१९ नट नाराइन

[[0975]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु नट नाराइन महला ४

मूलम्

रागु नट नाराइन महला ४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपि अहिनिसि नामु हरे ॥ कोटि कोटि दोख बहु कीने सभ परहरि पासि धरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपि अहिनिसि नामु हरे ॥ कोटि कोटि दोख बहु कीने सभ परहरि पासि धरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। कोटि = करोड़। दोख = पाप। परहरि = दूर करके। पासि धरे = किनारे रखे रह जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम दिन-रात (सदा) जपा कर। अगर अनेक और करोड़ों पाप भी किए हुए हों, तो (परमात्मा का नाम) सबको दूर कर के (मनुष्य के हृदय में से) किनारे फेंक देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपहि आराधहि सेवक भाइ खरे ॥ किलबिख दोख गए सभ नीकरि जिउ पानी मैलु हरे ॥१॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपहि आराधहि सेवक भाइ खरे ॥ किलबिख दोख गए सभ नीकरि जिउ पानी मैलु हरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपहि = जपते हैं। आराधहि = जपते हैं। सेवक भाइ = सेवकों वाली भावना से। खरे = अच्छे, सच्चे जीवन वाले। किलबिख = पाप। गए नीकरि = निकल गए। हरे = दूर करता है।1।
अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य सेवक-भावना से परमात्मा का नाम जपते हैं, वह सच्चे जीवन वाले बन जाते हैं। (जो प्राणी नाम जपता है उसके अंदर से) सारे विकार सारे पाप (इस तरह) निकल जाते हैं, जैसे पानी (कपड़ों की) मैल दूर कर देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिनु खिनु नरु नाराइनु गावहि मुखि बोलहि नर नरहरे ॥ पंच दोख असाध नगर महि इकु खिनु पलु दूरि करे ॥२॥

मूलम्

खिनु खिनु नरु नाराइनु गावहि मुखि बोलहि नर नरहरे ॥ पंच दोख असाध नगर महि इकु खिनु पलु दूरि करे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नरु नाराइनु = परमात्मा (कृष्ण जी का नाम)। मुखि = मुँह से। नर नरहरे = परमात्मा। पंच = पाँच। असाध = काबू में ना आ सकने वाले। करे = कर देता है। नगर = शरीर नगर।2।
अर्थ: हे मेरे मन! (जो मनुष्य) हर छिन (हर पल) परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं मुँह से परमात्मा का नाम उचारते रहते हैं, (कामादिक) पाँच विकार जो काबू में नहीं आ सकते और जो (आम तौर पर जीवों के) शरीर में (टिके रहते हैं), (परमात्मा का नाम उनके शरीर में से) एक पल एक छिन में ही दूर कर देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागी हरि नामु धिआवहि हरि के भगत हरे ॥ तिन की संगति देहि प्रभ जाचउ मै मूड़ मुगध निसतरे ॥३॥

मूलम्

वडभागी हरि नामु धिआवहि हरि के भगत हरे ॥ तिन की संगति देहि प्रभ जाचउ मै मूड़ मुगध निसतरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडभागी = भाग्यशाली। हरे = हरि के। प्रभू = हे प्रभु! जाचउ = याचना करता हूँ, मैं माँगता हूँ। मुगध = मूर्ख। निसतरे = निस्तारा हो जाता है, पार लांघ जाते हैं।3।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग बहुत भाग्यशाली लोग परमात्मा का नाम (हर वक्त) स्मरण करते रहते हैं। हे प्रभु! ऐसे भक्तों की संगति मुझे बख्श! मेरे जैसे अनेक मूर्ख (उनकी संगति में रह के संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रिपा क्रिपा धारि जगजीवन रखि लेवहु सरनि परे ॥ नानकु जनु तुमरी सरनाई हरि राखहु लाज हरे ॥४॥१॥

मूलम्

क्रिपा क्रिपा धारि जगजीवन रखि लेवहु सरनि परे ॥ नानकु जनु तुमरी सरनाई हरि राखहु लाज हरे ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग जीवन = हे जगत के जीवन प्रभु! जनु = दास। लाज = इज्जत। हरे = हे हरि!।4।
अर्थ: हे जगत के आसरे प्रभु! मेहर कर, मेहर कर, मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, मुझे (इन पाँचों से) बचा ले। हे हरि! तेरा दास नानक तेरी शरण आया है (नानक की) इज्जत रख ले।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ राम जपि जन रामै नामि रले ॥ राम नामु जपिओ गुर बचनी हरि धारी हरि क्रिपले ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ राम जपि जन रामै नामि रले ॥ राम नामु जपिओ गुर बचनी हरि धारी हरि क्रिपले ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपि = जप के। नामि = नाम में। रले = लीन हो जाते हैं। जन = दास। गुर बचनी = गुरु के वचनों द्वारा। क्रिपले = कृपा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जप के परमात्मा के सेवक परमात्मा के नाम में ही लीन हो जाते हैं। (पर) गुरु के वचन पर चल के परमात्मा का नाम (सिर्फ उस मनुष्य ने) जपा है (जिस पर) परमात्मा ने खुद मेहर की है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि अगम अगोचरु सुआमी जन जपि मिलि सलल सलले ॥ हरि के संत मिलि राम रसु पाइआ हम जन कै बलि बलले ॥१॥

मूलम्

हरि हरि अगम अगोचरु सुआमी जन जपि मिलि सलल सलले ॥ हरि के संत मिलि राम रसु पाइआ हम जन कै बलि बलले ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) इन्द्रियों की पहुँच से परे। मिलि = मिल के। सलल = पानी। सलले = पानी में। जन कै = जनों से। बलि बलले = बलिहार, सदके।1।
अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, इन्द्रियों के माध्यम से उस तक पहुँच नहीं हो सकती। उसके भक्त उसका नाम जप के (ऐसे हो जाते हैं जैसे) पानी में पानी मिल के (एक रूप हो जाता है)। हे भाई! जिस संत जनों ने (साधु-संगत में) मिल के परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है, मैं उन संत जनों से सदके हूँ, कुर्बान हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरखोतमु हरि नामु जनि गाइओ सभि दालद दुख दलले ॥ विचि देही दोख असाध पंच धातू हरि कीए खिन परले ॥२॥

मूलम्

पुरखोतमु हरि नामु जनि गाइओ सभि दालद दुख दलले ॥ विचि देही दोख असाध पंच धातू हरि कीए खिन परले ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखोतमु = उत्तम पुरख, सर्व व्यापक प्रभु। जनि = (जिस) जन ने। सभि = सारे। दालद = दलिद्र। दलले = दले गए। देही = शरीर। पंच धातू = पाँच कामादिक विकार। परले = प्रलय, नाश।2।
अर्थ: हे भाई! जिस सेवक ने उत्तम पुरख प्रभु का नाम जपा, प्रभु ने उसके सारे दुख-दलिद्र नाश कर दिए। मानव-शरीर में कामादिक पाँच बली विकार बसते हैं, (नाम जपने वाले के अंदर से) प्रभु ये विकार एक छिन में नाश कर देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के संत मनि प्रीति लगाई जिउ देखै ससि कमले ॥ उनवै घनु घन घनिहरु गरजै मनि बिगसै मोर मुरले ॥३॥

मूलम्

हरि के संत मनि प्रीति लगाई जिउ देखै ससि कमले ॥ उनवै घनु घन घनिहरु गरजै मनि बिगसै मोर मुरले ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। ससि = चंद्रमा। कमले = कमल फूल को। उनवै = झुकता है। घनु = बादल। घन = बहुत। घनिहरु = बादल। गरजै = गरजता है। बिगसै = खुश होता है। मोर मुरले = नृत्य करने वाला मोर।3।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों के मन में परमात्मा ने (अपने चरणों में) प्रीति इस तरह लगाई है, जैसे (चकोर) चंद्रमा को (प्यार से) देखता है, जैसे (भँवरा) कमल के फूल को देखता है, जैसे नाचता हुआ मोर अपने मन में (तब) खुश होता है (जब) बादल झुकते हैं और बहुत गरजते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरै सुआमी लोच हम लाई हम जीवह देखि हरि मिले ॥ जन नानक हरि अमल हरि लाए हरि मेलहु अनद भले ॥४॥२॥

मूलम्

हमरै सुआमी लोच हम लाई हम जीवह देखि हरि मिले ॥ जन नानक हरि अमल हरि लाए हरि मेलहु अनद भले ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोच = तमन्ना, लगन। जीवह = हम जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। मिले = मिल के। अमल = (अफीम आदि जैसा) नशा। भले = सोहणे।4।
अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक प्रभु ने मेरे अंदर (अपने नाम की) लगन लगा दी है, मैं उसको देख-देख के उसके चरणों में जुड़ के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! तूने खुद ही मुझे अपने नाम का नशा लगाया है, मुझे (अपने चरणों में) जोड़े रख, इसी में ही मुझे सुंदर आनंद है।4।2।

[[0976]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि हरि नामु सखे ॥ गुर परसादी हरि नामु धिआइओ हम सतिगुर चरन पखे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि हरि नामु सखे ॥ गुर परसादी हरि नामु धिआइओ हम सतिगुर चरन पखे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सखे = सखा, मित्र। परसादी = कृपा से। पखे = धोए।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का नाम जपा कर। (हरि नाम ही असल) मित्र है। (पर जिसने भी) परमात्मा का नाम (जपा है) गुरु की कृपा से ही जपा है। (इस वास्ते) मैं भी सतिगुरु के चरण धोता हूँ (गुरु की शरण ही पड़ा हूँ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊतम जगंनाथ जगदीसुर हम पापी सरनि रखे ॥ तुम वड पुरख दीन दुख भंजन हरि दीओ नामु मुखे ॥१॥

मूलम्

ऊतम जगंनाथ जगदीसुर हम पापी सरनि रखे ॥ तुम वड पुरख दीन दुख भंजन हरि दीओ नामु मुखे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगंनाथ = हे जगत के नाथ! जगदीसुर = हे जगत के ईश्वर! रखे = रक्षा। दीन दुख भंजन = दीनों के दुखों का नाश करने वाला। मुखे = मुखि, मुख में।1।
अर्थ: हे सबसे श्रेष्ठ! हे जगत के नाथ! हे जगत ईश्वर! मैं पापी हूँ, पर तेरी शरण में आ पड़ा हूँ, मेरी रक्षा कर। तू बड़ा पुरख है, तू दीनों के दुखों का नाश करने वाला है। हे हरि! (जिसके ऊपर तू मेहर करता है, उसके) मुँह में तू अपना नाम देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुन ऊच नीच हम गाए गुर सतिगुर संगि सखे ॥ जिउ चंदन संगि बसै निमु बिरखा गुन चंदन के बसखे ॥२॥

मूलम्

हरि गुन ऊच नीच हम गाए गुर सतिगुर संगि सखे ॥ जिउ चंदन संगि बसै निमु बिरखा गुन चंदन के बसखे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखे संगि = मित्र (गुरु) के साथ। संगि = साथ। बिरखा = वृक्ष। बसखे = बस जाते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण बहुत ऊँचे हैं, हम जीव निचले स्तर के हैं। पर गुरु सतिगुरु मित्र की संगति में मैं प्रभु के गुण गाता हूँ। जैसे (अगर) चंदन के साथ नीम (का) वृक्ष उगा हुआ हो, तो उसमें चँदन के गुण आ बसते हैं (वैसे ही मेरा हाल हुआ है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरे अवगन बिखिआ बिखै के बहु बार बार निमखे ॥ अवगनिआरे पाथर भारे हरि तारे संगि जनखे ॥३॥

मूलम्

हमरे अवगन बिखिआ बिखै के बहु बार बार निमखे ॥ अवगनिआरे पाथर भारे हरि तारे संगि जनखे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। बिखै = विषियों के। निमख = आँख झपकने जितना समय। खे = के, दे। संगि जन खे = संत जनों की संगति में।3।
अर्थ: हे भाई! हम जीव माया के विषियों के विकार अनेक बार घड़ी-मुड़ी करते रहते हैं। हम अवगुणों से इतने भर जाते हैं कि (मानो) पत्थर बन जाते हैं। पर परमात्मा अपने संत जनों की संगति में (महा-पापियों को भी) तार लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ तुम हरि राखहु सुआमी सभ तिन के पाप क्रिखे ॥ जन नानक के दइआल प्रभ सुआमी तुम दुसट तारे हरणखे ॥४॥३॥

मूलम्

जिन कउ तुम हरि राखहु सुआमी सभ तिन के पाप क्रिखे ॥ जन नानक के दइआल प्रभ सुआमी तुम दुसट तारे हरणखे ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: क्रिखे = खींचे जाते हैं, नाश हो जाते हैं। प्रभ = हे प्रभु! दुसट = बुरे लोग। हरणखे = हरणाकश, हर्णाकश्यप।4।
अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! जिनकी तू रक्षा करता है, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं। हे दया के श्रोत प्रभु! हे दास नानक के स्वामी! तूने हरणाक्षस जैसे दुष्टों का भी उद्धार कर दिया है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि हरि राम रंगे ॥ हरि हरि क्रिपा करी जगदीसुरि हरि धिआइओ जन पगि लगे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि हरि राम रंगे ॥ हरि हरि क्रिपा करी जगदीसुरि हरि धिआइओ जन पगि लगे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! रंगे = रंग में, प्रेम से। जगदीसुरि = जगत के ईश्वर ने। जन पगि = संत जनों के चरण में, संत जनों की शरण में। लगे = लग के, पड़ कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! प्यार से परमात्मा का नाम जपा कर। हे मन! जिस मनुष्य पर जगत के मालिक प्रभु ने कृपा की, उसने संत जनों के चरण लग के उस प्रभु का स्मरण किया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जनम के भूल चूक हम अब आए प्रभ सरनगे ॥ तुम सरणागति प्रतिपालक सुआमी हम राखहु वड पापगे ॥१॥

मूलम्

जनम जनम के भूल चूक हम अब आए प्रभ सरनगे ॥ तुम सरणागति प्रतिपालक सुआमी हम राखहु वड पापगे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूल चूक = गलतियाँ। प्रभ = हे प्रभु! सरणागति प्रतिपालक = शरण पड़े की प्रतिपालना करने वाले! हमवड पापगे = हम बड़े पापियों को।1।
अर्थ: हे प्रभु! हम अनेक जन्मों से गल्तियाँ करते आ रहे हैं, अब हम तेरी शरण आए हैं। हे स्वामी! तू शरण पड़ों की पालना करने वाला है, हम पापियों की भी रक्षा कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरी संगति हरि को को न उधरिओ प्रभ कीए पतित पवगे ॥ गुन गावत छीपा दुसटारिओ प्रभि राखी पैज जनगे ॥२॥

मूलम्

तुमरी संगति हरि को को न उधरिओ प्रभ कीए पतित पवगे ॥ गुन गावत छीपा दुसटारिओ प्रभि राखी पैज जनगे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को को न = कौन कौन नहीं? सारे ही। प्रभ = हे प्रभु! पतित = विकारों में गिरे हुए। पवगे = पवित्र। छीपा = जाति का छींबा, धोबी नामदेव। दुसटारिओ = दुष्ट कह कर दुत्कारा। प्रभि = प्रभु ने। पैज = सत्कार, इज्जत। जनगे = (अपने) दास की।2।
अर्थ: हे प्रभु! जो भी तेरी संगति में आया, वही (पापों-विकारों से) बच निकला, तू पापों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला है। (हे भाई!) प्रभु के गुण गा रहे (नामदेव) धोबी (छींबे) को (ब्राहमणों ने) दुष्ट-दुष्ट कह के दुत्कारा, पर प्रभु ने अपने सेवक की इज्जत रख ली।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तुमरे गुन गावहि सुआमी हउ बलि बलि बलि तिनगे ॥ भवन भवन पवित्र सभि कीए जह धूरि परी जन पगे ॥३॥

