणहारा ॥ सबदे दूख निवारणहारा ॥ अगमु अगोचरु कीमति नही पाई आपे अगम अथाहा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सेविहु = स्मरण किया करो। सबदे = शब्द में (जोड़ के)। निवारणहारा = दूर कर सकने वाला। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय ना पहुँच सकें। अथाहा = जिसकी गहराई नहीं नापी जा सकती।1।
अर्थ: हे भाई! उस सदा कायम रहने वाले कर्तार का स्मरण किया करो, वह गुरु के शब्द में जोड़ के (जीवों के सारे) दुख दूर करने की सामर्थ्य वाला है। हे भाई! वह अगम्य (पहुँच से परे) अगोचर और अथाह प्रभु (अपने जैसा) स्वयं ही है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सचा सचु वरताए ॥ इकि जन साचै आपे लाए ॥ साचो सेवहि साचु कमावहि नामे सचि समाहा हे ॥२॥
मूलम्
आपे सचा सचु वरताए ॥ इकि जन साचै आपे लाए ॥ साचो सेवहि साचु कमावहि नामे सचि समाहा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सचु = अटल हुक्म। इकि = कई। साचै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को। साचो = साचु ही, सदा स्थिर प्रभु को ही। नामे = नाम से ही। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही अपना अटल हुक्म चला रहा है। कई भक्तजन ऐसे हैं जिनको उस सदा-स्थिर कर्तार ने स्वयं ही अपने चरणों से जोड़ रखा है। वह भक्त जन सदा-स्थिर का ही स्मरण करते रहते हैं, सदा-स्थिर नाम (स्मरण) की कमाई करते हैं, नाम (नाम-जपने की इनायत) से वह उस सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुरि भगता मेले आपि मिलाए ॥ सची भगती आपे लाए ॥ साची बाणी सदा गुण गावै इसु जनमै का लाहा हे ॥३॥
मूलम्
धुरि भगता मेले आपि मिलाए ॥ सची भगती आपे लाए ॥ साची बाणी सदा गुण गावै इसु जनमै का लाहा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = धुर से ही, अपने हुक्म अनुसार। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। गावै = गाता है (एकवचन)। लाहा = लाभ।3।
अर्थ: हे भाई! धुर दरगाह से भक्तों को प्रभु स्वयं ही अपने साथ मिलाता है, स्वयं ही उनको अपनी सच्ची भक्ति में जोड़ता है। (उसकी अपनी मेहर से ही मनुष्य) महिमा की वाणी से सदा उसके गुण गाता है: हे भाई! ये महिमा ही इस मानव जन्म की कमाई है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि वणजु करहि परु आपु पछाणहि ॥ एकस बिनु को अवरु न जाणहि ॥ सचा साहु सचे वणजारे पूंजी नामु विसाहा हे ॥४॥
मूलम्
गुरमुखि वणजु करहि परु आपु पछाणहि ॥ एकस बिनु को अवरु न जाणहि ॥ सचा साहु सचे वणजारे पूंजी नामु विसाहा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रहि = करते हैं। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे। परु = पराए को। आपु = अपने को। को अवरु = कोई और। साहु = जीव वणजारों को पूंजी देने वाला शाह प्रभु। विसाहा = वणज करते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं वह (नाम जपने का) व्यापार करते हैं, (इस तरह किसी) पराए को और किसी अपने को (ऐसे) पहचानते हैं (कि इनमें) एक परमात्मा के बिना कोई और दूसरा बसता वे नहीं जानते। (वे समझते हैं कि सबको आत्मिक जीवन की पूंजी देने वाला) शाह-परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, जीव उसके सदा-स्थिर नाम का व्यापार करने वाले हैं, (परमात्मा से) पूंजी (ले के उसका) नाम-सौदा खरीदते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे साजे स्रिसटि उपाए ॥ विरले कउ गुर सबदु बुझाए ॥ सतिगुरु सेवहि से जन साचे काटे जम का फाहा हे ॥५॥
मूलम्
आपे साजे स्रिसटि उपाए ॥ विरले कउ गुर सबदु बुझाए ॥ सतिगुरु सेवहि से जन साचे काटे जम का फाहा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। साजे = पैदा करता है। स्रिसटि = जगत। कउ = को। गुर सबदु = गुरु का शब्द। बुझाए = समझाता है। सेवहि = शरण पड़ते हैं। से = वह (बहुवचन)। साचे = अडोल जीवन वाले।5।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही सृष्टि रचता है। (किसी) विरले (भाग्यशाली) को गुरु के शब्द की सूझ भी स्वयं ही बख्शता है। (उसकी मेहर से जो मनुष्य) गुरु की शरण पड़ते हैं, वे अडोल जीवन वाले हो जाते हैं, परमात्मा स्वयं ही उनकी जम (आत्मिक मौत) के बंधन काटता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भंनै घड़े सवारे साजे ॥ माइआ मोहि दूजै जंत पाजे ॥ मनमुख फिरहि सदा अंधु कमावहि जम का जेवड़ा गलि फाहा हे ॥६॥
मूलम्
भंनै घड़े सवारे साजे ॥ माइआ मोहि दूजै जंत पाजे ॥ मनमुख फिरहि सदा अंधु कमावहि जम का जेवड़ा गलि फाहा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घड़े = घड़ के। सवारे = सुंदर बनाता है। मोहि = मोह में। दूजै = मेर तेर में। पाजे = डाले हुए हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अंधु = अंधों वाला काम। गलि = गले में।6।
अर्थ: हे भाई! (जीवों के शरीर-बर्तन) घड़ के (खुद ही) सँवारता है। माया के मोह में, मेर तेर में भी जीव (उसने स्वयं ही) डाले हुए हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (मोह में) भटकते फिरते हैं, सदा अंधों वाले काम करते रहते हैं, उनके गले में आत्मिक मौत की रस्सी का बंधन बँधा रहता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे बखसे गुर सेवा लाए ॥ गुरमती नामु मंनि वसाए ॥ अनदिनु नामु धिआए साचा इसु जग महि नामो लाहा हे ॥७॥
मूलम्
आपे बखसे गुर सेवा लाए ॥ गुरमती नामु मंनि वसाए ॥ अनदिनु नामु धिआए साचा इसु जग महि नामो लाहा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंनि = मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचा = सदा स्थिर। नामो = नाम ही। लाहा = लाभ।7।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं (जिस पर) बख्शिश करता है (उनको) गुरु की सेवा में जोड़ता है, गुरु की मति दे के (अपना) नाम (उनके) मन में बसाता है। जो मनुष्य हर वक्त हरि-नाम स्मरण करता है, वह अडोल जीवन वाला हो जाता है। हे भाई! परमात्मा का नाम ही इस जगत में (असल) कमाई है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सचा सची नाई ॥ गुरमुखि देवै मंनि वसाई ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहहि तिन सिरि चूका काहा हे ॥८॥
मूलम्
आपे सचा सची नाई ॥ गुरमुखि देवै मंनि वसाई ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहहि तिन सिरि चूका काहा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाई = बड़ाई। सची = सदा कायम रहने वाली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले को। मंनि = मन में। जिन मनि = जिस के मन में। सोहहि = सुंदर लगते हैं। सिरि = सिर पर (पड़ा हुआ)। काहा = भारा, कज़िया। चूका = समाप्त हो जाता है।8।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, उसकी बड़ाई भी सदा कायम रहने वाली है। गुरु के सन्मुख रख के (जीव को अपनी बड़ाई) देता है (जीव के) मन में बसाता है। हे भाई! जिनके मन में (परमात्मा का नाम) आ बसता है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) शोभते हैं, उनके सिर (पड़ा हुआ) भार समाप्त हो जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ सदा सबदि सालाही गुणदाता लेखा कोइ न मंगै ताहा हे ॥९॥
मूलम्
अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ सदा सबदि सालाही गुणदाता लेखा कोइ न मंगै ताहा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। परसादी = कृपा से। मंनि = मन में। सालाही = मैं सालाहता हूँ। ताहा = उसका। सबदि = शब्द से।9।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता)। मैं तो उसको गुरु की कृपा से (अपने) मन में बसाता हूँ। गुरु के शब्द से मैं सदा उस गुणों के दाते की महिमा करता हूँ। (जो उस गुण-दाते की महिमा करता है) उस (के कर्मों का) लेखा कोई नहीं माँगता।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु रुद्रु तिस की सेवा ॥ अंतु न पावहि अलख अभेवा ॥ जिन कउ नदरि करहि तू अपणी गुरमुखि अलखु लखाहा हे ॥१०॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु रुद्रु तिस की सेवा ॥ अंतु न पावहि अलख अभेवा ॥ जिन कउ नदरि करहि तू अपणी गुरमुखि अलखु लखाहा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रुद्रु = शिव। तिसु की = उस परमात्मा की। पावहि = पा सकते, पाते (बहुवचन)। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अभेवा = जिसका भेद नहीं पाया जा सके। करहि = तू करता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसु की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! ब्रहमा, विष्णु, शिव (ये सारे) उस (परमात्मा) की ही शरण में रहते हैं। (ये बड़े-बड़े देवते भी उस) अलख और अभेव परमात्मा (के गुणों) का अंत नहीं पा सकते। हे प्रभु! जिस पर तू अपनी मेहर की निगाह करता है उनको गुरु की शरण में ला के तू अपना अलख स्वरूप समझा देता है।10।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरै सतिगुरि सोझी पाई ॥ एको नामु मंनि वसाई ॥ नामु जपी तै नामु धिआई महलु पाइ गुण गाहा हे ॥११॥
मूलम्
पूरै सतिगुरि सोझी पाई ॥ एको नामु मंनि वसाई ॥ नामु जपी तै नामु धिआई महलु पाइ गुण गाहा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु के द्वारा। मंनि = मन में। वसाई = मैं बसाता हूँ। जपी = मैं जपता हूँ। तै = और। धिआई = मैं ध्याता हूँ। महलु = प्रभु चरणों में ठिकाना। गाहा = मैं डुबकी लगाता हूँ।11।
अर्थ: हे भाई! पूरे सतिगुरु ने (मुझे आत्मिक जीवन की) समझ बख्शी है, अब मैं परमात्मा का ही नाम अपने मन में बसाता हूँ। मैं परमात्मा का नाम जपता हूँ, और उसका नाम ध्याता हूँ, (नाम की इनायत से प्रभु-चरणों में) ठिकाना प्राप्त करके मैं उसके गुणों में डुबकी लगा रहा हूँ।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक सेवहि मंनि हुकमु अपारा ॥ मनमुख हुकमु न जाणहि सारा ॥ हुकमे मंने हुकमे वडिआई हुकमे वेपरवाहा हे ॥१२॥
मूलम्
सेवक सेवहि मंनि हुकमु अपारा ॥ मनमुख हुकमु न जाणहि सारा ॥ हुकमे मंने हुकमे वडिआई हुकमे वेपरवाहा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = सेवा करते हैं। मंनि = मान के। मनमुख = मन के मुरीद मनुष्य। हुकम सारा = हुक्म की सार, हुक्म की कद्र। न जाणहि = नहीं जानते (बहुवचन)।12।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त तो उस बेअंत प्रभु का हुक्म मान के उसकी सेवा-भक्ति करते हैं, पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य उसके हुक्म की कद्र नहीं समझते। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के हुक्म को मानता है, वह प्रभु हुक्म (मानने) के कारण (लोक-परलोक की) बड़ाई प्राप्त करता है, वह बेपरवाह प्रभु के हुक्म में ही लीन रहता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी हुकमु पछाणै ॥ धावतु राखै इकतु घरि आणै ॥ नामे राता सदा बैरागी नामु रतनु मनि ताहा हे ॥१३॥
मूलम्
गुर परसादी हुकमु पछाणै ॥ धावतु राखै इकतु घरि आणै ॥ नामे राता सदा बैरागी नामु रतनु मनि ताहा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से। हुकमु = (परमात्मा की) रज़ा। धावतु = भटकता मन। इकतु = एक में ही। घरि = घर में। इकतु घरि = एक घर में। आणै = ले आता है। नामे = नाम में ही। बैरागी = वैरागवान, माया से उपराम, निर्लिप। मनि = मन में। ताहा = उसके। मनि ताहा = उसके मन में।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकतु’ शब्द ‘इकसु’ से अधिकरण कारक एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से परमात्मा की रजा को पहचानता है, वह अपने भटकते मन को रोक के रखता है, वह (अपने मन को) एक घर में ही ले आता है, वह मनुष्य हरि-नाम में रंगा रहता है, वह (विकारों से) सदा निर्लिप रहता है, परमात्मा का रतन-नाम उसके मन में बसा रहता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ जग महि वरतै एको सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सबदु सलाहहि से जन निरमल निज घरि वासा ताहा हे ॥१४॥
मूलम्
सभ जग महि वरतै एको सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सबदु सलाहहि से जन निरमल निज घरि वासा ताहा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतै = व्यापक है। परगटु होई = दिखता है। सलाहहि = सलाहते हैं। से = वह (बहुवचन)। निज घरि = अपने (असल) घर में। ताहा = उनका।14।
अर्थ: हे भाई! सारे जगत में एक परमात्मा ही बसता है, पर वह गुरु की कृपा से दिखता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द को (हृदय में बसा के परमात्मा की) महिमा करते हैं, वे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, उनका निवास सदा स्वै-स्वरूप में हुआ रहता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा भगत तेरी सरणाई ॥ अगम अगोचर कीमति नही पाई ॥ जिउ तुधु भावहि तिउ तू राखहि गुरमुखि नामु धिआहा हे ॥१५॥
मूलम्
सदा भगत तेरी सरणाई ॥ अगम अगोचर कीमति नही पाई ॥ जिउ तुधु भावहि तिउ तू राखहि गुरमुखि नामु धिआहा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं। तुधु भावहि = तुझे अच्छे लगते हैं। तिउ = उसी तरह। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले।15।
अर्थ: हे प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर! तेरे भक्त सदा तेरी शरण में रहते हैं। पर कोई तेरा मूल्य नहीं पा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले तू नहीं मिल सकता)। हे प्रभु! तू (अपने भक्तों को) वैसे ही रखता है, जैसे वह तुझे प्यारे लगते हैं। (तेरे भक्त) गुरु की शरण पड़ कर तेरा नाम ध्याते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा तेरे गुण गावा ॥ सचे साहिब तेरै मनि भावा ॥ नानकु साचु कहै बेनंती सचु देवहु सचि समाहा हे ॥१६॥१॥१०॥
मूलम्
सदा सदा तेरे गुण गावा ॥ सचे साहिब तेरै मनि भावा ॥ नानकु साचु कहै बेनंती सचु देवहु सचि समाहा हे ॥१६॥१॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावा = मैं गाता हूँ। साहिब = हे साहिब! सचे साहिब = हे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरै मनि = तेरे मन में। भावा = मैं भा जाऊँ, मैं प्यारा लगूँ। नानकु कहै = नानक कहता है। साचु = सदा स्थिर नाम। सचु = सदा स्थिर नाम। सचि = सदा स्थिर नाम में। समाहा = मैं समाया रहूँ।16।
अर्थ: हे प्रभु! (मेहर कर) मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ, ताकि, हे सदा-स्थिर मालिक! मैं तेरे मन में प्यारा लगता रहूँ। (तेरा दास) नानक (तेरे आगे) विनती करता है, तू सदा कायम रहने वाला है, मुझे अपना सदा-स्थिर नाम दे, मैं तेरे सदा-स्थिर नाम में लीन हुआ रहूँ।16।1।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ अनदिनु साचि नामि लिव लागी ॥ सदा सुखदाता रविआ घट अंतरि सबदि सचै ओमाहा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ अनदिनु साचि नामि लिव लागी ॥ सदा सुखदाता रविआ घट अंतरि सबदि सचै ओमाहा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवनि = सेवा करते हैं, शरण पड़ते हैं। से = वे (बहुवचन)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचि नामि = सदा स्थिर नाम में। लिव = लगन। रविआ = मौजूद। घट अंतरि = हृदय में। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। ओमाहा = उत्साह, चढ़दीकला।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे बहुत भाग्यशाली हैं; सदा-स्थिर हरि-नाम में उनकी लगन हर वक्त लगी रहती है। सारे सुखों का दाता परमात्मा हर वक्त उनके हृदय में बसा रहता है। सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से उनके अंदर आत्मिक जीवन के हिलौरे बने रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदरि करे ता गुरू मिलाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ हरि मनि वसिआ सदा सुखदाता सबदे मनि ओमाहा हे ॥२॥
मूलम्
नदरि करे ता गुरू मिलाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ हरि मनि वसिआ सदा सुखदाता सबदे मनि ओमाहा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। मंनि = मन में। मनि = मन में। सबदे = गुरु के शब्द से।2।
अर्थ: पर, हे भाई! जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है तब (ही) गुरु मिलाता है, (गुरु के मिलाप की इनायत से वह मनुष्य) परमात्मा का नाम (अपने) मन में बसा लेता है। सारे सुखों का दाता प्रभु उसके मन में बसा रहता है, शब्द की इनायत से उसके मन में जीवन-उत्साह बना रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिपा करे ता मेलि मिलाए ॥ हउमै ममता सबदि जलाए ॥ सदा मुकतु रहै इक रंगी नाही किसै नालि काहा हे ॥३॥
मूलम्
क्रिपा करे ता मेलि मिलाए ॥ हउमै ममता सबदि जलाए ॥ सदा मुकतु रहै इक रंगी नाही किसै नालि काहा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेलि = (गुरु से) मिला के। ममता = (मम = मेरा, मेरी) कब्ज़े की वासना। सबदि = शब्द से। जलाए = जला लेता है। मुकतु = (अहंकार, ममता से) आजाद। इक रंगी = एक प्रभु के साथ प्यार करने वाला। काहा = खहि खहि, वैर विरोध।3।
अर्थ: हे भाई! जब प्रभु कृपा करता है तब (जीव को गुरु से) मिला के (अपने चरणों से) मिला लेता है। वह मनुष्यगुरू के शब्द से (अपने अंदर से) अहंकार और ममता को जला लेता है। सिर्फ परमात्मा के प्रेम-रंग के सदका वह मनुष्य (अहंकार और ममता से) सदा आजाद रहता है, उसका किसी के साथ भी वैर-विरोध नहीं होता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सतिगुर सेवे घोर अंधारा ॥ बिनु सबदै कोइ न पावै पारा ॥ जो सबदि राते महा बैरागी सो सचु सबदे लाहा हे ॥४॥
मूलम्
बिनु सतिगुर सेवे घोर अंधारा ॥ बिनु सबदै कोइ न पावै पारा ॥ जो सबदि राते महा बैरागी सो सचु सबदे लाहा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घोर अंधारा = घोर अंधेरा (अहंकार ममता आदि का)। पारा = उस पार का किनारा। सबदि = शब्द में। राते = मस्त। बैरागी = निर्लिप, त्यागी। सो सचु = उस सदा स्थिर हरि नाम। लाहा = लाभ।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना (जीव के जीवन-राह में अहंकार और ममता आदि का) घोर अंधकार बना रहता है, गुरु के शब्द के बिना कोई मनुष्य (इस घोर अंधेरे का) परला किनारा नहीं पा सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द में मस्त रहते हैं, वे बड़े त्यागी है। गुरु के शब्द से वे सदा-स्थिर हरि-नाम ही (उनके लिए असल) कमाई है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुखु सुखु करतै धुरि लिखि पाइआ ॥ दूजा भाउ आपि वरताइआ ॥ गुरमुखि होवै सु अलिपतो वरतै मनमुख का किआ वेसाहा हे ॥५॥
मूलम्
दुखु सुखु करतै धुरि लिखि पाइआ ॥ दूजा भाउ आपि वरताइआ ॥ गुरमुखि होवै सु अलिपतो वरतै मनमुख का किआ वेसाहा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। धुरि = धुर से, अपने हुक्म से। लिखि = (जीव के भाग्यों में) लिख के। दूजा भाउ = माया का मोह। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सु = वह मनुष्य। अलिपतो = निर्लिप। मनमुख = मन के मुरीद मनुष्य। वेसाहा = एतबार, भरोसा।5।
अर्थ: हे भाई! कर्तार ने अपने हुक्म से ही दुख और सुख (भोगना जीवों के भाग्यों में) लिख के डाल दिया है। माया का मोह भी परमात्मा ने खुद ही फैलाया हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह (माया के मोह से) निर्लिप रहता है; पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का कोई ऐतबार नहीं किया जा सकता (कि कौन से वक्त माया के मोह में फंस जाए)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से मनमुख जो सबदु न पछाणहि ॥ गुर के भै की सार न जाणहि ॥ भै बिनु किउ निरभउ सचु पाईऐ जमु काढि लएगा साहा हे ॥६॥
मूलम्
से मनमुख जो सबदु न पछाणहि ॥ गुर के भै की सार न जाणहि ॥ भै बिनु किउ निरभउ सचु पाईऐ जमु काढि लएगा साहा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। न पछाणहि = नहीं पहचानते, सांझ नहीं पाते। भै की = (संबंधक ‘की’ के कारण ‘भउ’ ‘भै’ में तब्दील हो गया है) डर अदब। सार = कीमत, कद्र। भै बिनु = डर अदब के बिना। सचु = सदा स्थिर प्रभु।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते, अपने मन के पीछे चलने लग जाते हैं, वे मनुष्य गुरु के डर-अदब की कद्र नहीं जानते। जब तक गुरु के भय-अदब में ना रहें, तब तक सदा-स्थिर निर्भय परमात्मा के साथ मिलाप नहीं हो सकता, (सदा ये सहम बना रहता है कि पता नहीं) जमराज (कब आ के) प्राण निकाल के ले जाएगा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अफरिओ जमु मारिआ न जाई ॥ गुर कै सबदे नेड़ि न आई ॥ सबदु सुणे ता दूरहु भागै मतु मारे हरि जीउ वेपरवाहा हे ॥७॥
मूलम्
अफरिओ जमु मारिआ न जाई ॥ गुर कै सबदे नेड़ि न आई ॥ सबदु सुणे ता दूरहु भागै मतु मारे हरि जीउ वेपरवाहा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अफरिओ = भूताया हुआ, ना टलने वाला। कै सबदे = के शब्द से। भागै = भाग जाता है। मतु = कहीं ऐसा ना हो कि। मारे = सजा दे।7।
अर्थ: हे भाई! जमराज को रोका नहीं जा सकता, जमराज को मारा नहीं जा सकता। पर, गुरु के शब्द में जुड़ने से (जमराज का सहम मनुष्य के) नजदीक नहीं फटकता। जब वह गुरु का शब्द (गुरमुख के मुँह से) सुनता है, तब दूर से ही (उसके पास से) भाग जाता है कि कहीं ऐसा ना हो कि बेपरवाह प्रभु (इस खुनामी के पीछे) सजा ही ना दे दे (जमराज गुरमुख मनुष्य को मौत का डर दे ही नहीं सकता)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ की है सभ सिरकारा ॥ एहु जमु किआ करे विचारा ॥ हुकमी बंदा हुकमु कमावै हुकमे कढदा साहा हे ॥८॥
मूलम्
हरि जीउ की है सभ सिरकारा ॥ एहु जमु किआ करे विचारा ॥ हुकमी बंदा हुकमु कमावै हुकमे कढदा साहा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी। सिरकारा = रईअत, हकूमत। हुकमी बंदा = हुक्म में रहने वाला व्यक्ति। हुकमु कमावै = (परमात्मा का) हुक्म बरतता है, हुक्म अनुसार चलता है। हुकमे = हुक्म अनुसार ही।8।
अर्थ: हे भाई! सारी ही सृष्टि परमात्मा के हुक्म में है (यमराज भी परमात्मा की ही प्रजा है रईयत है), परमात्मा के हुक्म के बिना जमराज बेचारा कुछ नहीं कर सकता। जमराज भी प्रभु के हुक्म में ही चलने वाला है, प्रभु के हुक्म अनुसार ही कार करता है, हुक्म के अनुसार ही प्राण निकालता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि साचै कीआ अकारा ॥ गुरमुखि पसरिआ सभु पासारा ॥ गुरमुखि होवै सो सचु बूझै सबदि सचै सुखु ताहा हे ॥९॥
मूलम्
गुरमुखि साचै कीआ अकारा ॥ गुरमुखि पसरिआ सभु पासारा ॥ गुरमुखि होवै सो सचु बूझै सबदि सचै सुखु ताहा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साचै = सदा स्थिर परमात्मा ने। अकारा = जगत। सभु = सारा। पासारा = (प्रभु का) खिलारा। सो = वह। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभु के महिमा के शब्द से। ताहा = उसको।9।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (समझता है कि) सारा जगत सदा-स्थिर परमात्मा ने पैदा किया है, ये सारा जगत पसारा परमात्मा का ही पसारा हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाल लेता है, सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी की इनायत से उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।9।
[[1055]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि जाता करमि बिधाता ॥ जुग चारे गुर सबदि पछाता ॥ गुरमुखि मरै न जनमै गुरमुखि गुरमुखि सबदि समाहा हे ॥१०॥
मूलम्
गुरमुखि जाता करमि बिधाता ॥ जुग चारे गुर सबदि पछाता ॥ गुरमुखि मरै न जनमै गुरमुखि गुरमुखि सबदि समाहा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमि = (प्रभु की) बख्शिश से। करमु = बख्शिश, कृपा। बिधाता जाता = विधाता से सांझ डालता है। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। सबदि समाहा = गुरु के शब्द में लीन रहता है।10।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (प्रभु की) बख्शिश से विधाता प्रभु के साथ सांझ डालता है। हे भाई! चारों युगों में ही गुरु के शब्द के द्वारा ही प्रभु के साथ सांझ बनती है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता वह गुरु के शब्द में लीन रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नामि सबदि सालाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ एक नामि जुग चारि उधारे सबदे नाम विसाहा हे ॥११॥
मूलम्
गुरमुखि नामि सबदि सालाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ एक नामि जुग चारि उधारे सबदे नाम विसाहा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। सालाहे = महिमा करता है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। एक नामि = परमात्मा के नाम ने ही। उधारे = विकारों से बचाए हैं, उद्धारे। नाम विसाह = नाम का व्यापार किया जा सकता है।11।
अर्थ: हे भाई! गुरमुख मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ता है, गुरु के शब्द द्वारा अगम अगोचर बेपरवाह प्रभु की महिमा करता है। (हे भाई! गुरमुख जानता है कि) परमात्मा के नाम ने ही चारों युगों के जीवों का पार-उतारा किया है, और गुरु के शब्द से नाम का व्यापार किया जा सकता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सांति सदा सुखु पाए ॥ गुरमुखि हिरदै नामु वसाए ॥ गुरमुखि होवै सो नामु बूझै काटे दुरमति फाहा हे ॥१२॥
मूलम्
गुरमुखि सांति सदा सुखु पाए ॥ गुरमुखि हिरदै नामु वसाए ॥ गुरमुखि होवै सो नामु बूझै काटे दुरमति फाहा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदे = अपने हृदय में। वसाए = बसाता है। नामु बूझै = नाम के साथ सांझ पाता है। दुरमति = खोटी मति। फाहा = फांसी।12।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा आत्मिक ठंड और आत्मिक आनंद पाता है, वह अपने दिल में परमात्मा का नाम बसाए रखता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह हरि के नाम से सांझ पा लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि उपजै साचि समावै ॥ ना मरि जमै न जूनी पावै ॥ गुरमुखि सदा रहहि रंगि राते अनदिनु लैदे लाहा हे ॥१३॥
मूलम्
गुरमुखि उपजै साचि समावै ॥ ना मरि जमै न जूनी पावै ॥ गुरमुखि सदा रहहि रंगि राते अनदिनु लैदे लाहा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। उपजै = पैदा होता है। साचि = सदा कायम रहे वाले परमात्मा में। मरि = मर के। रहहि = रहते हैं (बहु वचन)। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।13।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उस सदा-स्थिर परमात्मा (की याद) में लीन रहता है जिससे वह पैदा हुआ है, (इसलिए) वह बार-’बार पैदा होता-मरता नहीं, वह जूनियों में नहीं पड़ता। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे सदा परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, वे हर समय यह लाभ कमाते रहते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि भगत सोहहि दरबारे ॥ सची बाणी सबदि सवारे ॥ अनदिनु गुण गावै दिनु राती सहज सेती घरि जाहा हे ॥१४॥
मूलम्
गुरमुखि भगत सोहहि दरबारे ॥ सची बाणी सबदि सवारे ॥ अनदिनु गुण गावै दिनु राती सहज सेती घरि जाहा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहहि = शोभा पाते हैं, आदर पाते हैं। (बहुवचन)। सच्ची बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी राहीं। सबदि = गुरु के शब्द की इनायत से। गावै = गाता है (एकवचन) सहज = आत्मिक अडोलता। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु-चरणों में।14।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले भक्त परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से गुरु के शब्द की इनायत से उनके जीवन सुधर जाते हैं। हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा के गुण गाता है, वह आत्मिक अडोलता से प्रभु-चरणों में टिका रहता है (उसका मन बाहर नहीं भटकता)।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु पूरा सबदु सुणाए ॥ अनदिनु भगति करहु लिव लाए ॥ हरि गुण गावहि सद ही निरमल निरमल गुण पातिसाहा हे ॥१५॥
मूलम्
सतिगुरु पूरा सबदु सुणाए ॥ अनदिनु भगति करहु लिव लाए ॥ हरि गुण गावहि सद ही निरमल निरमल गुण पातिसाहा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगति = (शब्द ‘भगति’ और ‘भगत’ का फर्क भी याद रखें।) लाए = लगा के। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सद = सदा। निरमल = पवित्र जीवन वाले।15।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु शब्द सुनाता है (और कहता है कि) हर समय तवज्जो जोड़ के परमात्मा की भक्ति करते रहो। जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाते हैं, प्रभु-पातशाह के पवित्र गुण गाते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण का दाता सचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नानक जनु नामु सलाहे बिगसै सो नामु बेपरवाहा हे ॥१६॥२॥११॥
मूलम्
गुण का दाता सचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नानक जनु नामु सलाहे बिगसै सो नामु बेपरवाहा हे ॥१६॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। बूझै = समझता है। बिगसै = विगसता है, खिलता है।16।
अर्थ: पर, हे भाई! (अपने) गुणों (के गायन) की दाति देने वाला वह सदा-स्थिर परमात्मा स्वयं ही है। गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (इस बात को) समझता है।
हे नानक! परमात्मा का जो सेवक परमात्मा के नाम की बड़ाई करता है, बेपरवाह प्रभु का नाम जपता है, वह सदा खिला हुआ रहता है।16।2।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ हरि जीउ सेविहु अगम अपारा ॥ तिस दा अंतु न पाईऐ पारावारा ॥ गुर परसादि रविआ घट अंतरि तितु घटि मति अगाहा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ हरि जीउ सेविहु अगम अपारा ॥ तिस दा अंतु न पाईऐ पारावारा ॥ गुर परसादि रविआ घट अंतरि तितु घटि मति अगाहा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेविहु = स्मरण किया करो। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। पारावारा = पार+अवारा, इस पार उस पार का किनारा। परसादि = कृपा से। घट अंतरि = जिस हृदय में। तितु घटि = उस हृदय में। अगाहा = अथाह।1।
अर्थ: हे भाई! बेअंत और अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा का स्मरण करते रहा करो। उस (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, (उसकी हस्ती) उसके इस पार-उस पार का छोर नहीं पाया जा सकता। हे भाई! गुरु की कृपा से जिस हृदय में परमात्मा आ बसता है, उस हृदय में बड़ी ऊँची मति प्रकट हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ महि वरतै एको सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सभना प्रतिपाल करे जगजीवनु देदा रिजकु स्मबाहा हे ॥२॥
मूलम्
सभ महि वरतै एको सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सभना प्रतिपाल करे जगजीवनु देदा रिजकु स्मबाहा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ महि = सब जीवों में। वरतै = मौजूद है। परसादी = कृपा से। प्रतिपाल = पालना। जग जीवनु = जगत का सहारा प्रभु। संबाहा = पहुँचाता है।2।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह परमात्मा ही सब जीवों में व्यापक है, पर गुरु की कृपा से ही वह प्रकट होता है। वह जगत-का-सहारा प्रभु सब जीवों की पालना करता है, सबको रिजक देता है, सबको रिज़क पहुँचाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरै सतिगुरि बूझि बुझाइआ ॥ हुकमे ही सभु जगतु उपाइआ ॥ हुकमु मंने सोई सुखु पाए हुकमु सिरि साहा पातिसाहा हे ॥३॥
मूलम्
पूरै सतिगुरि बूझि बुझाइआ ॥ हुकमे ही सभु जगतु उपाइआ ॥ हुकमु मंने सोई सुखु पाए हुकमु सिरि साहा पातिसाहा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। बूझि = (स्वयं) समझ के। बुझाइआ = (जगत को) समझाया है (कि)। हुकमे = (अपने) हुक्म में ही। सिरि = सिर पर।3।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (खुद) समझ के (जगत को) समझाया है कि परमात्मा ने अपने हुक्म में ही सारा जगत पैदा किया है। जो मनुष्य उसके हुक्म को (मीठा करके) मानता है, वही आत्मिक आनंद पाता है। उसका हुक्म शाहों-पातशाहों के सिर पर भी चल रहा है (कोई उससे आकी नहीं हो सकता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा सतिगुरु सबदु अपारा ॥ तिस दै सबदि निसतरै संसारा ॥ आपे करता करि करि वेखै देदा सास गिराहा हे ॥४॥
मूलम्
सचा सतिगुरु सबदु अपारा ॥ तिस दै सबदि निसतरै संसारा ॥ आपे करता करि करि वेखै देदा सास गिराहा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर, अटल। सबदु = (गुरु का) शब्द (उपदेश) भी। अपारा = बहुत गहरा। दै सबदि = के शब्द से। निसतरै = (संसार समुंदर से) निस्तारा पार उतारा हो जाता है। करि = कर के। वेखै = संभाल करता है। सास = श्वास (बहुवचन)। गिराहा = ग्रास, रोजी।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस दै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दै’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु अभूल है, उसका उपदेश भी बहुत गहरा है। उसके शब्द से जगत (संसार-समुंदर से) पार लांघता है। (गुरु यह बताता है कि) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके (उनकी) संभाल करता है, (सबको) साँसें (प्राण) भी देता है रोज़ी भी देता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि मधे किसहि बुझाए ॥ गुर कै सबदि रते रंगु लाए ॥ हरि सालाहहि सदा सुखदाता हरि बखसे भगति सलाहा हे ॥५॥
मूलम्
कोटि मधे किसहि बुझाए ॥ गुर कै सबदि रते रंगु लाए ॥ हरि सालाहहि सदा सुखदाता हरि बखसे भगति सलाहा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़। मधे = बीच में। किसहि = किसी विरले को। रंगु लाइ = रंग लगा के, प्यार से। सालाहहि = सलाहते हैं। सालाहा = महिमा।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किसहि’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘हि’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! करोड़ों में से किसी विरले को (परमात्मा सही आत्मिक जीवन की) सूझ बख्शता है। हे भाई! जो मनुष्य प्यार से गुरु के शब्द में मस्त रहते हैं, और सारे सुखों के दाते हरि की सदा महिमा करते हैं, परमात्मा उनको भक्ति और महिमा की (और) दाति बख्शता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवहि से जन साचे ॥ जो मरि जमहि काचनि काचे ॥ अगम अगोचरु वेपरवाहा भगति वछलु अथाहा हे ॥६॥
मूलम्
सतिगुरु सेवहि से जन साचे ॥ जो मरि जमहि काचनि काचे ॥ अगम अगोचरु वेपरवाहा भगति वछलु अथाहा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = सेवते हैं, शरण पड़ते हैं। साचे = ठहराव भरे जीवन वाले। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं, पैदा होते मरते रहते हैं। काच निकाचे = बिलकुल कच्चे, बहुत कमजोर आत्मिक जीवन वाले। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। अथाहा = अथाह, बहुत गहरा, बेअंत।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे अडोल जीवन वाले हो जाते हैं। पर जो जनम-मरण के चक्करों में पड़े हुए हैं, वे बहुत ही कमजोर आत्मिक जीवन वाले हैं। हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) अगोचर बेपरवाह और बेअंत परमात्मा भक्ति से प्यार करता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु पूरा साचु द्रिड़ाए ॥ सचै सबदि सदा गुण गाए ॥ गुणदाता वरतै सभ अंतरि सिरि सिरि लिखदा साहा हे ॥७॥
मूलम्
सतिगुरु पूरा साचु द्रिड़ाए ॥ सचै सबदि सदा गुण गाए ॥ गुणदाता वरतै सभ अंतरि सिरि सिरि लिखदा साहा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्का करता है। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। वरतै = व्यापक (दिखता) है। सिरि सिरि = हरेक (जीव) के सिर पर।7।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु जिस मनुष्य के दिल में सदा-स्थिर हरि का नाम पक्का करता है, वह मनुष्य शब्द से सदा स्थिर प्रभु के गुण गाता है, उसे इस तरह दिखता है कि गुण-दाता प्रभु सब जीवों में बस रहा है, और हरेक के सिर पर वह समय (साहा) लिखता है (जब जीवात्मा दुल्हन ने परलोक ससुराल चले जाना है)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा हदूरि गुरमुखि जापै ॥ सबदे सेवै सो जनु ध्रापै ॥ अनदिनु सेवहि सची बाणी सबदि सचै ओमाहा हे ॥८॥
मूलम्
सदा हदूरि गुरमुखि जापै ॥ सबदे सेवै सो जनु ध्रापै ॥ अनदिनु सेवहि सची बाणी सबदि सचै ओमाहा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हदूरि = अंग संग। जापै = प्रतीत होता है। सबदे = शब्द से। ध्रापै = (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। सची बाणी = महिमा की वाणी से। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। ओमाहा = खिलाव, आनंद।8।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा अंग-संग बसता दिखता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द से सेवा-भक्ति करता है वह मनुष्य (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। हे भाई! जो मनुष्य महिमा वाली वाणी के द्वारा हर वक्त परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं, शब्द की इनायत से उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआनी अंधा बहु करम द्रिड़ाए ॥ मनहठि करम फिरि जोनी पाए ॥ बिखिआ कारणि लबु लोभु कमावहि दुरमति का दोराहा हे ॥९॥
मूलम्
अगिआनी अंधा बहु करम द्रिड़ाए ॥ मनहठि करम फिरि जोनी पाए ॥ बिखिआ कारणि लबु लोभु कमावहि दुरमति का दोराहा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआनी = (आत्मिक जीवन से) बेसमझ मनुष्य। अंधा = (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य। बहु करम = (तीर्थ स्नान आदि) अनेक (निहित धार्मिक) कर्म। द्रिढ़ाए = जोर देता है। हठि = हठ से। बिखिआ = माया। कारणि = की खातिर। दोराहा = दो रास्तों का मेल (जहाँ ये पता ना लग सके कि असल रास्ता कौन सा है), दुचिक्तापन। दुरमति = खोटी मति।9।
अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन से) बेसमझ (और माया के मोह में) अंधा (हुआ) मनुष्य (हरि-नाम भुला के तीर्थ-स्नान आदि और-और ही) अनेक (निहित हुए धार्मिक) कर्मों पर जोर देता है। पर जो मनुष्य मन के हठ से (ऐसे) कर्म (करता रहता है, वह) बार-बार जूनियों में पड़ता है। हे भाई! जो मनुष्य माया (कमाने) की खातिर लब-लोभ (को चमकाने वाले) कर्म करते हैं, उनकी जीवन-यात्रा में खोटी मति का दु-चिक्ता-पन आ जाता है।9।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरा सतिगुरु भगति द्रिड़ाए ॥ गुर कै सबदि हरि नामि चितु लाए ॥ मनि तनि हरि रविआ घट अंतरि मनि भीनै भगति सलाहा हे ॥१०॥
मूलम्
पूरा सतिगुरु भगति द्रिड़ाए ॥ गुर कै सबदि हरि नामि चितु लाए ॥ मनि तनि हरि रविआ घट अंतरि मनि भीनै भगति सलाहा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। नामि = नाम में। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। घट अंतरि = हृदय में। मनि भीनै = अगर मन भीग जाए। सालाह = महिमा।10।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा की भक्ति करने का विश्वास पैदा करता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा के नाम में (अपना) चिक्त जोड़ता है, उसके मन में तन में दिल में सदा परमात्मा बसा रहता है। हे भाई! (परमात्मा में) मन भीगने से मनुष्य उसकी भक्ति और महिमा करता रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा प्रभु साचा असुर संघारणु ॥ गुर कै सबदि भगति निसतारणु ॥ मेरा प्रभु साचा सद ही साचा सिरि साहा पातिसाहा हे ॥११॥
मूलम्
मेरा प्रभु साचा असुर संघारणु ॥ गुर कै सबदि भगति निसतारणु ॥ मेरा प्रभु साचा सद ही साचा सिरि साहा पातिसाहा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। असुर संघारणु = (कामादिक) दैत्यों का नाश करने वाला। निसतारणु = संसार समुंदर से पार लंघाने वाला। सिरि = सिर पर।11।
अर्थ: हे भाई! मेरा परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, (मनुष्य के अंदर से कामादिक) दैत्यों का नाश करने वाला है, गुरु के शब्द में (जोड़ के) भक्ती में (लगा के संसार-समुंदर से) पार लंघाने वाला है। हे भाई! मेरा प्रभु सदा-स्थिर रहने वाला है सदा ही कायम रहने वाला है, वह तो शाहों-पातशाहों के सिर पर (भी हुक्म चलाने वाला) है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से भगत सचे तेरै मनि भाए ॥ दरि कीरतनु करहि गुर सबदि सुहाए ॥ साची बाणी अनदिनु गावहि निरधन का नामु वेसाहा हे ॥१२॥
मूलम्
से भगत सचे तेरै मनि भाए ॥ दरि कीरतनु करहि गुर सबदि सुहाए ॥ साची बाणी अनदिनु गावहि निरधन का नामु वेसाहा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह लोग (बहुवचन)। सचे = अडोल जीवन वाले। तेरै मनि = तेरे मन में। भाए = अच्छे लगे। दरि = (तेरे) दर पर। करहि = करते हैं (बहु वचन)। सुहाए = सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन गए। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। वेसाहा = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।12।
अर्थ: हे प्रभु! वही भक्त अडोल आत्मिक जीवन वाले बनते हैं, जो तेरे मन को प्यारे लगते हैं; वे तेरे दर पर (टिक के, ठहर कर) तेरी महिमा करते हैं, गुरु के शब्द की इनायत से उनका आत्मिक जीवन सुंदर बन जाता है। हे भाई! वह भक्त-जन सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी हर वक्त गाते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम, (नाम-) धन से वंचित मनुष्यों के लिए राशि-पूंजी है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन आपे मेलि विछोड़हि नाही ॥ गुर कै सबदि सदा सालाही ॥ सभना सिरि तू एको साहिबु सबदे नामु सलाहा हे ॥१३॥
मूलम्
जिन आपे मेलि विछोड़हि नाही ॥ गुर कै सबदि सदा सालाही ॥ सभना सिरि तू एको साहिबु सबदे नामु सलाहा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (तू) स्वयं ही। मेलि = मेल के। कै सबदि = के शब्द से। सालाही = सराहना करते हैं, महिमा करते हैं। सिरि = सिर पर। साहिबु = मालिक। सबदे = गुरु के शब्द में (जुड़ के)।13।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही जिस मनुष्यों को (अपने चरणों में) जोड़ के (फिर) विछोड़ता नहीं है, वह मनुष्य गुरु के शब्द से सदा तेरी महिमा करते रहते हैं। हे प्रभु! सब जीवों के सिर पर तू खुद ही मालिक है। (तेरी मेहर से ही जीव गुरु के) शब्द में (जुड़ के तेरा) नाम (जप सकते हैं और तेरी) महिमा कर सकते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सबदै तुधुनो कोई न जाणी ॥ तुधु आपे कथी अकथ कहाणी ॥ आपे सबदु सदा गुरु दाता हरि नामु जपि स्मबाहा हे ॥१४॥
मूलम्
बिनु सबदै तुधुनो कोई न जाणी ॥ तुधु आपे कथी अकथ कहाणी ॥ आपे सबदु सदा गुरु दाता हरि नामु जपि स्मबाहा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नो = को। न जाणी = नहीं जानता, सांझ नहीं डाल सकता। आपे = (गुरु रूप हो के तू) स्वयं ही। अकथ = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। कहाणी = महिमा। जपि = जप के। संबाहा = (नाम) पहुँचाता है, देता है।14।
अर्थ: हे प्रभु! गुरु के शब्द के बिना कोई मनुष्य तेरे साथ सांझ नहीं डाल सकता, (गुरु के शब्द से) तू स्वयं ही अपना अकथ स्वरूप बयान करता है। तू स्वयं ही गुरु-रूप हो के सदा शब्द की दाति देता आया है, गुरु-रूप हो के तू खुद ही हरि-नाम जप के (जीवों को भी यह दाति) देता आ रहा है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू आपे करता सिरजणहारा ॥ तेरा लिखिआ कोइ न मेटणहारा ॥ गुरमुखि नामु देवहि तू आपे सहसा गणत न ताहा हे ॥१५॥
मूलम्
तू आपे करता सिरजणहारा ॥ तेरा लिखिआ कोइ न मेटणहारा ॥ गुरमुखि नामु देवहि तू आपे सहसा गणत न ताहा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेटणहारा = मिटा सकने वाला। गुरमुखि = गुरु से। देवहि = (तू) देता है। सहसा = सहम। गणत = चिन्ता। ताहा = उसको।15।
अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही (सारी सृष्टि को) पैदा कर सकने वाला कर्तार है। कोई जीव तेरे लिखे लेखों को मिटा सकने के काबिल नहीं है। गुरु की शरण में ला के तू खुद ही अपना नाम देता है, (और, जिसको तू नाम की दाति देता है) उसको कोई सहम कोई चिन्ता-फिक्र छू नहीं सकते।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत सचे तेरै दरवारे ॥ सबदे सेवनि भाइ पिआरे ॥ नानक नामि रते बैरागी नामे कारजु सोहा हे ॥१६॥३॥१२॥
मूलम्
भगत सचे तेरै दरवारे ॥ सबदे सेवनि भाइ पिआरे ॥ नानक नामि रते बैरागी नामे कारजु सोहा हे ॥१६॥३॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचे = सुखरू। तेरै दरवारे = तेरे दरबार में। सेवनि = सेवा भक्ति करते हैं। भाइ = प्रेम से। रते = मस्त। बैरागी = त्यागी, विरक्त। नामे = नाम से ही। कारजु = (हरेक) काम। सोहा = सुंदर हो जाता है, सफल हो जाता है।16।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भाइ’ है ‘भाउ’ से ‘भाय’ कर्ण कारक, एकवचन (भाउ = प्रेम)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तेरे दरबार में तेरे भक्त संतुलित रहते हैं, क्योंकि, वे तेरे प्रेम-प्यार में गुरु के शब्द द्वारा तेरी सेवा-भक्ति करते हैं। हे नानक! परमातमा के नाम-रंग में रंगे हुए मनुष्य (दर असल) त्यागी है, नाम की इनायत से उनका हरेक काम सफल हो जाता है।16।3।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ मेरै प्रभि साचै इकु खेलु रचाइआ ॥ कोइ न किस ही जेहा उपाइआ ॥ आपे फरकु करे वेखि विगसै सभि रस देही माहा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ मेरै प्रभि साचै इकु खेलु रचाइआ ॥ कोइ न किस ही जेहा उपाइआ ॥ आपे फरकु करे वेखि विगसै सभि रस देही माहा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। साचै = सदा स्थिर रहने वाले ने। खेलु = तमाशा। उपाइआ = पैदा किया। आपे = स्वयं ही। वेखि = देख के। विगसै = खुश होता है। सभि रस = सारे चस्के (बहुवचन)। देही माहा = शरीर में ही।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर रहने वाले मेरे प्रभु ने (यह जगत) एक तमाशा रचा हुआ है, (इसमें उसने) कोई जीव किसी दूसरे जैसा नहीं बनाया। खुद ही (जीवों में) अंतर पैदा करता है, और (ये अंतर) देख के खुश होता है। (फिर उसने) शरीर में ही सारे चस्के पैदा कर दिए हें।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाजै पउणु तै आपि वजाए ॥ सिव सकती देही महि पाए ॥ गुर परसादी उलटी होवै गिआन रतनु सबदु ताहा हे ॥२॥
मूलम्
वाजै पउणु तै आपि वजाए ॥ सिव सकती देही महि पाए ॥ गुर परसादी उलटी होवै गिआन रतनु सबदु ताहा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाजे = बजता है (बाजा)। पउणु = हवा, श्वास। तै = तू (हे प्रभु!)। शिव = शिव, जीवात्मा। सकती = शक्ति, माया। परसादी = कृपा से। उलटी होवै = (माया की ओर से) पलट जाए। गिआन सबदु = आत्मिक जीवन की सूझ देने वाला शब्द। रतनु सबदु = कीमती शब्द। ताहा = उस (मनुष्य) को (प्राप्त होता है)।2।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरी अपनी कला से हरेक शरीर में) श्वासों का बाजा बज रहा है (श्वास चल रहे हैं), तू स्वयं ही ये साँसों के बाजे बजा रहा है। हे भाई! परमात्मा ने शरीर में जीवात्मा और माया (दोनों ही) डाल दिए हैं।
गुरु की कृपा से जिस मनुष्य की तवज्जो माया की ओर से पलटती है, उसको आत्मिक जीवन वाला श्रेष्ठ गुरु-शब्द प्राप्त हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंधेरा चानणु आपे कीआ ॥ एको वरतै अवरु न बीआ ॥ गुर परसादी आपु पछाणै कमलु बिगसै बुधि ताहा हे ॥३॥
मूलम्
अंधेरा चानणु आपे कीआ ॥ एको वरतै अवरु न बीआ ॥ गुर परसादी आपु पछाणै कमलु बिगसै बुधि ताहा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधेरा = माया का मोह। चानणु = आत्मिक जीवन की सूझ। एको = सिर्फ़ खुद ही। वरतै = व्यापक है। बीआ = दूसरा। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = पड़तालता है। कमलु = हृदय कमल फूल। बिगसै = खिलता है। बुधि = (आत्मिक जीवन की सूझ वाली) बुद्धि। ताहा = उसको।3।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह का) अंधेरा और (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश प्रभु ने स्वयं ही बनाया है। (सारे जगत में परमात्मा) स्वयं ही व्यापक है, (उसके बिना) कोई और नहीं है। जो मनुष्य गुरु की कृपा से अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, उसका हृदय-कमल-फूल खिला रहता है, उसको (आत्मिक जीवन की परख करने वाली) बुद्धि प्राप्त होती रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपणी गहण गति आपे जाणै ॥ होरु लोकु सुणि सुणि आखि वखाणै ॥ गिआनी होवै सु गुरमुखि बूझै साची सिफति सलाहा हे ॥४॥
मूलम्
अपणी गहण गति आपे जाणै ॥ होरु लोकु सुणि सुणि आखि वखाणै ॥ गिआनी होवै सु गुरमुखि बूझै साची सिफति सलाहा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहणु = गहरी। गति = आत्मिक अवस्था। सुणि = सुन के। आखि = कह के। वखाणै = बयान कर देता है। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। साची = सदा स्थिर रहने वाली।4।
अर्थ: हे भाई! अपनी गहरी आत्मिक अवस्था परमात्मा स्वयं ही जानता है। जगत तो (दूसरों से) सुन-सुन के (फिर) कह के (और लोगों को) सुनाता है। जो मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ वाला हो जाता है, वह गुरु के सन्मुख रह के (इस भेद को) समझता है, और, वह प्रभु की सदा कायम रहने वाली महिमा करता रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही अंदरि वसतु अपारा ॥ आपे कपट खुलावणहारा ॥ गुरमुखि सहजे अम्रितु पीवै त्रिसना अगनि बुझाहा हे ॥५॥
मूलम्
देही अंदरि वसतु अपारा ॥ आपे कपट खुलावणहारा ॥ गुरमुखि सहजे अम्रितु पीवै त्रिसना अगनि बुझाहा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। वसतु अपारा = बेअंत परमात्मा का नाम पदार्थ। आपे = आप ही। कपट = किवाड़, भिक्त। खुलावणहारा = खुलवाने वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।5।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य के शरीर में (ही) बेअंत परमात्मा का नाम-पदार्थ (मौजूद) है (पर मनुष्य की मति के चारों तरफ मोह की भिक्ति बनी रहती है), परमात्मा स्वयं ही इन किवाड़ों को खोलने में समर्थ है। जो मनुष्य गुरु के द्वारा आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है (वह मनुष्य अपने अंदर से माया की) तृष्णा की आग बुझा लेता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि रस देही अंदरि पाए ॥ विरले कउ गुरु सबदु बुझाए ॥ अंदरु खोजे सबदु सालाहे बाहरि काहे जाहा हे ॥६॥
मूलम्
सभि रस देही अंदरि पाए ॥ विरले कउ गुरु सबदु बुझाए ॥ अंदरु खोजे सबदु सालाहे बाहरि काहे जाहा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि रस = सारे चस्के। बुझाए = समझाता है, सूझ देता है। अंदरु = अंदरूनी, हृदय (शब्द ‘अंदरि’ और अंदरु’ में फर्क है)। काहे जाहा = क्यों जाएगा? नहीं जाएगा।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मनुष्य के शरीर में ही सारे चस्के भी डाल दिए हुए हैं (नाम-वस्तु को ये कैसे मिले?)। किसी विरले को गुरु (अपने) शब्द की सूझ बख्शता है। वह मनुष्य अपना अंदर खोजता है, शब्द (के हृदय में बसा के परमात्मा की) महिमा करता है, फिर वह बाहर भटकता नहीं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विणु चाखे सादु किसै न आइआ ॥ गुर कै सबदि अम्रितु पीआइआ ॥ अम्रितु पी अमरा पदु होए गुर कै सबदि रसु ताहा हे ॥७॥
मूलम्
विणु चाखे सादु किसै न आइआ ॥ गुर कै सबदि अम्रितु पीआइआ ॥ अम्रितु पी अमरा पदु होए गुर कै सबदि रसु ताहा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सादु = स्वाद, आनंद। कै सबदि = के शब्द में (जोड़ के)। पीआइआ = पिलाता है। पी = पी के। अमरापदु = अमरपद, वह दर्जा जहाँ आत्मिक मौत अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। रसु = आनंद। ताहा = उस को।7।
अर्थ: हे भाई! (नाम-अमृत मनुष्य के अंदर ही है, पर) चखे बिना किसी को (उसका) स्वाद नहीं आता। जिस मनुष्य को गुरु के शब्द में जोड़ के परमात्मा यह अमृत पिलाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला वह नाम-जल पी के उस अवस्था पर पहुँच जाता है, जहाँ आत्मिक मौत अपना असर नहीं डाल सकती, गुरु के शब्द की इनायत से उसको (नाम-अमृत का) स्वाद आ जाता है।7।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु पछाणै सो सभि गुण जाणै ॥ गुर कै सबदि हरि नामु वखाणै ॥ अनदिनु नामि रता दिनु राती माइआ मोहु चुकाहा हे ॥८॥
मूलम्
आपु पछाणै सो सभि गुण जाणै ॥ गुर कै सबदि हरि नामु वखाणै ॥ अनदिनु नामि रता दिनु राती माइआ मोहु चुकाहा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। सभि = सारे। जाणै = सांझ डालता है। सबदि = शब्द से। वखाणै = उचारता है (एकवचन)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नामि = नाम में। रता = मस्त। चुकाहा = दूर कर लेता है।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, वह सारे (रूहानी) गुणों से सांझ डालता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह मनुष्य परमात्मा का नाम उचारता है। वह दिन-रात हर वक्त परमात्मा के नाम में मस्त रहता है, (और, इस तरह अपने अंदर से) माया का मोह दूर कर लेता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सेवा ते सभु किछु पाए ॥ हउमै मेरा आपु गवाए ॥ आपे क्रिपा करे सुखदाता गुर कै सबदे सोहा हे ॥९॥
मूलम्
गुर सेवा ते सभु किछु पाए ॥ हउमै मेरा आपु गवाए ॥ आपे क्रिपा करे सुखदाता गुर कै सबदे सोहा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। सभु किछु = हरेक चीज। मेरा = ममता, कब्जे की लालसा। आपु = स्वै भाव। आपे = स्वयं ही। गुर कै सबदे = गुरु के शब्द से। सोहा = सुंदर जीवन वाला बन जाता है।9।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य हरेक चीज हासिल कर लेते हैं, वह मनुष्य अहंकार-ममता स्वै भाव दूर कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर सुखों का दाता प्रभु कृपा करता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से अपना आत्मिक जीवन सुंदर बना लेता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु अम्रित है बाणी ॥ अनदिनु हरि का नामु वखाणी ॥ हरि हरि सचा वसै घट अंतरि सो घटु निरमलु ताहा हे ॥१०॥
मूलम्
गुर का सबदु अम्रित है बाणी ॥ अनदिनु हरि का नामु वखाणी ॥ हरि हरि सचा वसै घट अंतरि सो घटु निरमलु ताहा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। वखाणी = उच्चारण कर। सचा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। घट अंतरि = हृदय में। ताहा = उस (मनुष्य) का।10।
अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द आत्मिक जीवन देने वाली वाणी है, (इसमें जुड़ के) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा आ बसता है, उस मनुष्य का वह हृदय पवित्र हो जाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक सेवहि सबदि सलाहहि ॥ सदा रंगि राते हरि गुण गावहि ॥ आपे बखसे सबदि मिलाए परमल वासु मनि ताहा हे ॥११॥
मूलम्
सेवक सेवहि सबदि सलाहहि ॥ सदा रंगि राते हरि गुण गावहि ॥ आपे बखसे सबदि मिलाए परमल वासु मनि ताहा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। सबदि = शब्द से। सलाहहि = महिमा करते हें। रंगि = प्रेम रंग में। राते = मस्त। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सबदि = शब्द में। परमल वासु = चंदन की सुगंधि। मनि ताहा = उसके मन में।11।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के) सेवक (गुरु के) शब्द से (प्रभु की) सेवा-भक्ति करते हैं, महिमा करते हैं, प्रभु के प्रेम-रंग में मस्त हो के सदा प्रभु के गुण गाते रहते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही मेहर करके (गुरु के) शब्द में जोड़ता है, उस मनुष्य के मन में (मानो) चंदन की सुगंधी पैदा हो जाती है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदे अकथु कथे सालाहे ॥ मेरे प्रभ साचे वेपरवाहे ॥ आपे गुणदाता सबदि मिलाए सबदै का रसु ताहा हे ॥१२॥
मूलम्
सबदे अकथु कथे सालाहे ॥ मेरे प्रभ साचे वेपरवाहे ॥ आपे गुणदाता सबदि मिलाए सबदै का रसु ताहा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकथु = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। कथे = गुण बयान करता है।12।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से अकथ प्रभु के गुण बयान करता रहता है, सदा-स्थिर बेपरवाह प्रभु की महिमा करता रहता है, गुणों की दाति करने वाला प्रभु स्वयं ही उसको गुरु के शब्द में जोड़ के रखता है, उसको शब्द का आनंद आने लग जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु भूला ठउर न पाए ॥ जो धुरि लिखिआ सु करम कमाए ॥ बिखिआ राते बिखिआ खोजै मरि जनमै दुखु ताहा हे ॥१३॥
मूलम्
मनमुखु भूला ठउर न पाए ॥ जो धुरि लिखिआ सु करम कमाए ॥ बिखिआ राते बिखिआ खोजै मरि जनमै दुखु ताहा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भूला = (सही जीवन-राह से) टूटा हुआ। धुरि = धुर से, परमात्मा के हुक्म में। बिखिआ = माया। राते = मस्त।13।
अर्थ: हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य जीवन के सही रास्ते से टूट जाता है (भटकता फिरता है, उसको कोई) ठिकाना नहीं मिलता। (पर उसके भी क्या वश? उसके पिछले किए कर्मों के अनुसार) जो कुछ धुर से उसके माथे पर लिखा गया है वह कर्म वह अब कर रहा है। माया (के रंग में) मस्त होने के कारण वह (अब भी) माया की तलाश ही करता फिरता है, कभी मरता है कभी पैदा होता है (कभी हर्ष और कभी शोक), ये दुख उसे लगे रहते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे आपि आपि सालाहे ॥ तेरे गुण प्रभ तुझ ही माहे ॥ तू आपि सचा तेरी बाणी सची आपे अलखु अथाहा हे ॥१४॥
मूलम्
आपे आपि आपि सालाहे ॥ तेरे गुण प्रभ तुझ ही माहे ॥ तू आपि सचा तेरी बाणी सची आपे अलखु अथाहा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। माहे = में। सचा = सदा कायम रहने वाला। अलखु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके।14।
अर्थ: हे भाई! (अगर कोई भाग्यशाली महिमा कर रहा है, तो उसमें बैठा भी प्रभु) स्वयं ही स्वयं महिमा कर रहा है। हे प्रभु! तेरे गुण तेरे में ही हैं (तेरे जैसा और कोई नहीं); हे प्रभु! तू स्वयं अटल है, तेरी महिमा की वाणी अटल है, तू स्वयं ही अलख और अपार है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गुर दाते कोइ न पाए ॥ लख कोटी जे करम कमाए ॥ गुर किरपा ते घट अंतरि वसिआ सबदे सचु सालाहा हे ॥१५॥
मूलम्
बिनु गुर दाते कोइ न पाए ॥ लख कोटी जे करम कमाए ॥ गुर किरपा ते घट अंतरि वसिआ सबदे सचु सालाहा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु गुर = गुरु की शरण पड़े बिना। कोटी = करोड़ों। ते = से, के कारण। सबदे = शब्द से। सचु = सदा स्थिर प्रभु।15।
अर्थ: हे भाई! अगर (कोई मनमुख नाम के बिना और-और धार्मिक निहित किए) कर्म करता फिरे, महिमा की दाति देने वाले गुरु के बिना वह नाम की दाति हासिल नहीं कर सकता। हे भाई! गुरु की कृपा से जिस मनुष्य के हृदय में हरि-नाम आ बसता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द से सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता रहता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से जन मिले धुरि आपि मिलाए ॥ साची बाणी सबदि सुहाए ॥ नानक जनु गुण गावै नित साचे गुण गावह गुणी समाहा हे ॥१६॥४॥१३॥
मूलम्
से जन मिले धुरि आपि मिलाए ॥ साची बाणी सबदि सुहाए ॥ नानक जनु गुण गावै नित साचे गुण गावह गुणी समाहा हे ॥१६॥४॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन) सुहाए = सुंदर जीवन वाले बन गए। नानक = हे नानक! गावह = हम गाएं। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।16।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गावह’ है उत्तम पुरुष, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को धुर से अपने हुक्म से प्रभु अपने चरणों में मिलाता है वही मिलते हैं। महिमा की वाणी के द्वारा गुरु के शब्द से उनके जीवन सुंदर हो जाते हैं। हे नानक! प्रभु का सेवक सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाता है। आओ, हम भी गुण गाएं। (जो मनुष्य गुण गाता है, वह) गुणों के मालिक प्रभु में लीन हो जाता है।16।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ निहचलु एकु सदा सचु सोई ॥ पूरे गुर ते सोझी होई ॥ हरि रसि भीने सदा धिआइनि गुरमति सीलु संनाहा हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ निहचलु एकु सदा सचु सोई ॥ पूरे गुर ते सोझी होई ॥ हरि रसि भीने सदा धिआइनि गुरमति सीलु संनाहा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहचलु = अचल, अटल। ते = से। रसि = रस में। धिआइनि = ध्याते हैं (बहुवचन)। सीलु = अच्छा स्वभाव। संनाहा = ज़िरा बक्तर, संजोअ, लोहे की जाली की वर्दी।1।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला अटल सिर्फ वह परमात्मा ही है। पूरे गुरु से जिस मनुष्यों को ये समझ आ जाती है, वे परमात्मा के नाम-रस में भीगे रहते हैं, सदा परमात्मा का स्मरण करते हैं, गुरु की मति पर चल कर वह मनुष्य अच्छे आचरण का संजोअ (पहने रखते हैं, जिसके कारण कोई विकार उन पर हमला नहीं कर सकते)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंदरि रंगु सदा सचिआरा ॥ गुर कै सबदि हरि नामि पिआरा ॥ नउ निधि नामु वसिआ घट अंतरि छोडिआ माइआ का लाहा हे ॥२॥
मूलम्
अंदरि रंगु सदा सचिआरा ॥ गुर कै सबदि हरि नामि पिआरा ॥ नउ निधि नामु वसिआ घट अंतरि छोडिआ माइआ का लाहा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगु = प्यार। सचिआरा = (सच+आलय) सही रास्ते पर चलने वाला। कै सबदि = के शब्द से। नामि = नाम में। नउ निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने। घट अंतरि = हृदय में। लाहा = लाभ।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का प्यार है, वह सदा संतुलित है। गुरु के शब्द की इनायत से वह प्रभु के नाम में प्रेम बनाए रखता है। उसके हृदय में सारे सुखों और पदार्थों का खजाना हरि-नाम बसता है, वह माया को असल कमाई मानना छोड़ देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रईअति राजे दुरमति दोई ॥ बिनु सतिगुर सेवे एकु न होई ॥ एकु धिआइनि सदा सुखु पाइनि निहचलु राजु तिनाहा हे ॥३॥
मूलम्
रईअति राजे दुरमति दोई ॥ बिनु सतिगुर सेवे एकु न होई ॥ एकु धिआइनि सदा सुखु पाइनि निहचलु राजु तिनाहा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरमति = खोटी मति। दोई = द्वैत में, मेर तेर में, दुविधा में। पाइनि = पाते हैं। तिनाहा = उनका।3।
अर्थ: हे भाई! खोटी मति के कारण हाकिम और प्रजा सब दुबिधा में फंसे रहते हैं। गुरु की शरण पड़े बिना किसी के अंदर एक परमात्मा का प्रकाश नहीं होता। जो मनुष्य सिर्फ परमात्मा को स्मरण करते हैं, वह आत्मिक आनंद पाते हैं। उनको अटल (आत्मिक) राज मिला रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवणु जाणा रखै न कोई ॥ जमणु मरणु तिसै ते होई ॥ गुरमुखि साचा सदा धिआवहु गति मुकति तिसै ते पाहा हे ॥४॥
मूलम्
आवणु जाणा रखै न कोई ॥ जमणु मरणु तिसै ते होई ॥ गुरमुखि साचा सदा धिआवहु गति मुकति तिसै ते पाहा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवणु जाणा = पैदा होने मरने का चक्कर। रखै = रोक सकता। तिसै ते = उस (परमात्मा) से ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मुकति = खलासी। पाहा = मिलती है।4।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के बिना और) कोई जनम-मरण के चक्कर से बच नहीं सकता। ये जनम-मरण (का चक्कर) उस परमात्मा की रज़ा के अनुसार ही होता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर सदा-स्थिर प्रभु का नित्य स्मरण करते रहो। ऊँची आत्मिक अवस्था और विकारों से खलासी उस परमात्मा से ही मिलती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु संजमु सतिगुरू दुआरै ॥ हउमै क्रोधु सबदि निवारै ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाईऐ सीलु संतोखु सभु ताहा हे ॥५॥
मूलम्
सचु संजमु सतिगुरू दुआरै ॥ हउमै क्रोधु सबदि निवारै ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाईऐ सीलु संतोखु सभु ताहा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजमु = परहेज़, विकारों से बचे रहने का उद्यम। सचु = पक्का, सदा स्थिर। दुआरै = दर पर। सबदि = गुरु के शब्द से। निवारै = दूर कर लेता है। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। पाईऐ = प्राप्त कर लेते हैं। सीलु = अच्छा आचरण। ताहा = वहाँ।5।
अर्थ: हे भाई! विकारों से बचने का पक्का प्रबंध गुरु के दर से (प्राप्त होता है), (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह) गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेता है, क्रोध दूर कर लेता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से ही सदा आत्मिक आनंद मिलता है। अच्छा आचरण, संतोख -ये सब कुछ गुरु के दर से ही हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै मोहु उपजै संसारा ॥ सभु जगु बिनसै नामु विसारा ॥ बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ नामु सचा जगि लाहा हे ॥६॥
मूलम्
हउमै मोहु उपजै संसारा ॥ सभु जगु बिनसै नामु विसारा ॥ बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ नामु सचा जगि लाहा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपजै = पैदा हो जाता है। संसारा = संसार में खचित रहने से। बिनसै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। विसारा = विसार के, भुला के। जगि = जगत में।6।
अर्थ: हे भाई! संसार में खचित रहने से (मनुष्य के अंदर) अहंकार पैदा हो जाता है, (इनके कारण) परमात्मा का नाम भुला के सारा जगत आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा का नाम नहीं मिलता। हरि-नाम ही जगत में सदा कायम रहने वाली कमाई है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा अमरु सबदि सुहाइआ ॥ पंच सबद मिलि वाजा वाइआ ॥ सदा कारजु सचि नामि सुहेला बिनु सबदै कारजु केहा हे ॥७॥
मूलम्
सचा अमरु सबदि सुहाइआ ॥ पंच सबद मिलि वाजा वाइआ ॥ सदा कारजु सचि नामि सुहेला बिनु सबदै कारजु केहा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमरु = हुक्म। सचा = सच्चा, अटल। सबदि = शब्द में जुड़ने से। सुहाइआ = अच्छा लगता है। पंच शब्द मिलि = पाँच किस्मों के साज मिल के। वाइआ = बजाया। कारजु = जनम उद्देश्य। सचि नामि = सदा स्थिर हरि नाम में। सुहेला = सुखी।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से (जिस मनुष्य को) परमात्मा का अटल हुक्म मीठा लगने लग जाता है, (उसके अंदर इस तरह आनंद बना रहता है जैसे) पाँचों किस्मों के साजों ने मिल के सुंदर राग पैदा किया हुआ है। हे भाई! परमात्मा के सदा-स्थिर नाम में जुड़ने से जनम-उद्देश्य सफल होता है, गुरु के शब्द के बिना कैसा जनम-उद्देश्य? (जीवन निष्फल हो जाता हैं)।7।
[[1058]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिन महि हसै खिन महि रोवै ॥ दूजी दुरमति कारजु न होवै ॥ संजोगु विजोगु करतै लिखि पाए किरतु न चलै चलाहा हे ॥८॥
मूलम्
खिन महि हसै खिन महि रोवै ॥ दूजी दुरमति कारजु न होवै ॥ संजोगु विजोगु करतै लिखि पाए किरतु न चलै चलाहा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजी दुरमति = प्रभु के बिना अन्य के साथ प्यार करने वाली खोटी मति। संजोगु = संयोग, मिलाप, प्रभु के साथ मेल। विजोगु = वियोग, प्रभु चरणों से विछोड़ा। करतै = कर्तार ने। किरतु = पिछले जन्मों के किए कर्मों की कमाई। न चलै = मिटती नही। चलाहा = मिटाने से।8।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम से टूटा हुआ मनुष्य) घड़ी में हस पड़ता है और घड़ी में ही रो पड़ता है (हर्ष और सोग के चक्कर में ही पड़ा रहता है, सो) माया के मोह में फसा के रखने वाली खोटी मति से जीवन का लक्ष्य सफल नहीं होता। (पर, जीवों के भी क्या वश?) (हरि-नाम में) जुड़ना और (हरि नाम से) विछुड़ जाना - (पिछले किए कर्मों के अनुसार) कर्तार ने स्वयं (जीवों के माथे के ऊपर) लिख रखे हैं, ये पूर्बली कर्म-कमाई (जीव से) मिटाए नहीं मिटती।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन मुकति गुर सबदु कमाए ॥ हरि सिउ सद ही रहै समाए ॥ गुर किरपा ते मिलै वडिआई हउमै रोगु न ताहा हे ॥९॥
मूलम्
जीवन मुकति गुर सबदु कमाए ॥ हरि सिउ सद ही रहै समाए ॥ गुर किरपा ते मिलै वडिआई हउमै रोगु न ताहा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकति = (माया के मोह से) खलासी। जीवन मुकति = वह मनुष्य जिसको इस जीवन में मुक्ति मिल गई है, गृहस्थ में रहता हुआ ही निर्लिप। सबदु कमाए = शब्द को हृदय में बसाता है, शब्द अनुसार जीवन जीता है। सिउ = साथ। सद = सदा। ते = से। ताहा = उसको।9।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द अनुसार जीवन जीता है, वह गृहस्थ में रहता हुआ ही निर्लिप है, वह सदा ही परमात्मा की याद में लीन रहता है। गुरु की कृपा से उसको (इस लोक में और परलोक में) आदर मिलता है, उसके अंदर अहंकार का रोग नहीं होता।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रस कस खाए पिंडु वधाए ॥ भेख करै गुर सबदु न कमाए ॥ अंतरि रोगु महा दुखु भारी बिसटा माहि समाहा हे ॥१०॥
मूलम्
रस कस खाए पिंडु वधाए ॥ भेख करै गुर सबदु न कमाए ॥ अंतरि रोगु महा दुखु भारी बिसटा माहि समाहा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रस कस = कसैला आदि सारे रस। कस = कसैला। पिंडु = शरीर। भेख = धार्मिक पहरावा। बिसटा = विष्ठा, विकारों का गंद। माहि = में। समाहा = समाया रहता है।10।
अर्थ: हे भाई! (दूसरी तरफ देखें त्यागियों का हाल। जो मनुष्य अपनी ओर से ‘त्याग’ करके खट्टे मीठे कसैले आदि) सारे रसों के खाने खाता रहता है, और अपने शरीर को मोटा किए जाता है, (त्यागियों वाला) धार्मिक पहरावा पहनता है, गुरु के शब्द अनुसार जीवन नहीं बिताता, उसके अंदर (चस्कों का) रोग है, ये उसे बहुत बड़ा दुख लगा हुआ है, वह हर वक्त विकारों की गंदगी में लीन रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पड़हि पड़ि बादु वखाणहि ॥ घट महि ब्रहमु तिसु सबदि न पछाणहि ॥ गुरमुखि होवै सु ततु बिलोवै रसना हरि रसु ताहा हे ॥११॥
मूलम्
बेद पड़हि पड़ि बादु वखाणहि ॥ घट महि ब्रहमु तिसु सबदि न पछाणहि ॥ गुरमुखि होवै सु ततु बिलोवै रसना हरि रसु ताहा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़हि = पढ़ते हें (बहुवचन)। पढ़ि = पढ़ के। बादु = वाद, चर्चा। वखाणहि = बखानते हैं, व्याख्या करते हैं। घट = शरीर, हृदय। सबदि = गुरु के शब्द से। न पछाणहि = सांझ नहीं डालते। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। ततु = सार, मक्खन। बिलोवै = मथता है, विचारता है। रसना = जीभ। रसु = स्वाद। ताहा = उसकी।11।
अर्थ: हे भाई! (पंडित लोग भी) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ते हैं, (इनको) पढ़ के निरी चर्चा का सिलसिला छेड़े रखते हैं, जो परमात्मा हृदय में ही बस रहा है, उससे गुरु के शब्द से सांझ नहीं डालते। पर, हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह तत्व को विचारता है, उसकी जीभ में हरि-नाम का स्वाद टिका रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरि वथु छोडहि बाहरि धावहि ॥ मनमुख अंधे सादु न पावहि ॥ अन रस राती रसना फीकी बोले हरि रसु मूलि न ताहा हे ॥१२॥
मूलम्
घरि वथु छोडहि बाहरि धावहि ॥ मनमुख अंधे सादु न पावहि ॥ अन रस राती रसना फीकी बोले हरि रसु मूलि न ताहा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि = घर में, शरीर में, हृदय में। वथ = वस्तु, नाम पदार्थ। छोडहि = छोड़ देते हें (बहुवचन)। धावहि = दौड़ते हैं (बहुवचन)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधे = माया के मोह में अंधे। अन रस = और-और रसों में। राती = रति हुई, मस्त। रसना = जीभ। मूलि = बिल्कुल ही।12।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हृदय घर में बस रहे नाम पदार्थ को छोड़ देते हैं, और बाहर भटकते हैं, वे मन के मुरीद और माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य हरि-नाम का स्वाद नहीं ले सकते। अन्य स्वादों में मस्त उनकी जीभ फीके बोल ही बोलती रहती है, परमात्मा के नाम का स्वाद उनको बिल्कुल हासिल नहीं होता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख देही भरमु भतारो ॥ दुरमति मरै नित होइ खुआरो ॥ कामि क्रोधि मनु दूजै लाइआ सुपनै सुखु न ताहा हे ॥१३॥
मूलम्
मनमुख देही भरमु भतारो ॥ दुरमति मरै नित होइ खुआरो ॥ कामि क्रोधि मनु दूजै लाइआ सुपनै सुखु न ताहा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख देही = मन के मुरीद मनुष्यों की काया। भरमु = भटकना। भतारो = पति, अगुवाई करने वाला। दुरमति = खोटी मति। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। दूजै = माया के मोह में। सुपनै = सपने में, कभी भी। सुखु = आत्मिक आनंद।13।
अर्थ: हे भाई! माया की भटकना मन के मुरीद मनुष्य के शरीर की अगुवाई करती है, (इस) खोटी मति के कारण मनमुख आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, और सदा ख्वार होता है। मनमुख अपने मन को काम में, क्रोध में, माया के मोह में जोड़े रखता है, (इस वास्ते) उसको कभी भी आत्मिक आनंद नहीं मिलता।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंचन देही सबदु भतारो ॥ अनदिनु भोग भोगे हरि सिउ पिआरो ॥ महला अंदरि गैर महलु पाए भाणा बुझि समाहा हे ॥१४॥
मूलम्
कंचन देही सबदु भतारो ॥ अनदिनु भोग भोगे हरि सिउ पिआरो ॥ महला अंदरि गैर महलु पाए भाणा बुझि समाहा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंचन = सोना। कंचन देही = सोने जैसी पवित्र काया। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। भोग भोगे = आत्मिक आनंद लेती है। सिउ = साथ। महला अंदरि = शरीरों में। गैर महलु = बगैर मकान के परमात्मा को। भाणा बुझि = रजा को मीठा मान के।14।
अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द जिस मनुष्य के सोने जैसे पवित्र शरीर का रहनुमा बना रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के साथ प्यार बनाए रखता है और हर वक्त परमातमा के मिलाप का आनंद पाता है। वह मनुष्य उस बग़ैर-मकान परमात्मा को हरेक शरीर में (बसता) देख लेता है, उसकी रजा को मीठा मान के उसमें लीन रहता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे देवै देवणहारा ॥ तिसु आगै नही किसै का चारा ॥ आपे बखसे सबदि मिलाए तिस दा सबदु अथाहा हे ॥१५॥
मूलम्
आपे देवै देवणहारा ॥ तिसु आगै नही किसै का चारा ॥ आपे बखसे सबदि मिलाए तिस दा सबदु अथाहा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। देवणहारा = दे सकने वाला हरि। चारा = जोर। सबदि = शब्द में। सबदु = हुक्म। अथाहा = बहुत गहरा।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस दा’ में से संबंधक ‘दा’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! (ये शब्द की दाति) दे सकने वाला परमात्मा आप ही देता है, उसके सामने किसी का जोर नहीं चलता। वह स्वयं ही बख्शिश करता है और गुरु के शब्द में जोड़ता है। हे भाई! उस मालिक प्रभु का हुक्म बहुत गंभीर है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ पिंडु सभु है तिसु केरा ॥ सचा साहिबु ठाकुरु मेरा ॥ नानक गुरबाणी हरि पाइआ हरि जपु जापि समाहा हे ॥१६॥५॥१४॥
मूलम्
जीउ पिंडु सभु है तिसु केरा ॥ सचा साहिबु ठाकुरु मेरा ॥ नानक गुरबाणी हरि पाइआ हरि जपु जापि समाहा हे ॥१६॥५॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। केरा = का। सचा = सदा कायम रहने वाला। ठाकुरु = मालिक। जापि = जप के। समाहा = लीन हो जाता है।16।
अर्थ: हे भाई! ये जिंद और ये शरीर सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। हे भाई! मेरा वह मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है। हे नानक! (कोई भाग्यशाली मनुष्य) गुरु की वाणी के द्वारा उस परमात्मा को पा लेता है, उस हरि के नाम का जाप जप के उस में समाया रहता है।16।5।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु आपारु ॥ गुरमुखि कार करे प्रभ भावै गुरमुखि पूरा पाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु आपारु ॥ गुरमुखि कार करे प्रभ भावै गुरमुखि पूरा पाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीचारु = वाणी की विचार, हरि नाम को मन में बसाना। नाद = जोगियों का सिंज्ञी आदि बजाना। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छी लगती है।1।
अर्थ: (जोगी नाद बजाते हैं, पण्डित वेद पढ़ते हैं, पर) हरि-नाम को मन में बसाना ही गुरमुख (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य) के लिए नाद (का बजाना और) वेद (का पाठ) है। बेअंत प्रभु का नाम-जपना ही गुरमुख के लिए ज्ञान (-चर्चा) और समाधि है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (वह) कार करता है जो प्रभु को अच्छी लगती है (गुरमुख परमात्मा की रजा में चलता है)। (इस तरह) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य पूरन प्रभु का मिलाप हासिल कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि मनूआ उलटि परावै ॥ गुरमुखि बाणी नादु वजावै ॥ गुरमुखि सचि रते बैरागी निज घरि वासा पाइदा ॥२॥
मूलम्
गुरमुखि मनूआ उलटि परावै ॥ गुरमुखि बाणी नादु वजावै ॥ गुरमुखि सचि रते बैरागी निज घरि वासा पाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलटि = (माया से) मोड़ के। परावै = रोकता है। बाणी = गुरु की वाणी। वजावै = बजाता है। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। रते = मस्त। बैरागी = निर्लिप। निज घरि = अपने घर में, प्रभु चरणों में, स्वै स्वरूप में।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण रहने वाला मनुष्य (अपने) मन को (माया के मोह से) रोक के रखता है। वह गुरबाणी को हृदय में बसाता है (मानो, जोगी की तरह) नाद बजा रहा है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में रंगे रहते हैं, (इस तरह) माया की ओर से निर्लिप रह के प्रभु चरणों में टिके रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की साखी अम्रित भाखी ॥ सचै सबदे सचु सुभाखी ॥ सदा सचि रंगि राता मनु मेरा सचे सचि समाइदा ॥३॥
मूलम्
गुर की साखी अम्रित भाखी ॥ सचै सबदे सचु सुभाखी ॥ सदा सचि रंगि राता मनु मेरा सचे सचि समाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साखी = शिक्षा। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। भाखी = उचारता है। सचै सबदे = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सुभाखी = प्रेम से उचारता है। सचि रंगि = सदा स्थिर प्रेम रंग में। मनु मेरा = ‘मेरा मेरा’ करने वाला मन, ममता में फसा मन। सचे सचि = सदा स्थिर प्रभु में ही।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी उचारता रहता है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली वाणी के द्वारा सदा स्थिर हरि-नाम स्मरण करता रहता है, उसका ममता में फसने वाला मन सदा हरि-नाम के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में ही लीन रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि मनु निरमलु सत सरि नावै ॥ मैलु न लागै सचि समावै ॥ सचो सचु कमावै सद ही सची भगति द्रिड़ाइदा ॥४॥
मूलम्
गुरमुखि मनु निरमलु सत सरि नावै ॥ मैलु न लागै सचि समावै ॥ सचो सचु कमावै सद ही सची भगति द्रिड़ाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सत सरि = संतोख सरोवर में। नावै = स्नान करता है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सचो सचु कमावै = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करता है। सद = सदा। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्की कर लेता है।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका मन पवित्र हो जाता है, वह संतोख के सरोवर (हरि-नाम) में स्नान करता है; उसको (विकारों की) मैल नहीं चिपकती, वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में समाया रहता है। वह मनुष्य हर वक्त सदा स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करता है, वह मनुष्य सदा साथ निभने वाली भक्ति (अपने हृदय में) पक्के तौर पर टिकाए रखता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सचु बैणी गुरमुखि सचु नैणी ॥ गुरमुखि सचु कमावै करणी ॥ सद ही सचु कहै दिनु राती अवरा सचु कहाइदा ॥५॥
मूलम्
गुरमुखि सचु बैणी गुरमुखि सचु नैणी ॥ गुरमुखि सचु कमावै करणी ॥ सद ही सचु कहै दिनु राती अवरा सचु कहाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरि नाम। बैणी = वचनों में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। नैणी = आँखों में। करणी = करणीय, करने योग्य काम। सचु कमावै = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करता है। सद = सदा। कहै = उचारता है।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसके वचनों में प्रभु बसता है, उसकी आँखों में प्रभु बसता है (वह हर वक्त नाम स्मरण करता है, हर तरफ परमात्मा को ही देखता है), वह सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की कमाई करता है, यही उसके लिए करने योग्य काम है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य दिन-रात सदा ही स्मरण करता है, और, और लोगों को भी स्मरण करने के लिए प्रेरित करता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सची ऊतम बाणी ॥ गुरमुखि सचो सचु वखाणी ॥ गुरमुखि सद सेवहि सचो सचा गुरमुखि सबदु सुणाइदा ॥६॥
मूलम्
गुरमुखि सची ऊतम बाणी ॥ गुरमुखि सचो सचु वखाणी ॥ गुरमुखि सद सेवहि सचो सचा गुरमुखि सबदु सुणाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सचो सचु = सदा सिथर हरि का नाम ही नाम। सद = सदा। सेवहि = स्मरण करते हैं। सबदु = महिमा की वाणी।6।
अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली उत्तम वाणी ही गुरमुख (सदा उचारता है), वह हर वक्त सदा स्थिर प्रभु का नाम ही उच्चारता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे सदा ही सदा-स्थिर परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह (और लोगों को भी) वाणी ही सुनाता है।6।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि होवै सु सोझी पाए ॥ हउमै माइआ भरमु गवाए ॥ गुर की पउड़ी ऊतम ऊची दरि सचै हरि गुण गाइदा ॥७॥
मूलम्
गुरमुखि होवै सु सोझी पाए ॥ हउमै माइआ भरमु गवाए ॥ गुर की पउड़ी ऊतम ऊची दरि सचै हरि गुण गाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सु = वह (एकवचन)। माइआ भरमु = माया वाली भटकना। दरि सचै = सदा स्थिर के दर पर, सदा स्थिर प्रभु की हजूरी में। गुर की पउड़ी = गुरु की बताई हुई सीढ़ी (जिसके माध्यम से प्रभु चरणों में पहुँच सकते हैं)।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त कर लेता है, वह अपने अंदर से अहंकार और माया वाली भटकना दूर कर लेता है। वह मनुष्य प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ के प्रभु के गुण गाता रहता है। यही है गुरु की (बताई हुई) ऊँची और उत्तम सीढ़ी (जिसके द्वारा मनुष्य ऊँचे आत्मिक मण्डल में चढ़ कर प्रभु को जा मिलता है)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सचु संजमु करणी सारु ॥ गुरमुखि पाए मोख दुआरु ॥ भाइ भगति सदा रंगि राता आपु गवाइ समाइदा ॥८॥
मूलम्
गुरमुखि सचु संजमु करणी सारु ॥ गुरमुखि पाए मोख दुआरु ॥ भाइ भगति सदा रंगि राता आपु गवाइ समाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरि नाम का स्मरण। सार = श्रेष्ठ। संजमु = (विकारों से बचने के लिए) परहेज। सारु संजमु = बढ़िया संयम। करणी = करने योग्य काम। मोख दुआरु = (विकारों से) मुक्ति, प्राण का दरवाजा। भाइ = प्रेम में। रंगि = रंग में। आपु = स्वै भाव।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, सदा स्थिर हरि-नाम स्मरण करता है; यही है उसका करने-योग्य काम, यही है उसके लिए (विकारों से बचने की) बढ़िया जुगति। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (विकारों से) मुक्ति पाने का (यह) दरवाजा पा लेता है। गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य प्रभु के प्रेम में प्रभु की भक्ति में प्रभु के नाम-रंग में सदा रंगा रहता है, वह (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करके प्रभु में समाया रहता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि होवै मनु खोजि सुणाए ॥ सचै नामि सदा लिव लाए ॥ जो तिसु भावै सोई करसी जो सचे मनि भाइदा ॥९॥
मूलम्
गुरमुखि होवै मनु खोजि सुणाए ॥ सचै नामि सदा लिव लाए ॥ जो तिसु भावै सोई करसी जो सचे मनि भाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजि = खोज के। सचै नामि = सदा स्थिर हरि नाम में। लिव = लगन। तिसु = उस परमात्मा को। भावै = अच्छा लगता है। करसी = करेगा, करता है। सचे मनि = सदा स्थिर प्रभु के मन में।9।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह सदा-स्थिर हरि-नाम में सदा अपनी तवज्जो जोड़े रखता है। वह मनुष्य (अपने) मन को खोज के (यह निश्चय बनाता है, और-और लोगों को भी) सुनाता है कि जो कुछ उस परमात्मा को अच्छा लगता है, वही कुछ वह करता है, (जगत में वही कुछ वह है) जो उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा के मन में भा जाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा तिसु भावै सतिगुरू मिलाए ॥ जा तिसु भावै ता मंनि वसाए ॥ आपणै भाणै सदा रंगि राता भाणै मंनि वसाइदा ॥१०॥
मूलम्
जा तिसु भावै सतिगुरू मिलाए ॥ जा तिसु भावै ता मंनि वसाए ॥ आपणै भाणै सदा रंगि राता भाणै मंनि वसाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब, या। मंनि = मन में। आपणै भाणै = अपनी रजा में। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ।10।
अर्थ: हे भाई! (गुरमुख मनुष्य और लोगों को भी यही सुनाता है कि) जब परमात्मा की रजा होती है तब वह मनुष्य को गुरु मिलाता है, तब उसके मन में (अपना नाम) बसाता है। जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी रज़ा में रखता है, वह मनुष्य सदा उस प्रेम-रंग में रंगा रहता है। (हे भाई! गुरमुख यह यकीन बनाता है कि) प्रभु अपनी रजा के अनुसार ही (अपना नाम) मनुष्य के मन में बसाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनहठि करम करे सो छीजै ॥ बहुते भेख करे नही भीजै ॥ बिखिआ राते दुखु कमावहि दुखे दुखि समाइदा ॥११॥
मूलम्
मनहठि करम करे सो छीजै ॥ बहुते भेख करे नही भीजै ॥ बिखिआ राते दुखु कमावहि दुखे दुखि समाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन हठि = मन के हठ से। छीजै = छिजता जाता है, (आत्मिक जीवन के पक्ष से) कमजोर होता जाता है। भेख = धार्मिक पहरावे। बिखिआ = माया। दुखे दुखि = निरे दुख में ही।11।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य के मन के हठ से (ही निहित किए धार्मिक) कर्म करता है वह (आत्मिक जीवन की ओर से) कमजोर होता जाता है (ऐसा मनुष्य) धार्मिक पहरावे तो बहुत सारे अपनाता है पर (इस तरह उसका मन प्रभु के प्यार में) भीगता नहीं है।
हे भाई! माया के मोह में मस्त मनुष्य (जो भी कर्म करते हैं, वे उनमें से) दुख (ही) कमाते हैं। (हे भाई! माया के मोह के कारण मनुष्य) हर वक्त दुख में ही फसा रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि होवै सु सुखु कमाए ॥ मरण जीवण की सोझी पाए ॥ मरणु जीवणु जो सम करि जाणै सो मेरे प्रभ भाइदा ॥१२॥
मूलम्
गुरमुखि होवै सु सुखु कमाए ॥ मरण जीवण की सोझी पाए ॥ मरणु जीवणु जो सम करि जाणै सो मेरे प्रभ भाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुखु = आत्मिक आनंद। कमाए = कमाता है। सम = बराबर।12।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (अपने उद्यमों से) आत्मिक आनंद कमाता है, वह मनुष्य ये समझ लेता है कि आत्मिक मौत क्या है और आत्मिक जीवन क्या है। हे भाई! जो मनुष्य मौत और जीवन को (परमात्मा की रजा में व्याप्त देख के) एक समान ही समझता है (ना जीवन की लालसा, ना मौत से डर), वह मनुष्य मेरे परमात्मा को प्यारा लगता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि मरहि सु हहि परवाणु ॥ आवण जाणा सबदु पछाणु ॥ मरै न जमै ना दुखु पाए मन ही मनहि समाइदा ॥१३॥
मूलम्
गुरमुखि मरहि सु हहि परवाणु ॥ आवण जाणा सबदु पछाणु ॥ मरै न जमै ना दुखु पाए मन ही मनहि समाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरहि = मरते हैं, स्वै भाव मिटाते हैं। सुहहि = शोभते हैं, आत्मिक जीवन सुंदर बना लेते हैं। परवाणु = (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार। आवण जाणा = पैदा होना मरना। सबदु = (परमात्मा का) हुक्म। पछाणु = समझ। मन ही = मन में ही। मनहि = मन में ही।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मन ही’ में से ‘मनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख हो के जो मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करते हैं, वह सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं वह प्रभु की हजूरी में स्वीकार होते हैं (वे पैदा होने मरने को परमात्मा का हुक्म समझते हैं)। हे भाई! तू भी पैदा होने मरने को प्रभु का हुक्म ही समझ। (जो मनुष्य ऐसा यकीन बनाता है) वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह (ये) दुख नहीं पाता, वह (बाहर भटकने की जगह) सदा ही अंतरात्मे टिका रहता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से वडभागी जिनी सतिगुरु पाइआ ॥ हउमै विचहु मोहु चुकाइआ ॥ मनु निरमलु फिरि मैलु न लागै दरि सचै सोभा पाइदा ॥१४॥
मूलम्
से वडभागी जिनी सतिगुरु पाइआ ॥ हउमै विचहु मोहु चुकाइआ ॥ मनु निरमलु फिरि मैलु न लागै दरि सचै सोभा पाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। चुकाइआ = दूर कर लिया। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर।14।
अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, जिन्हें गुरु मिल गया। वे अपने अंदर से अहंकार और माया का मोह दूर कर लेते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है, जिसके मन को दोबारा विकारों की मैल नहीं लगती, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पर आदर पाता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करे कराए आपे ॥ आपे वेखै थापि उथापे ॥ गुरमुखि सेवा मेरे प्रभ भावै सचु सुणि लेखै पाइदा ॥१५॥
मूलम्
आपे करे कराए आपे ॥ आपे वेखै थापि उथापे ॥ गुरमुखि सेवा मेरे प्रभ भावै सचु सुणि लेखै पाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थापि = पैदा कर के। उथापे = नाश करता है। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छी लगती है। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सुणि = सुन के। लेखै = लेखे में। लेखै पाइदा = स्वीकार करता है।15।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (सब कुछ) करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है। खुद ही (सबकी) संभाल करता है, खुद ही पैदा करके नाश करता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख हो के की हुई सेवा-भक्ति प्रभु को प्यारी लगती है, (जीव से) हरि-नाम का स्मरण सुन के परमात्मा (उसकी) ये मेहनत स्वीकार करता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सचो सचु कमावै ॥ गुरमुखि निरमलु मैलु न लावै ॥ नानक नामि रते वीचारी नामे नामि समाइदा ॥१६॥१॥१५॥
मूलम्
गुरमुखि सचो सचु कमावै ॥ गुरमुखि निरमलु मैलु न लावै ॥ नानक नामि रते वीचारी नामे नामि समाइदा ॥१६॥१॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचो सचु = सच ही सच, सदा ही हरि नाम का स्मरण। नामि = नाम में। वीचारी = विचारवान। नामे नामि = सदा ही हरि नाम में।16।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा हरि-नाम जपने की कमाई करता है। उसका मन पवित्र हो जाता है, उसको विकारों की मैल नहीं लगती। हे नानक! जो मनुष्य हरि-नाम में मस्त रहते हैं, वे आत्मिक जीवन की सूझ वाले हो जाते हैं। (आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य) सदा हरि-नाम में ही लीन रहता है।16।1।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ आपे स्रिसटि हुकमि सभ साजी ॥ आपे थापि उथापि निवाजी ॥ आपे निआउ करे सभु साचा साचे साचि मिलाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ आपे स्रिसटि हुकमि सभ साजी ॥ आपे थापि उथापि निवाजी ॥ आपे निआउ करे सभु साचा साचे साचि मिलाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। हुकमि = हुक्म से। सभ = सारी। थापि = पैदा करके। उथापि = नाश करता है। निवाजी = सुंदर बनाई है। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने यह स्वयं ही ये सारी सृष्टि अपने हुक्म से पैदा की हुई है। परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके (स्वयं ही) नाश करता है (खुद ही जीवों पर) मेहर करता है। प्रभु आप ही यह सारा अपना अटल न्याय करता है, स्वयं ही (जीवों को अपने) सदा स्थिर हरि-नाम में जोड़ के रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कोटु है आकारा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ बिनु सबदै भसमै की ढेरी खेहू खेह रलाइदा ॥२॥
मूलम्
काइआ कोटु है आकारा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ बिनु सबदै भसमै की ढेरी खेहू खेह रलाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटु = किला। आकारा = (परमात्मा का) सरगुण स्वरूप। भसम = राख। खेहू खेह = मिट्टी में ही।2।
अर्थ: हे भाई! (यह मनुष्य) शरीर (मानो एक) किला है, यह परमात्मा का दिखाई देता स्वरूप है, (पर अगर इसमें) माया का मोह (ही प्रबल हो, और इसमें माया के मोह का ही) पसारा पसरा हुआ है, तो प्रभु की महिमा के बिना (ये शरीर) राख की ढेरी ही है, (मनुष्य हरि-नाम से वंचित रह कर इस शरीर को) मिट्टी में ही मिला देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कंचन कोटु अपारा ॥ जिसु विचि रविआ सबदु अपारा ॥ गुरमुखि गावै सदा गुण साचे मिलि प्रीतम सुखु पाइदा ॥३॥
मूलम्
काइआ कंचन कोटु अपारा ॥ जिसु विचि रविआ सबदु अपारा ॥ गुरमुखि गावै सदा गुण साचे मिलि प्रीतम सुखु पाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंचन कोटु = सोने का किला। अपारा = बेअंत प्रभु का। रविआ = मौजूद है। सबदु अपारा = बेअंत प्रभु की महिमा की वाणी। गुण साचे = सदा स्थिर प्रभु के गुण। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के।3।
अर्थ: हे भाई! जिस शरीर में बेअंत परमात्मा की महिमा की वाणी हर वक्त मौजूद है, वह (मनुष्य) शरीर बेअंत परमात्मा के रहने के लिए (मानो) सोने का किला है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (इस शरीर के माध्यम से) सदा-स्थिर परमात्मा के गुण हमेशा गाता है, वह प्रीतम प्रभु को मिल के आत्मिक आनंद लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ हरि मंदरु हरि आपि सवारे ॥ तिसु विचि हरि जीउ वसै मुरारे ॥ गुर कै सबदि वणजनि वापारी नदरी आपि मिलाइदा ॥४॥
मूलम्
काइआ हरि मंदरु हरि आपि सवारे ॥ तिसु विचि हरि जीउ वसै मुरारे ॥ गुर कै सबदि वणजनि वापारी नदरी आपि मिलाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि मंदरु = हरि का मंदिर, हरि का घर। सवारे = सुंदर बनाता है। मुरारे = (मुर+अरि। मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। कै सबदि = के शब्द से। वणजनि = वणज करते हैं, विहाजते हैं। नदरी = मेहर की निगाह से।4।
अर्थ: हे भाई! ये मनुष्य का शरीर परमात्मा का (पवित्र) घर है, परमात्मा इसको खुद ही सुंदर बनाता है, इसमें विचार-दैत्यों को मारने वाला प्रभु स्वयं बसता है। हे भाई! जो जीव वणजारे (इस शरीर में) गुरु के शब्द से हरि-नाम का वणज करते हैं, प्रभु मेहर की निगाह से उनको (अपने साथ) मिला लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो सूचा जि करोधु निवारे ॥ सबदे बूझै आपु सवारे ॥ आपे करे कराए करता आपे मंनि वसाइदा ॥५॥
मूलम्
सो सूचा जि करोधु निवारे ॥ सबदे बूझै आपु सवारे ॥ आपे करे कराए करता आपे मंनि वसाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूचा = स्वच्छ, साफ दिल वाला। जि = जो मनुष्य। निवारे = दूर करता है। सबदे = गुरु के शब्द से। बूझै = (आत्मिक जीवन को) समझता है। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। आपे = स्वयं ही। मंनि = मन में।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (अपने अंदर से) क्रोध दूर कर लेता है, वह पवित्र हृदय वाला बन जाता है। वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से (आत्मिक जीवन को) समझ लेता है, और, अपने जीवन को सँवार लेता है। (पर, हे भाई! यह उसकी अपनी ही मेहर है) प्रभु स्वयं ही (जीव के अंदर बैठा यह उद्यम) करता है, (जीव से) कर्तार स्वयं ही (यह काम) करवाता है, स्वयं ही (उसके) मन में (अपना नाम) बसाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल भगति है निराली ॥ मनु तनु धोवहि सबदि वीचारी ॥ अनदिनु सदा रहै रंगि राता करि किरपा भगति कराइदा ॥६॥
