[[0876]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ घरु १ चउपदे
मूलम्
रामकली महला १ घरु १ चउपदे
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई पड़ता सहसाकिरता कोई पड़ै पुराना ॥ कोई नामु जपै जपमाली लागै तिसै धिआना ॥ अब ही कब ही किछू न जाना तेरा एको नामु पछाना ॥१॥
मूलम्
कोई पड़ता सहसाकिरता कोई पड़ै पुराना ॥ कोई नामु जपै जपमाली लागै तिसै धिआना ॥ अब ही कब ही किछू न जाना तेरा एको नामु पछाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा किरता = मगधी प्राक्रित भाषा में बौध व जैन ग्रंथ। जपमाली = माला। धिआना = समाधि। अब ही कब ही = अब भी और कभी भी।1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘सहसा किरता’ शब्द ‘संस्कृत’ का प्राक्रित रूप है ‘सहसाकिरता’)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! (तेरा नाम बिसार के) कोई मनुष्य मगधी प्राक्रित में लिखे हुए (संस्कृत के) बौध व जैन ग्रंथ पढ़ रहा है, कोई (तुझे भुला के) पुराण आदि पढ़ता है, कोई (किसी देवी-देवते को सिद्ध करने के लिए) माला से (देवते के) नाम का जाप करता है, कोई समाधि लगाए बैठा है। पर हे प्रभु! मैं सिर्फ तेरे नाम को पहचानता हूँ (तेरे नाम से ही सांझ डालता हूँ), मैं कभी भी (तेरे नाम के बिना) कोई और उद्यम (ऐसा) नहीं समझता (जो आत्मिक जीवन को ऊँचा कर सके)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जाणा हरे मेरी कवन गते ॥ हम मूरख अगिआन सरनि प्रभ तेरी करि किरपा राखहु मेरी लाज पते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
न जाणा हरे मेरी कवन गते ॥ हम मूरख अगिआन सरनि प्रभ तेरी करि किरपा राखहु मेरी लाज पते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न जाणा = मैं नहीं जानता, मुझे समझ नहीं। हरे = हे हरि! गते = गती, आत्मिक हालत। कवन गते = कौन सी आत्मिक हालत? (भाव, निम्न आत्मिक हालत)। पते = हे पति!।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! मुझे ये समझ नहीं थी कि (तेरे नाम के बिना) मेरी आत्मिक अवस्था नीचे चली जाएगी। हे प्रभु! मैं मूर्ख हूँ, अज्ञानी हूँ, (पर) तेरी शरण आया हूँ। हे प्रभु पति! मेहर कर (मुझे अपना नाम बख्श, और) मेरी इज्जत रख ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबहू जीअड़ा ऊभि चड़तु है कबहू जाइ पइआले ॥ लोभी जीअड़ा थिरु न रहतु है चारे कुंडा भाले ॥२॥
मूलम्
कबहू जीअड़ा ऊभि चड़तु है कबहू जाइ पइआले ॥ लोभी जीअड़ा थिरु न रहतु है चारे कुंडा भाले ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊभि = ऊँचा, आकाश में। जाइ = जाता है। पइआले = पाताल में। थिरु = टिका हुआ। कुंडा = तरफ। भाले = तलाशता है।2।
अर्थ: (तेरे नाम को बिसार के जीव लोभ में फंस जाता है) कभी (जब माया मिलती है धन मिलता है) जीव (बड़ा ही खुश होता है, मानो) आकाश में जा चढ़ता है, कभी (जब धन की कमी हो जाती है, तब बहुत डावाँडोल हो जाता है, जैसे) पाताल में जा गिरता है। लोभ-वश हुआ जीव अडोल-चिक्त नहीं रह सकता, चारों तरफ (माया की) तलाश करता फिरता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरणु लिखाइ मंडल महि आए जीवणु साजहि माई ॥ एकि चले हम देखह सुआमी भाहि बलंती आई ॥३॥
मूलम्
मरणु लिखाइ मंडल महि आए जीवणु साजहि माई ॥ एकि चले हम देखह सुआमी भाहि बलंती आई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंडल = जगत, दुनिया। साजहि = सजाते हैं, बनाते हैं। माई = हे माँ! एकि = अनेक जीव! चले = चले आ रहे हैं। देखह = हम देखते हैं, हमारी आँखों के सामने। सुआमी = हे प्रभु! भाहि = आग। बलंती आई = जल रही है।3।
अर्थ: हे माँ! जीव जगत में (ये लेख माथे पर) लिखा के लाते हैं (कि) मौत (अवश्य आएगी, पर तुझे बिसार के यहाँ सदा) जीते रहने की विउंते बनाते हैं। हे मालिक प्रभु! हमारी आँखों के सामने ही अनेक जीव (यहाँ से) चलते जा रहे हैं, (मौत की) आग जल रही है (इसमें सबके शरीर भस्म हो जाने हैं, पर नाम से टूट के जीव हमेशा जीवन ही लोचते फिरते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न किसी का मीतु न किसी का भाई ना किसै बापु न माई ॥ प्रणवति नानक जे तू देवहि अंते होइ सखाई ॥४॥१॥
मूलम्
न किसी का मीतु न किसी का भाई ना किसै बापु न माई ॥ प्रणवति नानक जे तू देवहि अंते होइ सखाई ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किसै = किसी का। प्रणवति = विनती करता है। देवहि = (नाम की दाति) दे। सखाई = मित्र, सहायक।4।
अर्थ: हे प्रभु! ना किसी का कोई मित्र, ना किसी का कोई भाई, ना किसी का कोई पिता ना किसी की माँ (आखिर में कोई किसी का साथ नहीं निभा सकता)। नानक (तेरे दर पर) विनती करता है: यदि तू (अपने नाम की दाति) दे, तो (सिर्फ यही) आखिर में सहायक हो सकता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ सरब जोति तेरी पसरि रही ॥ जह जह देखा तह नरहरी ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ सरब जोति तेरी पसरि रही ॥ जह जह देखा तह नरहरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सभ जीवों में। पसरि रही = व्यापक है। देखा = मैं देखूँ। जह जह = जहाँ जहाँ। नरहरी = हे परमात्मा!।1।
अर्थ: हे परमात्मा! सभ जीवों में तेरी ज्योति चमक रही है (पर मुझे नहीं दिखती क्योंकि मैं माया के अंधे कूएं में गिरा हुआ हूँ। मेहर कर, मुझे अंध-कूप में से निकाल ता कि) जिधर-जिधर मैं देखूँ उधर-उधर (मुझे तू ही दिखे)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन तलब निवारि सुआमी ॥ अंध कूपि माइआ मनु गाडिआ किउ करि उतरउ पारि सुआमी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीवन तलब निवारि सुआमी ॥ अंध कूपि माइआ मनु गाडिआ किउ करि उतरउ पारि सुआमी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तलब = ख्वाहिशें, बढ़ी हुई जरूरतें। सुआमी = हे मालिक प्रभु! कूपि = कूएं में। गाडिआ = फसा हुआ, गिरा हुआ। किउ करि = किस तरीके से? किसी तरह भी नहीं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! मेरी जिंदगी की बढ़ती हुई ख्वाहिशें दूर कर। मेरा मन माया के अंधे कूएं में फंसा है, (तेरी सहायता के बिना) मैं इसमें से किसी भी तरह से पार नहीं लांघ सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह भीतरि घट भीतरि बसिआ बाहरि काहे नाही ॥ तिन की सार करे नित साहिबु सदा चिंत मन माही ॥२॥
मूलम्
जह भीतरि घट भीतरि बसिआ बाहरि काहे नाही ॥ तिन की सार करे नित साहिबु सदा चिंत मन माही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घट = हृदय। भीतरि = अंदर। काहे नाही = क्यों नहीं, अवश्य। सार = संभाल। चिंत = चिन्ता, ध्यान। माही = में।2।
अर्थ: जिस लोगों के हृदय में परमात्मा की ज्योति प्रकट हो जाती है, उनको बाहर भी (हर जगह) जरूर वही दिखाई देता है (उनको ये यकीन बन जाता है कि) मालिक-प्रभु उनकी सदा संभाल करता है, उसके मन में सदा (उनकी संभाल की) चिन्ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे नेड़ै आपे दूरि ॥ आपे सरब रहिआ भरपूरि ॥ सतगुरु मिलै अंधेरा जाइ ॥ जह देखा तह रहिआ समाइ ॥३॥
मूलम्
आपे नेड़ै आपे दूरि ॥ आपे सरब रहिआ भरपूरि ॥ सतगुरु मिलै अंधेरा जाइ ॥ जह देखा तह रहिआ समाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधेरा = माया के अंधे कूएं का अंधकार।3।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही सब जीवों के नजदीक बस रहा है, स्वयं ही (इनसे अलग) दूर भी है। प्रभु स्वयं सब जीवों में व्यापक है। यदि मुझे गुरु मिल जाए तो मेरा माया के अंध-कूप वाला अंधकार दूर हो जाए। फिर मैं जिधर-जिधर देखूँ उधर-उधर ही परमात्मा व्यापक दिखाई दे जाए।3।
[[0877]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि सहसा बाहरि माइआ नैणी लागसि बाणी ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा परतापहिगा प्राणी ॥४॥२॥
मूलम्
अंतरि सहसा बाहरि माइआ नैणी लागसि बाणी ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा परतापहिगा प्राणी ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = सहम। नैणी = आँखों में। लागसि = अगर लगती रही। बाणी = सुंदरता की खींच। प्राणी = हे जीव! परतापहिगा = दुखी होगा।4।
अर्थ: प्रभु के सेवकों का सेवक नानक विनती करता है: हे जीव! जब तलक तेरी आँखों को बाहरी (दिखाई दे रही) माया की सुंदरता आकर्षित कर रही है, तब तलक तेरे अंदर सहम बना रहेगा और तू सदा दुखी रहेगा।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ जितु दरि वसहि कवनु दरु कहीऐ दरा भीतरि दरु कवनु लहै ॥ जिसु दर कारणि फिरा उदासी सो दरु कोई आइ कहै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ जितु दरि वसहि कवनु दरु कहीऐ दरा भीतरि दरु कवनु लहै ॥ जिसु दर कारणि फिरा उदासी सो दरु कोई आइ कहै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस में। दरि = दर में। जितु दरि = जिस जगह में। वसहि = (हे प्रभु!) तू बसता है। कवनु दरि = कौन सी जगह? दरा भीतरि दरु = जगहों में जगह, गुप्त जगह। कवनु लहै = कौन ढूँढ सकता है? , कोई विरला ही पा सकता है। फिरा = मैं फिरता हूँ। आइ = आ के। कहै = बताए।1।
अर्थ: (संसार-समुंदर से पार, हे प्रभु!) जिस जगह पर तू बसता है (संसार-समुंदर में फंसे हुए जीवों से) उस जगह का बयान नहीं किया जा सकता, (माया में ग्रसित जीवों को उस जगह की समझ ही नहीं पड़ सकती), कोई विरला ही जीव उस गुप्त जगह को पा सकता है। (जहाँ प्रभु बसता है) उस जगह की प्राप्ति के लिए मैं (चिरों से) तलाश करता फिरता हूँ, (मेरा मन लोचता है कि) कोई (गुरमुख) आ के मुझे वह जगह बताए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किन बिधि सागरु तरीऐ ॥ जीवतिआ नह मरीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किन बिधि सागरु तरीऐ ॥ जीवतिआ नह मरीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन बिधि = किन तरीकों से? नह मरीऐ = मरा नहीं जा सकता।1। रहाउ।
अर्थ: (हमारे और परमात्मा के बीच संसार-समुंदर दूरियां बनाए हुए है। जब तक संसार-समुंदर से पार नहीं लांघते, तब तक उसको मिला नहीं जा सकता) संसार-समुंदर से पार किन तरीकों से लांघें? जीते हुए मरा नहीं जा सकता (और, जब तक जीते हुए मर ना जाएं, तब तक संसार-समुंदर तैरा नहीं जा सकता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुखु दरवाजा रोहु रखवाला आसा अंदेसा दुइ पट जड़े ॥ माइआ जलु खाई पाणी घरु बाधिआ सत कै आसणि पुरखु रहै ॥२॥
मूलम्
दुखु दरवाजा रोहु रखवाला आसा अंदेसा दुइ पट जड़े ॥ माइआ जलु खाई पाणी घरु बाधिआ सत कै आसणि पुरखु रहै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रोहु = रोष, क्रोध। रखवाला = दरबान। अंदेसा = फिक्र, चिन्ता। पट = भिक्त, तख़्ते। माइआ जलु = माया की चमक। पाणी = विषौ विकारों के पानी में। सत = शांति, सहज अवस्था। आसणि = आसन पर। पुरखु = व्यापक प्रभु।2।
अर्थ: सर्व-व्यापक प्रभु सहज अवस्था के आसन पर (मनुष्य के हृदय में एक ऐसे घर में) बैठा हुआ है (जिसके बाहर) दुख दरवाजा है, क्रोध रखवाला है, आशा और सहम (उस दुख-दरवाजे पर) दो भिक्त (पर्दे) लगे हुए हैं। माया के प्रति आर्कषण उसके चारों तरफ़, जैसे, खाई (खुदी हुई) है (जिसमें विषौ-विकारों का पानी भरा हुआ है, उस) पानी में (मनुष्य का हृदय-) घर बना हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंते नामा अंतु न जाणिआ तुम सरि नाही अवरु हरे ॥ ऊचा नही कहणा मन महि रहणा आपे जाणै आपि करे ॥३॥
मूलम्
किंते नामा अंतु न जाणिआ तुम सरि नाही अवरु हरे ॥ ऊचा नही कहणा मन महि रहणा आपे जाणै आपि करे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किंते = कितने ही। सरि = बराबर। हरे = हे हरि! उचा = ऊँचा बोल के। आपे = प्रभु आप ही।3।
अर्थ: (एक तरफ जीव माया में घिरे हुए हैं, दूसरी तरफ़, हे प्रभु! चाहे) तेरे कई नाम हैं, पर किसी नाम के द्वारा तेरे सारे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे हरि! तेरे बराबर का कोई और नहीं है। (मन के ऐसे भाव) ऊँचे बोल के बताने की भी आवश्यक्ता नहीं है, अंतरात्मे ही टिके रहना चाहिए। सर्व-व्यापक प्रभु सबके दिलों की स्वयं ही जानता है, (सबके अंदर प्रेरक हो के) खुद ही (सब कुछ) कर रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब आसा अंदेसा तब ही किउ करि एकु कहै ॥ आसा भीतरि रहै निरासा तउ नानक एकु मिलै ॥४॥
मूलम्
जब आसा अंदेसा तब ही किउ करि एकु कहै ॥ आसा भीतरि रहै निरासा तउ नानक एकु मिलै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंदेसा = सहम, चिन्ता। किउ करि = कैसे? निरासा = आशा से निर्लिप। तउ = तब।4।
अर्थ: जब तक (जीव के मन में माया की) आशाएं हैं, तब तक सहम-चिंताएं हैं (सहम और फिक्र में रह के) किसी भी तरह जीव एक परमात्मा को स्मरण कर नहीं सकता। पर, हे नानक! जब मनुष्य आशाओं में रहता हुआ ही आशाओं से निर्लिप हो जाता है तब (इसको) परमात्मा मिल जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन बिधि सागरु तरीऐ ॥ जीवतिआ इउ मरीऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥३॥
मूलम्
इन बिधि सागरु तरीऐ ॥ जीवतिआ इउ मरीऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (माया में रहते हुए माया से निर्लिप रहना है, बस!) इन तरीकों से ही संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है, और इसी तरह से जीते हुए मरा जाता है।1। रहाउ दूजा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ सुरति सबदु साखी मेरी सिंङी बाजै लोकु सुणे ॥ पतु झोली मंगण कै ताई भीखिआ नामु पड़े ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ सुरति सबदु साखी मेरी सिंङी बाजै लोकु सुणे ॥ पतु झोली मंगण कै ताई भीखिआ नामु पड़े ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरति = प्रभु चरणों में ध्यान। सबदु = सदाअ, आवाज, जोगी वाली सदाअ। साखी = साक्षी होना, परमात्मा के साक्षात दर्शन करना। सिंङी = सींग का बाजा जो जोगी बजाता है। लोकु सुणे = (जो प्रभु) सारे जगत की सुनता है, जो प्रभु सारे जगत की सदाअ सुनता है। पतु = पात्र, अपने आप को योग पात्र बनाना। कै ताई = वास्ते। भीखिआ = भिक्षा।1।
अर्थ: (जो प्रभु सारे) जगत को सुनता है (भाव, सारे जगत की सदाअ सुनता है) उसके चरणों में तवज्जो जोड़नी मेरी सदाअ है, उसको अपने अंदर साक्षात देखना (उसके दर पर) मेरी सिंगी बज रही है। (उसके दर से भिक्षा) मांगने के लिए अपने आप को योग्य पात्र बनाना, (ये) मैंने (कंधे पर) झोली डाली हुई है, ता कि मुझे नाम-भिक्षा मिल जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा गोरखु जागै ॥ गोरखु सो जिनि गोइ उठाली करते बार न लागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा गोरखु जागै ॥ गोरखु सो जिनि गोइ उठाली करते बार न लागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे जोगी! जिनि = जिस (गोरख) ने। गोइ = सृष्टि, धरती। उठाली = पैदा की है। करते = पैदा करने वाले को। बार = देर।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! (मैं भी गोरख का चेला हूँ, पर मेरा) गोरख (सदा जीता-) जागता है। (मेरा) गोरख वह है जिसने सृष्टि पैदा की है, और पैदा करते हुए समय नहीं लगता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाणी प्राण पवणि बंधि राखे चंदु सूरजु मुखि दीए ॥ मरण जीवण कउ धरती दीनी एते गुण विसरे ॥२॥
मूलम्
पाणी प्राण पवणि बंधि राखे चंदु सूरजु मुखि दीए ॥ मरण जीवण कउ धरती दीनी एते गुण विसरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाणी पवणि = पानी और पवन (आदि तत्वों के समुदाय) में। बंधि = बाँध के। प्राण = जिंद, जीवात्मा। मुखि = मुखी। दीए = दीपक। मरण जीवण कउ = बसने के लिए। एते = इतने, ये सारे।2।
अर्थ: (जिस परमात्मा ने) पानी-पवन (आदि तत्वों) में (जीवों के) प्राण टिका के रख दिए हैं, सूर्य और चंद्रमा मुखी दीए बनाए हैं, बसने के लिए (जीवों को) धरती दी है (जीवों ने उसको भुला के उसके) इतने उपकार बिसार दिए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिध साधिक अरु जोगी जंगम पीर पुरस बहुतेरे ॥ जे तिन मिला त कीरति आखा ता मनु सेव करे ॥३॥
मूलम्
सिध साधिक अरु जोगी जंगम पीर पुरस बहुतेरे ॥ जे तिन मिला त कीरति आखा ता मनु सेव करे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = (योग साधना में) पहुँचे हुए जोगी। साधिक = साधना करने वाले। जंगम = शैवमत के जोगी जो सिर पर सांप की शक्ल की रस्सी और धातु का चंद्रमा पहनते हैं और कानों में मुंद्रा की जगह पीतल के फूल मोर के पंखों के साथ सजा के पहनते हैं। बहुतेरे = अनेक। तिन = उनको। मिला = मैं मिलूँ। कीरति = महिमा। आखा = मैं कहूँ।3।
अर्थ: जगत में अनेक जंगम-जोगी पीर जोग-साधना में सिद्ध हुए जोगी और अन्य साधन करने वाले देखने में आते हैं, पर मैं तो यदि उन्हें मिलूँगा तो (उनसे मिलके) परमात्मा की महिमा ही करूँगा (मेरा जीवन-उद्देश्य यही है) मेरा मन प्रभु का नाम जपना ही करेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कागदु लूणु रहै घ्रित संगे पाणी कमलु रहै ॥ ऐसे भगत मिलहि जन नानक तिन जमु किआ करै ॥४॥४॥
मूलम्
कागदु लूणु रहै घ्रित संगे पाणी कमलु रहै ॥ ऐसे भगत मिलहि जन नानक तिन जमु किआ करै ॥४॥४॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जोगी गृहस्थी के दर पर जाकर आवाज मारता है, फिर सिंज्ञी बजाता है और झोली में भिक्षा डलवा लेता है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहै = टिका रहता है, गलता नहीं। घ्रित = घी। संगे = साथ। ऐसे = इस तरह। किआ करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकता।4।
अर्थ: जैसे नमक घी में पड़ा गलता नहीं, जैसे कागज़ घी में रखा गलता नहीं, जैसे कमल फूल पानी में रहने से कुम्हलाता नहीं, इसी तरह, हे दास नानक! भक्त जन परमात्मा के चरणों में मिले रहते हैं, यम उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ सुणि माछिंद्रा नानकु बोलै ॥ वसगति पंच करे नह डोलै ॥ ऐसी जुगति जोग कउ पाले ॥ आपि तरै सगले कुल तारे ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ सुणि माछिंद्रा नानकु बोलै ॥ वसगति पंच करे नह डोलै ॥ ऐसी जुगति जोग कउ पाले ॥ आपि तरै सगले कुल तारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माछिंद्रा = हे माछिंद्र जोगी! वसगति = वश में। पंच = कामरदिक पाँच विकार। जोग कउ पाले = योग का साधन करे, जोग को संभाले।1।
अर्थ: नानक कहता है: हे माछिंद्र! सुन। (असल विरक्त कामादिक) पाँचों विकारों को अपने वश में किए रखता है (इनके सामने) वह कभी नहीं डोलता। वह विरक्त इस तरह की जीवन-जुगति को संभाल के रखता है, यही है उसका योग-साधन। (इस जुगति से वह) स्वयं (संसार-समुंदर के विकारों में से) पार लांघ जाता है, और अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो अउधूतु ऐसी मति पावै ॥ अहिनिसि सुंनि समाधि समावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो अउधूतु ऐसी मति पावै ॥ अहिनिसि सुंनि समाधि समावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधूतु = विरक्त साधु, जिसने माया के प्रभाव को परे हटा दिया है (धू = हिलाना। अव = धू = हिला के परे फेंक देना)। अहि = दिन। निसि = रात। सुंनि = शून्य में। सुंन = वह अवस्था जहाँ माया की ओर से शून्य हो, जहाँ माया के फुरने ना उठें।1। रहाउ।
अर्थ: (हे माछिंद्र! दरअसल) विरक्त वह है जिसे ये समझ आ जाती है कि वह दिन-रात ऐसे आत्मिक ठहराव में बना रहता है जहाँ माया के फुरनों की ओर से शून्य ही शून्य होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिखिआ भाइ भगति भै चलै ॥ होवै सु त्रिपति संतोखि अमुलै ॥ धिआन रूपि होइ आसणु पावै ॥ सचि नामि ताड़ी चितु लावै ॥२॥
मूलम्
भिखिआ भाइ भगति भै चलै ॥ होवै सु त्रिपति संतोखि अमुलै ॥ धिआन रूपि होइ आसणु पावै ॥ सचि नामि ताड़ी चितु लावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भिखिआ = भिक्षा। भाइ = भाय, प्रेम में। भाउ = प्रेम। भै = परमात्मा के भय में, डर अदब में। चलै = चले, जीवन गुजारे। संतोखि = संतोष से। संतोखि अमुलै = अमूल्य संतोष से। रूपि = रूप वाला। धिआन रूपि होइ = प्रभु के ध्यान में एक मेक हो के। आसणु पावै = आसन बिछाए। सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। नामि = नाम में।2।
अर्थ: (हे माछिंद्र! असल विरक्त) परमात्मा के प्यार में भक्ति में और डर-अदब में जीवन व्यतीत करता है, ये है उसकी (आत्मिक) भिक्षा (जो वह प्रभु के दर से हासिल करता है। इस भिक्षा से उसके अंदर संतोष पैदा होता है, और) उस अमूल्य संतोष से वह तृपत रहता है (भाव, उसको माया की भूखा नहीं व्यापती)। (प्रभु के प्रेम और भक्ति की इनायत से वह विरक्त) प्रभु के साथ एक-रूप हो जाता है, इस लगन-लीनता का वह (अपनी आत्मा के लिए) आसन बिछाता है। सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में, परमात्मा के नाम में वह अपना चिक्त जोड़ता है, यह (उस विरक्त की) ताड़ी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ सुणि माछिंद्रा अउधू नीसाणी ॥ आसा माहि निरासु वलाए ॥ निहचउ नानक करते पाए ॥३॥
मूलम्
नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ सुणि माछिंद्रा अउधू नीसाणी ॥ आसा माहि निरासु वलाए ॥ निहचउ नानक करते पाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित बाणी = अमर करने वाली वाणी, आत्मिक जीवन देने वाली वाणी। अउधू नीसाणी = विरक्त साधु के लक्षण। निरासु = माया की उम्मीदों से उपराम। वलाए = जीवन का समय गुजारे। निहचउ = निश्चय ही, यकीनन, ये बात पक्की समझो।3।
अर्थ: नानक कहता है: हे माछिंद्र! सुन। विरक्त के लक्षण ये हैं कि उस आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी की सहायता से दुनियावी आशाओं में रहता हुआ भी आशाओं से निर्लिप जीवन गुजारता है, और इस तरह, हे नानक! वह यकीनी तौर पर परमात्मा को पा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणवति नानकु अगमु सुणाए ॥ गुर चेले की संधि मिलाए ॥ दीखिआ दारू भोजनु खाइ ॥ छिअ दरसन की सोझी पाइ ॥४॥५॥
मूलम्
प्रणवति नानकु अगमु सुणाए ॥ गुर चेले की संधि मिलाए ॥ दीखिआ दारू भोजनु खाइ ॥ छिअ दरसन की सोझी पाइ ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगमु = वह प्रभु जिस तक मनुष्य की अक्ल की पहुँच ना हो सके। संधि = मिलाप। दीखिआ = दीक्षा, शिक्षा। दरसन = भेख। सोझी पाइ = असलियत समझ लेता है।4।
अर्थ: नानक विनती करता है: (हे माछिंद्र! असल विरक्त) अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु की महिमा स्वयं सुनता है और-और लोगों को सुनाता है। (गुरु की शिक्षा पर चल के असल विरक्त) गुरु में अपना आप मिला देता है। गुरु की शिक्षा की आत्मिक खुराक खाता है, गुरु की शिक्षा की दवाई खाता है (जो उसके आत्मिक रोगों का इलाज करती है)। इस तरह उस विरक्त को छह ही भेषों की अस्लियत की समझ आ जाती है (भाव, उसे इन छह भेषों की आवश्यक्ता नहीं रह जाती)।4।5।
[[0878]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ हम डोलत बेड़ी पाप भरी है पवणु लगै मतु जाई ॥ सनमुख सिध भेटण कउ आए निहचउ देहि वडिआई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ हम डोलत बेड़ी पाप भरी है पवणु लगै मतु जाई ॥ सनमुख सिध भेटण कउ आए निहचउ देहि वडिआई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = मैं। डोलत = डोल रहा हूँ, डर रहा हूँ। बेड़ी = जिंदगी की नौका। पवणु = हवा (का बुल्ला), माया की आंधी। मतु जाई = कहीं डूब ना जाए। सनमुख आए = (हे गुरु!) तेरे सामने आया हूँ, तेरे दर पर आया हूँ। सिध भेटण कउ = परमात्मा को मिलने के लिए। निहचउ = जरूर। देहि वडिआई = महिमा (की दाति) दे।1।
अर्थ: (हे गुरु!) मेरी जिंदगी की बेड़ी पापों से भरी हुई है, माया का झक्खड़ झूल रहा है, मुझे डर लग रहा है कि कहीं (मेरी बेड़ी) डूब ना जाए। (अच्छा हूँ बुरा हूँ) परमात्मा को मिलने के लिए (प्रभु के चरणों में जुड़ने के वास्ते) मैं शर्म उतार के तेरे दर पर आ गया हूँ। हे गुरु! मुझे अवश्य महिमा की दाति दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर तारि तारणहारिआ ॥ देहि भगति पूरन अविनासी हउ तुझ कउ बलिहारिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर तारि तारणहारिआ ॥ देहि भगति पूरन अविनासी हउ तुझ कउ बलिहारिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर = हे गुरु! पूरन = सर्व व्यापक। हउ = मैं। बलिहारिआ = कुर्बान।1। रहाउ।
अर्थ: (संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से) उद्धार करने वाले हे गुरु! मुझे (इन लहरों में से) पार लंघा ले। सदा कायम रहने वाले और सर्व-व्यापक परमात्मा की भक्ति (की दाति) मुझे दे। मैं तुझसे सदके जाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिध साधिक जोगी अरु जंगम एकु सिधु जिनी धिआइआ ॥ परसत पैर सिझत ते सुआमी अखरु जिन कउ आइआ ॥२॥
मूलम्
सिध साधिक जोगी अरु जंगम एकु सिधु जिनी धिआइआ ॥ परसत पैर सिझत ते सुआमी अखरु जिन कउ आइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरु = और। एकु सिधु = एक परमात्मा। परसत पैर = चरण छू के। सिझत = सफल हो जाते हैं। सुआमी = मालिक प्रभु के। अखरु = उपदेश, शिक्षा।2।
अर्थ: जिनको गुरु का उपदेश मिल जाता है वे मालिक-प्रभु के चरण छू के (जिंदगी की बाज़ी में) कामयाब हो जाते हैं, वे एक परमात्मा को अपने चिक्त में बसाते हैं, वही हैं दरअसल, सिद्ध, साधिक, जोगी और जंगम।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप संजम करम न जाना नामु जपी प्रभ तेरा ॥ गुरु परमेसरु नानक भेटिओ साचै सबदि निबेरा ॥३॥६॥
मूलम्
जप तप संजम करम न जाना नामु जपी प्रभ तेरा ॥ गुरु परमेसरु नानक भेटिओ साचै सबदि निबेरा ॥३॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ना जाना = मैं नहीं पहचानता, मैं ज्यादा नहीं समझता। जपी = मैं जपता हूँ। भेटिओ = मिल गया। सबदि = (गुरु के) शब्द से। निबेड़ा = (सारे किए कर्मों का) लेखा निबड़ जाता है।3।
अर्थ: हे प्रभु! (जन्मों-जन्मांतरों से किए कर्मों का लेखा निपटाने के लिए) मैं किसी जप तप संजम वगैरा धार्मिक कर्म को संपूर्ण नहीं समझता। मैं तेरा नाम ही स्मरण करता हूँ।
हे नानक! जिसको गुरु मिल जाता है उसको परमात्मा मिल जाता है (क्योंकि) गुरु के सच्चे शब्द से उसके जन्मों-जन्मांतरों के किए कर्मों का लेखा निबड़ जाता है।3।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ सुरती सुरति रलाईऐ एतु ॥ तनु करि तुलहा लंघहि जेतु ॥ अंतरि भाहि तिसै तू रखु ॥ अहिनिसि दीवा बलै अथकु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ सुरती सुरति रलाईऐ एतु ॥ तनु करि तुलहा लंघहि जेतु ॥ अंतरि भाहि तिसै तू रखु ॥ अहिनिसि दीवा बलै अथकु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरती = जिस में तवज्जो जोड़ी जाती है, परमातमा। एतु = इस (मनुष्य जन्म) में। करि = बना। तुलहा = नदी पार करने के लिए रस्सों से बँधा हुआ लकड़ी की शतीरियों आदि का गट्ठा। जेतु = जिस (तुलहे) से। भाहि = आग, ब्रहमाग्नि, ईश्वरीय ज्योति। अहि = दिन। निसि = रात। अथकु = ना थकने वाला, लगातार।1।
अर्थ: (पहले तो) इस मनुष्य-जन्म में परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़नी चाहिए। शरीर को (विकारों के भार से बचा के हल्का फूल कर ले, ऐसे शरीर को) तुलहा बना, जिस (शरीर) की सहायता से तू (संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से) पार लांघ सकेगा। तेरे (अपने) अंदर ब्रहमाग्नि (ब्रहम+अग्नि, ईश्वरीय ज्योति) है, उसको (संभाल के) रख, (इस तरह तेरे अंदर) दिन-रात लगातार (ज्ञान का) दीया जलता रहेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा दीवा नीरि तराइ ॥ जितु दीवै सभ सोझी पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा दीवा नीरि तराइ ॥ जितु दीवै सभ सोझी पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीरि = पानी पर। जितु दीवै = जिस दीए से। सभ सोझी पाइ = (सब सोझी पाय) सब कुछ दिखाई दे सके।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) तू पानी पर ऐसा दीया तैरा जिस दीपक से (जिस दीपक के प्रकाश से) तुझे जीवन-यात्रा की सारी गुंझलों की समझ पड़ जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हछी मिटी सोझी होइ ॥ ता का कीआ मानै सोइ ॥ करणी ते करि चकहु ढालि ॥ ऐथै ओथै निबही नालि ॥२॥
मूलम्
हछी मिटी सोझी होइ ॥ ता का कीआ मानै सोइ ॥ करणी ते करि चकहु ढालि ॥ ऐथै ओथै निबही नालि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोझी = समझ, बुद्धि। ता की = उस (मिट्टी) का बनाया हुआ (दीया)। मानै = स्वीकार करता है, मानता है। सोइ = (सोय) वह परमात्मा। करणी = उच्च आचरण। ते = से। चकहु = चक्कर-यंत्र से (चक्कर-यंत्र है कुम्हार का लकड़ी का बना हुआ चक्का, जिस पर वह मिट्टी के बर्तन बनाता है)। करि = (चक्कर-यंत्र) बना के।2।
अर्थ: (अगर सही जीवन-जुगति को समझने वाली) सद्-बुद्धि की मिट्टी हो, उस मिट्टी का बना हुआ दीया परमात्मा स्वीकार करता है। (हे भाई!) ऊँचे आचरण (की लकड़ी) से (चक्का) बना के (उस) चक्के से (दीया) घड़। यह दीया इस लोक में और परलोक में तेरा साथ निभाएगा (जीवन-राह में तेरी राहबरी करेगा)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे नदरि करे जा सोइ ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोइ ॥ तितु घटि दीवा निहचलु होइ ॥ पाणी मरै न बुझाइआ जाइ ॥ ऐसा दीवा नीरि तराइ ॥३॥
मूलम्
आपे नदरि करे जा सोइ ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोइ ॥ तितु घटि दीवा निहचलु होइ ॥ पाणी मरै न बुझाइआ जाइ ॥ ऐसा दीवा नीरि तराइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके, गुरु के बताए हुए राह पर चल के। तितु = उसमें। घटि = हृदय में। निहचलु = टिका हुआ। मरै न = डूबता नहीं।3।
अर्थ: जब प्रभु खुद ही मेहर की नज़र करता है तब मनुष्य (इस आत्मिक दीए के भेद को) समझ लेता है, पर समझता कोई विरला है जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है। ऐसे मनुष्य के हृदय में (ये आत्मिक) दीया टिका (रह के जलता रहता) है। (यह आत्मिक जीवन की रौशनी देने वाला दीया) ना पानी में डूबता है और ना ही किसी चीज से बुझाया जा सकता है।
हे भाई! तू भी ऐसा ही (आत्मिक जीवन देने वाला) दीया (रोजाना जीवन की नदी के) पानी में तैरा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डोलै वाउ न वडा होइ ॥ जापै जिउ सिंघासणि लोइ ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु कि वैसु ॥ निरति न पाईआ गणी सहंस ॥ ऐसा दीवा बाले कोइ ॥ नानक सो पारंगति होइ ॥४॥७॥
मूलम्
डोलै वाउ न वडा होइ ॥ जापै जिउ सिंघासणि लोइ ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु कि वैसु ॥ निरति न पाईआ गणी सहंस ॥ ऐसा दीवा बाले कोइ ॥ नानक सो पारंगति होइ ॥४॥७॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को हिन्दू स्त्रीयां आटे के दीए बना के तुलहे पर चढ़ कर नदी में तैराती हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाउ = हवा। न वडा होइ = (न वडा होय) बुझता नहीं। जापै = दिखाई दे जाता है। जिउ = ज्यों का त्यों, प्रत्यक्ष। सिंघासणि = हृदय तख़्त पर। लोइ = (लोय) (दीपक की) लौ से। कि = चाहे। निरति = निर्णय, गिनती। गणी = अगर मैं गिनूँ। सहंस = हजारों (जातियां)। कोइ = (कोय) कोई भी मनुष्य, किसी भी जाति का मनुष्य। पारंगति = (संसार समुंदर से) पार लंघा सकने वाली आत्मिक अवस्था वाला। गति = आत्मिक अवस्था। पारंगति = वह जिसकी आत्मिक अवस्था पार लंघाने वाली हो गई है।4।
अर्थ: (फिर कितने ही विकारों के) तूफान आएं, ये (आत्मिक जीवन देने वाला दीया) डोलता नहीं, यह (आत्मिक दीया) बुझता नहीं। (इस दीए की) (रौशनी से) हृदय-सिंहासन पर बैठा हुआ परमात्मा प्रत्यक्ष दिखाई देने लगता है।
कोई क्षत्रिय हो, ब्राहमण हो, शूद्र हो, चाहे वैश्य हो, (सिर्फ ये चार वर्ण ही नहीं) यदि मैं हजारों ही जातियाँ गिनता जाऊँ जिनकी गिनती का लेखा खत्म ही ना हो सके- (इन वर्ण-जातियों में पैदा हुए) जो भी जीव इस तरह का (आत्मिक प्रकाश देने वाला) दीया जगाएगा, हे नानक! उसकी आत्मिक अवस्था ऐसी बन जाएगी कि वह संसार-समुंदर की लहरों में से सही-सलामत पार लांघ जाएगा।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ तुधनो निवणु मंनणु तेरा नाउ ॥ साचु भेट बैसण कउ थाउ ॥ सतु संतोखु होवै अरदासि ॥ ता सुणि सदि बहाले पासि ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ तुधनो निवणु मंनणु तेरा नाउ ॥ साचु भेट बैसण कउ थाउ ॥ सतु संतोखु होवै अरदासि ॥ ता सुणि सदि बहाले पासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुध नो = तुझे, तेरे आगे। निवणु = सिर झुकाना। मंनणु = पतीजना, गहरी सांझ डालनी। साचु = महिमा। बैसण कउ = बैठने के लिए। सतु = दान, सेवा। सुणि = सुन के। सदि = बुला के।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे नाम से गहरी सांझ डालनी तेरे आगे सिर झुकाना है, तेरी महिमा (तेरे दर पर मंजूर होने वाली) भेट है (जिसकी इनायत से तेरी हजूरी में) बैठने के लिए जगह मिलती है। (हे भाई!) जब मनुष्य संतोष रखता है, (दूसरों की) सेवा करता है (और इस जीवन-मर्यादा में रह के प्रभु-दर से) अरदास करता है, तब (अरदास) सुन के (सवाली को) बुला के प्रभु अपने पास बैठाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक बिरथा कोइ न होइ ॥ ऐसी दरगह साचा सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नानक बिरथा कोइ न होइ ॥ ऐसी दरगह साचा सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरथा = खाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा की दरगाह ऐसी है, वही सदा कायम रहने वाला परमात्मा खुद भी ऐसा है कि (उसकी हजूरी में पहुँच के) कोई (सवाली) खाली नहीं मुड़ता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रापति पोता करमु पसाउ ॥ तू देवहि मंगत जन चाउ ॥ भाडै भाउ पवै तितु आइ ॥ धुरि तै छोडी कीमति पाइ ॥२॥
मूलम्
प्रापति पोता करमु पसाउ ॥ तू देवहि मंगत जन चाउ ॥ भाडै भाउ पवै तितु आइ ॥ धुरि तै छोडी कीमति पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पोता = खजाना। करमु = बख्शिश। पसाउ = प्रसाद, कृपा। चाउ = चाव। भांडै = बर्तन में, हृदय में। भाउ = प्रेम। तितु = उस में। तितु भांडै = उस हृदय में। धुरि = धुर से, अपने दर से। तै = तू। कीमति = कद्र। पाइ छोडी = (पाय छोडी) डाल दी है।2।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य पर तेरी मेहर हो जिस पर तू बख्शिश करे उसको तेरे नाम का खजाना मिलता है। मुझ भिखारी की भी यही तमन्ना है कि तू मुझे अपने नाम की दाति दे (ता कि मेरे हृदय में तेरे चरणों का प्यार पैदा हो)।
हे प्रभु! सिर्फ उस हृदय में तेरे चरणों का प्रेम पैदा होता है जिसमें तूने खुद ही अपने दर से इस प्रेम की कद्र डाल दी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि किछु कीआ सो किछु करै ॥ अपनी कीमति आपे धरै ॥ गुरमुखि परगटु होआ हरि राइ ॥ ना को आवै ना को जाइ ॥३॥
मूलम्
जिनि किछु कीआ सो किछु करै ॥ अपनी कीमति आपे धरै ॥ गुरमुखि परगटु होआ हरि राइ ॥ ना को आवै ना को जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सो = वही परमात्मा। कीमति = कद्र। धरै = (जीव के हृदय में) टिकाता है। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है।3।
अर्थ: जिस परमात्मा ने यह जगत रचना बनाई, जीवों के हृदय में प्रेम की खेल भी वह खुद ही खेलता है। जीवों के दिल में अपने नाम की कद्र भी वह खुद ही टिकाता है।
परमात्मा गुरु के माध्यम से (जीव के हृदय में) प्रकट होता है, (जिसके अंदर प्रकट होता है उसे ये समझ आ जाती है कि परमात्मा खुद ही जीव-रूप हो के जगत में आता है और फिर चला जाता है, उसके बिना) ना कोई आता है और ना ही कोई जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकु धिकारु कहै मंगत जन मागत मानु न पाइआ ॥ सह कीआ गला दर कीआ बाता तै ता कहणु कहाइआ ॥४॥८॥
मूलम्
लोकु धिकारु कहै मंगत जन मागत मानु न पाइआ ॥ सह कीआ गला दर कीआ बाता तै ता कहणु कहाइआ ॥४॥८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: किसी राजा बादशाह के दरबार में कोई सवाली जाता है तो पहले सिर झुकाता है, फिर कोई भेटा पेश करता है। तब राज-दरबार में उसे बैठने के लिए जगह मिलती है, आदर मिलता है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोकु = जगत। धिकारु = धिक्कार। मागत = मांगते हुए। मानु = इज्जत। सह कीआ = पति प्रभु की। तै ता = तू स्वयं ही। कहणु = बोल।4।
अर्थ: (जब कोई भिखारी किसी से कुछ मांगता है, तो आमतौर पर) भिखारी को जगत धिक्कारता ही है, मांगने वाले को आदर नहीं मिला करता। पर, हे पति प्रभु! तूने अपने उदार-चिक्त होने की बातें और अपने दर की मर्यादा की बातें कि तेरे दर से कोई ख़ाली नहीं जाता तूने खुद ही मेरे मुँह से कहलवाई हैं (तेरे दर पर सवाली को आदर भी मिलता है और मुँह-मांगी मुरादें भी)।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ सागर महि बूंद बूंद महि सागरु कवणु बुझै बिधि जाणै ॥ उतभुज चलत आपि करि चीनै आपे ततु पछाणै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ सागर महि बूंद बूंद महि सागरु कवणु बुझै बिधि जाणै ॥ उतभुज चलत आपि करि चीनै आपे ततु पछाणै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। सागर महि = समुंदर में।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘सागरु’ और ‘सागर’ के जोड़ों में फर्क देखें। क्यों है ये फर्क?)।
दर्पण-भाषार्थ
कवणु = कोई विरला। उतभुज चलत = उतभुज (आदि चार खाणियों के द्वारा उत्पक्ति) का तमाशा। करि = कर के, बना के। चीनै = पहचानता है। आपे = (प्रभु) खुद ही। ततु = अस्लियत।1।
अर्थ: (जैसे) समुंदर में बूँदें हैं (जैसे) बूँदों में समुंदर व्यापक है (वैसे ही सारे जीव-जंतु परमात्मा में जीते हैं और सारे जीवों में परमात्मा व्यापक है) उत्भुज (आदि चार खाणियों- अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज- के द्वारा उत्पक्ति) का तमाशा रच के प्रभु स्वयं ही देख रहा है, और स्वयं ही इस अस्लियत को समझता है - कोई विरला मनुष्य ही इस भेद को जान पाता है और विधि (के विधान) को समझता है।1।
[[0879]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा गिआनु बीचारै कोई ॥ तिस ते मुकति परम गति होई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा गिआनु बीचारै कोई ॥ तिस ते मुकति परम गति होई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोई = कोई विरला। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। तिस ते = उस से, उस परमात्मा से, उस परमात्मा की महिमा से। मुकति = विकारों से मुक्ति। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। होई = हो जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: उस (सरब-विधाता के सर्व-व्यापक प्रभु की महिमा) की इनायत से मनुष्य को विकारों से मुक्ति प्राप्त होती है और सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल होती है; ऐसा ज्ञान कोई विरला (गुरमुखि) ही विचारता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिन महि रैणि रैणि महि दिनीअरु उसन सीत बिधि सोई ॥ ता की गति मिति अवरु न जाणै गुर बिनु समझ न होई ॥२॥
मूलम्
दिन महि रैणि रैणि महि दिनीअरु उसन सीत बिधि सोई ॥ ता की गति मिति अवरु न जाणै गुर बिनु समझ न होई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रात। दिनीअरु = दिनकर, सूरज। उसन = ऊष्णता, गर्मी। सीत = ठंढ। बिधि = तरीका, जुगति। ता की = उस (परमात्मा) की। गति = हालत। मिति = माप, मर्यादा। ता की गति मिति = वह परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है।2।
अर्थ: दिन (की रौशनी) में रात (का अंधकार) लीन हो जाता है, रात (के अंधेरे) में सूरज (का प्रकाश) खत्म हो जाता है। यही हालत है गर्मी की और ठंड की (कभी गर्मी और कभी ठंड, कहीं गर्मी है तो कहीं ठंड) - (ये सारी खेल उस परमात्मा की कुदरत की है)। वह परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है (परमात्मा के बिना) कोई और नहीं जानता। गुरु के बिना ये समझ नहीं आती (कि अकाल-पुरख बेअंत है और अकथनीय है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरख महि नारि नारि महि पुरखा बूझहु ब्रहम गिआनी ॥ धुनि महि धिआनु धिआन महि जानिआ गुरमुखि अकथ कहानी ॥३॥
मूलम्
पुरख महि नारि नारि महि पुरखा बूझहु ब्रहम गिआनी ॥ धुनि महि धिआनु धिआन महि जानिआ गुरमुखि अकथ कहानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहम गिआनी = हे ब्रहम के ज्ञान वाले! हे परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले! धुनि = महिमा के शब्द। धिआनु = तवज्जो, ध्यान। अकथ कहानी = अकथ की कहानी, बेअंत प्रभु की महिमा। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।3।
अर्थ: हे परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले! देख आश्चर्यजनक खेल कि मनुष्य के वीर्य से स्त्रीयां पैदा होती हैं और स्त्रीयों से मनुष्य पैदा होते हैं। परमात्मा की प्रकृति की कहानी बयान नहीं हो सकती। पर, जो मनुष्य गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलता है वह प्रभु की महिमा की वाणी में अपनी तवज्जो जोड़ता है और उस तवज्जो में से परमात्मा के साथ जान-पहचान बना लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन महि जोति जोति महि मनूआ पंच मिले गुर भाई ॥ नानक तिन कै सद बलिहारी जिन एक सबदि लिव लाई ॥४॥९॥
मूलम्
मन महि जोति जोति महि मनूआ पंच मिले गुर भाई ॥ नानक तिन कै सद बलिहारी जिन एक सबदि लिव लाई ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच = पाँचों ज्ञान-इंद्रिय। गुर भाई = एक ही गुरु वाले। मिले = इकट्ठे हो गए, एक जगह टिक गए, भटकने से हट गए। तिन कै = उनसे। सद = सदा। एक सबदि = एक प्रभु की महिमा की वाणी मैं।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं उन गुरमुखों पर से बलिहार जाता हूँ जिन्होंने परमात्मा की महिमा की वाणी में तवज्जो जोड़ी है। उनके मन में अकाल-पुरख की ज्योति प्रकट हो जाती है, परमात्मा की याद में उनका मन सदा लीन रहता है, उनकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ एक-ईष्ट वाली हो के भटकने से हट जाती हैं।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी ॥ ता हउमै विचहु मारी ॥ सो सेवकि राम पिआरी ॥ जो गुर सबदी बीचारी ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी ॥ ता हउमै विचहु मारी ॥ सो सेवकि राम पिआरी ॥ जो गुर सबदी बीचारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। प्रभि = प्रभु ने। ता = तब। सेवकि = दासी। गुर सबदी = गुरु के शब्द में जुड़ के। बीचारी = विचारवान, अच्छे बुरे की परख करने योग्य।1।
अर्थ: (पर, लोक-सम्मान छोड़नी कोई आसान खेल नहीं) जब हरि प्रभु ने खुद (किसी जीव पर) मेहर की, तब ही जीव ने अपने अंदर से अहंम को दूर किया। गुरु के शब्द में जुड़ के जो (जीवात्मा-) दासी विचारवान हो गई (और अपने अंदर से लोकलाज मार सकी) वह दासी परमात्मा को अच्छी लगने लगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो हरि जनु हरि प्रभ भावै ॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती लाज छोडि हरि के गुण गावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो हरि जनु हरि प्रभ भावै ॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती लाज छोडि हरि के गुण गावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनु = दास। प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है। अहि = दिन। निसि = रात। लाज = लोक-सम्मान। छोडि = छोड़ के।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का वह सेवक परमात्मा को प्यारा लगता है जो लोक-सम्मान (अहंकार) छोड़ के दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करता है, परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुनि वाजे अनहद घोरा ॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा ॥ गुर पूरै सचु समाइआ ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ ॥२॥
मूलम्
धुनि वाजे अनहद घोरा ॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा ॥ गुर पूरै सचु समाइआ ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुनि = ध्वनि, आवाज, मीठी सुर। अनहद = (अन हद, अन हत, बिना बजाए बजने वाले) एक रस, लगातार। घोरा = गंभीर। रसि = रस में, आनंद में। मोरा = मेरा। गुर पूरै = पूरे गुरु से। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।2।
अर्थ: (मेरे पर गुरु ने मेहर की, मेरा मन गुरु के शब्द में जुड़ा, अंदर ऐसा आनंद बना, मानो,) एक-रस बज रहे बाजों की गंभीर मीठी सुर सुनाई देने लग पड़ी। मेरा मन परमात्मा की महिमा के स्वाद में मगन हो गया है। पूरे गुरु के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु (मेरे मन में) रच गया है, मुझे सबसे बड़ी हस्ती वाला सबका आदि सबमें व्यापक प्रभु मिल गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि नाद बेद गुरबाणी ॥ मनु राता सारिगपाणी ॥ तह तीरथ वरत तप सारे ॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे ॥३॥
मूलम्
सभि नाद बेद गुरबाणी ॥ मनु राता सारिगपाणी ॥ तह तीरथ वरत तप सारे ॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। नाद = जोगियों सिंगी आदि बाजे। बेद = हिन्दू मत की धर्म पुस्तक। सारिगपाणी = परमात्मा। तह = वहाँ, उस आत्मिक अवस्था में। गुर मिलिआ = (जो मनुष्य) गुरु को मिल गया।3।
अर्थ: गुरु की वाणी से जिस मनुष्य का मन परमात्मा (के प्यार) में रंगा जाता है उसको जोगियों के सिंगी आदि सारे बाजे व हिन्दू मत के वेद आदि धर्म-पुस्तकें सब गुरु की वाणी में ही आ जाते हैं (भाव, गुरूबाणी के मुकाबले उसे इन चीजों की आवश्यक्ता नहीं रह जाती)। (जिस आत्मिक अवस्था में वह पहुँचता है) वहाँ सारे तीर्थ-स्नान, सारे व्रत और तप भी उसे मिले हुए के बराबर हो जाते हैं। जो मनुष्य गुरु को मिल जाता है उसको परमात्मा (संसार-समुंदर में से) पार लंघा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह आपु गइआ भउ भागा ॥ गुर चरणी सेवकु लागा ॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ ॥४॥१०॥
मूलम्
जह आपु गइआ भउ भागा ॥ गुर चरणी सेवकु लागा ॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जिस हृदय में। आपु = स्वै भाव। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। भरमु = भटकना। सबदि = गुरु के शब्द में।4।
अर्थ: जिस हृदय में से स्वै भाव दूर हो गया, वहाँ से और सब डर-सहम भाग गए, वह सेवक गुरु के चरणों में लीन हो गया। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को गुरु ने अपने शब्द में जोड़ लिया, उसकी (माया आदि की सारी) भटकना गुरु ने दूर कर दी।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ छादनु भोजनु मागतु भागै ॥ खुधिआ दुसट जलै दुखु आगै ॥ गुरमति नही लीनी दुरमति पति खोई ॥ गुरमति भगति पावै जनु कोई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ छादनु भोजनु मागतु भागै ॥ खुधिआ दुसट जलै दुखु आगै ॥ गुरमति नही लीनी दुरमति पति खोई ॥ गुरमति भगति पावै जनु कोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छादनु = कपड़ा। मागतु भागै = मांगता फिरता है। खुधिआ = भूख। दुसट = बुरी, चंदरी। आगै = परलोक। पति = इज्जत। खोई = गवा ली। जनु कोई = कोई विरला मनुष्य।1।
अर्थ: (पर, जो जोगी) अन्न-वस्त्र (ही) मांगता फिरता है, यहाँ चंदरी भूख (की आग) में जलता रहता है (कोई आत्मिक पूंजी तो बनाता नहीं, इसलिए) आगे (परलोक में भी) दुख पाता है। जिस (जोगी) ने गुरु की मति नहीं ली उसने दुमर्ति में लग के अपनी इज्जत गवा ली।
कोई-कोई (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु की शिक्षा पर चल कर परमात्मा की भक्ति का लाभ कमाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगी जुगति सहज घरि वासै ॥ एक द्रिसटि एको करि देखिआ भीखिआ भाइ सबदि त्रिपतासै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जोगी जुगति सहज घरि वासै ॥ एक द्रिसटि एको करि देखिआ भीखिआ भाइ सबदि त्रिपतासै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगी जुगति = असल जोगी की रहत बहत। सहज = अडोलता, शांति। सहज घरि = शांति के घर में। द्रिसटि = नज़र, निगाह। एको करि = एक परमात्मा को ही व्यापक मान के। भीखिआ = भिक्षा (से)। भाइ = (भाय) प्रेम से। भाखिआ भाइ = प्रभु प्यार की भिक्षा से। सबदि = (गुरु के) शब्द में (जुड़ के)। त्रिपतासै = (आत्मिक) भूख मिटाता है, अघाता है।1। रहाउ।
अर्थ: असल जोगी की रहिणी-बहिणी ये है कि वह अडोलता के घर में टिका रहता है (उसका मन सदा शांत रहता है)। वह समानता की नजर से (सब जीवों में) एक परमात्मा को ही रमा हुआ देखता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वह प्रेम-भिक्षा से अपनी (आत्मिक) भूख मिटाता है (अपने मन को तृष्णा से बचाए रखता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच बैल गडीआ देह धारी ॥ राम कला निबहै पति सारी ॥ धर तूटी गाडो सिर भारि ॥ लकरी बिखरि जरी मंझ भारि ॥२॥
मूलम्
पंच बैल गडीआ देह धारी ॥ राम कला निबहै पति सारी ॥ धर तूटी गाडो सिर भारि ॥ लकरी बिखरि जरी मंझ भारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच बैल = (पाँचों ज्ञान-इंद्रिय, जैसे) पाँच बैल हैं। गडीआ देह = शरीर गड्डा। धारी = आसरा दिया हुआ है, चला रहे हैं। राम कला = (सर्व व्यापक) प्रभु की सत्ता से, जब तक सर्व व्यापक प्रभु की ज्योति मौजूद है। निबहै = कायम रहती है, बनी रहती है। पति = इज्जत, आदर। धर = धुरा, आसरा। सिर भारि = सिर के बल पर (हो जाता है), गिर पड़ता है, नकारा हो जाता है। बिखरि = बिखर के, सक्ताहीन हो के। जरी = (गाड़ी) जल जाती है। मंझ = बीच के, गड्डे में के, गड्डे में लदे हुए। भारि = भार तले।2।
अर्थ: मानव शरीर, जैसे, एक छोटी सी गाड़ी है, जिसको पाँच (ज्ञान-इन्द्रियों रूपी) बैल चला रहे हैं। जब तक इसमें सर्व-व्यापक प्रभु की ज्योति-सत्ता मौजूद है, इसका सारा आदर बना रहता है। (जैसे) जब गाड़ी का धुरा टूट जाता है तो गाड़ी सिर के बल उलट जाती है (नकारा हो जाती है), उसकी लकड़ियां बिखर जाती हैं (उसके अंग अलग-अलग हो जाते हैं), वह अपने ऊपर लदे हुए भार के तले ही दबा हुआ सड़-गल जाता है (वैसे ही जब गुरु-शब्द की अगुवाई के बिना ज्ञान-इंद्रिय मनमानी करने लगती हैं, मानव जीवन की सहज बढ़िया चाल उलट-पलट हो जाती है, स्मरण रूपी धुरा टूट जाता है, आत्मिक जीवन गिर पड़ता है, अपने ही किए कुकर्मों के भार तले मनुष्य जीवन की तबाही हो जाती है)। (जोगी इस भेद को समझने की जगह जोग-मति की जगोटा व मुंद्रें आदि बाहरी चिन्हों तक ही सीमित रह जाता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु वीचारि जोगी ॥ दुखु सुखु सम करणा सोग बिओगी ॥ भुगति नामु गुर सबदि बीचारी ॥ असथिरु कंधु जपै निरंकारी ॥३॥
मूलम्
गुर का सबदु वीचारि जोगी ॥ दुखु सुखु सम करणा सोग बिओगी ॥ भुगति नामु गुर सबदि बीचारी ॥ असथिरु कंधु जपै निरंकारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगी = हे जोगी! सम = बराबर, एक सा। सोग = किसी की मौत आदि का ग़म, निराशा भरा दुख। बिओग = विछोड़े में विरह, मिलने के चाहत, आशा से मिला हुआ दुख। भुगति = चूरमा, जोगियों का भण्डारा, भोजन। गुर सबदि = गुरु के शब्द से। असथिरु = स्थिर, ठहरा हुआ, टिका हुआ। कंधु = शरीर, (इंद्रिय)।3।
अर्थ: हे जोगी! तू गुरु के शब्द को समझ (उस शब्द की अगुवाई में) दुख-सुख को, निराशा भरे ग़म और आशा भरे दुख को एक-समान बर्दाश्त करने (की विधि सीख)। गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु के नाम को चिक्त में बसा- ये तेरा भण्डारा बने (ये तेरी आत्मा की खुराक बने)। निरंकार का नाम जप, (इसकी इनायत से) ज्ञान-इन्द्रियाँ डोलने से बची रहेंगी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज जगोटा बंधन ते छूटा ॥ कामु क्रोधु गुर सबदी लूटा ॥ मन महि मुंद्रा हरि गुर सरणा ॥ नानक राम भगति जन तरणा ॥४॥११॥
मूलम्
सहज जगोटा बंधन ते छूटा ॥ कामु क्रोधु गुर सबदी लूटा ॥ मन महि मुंद्रा हरि गुर सरणा ॥ नानक राम भगति जन तरणा ॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगोटा = कमर पर बाँधा हुआ ऊन का रस्सा, ऊन की रस्सियों का गूंद के बनाया हुआ रस्सा जो फकीर कमर के चारों तरफ बाँधते हैं।4।
अर्थ: जिस जोगी ने मन की अडोलता को अपने कमर से बाँधने वाला ऊन का रस्सा बना लिया है, वह माया के बंधनो से बच गया है; गुरु के शब्द में जुड़ के उसने काम-क्रोध आदि को अपने वश में कर लिया है। जो जोगी परमात्मा की शरण पड़ा रहता है उसने (कानों में मुंद्राएं पहनने की जगह) मन में मुंद्राएं पहन ली हैं (मन को विकारों से बचा लिया है)। हे नानक! (संसार-समुंदर के विकारों की बाढ़ में से) वही मनुष्य पार लांघते हैं जो परमात्मा की भक्ति करते हैं।4।11।
[[0880]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामकली महला ३ घरु १ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामकली महला ३ घरु १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतजुगि सचु कहै सभु कोई ॥ घरि घरि भगति गुरमुखि होई ॥ सतजुगि धरमु पैर है चारि ॥ गुरमुखि बूझै को बीचारि ॥१॥
मूलम्
सतजुगि सचु कहै सभु कोई ॥ घरि घरि भगति गुरमुखि होई ॥ सतजुगि धरमु पैर है चारि ॥ गुरमुखि बूझै को बीचारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतजुगि = सतयुग में। कहै = कहता है। सभु कोई = हरेक जीव। कहै सभु कोई = हरेक जीव कहता है, ये आम प्रचलित ख्याल है। घरि घरि = हरेक घर में (‘सचु’ प्रधान है)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पैर है चारि = चार पैरों वाला।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: आम लोगों का ये ख्याल बना हुआ है कि धरती को बैल ने उठाया हुआ है। गुरमति के अनुसार ‘धरम’ ही जगत का सहारा है। ‘धरम’ ही धरती का ‘बैल’ है)।
दर्पण-भाषार्थ
को = कोई विरला। बीचारि = विचार करके।1।
अर्थ: हे भाई! ये प्रचलित ख्याल है कि सतियुग में ‘सत्य’ (बोलने के कर्म को प्रधानता) है, हरेक घर में (सच बोलना ही प्रधान है), और सतियुग में (धरती को सहारा देने वाला) धर्म (-बैल) चार पैरों वाला रहता है (धर्म अपने संपूर्ण स्वरूप वाला होता है)। (पर, हे भाई!) कोई विरला मनुष्य ही गुरु के माध्यम से विचारवान हो के यह समझता है कि (सतियुग में भी) गुरु की शरण पड़ कर ही प्रभु की भक्ति हो सकती है (और सतियुग में भी परमात्मा की भक्ति ही प्रधान कर्म है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुग चारे नामि वडिआई होई ॥ जि नामि लागै सो मुकति होवै गुर बिनु नामु न पावै कोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जुग चारे नामि वडिआई होई ॥ जि नामि लागै सो मुकति होवै गुर बिनु नामु न पावै कोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में। नामि = नाम से। जि = जो मनुष्य। नामि = नाम में। लागै = लगता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! चारों ही युगों में जीव को (परमात्मा के) नाम में जुड़ने के कारण ही आदर मिलता है। जो भी मनुष्य प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ता है, उसको विकारों से मुक्ति मिल जाती है। (पर, ये भी याद रखो कि) कोई जीव भी गुरु (की शरण) के बिना (परमात्मा का नाम) प्राप्त नहीं कर सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रेतै इक कल कीनी दूरि ॥ पाखंडु वरतिआ हरि जाणनि दूरि ॥ गुरमुखि बूझै सोझी होई ॥ अंतरि नामु वसै सुखु होई ॥२॥
मूलम्
त्रेतै इक कल कीनी दूरि ॥ पाखंडु वरतिआ हरि जाणनि दूरि ॥ गुरमुखि बूझै सोझी होई ॥ अंतरि नामु वसै सुखु होई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रेतै = त्रेते युग में। कल = कला। वरतिआ = प्रधान हो गया। जाणनि = जानते हैं। सोझी = (अस्लियत की) समझ। अंतरि = हृदय में।2।
अर्थ: (हे भाई ये विचार भी आम प्रचलित है कि) त्रेते युग में एक कला दूर कर दी गई (धरम बैल का एक पैर नकारा हो गया)। (जगत में) पाखण्ड का बोलबाला हो गया, लोग परमात्मा को कहीं दूर बसता समझने लग पड़े। (पर, हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (जीवन-युक्ति का) ज्ञान प्राप्त करता है, उसको समझ आ जाती है (कि बनाए हुए त्रेते युग में भी तब ही) सुख मिलता है यदि मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुआपुरि दूजै दुबिधा होइ ॥ भरमि भुलाने जाणहि दोइ ॥ दुआपुरि धरमि दुइ पैर रखाए ॥ गुरमुखि होवै त नामु द्रिड़ाए ॥३॥
मूलम्
दुआपुरि दूजै दुबिधा होइ ॥ भरमि भुलाने जाणहि दोइ ॥ दुआपुरि धरमि दुइ पैर रखाए ॥ गुरमुखि होवै त नामु द्रिड़ाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआपरि = द्वापर में। दूजै = द्वैत भाव में। दुबिधा = मेरे तेर। भरमि = भटकना में। भुलाने = गलत रास्ते पर गए। जाणहि = जानते हैं। दोइ = मेर तेर। धरमि = धरम (-बैल) ने। गुरमुखि होवै = (जब मनुष्य) गुरु के सन्मुख होता है। त = तब। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है।3।
