[[0984]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु माली गउड़ा महला ४
मूलम्
रागु माली गउड़ा महला ४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जतन करि रहे हरि अंतु नाही पाइआ ॥ हरि अगम अगम अगाधि बोधि आदेसु हरि प्रभ राइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अनिक जतन करि रहे हरि अंतु नाही पाइआ ॥ हरि अगम अगम अगाधि बोधि आदेसु हरि प्रभ राइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि रहे = करके थक गए। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि बोध = वह जिसकी हस्ती के बारे में बोध करना अथाह है। आदेसु = नमस्कार। प्रभ राइआ = हे प्रभु पातिशाह!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु पातशाह! (तेरे गुणों का अंत पाने के लिए बेअंत जीव) अनेक प्रयत्न कर कर के थक गए हैं, किसी ने तेरा अंत नहीं पाया। हे हरि! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू अथाह है, तुझे कोई नहीं समझ सकता, मेरी तुझे ही नमस्कार है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु लोभु मोहु नित झगरते झगराइआ ॥ हम राखु राखु दीन तेरे हरि सरनि हरि प्रभ आइआ ॥१॥
मूलम्
कामु क्रोधु लोभु मोहु नित झगरते झगराइआ ॥ हम राखु राखु दीन तेरे हरि सरनि हरि प्रभ आइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झगरते = (जीव) झगड़ते रहते हैं। झगराइआ = कामादिक विकारों के झगड़ाए हुए, झगड़ों में डाले हुए। हम = हम जीवों को। दीन = भिखारी।1।
अर्थ: हे प्रभु! काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि विकार इतने बली हैं कि जीव इनके) उकसाए हुए सदा दुनिया के झगड़ों में पड़े रहते हैं। हे प्रभु! हम जीव तेरे दर पर भिखारी हैं, हमें इनसे बचा ले, बचा ले, हम तेरी शरण आए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरणागती प्रभ पालते हरि भगति वछलु नाइआ ॥ प्रहिलादु जनु हरनाखि पकरिआ हरि राखि लीओ तराइआ ॥२॥
मूलम्
सरणागती प्रभ पालते हरि भगति वछलु नाइआ ॥ प्रहिलादु जनु हरनाखि पकरिआ हरि राखि लीओ तराइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरणागती = शरण आए हुओं को। प्रभ = हे प्रभु! भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। नाइआ = (तेरा) नाम। जनु = (तेरा) सेवक। हरनाखि = हरनाखश ने। हरि = हे हरि!।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू शरण पड़ों की रक्षा करने वाला है, हे हरि! ‘भक्ति से प्यार करने वाला’ - ये तेरा (प्रसिद्ध) नाम है। तेरे सेवक प्रहलाद को हरणाक्षस ने पकड़ लिया, हे हरि! तूने उसकी रक्षा की, तूने उसको संकट से बचाया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चेति रे मन महलु पावण सभ दूख भंजनु राइआ ॥ भउ जनम मरन निवारि ठाकुर हरि गुरमती प्रभु पाइआ ॥३॥
मूलम्
हरि चेति रे मन महलु पावण सभ दूख भंजनु राइआ ॥ भउ जनम मरन निवारि ठाकुर हरि गुरमती प्रभु पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेति = स्मरण कर। महलु = (प्रभु के चरणों में) ठिकाना। पावण = प्राप्त करने के लिए। निवारि = दूर कर। ठाकुर = हे ठाकुर! गुरमती = गुरु की मति पर चलने से।3।
अर्थ: हे मन! उस प्रभु के चरणों में ठिकाना प्राप्त करने के लिए सदा उसको याद किया कर, वह पातशाह सारे दुखों का नाश करने वाला है। हे ठाकुर! हे हरि! (हम जीवों का) जनम-मरन का चक्कर दूर कर। हे भाई! गुरु की मति पर चलने से वह प्रभु मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि पतित पावन नामु सुआमी भउ भगत भंजनु गाइआ ॥ हरि हारु हरि उरि धारिओ जन नानक नामि समाइआ ॥४॥१॥
मूलम्
हरि पतित पावन नामु सुआमी भउ भगत भंजनु गाइआ ॥ हरि हारु हरि उरि धारिओ जन नानक नामि समाइआ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। भउ भंजनु = हरेक डर नाश करने वाला। उरि = हृदय में। धारिओ = बसाया। नामि = नाम में।4।
अर्थ: हे भाई! हे स्वामी! तेरा नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है, तू (अपने भगतों का) हरेक डर दूर करने वाला है। हे दास नानक! (कह:) जिस भक्तों ने उसकी महिमा की है, जिन्होंने उसके नाम का हार अपने हृदय में संभाला है, वे उसके नाम में ही सदा लीन रहते हैं।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नामु सुखदाता ॥ सतसंगति मिलि हरि सादु आइआ गुरमुखि ब्रहमु पछाता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नामु सुखदाता ॥ सतसंगति मिलि हरि सादु आइआ गुरमुखि ब्रहमु पछाता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! मिलि = मिल के। सादु = स्वाद, आनंद। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। ब्रहमु पछाता = परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपा कर, परमात्मा सारे सुख देने वाला है। साधु-संगत में मिल के जिस मनुष्य ने प्रभु के नाम का आनंद हासिल किया, उसने गुरु के द्वारा परमात्मा के साथ गहरी सांझ पा ली।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडभागी गुर दरसनु पाइआ गुरि मिलिऐ हरि प्रभु जाता ॥ दुरमति मैलु गई सभ नीकरि हरि अम्रिति हरि सरि नाता ॥१॥
मूलम्
वडभागी गुर दरसनु पाइआ गुरि मिलिऐ हरि प्रभु जाता ॥ दुरमति मैलु गई सभ नीकरि हरि अम्रिति हरि सरि नाता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वाले मनुष्य ने। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। प्रभु जाता = प्रभु के साथ गहरी सांझ बन जाती है। दुरमति = खोटी मति। गई नीकरि = निकल गई। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल में। हरि सरि = हरि के सर में, साधु-संगत में।1।
अर्थ: हे मन! किसी बड़े भाग्यशाली ने ही गुरु दर्शन प्राप्त किया है, (क्योंकि) अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा के साथ सांझ बन जाती है। जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के सरोवर में (साधु-संगत में आत्मिक) स्नान करता है, उसके अंदर से दुमर्ति की सारी मैल निकल जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनु धनु साध जिन्ही हरि प्रभु पाइआ तिन्ह पूछउ हरि की बाता ॥ पाइ लगउ नित करउ जुदरीआ हरि मेलहु करमि बिधाता ॥२॥
मूलम्
धनु धनु साध जिन्ही हरि प्रभु पाइआ तिन्ह पूछउ हरि की बाता ॥ पाइ लगउ नित करउ जुदरीआ हरि मेलहु करमि बिधाता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = (बहुवचन) गुरमुख संत जन। जिनी = जिन्होंने। पाइआ = पा लिया। पूछउ = मैं पूछूँ, पूछता हूँ। पाइ लगउ = पाय लगउं, मैं चरणों में लगता हूँ। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। जुदरीआ = जोदड़ी, अरजोई। करमि = मेहर से, किरपा से। बिधाता = विधाता, निर्माता।2।
अर्थ: हे मेरे मन! भाग्यशाली हैं वे संतजन, जिन्होंने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है। मैं भी (अगर प्रभु की मेहर हो तो) उनसे परमात्मा की महिमा की बातें पूछूँ। मैं उनके चरणों में लगूँ, मैं नित्य उनके आगे अरजोई करूँ कि मेहर करके मुझे विधाता प्रभु का मिलाप करवा दो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिलाट लिखे पाइआ गुरु साधू गुर बचनी मनु तनु राता ॥ हरि प्रभ आइ मिले सुखु पाइआ सभ किलविख पाप गवाता ॥३॥
मूलम्
लिलाट लिखे पाइआ गुरु साधू गुर बचनी मनु तनु राता ॥ हरि प्रभ आइ मिले सुखु पाइआ सभ किलविख पाप गवाता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिलाट = माथा। लिलाट लिखे = माथे के लिखे लेखों के अनुसार। गुर बचनी = गुरु के वचन में। राता = रंगा गया। किलबिख = पाप। गवाता = दूर हो गए।3।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने माथे के लिखे लेखों के अनुसार गुरु महापुरुष पा लिया उसका मन उसका तन गुरु के वचन में रंगा जाता है। (गुरु के द्वारा जिसको) परमात्मा मिल जाता है, उसको आत्मिक आनंद मिल जाता है, उसके सारे पाप विकार दूर हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम रसाइणु जिन्ह गुरमति पाइआ तिन्ह की ऊतम बाता ॥ तिन की पंक पाईऐ वडभागी जन नानकु चरनि पराता ॥४॥२॥
मूलम्