मूलम्
निरमल भगति है निराली ॥ मनु तनु धोवहि सबदि वीचारी ॥ अनदिनु सदा रहै रंगि राता करि किरपा भगति कराइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमल = (जीवन को) पवित्र करने वाली। निराली = अनोखी (दाति)। धोवहि = धोते हैं (बहुवचन)। वीचारी = विचारवान, सुंदर विचार के मालिक। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति (जीवन को) पवित्र करने वाली (एक) अनोखी (दाति) है। गुरु के शब्द में जुड़ के (भक्ति के अमृत के साथ जो मनुष्य अपना) मन और तन धोते हैं, वे सुंदर विचार के मालिक बन जाते हैं। (इस भक्ति के द्वारा) मनुष्य हर वक्त सदा ही परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा रह सकता है। (पर यह उसकी मेहर ही है) परमात्मा कृपा करके (स्वयं ही जीव से अपनी) भक्ति करवाता है।6।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मन मंदर महि मनूआ धावै ॥ सुखु पलरि तिआगि महा दुखु पावै ॥ बिनु सतिगुर भेटे ठउर न पावै आपे खेलु कराइदा ॥७॥
मूलम्
इसु मन मंदर महि मनूआ धावै ॥ सुखु पलरि तिआगि महा दुखु पावै ॥ बिनु सतिगुर भेटे ठउर न पावै आपे खेलु कराइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन मंदर महि = मन के मंदिर में, शरीर में। घावै = भटकता फिरता है। सुखु = आत्मिक आनंद। पलरि = पराली के बदले। तिआगि = त्याग के। बिनु भेटे = मिले बिना। ठउर = ठिकाना, शांति।7।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के) इस शरीर में (रहने वाला) चंचल मन (हर वक्त) भटकता फिरता है, (विकारों की) पराली (तुच्छ वस्तु) की खातिर आत्मिक आनंद को त्याग के बड़ा दुख पाता है। गुरु को मिले बिना इसे शांति वाली जगह नहीं मिलती; (पर, जीवों के भी क्या वश? उनसे ये) खेल परमात्मा स्वयं ही करवाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि अपर्मपरु आपि वीचारी ॥ आपे मेले करणी सारी ॥ किआ को कार करे वेचारा आपे बखसि मिलाइदा ॥८॥
मूलम्
आपि अपर्मपरु आपि वीचारी ॥ आपे मेले करणी सारी ॥ किआ को कार करे वेचारा आपे बखसि मिलाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपरंपरु = परे से परे परमात्मा, बेअंत प्रभु। वीचारी = आत्मिक जीवन की विचार बख्शने वाला। सारी = श्रेष्ठ। करणी = करने योग्य काम। को = कोई जीव। किआ कार करे = कौन सी कार कर सकता है? बखसि = मेहर करके।8।
अर्थ: हे भाई! बेअंत परमात्मा स्वयं ही आत्मिक जीवन की विचार बख्शने वाला है, (नाम जपने की) श्रेष्ठ करणी दे के खुद ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है। जीव बेचारा अपने आप कोई (अच्छा बुरा) काम नहीं कर सकता। परमात्मा स्वयं ही बख्शिश करके (अपने चरणों में जीव को) जोड़ता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सतिगुरु मेले पूरा ॥ सचै सबदि महाबल सूरा ॥ आपे मेले दे वडिआई सचे सिउ चितु लाइदा ॥९॥
मूलम्
आपे सतिगुरु मेले पूरा ॥ सचै सबदि महाबल सूरा ॥ आपे मेले दे वडिआई सचे सिउ चितु लाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचै सबदि = महिमा की वाणी से। महा बल = बड़े (आत्मिक) बल वाला। सूरा = सूरमा।, विकारों का मुकाबला करने में समर्थ। दे = देता है। साचे सिउ = सदा स्थिर परमातमा के साथ।9।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) स्वयं ही (मनुष्य को) पूरा गुरु मिलाता है, और, महिमा वाले शब्द में जोड़ के (विकारों के मुकाबले के लिए) आत्मिक बल वाला सूरमा बना देता है। प्रभु स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है, (उसको लोक-परलोक में) इज्जत देता है। हे भाई! (जिसको अपने साथ मिलाता है, वह मनुष्य) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ (अपना) चिक्त जोड़े रखता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घर ही अंदरि साचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नामु निधानु वसिआ घट अंतरि रसना नामु धिआइदा ॥१०॥
मूलम्
घर ही अंदरि साचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नामु निधानु वसिआ घट अंतरि रसना नामु धिआइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। निधानु = (सब सुखों का) खजाना। रसना = जीभ से।10।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा (हरेक मनुष्य के) हृदय में घर में ही बसता है, पर गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (यह भेद) समझता है। (जो यह भेद समझ लेता है) उसके दिल में (सारे सुखों का) खजाना हरि-नाम टिका रहता है, वह मनुष्य अपनी जीभ से हरि-नाम जपता रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिसंतरु भवै अंतरु नही भाले ॥ माइआ मोहि बधा जमकाले ॥ जम की फासी कबहू न तूटै दूजै भाइ भरमाइदा ॥११॥
मूलम्
दिसंतरु भवै अंतरु नही भाले ॥ माइआ मोहि बधा जमकाले ॥ जम की फासी कबहू न तूटै दूजै भाइ भरमाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिसंतरु = (देश+अंतरु) और-और देश। भवै = भटकता फिरता है। अंतरु = हृदय, अंदर का। मोहि = मोह में। बधा = बँधा हुआ। जमकाले = आत्मिक मौत में। जम = मौत, जमदूत। जम की फासी = जम दूतों का फंदा, जनम मरण का चक्कर। दूजै भाइ = माया के मोह में (पड़ कर)।11।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य त्याग आदि वाला भेस धार के तीर्थ आदिक) और-और जगह भटकता फिरता है, पर अपने हृदय को नहीं खोजता, वह मनुष्य माया के मोह में बँधा रहता है, वह मनुष्य आत्मिक मौत के काबू में आया रहता है। उसका जनम-मरण का चक्र कभी समाप्त नहीं होता, वह मनुष्य और-और के प्यार में फंस के भटकता फिरता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपु तपु संजमु होरु कोई नाही ॥ जब लगु गुर का सबदु न कमाही ॥ गुर कै सबदि मिलिआ सचु पाइआ सचे सचि समाइदा ॥१२॥
मूलम्
जपु तपु संजमु होरु कोई नाही ॥ जब लगु गुर का सबदु न कमाही ॥ गुर कै सबदि मिलिआ सचु पाइआ सचे सचि समाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। न कमाही = नहीं कमाते। सबदु न कमाही = शब्द अनुसार अपना जीवन नहीं बनाते। सबदि = शब्द में। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।12।
अर्थ: हे भाई! जब तक मनुष्य गुरु के शब्द के (हृदय में बसाने की) कमाई नहीं करते, कोई जप कोई तप कोई संजम (इस जीवन-यात्रा में) और कोई उद्यम उनकी सहायता नहीं करता। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले हरि-नाम में लीन रहता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम करोधु सबल संसारा ॥ बहु करम कमावहि सभु दुख का पसारा ॥ सतिगुर सेवहि से सुखु पावहि सचै सबदि मिलाइदा ॥१३॥
मूलम्
काम करोधु सबल संसारा ॥ बहु करम कमावहि सभु दुख का पसारा ॥ सतिगुर सेवहि से सुखु पावहि सचै सबदि मिलाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबल = स+बल, बल वाले। संसारा = संसार में। करम = (निहित किए हुए धार्मिक) कर्म। सभु = सारा (उद्यम)। पसारा = खिलारा। सेवहि = शरण पड़ते हैं (बहुवचन)। सुखु = आत्मिक आनंद। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में।13।
अर्थ: हे भाई! काम और क्रोध जगत में बड़े बली हैं, (जीव इनके प्रभाव में फसे रहते हैं, पर दुनिया को पतियाने की खातिर तीर्थ-यात्रा आदि धार्मिक निहित हुए) अनेक कर्म (भी) करते हें। ये सारा दुखों का ही पसारा (बना रहता) है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे आत्मिक आनंद पाते हैं, (गुरु उनको) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जोड़ता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउणु पाणी है बैसंतरु ॥ माइआ मोहु वरतै सभ अंतरि ॥ जिनि कीते जा तिसै पछाणहि माइआ मोहु चुकाइदा ॥१४॥
मूलम्
पउणु पाणी है बैसंतरु ॥ माइआ मोहु वरतै सभ अंतरि ॥ जिनि कीते जा तिसै पछाणहि माइआ मोहु चुकाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसंतरु = आग। पउणु = हवा। वरतै = प्रभाव डाल रहा है। जिनि = जिस परमात्मा ने। जा = जब। चुकाइदा = दूर करता है।14।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो इस शरीर के) हवा, पानी, आग (आदि सादे से ही तत्व हैं, पर) सब जीवों अंदर माया का मोह (अपना) जोर बनाए रखता है। जब (कोई भाग्यशाली) उस परमात्मा के साथ सांझ डालते हैं जिस ने (उनको) पैदा किया है, तो (वह परमात्मा उनके अंदर से) माया का मोह दूर कर देता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि माइआ मोहि गरबि विआपे ॥ हउमै होइ रहे है आपे ॥ जमकालै की खबरि न पाई अंति गइआ पछुताइदा ॥१५॥
मूलम्
इकि माइआ मोहि गरबि विआपे ॥ हउमै होइ रहे है आपे ॥ जमकालै की खबरि न पाई अंति गइआ पछुताइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। मोहि = मोह में। गरबि = अहंकार में। विआपे = फसे हुए। है = हैं। हउमै….है = अहंकार का स्वरूप बने हुए हैं। जम काल = मौत, आत्मिक मौत। अंति = आखिरी वक्त।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई (जीव ऐसे हैं जो हर वक्त) माया के मोह में अहंकार में ग्रसे रहते हैं, अहंकार का पुतला ही बने रहते हैं। (पर जिस भी ऐसे मनुष्य को इस) आत्मिक मौत की समझ नहीं पड़ती, वह अंत में यहाँ से हाथ मलता ही जाता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि उपाए सो बिधि जाणै ॥ गुरमुखि देवै सबदु पछाणै ॥ नानक दासु कहै बेनंती सचि नामि चितु लाइदा ॥१६॥२॥१६॥
मूलम्
जिनि उपाए सो बिधि जाणै ॥ गुरमुखि देवै सबदु पछाणै ॥ नानक दासु कहै बेनंती सचि नामि चितु लाइदा ॥१६॥२॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमातमा) ने। बिधि = (आत्मिक मौत से बचाने का) ढंग। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण में डाल के। देवै = (‘बिधि’) देता है। सबदु पछाणै = (वह मनुष्य) गुरु शब्द को पहचानता है। सचि नामि = सदा स्थिर हरि नाम में।16।
अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) जिस परमात्मा ने (जीव) पैदा किए हैं वह ही (इस आत्मिक मौत से बचाने का) ढंग जानता है। (वह इस सूझ में जिस जीव को) गुरु की शरण डाल के देता है, वह गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल लेता है। नानक दास विनती करता है: हे भाई! वह मनुष्य अपना चिक्त सदा कायम रहने वाले हरि-नाम में जोड़े रखता है।16।2।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ आदि जुगादि दइआपति दाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ तुधुनो सेवहि से तुझहि समावहि तू आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ आदि जुगादि दइआपति दाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ तुधुनो सेवहि से तुझहि समावहि तू आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = (जगत के) आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। से = वह (बहुवचन)। तुझहि = तेरे में। आपे = स्वयं ही। मेलि = मिल के।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (जगत के) शुरू से, जुगों के आरम्भ से दया का मालिक है (सारे सुख पदार्थ) देने वाला है। पूरे गुरु के शब्द से तेरे साथ जान-पहचान बन सकती है। जो मनुष्य सेवा-भक्ति करते हैं, वे तेरे (चरणों) में लीन रहते हैं। तू स्वयं ही (उनको गुरु से) मिला के (अपने साथ) मिलाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि तू आपे मारगि पाइदा ॥२॥
मूलम्
अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि तू आपे मारगि पाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। जीअ = जीव। भावै = अच्छा लगता है। मारगि = (सही जीवन के) रास्ते पर।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इन्द्रियों के द्वारा तुझे समझा नहीं जा सकता, तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले तेरी प्राप्ति नहीं हो सकती)। सारे जीव-जंतु तेरे ही आसरे हैं। जैसे तुझे अच्छा लगता है, तू जीवों को कारे लगाता है, तू स्वयं ही (जीवों को) सही जीवन-राह पर चलाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
है भी साचा होसी सोई ॥ आपे साजे अवरु न कोई ॥ सभना सार करे सुखदाता आपे रिजकु पहुचाइदा ॥३॥
मूलम्
है भी साचा होसी सोई ॥ आपे साजे अवरु न कोई ॥ सभना सार करे सुखदाता आपे रिजकु पहुचाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। होसी = कायम रहेगा। साजे = पैदा करता है। अवरु = और। सार = संभाल। पहुचाइदा = पहुँचाता है।3।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा इस वक्त भी मौजूद है, वह सदा कायम रहेगा। वह स्वयं ही (सृष्टि) पैदा करता है, (उसके बिना पैदा करने वाला) और कोई नहीं है। वह सारे सुख देने वाला परमात्मा स्वयं ही सब जीवों की संभाल करता है, वह स्वयं ही सबको रिजक पहुँचाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरु अलख अपारा ॥ कोइ न जाणै तेरा परवारा ॥ आपणा आपु पछाणहि आपे गुरमती आपि बुझाइदा ॥४॥
मूलम्
अगम अगोचरु अलख अपारा ॥ कोइ न जाणै तेरा परवारा ॥ आपणा आपु पछाणहि आपे गुरमती आपि बुझाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। परवारा = पैदा किए हुए जीव-जंतु। आपु = खुद। बुझाइदा = सूझ देता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘आपु’ है कर्म कारक, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू अगोचर है, तू अलख है, तू बेअंत है। कोई भी जान नहीं सकता कि तेरा कितना बड़ा परिवार है। अपने आप को (अपनी प्रतिभा को) तू स्वयं ही समझता है, गुरु की मति दे के तू स्वयं ही (जीवों को सही जीवन-रास्ता) समझाता है।4।
[[1061]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाताल पुरीआ लोअ आकारा ॥ तिसु विचि वरतै हुकमु करारा ॥ हुकमे साजे हुकमे ढाहे हुकमे मेलि मिलाइदा ॥५॥
मूलम्
पाताल पुरीआ लोअ आकारा ॥ तिसु विचि वरतै हुकमु करारा ॥ हुकमे साजे हुकमे ढाहे हुकमे मेलि मिलाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोअ = अनेक मण्डल। आकारा = ये सारा दिखाई देता जगत। तिसु विचि = इस सारे दिखते जगत में (शब्द ‘तिसु’ एकवचन)। वरतै = काम कर रहा है। करारा = सख्त, करड़ा। हुकमे = हुक्म में ही। मेलि = (गुरु से) मेल के।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लोअ’ शब्द है ‘लोकु’ का बहुवचन और प्राक्रित रूप।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (अनेक) पाताल, (अनेक) पुरियाँ, (अनेक) मण्डल - ये सारा दिखाई देता जगत (परमात्मा का पैदा किया हुआ है), इस में परमात्मा का कठोर हुक्म जगत की कार चला रहा है। (इस सारे जगत को परमात्मा अपने) हुक्म में पैदा करता है, हुक्म में ही गिराता है। हुक्म अनुसार ही (जीवों को गुरु से) मेल के (अपने चरणों में) जोड़ता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमै बूझै सु हुकमु सलाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ जेही मति देहि सो होवै तू आपे सबदि बुझाइदा ॥६॥
मूलम्
हुकमै बूझै सु हुकमु सलाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ जेही मति देहि सो होवै तू आपे सबदि बुझाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सु = वह (एकवचन)। सलाहे = सराहना करता है, बड़ाई करता है। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगोचर = हे अगोचर! देहि = तू देता है। सबदि = शब्द से।6।
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे अगोचर! हे बेपरवाह! जो मनुष्य तेरे हुक्म को समझ लेता है, वह उस हुक्म की शोभा करता है। हे प्रभु! तू जैसी मति (किसी मनुष्य को) देता है, वह वैसा ही बन जाता है। तू स्वयं ही गुरु शब्द में (मनुष्य को जोड़ के उसको अपने हुक्म की) सूझ बख्शता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु आरजा छिजदी जाए ॥ रैणि दिनसु दुइ साखी आए ॥ मनमुखु अंधु न चेतै मूड़ा सिर ऊपरि कालु रूआइदा ॥७॥
मूलम्
अनदिनु आरजा छिजदी जाए ॥ रैणि दिनसु दुइ साखी आए ॥ मनमुखु अंधु न चेतै मूड़ा सिर ऊपरि कालु रूआइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। आरजा = उम्र। छिजदी = घटती। रैणि = रात। दुइ = दोनों। साखी = गवाह। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अंधु = (माया के मोह में) अंधा। मूढ़ा = मूर्ख। रूआइदा = रुलाता, सहम डाल रहा, गरजता है।7।
अर्थ: हे भाई! हर रोज हर वक्त मनुष्य की उम्र घटती जाती है, रात और दिन ये दोनों इस बात के गवाह हैं (जो दिन-रात गुजर जाता है, वह वापस उम्र में नहीं आ सकता)। पर मन का मुरीद माया के मोह में अंधा हुआ मूर्ख मनुष्य (इस बात को) याद नहीं करता। (उधर से) मौत (का नगारा) सिर पर गरजता रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु सीतलु गुर चरणी लागा ॥ अंतरि भरमु गइआ भउ भागा ॥ सदा अनंदु सचे गुण गावहि सचु बाणी बोलाइदा ॥८॥
मूलम्
मनु तनु सीतलु गुर चरणी लागा ॥ अंतरि भरमु गइआ भउ भागा ॥ सदा अनंदु सचे गुण गावहि सचु बाणी बोलाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतलु = शांत। चरणी = चरणों से। भरमु = भटकना। सचे गुण = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुण। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों में लगता है, उसका मन शांत रहता है उसका तन शांत रहता है। उसके अंदर (टिकी हुई) भटकना दूर हो जाती है, उसका हरेक किस्म का डर समाप्त हो जाता है। हे भाई! जो मनुष्य (गुरु की कृपा से) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनको सदा आत्मिक आनंद मिला रहता है। (पर जीव के वश की बात नहीं) ये महिमा की वाणी भी सदा कायम रहने वाला परमात्मा (स्वयं ही) उच्चारण के लिए प्रेरित करता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि तू जाता करम बिधाता ॥ पूरै भागि गुर सबदि पछाता ॥ जति पति सचु सचा सचु सोई हउमै मारि मिलाइदा ॥९॥
मूलम्
जिनि तू जाता करम बिधाता ॥ पूरै भागि गुर सबदि पछाता ॥ जति पति सचु सचा सचु सोई हउमै मारि मिलाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तू = तुझे। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तू जाता = तेरे साथ सांझ डाल ली। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। सबदि = शब्द से। जति पति = जाति पाति। सचु साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मारि = मार के।9।
अर्थ: हे प्रभु! तू जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला है। जिस (मनुष्य) ने तेरे साथ सांझ डाल ली, सौभाग्य से गुरु-शब्द में जुड़ के उसने तुझे (हर जगह बसता) पहचान लिया। हे भाई! जिस मनुष्य के अहंकार को मार के सदा स्थिर प्रभु उसको अपने साथ मिला लेता है, उसकी जाति वह स्वयं बन जाता है, उसकी कुल वह सदा कायम रहने वाला प्रभु आप बन जाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु कठोरु दूजै भाइ लागा ॥ भरमे भूला फिरै अभागा ॥ करमु होवै ता सतिगुरु सेवे सहजे ही सुखु पाइदा ॥१०॥
मूलम्
मनु कठोरु दूजै भाइ लागा ॥ भरमे भूला फिरै अभागा ॥ करमु होवै ता सतिगुरु सेवे सहजे ही सुखु पाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कठोरु = सख्त, निर्दयी, अनभिज्ञ। दूजै भाइ = माया के प्यार में। भरमै = भटकना में पड़ कर। भूला = गलत राह पर पड़ा हुआ। करमु = मेहर, बख्शिश। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखु = आत्मिक आनंद।10।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य माया के मोह में फसा रहता है, उसका मन कठोर टिका रहता है, वह भाग्यहीन मनुष्य भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़ा रहता है। जब उस पर परमात्मा की मेहर होती है, तब वह गुरु की शरण पड़ता है, और आत्मिक अडोलता में टिका रह के आत्मिक आनंद लेता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख चउरासीह आपि उपाए ॥ मानस जनमि गुर भगति द्रिड़ाए ॥ बिनु भगती बिसटा विचि वासा बिसटा विचि फिरि पाइदा ॥११॥
मूलम्
लख चउरासीह आपि उपाए ॥ मानस जनमि गुर भगति द्रिड़ाए ॥ बिनु भगती बिसटा विचि वासा बिसटा विचि फिरि पाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनमि = जनम में। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्की करता है।11।
अर्थ: हे भाई! चौरासी लाख जूनियों के जीव (परमात्मा ने) खुद पैदा किए हैं, (उसकी मेहर से ही) मानव जनम में गुरु जीव के अंदर परमात्मा की भक्ति पक्की करता है। भक्ति के बिना जीव का निवास विकारों के गंद में रहता है, और, बार बार विकारों के गंद में ही पाया जाता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु होवै गुरु भगति द्रिड़ाए ॥ विणु करमा किउ पाइआ जाए ॥ आपे करे कराए करता जिउ भावै तिवै चलाइदा ॥१२॥
मूलम्
करमु होवै गुरु भगति द्रिड़ाए ॥ विणु करमा किउ पाइआ जाए ॥ आपे करे कराए करता जिउ भावै तिवै चलाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = मेहर। विणु करमा = मेहर के बिना।12।
अर्थ: हे भाई! जब परमात्मा की मेहर होती है, गुरु (मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की भक्ति पक्की करता है। प्रभु की बख्शिश के बिना प्रभु के साथ मिलाप नहीं हो सकता। (पर जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा खुद ही (सब कुछ) करता है, खुद ही (जीवों से) करवाता है। जैसी उसकी मर्जी होती है, वैसे ही जीवों को चलाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिम्रिति सासत अंतु न जाणै ॥ मूरखु अंधा ततु न पछाणै ॥ आपे करे कराए करता आपे भरमि भुलाइदा ॥१३॥
मूलम्
सिम्रिति सासत अंतु न जाणै ॥ मूरखु अंधा ततु न पछाणै ॥ आपे करे कराए करता आपे भरमि भुलाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न जाणै = नहीं जानता (एकवचन)। अंतु = (प्रभु को मिलने का) भेद। सिम्रिति सासत = स्मृतियां और शास्त्र (के बताए हुए कर्मकांडों) से। ततु = अस्लियत। भरमि = भटकना में (डाल के)। भुलाइदा = गलत रास्ते पर डालता है।13।
अर्थ: हे भाई! स्मृतियों-शास्त्रों (के बताए हुए कर्मकांडों) के द्वारा मनुष्य (प्रभु के मिलाप का) भेद नहीं जान सकता। (कर्मकांड में ही फसा) अंधा मूर्ख मनुष्य अस्लियत को नहीं समझ सकता। (पर इसके भी क्या वश?) कर्तार स्वयं ही सब कुछ करता कराता है, स्वयं ही भटकना में डाल के गलत मार्ग पर डाले रखता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु किछु आपे आपि कराए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे थापि उथापे वेखै गुरमुखि आपि बुझाइदा ॥१४॥
मूलम्
सभु किछु आपे आपि कराए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे थापि उथापे वेखै गुरमुखि आपि बुझाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे आपि = प्रभु आप ही आप। सिरि सिरि = हरेक सिर पर (लिखे लेखों के अनुसार)। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। वेखै = संभाल करता है। गुरमुखि = गुरु से।14।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही स्वयं (जीवों से) सब कुछ करवाता है, हरेक जीव के सिर पर लिखे लेख के अनुसार प्रभु स्वयं ही हरेक को मायावी दौड़-भाग में लगाए रखता है। प्रभु स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके आप ही नाश करता है, स्वयं ही (सब की) संभाल करता है, गुरु की शरण में डाल के स्वयं ही (सही जीवन-मार्ग की) समझ देता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा साहिबु गहिर ग्मभीरा ॥ सदा सलाही ता मनु धीरा ॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाई गुरमुखि मंनि वसाइदा ॥१५॥
मूलम्
सचा साहिबु गहिर ग्मभीरा ॥ सदा सलाही ता मनु धीरा ॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाई गुरमुखि मंनि वसाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गहिर = अथाह। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। सालाही = महिमा करूँ। धीरा = धैर्य वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मंनि = मन में।15।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है, अथाह है बड़े जिगरे वाला है। जग मैं सदा उस की महिमा करता हूँ, तो मेरे मन में धीरज बना रहता है। हे भाई1 उस अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर परमात्मा का मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले वह नहीं मिल सकता)। गुरु की शरण डाल कर (अपना नाम मनुष्य के) मन में बसाता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि निरालमु होर धंधै लोई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमती मेलि मिलाइदा ॥१६॥३॥१७॥
मूलम्
आपि निरालमु होर धंधै लोई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमती मेलि मिलाइदा ॥१६॥३॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप। धंधै = माया के धंधों में (व्यस्त)। लोई = दुनिया। परसादी = कृपा से। घट अंतरि = हृदय में। नानक = हे नानक! मेलि = मेल के।16।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं निर्लिप है, और सारी दुनिया माया की दौड़-भाग में खचित रहती है। कोई विरला मनुष्य गुरु की कृपा से (उसके साथ) सांझ डालता है। हे नानक! (जिस पर गुरु की कृपा होती है) उस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है। गुरु की मति में जोड़ के (प्रभु मनुष्य को अपने चरणों में) मिलाता है।16।3।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ जुग छतीह कीओ गुबारा ॥ तू आपे जाणहि सिरजणहारा ॥ होर किआ को कहै कि आखि वखाणै तू आपे कीमति पाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ जुग छतीह कीओ गुबारा ॥ तू आपे जाणहि सिरजणहारा ॥ होर किआ को कहै कि आखि वखाणै तू आपे कीमति पाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुग छतीह = छक्तिस युग, अनेक युग, बेअंत समय। गुबारा = घोर अंधेरा, एसी हालत जो मनुष्य की समझ से परे है। सिरजणहारा = हे विधाता! को = कोई जीव। और क्या कहै = कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आखि = कह के। कि वखाणै = क्या बयान करे? कुछ भी बयान नहीं किया जा सकता।1।
अर्थ: हे विधाता! (जगत रचना से पहले) बेअंत समय तूने ऐसी हालत बनाए रखी जो जीवों की समझ से परे है। तू खुद ही जानता है (कि वह हालत क्या थी)। (उस गुबार की बाबत) कोई जीव कुछ भी नहीं कह सकता, कोई जीव कह के कुछ भी बयान नहीं कर सकता। तू खुद ही उसकी अस्लियत जानता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओअंकारि सभ स्रिसटि उपाई ॥ सभु खेलु तमासा तेरी वडिआई ॥ आपे वेक करे सभि साचा आपे भंनि घड़ाइदा ॥२॥
मूलम्
ओअंकारि सभ स्रिसटि उपाई ॥ सभु खेलु तमासा तेरी वडिआई ॥ आपे वेक करे सभि साचा आपे भंनि घड़ाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओअंकारि = ओअंकार ने, परमात्मा ने। वेक = अलग अलग। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। भंनि = तोड़ के, नाश करके।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने स्वयं सारी सृष्टि पैदा की। हे प्रभु! (तेरा रचा हुआ ये जगत) सारा तेरा खेल-तमाशा है, तेरी ही बड़ाई है। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही सारे जीवों को अलग-अलग किस्म के बनाता है, स्वयं ही नाश करके स्वयं ही पैदा करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाजीगरि इक बाजी पाई ॥ पूरे गुर ते नदरी आई ॥ सदा अलिपतु रहै गुर सबदी साचे सिउ चितु लाइदा ॥३॥
मूलम्
बाजीगरि इक बाजी पाई ॥ पूरे गुर ते नदरी आई ॥ सदा अलिपतु रहै गुर सबदी साचे सिउ चितु लाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाजीगरि = बाजीगर ने। बाजी पाई = तमाशा रचा है। ते = से। नदरी आई = दिखाई दी। अलिपतु = निर्लिप। सबदी = शब्द से। सिउ = साथ।3।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु) बाजीगर ने (यह जगत) एक तमाश रचा हुआ है। जिस मनुष्य को पूरे गुरु से यह समझ आ गई, वह मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (इस जगत-तमाशे में) निर्लिप रहता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के साथ अपना मन जोड़े रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाजहि बाजे धुनि आकारा ॥ आपि वजाए वजावणहारा ॥ घटि घटि पउणु वहै इक रंगी मिलि पवणै सभ वजाइदा ॥४॥
मूलम्
बाजहि बाजे धुनि आकारा ॥ आपि वजाए वजावणहारा ॥ घटि घटि पउणु वहै इक रंगी मिलि पवणै सभ वजाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आकारा = सारे (दिखाई दे रहे) शरीर। बाजहि = बज रहे हैं। धुनि = सुर (से)। घटि घटि = हरेक शरीर में। पउणु = हवा, साँस। वहै = चल रहा है। इक रंगी = एक रस रहने वाले परमात्मा की। मिलि = मिल के। पवणै = पवन में, साँसों में।4।
अर्थ: हे भाई! ये सारे दिखाई दे रहे शरीर (मीठी सुर) से (मानो) बाजे बज रहे हैं। बजाने की समर्थता वाला प्रभु स्वयं ही यह (शरीर-) बाजे बजा रहा है। हरेक शरीर में उस सदा एक-रंग रहने वाले परमात्मा का बनाया हुआ श्वास चल रहा है, (उस अपने पैदा किए) पवन में मिल के परमात्मा ये सारे बाजे बजा रहा है।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
करता करे सु निहचउ होवै ॥ गुर कै सबदे हउमै खोवै ॥ गुर परसादी किसै दे वडिआई नामो नामु धिआइदा ॥५॥
मूलम्
करता करे सु निहचउ होवै ॥ गुर कै सबदे हउमै खोवै ॥ गुर परसादी किसै दे वडिआई नामो नामु धिआइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहचउ = निष्चित तौर पर, अवश्य। कै सबदे = के शब्द से। परसादी = कृपा से। किसै = (जिस) विरले को। दे = देता है। नामो नामु = नाम ही नाम, हर वक्त नाम।5।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से (जिस) किसी (विरले मनुष्य) को परमात्मा बड़ाई देता है, वह मनुष्य हर वक्त हरि-नाम ही स्मरण करता है, (उस मनुष्य को यह निश्चय हो जाता है कि) जो कुछ परमात्मा करता है वह अवश्य होता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सेवे जेवडु होरु लाहा नाही ॥ नामु मंनि वसै नामो सालाही ॥ नामो नामु सदा सुखदाता नामो लाहा पाइदा ॥६॥
मूलम्
गुर सेवे जेवडु होरु लाहा नाही ॥ नामु मंनि वसै नामो सालाही ॥ नामो नामु सदा सुखदाता नामो लाहा पाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेवडु = जितना, बराबर का। लाहा = लाभ। मंनि = मन में। सालाही = सलाहते हैं।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने के बराबर (जगत में) और कोई लाभवंत (कार्य) नहीं है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, उनके) मन में (परमात्मा का) नाम आ बसता है, वे हर वक्त हरि-नाम की कीर्ति करते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम ही सदा सुख देने वाला है। हरि-नाम ही (असल) लाभ (है जो) मनुष्य कमाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु नावै सभ दुखु संसारा ॥ बहु करम कमावहि वधहि विकारा ॥ नामु न सेवहि किउ सुखु पाईऐ बिनु नावै दुखु पाइदा ॥७॥
मूलम्
बिनु नावै सभ दुखु संसारा ॥ बहु करम कमावहि वधहि विकारा ॥ नामु न सेवहि किउ सुखु पाईऐ बिनु नावै दुखु पाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसार = संसार में। न सेवहि = नहीं स्मरण करते। किउ पाईऐ = कैसे प्राप्त हो सकता है।?।7।
अर्थ: हे भाई! हरि-नाम से टूटने पर जगत में हर तरफ दुख ही दुख है। (जो मनुष्य नाम भुला के धार्मिक निहित हुए अन्य) अनेक कर्म करते हैं (उनके अंदर बल्कि) विकार बढ़ते हैं। हे भाई! अगर मनुष्य नाम नहीं स्मरण करते तो आत्मिक आनंद कैसे मिल सकता है? नाम से टूट के मनुष्य दुख ही सहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि करे तै आपि कराए ॥ गुर परसादी किसै बुझाए ॥ गुरमुखि होवहि से बंधन तोड़हि मुकती कै घरि पाइदा ॥८॥
मूलम्
आपि करे तै आपि कराए ॥ गुर परसादी किसै बुझाए ॥ गुरमुखि होवहि से बंधन तोड़हि मुकती कै घरि पाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तै = और। किसै = किसी विरले को। बुझाए = समझ बख्शता है। से = वह (बहुवचन)। मुकती के घरि = मुक्ति के घर में, उस घर में जहाँ विकारों से मुक्ति हुई रहती है।8।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से किसी (विरले) को परमात्मा ये समझ देता है कि परमात्मा स्वयं ही सब कुछ कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहते हैं, वह (अपने अंदर से माया के मोह के) बंधन तोड़ लेते हैं। गुरु उनको उस आत्मिक ठिकाने में रखता है जहाँ उन्हें विकारों से मुक्ति मिली रहती है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गणत गणै सो जलै संसारा ॥ सहसा मूलि न चुकै विकारा ॥ गुरमुखि होवै सु गणत चुकाए सचे सचि समाइदा ॥९॥
मूलम्
गणत गणै सो जलै संसारा ॥ सहसा मूलि न चुकै विकारा ॥ गुरमुखि होवै सु गणत चुकाए सचे सचि समाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गणत = माया के बारे चिन्ता फिक्र, गिनतियां। गणै = गिनता है। जलै = (तृष्णा की आग में) जलता रहता है। संसारा = जगत में। सहसा = (माया के बारे में) सहम। मूलि = बिल्कुल। चुकै = खत्म होता। विकारा = बेकार, व्यर्थ। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। चुकाए = समाप्त कर देता है। सचे सचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभु में।9।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त माया की गिनतियाँ गिनता रहता है, वह जगत में सदा (तृष्णा की आग में) जलता रहता है, उसका यह व्यर्थ सहम कभी भी समाप्त नहीं होता। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह दुनियावी चिन्ता-फिक्र खत्म किए रहता है, वह हर वक्त सदा कायम रहने वाले परमात्मा की याद में लीन रहता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे सचु देइ त पाए कोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सचु नामु सालाहे रंगि राता गुर किरपा ते सुखु पाइदा ॥१०॥
मूलम्
जे सचु देइ त पाए कोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सचु नामु सालाहे रंगि राता गुर किरपा ते सुखु पाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। देइ = दे। परसादी = कृपा से। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। ते = से।10।
अर्थ: पर, हे भाई! अगर सदा कायम रहने वाला परमात्मा (खुद ही ये बेफिकरी) बख्शे, तब ही कोई मनुष्य इसको प्राप्त करता है। गुरु की कृपा से (प्रभु उसके अंदर) प्रकट हो जाता है। वह मनुष्य गुरु की कृपा से प्रेम-रंग में मस्त रह के सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण करता है, और आत्मिक आनंद माणता रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपु तपु संजमु नामु पिआरा ॥ किलविख काटे काटणहारा ॥ हरि कै नामि तनु मनु सीतलु होआ सहजे सहजि समाइदा ॥११॥
मूलम्
जपु तपु संजमु नामु पिआरा ॥ किलविख काटे काटणहारा ॥ हरि कै नामि तनु मनु सीतलु होआ सहजे सहजि समाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपु = (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए) मंत्रों का जाप। तपु = धूणियां तपा के उल्टे ल्टक के एसे तरीकों से शरीर को कष्ट देने। संजमु = पाप। काटणहारा = काटने की समर्थता वाला प्रभु। कै नामि = के नाम से। सहजे सहजि = हर वक्त सहज (आत्मिक अडोलता) में।11।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का मीठा नाम (जपना ही) जप है तप है संजम है। (जो मनुष्य नाम जपता है उसके सारे) पाप (पाप) काटने की समर्थता रखने वाला परमात्मा काट देता है। परमात्मा के नाम में जुड़ने की इनायत से उसका तन उसका मन शांत रहता है, वह सदा ही आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि लोभु मनि मैलै मलु लाए ॥ मैले करम करे दुखु पाए ॥ कूड़ो कूड़ु करे वापारा कूड़ु बोलि दुखु पाइदा ॥१२॥
मूलम्
अंतरि लोभु मनि मैलै मलु लाए ॥ मैले करम करे दुखु पाए ॥ कूड़ो कूड़ु करे वापारा कूड़ु बोलि दुखु पाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। मनि मैलै = मन मैला रहने के कारण। कूड़ो कूड़ु वपारा = हर वक्त नाशवान पदार्थों के कमाने का धंधा। बोलि = बोल के। कूड़ु = झूठ।12।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर (माया का) लालच टिका रहता है (उसका मन हर वक्त मैला रहता है), मैले मन के कारण वह मनुष्य लालच की और मैल (अपने मन को) लगाता रहता है। (ज्यों-ज्यों लालच के अधीन वह) मैले कर्म करता है, वह (आत्मिक) दुख पाता है। वह सदा नाशवान पदार्थों के कमाने का धंधा ही करता है, और झूठ बोल-बोल के दुख सहता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल बाणी को मंनि वसाए ॥ गुर परसादी सहसा जाए ॥ गुर कै भाणै चलै दिनु राती नामु चेति सुखु पाइदा ॥१३॥
मूलम्
निरमल बाणी को मंनि वसाए ॥ गुर परसादी सहसा जाए ॥ गुर कै भाणै चलै दिनु राती नामु चेति सुखु पाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमल = (जीवन को) पवित्र करने वाली। को = कौन सा मनुष्य। मंनि = मन में। परसादी = कृपा से। सहसा = सहम। कै भाणै = की रजा में, के हुक्म में। चेति = याद करके, स्मरण करके।13।
अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य (जीवन को) पवित्र करने वाली (गुर-) वाणी (अपने) मन में बसाता है, गुरु की कृपा से (उसका) सहम दूर हो जाता है। वह मनुष्य दिन-रात गुरु के हुक्म में चलता है, हरि-नाम को स्मरण करके वह आत्मिक आनंद लेता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि सिरंदा सचा सोई ॥ आपि उपाइ खपाए सोई ॥ गुरमुखि होवै सु सदा सलाहे मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१४॥
मूलम्
आपि सिरंदा सचा सोई ॥ आपि उपाइ खपाए सोई ॥ गुरमुखि होवै सु सदा सलाहे मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरंदा = पैदा करने वाला। सचा = सदा स्थिर प्रभु। उपाइ = पैदा करके। खपाए = नाश करता है। सोई = वह (स्वयं) ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सलाहे = महिमा करता है। मिलि = मिल के।14।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करने वाला है, खुद पैदा करके वह खुद नाश करता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह सदा परमात्मा की महिमा करता है, सदा-स्थिर प्रभु के चरणों में मिल के वह आत्मिक आनंद भोगता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेक जतन करे इंद्री वसि न होई ॥ कामि करोधि जलै सभु कोई ॥ सतिगुर सेवे मनु वसि आवै मन मारे मनहि समाइदा ॥१५॥
मूलम्
अनेक जतन करे इंद्री वसि न होई ॥ कामि करोधि जलै सभु कोई ॥ सतिगुर सेवे मनु वसि आवै मन मारे मनहि समाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इंद्री = काम-वासना। कामि = काम में करोधि = क्रोध में। सभु कोई = हरेक जीव। सतिगुर सेवे = गुरु की शरण पड़ने से। वसि = काबू में। मन मारे = अगर मन को मार ले, यदि मन को वश में कर ले। मनहि = मन ही, मन में ही।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मनहि’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘मनि’ की ‘ि’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़े बिना) और अनेक प्रयत्न भी मनुष्य करे तो भी काम-वासना काबू में नहीं आ सकती। (ध्यान से देखें) हरेक जीव काम में क्रोध में जल रहा है। गुरु की शरण पड़ने से ही मन काबू में आता है। अगर मन (विकारों से) रोक लिया जाए तो मनुष्य की अंतरात्मा टिकी रहती है (विकारों की ओर नहीं भटकता)।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा तेरा तुधु आपे कीआ ॥ सभि तेरे जंत तेरे सभि जीआ ॥ नानक नामु समालि सदा तू गुरमती मंनि वसाइदा ॥१६॥४॥१८॥
मूलम्
मेरा तेरा तुधु आपे कीआ ॥ सभि तेरे जंत तेरे सभि जीआ ॥ नानक नामु समालि सदा तू गुरमती मंनि वसाइदा ॥१६॥४॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरा तेरा = भेद भाव। आपै = स्वयं ही। सभि = सारे। समालि = याद करता रह।16।
अर्थ: हे प्रभु! (जीवों के मन में) मेर-तेर तूने खुद ही पैदा की है। सारे जीव-जंतु तेरे ही पैदा किए हुए हैं। हे नानक! परमात्मा का नाम सदा याद करता रह। हे भाई! गुरु की मति पर चलने से (प्रभु अपना नाम मनुष्य के) मन में बसाता है।16।4।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ हरि जीउ दाता अगम अथाहा ॥ ओसु तिलु न तमाइ वेपरवाहा ॥ तिस नो अपड़ि न सकै कोई आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ हरि जीउ दाता अगम अथाहा ॥ ओसु तिलु न तमाइ वेपरवाहा ॥ तिस नो अपड़ि न सकै कोई आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाता = सब पदार्थ देने वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाहा = बहुत ही गहरा (समुंदर), बेअंत खजानों वाला। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = तमा, लालच। आपे = आप ही। मेलि = मिला के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब पदार्थ देने वाला है, अगम्य (पहुँच से परे) है, बहुत ही गहरा (मानो बेअंत खजानों वाला समुंदर) है। (वह सबको दातें दिए जाता है, पर) उस बेपरवाह को रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। कोई जीव (अपने उद्यम से) उस परमात्मा तक पहुँच नहीं सकता। वह स्वयं ही (जीव को गुरु से) मिला के अपने साथ मिलाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करै सु निहचउ होई ॥ तिसु बिनु दाता अवरु न कोई ॥ जिस नो नाम दानु करे सो पाए गुर सबदी मेलाइदा ॥२॥
मूलम्
जो किछु करै सु निहचउ होई ॥ तिसु बिनु दाता अवरु न कोई ॥ जिस नो नाम दानु करे सो पाए गुर सबदी मेलाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहचउ = जरूर। अवरु = कोई और। सबदी = शब्द से।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ के ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (वह परमात्मा) जो कुछ करता है, वह जरूर होता है। उसके बिना कोई और कुछ देने योग्य नहीं है। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा नाम की दाति देता है, वह हरि-नाम प्राप्त कर लेता है। (उसको) गुरु के शब्द में जोड़ के (अपने साथ) मिला लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चउदह भवण तेरे हटनाले ॥ सतिगुरि दिखाए अंतरि नाले ॥ नावै का वापारी होवै गुर सबदी को पाइदा ॥३॥
मूलम्
चउदह भवण तेरे हटनाले ॥ सतिगुरि दिखाए अंतरि नाले ॥ नावै का वापारी होवै गुर सबदी को पाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चउदह भवन = चौदह लोक (सात आकाश, सात पाताल), सारा जगत। हटनाले = (हटों की कतारें), बाजार। सतिगुरि = गुरु ने। नाले = साथ ही। को = जो कोई।3।
अर्थ: हे प्रभु! ये चौदह लोक तेरे बाजार हैं (जहाँ तेरे पैदा किए हुए बेअंत जीव तेरी बताई हुई कार कर रहे हैं। यह सारा जगत तेरा ही स्वरूप है)। जिस मनुष्य को गुरु ने तेरा यह सर्व-व्यापक स्वरूप उसके अंदर बसता ही दिखा दिया है, वह मनुष्य तेरे नाम का वणजारा बन जाता है। (ये दाति) जो कोई प्राप्त करता है, गुरु के शब्द से ही (प्राप्त करता है)।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि सेविऐ सहज अनंदा ॥ हिरदै आइ वुठा गोविंदा ॥ सहजे भगति करे दिनु राती आपे भगति कराइदा ॥४॥
मूलम्
सतिगुरि सेविऐ सहज अनंदा ॥ हिरदै आइ वुठा गोविंदा ॥ सहजे भगति करे दिनु राती आपे भगति कराइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि सेविऐ = अगर सतिगुरु की शरण पड़ जाएं। सहज अनंदा = आत्मिक अडोलता का सुख। हिरदै = हृदय में। वुठा = बसा। सहजे = आत्मिक अडोलता में।4।
अर्थ: हे भाई! यदि गुरु की शरण पड़ जाएं तो आत्मिक अडोलता का आनंद मिल जाता है। (गुरु के सन्मुख होने वाले मनुष्य के) हृदय में गोविंद-प्रभु आ बसता है। वह मनुष्य दिन-रात आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा की भक्ति करता है। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपनी) भक्ति करवाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर ते विछुड़े तिनी दुखु पाइआ ॥ अनदिनु मारीअहि दुखु सबाइआ ॥ मथे काले महलु न पावहि दुख ही विचि दुखु पाइदा ॥५॥
मूलम्
सतिगुर ते विछुड़े तिनी दुखु पाइआ ॥ अनदिनु मारीअहि दुखु सबाइआ ॥ मथे काले महलु न पावहि दुख ही विचि दुखु पाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं, दुख की चोटें सहते हैं। सबाइआ = हरेक किस्म का। काले = (विकारों की कालिख से) काले। महलु = (परमात्मा की हजूरी में) ठिकाना।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु (के चरणों) से विछुड़े हुए हैं, उन्होंने (अपने लिए) दुख ही सहेड़ा हुआ है। वे हर वक्त दुख की चोटें खाते हैं, उनको हरेक किस्म का दुख होता रहता है। (विकारों की कालिख से उनके) मुँह काले हुए रहते हैं (उनके मन मलीन रहते हैं) उनको प्रभु चरणों में ठिकाना नहीं मिलता। हे भाई! (गुरु चरणों से विछुड़ा हुआ मनुष्य सदा दुख में ही ग्रसा रहता है) दुख में ही ग्रसा रहता है, सदा दुख ही सहता रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥ सहज भाइ सची लिव लागी ॥ सचो सचु कमावहि सद ही सचै मेलि मिलाइदा ॥६॥
मूलम्
सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥ सहज भाइ सची लिव लागी ॥ सचो सचु कमावहि सद ही सचै मेलि मिलाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = शरण पड़ते हैं। से = वह (बहुवचन)। सहज भाइ = आत्मिक अडोलता के अनुसार, बिना किसी खास प्रयत्न के। लिव = लगन। सचो सचु = हर वक्त सदा स्थिर हरि नाम का स्मरण। सद = सदा। मेलि = (गुरु अपने साथ) मिला के। सचै = सदा स्थिर प्रभु में।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हो जाते हैं। किसी खास प्रयत्न के बिना ही सदा-स्थिर प्रभु के नाम में उनकी लगन लगी रहती है। वह मनुष्य सदा ही सदा-स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करते हैं। (गुरु उन्हें अपने साथ) मिला के सदा-स्थिर हरि-नाम में मिला देता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो सचा देइ सु पाए ॥ अंतरि साचु भरमु चुकाए ॥ सचु सचै का आपे दाता जिसु देवै सो सचु पाइदा ॥७॥
मूलम्
जिस नो सचा देइ सु पाए ॥ अंतरि साचु भरमु चुकाए ॥ सचु सचै का आपे दाता जिसु देवै सो सचु पाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = देता है। सु = वह (एकवचन)। साचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर कर देता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचै का = सदा स्थिर हरि नाम का। सचु = सदा स्थिर हरि नाम।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! वह मनुष्य (ही सदा-स्थिर हरि नाम की दाति) प्राप्त करता है जिस को सदा कायम रहने वाला परमात्मा देता है। उस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर हरि नाम टिका रहता है, (नाम की इनायत से वह मनुष्य अपने अंदर से) भटकना दूर कर लेता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु अपने सदा-स्थिर नाम की दाति देने वाला स्वयं ही है। जिस को देता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि नाम हासिल कर लेता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता सभना का सोई ॥ जिस नो आपि बुझाए बूझै कोई ॥ आपे बखसे दे वडिआई आपे मेलि मिलाइदा ॥८॥
मूलम्
आपे करता सभना का सोई ॥ जिस नो आपि बुझाए बूझै कोई ॥ आपे बखसे दे वडिआई आपे मेलि मिलाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता सोई = वह कर्तार स्वयं ही। बुझाए = समझ देता है। दे = देता है।8।
अर्थ: हे भाई! वह कर्तार स्वयं ही सब जीवों का (मालिक) है। ये बात कोई वह मनुष्य ही समझता है जिसको परमात्मा स्वयं समझाता है। हे भाई! कर्तार स्वयं ही बख्शिश करता है, स्वयं ही बड़ाई देता है, स्वयं ही (गुरु के साथ) मिला के (अपने चरणों में) मिलाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै करदिआ जनमु गवाइआ ॥ आगै मोहु न चूकै माइआ ॥ अगै जमकालु लेखा लेवै जिउ तिल घाणी पीड़ाइदा ॥९॥
मूलम्
हउमै करदिआ जनमु गवाइआ ॥ आगै मोहु न चूकै माइआ ॥ अगै जमकालु लेखा लेवै जिउ तिल घाणी पीड़ाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउमै = हउ हउ, मैं मैं, अहंकार। आगै = जीवन-यात्रा में। न चूकै = नहीं समाप्त होता। आगै = परलोक में। जमकालु = धर्म राज।9।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य ‘मैं बड़ा हूँ’, मैं बड़ा बन जाऊँ’ - इन सोचों में अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा देता है, उसके जीवन सफर में (उसके अंदर से) माया का मोह (कभी) नहीं समाप्त होता। (जब) परलोक में धर्म-राज (उनसे मानव जीवन में किये हुए कामों का) हिसाब माँगता है (तब वह ऐसे) पीड़ा जाता है जैसे (कोल्हू में डाली हुई) घाणी के तिल पीड़े जाते हैं।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरै भागि गुर सेवा होई ॥ नदरि करे ता सेवे कोई ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै महलि सचै सुखु पाइदा ॥१०॥
मूलम्
पूरै भागि गुर सेवा होई ॥ नदरि करे ता सेवे कोई ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै महलि सचै सुखु पाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। गुर सेवा = गुरु की बताई हुई कार। नदरि = मेहर की निगाह। जमकालु = मौत, मौत का सहम, आत्मिक मौत। महलि सचै = सदा स्थिर प्रभु के चरणों में।10।
अर्थ: हे भाई! गुरु की बताई (नाम-जपने की) कार बड़ी किस्मत से (ही किसी से) हो सकती है। जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है तब ही कोई मनुष्य कर सकता है। आत्मिक मौत उस मनुष्य के नजदीक नहीं आती। वह मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के चरणों में जुड़ के आत्मिक आनंद पाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन सुखु पाइआ जो तुधु भाए ॥ पूरै भागि गुर सेवा लाए ॥ तेरै हथि है सभ वडिआई जिसु देवहि सो पाइदा ॥११॥
मूलम्
तिन सुखु पाइआ जो तुधु भाए ॥ पूरै भागि गुर सेवा लाए ॥ तेरै हथि है सभ वडिआई जिसु देवहि सो पाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुधु = तुझे। भाए = अच्छे लगे। हथि = हाथ में। देवहि = ते देता है।11।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे अच्छे लगे उन्होंने ही आत्मिक आनंद पाया। उनकी बड़ी किस्मत कि तूने उनको गुरु की बताई हुई कार में लगाए रखा। सारी (लोक-परलोक की) इज्जत तेरे हाथ में है, जिसको तू (यह इज्जत) देता है वह प्राप्त करता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंदरि परगासु गुरू ते पाए ॥ नामु पदारथु मंनि वसाए ॥ गिआन रतनु सदा घटि चानणु अगिआन अंधेरु गवाइदा ॥१२॥
मूलम्
अंदरि परगासु गुरू ते पाए ॥ नामु पदारथु मंनि वसाए ॥ गिआन रतनु सदा घटि चानणु अगिआन अंधेरु गवाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंदरि = हृदय में। परगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवन की सूझ। ते = से। मंनि = मन में। घटि = हृदय में। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी।12।
अर्थ: (हे प्रभु! जिस पर तू मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य अपने) हृदय में गुरु से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त करता है, वह (तेरा) श्रेष्ठ नाम अपने मन में बसाता है। उसके हृदय में आत्मिक जीवन की सूझ का श्रेष्ठ प्रकाश हो जाता है (जिसकी इनायत से वह अपने अंदर से) जीवन के प्रति बे-समझी का अंधेरा दूर कर लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआनी अंधे दूजै लागे ॥ बिनु पाणी डुबि मूए अभागे ॥ चलदिआ घरु दरु नदरि न आवै जम दरि बाधा दुखु पाइदा ॥१३॥
मूलम्
अगिआनी अंधे दूजै लागे ॥ बिनु पाणी डुबि मूए अभागे ॥ चलदिआ घरु दरु नदरि न आवै जम दरि बाधा दुखु पाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजै = (परमात्मा को भुला के) और-और (मोह) में। अभागे = बद्किस्मत। चलदिआ = जिेंदगी के सफर में पड़ने से। घरु = असल घर में से कभी विछोड़ा ना हो। दरु = (असल) दरवाजा। जम दरि = जमराज के दर पर। बधा = बँधा हुआ।13।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह में अंधे हो चुके और आत्मिक जीवन से बेसमझ मनुष्य (परमात्मा को छोड़ के) और ही धंधों में लगे रहते हैं, वह बद्किस्मत मनुष्य पानी के बिना (विकारों के पानी में) डूब के आत्मिक मौत मर जाते हैं। जिंदगी के सफ़र में पड़ने से अपना असली घर-बार नहीं दिखता। (ऐसा मनुष्य) जमराज के दर पर बँधा हुआ दुख पाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई ॥ गिआनी धिआनी पूछहु कोई ॥ सतिगुरु सेवे तिसु मिलै वडिआई दरि सचै सोभा पाइदा ॥१४॥
मूलम्
बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई ॥ गिआनी धिआनी पूछहु कोई ॥ सतिगुरु सेवे तिसु मिलै वडिआई दरि सचै सोभा पाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकति = (माया के मोह से) मुक्ति। गिआनी = धार्मिक पुस्तकें पढ़ के निरी कथा वार्ता चर्चा करने वाले। धिआनी = समाधियाँ लगाने वाले। सेवे = शरण पड़ते हैं। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर।14।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना (माया के मोह से) मुक्ति नहीं होती, बेशक कोई मनुष्य उनको पूछ के देखे जो धार्मिक पुस्तकें पढ़ के निरी कथा-वार्ता चर्चा करने वाले हैं, या जो, समाधियाँ लगाए रखते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है, वह मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर आदर प्राप्त करता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर नो सेवे तिसु आपि मिलाए ॥ ममता काटि सचि लिव लाए ॥ सदा सचु वणजहि वापारी नामो लाहा पाइदा ॥१५॥
मूलम्
सतिगुर नो सेवे तिसु आपि मिलाए ॥ ममता काटि सचि लिव लाए ॥ सदा सचु वणजहि वापारी नामो लाहा पाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ममता = मायावी पदार्थों के कब्जे की लालसा। काटि = काट के। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। लिव = लगन। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। नामो = नाम ही। लाहा = लाभ।15।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की बताई हुई कार करता है, उसको परमात्मा स्वयं ही (अपने चरणों में) मिला लेता है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) मायावी पदार्थों के कब्ज़े की लालसा छोड़ के सदा-स्थिर हरि-नाम में तवज्जो जोड़े रखता है। हे भाई! जो वणजारे जीव सदा-स्थिर हरि-नाम का वणज सदा करते हैं, उनको हरि-नाम का लाभ मिलता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करे कराए करता ॥ सबदि मरै सोई जनु मुकता ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि नामो नामु धिआइदा ॥१६॥५॥१९॥
मूलम्
आपे करे कराए करता ॥ सबदि मरै सोई जनु मुकता ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि नामो नामु धिआइदा ॥१६॥५॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) आप ही, स्वयं ही। करता = कर्तार। सबदि = गुरु के शब्द में जुड़ के। मरै = स्वै भाव छोड़े। मुकता = (माया के मोह से) स्वतंत्र। अंतरि = अंदर। नामो नामु = हर वक्त नाम।16
अर्थ: पर, हे भाई! कर्तार स्वयं ही (सब कुछ) करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है। (उसकी मेहर से) जो मनुष्य गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) स्वै भाव त्यागता है, वही (विकारों से) स्वतंत्र हो जाता है। हे नानक! उस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम टिका रहता है, वह हर वक्त परमात्मा का नाम ही स्मरण करता रहता है।16।5।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ जो तुधु करणा सो करि पाइआ ॥ भाणे विचि को विरला आइआ ॥ भाणा मंने सो सुखु पाए भाणे विचि सुखु पाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ जो तुधु करणा सो करि पाइआ ॥ भाणे विचि को विरला आइआ ॥ भाणा मंने सो सुखु पाए भाणे विचि सुखु पाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जो कुछ, जो काम। सो = वह काम। करि पाइआ = अवश्य कर देता है। को विरला = कोई विरला मनुष्य। भाणे विचि आइआ = भाणे को मीठा माना, तेरे किए को सिर माथे माना। भाणा मंने = तेरे किए को ठीक मानता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! जो काम तू करना (चाहता) है, वह काम तू अवश्य कर देता है, (ये पता होते हुए भी) कोई विरला मनुष्य तेरी रजा को मीठा करके मानता है। जो मनुष्य तेरी रजा को सिर माथे करके मानता है, वह आत्मिक सुख हासिल करता है, तेरी रजा में रह के आत्मिक आनंद पाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि तेरा भाणा भावै ॥ सहजे ही सुखु सचु कमावै ॥ भाणे नो लोचै बहुतेरी आपणा भाणा आपि मनाइदा ॥२॥
मूलम्
गुरमुखि तेरा भाणा भावै ॥ सहजे ही सुखु सचु कमावै ॥ भाणे नो लोचै बहुतेरी आपणा भाणा आपि मनाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले को। भावै = अच्छा लगता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखु = आत्मिक आनंद। सचु कमावै = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करता है। भाणे नो लोचै = प्रभु के किए को मीठा मानने की तमन्ना करती है।2।
अर्थ: हे प्रभु! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को तेरी रजा अच्छी लगती है। वह आत्मिक अडोलता में रह के सुख पाता है, वह सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करता रहता है।
हे भाई! प्रभु के किए को मीठा मानने की तमन्ना बहुत सारी लुकाई करती है, पर अपनी रज़ा वह स्वयं ही (किसी विरले से) मनवाता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा भाणा मंने सु मिलै तुधु आए ॥ जिसु भाणा भावै सो तुझहि समाए ॥ भाणे विचि वडी वडिआई भाणा किसहि कराइदा ॥३॥
मूलम्
तेरा भाणा मंने सु मिलै तुधु आए ॥ जिसु भाणा भावै सो तुझहि समाए ॥ भाणे विचि वडी वडिआई भाणा किसहि कराइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आए = आ के। तुधु = तुझे। जिसु = जिस मनुष्य को। तुझहि = तेरे में। वडिआई = इज्जत। किसहि = किसी विरले से।3।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी रजा को मानता है, वह तुझे आ मिलता है। जिस मनुष्य को तेरा भाणा भा जाता है, वह तेरे (चरणों) में लीन हो जाता है।
हे भाई! परमात्मा की रजा में रहने से बड़ी इज्जत मिलती है। पर किसी विरले को रजा में चलाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा तिसु भावै ता गुरू मिलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥ तुधु आपणै भाणै सभ स्रिसटि उपाई जिस नो भाणा देहि तिसु भाइदा ॥४॥
मूलम्
जा तिसु भावै ता गुरू मिलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥ तुधु आपणै भाणै सभ स्रिसटि उपाई जिस नो भाणा देहि तिसु भाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। जा = या, जब। ता = तो, तब। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। तुधु = तू। देहि = तू देता है। तिसु भाइदा = उसको (तेरा भाणा) मीठा लगता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जब उस परमात्मा को अच्छा लगता है, तब वह (किसी भाग्यशाली को) गुरु से मिलाता है। और, गुरु के सन्मुख होने से मनुष्य परमात्मा का श्रेष्ठ नाम प्राप्त कर लेता है।
हे भाई! ये सारी सृष्टि तूने अपनी रजा में पैदा की है। जिस मनुष्य को तू अपनी रज़ा मानने की ताकत देता है, उसको तेरी रजा प्यारी लगती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु अंधु करे चतुराई ॥ भाणा न मंने बहुतु दुखु पाई ॥ भरमे भूला आवै जाए घरु महलु न कबहू पाइदा ॥५॥
मूलम्
मनमुखु अंधु करे चतुराई ॥ भाणा न मंने बहुतु दुखु पाई ॥ भरमे भूला आवै जाए घरु महलु न कबहू पाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंधु = अंधा, माया के मोह में अंधा। भरमे = भटकना के कारण। भूला = कुमार्ग पर पड़ा हुआ। आवै जाए = पैदा होता मरता है। घरु महलु = परमात्मा के चरणों में जगह।5।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला और माया के मोह में अंधा हो चुका मनुष्य (अपनी ओर से बहुत सारी) समझदारियाँ करता है, (पर जब तक वह परमात्मा के) किए को मीठा करके नहीं मानता (तब तक वह) बहुत दुख पाता है। मन का मुरीद मनुष्य भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ा हुआ जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है, वह कभी भी (इस तरह) परमात्मा के चरणों में जगह नहीं पा सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु मेले दे वडिआई ॥ सतिगुर की सेवा धुरि फुरमाई ॥ सतिगुर सेवे ता नामु पाए नामे ही सुखु पाइदा ॥६॥
मूलम्
सतिगुरु मेले दे वडिआई ॥ सतिगुर की सेवा धुरि फुरमाई ॥ सतिगुर सेवे ता नामु पाए नामे ही सुखु पाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेले = मिलाता है। दे = देता है। धुरि = धुर से, परमात्मा की अपनी हजूरी में से। नामे ही = नाम से ही।6।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को परमात्मा) गुरु मिलवाता है, (उसको लोक-परलोक की) इज्जत बख्शता है। गुरु की बताई हुई कार करने का हुक्म धुर से ही प्रभु ने दिया हुआ है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब वह परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है, और, नाम में जुड़ के ही आत्मिक आनंद पाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ नावहु उपजै नावहु छीजै ॥ गुर किरपा ते मनु तनु भीजै ॥ रसना नामु धिआए रसि भीजै रस ही ते रसु पाइदा ॥७॥
मूलम्
सभ नावहु उपजै नावहु छीजै ॥ गुर किरपा ते मनु तनु भीजै ॥ रसना नामु धिआए रसि भीजै रस ही ते रसु पाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = हरेक (गुण)। नावहु = नाम (जपने) से। छीजै = (हरेक अवगुण) नाश होता है। ते = से। भीजै = भीग जाता है। रसना = जीभ से। रसि = रस में, स्वाद में, आत्मिक आनंद में। रस ही ते = (उस) आत्मिक आनंद से ही।7।
अर्थ: हे भाई! नाम (स्मरण) से हरेक (गुण मनुष्य के अंदर) पैदा हो जाता है, नाम (स्मरण) से (हरेक अवगुण मनुष्य के अंदर से) नाश हो जाता है। हे भाई! गुरु की कृपा से (ही मनुष्य का) मन (मनुष्य का) तन (नाम-रस में) भीगता है। (जब मनुष्य अपनी) जीभ से हरि-नाम स्मरण करता है, वह आनंद में भीग जाता है, उस आनंद से ही मनुष्य और आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महलै अंदरि महलु को पाए ॥ गुर कै सबदि सचि चितु लाए ॥ जिस नो सचु देइ सोई सचु पाए सचे सचि मिलाइदा ॥८॥
मूलम्
महलै अंदरि महलु को पाए ॥ गुर कै सबदि सचि चितु लाए ॥ जिस नो सचु देइ सोई सचु पाए सचे सचि मिलाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महलै अंदरि = शरीर में। को = जो कोई मनुष्य। महलु = परमात्मा का ठिकाना। कै सबदि = के शब्द से। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सचे सचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (अपने) शरीर में परमात्मा का ठिकाना पा लेता है, वह सदा-स्थिर हरि-नाम में चिक्त जोड़े रखता है। पर, हे भाई! जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु अपना सदा-स्थिर हरि-नाम देता है, वही यह हरि-नाम हासिल करता है, और वह हर वक्त इस सदा-स्थिर हरि-नाम में एक-मेक हुआ रहता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु विसारि मनि तनि दुखु पाइआ ॥ माइआ मोहु सभु रोगु कमाइआ ॥ बिनु नावै मनु तनु है कुसटी नरके वासा पाइदा ॥९॥
मूलम्
नामु विसारि मनि तनि दुखु पाइआ ॥ माइआ मोहु सभु रोगु कमाइआ ॥ बिनु नावै मनु तनु है कुसटी नरके वासा पाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विसारि = बिसार के, भुला के। मनि = मन मे। तनि = तन में। सभु रोगु = निरा रोग। कमाइआ = कमाया। कुसटी = कोढ़ी, रोगी। नरके = नर्क में ही।9।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के मन में हर वक्त) माया का मोह (प्रबल है; उस ने) निरा (आत्मिक) रोग कमाया है। परमात्मा का नाम भुला के उसने अपने मन में तन में दुख ही पाया है। प्रभु के नाम के बिना (मनुष्य का) मन भी रोगी, तन (भाव, ज्ञान-इंद्रिय) भी रोगी (विकारी), वह नर्क में ही पड़ा रहता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामि रते तिन निरमल देहा ॥ निरमल हंसा सदा सुखु नेहा ॥ नामु सलाहि सदा सुखु पाइआ निज घरि वासा पाइदा ॥१०॥
मूलम्
नामि रते तिन निरमल देहा ॥ निरमल हंसा सदा सुखु नेहा ॥ नामु सलाहि सदा सुखु पाइआ निज घरि वासा पाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। देहा = शरीर। निरमल = पवित्र, विकारों से बचा हुआ। हंसा = आत्मा। नेहा = प्यार, परमात्मा से प्यार। सलाहि = सलाह के। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।10।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, उनके शरीर विकारों से बचे रहते हैं, उनकी आत्मा पवित्र रहती है, वे (प्रभु चरणों से) प्यार (जोड़ के) सदा आत्मिक आनंद भोगते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम की महिमा करके मनुष्य सदा सुख पाता है, प्रभु-चरणों में उसका निवास बना रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु को वणजु करे वापारा ॥ विणु नावै सभु तोटा संसारा ॥ नागो आइआ नागो जासी विणु नावै दुखु पाइदा ॥११॥
मूलम्
सभु को वणजु करे वापारा ॥ विणु नावै सभु तोटा संसारा ॥ नागो आइआ नागो जासी विणु नावै दुखु पाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। सभु तोटा = निरा घाटा। संसार = जगत में। नागो = नंगा ही। जासी = जाएगा।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (जगत में आ के) हरेक जीव वाणज्य-व्यापार (आदि कोई ना कोई कार-व्यवहार) करता है, पर प्रभु के नाम से वंचित रह के जगत में निरा घाटा (ही घाटा) है, (क्योंकि जगत में जीव) नंगा ही आता है (और यहाँ से) नंगा ही चला जाएगा (दुनिया वाली कमाई यहीं रह जाएगी)। प्रभु के नाम से टूटा हुआ दुख ही सहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो नामु देइ सो पाए ॥ गुर कै सबदि हरि मंनि वसाए ॥ गुर किरपा ते नामु वसिआ घट अंतरि नामो नामु धिआइदा ॥१२॥
मूलम्
जिस नो नामु देइ सो पाए ॥ गुर कै सबदि हरि मंनि वसाए ॥ गुर किरपा ते नामु वसिआ घट अंतरि नामो नामु धिआइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = देता है। मंनि = मन में। ते = से। घट अंतरि = हृदय में। नामो नामु = हर वक्त नाम।12।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा अपना नाम देता है वह (ही यह दाति) हासिल करता है। वह मनुष्य गुरु के शब्द से हरि-नाम को अपने मन में बसा लेता है। गुरु की किरपा से उसके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है वह हर वक्त हरि-नाम ही स्मरण करता रहता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावै नो लोचै जेती सभ आई ॥ नाउ तिना मिलै धुरि पुरबि कमाई ॥ जिनी नाउ पाइआ से वडभागी गुर कै सबदि मिलाइदा ॥१३॥
मूलम्
नावै नो लोचै जेती सभ आई ॥ नाउ तिना मिलै धुरि पुरबि कमाई ॥ जिनी नाउ पाइआ से वडभागी गुर कै सबदि मिलाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोचै = प्राप्त करने की चाहत करती है। नावै नो = परमात्मा के नाम को। जेती = जितनी भी। सभ आई = सारी पैदा हुई दुनिया। धुरि = धुर से। पुरबि = पहले जनम में। सो = वह (बहुवचन)। कै सबदि = के शब्द से।13।
अर्थ: हे भाई! जितनी भी लुकाई (जगत में) पैदा होती है (वह सारी) परमात्मा का नाम प्राप्त करने की तमन्ना रखती है, पर परमात्मा का नाम उनको ही मिलता है जिन्होंने प्रभु की रजा के अनुसार पिछले जनम में (नाम जपने की) कमाई की हुई होती है।
हे भाई! जिनको परमात्मा का नाम मिल जाता है, वे बड़े भाग्यों वाले बन जाते हैं। (ऐसे भाग्यशालियों को परमात्मा) गुरु के शब्द से (अपने साथ) मिला लेता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कोटु अति अपारा ॥ तिसु विचि बहि प्रभु करे वीचारा ॥ सचा निआउ सचो वापारा निहचलु वासा पाइदा ॥१४॥
मूलम्
काइआ कोटु अति अपारा ॥ तिसु विचि बहि प्रभु करे वीचारा ॥ सचा निआउ सचो वापारा निहचलु वासा पाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कोटु = किला। अति अपारा = बहुत बेअंत (प्रभु) का। तिसु विचि = इस (काया किले) में। बहि = बैठ के। सदा = सदा कायम रहने वाला। निहचलु = कभी ना हिलने वाला, अटल।14।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का यह) शरीर उस बहुत बेअंत परमात्मा (के रहने) के लिए किला है। इस किले में बैठ के परमात्मा (कई किस्मों के) विचार करता रहता है। उस परमात्मा का न्याय सदा कायम रहने वाला है। जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण का व्यापार करता है, वह (इस किले में) भटकना से रहित निवास प्राप्त किए रहता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतर घर बंके थानु सुहाइआ ॥ गुरमुखि विरलै किनै थानु पाइआ ॥ इतु साथि निबहै सालाहे सचे हरि सचा मंनि वसाइदा ॥१५॥
मूलम्
अंतर घर बंके थानु सुहाइआ ॥ गुरमुखि विरलै किनै थानु पाइआ ॥ इतु साथि निबहै सालाहे सचे हरि सचा मंनि वसाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतर घर = अंदरूनी घर (मन, बुद्धि, ज्ञानंन्द्रियां आदिक) (बहुवचन)। बंके = बांके, सुंदर। थानु = स्थान, हृदय स्थल। सुहाइआ = सुहाया, सुंदर लगा। इतु = इस में। साथि = साथ में (अंदरूनी सुंदर घरों के स्थान में, मन बुद्धि, ज्ञान-इंद्रिय आदि के साथ में)। निबहै = निभती है, पूरी उतरती है। सालाहे सचे = सदा स्थिर प्रभु की महिमा करता रहे। मंनि = मन में।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इतु’ शब्द ‘इसु’ का अधिकरण कारक एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (नाम-जपने की इनायत से शरीर के मन बुद्धि आदि) अंदर के घर सुंदर बने रहते हैं, हृदय-स्थल भी खूबसूरत बना रहता है। किसी उस विरले मनुष्य को ये स्थान प्राप्त होता है जो गुरु के सन्मुख रहता है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता रहता है और सदा-स्थिर हरि-नाम को अपने मन में बसाए रखता है, उस मनुष्य की प्रभु के साथ प्रीति इस (मन बुद्धि आदिक वाले) साथ में पूरी तरह से खरी उतरती है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै करतै इक बणत बणाई ॥ इसु देही विचि सभ वथु पाई ॥ नानक नामु वणजहि रंगि राते गुरमुखि को नामु पाइदा ॥१६॥६॥२०॥
मूलम्
मेरै करतै इक बणत बणाई ॥ इसु देही विचि सभ वथु पाई ॥ नानक नामु वणजहि रंगि राते गुरमुखि को नामु पाइदा ॥१६॥६॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै करतै = मेरे करितार ने। देही = शरीर। सभ वथु = सारी वस्तु, आत्मिक जीवन की सारी पूंजी। वणजहि = वणज करते हैं, विहाजते हैं। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। गुरमुखि को = कोई मनुष्य जो गुरु की शरण पड़ता है।16।
अर्थ: हे भाई! मेरे कर्तार ने यह एक (अजीब) बिउंत बना दी है कि उसने मनुष्य के शरीर में (ही उसके आत्मिक जीवन की) सारी राशि-पूंजी डाल रखी है। हे नानक! जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम का वाणज्य करते रहते हैं, वे उसके प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। हे भाई! कोई वह मनुष्य ही परमात्मा का नाम प्राप्त करता है जो गुरु के सन्मुख रहता है।16।6।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ काइआ कंचनु सबदु वीचारा ॥ तिथै हरि वसै जिस दा अंतु न पारावारा ॥ अनदिनु हरि सेविहु सची बाणी हरि जीउ सबदि मिलाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ काइआ कंचनु सबदु वीचारा ॥ तिथै हरि वसै जिस दा अंतु न पारावारा ॥ अनदिनु हरि सेविहु सची बाणी हरि जीउ सबदि मिलाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कंचनु = सोना, सोने जैसी पवित्र। तिथै = उस (शरीर) में। जिस दा = जिस परमात्मा का। पारावारा = पार+अवार, इस पार उस पार का किनारा। अनदिनु = हर रोज। सेविहु = सेवा भक्ति करते रहा करो। सची बाणी = सदा स्थिर हरि की महिमा की वाणी के द्वारा। सबदि = शब्द से।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस दा’ में से संबंधक ‘दा’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने हृदय में बसाता है, (शब्द की इनायत से विकारों से बच सकने से उसका) शरीर सोने जैसा शुद्ध हो जाता है। जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस परमात्मा की हस्ती का इस पार उस पार के छोर का अंत नहीं पाया जा सकता, वह परमात्मा उस (मनुष्य के) हृदय में आ बसता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा परमात्मा की सेवा-भक्ति करते रहा करो। परमात्मा गुरु के शब्द में जोड़ के अपने साथ मिला लेता है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चेतहि तिन बलिहारै जाउ ॥ गुर कै सबदि तिन मेलि मिलाउ ॥ तिन की धूरि लाई मुखि मसतकि सतसंगति बहि गुण गाइदा ॥२॥
मूलम्
हरि चेतहि तिन बलिहारै जाउ ॥ गुर कै सबदि तिन मेलि मिलाउ ॥ तिन की धूरि लाई मुखि मसतकि सतसंगति बहि गुण गाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेतहि = (जो मनुष्य) स्मरण करते हैं (बहुवचन)। जाउ = मैं जाता हूँ। तिन मेलि = उनकी संगति मे। मिलाउ = मैं मिलता हूँ। लाई = मैं लगाता हूँ। मुखि = मुँह पर। मसतकि = माथे पर। बहि = बैठ के।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करते हैं, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ। गुरु के शब्द की इनायत से मैं उनकी संगति में मिलता हूँ। हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में बैठ के परमात्मा के गुण गाते हैं, मैं उन (के चरणों) की धूल अपने मुँह पर अपने माथे पर लगाता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के गुण गावा जे हरि प्रभ भावा ॥ अंतरि हरि नामु सबदि सुहावा ॥ गुरबाणी चहु कुंडी सुणीऐ साचै नामि समाइदा ॥३॥
मूलम्
हरि के गुण गावा जे हरि प्रभ भावा ॥ अंतरि हरि नामु सबदि सुहावा ॥ गुरबाणी चहु कुंडी सुणीऐ साचै नामि समाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावा = मैं गाऊँ। भावा = मैं अच्छा लगूँ। अंतरि = अंदर। सबदि = गुरु के शब्द से। सुहावा = मैं सुंदर बन जाऊँ। चहु कुंडी = चौहों कूटों में, सारे संसार में। सुणदै = सुना जाता है, प्रसिद्ध हो जाता है। साचै = सदा स्थिर परमात्मा में। नामि = नाम से।3।
अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा के गुण तब ही गा सकता हूँ यदि मैं उसे अच्छा लगूँ (अगर मेरे पर उसकी मेहर हो)। हे भाई! यदि मेरे दिल में परमात्मा का नाम बस जाए, तो गुरु के शब्द की इनायत से मेरा जीवन सुंदर बन जाता है।
हे भाई! जो मनुष्य गुरु की वाणी में जुड़ता है, वह सारे संसार में प्रकट हो जाता है। नाम में लीन रहने से मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में समाया रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो जनु साचा जि अंतरु भाले ॥ गुर कै सबदि हरि नदरि निहाले ॥ गिआन अंजनु पाए गुर सबदी नदरी नदरि मिलाइदा ॥४॥
मूलम्
सो जनु साचा जि अंतरु भाले ॥ गुर कै सबदि हरि नदरि निहाले ॥ गिआन अंजनु पाए गुर सबदी नदरी नदरि मिलाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर जीवन वाला, अडोल जीवन वाला। जि = जो। अंतरु = अंदरूनी, हृदय। भाले = खोजता है, पड़तालता है। कै सबदि = के शब्द में (जुड़ने से)। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाले = देखता है। अंजनु = सूरमा। नदरी = मेहर की निगाह का मालिक।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतरु’ में अंतर ध्यान रखने योग्य है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने हृदय को खोजता रहता है, वह मनुष्य (विकारों से) अडोल जीवन वाला बन जाता है। गुरु के शब्द में जुड़ने से परमात्मा मेहर की निगाह से देखता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा प्रयोग करता है, मेहर का मालिक परमात्मा उसको अपनी मेहर से (अपने चरणों में) मिला लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडै भागि इहु सरीरु पाइआ ॥ माणस जनमि सबदि चितु लाइआ ॥ बिनु सबदै सभु अंध अंधेरा गुरमुखि किसहि बुझाइदा ॥५॥
मूलम्
वडै भागि इहु सरीरु पाइआ ॥ माणस जनमि सबदि चितु लाइआ ॥ बिनु सबदै सभु अंध अंधेरा गुरमुखि किसहि बुझाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडै भागि = बड़ी किस्मत से। जनमि = जनम में। सबदि = गुरु के शब्द में। अंध अंधेरा = घुप अंधेरा, वह अंधेरा जिसमें कुछ भी दिखाई नहीं देता। किसहि = किसी (विरले) को। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।5।
अर्थ: हे भाई! ये मनुष्य-शरीर बड़ी किस्मत से मिलता है, (पर उसी को ही मिला जानो, जिस ने) मनुष्य जनम में (आ के) गुरु के शब्द में अपना मन जोड़ा। किसी विरले को ही गुरु के द्वारा परमात्मा ये समझ बख्शता है कि गुरु के शब्द के बिना (जीवन-यात्रा में मनुष्य के लिए) हर जगह घोर अंधकार है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि कितु आए जनमु गवाए ॥ मनमुख लागे दूजै भाए ॥ एह वेला फिरि हाथि न आवै पगि खिसिऐ पछुताइदा ॥६॥
मूलम्
इकि कितु आए जनमु गवाए ॥ मनमुख लागे दूजै भाए ॥ एह वेला फिरि हाथि न आवै पगि खिसिऐ पछुताइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। कितु = किस काम का? कितु आए = किस काम आए? व्यर्थ ही जगत में आए। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दूजै भाए = माया के प्यार में। हाथि = हाथ में। हाथि न आवै = नहीं मिलता। पगि खिसिऐ = पैर फिसलने से, मौत आने पर।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! कई मनुष्य मानव-जन्म गवा के जगत में व्यर्थ ही आए (समझो) क्योंकि अपने मन के पीछे चलने वाले वह लोग माया के प्यार में ही लगे रहे। हे भाई! मानव-जनम वाला यह समय फिर नहीं मिलता (इसको विकारों में गवा के) मौत आने पर मनुष्य पछताता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै सबदि पवित्रु सरीरा ॥ तिसु विचि वसै सचु गुणी गहीरा ॥ सचो सचु वेखै सभ थाई सचु सुणि मंनि वसाइदा ॥७॥
मूलम्
गुर कै सबदि पवित्रु सरीरा ॥ तिसु विचि वसै सचु गुणी गहीरा ॥ सचो सचु वेखै सभ थाई सचु सुणि मंनि वसाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। गुणी = सारे गुणों का मालिक। गहीरा = बड़े जिगरे वाला। सचो सचु = सदा स्थिर परमात्मा को ही। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सुणि = सुन के। मंनि = मन में।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द में जुड़ के (जिस मनुष्य का) शरीर (विकारों से) पवित्र रहता है, उस मनुष्य के इस शरीर में वह परमात्मा आ बसता है जो सदा कायम रहने वाला है जो सारे गुणों का मालिक है और जो बड़े जिगरे वाला है वह मनुष्य (फिर) हर जगह सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को ही देखता है, सदा स्थिर हरि-नाम को सुन के अपने मन में बसाए रखता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै गणत गुर सबदि निवारे ॥ हरि जीउ हिरदै रखहु उर धारे ॥ गुर कै सबदि सदा सालाहे मिलि साचे सुखु पाइदा ॥८॥
मूलम्
हउमै गणत गुर सबदि निवारे ॥ हरि जीउ हिरदै रखहु उर धारे ॥ गुर कै सबदि सदा सालाहे मिलि साचे सुखु पाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउमै गणत = अहंकार की चितवनियां, बड़ा बनने की सोचें। निवारे = दूर कर (सकता) है। उर = हृदय। धारे = टिका के। सालाहे = महिमा करता है। मिलि = मिल के। साचे = सदा स्थिर परमात्मा में।8।
अर्थ: हे भाई! अहंकार की गिनतियाँ (मनुष्य) गुरु के शब्द द्वारा ही दूर कर सकता है। (इसलिए, हे भाई! गुरु के शब्द से) परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखो। जो मनुष्य गुरु के शब्द से सदा परमात्मा की महिमा करता रहता है, वह सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के आत्मिक आनंद पाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो चेते जिसु आपि चेताए ॥ गुर कै सबदि वसै मनि आए ॥ आपे वेखै आपे बूझै आपै आपु समाइदा ॥९॥
मूलम्
सो चेते जिसु आपि चेताए ॥ गुर कै सबदि वसै मनि आए ॥ आपे वेखै आपे बूझै आपै आपु समाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेते = स्मरण करता है। चेताए = स्मरण करने के लिए प्रेरित करता है। सबदि = शब्द से। मनि = मन में। आए = आ के। आपे = स्वयं ही। बूझै = समझता है (एकवचन)। आपै = अपने आप में। आपु = अपने आप को। समाइदा = लीन करता है।9।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम वह मनुष्य (ही) स्मरण करता है जिसको परमात्मा स्वयं स्मरण के लिए प्रेरित करता है। गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा उसके मन में बसता है। (हरेक में व्यापक परमात्मा) स्वयं ही (उस मनुष्य के हरेक काम को) देखता है, स्वयं ही (उसके दिल की) समझता है, और (खुद ही उस मनुष्य में बसता हुआ) अपने आप को अपने आप में लीन करता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि मन विचि वथु पाई सोई जाणै ॥ गुर कै सबदे आपु पछाणै ॥ आपु पछाणै सोई जनु निरमलु बाणी सबदु सुणाइदा ॥१०॥
मूलम्
जिनि मन विचि वथु पाई सोई जाणै ॥ गुर कै सबदे आपु पछाणै ॥ आपु पछाणै सोई जनु निरमलु बाणी सबदु सुणाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। वथु = नाम पदार्थ। पाई = ढूंढ ली। सोई = वही मनुष्य। जाणै = कद्र समझता है। कै सबदे = के शब्द से। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। पछाणै = पड़तालता है। निरमलु = पवित्र जीवन वाला।10।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की कृपा से) जिस (मनुष्य) ने परमात्मा का नाम-पदार्थ (अपने) मन में पा लिया, वह ही (उसकी कद्र) समझता है। गुरु के शब्द से (वह मनुष्य) अपने जीवन को पड़तालता रहता है। (जो मनुष्य) अपने जीवन को पड़तालता है वही मनुष्य जीवन वाला हो जाता है, (वह फिर और लोगों को भी) महिमा की वाणी गुरु का शब्द सुनाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एह काइआ पवितु है सरीरु ॥ गुर सबदी चेतै गुणी गहीरु ॥ अनदिनु गुण गावै रंगि राता गुण कहि गुणी समाइदा ॥११॥
मूलम्
एह काइआ पवितु है सरीरु ॥ गुर सबदी चेतै गुणी गहीरु ॥ अनदिनु गुण गावै रंगि राता गुण कहि गुणी समाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। चेतै = स्मरण करता है। गुणी = गुणों के मालिक को। गहीरु = गहरे जिगरे वाला। अनदिनु = हर रोज। गावै = गाता है (एकवचन)। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। कहि = कह के, उचार के।11।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के गुणों के मालिक गहरे जिगरे वाले परमात्मा को स्मरण करता है, उसका यह शरीर (विकारों से बच के) पवित्र हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंग के हर वक्त परमात्मा के गुण गाता है। परमात्मा के गुण उचार के वह गुणों के मालिक प्रभु में लीन हो जाता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु सरीरु सभ मूलु है माइआ ॥ दूजै भाइ भरमि भुलाइआ ॥ हरि न चेतै सदा दुखु पाए बिनु हरि चेते दुखु पाइदा ॥१२॥
मूलम्
एहु सरीरु सभ मूलु है माइआ ॥ दूजै भाइ भरमि भुलाइआ ॥ हरि न चेतै सदा दुखु पाए बिनु हरि चेते दुखु पाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूलु = आदि, कारण। दूजै भाइ = और ही प्यार में। भरमि = भटकना में। भुलाइआ = कुमार्ग पर पड़ा हुआ।12।
अर्थ: पर, हे भाई! जो मनुष्य (परमात्मा को छोड़ के) और ही प्यार में फंस जाता है, भटकना में पड़ कर कुमार्ग पर पड़ा रहता है, उसका ये शरीर सिर्फ माया के मोह का कारण बन जाता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता, वह सदा दुख पाता है, (ये बात पक्की है कि) प्रभु का नाम स्मरण करे बिना मनुष्य दुख पाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जि सतिगुरु सेवे सो परवाणु ॥ काइआ हंसु निरमलु दरि सचै जाणु ॥ हरि सेवे हरि मंनि वसाए सोहै हरि गुण गाइदा ॥१३॥
मूलम्
जि सतिगुरु सेवे सो परवाणु ॥ काइआ हंसु निरमलु दरि सचै जाणु ॥ हरि सेवे हरि मंनि वसाए सोहै हरि गुण गाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। सतिगुरु सेवे = गुरु की शरण पड़ता है। परवाणु = स्वीकार। काइआ = शरीर। हंसु = आत्मा। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। जाणु = जान पहचान। सेवे = सेवा भक्ति करता है। मंनि = मन में। सोहै = सुंदर लगता है, सुंदर जीवन वाला हो जाता है।13।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (लोक-परलोक में) आदर-योग्य हो जाता है। उसका शरीर (विकारों से) पवित्र रहता है, उसकी आत्मा पवित्र रहती है। सदा स्थिर परमात्मा के दर पर वह जाना-पहचाना हो जाता है (आदर प्राप्त करता है)। वह मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करता है, परमात्मा को मन में बसाए रखता है, परमात्मा के गुण गाता सुंदर जीवन वाला बन जाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु भागा गुरु सेविआ न जाइ ॥ मनमुख भूले मुए बिललाइ ॥ जिन कउ नदरि होवै गुर केरी हरि जीउ आपि मिलाइदा ॥१४॥
मूलम्
बिनु भागा गुरु सेविआ न जाइ ॥ मनमुख भूले मुए बिललाइ ॥ जिन कउ नदरि होवै गुर केरी हरि जीउ आपि मिलाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भागा = भाग्य। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भूले = कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। मुए = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। बिललाइ = बिललाय, विलक के, दुखी हो हो के। केरी = की। नदरि = मेहर की निगाह।14।
अर्थ: पर, हे भाई! किस्मत के बिना गुरु की शरण नहीं पड़ा जा सकता। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य कुमार्ग पर पड़े रहते हैं, बड़े दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों पर गुरु की मेहर की निगाह होती है, उनको परमात्मा अपने (चरणों) में जोड़ लेता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कोटु पके हटनाले ॥ गुरमुखि लेवै वसतु समाले ॥ हरि का नामु धिआइ दिनु राती ऊतम पदवी पाइदा ॥१५॥
मूलम्
काइआ कोटु पके हटनाले ॥ गुरमुखि लेवै वसतु समाले ॥ हरि का नामु धिआइ दिनु राती ऊतम पदवी पाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटु = किला। पके = पक्के, (विकारों के मुकाबले में) अडोल रहने वाले। हटनाले = हटों की कतारें, बाजार (ज्ञान-इंद्रिय)। लेवै समालै = संभाल लेता है। वसतु = नाम पदार्थ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पदवी = दर्जा।15।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के (अपने अंदर) नाम-पदार्थ संभाल लेता है (विकारों के मुकाबले पर उसका) शरीर (एक ऐसा) किला (बन जाता) है (जिसके) बाजार (ज्ञान-इन्द्रियाँ विकारों के मुकाबले में) अडोल (हो जाती) हैं। वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरण करके उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सचा है सुखदाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ नानक नामु सलाहे साचा पूरै भागि को पाइदा ॥१६॥७॥२१॥
मूलम्
आपे सचा है सुखदाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ नानक नामु सलाहे साचा पूरै भागि को पाइदा ॥१६॥७॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। सचा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। पछाता = पहचाना जा सकता है, सांझ डाली जा सकती है। सलाहे = महिमा करता है। को = कोई (विरला)।16।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही (सारे) सुख देने वाला है। पूरे गुरु के शब्द में जुड़ के उसके साथ सांझ डाली जा सकती है। पूरी किस्मत से मनुष्य ये दाति प्राप्त करता है कि सदा-स्थिर हरि-नाम की महिमा करता रहता है।16।7।21।
[[1066]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ निरंकारि आकारु उपाइआ ॥ माइआ मोहु हुकमि बणाइआ ॥ आपे खेल करे सभि करता सुणि साचा मंनि वसाइदा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ निरंकारि आकारु उपाइआ ॥ माइआ मोहु हुकमि बणाइआ ॥ आपे खेल करे सभि करता सुणि साचा मंनि वसाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंकारि = निरंकार ने, आकार रहित परमात्मा ने। आकारु = ये दिखाई देता जगत। उपाइआ = पैदा किया। हुकमि = (अपने) हुक्म अनुसार। आपे = (निरंकार) स्वयं ही। खेल = (बहुवचन)। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। मंनि = मन मे।1।
अर्थ: जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम (गुरु से) सुन के (अपने मन में बसाता है (उसको ये निश्चय हो जाता है कि) आकार-रहित परमात्मा ने (अपने आप से पहले) ये दिखाई देता जगत पैदा किया, माया का मोह भी उसने अपने हुक्म में ही बना दिया। कर्तार स्वयं ही यह सारे खेल कर रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ माई त्रै गुण परसूति जमाइआ ॥ चारे बेद ब्रहमे नो फुरमाइआ ॥ वर्हे माह वार थिती करि इसु जग महि सोझी पाइदा ॥२॥
मूलम्
माइआ माई त्रै गुण परसूति जमाइआ ॥ चारे बेद ब्रहमे नो फुरमाइआ ॥ वर्हे माह वार थिती करि इसु जग महि सोझी पाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = माँ। माइआ माई = माया माँ (द्वारा)। परसूति = (प्रसुति = offspring, progeny, issue) बच्चे। त्रै गुण परसूति = त्रै गुणी जीव। जमाइआ = पैदा किए। थिती = तिथिएं। करि = कर के, बना के। सोझी = (समय आदि की) सूझ।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘थिती’ शब्द ‘थिति’ का बहुवचन; जैसे ‘राति’ से ‘राती’, ‘रुति’ से ‘रुती’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! हरि-नाम को अपने मन में बसाने वाला मनुष्य यह निश्चय रखता है कि) (जगत की) माँ माया से (जगत के पिता परमात्मा ने सारे) त्रैगुणी जीव पैदा किए (ब्रहमा, शिव आदि भी उसी ने पैदा किए), ब्रहमा को उसने चार वेद (रचने के लिए) हुक्म किया। वर्ष, महीने, वार, तिथिएं (आदि) बना के इस जगत में (समय आदि की) सूझ भी वह परमात्मा ही पैदा करने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सेवा ते करणी सार ॥ राम नामु राखहु उरि धार ॥ गुरबाणी वरती जग अंतरि इसु बाणी ते हरि नामु पाइदा ॥३॥
मूलम्
गुर सेवा ते करणी सार ॥ राम नामु राखहु उरि धार ॥ गुरबाणी वरती जग अंतरि इसु बाणी ते हरि नामु पाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। करणी = करने योग्य काम। सार = श्रेष्ठ। सार करणी = श्रेष्ठ करने योग्य काम। उरि = हृदय में। उरिधार = दिल में टिका के। जग अंतरि = जगत में। वरती = (जिसके हृदय में) आ बसी। इसु बाणी ते = इस वाणी से।3।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की मेहर से जिसको गुरु मिल गया) गुरु की शरण पड़ने से उसको ये श्रेष्ठ करने-योग्य कर्म मिल गया कि परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखो। सो, हे भाई! इस जगत में (जिस मनुष्य के हृदय में) गुरु की वाणी आ बसती है, वह इस वाणी की इनायत से परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदु पड़ै अनदिनु वाद समाले ॥ नामु न चेतै बधा जमकाले ॥ दूजै भाइ सदा दुखु पाए त्रै गुण भरमि भुलाइदा ॥४॥
मूलम्
वेदु पड़ै अनदिनु वाद समाले ॥ नामु न चेतै बधा जमकाले ॥ दूजै भाइ सदा दुखु पाए त्रै गुण भरमि भुलाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़ै = पढ़ता है (एकवचन)। अनदिनु = हर रोज। वाद = (बहुवचन) झगड़े, बहसें। समाले = संभालता है, करता है। चेतै = स्मरण करता। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) अन्य प्यार में। त्रै गुण भरमि = माया के तीन गुणों की भटकना में पड़ कर। भुलाइदा = कुमार्ग पड़ा रहता है।4।
अर्थ: (पर, हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण से वंचित रह के वेद (आदि ही) पढ़ता है, और, हर वक्त चर्चा आदि ही करता है, परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता वह आत्मिक मौत के बंधनो में बंधा रहता है। अन्य ही प्यार में फंस के वह सदा दुख पाता है। माया के तीन गुणों की भटकना में पड़ के वह जीवन के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि एकसु सिउ लिव लाए ॥ त्रिबिधि मनसा मनहि समाए ॥ साचै सबदि सदा है मुकता माइआ मोहु चुकाइदा ॥५॥
मूलम्
गुरमुखि एकसु सिउ लिव लाए ॥ त्रिबिधि मनसा मनहि समाए ॥ साचै सबदि सदा है मुकता माइआ मोहु चुकाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। एकसु सिउ = सिर्फ एक से। लिव = लगन, प्रीति। त्रिबिधि = तीन किस्म की, माया के तीन (रजा, तमो, सतो) गुणों वाली। मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। मनहि = मन ही, मन में ही। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। मुकता = (माया के मोह से) स्वतंत्र।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मनहि’ में से ‘मनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सिर्फ परमात्मा के साथ प्यार डालता है, (इस तरह वह) माया के तीन गुणों के कारण पैदा होने वाले फुरनों को अपने मन में ही खत्म कर देता है। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द की इनायत से वह मनुष्य (विकारों से) सदा बचा रहता है, (वह अपने अंदर से) माया का मोह दूर कर लेता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो धुरि राते से हुणि राते ॥ गुर परसादी सहजे माते ॥ सतिगुरु सेवि सदा प्रभु पाइआ आपै आपु मिलाइदा ॥६॥
मूलम्
जो धुरि राते से हुणि राते ॥ गुर परसादी सहजे माते ॥ सतिगुरु सेवि सदा प्रभु पाइआ आपै आपु मिलाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = (पहले की कमाई के मुताबिक) धुर दरगाह से। राते = (नाम रंग में) रंगे हुए। से = वह (बहुवचन)। हुणि = इस जनम में। परसादी = कृपा से। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। आपै = आपे में। आपु = अपने आप को।6।
अर्थ: पर, हे भाई! इस मानव जन्म में वह मनुष्य ही नाम-रंग में रंगे रहते हैं जो (पूर्व जनम की की कमाई के अनुसार) धुर दरगाह से रंगे हुए होते हैं। वे गुरु की कृपा से आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य सदा प्रभु का मिलाप प्राप्त करे रखता है, वह अपने आप को (प्रभु के) आपे में मिला लेता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहि भरमि न पाए ॥ दूजै भाइ लगा दुखु पाए ॥ सूहा रंगु दिन थोड़े होवै इसु जादे बिलम न लाइदा ॥७॥
मूलम्
माइआ मोहि भरमि न पाए ॥ दूजै भाइ लगा दुखु पाए ॥ सूहा रंगु दिन थोड़े होवै इसु जादे बिलम न लाइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह में। भरमि = भटकना में। दूजै भाइ = और-और प्यार में। लगा = लगा हुआ। सूहा रंगु = (कुसंभे जैसा) शोख रंग। जादे = दूर होते हुए। बिलम = देर, विलम्ब।7।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह में, भटकना में फसा हुआ मनुष्य परमात्मा को नहीं मिल सकता। और-और प्यार में लगा हुआ मनुष्य दुख (ही) सहता है। (कुसंभ के रंग की तरह माया का) शोख़-रंग थोड़े दिन ही रहता है, इसके फीका पड़ने में वक्त नहीं लगता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु मनु भै भाइ रंगाए ॥ इतु रंगि साचे माहि समाए ॥ पूरै भागि को इहु रंगु पाए गुरमती रंगु चड़ाइदा ॥८॥
मूलम्
एहु मनु भै भाइ रंगाए ॥ इतु रंगि साचे माहि समाए ॥ पूरै भागि को इहु रंगु पाए गुरमती रंगु चड़ाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै = भय, अदब में। भाइ = प्यार में। इतु = इस में। इतु रंगि = इस रंग में। को = कोई (विरला)।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (अपने) इस मन को परमात्मा के डर-अदब में प्यार में रहता है, वह इस रंग में रंग के सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहता है। पर कोई विरला मनुष्य बड़ी किस्मत से ये प्रेम-रंग हासिल करता है। वह गुरु की मति पर चल कर यह रंग (अपने मन को) चढ़ाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु बहुतु करे अभिमानु ॥ दरगह कब ही न पावै मानु ॥ दूजै लागे जनमु गवाइआ बिनु बूझे दुखु पाइदा ॥९॥
मूलम्
मनमुखु बहुतु करे अभिमानु ॥ दरगह कब ही न पावै मानु ॥ दूजै लागे जनमु गवाइआ बिनु बूझे दुखु पाइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मानु = आदर। लागे = लग के।9।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य बड़ा अहंकार करता है, पर वह परमात्मा की हजूरी में कभी भी आदर नहीं पाता। और-और (मोह) में लग के वह अपना मानव जन्म गवा लेता है, सही जीवन की समझ के बिना वह सदा दुख पाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै प्रभि अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर परसादी हरि मिलै मिलाइआ ॥ सचा प्रभु सचा वापारा नामु अमोलकु पाइदा ॥१०॥
मूलम्
मेरै प्रभि अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर परसादी हरि मिलै मिलाइआ ॥ सचा प्रभु सचा वापारा नामु अमोलकु पाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। अंदरि = (हरेक जीव के) अंदर। आपु = अपना आप। सचा = सदा कायम रहने वाला।10।