अर्थ: (हे भाई! ये विचार आम प्रचलित है कि) द्वापर युग में लोग द्वैत में फंस गए, लोगों के हृदय में भेदभाव प्रभावी हो गया, भटकन में पड़ कर लोग गलत राह पर चल पड़े, मेर-तेर को ही (अच्छाई) मानने लगे, द्वापर में धरम (बैल) ने (अपने) दो ही पैर टिकाए हुए थे। पर जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब वह (इस कच्चे ख्याल को त्याग के परमात्मा का) नाम अपने दिल में पक्की तरह बैठाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलजुगि धरम कला इक रहाए ॥ इक पैरि चलै माइआ मोहु वधाए ॥ माइआ मोहु अति गुबारु ॥ सतगुरु भेटै नामि उधारु ॥४॥
मूलम्
कलजुगि धरम कला इक रहाए ॥ इक पैरि चलै माइआ मोहु वधाए ॥ माइआ मोहु अति गुबारु ॥ सतगुरु भेटै नामि उधारु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलजुगि = कलजुग में। इक पैरि = एक पैर से। चलै = (धरम बैल) चलता है। अति गुबारु = घोर अंधेरा। भेटै = मिलता है। नामि = नाम से। उधारु = पार उतारा।4।
अर्थ: (हे भाई! आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि) कलियुग में धरम की एक ही कला रह गई है, (धरम-बैल) एक ही पैर के भार पर चलता है, (जगत में) माया (जीव के हृदय में अपना) मोह बढ़ा रही है, (दुनिया में) माया के मोह का घोर अंधकार बना हुआ है। (पर, हे भाई! जिस मनुष्य को) गुरु मिल जाता है, उसको प्रभु के नाम में जोड़ कर (कलियुग में भी माया के घोर अंधेरे से) बचा लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ जुग महि साचा एको सोई ॥ सभ महि सचु दूजा नही कोई ॥ साची कीरति सचु सुखु होई ॥ गुरमुखि नामु वखाणै कोई ॥५॥
मूलम्
सभ जुग महि साचा एको सोई ॥ सभ महि सचु दूजा नही कोई ॥ साची कीरति सचु सुखु होई ॥ गुरमुखि नामु वखाणै कोई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। एको = एक ही। कीरति = महिमा। साची कीरति = सदा कायम रहने वाली महिमा। कोई = जो मनुष्य।5।
अर्थ: हे भाई! सारे युगों में वह परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है। सब जीवों में भी वह सदा स्थिर प्रभु ही बसता है, उसके बिना कहीं भी कोई और नहीं है। (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा की) सदा कायम रहने वाली महिमा बसती है, उसको हरेक सुख प्राप्त है। (पर, हाँ) गुरु की शरण पड़ कर ही मनुष्य परमात्मा का नाम जप सकता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ जुग महि नामु ऊतमु होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ हरि नामु धिआए भगतु जनु सोई ॥ नानक जुगि जुगि नामि वडिआई होई ॥६॥१॥
मूलम्
सभ जुग महि नामु ऊतमु होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ हरि नामु धिआए भगतु जनु सोई ॥ नानक जुगि जुगि नामि वडिआई होई ॥६॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। नामि = नाम से।6।
अर्थ: हे भाई! सारे युगों में प्रभु का नाम जपना ही (सब कर्मों से) श्रेष्ठ कर्म है; इस बात को कोई वह विरला मनुष्य ही समझता है जो गुरु की शरण पड़ता है। (युग कोई भी हो) वही मनुष्य भक्त है जो परमात्मा का नाम जपता है। हे नानक! (ये बात पक्की जान लो कि) हरेक युग में प्रभु के नाम की इनायत से ही आदर मिलता है।6।1।
दर्पण-टिप्पनी
जरूरी नोट: शब्द का केन्द्रिया भाव ‘रहाउ’ की पंक्तियों में होता है। सारे शब्द में उस केन्द्रिया भाव की व्याख्या होती है। इस शब्द के केन्द्रिया भाव को ध्यान से देखें। इस विचार को रद्द किया गया है कि अलग-अलग युग में अलग-अलग कर्म को प्रधानता मिलती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे वड भाग होवहि वडभागी ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपत नामे सुखु पावै हरि नामे नामि समावै ॥१॥
मूलम्
जे वड भाग होवहि वडभागी ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपत नामे सुखु पावै हरि नामे नामि समावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होवहि = हों। ता = तब। धिआवै = ध्याता है। नामे = नाम में ही। नामि = नाम में। समावै = लीन रहता है।1।
अर्थ: यदि कोई मनुष्य भाग्यशाली हो, यदि किसी मनुष्य की अति भाग्यशाली किस्मत हो जाए, तो वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है। नाम जपने से वह मनुष्य नाम में ही आनंद प्राप्त करता है, प्रभु के नाम में ही लीन रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि भगति करहु सद प्राणी ॥ हिरदै प्रगासु होवै लिव लागै गुरमति हरि हरि नामि समाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरमुखि भगति करहु सद प्राणी ॥ हिरदै प्रगासु होवै लिव लागै गुरमति हरि हरि नामि समाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सद = सदा। प्राणी = हे प्राणी! हिरदै = हृदय में। प्रगासु = उच्च आत्मिक जीवन की रोशनी। लिव = लगन, ध्यान। समाणी = लीनता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (गुरु के बताए हुए जीवन-राह पर चल कर) सदा परमात्मा की भक्ति किया करो। (भक्ति की इनायत से) हृदय में (ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, (परमात्मा के चरणों में) तवज्जो जुड़ जाती है, गुरु के उपदेश से परमात्मा के नाम में लीनता हो जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हीरा रतन जवेहर माणक बहु सागर भरपूरु कीआ ॥ जिसु वड भागु होवै वड मसतकि तिनि गुरमति कढि कढि लीआ ॥२॥
मूलम्
हीरा रतन जवेहर माणक बहु सागर भरपूरु कीआ ॥ जिसु वड भागु होवै वड मसतकि तिनि गुरमति कढि कढि लीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागर = समुंदर, हृदय सरोवर। भरपूर = नाको नाक भरा हुआ। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कढि कढि = (हर वक्त) निकाल के।2।
अर्थ: (परमात्मा के गुण, जैसे) हीरे-रतन-जवाहर-मोती हैं। (परमात्मा ने हरेक मनुष्य का) हृदय-सरोवर इनसे लबालब भर रखा है। (पर सिर्फ) उस मनुष्य ने ही गुरु के उपदेश की इनायत से इनको (अंदर छुपे हुओं को) निकाल के संभाल रखा है, जिसके माथे पर बहुत भाग्य जाग उठे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतनु जवेहरु लालु हरि नामा गुरि काढि तली दिखलाइआ ॥ भागहीण मनमुखि नही लीआ त्रिण ओलै लाखु छपाइआ ॥३॥
मूलम्
रतनु जवेहरु लालु हरि नामा गुरि काढि तली दिखलाइआ ॥ भागहीण मनमुखि नही लीआ त्रिण ओलै लाखु छपाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। काढि = निकाल के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। त्रिण = तीला। लाखु = लाख (रुपया)।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रतन जवाहर लाल (जैसा कीमती) है (हरेक मनुष्य के अंदर छुपा हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसको) गुरु ने (उसके अंदर से ही) निकाल के (उसकी) तली पर (रख के) दिखा दिया है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बद्-किस्मत मनुष्य ने वह रतन नहीं पाया, (उसकी जानिब तो) लाख रुपया तीले के पीछे छुपा हुआ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मसतकि भागु होवै धुरि लिखिआ ता सतगुरु सेवा लाए ॥ नानक रतन जवेहर पावै धनु धनु गुरमति हरि पाए ॥४॥१॥
मूलम्
मसतकि भागु होवै धुरि लिखिआ ता सतगुरु सेवा लाए ॥ नानक रतन जवेहर पावै धनु धनु गुरमति हरि पाए ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = धुर से, प्रभु की हजूरी से। सेवा = भक्ति (में)। पावै = प्राप्त करता है। धनु धनु = भाग्यशाली।4।
अर्थ: (हे भाई!) अगर धुर-दरगाह से लिखे हुए लेख किसी मनुष्य के माथे पर जाग जाएं तो गुरु उसको प्रभु की भक्ति से जोड़ देता है। हे नानक! (वह मनुष्य अंदर छुपे हुए गुण-रूपी) रतन-जवाहर ढूँढ लेता है, वह मनुष्य भाग्यशाली हो जाता है, गुरु की मति ले के वह मनुष्य परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ४ ॥ राम जना मिलि भइआ अनंदा हरि नीकी कथा सुनाइ ॥ दुरमति मैलु गई सभ नीकलि सतसंगति मिलि बुधि पाइ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ४ ॥ राम जना मिलि भइआ अनंदा हरि नीकी कथा सुनाइ ॥ दुरमति मैलु गई सभ नीकलि सतसंगति मिलि बुधि पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। नीकी = अच्छी। दुरमति = दुर्मति। गई नीकलि = निकल गई। बुधि = अकल। पाइ = (पाय) पाता है, सीखता है।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के सेवक को मिल के (मन में) आनंद पैदा होता है। (प्रभु का सेवक) प्रभु की सुंदर महिमा सुना के (सुनने वाले के दिल में आनंद पैदा कर देता है)। साधु-संगत में मिल के मनुष्य (श्रेष्ठ) मति सीख लेता है, (उसके अंदर से) बुरी बुद्धि वाली सारी मैल दूर हो जाती है।1।
[[0881]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम जन गुरमति रामु बोलाइ ॥ जो जो सुणै कहै सो मुकता राम जपत सोहाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम जन गुरमति रामु बोलाइ ॥ जो जो सुणै कहै सो मुकता राम जपत सोहाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम जन = हे प्रभु के सेवक! रामु बोलाइ = (राम बोलाय) हरि नाम जपने की प्रेरणा कर। कहै = उचारता है। मुकता = विकारों से स्वतंत्र। सोहाइ = (सोहाय) सुंदर हो जाता है, सुंदर जीवन वाला हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु के भक्तजनो! (मुझे) गुरु की शिक्षा दे के प्रभु का नाम स्मरण करने की सहायता करो। जो जो मनुष्य प्रभु का नाम सुनता है (अथवा) उचारता है, वह (दुर्मति से) स्वतंत्र हो जाता है। प्रभु का नाम जप-जप के वह सुंदर जीवन वाला हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे वड भाग होवहि मुखि मसतकि हरि राम जना भेटाइ ॥ दरसनु संत देहु करि किरपा सभु दालदु दुखु लहि जाइ ॥२॥
मूलम्
जे वड भाग होवहि मुखि मसतकि हरि राम जना भेटाइ ॥ दरसनु संत देहु करि किरपा सभु दालदु दुखु लहि जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुँह पर। मसतकि = माथे पर। भेटाइ = (भेटाय) मिलाता है। दालदु = कंगालता।2।
अर्थ: हे भाई! जिस किसी मनुष्य के माथे के अच्छे भाग्य जाग उठें, तो परमात्मा उसको संतजनों से मिलाता है। हे प्रभु! कृपा करके (मुझे) संतजनों के दर्शन बख्श, (संतजनों के दर्शन करके) सारा दुख-दरिद्र दूर हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के लोग राम जन नीके भागहीण न सुखाइ ॥ जिउ जिउ राम कहहि जन ऊचे नर निंदक डंसु लगाइ ॥३॥
मूलम्
हरि के लोग राम जन नीके भागहीण न सुखाइ ॥ जिउ जिउ राम कहहि जन ऊचे नर निंदक डंसु लगाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीके = अच्छे। न सुखाइ = (न सुखाय) अच्छा नहीं लगता। कहहि = कहते हैं। डंसु = डंक।3।
अर्थ: हे भाई्! प्रभु की भक्ति करने वाले व्यक्ति सुंदर (जीवन वाले) होते हैं, पर दुर्भाग्य भरे मनुष्यों को (उनके दर्शन) अच्छे नहीं लगते। हे भाई! संत जन ज्यों-ज्यों हरि-नाम स्मरण करते हैं, त्यों-त्यों ऊँचे जीवन वाले बनते जाते हैं, पर उनकी निंदा करने वालों को उनका जीवन ऐसे लगता है जैसे डंक बज जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रिगु ध्रिगु नर निंदक जिन जन नही भाए हरि के सखा सखाइ ॥ से हरि के चोर वेमुख मुख काले जिन गुर की पैज न भाइ ॥४॥
मूलम्
ध्रिगु ध्रिगु नर निंदक जिन जन नही भाए हरि के सखा सखाइ ॥ से हरि के चोर वेमुख मुख काले जिन गुर की पैज न भाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार। भाए = अच्छे लगे। सखा सखाइ = (सखा सखाय) मित्र, साथी। वेमुख = उलटाए हुए मुँह वाले। पैज = इज्जत।4।
अर्थ: हे भाई! निंदक मनुष्य धिक्कारयोग्य (जीवन वाले) हो जाते हैं, क्योंकि उनको परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने वाले संत जन अच्छे नहीं लगते। जिस मनुष्यों को गुरु इज्जत (होती) पसंद नहीं आती, वे गुरु से मुँह मोड़े रखते हैं, वे ईश्वर के भी चोर बन जाते हैं (प्रभु को भी मुँह दिखलाने के काबिल नहीं रहते, विकारों के कारण) वे भ्रष्टे हुए मुँह वाले हो जाते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दइआ दइआ करि राखहु हरि जीउ हम दीन तेरी सरणाइ ॥ हम बारिक तुम पिता प्रभ मेरे जन नानक बखसि मिलाइ ॥५॥२॥
मूलम्
दइआ दइआ करि राखहु हरि जीउ हम दीन तेरी सरणाइ ॥ हम बारिक तुम पिता प्रभ मेरे जन नानक बखसि मिलाइ ॥५॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = गरीब। बारिक = बच्चे, अंजान। बखसि = बख्शिश करके, कृपा करके।5।
अर्थ: हे प्रभु! हम गरीब (जीव) तेरी शरण आए हैं, कृपा करके (हमें अपनी) शरण में रखे रखो। हे मेरे प्रभु! तू हमारा पिता है, हम तेरे बच्चे हैं। दास नानक पर बख्शिश कर के अपने चरणों में टिकाए रख।5।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ४ ॥ हरि के सखा साध जन नीके तिन ऊपरि हाथु वतावै ॥ गुरमुखि साध सेई प्रभ भाए करि किरपा आपि मिलावै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ४ ॥ हरि के सखा साध जन नीके तिन ऊपरि हाथु वतावै ॥ गुरमुखि साध सेई प्रभ भाए करि किरपा आपि मिलावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखा = मित्र। नीके = अच्छे। वतावै = फेरता है। सेई = वही। प्रभ भाए = (जो) प्रभु को प्यारे लगते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के चरणों में सदा रहने वाले साधु-जन सुंदर जीवन वाले होते हैं, प्रभु खुद उन पर कृपा का हाथ रखता है। गुरु की शरण रहने वाले साधु-जन प्रभु को प्यारे लगते हैं। प्रभु अपनी मेहर करके खुद (उनको अपने चरणों में) जोड़े रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मो कउ हरि जन मेलि मनि भावै ॥ अमिउ अमिउ हरि रसु है मीठा मिलि संत जना मुखि पावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम मो कउ हरि जन मेलि मनि भावै ॥ अमिउ अमिउ हरि रसु है मीठा मिलि संत जना मुखि पावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे राम! मो कउ = मुझे। मेलि = मिला। मनि भावै = (मेरे) मन में (यही) अच्छा लगता है। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मुखि पावै = (तेरा यह दास) मुँह में डाले।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! मुझे अपने संत जन मिला, (मेरे) मन में यही चाहत है। हे राम! तेरा नाम-रस आत्मिक जीवन देने वाला मीठा जल है। (तेरा यह दास तेरे) संत जनों को मिल के (यही अमृत) मुँह में डालना चाहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के लोग राम जन ऊतम मिलि ऊतम पदवी पावै ॥ हम होवत चेरी दास दासन की मेरा ठाकुरु खुसी करावै ॥२॥
मूलम्
हरि के लोग राम जन ऊतम मिलि ऊतम पदवी पावै ॥ हम होवत चेरी दास दासन की मेरा ठाकुरु खुसी करावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। पदवी = आत्मिक दर्जा। चेरी = दासी। खुसी करावै = मेहर करता है।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के साथ प्यार करने वाले संत जन ऊँचे जीवन वाले होते हैं, उनको मिल के मनुष्य उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्यों पर मेरा मालिक प्रभु मेहर की निगाह करता है, मैं उनके दासों का दास हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक जन सेवहि से वडभागी रिद मनि तनि प्रीति लगावै ॥ बिनु प्रीती करहि बहु बाता कूड़ु बोलि कूड़ो फलु पावै ॥३॥
मूलम्
सेवक जन सेवहि से वडभागी रिद मनि तनि प्रीति लगावै ॥ बिनु प्रीती करहि बहु बाता कूड़ु बोलि कूड़ो फलु पावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। से = वह (बहुवचन)। रिद = हृदय में। मनि = मन में। तनि = तन में। कूड़ो फलु = झूठ ही फल (के तौर पर)।3।
अर्थ: हे भाई! जो सेवक प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं वे बहुत भाग्यशाली होते हैं! प्रभु उनके हृदय में उनके मन में उनके तन में अपने चरणों की प्रीति पैदा करता है। पर, कई मनुष्य इस प्रीत (की दाति) के बिना ही बहुत बातें करते हैं। (कि हमारे दिल में प्रभु की प्रीति बस रही है) ऐसा मनुष्य झूठ बोल के (उसका) झूठा ही फल प्राप्त करता है (उसके दिल में प्रीति की जगह झूठ ही सदा बसा रहता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मो कउ धारि क्रिपा जगजीवन दाते हरि संत पगी ले पावै ॥ हउ काटउ काटि बाढि सिरु राखउ जितु नानक संतु चड़ि आवै ॥४॥३॥
मूलम्
मो कउ धारि क्रिपा जगजीवन दाते हरि संत पगी ले पावै ॥ हउ काटउ काटि बाढि सिरु राखउ जितु नानक संतु चड़ि आवै ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जग जीवन = हे जगत के जीवन! दाते = हे दातार! संत पगी = संतों के चरणों में। हउ = मैं। काटउ = मैं काट दूँ। काटि बाढि = टुकड़े टुकड़े करके। राखउ = मैं रख दूँ। जितु चढ़ि = जिस पर चढ़ के।4।
अर्थ: हे जगत को जिंदगी देने वाले हरि! मेरे पर मेहर कर, (ताकि कोई गुरमुखि मनुष्य मुझे तेरे) संत जनों के चरणों से लगा दे। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं अपना सिर काट दूँ, टुकड़े-टुकड़े करके रख दूँ, जिस पर चढ़ के कोई संत जन मुझे आ मिले (भाव, मैं सदके कुर्बान जाऊँ उस रास्ते पर, जिस रास्ते कोई संत आ के मुझे मिले)।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ४ ॥ जे वड भाग होवहि वड मेरे जन मिलदिआ ढिल न लाईऐ ॥ हरि जन अम्रित कुंट सर नीके वडभागी तितु नावाईऐ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ४ ॥ जे वड भाग होवहि वड मेरे जन मिलदिआ ढिल न लाईऐ ॥ हरि जन अम्रित कुंट सर नीके वडभागी तितु नावाईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होवहि = हो जाएं (बहुवचन)। जन मिलदिआ = संत जनों को मिलने में। कुंट = चश्मे, सरोवर। सर = तालाब। नीके = अच्छे, सुंदर। तितु = उस (चश्मे) में, उस (सरोवर) में।1।
अर्थ: हे भाई! संत जनों को मिलने में रंच मात्र भी ढील नहीं करनी चाहिए। अगर मेरे अहो भाग्य जाग उठें (तब ही संत जनों को मिलने का अवसर मिलता है)। हे भाई! प्रभु के सेवक आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के सुंदर चश्मे हैं, सुंदर सरोवर हैं। उस चश्में में उस सरोवर में बड़ी किस्मत से ही स्नान किया जा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मो कउ हरि जन कारै लाईऐ ॥ हउ पाणी पखा पीसउ संत आगै पग मलि मलि धूरि मुखि लाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम मो कउ हरि जन कारै लाईऐ ॥ हउ पाणी पखा पीसउ संत आगै पग मलि मलि धूरि मुखि लाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे राम! मो कउ = मुझे। कारै = कार में, सेवा में। हउ = मैं। पीसउ = पीसूँ, चक्की पीसूँ। पग = पैर (बहुवचन)। मलि = मल के। धूरि = चरणों की धूर। मुखि = मुँह पर, माथे पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) राम! मुझे (अपने) संत जनों की सेवा में लगाए रख। मैं संत जनों के दर पर पानी ढोऊँ, पंखा फेरूँ, (आटा) पीसूँ। मैं संत जनों के पैर मल-मल के धोऊँ, उनके चरणों की धूल अपने माथे पर लगाता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन वडे वडे वड ऊचे जो सतगुर मेलि मिलाईऐ ॥ सतगुर जेवडु अवरु न कोई मिलि सतगुर पुरख धिआईऐ ॥२॥
मूलम्
हरि जन वडे वडे वड ऊचे जो सतगुर मेलि मिलाईऐ ॥ सतगुर जेवडु अवरु न कोई मिलि सतगुर पुरख धिआईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर मेलि = गुरु की संगति में। ऊचे = ऊँचे जीवन वाले। मिलि सतिगुर = गुरु को मिल के। धिआईऐ = ध्याया जा सकता है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के सेवक बड़े ऊँचे जीवन वाले होते हैं, उनका मिलाप सतिगुरु की संगति में बना रहता है। गुरु जितना बड़ा और कोई नहीं है। गुरु को मिल के ही परमात्मा का स्मरण किया जा सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतगुर सरणि परे तिन पाइआ मेरे ठाकुर लाज रखाईऐ ॥ इकि अपणै सुआइ आइ बहहि गुर आगै जिउ बगुल समाधि लगाईऐ ॥३॥
मूलम्
सतगुर सरणि परे तिन पाइआ मेरे ठाकुर लाज रखाईऐ ॥ इकि अपणै सुआइ आइ बहहि गुर आगै जिउ बगुल समाधि लगाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परे = पड़े। तिन पाइआ = (तिन पाया) उन्होंने (प्रभु का मिलाप) डाल लिया। लाज = इज्जत। इकि = कई, अनेक। सुआइ = (सुआय) स्वार्थ की खातिर। आइ = आ के। बहहि = बैठ जाते हैं।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ गए, उन्होंने प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया, मेरे मालिक-प्रभु ने उनकी (लोक-परलोक में) इज्जत रख ली। पर अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपने किसी मतलब की खातिर गुरु के दर पर आ बैठते हैं और बगुले की तरह समाधि लगा लेते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बगुला काग नीच की संगति जाइ करंग बिखू मुखि लाईऐ ॥ नानक मेलि मेलि प्रभ संगति मिलि संगति हंसु कराईऐ ॥४॥४॥
मूलम्
बगुला काग नीच की संगति जाइ करंग बिखू मुखि लाईऐ ॥ नानक मेलि मेलि प्रभ संगति मिलि संगति हंसु कराईऐ ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काग = कौआ। जाइ = (जाए) जा के। करंग = मुर्दा। बिखू = विष्ठा (जहर)। मुखि = मुँह में। मेलि = मिला ले।4।
अर्थ: हे भाई! बगुला और कौए नीच की संगति ही पसंद करते हैं (यदि वे किसी स्वार्थ की खातिर गुरु की संगत में आते भी हैं, तो यहाँ से) उठ के किसी मुर्दे व गंदगी को ही मुँह में डालते हैं। हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर, और कह:) हे प्रभु! मुझे गुरु की संगति में मिलाए रख। गुरु की संगति में मिल के (कौए से) हंस बन जाया जाता है।4।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ४ ॥ सतगुर दइआ करहु हरि मेलहु मेरे प्रीतम प्राण हरि राइआ ॥ हम चेरी होइ लगह गुर चरणी जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखाइआ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ४ ॥ सतगुर दइआ करहु हरि मेलहु मेरे प्रीतम प्राण हरि राइआ ॥ हम चेरी होइ लगह गुर चरणी जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि! सतगुर मेलहु = गुरु मिला। हरि राइआ = (हरि राया) हे प्रभु पातशाह! चेरी = दासी। होइ = (होय) बन के। लगह = हम लगें, मैं लगूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लगह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे हरि! हे मेरे प्रीतम! हे मेरी जिंद के पातशाह! मेहर कर, मुझे गुरु मिला। हे भाई! जिस गुरु ने (सदा) परमात्मा के मिलाप का रास्ता दिखाया है, मैं उसका दास बन के उसके चरणों में गिरा रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मै हरि हरि नामु मनि भाइआ ॥ मै हरि बिनु अवरु न कोई बेली मेरा पिता माता हरि सखाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम मै हरि हरि नामु मनि भाइआ ॥ मै हरि बिनु अवरु न कोई बेली मेरा पिता माता हरि सखाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे राम! मै मनि भाइआ = मेरे मन को अच्छा लगता है। बेली = मददगार। सखाइआ = साथी।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) राम! हे हरि! मेरे मन को तेरा नाम अच्छा लगता है। हे भाई! परमात्मा के बिना मुझे और कोई मददगार नहीं दिखता। परमात्मा ही मेरी माँ है, परमात्मा ही मेरा पिता है, परमात्मा ही मेरा साथी है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे इकु खिनु प्रान न रहहि बिनु प्रीतम बिनु देखे मरहि मेरी माइआ ॥ धनु धनु वड भाग गुर सरणी आए हरि गुर मिलि दरसनु पाइआ ॥२॥
मूलम्
मेरे इकु खिनु प्रान न रहहि बिनु प्रीतम बिनु देखे मरहि मेरी माइआ ॥ धनु धनु वड भाग गुर सरणी आए हरि गुर मिलि दरसनु पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न रहहि = नहीं रह सकते (बहुवचन)। प्रान = जिंद। मरहि = (मेरे प्राण) मर जाते हैं। माइआ = हे माँ! मिलि = (गुरु को) मिल के। हरि दरसनु = प्रभु का दर्शन।2।
अर्थ: हे मेरी माँ! प्रीतम (गुरु के मिलाप) के बिना मेरी जिंद एक छिन के लिए भी नहीं रह सकती, गुरु के दर्शन किए बिना मेरी (आत्मिक) मौत होती है। वह मनुष्य धन्य हैं धन्य हैं, बहुत भाग्यों वाले हैं, जो गुरु की शरण आ पड़ते हैं। गुरु को मिल के उन्होंने परमात्मा के दर्शन कर लिए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै अवरु न कोई सूझै बूझै मनि हरि जपु जपउ जपाइआ ॥ नामहीण फिरहि से नकटे तिन घसि घसि नक वढाइआ ॥३॥
मूलम्
मै अवरु न कोई सूझै बूझै मनि हरि जपु जपउ जपाइआ ॥ नामहीण फिरहि से नकटे तिन घसि घसि नक वढाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे मेरी माँ! प्रभु के नाम के जाप के बिना) मुझे कोई भी और काम नहीं सूझता (अच्छा नहीं लगता)। जैसे गुरु जपने के लिए प्रेरित करता है, मैं अपने मन में प्रभु के नाम का जाप ही जपता हूँ। हे भाई! जो मनुष्य नाम से वंचित रहते हैं, वे बेशर्मों की तरह (दुनियां में) चलते-फिरते हैं, वे अनेक बार बेईज्जती करा के दुखी होते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मो कउ जगजीवन जीवालि लै सुआमी रिद अंतरि नामु वसाइआ ॥ नानक गुरू गुरू है पूरा मिलि सतिगुर नामु धिआइआ ॥४॥५॥
मूलम्
मो कउ जगजीवन जीवालि लै सुआमी रिद अंतरि नामु वसाइआ ॥ नानक गुरू गुरू है पूरा मिलि सतिगुर नामु धिआइआ ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। अवरु = कोई और (वचन)। मनि = मन में। जपउ = जपूँ। फिरहि = फिरते हैं। से = उस (बहुवचन)। नकटे = नि+लज्ज, बेशर्म। सुआमी = हे स्वामी! रिद = हृदय। मिलि = मिल के।4।
अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभु! हे मेरे मालिक प्रभु! मेरे हृदय में अपना नाम बसाए रख, और मुझे आत्मिक जीवन दिए रख। हे नानक! (इस नाम की दाति देने का समर्थ) गुरु पूरा ही है गुरु पूरा ही है। गुरु को मिल के ही प्रभु का नाम स्मरण किया जा सकता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ४ ॥ सतगुरु दाता वडा वड पुरखु है जितु मिलिऐ हरि उर धारे ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ हरि अम्रित नामु समारे ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ४ ॥ सतगुरु दाता वडा वड पुरखु है जितु मिलिऐ हरि उर धारे ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ हरि अम्रित नामु समारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाता = (नाम की) दाति देने वाला। जितु = जिससे। जितु मिलिऐ = जिसको मिलने से। उर = हृदय। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुरि = गुरु ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। समारे = संभालता है।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के नाम की दाति देने वाला गुरु ही सब से बड़ा व्यक्ति है। गुरु को मिलने से मनुष्य परमात्मा को अपने हृदय में बसा लेता है। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने आत्मिक जीवन की दाति दे दी, वह मनुष्य प्रभु के जीवन देने वाले नाम को (हृदय में) संभाल के रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम गुरि हरि हरि नामु कंठि धारे ॥ गुरमुखि कथा सुणी मनि भाई धनु धनु वड भाग हमारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम गुरि हरि हरि नामु कंठि धारे ॥ गुरमुखि कथा सुणी मनि भाई धनु धनु वड भाग हमारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे राम! गुरि = गुरु से। कंठि = गले में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। कथा = महिमा। मनि भाई = मन को प्यारी लगी है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! मैं बहुत भाग्यशाली हो गया हूँ, गुरु के द्वारा, हे हरि! तेरा नाम मैंने अपने गले में परो लिया है। गुरु की शरण पड़ कर मैंने तेरी महिमा सुनी है, और वह मेरे मन को प्यारी लग रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि कोटि तेतीस धिआवहि ता का अंतु न पावहि पारे ॥ हिरदै काम कामनी मागहि रिधि मागहि हाथु पसारे ॥२॥
मूलम्
कोटि कोटि तेतीस धिआवहि ता का अंतु न पावहि पारे ॥ हिरदै काम कामनी मागहि रिधि मागहि हाथु पसारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़। न पावहि = नहीं पा सकते। पारे = पार, परला किनारा। हिरदै = हृदय में। कामनी = स्त्री। मागहि = माँगते हैं। रिधि = धन पदार्थ। पसारे = बिखेर के।2।
अर्थ: हे भाई! तेतीस करोड़ (देवते) परमात्मा का ध्यान धरते रहते हैं, पर उसके गुणों का अंत, गुणों का परला छोर नहीं पा सकते। (अनेक ऐसे भी है जो अपने) हृदय में काम-वासना धार के (परमात्मा के दर से) स्त्री (ही) माँगते हैं, (उसके आगे) हाथ पसार के (दुनिया के) धन पदार्थ (ही) माँगते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जसु जपि जपु वडा वडेरा गुरमुखि रखउ उरि धारे ॥ जे वड भाग होवहि ता जपीऐ हरि भउजलु पारि उतारे ॥३॥
मूलम्
हरि जसु जपि जपु वडा वडेरा गुरमुखि रखउ उरि धारे ॥ जे वड भाग होवहि ता जपीऐ हरि भउजलु पारि उतारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = यश, महिमा। जपि = जपा कर। गुरमुखि = गुरु से। रखउ = रखूँ, मैं रखता हूँ। उरि = हृदय में। धारे = धार के, टिका के। भउजलु = संसार समुंदर।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महिमा किया कर, परमात्मा के नाम का जाप ही सबसे बड़ा काम है। मैं तो गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम ही अपने हृदय में बसाता हूँ। हे भाई! यदि (कोई) अति भाग्यशाली हो तो ही हरि-नाम जपा जा सकता है (जो मनुष्य जपता है उसको) संसार-समुंदर से पार लंघा देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन निकटि निकटि हरि जन है हरि राखै कंठि जन धारे ॥ नानक पिता माता है हरि प्रभु हम बारिक हरि प्रतिपारे ॥४॥६॥१८॥
मूलम्
हरि जन निकटि निकटि हरि जन है हरि राखै कंठि जन धारे ॥ नानक पिता माता है हरि प्रभु हम बारिक हरि प्रतिपारे ॥४॥६॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। कंठि धारे = गले से लगा के। बारिक = बालक, बच्चे।4।
अर्थ: हे भाई! संत जन परमात्मा के नजदीक बसते हैं, परमात्मा संतजनों के पास बसता है। परमात्मा अपने सेवकों को अपने गले से लगा के रखता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा हमारा पिता है, परमात्मा हमारी माँ है। हमें बच्चों को परमात्मा ही पालता है।4।6।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु रामकली महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु रामकली महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरपा करहु दीन के दाते मेरा गुणु अवगणु न बीचारहु कोई ॥ माटी का किआ धोपै सुआमी माणस की गति एही ॥१॥
मूलम्
किरपा करहु दीन के दाते मेरा गुणु अवगणु न बीचारहु कोई ॥ माटी का किआ धोपै सुआमी माणस की गति एही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = गरीब, कंगाल। दाते = हे दातें देने वाले! किआ धोपै = क्या धुल सकता है? (मिट्टी की मैल) कभी नहीं धुल सकती (मिट्टी को धोते जाईए और मिट्टी सामने आती जाएगी)। सुआमी = हे मालिक! गति = हालत, दशा।1।
अर्थ: हे गरीबों पर बख्शिश करने वाले प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मेरा कोई गुण ना विचारना, मेरा कोई अवगुण ना बिचारना (मेरे अंदर तो अवगुण ही अवगुण हैं)। (जैसे पानी से धोने पर) मिट्टी को धोया नहीं जा सकता, हे मालिक प्रभु! हम जीवों की भी यही हालत है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन सतिगुरु सेवि सुखु होई ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु फिरि दूखु न विआपै कोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन सतिगुरु सेवि सुखु होई ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु फिरि दूखु न विआपै कोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सेवि = शरण पड़ा रह। इछहु = माँगेगा। न विआपे = जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ा रह (गुरु के दर पर रहने से ही) आनंद मिलता है। (गुरु के दर पर रह के) जो कामना (तू) करेगा, वही फल हासिल कर लेगा। (इस तरह) कोई भी दुख अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काचे भाडे साजि निवाजे अंतरि जोति समाई ॥ जैसा लिखतु लिखिआ धुरि करतै हम तैसी किरति कमाई ॥२॥
मूलम्
काचे भाडे साजि निवाजे अंतरि जोति समाई ॥ जैसा लिखतु लिखिआ धुरि करतै हम तैसी किरति कमाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काचे भांडे = नाशवान शरीर। साजि = बना के। निवाजे = बड़ाई महिमा दी है, बड़प्पन दिया हुआ है। समाई = टिकी हुई है। लिखतु = लेख। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। किरति = कार।2।
अर्थ: हे भाई! (हमारे यह) नाशवान शरीर बना के (परमात्मा ने ही इनको) बड़प्पन दिया हुआ है (क्योंकि इन नाशवान शरीरों के) अंदर उसकी ज्योति टिकी हुई है। हे भाई! (हमारे किए हुए कर्मों के अनुसार) कर्तार ने धुर-दरगाह से जैसे (संस्कारों के) लेख (हमारे अंदर) लिख दिए हैं, हम जीव (अब भी) वैसे ही कर्मों की कमाई किए जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु थापि कीआ सभु अपना एहो आवण जाणा ॥ जिनि दीआ सो चिति न आवै मोहि अंधु लपटाणा ॥३॥
मूलम्
मनु तनु थापि कीआ सभु अपना एहो आवण जाणा ॥ जिनि दीआ सो चिति न आवै मोहि अंधु लपटाणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थापि कीआ = समझ लिया, मिथ लिया। एहो = यह मिथ ही, ये अपनत्व ही। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। चिति = चिक्त में। मोह = (इस जीवात्मा और शरीर के) मोह में। मनु = जिंद, जीवात्मा। अंधु = अंधा मनुष्य।3।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य इस जीवात्मा को, इस शरीर को सदा अपना माने रहता है, यह अपनत्व ही (मनुष्य के लिए) जनम-मरण (के चक्कर का कारण बनी रहती) है। जिस परमात्मा ने ये प्राण (जीवात्मा) दिए हैं ये शरीर दिया है वह उसके चिक्त में (कभी) नहीं बसता, अंधा मनुष्य (जिंद और शरीर के) मोह में फसा रहता है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि कीआ सोई प्रभु जाणै हरि का महलु अपारा ॥ भगति करी हरि के गुण गावा नानक दासु तुमारा ॥४॥१॥
मूलम्
जिनि कीआ सोई प्रभु जाणै हरि का महलु अपारा ॥ भगति करी हरि के गुण गावा नानक दासु तुमारा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। सेई = वह (प्रभु) ही। महलु = ठिकाना, ऊँचा आसन। अपारा = बेअंत, जिसका परला किनारा नहीं पाया जा सकता। करी = मैं करूँ। गावा = मैं गाता रहूँ।4।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (यह खेल) बनाया है वह (इसको चलाना) जानता है, उस परमात्मा का ठिकाना अगम्य (पहुँच से परे) है (जीव उस परमात्मा की रजा को मर्जी को समझ नहीं सकता)। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरा दास हूँ (मेहर कर) मैं तेरी भक्ति करता रहूँ, मैं तेरे गुण गाता रहूँ।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ पवहु चरणा तलि ऊपरि आवहु ऐसी सेव कमावहु ॥ आपस ते ऊपरि सभ जाणहु तउ दरगह सुखु पावहु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ पवहु चरणा तलि ऊपरि आवहु ऐसी सेव कमावहु ॥ आपस ते ऊपरि सभ जाणहु तउ दरगह सुखु पावहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तलि = नीचे। ऊपरि आवहु = ऊँचे जीवन वाले बन जाओगे। आपस ते = अपने आप से। ऊपरि = ऊँचा, श्रेष्ठ। तउ = तब।1।
अर्थ: हे संत जनो! सभी के चरणों तले पड़े रहो। अगर ऐसी सेवा-भक्ति की कमाई करोगे, तो ऊँचे जीवन वाले बन जाओगे। जब तुम सभी को अपने से बेहतर समझने लगोगे, तो परमात्मा की हजूरी में (टिके रह के) आनंद पाओगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतहु ऐसी कथहु कहाणी ॥ सुर पवित्र नर देव पवित्रा खिनु बोलहु गुरमुखि बाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतहु ऐसी कथहु कहाणी ॥ सुर पवित्र नर देव पवित्रा खिनु बोलहु गुरमुखि बाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! कथहु = कहो, उचारो। कहाणी = महिमा। सुर = देवते। नर = मनुष्य। देव = देवते। खिनु = छिन छिन, हर वक्त। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे संतजनो! ऐसे प्रभु की महिमा करते रहो, गुरु की शरण पड़ कर हर वक्त परमात्मा की महिमा की वाणी उचारते रहो, जिसकी इनायत से देवते-मनुष्य सभी पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परपंचु छोडि सहज घरि बैसहु झूठा कहहु न कोई ॥ सतिगुर मिलहु नवै निधि पावहु इन बिधि ततु बिलोई ॥२॥
मूलम्
परपंचु छोडि सहज घरि बैसहु झूठा कहहु न कोई ॥ सतिगुर मिलहु नवै निधि पावहु इन बिधि ततु बिलोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परपंचु = माया का मोह। छोडि = छोड़ के। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज घरि = आत्मिक अडोलता के घर में। बैसहु = टिके रहो। नवै निधि = नौ ही खजाने। इन बिधि = इस तरीके से। ततु बिलोई = मथ के मक्खन निकालना, अस्लियत ढूँढ के, सही जीवन-राह तलाश के।2।
अर्थ: हे संत जनो! माया का मोह छोड़ के किसी को बुरा ना कहो, (इस तरह) आत्मिक अडोलता में टिके रहो। गुरु की शरण पड़े रहो। इस तरह सही जीवन-राह तलाश के दुनिया के सारे ही खजाने हासिल कर लोगे (भाव, माया के मोह से मुक्ति हासिल कर लोगे। बेमुथाज हो जाओगे)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरमु चुकावहु गुरमुखि लिव लावहु आतमु चीनहु भाई ॥ निकटि करि जाणहु सदा प्रभु हाजरु किसु सिउ करहु बुराई ॥३॥
मूलम्
भरमु चुकावहु गुरमुखि लिव लावहु आतमु चीनहु भाई ॥ निकटि करि जाणहु सदा प्रभु हाजरु किसु सिउ करहु बुराई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमु = भटकना। चुकावहु = दूर करो। आतमु = अपने आप को। चीनहु = पहचानो। भाई = हे भाई! निकटि = नजदीक। हाजरु = अंग संग बसता। बुराई = बुरापन।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर गुरु चरणों में प्रीति जोड़ो, (मन में से) भटकना दूर करो, अपने आप की पहचान करो (अपने जीवन का आत्मावलोचन आत्म चिंतन करो)। परमात्मा को सदा अपने नजदीक प्रत्यक्ष अंग’संग बसता समझो, (फिर) किसी के भी साथ कोई बुराई नहीं कर सकोगे (यही है सही जीवन-राह)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि मिलिऐ मारगु मुकता सहजे मिले सुआमी ॥ धनु धनु से जन जिनी कलि महि हरि पाइआ जन नानक सद कुरबानी ॥४॥२॥
मूलम्
सतिगुरि मिलिऐ मारगु मुकता सहजे मिले सुआमी ॥ धनु धनु से जन जिनी कलि महि हरि पाइआ जन नानक सद कुरबानी ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि मिलिऐ = यदि गुरु मिल जाए। मारगु = (जिंदगी का) रास्ता। मुकता = खुला, (विकारों की रुकावटों से बचा हुआ)। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। धनु धनु = धन्य धन्य, भाग्यशाली। से जन = वे लोग। सद = सदा।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कलि महि’ यहाँ किसी खास युग का निर्णय नहीं है) इस कलि में, जगत में, इस जीवन में।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! अगर गुरु मिल जाए, तो (जिंदगी का) रास्ता खुला (विकारों की रुकावटों से आजाद) हो जाता है (आत्मिक अडोलता प्राप्त हो जाती है, इस) आत्मिक अडोलता में मालिक-प्रभु मिल जाता है। वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, जिन्होंने इस जीवन में प्रभु के साथ मिलाप हासिल कर लिया। हे दास नानक! (कह: मैं उनसे) सदा बलिहार जाता हूँ।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ आवत हरख न जावत दूखा नह बिआपै मन रोगनी ॥ सदा अनंदु गुरु पूरा पाइआ तउ उतरी सगल बिओगनी ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ आवत हरख न जावत दूखा नह बिआपै मन रोगनी ॥ सदा अनंदु गुरु पूरा पाइआ तउ उतरी सगल बिओगनी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवत = आते हुए, कोई आर्थिक लाभ होने से। हरख = हर्ष, खुशी। जावत = कोई नुकसान होने से। बिआपै = अपना प्रभाव डाल सकता। मन रोगनी = मन का रोग, चिन्ता। तउ = तब। सगल = सारी। बिओगनी = बिछोड़ा।1।
अर्थ: हे भाई! जब से (मुझे) गुरु मिला है, तब से (मेरे अंदर से प्रभु से) सारी दूरी समाप्त हो चुकी है, (मेरे अंदर) हर वक्त आनंद बना रहता है। अब अगर कोई आर्थिक लाभ हो (दुनियावी, मायावी लाभ हो) तो खुशी अपना जोर नहीं डालती, अगर कोई नुकसान हो जाए तो दुख नहीं होता, कोई भी चिन्ता अपना दबाव नहीं डाल सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह बिधि है मनु जोगनी ॥ मोहु सोगु रोगु लोगु न बिआपै तह हरि हरि हरि रस भोगनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इह बिधि है मनु जोगनी ॥ मोहु सोगु रोगु लोगु न बिआपै तह हरि हरि हरि रस भोगनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इह बिधि = इस किस्म का। जोगनी = जुड़ा हुआ। लोगु = लोक-सम्मान। तह = उस अवस्था में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से मेरा) मन इस तरह (प्रभु चरणों में) जुड़ा हुआ है, कि इस पर मोह, गम, रोग, लोक-सम्मान कोई भी अपना जोर नहीं डाल सकता। इस अवस्था में (यह मेरा मन) परमात्मा के मिलाप का आनंद ले रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरग पवित्रा मिरत पवित्रा पइआल पवित्र अलोगनी ॥ आगिआकारी सदा सुखु भुंचै जत कत पेखउ हरि गुनी ॥२॥
मूलम्
सुरग पवित्रा मिरत पवित्रा पइआल पवित्र अलोगनी ॥ आगिआकारी सदा सुखु भुंचै जत कत पेखउ हरि गुनी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिरत = मातृ लोक। पइआल = पाताल। अलोगनी = लोक-सम्मान से रहत। भुंचै = खाता है। जत कत = जहाँ तहाँ, हर जगह। पेखउ = पेखूँ, मैं देखता हूँ। गुनी = गुणों के मालिक।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से मेरे इस मन को) स्वर्ग, मातृ-लोक, पाताल (एक जैसे ही) पवित्र दिखाई दे रहे हैं, कोई लोक-सम्मान भी नहीं सताती। (गुरु की) आज्ञा में रह के (मेरा मन) सदा आनंदित रहता है। अब मैं जिधर देखता हूँ उधर ही सारे गुणों का मालिक प्रभु ही मुझे दिखाई देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह सिव सकती जलु नही पवना तह अकारु नही मेदनी ॥ सतिगुर जोग का तहा निवासा जह अविगत नाथु अगम धनी ॥३॥
मूलम्
नह सिव सकती जलु नही पवना तह अकारु नही मेदनी ॥ सतिगुर जोग का तहा निवासा जह अविगत नाथु अगम धनी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव सकती = शिव की शक्ति, रिद्धियाँ सिद्धियाँ। जलु = पानी, तीर्थ स्नान। पवना = हवा, प्राणायाम। तह = उस अवस्था में। अकारु = आकार, रूप। मेदनी = धरती (के पदार्थ)। जोग = मिलाप। अविगत = अव्यक्त, अदृष्य प्रभु। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। धनी = मालिक।3।
अर्थ: हे भाई! अब मेरे इस मन में गुरु के मिलाप का सदा के लिए निवास हो गया है, अदृश्य, अगम्य (पहुँच से परे) मालिक पति-प्रभु भी वहीं बसता दिखाई दे गया है। अब इस मन में रिद्धियां-सिद्धियां, तीर्थ स्नान, प्राणायाम, सांसारिक रूप, धरती के पदार्थ कोई भी नहीं टिक सकते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु मनु हरि का धनु सभु हरि का हरि के गुण हउ किआ गनी ॥ कहु नानक हम तुम गुरि खोई है अ्मभै अ्मभु मिलोगनी ॥४॥३॥
मूलम्
तनु मनु हरि का धनु सभु हरि का हरि के गुण हउ किआ गनी ॥ कहु नानक हम तुम गुरि खोई है अ्मभै अ्मभु मिलोगनी ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। गनी = मैं गिनूँ। हम तुम = मेर तेर। गुरि = गुरु ने। अंभै = पानी में। अंभ = पानी (अंभस्)।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) गुरु ने (मेरे मन में से) मेर-तेर समाप्त कर दी है (अब मैं प्रभु-चरणों में यूँ मिल गया हूँ, जैसे) पानी में पानी मिल जाता है। (अब मुझे समझ आ गई है कि) ये शरीर, ये जिंद, ये धन, सब कुछ उस प्रभु का ही दिया हुआ है (वह बड़ा बख्शिंद क्षमा करने वाला है) मैं उसके कौन-कौन से गुण बयान कर सकता हूँ?।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ त्रै गुण रहत रहै निरारी साधिक सिध न जानै ॥ रतन कोठड़ी अम्रित स्मपूरन सतिगुर कै खजानै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ त्रै गुण रहत रहै निरारी साधिक सिध न जानै ॥ रतन कोठड़ी अम्रित स्मपूरन सतिगुर कै खजानै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहत = निर्लिप। त्रै गुण रहत = माया के तीन गुणों से बची हुई। निरारी = निराली, अलग। साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = योग साधना में सिद्ध योगी। न जानै = नहीं जानती, सांझ नहीं डालती। रतन = प्रभु के गुणों के रत्न। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम। संपूरन = नाको नाक भरी हुई। कै खजानै = के खजाने में।1।
अर्थ: हे भाई! वह कीमती पदार्थ माया के तीन गुणों के प्रभाव से अलग ही रहता है, वह पदार्थ योग-साधना करने वालों और साधना में सिद्ध योगियों के साथ भी सांझ नहीं डालता (भाव, जोग-साधना के द्वारा वह नाम-वस्तु नहीं मिलती)। हे भाई! वह कीमती पदार्थ गुरु के खजाने में है। वह पदार्थ है; प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले गुण-रत्नों से लबा-लब भरी हुई हृदय-कोठरी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचरजु किछु कहणु न जाई ॥ बसतु अगोचर भाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अचरजु किछु कहणु न जाई ॥ बसतु अगोचर भाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचरजु = अनोखा तमाशा। बसतु = वस्तु, कीमती चीज (स्त्रीलिंग)। अगोचर = (अ+गो+चर) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। भाई = हे भाई!।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! एक अनोखा तमाशा बना हुआ है, जिसकी बाबत कुछ नहीं कहा जा सकता। (आश्चर्यजनक तमाशा ये है कि गुरु के खजाने में ही प्रभु का नाम एक) कीमती चीज है जिस तक (मनुष्य की) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोलु नाही कछु करणै जोगा किआ को कहै सुणावै ॥ कथन कहण कउ सोझी नाही जो पेखै तिसु बणि आवै ॥२॥
मूलम्
मोलु नाही कछु करणै जोगा किआ को कहै सुणावै ॥ कथन कहण कउ सोझी नाही जो पेखै तिसु बणि आवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगा = समर्थ। को = कोई मनुष्य। कउ = वास्ते। सोझी = समझ, अकल। जो = जो मनुष्य। पेखै = देखता है। तिसु = उस (मनुष्य) की (प्रीति)। बणि आवै = बन जाती है।2।
अर्थ: हे भाई! उस नाम-वस्तु का मूल्य कोई भी जीव नहीं आँक सकता। कोई भी जीव उसका मूल्य कह नहीं सकता, बता नहीं सकता। (उस कीमती पदार्थ की तारीफें) बयान करने के लिए किसी की भी बुद्धि काम नहीं कर सकती। हाँ, जो मनुष्य उस वस्तु को देख लेता है, उसका उससे प्यार हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई जाणै करणैहारा कीता किआ बेचारा ॥ आपणी गति मिति आपे जाणै हरि आपे पूर भंडारा ॥३॥
मूलम्
सोई जाणै करणैहारा कीता किआ बेचारा ॥ आपणी गति मिति आपे जाणै हरि आपे पूर भंडारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वह (करणहार) ही। कीता = (प्रभु का) पैदा किया हुआ जीव। किआ बेचारा = क्या बिसात रखता है? कोई ताकत नहीं। गति = हालत। मिति = माप, अंदाजा। आपे = आप ही। पूर भंडारा = भरे हुए खजानों वाला।3।
अर्थ: हे भाई! जिस विधाता ने वह पदार्थ बनाया है, उसका मूल्य वह स्वयं ही जानता है। उसके पैदा किए हुए जीवों में ऐसी सामर्थ्य नहीं है। प्रभु स्वयं ही उस कीमती पदार्थ से भरे हुए खजानों का मालिक है। और, वह स्वयं कैसा है, कितना बड़ा है - ये बात वह स्वयं ही जानता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा रसु अम्रितु मनि चाखिआ त्रिपति रहे आघाई ॥ कहु नानक मेरी आसा पूरी सतिगुर की सरणाई ॥४॥४॥
मूलम्
ऐसा रसु अम्रितु मनि चाखिआ त्रिपति रहे आघाई ॥ कहु नानक मेरी आसा पूरी सतिगुर की सरणाई ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। मनि = मन में। त्रिपति रहे आघाई = पूर्ण तौर पर तृप्त हो गए। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु की शरण पड़ कर मेरी लालसा पूरी हो गई है (मुझे वह कीमती पदार्थ मिल गया है)। आत्मिक जीवन देने वाले उस आश्चर्यजनक नाम-रस को (गुरु की कृपा से) मैंने अपने मन में चख लिया है, अब मैं (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तौर पर अघा गया हूँ।4।4।
[[0884]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै बैरी सगले साधे ॥ जिनि बैरी है इहु जगु लूटिआ ते बैरी लै बाधे ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै बैरी सगले साधे ॥ जिनि बैरी है इहु जगु लूटिआ ते बैरी लै बाधे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंगीकारु = अंग से लगाना, पक्ष, सहायता। अंगीकारु कीआ = पक्ष किया, अंग से लगाया, चरणों में जोड़ा, बाँह पकड़ी। प्रभि अपनै = अपने प्रभु ने। सगले = सारे। बैरी = (कामादिक) वैरी। साधे = वश में कर दिए। जिनि = जिसने। जिनि बैरी = (कामादिक) जिस जिस वैरी ने (शब्द ‘जिनि’ एकवचन है)। ते = वह (बहुवचन)। लै = पकड़ के।1।
अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्य को अपने चरणों से लगा लिया, उसके उसने (कामादिक) सारे ही वैरी वश में कर दिए। (कामादिक) जिस जिस वैरी ने ये जगत लूट लिया है, (प्रभु ने उसके) वह वैरी पकड़ के बाँध दिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु परमेसरु मेरा ॥ अनिक राज भोग रस माणी नाउ जपी भरवासा तेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुरु परमेसरु मेरा ॥ अनिक राज भोग रस माणी नाउ जपी भरवासा तेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरा = मेरा (रक्षक)। माणी = मैं भोगता हूँ। जपी = जपता रहूँ। भरवासा = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा तो गुरु रखवाला है, परमात्मा रक्षक है (वही) मुझे कामादिक वैरियों से बचाने वाला है। हे प्रभु! मुझे तेरा ही आसरा है (मेहर कर) मैं तेरा नाम जपता रहूँ (नाम की इनायत से ऐसा प्रतीत होता है कि) मैं राज (-पाट) के अनेक भोगों के रस ले रहा हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चीति न आवसि दूजी बाता सिर ऊपरि रखवारा ॥ बेपरवाहु रहत है सुआमी इक नाम कै आधारा ॥२॥
मूलम्
चीति न आवसि दूजी बाता सिर ऊपरि रखवारा ॥ बेपरवाहु रहत है सुआमी इक नाम कै आधारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। आवसि = आती। रहत है = रहता है। सुआमी = हे स्वामी! कै अधारा = के आसरे।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (जिस मनुष्य के) सिर पर रखवाला बनता है, उस मनुष्य के चिक्त में (परमात्मा के नाम के बिना, काम आदि का) कोई फुरना उठता ही नहीं। हे मालिक प्रभु! सिर्फ तेरे नाम के आसरे वह मनुष्य (दुनिया की अन्य गरजों से) बेपरवाह रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन होइ मिलिओ सुखदाई ऊन न काई बाता ॥ ततु सारु परम पदु पाइआ छोडि न कतहू जाता ॥३॥
मूलम्
पूरन होइ मिलिओ सुखदाई ऊन न काई बाता ॥ ततु सारु परम पदु पाइआ छोडि न कतहू जाता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होइ = (होय) हो जाता है। ऊन = ऊणा, थोड़ा, मुथाज। काई बाता = किसी बात। ततु = मूल, जगत का मूल। सारु = निचोड़, असल जीवन उद्देश्य। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। कतहू = किसी और तरफ।3।
अर्थ: हे भाई! जिसको सारे सुख देने वाला प्रभु मिल जाता है, वह (ऊँचे आत्मिक गुणों से) भरपूर हो जाता है। वह किसी बात से मुथाज नहीं रहता। वह मनुष्य जगत के मूल-प्रभु को पा लेता है, वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा पा लेता है, और, इसको छोड़ के किसी ओर तरफ नहीं भटकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरनि न साकउ जैसा तू है साचे अलख अपारा ॥ अतुल अथाह अडोल सुआमी नानक खसमु हमारा ॥४॥५॥
मूलम्
बरनि न साकउ जैसा तू है साचे अलख अपारा ॥ अतुल अथाह अडोल सुआमी नानक खसमु हमारा ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। साचे = हे सदा कायम रहने वाले! अलख = हे अलख! अलख = जिसका सही स्वरूप् बयान ना किया जा सके। अतुल = जिसके गुणों को तोला ना जा सके, जिसके बराबर का और कोई ना मिल सके। थाह = गहराई।4।
अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले! हे अलख! हे बेअंत! मैं बयान नहीं कर सकता कि तू कैसा है। हे नानक! (कह:) हे बेमिसाल प्रभु! हे अथाह! हे अडोल मालिक! तू ही मेरा पति है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ तू दाना तू अबिचलु तूही तू जाति मेरी पाती ॥ तू अडोलु कदे डोलहि नाही ता हम कैसी ताती ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ तू दाना तू अबिचलु तूही तू जाति मेरी पाती ॥ तू अडोलु कदे डोलहि नाही ता हम कैसी ताती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाना = (दिल की) जानने वाला। अबिचलु = अटल, सदा कायम रहने वाला। पाती = पाति, कुल। अडोलु = जिस पर माया के झकोलों का असर ना हो सके। ताती = ताति, चिन्ता।1।
अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! तू मेरे दिल की जानने वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू ही मेरी जाति है, तू ही मेरा कुल है (ऊँची जाति कुल का गुमान होने की जगह मुझे यही भरोसा है कि तू हर वक्त मेरे अंग-संग है)। हे पातशाह! माया के झोंके तेरे ऊपर असर नहीं कर सकते, तू (माया के मुकाबले में) कभी डोलता नहीं (अगर मेरे पर तेरी कृपा रहे तो) मुझे भी कोई चिन्ता-फिक्र नहीं छू सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकै एकै एक तूही ॥ एकै एकै तू राइआ ॥ तउ किरपा ते सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एकै एकै एक तूही ॥ एकै एकै तू राइआ ॥ तउ किरपा ते सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै = एक ही। राइआ = हे पातशाह! तउ = तेरी। ते = से।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु पातशाह! (हम जीवों का) सिर्फ एक तू ही (पति) है, तू ही है। तेरी मेहर से ही हम सुख हासिल करते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू सागरु हम हंस तुमारे तुम महि माणक लाला ॥ तुम देवहु तिलु संक न मानहु हम भुंचह सदा निहाला ॥२॥
मूलम्
तू सागरु हम हंस तुमारे तुम महि माणक लाला ॥ तुम देवहु तिलु संक न मानहु हम भुंचह सदा निहाला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। हम = हम जीव। महि = में, अंदर। माणक = मोती। तिलु = रक्ती भर भी। संक = शंका, झिझक। भुंचह = हम भोगते हैं। निहाला = प्रसन्न।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भुंचह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! तू समुंदर है, हम तेरे हंस हैं, तेरे (चरणों) में रह के (तेरी महिमा के) मोती और लाल प्राप्त करते हैं। (ये मोती-लाल) तू हमें देता है (हमारे अवगुणों की तरफ़ देख के) तू रक्ती भर भी झिझक नहीं करता। हम जीव वह मोती-लाल सदा प्रयोग करते है और प्रसन्न रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम बारिक तुम पिता हमारे तुम मुखि देवहु खीरा ॥ हम खेलह सभि लाड लडावह तुम सद गुणी गहीरा ॥३॥
मूलम्
हम बारिक तुम पिता हमारे तुम मुखि देवहु खीरा ॥ हम खेलह सभि लाड लडावह तुम सद गुणी गहीरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुँह में। खीरा = दूध। सभि = सारे। सद = सदा। गुणी = गुणों के मालिक। गहीरा = गहरा, गंभीर।3।
अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! हम जीव तेरे बच्चे हैं, तू हमारा पिता है, तू हमारे मुँह में दूध डालता है। (तेरी गोद में) हम खेलते हैं, सारे लाड करते हैं, तू गुणों का मालिक सदा गंभीर रहता है (हम बच्चों के अवगुणों की ओर नहीं देखता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम पूरन पूरि रहे स्मपूरन हम भी संगि अघाए ॥ मिलत मिलत मिलत मिलि रहिआ नानक कहणु न जाए ॥४॥६॥
मूलम्
तुम पूरन पूरि रहे स्मपूरन हम भी संगि अघाए ॥ मिलत मिलत मिलत मिलि रहिआ नानक कहणु न जाए ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन = सर्व व्यापक। पूरि रहे = हर जगह मौजूद है। संपूरन = मुकंमल तौर पर। संगि = (तेरे) साथ। अघाए = तृप्त हो गए। मिलत = मिलते हुए, मिलने का प्रयत्न करते हुए। मिलि रहिआ = (पूरी तरह से) मिल जाता है।4।