मूलम्

जो तुमरे गुन गावहि सुआमी हउ बलि बलि बलि तिनगे ॥ भवन भवन पवित्र सभि कीए जह धूरि परी जन पगे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। हउ = मैं। बलि = बलिहार। तिनगे = उनसे। भवन = घर। सभि = सारे। जह = जहाँ। धूरि जन पगे = संत जनों के पैरों की धूल।3।
अर्थ: हे स्वामी! जो भी मनुष्य तेरे गुण गाते हैं, मैं उनसे सदके-सदके जाता हूँ कुर्बान जाता हूँ। हे प्रभु! जहाँ-जहाँ तेरे सेवकों के चरणों की धूल लग गई, तूने वह सारे ही स्थान पवित्र कर दिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरे गुन प्रभ कहि न सकहि हम तुम वड वड पुरख वडगे ॥ जन नानक कउ दइआ प्रभ धारहु हम सेवह तुम जन पगे ॥४॥४॥

मूलम्

तुमरे गुन प्रभ कहि न सकहि हम तुम वड वड पुरख वडगे ॥ जन नानक कउ दइआ प्रभ धारहु हम सेवह तुम जन पगे ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। प्रभ = हे प्रभु! सेवह = हम सेवा करें। तुम जन पगे = तेरे जनों के चरण।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सेवह’ है वर्तमानकाल उत्तम पुरख, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तू बड़ा है, तू बहुत बड़ा अकाल पुरख है, हम जीव तेरे गुण बयान नहीं कर सकते। हे प्रभु! अपने सेवक नानक पर मेहर कर, ता कि मैं भी तेरे सेवकों के चरणों की सेवा कर सकूँ।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि हरि नामु मने ॥ जगंनाथि किरपा प्रभि धारी मति गुरमति नाम बने ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि हरि नामु मने ॥ जगंनाथि किरपा प्रभि धारी मति गुरमति नाम बने ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मने = मन में। जगंनाथ = जगत के नाथ ने। प्रभि = प्रभु ने। गुरमति = गुरु की शिक्षा की इनायत से। मति नाम बने = मति नाम बनी, (उसकी) मति नाम जपने वाली बन गई।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! अपने अंदर (एकाग्र हो के) परमात्मा का नाम जपा कर। जगत के नाथ प्रभु ने जिस जीव पर मेहर की, गुरु की शिक्षा ले के उसकी मति नाम जपने वाली बन गई।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन हरि जसु हरि हरि गाइओ उपदेसि गुरू गुर सुने ॥ किलबिख पाप नाम हरि काटे जिव खेत क्रिसानि लुने ॥१॥

मूलम्

हरि जन हरि जसु हरि हरि गाइओ उपदेसि गुरू गुर सुने ॥ किलबिख पाप नाम हरि काटे जिव खेत क्रिसानि लुने ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जस = यश, महिमा के गीत। उपदेसि = उपदेश से। गुर सुने = (गुरु उपदेश) सुनि, गुरु का उपदेश सुन के। किलबिख = पाप। जिव = जैसे। क्रिसानि = किसान ने। लुने = काटे।1।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु के उपदेश से, गुरु (का उपदेश) सुन के, जिस जनों ने परमात्मा की महिमा का गीत गाना शुरू किया, परमात्मा के नाम ने उनके सारे पाप विकार (इस तरह) काट दिए, जैसे किसान ने अपने खेत काटे होते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरी उपमा तुम ही प्रभ जानहु हम कहि न सकहि हरि गुने ॥ जैसे तुम तैसे प्रभ तुम ही गुन जानहु प्रभ अपुने ॥२॥

मूलम्

तुमरी उपमा तुम ही प्रभ जानहु हम कहि न सकहि हरि गुने ॥ जैसे तुम तैसे प्रभ तुम ही गुन जानहु प्रभ अपुने ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपमा = महिमा। प्रभ = हे प्रभु! गुने = गुण। जानहु = तुम जानते हो।2।
अर्थ: हे प्रभु! हे हरि! तेरी महिमा तू स्वयं ही जानता है, हम जीव तेरे गुण बयान नहीं कर सकते। हे प्रभु! जैसा तू है वैसा तू स्वयं ही है; अपने गुण तू स्वयं ही जानता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ फास बंध बहु बंधे हरि जपिओ खुल खुलने ॥ जिउ जल कुंचरु तदूऐ बांधिओ हरि चेतिओ मोख मुखने ॥३॥

मूलम्

माइआ फास बंध बहु बंधे हरि जपिओ खुल खुलने ॥ जिउ जल कुंचरु तदूऐ बांधिओ हरि चेतिओ मोख मुखने ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फास = फांसी। बंध = बंधन। बंधे = बँधे हुए। खुल खलने = पूरे तौर पर खुल गए। कुंचरु = हाथी, गज (वह गंर्धब जो श्राप से हाथी बन गया था)। तदूऐ = तेंदूए ने। मोख मुखने = उसका मोक्ष हो गया।3।
अर्थ: हे मेरे मन! जीव माया के मोह की फांसियों, माया के मोह के बंधनो में बहुत बँधे रहते हैं। हे मन! जिन्होंने परमात्मा का नाम जपा, उनके बंधन खुल गए; जैसे तेंदूए ने हाथी को पानी में (अपनी तारों से) बाँध लिया था, (हाथी ने) परमात्मा को याद किया, (तेंदूए से) उसको निजात मिल गई।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुआमी पारब्रहम परमेसरु तुम खोजहु जुग जुगने ॥ तुमरी थाह पाई नही पावै जन नानक के प्रभ वडने ॥४॥५॥

मूलम्

सुआमी पारब्रहम परमेसरु तुम खोजहु जुग जुगने ॥ तुमरी थाह पाई नही पावै जन नानक के प्रभ वडने ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुम खोजहु = तुम खोजे जा रहे हो, तुम्हारी खोज की जा रही है। जुग जुगने = जुगों-जुगों से। थाह = गहराई, हाथ। नही पावै = कोई नहीं पा सकता। वडने = बड़े।4।
अर्थ: हे मेरे स्वामी! हे पारब्रहम! तू सबसे बड़ा मालिक है। जुगों-जुगों से तेरी तलाश होती आ रही है। पर, हे दास के महान प्रभु! किसी ने भी तेरे गुणों की थाह नहीं पाई, कोई नहीं पा सकता।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ मेरे मन कलि कीरति हरि प्रवणे ॥ हरि हरि दइआलि दइआ प्रभ धारी लगि सतिगुर हरि जपणे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ मेरे मन कलि कीरति हरि प्रवणे ॥ हरि हरि दइआलि दइआ प्रभ धारी लगि सतिगुर हरि जपणे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! कलि = कलियुग में, जगत में। कीरति = महिमा। प्रवणे = स्वीकार। दइआलि प्रभ = प्रभु दइआल ने। लगि सतिगुर = गुरु (के चरण) लग के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की महिमा (करा कर), मानव जिंदगी का (यही उद्यम परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार होता है। (पर, हे मन! जिस मनुष्य पर) दयालु प्रभु ने मेहर की, उसने ही गुरु के चरणों में लग के हरि-नाम जपा है।1। रहाउ।

[[0977]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि तुम वड अगम अगोचर सुआमी सभि धिआवहि हरि रुड़णे ॥ जिन कउ तुम्हरे वड कटाख है ते गुरमुखि हरि सिमरणे ॥१॥

मूलम्

हरि तुम वड अगम अगोचर सुआमी सभि धिआवहि हरि रुड़णे ॥ जिन कउ तुम्हरे वड कटाख है ते गुरमुखि हरि सिमरणे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चरु) इन्द्रियों की पहुँच से परे। सभि = सारे (जीव)। रुड़णे = रुढ़, सुंदर। जिन कउ = जिस जीवों पर। कटाख = निगाह, नजर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ करि।1।
अर्थ: हे हरि! तू बहुत अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य की इन्द्रियों की पहुँच से परे है। हे स्वामी! सारे जीव तुझे सुंदर स्वरूप को स्मरण करते हैं। हे हरि! जिस पर तेरी बहुत मेहर भरी निगाह है, वे लोग गुरु की शरण पड़ कर तुझे स्मरण करते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु परपंचु कीआ प्रभ सुआमी सभु जगजीवनु जुगणे ॥ जिउ सललै सलल उठहि बहु लहरी मिलि सललै सलल समणे ॥२॥

मूलम्

इहु परपंचु कीआ प्रभ सुआमी सभु जगजीवनु जुगणे ॥ जिउ सललै सलल उठहि बहु लहरी मिलि सललै सलल समणे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परपंचु = जगत रचना। सभु = (इसमें) हर जगह। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभु। जुगणे = जुड़ा हुआ है, मिला हुआ है। सललै = पानी में। सलल लहरी = पानी की लहरें। उठहि = उठती हैं (बहुवचन)। मिलि = मिल के। सलल समणे = पानी में समा जाती हैं।2।
अर्थ: ये जगत-रचना स्वामी प्रभु ने स्वयं ही की है, (इस में) हर जगह जगत का जीवन-प्रभु स्वयं ही व्यापक है। जैसे पानी में पानी की बहुत लहरें उठती हैं, और वे (फिर) पानी में मिल के पानी हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो प्रभ कीआ सु तुम ही जानहु हम नह जाणी हरि गहणे ॥ हम बारिक कउ रिद उसतति धारहु हम करह प्रभू सिमरणे ॥३॥

मूलम्

जो प्रभ कीआ सु तुम ही जानहु हम नह जाणी हरि गहणे ॥ हम बारिक कउ रिद उसतति धारहु हम करह प्रभू सिमरणे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! गहणे = गहरी अवस्था, गहराई। बारिक = बच्चे। रिद = हृदय में। उसतति = स्तुति। धारहु = टिकाओ। करह = हम करें।3।
अर्थ: हे प्रभु! जो (ये परपंच) तूने बनाया है इसको तू खुद ही जानता है, हम जीव तेरी गहराई नहीं समझ सकते। हे प्रभु! हम तेरे बच्चे हैं, हमारे हृदय में अपनी महिमा टिका के रख, ताकि हम तेरा स्मरण करते रहें।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम जल निधि हरि मान सरोवर जो सेवै सभ फलणे ॥ जनु नानकु हरि हरि हरि हरि बांछै हरि देवहु करि क्रिपणे ॥४॥६॥

मूलम्

तुम जल निधि हरि मान सरोवर जो सेवै सभ फलणे ॥ जनु नानकु हरि हरि हरि हरि बांछै हरि देवहु करि क्रिपणे ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलनिधि = समुंदर, पानी का खजाना। मानसरोवर = वह झील जिस पर हंस रहते माने जाते हैं और जिसमें से मोती निकलते माने गए हैं। सभ फलणे = सारे फल। बांछै = माँगता है। क्रिपणे = कृपा (करके)।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू (सब खजानों का) समुंदर है, तू (सब अमूल्य पदार्थों से भरा हुआ) मानसरोवर है। जो मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति करता है उसको सारे फल मिल जाते हैं। हे हरि! तेरा दास नानक तेरे दर से तेरा नाम माँगता है, दया करके ये दाति दे।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट नाराइन महला ४ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

नट नाराइन महला ४ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन सेव सफल हरि घाल ॥ ले गुर पग रेन रवाल ॥ सभि दालिद भंजि दुख दाल ॥ हरि हो हो हो नदरि निहाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन सेव सफल हरि घाल ॥ ले गुर पग रेन रवाल ॥ सभि दालिद भंजि दुख दाल ॥ हरि हो हो हो नदरि निहाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पड़ताल = (पटहताल। पटह = ढोल)। मन = हे मन! सेव हरि = हरि की सेवा भक्ति (कर)। घाल = मेहनत। सफल = फल देने वाली है। ले = (अपने माथे पर लगा) ले। गुर पग रेन = गुरु के चरणों की धूल। गुर पग रवाल = गुरु के कदमों की ख़ाक। सभि = सारे। दालिद = दरिद्र। भंजि = नाश कर ले। दाल = दल देने वाली। हो हो हो = हे मन! हे मन! हे मन! नदरि = मेहर की निगाह। निहाल = प्रसन्न।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की सेवा-भक्ति (कर, ये) मेहनत फल देने वाली है। गुरु के चरणों की धूल ले के (अपने माथे पर लगा, इस तरह अपने) सारे दरिद्र नाश कर ले, (गुरु के चरणों की धूल) सारे दुखों को दलने वाली है। हे मन! हे मन! हे मन! परमात्मा की मेहर की निगाह से निहाल हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का ग्रिहु हरि आपि सवारिओ हरि रंग रंग महल बेअंत लाल लाल हरि लाल ॥ हरि आपनी क्रिपा करी आपि ग्रिहि आइओ हम हरि की गुर कीई है बसीठी हम हरि देखे भई निहाल निहाल निहाल निहाल ॥१॥

मूलम्

हरि का ग्रिहु हरि आपि सवारिओ हरि रंग रंग महल बेअंत लाल लाल हरि लाल ॥ हरि आपनी क्रिपा करी आपि ग्रिहि आइओ हम हरि की गुर कीई है बसीठी हम हरि देखे भई निहाल निहाल निहाल निहाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिहु = (शरीर) घर। सवारिओ = सजाया। रंग महल = खुशियां लेने वाला ठिकाना। लाल = प्यारा। करी = की। ग्रिहि = घर में। बसीठी = बिचौलापन। देखि = देख के।1।
अर्थ: हे भाई! (ये मनुष्य का शरीर) परमात्मा का घर है, परमात्मा ने स्वयं इसको सजाया है, उस बेअंत और अत्यंत सुंदर प्रभु का (ये मनुष्य शरीर) रंग-महल है। हे भाई! जिस पर परमात्मा ने अपनी कृपा की, (उसके हृदय-) घर में वह स्वयं आ बसता है।
हे भाई! मैंने उस परमात्मा के मिलाप के लिए गुरु का बिचौला-पन किया है (गुरु को विचौलिया बनाया है, गुरु की शरण ली है। गुरु की कृपा से) उस हरि को देख के निहाल हो गई हूँ, बहुत ही निहाल हो गई हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि आवते की खबरि गुरि पाई मनि तनि आनदो आनंद भए हरि आवते सुने मेरे लाल हरि लाल ॥ जनु नानकु हरि हरि मिले भए गलतान हाल निहाल निहाल ॥२॥१॥७॥