अर्थ: हे भाई! मेरे प्रभु ने अपने आप को (हरेक जीव के) अंदर गुप्त रखा हुआ है, (फिर भी) गुरु की कृपा से ही मिलाए मिलता है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह यह समझ लेता है कि) परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, उसका नाम जपना ही सही वाणज्य व्यापार है। (गुरु की कृपा से वह) कीमती हरि-नाम प्राप्त करि लेता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु काइआ की कीमति किनै न पाई ॥ मेरै ठाकुरि इह बणत बणाई ॥ गुरमुखि होवै सु काइआ सोधै आपहि आपु मिलाइदा ॥११॥
मूलम्
इसु काइआ की कीमति किनै न पाई ॥ मेरै ठाकुरि इह बणत बणाई ॥ गुरमुखि होवै सु काइआ सोधै आपहि आपु मिलाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीमति = कद्र। किनै न = किसी ने नहीं। ठाकुरि = ठाकुर ने। बणत = मर्यादा, विउंत, बिधि। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सोधै = सुधारता है, विकारों से बचाए रखता है। आपहि = अपने आप में ही। आपु = अपने आप को।11।
अर्थ: हे भाई! (अपनी बुद्धि के आसरे) किसी व्यक्ति ने इस (मनुष्य-) शरीर की कद्र नहीं समझी। मेरे मालिक प्रभु ने यही मर्यादा बना रखी है कि जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह (अपने) शरीर को विकारों से बचाए रखता है, और स्वै भाव को अपने में ही लीन कर देता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ विचि तोटा काइआ विचि लाहा ॥ गुरमुखि खोजे वेपरवाहा ॥ गुरमुखि वणजि सदा सुखु पाए सहजे सहजि मिलाइदा ॥१२॥
मूलम्
काइआ विचि तोटा काइआ विचि लाहा ॥ गुरमुखि खोजे वेपरवाहा ॥ गुरमुखि वणजि सदा सुखु पाए सहजे सहजि मिलाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तोटा = घाटा। लाहा = लाभ। खोजे = (शरीर में) तलाश करता है। वणजि = (नाम का) वाणज्य कर के। सहजि = अपनी आत्मिक अडोलता में।12।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम से टूटने से) शरीर के अंदर (आत्मिक जीवन का) घाटा पड़ता जाता है (नाम में जुड़ने से) शरीर के अंदर (आत्मिक जीवन का) लाभ प्राप्त होता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य बेपरवाह प्रभु को (अपने शरीर में) तलाशता है। नाम-व्यापार करके वह सदा सुख पाता है और हर वक्त अपने आप को आत्मिक अडोलता में टिकाए रखता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा महलु सचे भंडारा ॥ आपे देवै देवणहारा ॥ गुरमुखि सालाहे सुखदाते मनि मेले कीमति पाइदा ॥१३॥
मूलम्
सचा महलु सचे भंडारा ॥ आपे देवै देवणहारा ॥ गुरमुखि सालाहे सुखदाते मनि मेले कीमति पाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महलु = परमात्मा का ठिकाना। सचे = सदा कायम रहने वाले। भंडारा = खजाने। देवणहारा = देने की समर्थता वाला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मनि = मन में। मेले = मेल के, टिका के। कीमति = कद्र।13।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का ठिकाना सदा कायम रहने वाला है,उसके खजाने (भी) सदा कायम रहने वाले हैं। सब कुछ देने की समर्थता वाला परमात्मा स्वयं ही (जीवों को यह खजाने) देता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सारे सुख देने वाला परमात्मा की महिमा करता है, उसको अपने मन में संभाल के रखता है, उस (के नाम) की कद्र समझता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ विचि वसतु कीमति नही पाई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥ जिस दा हटु सोई वथु जाणै गुरमुखि देइ न पछोताइदा ॥१४॥
मूलम्
काइआ विचि वसतु कीमति नही पाई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥ जिस दा हटु सोई वथु जाणै गुरमुखि देइ न पछोताइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। वसतु = नाम पदार्थ। गुरमुखि = गुरु से। आपे = (प्रभु) स्वयं ही। दे = देता है। वथु = वस्तु, नाम पदार्थ। देइ = देता है।14।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस दा’ में से संबंधक ‘दा’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मनुष्य के शरीर में ही नाम-पदार्थ है, पर मनुष्य इस की कद्र नहीं समझता। गुरु के सन्मुख करके (परमात्मा) स्वयं ही (अपने नाम की कद्र करने की) बड़ाई महानता बख्शता है। हे भाई! इस परमात्मा का (बनाया हुआ यह मनुष्य-शरीर-) हाट है, वह (इसमें रखे हुए नाम-) पदार्थ (की कद्र) को जानता है। (वह प्रभु ये दाति) गुरु के माध्यम से देता है, (दे के) पछताता नहीं।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ सभ महि रहिआ समाई ॥ गुर परसादी पाइआ जाई ॥ आपे मेलि मिलाए आपे सबदे सहजि समाइदा ॥१५॥
मूलम्
हरि जीउ सभ महि रहिआ समाई ॥ गुर परसादी पाइआ जाई ॥ आपे मेलि मिलाए आपे सबदे सहजि समाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहिआ समाई = समा रहा, व्यापक है। परसादी = किरपा से। मेलि = मिला के (गुरु के साथ)। सबदे = गुरु के शब्द से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाइदा = लीन रखता है।15।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, (पर फिर भी वह) गुरु की कृपा से उसे मिलता है। वह स्वयं ही (गुरु के साथ) मिला के (अपने साथ) मिलाता है। गुरु के शब्द से (प्रभु जीव को) आत्मिक अडोलता में टिकाए रखता है।15।
[[1067]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सचा सबदि मिलाए ॥ सबदे विचहु भरमु चुकाए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई नामे ही सुखु पाइदा ॥१६॥८॥२२॥
मूलम्
आपे सचा सबदि मिलाए ॥ सबदे विचहु भरमु चुकाए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई नामे ही सुखु पाइदा ॥१६॥८॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द में। सबदे = शब्द से। विचहु = मनुष्य के हृदय में से। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर करता है। नामि = नाम में (जुड़ने से)। नामे ही = नाम से ही।16।
अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही (मनुष्य को गुरु के) शब्द में जोड़ता है, शब्द से ही (उसके) अंदर से भटकना दूर करता है। हे नानक! हरि-नाम में जुड़े हुओं को लोक-परलोक में इज्जत मिलती है, नाम से ही (मनुष्य) आत्मिक आनंद पाता है।16।8।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ आपे मिहरवान अगम अथाहे ॥ अपड़ि कोइ न सकै तिस नो गुर सबदी मेलाइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ आपे मिहरवान अगम अथाहे ॥ अपड़ि कोइ न सकै तिस नो गुर सबदी मेलाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगोचर = हे अगोचर! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले प्रभु! (अ+गो+चर। गो = ज्ञान-इंद्रिय)। आपे = खुद ही। अथाहे = हे अथाह! हे गहरे जिगरे वाले! तिस नो = उस (मनुष्य) को। गुर सबदी = गुरु के शब्द से।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले प्रभु! हे बेमुथाज प्रभु! हे (अपने जैसे) खुद ही खुद! हे मेहरवान! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे गहरे जिगरे वाले! जिस मनुष्य को तू गुरु के शब्द के माध्यम से अपने साथ मिला लेता है, उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधुनो सेवहि जो तुधु भावहि ॥ गुर कै सबदे सचि समावहि ॥ अनदिनु गुण रवहि दिनु राती रसना हरि रसु भाइआ ॥२॥
मूलम्
तुधुनो सेवहि जो तुधु भावहि ॥ गुर कै सबदे सचि समावहि ॥ अनदिनु गुण रवहि दिनु राती रसना हरि रसु भाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = स्मरण करते हैं (बहुवचन)। तुधु भावहि = तुझको अच्छे लगते हैं। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रवहि = स्मरण करते हैं, याद करते हैं। रसना = जीभ। रसु = स्वाद। भाइआ = अच्छा लगा।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी सेवा-भक्ति वह मनुष्य करते हैं जो तुझे प्यारे लगते हैं। वह मनुष्य गुरु के शब्द से (तेरे) सदा-स्थिर नाम में लीन रहते हैं, हर वक्त दिन रात वे तेरे गुण गाते हैं। हे हरि! उनकी जीभ को तेरे नाम-अमृत का स्वाद अच्छा लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि मरहि से मरणु सवारहि ॥ हरि के गुण हिरदै उर धारहि ॥ जनमु सफलु हरि चरणी लागे दूजा भाउ चुकाइआ ॥३॥
मूलम्
सबदि मरहि से मरणु सवारहि ॥ हरि के गुण हिरदै उर धारहि ॥ जनमु सफलु हरि चरणी लागे दूजा भाउ चुकाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। मरहि = (स्वै भाव से, विकारों से) मरते हैं। से = वह (बहुवचन)। मरणु = (विकारों से यह) मौत। सवारहि = सुंदर बना लेते हैं, औरों के लिए आकर्षित बना लेते हैं। हिरदै = हृदय में। उर = हृदय। धारहि = बसा लेते हैं। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) और का प्यार। चुकाइआ = खत्म कर लिया।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (विकारों से, स्वै भाव से) मर जाते हैं, वह अपनी ये मौत और के लिए सुंदर बना लेते हैं (भाव, लोगों को उनका ये आत्मिक जीवन अच्छा लगता है)। वह मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा के गुण टिकाए रखते हैं। परमात्मा के चरणों में लग के वे अपना मानव जन्म कामयाब बना लेते हैं, वे (अपने अंदर से) माया का प्यार समाप्त कर लेते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ मेले आपि मिलाए ॥ गुर कै सबदे आपु गवाए ॥ अनदिनु सदा हरि भगती राते इसु जग महि लाहा पाइआ ॥४॥
मूलम्
हरि जीउ मेले आपि मिलाए ॥ गुर कै सबदे आपु गवाए ॥ अनदिनु सदा हरि भगती राते इसु जग महि लाहा पाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। आपु = स्वै भाव, अहंकार। राते = रंगे हुए। लाहा = लाभ।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेते हैं, परमात्मा उनको स्वयं अपने चरणों में मिला लेता है। वे हर वक्त परमात्मा की भक्ति में मस्त रहते हैं, इस जगत में वे (भक्ति का) लाभ कमाते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे गुण कहा मै कहणु न जाई ॥ अंतु न पारा कीमति नही पाई ॥ आपे दइआ करे सुखदाता गुण महि गुणी समाइआ ॥५॥
मूलम्
तेरे गुण कहा मै कहणु न जाई ॥ अंतु न पारा कीमति नही पाई ॥ आपे दइआ करे सुखदाता गुण महि गुणी समाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = कहूँ, मैं कहता हूँ। पारा = उस पार का किनारा, अंत। आपे = स्वयं ही। गुणी = गुण गाने वाला। समाइआ = लीन कर लेता है।5।
अर्थ: हे प्रभु! (मेरा जी करता है कि) मैं तेरे गुण कथन करूँ, पर मुझसे बयान नहीं किए जा सकते। तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, उस पार का किनारा नहीं तलाशा जा सकता, मूल्य नहीं पड़ सकता।
हे भाई! सारे सुख देने वाला (प्रभु जब) स्वयं ही दया करता है, तो गुण गाने वाले को अपने गुणों में लीन कर लेता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु जग महि मोहु है पासारा ॥ मनमुखु अगिआनी अंधु अंधारा ॥ धंधै धावतु जनमु गवाइआ बिनु नावै दुखु पाइआ ॥६॥
मूलम्
इसु जग महि मोहु है पासारा ॥ मनमुखु अगिआनी अंधु अंधारा ॥ धंधै धावतु जनमु गवाइआ बिनु नावै दुखु पाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पासारा = पसारा हुआ, बिखरा हुआ। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अगिआनी = आत्मिक जीवन से बेसमझ। अंधु = अंधा। अंधु अंधारा = बिल्कुल अंधा। धंधै = धंधे में। धावतु = दौड़ भाग करता है।6।
अर्थ: हे भाई! इस जगत में (हर तरफ) मोह पसरा हुआ है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस मोह के कारण) आत्मिक जीवन से बेसमझ रहता है, (मोह में) बिल्कुल अंधा हुआ रहता है, (मोह के) घंधे में भटकता-भटकता (मानव-) जनम बेकार कर लेता है, परमात्मा के नाम के बिना दुख पाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु होवै ता सतिगुरु पाए ॥ हउमै मैलु सबदि जलाए ॥ मनु निरमलु गिआनु रतनु चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥७॥
मूलम्
करमु होवै ता सतिगुरु पाए ॥ हउमै मैलु सबदि जलाए ॥ मनु निरमलु गिआनु रतनु चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = बख्शिश। सबदि = शब्द से। जलाए = जला लेता है। निरमलु = पवित्र। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरु = अंधेरा।7।
अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य पर) परमात्मा की मेहर होती है, तब उसको गुरु मिलता है। गुरु के शब्द से (वह अपने अंदर से) अहंकार की मैल जलाता है। उसका मन पवित्र हो जाता है, (उसको अपने अंदर से) ज्ञान रतन (मिल जाता है, जो उसके अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर देता है, इस तरह वह (अपने अंदर से) अज्ञान-अंधेरा दूर कर लेता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे नाम अनेक कीमति नही पाई ॥ सचु नामु हरि हिरदै वसाई ॥ कीमति कउणु करे प्रभ तेरी तू आपे सहजि समाइआ ॥८॥
मूलम्
तेरे नाम अनेक कीमति नही पाई ॥ सचु नामु हरि हिरदै वसाई ॥ कीमति कउणु करे प्रभ तेरी तू आपे सहजि समाइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु नामु = सदा स्थिसर रहनें वाला नाम। हिरदै = दिल में। वसाई = बसाऊँ। प्रभ = हे प्रभु! सहजि = आत्मिक अडोलता में।8।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे गुणों के आधार पर) तेरे अनेक ही नाम हैं, मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में तेरा नाम प्राप्त नहीं हो सकता)। (अगर तू मेहर करे तो) मैं तेरा सदा कायम रहने वाला नाम अपने दिल में बसाए रखूँ। हे प्रभु! कौन तेरा मूल्य डाल सकता है? (जिस पर तू दयावान होता है, उसको) तू खुद ही आत्मिक अडोलता में लीन रखता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु अमोलकु अगम अपारा ॥ ना को होआ तोलणहारा ॥ आपे तोले तोलि तोलाए गुर सबदी मेलि तोलाइआ ॥९॥
मूलम्
नामु अमोलकु अगम अपारा ॥ ना को होआ तोलणहारा ॥ आपे तोले तोलि तोलाए गुर सबदी मेलि तोलाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम अपार नामु = अगम्य (पहुँच से परे) बेअंत परमात्मा का नाम। को = कोई भी मनुष्य। तोलणहारा = मूल्य करने योग्य। आपे = स्वयं ही। तोले = कद्र जानता है। तोलाए = (जीवों को नाम की) कद्र करनी सिखाता है। सबदी = शब्द से। मेलि = मेल के। तोलाइआ = कद्र सिखाता है।9।
अर्थ: हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा के नाम का मूल्य नहीं डाला जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता)। कोई भी जीव (हरि-नाम का) मूल्य डालने के योग्य नहीं हो सका। वह प्रभु स्वयं ही अपने नाम की कद्र (कीमत) जानता है। खुद कद्र जान के जीवों को कद्र करनी सिखाता है। गुरु के शब्द से (अपने साथ) मिला के कद्र सिखाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक सेवहि करहि अरदासि ॥ तू आपे मेलि बहालहि पासि ॥ सभना जीआ का सुखदाता पूरै करमि धिआइआ ॥१०॥
मूलम्
सेवक सेवहि करहि अरदासि ॥ तू आपे मेलि बहालहि पासि ॥ सभना जीआ का सुखदाता पूरै करमि धिआइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। करहि = करते हैं (बहुवचन)। बहालहि = तू बैठाता है। पूरै करमि = (तेरी) पूरी बख्शिश से।10।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त तेरी सेवा-भक्ति करते हैं, (तेरे दर पर) अरादास करते हैं। तू स्वयं ही उनको (अपने नाम में) जोड़ के अपने पास बैठाता है। हे प्रभु! तू सारे जीवों को सुख देने वाला है। तेरी पूरी मेहर से (ही तेरे सेवक) तेरा नाम स्मरण करते हैं।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जतु सतु संजमु जि सचु कमावै ॥ इहु मनु निरमलु जि हरि गुण गावै ॥ इसु बिखु महि अम्रितु परापति होवै हरि जीउ मेरे भाइआ ॥११॥
मूलम्
जतु सतु संजमु जि सचु कमावै ॥ इहु मनु निरमलु जि हरि गुण गावै ॥ इसु बिखु महि अम्रितु परापति होवै हरि जीउ मेरे भाइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जतु = काम-वासना को रोकना। सतु = विकार रहित जीवन। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का प्रयत्न। जि = जो मनुष्य। सचु कमावै = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करता है। गावै = गाता है। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भाइआ = अच्छा लगा।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करता है, जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, उसका यह मन पवित्र हो जाता है। आत्मिक मौत लाने वाली इस माया-जहर के बीच में रहते हुए ही उसको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल मिल जाता है। मेरे प्रभु को यही मर्यादा भाती है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो बुझाए सोई बूझै ॥ हरि गुण गावै अंदरु सूझै ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाए सहजे ही सचु पाइआ ॥१२॥
मूलम्
जिस नो बुझाए सोई बूझै ॥ हरि गुण गावै अंदरु सूझै ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाए सहजे ही सचु पाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बुझाए = आत्मिक जीवन की सूझ देता है। अंदरु = हृदय। सूझै = सूझ वाला हो जाता है। ठाकि = रोक के। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा।12।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा खुद आत्मिक जीवन की समझ देता है, वही मनुष्य समझता है। (ज्यों ज्यों) वह परमात्मा के गुण गाता है, उसका हृदय सूझ वाला होता जाता है। वह मनुष्य अहंकार और ममता को (प्रभाव डालने से) रोके रखता हैआत्मिक अडोलता में टिक केवह सदा-स्थिर हरि मिलाप प्राप्त कर लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु करमा होर फिरै घनेरी ॥ मरि मरि जमै चुकै न फेरी ॥ बिखु का राता बिखु कमावै सुखु न कबहू पाइआ ॥१३॥
मूलम्
बिनु करमा होर फिरै घनेरी ॥ मरि मरि जमै चुकै न फेरी ॥ बिखु का राता बिखु कमावै सुखु न कबहू पाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = मेहर। बिन करमा = (परमात्मा की) कृपा के बिना। होर = (नाम से टूटी हुई) और दुनिया। घनेरी = बहुत सारी। फिरै = भटकती फिरती है। मरि मरि = मर मर के। जंमै = पैदा होती है। मरि मरि जंमै = जनम मरण के चक्करों में पड़ी रहती है। चुकै न = समाप्त नहीं होती। फेरी = जनम मरन के चक्कर। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया जहर।13।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की मेहर के बिना (नाम से टूटी हुई) और बहुत सारी दुनिया भटकती फिरती है। वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ी रहती है, उसका जनम-मरन का चक्कर खत्म नहीं होता। जो मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर का लट्टू हुआ रहता है, वह यह जहर ही विहाजता फिरता है, वह कभी भी आत्मिक आनंद नहीं पा सकता।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुते भेख करे भेखधारी ॥ बिनु सबदै हउमै किनै न मारी ॥ जीवतु मरै ता मुकति पाए सचै नाइ समाइआ ॥१४॥
मूलम्
बहुते भेख करे भेखधारी ॥ बिनु सबदै हउमै किनै न मारी ॥ जीवतु मरै ता मुकति पाए सचै नाइ समाइआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेखधारी = (जब वैराग सन्यास आदि का) भेख धारण करने वाला। किनै = किसी ने भी। जीवत मरै = दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही स्वै भाव छोड़े। ता = तब। मुकति = अहंकार से मुक्ति। सचै नाइ = सदा स्थिर हरि नाम में सचै = सदा स्थिर में नाइ = नाम में।14।
अर्थ: हे भाई! (त्योगियों वाला पहरावा डाले फिरते हुओं को देख के भी ना भूल जाना कि ये इस जहर से बचे हुए हैं। जोग-अभ्यास वाला) धार्मिक पहरावा पहनने वाला मनुष्य बहुत सारे (ऐसे) भेस करता है, पर गुरु के शब्द के बिना कोई भी मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार दूर नहीं कर सका। जब मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही स्वै भाव छोड़ता है, तब वह (अहंकार से) मुक्ति पा लेता है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है।14।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआनु त्रिसना इसु तनहि जलाए ॥ तिस दी बूझै जि गुर सबदु कमाए ॥ तनु मनु सीतलु क्रोधु निवारे हउमै मारि समाइआ ॥१५॥
मूलम्
अगिआनु त्रिसना इसु तनहि जलाए ॥ तिस दी बूझै जि गुर सबदु कमाए ॥ तनु मनु सीतलु क्रोधु निवारे हउमै मारि समाइआ ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। तनहि = शरीर को। जलाए = जला देती है। जि = जो मनुष्य। निवारे = दूर कर लेता है। मारि = मार के।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस दी’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दी’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (इसको) माया की तृष्णा (कह लो, ये माया की तृष्णा मनुष्य के) इस शरीर को (अंदर-अंदर से) जलाती रहती है। ये तृष्णा-अग्नि उस मनुष्य की बुझती है जो गुरु के शब्द को हर वक्त हृदय में बसाए रखता है। उसका तन विकारों की आग से बचा रहता है, वह (अपने अंदर से) क्रोध दूर कर लेता है, अहंकार को मार के वह मनुष्य (गुरु-शब्द में) लीन रहता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा साहिबु सची वडिआई ॥ गुर परसादी विरलै पाई ॥ नानकु एक कहै बेनंती नामे नामि समाइआ ॥१६॥१॥२३॥
मूलम्
सचा साहिबु सची वडिआई ॥ गुर परसादी विरलै पाई ॥ नानकु एक कहै बेनंती नामे नामि समाइआ ॥१६॥१॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! नानक ये विनती करता है (कि) मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसकी महिमा (बड़ाई) भी सदा कायम रहने वाली है। किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से (मालिक प्रभु की बड़ाई करने की दाति) प्राप्त की है (जिसने प्राप्त की है वह) हर वक्त परमात्मा के नाम में लीन रहता है।16।1।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ३ ॥ नदरी भगता लैहु मिलाए ॥ भगत सलाहनि सदा लिव लाए ॥ तउ सरणाई उबरहि करते आपे मेलि मिलाइआ ॥१॥
मूलम्
मारू महला ३ ॥ नदरी भगता लैहु मिलाए ॥ भगत सलाहनि सदा लिव लाए ॥ तउ सरणाई उबरहि करते आपे मेलि मिलाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरी = मेहर की निगाह से। लैहु मिलाए = तू (अपने साथ) मिला लेता है। सलाहनि = महिमा करते हैं। लिव लाए = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। तउ = तेरी। उबरहि = (विकारों से) बचते हैं। करते = हे कर्तार!।1।
अर्थ: हे कर्तार! अपने भक्तों को तू मेहर की निगाह से (अपने चरणों में) जोड़ कर रखता है, (इसलिए) भक्त (तेरे चरणों में) तवज्जो जोड़ के सदा तेरी महिमा करते रहते हैं। तेरी शरण में रह के वे विकारों से बचे रहते थे। तू खुद ही उनको (गुरु से) मिला के (अपने साथ) जोड़े रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरै सबदि भगति सुहाई ॥ अंतरि सुखु तेरै मनि भाई ॥ मनु तनु सची भगती राता सचे सिउ चितु लाइआ ॥२॥
मूलम्
पूरै सबदि भगति सुहाई ॥ अंतरि सुखु तेरै मनि भाई ॥ मनु तनु सची भगती राता सचे सिउ चितु लाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। सुहाई = सुंदर बनी। तेरै मनि = तेरे मन में। भाई = (वह भक्ति) भा गई। रता = रंगा गया। सिउ = साथ।2।
अर्थ: हे कर्तार! पूरे (गुरु के) शब्द की इनायत से (जिस मनुष्य के अंदर तेरी) भक्ति निखर आती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद बन जाता है, (उस मनुष्य की भक्ति) तेरे मन को प्यारी लगती है। उस मनुष्य का मन उसका तन तेरी सदा-स्थिर महिमा में रंगा रहता है, वह तेरे सदा-स्थिर नाम में अपना चिक्त जोड़ के रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै विचि सद जलै सरीरा ॥ करमु होवै भेटे गुरु पूरा ॥ अंतरि अगिआनु सबदि बुझाए सतिगुर ते सुखु पाइआ ॥३॥
मूलम्
हउमै विचि सद जलै सरीरा ॥ करमु होवै भेटे गुरु पूरा ॥ अंतरि अगिआनु सबदि बुझाए सतिगुर ते सुखु पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। जलै = जलता है (एकवचन)। करमु = मेहर, बख्शिश। भेटे = मिलता है। अंतरि = अंदर (बसता)। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से कोरापन। बुझाए = मिटा देता है। ते = से।3।
अर्थ: हे भाई! अहंकार (की आग) में (मनुष्य का) शरीर (अंदर-अंदर से) सदा जलता रहता है। (जब प्रभु की) मेहर होती है तो इसको पूरा गुरु मिलता है। वह मनुष्य अपने अंदर बसते अज्ञान को गुरु के शब्द से दूर कर लेता है, गुरु से वह आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु अंधा अंधु कमाए ॥ बहु संकट जोनी भरमाए ॥ जम का जेवड़ा कदे न काटै अंते बहु दुखु पाइआ ॥४॥
मूलम्
मनमुखु अंधा अंधु कमाए ॥ बहु संकट जोनी भरमाए ॥ जम का जेवड़ा कदे न काटै अंते बहु दुखु पाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन की ओर मुँह कर रखने वाला मनुष्य, मन का मुरीद। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। अंधु = अंधों वाला काम। संकट = कष्ट। भरमाए = भटकता है। जेवड़ा = फांसी। न काटै = नहीं काट सकता। अंते = आखिरी वक्त। जम का जेवड़ा = आत्मिक मौत की फाही।4।
अर्थ: पर, हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह में) अंधा हुआ रहता है, वह सदा अंधों वाला काम ही करता है। (जीवन-यात्रा में सही रास्ते से भटक के) वह अनेक कष्ट सहता है, और, अनेक जूनियों में भटकता फिरता है। (वह मनुष्य अपने गले से) आत्मिक मौत के फंदे को कभी नहीं काट सकता। अंत के समय भी वह बहुत दुख पाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवण जाणा सबदि निवारे ॥ सचु नामु रखै उर धारे ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे हउमै जाइ समाइआ ॥५॥
मूलम्
आवण जाणा सबदि निवारे ॥ सचु नामु रखै उर धारे ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे हउमै जाइ समाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवण जाणा = पैदा होना मरना, जनम मरण का चक्कर। सबदि = गुरु के शब्द से। निवारे = दूर कर लेता है। सचु नामु = सदा स्थिर हरि नाम। उर = (उरस) हृदय। धारे = टिका के। मरै = (अपनत्व की ओर से) मारता है, स्वैभाव दूर करता है। मनु मारे = मन को वश में रखता है। जाइ = दूर हो जाती है।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है, वह गुरु के शब्द की इनायत से जनम-मरण के चक्कर दूर कर लेता है। वह मनुष्य गुरु के शब्द से स्वै भाव दूर कर लेता है, वह अपने मन को वश में कर लेता है, उसका अहंकार दूर हो जाता है, वह सदा परमात्मा की याद में लीन रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवण जाणै परज विगोई ॥ बिनु सतिगुर थिरु कोइ न होई ॥ अंतरि जोति सबदि सुखु वसिआ जोती जोति मिलाइआ ॥६॥
मूलम्
आवण जाणै परज विगोई ॥ बिनु सतिगुर थिरु कोइ न होई ॥ अंतरि जोति सबदि सुखु वसिआ जोती जोति मिलाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवण जाणै = जनम मरण (के चक्कर) में। परज = सृष्टि। विगोई = दुखी होती है। थिरु = स्थिर। अंदरि = अंदर, हृदय में। सबदि = शब्द से। जोती = परमात्मा की ज्योति में।6।
अर्थ: हे भाई! सृष्टि जनम-मरण के चक्करों में दुखी होती रहती है। गुरु की शरण के बिना (इस चक्कर में से) किसी को भी निजात नहीं मिलती। जिस मनुष्य के अंदर गुरु के शब्द से परमात्मा की ज्योति प्रकट हो जाती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद आ बसता है, उसकी ज्योति परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच दूत चितवहि विकारा ॥ माइआ मोह का एहु पसारा ॥ सतिगुरु सेवे ता मुकतु होवै पंच दूत वसि आइआ ॥७॥
मूलम्
पंच दूत चितवहि विकारा ॥ माइआ मोह का एहु पसारा ॥ सतिगुरु सेवे ता मुकतु होवै पंच दूत वसि आइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरियों के कारण। चितवदे = (जीव) चितवते रहते हैं। पसारा = खिलारा। मोह का पसारा = हर तरफ मोह का प्रभाव। सेवे = शरण पड़ा रहे। मुकतु = (मोह के प्रभाव से) स्वतंत्र। वसि = वश में।7।
अर्थ: हे भाई! (कामादिक) पाँच वैरियों के (प्रभाव के) कारण (जीव हर वक्त) विकार चितवते रहते हैं। हर तरफ माया के मोह का प्रभाव बना हुआ है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, तब (इस मोह के दबाव से) स्वतंत्र होता है, (कामादिक) पाँच वैरी उसके वश में आ जाते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाझु गुरू है मोहु गुबारा ॥ फिरि फिरि डुबै वारो वारा ॥ सतिगुर भेटे सचु द्रिड़ाए सचु नामु मनि भाइआ ॥८॥
मूलम्
बाझु गुरू है मोहु गुबारा ॥ फिरि फिरि डुबै वारो वारा ॥ सतिगुर भेटे सचु द्रिड़ाए सचु नामु मनि भाइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुबारा = घोर अंधेरा। फिरि फिरि = बार बार। वारो वारा = बार बार, अनेक बार। सतिगुर भेटे = गुरु मिल जाए। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का कर देता है। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगने लग जाता है।8।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना (माया का) मोह (इतना प्रबल रहता) है (कि मनुष्य के जीवन-राह में आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार (बना) रहता है। मनुष्य बार-बार अनेक वार (मोह के समुंदर में) डूबता है। जब मनुष्य गुरु को मिल जाता है, तब गुरु सदा-स्थिर हरि-नाम इस के दिल में पक्का कर देता है। (तो फिर) सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम इसको प्यारा लगने लग जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा दरु साचा दरवारा ॥ सचे सेवहि सबदि पिआरा ॥ सची धुनि सचे गुण गावा सचे माहि समाइआ ॥९॥
मूलम्
साचा दरु साचा दरवारा ॥ सचे सेवहि सबदि पिआरा ॥ सची धुनि सचे गुण गावा सचे माहि समाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। दरु = दरवाजा। दरवारा = दरबार। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। सचे सेवहि = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति करते हैं। सबदि पिआरा = गुरु के शब्द में प्यार डाल के। धुनि = लगन। गावा = मैं भी गाऊँ।9।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का दर सदा कायम रहने वाला है, उसका दरबार भी सदा-स्थिर है। जो मनुष्य गुरु के शब्द से प्यार करते हैं वह ही उस सदा-स्थिर परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। (अगर मेरे पर उसकी मेहर हो तो) मैं (भी) स्थिरता के साथ लगन से उस सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाता रहूँ। (जो मनुष्य गुण गाते हैं वह) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहते हैं।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरै अंदरि को घरु पाए ॥ गुर कै सबदे सहजि सुभाए ॥ ओथै सोगु विजोगु न विआपै सहजे सहजि समाइआ ॥१०॥
मूलम्
घरै अंदरि को घरु पाए ॥ गुर कै सबदे सहजि सुभाए ॥ ओथै सोगु विजोगु न विआपै सहजे सहजि समाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरै अंदरि = हृदय घर के अंदर ही। को = कोई विरला। घरु = परमात्मा का ठिकाना। कै सबदि = के शब्द से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्यार में। ओथै = उस सहज अवस्था में। सोगु = गम। विजोगु = विछोड़ा। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। सहजे सहजि = हर वक्त सहज में।10।
अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से अपने हृदय-घर में परमात्मा का ठिकाना पा लेता है, वह आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिका रहता है। उस अडोल अवस्था में टिकने से गम जोर नहीं डाल सकता, (प्रभु चरणों से) विछोड़ा जोर नहीं डाल सकता। वह मनुष्य सदा ही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूजै भाइ दुसटा का वासा ॥ भउदे फिरहि बहु मोह पिआसा ॥ कुसंगति बहहि सदा दुखु पावहि दुखो दुखु कमाइआ ॥११॥
मूलम्
दूजै भाइ दुसटा का वासा ॥ भउदे फिरहि बहु मोह पिआसा ॥ कुसंगति बहहि सदा दुखु पावहि दुखो दुखु कमाइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजै भाइ = और-और ही प्यार में। दुसट = कुकर्मी लोग। पिआसा = प्यासा, तृष्णा। कुसंगति = बुरी सोहबत में। बहहि = बैठते हैं (बहुवचन)। दुखो दुख = हर वक्त दुख।11।
अर्थ: हे भाई! कुकर्मी लोग (प्रभु को भुला के) औरों के प्यार में ही मन को जोड़े रखते हैं, बड़े मोह बड़ी तृष्णा के कारण वह भटकते फिरते हैं। (कुकर्मी लोग) सदा बुरी संगति में बैठते हैं और दुख पाते हैं। वे सदा वही कर्म करते हैं जिनमें से सिर्फ दुख ही दुख निकले।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बाझहु संगति न होई ॥ बिनु सबदे पारु न पाए कोई ॥ सहजे गुण रवहि दिनु राती जोती जोति मिलाइआ ॥१२॥
मूलम्
सतिगुर बाझहु संगति न होई ॥ बिनु सबदे पारु न पाए कोई ॥ सहजे गुण रवहि दिनु राती जोती जोति मिलाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाझहु = बिना। संगति = भली संगत। पारु = विकारों का परला छोर। सहजे = आत्मिक अडोलता में। रवहि = गाते हैं, स्मरण करते हैं (बहुवचन)। जोती = परमात्मा की ज्योति में।12।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण के बिना भली संगति नहीं मिल सकती। गुरु के शब्द के बिना कोई मनुष्य कुकर्मों (की नदी) का उस पार का किनारा नहीं पा सकता। जो मनुष्य दिन-रात आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनकी जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन रहती है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ बिरखु पंखी विचि वासा ॥ अम्रितु चुगहि गुर सबदि निवासा ॥ उडहि न मूले न आवहि न जाही निज घरि वासा पाइआ ॥१३॥
मूलम्
काइआ बिरखु पंखी विचि वासा ॥ अम्रितु चुगहि गुर सबदि निवासा ॥ उडहि न मूले न आवहि न जाही निज घरि वासा पाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। बिरख = वृक्ष। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम का चोगा। चुगहि = चुगते हैं। सबदि = शब्द में। उडहि न = बाहर नहीं भटकते। न मूले = बिल्कुल नहीं। न जाही = ना जाते हैं, ना मरते हैं। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु के चरणों में।13।
अर्थ: हे भाई! (जैसे रात बसेरे के लिए पक्षी किसी वृक्ष पर आ के टिकते हैं, इसी तरह ये) शरीर (मानो) वृक्ष है, (इस शरीर) में (जीव) पंछी का निवास है। जो जीव-पंछी गुरु के शब्द में टिक के आत्मिक जीवन देने वाली नाम की चोग चुगते हैं, वे बिल्कुल बाहर नहीं भटकते, वे जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ते, वे सदा प्रभु-चरणों में निवास रखते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ सोधहि सबदु वीचारहि ॥ मोह ठगउरी भरमु निवारहि ॥ आपे क्रिपा करे सुखदाता आपे मेलि मिलाइआ ॥१४॥
मूलम्
काइआ सोधहि सबदु वीचारहि ॥ मोह ठगउरी भरमु निवारहि ॥ आपे क्रिपा करे सुखदाता आपे मेलि मिलाइआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोधहि = सोधते हैं, पड़ताल करते हैं। ठगउरी = ठग बूटी, वह बूटी जिससे ठग यात्रियों को ठगते हैं (धतूरा आदि)। भरमु = भटकना। निवारहि = दूर करते हैं। आपे सुखदाता = सुखों का दाता प्रभु स्वयं।14।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (अपने) शरीर की पड़ताल करते रहते हैं, गुरु के शब्द को हृदय में बसाए रखते हैं, वे मनुष्य मोह की ठग बूटी नहीं खाते, वह मनुष्य (अपने अंदर से) भटकना दूर कर लेते हैं। पर, हे भाई! (ये) कृपा सुखों को देने वाला परमात्मा स्वयं ही करता है, वह स्वयं ही (उन्हें गुरु से) मिला के (अपने चरणों में) जोड़ता है।14।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सद ही नेड़ै दूरि न जाणहु ॥ गुर कै सबदि नजीकि पछाणहु ॥ बिगसै कमलु किरणि परगासै परगटु करि देखाइआ ॥१५॥
मूलम्
सद ही नेड़ै दूरि न जाणहु ॥ गुर कै सबदि नजीकि पछाणहु ॥ बिगसै कमलु किरणि परगासै परगटु करि देखाइआ ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। नजीकि = नजदीक। बिगसै = खिल उठता है। कमलु = (हृदय) कमल फूल। परगासै = प्रकाश करती है, चमक पड़ती है। परगटु = प्रत्यक्ष। करि = कर के।15।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा ही (हमारे) नजदीक रहता है, उसको (कभी भी अपने से) दूर ना समझो। गुरु के शब्द में जुड़ के उसको अपने अंग-संग बसता देखो। हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा को अपने साथ बसता देखता है उसका हृदय-) कमल फूल खिला रहता है, (उसके अंदर ईश्वरीय ज्योति की) किरण (आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर देती है। (गुरु उस मनुष्य को परमात्मा) प्रत्यक्ष करके दिखा देता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता सचा सोई ॥ आपे मारि जीवाले अवरु न कोई ॥ नानक नामु मिलै वडिआई आपु गवाइ सुखु पाइआ ॥१६॥२॥२४॥
मूलम्
आपे करता सचा सोई ॥ आपे मारि जीवाले अवरु न कोई ॥ नानक नामु मिलै वडिआई आपु गवाइ सुखु पाइआ ॥१६॥२॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = कर्तार। सचा = सदा कायम रहने वाला। मारि = मार के। अवरु = और। आपु = स्वै भाव। गवाइ = दूर कर के।16।
अर्थ: हे नानक! वह कर्तार स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, वह स्वयं ही मार के जीवित करता है (भाव, मारता भी खुद ही है, पैदा भी करता खुद ही है)। उसके बिना कोई और ऐसी समर्थता वाला है ही नहीं। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मिल जाता है उसको (लोक-परलोक की) शोभा मिल जाती है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै-भाव दूर कर के आत्मिक आनंद लेता रहता है।16।2।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा आपि सवारणहारा ॥ अवर न सूझसि बीजी कारा ॥ गुरमुखि सचु वसै घट अंतरि सहजे सचि समाई हे ॥१॥
मूलम्
सचा आपि सवारणहारा ॥ अवर न सूझसि बीजी कारा ॥ गुरमुखि सचु वसै घट अंतरि सहजे सचि समाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सच्चा, सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सवारणहारा = जीवन सुंदर बनाने वाले की समर्थता वाला। बीजी = दूसरी। कारा = कार, काम। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। घट अंतरि = हृदय में। सहजे = आत्मिक अडोलता से। सचि = सदा स्थिर प्रभु।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसके हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा आ बसता है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है। उसको (प्रभु की याद के बिना) कोई और दूसरी कार नहीं सूझती। पर, हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही उसका जीवन सुंदर बनाने की समर्थता रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभना सचु वसै मन माही ॥ गुर परसादी सहजि समाही ॥ गुरु गुरु करत सदा सुखु पाइआ गुर चरणी चितु लाई हे ॥२॥
मूलम्
सभना सचु वसै मन माही ॥ गुर परसादी सहजि समाही ॥ गुरु गुरु करत सदा सुखु पाइआ गुर चरणी चितु लाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माही = माहि, में। परसादी = कृपा से। सहजि = आत्मिक अडोलता से। करत = करते हुए।2।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) सदा-स्थिर प्रभु सब जीवों के मन में बसता है, पर गुरु की कृपा से ही (जीव) आत्मिक अडोलता में (टिक के प्रभु में) लीन होते हैं। गुरु को हर वक्त याद करते हुए मनुष्य आत्मिक आनंद पाता है, गुरु के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु है गिआनु सतिगुरु है पूजा ॥ सतिगुरु सेवी अवरु न दूजा ॥ सतिगुर ते नामु रतन धनु पाइआ सतिगुर की सेवा भाई हे ॥३॥
मूलम्
सतिगुरु है गिआनु सतिगुरु है पूजा ॥ सतिगुरु सेवी अवरु न दूजा ॥ सतिगुर ते नामु रतन धनु पाइआ सतिगुर की सेवा भाई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। सेवी = मैं सेवा करता हूँ। ते = से। भाई = अच्छी लगी है।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु आत्मिक जीवन की सूझ (देने वाला) है, गुरु परमात्मा की (भक्ति (सिखाने वाला) है। मैं तो गुरु की ही शरण पड़ता हूँ, कोई और दूसरा (मैं अपने मन में) नहीं (लाता)। मैंने गुरु से श्रेष्ठ नाम-धन पाया है, मुझे गुरु की (बताई हुई) सेवा अच्छी लगती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सतिगुर जो दूजै लागे ॥ आवहि जाहि भ्रमि मरहि अभागे ॥ नानक तिन की फिरि गति होवै जि गुरमुखि रहहि सरणाई हे ॥४॥
मूलम्
बिनु सतिगुर जो दूजै लागे ॥ आवहि जाहि भ्रमि मरहि अभागे ॥ नानक तिन की फिरि गति होवै जि गुरमुखि रहहि सरणाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजै = माया में। भ्रमि = भटक भटक के। अभागे = दुर्भाग्य वाले व्यक्ति। नानक = हे नानक! गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। जि = जो।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु को छोड़ के और तरफ लगते हैं, वह अभागे व्यक्ति भटकना में पड़ कर आत्मिक मौत सहेड़ते हैं, वे जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे नानक! (कह:) उन मनुष्यों की ही फिर ऊँची आत्मिक अवस्था बनती है जो गुरु की शरण पड़ते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि प्रीति सदा है साची ॥ सतिगुर ते मागउ नामु अजाची ॥ होहु दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ रखि लेवहु गुर सरणाई हे ॥५॥
मूलम्
गुरमुखि प्रीति सदा है साची ॥ सतिगुर ते मागउ नामु अजाची ॥ होहु दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ रखि लेवहु गुर सरणाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साची = सदा टिके रहने वाली। ते = से। मागउ = मैं माँगता हूँ। अजाची = जो जाचा ना जा सके, जिसकी कीमति का अंदाजा ना लग सके, अमूल्य।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसकी प्रभु से प्रीति पक्की होती है। (वह हर समय इस प्रकार अरदास करता रहता है:) मैं गुरु से (तेरा) अमूल्य नाम माँगता हूँ। हे हरि! दयावान हो, कृपा कर। मुझे गुरु की शरण में रख।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित रसु सतिगुरू चुआइआ ॥ दसवै दुआरि प्रगटु होइ आइआ ॥ तह अनहद सबद वजहि धुनि बाणी सहजे सहजि समाई हे ॥६॥
मूलम्
अम्रित रसु सतिगुरू चुआइआ ॥ दसवै दुआरि प्रगटु होइ आइआ ॥ तह अनहद सबद वजहि धुनि बाणी सहजे सहजि समाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। चुआइआ = नाम रस पैदा करने की सहायता की। दसवै दुआरि = दसवें द्वार में, दिमाग में, सोच मण्डल में। तह = उस आत्मिक अवस्था में। अनहद = बिना बजाए बजने वाले। सबद वजहि = शब्द बजते हैं, पांच शब्द बजते हैं, पाँच किस्मों के साज़ बजते हैं। धुनि = सुर, आत्मिक सुर, आत्मिक आनंद। धुनि बाणी = महिमा की वाणी से पैदा हुआ आत्मिक आनंद। सहजे सहजि = हर वक्त आत्मिक अडोलता में।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु (जिस मनुष्य के हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पैदा करता है, (परमात्मा) उसके सोच-मंडल में प्रकट हो जाता है। उस अवस्था में उस मनुष्य के अंदर महिमा की वाणी से (इस प्रकार) आत्मिक आनंद पैदा होता है (जैसे, मानो वहाँ) पाँच किस्मों के साज़ बज रहे हैं। वह मनुष्य हर वक्त आत्मिक आनंद में लीन रहता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ करतै धुरि लिखि पाई ॥ अनदिनु गुरु गुरु करत विहाई ॥ बिनु सतिगुर को सीझै नाही गुर चरणी चितु लाई हे ॥७॥
मूलम्
जिन कउ करतै धुरि लिखि पाई ॥ अनदिनु गुरु गुरु करत विहाई ॥ बिनु सतिगुर को सीझै नाही गुर चरणी चितु लाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। धुरि = धुर से। लिखि = (किए कर्मों के अनुसार) लिख के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करत = करते हुए। विहाई = (उम्र) बीतती है। को = कोई मनुष्य। सीझै = कामयाब होता। लाई = लगा के।7।
अर्थ: पर, हे भाई! (आत्मिक आनंद की यह दाति उन्हें ही मिलती है) जिनके भाग्यों में कर्तार ने धुर दरगाह से लिख के रख दी है। उनकी उम्र सदा गुरु को याद करते हुए बीतती है। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना कोई मनुष्य (जिंदगी में) सफल नहीं होता। तू सदा गुरु के चरणों में अपना चिक्त जोड़े रख।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु भावै तिसु आपे देइ ॥ गुरमुखि नामु पदारथु लेइ ॥ आपे क्रिपा करे नामु देवै नानक नामि समाई हे ॥८॥
मूलम्
जिसु भावै तिसु आपे देइ ॥ गुरमुखि नामु पदारथु लेइ ॥ आपे क्रिपा करे नामु देवै नानक नामि समाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु भावै = जो मनुष्य उसको अच्छा लगता है। देइ = देता है। लेइ = लेता है। नामि = नाम में। समाई = लीन रहता है।8।
अर्थ: हे भाई! जो जीव उस परमात्मा को प्यारा लगता है उसको वह स्वयं ही (नाम की दाति) देता है। वह मनुष्य गुरु से यह कीमती नाम हासिल करता है। हे नानक! (कह:) जिसके ऊपर वह प्रभु कृपा करता है उसको अपना नाम देता है। वह मनुष्य नाम में लीन रहता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआन रतनु मनि परगटु भइआ ॥ नामु पदारथु सहजे लइआ ॥ एह वडिआई गुर ते पाई सतिगुर कउ सद बलि जाई हे ॥९॥
मूलम्
गिआन रतनु मनि परगटु भइआ ॥ नामु पदारथु सहजे लइआ ॥ एह वडिआई गुर ते पाई सतिगुर कउ सद बलि जाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। मनि = मन में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। गुर ते = गुरु से। सद = सदा। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ।9।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में आत्मिक जीवन की श्रेष्ठ सूझ उभर आई, उसने आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा का कीमती नाम पा लिया। पर यह बड़ाई गुरु से (ही) मिलती है। मैं सदा ही गुरु से सदके जाता हूँ।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगटिआ सूरु निसि मिटिआ अंधिआरा ॥ अगिआनु मिटिआ गुर रतनि अपारा ॥ सतिगुर गिआनु रतनु अति भारी करमि मिलै सुखु पाई हे ॥१०॥
मूलम्
प्रगटिआ सूरु निसि मिटिआ अंधिआरा ॥ अगिआनु मिटिआ गुर रतनि अपारा ॥ सतिगुर गिआनु रतनु अति भारी करमि मिलै सुखु पाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरु = सूरज। निसि अंधिआरा = रात का अंधेरा। गुर रतनि अपारा = गुरु के बेअंत कीमती (ज्ञान) रत्न से। अति भारी = बहुत ही कीमती। करमि = मेहर से। मिलै = मिलता है (एकवचन)।10।
अर्थ: हे भाई! (जैसे जब) सूरज चढ़ता है (तब) रात का अंधेरा मिट जाता है, (इसी तरह) गुरु के बेअंत कीमती ज्ञान-रत्न से अज्ञान-अंधेरा दूर हो जाता है। हे भाई! गुरु का (दिया हुआ) ‘ज्ञान रत्न’ बहुत ही कीमती है। परमात्मा की मेहर से जिसको यह मिलता है, वह आत्मिक आनंद पाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नामु प्रगटी है सोइ ॥ चहु जुगि निरमलु हछा लोइ ॥ नामे नामि रते सुखु पाइआ नामि रहिआ लिव लाई हे ॥११॥
मूलम्
गुरमुखि नामु प्रगटी है सोइ ॥ चहु जुगि निरमलु हछा लोइ ॥ नामे नामि रते सुखु पाइआ नामि रहिआ लिव लाई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोइ = शोभा। प्रगटि = बिखरी। चहु जुगि = सदा के लिए। लोइ = जगत में। नामे नामि = नाम ही नाम, हर वक्त नाम में। रते = रंगे हुए। लिव = लगन।11।
अर्थ: हे भाई! गुरु के द्वारा जिसको हरि-नाम प्राप्त होता है, उसकी शोभा पसर जाती है, वह सदा के लिए पवित्र जीवन वाला हो जाता है, वह सारे जगत में अच्छा माना जाता है। हे भाई! हर वक्त हरि-नाम में रंगे रहने के कारण वह सुख पाता है, वह हरि-नाम में हर वक्त तवज्जो जोड़े रखता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नामु परापति होवै ॥ सहजे जागै सहजे सोवै ॥ गुरमुखि नामि समाइ समावै नानक नामु धिआई हे ॥१२॥
मूलम्
गुरमुखि नामु परापति होवै ॥ सहजे जागै सहजे सोवै ॥ गुरमुखि नामि समाइ समावै नानक नामु धिआई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु से। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में। समाइ = समा के। समावै = समाया रहता है।12।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु के द्वारा हरि-नाम हासिल होता है, वह जागता और सोया हुआ हर समय आत्मिक अडोलता में टिका रहता है (आत्मिक अडोलता में जागता है आत्मिक अडोलता में सोता है)। हे नानक! गुरु के द्वारा नाम में ही लीन हो के वह मनुष्य (परमात्मा में) लीन रहता है, वह हर समय हरि-नाम ही स्मरण करता है।12।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
भगता मुखि अम्रित है बाणी ॥ गुरमुखि हरि नामु आखि वखाणी ॥ हरि हरि करत सदा मनु बिगसै हरि चरणी मनु लाई हे ॥१३॥
मूलम्
भगता मुखि अम्रित है बाणी ॥ गुरमुखि हरि नामु आखि वखाणी ॥ हरि हरि करत सदा मनु बिगसै हरि चरणी मनु लाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुँह में। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी। गुरमुखि = गुरु से। आखि = कह के। वखाणी = व्याख्या की है। करत = करते हुए। बिगसै = खिला रहता है।13।
अर्थ: हे भाई! भक्तों के मुँह में (गुरु की आत्मिक जीवन देने वाली) वाणी टिकी रहती है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा का नाम (स्वयं) उच्चार के (और लोगों को भी) सुनाता है। परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए उसका मन सदा खिला रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में मन जोड़ के रखता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम मूरख अगिआन गिआनु किछु नाही ॥ सतिगुर ते समझ पड़ी मन माही ॥ होहु दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ सतिगुर की सेवा लाई हे ॥१४॥
मूलम्
हम मूरख अगिआन गिआनु किछु नाही ॥ सतिगुर ते समझ पड़ी मन माही ॥ होहु दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ सतिगुर की सेवा लाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। अगिआन = ज्ञान हीन। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। ते = से। माही = में, माहि।14।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव मूर्ख हैं, अंजान हैं, हमें आत्मिक जीवन की कुछ भी सूझ नहीं है। गुरु से (यह) समझ मन में पड़ती है। हे प्रभु! दयावान हो, मेहर करो, (हमें) गुरु की सेवा में लगाए रखो।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि सतिगुरु जाता तिनि एकु पछाता ॥ सरबे रवि रहिआ सुखदाता ॥ आतमु चीनि परम पदु पाइआ सेवा सुरति समाई हे ॥१५॥
मूलम्
जिनि सतिगुरु जाता तिनि एकु पछाता ॥ सरबे रवि रहिआ सुखदाता ॥ आतमु चीनि परम पदु पाइआ सेवा सुरति समाई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जिनि = उस (मनुष्य) ने (एकवचन)। सरबै = सब में। रवि रहिआ = व्यापक है। आतमु = अपने आप को, अपने जीवन को। चीनि = पड़ताल के। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक दर्जा।15।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु के साथ सांझ डाल ली, उसने एक परमात्मा को (इस प्रकार) पहचान लिया कि वह सुखदाता प्रभु सबमें बस रहा है। उस मनुष्य ने अपने जीवन को पड़ताल के सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया। उसकी तवज्जो परमात्मा की सेवा-भक्ति में टिकी रहती है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ आदि मिली वडिआई ॥ सतिगुरु मनि वसिआ लिव लाई ॥ आपि मिलिआ जगजीवनु दाता नानक अंकि समाई हे ॥१६॥१॥
मूलम्
जिन कउ आदि मिली वडिआई ॥ सतिगुरु मनि वसिआ लिव लाई ॥ आपि मिलिआ जगजीवनु दाता नानक अंकि समाई हे ॥१६॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिन्होंने। आदि = धुर से। मनि = मन में। लिव = लगन। जगजीवनु = जगत का जीवन, जगत का आसरा। अंकि = अंक में, गोद में।16।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिन’ है ‘जिनि’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिनको धुर-दरगाह से इज्जत मिलती है, उनके मन में गुरु बसा रहता है। वे प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखते हैं। हे नानक! (कह:) उनको जगत का सहारा दातार स्वयं आ के मिलता है, वे प्रभु की गोद में (प्रभु-चरणों में) समाए रहते हैं।16।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ४ ॥ हरि अगम अगोचरु सदा अबिनासी ॥ सरबे रवि रहिआ घट वासी ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई दाता हरि तिसहि सरेवहु प्राणी हे ॥१॥
मूलम्
मारू महला ४ ॥ हरि अगम अगोचरु सदा अबिनासी ॥ सरबे रवि रहिआ घट वासी ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई दाता हरि तिसहि सरेवहु प्राणी हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हैं। अबिनासी = नाश रहित। सरबे = सबमें (सर्व)। घट वासी = सब शरीरों में बसने वाला। तिसहि = तिसु ही। सरेवहु = स्मरण करो। प्राणी = हे प्राणी!।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसु ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, इन्द्रियों की पहुँच से परे है, सदा ही नाश रहित है, सब जीवों में व्यापक है, सब शरीरों में बसने वाला है। उसके बिना और कोई दाता नहीं है। हे प्राणी! उसी परमात्मा का स्मरण किया करो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ राखै हरि राखणहारा ॥ ता कउ कोइ न साकसि मारा ॥ सो ऐसा हरि सेवहु संतहु जा की ऊतम बाणी हे ॥२॥
मूलम्
जा कउ राखै हरि राखणहारा ॥ ता कउ कोइ न साकसि मारा ॥ सो ऐसा हरि सेवहु संतहु जा की ऊतम बाणी हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखणहारा = रक्षा करने की सामर्थ्य वाला। साकसि मारा = मार सकता। संतहु = हे संत जनो! ऊतम = (जीनव को) ऊँचा बना देने वाली।2।
अर्थ: हे भाई! बचाने की सामर्थ्य वाला परमात्मा जिस (मनुष्य) की रक्षा करता है, उसको कोई मार नहीं सकता। हे संत जनो! उस परमात्मा की सेवा भक्ति किया करो। उसकी महिमा की वाणी जीवन को ऊँचा कर देती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा जापै किछु किथाऊ नाही ॥ ता करता भरपूरि समाही ॥ सूके ते फुनि हरिआ कीतोनु हरि धिआवहु चोज विडाणी हे ॥३॥
मूलम्
जा जापै किछु किथाऊ नाही ॥ ता करता भरपूरि समाही ॥ सूके ते फुनि हरिआ कीतोनु हरि धिआवहु चोज विडाणी हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। जापै = यह समझ आती है कि। किथाऊ = कहीं भी। करता = कर्तार। फुनि = दोबारा। कीतानु = उस (कर्तार) ने कर दिया। चोज = करिश्मा, खेल। विडाणी = आश्चर्य।3।
अर्थ: हे भाई! जब ये समझ आ जाती है कि कहीं भी कोई चीज (सदा-स्थिर) नहीं है, तब कर्तार को हर जगह व्यापक समझो (जो सदा कायम रहने वाला है)। हे भाई! वह कर्तार सूखे को हरा-भरा करने वाला है। उस हरि का ही स्मरण करो, वह आश्चर्यजनक करिश्मे कर सकने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जीआ की वेदन जाणै ॥ तिसु साहिब कै हउ कुरबाणै ॥ तिसु आगै जन करि बेनंती जो सरब सुखा का दाणी हे ॥४॥
मूलम्
जो जीआ की वेदन जाणै ॥ तिसु साहिब कै हउ कुरबाणै ॥ तिसु आगै जन करि बेनंती जो सरब सुखा का दाणी हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेदन = वेदना, दुख, पीड़ा। कै = से। हउ = मैं। जन = हे जन! हे भाई! दाणी = दानी, दाता।4।
अर्थ: हे भाई! मैं तो उस परमात्मा मालिक से सदा सदके जाता हूँ, जो सब जीवों के दिल की पीड़ा जानता है। हे भाई! उस मालिक की हजूरी में अरदास किया कर, जो सारे सुखों को देने वाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जीऐ की सार न जाणै ॥ तिसु सिउ किछु न कहीऐ अजाणै ॥ मूरख सिउ नह लूझु पराणी हरि जपीऐ पदु निरबाणी हे ॥५॥
मूलम्
जो जीऐ की सार न जाणै ॥ तिसु सिउ किछु न कहीऐ अजाणै ॥ मूरख सिउ नह लूझु पराणी हरि जपीऐ पदु निरबाणी हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीऐ की = जिंद की। सार = कद्र, (दुख दर्द की) सूझ। सिउ = साथ। अजाण = अंजान, मूर्ख। लूझु = झगड़ा कर। पराई = हे प्राणी! जपीऐ = जपना चाहिए। पदु = दर्जा, आत्मिक अवस्था। निरबाणी = वासना रहित।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (किसी और की) जिंद का दुख-दर्द नहीं समझ सकता, उस मूर्ख के साथ (अपने दुर्ख-दर्द की) कोई बात नहीं करनी चाहिए। हे प्राणी! उस मूर्ख से कोई गिला ना कर। सिर्फ परमात्मा का नाम जपना चाहिए, वही वासना-रहित आत्मिक दर्जा देने वाला है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना करि चिंत चिंता है करते ॥ हरि देवै जलि थलि जंता सभतै ॥ अचिंत दानु देइ प्रभु मेरा विचि पाथर कीट पखाणी हे ॥६॥
मूलम्
ना करि चिंत चिंता है करते ॥ हरि देवै जलि थलि जंता सभतै ॥ अचिंत दानु देइ प्रभु मेरा विचि पाथर कीट पखाणी हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिंत = फिक्र। करते = कर्तार को। जलि = जल में। थलि = धरती में। सभतै = सबको। अचिंत = जिसका चिक्त चेता भी ना हो। देइ = देता है। कीट = कीड़ा। पखाणी = पाषाण में, पत्थरों में।6।
अर्थ: हे भाई! (रोजी की खातिर) चिन्ता-फिक्र ना कर, ये फिक्र कर्तार को है। वह कर्तार जल में धरती में (बसने वाले) सब जीवों को (रिज़क) देता है। मेरा प्रभु वह वह दाति देता है जिसका हमें चिक्त-चेता भी नहीं होता। पत्थरों में बसने वाले कीड़ों को भी (रिज़क) देता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना करि आस मीत सुत भाई ॥ ना करि आस किसै साह बिउहार की पराई ॥ बिनु हरि नावै को बेली नाही हरि जपीऐ सारंगपाणी हे ॥७॥
मूलम्
ना करि आस मीत सुत भाई ॥ ना करि आस किसै साह बिउहार की पराई ॥ बिनु हरि नावै को बेली नाही हरि जपीऐ सारंगपाणी हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। आस मीत = मित्र की आस। बेली = मददगार। सारंगपाणी = (सारंग = धनुष। पाणी = पाणि, हाथ। जिसके हाथ में धनुष है) परमात्मा।7।
अर्थ: हे भाई! मित्र की, पुत्र की, भाई की- किसी की भी आस ना कर। किसी शाह की, किसी व्यवहार की- कोई भी पराई आशा ना कर। परमात्मा के नाम के बिना और कोई मददगार नहीं। उस परमात्मा का ही नाम जपना चाहिए।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु नामु जपहु बनवारी ॥ सभ आसा मनसा पूरै थारी ॥ जन नानक नामु जपहु भव खंडनु सुखि सहजे रैणि विहाणी हे ॥८॥
मूलम्
अनदिनु नामु जपहु बनवारी ॥ सभ आसा मनसा पूरै थारी ॥ जन नानक नामु जपहु भव खंडनु सुखि सहजे रैणि विहाणी हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बनवारी नामु = परमात्मा का नाम (बन है माला जिसकी)। मनसा = मनीषा, मन का फुरना। पूरै = पूरी करता है। थारी = तेरी। भव खंडनु = जनम मरन के चक्करों का नाश करने वाला। सुखि = सुख में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। रैणि = रात, जीवन की रात। विहाणी = बीतती है।8।
अर्थ: हे भाई! हर वक्त परमात्मा का ही नाम जपते रहो। वही तेरी हरेक आशा पूरी करता है, तेरा हरेक फुरना पूरा करता है। हे दास नानक! सदा हरि-नाम जपते रहो। हरि का नाम जनम-मरण के चक्करों का नाश करने वाला है। (जो मनुष्य जपता है उसकी) उम्र-रात्रि सुख में आत्मिक अडोलता बीतती है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥ जो सरणि परै तिस की पति राखै जाइ पूछहु वेद पुराणी हे ॥९॥
मूलम्
जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥ जो सरणि परै तिस की पति राखै जाइ पूछहु वेद पुराणी हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने (एकवचन)। सहजे = बिना किसी (तप आदि) प्रयत्न के। नामि = नाम में। पति = इज्जत। जाइ = जा के।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा की भक्ति की उसने सुख प्राप्त किया। वह बिना किसी (तप आदि) जतन के परमात्मा के नाम में लीन रहता है। बेशक वेद-पुराणों (के पढ़ने वालों) से जा के पूछ लो। जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ता है, परमात्मा उसकी इज्जत रखता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु हरि सेवा लाए सोई जनु लागै ॥ गुर कै सबदि भरम भउ भागै ॥ विचे ग्रिह सदा रहै उदासी जिउ कमलु रहै विचि पाणी हे ॥१०॥
मूलम्
जिसु हरि सेवा लाए सोई जनु लागै ॥ गुर कै सबदि भरम भउ भागै ॥ विचे ग्रिह सदा रहै उदासी जिउ कमलु रहै विचि पाणी हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लागै = लगता है। कै सबदि = के शब्द से। भरम = भटकना। भउ = डर। भागै = दूर हो जाता है। ग्रिह = घर, गृहस्थ।10।
अर्थ: पर, हे भाई! वही मनुष्य परमात्मा की भक्ति में लगता है, जिसको परमात्मा स्वयं लगाता है। गुरु के शब्द की इनायत से उस मनुष्य की भटकना उसका डर दूर हो जाता है। जैसे कमल-फूल पानी में (रह के भी पानी से) निर्लिप रहता है, वैसे ही वह मनुष्य गृहस्थ में ही (माया से) सदा उपराम रहता है।10।
[[1071]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचि हउमै सेवा थाइ न पाए ॥ जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥ सो तपु पूरा साई सेवा जो हरि मेरे मनि भाणी हे ॥११॥
मूलम्
विचि हउमै सेवा थाइ न पाए ॥ जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥ सो तपु पूरा साई सेवा जो हरि मेरे मनि भाणी हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थाइ = थाय, जगह में। थाइ न पाए = स्वीकार नहीं होता। जनमि = पैदा हो के। आवै जाइ = आता है जाता है, पैदा होता मरता रहता है। मनि = मन मे। भाणी = अच्छी लगती है।11।
अर्थ: हे भाई! अहंकार में की हुई सेवा-भक्ति स्वीकार नहीं होती, वह मनुष्य (तो बल्कि) जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है। हे भाई! वही है पूरा तप, वही है सेवा भक्ति, जो मेरे प्रभु के मन को भाती है (प्रभु की रजा में चलना ही सही रास्ता है)।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ किआ गुण तेरे आखा सुआमी ॥ तू सरब जीआ का अंतरजामी ॥ हउ मागउ दानु तुझै पहि करते हरि अनदिनु नामु वखाणी हे ॥१२॥
मूलम्
हउ किआ गुण तेरे आखा सुआमी ॥ तू सरब जीआ का अंतरजामी ॥ हउ मागउ दानु तुझै पहि करते हरि अनदिनु नामु वखाणी हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं अहम्। आखा = कहूँ। सुआमी = हे स्वामी! अंतरजामी = दिल की जानने वाला। मागउ = माँगता हूँ। तुझै पहि = तेरे पास से ही। करते = हे कर्तार! अनदिनु = हर रोज हर वक्त। वखाणी = मैं उचारता रहूँ।12।
अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? तू सब जीवों के दिल की जानने वाला है। हे कर्तार! मैं तुझसे ही यह दान माँगता हूँ कि मैं हर वक्त तेरा नाम उचारता रहूँ।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किस ही जोरु अहंकार बोलण का ॥ किस ही जोरु दीबान माइआ का ॥ मै हरि बिनु टेक धर अवर न काई तू करते राखु मै निमाणी हे ॥१३॥
मूलम्
किस ही जोरु अहंकार बोलण का ॥ किस ही जोरु दीबान माइआ का ॥ मै हरि बिनु टेक धर अवर न काई तू करते राखु मै निमाणी हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोरु = ताकत, जोर, मान। दीबान = आसरा। धर = आसरा। करते = हे कर्तार! मैं = मुझे।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘काई’ स्त्रीलिंग है व ‘कोई’ पुलिंग है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! किसी के अंदर अच्छा बोल सकने के अहंकार की ताकत है। किसी को माया के आसरे का भरोसा है। मुझे परमात्मा के बिना और कोई आसरा नहीं सहारा नहीं। हे कर्तार! मेरी निमाणी की रक्षा तू ही कर।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमाणे माणु करहि तुधु भावै ॥ होर केती झखि झखि आवै जावै ॥ जिन का पखु करहि तू सुआमी तिन की ऊपरि गल तुधु आणी हे ॥१४॥
मूलम्
निमाणे माणु करहि तुधु भावै ॥ होर केती झखि झखि आवै जावै ॥ जिन का पखु करहि तू सुआमी तिन की ऊपरि गल तुधु आणी हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = तू करता है। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। होर केती = और कितनी ही दुनिया। झखि = दुखी हो के। पखु = मदद। ऊपरि = सबके ऊपर। गल = बात। आणी = ले आए।14।
अर्थ: हे स्वामी! तू निमाणे का माण है। जो तुझे अच्छा लगता है, वही तू करता है। (तेरी रज़ा से दूर जाने का प्रयत्न करके) बेअंत दुनिया दुखी हो-हो के जनम-मरण के चक्करों में पड़ती है। हे स्वामी! तू जिनका पक्ष करता है, उनकी बात हर जगह मानी जाती है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु जिनी सदा धिआइआ ॥ तिनी गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ बिनु सेवा पछोताणी हे ॥१५॥
मूलम्
हरि हरि नामु जिनी सदा धिआइआ ॥ तिनी गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ बिनु सेवा पछोताणी हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनी = जिन्होंने। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। जिनि = जिस ने।15।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया, उन्हों ने गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया। हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा की सेवा-भक्ति की, उसने सुख पाया। प्रभु की सेवा-भक्ति के बिना दुनिया पछताती (ही) है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू सभ महि वरतहि हरि जगंनाथु ॥ सो हरि जपै जिसु गुर मसतकि हाथु ॥ हरि की सरणि पइआ हरि जापी जनु नानकु दासु दसाणी हे ॥१६॥२॥
मूलम्
तू सभ महि वरतहि हरि जगंनाथु ॥ सो हरि जपै जिसु गुर मसतकि हाथु ॥ हरि की सरणि पइआ हरि जापी जनु नानकु दासु दसाणी हे ॥१६॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतहि = व्यापक है। जगंनाथु = जगत का नाथ। गुर हाथु = गुरु का हाथ। जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। जापी = मैं जपूँ। दासु दसाणी = दासों का दास।16।
अर्थ: हे हरि! तू जगत का नाथ है। तू सबमें व्यापक है। हे भाई! वही मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है जिसके माथे पर गुरु का हाथ होता है।
हे भाई! (मैं भी) हरि की शरण पड़ा हूँ, मैं भी हरि का नाम जपता हूँ। दास नानक हरि के दासों का दास है।16।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कला उपाइ धरी जिनि धरणा ॥ गगनु रहाइआ हुकमे चरणा ॥ अगनि उपाइ ईधन महि बाधी सो प्रभु राखै भाई हे ॥१॥
मूलम्
कला उपाइ धरी जिनि धरणा ॥ गगनु रहाइआ हुकमे चरणा ॥ अगनि उपाइ ईधन महि बाधी सो प्रभु राखै भाई हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कला = गुप्त ताकत, शक्ति, सत्ता। उपाइ = पैदा कर के। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरणा = धरती। गगनु = आकाश। रहाइआ = टिकाया। हुकमे = हुक्म से ही। चरणा = आसरा (दे के)। ईधन = ईधन। बाधी = बाँधी हुई है। राखै = रक्षा करता है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (अपने ही अंदर से) शक्ति पैदा करके धरती की सृजना की है, जिसने अपने हुक्म का ही आसरा दे के आकाश को स्तंभ दिया हुआ है, जिसने आग पैदा करके इसको ईधन (लकड़ियों) में बाँध रखा है, वही परमात्मा (सब जीवों की) रक्षा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत कउ रिजकु स्मबाहे ॥ करण कारण समरथ आपाहे ॥ खिन महि थापि उथापनहारा सोई तेरा सहाई हे ॥२॥
मूलम्
जीअ जंत कउ रिजकु स्मबाहे ॥ करण कारण समरथ आपाहे ॥ खिन महि थापि उथापनहारा सोई तेरा सहाई हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। संबाहे = पहुँचाता है। करण = सृष्टि। कारण = मूल। आपाहे = माया की पाह से रहित, निर्लिप। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश कर सकने वाला। सहाई = मददगार।2।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सारे ही जीवों को रिज़क पहुँचाता है, जो सृष्टि का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक व निर्लिप है, जो एक छिन में पैदा करके नाश करने की समर्थता रखता है, वही परमात्मा (हर वक्त) तेरा भी मददगार है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मात गरभ महि जिनि प्रतिपालिआ ॥ सासि ग्रासि होइ संगि समालिआ ॥ सदा सदा जपीऐ सो प्रीतमु वडी जिसु वडिआई हे ॥३॥
मूलम्
मात गरभ महि जिनि प्रतिपालिआ ॥ सासि ग्रासि होइ संगि समालिआ ॥ सदा सदा जपीऐ सो प्रीतमु वडी जिसु वडिआई हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। प्रतिपालिआ = रक्षा की। सासि = (हरेक) सांस के साथ। ग्रासि = (हरेक) ग्रास के साथ। संगि = साथ। समालिआ = संभाल करता है। जपीऐ = जपना चाहिए।3।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने माँ के पेट में (तेरी) पालना की, तेरे हरेक सांस के साथ तेरी हरेक ग्रास के साथ तेरा संगी बन के तेरी संभाल की, जिस परमात्मा की इतनी बड़ी बड़ाई है, उस प्रीतम प्रभु को सदा ही सदा ही जपना चाहिए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुलतान खान करे खिन कीरे ॥ गरीब निवाजि करे प्रभु मीरे ॥ गरब निवारण सरब सधारण किछु कीमति कही न जाई हे ॥४॥
मूलम्
सुलतान खान करे खिन कीरे ॥ गरीब निवाजि करे प्रभु मीरे ॥ गरब निवारण सरब सधारण किछु कीमति कही न जाई हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुलतान = बादशाह। खान = सरदार। कीरे = कीड़े। निवाजि = निवाज के, ऊँचे करके। मीरे = अमीर। गरब = अहंकार। सरब सधारण = सबको आसरा देने वाला।4।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा बादशाहों और खानों को एक छिन में कीड़े (कंगाल) बना देता है, गरीबों को ऊँचे करके अमीर बना देता है। वह परमात्मा (अहंकारियों का) अहंकार दूर करने वाला है, वह परमात्मा सबका आसरा है, हे भाई! उसका मूल्य नहीं डाला सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो पतिवंता सो धनवंता ॥ जिसु मनि वसिआ हरि भगवंता ॥ मात पिता सुत बंधप भाई जिनि इह स्रिसटि उपाई हे ॥५॥
मूलम्
सो पतिवंता सो धनवंता ॥ जिसु मनि वसिआ हरि भगवंता ॥ मात पिता सुत बंधप भाई जिनि इह स्रिसटि उपाई हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतिवंता = इज्जत वाला। जिसु मनि = जिस के मन में। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। जिनि = जिस (कर्तार) ने।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में हरि भगवान आ बसता है, वह (असल) इज्जतदार है, वही (असल) धनाढ है। जिस परमात्मा ने यह सृष्टि पैदा की है, वही है माता-पिता, वही है पुत्र-रिश्तेदार और भाई (वही है हमेशा साथ निभने वाला संबंधी)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ आए सरणा भउ नही करणा ॥ साधसंगति निहचउ है तरणा ॥ मन बच करम अराधे करता तिसु नाही कदे सजाई हे ॥६॥
मूलम्
प्रभ आए सरणा भउ नही करणा ॥ साधसंगति निहचउ है तरणा ॥ मन बच करम अराधे करता तिसु नाही कदे सजाई हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ सरणा = प्रभु की शरण में। निहचउ = अवश्य। बच = वचन। अराधे = स्मरण करता है। सजाई = सजा, दण्ड, कष्ट।6।
अर्थ: हे भाई! प्रभु की शरण पड़ने से किसी किस्म के डर की आवश्यक्ता नहीं रहती। हे भाई! गुरु की संगत में रहने से अवश्य (सारे डरों से) पार-उतारा हो जाता है। जो मनुष्य अपने मन से वचनों से कर्मों से कर्तार हरि की आराधना करता रहता है, उसको कभी कोई कष्ट छू नहीं सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण निधान मन तन महि रविआ ॥ जनम मरण की जोनि न भविआ ॥ दूख बिनास कीआ सुखि डेरा जा त्रिपति रहे आघाई हे ॥७॥
मूलम्
गुण निधान मन तन महि रविआ ॥ जनम मरण की जोनि न भविआ ॥ दूख बिनास कीआ सुखि डेरा जा त्रिपति रहे आघाई हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण निधान = गुणों का खजाना। रविआ = स्मरण किया। सुखि = सुख में। त्रिपति रहे आघाई = माया की तृष्णा की ओर से पूरी तौर पर तृप्त हो गए।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने मन में अपने तन में परमात्मा को याद रखता है, वह जनम-मरण के चक्र में नहीं भटकता। उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है, वह सदा के लिए आत्मिक आनंद में ठिकाना बना लेता है, क्योंकि वह (तृष्णा की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त होता है।7।
[[1072]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीतु हमारा सोई सुआमी ॥ थान थनंतरि अंतरजामी ॥ सिमरि सिमरि पूरन परमेसुर चिंता गणत मिटाई हे ॥८॥
मूलम्
मीतु हमारा सोई सुआमी ॥ थान थनंतरि अंतरजामी ॥ सिमरि सिमरि पूरन परमेसुर चिंता गणत मिटाई हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतरि, हरेक जगह में (अंतरि = में)। सिमरि = स्मरण कर कै। गणत = चिन्ता फिक्र।8।
अर्थ: हे भाई! वही मालिक प्रभु हम जीवों का (असल) मित्र है। उस पूरन दिल की जानने वाला वह प्रभु हरेक जगह में बस रहा है। सबके परमेश्वर का नाम सदा स्मरण करके मनुष्य अपनी सारी चिन्ता-फिक्र मिटा लेता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु कोटि लख बाहा ॥ हरि जसु कीरतनु संगि धनु ताहा ॥ गिआन खड़गु करि किरपा दीना दूत मारे करि धाई हे ॥९॥
मूलम्
हरि का नामु कोटि लख बाहा ॥ हरि जसु कीरतनु संगि धनु ताहा ॥ गिआन खड़गु करि किरपा दीना दूत मारे करि धाई हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़। बाहा = बाँहें, साथी, मददगार। जसु कीरतनु = महिमा। संगि ताहा = उस (मनुष्य) के पास। खड़गु = तलवार। करि = कर के। दूत = (कामादिक) वैरी। धाई = हल्ला।9।
अर्थ: हे भाई! (जैसे वैरियों का मुकाबला करने के लिए बहुत सारी बाँहें और बहुत सारे साथी मनुष्य के लिए सहारा होते हैं, वैसे ही कामादिक वैरियों से मुकाबले में मनुष्य के लिए) परमात्मा का नाम (मानो) लाखों-करोड़ों बाहें हैं, परमात्मा का यश-कीर्तन उसके पास धन है। जिस मनुष्य को परमात्मा आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार कृपा करके देता है, वह मनुष्य हमला करके कामादिक वैरियों को मार लेता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का जापु जपहु जपु जपने ॥ जीति आवहु वसहु घरि अपने ॥ लख चउरासीह नरक न देखहु रसकि रसकि गुण गाई हे ॥१०॥
मूलम्
हरि का जापु जपहु जपु जपने ॥ जीति आवहु वसहु घरि अपने ॥ लख चउरासीह नरक न देखहु रसकि रसकि गुण गाई हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपु जपने = जपने योग्य जप। जीति = जीत के। घरि अपने = अपने घर में, स्वै स्वरूप में, प्रभु चरणों में। रसकि = रस से, प्रेम से। गाई = गाता है।10।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का जाप जपा करो, यही जपने-योग्य जप है। (इस जप की इनायत से कामादिक वैरियों को) जीत के अपने असल घर में टिके रहोगे। चौरासी लाख जूनियों के नर्क देखने नहीं पड़ेंगे। (जो मनुष्य) प्रेम से प्रभु के गुण गाता है (उसको यह फल प्राप्त होता है)।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खंड ब्रहमंड उधारणहारा ॥ ऊच अथाह अगम अपारा ॥ जिस नो क्रिपा करे प्रभु अपनी सो जनु तिसहि धिआई हे ॥११॥
मूलम्
खंड ब्रहमंड उधारणहारा ॥ ऊच अथाह अगम अपारा ॥ जिस नो क्रिपा करे प्रभु अपनी सो जनु तिसहि धिआई हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधारणहारा = विकारों से बचा सकने वाला। अथाह = बहुत ही गहरा। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। तिसहि = तिसु ही, उस (परमात्मा) को ही।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा खंडो-ब्रहमंडों के जीवों को विकारों से बचाने के योग्य है। वह प्रभु ऊँचा है अथाह है अगम्य (पहुँच से परे) है बेअंत है। जिस मनुष्य पर वह अपनी कृपा करता है वह मनुष्य उसी प्रभु को ही स्मरण करता रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंधन तोड़ि लीए प्रभि मोले ॥ करि किरपा कीने घर गोले ॥ अनहद रुण झुणकारु सहज धुनि साची कार कमाई हे ॥१२॥
मूलम्
बंधन तोड़ि लीए प्रभि मोले ॥ करि किरपा कीने घर गोले ॥ अनहद रुण झुणकारु सहज धुनि साची कार कमाई हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तोड़ि = तोड़ के। प्रभि = प्रभु ने। घर गोले = घर के सेवक। अनहद = एक रस, लगातार, बिना बजाए बज रहा। रुण झुण = मीठा सुरीला राग। रुणझुणकारु = लगातार हो रहा मीठा सुरीला राग। सहज = आत्मिक अडोलता। धुनि = सुर। साची = सदा कायम रहने वाली।12।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के (माया के मोह के) बंधन तोड़ के प्रभु ने उसको अपना बना लिया, मेहर करके जिसको उसने अपने घर का दास बना लिया, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कार करता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की तार बँधी रहती है, और उसके अंदर महिमा का (मानो) लगातार मीठा सुरीला राग होता रहता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि परतीति बनी प्रभ तेरी ॥ बिनसि गई हउमै मति मेरी ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै जग महि सोभ सुहाई हे ॥१३॥
मूलम्
मनि परतीति बनी प्रभ तेरी ॥ बिनसि गई हउमै मति मेरी ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै जग महि सोभ सुहाई हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। परतीति = श्रद्धा। प्रभ = हे प्रभु! मति मेरी = ‘मेरी मेरी’ करने वाली मति, ममता की मति। अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभु ने। सोभ = शोभा। सुहाई = सुंदर बनी।13।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के मन में तेरे प्रति श्रद्धा बन जाती है, उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, उसकी ममता वाली बुद्धि नाश हो जाती है। हे भाई! अपने प्रभु ने जिस मनुष्य की सहायता की उसके सारे जगत में शोभा चमक पड़ी।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जै जै कारु जपहु जगदीसै ॥ बलि बलि जाई प्रभ अपुने ईसै ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न दीसै एका जगति सबाई हे ॥१४॥
मूलम्
जै जै कारु जपहु जगदीसै ॥ बलि बलि जाई प्रभ अपुने ईसै ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न दीसै एका जगति सबाई हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जै जैकारु = महिमा। जगदीसै = जगदीश की, जगत के मालिक की (जगत+ईश)। जाई = मैं जाता हूँ। ईस = ईश्वर। जगति सबाई = सारे जगत में।14।
अर्थ: हे भाई! जगत के मालिक प्रभु की महिमा करते रहो। मैं तो अपने ईश्वर प्रभु से सदा सदके जाता हूँ। उस प्रभु के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं दिखता। सारे जगत में वह एक स्वयं ही स्वयं है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति सति सति प्रभु जाता ॥ गुर परसादि सदा मनु राता ॥ सिमरि सिमरि जीवहि जन तेरे एकंकारि समाई हे ॥१५॥
मूलम्
सति सति सति प्रभु जाता ॥ गुर परसादि सदा मनु राता ॥ सिमरि सिमरि जीवहि जन तेरे एकंकारि समाई हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। परसादि = कृपा से। राता = रंगा हुआ। सिमरि = स्मरण करके। एकंकारि = इक ओअंकार में, सर्व व्यापक में।15।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा को सदा-स्थिर जान लिया है उसका मन गुरु की कृपा से उसमें रंगा रहता है। हे प्रभु! तेरे सेवक तेरा नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, वे सदा तेरे सर्व-व्यापक स्वरूप में लीन रहते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जना का प्रीतमु पिआरा ॥ सभै उधारणु खसमु हमारा ॥ सिमरि नामु पुंनी सभ इछा जन नानक पैज रखाई हे ॥१६॥१॥
मूलम्
भगत जना का प्रीतमु पिआरा ॥ सभै उधारणु खसमु हमारा ॥ सिमरि नामु पुंनी सभ इछा जन नानक पैज रखाई हे ॥१६॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधारणु = पार लंघाने वाला। पुंनी = पूरी हो गई। पैज = सत्कार, इज्जत।16।
अर्थ: हे भाई! हमारा मालिक-प्रभु अपने भक्तों का प्यारा है, सब जीवों का पार-उतारा करने वाला है। उसका नाम स्मरण कर-कर के उसके भक्तों की हरेक आस पूरी हो जाती है। हे नानक! परमात्मा अपने सेवकों की सदा इज्जत रखता है।16।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगी जोगी नारि लपटाणी ॥ उरझि रही रंग रस माणी ॥ किरत संजोगी भए इकत्रा करते भोग बिलासा हे ॥१॥
मूलम्
संगी जोगी नारि लपटाणी ॥ उरझि रही रंग रस माणी ॥ किरत संजोगी भए इकत्रा करते भोग बिलासा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगी = साथी, ‘नारि’ का साथी, काया का साथी। जोगी = (असल में) निर्लिप, विरक्त (जीवात्मा)। नारि = स्त्री, काया। लपटाणी = लिपटी हुई है, चिपकी हुई है। उरझि रही = (काया स्त्री जीवात्मा जोगी के साथ) उलझी हुई है, उसको अपने मोह में फसा रही है। किरत = पिछले किए कर्म। किरत संजोगी = किए कर्मों के संजोगों से। इकत्रा = इकट्ठे। करते = करते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! (यह जीवात्मा असल में विरक्त) जोगी (है, यह काया-) स्त्री का साथी (जब बन जाता है, तो काया-) स्त्री (इसके साथ) लिपटी रहती है, इसको अपने मोह में फसाती रहती है, (और इसके साथ माया के) रंग रस भोगती है। किए कर्मों के संजोगों से (यह जीवात्मा और काया) इकट्ठे होते हैं, और, (दुनिया के) भोग विलास करते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो पिरु करै सु धन ततु मानै ॥ पिरु धनहि सीगारि रखै संगानै ॥ मिलि एकत्र वसहि दिनु राती प्रिउ दे धनहि दिलासा हे ॥२॥
मूलम्
जो पिरु करै सु धन ततु मानै ॥ पिरु धनहि सीगारि रखै संगानै ॥ मिलि एकत्र वसहि दिनु राती प्रिउ दे धनहि दिलासा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरु = (काया स्त्री का) पति, जीवात्मा। धन = स्त्री, काया। ततु = तुरत। माने = मानती है। धनहि = काया स्त्री को। सीगारि = श्रृंगार के। संगानै = (अपने) साथ। मिलि = मिल के। प्रिउ = जीवात्मा पति।2।
अर्थ: हे भाई! जो कुछ जीवात्मा-पति काया-स्त्री को कहता है वह तुरन्त मानती है जीवात्मा पति काया-स्त्री को सजा-सँवार के अपने साथ रखता है। मिल के दिन-रात ये इकट्ठे बसते हैं। जीवात्मा-पति काया-स्त्री को (कई तरह के) हौसले देता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन मागै प्रिउ बहु बिधि धावै ॥ जो पावै सो आणि दिखावै ॥ एक वसतु कउ पहुचि न साकै धन रहती भूख पिआसा हे ॥३॥
मूलम्
धन मागै प्रिउ बहु बिधि धावै ॥ जो पावै सो आणि दिखावै ॥ एक वसतु कउ पहुचि न साकै धन रहती भूख पिआसा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागै = माँगती है। बहु बिधि = कई तरह। धावै = दौड़ा फिरता है। पावै = हासिल करता है। जो = जो कुछ। आनि = ला के। इक वसतु = नाम पदार्थ। कउ = को। रहती = बनी रहती है।3।
अर्थ: हे भाई! काया-स्त्री (भी जो कुछ) माँगती है, (वह हासिल करने के लिए) जीवात्मा-पति कई तरह की दौड़-भाग करता फिरता है। जो कुछ उसको मिलता है, वह ला के (अपनी काया-स्त्री को) दिखा देता है। (पर इस दौड़-भाग में इसको) नाम-पदार्थ नहीं मिल सकता, (नाम-पदार्थ के बिना) काया-स्त्री की (माया वाली) भूख-प्यास टिकी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन करै बिनउ दोऊ कर जोरै ॥ प्रिअ परदेसि न जाहु वसहु घरि मोरै ॥ ऐसा बणजु करहु ग्रिह भीतरि जितु उतरै भूख पिआसा हे ॥४॥
मूलम्
धन करै बिनउ दोऊ कर जोरै ॥ प्रिअ परदेसि न जाहु वसहु घरि मोरै ॥ ऐसा बणजु करहु ग्रिह भीतरि जितु उतरै भूख पिआसा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनउ = विनती। दोऊ कर = दोनों हाथ। जोरै = जोड़ती है। प्रिअ = हे प्यारे! परदेसि = पराए देश में। घरि मोरे = मेरे घर में, मेरे में ही। ग्रिह भीतिरि = मेरे ही घर में, इसी काया में। जितु = जिस (वणज) से।4।
अर्थ: हे भाई! काया-स्त्री दोनों हाथ जोड़ती है और (जीवात्मा-पति के आगे) विनती करती है - हे प्यारे! (मुझे छोड़ के) किसी और देश में ना चले जाना, मेरे ही इस घर में टिके रहना। इसी घर में कोई ऐसा वव्यापार करता रह, जिससे मेरी भूख-प्यास मिटती रहे (मेरी जरूरतें पूरी होती रहें)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगले करम धरम जुग साधा ॥ बिनु हरि रस सुखु तिलु नही लाधा ॥ भई क्रिपा नानक सतसंगे तउ धन पिर अनंद उलासा हे ॥५॥
मूलम्
सगले करम धरम जुग साधा ॥ बिनु हरि रस सुखु तिलु नही लाधा ॥ भई क्रिपा नानक सतसंगे तउ धन पिर अनंद उलासा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगले = सारे। सगले जुग = सारे युगों में, सदा से ही। करम धरम साधा = निहित धार्मिक कर्म किए गए हैं। तिलु = रक्ती भर भी। लाधा = मिला। सतसंगे = साधु-संगत में। अनंद उलासा = आत्मिक आनंद।5।
अर्थ: पर, हे भाई! सदा से ही लोग निहित हुए धार्मिक कर्म करते आए हैं। हरि-नाम के स्वाद के बिना किसी को भी रक्ती भर सुख नहीं मिला। हे नानक! जब साधु-संगत में परमात्मा की कृपा होती है तब यह जीवात्मा और काया मिल के (नाम की इनायत से) आत्मिक आनंद लेते हैं।5।
[[1073]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन अंधी पिरु चपलु सिआना ॥ पंच ततु का रचनु रचाना ॥ जिसु वखर कउ तुम आए हहु सो पाइओ सतिगुर पासा हे ॥६॥
मूलम्
धन अंधी पिरु चपलु सिआना ॥ पंच ततु का रचनु रचाना ॥ जिसु वखर कउ तुम आए हहु सो पाइओ सतिगुर पासा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धन = काया (स्त्री)। अंधी = माया ग्रसित, माया के मोह में अंधी। पिरु = जीवात्मा पति। चपलु = चंचल। सिआना = चतुर। पंच ततु का रचनु = दुनिया वाली खेल। रचाना = खेल रहा है। वखरु कउ = नाम पदार्थ के लिए।6।
अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित काया की संगति में जीवात्मा चंचल चतुर हो के दुनिया की खेल ही, खेल रहा है। हे भाई! जिस (नाम-) पदार्थ की खातिर तुम जगत में आए हो, वह पदार्थ गुरु से ही मिलता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन कहै तू वसु मै नाले ॥ प्रिअ सुखवासी बाल गुपाले ॥ तुझै बिना हउ कित ही न लेखै वचनु देहि छोडि न जासा हे ॥७॥
मूलम्
धन कहै तू वसु मै नाले ॥ प्रिअ सुखवासी बाल गुपाले ॥ तुझै बिना हउ कित ही न लेखै वचनु देहि छोडि न जासा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै नाले = मेरे साथ। प्रिअ सुखवासी = हे सुखी रहते प्यारे! बाल गुपाले = हे लाडले सज्जन! हउ = मैं। कित ही लेखै = किस लायक? वचनु देहि = इकरार कर। न जासा = नहीं जाऊंगा।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कित ही’ में से ‘कितु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! काया (जीवात्मा को) कहती रहती है: हे प्यारे और सुखी रहने वाले लाडले पति! तू सदा मेरे साथ बसता रह। तेरे बिना मेरा कुछ भी मूल्य नहीं है। (मेरे साथ) इकरार कर कि मैं तुझे छोड़ के नहीं जाऊँगा।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिरि कहिआ हउ हुकमी बंदा ॥ ओहु भारो ठाकुरु जिसु काणि न छंदा ॥ जिचरु राखै तिचरु तुम संगि रहणा जा सदे त ऊठि सिधासा हे ॥८॥
मूलम्
पिरि कहिआ हउ हुकमी बंदा ॥ ओहु भारो ठाकुरु जिसु काणि न छंदा ॥ जिचरु राखै तिचरु तुम संगि रहणा जा सदे त ऊठि सिधासा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरि = पिर ने। हउ = मैं। काणि = डर। छंदा = अधीनता। जिचरु = जितना समय। सदे = बुलाए। जा = जब। सिधासा = मैं चला जाउँगा।8।
अर्थ: हे भाई! काया (जब भी काया-स्त्री ने यह तरला लिया, मिन्नतें की, तब ही) जीवात्मा-पति ने कहा- मैं तो (उस परमात्मा के) हुक्म में चलने वाला गुलाम हूँ। वह बहुत बड़ा मालिक है, उसको किसी का डर नहीं उसको किसी की अधीनता नहीं। जितने समय वह मुझे तेरे साथ रखेगा, मैं उतने ही समय तक तेरे साथ रह सकता हूँ। जब बुलाएगा, तब मैं उठ के चला जाऊँगा।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ प्रिअ बचन कहे धन साचे ॥ धन कछू न समझै चंचलि काचे ॥ बहुरि बहुरि पिर ही संगु मागै ओहु बात जानै करि हासा हे ॥९॥
मूलम्
जउ प्रिअ बचन कहे धन साचे ॥ धन कछू न समझै चंचलि काचे ॥ बहुरि बहुरि पिर ही संगु मागै ओहु बात जानै करि हासा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। कहे = कहता है। प्रिअ = प्यारा (जीवात्मा)। बहुरि बहुरि = बार बार। संगु = साथ। ओहु = (पुलिंग) जीवात्मा। हासा = मजाक।9
अर्थ: हे भाई! जब भी जीवात्मा ये सच्चे वचन काया-स्त्री को कहता है, वह चंचल और अक्ल की कच्ची कुछ भी नहीं समझती। वह बार-बार जीवात्मा पति का साथ ही माँगती है, और, जीवात्मा उसकी बात को मजाक समझ लेता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आई आगिआ पिरहु बुलाइआ ॥ ना धन पुछी न मता पकाइआ ॥ ऊठि सिधाइओ छूटरि माटी देखु नानक मिथन मोहासा हे ॥१०॥
मूलम्
आई आगिआ पिरहु बुलाइआ ॥ ना धन पुछी न मता पकाइआ ॥ ऊठि सिधाइओ छूटरि माटी देखु नानक मिथन मोहासा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआ पिरहु = प्रभु पति की ओर से हुक्म। मता = सलाह। ऊठि = उठ के। छूटरि = छोड़ी हुई। मिथन माहासा = मिथ्या मोह पसारा, मोह का झूठा पसारा।10।
अर्थ: हे भाई! जब पति-परमात्मा की ओर से हुक्म आता है, जब वह बुलावा भेजता है, जीवात्मा ना ही काया-स्त्री को पूछता है, ना ही उससे सलाह करता है। वह काया-मिट्टी को छोड़ के उठ के चल पड़ता है। हे नानक! देख, ये है मोह का झूठा पसारा।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन लोभी सुणि मन मेरे ॥ सतिगुरु सेवि दिनु राति सदेरे ॥ बिनु सतिगुर पचि मूए साकत निगुरे गलि जम फासा हे ॥११॥
मूलम्
रे मन लोभी सुणि मन मेरे ॥ सतिगुरु सेवि दिनु राति सदेरे ॥ बिनु सतिगुर पचि मूए साकत निगुरे गलि जम फासा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि = शरण पड़ा रह। सदेरे = सदा ही। पचि = (विकारों की आग में) जल के। मूए = आत्मिक मौत सहेड़ बैठे। साकत गलि = साकत के गले में, परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के गले में। जम फासा = जम की फंदा।11।
अर्थ: हे मेरे लोभी मन! (मेरी बात) सुन; दिन-रात सदा ही गुरु की शरण पड़ा रह। गुरु की शरण के बिना साकत निगुरे मनुष्य (विकारों की आग में) जल के आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं। उनके गले में जमराज का (ये) फंदा पड़ा रहता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखि आवै मनमुखि जावै ॥ मनमुखि फिरि फिरि चोटा खावै ॥ जितने नरक से मनमुखि भोगै गुरमुखि लेपु न मासा हे ॥१२॥
मूलम्
मनमुखि आवै मनमुखि जावै ॥ मनमुखि फिरि फिरि चोटा खावै ॥ जितने नरक से मनमुखि भोगै गुरमुखि लेपु न मासा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आवै = पैदा होता है। जावै = मरता है। खावै = खाता रहता है। से = वह (बहुवचन)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। लेपु = लबेड़, असर। मासा = रक्ती भी।12।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पैदा होता है मरता है, बार-बार जनम-मरण के इस चक्कर में चोटें खाता रहता है। मन का मुरीद सारे ही नर्कों के दुख भोगता है। पर गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य पर इनका रक्ती भर भी असर नहीं पड़ता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सोइ जि हरि जीउ भाइआ ॥ तिसु कउणु मिटावै जि प्रभि पहिराइआ ॥ सदा अनंदु करे आनंदी जिसु सिरपाउ पइआ गलि खासा हे ॥१३॥
मूलम्
गुरमुखि सोइ जि हरि जीउ भाइआ ॥ तिसु कउणु मिटावै जि प्रभि पहिराइआ ॥ सदा अनंदु करे आनंदी जिसु सिरपाउ पइआ गलि खासा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोइ = वही मनुष्य। जि = जो। भाइआ = अच्छा लगा। प्रभि = प्रभु ने। पहिराइआ = पहनाया, सिरोपाव दिया, सत्कार दिया। आनंदी = आनंद दाते को (मिल के)। जिसु गलि = जिसके गले में। सिरपाउ खासा = बढ़िया सिरोपाव।13।
अर्थ: हे भाई! उसी मनुष्य को गुरु के सन्मुख जानो जो परमात्मा को अच्छा लग गया। जिस (ऐसे) मनुष्य को परमात्मा ने स्वयं आदर-सत्कार दिया, उसकी इस शोभा को कोई मिटा नहीं सकता। जिस मनुष्य के गले में कर्तार की ओर से सुंदर (आदर-सम्मान) सिरोपाव पड़ गया, वह आनंद-स्वरूप परमात्मा के चरणों में जुड़ के सदा आत्मिक आनंद पाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ बलिहारी सतिगुर पूरे ॥ सरणि के दाते बचन के सूरे ॥ ऐसा प्रभु मिलिआ सुखदाता विछुड़ि न कत ही जासा हे ॥१४॥
मूलम्
हउ बलिहारी सतिगुर पूरे ॥ सरणि के दाते बचन के सूरे ॥ ऐसा प्रभु मिलिआ सुखदाता विछुड़ि न कत ही जासा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मैं पूरे गुरु से सदके जाता हूँ। गुरु शरण पड़े की सहायता करने योग्य है, गुरु शूरवीरों की तरह वचन पालने वाला है। (पूरे गुरु की मेहर से मुझे) ऐसा सुखों का दाता परमात्मा मिल गया है, कि उसके चरणों से विछुड़ के मैं और कहीं नहीं जाऊँगा।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण निधान किछु कीम न पाई ॥ घटि घटि पूरि रहिओ सभ ठाई ॥ नानक सरणि दीन दुख भंजन हउ रेण तेरे जो दासा हे ॥१५॥१॥२॥
मूलम्
गुण निधान किछु कीम न पाई ॥ घटि घटि पूरि रहिओ सभ ठाई ॥ नानक सरणि दीन दुख भंजन हउ रेण तेरे जो दासा हे ॥१५॥१॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं सूरे = शूरवीर, सूरमे। कीम = कीमत, कद्र। घटि घटि = हरेक शरीर में। सभ ठाई = सब जगहों में। दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख नाश करने वाले! हउ = मैं। रेण = चरण धूल।15।
अर्थ: हे गुणों के खजाने प्रभु! तेरी कीमत नहीं डाली जा सकती। तू सब जगह हरेक शरीर में व्यापक है। हे नानक! (कह:) हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मेहर कर, मैं उन (के चरणों) की धूल बना रहूँ जो तेरे दास हैं।15।1।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करै अनंदु अनंदी मेरा ॥ घटि घटि पूरनु सिर सिरहि निबेरा ॥ सिरि साहा कै सचा साहिबु अवरु नाही को दूजा हे ॥१॥
मूलम्
करै अनंदु अनंदी मेरा ॥ घटि घटि पूरनु सिर सिरहि निबेरा ॥ सिरि साहा कै सचा साहिबु अवरु नाही को दूजा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करै अनंदु = खुश हो रहा है। अनंदी = आनंद का मालिक परमात्मा। घटि घटि = हरेक घट में। पूरनु = व्यापक। सिर सिरहि = हरेक के सिर पर, हरेक के किए कर्मों के अनुसार। निबेरा = फैसला। सिरि साहा कै = शाहों के सिर पर। सचा = सदा कायम रहने वाला साहिबु = मालिक।1।
अर्थ: हे भाई! खुशियों का मालिक मेरा प्रभु (स्वयं ही हर जगह) खुशी मना रहा है। हरेक शरीर में वह व्यापक है। हरेक जीव के किए कर्मों के अनुसार फैसला करता है। (दुनिया के) बादशाहों के भी सिर पर वह सदा-स्थिर परमात्मा है। कोई और (उसके बराबर का) नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरखवंत आनंत दइआला ॥ प्रगटि रहिओ प्रभु सरब उजाला ॥ रूप करे करि वेखै विगसै आपे ही आपि पूजा हे ॥२॥
मूलम्
हरखवंत आनंत दइआला ॥ प्रगटि रहिओ प्रभु सरब उजाला ॥ रूप करे करि वेखै विगसै आपे ही आपि पूजा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरख = हर्ष, खुशी। हरखवंत = खुशी का मालिक। आनंत = अनंत, जिसका अंत नहीं पाया जा सकता। उजाला = रौशनी। प्रगटि रहिओ = प्रकट हो रहा है। करे करि = कर कर के। विगसै = खिल रहा है, खुश हो रहा है।2।
अर्थ: हे भाई! बेअंत परमात्मा खुशियों का मालिक है, दया का घर है। हर जगह प्रकट हो रहा है, सबमें वह ही (अपनी ज्योति का) प्रकाश कर रहा है। अनेक ही रूप बना-बना के (सबकी) संभाल कर रहा है, और प्रसन्न हो रहा है, (सबमें व्यापक है) स्वयं ही (अपनी) पूजा कर रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे कुदरति करे वीचारा ॥ आपे ही सचु करे पसारा ॥ आपे खेल खिलावै दिनु राती आपे सुणि सुणि भीजा हे ॥३॥
मूलम्
आपे कुदरति करे वीचारा ॥ आपे ही सचु करे पसारा ॥ आपे खेल खिलावै दिनु राती आपे सुणि सुणि भीजा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्व्यं ही यह कुदरति रचता है स्वयं ही इसकी संभाल करता है। वह सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही जगत-खिलारा बना रहा है। दिन-रात हर वक्त वह स्वयं ही (जीवों को) खेलें खिला रहा है। स्वयं ही (जीवों की प्रार्थनाएं, अरजोईयां) सुन-सुन के खुश होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा तखतु सची पातिसाही ॥ सचु खजीना साचा साही ॥ आपे सचु धारिओ सभु साचा सचे सचि वरतीजा हे ॥४॥
मूलम्
साचा तखतु सची पातिसाही ॥ सचु खजीना साचा साही ॥ आपे सचु धारिओ सभु साचा सचे सचि वरतीजा हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करे = कर के, रच के। वीचारा = ख्याल, संभाल। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। पसारा = जगत खिलारा। सुणि = सुन के। भीजा = प्रसन्न होता है, पतीज गया।3। सची = सदा कायम रहने वाली। खजीना = खजाना। साही = शाह। आपे सचु = सदा स्थिर है स्वयं ही। सभु = सारा जगत। सचे सचि = सदा स्थिर (हुक्म) से। वरतीजा = वरतण व्यवहार कर रहा है।4।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला शहनशाह है, उसका खजाना सदा कायम रहने वाला है, उसकी बादशाहियत सदा कायम रहने वाली है, उसका तख्त हमेशा कायम रहने वाला है। वह खुद ही सदा कायम रहने वाला है। सारे जगत को वह खुद ही सहारा देने वाला है। अपने सदा-स्थिर (नियमों के) द्वारा वह स्वयं ही जगत में वरतारा बरता रहा है।4।
[[1074]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु तपावसु सचे केरा ॥ साचा थानु सदा प्रभ तेरा ॥ सची कुदरति सची बाणी सचु साहिब सुखु कीजा हे ॥५॥
मूलम्
सचु तपावसु सचे केरा ॥ साचा थानु सदा प्रभ तेरा ॥ सची कुदरति सची बाणी सचु साहिब सुखु कीजा हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपावसु = न्याय। केरा = का। थानु = ठिकाना। प्रभ = हे प्रभु! बाणी = बनावट, नियम। सची = अटल नियमों वाली। साहिब = हे साहिब! कीजा = किया है।5।
अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर परमात्मा का न्याय भी अटल (अभूल) है। हे प्रभु! तेरा ठिकाना सदा कायम रहने वाला है। हे साहिब! तेरी रची हुई कदरति और (उसकी) संरचना (बणतर) अटल नियमों वाली है। तूने स्वयं ही (इस कुदरति में) अटल सुख पैदा किया हुआ है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको आपि तूहै वड राजा ॥ हुकमि सचे कै पूरे काजा ॥ अंतरि बाहरि सभु किछु जाणै आपे ही आपि पतीजा हे ॥६॥
मूलम्
एको आपि तूहै वड राजा ॥ हुकमि सचे कै पूरे काजा ॥ अंतरि बाहरि सभु किछु जाणै आपे ही आपि पतीजा हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वड = बड़ा। सचे कै हुकमि = सदा स्थिर प्रभु के हुक्म में। काजा = कार्य, जीवों के काम। पूरे = सिरे चढ़ते हैं। पतीजा = पतीजता है, संतुष्ट होता है।6।
अर्थ: हे प्रभु! सिर्फ तू स्वयं ही सबसे बड़ा राजा है। हे भाई! सदा स्थिर प्रभु के हुक्म अनुसार सब जीवों के काम सफल होते हैं। जो कुछ जीवों के अंदर घटित होता है जो कुछ बाहर सारे जगत में हो रहा है ये सब कुछ वह स्वयं ही जानता है, और संतुष्ट होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू वड रसीआ तू वड भोगी ॥ तू निरबाणु तूहै ही जोगी ॥ सरब सूख सहज घरि तेरै अमिउ तेरी द्रिसटीजा हे ॥७॥
मूलम्
तू वड रसीआ तू वड भोगी ॥ तू निरबाणु तूहै ही जोगी ॥ सरब सूख सहज घरि तेरै अमिउ तेरी द्रिसटीजा हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसीआ = रस आनंद भोगने वाला। भोगी = पदार्थों को भोगने वाला। निरबाणु = वासना रहित, निर्लिप। जोगी = विरक्त। सहज = आत्मिक अडोलता। घरि तेरै = तेरे घर में। अमिउ = अमृत। द्रिसटीजा = दृष्टि में।7।
अर्थ: हे प्रभु! (सबमें व्यापक हो के) तू सबसे बड़ा रस लेने वाला व भोग भोगने वाला है। (निराकार होते हुए) तू स्वयं ही वासना रहित जोगी है। हे प्रभु! आत्मिक अडोलता के सारे आनंद तेरे घर में मौजूद हैं, तेरी मेहर की निगाह में अमृत बस रहा है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी दाति तुझै ते होवै ॥ देहि दानु सभसै जंत लोऐ ॥ तोटि न आवै पूर भंडारै त्रिपति रहे आघीजा हे ॥८॥
मूलम्
तेरी दाति तुझै ते होवै ॥ देहि दानु सभसै जंत लोऐ ॥ तोटि न आवै पूर भंडारै त्रिपति रहे आघीजा हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुझै ते = तेरे से ही। देहि = तू देता है। लोऐ = लोगों को। तोटि = कमी। भंडारै = खजाने में। त्रिपति रहे आखीजा = पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं (सारे जीव)।8।
अर्थ: हे प्रभु! जितनी दाति तू दे रहा है यह तू ही दे सकता है। तू तो सारे लोकों में सब जीवों को दान दे रहा है। तेरे भरे हुए खजाने में कभी घाटा नहीं पड़ सकता। सारे ही जीव (तेरी दातों की इनायत से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाचहि सिध साधिक बनवासी ॥ जाचहि जती सती सुखवासी ॥ इकु दातारु सगल है जाचिक देहि दानु स्रिसटीजा हे ॥९॥
मूलम्
जाचहि सिध साधिक बनवासी ॥ जाचहि जती सती सुखवासी ॥ इकु दातारु सगल है जाचिक देहि दानु स्रिसटीजा हे ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचहि = याचना करते हैं, माँगते हैं (बहुवचन)। सिध = सिद्ध, योग साधना में निपुर्ण जोगी। साधिक = जोग साधना करने वाले। जती = काम-वासना से बचे रहने का प्रयत्न करने वाले। सती = विकारों से बचने का उद्यम करने वाले। सगल = सारी लुकाई। जाचिक = मांगने वाली। देहि = तू देता है।9।
अर्थ: हे प्रभु! जंगलों के वासी सिद्ध और साधिक (तेरे दर से ही) माँगते हैं। सुखी-रहने वाले जती और सती (भी तेरे दर से) माँगते हैं। तू एक दाता है, और सारी दुनिया (तेरे दर से) माँगने वाली है। तू सारी सृष्टि को दान देता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहि भगति अरु रंग अपारा ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ भारो तोलु बेअंत सुआमी हुकमु मंनि भगतीजा हे ॥१०॥
मूलम्
करहि भगति अरु रंग अपारा ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ भारो तोलु बेअंत सुआमी हुकमु मंनि भगतीजा हे ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = करते हैं। अरु = और। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश कर सकने वाला। मंनि = मान के। भगतीजा = भक्त बनते हैं।10।
अर्थ: हे भाई! (अनेक भक्त) बेअंत प्रभु की भक्ति करते हैं और आत्मिक आनंद पाते हैं। परमात्मा पैदा करके एक छिन में नाश करने की सामर्थ्य रखता है। वह मालिक बेअंत ताकत वाला है बेअंत है। (जीव) उसका हुक्म मान के उसके भक्त बनते हैं।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु देहि दरसु सोई तुधु जाणै ॥ ओहु गुर कै सबदि सदा रंग माणै ॥ चतुरु सरूपु सिआणा सोई जो मनि तेरै भावीजा हे ॥११॥
मूलम्
जिसु देहि दरसु सोई तुधु जाणै ॥ ओहु गुर कै सबदि सदा रंग माणै ॥ चतुरु सरूपु सिआणा सोई जो मनि तेरै भावीजा हे ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देहि = तू देता है। सोई = वही मनुष्य। तुधु जाणै = तेरे साथ सांझ डालता है। कै सबदि = के शब्द से। तेरै मनि = तेरे मन में।11।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू दर्शन देता है, वही तेरे साथ सांझ डालता है। गुरु के शब्द की इनायत से वह सदा आत्मिक आनंद पाता है। वही मनुष्य (दरअसल) समझदार है सुंदर है बुद्धिवान है, जो तेरे मन को अच्छा लगता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु चीति आवहि सो वेपरवाहा ॥ जिसु चीति आवहि सो साचा साहा ॥ जिसु चीति आवहि तिसु भउ केहा अवरु कहा किछु कीजा हे ॥१२॥
मूलम्
जिसु चीति आवहि सो वेपरवाहा ॥ जिसु चीति आवहि सो साचा साहा ॥ जिसु चीति आवहि तिसु भउ केहा अवरु कहा किछु कीजा हे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु चीति = जिस (मनुष्य) के चिक्त में। आवहि = तेरे साथ सांझ डालता है। वेपरवाहा = बेमुथाज। साचा साहा = सच्चा शाह, सदा कायम रहने वाले (नाम-) धन का मालिक। भउ केहा = कैसा डर? कोई डर नहीं (रह जाता)।12।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के चिक्त में तू आ बसता है उसको किसी की अधीनता नहीं रहती, वह सदा कायम रहने वाले (नाम-) धन का मालिक बन जाता है, उसको किसी तरह का कोई डर नहीं रह जाता, कोई भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना बूझी अंतरु ठंढा ॥ गुरि पूरै लै तूटा गंढा ॥ सुरति सबदु रिद अंतरि जागी अमिउ झोलि झोलि पीजा हे ॥१३॥
मूलम्
त्रिसना बूझी अंतरु ठंढा ॥ गुरि पूरै लै तूटा गंढा ॥ सुरति सबदु रिद अंतरि जागी अमिउ झोलि झोलि पीजा हे ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरु = हृदय (शब्द ‘अंतरु’ और अंतरि’ में फर्क है)। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। तूटा लै = (प्रभु से) टूटे हुए को पकड़ के। गंढा = (प्रभु के साथ फिर) जोड़ दिया। रिद अंतरि = हृदय में। जागी = जाग उठी, पैदा हो गई। ‘सुरति….जागी’ = गुरु के शब्द को तवज्जो में (टिकाने की सूझ उस मनुष्य के) दिल में जाग उठी। अमिउ = अमृत। झोलि = हिला के, स्वाद से।13।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु से) टूटे हुए जिस मनुष्य को पकड़ के पूरे गुरु ने (दोबारा प्रभु के संग) जोड़ दिया, उसकी तृष्णा (की आग) बुझ गई उसका हृदय शांत हो गया। गुरु के शब्द को तवज्जो में (टिकाने की सूझ उस मनुष्य के) हृदय में जाग उठी। वह मनुष्य बड़े स्वाद से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरै नाही सद सद ही जीवै ॥ अमरु भइआ अबिनासी थीवै ॥ ना को आवै ना को जावै गुरि दूरि कीआ भरमीजा हे ॥१४॥
मूलम्
मरै नाही सद सद ही जीवै ॥ अमरु भइआ अबिनासी थीवै ॥ ना को आवै ना को जावै गुरि दूरि कीआ भरमीजा हे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। सद सद ही = सदा ही सदा ही। जीवै = आत्मिक जीवन जीता है। अमरु = अटल आत्मिक जीवन वाला। थीवै = हो जाता है। गुरि = गुरु ने।14।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने जिस मनुष्य की भटकना दूर कर दी, वह आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता, वह सदा ही आत्मिक जीवन जीता है। वह अटल आत्मिक जीवन वाला हो जाता है, उसको मौत का सहम नहीं व्यापता। ऐसा मनुष्य जनम-मरण के चक्र से बच जाता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरे गुर की पूरी बाणी ॥ पूरै लागा पूरे माहि समाणी ॥ चड़ै सवाइआ नित नित रंगा घटै नाही तोलीजा हे ॥१५॥
मूलम्
पूरे गुर की पूरी बाणी ॥ पूरै लागा पूरे माहि समाणी ॥ चड़ै सवाइआ नित नित रंगा घटै नाही तोलीजा हे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरै = पूरे प्रभु में। लागा = लगा, जुड़ा हुआ। महि = में। चढ़ै = चढ़ता है। सवारिआ रंगा = ज्यादा प्रेम रंग। घटै = घटता। तोलीजा = तौलने से, पड़ताल करने से।15।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु की पूरी वाणी से पूर्ण परमात्मा की याद में जुड़ता है, वह उसमें समाया रहता है। परमात्मा के प्रेम का रंग (उसके दिल में) सदा ही बढ़ता रहता है, पड़ताल करने से वह कभी भी कम नहीं होता।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बारहा कंचनु सुधु कराइआ ॥ नदरि सराफ वंनी सचड़ाइआ ॥ परखि खजानै पाइआ सराफी फिरि नाही ताईजा हे ॥१६॥
मूलम्
बारहा कंचनु सुधु कराइआ ॥ नदरि सराफ वंनी सचड़ाइआ ॥ परखि खजानै पाइआ सराफी फिरि नाही ताईजा हे ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बारहा = बारह तरह का, पूरे बारह मासे तोल में बिकने वाला। कंचनु = सोना। सुधु = शुद्ध, खरा। वंनीस = सुंदर रंग वाला, वंन सवन्ना। नदरि सराफ चढ़ाइआ = सर्राफ की नजर में चढ़ जाता है, सर्राफ की नजर में स्वीकार हो जाता है। परखि = परख के।16।
अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य बारह वंनी के (शुद्ध) सोने जैसा खरा हो जाता है, वह सुंदर रंग वाला (सुंदर आत्मिक जीवन वाला) गुरु-सर्राफ की नज़रों में स्वीकार हो जाता है। (जैसे शुद्ध सोने को) सर्राफ परख के खजाने में डाल लेते हैं, और उसको फिर परखने के लिए भट्ठी में डाला नहीं जाता (इस तरह वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में स्वीकार हो जाता है)।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु तुमारा सुआमी ॥ नानक दास सदा कुरबानी ॥ संतसंगि महा सुखु पाइआ देखि दरसनु इहु मनु भीजा हे ॥१७॥१॥३॥
मूलम्
अम्रित नामु तुमारा सुआमी ॥ नानक दास सदा कुरबानी ॥ संतसंगि महा सुखु पाइआ देखि दरसनु इहु मनु भीजा हे ॥१७॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। सुआमी = हे स्वामी! संत संगि = संत (गुरु) की संगति में। देखि = देख के।17।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे मालिक प्रभु! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। तेरे दास तुझसे सदा सदके जाते हैं। गुरु की संगति में रह के वह बहुत आत्मिक आनंद पाते हैं, (तेरा) दर्शन करके उनका ये मन (तेरे नाम-रस में) भीगा रहता है।17।1।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ सोलहे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ सोलहे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु गोपालु गुरु गोविंदा ॥ गुरु दइआलु सदा बखसिंदा ॥ गुरु सासत सिम्रिति खटु करमा गुरु पवित्रु असथाना हे ॥१॥
मूलम्
गुरु गोपालु गुरु गोविंदा ॥ गुरु दइआलु सदा बखसिंदा ॥ गुरु सासत सिम्रिति खटु करमा गुरु पवित्रु असथाना हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपालु = (गो = सृष्टि) सृष्टि का पालनहार। गोविंदा = सृष्टि के जीवों की दिल की जानने वाला। दइआलु = दया का घर। खटु करमा = ब्राहमणों के लिए शास्त्रों में बताए हुए छह उत्तम धार्मिक कर्म: दान देना, दान लेना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना, विद्या पढ़नी और विद्या पढ़ानी। असथाना = जगह, तीर्थ।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के सेवक के लिए) गुरु गोपाल (का रूप) है, गुरु गोविंद (का रूप) है। गुरु दया का श्रोत है, गुरु सदा बख्शिश करने वाला है। (सेवक के लिए) गुरु (ही) शास्त्र है, स्मृति है, छह धार्मिक कर्म है; गुरु ही पवित्र तीर्थ है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सिमरत सभि किलविख नासहि ॥ गुरु सिमरत जम संगि न फासहि ॥ गुरु सिमरत मनु निरमलु होवै गुरु काटे अपमाना हे ॥२॥
मूलम्
गुरु सिमरत सभि किलविख नासहि ॥ गुरु सिमरत जम संगि न फासहि ॥ गुरु सिमरत मनु निरमलु होवै गुरु काटे अपमाना हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए, याद करते हुए। सभि = सारेक। किलविख = पाप (बहुवचन)। जम संगि = जमराज की संगति में। अपमाना = निरादरी।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु को (हर वक्त) याद करते हुए सारे पाप नाश हो जाते हैं, गुरु को याद करते हुए (जीव) जम की फाँसी में नहीं फसते (आत्मिक मौत से बचे रहते हैं)। गुरु को याद करते हुए मन पवित्र हो जाता है, (और इस तरह) गुरु मनुष्य को (लोक-परलोक की) निरादरी से बचा लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सेवकु नरकि न जाए ॥ गुर का सेवकु पारब्रहमु धिआए ॥ गुर का सेवकु साधसंगु पाए गुरु करदा नित जीअ दाना हे ॥३॥
मूलम्
गुर का सेवकु नरकि न जाए ॥ गुर का सेवकु पारब्रहमु धिआए ॥ गुर का सेवकु साधसंगु पाए गुरु करदा नित जीअ दाना हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नरकि = नर्क में। संगु = साथ। जीअ दाना = आत्मिक जीवन की दाति।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु का सेवक नर्क में नहीं पड़ता, (क्योंकि) गुरु का सेवक परमात्मा का स्मरण करता रहता है। गुरु का सेवक साधु-संगत (का मिलाप) हासिल कर लेता है, (साधु-संगत में) गुरु उसको सदा आत्मिक जीवन की दाति बख्शता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर दुआरै हरि कीरतनु सुणीऐ ॥ सतिगुरु भेटि हरि जसु मुखि भणीऐ ॥ कलि कलेस मिटाए सतिगुरु हरि दरगह देवै मानां हे ॥४॥
मूलम्
गुर दुआरै हरि कीरतनु सुणीऐ ॥ सतिगुरु भेटि हरि जसु मुखि भणीऐ ॥ कलि कलेस मिटाए सतिगुरु हरि दरगह देवै मानां हे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर दुआरै = गुरु के दर पर (रह के)। सुणीऐ = सुनना चाहिए। भेटि = मिलता है। मुखि = मुँह से। भणीऐ = उचारना चाहिए। कलि = कष्ट। मानां = आदर।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के दर पर रह के परमात्मा की महिमा सुननी चाहिए, हरि का यश मुँह से उच्चारण करना चाहिए (जिसको) गुरु मिल जाता है (वह मनुष्य सदा ये उद्यम करता है)। हे भाई! गुरु (मनुष्य के) सारे झगड़े-कष्ट मिटा देता है, गुरु मनुष्य को परमात्मा की हजूरी में आदर-सत्कार देता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगमु अगोचरु गुरू दिखाइआ ॥ भूला मारगि सतिगुरि पाइआ ॥ गुर सेवक कउ बिघनु न भगती हरि पूर द्रिड़्हाइआ गिआनां हे ॥५॥
मूलम्
अगमु अगोचरु गुरू दिखाइआ ॥ भूला मारगि सतिगुरि पाइआ ॥ गुर सेवक कउ बिघनु न भगती हरि पूर द्रिड़्हाइआ गिआनां हे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मारगि = (सही जीवन-) राह पर। सतिगुरि = गुरु ने। कउ = को। बिघनु = रुकावट। भगती = भक्ति के कारण। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का किया। गिआन = परमात्मा के साथ गहरी सांझ।5।
अर्थ: हे भाई! कुमार्ग पर जा रहे मनुष्य को गुरु ने ही (सदा) सही जीवन-राह पर डाला है, गुरु ने ही उसको अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर परमात्मा के दर्शन करवाए हैं। भक्ति की इनायत से गुरु के सेवक के जीवन-सफर में कोई रुकावट नहीं पड़ती गुरु ही पूर्ण परमात्मा के साथ गहरी सांझ सेवक के हृदय में पक्की करता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि द्रिसटाइआ सभनी ठांई ॥ जलि थलि पूरि रहिआ गोसाई ॥ ऊच ऊन सभ एक समानां मनि लागा सहजि धिआना हे ॥६॥
मूलम्
गुरि द्रिसटाइआ सभनी ठांई ॥ जलि थलि पूरि रहिआ गोसाई ॥ ऊच ऊन सभ एक समानां मनि लागा सहजि धिआना हे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। द्रिसटाइआ = दिखा दिया। जलि = जल में। थलि = धरती में। पूरि रहिआ = व्यापक हो के। गोसाई = सृष्टि का मालिक प्रभु। ऊन = खाली। मनि = मन में। सहजि = आत्मिक अडोलता से।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (ही सेवक को परमात्मा) सब जगह बसता दिखाया है (और बताया है कि) सृष्टि का मालिक जल में धरती में (हर जगह) व्यापक है, ऊँची और खाली सब जगहों पर एक समान ही व्यापक है। (गुरु के माध्यम से ही सेवक के) मन में आत्मिक अडोलता की इनायत से प्रभु-चरणों में तवज्जो जुड़ती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि मिलिऐ सभ त्रिसन बुझाई ॥ गुरि मिलिऐ नह जोहै माई ॥ सतु संतोखु दीआ गुरि पूरै नामु अम्रितु पी पानां हे ॥७॥
मूलम्
गुरि मिलिऐ सभ त्रिसन बुझाई ॥ गुरि मिलिऐ नह जोहै माई ॥ सतु संतोखु दीआ गुरि पूरै नामु अम्रितु पी पानां हे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। नह जोहै = देख नहीं सकती, घूर नहीं सकती। माई = माया। सतु संतोखु = सेवा और संतोख। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। पानां = पिलाता है।7।
अर्थ: यदि मनुष्य को गुरु मिल जाए तो वह (मनुष्य के अंदर से) सारी तृष्णा (की आग) बुझा देता है, मनुष्य पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। (जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने सत और संतोख बख्शा,) वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल खुद पीता है व और लोगों को भी पिलाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की बाणी सभ माहि समाणी ॥ आपि सुणी तै आपि वखाणी ॥ जिनि जिनि जपी तेई सभि निसत्रे तिन पाइआ निहचल थानां हे ॥८॥
मूलम्
गुर की बाणी सभ माहि समाणी ॥ आपि सुणी तै आपि वखाणी ॥ जिनि जिनि जपी तेई सभि निसत्रे तिन पाइआ निहचल थानां हे ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ माहि समाणी = सब जीवों के हृदय में टिकने योग्य है। तै = और। जिनि जिनि = जिस जिस ने। तेई सभि = वह सारे ही। निसत्रे = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए। तिन = उन्होंने (बहुवचन)।8।
अर्थ: हे भाई! गुरु की वाणी सब जीवों के हृदय में टिकने योग्य है, गुरु ने (परमात्मा से) खुद सुनी और (दुनिया के जीवों को) खुद सुनाई है। जिस जिस मनुष्य ने यह वाणी हृदय में बसाई है, वह सारे संसार-समुंदर से पार लांघ गए, उन्होंने वह आत्मिक ठिकाना हासिल कर लिया है जो (माया के प्रभाव तहत) डोलता नहीं है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर की महिमा सतिगुरु जाणै ॥ जो किछु करे सु आपण भाणै ॥ साधू धूरि जाचहि जन तेरे नानक सद कुरबानां हे ॥९॥१॥४॥
मूलम्
सतिगुर की महिमा सतिगुरु जाणै ॥ जो किछु करे सु आपण भाणै ॥ साधू धूरि जाचहि जन तेरे नानक सद कुरबानां हे ॥९॥१॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, बड़ा जिगरा। भाणै = रजा में। साधू धूरि = गुरु की चरण धूल। जाचहि = मांगते हैं (बहुवचन)। सद = सदा।9।
अर्थ: हे भाई! गुरु की उच्च-आत्मिकता गुरु (ही) जानता है (गुरु ही जानता है कि परमात्मा) जो कुछ करता है अपनी रजा में करता है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे सेवक गुरु के चरणों की धूल माँगते हैं और (गुरु से) सदा सदके जाते हैं।9।1।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि निरंजनु प्रभु निरंकारा ॥ सभ महि वरतै आपि निरारा ॥ वरनु जाति चिहनु नही कोई सभ हुकमे स्रिसटि उपाइदा ॥१॥
मूलम्
आदि निरंजनु प्रभु निरंकारा ॥ सभ महि वरतै आपि निरारा ॥ वरनु जाति चिहनु नही कोई सभ हुकमे स्रिसटि उपाइदा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = (सब का) आरम्भ। निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = सुरमा, माया के मोह की कालिख) माया के प्रभाव से रहित। निरंकारा = निर+आकार, जिसका कोई खास स्वरूप बताया ना जा सके। निरारा = निराला, अलग। वरनु = रंग। चिहनु = चिन्ह, निशान। हुकमे = हुक्म से।1।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा, जो सबका मूल है जो माया के प्रभाव से रहित हैऔर जिसका कोई खास स्वरूप बताया नहीं जा सकता, सब जीवों में मौजूद है, और फिर भी निर्लिप रहता है। उस का कोई (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण नहीं, कोई जाति नहीं, कोई चिन्ह नहीं। वह अपने हुक्म अनुसार ही सारी सृष्टि पैदा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख चउरासीह जोनि सबाई ॥ माणस कउ प्रभि दीई वडिआई ॥ इसु पउड़ी ते जो नरु चूकै सो आइ जाइ दुखु पाइदा ॥२॥
मूलम्
लख चउरासीह जोनि सबाई ॥ माणस कउ प्रभि दीई वडिआई ॥ इसु पउड़ी ते जो नरु चूकै सो आइ जाइ दुखु पाइदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबाई = सारी। माणस कउ = मनुष्य जन्म को। प्रभि = प्रभु ने। दीई = दी है। ते = से। चूकै = चूक जाता है। आइ जाइ = जनम मरण के चक्कर में पड़ के।2।
अर्थ: हे भाई! सारी चौरासी लाख जूनियों में से परमात्मा ने मानव जनम को बड़ाई दी है। पर जो मनुष्य इस सीढ़ी पर से भटक जाता है, वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ कर दुख भोगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीता होवै तिसु किआ कहीऐ ॥ गुरमुखि नामु पदारथु लहीऐ ॥ जिसु आपि भुलाए सोई भूलै सो बूझै जिसहि बुझाइदा ॥३॥
मूलम्
कीता होवै तिसु किआ कहीऐ ॥ गुरमुखि नामु पदारथु लहीऐ ॥ जिसु आपि भुलाए सोई भूलै सो बूझै जिसहि बुझाइदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीता = प्रभु का किया हुआ। तिसु किआ कहीऐ = उसकी बड़ाई करनी व्यर्थ है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। लहीऐ = हासिल करना चाहिए। भुलाए = गलत राह पर डाल दे। जिसहि = जिसु ही।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के पैदा किए हुए की बड़ाई करना व्यर्थ है (परमात्मा की महिमा करनी चाहिए) गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का कीमती नाम प्राप्त करना चाहिए। (पर जीव के वश की बात नहीं है) जिस मनुष्य को परमात्मा खुद गलत रास्ते पर डाल देता है, वह मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। वह मनुष्य ही सही जीवन-राह समझता है जिसको परमात्मा खुद समझाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरख सोग का नगरु इहु कीआ ॥ से उबरे जो सतिगुर सरणीआ ॥ त्रिहा गुणा ते रहै निरारा सो गुरमुखि सोभा पाइदा ॥४॥
मूलम्
हरख सोग का नगरु इहु कीआ ॥ से उबरे जो सतिगुर सरणीआ ॥ त्रिहा गुणा ते रहै निरारा सो गुरमुखि सोभा पाइदा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरख = खुशी। सोग = ग़मी। नगरु = शरीर शहर। से = वह (बहुवचन)। उबरे = (माया के प्रभाव से) बच जाते हैं। ते = से। निरारा = निराला, बचा हुआ।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने इस मनुष्य-शरीर को खुशी-ग़मी का नगर बना दिया है। वह मनुष्य ही (इनके प्रभाव से) बचते हैं जो गुरु की शरण पड़ते हैं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के माया के तीन गुणों से निराला रहता है वह (लोक परलोक में) शोभा कमाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक करम कीए बहुतेरे ॥ जो कीजै सो बंधनु पैरे ॥ कुरुता बीजु बीजे नही जमै सभु लाहा मूलु गवाइदा ॥५॥
मूलम्
अनिक करम कीए बहुतेरे ॥ जो कीजै सो बंधनु पैरे ॥ कुरुता बीजु बीजे नही जमै सभु लाहा मूलु गवाइदा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जो (भी कर्म)। कीजै = किया जाए। बंधनु = फाही। पैरे = पैरों में। कुरुता = कु+ऋतु का, बेऋतु के, बे बहारा। जंमै = उगता। लाहा = कमाई। मूल = राशि-पूंजी।5।
अर्थ: हे भाई! (नाम स्मरण के बिना तीर्थ-स्नान आदि भले ही) अनेक बहुत सारे (निहित हुए धार्मिक) कर्म किए जाएं, जो भी ऐसा कर्म किया जाता है, वह इस जीवन-सफर में मनुष्य के पैरों में फंदा बनता है। (मनुष्य के आत्मिक जीवन के लिए हरि-नाम के नाम-जपने की आवश्यक्ता है। और-और कर्म यूँ ही व्यर्थ हैं, जैसे,) बे-ऋतु में (बहार के बिना) बीजा हुआ बीज उगता नहीं। मनुष्य कमाई भी गवाता है और राशि-पूंजी भी गवाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलजुग महि कीरतनु परधाना ॥ गुरमुखि जपीऐ लाइ धिआना ॥ आपि तरै सगले कुल तारे हरि दरगह पति सिउ जाइदा ॥६॥
मूलम्
कलजुग महि कीरतनु परधाना ॥ गुरमुखि जपीऐ लाइ धिआना ॥ आपि तरै सगले कुल तारे हरि दरगह पति सिउ जाइदा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परधाना = सबसे श्रेष्ठ कर्म। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। लाइ धिआना = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। तरै = (संसार समुंदर से) पार लांघता है। दरगाह = हजूरी में। पति = इज्जत।6।
अर्थ: हे भाई! (जुगों का बटवारा करने वालों के अनुसार भी) कलियुग में कीर्तन ही प्रधान कर्म है। (वैसे तो सदा ही) गुरु की शरण पड़ कर तवज्जो जोड़ के परमात्मा का नाम जपना चाहिए। (जो मनुष्य जपता है) वह खुद (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है, अपनी सारी कुलों को पार लंघा लेता है, और परमात्मा की हजूरी में इज्जत से जाता है।6।
[[1076]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
खंड पताल दीप सभि लोआ ॥ सभि कालै वसि आपि प्रभि कीआ ॥ निहचलु एकु आपि अबिनासी सो निहचलु जो तिसहि धिआइदा ॥७॥
मूलम्
खंड पताल दीप सभि लोआ ॥ सभि कालै वसि आपि प्रभि कीआ ॥ निहचलु एकु आपि अबिनासी सो निहचलु जो तिसहि धिआइदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीप = टापू। सभि = सारे। लोआ = लोक, मण्डल। कालै वसि = काल के वश में। प्रभि = प्रभु ने। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। अबिनासी = नाश रहित। तिसहि = तिसु ही।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! ये जितने भी खंड-मण्डल-पाताल-द्वीप हैं, ये सारे परमात्मा ने खुद ही काल के अधीन रखे हुए हैं। नाश-रहित प्रभु खुद ही सदा कायम रहने वाला है, जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है वह भी अटल जीवन वाला हो जाता है। (जनम-मरण के चक्कर से बच जाता है)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का सेवकु सो हरि जेहा ॥ भेदु न जाणहु माणस देहा ॥ जिउ जल तरंग उठहि बहु भाती फिरि सललै सलल समाइदा ॥८॥
मूलम्
हरि का सेवकु सो हरि जेहा ॥ भेदु न जाणहु माणस देहा ॥ जिउ जल तरंग उठहि बहु भाती फिरि सललै सलल समाइदा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवकु = भक्त। भेदु = फर्क, दूरी। माणस देहा = मनुष्य का शरीर। जल तरंग = पानी की लहरें। उठहि = उठती हैं (बहुवचन)। सललै = पानी में। सलल = पानी।8।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाला मनुष्य परमात्मा जैसा ही हो जाता है। उस का मनुष्य का शरीर (देख के परमात्मा से उसका) फर्क ना समझो। (स्मरण करने वाला मनुष्य इस तरह ही है) जैसे कई किस्मों की पानी की लहरें उठती हैं, दोबारा पानी में ही पानी मिल जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकु जाचिकु मंगै दानु दुआरै ॥ जा प्रभ भावै ता किरपा धारै ॥ देहु दरसु जितु मनु त्रिपतासै हरि कीरतनि मनु ठहराइदा ॥९॥
मूलम्
इकु जाचिकु मंगै दानु दुआरै ॥ जा प्रभ भावै ता किरपा धारै ॥ देहु दरसु जितु मनु त्रिपतासै हरि कीरतनि मनु ठहराइदा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचिकु = भिखारी (एकवचन)। दुआरै = दर पे (खड़ा)। जा = या, जब। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छा लगे। जितु = जिस (दर्शन) से। त्रिपतासै = तृप्त हो जाता है। कीरतनि = कीरतन से।9।
अर्थ: (प्रभु का दास) एक मँगता (बन के उसके) दर पर (खड़ा उसके दर्शनों की) ख़ैर माँगता है। जब प्रभु की रजा होती है तब वह किरपा करता है। (यूँ माँगता जाता है: हे प्रभु!) अपने दर्शन दे, जिसकी इनायत से मन (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है और महिमा में टिक जाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूड़ो ठाकुरु कितै वसि न आवै ॥ हरि सो किछु करे जि हरि किआ संता भावै ॥ कीता लोड़नि सोई कराइनि दरि फेरु न कोई पाइदा ॥१०॥
मूलम्
रूड़ो ठाकुरु कितै वसि न आवै ॥ हरि सो किछु करे जि हरि किआ संता भावै ॥ कीता लोड़नि सोई कराइनि दरि फेरु न कोई पाइदा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर। कितै = किसी तरीके से। वसि = वश में। जि = जो कुछ। कीता लोड़नि = करना चाहते हैं। कराइनि = करा लेते हैं। दरि = दर से। फेरु = रुकावट।10।
अर्थ: हे भाई! सुंदर प्रभु किसी तरीके से वश में नहीं आता पर जो कुछ उसके संत चाहते हैं वह वही कुछ कर देता है। (प्रभु के संत जन जो कुछ) करना चाहते हैं वही कुछ प्रभु से करवा लेते हैं। प्रभु के दर पे उनके रास्ते में कोई रुकावट नहीं डाल सकता।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिथै अउघटु आइ बनतु है प्राणी ॥ तिथै हरि धिआईऐ सारिंगपाणी ॥ जिथै पुत्रु कलत्रु न बेली कोई तिथै हरि आपि छडाइदा ॥११॥
मूलम्
जिथै अउघटु आइ बनतु है प्राणी ॥ तिथै हरि धिआईऐ सारिंगपाणी ॥ जिथै पुत्रु कलत्रु न बेली कोई तिथै हरि आपि छडाइदा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउघट = मुश्किल। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। सारिंगपाणी = धर्नुधारी प्रभु (सारिंग = धनुष। पानी = पाणि, हाथ)। कलत्र = स्त्री।11।
अर्थ: हे प्राणी! (जीवन-सफर में) जहाँ भी कोई मुश्किल आ बनती है, वहीं धर्नुधारी प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए। जहाँ ना पुत्र ना स्त्री कोई भी साथी नहीं बन सकता, वहाँ प्रभ स्वयं (मुश्किलों से) छुड़ा लेता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडा साहिबु अगम अथाहा ॥ किउ मिलीऐ प्रभ वेपरवाहा ॥ काटि सिलक जिसु मारगि पाए सो विचि संगति वासा पाइदा ॥१२॥
मूलम्
वडा साहिबु अगम अथाहा ॥ किउ मिलीऐ प्रभ वेपरवाहा ॥ काटि सिलक जिसु मारगि पाए सो विचि संगति वासा पाइदा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाहा = गहरा। वेपरवाह = बेमुथाज। काटि = काट के। सिलक = फाही। मारगि = (सही) रास्ते पर।12।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, अथाह है, बड़ा मालिक है। उस बेमुहताज को जीव अपने उद्यम से नहीं मिल सकता। वह प्रभु स्वयं ही जिस मनुष्य को (माया के मोह की) फाँसी काट के सही जीवन-राह पर डालता है, वह मनुष्य साधु-संगत में आ टिकता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु बूझै सो सेवकु कहीऐ ॥ बुरा भला दुइ समसरि सहीऐ ॥ हउमै जाइ त एको बूझै सो गुरमुखि सहजि समाइदा ॥१३॥
मूलम्
हुकमु बूझै सो सेवकु कहीऐ ॥ बुरा भला दुइ समसरि सहीऐ ॥ हउमै जाइ त एको बूझै सो गुरमुखि सहजि समाइदा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूझै = (जो मनुष्य) समझ लेता है। कहीऐ = कहा जाता है। दुइ = दोनों। समसरि = बराबर, एक समान। सहीऐ = सहना चाहिए। जाइ = जाती है। त = तब। एको बूझै = एक परमात्मा को ही सब कुछ करने कराने वाला समझता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में।13।
अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य परमात्मा का भक्त कहा जाता है, जो (हरेक हो रही कार को परमात्मा की) समझता है (और, यह निश्चय रखता है कि) दुख (आए चाहे) सुख, दोनों को एक समान सहना चाहिए। पर मनुष्य तब ही सिर्फ परमात्मा को सब कुछ करने-कराने में समर्थ समझता है जब उसके अंदर से अहंकार दूर होता है। वह मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के भगत सदा सुखवासी ॥ बाल सुभाइ अतीत उदासी ॥ अनिक रंग करहि बहु भाती जिउ पिता पूतु लाडाइदा ॥१४॥
मूलम्
हरि के भगत सदा सुखवासी ॥ बाल सुभाइ अतीत उदासी ॥ अनिक रंग करहि बहु भाती जिउ पिता पूतु लाडाइदा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुख वासी = आत्मिक आनंद में टिके रहने वाले। बाल सुभाइ = बालक जैसे स्वभाव में, वैर विरोध से परे रह के। अतीत = विरक्त। करहि = करते हैं। लाडाइदा = लाड कराता है।14।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा आत्मिक आनंद लेते हैं। वे सदा वैर-विरोध से परे रहते हैं, विरक्त और माया के मोह से ऊपर रहते हैं। जैसे पिता अपने पुत्र को कई लाड लडाता है, (वैसे ही भक्त प्रभु-पिता की गोद में रह के) कई तरह के अनेक आत्मिक रंग (का आनंद) लेते हैं।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥ गुरमुखि प्रगटु भइआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाइदा ॥१५॥
मूलम्
अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥ गुरमुखि प्रगटु भइआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाइदा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। जा = या, जब। गुरमुखि = गुरु से। जिन मसतकि = जिस के माथे पर। धुरि = धुर से, प्रभु के हुक्म अनुसार। लेखु = किए कर्मों के अनुसार भाग्यों में लिखे लेख।15।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। वह किसी भी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। उसे तभी मिला जा सकता है, जब वह स्वयं ही मिलाता है। गुरु के माध्यम से उन मनुष्यों के हृदय में प्रकट होता है जिनके माथे पर (पूर्बले संस्कारों के अनुसार) धुर से ही मिलाप का लेख लिखा होता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू आपे करता कारण करणा ॥ स्रिसटि उपाइ धरी सभ धरणा ॥ जन नानकु सरणि पइआ हरि दुआरै हरि भावै लाज रखाइदा ॥१६॥१॥५॥
मूलम्
तू आपे करता कारण करणा ॥ स्रिसटि उपाइ धरी सभ धरणा ॥ जन नानकु सरणि पइआ हरि दुआरै हरि भावै लाज रखाइदा ॥१६॥१॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = पैदा करने वाला। करणा = करण, जगत। कारण = मूल। धरी = आसरा दिया हुआ है। धरणा = धरती। हरि दुआरै = हरि के दर पे। हरि भावै = जो हरि को अच्छी लगे। लाज = इज्जत।16।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही पैदा करने वाला है, तू खुद ही जगत का मूल है। तूने स्वयं ही सृष्टि पैदा करके सारी धरती को सहारा दिया हुआ है।
हे भाई! दास नानक उसी प्रभु के दर पर (गिरा हुआ है, उसी की) शरण पड़ा हुआ है। उसकी अपनी रज़ा होती है तो (लोक-परलोक में जीव की) इज्जत रख लेता है।16।1।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो दीसै सो एको तूहै ॥ बाणी तेरी स्रवणि सुणीऐ ॥ दूजी अवर न जापसि काई सगल तुमारी धारणा ॥१॥
मूलम्
जो दीसै सो एको तूहै ॥ बाणी तेरी स्रवणि सुणीऐ ॥ दूजी अवर न जापसि काई सगल तुमारी धारणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीसै = दिख रहा है। एको तू है = सिर्फ तू ही तू है। बाणी = आवाज। स्रवणि = कानों से। सुणीऐ = सुनी जा रही है। अवर = और। सगल = सारी सृष्टि। धारणा = आसरा दिया हुआ है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘‘कोई’ पुलिंग है, और ‘काई’ स्त्रीलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सब कुछ सिर्फ तू ही तू है। (सब जीवों में सिर्फ तू ही बोल रहा है) तेरे ही बोल कानों से सुने जा रहे हैं। सारी सृष्टि तेरी ही रची हुई है, कोई भी चीज तुझसे अलग नहीं दिख रही।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि चितारे अपणा कीआ ॥ आपे आपि आपि प्रभु थीआ ॥ आपि उपाइ रचिओनु पसारा आपे घटि घटि सारणा ॥२॥
मूलम्
आपि चितारे अपणा कीआ ॥ आपे आपि आपि प्रभु थीआ ॥ आपि उपाइ रचिओनु पसारा आपे घटि घटि सारणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चितारे = संभाल करता है, ख्याल रखता है। कीआ = पैदा किया हुआ (जगत)। आपे = स्वयं ही। थीआ = (हर जगह मौजूद) है। उपाइ = पैदा करके। रचिओनु = उस (प्रभु) ने रचा है। पसारा = जगत खिलारा। घटि घटि = हरेक घट में। सारणा = सार लेता है।2।
अर्थ: हे भाई! अपने पैदा किए जगत की प्रभु स्वयं ही संभाल कर रहा है, हर जगह प्रभु स्वयं ही स्वयं है। प्रभु ने स्वयं ही अपने आप से पैदा करके ये जगत-पसारा रचा है। हरेक शरीर में स्वयं ही (व्यापक होके सबकी) सार लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि उपाए वड दरवारी ॥ इकि उदासी इकि घर बारी ॥ इकि भूखे इकि त्रिपति अघाए सभसै तेरा पारणा ॥३॥
मूलम्
इकि उपाए वड दरवारी ॥ इकि उदासी इकि घर बारी ॥ इकि भूखे इकि त्रिपति अघाए सभसै तेरा पारणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। दरवारी = दरबार वाले। उदासी = विरक्त। घरबारी = गृहस्थी। भूखे = तृष्णा के अधीन। त्रिपति अघाए = पूरी तौर पर तृप्त। सभसै = हरेक जीव को। पारणा = परना, आसरा।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तूने कई बड़े दरबारों वाले पैदा किए हैं, कई त्यागी और कई गृहस्थी बना दिए हैं। तूने कई तो ऐसे पैदा किए हैं जो सदा तृष्णा के अधीन रहते हैं, और कई पूरी तरह से तृप्त हैं। हरेक जीव को तेरा ही सहारा है।3।
[[1077]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सति सति सति साचा ॥ ओति पोति भगतन संगि राचा ॥ आपे गुपतु आपे है परगटु अपणा आपु पसारणा ॥४॥
मूलम्
आपे सति सति सति साचा ॥ ओति पोति भगतन संगि राचा ॥ आपे गुपतु आपे है परगटु अपणा आपु पसारणा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सत्य, सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। ओति पोति = ताने पेटे में (ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ)। संगि = साथ। राचा = रचा मिचा, मिला हुआ। गुपतु = छुपा हुआ। आपु = अपने आप को। पसारणा = खिरा हुआ है।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सिर्फ स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है। ताने-पेटे की तरह अपले भक्तों के साथ रचा-मिला रहता है। (जीवात्मा के रूप में हरेक जीव के अंदर) खुद ही छुपा हुआ है, यह दिखाई देता पसारा भी वह खुद ही है। (जगत-रूप में) उसने अपने आप को खुद ही खिलारा हुआ है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा सद होवणहारा ॥ ऊचा अगमु अथाहु अपारा ॥ ऊणे भरे भरे भरि ऊणे एहि चलत सुआमी के कारणा ॥५॥
मूलम्
सदा सदा सद होवणहारा ॥ ऊचा अगमु अथाहु अपारा ॥ ऊणे भरे भरे भरि ऊणे एहि चलत सुआमी के कारणा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। होवणहारा = कायम रह सकने वाला। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। ऊणे = कम। भरि = भर के। एहि = यह, वे। चलत = (बहुवचन) करिश्में।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा ही सदा ही जीवित रहने वाला है, (आत्मिक अवस्था में) वह बहुत ऊँचा है, अगम्य (पहुँच से परे) है, अथाह है, बेअंत है। उस मालिक प्रभु के ये करिश्मे-तमाशे हैं कि खाली (बर्तन) भर देता है और भरों को खाली कर देता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखि सालाही सचे साहा ॥ नैणी पेखा अगम अथाहा ॥ करनी सुणि सुणि मनु तनु हरिआ मेरे साहिब सगल उधारणा ॥६॥
मूलम्
मुखि सालाही सचे साहा ॥ नैणी पेखा अगम अथाहा ॥ करनी सुणि सुणि मनु तनु हरिआ मेरे साहिब सगल उधारणा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुँह से। सालाही = मैं महिमा करूँ। सचे साहा = हे सदा स्थिर शाह! नैणी = आँखों से। पेखा = देखूँ। करनी = कानों से। सुणि = सुन के। साहिब = हे साहिब! सगल = सारे जीव।6।
अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले पातशाह! (मेहर कर) मैं मुँह से तेरी महिमा करता रहूँ। हे अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह प्रभु! (कृपा कर, हर जगह) मैं (तुझे) आँखों से देखूँ। कानों से तेरी महिमा सुन-सुन के मेरा मन मेरा तन (आत्मिक जीवन से) हरा-भरा हुआ रहे। हे मेरे मालिक! तू सब जीवों का बेड़ा पार करने वाला है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि करि वेखहि कीता अपणा ॥ जीअ जंत सोई है जपणा ॥ अपणी कुदरति आपे जाणै नदरी नदरि निहालणा ॥७॥
मूलम्
करि करि वेखहि कीता अपणा ॥ जीअ जंत सोई है जपणा ॥ अपणी कुदरति आपे जाणै नदरी नदरि निहालणा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेखहि = तू देखता है, संभाल करता है। करि = (पैदा) करके। सोई = उस परमात्मा को ही। आपे = आप ही। नदरी = मेहर की निगाह वाला। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालणा = देखता है।7।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों को पैदा कर-कर के अपने पैदा किए हुओं की संभाल करने वाला है। हे भाई! सारे जीव-जंतु उसी विधाता को जपते हैं। अपनी कुदरति (पैदा करने की ताकत) को खुद ही जानता है। मेहर का मालिक प्रभु मेहर की निगाह से सबकी ओर देखता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत सभा जह बैसहि प्रभ पासे ॥ अनंद मंगल हरि चलत तमासे ॥ गुण गावहि अनहद धुनि बाणी तह नानक दासु चितारणा ॥८॥
मूलम्
संत सभा जह बैसहि प्रभ पासे ॥ अनंद मंगल हरि चलत तमासे ॥ गुण गावहि अनहद धुनि बाणी तह नानक दासु चितारणा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत सभा = साधसंगति। जह = जहाँ। बैसहि = बैठते हैं (बहुवचन)। प्रभ पासे = प्रभु के पास, प्रभु के चरणों में। मंगल = खुशियां। गावहि = गाते हैं। अनहदि धुनि = एक रस सुर से। तह = वहाँ। चितारणा = चेते करता है।8।
अर्थ: हे भाई! जिस साधु-संगत में (संत जन) प्रभु के चरणों में बैठते हैं, प्रभु के करिश्मों-तमाशों का जिकर करके आत्मिक आनंद खुशियाँ लेते हैं, और एक-रस सुर में वाणी के द्वारा प्रभु के गुण गाते हैं, (यदि प्रभु की मेहर हो तो) उस साधु-संगत में दास नानक भी उसके गुण अपने दिल में बसाए।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवणु जाणा सभु चलतु तुमारा ॥ करि करि देखै खेलु अपारा ॥ आपि उपाए उपावणहारा अपणा कीआ पालणा ॥९॥
मूलम्
आवणु जाणा सभु चलतु तुमारा ॥ करि करि देखै खेलु अपारा ॥ आपि उपाए उपावणहारा अपणा कीआ पालणा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवणु जाणा = (जीवों का) पैदा होना और मरना। चलतु = तमाशा, खेल। करि = पैदा कर के। अपारा = बेअंत प्रभु। उपावणहारा = पैदा करने की सामर्थ्य वाला। कीआ = पैदा किए हुए को।9।
अर्थ: हे प्रभु! (जीवों का) पैदा होने और मरना- ये सारा तेरा (रचा हुआ) खेल है। हे भाई! बेअंत प्रभु ये खेल कर कर के देख रहा है। पैदा करने की समर्थता वाला प्रभु स्वयं (जीवों को) पैदा करता है। अपने पैदा किए हुए (जीवों) को (स्वयं ही) पालता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि जीवा सोइ तुमारी ॥ सदा सदा जाई बलिहारी ॥ दुइ कर जोड़ि सिमरउ दिनु राती मेरे सुआमी अगम अपारणा ॥१०॥
मूलम्
सुणि सुणि जीवा सोइ तुमारी ॥ सदा सदा जाई बलिहारी ॥ दुइ कर जोड़ि सिमरउ दिनु राती मेरे सुआमी अगम अपारणा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि = सुन के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। सोइ = खबर, शोभा। जाई = मैं जाता हूँ। दुइ कर = दोनों हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। सिमरउ = स्मरण करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। अपारणा = हे अपार!।10।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी शोभा सुन-सुन के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ, मैं तुझसे सदा ही सदके जाता हूँ। हे मेरे अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत मालिक! (जब तेरी मेहर होती है) मैं दोनों हाथ जोड़ के दिन-रात तुझे स्मरण करता हूँ।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधु बिनु दूजे किसु सालाही ॥ एको एकु जपी मन माही ॥ हुकमु बूझि जन भए निहाला इह भगता की घालणा ॥११॥
मूलम्
तुधु बिनु दूजे किसु सालाही ॥ एको एकु जपी मन माही ॥ हुकमु बूझि जन भए निहाला इह भगता की घालणा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालाही = मैं सालाहूँ। जपी = जपूँ। माही = में। बूझि = समझ के। जन = प्रभु के सेवक। निहाला = प्रसन्न। घालणा = मेहनत, कमाई।11।
अर्थ: हे प्रभु! तुझे छोड़ के मैं किसी और की महिमा नहीं कर सकता। मैं अपने मन में सिर्फ एक तुझे ही जपता हूँ। तेरे सेवक तेरी रज़ा को समझ के सदा प्रसन्न रहते हैं - ये है तेरे भक्तों की घाल-कमाई।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर उपदेसि जपीऐ मनि साचा ॥ गुर उपदेसि राम रंगि राचा ॥ गुर उपदेसि तुटहि सभि बंधन इहु भरमु मोहु परजालणा ॥१२॥
मूलम्
गुर उपदेसि जपीऐ मनि साचा ॥ गुर उपदेसि राम रंगि राचा ॥ गुर उपदेसि तुटहि सभि बंधन इहु भरमु मोहु परजालणा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपदेसि = उपदेश से। जपीऐ = जपना चाहिए। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर प्रभु। रंगि = प्रेम रंग में। राचा = रच मिच जाता है। तूटहि = टूट जाते हैं (बहुवचन)। सभि = सारे। परजालणा = अच्छी तरह जल जाता है।12।
अर्थ: हे भाई! गुरु के उपदेश से मन में सदा-स्थिर प्रभु का नाम जपना चाहिए। गुरु के उपदेश पर चल के मन प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता है। हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से (मनुष्य के अंदर से माया-मोह के) सारे बंधन टूट जाते हैं। मनुष्य की यह भटकना, मनुष्य का यह मोह अच्छी तरह जल जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह राखै सोई सुख थाना ॥ सहजे होइ सोई भल माना ॥ बिनसे बैर नाही को बैरी सभु एको है भालणा ॥१३॥
मूलम्
जह राखै सोई सुख थाना ॥ सहजे होइ सोई भल माना ॥ बिनसे बैर नाही को बैरी सभु एको है भालणा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। राखै = (परमात्मा हमें) रखता है। सुख थाना = सुख देने वाली जगह। सहज = प्रभु की रजा में ही। भला = भला। माना = मानता है। बैर = (सारे) वैर। सभु = हर जगह। एको = एक परमात्मा को ही।13।
अर्थ: हे भाई! (‘अैसा को वडभागी आइआ’ जो ये निश्चय रखता है कि) जहाँ (परमात्मा हमें) रखता है वही (हमारे लिए) सुख देने वाली जगह है, (जो मनुष्य) जो कुछ रजा में हो रहा है उसको भलाई के लिए मानता है, (जिस मनुष्य के अंदर से) सारे वैर-विरोध मिट जाते हैं, (जिसको जगत में) कोई वैरी नहीं दिखता, (जो) हर जगह सिर्फ परमात्मा को ही देखता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डर चूके बिनसे अंधिआरे ॥ प्रगट भए प्रभ पुरख निरारे ॥ आपु छोडि पए सरणाई जिस का सा तिसु घालणा ॥१४॥
मूलम्
डर चूके बिनसे अंधिआरे ॥ प्रगट भए प्रभ पुरख निरारे ॥ आपु छोडि पए सरणाई जिस का सा तिसु घालणा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चूके = समाप्त हो गए। अंधिआरे = (आत्मिक जीवन की राह के) अंधेरे। निरारे = निराला, निर्लिप। आपु = स्वै भाव। छोडि = त्याग के। जिस का = जिस (प्रभु) का। सा = था, है। तिसु घालणा = उस (प्रभु के नाम) की घाल कमाई।14।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (‘अैसा को वडभागी आइआ’, जिसके अंदर से) सारे भय समाप्त हो जाते हैं, आत्मिक जीवन के रास्ते के सारे अंधेरे दूर हो जाते हैं, (जिसके अंदर) निर्लिप प्रभु प्रकट हो जाता है, (जो मनुष्य) स्वैभाव दूर करके परमात्मा की शरण पड़ता है, जिस प्रभु का पैदा किया हुआ है उसी (के स्मरण) की घाल-कमाई करता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा को वडभागी आइआ ॥ आठ पहर जिनि खसमु धिआइआ ॥ तिसु जन कै संगि तरै सभु कोई सो परवार सधारणा ॥१५॥
मूलम्
ऐसा को वडभागी आइआ ॥ आठ पहर जिनि खसमु धिआइआ ॥ तिसु जन कै संगि तरै सभु कोई सो परवार सधारणा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई (विरला) मनुष्य। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै संगि = के साथ, की संगति में। सभु कोई = हरेक जीव। सधारणा = आसरा देने वाला।15।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला ही ऐसा भाग्यशाली मनुष्य पैदा होता है, जो आठों पहर मालिक-प्रभु का नाम याद करता है। उस मनुष्य की संगति में (रह के) हरेक मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, वह मनुष्य अपने परिवार के लिए सहारा बन जाता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह बखसीस खसम ते पावा ॥ आठ पहर कर जोड़ि धिआवा ॥ नामु जपी नामि सहजि समावा नामु नानक मिलै उचारणा ॥१६॥१॥६॥
मूलम्
इह बखसीस खसम ते पावा ॥ आठ पहर कर जोड़ि धिआवा ॥ नामु जपी नामि सहजि समावा नामु नानक मिलै उचारणा ॥१६॥१॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बखसीस = दाति। ते = से। पावा = पाऊँ, हासिल करूँ। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। धिआवा = मैं स्मरण करता रहूँ। जपी = जपूँ। नामि = नाम में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावा = समाया रहूँ।16।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! अगर मेरे मालिक की मेरे ऊपर मेहर हो तो) मैं उस मालिक से ये दाति हासिल करूँ कि आठों पहर दोनों हाथ जोड़ के उसका नाम स्मरण करता रहूँ, उसका नाम जपता रहूँ, उसके नाम में आत्मिक अडोलता में लीन रहूँ, मुझे उसका नाम जपने की दाति मिली रहे।16।1।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ सूरति देखि न भूलु गवारा ॥ मिथन मोहारा झूठु पसारा ॥ जग महि कोई रहणु न पाए निहचलु एकु नाराइणा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ सूरति देखि न भूलु गवारा ॥ मिथन मोहारा झूठु पसारा ॥ जग महि कोई रहणु न पाए निहचलु एकु नाराइणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरति = शक्ल। देखि = देख के। गवारा = हे मूर्ख! मिथन = झूठा। मोहारा = मोह का। पसारा = खिलारा। निहचलु = सदा कायम रहने वाला।1।
अर्थ: हे मूर्ख! (जगत के पदार्थों की) सूरत देख के गलती ना खा। ये सारा झूठे मोह का झूठा पसारा है। जगत में कोई भी सदा के लिए टिका नहीं रह सकता, सिर्फ एक परमात्मा सदा कायम रहने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूरे की पउ सरणाई ॥ मोहु सोगु सभु भरमु मिटाई ॥ एको मंत्रु द्रिड़ाए अउखधु सचु नामु रिद गाइणा ॥२॥
मूलम्
गुर पूरे की पउ सरणाई ॥ मोहु सोगु सभु भरमु मिटाई ॥ एको मंत्रु द्रिड़ाए अउखधु सचु नामु रिद गाइणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु भरमु = हरेक किस्म का भ्रम। मिटाई = (गुरु) मिटाता है। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। अउखधु = दवा, औषधि। सचु = सदा स्थिर। रिद = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ा रह। गुरु (शरण पड़े मनुष्य का) मोह-सोग और सारा भ्रम मिटा देता है। गुरु एक ही उपदेश हृदय में बसाता है, एक ही दवाई देता है कि हृदय में सदा कायम रहने वाला हरि-नाम स्मरणा चाहिए।2।
[[1078]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु नामै कउ तरसहि बहु देवा ॥ सगल भगत जा की करदे सेवा ॥ अनाथा नाथु दीन दुख भंजनु सो गुर पूरे ते पाइणा ॥३॥
मूलम्
जिसु नामै कउ तरसहि बहु देवा ॥ सगल भगत जा की करदे सेवा ॥ अनाथा नाथु दीन दुख भंजनु सो गुर पूरे ते पाइणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु नामै कउ = जिस के नाम को। जा की = जिस प्रभु की। दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के नाम को अनेक देवते तरसते हैं, सारे ही भक्त जिस प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं, जो परमात्मा निखस्मों का खसम हैं, जो परमात्मा गरीबों के दुख नाश करने वाला है, वह परमात्मा पूरे गुरु से मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होरु दुआरा कोइ न सूझै ॥ त्रिभवण धावै ता किछू न बूझै ॥ सतिगुरु साहु भंडारु नाम जिसु इहु रतनु तिसै ते पाइणा ॥४॥
मूलम्
होरु दुआरा कोइ न सूझै ॥ त्रिभवण धावै ता किछू न बूझै ॥ सतिगुरु साहु भंडारु नाम जिसु इहु रतनु तिसै ते पाइणा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआरा = दरवाजा, दर। त्रिभवण = तीनों भवनों में। धावै = (जो) दौड़ता फिरे। भंडारु = खजाना। तिसै ते = उस (गुरु) से ही।4।
अर्थ: हे भाई! और कोई दर (ऐसा) नहीं सूझता (जहाँ से रतन-नाम मिल सके)। यदि मनुष्य तीनों भवनों में दौड़-भाग करता फिरे तो भी उसको नाम-रतन की कोई सूझ नहीं पड़ सकती। एक गुरु ही ऐसा शाह है जिसके पास नाम का खजाना है। उस गुरु से नाम-रतन मिल सकता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा की धूरि करे पुनीता ॥ सुरि नर देव न पावहि मीता ॥ सति पुरखु सतिगुरु परमेसरु जिसु भेटत पारि पराइणा ॥५॥
मूलम्
जा की धूरि करे पुनीता ॥ सुरि नर देव न पावहि मीता ॥ सति पुरखु सतिगुरु परमेसरु जिसु भेटत पारि पराइणा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुनीता = पवित्र। सुर = स्वर्ग के रहने वाले। नर = मनुष्य। मीता = हे मित्र! 5।
अर्थ: हे भाई! जिस (प्रभु) की चरण-धूल पवित्र कर देती है, हे मित्र! उसको देवते मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकते। सिर्फ हरि-रूप गुरु पुरख ही है जिसको मिलने से (संसार-समुंदर से) पार लांघा जा सकता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारजातु लोड़हि मन पिआरे ॥ कामधेनु सोही दरबारे ॥ त्रिपति संतोखु सेवा गुर पूरे नामु कमाइ रसाइणा ॥६॥
मूलम्
पारजातु लोड़हि मन पिआरे ॥ कामधेनु सोही दरबारे ॥ त्रिपति संतोखु सेवा गुर पूरे नामु कमाइ रसाइणा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारजातु = मनोकामना पूरी करने वाला वृक्ष (हिन्दू धर्म पुस्तकों के अनुसार स्वर्ग में पाँच एसे वृक्ष माने गए हैं)। मन = हे मन! लोड़हि = (अगर तू हासिल करना) चाहता है। कामधेनु = (धेनु = गाय) मन की कामना पूरी करने वाली गाय (ये भी स्वर्ग में रहने वाली मानी गई है)। सोही = शोभा दे। दरबारे = (तेरे) दर से। त्रिपति = तृप्ति। रसाइणा = (रस+आयन, रसों का घर) सब रसों का श्रोत।6।
अर्थ: हे प्यारे मन! अगर तू (स्वर्ग का) पारजात (वृक्ष) हासिल करना चाहता है, यदि तू चाहता है कि कामधेनु तेरे दरवाजे पर शोभायमान हो, तो पूरे गुरु की शरण पड़ा रह, गुरु से पूर्ण संतोख प्राप्त कर, (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के) नाम-जपने की कमाई कर, हरि-नाम ही सारे रसों का श्रोत है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै सबदि मरहि पंच धातू ॥ भै पारब्रहम होवहि निरमला तू ॥ पारसु जब भेटै गुरु पूरा ता पारसु परसि दिखाइणा ॥७॥
मूलम्
गुर कै सबदि मरहि पंच धातू ॥ भै पारब्रहम होवहि निरमला तू ॥ पारसु जब भेटै गुरु पूरा ता पारसु परसि दिखाइणा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। मरहि = मर जाते हैं। पंच धातू = (कामादिक) पाँच विषौ। भै पारब्रहम = परमात्मा के डर-अदब में (रह के)। होवहि तू = तू हो जाएगा। निरमल = पवित्र करने वाला। पारसु = और धातुओं को सोना बना देने वाला पत्थर। भेटै = मिलता है। परसि = छू के। दिखाइणा = (परमात्मा) दिख जाता है।7।
अर्थ: हे प्यारे मन! गुरु के शब्द की इनायत सेकामादिक पाँचों विषौ मर जाते हैं, (गुरु के शब्द से) परमात्मा के भय-अदब में रह के तू पवित्र हो जाएगा। (हे मन! गुरु ही) पारस है। जब पूरा गुरु पारस मिल जाता है, तो उस पारस को छूने से (परमात्मा हर जगह) दिखाई दे जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई बैकुंठ नाही लवै लागे ॥ मुकति बपुड़ी भी गिआनी तिआगे ॥ एकंकारु सतिगुर ते पाईऐ हउ बलि बलि गुर दरसाइणा ॥८॥
मूलम्
कई बैकुंठ नाही लवै लागे ॥ मुकति बपुड़ी भी गिआनी तिआगे ॥ एकंकारु सतिगुर ते पाईऐ हउ बलि बलि गुर दरसाइणा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लवै लागे = बराबरी कर सकते। बपुड़ी = निमाणी, बेचारी। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाला। ते = से। हउ = मैं। बलि बलि = सदा सदके।8।
अर्थ: हे भाई! अनेक बैकुंठ (गुरु के दर्शनों की) बराबरी नहीं कर सकते। जो मनुष्य (गुरु के द्वारा) परमात्मा के साथ सांझ डालता है, वह मुक्ति को भी एक तुच्छ सी वस्तु समझ के (इसकी लालसा) त्याग देता है। हे भाई! गुरु के माध्यम से परमात्मा के साथ मिलाप होता है। मैं तो गुरु के दर्शनों से सदा सदके हूँ सदा बलिहार हूँ।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की सेव न जाणै कोई ॥ गुरु पारब्रहमु अगोचरु सोई ॥ जिस नो लाइ लए सो सेवकु जिसु वडभाग मथाइणा ॥९॥
मूलम्
गुर की सेव न जाणै कोई ॥ गुरु पारब्रहमु अगोचरु सोई ॥ जिस नो लाइ लए सो सेवकु जिसु वडभाग मथाइणा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। मथाइणा = माथे पर।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण (पड़ने का क्या महातम है? - ये भेद निरे दिमागी तौर पर) कोई मनुष्य नहीं समझ सकता (शरण पड़ के ही समझ पड़ती है)। गुरु (आत्मिक जीवन में) वही परमात्मा में जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठें, जिसको (परमात्मा खुद गुरु के चरणों से) लगाता है वह गुरु का सेवक बनता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की महिमा बेद न जाणहि ॥ तुछ मात सुणि सुणि वखाणहि ॥ पारब्रहम अपर्मपर सतिगुर जिसु सिमरत मनु सीतलाइणा ॥१०॥
मूलम्
गुर की महिमा बेद न जाणहि ॥ तुछ मात सुणि सुणि वखाणहि ॥ पारब्रहम अपर्मपर सतिगुर जिसु सिमरत मनु सीतलाइणा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, उच्च आत्मिकता। न जाणहि = नहीं जानते (बहुवचन)। तुछ मात = तुच्छ मात्र, बहुत ही थोड़ा। सुणि = सुन के। अपरंपर = परे से परे।10।
अर्थ: हे भाई! गुरु की उच्चात्मिकता वेद (भी) नहीं जानते, वे (औरों से) सुन-सुन के रक्ती-मात्र ही बयान कर सके हैं। हे भाई! गुरु (उच्च आत्मिकता में) वह परमात्मा ही है जो परे से परे हैं और जिसका नाम स्मरण करने से मन शीतल हो जाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा की सोइ सुणी मनु जीवै ॥ रिदै वसै ता ठंढा थीवै ॥ गुरु मुखहु अलाए ता सोभा पाए तिसु जम कै पंथि न पाइणा ॥११॥
मूलम्
जा की सोइ सुणी मनु जीवै ॥ रिदै वसै ता ठंढा थीवै ॥ गुरु मुखहु अलाए ता सोभा पाए तिसु जम कै पंथि न पाइणा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा की = जिस (गुरु) की। सोइ = शोभा। सुणी = सुन के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। रिदै = हृदय में। थीवै = हो जाता है। गुरमुखहु = गुरु के मुंह से, गुरु की राह चल के। अलाए = (नाम) उचारे। जिसु = उस (मनुष्य) को। जम कै पंथि = जमराज के राह पर। न पाइणा = नहीं डालता।11।
अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) की शोभा सुन के मन आत्मिक जीवन प्राप्त करता है, अगर गुरु (मनुष्य के) हृदय में आ बसे, तो हृदय शांत हो जाता है। अगर मनुष्य गुरु के रास्ते पर चल के हरि-नाम स्मरण करे, तो मनुष्य (लोक-परलोक में) शोभा कमाता है, गुरु उस मनुष्य को जमराज के रास्ते पर नहीं पड़ने देता।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतन की सरणाई पड़िआ ॥ जीउ प्राण धनु आगै धरिआ ॥ सेवा सुरति न जाणा काई तुम करहु दइआ किरमाइणा ॥१२॥
मूलम्
संतन की सरणाई पड़िआ ॥ जीउ प्राण धनु आगै धरिआ ॥ सेवा सुरति न जाणा काई तुम करहु दइआ किरमाइणा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पड़िआ = (मैं भी) पड़ा हूँ। जीउ = जिंद। आगै = गुरु के आगे। सुरति = सूझ। जाणा = मैं जानूँ। किरमाइणा = क्रिमि पर, कीड़े पर।12।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘काई’ स्त्रीलिंग है जिस का पुलिंग है ‘कोई’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! मैं भी तेरे संत जनों की शरण पड़ा हूँ, मैंने अपनी जिंद, अपने प्राण, अपना धन संत जनों के आगे ला रखा है। मैं सेवा-भक्ति करने की कोई सूझ नहीं जानता। मुझ निमाणे पर तू स्वयं ही किरपा कर।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरगुण कउ संगि लेहु रलाए ॥ करि किरपा मोहि टहलै लाए ॥ पखा फेरउ पीसउ संत आगै चरण धोइ सुखु पाइणा ॥१३॥
मूलम्
निरगुण कउ संगि लेहु रलाए ॥ करि किरपा मोहि टहलै लाए ॥ पखा फेरउ पीसउ संत आगै चरण धोइ सुखु पाइणा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुण = गुण हीन। कउ = को। संगि = गुरु की संगति में। मोहि = मुझे। टहलै = गुरु की टहल मे। फेरउ = मैं फेरूँ। पीसहु = मैं पीसता हूँ। संत = गुरु। धोइ = धो के।13।
अर्थ: हे प्रभु! मुझ गुण-हीन को गुरु की संगति में मिलाए रख। मुझे गुरु की सेवा अहल में जोड़े रख। मैं गुरु के दर पर पंखा फेरता रहूँ, (चक्की) पीसता रहूँ, और गुरु के चरण धो के आनंद लेता रहूं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुतु दुआरे भ्रमि भ्रमि आइआ ॥ तुमरी क्रिपा ते तुम सरणाइआ ॥ सदा सदा संतह संगि राखहु एहु नाम दानु देवाइणा ॥१४॥
मूलम्
बहुतु दुआरे भ्रमि भ्रमि आइआ ॥ तुमरी क्रिपा ते तुम सरणाइआ ॥ सदा सदा संतह संगि राखहु एहु नाम दानु देवाइणा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। तों = साथ, से। तुम सरणाइआ = तेरी शरण। संगि = साथ।14।
अर्थ: हे प्रभु! मैं दरवाजों पर भटक-भटक के आया हूँ। तेरी ही कृपा से (अब) तेरी शरण आया हूँ। मुझे सदा ही अपने संत जनों की संगति में रख, और उनसे अपने नाम की खैर डलवा।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भए क्रिपाल गुसाई मेरे ॥ दरसनु पाइआ सतिगुर पूरे ॥ सूख सहज सदा आनंदा नानक दास दसाइणा ॥१५॥२॥७॥
मूलम्
भए क्रिपाल गुसाई मेरे ॥ दरसनु पाइआ सतिगुर पूरे ॥ सूख सहज सदा आनंदा नानक दास दसाइणा ॥१५॥२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुसाई = मालिक। सहज = आत्मिक अडोलता। नानक = हे नानक! दास दसाइणा = दासों का दास।15।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जब (अब) मेरा मालिक प्रभु दयावान हुआ, तो मुझे पूरे गुरु के दर्शन हुए। अब मेरे अंदर सदा आत्मिक अडोलता और सुख-आनंद बने रहते हैं। मैं उसके दासों का दास बना रहता हूँ।15।2।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरै धरती अरु आकासा ॥ सिमरहि चंद सूरज गुणतासा ॥ पउण पाणी बैसंतर सिमरहि सिमरै सगल उपारजना ॥१॥
मूलम्
सिमरै धरती अरु आकासा ॥ सिमरहि चंद सूरज गुणतासा ॥ पउण पाणी बैसंतर सिमरहि सिमरै सगल उपारजना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरै = स्मरण करता है, हर वक्त याद रखता है, रजा में चलता है। अरु = और। सिमरहि = स्मरण करते हैं (बहुवचन)। गुणतासा = गुणों का खजाना परमात्मा। पउण = पवन। बैसंतर = आग। सगल = सारी। उपारजना = सृष्टि।1।
अर्थ: हे भाई! धरती परमात्मा की रजा में चल रही है आकाश उसकी रजा में है। चाँद और सूरज उस गुणों के खजाने प्रभु की रजा में चल रहे हैं। हवा पानी आग (आदिक तत्व) प्रभु की रजा में काम करि रहे हैं। सारी सृष्टि उसकी रजा में काम कर रही है।1।
[[1079]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरहि खंड दीप सभि लोआ ॥ सिमरहि पाताल पुरीआ सचु सोआ ॥ सिमरहि खाणी सिमरहि बाणी सिमरहि सगले हरि जना ॥२॥
मूलम्
सिमरहि खंड दीप सभि लोआ ॥ सिमरहि पाताल पुरीआ सचु सोआ ॥ सिमरहि खाणी सिमरहि बाणी सिमरहि सगले हरि जना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीप = द्वीप, टापू। सभि = सारे। लोआ = मण्डल (लोक)। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचु सोआ = उस सदा स्थिर प्रभु को। खाणी = (अण्डज, जेरज सेतज उत्भुज आदि) खाणियां। बाणी = सब बोलियों (के बोलने वाले)।2।
अर्थ: हे भाई! सारे खंड, द्वीप, मण्डल, पाताल और सारियां पुरियां, सारी खाणियों और बाणियों (के जीव), सारे प्रभु के सेवक सदा-स्थिर प्रभु की रजा में बरत रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरहि ब्रहमे बिसन महेसा ॥ सिमरहि देवते कोड़ि तेतीसा ॥ सिमरहि जख्यि दैत सभि सिमरहि अगनतु न जाई जसु गना ॥३॥
मूलम्
सिमरहि ब्रहमे बिसन महेसा ॥ सिमरहि देवते कोड़ि तेतीसा ॥ सिमरहि जख्यि दैत सभि सिमरहि अगनतु न जाई जसु गना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहमे = (बहुवचन) अनेको ब्रहमा। बिसन = कई विष्णु (बहुवचन)। महेसा = शिव। कोड़ि तैतीसा = तेतिस करोड़। जख्यि = जख (देवताओं की एक श्रेणी)। अगनतु = अनगिनत, वह परमात्मा जिसके गुण गिने नहीं जा सकते। जसु = महिमा। न जाई गना = गिना नहीं जा सकता।3।
अर्थ: हे भाई! अनेक ब्रहमा, विष्णु और शिव, तैतिस करोड़ देवतागण, सारे जख और दैत्य उस अगनत प्रभु को हर वक्त याद कर रहे हैं। उसकी महिमा का अंत नहीं पाया जा सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरहि पसु पंखी सभि भूता ॥ सिमरहि बन परबत अउधूता ॥ लता बली साख सभ सिमरहि रवि रहिआ सुआमी सभ मना ॥४॥
मूलम्
सिमरहि पसु पंखी सभि भूता ॥ सिमरहि बन परबत अउधूता ॥ लता बली साख सभ सिमरहि रवि रहिआ सुआमी सभ मना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि भूता = सारे जीव। परबत अउधूता = नांगे साधूओं की तरह अडोल टिके हुए पर्वत। लता = वेल। बली = (वल्ली) वेल। शाख = शाखा। रवि रहिआ = व्यापक है। सभ मना = सारे मनों में।4।
अर्थ: हे भाई! सारे पशु, पक्षी आदि जीव, जंगल और अडोल टिके हुए पहाड़, वेलें वृक्षों की शाखाएं, सब परमात्मा की रजा में काम कर रहे हैं। हे भाई! मालिक-प्रभु सब जीवों के मनों में बस रहा है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरहि थूल सूखम सभि जंता ॥ सिमरहि सिध साधिक हरि मंता ॥ गुपत प्रगट सिमरहि प्रभ मेरे सगल भवन का प्रभ धना ॥५॥
मूलम्
सिमरहि थूल सूखम सभि जंता ॥ सिमरहि सिध साधिक हरि मंता ॥ गुपत प्रगट सिमरहि प्रभ मेरे सगल भवन का प्रभ धना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थूल = स्थूल, बड़े आकार वाला। सूखम = सूक्ष्म, बहुत ही छोटे आकार वाला। सभि = सारे। सिध = सिद्ध, जोग साधना में निपुन्न योगी। साधिक = योग साधना करने वाले साधक। मंता = मंत्र, जाप। गुपत प्रगट = दिखाई देते और ना दिखाई देते जीव। प्रभ = हे प्रभु! धना = धनी, मालिक।5।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! बहुत बड़े आकार के शरीरों से ले के बहुत ही सूक्ष्म शरीरों वाले सारे जीव, सिद्ध और साधिक, दृश्य और अदृश्य सारे जीव तुझे ही स्मरण करते हैं। हे प्रभु! तू सारे भवनों का मालिक है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरहि नर नारी आसरमा ॥ सिमरहि जाति जोति सभि वरना ॥ सिमरहि गुणी चतुर सभि बेते सिमरहि रैणी अरु दिना ॥६॥
मूलम्
सिमरहि नर नारी आसरमा ॥ सिमरहि जाति जोति सभि वरना ॥ सिमरहि गुणी चतुर सभि बेते सिमरहि रैणी अरु दिना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसरमा = चारों आश्रमों के प्राणी (ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास)। वरना = (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) चार वर्णों के प्राणी। सभि = सारे। गुनी = गुणवान। बेते = विद्वान। रैणी = रात।6।
अर्थ: हे भाई! चारों आश्रमों के नर और नारियाँ, सब जातियों और वर्णों के सारे प्राणी, गुणवान, चतुर सयाने सारे जीव परमात्मा को ही स्मरण करते हैं। (सारे जीव) रात और दिन हर वक्त उसी प्रभु को स्मरण करते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरहि घड़ी मूरत पल निमखा ॥ सिमरै कालु अकालु सुचि सोचा ॥ सिमरहि सउण सासत्र संजोगा अलखु न लखीऐ इकु खिना ॥७॥
मूलम्
सिमरहि घड़ी मूरत पल निमखा ॥ सिमरै कालु अकालु सुचि सोचा ॥ सिमरहि सउण सासत्र संजोगा अलखु न लखीऐ इकु खिना ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरत = महूरत। निमखा = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। कालु = मौत। अकालु = जनम। सुचि = शरीरिक पवित्रता। सोचा = शौच, शारीरिक क्रिया साधनी। सउण सासत्र = ज्योतिष आदि के शास्त्र। अलखु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके।7।
अर्थ: हे भाई! घड़ी महूरत पल निमख (आदि समय के बटवारे) प्रभु के हुक्म-नियम में गुजरते जा रहे हैं। मौत प्रभु के हुक्म में चल रही है, जनम प्रभु के हुक्म में चल रहा है। सुच और शारीरिक क्रिया - ये भी कार हुक्म में ही चल रही है। संजोग आदि बताने वाले ज्योतिष व अन्य शास्त्र उसके हुक्म में ही चल रहे हैं। पर, प्रभु स्वयं ऐसा है कि उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, तिल मात्र भी बयान नहीं किया जा सकता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा जिसु भगती लावहु जनमु पदारथु सो जिना ॥८॥
मूलम्
करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा जिसु भगती लावहु जनमु पदारथु सो जिना ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करावनहार = (जीवों से) करवा सकने वाला। घट = हृदय। करि = कर के। जिना = जीतता।8।
अर्थ: हे सब कुछ आप कर सकने वाले और जीवों से करवा सकने वाले स्वामी! हे सब दिलों की जानने वाले प्रभु! तू मेहर करके जिस मनुष्य को अपनी भक्ति में लगाता है, वह इस कीमती मानव जन्म की बाजी जीत जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै मनि वूठा प्रभु अपना ॥ पूरै करमि गुर का जपु जपना ॥ सरब निरंतरि सो प्रभु जाता बहुड़ि न जोनी भरमि रुना ॥९॥
मूलम्
जा कै मनि वूठा प्रभु अपना ॥ पूरै करमि गुर का जपु जपना ॥ सरब निरंतरि सो प्रभु जाता बहुड़ि न जोनी भरमि रुना ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। वूठा = आ बसा। करमि = बख्शिश से। सरब निरंतरि = सबके अंदर। जाता = जान लिया। बहुड़ि = दोबारा, फिर। भरमि = भटक के। रुना = रोया, दुखी हुआ।9।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में प्यारा प्रभु आ बसता है, वह (प्रभु की) पूरी मेहर से गुरु का (बताया) नाम-जाप जपता है। वह मनुष्य उस प्रभु को सबके अंदर बसता पहचान लेता है, वह मनुष्य दोबारा जूनियों की भटकना में दुखी नहीं होता।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु वसै मनि जा कै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ सूख सहज आनंद नाम रसु अनहद बाणी सहज धुना ॥१०॥
मूलम्
गुर का सबदु वसै मनि जा कै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ सूख सहज आनंद नाम रसु अनहद बाणी सहज धुना ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमु = भटकना। ता का = उस (मनुष्य) का। भागै = भाग जाता है (एकवचन)। सहज = आत्मिक अडोलता। अनहद = एक रस, लगातार। धुना = तुकांत।10।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में गुरु का शब्द टिक जाता है, उसका दुख उसका दर्द दूर हो जाता है,, उसकी भटकना समाप्त हो जाती है। उसके अंदर आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं, उसको परमात्मा के नाम का स्वाद आने लग पड़ता है, गुरबाणी की इनायत से उसके अंदर एक-रस आत्मिक अडोलता की धुनि (तुकांत) चलती रहती है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो धनवंता जिनि प्रभु धिआइआ ॥ सो पतिवंता जिनि साधसंगु पाइआ ॥ पारब्रहमु जा कै मनि वूठा सो पूर करमा ना छिना ॥११॥
मूलम्
सो धनवंता जिनि प्रभु धिआइआ ॥ सो पतिवंता जिनि साधसंगु पाइआ ॥ पारब्रहमु जा कै मनि वूठा सो पूर करमा ना छिना ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। पतिवंता = इज्जत वाला। संगु = साथ। साध संगु = गुरु का साथ। पूर करंमा = पूरे भाग्यों वाला। छिना = गुप्त, छुपा हुआ। ना छिना = मशहूर।11।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु का ध्यान धरा वह नाम-खजाने का मालिक बन गया, जिस मनुष्य ने गुरु का साथ हासिल कर लिया वह (लोक-परलोक में) इज्जत वाला हो गया। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसा, वह बड़ी किस्मत वाला हो गया वह (जगत में) प्रसिद्ध हो गया।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलि थलि महीअलि सुआमी सोई ॥ अवरु न कहीऐ दूजा कोई ॥ गुर गिआन अंजनि काटिओ भ्रमु सगला अवरु न दीसै एक बिना ॥१२॥
मूलम्
जलि थलि महीअलि सुआमी सोई ॥ अवरु न कहीऐ दूजा कोई ॥ गुर गिआन अंजनि काटिओ भ्रमु सगला अवरु न दीसै एक बिना ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती मे। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। कहीऐ = बताया जा सकता। गुर गिआन अंजनि = गुरु के ज्ञान के सुरमे ने। सगला = सारा। दीसै = दिखता।12।
अर्थ: हे भाई! वही मालिक-प्रभु जल में धरती में आकाश में बसता है, उसके बिना कोई दूसरा बताया नहीं जा सकता। हे भाई! गुरु के ज्ञान के सुरमे ने (जिस मनुष्य की आँखों का) सारा भ्रम (-जाल) काट दिया, उसको एक परमात्मा के बिना (कहीं कोई) और नहीं दिखता।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचे ते ऊचा दरबारा ॥ कहणु न जाई अंतु न पारा ॥ गहिर ग्मभीर अथाह सुआमी अतुलु न जाई किआ मिना ॥१३॥
मूलम्
ऊचे ते ऊचा दरबारा ॥ कहणु न जाई अंतु न पारा ॥ गहिर ग्मभीर अथाह सुआमी अतुलु न जाई किआ मिना ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। ऊचे ते ऊचा = सबसे ऊँचा। पारा = उस पार का किनारा। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। किआ मिना = मैं क्या मिण सकता हूँ? मैं गिन तौल नहीं सकता।13।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा दरबार सब (दरबारों) से ऊँचा है, उसका आखिरी और उसका परला छोर बताया नहीं जा सकता। हे गहरे और अथाह (समुंदर)! हे बड़े जिगरे वाले! हे मालिक! तू अतुल्य है, तुझे तोला नहीं जा सकता, तुझे मापा नहीं जा सकता।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू करता तेरा सभु कीआ ॥ तुझु बिनु अवरु न कोई बीआ ॥ आदि मधि अंति प्रभु तूहै सगल पसारा तुम तना ॥१४॥
मूलम्
तू करता तेरा सभु कीआ ॥ तुझु बिनु अवरु न कोई बीआ ॥ आदि मधि अंति प्रभु तूहै सगल पसारा तुम तना ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = सारा जगत। बीआ = दूसरा। आदि मधि अंति = जगत रचना के शुरू में बीच में और आखिर में। तुम तना = तेरे शरीर का, तेरे तन का।14।
अर्थ: हे प्रभु! तू पैदा करने वाला है, सारा जगत तेरा पैदा किया हुआ है। तेरे बिना (तेरे जैसा) कोई और दूसरा नहीं है। जगत के आरम्भ से आखिर तक तू सदा कायम रहने वाला है। ये सारा जगत पसारा तेरे ही अपने आप का है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जमदूतु तिसु निकटि न आवै ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गावै ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन जो स्रवणी प्रभ का जसु सुना ॥१५॥
मूलम्
जमदूतु तिसु निकटि न आवै ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गावै ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन जो स्रवणी प्रभ का जसु सुना ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। साध संगि = गुरु की संगति में। ता के = उस मनुष्य के। स्रवणी = कानों से।15।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में रह के परमात्मा की महिमा के गीत गाता है, जमदूत उसके नजदीक नहीं आ सकता (मौत उसको डरा नहीं सकती। आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं आ सकती)। जो मनुष्य अपने कानों से प्रभु का यश सुनता रहता है, उसकी सारी जरूरतें पूरी हो जाती हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू सभना का सभु को तेरा ॥ साचे साहिब गहिर ग्मभीरा ॥ कहु नानक सेई जन ऊतम जो भावहि सुआमी तुम मना ॥१६॥१॥८॥
मूलम्
तू सभना का सभु को तेरा ॥ साचे साहिब गहिर ग्मभीरा ॥ कहु नानक सेई जन ऊतम जो भावहि सुआमी तुम मना ॥१६॥१॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। साहिब = हे साहिब! सचे = हे सदा कायम रहने वाले! नानक = हे नानक! सोई जन = वही मनुष्य (बहुवचन)। सुआमी = हे स्वामी!।16।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जीवों का (पति) है। हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। हे नानक! कह: (हे सदा कायम रहने वाले मालिक! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले प्रभु) वही मनुष्य श्रेष्ठ हैं जो तुझे अच्छे लगते हैं।16।1।8।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ प्रभ समरथ सरब सुख दाना ॥ सिमरउ नामु होहु मिहरवाना ॥ हरि दाता जीअ जंत भेखारी जनु बांछै जाचंगना ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ प्रभ समरथ सरब सुख दाना ॥ सिमरउ नामु होहु मिहरवाना ॥ हरि दाता जीअ जंत भेखारी जनु बांछै जाचंगना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! समरथ = हे सारी ताकतों के मालिक! सिमरउ = मैं स्मरण करता रहूँ। जीअ जंत = सारे जीव। भेखारी = भिखारी। जनु = दास। बांछै = माँगता है, तमन्ना रखता है। जाचंगना = भिखारी (बन के)।1।
अर्थ: हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! हे सारे सुख देने वाले! (मेरे पर) मेहरवान हो, मैं तेरा नाम स्मरण करता रहूँ। हे भाई! परमात्मा दातें देने वाला है, सारे जीव (उसके दर के) भिखारी हैं। (नानक उसका) दास भिखारी बन के (उससे नाम की दाति) माँगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागउ जन धूरि परम गति पावउ ॥ जनम जनम की मैलु मिटावउ ॥ दीरघ रोग मिटहि हरि अउखधि हरि निरमलि रापै मंगना ॥२॥
मूलम्
मागउ जन धूरि परम गति पावउ ॥ जनम जनम की मैलु मिटावउ ॥ दीरघ रोग मिटहि हरि अउखधि हरि निरमलि रापै मंगना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागउ = मैं मांगता हूँ। जन धूरि = संत जनों की चरण धूल। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। पावउ = मैं हासिल कर लूँ। दीरघ रोग = बड़े रोग। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। हरि अउखधि = हरि नाम की दवाई के साथ। निरमलि = निर्मल में। रापै = रंगा जाए। मंगना = मैं माँगता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के दर से) मैं (उसके) सेवकों की चरण-धूल माँगता हूँ ताकि मैं सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकूँ, और अनेक जन्मों की (विकारों की) मैल दूर कर सकूँ। हे भाई! हरि-नाम की दवाई से बड़े-बड़े रोग दूर हो जाते हैं। मैं भी (उसके दर से) माँगता हूँ कि उसके पवित्र नाम में (मेरा मन) रंगा रहे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रवणी सुणउ बिमल जसु सुआमी ॥ एका ओट तजउ बिखु कामी ॥ निवि निवि पाइ लगउ दास तेरे करि सुक्रितु नाही संगना ॥३॥
मूलम्
स्रवणी सुणउ बिमल जसु सुआमी ॥ एका ओट तजउ बिखु कामी ॥ निवि निवि पाइ लगउ दास तेरे करि सुक्रितु नाही संगना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रवणी = कानों से। सुणउ = मैं सुनता रहूँ। बिमल = पवित्र। सुआमी = हे स्वामी! ओट = आसरा। तजउ = मैं त्याग दूँ। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली। कामी = कामना, वासना। निवि = झुक के। पाइ लगउ = पाय लगउ, मैं पैर लगूँ। करि = कर के। सुक्रितु = नेक कमाई। संगना = शर्म लगे।3।
अर्थ: हे स्वामी! (मेहर कर) मैं (अपने) कानों से तेरा पवित्र नाम सुनता रहूँ। मुझे सिर्फ तेरा ही आसरा है, (मेहर कर) मैं आत्मिक मौत लाने वाली काम-वासना त्याग दूँ, मैं झुक-झुक के तेरे सेवकों के चरणों में लगता रहूँ। ये नेक कमाई करते हुए मुझे कभी शर्म महिसूस ना हो।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसना गुण गावै हरि तेरे ॥ मिटहि कमाते अवगुण मेरे ॥ सिमरि सिमरि सुआमी मनु जीवै पंच दूत तजि तंगना ॥४॥
मूलम्
रसना गुण गावै हरि तेरे ॥ मिटहि कमाते अवगुण मेरे ॥ सिमरि सिमरि सुआमी मनु जीवै पंच दूत तजि तंगना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। कमाते = कमाए हुए। अवगुण = विकार। सिमरि = स्मरण करके। जीवे = आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहे। दूत = वैरी। तंगना = तंग करने वाले।4।
अर्थ: हे स्वामी! हे हरि! (मेहर कर) मेरी जीभ तेरे गुण गाती रहे, और, मेरे (पिछले) किए हुए अवगुण मिट जाएं। (मेहर कर) तेरा नाम स्मरण कर-कर के (और, नाम-जपने की इनायत से) दुखी करने वाले कामादिक पाँच वैरियों का साथ छोड़ के मेरा मन आत्मिक जीवन प्राप्त कर ले।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल जपि बोहिथि चरीऐ ॥ संतसंगि मिलि सागरु तरीऐ ॥ अरचा बंदन हरि समत निवासी बाहुड़ि जोनि न नंगना ॥५॥
मूलम्
चरन कमल जपि बोहिथि चरीऐ ॥ संतसंगि मिलि सागरु तरीऐ ॥ अरचा बंदन हरि समत निवासी बाहुड़ि जोनि न नंगना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। बोहिथि = जहाज में। चरीऐ = चढ़ना चाहिए। संगि = संगति में। सागरु = समुंदर। तरीऐ = तैरा जा सकता है। अरचा = अर्चना, फूल आदि भेट करके देवी पूजा करनी। बंदन = नमस्कार। समत निवासी = (सब जीवों में) एक समान बसने वाला। न नंगना = बेइज्जत नहीं होते।5।
अर्थ: हे भाई! (संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए परमात्मा के) सुंदर चरणों का ध्यान धर के (नाम-) जहाज में चढ़ना चाहिए, गुरु की संगति में मिल के (संसार-) समुंदर से पार लांघा जा सकता है। परमात्मा को सब जीवों में एक-समान बस रहा जान लेना- यही है उसकी अर्चना-पूजा, यही है उसके आगे वंदना। (इस तरह) बार-बार जूनियों में पड़ कर दुखी नहीं होते।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दास दासन को करि लेहु गुोपाला ॥ क्रिपा निधान दीन दइआला ॥ सखा सहाई पूरन परमेसुर मिलु कदे न होवी भंगना ॥६॥
मूलम्
दास दासन को करि लेहु गुोपाला ॥ क्रिपा निधान दीन दइआला ॥ सखा सहाई पूरन परमेसुर मिलु कदे न होवी भंगना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। गुोपाला = हे गोपाल! निधान = खजाना। परमेसुर = हे परमेश्वर! भंगना = विछोड़ा।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाला’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ ु’ और ‘ो’। असल शब्द है ‘गोपाल’ यहां पढ़ना है ‘गुपाल’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे गोपाल! हे कृपा के खजाने! हे दीनों पर दया करने वाले! मुझे अपने दासों का दास बना ले। हे सर्व-व्यापक परमेश्वर! तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरा मददगार है। मुझे मिल, तुझसे मेरा कभी विछोड़ा ना हो।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु अरपि धरी हरि आगै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥ जिस का सा सोई प्रतिपालकु हति तिआगी हउमै हंतना ॥७॥
मूलम्
मनु तनु अरपि धरी हरि आगै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥ जिस का सा सोई प्रतिपालकु हति तिआगी हउमै हंतना ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरपि = भेटा करके। अरपि धरी = भेटा कर दी। सा = था, पैदा किया हुआ था। हति = मार के। हंतना = मारने वाली, आत्मिक मौत लाने वाली।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने अपना मन अपना तन परमात्मा के आगे भेटा कर दिया, वह मनुष्य अनेक जन्मों का सोया हुआ (भी) जाग उठता है (आत्मिक जीवन की सूझ वाला हो जाता है)। जिस परमात्मा ने उसको पैदा किया था, वही उसका रखवाला बन जाता है, वह मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार को सदा के लिए त्याग देता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलि थलि पूरन अंतरजामी ॥ घटि घटि रविआ अछल सुआमी ॥ भरम भीति खोई गुरि पूरै एकु रविआ सरबंगना ॥८॥
मूलम्
जलि थलि पूरन अंतरजामी ॥ घटि घटि रविआ अछल सुआमी ॥ भरम भीति खोई गुरि पूरै एकु रविआ सरबंगना ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। पूरन = व्यापक। घटि घटि = हरेक शरीर में। भीति = दीवार। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। रविआ = व्यापक। सरबंगना = सब में।8।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य की परमात्मा से विछोड़ा डालने वाली) भटकना की दीवार दूर कर दी, उसको परमात्मा सबमें व्यापक दिख जाता है; (उसको ये दिखाई दे जाता है कि) सबके दिलों की जानने वाला प्रभु जल में धरती में सब जगह व्यापक है, माया से ना छला जा सकने वाला हरि हरेक शरीर में मौजूद है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जत कत पेखउ प्रभ सुख सागर ॥ हरि तोटि भंडार नाही रतनागर ॥ अगह अगाह किछु मिति नही पाईऐ सो बूझै जिसु किरपंगना ॥९॥
मूलम्
जत कत पेखउ प्रभ सुख सागर ॥ हरि तोटि भंडार नाही रतनागर ॥ अगह अगाह किछु मिति नही पाईऐ सो बूझै जिसु किरपंगना ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, जिस भी तरफ। पेखउ = मैं देखता हूँ। सुख सागर = सुखों का समुंदर। तोटि = घाटा, कमी। रतनागर = रतन+आकर, रत्नों की खान। अगह = अ+गह, जो पकड़ से परे है। अगाह = अथाह। मिति = मिनती, हद बंदी। किरपंगना = कृपा।9।
अर्थ: हे भाई! मैं जिस तरफ भी देखता हूँ, सुखों का समुंदर परमात्मा ही (बस रहा है)। रत्नों की खान उस परमात्मा के खजानों में कभी कमी नहीं आती। हे भाई! उस परमात्मा की हस्ती की कोई हद-बंदी नहीं पा सकता जो हरेक समय की पकड़ से परे है जिसको नापा नहीं जा सकता। पर, यह बात वह मनुष्य समझता है जिस पर उसकी कृपा हो।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छाती सीतल मनु तनु ठंढा ॥ जनम मरण की मिटवी डंझा ॥ करु गहि काढि लीए प्रभि अपुनै अमिओ धारि द्रिसटंगना ॥१०॥
मूलम्
छाती सीतल मनु तनु ठंढा ॥ जनम मरण की मिटवी डंझा ॥ करु गहि काढि लीए प्रभि अपुनै अमिओ धारि द्रिसटंगना ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतल = ठंडी। डंझा = सड़न, जलन। करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। प्रभि अपुनै = अपने प्रभु ने। अमिओ = अमृत। द्रिसटंगना = दृष्टि। अमिओ द्रिसटंगना = आत्मिक जीवन देने वाली दृष्टि।10।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाली निगाह करके प्यारे प्रभु ने जिस (भाग्यशालियों) को (उनका) हाथ पकड़ कर (संसार-समुंदर में से) निकाल लिया है, उनका हृदय शांत हो गया है, उनका मन उनका तन शांत हो गया है, उनकी वह जलन मिट गई है जो जनम-मरण के चक्करों में डालती है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको एकु रविआ सभ ठाई ॥ तिसु बिनु दूजा कोई नाही ॥ आदि मधि अंति प्रभु रविआ त्रिसन बुझी भरमंगना ॥११॥
मूलम्
एको एकु रविआ सभ ठाई ॥ तिसु बिनु दूजा कोई नाही ॥ आदि मधि अंति प्रभु रविआ त्रिसन बुझी भरमंगना ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एको एकु = सिर्फ परमात्मा ही परमात्मा। रविआ = व्यापक है। आदि मधि अंति = जगत के आरम्भ में बीच में और आखिर में। त्रिसन = तष्णा। भरमंगना = भटकना।11
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से जिस मनुष्य की माया की) तृष्णा समाप्त हो जाती है भटकना खत्म हो जाती है (उसको यह दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा ही परमात्मा सब जगह बस रहा है, उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है, वह परमात्मा ही जगत-रचना के आरम्भ में था, वह परमात्मा ही अब मौजूद है, वह परमात्मा ही जगत के अंत में होगा।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु परमेसरु गुरु गोबिंदु ॥ गुरु करता गुरु सद बखसंदु ॥ गुर जपु जापि जपत फलु पाइआ गिआन दीपकु संत संगना ॥१२॥
मूलम्
गुरु परमेसरु गुरु गोबिंदु ॥ गुरु करता गुरु सद बखसंदु ॥ गुर जपु जापि जपत फलु पाइआ गिआन दीपकु संत संगना ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। गुर जपु = गुरु के बताए नाम का जाप। जापि = जप के। जपत = जपते हुए। दीपकु = दीया। गिआन दीपकु = ज्ञान का दीया, आत्मिक जीवन की सूझ का दीपक। संत संगना = गुरु की संगत, साधु-संगत।12।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में टिक के गुरु का बताया हुआ हरि-नाम का जाप जपते हुए जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का दीया जल उठता है जिसको ये फल प्राप्त हो जाता है (उसको ये दिखाई दे जाता है कि) गुरु परमेश्वर (का रूप) है गुरु गोबिंद (का रूप) है, गुरु कर्तार (का रूप है) गुरु सदा बख्शिशें करने वाला है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो पेखा सो सभु किछु सुआमी ॥ जो सुनणा सो प्रभ की बानी ॥ जो कीनो सो तुमहि कराइओ सरणि सहाई संतह तना ॥१३॥
मूलम्
जो पेखा सो सभु किछु सुआमी ॥ जो सुनणा सो प्रभ की बानी ॥ जो कीनो सो तुमहि कराइओ सरणि सहाई संतह तना ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। सभु किछु = हरेक चीज। बानी = वाणी, बोल। कीनो = किया। तुमहि = तू ही। सहाई = सहायता करने वाला। संतह तना = संतों का आसरा।13।
अर्थ: हे भाई! (संसार में) मैं जो कुछ देखता हूँ सब कुछ मालिक-प्रभु (का ही रूप) है, जो कुछ मैं सुनता हूँ, प्रभु ही हर जगह स्वयं बोल रहा है। हे प्रभु! जो कुछ जीव करते हैं, वह तू ही कर रहा है। तू शरण पड़ने वालों की सहायता करने वाला है, तू (अपने) संतों का सहारा है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाचकु जाचै तुमहि अराधै ॥ पतित पावन पूरन प्रभ साधै ॥ एको दानु सरब सुख गुण निधि आन मंगन निहकिंचना ॥१४॥
मूलम्
जाचकु जाचै तुमहि अराधै ॥ पतित पावन पूरन प्रभ साधै ॥ एको दानु सरब सुख गुण निधि आन मंगन निहकिंचना ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचकु = भिखारी। जरचै = माँगता है (एकवचन)। अराधै = आराधता है। पतित पावन = हे पतितों को पवित्र करने वाले! साधै = (तुझ) साध को। सरब सुख = हे सारे सुखों को देने वाले! गुण निधि = हे गुणों के खजाने! आन = (नाम के बिना) और। निह किंचना = कुछ भी नहीं, निकम्मा।14।
अर्थ: हे पतित-पावन प्रभु! हे पूरन साधु प्रभु! (तेरे दर का) भिखारी (दास) तुझसे ही माँगता है तुझे ही आराधता है। हे सारे सुख देने वाले प्रभु! गुणों के खजाने प्रभु! (तेरा दास तुझसे) सिर्फ (तेरे नाम का) दान (ही माँगता है), और माँगें माँगना बेअर्थ हैं (निकम्मी हैं)।14।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ पात्रु प्रभु करणैहारा ॥ लगी लागि संत संगारा ॥ निरमल सोइ बणी हरि बाणी मनु नामि मजीठै रंगना ॥१५॥
मूलम्
काइआ पात्रु प्रभु करणैहारा ॥ लगी लागि संत संगारा ॥ निरमल सोइ बणी हरि बाणी मनु नामि मजीठै रंगना ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पात्रु = योग्य बर्तन। काइआ = काया, शरीर। लागि = छू। संगारा = संगति में। सोइ = शोभा। हरि बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी के सदका। नामि = नाम में। मजीठै = मजीठ (के पक्के रंग) मे।15।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को साधु-संगत में छूह लग जाती है, समर्थ प्रभु उसके शरीर को (नाम की दाति हासिल करने के लिए) योग्य बर्तन बना देता है। परमात्मा की महिमा वाली वाणी के द्वारा उस मनुष्य की अच्छी शोभा बन जाती है, उसका मन मजीठ (के पक्के रंग जैसे) नाम-रंग में रंगा जाता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोलह कला स्मपूरन फलिआ ॥ अनत कला होइ ठाकुरु चड़िआ ॥ अनद बिनोद हरि नामि सुख नानक अम्रित रसु हरि भुंचना ॥१६॥२॥९॥
मूलम्
सोलह कला स्मपूरन फलिआ ॥ अनत कला होइ ठाकुरु चड़िआ ॥ अनद बिनोद हरि नामि सुख नानक अम्रित रसु हरि भुंचना ॥१६॥२॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोलह कला = सोलह कला वाला, पूरी तौर पर। अनत = अनंत। अनत कला = बेअंत ताकतों वाला। चढ़िआ = (सूरज जैसे हृदय आकाश में) प्रकट हुआ। अनद बिनोद = आनंद खुशियां। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाल नाम रस। भुंचना = भोगता है, भुंचित करता है।16।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय-आकाश में बेअंत ताकतों वाला प्रभु-सूर्य चढ़ जाता है (प्रभु प्रकट हो जाता है), उसका जीवन पूरी तौर पर सफल हो जाता है। हे नानक! हरि-नाम की इनायत से उस मनुष्य के अंदर आनंद व खुशियों के सुख बने रहते हैं, वह मनुष्य सदा आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस भोगता रहता है।16।2।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू साहिबु हउ सेवकु कीता ॥ जीउ पिंडु सभु तेरा दीता ॥ करन करावन सभु तूहै तूहै है नाही किछु असाड़ा ॥१॥
मूलम्
तू साहिबु हउ सेवकु कीता ॥ जीउ पिंडु सभु तेरा दीता ॥ करन करावन सभु तूहै तूहै है नाही किछु असाड़ा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभु = हर जगह। असाड़ा = हमारा।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (मेरा) मालिक है, मैं तेरा (पैदा) किया हुआ सेवक हूँ। ये जिंद ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। हे प्रभु! (जगत में) सब कुछ करने वाला तू ही है (जीवों से) करवाने वाला भी तू ही है। हम जीवों का कोई जोर नहीं चल सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमहि पठाए ता जग महि आए ॥ जो तुधु भाणा से करम कमाए ॥ तुझ ते बाहरि किछू न होआ ता भी नाही किछु काड़ा ॥२॥
मूलम्
तुमहि पठाए ता जग महि आए ॥ जो तुधु भाणा से करम कमाए ॥ तुझ ते बाहरि किछू न होआ ता भी नाही किछु काड़ा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुमहि = तू (स्वयं) ही। पठाए = भेजे, घले। तुधु भाणा = तुझे अच्छा लगा। से = वह (बहुवचन)। ते = से। ता भी = इतना खलजगन होते हुए भी। काड़ा = चिन्ता फिक्र।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही (जीवों को) भेजता है, तो (ये) जगत में आते हैं। जो तुझे अच्छा लगता है, उसी तरह के कर्म जीव करते हैं। हे प्रभु! तेरे हुक्म से बाहर कुछ भी नहीं हो सकता। इतना बड़ा पसारा होते हुए भी तुझे कोई फिक्र नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊहा हुकमु तुमारा सुणीऐ ॥ ईहा हरि जसु तेरा भणीऐ ॥ आपे लेख अलेखै आपे तुम सिउ नाही किछु झाड़ा ॥३॥
मूलम्
ऊहा हुकमु तुमारा सुणीऐ ॥ ईहा हरि जसु तेरा भणीऐ ॥ आपे लेख अलेखै आपे तुम सिउ नाही किछु झाड़ा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊहा = वहाँ, उस लोक में, परलोक में। सुणीऐ = सुना जाता है। ईहा = यहाँ, इस लोक में। भणीऐ = उचारा जाता है। आपे लेख = तू आप ही लेख लिखने वाला। अलेखै = (तू) लेखे से बाहर। सिउ = साथ। झाड़ा = झगड़ा।3।
अर्थ: हे प्रभु! परलोक में भी तेरा (ही) हुक्म (चल रहा) सुना जा रहा है, इस लोक में भी तेरी ही महिमा उचारी जा रही है। हे प्रभु! तू स्वयं ही (जीवों के किए कर्मों के) लेखे (लिखने वाला) है, तू आप ही लेखे से बाहर है। तेरे साथ (जीव) कोई झगड़ा नहीं डाल सकते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू पिता सभि बारिक थारे ॥ जिउ खेलावहि तिउ खेलणहारे ॥ उझड़ मारगु सभु तुम ही कीना चलै नाही को वेपाड़ा ॥४॥
मूलम्
तू पिता सभि बारिक थारे ॥ जिउ खेलावहि तिउ खेलणहारे ॥ उझड़ मारगु सभु तुम ही कीना चलै नाही को वेपाड़ा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। थारे = तेरे। उझड़ु = औझड़, गलत रास्ते। मारगु = (सीधा) रास्ता। वेपाड़ा = उलटे रहे। को = कोई मनुष्य।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू (सब जीवों का) पिता है, सारे (जीव) तेरे बच्चे हैं। जैसे तू (इन बच्चों को) खेलाता है, वैसे ही ये खेल रहे हैं। हे प्रभु! गलत रास्ता और ठीक रास्ता सब कुछ तूने स्वयं ही बनाया हुआ है। कोई भी जीव (अपने आप) गलत रास्ते पर चल नहीं सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि बैसाइ रखे ग्रिह अंतरि ॥ इकि पठाए देस दिसंतरि ॥ इक ही कउ घासु इक ही कउ राजा इन महि कहीऐ किआ कूड़ा ॥५॥
मूलम्
इकि बैसाइ रखे ग्रिह अंतरि ॥ इकि पठाए देस दिसंतरि ॥ इक ही कउ घासु इक ही कउ राजा इन महि कहीऐ किआ कूड़ा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। ग्रिह = घर। पठाए = भेजे। देस दिसंतरि = देस देस अंतरि, और-और देशों में। इक ही कउ = कईयों को। इन महि = तेरे इन कामों में। कूड़ा = झूठा, गलत। किआ कहीऐ = क्या कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! कई जीव ऐसे हैं जिन्हें तूने घर में बैठाया हुआ है। कई ऐसे हैं जिनकों और-और देशों में भेजता है। कई जीवों को तूने घास काटने पर लगा दिया है, कईयों को तूने राजे बना दिया है। तेरे इन कामों में किसी काम को गलत नहीं कहा जा सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन सु मुकती कवन सु नरका ॥ कवनु सैसारी कवनु सु भगता ॥ कवन सु दाना कवनु सु होछा कवन सु सुरता कवनु जड़ा ॥६॥
मूलम्
कवन सु मुकती कवन सु नरका ॥ कवनु सैसारी कवनु सु भगता ॥ कवन सु दाना कवनु सु होछा कवन सु सुरता कवनु जड़ा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन = कौन? सैसारी = गृहस्थी। दाना = सियाना। होछा = मूर्ख, जल्दबाजी वाले स्वभाव का। सुरता = ऊँची तवज्जो वाला, उच्च सूझ वाला। जड़ा = जड़, मूर्ख।6।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे हुक्म से बाहर ना कोई मुक्ति है ना कोई नर्क है। तेरे हुक्म के बिना ना कोई गृहस्थी है ना कोई भक्त बन सकता है। ना कोई बड़े जिगरे वाला है ना कोई होछे स्वभाव वाला है। तेरे हुक्म के बिना ना कोई ऊँची सूझ वाला है ना कोई मूर्ख है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमे मुकती हुकमे नरका ॥ हुकमि सैसारी हुकमे भगता ॥ हुकमे होछा हुकमे दाना दूजा नाही अवरु धड़ा ॥७॥
मूलम्
हुकमे मुकती हुकमे नरका ॥ हुकमि सैसारी हुकमे भगता ॥ हुकमे होछा हुकमे दाना दूजा नाही अवरु धड़ा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुकमे = (तेरे) हुक्म में ही। हुकमि = हुक्म अनुसार। धड़ा = (तेरे मुकाबले पर) बल वाला।7।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे ही हुक्म में (किसी को) मूक्ति (मिलती) है, तेरे ही हुक्म में (किसी को) नर्क (मिलता) है। तेरे ही हुक्म में कोई गृहस्थी है और कोई भक्त है। हे प्रभु! तेरे ही हुक्म में कोई जल्दबाज स्वभाव और कोई गंभीर स्वभाव वाला है। तेरे मुकाबले पर और कोई धड़ा है ही नहीं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सागरु कीना अति तुम भारा ॥ इकि खड़े रसातलि करि मनमुख गावारा ॥ इकना पारि लंघावहि आपे सतिगुरु जिन का सचु बेड़ा ॥८॥