अर्थ: हे मेरे प्रभु-पातशाह! तू सर्व-व्यापक है, सम्पूर्ण तौर पर हर जगह मौजूद है, हम जीव भी तेरे चरणों में रह के (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं। हे नानक! (कह: प्रभु-पातशाह की मेहर से जो जीव उस प्रभु को) मिलने का प्रयत्न हर वक्त करता रहता है, वह हर वक्त उसे मिला रहता है, और, उस जीव की आत्मिक अवस्था का बयान नहीं किया जा सकता।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ कर करि ताल पखावजु नैनहु माथै वजहि रबाबा ॥ करनहु मधु बासुरी बाजै जिहवा धुनि आगाजा ॥ निरति करे करि मनूआ नाचै आणे घूघर साजा ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ कर करि ताल पखावजु नैनहु माथै वजहि रबाबा ॥ करनहु मधु बासुरी बाजै जिहवा धुनि आगाजा ॥ निरति करे करि मनूआ नाचै आणे घूघर साजा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर = हाथ। करि = (क्रिया) कर के, बनाके। ताल = छैणे। पखावजु = जोड़ी, तबला। नेनहु = आँखों को। माथै = (हरेक जीव के) माथे पर (लिखे लेख)। वजहि = बजते हैं। करनहु = कानों में। मधु = मधुर, मीठी। बासुरी = बाँसुरी। जिहवा = जीभ। धुनि = (ध्वनि) आवाज, लगन। आगाजा = गरजती है। निरति = नाच। करे करि = कर कर के। नाचै = नाचता है। निरति…नाचै = मन हर वक्त नाचता है। आणे = आणि, ला के, पहन के। घूघर = घुंघरू।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘करु’ है एकवचन और ‘कर’ बहुवचन (करु = एक हाथ )।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! (हरेक जीव के) माथे पर (लिखे लेख, मानो) रबाब बज रहे हैं, (हरेक जीव के) कानों में (माया ही कर स्रोत, जैसे) मीठी (सुर वाली) बाँसुरी बज रही है, (हरेक जीव को) जीभ का चस्का (मानो) राग बन गया है। (हाथ माया कमाने में लगे हुए हैं, आँखें मायावी पदार्थों को ही देख रही हैं)। (हरेक मनुष्य का) मन (रबाब, बाँसुरी आदि इन साजों से) (मनुष्य के) हाथों को छैणे बना के और आँखों को तबला बना के; (पिछले किए कर्मों के संस्कारों को) घुंघरू आदि साज बना के हर वक्त (माया के हाथ में) नाच रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम को निरतिकारी ॥ पेखै पेखनहारु दइआला जेता साजु सीगारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम को निरतिकारी ॥ पेखै पेखनहारु दइआला जेता साजु सीगारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = की। निरतकारी = नृत्यकारी, नाच। पेखै = देखता है। पेखनहारु = देखने की सामर्थ्य वाला। जेता = जितना ही, सारा ही। सीगारी = श्रृंगार।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जगत में) परमात्मा (की रची हुई रचना) का नाच हो रहा है। (इस नाच को) देखने की सामर्थ्य वाला दयावान प्रभु (नाच के) इस सारे साज-श्रृंगार को खुद देख रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखार मंडली धरणि सबाई ऊपरि गगनु चंदोआ ॥ पवनु विचोला करत इकेला जल ते ओपति होआ ॥ पंच ततु करि पुतरा कीना किरत मिलावा होआ ॥२॥
मूलम्
आखार मंडली धरणि सबाई ऊपरि गगनु चंदोआ ॥ पवनु विचोला करत इकेला जल ते ओपति होआ ॥ पंच ततु करि पुतरा कीना किरत मिलावा होआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखार मंडली = (नृत्यकारी वाला) आखाड़ा। धरणि = धरती। सबाई = सारी। गगनु = आकाश। पवनु = हवा, श्वास। विचोला = (जीवात्मा और शरीर का) मिलाप कराए रखने वाला। जल ते = पानी से, पिता की बूँद से। ओपति = उत्पक्ति। करि = कर के। पुतरा = शरीर, पुतला। किरत = (पिछले जन्मों के) किए कर्मों के अनुसार।2।
अर्थ: (हे भाई! सब जीवों के मनों के नाचने के लिए) सारी धरती अखाड़ा बनी हुई है, इसके ऊपर आकाश चंदोआ (चाँदनी) बन के तना हुआ है। (जो शरीर) पानी से पैदा होता है (उसका और जीवात्मा का) मिलाप कराए रखने वाला (हरेक जीव के अंदर चल रहा हरेक) श्वास है। पाँच तत्वों को मिला के (परमात्मा ने हरेक जीव का) शरीर बनाया हुआ है। (जीव के पिछले किए हुए) कर्मों के अनुसार शरीर का मिलाप प्राप्त होया हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदु सूरजु दुइ जरे चरागा चहु कुंट भीतरि राखे ॥ दस पातउ पंच संगीता एकै भीतरि साथे ॥ भिंन भिंन होइ भाव दिखावहि सभहु निरारी भाखे ॥३॥
मूलम्
चंदु सूरजु दुइ जरे चरागा चहु कुंट भीतरि राखे ॥ दस पातउ पंच संगीता एकै भीतरि साथे ॥ भिंन भिंन होइ भाव दिखावहि सभहु निरारी भाखे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुइ = दोनों। जरे = जल रहे हैं। चरागा = दीए। चहु कुंट भीतरि = सारी सृष्टि में। पातउ = पात्र। दस पातउ = दस पात्र, दस इंद्रिय। पंच = पांच (कामादिक)। संगीता = डूंम, संगीतकार। एकै भीतर = एक (शरीर) में ही। साथे = इकट्ठे, एक साथ। हुइ = हो के। भिंन = अलग। दिखावहि = दिखाते हैं। सभहु = सब में। निरारी = निराली, अलग। भाखे = बोली, प्रेरणा, कामना।3।
अर्थ: (हे भाई! नृत्यकारी वाले इस धरती-अखाड़े में) चाँद और सूरज, दो दीए जल रहे हैं, चारों तरफ (रौशनी देने के लिए) टिकाए हुए हैं। (हरेक जीव की) दस इंद्रिय और पाँचों (कामादिक) संगीतकार एक ही शरीर में इकट्ठे हैं। ये सारे अलग-अलग हो के अपने-अपने भाव (कलोल) दिखा रहे हैं, सब में अलग-अलग प्रेरणा (कामना) है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरि घरि निरति होवै दिनु राती घटि घटि वाजै तूरा ॥ एकि नचावहि एकि भवावहि इकि आइ जाइ होइ धूरा ॥ कहु नानक सो बहुरि न नाचै जिसु गुरु भेटै पूरा ॥४॥७॥
मूलम्
घरि घरि निरति होवै दिनु राती घटि घटि वाजै तूरा ॥ एकि नचावहि एकि भवावहि इकि आइ जाइ होइ धूरा ॥ कहु नानक सो बहुरि न नाचै जिसु गुरु भेटै पूरा ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक घर में, हरेक इन्द्रिय में। घटि घटि = हरेक शरीर में। तूरा = (माया का) बाजा। एकि = कई (माया के बाजे)। नचावहि = (जीवों को) नचाते हैं। भवावहि = भटकाते फिरते हैं। इकि = बेअंत जीव। होइ धूरा = मिट्टी हो के, ख्वार हो के। आइ = (आय) आ के। जाइ = (जाए) जा के, मर के। आइ जाइ = जनम मरण के चक्कर में पड़ के। नानक = हे नानक! बाहुरि = बार बार। जिसु भेटै = जिसे मिल जाता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! दिन-रात हरेक (जीव की हरेक) इन्द्रिय में ये नृत्य हो रहा है। हरेक शरीर में माया का बाजा बज रहा है। माया के कई बाजे जीव को नचा रहे हैं, कई बाजे जीव को भटकाते फिरते हैं, बेअंत जीव (इनके प्रभाव तहत) ख्वार हो हो के जनम-मरण के चक्कर में पड़ रहे हैं। हे नानक! कह: जिस जीव को पूरा गुरु मिल जाता है, वह (माया के हाथों में) बार बार नहीं नाचता।4।7।
[[0885]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ ओअंकारि एक धुनि एकै एकै रागु अलापै ॥ एका देसी एकु दिखावै एको रहिआ बिआपै ॥ एका सुरति एका ही सेवा एको गुर ते जापै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ ओअंकारि एक धुनि एकै एकै रागु अलापै ॥ एका देसी एकु दिखावै एको रहिआ बिआपै ॥ एका सुरति एका ही सेवा एको गुर ते जापै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै ओअंकारि = (केवल) एक परमात्मा में। एक धुनि = एक ही लगन, हर वक्त की तवज्जो, ध्यान। एकै रागु = एक (परमात्मा की महिमा) का रागु। अलापै = उचारता है। एका देसी = (सिर्फ) एक प्रभु के देश का वासी। एकु दिखावै = (और लोगों को भी) एक प्रभु के दर्शन कराता है। एको = एक परमात्मा ही। एकि सुरति = एक प्रभु का ही ध्यान। सेवा = भक्ति। गुर ते = गुरु से। जापै = जपता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर पर रास डालने वाला वह मनुष्य) सिर्फ एक परमात्मा (के चरणों) में लगन लगाए रखता है, सिर्फ परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है, केवल परमात्मा के चरणों में टिका रहता है, और लोगों को भी एक परमात्मा का उपदेश करता है, (उस रास-धारिए को) एक परमात्मा हर जगह बसता दिखाई देता है। उसकी तवज्जो सिर्फ परमात्मा में ही लगी रहती है, वह सिर्फ प्रभु की ही भक्ति करता है। गुरु से (शिक्षा ले के) वह सिर्फ परमात्मा का ही नाम जपता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भलो भलो रे कीरतनीआ ॥ राम रमा रामा गुन गाउ ॥ छोडि माइआ के धंध सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भलो भलो रे कीरतनीआ ॥ राम रमा रामा गुन गाउ ॥ छोडि माइआ के धंध सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! भलो कीरतनीआ = अच्छा कीर्तन। कीरतनीया = कीर्तन करने वाला रासधारी। रमा = सर्व व्यापक। गाउ = गाता है। सुआउ = स्वार्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य माया के धंधे छोड़ के, माया का स्वार्थ छोड़ के, सर्व व्यापक परमात्मा के गुण गाता है, वही है सबसे अच्छा रासधारी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच बजित्र करे संतोखा सात सुरा लै चालै ॥ बाजा माणु ताणु तजि ताना पाउ न बीगा घालै ॥ फेरी फेरु न होवै कब ही एकु सबदु बंधि पालै ॥२॥
मूलम्
पंच बजित्र करे संतोखा सात सुरा लै चालै ॥ बाजा माणु ताणु तजि ताना पाउ न बीगा घालै ॥ फेरी फेरु न होवै कब ही एकु सबदु बंधि पालै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बजित्र = बाजे, साज। संतोखा = सत संतोख दया आदि को। सात सुरा = सात (सा, रे, गा, मा, पा, धा, नी) सुरें। लै = लय, लीनता में, प्रभु चरणों में मगन रह के। चालै = चलता है, काम काज करता है। माणु ताणु = अहंकार, अपनी ताकत का भरोसा। तजि = त्यागता है। ताना = तान पलटा। बीगा = टेढ़ा। पाउ न बीगा घालै = टेढ़ा पैर नहीं रखता, बुरी तरफ नहीं जाता। फेरी = नृत्यकारी के वक्त चक्कर लेना, नाच करते हुए तेजी से घूमना, नृत्य चक्र। फेरु = जनम मरन का चक्कर। बंधि = बंधे, बाँधता है। पालै = पल्ले।2।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर का रासधारिया सत्य-) संतोष (आदि गुणों) को पाँच (किस्म के) साज बनाता है, प्रभु के चरणों में लीन रह के वह दुनिया के काम-काज करता है; यही उसके लिए (सा, रे, गा…आदि) सात सुर (का अलाप) हैं। वह मनुष्य अपनी ताकत का भरोसा त्यागता है; यही उसका बाजा (बजाना) है। वह मनुष्य गलत रास्ते पर पैर नहीं रखता- यही उसके लिए तान पल्टी (आलाप) है। वह मनुष्य गुरु के शब्द को अपने पल्ले से बाँध के रखता है (हृदय में बसाए रखता है। इस शब्द की इनायत से उसको फिर) कभी तनम-मरन के फेरे नहीं रहते- यही (रास डालने के वक्त) उसकी नृत्य-चक्र है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदी नरहर जाणि हदूरे ॥ घूंघर खड़कु तिआगि विसूरे ॥ सहज अनंद दिखावै भावै ॥ एहु निरतिकारी जनमि न आवै ॥३॥
मूलम्
नारदी नरहर जाणि हदूरे ॥ घूंघर खड़कु तिआगि विसूरे ॥ सहज अनंद दिखावै भावै ॥ एहु निरतिकारी जनमि न आवै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नारदी = नारद वाला नृत्य। परहर = परमात्मा। हदूरे = हाजिर नाजिर, अंग संग। घूंघर खड़कु = घुंघरूओं की खड़काहट। विसूर = चिन्ता फिक्र। सहज अनंद = आत्मिक अडोलता का आनंद। भावै = हाव भाव, कलोल। निरतकारी = नृत्य, नाच, मूर्ति की पूजा के समय नाच। जनमि = जनम में।3।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर का रासधारिया) परमात्मा को (सदा अपने) अंग-संग जानता है; यह है उसके लिए नारदी-भक्ति वाला नृत्य। (इस तरह) वह (दुनिया के सारे) चिन्ता-फिक्र त्याग देता है; यही है उसके लिए घुंघरूओं की झनकार। (प्रभु के दर का रासधारिया) आत्मिक अडोलता का सुख पाता है (मानो, वह) नृत्यकारी के तेवर दिखा रहा है। हे भाई! जो भी मनुष्य ये नृत्य करता है, वह जन्मों के चक्कर में नहीं पड़ता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को अपने ठाकुर भावै ॥ कोटि मधि एहु कीरतनु गावै ॥ साधसंगति की जावउ टेक ॥ कहु नानक तिसु कीरतनु एक ॥४॥८॥
मूलम्
जे को अपने ठाकुर भावै ॥ कोटि मधि एहु कीरतनु गावै ॥ साधसंगति की जावउ टेक ॥ कहु नानक तिसु कीरतनु एक ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। ठाकुर भावै = परमात्मा को प्यारा लगता है। कोटि मधि = करोड़ों में। जावउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। टेक = शरण। तिसु = उस (साधु-संगत) का। एक = एक ही टेक, एक ही आसरा।4।
अर्थ: हे भाई! अगर करोड़ों में कोई व्यक्ति अपने परमात्मा को प्यारा लगने लग जाता है, तब वह (प्रभु का) ये कीर्तन गाता है। हे नानक! कह: मैं तो साधु-संगत की शरण में पड़ता हूँ, क्योंकि साधु-संगत को कीर्तन ही (जिंदगी का) एक मात्र आसरा है।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ कोई बोलै राम राम कोई खुदाइ ॥ कोई सेवै गुसईआ कोई अलाहि ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ कोई बोलै राम राम कोई खुदाइ ॥ कोई सेवै गुसईआ कोई अलाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुसईआ = गोसाई। अलाइ = (अलाय) अल्ला।1।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य (परमात्मा का नाम) ‘राम राम’ उचारता है, कोई उसको ‘ख़ुदाय खुदाय’ कहता है। कोई मनुष्य उसको ‘गोसाई’ कह के उसकी भक्ति करता है, कोई ‘अल्ला’ कह के बँदगी करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारण करण करीम ॥ किरपा धारि रहीम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कारण करण करीम ॥ किरपा धारि रहीम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारण करण = जगत का कारण, जगत का मूल। करण = जगत। करमु = कृपा, बख्शिश। करीम = कृपा करने वाला। किरपा धारि = कृपा करने वाला। रहीम = रहम करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे सारे जगत के मूल! हे बख्शिंद! हे कृपालु! हे रहम करने वाले! (जीवों ने अपनी-अपनी धर्म-पुस्तकों की बोली के अनुसार तेरे अलग-अलग नाम रखे हुए हैं, पर तू सबका सांझा है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई नावै तीरथि कोई हज जाइ ॥ कोई करै पूजा कोई सिरु निवाइ ॥२॥
मूलम्
कोई नावै तीरथि कोई हज जाइ ॥ कोई करै पूजा कोई सिरु निवाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नावै = स्नान करता है। तीरथि = तीर्थ पर। हज जाइ = काबे के दर्शन करने जाता है। सिरु निवाइ = (सिर निवाय) सिर झुकाता है, नमाज पढ़ता है।2।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य किसी तीर्थ पर स्नान करता है, कोई मनुष्य (मक्के) हज करने के लिए जाता है। कोई मनुष्य (प्रभु की मूर्ति बना के) पूजा करता है, कोई नमाज़ पढ़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई पड़ै बेद कोई कतेब ॥ कोई ओढै नील कोई सुपेद ॥३॥
मूलम्
कोई पड़ै बेद कोई कतेब ॥ कोई ओढै नील कोई सुपेद ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कतेब = कुरान, अंजील आदि पश्चिमी धर्मों के धार्मिक ग्रंथ। ओढै = पहनता है। नील = नीले कपड़े। सुपेद = सफेद कपड़े।3।
अर्थ: हे भाई! कोई (हिन्दू) वेद आदि धर्म-पुस्तक पढ़ता है, कोई (मुसलमान आदि) कुरान अंजील आदि पढ़ता है। कोई (मुसलमान हो के) नीले कपड़े पहनता है, कोई (हिंदू) सफेद वस्त्र पहनता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई कहै तुरकु कोई कहै हिंदू ॥ कोई बाछै भिसतु कोई सुरगिंदू ॥४॥
मूलम्
कोई कहै तुरकु कोई कहै हिंदू ॥ कोई बाछै भिसतु कोई सुरगिंदू ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुरकु = मुसलमान। बाछै = मांगता है, चाहता है। भिसतु = बहिष्त, स्वर्ग। सुरगिंदू = स्वर्ग+इन्दू, इन्द्र देवते का स्वर्ग।4।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य कहता है ‘मैं मुसलमान हूँ’, कोई कहता है ‘मैं हिन्दू हूँ’। कोई मनुष्य (परमात्मा से) बहिष्त माँगता है, कोई स्वर्ग मांगता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिनि हुकमु पछाता ॥ प्रभ साहिब का तिनि भेदु जाता ॥५॥९॥
मूलम्
कहु नानक जिनि हुकमु पछाता ॥ प्रभ साहिब का तिनि भेदु जाता ॥५॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने।5।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने परमात्मा का हुक्म पहचाना है, उसने मालिक प्रभु का भेद पा लिया है (कि उसे कैसे प्रसन्न किया जा सकता है)।5।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ पवनै महि पवनु समाइआ ॥ जोती महि जोति रलि जाइआ ॥ माटी माटी होई एक ॥ रोवनहारे की कवन टेक ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ पवनै महि पवनु समाइआ ॥ जोती महि जोति रलि जाइआ ॥ माटी माटी होई एक ॥ रोवनहारे की कवन टेक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवनै महि = हवा में ही। पवनु = हवा, श्वास। समाइआ = समाया, मिल जाता है। कवन टेक = कौन सा आसरा? भुलेखे के कारण ही।1।
अर्थ: (हे भाई! जब हम ये समझते हैं कि कोई प्राणी मर गया है, दरअसल होता यह है कि उसके पँच-तत्वी शरीर में से) श्वास हवा में मिल जाते हैं, (शरीर की) मिट्टी (धरती की) मिट्टी के साथ मिल जाती है, जीवात्मा (सर्व-व्यापक) ज्योति से जा मिलती है। (मरे हुए को) रोने वाला भुलेखे के कारण ही रोता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउनु मूआ रे कउनु मूआ ॥ ब्रहम गिआनी मिलि करहु बीचारा इहु तउ चलतु भइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कउनु मूआ रे कउनु मूआ ॥ ब्रहम गिआनी मिलि करहु बीचारा इहु तउ चलतु भइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! कउनु मूआ = (दरअसल) कोई भी नहीं मरता। ब्रहम गिआनी = ब्रहमज्ञानी, परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला मनुष्य, गुरमुख, गुरु। मिलि = मिल के। तउ = तो। चलतु = चलित्र, खेल, तमाशा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (असल में) कोई भी जीवात्मा मरती नहीं, ये बात पक्की है। जो कोई गुरमुख परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है उसको मिल के (बेशक) विचार कर लो, (पैदा होने-मरने वाली तो) ये एक खेल बनी हुई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगली किछु खबरि न पाई ॥ रोवनहारु भि ऊठि सिधाई ॥ भरम मोह के बांधे बंध ॥ सुपनु भइआ भखलाए अंध ॥२॥
मूलम्
अगली किछु खबरि न पाई ॥ रोवनहारु भि ऊठि सिधाई ॥ भरम मोह के बांधे बंध ॥ सुपनु भइआ भखलाए अंध ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगली = आगे घटने वाली। ऊठि = उठ के। सिधाई = चला जाता है। बंध = बंधन। भखलाए = बड़ बड़ाता है। अंध = (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य।2।
अर्थ: (हे भाई! किसी के शरीरिक विछोड़े पर रोने वाला प्राणी उस समय) आगे की (हमेशा) बीतने वाली बात को नहीं समझता कि जो (अब किसी के विछुड़ने पर) रो रहा है (आखिर) उसने भी तो यहाँ से कूच कर जाना है। (हे भाई! जीवों को) भ्रम और मोह के बंधन बँधे हुए हैं, (जीवात्मा और शरीर का मिलाप तो सपने की तरह है, ये आखिर) सपना हो कर बीत जाता है, माया के मोह में अंधा हुआ जीव (व्यर्थ ही) बड़-बड़ाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु तउ रचनु रचिआ करतारि ॥ आवत जावत हुकमि अपारि ॥ नह को मूआ न मरणै जोगु ॥ नह बिनसै अबिनासी होगु ॥३॥
मूलम्
इहु तउ रचनु रचिआ करतारि ॥ आवत जावत हुकमि अपारि ॥ नह को मूआ न मरणै जोगु ॥ नह बिनसै अबिनासी होगु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करतारि = कर्तार ने। हुकमि = (प्रभु के) हुक्म में ही। अपारि हुकमि = कभी खत्म ना होने वाले हुक्म से (शब्द ‘अपारि’ और ‘हुकमि’ एक ही ‘कारक’ case में हैं)।3।
अर्थ: हे भाई! ये जगत तो कर्तार ने एक खेल रची हुई है। उस कर्तार के कभी समाप्त ना होने वाले हुक्म में ही जीव यहाँ आते रहते हैं और यहाँ से जाते रहते हैं। वैसे कोई भी जीवात्मा कभी मरती नहीं है, क्योंकि ये मरने-योग्य है ही नहीं। यह जीवात्मा कभी नाश नहीं होती, इसकी अस्लियत जो हमेशा कायम रहने वाली ही हुई।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो इहु जाणहु सो इहु नाहि ॥ जानणहारे कउ बलि जाउ ॥ कहु नानक गुरि भरमु चुकाइआ ॥ ना कोई मरै न आवै जाइआ ॥४॥१०॥
मूलम्
जो इहु जाणहु सो इहु नाहि ॥ जानणहारे कउ बलि जाउ ॥ कहु नानक गुरि भरमु चुकाइआ ॥ ना कोई मरै न आवै जाइआ ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जिस तरह का। जाणहु = तुम समझते हो। इहु = इस जीवात्मा को। सो = उस तरह का। कउ = को, से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। गुरि = गुरु ने। भरमु = भुलेखा। आवै = पैदा होता है। जाइआ = मरता है।4।
अर्थ: हे भाई! तुम इस जीवात्मा को जिस तरह का समझ रहे हो, वह उस तरह की नहीं है। मैं उस मनुष्य पर से बलिहार जाता हूँ, जिसने इस अस्लियत को समझ लिया है। हे नानक! कह: गुरु ने जिसका भुलेखा दूर कर दिया है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह बार-बार पैदा होता मरता नहीं।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ जपि गोबिंदु गोपाल लालु ॥ राम नाम सिमरि तू जीवहि फिरि न खाई महा कालु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ जपि गोबिंदु गोपाल लालु ॥ राम नाम सिमरि तू जीवहि फिरि न खाई महा कालु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तूं जीवहि = तू जीवित रहेगा, तुझे आत्मिक जीवन मिला रहेगा। महा कालु = भयानक आत्मिक मौत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद (का नाम) जपा कर, सुंदर गोपाल का नाम जपा कर। हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, (ज्यों ज्यों नाम सिमरेगा) तुझे उच्च आत्मिक दर्जा मिला रहेगा। भयानक आत्मिक मौत (तेरे आत्मिक जीवन को) फिर कभी खत्म नहीं कर सकेगी।1। रहाउ।
[[0886]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भ्रमि आइओ ॥ बडै भागि साधसंगु पाइओ ॥१॥
मूलम्
कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भ्रमि आइओ ॥ बडै भागि साधसंगु पाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमि भ्रमि भ्रमि = बार बार भटक भटक के। आइओ = तू (इस मनुष्य जन्म में) आया है। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। पाइओ = तूने हासिल किया है। साध संगु = गुरु का साथ।1।
अर्थ: हे भाई! (अनेक किस्म के) करोड़ों जन्मों में भटक के (अब तू मनुष्य जनम में) आया है, (और, यहाँ) बड़ी किस्मत से (तुझे) गुरु का साथ मिल गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गुर पूरे नाही उधारु ॥ बाबा नानकु आखै एहु बीचारु ॥२॥११॥
मूलम्
बिनु गुर पूरे नाही उधारु ॥ बाबा नानकु आखै एहु बीचारु ॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधारु = (करोड़ों जन्मों से) पार उतारा। बाबा = हे भाई! नानकु आखै = नानक बताता है।2।
अर्थ: हे भाई! नानक (तुझे) यह विचार की बात बताता है; पूरे गुरु की शरण पड़े बिना (अनेक जूनियों से) पार-उतारा नहीं हो सकता।2।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु रामकली महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु रामकली महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पुकारहि ना तू मानहि ॥ खटु भी एका बात वखानहि ॥ दस असटी मिलि एको कहिआ ॥ ता भी जोगी भेदु न लहिआ ॥१॥
मूलम्
चारि पुकारहि ना तू मानहि ॥ खटु भी एका बात वखानहि ॥ दस असटी मिलि एको कहिआ ॥ ता भी जोगी भेदु न लहिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि = चार वेद।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: गिनती बताने वाला शब्द ‘चारि’ सदा मात्रा ‘ि’ लगी होती है)।
दर्पण-भाषार्थ
पुकारहि = जोर दे के कहते हैं। खटु = छह शास्त्र। एका बात = (यही) एक बात। वखानहि = बयान करते हैं। दस असटी = अटारह पुराणों (असटी = अष्टी, आठ)। मिलि = मिल के। एको = एक ही (एकवचन)। जोगी = हे जोगी! भेदु = (हरेक के हृदय में बज रही सुरीली किंगरी का) भेद। लहिआ = मिल गया।1।
अर्थ: हे जोगी! चार वेद पुकार-पुकार के कह रहे हैं (कि) सभ जीवों में (परमात्मा की ज्योति-रूप सुंदर किंगरी हर जगह बज रही है) पर तू यकीन नहीं करता। हे जोगी! छह शास्त्र भी यही बात कह रहे हैं। अठारह पुराणों ने मिल के भी यही वचन किए हैं। पर हे जोगी! (हरेक के हृदय में बज रही सुंदर किंग का) भेद तूने नहीं समझा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंकुरी अनूप वाजै ॥ जोगीआ मतवारो रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किंकुरी अनूप वाजै ॥ जोगीआ मतवारो रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किंकुरी = किंगरी। अनूप = उपमा रहत, बेमिसाल, बहुत सुंदर। वाजै = (पहले ही) बज रही है। रे जोगीआ = हे जोगी! मतवारो = मतवाला, (अपनी किंगरी बजाने के लिए) मस्त।1। रहाउ।
अर्थ: (अपनी छोटी सी किंगरी बजाने में) मस्त हे जोगी! (देख, पहले ही) सुन्दर किंग बड़ी सुरीली बज रही है (हरेक जीव के हृदय में ईश्वरीय लहर चल रही है; यही है सुंदर किंग)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमे वसिआ सत का खेड़ा ॥ त्रितीए महि किछु भइआ दुतेड़ा ॥ दुतीआ अरधो अरधि समाइआ ॥ एकु रहिआ ता एकु दिखाइआ ॥२॥
मूलम्
प्रथमे वसिआ सत का खेड़ा ॥ त्रितीए महि किछु भइआ दुतेड़ा ॥ दुतीआ अरधो अरधि समाइआ ॥ एकु रहिआ ता एकु दिखाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रथमे = पहले (युग में) सतियुग में। खेड़ा = नगर। सत = दान। त्रितीए महि = त्रेते युग में। दुतेड़ा = दुफेड़ा, कमी। अरधो अरध = आधे आधे में। एकु रहिआ = (धर्म का सिर्फ) एक (पैर) रह गया। एकु = एक परमात्मा। दुतीआ = द्वापर युग।2।
अर्थ: (हे जोगी! तू यही समझता आ रहा है कि) पहले युग (सतियुग) में दान का नगर बसता था (भाव, दान करने का कर्म प्रधान था)। और त्रेते युग में (धर्म के अंदर) कुछ दरार आ गई (धरम-बैल की तीन लातें ही रह गई)। (हे जोगी! तूने यही यकीन बनाया हुआ है कि) द्वापर युग आधे में (आ के) टिक गया (भाव, द्वापर युग में धरम-बैल की दो लातें रह गई) और (अब जब कलियुग में धरम-बैल सिर्फ) एक (लात वाला हो के) रह गया है, तब (दान, तप, यज्ञ आदिक की जगह नाम-स्मरण का) एक ही (रास्ता मूर्ति-पूजा ने जीवों को) दिखाया है (पर, तुझे ये भुलेखा है कि एक परमात्मा के रचे हुए जगत में अलग-अलग युगों में अलग-अलग धर्म-आदर्श हो गए। परमात्मा की बनायी हुई मर्यादा हमेशा एक समान रहती है, उसमें कोई तब्दीली नहीं आती)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकै सूति परोए मणीए ॥ गाठी भिनि भिनि भिनि भिनि तणीए ॥ फिरती माला बहु बिधि भाइ ॥ खिंचिआ सूतु त आई थाइ ॥३॥
मूलम्
एकै सूति परोए मणीए ॥ गाठी भिनि भिनि भिनि भिनि तणीए ॥ फिरती माला बहु बिधि भाइ ॥ खिंचिआ सूतु त आई थाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै सूत = एक सूत्र में, एक ही धागे में, एक परमात्मा की चेतन सत्ता में। सूति = सूत्र में। गाठी = गाँठें, शक्लें, सख्शियतें। भिनि भिनि = भिन्न भिन्न, अलग अलग। तणीए = तनी हुई हैं। माला = संसार चक्र। बहु बिधि = कई तरीकों से। बहु भाइ = कई युक्तियों से। सूत = (माला का) धागा।, (जीवों में परमात्मा की चेतन सत्ता)। आई थाइ = (आई थाय), (सारी माला) एक जगह में आ जाती है (सारी सृष्टि एक परमात्मा में ही लीन हो जाती है)।3।
अर्थ: (देख, हे जोगी! जैसे माला के एक ही धागे में कई मणके परोए हुए होते हैं, और, उस माला को मनुष्य फेरता रहता है, वैसे ही) जगत के सारे जीव-मणके परमात्मा की सत्ता-रूप धागे में परोए हुए हैं (संसार-चक्र की) ये माला कई तरीकों से कई युक्तियों से फिरती रहती है। (जब परमात्मा अपना) सत्ता-रूप धागा (इस जगत-माला में से) खींच लेता है, तब (सारी माला एक ही) जगह में आ जाती है (सारी सृष्टि एक ही परमात्मा में लीन हो जाती है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चहु महि एकै मटु है कीआ ॥ तह बिखड़े थान अनिक खिड़कीआ ॥ खोजत खोजत दुआरे आइआ ॥ ता नानक जोगी महलु घरु पाइआ ॥४॥
मूलम्
चहु महि एकै मटु है कीआ ॥ तह बिखड़े थान अनिक खिड़कीआ ॥ खोजत खोजत दुआरे आइआ ॥ ता नानक जोगी महलु घरु पाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चहु महि = चारों (युगों) में। एकै मटु = एक (परमात्मा) का ही (जगत-) मठ।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जोगियों का निवास स्थान ‘मठ’ कहलाता है। ये जगत सारे जीव-जोगियों का निवास स्थान है)।
दर्पण-भाषार्थ
तह = इस (जगत मठ में)। बिखड़े = मुश्किल। अनिक खिड़किआ = (अनिक खिड़कियां), अनेक जूनें। दुआरे = (गुरु के) द्वार पर। नानक = हे नानक! जोगी = जोगी ने, प्रभु के चरणों में जुड़े मनुष्य ने। महलु = प्रभु का महल। घरु = प्रभु का घर। महलु घरु = प्रभु के चरणों में निवास।4।
अर्थ: (देख, हे जोगी! जोगियों के मठ की तरह ही ये जगत भी एक मठ है) चारों ही युगों में (हमेशा से ही) यह जगत-मठ एक (परमात्मा) का ही बनाया हुआ है। इस जगत-मठ में जीव को परेशान करने के लिए अनेक (विकार-रूपी) मुश्किल जगहें हैं (और विकारों में फंसे हुए जीवों के लिए) अनेक ही जूनियाँ हैं (जिनमें से जीवों को गुजरना पड़ता है, जैसे किसी घर की खिड़की में से गुजरते हैं) हे नानक! (कह: हे जोगी!) जब कोई मनुष्य (परमात्मा के देश की) तलाश करता-करता (गुरु के) दर पर आ पहुँचता है, तब प्रभु-चरणों में जुड़े उस मनुष्य को परमात्मा का महल परमात्मा का घर मिल जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इउ किंकुरी आनूप वाजै ॥ सुणि जोगी कै मनि मीठी लागै ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥१२॥
मूलम्
इउ किंकुरी आनूप वाजै ॥ सुणि जोगी कै मनि मीठी लागै ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इउ = इस तरह, (भाव, खोज करते हुए गुरु के दर पर पहुँच के)। सुणि = सुन के। कै मनि = के मन में। जोगी कै मनि = प्रभु चरणों में जुड़े मनुष्य के मन में।1। रहाउ दूजा।
अर्थ: (हे जोगी!) इस तरह खोज करते-करते गुरु के दर पर पहुँच के मनुष्य को समझ आ जाती है कि हरेक हृदय में (परमात्मा के चेतन-सत्ता की) सुंदर किंगुरी बज रही है। (यह सुंदर किंगरी बजती) सुन-सुन के परमात्मा के चरणों में जुड़े हुए मनुष्य के मन में (यह किंगरी) मीठी लगने लग जाती है।1। रहाउ दूजा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पहले ‘रहाउ’ की तुकों में ‘अनूप किंकुरी’ का वर्णन किया गया है। बंद 4 में गुरु के दर पर पहुँचने की ताकीद की गई है। ‘दूजे रहाउ’ में ये बताया गया है कि गुरु के दर पर पहुँचने से अपने अंदर रुमक रही लहर का आनंद आने लग जाता है।
आवश्यक नोट: ‘रहाउ’ की तुक में सारे शब्द का केन्द्रिय भाव है। पहले दो बंदों में किसी जोगी का ध्यान उसके अपने ही घार्मिक भुलेखों की तरफ दिलाया गया है। तीसरे चौथे छंद में सतिगुरु जी अपना मत प्रकट कर रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ तागा करि कै लाई थिगली ॥ लउ नाड़ी सूआ है असती ॥ अ्मभै का करि डंडा धरिआ ॥ किआ तू जोगी गरबहि परिआ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ तागा करि कै लाई थिगली ॥ लउ नाड़ी सूआ है असती ॥ अ्मभै का करि डंडा धरिआ ॥ किआ तू जोगी गरबहि परिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तागा = धागा (नाड़ियाँ)। करि कै = बना के। थिगली = टाकी (शरीर के अलग अलग अंग)। लउ = नगंदे, तरोपे। सूआ = सूई। असती = अस्थि, हड्डी। अंभै का = पानी का (रक्त बूँद का)। डंडा = (भाव, शरीर)। गरबहि = अहंकार में।1।
अर्थ: (हे जोगी! उस जगत-नाथ ने नाड़ियों को) धागा बना के (सारे शारीरिक अंगों की) टाकियाँ जोड़ दी हैं। (इस शरीर गोदड़ी की) नाड़ियां तरोपे का काम कर रही हैं, (और, शरीर की हरेक) हड्डी सुई का काम करती है। (उस ने माता-पिता की) रक्त-बूँद से (शरीर-) डंडा खड़ा कर दिया है। हे जोगी! तू (अपनी गोदड़ी का) भला क्या मान करता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि नाथु दिनु रैनाई ॥ तेरी खिंथा दो दिहाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि नाथु दिनु रैनाई ॥ तेरी खिंथा दो दिहाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाथु = (सारे संसार का) पति। रैनाई = रात। खिंथा = गुदड़ी (शरीर)। दो दिहाई = दो दिन कायम रहने वाली, नाशवान।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! तेरा ये शरीर दो दिनों का ही मेहमान है। दिन-रात (जगत के) नाथ-प्रभु का नाम जपा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहरी बिभूत लाइ बैठा ताड़ी ॥ मेरी तेरी मुंद्रा धारी ॥ मागहि टूका त्रिपति न पावै ॥ नाथु छोडि जाचहि लाज न आवै ॥२॥
मूलम्
गहरी बिभूत लाइ बैठा ताड़ी ॥ मेरी तेरी मुंद्रा धारी ॥ मागहि टूका त्रिपति न पावै ॥ नाथु छोडि जाचहि लाज न आवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहरी = संघनी। बिभूत = राख। लाइ = (लाय) लगा के। मेरी तेरी = मेर तेर में। मागहि = तू माँगता है। टूका = टुकड़े, रोटियां। त्रिपति = अघाना, तृप्ति। छोडि = छोड़ के। जाचहि = तू मांगता है। लाज = शर्म।2।
अर्थ: (हे जोगी! अपने शरीर पर) खूब सारी राख मल के तू समाधि लगा के बैठस हुआ है, तूने (कानों में) मुंद्राएं (भी) पहनी हुई हैं (पर तेरे अंदर) मेर-तेर बस रही है। हे जोगी! घर-घर से तू टुकड़े माँगता-फिरता है, तेरे अंदर शांति नहीं है। (सारे जगत के) नाथ को छोड़ के तू (लोगों के दर से) मांगता है। हे जोगी! तुझे (इस बात से) शर्म नहीं आती?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चल चित जोगी आसणु तेरा ॥ सिंङी वाजै नित उदासेरा ॥ गुर गोरख की तै बूझ न पाई ॥ फिरि फिरि जोगी आवै जाई ॥३॥
मूलम्
चल चित जोगी आसणु तेरा ॥ सिंङी वाजै नित उदासेरा ॥ गुर गोरख की तै बूझ न पाई ॥ फिरि फिरि जोगी आवै जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलचित जोगी = (चल+चिक्त) हे डोलते मन वाले जोगी! वाजै = बज रही है। उदासेरा = उदासी, उपराम, भटकता। गोरख = गोपाल (गो = धरती। रख = रक्षा करने वाला)। तै = तू। बूझ = समझ। फिरि = बार बार।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे डावाँडोल मन वाले जोगी! तेरा आसन (जमाना किसी अर्थ का नहीं अर्थात बेमतलब है)। (लोगों को दिखाने के लिए तेरी) सिंगी बज रही है, पर तेरा मन सदा भटकता फिरता है (ये सिंगी तो एकाग्रता के लिए थी)। हे जोगी! (इस तरह) उस सबसे बड़े गोरख (अर्थात जगत-रक्षक प्रभु) की तुझे समझ नहीं आई। (ऐसा) जोगी तो बार-बार जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो होआ नाथु क्रिपाला ॥ रहरासि हमारी गुर गोपाला ॥ नामै खिंथा नामै बसतरु ॥ जन नानक जोगी होआ असथिरु ॥४॥
मूलम्
जिस नो होआ नाथु क्रिपाला ॥ रहरासि हमारी गुर गोपाला ॥ नामै खिंथा नामै बसतरु ॥ जन नानक जोगी होआ असथिरु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहरासि = अरदास, आरजू। गुर = हे सबसे बड़े! गोपाला = हे सृष्टि के रक्षक! नामै = (तेरा) नाम ही। खिंथा = गुदड़ी। असथिरु = अडोल।4।
अर्थ: हे जोगी! जिस मनुष्य पर (सारे जगत का) नाथ दयावान होता है (वह मनुष्य परमात्मा के आगे ही विनती करता है, और कहता है:) हे गुर गोपाल! हमारी अरदास तेरे दर पर ही है। तेरा नाम ही मेरी गोदड़ी है, तेरा नाम ही मेरा (भगवा) कपड़ा है। हे दास नानक! (ऐसा मनुष्य असल) जोगी है, और वह कभी डोलता नहीं है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इउ जपिआ नाथु दिनु रैनाई ॥ हुणि पाइआ गुरु गोसाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२॥१३॥
मूलम्
इउ जपिआ नाथु दिनु रैनाई ॥ हुणि पाइआ गुरु गोसाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इउ = इस तरह। हुणि = अब, इसी जनम में। रहाउ दूजा।
अर्थ: हे जोगी! जिस मनुष्य ने दिन-रात इस तरह (जगत के) नाथ को स्मरण किया है, उसने इसी जन्म में सबसे बड़े जगत-नाथ का मिलाप हासिल कर लिया है।1। रहाउ दूजा।2।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पहले ‘रहाउ’ के शब्दों ‘जपि नाथु’ की व्याख्या अगले सारे बंदों में करके ‘दूसरे ‘रहाउ’ में कहते हैं ‘इउ जपिआ’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ करन करावन सोई ॥ आन न दीसै कोई ॥ ठाकुरु मेरा सुघड़ु सुजाना ॥ गुरमुखि मिलिआ रंगु माना ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ करन करावन सोई ॥ आन न दीसै कोई ॥ ठाकुरु मेरा सुघड़ु सुजाना ॥ गुरमुखि मिलिआ रंगु माना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा) ही। आन = (अन्य) दूसरा और। सुघड़ु = गंभीर। सुजाना = समझदार। गुरसिख = गुरु से। रंगु = आत्मिक आनंद। माना = भोगा, आनंद लिया।1।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा ही सब कुछ करने-योग्य है और (सबमें व्यापक हो के सब जीवों से) कराने वाला है। (कहीं भी) उसके बिना कोई दूसरा नहीं दिखता। हे भाई! मेरा वह मालिक प्रभु गंभीर स्वभाव वाला है और सबके दिल की जानने वाला है। गुरु के द्वारा, जिसको वह मिल जाता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद पाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसो रे हरि रसु मीठा ॥ गुरमुखि किनै विरलै डीठा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसो रे हरि रसु मीठा ॥ गुरमुखि किनै विरलै डीठा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! ऐसो = (भाव) आश्चर्य। किनै विरलै = किसी विरले ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का स्वाद आश्चर्य है, मीठा है। किसी विरले मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर उसका दर्शन किया है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल जोति अम्रितु हरि नाम ॥ पीवत अमर भए निहकाम ॥ तनु मनु सीतलु अगनि निवारी ॥ अनद रूप प्रगटे संसारी ॥२॥
मूलम्
निरमल जोति अम्रितु हरि नाम ॥ पीवत अमर भए निहकाम ॥ तनु मनु सीतलु अगनि निवारी ॥ अनद रूप प्रगटे संसारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमल = मल रहित। जोति = नूर। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला जल। अमर = अ+मर, जिसके ऊपर आत्मिक मौत अपना जोर ना डाल सके। निहकाम = वासना रहित। अगनि = (तृष्णा की) आग। निवारी = दूर कर दी। संसारी = संसार में।2।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का नूर मैल-रहित है, उसका नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल (अमृत) समझो। उस नाम-अमृत को पीते ही मनुष्य अटल आत्मिक जीवन वाले और वासना-रहित हो जाते हैं। उनका तन उनका मन शांत हो जाता है। परमात्मा (उनके अंदर से तृष्णा की) आग बुझा देता है। वे हर वक्त आनंद-भरपूर रहते हैं, और जगत में मशहूर हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ देवउ जा सभु किछु तेरा ॥ सद बलिहारि जाउ लख बेरा ॥ तनु मनु जीउ पिंडु दे साजिआ ॥ गुर किरपा ते नीचु निवाजिआ ॥३॥
मूलम्
किआ देवउ जा सभु किछु तेरा ॥ सद बलिहारि जाउ लख बेरा ॥ तनु मनु जीउ पिंडु दे साजिआ ॥ गुर किरपा ते नीचु निवाजिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देवउ = देऊँ। सद = सदा। बलिहारि = कुर्बान। जाउ = जाऊँ। बेरा = बारी। जीउ = जिंद, जीवात्मा। दे = दे के। साजिआ = पैदा किया। ते = साथ, से। नीचु = नीच, बुरा, नकारा। निवाजिआ = बड़प्पन दिया।3।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरा वह नाम-अमृत प्राप्त करने के लिए) मैं तेरे आगे क्या ला के रखूँ, कयोंकि (मेरे पास तो) सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। हे प्रभु! मैं तुझ पर से हमेशा ही लाखों बार बलिहार जाता हूँ। ये तन ये मन, ये जिंद ये शरीर दे के तूने मुझे पैदा किया है, और गुरु की मेहर से तूने मुझ नकारे को इज्जत दी हुई है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोलि किवारा महलि बुलाइआ ॥ जैसा सा तैसा दिखलाइआ ॥ कहु नानक सभु पड़दा तूटा ॥ हउ तेरा तू मै मनि वूठा ॥४॥३॥१४॥
मूलम्
खोलि किवारा महलि बुलाइआ ॥ जैसा सा तैसा दिखलाइआ ॥ कहु नानक सभु पड़दा तूटा ॥ हउ तेरा तू मै मनि वूठा ॥४॥३॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोलि = खोल के। किवारा = किवाड़। महलि = महल में। सा = थी। सभु = सारा। हउ = मैं। मै मनि = मेरे मन में। वूठा = आ बसा।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे प्रभु! मेरे मन के) किवाड़ खोल के तूने मुझे अपने चरणों में जोड़ लिया है, तूने मुझे साक्षात अपने दीदार बख्शे हैं। (तुझसे अलग रखने वाला मेरे अंदर से) सारा पर्दा अब टूट चुका है, अब तू मेरे मन में आ बसा है, मैं तेरा हो चुका हूँ।4।3।14।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु 2’ का ये तीसरा शब्द है। ‘महला ५’ के अब तक 15 शब्द हो चुके हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ सेवकु लाइओ अपुनी सेव ॥ अम्रितु नामु दीओ मुखि देव ॥ सगली चिंता आपि निवारी ॥ तिसु गुर कउ हउ सद बलिहारी ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ सेवकु लाइओ अपुनी सेव ॥ अम्रितु नामु दीओ मुखि देव ॥ सगली चिंता आपि निवारी ॥ तिसु गुर कउ हउ सद बलिहारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। मुखि = मुँह में। वेद = प्रकाश स्वरूप प्रभु का। निवारी = दूर की है। कउ = को, से। हउ = मैं। सद = सदा। बलिहारी = कुर्बान।1।
अर्थ: हे भाई! मैं उस गुरु से सदा सदके जाता हूँ, जिसने (मेरे अंदर से) सारी चिन्ता खुद (मेहर करके) दूर कर दी है, जिसने प्रकाश-रूप प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम (जपने के लिए) मेरे मुँह में दिया है, जिसने (मुझे अपना) सेवक (बना के) अपनी (इस) सेवा में लगाया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काज हमारे पूरे सतगुर ॥ बाजे अनहद तूरे सतगुर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काज हमारे पूरे सतगुर ॥ बाजे अनहद तूरे सतगुर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरु! बाजे = बज रहे हैं। अनहद = एक रस, लगातार। तूरे = बाजे।1। रहाउ।
अर्थ: हे सतिगुरु! तूने मेरे सारे काम सिरे चढ़ा दिए हैं (तेरी मेहर से मैं बे-गर्ज हो गया हूँ)। हे सतिगुरु! (अब ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे मेरे अंदर) एक-रस (खुशी के) बाजे बज रहे हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महिमा जा की गहिर ग्मभीर ॥ होइ निहालु देइ जिसु धीर ॥ जा के बंधन काटे राइ ॥ सो नरु बहुरि न जोनी पाइ ॥२॥
मूलम्
महिमा जा की गहिर ग्मभीर ॥ होइ निहालु देइ जिसु धीर ॥ जा के बंधन काटे राइ ॥ सो नरु बहुरि न जोनी पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। गहिर = गहरी। गंभीर = गहरी। होइ निहालु = पूरन तौर पर प्रसन्न हो जाता है। देइ = (देय) देता है। धीर = धीरज। राइ = (राय) प्रभु पातशाह ने। बहुरि = फिर, दोबारा। न पाइ = (न पाय) नही पड़ता।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की महिमा बेअंत अथाह है, वह जिस (मनुष्य) को धैर्य बख्शता है, वह व्यक्ति रोम-रोम प्रसन्न हो जाता है। वह प्रभु-पातशाह जिस मनुष्य के (माया के) बंधन काट देता है, वह मनुष्य दोबारा जन्मों के चक्र में नहीं पड़ता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै अंतरि प्रगटिओ आप ॥ ता कउ नाही दूख संताप ॥ लालु रतनु तिसु पालै परिआ ॥ सगल कुट्मब ओहु जनु लै तरिआ ॥३॥
मूलम्
जा कै अंतरि प्रगटिओ आप ॥ ता कउ नाही दूख संताप ॥ लालु रतनु तिसु पालै परिआ ॥ सगल कुट्मब ओहु जनु लै तरिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै अंतरि = जिसके अंदर। ता कउ = उस (मनुष्य) को। संताप = कष्ट। तिसु पालै = उसके पल्ले में। तिसु पालै परिआ = उसको मिल जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा खुद जिस मनुष्य के हृदय में अपना प्रकाश करता है, उसको कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकता। उस मनुष्य को प्रभु का नाम-लाल मिल जाता है, नाम-रतन मिल जाता है। वह मनुष्य अपने सारे परिवार को (भी अपने साथ) लेकर संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना किछु भरमु न दुबिधा दूजा ॥ एको एकु निरंजन पूजा ॥ जत कत देखउ आपि दइआल ॥ कहु नानक प्रभ मिले रसाल ॥४॥४॥१५॥
मूलम्
ना किछु भरमु न दुबिधा दूजा ॥ एको एकु निरंजन पूजा ॥ जत कत देखउ आपि दइआल ॥ कहु नानक प्रभ मिले रसाल ॥४॥४॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमु = भटकना। दुबिधा = दुचिक्ता पन। दूजा = मेर तेर। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया के मोह की कालिख) माया के प्रभाव से परे रहने वाला। जत कत = जिधर किधर, हर तरफ। देखउ = देखूँ। रसाल = (रस+आलय) आनंद का श्रोत।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सिर्फ एक माया से निर्लिप प्रभु की बँदगी करता है, उसको कोई भटकना नहीं रहती, उसके अंदर दुचिक्ता-पन नहीं रह जाता, उसके दिल में मेर-तेर नहीं होती। हे नानक! कह: (गुरु की कृपा से मुझे) आनंद के श्रोत प्रभु जी मिल गए हैं, अब मैं जिधर-किधर देखता हूँ, मुझे वह दया का घर प्रभु ही दिखाई दे रहा है।4।4।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ तन ते छुटकी अपनी धारी ॥ प्रभ की आगिआ लगी पिआरी ॥ जो किछु करै सु मनि मेरै मीठा ॥ ता इहु अचरजु नैनहु डीठा ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ तन ते छुटकी अपनी धारी ॥ प्रभ की आगिआ लगी पिआरी ॥ जो किछु करै सु मनि मेरै मीठा ॥ ता इहु अचरजु नैनहु डीठा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। तन ते = शरीर में से। छुटकी = खत्म हो गई। धारी = धार ली। अपनी धारी = ये मान लिया कि ये शरीर मेरा बना रहेगा। आगिआ = आज्ञा, रजा। करै = करता है। मनि मेरै = मेरे मन में। तां = तब। नैनहु = आँखों से, प्रत्यक्ष।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की किरपा से) मेरे शरीर में से ये भुलेखा समाप्त हो गया है कि ये शरीर मेरा है, ये शरीर मेरा है। अब मुझे परमात्मा की रजा मीठी लगने लग गई है। जो कुछ परमात्मा करता है, वह (अब) मेरे मन को मीठा लग रहा है। (इस आत्मिक तब्दीली का) ये आश्चर्यजनक तमाशा मैंने प्रत्यक्ष देख लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मोहि जानी रे मेरी गई बलाइ ॥ बुझि गई त्रिसन निवारी ममता गुरि पूरै लीओ समझाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब मोहि जानी रे मेरी गई बलाइ ॥ बुझि गई त्रिसन निवारी ममता गुरि पूरै लीओ समझाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। रे = हे भाई! बलाइ = (बलाय) चिपकी हुई बिपता। त्रिसन = माया की लालच की आग। निवारी = दूर कर दी है। ममता = अपनत्व, माया का मोह। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अब मैंने (आत्मिक जीवन की मर्यादा) समझ ली है, मेरे अंदर से (चिरों से चिपकी हुई ममता की) डायन निकल गई है। पूरे गुरु ने मुझे (जीवन की) सूझ बख्श दी है। (मेरे अंदर से) माया के लालच की आग बुझ गई है, गुरु ने मेरा माया का मोह दूर कर दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा राखिओ गुरि सरना ॥ गुरि पकराए हरि के चरना ॥ बीस बिसुए जा मन ठहराने ॥ गुर पारब्रहम एकै ही जाने ॥२॥
मूलम्
करि किरपा राखिओ गुरि सरना ॥ गुरि पकराए हरि के चरना ॥ बीस बिसुए जा मन ठहराने ॥ गुर पारब्रहम एकै ही जाने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = करके। गुरि = गुरु ने। बीस बिसुए = बीस बिसवे, सोलह आने, पूरी तौर पर।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु ने मेहर करके मुझे अपनी शरण में रखा हुआ है। गुरु ने प्रभु के चरण पकड़ा दिए हैं। अब जब मेरा मन पूरे तौर पर ठहर गया है, (टिक गया है), मुझे गुरु और परमात्मा एक-रूप दिखाई दे रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो कीनो हम तिस के दास ॥ प्रभ मेरे को सगल निवास ॥ ना को दूतु नही बैराई ॥ गलि मिलि चाले एकै भाई ॥३॥
मूलम्
जो जो कीनो हम तिस के दास ॥ प्रभ मेरे को सगल निवास ॥ ना को दूतु नही बैराई ॥ गलि मिलि चाले एकै भाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो जो = जो जो प्राणी। सगल = सारे जीवों में। दूतु = दुखदाई, दुश्मन। बैराई = वैरी। गलि = गले से। मिलि = मिल के।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘को’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! गुरु की किरपा से मुझे दिखाई दे गया है कि) सारे ही जीवों में मेरे परमात्मा का निवास है, (इसलिए) जो जो जीव परमात्मा ने पैदा किया है, मैं हरेक का सेवक बन गया हूँ। मुझे कोई भी जीव अपना वैरी दुश्मन नहीं दिखता। अब मैं सबके गले से मिलकर चलता हूँ (जैसे हम) एक ही पिता (के पुत्र) भाई हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ गुरि हरि दीए सूखा ॥ ता कउ बहुरि न लागहि दूखा ॥ आपे आपि सरब प्रतिपाल ॥ नानक रातउ रंगि गोपाल ॥४॥५॥१६॥
मूलम्
जा कउ गुरि हरि दीए सूखा ॥ ता कउ बहुरि न लागहि दूखा ॥ आपे आपि सरब प्रतिपाल ॥ नानक रातउ रंगि गोपाल ॥४॥५॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। बहुरि = दोबारा। रातउ = रंगा हुआ (अन्न पुरख एकवचन)। रंगि = रंग में।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु ने प्रभु ने (ये) सुख दे दिए, उस पर दुख दोबारा अपना जोर नहीं डाल सकते। (उसको ये दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही सबकी पालना करने वाला है। वह मनुष्य सृष्टि के रक्षक प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता है।4।5।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ मुख ते पड़ता टीका सहित ॥ हिरदै रामु नही पूरन रहत ॥ उपदेसु करे करि लोक द्रिड़ावै ॥ अपना कहिआ आपि न कमावै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ मुख ते पड़ता टीका सहित ॥ हिरदै रामु नही पूरन रहत ॥ उपदेसु करे करि लोक द्रिड़ावै ॥ अपना कहिआ आपि न कमावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। मुख ते = मुँह से। टीका सहित = अर्थों समेत। हिरदै = हृदय में। रहत = रहिणी, आचरण। करि = कर के। द्रिढ़ावै = दृढ़ कराता है, पक्का निश्चय दिलवाता है।1।
अर्थ: (जो मनुष्य धर्म-पुस्तकों को) मुंह से अर्थों समेत पढ़ता है, पर उसके हृदय में परमात्मा नहीं बसता, ना ही उसका रहन-सहन बेदाग़ है, और लोगों को (धर्म-पुस्तकों का) उपदेश करता है (और उपदेश) करके उनके मन में (वह उपदेश) पक्की तरह दृढ़ करवाता है, पर अपना ये बताया हुआ उपदेश खुद नहीं कमाता (उसको पण्डित नहीं कहा जा सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडित बेदु बीचारि पंडित ॥ मन का क्रोधु निवारि पंडित ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पंडित बेदु बीचारि पंडित ॥ मन का क्रोधु निवारि पंडित ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंडित = हे पंडित! बीचारि = सोच मण्डल में टिकाए रख, मन में बसाए रख। निवारि = दूर कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे पण्डित! वेद (आदि धर्म-पुस्तकों के उपदेश) को (अपने) मन में बसाए रख, और अपने मन का गुस्सा दूर कर दे।1। रहाउ।
[[0888]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगै राखिओ साल गिरामु ॥ मनु कीनो दह दिस बिस्रामु ॥ तिलकु चरावै पाई पाइ ॥ लोक पचारा अंधु कमाइ ॥२॥
मूलम्
आगै राखिओ साल गिरामु ॥ मनु कीनो दह दिस बिस्रामु ॥ तिलकु चरावै पाई पाइ ॥ लोक पचारा अंधु कमाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै = अपने सामने। राखिओ = रखा हुआ है। सालगिरामु = ठाकुर की मूर्ति। दह दिस = दसों दिशाओं में। चरावै = माथे पर लगाता है। पाई = पैरों पर। पाइ = (पाय) पड़ता है। पचारा = परचाने का काम। अंधु = अंधा मनुष्य।2।
अर्थ: (आत्मिक जीवन से) अंधा (मनुष्य) सालिग्राम की मूर्ति अपने आगे रख लेता है, पर उसका मन दसों दिशाओं में भटक रहा है। अंधा (मनुष्य अपने माथे पर) तिलक लगाता है, (मूर्ति के) पैरों पर (भी) पड़ता है। पर ये सब कुछ वह सिर्फ दुनिया को रिझाने के लिए ही करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खटु करमा अरु आसणु धोती ॥ भागठि ग्रिहि पड़ै नित पोथी ॥ माला फेरै मंगै बिभूत ॥ इह बिधि कोइ न तरिओ मीत ॥३॥
मूलम्
खटु करमा अरु आसणु धोती ॥ भागठि ग्रिहि पड़ै नित पोथी ॥ माला फेरै मंगै बिभूत ॥ इह बिधि कोइ न तरिओ मीत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खटु करमा = शास्त्रों में बताए हुए छह धार्मिक कर्म (दान देना और लेना, यज्ञ करना और करवाना, विद्या पढ़नी और पढ़ानी)। अरु = अते। भागठि = भाग्यशाली मनुष्य, धनाढ। ग्रिहि = घर में। बिभूत = धन। मीत = हे मित्र!।3।
अर्थ: (आत्मिक जीवन से अंधा मनुष्य शास्त्रों में बताए हुए) छह धार्मिक कर्म करता है, (देव पूजा करने के लिए उसने ऊन आदि का) आसन (भी रखा हुआ है, पूजा करने के वक्त) धोती (भी पहनता है), किसी धनाढ के घर (जा के) सदा (अपनी धार्मिक) पुस्तक भी पढ़ता है, (उसके घर बैठ के) माला फेरता है, (फिर उस धनाढ से) धन-पदार्थ माँगता है - हे मित्र! इस तरीके से कोई मनुष्य कभी संसार-समुंदर से पार नहीं हुआ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो पंडितु गुर सबदु कमाइ ॥ त्रै गुण की ओसु उतरी माइ ॥ चतुर बेद पूरन हरि नाइ ॥ नानक तिस की सरणी पाइ ॥४॥६॥१७॥
मूलम्
सो पंडितु गुर सबदु कमाइ ॥ त्रै गुण की ओसु उतरी माइ ॥ चतुर बेद पूरन हरि नाइ ॥ नानक तिस की सरणी पाइ ॥४॥६॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदु कमाइ = (शब्द कमाय) शब्द के अनुसार जीवन ढालता है। ओसु = उस मनुष्य की। उतरी = उतर जाती है। त्रै गुण की माइ = तीन गुण वाली माया। चतुर = चार। नाइ = (नाय) नाम में। पाइ = (पाय) पड़ता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वह मनुष्य (ही) पण्डित है जो गुरु के शब्द के अनुसार अपना जीवन ढालता है। तीन गुणों वाली ये माया उस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकती। उसकी बाबत तो परमात्मा के नाम में (ही) चारों वेद पूरी तरह से आ जाते हैं। हे नानक! (कह: कोई भाग्यशाली मनुष्य) उस (पण्डित) की शरण पड़ता है।4।6।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ कोटि बिघन नही आवहि नेरि ॥ अनिक माइआ है ता की चेरि ॥ अनिक पाप ता के पानीहार ॥ जा कउ मइआ भई करतार ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ कोटि बिघन नही आवहि नेरि ॥ अनिक माइआ है ता की चेरि ॥ अनिक पाप ता के पानीहार ॥ जा कउ मइआ भई करतार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। बिघन = रुकावटें। नेरि = नजदीक। ता की = उसकी। चेरि = चेरी, दासी। पानीहार = पानी भरने वाले। मइआ करतार = (मया कर्तार) कर्तार की दया।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर कर्तार की मेहर होती है, (जगत के) अनेक विकार उसका पानी भरने वाले बन जाते हैं (उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते), अनेक (तरीकों से मोहने वाली) माया उसकी दासी बनी रहती है, (जीवों की जिंदगी के राह में आने वाली) करोड़ों रुकावटें उसके नजदीक नहीं आती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसहि सहाई होइ भगवान ॥ अनिक जतन उआ कै सरंजाम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिसहि सहाई होइ भगवान ॥ अनिक जतन उआ कै सरंजाम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहाई = मददगार। उआ कै = उसके घर में। सरंजाम = सफल (फारसी)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मददगार परमात्मा (खुद) बनता है, उसके घर में (उसके) अनेक उद्यम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करता राखै कीता कउनु ॥ कीरी जीतो सगला भवनु ॥ बेअंत महिमा ता की केतक बरन ॥ बलि बलि जाईऐ ता के चरन ॥२॥
मूलम्
करता राखै कीता कउनु ॥ कीरी जीतो सगला भवनु ॥ बेअंत महिमा ता की केतक बरन ॥ बलि बलि जाईऐ ता के चरन ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीता = पैदा किया हुआ जीव। कउनु = क्या बेचारा? कीरी = कीड़ी। भवनु = जगत। महिमा = बड़ाई। केतक = कितनी? बरन = बयान की जाए। बलि बलि = सदके, कुर्बान।2।
अर्थ: हे भाई! कर्तार जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसका पैदा किया हुआ जीव उस मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। (अगर कर्तार की मेहर हो, तो) कीड़ी (भी) सारे जगत को जीत लेती है। हे भाई! उस कर्तार की बेअंत महिमा है। कितनी बयान की जाए? उसके चरणों से सदा बलिहार जाना चाहिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन ही कीआ जपु तपु धिआनु ॥ अनिक प्रकार कीआ तिनि दानु ॥ भगतु सोई कलि महि परवानु ॥ जा कउ ठाकुरि दीआ मानु ॥३॥
मूलम्
तिन ही कीआ जपु तपु धिआनु ॥ अनिक प्रकार कीआ तिनि दानु ॥ भगतु सोई कलि महि परवानु ॥ जा कउ ठाकुरि दीआ मानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिन ही = तिनि ही, उस मनुष्य ने ही। तिनि = उस ने। कलि महि = (भाव) जगत में। ठाकुरि = ठाकुर ने। मानु = आदर।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को मालिक प्रभु ने आदर बख्शा, वही असल भक्त है, वही जगत में जाना-माना जाता है। उसी मनुष्य ने जप किया समझो, उसी मनुष्य ने तपसाधा जानो, उसी मनुष्य ने समाधि लगाई समझो, उसी मनुष्य ने अनेक किस्म के दान दिए जानो (वही असल जपी है, वही असल तपी है, वही असल जोगी है, वही असल दानी है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि मिलि भए प्रगास ॥ सहज सूख आस निवास ॥ पूरै सतिगुरि दीआ बिसास ॥ नानक होए दासनि दास ॥४॥७॥१८॥
मूलम्
साधसंगि मिलि भए प्रगास ॥ सहज सूख आस निवास ॥ पूरै सतिगुरि दीआ बिसास ॥ नानक होए दासनि दास ॥४॥७॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। मिलि = मिल के। प्रगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। सहज निवास = आत्मिक अडोलता का ठिकाना। सूख निवास = सुखों का श्रोत। आस निवास = आशाओं का पूरक। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बिसास = विश्वास, भरोसा, निश्चय। दासनि दास = दासों के दास।4।
अर्थ: हे नानक! पूरे गुरु ने जिस मनुष्यों को ये बात दृढ़ करवा दी कि परमात्मा आत्मिक अडोलता और सुखों का श्रोत है, परमात्मा ही सब की आशाएं पूरी करने वाला है, गुरु की संगति में मिल के उन मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, वह मनुष्य प्रभु के दासों के दास बने रहते हैं।4।7।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ दोसु न दीजै काहू लोग ॥ जो कमावनु सोई भोग ॥ आपन करम आपे ही बंध ॥ आवनु जावनु माइआ धंध ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ दोसु न दीजै काहू लोग ॥ जो कमावनु सोई भोग ॥ आपन करम आपे ही बंध ॥ आवनु जावनु माइआ धंध ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहू लोग = किसी प्राणी को। भोग = फल मिलता है। बंध = बंधन। आवनु जावनु = जनम मरन का चक्र। धंध = धंधे।1।