राम रसाइणु जिन्ह गुरमति पाइआ तिन्ह की ऊतम बाता ॥ तिन की पंक पाईऐ वडभागी जन नानकु चरनि पराता ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस। ऊतम बाता = श्रेष्ठ शोभा। पंक = चरण धूल। चरनि = चरणों में। पराता = पड़ता है।4।
अर्थ: हे मन! गुरु की मति ले के जिस मनुष्यों ने सबसे श्रेष्ठ नाम-रस प्राप्त कर लिया, उनकी (लोक-परलोक में) बहुत शोभा होती है; उनके चरणों की धूल बड़े भाग्यों से मिलती है। दास नानक (भी उनके) चरणों पर पड़ता है।4।2।
[[0985]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ४ ॥ सभि सिध साधिक मुनि जना मनि भावनी हरि धिआइओ ॥ अपर्मपरो पारब्रहमु सुआमी हरि अलखु गुरू लखाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ४ ॥ सभि सिध साधिक मुनि जना मनि भावनी हरि धिआइओ ॥ अपर्मपरो पारब्रहमु सुआमी हरि अलखु गुरू लखाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। सिध = योग साधना में पुगे हुए जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। मनि = मन में। भावनी = श्रद्धा, प्यार। अपरंपरो = बेअंत प्रभु। अलखु = अदृष्य। गुरू = गुरु ने। लखाइआ = दिखा दिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस सारे सिद्धों ने, साधिकों ने, मुनियों ने अपने मन में (गुरु चरणों में) श्रद्धा बना के परमात्मा का ध्यान धरा, गुरु ने उनको वह अलख हरि उस अपरंपर पारब्रहम स्वामी (अंदर बसता) दिखा दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम नीच मधिम करम कीए नही चेतिओ हरि राइओ ॥ हरि आनि मेलिओ सतिगुरू खिनु बंध मुकति कराइओ ॥१॥
मूलम्
हम नीच मधिम करम कीए नही चेतिओ हरि राइओ ॥ हरि आनि मेलिओ सतिगुरू खिनु बंध मुकति कराइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। मधिम = मध्यम, हलके मेल का। करम = काम। हरि राइओ = प्रभु पातशाह। आनि = ला के। बंध मुकति = माया के बंधनो से खलासी।1।
अर्थ: हे भाई! हम जीव नीचे और हल्के मेल के काम ही करते रहते हैं, कभी प्रभु-पातशाह का स्मरण नहीं करते। परमात्मा ने जिसको गुरु ला के मिला दिया, गुरु ने उसको एक छिन में माया के बंधनो से निजात दिला दी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभि मसतके धुरि लीखिआ गुरमती हरि लिव लाइओ ॥ पंच सबद दरगह बाजिआ हरि मिलिओ मंगलु गाइओ ॥२॥
मूलम्
प्रभि मसतके धुरि लीखिआ गुरमती हरि लिव लाइओ ॥ पंच सबद दरगह बाजिआ हरि मिलिओ मंगलु गाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। मसतके = (जिसके) माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। गुरमती = गुरु की मति ले के। लिव = लगन। दरगह = जिस प्रभु की हजूरी में। पंच सबदि बाजिआ = पाँच किस्मों के साजों के राग होते रहते हैं (तार, चमड़ा, धात, घड़े, फूक वाले साज)। मंगलु = खुशी के गीत, महिमा के गीत।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने जिस मनुष्य के माथे पर (गुरु मिलाप का) लेख लिख दिया, उसने गुरु की मति ले के परमात्मा में तवज्जो जोड़ ली; जिस परमात्मा की हजूरी में हर वक्त (मानो) पाँचों किस्मों के साजों के राग हो रहे हैं (गुरु की कृपा से) उस मनुष्य को वह परमात्मा मिल गया, वह मनुष्य सदा महिमा के गीत ही गाता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पावनु नामु नरहरि मंदभागीआं नही भाइओ ॥ ते गरभ जोनी गालीअहि जिउ लोनु जलहि गलाइओ ॥३॥
मूलम्
पतित पावनु नामु नरहरि मंदभागीआं नही भाइओ ॥ ते गरभ जोनी गालीअहि जिउ लोनु जलहि गलाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित पावनु = विकारियों को पवित्र करने वाला। नरहरि = परमात्मा। भाइओ = अच्छा लगा। ते = वह (बहुवचन)। गालीअहि = गाले जाते हैं। लोनु = नमक। जलहि = पानी में।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को भी पवित्र करने वाला है, पर बद्-किस्मत लोगों को हरि-नाम प्यारा नहीं लगता। जैसे नमक पानी में पड़ा हुआ गल जाता है, वैसे ही वह (अभागे) लोग (नाम-हीन रह के) अनेक जूनियों में गलाए जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति देहि हरि प्रभ अगम ठाकुर गुर चरन मनु मै लाइओ ॥ हरि राम नामै रहउ लागो जन नानक नामि समाइओ ॥४॥३॥
मूलम्
मति देहि हरि प्रभ अगम ठाकुर गुर चरन मनु मै लाइओ ॥ हरि राम नामै रहउ लागो जन नानक नामि समाइओ ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि प्रभ = हे हरि! हे प्रभु! देहि = (तू) दे। अगम = हे अगम! गुर चरन = गुरु के चरणों में। नामै = नाम में ही। रहउ = रहूँ, मैं रहूँ। नामि समाइओ = (मैं) नाम में लीन रहूँ।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘देहि’ है हुकमी भविष्यत, मध्यम पुरख, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे हरि! हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे ठाकुर! मुझे ऐसी मति दे कि मैं गुरु के चरणों में अपना मन जोड़े रखूँ, (गुरु की कृपा से) मैं हरि-नाम में ही जुड़ा रहूँ, मैं हरि नाम में ही लीन रहूँ।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ४ ॥ मेरा मनु राम नामि रसि लागा ॥ कमल प्रगासु भइआ गुरु पाइआ हरि जपिओ भ्रमु भउ भागा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ४ ॥ मेरा मनु राम नामि रसि लागा ॥ कमल प्रगासु भइआ गुरु पाइआ हरि जपिओ भ्रमु भउ भागा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम नामि = राम के नाम में। कमल प्रगासु = (हृदय के) कमल फूल का खेड़ा। भ्रमु = भटकना। भउ = डर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जबसे (मुझे) गुरु मिला है मेरे (हृदय-) कमल फूल का खिलाव हो गया है, मेरा मन प्रभु के नाम में जुड़ा रहता है हरि-नाम के स्वाद में मगन रहता है; मैं परमात्मा का नाम जप रहा हूँ, और (मेरे अंदर से) हरेक किस्म की भटकना हरेक किस्म का डर दूर हो गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै भाइ भगति लागो मेरा हीअरा मनु सोइओ गुरमति जागा ॥ किलबिख खीन भए सांति आई हरि उर धारिओ वडभागा ॥१॥
मूलम्
भै भाइ भगति लागो मेरा हीअरा मनु सोइओ गुरमति जागा ॥ किलबिख खीन भए सांति आई हरि उर धारिओ वडभागा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै = भय में, डर में, अदब में। भाइ = (भाय) प्यार में। हीअरा = हृदय। मनु सोइओ = सोया हुआ मन। किलबिख = पाप। खीन भए = नाश हो गए। उर धारिओ = हृदय में बसा लिया।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति की इनायत से मेरा सोया हुआ मन जाग उठा है, मेरा हृदय अदब से, प्रेम से प्रभु की भक्ति में लगा रहता है। बहुत बड़े भाग्यों से मैंने परमात्मा को अपने अंदर बसा लिया है, अब मेरे सारे पाप नाश हो गए हैं और मेरे अंदर ठंडक बरत रही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु रंगु कसु्मभु है कचूआ जिउ कुसम चारि दिन चागा ॥ खिन महि बिनसि जाइ परतापै डंडु धरम राइ का लागा ॥२॥
मूलम्
मनमुखु रंगु कसु्मभु है कचूआ जिउ कुसम चारि दिन चागा ॥ खिन महि बिनसि जाइ परतापै डंडु धरम राइ का लागा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। कसुंभु = कुसंभ का फूल। कचूआ = कच्चा। कुसम = फूल। चागा = चंगा, अच्छा। परतापै = दुखी होता है। डंडु = दण्ड, सज़ा।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह कच्चे रंग वाला कुसंभ (का फूल) ही है, कुसंभ के फूल का रंग चार दिन ही चटख रहता है। (उसके अंदर से) सुख एक छिन में ही नाश हो जाता है, वह (सदा) दुखी रहता है, सिर पर धर्मराज का डंडा कायम रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतसंगति प्रीति साध अति गूड़ी जिउ रंगु मजीठ बहु लागा ॥ काइआ कापरु चीर बहु फारे हरि रंगु न लहै सभागा ॥३॥
मूलम्
सतसंगति प्रीति साध अति गूड़ी जिउ रंगु मजीठ बहु लागा ॥ काइआ कापरु चीर बहु फारे हरि रंगु न लहै सभागा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ कापरु = शरीर रूपी कपड़ा। चीर = कपड़े। सभागा = भाग्य वाला, भाग्यशाली।3।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में रह कर गुरु (के चरणों) से बहुत गाढ़ा प्यार बनता है (वह प्यार इस प्रकार ही पक्का होता है) जैसे मजीठ का रंग बहुत पक्का होता है, (मजीठ से रंगे हुए) कपड़े फट चाहे जाएं (पर रंग नहीं उतरता)। शरीर-कपड़ा नाश चाहे हो जाए, पर इसका हरि-नाम वाला भाग्यशाली रंग नहीं उतरता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चार्हिओ रंगु मिलै गुरु सोभा हरि रंगि चलूलै रांगा ॥ जन नानकु तिन के चरन पखारै जो हरि चरनी जनु लागा ॥४॥४॥