मूलम्
सागरु कीना अति तुम भारा ॥ इकि खड़े रसातलि करि मनमुख गावारा ॥ इकना पारि लंघावहि आपे सतिगुरु जिन का सचु बेड़ा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। अति भारा = बहुत बड़ा। खड़े = डाल दिए, भेज दिए। रसातलि = नर्क में। करि = कर के, बना के। मनमुख = मन के मुरीद। गावारा = मूर्ख। लंघावहि = तू लंघाता है। सच = सदा कायम रहने वाला। बेड़ा = जहाज।8।
अर्थ: हे प्रभु! यह बेअंत बड़ा संसार-समुंदर तूने स्वयं ही बनाया है। (यहाँ) कई जीवों को मन के मुरीद-मूर्ख बना के तू स्वयं ही नर्क में डालता है। कई जीवों को तूने खुद ही (इस संसार-समुंदर से) पार लंधा लेता है। जिनके लिए तू गुरु को सदा कायम रहने वाला जहाज बना देता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउतकु कालु इहु हुकमि पठाइआ ॥ जीअ जंत ओपाइ समाइआ ॥ वेखै विगसै सभि रंग माणे रचनु कीना इकु आखाड़ा ॥९॥
मूलम्
कउतकु कालु इहु हुकमि पठाइआ ॥ जीअ जंत ओपाइ समाइआ ॥ वेखै विगसै सभि रंग माणे रचनु कीना इकु आखाड़ा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउतकु = खेल तमाशा। कालु = मौत। हुकमि = हुक्म में। पठाइआ = भेजा। ओपाइ = पैदा कर के। समाया = लीन कर देता है, समाप्त कर देता है। विगसै = खुश होता है। सभि = सारे। माणे = माणता है। रचनु = जगत रचना। आखाड़ा = अखाड़ा।9।
अर्थ: हे भाई! यह काल (मौत, जो प्रभु का बनाया एक) खिलौना (ही है, उसने अपने) हुक्म अनुसार (जगत में) भेजा है। (प्रभु आप ही) सारे जीवों को पैदा करके खत्म कर देता है। (प्रभु आप ही इस तमाशे को) देख रहा है (और देख-देख के) खुश हो रहा है, (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सारे रंग भोग रहा है। इस जगत-रचना को उसने एक अखाड़ा बनाया हुआ है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडा साहिबु वडी नाई ॥ वड दातारु वडी जिसु जाई ॥ अगम अगोचरु बेअंत अतोला है नाही किछु आहाड़ा ॥१०॥
मूलम्
वडा साहिबु वडी नाई ॥ वड दातारु वडी जिसु जाई ॥ अगम अगोचरु बेअंत अतोला है नाही किछु आहाड़ा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाई = बड़ाई। जाई = जगह। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) इन्द्रियों की पहुँच से परे। आहाड़ा = माप, तोल।10।
अर्थ: हे भाई! वह मालिक प्रभु (बहुत) बड़ा है, उसकी बड़ाई (भी बहुत) बड़ी है, वह बहुत बड़ा दाता है, उसकी जगह (जहाँ वह रहता है बहुत) बड़ी है। वह अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं, बेअंत है, तोला नहीं जा सकता। उसके तोलने के लिए कोई भी माप-तोल नहीं है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीमति कोइ न जाणै दूजा ॥ आपे आपि निरंजन पूजा ॥ आपि सु गिआनी आपि धिआनी आपि सतवंता अति गाड़ा ॥११॥
मूलम्
कीमति कोइ न जाणै दूजा ॥ आपे आपि निरंजन पूजा ॥ आपि सु गिआनी आपि धिआनी आपि सतवंता अति गाड़ा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। निरंजन = (निर+अंजन) (माया के मोह की) कालिख से रहित। पूजा = पहुँचता है, बराबर का है। गिआनी = गहरी सांझ डालने वाला। धिआनी = तवज्जो जोड़ने वाला। गाढ़ा सतवंता = बहुत ऊँचे आचरण वाला।11।
अर्थ: हे भाई! और कोई भी जीव उसका मूल्य नहीं डाल सकता, वह निर्लिप प्रभु अपने बराबर का खुद ही है। वह आप ही अपने आप को जानने वाला है, आप ही अपने आप में समाधि लगाने वाला है। वह बहुत ही उच्च आचरण वाला है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केतड़िआ दिन गुपतु कहाइआ ॥ केतड़िआ दिन सुंनि समाइआ ॥ केतड़िआ दिन धुंधूकारा आपे करता परगटड़ा ॥१२॥
मूलम्
केतड़िआ दिन गुपतु कहाइआ ॥ केतड़िआ दिन सुंनि समाइआ ॥ केतड़िआ दिन धुंधूकारा आपे करता परगटड़ा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केतड़िआ दिन = अनेक दिन, बहुत सारा समय। गुपतु = छुपा हुआ। सुंनि = शून्य में, अफुर अवस्था में, उस हालत में जहाँ कोई फुरना नहीं उठता। धुंधूकारा = अंधेरा ही अंधेरा, वह हालत जो जीवों की समझ से परे है। करता = करता है।12।
अर्थ: हे भाई! (अब जगत बनने पर ज्ञानी लोग) कहते हैं कि बेअंत समय वह गुप्त ही रहा, बेअंत समय वह शून्य अवस्था में टिका रहा। बेअंत वक्त तक एक ऐसी अवस्था बनी रही जो जीवों की समझ से परे है। फिर उसने स्वयं ही अपने आप को (जगत के रूप में) प्रकट कर लिया।12।
[[1082]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सकती सबलु कहाइआ ॥ आपे सूरा अमरु चलाइआ ॥ आपे सिव वरताईअनु अंतरि आपे सीतलु ठारु गड़ा ॥१३॥
मूलम्
आपे सकती सबलु कहाइआ ॥ आपे सूरा अमरु चलाइआ ॥ आपे सिव वरताईअनु अंतरि आपे सीतलु ठारु गड़ा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। सबलु = बलवाला (परमात्मा)। सकती = शक्ति, माया। सूरा = सूरमा। अमरु = हुक्म। सिव = शिव, सुख, शांति। वरताईअनु = उसने बरताई हुई हैं। अंतरि = (सबके) अंदर। ठारु गड़ा = गड़े जैसा ठंडा ठार, ओले जैसा ठंडा।13।
अर्थ: हे भाई! बलवान परमात्मा स्वयं ही (अपने आप को) माया कहलवा रहा है। वह शूरवीर प्रभु स्वयं ही (सारे जगत में) हुक्म चला रहा है। (सब जीवों के) अंदर उसने स्वयं ही सुख-शांति बरताई हुई है, (क्योंकि) वह स्वयं ओले (बर्फ के गोले) की तरह शीतल ठंढा-ठार है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसहि निवाजे गुरमुखि साजे ॥ नामु वसै तिसु अनहद वाजे ॥ तिस ही सुखु तिस ही ठकुराई तिसहि न आवै जमु नेड़ा ॥१४॥
मूलम्
जिसहि निवाजे गुरमुखि साजे ॥ नामु वसै तिसु अनहद वाजे ॥ तिस ही सुखु तिस ही ठकुराई तिसहि न आवै जमु नेड़ा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसहि = जिस को। निवाजे = बख्शिश करता है। गुरमुखि साजे = गुरु की शरण ले के नई आत्मिक घाड़त घड़ता है। तिसु = उसके (दिल में)। अनहद = एक रस, लगातार। ठकुराई = सरदारी, उच्चता।14।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उसको गुरु की शरण में डाल के उसकी नई आत्मिक घाड़त घाड़ता है। उस (मनुष्य) के अंदर परमात्मा का नाम आ बसता है (मानो) उसके अंदर एक-रस बाजे (बज पड़ते हैं)। उसी मनुष्य को (सदा) आत्मिक आनंद प्राप्त रहता है, उसी को (परलोक में) आत्मिक अच्चता मिल जाती है। जमराज उसके नजदीक नहीं फटकता (मौत का डर, आत्मिक मौत उस पर असर नहीं डाल सकती)।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीमति कागद कही न जाई ॥ कहु नानक बेअंत गुसाई ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई हाथि तिसै कै नेबेड़ा ॥१५॥
मूलम्
कीमति कागद कही न जाई ॥ कहु नानक बेअंत गुसाई ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई हाथि तिसै कै नेबेड़ा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कागद = कागजों पर। नानक = हे नानक! गुसाई = धरती के पति-प्रभु! हाथि = हाथ में। तिसै कै हाथि = उसी के हाथ मे। नेबेड़ा = फैसला।15।
अर्थ: हे नानक! कह: सृष्टि का मालिक-प्रभु बेअंत है, कागजों पर (लिख कर) उसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। जगत के आरम्भ में, अब और अंत में भी वही कायम रहने वाला है। जीवों के कर्मों का फैसला उसी के हाथ में है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसहि सरीकु नाही रे कोई ॥ किस ही बुतै जबाबु न होई ॥ नानक का प्रभु आपे आपे करि करि वेखै चोज खड़ा ॥१६॥१॥१०॥
मूलम्
तिसहि सरीकु नाही रे कोई ॥ किस ही बुतै जबाबु न होई ॥ नानक का प्रभु आपे आपे करि करि वेखै चोज खड़ा ॥१६॥१॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! तिसहि सरीकु = उस (प्रभु) का शरीर (बराबर का)। बुता = बुक्ता, काम। बुतै = काम में। किस ही बुतै = (उसके) किसी भी काम में। जबाबु = उज्र, इन्कार। करि = कर के। चोज = तमाशे (बहुवचन)।16।
अर्थ: हे भाई! कोई भी जीव उस (परमात्मा) के बराबर का नहीं है। उसके किसी भी काम में किसी तरफ से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। नानक का प्रभु (हर जगह) स्वयं ही स्वयं है। वह स्वयं ही तमाशे कर-कर के खड़ा स्वयं ही देख रहा है।16।1।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ अचुत पारब्रहम परमेसुर अंतरजामी ॥ मधुसूदन दामोदर सुआमी ॥ रिखीकेस गोवरधन धारी मुरली मनोहर हरि रंगा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ अचुत पारब्रहम परमेसुर अंतरजामी ॥ मधुसूदन दामोदर सुआमी ॥ रिखीकेस गोवरधन धारी मुरली मनोहर हरि रंगा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचुत = (च्यु = to fall = च्युत = fallen) ना नाश होने वाला। परमेसुर = परम ईश्वर, सबसे बड़ा मालिक। अंतरजामी = सबके दिलों में पहुँचने वाला (या = to go)। मधुसूदन = मधू दैत्य को मारने वाला। दामोदर = (दाम+उदर) जिसके पेट के इर्दगिर्द रस्सी है। रिखीकेस = (हृषीक = इंद्रिय। ईस = मालिक) जगत की ज्ञान इन्द्रियों का मालिक। गोवरधन धारी = गौवर्धन पर्वत को उठाने वाला। मुरली मनोहर = सुंदर बाँसुरी वाला। रंगा = अनोकें रंग करिश्मे तमाशे।1।
अर्थ: हे कर्तार! तू अविनाशी है, तू पारब्रहम है, तू परमेश्वर है, तू अंतरजामी है। हे स्वामी! मधुसूदन और दामोदर भी तू ही है। हे हरि! तू ही ऋषिकेश गोवर्धन और मनोहर मुरलीवाला है। तू अनेक रंग-तमाशे कर रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन माधव क्रिस्न मुरारे ॥ जगदीसुर हरि जीउ असुर संघारे ॥ जगजीवन अबिनासी ठाकुर घट घट वासी है संगा ॥२॥
मूलम्
मोहन माधव क्रिस्न मुरारे ॥ जगदीसुर हरि जीउ असुर संघारे ॥ जगजीवन अबिनासी ठाकुर घट घट वासी है संगा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन = मन को मोह लेने वाला। माधव = (माया का धव) माया का पति। मुरारे = मुर दैत्य का वैरी, परमात्मा। जगदीसुर = जगत का ईश्वर। असुर संघारे = दैत्यों का नाश करने वाला। जग जीवन = जगत का जीवन आसरा। घट घट वासी = सब शरीरों में बसने वाला। संगा = संगि, साथ।2।
अर्थ: हे हरि जीउ! मेहन, माधव, कृष्ण मुरारी तू ही है। तू ही है जगत का मालिक, तू ही दैत्यों का नाश करने वाला। हे जगजीवन! हे अविनाशी ठाकुर! तू सब शरीरों में मौजूद है, तू सबके साथ बसता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरणीधर ईस नरसिंघ नाराइण ॥ दाड़ा अग्रे प्रिथमि धराइण ॥ बावन रूपु कीआ तुधु करते सभ ही सेती है चंगा ॥३॥
मूलम्
धरणीधर ईस नरसिंघ नाराइण ॥ दाड़ा अग्रे प्रिथमि धराइण ॥ बावन रूपु कीआ तुधु करते सभ ही सेती है चंगा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरणी धर = धरती का हिस्सा। ईस = ईश, मालिक। नाराइण = (नार = जल। अयन = घर) जिसका घर पानी (समुंदर) में है। दाड़ा अग्रे = दाड़ों के ऊपर। प्रिथमि = धरती। धराइण = उठाने वाला। बावन रूपु = वामन (वउणा) अवतार। करते = हे कर्तार! सेती = साथ।3।
अर्थ: हे धरती के आसरे! हे ईश्वर! तू ही है नरसिंह अवतार, तू है विष्णू जिसका निवास समुंदर में है। (वराह अवतार धार के) धरती को अपनी दाड़ों पर उठाने वाला भी तू ही है। हे कर्तार! (राजा बलि को छलने के लिए) तूने ही वामन-रूप धारण किया था। तू सब जीवों के साथ बसता है, (फिर भी तू सबसे) उत्तम है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्री रामचंद जिसु रूपु न रेखिआ ॥ बनवाली चक्रपाणि दरसि अनूपिआ ॥ सहस नेत्र मूरति है सहसा इकु दाता सभ है मंगा ॥४॥
मूलम्
स्री रामचंद जिसु रूपु न रेखिआ ॥ बनवाली चक्रपाणि दरसि अनूपिआ ॥ सहस नेत्र मूरति है सहसा इकु दाता सभ है मंगा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेखिआ = चक्र चिन्ह। बनवाली = बन है माला जिस की। चक्रपाणि = (पाणि = हाथ) जिसके हाथ में (सुदर्शन) चक्र है। दरसि अनूपिआ = उपमा रहित दर्शन वाला। सहस नेत्र = हजारों आँखों वाला। सहसा = हजारों। मंगा = माँगने वाला।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू वह श्री रामचंद्र है जिसका ना कोई रूप है ना रेख। तू ही है बनवाली और सुदर्शन चक्रधारी। तू बेमिसाल अलोकिक स्वरूप वाला है। तेरे हजारों नेत्र हैं, तेरी हजारों मूर्तियाँ हैं। तू ही अकेला दाता है, सारी दुनिया तुझसे माँगने वाली है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति वछलु अनाथह नाथे ॥ गोपी नाथु सगल है साथे ॥ बासुदेव निरंजन दाते बरनि न साकउ गुण अंगा ॥५॥
मूलम्
भगति वछलु अनाथह नाथे ॥ गोपी नाथु सगल है साथे ॥ बासुदेव निरंजन दाते बरनि न साकउ गुण अंगा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगति वडलु = भक्ति को प्यार करने वाला। अनथह नाथे = हे अनाथों के नाथ! गोपी नाथ = गोपियों के नाथ। बासुदेव = वासुदेव का। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के मोह की कालिख से रहित। दाते = हे दातार! साकउ = सकूँ। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता।5।
अर्थ: हे अनाथों के नाथ! तू भक्ति को प्यार करने वाला है! तू ही गोपियों का नाथ है। तू सब जीवों के साथ रहने वाला है। हे वासुदेव! हे निर्लिप दातार! मैं तेरे अनेक गुण बयान नहीं कर सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकंद मनोहर लखमी नाराइण ॥ द्रोपती लजा निवारि उधारण ॥ कमलाकंत करहि कंतूहल अनद बिनोदी निहसंगा ॥६॥
मूलम्
मुकंद मनोहर लखमी नाराइण ॥ द्रोपती लजा निवारि उधारण ॥ कमलाकंत करहि कंतूहल अनद बिनोदी निहसंगा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकंद = (मुकंदाति इति) मुक्ति देने वाला। लखमी नाराइण = लक्ष्मी का पति नारायण। निवारि = बेइज्जती से बचा के। उधारण = बचाने वाला। कमला कंत = हे माया के पति! करहि = तू करता है। कंतूहल = करिश्मे तमाशे। बिनोदी = आनंद लेने वाला। निसंगा = निर्लिप।6।
अर्थ: हे मुक्ति के दाते! हे सुंदर प्रभु! हे लक्ष्मी के पति नारायण! हे द्रोपदी को बेइज्जती से बचा के उसकी इज्जत रखने वाले! हे लक्ष्मी के पति! तू अनेक करिश्मे करता है। तू सारे आनंद लेने वाला है, और निर्लिप भी है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमोघ दरसन आजूनी स्मभउ ॥ अकाल मूरति जिसु कदे नाही खउ ॥ अबिनासी अबिगत अगोचर सभु किछु तुझ ही है लगा ॥७॥
मूलम्
अमोघ दरसन आजूनी स्मभउ ॥ अकाल मूरति जिसु कदे नाही खउ ॥ अबिनासी अबिगत अगोचर सभु किछु तुझ ही है लगा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमोघ = फल देने वाला, कभी खाली ना जाने वाला। आजूनी = जूनियों से रहित। संभउ = (स्वयंभु) अपने आप से प्रकट होने वाला। अकाल मूरति = जिसकी हस्ती काल से रहित है। खउ = क्षय, नाश। अबगत = (अव्यक्त) अदृष्ट। अगोचर = हे ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले! लगा = आसरे।7।
अर्थ: हे फल देने से कभी ना उकताने वाले दर्शनों वाले प्रभु! हे जूनि-रहित प्रभु! हे अपने आप से प्रकाश करने वाले प्रभु! हे मौत-रहित स्वरूप वाले! हे (ऐसे) प्रभु जिसका कभी नाश नहीं हो सकता! हे अविनाशी! हे अदृष्ट! हे अगोचर! (जगत की) हरेक चीज़ तेरे ही आसरे है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रीरंग बैकुंठ के वासी ॥ मछु कछु कूरमु आगिआ अउतरासी ॥ केसव चलत करहि निराले कीता लोड़हि सो होइगा ॥८॥
मूलम्
स्रीरंग बैकुंठ के वासी ॥ मछु कछु कूरमु आगिआ अउतरासी ॥ केसव चलत करहि निराले कीता लोड़हि सो होइगा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्री रंग = श्री रंग, हे लक्ष्मी के पति! कूरमु = कछुआ। आगिआ = तेरी आज्ञा में। अउतरासी = अवतार लिया। केसव = (केशा: प्रशस्या: सन्ति अस्य) हे सुंदर लंबे केशों वाले! निराले = अनोखे। कीता लोड़हि = (जो कुछ) तू करना चाहता है।8।
अर्थ: हे लक्ष्मी के पति! हे बैकुंठ के रहने वाले! मछ और कछुए (आदि) का तेरी ही आज्ञा में अवतार हुआ। हे सुंदर लंबे केशों वाले! तू (सदा) अनोखे करिश्मे करता है। जो कुछ तू करना चाहता है वही अवश्य होता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराहारी निरवैरु समाइआ ॥ धारि खेलु चतुरभुजु कहाइआ ॥ सावल सुंदर रूप बणावहि बेणु सुनत सभ मोहैगा ॥९॥
मूलम्
निराहारी निरवैरु समाइआ ॥ धारि खेलु चतुरभुजु कहाइआ ॥ सावल सुंदर रूप बणावहि बेणु सुनत सभ मोहैगा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निराहरी = निर+आहारी, (आहार = खुराक), अन्न के बिना जीवित रहने वाला। समाइआ = सब में व्यापक। धारि = धार के, रच के। खेलु = जगत तमाशा। चतुरभुज = चार बाँहों वाला, ब्रहमा। सावल = साँवले रंग वाला। बणावहि = तू बनाता है। बेणु = बाँसुरी। सुनत = सुनते हुए। सभ = सारी सृष्टि।9।
अर्थ: हे प्रभु! तू अन्न खाए बिना जीवित रहने वाला है, तेरा किसी के साथ वैर नहीं, तू सबमें व्यापक है। ये जगत-खेल रच के (तूने ही अपने आप को) ब्रहमा कहलवाया है। हे प्रभु! (कृष्ण जैसे) अनेक साँवले-सुंदर रूप तू बनाता रहता है। तेरी बाँसुरी सुनते ही सारी सृष्टि मोहित हो जाती है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बनमाला बिभूखन कमल नैन ॥ सुंदर कुंडल मुकट बैन ॥ संख चक्र गदा है धारी महा सारथी सतसंगा ॥१०॥
मूलम्
बनमाला बिभूखन कमल नैन ॥ सुंदर कुंडल मुकट बैन ॥ संख चक्र गदा है धारी महा सारथी सतसंगा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनमाला = पैरों तक लटकने वाली जंगली फूलों की माला, वैजयंती माला। बिभूखन = आभूषण, गहने। नैन = आँखें। बैन = बेन, बाँसुरी। गदा = गुरज। सारथी = रथवाही (कृष्ण अरजुन के रथवाह बना)।10।
अर्थ: हे प्रभु! सारी सृष्टि की वनस्पति तेरे आभूषण हैं। हे कमल-पुष्प जैसी आँखों वाले! हे सुंदर कुण्डलों वाले! हे मुकट धारी! हे बाँसुरी वाले! हे शँखधारी! हे चक्रधारी! हे गदाधारी! तू सत्संगियों का सबसे बड़ा सारथी (रथवाह, नेता) है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीत पीत्मबर त्रिभवण धणी ॥ जगंनाथु गोपालु मुखि भणी ॥ सारिंगधर भगवान बीठुला मै गणत न आवै सरबंगा ॥११॥
मूलम्
पीत पीत्मबर त्रिभवण धणी ॥ जगंनाथु गोपालु मुखि भणी ॥ सारिंगधर भगवान बीठुला मै गणत न आवै सरबंगा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पीत = पीला। पीतंबर = पीले वस्त्रों वाला (कृष्ण)। धणी = मालिक। मुखि = मुँह से। भणी = मैं उचारता हूँ। सारंगिधर = धनुषधारी। बीठुला = (विष्ठल, बीठल) माया के प्रभाव से परे रहने वाला। सरबंगा = सरब अंगा, सारे गुण।11।
अर्थ: हे पीले वस्त्रों वाले! हे तीनों भवनों के मालिक! तू ही सारे जगत का नाथ है, सृष्टि का पालनहार है। मैं (अपने) मुँह से (तेरा नाम) उचारता हूँ। हे धर्नुधारी! हे भगवान! हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले! मुझसे तेरे सारे गुण बयान नहीं हो सकते।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहकंटकु निहकेवलु कहीऐ ॥ धनंजै जलि थलि है महीऐ ॥ मिरत लोक पइआल समीपत असथिर थानु जिसु है अभगा ॥१२॥
मूलम्
निहकंटकु निहकेवलु कहीऐ ॥ धनंजै जलि थलि है महीऐ ॥ मिरत लोक पइआल समीपत असथिर थानु जिसु है अभगा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहकंटकु = (कंटक = काँटा, वैरी) जिसका कोई वैरी नहीं। निहकेवलु = वासना रहित। कहीऐ = कहा जाता है। धंनजै = (धनंजय। सर्वान् जनपदान् जित्वा, विक्तमादाय केवलं॥ मध्ये धनस्य तिष्ठामि, तेनाहुर्मां धनंजय: ॥) सारे जगत के धन को जीतने वाला। जलि = जल में। थलि = थल में। महीऐ = धरती पर (मही = धरती)। मिरत लोक = मातृ लोक। पइआल = पाताल। समीपत = नजदीक। असथित = सदा कायम रहने वाला। अभगा = अटूट।12।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का कोई वैरी नहीं है, उसको वासना-रहित कहा जाता है वही (सारे जगत के धन को जीतने वाला) धनंजय है। वह जल में है थल में है धरती पर (हर जगह) है। मातृ लोक में, पाताल में (सब जीवों के) नजदीक है। उसकी जगह हमेशा कायम रहने वाली है, कभी टूटने वाली नहीं।12।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पावन दुख भै भंजनु ॥ अहंकार निवारणु है भव खंडनु ॥ भगती तोखित दीन क्रिपाला गुणे न कित ही है भिगा ॥१३॥
मूलम्
पतित पावन दुख भै भंजनु ॥ अहंकार निवारणु है भव खंडनु ॥ भगती तोखित दीन क्रिपाला गुणे न कित ही है भिगा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। भै = (बहुवचन) सारे डर। भंजनु = नाश करने वाला। निवारणु = दूर करने वाला। भव = जनम मरण का चक्कर। तोखित = प्रसन्न होता है। कित ही गुणे = किसी भी (और) गुण से। भिगा = भीगता, पतीजता।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कित ही गुणे’ में से ‘कितु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा विकारियों को पवित्र करने वाला है, (जीवों के) सारे दुख सारे डर दूर करने वाला है, अहंकार दूर करने वाला है और जनम-मरण का चक्कर नाश करने वाला है। हे भाई! दीनों पर कृपा करने वाला प्रभु भक्ति से खुश होता है, किसी भी अन्य गुण से नहीं पतीजता।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरंकारु अछल अडोलो ॥ जोति सरूपी सभु जगु मउलो ॥ सो मिलै जिसु आपि मिलाए आपहु कोइ न पावैगा ॥१४॥
मूलम्
निरंकारु अछल अडोलो ॥ जोति सरूपी सभु जगु मउलो ॥ सो मिलै जिसु आपि मिलाए आपहु कोइ न पावैगा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउलो = खिला हुआ है। आपहु = अपने प्रयत्न से।14।
अर्थ: हे भाई! आकार-रहित परमात्मा को माया छल नहीं सकती, (माया के हमलों के आगे) वह डोलने वाला नहीं है। वह निरा नूर ही नूर है (उसके नूर से) सारा जगत खिल रहा है। (उस परमात्मा को) वही मनुष्य (ही) मिल सकता है, जिसको वह स्वयं मिलाता है। (उसकी मेहर के बिना निरे) अपने उद्यम से कोई भी मनुष्य उसको मिल नहीं सकता।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे गोपी आपे काना ॥ आपे गऊ चरावै बाना ॥ आपि उपावहि आपि खपावहि तुधु लेपु नही इकु तिलु रंगा ॥१५॥
मूलम्
आपे गोपी आपे काना ॥ आपे गऊ चरावै बाना ॥ आपि उपावहि आपि खपावहि तुधु लेपु नही इकु तिलु रंगा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। काना = कान्हा, कृष्ण। बाना = बन में। उपावहि = तू पैदा करता है। खपावहि = तू नाश करता है। लेपु = प्रभाव, असर, दबाव। इकु तिलु = रक्ती भर भी। रंगा = दुनिया के रंग तमाशों के।15।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही गोपियाँ है, स्वयं ही कृष्ण है। प्रभु खुद ही गऊओं को वृन्दावन में चराता है। हे प्रभु! तू स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही नाश करता है। दुनिया के रंग-तमाशों का तेरे ऊपर तिल भर भी असर नहीं होता।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक जीह गुण कवन बखानै ॥ सहस फनी सेख अंतु न जानै ॥ नवतन नाम जपै दिनु राती इकु गुणु नाही प्रभ कहि संगा ॥१६॥
मूलम्
एक जीह गुण कवन बखानै ॥ सहस फनी सेख अंतु न जानै ॥ नवतन नाम जपै दिनु राती इकु गुणु नाही प्रभ कहि संगा ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीह = जीभ। कवन = कौन कौन? सहस = हजार। फनी = फनों से। सेख = शेषनाग। नवतन = नया। इकु गुणु प्रभ = प्रभु का एक (भी) गुण। कहि संगा = कह सकता।16।
अर्थ: हे प्रभु! (मेरी) एक जीभ (तेरे) कौन-कौन से गुण बयान कर सकती है? हजार फनों वाला शेषनाग भी (तेरे गुणों का) अंत नहीं जानता। वह दिन-रात (तेरे) नए-नए नाम जपता है, पर, हे प्रभु! वह तेरा एक भी गुण बयान नहीं कर सकता।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओट गही जगत पित सरणाइआ ॥ भै भइआनक जमदूत दुतर है माइआ ॥ होहु क्रिपाल इछा करि राखहु साध संतन कै संगि संगा ॥१७॥
मूलम्
ओट गही जगत पित सरणाइआ ॥ भै भइआनक जमदूत दुतर है माइआ ॥ होहु क्रिपाल इछा करि राखहु साध संतन कै संगि संगा ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गही = पकड़ी। जगत पिता = हे जगत के पिता! भइआनक = भयानक, डरावने। दुतर = (दुष्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है। इछा = अच्छी भावना, मेहर की निगाह। करि = कर के। संगि = साथ।17।
अर्थ: हे जगत के पिता! मैंने तेरी ओट ली है, मैं तेरी शरण आया हूँ। जमदूत बड़े डरावने हैं, बड़े डर दे रहे हैं। माया (एक ऐसा समुंदर है जिस) में से पार लांघना मुश्किल है। हे प्रभु! दयावान हो, मुझे कृपा करके साधु-संगत में रख।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रिसटिमान है सगल मिथेना ॥ इकु मागउ दानु गोबिद संत रेना ॥ मसतकि लाइ परम पदु पावउ जिसु प्रापति सो पावैगा ॥१८॥
मूलम्
द्रिसटिमान है सगल मिथेना ॥ इकु मागउ दानु गोबिद संत रेना ॥ मसतकि लाइ परम पदु पावउ जिसु प्रापति सो पावैगा ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिसटिमान = जो कुछ दिख रहा है। मिथेना = मिथ्या, नाशवान। मागउ = मैं माँगता हूँ। रेना = चरण धूल। मसतकि = माथे पर। लाइ = लगा के। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पावउ = मैं प्राप्त करूँ। जिसु प्रापति = जिसके भाग्यों में प्राप्ति लिखी हुई है।18।
अर्थ: हे गोबिंद! ये दिखाई देता पसारा सब नाशवान है। मैं (तुझसे) एक (यह) दान माँगता हूँ (कि मुझे) संतजनों की चरण-धूल (मिले)। (ये धूल) मैं (अपने) माथे पर लगा के सबसे उच्च दर्जा हासिल करूँ। जिस के भाग्यों में तूने जिस चरण-धूल की प्राप्ति लिखी है वही हासिल कर सकता है।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ क्रिपा करी सुखदाते ॥ तिन साधू चरण लै रिदै पराते ॥ सगल नाम निधानु तिन पाइआ अनहद सबद मनि वाजंगा ॥१९॥
मूलम्
जिन कउ क्रिपा करी सुखदाते ॥ तिन साधू चरण लै रिदै पराते ॥ सगल नाम निधानु तिन पाइआ अनहद सबद मनि वाजंगा ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करी = की। जिन कउ = जिस पर। रिदै = हृदय में। पराते = परोए। नाम निधानु = नाम का खजाना। अनहद = एक रस। मनि = मन में। वाजंगा = बजते हैं।19।
अर्थ: हे सुखों के देने वाले! जिस पर तू मेहर करता है वह गुरु के चरणों को अपने हृदय में परो लेते हैं। उनको सारे खजानों से श्रेष्ठ नाम-खजाना मिल जाता है। उनके मन में (जैसे) एक-रस बाजे बजने लगते हैं।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरतम नाम कथे तेरे जिहबा ॥ सति नामु तेरा परा पूरबला ॥ कहु नानक भगत पए सरणाई देहु दरसु मनि रंगु लगा ॥२०॥
मूलम्
किरतम नाम कथे तेरे जिहबा ॥ सति नामु तेरा परा पूरबला ॥ कहु नानक भगत पए सरणाई देहु दरसु मनि रंगु लगा ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरतम = बनाए हुए, घड़े हुए। परा पूरबला = आदि कदीमों का। नानक = हे नानक! रंगु = आत्मिक आनंद।20।
अर्थ: हे प्रभु! (हमारी जीवों की) जीभ तेरे वह नाम उचारती है जो नाम (तेरे गुण देख-देख के जीवों ने) बनाए हुए हैं। पर ‘सतिनामु’ तेरा आदि कदीमी का नाम है (भाव, तू ‘अस्तित्व वाला’ है, तेरा यह ‘अस्तित्व’ जगत-रचना से पहले भी मौजूद था)। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) तेरे भक्त तेरी शरण पड़े रहते हैं, तू उनको दर्शन देता है, उनके मन में आनंद बना रहता है।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी गति मिति तूहै जाणहि ॥ तू आपे कथहि तै आपि वखाणहि ॥ नानक दासु दासन को करीअहु हरि भावै दासा राखु संगा ॥२१॥२॥११॥
मूलम्
तेरी गति मिति तूहै जाणहि ॥ तू आपे कथहि तै आपि वखाणहि ॥ नानक दासु दासन को करीअहु हरि भावै दासा राखु संगा ॥२१॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = आत्मिक हालत। मिति = तिथि, मिणती। तेरी गति मिति = तू कैसा है और कितना बड़ा है, ये बात। तै = और। को = का। दासा संगा = दासों की संगति में।21।
अर्थ: हे प्रभु! तू कैसा है और कितना बड़ा है; ये बात तू स्वयं ही जानता है। अपनी ‘गति मिति’ तू बता सकता है और खुद ही बयान करता है। हे प्रभु! नानक को दासों का दास बनाए रख। और, हे हरि! अगर तेरी मेहर हो तो (नानक को) अपने दासों की संगति में रख।21।2।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ अलह अगम खुदाई बंदे ॥ छोडि खिआल दुनीआ के धंधे ॥ होइ पै खाक फकीर मुसाफरु इहु दरवेसु कबूलु दरा ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ अलह अगम खुदाई बंदे ॥ छोडि खिआल दुनीआ के धंधे ॥ होइ पै खाक फकीर मुसाफरु इहु दरवेसु कबूलु दरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे) ईश्वर। खुदाई बंदे = हे खुदा के बंदे! धंधे = झमेले। पै खाकु फकीर = फकीरों के पैरों की खाक़। होइ = हो के। मुसाफरु = परदेसी। दरा = (प्रभु के) दर पे।1।
अर्थ: हे अल्लाह के बँदे! हे अगम्य (पहुँच से परे) रब के बंदे! हे ख़ुदा के बंदे! (निरे) दुनिया वाले ख्याल छोड़ दे, (निरे) दुनियावी झमेले छोड़ दे। रब के फकीरों के पैरों की खाक हो के (दुनिया में) मुसाफिर बना रह। इस तरह का फकीर रब के दर पर स्वीकार हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु निवाज यकीन मुसला ॥ मनसा मारि निवारिहु आसा ॥ देह मसीति मनु मउलाणा कलम खुदाई पाकु खरा ॥२॥
मूलम्
सचु निवाज यकीन मुसला ॥ मनसा मारि निवारिहु आसा ॥ देह मसीति मनु मउलाणा कलम खुदाई पाकु खरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरीनाम का स्मरण। यकीन = श्रद्धा। मुसला = मुसल्ला, वह फुहड़ी चादर जिस पर मुसलमान नमाज़ पढ़ता है। मनसा = मन का फुरना। मारि = मार के। निवारहु = दूर करो। आसा = (फकीर का) डंडा। देह = शरीर। मउलाणा = मौलवी। कलम खुदाई = खुदा का कलमा। पाकु = पवित्र।2।
अर्थ: हे ख़ुदा के बंदे! सदा कायम रहने वाले रब के नाम (की याद) को (अपनी) निमाज़ बना। रब के ऊपर भरोसा - ये तेरा मुसल्ला हो। हे ख़ुदा के फकीर! (अपने अंदर से) मन का फुरना मार के खत्म कर दे- इसको डंडा बना। (तेरा यह) शरीर (तेरी) मस्जिद हो, (तेरा) मन (उस मस्जिद में) मुल्ला (बना रहे)। (इस मन को सदा) पवित्र और साफ रख- ये तेरे लिए ख़ुदाई कलमा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरा सरीअति ले कमावहु ॥ तरीकति तरक खोजि टोलावहु ॥ मारफति मनु मारहु अबदाला मिलहु हकीकति जितु फिरि न मरा ॥३॥
मूलम्
सरा सरीअति ले कमावहु ॥ तरीकति तरक खोजि टोलावहु ॥ मारफति मनु मारहु अबदाला मिलहु हकीकति जितु फिरि न मरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरा सरीअति = शरह शरीअति, धार्मिक रहन-सहन, बाहरी धार्मिक रहित। ले = ले कर। तरीकति = मन को पवित्र करने का तरीका। तरक = त्याग। खोजि = खोज के। टोलावहु = ढूँढो। मारफति = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। अबदाला = हे अब्दाल फकीर! (फकीरों के पाँच दर्जे = वली, गौंस, कुतब, अबदाल और कलंदर)। हकीकति = मुसलमानों के अनुसार चौथा पद जहाँ रब के साथ मिलाप हो जाता है। जितु = जिस (मिलाप) से। मरा = मौत, आत्मिक मौत।3।
अर्थ: हे ख़ुदा के बंदे! (ख़ुदा का नाम) ले के बँदगी की कमाई करा कर- यह है असल शरह शरीअति (बाहरी धार्मिक रहन-सहन)। हे रब के बंदे! (स्वैभाव) त्याग के (अपने अंदर बसते रब को) खोज के ढूँढ- ये है मन को साफ़ रखने का तरीका। हे अब्दाल फकीर! अपने मन को वश में रख - यह है मारफति (आत्मिक जीवन की सूझ)। रब से मिला रह- ये है हकीकति (चौथा पद)। (ये हकीकति ऐसी है कि) इससे दोबारा आत्मिक मौत नहीं होती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुराणु कतेब दिल माहि कमाही ॥ दस अउरात रखहु बद राही ॥ पंच मरद सिदकि ले बाधहु खैरि सबूरी कबूल परा ॥४॥
मूलम्
कुराणु कतेब दिल माहि कमाही ॥ दस अउरात रखहु बद राही ॥ पंच मरद सिदकि ले बाधहु खैरि सबूरी कबूल परा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहि = में। कमाही = (नाम स्मरण की) कमाई कर। दस अउरात = दस औरतों को, दस इन्द्रियों को। बद राही = बुरे रास्ते से। पंच मरद = कामादिक पाँच सूरमे। सिदकि = सिदक से। ले = ले के, पकड़ के। बाधहु = बाँध रखो। खैरि = खैर से। (ख़ैरु = दान)। ख़ैरि सबूरी = संतोख के ख़ैर से। स्वीकार = स्वीकार।4।
अर्थ: हे ख़ुदा के बंदे! अपने दिल में खुदा के नाम की कमाई करता रह- ये है कुरान, ये है कतेबों की तालीम। हे ख़ुदा के बंदे! अपनी दस इन्द्रियों को बुरे रास्तों से रोक के रख! सिदक की मदद से पाँच कामादिक शूरवीरों को पकड़ के बाँध के रख। संतोख की ख़ैर की इनायत से तू खुदा के दर पर स्वीकार हो जाएगा।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मका मिहर रोजा पै खाका ॥ भिसतु पीर लफज कमाइ अंदाजा ॥ हूर नूर मुसकु खुदाइआ बंदगी अलह आला हुजरा ॥५॥
मूलम्
मका मिहर रोजा पै खाका ॥ भिसतु पीर लफज कमाइ अंदाजा ॥ हूर नूर मुसकु खुदाइआ बंदगी अलह आला हुजरा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मका = मक्का; देश अरब का वह प्रसिद्ध शहर जिसका दर्शन करने हर साल मुसलमान दूर दराज़ से पहुँचते हैं, हज़रत मुहम्मद साहिब मक्के में ही पैदा हुए थे। मिहर = तरस, दया। रोज़ा = रोजा। पै खाका = सबके पैरों की खाक होना। भिसतु = बहिश्त। पीर लफज = गुरु के वचन। अंदाजा = अंदाजे से, पूरी तौर पर। हूर = बहिश्त की सुंदर स्त्रीयां। नूर = परमात्मा का प्रकाश। मुसकु = सुगंधी। खुदाइआ = खुदा की बँदगी। बंदगी अलह = अल्लाह की बंदगी। आला = आहला, श्रेष्ठ। हुजरा = बँदगी करने के लिए एक अलग छोटा सा कमरा।5।
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (दिल में सबक लिए) तरस को (हज-स्थान) मक्का (समझ)। (सबके) पैरों की ख़ाक हुए रहना (असल) रोज़ा है। गुरु के वचन पर पूरी तरह से चलना -ये है बहिश्त। ख़ुदा के नूर का जहूर ही हूरें हैं, ख़ुदा की बूँदगी ही कसतूरी है। ख़ुदा की बँदगी ही सबसे बढ़िया हुजरा है (जहाँ मन विकारों से हट के एक ठिकाने पर रह सकता है)।5।
[[1084]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु कमावै सोई काजी ॥ जो दिलु सोधै सोई हाजी ॥ सो मुला मलऊन निवारै सो दरवेसु जिसु सिफति धरा ॥६॥
मूलम्
सचु कमावै सोई काजी ॥ जो दिलु सोधै सोई हाजी ॥ सो मुला मलऊन निवारै सो दरवेसु जिसु सिफति धरा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाले ख़ुदा की याद। सोधै = सोधता है, पड़तालता है पवित्र रखता है। हाजी = मक्के का हज करने वाला, हज के मौक पर मक्के का दर्शन करने वाला। मलऊन = विकारों को। निवारै = दूर करता है। जिसु धरा = जिस का आसरा।6।
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले अल्लाह की बंदगी करता है वह है (असल) काज़ी। जो मनुष्य अपने दिल को पवित्र रखने का प्रयत्न करता रहता है वही है (असल) हज करने वाला। जो मनुष्य (अपने अंदर से) विकारों को दूर करता है वह (असल) मुल्ला है। जिस मनुष्य को ख़ुदा की महिमा का सहारा है वह (असल) फ़कीर।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभे वखत सभे करि वेला ॥ खालकु यादि दिलै महि मउला ॥ तसबी यादि करहु दस मरदनु सुंनति सीलु बंधानि बरा ॥७॥
मूलम्
सभे वखत सभे करि वेला ॥ खालकु यादि दिलै महि मउला ॥ तसबी यादि करहु दस मरदनु सुंनति सीलु बंधानि बरा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखत = वक्त (शब्द ‘वक़त’ इस्लामी शब्द है, और ‘वेला’ व ‘बेला’ हिन्दका शब्द है)। खालकु = सृष्टि को पैदा करने वाला। दस मरदनु = दसों (इन्द्रियों) को जीत लेने वाला रब, दसों इन्द्रियों को वश में करा देने वाला अल्लाह। सीलु = अच्छा स्वभाव। बंधानि = परहेज़, विकारों से संकोच। बरा = श्रेष्ठ।7।
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! हर वक्त हर समय ख़ालक को मौला को अपने दिल में याद करता रह। हर वक्त ख़ुदा को याद करते रहो- यही है तसब्बी। वह ख़ुदा दसों इन्द्रियों को वश में ला सकता है। हे ख़ुदा के बँदे! अच्छा स्वभाव और (विकारों से) मज़बूती से परहेज़ ही सुन्नत (समझ)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिल महि जानहु सभ फिलहाला ॥ खिलखाना बिरादर हमू जंजाला ॥ मीर मलक उमरे फानाइआ एक मुकाम खुदाइ दरा ॥८॥
मूलम्
दिल महि जानहु सभ फिलहाला ॥ खिलखाना बिरादर हमू जंजाला ॥ मीर मलक उमरे फानाइआ एक मुकाम खुदाइ दरा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी श्रेष्ठ। फिलहाला = नाशवान, चंद रोजा। बिरादर = हे भाई! खिलखाना = परिवार, घराना, कुटुम्ब। हमू = सारा। मीर = शाह। उमरे = अमीर लोग। फानाइआ = नाशवान, फनाह होने वाले। मुकाम = कायम रहने वाला।8।
अर्थ: हे अल्लाह के बँदे! सारी रचना का अपने दिल में नाशवान जान। हे भाई! ये घराना/कुटुम्ब (परिवार आदि) का मोह सब बंधन (में फसाने वाले ही) हैं। शाह, पातशाह, अमीर लोक सब नाशवान हैं। सिर्फ ख़ुदा का दर ही सदा कायम रहने वाला है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवलि सिफति दूजी साबूरी ॥ तीजै हलेमी चउथै खैरी ॥ पंजवै पंजे इकतु मुकामै एहि पंजि वखत तेरे अपरपरा ॥९॥
मूलम्
अवलि सिफति दूजी साबूरी ॥ तीजै हलेमी चउथै खैरी ॥ पंजवै पंजे इकतु मुकामै एहि पंजि वखत तेरे अपरपरा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवलि = (निमाज़ का) पहला (वक्त)। दूजी = दूसरी (निमाज़)। साबूरी = संतोख। तीजै = (निमाज़ के) तीसरे (वक्त)। हलेमी = निम्रता। चउथै = चौथे (वक्त) में। खैरी = सबका भला माँगना। पंजे = (कामादिक) पाँच ही। इकतु = एक में। इकतु मुकामै = एक ही जगह में, वश में (रखने)। एहि = वे। वखत = निमाज़ के वक्त। अपर परा = परे से परे, बहुत बढ़िया।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (तेरी उम्र के) ये पाँच वक्त तेरे वास्ते बड़े ही लाभदायक हो सकते हैं (अगर तू) पहले वक्त में रब की महिमा करता रहे, अगर संतोष तेरी दूसरी निमाज़ हो, निमाज़ के तीसरे वक्त में तू विनम्रता धारण करे, और चौथे वक्त में तू सबका भला माँगे, अगर पाँचवें वक्त में तू कामादिक पाँचों को ही वश में रखे (भाव, रब की महिमा, संतोष, विनम्रता, सबका भला माँगना और कामादिक पाँचों को वश में रखना- ये पाँच हैं आत्मिक जीवन की पाँच निमाज़ें, और ये जीवन को बहुत ऊँचा करती हैं)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगली जानि करहु मउदीफा ॥ बद अमल छोडि करहु हथि कूजा ॥ खुदाइ एकु बुझि देवहु बांगां बुरगू बरखुरदार खरा ॥१०॥
मूलम्
सगली जानि करहु मउदीफा ॥ बद अमल छोडि करहु हथि कूजा ॥ खुदाइ एकु बुझि देवहु बांगां बुरगू बरखुरदार खरा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगली = सारी (सृष्टि) में। सउफीदा = वज़ीफा, इस्लामी श्रद्धा अनुसार सदा जारी रखने वाला एक पाठ। बद अमल = बुरे काम। हथि = हाथ में। कूजा = कूज़ा, लोटा, असतावा। बुझि = समझ के। बुरगू = सिंगी जो मुसलमान फकीर बजाते हैं। बरखुरदार = भला बच्चा। खरा = अच्छा।10।
अर्थ: हे अल्ला के बँदे! सारी सृष्टि में एक ही ख़ुदा को बसता जान- इसको तू हर वक्त अपना रूहानी सलाम का पाठ बनाए रख। बुरे काम करने छोड़ दे- ये पानी का लोटा तू अपने हाथ में पकड़ (शरीर की स्वच्छता के लिए)। ये यकीन बना कि सारी सृष्टि का एक ही ख़ुदा है; ये बाँग सदा दिया कर। हे फकीर सांई! ख़ुदा अच्छा पुत्र बनने का प्रयत्न किया कर-ये सिंज्ञीं बजाया कर।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हकु हलालु बखोरहु खाणा ॥ दिल दरीआउ धोवहु मैलाणा ॥ पीरु पछाणै भिसती सोई अजराईलु न दोज ठरा ॥११॥
मूलम्
हकु हलालु बखोरहु खाणा ॥ दिल दरीआउ धोवहु मैलाणा ॥ पीरु पछाणै भिसती सोई अजराईलु न दोज ठरा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हकु = हक की कमाई, अपनी नेक मेहनत से कमाई हुई माया। बखोरहु = खाओ। मैलाणा = विकारों की मैल। पीरु = गुरु, राहबर। भिसती = बहिश्त का हकदार। दोज = दोज़क (में)। ठरा = ठेलता, फेंकता।11।
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! हक की कमाई करा कर- ये है ‘हलाल’, ये खाना खाया कर। (दिल में से भेद भाव निकाल के) दिल को दरिया बनाने का प्रयत्न कर, (इस तरह) दिल की (विकारों की) मैल धोया कर।
हे अल्लाह के बँदे! जो मनुष्य अपने गुरु-पीर (के हुक्म) को पहचानता है, वह बहिश्त का हकदार बन जाता है, अज़राइल उसको दोज़क में नहीं फैंकता।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ किरदार अउरत यकीना ॥ रंग तमासे माणि हकीना ॥ नापाक पाकु करि हदूरि हदीसा साबत सूरति दसतार सिरा ॥१२॥
मूलम्
काइआ किरदार अउरत यकीना ॥ रंग तमासे माणि हकीना ॥ नापाक पाकु करि हदूरि हदीसा साबत सूरति दसतार सिरा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। किरदार = अमल, अच्छे बुरे काम। अउरत = स्त्री। अउरत यकीना = पतिव्रता स्त्री। हकीना = हक के, रब के मिलाप के। नापाक = अपवित्र। पाकु = पवित्र। हदीस = पैग़ंबरी पुस्तक जिसको कुरान के बाद दूसरा दर्जा दिया जाता है, इसमें इस्लामी शरह की हिदायत है। हदूरि हदीसा = हजूरी हदीस, रूहानी शरह की किताब। साबत सूरति = (सुन्नत, लबें काटने आदि की शरह ना कर के) शरीर को ज्यों का त्यों रखना। दसतार सिरा = सिर पर दस्तार (का कारण बनती है), इज्जत आदर का साधन है।12।
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! अपने इस शरीर को, जिसके द्वारा सदा अच्छे-बुरे काम किए जाते हैं अपनी वफ़ादार औरत (पतिव्रता स्त्री) बना, (और, विकारों के रंग-तमाशों में डूबने की जगह, इस पतिव्रता स्त्री के माध्यम से) रूब के मिलाप के रंग-तमाशे भोगा कर। हे अल्ला के बँदे! (विकारों में) मलीन हो रहे मन को पवित्र करने का प्रयत्न कर- यही है रूब के मिलाप पैदा करने वाली शरह की किताब। (सुन्नत, लबें कटाने आदि की शरह छोड़ के) अपनी शकल को ज्यों का त्यों रख- यह (लोक-परलोक में) इज्जत-सम्मान प्राप्त करने का साधन बन जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुसलमाणु मोम दिलि होवै ॥ अंतर की मलु दिल ते धोवै ॥ दुनीआ रंग न आवै नेड़ै जिउ कुसम पाटु घिउ पाकु हरा ॥१३॥
मूलम्
मुसलमाणु मोम दिलि होवै ॥ अंतर की मलु दिल ते धोवै ॥ दुनीआ रंग न आवै नेड़ै जिउ कुसम पाटु घिउ पाकु हरा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिलि = दिल वाला। मोम दिलि = मोम जैसे (नर्म) दिल वाला। अंतर की = अंदर की। ते = से। कुसम = फूल। पाटु = रेशम। पाकु = पवित्र। हरा = (हारिण) हिरन की खाल, मृग छाला।13।
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (असल) मुसलमान वह है जो मोम जैसे नर्म दिल वाला होता है और जो अपने दिल के अंदरूनी (विकारों की) मैल धो देता है। (वह मुसलमान) दुनियावी रंग-तमाशों के नजदीक नहीं फटकता (जो इस तरह पवित्र रहता है) जैसे फूल रेशम घी और मृगछाला पवित्र (रहते हैं)।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ मिहर मिहर मिहरवाना ॥ सोई मरदु मरदु मरदाना ॥ सोई सेखु मसाइकु हाजी सो बंदा जिसु नजरि नरा ॥१४॥
मूलम्
जा कउ मिहर मिहर मिहरवाना ॥ सोई मरदु मरदु मरदाना ॥ सोई सेखु मसाइकु हाजी सो बंदा जिसु नजरि नरा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरदाना = सूरमा। सेखु = शेख। नरा = नरहर, परमात्मा।14।
अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! जिस मनुष्य पर मेहरवान (मौला) की हर वक्त मेहर रहती है, (विकारों के मुकाबले पर) वही मनुष्य सूरमा मर्द (साबित होता) है। वही है (असल) शेख मसाइक और हाज़ी, वही है (असल) ख़ुदा का बँदा जिस पर ख़ुदा की मेहर की निगाह रहती है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुदरति कादर करण करीमा ॥ सिफति मुहबति अथाह रहीमा ॥ हकु हुकमु सचु खुदाइआ बुझि नानक बंदि खलास तरा ॥१५॥३॥१२॥
मूलम्
कुदरति कादर करण करीमा ॥ सिफति मुहबति अथाह रहीमा ॥ हकु हुकमु सचु खुदाइआ बुझि नानक बंदि खलास तरा ॥१५॥३॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुदरति कादर = कादर की कुदरत को, कर्तार की रची रचना को। करण करीमा = करीम के करण को, बख्शिंद प्रभु के रचे जगत को। रहीम = रहम करने वाला रब। मुहबति = प्यार। हकु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम को। बुझि = समझ के। बंदि = माया के मोह के बंधन। तरा = तैर जाते हैं15।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे ख़ुदा के बँदे! कादर की कुदरति को, बख्शिंद मालिक के रचे हुए जगत को, बेअंत गहरे रहिम-दिल ख़ुदा की मुहब्बत और महिमा को, सदा कायम रहने वाले प्रभु के हुक्म को, सदा कायम रहने वाले ख़ुदा को समझ के माया के मोह के बंधनो से मुक्ति मिल जाती है, और, संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है।15।3।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ॥ पारब्रहम सभ ऊच बिराजे ॥ आपे थापि उथापे साजे ॥ प्रभ की सरणि गहत सुखु पाईऐ किछु भउ न विआपै बाल का ॥१॥
मूलम्
मारू महला ५ ॥ पारब्रहम सभ ऊच बिराजे ॥ आपे थापि उथापे साजे ॥ प्रभ की सरणि गहत सुखु पाईऐ किछु भउ न विआपै बाल का ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ ऊच = सबसे ऊँचा। बिराजे = टिका हुआ हैं आपे = आप ही। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। साजे = साजता है, बनाता है। गहत = पकड़ते हुए। पाईऐ = पाते हैं। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। बाल = बाला, माया।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबसे ऊँचे (आत्मिक) ठिकाने पर टिका रहता है, वह खुद ही (सबको) पैदा करके आप ही नाश करता है, वह स्वयं ही रचना रचता है। हे भाई! उस परमात्मा का आसरा लेने से आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ रहता है, माया के मोह का डर तिल मात्र भी अपना जोर नहीं डाल सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ रकत किरम महि नही संघारिआ ॥ अपना सिमरनु दे प्रतिपालिआ ओहु सगल घटा का मालका ॥२॥
मूलम्
गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ रकत किरम महि नही संघारिआ ॥ अपना सिमरनु दे प्रतिपालिआ ओहु सगल घटा का मालका ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनहि = जिनि ही, जिस ने। उबारिआ = बचाया। रकत = रक्त, लहू। किरम = कीड़े। नही संघारिआ = नहीं मरने दिया। दे = दे के। प्रतिपालिआ = रक्षा की। घट = शरीर।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिनहि’ में से ‘जिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (जीवों को) माँ की पेट की आग में बचाए रखा, जिसने माँ का लहू के कृमियों के बीच (जीव को) मरने ना दिया उसने (तब) अपने (नाम का) स्मरण दे के रक्षा की। हे भाई! वह प्रभु सारे जीवों का मालिक है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण कमल सरणाई आइआ ॥ साधसंगि है हरि जसु गाइआ ॥ जनम मरण सभि दूख निवारे जपि हरि हरि भउ नही काल का ॥३॥
मूलम्
चरण कमल सरणाई आइआ ॥ साधसंगि है हरि जसु गाइआ ॥ जनम मरण सभि दूख निवारे जपि हरि हरि भउ नही काल का ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरण कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। साध संगि = साधु-संगत में। जसु = महिमा। सभि = सारे। जनम मरन सभि दूख = जनम से मरने तक के सारे दुख, सारी उम्र के दुख। निवारे = दूर करता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य प्रभु के सोहणें चरणों की शरण में आ जाता है, जो मनुष्य साधु-संगत में (रह के) परमात्मा की महिमा करता है, परमात्मा उसके सारी उम्र के दुख दूर कर देता है। परमात्मा का नाम जप-जप के उसको (आत्मिक) मौत का डर नहीं रह जाता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समरथ अकथ अगोचर देवा ॥ जीअ जंत सभि ता की सेवा ॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज बहु परकारी पालका ॥४॥
मूलम्
समरथ अकथ अगोचर देवा ॥ जीअ जंत सभि ता की सेवा ॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज बहु परकारी पालका ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = सब ताकतों का मालिक। अकथ = जिसके स्वरूप का बयान ना किया जा सके। अगोचर = (अ+गो+चर) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। सेवा = प्रकाश रूप। सभि = सारे। ता की = उस (परमात्मा की)। सेवा = शरण। अंडज = अंड+ज, अण्डे से पैदा होने वाले। उतभुज = (उद्भिज्ज = sprouting, germinating as a plant) धरती में से उगने वाले। बहु परकारी = अनेक तरीके से।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, उसका स्वरूप सही तरह से बयान नहीं किया जा सकता, वह ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, वह नूर ही नूर है। सारे जीव-जंतुओं को उसी का ही आसरा है। हे भाई! अंडज-जेरज-सेतज-उत्भुज -इन चारों ही खाणियों के जीवों को वह कई तरीकों से पालने वाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसहि परापति होइ निधाना ॥ राम नाम रसु अंतरि माना ॥ करु गहि लीने अंध कूप ते विरले केई सालका ॥५॥
मूलम्
तिसहि परापति होइ निधाना ॥ राम नाम रसु अंतरि माना ॥ करु गहि लीने अंध कूप ते विरले केई सालका ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसहि = उसको ही। निधाना = खजाना। रसु = आनंद, स्वाद। माना = माणता है। करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। कूप = कूआँ। अंध कूप ते = अंधे कूएँ से। सालका = संत।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! उस-उस मनुष्य को ही (नाम का) खजाना मिलता है, वही मनुष्य परमात्मा के नाम का आनंद अपने अंदर उठाते हैं, जिनको (उनका) हाथ पकड़ कर (परमातमा माया के मोह के) अंधे कूएँ में से निकाल लेता है। पर, हे भाई! ऐसे कोई विरले ही संत होते हैं।5।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि अंति मधि प्रभु सोई ॥ आपे करता करे सु होई ॥ भ्रमु भउ मिटिआ साधसंग ते दालिद न कोई घालका ॥६॥
मूलम्
आदि अंति मधि प्रभु सोई ॥ आपे करता करे सु होई ॥ भ्रमु भउ मिटिआ साधसंग ते दालिद न कोई घालका ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = शुरू में। मधि = बीच, अब। अंति = (रचना के) अंत में। आपे = आप ही। भ्रमु = भटकना। साध संग ते = साधु-संगत से। दालिद = दरिद्र, गरीबी, दुख। घालका = नाश करने वाला, आत्मिक मौत लाने वाला।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाला’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाला’, यहां ‘गुपाला’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत की इनायत से जिस मनुष्यों की हरेक भटकना, जिनका हरेक डर दूर हो जाता है, कोई भी दुख-कष्ट उनकी आत्मिक मौत नहीं ला सकते, उन्हें (जगत के) आदि में, अब, और आखिर में (कायम रहने वाला) वह परमात्मा ही दिखता है, (उनको निश्चय होता है कि) कर्तार स्वयं ही जो कुछ करता है वही होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतम बाणी गाउ गुोपाला ॥ साधसंगति की मंगहु रवाला ॥ बासन मेटि निबासन होईऐ कलमल सगले जालका ॥७॥
मूलम्
ऊतम बाणी गाउ गुोपाला ॥ साधसंगति की मंगहु रवाला ॥ बासन मेटि निबासन होईऐ कलमल सगले जालका ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवाला = चरण धूल। बासना = वासना। मेटि = मिटा के। निबासन = वासना रहित। होईऐ = हो जाते हैं। कलमल = पाप। सगले = सारे। जालका = जला लेते।7।
अर्थ: हे भाई! जीवन को ऊँचा करने वाली महिमा की वाणी गाया करो, (हर वक्त) साधु-संगत की चरण-धूल माँगा करो, (इस तरह अपने अंदर की) सारी वासनाएं मिटा के वासना-रहित हो जाया जाता है, और अपने सारे पाप जला लिए जाते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संता की इह रीति निराली ॥ पारब्रहमु करि देखहि नाली ॥ सासि सासि आराधनि हरि हरि किउ सिमरत कीजै आलका ॥८॥
मूलम्
संता की इह रीति निराली ॥ पारब्रहमु करि देखहि नाली ॥ सासि सासि आराधनि हरि हरि किउ सिमरत कीजै आलका ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रीति = मर्यादा, जीवन चाल। निराली = अलग। करि = कर के, समझ के। नाली = (अपने) साथ ही। देखहि = देखते हैं (बहुवचन)। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। किउ कीजै = क्यों किया जाए? नहीं करना चाहिए। आलका = आलस, ढील।8।
अर्थ: हे भाई! संत जनों की (दुनियां के लोगों से) ये अलग ही जीवन चाह है, कि वह परमात्मा को (सदा अपने) साथ ही बसता देखते हैं। हे भाई! संत जन हरेक सांस के साथ परमात्मा की आराधना करते रहते हैं (वे जानते हैं कि) परमात्मा का नाम स्मरण करने से कभी आलस नहीं करना चाहिए।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह देखा तह अंतरजामी ॥ निमख न विसरहु प्रभ मेरे सुआमी ॥ सिमरि सिमरि जीवहि तेरे दासा बनि जलि पूरन थालका ॥९॥
मूलम्
जह देखा तह अंतरजामी ॥ निमख न विसरहु प्रभ मेरे सुआमी ॥ सिमरि सिमरि जीवहि तेरे दासा बनि जलि पूरन थालका ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। अंतरजामी = हे सबके दिल की जानने वाले! निमख = (निमेश) आँख झपकने जितना समय। प्रभ = हे प्रभु! सिमरि = स्मरण करके। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। बनि = जंगल में। जलि = जल में। थालका = थल में। पूरन = विआपक।9।
अर्थ: हे हरेक के दिल की जानने वाले! मैं जिधर देखता हूँ, उधर (मुझे तू ही दिखता है)। हे मेरे मालिक प्रभु! (मेहर कर, मुझे) आँख झपकनें जितने समय के लिए भी ना बिसर। हे प्रभु! तेरे दास तुझे स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन हासिल करते रहते हैं। हे प्रभु! तू जंगल में जल में थल में (हर जगह बसता है)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तती वाउ न ता कउ लागै ॥ सिमरत नामु अनदिनु जागै ॥ अनद बिनोद करे हरि सिमरनु तिसु माइआ संगि न तालका ॥१०॥
मूलम्
तती वाउ न ता कउ लागै ॥ सिमरत नामु अनदिनु जागै ॥ अनद बिनोद करे हरि सिमरनु तिसु माइआ संगि न तालका ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाउ = हवा। तती वाउ = गरम हवा, थोड़ा सा भी दुख। ता कउ = उस (मनुष्य) को। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागै = जागता रहता है, (विकारों के हमलों से) सचेत रहता है। अनद बिनोद = आत्मिक आनंद खुशियां। संगि = साथ। तालका = तालुक, मेल जोल।10।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए हर वक्त (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है, उसको रक्ती भर भी कोई दुख नहीं पोह सकता। वह मनुष्य (ज्यों-ज्यों) परमात्मा के नाम का स्मरण करता है (त्यों-त्यों) आत्मिक आनंद पाता है, उसका माया के साथ गहरा संबंध नहीं बनता।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोग सोग दूख तिसु नाही ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाही ॥ आपणा नामु देहि प्रभ प्रीतम सुणि बेनंती खालका ॥११॥
मूलम्
रोग सोग दूख तिसु नाही ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाही ॥ आपणा नामु देहि प्रभ प्रीतम सुणि बेनंती खालका ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु = उस (मनुष्य) को। गाही = गाहि, गाते हैं। साधसंगि = साधु-संगत में। प्रभ = हे प्रभु! खालका = हे ख़ालक! हे सृष्टि के पैदा करने वाले!।11।
अर्थ: हे भाई! उस उस मनुष्य को कोई रोग-सोग दुख छू नहीं सकते, जो गुरु की संगति में टिक के परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहते हैं। हे प्रीतम प्रभु! हे सृष्टि के पैदा करने वाले! (मेरी भी) विनती सुन, (मुझे भी) अपना नाम दे।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम रतनु तेरा है पिआरे ॥ रंगि रते तेरै दास अपारे ॥ तेरै रंगि रते तुधु जेहे विरले केई भालका ॥१२॥
मूलम्
नाम रतनु तेरा है पिआरे ॥ रंगि रते तेरै दास अपारे ॥ तेरै रंगि रते तुधु जेहे विरले केई भालका ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिआरे = हे प्यारे! रतनु = बहुत कीमती पदार्थ। तेरै रंगि = तेरे प्यार रंग में रंगे हुए। अपारे = हे बेअंत! जेहे = जैसे। भालका = ढूँढते हैं।12।
अर्थ: हे प्यारे! तेरा नाम बहुत ही कीमती पदार्थ है। हे बेअंत प्रभु! तेरे दास तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। हे प्रभु जो मनुष्य तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, वे तेरे जैसे ही हो जाते हैं। पर ऐसे बंदे बहुत विरले मिलते हैं।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन की धूड़ि मांगै मनु मेरा ॥ जिन विसरहि नाही काहू बेरा ॥ तिन कै संगि परम पदु पाई सदा संगी हरि नालका ॥१३॥
मूलम्
तिन की धूड़ि मांगै मनु मेरा ॥ जिन विसरहि नाही काहू बेरा ॥ तिन कै संगि परम पदु पाई सदा संगी हरि नालका ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मांगै = माँगता है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: यहाँ मात्रा ‘ं’ प्रयोग की गई है। शीर्षक के शब्द ‘महला’ के साथ बरते हुए अंक १,२,३,४,५,९ को कैसे पढ़ना है; इस बारे सारे गुरु ग्रंथ साहिब जी में तीन-चार बार ही हिदायत दी गई है। बाकी हरेक जगह उसी हिदायत को बरतना है कि इन अंको को पहिला, दूजा, तीजा, चौथा, पंजवां, नौवां पढ़ना है। इसी तरह ‘ं’ की प्रयोग भी बहुत कम जगहों पर किया गया है, सिर्फ हिदायत मात्र ही। आवश्यक्ता अनुसार और जगहों पर भी पाठ करने के वक्त ये ‘ं’ मात्रा लगा के पढ़नी है)।
दर्पण-भाषार्थ
काहू बेरा = किसी भी वक्त। विसरहि = तू बिसरता। कै संगि = की संगति में परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाई = मैं पा सकूँ। संगी = साथी। नालका = साथ।13।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों को तू किसी भी वक्त भूलता नहीं, मेरा मन उनके चरणों की धूल माँगता है। हे भाई! (ऐसे) उन मनुष्यों की संगति में मैं भी (उस प्रभु की मेहर से) ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर सकूँगा, और परमात्मा (मेरा) सदा साथी बना रहेगा।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजनु मीतु पिआरा सोई ॥ एकु द्रिड़ाए दुरमति खोई ॥ कामु क्रोधु अहंकारु तजाए तिसु जन कउ उपदेसु निरमालका ॥१४॥
मूलम्
साजनु मीतु पिआरा सोई ॥ एकु द्रिड़ाए दुरमति खोई ॥ कामु क्रोधु अहंकारु तजाए तिसु जन कउ उपदेसु निरमालका ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्का कर दे। दुरमति = खोटी मति। खोई = दूर कर के। तजाए = छुड़ा दे। कउ = को। निरमालका = पवित्र करने वाला।14।
अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य मेरा प्यारा सज्जन है, मित्र है, जो मेरी खोटी मति दूर कर के (मेरे हृदय में) एक (परमात्मा की याद) को पक्का कर दे, जो मुझमें से काम क्रोध अहंकार (को) हटा दे। हे भाई! उस मनुष्य को ऐसा उपदेश (उठता है जो सुनने वालों को) पवित्र कर देता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधु विणु नाही कोई मेरा ॥ गुरि पकड़ाए प्रभ के पैरा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर पूरे जिनि खंडिआ भरमु अनालका ॥१५॥
मूलम्
तुधु विणु नाही कोई मेरा ॥ गुरि पकड़ाए प्रभ के पैरा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर पूरे जिनि खंडिआ भरमु अनालका ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। हउ = मैं। जिनि = जिस (गुरु) ने। खंडिआ = नाश कर दिया। अनालका = अनल, हवा, झक्खड़ (विकारों का तूफान)।15।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे बिना मेरा कोई (सहारा) नहीं है। हे भाई! गुरु ने मुझे प्रभु के पैर पकड़ाए हैं। मैं पूरे गुरु के सदके जाता हूँ जिसने मेरी भटकना नाश की है, जिसने विकारों के तूफान को थाम लिया है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासि सासि प्रभु बिसरै नाही ॥ आठ पहर हरि हरि कउ धिआई ॥ नानक संत तेरै रंगि राते तू समरथु वडालका ॥१६॥४॥१३॥
मूलम्
सासि सासि प्रभु बिसरै नाही ॥ आठ पहर हरि हरि कउ धिआई ॥ नानक संत तेरै रंगि राते तू समरथु वडालका ॥१६॥४॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस के साथ। धिआई = मैं ध्याऊँ। नानक = हे नानक! राते = रंगे हुए। वडालका = बड़ा। समरथु = सारी ताकतों का मालिक।16।
अर्थ: हे भाई! (अगर प्रभु की मेहर हो तो) मैं आठों पहर प्रभु का ध्यान धरता रहूँ, हरेक सांस के साथ (उसको स्मरण करता रहूँ, मुझे किसी भी वक्त वह) भूले ना। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू सब ताकतों का मालिक है, तू सबसे बड़ा है, तेरे संत तेरे प्रेम-रंग में सदा रंगे रहते हैं।16।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल हिरदै नित धारी ॥ गुरु पूरा खिनु खिनु नमसकारी ॥ तनु मनु अरपि धरी सभु आगै जग महि नामु सुहावणा ॥१॥
मूलम्
चरन कमल हिरदै नित धारी ॥ गुरु पूरा खिनु खिनु नमसकारी ॥ तनु मनु अरपि धरी सभु आगै जग महि नामु सुहावणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। नित = सदा। धारी = धारण की, मैं टिकाए रखूँ। खिनु खिनु = हरेक छिन। नमसकारी = मैं नमस्कार करता रहूँ। अरपि = भेटा करके। सभु = सब कुछ। धरी आगै = (गुरु के) आगे रख दूँ। सुहावणा = सोहाना (बनाता है)।1।
अर्थ: हे भाई! (अगर प्रभु मेहर करे तो) मैं (गुरु के) सुंदर चरण सदा (अपने) हृदय में टिकाए रखूँ, पूरे गुरु को हरेक छिन नमस्कार करता रहूँ, अपना तन अपना मन सब कुछ (गुरु के) आगे भेटा करके रख दूँ (क्योंकि गुरु से ही परमात्मा का नाम मिलता है, और) नाम ही जगत में (जीव को) सुंदर बनाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो ठाकुरु किउ मनहु विसारे ॥ जीउ पिंडु दे साजि सवारे ॥ सासि गरासि समाले करता कीता अपणा पावणा ॥२॥
मूलम्
सो ठाकुरु किउ मनहु विसारे ॥ जीउ पिंडु दे साजि सवारे ॥ सासि गरासि समाले करता कीता अपणा पावणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहु = मन से। विसारे = तू विचाराता है। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। दे = दे के। साजि = पैदा करके। सवारे = सुंदर बनाता है। सासि = साँस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। समाले = संभाल, याद रख। करता = कर्तार को। कीता = की हुई कमाई।2।
अर्थ: हे भाई! तू उस मालिक प्रभु को (अपने) मन से क्यों भुलाता है, जो जिंद दे के शरीर दे के पैदा करके सुंदर बनाता है? हरेक साँस के साथ ग्रास के साथ (खाते हुए साँस लेते हुए) कर्तार को अपने हृदय में संभाल के रख। अपनी ही की हुई कमाई का फल मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा ते बिरथा कोऊ नाही ॥ आठ पहर हरि रखु मन माही ॥ साधसंगि भजु अचुत सुआमी दरगह सोभा पावणा ॥३॥
मूलम्
जा ते बिरथा कोऊ नाही ॥ आठ पहर हरि रखु मन माही ॥ साधसंगि भजु अचुत सुआमी दरगह सोभा पावणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा ते = इस (परमात्मा के दर) से। बिरथा = खाली। माही = में। संगि = संगति में। अचुत = अविनाशी, नाश ना होने वाला। सोभा = इज्जत।2।
अर्थ: हे भाई! जिस (कर्तार के दर) से कभी कोई ख़ाली नहीं मुड़ता, उसको आठों पहर संभाल के रख। उस अविनाशी मालिक प्रभु का नाम गुरु की संगति में (रह के) जपा कर। प्रभु की हजूरी में (इस तरह) इज्जत मिलती है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पदारथ असट दसा सिधि ॥ नामु निधानु सहज सुखु नउ निधि ॥ सरब कलिआण जे मन महि चाहहि मिलि साधू सुआमी रावणा ॥४॥
मूलम्
चारि पदारथ असट दसा सिधि ॥ नामु निधानु सहज सुखु नउ निधि ॥ सरब कलिआण जे मन महि चाहहि मिलि साधू सुआमी रावणा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष = चार पदार्थ। असट दसा = आठ और दस, अठारह। सिधि = सिद्धियाँ। निधानु = खजाना। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। नउ निधि = (दुनिया के सारे) नौ खजाने। सरब = सारे। कलिआण = सुख। चाहहि = तू चाहता है। मिलि साधू = गुरु को मिल के। रावणा = स्मरणा चाहिए।4।
अर्थ: हे भाई! अगर तू चार पदार्थ चाहता है, अगर तू अठारह सिद्धियों की अभिलाषा रखता है, यदि तुझे दुनियां के नौ निधियाँ (नौ खजाने) चाहिए, यदि तुझे सारे सुख चाहिए, तो गुरु को मिल के मालिक-प्रभु का स्मरण किया कर। ये हरि-नाम ही (असल) खजाना है, ये नाम ही आत्मिक अडोलता का सुख है, ये नाम ही चार-पदार्थ अठारह सिद्धियाँ और नौ निधियाँ हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासत सिम्रिति बेद वखाणी ॥ जनमु पदारथु जीतु पराणी ॥ कामु क्रोधु निंदा परहरीऐ हरि रसना नानक गावणा ॥५॥
मूलम्
सासत सिम्रिति बेद वखाणी ॥ जनमु पदारथु जीतु पराणी ॥ कामु क्रोधु निंदा परहरीऐ हरि रसना नानक गावणा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखाणी = कहा है कि। पराणी = हे प्राणी! परहरीऐ = दूर किया जा सकता है। रसना = जीभ (से)। नानक = हे नानक!।5।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्राणी! शास्त्रों ने, स्मृतियों ने, वेदों ने कहा है कि अपने कीमती मानव जनम को सफल कर। (पर ये सफल तब ही हो सकता है यदि) जीभ से परमात्मा की महिमा गाई जाए। महिमा की इनायत से ही काम छोड़ा जा सकता है, क्रोध त्यागा जा सकता है निंदा तजी जा सकती है (और इन विकारों को त्यागने में ही जनम की सफलता है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु रूपु न रेखिआ कुलु नही जाती ॥ पूरन पूरि रहिआ दिनु राती ॥ जो जो जपै सोई वडभागी बहुड़ि न जोनी पावणा ॥६॥
मूलम्
जिसु रूपु न रेखिआ कुलु नही जाती ॥ पूरन पूरि रहिआ दिनु राती ॥ जो जो जपै सोई वडभागी बहुड़ि न जोनी पावणा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेखिआ = रेखा चित्र, चक्र चिन्ह। जाती = जाति। पूरन = सर्व व्यापक। सोई = वही मनुष्य। वडभागी = बड़े भाग्यों वाला। बहुड़ि = दोबारा, फिर।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का (क्या) रूप, रेख, कुल और जाति (है– ये बात) बताई नहीं जा सकती, जो परमात्मा दिन-रात हर वक्त सब जगह मौजूद है, उस परमात्मा का नाम जो जो मनुष्य जपता है वह बहुत भाग्यशाली बन जाता है, वह मनुष्य बार-बार जूनियों में नहीं पड़ता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो बिसरै पुरखु बिधाता ॥ जलता फिरै रहै नित ताता ॥ अकिरतघणै कउ रखै न कोई नरक घोर महि पावणा ॥७॥
मूलम्
जिस नो बिसरै पुरखु बिधाता ॥ जलता फिरै रहै नित ताता ॥ अकिरतघणै कउ रखै न कोई नरक घोर महि पावणा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधाता = विधाता। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। जलता = जलता। ताता = गरम, क्रोध में। कउ = को। घोर = भयानक।7।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक बिसरा रहता है, वह सदा (विकारों में) जलता फिरता है, वह सदा (क्रोध से) जला भुजा रहता है। परमात्मा के किए उपकारों को भुलाने वाले उस मनुष्य को (इस बुरी आत्मिक दशा से) कोई बचा नहीं सकता। वह मनुष्य (सदा इस) भयानक नर्क में पड़ा रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ प्राण तनु धनु जिनि साजिआ ॥ मात गरभ महि राखि निवाजिआ ॥ तिस सिउ प्रीति छाडि अन राता काहू सिरै न लावणा ॥८॥
मूलम्
जीउ प्राण तनु धनु जिनि साजिआ ॥ मात गरभ महि राखि निवाजिआ ॥ तिस सिउ प्रीति छाडि अन राता काहू सिरै न लावणा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। साजिआ = बनाया। मात = माँ। राखि = रख के, रक्षा कर के। निवाजिआ = मेहरबानी की। छाडि = छोड़ के। अन = अन्य, और (ही पदार्थों के मोह में)। राता = रति हुआ, मस्त। काहू सिरै = किसी (काम के) सिरे पर। काहू….लावणा = किसी काम में सफलता नहीं होती।8।
अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा ने जिंद दी, प्राण दिए, शरीर बनाया, धन दिया, माँ के पेट में रक्षा करके बड़ी दया की, जो मनुष्य उस परमात्मा का प्यार छोड़ के और ही पदार्थों के मोह में मस्त रहता है, वह मनुष्य किसी तरफ भी सिरे नहीं चढ़ता।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे ॥ घटि घटि वसहि सभन कै नेरे ॥ हाथि हमारै कछूऐ नाही जिसु जणाइहि तिसै जणावणा ॥९॥
मूलम्
धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे ॥ घटि घटि वसहि सभन कै नेरे ॥ हाथि हमारै कछूऐ नाही जिसु जणाइहि तिसै जणावणा ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनुग्रहु = मेहर, कृपा (पुलिंग)। सुआमी = हे स्वामी! घटि घटि = हरेक घट में। वसहि = तू बसता है। हाथि = हाथ में, वश में। कछूऐ = कुछ भी। जणाइहि = तू समझ बख्शता है।9।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! (हम जीवों पर) दया किए रख, तू हरेक शरीर में बसता है, तू सब जीवों के नजदीक बसता है। हम जीवों के बस में कुछ भी नहीं है। जिस मनुष्य को तू (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है, वही मनुष्य यह समझ हासिल करता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै मसतकि धुरि लिखि पाइआ ॥ तिस ही पुरख न विआपै माइआ ॥ नानक दास सदा सरणाई दूसर लवै न लावणा ॥१०॥
मूलम्
जा कै मसतकि धुरि लिखि पाइआ ॥ तिस ही पुरख न विआपै माइआ ॥ नानक दास सदा सरणाई दूसर लवै न लावणा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। कै मसतकि = के माथे पर। धुरि = धुर से, परमात्मा की ओर से ही। लिखि = लिख के। न विआपै = जोर नहीं डाल सकती। नानक = हे नानक! दास = (बहुवचन) परमात्मा के भक्त। लवै न लावणा = नजदीक नहीं लगाते, बराबर के नहीं समझते।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) धुर हजूरी में से जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभु ने अच्छे भाग्यों के लेख) लिख दिए होते हैं, सिर्फ उस मनुष्य पर ही माया अपना जोर नहीं डाल सकती। हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, वे किसी और को परमात्मा के बराबर का नहीं समझते।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगिआ दूख सूख सभि कीने ॥ अम्रित नामु बिरलै ही चीने ॥ ता की कीमति कहणु न जाई जत कत ओही समावणा ॥११॥
मूलम्
आगिआ दूख सूख सभि कीने ॥ अम्रित नामु बिरलै ही चीने ॥ ता की कीमति कहणु न जाई जत कत ओही समावणा ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआ = हुक्म में। सभि = सारे। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। बिरलै ही = किसी विरले ने ही। चीने = पहचाना है। ता की = उस (परमातमा) की। जत कत = हर जगह। ओही = वह परमात्मा ही।11।
अर्थ: हे भाई! (जगत के) सारे दुख सारे सुख (परमात्मा ने अपने) हुक्म में (आप ही) बनाए हैं। (इन दुखों से बचने के लिए) किसी विरले मनुष्य ने ही आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम के साथ सांझ डाली है। हे भाई! उस परमात्मा का मूल्य नहीं बताया जा सकता (वह परमात्मा किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिलता, वैसे) हर जगह वह स्वयं ही समाया हुआ है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई भगतु सोई वड दाता ॥ सोई पूरन पुरखु बिधाता ॥ बाल सहाई सोई तेरा जो तेरै मनि भावणा ॥१२॥
मूलम्
सोई भगतु सोई वड दाता ॥ सोई पूरन पुरखु बिधाता ॥ बाल सहाई सोई तेरा जो तेरै मनि भावणा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा स्वयं) ही। भगतु = भक्ति करने वाला। बिधाता = विधाता, निर्माता। बाल सहाई = बाल उम्र बचपन से ही साथी। सहाई = सखा, मित्र, साथी। तेरै मनि = (हे प्रभु!) तेरे मन में। भावणा = अच्छा लगा है।12।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा आप ही (अपने सेवक में बैठा अपनी) भक्ति करने वाला है, वह स्वयं ही सबसे बड़ा दातार है, वह स्वयं ही सबमें व्यापक विधाता है। हे प्रभु! जो (तेरा भक्त) तेरे मन में (तुझे) प्यारा लगता है, वही तेरा बाल सखा है (वही तुझे इस तरह प्यारा है जैसे कोई छोटी उम्र से एक साथ रहने वाले बालक एक-दूसरे को सारी उम्र प्यार करने वाले होते हैं)।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिरतु दूख सूख लिखि पाए ॥ तिलु नही बधहि घटहि न घटाए ॥ सोई होइ जि करते भावै कहि कै आपु वञावणा ॥१३॥
मूलम्
मिरतु दूख सूख लिखि पाए ॥ तिलु नही बधहि घटहि न घटाए ॥ सोई होइ जि करते भावै कहि कै आपु वञावणा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिरतु = मौत, मृत्यु। लिखि = (हरेक जीव के भाग्यों में) लिख के। तिलु = रक्ती भर भी। बधहि = बढ़ते (बहुवचन)। होइ = होता है। करते भावै = कर्तार को अच्छा लगता है। कहि कै = कह के। आपु = अपने आप को। वञावणा = गवाना होता है।13।
अर्थ: हे भाई! मौत दुख-सुख कर्तार ने स्वयं ही (जीवों के लेखों में) लिख के रख दिए हैं। ना ये बढ़ाने से तिल मात्र बढ़ते हैं, ना ही कम करने से कम होते हैं। हे भाई! जो कुछ कर्तार को अच्छा लगता है वही होता है। (यह) कह के (कि हम अपने आप कुछ कर सकते हैं) अपने आप को दुखी ही करना होता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध कूप ते सेई काढे ॥ जनम जनम के टूटे गांढे ॥ किरपा धारि रखे करि अपुने मिलि साधू गोबिंदु धिआवणा ॥१४॥
मूलम्
अंध कूप ते सेई काढे ॥ जनम जनम के टूटे गांढे ॥ किरपा धारि रखे करि अपुने मिलि साधू गोबिंदु धिआवणा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध कूप = (माया के मोह का) घोर अंधेरा भरा कूआँ। ते = से। सेई = वही (मनुष्य) (बहुवचन)। धारि = धार के, कर के। करि = बना के। मिलि साधू = गुरु को मिल के।14।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा कृपा करके जिस मनुष्यों को अपना बना लेता है, जो मनुष्य गुरु को मिल के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनको ही परमात्मा माया के मोह के घोर अंधकार भरे कूएँ में से निकाल लेता है, और, कई जन्मों के (अपने से) टूटे हुओं को (दोबारा अपने साथ) जोड़ लेता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी कीमति कहणु न जाई ॥ अचरज रूपु वडी वडिआई ॥ भगति दानु मंगै जनु तेरा नानक बलि बलि जावणा ॥१५॥१॥१४॥२२॥२४॥२॥१४॥६२॥
मूलम्
तेरी कीमति कहणु न जाई ॥ अचरज रूपु वडी वडिआई ॥ भगति दानु मंगै जनु तेरा नानक बलि बलि जावणा ॥१५॥१॥१४॥२२॥२४॥२॥१४॥६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानु = ख़ैर। जनु = दास। नानक = हे नानक! बलि बलि = सदके।15।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता। तेरा स्वरूप हैरान कर देने वाला है और तेरी बड़ाई बड़ी है। तेरा सेवक (तेरे दर से) तेरी भक्ति की ख़ैर माँगता है, और तुझसे सदके जाता है कुर्बान जाता है।15।1।14।22।24।2।14।62।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू वार महला ३
मूलम्
मारू वार महला ३
दर्पण-भाव
पउड़ी वार भाव:
गुरु से मिले ज्ञान से भ्रम मोह लोभ अहंकार का गढ़ टूट जाता है और प्रभु का नाम बस जाता है।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के ‘नाम’ कमाता है, वह संसार सागर की लहरों में पड़ के दुखी नहीं होता।
चाहे ये सांसारिक माया, साथ नहीं निभती, मनमुख इसमें भूल जाता है। बचते वे हैं जो गुरु की मेहर से नाम-रस चखते हैं।
जो गुरु की शरण पड़ कर गुरु-शब्द के द्वारा ‘नाम’ में जुड़ते हैं, वे लोक-परलोक सँवार लेते हैं।
जिन्होंने गुरु-शब्द से नाम-रस चखा है उनको मायावी रस छू नहीं सकते, उनकी तृष्णा-भूख मिट जाती है।
दुनिया वाले भूपति राजे एक तो दुख ही दुख सहेड़ते हैं, दूसरा इस राज को जाते हुए देर नहीं लगती। असल राजा तो वो हैं जिन्होंने प्रभु को पहचाना है।
उनके पास ‘नाम’ एक एैसा पदार्थ है जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता; इस अमूल्य धन की इनायत से उनका हृदय सदा खिला रहता है।
जिन्होंने गुरु की मेहर से -‘नाम’ जप के मन को जीता है वे असल सूरमे हैं, उन्होंने सारे जगत को जीत लिया है।
वे सूरमे नहीं हैं, जो अहंकारी हो के माया की खातिर लड़ मरते हैं। वे तो जनम व्यर्थ ही गवा गए। रब को अहंकार अच्छा नहीं लगता।
मन के साथ लड़ने वाले, और, अहंकारी हो के माया की खातिर दूसरों के साथ लड़ने वाले- ये दोनों पक्ष प्रभु ने स्व्यं ही बनाए हैं। सुखी वह हैं जो गुरु के सन्मुख हो के ‘नाम’ जपते हैं।
धन पदार्थ के गुमान में आ के विकार करने वाले दुखी हैं क्योंकि जगत में असल दुख एक ही है, वह है मौत का डर, और ये मौत का डर धनी और विकारियों को हर वक्त सहम में डाले रखता है।
मौत का डर मनमुख को ही दबाता है क्योंकि वह माया के मोह में फंसा रहता है; डरता है कि कहीं मौत आ कर इस माया से विछोड़ ना दे।
जो माया को सच्चा साथी जान के माया की खातिर भटकते रहे, उनकी सारी मेहनत निहफल गई। पर जिनको गुरु के सन्मुख हो के समझ आ गई, उन्होंने ‘नाम’ स्मरण किया, उनके अंदर रब का प्यार उपजा।
जिन्होंने गुरु-शब्द द्वारा अपने आप को खोजा वे प्रभु के गुण गाते हैं और ‘नाम’ में लीन होते हैं।
जगत में प्रभु का ‘नाम’ ही ऐसा खजाना है जो साथ निभता है कभी खत्म नहीं होता, इसकी इनायत से मौत का डर दूर हो जाता है, इस धन वाले ही असल शाह हैं।
प्रभु के ‘नाम’ के बिना मनुष्य कभी तृप्त नहीं होता भले ही इसके पास कितना ही धन क्यों ना हो, इस धन के होते हुए भी कंगाल ही है।
यह ‘नाम’-धन मनुष्य के अंदर ही है, गुरु के शब्द द्वारा ये समझ पड़ती है। जब ‘नाम’ स्मरण करता है इसका अहंकार दूर होता है और नाम-रस से अघा जाता है।
प्रभु-पातशाह मनुष्य के अंदर ही हृदय-तख्त पर बैठा हुआ है, पर उसके महल का दर गुरु के माध्यम से मिलता है। हरेक के अंदर बैठा ही खोटे-खरे की परख किए जा रहा है।
पर मनमुख अपना अंदर नहीं तलाशता, तृष्णा का मारा हुआ बाहर भटकता है। गुरु-दर पर पड़ने से ये समझ आ जाती है कि ‘नाम’ जपने से ही इस तृष्णा से मुक्ति मिलती है।
प्रभु का ‘नाम’ ही पापों की मैल उतार के अंदर ठंडक कर देता है। चिन्ता और मोह दूर हो जाते हैं।
प्रभु अपनी रजा के अनुसार ही मेहर करके गुरु मिलाता है और स्मरण में जोड़ता है।
प्रभु, मालिक तो सब जीवों का है; पर गुरु-चरणों में जोड़ के जिसको ‘नाम’ में लगाता है वही लगता है। उसी के नचाए सारे जीव नाचते हैं।
संक्षेप भाव:
माया चाहे साथ नहीं निभती, फिर भी मनुष्य इसमें भूला रहता है, भ्रम मोह अहंकार आदि के किले में कैद रहता है, तृष्णा आदि की लहरों में गोते खाता रहता है। जब गुरु की शिक्षा पर चल कर ये ‘नाम’ जपता है तो ये किला टूट जाता है, तृष्णा की लहरें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि फिर इसे मायावी रस प्रभावित नहीं कर सकते। (1 से 5)
प्रभु ने जगत दो तरह का रचा है; एक है दुनिया के भूपति राजे और शूरवीर, दूसरे हैं ‘नाम’ के धनी और अपने मन को जीतने वाले। दुनिया की पातशाही चार दिनों की ही है, और जब तक है तब तक भी दुख ही दुख, फिर, हर वक्त सहम और मौत का डर कि कहीं जल्दी ही इस धन से विछोड़ा ना हो जाए।
जिनके पास नाम-धन है, जिन्होंने अपना मन जीत लिया है वही सुखी हैं, बेमुथाज हैं, सदा खिले रहते हैं। (6 से 12)
‘नाम’ ही ऐसा धन है जो सदा साथ निभता है, इसकी इनायत से मौत का डर नहीं रहता, नाम-धन वाले ही असल शाह हैं।
दुनियावी धन भले ही कितना ही हो, फिर भी मनुष्य का मन कंगाल ही कंगाल; सो, निरी माया की खातिर की हुई मेहनत निहफल ही जाती है। (13 से 16)
ये नाम-धन हरेक मनुष्य के अंदर ही है; प्रभु-पातशाह हरेक के हृदय में बैठा ही देख रहा है कि गलत दिशा में जा के दुखी कौन हो रहा है और सही दिशा में चल कर सुखी कौन है। पर, मनमुख अपने अंदर नहीं झाँकता, बाहर ही भटकता और दुखी होता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर ‘नाम’ जपता है उसका अहंकार दूर होता है उसके पाप नाश होते हैं और उसके अंदर ठंड पैदा होती है। (17 से 20)
प्रभु स्वयं ही सबका मालिक है, उसी के नचाए सारे नाचते हैं। गुरु से मेल भी उसकी अपनी मेहर से ही होता है। जिसको प्रभु स्वयं गुरु चरणों में जोड़ता है वही ‘नाम’ जपता है। (21, 22)
दर्पण-टिप्पनी
सिर्फ निम्न-लिखित पौड़ियों के साथ सारे शलोक गुरु अमरदास जी (महला ३) के हैं जिनके द्वारा लिखी गई ये वार है: 4, 7, 9, 10, 11, 16, 17, 18, 22 कुल 9 पौड़ियां।
निम्न-लिखित पौड़ियों के साथ सिर्फ एक-एक श्लोक महले तीजे का है: 1, 3, 6, 8, 19 कुल: 5 पौड़ियां।
19 पौडियों के साथ दो-दो श्लोक हैं और निम्न-लिखित पौड़ियों के साथ तीन-तीन श्लोक हैं: 2, 13, 14।
हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं, सिर्फ आखिरी पौड़ी की 6 तुकें हैं।
सारी ‘वार’ में सिर्फ 8 पौड़ियाँ ऐसी हैं जिनके साथ गुरु अमरदास जी का कोई श्लोक नहीं है; पहली ही पौड़ी के साथ आपका कोई श्लोक नहीं।
आखिरी पौड़ी के अलावा, सारी पौड़िओं की एक जितनी ही तुकें, सारी पौड़ियों के विषय-वस्तु (मजमून) की भी एक ही लड़ी; ये दोनों बातें साबित करती हैं कि ‘वार’ गुरु अमरदास जी ने एक ही समय पर उचारण की।
सिर्फ 9 पौड़ियों के साथ गुरु अमरदास जी के सारे शलोक; 5 पौड़ियों के साथ उनका एक-एक शलोक; 8 पौड़ियों के साथ उनका कोई भी शलोक नहीं; पहली ही पौड़ी के साथ उनके किसी भी शलोक का ना होना; ये सारी बातें साबित करती हैं कि गुरु अमरदास जी के शलोक किसी और मौके के उचारे हुए हैं, ‘वार’ के साथ उन्होंने स्वयं दर्ज नहीं किए। मूल ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियों’ में ही थी। सो, जो टीकाकार पउड़ी नं: 10 की पहली तुक ‘दोवै तरफा उपाईओनु’ पर ये नोट लिखता है ‘गुरमुखा वाला और मनमुखा वाला राह, जिनको शलोक में कौआ और हंस कहा है’ गलती खा रहा है, क्योंकि पौड़ियों के साथ ये शलोक तो गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए थे। फिर यह ‘दोवै तरफा’ कौन से हैं? इसका उक्तर ढूँढने के लिए देखें पौड़ी नंबर: 6, 7, 8 और 9;
नंबर 6 – दुनिया के ‘भूपति राजे’।
नंबर 9 – ‘सूरे’ जो ‘अहंकार मरहि’।
नंबर 7 – जिनके पास ‘हरि का नामु अमोलु है’।
नंबर 8 – ‘से सूरे परधाना’ जो ‘लूझहि मनै सिउ’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु मः १ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु मः १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विणु गाहक गुणु वेचीऐ तउ गुणु सहघो जाइ ॥ गुण का गाहकु जे मिलै तउ गुणु लाख विकाइ ॥ गुण ते गुण मिलि पाईऐ जे सतिगुर माहि समाइ ॥ मुोलि अमुोलु न पाईऐ वणजि न लीजै हाटि ॥ नानक पूरा तोलु है कबहु न होवै घाटि ॥१॥
मूलम्
विणु गाहक गुणु वेचीऐ तउ गुणु सहघो जाइ ॥ गुण का गाहकु जे मिलै तउ गुणु लाख विकाइ ॥ गुण ते गुण मिलि पाईऐ जे सतिगुर माहि समाइ ॥ मुोलि अमुोलु न पाईऐ वणजि न लीजै हाटि ॥ नानक पूरा तोलु है कबहु न होवै घाटि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहघो = सस्ता (‘महिघा’ और ‘सहघा = महंगा और सस्ता)। लाख = लाखों रुपए, भाव बड़ी कीमत से। गुण ते = गुणों से, प्रभु के गुण गाने से। गुण मिलि = गुणों में मिल के, प्रभु के गुणों में मिलने से, प्रभु की महिमा में मन जोड़ने से। पाईऐ = पाते हैं, मिलता है, (‘नाम’) मिलता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पाईअै’ शब्द ‘एकवचन’ है, इसका ‘बहुवचन’ है ‘पाईअहि’; शब्द ‘गुण’ भी बहुवचन है, इसका ‘एकवचन’ हुआ ‘गुणु’; सो ‘पाईअै’ का अर्थ करना ‘गुण मिलते हैं’ गलत है।
नोट: कई टीकाकार ‘पउड़ी’ में शब्द ‘गिआनु’ देख के इस श्लोक में भी ‘पाईअै’ के साथ शब्द ‘गिआनु’ जोड़ते हैं, ये भी गलत है। ‘वार’ की पउड़ी अपनी जगह पर है और ये शलोक अपनी जगह पर, फिर, ये शलोक है भी गुरु नानक देव जी का और ‘पउड़ी’ है गुरु अमरदास जी की।
नोट: मुोलि, (असल पाठ ‘मुलि’ है यहाँ पढ़ना है ‘मोलि’) (किसी) मूल्य से, किसी कीमत से। अमुोलु, (असल पाठ ‘अमुलु’, यहाँ पढ़ना है ‘अमोलु’) अमोलक।
दर्पण-भाषार्थ
वणजि = खरीद के। हाटि = हाट से। तोलु = (‘नाम’ के) बराबर की चीज। पूरा = मुकम्मल, कभी कम ज्यादा ना होने वाला।
अर्थ: अगर कोई गाहक ना हो और (कोई) गुण (भाव, कोई कीमती पदार्थ) बेचें तो वह गुण सस्ते भाव में बिक जाता है, (भाव, उसकी कद्र नहीं पड़ती)। पर, यदि गुण का गाहक मिल जाए तो वह बहुत कीमती बिकता है।
(पर अगर कोई कद्र जानने वाला मनुष्य) गुरु में ‘स्वै’ लीन कर दे, तो प्रभु के गुण गाने से, प्रभु की महिमा में जुड़ने से (प्रभु का ‘नाम’-रूपी कीमती पदार्थ) मिलता है। ‘नाम’ बहुमूल्य पदार्थ है, किसी कीमत से नहीं मिल सकता, किसी दुकान से खरीदा नहीं जा सकता। हे नानक! (‘नाम’ के मूल्य का) तोल तो बँधा हुआ है, वह कभी कम नहीं हो सकता (भाव, ‘अपने आप को गुरु में लीन करना’- ये बँधा हुआ मूल्य है, और इससे कम कोई उद्यम ‘नाम’ की प्राप्ति के लिए काफी नहीं है)।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ नाम विहूणे भरमसहि आवहि जावहि नीत ॥ इकि बांधे इकि ढीलिआ इकि सुखीए हरि प्रीति ॥ नानक सचा मंनि लै सचु करणी सचु रीति ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ नाम विहूणे भरमसहि आवहि जावहि नीत ॥ इकि बांधे इकि ढीलिआ इकि सुखीए हरि प्रीति ॥ नानक सचा मंनि लै सचु करणी सचु रीति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य ‘नाम’ से टूटे हुए हैं वह भटकते हैं (भटकना के कारण) नित्य पैदा होते मरते हैं (भाव, ‘वासना’ पूरी करने के लिए जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं); सो, कई जीव (इन ‘वासनाओं’ से) बंधे हुए हैं, कईयों ने बंधन कुछ ढीले कर लिए हैं और कई प्रभु के प्यार में रह के (बिल्कुल) सुखी हो गए हैं। हे नानक! जो मनुष्य सदा स्थिर परमात्मा को अपने मन में पक्का कर लेता है, सदा-स्थिर नाम उसके लिए करने-योग्य काम है सदा-स्थिर नाम ही उसकी जीवन-जुगति हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गुर ते गिआनु पाइआ अति खड़गु करारा ॥ दूजा भ्रमु गड़ु कटिआ मोहु लोभु अहंकारा ॥ हरि का नामु मनि वसिआ गुर सबदि वीचारा ॥ सच संजमि मति ऊतमा हरि लगा पिआरा ॥ सभु सचो सचु वरतदा सचु सिरजणहारा ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गुर ते गिआनु पाइआ अति खड़गु करारा ॥ दूजा भ्रमु गड़ु कटिआ मोहु लोभु अहंकारा ॥ हरि का नामु मनि वसिआ गुर सबदि वीचारा ॥ सच संजमि मति ऊतमा हरि लगा पिआरा ॥ सभु सचो सचु वरतदा सचु सिरजणहारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (ज्ञान, मानो) बहुत ही तेजधार खड़ग है, यह ज्ञान गुरु से मिलता है, (जिसको मिला है उसका) माया की खातिर भटकना, मोह, लोभ, अहंकार-रूप किला (जिसमें वह घिरा हुआ था, इस ज्ञान-खड़ग से) काटा जाता है; गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ने से उसके मन में परमात्मा का नाम बस जाता है। स्मरण के संजम से उसकी मति उत्तम हो जाती है, ईश्वर उसको प्यारा लगने लग जाता है; (आखिर उसकी ये हालत हो जाती है कि) सदा-स्थिर विधाता उसको हर जगह बसता दिखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ केदारा रागा विचि जाणीऐ भाई सबदे करे पिआरु ॥ सतसंगति सिउ मिलदो रहै सचे धरे पिआरु ॥ विचहु मलु कटे आपणी कुला का करे उधारु ॥ गुणा की रासि संग्रहै अवगण कढै विडारि ॥ नानक मिलिआ सो जाणीऐ गुरू न छोडै आपणा दूजै न धरे पिआरु ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ केदारा रागा विचि जाणीऐ भाई सबदे करे पिआरु ॥ सतसंगति सिउ मिलदो रहै सचे धरे पिआरु ॥ विचहु मलु कटे आपणी कुला का करे उधारु ॥ गुणा की रासि संग्रहै अवगण कढै विडारि ॥ नानक मिलिआ सो जाणीऐ गुरू न छोडै आपणा दूजै न धरे पिआरु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। संग्रहै = इकट्ठी करे। विडारि = मार के।
अर्थ: हे भाई! केदारा राग को (और बाकी के) रागों में तभी जानो (भाव, केदारा राग की उपमा तभी करनी चाहिए, यदि इसे गाने वाला) गुरु के शब्द में प्यार करने लग जाए, अंदर से अपनी मैल भी काटे और अपनी कुलों का भी उद्धार कर ले, गुणों की पूंजी इकट्ठी करे और अवगुणों को मार के निकाल दे।
हे नानक! (केदारा राग से रब में) जुड़ा हुआ उसे समझो जो कभी भी अपने गुरु का आसरा ना छोड़े और माया में मोह ना डाले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ सागरु देखउ डरि मरउ भै तेरै डरु नाहि ॥ गुर कै सबदि संतोखीआ नानक बिगसा नाइ ॥२॥
मूलम्
मः ४ ॥ सागरु देखउ डरि मरउ भै तेरै डरु नाहि ॥ गुर कै सबदि संतोखीआ नानक बिगसा नाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै तेरै = तेरे डर से, तेरे भय में रहने से। बिगसा = मैं विगसता हूँ, खिलता हूँ। नाइ = नाम से।
अर्थ: (हे प्रभु!) जब मैं (इस संसार-) समुंदर को देखता हूँ तो डर के मारे सहम जाता हूँ (कि कैसे इसमें से बच के पार होऊँगा, पर) तेरे डर में रहने से (इस संसार-समुंदर का कोई) डर नहीं रह जाता; क्योंकि, हे नानक! गुरु के शब्द से मैं संतोख वाला बन रहा हूँ और प्रभु के नाम से मैं खिलता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ४ ॥ चड़ि बोहिथै चालसउ सागरु लहरी देइ ॥ ठाक न सचै बोहिथै जे गुरु धीरक देइ ॥ तितु दरि जाइ उतारीआ गुरु दिसै सावधानु ॥ नानक नदरी पाईऐ दरगह चलै मानु ॥३॥
मूलम्
मः ४ ॥ चड़ि बोहिथै चालसउ सागरु लहरी देइ ॥ ठाक न सचै बोहिथै जे गुरु धीरक देइ ॥ तितु दरि जाइ उतारीआ गुरु दिसै सावधानु ॥ नानक नदरी पाईऐ दरगह चलै मानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। लहरी = लहरें। ठाक = रोक। सावधानु = सचेत, तत्पर (स+अवधान = ध्यान सहित, ध्यान करने वाला)
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लहरी’ है ‘लहरि’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (संसार-) समुंदर (तो विकारों की लहरों से) ठाठा मार रहा है पर मैं (गुरु-शब्द-रूप) जहाज में चढ़ के (इस समुंदर में से) पार हो जाऊँगा। अगर सतिगुरु हौसला दे तो इस सच्चे जहाज में चढ़ने से (यात्रा में) कोई रोक (कोई मुश्किल) नहीं आएगी। मुझे अपना गुरु सावधान दिखाई दे रहा है (मेरा दृढ़ निश्चय है कि गुरु मुझे) उस (प्रभु के) दर पर जा उतारेगा।
हे नानक! (ये गुरु का शब्द जहाज) प्रभु की मेहर से मिलता है (इसकी इनायत से) प्रभु की हजूरी में आदर मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ निहकंटक राजु भुंचि तू गुरमुखि सचु कमाई ॥ सचै तखति बैठा निआउ करि सतसंगति मेलि मिलाई ॥ सचा उपदेसु हरि जापणा हरि सिउ बणि आई ॥ ऐथै सुखदाता मनि वसै अंति होइ सखाई ॥ हरि सिउ प्रीति ऊपजी गुरि सोझी पाई ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ निहकंटक राजु भुंचि तू गुरमुखि सचु कमाई ॥ सचै तखति बैठा निआउ करि सतसंगति मेलि मिलाई ॥ सचा उपदेसु हरि जापणा हरि सिउ बणि आई ॥ ऐथै सुखदाता मनि वसै अंति होइ सखाई ॥ हरि सिउ प्रीति ऊपजी गुरि सोझी पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहकंटक = जिस में कोई काँटा चुभ ना सके। भुंचि = मान, भोग। सचु कमाई = स्मरण रूप कमाई। गुरि = गुरु ने।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के सन्मुख हो के नाम-जपने की कमाई कर (और इस तरह) निहकंटक राज का भोग कर, (क्योंकि) जो प्रभु सदा-स्थिर तख्त पर बैठ कर न्याय कर रहा है वह तुझे सत्संग में मिला देगा, वहाँ नाम-जपने की सच्ची शिक्षा कमाने से तेरी प्रभु से (समीपता) बन आएगी, इस जीवन में सुखदाता प्रभु मन में बसेगा और अंत के समय भी साथी बनेगा।
जिस मनुष्य को सतिगुरु ने समझ बख्शी उसका प्रभु के साथ प्यार बन जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ भूली भूली मै फिरी पाधरु कहै न कोइ ॥ पूछहु जाइ सिआणिआ दुखु काटै मेरा कोइ ॥ सतिगुरु साचा मनि वसै साजनु उत ही ठाइ ॥ नानक मनु त्रिपतासीऐ सिफती साचै नाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ भूली भूली मै फिरी पाधरु कहै न कोइ ॥ पूछहु जाइ सिआणिआ दुखु काटै मेरा कोइ ॥ सतिगुरु साचा मनि वसै साजनु उत ही ठाइ ॥ नानक मनु त्रिपतासीऐ सिफती साचै नाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूली भूली = बहुत समय तक विछड़ के भटकती हुई। पाधरु = पधरा रास्ता, सपाट राह। उत ही ठाइ = उसी जगह। त्रिपतासीऐ = तृप्त हो जाता है, भटकने से हट जाता है। नाइ = नाम से।
अर्थ: बहुत समय से विछड़ी हुई मैं भटक रही हूँ, मुझे कोई सीधा सपाट रास्ता नहीं बताता, कोई जा के किसी सयाने लोगों से पूछो भला जो कोई मेरा कष्ट काट दे।
हे नानक! अगर सच्चा गुरु मन में आ बसे तो सज्जन प्रभु भी उसी जगह (भाव, हृदय में ही मिल जाता है), प्रभु की महिमा करने से और प्रभु का नाम स्मरण करने से मन भटकने से हट जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ आपे करणी कार आपि आपे करे रजाइ ॥ आपे किस ही बखसि लए आपे कार कमाइ ॥ नानक चानणु गुर मिले दुख बिखु जाली नाइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ आपे करणी कार आपि आपे करे रजाइ ॥ आपे किस ही बखसि लए आपे कार कमाइ ॥ नानक चानणु गुर मिले दुख बिखु जाली नाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणी = जो करनी चाहिए। किस ही = जिस किसी को। गुर मिले = गुरु को मिलने से। बिखु = विष। नाइ = नाम से।
अर्थ: प्रभु अपनी रजा में स्वयं ही करने-योग्य काम करता है, आप ही जीव को बख्शता है आप ही (जिस पर मेहर करे उसमें साक्षात हो के भक्ति की) कार कमाता है।
हे नानक! गुरु को मिल के जिसके हृदय में प्रकाश होता है वह ‘नाम’ स्मरण करके विष-रूपी माया से पैदा हुए दुखों को जला देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ माइआ वेखि न भुलु तू मनमुख मूरखा ॥ चलदिआ नालि न चलई सभु झूठु दरबु लखा ॥ अगिआनी अंधु न बूझई सिर ऊपरि जम खड़गु कलखा ॥ गुर परसादी उबरे जिन हरि रसु चखा ॥ आपि कराए करे आपि आपे हरि रखा ॥३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ माइआ वेखि न भुलु तू मनमुख मूरखा ॥ चलदिआ नालि न चलई सभु झूठु दरबु लखा ॥ अगिआनी अंधु न बूझई सिर ऊपरि जम खड़गु कलखा ॥ गुर परसादी उबरे जिन हरि रसु चखा ॥ आपि कराए करे आपि आपे हरि रखा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरबु = धन। लखा = लख, देख। कलखा = कल खा, काल का। जिनि = जिन्होंने। रखा = रक्षक।
अर्थ: हे मूर्ख! हे मन के गुलाम! माया को देख के गलती ना कर, यह (यहाँ से) चलने के वक्त किसी के साथ नहीं जाती, सो, सारे धन को झूठा साथी जान। (पर इस माया को देख के) मूर्ख अंधा मनुष्य नहीं समझता कि सिर पर जम की मौत की तलवार भी है (और इस माया से साथ टूटना है)।
जिस मनुष्यों ने हरि-नाम का रस चखा है वह गुरु की मेहर से (माया में मोह डालने की गलती से) बच जाते हैं; यह (उद्यम) प्रभु स्वयं ही (जीवों से) करवाता है (जीव में बैठ के, जैसे) खुद ही करता है, खुद ही जीव का रखवाला है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ जिना गुरु नही भेटिआ भै की नाही बिंद ॥ आवणु जावणु दुखु घणा कदे न चूकै चिंद ॥ कापड़ जिवै पछोड़ीऐ घड़ी मुहत घड़ीआलु ॥ नानक सचे नाम बिनु सिरहु न चुकै जंजालु ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ जिना गुरु नही भेटिआ भै की नाही बिंद ॥ आवणु जावणु दुखु घणा कदे न चूकै चिंद ॥ कापड़ जिवै पछोड़ीऐ घड़ी मुहत घड़ीआलु ॥ नानक सचे नाम बिनु सिरहु न चुकै जंजालु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिंद = चिन्ता। पछोड़ीऐ = पटड़ै पर पटकाते हैं। जंजाल = झमेला, चिन्ता, शंका।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भेटिआ’ के बारे में। पिछली पौड़ी के शलोक नं: 2 में ‘गुर मिले’ और यहाँ ‘गुरु भेटिआ’ आया है। दोनों में अंतर देखें। ‘गुर मिले’ में ‘गुर’ का अर्थ है ‘गुरु को’। ‘गुरु भेटिआ’ का अर्थ है ‘गुरु मिला’; शब्द ‘जिना’ साफ बताता है ‘जिन्हें गुरु नहीं मिला’। सो, ‘भेटा ले के मिलने को ‘भेटना’ कहते हैं’; यह अर्थ बिल्कुल ही गलत है क्योंकि गुरु भेटा ले के सिख को नहीं मिलता।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिनको गुरु नहीं मिला, जिनके अंदर ईश्वर का रक्ती मात्र भी डर नहीं, उन्हें पैदा होने-मरने (का) बहुत दुख लगा रहता है, उनकी चिन्ता कभी समाप्त नहीं होती।
हे नानक! जैसे (धोने के वक्त) कपड़ा (पटड़े पर) पटकाते हैं, जैसे घंटा बार-बार (चोटें खाता है) वैसे ही प्रभु के नाम से वंचित रह के उनके सिर से (भी) शंका समाप्त नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ त्रिभवण ढूढी सजणा हउमै बुरी जगति ॥ ना झुरु हीअड़े सचु चउ नानक सचो सचु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ त्रिभवण ढूढी सजणा हउमै बुरी जगति ॥ ना झुरु हीअड़े सचु चउ नानक सचो सचु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगति = जगत में। हीअड़े = हे दिल! नानक हीअड़े = हे नानक के दिल! सचु = सच्चा नाम। चउ = स्मरण कर, उचार।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘हीअड़ा’ से संबोधन ‘हीअड़े’ है, अगर अर्थ करना हो ‘दिल में’ तो ‘हीअड़ै’ शब्द है ‘अधिकरण कारक एकवचन’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे सज्जन (प्रभु!) मैंने तीनों ही भवनों में तलाश के देखा है कि जगत में ‘अहंकार’ चंदरी (बला चिपकी हुई) है।
(पर) हे नानक के दिल! (इस ‘अहंकार’ से घबरा के) चिन्ता ना कर, और प्रभु का नाम स्मरण कर जो सदा ही स्थिर रहने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गुरमुखि आपे बखसिओनु हरि नामि समाणे ॥ आपे भगती लाइओनु गुर सबदि नीसाणे ॥ सनमुख सदा सोहणे सचै दरि जाणे ॥ ऐथै ओथै मुकति है जिन राम पछाणे ॥ धंनु धंनु से जन जिन हरि सेविआ तिन हउ कुरबाणे ॥४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गुरमुखि आपे बखसिओनु हरि नामि समाणे ॥ आपे भगती लाइओनु गुर सबदि नीसाणे ॥ सनमुख सदा सोहणे सचै दरि जाणे ॥ ऐथै ओथै मुकति है जिन राम पछाणे ॥ धंनु धंनु से जन जिन हरि सेविआ तिन हउ कुरबाणे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बखसिओनु = बख्शा है उसने। लाइओनु = लगाया है उसने। नीसाण = निशान (माया के प्रभाव से बचाने के लिए लगाया हुआ) निशान।
अर्थ: जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसको प्रभु खुद ही बख्शता है (भाव, माया के असर से बचाता है; देखें पौड़ी 3), वह मनुष्य प्रभु के नाम में जुड़ते हैं। सतिगुरु के शब्द से (माया के असर से निखेड़ने वाला) निशान लगा के स्वयं ही उसने (गुरमुख को) भक्ति में लगाया है।
जो मनुष्य भक्ति करते हैं उन्हें प्रभु के दर पर आँखें झुकानी नहीं पड़तीं, (क्योंकि भक्ति करने के कारण) उनके मुँह सुंदर लगते हैं, प्रभु के दर से आदर मिलता है।