अर्थ: (हे भाई! उन संत जनों ने यूँ समझा है कि अपनी मुश्किल के बारे में) किसी और प्राणी को दोष नहीं देना चाहिए। मनुष्य जो कर्म कमाता है, उसी का ही फल भोगता है। अपने किए कर्मों (के संस्कारों) के अनुसार मनुष्य खुद ही (माया के) बंधनों में (जकड़ा रहता है), माया के धंधों के कारण जनम-मरण का चक्र बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी जानी संत जनी ॥ परगासु भइआ पूरे गुर बचनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी जानी संत जनी ॥ परगासु भइआ पूरे गुर बचनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसी = एसी (जीवन जुगति)। जनी = जनों ने। परगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। बचनी = वचन से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु के वचन पर चल के (जिस मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया, उन संत जनों ने (जीवन-जुगति को) इस तरह समझा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु धनु कलतु मिथिआ बिसथार ॥ हैवर गैवर चालनहार ॥ राज रंग रूप सभि कूर ॥ नाम बिना होइ जासी धूर ॥२॥
मूलम्
तनु धनु कलतु मिथिआ बिसथार ॥ हैवर गैवर चालनहार ॥ राज रंग रूप सभि कूर ॥ नाम बिना होइ जासी धूर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलतु = कलत्र, स्त्री। मिथिआ = नाशवान। बिसथार = (मोह का) विस्तार, पसारा। हैवर = बढ़िया घोड़े। गैवर = बढ़िया हाथी। सभि = सारे। कूर = झूठ, नाशवान। होइ जासी = हो जाएगा। धूर = मिट्टी।2।
अर्थ: हे भाई! शरीर, धन, पत्नी- (मोह के ये सारे) पसारे नाशवान हैं। बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी- ये भी नाशवान हैं। दुनियां की बादशाहियाँ, रंग-तमाशे और सुंदर नुहारें- ये भी सारे झूठे पसारे हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना हरेक चीज़ मिट्टी हो जाएगी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरमि भूले बादि अहंकारी ॥ संगि नाही रे सगल पसारी ॥ सोग हरख महि देह बिरधानी ॥ साकत इव ही करत बिहानी ॥३॥
मूलम्
भरमि भूले बादि अहंकारी ॥ संगि नाही रे सगल पसारी ॥ सोग हरख महि देह बिरधानी ॥ साकत इव ही करत बिहानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। भूले = गलत रास्ते पड़े हुए। बादि = व्यर्थ। रे = हे भाई! हरख = हर्ष, खुशी। देह = शरीर। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। इव ही = इसी तरह। बिहानी = बीत जाती है।3।
अर्थ: हे भाई! जिस पदार्थों की खातिर मनुष्य भटकना में पड़ कर जीवन के गलत रास्ते पर पड़ जाते हैंऔर व्यर्थ माण करते हैं, वह सारे पसारे किसी के साथ नहीं जा सकते। कभी खुशी में, ग़मी में, (ऐसे ही) शरीर बुड्ढा हो जाता है। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की उम्र इस तरह से ही बीत जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु अम्रितु कलि माहि ॥ एहु निधाना साधू पाहि ॥ नानक गुरु गोविदु जिसु तूठा ॥ घटि घटि रमईआ तिन ही डीठा ॥४॥८॥१९॥
मूलम्
हरि का नामु अम्रितु कलि माहि ॥ एहु निधाना साधू पाहि ॥ नानक गुरु गोविदु जिसु तूठा ॥ घटि घटि रमईआ तिन ही डीठा ॥४॥८॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। कलि माहि = जगत में। निधाना = खजाना। साधू‘ = गुरु। पासि = पास। तूठा = प्रसन्न हुआ। घटि घटि = हरेक शरीर में। तिन ही = उस ने ही।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जगत में परमात्मा का नाम ही आत्मिक जीवन देने वाला (पदार्थ) है। ये खजाना गुरु के पास है। हे नानक! जिस मनुष्य पर गुरु प्रसन्न होता है, परमात्मा प्रसन्न होता है, उसी मनुष्य ने सुंदर प्रभु को हरेक शरीर में देखा है।4।8।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ पंच सबद तह पूरन नाद ॥ अनहद बाजे अचरज बिसमाद ॥ केल करहि संत हरि लोग ॥ पारब्रहम पूरन निरजोग ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ पंच सबद तह पूरन नाद ॥ अनहद बाजे अचरज बिसमाद ॥ केल करहि संत हरि लोग ॥ पारब्रहम पूरन निरजोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच सबद = पाँच किस्मों के साज़ (तंती, चमड़े, धात, घड़ा व फूक मार के बजाने वाले, ये पांच)। तह = उस आत्मिक अवस्था में। नाद = आवाज़। पूरन नाद = घनघोर आवाज। अनहद = बिना बजाए बज रहे, अनहत्। बिसमाद = हैरानी पैदा करने वाली अवस्था। केल = आत्मिक आनंद, कलोल। केल करहि = आत्मिक आनंद पाते हैं। निरजोग = निर्लिप।1।
अर्थ: हे भाई! उस आत्मिक अवस्था में (ऐसा प्रतीत होता है जैसे) पाँच किस्मों के साजों की घनघोर आवाज़ हो रही है, (जैसे मनुष्य के अंदर) एक-रस बाजे बज रहे हैं। वह अवस्था आश्चर्य और हैरानी पैदा करने वाली होती है। (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से) निर्लिप और सर्व-व्यपाक प्रभु के संतजन (उस अवस्था में पहुँच के) आत्मिक आनंद लेते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूख सहज आनंद भवन ॥ साधसंगि बैसि गुण गावहि तह रोग सोग नही जनम मरन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सूख सहज आनंद भवन ॥ साधसंगि बैसि गुण गावहि तह रोग सोग नही जनम मरन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। भवन = असथान। साधसंगि = गुरु की संगति में। बैसि = बैठ के। तह = उस अवस्था में। सोग = शोक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में बैठ के (परमात्मा के) गुण गाते रहते हैं,वह मनुष्य आत्मिक अडोलता, आत्मिक सुख आनंद की अवस्था हासिल कर लेते हैं। उस आत्मिक अवस्था में कोई रोग, कोई ग़म, कोई जनम-मरण का चक्कर नहीं व्यापता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊहा सिमरहि केवल नामु ॥ बिरले पावहि ओहु बिस्रामु ॥ भोजनु भाउ कीरतन आधारु ॥ निहचल आसनु बेसुमारु ॥२॥
मूलम्
ऊहा सिमरहि केवल नामु ॥ बिरले पावहि ओहु बिस्रामु ॥ भोजनु भाउ कीरतन आधारु ॥ निहचल आसनु बेसुमारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊहा = वहाँ, उस आत्मिक अवस्था में। केवल = सिर्फ। ओहु बिस्राम = वह आत्मिक ठिकाना। भाउ = प्रेम। आधारु = आसरा। निहचल = ना डोलने वाला। बेसुमारु = बेशुमार, अंदाजे से परे।2।
अर्थ: हे भाई! उस आत्मिक अवस्था में (पहुँचे हुए संत जन) सिर्फ (हरि-) नाम स्मरण करते रहते हैं। पर, ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था विरले मनुष्यों को हासिल होती है। हे भाई! उस अवस्था में प्रभु-प्रेम ही मनुष्य की आत्मिक खुराक हो जाती है, आत्मिक जीवन के लिए मनुष्य को सिफत्सालाह का सहारा होता है। हे भाई! उस आत्मिक अवस्था का आसन (माया के आगे) कभी डोलता नहीं। वह अवस्था कैसी है; इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2।
[[0889]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
डिगि न डोलै कतहू न धावै ॥ गुर प्रसादि को इहु महलु पावै ॥ भ्रम भै मोह न माइआ जाल ॥ सुंन समाधि प्रभू किरपाल ॥३॥
मूलम्
डिगि न डोलै कतहू न धावै ॥ गुर प्रसादि को इहु महलु पावै ॥ भ्रम भै मोह न माइआ जाल ॥ सुंन समाधि प्रभू किरपाल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डिगि = गिर के। कतहु = किसी भी ओर। धावै = दौड़ता, भटकता। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। महलु = ऊँचा आत्मिक ठिकाना। भै = भय, डर। सुंन = शून्य। समाधि = जुड़ी हुई तवज्जो, ध्यान। सुंन समाधि = वह जुड़ी हुई तवज्जो जिसमें मायावी फुरने नहीं उठते (शून्य अवस्था)।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! उस अवस्था में पहुँचा हुआ मनुष्य (माया के मोह में) गिर के डाँवाडोल नहीं होता, (उस ठिकाने को छोड़ के) किसी और के पास नहीं भटकता। पर कोई विरला मनुष्य गुरु की कृपा से वह ठिकाना हासिल करता है। वहाँ दुनियां की भटकनें, दुनियां के डर, माया का मोह, माया के जाल- ये कोई भी छू नहीं सकते। कृपा के श्रोत प्रभु में मनुष्य की ऐसी तवज्जो जुड़ती है कि कोई भी मायावी विचार नजदीक नहीं फटकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता का अंतु न पारावारु ॥ आपे गुपतु आपे पासारु ॥ जा कै अंतरि हरि हरि सुआदु ॥ कहनु न जाई नानक बिसमादु ॥४॥९॥२०॥
मूलम्
ता का अंतु न पारावारु ॥ आपे गुपतु आपे पासारु ॥ जा कै अंतरि हरि हरि सुआदु ॥ कहनु न जाई नानक बिसमादु ॥४॥९॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारावारु = पार+अवारु, इस पार का उस पार का किनारा। आपे = खुद ही। गुपतु = गुप्त, सबसे छुपा हुआ। पासारु = (जगत रूप) पसारा। जा कै अंतरि = जिस मनुष्य के हृदय में। नानक = हे नानक! बिसमादु = विस्माद, आश्चर्य।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के नाम का स्वाद टिक जाता है, उसको यह जगत-पसारा उस प्रभु का अपना ही रूप दिखता है, इस जगत-पसारे में वह प्रभु खुद ही छुपा हुआ दिखता है, जिसका अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके स्वरूप का इसपार-उस पार का किनारा नहीं दिख सकता। हे नानक! हरि के नाम के स्वाद का बयान नहीं किया जा सकता। वह स्वाद अद्भुत ही होता है।4।9।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ भेटत संगि पारब्रहमु चिति आइआ ॥ संगति करत संतोखु मनि पाइआ ॥ संतह चरन माथा मेरो पउत ॥ अनिक बार संतह डंडउत ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ भेटत संगि पारब्रहमु चिति आइआ ॥ संगति करत संतोखु मनि पाइआ ॥ संतह चरन माथा मेरो पउत ॥ अनिक बार संतह डंडउत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए। संगि = साथ। चिति = चिक्त में। करत = करते हुए। मनि = मन में। पउत = पड़ा रहे। डंडउत = नमसकार।1।
अर्थ: हे भाई! संत जनों से मिलते हुए परमात्मा (मेरे) चिक्त में आ बसा है, संतजनों की संगति करते हुए मैंने मन में संतोष पा लिया है। (प्रभु मेहर करे) मेरा माथा संत जनों के चरणों में पड़ा रहे, मैं अनेक बार संतजनों को नमस्कार करता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु संतन कै बलिहारी ॥ जा की ओट गही सुखु पाइआ राखे किरपा धारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इहु मनु संतन कै बलिहारी ॥ जा की ओट गही सुखु पाइआ राखे किरपा धारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै = से। बलिहारी = कुर्बान। जा की = जिस की। गही = पकड़ी। धारी = धार के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा ये मन संतजनों से सदके जाता है, जिनका आसरा ले के मैंने (आत्मिक) आनंद हासिल किया है। संत जन कृपा करके (विकार आदि से) रक्षा करते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतह चरण धोइ धोइ पीवा ॥ संतह दरसु पेखि पेखि जीवा ॥ संतह की मेरै मनि आस ॥ संत हमारी निरमल रासि ॥२॥
मूलम्
संतह चरण धोइ धोइ पीवा ॥ संतह दरसु पेखि पेखि जीवा ॥ संतह की मेरै मनि आस ॥ संत हमारी निरमल रासि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धोइ = (धोय) धो के। पीवा = पीऊँ। पेखि = देख के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।2।
अर्थ: हे भाई! (यदि प्रभु कृपा करे तो) मैं संत जनों के चरण धो-धो के पीता रहूँ, संत जनों के दर्शन कर-कर के मुझे आत्मिक जीवन मिलता रहता है। मेरे मन में संत जनों की सहायता का धरवास बना रहता है, संत जनों की संगति ही मेरे वास्ते पवित्र संपत्ति है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत हमारा राखिआ पड़दा ॥ संत प्रसादि मोहि कबहू न कड़दा ॥ संतह संगु दीआ किरपाल ॥ संत सहाई भए दइआल ॥३॥
मूलम्
संत हमारा राखिआ पड़दा ॥ संत प्रसादि मोहि कबहू न कड़दा ॥ संतह संगु दीआ किरपाल ॥ संत सहाई भए दइआल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पड़दा = सत्कार, इज्जत। प्रसादि = कृपा से। मोहि = मुझे। कढ़दा = चिन्ता फिक्र, झोरा। संगु = साथ। सहाई = मददगार।3।
अर्थ: हे भाई! संत जनों ने (विकार आदि से) मेरी इज्जत बचा ली है, संतजनों की कृपा से मुझे कभी भी कोई चिन्ता-फिक्र नहीं व्यापता। कृपा के श्रोत परमात्मा ने खुद ही संत जनों का साथ बख्शा है। जब संत जन मददगार बनते हैं, तो प्रभु दयावान हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरति मति बुधि परगासु ॥ गहिर ग्मभीर अपार गुणतासु ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपाल ॥ नानक संतह देखि निहाल ॥४॥१०॥२१॥
मूलम्
सुरति मति बुधि परगासु ॥ गहिर ग्मभीर अपार गुणतासु ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपाल ॥ नानक संतह देखि निहाल ॥४॥१०॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परगासु = प्रकाश। गहिर = गहरा। गंभीर = जिगरे वाला। गुण तासु = गुणों का खजाना। निहाल = प्रसन्न, खुश।4।
अर्थ: (हे भाई! संत जनों की संगति की इनायत से मेरी) तवज्जो में, मति में, बुद्धि में (आत्मिक जीवन की) रौशनी हो जाती है। हे नानक! अथाह, बेअंत, गुणों का खजाना, और सारें जीवों की पालना करने वाला परमात्मा (अपने) संत जनों को देख के रोम-रोम खुश हो जाता है।4।10।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ तेरै काजि न ग्रिहु राजु मालु ॥ तेरै काजि न बिखै जंजालु ॥ इसट मीत जाणु सभ छलै ॥ हरि हरि नामु संगि तेरै चलै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ तेरै काजि न ग्रिहु राजु मालु ॥ तेरै काजि न बिखै जंजालु ॥ इसट मीत जाणु सभ छलै ॥ हरि हरि नामु संगि तेरै चलै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेरै काजि = तेरे काम में। ग्रिह = घर। बिखै जंजालु = मायावी पदार्थों का झमेला। इसट = प्यारे। जाणु = याद रख, समझ ले। छलै = छल ही। संगि तेरै = तेरे साथ।1।
अर्थ: हे मित्र! ये घर, हे हकूमत, ये धन (इनमें से कोई भी) तेरे (आत्मिक जीवन के) किसी काम नहीं आ सकता। मायावी पदार्थों के झमेले भी तुझे आत्मिक जीवन का लाभ नहीं दे सकते। याद रख कि ये सारे प्यारे मित्र (तेरे वास्ते) छल रूप ही हैं। सिर्फ परमात्मा का नाम ही तेरे साथ साथ निभा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम गुण गाइ ले मीता हरि सिमरत तेरी लाज रहै ॥ हरि सिमरत जमु कछु न कहै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम नाम गुण गाइ ले मीता हरि सिमरत तेरी लाज रहै ॥ हरि सिमरत जमु कछु न कहै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीता = हे मित्र! लाज = इज्जत।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के नाम के गुण (इस वक्त) गा ले। परमात्मा का नाम स्मरण करने से ही (लोक-परलोक में) तेरी इज्जत बनी रह सकती है। परमात्मा का नाम स्मरण करने से ही यमराज भी कुछ नहीं कहता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु हरि सगल निरारथ काम ॥ सुइना रुपा माटी दाम ॥ गुर का सबदु जापि मन सुखा ॥ ईहा ऊहा तेरो ऊजल मुखा ॥२॥
मूलम्
बिनु हरि सगल निरारथ काम ॥ सुइना रुपा माटी दाम ॥ गुर का सबदु जापि मन सुखा ॥ ईहा ऊहा तेरो ऊजल मुखा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। निरारथ = व्यर्थ। रुपा = चाँदी। दाम = रुपए। ईहा ऊहा = इस लोक में परलोक में। ऊजल = रौशन।2।
अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के नाम के बिना सारे काम व्यर्थ (हो जाते हैं)। (अगर परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता, तो) सोना, चाँदी, रुपया-पैसे (तेरे वास्ते) मिट्टी (के समान) है। हे मित्र! गुरु का शब्द याद करता रहा कर, तेरे मन को आनंद मिलेगा, इस लोक में और परलोक में तू सही स्वीकार होगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि करि थाके वडे वडेरे ॥ किन ही न कीए काज माइआ पूरे ॥ हरि हरि नामु जपै जनु कोइ ॥ ता की आसा पूरन होइ ॥३॥
मूलम्
करि करि थाके वडे वडेरे ॥ किन ही न कीए काज माइआ पूरे ॥ हरि हरि नामु जपै जनु कोइ ॥ ता की आसा पूरन होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। किन ही = किसी ने ही।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मित्र! तेरे से पहले हो चुके सभी लोग माया के धंधे कर-कर के थकते रहे, किसी ने भी ये धंधे सिरे नहीं चढ़ाए (किसी की भी तृष्णा खत्म नहीं हुई)। जो कोई विरला मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है, उसकी आशा पूरी हो जाती है (उसकी तृष्णा खत्म हो जाती है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि भगतन को नामु अधारु ॥ संती जीता जनमु अपारु ॥ हरि संतु करे सोई परवाणु ॥ नानक दासु ता कै कुरबाणु ॥४॥११॥२२॥
मूलम्
हरि भगतन को नामु अधारु ॥ संती जीता जनमु अपारु ॥ हरि संतु करे सोई परवाणु ॥ नानक दासु ता कै कुरबाणु ॥४॥११॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधारु = आसरा। संती = संतों ने। अपारु = अमूल्य। हरि संतु = हरि का संत। ता कै = उससे।4।
अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के भक्तों के लिए परमात्मा का नाम ही जीवन का आसरा होता है, तभी तो संत जनों ने ही अमूल्य मानव जनम की बाजी जीती है। परमात्मा का संत जो कुछ करता है, वह (परमात्मा की नजरों में) स्वीकार होता है। हे नानक! (कह: मैं) दास उससे बलिहार जाता हूँ।4।11।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ सिंचहि दरबु देहि दुखु लोग ॥ तेरै काजि न अवरा जोग ॥ करि अहंकारु होइ वरतहि अंध ॥ जम की जेवड़ी तू आगै बंध ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ सिंचहि दरबु देहि दुखु लोग ॥ तेरै काजि न अवरा जोग ॥ करि अहंकारु होइ वरतहि अंध ॥ जम की जेवड़ी तू आगै बंध ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिंचहि = तू इकट्ठा करता है, तू जोड़ता जाता है। दरबु = द्रव्य, धन। देहि = तू देता है। लोग = लोगों को। तेरै काजि = तेरे काम में। अवरा जोग = औरों के लिए। करि = कर के। होइ अंध = अंधा हो के। वरतहि = तू बर्तता है, तू व्यवहार करता है। जेवड़ी = रस्सी, फंदा। तू = तुझे। आगै = परलोक में। बंध = बँधा हुआ।1।
अर्थ: (हे मूर्ख!) तू धन इकट्ठा किए जा रहा है, (और धन जोड़ने के प्रयास में) लोगों को दुख देता है। (मौत आने पर ये धन) तेरे काम नहीं आएगा, औरों (के बरतने के) लायक रह जाएगा। (हे मूर्ख! इस धन का) माण करके (इस धन के नशे में) अंधा हो के तू (लोगों से) व्यवहार करता है। (जब) मौत का फंदा (तेरे गले में पड़ा, उस फंदे में) बँधे हुए को तुझे परलोक में (ले जाएंगे, और धन यहीं रह जाएगा)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छाडि विडाणी ताति मूड़े ॥ ईहा बसना राति मूड़े ॥ माइआ के माते तै उठि चलना ॥ राचि रहिओ तू संगि सुपना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
छाडि विडाणी ताति मूड़े ॥ ईहा बसना राति मूड़े ॥ माइआ के माते तै उठि चलना ॥ राचि रहिओ तू संगि सुपना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताति = ईष्या, जलन। मूढ़े = हे मूर्ख! ईहा = इस लोक में। माते = मस्त हुए। उठि = उठ के। संगि = साथ। राचि रहिओ तू = तू मस्त हो रहा है। विडाणी = बेगानी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! दूसरों से ईष्या करनी छोड़ दे। हे मूर्ख! इस दुनिया में (पक्षियों की तरह ही) सिर्फ रात भर के लिए ही बसना है। माया में मस्त हुए हे मूर्ख! (यहाँ से आखिर) उठ के तूने चले जाना है, (पर) तू (इस जगत-) सपने में व्यस्त हुआ पड़ा है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बाल बिवसथा बारिकु अंध ॥ भरि जोबनि लागा दुरगंध ॥ त्रितीअ बिवसथा सिंचे माइ ॥ बिरधि भइआ छोडि चलिओ पछुताइ ॥२॥
मूलम्
बाल बिवसथा बारिकु अंध ॥ भरि जोबनि लागा दुरगंध ॥ त्रितीअ बिवसथा सिंचे माइ ॥ बिरधि भइआ छोडि चलिओ पछुताइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिवसथा = उम्र (में)। अंध = अंजान, बेसमझ। भरि जोबनि = भरे जोबन में, भरी जवानी में। दुरगंध = गंदे कामों में, विकारों में। त्रितीआ बिवसथा = उम्र के तीसरे हिस्से में, जवानी गुजर जाने पर। सिंचे = एकत्र करता है। माइ = माया। पछुताइ = पछता के।2।
अर्थ: बाल उम्र में जीव बेसमझ बालक बना रहता है, भरी-जवानी में विकारों में लगा रहता है, (जवानी गुजर जाने पर) उम्र के तीसरे पड़ाव में माया जोड़ने लग जाता है, (आखिर जब) बुड्ढा हो जाता है तो अफसोस करते हुए (संचित किए हुए धन को) छोड़ के (यहाँ से) चला जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरंकाल पाई द्रुलभ देह ॥ नाम बिहूणी होई खेह ॥ पसू परेत मुगध ते बुरी ॥ तिसहि न बूझै जिनि एह सिरी ॥३॥
मूलम्
चिरंकाल पाई द्रुलभ देह ॥ नाम बिहूणी होई खेह ॥ पसू परेत मुगध ते बुरी ॥ तिसहि न बूझै जिनि एह सिरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिरंकाल = काफी समय उपरांत। दुलभ = मुश्किल से मिलने वाली। देह = शरीर। बिहूणी = बिना, खाली। खेह = राख। ते = से। बुरी = खराब। मुगध = मुग्ध, मूर्ख। तिसहि = उस (प्रभु) को। जिनि = जिस प्रभु ने। सिरी = पैदा की।3।
अर्थ: (हे भाई!) बड़े चिरों बाद जीव को ये दुर्लभ मानुख देह मिलती है, पर नाम से वंचित रह के ये शरीर मिट्टी हो जाता है। (नाम के बिना, विकारों के कारण) मूर्ख जीव की ये देही पशुओं और प्रेतों से भी बुरी (समझें)। जिस परमात्मा ने (इसकी) ये मनुष्य देह बनाई उसको कभी याद नहीं करता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि करतार गोविंद गोपाल ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ तुमहि छडावहु छुटकहि बंध ॥ बखसि मिलावहु नानक जग अंध ॥४॥१२॥२३॥
मूलम्
सुणि करतार गोविंद गोपाल ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ तुमहि छडावहु छुटकहि बंध ॥ बखसि मिलावहु नानक जग अंध ॥४॥१२॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करतार = हे कर्तार! दइआल = हे दया के घर! तुमहि = तू (खुद) ही। छुटकहि = छूटते हैं, टूटते हैं। बंध = बंधन। बखसि = मेहर करके।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) बेचारे जीव भी क्या करें? हे कर्तार! हे गोबिंद! हे गोपाल! हे दीनों पर दया करने वाले! हे सदा ही कृपा के श्रोत! तू खुद ही जीवों के माया के बंधन तोड़े तब ही टूट सकते हैं। हे कर्तार! (माया के मोह में) अंधे हुए इस जगत को तूने खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) जोड़े रख।4।12।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ करि संजोगु बनाई काछि ॥ तिसु संगि रहिओ इआना राचि ॥ प्रतिपारै नित सारि समारै ॥ अंत की बार ऊठि सिधारै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ करि संजोगु बनाई काछि ॥ तिसु संगि रहिओ इआना राचि ॥ प्रतिपारै नित सारि समारै ॥ अंत की बार ऊठि सिधारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के, बना के। संजोगु = मिलाप, (जिंद और शरीर के) मिलाप (का समय)। काछि = कछ के, नाप के (जैसे कोई दर्जी कपड़ा माप कतर के कमीज वगैरा बनाता है)। संगि = साथ। इआना = बेसमझ जीव। राचि रहिओ = परचा रहता है। प्रतिपारै = पालता है। सारि = सार ले के। समारै = संभाल करता है। ऊठि = उठ के।1।
अर्थ: (जैसे कोई दर्जी कपड़ा नाप-काट के मनुष्य के शरीर के लिए कमीज वगैरह बनाता है वैसे ही परमात्मा ने जिंद और शरीर के) मिलाप (का अवसर) बना के (जीवात्मा के लिए शरीर-चोली) नाप-काट के बना दी। उस (शरीर-चोली) के साथ बेसमझ जीव उलझा रहता है। सदा इस शरीर को पालता-पोसता रहता है, और सदा इसकी सांभ-संभाल करता रहता है। अंत के समय जीव (इसको छोड़ के) उठ चलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम बिना सभु झूठु परानी ॥ गोविद भजन बिनु अवर संगि राते ते सभि माइआ मूठु परानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नाम बिना सभु झूठु परानी ॥ गोविद भजन बिनु अवर संगि राते ते सभि माइआ मूठु परानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे जीव! परमात्मा के नाम के बिना यह सारा आडंबर नाशवान है। हे प्राणी! जो लोग परमात्मा के भजन के बिना और पदार्थों के साथ मस्त रहते हैं, वह सारे माया (के मोह) में ठगे जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथ नाइ न उतरसि मैलु ॥ करम धरम सभि हउमै फैलु ॥ लोक पचारै गति नही होइ ॥ नाम बिहूणे चलसहि रोइ ॥२॥
मूलम्
तीरथ नाइ न उतरसि मैलु ॥ करम धरम सभि हउमै फैलु ॥ लोक पचारै गति नही होइ ॥ नाम बिहूणे चलसहि रोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = सारा (आडंबर)। झूठु = नाशवान। परानी = हे प्राणी! उतरसि = उतरेगी। करम धरम = निहित धार्मिक कर्म। सभि = सारे। फैलु = पसारा, खिलारा। पचारै = परचावा करने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। रोइ = रो के, दुखी हो के।2।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह की यह) मैल तीर्थों पर स्नान करके नहीं उतरेगी। (तीर्थ-स्नान आदि ये) सारे (निहित हुए) धार्मिक कर्म अहंकार का पसारा ही हैं। (तीर्थ-स्नान कर्मों के द्वारा अपने धार्मिक होने की बाबत) लोगों तसल्ली कराने से उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। परमात्मा के नाम से वंचित जीव (यहाँ से) दुखी हो हो के ही जाएंगे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु हरि नाम न टूटसि पटल ॥ सोधे सासत्र सिम्रिति सगल ॥ सो नामु जपै जिसु आपि जपाए ॥ सगल फला से सूखि समाए ॥३॥
मूलम्
बिनु हरि नाम न टूटसि पटल ॥ सोधे सासत्र सिम्रिति सगल ॥ सो नामु जपै जिसु आपि जपाए ॥ सगल फला से सूखि समाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पटल = पर्दा, माया का पर्दा। सोधे = विचारने से। सगल = सारे। सो = वह बंदा। जपाए = जपने की प्रेरणा करता है। से = वह लोग। सूखि = सुख में।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम के बिना (माया के मोह का) पर्दा नहीं टूटेगा। सारे ही शास्त्र और स्मृतियाँ विचारने से भी (ये पर्दा दूर नहीं होगा)। (जो लोग नाम जपते हैं) उनको (मनुष्य जीवन के) सारे फल प्राप्त होते हैं, वह लोग (सदा) आनंद में टिके रहते हैं। पर वही सख्श नाम जपता है जिसको प्रभु स्वयं नाम जपने के लिए प्रेरित करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखनहारे राखहु आपि ॥ सगल सुखा प्रभ तुमरै हाथि ॥ जितु लावहि तितु लागह सुआमी ॥ नानक साहिबु अंतरजामी ॥४॥१३॥२४॥
मूलम्
राखनहारे राखहु आपि ॥ सगल सुखा प्रभ तुमरै हाथि ॥ जितु लावहि तितु लागह सुआमी ॥ नानक साहिबु अंतरजामी ॥४॥१३॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखनहारे = हे रक्षा करने के समर्थ प्रभु! प्रभ = हे प्रभु! हाथि = हाथ में। जितु = जिस (काम) में। लावहि = तू लगाता है, तू जोड़ता है। तितु = उस (काम) में। लागह = हम जीव लग पड़ते हैं। सुआमी = हे मालिक! नानक = हे नानक! अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4।
अर्थ: हे सबकी रक्षा करने के समर्थ प्रभु! तू खुद ही (माया के मोह से हम जीवों की) रक्षा कर सकता है। हे प्रभु! सारे सुख तेरे अपने हाथ में हैं। हे मालिक प्रभु! तू जिस काम में (हमें) लगाता है, हम उसी काम में लग पड़ते हैं। हे नानक! (कह:) मालिक प्रभु सबके दिलों की जानने वाला है।4।13।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ जो किछु करै सोई सुखु जाना ॥ मनु असमझु साधसंगि पतीआना ॥ डोलन ते चूका ठहराइआ ॥ सति माहि ले सति समाइआ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ जो किछु करै सोई सुखु जाना ॥ मनु असमझु साधसंगि पतीआना ॥ डोलन ते चूका ठहराइआ ॥ सति माहि ले सति समाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = उसी को ही। जाना = जान लिया है। असमझु मनु = अंजान मन। साध संगि = गुरु की संगति में। पतीआना = पतीज जाता है। ते = से। चूका = हट गया। ठहराइआ = ठहराया, टिका लिया। सति = सदा कायम रहने वाला प्रभु। ले = लेकर। समाइआ = समाया, लीन हो गया।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु का मिलाप हो जाता है, वह) सदा-स्थिर-प्रभु (का नाम) ले कर उस सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है (गुरु की कृपा से प्रभु-चरणों में) टिकाया हुआ उसका मन डोलने से हट जाता है, उसका (पहला) बेसमझ मन गुरु की संगति में पतीज जाता है; जो कुछ परमात्मा करता है उसी को ही वह सुख समझता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूखु गइआ सभु रोगु गइआ ॥ प्रभ की आगिआ मन महि मानी महा पुरख का संगु भइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दूखु गइआ सभु रोगु गइआ ॥ प्रभ की आगिआ मन महि मानी महा पुरख का संगु भइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु रोगु = सारा रोग। आगिआ = आज्ञा, हुक्म, रजा। मानी = मान ली। महा पुरख का संगु = गुरु का मिलाप।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को गुरु का मिलाप हो जाता है, प्रभु की रजा उसको मीठी लगने लग जाती है, उसका सारा दुख सारे रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल पवित्र सरब निरमला ॥ जो वरताए सोई भला ॥ जह राखै सोई मुकति थानु ॥ जो जपाए सोई नामु ॥२॥
मूलम्
सगल पवित्र सरब निरमला ॥ जो वरताए सोई भला ॥ जह राखै सोई मुकति थानु ॥ जो जपाए सोई नामु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरताए = वरताता है, कराता है। जह = जहाँ। मुकति = विकारों से मुक्ति। मुकति थानु = विकारों से बचाने वाली जगह।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु का मिलाप हो जाता है, गुरु) उससे परमात्मा का नाम ही सदा जपाता है; (गुरु) जहाँ उसको रखता है वही उसके लिए विकारों से मुक्ति की जगह होती है; उस मनुष्य के सारे उद्यम पवित्र होते हैं उसके सारे काम निर्मल होते हैं, जो कुछ परमात्मा करता है, उस मनुष्य को वही वही काम भले लगते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अठसठि तीरथ जह साध पग धरहि ॥ तह बैकुंठु जह नामु उचरहि ॥ सरब अनंद जब दरसनु पाईऐ ॥ राम गुणा नित नित हरि गाईऐ ॥३॥
मूलम्
अठसठि तीरथ जह साध पग धरहि ॥ तह बैकुंठु जह नामु उचरहि ॥ सरब अनंद जब दरसनु पाईऐ ॥ राम गुणा नित नित हरि गाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ (६८)। पग = चरण, पैर। धरहि = धरते हैं। साध = भले मनुष्य। तह = वहाँ। बैकुंठु = सचखंड। उचरहि = उचारे हैं। सरब = सारे। पाईऐ = पाते हैं। गाईऐ = गाते हैं।3।
अर्थ: (हे भाई!) जहाँ गुरमुखि व्यक्ति (अपने) पैर रखते हैं वह स्थान अढ़सठ तीर्थ समझो, (क्योंकि) जहाँ संतजन परमात्मा का नाम उचारते हैं वह जगह सचखंड बन जाती है। जब गुरमुखों के दर्शन किए जाते हैं तब सारे आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाते हैं, (गुरमुखों की संगति में) सदा परमात्मा के गुण गाए जा सकते हैं, सदा प्रभु की महिमा गाई जा सकती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे घटि घटि रहिआ बिआपि ॥ दइआल पुरख परगट परताप ॥ कपट खुलाने भ्रम नाठे दूरे ॥ नानक कउ गुर भेटे पूरे ॥४॥१४॥२५॥
मूलम्
आपे घटि घटि रहिआ बिआपि ॥ दइआल पुरख परगट परताप ॥ कपट खुलाने भ्रम नाठे दूरे ॥ नानक कउ गुर भेटे पूरे ॥४॥१४॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। घटि = हृदय में। घटि घटि = हरेक घट में। रहिआ बिआपि = बस रहा है, भरपूर है। परताप = तेज। कपट = किवाड़, दरवाजे। भ्रम = भटकना। नाठे = भाग गए। कउ = को। गुर पूरे = पूरे गुरु जी। भेटे = मिल गए।4।
अर्थ: (हे भाई!) नानक को पूरे गुरु जी मिल गए हैं, (अब नानक को दिखाई दे रहा है कि) परमात्मा खुद ही हरेक शरीर में मौजूद है, दया के श्रोत अकाल-पुरख का तेज-प्रताप प्रत्यक्ष (हर जगह दिखाई दे रहा है); (गुरु की कृपा से मन के) किवाड़ खुल गए हैं, और, सारे भ्रम कहीं दूर भाग गए हैं।4।14।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ कोटि जाप ताप बिस्राम ॥ रिधि बुधि सिधि सुर गिआन ॥ अनिक रूप रंग भोग रसै ॥ गुरमुखि नामु निमख रिदै वसै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ कोटि जाप ताप बिस्राम ॥ रिधि बुधि सिधि सुर गिआन ॥ अनिक रूप रंग भोग रसै ॥ गुरमुखि नामु निमख रिदै वसै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जाप = देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विशेष मंत्र पढ़ने। ताप = धूणियों आदि से शरीर को कष्ट देने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। सुर गिआन = देवताओं वाली सूझ बूझ। रसै = रस लेता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। निमख = (निमेष) आँख फड़कने जितना समय। रिदै = हृदय में।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के द्वारा (जिस मनुष्य के) हृदय में आँख झपकने जितने समय के लिए भी हरि-नाम बसता है, वह (मानो) अनेक रूपों-रंगों और मायावी पदार्थों का रस लेता है। उस व्यक्ति की देवताओं वाली सूझ-बूझ हो जाती है, उसकी बुद्धि (ऊँची हो जाती है) वह रिद्धियों-सिद्धियों (का मालिक हो जाता है); करोड़ों जपों-तपों (का फल उसके अंदर) आ बसता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के नाम की वडिआई ॥ कीमति कहणु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के नाम की वडिआई ॥ कीमति कहणु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडिआई = महानता।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम की महत्वता बयान नहीं की जा सकती, हरि-नाम का मूल्य नहीं आँका जा सकता।1। रहाउ।
[[0891]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूरबीर धीरज मति पूरा ॥ सहज समाधि धुनि गहिर ग्मभीरा ॥ सदा मुकतु ता के पूरे काम ॥ जा कै रिदै वसै हरि नाम ॥२॥
मूलम्
सूरबीर धीरज मति पूरा ॥ सहज समाधि धुनि गहिर ग्मभीरा ॥ सदा मुकतु ता के पूरे काम ॥ जा कै रिदै वसै हरि नाम ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूर बीर = शूरवीर, बहादर। सहज = आत्मिक अडोलता। धुनि = लगन। गहिर = गहरी। मुकतु = विकारों से आजाद। ता के = उस (मनुष्य) के। काम = काम। जा कै रिदै = जिसके हृदय में।2।
अर्थ: (हे भाई!) वह मनुष्य (विकारों के मुकाबले में) शूरवीर व बहादुर है, सम्पूर्ण बुध्दि व धैर्य का स्वामी है। सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, प्रभु में उसकी गहरी लगन टिकी रहती है। वह सदैव विकारों से आजाद रहता है। उसके सारे काम सफलहो जाते हैं, जिसके हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल सूख आनंद अरोग ॥ समदरसी पूरन निरजोग ॥ आइ न जाइ डोलै कत नाही ॥ जा कै नामु बसै मन माही ॥३॥
मूलम्
सगल सूख आनंद अरोग ॥ समदरसी पूरन निरजोग ॥ आइ न जाइ डोलै कत नाही ॥ जा कै नामु बसै मन माही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। अराग = रोगों से रहत। समदरसी = सबको एक जैसी निगाह से देखने वाला। सम = बराबर। दरसी = दर्शी, देखने वाला। निरजोग = निर्लिप। कत = कहीं भी।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में हरि-नाम आ बसता है, वह कहीं भटकता नहीं, कहीं डोलता नहीं, (माया के प्रभाव से वह) पूरी तौर पर निर्लिप रहता है, सब में परमात्मा की एक ज्योति देखता है, उसको सारे सुख-आनंद प्राप्त रहते हैं, वह (मानसिक) रोगों से बचा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल गुोपाल गोविंद ॥ गुरमुखि जपीऐ उतरै चिंद ॥ नानक कउ गुरि दीआ नामु ॥ संतन की टहल संत का कामु ॥४॥१५॥२६॥
मूलम्
दीन दइआल गुोपाल गोविंद ॥ गुरमुखि जपीऐ उतरै चिंद ॥ नानक कउ गुरि दीआ नामु ॥ संतन की टहल संत का कामु ॥४॥१५॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपीऐ = जपना चाहिए। चिंद = चिन्ता। गुरि = गुरु ने।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाल’ है यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर दीनों पर दया करने वाले गोपाल गोविंद का नाम जपना चाहिए, (जो मनुष्य जपता है, उसकी) चिन्ता-फिक्र दूर हो जाती है। (हे भाई! मुझे) नानक को गुरु ने प्रभु का नाम बख्शा है, संत जनों की टहल (की दाति) दी है। (हरि-नाम का स्मरण ही) गुरु का (बताया हुआ) काम है।4।15।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ बीज मंत्रु हरि कीरतनु गाउ ॥ आगै मिली निथावे थाउ ॥ गुर पूरे की चरणी लागु ॥ जनम जनम का सोइआ जागु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ बीज मंत्रु हरि कीरतनु गाउ ॥ आगै मिली निथावे थाउ ॥ गुर पूरे की चरणी लागु ॥ जनम जनम का सोइआ जागु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीज मंत्रु = मूल मंत्र, सबसे श्रेष्ठ मंत्र। आगै = परलोक में। सोइआ = सोया हुआ।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा (के गीत) गाया करो (परमात्मा को वश में करने का) यह सबसे श्रेष्ठ मंत्र है। (कीर्तन की इनायत से) परलोक में निआसरे जीवों को भी आसरा मिल जाता है। (हे भाई!) पूरे गुरु के चरणों में पड़ा रह, इस तरह कई जन्मों से (माया के मोह की) नींद में सोया हुआ तू जाग पड़ेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि जापु जपला ॥ गुर किरपा ते हिरदै वासै भउजलु पारि परला ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि हरि जापु जपला ॥ गुर किरपा ते हिरदै वासै भउजलु पारि परला ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपला = जपा। ते = से। हिरदै = हृदय में। परला = पड़ा। पारि तरला = पार लांघ गया।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) परमात्मा (के नाम) का जाप किया, (जिस मनुष्य के) हृदय में गुरु की कृपा से (परमात्मा का नाम) आ बसता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघ गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु निधानु धिआइ मन अटल ॥ ता छूटहि माइआ के पटल ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु पीउ ॥ ता तेरा होइ निरमल जीउ ॥२॥
मूलम्
नामु निधानु धिआइ मन अटल ॥ ता छूटहि माइआ के पटल ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु पीउ ॥ ता तेरा होइ निरमल जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। मन = हे मन! अटल = कभी ना टलने वाला। छूटहि = समाप्त हो जाते हैं। पटल = पर्दे। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निरमल = पवित्र। जीउ = जीवात्मा, जिंद।2।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम कभी ना समाप्त होने वाला खजाना है, इसको स्मरण करते रहो, तब ही तेरे माया (के मोह) के पर्दे फटेंगे। हे मन! गुरु का शब्द आत्मिक जीवन देने वाला रस है, इसको पीता रह, तब ही तेरी जीवात्मा पवित्र होगी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोधत सोधत सोधि बीचारा ॥ बिनु हरि भगति नही छुटकारा ॥ सो हरि भजनु साध कै संगि ॥ मनु तनु रापै हरि कै रंगि ॥३॥
मूलम्
सोधत सोधत सोधि बीचारा ॥ बिनु हरि भगति नही छुटकारा ॥ सो हरि भजनु साध कै संगि ॥ मनु तनु रापै हरि कै रंगि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोधत = बिचारते हुए। सोधि = विचार के। छुटकारा = माया से निजात। साध कै संगि = गुरु की संगति में। रापै = रंगा जाता है। रंगि = प्रेम रंग में।3।
अर्थ: हे मन! हमने बहुत विचार-विचार करके ये निर्णय निकाला है कि परमात्मा की भक्ति के बिना (माया के मोह से) खलासी नहीं हो सकती। प्रभु की वह भक्ति गुरु की संगति में (प्राप्त होती है। जिसको प्राप्त होती है, उसका) मन और तन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि सिआणप बहु चतुराई ॥ मन बिनु हरि नावै जाइ न काई ॥ दइआ धारी गोविद गुोसाई ॥ हरि हरि नानक टेक टिकाई ॥४॥१६॥२७॥
मूलम्
छोडि सिआणप बहु चतुराई ॥ मन बिनु हरि नावै जाइ न काई ॥ दइआ धारी गोविद गुोसाई ॥ हरि हरि नानक टेक टिकाई ॥४॥१६॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! जाइ न = दूर नहीं होती। काई = (fungal) जाला। गुोसाई = (असल शब्द ‘गोसाई’ है यहाँ ‘गुसाई’ पढ़ना है)। टेक = आसरा।4।
अर्थ: हे मन! (अपनी) समझदारी और बहती चतुराई को छोड़ दे। (जैसे काई लगने के कारण जमीन में पानी नहीं जा पाता, वैसे ही अहंकार के कारण गुरु के उपदेश का असर नहीं होता), परमात्मा के नाम के बिना ये (अहंकार रूपी) काई दूर नहीं होती। हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर धरती का पति प्रभु दया करता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम का आसरा लेता है।4।16।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ संत कै संगि राम रंग केल ॥ आगै जम सिउ होइ न मेल ॥ अह्मबुधि का भइआ बिनास ॥ दुरमति होई सगली नास ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ संत कै संगि राम रंग केल ॥ आगै जम सिउ होइ न मेल ॥ अह्मबुधि का भइआ बिनास ॥ दुरमति होई सगली नास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत कै संगि = गुरु की संगति में। रंग = प्यार। केल = खेल। आगै = परलोक में। सिउ = साथ। अहंबुधि = अहंकार वाली अकल। दुरमति = बुरी अकल। सगली = सारी।1।
अर्थ: हे पण्डित! गुरु की संगति में रह के परमात्मा के प्रेम का खेल खेला कर, आगे परलोक में तेरा जमों से सामना नहीं होगा। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसकी) अहंकार वाली बुद्धि का नाश हो जाता है, उसके अंदर से सारी दुर्मति समाप्त हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम गुण गाइ पंडित ॥ करम कांड अहंकारु न काजै कुसल सेती घरि जाहि पंडित ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम नाम गुण गाइ पंडित ॥ करम कांड अहंकारु न काजै कुसल सेती घरि जाहि पंडित ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंडित = हे पण्डित! करम कांड = तीर्थ स्नान आदि निहित हुए धार्मिक कामों का सिलसिला। न काजै = काम नहीं आते। कुसल = सुख आनंद। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु चरणों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे पण्डित! तीर्थ-स्नान आदि निहित हुए धार्मिक कामों के सिलसिले का अहंकार तेरे किसी काम नहीं आएगा। हे पण्डित! परमात्मा का नाम (जपा कर, परमात्मा के) गुण गाया कर, (इस तरह) तू आनंद से (जीवन व्यतीत करता हुआ प्रभु-चरणों वाले असल) घर में जा पहुँचेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का जसु निधि लीआ लाभ ॥ पूरन भए मनोरथ साभ ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि आइआ ॥ संत प्रसादि कमलु बिगसाइआ ॥२॥
मूलम्
हरि का जसु निधि लीआ लाभ ॥ पूरन भए मनोरथ साभ ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि आइआ ॥ संत प्रसादि कमलु बिगसाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा। निधि = खजाना। साभ = सब सारे। नाठा = भाग गया। घरि महि = हृदय घर में ही। संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। कमल = हृदय का कमल फूल। बिगसाइआ = खिल उठा।2।
अर्थ: हे पण्डित! जिस व्यक्ति ने परतात्मा की महिमा का खजाना पा लिया, उसके सारे उद्देश्य पूरे हो गए, उसका (सारा) दुख दूर हो गया, उसके हृदय-घर में सुख आ बसा, संत-गुरु की कृपा से उसके हृदय का कमल-पुष्प खिल उठा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम रतनु जिनि पाइआ दानु ॥ तिसु जन होए सगल निधान ॥ संतोखु आइआ मनि पूरा पाइ ॥ फिरि फिरि मागन काहे जाइ ॥३॥
मूलम्
नाम रतनु जिनि पाइआ दानु ॥ तिसु जन होए सगल निधान ॥ संतोखु आइआ मनि पूरा पाइ ॥ फिरि फिरि मागन काहे जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। होए = प्राप्त हो गए। निधान = खजाने। मनि = मन में। पूरा = सारे गुणों से भरपूर प्रभु। पाइ = (पाय) पा के। मागन = (जजमान से) मांगने के लिए। काहे = क्यों?।3।
अर्थ: (हे पण्डित! तू जजमानों से दान माँगता फिरता है, पर) जिस मनुष्य ने (गुरु से) परमात्मा का नाम-रत्न-दान पा लिया है, उसको (मानो) सारे ही खजाने मिल गए, मन में पूर्ण-प्रभु को पाकर के उसके अंदर संतोख पैदा हो गया, फिर वह बार-बार (जजमानों से) माँगने क्यों जाएगा?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की कथा सुनत पवित ॥ जिहवा बकत पाई गति मति ॥ सो परवाणु जिसु रिदै वसाई ॥ नानक ते जन ऊतम भाई ॥४॥१७॥२८॥
मूलम्
हरि की कथा सुनत पवित ॥ जिहवा बकत पाई गति मति ॥ सो परवाणु जिसु रिदै वसाई ॥ नानक ते जन ऊतम भाई ॥४॥१७॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनत = सुनते हुए। पवित = पवित्र। जिहवा = जीभ (से)। बकत = उचारते हुए। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मति = अच्छी बुद्धि। जिसु रिदै = जिसके हृदय में। ते जन = वे लोग। भाई = हे भाई!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे पण्डित!) परमात्मा की महिमा की बातें सुनने से (जीवन) पवित्र हो जाता है, जीभ से उचारने से उच्च आत्मिक अवस्था और सद्बुद्धि प्राप्त हो जाती है। हे पण्डित! जिस मनुष्य के हृदय में (गुरु, परमात्मा की महिमा) बसा देता है वह मनुष्य (परमात्मा के दर पर) स्वीकार हो जाता है। हे भाई! प्रभु की महिमा करने वाले वह बंदे ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं।4।17।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ गहु करि पकरी न आई हाथि ॥ प्रीति करी चाली नही साथि ॥ कहु नानक जउ तिआगि दई ॥ तब ओह चरणी आइ पई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ गहु करि पकरी न आई हाथि ॥ प्रीति करी चाली नही साथि ॥ कहु नानक जउ तिआगि दई ॥ तब ओह चरणी आइ पई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहु करि = पूरे ध्यान से। पकरी = पकड़ी। हाथि = हाथ में। करी = की। साथि = साथ। कहु = कह। नानक = हे नानक! जउ = जब। तिआगि दई = छोड़ दी। ओह = (स्त्रीलिंग) वह (माया)।1।
अर्थ: (हे संत जनो! जिस मनुष्य ने इस माया को) बड़े ध्यान से भी पकड़ा, उसके भी हाथ में ना आई, जिसने (इससे) बड़ा प्यार भी किया, उसके साथ भी मिल के ये ना चली (साथ ना निभा सकी)। हे नानक! कह: जब किसी मनुष्य ने इसको (मन से) छोड़ दिया, तब ये उसके चरणों में आ पड़ी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि संतहु निरमल बीचार ॥ राम नाम बिनु गति नही काई गुरु पूरा भेटत उधार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुणि संतहु निरमल बीचार ॥ राम नाम बिनु गति नही काई गुरु पूरा भेटत उधार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! निरमल = पवित्र। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। भेटत = मिलते ही। उधार = पार उतारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! जीवन को पवित्र करने वाली ये विचार सुनो- परमात्मा के नाम के बिना ऊँची आत्मिक अवस्था बिल्कुल ही नहीं होती, (पर, नाम गुरु से ही मिलता है) पूरा गुरु मिलने से (माया के मोह से मुक्ति हो के) पार-उतारा हो जाता है।1। रहाउ।
[[0892]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब उस कउ कोई देवै मानु ॥ तब आपस ऊपरि रखै गुमानु ॥ जब उस कउ कोई मनि परहरै ॥ तब ओह सेवकि सेवा करै ॥२॥
मूलम्
जब उस कउ कोई देवै मानु ॥ तब आपस ऊपरि रखै गुमानु ॥ जब उस कउ कोई मनि परहरै ॥ तब ओह सेवकि सेवा करै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। मानु = आदर। आपस ऊपरि = अपने आप पर। गुमानु = मान, अहंकार। मनि = मन में से। परहरै = त्याग देता है, दूर कर देता है। सेवकि = दासी (बन के)।2।
अर्थ: हे संत जनो! जब कोई मनुष्य उस (माया) को आदर देता है (संभाल-संभाल के रखने का यत्न करता है) तब वह अपने ऊपर बहुत मान करती है (रूठ-रूठ के भाग जाने का प्रयत्न करती है)। पर जब कोई मनुष्य उसको अपने मन से उतार देता है, तब वह उसकी दासी बन के सेवा करती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखि बेरावै अंति ठगावै ॥ इकतु ठउर ओह कही न समावै ॥ उनि मोहे बहुते ब्रहमंड ॥ राम जनी कीनी खंड खंड ॥३॥
मूलम्
मुखि बेरावै अंति ठगावै ॥ इकतु ठउर ओह कही न समावै ॥ उनि मोहे बहुते ब्रहमंड ॥ राम जनी कीनी खंड खंड ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुँह से। बेरावै = परचाती है। अंति = आखिर को। ठगावै = धोखा करती है। इकतु = एक में। इकति ठउर = (किसी) एक जगह में। कही = कहीं भी। उनि = उस ने। राम जनी = संत जनों ने। जनी = जनीं, जनों नें। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े।3।
अर्थ: हे संत जनो! (वह माया हरेक प्राणी को) मुँह से परचाती है, पर आखिर धोखा दे जाती है; किसी एक जगह वह कतई नहीं टिकती। उस माया ने अनेक ब्रहमण्डों (के जीवों) को अपने मोह में फसाया हुआ है। पर संत जनों ने (उसके मोह को) टुकड़े-टुकड़े कर दिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो मागै सो भूखा रहै ॥ इसु संगि राचै सु कछू न लहै ॥ इसहि तिआगि सतसंगति करै ॥ वडभागी नानक ओहु तरै ॥४॥१८॥२९॥
मूलम्
जो मागै सो भूखा रहै ॥ इसु संगि राचै सु कछू न लहै ॥ इसहि तिआगि सतसंगति करै ॥ वडभागी नानक ओहु तरै ॥४॥१८॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। इसु संगी = इस (माया) के साथ। रचै = मस्त रहता है। इसहि = इस (माया के मोह) को। ओहु = वह मनुष्य (पुलिंग)।4।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य (हर वक्त माया की मांग ही) मांगता रहता है, वह तृप्त नहीं होता, (उसकी भूख उसकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती), जो मनुष्य इस माया (के मोह) में ही मस्त रहता है, उसको (आत्मिक जीवन के धन में से) कुछ नहीं मिलता। पर हे नानक! इस (माया के मोह) को छोड़ के जो मनुष्य भले लोगों की संगति करता है, वह बहुत भाग्यशाली मनुष्य (माया के मोह की रुकावटों से) पार लांघ जाता है।4।18।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ आतम रामु सरब महि पेखु ॥ पूरन पूरि रहिआ प्रभ एकु ॥ रतनु अमोलु रिदे महि जानु ॥ अपनी वसतु तू आपि पछानु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ आतम रामु सरब महि पेखु ॥ पूरन पूरि रहिआ प्रभ एकु ॥ रतनु अमोलु रिदे महि जानु ॥ अपनी वसतु तू आपि पछानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतमरामु = सर्व व्यापक आत्मा। रामु = सब में रमा हुआ। सरब महि = सबमें। पेखु = देख। पूरन = पूरे तौर पर। पूरि रहिआ = व्यापक है। अमोलु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके।1।
अर्थ: (हे भाई!) सर्व-व्यापक परमात्मा को सब जीवों में (बसता) देख। एक परमात्मा ही पूर्ण तौर पर सबमें मौजूद है। हे भाई! हरि-नाम एक एैसा रतन है जिसका मूल्य नहीं पाया जा सकता, यह रत्न जिसके हृदय में बस रहा है, उसके साथ सांझ डाल। (दुनिया के सारे पदार्थ बेगाने हो जाते हैं, ये हरि-नाम ही) तेरी अपनी चीज है, तू खुद ही इस चीज को पहचान।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पी अम्रितु संतन परसादि ॥ वडे भाग होवहि तउ पाईऐ बिनु जिहवा किआ जाणै सुआदु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पी अम्रितु संतन परसादि ॥ वडे भाग होवहि तउ पाईऐ बिनु जिहवा किआ जाणै सुआदु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। परसादि = कृपा से। होवहि = (अगर) हो। तउ = तब, तो। पाईऐ = प्राप्त करते हैं। बिनु जिहवा = जीभ (नाम जपे) बिना। किआ = क्या।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! संत जनों की संगति में टिका रह, और) संत-जनों की मेहर से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया कर। पर ये अमृत तब ही मिलता है यदि (मनुष्य के) बड़े भाग्य हैं। इस नाम को जीभ से जपे बिना कोई (इस अमृत-नाम का) क्या स्वाद जान सकता है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अठ दस बेद सुने कह डोरा ॥ कोटि प्रगास न दिसै अंधेरा ॥ पसू परीति घास संगि रचै ॥ जिसु नही बुझावै सो कितु बिधि बुझै ॥२॥
मूलम्
अठ दस बेद सुने कह डोरा ॥ कोटि प्रगास न दिसै अंधेरा ॥ पसू परीति घास संगि रचै ॥ जिसु नही बुझावै सो कितु बिधि बुझै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अठ दस = अठारह। बेद = चार वेद। सुने कह = कहाँ सुन सकता है? कोटि = करोड़ों (सूर्य)। अंधेरा = (जिसकी आँखों के आगे) अंधेरा है, अंधा। संगि = साथ। रचै = मस्त रहता है। बुझावै = समझ देता। कितु बिधि = किस तरीके से? बुझै = समझ सके।2।
अर्थ: (पर हे भाई!) बहरा मनुष्य अठारह पुराण और चार वेद कैसे सुन सकता है? अंधे व्यक्ति को करोड़ों सूरजों की रौशनी भी नहीं दिखाई देती। पशु का प्यार घास से ही होता है, पशु घास से ही खुश रहता है। (जीव माया के मोह में पड़ कर अंधा-बहरा हुआ रहता है, पशू के समान हो जाता है, इसको अपने-आप हरि-नाम की समझ नहीं पड़ सकती, और) जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं समझ ना बख्शे, वह किसी तरह भी समझ नहीं सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानणहारु रहिआ प्रभु जानि ॥ ओति पोति भगतन संगानि ॥ बिगसि बिगसि अपुना प्रभु गावहि ॥ नानक तिन जम नेड़ि न आवहि ॥३॥१९॥३०॥
मूलम्
जानणहारु रहिआ प्रभु जानि ॥ ओति पोति भगतन संगानि ॥ बिगसि बिगसि अपुना प्रभु गावहि ॥ नानक तिन जम नेड़ि न आवहि ॥३॥१९॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानणहारु = जान सकने वाला। जानि रहिआ = हर वक्त जानता है। ओतु = उना हुआ। प्रोत = परोया हुआ। ओति पोति = जैसे उना हुआ परोया हुआ हो, ताने पेटे में। संगानि = संग, साथ। बिगसि = खिल के, खुश हो के। गावहि = (जो लोग) गाते हैं। तिन नेड़ि = उनके नजदीक। जम = धर्मराज के दूत (बहुवचन)।3।
अर्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला परमात्मा हमेशा हरेक के दिल की जानता है। वह अपने भक्तों से इस तरह मिला रहता है जैसे ताना-पेटा। हे नानक! जो मनुष्य खुश हो-हो के अपने प्रभु (के गुणों) को गाते रहते हैं, जम दूत उनके नजदीक नहीं आते।3।19।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ दीनो नामु कीओ पवितु ॥ हरि धनु रासि निरास इह बितु ॥ काटी बंधि हरि सेवा लाए ॥ हरि हरि भगति राम गुण गाए ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ दीनो नामु कीओ पवितु ॥ हरि धनु रासि निरास इह बितु ॥ काटी बंधि हरि सेवा लाए ॥ हरि हरि भगति राम गुण गाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीनो = दिया। रासि = राशि, पूंजी। निरास = निर+आस, आशा के बिना, उपराम चिक्त। बितु = धन। बंधि = रुकावट। गाए = गाता है।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा का) नाम दे दिया, (उसका जीवन) पवित्र बना दिया। (जिसको गुरु ने) हरि-नाम-धन राशि-पूंजी (बख्शी, दुनिया वाला) ये धन (देख के), वह (इस दुनियावी धन की लालच में नहीं फंसता और) उपराम-चिक्त रहता है। (गुरु ने जिस मनुष्य के जीवन-राह में से माया के मोह की) रुकावट काट दी, उसको उसने परमात्मा की भक्ति में जोड़ दिया, वह मनुष्य (सदा) परमात्मा की भक्ति करता है, (सदा) परमात्मा के गुण गाता रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाजे अनहद बाजा ॥ रसकि रसकि गुण गावहि हरि जन अपनै गुरदेवि निवाजा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाजे अनहद बाजा ॥ रसकि रसकि गुण गावहि हरि जन अपनै गुरदेवि निवाजा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गबाजे = बजते हैं, बज पड़े। अनहद = बिना बजाए, एक रस। रसकि = आनंद से। गावहि = गाते हैं। गुरदेवि = गुरदेव ने। निवाजा = मेहर की, निवाजश की।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों पर) अपने (प्यारे) गुरदेव ने मेहर की, हरि के वह सेवक बड़े आनंद से हरि के गुण गाते रहते हैं। उनके अंदर (इस तरह खिलाव बना रहता है, जैसे उनके अंदर) एक-रस बाजे बज रहे हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आइ बनिओ पूरबला भागु ॥ जनम जनम का सोइआ जागु ॥ गई गिलानि साध कै संगि ॥ मनु तनु रातो हरि कै रंगि ॥२॥
मूलम्
आइ बनिओ पूरबला भागु ॥ जनम जनम का सोइआ जागु ॥ गई गिलानि साध कै संगि ॥ मनु तनु रातो हरि कै रंगि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरबला = पहले जनम का। भाग = अच्छी किस्मत। सोइआ = सोया, सोए हुए। गिलानि = ग्लानि, नफरत। कै संगि = की संगत में। रातो = रंगा हुआ। कै रंगि = के प्रेम रंग में।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में (रहने से मनुष्य के अंदर से दूसरों के लिए) नफरत दूर हो जाती है, मनुष्य का मन और तन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है। (गुरु की संगति की इनायत से माया के मोह की नींद में से) कई जन्मों से सोया हुआ (मन) जाग जाता है, (संगति के सदका) उसका पहले जन्मों के अच्छे भाग्य मिलने का सबब आ बनता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखे राखनहार दइआल ॥ ना किछु सेवा ना किछु घाल ॥ करि किरपा प्रभि कीनी दइआ ॥ बूडत दुख महि काढि लइआ ॥३॥
मूलम्
राखे राखनहार दइआल ॥ ना किछु सेवा ना किछु घाल ॥ करि किरपा प्रभि कीनी दइआ ॥ बूडत दुख महि काढि लइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाल = मेहनत। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। बूडत = डूब रहा।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की संगति में रहने से जिस मनुष्य पर) प्रभु ने कृपा की, दया की, उसको दुखों में डूबते को (प्रभु ने बाँह से पकड़ कर) बचा लिया, प्रभु ने उसकी की हुई सेवा नहीं देखी, कोई मेहनत नहीं देखी, (दुखों से) बचाने में सामर्थ्य वाले ने दया के श्रोत से उसकी रक्षा की।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि उपजिओ मन महि चाउ ॥ आठ पहर हरि के गुण गाउ ॥ गावत गावत परम गति पाई ॥ गुर प्रसादि नानक लिव लाई ॥४॥२०॥३१॥
मूलम्