मूलम्

हरि आवते की खबरि गुरि पाई मनि तनि आनदो आनंद भए हरि आवते सुने मेरे लाल हरि लाल ॥ जनु नानकु हरि हरि मिले भए गलतान हाल निहाल निहाल ॥२॥१॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु से। पाई = प्राप्त की। मनि = मन में। तनि = तन में। आनदो आनंद = आनंद ही आनंद। जनु = दास। मिले = मिलि, मिल के। गलतान हाल = मस्त हालत वाला, हर वक्त मस्त।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के माध्यम से ही (जब) मैंने (अपने हृदय में) परमात्मा के आ बसने की ख़बर सुनी, (जब) मैंने सुंदर लाल प्रभु का आना सुना, मेरे मन में मेरे तन में खुशियां ही खुशियां हो गई।
(हे भाई! गुरु की कृपा से) दास नानक उस परमात्मा को मिल के मस्त हाल हो गया, निहाल हो गया, निहाल हो गया।2।1।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ मन मिलु संतसंगति सुभवंती ॥ सुनि अकथ कथा सुखवंती ॥ सभ किलबिख पाप लहंती ॥ हरि हो हो हो लिखतु लिखंती ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ मन मिलु संतसंगति सुभवंती ॥ सुनि अकथ कथा सुखवंती ॥ सभ किलबिख पाप लहंती ॥ हरि हो हो हो लिखतु लिखंती ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सुभवंती = (संगति) भले गुण देने वाली है। अकथ = वह प्रभु जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। अकथ कथा = अकथ प्रभु की महिमा। सुखवंती = सुखदाई। किलबिख = पाप। लहंती = दूर कर सकने वाली। हो = हे मन! लिखतु = लेख। लिखंती = लिखने वाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु की संगति में जुड़ा रह, (ये संगति) भले गुण पैदा करने वाली है। (हे मेरे मन!) अकथ परमात्मा की महिमा (गुरु की संगति में) सुना कर, (ये महिमा) आत्मिक आनंद देने वाली है; हे मन! ये सारे पाप-विकार दूर कर देती है; हे मन! (ये कथा तेरे अंदर) हरि नाम का लेख लिखने के योग्य है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कीरति कलजुग विचि ऊतम मति गुरमति कथा भजंती ॥ जिनि जनि सुणी मनी है जिनि जनि तिसु जन कै हउ कुरबानंती ॥१॥

मूलम्

हरि कीरति कलजुग विचि ऊतम मति गुरमति कथा भजंती ॥ जिनि जनि सुणी मनी है जिनि जनि तिसु जन कै हउ कुरबानंती ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरति = महिमा। कलजुग विचि = कलह भरपूर समय में, जगत में। कथा = महिमा। भजंती = उचारनी (उत्तम कर्म है)। जिनि = जिस ने। जिनि जनि = जिस जन ने। मनी है = मानी है, मन में बसाई है। हउ = मैं।1।
अर्थ: हे मन! इस संसार में परमात्मा की महिमा, गुरु की शिक्षा पर चल के परमात्मा की महिमा करनी श्रेष्ठ कर्म है। हे मन! जिस मनुष्य ने ये महिमा सुनी है जिस मनुष्य ने ये महिमा मन में बसाई है, मैं उस मनुष्य से सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अकथ कथा का जिनि रसु चाखिआ तिसु जन सभ भूख लहंती ॥ नानक जन हरि कथा सुणि त्रिपते जपि हरि हरि हरि होवंती ॥२॥२॥८॥

मूलम्

हरि अकथ कथा का जिनि रसु चाखिआ तिसु जन सभ भूख लहंती ॥ नानक जन हरि कथा सुणि त्रिपते जपि हरि हरि हरि होवंती ॥२॥२॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसु = स्वाद। लहंती = दूर कर देती है। त्रिपते = तृप्त हो गए, अघा गए, संतुष्ट हो गए। जपि = जप के। होवंती = हो जाते हैं।2।
अर्थ: हे मन! अकथ परमात्मा की महिमा का स्वाद जिस मनुष्य ने चखा है, ये उस मनुष्य की (माया की) सारी भूख दूर कर देती है। हे नानक! परमात्मा की महिमा सुन के उसके सेवक (माया की ओर से) तृप्त हो जाते हैं, परमात्मा का नाम जप के वह परमात्मा का रूप हो जाते हैं।2।2।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ कोई आनि सुनावै हरि की हरि गाल ॥ तिस कउ हउ बलि बलि बाल ॥ सो हरि जनु है भल भाल ॥ हरि हो हो हो मेलि निहाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ कोई आनि सुनावै हरि की हरि गाल ॥ तिस कउ हउ बलि बलि बाल ॥ सो हरि जनु है भल भाल ॥ हरि हो हो हो मेलि निहाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आनि = ला के, संदेशा ला के। गाल = बात। कउ = को, से। हउ = मैं। बाल = बलिहार। भल भाल = भले भाल वाला, भले मस्तक वाला। मेलि = (संगति में) मिला के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अगर कोई मनुष्य (गुरु से संदेशा) ला के मुझे परमात्मा की बात सुनाए; तो मैं उससे सदके जाऊँ; कुर्बान जाऊँ। वह मनुष्य (मेरे लिए तो) बढ़िया है भाग्यशाली है। (ऐसे मनुष्य की संगति में) मिला के परमात्मा (अनेक को) निहाल करता है।1। रहाउ।

[[0978]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का मारगु गुर संति बताइओ गुरि चाल दिखाई हरि चाल ॥ अंतरि कपटु चुकावहु मेरे गुरसिखहु निहकपट कमावहु हरि की हरि घाल निहाल निहाल निहाल ॥१॥

मूलम्

हरि का मारगु गुर संति बताइओ गुरि चाल दिखाई हरि चाल ॥ अंतरि कपटु चुकावहु मेरे गुरसिखहु निहकपट कमावहु हरि की हरि घाल निहाल निहाल निहाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। गुर संति = गुरु संत ने। गुरि = गुरु ने। चाल = चलने का तरीका। अंतरि = मन में से। कपटु = छल कपट। चुकावहु = दूर करो। निहकपट = छल कपट छोड़ के। घाल = मेहनत।1।
अर्थ: हे भाई! संत-गुरु ने परमात्मा को मिलने का रास्ता बताया है, गुरु ने परमात्मा की राह पर चलने की विधि सिखाई है (और कहा है:) हे गुरसिखो! अपने अंदर से छल-कपट दूर करो, निष्छल हो के परमात्मा के नाम-जपने की मेहनत करो, (इस तरह) निहाल निहाल होया जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते गुर के सिख मेरे हरि प्रभि भाए जिना हरि प्रभु जानिओ मेरा नालि ॥ जन नानक कउ मति हरि प्रभि दीनी हरि देखि निकटि हदूरि निहाल निहाल निहाल निहाल ॥२॥३॥९॥

मूलम्

ते गुर के सिख मेरे हरि प्रभि भाए जिना हरि प्रभु जानिओ मेरा नालि ॥ जन नानक कउ मति हरि प्रभि दीनी हरि देखि निकटि हदूरि निहाल निहाल निहाल निहाल ॥२॥३॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = वह (बहुवचन)। हरि प्रभ भाए = हरि प्रभु को प्यारे लगे। प्रभि = प्रभु ने। देखि = देख के। निकटि = नजदीक। हदूरि = हाजर नाजर।2।
अर्थ: हे भाई! मेरे गुरु के वह सिख परमात्मा को प्यारे लगते हैं, जिन्होंने ये जान लिया है कि परमात्मा हमारे नजदीक बस रहा है। हे नानक! जिस सेवकों को परमात्मा ने ये सूझ बख्शी दी, वह सेवक परमात्मा को अपने नजदीक बसता देख के अपने अंग-संग बसता देख के हर वक्त प्रसन्न-चिक्त रहते हैं।2।3।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु नट नाराइन महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु नट नाराइन महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम हउ किआ जाना किआ भावै ॥ मनि पिआस बहुतु दरसावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम हउ किआ जाना किआ भावै ॥ मनि पिआस बहुतु दरसावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। जाना = जानूँ, (मैं) जानता। किआ भावै = (तुझे) क्या अच्छा लगता है। मनि = मन में। पिआस = प्यास, तमन्ना। दरसावै = (तेरे) दर्शनों की।1। रहाउ।
अर्थ: हे परमात्मा! मैं ये तो नहीं जानता कि तुझे क्या अच्छा लगता है (भाव, तुझे मेरी चाहत पसंद है अथवा नहीं, पर) मेरे मन में तेरे दर्शनों की बहुत अभिलाशा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई गिआनी सोई जनु तेरा जिसु ऊपरि रुच आवै ॥ क्रिपा करहु जिसु पुरख बिधाते सो सदा सदा तुधु धिआवै ॥१॥

मूलम्

सोई गिआनी सोई जनु तेरा जिसु ऊपरि रुच आवै ॥ क्रिपा करहु जिसु पुरख बिधाते सो सदा सदा तुधु धिआवै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। गिआनी = ज्ञानवान, आत्मिक जीवन की सूझ वाला। रुच = (तेरी) खुशी। करहु = तुम करते हो। पुरख = हे सर्व व्यापक! बिधाते = हे विधाता!।1।
अर्थ: हे सर्व-व्यापक! हे विधाता! वही मनुष्य उच्च आत्मिक सूझवाला है, वही मनुष्य तेरा सेवक है, जिस पर तेरी खुशी होती है। हे प्रभु! जिस पर तू मेहर करता है, वह तुझे सदा ही स्मरण करता रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवन जोग कवन गिआन धिआना कवन गुनी रीझावै ॥ सोई जनु सोई निज भगता जिसु ऊपरि रंगु लावै ॥२॥

मूलम्

कवन जोग कवन गिआन धिआना कवन गुनी रीझावै ॥ सोई जनु सोई निज भगता जिसु ऊपरि रंगु लावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोग = योग साधन। गिआन = ज्ञान की बातें। धिआना = समाधियां। गुनी = गुणों से। रीझावै = (प्रभु को जीव) खुश कर सकता है। कवन = कौन से? निज = अपना प्यारा। रंगु = प्यार का रंग। लावै = लाता है, चढ़ाता है।2।
अर्थ: हे भाई! वह कौन से योग-साधन हैं? कौन सी ज्ञान की बातें हैं? कौन सी समाधियाँ हैं? कौन से गुण हैं जिनसे कोई मनुष्य परमात्मा को पसंद कर सकता है? (मनुष्य के अपने इस तरह के कोई प्रयत्न कामयाब नहीं होते)। वही मनुष्य प्रभु का सेवक है, वही मनुष्य प्रभु का प्यारा भक्त है, जिस पर वह स्वयं अपने प्यार का रंग चढ़ाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साई मति साई बुधि सिआनप जितु निमख न प्रभु बिसरावै ॥ संतसंगि लगि एहु सुखु पाइओ हरि गुन सद ही गावै ॥३॥

मूलम्

साई मति साई बुधि सिआनप जितु निमख न प्रभु बिसरावै ॥ संतसंगि लगि एहु सुखु पाइओ हरि गुन सद ही गावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साई = वही। जितु = जिससे। निमख = आँख झपकने जितना समय। बिसरावै = भुलाता। संत संगि = गुरु (के चरणों के) साथ। लगि = लगके। सद = सदा।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘सोई’ पुलिंग है, जबकि ‘साई’ स्त्रीलिंग।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! वही समझ (अच्छी है), वही बुद्धि और समझदारी (ठीक है), जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा को आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं भुलाता। (हे भाई! जिस मनुष्य ने) गुरु के चरणों में बैठ के ये (हरि-नाम-स्मरण का) सुख हासिल कर लिया, वह सदा ही परमात्मा के गुण गाता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखिओ अचरजु महा मंगल रूप किछु आन नही दिसटावै ॥ कहु नानक मोरचा गुरि लाहिओ तह गरभ जोनि कह आवै ॥४॥१॥

मूलम्

देखिओ अचरजु महा मंगल रूप किछु आन नही दिसटावै ॥ कहु नानक मोरचा गुरि लाहिओ तह गरभ जोनि कह आवै ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंगला रूप = आनंद स्वरूप प्रभु। आन = (अन्य) और। दिसटावै = नजर आता, दिखाई देता। मोरचा = जंग, मन पर चढ़ा हुआ विकारों का जंग। गुरि = गुरु ने। तह = वह। कह = कहाँ?।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने आश्चर्य-रूप महा आनंदरूप परमात्मा के दर्शन कर लिए, उसको (उस जैसी) कोई और चीज नहीं दिखती। हे नानक! कह: गुरु ने (जिस मनुष्य के मन से विकारों का) जंग उतार दिया वहाँ पैदा होने-मरने का चक्कर कभी नजदीक नहीं फटक सकता।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट नाराइन महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

नट नाराइन महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलाहनो मै काहू न दीओ ॥ मन मीठ तुहारो कीओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

उलाहनो मै काहू न दीओ ॥ मन मीठ तुहारो कीओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उलाहनो = गिला। काहू = किसी को भी। तुहारो कीओ = तेरा किया (हरेक काम)। मन मीठ = मन को मीठा (लगा)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु! गुरु की किरपा से तब से) तेरा किया हुआ (हरेक काम) मेरे मन को मीठा लगने लगा है, (जब से किसी की तरफ से किसी प्रकार के जोर-जब्र का) उलाहमा मैंने किसी को कभी नहीं दिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगिआ मानि जानि सुखु पाइआ सुनि सुनि नामु तुहारो जीओ ॥ ईहां ऊहा हरि तुम ही तुम ही इहु गुर ते मंत्रु द्रिड़ीओ ॥१॥

मूलम्

आगिआ मानि जानि सुखु पाइआ सुनि सुनि नामु तुहारो जीओ ॥ ईहां ऊहा हरि तुम ही तुम ही इहु गुर ते मंत्रु द्रिड़ीओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानि = मान के। आगिआ = आज्ञा, (तेरी) रज़ा। जानि = जान के, समझ के। सुनि = सुन के। जीओ = मैंने आत्मिक जीवन पा लिया है। ईहां = इस लोक में। ऊहां = परलोक में। ते = से। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ीओ = (हृदय में) पक्का कर लिया है, दृढ़ कर लिया।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी रज़ा को (मीठी) मान के, तेरी रज़ा को समझ के मैंने सुख हासिल कर लिया है, तेरा नाम सुन-सुन के मैंने ऊँचा आत्मिक जीवन हासिल कर लिया है। मैंने गुरु से ये उपदेश (ले के अपने मन में ये बात) दृढ़ कर ली है कि इस लोक में और परलोक में तू ही सिर्फ तू ही (मेरा सहायक है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब ते जानि पाई एह बाता तब कुसल खेम सभ थीओ ॥ साधसंगि नानक परगासिओ आन नाही रे बीओ ॥२॥१॥२॥

मूलम्

जब ते जानि पाई एह बाता तब कुसल खेम सभ थीओ ॥ साधसंगि नानक परगासिओ आन नाही रे बीओ ॥२॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जब ते = जब से। जानि पाई = समझ लिया है। कुसल = सुख। खेम = आनंद। सभ = हरेक किस्म का। साध संगि = गुरु की संगति में। परगासिओ = (उच्च आत्मिक जीवन का) ये प्रकाश किया है। आन = अन्य, और। रे = हे भाई! बीओ = कोई दूसरा।2।
अर्थ: हे भाई! जब से (गुरु से) मैंने ये बात समझ ली है, तब से (मेरे अंदर) हरेक किस्म का सुख-आनंद बना रहता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-संगत में (गुरु ने मेरे अंदर आत्मिक जीवन का यह) प्रकाश कर दिया है कि (परमात्मा के बिना) कोई और दूसरा (कुछ भी करने के योग्य) नहीं है।2।1।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ५ ॥ जा कउ भई तुमारी धीर ॥ जम की त्रास मिटी सुखु पाइआ निकसी हउमै पीर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ५ ॥ जा कउ भई तुमारी धीर ॥ जम की त्रास मिटी सुखु पाइआ निकसी हउमै पीर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। धीर = धीरज, हौसला। त्रास = सहम, डर। निकसी = निकल गई। पीर = पीड़ा, चुभन।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा दिया हुआ धैर्य मिल गया, उसके अंदर से मौत का डर हर वक्त का सहम मिट गया, उसने आत्मिक आनन्द हासिल कर लिया, उसके मन में से अहंकार की चुभन भी निकल गई।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपति बुझानी अम्रित बानी त्रिपते जिउ बारिक खीर ॥ मात पिता साजन संत मेरे संत सहाई बीर ॥१॥