जिन्होंने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है वे लोक-परलोक में (माया के प्रभाव से) आजाद रहते हैं। भाग्यशाली हैं वह लोग जिन्होंने प्रभु की बंदगी की है, मैं उनसे सदके हूँ।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ महल कुचजी मड़वड़ी काली मनहु कसुध ॥ जे गुण होवनि ता पिरु रवै नानक अवगुण मुंध ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ महल कुचजी मड़वड़ी काली मनहु कसुध ॥ जे गुण होवनि ता पिरु रवै नानक अवगुण मुंध ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महल = स्त्री। मढ़ = शरीर। मड़वड़ी = शरीर से प्यार रखने वाली, शरीर के साथ अपने आप को एक समझने वाली। मुंध = स्त्री।
अर्थ: उस (जीव) स्त्री को कोई सलीका (चज) नहीं जो निरा अपने शरीर के साथ प्यार करती है, वह अंदर से काली है, मैली है। हे नानक! (जीव-स्त्री) पति-प्रभु से तभी मिल सकती है अगर (उसके) अंदर गुण हों, (पर दुष्ट) बेसलीके वाली स्त्री के पास हुए तो केवल अवगुण ही।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ साचु सील सचु संजमी सा पूरी परवारि ॥ नानक अहिनिसि सदा भली पिर कै हेति पिआरि ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ साचु सील सचु संजमी सा पूरी परवारि ॥ नानक अहिनिसि सदा भली पिर कै हेति पिआरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = वह स्त्री। परवारि = परिवार में। अहि = दिन। निसि = रात। हेति = हित में। पिआरि = प्यार में।
अर्थ: हे नानक! जो स्त्री पति के हित में रहती है वह दिन-रात हर वक्त अच्छी है, वही अच्छे आचरण वाली और जुगति वाली है, वह परिवार में जानी-मानी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपणा आपु पछाणिआ नामु निधानु पाइआ ॥ किरपा करि कै आपणी गुर सबदि मिलाइआ ॥ गुर की बाणी निरमली हरि रसु पीआइआ ॥ हरि रसु जिनी चाखिआ अन रस ठाकि रहाइआ ॥ हरि रसु पी सदा त्रिपति भए फिरि त्रिसना भुख गवाइआ ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपणा आपु पछाणिआ नामु निधानु पाइआ ॥ किरपा करि कै आपणी गुर सबदि मिलाइआ ॥ गुर की बाणी निरमली हरि रसु पीआइआ ॥ हरि रसु जिनी चाखिआ अन रस ठाकि रहाइआ ॥ हरि रसु पी सदा त्रिपति भए फिरि त्रिसना भुख गवाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस मनुष्य ने अपने आत्मिक जीवन को (सदा) पड़ताला है उसको नाम-खजाना मिल जाता है, प्रभु अपनी मेहर करके उसको सतिगुरु के शब्द में जोड़ता है, और, गुरु की पवित्र वाणी के माध्यम से उसको अपने नाम का रस पिलाता है।
जिन्होंने नाम-रस चखा है वे और रसों से बचे रहते हैं (भाव, दुनिया के चस्कों को अपने नजदीक नहीं फटकने देते); नाम-रस पी के वे सदा तृप्त रहते हैं और माया की तृष्णा और भूख का नाश कर लेते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ पिर खुसीए धन रावीए धन उरि नामु सीगारु ॥ नानक धन आगै खड़ी सोभावंती नारि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ पिर खुसीए धन रावीए धन उरि नामु सीगारु ॥ नानक धन आगै खड़ी सोभावंती नारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरि = हृदय में। खुसीए = खुशी से। धन = जीव-स्त्री।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री के हृदय में ‘नाम’-श्रृंगार है उसको प्रभु-पति खुशी के साथ अपने साथ मिलाता है। हे नानक! जो जीव-स्त्री प्रभु-पति की हजूरी में खड़ी रहती है उसको शोभा मिलती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ ससुरै पेईऐ कंत की कंतु अगमु अथाहु ॥ नानक धंनु सुोहागणी जो भावहि वेपरवाह ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ ससुरै पेईऐ कंत की कंतु अगमु अथाहु ॥ नानक धंनु सुोहागणी जो भावहि वेपरवाह ॥२॥
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: फरीद जी के शलोकों में भी यह भी शलोक नं: 32 पर दर्ज है; पर कई जगह फर्क हैं, पाठक जन स्वयं आमने सामने कर के देख लें)।
नोट: सुोहागणी, (यहाँ ‘स’ के साथ दो मात्राएं हैं पर ‘ु’ लगा के पढ़ना है असल शब्द है ‘सोहागणी’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: प्रभु-पति अगम्य (पहुँच से परे) है और बहुत गहरा है; जो जीव-सि्त्रयाँ ससुराल और पेके घर (दोनों जगहों पर, भाव लोक परलोक में उस) पति की हो के रहती हैं और (इस तरह) उस बेपरवाह को प्यारी लगती हैं वे भाग्यशाली हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तखति राजा सो बहै जि तखतै लाइक होई ॥ जिनी सचु पछाणिआ सचु राजे सेई ॥ एहि भूपति राजे न आखीअहि दूजै भाइ दुखु होई ॥ कीता किआ सालाहीऐ जिसु जादे बिलम न होई ॥ निहचलु सचा एकु है गुरमुखि बूझै सु निहचलु होई ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तखति राजा सो बहै जि तखतै लाइक होई ॥ जिनी सचु पछाणिआ सचु राजे सेई ॥ एहि भूपति राजे न आखीअहि दूजै भाइ दुखु होई ॥ कीता किआ सालाहीऐ जिसु जादे बिलम न होई ॥ निहचलु सचा एकु है गुरमुखि बूझै सु निहचलु होई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तखति = तख़्त पर। भूपति = (भू = धरती। पति = मालिक) धरती के मालिक। दूजै भाइ = माया के मोह में। कीता = पैदा किया हुआ। बिलम = विलम्ब, देर।
अर्थ: जो मनुष्य तख्त के लायक होता है वही राजा बन के तख्त पर बैठता है (भाव, जो माया की ‘तृष्णा भूख’ गवा के बेपरवाह हो जाता है वही आदर पाता है); सो, जिन्होंने प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल ली है वही असल राजे हैं।
धरती के मालिक बने हुए ये लोग राजे नहीं कहे जा सकते, इनको (एक तो) माया के मोह के कारण सदा दुख मिलता है, (दूसरे) उसे क्या सलाहना जो पैदा किया हुआ है और जिसके नाश होते देर नहीं लगती।
अटल राज वाला एक प्रभु ही है। जो गुरु के सन्मुख हो के ये बात समझ लेता है, वह भी (‘तृष्णा भूख से) अडोल हो जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ सभना का पिरु एकु है पिर बिनु खाली नाहि ॥ नानक से सोहागणी जि सतिगुर माहि समाहि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ सभना का पिरु एकु है पिर बिनु खाली नाहि ॥ नानक से सोहागणी जि सतिगुर माहि समाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सब जीव-स्त्रीयों का पति एक प्रभु है, कोई ऐसी नहीं जिस पर पति ना हो। पर, हे नानक! सोहाग-भाग्य वाली वे हैं जो सतिगुरु में लीन हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मन के अधिक तरंग किउ दरि साहिब छुटीऐ ॥ जे राचै सच रंगि गूड़ै रंगि अपार कै ॥ नानक गुर परसादी छुटीऐ जे चितु लगै सचि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मन के अधिक तरंग किउ दरि साहिब छुटीऐ ॥ जे राचै सच रंगि गूड़ै रंगि अपार कै ॥ नानक गुर परसादी छुटीऐ जे चितु लगै सचि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जब तक) मन की कई लहरें हैं (भाव, तृष्णा की कई लहरें मन में उठ रही हैं, तब तक) मालिक की हजूरी में सही स्वीकार नहीं हो सकते। अगर बेअंत प्रभु के गूढ़े प्यार में, सदा स्थिर रहने वाले रंग में मन मस्त रहे, अगर चिक्त सदा-स्थिर प्रभु में जुड़ा रहे, तो, हे नानक! गुरु की मेहर से सुर्ख-रू हुआ जा सकता है।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि का नामु अमोलु है किउ कीमति कीजै ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे वरतीजै ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सचु कीमति कीजै ॥ गुर सबदी कमलु बिगासिआ इव हरि रसु पीजै ॥ आवण जाणा ठाकिआ सुखि सहजि सवीजै ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि का नामु अमोलु है किउ कीमति कीजै ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे वरतीजै ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सचु कीमति कीजै ॥ गुर सबदी कमलु बिगासिआ इव हरि रसु पीजै ॥ आवण जाणा ठाकिआ सुखि सहजि सवीजै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किउ…कीजै = कैसे मूल्य पाया जा सके? मोल नहीं आँका जा सकता, ‘नाम’ के बदले के मूल्य की कोई भी चीज पेश नहीं की जा सकती। साजीअनु = साजी है उस (प्रभु) ने। इव = इस तरह। सहजि = ‘सहज’ में, शांत अवस्था में।
अर्थ: (धरती के मालिक राजाओं के मुकाबले में) प्रभु का नाम एक ऐसी वस्तु है जिसका मूल्य नहीं पड़ सकता, जिसके बराबर के मूल्य की कोई वस्तु नहीं बताई जा सकती, (प्रभु के ‘नाम’ के बराबर के मूल्य की कोई चीज हो भी कैसे? क्योंकि) उसने स्वयं ही सारी सृष्टि बनाई है और स्वयं ही इसमें हर जगह मौजूद है। (हाँ,) गुरु के सन्मुख हो के सदा महिमा करें (बस, यह) नाम-जपना ही (‘नाम’ की प्राप्ति के लिए) मूल्य किया जा सकता है, (क्योंकि) गुरु के शब्द से हृदय-कमल खिलता है और इस तरह नाम-रस पीया जाता है, (जगत में) आने-जाने का चक्कर समाप्त हो जाता है और सुख में अडोल अवस्था में लीन हो जाया जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ ना मैला ना धुंधला ना भगवा ना कचु ॥ नानक लालो लालु है सचै रता सचु ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ ना मैला ना धुंधला ना भगवा ना कचु ॥ नानक लालो लालु है सचै रता सचु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मैला = विकारों से लिबड़ा हुआ। धुंधला = जिसकी आँखों के आगे धुंध सी आई रहे, जो साफ ना दिखे। ना धुंधला = जिसकी निगाह साफ हो, जिसको परमात्मा हर जगह साफ दिखे। भगवा = भेस का रंग। ना भगवा = जिसे किसी भेस की आवश्यक्ता ना रहे। कचु = नाशवान जगत का मोह। लालो लालु = लाल ही लाल, परमात्मा के प्रेम रंग से गाढ़ा रंगा हुआ। सचै = सदा स्थिर हरि नाम। रता = रंगा हुआ। सचु = सदा स्थिर (प्रभु का रूप)।1।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जो मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के नाम) में रंगा रहता है वह सदा स्थिर प्रभु (का ही रूप) हो जाता है। (उसका मन परमात्मा के प्रेम-रंग से) गाढ़ा रंगा जाता है। (हे भाई! उसका मन) विकारों से नहीं लिबड़ता, उसकी निगाह धुंधली नहीं होती (भाव, उसको हर जगह परमात्मा साफ दिखाई देता है) उसको किसी भेस आदि की तमन्ना नहीं होती, नाशवान जगत का मोह भी उसको नहीं व्यापता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सहजि वणसपति फुलु फलु भवरु वसै भै खंडि ॥ नानक तरवरु एकु है एको फुलु भिरंगु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ सहजि वणसपति फुलु फलु भवरु वसै भै खंडि ॥ नानक तरवरु एकु है एको फुलु भिरंगु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। वसै = बसता है। भै = सारे डर (बहुवचन)। खंडि = नाश कर के। तरवरु = (तरु+वर) श्रेष्ठ वृक्ष। भिरंगु = भृंग, भौरा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जैसे पंछियों के रैन-बसेरे के लिए वृक्ष आसरा है, वैसे ही जो जीव-) भौरा सिर्फ परमात्मा को ही आसरा-सहारा समझता है (जो भौरों की तरह हरेक फूल की सुगंधि नहीं लेता फिरता, बल्कि परमात्मा के ही महिमा-रूप) फूल (की सुगंधि ही) लेता है, वह जीव-भौरा (दुनिया के) सारे डर नाश करके (सदा) आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, बनस्पति का हरेक फूल हरेक फल (जगत का हरेक मन-मोहना पदार्थ उसको माया की भटकना में डालने की जगह) आत्मिक अडोलता में टिकाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जो जन लूझहि मनै सिउ से सूरे परधाना ॥ हरि सेती सदा मिलि रहे जिनी आपु पछाना ॥ गिआनीआ का इहु महतु है मन माहि समाना ॥ हरि जीउ का महलु पाइआ सचु लाइ धिआना ॥ जिन गुर परसादी मनु जीतिआ जगु तिनहि जिताना ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जो जन लूझहि मनै सिउ से सूरे परधाना ॥ हरि सेती सदा मिलि रहे जिनी आपु पछाना ॥ गिआनीआ का इहु महतु है मन माहि समाना ॥ हरि जीउ का महलु पाइआ सचु लाइ धिआना ॥ जिन गुर परसादी मनु जीतिआ जगु तिनहि जिताना ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य (अपने) मन के साथ लड़ते हैं वे सूरमे इन्सान बनते हैं वे जाने-माने जाते हैं; जिन्होंने अपने आप को पहचाना है वे सदा ईश्वर के साथ मिले रहते हैं, ज्ञानवान लोगों की तारीफ ही यही है (भाव, इसी बात में महानता है) कि वे मन में टिके रहते हैं (भाव, माया के पीछे भटकने की जगह अंदर की ओर केन्द्रित रहते हैं); (इस तरह) तवज्जो जोड़ के उन्हें ईश्वर का घर मिल जाता है।
(सो) जिन्होंने गुरु की मेहर से अपने मन को जीता है उन्होंनें जगत जीत लिया है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ जोगी होवा जगि भवा घरि घरि भीखिआ लेउ ॥ दरगह लेखा मंगीऐ किसु किसु उतरु देउ ॥ भिखिआ नामु संतोखु मड़ी सदा सचु है नालि ॥ भेखी हाथ न लधीआ सभ बधी जमकालि ॥ नानक गला झूठीआ सचा नामु समालि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ जोगी होवा जगि भवा घरि घरि भीखिआ लेउ ॥ दरगह लेखा मंगीऐ किसु किसु उतरु देउ ॥ भिखिआ नामु संतोखु मड़ी सदा सचु है नालि ॥ भेखी हाथ न लधीआ सभ बधी जमकालि ॥ नानक गला झूठीआ सचा नामु समालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि = घर में। घरि घरि = हरेक घर में। भीखिआ = भिक्षा, ख़ैर। किसु किसु उतरु = किस किस (करतूत, करनी, काम) का उक्तर। मढ़ी = मठ, कुटिया। कालि = काल ने। हाथ = गहराई, अस्लियत, जिंदगी का असल राह।
अर्थ: अगर मैं जोगी बन जाऊँ, जगत में भटकता फिरूँ और घर-घर से (सिर्फ) भिक्षा ही लेता फिरूँ (और अपनी करतूतों की तरफ देखूँ भी ना, तो) प्रभु की हजूरी में (तो अमलों का) लेखा माँगा जाता है मैं (अपनी) किस-किस करतूत का जवाब दूँगा? (जिस मनुष्य ने) प्रभु के नाम को भिक्षा बनाया है संतोख को कुटिया बनाया है ईश्वर सदा उसके साथ बसता है।
भेस (बनाने) से कभी किसी को अस्लियत नहीं मिली, सारी सृष्टि जमकाल ने बाँध रखी है। हे नानक! प्रभु का नाम ही याद कर, इसके अलावा और बातें झूठी हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ जितु दरि लेखा मंगीऐ सो दरु सेविहु न कोइ ॥ ऐसा सतिगुरु लोड़ि लहु जिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ तिसु सरणाई छूटीऐ लेखा मंगै न कोइ ॥ सचु द्रिड़ाए सचु द्रिड़ु सचा ओहु सबदु देइ ॥ हिरदै जिस दै सचु है तनु मनु भी सचा होइ ॥ नानक सचै हुकमि मंनिऐ सची वडिआई देइ ॥ सचे माहि समावसी जिस नो नदरि करेइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ जितु दरि लेखा मंगीऐ सो दरु सेविहु न कोइ ॥ ऐसा सतिगुरु लोड़ि लहु जिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ तिसु सरणाई छूटीऐ लेखा मंगै न कोइ ॥ सचु द्रिड़ाए सचु द्रिड़ु सचा ओहु सबदु देइ ॥ हिरदै जिस दै सचु है तनु मनु भी सचा होइ ॥ नानक सचै हुकमि मंनिऐ सची वडिआई देइ ॥ सचे माहि समावसी जिस नो नदरि करेइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु दरि = जिस दर से।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इसके मुकाबले में ध्यान से देखें ‘जिसु दरि’; इसका अर्थ है ‘जिस के दर से’)।
दर्पण-भाषार्थ
द्रिढ़ाए = पक्का करता है, दृढ़ करता है। द्रिढ़ु = दृढ़ (करता है), पल्ले बाँधता हैं। हुकमि मंनिऐ = (Locative Absolute) अगर हुक्म मान लें, हुक्म मान लिया।
अर्थ: (हे भाई!) जिस दरवाजे पर (बैठने से, किए हुए कर्मों का) लेखा (फिर भी) माँगा जाना है उस दर पे कोई ना बैठना। ऐसा गुरु ढूँढो जिस जैसा और कोई ना मिल सके, उस गुरु की शरण पड़ने से (कर्मों के चक्करों से) मुक्त हुआ जाता है (फिर किसी कर्मों का) लेखा कोई नहीं माँगता (क्योंकि) वह गुरु स्वयं प्रभु का नाम पल्ले बाँधता है (शरण आए हुओं के) पल्ले बँधाता है और प्रभु की महिमा की वाणी देता है।
जिस मनुष्य के हृदय में ईश्वर आ बसता है उसका शरीर भी उसका मन भी रब के प्यार में रंगा जाता है। हे नानक! अगर प्रभु की रजा मान लें तो वह सच्ची बड़ाई बख्शता है; पर, वही मनुष्य अपना आप प्रभु में लीन करता है जिस परवह खुद मिहर की निगाह करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सूरे एहि न आखीअहि अहंकारि मरहि दुखु पावहि ॥ अंधे आपु न पछाणनी दूजै पचि जावहि ॥ अति करोध सिउ लूझदे अगै पिछै दुखु पावहि ॥ हरि जीउ अहंकारु न भावई वेद कूकि सुणावहि ॥ अहंकारि मुए से विगती गए मरि जनमहि फिरि आवहि ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सूरे एहि न आखीअहि अहंकारि मरहि दुखु पावहि ॥ अंधे आपु न पछाणनी दूजै पचि जावहि ॥ अति करोध सिउ लूझदे अगै पिछै दुखु पावहि ॥ हरि जीउ अहंकारु न भावई वेद कूकि सुणावहि ॥ अहंकारि मुए से विगती गए मरि जनमहि फिरि आवहि ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजै = दूसरे में, ईश्वर को छोड़ के और में, माया के मोह में। अगै पिछै = ससुराल मायके, परलोक में इस लोक में। विगती = बे-गति।
अर्थ: जो मनुष्य अहंकार में मरते हैं (खपते हैं) और दुख पाते हैं उन्हें शूरवीर नहीं कहा जाता, वह (अहंकारी) अंधे अपना असल नहीं पहचानते और माया के मोह में दुखी होते हैं, बड़े क्रोध में आ के (दुनिया से) लड़ते हैं और इस लोक में व परलोक में दुख ही पाते हैं।
वेद आदि धर्म-पुस्तकें पुकार-पुकार कर कह रही हैं कि ईश्वर को अहंकार अच्छा नहीं लगता। जो मनुष्य अहंकार में मरते रहे वे बे-गति ही चले गए (उनका जीवन ना सुधरा), वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ कागउ होइ न ऊजला लोहे नाव न पारु ॥ पिरम पदारथु मंनि लै धंनु सवारणहारु ॥ हुकमु पछाणै ऊजला सिरि कासट लोहा पारि ॥ त्रिसना छोडै भै वसै नानक करणी सारु ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ कागउ होइ न ऊजला लोहे नाव न पारु ॥ पिरम पदारथु मंनि लै धंनु सवारणहारु ॥ हुकमु पछाणै ऊजला सिरि कासट लोहा पारि ॥ त्रिसना छोडै भै वसै नानक करणी सारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कागउ = कौए से। पारु = उस पार। पिरम पदारथु = प्यारे (प्रभु) का नाम। धनु सवारणहारु = साबाश है उस संवारने वाले (गुरु) को। सिरि कासट = लकड़ी के सिर पर (चढ़ कर)। भै = भय में। सारु = अच्छी।
अर्थ: कौआ (हंस) के समान सफेद नहीं बन सकता, लोहे की नाव से (नदी) पार नहीं की जा सकती; पर शाबाश है उस सँवारने वाले (गुरु) का (जिसकी मति ले के कौए जैसे काले मन वाला भी) परमात्मा का नाम अंगीकार करता है, हुक्म पहचानता है और इस तरह (कौए से) हंस बन जाता है (जैसे) लकड़ी के आसरे लोहा (नदी के) उस पार जा लगता है; (गुरु के आसरे) हे नानक! वह तृष्णा त्यागता है और रब के भय में जीता है, (बस!) यही करणी सबसे अच्छी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मारू मारण जो गए मारि न सकहि गवार ॥ नानक जे इहु मारीऐ गुर सबदी वीचारि ॥ एहु मनु मारिआ ना मरै जे लोचै सभु कोइ ॥ नानक मन ही कउ मनु मारसी जे सतिगुरु भेटै सोइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मारू मारण जो गए मारि न सकहि गवार ॥ नानक जे इहु मारीऐ गुर सबदी वीचारि ॥ एहु मनु मारिआ ना मरै जे लोचै सभु कोइ ॥ नानक मन ही कउ मनु मारसी जे सतिगुरु भेटै सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारू = मरुस्थल में, भाव जंगल बीयाबान में। सभु कोइ = हरेक जीव। भेटै = मिल जाए। सोइ = सोय = वह (भाव, समर्थ)।
अर्थ: जो मनुष्य बाहर जंगलों में मन को मारने के लिए गए वे मार न सके; हे नानक! अगर यह मन वश में किया जा सकता है तो गुरु के शब्द में विचार जोड़ने से ही वश में किया जा सकता है, (नहीं तो ऐसे) चाहे कोई कितनी भी चाहत करे (कोशिश करे) ये मन प्रयत्न करने पर वश में नहीं आता।
हे नानक! अगर समर्थ गुरु मिल जाए तो मन ही मन को मार लेता है (भाव, गुरु की सहायता से अंदर की ओर झाँकने से मन वश में आ जाता है)।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ दोवै तरफा उपाईओनु विचि सकति सिव वासा ॥ सकती किनै न पाइओ फिरि जनमि बिनासा ॥ गुरि सेविऐ साति पाईऐ जपि सास गिरासा ॥ सिम्रिति सासत सोधि देखु ऊतम हरि दासा ॥ नानक नाम बिना को थिरु नही नामे बलि जासा ॥१०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ दोवै तरफा उपाईओनु विचि सकति सिव वासा ॥ सकती किनै न पाइओ फिरि जनमि बिनासा ॥ गुरि सेविऐ साति पाईऐ जपि सास गिरासा ॥ सिम्रिति सासत सोधि देखु ऊतम हरि दासा ॥ नानक नाम बिना को थिरु नही नामे बलि जासा ॥१०॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: देखें मलार की वार महला १ पउड़ी नं: 5। गुरु अमरदास जी ने ये ख्याल वहाँ से लिया है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दोवै तरफा = (देखें पौड़ी नं: 6,7,8,9) मन को जीतने वाले शूरवीर और माया की खातिर लड़ने वाले, ये दानों पक्ष। विचि = (इस सृष्टि में)। सकति = माया। सिव = आत्मा। गिरासा = ग्रास। सास गिरासा = (भाव,) खाते पीते।
अर्थ: इस सृष्टि में माया और आत्मा (दानों का) वास है (इनके असर तले कोई अहंकार में दूसरों से लड़ते हैं और कोई नाम के धनी हैं) ये दोनों पक्ष प्रभु ने खुद बनाए हैं। माया के असर में रह के किसी ने (रब) नहीं पाया, बार-बार पैदा होता मरता है। पर गुरु के हुक्म में चलने से खाते-पीते नाम-जप के (हृदय में) ठंढ पड़ती है।
(हे भाई!) स्मृतियाँ और शास्त्र (आदि सारे धार्मिक-पुस्तकों को बेशक) खोज के देख लो, अच्छे मनुष्य वे हैं जो प्रभु के सेवक हैं। हे नानक! ‘नाम’ के बिना कोई वस्तु स्थिर रहने वाली नहीं; मैं सदके हूँ प्रभु के नाम से।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ होवा पंडितु जोतकी वेद पड़ा मुखि चारि ॥ नव खंड मधे पूजीआ अपणै चजि वीचारि ॥ मतु सचा अखरु भुलि जाइ चउकै भिटै न कोइ ॥ झूठे चउके नानका सचा एको सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ होवा पंडितु जोतकी वेद पड़ा मुखि चारि ॥ नव खंड मधे पूजीआ अपणै चजि वीचारि ॥ मतु सचा अखरु भुलि जाइ चउकै भिटै न कोइ ॥ झूठे चउके नानका सचा एको सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोतकी = ज्योतिषी। मुखि = मुँह से (भाव,) जबानी। नव खंड = धरती के नौ ही खंडों में, सारी धरती पर। पूजीआ = पूजा जाऊँ। चजि = आचरण के कारण। वीचारि = (अच्छी) विचार बुद्धि के कारण। मतु भुलि जाइ = कहीं भूल ना जाए। भिटै = छू जाए, अपवित्र हो जाए। सचा अखरु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। चउकै = चौके में। झूठे = नाशवान। सदा = सदा स्थिर। सोइ = वह प्रभु ही।1।
अर्थ: हे भाई! अगर मैं (धर्म-पुस्तकों का) विचारवान बन जाऊँ, ज्योतिषी बन जाऊँ, चारों वेद मुँह-ज़बानी पढ़ सकूँ; अगर अपने आचरण के कारण अपनी सद्-बुद्धि के कारण सारी ही धरती पर मेरी इज्जत हो; (अगर मैं बहुत स्वच्छता रखूँ कि) कहीं कोई (नीची जाति वाला मनुष्य मेरे) चौके को अपवित्र ना कर दे (तो यह सब कुछ व्यर्थ ही है)। हे नानक! सारे चौके नाशवान हैं, सदा कायम रहने वाला सिर्फ परमात्मा का नाम ही है (ध्यान इस बात का रखना चाहिए कि) कहीं सदा कायम रहने वाला हरि-नाम (मन से) भूल ना जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ आपि उपाए करे आपि आपे नदरि करेइ ॥ आपे दे वडिआईआ कहु नानक सचा सोइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ आपि उपाए करे आपि आपे नदरि करेइ ॥ आपे दे वडिआईआ कहु नानक सचा सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: प्रभु स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है (सब कारज) स्वयं ही करता है, स्वयं ही (जीवों पर) मेहर की नजर करता है, स्वयं ही वडिआईयां देता है; कह, हे नानक! वह सदा कायम रहने वाला प्रभु स्वयं ही (सब कुछ करने के समर्थ) है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ कंटकु कालु एकु है होरु कंटकु न सूझै ॥ अफरिओ जग महि वरतदा पापी सिउ लूझै ॥ गुर सबदी हरि भेदीऐ हरि जपि हरि बूझै ॥ सो हरि सरणाई छुटीऐ जो मन सिउ जूझै ॥ मनि वीचारि हरि जपु करे हरि दरगह सीझै ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ कंटकु कालु एकु है होरु कंटकु न सूझै ॥ अफरिओ जग महि वरतदा पापी सिउ लूझै ॥ गुर सबदी हरि भेदीऐ हरि जपि हरि बूझै ॥ सो हरि सरणाई छुटीऐ जो मन सिउ जूझै ॥ मनि वीचारि हरि जपु करे हरि दरगह सीझै ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंटकु = काँटा। कालु = मौत, मौत का सहम। अफरिओ = अमोड़, जिसके रास्ते पर कोई रोक ना लगा सके। लूझै = अड़ता है, झगड़ता है। भेदीऐ = भेदा जाए।
अर्थ: (मनुष्य के लिए) मौत (का डर ही) एक (ऐसा) काँटा है (जो हर वक्त दिल में चुभता है) कोई और काँटा (भाव, सहम) इस जैसा नहीं है। (यह मौत) सारे जगत में बरत रही है कोई इसको रोक नहीं सकता, (मौत का सहम) विकारी बंदों को (विशेष तौर पर) अड़ाता है (भाव, दबा के रखता है)।
जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द से प्रभु के नाम में परोया जाता है जो अपने मन के साथ टकराव बनाता है वह स्मरण करके (अस्लियत को) समझ लेता है और वह प्रभु की शरण पड़ कर (मौत के सहम से) बच जाता है। जो मनुष्य अपने मन में (प्रभु के गुणों की) विचार करके बँदगी करता है वह प्रभु की हजूरी में स्वीकार होता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ हुकमि रजाई साखती दरगह सचु कबूलु ॥ साहिबु लेखा मंगसी दुनीआ देखि न भूलु ॥ दिल दरवानी जो करे दरवेसी दिलु रासि ॥ इसक मुहबति नानका लेखा करते पासि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ हुकमि रजाई साखती दरगह सचु कबूलु ॥ साहिबु लेखा मंगसी दुनीआ देखि न भूलु ॥ दिल दरवानी जो करे दरवेसी दिलु रासि ॥ इसक मुहबति नानका लेखा करते पासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साखती = बनावट, प्रभु के साथ जोड़। दरवानी = रक्षा, चौकीदारी। दिलु रासि = दिल को सीधे रास्ते पर रखना। रजाई = रजा के मालिक परमात्मा।
अर्थ: परमात्मा के हुक्म में चलने से परमात्मा से बन जाती है, प्रभु की हजूरी में सच (भाव, स्मरण) स्वीकार है। हे भाई! दुनिया को देख के (स्मरण को भूलने की) गलती ना खा, मालिक (तेरे कर्मों का) लेखा माँगेगा।
जो मनुष्य दिल की रक्षा करता है, दिल को सीधे राह पर रखने की फकीरी कमाता है, हे नानक! उसके प्यार मुहब्बत का हिसाब कर्तार के पास है (भाव, प्रभु उसके प्यार को जानता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ अलगउ जोइ मधूकड़उ सारंगपाणि सबाइ ॥ हीरै हीरा बेधिआ नानक कंठि सुभाइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ अलगउ जोइ मधूकड़उ सारंगपाणि सबाइ ॥ हीरै हीरा बेधिआ नानक कंठि सुभाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलगउ = अलग, निर्लिप। जोइ = देखता है, निहारता है। मधूकड़उ = मधुकर, भौरा।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘मधूकड़उ’ का अर्थ ‘मधूकड़ी, जगह-जगह से माँगे हुए टूकड़े’ करना गलत है; ‘भौरे की तरह फकीर जगह-जगह से सार ग्रहण करने वाला’, इस अर्थ में भी मांग खाने की झलक पड़ती है; पर, गुरु नानक देव जी ने मंगतों का टोला पैदा नहीं किया। यहाँ भौरे की निर्लिपता का गुण ही लिया गया है, जैसे पिछले शलोक में ‘दिल दरवानी’ है)।
दर्पण-भाषार्थ
कंठि = गले से, गले में। हीरा = आत्मा। सारंगपाणि = जिसके हाथ में सारंग धनुष है, परमात्मा। सबाइ = हर जगह।
अर्थ: (जो जीव-) भौरा निर्लिप रह कर हर जगह परमात्मा को देखता है, जिसकी आत्मा परमात्मा में परोई हुई है, हे नानक! वह प्रभु-प्रेम के द्वारा प्रभु के गले से (लगा हुआ) है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ मनमुख कालु विआपदा मोहि माइआ लागे ॥ खिन महि मारि पछाड़सी भाइ दूजै ठागे ॥ फिरि वेला हथि न आवई जम का डंडु लागे ॥ तिन जम डंडु न लगई जो हरि लिव जागे ॥ सभ तेरी तुधु छडावणी सभ तुधै लागे ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ मनमुख कालु विआपदा मोहि माइआ लागे ॥ खिन महि मारि पछाड़सी भाइ दूजै ठागे ॥ फिरि वेला हथि न आवई जम का डंडु लागे ॥ तिन जम डंडु न लगई जो हरि लिव जागे ॥ सभ तेरी तुधु छडावणी सभ तुधै लागे ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मन के गुलाम मनुष्य माया के मोह में मस्त रहते हैं, उनको मौत (का सहम) दबाए रखता है। जो मनुष्य माया के मोह में लूटे जा रहे हैं उनको (ये सहम) पल में मार के नाश करता है। जिस वक्त मौत का डंडा आही बजता है (मौत सिर पर आ जाती है) तब (इस मोह में से निकलने के लिए) समय नहीं मिलता।
जो मनुष्य परमात्मा की याद में सचेत रहते हैं उनको जम का डंडा नहीं लगता (सहम नहीं मारता)।
हे प्रभु! सारी सृष्टि तेरी ही है, तूने इसे माया के मोह से छुड़वाना है, सभी का तू ही आसरा है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ सरबे जोइ अगछमी दूखु घनेरो आथि ॥ कालरु लादसि सरु लाघणउ लाभु न पूंजी साथि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ सरबे जोइ अगछमी दूखु घनेरो आथि ॥ कालरु लादसि सरु लाघणउ लाभु न पूंजी साथि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरबे = सारी सृष्टि। जोइ = देखता है (पौड़ी नं: 12 और 14 में भी यह शब्द ‘जोइ’ जोय आता है, वाणी भी गुरु नानक देव जी की है इसका अर्थ है ‘देखता है’) अगछमी = ना नाश होने वाली। आथि = है। सरु = सरोवर, सागर। लाभु = कमाई। पूंजी = राशि, मूल।
अर्थ: (जो मनुष्य) सारी सृष्टि को ना नाश होने वाली देखता है उसे बड़ा दुख (व्यापता है), वह (मानो) कल्लर लाद रहा है (पर उसने) समुंदर पार लांघना है, उसके पल्ले ना मूल है ना कमाई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ पूंजी साचउ नामु तू अखुटउ दरबु अपारु ॥ नानक वखरु निरमलउ धंनु साहु वापारु ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ पूंजी साचउ नामु तू अखुटउ दरबु अपारु ॥ नानक वखरु निरमलउ धंनु साहु वापारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जिस मनुष्य के पास) प्रभु का नाम पूंजी है, जिस के पास (हे प्रभु!) तू ना समाप्त होने वाला और बेअंत धन है, जिसके पास ये पवित्र सौदा है, हे नानक! वह शाह धन्य है और उसका किया हुआ व्यापार धन्य है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ पूरब प्रीति पिराणि लै मोटउ ठाकुरु माणि ॥ माथै ऊभै जमु मारसी नानक मेलणु नामि ॥३॥
मूलम्
मः १ ॥ पूरब प्रीति पिराणि लै मोटउ ठाकुरु माणि ॥ माथै ऊभै जमु मारसी नानक मेलणु नामि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिराणि = पहचान। माणि = भाव, स्मरण कर। माथै उभै = मुँह भार।
अर्थ: (हे जीव!) प्रभु के साथ प्राथमिक मूल प्रीति को पहचान, उस बड़े मालिक को याद कर। हे नानक! प्रभु के नाम में जुड़ना जम को (भाव, मौत के सहम को) मुँह-भार मारता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे पिंडु सवारिओनु विचि नव निधि नामु ॥ इकि आपे भरमि भुलाइअनु तिन निहफल कामु ॥ इकनी गुरमुखि बुझिआ हरि आतम रामु ॥ इकनी सुणि कै मंनिआ हरि ऊतम कामु ॥ अंतरि हरि रंगु उपजिआ गाइआ हरि गुण नामु ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे पिंडु सवारिओनु विचि नव निधि नामु ॥ इकि आपे भरमि भुलाइअनु तिन निहफल कामु ॥ इकनी गुरमुखि बुझिआ हरि आतम रामु ॥ इकनी सुणि कै मंनिआ हरि ऊतम कामु ॥ अंतरि हरि रंगु उपजिआ गाइआ हरि गुण नामु ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: परमात्मा ने स्वयं ही इस मनुष्य शरीर को सँवारा है और स्वयं ही इसमें अपना नाम (मानो) नौ-खजानों के रूप में डाल दिए हैं (नौ-निधि-नाम डाल रखा है)। पर, कई जीव उसने स्वयं ही भटकना में डाल के गलत रास्ते पर डाले हुए हैं, उनका (सारा) उद्यम असफल जाता है। कई जीवों ने गुरु के सन्मुख हो के (सब जगह) परमात्मा की ज्योति (व्यापक) समझी है, कई जीवों ने ‘नाम’ सुन के मान लिया है (भाव, ‘नाम’ में मन लगा लिया है) उनका ये उद्यम बढ़िया है।
जो मनुष्य प्रभु के गुण गाते हैं, ‘नाम’ स्मरण करते हैं उनके मन में प्रभु का प्यार पैदा होता है।13।
[[1091]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ भोलतणि भै मनि वसै हेकै पाधर हीडु ॥ अति डाहपणि दुखु घणो तीने थाव भरीडु ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ भोलतणि भै मनि वसै हेकै पाधर हीडु ॥ अति डाहपणि दुखु घणो तीने थाव भरीडु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भोलतणि = भोलेपन के कारण। भै = भय (रब के) डर से। हेकै = यही एक। पाधर = पधरा, सरल। हीडु = हृदय। डाहपणि = (डाह = जलन) जलन ईष्या के कारण। तीने थाव = तीनों जगह (मन, वाणी, शरीर)। भरीडु = भ्रष्ट, भृष्ट।
अर्थ: वही एक हृदय सरल है जिसके हृदय में भोलापन और (ईश्वरीय) भय के कारण (ईश्वर स्वयं) बसता है। पर जलन और ईष्या के कारण बहुत ही दुख व्यापता है, मन, वाणी और शरीर तीनों ही भ्रष्ट हुए रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ मांदलु बेदि सि बाजणो घणो धड़ीऐ जोइ ॥ नानक नामु समालि तू बीजउ अवरु न कोइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ मांदलु बेदि सि बाजणो घणो धड़ीऐ जोइ ॥ नानक नामु समालि तू बीजउ अवरु न कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मांदलु = ढोल। बेदि = बेद ने। सि = उस (मांदल) को। बाजणो = बजाया। घणो धड़ीऐ = घणा धड़ा, बहुत सारी लुकाई। जोइ = देखता है (पौड़ी नं: 12, 13 और 14 के साथ आए शलोकों में भी यह शब्द ‘जोइ’ जोय आया है, तीनों ही शलोक गुरु नानक देव जी के हैं। ‘बोली भी हरेक की पश्चिमी पंजाब वाली ‘लहिंदी’ है। सो, सभी शलोकों में इस शब्द का अर्थ एक ही चाहिए)। बीजउ = बीआ, दूसरा।
अर्थ: घणा धड़ा (भाव, बहुत सारी दुनिया) देखती है उस ढोल को (जो ढोल) वेदों ने बजाया (भाव, कर्मकांड का रास्ता)। हे नानक! तू ‘नाम’ स्मरण कर, (इससे अलग) और दूसरा कोई (सही रास्ता) नहीं है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: देखें, शलोक कबीर जी नं: 165;
कबीर जिह मारगि पंडित गए पाछै परी बहीर॥
इक अवघट घाटी राम की तिह चढ़ि रहिओ कबीर॥165॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सागरु गुणी अथाहु किनि हाथाला देखीऐ ॥ वडा वेपरवाहु सतिगुरु मिलै त पारि पवा ॥ मझ भरि दुख बदुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥३॥
मूलम्
मः १ ॥ सागरु गुणी अथाहु किनि हाथाला देखीऐ ॥ वडा वेपरवाहु सतिगुरु मिलै त पारि पवा ॥ मझ भरि दुख बदुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुणी = त्रैगुणी, माया के तीन गुणों वाला। किनि = किस ने? किसी विरले ने। हाथाला = हाथ, थाह। मझ = बीच का हिस्सा, (भाव, सारा)। भरि = भरा हुआ।
अर्थ: (यह) त्रैगुणी (संसार) (मानो) अति-गहरा समुंदर है, इसकी थाह किसने पाई है? अगर सतिगुरु (जो इस त्रिगुणी संसार से) बहुत बेपरवाह है मिल जाए तो मैं भी इससे पार लांघ जाऊँ। इस संसार-समुंदर का बीच का हिस्सा दुखों से भरा हुआ है।
हे नानक! प्रभु के नाम स्मरण के बिना किसी की भी (त्रैगुणी माया की) भूख नहीं उतरती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिनी अंदरु भालिआ गुर सबदि सुहावै ॥ जो इछनि सो पाइदे हरि नामु धिआवै ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु गुरु मिलै सो हरि गुण गावै ॥ धरम राइ तिन का मितु है जम मगि न पावै ॥ हरि नामु धिआवहि दिनसु राति हरि नामि समावै ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिनी अंदरु भालिआ गुर सबदि सुहावै ॥ जो इछनि सो पाइदे हरि नामु धिआवै ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु गुरु मिलै सो हरि गुण गावै ॥ धरम राइ तिन का मितु है जम मगि न पावै ॥ हरि नामु धिआवहि दिनसु राति हरि नामि समावै ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुहावै सबदि = सोहाने शब्द से। जम मगि = जम के राह पर। न पावै = नहीं डालता, नहीं चलाता। अंदरु = अंदरूनी, मन।
अर्थ: सतिगुरु के सोहाने शब्द से जिन्होंने अपना मन खोजा है वह हरि-नाम स्मरण करते हैं और मन-इच्छित फल पाते हैं।
जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करे उसको गुरु मिलता है और वह प्रभु के गुण गाता है। धर्मराज उनका मित्र बन जाता है उनको वह जम के राह पर नहीं डालता; वह दिन रात हरि-नाम स्मरण करते हैं और हरि-नाम में जुड़े रहते हैं।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ सुणीऐ एकु वखाणीऐ सुरगि मिरति पइआलि ॥ हुकमु न जाई मेटिआ जो लिखिआ सो नालि ॥ कउणु मूआ कउणु मारसी कउणु आवै कउणु जाइ ॥ कउणु रहसी नानका किस की सुरति समाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ सुणीऐ एकु वखाणीऐ सुरगि मिरति पइआलि ॥ हुकमु न जाई मेटिआ जो लिखिआ सो नालि ॥ कउणु मूआ कउणु मारसी कउणु आवै कउणु जाइ ॥ कउणु रहसी नानका किस की सुरति समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरगि = स्वर्ग में। मिरति = मृत्य लोक, धरती पर। पइआलि = पाताल में। रहसी = आनंद लेता है। कउणु = (प्रभु के बिना और) कौन? प्रभु स्वयं ही।
अर्थ: यही बात सुनी जाती है और बयान की जा रही है कि स्वर्ग में धरती पर और पाताल में (तीनों ही लोकों में) प्रभु एक स्वयं ही स्वयं है, उसके हुक्म की उलंघना नहीं की जा सकती, (जीवों का) जो जो लेख उसने लिखा है वही (हरेक जीव को) चला रहा है। (सो,) ना कोई मरता है ना कोई मारता है, ना कोई पैदा होता है ना कोई मरता है। हे नानक! वह खुद ही आनंद लेने वाला है, उसकी अपनी ही तवज्जो (अपने आप में) टिकी हुई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ हउ मुआ मै मारिआ पउणु वहै दरीआउ ॥ त्रिसना थकी नानका जा मनु रता नाइ ॥ लोइण रते लोइणी कंनी सुरति समाइ ॥ जीभ रसाइणि चूनड़ी रती लाल लवाइ ॥ अंदरु मुसकि झकोलिआ कीमति कही न जाइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ हउ मुआ मै मारिआ पउणु वहै दरीआउ ॥ त्रिसना थकी नानका जा मनु रता नाइ ॥ लोइण रते लोइणी कंनी सुरति समाइ ॥ जीभ रसाइणि चूनड़ी रती लाल लवाइ ॥ अंदरु मुसकि झकोलिआ कीमति कही न जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ मुआ = ‘हउ’ में मरा हुआ, इस ख्याल में मरा हुआ कि मैं बड़ा हूँ। मै मारिआ = ‘मैं’ का मारा हुआ। पउणु = पवन, हवा, तृष्णा। नाइ = नाम में। लोइण = आँखें। लोइणी = आँखों में ही (भाव,) अपने आप में ही (बाहरी रूप की तरफ ताकने की तमन्ना नहीं रही)। सुरति = (निंदा आदि) सुनने की तमन्ना। रसाइणि = रसों का घर (नाम) में। चूनड़ी = सुंदर हीरा। लवाइ = उचार के। मुसकि = महक के। झकोलिआ = लपटें दे रहा है।
अर्थ: जितना समय जीव ‘अहंकार’ का मारा हुआ है उसके अंदर तृष्णा का दरिया बहता रहता है। पर, हे नानक! जब मन ‘नाम’ में रंगा जाता है तब तृष्णा समाप्त हो जाती है, आँखें अपने आप में रंगी जाती हैं, (निंदा आदि) सुनने की चाहत कानों में ही लीन हो जाती है, जीभ ‘नाम’ स्मरण करके नाम रसायन में रंग के सुंदर लाल बन जाती है, मन (‘नाम’ में) महक के लपटें देता है। (ऐसे जीवन वाले का) मूल्य नहीं पड़ सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इसु जुग महि नामु निधानु है नामो नालि चलै ॥ एहु अखुटु कदे न निखुटई खाइ खरचिउ पलै ॥ हरि जन नेड़ि न आवई जमकंकर जमकलै ॥ से साह सचे वणजारिआ जिन हरि धनु पलै ॥ हरि किरपा ते हरि पाईऐ जा आपि हरि घलै ॥१५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इसु जुग महि नामु निधानु है नामो नालि चलै ॥ एहु अखुटु कदे न निखुटई खाइ खरचिउ पलै ॥ हरि जन नेड़ि न आवई जमकंकर जमकलै ॥ से साह सचे वणजारिआ जिन हरि धनु पलै ॥ हरि किरपा ते हरि पाईऐ जा आपि हरि घलै ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जम कंकर = जम का सेवक जमदूत। जमकलै = जम काल।
अर्थ: मनुष्य जनम में (जीव के लिए परमात्मा का) नाम ही (असल) खजाना है, ‘नाम’ ही (यहाँ से मनुष्य के) साथ जाता है, ये नाम-खजाना अमुक (ना खत्म होने वाला) है कभी समाप्त नहीं होता, बेशक खाओ, खरचो और साथ बाँध लो; (फिर, इस खजाने वाले) भक्त जन के पास जमकाल जमदूत भी नहीं आते। जिन्होंने नाम-धन इकट्टा किया है वही सच्चे शाह हैं सच्चे व्यापारी हैं। यह नाम-धन परमात्मा की मेहर से मिलता है जब वह स्वयं (गुरु को जगत में) भेजता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ मनमुख वापारै सार न जाणनी बिखु विहाझहि बिखु संग्रहहि बिख सिउ धरहि पिआरु ॥ बाहरहु पंडित सदाइदे मनहु मूरख गावार ॥ हरि सिउ चितु न लाइनी वादी धरनि पिआरु ॥ वादा कीआ करनि कहाणीआ कूड़ु बोलि करहि आहारु ॥ जग महि राम नामु हरि निरमला होरु मैला सभु आकारु ॥ नानक नामु न चेतनी होइ मैले मरहि गवार ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ मनमुख वापारै सार न जाणनी बिखु विहाझहि बिखु संग्रहहि बिख सिउ धरहि पिआरु ॥ बाहरहु पंडित सदाइदे मनहु मूरख गावार ॥ हरि सिउ चितु न लाइनी वादी धरनि पिआरु ॥ वादा कीआ करनि कहाणीआ कूड़ु बोलि करहि आहारु ॥ जग महि राम नामु हरि निरमला होरु मैला सभु आकारु ॥ नानक नामु न चेतनी होइ मैले मरहि गवार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सार = कद्र। बिखु = जहर, माया। संग्रहहि = एकत्र करते हैं, जोड़ते हैं। वादी = झगड़ों में, मज़हबी बहसों में। आहारु = खुराक, भोजन। आकारु = दिखाई देता जगत। मैला = मैल पैदा करने वाला।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (असल) व्यापार की कद्र नहीं जानते, वे माया का सौदा करते हैं, माया जोड़ते हैं और माया से ही प्यार करते हैं; वे बाहर से तो विद्वान कहलवाते हैं पर असल में मूर्ख हैं गावार हैं, (क्योंकि) वे प्रभु के साथ तो मन नहीं लगाते (विद्या के आसरे) चर्चा में प्यार करते हैं, चर्चा की ही नित्य बातें करते हैं; और रोज़ी कमाते हैं झूठ बोल के।
(असल बात यह है कि) नाम स्मरणा ही जगत में (पवित्र काम) है, और जो कुछ दिखाई दे रहा है (इसका आहर) मैल पैदा करता है। हे नानक! जो ‘नाम’ नहीं स्मरण करते वे मूर्ख नीच जीवन वाले हो के आत्मिक मौत सहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ दुखु लगा बिनु सेविऐ हुकमु मंने दुखु जाइ ॥ आपे दाता सुखै दा आपे देइ सजाइ ॥ नानक एवै जाणीऐ सभु किछु तिसै रजाइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ दुखु लगा बिनु सेविऐ हुकमु मंने दुखु जाइ ॥ आपे दाता सुखै दा आपे देइ सजाइ ॥ नानक एवै जाणीऐ सभु किछु तिसै रजाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु सेविऐ = (प्रभु की) सेवा किए बिना, स्मरण के बिना। आपे = स्वयं ही। सजाइ = सज़ा, दण्ड। एवै = इसी तरह ही, (भाव,) हुक्म मानने से ही।
अर्थ: (प्रभु का) स्मरण किए बिना मनुष्य को दुख व्यापता है, जब (प्रभु का) हुक्म मानता है (भाव, रज़ा में चलता है) तो दुख दूर हो जाता है (क्योंकि प्रभु) खुद ही सुख देने वाला है और स्वयं ही सज़ा देने वाला है। हे नानक! हुक्म में चलने से ही ये समझ पड़ती है कि सब कुछ प्रभु की रज़ा में हो रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि नाम बिना जगतु है निरधनु बिनु नावै त्रिपति नाही ॥ दूजै भरमि भुलाइआ हउमै दुखु पाही ॥ बिनु करमा किछू न पाईऐ जे बहुतु लोचाही ॥ आवै जाइ जमै मरै गुर सबदि छुटाही ॥ आपि करै किसु आखीऐ दूजा को नाही ॥१६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि नाम बिना जगतु है निरधनु बिनु नावै त्रिपति नाही ॥ दूजै भरमि भुलाइआ हउमै दुखु पाही ॥ बिनु करमा किछू न पाईऐ जे बहुतु लोचाही ॥ आवै जाइ जमै मरै गुर सबदि छुटाही ॥ आपि करै किसु आखीऐ दूजा को नाही ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरधनु = निर्धन, कंगाल। त्रिपति = संतोख। दूजै = माया के मोह के कारण। भरमि = भुलेखे में। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाइआ = गलत राह पर पड़ा रहता है।
अर्थ: प्रभु के ‘नाम’ के बिना जगत कंगाल है (क्योंकि चाहे कितनी ही माया इकट्ठी कर ले) ‘नाम’ के बिना संतोख नहीं आता; माया के मोह के कारण भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, अहंकार के कारण ही जीव दुख पाते हैं। पर चाहे कितनी ही लालसा करें प्रभु की मेहर के बिना नाम नहीं मिलता। (सो, इस मोह में ही) जगत पैदा होता है मरता है पैदा होता है मरता है। (इस चक्र में से) जीव गुरु के शब्द से ही बच सकते हैं।
पर ये सारी खेल प्रभु स्वयं कर रहा है, किसी और के पास पुकार नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रभु के बिना और है ही कोई नहीं।16।
[[1092]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ इसु जग महि संती धनु खटिआ जिना सतिगुरु मिलिआ प्रभु आइ ॥ सतिगुरि सचु द्रिड़ाइआ इसु धन की कीमति कही न जाइ ॥ इतु धनि पाइऐ भुख लथी सुखु वसिआ मनि आइ ॥ जिंन्हा कउ धुरि लिखिआ तिनी पाइआ आइ ॥ मनमुखु जगतु निरधनु है माइआ नो बिललाइ ॥ अनदिनु फिरदा सदा रहै भुख न कदे जाइ ॥ सांति न कदे आवई नह सुखु वसै मनि आइ ॥ सदा चिंत चितवदा रहै सहसा कदे न जाइ ॥ नानक विणु सतिगुर मति भवी सतिगुर नो मिलै ता सबदु कमाइ ॥ सदा सदा सुख महि रहै सचे माहि समाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ इसु जग महि संती धनु खटिआ जिना सतिगुरु मिलिआ प्रभु आइ ॥ सतिगुरि सचु द्रिड़ाइआ इसु धन की कीमति कही न जाइ ॥ इतु धनि पाइऐ भुख लथी सुखु वसिआ मनि आइ ॥ जिंन्हा कउ धुरि लिखिआ तिनी पाइआ आइ ॥ मनमुखु जगतु निरधनु है माइआ नो बिललाइ ॥ अनदिनु फिरदा सदा रहै भुख न कदे जाइ ॥ सांति न कदे आवई नह सुखु वसै मनि आइ ॥ सदा चिंत चितवदा रहै सहसा कदे न जाइ ॥ नानक विणु सतिगुर मति भवी सतिगुर नो मिलै ता सबदु कमाइ ॥ सदा सदा सुख महि रहै सचे माहि समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संती = संतों ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। द्रिढ़ाइआ = दृढ़ किया, मन में पक्का कर दिया। इतु = इस, यह। धनि = धन। पाइऐ = पाने से, हासिल करने से। इतु धनि पाइऐ = इस धन के हासिल करने से। चिंत चितवदा = सोचें सोचते हुए। सहसा = तौख़ला।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इतु’ है ‘इसु’ का अधिकरण कारक, एकवचन। ‘धनि’ है ‘धन’ का अधिकरणकारक, एकवचन। ‘पाइअै’ है ‘पाइआ’ व ‘पाया’ का अधिकरणकारक, एकवचन। ‘इतु धनि पाइअै’ इस सारे वाक्यांश व phrase का हरेक शब्द अधिकरणकारक में है, ये वाक्थ्यांश अपने आप में संपूर्ण है, भाव व्याकरण के अनुसार इसे किसी और शब्द की आवश्यक्ता नहीं, सो, अंग्रेजी में इसको Locative Absolute कहते हैं, पंजाबी व्याकरण में हम इसको ‘पूर्व पूर्ण कारदंतक’ कहेंगे।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: इस जगत में संतों ने ही नाम-धन कमाया है जिनको गुरु मिला है (और गुरु के माध्यम से) प्रभु मिला है, (क्योंकि) गुरु ने उनके मन में स्मरण पक्का कर दिया है (भाव, नाम-जपने की गाँठ पक्की तरह बाँध दी है)। यह नाम-धन इतना अमूल्य है कि इसका मोल नहीं डाला जा सकता। अगर यह नाम-धन मिल जाए तो (माया की) भूख उतर जाती है, मन में सुख आ बसता है, पर मिलता उनको है जिनके भाग्यों में धुर-दरगाह से लिखा हो (भाव, जिस पर मेहर हो)।
मन के पीछे चलने वाला जगत सदा कंगाल है माया के लिए बिलकता है, हर रोज सदा भटकता फिरता है, इसकी (मायावी) भूख मिटती नहीं, कभी इसके अंदर शीतलता नहीं आती, कभी इसके मन को सुख नहीं मिलता, हमेशा सोचें सोचता रहता है; हे नानक! गुरु से वंचित रहने के कारण इसकी बुद्धि चक्करों में पड़ी रहती है।
अगर मनमुख भी गुरु को मिल जाए तो शब्द की कमाई करता है, (शब्द की इनायत से) फिर सदा ही सुख में टिका रहता है, प्रभु में जुड़ा रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ जिनि उपाई मेदनी सोई सार करेइ ॥ एको सिमरहु भाइरहु तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ खाणा सबदु चंगिआईआ जितु खाधै सदा त्रिपति होइ ॥ पैनणु सिफति सनाइ है सदा सदा ओहु ऊजला मैला कदे न होइ ॥ सहजे सचु धनु खटिआ थोड़ा कदे न होइ ॥ देही नो सबदु सीगारु है जितु सदा सदा सुखु होइ ॥ नानक गुरमुखि बुझीऐ जिस नो आपि विखाले सोइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ जिनि उपाई मेदनी सोई सार करेइ ॥ एको सिमरहु भाइरहु तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ खाणा सबदु चंगिआईआ जितु खाधै सदा त्रिपति होइ ॥ पैनणु सिफति सनाइ है सदा सदा ओहु ऊजला मैला कदे न होइ ॥ सहजे सचु धनु खटिआ थोड़ा कदे न होइ ॥ देही नो सबदु सीगारु है जितु सदा सदा सुखु होइ ॥ नानक गुरमुखि बुझीऐ जिस नो आपि विखाले सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेदनी = धरती, सृष्टि। सार = संभाल। भाइरहु = हे भाईयो! जितु = जिस द्वारा। जितु खाधै = जिसके खाने से। त्रिपति = संतोष। सनाइ = (अरबी = स्ना) बड़ाई। देही = शरीर।
अर्थ: जिस परमात्मा ने सृष्टि पैदा की है वही इसकी संभाल करता है, हे भाईयो! उस एक को स्मरण करो, उसके बिना और कोई (संभाल करने वाला) नहीं है। (हे भाईयो!) प्रभु के गुणों को गुरु के शब्द को भोजन बनाओ (भाव, जीवन का आसरा बनाओ), ये भोजन खाते हुए सदा तृप्त रहना है (मन में सदा संतोख रहता है); प्रभु की महिमा को वडिआईयों को (अपना) पोशाका बनाओ, वह पोशाक सदा साफ़ रहती है और कभी मैली नहीं होती।
आत्मिक अडोलता में (रह के) कमाया हुआ नाम-धन कभी कम नहीं होता। मनुष्य के शरीर के लिए गुरु का शब्द (मानो) गहना है, इस (गहने की इनायत) से सदा ही सुख मिलता है। हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं समझ बख्शे वह गुरु के माध्यम से यह (जीवन का भेद) समझ लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अंतरि जपु तपु संजमो गुर सबदी जापै ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ हउमै अगिआनु गवापै ॥ अंदरु अम्रिति भरपूरु है चाखिआ सादु जापै ॥ जिन चाखिआ से निरभउ भए से हरि रसि ध्रापै ॥ हरि किरपा धारि पीआइआ फिरि कालु न विआपै ॥१७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अंतरि जपु तपु संजमो गुर सबदी जापै ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ हउमै अगिआनु गवापै ॥ अंदरु अम्रिति भरपूरु है चाखिआ सादु जापै ॥ जिन चाखिआ से निरभउ भए से हरि रसि ध्रापै ॥ हरि किरपा धारि पीआइआ फिरि कालु न विआपै ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = अंदर की ओर पलटना, मन के अंदर ही टिकना। संजमो = इन्द्रियों और मन को रोकने का उद्यम। अंदरु = अंदर का, हृदय। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। ध्रापै = अघा जाते हैं। विआपै = दबाव डालता है।
अर्थ: (‘दूजे भ्रम’ से हट के) मन के अंदर ही टिकना - यही है जप यही है तप यही है इन्द्रियों को विकारों से रोकने का साधन; पर यह समझ सतिगुरु के शब्द द्वारा ही आती है; अगर (‘दूसरे भ्रम’ को छोड़ के) प्रभु का नाम स्मरण करें तो अहंकार और आत्मिक जीवन की तरफ से बनी हुई बेसमझी दूर हो जाती है।
(वैसे तो सदा ही) हृदय नाम-अमृत से नाको-नाक भरा हुआ है (भाव, परमात्मा अंदर ही रोम-रोम में बसता है), (गुरु के शब्द द्वारा नाम-रस) चखने से स्वाद आता है। जिन्होंनें ये नाम-रस चखा है वह निर्भय (प्रभु का रूप) हो जाते हैं, वे नाम के रस से तृप्त हो जाते हैं। जिनको प्रभु ने मेहर करके यह रस पिलाया है उनको दोबारा मौत का डर सता नहीं सकता (आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं आती)।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ लोकु अवगणा की बंन्है गंठड़ी गुण न विहाझै कोइ ॥ गुण का गाहकु नानका विरला कोई होइ ॥ गुर परसादी गुण पाईअन्हि जिस नो नदरि करेइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ लोकु अवगणा की बंन्है गंठड़ी गुण न विहाझै कोइ ॥ गुण का गाहकु नानका विरला कोई होइ ॥ गुर परसादी गुण पाईअन्हि जिस नो नदरि करेइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जगत अवगुणों की पोटली बाँधता जा रहा है, कोई व्यक्ति गुणों का सौदा नहीं करता। हे नानक! गुण खरीदने वाला कोई विरला ही होता है। गुरु की कृपा से ही गुण मिलते हैं, (पर मिलते उसको हैं) जिस पर प्रभु मेहर की नज़र करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ गुण अवगुण समानि हहि जि आपि कीते करतारि ॥ नानक हुकमि मंनिऐ सुखु पाईऐ गुर सबदी वीचारि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ गुण अवगुण समानि हहि जि आपि कीते करतारि ॥ नानक हुकमि मंनिऐ सुखु पाईऐ गुर सबदी वीचारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! गुरु के शब्द द्वारा विचारवान हो के प्रभु का हुक्म मानने से सुख मिलता है, (जिसने हुक्म माना है उसको लोगों की ओर से किए गए) गुण और अवगुण (भाव, नेकी और बदी के सलूक) एक समान ही प्रतीत होते हैं (क्योंकि, ‘हुक्म’ में चलने के कारण समझ लेता है कि) ये (गुण और अवगुण) कर्तार ने खुद ही पैदा किए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अंदरि राजा तखतु है आपे करे निआउ ॥ गुर सबदी दरु जाणीऐ अंदरि महलु असराउ ॥ खरे परखि खजानै पाईअनि खोटिआ नाही थाउ ॥ सभु सचो सचु वरतदा सदा सचु निआउ ॥ अम्रित का रसु आइआ मनि वसिआ नाउ ॥१८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अंदरि राजा तखतु है आपे करे निआउ ॥ गुर सबदी दरु जाणीऐ अंदरि महलु असराउ ॥ खरे परखि खजानै पाईअनि खोटिआ नाही थाउ ॥ सभु सचो सचु वरतदा सदा सचु निआउ ॥ अम्रित का रसु आइआ मनि वसिआ नाउ ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जीव के) अंदर ही (जीवों का) मालिक (बैठा) है, (जीव के) अंदर ही (उसका) तख़्त है, वह स्वयं ही (अंदर बैठा हुआ, जीव के किए कर्मों का) न्याय किए जाता है; (जीव के) अंदर ही (उसका) महल है, (जीव के) अंदर ही (बैठा जीव को) आसरा (दिए जा रहा) है, पर उसके महल का दरवाजा गुरु के शब्द द्वारा ही मिलता है।
(जीव के अंदर ही बैठे हुए की हजूरी में) खरे जीव परख के खजाने में रखे जाते हैं (भाव, अंदर बैठा हुआ ही खरे जीवों की आप संभाल किए जाता है), खोटों को जगह नहीं मिलती। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु हर जगह मौजूद है, उसका न्याय सदा अटल है; उनको उसके नाम-अमृत का स्वाद आता है जिनके मन में नाम बसता है।18।
[[1093]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ हउ मै करी तां तू नाही तू होवहि हउ नाहि ॥ बूझहु गिआनी बूझणा एह अकथ कथा मन माहि ॥ बिनु गुर ततु न पाईऐ अलखु वसै सभ माहि ॥ सतिगुरु मिलै त जाणीऐ जां सबदु वसै मन माहि ॥ आपु गइआ भ्रमु भउ गइआ जनम मरन दुख जाहि ॥ गुरमति अलखु लखाईऐ ऊतम मति तराहि ॥ नानक सोहं हंसा जपु जापहु त्रिभवण तिसै समाहि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ हउ मै करी तां तू नाही तू होवहि हउ नाहि ॥ बूझहु गिआनी बूझणा एह अकथ कथा मन माहि ॥ बिनु गुर ततु न पाईऐ अलखु वसै सभ माहि ॥ सतिगुरु मिलै त जाणीऐ जां सबदु वसै मन माहि ॥ आपु गइआ भ्रमु भउ गइआ जनम मरन दुख जाहि ॥ गुरमति अलखु लखाईऐ ऊतम मति तराहि ॥ नानक सोहं हंसा जपु जापहु त्रिभवण तिसै समाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनी = हे ज्ञानवान! बूझणा = बुझारत, गहरी बात। अकथ कथा = उस प्रभु की बात जिसका स्वरूप बताया नहीं जा सकता। अलखु = जिसका कोई खास निशान नहीं दिखता। आपु = स्वै भाव, अहंकार। भ्रमु = भटकना। जनम मरन दुख = पैदा होने से ले के मौत तक के सारे दुख, सारी उम्र के दुख। ऊतम मति = उज्जवल बुद्धि वाले। सोहं = (सोऽहं, सो+अहं) वह मैं हूँ। हंसा = (अहं+स:) मैं वह हूँ। सोहं हंसा जपु = वह जप जिससे ‘वह मैं’ और ‘मैं वह’ हो जाए, वह स्मरण जिससे जीव और प्रभु एक रूप हो जाएं।
अर्थ: हे प्रभु! जब मैं ‘मैं मैं’ करता हूँ तब तू (मेरे अंदर प्रकट) नहीं होता, पर जब तू आ बसता है मेरी ‘मैं’ समाप्त हो जाती है।
हे ज्ञानवान! अकथ प्रभु की यह गहरी राज वाली बात अपने मन में समझ। अलख प्रभु बसता तो सबके अंदर है, पर यह अस्लियत गुरु के बिना नहीं मिलती, जब गुरु मिल जाए जब गुरु का शब्द मन में आ बसे तब ये (बात) समझ आ जाती है।
जिस मनुष्य की ‘मैं’ दूर हो जाती है, (माया की खातिर) भटकना मिट जाती है (मौत आदि का) डर समाप्त हो जाता है, उसके सारी उम्र के दुख नाश हो जाते हैं (क्योंकि जीवन में दुख होते ही यही हैं); जिनको गुरु की मति ले कर ईश्वर दिखाई दे जाता है, जिनकी बुद्धि उज्जवल हो जाती है वे (इन दुखों के समुंदर से) तैर जाते हैं।
(सो,) हे नानक! (तू भी) स्मरण कर जिससे तेरी आत्मा प्रभु के साथ एक-रूप हो जाए, (देख!) त्रिलोकी के ही जीव उसी में टिके हुए हैं (उसी के आसरे हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मनु माणकु जिनि परखिआ गुर सबदी वीचारि ॥ से जन विरले जाणीअहि कलजुग विचि संसारि ॥ आपै नो आपु मिलि रहिआ हउमै दुबिधा मारि ॥ नानक नामि रते दुतरु तरे भउजलु बिखमु संसारु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मनु माणकु जिनि परखिआ गुर सबदी वीचारि ॥ से जन विरले जाणीअहि कलजुग विचि संसारि ॥ आपै नो आपु मिलि रहिआ हउमै दुबिधा मारि ॥ नानक नामि रते दुतरु तरे भउजलु बिखमु संसारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माणकु = सुच्चा मोती। जिनि = जिस ने। संसारि = संसार में। जुग = समय, पहरा। कल = कष्ट, झगड़े, विकार। कलजुग = जहाँ विकारों का पहरा है। दुबिधा = दोचिक्ता पन, मेर तेर। दुतरु = जिसको तैरना मुश्किल है। भउजलु = संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल, डरावना।
अर्थ: ये मन सुच्चा मोती है, जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द के माध्यम से विचार करके (इस सुच्चे मोती को) परख लिया है, उसका स्वै अहंकार और मेर तेर को मर कर ‘आपे’ के साथ मिला रहता है। पर इस संसार में जहाँ विकारों का पहरा है ऐसे लोग बहुत कम देखे जाते हैं।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु के नाम में रंगे जाते हैं वे इस डरावने संसार-समुंदर में से पार लांघ जाते हैं (वैसे) जिसको तैरना बहुत मुश्किल है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ मनमुख अंदरु न भालनी मुठे अहमते ॥ चारे कुंडां भवि थके अंदरि तिख तते ॥ सिम्रिति सासत न सोधनी मनमुख विगुते ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ हरि नामु हरि सते ॥ ततु गिआनु वीचारिआ हरि जपि हरि गते ॥१९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ मनमुख अंदरु न भालनी मुठे अहमते ॥ चारे कुंडां भवि थके अंदरि तिख तते ॥ सिम्रिति सासत न सोधनी मनमुख विगुते ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ हरि नामु हरि सते ॥ ततु गिआनु वीचारिआ हरि जपि हरि गते ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंदरु = अंदरला, भाव, मन (दूसरी तुक के शब्द ‘अंदरि’ और इस शब्द में ‘अदरु’ में फर्क है)। अंदरि = (मन) में। अहंमते = अहंकार की मति के कारण। तिख = माया की तृष्णा, प्यास। तते = जले हुए। विगुते = दुखी होते हैं। सते = सति, सदा रहने वाला। गते = गति।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य अहंकार के ठगे हुए अपना मन नहीं खोजते, अंदर से तृष्णा से जले हुए (होने के कारण) (माया की खातिर) चारों तरफ भटक-भटक के थक जाते हैं; स्मृतियों-शास्त्रों (भाव, धार्मिक पुस्तकों) को ध्यान से नहीं खोजते और (धर्म-पुस्तकों की जगह अपने) मन के पीछे चल के ख्वार होते हैं।
सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा का नाम गुरु की शरण आए बिना किसी को भी नहीं मिला। हमने असल विचार की बात ढूँढ ली है कि परमात्मा का नाम जपने से ही मनुष्य की आत्मिक हालत सुधरती है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः २ ॥ आपे जाणै करे आपि आपे आणै रासि ॥ तिसै अगै नानका खलिइ कीचै अरदासि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः २ ॥ आपे जाणै करे आपि आपे आणै रासि ॥ तिसै अगै नानका खलिइ कीचै अरदासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। करे = पैदा करता है। आणै = लाता है। आणै रासि = रासि लाता है, सफल कर देता है। तिसै = तिस ही, उस ही। खलिइ = खड़े हो के, ध्यान से, बा अदब, श्रद्धा से।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही (जीवों के दिलों की) जानता है (क्योंकि) वह स्वयं ही (इनको) पैदा करता है, स्वयं ही (जीवों के कारज) सफल करता है; (इसलिए) हे नानक! उस प्रभु के आगे ही अदब-श्रद्धा के साथ आरजू करनी चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ आपे जाणै सोइ ॥ किस नो कहीऐ नानका जा घरि वरतै सभु कोइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ आपे जाणै सोइ ॥ किस नो कहीऐ नानका जा घरि वरतै सभु कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभु ने। कीआ = जगत पैदा किया है। तिनि = उस प्रभु ने। देखिआ = इस जगत की संभाल की है। किस नो = उस प्रभु के बिना और किस को? घरि = हृदय घर में। वरतै = मौजूद है। सभु कोइ = हरेक जीव। किस नो कहीऐ = किसी और को कहना व्यर्थ है।
अर्थ: जिस परमात्मा ने जगत पैदा किया है, उसने ही इसकी संभाल की हुई है, वह स्वयं ही (हरेक के दिल की) जानता है। हे नानक! जब हरेक जीव (उस परमात्मा के घर से हरेक आवश्यक्ता पूरी करता है जो) हरेक के हृदय-गृह में मौजूद है, तो उसके बिना किसी और के आगे आरजू करनी व्यर्थ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सभे थोक विसारि इको मितु करि ॥ मनु तनु होइ निहालु पापा दहै हरि ॥ आवण जाणा चुकै जनमि न जाहि मरि ॥ सचु नामु आधारु सोगि न मोहि जरि ॥ नानक नामु निधानु मन महि संजि धरि ॥२०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सभे थोक विसारि इको मितु करि ॥ मनु तनु होइ निहालु पापा दहै हरि ॥ आवण जाणा चुकै जनमि न जाहि मरि ॥ सचु नामु आधारु सोगि न मोहि जरि ॥ नानक नामु निधानु मन महि संजि धरि ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थोक = चीजें। निहालु = खिला हुआ। दहै = जला देता है। चुकै = समाप्त हो जाता है। जनमि = पैदा हो के। आधारु = आसरा। सोगि = शोक में, चिन्ता में। जरि = जल। संजि धरि = संचय कर, इकट्ठा कर।
अर्थ: और सब चीजों (का मोह) विसार के एक परमात्मा को ही अपना मित्र बना, तेरा मन खिल जाएगा तेरा शरीर हल्का फूल जैसा हो जाएगा (क्योंकि) परमात्मा सारे पाप जला देता है, (जगत में तेरा) जनम-मरण समाप्त हो जाएगा, तू बार-बार नहीं पैदा होगा और मरेगा। प्रभु के नाम को आसरा बना, तू चिन्ता में और मोह में नहीं जलेगा। हे नानक! परमात्मा का नाम-खजाना अपने मन में इकट्ठा कर के रख।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ माइआ मनहु न वीसरै मांगै दमा दम ॥ सो प्रभु चिति न आवई नानक नही करम ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ माइआ मनहु न वीसरै मांगै दमा दम ॥ सो प्रभु चिति न आवई नानक नही करम ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ये शलोक ‘वारां ते वधीक सलोक महला ५’ में भी नंबर 19 पर दर्ज है। यहाँ शब्द ‘करंम’ है, वहाँ ‘करंमि’ है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दंमा दंम = हरेक सांस के साथ। चिति = चिक्त में। आवई = आता, आए। करंम = अच्छे भाग्य।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को मन से माया नहीं भूलती, जो (नाम की दाति माँगने की जगह) साँस-साँस (हरेक श्वास में) (माया ही) माँगता है, जिसको वह परमात्मा कभी याद नहीं आता (ये जानो कि) उसके भाग्य अच्छे नहीं हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ माइआ साथि न चलई किआ लपटावहि अंध ॥ गुर के चरण धिआइ तू तूटहि माइआ बंध ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ माइआ साथि न चलई किआ लपटावहि अंध ॥ गुर के चरण धिआइ तू तूटहि माइआ बंध ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे अंधे (जीव)! तू (बार-बार) माया को क्यों चिपकता है? ये तो कभी किसी के साथ नहीं जाती; तू सतिगुरु के चरणों का ध्यान धर (भाव, अहंकार को छोड़ के गुरु का आसरा ले) (ताकि) तेरी ये मुश्कें जो माया ने कसी हुई हैं टूट जाएं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ भाणै हुकमु मनाइओनु भाणै सुखु पाइआ ॥ भाणै सतिगुरु मेलिओनु भाणै सचु धिआइआ ॥ भाणे जेवड होर दाति नाही सचु आखि सुणाइआ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सचु कमाइआ ॥ नानक तिसु सरणागती जिनि जगतु उपाइआ ॥२१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ भाणै हुकमु मनाइओनु भाणै सुखु पाइआ ॥ भाणै सतिगुरु मेलिओनु भाणै सचु धिआइआ ॥ भाणे जेवड होर दाति नाही सचु आखि सुणाइआ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सचु कमाइआ ॥ नानक तिसु सरणागती जिनि जगतु उपाइआ ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाणै = रजा में। मनाइओनु = मनाया उस (प्रभु) ने। मेलिओनु = मिलाया उस (प्रभु) ने। सचु = सदा स्थिर रहने वाले नाम। दाति = बख्शिश। सचु आखि = नाम (खुद) स्मरण करके। सुणाइआ = (और लोगों को ‘नाम’) सुनाया है। पूरबि = पहले से, आदि से। जिन कउ = जिनके भाग्यों में, जिनके लिए।
अर्थ: उस परमात्मा ने (जिस मनुष्य से) अपनी रजा में अपना हुक्म मनाया है उस मनुष्य ने रजा में रह के सुख पाया है। उस प्रभु ने अपनी रज़ा में जिस मनुष्य को गुरु मिलाया है वह मनुष्य रज़ा में रह के ‘नाम’ स्मरण करता है; जिस मनुष्य को प्रभु की रजा में रहना सबसे बड़ी बख्शिश प्रतीत होती है वह खुद ‘नाम’ स्मरण करता है और-और लोगों को सुनाता है; पर ‘नाम’ स्मरण करते वही हैं जिनके माथे पर धुर से आदि से लिखा हुआ है (भाव, जिनके अंदर पूर्बले कर्मों के अनुसार स्मरण के संस्कार मौजूद हैं)।
(सो,) हे नानक! उस प्रभु की शरण में रह जिस ने यह संसार पैदा किया है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ जिन कउ अंदरि गिआनु नही भै की नाही बिंद ॥ नानक मुइआ का किआ मारणा जि आपि मारे गोविंद ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ जिन कउ अंदरि गिआनु नही भै की नाही बिंद ॥ नानक मुइआ का किआ मारणा जि आपि मारे गोविंद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा का रक्ती भर भी डर नहीं, और जिनको प्रभु के साथ जान-पहचान प्राप्त नहीं हुई, हे नानक! वे (आत्मिक मौत) मरे हुए हैं, उनको (मानो) ईश्वर ने खुद मार दिया है, इन मरे हुओं को (इससे ज्यादा) किसी और ने क्या मारना है?।1।
[[1094]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मन की पत्री वाचणी सुखी हू सुखु सारु ॥ सो ब्राहमणु भला आखीऐ जि बूझै ब्रहमु बीचारु ॥ हरि सालाहे हरि पड़ै गुर कै सबदि वीचारि ॥ आइआ ओहु परवाणु है जि कुल का करे उधारु ॥ अगै जाति न पुछीऐ करणी सबदु है सारु ॥ होरु कूड़ु पड़णा कूड़ु कमावणा बिखिआ नालि पिआरु ॥ अंदरि सुखु न होवई मनमुख जनमु खुआरु ॥ नानक नामि रते से उबरे गुर कै हेति अपारि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मन की पत्री वाचणी सुखी हू सुखु सारु ॥ सो ब्राहमणु भला आखीऐ जि बूझै ब्रहमु बीचारु ॥ हरि सालाहे हरि पड़ै गुर कै सबदि वीचारि ॥ आइआ ओहु परवाणु है जि कुल का करे उधारु ॥ अगै जाति न पुछीऐ करणी सबदु है सारु ॥ होरु कूड़ु पड़णा कूड़ु कमावणा बिखिआ नालि पिआरु ॥ अंदरि सुखु न होवई मनमुख जनमु खुआरु ॥ नानक नामि रते से उबरे गुर कै हेति अपारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पत्री = वह पोथी जिसमें से ब्राहमण अपने जजमान आदिकों को तिथियाँ बताते हैं। वाचणी = पढ़नी। उधारु = पार उतारा। सारु = श्रेष्ठ। बिखिआ = माया। हेति = प्यार से। अपारि हेति = बेअंत प्यार से।
अर्थ: (लोगों को तिथियाँ आदि बताने के लिए पत्री पढ़ने की जगह) अपने मन की पत्री पढ़नी चाहिए (कि इसकी कौन से वक्त क्या हालत है; ये पत्री वाचने से) सबसे श्रेष्ठ सुख मिलता है। (जो तिथियों की भलाई बुराई विचारने की जगह) ईश्वरीय विचार को समझता है उस ब्राहमण को ठीक समझो। जो (ब्राहमण) गुरु के शब्द द्वारा विचार करके प्रभु की महिमा करता है प्रभु का नाम पढ़ता है (और इस तरह) अपनी कुल का भी पार उतारा करता है उसका जगत में आना सफल है।
प्रभु की हजूरी में (ऊँची) जाति की पूछ-पड़ताल नहीं होती, वहाँ तो (महिमा की) वाणी (का अभ्यास) ही श्रेष्ठ करनी (मिथी जाती) है, (महिमा के बिना) और पढ़ना और कमाना व्यर्थ है, माया के साथ ही प्यार (बढ़ाता) है (उस पढ़ाई और कमाई से) मन में सुख नहीं होता, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की जिंदगी ही बेलगाम हो जाती है।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु (के चरणों) में बहुत प्रेम करके प्रभु के नाम में रंगे जाते हैं वह (‘बिखिआ’ के असर से) बच जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे करि करि वेखदा आपे सभु सचा ॥ जो हुकमु न बूझै खसम का सोई नरु कचा ॥ जितु भावै तितु लाइदा गुरमुखि हरि सचा ॥ सभना का साहिबु एकु है गुर सबदी रचा ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सभि तिस दे जचा ॥ जिउ नानक आपि नचाइदा तिव ही को नचा ॥२२॥१॥ सुधु ॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे करि करि वेखदा आपे सभु सचा ॥ जो हुकमु न बूझै खसम का सोई नरु कचा ॥ जितु भावै तितु लाइदा गुरमुखि हरि सचा ॥ सभना का साहिबु एकु है गुर सबदी रचा ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सभि तिस दे जचा ॥ जिउ नानक आपि नचाइदा तिव ही को नचा ॥२२॥१॥ सुधु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। सभु = हर जगह। सचा = अटल। कचा = डोलने वाला। हुकमु = रज़ा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य। रचा = रचा जा सकता है, मिल सकते हैं। जचा = चोज, तमाशे।
अर्थ: प्रभु आप ही (जीवों को) पैदा करके आप ही संभाल करता है (क्योंकि) वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु हर जगह आप ही (मौजूद) है। पर जो मनुष्य (प्रभु की इस हर जगह मौजूद होने की) रज़ा को नहीं समझता, वह मनुष्य डोलता रहता है। जिस तरफ प्रभु की रजा हो उसी तरफ (हरेक जीव को) लगाता है, जिसको गुरु सन्मुख करता है वह प्रभु का ही रूप हो जाता है।
(वैसे तो) सब जीवों का मालिक एक परमात्मा ही है, पर गुरु के शब्द के द्वारा ही (उसमें) जुड़ा जा सकता है; (सो) गुरु के सन्मुख हो के उसकी महिमा करनी चाहिए। (जगत के ये) सारे करिश्मे उस मालिक के ही हैं; हे नानक! जैसे वह स्वयं जीवों को नचाता है वैस ही जीव नाचता है।22।1। सुधु।
दर्पण-भाव
पउड़ी-वार भाव:
परमात्मा ने यह जगत स्वयं ही पैदा किया है, त्रैगुणी माया भी उसने स्वयं ही बनाई है, सारे जीव भी परमात्मा के ही पैदा किए हुए हैं। उसकी रजा के अनुसार ही जीव माया के मोह में फंसे रहते हैं। ये नियम भी उसी ने बनाया हुआ है कि जीव गुरु के बताए रास्ते पर चल के माया के मोह से बचें।
विधाता को भुला के जीव माया के मोह में फंस जाते हैं, और जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाते हैं। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह गुरु की शरण पड़ता है। गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के वह मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है। सिर्फ यही रास्ता है माया के मोह में से निकलने का।
माया से तो मनुष्य का हर वक्त वास्ता पड़ता है, इस वास्ते उसके मोह में स्वाभाविक ही फस जाता है। पर परमात्मा इन आँखों से दिखता नहीं, उससे प्यार बनना बड़ी मुश्किल बात है। सो, जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है। गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है।
माया रचने वाला भी और जीव पैदा करने वाला भी परमात्मा स्वयं ही है। उसकी अपनी ही रची यह खेल है कि जीव माया के मोह में फस के जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। जीवों के वश की बात नहीं।
परमात्मा हर जगह व्यापक होता हुआ भी मनुष्य को इन आँखों से नहीं दिखता। मनुष्य की समझ से तो वह कहीं दूर जगह पर बस रहा है। फिर, मनुष्य उसकी याद में कैसे जुड़े? जिस पर वह स्वयं मेहर करता है, उसको गुरु मिलाता है। गुरु को मिल के मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है।
मनुष्य अहंकार के कारण कामादिक विकारों में लिप्त रहता है, और, मनुष्य जन्म की बाजी हारता जाता है। उसकी ऐसी ही रज़ा है। जिस मनुष्य को अपनी मेहर से सत्संग में रहने का अवसर बख्शता है, उसको माया के पंजे में से निकाल के अपनी याद में जोड़े रखता है।
परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य स्वै भाव दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है उसके अंदर किसी के लिए वैर भावना नहीं रह जाती। गुरु की शरण पड़ कर उसके मन में सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। कोई विकार उसको अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकते।
गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, कोई पाप-विकार उसके नजदीक नहीं फटकता। सारा जगत उसकी शोभा करता है। कोई दुख-कष्ट उसको छू नहीं सकता।
परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य परमात्मा की महिमा में जुड़ता है, उसके अंदर से माया वाली भूख मिट जाती है। जहाँ माया की भूख ना रहे, वहाँ और दुख कौन सा?
जगत, मानो, एक अखाड़ा है। इसमें कामादिक ठग सारे जीवों को ठग रहे हैं। पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की याद में टिकता है, उसका मन विकारों से पलट जाता है। कामादिक उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते।
परमात्मा की मेहर के बिना मनुष्य को गुरु का मिलाप हासिल नहीं होता। और, गुरु की संगति के बिना मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर नहीं होता, अहं नहीं मिटता। अहं और गुरु-मिलाप- ये दोनों एक हृदय में नहीं टिक सकते। सो, गुरु की शरण पड़ कर साधु-संगत की इनायत से परमात्मा का स्मरण हो सकता है, और आत्मिक आनंद मिलता है।
साधु-संगत में से ये सूझ मिलती है कि अपने अंदर से अहं-अहंकार दूर कर के जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है उसकी तवज्जो प्रभु चरणों में टिकी रहती है।
धार्मिक पहरावे, व्रत, धार्मिक पुस्तकों के निरे पाठ, तिलक - इनके आसरे परमात्मा से मिलाप नहीं होता। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसको जीवन का सही रास्ता मिलता है।
बाहरी धार्मिक पहरावों से परमात्मा नहीं मिलता, क्योंकि वह तो हरेक के दिल को जानता है। दूसरी तरफ, धन आदि का मान करना भी मूर्खता है, ये तो जगत से चलने के वक्त यहीं रह जाता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर का दरवाजा खुलता है उसको गुरु मिलता है, और गुरु के द्वारा वह मनुष्य प्रभु चरणों में जुड़ता है।
माया के मोह में फसा मनुष्य परमात्मा की याद से टूटा रहता है। माया की खातिर वह ज़बान का भी कच्चा होता है। ऐसा मनुष्य आत्मिक मौत मरा रहता है, लोक-परलोक दोनों गवा लेता है।
जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के नाम जपता है वह स्वयं विकार-लहरों भरे संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, अपने साथियों को भी विकारों से बचा लेता है। उसकी तृष्णा मिट जाती है, वह दुनियां की लालचों में नहीं फसता।
ये सारा दिखाई देता जगत नाशवान है। पर जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है उसका जीवन सदा के लिए अटल हो जाता है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।
तीर्थ-स्नानी, धर्म-पुस्तकों के विद्वान पाठी, छह भेषों के साधु, कवि, जती-सती सन्यासी - ये सारे व्यर्थ जीवन गुजार के संसार से कूच कर जाते हैं। भाग्यशाली जीवन होता है परमात्मा की भक्ति करने वालों का।
साधु-संगत में टिक के परमात्मा की, की हुई महिमा ही एक ऐसा खजाना है जो सदा अटल रहता है। पूर्बले जनम में किए भले कर्मों का लेख जिसके माथे पर प्रकट होता है, वह गुरु की शरण पड़ कर ये नाम-खजाना इकट्ठा करता है।
गुरु जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम-धन बख्शता है उसका आचरण पवित्र हो जाता है, उसका मन विकारों की तरफ नहीं डोलता, उसको आत्मिक मौत छू नहीं सकती।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसको गुरु की शरण में रख के नाम-जपने की दाति बख्शता है। उसकी मुँह-माँगी मुरादें पूरी करता है। सारे सुख उसके दास बन जाते हैं।
परमात्मा ने जिस मनुष्य को गुरु की शरण बख्शी, उसने हृदय में नाम स्मरण किया। वह परमात्मा की मेहर का पात्र बन गया। दुनिया वाले सारे डर-सहम उसके अंदर से खत्म हो गए। गुरु-जहाज़ में बैठ के वह संसार-समुंदर से पार लांघ गया।
जीव के अपने वश की बात नहीं। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है उसी को अपनी महिमा में जोड़ता है।
क्रम-वार भाव:
(1 से 5) जगत, जगत की त्रैगुणी माया, जगत के सारे जीव परमात्मा ने स्वयं ही रचे हैं, और, जगत में हर जगह वह व्यापक है। पर जीव को वह इन आँखों से नहीं दिखता। परमात्मा को भुला के जीव माया के मोह में फसे रहते हैं। उसकी अपनी ही मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर उसका नाम जपता है वह विकारों के हाथ चढ़ने से बच जाता है। यह मर्यादा प्रभु ने खुद ही बनाई है। यही है एक-मात्र रास्ता माया के मोह से बचने का।
(6 से 10) यह जगत एक अखाड़ा है। इसमें कामादिक ठग जीवन के आत्मिक जीवन को लूटते जा रहे हैं। मनुष्य जीवन की बाजी हारता जाता है। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर नाम जपता है, वह इनके हाथ नहीं चढ़ता।
(11 से 15) धार्मिक पहरावे, व्रत, तिलक-स्नान आदि मनुष्य को विकारों की मार से बचा नहीं सकते। जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर का दरवाजा खुलता है वह गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण करता है और माया के हमलों से बचा रहता है।
(16 से 23) जगत नाशवान है। जो यहाँ आया वह आखिर कूच कर गया। यहाँ कामयाब जीवन वाला सिर्फ वही बना जिसने गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम जपा। पर यह बात मनुष्य के अपने वश की नहीं। परमात्मा स्वयं ही मेहर कर के मनुष्य को गुरु की शरण में रख के अपने नाम में जोड़ता है।
मुख्य भाव:
परमात्मा यह जगत-रचना करके इसमें हर जगह मौजूद है। पर जीवों को इन आँखों से दिखता नहीं। उसकी याद भुला के जीव माया के मोह में फसा रहता है, विकारों के हाथ चढ़ा रहता है। जगत का तथाकथित त्याग, तीर्थ-स्नान, धार्मिक पहरावे - ऐसे कोई भी उद्यम मनुष्य को माया की मार से नहीं बचा सकते। जिस पर उसकी अपनी ही मेहर हो, वह गुरु की शरण पड़ कर उसका नाम जपता है अपना जीवन कामयाब बनाता है।
दर्पण-टिप्पनी
वार की संरचना:
इस ‘वार’ में 23 पौड़ियां हैं। हरेक पउड़ी की आठ-आठ तुकें हैं। हरेक पौड़ी के साथ तीन-तीन शलोक हैं। हरेक शलोक की दो-दो तुकें हैं। सिर्फ पौड़ी नं: 21 और 22 के साथ तीसरा शलोक तीन-तीन तुकों वाला है।
इन पौड़ियों में शब्द ‘नानक’ निम्न-लिखित पौड़ियों के आखिर में है: नं: 5,10,15,22 और 23। शब्द ‘नानक’ के प्रयोग को सामने रख के सारी ‘वार’ को पढ़ने से ये समझ आ जाती है कि इस ‘वार’ का क्रम वार भाव चार हिस्सों में बँटा हुआ है।
अब देखें पौड़ियों की और शलोकों की बोली। सारे ही शलोक लहिंदी (पंजाबी) बोली के हैं। शीर्षक ‘सलोका डखणे’ भी यही बताता है। सारे शलोक ध्यान से पढ़ कर देखें। आपस में इनके कई शब्द मिलते हैं। यह सांझ ये जाहिर करती है कि शलोक एक ही वक्त के लिख हुए हैं। पौड़ियों की बोली से इन शलोकों की बोली बिल्कुल ही नहीं मिलती। सारी ‘वार’ की पौड़ियां पहले अलग लिखी गई हैं।
जैतसरी की वार और मारू की वार का समानान्तर अध्ययन:
जैतसरी की वार भी गुरु अरजन साहिब जी की है जैसे मारू की वार। उस ‘वार’ में 20 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं: 5,10,15 और 20 के आखिर में शब्द ‘नानक’ बरता हुआ है। इसका भाव ये हैं कि इस ‘वार’ का क्रम-वार भाव चार हिस्सों में बँटा हुआ है।
अब देखें शलोक और पौड़ियों की बोली। सारे शलोक सहस्कृति (संस्कृत) बोली में हैं, और पौड़ियां ठेठ पंजाबी में। पर मारू की वार की तरह यहाँ हम ये नहीं कह सकते कि पौड़ियां अलग लिखी गई हैं और शलोक अलग। ध्यान से पढ़ के देखो। जो शब्द शलोकों में प्रयोग हुए हैं, जो विचार शलोकों में दिए हैं, वही विचार वही ख्याल पौड़ियों में दोहराए गए हैं, वही शब्द पौड़ियों में आए हैं। हाँ, बोली बदल गई है। सो, ‘जैतसरी की वार’ की वार के बारे में यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि हरेक शलोक-जोड़ा और उनके साथ की पौड़ी साथ-साथ लिखी गई हैं।
‘जैतसरी की वार’ की हरेक पौड़ी में पाँच-पांच तुकें हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो-दो शलोक हैं। हरेक शलोक में दो-दो तुकें हैं। पर पौड़ी नं: 11 के पहले शलोक की तीन तुकें हैं।
नोट: पाठकों की सहूलतों के लिए यहाँ जैतसरी की वार का भी पउड़ी-वार, क्रम-वार और मुख्य भाव दिया जा रहा है। उस ‘वार’ के टीके के साथ नहीं दिया गया।
दर्पण-भाव
पौड़ी-वार भाव:
सब ताकतों का मालिक परमात्मा ये सारी जगत-रचना रच के स्वयं ही इसमें हर जगह मौजूद है। यह सूझ परमात्मा खुद ही जीवों को बख्शता है। उस परमात्मा की महिमा करनी मनुष्य का जीवन-उद्देश्य है।
परमात्मा की महिमा भुला के मनुष्य की जिंदगी सुखी नहीं हो सकती। इस तरह मनुष्य जीवन-की-बाज़ी हार के यहां से जाता है।
जिंद, प्राण, शरीर, धन, स्वादिष्ट पदार्थ, घर, स्त्री, पुत्र - ये सब कुछ देने वाले परमात्मा को मन से कभी भुलाना नहीं चाहिए। उसका स्मरण करने से जीवन सुखी गुजरता है।
ये सब कुछ देने वाले परमात्मा को भुला देना अकृत्यघ्नों वाला जीवन है। इन पदार्थों का क्या मान? प्राण निकलते ही ये शरीर राख की ढेरी हो जाता है। दुनिया वाले पदार्थ यहीं रह जाते हैं।
दुनिया के पदार्थों का मोह तो सहम का कारण बनता है। परमात्मा का नाम ही दुखों और सहमों का नाश करने वाला है, और सदा का साथी है। परमात्मा से उसके नाम की दाति ही माँगा करो।
दुनिया के सारे भोग-पदार्थ मनुष्य को मिले हुए हों, पर अगर वह ये पदार्थ देने वाले परमात्मा को भुला रहा है, तो उसको गंद का कीड़ा ही समझो। नाम के बिना आत्मिक सुख नहीं है।
पर दूसरी तरफ, अगर मनुष्य टूटी हुई कुल्ली में रहता हो, उसके कपड़े फटे हुए हों, पल्ले धन ना हो, कोई साक-संबंधी भी ना हो, पर अगर वह परमात्मा के नाम में भीगा हुआ है तो उसको धरती का राजा समझो। उसके चरणों की धूल से मन विकारों से बचता है।
दुनियां के मौज-मेलों में परमात्मा को भुला देने से सारी उम्र व्यर्थ हो जाती है।
ये सब पदार्थ नाशवान हैं। इन्हें सदा टिके रहने वाला ना समझो। इनकी खातिर कामादिक विकारों में झल्ले ना हुए फिरो।
यह इकट्ठी की हुई माया जगत से चलने के समय मनुष्य के साथ नहीं जाती। परमात्मा को विसरने से निरी माया से मनुष्य तृप्त भी नहीं होता।
परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्यों को नाम के मुकाबले पर दुनिया के सारे पदार्थ बे-स्वादे प्रतीत होते हैं। गुरु की कृपा से उनके अंदर से आत्मिक जीवन का अंधकार दूर हो जाता है। उनका मन प्रभु-चरणों में परोया रहता है।
जैसे मछली पानी के बिना, चात्रिक बरसात की बूँद के बिना, भौरा फूल के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही संत जन प्रभु की याद के बिना नहीं रह सकते।
परमात्मा के भक्त सदा परमात्मा के दर्शनों के लिए ही आरजूएं करते हैं।
भाग्यशाली हैं वह मनुष्य जो परमात्मा की महिमा सुनते हैं, जिनके हाथ प्रभु की महिमा लिखते हैं, जिनके पैर साधु-संगत की ओर चलते हैं।
प्रभु की भक्ति करने वाले बंदों को जिंदगी का वह समय भाग्यशाली प्रतीत होता है ज बवह प्रभु की याद में जुड़ते हैं। वे जानते हैं कि सौभाग्य से ही साधु-संगत का मिलाप होता है जहाँ परमात्मा की महिमा में टिका जा सकता है।
भक्ति करने वालों के साथ प्यार करना, और विकारों में गिरे हुओं को बचाना - परमात्मा का ये मुढ-कदीमी (आदि कुदरती) स्वभाव है।
परमात्मा का नाम स्मरण करने से मनुष्य का मन शांत रहता है, माया की तपश से बचा रहता है।
परमात्मा के नाम-जपने की इनायत से मनुष्य पर माया जोर नहीं डाल सकती।
गुरु की शरण मे रह के परमात्मा की भक्ति की जा सकती है। गुरु नीचों को ऊँचा कर देता है।
नाम-जपने की दाति के लिए सदा परमात्मा के दर पर अरदास करते रहो।
क्रम-वार भाव:
(1 से 5) दुनिया के सारे पदार्थ देने वाले परमात्मा की याद भुलानी अकृत्घ्न जीवन है।
(6 से10) दुनियां के मौज-मेलों में परमात्मा को भुलाने से जीवन व्यर्थ चला जाता है।
(11 से 15) परमात्मा के भक्त को नाम के मुकाबले पर दुनिया के पदार्थ बे-स्वादिष्ट प्रतीत होते हैं।
(16 से 20) नाम स्मरण करने से मन विकारों के हमलों से बचा रहता है, पर यह नाम गुरु से ही मिलता है।
(21 से 23)
मुख्य भाव:
परमात्म का नाम स्मरणा ही मनुष्य जीवन का असल उद्देश्य है। यह नाम गुरु की शरण पड़ने से मिलता है।
दर्पण-टिप्पनी
‘मारू की वार’ के बारे में ज़रूरी जानकारी:
पाठक सज्जन ये याद रखें कि गुरु अरजन साहिब की यह ‘वार’ मारू राग में दर्ज ‘मारू की वार’ है ‘डखणे की वार’ नहीं है। ‘डखणे’ तो सिर्फ शलोक हैं, लहिंदी बोली में शलोक।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू वार महला ५ डखणे मः ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
मारू वार महला ५ डखणे मः ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू चउ सजण मैडिआ डेई सिसु उतारि ॥ नैण महिंजे तरसदे कदि पसी दीदारु ॥१॥
मूलम्
तू चउ सजण मैडिआ डेई सिसु उतारि ॥ नैण महिंजे तरसदे कदि पसी दीदारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चउ = बताओ, कहो। सजण मैडिआ = हे मेरे सज्जन! डेई = मैं दूँ। सिसु = सीस, सिर। महिंजे = मेरे। पसी = मैं देखूँ।
अर्थ: हे मेरे सज्जन! तुम कहो (भाव, अगर तू कहे तो) मैं अपना सिर भी उतार के भेंट कर दूँ, मेरी आँखें तरस रही हैं, मैं कब तेरे दर्शन करूँगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ नीहु महिंजा तऊ नालि बिआ नेह कूड़ावे डेखु ॥ कपड़ भोग डरावणे जिचरु पिरी न डेखु ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ नीहु महिंजा तऊ नालि बिआ नेह कूड़ावे डेखु ॥ कपड़ भोग डरावणे जिचरु पिरी न डेखु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीह = नेह, प्रेम। तऊ नालि = तेरे साथ। बिआ = बीया, दूसरा। कूड़ावे = झूठे। डेखु = मैंने देख लिए हैं। पिरी = पति प्रभु।
अर्थ: हे प्रभु! मेरा प्यार (अब सिर्फ) तेरे साथ है, दूसरे प्यार मैंने झूठे देख लिए हैं (मैंने देख लिया है कि दूसरे प्यार झूठे हैं)। जब तक मुझे पति के दर्शन नहीं होते, दुनियावी खाने-पहनने मुझे डराने लगते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ उठी झालू कंतड़े हउ पसी तउ दीदारु ॥ काजलु हारु तमोल रसु बिनु पसे हभि रस छारु ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ उठी झालू कंतड़े हउ पसी तउ दीदारु ॥ काजलु हारु तमोल रसु बिनु पसे हभि रस छारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उठी = मैं उठूँ। झालू = झलांगे, सवेरे। कंतड़े = हे सुंदर कंत! हउ = मैं। पसी = देखूं। काजलु = काजल, सुरमा। तमोल = पान। हभि = सारे। छारु = राख।
अर्थ: हे सुंदर कंत! सवेरे उठूँ तो (पहले) तेरे दर्शन करूँ। तेरे दर्शन किए बिना काजल, हार, पान का रस- ये सारे ही रस राख समान हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तू सचा साहिबु सचु सचु सभु धारिआ ॥ गुरमुखि कीतो थाटु सिरजि संसारिआ ॥ हरि आगिआ होए बेद पापु पुंनु वीचारिआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै गुण बिसथारिआ ॥ नव खंड प्रिथमी साजि हरि रंग सवारिआ ॥ वेकी जंत उपाइ अंतरि कल धारिआ ॥ तेरा अंतु न जाणै कोइ सचु सिरजणहारिआ ॥ तू जाणहि सभ बिधि आपि गुरमुखि निसतारिआ ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तू सचा साहिबु सचु सचु सभु धारिआ ॥ गुरमुखि कीतो थाटु सिरजि संसारिआ ॥ हरि आगिआ होए बेद पापु पुंनु वीचारिआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै गुण बिसथारिआ ॥ नव खंड प्रिथमी साजि हरि रंग सवारिआ ॥ वेकी जंत उपाइ अंतरि कल धारिआ ॥ तेरा अंतु न जाणै कोइ सचु सिरजणहारिआ ॥ तू जाणहि सभ बिधि आपि गुरमुखि निसतारिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। धारिआ = टिकाया हुआ, पैदा किया। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। गुरमुखि थाटु = गुरु के राह पर चलने का नियम। सिरजि = पैदा करके। नव = नौ। साजि = सजा के। वेकी = रंग बिरगे। अंतरि = (वह जीवों के) अंदर। कल = सत्ता, क्षमता।
अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, और तूने अपना अटल नियम ही हर जगह कायम किया हुआ है। जगत पैदा करके तूने ये नियम भी बना दिया है कि (जीवों को) गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए।
हे हरि! तेरी ही आज्ञा के अनुसार वेद (आदिक धार्मिक पुस्तकें प्रकट) हुए, जिन्होंने (जगत में) पाप और पुण्य को अलग किया है, तूने ही ब्रहमा, विष्णू और शिव को पैदा किया, तूने ही माया के तीन गुणों का पसारा-रूप जगत बनाया है। हे हरि! यह नौ हिस्सों वाली धरती बना के तूने इसमें अनेक रंग सजाए हैं। अलग-अलग भांति के जीव पैदा करके तूने (जीवों के अंदर) अपनी सत्ता कायम की है।
हे सदा-स्थिर विधाता! कोई जीव (तेरे गुणों का) अंत नहीं जान सकता। सब तरह के भेद को तू खुद ही जानता है, जीवों को तू गुरु के रास्ते पर चला के (संसार-समुंदर से) पार लंघाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ जे तू मित्रु असाडड़ा हिक भोरी ना वेछोड़ि ॥ जीउ महिंजा तउ मोहिआ कदि पसी जानी तोहि ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ जे तू मित्रु असाडड़ा हिक भोरी ना वेछोड़ि ॥ जीउ महिंजा तउ मोहिआ कदि पसी जानी तोहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिक = एक। भोरी = रक्ती भर। महिंजा = मेरा। जानी = हे प्यारे! तोहि = तुझे। पसी = देखूँ।
अर्थ: अगर तू मेरा मित्र है, तो मुझे रक्ती भर भी (अपने से) ना विछोड़। मेरी जिंद तूने (अपने प्यार में) मोह ली है (अब हर वक्त मुझे तमन्ना रहती है कि) हे प्यारे! मैं कब तुझे देख सकूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ दुरजन तू जलु भाहड़ी विछोड़े मरि जाहि ॥ कंता तू सउ सेजड़ी मैडा हभो दुखु उलाहि ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ दुरजन तू जलु भाहड़ी विछोड़े मरि जाहि ॥ कंता तू सउ सेजड़ी मैडा हभो दुखु उलाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलु = जल जा। भाहड़ी = आग में। मैडा = मेरा। उलाहि = उतार दे, दूर कर दे।
अर्थ: हे दुर्जन! तू आग में जल जा, हे विछोड़े! तू मर जा। हे (मेरे) कंत! तू (मेरी हृदय-) सेज पर (आ के) सो और मेरा सारा दुख दूर कर दे।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अगले शलोक में साहिब लिखते हैं कि ये ‘दुर्जन’ और ‘विछोड़ा’ कौन हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ दुरजनु दूजा भाउ है वेछोड़ा हउमै रोगु ॥ सजणु सचा पातिसाहु जिसु मिलि कीचै भोगु ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ दुरजनु दूजा भाउ है वेछोड़ा हउमै रोगु ॥ सजणु सचा पातिसाहु जिसु मिलि कीचै भोगु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) किसी और का प्यार। जिसु मिलि = जिस को मिल के। कीचै = कर सकते हैं। भोगु = आनंद। दुरजनु = दुश्मन। सचा = सच्चा, सदा कायम रहने वाला।
अर्थ: (प्रभु के बिना) किसी और से प्यार (जिंद का बड़ा) वैरी है, अहंम का रोग (प्रभु से) विछोड़ा (देने वाला) है। सदा कायम रहने वाला प्रभु पातशाह (जिंद का) मित्र है जिस को मिल के (आत्मिक) आनंद लिया जा सकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तू अगम दइआलु बेअंतु तेरी कीमति कहै कउणु ॥ तुधु सिरजिआ सभु संसारु तू नाइकु सगल भउण ॥ तेरी कुदरति कोइ न जाणै मेरे ठाकुर सगल रउण ॥ तुधु अपड़ि कोइ न सकै तू अबिनासी जग उधरण ॥ तुधु थापे चारे जुग तू करता सगल धरण ॥ तुधु आवण जाणा कीआ तुधु लेपु न लगै त्रिण ॥ जिसु होवहि आपि दइआलु तिसु लावहि सतिगुर चरण ॥ तू होरतु उपाइ न लभही अबिनासी स्रिसटि करण ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तू अगम दइआलु बेअंतु तेरी कीमति कहै कउणु ॥ तुधु सिरजिआ सभु संसारु तू नाइकु सगल भउण ॥ तेरी कुदरति कोइ न जाणै मेरे ठाकुर सगल रउण ॥ तुधु अपड़ि कोइ न सकै तू अबिनासी जग उधरण ॥ तुधु थापे चारे जुग तू करता सगल धरण ॥ तुधु आवण जाणा कीआ तुधु लेपु न लगै त्रिण ॥ जिसु होवहि आपि दइआलु तिसु लावहि सतिगुर चरण ॥ तू होरतु उपाइ न लभही अबिनासी स्रिसटि करण ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सिरजिआ = पैदा किया। नाइकु = मालिक। सगल भउण = सारे भवनों का। सगल रउण = हे सर्व व्यापक! जग उधरण = जगत का बेड़ा पार करने वाला। धरणी = धरतियां। आवण जाणा = पैदा होना मरना। लेपु = असर, प्रभाव। त्रिण = तीले जितना भी। होरतु = और से। उपाइ = उपाय से। होरतु उपाइ = किसी और प्रभाव से।
अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है दयालु और बेअंत है, कोई जीव तेरा मूल्य नहीं पा सकता। ये सारा जगत तूने ही पैदा किया है, और सारे भवनों का तू ही मालिक है। हे मेरे सर्व-व्यापक मालिक! कोई जीव तेरी ताकत का अंदाजा नहीं लगा सकता। हे जगत का उद्धार करने वाले अविनाशी प्रभु! कोई जीव तेरी बराबरी नहीं कर सकता।
हे प्रभु! सारी धरतियाँ तूने ही बनाई हैं ये चारों युग तेरे ही बनाए हुए हैं (समय बनाने वाला और समय की बाँट करने वाला तू ही है)। (जीवों के लिए) जनम-मरण का चक्कर तूने ही बनाया है, (जनम-मरण के चक्करों का) रक्ती भर भी प्रभाव तेरे पर नहीं पड़ता।
हे प्रभु! जिस जीव पर तू दयालु होता है उसको गुरु के चरणों से लगाता है (क्योंकि) हे सृष्टिकर्ता अविनाशी प्रभु (गुरु की शरण के बिना) और किसी भी उपाय से तू नहीं मिल सकता।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ जे तू वतहि अंङणे हभ धरति सुहावी होइ ॥ हिकसु कंतै बाहरी मैडी वात न पुछै कोइ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ जे तू वतहि अंङणे हभ धरति सुहावी होइ ॥ हिकसु कंतै बाहरी मैडी वात न पुछै कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वतहि = आ जाएं। अंङणे = (अंगड़े, आँगन) (हृदय-) आँगन में। हभ = सारी। धरति = (भाव,) शरीर। वात = बात, खबर।
अर्थ: हे प्रभु कंत! अगर तू मेरे (हृदय-) आँगन में आ जाए, तो मेरा सारा शरीर ही सुंदर हो जाता है। पर एक पति-प्रभु के बिना कोई मेरी खबर-तवज्जो नहीं पूछता (भाव, अगर प्रभु हृदय में बस जाए, तो सारे शुभ गुणों से ज्ञान-इंद्रिय चमक उठती हैं। अगर प्रभु से विछोड़ा है तो कोई शुभ-गुण तेरे नजदीक नहीं फटकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ हभे टोल सुहावणे सहु बैठा अंङणु मलि ॥ पही न वंञै बिरथड़ा जो घरि आवै चलि ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ हभे टोल सुहावणे सहु बैठा अंङणु मलि ॥ पही न वंञै बिरथड़ा जो घरि आवै चलि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हभे = सारे। टोल = पदार्थ। मलि = कब्जा करके। अंङणु = (अंगणु) आँगन में। पही = जीव राही, पथिक। वंञै = (वंजे) जाता है। बिरथड़ा = खाली हाथ। जो = जिस जीव के द्वारा। घरि = घर में, हृदय घर में।
अर्थ: जिस जीव-पथिक (राही) का हृदय-आँगन पति-प्रभु घेर के (कब्जा करके) बैठ जाता है, उसको सारे पदार्थ (उपभोग करने) फबते हैं (क्योंकि) जो जीव-पथिक (बाहरी पदार्थों की ओर से) परत के अंतरात्मे आ टिकता है वह (जगत से) खाली हाथ नहीं जाता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ सेज विछाई कंत कू कीआ हभु सीगारु ॥ इती मंझि न समावई जे गलि पहिरा हारु ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ सेज विछाई कंत कू कीआ हभु सीगारु ॥ इती मंझि न समावई जे गलि पहिरा हारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंत कू = कंत की खातिर। हभु = सारा। इती = इतनी भी। मंझि = बीच में, मेरे और पति के बीच। न समावई = नहीं टिक सकती, टिकी हुई अच्छी नहीं लगती। गलि = गले में।
अर्थ: मैंने पति को मिलने के लिए सेज बिछाई है व अन्य सारा हार-श्रृंगार किया (हृदय-सेज सजाने के लिए कई धार्मिक साधन किए), पर अब (जब वह मिल गया है तो) अगर मैं (अपने गले में) एक हार भी पहन लूँ (तो यह हार पति-मिलाप के रास्ते में दूरी पैदा करता है, और) पति और मेरे बीच इतनी दूरी के लिए भी जगह नहीं है (इतनी दूरी भी नहीं होनी चाहिए) (भाव, लोकाचारी धार्मिक साधन पति-मिलाप के रास्ते में रुकावट हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तू पारब्रहमु परमेसरु जोनि न आवही ॥ तू हुकमी साजहि स्रिसटि साजि समावही ॥ तेरा रूपु न जाई लखिआ किउ तुझहि धिआवही ॥ तू सभ महि वरतहि आपि कुदरति देखावही ॥ तेरी भगति भरे भंडार तोटि न आवही ॥ एहि रतन जवेहर लाल कीम न पावही ॥ जिसु होवहि आपि दइआलु तिसु सतिगुर सेवा लावही ॥ तिसु कदे न आवै तोटि जो हरि गुण गावही ॥३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तू पारब्रहमु परमेसरु जोनि न आवही ॥ तू हुकमी साजहि स्रिसटि साजि समावही ॥ तेरा रूपु न जाई लखिआ किउ तुझहि धिआवही ॥ तू सभ महि वरतहि आपि कुदरति देखावही ॥ तेरी भगति भरे भंडार तोटि न आवही ॥ एहि रतन जवेहर लाल कीम न पावही ॥ जिसु होवहि आपि दइआलु तिसु सतिगुर सेवा लावही ॥ तिसु कदे न आवै तोटि जो हरि गुण गावही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समावही = तू व्यापक है। किउ = किस तरीके से? भंडार = खजाने। तोटि = कमी। एहि = ये सारे। कीम = कीमत, मूल्य।
अर्थ: हे प्रभु! तू पारब्रहम है सबसे बड़ा मालिक है, तू जनम-मरण के चक्करों में नहीं आता। तू अपने हुक्म से जगत पैदा करता है, (जगत) पैदा करके (इसमें) व्यापक है। तेरा रूप बयान नहीं किया जा सकता, फिर जीव तेरा ध्यान किस तरीके से धरें?