सुणि सुणि उपजिओ मन महि चाउ ॥ आठ पहर हरि के गुण गाउ ॥ गावत गावत परम गति पाई ॥ गुर प्रसादि नानक लिव लाई ॥४॥२०॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि = सुन के। सुणि सुणि = बार बार सुन के। उपजिओ = पैदा हुआ। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। गुर प्रसादि = गुरु की किरपा से। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (गुरु की संगति में रह के परमात्मा की महिमा) बार-बार सुन के (जिस मनुष्य के) मन में (महिमा करने का) चाव पैदा हो गया, वह आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाने लग पड़ा। (गुण) गाते हुए उसने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली। गुरु की कृपा से उसने (प्रभु के चरणों में) तवज्जो जोड़ ली।4।20।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ कउडी बदलै तिआगै रतनु ॥ छोडि जाइ ताहू का जतनु ॥ सो संचै जो होछी बात ॥ माइआ मोहिआ टेढउ जात ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ कउडी बदलै तिआगै रतनु ॥ छोडि जाइ ताहू का जतनु ॥ सो संचै जो होछी बात ॥ माइआ मोहिआ टेढउ जात ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउडी = तुच्छ सी चीज। बदलै = बदले में, की खातिर। छोडि जाइ = जो साथ छोड़ जाती है। ताहू का = उसी (माया) का ही। संचै = इकट्ठी करता है। होछी = तुच्छ सी। टेडउ = टेढ़ी, अकड़ अकड़ के।1।
अर्थ: (परमात्मा का नाम अमूल्य रत्न है, इसके मुकाबले में माया कौड़ी के बराबर है; पर साकत मनुष्य) कौड़ी की खातिर (कीमती) रतन को छोड़ देता है, उसी की ही प्राप्ति का यत्न करता है जो साथ छोड़ जाती है, उसी (माया) को ही इकट्ठी करता रहता है जिसकी पूछ-प्रतीति थोड़ी सी ही है, माया के मोह में फंसा हुआ (साकत) अकड़-अकड़ के चलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभागे तै लाज नाही ॥ सुख सागर पूरन परमेसरु हरि न चेतिओ मन माही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अभागे तै लाज नाही ॥ सुख सागर पूरन परमेसरु हरि न चेतिओ मन माही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभागे = हे भाग्यहीन! तै = तुझे। लाज = शर्म। सुख सागर = सुखों का समुंदर। माही = में।1। रहाउ।
अर्थ: हे बद्-नसीब (साकत)! तुझे (कभी ये) शर्म नहीं आती कि जो सर्व-व्यापक परमात्मा सारे सुखों का समुंदर है उसको तू अपने मन में याद नहीं करता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रितु कउरा बिखिआ मीठी ॥ साकत की बिधि नैनहु डीठी ॥ कूड़ि कपटि अहंकारि रीझाना ॥ नामु सुनत जनु बिछूअ डसाना ॥२॥
मूलम्
अम्रितु कउरा बिखिआ मीठी ॥ साकत की बिधि नैनहु डीठी ॥ कूड़ि कपटि अहंकारि रीझाना ॥ नामु सुनत जनु बिछूअ डसाना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउरा = कड़वा। बिखिआ = माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। साकत = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। बिधि = हालत। नैनहु = आँखों से। कूड़ी = झूठ में, नाशवान पदार्थ में। कपटि = कपट में। रीझाना = रीझता है, खुश होता है। जनु = जैसे कि। बिदूअ = बिच्छू। डसाना = डंक मार गया।2।
अर्थ: (हे भाई!) रब से टूटे हुए मनुष्य की (बुरी) हालत (हमने) देखी है, इसको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अमृत) कड़वा लगता है और माया मीठी लगती है। (साकत हमेशा) नाशवान पदार्थ में, ठगी (करने) में और अहंकार में ही खुश रहता है। परमात्मा का नाम सुनते ही ऐसे होता है जैसे इसको बिच्छू डस गया हो।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ कारणि सद ही झूरै ॥ मनि मुखि कबहि न उसतति करै ॥ निरभउ निरंकार दातारु ॥ तिसु सिउ प्रीति न करै गवारु ॥३॥
मूलम्
माइआ कारणि सद ही झूरै ॥ मनि मुखि कबहि न उसतति करै ॥ निरभउ निरंकार दातारु ॥ तिसु सिउ प्रीति न करै गवारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद ही = सदा ही। कारणि = की खातिर। झूरै = चिन्ता करता रहता है। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। तिसु सिउ = उस से। गवारु = मूर्ख।3।
अर्थ: (हे भाई! साकत मनुष्य) सदा ही माया की खातिर चिन्ता-फिक्र करता रहता है, यह कभी भी अपने मन में अपने मुँह से परमात्मा की महिमा नहीं करता। जो परमात्मा सब दातें देने वाला है, जिसको किसी का डर-भय नहीं है, जो शरीरों की कैद से परे है, उससे यह मूर्ख साकत कभी प्यार नहीं डालता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ साहा सिरि साचा साहु ॥ वेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ मोह मगन लपटिओ भ्रम गिरह ॥ नानक तरीऐ तेरी मिहर ॥४॥२१॥३२॥
मूलम्
सभ साहा सिरि साचा साहु ॥ वेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ मोह मगन लपटिओ भ्रम गिरह ॥ नानक तरीऐ तेरी मिहर ॥४॥२१॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। साचा = सदा कायम रहने वाला। वेमुहताजु = जिसको किसी की अधीनता नहीं, किसी से गर्ज नहीं। मगन = मस्त, डूबा हुआ। लपटिओ = चिपका हुआ। गिरह = गाँठ। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू सब शाहों से बड़ा और सदा कायम रहने वाला शाह है, तुझे किसी की अधीनता नहीं, तू सब ताकतों का मालिक बादशाह है। (तेरा पैदा किया हुआ जीव सदा माया के) मोह में डूबा हुआ (माया के साथ ही) चिपका रहता है, (इसके मन में) भटकना ही बनी रहती है। (हे प्रभु! इस संसार-समुंदर में से) तेरी मेहर से ही पार हुआ जा सकता है।4।21।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ रैणि दिनसु जपउ हरि नाउ ॥ आगै दरगह पावउ थाउ ॥ सदा अनंदु न होवी सोगु ॥ कबहू न बिआपै हउमै रोगु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ रैणि दिनसु जपउ हरि नाउ ॥ आगै दरगह पावउ थाउ ॥ सदा अनंदु न होवी सोगु ॥ कबहू न बिआपै हउमै रोगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रजनि, रात। दिनसु = दिन। जपउ = मैं जपता रहूँ। आगै = परलोक में। पावउ = मैं हासिल करूँ। सोगु = शोक, चिन्ता। होवी = होगा। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता।1।
अर्थ: (हे प्रभु! कृपा कर) मैं दिन-रात हरि का नाम जपता रहूँ, (और इस तरह) परलोक में तेरी हजूरी में जगह प्राप्त कर लूँ। (जो मनुष्य सदा नाम जपता है, उसको) सदा आनंद बना रहता है, उसे कभी चिन्ता नहीं व्यापती, अहंकार का रोग कभी उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजहु संतहु हरि ब्रहम गिआनी ॥ बिसमन बिसम भए बिसमादा परम गति पावहि हरि सिमरि परानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
खोजहु संतहु हरि ब्रहम गिआनी ॥ बिसमन बिसम भए बिसमादा परम गति पावहि हरि सिमरि परानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! ब्रहम गिआनी = परमात्मा से सांझ रखने वाला। ब्रहम गिआनी संतहु = परमात्मा से सांझ रखने वाले हे संत जनो! खोजहु = तलाश करो। बिसम = आश्चर्य। बिसमन बिसम = बहुत ही हैरान करने वाली। बिसमादा = हैरानी करने वाली ये अवस्था। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। परानी = हे प्राणी!।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले हे संतजनो! सदा परमात्मा की खोज करते रहो। हे प्राणी! (सदा) परमात्मा का स्मरण करता रह; (नाम-जपने की इनायत से) बड़ी ही आश्चर्यजनक आत्मिक अवस्था बन जाएगी, तू सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गनि मिनि देखहु सगल बीचारि ॥ नाम बिना को सकै न तारि ॥ सगल उपाव न चालहि संगि ॥ भवजलु तरीऐ प्रभ कै रंगि ॥२॥
मूलम्
गनि मिनि देखहु सगल बीचारि ॥ नाम बिना को सकै न तारि ॥ सगल उपाव न चालहि संगि ॥ भवजलु तरीऐ प्रभ कै रंगि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गनि = गिन के। मिनि = मिण के, नाप के। बीचारि = बिचार के। को = कोई। सकै न तारि = तैरा न सके। उपाव = उपाय। सगल = सारे। संगि = साथ। भवजलु = संसार समुंदर। तरीऐ = तैरा जा सकता है। कै रंगि = के प्रेम में रहने से।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! सारे ध्यान से अच्छी तरह विचार के देख लो, परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी (संसार-समुंदर से) पार नहीं लंघा सकता। (नाम के बिना) और सारे ही उपाय (मनुष्य के) साथ नहीं जाते (सहायता नहीं करते)। प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे रहने से संसार-समुंदर में से पार लांघा जा सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही धोइ न उतरै मैलु ॥ हउमै बिआपै दुबिधा फैलु ॥ हरि हरि अउखधु जो जनु खाइ ॥ ता का रोगु सगल मिटि जाइ ॥३॥
मूलम्
देही धोइ न उतरै मैलु ॥ हउमै बिआपै दुबिधा फैलु ॥ हरि हरि अउखधु जो जनु खाइ ॥ ता का रोगु सगल मिटि जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। धोइ = (धोय), धो के। दुबिधा = दुचिक्तापन, अंदर से और-और बाहर से और होना। फैलु = बिखराव, पसारा। अउखधु = दवा। ता का = उस (मनुष्य) का।3।
अर्थ: (हे संत जनों! तीर्थ आदि पर) शरीर को धोने से (मन की विकारों वाली) मैल दूर नहीं होती, (बल्कि ये) अहंकार अपना दबाव बना लेता है (कि मैं तीर्थ-स्नान करके आया हूँ। व्यक्ति के अंदर) अंदर से और व बाहर से और होने का पसारा पसर जाता है (मनुष्य पाखण्डी हो जाता है)। हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा के नाम की दवाई खाता है, उसका सारा (मानसिक) रोग दूर हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा पारब्रहम दइआल ॥ मन ते कबहु न बिसरु गुोपाल ॥ तेरे दास की होवा धूरि ॥ नानक की प्रभ सरधा पूरि ॥४॥२२॥३३॥
मूलम्
करि किरपा पारब्रहम दइआल ॥ मन ते कबहु न बिसरु गुोपाल ॥ तेरे दास की होवा धूरि ॥ नानक की प्रभ सरधा पूरि ॥४॥२२॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। कबहु न = कभी भी ना। गुोपाल = हे गोपाल! (असल शब्द है ‘गोपाल’, यहाँ पढ़ना है ‘गुपाल’)। होवा = होऊँ, मैं हो जाऊँ। सरधा = तमन्ना, इच्छा। पूरि = पूरी कर।4।
अर्थ: हे पारब्रहम! हे दया के घर! (मेरे ऊपर) मेहर कर। हे गोपाल! तू मेरे मन से कभी भी ना बिसर। हे प्रभु! मैं तेरे दासों के चरणों की धूल बना रहूँ- नानक की ये चाहत पूरी कर।4।22।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ तेरी सरणि पूरे गुरदेव ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू समरथु पूरन पारब्रहमु ॥ सो धिआए पूरा जिसु करमु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ तेरी सरणि पूरे गुरदेव ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू समरथु पूरन पारब्रहमु ॥ सो धिआए पूरा जिसु करमु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरदेव = हे गुरदेव! समरथु = सब ताकतों के मालिक। सो = वह बंदा। जिसु = जिस पर। करमु = बख्शिश।1।
अर्थ: हे सर्व-गुण भरपूर और सबसे बड़े देवते! मैं तेरी शरण आया हूँ। तेरे बिना मुझे कोई और (सहायता करने वाला) नहीं (दिखता)। तू सब ताकतों का मालिक है, तू हर जगह व्यापक परमेश्वर है। वही मनुष्य तेरा ध्यान धर सकता है जिस पर तेरी बख्शिश हो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरण तारण प्रभ तेरो नाउ ॥ एका सरणि गही मन मेरै तुधु बिनु दूजा नाही ठाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तरण तारण प्रभ तेरो नाउ ॥ एका सरणि गही मन मेरै तुधु बिनु दूजा नाही ठाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरण = बेड़ी, नाव। प्रभ = हे प्रभु! गही = पकड़ी। मन मेरै = मेरे मन ने। ठाउ = जगह।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम (जीवों को संसार-समुंदर से) पार लंघाने के लिए जहाज है। मेरे मन ने एक तेरी ही ओट ली है। हे प्रभु! तेरे बिना मुझे कोई और (आसरे वाली) जगह नहीं सूझती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि जपि जीवा तेरा नाउ ॥ आगै दरगह पावउ ठाउ ॥ दूखु अंधेरा मन ते जाइ ॥ दुरमति बिनसै राचै हरि नाइ ॥२॥
मूलम्
जपि जपि जीवा तेरा नाउ ॥ आगै दरगह पावउ ठाउ ॥ दूखु अंधेरा मन ते जाइ ॥ दुरमति बिनसै राचै हरि नाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जप के। जपि जपि = बार बार जप के। जीवा = मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। मन ते = मन से। जाइ = चला जाता है। दुरमति = बुरी मति। राचै = रचता है, लीन रहता है। नाइ = नाय, नाम में।2।
अर्थ: हे मेरे गुरदेव! तेरा नाम जप-जप के मैं (यहाँ) आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ, आगे भी तेरी हजूरी में मैं (टिकने के योग्य) जगह प्राप्त कर सकूँगा। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे नाम में लीन होता है, (उसके अंदर से) दुर्मति दूर हो जाती है, उसके मन से दुख-कष्ट और (माया के मोह का) अंधेरा चला जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ गुर पूरे की निरमल रीति ॥ भउ भागा निरभउ मनि बसै ॥ अम्रित नामु रसना नित जपै ॥३॥
मूलम्
चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ गुर पूरे की निरमल रीति ॥ भउ भागा निरभउ मनि बसै ॥ अम्रित नामु रसना नित जपै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। चरन कमल = कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। निरमल = पवित्र। रीति = मर्यादा। भउ = डर। निरभउ = डर रहित परमात्मा। मनि = मन में। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। रसना = जीभ (से)।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम जपना ही) पूरे गुरु की पवित्र जीवन मर्यादा है (जो मनुष्य ये मर्यादा धारण करता है, उसका) प्यार (परमात्मा के) सुंदर चरणों से बन जाता है। जो मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला नाम नित्य जपता है, डर-रहित प्रभु उसके मन में आ बसता है (इसलिए उसका हरेक) डर दूर हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि जनम के काटे फाहे ॥ पाइआ लाभु सचा धनु लाहे ॥ तोटि न आवै अखुट भंडार ॥ नानक भगत सोहहि हरि दुआर ॥४॥२३॥३४॥
मूलम्
कोटि जनम के काटे फाहे ॥ पाइआ लाभु सचा धनु लाहे ॥ तोटि न आवै अखुट भंडार ॥ नानक भगत सोहहि हरि दुआर ॥४॥२३॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। सचा = सदा कायम रहने वाला। लाहे = नफा। तोटि = घाटा। अखुट = कभी ना खत्म होने वाला। भंडार = खजाने। सोहहि = शोभते हैं। दुआर = द्वार, दरवाजे पर।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के दर पे शोभा पाते हैं। (भक्ति के सदका) उनके पहले करोड़ों जन्मों के (माया के) बंधन काटे जाते हैं (जीव यहाँ जगत में हरि-नाम-धन का व्यापार करने आते हैं। प्रभु की भक्ति करने वाले बंदे) सदा कायम रहने वाला हरि-नाम-धन लाभ कमा लेते हैं (उनके पास इस नाम-धन के) कभी ना खत्म होने वाले खजाने (भर जाते हैं जिनमें) कभी घाटा नहीं पड़ता।4।23।34।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ रतन जवेहर नाम ॥ सतु संतोखु गिआन ॥ सूख सहज दइआ का पोता ॥ हरि भगता हवालै होता ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ रतन जवेहर नाम ॥ सतु संतोखु गिआन ॥ सूख सहज दइआ का पोता ॥ हरि भगता हवालै होता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। गिआन = परमात्मा से जान पहचान, उच्च आत्मिक जीवन की सूझ। सहज = आत्मिक अडोलता। पोता = पोतह, खजाना। भगता हवालै = भगतों के वश में।1।
अर्थ: (हे भाई! प्यारे प्रभु का खजाना ऐसा है जिसमें उसका) नाम (ही) रतन और जवाहरात हैं, उसमें सत-संतोख और ऊँचे आत्मिक जीवन की सूझ कीमती पदार्थ हैं। वह खजाना सुख, आत्मिक अडोलता व दया के श्रोत हैं। पर, वह खजाना परमात्मा के भक्तों के सुपुर्द होया हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम को भंडारु ॥ खात खरचि कछु तोटि न आवै अंतु नही हरि पारावारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राम को भंडारु ॥ खात खरचि कछु तोटि न आवै अंतु नही हरि पारावारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। भंडार = खजाना। खात = खाते हुए। खरचि = खर्च के। तोटि = कमी। पारावारु = (पार+अवार) परला और उरला छोर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) प्यारे प्रभु का खजाना (ऐसा है कि उसको) खुद इस्तेमाल करते हुए और-और लोगों को बाँटते हुए (उसमें) कमी नहीं आती। उस परमातमा के खजाने का अंत नहीं मिलता, उसकी हस्ती का उरला-परला छोर नहीं मिलता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीरतनु निरमोलक हीरा ॥ आनंद गुणी गहीरा ॥ अनहद बाणी पूंजी ॥ संतन हथि राखी कूंजी ॥२॥
मूलम्
कीरतनु निरमोलक हीरा ॥ आनंद गुणी गहीरा ॥ अनहद बाणी पूंजी ॥ संतन हथि राखी कूंजी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमोलक = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु। गहीरा = गहरा, समुंदर। अनहद = अनाहत, बिना बजाए बजने वाली, एक रस जारी रहने वाली। बाणी = महिमा की लहर। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। संतन हथि = संतों के हाथ में। कूँजी = कूंजी।2।
अर्थ: (हे भाई! प्यारे प्रभु का खजाना ऐसा है जिसमें उसका) कीर्तन एक ऐसा हीरा है जिसका मूल्य नहीं पड़ सकता (उस कीर्तन की इनायत से) गुणों के मालिक समुंदर-प्रभु (के मिलाप) का आनंद (प्राप्त होता है)। (कीर्तन की इनायत से पैदा हुई) एक-रस जारी रहने वाली महिमा की लहर (उस खजाने में मनुष्य के लिए) राशि-पूंजी है। (पर, परमात्मा ने इस खजाने की) कूँजी संतों के हाथ में रखी हुई है।2।
[[0894]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंन समाधि गुफा तह आसनु ॥ केवल ब्रहम पूरन तह बासनु ॥ भगत संगि प्रभु गोसटि करत ॥ तह हरख न सोग न जनम न मरत ॥३॥
मूलम्
सुंन समाधि गुफा तह आसनु ॥ केवल ब्रहम पूरन तह बासनु ॥ भगत संगि प्रभु गोसटि करत ॥ तह हरख न सोग न जनम न मरत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंन = शून्य, फुरनों का अभाव, जहाँ कोई मायावी विचार ना उठें। तह = वहाँ, उस हृदय में। गुफा आसनु = गुफा में ठिकाना। बासनु = वास। संगि = साथ। गोसटि = मिलाप। हरख = खुशी। सोग = ग़म। मरत = मौत।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस हृदय-घर में वह खजाना आ बसता है) वहाँ ऐसी समाधि बनी रहती है जिसमें कोई मायावी विचार नहीं उठते, (पहाड़ों की कंद्रों की जगह उस हृदय-) गुफा में मनुष्य की तवज्जो टिकी रहती है, उस हृदय-घर में सिर्फ पूरन परमात्मा का निवास बना रहता है। (जिस भक्त के हृदय में वह खजाना प्रगट हो जाता है उस) भक्त से प्रभु मिलाप बना लेता है, उस हृदय में खुशी-ग़मी, जनम-मरण (के चक्करों का डर) का कोई असर नहीं होता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा जिसु आपि दिवाइआ ॥ साधसंगि तिनि हरि धनु पाइआ ॥ दइआल पुरख नानक अरदासि ॥ हरि मेरी वरतणि हरि मेरी रासि ॥४॥२४॥३५॥
मूलम्
करि किरपा जिसु आपि दिवाइआ ॥ साधसंगि तिनि हरि धनु पाइआ ॥ दइआल पुरख नानक अरदासि ॥ हरि मेरी वरतणि हरि मेरी रासि ॥४॥२४॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। जिसु = जिस मनुष्य को। साध संगि = गुरु की संगति में। तिनि = उस (मनुष्य) ने। दइआल = हे दया के घर प्रभु! नानक अरदासि = नानक की प्रार्थना। वरतणि = हर वक्त इस्तेमाल की जाने वाली चीज़। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4।
अर्थ: (पर, हे भाई! सिर्फ) उस मनुष्य ने गुरु की संगति में रह के वह नाम-धन पाया है जिसको प्रभु ने खुद किरपा करके ये धन दिलवाया है। हे दया के श्रोत अकाल-पुरख! (तेरे सेवक) नानक की भी यही आरजू है कि तेरा नाम मेरी संपत्ति बना रहे, तेरा नाम मेरी हर वक्त की इस्तेमाल वाली चीज़ बनी रहे।4।24।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ महिमा न जानहि बेद ॥ ब्रहमे नही जानहि भेद ॥ अवतार न जानहि अंतु ॥ परमेसरु पारब्रहम बेअंतु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ महिमा न जानहि बेद ॥ ब्रहमे नही जानहि भेद ॥ अवतार न जानहि अंतु ॥ परमेसरु पारब्रहम बेअंतु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। न जानहि = नहीं जानते (बहुवचन)। बेद = चारों वेद (बहुवचन)। ब्रहमे = अनेक ब्रहमा (बहुवचन)। भेद = (परमात्मा के) दिल की बात।1।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु कितना बड़ा है; ये बात) (चारों) वेद (भी) नहीं जानते। अनेक ब्रहमा भी (उसके) दिल की बात नहीं जानते। सारे अवतार भी उस (परमात्मा के गुणों) का अंत नहीं जानते। हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर बेअंत है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपनी गति आपि जानै ॥ सुणि सुणि अवर वखानै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अपनी गति आपि जानै ॥ सुणि सुणि अवर वखानै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = हालत। जानै = जानता है। सुणि = सुन के। अवर = औरों से। वखानै = (जगत) बयान करता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा कैसा है - ये बात वह खुद ही जानता है। (जीव) औरों से सुन-सुन के ही (परमात्मा के बारे में) वर्णन करता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकरा नही जानहि भेव ॥ खोजत हारे देव ॥ देवीआ नही जानै मरम ॥ सभ ऊपरि अलख पारब्रहम ॥२॥
मूलम्
संकरा नही जानहि भेव ॥ खोजत हारे देव ॥ देवीआ नही जानै मरम ॥ सभ ऊपरि अलख पारब्रहम ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संकर = अनेक शिव। भेव = भेद। हारे = थक गए। जानै = जानते। मरम = भेद। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके।2।
अर्थ: (हे भाई!) अनेक शिव जी परमात्मा के दिल की बात नहीं जानते, अनेक देवते उसकी खोज करते-करते थक गए। देवियों में से भी कोई उसका भेद नहीं जानती। हे भाई! परमात्मा सबसे बड़ा है, उसके सही स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपनै रंगि करता केल ॥ आपि बिछोरै आपे मेल ॥ इकि भरमे इकि भगती लाए ॥ अपणा कीआ आपि जणाए ॥३॥
मूलम्
अपनै रंगि करता केल ॥ आपि बिछोरै आपे मेल ॥ इकि भरमे इकि भगती लाए ॥ अपणा कीआ आपि जणाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपनै रंगि = अपनी मौज में। करता = करता रहता है। केल = खेल, करिश्मे, तमाशे। बिछोरै = विछोड़ता है। आपे = आप ही। इकि = अनेक जीव। भरमे = भ्रम में ही। कीआ = पैदा किया हुआ (जगत)। जणाए = सूझ देता है।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपनी मौज में (जगत के सारे) करिश्मे कर रहा है, प्रभु खुद ही (जीवों को अपने चरणों से) विछोड़ता है, खुद ही मिलाता है। अनेक जीवों को उसने भटकनों में डाला हुआ है, और अनेक जीवों को अपनी भक्ति में जोड़ा हुआ है। (ये जगत उसका) अपना ही पैदा किया हुआ है, (इसको वह) खुद ही सूझ बख्शता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतन की सुणि साची साखी ॥ सो बोलहि जो पेखहि आखी ॥ नही लेपु तिसु पुंनि न पापि ॥ नानक का प्रभु आपे आपि ॥४॥२५॥३६॥
मूलम्
संतन की सुणि साची साखी ॥ सो बोलहि जो पेखहि आखी ॥ नही लेपु तिसु पुंनि न पापि ॥ नानक का प्रभु आपे आपि ॥४॥२५॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साची साखी = सदा कायम रहने वाली बात। सो = वह कुछ। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। पेखहि = देखते हैं। आखी = (अपनी) आँखों से। लेपु = प्रभाव, असर। पुंनि = पुण्य ने। पापि = पाप ने। आपे आपि = अपने जैसा स्वयं ही स्वयं।4।
अर्थ: (हे भाई!) संत-जनों के बारे में सच्ची बात सुन। संत जन वह कुछ कहते हैं जो वे अपनी आँखों से देखते हैं। (संतजन कहते हैं कि) उस परमात्मा पर ना किसी पून्य और ना ही किसी पाप ने (कभी अपना) कोई असर किया है। हे भाई! नानक का परमात्मा (अपने जैसा) स्वयं ही स्वयं है।4।25।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ किछहू काजु न कीओ जानि ॥ सुरति मति नाही किछु गिआनि ॥ जाप ताप सील नही धरम ॥ किछू न जानउ कैसा करम ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ किछहू काजु न कीओ जानि ॥ सुरति मति नाही किछु गिआनि ॥ जाप ताप सील नही धरम ॥ किछू न जानउ कैसा करम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किछहू काजु = कोई भी (अच्छा) काम। कीओ = किया। जानि = जान के। गिआनि = ज्ञान चर्चा में। सुरति = ध्यान, लगन। सील = अच्छा स्वभाव। न जानउ = मैं नहीं जानता। करम = कर्मकांड।1।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे कोई समझ नहीं कि कर्मकांड किस तरह के होते हैं; जपों तपों सील धर्म को भी मैं नहीं जानता। हे प्रभु! ज्ञान-चर्चा में भी मेरी तवज्जो मेरी मति नहीं टिकती। मैं इस तरह का कोई काम मिथ के नहीं करता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठाकुर प्रीतम प्रभ मेरे ॥ तुझ बिनु दूजा अवरु न कोई भूलह चूकह प्रभ तेरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ठाकुर प्रीतम प्रभ मेरे ॥ तुझ बिनु दूजा अवरु न कोई भूलह चूकह प्रभ तेरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! भूलह = (यदि) हम भूलें करते हैं। चूकह = (अगर) हम चूक करते हैं। प्रभ = हे प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे मेरे ठाकुर! यदि हम भूलें करते हैं, अगर हम (जीवन-राह में) चूकते हैं, तो भी हे प्रभु! हम तेरे ही हैं, तेरे बिना हमारा और कोई नहीं है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिधि न बुधि न सिधि प्रगासु ॥ बिखै बिआधि के गाव महि बासु ॥ करणहार मेरे प्रभ एक ॥ नाम तेरे की मन महि टेक ॥२॥
मूलम्
रिधि न बुधि न सिधि प्रगासु ॥ बिखै बिआधि के गाव महि बासु ॥ करणहार मेरे प्रभ एक ॥ नाम तेरे की मन महि टेक ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिधि = (Supernatural Power) करामाती ताकत जिससे मन-इच्छित पदार्थ प्राप्त किए जा सकते हैं। सिधि = करामाती ताकत। बुधि = ऊँची सूझ बूझ। बिखै = विषौ। बिआधि = (व्याधि) शारीरिक रोग। गाव महि = गाँव में (शब्द ‘गाउ’ से संबंधक के कारण ‘गाव’ बन गया है)। टेक = आसरा।2।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! करामाती ताकतों की सूझ-बूझ और रौशनी मेरे अंदर नहीं है। विकारों और रोगों के इस शरीर-पिंड में मेरा बसेरा है। हे मेरे विधाता! मेरे मन में सिर्फ तेरे नाम का सहारा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि जीवउ मनि इहु बिस्रामु ॥ पाप खंडन प्रभ तेरो नामु ॥ तू अगनतु जीअ का दाता ॥ जिसहि जणावहि तिनि तू जाता ॥३॥
मूलम्
सुणि सुणि जीवउ मनि इहु बिस्रामु ॥ पाप खंडन प्रभ तेरो नामु ॥ तू अगनतु जीअ का दाता ॥ जिसहि जणावहि तिनि तू जाता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवउ = मैं जीता हूँ। मनि = मन में। बिस्रामु = विश्राम, धरवास। पाप खंडन = पापों का नाश करने वाला। प्रभ = हे प्रभु! अगनतु = (अ+गनतु) लेखे से परे। जीअ का = जीवात्मा का। जिसहि = जिसको। जणावहि = तू समझ बख्शता है। तिनि = उस मनुष्य ने। तू = तुझे।3।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! मेरे मन में (सिर्फ) एक धरवास है कि तेरा नाम पापों का नाश करने वाला है; (तेरा नाम) सुन-सुन के ही मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। प्रभु! तेरी ताकतें गिनी नहीं जा सकतीं, तू ही जीवात्मा देने वाला है। जिस मनुष्य को तू समझ बख्शता है, उसने ही तेरे साथ जान-पहचान डाली है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो उपाइओ तिसु तेरी आस ॥ सगल अराधहि प्रभ गुणतास ॥ नानक दास तेरै कुरबाणु ॥ बेअंत साहिबु मेरा मिहरवाणु ॥४॥२६॥३७॥
मूलम्
जो उपाइओ तिसु तेरी आस ॥ सगल अराधहि प्रभ गुणतास ॥ नानक दास तेरै कुरबाणु ॥ बेअंत साहिबु मेरा मिहरवाणु ॥४॥२६॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाइओ = (तूने) पैदा किया है। सगल = सारे जीव। अराधहि = आराधना करते हैं, याद करते हैं। गुणतास = गुणों का खजाना। तेरै = तुझसे। साहिबु = मालिक।4।
अर्थ: हे गुणों के खजाने प्रभु! सारे जीव तेरी ही आराधना करते हैं, जिस-जिस जीव को तूने पैदा किया है, उसको तेरी (सहायता की) ही आस है। तेरा दास नानक तुझसे बलिहार जाता है (और कहता है:) तू मेरा मालिक है, तू बेअंत है, तू सदा दया करने वाला है।4।26।37।
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा का नाम ही सारे पापों का नाश करने वाला है। कोई कर्म-धर्म, कोई ज्ञान-चर्चा, कोई रिद्धियाँ-सिद्धियाँ इसकी बराबरी नहीं कर सकती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ राखनहार दइआल ॥ कोटि भव खंडे निमख खिआल ॥ सगल अराधहि जंत ॥ मिलीऐ प्रभ गुर मिलि मंत ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ राखनहार दइआल ॥ कोटि भव खंडे निमख खिआल ॥ सगल अराधहि जंत ॥ मिलीऐ प्रभ गुर मिलि मंत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = दया का घर। कोटि = करोड़ों। भव = जनम, जन्मों के चक्कर। खंडे = नाश हो जाते हैं। निमख = (निमेष) आँख के झपकने जितना समय। खिआल = ध्यान। सगल जंत = सारे जीव। मिलिऐ प्रभ = प्रभु को मिल सकते हैं। गुर मिलि = गुरु को मिल के। गुर मंत = गुरु का उपदेश (ले के)।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ है, दया का श्रोत है। अगर आँख फरकने जितने समय के लिए भी उसका ध्यान धरें, तो करोड़ों जन्मों के चक्कर काटे जाते हैं। सारे जीव उसीकी आराधना करते हैं। हे भाई! गुरु को मिल के, गुरु का उपदेश ले के उस प्रभु को मिला जा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअन को दाता मेरा प्रभु ॥ पूरन परमेसुर सुआमी घटि घटि राता मेरा प्रभु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीअन को दाता मेरा प्रभु ॥ पूरन परमेसुर सुआमी घटि घटि राता मेरा प्रभु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। पूरन = सर्व व्यापक। सुआमी = मालिक। घटि घटि = हरेक शरीर में। राता = रमा हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सब जीवों को दातें देने वाला है। वह मेरा मालिक परमेश्वर प्रभु सबमें व्यापक है, हरेक शरीर में रमा हुआ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता की गही मन ओट ॥ बंधन ते होई छोट ॥ हिरदै जपि परमानंद ॥ मन माहि भए अनंद ॥२॥
मूलम्
ता की गही मन ओट ॥ बंधन ते होई छोट ॥ हिरदै जपि परमानंद ॥ मन माहि भए अनंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता की = उस (प्रभु) की। गही = पकड़ी। मन = हे मन! ओट = आसरा। ते = से। छोट = मुक्ति। हिरदै = हृदय में। जपि = जप के। माहि = में।2।
अर्थ: हे मन! जिस व्यक्ति ने उस परमात्मा का आसरा ले लिया, (माया के मोह के) बंधनो से उसकी मुक्ति हो गई। सबसे ऊँचे सुख के मालिक प्रभु को हृदय में जप के मन में खुशियां ही खुशियां बन जाती हैं।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
तारण तरण हरि सरण ॥ जीवन रूप हरि चरण ॥ संतन के प्राण अधार ॥ ऊचे ते ऊच अपार ॥३॥
मूलम्
तारण तरण हरि सरण ॥ जीवन रूप हरि चरण ॥ संतन के प्राण अधार ॥ ऊचे ते ऊच अपार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरण = जहाज। प्राण अधार = जिंद का आसरा। ऊचे ते ऊच = ऊँचे से ऊँचा, सबसे ऊँचा। अपार = (अ+पार) जिसकी हस्ती का परला छोर ना मिल सके, बेअंत।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का आसरा (संसार-समुंदर से) पार लंघाने के लिए जहाज़ है। प्रभु के चरणों की ओट आत्मिक जीवन देने वाली है। परमात्मा संत जनों की जिंद का आसरा है, वह सबसे ऊँचा और बेअंत है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सु मति सारु जितु हरि सिमरीजै ॥ करि किरपा जिसु आपे दीजै ॥ सूख सहज आनंद हरि नाउ ॥ नानक जपिआ गुर मिलि नाउ ॥४॥२७॥३८॥
मूलम्
सु मति सारु जितु हरि सिमरीजै ॥ करि किरपा जिसु आपे दीजै ॥ सूख सहज आनंद हरि नाउ ॥ नानक जपिआ गुर मिलि नाउ ॥४॥२७॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारु = संभाल, ग्रहण कर। जितु = जिस (मति) के द्वारा। सिमरीजै = स्मरण किया जा सकता है। करि = कर के। सहज = आत्मिक अडोलता। नाउ = नाम।4।
अर्थ: हे भाई! वह मति ग्रहण कर, जिससे परमात्मा का स्मरण किया जा सके, (पर वही मनुष्य ऐसी बुद्धि ग्रहण करता है) जिसको प्रभु कृपा करके खुद दे देता है। परमात्मा का नाम सुख आत्मिक अडोलता और आनंद (का श्रोत) है। हे नानक! (जिसने) यह नाम (जपा है) गुरु को मिल के ही जपा है।4।27।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ सगल सिआनप छाडि ॥ करि सेवा सेवक साजि ॥ अपना आपु सगल मिटाइ ॥ मन चिंदे सेई फल पाइ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ सगल सिआनप छाडि ॥ करि सेवा सेवक साजि ॥ अपना आपु सगल मिटाइ ॥ मन चिंदे सेई फल पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल सिआनप = सारी चतुराईयाँ, एसे विचार कि तू बड़ा समझदार है। सेवक साजि = सेवक की मर्यादा से, सेवक बन के। आपु = स्वै भाव। मन चिंदे = मन के चितवे हुए। पाइ = (पाय) पाता है।1।
अर्थ: हे भाई! इस तरह के सारे ख्याल छोड़ दे कि (संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए) तू बड़ा समझदार है, सेवक वाली भावना से (गुरु के दर पर) सेवा किया कर। (जो मनुष्य गुरु के दर पर) अपना सारा स्वै भाव मिटा देता है, वही मन के चितवे हुए फल पा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होहु सावधान अपुने गुर सिउ ॥ आसा मनसा पूरन होवै पावहि सगल निधान गुर सिउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
होहु सावधान अपुने गुर सिउ ॥ आसा मनसा पूरन होवै पावहि सगल निधान गुर सिउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सावधान = (स+अवधान) अवधान सहित, ध्यान सहित। गुर सिउ = गुरु के साथ। मनसा = मन का फुरना। पावहि = तू प्राप्त करेगा। निधान = खजाना।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने गुरु के उपदेश की तरफ, पूरा ध्यान रखा कर, तेरी (हरेक) आशा पूरी हो जाएगी, तेरा (हरेक) मन का फुरना पूरा हो जाएगा। अपने गुरु से तू सारे खजाने हासिल कर लेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूजा नही जानै कोइ ॥ सतगुरु निरंजनु सोइ ॥ मानुख का करि रूपु न जानु ॥ मिली निमाने मानु ॥२॥
मूलम्
दूजा नही जानै कोइ ॥ सतगुरु निरंजनु सोइ ॥ मानुख का करि रूपु न जानु ॥ मिली निमाने मानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानै = जानता। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया रहित प्रभु को। न जानु = ना समझ। मिली = मिलता है। मानु = आदर।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु उस माया रहित निर्लिप प्रभु को ही (हर जगह) जानता है, प्रभु के बिना और किसी को (अलग हस्ती) नहीं जानता, (इस वास्ते गुरु को) निरा मनुष्य का रूप ही ना समझ। (गुरु के दर पर उसी मनुष्य को) आदर मिलता है जो (अपनी समझदारी का) अहंकार छोड़ देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की हरि टेक टिकाइ ॥ अवर आसा सभ लाहि ॥ हरि का नामु मागु निधानु ॥ ता दरगह पावहि मानु ॥३॥
मूलम्
गुर की हरि टेक टिकाइ ॥ अवर आसा सभ लाहि ॥ हरि का नामु मागु निधानु ॥ ता दरगह पावहि मानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेक = आसरा। टेक टिकाइ = आसरा ले। लाहि = दूर कर के। मागु = मांग। निधानु = खजाना।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के रूप गुरु का ही ओट-आसरा पकड़, अन्य (आसरों की) सभी आशाएं (मन में से) दूर कर दे। (गुरु के दर से ही) परमात्मा का नाम खजाना मांगा कर, तब ही तू प्रभु की हजूरी में आदर-सत्कार प्राप्त करेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का बचनु जपि मंतु ॥ एहा भगति सार ततु ॥ सतिगुर भए दइआल ॥ नानक दास निहाल ॥४॥२८॥३९॥
मूलम्
गुर का बचनु जपि मंतु ॥ एहा भगति सार ततु ॥ सतिगुर भए दइआल ॥ नानक दास निहाल ॥४॥२८॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंतु = मंत्र, उपदेश। जपि = जपा कर। सार = श्रेष्ठ। ततु = अस्लियत। निहाल = प्रसन्न।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु का वचन, गुरु का शब्द-मंत्र (सदा) जपा कर, यही बढ़िया भक्ति है, यही है भक्ति की अस्लियत। हे नानक! जिस मनुष्यों पर सतिगुरु जी दयावान होते हैं, वह दास सदा निहाल अवस्था (चढ़दीकला) में रहते हैं।4।28।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ होवै सोई भल मानु ॥ आपना तजि अभिमानु ॥ दिनु रैनि सदा गुन गाउ ॥ पूरन एही सुआउ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ होवै सोई भल मानु ॥ आपना तजि अभिमानु ॥ दिनु रैनि सदा गुन गाउ ॥ पूरन एही सुआउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होवै = जो कुछ प्रभु की रजा अनुसार हो रहा है। सोई = उसी को। भल = भला। मानु = मान। तजि = छोड़। रैनि = रात। गाउ = गाता रह। सुआउ = जीवन उद्देश्य। पूरन = पूर्ण, ठीक।1।
अर्थ: हे भाई! जो कुछ प्रभु की रजा में हो रहा है उसी को भला मान, अपनी (समझदारी) का गुमान छोड़ दे। दिन-रात हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रह; बस! यही है ठीक जीवन का लक्ष्य।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनंद करि संत हरि जपि ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई गुर का जपि मंतु निरमल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आनंद करि संत हरि जपि ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई गुर का जपि मंतु निरमल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत हरि जपि = संत प्रभु का नाम जपता रह। मंतु = मंत्र, शब्द। निरमल = पवित्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! ये ख्याल छोड़ दे कि गुरु की अगुवाई के बिना संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए तू बहुत समझदार और चतुर है। गुरु का पवित्र शब्द-मंत्र जपा कर, (शांति के श्रोत) संत-हरि का नाम जपा कर और (इस तरह) आत्मिक आनंद (सदा) ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक की करि आस भीतरि ॥ निरमल जपि नामु हरि हरि ॥ गुर के चरन नमसकारि ॥ भवजलु उतरहि पारि ॥२॥
मूलम्
एक की करि आस भीतरि ॥ निरमल जपि नामु हरि हरि ॥ गुर के चरन नमसकारि ॥ भवजलु उतरहि पारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीतरि = अपने अंदर। नमसकारि = सिर झुकाया कर। भवजलु = संसार समुंदर।2।
अर्थ: हे भाई! एक परमात्मा की (सहायता की) आस अपने मन में टिकाए रख, परमात्मा का पवित्र नाम सदा जपता रह; गुरु के चरणों पर अपना सिर झुकाए रख, (इस तरह) तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवनहार दातार ॥ अंतु न पारावार ॥ जा कै घरि सरब निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥
मूलम्
देवनहार दातार ॥ अंतु न पारावार ॥ जा कै घरि सरब निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देवनहार = सब कुछ देने की ताकत वाला। पारावार = पार+अवार, परला उरला छोर। जा कै घरि = जिस (प्रभु) के घर में। सरब = सारे। निदान = आखिर को, जब और सारी आशाएं समाप्त हो जाएं।3।
अर्थ: (हे भाई! ये याद रख कि) दातें देने वाला प्रभु (सब कुछ) देने के समर्थ है, उसका अंत नहीं पड़ सकता, उसका इस पार उस पार का छोर नहीं मिल सकता। हे भाई! जिस प्रभु के घर में सारे खजाने मौजूद हैं, वही आखिर रक्षा करने के योग्य है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक पाइआ एहु निधान ॥ हरे हरि निरमल नाम ॥ जो जपै तिस की गति होइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥४॥२९॥४०॥
मूलम्
नानक पाइआ एहु निधान ॥ हरे हरि निरमल नाम ॥ जो जपै तिस की गति होइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥४॥२९॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जो मनुष्य। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। करमि = (प्रभु की) कृपा से।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा के पवित्र नाम का ये खजाना पा लिया, जो मनुष्य इस नाम को (सदा) जपता है उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है। पर, हे नानक! ये नाम-खजाना परमात्मा की मेहर से ही मिलता है।4।29।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ दुलभ देह सवारि ॥ जाहि न दरगह हारि ॥ हलति पलति तुधु होइ वडिआई ॥ अंत की बेला लए छडाई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ दुलभ देह सवारि ॥ जाहि न दरगह हारि ॥ हलति पलति तुधु होइ वडिआई ॥ अंत की बेला लए छडाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुलभ = दुर्लभ, जो मुश्किल से मिली है। देह = शरीर। सवारि = सवार ले, सफल कर ले। हारि = हार के। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। बेला = समय।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के गुण गा के) इस मानव शरीर को सफल कर ले जो बड़ी मुश्किल से मिलता है, (महिमा की इनायत से यहाँ से मानव जनम की बाजी) हार के दरगाह में नहीं जाएगा; तुझे इस लोक में और परलोक में शोभा मिलेगी। (परमात्मा की महिमा) तुझे आखिरी वक्त भी (माया के मोह के बंधनो से) छुड़ा लेगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम के गुन गाउ ॥ हलतु पलतु होहि दोवै सुहेले अचरज पुरखु धिआउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम के गुन गाउ ॥ हलतु पलतु होहि दोवै सुहेले अचरज पुरखु धिआउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाउ = गाता रह। हलतु = ये लोक। पलतु = परलोक। होहि = हो जाए। सुहेले = आसान। धिआउ = ध्यान धरा कर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के गुण गाया कर, आश्चर्य-रूप अकाल-पुरख का ध्यान धरा कर, (इस तरह तेरा) ये लोक (और तेरा) परलोक दोनों सुखी हो जाएंगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊठत बैठत हरि जापु ॥ बिनसै सगल संतापु ॥ बैरी सभि होवहि मीत ॥ निरमलु तेरा होवै चीत ॥२॥
मूलम्
ऊठत बैठत हरि जापु ॥ बिनसै सगल संतापु ॥ बैरी सभि होवहि मीत ॥ निरमलु तेरा होवै चीत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापु = भजन कर। सगल = सारा। संतापु = दुख-कष्ट। सभि = सारे। चीत = चिक्त।2।
अर्थ: (हे भाई!) उठते-बैठते (हर वक्त) परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम की इनायत से) सारा दुख-कष्ट मिट जाता है। (नाम जपने से तेरे) सारे वैरी (तेरे) मित्र बन जाएंगे, तेरा अपना मन (वैर आदि से) पवित्र हो जाएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ ते ऊतम इहु करमु ॥ सगल धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि सिमरनि तेरा होइ उधारु ॥ जनम जनम का उतरै भारु ॥३॥
मूलम्
सभ ते ऊतम इहु करमु ॥ सगल धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि सिमरनि तेरा होइ उधारु ॥ जनम जनम का उतरै भारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। सिमरनि = स्मरण के द्वारा। उधारु = पार उतारा।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरणा ही) सारे कामों से अच्छा काम है, सारे धर्मों से यही बढ़िया धर्म है। हे भाई! परमात्मा का स्मरण करने से तेरा पार उतारा हो जाएगा। (नाम-जपने की इनायत से) अनेक जन्मों (के विकारों की मैल) का भार उतर जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन तेरी होवै आस ॥ जम की कटीऐ तेरी फास ॥ गुर का उपदेसु सुनीजै ॥ नानक सुखि सहजि समीजै ॥४॥३०॥४१॥
मूलम्
पूरन तेरी होवै आस ॥ जम की कटीऐ तेरी फास ॥ गुर का उपदेसु सुनीजै ॥ नानक सुखि सहजि समीजै ॥४॥३०॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कटीऐ = काटीजाती है। सुनीजै = सुनना चाहिए। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समीजै = टिक जाना है।4।
अर्थ: (हे भाई! स्मरण करते हुए) तेरी (हरेक) आशा पूरी हो जाएगी, तेरी जमों वाली फाँसी (भी) काटी जाएगी। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु का (ये नाम-स्मरण का) उपदेश (सदा) सुनना चाहिए, (इसकी इनायत से) आत्मिक सुख में आत्मिक अडोलता में टिका जाता है।4।30।41।
[[0896]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ जिस की तिस की करि मानु ॥ आपन लाहि गुमानु ॥ जिस का तू तिस का सभु कोइ ॥ तिसहि अराधि सदा सुखु होइ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ जिस की तिस की करि मानु ॥ आपन लाहि गुमानु ॥ जिस का तू तिस का सभु कोइ ॥ तिसहि अराधि सदा सुखु होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस की = जिसकी देह, जिसका दिया हुआ शरीर। करि = कर के, समझ के। मानु = मान ले, यकीन बना। गुमानु = अहंकार। लाहि = दूर कर। सभु कोइ = (सभ कोय), हरेक जीव। अराधि = याद करता रह।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ तिस की, जिस की’ में से ‘तिसु’ और ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का दिया हुआ (ये शरीर आदि) है, उसीका ही मान। (ये शरीर आदि मेरा है मेरा है) अपना (ये अहंकार दूर कर)। हरेक जीव उसी प्रभु का ही बनाया हुआ है जिसका तू पैदा किया हुआ है। उस प्रभु का स्मरण करने से सदा आत्मिक सुख मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे भ्रमि भ्रमहि बिगाने ॥ नाम बिना किछु कामि न आवै मेरा मेरा करि बहुतु पछुताने ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे भ्रमि भ्रमहि बिगाने ॥ नाम बिना किछु कामि न आवै मेरा मेरा करि बहुतु पछुताने ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे = क्यों? भ्रमि = भ्रम में, भुलेखे में। भ्रमहि = तू भटकता है। बिगाने = हे बेगाने बने हुए! परमात्मा से विछुड़े हुए हे जीव! कामि = काम में। पछुताने = पछताए हुए।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु से विछुड़े हुए जीव! क्यों (अपनत्व के) भुलेखे में पड़ कर भटक रहा है? परमात्मा के नाम के बिना (कोई और चीज किसी के) काम नहीं आती। (ये) मेरा (शरीर है, यह) मेरा (धन है) - ऐसा कह कह के (अनेक ही जीव) बहुत पछताते हुए चले गए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो करै सोई मानि लेहु ॥ बिनु माने रलि होवहि खेह ॥ तिस का भाणा लागै मीठा ॥ गुर प्रसादि विरले मनि वूठा ॥२॥
मूलम्
जो जो करै सोई मानि लेहु ॥ बिनु माने रलि होवहि खेह ॥ तिस का भाणा लागै मीठा ॥ गुर प्रसादि विरले मनि वूठा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानि लेहु = मान ले। रलि = मिल के। भाणा = रजा। प्रसादि = कृपा से। मनि = मन में। वूठा = बसा है।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जो कुछ करता है उसी को ठीक माना कर। (रजा को) माने बिना (मिट्टी में) मिल के मिट्टी हो जाएगा। हे भाई! जिस किसी बंदे को परमात्मा की रजा मीठी लगती है गुरु की किरपा से उसके मन में परमात्मा खुद आ के बसता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेपरवाहु अगोचरु आपि ॥ आठ पहर मन ता कउ जापि ॥ जिसु चिति आए बिनसहि दुखा ॥ हलति पलति तेरा ऊजल मुखा ॥३॥
मूलम्
वेपरवाहु अगोचरु आपि ॥ आठ पहर मन ता कउ जापि ॥ जिसु चिति आए बिनसहि दुखा ॥ हलति पलति तेरा ऊजल मुखा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वे परवाहु = बेमुथाज। अगोचरु = (अ+गो+चर। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। ता कउ = उस (प्रभु) को। चिति = चिक्त में। चिति आए = चिक्त में बसा। जिसु चिति आए = जिस (प्रभु के हमारे) चिक्त में बसने से, अगर वह प्रभु हमारे चिक्त में आ बसे। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। ऊजल = साफ, बेदाग। मुखा = मुँह।3।
अर्थ: हे मन! जिस परमात्मा को किसी की अधीनता नहीं, जीव की ज्ञान-इन्द्रियों की जिस तक पहुँच नहीं हो सकती, हे मन! आठों पहर उसको जपा कर। अगर वह परमात्मा (तेरे) चिक्त में आ बसे, तो तेरे सारे दुख नाश हो जाएंगे, इस लोक में और परलोक में तेरा मुँह उज्जवल रहेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउन कउन उधरे गुन गाइ ॥ गनणु न जाई कीम न पाइ ॥ बूडत लोह साधसंगि तरै ॥ नानक जिसहि परापति करै ॥४॥३१॥४२॥
मूलम्
कउन कउन उधरे गुन गाइ ॥ गनणु न जाई कीम न पाइ ॥ बूडत लोह साधसंगि तरै ॥ नानक जिसहि परापति करै ॥४॥३१॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधरे = पार लांघ गए। गाइ = (गाय) गा के। गनणु न जाई = ये लेखा गिना नहीं जा सकता। कीम = (गुण गाने की) कीमत। बूडत = डूबता। लोह = लोहा, कठोर चिक्त व्यक्ति। साधसंगि = गुरु की संगति में। तरै = गाने का उद्यम करता है। जिसहि परापति = जिसको (ये दाति) मिलनी हो।4।
अर्थ: हे भाई! इस बात का लेखा नहीं किया जा सकता कि परमात्मा के गुण गा गा के कौन-कौन संसार-समुंदर से पार लांघ गए। परमात्मा के गुण गाने का मूल्य नहीं पड़ सकता। लोहे जैसा कठोर-चिक्त व्यक्ति भी गुरु की संगति में रह के पार लांघ जाता है। पर, हे नानक! (गुण गाने का उद्यम वही मनुष्य) करता है जिसको धुर से ही ये दाति प्राप्त हुई हो।4।31।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ मन माहि जापि भगवंतु ॥ गुरि पूरै इहु दीनो मंतु ॥ मिटे सगल भै त्रास ॥ पूरन होई आस ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ मन माहि जापि भगवंतु ॥ गुरि पूरै इहु दीनो मंतु ॥ मिटे सगल भै त्रास ॥ पूरन होई आस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापि = जपा कर। भगवंत = भगवान (का नाम)। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। मंतु = उपदेश। भै = भय, डर भय। त्रास = डर, सहम।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य को) यह उपदेश दिया कि अपने मन में भगवान का नाम जपा कर, उस मनुष्य के सारे डर-सहम मिट जाते हैं, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल सेवा गुरदेवा ॥ कीमति किछु कहणु न जाई साचे सचु अलख अभेवा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सफल सेवा गुरदेवा ॥ कीमति किछु कहणु न जाई साचे सचु अलख अभेवा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरदेवा = सबसे बड़ा देवता, प्रभु। सचु = सदा कायम रहने वाला। साचे कीमति = सदा कायम रहने वाले की कीमत। अलख = जिसका स्वरूप सही बयान ना हो सके।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस कउ’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! सबसे बड़े देवते प्रभु की सेवा-भक्ति (अवश्य) फलदायक है। वह प्रभु सदा कायम रहने वाला है। उस सदा-स्थिर अलख और अभेव प्रभु का रक्ती भर भी मूल्य बताया नहीं जा सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावन आपि ॥ तिस कउ सदा मन जापि ॥ तिस की सेवा करि नीत ॥ सचु सहजु सुखु पावहि मीत ॥२॥
मूलम्
करन करावन आपि ॥ तिस कउ सदा मन जापि ॥ तिस की सेवा करि नीत ॥ सचु सहजु सुखु पावहि मीत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! नीत = नित्य। सचु सुखु = अटल सुख। सहज = आत्मिक अडोलता। मीत = हे मित्र!।2।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जो प्रभु खुद सब कुछ करने-योग्य है और औरों से करवा सकता है, उसको सदा स्मरण किया कर। हे मित्र! उस प्रभु की सदा सेवा-भक्ति किया कर, तू अटल सुख पाएगा, तू आत्मिक अडोलता हासिल कर लेगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहिबु मेरा अति भारा ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जन का राखा सोई ॥३॥
मूलम्
साहिबु मेरा अति भारा ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जन का राखा सोई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। अति भारा = गहुत गंभीर। थापि = पैदा कर के। उथापनहारा = नाश करने वाला। जन = दास, सेवक।3।
अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक प्रभु बहुत गंभीर है, एक छिन में पैदा करके नाश भी कर सकता है। वह प्रभु अपने सेवक का खुद ही रखवाला है, उसके बिना कोई और रक्षा करने वाला नहीं है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा अरदासि सुणीजै ॥ अपणे सेवक कउ दरसनु दीजै ॥ नानक जापी जपु जापु ॥ सभ ते ऊच जा का परतापु ॥४॥३२॥४३॥
मूलम्
करि किरपा अरदासि सुणीजै ॥ अपणे सेवक कउ दरसनु दीजै ॥ नानक जापी जपु जापु ॥ सभ ते ऊच जा का परतापु ॥४॥३२॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। सुणीजै = मेहर करके सुनो जी। कउ = को। दीजै = देओ जी। जापी = जपूँ। जा का = जिस (परमात्मा) का। परतापु = तेज, बल।4।
अर्थ: जिस परमात्मा का तेज-बल सबसे ऊँचा है (उसके दर पे) हे नानक! (अरदास कर और कह: हे प्रभु!) कृपा करके मेरी आरजू सुन, अपने सेवक को दर्शन दे, मैं (तेरा सेवक) सदा तेरे नाम का जाप जपता रहूँ।4।32।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ बिरथा भरवासा लोक ॥ ठाकुर प्रभ तेरी टेक ॥ अवर छूटी सभ आस ॥ अचिंत ठाकुर भेटे गुणतास ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ बिरथा भरवासा लोक ॥ ठाकुर प्रभ तेरी टेक ॥ अवर छूटी सभ आस ॥ अचिंत ठाकुर भेटे गुणतास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरथा = वृथा, व्यर्थ। भरवासा = भरोसा, सहायता की आशा। ठाकुर प्रभ = हे ठाकुर! हे प्रभु! टेक = सहारा। छूटी = खत्म हो गई। अचिंत = चिन्ता रहित। ठाकुर भेटे = ठाकुर को मिलने से। गुणतास = गुणों का खाजाना।1।
अर्थ: हे मन! दुनिया की मदद की आशा रखनी व्यर्थ है। हे मेरे ठाकुर! हे मेरे प्रभु! (मुझे तो) तेरा ही आसरा है। हे भाई! जो मनुष्य गुणों के खजाने चिन्ता-रहित मालिक प्रभु को मिल जाता है, (दुनिया से किसी मदद की) हरेक आशा (उसकी) समाप्त हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको नामु धिआइ मन मेरे ॥ कारजु तेरा होवै पूरा हरि हरि हरि गुण गाइ मन मेरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एको नामु धिआइ मन मेरे ॥ कारजु तेरा होवै पूरा हरि हरि हरि गुण गाइ मन मेरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! होवै पूरा = सफल हो जाएगा। कारजु = (स्मरण करने वाला ये) काम।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सिर्फ परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, सदा परमात्मा के गुण गाया कर। तेरा यह काम जरूर सफल हो जाएगा (भाव, अवश्य फलदायक होगा)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम ही कारन करन ॥ चरन कमल हरि सरन ॥ मनि तनि हरि ओही धिआइआ ॥ आनंद हरि रूप दिखाइआ ॥२॥
मूलम्
तुम ही कारन करन ॥ चरन कमल हरि सरन ॥ मनि तनि हरि ओही धिआइआ ॥ आनंद हरि रूप दिखाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारन करन = करने का कारण, किए हुए (जगत) को बनाने वाला। हरि = हे हरि! मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। आनंद हरि रूप = आनंद रूप हरि। दिखाइआ = (गुरु ने) दिखा दिया।2।
अर्थ: हे प्रभु! इस जगत-रचना को बनाने वाला तू ही है। (मैं तो सदा) तेरे सुंदर चरणों की शरण में रहता हूँ। हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने मन में हृदय में सिर्फ उस परमात्मा को ही स्मरण किया है, (गुरु ने) उसको आनंद-रूप प्रभु के दर्शन करवा दिए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस ही की ओट सदीव ॥ जा के कीने है जीव ॥ सिमरत हरि करत निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥
मूलम्
तिस ही की ओट सदीव ॥ जा के कीने है जीव ॥ सिमरत हरि करत निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सदीव = सदा ही। ओट = आसरा। जा के कीने = जिस (प्रभु) के बनाए हुए। हरि करत = हरि हरि करते हुए, हरि नाम स्मरण करते हुए। निधान = खजाने। निदान = समाधान, आखिर में।3।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा ही उसी प्रभु का आसरा लिए रख, जिसके पैदा किए हुए ये सारे जीव हैं। हे मन! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए (सारे) खजाने (मिल जाते हैं)। हे मन! (जब और सहारे खत्म हो जाएं, तो) अंत में परमात्मा ही रक्षा कर सकने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब की रेण होवीजै ॥ आपु मिटाइ मिलीजै ॥ अनदिनु धिआईऐ नामु ॥ सफल नानक इहु कामु ॥४॥३३॥४४॥
मूलम्
सरब की रेण होवीजै ॥ आपु मिटाइ मिलीजै ॥ अनदिनु धिआईऐ नामु ॥ सफल नानक इहु कामु ॥४॥३३॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेण = चरण धूल। होवीजै = हो जाना चाहिए। आपु = स्वै भाव, अहंकार। मिटाइ = मिटाय, मिटा के। मिलीजै = मिल सकते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। कामु = काम।4।
अर्थ: हे मेरे मन! सबके चरणों की धूल बने रहना चाहिए, (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके ही परमात्मा को मिला जा सकता है। हे मन! परमात्मा का नाम हर वक्त स्मरणा चाहिए। हे नानक! (स्मरण करने का) ये काम अवश्य फल देता है।4।33।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ कारन करन करीम ॥ सरब प्रतिपाल रहीम ॥ अलह अलख अपार ॥ खुदि खुदाइ वड बेसुमार ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ कारन करन करीम ॥ सरब प्रतिपाल रहीम ॥ अलह अलख अपार ॥ खुदि खुदाइ वड बेसुमार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारन = सबब, मूल। करन = किया हुआ जगत। कारन करन = जगत को पैदा करने वाला। करमु = बख्शिश। करीम = बख्शिश करने वाला। प्रतिपाल = पालना करने वाला। रहीम = रहम करने वाला। अलह = रब (प्रभु का मुसलमानी नाम)। अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना हो सके। खुदि = खुद ही। खुदाइ = (खुदाय) मालिक। बेसुमार = गिणती मिणती से परे।1।
अर्थ: हे जगत के मूल! हे बख्शिश करने वाले! हे सब जीवों को पालने वाले! हे (सब पर) रहम करने वाले! हे अल्लाह! हे अलख! हे अपार! तू स्वयं ही सब का मालिक है, तू बड़ा बेअंत है।1।