मूलम्
हरि चार्हिओ रंगु मिलै गुरु सोभा हरि रंगि चलूलै रांगा ॥ जन नानकु तिन के चरन पखारै जो हरि चरनी जनु लागा ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि चलूलै = गाढ़े रंग में। पखारै = धोता है। जनु = सेवक।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, गुरु उसको परमात्मा का नाम-रंग चढ़ा देता है, वह मनुष्य हरि-नाम के गाढ़े रंग में रंगा रहता है (लोक-परलोक में वह) शोभा (कमाता है)। जो जो सेवक-भक्त परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहता है, दास नानक उनके चरण धोता है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ४ ॥ मेरे मन भजु हरि हरि नामु गुपाला ॥ मेरा मनु तनु लीनु भइआ राम नामै मति गुरमति राम रसाला ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ४ ॥ मेरे मन भजु हरि हरि नामु गुपाला ॥ मेरा मनु तनु लीनु भइआ राम नामै मति गुरमति राम रसाला ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! भजु = जपा कर। गुपाला = सृष्टि के पालक का। नामै = नाम में। रसाला = (रस+आलय) रसों का घर, सारे रसों का खजाना।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जगत के पालनहार प्रभु का नाम सदा जपा कर। (हे भाई! नाम जपने की इनायत से ही) मेरा मन मेरा तन (भाव, सारी ज्ञान-इंद्रिय) परमात्मा के नाम में ही लीन रहती हैं, मेरी मति गुरु की मति में लीन हो गई है, परमात्मा मुझे सारे रसों का खजाना दिखाई दे रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति नामु धिआईऐ हरि हरि मनि जपीऐ हरि जपमाला ॥ जिन्ह कै मसतकि लीखिआ हरि मिलिआ हरि बनमाला ॥१॥
मूलम्
गुरमति नामु धिआईऐ हरि हरि मनि जपीऐ हरि जपमाला ॥ जिन्ह कै मसतकि लीखिआ हरि मिलिआ हरि बनमाला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। मनि = मन में। जपीऐ = जपना चाहिए। जपमाला = जाप। कै मसतकि = के माथे पर। बनमाला हरि = बनवाली हरि।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति ले के परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए, मन में हरि का जाप जपना चाहिए। जगत का मालिक प्रभु उन लोगों को (ही) मिलता है जिनके माथे पर ये लेख लिखा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह हरि नामु धिआइआ तिन्ह चूके सरब जंजाला ॥ तिन्ह जमु नेड़ि न आवई गुरि राखे हरि रखवाला ॥२॥
मूलम्
जिन्ह हरि नामु धिआइआ तिन्ह चूके सरब जंजाला ॥ तिन्ह जमु नेड़ि न आवई गुरि राखे हरि रखवाला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चूके = समाप्त हो गए। सरब = सारे। नेड़ि = नजदीक। जमु = मौत (का सहम), आत्मिक मौत। गुरि = गुरु ने।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम जपा, उनके सारे मायावी बंधन समाप्त हो गए। (आत्मिक) मौत उनके नजदीक नहीं फटकती, गुरु ने उनको बचा लिया, परमात्मा (स्वयं उनका) रखवाला बना।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम बारिक किछू न जाणहू हरि मात पिता प्रतिपाला ॥ करु माइआ अगनि नित मेलते गुरि राखे दीन दइआला ॥३॥
मूलम्
हम बारिक किछू न जाणहू हरि मात पिता प्रतिपाला ॥ करु माइआ अगनि नित मेलते गुरि राखे दीन दइआला ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न जाणहू = (हम) नहीं जानते। करु = हाथ। अगनि = आग। गुरि = गुरु ने।3।
अर्थ: हे भाई! हम जीव तो बच्चे हैं (हम अपना हानि-लाभ) कुछ नहीं समझते; पर परमात्मा माता-पिता की तरह हमारी पालना करने वाला है। (बच्चे सदा आग में हाथ डालते हैं, पर माता-पिता बचाते हैं) हम माया की आग में हाथ डालते रहते हैं (मन फसाते रहते हैं), पर दीनों पर दया करने वाले गुरु ने सदा हमारी रक्षा की है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु मैले निरमल होइआ सभ किलबिख हरि जसि जाला ॥ मनि अनदु भइआ गुरु पाइआ जन नानक सबदि निहाला ॥४॥५॥
मूलम्
बहु मैले निरमल होइआ सभ किलबिख हरि जसि जाला ॥ मनि अनदु भइआ गुरु पाइआ जन नानक सबदि निहाला ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलबिख = पाप। जसि = जस से। जाला = जला दिए हैं। सबदि = गुरु के शब्द से। निहाल = प्रसन्न।4।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के नाम से) बड़े-बड़े विकारी पवित्र हो गए हैं; हरि-यश ने (उनके) सारे पाप जला दिए हैं। हे दास नानक! जिस मनुष्य को गुरु मिल गया, उसके मन में आनंद पैदा हो गया, गुरु के शब्द की इनायत से वह निहाल हो गया।4।5।
[[0986]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ४ ॥ मेरे मन हरि भजु सभ किलबिख काट ॥ हरि हरि उर धारिओ गुरि पूरै मेरा सीसु कीजै गुर वाट ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ४ ॥ मेरे मन हरि भजु सभ किलबिख काट ॥ हरि हरि उर धारिओ गुरि पूरै मेरा सीसु कीजै गुर वाट ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! भजु = भजन कर। किलबिख = पाप। उर = हृदय। गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। सीसु = सिर। कीजै = करना चाहिए (भेंट)। वाट = रास्ता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपा कर, हरि का नाम सारे पाप दूर करने वाला है। पर ये हरि-नाम सदा पूरे गुरु ने ही (प्राणी के) हृदय में बसाया है, (मेरे अच्छे भाग्य हों, यदि) मेरा सिर (ऐसे) गुरु के रास्ते में (भेटा) किया जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे हरि प्रभ की मै बात सुनावै तिसु मनु देवउ कटि काट ॥ हरि साजनु मेलिओ गुरि पूरै गुर बचनि बिकानो हटि हाट ॥१॥
मूलम्
मेरे हरि प्रभ की मै बात सुनावै तिसु मनु देवउ कटि काट ॥ हरि साजनु मेलिओ गुरि पूरै गुर बचनि बिकानो हटि हाट ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। बार = महिमा की बात। तिसु = उस (मनुष्य) को। देवउ = देऊँ, मैं दूँ। कटि = काट के। मेलिओ = मिलाया। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। गुर बचनि = गुरु के वचनों द्वारा। हटि = हाट पर। हटि हाट = हाट हाट पर, दुकान दुकान पर।1।
अर्थ: हे भाई! जो कोई मुझे प्यारे प्रभु की महिमा की बात सुनाए, मैं उसको अपना मन टुकड़े-टुकड़े कर के दे दूँ। हे भाई! पूरे गुरु ने ही सज्जन प्रभु मिलाया है। गुरु के वचनों की इनायत से मैं उसका हाट-हाट बिका (हुआ गुलाम) बन चुका हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मकर प्रागि दानु बहु कीआ सरीरु दीओ अध काटि ॥ बिनु हरि नाम को मुकति न पावै बहु कंचनु दीजै कटि काट ॥२॥
मूलम्
मकर प्रागि दानु बहु कीआ सरीरु दीओ अध काटि ॥ बिनु हरि नाम को मुकति न पावै बहु कंचनु दीजै कटि काट ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मकर = मकर राशि के वक्त, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, माघ की संक्रांति को। प्रागि = प्रयाग तीर्थ पर। काटि = काट के (करवत्र से काशी जा के)। को = कोई भी मनुष्य। कंचनु = सोना। दीजै = अगर दिया जाए।2।
अर्थ: हे भाई! किसी ने तो माघ की संक्रांति पर प्रयाग तीर्थ पर (जा के) बहुत दान किया, किसी ने काशी जा के करवत्र से अपना शरीर दो-फाड़ करवा लिया (पर ये सब कुछ व्यर्थ ही गया, क्योंकि) परमात्मा के नाम के स्मरण के बिना कोई भी मनुष्य मुक्ति (विकारों से निजात) हासिल नहीं कर सकता, चाहे तीर्थों पर जा के बहुत सारा सोना भी थोड़ा-थोड़ा करके अनेक को दान कर दिया जाए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कीरति गुरमति जसु गाइओ मनि उघरे कपट कपाट ॥ त्रिकुटी फोरि भरमु भउ भागा लज भानी मटुकी माट ॥३॥
मूलम्