मूलम्

तपति बुझानी अम्रित बानी त्रिपते जिउ बारिक खीर ॥ मात पिता साजन संत मेरे संत सहाई बीर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तपति = (तृष्णा की) तपश। अंम्रित बानी = आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी ने। त्रिपते = तृप्त हो गए। बारिक = बालक। खीर = दूध। सहाई = मददगार। बीर = भाई।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों के अंदर से) सतिगुरु की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी ने माया की तृष्णा की तपश बुझा दी, वह (माया से) इस प्रकार तृप्त हो गए, जैसे बालक दूध से संतुष्ट होते हैं। हे भाई! मेरे वास्ते भी संत जन ही माता-पिता हैं, संत जन ही सज्जन-मित्र-भाई मददगार हैं।1।

[[0979]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

खुले भ्रम भीति मिले गोपाला हीरै बेधे हीर ॥ बिसम भए नानक जसु गावत ठाकुर गुनी गहीर ॥२॥२॥३॥

मूलम्

खुले भ्रम भीति मिले गोपाला हीरै बेधे हीर ॥ बिसम भए नानक जसु गावत ठाकुर गुनी गहीर ॥२॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रम = भ्रम, भटकना। भीति = भिक्ति, पर्दे, किवाड़। बेधे = भेद लिए। बिसम = आनंद भरपूर। जसु = यश, महिमा के गीत। गुनी गहीर = गुणों के खजाने प्रभु का।2।
अर्थ: हे नानक! गुणों के खजाने मालिक-प्रभु के गुण गाते-गाते (गुण गाने वाले मनुष्य) आनंद-मगन ही हो जाते हैं, (उनके अंदर से माया के पीछे) भटकते फिरने की भिक्ति खुल जाती है, उनको सृष्टि का पालनहार प्रभु मिल जाता है, (प्रभु उनकी जिंद को अपने चरणों में ऐसे जोड़ लेता है जैसे) हीरे को हीरा भेद लेता है।2।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ५ ॥ अपना जनु आपहि आपि उधारिओ ॥ आठ पहर जन कै संगि बसिओ मन ते नाहि बिसारिओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ५ ॥ अपना जनु आपहि आपि उधारिओ ॥ आठ पहर जन कै संगि बसिओ मन ते नाहि बिसारिओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = सेवक, भक्त, दास। आपहि आपि = आप ही आप, स्वयं ही स्वयं। उधारिओ = (विकारों से) बचाया है। कै संगि = के साथ। ते = से। बिसारिओ = भुलाया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने सदा खुद ही अपने सेवक को विकारों से बचाया है। प्रभु अपने सेवक के साथ आठों पहर बसता है, (प्रभु ने अपने सेवक को अपने) मन से कभी भी नहीं भुलाया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरनु चिहनु नाही किछु पेखिओ दास का कुलु न बिचारिओ ॥ करि किरपा नामु हरि दीओ सहजि सुभाइ सवारिओ ॥१॥

मूलम्

बरनु चिहनु नाही किछु पेखिओ दास का कुलु न बिचारिओ ॥ करि किरपा नामु हरि दीओ सहजि सुभाइ सवारिओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरनु = रंग। चिहनु = निशान, रूप। पेखिओ = देखा। करि = कर के। सहजि = आतिमक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। सवारिओ = जीवन सुंदर बनाया।1।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु ने अपने सेवक का बाहरी) रंग-रूप कुछ भी कभी नहीं देखा, सेवक के (ऊँचे-नीचे) कुल को भी नहीं विचारा। (सेवक को सदा ही) हरि ने मेहर कर के अपना नाम बख्शा है, (नाम की इनायत से उसको) आत्मिक अडोलता और प्रेम में टिका के उसका जीवन सुंदर बना दिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा बिखमु अगनि का सागरु तिस ते पारि उतारिओ ॥ पेखि पेखि नानक बिगसानो पुनह पुनह बलिहारिओ ॥२॥३॥४॥

मूलम्

महा बिखमु अगनि का सागरु तिस ते पारि उतारिओ ॥ पेखि पेखि नानक बिगसानो पुनह पुनह बलिहारिओ ॥२॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखमु = मुश्किल। अगनि = (तृष्णा की) आग। सागरु = समुंदर। पेखि = देख के। बिगसानो = खुश होता है। पुनह पुनह = बार बार।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! यह जगत तृष्णा की) आग का समुंदर है (इसमें से पार लांघना) बहुत मुश्किल है, (परमात्मा ने सदा अपने सेवक को) इसमें से (खुद) पार लंघाया है। सेवक अपने परमात्मा के दर्शन कर-करके खुश होता है और उससे बार-बार बलिहार जाता है।2।3।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ५ ॥ हरि हरि मन महि नामु कहिओ ॥ कोटि अप्राध मिटहि खिन भीतरि ता का दुखु न रहिओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ५ ॥ हरि हरि मन महि नामु कहिओ ॥ कोटि अप्राध मिटहि खिन भीतरि ता का दुखु न रहिओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहिओ = कहा, उचारा। कोटि = करोड़ों। अप्राध = अपराध, भूलें, पाप। मिटहि = मिट जाते हैं। ता का = उस (मनुष्य) का। न रहिओ = नहीं रह जाता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस भी मनुष्य ने) परमात्मा का नाम अपने मन में स्मरण किया है, एक छिन में ही उसके करोड़ों पाप मिट जाते हैं, उसका कोई भी दुख रह नहीं जाता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोजत खोजत भइओ बैरागी साधू संगि लहिओ ॥ सगल तिआगि एक लिव लागी हरि हरि चरन गहिओ ॥१॥

मूलम्

खोजत खोजत भइओ बैरागी साधू संगि लहिओ ॥ सगल तिआगि एक लिव लागी हरि हरि चरन गहिओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजत = तलाश करते हुए। बैरागी = वैरागवान, मतवाला। साधू संगि = गुरु की संगति में। लहिओ = पा लिया, ढूँढ लिया। सगल = सारे (विचार)। लिव = लगन। गहिओ = पकड़ लिए।1।
अर्थ: हे भाई! (और) सारे (ख्याल) छोड़ के जिस मनुष्य की लगन एक परमात्मा में लग गई, जिसने परमात्मा के चरण (अपने मन में कस के) पकड़ लिए, जो मनुष्य प्रभु की तलाश करते-करते (उसी का ही) मतवाला बन गया, उसने प्रभु को गुरु की संगति में पा लिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत मुकत सुनते निसतारे जो जो सरनि पइओ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपुना कहु नानक अनदु भइओ ॥२॥४॥५॥

मूलम्

कहत मुकत सुनते निसतारे जो जो सरनि पइओ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपुना कहु नानक अनदु भइओ ॥२॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकत = माया के बंधन से मुक्त। निसतारे = पार लंघा दिए। जो जो = जो जो मनुष्य। सिमरि = स्मरण करके। कहु = कह। नानक = हे नानक! अनदु = आनंद, सुख।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) परमात्मा का नाम उचारने वाले माया के बंधनो से आजाद हो जाते हैं, नाम सुनने वालों को प्रभु संसार-समुंदर से पार लंघा देता है; जो जो भी मनुष्य प्रभु की शरण पड़ता है (प्रभु उसको पार लंघा देता है)। हे भाई! अपने मालिक प्रभु को बार-बार स्मरण करके आत्मिक आनंद बना रहता है।2।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ५ ॥ चरन कमल संगि लागी डोरी ॥ सुख सागर करि परम गति मोरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ५ ॥ चरन कमल संगि लागी डोरी ॥ सुख सागर करि परम गति मोरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। डोरी = प्रेम की तार, ध्यान की डोर। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मोरी = मेरी।1। रहाउ।
अर्थ: हे सुखों के समुंदर हरि! मेरी आत्मिक अवस्था ऊँची बना दे, तेरे सुंदर चरणों से मेरे प्रेम की तार लग गई है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंचला गहाइओ जन अपुने कउ मनु बीधो प्रेम की खोरी ॥ जसु गावत भगति रसु उपजिओ माइआ की जाली तोरी ॥१॥

मूलम्

अंचला गहाइओ जन अपुने कउ मनु बीधो प्रेम की खोरी ॥ जसु गावत भगति रसु उपजिओ माइआ की जाली तोरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंचला = पल्ला। गहाइओ = पकड़ाया है। कउ = को। बीधो = भेदा गया है। खोरी = खुमारी में। रसु = स्वाद। जाली = फांसी, फंदा। तोरी = तोड़ दी है।1।
अर्थ: हे सुख सागर! तूने अपने सेवक को अपना पल्ला स्वयं पकड़वाया है, (तेरे सेवक का) मन (तेरे) प्यार की खुमारी में भेदा गया है। तेरा यश गाते हुए (तेरे सेवक के हृदय में तेरी) भक्ति का (ऐसा) स्वाद पैदा हो गया है (जिसने) माया के फंदे को तोड़ दिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरन पूरि रहे किरपा निधि आन न पेखउ होरी ॥ नानक मेलि लीओ दासु अपुना प्रीति न कबहू थोरी ॥२॥५॥६॥

मूलम्

पूरन पूरि रहे किरपा निधि आन न पेखउ होरी ॥ नानक मेलि लीओ दासु अपुना प्रीति न कबहू थोरी ॥२॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरन = हे सर्व व्यापक! पूरि रहे = व्याप रहा है। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने प्रभु! पेखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। होरी = (तेरे बिना) किसी और को। न थोरी = थोड़ी नहीं होती।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सर्व-व्यापक प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! तू हर जगह भरपूर है। मैं (कहीं भी तेरे बिना) किसी और को नहीं देखता। अपने सेवक को (अपने चरणों में) तूने स्वयं जोड़ लिया है, (जिसके कारण तेरे चरणों की) प्रीति (तेरे सेवक के हृदय में) कभी कम नहीं होती।2।5।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ५ ॥ मेरे मन जपु जपि हरि नाराइण ॥ कबहू न बिसरहु मन मेरे ते आठ पहर गुन गाइण ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ५ ॥ मेरे मन जपु जपि हरि नाराइण ॥ कबहू न बिसरहु मन मेरे ते आठ पहर गुन गाइण ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपु = जपा कर। न बिसरहु = (हे प्रभु!) तू ना बिसर। ते = से।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! हरि नारायण के नाम का जाप जपा कर। हे प्रभु! तू मेरे मन से कभी भी ना भूल, (मेरा मन) आठों पहर तेरे गुण गाता रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू धूरि करउ नित मजनु सभ किलबिख पाप गवाइण ॥ पूरन पूरि रहे किरपा निधि घटि घटि दिसटि समाइणु ॥१॥

मूलम्

साधू धूरि करउ नित मजनु सभ किलबिख पाप गवाइण ॥ पूरन पूरि रहे किरपा निधि घटि घटि दिसटि समाइणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू धूरि = गुरु के चरणों की धूल (में)। करउ = करूँ, मैं करता रहूँ। मजनु = स्नान। किलबिख = पाप। गवाइण = दूर करने के समर्थ। पूरन = हे सर्व व्यापक! किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! घटि घटि = हरेक शरीर में। दिसटि समाइणु = दिखता रहे, समाया हुआ।1।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं गुरु के चरणों की धूल में सदा स्नान करता रहूँ, (गुरु के चरणों की धूल) सारे पाप दूर करने के समर्थ है। हे सबमें बस रहे प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! तू मुझे हरेक शरीर में समाया हुआ दिखता रहे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाप ताप कोटि लख पूजा हरि सिमरण तुलि न लाइण ॥ दुइ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै तेरे दासनि दास दसाइणु ॥२॥६॥७॥

मूलम्

जाप ताप कोटि लख पूजा हरि सिमरण तुलि न लाइण ॥ दुइ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै तेरे दासनि दास दसाइणु ॥२॥६॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाप = (देवताओं को वश में करने के मंत्रों के) जाप। ताप = (धूणियाँ आदि) तपों के साधन। कोटि = करोड़ों। तुलि = बराबर। दुइ = दोनों। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। दानु = ख़ैर। मांगै = माँगता है (एकवचन)। दासनि दास दसाइणु = दासों के दासों का दास।2।
अर्थ: हे प्रभु! हे हरि! करोड़ों जप-तप और लाखों पूजा (पाठ) तेरे नाम-जपने की बराबरी नहीं कर सकते। (तेरा दास) नानक दोनों हाथ जोड़ के (तुझसे) ख़ैर माँगता है (कि मैं तेरे) दासों के दासों का दास (बना रहूँ)।2।6।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ५ ॥ मेरै सरबसु नामु निधानु ॥ करि किरपा साधू संगि मिलिओ सतिगुरि दीनो दानु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ५ ॥ मेरै सरबसु नामु निधानु ॥ करि किरपा साधू संगि मिलिओ सतिगुरि दीनो दानु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरै = मेरे हृदय में। सरबसु = सर्वस्व (सरब = सारा, सु = ह्व, धन पदार्थ) सारा ही धन पदार्थ, सब कुछ। निधानु = खजाना। करि = कर के। साधू संगि = गुरु की संगति में, गुरु से। मिलिओ = मिलाया। सतिगुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम-खजाना मेरे वास्ते दुनिया का सारा धन पदार्थ है। (परमात्मा) ने कृपा करके (मुझे) गुरु की संगति में मिला दिया, (और) गुरु ने (मुझे परमात्मा के नाम का) दान दिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदाता दुख भंजनहारा गाउ कीरतनु पूरन गिआनु ॥ कामु क्रोधु लोभु खंड खंड कीन्हे बिनसिओ मूड़ अभिमानु ॥१॥

मूलम्

सुखदाता दुख भंजनहारा गाउ कीरतनु पूरन गिआनु ॥ कामु क्रोधु लोभु खंड खंड कीन्हे बिनसिओ मूड़ अभिमानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुख भंजनहारा = दुखों का नाश करने वाला। गाउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। पूरन = पूर्ण। बिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। कीन्हे = कर दिए। मूढ़ = मूर्ख। अभिमान।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे सुख देने वाला है, सारे दुखों को नाश करने वाला हैं (ज्यों-ज्यों) मैं उसकी महिमा के गीत गाता हूँ, (मुझे) आत्मिक जीवन की मुकम्मल सूझ (प्राप्त होती जाती है)। मैंने काम-क्रोध-लोभ (आदि विकारों के) टुकड़े-टुकड़े कर दिए, (जीवों को) मूर्ख (बना देने वाला) अहंकार (मेरे अंदर से) नाश हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ गुण तेरे आखि वखाणा प्रभ अंतरजामी जानु ॥ चरन कमल सरनि सुख सागर नानकु सद कुरबानु ॥२॥७॥८॥