[[0897]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओुं नमो भगवंत गुसाई ॥ खालकु रवि रहिआ सरब ठाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ओुं नमो भगवंत गुसाई ॥ खालकु रवि रहिआ सरब ठाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओुं नमो = सर्व व्यापक को नमस्कार। नमो = नमस्कार। गुसाई = गो+सांई, धरती का मालिक। खालकु = खलकत को पैदा करने वाला। रवि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। सरब = सारे। ठाई = जगहों में।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओुं नमो’: गुरवाणी मैं इस शब्द को ‘उ’ से बने हुए ‘ਓਂ’ अथवा ‘ओ’ से आरंभ किया गया है। इस प्रकार यहाँ ‘उ’ अक्षर को दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ लगा कर बनाया गया है। असल है ‘ओं’, यहाँ पढ़ना है ‘उं’ व ‘उम’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भगवान! हे धरती के पति! तुझे सर्व-व्यापक को नमस्कार है। तू (सारी) सृष्टि को पैदा करने वाला सब जगह मौजूद है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगंनाथ जगजीवन माधो ॥ भउ भंजन रिद माहि अराधो ॥ रिखीकेस गोपाल गुोविंद ॥ पूरन सरबत्र मुकंद ॥२॥
मूलम्
जगंनाथ जगजीवन माधो ॥ भउ भंजन रिद माहि अराधो ॥ रिखीकेस गोपाल गुोविंद ॥ पूरन सरबत्र मुकंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माधो = (मा+धव) माया का पति। अराधो = आराध, स्मरण करने योग्य। रिद = हृदय। रिखीकेस = इन्द्रियों का मालिक। सरबत्र = सब जगह, सर्वत्र। मुकंद = मुकती दाता।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोविंद’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ हैं। असल शब्द ‘गोविंद’ है, यहाँ ‘गुविंद’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे जगत के नाथ! हे जगत के जीवन! हे माया के पति! हे (जीवों का हरेक) डर नाश करने वाले! हे हृदय में आराधना के योग्य! हे इन्द्रियों के मालिक! हे गोपाल! हे गोविंद! हे मुक्ति दाते! तू सब जगह व्यापक है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिहरवान मउला तूही एक ॥ पीर पैकांबर सेख ॥ दिला का मालकु करे हाकु ॥ कुरान कतेब ते पाकु ॥३॥
मूलम्
मिहरवान मउला तूही एक ॥ पीर पैकांबर सेख ॥ दिला का मालकु करे हाकु ॥ कुरान कतेब ते पाकु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउला = (अरबी शब्द) निजात (मुक्ति) देने वाला। पैकांबर = पैग़ंबर (पैग़ाम+बर) ईश्वर का संदेश लाने वाला। सेख = शेख। हाकु = हक, न्याय, इन्साफ। करे हाकु = हको हक करता है, न्याय करता है। ते = से। पाकु = (भाव, अलग)।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘हाकु’ पुलिंग एकवचन है। शब्द ‘हाक’ स्त्रीलिंग है, जिसका अर्थ है ‘आवाज़’। जैसे, ‘जरा हाक दी सभ मति थाकी ऐक न थाकसि माइआ’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेहरवान! सिर्फ तू ही पीरों-पैगंबरों-शेखों (सबको) निजात देने वाला है। (हे भाई! वही मौला सबके) दिलों का मालिक है, (सबके दिल की जानने वाला वह सदा) न्याय करता है। वह मौला कुरान व अन्य पश्चिमी धार्मिक पुस्तकों के बताए हुए स्वरूप से अलग है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाराइण नरहर दइआल ॥ रमत राम घट घट आधार ॥ बासुदेव बसत सभ ठाइ ॥ लीला किछु लखी न जाइ ॥४॥
मूलम्
नाराइण नरहर दइआल ॥ रमत राम घट घट आधार ॥ बासुदेव बसत सभ ठाइ ॥ लीला किछु लखी न जाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाराइण = जल में निवास रखने वाला, विष्णु, परमात्मा। नरहर = नरसिंघ। रमत = सब मैं रमा हुआ। घट घट आधार = हरेक के हृदय का आसरा। बासुदेव = (श्री कृष्ण) परमात्मा। ठाइ = ठाय, जगह में। लीला = एक करिश्मा, खेल। लखी न जाइ = बयान नहीं हो सकती।4।
अर्थ: हे भाई! वह दया का श्रोत परमात्मा स्वयं ही नारायण है स्वयं ही नरसिंह है। वह राम सबमें रमा हुआ है, हरेक हृदय का आसरा है। वही बासुदेव है जो सब जगह बस रहा है। उसका खेल बिल्कुल बयान नहीं की जा सकती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिहर दइआ करि करनैहार ॥ भगति बंदगी देहि सिरजणहार ॥ कहु नानक गुरि खोए भरम ॥ एको अलहु पारब्रहम ॥५॥३४॥४५॥
मूलम्
मिहर दइआ करि करनैहार ॥ भगति बंदगी देहि सिरजणहार ॥ कहु नानक गुरि खोए भरम ॥ एको अलहु पारब्रहम ॥५॥३४॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करनैहार = हे पैदा करने वाले! सिरजणहार = हे विधाता! नानक = हे नानक! गुरि = गुरु ने। खोए = नाश किए। भरम = भुलेखे।5।
अर्थ: हे सब जीवों के रचनहार! हे विधाता! मेहर करके दया करके तू स्वयं ही जीवों को अपनी भक्ति देता है अपनी बँदगी देता है। हे नानक! कह: गुरु ने (जिस मनुष्य के) भुलेखे दूर कर दिए, उसको (मुसलमानों का) अल्लाह और (हिन्दुओं का) पारब्रहम एक ही दिखाई दे जाते हैं।5।34।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ कोटि जनम के बिनसे पाप ॥ हरि हरि जपत नाही संताप ॥ गुर के चरन कमल मनि वसे ॥ महा बिकार तन ते सभि नसे ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ कोटि जनम के बिनसे पाप ॥ हरि हरि जपत नाही संताप ॥ गुर के चरन कमल मनि वसे ॥ महा बिकार तन ते सभि नसे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़। जपत = जपते हुए। संताप = दुख-कष्ट। चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। मानि = मन में। महा बिकार = बड़े बड़े ऐब। ते = से। सभि = सारे।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकते, (पिछले) करोड़ों जन्मों के किए हुए पाप भी नाश हो जाते हैं। हे प्राणी! जिस मनुष्य के मन में गुरु के सोहणे चरण आ बसते हैं, उसके शरीर के बड़े-बड़े विकार (भी) सारे नाश हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपाल को जसु गाउ प्राणी ॥ अकथ कथा साची प्रभ पूरन जोती जोति समाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोपाल को जसु गाउ प्राणी ॥ अकथ कथा साची प्रभ पूरन जोती जोति समाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। गाउ = गाया कर। प्राणी = हे प्राणी! अकथ = पूरे तौर पर ना बताई जा सकने वाली। साची = अटल, सदा टिकी रहने वाली। पूरन = सर्व व्यापक। जोति = रूह, जिंद, जीवात्मा। जोती = ज्योति रूप हरि में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्राणी! सृष्टि के पालनहार प्रभु की महिमा के गीत गाया करो। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभु की अटल और कभी ना खत्म करने वाली महिमा करता रहता है, उसकी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना भूख सभ नासी ॥ संत प्रसादि जपिआ अबिनासी ॥ रैनि दिनसु प्रभ सेव कमानी ॥ हरि मिलणै की एह नीसानी ॥२॥
मूलम्
त्रिसना भूख सभ नासी ॥ संत प्रसादि जपिआ अबिनासी ॥ रैनि दिनसु प्रभ सेव कमानी ॥ हरि मिलणै की एह नीसानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसना = प्यास, लालच। सभ = सारी। संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। रैनि = (रजनि), रात। सेव = सेवा भक्ति। नीसानी = लक्षण।2।
अर्थ: हे प्राणी! गुरु-संत की कृपा से जिस मनुष्य ने नाश-रहित प्रभु का नाम जपा, उसके अंदर से (माया की) तृष्णा (माया की) भूख सब नाश हो जाती है (क्योंकि उस से प्रभु का मिलाप हो जाता है, और,) प्रभु के मिलाप का (बड़ा) लक्षण ये है कि वह दिन-रात (हर वक्त) प्रभु की सेवा-भक्ति करता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिटे जंजाल होए प्रभ दइआल ॥ गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ परा पूरबला करमु बणि आइआ ॥ हरि के गुण नित रसना गाइआ ॥३॥
मूलम्
मिटे जंजाल होए प्रभ दइआल ॥ गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ परा पूरबला करमु बणि आइआ ॥ हरि के गुण नित रसना गाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जंजाल = माया के मोह के बंधन। देखि = देख के। निहाल = प्रसन्न, उच्च आत्मिक अवस्था वाले। परा पूरबला = बड़े ही पुराने, पहले जन्मों के। करमु = किया हुआ काम, भाग्य। बणि आइआ = फब गया। रसना = जीभ (से)।3।
अर्थ: हे भाई! जिस पर प्रभु जी दयावान होते हैं, उनके माया के मोह के बंधन टूट जाते हैं; गुरु का दर्शन करके वह सदा चढ़दीकला में रहते हैं। उनके पूर्बले जन्मों का किया हुआ काम उनका मददगार बनता है (उनके किए हुए पूर्बले कर्मों के संस्कार जाग उठते हैं)। अपनी जीभ से वह सदा प्रभु के गुण गाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत सदा परवाणु ॥ संत जना मसतकि नीसाणु ॥ दास की रेणु पाए जे कोइ ॥ नानक तिस की परम गति होइ ॥४॥३५॥४६॥
मूलम्
हरि के संत सदा परवाणु ॥ संत जना मसतकि नीसाणु ॥ दास की रेणु पाए जे कोइ ॥ नानक तिस की परम गति होइ ॥४॥३५॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत = भक्ति करने वाले। परवाणु = स्वीकार। मसतकि = माथे पर। नीसाणु = निशान, परवानगी की चिन्ह। रेणु = चरण धूल (‘रेणु’ और ‘रैणि’ का फर्क स्मरणीय है)। कोइ = (कोय) कोई मनुष्य। परम = सबसे ऊँची। गति = आत्मिक अवस्था।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! प्रभु की भक्ति करने वाले बंदे (प्रभु की हजूरी में) सदा आदर-सत्कार पाते हैं। उन संत-जनों के माथे पर (नूर चमकता है, जो, मानो, प्रभु दर पर परवानगी का) चिन्ह है। हे नानक! ऐसे प्रभु-सेवक के चरणों की धूल अगर कोई मनुष्य प्राप्त कर ले, तो उसकी बहुत उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।4।34।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ दरसन कउ जाईऐ कुरबानु ॥ चरन कमल हिरदै धरि धिआनु ॥ धूरि संतन की मसतकि लाइ ॥ जनम जनम की दुरमति मलु जाइ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ दरसन कउ जाईऐ कुरबानु ॥ चरन कमल हिरदै धरि धिआनु ॥ धूरि संतन की मसतकि लाइ ॥ जनम जनम की दुरमति मलु जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाईऐ = जाना चाहिए। हिरदै = हृदय में। धरि = धर के। संत = गुरु के दर के सत्संगी। मसतकि = माथे पर। दुरमति = खोटी मति। जाइ = (जाए) दूर हो जाती है।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के) सुंदर चरणों का ध्यान हृदय में धर के (गुरु के) दर्शन से सदके जाना चाहिए (दर्शनों की खातिर स्वै भाव कुर्बान कर देना चाहिए)। (हे भाई! गुरु के दर पर रहने वाले) संत-जनों की चरण-धूल माथे पर लगाया कर, (इस तरह) अनेक जन्मों की खोटी मति की मैल उतर जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु भेटत मिटै अभिमानु ॥ पारब्रहमु सभु नदरी आवै करि किरपा पूरन भगवान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिसु भेटत मिटै अभिमानु ॥ पारब्रहमु सभु नदरी आवै करि किरपा पूरन भगवान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु भेटतु = जिस (गुरु) को मिल के। सभु = हर जगह। भगवान = हे भगवान!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सभ गुणों वाले भगवान! (मेरे पर) कृपा कर (मुझे वह गुरु मिला) जिस गुरु को मिलने से (मन में से) अहंकार दूर हो जाता है, और पारब्रहम प्रभु हर जगह दिख जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की कीरति जपीऐ हरि नाउ ॥ गुर की भगति सदा गुण गाउ ॥ गुर की सुरति निकटि करि जानु ॥ गुर का सबदु सति करि मानु ॥२॥
मूलम्
गुर की कीरति जपीऐ हरि नाउ ॥ गुर की भगति सदा गुण गाउ ॥ गुर की सुरति निकटि करि जानु ॥ गुर का सबदु सति करि मानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = शोभा। जपीऐ = जपना चाहिए। गाउ = गाते रहो। सुरति = ध्यान, लगन। निकटि = नजदीक। जानु = समझ। सति = सदा कायम रहने वाला, सच्चा। मानु = मान।2।
अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपना चाहिए- यही है गुरु की शोभा (करनी)। हे भाई! सदा प्रभु के गुण गाया कर- यही है गुरु की भक्ति। हे भाई! परमात्मा को सदा अपने नजदीक बसता समझ- यही है गुरु के चरणों में ध्यान धरना। हे भाई! गुरु के शब्द को (सदा) सच्चा करके मान।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बचनी समसरि सुख दूख ॥ कदे न बिआपै त्रिसना भूख ॥ मनि संतोखु सबदि गुर राजे ॥ जपि गोबिंदु पड़दे सभि काजे ॥३॥
मूलम्
गुर बचनी समसरि सुख दूख ॥ कदे न बिआपै त्रिसना भूख ॥ मनि संतोखु सबदि गुर राजे ॥ जपि गोबिंदु पड़दे सभि काजे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समसरि = बराबर, एक सा। बचनी = वचन के द्वारा, वचन पर चल के। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। मनि = मन में। सबदि = शब्द से। राजे = तृप्त हो जाता है। सभि = सारे। काजे = ढक जाते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन के द्वारा (सारे) सुख-दुख एक समान प्रतीत होने लगते हैं, माया की तृष्णा माया की भूख कभी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। गुरु के शब्द के द्वारा मन में संतोख पैदा हो जाता है, (मन) तृप्त हो जाता है। परमात्मा का नाम जप के सारे पर्दे ढके जाते हैं (लोक-परलोक में इज्जत बन जाती है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु परमेसरु गुरु गोविंदु ॥ गुरु दाता दइआल बखसिंदु ॥ गुर चरनी जा का मनु लागा ॥ नानक दास तिसु पूरन भागा ॥४॥३६॥४७॥
मूलम्
गुरु परमेसरु गुरु गोविंदु ॥ गुरु दाता दइआल बखसिंदु ॥ गुर चरनी जा का मनु लागा ॥ नानक दास तिसु पूरन भागा ॥४॥३६॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरनी = चरणों में। जा का = जिस (मनुष्य) का। दास तिसु = उस दास के।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु परमात्मा (का रूप) है, गुरु गोबिंद (का रूप) है। गुरु दातार (प्रभु का रूप) है, गुरु दया के श्रोत बख्शणहार प्रभु (का रूप) है। हे नानक! जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में टिक जाता है, उस दास के पूरे भाग्य जाग उठते हैं।4।36।47।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ किसु भरवासै बिचरहि भवन ॥ मूड़ मुगध तेरा संगी कवन ॥ रामु संगी तिसु गति नही जानहि ॥ पंच बटवारे से मीत करि मानहि ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ किसु भरवासै बिचरहि भवन ॥ मूड़ मुगध तेरा संगी कवन ॥ रामु संगी तिसु गति नही जानहि ॥ पंच बटवारे से मीत करि मानहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किसु भरवासै = (प्रभु के बिना और) किस के भरोसे? बिचरहि = विचरता है। भवन = जगत (में)। मूढ़ = हे मूर्ख! मुगध = हे मूरख! संगी = (असल) साथी। गति = हाल, अवस्था। नही जानहि = तू नहीं जानता। पंच = पाँच (कामादिक)। बटवारे = राहजन, डाकू। से = उनको। मानहि = तू मानता है।1।
अर्थ: हे मूर्ख! (प्रभु के बिना और) किस के सहारे तू जगत में चलता फिरता है हे मूर्ख! (प्रभु के बिना और) तेरा साथी कौन (बन सकता है)? हे मूर्ख! परमात्मा (ही तेरा असल) साथी है, उसके साथ तू जान-पहचान नहीं बनाता। (ये कामादिक) पाँच डाकू हैं, इनको तू अपने मित्र समझ रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो घरु सेवि जितु उधरहि मीत ॥ गुण गोविंद रवीअहि दिनु राती साधसंगि करि मन की प्रीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो घरु सेवि जितु उधरहि मीत ॥ गुण गोविंद रवीअहि दिनु राती साधसंगि करि मन की प्रीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि = सेवा कर। जिसु = जिससे। उधरहि = (संसार समुंदर से) तू पार लांघ सके। मति = हे मित्र! रवीअहि = याद करने चाहिए। साध संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! उस दर-घर में बना रह, जिससे तू (संसार-समुंदर से) पार लांघ सके। हे भाई! गुरु की संगति में अपने मन का प्यार जोड़, (वहाँ टिक के) गोबिंद के गुण (सदा) दिन-रात गाने चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमु बिहानो अहंकारि अरु वादि ॥ त्रिपति न आवै बिखिआ सादि ॥ भरमत भरमत महा दुखु पाइआ ॥ तरी न जाई दुतर माइआ ॥२॥
मूलम्
जनमु बिहानो अहंकारि अरु वादि ॥ त्रिपति न आवै बिखिआ सादि ॥ भरमत भरमत महा दुखु पाइआ ॥ तरी न जाई दुतर माइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनम बिहानो = मानव जनम गुजरता जा रहा है। वादि = वाद विवाद में, झगड़े बखेड़े में। त्रिपति = तसल्ली, तृप्ति, अघेवां। बिखिआ = माया। सादि = स्वाद में। भरमत = भटकते हुए। दुतर = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है।2।
अर्थ: जीव की उम्र अहंकार और झगड़े-बखेड़े में गुजरती जाती है, माया के स्वाद में (इसकी कभी) तसल्ली नहीं होती (कभी तृप्त नहीं होता)। भटकते-भटकते इसने बड़ा कष्ट पाया है। माया (मानो, एक समुंदर है, इस) से पार लांघना बहुत मुश्किल है। (प्रभु के नाम के बिना) इससे पार नहीं लांघा जा सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामि न आवै सु कार कमावै ॥ आपि बीजि आपे ही खावै ॥ राखन कउ दूसर नही कोइ ॥ तउ निसतरै जउ किरपा होइ ॥३॥
मूलम्
कामि न आवै सु कार कमावै ॥ आपि बीजि आपे ही खावै ॥ राखन कउ दूसर नही कोइ ॥ तउ निसतरै जउ किरपा होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम में। बीजि = बीज के। तउ = तब। निसतरै = पार लांघता है। जउ = जब।3।
अर्थ: जीव सदा वही काम करता रहता है जो (आखिर इसके) काम नहीं आती, (बुरे कामों के बीज) खुद बीज के (फिर) खुद ही (उनका दुख-फल) खाता है। (इस बिपता में से) बचाने-योग्य (परमात्मा के बिना) और कोई दूसरा नहीं है। जब (परमात्मा की) मेहर होती है, तब ही इसमें से पार लंघता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पुनीत प्रभ तेरो नामु ॥ अपने दास कउ कीजै दानु ॥ करि किरपा प्रभ गति करि मेरी ॥ सरणि गही नानक प्रभ तेरी ॥४॥३७॥४८॥
मूलम्
पतित पुनीत प्रभ तेरो नामु ॥ अपने दास कउ कीजै दानु ॥ करि किरपा प्रभ गति करि मेरी ॥ सरणि गही नानक प्रभ तेरी ॥४॥३७॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। प्रभ = हे प्रभु! कीजै = देह। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गही = पकड़ी।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरा नाम विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला है, (मुझे) अपने सेवक को (अपना नाम-) दान दे। हे प्रभु! मैंने तेरा आसरा लिया है, मेहर कर, मेरी आत्मिक अवस्था ऊँची बना।4।37।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ इह लोके सुखु पाइआ ॥ नही भेटत धरम राइआ ॥ हरि दरगह सोभावंत ॥ फुनि गरभि नाही बसंत ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ इह लोके सुखु पाइआ ॥ नही भेटत धरम राइआ ॥ हरि दरगह सोभावंत ॥ फुनि गरभि नाही बसंत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इह लोके = इस लोक में, संसार में। भेटत = मिलते हुए। फुनि = दोबारा। गरभि = गर्भ में, जन्मों के चक्कर में। नाही बसंत = नहीं बसता, नहीं पड़ता।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की मित्रता प्राप्त होती है उसने) इस जगत में (आत्मिक) सुख भोगा, (परलोक में) उसका सामना धर्मराज से नहीं हुआ। वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में शोभा वाला बनता है, बार-बार जन्मों के चक्कर में (भी) नहीं पड़ता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानी संत की मित्राई ॥ करि किरपा दीनो हरि नामा पूरबि संजोगि मिलाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जानी संत की मित्राई ॥ करि किरपा दीनो हरि नामा पूरबि संजोगि मिलाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत की = गुरु की। जानी = मैं इस तरह समझती हूँ। करि = कर के। दीनो = दिया। पूरबि संजोगि = पूर्बले संयोगों के द्वारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूर्बले संजोगों के कारण (तुझे गुरु की मित्रता) प्राप्त हुई है। (गुरु ने) कृपा करके (मुझे) परमात्मा का नाम दे दिया है। (सो अब) मैंने गुरु की कद्र समझ ली है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै चरणि चितु लागा ॥ धंनि धंनि संजोगु सभागा ॥ संत की धूरि लागी मेरै माथे ॥ किलविख दुख सगले मेरे लाथे ॥२॥
मूलम्
गुर कै चरणि चितु लागा ॥ धंनि धंनि संजोगु सभागा ॥ संत की धूरि लागी मेरै माथे ॥ किलविख दुख सगले मेरे लाथे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै चरणि = के चरण में। धंनि = मुबारिक। संजोगु = मिलाप का अवसर। सभागा = भाग्यवाला। किलविख = पाप। सगले = सारे।2।
अर्थ: हे भाई! वह संजोग मुबारक थे, मुबारक थे, भाग्यशाली थे, जब गुरु के चरणों में, मेरा चिक्त जुड़ा था। हे भाई! गुरु की चरण-धूल मेरे माथे पर लगी, मेरे सारे पाप और दुख दूर हो गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध की सचु टहल कमानी ॥ तब होए मन सुध परानी ॥ जन का सफल दरसु डीठा ॥ नामु प्रभू का घटि घटि वूठा ॥३॥
मूलम्
साध की सचु टहल कमानी ॥ तब होए मन सुध परानी ॥ जन का सफल दरसु डीठा ॥ नामु प्रभू का घटि घटि वूठा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = निष्चय करके। परानी = हे प्राणी! सफल = फल देने वाला। दरसु = दर्शन। घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। वूठा = बसा हुआ।3।
अर्थ: हे प्राणी! (वैसे तो) परमात्मा का नाम हरेक हृदय में बस रहा है, पर जिसने गुरु के दर्शन कर लिए, उसको इस नाम-फल की प्राप्ती हुई। हे प्राणी! जब जीव श्रद्धा धार के गुरु की सेवा-टहल करते हैं, तब उनके मन पवित्र हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिटाने सभि कलि कलेस ॥ जिस ते उपजे तिसु महि परवेस ॥ प्रगटे आनूप गुोविंद ॥ प्रभ पूरे नानक बखसिंद ॥४॥३८॥४९॥
मूलम्
मिटाने सभि कलि कलेस ॥ जिस ते उपजे तिसु महि परवेस ॥ प्रगटे आनूप गुोविंद ॥ प्रभ पूरे नानक बखसिंद ॥४॥३८॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। जिस ते = जिस (प्रभु) से। परवेस = लीनता। आनूप = जिस जैसा और कोई नहीं (अन+ऊप), बेअंत सुंदर। बखसिंद = बख्शिशें करने वाला।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (गुरु के मिलाप की इनायत से) सारे (मानसिक) झगड़े और दुख मिट जाते हैं। जिस प्रभु से जीव पैदा हुए हैं उसी में उनकी लीनता हो जाती है। वह बख्शनहार पूरन प्रभु सुंदर गोबिंद (हृदय में) प्रकट हो जाता है।4।38।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ गऊ कउ चारे सारदूलु ॥ कउडी का लख हूआ मूलु ॥ बकरी कउ हसती प्रतिपाले ॥ अपना प्रभु नदरि निहाले ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ गऊ कउ चारे सारदूलु ॥ कउडी का लख हूआ मूलु ॥ बकरी कउ हसती प्रतिपाले ॥ अपना प्रभु नदरि निहाले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गऊ = गाय, ज्ञान-इंद्रिय। कउ = को। चारे = चराता है, वश में रखता है। सारदूलु = शेर, विकारों के भार के तले से निकल के बलवान हो चुका मन। मूलु = मूल्य, कीमत। बकरी = गरीबी स्वभाव। हसती = हाथी, जो मन पहले अहंकारी था। नदरि = मेहर की निगाह। निहाले = देखता है, देखता है।1।
अर्थ: (हे भाई! दुनियाँ के धन-पदार्थों के कारण मनुष्य का मन आम तौर पर अहंकार से हाथी बना रहता है, पर) जब प्यारा प्रभु मेहर की निगाह से देखता है तो (पहले अहंकारी) हाथी (मन) बकरी (वाले गरीबी स्वभाव) को (अपने अंदर) संभालता है। (प्रभु की कृपा से विकारों की मार से बच के) शेर (हो चुका मन) ज्ञान-न्द्रियों को अपने वश में रखने लग जाता है। (विकारों में फसा हुआ जीव पहले) कौड़ी (की तरह तुच्छ हस्ती वाला हो गया था, अब उस) का मूल्य (जैसे) लोखों रुपए हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिपा निधान प्रीतम प्रभ मेरे ॥ बरनि न साकउ बहु गुन तेरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
क्रिपा निधान प्रीतम प्रभ मेरे ॥ बरनि न साकउ बहु गुन तेरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधान = खजाना। क्रिपा निधान = हे दया के खजाने! प्रभ = हे प्रभु! बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! तेरे अनेक गुण हैं, मैं (सारे) बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीसत मासु न खाइ बिलाई ॥ महा कसाबि छुरी सटि पाई ॥ करणहार प्रभु हिरदै वूठा ॥ फाथी मछुली का जाला तूटा ॥२॥
मूलम्
दीसत मासु न खाइ बिलाई ॥ महा कसाबि छुरी सटि पाई ॥ करणहार प्रभु हिरदै वूठा ॥ फाथी मछुली का जाला तूटा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीसत = (सामने) दिख रहा। बिलाई = बिल्ली, मन की तृष्णा। कसाबि = कसाब ने, कसाई ने, निर्दयी मन ने। सटि पाई = हाथों से फेंक दी है। करणहार प्रभू = सब तरह की समर्थता रखने वाला प्रभु। हिरदै = हृदय में। वूठा = आ बसा। फाथी = फसी हुई।2।
अर्थ: (हे भाई! जब अपना प्रभु मेहर की निगाह से देखता है तब) बिल्ली दिखाई दे रहे माँस को नहीं खाती (मायावी तृष्णा समाप्त हो जाती है, मन मायावी पदार्थों की तरफ़ नहीं देखता)। प्रभु (की कृपा से) बड़े कसाई (निर्दयी मन) ने अपने हाथों से छुरी फेंक दी (निर्दयता वाला स्वभाव त्याग दिया)। सब कुछ कर सकने वाला प्रभु जब (अपनी कृपा से जीव के) हृदय में आ बसा, तब (माया के मोह के जाल में) फसी हुई (जीव-) मछली का (माया के मोह का) जाल टूट गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूके कासट हरे चलूल ॥ ऊचै थलि फूले कमल अनूप ॥ अगनि निवारी सतिगुर देव ॥ सेवकु अपनी लाइओ सेव ॥३॥
मूलम्
सूके कासट हरे चलूल ॥ ऊचै थलि फूले कमल अनूप ॥ अगनि निवारी सतिगुर देव ॥ सेवकु अपनी लाइओ सेव ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कासट = काठ। हरे चलूल = चुह चुह करते हरे। ऊचै थलि = ऊँचे थल में।, अहंकार भरे मन में। अनूप = सुंदर, बेमिसाल। अगनि = आग, तृष्णा की आग। निवारि = दूर कर दी। सेव = सेवा।3।
अर्थ: (जब मेहर हुई तो) सूखे हुए काठ चुह-चुह करते हरे हो गए (मन का रूखापन दूर हो के जीव के अंदर दया पैदा हो गई), ऊँचे टिब्बे पर सुंदर कमल फूल खिल उठे (जिस अहंकार भरे मन पर पहले हरि-नाम की बरखा का कोई असर नहीं होता था, वह अब खिल उठा है)। प्यारे सतिगुरु ने तृष्णा की आग दूर कर दी, सेवक को अपनी सेवा में जोड़ लिया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकिरतघणा का करे उधारु ॥ प्रभु मेरा है सदा दइआरु ॥ संत जना का सदा सहाई ॥ चरन कमल नानक सरणाई ॥४॥३९॥५०॥
मूलम्
अकिरतघणा का करे उधारु ॥ प्रभु मेरा है सदा दइआरु ॥ संत जना का सदा सहाई ॥ चरन कमल नानक सरणाई ॥४॥३९॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकिरतघण = किए हुए उपकार को भुलाने वाला, अकृतज्ञ, कृतघ्न। उधारु = पार उतारा, उद्धार। दइआरु = दयालु। सहाई = मददगार। नानक = हे नानक!
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सदा दया का घर है, वह एहसान-फरामोशों (का भी) पार-उतारा करता है। हे नानक! प्रभु अपने संतों का सदा मददगार होता है, संत-जन सदा उसके सुंदर चरणों की शरण में पड़े रहते हैं।4।39।50।
[[0899]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ पंच सिंघ राखे प्रभि मारि ॥ दस बिघिआड़ी लई निवारि ॥ तीनि आवरत की चूकी घेर ॥ साधसंगि चूके भै फेर ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ पंच सिंघ राखे प्रभि मारि ॥ दस बिघिआड़ी लई निवारि ॥ तीनि आवरत की चूकी घेर ॥ साधसंगि चूके भै फेर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच सिंघ = पाँच (कामादिक) शेर। प्रभि = प्रभु ने। मारि राखे = खत्म कर दिए। बिघिआड़ी = बघिआड़नि, इन्द्रियाँ। निवारि लई = दूर कर दी। तीनि = माया के तीन गुण। आवरत = घुम्मन घेरी, चक्कर। चूकी = खत्म हो गई। घेर = चक्कर। साधसंगि = गुरु की संगति में। भै = सारे डर। फेर = (जनम मरण का) चक्कर।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! ज्यों-ज्यों मैंने प्रभु को स्मरण किया है) प्रभु ने (मेरे अंदर से) पाँच कामादिक शेर समाप्त कर दिए हैं, दस इन्द्रियों का दबाव भी मेरे ऊपर से दूर कर दिया है। माया के तीन गुणों की घुम्मन घेरी का चक्कर भी खत्म हो गया है। गुरु की संगति में (रहने के कारण) जनम-मरण के चक्कर के सारे डर भी खत्म हो गए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरि सिमरि जीवा गोविंद ॥ करि किरपा राखिओ दासु अपना सदा सदा साचा बखसिंद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सिमरि सिमरि जीवा गोविंद ॥ करि किरपा राखिओ दासु अपना सदा सदा साचा बखसिंद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। करि = कर के। साचा = सदा कायम रहने वाला। बखसिंद = बख्शिश करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा (का नाम) बार-बार स्मरण करके आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मुझ दास को परमात्मा ने कृपा करके (खुद ही कामादिक विकारों से) बचा रखा है। सदा कायम रहने वाला मालिक सदा ही बख्शिशें करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाझि गए त्रिण पाप सुमेर ॥ जपि जपि नामु पूजे प्रभ पैर ॥ अनद रूप प्रगटिओ सभ थानि ॥ प्रेम भगति जोरी सुख मानि ॥२॥
मूलम्
दाझि गए त्रिण पाप सुमेर ॥ जपि जपि नामु पूजे प्रभ पैर ॥ अनद रूप प्रगटिओ सभ थानि ॥ प्रेम भगति जोरी सुख मानि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाझि गए = जल गए। त्रिण = घास के तीले। पाप सुमेर = सुमेर पर्वत जैसे बड़े पाप। प्रभ पैर = प्रभु के पैर। अनद रूप = आनंद स्वरूप प्रभु। सभ थानि = हरेक जगह में (बसता)। सुख मानि = सुख भोग। प्रेम भगति सुख मानि = सुखों की मणि प्रेमा भक्ति में। जोरि = (तवज्जो) जोड़ी।2।
अर्थ: हे भाई! जब कोई जीव परमात्मा का नाम जप-जप के उसके चरण पूजने शुरू करता है, तो उसके सुमेर पर्वत जितने हो चुके पाप घास के तीलों की तरह जल जाते हैं। जब किसी ने सुखों की मणि प्रभु की प्रेमा-भक्ति में अपनी तवज्जो जोड़ी, तो उसको आनंद-स्वरूप हरेक जगह पर बसता दिखाई दे गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सागरु तरिओ बाछर खोज ॥ खेदु न पाइओ नह फुनि रोज ॥ सिंधु समाइओ घटुके माहि ॥ करणहार कउ किछु अचरजु नाहि ॥३॥
मूलम्
सागरु तरिओ बाछर खोज ॥ खेदु न पाइओ नह फुनि रोज ॥ सिंधु समाइओ घटुके माहि ॥ करणहार कउ किछु अचरजु नाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = (संसार) समुंदर। बाछर = बछड़ा। खोज = खुर के निशान। खेदु = दुख। फुनि = दोबारा। रोज = रुज़ताप, ग़म। सिंधु = समुंदर। घटुका = छोटा सा घड़ा। घटुके माहि = छोटे से घड़े में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घटु के माहि’ पद-विच्छेद करना गलत है। अगर ये होता, तो संबंधक ‘के’ के कारण ‘घटु’ की ‘ु’ मात्रा हटनी चाहिए थी।
दर्पण-भाषार्थ
चरजु = अनोखी बात।3।
अर्थ: (हे भाई! जिसने भी नाम जपा, उसने) संसार-समुंदर ऐसे पार कर लिया जैसे (पानी से भरा हुआ) बछड़े के खुर का निशान है, ना उसे कोई दुख होता है ना ही कोई चिन्ता-फिक्र। प्रभु उसके अंदर यूं आ टिकता है जैसे समुंदर (मानो) एक छोटे से घड़े में आ टिके। हे भाई! विधाता प्रभु के लिए ये कोई अनोखी बात नहीं है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ छूटउ तउ जाइ पइआल ॥ जउ काढिओ तउ नदरि निहाल ॥ पाप पुंन हमरै वसि नाहि ॥ रसकि रसकि नानक गुण गाहि ॥४॥४०॥५१॥
मूलम्
जउ छूटउ तउ जाइ पइआल ॥ जउ काढिओ तउ नदरि निहाल ॥ पाप पुंन हमरै वसि नाहि ॥ रसकि रसकि नानक गुण गाहि ॥४॥४०॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब। छूटउ = पल्ला छूट जाता है। तउ = तब। जाइ = (जीव) जा पड़ता है। पइआल = पाताल (में)। काढिओ = (पाताल में से) निकाल लिया। निहाल = प्रसन्न, पूरी तौर पर खुश। हमरै वसि = हमारे वश में। रसकि = रस से, रस ले ले के। गाहि = (बहुवचन) गाते हैं (जीव)।4।
अर्थ: (हे भाई!) जब (किसी जीव के हाथ से प्रभु का पल्ला) छूट जाता है, तब वह (मानो) पाताल में जा पड़ता है। जब प्रभु स्वयं उसको पाताल में से निकाल लेता है तो उसकी मेहर की निगाह से वह तन-मन से खिल उठता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) अच्छे-बुरे काम करने हम जीवों के वश में नहीं है, (जिस पर वह मेहर करता है, वह लोग) बड़े प्रेम से उसके गुण गाते हैं।4।40।51।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ ना तनु तेरा ना मनु तोहि ॥ माइआ मोहि बिआपिआ धोहि ॥ कुदम करै गाडर जिउ छेल ॥ अचिंतु जालु कालु चक्रु पेल ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ ना तनु तेरा ना मनु तोहि ॥ माइआ मोहि बिआपिआ धोहि ॥ कुदम करै गाडर जिउ छेल ॥ अचिंतु जालु कालु चक्रु पेल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनु = शरीर। तोहि = तेरा। मोहि = मोह में। बिआपिआ = फसा हुआ। धोहि = ठगी में। कुदम = कलोल। गाडर = भेड। छेल = छेला, लेला। अचिंतु = अचानक। कालु = मौत। पेल = धकेल देता है, चला देता है।1।
अर्थ: (हे भाई! इस शरीर की खातिर) तू माया के मोह की ठगी में फसा रहता है, ना वह शरीर तेरा है, और, ना ही (उस शरीर में बसता) मन तेरा है। (देख!) जैसे भेड़ का बच्चा भेड़ के साथ कलोल (लाड कर करके खेलता) है (उस बिचारे पर) अचानक (मौत का) जाल आ पड़ता है, (उस पर) मौत अपना चक्कर चला देती है (यही हाल हरेक जीव का होता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चरन कमल सरनाइ मना ॥ राम नामु जपि संगि सहाई गुरमुखि पावहि साचु धना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि चरन कमल सरनाइ मना ॥ राम नामु जपि संगि सहाई गुरमुखि पावहि साचु धना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। मना = हे मन! जपि = जपा कर। संगि = (तेरे) साथ। सहाई = मददगार। गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके, गुरु की शरण पड़ के। पावहि = तू लेगा। साचु = सदा स्थिर रहने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! प्रभु के सुंदर चरणों की शरण पड़ा रह। परमात्मा का नाम जपता रहा कर, यही तेरा असल मददगार है। पर ये सदा कायम रहने वाला नाम-धन तू गुरु की शरण पड़ कर ही पा सकेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊने काज न होवत पूरे ॥ कामि क्रोधि मदि सद ही झूरे ॥ करै बिकार जीअरे कै ताई ॥ गाफल संगि न तसूआ जाई ॥२॥
मूलम्
ऊने काज न होवत पूरे ॥ कामि क्रोधि मदि सद ही झूरे ॥ करै बिकार जीअरे कै ताई ॥ गाफल संगि न तसूआ जाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊने = अधूरे, कभी पूरा ना हो सकने वाले। कामि = काम में। मदि = नशे में। सद ही = सदा ही। करै = करता है। जीअरा = जिंद। कै ताई = की खातिर, के वास्ते। गाफल संगि = गाफ़ल के साथ। तसूआ = रक्ती भी।2।
अर्थ: जीव के ये कभी ना खत्म हो सकने वाले काम कभी पूरे नहीं होते; काम-वासना में, क्रोध में, माया के नशे में जीव सदा ही गिले-शिकवे करता रहता है। अपनी इस जीवात्मा (को सुख देने) की खातिर जीव विकार करता रहता है, पर (ईश्वर की याद से) बेखबर हो चुके जीव के साथ (दुनिया के पदार्थों में से) रक्ती भर भी नहीं जाता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरत धोह अनिक छल जानै ॥ कउडी कउडी कउ खाकु सिरि छानै ॥ जिनि दीआ तिसै न चेतै मूलि ॥ मिथिआ लोभु न उतरै सूलु ॥३॥
मूलम्
धरत धोह अनिक छल जानै ॥ कउडी कउडी कउ खाकु सिरि छानै ॥ जिनि दीआ तिसै न चेतै मूलि ॥ मिथिआ लोभु न उतरै सूलु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरत धोह = ठगी करता है। छल = फरेब। सिरि = सिर पर। जिनि = जिस (प्रभु) ने। न मूलि = बिल्कुल नहीं। मिथिआ लोभु = नाशवान पदार्थों का लोभ। सूलु = शूल, चोभु।3।
अर्थ: मूर्ख जीव अनेक प्रकार की ठगी करता है, अनेक फरेब करने जानता है। कौड़ी-कौड़ी कमाने की खातिर अपने सिर पर (दग़ा-फरेब के कारण बदनामी की) राख डालता फिरता है। जिस (प्रभु) ने (इसको ये सब कुछ) दिया है उसको ये बिल्कुल याद नहीं करता। (इसके अंदर) नाशवान पदार्थों का लोभ टिका रहता है (इनकी) चुभन (इसके अंदर से) कभी दूर नहीं होती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम जब भए दइआल ॥ इहु मनु होआ साध रवाल ॥ हसत कमल लड़ि लीनो लाइ ॥ नानक साचै साचि समाइ ॥४॥४१॥५२॥
मूलम्
पारब्रहम जब भए दइआल ॥ इहु मनु होआ साध रवाल ॥ हसत कमल लड़ि लीनो लाइ ॥ नानक साचै साचि समाइ ॥४॥४१॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध रवाल = गुरु की चरण धूल। हसत = हाथ। लड़ि = पल्ले से। साचै = सदा स्थिर प्रभु में ही। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। समाइ = लीन रहता है।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा जब किसी जीव पर दयावान होता है, उस जीव का ये मन गुरु के चरणों की धूल बनता है। गुरु उसको अपने सुंदर हाथों से अपने पल्ले से लगा लेता है, और, (वह भाग्यशाली) सदा ही सदा-स्थिर प्रभु में लीन हुआ रहता है।4।41।52।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ राजा राम की सरणाइ ॥ निरभउ भए गोबिंद गुन गावत साधसंगि दुखु जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ राजा राम की सरणाइ ॥ निरभउ भए गोबिंद गुन गावत साधसंगि दुखु जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजा राम = प्रकाश रूप प्रभु, सब जीवों को अपनी ज्योति का प्रकाश देने वाला हरि। गावत = गाते हुए। साध संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का आसरा लेते हैं, परमात्मा के गुण गाते-गाते वे दुनिया के डरों से मुक्त हो जाते हैं; गुरु की संगति में रह के उनका (हरेक) दुख दूर हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै रामु बसै मन माही ॥ सो जनु दुतरु पेखत नाही ॥ सगले काज सवारे अपने ॥ हरि हरि नामु रसन नित जपने ॥१॥
मूलम्
जा कै रामु बसै मन माही ॥ सो जनु दुतरु पेखत नाही ॥ सगले काज सवारे अपने ॥ हरि हरि नामु रसन नित जपने ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै मन माही = जिस (मनुष्य) के मन में। दुतरु = बड़ी मुश्किल से तैरा जा सकने वाला संसार समुंदर। सगले = सारे। रसन = जीभ (से)।1।
दर्पण-टिप्पनी
जिस कै = (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है; देखें गुरबाणी व्याकरण)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा (का नाम) आ बसता है, वह मनुष्य मुश्किल से तैरे जाने वाले इस संसार-समुंदर की तरफ़ देखता भी नहीं (उसके रास्ते में) यह कोई रुकावट नहीं डालता। परमात्मा का नाम (अपनी) जीभ से नित्य जप-जप के वह मनुष्य अपने सारे काम सफल कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस कै मसतकि हाथु गुरु धरै ॥ सो दासु अदेसा काहे करै ॥ जनम मरण की चूकी काणि ॥ पूरे गुर ऊपरि कुरबाण ॥२॥
मूलम्
जिस कै मसतकि हाथु गुरु धरै ॥ सो दासु अदेसा काहे करै ॥ जनम मरण की चूकी काणि ॥ पूरे गुर ऊपरि कुरबाण ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै मसतकि = के माथे पर। अदेसा = अंदेशा। चिंता = फिक्र। काहे = क्यों? काणि = अधीनता, तौख़ला। कुरबाण = सदके, बलिहार।2।
अर्थ: हे भाई! इस मनुष्य के माथे पर गुरु (अपना) हाथ रखता है, (प्रभु का वह) सेवक किसी तरह की भी कोई चिन्ता-फिक्र नहीं करता। वह मनुष्य पूरे गुरु पर से सदा सदके जाता है (अपना स्वै कुर्बान करता रहता है, इस तरह) उसके जनम-मरण के चक्कर का डर समाप्त हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु परमेसरु भेटि निहाल ॥ सो दरसनु पाए जिसु होइ दइआलु ॥ पारब्रहमु जिसु किरपा करै ॥ साधसंगि सो भवजलु तरै ॥३॥
मूलम्
गुरु परमेसरु भेटि निहाल ॥ सो दरसनु पाए जिसु होइ दइआलु ॥ पारब्रहमु जिसु किरपा करै ॥ साधसंगि सो भवजलु तरै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटि = मिल के। निहाल = चढ़दीकला वाला। सो = वह बंदा। भवजलु = संसार समुंदर।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, परमेश्वर मिल जाता है, वह सदा खिला रहता है। (पर गुरु का परमेश्वर के) दर्शन वही मनुष्य प्राप्त करता है, जिस पर प्रभु स्वयं दयावान होता है। जिस व्यक्ति पर परमात्मा मेहर करता है, वह मनुष्य गुरु की संगति में (रह के) संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रितु पीवहु साध पिआरे ॥ मुख ऊजल साचै दरबारे ॥ अनद करहु तजि सगल बिकार ॥ नानक हरि जपि उतरहु पारि ॥४॥४२॥५३॥
मूलम्
अम्रितु पीवहु साध पिआरे ॥ मुख ऊजल साचै दरबारे ॥ अनद करहु तजि सगल बिकार ॥ नानक हरि जपि उतरहु पारि ॥४॥४२॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = हे संत जनो! अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। ऊजल = उज्जवल, बेदाग। दरबारे = दरबार में। तजि = त्याग के। बिकार = बुरे काम। अनद = आत्मिक आनंद। जपि = जप के।4।
अर्थ: हे प्यारे संतजनो! (तुम भी) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहो, सदा-स्थिर प्रभु के दरबार में तुम्हारे मुँह उज्जवल होंगे (वहाँ तुम्हें आदर-सत्कार मिलेगा)। हे नानक! (कह: हे संत जनो!) सारे विचार छोड़ के आत्मिक आनंद भोगते रहो, परमात्मा का नाम जप के तुम संसार-समुंदर से पार लांघ जाओगे।4।42।53।
[[0900]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ ईंधन ते बैसंतरु भागै ॥ माटी कउ जलु दह दिस तिआगै ॥ ऊपरि चरन तलै आकासु ॥ घट महि सिंधु कीओ परगासु ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ ईंधन ते बैसंतरु भागै ॥ माटी कउ जलु दह दिस तिआगै ॥ ऊपरि चरन तलै आकासु ॥ घट महि सिंधु कीओ परगासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईधन ते = ईधन से, लकड़ी से। बैसंतरु = आग। कउ = को। दहदिस = दसों तरफ। ऊपरि = ऊपर की ओर। तलै = नीचे की तरफ। आकासु = ऊपर वाला हिस्सा, सिर। घट महि = घड़े में। सिंधु = समुंदर, बेअंत प्रभु।1।
अर्थ: (हे मन! देख उस प्रभु की आश्चर्यजनक ताकतें!) लकड़ी से आग परे भागती है (लकड़ी में आग हर वक्त मौजूद है, पर उसको जलाती नहीं)। (समुंदर का) पानी धरती को हर तरफ से त्यागे रहता है (धरती समुंदर में रहती है, पर समुंदर इसको डुबोता नहीं)। (वृक्ष के) पैर (जड़ें) ऊपर की ओर हैं, और सिर नीचे की तरफ है। घड़े में (छोटे-छोटे शरीरों में) समुंदर-प्रभु अपना आप प्रकाशित करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा सम्रथु हरि जीउ आपि ॥ निमख न बिसरै जीअ भगतन कै आठ पहर मन ता कउ जापि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा सम्रथु हरि जीउ आपि ॥ निमख न बिसरै जीअ भगतन कै आठ पहर मन ता कउ जापि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संम्रथु = समर्थता वाला, सभ ताकतों का मालिक। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। जीअ भगतन कै = भक्तों की जीवात्मा में से। मन = हे मन! ता कउ = उस (प्रभु) को। जापि = जपता रह।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा खुद बहुत सारी ताकतों का मालिक हैं वह परमात्मा अपने भक्तों के मन से आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं बिसरता। हे मन! तू भी उसको आठों पहर जपा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमे माखनु पाछै दूधु ॥ मैलू कीनो साबुनु सूधु ॥ भै ते निरभउ डरता फिरै ॥ होंदी कउ अणहोंदी हिरै ॥२॥
मूलम्
प्रथमे माखनु पाछै दूधु ॥ मैलू कीनो साबुनु सूधु ॥ भै ते निरभउ डरता फिरै ॥ होंदी कउ अणहोंदी हिरै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। पाछै = पीछे। मैलू = मैल को, माता के लहू को। सूधु = शुद्ध, सफेद (दूध)। भै ते = डरों से। निरभउ = जीव जो असल में डर रहित प्रभु की अंश है। होंदी कउ = अस्तित्व वाली जीवात्मा को। अणहोंदी = जिसकी कोई (अलग) हस्ती नहीं। हिरै = चुरा लेती है, ठग लेती है।2।
अर्थ: (हे भाई! पहले दूध होता है, उस दूध को मथने से उस दूध का तत्व-मक्खन बाद में निकलता है। पर देख! सृष्टि का तत्व-) मक्खन परमात्मा पहले ही मौजूद है, ओर (उसका पसारा-जगत) दूध बाद में (बनता) है (जगत-पसारे रूप दूध में तत्व-प्रभु-मक्खन सर्व-व्यापक है)। (जीवों की पालना के लिए) मैल को (माँ के लहू को) शुद्ध साबन जैसा सफेद दूध बना देता है। निर्भय-प्रभु का अंश जीव दुनिया के अनेक डरों से डरता फिरता है, माया जीव को भगाए फिरती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही गुपत बिदेही दीसै ॥ सगले साजि करत जगदीसै ॥ ठगणहार अणठगदा ठागै ॥ बिनु वखर फिरि फिरि उठि लागै ॥३॥
मूलम्
देही गुपत बिदेही दीसै ॥ सगले साजि करत जगदीसै ॥ ठगणहार अणठगदा ठागै ॥ बिनु वखर फिरि फिरि उठि लागै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = देह के मालिक, शरीर की मालिक आत्मा। बिदेही = जो आत्मा नहीं, शरीर। साजि = सजा के। जगदीसै = जगदीश ही, जगत का मालिक ही। ठगणहार = (सबको) ठगने वाली माया। अणठगदा = (परमात्मा की अंश जीव) जो ठगी नहीं जाना चाहिए। वखर = सौदा, नाम पूंजी। बिनु वखर = नाम की पूंजी से वंचित। फिरि फिरि = बार बार। उठि = उठ के। लागै = माया में फसता है, माया को चिपकता है।3।
अर्थ: हे भाई! शरीर की मालिक आत्मा (शरीर में) छुपी रहती है, सिर्फ शरीर दिखाई देता है। सारे जीवों को पैदा करके जगत का मालिक प्रभु (अनेक करिश्मे) करता रहता है। ठगनी-माया जीव को सदा ठगती रहती है। नाम की पूंजी से वंचित जीव बार-बार माया को चिपकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत सभा मिलि करहु बखिआण ॥ सिम्रिति सासत बेद पुराण ॥ ब्रहम बीचारु बीचारे कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥४॥४३॥५४॥
मूलम्
संत सभा मिलि करहु बखिआण ॥ सिम्रिति सासत बेद पुराण ॥ ब्रहम बीचारु बीचारे कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥४॥४३॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बखिआण = विचार, व्याख्या। बीचारे कोइ = (बीचारे कोय) जो कोई बिचारता है। ता की = उस मनुष्य की। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) संत-सभा में मिल के स्मृतियों-शास्त्रों-वेद-पुराणों की व्याख्या करके (बेशक) देख लें (इस ठगने वाली माया से बचा नहीं जा सकता)। जो कोई मनुष्य सत्संग में परमात्मा के गुणों की विचार विचारता है उसी की ही सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था बनती है।4।43।54।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ जो तिसु भावै सो थीआ ॥ सदा सदा हरि की सरणाई प्रभ बिनु नाही आन बीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ जो तिसु भावै सो थीआ ॥ सदा सदा हरि की सरणाई प्रभ बिनु नाही आन बीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है, पसंद आता है। थीआ = हो रहा है। आन = अन्य। बीआ = दूसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो कुछ प्रभु को अच्छा लगता है वही हो रहा है। (इस वास्ते) सदा ही उस प्रभु की शरण पड़ा रह। प्रभु के बिना कोई और दूसरा (कुछ करने के योग्य) नहीं है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुतु कलत्रु लखिमी दीसै इन महि किछू न संगि लीआ ॥ बिखै ठगउरी खाइ भुलाना माइआ मंदरु तिआगि गइआ ॥१॥
मूलम्
पुतु कलत्रु लखिमी दीसै इन महि किछू न संगि लीआ ॥ बिखै ठगउरी खाइ भुलाना माइआ मंदरु तिआगि गइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। दीसै = (जो कुछ) दिखता है। किछू = कुछ भी। संगि = साथ। बिखै ठगउरी = विषयों भरी ठग-बूटी (धतूरा)। खाइ = (खाय) खा के। भुलाना = सही राह से भटकता रहता है। मंदरु = सुंदर घर।1।
अर्थ: हे भाई! पुत्र, स्त्री, माया - ये जो कुछ दिखाई दे रहा है, इनमें से कुछ भी (अंत के समय जीव) अपने साथ नहीं ले के जाता। विषौ-विकारों की ठग-बूटी खा के जीव गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, आखिर में ये माया, ये सुंदर घर (सब कुछ) छोड़ के चला जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदा करि करि बहुतु विगूता गरभ जोनि महि किरति पइआ ॥ पुरब कमाणे छोडहि नाही जमदूति ग्रासिओ महा भइआ ॥२॥
मूलम्
निंदा करि करि बहुतु विगूता गरभ जोनि महि किरति पइआ ॥ पुरब कमाणे छोडहि नाही जमदूति ग्रासिओ महा भइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि करि = बार बार करके। विगूता = ख्वार होता है। किरति = किए अनुसार। पइआ = पड़ गया। पूरब कमाणे = पूर्बले जन्मों के किए काम। जमदूति = जम दूत ने। ग्रासिओ = काबू कर लिया। भइआ = भयानक।2।
अर्थ: हे भाई! जीव दूसरों की निंदा कर कर के बहुत ख्वार होता रहता है, और अपने इस किए अनुसार जनम-मरण के चक्कर में जा पड़ता है। (ये आम असूल की बात है कि) पूर्बले किए कर्मों के संस्कार जीव को छोड़ते नहीं हैं, और बहुत भयानक जमदूत इसे काबू में किए रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलै झूठु कमावै अवरा त्रिसन न बूझै बहुतु हइआ ॥ असाध रोगु उपजिआ संत दूखनि देह बिनासी महा खइआ ॥३॥
मूलम्
बोलै झूठु कमावै अवरा त्रिसन न बूझै बहुतु हइआ ॥ असाध रोगु उपजिआ संत दूखनि देह बिनासी महा खइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरा = और ही। कमावै = कर्म करता है। हइआ = ‘है है’, हाय हाय (हाय माया हाय माया = ये आग लगी रहती है)। असाध = लाइलाज, जिसका इलाज ना हो सके। दूखनि = निंदा के कारण। देह = शरीर। खइआ = खई रोग, (क्षय रोग)।3।
अर्थ: (माया के मोह की ठग-बूटी खा के माया की खातिर जीव) झूठ बोलता है (मुँह से बोलता और है, और,) करता कुछ और है, इसकी माया की भूख मिटती नहीं, माया की ‘हाय हाय’ सदा इसको लगी रहती है। संत जनों की निंदा करने के कारण (माया की तृष्णा का) ला-इलाज रोग (जीव के अंदर) पैदा हो जाता है इस बड़े क्षय रोग में ही इसका शरीर नाश हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनहि निवाजे तिन ही साजे आपे कीने संत जइआ ॥ नानक दास कंठि लाइ राखे करि किरपा पारब्रहम मइआ ॥४॥४४॥५५॥
मूलम्
जिनहि निवाजे तिन ही साजे आपे कीने संत जइआ ॥ नानक दास कंठि लाइ राखे करि किरपा पारब्रहम मइआ ॥४॥४४॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनहि = जिस (प्रभु) ने। निवाजे = आदर सत्कार दिया है। तिन ही = (तिनि ही) उस (प्रभु) ने ही। साजे = पैदा किए हुए हैं। आपे = आप ही। जइआ = जयी, जीत के मालिक। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। करि = कर के। मइआ = दया।4।
अर्थ: (पर, हे भाई! संत जनों की निंदा से जीव को कुछ भी हासिल नहीं होता) प्रभु ने स्वयं ही संत जनों को जीत का मालिक बनाया होता है, उन्हें उसी प्रभु ने पैदा किया हुआ है जिसने उनको आदर-सम्मान दिया हुआ है। हे नानक! परमात्मा मेहर करके दया करके अपने दासों को खुद ही अपने गले से लगाए रखता है।4।44।55।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ ऐसा पूरा गुरदेउ सहाई ॥ जा का सिमरनु बिरथा न जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ ऐसा पूरा गुरदेउ सहाई ॥ जा का सिमरनु बिरथा न जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरदेव = गुरु। सहाई = सहायता करने वाला, मददगार। जा का सिमरनु = जिसका दिया हुआ हरि स्मरण का उपदेश। बिरथा = व्यर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु ऐसी मदद करने वाला है कि उसका दिया हुआ हरि-स्मरण का उपदेश व्यर्थ नहीं जाता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनु पेखत होइ निहालु ॥ जा की धूरि काटै जम जालु ॥ चरन कमल बसे मेरे मन के ॥ कारज सवारे सगले तन के ॥१॥
मूलम्
दरसनु पेखत होइ निहालु ॥ जा की धूरि काटै जम जालु ॥ चरन कमल बसे मेरे मन के ॥ कारज सवारे सगले तन के ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखत = देखते हुए। निहालु = प्रसन्न। जम जालु = जम की फाही। मेरे = मेरे (ष्गुरू) ने। चरन कमल = सोहणे चरण। मन के तन के सगले कारज = (उस मनुष्य के) मन और शरीर के सारे काम।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के) दर्शन करने से (मनुष्य तन से मन से) खिल उठता है, उस गुरु के चरणों की धूल जमों की फाँसी काट देती है। हे भाई! प्यारे गुरु के सुंदर चरण (जिस मनुष्य के हृदय में) आ बसते हैं, (उसके) मन के (उसके) शरीर के सारे काम (गुरु) सँवार देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै मसतकि राखै हाथु ॥ प्रभु मेरो अनाथ को नाथु ॥ पतित उधारणु क्रिपा निधानु ॥ सदा सदा जाईऐ कुरबानु ॥२॥
मूलम्
जा कै मसतकि राखै हाथु ॥ प्रभु मेरो अनाथ को नाथु ॥ पतित उधारणु क्रिपा निधानु ॥ सदा सदा जाईऐ कुरबानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। अनाथ को नाथु = अनाथों का सहारा (मिल जाता है)। पतित उधारणु = विकारों में गिरे हुओं को बचाने वाला। निधानु = खजाना। कुरबानु = सदके। जाईऐ = जाना चाहिए।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (गुरु अपना) हाथ रखता है उसको मेरा वह प्रभु (मिल जाता है) जो निआसरों का आसरा है। हे भाई! गुरु विकारों में गिरे हुओं को विकारों से बचाने वाला है, गुरु कृपा का खजाना है। हे भाई! गुरु से सदा ही बलिहार जाना चाहिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल मंतु देइ जिसु दानु ॥ तजहि बिकार बिनसै अभिमानु ॥ एकु धिआईऐ साध कै संगि ॥ पाप बिनासे नाम कै रंगि ॥३॥
मूलम्
निरमल मंतु देइ जिसु दानु ॥ तजहि बिकार बिनसै अभिमानु ॥ एकु धिआईऐ साध कै संगि ॥ पाप बिनासे नाम कै रंगि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमल मंतु = पवित्र उपदेश। देइ = (देय) देता है। तजहि = छोड़ जाते हैं। बिनसै = नाश हो जाता है। साध कै संगि = गुरु की संगति में। कै रंगि = के रंग में, की मौज में।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु अपना पवित्र उपदेश बख्शता है, सारे विकार उसको छोड़ जाते हैं उसका अहंकार दूर हो जाता है। हे भाई! गुरु की संगति में रह के एक परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। (गुरु के द्वारा) परमात्मा के प्रेम-रंग में रहने से सारे पापों का नाश हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परमेसुर सगल निवास ॥ घटि घटि रवि रहिआ गुणतास ॥ दरसु देहि धारउ प्रभ आस ॥ नित नानकु चितवै सचु अरदासि ॥४॥४५॥५६॥
मूलम्
गुर परमेसुर सगल निवास ॥ घटि घटि रवि रहिआ गुणतास ॥ दरसु देहि धारउ प्रभ आस ॥ नित नानकु चितवै सचु अरदासि ॥४॥४५॥५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सब जीवों में। घटि घटि = हरेक शरीर में। गुणतास = गुणों का खजाना। देहि = तू दे (शब्द ‘देइ’ और ‘देहि’ का अंतर समझना चाहिए)। धारउ = मैं धरता हूँ, मैं रखता हूँ। प्रभ = हे प्रभु! नानक चितवै = नानक याद करता रहे। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु-परमात्मा सब जीवों में बसता है, सारे गुणों का खजाना हरेक हृदय में मौजूद है। हे प्रभु! मुझे अपने दर्शन दे, मैं तेरे दर्शनों की आस रखे बैठा हूँ। यही मेरी अरदास है कि (तेरा सेवक) नानक सदा-स्थिर प्रभु को याद करता रहे।4।45।56।
[[0901]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु रामकली महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु रामकली महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहु राम के गुण गीत ॥ नामु जपत परम सुखु पाईऐ आवा गउणु मिटै मेरे मीत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गावहु राम के गुण गीत ॥ नामु जपत परम सुखु पाईऐ आवा गउणु मिटै मेरे मीत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। परम = सबसे ऊँचा। पाईऐ = हासल करते हैं। आवागउणु = जगत में आने और जगत से जाने (का चक्कर), जनम मरण के चक्र। मीत = हे मित्र!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र! परमात्मा के गुणों के गीत (सदा) गाते रहो। परमात्मा का नाम जपने से सबसे श्रेष्ठ सुख हासिल कर लिया जाता है और जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण गावत होवत परगासु ॥ चरन कमल महि होइ निवासु ॥१॥
मूलम्
गुण गावत होवत परगासु ॥ चरन कमल महि होइ निवासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। परगासु = प्रकाश। महि = में। निवासु = टिकाव।1।
अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के गुण गाते हुए (मन में सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, और परमात्मा के सुंदर चरणों में मन टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगति महि होइ उधारु ॥ नानक भवजलु उतरसि पारि ॥२॥१॥५७॥
मूलम्
संतसंगति महि होइ उधारु ॥ नानक भवजलु उतरसि पारि ॥२॥१॥५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत संगति = गुरु की संगति। उधारु = उद्धार, पार उतारा। भवजलु = संसार समुंदर। उतरसि = तू पार हो जाएगा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे मित्र!) गुरु की संगति में रहने से तेरा पार-उतारा हो जाएगा, तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।2।1।57।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ गुरु पूरा मेरा गुरु पूरा ॥ राम नामु जपि सदा सुहेले सगल बिनासे रोग कूरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ गुरु पूरा मेरा गुरु पूरा ॥ राम नामु जपि सदा सुहेले सगल बिनासे रोग कूरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरा = सारे गुणों का मालिक, सब ताकतों का मालिक। सुहेले = सुखी। सगल = सारे। रोग कूरा = झूठ का रोग, माया के मोह से पैदा हुए रोग।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु सब गुणों का मालिक है, मेरा गुरु पूरी सामर्थ्य वाला है। (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जप के मनुष्य सदा सुखी रहते हैं, माया के मोह से पैदा होने वाले उनके सारे रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकु अराधहु साचा सोइ ॥ जा की सरनि सदा सुखु होइ ॥१॥