हरि कीरति गुरमति जसु गाइओ मनि उघरे कपट कपाट ॥ त्रिकुटी फोरि भरमु भउ भागा लज भानी मटुकी माट ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = महिमा। गुरमति = गुरु की मति ले के। जसु = महिमा, यश। मनि = मन में। कपट कपाट = किवाड़। त्रिकुटी = (त्रि = तीन। कुटी = टेढ़ी लकीर) माथे पर पड़ी तीन टेढ़ी लकीरें, त्योड़ी, मन की खीझ। फोरि = तोड़ के, देर करके। भरमु = भटकना। भउ = डर (एकवचन)। लज = लोक-सम्मान (की)। मटुकी = छोटी सी मटकी।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की मति पर चल कर परमात्मा की महिमा की, प्रभु का यश गाया, उसके मन के भीतर के किवाड़ खुल गए (मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गई)। महिमा की इनायत से मन की खीझ दूर करने से जिस मनुष्य के अंदर से हरेक किस्म का वहम और डर दूर हो गया, उसकी लोक-सम्मान की मटुकी भी टूट गई (जो वह सदा अपने सिर पर उठाए फिरता था)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलजुगि गुरु पूरा तिन पाइआ जिन धुरि मसतकि लिखे लिलाट ॥ जन नानक रसु अम्रितु पीआ सभ लाथी भूख तिखाट ॥४॥६॥ छका १ ॥
मूलम्
कलजुगि गुरु पूरा तिन पाइआ जिन धुरि मसतकि लिखे लिलाट ॥ जन नानक रसु अम्रितु पीआ सभ लाथी भूख तिखाट ॥४॥६॥ छका १ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलजुगि = कलजुग में, कष्ट भरे जगत में। तिन्ह = (बहुचवचन) उन्होंने। जिन्ह मसतकि = जिनके माथे पर। लिलाट = माथा। धुरि = धर से, प्रभु के हुक्म अनुसार। रसु अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। सभ = सारी। तिखाट = तिख, त्रेह, प्यास।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) इस जगत में पूरा गुरु उन प्राणियों ने ही पाया है, जिनके माथे पर धुर से ही ऐसे लेख लिखे होते हैं। (ऐसे लोगों ने जब गुरु की कृपा से) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया, उनकी माया वाली सारी भूख-प्यास उतर गई।4।6।
दर्पण-टिप्पनी
छका = छक्का, छह शबदों का जोड़।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन टहल हरि सुख सार ॥ अवर टहला झूठीआ नित करै जमु सिरि मार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मन टहल हरि सुख सार ॥ अवर टहला झूठीआ नित करै जमु सिरि मार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टहल हरि = परमात्मा की सेवा भक्ति। सार = श्रेष्ठ। करै = करता है। जमु = मौत, आत्मिक मौत। सिरि = सिर पर। मार = चोट।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा की सेवा-भक्ति असल सुख देने वाली है। अन्य (लोगों की) टहलें व्यर्थ हैं, (और-और टहलों खुशामदों के कारण) आत्मिक मौत (मनुष्य के) सिर पर सदा सवार रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिना मसतकि लीखिआ ते मिले संगार ॥ संसारु भउजलु तारिआ हरि संत पुरख अपार ॥१॥
मूलम्
जिना मसतकि लीखिआ ते मिले संगार ॥ संसारु भउजलु तारिआ हरि संत पुरख अपार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। ते = वह लोग (बहुवचन)। संगार = सतसंग में। भउजलु = समुंदर। अपार = बेअंत।1।
अर्थ: हे मन! जिस मनुष्यों के माथे पर (अच्छे भाग्य) लिखे होते हैं वह सत्संग में मिलते हैं, (सत्संग में) बेअंत और सर्व-व्यापक हरि के संत-जन (उनको) संसार-समुंदर से पार लंघा देते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित चरन सेवहु साध के तजि लोभ मोह बिकार ॥ सभ तजहु दूजी आसड़ी रखु आस इक निरंकार ॥२॥
मूलम्
नित चरन सेवहु साध के तजि लोभ मोह बिकार ॥ सभ तजहु दूजी आसड़ी रखु आस इक निरंकार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध के = गुरु के। तजि = छोड़ के। आसड़ी = काई आस।2।
अर्थ: हे मन! लोभ-मोह आदि विकार छोड़ के सदा गुरु के चरणों में पड़ा रह। हे मन! प्रभु के बिना किसी और की कोई आस त्याग दे। एक परमात्मा की ही आस रख।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि भरमि भूले साकता बिनु गुर अंध अंधार ॥ धुरि होवना सु होइआ को न मेटणहार ॥३॥
मूलम्
इकि भरमि भूले साकता बिनु गुर अंध अंधार ॥ धुरि होवना सु होइआ को न मेटणहार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई लोग। भरमि = भुलेखे में। भूले = गलत रास्ते पर पड़े हुए।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
साकत = प्रभु से टूटे हुए। अंध अंधार = बिल्कुल अंधे, आत्मिक जीवन की ओर से बिल्कुल अंधे। धुरि = धुर से, प्रभु की रजा के अनुसार। को = कोई भी जीव। मेटणहार = मिटा सकने लायक।3।
अर्थ: हे मन! कई ऐसे लोग (जगत में) हैं, जो परमात्मा से टूटे रहते हैं, और (माया की) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं, गुरु के बिना वे आत्मिक जीवन से बिल्कुल ही अंधे होते हैं। (पर, उनके भी क्या वश?) प्रभु की रजा के अनुसार जो होना होता है वही हो के रहता है। उस होनी को कोई भी जीव मिटा नहीं सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम रूपु गोबिंद का अनिक नाम अपार ॥ धनु धंनु ते जन नानका जिन हरि नामा उरि धार ॥४॥१॥
मूलम्
अगम रूपु गोबिंद का अनिक नाम अपार ॥ धनु धंनु ते जन नानका जिन हरि नामा उरि धार ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। धनु धंनु = भाग्यशाली। ते जन = वह लोग। उरि = हृदय में।4।
अर्थ: हे मन! परमात्मा की हस्ती अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत प्रभु के अनेक ही नाम हैं (उसके अनेक गुणों के कारण)। हे नानक! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जिन्होंने परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाया हुआ है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ ॥ राम नाम कउ नमसकार ॥ जासु जपत होवत उधार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ ॥ राम नाम कउ नमसकार ॥ जासु जपत होवत उधार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। नमसकार = सिर झुकाओ, आदर से हृदय में बसाओ। जासु जपत = जिसका जाप करने से। उधार = उद्धार, (संसार समुंदर से) पार उतारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम जपने से (संसार-समुंदर से) पार उतारा हो जाता है, उसके नाम को आदर-सत्कार से अपने हृदय में बसाए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै सिमरनि मिटहि धंध ॥ जा कै सिमरनि छूटहि बंध ॥ जा कै सिमरनि मूरख चतुर ॥ जा कै सिमरनि कुलह उधर ॥१॥
मूलम्
जा कै सिमरनि मिटहि धंध ॥ जा कै सिमरनि छूटहि बंध ॥ जा कै सिमरनि मूरख चतुर ॥ जा कै सिमरनि कुलह उधर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै सिमरनि = जिस (प्रभु) का स्मरण करने से। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। धंध = धंधे, जंजाल। बंध = बंधन, जंजाल। कुलह उधर = सारी कुल का पार उतारा।1।
अर्थ: जिसके स्मरण से माया के जंजाल मिट जाते हैं (मन पर प्रभाव नहीं डाल सकते), मोह के जंजाल टूट जाते हैं, सारी कुल का ही पार-उतारा हो जाता है (उसको सदा नमस्कार करता रह)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै सिमरनि भउ दुख हरै ॥ जा कै सिमरनि अपदा टरै ॥ जा कै सिमरनि मुचत पाप ॥ जा कै सिमरनि नही संताप ॥२॥
मूलम्
जा कै सिमरनि भउ दुख हरै ॥ जा कै सिमरनि अपदा टरै ॥ जा कै सिमरनि मुचत पाप ॥ जा कै सिमरनि नही संताप ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरै = (मनुष्य) दूर कर लेता है। अपदा = आपदा, बिपता। टरै = टल जाती है। मुचत = समाप्त हो जाती है। संताप = कष्ट।2।
अर्थ: जिसके नाम-जपने की इनायत से मनुष्य हरेक डर व सारे दुख दूर कर लेता है, जिसके स्मरण से (हरेक) विपत्ति (मनुष्य के सिर से) टल जाती है। जिसके स्मरण से सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है। जिसके स्मरण से कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकता (उस प्रभु को सदा सिर झुकाता रह)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै सिमरनि रिद बिगास ॥ जा कै सिमरनि कवला दासि ॥ जा कै सिमरनि निधि निधान ॥ जा कै सिमरनि तरे निदान ॥३॥
मूलम्
जा कै सिमरनि रिद बिगास ॥ जा कै सिमरनि कवला दासि ॥ जा कै सिमरनि निधि निधान ॥ जा कै सिमरनि तरे निदान ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिद बिगास = हृदय का खिलाव। कवला = माया। दासि = दासी। निधि = नौ निधियां। निधान = खजाने। तरे = पार लांघ जाता है। निदान = अंत को, आखिर में।3।