मूलम्

किआ गुण तेरे आखि वखाणा प्रभ अंतरजामी जानु ॥ चरन कमल सरनि सुख सागर नानकु सद कुरबानु ॥२॥७॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखि = कह के। वखाणा = बखान करूँ, बयान करूँ। प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हरेक के अंदर की जानने वाला। जानु = समझदार, सयाना। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! सद = सदा।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू सुजान है, तू हरेक के दिल की जानने वाला है, मैं तेरे कौन-कौन से गुण बता के गिनूँ? हे सुखों के सागर प्रभु! (तेरा दास) नानक तेरे सुंदर चरणों की शरण आया है, और तुझसे सदा सदके होता है।2।7।8।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ५ ॥ हउ वारि वारि जाउ गुर गोपाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ५ ॥ हउ वारि वारि जाउ गुर गोपाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारि वारि जाउ = मैं सदके जाता हूँ, मैं बलिहार जाता हूँ। गुर = हे गुरु! हे सबसे बड़े! गोपाल = हे सृष्टि के पालनहार!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सबसे बड़े सृष्टि के पालनहार! मैं (तुझसे) सदा सदके जाता हूँ, बलिहार जाता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि निरगुन तुम पूरन दाते दीना नाथ दइआल ॥१॥

मूलम्

मोहि निरगुन तुम पूरन दाते दीना नाथ दइआल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मैं। निरगुन = गुण+हीन। दीनानाथ = हे दीनों के नाथ! दइआल = हे दया के घर!।1।
अर्थ: हे दीनों के नाथ! हे दया के घर प्रभु! मैं गुण-हीन हूँ, तू सब दातें देने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊठत बैठत सोवत जागत जीअ प्रान धन माल ॥२॥

मूलम्

ऊठत बैठत सोवत जागत जीअ प्रान धन माल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जिंद का,। प्रान = प्राणों का।2।
अर्थ: हे प्रभु! उठते बैठते सोते जागते तू ही मेरी जिंद का मेरे प्राणों का आसरा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरसन पिआस बहुतु मनि मेरै नानक दरस निहाल ॥३॥८॥९॥

मूलम्

दरसन पिआस बहुतु मनि मेरै नानक दरस निहाल ॥३॥८॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि मेरै = मेरे मन में।3।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे मन में तेरे दर्शनों की बहुत तमन्ना है। (मुझे) नानक को दर्शन दे के निहाल कर।3।8।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट पड़ताल महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

नट पड़ताल महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोऊ है मेरो साजनु मीतु ॥ हरि नामु सुनावै नीत ॥ बिनसै दुखु बिपरीति ॥ सभु अरपउ मनु तनु चीतु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कोऊ है मेरो साजनु मीतु ॥ हरि नामु सुनावै नीत ॥ बिनसै दुखु बिपरीति ॥ सभु अरपउ मनु तनु चीतु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोऊ = कोई विरला। नीत = सदा। बिनसै = नाश हो जाता है। बिपरीति = उल्टी प्रीति, उलटी तरफ वाली प्रीति। अरपउ = अर्पित करूँ, मैं भेंट कर दूँ। चीतु = चिक्त।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला ही (पाता) है ऐसा सज्जन-मित्र, जो सदा परमात्मा का नाम सुनाता रहे। (नाम की इनायत से) बुरी तरफ की प्रीति का दुख दूर हो जाता है। (हे भाई! अगर कोई हरि-नाम सुनाने वाला सज्जन मिल जाए, तब उससे) मैं अपना मन अपना तन अपना चिक्त सब कुछ सदके कर दूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोई विरला आपन कीत ॥ संगि चरन कमल मनु सीत ॥ करि किरपा हरि जसु दीत ॥१॥

मूलम्

कोई विरला आपन कीत ॥ संगि चरन कमल मनु सीत ॥ करि किरपा हरि जसु दीत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीत = किया है, बनाया है। आपन = अपना। संगि = साथ। सीत = सिला हुआ है, जुड़ा हुआ है। करि = कर के। दीत = दिया है।1।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला ही (पाता) है (इस तरह का जिसको प्रभु ने) अपना बना लिया होता है, जिसका मन प्रभु ने अपने सुंदर चरणों से जोड़ के रखा होता है, जिसको प्रभु ने कृपा करके अपनी महिमा (की दाति) दी होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि भजि जनमु पदारथु जीत ॥ कोटि पतित होहि पुनीत ॥ नानक दास बलि बलि कीत ॥२॥१॥१०॥१९॥

मूलम्

हरि भजि जनमु पदारथु जीत ॥ कोटि पतित होहि पुनीत ॥ नानक दास बलि बलि कीत ॥२॥१॥१०॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भजि = भज के, स्मरण करके। जनमु पदारथु = कीमती मानव जीवन। जीत = जीता, कामयाब बनाया। कोटि = करोड़ों। पतित = विकारों में गिरे हुए, विकारी। होहि = हो जाते हैं। पुनीत = पवित्र। बलि कीत = बलिहार दिए, सदके किए।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप के कीमती मानव जनम को सफल बना लेना है। (नाम जप के) करोड़ों विकारी पवित्र हो जाते हैं। हे नानक! (कह: नाम जपने वाले ऐसे) दास से मैं अपने आप को सदके करता हूँ कुर्बान करता हूँ।2।1।10।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट असटपदीआ महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

नट असटपदीआ महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम मेरे मनि तनि नामु अधारे ॥ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु सेवा मै गुरमति नामु सम्हारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम मेरे मनि तनि नामु अधारे ॥ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु सेवा मै गुरमति नामु सम्हारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे राम! म्नि = मन में। तनि = तन में। अधारे = आसरा। सकउ = सकूँ। रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। सेवा = भक्ति। गुरमति = गुरु की मति ले के। समारे = सम्हारे, संभाले, मैंने संभाला है।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! मेरे मन में मेरे तन में तेरा नाम ही आसरा है। तेरी सेवा-भक्ति किए बिना मैं एक छिन एक पल भर भी नहीं रह सकता। गुरु की शरण पड़ कर मैं तेरा नाम अपने हृदय में बसाता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि हरि हरि हरि मनि धिआवहु मै हरि हरि नामु पिआरे ॥ दीन दइआल भए प्रभ ठाकुर गुर कै सबदि सवारे ॥१॥

मूलम्

हरि हरि हरि हरि हरि मनि धिआवहु मै हरि हरि नामु पिआरे ॥ दीन दइआल भए प्रभ ठाकुर गुर कै सबदि सवारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = मुझे। पिआरे = प्यारा लगता है। दइआल = दयावान। कै सबदि = के शब्द के द्वारा। सवारे = सँवार देता है।1।
अर्थ: हे भाई! तुम भी सदा परमात्मा का ध्यान धरा करो। मुझे तो हरि-नाम ही प्यारा लगता है। ठाकुर-प्रभु जिस कंगालों पर दयावान होते हैं, उनका जीवन गुरु के शब्द के माध्यम से सुंदर बना देते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधसूदन जगजीवन माधो मेरे ठाकुर अगम अपारे ॥ इक बिनउ बेनती करउ गुर आगै मै साधू चरन पखारे ॥२॥

मूलम्

मधसूदन जगजीवन माधो मेरे ठाकुर अगम अपारे ॥ इक बिनउ बेनती करउ गुर आगै मै साधू चरन पखारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधु सूदन = हे मधु सूदन! (‘मध’ राक्षस को मारने वाला) हे परमात्मा! जग जीवन = हे जगत के आसरे! माधो = (मा+धव) हे माया के पति! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अपारे = हे बेअंत! बिनउ = विनय, विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। आगै = सामने, पास। साधू = गुरु। पखारे = धोऊँ।2।
अर्थ: हे मधु सूदन! हे जग जीवन! हे माधो! हे मेरे ठाकुर! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! (अगर तू मेहर करे, तो तेरे नाम की प्राप्ति के लिए) मैं गुरु के पास सदा विनती करता रहूँ, मैं गुरु के चरण ही धोता रहूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस नेत्र नेत्र है प्रभ कउ प्रभ एको पुरखु निरारे ॥ सहस मूरति एको प्रभु ठाकुरु प्रभु एको गुरमति तारे ॥३॥

मूलम्

सहस नेत्र नेत्र है प्रभ कउ प्रभ एको पुरखु निरारे ॥ सहस मूरति एको प्रभु ठाकुरु प्रभु एको गुरमति तारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहस = हजारों। नेत्र = आँखें। निरारे = निराले, निर्लिप। मूरति = सरूप, शरीर। गुरमति = गुरु की मति (दे के)। तारे = उद्धार करता है, पार लंघाता है।3।
अर्थ: (हे भाई! सर्व-व्यापक) प्रभु की हजारों आँखों हैं, (फिर भी) वह सर्व-व्यापक प्रभु सदा निर्लिप है। हे भाई! वह मालिक प्रभु हजारों शरीरों वाला है, फिर भी वह अपने जैसा स्वयं ही एक है। वह खुद ही गुरु की मति के द्वारा जीवों को संसार-समुंदर से पार लंघाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति नामु दमोदरु पाइआ हरि हरि नामु उरि धारे ॥ हरि हरि कथा बनी अति मीठी जिउ गूंगा गटक सम्हारे ॥४॥

मूलम्

गुरमति नामु दमोदरु पाइआ हरि हरि नामु उरि धारे ॥ हरि हरि कथा बनी अति मीठी जिउ गूंगा गटक सम्हारे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दमोदरु = दाम+उदर (जिसके पेट पर तगाड़ी लिपटी हुई है, कृष्ण) परमात्मा। उरि = हृदय में। अति = बहुत। गटक = गट गट करके, बड़े स्वाद से (खाता है)। समारे = संभालता है।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की मति के द्वारा परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया, वह उस नाम को सदा अपने हृदय में बसाए रखता है, परमात्मा की महिमा उसको बहुत मीठी लगती है, उसको वह हर वक्त दिल में संभाल के रखता है (पर, किसी को बताता नहीं,) जैसे कोई गूँगा (कोई शर्बत आदि) बड़े स्वाद से पीता है (पर, स्वाद बता नहीं सकता)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना साद चखै भाइ दूजै अति फीके लोभ बिकारे ॥ जो गुरमुखि साद चखहि राम नामा सभ अन रस साद बिसारे ॥५॥

मूलम्

रसना साद चखै भाइ दूजै अति फीके लोभ बिकारे ॥ जो गुरमुखि साद चखहि राम नामा सभ अन रस साद बिसारे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। साद = स्वाद (बहुवचन)। भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = माया के प्यार में (फस के)। फीके = बेस्वाद। चखहि = चखते हैं (बहुवचन)। अन रस = अन्य अनेक रसों में।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य की जीभ माया के मोह के कारण (अन्य पदार्थों के) स्वाद चखती रहती है, वह मनुष्य लोभ आदिक अति फीके स्वादों में फंसा रहता है। गुरु के सन्मुख रहने वाले जो लोग परमात्मा के नाम का आनंद पाते हैं, वे अन्य रसों के स्वाद भुला देते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति राम नामु धनु पाइआ सुणि कहतिआ पाप निवारे ॥ धरम राइ जमु नेड़ि न आवै मेरे ठाकुर के जन पिआरे ॥६॥

मूलम्

गुरमति राम नामु धनु पाइआ सुणि कहतिआ पाप निवारे ॥ धरम राइ जमु नेड़ि न आवै मेरे ठाकुर के जन पिआरे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। निवारे = दूर कर लिए।6।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति ले के परमात्मा का नाम पा लिया है, वह सदा नाम सुन के और उचार के पाप दूर कर लेते हैं। ऐसे मनुष्य मालिक-प्रभु के प्यारे होते हैं, धर्मराज अथवा (उसका कोई) जम उनके नजदीक नहीं फटकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सास सास सास है जेते मै गुरमति नामु सम्हारे ॥ सासु सासु जाइ नामै बिनु सो बिरथा सासु बिकारे ॥७॥

मूलम्

सास सास सास है जेते मै गुरमति नामु सम्हारे ॥ सासु सासु जाइ नामै बिनु सो बिरथा सासु बिकारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सास = सासें। जेते = जितने भी। बिकारे = बेकार, फजूल।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सास’ है ‘सासु’ का बहुवचन (सासु = सास)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिंदगी की जितनी भी सासें हैं (उनमें) मैं तो गुरु की मति के आसरे परमात्मा का नाम ही स्मरण करता हूँ। जो एक भी श्वास प्रभु के नाम के बिना जाता है, वह श्वास व्यर्थ जाता है, बेकार जाता है।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रिपा क्रिपा करि दीन प्रभ सरनी मो कउ हरि जन मेलि पिआरे ॥ नानक दासनि दासु कहतु है हम दासन के पनिहारे ॥८॥१॥

मूलम्

क्रिपा क्रिपा करि दीन प्रभ सरनी मो कउ हरि जन मेलि पिआरे ॥ नानक दासनि दासु कहतु है हम दासन के पनिहारे ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दासनि दासु = दासो का दास। पनिहारे = पानी भरने वाले।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मैं दीन तेरी शरण आया हूँ, मेरे पर मेहर कर, मेहर कर। मुझे अपने प्यारे भक्त मिला। मैं तेरे दासों का दास कहता हूँ, मुझे अपनें दासों का पानी ढोने वाला बनाए रख।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ राम हम पाथर निरगुनीआरे ॥ क्रिपा क्रिपा करि गुरू मिलाए हम पाहन सबदि गुर तारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ राम हम पाथर निरगुनीआरे ॥ क्रिपा क्रिपा करि गुरू मिलाए हम पाहन सबदि गुर तारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे राम! पाथर = पत्थर दिल, निर्दयी। निरगुनीआरे = गुण हीन। मिलाए = मिलाए। हम पाहन = हम पत्थरों को। सबदि = शब्द द्वारा। तारै = पार लंघा, उद्धार कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! हम जीव निर्दयी हैं, गुणों से वंचित हैं। मेहर कर, मेहर कर, हमें गुरु से मिला। हम पत्थरों को गुरु के शब्द के द्वारा (संसार-समुंदर से) पार लंघा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर नामु द्रिड़ाए अति मीठा मैलागरु मलगारे ॥ नामै सुरति वजी है दह दिसि हरि मुसकी मुसक गंधारे ॥१॥

मूलम्

सतिगुर नामु द्रिड़ाए अति मीठा मैलागरु मलगारे ॥ नामै सुरति वजी है दह दिसि हरि मुसकी मुसक गंधारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरु! द्रिढ़ाए = दृढ़ कर, हृदय में पक्का कर। मैलागरु = चंदन। मैलागरु मलगारे = चंदन का चंदन, चंदन से भी श्रेष्ठ। नामै = नाम के द्वारा। सुरति वजी है = ये सूझ प्रबल होती है कि। दह दिसि = दसों दिशाओं में। मुसक = कस्तूरी की सुगंधि। गंधारे = सुंगंधि।1।
अर्थ: हे गुरु! परमात्मा का नाम (मेरे हृदय में) पक्का कर, ये नाम बहुत मीठा है और (ठंडक पहुँचाने में) चंदन से भी श्रेष्ठ है। नाम की इनायत से ही ये सूझ प्रबल होती है कि जगत में हर तरफ परमात्मा की हस्ती की सुगंधि पसर रही है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी निरगुण कथा कथा है मीठी गुरि नीके बचन समारे ॥ गावत गावत हरि गुन गाए गुन गावत गुरि निसतारे ॥२॥