मूलम्
एकु अराधहु साचा सोइ ॥ जा की सरनि सदा सुखु होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। एकु सोइ = (एक सोय) सिर्फ उस परमात्मा को। जा की सरनि = जिस (प्रभु) का आसरा लेने से।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के दर पर आ के) सदा कायम रहने वाले उस एक परमात्मा की आराधना किया करो जिसकी शरण पड़ने से सदा आत्मिक आनंद मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीद सुहेली नाम की लागी भूख ॥ हरि सिमरत बिनसे सभ दूख ॥२॥
मूलम्
नीद सुहेली नाम की लागी भूख ॥ हरि सिमरत बिनसे सभ दूख ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीद = (प्रभु के चरणों में) लीनता। सुहेली = सुखद। सिमरत = स्मरण करते हुए।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से) परमात्मा के नाम की लगन पैदा हो जाती है, और नाम में लीनता मनुष्य के लिए सुखदाई हो जाती है। परमात्मा का नाम स्मरण करने से सारे दुखों का नाश हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजि अनंद करहु मेरे भाई ॥ गुरि पूरै सभ चिंत मिटाई ॥३॥
मूलम्
सहजि अनंद करहु मेरे भाई ॥ गुरि पूरै सभ चिंत मिटाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहिज = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। भाई = हे भाई! गुरि = गुरु ने। सभ = सारी।3।
अर्थ: हे मेरे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है) पूरा गुरु उसकी सारी चिन्ता मिटा देता है, (तुम भी गुरु के द्वारा) आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक खुशियाँ प्राप्त करो।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आठ पहर प्रभ का जपु जापि ॥ नानक राखा होआ आपि ॥४॥२॥५८॥
मूलम्
आठ पहर प्रभ का जपु जापि ॥ नानक राखा होआ आपि ॥४॥२॥५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापि = जपा करो। नानक = हे नानक! राखा = रखवाला।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर) आठों पहर प्रभु के नाम का जाप किया करो। (जो मनुष्य प्रभु का नाम जपता है प्रभु) खुद उसका रखवाला बनता है।4।2।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु रामकली महला ५ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु रामकली महला ५ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरनरह नमसकारं ॥ जलन थलन बसुध गगन एक एकंकारं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नरनरह नमसकारं ॥ जलन थलन बसुध गगन एक एकंकारं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नरनरह = नरों में से श्रेष्ठ नर, परमात्मा। जलन = जलों में। थलन = थलों में। बसुध = धरती में। गगन = आकाश में। एकंकारं = सर्व व्यापक प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा को नमस्कार करते रहो। वह एक सर्व-व्यापक परमात्मा जलों में मौजूद है, थलों में है, धरती में है, और आकाश में है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरन धरन पुन पुनह करन ॥ नह गिरह निरंहारं ॥१॥
मूलम्
हरन धरन पुन पुनह करन ॥ नह गिरह निरंहारं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरन = नाश करने वाला। धरन = पालने वाला। पुन पुनहु = बार बार। करन = पैदा करने वाला। गिरह = गृह, घर। निरंहारं = निर+आहारं, आहार के बिना।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबका नाश करने वाला है, वही सबको पालने वाला है, वही जीवों को बार-बार पैदा करने वाला है। उसका कोई खास घर नहीं, उसे किसी आहार की आवश्यक्ता नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्मभीर धीर नाम हीर ऊच मूच अपारं ॥ करन केल गुण अमोल नानक बलिहारं ॥२॥१॥५९॥
मूलम्
ग्मभीर धीर नाम हीर ऊच मूच अपारं ॥ करन केल गुण अमोल नानक बलिहारं ॥२॥१॥५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गंभीर = गहरा। धीर = धैर्यवान, बड़े जिगरे वाला। हीर = बहुमूल्य। मूच = बड़ा। करन केल = करिश्मे करने वाला। अमोल = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। बलिहारं = बलिहार, सदके, कुर्बान।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (मानो) गहरा (समुंदर) है, बड़े जिगरे वाला है, उसका नाम बहुमूल्य है। वह परमात्मा सबसे ऊँचा है, सबसे बड़ा है, बेअंत है। वह सब करिश्मे करने वाला है, अमूल्य गुणों का मालिक है। हे नानक! उससे कुर्बान जाना चाहिए।2।1।59।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ रूप रंग सुगंध भोग तिआगि चले माइआ छले कनिक कामिनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ रूप रंग सुगंध भोग तिआगि चले माइआ छले कनिक कामिनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि चले = छोड़ के चल पड़े। कनिक = सोना। कामिनी = स्त्री।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सोना-स्त्री आदि माया के ठगे हुए जीव (आखिर दुनिया के सारे) सुंदर रूप-रंग-सुगंधियों और भोग-पदार्थों को छोड़ के (यहाँ से) चल पड़ते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भंडार दरब अरब खरब पेखि लीला मनु सधारै ॥ नह संगि गामनी ॥१॥
मूलम्
भंडार दरब अरब खरब पेखि लीला मनु सधारै ॥ नह संगि गामनी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भंडार = खजाने। दरब = द्रव्य, धन। अरब खरब = अरबों खरबों की गिनती वाले, बेअंत। पेखि = देख के। लीला = खेल। मनु सधारै = मन ढाढस बनाता है। संगि = साथ। गामनी = जाता।1।
अर्थ: हे भाई! बेअंत धन और खजानों की मौज देख-देख के (मनुष्य का) मन (अपने अंदर) ढारस बनाता रहता है, (पर इनमें से कोई चीज इसके) साथ नहीं जाती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुत कलत्र भ्रात मीत उरझि परिओ भरमि मोहिओ इह बिरख छामनी ॥ चरन कमल सरन नानक सुखु संत भावनी ॥२॥२॥६०॥
मूलम्
सुत कलत्र भ्रात मीत उरझि परिओ भरमि मोहिओ इह बिरख छामनी ॥ चरन कमल सरन नानक सुखु संत भावनी ॥२॥२॥६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। कलत्र = स्त्री। भ्रात = भाई। मीत = मित्र। उरझि परिओ = उलझा पड़ा है, फसा पड़ा है। भरमि = भ्रम में, भुलेखे में। बिरख छामनी = वृक्ष की छाया। संत भावनी = संतो को अच्छा लगता है।2।
अर्थ: हे भाई! पुत्र, स्त्री, भाई, मित्र (आदि के मोह) में जीव फसा रहता है, भुलेखे के कारण मोह में ठगा जाता है; पर ये सब कुछ वृक्ष की छाया की (तरह) है। (इसलिए) हे नानक! परमात्मा के सुंदर चरणों की शरण का सुख ही संत-जनों को अच्छा लगता है।2।2।60।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु रामकली महला ९ तिपदे ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु रामकली महला ९ तिपदे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन ओट लेहु हरि नामा ॥ जा कै सिमरनि दुरमति नासै पावहि पदु निरबाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मन ओट लेहु हरि नामा ॥ जा कै सिमरनि दुरमति नासै पावहि पदु निरबाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओट = आसरा। जा कै सिमरनि = जिस हरि-नाम के स्मरण से। दुरमति = दुर्मति। निरबान पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती, वासना रहित अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम का आसरा लिया कर, जिस नाम के स्मरण करने से खोटी मति नाश हो जाती है, (नाम की इनायत से) तू वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लेगा जहाँ कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बडभागी तिह जन कउ जानहु जो हरि के गुन गावै ॥ जनम जनम के पाप खोइ कै फुनि बैकुंठि सिधावै ॥१॥
मूलम्
बडभागी तिह जन कउ जानहु जो हरि के गुन गावै ॥ जनम जनम के पाप खोइ कै फुनि बैकुंठि सिधावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिह जन कउ = उस मनुष्य को। जानहु = नाश करके। फुनि = दोबारा, फिर। बैकुंठि = बैकुंठ में। सिधावै = जा पहुँचता है।1।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसको बड़े भाग्यों वाला समझ। वह मनुष्य अनेक जन्मों के पाप दूर करके फिर बैकुंठ में जा पहुँचता है।1।
[[0902]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजामल कउ अंत काल महि नाराइन सुधि आई ॥ जां गति कउ जोगीसुर बाछत सो गति छिन महि पाई ॥२॥
मूलम्
अजामल कउ अंत काल महि नाराइन सुधि आई ॥ जां गति कउ जोगीसुर बाछत सो गति छिन महि पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काल = समय। महि = में। नाराइन सुधि = परमात्मा की सूझ (पौराणिक कथा ये है कि पापी अजामल ने अपने छोटे पुत्र का नाम नारायण रखा था। अंत के समय अपने पुत्र नारायण को याद करते करते उसको प्रभु नारायण की सूझ आ गई)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। कउ = को। जोगीसुर = बड़े बड़े जोगी।2।
अर्थ: (हे मेरे मन! देख, पुरानी प्रसिद्ध कथा है कि) आखिरी समय में (पापी) अजामल को परमात्मा के नाम की सूझ आ गई, उसने वह ऊँची आत्मिक अवस्था एक पल में हासिल कर ली, जिस आत्मिक अवस्था को बड़े-बड़े जोगी तरसते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहिन गुनु नाहिन कछु बिदिआ धरमु कउनु गजि कीना ॥ नानक बिरदु राम का देखहु अभै दानु तिह दीना ॥३॥१॥
मूलम्
नाहिन गुनु नाहिन कछु बिदिआ धरमु कउनु गजि कीना ॥ नानक बिरदु राम का देखहु अभै दानु तिह दीना ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाहिन = नहीं। गजि = हाथी ने। (भागवत अनुसार कथा: एक गंधर्व किसी ऋषि के श्राप से हाथी बन गया। इस हाथी को वरुण के तालाब में किसी तेंदुए ने पकड़ लिया। प्रभु के नाम की इनायत से वह बच निकला)। बिरदु = मुढ कदीमों का स्वभाव। अभै = निरभयता का। अभै दानु = निर्भयता की कृपा। तिह = उसको।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे मेरे मन! गज की कथा भी सुन। गज में) ना कोई गुण था, ना ही उसको कोई विद्या प्राप्त हुई थी। (उस विचारे) हाथी ने कौन सा धार्मिक कर्म करना था? पर देख परमात्मा का बिरद भरा स्वभाव, परमात्मा ने उस गज को निर्भयता की पदवी बख्श दी।3।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ९ ॥ साधो कउन जुगति अब कीजै ॥ जा ते दुरमति सगल बिनासै राम भगति मनु भीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ९ ॥ साधो कउन जुगति अब कीजै ॥ जा ते दुरमति सगल बिनासै राम भगति मनु भीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! कउन जुगति = कौन सी तरतीब? कीजै = करनी चाहिए। जा ते = जिस (तरतीब) से। दुरमति सगल = सारी दुर्मति। भीजै = भीग जाए।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! अब (इस मनुष्य जनम में वह) कौन सी तरतीब अपनाई जाए, जिसके करने से (मनुष्य के अंदर की) सारी दुर्मति नाश हो जाए, और (मनुष्य का) मन परमात्मा की भक्ति में रच-मिच जाए?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु माइआ महि उरझि रहिओ है बूझै नह कछु गिआना ॥ कउनु नामु जगु जा कै सिमरै पावै पदु निरबाना ॥१॥
मूलम्
मनु माइआ महि उरझि रहिओ है बूझै नह कछु गिआना ॥ कउनु नामु जगु जा कै सिमरै पावै पदु निरबाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महि = में। उरझि रहिओ है = फसा हुआ है, उलझा हुआ है। गिआना = समझदारी की बात। कउनु नामु = वह कौन सा नाम है? जा कै सिमरै = जिसके स्मरण करने से। पदु निरबान = वासना रहित दर्जा, वह आत्मिक अवस्था जहाँ माया की वासना छू नहीं सकती।1।
अर्थ: हे संत-जनो! (आम तौर पर मनुष्य का) मन माया (के मोह) में उलझा रहता है, मनुष्य रक्ती भर भी समझदारी की ये बात नहीं विचारता कि वह कौन सा नाम है जिसका स्मरण करने से जगत वासना-रहित आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भए दइआल क्रिपाल संत जन तब इह बात बताई ॥ सरब धरम मानो तिह कीए जिह प्रभ कीरति गाई ॥२॥
मूलम्
भए दइआल क्रिपाल संत जन तब इह बात बताई ॥ सरब धरम मानो तिह कीए जिह प्रभ कीरति गाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = दयावान। बात = बातचीत। बताई = कही। मानो = ये मान लो कि। तिह = उस मनुष्य ने। जिह = जिस मनुष्य ने। प्रभ कीरति = प्रभु की महिमा (का गीत)।2।
अर्थ: हे भाई! जब संत जन (किसी भाग्यशाली पर) दयावान होते हैं, कृपा करते हैं, तब वह (उस मनुष्य को) ये बात बताते हैं कि- जिस मनुष्य ने परमात्मा की महिमा का गीत गाना आरम्भ कर दिया, ऐसे समझ लें कि उसने सारे ही धार्मिक कर्म कर डाले।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु नरु निसि बासुर महि निमख एक उरि धारै ॥ जम को त्रासु मिटै नानक तिह अपुनो जनमु सवारै ॥३॥२॥
मूलम्
राम नामु नरु निसि बासुर महि निमख एक उरि धारै ॥ जम को त्रासु मिटै नानक तिह अपुनो जनमु सवारै ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नरु = (जो) मनुष्य। निसि = रात। बासरु = दिन। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। उरि धारै = हृदय में टिकाता है। उरि = हृदय में। को = का। त्रासु = डर, सहम। तिह = उस (मनुष्य) का। सवारै = सफल कर लेता है।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जो) मनुष्य दिन-रात में एक निमेष मात्र समय के लिए भी परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाता है, वह मनुष्य अपना (मानव) जन्म सफल कर लेता है, उस मनुष्य के दिल में से मौत का सहम दूर हो जाता है।3।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ९ ॥ प्रानी नाराइन सुधि लेहि ॥ छिनु छिनु अउध घटै निसि बासुर ब्रिथा जातु है देह ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ९ ॥ प्रानी नाराइन सुधि लेहि ॥ छिनु छिनु अउध घटै निसि बासुर ब्रिथा जातु है देह ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रानी = हे प्राणी! नाराइन सुधि = परमात्मा की याद। लेहि = (हृदय में) टिकाए रख। छिनु छिनु = एक-एक छिन करके। अउध = उम्र। निसि = रात। बासुर = दिन। ब्रिथा = व्यर्थ। देह = शरीर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की याद हृदय में बसाए रख। (प्रभु की याद के बिना तेरा मनुष्य) शरीर व्यर्थ जा रहा है। दिन-रात एक-एक छिन करके तेरी उम्र घटती जा रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरनापो बिखिअन सिउ खोइओ बालपनु अगिआना ॥ बिरधि भइओ अजहू नही समझै कउन कुमति उरझाना ॥१॥
मूलम्
तरनापो बिखिअन सिउ खोइओ बालपनु अगिआना ॥ बिरधि भइओ अजहू नही समझै कउन कुमति उरझाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरनापो = (तरुण = जवान) जवानी। बिखिअन सिउ = विषियों से। खोइओ = तूने गवा लिया। बालपनु = बाल उम्र। अगिआना = अज्ञानता। बिरधि = बुड्ढा। अजहू = अभी भी। कउन कुमति = कौन से कुमति में? उरझाना = उलझा हुआ है।1।
अर्थ: (जीव का भी अजब दुर्भाग्य है कि इसने) जवानी (की उम्र) विषौ-विकारों में गवा ली, बाल-उम्र अंजान-पने में (गवा ली। अब) वृद्ध हो गया है, पर अभी भी नहीं समझता। (पता नहीं यह) किस कुमति में फसा पड़ा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानस जनमु दीओ जिह ठाकुरि सो तै किउ बिसराइओ ॥ मुकतु होत नर जा कै सिमरै निमख न ता कउ गाइओ ॥२॥
मूलम्
मानस जनमु दीओ जिह ठाकुरि सो तै किउ बिसराइओ ॥ मुकतु होत नर जा कै सिमरै निमख न ता कउ गाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानव जनमु = मनुष्य जन्म। जिह ठाकुरि = जिस ठाकुर ने। तै = तू (हे प्राणी!)। मुकतु = माया के बंधनो से खलासी। नर = हे मनुष्य! जा कै सिमरै = जिसका स्मरण करने से। निमख = आँख झपकने जितना समय। ता कउ = उस (परमात्मा) को।2।
अर्थ: हे प्राणी! जिस ठाकुर प्रभु ने (तुझे) मानव जनम दिया हुआ है, तू उसको क्यों भुला रहा है? हे नर! जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से माया के बंधनो से निजात मिलती है तू एक निमख मात्र भी उस (की महिमा) को नहीं गाता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ को मदु कहा करतु है संगि न काहू जाई ॥ नानकु कहतु चेति चिंतामनि होइ है अंति सहाई ॥३॥३॥८१॥
मूलम्
माइआ को मदु कहा करतु है संगि न काहू जाई ॥ नानकु कहतु चेति चिंतामनि होइ है अंति सहाई ॥३॥३॥८१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। मदु = नशा, गुमान। कहा = क्यों? काहू संगि = किसी के भी साथ। चेति = याद करता रह, स्मरण करता रह। चिंतामनि = परमात्मा, (वह मणि जो हरेक चितवनी पूरी कर देती है। स्वर्ग में माना गया उत्तम पदार्थ)। अंति = आखिरी समय में। होइ है = होगा। सहाई = मददगार।3।
अर्थ: हे प्राणी! तू क्यों माया का इतना गुमान कर रहा है? (ये तो) किसी के साथ भी (आखिर में) नहीं जाती। नानक कहता है: हे भाई! परमात्मा का स्मरण करता रह आखिर में वह तेरा मददगार होगा।3।3।81।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला १ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई चंदु चड़हि से तारे सोई दिनीअरु तपत रहै ॥ सा धरती सो पउणु झुलारे जुग जीअ खेले थाव कैसे ॥१॥
मूलम्
सोई चंदु चड़हि से तारे सोई दिनीअरु तपत रहै ॥ सा धरती सो पउणु झुलारे जुग जीअ खेले थाव कैसे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वही। चढ़हि = चढ़ते हैं। दिनीअरु = दिनकर, सूरज। सा = वही। झुलारे = झूलती है। जुग जीअ खेले = जुग (का प्रभाव) जीवों (के मन) में खेल रहा है। थाव कैसे = जगहों पर कैसे (खेल सकता है)?।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सर्वनाम ‘सा’ स्त्रीलिंग है तथा ‘सो’ पुलिंग है।
नोट: ‘थाव’ शब्द ‘थाउ’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जिस असल कलियुग का वर्णन हमने किया है उस) कलियुग का प्रभाव ही जीवों के मनों में (खेलें) खेलता है किसी विशेष जगहों पर नहीं खेल सकता (क्योंकि सतियुग त्रेता द्वापर आदि सारे ही समय में) वही चंद्रमा चढ़ता आया है, वही तारे चढ़ते आ रहे हैं, वही सूरज चमकता आ रहा है, वही धरती है और वही हवा झूलती आ रही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन तलब निवारि ॥ होवै परवाणा करहि धिङाणा कलि लखण वीचारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीवन तलब निवारि ॥ होवै परवाणा करहि धिङाणा कलि लखण वीचारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवन तलब = जीवन की तलब, स्वार्थ। तलब = जरूरत, इच्छा। निवारि = दूर कर। होवै परवाणा = (न्याय) माना जाता है। धिङाणा = जोर, धक्का, जुल्म। लखण = लक्षण, निशानियाँ। वीचारि = समझ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे पण्डित! अपने मन में से) खुद-गर्जी दूर कर (यह स्वार्थ ही कलियुग है। इस खुद-गर्जी के असर तले शक्तिशाली लोग कमजोरों के ऊपर) धक्केशाही करते हैं और (उनकी नजरों में) ये जोर-जबरदस्ती जायज़ समझी जाती है। खुद-गर्जी और दूसरों पर जोर-ज़बर - हे पण्डित! इनको कलियुग के लक्षण समझ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कितै देसि न आइआ सुणीऐ तीरथ पासि न बैठा ॥ दाता दानु करे तह नाही महल उसारि न बैठा ॥२॥
मूलम्
कितै देसि न आइआ सुणीऐ तीरथ पासि न बैठा ॥ दाता दानु करे तह नाही महल उसारि न बैठा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितै देसि = किसी भी देश में। तह = वहाँ, उस जगह। उसारि = उसार के, बना के।2।
अर्थ: किसी ने कभी नहीं सुना कि कलियुग किसी खास देश में आया हुआ है, किसी विशेष तीर्थ के पास बैठा हुआ है। जहाँ कोई दानी दान करता है वहाँ भी बैठा हुआ किसी ने सुना नहीं, किसी जगह कलियुग महल बना के नहीं बैठा हुआ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को सतु करे सो छीजै तप घरि तपु न होई ॥ जे को नाउ लए बदनावी कलि के लखण एई ॥३॥
मूलम्
जे को सतु करे सो छीजै तप घरि तपु न होई ॥ जे को नाउ लए बदनावी कलि के लखण एई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतु = ऊँचा आचरन। छीजै = छिजता है, (लोगों की नजरों में) गिरता है। तप घरि = तप के घर में, जिसके घर में तप है, तपस्वी। नाउ = परमात्मा का नाम। एई = यही (हैं)।3।
अर्थ: जो कोई मनुष्य अपना आचरण ऊँचा बनाता है तो वह (बल्कि लोगों की नजरों में) गिरता है, अगर कोई तपस्वी होने का दावा करता है तो उसकी इन्द्रियाँ उसके अपने वश में नहीं हैं, अगर कोई परमात्मा का नाम स्मरण करता है तो (लोगों में बल्कि उसकी) बदनामी होती है। (हे पण्डित! बुरा आचरण, इन्द्रियों का वश में ना होना, प्रभु के नाम से नफ़रत -) ये हैं कलियुग के लक्षण।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु सिकदारी तिसहि खुआरी चाकर केहे डरणा ॥ जा सिकदारै पवै जंजीरी ता चाकर हथहु मरणा ॥४॥
मूलम्
जिसु सिकदारी तिसहि खुआरी चाकर केहे डरणा ॥ जा सिकदारै पवै जंजीरी ता चाकर हथहु मरणा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिकदारी = सरदारी, चौधर। खुआरी = जिल्लत, दुर्गति। केहे = किस लिए? सिकदारै = सिकदार को।4।
अर्थ: (पर, ये खुद-गर्जी और कमजोरों पर जोर-ज़बरदस्ती सुखी जीवन का रास्ता नहीं) जिस मनुष्य को दूसरों पर सरदारी मिलती है (और वह कमजोरों पर धक्का करता है) उसकी ही (इस धक्के-जुल्म के कारण आखिर) दुर्गति होती है। नोकरों को (उस दुर्गति से कोई) खतरा नहीं होता। जब उस सरदार के गले में फंदा पड़ता है, तब वह उन नौकरों के हाथों से ही मरता है।4।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
आखु गुणा कलि आईऐ ॥ तिहु जुग केरा रहिआ तपावसु जे गुण देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आखु गुणा कलि आईऐ ॥ तिहु जुग केरा रहिआ तपावसु जे गुण देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आख गुणा = (परमात्मा के) गुण कह। कलि आईऐ = (अगर) कलियुग (भी) आया मान लिया जाए। केरा = का। तिहु जुग केरा = तीनों ही युगों का। रहिआ = रह गया है, समाप्त हो गया है। तपावसु = न्याय, प्रभाव। देहि = (हे प्रभु!) तू दे। त पाईऐ = तो (ये गुण ही) प्राप्त करने योग्य हैं।1। रहाउ।
अर्थ: (हे पण्डित! तेरे कहने के मुताबिक अगर अब) कलियुग का समय ही आ गया है (तो भी तीर्थ-व्रत आदि कर्मकांड के रास्ते छोड़ के) परमात्मा की महिमा कर (क्योंकि तेरे धर्म-शस्त्रों के अनुसार कलियुग में महिमा ही स्वीकार है, और) पहले तीन युगों का प्रभाव अब समाप्त हो चुका है। (सो, हे पण्डित! परमात्मा के आगे ये अरदास कर- हे प्रभु! अगर कृपा करनी है तो अपने) गुणों की बख्शिश कर, यह ही प्राप्त करने योग्य है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलि कलवाली सरा निबेड़ी काजी क्रिसना होआ ॥ बाणी ब्रहमा बेदु अथरबणु करणी कीरति लहिआ ॥५॥
मूलम्
कलि कलवाली सरा निबेड़ी काजी क्रिसना होआ ॥ बाणी ब्रहमा बेदु अथरबणु करणी कीरति लहिआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = (यही) कलियुग (है)। कल वाली = कलह वाली, झगड़े बढ़ाने वाली। सरा = शरह, धार्मिक कानून। निबेड़ी = निबेंड़ा करने वाली, फैसला देने वाली, न्याय करने वाली। क्रिशना = काला, काले दिल वाला, रिश्वतखोर। करणी = ऊँचा आचरण। कीरति = परमात्मा की महिमा। लहिआ = (लोगों के मनों से) उतर गए हैं।5।
अर्थ: (हे पण्डित!) कलियुग ये है (कि मुसलमानी हकूमत में जोर-जबरदस्ती के साथ) झगड़े बढ़ाने वाला इस्लामी कानून ही फैसले करने वाला बना हुआ है, और न्याय करने वाला काजी-हाकम रिश्वतखोर हो चुका है। (जादू-टूणों के प्रचारक) अथर्वेद ब्रहमा की वाणी प्रधान है। ऊँचा आचरण और महिमा लोगों के मनों से उतर चुके हैं; यही है कलियुग।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पति विणु पूजा सत विणु संजमु जत विणु काहे जनेऊ ॥ नावहु धोवहु तिलकु चड़ावहु सुच विणु सोच न होई ॥६॥
मूलम्
पति विणु पूजा सत विणु संजमु जत विणु काहे जनेऊ ॥ नावहु धोवहु तिलकु चड़ावहु सुच विणु सोच न होई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूजा = देव पूजा, देवताओं की पूजा। पति = प्रभु पति। सत = ऊँचा आचरण। संजमु = इन्द्रियों को रोकने के यत्न। जत = काम-वासना को रोकना। काहे = क्या लाभ? व्यर्थं सुच = पवित्रता।6।
अर्थ: पति-परमात्मा को बिसार के ये देव-पूजा किस काम की? किसी ऊँचे आचरण से वंचित रह के इस संयम का भी कया लाभ? यदि विकारों से रोकथाम नहीं तो ये जनेऊ भी क्या सँवारता है? (हे पण्डित!) तुम (तीर्थों पे) स्नान करते हो, (शरीर मल मल के) धोते हो, (माथे पर) तिलक लगाते हो (और इसको पवित्र कर्म समझते हो), पर पवित्र आचरण के बिना बाहरी पवित्रता के कोई मूल्य नहीं रह जाते। (दरअसल, ये भुलेखा भी कलियुग ही है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलि परवाणु कतेब कुराणु ॥ पोथी पंडित रहे पुराण ॥ नानक नाउ भइआ रहमाणु ॥ करि करता तू एको जाणु ॥७॥
मूलम्
कलि परवाणु कतेब कुराणु ॥ पोथी पंडित रहे पुराण ॥ नानक नाउ भइआ रहमाणु ॥ करि करता तू एको जाणु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = यह है कलियुग। परवाणु = (जो ‘धिङाणा करहि’, ‘जोर जबरदस्ती’ करते है उनके दबाव को) माने जा रहे हैं। रहे = रह गए हैं।7।
अर्थ: (इस्लामी हकूमत के धक्के के जोर पर) शरई किताबों और कुरान को मंजूरी (वरीयता) दी जा रही है, पण्डितों के पुराण आदि पुस्तकें (बेमतलब बन के) रह गई हैं। हे नानक! (इस जोर-जबरदस्ती के चलते ही) परमात्मा का नाम ‘रहमान’ कहा जा रहा है; ये भी, हे पण्डित! कलियुग (के लक्षण) हैं (किसी के धार्मिक विश्वास को ज़बरन दबाना कलियुग का प्रभाव है)। हे पण्डित! हरि एक ही कर्तार को सब कुछ करने वाला समझ।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक नामु मिलै वडिआई एदू उपरि करमु नही ॥ जे घरि होदै मंगणि जाईऐ फिरि ओलामा मिलै तही ॥८॥१॥
मूलम्
नानक नामु मिलै वडिआई एदू उपरि करमु नही ॥ जे घरि होदै मंगणि जाईऐ फिरि ओलामा मिलै तही ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एदू उपरि = इससे श्रेष्ठ। ओलामा = गिला, शर्मसारी। तही = वहाँ।8।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है उसको (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है, नाम जपने से ज्यादा अच्छा और कोई कर्म नहीं है (पंडित तीर्थ व्रत आदि कर्मों को ही सलाहता रहता है)। (परमात्मा हरेक के हृदय में बसता है, उसका नाम भुला के ये समझ नहीं रहती और मनुष्य और-और ही आसरे तलाशता फिरता है) परमात्मा दातार हृदय-घर में हो, और भूला हुआ जीव बाहर देवी-देवताओं आदि से माँगता फिरे, ये दोष जीव के सिर पर ही आता है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ जगु परबोधहि मड़ी बधावहि ॥ आसणु तिआगि काहे सचु पावहि ॥ ममता मोहु कामणि हितकारी ॥ ना अउधूती ना संसारी ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ जगु परबोधहि मड़ी बधावहि ॥ आसणु तिआगि काहे सचु पावहि ॥ ममता मोहु कामणि हितकारी ॥ ना अउधूती ना संसारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परबोधहि = तू जगाता है, तू उपदेश करता है (हे जोगी!)। मढ़ी = शरीर। बधावहि = (पाल पाल के) बढ़ाता है, मोटा करता है। आसणु = मन का आसन, चिक्त की अडोलता। काहे = कैसे? कामणि = स्त्री। हित कारी = प्रेम करने वाला। अउधूती = त्यागी। संसारी = गृहस्थी।1।
अर्थ: (हे जोगी!) तू जगत को उपदेश करता है (इस उपदेश के बदले में घर-घर भिक्षा माँग के अपने) शरीर को (पाल-पाल के) मोटा कर रहा है। (दर-दर भटकने से) मन की अडोलता गवा के तू सदा अडोल परमात्मा को कैसे मिल सकता है? जिस मनुष्य को माया की ममता लगी हो माया का मोह चिपका हो जो स्त्री का भी प्रेमी हो वह ना त्यागी रहा ना गृहस्थी बना।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगी बैसि रहहु दुबिधा दुखु भागै ॥ घरि घरि मागत लाज न लागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जोगी बैसि रहहु दुबिधा दुखु भागै ॥ घरि घरि मागत लाज न लागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगी = हे योगी! बैसि रहहु = बैठा रह, स्वै स्वरूप में टिका रह, मन को टिकाओ। दुबिधा = दुचिक्तापन, दूसरे आसरे की ताक। भागै = दूर हो जाए। लाज न लागै = शर्म ना उठानी पड़े।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! अपने मन को प्रभु चरणों में जोड़ (इस तरह) अन्य आसरों को तलाशने की झाक का दुख दूर हो जाएगा। घर-घर (माँगने की) शर्म भी नहीं उठानी पड़ेगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहि गीत न चीनहि आपु ॥ किउ लागी निवरै परतापु ॥ गुर कै सबदि रचै मन भाइ ॥ भिखिआ सहज वीचारी खाइ ॥२॥
मूलम्
गावहि गीत न चीनहि आपु ॥ किउ लागी निवरै परतापु ॥ गुर कै सबदि रचै मन भाइ ॥ भिखिआ सहज वीचारी खाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। न चीनहि = तू नहीं पहचानता। लागी = लगी हुई। निवरै = दूर हो। परतापु = तपश, तृष्णा आग। सबदि = शब्द में। मन भाइ = (मन भाय) मन के प्रेम से। सहज वीचारी = सहज का विचारवान हो के, अडोल आत्मिक अवस्था की सूझ वाला हो के। भिखिआ = (परमात्मा के दर से नाम की) भिक्षा। खाइ = (खाय) खाता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘खाहि’ व ‘खाय’ का फर्क याद रखने योग्य है)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे जोगी! तू लोगों को सुनाने के लिए) भजन गाता है पर अपने आत्मिक जीवन को नहीं देखता। (तेरे अंदर माया की) तपश लगी हुई है (लोगों को गीत सुनाने से) ये कैसे दूर हो? जो मनुष्य मन के प्यार से गुरु के शब्द में लीन होता है, वह अडोल आत्मिक अवस्था की सूझ वाला हो के (परमात्मा के दर से नाम की) भिक्षा (ले के) खाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भसम चड़ाइ करहि पाखंडु ॥ माइआ मोहि सहहि जम डंडु ॥ फूटै खापरु भीख न भाइ ॥ बंधनि बाधिआ आवै जाइ ॥३॥
मूलम्
भसम चड़ाइ करहि पाखंडु ॥ माइआ मोहि सहहि जम डंडु ॥ फूटै खापरु भीख न भाइ ॥ बंधनि बाधिआ आवै जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भसम = राख। चढ़ाइ = (चढ़ाय) चढ़ा के। सहहि = तू सहता है। डंडु = दण्ड, सजा। खापरु = खप्पर, हृदय। फूटै = टूट जाता है, अडोलता नहीं रह जाती। भीख = नाम की भिक्षा। भाइ = (प्रभु के) प्रेम से। बंधनि = बंधन में।3।
अर्थ: (हे जोगी!) तू (अपने शरीर पर) राख मल के (त्यागी होने का,) पाखण्ड करता है (पर तेरे अंदर) माया का मोह (प्रबल) है। (अंतरात्मे) तू जम की सजा भुगत रहा है। जिस मनुष्य का हृदय-खप्पर टूट जाता है (भाव, माया के मोह के कारण जिसका हृदय अडोल नहीं रह जाता) उसमें (नाम की) भिक्षा नहीं ठहर सकती जो (प्रभु चरणों में जुड़ के) प्रेम के द्वारा ही मिलती है। ऐसा मनुष्य माया की जंजीर में बँधा हुआ जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिंदु न राखहि जती कहावहि ॥ माई मागत त्रै लोभावहि ॥ निरदइआ नही जोति उजाला ॥ बूडत बूडे सरब जंजाला ॥४॥
मूलम्
बिंदु न राखहि जती कहावहि ॥ माई मागत त्रै लोभावहि ॥ निरदइआ नही जोति उजाला ॥ बूडत बूडे सरब जंजाला ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य। माई = माया। त्रै = (माया के) तीन गुणों में। लोभावहि = तू ग्रसा हुआ है। उजाला = प्रकाश। बूडत बूडे = डूबता डूब गया।4।
अर्थ: हे जोगी! तू काम-वासना से अपने आप को नहीं बचाता, पर (फिर भी लोगों से) जती कहलवा रहा है। माया माँगते-माँगते तू (खुद) त्रैगुणी माया में फंस रहा है। जिस मनुष्य के अंदर कठोरता हो उसके हृदय में परमात्मा की ज्योति का प्रकाश नहीं हो सकता, (धीरे-धीरे) डूबता-डूबता वह (माया के) सारे जंजालों में डूब जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भेख करहि खिंथा बहु थटूआ ॥ झूठो खेलु खेलै बहु नटूआ ॥ अंतरि अगनि चिंता बहु जारे ॥ विणु करमा कैसे उतरसि पारे ॥५॥
मूलम्
भेख करहि खिंथा बहु थटूआ ॥ झूठो खेलु खेलै बहु नटूआ ॥ अंतरि अगनि चिंता बहु जारे ॥ विणु करमा कैसे उतरसि पारे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खिंथा = गोदड़ी। बटूआ = थाट, बनावट। नटूआ = मदारी। अगनि = तृष्णा की आग। जारे = जलाती है। करमा = बख्शिश, मेहर। उतरसि = उतरेगा।5।
अर्थ: (हे जोगी!) गुदड़ी आदिक का बहुत आडंबर रचा के तू (दिखावे के लिए) धार्मिक पहरावा कर रहा है, पर तेरा ये आडम्बर उस मदारी के तमाशे की तरह है जो (लोगों से पैसा कमाने के लिए) झूठा खेल ही खेलता है (भाव, जो कुछ वह दिखाता है वह दरअसल नज़र का धोखा ही होता है)। जिस मनुष्य को तृष्णा और चिन्ता की आग अंदर ही अंदर से जला रही हो, वह परमात्मा की मेहर के बिना (आग के इस शोले से) पार नहीं लांघ सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुंद्रा फटक बनाई कानि ॥ मुकति नही बिदिआ बिगिआनि ॥ जिहवा इंद्री सादि लुोभाना ॥ पसू भए नही मिटै नीसाना ॥६॥
मूलम्
मुंद्रा फटक बनाई कानि ॥ मुकति नही बिदिआ बिगिआनि ॥ जिहवा इंद्री सादि लुोभाना ॥ पसू भए नही मिटै नीसाना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फटक = कच्चा। कानि = कान में। गिआनि = ज्ञान में। बिगिआनि = ज्ञानहीनता में। बिदिआ = आत्मिक विद्या। बिदिआ बिगिआनी = आत्मिक विद्या की सूझ के बिना। सादि = स्वाद में, चस्के में। लुोभाना = फसा हुआ। नीसाना = निशान, लक्षण।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं; ‘ु’ और ‘ो’। असल शब्द ‘लोभाना’ है, यहाँ ‘लुभाना’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे जोगी!) तूने काँच की मुँद्राएं बनाई हुई हैं और हरेक कान में डाली हुई हैं, पर आत्मिक विद्या की सूझ के बिना (अंदर बसते) माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती। जो मनुष्य जीभ और इन्द्रियों के चस्के में फसा हुआ हो (वह देखने में तो मनुष्य है, पर असल में) पशू है, (बाहरी दिखावे के त्यागी भेस से) उसका ये पशू-वृति का (अंदरूनी स्वभाव) लक्षण मिट नहीं सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिबिधि लोगा त्रिबिधि जोगा ॥ सबदु वीचारै चूकसि सोगा ॥ ऊजलु साचु सु सबदु होइ ॥ जोगी जुगति वीचारे सोइ ॥७॥
मूलम्
त्रिबिधि लोगा त्रिबिधि जोगा ॥ सबदु वीचारै चूकसि सोगा ॥ ऊजलु साचु सु सबदु होइ ॥ जोगी जुगति वीचारे सोइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिबिधि = माया की तीन किस्मों में, तीन गुणों में। लोगा = साधारण जगत। जोगा = जोगी, जोगाधारी। सोगा = चिन्ता। ऊजलु होइ = पवित्र हो जाता है। जुगति = जीवन की युक्ति।7।
अर्थ: (हे जोगी! खिंथा, मुंद्रों आदि से त्यागी नहीं बन जाते। शब्द के बिना जैसे) साधारण जगत त्रैगुणी माया में ग्रसा हुआ है वैसे ही (भेस धारण करने वाला) जोगी है। जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपनी सोच-मण्डल में बसाता है, (माया के मोह से पैदा होने वाली) उसकी चिन्ता मिट जाती है। वही मनुष्य पवित्र हो सकता है जिसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभु और उसकी महिमा का शब्द बसता है, वही असल जोगी है वही जीवन की जुगति को समझता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुझ पहि नउ निधि तू करणै जोगु ॥ थापि उथापे करे सु होगु ॥ जतु सतु संजमु सचु सुचीतु ॥ नानक जोगी त्रिभवण मीतु ॥८॥२॥
मूलम्
तुझ पहि नउ निधि तू करणै जोगु ॥ थापि उथापे करे सु होगु ॥ जतु सतु संजमु सचु सुचीतु ॥ नानक जोगी त्रिभवण मीतु ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहि = पास। नउनिध = नो खजाने, नौ खजानों का मालिक प्रभु। उथापे = नाश करता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सुचीतु = पवित्र हृदय वाला।8।
अर्थ: (हे जोगी!) तू सब कुछ कर सकने में समर्थ परमात्मा को समझ, सारी दुनिया की माया का मालिक वह प्रभु तेरे अंदर बसता है। वह खुद ही जगत-रचना करके खुद ही नाश करता है, जगत में वही कुछ होता है जो वह प्रभु करता है।
हे नानक! उसी जोगी के अंदर जत है, सत है, संजम है उसी का हृदय पवित्र है जिसके अंदर सदा-स्थिर प्रभु बसता है, वह जोगी तीन भवनों का मित्र है (उस जोगी को सारा जगत प्यार करता है)।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ खटु मटु देही मनु बैरागी ॥ सुरति सबदु धुनि अंतरि जागी ॥ वाजै अनहदु मेरा मनु लीणा ॥ गुर बचनी सचि नामि पतीणा ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ खटु मटु देही मनु बैरागी ॥ सुरति सबदु धुनि अंतरि जागी ॥ वाजै अनहदु मेरा मनु लीणा ॥ गुर बचनी सचि नामि पतीणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खटु = छह (चक्र)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: योग मत के अनुसार शरीर के छह चक्र हैं जिनमें से श्वास हो के दसवाँ द्वार तक पहुँचता है: 1. मूला धार (गुदा मण्डल का चक्र); 2. स्वाधिष्ठान (लिंग की जड़ में); 3. मणिपुर चक्र (नाभि के पास); 4. अनाहत (दिल में); 5. विसुद्ध चक्र (गले में); 6. आज्ञा चक्र (आँखों के भवरों के बीच)।
दर्पण-भाषार्थ
मटु = (जोगियों का) मठ। देही = शरीर। धुनि = लगन। बाजै = बजता है। अनहदु = बिना बजाए, एक रस। सचि = सदा स्थिर हरि में।1।
अर्थ: (हे जोगी! गुरु की शरण पड़ कर) मेरा छह-चक्रिय शरीर ही (मेरे लिए) मन बन गया है और (इस मन में टिक के) मेरा मन बैरागी हो गया है। गुरु का शब्द मेरे मन में टिक गया है, परमात्मा के नाम की लगन मेरे अंदर जाग उठी है। (मेरे अंदर) गुरु का शब्द एक-रस (अखण्ड निरंतर) प्रबल प्रभाव डाल रहा है, और उसमें मेरा मन मस्त हो रहा है। गुरु की वाणी की इनायत से (मेरा मन) सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणी राम भगति सुखु पाईऐ ॥ गुरमुखि हरि हरि मीठा लागै हरि हरि नामि समाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्राणी राम भगति सुखु पाईऐ ॥ गुरमुखि हरि हरि मीठा लागै हरि हरि नामि समाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। नामि = नाम में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्राणी! परमात्मा की भक्ति करने से आत्मिक आनंद मिलता है। गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, और परमात्मा के नाम में लीन हो जाया जाता है।1। रहाउ।
[[0904]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु बिवरजि समाए ॥ सतिगुरु भेटै मेलि मिलाए ॥ नामु रतनु निरमोलकु हीरा ॥ तितु राता मेरा मनु धीरा ॥२॥
मूलम्
माइआ मोहु बिवरजि समाए ॥ सतिगुरु भेटै मेलि मिलाए ॥ नामु रतनु निरमोलकु हीरा ॥ तितु राता मेरा मनु धीरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिवरजि = रोक के। भेटै = मिलता है। मेलि = संगति में। निरमोलकु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। तितु = उस (नाम) में। राता = रंगा हुआ। धीरा = टिक गया।2।
अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु मिलता है गुरु उसको संगति से मिलाता है और वह माया का मोह रोक के प्रभु-नाम में लीन हो जाता है। परमात्मा का नाम (मानो, एक) रतन है (एक ऐसा) हीरा है जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता। (गुरु की शरण पड़ के) मेरा मन भी उस नाम में रंगा गया है उस नाम में टिक गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै ममता रोगु न लागै ॥ राम भगति जम का भउ भागै ॥ जमु जंदारु न लागै मोहि ॥ निरमल नामु रिदै हरि सोहि ॥३॥
मूलम्
हउमै ममता रोगु न लागै ॥ राम भगति जम का भउ भागै ॥ जमु जंदारु न लागै मोहि ॥ निरमल नामु रिदै हरि सोहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जम = मौत। जंदारु = अवैड़ा, भयानक। मोहि = मुझे। सोहि = सोहे, शोभा देता है।3।
अर्थ: (गुरु के द्वारा) परमात्मा की भक्ति करने से मौत का डर दूर हो जाता है, अहंकार-रोग, माया की ममता वाला रोग (मन को) नहीं चिपकता। (गुरु की कृपा से) भयानक जम भी मुझे नहीं छूता (क्योंकि) परमात्मा का पवित्र नाम मेरे हृदय में सुशोभित है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदु बीचारि भए निरंकारी ॥ गुरमति जागे दुरमति परहारी ॥ अनदिनु जागि रहे लिव लाई ॥ जीवन मुकति गति अंतरि पाई ॥४॥
मूलम्
सबदु बीचारि भए निरंकारी ॥ गुरमति जागे दुरमति परहारी ॥ अनदिनु जागि रहे लिव लाई ॥ जीवन मुकति गति अंतरि पाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीचारि = विचार के, सोच मण्डल में ला के। निरंकारी = निरंकार वाले। परहारी = दूर कर दी। अनदिनु = हर रोज। जागि = सचेत रह के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: गुरु के शब्द को सोच-मण्डल में टिका के परमात्मा के ही (सेवक) हो जाना है, मन में गुरु की शिक्षा प्रबल हो जाती है और दुर्मति दूर हो जाती है। जो मनुष्य प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ के हर वक्त (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहते हैं, वे अपने अंदर वह ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं जिससे (वे) माया में कार्य-व्यवहार करते हुए भी (उन्हें) माया के बंधनो से आजाद कर देती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलिपत गुफा महि रहहि निरारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ पर घर जाइ न मनु डोलाए ॥ सहज निरंतरि रहउ समाए ॥५॥
मूलम्
अलिपत गुफा महि रहहि निरारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ पर घर जाइ न मनु डोलाए ॥ सहज निरंतरि रहउ समाए ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलिपत = निर्लिप। निरारे = निराले, निर्मोह। तसकर = चोर। पंच = (कामादिक) पाँच। संघारे = मार दिए। रहउ = मैं रहता हूँ।5।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग) शरीर-गुफा के अंदर ही माया से निर्लिप रहते हैं माया के प्रभाव से अलग रहते हैं। गुरु के शब्द द्वारा वे कामादिक पाँच चोरों को मार लेते हैं। (गुरु की शरण पड़ कर स्मरण करने वाला सख्श) अपने मन को पराए घर की ओर जा के डोलने नहीं देता।
(गुरु की कृपा से ही स्मरण करके) मैं अडोल आत्मिक अवस्था मेंएक रस लीन रहता हूँ।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि जागि रहे अउधूता ॥ सद बैरागी ततु परोता ॥ जगु सूता मरि आवै जाइ ॥ बिनु गुर सबद न सोझी पाइ ॥६॥
मूलम्
गुरमुखि जागि रहे अउधूता ॥ सद बैरागी ततु परोता ॥ जगु सूता मरि आवै जाइ ॥ बिनु गुर सबद न सोझी पाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधूता = त्यागी। ततु = जगत का मूल प्रभु। मरि = आत्मिक मौत मर के।6।
अर्थ: असल त्यागी वही है जो गुरु की शरण पड़ कर (स्मरण के द्वारा माया के हमलों की ओर से) सचेत रहता है। जो मनुष्य जगत के मूल परमात्मा को अपने हृदय में परोए रखता है वह सदा ही (माया से) वैरागवान रहता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनहद सबदु वजै दिनु राती ॥ अविगत की गति गुरमुखि जाती ॥ तउ जानी जा सबदि पछानी ॥ एको रवि रहिआ निरबानी ॥७॥
मूलम्
अनहद सबदु वजै दिनु राती ॥ अविगत की गति गुरमुखि जाती ॥ तउ जानी जा सबदि पछानी ॥ एको रवि रहिआ निरबानी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनहद = एक रस। वजै = बजता है, प्रभाव डाले रखता है। अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट प्रभु। तउ = तब। जा = जब। निरबानी = वासना रहित।7।
अर्थ: जगत माया के मोह की नींद में (परमात्मा की याद की ओर से) सोया रहता है, और, आत्मिक मौत सहेड़ के जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। (माया की नींद में सोए हुए को) गुरु के शब्द के बिना ये समझ नहीं पड़ती।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंन समाधि सहजि मनु राता ॥ तजि हउ लोभा एको जाता ॥ गुर चेले अपना मनु मानिआ ॥ नानक दूजा मेटि समानिआ ॥८॥३॥
मूलम्
सुंन समाधि सहजि मनु राता ॥ तजि हउ लोभा एको जाता ॥ गुर चेले अपना मनु मानिआ ॥ नानक दूजा मेटि समानिआ ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंन समाधि = वह एकाग्र अवस्था जहाँ माया का कोई विचार ना चले, जहाँ मायावी विचार शून्य रहे। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। तजि = त्याग के। हउ = अहंकार। दूजा = प्रभु के बिना और झाक। मेटि = मिटा के।8।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करता है उसका) मन उस एकाग्रता में टिका रहता है जहाँ माया के विचारों की शून्यता बनी रहती है (अफुर अवस्था, सुंन समाधि) और (मन) अडोल आत्मिक अवस्था (के रंग) में रंगा जाता है। अहंकार और लोभ को त्याग के वह मनुष्य एक परमात्मा के साथ ही गहरी सांझ डाले रखता है।
हे नानक! गुरु की शरण पड़े हुए सिख का अपना मन गुरु की शिक्षा में पतीज जाता है, वह परमात्मा के बिना और झाक मिटा के परमात्मा में ही लीन रहता है।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ साहा गणहि न करहि बीचारु ॥ साहे ऊपरि एकंकारु ॥ जिसु गुरु मिलै सोई बिधि जाणै ॥ गुरमति होइ त हुकमु पछाणै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ साहा गणहि न करहि बीचारु ॥ साहे ऊपरि एकंकारु ॥ जिसु गुरु मिलै सोई बिधि जाणै ॥ गुरमति होइ त हुकमु पछाणै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहा = (सु+अहर) शुभ दिन, अच्छा महूरत। गणहि = गिनता है (हे पांडे!)। एकंकारु = परमात्मा। सोई = वही मनुष्य। बिधि = तरीका। त = तो।1।
अर्थ: हे पण्डित! तू (विवाह आदि समय में जजमानों के लिए) शुभ-लगन गिनता है, पर तू ये विचार नहीं करता कि शुभ-समय बनाने, ना बनाने वाला परमात्मा (स्वयं ही) है। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाए वह जानता है (कि विवाह आदि का समय किस) ढंग (से शुभ बन सकता है)। जब मनुष्य को गुरु की शिक्षा प्राप्त हो जाए तब वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है (और रज़ा को समझना ही शुभ-महूरत का मूल है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूठु न बोलि पाडे सचु कहीऐ ॥ हउमै जाइ सबदि घरु लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
झूठु न बोलि पाडे सचु कहीऐ ॥ हउमै जाइ सबदि घरु लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाडे = हे पण्डित! सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। घरु = आत्मिक आनंद का ठिकाना।1। रहाउ।
अर्थ: हे पण्डित! (अपनी आजीविका की खातिर जजमानों को खुश करने के लिए विवाह आदि के समय में शुभ-महूरत आदि ढूँढने का) झूठ ना बोल। सच बोलना चाहिए। जब गुरु के शब्द में जुड़ के (अंदर ही) अहंकार दूर हो जाता है तब वह घर (सहज ही) मिल जाता है (जहाँ आत्मिक और सांसारिक सारे पदार्थ मिलते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गणि गणि जोतकु कांडी कीनी ॥ पड़ै सुणावै ततु न चीनी ॥ सभसै ऊपरि गुर सबदु बीचारु ॥ होर कथनी बदउ न सगली छारु ॥२॥
मूलम्
गणि गणि जोतकु कांडी कीनी ॥ पड़ै सुणावै ततु न चीनी ॥ सभसै ऊपरि गुर सबदु बीचारु ॥ होर कथनी बदउ न सगली छारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गणि = गिन के। जोतकु = ज्योतिष। कांडी = जनम पत्री। सभसै ऊपरि = सारी विचारों से श्रेष्ठ। बदउ न = मैं नहीं मानता। छारु = राख।2।
अर्थ: (पण्डित) ज्योतिष (के लेखे) गिन-गिन के (किसी जजमान के पुत्र की) जनम-पत्री बनाता है, (ज्योतिष का हिसाब खुद) पढ़ता है और (जजमान को) सुनाता है पर अस्लियत को नहीं पहचानता। (शुभ-महूरत आदि के) सारे विचारों से उत्तम श्रेष्ठ विचार ये है कि मनुष्य गुरु के शब्द को मन में बसाए। मैं (गुरु-शब्द के मुकाबले में शुभ-महूरत व जनम-पत्री आदि किसी) और बात की परवाह नहीं करता, और सारी विचारें व्यर्थ हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावहि धोवहि पूजहि सैला ॥ बिनु हरि राते मैलो मैला ॥ गरबु निवारि मिलै प्रभु सारथि ॥ मुकति प्रान जपि हरि किरतारथि ॥३॥
मूलम्
नावहि धोवहि पूजहि सैला ॥ बिनु हरि राते मैलो मैला ॥ गरबु निवारि मिलै प्रभु सारथि ॥ मुकति प्रान जपि हरि किरतारथि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सैला = पत्थर, पत्थर की मूर्तियां। गरबु = अहंकार। सारथि = सारथी, रथवाह, जीवन रथ को चलाने वाला। किरतारथि = सफल करने वाला।3।
अर्थ: (हे पण्डित!) तू (तीर्थ आदि पर) स्नान करता है (शरीर मल-मल के) धोता है, और पत्थर (के देवी-देवते) पूजता है, पर परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाए बिना (मन विकारों से) सदा मैला रहता है। (हे पण्डित!) जीवात्मा को विकारों से निजात दिलाने वाले और जीवन को सफल करने वाले परमात्मा का नाम जप, (नाम जप के) अहंकार दूर करने से (जीवन-रथ का) रथ-वाह (सारथी) प्रभु मिल जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचै वादु न बेदु बीचारै ॥ आपि डुबै किउ पितरा तारै ॥ घटि घटि ब्रहमु चीनै जनु कोइ ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होइ ॥४॥
मूलम्
वाचै वादु न बेदु बीचारै ॥ आपि डुबै किउ पितरा तारै ॥ घटि घटि ब्रहमु चीनै जनु कोइ ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वादु = झगड़ा, चर्चा। कोइ = कोई विरला।4।
अर्थ: (पण्डित) वेद (आदिक धर्म-पुस्तकों) को (जीवन की अगुवाई के लिए) नहीं बिचारता, (अर्थ व कर्मकांड आदि की) बहस को ही पढ़ता है (इस तरह संसार-समुंदर की विकार-लहरों में डूबा रहता है), जो मनुष्य खुद डूबा रहे वह अपने (गुजर चुके) बुर्जुगों को (संसार-समुंदर में से) कैसे पार लंघा सकता है? कोई विरला मनुष्य ही पहचानता है कि परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाए, उसको ये (बात) समझ में आ जाती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गणत गणीऐ सहसा दुखु जीऐ ॥ गुर की सरणि पवै सुखु थीऐ ॥ करि अपराध सरणि हम आइआ ॥ गुर हरि भेटे पुरबि कमाइआ ॥५॥
मूलम्
गणत गणीऐ सहसा दुखु जीऐ ॥ गुर की सरणि पवै सुखु थीऐ ॥ करि अपराध सरणि हम आइआ ॥ गुर हरि भेटे पुरबि कमाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = सहम। जीऐ = जीवात्मा को। भेटे = मिले। पुरबि = पूर्बले समय में।5।
अर्थ: जैसे जैसे शुभ-अशुभ-महूरतों के लेखे गिनते रहें वैसे-वैसे जीवात्मा को हमेशा सहम का रोग लगा रहता है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब इसको आत्मिक आनंद मिलता है। पाप-अपराध करके भी जब हम परमात्मा की शरण आते हैं, तो परमात्मा हमारे पूर्बले कर्मों के अनुसार गुरु को मिला देता है (और गुरु सही जीवन-राह दिखाता है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सरणि न आईऐ ब्रहमु न पाईऐ ॥ भरमि भुलाईऐ जनमि मरि आईऐ ॥ जम दरि बाधउ मरै बिकारु ॥ ना रिदै नामु न सबदु अचारु ॥६॥
मूलम्
गुर सरणि न आईऐ ब्रहमु न पाईऐ ॥ भरमि भुलाईऐ जनमि मरि आईऐ ॥ जम दरि बाधउ मरै बिकारु ॥ ना रिदै नामु न सबदु अचारु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरि = आत्मिक मौत मर के। दरि = दर पर। बाधउ = बंधा हुआ। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिकारु = व्यर्थ। अचारु = आचरण।6।
अर्थ: जब तक गुरु की शरण ना आएं तब तक परमात्मा नहीं मिलता, भटकना में गलत रास्ते पड़ के आत्मिक मौत ले के बार-बार जनम में आते रहते हैं।
(गुरु की शरण के बिना जीव) जम के दर से बँधा हुआ व्यर्थ ही आत्मिक मौत मरता है, उसके हृदय में ना प्रभु का नाम बसता है ना गुरु का शब्द बसता है, ना ही उसका अच्छा आचरण बनता है।6।
[[0905]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि पाधे पंडित मिसर कहावहि ॥ दुबिधा राते महलु न पावहि ॥ जिसु गुर परसादी नामु अधारु ॥ कोटि मधे को जनु आपारु ॥७॥
मूलम्
इकि पाधे पंडित मिसर कहावहि ॥ दुबिधा राते महलु न पावहि ॥ जिसु गुर परसादी नामु अधारु ॥ कोटि मधे को जनु आपारु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। मिसर = मिश्रा, ब्राहमण। आधारु = आसरा। को जनु = कोई विरला मनुष्य। आपारु = अद्वितीय।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अनेक (कुलीन और विद्वान ब्राहमण) अपने आप को पांधे-पण्डित व मिश्र कहलवाते हैं, पर परमात्मा के बिना और ही आसरों की झाक में गलतान रहते हैं, परमात्मा दर-घर नहीं पा सकते। करोड़ों में से कोई ही वह व्यक्ति अद्वितीय है जिसको गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम जिंदगी का आसरा मिल गया है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकु बुरा भला सचु एकै ॥ बूझु गिआनी सतगुर की टेकै ॥ गुरमुखि विरली एको जाणिआ ॥ आवणु जाणा मेटि समाणिआ ॥८॥
मूलम्
एकु बुरा भला सचु एकै ॥ बूझु गिआनी सतगुर की टेकै ॥ गुरमुखि विरली एको जाणिआ ॥ आवणु जाणा मेटि समाणिआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु। टेकै = टेक रख के, आसरा ले के। गिआनी = हे ज्ञानी! विरली = विरलों ने ही। मेटि = मिटा के।8।
अर्थ: हे पण्डित! अगर तू ज्ञानवान बनता है तो गुरु का आसरा-परना ले के ये बात समझ ले कि (जगत में) चाहे कोई भला है चाहे बुरा है हरेक में सदा-स्थिर प्रभु ही मौजूद है। उन विरले लोगों ने हर जगह एक परमात्मा को ही व्यापक समझा है जो गुरु की शरण पड़े हैं। (गुरु-शरण की इनायत से) वे अपना जनम-मरण मिटा के प्रभु-चरणों में लीन रहते हैं।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कै हिरदै एकंकारु ॥ सरब गुणी साचा बीचारु ॥ गुर कै भाणै करम कमावै ॥ नानक साचे साचि समावै ॥९॥४॥
मूलम्
जिन कै हिरदै एकंकारु ॥ सरब गुणी साचा बीचारु ॥ गुर कै भाणै करम कमावै ॥ नानक साचे साचि समावै ॥९॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब गुणी = सारे गुणों के मालिक। साचा = सदा स्थिर प्रभु। बीचारु = सोच मंडल का धुरा, तवज्जो का निशाना। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।9।
अर्थ: (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्यों के हृदय में एक परमात्मा बसता है, सारे जीवों का मालिक सदा-स्थिर-प्रभु उनकी तवज्जो का हमेशा उद्देश्य बना रहता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की रज़ा में चल के (अपने) सारे काम करता है (और शुभ-अशुभ महूरतों के वहम में नहीं पड़ता) वह सदा-स्थिर-परमात्मा में लीन रहता है (और उसको आत्मिक व सांसारिक पदार्थ उस दर से मिलते रहते हैं)।9।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ हठु निग्रहु करि काइआ छीजै ॥ वरतु तपनु करि मनु नही भीजै ॥ राम नाम सरि अवरु न पूजै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ हठु निग्रहु करि काइआ छीजै ॥ वरतु तपनु करि मनु नही भीजै ॥ राम नाम सरि अवरु न पूजै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हठु = धक्का, जोर। हठु जोगु = जबरन शरीर को दुखी करके मन को एकाग्र करने के प्रयत्न (जैसे एक टांग के भार खड़े रहना, बाहें सीधी ऊपर को खड़ी रखना)। निग्रहु = मन के फुरनों को रोकने के प्रयत्न। छीजै = दुखी होता है। करि = कर के, करने से। सरि = बराबर। न पूजै = नहीं पहुँचता।1।
अर्थ: व्रत रखने से, तप करने से, मन को एकाग्र करने के लिए जबरदस्ती शरीर को दुख देने से, मन के विचारों को जबरन रोकने के प्रयत्न करने से, शरीर ही दुखी होता है (इन कष्टों का) मन पर असर नहीं पड़ता। (हठ से किया हुआ) कोई भी कर्म परमात्मा के नाम-जपने की बराबरी नहीं कर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सेवि मना हरि जन संगु कीजै ॥ जमु जंदारु जोहि नही साकै सरपनि डसि न सकै हरि का रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरु सेवि मना हरि जन संगु कीजै ॥ जमु जंदारु जोहि नही साकै सरपनि डसि न सकै हरि का रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन संगु = संत जनों की संगति। जंदारु = डरावना। जोहि नही साकै = छू नहीं सकता। सरपनि = माया सपनी।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु की (बताई हुई) सेवा कर, और संत जनों की संगति कर, परमात्मा के नाम का रस पी, (इस तरह) भयानक जम छू नहीं सकेगा और माया-सपनी (मोह का) डंक मार नहीं सकेगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वादु पड़ै रागी जगु भीजै ॥ त्रै गुण बिखिआ जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु दूखु सहीजै ॥२॥
मूलम्
वादु पड़ै रागी जगु भीजै ॥ त्रै गुण बिखिआ जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु दूखु सहीजै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वादु = धार्मिक चर्चा। रागी = रागों में, रंग तमाशों में। भीजै = खुश रहता है। बिखिआ = माया।2।
अर्थ: जगत धार्मिक चर्चा (की पुस्तकें) पढ़ता है, दुनिया के रंग-तमाशों में ही खुश रहता है और त्रै-गुणी माया के मोह में फंस के जनम मरन के चक्कर में पड़ता है (और इस चर्चा आदि को धार्मिक कर्म समझता है)। परमात्मा का नाम स्मरण के बिना दुख ही सहना पड़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाड़सि पवनु सिंघासनु भीजै ॥ निउली करम खटु करम करीजै ॥ राम नाम बिनु बिरथा सासु लीजै ॥३॥
मूलम्
चाड़सि पवनु सिंघासनु भीजै ॥ निउली करम खटु करम करीजै ॥ राम नाम बिनु बिरथा सासु लीजै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवनु = सांस। भीजै = (पसीने से) भीग जाता है। निउली करम = आँतों को चक्कर दिलाने का कर्म जिससे पेट साफ रहता है। खटु करम = हठ योग के छह कर्म-धोती, नेत्री, निउली, वसती, त्राटक, कपालभाती। धोती = कपड़े की लीर निगल के मेदे में ले जा के फिर बाहर निकाल लेनी। नेत्री = सूत्र की डोरी नाक की नासिका के रास्ते से डाल के गले में से निकालनी। वसती = बाँस की नर्म सी पोरी गुदा में रख के श्वासों के जोर से पोरी में से पानी चढ़ा के आँतें साफ करनी। त्राटक = आँखों की नजर किसी वस्तु पर टिकानी। कपालभाति = लोहार की धौंकनी की तरह सांसे जल्दी जल्दी अंदर बाहर खींचना। बिरथा = व्यर्थ।3।