अर्थ: जिसका स्मरण करने से हृदय खिला रहता है, माया (भी) दासी बन जाती है, (इस लोक में, मानो) सारी निधियां और सारे खजाने (मिल जाते हैं), और अंत में मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है (उसको सदा स्मरण करता रह)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पावनु नामु हरी ॥ कोटि भगत उधारु करी ॥ हरि दास दासा दीनु सरन ॥ नानक माथा संत चरन ॥४॥२॥
मूलम्
पतित पावनु नामु हरी ॥ कोटि भगत उधारु करी ॥ हरि दास दासा दीनु सरन ॥ नानक माथा संत चरन ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पावनु = पवित्र करने वाला। कोटि = करोड़ों। करी = करता है। दीनु = निमाणा। संत चरन = संतों के चरणों पर। नानक माथा = नानक का माथा।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है, हरि-नाम करोड़ों भक्तों का उद्धार करता है। नानक का माथा भी संतों के चरणों पर पड़ा है, ये निमाणा भी प्रभु के दासों के दासों की शरण आया है (ता कि नानक को भी परमात्मा का नाम मिल जाए)।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ ॥ ऐसो सहाई हरि को नाम ॥ साधसंगति भजु पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ ॥ ऐसो सहाई हरि को नाम ॥ साधसंगति भजु पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसो = इस प्रकार का, ऐसा (जैसा आगे बताया जा रहा है)। सहाई = मददगार। को = का। भजु = जपा कर। काम = काम, उद्देश्य।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (टिक के) परमात्मा का नाम जपा कर। तेरे सारे उद्देश्य पूरे होते रहेंगे। हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह मददगार होता है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बूडत कउ जैसे बेड़ी मिलत ॥ बूझत दीपक मिलत तिलत ॥ जलत अगनी मिलत नीर ॥ जैसे बारिक मुखहि खीर ॥१॥
मूलम्
बूडत कउ जैसे बेड़ी मिलत ॥ बूझत दीपक मिलत तिलत ॥ जलत अगनी मिलत नीर ॥ जैसे बारिक मुखहि खीर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूडत = डूबते। कउ = को। बूझत = बुझ रहे। दीपक = दीया। तिलत = तेल। अगनी = आग (में)। जलत = जलते हुए को। नीर = पानी। मुखहि = मुँह में। खीर = दूध।1।
अर्थ: जैसे डूब रहे को बेड़ी मिल जाए, जैसे बुझ रहे दीए को तेल मिल जाए जैसे आग में जल रहे को पानी मिल जाए, जैसे (भूख से बिलख रहे) बच्चे के मुँह में दूध पड़ जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे रण महि सखा भ्रात ॥ जैसे भूखे भोजन मात ॥ जैसे किरखहि बरस मेघ ॥ जैसे पालन सरनि सेंघ ॥२॥
मूलम्
जैसे रण महि सखा भ्रात ॥ जैसे भूखे भोजन मात ॥ जैसे किरखहि बरस मेघ ॥ जैसे पालन सरनि सेंघ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रण = लड़ाई, युद्ध। सखा = सहायक। भ्रात = भाई। भोजन मात = भोजन मात्र, सिर्फ भोजन ही। किरखहि = खेती को। बरस मेघ = बादल का बरसना। पालन = रक्षा। सेंघ = सिंघ, सिंह, शेर, बहादर।2।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह सहायक होता है) जैसे युद्ध में भाई मददगार होता है, जैसे किसी भूखे को भोजन ही सहायक होता है, जैसे खेती को बादलों का बरसना, जैसे (किसी अनाथ को) शेर (बहादुर) की शरण में रक्षा मिलती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरुड़ मुखि नही सरप त्रास ॥ सूआ पिंजरि नही खाइ बिलासु ॥ जैसो आंडो हिरदे माहि ॥ जैसो दानो चकी दराहि ॥३॥
मूलम्
गरुड़ मुखि नही सरप त्रास ॥ सूआ पिंजरि नही खाइ बिलासु ॥ जैसो आंडो हिरदे माहि ॥ जैसो दानो चकी दराहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरुड़ = गारुड़ मंत्र। मुखि = मुँह में। सरप = साँप। त्रास = डर। सूआ = तोता। पिंजरि = पिंजरे में। बिलासु = बिल्ला। आंडो = (कूँज का) अण्डा। हिरदे माहि = याद में। दानो = दाने। चकी दराहि = चक्की के दर पे, चक्की की किल्ली से।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह सहायक होता है) जैसे जिसके मुँह में गारुड़ मंत्र हो उसको साँप का डर नहीं होता, जैसे पिंजरे में बैठे तोते को बिल्ला नहीं खा सकता, जैसे कुँज की याद में टिके हुए उसके अण्डे (खराब नहीं होते), जैसे दाने चक्के की किल्ली से (टिके हुए पिसने से बचे रहते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुतु ओपमा थोर कही ॥ हरि अगम अगम अगाधि तुही ॥ ऊच मूचौ बहु अपार ॥ सिमरत नानक तरे सार ॥४॥३॥
मूलम्
बहुतु ओपमा थोर कही ॥ हरि अगम अगम अगाधि तुही ॥ ऊच मूचौ बहु अपार ॥ सिमरत नानक तरे सार ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओपमा = उपमा, दृष्टांत। थोर = थोड़ी ही। कही = कही है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = अथाह। तुही = तू ही (सहायता करने वाला)। मूचौ = बड़ा। सार = लोहा, विकारों से भरे हुए, लोहे की तरह भारे।4।
अर्थ: हे भाई! मैंने तो ये थोड़े से ही दृष्टांत दिए हैं, बहुत सारे बताए जा सकते हैं (कि परमात्मा का नाम सहायता करता है)। हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे अथाह हरि! तू ही (जीवों का रक्षक है)। हे हरि! तू ऊँचा है, तू बड़ा है, तू बेअंत है। हे नानक! (कह:) नाम स्मरण करने से पापों से लोहे की तरह भारे हो चुके जीव भी संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ ॥ इही हमारै सफल काज ॥ अपुने दास कउ लेहु निवाजि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ ॥ इही हमारै सफल काज ॥ अपुने दास कउ लेहु निवाजि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इही = यही, यह (संत = शरण) ही। हमारै = मेरे लिए, मेरे हृदय में। सफल = कामयाब। काज = काम, उद्देश्य। कउ = को। लेहु निवाजि = निवाज लो, निवाज कर, मेहर कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! अपने दास (नानक) पर मेहर कर (और संत जनों की शरण बख्श), ये (संत-शरण) ही मेरे वास्ते मनोरथों को सफल करने वाली है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन संतह माथ मोर ॥ नैनि दरसु पेखउ निसि भोर ॥ हसत हमरे संत टहल ॥ प्रान मनु धनु संत बहल ॥१॥
मूलम्
चरन संतह माथ मोर ॥ नैनि दरसु पेखउ निसि भोर ॥ हसत हमरे संत टहल ॥ प्रान मनु धनु संत बहल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतह = संतों के। माथ मोर = मेरा माथा। नैनी = आँखों से। पेखउ = देखूँ, देखता रहूँ। निसि = रात। भोर = दिन। हसत = हाथ (बहुवचन)। संत बहल = संतों की टहल, संतों के अर्पण।1।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मेरा माथा संतों के चरणों पर (पड़ा रहे), आँखों से दिन-रात मैं संतो के दर्शन करता रहूँ, मेरे हाथ संतों की टहल करते रहें, मेरी जिंद मेरा मन मेरा धन संतों के अर्पण रहे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगि मेरे मन की प्रीति ॥ संत गुन बसहि मेरै चीति ॥ संत आगिआ मनहि मीठ ॥ मेरा कमलु बिगसै संत डीठ ॥२॥
मूलम्
संतसंगि मेरे मन की प्रीति ॥ संत गुन बसहि मेरै चीति ॥ संत आगिआ मनहि मीठ ॥ मेरा कमलु बिगसै संत डीठ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। बसहि = बसते हैं। मेरै चीति = मेरे चिक्त में। मनहि = मन में। कमलु = हृदय कमल फूल। बिगसै = खिल उठे।2।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) संतों से मेरे मन का प्यार बना रहे, संतों के गुण मेरे चिक्त में बसे रहें, संतों का हुक्म मुझे मीठा लगे, संतों को देख के मेरा हृदय-कमल खिला रहे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगि मेरा होइ निवासु ॥ संतन की मोहि बहुतु पिआस ॥ संत बचन मेरे मनहि मंत ॥ संत प्रसादि मेरे बिखै हंत ॥३॥
मूलम्