मूलम्

तेरी निरगुण कथा कथा है मीठी गुरि नीके बचन समारे ॥ गावत गावत हरि गुन गाए गुन गावत गुरि निसतारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुण = त्रिगुण अतीत, जिस पर माया के तीनों गुणों का प्रभाव नहीं पड़ता। गुरि = गुरु के द्वारा। नीके = अच्छे। समारे = हृदय में बसाए जा सकते हैं। गावत गावत गाए = हर वक्त गाने शुरू किए। गुरि = गुरु ने। निसतारे = पार लंघा दिए।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी महिमा मीठी है, इस पर माया के तीन गुणों का प्रभाव नहीं पड़ सकता। गुरु के द्वारा (तेरी महिमा के) सुंदर वचन हृदय में बसाए जा सकते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने हर वक्त परमात्मा के गुण गाने आरम्भ किए, गुणगान करते हुए उनको गुरु ने (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिबेकु गुरू गुरू समदरसी तिसु मिलीऐ संक उतारे ॥ सतिगुर मिलिऐ परम पदु पाइआ हउ सतिगुर कै बलिहारे ॥३॥

मूलम्

बिबेकु गुरू गुरू समदरसी तिसु मिलीऐ संक उतारे ॥ सतिगुर मिलिऐ परम पदु पाइआ हउ सतिगुर कै बलिहारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिबेकु = अच्छे बुरे की परख (करने में निपुंन)। सम दरसी = (सम = बराबर, एक समान) सबको एक समान (प्यार से) देखने वाला। तिसु = उस गुरु को। मिलीऐ = मिलना चाहिएै। उतारे = उतार के। मिलिऐ = अगर मिल जाए (शब्द ‘मिलिऐ’ और मिलीऐ’ में अंतर है)। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक दर्जा। हउ = मैं। कै = से।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु अच्छे-बुरे कर्मों की परख करने में निपुण है, गुरु सब जीवों को एक जैसे प्यार से देखने वाला है। (अपने मन के सारे) शंके दूर करके उस (गुरु) को मिलना चाहिए। अगर गुरु मिल जाए, तो सबसे ऊँची आत्मि्क अवस्था प्राप्त हो जाती है। मैं गुरु से सदके हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाखंड पाखंड करि करि भरमे लोभु पाखंडु जगि बुरिआरे ॥ हलति पलति दुखदाई होवहि जमकालु खड़ा सिरि मारे ॥४॥

मूलम्

पाखंड पाखंड करि करि भरमे लोभु पाखंडु जगि बुरिआरे ॥ हलति पलति दुखदाई होवहि जमकालु खड़ा सिरि मारे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाखंड = (माया आदि बटोरने के लिए धार्मिक) दिखावे। करि = कर के। करि करि = बार बार कर के। भरमे = भटकते फिरते हैं। जगि = जगत में। बुरिआरे = बहुत बुरे। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। होवहि = होते हैं (बहुवचन)। सिरि = सिर पर। मारे = मारता है, आत्मिक मौत मारता जाता है।4।
अर्थ: (हे भाई! माया आदि बटोरने के लिए अनेक धार्मिक) दिखावे वाले काम सदा कर-करके (जीव) भटकते फिरते हैं। ये लोभ और ये (धार्मिक) दिखावा जगत में ये बहुत बुरे (वैरी) हैं। इस लोक में और परलोक में (ये सदा) दुखदाई होते हैं, (इनके कारण) जमकाल (जीवों के) सिर पर खड़ा हुआ (सबको) आत्मिक मौत मारे जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उगवै दिनसु आलु जालु सम्हालै बिखु माइआ के बिसथारे ॥ आई रैनि भइआ सुपनंतरु बिखु सुपनै भी दुख सारे ॥५॥

मूलम्

उगवै दिनसु आलु जालु सम्हालै बिखु माइआ के बिसथारे ॥ आई रैनि भइआ सुपनंतरु बिखु सुपनै भी दुख सारे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उगवै = उगता है, चढ़ता है। आलु = (आलय) घर। आलु जालु = जाल-रूपी घर के धंधे। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली। बिसथारे = बिखेरे। रैनि = रात। सुपनंतरु = सपनों में डूबा हुआ। सुपनै भी = सपने में भी। बिखु सारे = जहर संभालता है।5।
अर्थ: (हे भाई! जब) दिन चढ़ता है (उस वक्त लोभ-वश हो के जीव) घर के धंधे, आत्मिक मौत लाने वाली माया के पसारे आरम्भ करता है; (जब) रात आ गई (तब जीव दिन में किए धंधों के अनुसार) सपनों में डूब गया, सपनों में भी आत्मिक मौत लाने वाले दुखों को ही संभालता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलरु खेतु लै कूड़ु जमाइआ सभ कूड़ै के खलवारे ॥ साकत नर सभि भूख भुखाने दरि ठाढे जम जंदारे ॥६॥

मूलम्

कलरु खेतु लै कूड़ु जमाइआ सभ कूड़ै के खलवारे ॥ साकत नर सभि भूख भुखाने दरि ठाढे जम जंदारे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलरु खेतु = वह खेत जिसमें बंजर के कारण फसल नहीं उगती, वह बंजर हृदय खेत जिसमें नाम बीज नहीं उगता। कूड़ु = नाशवान पदार्थों का मोह। जमाइआ = बीता। खलवारे = खलिहान, अन्न गाहने की जगह। साकत नर = प्रभु से टूटे हुए मनुष्य। सभि = सारे। भूख भुखाने = भूखे ही भूखे, हर वक्त भूखे, हर वक्त तृष्णा के मारे हुए। जम दरि = जम के दर से। जंदार = बली। ठाढे = खड़े हुए।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों का ये हृदय रूपी खेत कल्लर है (बंजर है) (जिसमें बीज नहीं उग सकता। साकत) उस नाशवान पदार्थ का मोह ही बीजते रहते हैं और मोह-माया के खलवाड़े ही संचित करते रहते हैं। (इसका नतीजा ये निकलता है कि) साकत मनुष्य हर वक्त तृष्णा के मारे हुए ही रहते हैं, और बली जमराज के दर पर खड़े रहते हैं (जमों के वश पड़े रहते हैं)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख करजु चड़िआ बिखु भारी उतरै सबदु वीचारे ॥ जितने करज करज के मंगीए करि सेवक पगि लगि वारे ॥७॥

मूलम्

मनमुख करजु चड़िआ बिखु भारी उतरै सबदु वीचारे ॥ जितने करज करज के मंगीए करि सेवक पगि लगि वारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। बिखु करजु = आत्मिक मौत लाने वाला कर्जा। वीचारे = विचार के। करज के मंगीए = करजा लेने वाले, जिनके कर्जे तले फस गए, करज़ खाह, जम दूत। करि सेवक = सेवक बना के। पगि लगि = पैरों में लग के, चरण पड़ कर। वारे = रोक गए।7।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले बंदों के सिर पर आत्मिक मौत लाने वाला (विकारों का) करजा चढ़ा रहता है, गुरु के शब्द को मन में बसाने से ही ये करजा उतरता है। (जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, तब) कर्जा माँगने वाले इन सभी जमदूतों को (गुर-शब्द का आसरा लेने वालों का) सेवक बना के उनके चरणों से लगा के रोक दिया जाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगंनाथ सभि जंत्र उपाए नकि खीनी सभ नथहारे ॥ नानक प्रभु खिंचै तिव चलीऐ जिउ भावै राम पिआरे ॥८॥२॥

मूलम्

जगंनाथ सभि जंत्र उपाए नकि खीनी सभ नथहारे ॥ नानक प्रभु खिंचै तिव चलीऐ जिउ भावै राम पिआरे ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगंनाथ = जगत का नाथ। सभि जंत्र = सारे जीव। उपाए = पैदा किए हुए। नकि खीनी = नाक से छेदे हुए। नथहारे = नाथ वाले, वश में। नानक = हे नानक! खिंचै = खींचता है। भावै = अच्छा लगता है।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जीवों के भी क्या वश में?) ये सारे जीव जगत के नाथ-प्रभु के पैदा किए हुए हैं, नाक छेदे हुए हैं (पशुओं की तरह) सब उसके बस में हैं। जैसे प्रभु (जीवों की नाथ) खींचता है, जैसे प्यारे राम की रजा होती है वैसे ही (जीवों को) चलना पड़ता है।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ राम हरि अम्रित सरि नावारे ॥ सतिगुरि गिआनु मजनु है नीको मिलि कलमल पाप उतारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ राम हरि अम्रित सरि नावारे ॥ सतिगुरि गिआनु मजनु है नीको मिलि कलमल पाप उतारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे राम! हरि = हे हरि! अंम्रितसरि = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल के सरोवर में। नावारे = स्नान कराता है। सतिगुरि = गुरु में। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मजनु = स्नान। नीको = सुंदर, अच्छा। मिलि = (गुरु को) मिल के। कलमल = पाप। उतारे = उतार लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! हे हरि! (जो मनुष्य तेरी मेहर से) आत्मिक जीवन देने वाले तेरे नाम-जल के सर में (अपने मन को) स्नान कराता है, (वह मनुष्य गुरु को) मिल के (अपने सारे) पाप विकार उतार लेता है। (गुरु के द्वारा) आत्मिक जीवन की सूझ ही गुरु (-सरोवर) में सुंदर स्नान है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संगति का गुनु बहुतु अधिकाई पड़ि सूआ गनक उधारे ॥ परस नपरस भए कुबिजा कउ लै बैकुंठि सिधारे ॥१॥

मूलम्

संगति का गुनु बहुतु अधिकाई पड़ि सूआ गनक उधारे ॥ परस नपरस भए कुबिजा कउ लै बैकुंठि सिधारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुनु = प्रभाव, असर, लाभ। अधिकाई = ज्यादा। पढ़ि = पढ़ कर। सूआ = शूक, तोता। उधारे = उद्धार करता है। परसन परस = (स्पर्श = छूह) बहुत बढ़िया स्पर्श (श्री कृष्ण जी के चरणों की)। कउ = को। बैकुंठि = बैकुंठ में। सिधारै = पहुँचते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! संगति का असर बहुत ज्यादा हुआ करता है, (देखो,) तोता (गनिका से ‘राम नाम’) पढ़ के गनिका को (विकारों के समुंदर से) पार लंघा गया। कुबिजा को (श्री कृष्ण जी के चरणों का) श्रेष्ठ स्पर्श प्राप्त हुआ, (वह स्पर्श) उसको बैकुंठ ले पहुँचा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजामल प्रीति पुत्र प्रति कीनी करि नाराइण बोलारे ॥ मेरे ठाकुर कै मनि भाइ भावनी जमकंकर मारि बिदारे ॥२॥

मूलम्

अजामल प्रीति पुत्र प्रति कीनी करि नाराइण बोलारे ॥ मेरे ठाकुर कै मनि भाइ भावनी जमकंकर मारि बिदारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुत्र प्रति = पुत्र के लिए। कीनी = की हुई। कहि = कह कह के। बोलारे = बुलाता है। कै मनि = के मन में। भाइ = भा गई, पसंद आ गई, अच्छी लगी। भावनी = श्रद्धा। कंकर = (किंकर) नौकर। जम कंकर = जमराज के नौकर, जम दूत। मारि = मार के। बिदारे = नाश कर दिए।2।
अर्थ: हे भाई! अजामल की अपने पुत्र (नारायण) से की हुई प्रीति (जगत-प्रसिद्ध है। अजामल अपने पुत्र को) नारायण नाम से बुलाता था (नारायण कहते कहते उसकी प्रीति नारायण-प्रभु से भी बन गई)। प्यारे मालिक प्रभु नारायण को (अजामल की वह) प्रीति पसंद आ गई, उसने जमदूतों को मार के (अजामल से परे) भगा दिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुखु कथै कथि लोक सुनावै जो बोलै सो न बीचारे ॥ सतसंगति मिलै त दिड़ता आवै हरि राम नामि निसतारे ॥३॥

मूलम्

मानुखु कथै कथि लोक सुनावै जो बोलै सो न बीचारे ॥ सतसंगति मिलै त दिड़ता आवै हरि राम नामि निसतारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथै = (निरा) जबानी कहता है। कथि = जबानी कह के। दिढ़ता = यकीन, दृढ़ता। नामि = नाम से। निसतारे = (गुरु) पार लंघा देता है।3।
अर्थ: पर, हे भाई अगर मनुष्य निरी जबानी बातें ही करता है और बातें करके सिर्फ लोगों को ही सुनाता है (उसको खुद को इसका कोई लाभ नहीं होता); जो कुछ वह बोलता है उसको अपने मन में नहीं बसाता। जब मनुष्य (गुरु की) साधु-संगत में मिल बैठता है जब उसके अंदर श्रद्धा बनती है (गुरु उसको) परमात्मा के नाम (में जोड़ के संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु जीउ पिंडु है साबतु तब लगि किछु न समारे ॥ जब घर मंदरि आगि लगानी कढि कूपु कढै पनिहारे ॥४॥

मूलम्

जब लगु जीउ पिंडु है साबतु तब लगि किछु न समारे ॥ जब घर मंदरि आगि लगानी कढि कूपु कढै पनिहारे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साबतु = कायम। तब लगि = तब तक (शब्द ‘लगु’ और ‘लगि’ का एक ही अर्थ है)। न समारे = नहीं संभालता, आत्मिक जीवन की सांभ संभाल नहीं करता। मंदरि = घर में। आगि = आग। कूपु = कूआँ। पनिहारे = पनिहारा, पानी निकालने वाला।4।
अर्थ: हे भाई! जब तक जिंद और शरीर (का मेल) कायम रहता है, तब तक (प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य प्रभु की याद को) हृदय में नहीं बसाता, (इसका हाल उस मनुष्य की तरह समझो, जिसके) घर-महल में जब आग लगती है तब कूआँ खोद के पानी निकालता है (आग बुझाने के लिए)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत सिउ मन मेलु न करीअहु जिनि हरि हरि नामु बिसारे ॥ साकत बचन बिछूआ जिउ डसीऐ तजि साकत परै परारे ॥५॥

मूलम्

साकत सिउ मन मेलु न करीअहु जिनि हरि हरि नामु बिसारे ॥ साकत बचन बिछूआ जिउ डसीऐ तजि साकत परै परारे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत सिउ = प्रभु से टूटे हुए मनुष्य से। मन = हे मन! मेलु = संबंध, सांझ, उठना बैठना। जिनि = जिस (साकत) ने। बिसारे = भुला दिया है। डसीऐ = डसा जाता है। तजि = त्याग के। परारे = और परे।5।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम बिल्कुल ही भुला दिया है (वह साकत है, उस) साकत के साथ कभी सांझ नहीं डालनी, क्योंकि साकत के वचन के साथ मनुष्य इस तरह डंगा जाता है जैसे साँप-बिच्छू के डंक से। साकत (का संग) छोड़ के उससे परे ही बहुत ही परे रहना चाहिए।5।

[[0982]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

लगि लगि प्रीति बहु प्रीति लगाई लगि साधू संगि सवारे ॥ गुर के बचन सति सति करि माने मेरे ठाकुर बहुतु पिआरे ॥६॥

मूलम्

लगि लगि प्रीति बहु प्रीति लगाई लगि साधू संगि सवारे ॥ गुर के बचन सति सति करि माने मेरे ठाकुर बहुतु पिआरे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लगि = (गुरु के चरणों में) लग के। लगि लगि = बार बार लग के। प्रीति लगाई = (अपने हृदय में) प्रीति पैदा की। साधू संगि = गुरु की संगति में। सवारे = अपना जीवन अच्छा बना ले। सति करि = सच्चे जान के। माने = मान ले।6।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों ने) बार-बार गुरु के चरणों में (लग के) (अपने हृदय में प्रभु-चरणों की) बहुत प्रीति पैदा कर ली, गुरु की संगति में रह के अपने जीवन अच्छे बना लिए, गुरु के वचनों पर पूरी श्रद्धा बना ली, वे मनुष्य परमात्मा को बहुत प्यारे लगते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरबि जनमि परचून कमाए हरि हरि हरि नामि पिआरे ॥ गुर प्रसादि अम्रित रसु पाइआ रसु गावै रसु वीचारे ॥७॥