हे प्रभु! तू सब जीवों में खुद मौजूद है, (सबमें) अपनी ताकत दिखा रहा है।
(तेरे पास) तेरी भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं जो कभी खत्म नहीं हो सकते। तेरे गुणों के खजाने ऐसे रतन-जवाहर और लाल हैं जिनका मूल्य नहीं डाला जा सकता (जगत में कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जिसके बदले में गुणों के खजाने मिल सकें)।
जिस जीव पर तू दया करता है उसको सतिगुरु की सेवा में जोड़ता है। (गुरु की शरण आ के) जो मनुष्य प्रभु के गुण गाते हैं, उनको किसी किस्म की कमी नहीं रहती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ जा मू पसी हठ मै पिरी महिजै नालि ॥ हभे डुख उलाहिअमु नानक नदरि निहालि ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ जा मू पसी हठ मै पिरी महिजै नालि ॥ हभे डुख उलाहिअमु नानक नदरि निहालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मू = मैं। पसी = देखता हूँ। हठ मै = हृदय में। महिजै = मेरे। उलाहिअमु = उसने मेरे (दुख) उतार दिए हैं। नदरि = मेहर की निगाह। निहालि = देख के।
अर्थ: जब मैं (ध्यान से) हृदय में देखती हूँ, तो मेरा पति-प्रभु मेरे साथ (मेरे दिल में) मौजूद है। हे नानक! मेहर की निगाह कर के उसने मेरे सारे दुख दूर कर दिए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ नानक बैठा भखे वाउ लमे सेवहि दरु खड़ा ॥ पिरीए तू जाणु महिजा साउ जोई साई मुहु खड़ा ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ नानक बैठा भखे वाउ लमे सेवहि दरु खड़ा ॥ पिरीए तू जाणु महिजा साउ जोई साई मुहु खड़ा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भखे वाउ = तेरी वा भख रहा है, तेरी हवा ले रहा है, तेरी सोय सुन रहा है, तेरी सदा सुन रहा है। लंमे = बेअंत जीव। सेवहि = सेवते हैं, घेर बैठे हैं। पिरीए = हे पति! साउ = स्वाउ, उद्देश्य। जोई = ताक रहा हूँ। साई = साई!
अर्थ: हे प्रभु! बेअंत जीव खड़े तेरा दर सेवते हैं, मैं नानक भी (तेरे दर पर खड़ा) तेरी सोय सुन रहा हूँ। हे पति! तू मेरे दिल की जानता है, हे साई! मैं खड़ा तेरा मुँह ताक रहा हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ किआ गालाइओ भूछ पर वेलि न जोहे कंत तू ॥ नानक फुला संदी वाड़ि खिड़िआ हभु संसारु जिउ ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ किआ गालाइओ भूछ पर वेलि न जोहे कंत तू ॥ नानक फुला संदी वाड़ि खिड़िआ हभु संसारु जिउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गालाइओ = बोल रहा है। भूछ = मति हीन, नापाक। वेलि = स्त्री (बेल पेड़ के आसरे बढ़ती-फलती है, स्त्री पति के आसरे सुखी रह सकती है। स्त्री की उपमा बेल से दी गई है। जगत फुलवाड़ी में स्त्री वेल के समान है)। न जोहै = ना देख। जिउ फुला संदी वाड़ि = जैसे फुलवाड़ी (खिली हुई) है। संदी = की। वाड़ि = बगीची, बाड़ी। कंत तू = तू (हर जगह) कंत को (देख)।
अर्थ: (हे जीव!) तू हर जगह कंत प्रभु को देख, पराई स्त्री को (दुर्भावना से) ना देख, और (कामातुर हो के) मति-हीन नापाक बोल ना बोल। हे नानक! जैसे फुलवाड़ी खिली होती है वैसे ही यह सारा संसार खिला हुआ है (यहाँ कोई फूल तोड़ना नहीं है, किसी पराई सुंदरी के प्रति बुरी भावना नहीं रखनी)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सुघड़ु सुजाणु सरूपु तू सभ महि वरतंता ॥ तू आपे ठाकुरु सेवको आपे पूजंता ॥ दाना बीना आपि तू आपे सतवंता ॥ जती सती प्रभु निरमला मेरे हरि भगवंता ॥ सभु ब्रहम पसारु पसारिओ आपे खेलंता ॥ इहु आवा गवणु रचाइओ करि चोज देखंता ॥ तिसु बाहुड़ि गरभि न पावही जिसु देवहि गुर मंता ॥ जिउ आपि चलावहि तिउ चलदे किछु वसि न जंता ॥४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सुघड़ु सुजाणु सरूपु तू सभ महि वरतंता ॥ तू आपे ठाकुरु सेवको आपे पूजंता ॥ दाना बीना आपि तू आपे सतवंता ॥ जती सती प्रभु निरमला मेरे हरि भगवंता ॥ सभु ब्रहम पसारु पसारिओ आपे खेलंता ॥ इहु आवा गवणु रचाइओ करि चोज देखंता ॥ तिसु बाहुड़ि गरभि न पावही जिसु देवहि गुर मंता ॥ जिउ आपि चलावहि तिउ चलदे किछु वसि न जंता ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुघड़ु = सुघड़, सुंदर घाड़त वाला। सरूपु = सुंदर। महि = में। पूजंता = पूजा करने वाला। दाना = जानने वाला। बीना = देखने वाला। सतवंता = शुभ आचरण वाला। चोज = तमाशे। बाहुड़ि = दोबारा, फिर। गरभि = गर्भ में, जून में। मंता = उपदेश। वसि = इखि्यार में, वश में।
अर्थ: हे प्रभु! तू सुघड़, समझदार और सुंदर है, सब जीवों में तू ही मौजूद है, (सो) तू स्वयं ही मालिक है स्वयं ही सेवक है स्वयं ही अपनी पूजा कर रहा है (हरेक जीव के अंदर व्यापक होने के कारण) तू खुद ही (जीवों के कामों को) जानता है देखता है, तू खुद ही अच्छे आचरण वाला है। हे मेरे हरि भगवान! तू खुद ही जती है, खुद ही पवित्र आचरण वाला है। यह सारा जगत-पसारा तूने खूद ही पसारा हुआ है। तू खुद ही यह जगत-खेल खेल रहा है। (जीवों के) पैदा होने-मरने का तमाशा तूने खुद ही रचाया हुआ है, ये तमाशे कर के तू खुद ही देख रहा है।
हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू गुरु उपदेश की दाति देता है, उसको दोबारा जूनियों के चक्करों में नहीं डालता। (तेरे पैदा किए हुए इन) जीवों के वश में कुछ नहीं है, जैसे तू खुद जीवों को चला रहा है, वैसे ही चल रहे हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ कुरीए कुरीए वैदिआ तलि गाड़ा महरेरु ॥ वेखे छिटड़ि थीवदो जामि खिसंदो पेरु ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ कुरीए कुरीए वैदिआ तलि गाड़ा महरेरु ॥ वेखे छिटड़ि थीवदो जामि खिसंदो पेरु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुरीए कुरीए = नदी के किनारे किनारे। वैदिआ = हे जाने वाले! तलि = (तेरे पैरों के) नीचे। महरेरु = मेढ़, मिट्टी का किनारा। गाड़ा महरेरु = बड़ी मेढ़। वेखे = देखना, ध्यान रखना। छिटड़ि थीवदो = लिबड़ जाएगा। जामि = जब। खिसंदो = फिसल गया। पेरु = पैर।
अर्थ: हे (संसार-) नदी के किनारे-किनारे जाने वाले! तेरे पैरों तले (तेरे रास्ते में) बड़ी मेढ़ (बड़ी बंध, मिट्टी की बनी हुई रुकावट) लगी हुई है। ध्यान रखना, जब भी तेरा पैर फिसल गया, तो (मोह के कीचड़ से) लिबड़ जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ सचु जाणै कचु वैदिओ तू आघू आघे सलवे ॥ नानक आतसड़ी मंझि नैणू बिआ ढलि पबणि जिउ जुमिओ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ सचु जाणै कचु वैदिओ तू आघू आघे सलवे ॥ नानक आतसड़ी मंझि नैणू बिआ ढलि पबणि जिउ जुमिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वैदिओ = नाशवान, चले जाने वाला। आघू आघे = आगे आगे। सलवे = (तू) एकत्र करता है। आतसड़ी = आग। नैणू = मक्खन। बिआ = दूसरी बात, दूसरा। ढलि = ढल के (पानी के ढल जाने से), गिर के। पबणि = चुपक्ती। जुंमिओ = नाश हो जाती है।
अर्थ: (हे जीव!) नाशवान काँच (-रूपी माया) को तू सदा-स्थिर जानता है, व और-और इकट्ठी करता है। पर, हे नानक! (कह: यह माया यूँ है) जैसे आग में मक्खन नाश हो जाता है (पिघल जाता है), या, जैसे (पानी के ढल जाने से) चुपक्ती गिर के नाश हो जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ भोरे भोरे रूहड़े सेवेदे आलकु ॥ मुदति पई चिराणीआ फिरि कडू आवै रुति ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ भोरे भोरे रूहड़े सेवेदे आलकु ॥ मुदति पई चिराणीआ फिरि कडू आवै रुति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भोरे रूहड़े = हे भोली जिंदे! हे भोली रूह! आलकु = आलस। चिराणीआ मुदति = ढेर समय। कडू = कब?
अर्थ: हे भोली रूह! परमात्मा को स्मरण करते हुए तू आलस करती है। लंबी मुद्दतों के बाद (ये मनुष्य जनम मिला है, अगर स्मरण से वंचित बीत गया) तो दोबारा (क्या पता है?) कब (मनुष्य जन्म की) ऋतु आए।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तुधु रूपु न रेखिआ जाति तू वरना बाहरा ॥ ए माणस जाणहि दूरि तू वरतहि जाहरा ॥ तू सभि घट भोगहि आपि तुधु लेपु न लाहरा ॥ तू पुरखु अनंदी अनंत सभ जोति समाहरा ॥ तू सभ देवा महि देव बिधाते नरहरा ॥ किआ आराधे जिहवा इक तू अबिनासी अपरपरा ॥ जिसु मेलहि सतिगुरु आपि तिस के सभि कुल तरा ॥ सेवक सभि करदे सेव दरि नानकु जनु तेरा ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तुधु रूपु न रेखिआ जाति तू वरना बाहरा ॥ ए माणस जाणहि दूरि तू वरतहि जाहरा ॥ तू सभि घट भोगहि आपि तुधु लेपु न लाहरा ॥ तू पुरखु अनंदी अनंत सभ जोति समाहरा ॥ तू सभ देवा महि देव बिधाते नरहरा ॥ किआ आराधे जिहवा इक तू अबिनासी अपरपरा ॥ जिसु मेलहि सतिगुरु आपि तिस के सभि कुल तरा ॥ सेवक सभि करदे सेव दरि नानकु जनु तेरा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेखिआ = रेख, चिन्ह चक्र। वरन = वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र)। माणस = मनुष्य। ए = यह। जाहरा = प्रकट, प्रत्यक्ष। लेपु = असर, प्रभाव। न लाहरा = नहीं लगता। अनंदी = आनंद लेने वाला। समाहरा = समाई हुई है, व्यापक। बिधाते = हे विधाता! नरहरा = हे परमात्मा! अपरपरा = परे से परे। दरि = दर पर।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा कोई (खास) रूप नहीं कोई चक्र-चिन्ह नहीं। तेरी कोई (विशेष) जाति नहीं, (ब्राहमण खत्री आदि) तेरा कोई (खास) वर्ण नहीं है। ये मनुष्य तुझे कहीं दूर जगह पर बसता समझते हैं, तू (तो) हर जगह मौजूद है, सब जीवों में व्यापक हो के पदार्थ भोग रहा है, (फिर भी) तुझे माया का असर छू नहीं सकता। तू सदा आनंद में रहने वाला है, बेअंत है, सबमें व्यापक है, सबमें तेरी ज्योति टिकी हुई है।
हे विधाता! हे परमात्मा! सारे देवताओं में तू स्वयं ही देवता (प्रकाश करने वाला) है। तू परे से परे है, तू नाश रहित है, मेरी एक जीभ तेरी आराधना करने के समर्थ नहीं है।
हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू गुरु मिला देता है, उसकी सारी कुलों का उद्धार हो जाता है, तेरे सारे सेवक तेरी सेवा करते हैं, मैं तेरा दास नानक (भी तेरे ही) दर पर (पड़ा हूँ)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ गहडड़ड़ा त्रिणि छाइआ गाफल जलिओहु भाहि ॥ जिना भाग मथाहड़ै तिन उसताद पनाहि ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ गहडड़ड़ा त्रिणि छाइआ गाफल जलिओहु भाहि ॥ जिना भाग मथाहड़ै तिन उसताद पनाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहडड़ड़ा = (शरीर-) छप्पर। त्रिणि = तृण से, तीले से। छाइआ = बना हुआ। गाफल = गाफ़ल मनुष्य का। भाहि = आग में, तृष्णा अग्नि में। उसताद = गुरु। पनाहि = ओट, आसरा, सहारा।
अर्थ: गाफ़ल मनुष्य का घास से बना हुआ शरीर-छप्पर तृष्णा की आग में जल रहा है। जिस लोगों के माथे पर अच्छे भाग्य जागते हैं, उन्हें गुरु का सहारा मिल जाता है (और वे तृष्णा की आग से बच जाते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ नानक पीठा पका साजिआ धरिआ आणि मउजूदु ॥ बाझहु सतिगुर आपणे बैठा झाकु दरूद ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ नानक पीठा पका साजिआ धरिआ आणि मउजूदु ॥ बाझहु सतिगुर आपणे बैठा झाकु दरूद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आणि = ला के। मउजूद = (खाने के लिए) तैयार। दरूद = दुआ, अरदास (मुसलमान ईद आदि पवित्र दिन अल्लाह नमिक्त अपने काज़ी को बढ़िया चोखा खाना पका के भेट करते हैं। काज़ी आ के पहले दरूद पढ़ता है, फिर वह खाना स्वीकार करता है। उसके बाद घर वालों को खाने को मिलता है। जब तक काज़ी नहीं आता, घर के बच्चे क्या बड़े क्या देखते हैं इन्जार करते हैं। तैयार हुए खाने उनके सामने पड़े रहते हैं, पर उनको खाने की इज़ाज़त नहीं होती। इसी तरह जीव कई तरह के साधन करता रहे, पर गुरु की शरण पड़े बिना प्रभु की मेहर का दर नहीं खुलता)।
अर्थ: हे नानक! (नियाज़ आदि देने के लिए श्रद्धालु मुसलमान आटा) पिसा के पका के खाना सँवार के तैयार ला के रखता है, (पर जब तक पीर आ के) दुआ (ना पढ़े, वह) बैठा झाकता है। (जैसे मनुष्य अनेक धार्मिक साधन करता है, पर) जब तक गुरु ना मिले मनुष्य रब की रहमत का बैठा इन्जार करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ नानक भुसरीआ पकाईआ पाईआ थालै माहि ॥ जिनी गुरू मनाइआ रजि रजि सेई खाहि ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ नानक भुसरीआ पकाईआ पाईआ थालै माहि ॥ जिनी गुरू मनाइआ रजि रजि सेई खाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुसरी = गुड़ वाली रोटी, रोट, मंन, धरती पर पकाई हुई रोटी, (भु+श्रित) भु = भूमि, धरती। श्रित = employed, used। भूश्रित = धरती का आसरा ले के तैयार की हुई।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गरीब टपरी वास लोक ईट आदि व बब्बर आदि को तपा के ही रोटी पका लेते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
रजि रजि = पेट भर भर के, स्वाद लगा लगा के।
अर्थ: हे नानक! (अगर कोई मनुष्य इतने ही गरीब हैं कि रसोई चौका आदि प्रयोग करने की जगह) धरती पर ही रोट पका लेते हैं और थाल में डाल लेते हैं, अगर उन्होंने (अपने) गुरु को खुश कर लिया है (अगर गुरु के बताए हुए राह पर चल के उन्होंने अपने गुरु की प्रसन्नता हासिल कर ली है) तो वह उन भुसरियों को धरती पर पकाई हुई रोटियों को ही स्वाद लगा के खाते हैं (भाव, गरीब मनुष्यों को गरीबी में ही सुखी जीवन अनुभव होता है अगर वे गुरु के रास्ते पर चल के गुरु की प्रसन्नता प्राप्त कर लेते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तुधु जग महि खेलु रचाइआ विचि हउमै पाईआ ॥ एकु मंदरु पंच चोर हहि नित करहि बुरिआईआ ॥ दस नारी इकु पुरखु करि दसे सादि लुोभाईआ ॥ एनि माइआ मोहणी मोहीआ नित फिरहि भरमाईआ ॥ हाठा दोवै कीतीओ सिव सकति वरताईआ ॥ सिव अगै सकती हारिआ एवै हरि भाईआ ॥ इकि विचहु ही तुधु रखिआ जो सतसंगि मिलाईआ ॥ जल विचहु बि्मबु उठालिओ जल माहि समाईआ ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तुधु जग महि खेलु रचाइआ विचि हउमै पाईआ ॥ एकु मंदरु पंच चोर हहि नित करहि बुरिआईआ ॥ दस नारी इकु पुरखु करि दसे सादि लुोभाईआ ॥ एनि माइआ मोहणी मोहीआ नित फिरहि भरमाईआ ॥ हाठा दोवै कीतीओ सिव सकति वरताईआ ॥ सिव अगै सकती हारिआ एवै हरि भाईआ ॥ इकि विचहु ही तुधु रखिआ जो सतसंगि मिलाईआ ॥ जल विचहु बि्मबु उठालिओ जल माहि समाईआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विचि = (जीवों के) अंदर। मंदरु = मनुष्य शरीर। पंच चोर = कामादिक पाँचो। करहि = करते हैं। दर नारी = दस इंद्रिय। पुरखु = मन। सादि = स्वाद में। एनि माइआ = इस माया ने। फिरहि = (दस नारी) फिरती हैं। हाठा = तरफें। सिव = जीव। सकति = माया। भाईआ = भाई, अच्छी लगी। इकि = कई जीव। बिंबु = बुलबुला।
अर्थ: हे प्रभु! तूने जीवों के अंदर अहंम डाल दिया है, (और इस तरह) जगत में एक तमाशा रच दिया है। यह मनुष्य शरीर एक है (इसमें) कामादिक पाँच चोर हैं जो सदा ही बुराई करते रहते हैं। (एक तरफ) मन अकेला है, (इसके साथ) दस इंद्रिय हैं, ये दसों ही (माया के) स्वाद में फसी हुई हैं। इस मोहनी माया ने इनको मोहा हुआ है (इस वास्ते ये) सदा भटकती फिरती हैं।
(पर) ये दोनों तरफें तूने खुद ही बनाई हैं, जीवात्मा और माया की खेल तूने ही रची है। हे हरि! तुझे ऐसा ही अच्छा लगा है कि जीवात्मा माया के मुकाबले में हार रही है।
पर जिनको तूने सत्संग में जोड़ा है उनको तूने माया में से बचा लिया है (और अपने चरणों में लीन कर रखा है) जैसे पानी में से बुलबुला पैदा होता है और पानी में ही लीन हो जाता है (वह तेरे अंदर लीन हुए रहते हैं)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ आगाहा कू त्राघि पिछा फेरि न मुहडड़ा ॥ नानक सिझि इवेहा वार बहुड़ि न होवी जनमड़ा ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ आगाहा कू त्राघि पिछा फेरि न मुहडड़ा ॥ नानक सिझि इवेहा वार बहुड़ि न होवी जनमड़ा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्राघि = तमन्ना कर। पिछा = पीछे को। फेरि = फेरना, मोड़ना। मुहडड़ा = कंधा। सिझि = सफल हो। इवेहा वार = इसी बार, इसी जनम में। बहुड़ि = दोबारा, फिर। जनमड़ा = जन्म।
अर्थ: (हे भाई!) आगे बढ़ने की तमन्ना कर, पीछे को कंधा ना मोड़ (जीवन को और-और ऊँचा उठाने के लिए उद्यम कर, नीच ना होने दे)। हे नानक! इसी जन्म में कामयाब हो (जीवन-खेल जीत) ताकि दोबारा जन्म ना लेना पड़े।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ सजणु मैडा चाईआ हभ कही दा मितु ॥ हभे जाणनि आपणा कही न ठाहे चितु ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ सजणु मैडा चाईआ हभ कही दा मितु ॥ हभे जाणनि आपणा कही न ठाहे चितु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सजणु = मित्र, प्रभु। मैडा = मेरा। चाईआ = चाव वाला, प्यार भरे दिल वाला। हभ कही दा = हर किसी का। हभे = सारे जीव। जाणनि = जानते हैं। कही चितु = किसी का भी दिल। न ठाहे = नहीं गिराता, नहीं तोड़ता।
अर्थ: मेरा मित्र-प्रभु प्यार भरे दिल वाला है, हर किसी का मित्र है (हरेक के साथ प्यार करता है)। सारे ही जीव उस प्रभु को अपना (मित्र) मानते हैं, वह किसी का दिल नहीं तोड़ता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ गुझड़ा लधमु लालु मथै ही परगटु थिआ ॥ सोई सुहावा थानु जिथै पिरीए नानक जी तू वुठिआ ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ गुझड़ा लधमु लालु मथै ही परगटु थिआ ॥ सोई सुहावा थानु जिथै पिरीए नानक जी तू वुठिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुझड़ा = (अंदर) छुपा हुआ। लधमु = मैंने ढूँढा, पाया। मथै = माथे पर। थिआ = हो गया। सुहावा = सुहावना। पिरीए जी = हे पिर जी! हे प्रभु पति जी! नानक = हे नानक! (कह)। वुठिआ = आ बसा।
अर्थ: (प्रभु-पति की मेहर हुई, तब वह प्रभु-) लाल मेरे अंदर छुपा हुआ ही मुझे मिल गया, (इसकी इनायत से) मेरे माथे पर प्रकाश हो गया (भाव, मेरा मन तन खिल उठा)। हे नानक! (कह:) हे प्रभु पति! जिस हृदय में तू आ बसता है, वह हृदय सुंदर हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जा तू मेरै वलि है ता किआ मुहछंदा ॥ तुधु सभु किछु मैनो सउपिआ जा तेरा बंदा ॥ लखमी तोटि न आवई खाइ खरचि रहंदा ॥ लख चउरासीह मेदनी सभ सेव करंदा ॥ एह वैरी मित्र सभि कीतिआ नह मंगहि मंदा ॥ लेखा कोइ न पुछई जा हरि बखसंदा ॥ अनंदु भइआ सुखु पाइआ मिलि गुर गोविंदा ॥ सभे काज सवारिऐ जा तुधु भावंदा ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जा तू मेरै वलि है ता किआ मुहछंदा ॥ तुधु सभु किछु मैनो सउपिआ जा तेरा बंदा ॥ लखमी तोटि न आवई खाइ खरचि रहंदा ॥ लख चउरासीह मेदनी सभ सेव करंदा ॥ एह वैरी मित्र सभि कीतिआ नह मंगहि मंदा ॥ लेखा कोइ न पुछई जा हरि बखसंदा ॥ अनंदु भइआ सुखु पाइआ मिलि गुर गोविंदा ॥ सभे काज सवारिऐ जा तुधु भावंदा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै वलि = मेरी तरफ। मुहछंदा = अधीनता। बंदा = सेवक। लखमी = लक्ष्मी, माया। तोटि = कमी। रहंदा = रखता। मेदनी = धरती। सभि = सारे। मंगहि = मांगते, चितवते। मिलि = मिल के। तुधु भावंदा = तुझे भाए।
अर्थ: हे प्रभु! जब तू मेरी सहायता में हो तो मुझे किसी और की अधीनता नहीं रह जाती। जब मैं तेरा सेवक बनता हूँ, तब तू मुझे सब कुछ दे देता है। मुझे धन-पदार्थ की कोई कमी नहीं रहती मैं (तेरा यह नाम-धन) बाँटता हूँ और एकत्र भी करता हूँ। धरती के चौरासी लाख जीव ही मेरी सेवा करने लग जाते हैं। तू वैरियों को भी मेरे मित्र बना देता है, कोई भी मेरा बुरा नहीं चितवते।
हे हरि! जब तू मुझे बख्शने वाला हो, तो कोई भी मुझसे मेरे कर्मों का हिसाब नहीं पूछता, क्योंकि गोविंद-रूप गुरु को मिल के मेरे अंदर ठंड पड़ जाती है मुझे सुख प्राप्त हो जाता है। जब तेरी रज़ा हो, तो मेरे सारे काम सवर जाते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ डेखण कू मुसताकु मुखु किजेहा तउ धणी ॥ फिरदा कितै हालि जा डिठमु ता मनु ध्रापिआ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ डेखण कू मुसताकु मुखु किजेहा तउ धणी ॥ फिरदा कितै हालि जा डिठमु ता मनु ध्रापिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डेखण = देखने। कू = के लिए, वास्ते। मुसताकु = उतावला, चाहवान। किजेहा = किस जैसा? कैसा? कितै हालि = किस (बुरे) हाल में। जा = जब। डिठमु = मैंने देख लिया। ध्रापिआ = अघा गया।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक! तेरा मुँह कैसा है? मैं तेरा मुख देखने के लिए बहुत चाहवान था, (माया-वश हो के) मैं किस बुरे हाल में भटकता फिरता हूँ, पर जब से तेरा मुंह मैंने देख लिया, तो मेरा मन (माया की ओर से) तृप्त हो गया।1।
[[1097]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ दुखीआ दरद घणे वेदन जाणे तू धणी ॥ जाणा लख भवे पिरी डिखंदो ता जीवसा ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ दुखीआ दरद घणे वेदन जाणे तू धणी ॥ जाणा लख भवे पिरी डिखंदो ता जीवसा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धणी = हे मालिक! वेदन = पीड़ा, दुख। भवे = चाहे। जाणा लख = मैं लाखों बार जानता होऊँ। पिरी डिखंदो = पति प्रभु को देखूँ। जीवसा = मैं जी सकती हूँ, मुझ में जान पड़ती है, मुझे सुख की सांस आती है।
अर्थ: (प्रभु के दर्शनों से वंचित) मैं दुखी हूँ, मेरे अंदर अनेक पीड़ाएं हैं। हे पति! मेरे दिल की पीड़ा तू ही जानता है। पर चाहे मुझे लाख पता हो (कि तू मेरी वेदना जानता है, फिर भी) मुझे सुख की सांस तभी आती है जब मैं तेरे दर्शन करूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ ढहदी जाइ करारि वहणि वहंदे मै डिठिआ ॥ सेई रहे अमाण जिना सतिगुरु भेटिआ ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ ढहदी जाइ करारि वहणि वहंदे मै डिठिआ ॥ सेई रहे अमाण जिना सतिगुरु भेटिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करारि = (संसार नदी का) किनारा। वहणि = बहाव में (नदी के)। वहंदे = बहते। सेई = वही लोग। अमाण = सही सलामत। भेटिआ = मिला।
अर्थ: (संसार नदी में विकारों ने ढाह लगाई हुई है गिराने पर जोर दिया हुआ है, नदी का) किनारा गिरता जा रहा है, (विकारों के) बहाव में अनेक लोग मैंने (खुद) बहते हुए देखे हैं। वही सही-सलामत रहते हैं, जिनको सतिगुरु मिल जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिसु जन तेरी भुख है तिसु दुखु न विआपै ॥ जिनि जनि गुरमुखि बुझिआ सु चहु कुंडी जापै ॥ जो नरु उस की सरणी परै तिसु क्मबहि पापै ॥ जनम जनम की मलु उतरै गुर धूड़ी नापै ॥ जिनि हरि भाणा मंनिआ तिसु सोगु न संतापै ॥ हरि जीउ तू सभना का मितु है सभि जाणहि आपै ॥ ऐसी सोभा जनै की जेवडु हरि परतापै ॥ सभ अंतरि जन वरताइआ हरि जन ते जापै ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिसु जन तेरी भुख है तिसु दुखु न विआपै ॥ जिनि जनि गुरमुखि बुझिआ सु चहु कुंडी जापै ॥ जो नरु उस की सरणी परै तिसु क्मबहि पापै ॥ जनम जनम की मलु उतरै गुर धूड़ी नापै ॥ जिनि हरि भाणा मंनिआ तिसु सोगु न संतापै ॥ हरि जीउ तू सभना का मितु है सभि जाणहि आपै ॥ ऐसी सोभा जनै की जेवडु हरि परतापै ॥ सभ अंतरि जन वरताइआ हरि जन ते जापै ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न विआपै = नहीं व्यापता। जिनि जनि = जिस जन ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। चहु कुंडी = चारों तरफ, सारे जगत में। जापै = प्रकट हो जाता है। तिसु कंबहि पापै = पाप उससे काँपते हैं, पाप उसके नजदीक नहीं फटकता। नापै = स्नान करता है। जिनि = जिस मनुष्य ने। न संतापै = दुख नहीं देता। सभि जाणहि आपै = सबको तू अपना समझता है। जन वरताइआ = सेवक की शोभा टिका दी। जन ते = सेवक से। जापै = पहचाना जाता है।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरे नाम की चाहत है उस मनुष्य को कोई दुख छू नहीं सकता। जिस सेवक ने गुरु की शरण पड़ कर तेरे साथ सांझ डाली है वह सारे जगत में प्रकट हो जाता है। (फिर) जो मनुष्य उस सेवक की शरण पड़ता है उसके नजदीक भी कोई पाप नहीं फटकते। गुरु के चरणों की धूल में स्नान करके उसकी कई जन्मों की (विकारों की) मैल उतर जाती है। जिस मनुष्य ने प्रभु की रजा को (मीठा करके) मान लिया है उसको कोई चिन्ता-फिक्र दुख नहीं दे सकता।
हे प्रभु जी! तू सारे जीवों का मित्र है, सारे जीवों को तू अपने समझता है।
प्रभु के सेवक की शोभा उतनी ही बड़ी हो जाती है जितना बड़ा प्रभु का अपना तेज-प्रताप है। प्रभु अपने सेवक की बड़ाई सब जीवों के अंदर टिका देता है। प्रभु अपने सेवक से ही पहचाना जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ जिना पिछै हउ गई से मै पिछै भी रविआसु ॥ जिना की मै आसड़ी तिना महिजी आस ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ जिना पिछै हउ गई से मै पिछै भी रविआसु ॥ जिना की मै आसड़ी तिना महिजी आस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। से भी = वह भी। मै पिछै = मेरे पीछे पीछे। रविआसु = चलते फिरते हैं (रम् = जाना)। आसड़ी = छोटी सी आसा। महिजी = मेरी।
अर्थ: (माया का अजीब प्रभाव है, सब माया की खातिर भटकते फिरते हैं, माया के लिए) जिस लोगों के पीछे मैं जाता हूँ (जिनकी अधीनता मैं कर रहा हूँ, जब मैं उनकी ओर देखता हूँ, तब) वह भी मेरे पीछे-पीछे चलते फिरते हैं। जिनकी सहायता की मैं आस रखे फिरता हूँ, वह मुझसे आस बनाए बैठे हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ गिली गिली रोडड़ी भउदी भवि भवि आइ ॥ जो बैठे से फाथिआ उबरे भाग मथाइ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ गिली गिली रोडड़ी भउदी भवि भवि आइ ॥ जो बैठे से फाथिआ उबरे भाग मथाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिली गिली = चिप चिप करती। रोडड़ी = गुड़ की रोड़ी। भउदी = मक्खी। भवि भवि = बार बार उड़ उड़ के। मथाइ = माथे पर।
अर्थ: चिप-चिप करती गुड़ की भेली पर मक्खी बार-बार उड़ के आ बैठती है (और आखिर गुड़ के साथ ही चिपक के वही मर जाती है, यही हाल है माया का,) जो जो लोग (माया के नजदीक हो-हो) उठते-बैठते हैं (इसके मोह में) फंस जाते हैं, (सिर्फ) वही बचते हैं जिनके माथे के भाग्य (जागते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ डिठा हभ मझाहि खाली कोइ न जाणीऐ ॥ तै सखी भाग मथाहि जिनी मेरा सजणु राविआ ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ डिठा हभ मझाहि खाली कोइ न जाणीऐ ॥ तै सखी भाग मथाहि जिनी मेरा सजणु राविआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हभ मझाहि = सब जीवों में। तै मथाहि = उनके ही माथे पर। राविआ = मिलाप का रस लिया है।
अर्थ: (ये आश्चर्यजनक खेल है कि जीव माया के मोह में फंस जाते हैं। क्या इनके अंदर रब नहीं बसता, जो इन्हें बचा ले? परमात्मा को तो मैंने) हरेक के अंदर बसता देखा है, कोई भी जीव ऐसा नहीं जिसमें वह नहीं बसता। पर सिर्फ उन (सत्संगी) सहेलियों के माथे के भाग्य ही जागते हैं (और वही माया के प्रभाव से बचती हैं) जिन्होंने प्यारे मित्र-प्रभु के मिलाप का रस लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हउ ढाढी दरि गुण गावदा जे हरि प्रभ भावै ॥ प्रभु मेरा थिर थावरी होर आवै जावै ॥ सो मंगा दानु गुोसाईआ जितु भुख लहि जावै ॥ प्रभ जीउ देवहु दरसनु आपणा जितु ढाढी त्रिपतावै ॥ अरदासि सुणी दातारि प्रभि ढाढी कउ महलि बुलावै ॥ प्रभ देखदिआ दुख भुख गई ढाढी कउ मंगणु चिति न आवै ॥ सभे इछा पूरीआ लगि प्रभ कै पावै ॥ हउ निरगुणु ढाढी बखसिओनु प्रभि पुरखि वेदावै ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हउ ढाढी दरि गुण गावदा जे हरि प्रभ भावै ॥ प्रभु मेरा थिर थावरी होर आवै जावै ॥ सो मंगा दानु गुोसाईआ जितु भुख लहि जावै ॥ प्रभ जीउ देवहु दरसनु आपणा जितु ढाढी त्रिपतावै ॥ अरदासि सुणी दातारि प्रभि ढाढी कउ महलि बुलावै ॥ प्रभ देखदिआ दुख भुख गई ढाढी कउ मंगणु चिति न आवै ॥ सभे इछा पूरीआ लगि प्रभ कै पावै ॥ हउ निरगुणु ढाढी बखसिओनु प्रभि पुरखि वेदावै ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। दरि = दर पर। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छा लगे। थावरी = टिकाने वाला, जिसका ठौर ठिकाना हो। जितु = जिससे। त्रिपतावै = तृप्त हो जाए। दातारि = दातार ने। प्रभि = प्रभु। महलि = महल में। पावै = पैरों पर। निरगुण = गुण हीन। बखसिओनु = उसने बख्श लिया। प्रभि पुरखि = प्रभु पुरख ने। वेदावै = निमाणे को।
अर्थ: अगर हरि प्रभु को अच्छा लगे (यदि प्रभु की रजा हो, मेहर हो) तो मैं ढाढी (उसके) दर पर (उसके) गुण गाता हूँ। मेरा प्रभु सदा-स्थिर ठिकाने वाला (सदा कायम) है, और (सृष्टि) पैदा होती मरती है। हे धरती के साई! मैं (तुझसे) वह दान माँगता हूँ जिससे मेरी (माया की) भूख दूर हो जाए। हे प्रभु जी! मुझे अपने दर्शन दो जिससे मैं ढाढी (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाऊँ।
दातार प्रभु ने (मेरी) अरदास सुन ली और (मुझ) ढाढी को अपने महल में बुला लिया (बुलाता है); प्रभु का दीदार करते ही मेरी (माया वाली) भूख व अन्य दुख दूर हो गए, मुझढाढी को ये चेते ही ना रहा कि मैं कुछ माँगू, प्रभु के चरणों में लग के मेरी सारी ही कामनाएं पूरी हो गई (मेरी कोई वासना ही ना रही)। उस प्रभु-पुरख ने मुझ निमाणे गुण-हीन ढाढी को बख्श लिया।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ जा छुटे ता खाकु तू सुंञी कंतु न जाणही ॥ दुरजन सेती नेहु तू कै गुणि हरि रंगु माणही ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ जा छुटे ता खाकु तू सुंञी कंतु न जाणही ॥ दुरजन सेती नेहु तू कै गुणि हरि रंगु माणही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। छुटे = (तेरा और प्राणों का संबंध) समाप्त हो जाएगा। सुंञी = सुंनी, सूनी, प्राण विहीन। न जाणही = नहीं जान सकेगी। दुरजन सेती = दुर्जनों के साथ, विकारों के साथ। कै गुणि = किस गुण से?
अर्थ: (हे मेरी काया!) जब (तेरा और इस आत्मा का संबंध) समाप्त हो जाएगा, तब तू मिट्टी हो जाएगी, (उस वक्त) प्राण के बगैर तू पति-प्रभु के साथ सांझ नहीं डाल सकेगी। (अब) तेरा प्यार विकारों से है, (बता!) तू किस गुण इनायत से हरि (के मिलाप) का आनंद ले सकती है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ नानक जिसु बिनु घड़ी न जीवणा विसरे सरै न बिंद ॥ तिसु सिउ किउ मन रूसीऐ जिसहि हमारी चिंद ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ नानक जिसु बिनु घड़ी न जीवणा विसरे सरै न बिंद ॥ तिसु सिउ किउ मन रूसीऐ जिसहि हमारी चिंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न जीवणा = नहीं जी सकता, सुख की सांस नहीं आ सकती। न सरै = नहीं निभती, निर्वाह नहीं होता। मन = हे मन! चिंद = चिन्ता।
अर्थ: हे नानक! जिस (प्रभु की याद) के बिना एक घड़ी भी सुख की सांस नहीं आती (दुनिया के चिन्ता-फिक्र ही जान खा जाते हैं), जिसको विसारने से एक पल भर भी जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता, (फिर) हे मन! जिस प्रभु को (हर वक्त) हमारा फिक्र है, उससे रूठना ठीक नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ रते रंगि पारब्रहम कै मनु तनु अति गुलालु ॥ नानक विणु नावै आलूदिआ जिती होरु खिआलु ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ रते रंगि पारब्रहम कै मनु तनु अति गुलालु ॥ नानक विणु नावै आलूदिआ जिती होरु खिआलु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै रंगि = के रंग में। पारब्रहम = परम ज्योति प्रभु। अति गुलालु = गाढ़ा लाल। आलूदिआ = मलीन। जिती = जितना भी।
अर्थ: हे नानक! जो लोग परम ज्योति प्रभु (पारब्रहम) के प्यार में रंगे जाते हैं, उनका तन-मन (प्यार में) गाढ़ा लाल हो जाता है। (प्रभु के प्यार को घटाने वाला) जितना भी और-और ध्यान है, वह प्रभु के नाम की याद से वंचित रखता है और (मन को) मैला करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवड़ी ॥ हरि जीउ जा तू मेरा मित्रु है ता किआ मै काड़ा ॥ जिनी ठगी जगु ठगिआ से तुधु मारि निवाड़ा ॥ गुरि भउजलु पारि लंघाइआ जिता पावाड़ा ॥ गुरमती सभि रस भोगदा वडा आखाड़ा ॥ सभि इंद्रीआ वसि करि दितीओ सतवंता साड़ा ॥ जितु लाईअनि तितै लगदीआ नह खिंजोताड़ा ॥ जो इछी सो फलु पाइदा गुरि अंदरि वाड़ा ॥ गुरु नानकु तुठा भाइरहु हरि वसदा नेड़ा ॥१०॥
मूलम्
पवड़ी ॥ हरि जीउ जा तू मेरा मित्रु है ता किआ मै काड़ा ॥ जिनी ठगी जगु ठगिआ से तुधु मारि निवाड़ा ॥ गुरि भउजलु पारि लंघाइआ जिता पावाड़ा ॥ गुरमती सभि रस भोगदा वडा आखाड़ा ॥ सभि इंद्रीआ वसि करि दितीओ सतवंता साड़ा ॥ जितु लाईअनि तितै लगदीआ नह खिंजोताड़ा ॥ जो इछी सो फलु पाइदा गुरि अंदरि वाड़ा ॥ गुरु नानकु तुठा भाइरहु हरि वसदा नेड़ा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काढ़ा = धोखा, फिक्र। जिनी ठगी = जिस (कामादिक) ठगों ने। निवाड़ा = निवारे, भगा दिए। गुरि = गुरु से। भउजलु = संसार समुंदर। जिता = जीत लिया। पावाड़ा = धंधे, जंजाल। सभि = सारे। सतवंता = ऊँचे आचरण वाला। साड़ा = हमारा। जितु = जिस तरफ। लाईअनि = लगाई जाती हैं। खिंजोताड़ा = खींचतान। इछी = मैं इच्छा करता हूँ। गुरि = गुरु ने। अंदरि वाड़ा = अंदर की ओर (मन को) पलटा दिया। भाइरहु = हे भाईयो!
अर्थ: हे हरि जी! जब तू मेरा मित्र है, तो मुझे कोई चिन्ता-फिक्र नहीं रह सकता, (क्योंकि) जिस (कामादिक) ठगों ने जगत को ठग लिया है वह तूने (मेरे अंदर से) मार के भगा दिए हैं, गुरु के द्वारा तूने मुझे संसार-समुंदर से पार लंघा दिया है, मैंने माया के जंजाल जीत लिए हैं। अब मैं गुरु के उपदेश पर चल के सारे रंग माणता हूँ, मैंने इस बड़े जगत-आखाड़े (को जीत लिया है)।
तू मेरा सतवंता साई (मेरे सिर ऊपर) है, तूने मेरी सारी इन्द्रियाँ मेरे काबू में कर दी हैं, अब इन्हें जिस तरफ लगाता हूँ उधर ही लगती हैं, कोई खींचतान नहीं (करतीं)। गुरु ने (मेरे मन को) अंदर की ओर पलटा दिया है, अब मैं जो कुछ इच्छा करता हूँ वही फल प्राप्त कर लेता हूँ।
हे भाईयो! मेरे ऊपर गुरु नानक प्रसन्न हो गया है, (उसकी मेहर से) मुझे प्रभु (अपने) नजदीक बसता दिखता है।10।
[[1098]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ जा मूं आवहि चिति तू ता हभे सुख लहाउ ॥ नानक मन ही मंझि रंगावला पिरी तहिजा नाउ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ जा मूं आवहि चिति तू ता हभे सुख लहाउ ॥ नानक मन ही मंझि रंगावला पिरी तहिजा नाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूं = मुझे। चिति = चिक्त में। मूं चिति = मेरे चिक्त में। लहाउ = मैं ले लेता हूँ, प्राप्त कर लेता हूँ। नानक = हे नानक! (कह-)। रंगावला = रंग पैदा करने वाला, रंगीला, रंग बिरंगा, सोहावना, प्यारा। पिरी = हे पिर! तहिजा = तेरा।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे पति-प्रभु! जब तू मेरे हृदय में आ बसता है, तो मुझे सारे सुख मिल जाते हैं, तेरा नाम मुझे अपने मन को मीठा प्यारा लगने लगता है (और सुख देता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ कपड़ भोग विकार ए हभे ही छार ॥ खाकु लुोड़ेदा तंनि खे जो रते दीदार ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ कपड़ भोग विकार ए हभे ही छार ॥ खाकु लुोड़ेदा तंनि खे जो रते दीदार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कपड़ भोग = (सिर्फ) पहनने खाने। छार = राख। लुोड़ेदा = (असल शब्द ‘लोड़ेंदा’ है, यहाँ पढ़ना है ‘लुड़ेदा’) मुझे जरूरत है, मैं चाहता हूँ। तंनि खे = तिन की। खाकु = चरण धूल।
अर्थ: (प्रभु की याद से टूट के निरे) खान-पान पहरावों (के पदार्थ) विकार (पैदा करते हैं। इसलिए असल में) ये सारे राख के समान हैं (बिल्कुल व्यर्थ हैं)। (तभी तो) मैं उन लोगों की चरण-धूल ढूँढता हूँ, जो प्रभु के दीदार में रंगे हुए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ किआ तकहि बिआ पास करि हीअड़े हिकु अधारु ॥ थीउ संतन की रेणु जितु लभी सुख दातारु ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ किआ तकहि बिआ पास करि हीअड़े हिकु अधारु ॥ थीउ संतन की रेणु जितु लभी सुख दातारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिआ = दूसरे। पास = तरफ, आसरे। हीअड़े = हे मेरे हृदय! हे मेरी जिंदे! हिकु = एक। अधारु = आसरा। थीउ = हो जा। रेणु = चरण धूल। जितु = जिससे।
अर्थ: हे मेरी जिंदे! (प्रभु को छोड़ के सुखों की खातिर) और-और आसरे क्यों देखती है? केवल एक प्रभु को अपना आसरा बना। (और, उस प्रभु की प्राप्ति के वास्ते उसके) संत जनों के चरणों की धूल बन, जिसकी इनायत से सुखों के देने वाला सुखदाता प्रभु मिल जाए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ विणु करमा हरि जीउ न पाईऐ बिनु सतिगुर मनूआ न लगै ॥ धरमु धीरा कलि अंदरे इहु पापी मूलि न तगै ॥ अहि करु करे सु अहि करु पाए इक घड़ी मुहतु न लगै ॥ चारे जुग मै सोधिआ विणु संगति अहंकारु न भगै ॥ हउमै मूलि न छुटई विणु साधू सतसंगै ॥ तिचरु थाह न पावई जिचरु साहिब सिउ मन भंगै ॥ जिनि जनि गुरमुखि सेविआ तिसु घरि दीबाणु अभगै ॥ हरि किरपा ते सुखु पाइआ गुर सतिगुर चरणी लगै ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ विणु करमा हरि जीउ न पाईऐ बिनु सतिगुर मनूआ न लगै ॥ धरमु धीरा कलि अंदरे इहु पापी मूलि न तगै ॥ अहि करु करे सु अहि करु पाए इक घड़ी मुहतु न लगै ॥ चारे जुग मै सोधिआ विणु संगति अहंकारु न भगै ॥ हउमै मूलि न छुटई विणु साधू सतसंगै ॥ तिचरु थाह न पावई जिचरु साहिब सिउ मन भंगै ॥ जिनि जनि गुरमुखि सेविआ तिसु घरि दीबाणु अभगै ॥ हरि किरपा ते सुखु पाइआ गुर सतिगुर चरणी लगै ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमा = बख्शिश, करम, कृपा। मनूआ = माया में फसा मन। धीरा = टिके रहने वाला। कलि = (भाव,) संसार। न तगै = (टिकाव में) नहीं निभ सकता। अहि = यह। करु = हाथ। थाह = गहराई। भंगै = कमी, दूरी। जिनि जनि = जिस जन ने। घरि = हृदय में। अभगै = नाश ना होने वाला।
अर्थ: प्रभु की मेहर के बिना प्रभु से मिलाप नहीं होता (प्रभु की मेहर से ही गुरु मिलता है, और) गुरु के बिना मनुष्य का माया-ग्रसित मन (प्रभु चरणों में) जुड़ता ही नहीं। संसार में धर्म ही सदा एक-रस रहता है, पर यह मन (जब तक) पापों में प्रवृक्त है बिल्कुल अडोलता में टिका नहीं रह सकता, (क्योंकि किए विकारों का मानसिक नतीजा निकलते) रक्ती भर समय नहीं लगता, जो कुछ ये हाथ करता है उसका फल यही हाथ पा लेता है।
(जब से दुनिया बनी है) चारों ही युगों के समय को विचार के मैंने देख लिया है कि मन का अहंकार संगति के बगैर दूर नहीं होता, गुरमुखों की संगति के बिना अहंकार बिल्कुल खत्म नहीं हो सकता। (जब तक मन में अहंकार है, तब तक मालिक प्रभु से दूरी है) जब तक मालिक प्रभु से दूरी है तब तक मनुष्य उसके गुणों की गहराई में टिक नहीं सकता।
जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का स्मरण किया है उसके हृदय में ही अविनाशी प्रभु का दरबार लग जाता है। प्रभु की मेहर से ही मनुष्य गुरु चरणों में जुड़ता है, और मेहर से ही आत्मिक सुख प्राप्त करता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ लोड़ीदो हभ जाइ सो मीरा मीरंन सिरि ॥ हठ मंझाहू सो धणी चउदो मुखि अलाइ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ लोड़ीदो हभ जाइ सो मीरा मीरंन सिरि ॥ हठ मंझाहू सो धणी चउदो मुखि अलाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोड़ीदो = मैं तलाश करता था। हभ जाइ = हभ जाए, हर जगह। सिरि = सिर पर। मीरंन सिरि मीरा = अमीरों से बड़ा अमीर, शाहों के ऊपर शाह। हठ = हृदय। मंझाहू = में, अंदर। धणी = मालिक। चउदो = मैं उचारता हूँ। मुखि = मुँह से। अलाहि = बोल के, उचार के।
अर्थ: वह मालिक प्रभु शाहों के सिर पर पातशाह है, मैं उसको (बाहर) हर जगह तलाशता फिरता था; पर अब जब मैं मुँह से उसके गुण उचारता हूँ, वह मुझे मेरे हृदय में ही दिखाई दे रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ माणिकू मोहि माउ डिंना धणी अपाहि ॥ हिआउ महिजा ठंढड़ा मुखहु सचु अलाइ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ माणिकू मोहि माउ डिंना धणी अपाहि ॥ हिआउ महिजा ठंढड़ा मुखहु सचु अलाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माउ = हे माँ! मोहि = मुझे। माणिकू = मोती। डिंना = दिया। आपहि = आप ही। धणी = मालिक। हिआउ = हृदय। मुखों = मुँह से। अलाइ = बोल के।
अर्थ: हे माँ! मालिक प्रभु ने स्वयं ही मुझे अपना नाम मोती दिया। (अब) मुँह से उस सदा-स्थिर प्रभु का नाम उचार-उचार के मेरा हृदय ठंडा-ठार हो गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ मू थीआऊ सेज नैणा पिरी विछावणा ॥ जे डेखै हिक वार ता सुख कीमा हू बाहरे ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ मू थीआऊ सेज नैणा पिरी विछावणा ॥ जे डेखै हिक वार ता सुख कीमा हू बाहरे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मू = मैं, मेरा हृदय। थीआऊ = मैं बन गया हूँ। पिरी = प्रभु पति के लिए। डेखै = देखे। कीमाहू = कीमत से। कीमाहू बाहरे = कीमत से परे, अमूल्य, जिसका मूल्य ना पड़ सके।
अर्थ: मैंने अपने हृदय को प्रभु-पति (के बिराजने) के लिए सेज बना दी है, अपनी आँखों को (उस सेज का) बिछौना बनाया है। जब वह एक बार भी (मेरी ओर) देखता है, मुझे ऐसे सुख का अनुभव होता है जो अमूल्य है (जो किसी भी कीमत से नहीं मिल सकता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ मनु लोचै हरि मिलण कउ किउ दरसनु पाईआ ॥ मै लख विड़ते साहिबा जे बिंद बुोलाईआ ॥ मै चारे कुंडा भालीआ तुधु जेवडु न साईआ ॥ मै दसिहु मारगु संतहो किउ प्रभू मिलाईआ ॥ मनु अरपिहु हउमै तजहु इतु पंथि जुलाईआ ॥ नित सेविहु साहिबु आपणा सतसंगि मिलाईआ ॥ सभे आसा पूरीआ गुर महलि बुलाईआ ॥ तुधु जेवडु होरु न सुझई मेरे मित्र गुोसाईआ ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ मनु लोचै हरि मिलण कउ किउ दरसनु पाईआ ॥ मै लख विड़ते साहिबा जे बिंद बुोलाईआ ॥ मै चारे कुंडा भालीआ तुधु जेवडु न साईआ ॥ मै दसिहु मारगु संतहो किउ प्रभू मिलाईआ ॥ मनु अरपिहु हउमै तजहु इतु पंथि जुलाईआ ॥ नित सेविहु साहिबु आपणा सतसंगि मिलाईआ ॥ सभे आसा पूरीआ गुर महलि बुलाईआ ॥ तुधु जेवडु होरु न सुझई मेरे मित्र गुोसाईआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाईआ = पाऊँ। विड़ते = कमा लिए। साहिबा = हे साहिब! बुोलाईआ = (यहाँ पढ़ना है ‘बुलाईआ’) बुलाएं। बिंद = रक्ती भर। साईआ = हे साई! स्ंतहो = हे संत जनो! किउ = कैसे? इतु पंथि = इस रास्ते में। जुलाईआ = मैं चलूँ।
अर्थ: प्रभु को मिलने के लिए मेरा मन बहुत तरसता है (पर समझ नहीं आती कि) कैसे दर्शन करूँ। हे (मेरे) मालिक! अगर तू मुझे थोड़ी सी भी आवाज लगाए तो (मैं समझता हूँ कि) मैंने लाखों रुपए कमा लिए हैं। हे मेरे साई! मैंने चारों तरफ सारी सृष्टि खोज के देख लिया है कि तेरे जितना और कोई नहीं है।
हे संत जनो! (तुम ही) मुझे रास्ता बताओ कि मैं प्रभु को कैसे मिलूँ। (संतजन राह बताते हैं कि) मन (प्रभु को) भेटा करो अहंकार को दूर करो (और कहते हैं कि) मैं इस रास्ते पर चलूँ। (संत उपदेश देते हैं कि) सदा अपने मालिक प्रभु को याद करो (और कहते हैं कि) मैं सत्संग में मिलूँ। जब प्रभु की हजूरी में गुरु ने बुला लिया, तो सारी आशाएं पूरी हो जाएंगी।
हे मेरे मित्र! हे धरती के मालिक! मुझे तेरे जितना और कोई नहीं मिलता (तू मेहर कर, और दीदार दे)।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ मू थीआऊ तखतु पिरी महिंजे पातिसाह ॥ पाव मिलावे कोलि कवल जिवै बिगसावदो ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ मू थीआऊ तखतु पिरी महिंजे पातिसाह ॥ पाव मिलावे कोलि कवल जिवै बिगसावदो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मू = मैं, मेरा हृदय, मेरा अपना आप। महिंजे = मेरे। पिरी पातिसाह = हे मेरे पति! हे पातशाह! पव = पाँव, चरण। कोलि = नजदीक। मिलावे = छुआए। कवल जिवै = कमल जैसे फूल की तरह। बिगसावदो = मैं खिल उठता हूँ।
अर्थ: हे मेरे पति पातशाह! मैंने (तेरे बैठने के लिए) अपने हृदय में तख़्त बनाया है। जब तू अपने चरण मेरे हृदय-तख़्त पर स्पर्श करता है, मैं कमल के फूल की तरह खिल उठता हूँ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ पिरीआ संदड़ी भुख मू लावण थी विथरा ॥ जाणु मिठाई इख बेई पीड़े ना हुटै ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ पिरीआ संदड़ी भुख मू लावण थी विथरा ॥ जाणु मिठाई इख बेई पीड़े ना हुटै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संदड़ी = की। पिरीआ संदड़ी भुख = प्यारे पति-प्रभु को मिलने की भूख (मिटाने के लिए)। थी विथरा = हो जाऊँ। मू = मैं, मेरा आपा भाव। लावण = लवणीय, नमकीन। जाणु = मैं जान लूँ, मैं बनना सीख लूँ। मिठाई इख = गन्ने की मिठास। बेई पीढ़े = बार बार पीढ़ने से। ना हुटै = ना खत्म हो।
अर्थ: प्यारे पति-प्रभु को मिलने की भूख मिटाने के लिए मेरा स्वै-भाव नमकीन बन जाए। मैं ऐसी गन्ने की मिठास बनना सीख लूँ कि (गन्ने को) बार-बार पीढ़ने से भी ना खत्म हो (भाव, मैं आपा-भाव मिटा दूँ, और स्वै न्यौछावर करते हुए कभी ना थकूँ, कभी ना तृप्त होऊँ)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ ठगा नीहु मत्रोड़ि जाणु गंध्रबा नगरी ॥ सुख घटाऊ डूइ इसु पंधाणू घर घणे ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ ठगा नीहु मत्रोड़ि जाणु गंध्रबा नगरी ॥ सुख घटाऊ डूइ इसु पंधाणू घर घणे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठगा नीहु = ठग का नेह, दुनिया का मोह। मत्रोड़ि = अच्छी तरह तोड़ दे। गंध्रबा नगरी = धूएं का पहाड़, छल। जाणु = समझ। डूइ = दो। सुख घटाऊ डूइ = दो घड़ियों का सुख (भोगने से)। पंधाणू = राही, पथिक (जीव)। घणे = अनेक। घर = जूनियां।
अर्थ: (हे भाई!) दुनिया का मोह अच्छी तरह तोड़ दे, (इस दुनिया को) धूएं का पहाड़ समझ। (दुनिया का) दो घड़ियों का सुख (भोगने से) इस जीव-राही को अनेक जूनियों (में भटकना पड़ता है)।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अकल कला नह पाईऐ प्रभु अलख अलेखं ॥ खटु दरसन भ्रमते फिरहि नह मिलीऐ भेखं ॥ वरत करहि चंद्राइणा से कितै न लेखं ॥ बेद पड़हि स्मपूरना ततु सार न पेखं ॥ तिलकु कढहि इसनानु करि अंतरि कालेखं ॥ भेखी प्रभू न लभई विणु सची सिखं ॥ भूला मारगि सो पवै जिसु धुरि मसतकि लेखं ॥ तिनि जनमु सवारिआ आपणा जिनि गुरु अखी देखं ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अकल कला नह पाईऐ प्रभु अलख अलेखं ॥ खटु दरसन भ्रमते फिरहि नह मिलीऐ भेखं ॥ वरत करहि चंद्राइणा से कितै न लेखं ॥ बेद पड़हि स्मपूरना ततु सार न पेखं ॥ तिलकु कढहि इसनानु करि अंतरि कालेखं ॥ भेखी प्रभू न लभई विणु सची सिखं ॥ भूला मारगि सो पवै जिसु धुरि मसतकि लेखं ॥ तिनि जनमु सवारिआ आपणा जिनि गुरु अखी देखं ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कला = (digit) हिस्सा, टुकड़ा (जैसे चंद्रमा की कलाएं बढ़ती घटती हैं)। अकल = जिसकी कलाएं ना हों, जिसके टुकड़े ना हो सकें, जो चँद्रमा की तरह घटता बढ़ता नहीं, अखण्ड शक्ति वाला। लख = लक्ष, निशान, चिन्ह। अलेख = जो बयान ना किया जा सके। खटु दरसन = छह भेषों के साधु (जोगी, जंगम, सरेवड़े, सन्यासी, बैरागी, बौधी)। चंद्राइण वरत = चँद्रमा के साथ संबंध रखने वाले व्रत। सार = अस्लियत। न पेखं = नहीं देखतें। मारगि = रास्ते पर। जिनि = उसने।
अर्थ: जिस प्रभु का कोई चक्र-चिन्ह नहीं, जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, जो बढ़ता-घटता नहीं है उसका भेद (कला) नहीं पाया जा सकता। छह भेखों के साधु (व्यर्थ) भटकते फिरते हैं, प्रभु भेस से नहीं मिलता। (कई लोग) चँद्रायण व्रत रखते हैं, पर उनका कोई लाभ नहीं (वह किसी गिनती में नहीं)। जो सारे के सारे वेद पढ़ते हैं, वे भी सच्चाई को नहीं देख सकते। कई स्नान कर के (माथे पर) तिलक लगाते हैं, पर उनके मन में (विकारों की) कालिख होती है (उनको भी रब नहीं मिलता)। परमात्मा भेषों से नहीं मिलता, (गुरु के) सच्चे उपदेश के बिना नहीं मिलता।
जिस मनुष्य के माथे पर धुर से (बख्शिश का लिखा) लेख उघड़ आए, वह (पहले अगर) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ (हो तो भी ठीक) रास्ते पर आ जाता है। जिस मनुष्य ने अपनी आँखों से गुरु के दर्शन कर लिए, उसने अपना जन्म सफल कर लिया है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ सो निवाहू गडि जो चलाऊ न थीऐ ॥ कार कूड़ावी छडि समलु सचु धणी ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ सो निवाहू गडि जो चलाऊ न थीऐ ॥ कार कूड़ावी छडि समलु सचु धणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवाहू = तोड़ निभाने वाला, पूरा साथ निभाने वाला। गडि = (हृदय में) पक्का कर के रख। चलाऊ = चला जाने वाला, साथ छोड़ जाने वाला। थीऐ = होए। संमलु = संभाल के (मन में) रख। धणी = मालिक।
अर्थ: जो (मालिक-प्रभु) साथ छोड़ जाने वाला नहीं है उस तोड़ निभाने वाले को (दिल में) पक्का कर के रख। सदा-स्थिर रहने वाले मालिक को (मन में) संभाल के रख, (जो काम उसकी याद को भुलाए, उस) झूठी कार को छोड़ दे (माया संबंधी काम में चिक्त को नहीं बसा)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ हभ समाणी जोति जिउ जल घटाऊ चंद्रमा ॥ परगटु थीआ आपि नानक मसतकि लिखिआ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ हभ समाणी जोति जिउ जल घटाऊ चंद्रमा ॥ परगटु थीआ आपि नानक मसतकि लिखिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हभ = हर जगह। घटाऊ = घड़ों में। मसतकि = माथे पर।
अर्थ: हे नानक! प्रभु की ज्योति हर जगह समाई हुई है (मौजूद है) जैसे पानी के घड़ों में चँद्रमा (का प्रतिबिंब) है। (पर माया ग्रसित जीव को अपने अंदर उसका दीदार नहीं होता)। जिस मनुष्य के माथे पर (पूर्बले) लिखे लेख जागते हैं, उसके अंदर प्रभु की ज्योति प्रत्यक्ष हो जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ मुख सुहावे नामु चउ आठ पहर गुण गाउ ॥ नानक दरगह मंनीअहि मिली निथावे थाउ ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ मुख सुहावे नामु चउ आठ पहर गुण गाउ ॥ नानक दरगह मंनीअहि मिली निथावे थाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुहावे = सुंदर। चउ = उचार (के)। मंनीअहि = आदर प्राप्त करते हैं।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करते हैं जो आठ पहर प्रभु की महिमा करते हैं उनके मुँह सुंदर (दिखते) हैं। हे नानक! (भाग्यशाली) बंदे प्रभु की हजूरी में सम्मान पाते हैं। जिस मनुष्य को (पहले) कहीं भी आसरा नहीं था मिलता (नाम की इनायत से) उसको (हर जगह) आदर मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ बाहर भेखि न पाईऐ प्रभु अंतरजामी ॥ इकसु हरि जीउ बाहरी सभ फिरै निकामी ॥ मनु रता कुट्मब सिउ नित गरबि फिरामी ॥ फिरहि गुमानी जग महि किआ गरबहि दामी ॥ चलदिआ नालि न चलई खिन जाइ बिलामी ॥ बिचरदे फिरहि संसार महि हरि जी हुकामी ॥ करमु खुला गुरु पाइआ हरि मिलिआ सुआमी ॥ जो जनु हरि का सेवको हरि तिस की कामी ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ बाहर भेखि न पाईऐ प्रभु अंतरजामी ॥ इकसु हरि जीउ बाहरी सभ फिरै निकामी ॥ मनु रता कुट्मब सिउ नित गरबि फिरामी ॥ फिरहि गुमानी जग महि किआ गरबहि दामी ॥ चलदिआ नालि न चलई खिन जाइ बिलामी ॥ बिचरदे फिरहि संसार महि हरि जी हुकामी ॥ करमु खुला गुरु पाइआ हरि मिलिआ सुआमी ॥ जो जनु हरि का सेवको हरि तिस की कामी ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरि भेखि = बारी भेखों से। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। बाहरी = बिना। निकामी = निकम्मी, व्यर्थ। गरबि = अहंकार में। फिरामी = फिरती है। गुमानी = अहंकारी। गरबहि = अहंकार करते हैं। दामी = पैसे वाले, माया धारी। बिलामी = विलम्ब, देर। हुकामी = हुक्म में, हुक्म अनुसार। करमु = कृपा। कामी = काम आता है। तिस की कामी = उसके काम आता है, उसका काम सवारता है।
अर्थ: ईश्वर बाहरी भेषों से नहीं मिलता (क्योंकि) वह हरेक के दिल की जानता है, और, एक रब के मिलाप के बिना सारी सृष्टि व्यर्थ विचरती है। जिस लोगों का मन परिवार के मोह में रंगा रहता है, वे सदा अहंकार में फिरते हैं, माया-धारी बंदे जगत में अकड़-अकड़ के चलते हैं, पर उनका अहंकार किसी अर्थ का नहीं, (क्योंकि) जगत से चलने के वक्त माया जीव के साथ नहीं जाती, छिन पल में ही साथ छोड़ जाती है। ऐसे लोग परमात्मा की रजा के अनुसार संसार में (व्यर्थ ही) जीवन गुजार जाते हैं।
जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर (का दरवाजा) खुलता है, उसको गुरु मिलता है (गुरु के द्वारा) उसको मालिक प्रभु मिल जाता है। जो मनुष्य प्रभु का सेवक बन जाता है, प्रभु उसका काम सँवारता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ मुखहु अलाए हभ मरणु पछाणंदो कोइ ॥ नानक तिना खाकु जिना यकीना हिक सिउ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ मुखहु अलाए हभ मरणु पछाणंदो कोइ ॥ नानक तिना खाकु जिना यकीना हिक सिउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलाए = उचारता है, कहता है। हभ = सारी (सृष्टि)। कोइ = कोई विरला। खाकु = चरण धूल। यकीना = प्रतीत, श्रद्धा। हिक = एक।
अर्थ: सारी सृष्टि ही मुँह से कहती है (कि) मौत (सिर पर खड़ी है), पर कोई विरला बंदा (ये बात यकीन से) समझता है। हे नानक! (कह:) मैं उन (गुरमुखों) की चरण-धूल (माँगता) हूँ जो (मौत को सच जान के) एक परमात्मा के साथ संबंध जोड़ते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ जाणु वसंदो मंझि पछाणू को हेकड़ो ॥ तै तनि पड़दा नाहि नानक जै गुरु भेटिआ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ जाणु वसंदो मंझि पछाणू को हेकड़ो ॥ तै तनि पड़दा नाहि नानक जै गुरु भेटिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणु = अंतरजामी। मंझि = (हरेक जीव के) अंदर। को होकड़ो = कोई विरला एक। तै तनि = उस मनुष्य के शरीर में। पड़दा = परमात्मा से दूरी। जै = जिस को। भेटिआ = मिला।
अर्थ: अंतरजामी परमात्मा (हरेक जीव के) अंदर बसता है, पर इस बात को कोई विरला व्यक्ति ही समझता है। हे नानक! (जिस) मनुष्य को गुरु मिल जाता है उसके हृदय में (शरीर में परमात्मा से) दूरी नहीं रह जाती (और वह परमात्मा को अपने अंदर देख लेता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ मतड़ी कांढकु आह पाव धोवंदो पीवसा ॥ मू तनि प्रेमु अथाह पसण कू सचा धणी ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ मतड़ी कांढकु आह पाव धोवंदो पीवसा ॥ मू तनि प्रेमु अथाह पसण कू सचा धणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुआहु = बुरी, खोटी (कुलाह), घाटे वाली। मतड़ी = अनुचित मति। कांढ = काढने वाला, निकालने वाला। कांढ पाव = निकालने वाले पैर। मू तनि = मेरे शरीर में, मेरे दिल में। अथाह = बेअंत। पसण कू = देखने के लिए। धणी = मालिक।
अर्थ: सदा कायम रहने वाले मालिक के दर्शन करने के लिए मेरे हृदय में अथाह प्रेम है (पर मेरी खोटी मति दर्शनों के रास्ते पर रोक डालती है); जो मनुष्य मेरी इस खोटी मति को (मेरे अंदर से) निकाल दे, मैं उसके पैर धो-धो के पीऊँगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ निरभउ नामु विसारिआ नालि माइआ रचा ॥ आवै जाइ भवाईऐ बहु जोनी नचा ॥ बचनु करे तै खिसकि जाइ बोले सभु कचा ॥ अंदरहु थोथा कूड़िआरु कूड़ी सभ खचा ॥ वैरु करे निरवैर नालि झूठे लालचा ॥ मारिआ सचै पातिसाहि वेखि धुरि करमचा ॥ जमदूती है हेरिआ दुख ही महि पचा ॥ होआ तपावसु धरम का नानक दरि सचा ॥१५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ निरभउ नामु विसारिआ नालि माइआ रचा ॥ आवै जाइ भवाईऐ बहु जोनी नचा ॥ बचनु करे तै खिसकि जाइ बोले सभु कचा ॥ अंदरहु थोथा कूड़िआरु कूड़ी सभ खचा ॥ वैरु करे निरवैर नालि झूठे लालचा ॥ मारिआ सचै पातिसाहि वेखि धुरि करमचा ॥ जमदूती है हेरिआ दुख ही महि पचा ॥ होआ तपावसु धरम का नानक दरि सचा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रचा = खचित, मस्त। नचा = नाचता, भटकता फिरता। तै = और। थोथा = खाली। कूड़िआरु = झूठा। खचा = गप। पातिसाहि = पातशाह ने। वेखि = देख के। करमचा = कर्म, किए हुए काम। हेरिआ = देखा। जमदूती = जमदूतों ने। पचा = ख्वार किया। तपावसु = न्याय। दरि = दर से।
अर्थ: जिस मनुष्य ने निर्भय प्रभु का नाम भुला दिया है और जो माया में ही मस्त रहता है, वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है वह अनेक जूनियों में भटकता है।
(माया में मस्त मनुष्य यदि कोई) वचन करता है तो उससे फिर जाता है, सदा झूठी बात ही करता है। वह झूठा अपने मन में से खाली होता है (उसकी नीयत पहले ही बुरी होती है, इस वास्ते) उसकी (हरेक बात) झूठी होती है गप होती है। ऐसा बंदा झूठी लालच में फंस के निर्वैर व्यक्ति के साथ भी वैर कमा लेता है, शुरू से ही उस लालची के कामों को देख के सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु-पातिशाह ने (उसकी ज़मीर को) मार दिया हुआ है। ऐसा मनुष्य सदा जमदूतों की ताक में रहता है, दुखों में ही ख़्वार होता है। हे नानक! सच्चे प्रभु के दर पर धर्म का इन्साफ (ही) होता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ परभाते प्रभ नामु जपि गुर के चरण धिआइ ॥ जनम मरण मलु उतरै सचे के गुण गाइ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ परभाते प्रभ नामु जपि गुर के चरण धिआइ ॥ जनम मरण मलु उतरै सचे के गुण गाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ नामु = प्रभु का नाम। धिआइ = ध्यान धर।
अर्थ: (हे भाई!) अमृत बेला में उठ के प्रभु का नाम स्मरण कर, और अपने गुरु के चरणों का ध्यान धर (भाव, प्रभु के नाम में जोड़ने वाले गुरु का आदर सत्कार पूरी विनम्रता से अपने दिल में टिका)। सदा कायम रहने वाले प्रभु की महिमा करने से जनम-मरण के चक्कर में डालने वाली विकारों की मैल मन से उतर जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ देह अंधारी अंधु सुंञी नाम विहूणीआ ॥ नानक सफल जनमु जै घटि वुठा सचु धणी ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ देह अंधारी अंधु सुंञी नाम विहूणीआ ॥ नानक सफल जनमु जै घटि वुठा सचु धणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देह = काया। अंधु अंधारी = पूरी तौर पर अंधी। सुंञी = सुंनी, आत्मिक जीवन से वंचित। जै घटि = जिस मनुष्य के हृदय में। सचु = सदा स्थिर। वुठा = आ बसा।
अर्थ: नाम से टूटा हुआ शरीर (आत्मिक जीवन से) वंचित रहता है, पूरी तौर पर (आत्मिक जीवन की सूझ से) अंधा हो जाता है (भाव, सारी ज्ञान-इंद्रिय सदाचारी उपयोग से अंधी हो के विकारों में प्रवृति हुई रहती हैं)। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर मालिक प्रभु आ बसता है, उसकी जिंदगी मुबारक है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ लोइण लोई डिठ पिआस न बुझै मू घणी ॥ नानक से अखड़ीआ बिअंनि जिनी डिसंदो मा पिरी ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ लोइण लोई डिठ पिआस न बुझै मू घणी ॥ नानक से अखड़ीआ बिअंनि जिनी डिसंदो मा पिरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोइण = आँखों से। लोई = लोग, जगत, मायावी पदार्थ। पिआस = मायावी पदार्थों की लालसा। मू = मेरी। घणी = बहुत बढ़ी हुई। अखड़ीआ = आँखें। बिअंनि = और किस्म की। मा = मेरा।
अर्थ: (ज्यों-ज्यों) मैं इन आँखों से (निरे) जगत को (भाव, दुनिया के पदार्थों को) देखता हूँ (इन पदार्थों के प्रति) मेरी लालसा और भी बढ़ती जाती है, लालसा खत्म नहीं होती। हे नानक! (तृष्णा-मारी आँखों से प्यारा प्रभु दिखाई नहीं दे सकता) वह आँखें (इन तृष्णा-ग्रसित आँखों से अलग) औैर ही किस्म की हैं, जिनसे प्यारा प्रभु-पति दिखाई देता है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिनि जनि गुरमुखि सेविआ तिनि सभि सुख पाई ॥ ओहु आपि तरिआ कुट्मब सिउ सभु जगतु तराई ॥ ओनि हरि नामा धनु संचिआ सभ तिखा बुझाई ॥ ओनि छडे लालच दुनी के अंतरि लिव लाई ॥ ओसु सदा सदा घरि अनंदु है हरि सखा सहाई ॥ ओनि वैरी मित्र सम कीतिआ सभ नालि सुभाई ॥ होआ ओही अलु जग महि गुर गिआनु जपाई ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ हरि सिउ बणि आई ॥१६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिनि जनि गुरमुखि सेविआ तिनि सभि सुख पाई ॥ ओहु आपि तरिआ कुट्मब सिउ सभु जगतु तराई ॥ ओनि हरि नामा धनु संचिआ सभ तिखा बुझाई ॥ ओनि छडे लालच दुनी के अंतरि लिव लाई ॥ ओसु सदा सदा घरि अनंदु है हरि सखा सहाई ॥ ओनि वैरी मित्र सम कीतिआ सभ नालि सुभाई ॥ होआ ओही अलु जग महि गुर गिआनु जपाई ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ हरि सिउ बणि आई ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। जनि = जन ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। तिनि = उस ने। सभि = सारे। संचिआ = जोड़ा, इकट्ठा किया। ओनि = उस ने। ओसु घरि = उसके हृदय घर में। सखा = मित्र। सम = एक समान। सुभाई = अच्छे स्वभाव वाला। ओहीअलु = प्रकट, मशहूर, नाम वाला। (ओझल = आँखों से ओझल। ओहीअलु = आँखों के सामने)।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु के सन्मुख हो के प्रभु को स्मरण किया है उसने सारे सुख पा लिए हैं, वह अपने परिवार समेत स्वयं भी (संसार-समुंदर से) पार हो जाता है, सारे जगत को भी पार लगा लेता है। उस मनुष्य ने परमात्मा का नाम धन इतना जोड़ा है कि माया वाली सारी ही तृष्णा उसने मिटा ली है। उसने दुनिया के सारे लालच छोड़ दिए हैं (लालच में नहीं फंस जाता) उसने प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ी हुई है। उसके हृदय में सदा खुशी-आनंद है, प्रभु सदा उसका मित्र है सहायता करने वाला है। उसने वैरी और मित्र एक-समान समझ लिए हैं (हरेक को मित्र समझता है), सबके साथ अच्छा बरताव करता है।
वह मनुष्य गुरु से मिले उपदेश को सदा चेते रखता है और जगत में नामवाला हो जाता है, पिछले जन्मों में किए भले कर्मों के लेख उसके माथे पर उघड़ आते हैं और (इस जन्म में) परमात्मा के साथ बिल्कुल ही पक्की प्रीति बन जाती है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ सचु सुहावा काढीऐ कूड़ै कूड़ी सोइ ॥ नानक विरले जाणीअहि जिन सचु पलै होइ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ सचु सुहावा काढीऐ कूड़ै कूड़ी सोइ ॥ नानक विरले जाणीअहि जिन सचु पलै होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम धन। सुहावा = सुखावां, सुख देने वाला। काढीऐ = कहा जाता है, हर कोई कहता है। कूड़ै = झूठा धन, नाशवान पदार्थ। कूड़ी सोइ = बुरी खबर, दूषणबाजी उपाधि भरी खबर। जाणीअहि = जाने जाते हैं, पता लगता है।
अर्थ: हे नानक! हर कोई कहता है कि (परमात्मा का) नाम-धन सुख देने वाला है और दुनियावी धन (के एकत्र करने) में कोई ना कोई झगड़े-दूषणबाजी वाली उपाधि वाली खबर ही सुनी जाती है। फिर भी, ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं, जिन्होंने नाम-धन इकट्ठा किया हो (हर कोई उपाधि-मूल दुनियावी धन के पीछे ही दौड़ रहा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ सजण मुखु अनूपु अठे पहर निहालसा ॥ सुतड़ी सो सहु डिठु तै सुपने हउ खंनीऐ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ सजण मुखु अनूपु अठे पहर निहालसा ॥ सुतड़ी सो सहु डिठु तै सुपने हउ खंनीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुतड़ी = सोई हुई। सहु = पति। सुपने = हे सपने! तै = तुझसे। हउ = मैं। खंनीऐ = कुर्बान हूँ। सजण मुखु = मित्र प्रभु का मुँह। अनूपु = उपमा रहित, बेमिसाल, बहुत ही सुंदर। निहालसा = निहालसां, मैं देखूँगी।
अर्थ: सोई हुई ने मैंने उस पति-प्रभु को (सपने में) देखा, सज्जन का मुँह बहुत ही अच्छा (लगा)। हे सपने! मैं तुझसे सदके जाती हूँ। (अब मेरी तमन्ना है कि) मैं आठों पहर (सज्जन का मुँह) देखती रहूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ सजण सचु परखि मुखि अलावणु थोथरा ॥ मंन मझाहू लखि तुधहु दूरि न सु पिरी ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ सजण सचु परखि मुखि अलावणु थोथरा ॥ मंन मझाहू लखि तुधहु दूरि न सु पिरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सजण = हे मित्र! सचु = नाम धन। परखि = मूल्य डाल, (खरापन) ध्यान से देख। मुखि = (सिर्फ) मुँह से। अलावणु = बोलना, कहना। थोथरा = खाली, व्यर्थ। मंन मझाहू = मन में। लखि = देख। सु = वह।
अर्थ: हे मित्र! (सिर्फ) मुँह से कहना व्यर्थ है, नाम-धन को (अपने हृदय में) परख। अपने अंदर झाँक मार के देख, वह पति-प्रभु तुझसे दूर नहीं है (तेरे अंदर ही बसता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ धरति आकासु पातालु है चंदु सूरु बिनासी ॥ बादिसाह साह उमराव खान ढाहि डेरे जासी ॥ रंग तुंग गरीब मसत सभु लोकु सिधासी ॥ काजी सेख मसाइका सभे उठि जासी ॥ पीर पैकाबर अउलीए को थिरु न रहासी ॥ रोजा बाग निवाज कतेब विणु बुझे सभ जासी ॥ लख चउरासीह मेदनी सभ आवै जासी ॥ निहचलु सचु खुदाइ एकु खुदाइ बंदा अबिनासी ॥१७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ धरति आकासु पातालु है चंदु सूरु बिनासी ॥ बादिसाह साह उमराव खान ढाहि डेरे जासी ॥ रंग तुंग गरीब मसत सभु लोकु सिधासी ॥ काजी सेख मसाइका सभे उठि जासी ॥ पीर पैकाबर अउलीए को थिरु न रहासी ॥ रोजा बाग निवाज कतेब विणु बुझे सभ जासी ॥ लख चउरासीह मेदनी सभ आवै जासी ॥ निहचलु सचु खुदाइ एकु खुदाइ बंदा अबिनासी ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनासी = नाशवान। उमराव = अमीर लोग। खान = जायदादों के मालिक। ढाहि = छोड़ के। रंग = रंक, कंगाल। तुंग = ऊँचे, धनाढ। मसत = मस्त, अहंकारी, माया ग्रसित। सिधासी = संसार से चले जाएंगे। मसाइका = शेख कहलवाने वाले। अउलीए = वली लोग, धार्मिक नेता। मेदनी = धरती। निहचलु = सदा कायम रहने वाला।
अर्थ: धरती, आकाश, पाताल, चाँद और सूरज- ये सब नाशवान हैं। शाह-बादशाह अमीर जागीरदार (सब अपने) महल माढ़ियाँ छोड़ के (यहाँ से) चले जाएंगे। कंगाल, अमीर, ग़रीब, मायाग्रसित (कोई भी हो) सारा जगत ही (यहाँ से) चला जाएगा। पीर-पैग़बर बड़े-बड़े धार्मिक नेता - इनमें से कोई भी यहाँ सदा टिका नहीं रहेगा। जिन्होंने रोज़े रखे, बाँगें दीं, नमाज़ें पढ़ीं, धार्मिक पुस्तकें पढ़ीं, वह भी जिन्होंने इनकी सार ना समझी वह भी, सारे (जगत से आखिर) चले जाएंगें। धरती की चौरासी लाख जूनों के सारे ही जीव (जगत में) आते हैं और फिर यहाँ से चले जाते हैं।
सिर्फ एक सच्चा ख़ुदा ही सदा कायम रहने वाला है। ख़ुदा का बँदा (भक्त) भी जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डखणे मः ५ ॥ डिठी हभ ढंढोलि हिकसु बाझु न कोइ ॥ आउ सजण तू मुखि लगु मेरा तनु मनु ठंढा होइ ॥१॥
मूलम्
डखणे मः ५ ॥ डिठी हभ ढंढोलि हिकसु बाझु न कोइ ॥ आउ सजण तू मुखि लगु मेरा तनु मनु ठंढा होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हभ = सारी सृष्टि। ढंढोलि = ढूँढ के। सजण = हे मित्र प्रभु! मुखि लगु = मिल, दीदार दे। तनु मनु ठंढा होइ = तन मन में ठंढक पड़ती है, मन व ज्ञानेन्द्रिए शांत होते हैं।
अर्थ: हे मित्र प्रभु! आ, तू मुझे दर्शन दे, (तेरे दर्शन करने से) मेरे तन मन में ठंढ पड़ती है। मैंने सारी सृष्टि तलाश के देख ली है, (हे प्रभु!) एक तेरे (दीदार के) बिना और कोई भी (पदार्थ मुझे आत्मिक शांति) नहीं (देता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ आसकु आसा बाहरा मू मनि वडी आस ॥ आस निरासा हिकु तू हउ बलि बलि बलि गईआस ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ आसकु आसा बाहरा मू मनि वडी आस ॥ आस निरासा हिकु तू हउ बलि बलि बलि गईआस ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसकु = (प्रभु-चरणों का) प्रेमी। आसा = (दुनियावी पदार्थों की) आशा, मायावी लालसा। मू मनि = मेरे मन में। आस निरासा = दुनियावी आशाओं से उपराम करने वाला। हिकु तू = सिर्फ तू है।
अर्थ: (हे प्रभु!) (तेरे चरणों का सच्चा) प्रेमी वही हो सकता है जिसको दुनियावी आशा ना छू सकें, पर मेरे मन में तो बड़ी-बड़ी आशाएं हैं। सिर्फ तू ही है जो मुझे (दुनियावी) आशाओं से उपराम कर सकता है। मैं तुझसे ही कुर्बान जाता हूँ (तू स्वयं ही मेहर कर)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ विछोड़ा सुणे डुखु विणु डिठे मरिओदि ॥ बाझु पिआरे आपणे बिरही ना धीरोदि ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ विछोड़ा सुणे डुखु विणु डिठे मरिओदि ॥ बाझु पिआरे आपणे बिरही ना धीरोदि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणे = सुणि, सुन के। मरिओदि = आत्मिक मौत हो जाती है। बिरही = सच्चा आशिक, प्रेमी। ना धीरोदि = धीरज नहीं करता, मन खड़ा नहीं होता।
अर्थ: (प्रभु चरणों का अमल) प्रेमी वह है जिसको यह सुन के ही दुख प्रतीत हो कि प्रभु से विछोड़ा होने लगा है। दीदार के बिना सच्चा प्रेमी आत्मिक मौत महसूस करता है। अपने प्यारे प्रभु से विछुड़ के प्रेमी का मन ठहरता नहीं (मन विहवल रहता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तट तीरथ देव देवालिआ केदारु मथुरा कासी ॥ कोटि तेतीसा देवते सणु इंद्रै जासी ॥ सिम्रिति सासत्र बेद चारि खटु दरस समासी ॥ पोथी पंडित गीत कवित कवते भी जासी ॥ जती सती संनिआसीआ सभि कालै वासी ॥ मुनि जोगी दिग्मबरा जमै सणु जासी ॥ जो दीसै सो विणसणा सभ बिनसि बिनासी ॥ थिरु पारब्रहमु परमेसरो सेवकु थिरु होसी ॥१८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तट तीरथ देव देवालिआ केदारु मथुरा कासी ॥ कोटि तेतीसा देवते सणु इंद्रै जासी ॥ सिम्रिति सासत्र बेद चारि खटु दरस समासी ॥ पोथी पंडित गीत कवित कवते भी जासी ॥ जती सती संनिआसीआ सभि कालै वासी ॥ मुनि जोगी दिग्मबरा जमै सणु जासी ॥ जो दीसै सो विणसणा सभ बिनसि बिनासी ॥ थिरु पारब्रहमु परमेसरो सेवकु थिरु होसी ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तट = नदी का किनारा। देवालिआ = देवताओं का घर, मन्दिर। सणु = समेत। खटु दरस = छह भेखों के साधु। समासी = समा जाएंगें, मर जाऐंगे। कविते = कवि लोग। कालै वासी = काल के वश, मौत के अधीन। दिगंबरा = (दिग+अंबर। दिग = दिशा। अंबर = कपड़ा) नागे। जमै सणु = जम के समेत।
अर्थ: देवताओं के मन्दिर, केदार मथुरा काशी आदि तीर्थ, तैंतिस करोड़ देवते, इन्द्र देवता भी- आखिर नाशवान हैं। चार वेद स्मृतियां शास्त्र आदि धार्मिक पुस्तकों (के पढ़ने वाले) और छहों भेषों के साधु जन भी अंत में चले जाएंगे। पुस्तकों के विद्वान, गीतों कविताओं के लिखने वाले कवि भी जगत से कूच कर जाएंगे। जती सती सन्यासी -ये सभी मौत के अधीन हैं। समाधियाँ लगाने वाले, जोगी, नांगे, जमदूत- ये भी नाशवान हैं।
(सिरे की बात) (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है वह नाशवान है, हरेक ने अवश्य नाश हो जाना है। सदा कायम रहने वाला केवल पारब्रहम परमेश्वर ही है। उसका भक्त ही पैदा होने-मरने से रहित हो जाता है।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक डखणे मः ५ ॥ सै नंगे नह नंग भुखे लख न भुखिआ ॥ डुखे कोड़ि न डुख नानक पिरी पिखंदो सुभ दिसटि ॥१॥
मूलम्
सलोक डखणे मः ५ ॥ सै नंगे नह नंग भुखे लख न भुखिआ ॥ डुखे कोड़ि न डुख नानक पिरी पिखंदो सुभ दिसटि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सै = सैकड़ों बार। नह नंग = नंग (की परवाह) नहीं होती, नंगे रहना दुखद नहीं लगता। लख = लाखों बार। न भुखिआ = भूख चुभती नहीं। डुख = दुख। कोड़ि = करोड़ों। सुभ दिसटि = अच्छी निगाह से। पिखंदो = देखे।
अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य की ओर) प्रभु-पति मेहर भरी निगाह से देखे, उसको नंग की परवाह नहीं रहती चाहे सैकड़ों बार नंगा रहना पड़े, उसको भूख नहीं चुभती चाहे लाखों बार भूखा रहना पड़े, उसको कोई दुख नहीं व्यापता चाहे करोड़ों बार दुख व्यापें।1।
[[1101]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ सुख समूहा भोग भूमि सबाई को धणी ॥ नानक हभो रोगु मिरतक नाम विहूणिआ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ सुख समूहा भोग भूमि सबाई को धणी ॥ नानक हभो रोगु मिरतक नाम विहूणिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समूह = ढेर (भाव, सारे)। भूमि = धरती। सबाई = सारी। धणी = मालिक। मिरतक = मृतक, मुर्दा, मरी हुई आत्मा वाला।
अर्थ: अगर किसी मनुष्य को सारे सुख भोगने को मिले हों, और वह सारी धरती का मालिक हो, (पर) हे नानक! अगर वह प्रभु के नाम से वंचित है उसकी आत्मा मुर्दा है, सारे सुख उसके लिए रोग के (समान) हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ हिकस कूं तू आहि पछाणू भी हिकु करि ॥ नानक आसड़ी निबाहि मानुख परथाई लजीवदो ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ हिकस कूं तू आहि पछाणू भी हिकु करि ॥ नानक आसड़ी निबाहि मानुख परथाई लजीवदो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिकस कूं = सिर्फ एक प्रभु को। आहि = (मिलने की) चाहत बना। पछाणू = पहचान वाला, मित्र। करि = बना। निबाहि = निबाहता है, पूरी करता है। परथाई = (प्रस्थान) चल के जाना, आसरा लेना। लजीवदो = लज्जा का कारण बनता है।
अर्थ: हे नानक! सिर्फ एक परमात्मा को मिलने की चाहत रख, एक परमात्मा को ही अपना मित्र बना, वही तेरी आशा पूरी करने वाला है। किसी मनुष्य का आसरा लेना लज्जा का कारण बनता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ निहचलु एकु नराइणो हरि अगम अगाधा ॥ निहचलु नामु निधानु है जिसु सिमरत हरि लाधा ॥ निहचलु कीरतनु गुण गोबिंद गुरमुखि गावाधा ॥ सचु धरमु तपु निहचलो दिनु रैनि अराधा ॥ दइआ धरमु तपु निहचलो जिसु करमि लिखाधा ॥ निहचलु मसतकि लेखु लिखिआ सो टलै न टलाधा ॥ निहचल संगति साध जन बचन निहचलु गुर साधा ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सदा सदा आराधा ॥१९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ निहचलु एकु नराइणो हरि अगम अगाधा ॥ निहचलु नामु निधानु है जिसु सिमरत हरि लाधा ॥ निहचलु कीरतनु गुण गोबिंद गुरमुखि गावाधा ॥ सचु धरमु तपु निहचलो दिनु रैनि अराधा ॥ दइआ धरमु तपु निहचलो जिसु करमि लिखाधा ॥ निहचलु मसतकि लेखु लिखिआ सो टलै न टलाधा ॥ निहचल संगति साध जन बचन निहचलु गुर साधा ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सदा सदा आराधा ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगाध = अथाह। निधानु = खजाना। लाधा = मिल जाता है। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। गवाधा = गाया जाता है। रैनि = रात। करमि = (प्रभु की) कृपा से। मसतकि = माथे पर। टलाधा = टालने से। पूरबि = पहले समय में।
अर्थ: सिर्फ अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह हरि-परमात्मा ही सदा-स्थिर रहने वाला है, उस हरि का नाम-खजाना भी ना खत्म होने वाला है, नाम स्मरण करने से परमात्मा मिल जाता है। गुरु की शरण पड़ के गाए हुए परमात्मा के गुणों का कीर्तन भी (ऐसा खजाना है जो) सदा कायम रहता है। दिन-रात प्रभु का स्मरण करना चाहिए, यही है सदा-स्थिर धर्म और यही है सदा कायम रहने वाला तप। पर यह अटल तप, दया और धर्म उसी को मिलता है जिसके भाग्यों में प्रभु की मेहर से लिखा गया है। माथे पर लिखा हुआ ये लेख ऐसा है कि किसी के टाले नहीं टल सकता।
साधु जनों की संगत (भी मनुष्य के जीवन के लिए एक) अटल (रास्ता) है, गुरु-साधु के वचन भी (मनुष्य की अगुवाई के लिए) अटल (बोल) हैं। पूर्बले जन्म में किए कर्मों के लेख जिनके माथे पर उघड़े हैं, उन्होंने सदा ही (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का स्मरण किया है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक डखणे मः ५ ॥ जो डुबंदो आपि सो तराए किन्ह खे ॥ तारेदड़ो भी तारि नानक पिर सिउ रतिआ ॥१॥
मूलम्
सलोक डखणे मः ५ ॥ जो डुबंदो आपि सो तराए किन्ह खे ॥ तारेदड़ो भी तारि नानक पिर सिउ रतिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन्ह खे = किन को? तारि = तैरते हैं।
अर्थ: जो मनुष्य स्वयं ही (संसार-समुंदर के विकारों की लहरों में) डूब रहा हो, वह और किसी को (कैसे) तैरा सकता है? हे नानक! जो मनुष्य पति-परमात्मा (के प्यार) में रंगे हुए हैं वह (इन मुश्किलों में से) स्वयं भी पार हो जाते हैं और औरों का भी उद्धार कर लेते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ जिथै कोइ कथंनि नाउ सुणंदो मा पिरी ॥ मूं जुलाऊं तथि नानक पिरी पसंदो हरिओ थीओसि ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ जिथै कोइ कथंनि नाउ सुणंदो मा पिरी ॥ मूं जुलाऊं तथि नानक पिरी पसंदो हरिओ थीओसि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथंनि = कहते हैं, उचारते हैं। मा पिरी = मेरे पिर का। मूं = मैं। जुलाऊँ = मैं जाऊँ। तथि = वहाँ। पिरी पसंदो = पिर को देख के। थीओसि = हो जाते हैं।
अर्थ: जिस जगह (भाव, साधु-संगत में) कोई (गुरमुख लोग) मेरे पति-प्रभु का नाम सुनते उचारते हों, मैं भी वहीं (चल के) जाऊँ। (क्योंकि) हे नानक! (साधु-संगत में) पिर का दीदार कर के (अपना आप) हरा हो जाता है (आत्मिक जीवन मिल जाता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ मेरी मेरी किआ करहि पुत्र कलत्र सनेह ॥ नानक नाम विहूणीआ निमुणीआदी देह ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ मेरी मेरी किआ करहि पुत्र कलत्र सनेह ॥ नानक नाम विहूणीआ निमुणीआदी देह ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। सनेह = प्यार, मोह। निमुणीआदी = बेबुनियादी, जिसकी नींव नहीं है, व्यर्थ जाने वाली। देह = काया, शरीर।
अर्थ: मोह में फंस के तू क्यों ये कहे जा रहा है कि ये मेरी स्त्री है यह मेरा पुत्र है? हे नानक! (मोह में फंस के) प्रभु के नाम से वंचित रहके ये शरीर जिसकी कोई बुनियाद नहीं (बिसात नहीं) (व्यर्थ चला जाएगा)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नैनी देखउ गुर दरसनो गुर चरणी मथा ॥ पैरी मारगि गुर चलदा पखा फेरी हथा ॥ अकाल मूरति रिदै धिआइदा दिनु रैनि जपंथा ॥ मै छडिआ सगल अपाइणो भरवासै गुर समरथा ॥ गुरि बखसिआ नामु निधानु सभो दुखु लथा ॥ भोगहु भुंचहु भाईहो पलै नामु अगथा ॥ नामु दानु इसनानु दिड़ु सदा करहु गुर कथा ॥ सहजु भइआ प्रभु पाइआ जम का भउ लथा ॥२०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नैनी देखउ गुर दरसनो गुर चरणी मथा ॥ पैरी मारगि गुर चलदा पखा फेरी हथा ॥ अकाल मूरति रिदै धिआइदा दिनु रैनि जपंथा ॥ मै छडिआ सगल अपाइणो भरवासै गुर समरथा ॥ गुरि बखसिआ नामु निधानु सभो दुखु लथा ॥ भोगहु भुंचहु भाईहो पलै नामु अगथा ॥ नामु दानु इसनानु दिड़ु सदा करहु गुर कथा ॥ सहजु भइआ प्रभु पाइआ जम का भउ लथा ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैनी = आँखों से। देखउ = देखूँ। पैरी = पैरों से। मारगि = रास्ते पर। फेरी = मैं फेरता हूँ। अपाइणो = स्वै भाव, अपनत्व। भरवासै गुर = गुरु के आसरे हो के। गुरि = गुरु ने। निधानु = खजाना। भाईहो = हे भाईयो! भुंचहु = खाओ। अगथा = अकथ प्रभु का। पलै = पल्ले (बाँधो), इकट्ठा करो। दानु = सेवा। इसनानु = (आचरण की) पवित्रता। सहजु = अडोलता।
अर्थ: मैं आँखों से गुरु के दर्शन करता हूँ, अपना माथा गुरु के चरणों में धरता हूँ, पैरों से मैं गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता हूँ, हाथों से मैं (गुरु की संगति को) पंखा करता हूँ। (इस संयम में रह कर) मैं परमात्मा का स्वरूप अपने हृदय में टिकाता हूँ और दिन-रात (उसका नाम) जपता हूँ।
सब ताकतों के मालिक गुरु में श्रद्धा धार के मैंने (माया वाली) सारी (मोह भरी) अपनत्व दूर कर ली है।
गुरु ने मुझे प्रभु का नाम-खजाना दिया है, (अब) मेरा दुख-कष्ट उतर गया है। हे भाईयो! (तुम भी) अकथ प्रभु के नाम-खजाने को (खुले दिल) से इस्तेमाल करो, और एकत्र करो। सदा गुरु की कहानियां करो, नाम जपो, सेवा करो और अपना आचरण पवित्र बनाओ। (इस तरह जब) मन की अडोलता बन जाती है, तब ईश्वर मिल जाता है, (फिर) मौत का डर भी दूर हो जाता है (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती)।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक डखणे मः ५ ॥ लगड़ीआ पिरीअंनि पेखंदीआ ना तिपीआ ॥ हभ मझाहू सो धणी बिआ न डिठो कोइ ॥१॥
मूलम्
सलोक डखणे मः ५ ॥ लगड़ीआ पिरीअंनि पेखंदीआ ना तिपीआ ॥ हभ मझाहू सो धणी बिआ न डिठो कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरीअंनि = पिर से। तिपीआ = तृप्त, संतुष्ट, अघाई हुई। हभ मझाहू = सब में। बिआ = दूसरा।
अर्थ: (मेरी आँखें) पति प्रभु के साथ लग गई हैं (अब ये आँखें उसको) देख-देख के तृप्त नहीं होती (थकती नहीं)। वह मालिक प्रभु (अब मुझे) सबमें (दिखाई दे रहा है), (मैंने कहीं भी उसके बिना उस जैसा) कोई दूसरा नहीं देखा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ कथड़ीआ संताह ते सुखाऊ पंधीआ ॥ नानक लधड़ीआ तिंनाह जिना भागु मथाहड़ै ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ कथड़ीआ संताह ते सुखाऊ पंधीआ ॥ नानक लधड़ीआ तिंनाह जिना भागु मथाहड़ै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथड़ीआ = कथा कहानियाँ, उपदेश के वचन। पंधीआ = रास्ता। सुखाऊ = सुख देने वाले। मथाहड़ै = माथे पर। तिंनाह = उनको।
अर्थ: संत-जनों के उपदेश-मयी वचन सुख दिखाने वाला राह हैं; (पर) हे नानक! ये वचन उनको ही मिलते हैं जिनके माथे पर (पूर्बले भले कर्मों के) भाग्य (उघड़ते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ डूंगरि जला थला भूमि बना फल कंदरा ॥ पाताला आकास पूरनु हभ घटा ॥ नानक पेखि जीओ इकतु सूति परोतीआ ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ डूंगरि जला थला भूमि बना फल कंदरा ॥ पाताला आकास पूरनु हभ घटा ॥ नानक पेखि जीओ इकतु सूति परोतीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डूंगरि = पहाड़ में। बना = जंगलों में। जला = पानियों में। थला = रेतीली धरती पर। कंदरा = गुफाओं में। पूरनु = व्यापक। पेखि = देख के। जीओ = मैं जीता हूँ, मेरे अंदर जान आ जाती है, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। इकतु = एक बार। सूति = सूत में।
अर्थ: पहाड़ों में, समुंद्रों में, रेतीली जगहों में, धरती में, जंगलों में, फलों में, गुफाओं में, पाताल आकाश में -सारे ही शरीरों में (परमात्मा) व्यापक है।
हे नानक! जिस प्रभु ने (सारी ही रचना को) एक ही धागे में (भाव, हुक्म में, मर्यादा में) पिरो के रखा है उसको देख-देख के मुझे आत्मिक जीवन मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि जी माता हरि जी पिता हरि जीउ प्रतिपालक ॥ हरि जी मेरी सार करे हम हरि के बालक ॥ सहजे सहजि खिलाइदा नही करदा आलक ॥ अउगणु को न चितारदा गल सेती लाइक ॥ मुहि मंगां सोई देवदा हरि पिता सुखदाइक ॥ गिआनु रासि नामु धनु सउपिओनु इसु सउदे लाइक ॥ साझी गुर नालि बहालिआ सरब सुख पाइक ॥ मै नालहु कदे न विछुड़ै हरि पिता सभना गला लाइक ॥२१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि जी माता हरि जी पिता हरि जीउ प्रतिपालक ॥ हरि जी मेरी सार करे हम हरि के बालक ॥ सहजे सहजि खिलाइदा नही करदा आलक ॥ अउगणु को न चितारदा गल सेती लाइक ॥ मुहि मंगां सोई देवदा हरि पिता सुखदाइक ॥ गिआनु रासि नामु धनु सउपिओनु इसु सउदे लाइक ॥ साझी गुर नालि बहालिआ सरब सुख पाइक ॥ मै नालहु कदे न विछुड़ै हरि पिता सभना गला लाइक ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सार = संभाल। सहजि = सहज अवस्था में, आत्मिक अडोलता में। आलक = आलस। को = कोई। सेती = साथ। लाइक = लगा लेता है। मंगां = मैं माँगता हूँ। सुखदायक = सुख देने वाला। सउपिओनु = उस (प्रभु) ने सौंपा है। साझी = भाईवाल। पाइक = सेवक। मै नालहु = मेरे साथ से। लाइक = लायक, समर्थ।
अर्थ: परमात्मा मेरा माता पिता है (माता-पिता की तरह मुझे) पालने वाला है। प्रभु मेरी संभाल करता है, हम प्रभु के बच्चे हैं। मुझे मेरा हरि अडोल अवस्था में टिका के जीवन-खेल खिला रहा है, (इस बात से रक्ती भर भी) आलस नहीं करता। मेरे किसी अवगुण को याद नहीं रखता, (सदा) अपने गले से (मुझे) लगाए रखता है। जो कुछ मैं मुँह से माँगता हूँ, मेरा सुखदायी पिता-प्रभु वही-वही दे देता है।
उस प्रभु ने मुझे अपने साथ जान-पहचान की पूंजी अपना नाम-धन सौंप दिया है, और मुझे ये सौदा करने के लायक बना दिया है। प्रभु ने मुझे सतिगुरु के साथ भाईवाल बना दिया है, (अब) सारे सुख मेरे दास बन गए हैं।
मेरा पिता-प्रभु कभी भी मुझसे विछुड़ता नहीं, सारी बातें करने के समर्थ है।21।
[[1102]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक डखणे मः ५ ॥ नानक कचड़िआ सिउ तोड़ि ढूढि सजण संत पकिआ ॥ ओइ जीवंदे विछुड़हि ओइ मुइआ न जाही छोड़ि ॥१॥
मूलम्
सलोक डखणे मः ५ ॥ नानक कचड़िआ सिउ तोड़ि ढूढि सजण संत पकिआ ॥ ओइ जीवंदे विछुड़हि ओइ मुइआ न जाही छोड़ि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कचड़िआ सिउ = उन से जिनकी प्रीति कच्ची है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जिनसे प्रीत सिर्फ माया के संबंध के कारण होती है, वह सदा कायम नहीं रह सकती। जायदाद के बँटवारे अथवा कई और स्वार्थों के कारण फीकी पड़ जाती है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ विछुड़हि = माया के आसरे बने हुए साक-संबंधी प्रीत तोड़ लेते हैं।
अर्थ: हे नानक! (माया के आसरे प्रीति डालने वालों की प्रीति का बंधन पक्का नहीं होता, सो) उनसे प्रीति तोड़ ले जिनकी प्रीति कच्ची है (उन्हें सदा निभने वाला साथी ना समझ)। गुरमुखों की संत-जनों की तलाश कर, उनकी प्रीति पक्की होती है (क्योंकि उनका) कोई स्वार्थ नहीं होता। स्वार्थी तो जीते-जी ही (दिल से) विछड़े रहते हैं, पर गुरमुख सत्संगी मरने पर भी साथ नहीं छोड़ते (प्रभु प्यार की दाति के लिए अरदास करते हैं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ नानक बिजुलीआ चमकंनि घुरन्हि घटा अति कालीआ ॥ बरसनि मेघ अपार नानक संगमि पिरी सुहंदीआ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ नानक बिजुलीआ चमकंनि घुरन्हि घटा अति कालीआ ॥ बरसनि मेघ अपार नानक संगमि पिरी सुहंदीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घुरनि = घुर घुर करती हैं, गरजती हैं। अति कालीआ = गाढ़े काले रंग वाली। मेघ = बादल। संगमि = मिलाप में। सुहंदीआ = सुंदर लगती हैं।
अर्थ: हे नानक! (सावन की ऋतु में जब) बादलों की घनघोर काली घटाएं गरजती हैं, (उनमें) बिजलिया चमकती हैं, और बादल मूसलाधार बरसते हैं (तब कैसा सुहावना समय होता है); पर ये काली घटाएं (स्त्रीयों को) पति के मिलाप में ही सुहावनी लगती हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ जल थल नीरि भरे सीतल पवण झुलारदे ॥ सेजड़ीआ सोइंन हीरे लाल जड़ंदीआ ॥ सुभर कपड़ भोग नानक पिरी विहूणी ततीआ ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ जल थल नीरि भरे सीतल पवण झुलारदे ॥ सेजड़ीआ सोइंन हीरे लाल जड़ंदीआ ॥ सुभर कपड़ भोग नानक पिरी विहूणी ततीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीरि = पानी से। जल थल = नदियां और मैदान। सीतल पवण = ठंडी हवाएं। झुलारदे = बहती हों। सोइंन = सोने की। सुभर कपड़ = शगनों के शाल।
अर्थ: हे नानक! (जेठ-आसाढ के महीने की तपती लू के बाद बरखा ऋतु में) नदियाँ और मैदान (बरसात के) पानी से भरे हुए हों, ठंडी हवाएं बहती हों, सोने का पलंग हो जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हों, शगनों के दुशाले पहने हुए हों, (पर अगर स्त्री का अपने) पति से विछोड़ा है तो (ये सारे सुहावने पदार्थ हृदय को सुख पहुँचाने की जगह) तपश पैदा करते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ कारणु करतै जो कीआ सोई है करणा ॥ जे सउ धावहि प्राणीआ पावहि धुरि लहणा ॥ बिनु करमा किछू न लभई जे फिरहि सभ धरणा ॥ गुर मिलि भउ गोविंद का भै डरु दूरि करणा ॥ भै ते बैरागु ऊपजै हरि खोजत फिरणा ॥ खोजत खोजत सहजु उपजिआ फिरि जनमि न मरणा ॥ हिआइ कमाइ धिआइआ पाइआ साध सरणा ॥ बोहिथु नानक देउ गुरु जिसु हरि चड़ाए तिसु भउजलु तरणा ॥२२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ कारणु करतै जो कीआ सोई है करणा ॥ जे सउ धावहि प्राणीआ पावहि धुरि लहणा ॥ बिनु करमा किछू न लभई जे फिरहि सभ धरणा ॥ गुर मिलि भउ गोविंद का भै डरु दूरि करणा ॥ भै ते बैरागु ऊपजै हरि खोजत फिरणा ॥ खोजत खोजत सहजु उपजिआ फिरि जनमि न मरणा ॥ हिआइ कमाइ धिआइआ पाइआ साध सरणा ॥ बोहिथु नानक देउ गुरु जिसु हरि चड़ाए तिसु भउजलु तरणा ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारणु = सबब। करतै = कर्तार ने। है करणा = (सबब) बनना है। सउ = सैकड़ों बार। धावहि = तू दौड़े। धुरि = (जो) धुर से (तेरे किए कर्मों के अनुसार प्रभु ने लिखा है)। करमा = करम, मेहर। धरणा = धरती। भै डरु = (दुनियां के) डरों का सहम। भै = डरों का। भै ते = (प्रभु के) डर से। सहजु = अडोल अवस्था। हिआइ = हृदय में। बोहिथु = जहाज।
अर्थ: हे प्राणी! जो सबब कर्तार ने बनाया है वही बनना है। अगर तू सैंकड़े बार दौड़ता फिरे, जो धुर से (तेरे किए कर्मों के अनुसार) लेना (लिखा) है वही प्राप्त करेगा। सारी धरती पर भी अगर भटकता फिरे, तो भी प्रभु की मेहर के बिना कुछ नहीं मिलेगा (इस वास्ते उसकी मेहर का पात्र बन)।
जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के परमात्मा का डर (हृदय में बसाया है), प्रभु ने उसका दुनियावी डरों का सहम दूर कर दिया है। परमात्मा के डर से ही दुनिया की तरफ से वैराग पैदा होता है मनुष्य प्रभु की खोज में लग जाता है। परमात्मा की खोज करते-करते (मनुष्य के अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, और उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है। जिसको गुरु की शरण प्राप्त हो गई, उसने हृदय में नाम स्मरण किया, नाम की कमाई की।
(हे प्राणी!) गुरु नानक देव (आत्मिक) जहाज है, हरि ने इस जहाज में जिसको बैठा दिया, उसने संसार-समुंदर को पार कर लिया।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ पहिला मरणु कबूलि जीवण की छडि आस ॥ होहु सभना की रेणुका तउ आउ हमारै पासि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ पहिला मरणु कबूलि जीवण की छडि आस ॥ होहु सभना की रेणुका तउ आउ हमारै पासि ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शलोक में गुरु अरजन साहिब परमात्मा की तरफ से हरेक प्राणी को संदेश देते हैं कि उसके नजदीक वही हो सकता है जिसने अहंकार को त्यागा है और निम्रता धारण की है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरणु = मौत, अहंकार की मौत। कबूलि = स्वीकार कर। रेणुका = चरण धूल। तउ = तब।
अर्थ: (परमात्मा की तरफ से संदेशा है: हे बँदे!) तब ही तू मेरे नजदीक आ सकता है, जब सबके चरणों की धूल हो जाए, पहले (अहंकार ममता का) त्याग स्वीकार करे, और (स्वार्थ-भरी) जिंदगी की तमन्ना छोड़ दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ मुआ जीवंदा पेखु जीवंदे मरि जानि ॥ जिन्हा मुहबति इक सिउ ते माणस परधान ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ मुआ जीवंदा पेखु जीवंदे मरि जानि ॥ जिन्हा मुहबति इक सिउ ते माणस परधान ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुआ = सांसारिक वासना की तरफ से मरा हुआ, जिसने सांसारिक वाशनाएं मिटा ली हैं। पेखु = देखो, समझो। मरि जान्हि = आत्मिक मौत मर जाते हैं। जीवंदे = निरे दुनिया के रंग भोगने वाले। मुहबति = प्यार। इक सिउ = एक प्रभु से। ते = वह (बहुवचन)। माणस = मनुष्य। परधान = श्रेष्ठ।
अर्थ: असल में उसी व्यक्ति को जीवित समझो जिसने सांसारिक वासनाएं मिटा ली हैं। जो निरे दुनियां के रंग भोगते हैं वे आत्मिक मौत मर जाते हैं। वही मनुष्य शिरोमणि (कहे जाते हैं), जिनका प्यार एक परमात्मा से है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ जिसु मनि वसै पारब्रहमु निकटि न आवै पीर ॥ भुख तिख तिसु न विआपई जमु नही आवै नीर ॥३॥
मूलम्
मः ५ ॥ जिसु मनि वसै पारब्रहमु निकटि न आवै पीर ॥ भुख तिख तिसु न विआपई जमु नही आवै नीर ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस मनि = जिस के मन में। निकटि = नजदीक। पीर = दुख-कष्ट। भुख तिख = माया की भूख प्यास। न विआपई = नहीं व्यापती, दबाव नहीं डाल सकती। जमु = मौत का डर। नीर = नजदीक।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में (सदा) परमात्मा (का नाम) बसता है, कोई दुख-कष्ट उसके नजदीक नहीं आता, माया की भूख-प्यास उस पर अपना दबाव नहीं डाल सकती, मौत का डर भी उसके नजदीक नहीं आता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ कीमति कहणु न जाईऐ सचु साह अडोलै ॥ सिध साधिक गिआनी धिआनीआ कउणु तुधुनो तोलै ॥ भंनण घड़ण समरथु है ओपति सभ परलै ॥ करण कारण समरथु है घटि घटि सभ बोलै ॥ रिजकु समाहे सभसै किआ माणसु डोलै ॥ गहिर गभीरु अथाहु तू गुण गिआन अमोलै ॥ सोई कमु कमावणा कीआ धुरि मउलै ॥ तुधहु बाहरि किछु नही नानकु गुण बोलै ॥२३॥१॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ कीमति कहणु न जाईऐ सचु साह अडोलै ॥ सिध साधिक गिआनी धिआनीआ कउणु तुधुनो तोलै ॥ भंनण घड़ण समरथु है ओपति सभ परलै ॥ करण कारण समरथु है घटि घटि सभ बोलै ॥ रिजकु समाहे सभसै किआ माणसु डोलै ॥ गहिर गभीरु अथाहु तू गुण गिआन अमोलै ॥ सोई कमु कमावणा कीआ धुरि मउलै ॥ तुधहु बाहरि किछु नही नानकु गुण बोलै ॥२३॥१॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अडोलै = हे कभी ना डोलने वाले! सिध = जोग साधना में सिद्धहस्त योगी। साधिक = साधना करने वाले। तोलै = मूल्य डाल सके। ओपति = उत्पक्ति। परलै = प्रलय, नाश। करण कारण = जगत को बनाने वाला, जगत का मूल। समाहे = पहुँचाता है। सभसै = हरेक जीव को। गहिर = गहरा। धुरि = धुर से। मउलै = मौला ने।
अर्थ: हे सदा-स्थिर और कभी ना डोलने वाले शाह! तेरा मूल्य नहीं आँका जा सकता। जोग-साधना में सिद्ध-हस्त योगी, साधना करने वाले (साधक), ज्ञान-चर्चा करने वाले- इनमें से कौन है जो तेरा मूल्य आँक सके?