संतसंगि मेरा होइ निवासु ॥ संतन की मोहि बहुतु पिआस ॥ संत बचन मेरे मनहि मंत ॥ संत प्रसादि मेरे बिखै हंत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवासु = बसेवा। मोहि = मुझे। पिआस = तमन्ना। मनहि = मन में। मंत = मंत्र। प्रसादि = कृपा से। बिखै = विषौ विकार। हंत = नाश हो जाते हैं।3।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) संतों से मेरा बैठना-उठना बना रहे, संतों के दर्शनों की चाहत मेरे अंदर टिकी रहे, संतों के वचन-मंत्र मेरे मन में टिके रहें, संतों की कृपा से मेरे सारे विकार नाश हो जाएं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकति जुगति एहा निधान ॥ प्रभ दइआल मोहि देवहु दान ॥ नानक कउ प्रभ दइआ धारि ॥ चरन संतन के मेरे रिदे मझारि ॥४॥४॥
मूलम्
मुकति जुगति एहा निधान ॥ प्रभ दइआल मोहि देवहु दान ॥ नानक कउ प्रभ दइआ धारि ॥ चरन संतन के मेरे रिदे मझारि ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकति जुगति = विकारों से मुक्ति पाने का तरीका। निधान = खजाने। प्रभ = हे प्रभु! मोहि = मुझे। रिदे मझारि = हृदय में (बसे रहें)।4।
अर्थ: हे दया के घर प्रभु! मुझे (संत जनों की संगति का) दान दे, संतों की संगति ही मेरे वास्ते सारे खजाने हैं, संतों का संग करना ही विकारों से मुक्ति प्राप्त करने का तरीका है। हे प्रभु! नानक पर दया कर कि संतों के चरण मुझ नानक के हृदय में बसते रहें।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ ॥ सभ कै संगी नाही दूरि ॥ करन करावन हाजरा हजूरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ ॥ सभ कै संगी नाही दूरि ॥ करन करावन हाजरा हजूरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगी = साथ। सभ कै संगी = सभ कै संगि, सभ जीवों के साथ। करन करावन = स्वयं करने और जीवों से करा सकने वाला। हाजरा हजूरि = सब जगह मौजूद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं सब कुछ कर सकता है जीवों से करवा सकता है, वह हर जगह मौजूद है, सब जीवों के साथ बसता है, किसी से भी दूर नहीं है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत जीओ जासु नामु ॥ दुख बिनसे सुख कीओ बिस्रामु ॥ सगल निधि हरि हरि हरे ॥ मुनि जन ता की सेव करे ॥१॥
मूलम्
सुनत जीओ जासु नामु ॥ दुख बिनसे सुख कीओ बिस्रामु ॥ सगल निधि हरि हरि हरे ॥ मुनि जन ता की सेव करे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीओ = आत्मिक जीवन मिलता है। जासु = (यस्य) जिस का। बिस्राम = निवास। सगल = सारे। निधि = खजाने, निधिआं। ता की = उस परमात्मा की।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम सुनने से आत्मिक जीवन मिलता है, सारे दुख दूर हो जाते हैं और (हृदय में) सुख ठिकाना आ बनाते हैं, सब ऋषि-मुनि उसकी भक्ति करते हैं, (संसार के) सारे ही खजाने उस परमात्मा के पास हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै घरि सगले समाहि ॥ जिस ते बिरथा कोइ नाहि ॥ जीअ जंत्र करे प्रतिपाल ॥ सदा सदा सेवहु किरपाल ॥२॥
मूलम्
जा कै घरि सगले समाहि ॥ जिस ते बिरथा कोइ नाहि ॥ जीअ जंत्र करे प्रतिपाल ॥ सदा सदा सेवहु किरपाल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै घरि = के घर में। सगल = सारे जीव।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
बिरथा = खाली, बगैर। जीअ = जीव।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! उस कृपाल प्रभु की भक्ति सदा ही करते रहो, जिसके घर में सारे ही (खजाने) टिके हुए हैं, जिस (के दर) से कोई जीव खाली नहीं जाता, जो सब जीवों की पालना करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा धरमु जा कै दीबाणि ॥ बेमुहताज नही किछु काणि ॥ सभ किछु करना आपन आपि ॥ रे मन मेरे तू ता कउ जापि ॥३॥
मूलम्
सदा धरमु जा कै दीबाणि ॥ बेमुहताज नही किछु काणि ॥ सभ किछु करना आपन आपि ॥ रे मन मेरे तू ता कउ जापि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरमु = इन्साफ। जा कै दीबाणि = जिस की कचहरी में। काणि = अधीनता। ता कउ = उस को।3।
अर्थ: हे मेरे मन! तू उस प्रभु का नाम जपा कर जो स्वयं ही सब कुछ करने के समर्थ है, जो बेमुथाज है जिसको किसी की अधीनता नहीं, और जिसकी कचहरी में सदा न्याय होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगति कउ हउ बलिहार ॥ जासु मिलि होवै उधारु ॥ नाम संगि मन तनहि रात ॥ नानक कउ प्रभि करी दाति ॥४॥५॥
मूलम्
साधसंगति कउ हउ बलिहार ॥ जासु मिलि होवै उधारु ॥ नाम संगि मन तनहि रात ॥ नानक कउ प्रभि करी दाति ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को, से। हउ = अहम्। बलिहार = सदके। जासु मिलि = जिस को मिल के। उधारु = पार उतारा। संगि = साथ। मन तनहि = मन में तन में। रात = से भीगा, रंगा हुआ। प्रभि = प्रभु ने। करी = की।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं गुरु की संगति से कुर्बान जाता हूँ जिसको मिल के (परमात्मा का नाम मिलता है, और संसार-समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है। प्रभु ने (गुरु के माध्यम से) जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शी, वह नाम से रंगा रहता है, उसके मन में तन में नाम (बसा रहता है)।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि समरथ की सरना ॥ जीउ पिंडु धनु रासि मेरी प्रभ एक कारन करना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि समरथ की सरना ॥ जीउ पिंडु धनु रासि मेरी प्रभ एक कारन करना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = सब ताकतों का मालिक। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत, पूंजी। कारन करना = (करना = सृष्टि। कारन = मूल) सृष्टि का मूल।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं तो उस परमात्मा की शरण पड़ा हूँ जो सब ताकतों का मालिक है। मेरी जिंद, मेरा शरीर, मेरा धन, मेरी संपत्ति, सब कुछ वह परमात्मा ही है जो सारे जगत का मूल है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरि सिमरि सदा सुखु पाईऐ जीवणै का मूलु ॥ रवि रहिआ सरबत ठाई सूखमो असथूल ॥१॥
मूलम्
सिमरि सिमरि सदा सुखु पाईऐ जीवणै का मूलु ॥ रवि रहिआ सरबत ठाई सूखमो असथूल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। पाईऐ = प्राप्त करता है। मूलु = सहारा, आदि। सरबत ठाई = सब जगह। सूखम = बहुत ही बारीक, अदृष्य चीजें। असथूल = बहुत मोटे पदार्थ।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के सदा आत्मिक आनंद हासिल करता है, हरि-नाम ही जिंदगी का सहारा है। इन दिखाई देते-ना दिखाई देते पदार्थों में सब जगह परमात्मा ही मौजूद है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
आल जाल बिकार तजि सभि हरि गुना निति गाउ ॥ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै देहु अपना नाउ ॥२॥१॥६॥
मूलम्
आल जाल बिकार तजि सभि हरि गुना निति गाउ ॥ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै देहु अपना नाउ ॥२॥१॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आल = (आलय) घर। आल जाल = घर के जंजाल। तजि = छोड़ के। नित = सदा। गाउ = गाया करो। कर = (दोनों) हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। मांगै = माँगता है।2।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह के जंजाल छोड़ के विकार त्याग के सदा परमात्मा के गुण गाया कर। दास नानक (तो अपने दोनों) हाथ जोड़ के (यही) दान माँगता है (कि हे प्रभु! मुझे) अपन नाम दे।2।1।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ ॥ प्रभ समरथ देव अपार ॥ कउनु जानै चलित तेरे किछु अंतु नाही पार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ ॥ प्रभ समरथ देव अपार ॥ कउनु जानै चलित तेरे किछु अंतु नाही पार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! देव = हे प्रकाश रूप! अपार = हे बेअंत! जानै = जानता है। चलित = तमाशे, करिश्मे। पार = परला छोर।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! हे सब ताकतों के मालिक! हे प्रकाश रूप! हे बेअंत! तेरे करिश्मों को कोई भी नहीं जान सकता। तेरे करिश्मों का अंत नहीं पाया जा सकता, परला छोर (उस पार को) नहीं पाया जा सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक खिनहि थापि उथापदा घड़ि भंनि करनैहारु ॥ जेत कीन उपारजना प्रभु दानु देइ दातार ॥१॥
मूलम्