मूलम्

पूरबि जनमि परचून कमाए हरि हरि हरि नामि पिआरे ॥ गुर प्रसादि अम्रित रसु पाइआ रसु गावै रसु वीचारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरबि जनमि = पहले जनम में। परचून = थोड़े थोड़े (शुभ कर्म)। नामि = नाम में। पिआरे = प्यार करता है। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।7।
अर्थ: हे भाई! पूर्बले जनम में जिस मनुष्य ने थोड़े-थोड़े शुभ-कर्म कमाए, (उनकी इनायत से अब भी) प्रभु के नाम में प्यार बनाया, गुरु की कृपा से उसने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पा लिया। वह मनुष्य (सदा) नाम-रस को सलाहता है, नाम-रस को हृदय में बसाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि रूप रंग सभि तेरे मेरे लालन लाल गुलारे ॥ जैसा रंगु देहि सो होवै किआ नानक जंत विचारे ॥८॥३॥

मूलम्

हरि हरि रूप रंग सभि तेरे मेरे लालन लाल गुलारे ॥ जैसा रंगु देहि सो होवै किआ नानक जंत विचारे ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! सभि = सारे। लालन = हे लाल! लाल गुलारे = हे सुंदर लाल! देहि = तू देता है। सो = वही रंग। किआ = क्या बिसात है? क्या सामर्थ्य है? क्या पायां है?।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! हे लाल! हे सोहणे लाल! (सब जीव-जंतु) सारे तेरे ही रूप हैं तेरे ही रंग हैं। जैसा रंग तू (किसी जीव को) देता है (उस पर) वैसा ही रंग चढ़ता है। इन बिचारे जीवों की अपनी कोई बिसात नहीं है।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ राम गुर सरनि प्रभू रखवारे ॥ जिउ कुंचरु तदूऐ पकरि चलाइओ करि ऊपरु कढि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ राम गुर सरनि प्रभू रखवारे ॥ जिउ कुंचरु तदूऐ पकरि चलाइओ करि ऊपरु कढि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे राम! प्रभू = हे प्रभु! रखवारे = तू रखवाला बनता है। कुंचरु = गज, हाथी (श्राप से गंधर्व से बना हुआ हाथी)। तदूऐ = तेंदूए ने। पकरि = पकड़ कर। ऊपरु = ऊँचा (विशेषण)। कढि = निकाल के। निसतारे = बचा लिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे प्रभु! (जिस पर भी तू मेहर करता है उसको) गुरु की शरण में डाल कर (विकारों से उसका) रक्षक बनता है, जैसे जब तेंदूए ने हाथी को पकड़ कर खींच लिया था, तब तूने ही उसे ऊँचा कर के निकाल के (तेंदूए की पकड़ से) बचा लिया था।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ के सेवक बहुतु अति नीके मनि सरधा करि हरि धारे ॥ मेरे प्रभि सरधा भगति मनि भावै जन की पैज सवारे ॥१॥

मूलम्

प्रभ के सेवक बहुतु अति नीके मनि सरधा करि हरि धारे ॥ मेरे प्रभि सरधा भगति मनि भावै जन की पैज सवारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अति नीके = बहुत सुंदर। मनि = मन में। करि = पैदा करके। धारे = सहारा देता है। प्रभि = प्रभु ने। मनि = मन में। भावै = भाता है। पैज = इज्जत।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के भक्त बहुत ही सुंदर जीवन वाले होते हैं, प्रभु (उनके मन में) श्रद्धा पैदा करके उनको (अपने नाम का) सहारा देता है। हे भाई! प्रभु ने स्वयं ही (अपने सेवक के अंदर) श्रद्धा-भक्ति पैदा की होती है, सेवक उसको प्यारा लगता है, प्रभु स्वयं ही सेवक की इज्जत बचाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि सेवकु सेवा लागै सभु देखै ब्रहम पसारे ॥ एकु पुरखु इकु नदरी आवै सभ एका नदरि निहारे ॥२॥

मूलम्

हरि हरि सेवकु सेवा लागै सभु देखै ब्रहम पसारे ॥ एकु पुरखु इकु नदरी आवै सभ एका नदरि निहारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। पसारे = पसारा, खिलारा। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। निहारे = देखता है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु का जो सेवक प्रभु की सेवा-भक्ति में लगता है, वह हर जगह प्रभु का ही पसारा देखता है, उसको वही सर्व-व्यापक हर जगह दिखाई देता है (उसको दिखता है कि) प्रभु स्वयं ही सब जीवों पर मेहर की निगाह से देख रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि प्रभु ठाकुरु रविआ सभ ठाई सभु चेरी जगतु समारे ॥ आपि दइआलु दइआ दानु देवै विचि पाथर कीरे कारे ॥३॥

मूलम्

हरि प्रभु ठाकुरु रविआ सभ ठाई सभु चेरी जगतु समारे ॥ आपि दइआलु दइआ दानु देवै विचि पाथर कीरे कारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रविआ = व्यापक है। ठाई = जगहों में। सभु जगतु = सारा संसार। चेरी = दासी (की तरह)। समारे = संभालता है। दानु देवै = दान देता है। कीरे कारे = कीरे करे, कीड़े पैदा किए।3।
अर्थ: हे भाई! मालिक हरि प्रभु सब जगहों में भरपूर है, दासी की तरह सारे जगत को संभालता है। दया का श्रोत प्रभु खुद ही सब जीवों पर दया करता है, सबको दान देता है, पत्थरों में भी वह स्वयं ही कीड़े पैदा करता है (और उनको रिज़क पहुँचाता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि वासु बहुतु मुसकाई भ्रमि भूला मिरगु सिंङ्हारे ॥ बनु बनु ढूढि ढूढि फिरि थाकी गुरि पूरै घरि निसतारे ॥४॥

मूलम्

अंतरि वासु बहुतु मुसकाई भ्रमि भूला मिरगु सिंङ्हारे ॥ बनु बनु ढूढि ढूढि फिरि थाकी गुरि पूरै घरि निसतारे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वासु = सुगंधि। मुसकाई = कस्तूरी की। भ्रमि = भुलेखे में। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। मिरगु = हिरन। सिंङ्हारे = (सिंग+हारे) सींग मारता फिरता है, सूँघता फिरता है। बनु बनु = हरेक जंगल। फिरि = फिर के, भटक के। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। घरि = घर में।4।
अर्थ: हे भाई! (हिरन के अंदर ही) कस्तूरी की खूब सारी सुगंधि मौजूद होती है, पर भुलेखे में भूल के हिरन (उस सुगंधि को झाड़ियों में) तलाशता फिरता है (यही हाल स्त्री-जीव का होता है। प्रभु तो इसके अंदर ही बसता है, पर ये बेचारी जीव-स्त्री) जंगल-जंगल ढूँढ-ढूँढ के भटक-भटक के थक जाती है। (आखिर) पूरे गुरु ने इसको घर में (ही बसता प्रभु दिखाया और संसार-समुंदर से) पार लंघाया।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाणी गुरू गुरू है बाणी विचि बाणी अम्रितु सारे ॥ गुरु बाणी कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरू निसतारे ॥५॥

मूलम्

बाणी गुरू गुरू है बाणी विचि बाणी अम्रितु सारे ॥ गुरु बाणी कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरू निसतारे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सारे = संभालता है, पाता है। गुरु कहै = गुरु उचारता है। मानै = मानता है, श्रद्धा बनाता है। परतखि = प्रकट तौर पर, यकीनी तौर पर।5।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की) वाणी (सिख की) गुरु है, गुरु वाणी मे मौजूद है। (गुरु की) वाणी में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (है, जिसको सिख हर वक्त अपने हृदय में) संभाल के रखता है। गुरु वाणी उचारता है, (गुरु का) सेवक उस वाणी पर श्रद्धा धरता है। गुरु उस सिख को यकीनी तौर पर संसार-समुंदर से पार लंघा देता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु है ब्रहमु ब्रहमु है पसरिआ मनि बीजिआ खावारे ॥ जिउ जन चंद्रहांसु दुखिआ ध्रिसटबुधी अपुना घरु लूकी जारे ॥६॥

मूलम्

सभु है ब्रहमु ब्रहमु है पसरिआ मनि बीजिआ खावारे ॥ जिउ जन चंद्रहांसु दुखिआ ध्रिसटबुधी अपुना घरु लूकी जारे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। पसरिआ = व्यापक। मनि = मन में। खावारे = खाता है। दुखिआ = दुखाया। चंद्रहांसु = एक राजे का लड़का जिसको धृष्टबुद्धि ने मरवाने का प्रयत्न किया, पर भुलेखे में अपने ही पुत्र का कत्ल कर बैठा। लूकी = लूती, चिंगारी से, आग से। जारे = जलाता है।6।
अर्थ: हे भाई! हर जगह परमात्मा भरपूर है मौजूद है (पर जीव को ये समझ नहीं आती, जीव अपने) मन में बीजे कर्मों के फल खाता है (और दुखी होता है,) जैसे ध्रिष्टबुद्धि भले चंद्रहांस का बुरा लोचते-लोचते अपने ही घर को आग से जला बैठा।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ कउ जनु अंतरि रिद लोचै प्रभ जन के सास निहारे ॥ क्रिपा क्रिपा करि भगति द्रिड़ाए जन पीछै जगु निसतारे ॥७॥

मूलम्

प्रभ कउ जनु अंतरि रिद लोचै प्रभ जन के सास निहारे ॥ क्रिपा क्रिपा करि भगति द्रिड़ाए जन पीछै जगु निसतारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। अंतरि रिद = हृदय में। लोचै = तांघता है। सास = श्वास (बहुवचन)। निहारे = देखता है। द्रिढ़ाए = दृढ़ करता है, पक्के तौर पर टिकाता है। जन पीछै = अपने मन के पीछे चलने वाले को। निसतारे = पार लंघाता है।7।
अर्थ: हे भाई! प्रभु का भक्त प्रभु को अपने हृदय में देखने के लिए उत्सुक रहता है, प्रभु (भी अपने) सेवक-भक्त की हर वक्त रक्षा करता रहता है, अपने भक्त के पद्-चिन्हों पर चलने वाले जगत को भी पार लंघाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपन आपि आपि प्रभु ठाकुरु प्रभु आपे स्रिसटि सवारे ॥ जन नानक आपे आपि सभु वरतै करि क्रिपा आपि निसतारे ॥८॥४॥

मूलम्

आपन आपि आपि प्रभु ठाकुरु प्रभु आपे स्रिसटि सवारे ॥ जन नानक आपे आपि सभु वरतै करि क्रिपा आपि निसतारे ॥८॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुरु = मालिक। आपे = आप ही। स्रिसटि = जगत, दुनिया। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है।8।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु अपने आप को आप ही जगत के रूप में प्रकट करता है, आप ही अपनी रची सृष्टि को सुंदर बनाता है। हे दास नानक! (कह:) प्रभु स्वयं ही हर जगह मौजूद है, कृपा करके स्वयं ही (जीवों को संसार-समुंदर से) पार लंघाता है।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ राम करि किरपा लेहु उबारे ॥ जिउ पकरि द्रोपती दुसटां आनी हरि हरि लाज निवारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ राम करि किरपा लेहु उबारे ॥ जिउ पकरि द्रोपती दुसटां आनी हरि हरि लाज निवारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे मेरे राम! लेहु उबारे = उबार लो, मुझे बचा लो। पकरि = पकड़ के। आनी = ले के आए। लाज = शर्म। लाज निवारे = नग्न होने की शर्म से बचाया।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! मेहर कर, (मुझे विकारों के हमलों से) बचा ले (उसी तरह बचा ले) जैसे (जब) दुष्ट द्रोपदी को पकड़ कर लाए थे (तब) हे हरि! तूने उसको नग्न होने की शर्म से बचाया था।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा जाचिक जन तेरे इकु मागउ दानु पिआरे ॥ सतिगुर की नित सरधा लागी मो कउ हरि गुरु मेलि सवारे ॥१॥

मूलम्

करि किरपा जाचिक जन तेरे इकु मागउ दानु पिआरे ॥ सतिगुर की नित सरधा लागी मो कउ हरि गुरु मेलि सवारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाचक = भिखारी। मागउ = मैं माँगता हूँ। पिआरे = हे प्यारे! नित = सदा। सरधा = चाहत। सतिगुरू की सरधा = गुरु को मिलने की तमन्ना। मो कउ = मुझे। हरि = हे हरि! गुरु मेलि = गुरु मिला। सवारे = (मेरा जीवन) सवार।1।
अर्थ: हे प्यारे हरि! मेहर कर, हम (तेरे दर के) भिखारी हैं, मैं (तेरे दर से) एक दान माँगता हूं। (मेरे मन में) सदा गुरु को मिलने की तमन्ना बनी रहती है, हे हरि! मुझे गुरु मिला (और मेरा जीवन) सवार।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत करम पाणी जिउ मथीऐ नित पाणी झोल झुलारे ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ कढि माखन के गटकारे ॥२॥

मूलम्

साकत करम पाणी जिउ मथीऐ नित पाणी झोल झुलारे ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ कढि माखन के गटकारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत करम = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के कर्म। मथीऐ = मथते हैं। झोल झुलारे = बार बार मथते हैं। मिलि = मिल के। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। कढि = (दूध में से) निकाल के। गटकारे = गटकता है, सांस ले ले के खाता है।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के काम (इस तरह व्यर्थ) हैं जैसे पानी को मथना। साकत मनुष्य (जैसे) सदा पानी ही मथता रहता है। पर जिस मनुष्य ने साधु-संगत में मिल के सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, वह (मानो, दूध में से) मक्खन निकाल के मक्खन का स्वाद चखता है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नित नित काइआ मजनु कीआ नित मलि मलि देह सवारे ॥ मेरे सतिगुर के मनि बचन न भाए सभ फोकट चार सीगारे ॥३॥

मूलम्

नित नित काइआ मजनु कीआ नित मलि मलि देह सवारे ॥ मेरे सतिगुर के मनि बचन न भाए सभ फोकट चार सीगारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नित = सदा। काइआ = शरीर। मजनु = स्नान। मलि = मल के। देह = शरीर। सवारे = सवारता है, साफ सुथरा बनाता है। मनि = मन में। भाए = अच्छे लगे। चार = सुंदर। फोकट = व्यर्थ।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा शरीर का स्नान करता रहा, जो मनुष्य सदा शरीर को ही मल-मल के साफ-सुथरा बनाता रहता है, पर उसको अपने मन में गुरु के वचन प्यारे नहीं लगते, उसके ये सारे (शारीरिक) सुंदर श्रृंगार फोके ही रह जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मटकि मटकि चलु सखी सहेली मेरे ठाकुर के गुन सारे ॥ गुरमुखि सेवा मेरे प्रभ भाई मै सतिगुर अलखु लखारे ॥४॥