(हे भाई!) प्रभु (सृष्टि को) पैदा करने और नाश करने के समर्थ है, (सृष्टि की) उत्पक्ति भी वही करता है और नाश भी वही। जगत पैदा करने की ताकत रखता है हरेक जीव के अंदर वही बोलता है। हरेक जीव को रिज़क पहुँचाता है, मनुष्य व्यर्थ ही घबराता है।
हे प्रभु! तू गहरा है समझदार है, तेरी थाह नहीं लगाई जा सकती। तेरे गुणों का मूल्य नहीं आँका जा सकता, तेरे ज्ञान का मूल्य नहीं पड़ सकता।
(हे भाई!) जीव वही काम करता है जो धुर से कर्तार ने उसके वास्ते मिथ दिया है (भाव, उसके किए कर्मों के अनुसार ही जिस तरह के संस्कार जीव के अंदर डाल दिए हैं)।
हे प्रभु! तुझसे आकी हो के (जगत में) कुछ नहीं घटित हो रहा। नानक तेरी ही महिमा करता है।23।1।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मारू बाणी कबीर जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मारू बाणी कबीर जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥ बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥ बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पडीआ = हे पाँडे! सिउ = समेत। अभागे = हे अभागे! 1। रहाउ।
अर्थ: हे पण्डित! तुम लोग किस कुमति में लगे हुए हो? हे अभागे पांडे! तुम प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते, सारे परिवार समेत ही (संसार-समुंदर में) डूब जाओगे।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥ राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥
मूलम्
बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥ राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुनु = लाभ। खर = गधा। जस = जैसे। भारा = भार, बोझ। गति = हालत, अवस्था। नाम की गति = नाम जपने की अवस्था, नाम जपने से जो आत्मिक अवस्था बनती है।1।
अर्थ: (हे पांडे!) तू (संसार-समुंदर से) कैसे पार होगा? तुझे इस बात की तो समझ ही नहीं पड़ी कि परमात्मा का नाम स्मरण करने से कैसी आत्मिक अवस्था बनती है। (तू माण करता है कि तूने वेद आदिक धर्म-पुस्तकें पढ़ी हुई हैं, पर) वेद-पुराण पढ़ने का कोई लाभ नहीं (अगर नाम से सूना रहा, ये तो दिमाग़ पर भार ही लाद लिया), जैसे किसी गधे पर चंदन लाद लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥
मूलम्
जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बधहु = बध करते हो, मारते हो (यज्ञों के समय)। थापहु = मिथ लेते हो। अधरमु = पाप। भाई = हे भाई! मुनिवर = श्रेष्ठ मुनि। का कउ = किस को? कसाई = जो मनुष्य बकरे आदि मार के उनका मांस बेच के गुजारा करते हैं।2।
अर्थ: (हे पांडे! एक तरफ तुम मांस खाने की निंदा करते हो; पर यज्ञ के वक्त तुम भी) जीव मारते हो (बलि देने के लिए, और) इस को धर्म का काम समझते हो। फिर, हे भाई! बताओ, पाप कौन सा है? (यज्ञ करने के वक्त तुम स्वयं भी जीव हिंसा करते हो, पर) अपने आप को तुम श्रेष्ठ ऋषि मानते हो। (अगर जीव मारने वाले लोग ऋषि हो सकते हैं,) तो तुम कसाई किसे कहते हो? (तुम) उन लोगों को कसाई क्यों कहते हो जो मांस बेचते है?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥ माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥
मूलम्
मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥ माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहि = और किस को? बुझावहु = समझाते हो। अबिरथा = व्यर्थ।3।
अर्थ: हे अज्ञानी पांडे! तुम्हें अपने आप को (जीवन के सही रास्ते की) समझ नहीं आई, हे भाई! और किस को समझा रहे हो? (इस पढ़ी हुई विद्या से तुम स्वयं ही कोई लाभ नहीं उठा रहे, इस) विद्या को सिर्फ माया की खातिर बेच ही रहे हो, इस तरह तुम्हारी जिंदगी व्यर्थ गुजर रही है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥ कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥
मूलम्
नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥ कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नारद बिआस, सुक = पुरातन हिन्दू विद्वान ऋषियों के नाम हैं।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: कबीर जी किसी पंडित को उसके भुलेखे के बारे में समझा रहे हैं, इसलिए उनके ही ऋषियों का ही हवाला देते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
जाइ = जा के। रमि = स्मरण करके। बूडे = डूबे समझो।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! (दुनिया के बंधनो से) प्रभु का नाम स्मरण करके ही मुक्त हो सकते हो, नहीं तो अपने आप को डूबा हुआ समझो। (अगर मेरी इस बात पर यकीन नहीं आता, तो अपने ही पुरातन ऋषियों के वचन पढ़-सुन के देख लो) नारद ऋषि के यही वचन हैं, व्यास यही बात कहते हैं, सुकदेव को भी जा के पूछ लो (भाव, सुकदेव के वचन पढ़ के भी देख लो, वह भी यही कहता है कि नाम स्मरण करने से पार उतारा होता है)।4।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: धार्मिक पुस्तको के निरे पाठ का कोई लाभ नहीं, अगर जीवन नहीं बदला।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥ जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥
मूलम्
बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥ जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनहि = बन में, जंगल में। जउ लउ = जब तक। मनहु = मन से। न तजहि = तू नहीं त्यागता। जिह = जिन्होंने। समसरि = बराबर, एक समान। पूरे = पूरन मनुष्य।1।
अर्थ: जब तक, (हे भाई!) तू अपने मन में से विकार नहीं छोड़ता, जंगल में जा बसने से परमात्मा कैसे मिल सकता है? जगत में संपूर्ण पुरख वही हैं जिन्होंने घर और जंगल को एक जैसा जान लिया है (भाव, गृहस्थ में रहते हुए भी त्यागी हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सार सुखु पाईऐ रामा ॥ रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सार सुखु पाईऐ रामा ॥ रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सार = श्रेष्ठ। रामा = प्रभु का नाम स्मरण करने से, प्रभु से। रंगि = प्रेम से। आतमै = आत्मा में, अपने अंदर। रवहु = स्मरण करो।1। रहाउ।
अर्थ: असल श्रेष्ठ सुख प्रभु का नाम स्मरण करने से ही मिलता है; (इस वास्ते हे भाई!) अपने हृदय में ही प्रेम से राम का नाम स्मरण करो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥ मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥
मूलम्
जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥ मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीह = क्या हुआ? कोई लाभ नहीं। बिखिआ ते = माया से।2।
अर्थ: अगर तुम जटा (धार के उन पर) राख लगा ली, या किसी गुफा में जा कर डेरा लगा लिया, तो भी क्या हुआ? (माया का मोह इस तरह नहीं छोड़ता)। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया है उन्होंने (मानो) सारे जगत को जीत लिया, क्योंकि मन जीतने से ही माया से उपराम हुआ जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥ गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥
मूलम्
अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥ गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। देइ = देता है, पाता है। टुकु = थोड़ा सा, रक्ती भर। चाहन = चाहत, भावना, नीयत। बिडानु = भेद, फर्क। जिह = जिन्होंने। लोइन = आँखें।3।
अर्थ: हर कोई (आँख में) सुरमा डाल लेता है, पर (सुरमा डालने वाले की) नीयत में फर्क हुआ करता है (कोई सुरमा डालता है विकारों के लिए, और कोई आँखों की नजर अच्छी रखने के लिए। वैसे ही, माया के बंधनो से निकलने के लिए उद्यम करने की आवश्यक्ता है, पर उद्यम उद्यम में फर्क है) वहीं आँखें (प्रभु की नज़र में) स्वीकार हैं जिन्होंने (गुरु के) ज्ञान का सुरमा डाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥ अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥
मूलम्
कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥ अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अंतरगति = अंदर हृदय में बैठा हुआ। भेटिआ = मिला। कतहू = और किस तरफ।4।
अर्थ: कबीर कहता है: मुझे मेरे गुरु ने (जीवन के सही रास्ते का) ज्ञान बख्श दिया है। मुझे अब समझ आ गई है। (गुरु की कृपा से) मेरे अंदर बैठा हुआ परमात्मा मुझे मिल गया है, मेरा मन (जंगल गुफा आदि) किसी और तरफ नहीं जाता।4।2।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: गृहस्थ को त्यागने से असल सुख की प्राप्ति नहीं होती। विकार तो अंदर ही टिके रहते हैं। गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का स्मरण करो, इस तरह गृहस्थ में रहते हुए ही त्यागी रहोगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥ तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥
मूलम्
रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥ तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस मनुष्य को। रिधि सिधि फुरी = रिद्धियां सिद्धियां जाग उठती हैं, सोचने से ही रिद्धियां सिद्धियां हो जाती हैं। काहू सिउ = किसी और से। काज = काम, अधीनता। कहने की = (सिर्फ मुँह से कही) बातों की। किआ कहउ = मैं क्या कहूँ? लाज = शर्म।1।
अर्थ: (हे जोगी! तू कहता है, ‘मुझे रिद्धियां-सिद्धियां आ गई हैं’, पर) तेरे निरी (ये बात) कहने की हालत मैं क्या बताऊँ? मुझे तो बात करते हुए शर्म आती है। (भला, हे जोगी!) जिस मनुष्य के सिर्फ सोचने से ही रिद्धियां-सिद्धियां हो जाएं, उसको किसी और की अधीनता कहाँ रह जाती है? (और तू अभी भी मुथाज हो के लोगों के दर पर भटकता फिरता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु जिह पाइआ राम ॥ ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामु जिह पाइआ राम ॥ ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह = जिस मनुष्यों ने। ते = वह लोग। बारै बार = दर-दर पर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जोगी!) जिस लोगों को सचमुच परमात्मा मिल जाता है, वह (भिक्षा माँगने के लिए) दर-दर पर नहीं भटकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥ राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥
मूलम्
झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥ राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डहकै = भटकता है। घना = बहुत। दिन दुइ = दो दिनों के लिए। उदकु = जल, अमृत। तिहि = उनको। बहुरि = दोबारा।2।
अर्थ: दो-चार दिन (माया) बरतने की आस में ही यह झूठा जगत कितना भटकता फिरता है। (हे जोगी!) जिस लोगों ने प्रभु का नाम-अमृत पीया है, उनको फिर माया की प्यास नहीं लगती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥ सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥
मूलम्
गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥ सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह = जिस मनुष्य ने। निरासु = आशा रहित। सभु = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। उदासु = उपराम।3।
अर्थ: गुरु की कृपा से जिस ने (सही जीवन) समझ लिया है, वह आशाएं त्याग के आशाओं से ऊँचा हो जाता है, क्योंकि जब मनुष्य अंदर से माया से उपराम हो जाए तो उसको हर जगह प्रभु दिखाई देता है (माया की तरफ उसकी निगाह नहीं पड़ती)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥ कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥
मूलम्
राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥ कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हर तारि = हर तालि, हरेक ताल में, हरेक करिश्मे में। कंचनु = सोना। भ्रमु = भुलेखा, भटकना।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का स्वाद चख लिया है, उसको हरेक करिश्में में प्रभु का नाम ही दिखता और सुनता है, वह शुद्ध सोना बन जाता है, उसकी भटकना समुंदर के पार चली जाती है (सदा के लिए मिट जाती है)।4।3।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जिस मनुष्य को परमात्मा मिल जाता है, वह मंगतों की तरह दर-व-दर भटकता नहीं फिरता। वह शुद्ध सोना बन जाता है। उसको हर जगह परमात्मा ही दिखता है। उसको किसी की अधीनता नहीं रहती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥ सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥
मूलम्
उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥ सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदक = पानी। सलल = पानी। साखिआ = (की) तरह। तरंग = लहरें। समावहिगे = हम समा गए हैं, मैं लीन हो गया हूँ। सुंनहि = शून्य में, अफुर प्रभु में। सुंनु = अफुर हुई आत्मा। मिलिआ = मिल गया है। सम = समान, बराबर। पवन रूप = हवा की तरह। पवन रूप होइ जावहिगे = हम हवा की तरह हो गए हैं, जैसे हवा हवा में मिल जाती है वैसे ही मैं भी।1।
अर्थ: जैसे पानी समुंदर के पानी में मिल के एक-रूप हो जाता है, जैसे नदी के पानी की लहरें नदी के पानी में लीन हो जाती हैं, जैसे हवा हवा में मिल जाती है, वैसे ही वासना-रहित हुआ मेरा मन अफुर-प्रभु में मिल गया है, और अब मुझे हर जगह प्रभु ही दिखाई दे रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरि हम काहे आवहिगे ॥ आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बहुरि हम काहे आवहिगे ॥ आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहुरि = दोबारा, फिर। हम = मैं। बुझि = समझ के।1। रहाउ।
अर्थ: मैं फिर कभी (जनम मरण के चक्कर में) नहीं आऊँगा। ये जनम-मरण का चक्कर प्रभु की रज़ा (के अनुसार) ही है, मैं उस रज़ा को समझ के (रज़ा में) लीन हो गया हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥ दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥
मूलम्
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥ दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब = अब जब। चूकै = समाप्त हो गई है। पंच धातु की रचना = पाँच तत्वी शरीर की खेल, पांच तत्वी शरीर का मोह, देह अभ्यास, शरीर के दुख सुख की सोच। ऐसे = इस तरह। चुकावहिगे = मैंने खत्म कर दिए हैं। दरसनु = भेखु, किसी भेस की उच्चता का ख्याल। धिआवहिगे = मैं स्मरण करता हूँ।2।
अर्थ: अब जब (प्रभु में लीन होने के कारण) मेरा पाँच-तत्वी शरीर का मोह समाप्त हो गया है, मैंने अपना भुलेखा भी ऐसें समाप्त कर लिया है कि किसी खास भेस (की महत्वता का विचार) छोड़ के मुझे सबमें ही परमात्मा दिखता है, मैं एक प्रभु का नाम ही स्मरण कर रहा हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥ हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥
मूलम्
जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥ हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस तरफ। हम = हमें, मुझे। लागे = मैं लगा हुआ हूँ। कमावहिगे = मैं कमा रहा हूँ। समावहिगे = मैं समा रहा हूँ।3।
अर्थ: (पर, ये प्रभु की अपनी ही मेहर है) जिस तरफ उसने मुझे लगाया है मैं उधर ही लग पड़ा हूँ (जिस प्रकार के काम वह मुझसे करवाता है) वैसे ही काम मैं कर रहा हूँ। जब भी (जिस पर) प्रभु जी अपनी मेहर करते हैं, वह गुरु के शब्द में लीन हो जाते हैं।3।
[[1104]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जनमु न होई ॥ कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥
मूलम्
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जनमु न होई ॥ कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: हरेक तुक के आखिर में अक्षर ‘गे’ को छंदबंदी के रूप में ही समझना, किसी भविष्य काल की बात नहीं कर रहे। नाम स्मरण से जो हालत बँदगी वाले की बनती है, उसका वर्णन है। स्मरण ने अभी ही, इसी वक्त, इसी जीवन में ही तब्दीली लानी है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवत = जीते हुए ही, दुनिया में रहते हुए ही। मरहु = विषय विकारों से मर जाओ। फुनि = दोबारा, आत्मिक जीवन की ओर। पुनरपि = (पुनः +अपि) फिर भी, फिर कभी। नामि = नाम में। सुंन = अफुर प्रभु। सोई = वही मनुष्य।4।
अर्थ: (हे भाई!) गृहस्थ में रहते हुए ही (पहले) विकारों से मरो। जब इस तरह मरोगे, तो फिर आत्मिक जीवन की तरफ जी उठोगे। फिर कभी जनम (मरण का चक्कर) नहीं होगा। हे कबीर! कह: जो जो मनुष्य प्रभु के नाम में लीन होता है वह अफुर-प्रभु में तवज्जो जोड़े रखता है।4।4।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु के नाम में जुड़ने से प्रभु की समझ पड़ती है। रज़ा में चलने से प्रभु के साथ इस तरह एक-मेक हुआ जाता है, जैसे नदी की लहरें नदी के पानी के साथ, जैसे हवा हवा के साथ। फिर जनम-मरण के चक्कर की कोई संभावना नहीं रह जाती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥ एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥
मूलम्
जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥ एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = अगर। मो कउ = मुझे। दूर करत हउ = तू (मुझे) अपने चरणों से विछोड़ दे। भरमावहु = मुझे भुलेखे में डालता है।1।
अर्थ: हे राम! अगर तू मुझे अपने चरणों से विछोड़ दे, तो बता और मुक्ति क्या है? तू एक प्रभु अनेक रूप धार के सारे जीवों में व्यापक है (मेरे अंदर भी बैठ के मुझे मिला हुआ है)। अब मुझे किसी और भुलेखे में क्यों डालता है (कि मुक्ति किसी और जगह किसी और किस्म की मिलेगी)?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥ सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥ सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे राम! तरि = तार ले। कहा = (अपने चरणों से परे और) कहाँ? लै जई है = ले जाएगा? सोधउ = मैं पूछता हूँ। कैसी = किस प्रकार की (मुक्ति)? प्रसादु = कृपा। मोहि = मैंने। पाई है = पा ली है।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! (मैं तो पहले ही तेरे चरणों में जुड़ा बैठा हूँ। लोग कहते हैं कि मरने के बाद मुक्ति मिलती है) मुझे संसार समुंदर से पार और कहाँ ले जाएगा? (तेरे चरणों में टिके रहना ही मेरे लिए मुक्ति है। अगर तेरे चरणों में जुड़े रहना मुक्ति नहीं है, तो) मैं पूछता हूँ- वह मुक्ति कैसी होगी, तथा मुझे और कहाँ ले जा के तू देगा? (तेरे चरणों में जुड़े रहने वाली मुक्ति तो) तेरी कृपा से मैंने पहले ही प्राप्त की हुई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥ अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥
मूलम्
तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥ अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तारन = (किसी को संसार समुंदर से) पार लंघाना। तरनु = तैरना, पार लांघना। कहीऐ = (ये बात) कही जाती है। ततु = सारे संसार का मूल प्रभु। न जानिआ = जान पहचान नहीं की, सांझ नहीं डाली, नहीं जाना। बिमल = पवित्र। घट ही महि = हृदय में ही। मानिआ = मान गया है।2।
अर्थ: संसार-समुंदर से पार लंघाना और पार लांघना- ये बात तब तक ही कही जाती है, जब तक जगत के मूल प्रभु के साथ सांझ नहीं डाली जाती। कबीर कहता है: मैं तो अब हृदय में ही (तेरे मिलाप की इनायत से) पवित्र हो चुका हूँ मेरा मन (तेरे साथ ही) परच गया है (मुझे किसी और मुक्ति की आवश्यक्ता नहीं रही)।2।5।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु के चरणों में सदा तवज्जो जुड़े रहने का नाम ही मुक्ति है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥
मूलम्
जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (रावण) ने। गढ़ कोट = किले। कंचन = सोना।1।
अर्थ: जिस रावण ने सोने के किले बनवाए (बताया जाता है), वह भी (वह किले यहीं पर ही) छोड़ गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे कीजतु है मनि भावनु ॥ जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे कीजतु है मनि भावनु ॥ जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। मनि भावनु = अपने मन में (पैदा हुई) मर्जी, मन मर्जी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! क्यों अपनी मन-मर्जी करता है? जब जमदूत आ के केसों से पकड़ लेता है (भाव, जब मौत सिर पर आ जाती है) उस वक्त परमात्मा का नाम ही (उस मौत के सहम से) बचाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥ कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥
मूलम्
कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥ कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकालु = मौत रहित, अमोड़। परपंचु = जगत। बधावनु = बंधन। कहि = कहे, कहता है। अंते = आखिर को। मुकते = परपंच रूप बंधन से आजाद। रसाइनु = रस+आयन, रसों का घर।2।
अर्थ: कबीर कहता है: ये अमोड़ मौत और बंधन-रूप ये जगत परमात्मा के ही बनाए हुए हैं। इन से बचते वही हैं जिनके हृदय में सब रसों का घर परमात्मा का नाम मौजूद है।2।6।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: धन-पदार्थ के गुमान में आ के मन की मौजों में नहीं फसना चाहिए। इनके साथ सदा साथ नहीं निभता। आखिर मौत आ पुकारती है। मौत के सहम से बचाने वाला एक नाम ही है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: देखें रहाउ की तुक। साधारण सा जिक्र करने के समय जमों का केसों से आ के पकड़ने का मुहावरा कबीर जी प्रयोग करते हैं। क्या इसका भाव ये नहीं कि कबीर जी केसाधारी थे?
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना ॥ नैनू नकटू स्रवनू रसपति इंद्री कहिआ न माना ॥१॥
मूलम्
देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना ॥ नैनू नकटू स्रवनू रसपति इंद्री कहिआ न माना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। गावा = गाँव, नगर। जीउ = जीव, आत्मा। धर महतउ = धरती का चौधरी। किरसान = मुज़ारे। बसहि = बसते हैं। नैनूं = आँखें। नकटू = नाक। स्रवनू = कान। रस पति = रसों का पति, जीभ।1।
अर्थ: ये मानव शरीर (मानो एक) नगर है, जीव इस (नगर की) धरती का चौधरी है, इसमें पाँच किसान बसते हैं: आँख, नाक, कान, जीभ और (काम-वासना वाली) इन्द्रीय। ये पाँचों ही जीव-चौधरी का कहा नहीं मानते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा अब न बसउ इह गाउ ॥ घरी घरी का लेखा मागै काइथु चेतू नाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा अब न बसउ इह गाउ ॥ घरी घरी का लेखा मागै काइथु चेतू नाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न बसउ = न बसूँ, मैं नहीं बसूँगा। काइथु = कायस्थ (उधर आम तौर पर कायस्थ ही पढ़े-लिखे और पटवारी होते थे), पटवारी। चेतू = चित्र गुप्त।1। रहाउ।
अर्थ: हे बाबा! अब मैंने इस गाँव में नहीं बसना, जहाँ रहने पर वह पटवारी जिसका नाम चित्रगुप्त है, हरेक घड़ी का लेखा माँगता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरम राइ जब लेखा मागै बाकी निकसी भारी ॥ पंच क्रिसानवा भागि गए लै बाधिओ जीउ दरबारी ॥२॥
मूलम्
धरम राइ जब लेखा मागै बाकी निकसी भारी ॥ पंच क्रिसानवा भागि गए लै बाधिओ जीउ दरबारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाकी = वह रकम जो जिम्मे निकले। वा = वह। दरबारी = दरबारियों ने।2।
अर्थ: (जो जीव इन पाँचों के अधीन हो के रहता है) जब धर्मराज (इस जीवन में किए कामों का) हिसाब माँगता है (उसके जिम्मे) बहुत कुछ देना (बकाया) निकलता है। (शरीर गिर जाने पर) वह पाँच किसान तो भाग जाते हैं पर जीव को (लेखा माँगने वाले) दरबारी बाँध लेते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु खेत ही करहु निबेरा ॥ अब की बार बखसि बंदे कउ बहुरि न भउजलि फेरा ॥३॥७॥
मूलम्
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु खेत ही करहु निबेरा ॥ अब की बार बखसि बंदे कउ बहुरि न भउजलि फेरा ॥३॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेत ही = खेत में ही, इसी शरीर में ही, इसी जनम में ही। भउजलि = संसार समुंदर में।3।
अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनों! सुनो, इसी ही मनुष्य जन्म में (इन इन्द्रियों का) हिसाब खत्म कर दो (और, प्रभु के आगे नित्य अरदास करो) - हे प्रभु! इसी ही बार (भाव, इसी ही जन्म में) मुझे अपने सेवक को बख्श ले, इस संसार-समुंदर में मेरा फिर फेरा ना हो।3।7।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: आँख, कान, नाक आदि इंद्रिय मनुष्य को बार-बार विकारों की तरफ प्रेरित करते हैं। इनकी बुरी प्रेरणा से बचने के लिए एक ही तरीका है: परमात्मा के दर पर नित्य अरदास करनी चाहिए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मारू बाणी कबीर जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मारू बाणी कबीर जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥ बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥
मूलम्
अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥ बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनभउ = (संस्कृत: अनुभव = Direct perception or cognition) झलकारा, आत्मिक ज्ञान। किनै = किसी मनुष्य ने। न देखिआ = परमात्मा को इन आँखों से नहीं देखा। बैरागीअड़े = हे अंजान बैरागी! बिनु भै = सांसारिक डरों से रहित। होइ = होता है, प्रकट होता है। वणाहंबै = ये शब्द छंद की सिर्फ पद पूर्ती के लिए है, इसका कोई अर्थ नहीं है, जैसे ‘फुनहे’ की वाणी मैं शब्द ‘हरिहां’ है।1।
अर्थ: हे अंजान बैरागी! (परमात्मा को इन आँखों से कभी) किसी ने नहीं देखा, उसका तो आत्मिक झलकारा ही बसता है। और, ये आत्मिक झलकारा तब बजता है, जब मनुष्य दुनिया के डरों से रहित हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥ हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥
मूलम्
सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥ हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हदूरि = हाजर नाजर, अंग संग। भउ = परमात्मा का डर। पवै = (हृदय में) टिकता है। निरभउ = दुनिया के डरों से रहित।2।
अर्थ: हे अंजान बैरागी! जो मनुष्य परमात्मा-पति को हर वक्त अंग-संग समझता है, उसके अंदर उसका डर पैदा होता है (कि प्रभु हमारे सारे किए कर्मों को देख रहा है)। इस डर की इनायत से (मनुष्य) उस प्रभु का हुक्म समझता है (भाव, ये समझने की कोशिश करता है कि हम जीवों को कैसे जीना चाहिए) तो सांसारिक डरों से रहित हो जाता है (क्योंकि रज़ा को समझ के सांसारिक डरों वाले काम करने छोड़ देता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥ पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥
मूलम्
हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥ पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाखंडि = पाखण्ड में। रता = रंगा हुआ। लोकु = जगत।3।
अर्थ: हे अंजान बैरागी! (ये तीर्थ आदि करके) परमात्मा के साथ ठगी ना करें, सारा जगत (तीर्थ आदि करने के वहिण में पड़ कर) पाखण्ड में व्यस्त है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥ ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥
मूलम्
त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥ ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पासु = पासा, साथ। जालिआ = जला दिया है। पिंडु = शरीर।4।
अर्थ: हे अंजान बैरागी! (पाखण्ड कर्म करने से) तृष्णा खलासी नहीं करती, बल्कि माया की ममता शरीर को जला देती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥ जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥
मूलम्
चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥ जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जालि = जला के। तनु = शरीर, शरीर का मोह। मिरतकु = मृतक, मुर्दा, तृष्णा ममता की ओर से मुर्दा।5।
अर्थ: हे अंजान बैरागी! अगर मनुष्य का मन (तृष्णा ममता की ओर से) मर जाए, (तो वह सच्चा बैरागी बन जाता है, उस ऐसे बैरागी ने) चिन्ता जला के शरीर (का मोह) जला लिया है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥ जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥
मूलम्
सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥ जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागु = तृष्णा ममता की ओर से उपरामता। सभु कोइ = हरेक जीव।6।
अर्थ: (पर) हे अंजान बैरागी! सतिगुरु (की शरण आए) बिना (हृदय में) बैराग पैदा नहीं हो सकता, चाहे कोई कितनी ही चाहत करे।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥ सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥
मूलम्
करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥ सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। सहजे = सहज अवस्था में टिक के, तृष्णा आदि में डोलने से हट के।7।
अर्थ: (और) हे अंजान बैरागी! सतिगुरु तब मिलता है जब (प्रभु की) कृपा हो, वह मनुष्य (फिर) सहजे ही (बैराग) प्राप्त कर लेता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥ मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥
मूलम्
कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥ मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। भउजलु = संसार समुंदर।8।
अर्थ: हे कबीर! कह: हे अंजान बैरागी! (पाखण्ड से कुछ नहीं सँवरना, प्रभु के आगे) इस तरह अरदास कर, ‘हे प्रभु! मुझे संसार-समुंदर से पार लंघा ले”।8।1।8।
[[1105]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन कउनु तुमारै आवै ॥ ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राजन कउनु तुमारै आवै ॥ ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजन = हे राजा दुर्योधन! तुमारै = तुम्हारी तरफ। भाउ = प्यार। मोहि = मुझे। भावै = अच्छा लगता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे राजा (दुर्योधन)! तेरे घर कौन आए? (मुझे तेरे घर आने की उत्सुक्ता ही नहीं हो सकती)। मैंने बिदर का इतना प्रेम देखा है कि वह गरीब (भी) मुझे प्यारा लगता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हसती देखि भरम ते भूला स्री भगवानु न जानिआ ॥ तुमरो दूधु बिदर को पान्हो अम्रितु करि मै मानिआ ॥१॥
मूलम्
हसती देखि भरम ते भूला स्री भगवानु न जानिआ ॥ तुमरो दूधु बिदर को पान्हो अम्रितु करि मै मानिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हसती = हाथी। भरम ते = भुलेखे से। भूला = ईश्वर को भुला बैठा है। पान्हो = (पान्हो) पानी।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पानो्’ (पान्हो) अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: तू हाथी (आदि) देख के मान में आ के टूट चुका है, परमात्मा को भुला बैठा है। एक तरफ तेरा दूध है, दूसरी तरफ बिदर का पानी है; ये पानी मुझे अमृत दिखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खीर समानि सागु मै पाइआ गुन गावत रैनि बिहानी ॥ कबीर को ठाकुरु अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी ॥२॥९॥
मूलम्
खीर समानि सागु मै पाइआ गुन गावत रैनि बिहानी ॥ कबीर को ठाकुरु अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी ॥२॥९॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कृष्ण जी एक बार हस्तिनापुर गए। राज कौरवों का था। कौरव राज-मद में ये सोचते रहे कि कृष्ण जी हमारे पास ही आएंगे। पर वे अपने गरीब भक्त बिदर के घर चले गए। राजा दुर्योधन ने ये गिला किया। कृष्ण जी ने ये उक्तर दिया कि तुमको अपने राज-पाट का मान है, बिदर भले ही गरीब है, उसके पास रहने से समय भजन-भक्ति में गुजारा है। इस शब्द में कबीर जी कृष्ण जी के दुर्योधन को दिए गए उक्तर का हवाला देते हुए कहते हैं कि प्रभु को किसी का ऊँचा दर्जा व ऊँचा जाति स्वीकार नहीं, उसको प्रेम ही अच्छा लगता है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैनि = रात। बिनोदी = चोज तमाशे करने वाला, मौज का मालिक। न मानी = नहीं माना, परवाह नहीं करता।2।
अर्थ: (बिदर के घर का पकाया हुआ) साग (तेरी रसोई की पकी) खीर जैसा मुझे (मीठा) लगता है, (क्योंकि बिदर के पास रह कर मेरी) रात प्रभु के गुण गाते हुए बीती है। कबीर का मालिक प्रभु आनंद और मौज का मालिक है (जैसे उसने कृष्ण-रूप में आ के किसी ऊँचे मरातबे की परवाह नहीं की, वैसे) वह किसी की ऊँची जाति की परवाह नहीं करता।2।9।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा प्यार का भूखा है। किसी के ऊँचे दर्जे व ऊँची जाति उसको प्रभावित नहीं कर सकती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक कबीर ॥ गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ ॥ खेतु जु मांडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ ॥१॥
मूलम्
सलोक कबीर ॥ गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ ॥ खेतु जु मांडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गगन = आकाश, दसवां द्वार, दिमाग़। दमामा = धौंसा। परिओ घाउ = चोट लगी है। नीसानै = निशाने पर, ठीक ठिकाने पर, हृदय में। परिओ नीसानै घाउ = हृदय में खींच पड़ी है प्रभु चरणों की ओर। खेतु = लड़ाई का मैदान, रण भूमि। जु = जो मनुष्य। मांडिओ = घेर के बैठा है। खेतु जु मांडिओ = जो मनुष्य मैदानि-जंग संभाल के बैठा है, जो मनुष्य इस जगत रूपी रण-भूमि में दलेर हो के विकारों के मुकाबले में डट गया है। अब = अब का समय, मनुष्य जनम। जूझन को दाउ = (कामादिक वैरियों से) लड़ने का मौका है।1।
अर्थ: जो मनुष्य इस जगत-रूपी रण-भूमि में वीर हो के विकारों के मुकाबले में डट के खड़ा है, और यह समझता है कि ये मानव-जीवन ही मौका है जब इनके साथ लड़ा जा सकता है, वह है असली शूरवीर (सूरमा)। उसके दसवाँ-द्वार पर धौंसा बजता है, उसके निशाने पर चोट लगती है (भाव, उसका मन प्रभु-चरणों में ऊँची उड़ानें लगाता है, जहाँ किसी विकार की सुनवाई नहीं हो सकती, उसके हृदय में प्रभु-चरणों से जुड़े रहने की कसक पड़ती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूरा सो पहिचानीऐ जु लरै दीन के हेत ॥ पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु ॥२॥२॥
मूलम्
सूरा सो पहिचानीऐ जु लरै दीन के हेत ॥ पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हाँ, एक और भी शूरवीर है) उस मनुष्य को भी सूरमा समझना चाहिए जो गरीबों की खातिर लड़ता है, (गरीब के लिए लड़ता-लड़ता) टुकड़े-टुकड़े हो के मरता है, पर लड़ाई के मैदान को कभी नहीं छोड़ता (पर पीछे को पैर नहीं हटाता, अपनी जान बचाने के लिए गरीब की पकड़ी हुई बाँह नहीं छोड़ता)।2।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दुनिया के लोग सूरमा मर्द उसको कहते हैं जिसके महलों के सामने दमामे बजते हैं, और जो मैदाने-जंग में वैरियों का मुकाबला करता है। पर सारा जगत ही एक रण-भूमि है, यहाँ हरेक व्यक्ति को विकार वैरियों के साथ मुकाबला करना पड़ता है। असल सूरमा वह है जो इन वैरियों के मुकाबले में डट के खड़ा है और समझता है कि ये मानव-जीवन ही मौका है जब ये जंग जीती जा सकती है।
नोट: जिस मनुष्य का धरती पर राज हो, जिसका छत्र ‘बारह जोजन’ झूलता हो, उसको गिला करना और उसको निडर हो के खरा उक्तर देना कि तेरे से ज्यादा मुझे वह गरीब अच्छा लगता है, जिसके अंदर ईश्वर का प्यार है; ये काम किसी विरले शूरवीर का है, हरेक की ये हिम्मत नहीं पड़ सकती। पर वह सूरमा वही हो सकता है जिसने कामादिक को वश में करके दुनिया की कोई अधीनता नहीं रखी।
‘राजन कउन तुमारै आवै’ शब्द के भाव से इन उपरोक्त शलोकों का भाव काफी हद तक मिलता-जुलता था, इस वास्ते कबीर जी के ये दोनों शलोक बाकी शलोकों के अलग यहाँ दर्ज किए गए हैं। इन शलोकों की गिनती शबदों से अलग नहीं मानी गई, आखिरी शब्द का दूसरा हिस्सा ही माना गया है, और दोनों शलोकों के आखिर में अंक 2 बरता गया है।
(इन शलोकों के बारे में और विचार पढ़ने के लिए मेरी पुस्तक ‘सरबत दा भला’ में देखें मेरा लेख ‘ओहु गरीबु मोहि भावै’। ‘सिंघ ब्रदर्स’ बाजार माई सेवा अमृतसर से मिलती है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबीर का सबदु रागु मारू बाणी नामदेउ जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
कबीर का सबदु रागु मारू बाणी नामदेउ जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि मुकति चारै सिधि मिलि कै दूलह प्रभ की सरनि परिओ ॥ मुकति भइओ चउहूं जुग जानिओ जसु कीरति माथै छत्रु धरिओ ॥१॥
मूलम्
चारि मुकति चारै सिधि मिलि कै दूलह प्रभ की सरनि परिओ ॥ मुकति भइओ चउहूं जुग जानिओ जसु कीरति माथै छत्रु धरिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि मुकति = चार किस्म की मुक्तियाँ (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य। सालोक्य = अपने ईष्ट के साथ एक ही लोक में बसना। सामीप्य = ईष्ट के समीप नजदीक हो जाना। सरूप्य = ईष्ट के साथ एक रूप हो जाना। सायुज्य = अपने ईष्ट के साथ जुड़ जाना, उसमें लीन हो जाना)। चारै = ये चारों ही मुक्तियां। सिधि मिल कै = (चार मुक्तियां व अठारह) सिद्धियां साथ मिल के। दूलह की = पति की। जानिओ = मशहूर हो गया। जसु = शोभा।1।
अर्थ: (जगत में) चार किस्म की मुक्तियां (मिथी गई हैं), ये चारों मुक्तियां (अठारह) सिद्धियों के साथ मिल के पति (-प्रभु) की शरण पड़ी हुई हैं, (जो मनुष्य उस प्रभु का नाम स्मरण करता है, उसको ये हरेक किस्म की) मुक्ति मिल जाती है, वह मनुष्य चारों युगों में मशहूर हो जाता है, उसकी (हर जगह) शोभा होती है, उसके सिर पर छत्र झूलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा राम जपत को को न तरिओ ॥ गुर उपदेसि साध की संगति भगतु भगतु ता को नामु परिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राजा राम जपत को को न तरिओ ॥ गुर उपदेसि साध की संगति भगतु भगतु ता को नामु परिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को को न = कौन नहीं? उपदेसि = उपदेश से।1। रहाउ।
अर्थ: प्रकाश-रूप परमात्मा का नाम स्मरण करके बेअंत जीव तैर गए हैं। जिस जिस मनुष्य ने अपने गुरु की शिक्षा पर चल के साधु-संगत की, उसका नाम भक्त पड़ गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संख चक्र माला तिलकु बिराजित देखि प्रतापु जमु डरिओ ॥ निरभउ भए राम बल गरजित जनम मरन संताप हिरिओ ॥२॥
मूलम्
संख चक्र माला तिलकु बिराजित देखि प्रतापु जमु डरिओ ॥ निरभउ भए राम बल गरजित जनम मरन संताप हिरिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि प्रतापु = (भक्त का) प्रताप देख के। हिरिओ = दूर हो जाता है।2।
अर्थ: (प्रभु का) संख, चक्र, माला, तिलक आदि चमकता देख के, प्रताप देख के, जमराज भी सहम जाता है (जिन्होंने उस प्रभु को स्मरण किया है) उनको कोई डर नहीं रह जाता (क्योंकि उनसे तो जम भी डरता है), प्रभु का प्रताप उनके अंदर उछाले मारता है, उनके जनम-मरण के कष्ट नाश हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अ्मबरीक कउ दीओ अभै पदु राजु भभीखन अधिक करिओ ॥ नउ निधि ठाकुरि दई सुदामै ध्रूअ अटलु अजहू न टरिओ ॥३॥
मूलम्
अ्मबरीक कउ दीओ अभै पदु राजु भभीखन अधिक करिओ ॥ नउ निधि ठाकुरि दई सुदामै ध्रूअ अटलु अजहू न टरिओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंबरीक = सूर्यवंशी एक राजा, प्रभु का एक भक्त था। दुर्वासा ऋषि एक बार इसके पास आया, तब राजे ने व्रत रखा हुआ था, ऋषि की अच्छी तरह सेवा ना कर सका। दुर्वासा श्राप देने लगा। विष्णू ने अपने भक्त की रक्षा के लिए अपना सुर्दशन चक्र छोड़ा, ऋषि जान बचाने के लिए भागा, पर कोई उसकी सहायता ना कर सका, आखिर अंबरीक ने ही बचाया। अधिक = बड़ा। ठाकुरि = ठाकुर ने।3।
अर्थ: (अंबरीक ने नाम स्मरण किया, प्रभु ने) अंबरीक को निर्भयता का उच्चतम दर्जा बख्शा (और दुर्वासा उसका कुछ ना बिगाड़ सका), प्रभु ने विभीषण को राज दे के बड़ा बना दिया; सुदामा (गरीब) को ठाकुर ने नौ निधियां दे दीं, ध्रुव को अटल पदवी बख्शी जो आज तक कायम है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत हेति मारिओ हरनाखसु नरसिंघ रूप होइ देह धरिओ ॥ नामा कहै भगति बसि केसव अजहूं बलि के दुआर खरो ॥४॥१॥
मूलम्
भगत हेति मारिओ हरनाखसु नरसिंघ रूप होइ देह धरिओ ॥ नामा कहै भगति बसि केसव अजहूं बलि के दुआर खरो ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगत हेति = भक्त की खातिर। देह धरिओ = शरीर धारण किया। बसि = वश में। केसव = लंबे केशों वाला। बलि = एक भक्त राजा था, इस को छलने के लिए विष्णू ने वामन अवतार धारण किया। वामन रूप में आ के राजे से ढाई करू जगह माँगी, कुटिया बनाने के लिए। पर नापने के समय दो करूओं में सारी धरती ही माप डाली और आधे करू से राजा का अपना शरीर। राजे को पाताल जा पहुँचाया। जाने लगा तो राजा ने कहा कि कुटिया बनाने का वचन अब पालो। सो अब तक उसके दरवाजे के आगे कुटिया डाले बैठा है।4।
अर्थ: प्रभु ने अपने भक्त (प्रहलाद) की खातिर नरसिंघ का रूप धारण किया, और हरणाकश को मारा। नामदेव कहता है: परमात्मा भक्ति के अधीन है, (देखो!) अभी तक वह (अपने भक्त राजा) बलि के दरवाजे पर खड़ा हुआ है।4।1।
दर्पण-भाव
भाव: स्मरण भक्ति की महिमा- भक्ति करने वाले की जगत में शोभा होती है, उसको कोई डर नहीं व्यापता, प्रभु स्वयं हर वक्त उसका सहायक होता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में नामदेव जी बँदगी करने वाले की उपमा करते हैं। ‘रहाउ’ की तुक में यही केन्द्रिय ख्याल है। नामदेव जी हिन्दू जाति में जन्मे-पले थे; हिन्दुओं में एक प्रभु की भक्ति का प्रचार करने के वक्त प्रचार का प्रभाव डालने के लिए उन हिन्दू भक्तों का ही जिकर कर सकते थे जिनकी साखियां पुराणों में आई, और जो आम लोगों में प्रसिद्ध थीं। अंबरीक, सुदामा, प्रहलाद, द्रोपदी, अहिल्या, विभीषण, बलि, ध्रुव, गज– आम तौर पर इनके बारे में ही साखियां प्रसिद्ध थीं और हैं। गुरु तेग बहादर जी पूरब देश में जा के हिन्दू जनता के मुग़ल-राज के जुल्मों के सहम से ढारस देने के वक्त भी इन साखियों का ही हवाला देते रहे। वेरवे में जा के; ये साखियां सिख धर्म के अनुसार हैं अथवा नहीं; इस बात को छेड़ने की आवश्यक्ता नहीं थी। मुगल राज के सहमें हुए लोगों को उनके अपने घर के प्रसिद्ध भक्तों के नाम सुना के ही मानवता की प्रेरणा की जा सकती थी। अगर गुरु अरजन देव जी ने किसी जोगी को ये कहा कि;
“चारि पुकारहि ना तू मानहि॥ खटु भी एका बात बखानहि॥
दस असटी मिलि एको कहिआ॥ ता भी जोगी भेदु न लहिआ॥ ”
इस का भाव ये नहीं कि सतिगुरु जी खुद भी वेदों-शास्त्रों के श्रद्धालु थे। जब वे एक मुसलमान को कहते हैं कि;
“दोजकि पउदा किउ रहै जा चिति न होइ रसूलि॥ ”
तो यहाँ ये मतलब नहीं निकलता कि सतिगुरु जी मुसलमान थे।
भक्त जी के शब्द ‘संख चक्र गदा’ आदि भी इसी लिए ही बरते हैं कि हिन्दू लोग विष्णू का यही स्वरूप मानते हैं। आज जो उत्साह किसी सिख को ‘कलगी’ और ‘बाज़’ शब्द प्रयोग करके दिया जा सकता है, और किसी उपदेश से नहीं।
गुरु नानक देव जी ने भी तो परमात्मा का इसी तरह का स्वरूप एक बार दिखाया था; देखें, वडहंस महला १ छंत:
तेरे बंके लोइण दंत रीसाला॥ सोहणे नक जिन लंमड़े वाला॥ कंचन काइआ सुइने की ढाला॥ सोवंन ढाला क्रिसन माला जपहु तुसी सहेलीहो॥ जमदूआरि न होहु खड़ीआ, सिख सुणहु महेलीहो॥७॥२॥
सो, इस शब्द में शब्द संख, चक्र, माला, तिलक आदि से यह भाव नहीं लिया जा सकता कि भक्त नामदेव जी किसी अवतार की किसी मूर्ति पर रीझे हुए थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू कबीर जीउ ॥ दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे ॥ पेटु भरिओ पसूआ जिउ सोइओ मनुखु जनमु है हारिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मारू कबीर जीउ ॥ दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे ॥ पेटु भरिओ पसूआ जिउ सोइओ मनुखु जनमु है हारिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीनु = धरम। रे दिवाने = हे पागल! जिउ = जैसे। हारिओ = गवा लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे कमले मनुष्य! तूने धर्म (मनुष्य जीवन का फर्ज) बिसार दिया है। तू पशुओं की तरह पेट भर के सोया रहता है; तूने मानव जीवन को ऐसे ही गवा लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगति कबहू नही कीनी रचिओ धंधै झूठ ॥ सुआन सूकर बाइस जिवै भटकतु चालिओ ऊठि ॥१॥
मूलम्
साधसंगति कबहू नही कीनी रचिओ धंधै झूठ ॥ सुआन सूकर बाइस जिवै भटकतु चालिओ ऊठि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रचिओ = व्यस्त है। सुआन = कुक्ता। सूकर = सूअर। बाइस = कौआ। भटकतु = भटकता ही, दुखी होता है।1।
अर्थ: तू कभी सत्संग में नहीं गया, जगत के झूठे धंधों में ही मस्त है; कौए, कुत्ते, सूअर की तरह भटकता ही (जगत से) चला जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस कउ दीरघु करि जानै अउरन कउ लग मात ॥ मनसा बाचा करमना मै देखे दोजक जात ॥२॥
मूलम्
आपस कउ दीरघु करि जानै अउरन कउ लग मात ॥ मनसा बाचा करमना मै देखे दोजक जात ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीरघु = बड़ा, बड़ी उम्र वाला, लंबा। लग मात = मात्रा जितना, छोटा सा, तुच्छ। मनसा = (संस्कृत: instrumental singular form मनस् by means of mind) मन से। बाचा = (सं: वाचा instrumental singular form वाच् by means of words) वचनों द्वारा। करमना = (सं: कर्मणा instrumental singular form कर्मन् through action) काम से।2।
अर्थ: जो मनुष्य मन, वचन व कर्म द्वारा और को तुच्छ जानते हैं और अपने आप को बड़े समझते हैं, ऐसे लोग मैंने नर्क में जाते देखें हैं (भाव, नित्य ये देखने में आता है कि ऐसे अहंकारी मनुष्य अहंकार में इस तरह दुखी होते हैं जैसे दोज़क की आग में जल रहे हों)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम ॥ निंदा करते जनमु सिरानो कबहू न सिमरिओ रामु ॥३॥
मूलम्
कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम ॥ निंदा करते जनमु सिरानो कबहू न सिमरिओ रामु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चातुरी = चालाकी। बाजीगर = ठगी करने वाले। बेकाम = निकंमे, नकारे। सिरानो = गुजर गया।3।
अर्थ: काम वश हो के, क्रोध अधीन हो के, चतुराईयाँ, ठगीयां, नकारेपन में, दूसरों की निंदा करके (हे कमले!) तूने जीवन गुजार दिया है, कभी प्रभु को याद नहीं किया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर चेतै नही मूरखु मुगधु गवारु ॥ रामु नामु जानिओ नही कैसे उतरसि पारि ॥४॥१॥
मूलम्
कहि कबीर चेतै नही मूरखु मुगधु गवारु ॥ रामु नामु जानिओ नही कैसे उतरसि पारि ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कबीर कहता है: मूर्ख मूढ़ गवार मनुष्य परमात्मा को नहीं स्मरण करता। प्रभु के नाम के साथ सांझ नहीं डालता। (संसार-समुंदर में से) कैसे पार लंघेगा?।41।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मारू बाणी जैदेउ जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मारू बाणी जैदेउ जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंद सत भेदिआ नाद सत पूरिआ सूर सत खोड़सा दतु कीआ ॥ अबल बलु तोड़िआ अचल चलु थपिआ अघड़ु घड़िआ तहा अपिउ पीआ ॥१॥
मूलम्
चंद सत भेदिआ नाद सत पूरिआ सूर सत खोड़सा दतु कीआ ॥ अबल बलु तोड़िआ अचल चलु थपिआ अघड़ु घड़िआ तहा अपिउ पीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंद = चंद्रमा नाड़ी, ‘सोम सर’, बाई नासिका की नाड़ी। सत = (सं: सत्व) प्राण। भेदिआ = भेद लिया, चढ़ा लिए (प्राण)। नाद = सुखमना। पूरिआ = (प्राण) रोक लिए। सूर = दाहिनी सुर। खोड़सा = सोलह बार (ओअं कह के)। दतु कीआ = (प्राण बाहर) निकाले। अबल बलु = (विकारों में पड़ने के कारण) कमजोर मन का (विषौ विकारों और दुबिधा दृष्टि वाला) बल। अचल = अमोड़। चल = चलायमान, चंचल स्वभाव। अचल चलु = अमोड़ मन का स्वभाव। थपिआ = रोक लिया। अघड़ु = अल्हड़ मन। अपिउ = अमृत।1।
अर्थ: (महिमा की इनायत से ही) बाई सुर में प्राण चढ़ भी गए हैं, सुखमना में अटकाए भी गए हैं, और दाहिनी सुर के रास्ते सोलह बार ‘ओम’ कह के (उतर) भी आए हैं (भाव, प्राणायाम का सारा उद्यम महिमा में ही आ गया है, महिमा के मुकाबले में प्राण चढ़ाने, टिकाने और उतारने वाले साधन प्राणायाम की आवश्यक्ता नहीं रह गई)। (इस महिमा के सदका) (विकारों में पड़ने के कारण) कमजोर (हुए) मन का (‘दुबिधा द्रिसटि’ वाला) बल टूट गया है, अमोड़ मन का चंचल स्वभाव रुक गया है, ये अल्हड़ मन अब सुंदर घड़ा हुआ (तराशा हुआ) हो गया है, यहाँ पहुँच के इसने नाम-अमृत पी लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन आदि गुण आदि वखाणिआ ॥ तेरी दुबिधा द्रिसटि समानिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन आदि गुण आदि वखाणिआ ॥ तेरी दुबिधा द्रिसटि समानिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! आदि गुण = आदि प्रभु के गुण, जगत के मूल प्रभु के गुण। आदि = आदिक। दुबिधा द्रिसटि = मेरे तेर वाली नज़र, भेदभाव वाला स्वभाव। संमानिआ = एक समान बराबर हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! जगत के मूल प्रभु की महिमा करने से तेरा भेद-भाव वाला स्वभाव समतल हो जाएगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरधि कउ अरधिआ सरधि कउ सरधिआ सलल कउ सललि समानि आइआ ॥ बदति जैदेउ जैदेव कउ रमिआ ब्रहमु निरबाणु लिव लीणु पाइआ ॥२॥१॥
मूलम्
अरधि कउ अरधिआ सरधि कउ सरधिआ सलल कउ सललि समानि आइआ ॥ बदति जैदेउ जैदेव कउ रमिआ ब्रहमु निरबाणु लिव लीणु पाइआ ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरधि = आधने योग्य प्रभु। सरधि = श्रद्धा रखने योग्य। सलल = पानी। बदति = कहता है। जैदेव = परमात्मा, वह देव जिसकी सदा जय होती है। रंमिआ = स्मरण किया। निरबाणु = वासना रहित। लिवलीणु = अपने आप में मस्त प्रभु।2।
अर्थ: जैदेउ कहता है: अगर आराधने-योग्य प्रभु की आराधना करें, अगर श्रद्धा-योग्य प्रभु में सिदक धरें, तो उसके साथ एक-रूप हुआ जा सकता है, जैसे पानी के साथ पानी। जैदेव-प्रभु का स्मरण करने से वह वासना रहित बेपरवाह प्रभु मिल जाता है।2।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के साथ मिला के नीचे लिखा गुरु नानक देव जी का शब्द पढ़ें। ये भी मारू राग में ही है;
मारू महला १॥ सूर सरु सोसि लै सोम सरु पोखि लै जुगति करि मरतु सु सनबंधु कीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥१॥ मूढ़े काइचे भरमि भुला॥ नह चीनिआ परमानंदु बैरागी॥१॥ रहाउ॥ अजर गहु जारि लै अमर गहु मारि लै भ्राति तजि छोड तउ अपिउ पीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥२॥ भणति नानकु जनो रवै जे हरि मनो मन पवन सिउ अंम्रितु पीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥३॥९॥ (पन्ना 992)
दोनों शब्द मारू राग में हैं; दोनों की छंद की चाल एक जैसी है; कई शब्द सांझे हैं, जैसे ‘सूर, चंद (सोम), अपिउ’। ‘दुबिधा द्रिसटि’ के मुकाबले में ‘मीन की चपल सिउ मनु’ प्रयोग हुआ है। जैदेव जी के शब्द में महिमा करने के लाभ बताए गए हैं, गुरु नानक देव जी ने महिमा करने की ‘जुगति’ भी बताई है। जैदेव जी मन को संबोधन करके कहते हैं कि यदि तू महिमा करे तो तेरी चंचलता दूर हो जाएगी। सतिगुरु नानक देव जी जीव को उपदेश करते हैं कि महिमा की ‘जुगति’ बरतने से मन की चंचलता मिट जाती है।
जैसे जैसे इन दोनों शबदों को ध्यान से साथ मिला के पढ़ते जाएं, गहरी समानता नज़र आएगी, और इस नतीजे पर पहुँचने से नहीं रहा जा सकता कि अपना ये शब्द उचारने के वक्त गुरु नानक देव जी के सामने भक्त जैदेव जी का शब्द मौजूद था। ये इतनी गहरी सांझ सबब से नहीं हो गई। गुरु नानक देव जी पहली उदासी में हिन्दू तीर्थों से होते हुए बंगाल भी पहुँचे थे। भक्त जैदेव जी बंगाल के रहने वाले थे। उनकी शोभा (जो अवश्य उस देश में बिखरी होगी) सुन कर उसकी संतान से व भक्त जी के श्रद्धालुओं से यह शब्द लिया होगा।
नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन भक्त जैदेव जी के बारे में यूँ लिखते हैं: “भक्त जैदेव जी बंगाल इलाके में गाँव केंदरी (परगना बीरबान) के रहने वाले जन्म के कन्नोजिए ब्राहमण थे। संस्कृत के खासे विद्वान और कविशर थे। वैसे गृहस्थी थे, जो सुपत्नी समेत साधु रुचि में रहे। आप जी का होना ग्यारहवीं बारहवीं सदी के बीच में बताया जाता है। आप दमों तक गंगा के पुजारी रहे और पक्के ब्राहमण थे। जगन नाथ के मन्दिर में इनके रचे ग्रंथ ‘गीत गोबिंद’ के भजन गाए जाते हैं।
‘मौजूदा छापे की बीड़ में आप जी के नाम पर केवल दो शब्द हैं, एक मारू राग में, दूसरा गुजरी राग में। पर इन दोनों शबदों का सिद्धांत गुरमति के साथ बिल्कुल नहीं मिलता, दोनों शब्द विष्णू भक्ति और योगाभ्यास को दृढ़ करवाते हैं।”
इससे आगे भक्त जी का मारू राग वाला ऊपर दिया हुआ शब्द दे के सज्जन जी लिखते हैं: “उक्त शब्द हठ-योग कर्मों का उपदेश है। इसे गुजरी राग के अंदर ‘परमादि पुरख मनोपमं’ वाले शब्द में विष्णू भक्ति का उपदेश है। दोनों शब्द गुरमुति सिद्धांत के बिल्कुल उलट हैं।….गुरबाणी में भक्त जैदेव जी के सिद्धांतों का ज़ोरदार खण्डन मिलता है।”
इस सज्जन ने हठ-योग आदि का खंडन करने के लिए एक-दो शब्द बतौर प्रमाण भी दिए हैं।
आईए, अब विचार करें।
उक्त सज्जन भक्त-वाणी के बारे में हमेशा ये पक्ष लेता है कि 1. भक्त-वाणी का आशय गुरबाणी के आशय से उलट है। इस शब्द के बारे में भी यही कहा गया है कि ये शब्द हठ-योग दृढ़ करवाता है और गुरमति हठ-योग का खंडन करती है। 2. भगतों के कई शबदों में सतिगुरु जी के कई शबदों के साथ सांझे शब्द और विचार इस वास्ते मिलते हैं कि भगतों के पंजाब-वासी श्रद्धालुओं ने भगतों के शबदों का पंजाबी में रूपांतर करने के वक्त ये शब्द सहज ही ले लिए थे।
हम जैदेव जी के इस शब्द के साथ इसी ही राग में से श्री गुरु नानक देव जी का भी एक शब्द पाठकों के समक्ष पेश कर चुके हैं। इन दोनों शबदों में कई शब्द और विचार एक समान हैं; जैसे कि:
जैदेव जी——–गुरु नानक देव जी
चंद सतु ——–सोम सरु
सूर सतु ——–सूर सरु
चलु ——–चपल
अपिउ पीआ ——–अपिउ पीजै
मन ——–मनु
दुबिधा द्रिसटि ——–(रहाउ की तुकें) भरमि भुला
अचल चलु थपिआ——–उडै नहि हंसु
आदि गुण आदि वखाणिआ–रवै जे हरि मनो
अब अगर सिर्फ इन ‘चंद, सूर, खोड़सा’ आदि शब्दों से ही निर्णय कर लेना कि भक्त जी का यह शब्द हठ-योग कर्मों का उपदेश करता है, तो यही विचार गुरु नानक साहिब जी के शब्द के बारे में भी बनाना पड़ेगा। थोड़ा सा दोबारा ध्यान से पढ़ें, ‘सूर सुर सोसि लै, सोम सरु पोखि लै, जुगति करि मरतु”। सतिगुरु जी ने तो साफ शब्द ‘मरतु’ भी प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है ‘प्राण, हवा’, जिससे अंजान व्यक्ति ‘प्राणायाम’ का भाव निकाल लेगा। पर निरे इन शब्दों के आसरे यदि कोई सिख ये समझ ले कि इस शब्द में गुरु नानक देव जी ने प्राणायाम की उपमा की है, तो यह उसकी भारी भूल होगी।
उक्त सज्जन ने भक्त जैदेव जी को हठ-योग का उपदेशक साबित करने के लिए भक्त जी का सिर्फ यही शब्द पेश किया है, जिसके दो-चार शब्दों को ऊपरी निगाह से देख के अंजान सिख गलत अर्थ लगा सके। अगर उक्त सज्जन भक्त जी का दूसरा शब्द भीध्यान से पढ़ लेता, तो शायद वह स्वयं भी इस ख़ता से बच जाता। हठ-योग का प्रचारक होने की जगह उस शब्द में जैदेव जी तप और योग को स्पष्ट शब्दों में व्यर्थ कहते हैं। देखें लिखते हैं:
“हरि भगत निज निहकेवला, रिद करमणा बचसा॥
जेगेन किं, जगेन किं, दानेन किं, तपसा॥4॥ ”
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा के प्यारे भक्त मन वचन और कर्म से पूर्ण तौर पर पवित्र होते हैं (भाव, भक्त का मन पवित्र, बोल पवित्र और काम भी पवित्र होते हैं)। उन्हें जोग से क्या वास्ता? उन्हें यज्ञ से क्या प्रयोजन? उन्हें दान और तप से क्या लेना? (भाव, भक्त जानते हैं कि योग–साधना, यज्ञ, दान और तप करने से कोई आत्मिक लाभ नहीं हो सकता, प्रभु की भक्ति ही असली करनी है)।
दर्पण-टिप्पनी
हमारा उक्त सज्जन जैदेव जी के दो-चार शब्दों को देख के टपला खा गया है। अगर सारे शब्द के अर्थ को ध्यान से समझने की कोशिश करता, तो ये गलती नहीं लगती। पाठक सज्जन ‘रहाउ’ की तुक के शब्द ‘वखाणिआ’ से आरम्भ करके पहले ‘बंद’ के शब्द ‘भेदिआ’ ‘पूरीआ’ आदि तक पहुँच के अर्थ करें– हे मन! आदि (प्रभु) गुण आदि बखान करने से (भाव, प्रभु की महिमा करने से) बाई सुर में प्राण भी गए हैं….दाहिनी सुर के रास्ते सोलह बार ‘ओम’ कह के उतर भी आए हैं (भाव, प्राणायाम का सारा ही उद्यम महिमा में ही आ गया है, अर्थात, प्राणायाम का उद्यम व्यर्थ है)।
यहाँ पाठकों की सहूलत के लिए सतिगुरु नानक देव जी के ऊपर-लिखे शब्द का अर्थ देना भी आवश्यक प्रतीत होता है।
सूर सरु सोसि लै– सूरज (की तपश) के सरोवर को सुखा दे, तमो गुणी स्वभाव को खत्म कर दे, (सूर्य नाड़ी को सुखा दे, यह है दाहिनी सुर के रास्ते प्राण उतारने)।
सोम सरु पोखि लै– चंद्रमा (शीतलता) के सरोवर को और बढ़ा, शांत स्वभाव, शीतलता में वृद्धि कर (चंद्र नाड़ी को मजबूत बना, ये है बाएं सुर से प्राण चढ़ाने)।
जुगति करि मरतु– सुंदर जीवन जुगति को प्राणों का ठिकाना बना (जिंदगी को सुंदर जुगति में रखना ही प्राणों को सुखमना नाड़ी में टिकाना है)।
सु सनबंधु कीजै– सारा ऐसा ही मेल मिलाओ।
मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीअै– इस जुगति से मीन के समान चंचल मन को (ठहरा के) रखा जा सकता है, इस जुगति से मछली की तरह चंचलता वाला मन संभाला जा सकता है।
उडै नह हंसु– मन (विकारों की तरफ) दौड़ता नहीं।
नह कंधु छीजै– शरीर भी (विकारों में) खचित नहीं होता।
भक्त जैदेव जी के दूसरे शब्द का हवाला दे कर हमारे उक्त सज्जन कहते हैं कि उस शब्द में विष्णु भक्ति का उपदेश है। यहाँ उस शब्द का सारा अर्थ देने से लेख बहुत लंबा हो जाएगा; सिर्फ ‘रहाउ’ की तुक पेश की जा रही है, क्योंकि यही तुक सारे शब्द का केन्द्र हुआ करती है। जैदेव जी लिखते हैं:
‘केवल राम नाम मनोरमं॥ बदि अंम्रित तत मइअं॥
न दनोति जसमरणेन, जनम जराधि मरण भइअं॥1॥ रहाउ॥
दर्पण-भाव
भाव: (हे भाई!) केवल परमात्मा का सुंदर नाम स्मरण कर, जो अमृत भरपूर है, जो अस्लियत रूप है, और जिसके स्मरण से जनम-मरण, बुढ़ापा, चिन्ता-फिक्र और मौत का डर दुख नहीं देता।
पता नहीं, हमारे उक्त सज्ज्न को यहाँ किन शब्दों में विष्णु–भक्ति दिख रही है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबीरु ॥ मारू ॥ रामु सिमरु पछुताहिगा मन ॥ पापी जीअरा लोभु करतु है आजु कालि उठि जाहिगा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कबीरु ॥ मारू ॥ रामु सिमरु पछुताहिगा मन ॥ पापी जीअरा लोभु करतु है आजु कालि उठि जाहिगा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! जीअरा = कमजोर जीवात्मा। आजु कालि = आज कल में, जल्दी ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! (अब ही वक्त है) प्रभु का स्मरण कर, (नहीं तो समय बीत जाने पर) अफसोस करेगा। विकारों में फसी हुई तेरी कमजोर जीवात्मा (जिंद) (धन पदार्थ का) लोभ कर रही है, पर तू थोड़े ही दिनों में (ये सब कुछ छोड़ के यहाँ से) चला जाएगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लालच लागे जनमु गवाइआ माइआ भरम भुलाहिगा ॥ धन जोबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा ॥१॥
मूलम्
लालच लागे जनमु गवाइआ माइआ भरम भुलाहिगा ॥ धन जोबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबु = मान। जिउ = जैसे।1।
अर्थ: हे मन! तू लालच में फंस के जीवन व्यर्थ गवा रहा है, माया की भटकना में टूटा हुआ फिरता है। ना कर ये मान धन और जवानी का, (मौत आने पर) कागज़ की तरह जल जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ जमु आइ केस गहि पटकै ता दिन किछु न बसाहिगा ॥ सिमरनु भजनु दइआ नही कीनी तउ मुखि चोटा खाहिगा ॥२॥
मूलम्
जउ जमु आइ केस गहि पटकै ता दिन किछु न बसाहिगा ॥ सिमरनु भजनु दइआ नही कीनी तउ मुखि चोटा खाहिगा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहि = पकड़ के। न बसाहिगा = पेश नहीं जाएगी, (तेरी) एक ना चलेगी। मुखि = मुँह पर।2।
अर्थ: हे मन! जब जम ने आ कर केसों से पकड़ कर तुझे जमीन पर पटका, तब तेरी (उसके आगे) कोई पेश नहीं चलेगी। तू अब प्रभु का स्मरण-भजन नहीं करता, तू दया नहीं पालता, मरने के वक्त दुखी होगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरम राइ जब लेखा मागै किआ मुखु लै कै जाहिगा ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु साधसंगति तरि जांहिगा ॥३॥१॥
मूलम्
धरम राइ जब लेखा मागै किआ मुखु लै कै जाहिगा ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु साधसंगति तरि जांहिगा ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ मुखु लै के = किस मुँह से?।3।
अर्थ: हे मन! जब धर्मराज ने (तुझसे जीवन में किए कामों का) हिसाब माँगा, क्या मुँह ले के उसके सामने (तू) होगा? कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो, साधु-संगत में रह के ही (संसार-समुंदर से) पार लांघा जा सकता है।3।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: साधारण तौर पर मौत का वर्णन करते हुए कबीर जी मुहावरे के तौर पर लिखते हैं “जउ जम आइ केस गहि पटकै”, भाव, केसों का ज़िकर करते हैं। ये मुहावरा उनकी रोजाना की बोलचाल का हिस्सा बन जाना ही बताता है कि कबीर जी के सिर पर साबत केस थे। इसी ही राग के शब्द नंबर 6 में भी देखिए “जब जमु आइ केस ते पकरै”।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: दुनिया के झूठे गुमान में भूल के परमात्मा की बँदगी से टूटना मूर्खता है, पछताना पड़ता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु मारू बाणी रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु मारू बाणी रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै ॥ गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै ॥ गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाल = हे सुंदर प्रभु! ऐसी = ऐसी (मेहर)। गरीब निवाजु = गरीबों को सम्मान देने वाला। गसईआ मेरा = मेरा मालिक। माथै = (गरीब के) सिर पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे सुंदर प्रभु! तेरे बिना ऐसी करनी और कौन कर सकता है? (हे भाई!) मेरा प्रभु गरीबों को मान देने वाला है, (गरीब के) सिर पर छत्र झुला देता है, (भाव, गरीब को भी राजा बना देता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा की छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै ॥ नीचह ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥१॥
मूलम्
जा की छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै ॥ नीचह ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छोति = छूत। ता पर = उस पर। ढरै = ढलता है, द्रवित होता है, तरस करता है। नीचह = नीच लोगों को। काहू ते = किसी व्यक्ति से।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य को इतना नीच समझा जाता हो) कि उसकी छूत सारे संसार को लग जाए (भाव, जिस मनुष्य के छूने मात्र से और सारे लोग अपने आप अस्वच्छ अपवित्र समझने लग जाएं) उस मनुष्य पर (हे प्रभु!) तू ही कृपा करता है। (हे भाई!) मेरा गोबिंद नीच लोगों को ऊँचा बना देता है, वह किसी से डरता नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै ॥ कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै ॥२॥१॥
मूलम्
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै ॥ कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभै = सारे काम। सरै = सरते हैं, हो सकते हैं, सफल हो सकते हैं।2।
अर्थ: (प्रभु की कृपा से ही) नामदेव, कबीर त्रिलोचन, सधना और सैण (आदि भक्त संसार-समुंदर से) पार लांघ गए। रविदास कहता है: हे संत जनो! सुनो, प्रभु सब कुछ करने के समर्थ है।2।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘नीचह’ को आम तौर ‘नीचहु’ पढ़ते हैं। सही पाठ ‘नीचह’ है।
नोट: भगत रविदास जी की गवाही के अनुसार नामदेव जी का उद्धार किसी बीठुल की मूर्ति की पूजा से नहीं, बल्कि परमात्मा की भक्ति की बरकति से हुआ था। नामदेव, त्रिलोचन, कबीर और सधना– इन चारों की बाबत भगत रविदास जी कहते हैं कि ‘हरि जीउ ते सभै सरै’॥
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु की शरण ही नीचों को ऊँचा करती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारू ॥ सुख सागर सुरितरु चिंतामनि कामधेन बसि जा के रे ॥ चारि पदारथ असट महा सिधि नव निधि कर तल ता कै ॥१॥
मूलम्
मारू ॥ सुख सागर सुरितरु चिंतामनि कामधेन बसि जा के रे ॥ चारि पदारथ असट महा सिधि नव निधि कर तल ता कै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे पंडित!) जो प्रभु सुखों का समुद्र है, जिस प्रभु के वश में स्वर्ग के पाँचों वृक्ष, चिंतामणी और कामधेनु हैं, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पदार्थ, आठ बड़ी (रिद्धियां-सिद्धियां) और नौ निधियां ये सब कुछ उसी के हाथों की तली पर हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि हरि न जपसि रसना ॥ अवर सभ छाडि बचन रचना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि हरि हरि न जपसि रसना ॥ अवर सभ छाडि बचन रचना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे पण्डित!) तू और सब फोकियाँ बातें त्याग के (अपनी) जीभ से सदा एक परमात्मा का नाम क्यों नहीं जपता?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अछर माही ॥ बिआस बीचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥
मूलम्
नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अछर माही ॥ बिआस बीचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे पण्डित!) पुराणों के अनेक किस्मों के प्रसंग, वेदों की बताई हुई विधियां, ये सब वाक्या-रचना ही हैं (अनुभवी ज्ञान नहीं है जो प्रभु के चरणों में जुड़ने से हृदय में पैदा होता है)। (हे पंडित! वेदों के रचयता) व्यास ऋषि ने सोच-विचार के यही परम-तत्व बताया है (कि इन पुस्तकों के पाठ आदिक) परमात्मा के नाम का स्मरण करने की बराबरी नहीं कर सकते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज समाधि उपाधि रहत होइ बडे भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास उदास दास मति जनम मरन भै भागी ॥३॥२॥१५॥
मूलम्
सहज समाधि उपाधि रहत होइ बडे भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास उदास दास मति जनम मरन भै भागी ॥३॥२॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
रविदास कहता है: (हे पण्डित!) बड़ी किस्मत से जिस मनुष्य की तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ती है, उसका मन आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, कोई विकार उसमें नहीं उठता, उस सेवक की मति (माया की ओर से) निर्मोह रहती है, और जनम-मरण (भाव, सारी उम्र) के उसके डर नाश हो जाते हैं।3।2।15।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: सब पदार्थों का दाता प्रभु स्वयं ही है। उसका स्मरण करो, कोई भूख नहीं रह जाएगी।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: रविदास जी का यह शब्द थोड़े से फर्क के साथ सोरठ राग में भी है। इसका भाव यह है कि यह शब्द दोनों रागों में गाया जाना चाहिए। इस शब्द के पदाअर्थ देखें सोरठि राग में शब्द नंबर 4, रविदास जी का।
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दर्पण-भाव
पउड़ी वार भाव:
पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य इस जन्म में भी माया के मोह में फसा रहता है, और, दुखी जीवन गुजारता है। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उसका आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी-पी के आत्मिक आनंद लेता है। यही है जनम-उद्देश्य।
नाम की इनायत से, महिमा की इनायत से मनुष्य अपनी सारी ज्ञान-इंद्रिय को मर्यादा में रख के मायावी पदार्थों के मोह से ऊँचा टिका रहता है। गुरु के शब्द द्वारा उसका जीवन पवित्र हो जाता है।
महिमा करते-करते मनुष्य के अंदर ऊँचा आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। मनुष्य को यकीन बन जाता है कि एक परमात्मा ही जीव के साथ सदा निभने वाला साथी है।
महिमा की इनायत से मनुष्य का मन विकारों से अडोल बना रहता है। उसके अंदर हर वक्त परमात्मा के मिलाप की खींच बनी रहती है।
बसंत का मौसम सोहावना होता है। हर तरफ फूल खिले होते हैं, कोयल आम पर बैठी मीठे बोल बोलती है। पर पति से विछुड़ी नारी को ये सब कुछ चुभने वाला लगता है। जिस मनुष्य का मन अदरूनी हृदय-कमल को छोड़ के दुनियावी रंग-तमाशों में भटकता फिरता है, उसका ये जीवन दरअसल आत्मिक मौत है। आत्मिक आनंद तब ही है जब परमात्मा हृदय में आ बसे।
जिस मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा में रम जाता है, उसको कुदरति की सुंदरता भी परमात्मा के चरणों में ही जोड़ने के लिए सहायता करती है।
कामादिक विकारों की आग से संसारी जीवों के हृदय तपते रहते हैं। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा को हृदय में बसा के परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, उसका हृदय सदा शांत रहता है, वह मनुष्य विकारों की तपश-लौ से सदा बचा रहता है।
जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है, उसको इस जीवन-यात्रा में आसाड़ (हाड़) की कहर की तपश जैसा विकारों का सेक छू नहीं सकता।
महिमा की इनायत से जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा हो जाता है, इस प्यारे के मुकाबले में शरीरिक सुखों के कोई भी साधन उसके मन को नहीं बहका सकते।
गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के जिस मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा में रम जाता है, परमात्मा की याद के बिना और किसी भी रंग-तमाशे में उसको आत्मिक आनंद नहीं मिलता।
जो मनुष्य दुनिया के झूठे मोह में फस जाता है, वह परमात्मा के चरणों से विछुड़ा रहता है। पर जो मनुष्य परमात्मा की मेहर से गुरु की शरण पड़ता है, वह माया के मोह के हमलों से अडोल हो जाता है, और उसको प्रभु-मिलाप का आनंद प्राप्त होता है।
जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी महिमा की दाति देता है, उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ देने वाले प्रकाश का, मानो, दीपक जग उठता है। वह मनुष्य परमात्मा की याद से एक घड़ी-पल का विछोड़ा भी सह नहीं सकता।
जो मनुष्य परमात्मा की महिमा में टिका रहता है, परमात्मा के साथ उसकी प्यार की गाँठ बँध जाती है। जगत का कोई भी दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।
परमात्मा की याद भुलाने से मनुष्य के अंदर कोरापन जोर डाल देता है, वह कोरा पन उसके जीवन में से प्रेम-रस सुखा देता है। परमात्मा की महिमा ही मनुष्य के अंदर ऊँची आत्मिक अवस्था पैदा करती है और कायम रखती है।
माघी वाले दिन लोग प्रयाग आदि तीर्थों पर स्नान करने में पवित्रता मानते हैं। पर परमात्मा की महिमा हृदय में बसानी ही अढ़सठ तीर्थों का स्नान है।
जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर महिमा से अपने अंदर से स्वैभाव दूर करता है, उसको अपने अंदर बसता परमात्मा मिल जाता है। पर यह स्वैभाव दूर करना कोई आसान खेल नहीं, वह ही दूर करता है जिस पर परमात्मा मेहर करे।
नोट: इसी सारी वाणी का सारांश आखिरी तुक नंबर 17 में है।
जो मनुष्य परमात्मा की महिमा को अपनी जिंदगी का आसरा बनाता है, उसको किसी संक्रांति अमावस्या आदि की पवित्रता का भ्रम-भुलेखा नहीं रहता। वह मनुष्य किसी काम को आरम्भ करने के लिए कोई खास महूरत नहीं तलाशता; उसको यकीन होता है कि परमात्मा का आसरा लेने से सब काम रास आ जाते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
एक और बारहमाह:
ये बारहमाह तुखारी राग में गुरु नानक देव जी का लिखा हुआ है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में एक और बारहमाह भी है। वह है श्री गुरु अरजन देव जी का लिखा हुआ, और वह है राग माझ में। साहित्यिक दृष्टिकोण से दोनों बाणियों का परस्पर समानान्तर अध्ययन पाठकों के लिए दिलचस्प होगा।
दोनों बाणियों को परस्पर समानान्तर अध्ययन
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: १
किरत करंमा पुरबि कमाइआ॥ सिरि सिरि सुख सहंमा…॥ …
प्रिअ बाझु दुहेली, कोइ न बेली…॥ (पंना1107)
पउड़ी नं: 3
ना कोई मेरा, हउ किसु केरा…॥
पउड़ी नं: 4
उनवि घन छाए, बरसु सुभाए…॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: १
किरत करम के वीछुड़े…॥
हरि नाह न मिलीऐ साजनै, कत पाईऐ बिसराम॥ …
प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ, मीत सजण सभि जाम॥
नानक की प्रभ बेनती, करि किरपा दीजै नामु॥ (पंना 133)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 5
पिरु घरि नही आवै, धन किउ सुखु पावै….॥ …
चेति सहजि सुखु पावै, जे हरि वरु घरि धन पाए॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 2
इकु खिनु तिसु बिनु जीवणा, बिरथा जनमु जणा॥ चेति गोविंदु अराधीऐ, होवै अनंदु घणा॥ (पंना 133)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 6
वैसाखु भला, साखा वेस करे॥ धन देखै हरि दुआरि, आवहु दइआ करे॥ (पंना1108)
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 3
वैसाखि धीरनि किउ वाढीआ, जिना प्रेम बिछोहु॥ …
वैसाखु सुहावा तां लगै, जा संतु भेटे हरि सोइ॥ (पंना 133)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 7
माहु जेठु भला, प्रीतमु किउ बिसरै॥ (पंना1108)
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 4
साधू संगु परापते, नानक रंग माणंनि॥ हरि जेठु रंगीला तिसु धणी, जिस कै भागु मथंनि॥४॥ (पंना 134)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 8
…सूरजु गगनि तपै॥ …अवगण बाधि चली, दुखु आगै, सुखु तिसु साचु समाले॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 5
आसाढ़ु तपंदा…॥ …दुयै भाइ विगुचीऐ…॥ रैणि विहाणी पछुताणी…॥
आसाढ़ु सुहंदा तिसु लगै, जिसु मनि हरि चरण निवासु॥ (पंना 134)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 9
सावणि सरस मना…॥ हरि बिनु नीद भूख कहु कैसी…॥
नानक सा सोहागणि कंती पिर कै अंकि समावए॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 6
सावणि सरसी कामणी…॥ हरि मिलणै नो मनु लोचदा…॥
सावणु तिना सुहागणी, जिन राम नामु उरि हारु॥ (पंना 134)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 10
भादुउ भरमि भुली…॥ …नानक पूछि चलउ गुर अपुने, जह प्रभ तह ही जाईऐ॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 7
भादुइ भरमि भुलाणीआ…॥ से भादुइ नरकि न पाईअहि, गुरु रखण वाला हेतु॥ (पंना 134)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 11
असुनि आउ पिरा, साधन झूरि मुई॥ …मिलहु पिआरे सतिगुर भए बसीठा॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 8
असुनि प्रेम उमाहड़ा, किउ मिलीऐ हरि जाइ॥ …संत सहाई प्रेम के…॥ (पंना 134)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 12
कतकि किरतु पइआ…अवगण मारी मरै…
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 9
कतकि करम कमावणे, दोसु न काहू जोगु॥
परमेसर ते भुलिआं, विआपनि सभे रोग॥ (पंना 135)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 13
मंघर माहु भला, हरि गुण अंकि समावए॥
गुणवंती गुण रवै, मै पिरु निहचलु भावए॥ …राम नामि दुखु भागै॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 10
संघिरि माहि सुहंदीआ, हरि पिर संगि बैठड़ीआह॥ …
तनु मनु मउलिआ राम सिउ…॥ मंघरि प्रभु आराधणा, बहुड़ि न जनमड़ीआह॥ (पंना 134)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 14
पोखि तुखारु पढ़ै, वणु तिणु रसु सोखै॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 11
पोखि तुखारु न विआपई, कंठि मिलिआ हरि नाहु॥
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 15
माघि पुनीत भई, तीरथु अंतरि जानिआ॥ …
तुधु भावा सरि नावा॥ …हरि जपि अठसठि तीरथ नाता॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 12
माघि मजनु संगि साधूआ, धूड़ी करि इसनानु॥
हरि का नामु धिआइ सुणि…अठसठि तीरथ सगल पुंन…॥ (पंना 136)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 16
फलगुनि मनि रहसी…॥ अनदिनु रहसु भइआ…॥ …
नानक मेलि लई गुरि अपणै घरि वरु पाइआ नारी॥
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 13
फलगुणि अनंद उपारजना…संत सहाई राम के, करि किरपा दीआ मिलाइ॥ … वरु पाइआ हरि राइ॥ (पंना 136)
अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 17
बे–दस माह रुती थिती वार भले॥ घड़ी मूरत पल…॥ प्रभ मिले पिआरे कारज सारे…॥ (पंना 1109)
आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 14
…तिन के काज सरे॥ …माह दिवस मूरत भले, जिस कउ नदरि करे॥
नोट: पाठक सज्जन ध्यान से पढ़ के देख लेंगे, कि गुरु नानक देव जी ने तुखारी राग के बारहमाह में जो दिल-तरंग मुश्किल बोली में लिखे हैं, वही दिल-तरंग मनोभाव गुरु अरजन साहिब ने माझ राग के बारहमाह में आसान बोली में बरत के लिख दिए हैं। दोनों तरफ पौड़ियों में कई-कई शब्द भी सांझे बरते गए हैं। बड़ा स्पष्ट प्रत्यक्ष दिख रहा है कि गुरु नानक देव जी के बारहमाह से प्रेरित होकर गुरु अरजन साहिब ने माझ राग में आसान बोली का प्रयोग करके अपना बारहमाह लिखा।
पाठकों की सहूलत के लिए यहाँ माझ राग के बारहमाह का भी पउड़ी-वार भाव दिया जा रहा है।
दर्पण-भाव
पउड़ी-वार भाव:
किए कर्मों के संस्कारों के असर तले मनुष्य परमात्मा की याद भुला देता है, और, कामादिक विकारों की तपश से उसका हृदय जलती भट्ठी के समान बना रहता है। इस तरह मनुष्य अपनी सारी उम्र व्यर्थ गवा लेता है।
परमात्मा के नाम की इनायत से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद बना रहता हैं वही मनुष्य जीवित समझो जो परमात्मा का नाम स्मरण करता है। पर नाम की दाति साधु-संगत में से मिलती है।
परमात्मा का नाम स्मरण के बिना और जितने भी कर्म यहाँ करते हैं वे उच्च आत्मिक जीवन के अंग नहीं बन सकते। प्रभु की याद से वंचित मनुष्य दुखी जीवन ही गुजारता है। चौगिर्दे की मनमोहक सुहावनी कुदरति भी उसको बल्कि खाने को पड़ती है।
परमात्मा का नाम-धन सदा मनुष्य के साथ निभता है। नाम स्मरण वाला मनुष्य लोक-परलोक में शोभा कमाता है। नाम की दाति परमात्मा की मेहर से गुरु की शरण पड़ने पर ही मिलती है।
जो मनुष्य परमात्मा की याद भुला के परमात्मा का आसरा बिसार के दुनिया के लोगों के आसरे तलाशता फिरता है वह सारी उम्र दुखी होता रहता है। उसकी दुनिया वाली आशाएं भी सिरे नहीं चढ़तीं। जिसके हृदय में सदा परमात्मा की याद टिकी रहती है उसकी सारी जिंदगी सोहावनी बीतती है।
जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा का प्यार टिका रहता है जो मनुष्य परमात्मा के नाम को अपने जीवन का सहारा बनाए रखता है, वह दुनिया के रंग-तमाशों को इसके मुकाबले में होछे समझता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है उसको गुरु की शरण में रख के यह दाति बख्शता है।
जैसे खेत में जो कुछ बीजें वही फसल काटी जा सकती है, वैसे ही शरीर के द्वारा जिस तरह के भी कर्म मनुष्य करता है उस तरह के ही संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते जाते हैं। सो, दुनिया के नाशवान पदार्थों के साथ बनाया हुआ प्यार मनुष्य को सारी उम्र गलत रास्ते पर ही डाले रखता है, और, इन पदार्थों वाला साथ ही आखिर समाप्त हो जाता है। गुरु की शरण पड़ कर कमाया हुआ प्रभु-चरणों का प्यार ही असल साथी है और सुखद है।
परमात्मा की याद के बिना सुख नहीं मिल सकता, सुख हासिल करने के लिए और कोई जगह ही नहीं। पर ये दाति मिलती है गुरु की शरण पड़ने से साधु-संगत में से। गुरु की शरण साधु-संगत का मेल परमात्मा की अपनी मेहर से ही नसीब होता है। सदा उसके दर पर अरदास करते रहना चाहिए- हे पातशाह! हमें अपने साथ जोड़े रख।
परमात्मा की याद से टूटने से दुनिया के सारे दुख-कष्ट प्रभाव डाल लेते हैं, परमात्मा से लंबे विछोड़े पड़ जाते हैं। जिस रंग-तमाशों की खातिर परमात्मा की याद भुलाई जाती है वह भी आखिर में दुखदाई हो जाते हैं। तब दुखी जीव की अपनी कोई पेश नहीं चलती। परमात्मा स्वयं मेहर करके जिस मनुष्य को गुरु की संगति में मिलाता है उसको माया के बंधनो से छुड़ा लेता है।
जो मनुष्य गुरु की संगति में रह के परमात्मा की याद में जुड़ता है, उसका तन-मन सदा खिला रहता है, वह मनुष्य लोक-परलोक में शोभा कमाता है, वह विकारों के हमलों के प्रति सदा सचेत रहता है। पर जो मनुष्य परमात्मा की याद भुलाए रखता है उसकी उम्र दुखों में बीतती है, कामादिक कई वैरी उसको सदा घेरे रहते हैं।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा करने को अपनी जिंदगी की असल कमाई समझता है, महिमा की इनायत से उसके अंदर से स्वार्थ वाला जीवन खत्म हो जाता है, उसके अंदर हर वक्त परमात्मा के दर्शनों की तमन्ना बनी रहती है। दर पर आ के गिरे की फिर परमात्मा भी इज्जत रखता है, और, उस पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।
जो मनुष्य गुरु की संगति में टिक के परमात्मा की महिमा करता है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है; समझो कि उसने अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लिया है; काम क्रोध लोभ आदि किसी भी विकार तले वह दबता नहीं। जिंदगी के इस राह पर चल के वह जगत में शोभा कमा लेता है।
साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा करने से मनुष्य का जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि परमात्मा से उसकी दूरी मिट जाती है, उसके अंदर हर वक्त आनंद बना रहता है, दुख-कष्ट उस पर कोई असर नहीं डाल सकते। उसका ये लोक भी परलोक भी दोनों ही सँवर जाते हैं, संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से वह आसानी से पार लांघ जाता है।
जो भी मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है उसके दुनिया वाले काम भी सिरे चढ़ जाते हैं, और, वह परमात्मा की हजूरी में भी सही स्वीकार हो जाता है। उस मनुष्य के लिए तो सारे ही महीने भाग्यशाली हैं, सारे ही दिन भाग्यों भरे हैं, संग्रांद आदि की विशेष पवित्रता का उसको भुलेखा नहीं रहता। कोई काम करने के वक्त उसको कोई खास महूरत निकालने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती। वह मनुष्य हर वक्त, परमात्मा के दर पर ही अरदास करता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सारा बारहमास लिख के आखिर में गुरु अरजन साहिब जी गुरु नानक देव जी की तरह ही ये चेतावनी कराते हैं कि जो मनुष्य परमात्मा का आसरा लेता है उसके वास्ते सारे दिन एक ही समान हैं। संग्रांद-मसिया आदि वाले दिन कोई खास पवित्र नहीं हैं।
ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥
संग्रांद
बुरी रूहें:
मनुष्य जाति के जीवन में एक वह समय भी आया था कि जब मनुष्य ये समझता था कि कुदरति के हरेक अंग में, धरती हवा पानी में, वृक्षों और पर्वतों में, अंधेरी तुफानों में, कड़कती बिजली और भुचालों में, पशू-पक्षी और मछलियों में, सूर्य-चंद्रमा और तारों में, हर जगह ‘रूहें’ हैं जो मनुष्य की विरोधी हैं। मनुष्य का ये कर्तव्य समझा गया था कि मनुष्य इन ‘रूहों’ को प्रसन्न रखने के प्रयत्न करता रहे ताकि वे इसको सताने से रुकी रहें।
अच्छी रूहें:
फिर समय आया और ‘बुरी रूहों’ के साथ देवते भी शामिल हो गए, इनकी आपस की जंगों की चर्चा भी चल पड़ी। यूनान, चीन, इरान, हिन्दोस्तान पुरानी सभ्यता वाले सारे देशों में यही ख्याल प्रचलित था कि सारी रचना हर जगह कहीं देवताओं तो कहीं दैत्यों का राज है, और हर समय मनुष्य का सुख-दुख इनके ही वश में है। अच्छी रूहों (देवताओं) से कोई सुख हासिल करने के लिए, और, बुरी रूहों की बुरी नज़र से बचने के लिए इन देवताओं और दैत्यों के खास-खास दिन निहित किए गए।
एक ही सर्व-व्यापक विधाता:
धीरे-धीरे मनुष्य को यह बात समझ आ गई कि अलग-अलग रूहें नहीं, बल्कि इस सारी कुदरति को बनाने वाला एक ही विधाता परमात्मा है जो स्वयं ही सबकी पालना करने वाला है। ज्यों-ज्यों ये निष्चय बढ़ता गया, त्यों-त्यों मनुष्य और-और पूजाएं छोड़ के परमात्मा की प्रेमा-भक्ति करने लग पड़ा, देवते-दैत्य आदि बिसरते गए, और उनकी पूजा के लिए निहित किए हुए खास दिन भी भूलते गए। पर ऐसा प्रतीत होता है प्रकृति की और सारी रचना से ज्यादा सूर्य और चँद्रमा ने मनुष्य के मन पर असर डाला हुआ था। इनकी पूजा के लिए निहित किए गए दिन आज तक अपना प्रभाव डाले आ रहे हैं।
दस पर्व:
सूरज-चँद्रमा से संबंध रखने वाले निम्न-लिखित दस दिन पवित्र समझे जा रहे हैं: सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, अमावस्या, पूर्णिमा, रौशन ऐतवार, संक्रांति (संग्रांद), दो एकादशियां और दो अष्टपदियां। इन दसों दिनों को ‘पुरब’ (पर्वन्) (पवित्र दिन) माना जाता है। सूरज देवते से संबंध रखने वाले इनमें से दो दिन हैं: सूर्य ग्रहण और संग्रांद। बाकी के दिन चँद्रमा के हैं। ‘रोशनी ऐतवार’ सूर्य और चाँद दोनों का है। अलग-अलग देवताओं की जगह एक परमात्मा की भक्ति का रिवाज बढ़ने के बावजूद भी इन दस पर्वों के द्वारा इन देवताओं की पूजा और प्यार अभी तक जोबन पर है।
इस प्रभाव का गहराई का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गुरु नानक गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षा की इनायत से जो लोग ‘अन्य पूजा’ छोड़ कर अकाल पुरख को मानने वाले हो चुके थे वह भी अभी सूरज की याद मनानी नहीं छोड़ सके।
संग्रांद क्या है?
शब्द ‘संग्रांद’ संस्कृत के शब्द ‘सांक्रान्ति’ (सांत्रत्रंन्ति) का प्राक्रित व पंजाबी रूप है। इसका अर्थ है ‘सूरज का एक राशि से दूसरी राशि में गुजरना’। ‘सांक्रान्ति’ वह दिन है जब सूरज नई राशि में दाखिल होता है। बिक्रमी साल के इन बारह महीनों का संबंध सूरज की चाल के साथ है। हर देसी महीने की पहली तारीख को सूरज एक ‘राशि’ को छोड़ के दूसरी ‘राशि’ में पैर रखता है। बारह महीने हैं और बारह ही राशियां हैं। जो लोग सूर्य देवता के उपासक हैं, उनके लिए हरेक संक्रान्ति का दिन पवित्र है क्योंकि उस दिन सूर्य देवता एक ‘राशि’ को छोड़ के दूसरी में आता है। उस दिन विशेष तौर पाठ-पूजा की जाती है, ता कि सूर्य-देवता उस नई ‘राशि’ में रहके उपासक के लिए सारा महीना अच्छा गुजारे।
लोक गीत:
अपने देश के लोक-गीतों को ध्यान से देखें, जीवन-यात्रा की हरेक झांकी से संबंध रखते हैं: घोड़ियां, सुहाग, कामण, सिठणीयां, छंद, गिद्धा, लावां और अलाहणीआं आदिक हरेक किस्म के ‘गीत’ मिलते हैं। ऋतुओं के बदलने पर भी नई-नई ऋतुएं के नए-नए ‘लोक गीत’, होली सांवी आदि के गीत। इसी तरह कवियों ने देश-वासियों के जीवन में नए-नए हुलारे पैदा करने के लिए ‘वारें’, सि-हरफियां और ‘बारहमाह’ पढ़ने-सुनने का रिवाज पैदा कर दिया।
गुरु नानक देव जी ने भी:
गुरु नानक देव जी ने इस देश में एक नया जीवन पैदा करना था। वारतक से ज्यादा कविता आकर्षित करती है। कविता के जो छंद पंजाब में ज्यादा प्रचलित थे, सतिगुरु जी ने वही बरते। सतिगुरु जी ने एक ‘बारहमाह’ भी लिखा जो तुखारी राग में दर्ज है। गुरु अरजन साहिब ने भी एक ‘बारहमाह’ लिख के श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में माझ राग में दर्ज किया। पर इन दोनों ‘बारहमाहों’ का सूर्य की ‘संग्रांद’ के साथ कोई संबंध नहीं था रखा गया। ये तो देश में प्रचलित ‘काव्य छंदों’ में से एक किस्म थी। सारी वाणी में कहीं भी कोई ऐसा वचन नहीं मिलता, जहाँ सतिगुरु जी ने साधारण दिनों में से किसी एक खास दिन के अच्छा या बुरा होने का भेद भाव बताया हो।
एक भुलेखा:
कई मनुष्य ये ख्याल करते हैं कि ‘संग्रांद’ आदि दिन विशेष तौर पर मनाए जाने चाहिए, तांकि इस बहाने वे लोग भी अपने धर्म-स्थानों पर आ कर कुछ समय सत्संग में गुजार सकें जो आगे-पीछे कभी समय नहीं निकाल सकते। पर, ये ख्याल बहुत हद तक गलत रास्ते पर डाल देता है, मनुष्य की ‘अस्लियत’ उसके निरे बाहरी कामों से नहीं आँकी जा सकतीं एक मनुष्य किसी दीवान आदि के लिए किसी धार्मिक पंथक कार्य आदि के लिए रुपया दान करता है; पर निरे इस दान से ये अंदाजा लगाना गलत है कि ये मनुष्य मानवता के मापदण्डों पर खरा उतर पड़ा है। हो सकता है किवह धनवान मनुष्य लोगों में सिर्फ शोभा पाने के लिए और चौधरी बनने के लिए ये दान करता हो, और इस तरह ये दान उसके अहंकार को बढ़ाता जाता हो, और इन्सानियत से उसे गिराता जाता हो। ‘दान’ आदिक धार्मिक कर्म का असर मनुष्य के जीवन पर वैसा ही पड़ सकता है जैसी उस काम के करने के वक्त उसकी नीयत हो।
विशेष भाग्यशाली दिन:
जब मनुष्य किसी ‘संग्रांद’ आदि को एक विशेष भाग्यशाली दिन समझता है, और धर्म-स्थान पर जाता है, वह उस दिन ये भी तमन्ना रखता है कि ‘साल के दिन के दिन’ किसी भले के माथे लगूँ। सो, वह किसी खास व्यक्ति के मुँह से ‘महीना’ सुनता है। अगर उस सारे महीने में कोई कष्ट-तकलीफ़ आ जाए तो सहज-सुभाय कहता है कि इस बार ‘साल के दिन के दिन’ फलाना चंदरा माथे लगा था। जिस वहिम-प्रस्ती को हटाने के लिए, जो भेद-भाव दूर करने के लिए, सिख ने गुरुद्वारे जाना है, इस ‘संग्रांद’ को मनाने से वह वहम-प्रस्ती और भेदभाव बल्कि बढ़ते हैं।
रोजाना अरदास:
दरअसल बात ये है कि हरेक मनुष्य में ईश्वर की ज्योति है, और हरेक दिन एक समान है। भाग्यशाली समय सिर्फ वही है जब मनुष्य को परमात्मा चेते आता है। किसी खास दिन नहीं, बल्कि हर रोज सवेरे उठ के इसकी अरदास इस प्रकार होनी चाहिए, “सेई प्यारे मेल, जिनां मिलिआं तेरा नाम चित्त आए”।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यक्ता:
यही निरी फर्जी बात नहीं कि ‘संग्रांद’ के परचे के कारण वहम-प्रस्ती बढ़ रही है। संग्रांद वाले दिन गुरुद्वारे जा के देखें, इसके श्रद्धालुओं की उस दिन तमन्ना होती है कि आज ‘महीने’ वाला शब्द सुनाया जाए, हलांकि, सारी वाणी परमात्मा की महिमा वाली होने के कारण, जिंदगी की रहबरी वाली होने के कारण, एक ही दर्जा रखती है। ‘संग्रांद’ के वहम में ‘वाणी’– ‘वाणी’ में फर्क समझा जाता है, क्योंकि असल नीयत तो ‘वाणी’ सुनने की नहीं होती, सिर्फ ‘महीना’ सुनने की होती है। निरा यही नहीं, श्री दरबार साहिब में ‘संग्रांद’ वाले दिन जा के देखें, वहाँ और ही आश्चर्यजनक खेल बरतती है। ‘आसा दी वार’ के कीर्तन की समाप्ति उपरांत जब ‘बारहमाह’ में ‘महीना’ सुनाना शुरू किया जाता है, तब शुरू में शब्द ‘जेठ’ ‘हाड़’ आदि सुन के सारी पउड़ी को सुनने की जरूरत ही नहीं समझी जाती। ‘महीना’ सुन के ही ‘वाहिगुरू, वाहिगुरू’ कहती हुई बहुत सारी संगत उठ जाती है।
दुकानदारी:
कई दुकानदारों ने इस वहम-प्रस्ती से अजीब किस्म के लाभ उठाने की कोशिश की लगती है। अपनी छापी हुई ‘बीड़ों’ को शायद लोक-प्रिय करने के लिए इस ‘बारहमाह’ को भी वही विशेष रंग-बिरंगा बनाया गया है जैसा कि हरेक ‘राग’ के ‘आरंभ’ को बनाया जाता है।
सूर्य-प्रस्ती का प्रचार बेसमझी सा:
सो हर तरफ से संग्रांद के माध्यम से यह वहम बढ़ रहा है कि सूर्य के नई ‘राशि’ में आने वाला पहला दिन खास तौर पर भाग्यशाली है, और, इस तरह नासमझ सिखों में सूर्य-प्रस्ती का प्रचार किया जा रहा है। इस ‘संग्रांद’ के भ्रम से ‘साल के दिनों के दिन’ के वहम से भी और आगे के भ्रम बढ़ते जा रहे हैं कि आज ‘फलाने-फलाने दिन’ परदेस नहीं जाना, सवेरे-सवेरे हाथ से माया नहीं खरचनी इत्यादिक।
भाई गुरदास जी:
ऐसे भरमों को ही भाई गुरदास जी ने मनमति बता कर सिखों को इनके प्रति सचेत करने की कोशिश की थी, पर हम फिर उधर ही मुड़ते जा रहे हैं। आप लिखते हैं:
“सउण सगन बीचारने नउं ग्रह ‘बारह रासि’ वीचारा॥
कामण टूणे औंसीआं, कणसोई पासार पसारा॥
गदहुं कुत्ते बिलीआं, इल मलाली गिद्दड़ छारा॥
नारि पुरख पाणी अगनि, छिक पद्द हिडकी वरतारा॥
थिती ‘वार’ भद्रा भरम, दिशा सूल सहसा संसारा॥
वल छल करि विशवास लख, बहु चुखीं किउं रवै भतारा॥
गुरमुखि सुख फलु पार–उतारा॥8॥5॥ ”
(कीर्तन, अमृत, करामात आदि विषयों के संबंध में मेरे विचारों के लिए पढ़ें मेरी पुस्तक ‘बुराई दा टाकरा’। सिंघ ब्रदर्ज बाजार माई सेवां अमृतसर से मिलेगी)।