इक खिनहि थापि उथापदा घड़ि भंनि करनैहारु ॥ जेत कीन उपारजना प्रभु दानु देइ दातार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खिनहि = खिन में। थापि = पैदा करके। उथापदा = नाश करता है। घड़ि = घड़ के। भंनि = तोड़ के। करनैहारु = सब कुछ कर सकने वाला। जेत उपारजना = जितनी भी सृष्टि। कीन = पैदा की है। देइ = देता है। दातार = दातें देने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! सब कुछ कर सकने वाला परमात्मा घड़ के पैदा करके (उसको) एक छिन में तोड़ के नाश कर देता है। हे भाई! जितनी भी सृष्टि उसने पैदा की है, दातें देने वाला वह प्रभु (सारी सृष्टि को) दान देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि सरनि आइओ दासु तेरा प्रभ ऊच अगम मुरार ॥ कढि लेहु भउजल बिखम ते जनु नानकु सद बलिहार ॥२॥२॥७॥
मूलम्
हरि सरनि आइओ दासु तेरा प्रभ ऊच अगम मुरार ॥ कढि लेहु भउजल बिखम ते जनु नानकु सद बलिहार ॥२॥२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि! प्रभ = हे प्रभु! ऊच = हे सबसे ऊँचे! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! मुरार = हे मुरारि! भउजल बिखम ते = मुश्किल संसार समुंदर से। ते = से, में से। सद = सदा।2।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! हे सबसे ऊँचे! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे मुरारि! तेरा दास (नानक) तेरी शरण आया है। (अपने दास को) मुश्किल संसार-समुंदर में से बाहर निकाल ले। दास नानक तुझसे सदा सदके जाता है।2।2।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा महला ५ ॥ मनि तनि बसि रहे गोपाल ॥ दीन बांधव भगति वछल सदा सदा क्रिपाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माली गउड़ा महला ५ ॥ मनि तनि बसि रहे गोपाल ॥ दीन बांधव भगति वछल सदा सदा क्रिपाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। गोपाल = सृष्टि का पालक। दीन बांधव = गरीबों का सहायक। भगति वछल = भक्ति से प्यार करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे सृष्टि के पालक! गरीबों के सहायक! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे सदा ही कृपालु! तुम ही मेरे मन में बस रहे हो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि अंते मधि तूहै प्रभ बिना नाही कोइ ॥ पूरि रहिआ सगल मंडल एकु सुआमी सोइ ॥१॥
मूलम्
आदि अंते मधि तूहै प्रभ बिना नाही कोइ ॥ पूरि रहिआ सगल मंडल एकु सुआमी सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = (जगत के) आरम्भ से। अंते = (जगत के) आखिर में। मधि = (जगत के) बीच में, अब भी। सगल मंडल = सारे मण्डलों में। पूरि रहिआ = भरपूर है, व्यापक है।1।
अर्थ: हे प्रभु! (जगत रचना के) आरम्भ में तू ही था, (जगत के) अंत में भी तू ही होगा, अब भी तू ही है (सदा कायम रहने वाला)। हे भाई! प्रभु के बिना कोई और (सदा कायम रहने वाला) नहीं। हे भाई! एक मालिक प्रभु ही सारे भवनों में व्यापक है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करनि हरि जसु नेत्र दरसनु रसनि हरि गुन गाउ ॥ बलिहारि जाए सदा नानकु देहु अपणा नाउ ॥२॥३॥८॥६॥१४॥
मूलम्
करनि हरि जसु नेत्र दरसनु रसनि हरि गुन गाउ ॥ बलिहारि जाए सदा नानकु देहु अपणा नाउ ॥२॥३॥८॥६॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करनि = कान से। नेत्र = आँखों से। रसनि = जीभ से। गाउ = मैं गाता हूँ। बलिहार जाए = कुर्बान जाता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं कानों से हरि की सिफति-सालाह (सुनता हूँ), आँखों से हरि के दर्शन (करता हूँ) जीभ से हरि के गुण गाता हूँ। (हे भाई! प्रभु का दास) नानक सदा उससे कुर्बान जाता है (और उसके दर पर अरदास करता है: हे प्रभु!) मुझे अपना नाम बख्श।2।3।8।6।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माली गउड़ा बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
माली गउड़ा बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनि धंनि ओ राम बेनु बाजै ॥ मधुर मधुर धुनि अनहत गाजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनि धंनि ओ राम बेनु बाजै ॥ मधुर मधुर धुनि अनहत गाजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंनि = धन्य, बलिहार जाने योग्य। राम बेनु = राम (जी) की बाँसुरी। बाजै = बज रही है। मधुर = मीठी। धुनि = सुर। अनहत = एक रस। गाजै = गरज रही है, गुँजार डाल रही है।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदके हूँ राम जी की बाँसुरी से जो बज रही है, बड़ी मीठी सुर से एक रस गुँजार डाल रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनि धनि मेघा रोमावली ॥ धनि धनि क्रिसन ओढै कांबली ॥१॥
मूलम्
धनि धनि मेघा रोमावली ॥ धनि धनि क्रिसन ओढै कांबली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेघा = मेंढा। रोमावली = रोम+आवली, रोमों की कतार, ऊन। ओढै = ओढ़ता है, पहनता है।1।
अर्थ: सदके हूँ उस मेंढे की ऊन से, सदके हूँ उस कंबली से जो कृष्ण जी पहन रहे हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनि धनि तू माता देवकी ॥ जिह ग्रिह रमईआ कवलापती ॥२॥
मूलम्
धनि धनि तू माता देवकी ॥ जिह ग्रिह रमईआ कवलापती ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह ग्रिहि = जिसके घर में (पैदा हुए)। रमईआ = सुंदर राम जी। कवलापती = कमला के पति, लक्ष्मी के पति, विष्णु, कृष्ण जी।2।
अर्थ: हे माँ देवकी! तुझसे (भी) कुर्बान हूँ, जिसके घर में सुंदर राम जी, कृष्ण जी (पैदा हुए)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनि धनि बन खंड बिंद्राबना ॥ जह खेलै स्री नाराइना ॥३॥
मूलम्
धनि धनि बन खंड बिंद्राबना ॥ जह खेलै स्री नाराइना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनखंड = जंगल का हिस्सा, वन का खण्ड। बिंद्राबन = (सं: वृंदावन) तुलसी का जंगल।3।
अर्थ: धन्य है जंगल का वह भाग, वह वृंदावन, जहाँ श्री नारायण जी (कृष्ण रूप में) खेलते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेनु बजावै गोधनु चरै ॥ नामे का सुआमी आनद करै ॥४॥१॥
मूलम्
बेनु बजावै गोधनु चरै ॥ नामे का सुआमी आनद करै ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेनु = बँसरी। गोधनु = गाएं (गायों का रूप धन)। चरै = चरता है। आनदु = खुशी, करिश्मा।4।
अर्थ: नामदेव का प्रभु (कृष्ण रूप में) बाँसुरी बजा रहा है, गाएं चरा रहा है, और (ऐसे ही और भी) रंग बना रहा है।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इन्सानी स्वभाव में ये बात कुदरती तौर पर समाई हुई है कि मनुष्य को अपने किसी अति प्यारे के साथ संबंध रखने वाली चीजें प्यारी लगती हैं। भाई गुरदास जी लिखते हैं;
लैला दी दरगाह दा कुक्ता देखि मजनूँ लोभाणा॥
कुत्ते दी पैरी पवै, हड़ि हड़ि हसै लोक विडाणा॥
गुरु के प्यार में बिके हुए गुरु अमरदास जी भी लिखते हैं;
‘धन जननी जिनि जाइआ, धंनु पिता परधानु॥ सतगुरु सेवि सुखु पाइआ, विचहु गइआ गुमानु॥ दरि सेवनि संत जन खड़े, पाइनि गुणी निधानु॥१॥१६॥४९॥ (सिरी रागु म: ३)
इसी तरह;
‘जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरु, सो थानु सुहावा….” (आसा महला ४ छंत)
गुरु से सदके हो रहे गुरु रामदास जी गुरु के शरीर और गुरु की जीभ से भी कुर्बान होते हैं;
सो धंनु गुरू साबासि है, हरि देइ सनेहा॥ हउ वेखि वेखि गुरू विगसिआ, गुर सतिगुर देहा॥१७॥ (देहा–शरीर)
गुर रसना अंम्रितु बोलदी, हरि नामि सुहावी॥ जिनि सुणि सिखा गुरु मंनिआ, तिना भुख सभ जावी॥१८॥२॥ (तिलंग म: २)
जिस जीव-स्त्री ने पति-प्रभु के साथ लावें लेनी हैं, उसके लिए चार लावों में से ये दूसरी लांव है कि वह प्यारे के साथ संबंध रखने वालों के साथ भी प्यार करे। (पढ़ें मेरी पुस्तक ‘बुराई का टाकरा’ में लेख ‘लावाँ’)।