मूलम्

मटकि मटकि चलु सखी सहेली मेरे ठाकुर के गुन सारे ॥ गुरमुखि सेवा मेरे प्रभ भाई मै सतिगुर अलखु लखारे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मटकि = मटक के, मौज से, आत्मिक अडोलता में। चलु = चल, जीवन-यात्रा में चल। सखी = हे सखी! सरे = सारि, संभाल, हृदय में बसाए रख। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सेवा = भक्ति। प्रभ भाई = प्रभु को अच्छी लगती है। मै = मुझे (भी)। सतिगुर = हे गुरु! लखारे = दिखा के, सूझ दे के। अलखु = जिस प्रभु का सही स्वरूप बयान ना हो सके।4।
अर्थ: हे सखी! हे सहेली! मालिक प्रभु के गुण हृदय में बसाए रख, (और इस तरह) आत्मिक अडोलता से जीवन-यात्रा में चल। हे सहेलिए! गुरु की शरण पड़ कर की हुई सेवा-भक्ति प्रभु को प्यारी लगती है। हे सतिगुरु! मुझे (भी) अलख प्रभु की सूझ बख्श।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारी पुरखु पुरखु सभ नारी सभु एको पुरखु मुरारे ॥ संत जना की रेनु मनि भाई मिलि हरि जन हरि निसतारे ॥५॥

मूलम्

नारी पुरखु पुरखु सभ नारी सभु एको पुरखु मुरारे ॥ संत जना की रेनु मनि भाई मिलि हरि जन हरि निसतारे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नारी = स्त्री। पुरख = मर्द। सभ = सबमें। सभु = हर जगह। पुरखु मुरारे = सर्व व्यापक हरि (मुर+अरि)। रेनु = चरण धूल। मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। मिलि = मिल के। मिलि हरि जन = संत जनों को मिल के, संत जनों को मिलने से ही। निसतारे = पार लंघाता है।5।
अर्थ: हे सखी! (वैसे तो चाहे) स्त्री है (चाहे) मर्द है, (भले ही) मर्द है (भले ही) स्त्री है, सब में हर जगह एक ही सर्व-व्यापक परमात्मा बस रहा है; पर जिस मनुष्य को संत जनों (के चरणों) की धूल (अपने) मन को प्यारी लगती है, उसको ही प्रभु संसार-समुंदर से पार लंघाता है। हे सखी! संत-जनों को मिलने से ही प्रभु पार लंघाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्राम ग्राम नगर सभ फिरिआ रिद अंतरि हरि जन भारे ॥ सरधा सरधा उपाइ मिलाए मो कउ हरि गुर गुरि निसतारे ॥६॥

मूलम्

ग्राम ग्राम नगर सभ फिरिआ रिद अंतरि हरि जन भारे ॥ सरधा सरधा उपाइ मिलाए मो कउ हरि गुर गुरि निसतारे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्राम = गाँव। नगर = शहर। सभ = सब जगह। रिद अंतरि = हृदय के भीतर ही। भारे = भाले, तलाशा, पा लिया। उपाइ = उपाय, पैदा करके। मो कउ = मुझे। मिलाए = मिला के, जोड़। गुरि = गुरु के द्वारा। निसतारे = पार लंघा ले।6।
अर्थ: हे सखी! गाँव-गाँव शहर-शहर सब जगह घूम के देख लिया है (परमात्मा ऐसे बाहर ढूँढने पर नहीं मिलता), संतजनों ने परमात्मा को अपने हृदय में पाया है।
हे हरि! (मेरे अंदर भी) श्रद्धा पैदा करके मुझे भी (गुरु के द्वारा) अपने चरणों में जोड़, मुझे भी गुरु के द्वारा संसार-समुंदर से पार लंघा ले।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवन सूतु सभु नीका करिआ सतिगुरि सबदु वीचारे ॥ निज घरि जाइ अम्रित रसु पीआ बिनु नैना जगतु निहारे ॥७॥

मूलम्

पवन सूतु सभु नीका करिआ सतिगुरि सबदु वीचारे ॥ निज घरि जाइ अम्रित रसु पीआ बिनु नैना जगतु निहारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पवन = श्वास। पवन सूतु = श्वासों का धागा, सांसों की डोर, सारे श्वास। नीका = सुंदर, अच्छा। सतिगुरि = गुरु में (जुड़ के)। वीचारे = बिचार के, सूझ में टिका के। निज घरि = अपने घर में, अंतर आत्मे। जाइ = जाए, जा के, टिक के। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। बिनु नैना = आँखों के बिना, मायावी आँखों के बगैर, माया का मोह दूर करके। निहारे = देख के।7।
अर्थ: हे सखी! जिस मनुष्य ने गुरु (के चरणों) में (जुड़ के) गुरु के शब्द को अपनी सूझ में टिका के (नाम जपने की इनायत से) अपने श्वासों की लड़ी को सुंदर बना लिया, उसने माया के मोह को दूर करके जगत (की अस्लियत) को देख के, अंतरात्मे टिक के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस लिया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तउ गुन ईस बरनि नही साकउ तुम मंदर हम निक कीरे ॥ नानक क्रिपा करहु गुर मेलहु मै रामु जपत मनु धीरे ॥८॥५॥

मूलम्

तउ गुन ईस बरनि नही साकउ तुम मंदर हम निक कीरे ॥ नानक क्रिपा करहु गुर मेलहु मै रामु जपत मनु धीरे ॥८॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ = तेरे। ईस = हे ईश! हे ईश्वर! साकउ = सकूँ। हम = हम संसारी जीव। निक = छोटे, तुच्छ। कीरे = कीड़े। गुर मेलहु = गुरु (से) मिलाप करो। मै मनु = मेरा मन। धीरे = टिक जाए।8।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे गुण बयान नहीं कर सकता। तू एक सुंदर मन्दिर है हम जीव उसमें रहने वाले एक छोटे-छोटे कीड़े हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरु से मिला दे, ताकि मेरा मन नाम जप-जप के (तेरे चरणों में) सदा टिका रहे।8।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नट महला ४ ॥ मेरे मन भजु ठाकुर अगम अपारे ॥ हम पापी बहु निरगुणीआरे करि किरपा गुरि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नट महला ४ ॥ मेरे मन भजु ठाकुर अगम अपारे ॥ हम पापी बहु निरगुणीआरे करि किरपा गुरि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरे मन = हे मेरे मन! भजु = स्मरण कर, याद कर। ठाकुर = मालिक प्रभु। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। हम = हम जीव। निरगुणीआरे = गुणों से वंचित। गुरि = गुरु के द्वारा। निसतारे = पार लंघा ले।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत मालिक प्रभु के गुण याद किया कर (और कहा कर- हे प्रभु!) हम जीव पापी हैं, गुणों से बहुत दूर हैं। कृपा करके हमें गुरु के माध्यम से (गुरु की शरण डाल के संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू पुरख साध जन पाए इक बिनउ करउ गुर पिआरे ॥ राम नामु धनु पूजी देवहु सभु तिसना भूख निवारे ॥१॥

मूलम्

साधू पुरख साध जन पाए इक बिनउ करउ गुर पिआरे ॥ राम नामु धनु पूजी देवहु सभु तिसना भूख निवारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू पुरखु = भला मनुष्य, संत। साध जन पाए = (जो) संत जनों की संगति प्राप्त करता है। बिनउ = (विनय) विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। गुर = हे गुरु! पूजी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। निवारे = दूर कर दे।1।
अर्थ: हे प्यारे गुरु! जो मनुष्य संत जनों की संगति प्राप्त करता है वह भी गुरमुख बन जाता है, मैं भी (तेरे दर पर) विनती करता हूँ (मुझे भी संत जनों की संगति बख्श, और) मुझे परमात्मा का नाम-धन संपत्ति दे जो मेरे भीतर से माया की तृष्णा माया की भूख सब दूर कर दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पचै पतंगु म्रिग भ्रिंग कुंचर मीन इक इंद्री पकरि सघारे ॥ पंच भूत सबल है देही गुरु सतिगुरु पाप निवारे ॥२॥

मूलम्

पचै पतंगु म्रिग भ्रिंग कुंचर मीन इक इंद्री पकरि सघारे ॥ पंच भूत सबल है देही गुरु सतिगुरु पाप निवारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पचै = जलता है। पतंगु = पतंगा। म्रिग = मृग, हिरन। भ्रिंग = भृंग, भौरा। कुंचर = हाथी। मीन = मछली। इंद्री = (भाव) विकार वासना। पकरि = पकड़ के। सघारे = संघारे, नाश कर दिए, जान से मार दिए। पंच भूत = कामादिक पाँच दैत्य। सबल = स+बल, बलवान, बली। है = हैं। देही = शरीर में।2।
अर्थ: हे भाई! पतंगा (दीपक की लाट पर) जल जाता है; हिरन, भौरा, हाथी, मछली इनको भी एक-एक विकार-वासना अपने वश में करके मार देते हैं। पर मानव शरीर में तो ये कामादिक पाँचों ही बलवान हैं, (मनुष्य इनका मुकाबला कैसे करे?)। गुरु ही सतिगुरु ही इन विकारों को दूर करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासत्र बेद सोधि सोधि देखे मुनि नारद बचन पुकारे ॥ राम नामु पड़हु गति पावहु सतसंगति गुरि निसतारे ॥३॥

मूलम्

सासत्र बेद सोधि सोधि देखे मुनि नारद बचन पुकारे ॥ राम नामु पड़हु गति पावहु सतसंगति गुरि निसतारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोधि = सुधार के, परख के, विचार के। पुकारे = ऊँचा ऊँचा पुकार के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गुरि = गुरु ने (ही)। निसतारे = पार उतारना है।3।
अर्थ: हे भाई! वेद-शास्त्र कई बार विचार के देख लिए हैं, नारद आदि ऋषि-मुनि भी (जीवन-जुगति के बारे में) जो वचन जोर दे के कह रहे हैं (वह भी विचार लिए हैं, पर असल बात ये है भाई!) परमात्मा का नाम स्मरणा सीखोगे तब ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करोगे, गुरु ने साधु-संगत में ही (अनेक जीव संसार-समुंदर से) पार लंघाए हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतम प्रीति लगी प्रभ केरी जिव सूरजु कमलु निहारे ॥ मेर सुमेर मोरु बहु नाचै जब उनवै घन घनहारे ॥४॥

मूलम्

प्रीतम प्रीति लगी प्रभ केरी जिव सूरजु कमलु निहारे ॥ मेर सुमेर मोरु बहु नाचै जब उनवै घन घनहारे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केरी = की। निहारे = देखता है। मेर = मेरु, पहाड़। नाचै = नाचता है। उनवै = (बरसने के लिए) झुकता है। घन = बहुत। घनहारे = बादल।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में प्रीतम प्रभु का प्यार बना है (वह उसके मिलाप के लिए इस तरह तमन्ना बनाए रखता है) जैसे कमल का फूल सूरज को देखता है (और खिलता है, जैसे) जब बादल (बरसने के लिए) बहुत झुकता है तब ऊँचे पहाड़ों (की ओर से घटाएं आती देख के) मोर बहुत नाचता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत कउ अम्रित बहु सिंचहु सभ डाल फूल बिसुकारे ॥ जिउ जिउ निवहि साकत नर सेती छेड़ि छेड़ि कढै बिखु खारे ॥५॥

मूलम्

साकत कउ अम्रित बहु सिंचहु सभ डाल फूल बिसुकारे ॥ जिउ जिउ निवहि साकत नर सेती छेड़ि छेड़ि कढै बिखु खारे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। बिसु = विष, जहर। बिसकारे = जहरीले। निवहि = झुकते हैं, विनम्रता वाला व्यवहार करते हैं। सेती = साथ। छेड़ि = छेड़ के। कढै = निकालता है (एकवचन)। बिखु = जहर। खारे = खारा, कड़वा।5।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य (मानो, एक विषौला वृक्ष है) उसको चाहे कितना ही अमृत सें सींचते जाओ, उसकी टहनियाँ उसके फल सब विषौले ही रहेंगे। साकत मनुष्य से ज्यों-ज्यों लोग विनम्रता का प्रयोग करते हैं, त्यों-त्यों वह छेड़-खानियाँ कर करके (अपने अंदर से) कड़वा जहर ही निकालता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन संत साध मिलि रहीऐ गुण बोलहि परउपकारे ॥ संतै संतु मिलै मनु बिगसै जिउ जल मिलि कमल सवारे ॥६॥

मूलम्

संतन संत साध मिलि रहीऐ गुण बोलहि परउपकारे ॥ संतै संतु मिलै मनु बिगसै जिउ जल मिलि कमल सवारे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। मिलि रहीऐ = मिले रहना चाहिए। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। पर उपकारे = दूसरों की भलाई करने के वचन। संतै = संत को। मिलै = मिलता है (एकवचन)। बिगसै = खिल उठता है। जल मिलि = पानी को मिल के।6।
अर्थ: (इस वास्ते, हे भाई! साकत से सांझ डालने की जगह) संत जनों से गुरमुखों से मिल के रहना चाहिए। संत जन दूसरों की भलाई के लिए भले वचन ही बोलते हैं। जैसे पानी को मिल के कमल फूल खिलते हैं, वैसे ही जब कोई संत किसी संत को मिलता है तब उसका मन खिल उठता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभ लहरि सभु सुआनु हलकु है हलकिओ सभहि बिगारे ॥ मेरे ठाकुर कै दीबानि खबरि हुोई गुरि गिआनु खड़गु लै मारे ॥७॥

मूलम्

लोभ लहरि सभु सुआनु हलकु है हलकिओ सभहि बिगारे ॥ मेरे ठाकुर कै दीबानि खबरि हुोई गुरि गिआनु खड़गु लै मारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोभ लहरि = लोभ की लहर। सभु = सारा। सुआनु = कुक्ता। हलकु सुआन = हलका हुआ कुक्ता। सभहि = सबको। कै दीबानि = के दीवान में, की कचहरि में। गुरि = गुरु के द्वारा। खड़गु = तलवार। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘हुोई’ में से अक्षर ‘ह’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हुई हैं। असल शब्द है ‘होई’, यहाँ पढ़ना है ‘हुई’।
नोट: ‘खबरि’ में से सदा ‘ि’ अंत में है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! लोभ की लहर केवल हलकाया हुआ कुक्ता ही है (जिस तरह) हलकाया हुआ कुक्ता सबको (काट-काट के) बिगाड़ता जाता है (वैसे ही लोभी मनुष्य और लोगों को भी अपनी संगति में लोभी बनाए जाता है)। (इस लोभ से बचने के लिए जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर प्रभु-दर पे पुकार करता है, तब) परमात्मा की हजूरी में उसकी आरजू की खबर पहुँचती है, परमात्मा गुरु के माध्यम से आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार ले के उसके अंदर से लोभ के हलकाए हुए कुत्ते को मार देता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखु राखु राखु प्रभ मेरे मै राखहु किरपा धारे ॥ नानक मै धर अवर न काई मै सतिगुरु गुरु निसतारे ॥८॥६॥ छका १ ॥

मूलम्

राखु राखु राखु प्रभ मेरे मै राखहु किरपा धारे ॥ नानक मै धर अवर न काई मै सतिगुरु गुरु निसतारे ॥८॥६॥ छका १ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मै = मुझे। राखु = बचा ले। राखहु = बचा लो। धारे = धार के, करके। धर = आसरा। मै सतिगुरु = मेरा (आसरा) गुरु ही। छका = छक्का, छह शबदों का जोड़।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘काई’ स्त्रीलिंग है व ‘कोई’ पुलिंग।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे प्रभु! (इस लोभ-कुत्ते से) मुझे भी बचा ले, बचा ले, बचा ले, कृपा करके मुझे भी बचा ले। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेरा और कोई आसरा नहीं। गुरु ही मेरा आसरा है, गुरु ही पार लंघाता है। (मुझे गुरु की शरण रख)।8।6। छका1।