हिन्दू मत में वैसे तो 24 अवतारों का वर्णन आता है, पर असल में दो ही मुख्य अवतार हैं जिनको सुन के देख के मुँह से वाह-वाह निकल सकती है और उनके कादर कर्तार की याद प्यार से आ सकता है। ये हैं श्री राम चंद्र जी और श्री कृष्ण जी। ये मनुष्यों में आ के मनुष्यों की तरह दुख-सुख सहते रहे और इन्सानी दिल के ताउस की प्यार-तरबें हिलाते रहे। इन दोनों में भी; श्री कृष्ण जी के जीवन में प्यार के करिश्मे ज्यादा मिलते हैं। श्री रामचंद्र जी तो राज-महलों में जन्मे-पले और बाद में भी इन्होंने राज ही किया; पर कृष्ण जी का जन्म ही दुखों से आरम्भ हुआ, गरीब ग्वालाओं में पले, ग्वालों के साथ मिल के इन्होंने गाएं चराई और बाँसुरी बजाई। गरीबों में मिल के रच-मिच के रहने वाला ही गरीब को प्यारा लग सकता है। ये कृष्ण जी ही थे जिन्होंने निर्भय हो के कहा;
विद्या विनय सपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्निनि॥
शुति चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ॥
दर्पण-भाव
भाव: विद्वान ब्राहमण, गाय, हाथी, कुत्ते आदि सभी में ही एक ज्योति है। गरीबों में पला, गरीबों से प्यार करने वाला कुदरती तौर पर गरीबों को प्यारा लगना ही था। उसकी बँसुरी, उसकी कँबली, उसका वृंदावन, ‘प्यार’ का चिन्ह बन गए, जैसे, हजरत मुहम्म्द साहिब की काली कंबली; जैसे नीचों को ऊँचा करने वाले बली मर्द पातशाह की कलगी और बाज़।
दर्पण-टिप्पनी
ब्राहमण ने नीच जाति वालों को बड़ी निर्दयता से पैरों तले लिताड़ा हुआ था, ये कौन सा भारतवासी नहीं जानता? अगर गरीब ग्वाले अन्य शूद्र कभी ईश्वरी-प्यार के हुलारे में आएं, तो उस प्यार को आँखों से दिखाई देते किस स्वरूप में बयान करें? भारत में गुरु नानक साहिब पातशाह से पहले अपने युग में एक ही प्रसिद्ध प्यारा आया था; चाहे उसको भी समय पा के ब्राहमण ने मंदिर में बँद करके गरीबों व शूद्रों से छीन लिया।
सो, ‘प्यार’ को साकार रूप में बयान करने के लिए कृष्ण जी की बाँसुरी और कमली का जिक्र आना इन्सानी स्वभाव के लिए एक साधारण कुदरती बात है। भाई गुरदास जी तो लैला-मजनूँ, हीर-रांझा, सस्सी-पन्नू को भी इस रंग-भूमि में ले आए हैं।
बस! इस शब्द में इसी उच्च कुदरती वलवले का प्रकाश है। पर, कहीं कोई सज्जन इस भुलेखे में ना पड़ जाए कि नामदेव जी किसी कृष्ण-मूर्ति अथवा बीठल-मूर्ति के पुजारी थे, इस भ्रम को दूर करने के लिए भक्त जी खुद ही शब्द ‘राम’ और ‘रमईया’ भी बरतते हैं और बताते हैं कि हमारा प्रीतम, स्वामी (उसको ‘राम’ कह लो, ‘नारायण’ कह लो) कृष्ण-रूप में आया और गरीब ग्वालों के संग बाँसुरी बजाता रहा।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रीत का स्वरूप–प्यारे से संबंध रखने वाली रह चीज प्यारी लगती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरो बापु माधउ तू धनु केसौ सांवलीओ बीठुलाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरो बापु माधउ तू धनु केसौ सांवलीओ बीठुलाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माधउ = हे माधो! हे प्रभु! धनु = धन्य, प्रशंसा योग्य। केसौं = (सं: कैशव केशा: प्रशास्ता: सन्दि अस्य) लंबे केसों वाला प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे माधव! हे लंबे केसों वाले प्रभु! हे साँवले रंग वाले प्रभु! हे बीठुल! तू धन्य है, तू मेरा पिता है (भाव, तू ही मुझे पैदा करने वाला और रखवाला है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर धरे चक्र बैकुंठ ते आए गज हसती के प्रान उधारीअले ॥ दुहसासन की सभा द्रोपती अ्मबर लेत उबारीअले ॥१॥
मूलम्
कर धरे चक्र बैकुंठ ते आए गज हसती के प्रान उधारीअले ॥ दुहसासन की सभा द्रोपती अ्मबर लेत उबारीअले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर = हाथों में। धरे = धर के, ले के। ते = से। प्रान = जिंद। हसती = हाथी। अंबर लेत = कपड़े उतारते हुए। उबारीअले = (इज्जत) बचाई।1।
अर्थ: हे माधो! हाथों में चक्र पकड़ के बैकुंठ से (ही) आया था और हाथी के प्राण (तेंदूए से) तूने ही बचाए थे। हे साँवले प्रभु! दुस्शासन की सभा में जब द्रोपदी के वस्त्र उतारे जा रहे थे तब उसकी इज्जत भी तूने ही बचाई थी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोतम नारि अहलिआ तारी पावन केतक तारीअले ॥ ऐसा अधमु अजाति नामदेउ तउ सरनागति आईअले ॥२॥२॥
मूलम्
गोतम नारि अहलिआ तारी पावन केतक तारीअले ॥ ऐसा अधमु अजाति नामदेउ तउ सरनागति आईअले ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोतम नारि = गौतम ऋषि की पत्नी। पावन = पवित्र किए। केतक = कई जीव। अधमु = नीच। अजाति = नीच जाति वाला। तउ = तेरी।2।
अर्थ: हे बीठल! गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को (जो ऋषि के श्राप से शिला बन गई थी) तूने ही मुक्त किया था; हे माधव! तूने (अनेक पतितों को) पवित्र किया और उनका उद्धार कियाहै।
मैं नामदेव (भी) एक बहुत ही नीच हूँ और नीच जाति वाला हूँ, मैं तेरी शरण आया हूँ (मेरा भी उद्धार कर)।2।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: नामदेव जी इस शब्द में जिसको अपना पैदा करने वाला कह रहे हैं, और जिसकी शरण पड़ते हैं उसको कई नामों से संबोधित करते हैं, जैसे माधो, कैशव, साँवला, बीठुल। माधो, सांवला और बीठुल तो कृष्ण जी के नाम कहे जा सकते हैं, पर ‘केशव’ विष्णु का नाम है। जिस-जिस की रक्षा का जिक्र आया है, उन सभी का सामना कृष्ण जी से नहीं पड़ा। पौराणिक साखियों के अनुसार द्रोपदी की लाज कृष्ण जी ने रखी थी; पर अहिल्या का उद्धार करने वाले तो श्री रामचंद्र जी थे। एक अवतार का भक्त दूसरे अवतार का पुजारी नहीं हो सकता। द्रोपदी और अहिल्या दोनों को अलग-अलग युगों में उद्धार करने वाला नामदेव जी को कोई वह दिख रहा है जो सिर्फ एक युग में नहीं, सदा ही कायम रहने वाला है, वह है नामदेव जी का वह प्रभु, जो उनको नारायण, कृष्ण जी और रामचंद्र जी सब में दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में ये कह लो कि नामदेव जी इस शब्द में निर्मल परमात्मा के आगे विनती कर रहे हैं।
दर्पण-भाव
भाव: नाम-जपने की महिमा-जो जो भी प्रभु की शरण आता है, प्रभु उसको आपदा से बचा लेता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभै घट रामु बोलै रामा बोलै ॥ राम बिना को बोलै रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सभै घट रामु बोलै रामा बोलै ॥ राम बिना को बोलै रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभै घट = सारे घटों में। रामा = राम ही। रे = हे भाई! को = कौन?।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सारे घटों (शरीरों) में परमात्मा बोलता है, परमात्मा ही बोलता है, परमात्मा के बिना और कोई नहीं बोलता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकल माटी कुंजर चीटी भाजन हैं बहु नाना रे ॥ असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे ॥१॥
मूलम्
एकल माटी कुंजर चीटी भाजन हैं बहु नाना रे ॥ असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकल माटी = एक ही मिट्टी से। कुंजर = कुंचर, हाथी। चीटी = कीड़ी। भाजन = बरतन। नाना = कई किस्मों के। रे = हे भाई! असथावरु = (वृक्ष पर्वत आदि वह पदार्थ) जो एक जगह टिके रहते हैं। जंगम = चलने फिरने हिलने जुलने वाले जीव-जंतु। कीट = कीड़े। घटि घटि = हरेक घट में।1।
अर्थ: हे भाई! जैसे एक ही मिट्टी से कई किस्मों के बर्तन बनाए जाते हैं, वैसे ही हाथी से ले के कीड़ी तक, निर्जीव और सजीव जीव, कीड़े-पतंगे हरेक घट में परमात्मा ही समाया हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकल चिंता राखु अनंता अउर तजहु सभ आसा रे ॥ प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे ॥२॥३॥
मूलम्
एकल चिंता राखु अनंता अउर तजहु सभ आसा रे ॥ प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकल अनंता = एक प्रभु की। चिंता = ध्यान, तवज्जो। तजहु = छोड़ दे। निहकाम = वासना रहित। को…दासा = उस दास और उसके ठाकुर में फर्क नहीं रह जाता।2।
अर्थ: हे भाई! और सबकी आशा छोड़, एक बेअंत प्रभु का ध्यान धर (जो सबमें मौजूद है)। नामदेव विनती करता है: जो मनुष्य (प्रभु का ध्यान धर के) निष्काम हो जाता है उसमें और प्रभु में कोई भिन्न-भेद नहीं रह जाता।2।3।
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा घट-घट में मौजूद है। और आशाएं छोड़ के उसी का आसरा लेना चाहिए।