अर्थ: हठ-योगी सांसों को (दसवाँ-द्वार में) चढ़ाता है (इतनी मेहनत करता है कि पसीने से उसका) सिंहासन ही भीग जाता है, (आंतों को साफ रखने के लिए) निउली कर्म और (हठ योग के) छह कर्म करता है, पर परमात्मा का नाम-स्मरण के बिना व्यर्थ जीवन जीता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि पंच अगनि किउ धीरजु धीजै ॥ अंतरि चोरु किउ सादु लहीजै ॥ गुरमुखि होइ काइआ गड़ु लीजै ॥४॥
मूलम्
अंतरि पंच अगनि किउ धीरजु धीजै ॥ अंतरि चोरु किउ सादु लहीजै ॥ गुरमुखि होइ काइआ गड़ु लीजै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच अगनि = कामादिक पाँच विकारों की तपश। धीजै = धारी जाए। सादु = स्वाद, आनंद, सुख। काइआ = शरीर। गढ़ु = गढ़, किला। लीजै = काबू करना चाहिए।4।
अर्थ: जब तक कामादिक पाँच विकारों की आग अंदर भड़क रही हो, तब तक मन धीरज नहीं धारण कर सकता। जब तक मोह-चोर अंदर बस रहा है आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। गुरु की शरण पड़ के इस शरीर किले को जीतो (इससे बागी हुआ मन वश में आ जाएगा और आत्मिक आनंद मिलेगा)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि मैलु तीरथ भरमीजै ॥ मनु नही सूचा किआ सोच करीजै ॥ किरतु पइआ दोसु का कउ दीजै ॥५॥
मूलम्
अंतरि मैलु तीरथ भरमीजै ॥ मनु नही सूचा किआ सोच करीजै ॥ किरतु पइआ दोसु का कउ दीजै ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमीजै = भटकते फिरें। सोच = स्नान। सूचा = पवित्र। किरतु पइआ = किए हुए कर्मों के संस्कार मन में इकट्ठे हो जाने पर। का कउ = किस को?।5।
अर्थ: अगर मन में (माया के मोह की) मैल टिकी रहे, तीर्थों पर (स्नान के लिए) भटकते फिरें, इस तरह मन पवित्र नहीं हो सकता (तीर्थ-) स्नान का कोई लाभ नहीं होता। (पर) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का संचय (गलत रास्ते की ओर को ही प्रेरणा देता रहता है, इसलिए) किसी को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंनु न खाहि देही दुखु दीजै ॥ बिनु गुर गिआन त्रिपति नही थीजै ॥ मनमुखि जनमै जनमि मरीजै ॥६॥
मूलम्
अंनु न खाहि देही दुखु दीजै ॥ बिनु गुर गिआन त्रिपति नही थीजै ॥ मनमुखि जनमै जनमि मरीजै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर (को)। थीजै = होती।6।
अर्थ: जो लोग अन्न नहीं खाते (इस तरह कोई आत्मिक लाभ भी नहीं कमाते) शरीर को ही कष्ट मिलता है, गुरु को मिले ज्ञान के बिना (माया की ओर से विकारों की) तृप्ति नहीं हो सकती। इस तरह अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है (उसका ये चक्र चलता रहता है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर पूछि संगति जन कीजै ॥ मनु हरि राचै नही जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु किआ करमु कीजै ॥७॥
मूलम्
सतिगुर पूछि संगति जन कीजै ॥ मनु हरि राचै नही जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु किआ करमु कीजै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगति जन = संत जनों की संगति। राचै = रच जाता है, लीन हो जाता है।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु का उपदेश ले के संत जनों की संगति करनी चाहिए। (संगति में रहने से) मन परमात्मा के नाम में लीन रहता है, और इस तरह जनम-मरण का चक्कर नहीं पड़ता। (अगर) परमात्मा का नाम ना स्मरण किया, तो किसी और हठ-कर्म करने का कोई लाभ नहीं होता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊंदर दूंदर पासि धरीजै ॥ धुर की सेवा रामु रवीजै ॥ नानक नामु मिलै किरपा प्रभ कीजै ॥८॥५॥
मूलम्
ऊंदर दूंदर पासि धरीजै ॥ धुर की सेवा रामु रवीजै ॥ नानक नामु मिलै किरपा प्रभ कीजै ॥८॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊंदर = चूहा। दूंदर = (द्वंद्व) शोर। पासि = एक तरफ, अलग। रवीजै = स्मरणा चाहिए।8।
अर्थ: चूहे की तरह से अंदर-अंदर से शोर मचाने वाले मन के संकल्प-विकल्प अंदर से निकाल देने चाहिए, परमात्मा के नाम का स्मरण करना चाहिए, यही है धुर से मिली सेवा (जो मनुष्य ने करनी है)।
हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर-) हे प्रभु! मेहर कर, मुझे तेरे नाम की दाति मिले।8।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ अंतरि उतभुजु अवरु न कोई ॥ जो कहीऐ सो प्रभ ते होई ॥ जुगह जुगंतरि साहिबु सचु सोई ॥ उतपति परलउ अवरु न कोई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ अंतरि उतभुजु अवरु न कोई ॥ जो कहीऐ सो प्रभ ते होई ॥ जुगह जुगंतरि साहिबु सचु सोई ॥ उतपति परलउ अवरु न कोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = परमात्मा के ही अंदर। उतभुज = (सृष्टि की) उत्पक्ति। जो कहीऐ = जिस भी चीज का नाम लिया जाए। ते = से। जुगह जुगंतरि = जुगों जुगों के अंदर। सचु = सदा स्थिर। परलउ = परलय, नाश।1।
अर्थ: (वह परमात्मा ऐसा है कि) सृष्टि की उत्पक्ति (की ताकत) उसके अपने अंदर ही है (उत्पक्ति करने वाला) और कोई भी नहीं है। जिस भी चीज का नाम लिया जाए वह परमात्मा से ही पैदा हुई है। वही मालिक युगों-युगों में सदा-स्थिर चला आ रहा है। जगत की उत्पक्ति और जगत का नाश करने वाला (उसके बिना) कोई और नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा मेरा ठाकुरु गहिर ग्मभीरु ॥ जिनि जपिआ तिन ही सुखु पाइआ हरि कै नामि न लगै जम तीरु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा मेरा ठाकुरु गहिर ग्मभीरु ॥ जिनि जपिआ तिन ही सुखु पाइआ हरि कै नामि न लगै जम तीरु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिर = गहरा, जिसका भेद न पाया जा सके। गंभीरु = बड़े जिगरे वाला। जिनि = जिस (भी मनुष्य) ने। नामि = नाम से। जम तीरु = जम का तीर।1। रहाउ।
अर्थ: हमारा पालनहार प्रभु बड़ा अथाह है और बड़े जिगरे वाला है। जिस भी मनुष्य ने (उसका नाम) जपा है उसी ने ही आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है। परमात्मा के नाम में जुड़ने से मौत का डर नहीं व्यापता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु रतनु हीरा निरमोलु ॥ साचा साहिबु अमरु अतोलु ॥ जिहवा सूची साचा बोलु ॥ घरि दरि साचा नाही रोलु ॥२॥
मूलम्
नामु रतनु हीरा निरमोलु ॥ साचा साहिबु अमरु अतोलु ॥ जिहवा सूची साचा बोलु ॥ घरि दरि साचा नाही रोलु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमोलु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। अमरु = अटल। जिहवा = जीभ। घरि दरि = हृदय में। रोलु = भुलेखा।2।
अर्थ: परमात्मा का नाम (एक ऐसा) रतन है हीरा है जिस का मूल्य नहीं पाया जा सकता (जो किसी कीमत से नहीं मिल सकता); वह सदा-स्थिर रहने वाला मालिक है वह कभी मरने वाला नहीं है, उसके बड़प्पन को तोला नहीं जा सकता। जो जीभ (उस अमर अडोल प्रभु की महिमा के) बोल बोलती है वह पवित्र है। महिमा करने वाले बंदे को अंदर-बाहर हर जगह वह सदा स्थिर प्रभु ही दिखता है, इस बारे उसको कोई भुलेखा नहीं होता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि बन महि बैसहि डूगरि असथानु ॥ नामु बिसारि पचहि अभिमानु ॥ नाम बिना किआ गिआन धिआनु ॥ गुरमुखि पावहि दरगहि मानु ॥३॥
मूलम्
इकि बन महि बैसहि डूगरि असथानु ॥ नामु बिसारि पचहि अभिमानु ॥ नाम बिना किआ गिआन धिआनु ॥ गुरमुखि पावहि दरगहि मानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई लोग। डूगरि = पहाड़ में। असथानु = गुफा आदि जगह (बना के)। पचहि = दुखी होते हैं। किआ = व्यर्थ।3।
अर्थ: अनेक लोग (गृहस्थ त्याग के) जंगलों में जा बैठते हैं, पहाड़ में (गुफा आदि) जगह (बना के) बैठते हैं (अपने इस उद्यम का) गुमान (भी) करते हैं, पर परमात्मा का नाम बिसार के वह दुखी (ही) होते हैं। परमात्मा के नाम से वंचित रह के कोई ज्ञान-चर्चा और कोई समाधि किसी अर्थ का नहीं। जो मनुष्य गुरु के रास्ते चलते हैं (और नाम जपते हैं) वह परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं।3।
[[0906]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हठु अहंकारु करै नही पावै ॥ पाठ पड़ै ले लोक सुणावै ॥ तीरथि भरमसि बिआधि न जावै ॥ नाम बिना कैसे सुखु पावै ॥४॥
मूलम्
हठु अहंकारु करै नही पावै ॥ पाठ पड़ै ले लोक सुणावै ॥ तीरथि भरमसि बिआधि न जावै ॥ नाम बिना कैसे सुखु पावै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हठु = (मन की ऐकाग्रता के लिए शरीर पर) जबरदस्ती। ले = ले के। भरमसि = (अगर) भटकता फिरेगा। बिआधि = रोग, कामादि रोग।4।
अर्थ: (जो मनुष्य एकाग्रता आदि वास्ते शरीर पर कोई) जबरदस्ती करता है (और इस उद्यम का) गुमान (भी) करता है, वह परमात्मा को नहीं मिल सकता। जो मनुष्य (लोक-दिखावे की खातिर) धार्मिक पुस्तकें पढ़ता है, पुस्तकें ले के लोगों को (ही) सुनाता है, किसी तीर्थ पर (भी स्नान वास्ते) जाता है (इस तरह) उसका कामादिक रोग दूर नहीं हो सकता। परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य आत्मिक आनंद नहीं पा सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जतन करै बिंदु किवै न रहाई ॥ मनूआ डोलै नरके पाई ॥ जम पुरि बाधो लहै सजाई ॥ बिनु नावै जीउ जलि बलि जाई ॥५॥
मूलम्
जतन करै बिंदु किवै न रहाई ॥ मनूआ डोलै नरके पाई ॥ जम पुरि बाधो लहै सजाई ॥ बिनु नावै जीउ जलि बलि जाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य। किवै = किसी तरह भी। बिंदु न रहावै = काम-वासना से नहीं बचता। नरके = नर्क में। लहै = लेता है, सहता है। जीउ = जिंद, जीवात्मा।5।
अर्थ: (बनवास, डूगर वास, हठ, निग्रह, तीर्थ स्नान आदि) प्रयत्न मनुष्य करता है, ऐसे किसी भी तरीके से काम-वासना रोकी नहीं जा सकती, मन डोलता ही रहता है और जीव नर्क में ही पड़ा रहता है, काम-वासना आदि विकारों में बँधा हुआ जमराज की पुरी में (आत्मिक कष्टों की) सजा भुगतता है। परमात्मा के नाम के बिना जीवात्मा विकारों में जलती-भुजती रहती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिध साधिक केते मुनि देवा ॥ हठि निग्रहि न त्रिपतावहि भेवा ॥ सबदु वीचारि गहहि गुर सेवा ॥ मनि तनि निरमल अभिमान अभेवा ॥६॥
मूलम्
सिध साधिक केते मुनि देवा ॥ हठि निग्रहि न त्रिपतावहि भेवा ॥ सबदु वीचारि गहहि गुर सेवा ॥ मनि तनि निरमल अभिमान अभेवा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = योग साधनों में सिद्ध योगी। साधिक = जोग साधना करने वाले। हठि = हठ से। निग्रहि = निग्रह से, इन्द्रियों को रोकने के प्रयत्न से। न त्रिपतावहि = नहीं मिटा सकते। भेवा = अंदरूनी विक्षेपता। गहहि = पकड़ते हैं, करते हैं। अभिमान अभेवा = अभिमान का अभाव।6।
अर्थ: अनेक सिद्ध-साधिक ऋषि-मुनि (हठ निग्रह आदि करते हैं पर) हठ निग्रह से अंदरूनी विक्षेपता को मिटा नहीं सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने विचार-मण्डल में टिका के गुरु की (बताई) सेवा (का उद्यम) ग्रहण करते हैं उनके मन में उनके शरीर में (भाव, इन्द्रियों में) पवित्रता आ जाती है, उनके अंदर अहंकार का अभाव हो जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमि मिलै पावै सचु नाउ ॥ तुम सरणागति रहउ सुभाउ ॥ तुम ते उपजिओ भगती भाउ ॥ जपु जापउ गुरमुखि हरि नाउ ॥७॥
मूलम्
करमि मिलै पावै सचु नाउ ॥ तुम सरणागति रहउ सुभाउ ॥ तुम ते उपजिओ भगती भाउ ॥ जपु जापउ गुरमुखि हरि नाउ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमि = कृपा से, मेहर से। सचु = सदा स्थिर। रहउ = मैं रहता हूँ। सु भाउ = (तेरे चरणों का) श्रेष्ठ प्रेम। ते = से। भाउ = प्रेम। जापउ = मैं जपता हूँ (गुरु की शरण पड़ के)।7।
अर्थ: जिस मनुष्य को अपनी मेहर से परमात्मा मिलाता है वह सदा-स्थिर-प्रभु-नाम (की दाति) प्राप्त करता है।
(हे प्रभु!) मैं भी तेरी शरण आ टिका हूँ (ताकि तेरे चरणों का) श्रेष्ठ प्रेम (मैं हासिल कर सकूँ)। (जीव के अंदर) तेरी भक्ति तेरा प्रेम तेरी मेहर से ही पैदा होते हैं। हे हरि! (अगर तेरी मेहर हो तो) मैं गुरु की शरण पड़ के तेरे नाम का जाप जपता रहूँ।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै गरबु जाइ मन भीनै ॥ झूठि न पावसि पाखंडि कीनै ॥ बिनु गुर सबद नही घरु बारु ॥ नानक गुरमुखि ततु बीचारु ॥८॥६॥
मूलम्
हउमै गरबु जाइ मन भीनै ॥ झूठि न पावसि पाखंडि कीनै ॥ बिनु गुर सबद नही घरु बारु ॥ नानक गुरमुखि ततु बीचारु ॥८॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। जाइ = (जाए) दूर होता है। मन भीजै = अगर मन भीग जाए। न पावसि = नहीं प्राप्त करेगा। पाखंडि कीनै = अगर पाखण्ड किया जाए, पाखण्ड करने से। घरु बारु = पक्का ठिकाना, परमात्मा का महल। ततु = जगत का मूल परमात्मा। बीचारु = प्रभु के गुणों की विचार।8।
अर्थ: अगर जीव का मन परमात्मा के नाम-रस में भीग जाए तो अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, पर (नाम-रस में भीगने की यह दाति) झूठ से अथवा पाखण्ड करके कोई भी नहीं प्राप्त कर सकता। गुरु के शब्द के बिना परमात्मा का दरबार नहीं मिल सकता।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह जगत के मूल प्रभु को मिल जाता है, वह प्रभु के गुणों की विचार (का स्वभाव) प्राप्त कर लेता है।8।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ जिउ आइआ तिउ जावहि बउरे जिउ जनमे तिउ मरणु भइआ ॥ जिउ रस भोग कीए तेता दुखु लागै नामु विसारि भवजलि पइआ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ जिउ आइआ तिउ जावहि बउरे जिउ जनमे तिउ मरणु भइआ ॥ जिउ रस भोग कीए तेता दुखु लागै नामु विसारि भवजलि पइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बउरे = हे कमले जीव! मरण = मौत। रस भोग = रसों के भोग। तेता = उतना ही। विसारि = भुला के। भवजलि = जनम मरण के चक्कर में।1।
अर्थ: हे पागल जीव! जैसे तू (जगत में) आया है वैसे ही (यहाँ से) चला भी जाएगा, जैसे तुझे जनम मिला है वैसे ही मौत भी हो जाएगी (यहाँ किसी भी हालत में सदा बैठे नहीं रहना)। ज्यों-ज्यों तू दुनिया के रसों को भोग भोगता है, त्यों-त्यों उतना ही (तेरे शरीर को और आत्मा को) दुख-रोग चिपक रहा है। (इन भोगों में मस्त हो के) परमात्मा का नाम बिसार के तू जनम-मरण के चक्कर में पड़ा समझ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु धनु देखत गरबि गइआ ॥ कनिक कामनी सिउ हेतु वधाइहि की नामु विसारहि भरमि गइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तनु धनु देखत गरबि गइआ ॥ कनिक कामनी सिउ हेतु वधाइहि की नामु विसारहि भरमि गइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गइआ = फस गया। कनिक = सोना। कामनी = स्त्री। सिउ = साथ। हेतु = मोह। की = क्यों? भरमि = भटकना में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जीव!) अपना शरीर और धन देख के तू अहंकार में आया रहता है। सोने और स्त्री से तू मोह बढ़ाए जा रहा है। तू क्यों परमात्मा का नाम बिसार रहा है, और, क्यों भटकना में पड़ रहा है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जतु सतु संजमु सीलु न राखिआ प्रेत पिंजर महि कासटु भइआ ॥ पुंनु दानु इसनानु न संजमु साधसंगति बिनु बादि जइआ ॥२॥
मूलम्
जतु सतु संजमु सीलु न राखिआ प्रेत पिंजर महि कासटु भइआ ॥ पुंनु दानु इसनानु न संजमु साधसंगति बिनु बादि जइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजमु = संयम, इन्द्रियों को रोकने का उद्यम। सतु = ऊँचा आचरण। जतु = काम-वासना से बचाव। प्रेत पिंजर महि = (विकारों के कारण) अपवित्र हुए शरीर पिंजर में। कासटु = काष्ठ, लकड़ी, लकड़ी की तरह सूखा हुआ, कोमल भावों से वंचित। बादि = व्यर्थ। जाइआ = (जाया) जन्मा।2।
अर्थ: (हे जीव! तूने अपने आप को) काम-वासना से नहीं बचाया, तूने ऊँचा आचरण नहीं बनाया, तूने इन्द्रियों को बुरी तरफ से रोकने का प्रयत्न नहीं किया, तूने मीठा स्वभाव नहीं बनाया। (विकारों के कारण) अपवित्र हुए शरीर पिंजर में तू लकड़ी (की तरह सूखा हुआ कठोर-दिल) हो चुका है। तेरे अंदर ना दूसरों की भलाई का ख्याल है, ना दूसरों की सेवा की तमन्ना है, ना आचरणिक पवित्रता है, ना ही कोई संयम है। साधु-संगत से दूर रह के तेरा मानव जनम व्यर्थ जा रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लालचि लागै नामु बिसारिओ आवत जावत जनमु गइआ ॥ जा जमु धाइ केस गहि मारै सुरति नही मुखि काल गइआ ॥३॥
मूलम्
लालचि लागै नामु बिसारिओ आवत जावत जनमु गइआ ॥ जा जमु धाइ केस गहि मारै सुरति नही मुखि काल गइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लालचि = लालच में। आवत जावत = माया की खातिर दौड़ते भागते। गइआ = (व्यर्थ) गया। जा = जब। धाइ = दौड़ के, दौड़ते हुए आ के। गहि = पकड़ के। मुखि काल = काल के मुँह में।3।
अर्थ: (हे जीव!) तू माया की लालच में लगा हुआ है, परमात्मा का नाम तूने भुला दिया है। माया की खातिर दौड़ते-भागते तेरा जीवन (व्यर्थ) चला जाता है। जब अचानक जम आ के तुझे केसों से पकड़ के पटका के मारेगा, काल के मुँह में पहुँचे हुए तुझको (स्मरण की) सूझ नहीं आ सकेगी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिनिसि निंदा ताति पराई हिरदै नामु न सरब दइआ ॥ बिनु गुर सबद न गति पति पावहि राम नाम बिनु नरकि गइआ ॥४॥
मूलम्
अहिनिसि निंदा ताति पराई हिरदै नामु न सरब दइआ ॥ बिनु गुर सबद न गति पति पावहि राम नाम बिनु नरकि गइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। ताति = ईरखा, जलन। सरब = सारे जीवों पर। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत।4।
अर्थ: दिन-रात तू पराई निंदा करता है, दूसरों के साथ ईरखा करता है। तेरे हृदय में ना परमात्मा का नाम है और ना ही सब जीवों के लिए दया-प्यार। गुरु के शब्द के बिना ना तू ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकेगा ना ही (लोक-परलोक की) इज्जत। परमात्मा के नाम से टूट के तू नर्क में ही पड़ा हुआ है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिन महि वेस करहि नटूआ जिउ मोह पाप महि गलतु गइआ ॥ इत उत माइआ देखि पसारी मोह माइआ कै मगनु भइआ ॥५॥
मूलम्
खिन महि वेस करहि नटूआ जिउ मोह पाप महि गलतु गइआ ॥ इत उत माइआ देखि पसारी मोह माइआ कै मगनु भइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नटूआ = सवांगी, मदारी। जिउ = जैसे। गलतु = गलतान। इत उत = इधर उधर, हर तरफ।5।
अर्थ: (हे जीव! माया की खातिर) तू छिन-पल में तू स्वांगी की तरह कई रूप धारण करता है। तू मोह में पापों में गलतान हुआ पड़ा है। हर तरफ़ माया का प्सारा देख के तू माया के मोह में मस्त हो रहा है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहि बिकार विथार घनेरे सुरति सबद बिनु भरमि पइआ ॥ हउमै रोगु महा दुखु लागा गुरमति लेवहु रोगु गइआ ॥६॥
मूलम्
करहि बिकार विथार घनेरे सुरति सबद बिनु भरमि पइआ ॥ हउमै रोगु महा दुखु लागा गुरमति लेवहु रोगु गइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विथार = विस्तार, पसारे। घनेरे = बहुत। भरमि = भटकना में। गुर मति = गुरु की शिक्षा।6।
अर्थ: (हे पागल जीव!) तू विकारों की खातिर अनेक पसारे पसारता है गुरु के शब्द की लगन के बिना तू (विकारों की) भटकना में भटकता है। तुझे अहंकार का बड़ा रोग बड़ा दुख चिपका हुआ है। अगर तू चाहता है ये रोग दूर हो जाए तो गुरु की शिक्षा ले।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख स्मपति कउ आवत देखै साकत मनि अभिमानु भइआ ॥ जिस का इहु तनु धनु सो फिरि लेवै अंतरि सहसा दूखु पइआ ॥७॥
मूलम्
सुख स्मपति कउ आवत देखै साकत मनि अभिमानु भइआ ॥ जिस का इहु तनु धनु सो फिरि लेवै अंतरि सहसा दूखु पइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संपति = सम्पक्ति, धन। साकत मनि = साकत के मन में, माया ग्रसित जीव के मन में। फिरि = दोबारा। सहसा = सहम।7।
अर्थ: माया-ग्रसित जीव जब सुखों को और धन को आता देखता है तो इसके मन में अहंकार पैदा होता है। पर जिस परमात्मा का दिया हुआ ये शरीर और धन है वह दोबारा वापस ले लेता है। माया-ग्रसित जीव को सदा यही सहम खाए जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंति कालि किछु साथि न चालै जो दीसै सभु तिसहि मइआ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु सो प्रभु हरि नामु रिदै लै पारि पइआ ॥८॥
मूलम्
अंति कालि किछु साथि न चालै जो दीसै सभु तिसहि मइआ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु सो प्रभु हरि नामु रिदै लै पारि पइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंति कालि = आखिरी समय, उस समय जब उम्र का अंतिम समय आ जाता है। तिसहि = उस परमात्मा की ही। मइआ = दया। लै = ले के।8।
अर्थ: (हे जीव! ये शरीर, ये धन, ये सोना, ये स्त्री) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सब कुछ उस परमात्मा की मेहर सदका ही मिला हुआ है, पर आखिरी वक्त में इनमें से भी (किसी के) साथ नहीं जा सकता। (दुनिया के ये पदार्थ देने वाला) वह परमात्मा सारे जगत का मूल है, सब में व्यापक है, बेअंत है। जो मनुष्य उसका नाम अपने हृदय में टिकाता है, वह (संसार-समुंदर की मोह की लहरों में से) पार लांघ जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूए कउ रोवहि किसहि सुणावहि भै सागर असरालि पइआ ॥ देखि कुट्मबु माइआ ग्रिह मंदरु साकतु जंजालि परालि पइआ ॥९॥
मूलम्
मूए कउ रोवहि किसहि सुणावहि भै सागर असरालि पइआ ॥ देखि कुट्मबु माइआ ग्रिह मंदरु साकतु जंजालि परालि पइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किसहि = किसको? असरालि = डरावना। सागर असरालि = डरावने सागर में। देखि = देख के। जंजालि = जंजाल में। परालि = पराली (जैसा) निकम्मा।9।
अर्थ: (हे साकत जीव! मरना तो सबने है, फिर तू अपने किसी) मरे हुए सन्बंधी को रोता है और (रो-रो के) किस को सुनाता है? (परमात्मा की याद से टूट के) तू बड़े भयानक (डरावने) संसार-समुंदर में गोते खा रहा है।
माया-ग्रसित जीव अपने परिवार को, धन को, सुंदर घरों को देख-देख के निकम्मे जंजाल में फसा हुआ है।9।
[[0907]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा आए ता तिनहि पठाए चाले तिनै बुलाइ लइआ ॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ बखसणहारै बखसि लइआ ॥१०॥
मूलम्
जा आए ता तिनहि पठाए चाले तिनै बुलाइ लइआ ॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ बखसणहारै बखसि लइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिनहि = उस (परमात्मा) ने ही। पठाहे = भेजे। तिनै = उसी (हरि) ने ही।10।
अर्थ: हम जीव जब संसार में आते हैं तो उस परमात्मा ने ही हमको भेजा होता है, यहाँ से जाते हैं तब भी उसी ने बुलावा भेजा होता है। जो कुछ वह प्रभु करना चाहता है वह कर रहा है। (हम जीव उसकी रजा को भूल जाते हैं, पर) वह बख्शनहार है वह माफ कर देता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि एहु चाखिआ राम रसाइणु तिन की संगति खोजु भइआ ॥ रिधि सिधि बुधि गिआनु गुरू ते पाइआ मुकति पदारथु सरणि पइआ ॥११॥
मूलम्
जिनि एहु चाखिआ राम रसाइणु तिन की संगति खोजु भइआ ॥ रिधि सिधि बुधि गिआनु गुरू ते पाइआ मुकति पदारथु सरणि पइआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (जिस जीव) ने। रसाइणु = रस+आयन, रसों का घर, सारे आनंद देने वाला। खोजु = भेद की समझ। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। ते = से। मुकति पदारथ = (नाम की) संपत्ति जो विकारों से और माया के मोह से मुक्ति दिलवाता है।11।
अर्थ: (हे जीव!) परमात्मा का नाम सारे रस देने वाला है, जिस-जिस बंदे ने ये नाम-रस चख लिया है उनकी संगति में रहने से इस भेद की समझ आता है। गुरु की शरण पड़ कर गुरु से ही परमात्मा का नाम-पदार्थ मिलता है, इस नाम में ही सब करामाती ताकतें हैं, ऊँची बुद्धि है, सही जीवन-राह की सूझ है, और इस नाम से ही माया के मोह से निजात मिलती है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुखु सुखु गुरमुखि सम करि जाणा हरख सोग ते बिरकतु भइआ ॥ आपु मारि गुरमुखि हरि पाए नानक सहजि समाइ लइआ ॥१२॥७॥
मूलम्
दुखु सुखु गुरमुखि सम करि जाणा हरख सोग ते बिरकतु भइआ ॥ आपु मारि गुरमुखि हरि पाए नानक सहजि समाइ लइआ ॥१२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सम = बराबर, एक जैसा। सोग = चिन्ता, अफसोस। बिरकतु = विरक्त, निर्लिप। आपु = स्वै भाव को। मारि = मार के। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में।12।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह (घटित होने वाले) दुख-सुख को एक जैसा ही जानता है, वह खुशी-ग़मी से निर्लिप रहता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य स्वैभाव मार के परमात्मा से मिल जाता है और अडोल आत्मिक अवस्था में रहता है।12।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली दखणी महला १ ॥ जतु सतु संजमु साचु द्रिड़ाइआ साच सबदि रसि लीणा ॥१॥
मूलम्
रामकली दखणी महला १ ॥ जतु सतु संजमु साचु द्रिड़ाइआ साच सबदि रसि लीणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु। सबदि = शब्द से, महिमा की वाणी से। साच रसि = सदा स्थिर प्रभु के नाम रस में। लीणा = लीन, मस्त।1।
अर्थ: (मेरा गुरु) परमात्मा की महिमा की वाणी के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम-रस में लीन रहता है मेरे गुरु ने मुझे ये यकीन करवा दिया है कि काम-वासना से बचे रहना, ऊँचा आचरण, इन्द्रियों को विकारों से रोकना, और सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण- यही है सही जीवन।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा गुरु दइआलु सदा रंगि लीणा ॥ अहिनिसि रहै एक लिव लागी साचे देखि पतीणा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरा गुरु दइआलु सदा रंगि लीणा ॥ अहिनिसि रहै एक लिव लागी साचे देखि पतीणा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआलु = दया का श्रोत। रंगि = रंग में, प्रेम में। अहि = दिन। निसि = रात। देखि = देख देख के।1। रहाउ।
अर्थ: मेरा गुरु दया का घर है, वह सदा प्रेम रंग में रंगा रहता है। (मेरे गुरु की) तवज्जो दिन-रात एक परमात्मा (के चरणों) में लगी रहती है, (मेरा गुरु) सदा-स्थिर परमात्मा का (हर जगह) दीदार करके (उस दीदार में) मस्त रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहै गगन पुरि द्रिसटि समैसरि अनहत सबदि रंगीणा ॥२॥
मूलम्
रहै गगन पुरि द्रिसटि समैसरि अनहत सबदि रंगीणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गगन = आकाश, चिक्त आकाश, दसवाँ द्वार,ऊँची आत्मिक अवस्था। गगनपुरि = आकाश मण्डल में, उच्च आत्मिक अवस्था में। समै = सम, एक जैसी। सरि = बराबर। समै सरि = एक जैसी। अनहत सबदि = उस शब्द (की धुन) में जो एक रस हो रहा है। अनहत = बिना बजाए बजने वाला, एक रस।2।
अर्थ: (मेरे गुरु) सदा ऊँची अडोल आत्मिक अवस्था में टिका रहता है, (मेरे गुरु की) (प्यार भरी) निगाह (सब ओर) एक जैसी ही है। (मेरा गुरु) उस शब्द में रंगा हुआ है जिसकी धुनि उसके अंदर एक-रस हो रही है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतु बंधि कुपीन भरिपुरि लीणा जिहवा रंगि रसीणा ॥३॥
मूलम्
सतु बंधि कुपीन भरिपुरि लीणा जिहवा रंगि रसीणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतु = ऊँचा आचरन। बंधि = बाँध के। कुपीन = लंगोटी। भरिपुरि = सर्व व्यापक प्रभु में। रसीणा = रसी हुई है।3।
अर्थ: ऊँचा आचरण (-रूप) लंगोट बाँध के (मेरा गुरु) सर्व-व्यापक परमात्मा (की याद) में लीन रहता है, उसकी जीभ (प्रभु के) प्रेम में रसी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलै गुर साचे जिनि रचु राचे किरतु वीचारि पतीणा ॥४॥
मूलम्
मिलै गुर साचे जिनि रचु राचे किरतु वीचारि पतीणा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलै गुर साचे = सच्चे गुरु को मिला हुआ है। जिनि = जिस (परमातमा) ने। रचु राचे = जगत रचना रची है। किरतु वीचारि = हरि की मेहनत-कमाई को विचार के।4।
अर्थ: कभी गलती ना खाने वाले (मेरे) गुरु को वह परमात्मा सदा मिला रहता है जिस ने जगत-रचना रची है, उसकी जगत-कार्य को देख-देख के (मेरा गुरु उसकी सर्व-सामर्थ्य में) निश्चय रखता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक महि सरब सरब महि एका एह सतिगुरि देखि दिखाई ॥५॥
मूलम्
एक महि सरब सरब महि एका एह सतिगुरि देखि दिखाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। देखि = (खुद) देख के।5।
अर्थ: सृष्टि के सारे ही जीव एक परमात्मा में हैं (भाव, एक प्रभु ही सबकी जिंदगी का आधार है), सारे जीवों में एक परमात्मा व्यापक है; यह करिश्मा (मेरे) गुरु ने (खुद) देख के (मुझे) दिखा दिया है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि कीए खंड मंडल ब्रहमंडा सो प्रभु लखनु न जाई ॥६॥
मूलम्
जिनि कीए खंड मंडल ब्रहमंडा सो प्रभु लखनु न जाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। लखनु न जाई = बयान नहीं किया जा सकता।6।
अर्थ: (मेरे गुरु ने ही मुझे बताया है कि) जिस प्रभु ने सारे खंड-ब्रहमंड बनाए हैं उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीपक ते दीपकु परगासिआ त्रिभवण जोति दिखाई ॥७॥
मूलम्
दीपक ते दीपकु परगासिआ त्रिभवण जोति दिखाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीपक ते = दीए से। त्रिभवण = तीन भवनों में।7।
अर्थ: (गुरु ने अपनी रौशन ज्योति के) दीए से (मेरे अंदर) दीया जला दिया है और मुझे वह (ईश्वरीय) ज्योति दिखा दी है, जो तीन भवनों में मौजूद है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचै तखति सच महली बैठे निरभउ ताड़ी लाई ॥८॥
मूलम्
सचै तखति सच महली बैठे निरभउ ताड़ी लाई ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। निरभउ ताड़ी = निडरता की ताड़ी।8।
अर्थ: (मेरा गुरु एक ऐसा नाथों का नाथ भी है जो) सदा अटल रहने वाले अडोलता के तख्त पर बैठा हुआ है जो सदा-स्थिर रहने वाले महल में बिराजमान है, (वहाँ आसन जमाए) बैठे (मेरे गुरु-जोगी) ने निडरता की समाधि लगाई हुई है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि गइआ बैरागी जोगी घटि घटि किंगुरी वाई ॥९॥
मूलम्
मोहि गइआ बैरागी जोगी घटि घटि किंगुरी वाई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि गइआ = (हमें) मोह लिया है। किंगुरी वाई = किंगुरी बजा दी है, जिंदगी की लहर चला दी है।9।
अर्थ: माया से निर्लिप मेरे जोगी गुरु ने (सारे संसार को) मोह लिया है, उसने हरेक के अंदर (आत्मिक जीवन की लहर) किंगुरी बजा दी है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक सरणि प्रभू की छूटे सतिगुर सचु सखाई ॥१०॥८॥
मूलम्
नानक सरणि प्रभू की छूटे सतिगुर सचु सखाई ॥१०॥८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये अष्टपदी दक्षिण में गाई जाने वाली रामकली में है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखाई = साखी, मित्र। सतिगुर सखाई = गुरु का मित्र।10।
अर्थ: हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा (मेरे) गुरु का मित्र है, गुरु के द्वारा प्रभु की शरण पड़ कर जीव (माया के मोह से) बच जाते हैं।10।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ ॥ अउहठि हसत मड़ी घरु छाइआ धरणि गगन कल धारी ॥१॥
मूलम्
रामकली महला १ ॥ अउहठि हसत मड़ी घरु छाइआ धरणि गगन कल धारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउहठि = हृदय में। अउहठ = (अवघट्ट) हृदय। हसत = (स्थ) टिका हुआ। अउहठि हसत = (अवघट्टस्थ) हृदय में टिका हुआ। मढ़ी = शरीर। छाइआ = बनाया। धरणि = धरती। कल = क्षमता। धारी = धारने वाला, आसरा देने वाला।1।
अर्थ: धरती आकाश को अपनी सत्ता से टिका के रखने वाला परमात्मा (जिस जीव को माया-मोह आदि से बचाता है उसके) हृदय में टिक के उसके शरीर को अपने रहने के लिए घर बना लेता है (भाव, उसके अंदर अपना आप प्रकट करता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि केती सबदि उधारी संतहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरमुखि केती सबदि उधारी संतहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केती = बेअंत दुनिया। उधारी = (परमात्मा ने अहंकार ममता आदि से) बचाई।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख कर के गुरु के शब्द में जोड़ के परमात्मा बेअंत दुनिया को (अहंकार ममता कामादिक से) बचाता (चला आ रहा) है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममता मारि हउमै सोखै त्रिभवणि जोति तुमारी ॥२॥
मूलम्
ममता मारि हउमै सोखै त्रिभवणि जोति तुमारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोखै = सुखा देता है। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले संसार में।2।
अर्थ: हे प्रभु! (गुरु के माध्यम से जिस मनुष्य का तू उद्धार करता है) वह अपनत्व को (अपने अंदर से) मार के अहंकार को भी खत्म कर लेता है, और उसको इस त्रिभवनी जगत में तेरी ही ज्योति नजर आती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा मारि मनै महि राखै सतिगुर सबदि वीचारी ॥३॥
मूलम्
मनसा मारि मनै महि राखै सतिगुर सबदि वीचारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनसा = मन का (मायावी) फुरना। मारि = मार के। मनै महि = मन ही में। सबदि = शब्द से। वीचारी = विचारवान।3।
अर्थ: (हे प्रभु! जिस जीव को तू तैराता है) वह गुरु के शब्द से ऊँचे विचारों का मालिक हो के अपने मन के मायावी फुरनों को खत्म करके (तेरी याद को) अपने मन में टिकाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंङी सुरति अनाहदि वाजै घटि घटि जोति तुमारी ॥४॥
मूलम्
सिंङी सुरति अनाहदि वाजै घटि घटि जोति तुमारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिंङी = सिंगी की शकल की छोटी सी तूती जो जोगी लोग सदा अपने पास रखते हैं। अनाहदि = (अन आहत) नाश रहित परमात्मा में। घटि घटि = हरेक घटि में।4।
अर्थ: (हे प्रभु! जिस पर तेरी मेहर होती है वह है असल जोगी, उसकी) तवज्जो तेरे नाश-रहत स्वरूप में टिकती है (ये मानो, उसके अंदर जोगियों वाली) सिंगी बजती है, उसको हरेक शरीर में तेरी ही ज्योति दिखाई देती है (वह किसी को त्याग के जंगलों-पहाड़ों में नहीं भटकता)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परपंच बेणु तही मनु राखिआ ब्रहम अगनि परजारी ॥५॥
मूलम्
परपंच बेणु तही मनु राखिआ ब्रहम अगनि परजारी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परपंच = जगत रचना। बेणु = वीणा। परपंच बेदु = वह परमात्मा जिस में जगत रचना की वाणी सदा बज रही है। तह = (शब्द ‘तह’ बताता है कि शब्द ‘परपंचबेणु’ के साथ शब्द ‘जह’ प्रयोग करना है) वहाँ, उस परमात्मा में। ब्रहम अगनि = ईश्वरीय तेज, ओज, परमात्मा की प्रकाया रूप आग। परजारी = अच्छी तरह जलाई हुई।5।
अर्थ: (गुरु के शब्द में टिका हुआ मनुष्य असल जोगी है,) वह अपने मन को उस परमात्मा में जोड़े रखता है जिसमें जगत-रचना की वीणा बज रही है, वह अपने अंदर ईश्वरीय ज्योति अच्छी तरह जला लेता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच ततु मिलि अहिनिसि दीपकु निरमल जोति अपारी ॥६॥
मूलम्
पंच ततु मिलि अहिनिसि दीपकु निरमल जोति अपारी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच ततु = पाँच तत्वों से बना हुआ शरीर। पंच ततु मिलि = पंच तत्वी शरीर प्राप्त करके। अहि = दिन। निसि = रात। दीपकु = दीया।6।
अर्थ: (हे अवधू! जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु की शरण में लाकर आत्म-उद्धार के रास्ते पर डालता है) वह मनुष्य इस पंच-तत्वीय मानव शरीर को हासिल करके (जंगलों-पहाड़ों में जा के इसको राख में नहीं मिलाता, वह तो) बेअंत परमात्मा की पवित्र ज्योति का दीपक दिन-रात (अपने अंदर जगाए रखता है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रवि ससि लउके इहु तनु किंगुरी वाजै सबदु निरारी ॥७॥
मूलम्
रवि ससि लउके इहु तनु किंगुरी वाजै सबदु निरारी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवि = सूरज, ईड़ा नाड़ी। ससि = चंद्रमा, पिंगला नाड़ी, बाई सुर। लउका = तूंबा (किंगुरी का)। निरारी = निराली, अनोखा, आश्चर्य।7।
अर्थ: (हे अवधू!) प्रभु की कृपा का पात्र बना हुआ मनुष्य अपने इस शरीर को किंगुरी बनाता है, सांस-सांस नाम-जपने को इस शरीर-किंगुरी की तूंबी बनाता है, उसके अंदर गुरु का शब्द अनोखे आकर्षण के साथ बजता है (भाव, गुरु का शब्द उसके अंदर रसमयी प्रेम-राग पैदा करता है)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव नगरी महि आसणु अउधू अलखु अगमु अपारी ॥८॥
मूलम्
सिव नगरी महि आसणु अउधू अलखु अगमु अपारी ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव नगरी = शिव की नगरी में, कल्याण स्वरूप परमात्मा के देश में। अउधू = हे जोगी! अगंमु = पहुंच से परे प्रभु।8।
अर्थ: हे अवधू! (जिस मनुष्य का उद्धार परमात्मा गुरु के शब्द द्वारा करता है, वह) उस आत्मिक अवस्था रूपी नगरी में अडोल-चिक्त हो के जुड़ता है जहाँ कल्याण-स्वरूप-प्रभु का ही प्रभाव है, जहाँ उसके अंदर अलख, अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा प्रगट हो पड़ता है (वह ऊँची आत्मिक अवस्था ही गुरसिख जोगी की शिव-नगरी है)।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ नगरी इहु मनु राजा पंच वसहि वीचारी ॥९॥
मूलम्
काइआ नगरी इहु मनु राजा पंच वसहि वीचारी ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजा = कामादिक को वश में करने के समर्थ। पंच = पाँच ज्ञान-इंद्रिय। वीचारी = विचारवान (हो के)।9।
अर्थ: (हे अवधू! प्रभु की कृपा प्राप्त मनुष्य का यह) शरीर (मानो, बसता हुआ) शहर बन जाता है जिसमें पाँचों ज्ञान-इंद्रिय विचारवान हो के (ऊँची आत्मिक सूझ-बूझ वाली हो के) बसती है (भाव, विकारों के पीछे नहीं भटकती फिरतीं, कृपा के पात्र मनुष्य का) यह मन (शरीर-नगरी में) राजा बन जाता है (कामादिकों को वश में कर लेता है)।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि रवै आसणि घरि राजा अदलु करे गुणकारी ॥१०॥
मूलम्
सबदि रवै आसणि घरि राजा अदलु करे गुणकारी ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवै = स्मरण करता है। आसणि = (अडोलता के) आसन पर। घरि = घर में, हृदय में, अंतर आत्मे (टिक के)। गुणकारी = (दूसरों को) गुण देने वाला, परोपकारी। अदलु = न्याय।10।
अर्थ: (हे अवधू! जिस मनुष्य का, परमात्मा गुरु के शब्द द्वारा उद्धार करता है उसका मन कामादिक पर) बलवान हो के (आत्मिक अडोलता के) आसन पर बैठता है अपने अंदर ही टिका रहता है, गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा का स्मरण करता रहता है, न्याय करता है (भाव, सारी इन्द्रियों को अपनी-अपनी सीमा में बाँध के रखता है), और परोपकारी हो जाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालु बिकालु कहे कहि बपुरे जीवत मूआ मनु मारी ॥११॥
मूलम्
कालु बिकालु कहे कहि बपुरे जीवत मूआ मनु मारी ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिकालु = जनम। कालु बिकालु = जनम मरण। कहि = क्या? मारी = मार के। बपुरे = बिचारे।11।
अर्थ: (हे अवधू! जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर होती है वह धूणियाँ तपा-तपा के नहीं जलता, वह तो संसारिक जीवन) जीते हुए ही (अहंकार-ममता-कामादिक की ओर से) मर जाता है, वह अपने मन को (इनकी ओर से) मार देता है, (इस अवस्था में पहुँचे हुए का) बिचारे जनम-मरण कुछ बिगाड़ नहीं सकते।11।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु महेस इक मूरति आपे करता कारी ॥१२॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु महेस इक मूरति आपे करता कारी ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महेस = शिव। इक मूरति = एक परमात्मा का ही रूप।12।
अर्थ: (हे अवधू! उस मनुष्य को यह समझ आ जाती है कि) ईश्वर स्वयं ही सब कुछ करने में समर्थ है, ब्रहमा-विष्णु और शिव उस एक परमात्मा (की एक-एक ताकत) के स्वरूप (माने गए) हैं।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ सोधि तरै भव सागरु आतम ततु वीचारी ॥१३॥
मूलम्
काइआ सोधि तरै भव सागरु आतम ततु वीचारी ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोधि = शुद्ध करके। आतम ततु = आतम का मूल परमात्मा।13।
अर्थ: (हे अवधू! वह मनुष्य) हरेक आत्मा के मालिक परमात्मा (की याद) को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है और (जंगलों और पहाड़ों में भटकने की जगह) अपने शरीर को (विकारों से) पवित्र रख के इस संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ अंतरि सबदु रविआ गुणकारी ॥१४॥
मूलम्
गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ अंतरि सबदु रविआ गुणकारी ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = अंदर, हृदय में। रविआ = याद रखा, बार बार बसाया। गुणकारी = आत्मिक गुण देने वाला।14।
अर्थ: (हे अवधू! उस मनुष्य ने) गुरु की बताई हुई सेवा से ही सदा के लिए आत्मिक आनंद पा लिया है, उसके अंदर (पवित्र) आत्मिक गुण पैदा करने वाला गुरु का शब्द सदा टिका रहता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मेलि लए गुणदाता हउमै त्रिसना मारी ॥१५॥
मूलम्
आपे मेलि लए गुणदाता हउमै त्रिसना मारी ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारी = मार के।15।
अर्थ: (हे अवधू! जिस पर प्रभु कृपा करता है उसको) आत्मिक गुण पैदा करने वाला परमात्मा स्वयं ही (गुरमुखों की) संगति में मिलाता है, उसके अंदर से अहंकार और माया की तृष्णा समाप्त कर देता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण मेटे चउथै वरतै एहा भगति निरारी ॥१६॥
मूलम्
त्रै गुण मेटे चउथै वरतै एहा भगति निरारी ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चउथै = चौथे दर्जे में, उस आत्मिक अवस्था में जहाँ माया के तीन गुण छू नहीं सकते।16।
अर्थ: (वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से) माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा लेता है, उस उच्च आत्मिक अवस्था में टिका रहता है जहाँ इन तीनों का जोर नहीं चलता, (जंगलों पहाड़ों में भटकने के बजाय उसको) यह भक्ति ही आकर्षित करती है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि जोग सबदि आतमु चीनै हिरदै एकु मुरारी ॥१७॥
मूलम्
गुरमुखि जोग सबदि आतमु चीनै हिरदै एकु मुरारी ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोग सबदि = शब्द रूप जोग से। चीनै = पहचानता है।17।
अर्थ: (हे अवधू!) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ने के योग (-साधन) के द्वारा अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है और अपने हृदय में एक परमात्मा (की याद और प्रीत) को बसाए रखता है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनूआ असथिरु सबदे राता एहा करणी सारी ॥१८॥
मूलम्
मनूआ असथिरु सबदे राता एहा करणी सारी ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे अवधू! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का मन सदा) गुरु के शब्द में रंगा रहता है। (इस वास्ते उसका) मन (विकारों में डोलने की जगह प्रभु-प्रीति में) टिका रहता है। (मानव जीवन में) ये ही करने-योग्य काम उसको श्रेष्ठ लगता है।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेदु बादु न पाखंडु अउधू गुरमुखि सबदि बीचारी ॥१९॥
मूलम्
बेदु बादु न पाखंडु अउधू गुरमुखि सबदि बीचारी ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदे = शब्द ही, शब्द में ही। सारी = श्रेष्ठ। करणी = (करणीय) करने योग्य काम।19।
अर्थ: हे अवधू! वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) को (पढ़ के उनकी) चर्चा को (वह मनुष्य) नहीं कबूलता (पसंद नहीं करता, आत्मिक जीवन के राह में इसको वह) पाखण्ड (समझता है)। वह तो गुरु की शरण पड़ के गुरु के शब्द की इनायत से ऊँची आत्मिक विचार का मालिक बनता है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि जोगु कमावै अउधू जतु सतु सबदि वीचारी ॥२०॥
मूलम्
गुरमुखि जोगु कमावै अउधू जतु सतु सबदि वीचारी ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु के सन्मुख है।20।
अर्थ: हे अवधू! (जिस मनुष्य का उद्धार परमात्मा करता है वह) गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, यही जोग (वह) कमाता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वह ऊँची आत्मिक विचार का मालिक बनता है, यही है उसका जत और सत (कायम रखने का तरीका)।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि मरै मनु मारे अउधू जोग जुगति वीचारी ॥२१॥
मूलम्
सबदि मरै मनु मारे अउधू जोग जुगति वीचारी ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरै = विकारों से मरता है, ऐसी आत्मिक अवस्था में पहुँचता है जहाँ विकार छू नहीं सकते। वीचारी = विचार ली है, समझ ली है।21।
अर्थ: हे अवधू! उस मनुष्य ने जोग की (परमात्मा के साथ जुड़ने की) ये जुगति समझी है कि वह गुरु के शब्द में जुड़ के (अहंकार-ममता आदि से) मुर्दा हो जाता है अपने मन को (विकारों से) काबू में रखता है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु भवजलु है अवधू सबदि तरै कुल तारी ॥२२॥
मूलम्
माइआ मोहु भवजलु है अवधू सबदि तरै कुल तारी ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर, बवंडर।22।
अर्थ: हे अवधू! माया का मोह बवण्डर है (जिस मनुष्य का परमात्मा उद्धार करता है वह) गुरु के शब्द में जुड़ के (इसमें से) पार लांघ जाता है और अपनी कुलों का भी उद्धार कर लेता है।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि सूर जुग चारे अउधू बाणी भगति वीचारी ॥२३॥
मूलम्
सबदि सूर जुग चारे अउधू बाणी भगति वीचारी ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूर = सूरमे। बाणी = वचन। भगति वीचारी = भक्ति की विचार वाले।23।
अर्थ: हे अवधू! जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ते हैं वे चारों युगों में ही सूरमे हैं, (भाव, किसी भी समय में कामादिक विकार उन पर जोर नहीं डाल सकते)। गुरु की वाणी की इनायत से वे परमात्मा की भक्ति को अपनी सोच-मण्डल में टिकाए रखते हैं।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु मनु माइआ मोहिआ अउधू निकसै सबदि वीचारी ॥२४॥
मूलम्
एहु मनु माइआ मोहिआ अउधू निकसै सबदि वीचारी ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकसै = निकलता है। वीचारी = विचारवान हो के।24।
अर्थ: हे अवधू! मनुष्य का ये मन माया के मोह में फंस जाता है (पर इसमें से निकलने का ये तरीका नहीं कि मनुष्य जंगलों में या पहाड़ों की गुफाओं में जा छिपे, इसमें से) वही मनुष्य निकलता है जो गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा की महिमा को अपने सोच-मंडल में टिकाता है।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे बखसे मेलि मिलाए नानक सरणि तुमारी ॥२५॥९॥
मूलम्
आपे बखसे मेलि मिलाए नानक सरणि तुमारी ॥२५॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेलि = मेल में, संगति में।25।
अर्थ: सो, हे नानक! (प्रभु के दर पर अरदास कर- हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे माया के मोह में फसने से बचा ले)।
(माया के मोह से बचना जीवों के अपने वश की बात नहीं, अरदास सुन के) परमात्मा स्वयं ही कृपा करता है और अपनी संगति में मिलाता है।25।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरमै दीआ मुंद्रा कंनी पाइ जोगी खिंथा करि तू दइआ ॥ आवणु जाणु बिभूति लाइ जोगी ता तीनि भवण जिणि लइआ ॥१॥
मूलम्
सरमै दीआ मुंद्रा कंनी पाइ जोगी खिंथा करि तू दइआ ॥ आवणु जाणु बिभूति लाइ जोगी ता तीनि भवण जिणि लइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरम = मेहनत (ऊँचा आत्मिक जीवन बनाने के लिए मेहनत)। जोगी = हे जोगी! खिंथा = कफनी, गोदड़ी। करि = बना। आवणु जाणु = जनम मरन का चक्कर (जनम मरन के चक्कर का डर)। बिभूति = राख। तीनि भवण = तीन भवन, (आकाश, पाताल, मातृ लोक), सारा जगत, जगत का मोह। जिणि लइआ = जीत लिया।1।
अर्थ: हे जोगी! (इस काँच की मुंद्राओं की जगह) तू अपने कानों में (ऊँचा आत्मिक जीवन बनाने के लिए) मेहनत की मुंद्राएं डाल ले और दया को तू अपनी गोदड़ी बना। हे जोगी! जनम-मरन के चक्कर का डर याद रख - ये राख तू अपने शरीर पर मल। (जब तू ऐसा उद्यम करेगा, तो समझ लेना कि) तूने जगत का मोह जीत लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी किंगुरी वजाइ जोगी ॥ जितु किंगुरी अनहदु वाजै हरि सिउ रहै लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी किंगुरी वजाइ जोगी ॥ जितु किंगुरी अनहदु वाजै हरि सिउ रहै लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किंगुरी = वीणा। जितु किंगुरी = जिस किंगुरी से, जिस वीणा के बजाने से। अनहदु = बिना बजाए बजता राग, एक रस हो रहा राग, ऊँचे आत्मिक जीवन का एक रस आनंद। वाजै = बजने लग जाता है। लिव = लगन।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! तू ऐसी वीणा बजाया कर, जिस वीणा के बजाने से (मनुष्य के अंदर) ऊँचे आत्मिक जीवन का एक-रस आनंद पैदा हो जाता है, और मनुष्य परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतु संतोखु पतु करि झोली जोगी अम्रित नामु भुगति पाई ॥ धिआन का करि डंडा जोगी सिंङी सुरति वजाई ॥२॥
मूलम्
सतु संतोखु पतु करि झोली जोगी अम्रित नामु भुगति पाई ॥ धिआन का करि डंडा जोगी सिंङी सुरति वजाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। पतु = पात्र, खप्पर। करि = बना। हे जोगी = हे जोगी! अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। भुगति = चूरमा, भोजन। सिंङी = छोटा सा सींग जो भण्डारा बाँटने के समय जोगी बजाता है।2।
अर्थ: हे जोगी! (दूसरों की) सेवा (किया कर, और अपने अंदर) संतोख (धारण कर, इन दोनों) को खप्पर और झोली बना। आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने हृदय में बसाए रखो) ये चूरमा (तू अपने खप्पर में) डाल। हे जोगी! प्रभु चरणों में चिक्त जोड़े रखने को तू (अपने हाथ का) डंडा बना; प्रभु में तवज्जो टिकाए रख- ये सिंगी बजाया कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु द्रिड़ु करि आसणि बैसु जोगी ता तेरी कलपणा जाई ॥ काइआ नगरी महि मंगणि चड़हि जोगी ता नामु पलै पाई ॥३॥
मूलम्
मनु द्रिड़ु करि आसणि बैसु जोगी ता तेरी कलपणा जाई ॥ काइआ नगरी महि मंगणि चड़हि जोगी ता नामु पलै पाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिढ़ु = दृढ़, पक्का। आसणि = आसन पर। बैसु = बैठ। कलपणा = मन की खिझ। काइआ = शरीर। मंगणि चढ़हि = मांगने के लिए चल पड़ें। पलै पाई = पल्ले पड़ता है, मिलता है।3।
अर्थ: हे जोगी! (प्रभु की याद में) अपने मन को पक्का कर- (इस) आसन पर बैठा कर, (इस अभ्यास से) तेरे मन की खिझ दूर हो जाएगी। (तू आटा मांगने के लिए नगर की ओर चल पड़ता है, इसकी जगह) अगर तू अपने शरीर नगर के अंदर ही (टिक के परमात्मा के दर से उसके नाम का दान) मांगना शुरू कर दे, तो, हे जोगी! तुझे (परमात्मा का) नाम प्राप्त हो जाएगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतु किंगुरी धिआनु न लागै जोगी ना सचु पलै पाइ ॥ इतु किंगुरी सांति न आवै जोगी अभिमानु न विचहु जाइ ॥४॥
मूलम्
इतु किंगुरी धिआनु न लागै जोगी ना सचु पलै पाइ ॥ इतु किंगुरी सांति न आवै जोगी अभिमानु न विचहु जाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इतु = इससे। इतु किंगुरी = इस किंगुरी से (जो तू बजा रहा है)। विचहु = मन में से।4।
अर्थ: हे जोगी! (जो किंगरी तू बजा रहा है) इस किंगरी से प्रभु के चरणों में ध्यान नहीं जुड़ सकता, ना ही इस तरह सदा-स्थिर प्रभु का मिलाप हो सकता है। हे जोगी! (तेरी) इस किंगरी से मन में शांति नहीं पैदा हो सकती, ना ही मन में से अहंकार खत्म हो सकता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ भाउ दुइ पत लाइ जोगी इहु सरीरु करि डंडी ॥ गुरमुखि होवहि ता तंती वाजै इन बिधि त्रिसना खंडी ॥५॥
मूलम्
भउ भाउ दुइ पत लाइ जोगी इहु सरीरु करि डंडी ॥ गुरमुखि होवहि ता तंती वाजै इन बिधि त्रिसना खंडी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ = डर। भाउ = प्यार। दुइ = दोनों। पत = तूंबे (जो किंगुरी की लंबी डंडी पर लगे होते हैं)। डंडी = किंगरी की डंडी। गुरमुख = गुरु के सन्मुख। तंती = तार, वीणा की तार। इन बिधि = इस तरीके से। खंडी = नाश हो जाता है।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पत’ बारे देखें बंद 2; ‘पतु’ एकवचन है और ‘पत’ बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे जोगी! तू अपने इस शरीर को (किंगरी की) डंडी बना और (इस शरीर-डंडी को) डर और प्यार के दो तूंबे जोड़ (भाव, अपने अंदर प्रभु का भय और प्यार पैदा कर)। हे जोगी! अगर तू हर वक्त गुरु के सन्मुख हुआ रहे तो (हृदय की प्रेम-) तार बज पड़ेगी, इस तरह (तेरे अंदर से) तृष्णा समाप्त हो जाएगी।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु बुझै सो जोगी कहीऐ एकस सिउ चितु लाए ॥ सहसा तूटै निरमलु होवै जोग जुगति इव पाए ॥६॥
मूलम्
हुकमु बुझै सो जोगी कहीऐ एकस सिउ चितु लाए ॥ सहसा तूटै निरमलु होवै जोग जुगति इव पाए ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बुझै = समझ ले, के अनुसार चल पड़े। एकस सिउ = एक परमात्मा से ही। सहसा = सहम। निरमलु = पवित्र। जोग जुगती = जोग की जुगति, प्रभु मिलाप का ढंग। इव = इस तरह।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की रजा के अनुसार चलता है और एक परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है वह मनुष्य (असल) जोगी कहलवाता है, (उसके अंदर से) सहम दूर हो जाता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है, और, इस तरह वह मनुष्य परमात्मा के मिलाप का तरीका तलाश लेता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदरी आवदा सभु किछु बिनसै हरि सेती चितु लाइ ॥ सतिगुर नालि तेरी भावनी लागै ता इह सोझी पाइ ॥७॥
मूलम्
नदरी आवदा सभु किछु बिनसै हरि सेती चितु लाइ ॥ सतिगुर नालि तेरी भावनी लागै ता इह सोझी पाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज, सब कुछ। बिनसै = नाशवान है। सेती = साथ। लाइ = जोड़े रख। भावनी = श्रद्धा, प्यार।7।
अर्थ: (हे जोगी! जगत में जो कुछ) आँखों से दिखाई दे रहा है (ये) सब कुछ नाशवान है (इसका मोह त्याग के) तू परमात्मा के साथ अपना चिक्त जोड़े रख। (पर, हे जोगी!) ये समझ तब ही पड़ेगी जब गुरु के साथ तेरी श्रद्धा बनेगी।7।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु जोगु न होवै जोगी जि कुट्मबु छोडि परभवणु करहि ॥ ग्रिह सरीर महि हरि हरि नामु गुर परसादी अपणा हरि प्रभु लहहि ॥८॥
मूलम्
एहु जोगु न होवै जोगी जि कुट्मबु छोडि परभवणु करहि ॥ ग्रिह सरीर महि हरि हरि नामु गुर परसादी अपणा हरि प्रभु लहहि ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगी = हे जोगी! जि = जो, कि। छोडि = छोड़ के। परभवणु = देश रटन, जगह-जगह भटकते फिरना। करहि = तू करता है। ग्रिह सरीर महि = शरीर घर में। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। लहहि = तू पा लेगा।8।
अर्थ: हे जोगी! तू ये जो अपना परिवार छोड़ के देश-रटन करता फिरता है, इसको जोग नहीं कहते। इस शरीर-घर में ही परमात्मा का नाम (बस रहा है। हे जोगी! अपने अंदर ही) गुरु की कृपा के साथ तू अपने परमात्मा को पा सकेगा।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु जगतु मिटी का पुतला जोगी इसु महि रोगु वडा त्रिसना माइआ ॥ अनेक जतन भेख करे जोगी रोगु न जाइ गवाइआ ॥९॥
मूलम्
इहु जगतु मिटी का पुतला जोगी इसु महि रोगु वडा त्रिसना माइआ ॥ अनेक जतन भेख करे जोगी रोगु न जाइ गवाइआ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इसु महि = इस (मिट्टी के पुतले) में। करै = करता है।9।
अर्थ: हे जोगी! ये संसार (मानो) मिट्टी का बुत है, इसमें माया की तृष्णा का बड़ा रोग लगा हुआ है। हे जोगी! अगर कोई मनुष्य (त्यागियों वाले) भेस आदि के अनेक यत्न करता रहे, तो भी ये रोग दूर नहीं किया जा सकता।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु अउखधु है जोगी जिस नो मंनि वसाए ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै जोग जुगति सो पाए ॥१०॥
मूलम्
हरि का नामु अउखधु है जोगी जिस नो मंनि वसाए ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै जोग जुगति सो पाए ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। मंनि = मन में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। सोई = वही मनुष्य। जोग जुगति = जोग की युक्ति, प्रभु मिलाप का ढंग।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे जोगी! (इस रोग को दूर करने के लिए) परमात्मा का नाम (ही) दवाई है (पर यह दवाई वही मनुष्य इस्तेमाल करता है) जिस पर (मेहर करके उसके) मन में (ये दवाई) बसाता है। (इस भेद को) वही मनुष्य समझता है जो गुरु के सन्मुख रहता है, वही मनुष्य प्रभु-मिलाप का ढंग सीखता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगै का मारगु बिखमु है जोगी जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ अंतरि बाहरि एको वेखै विचहु भरमु चुकाए ॥११॥
मूलम्
जोगै का मारगु बिखमु है जोगी जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ अंतरि बाहरि एको वेखै विचहु भरमु चुकाए ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। बिखमु = मुश्किल। नदरि = कृपा की दृष्टि, मेहर की निगाह। अंतरि = अपने अंदर। बाहरि = सारे संसार में। विचहु = अपने मन में से। भरमु = भेद भाव, मेर तेर। चुकाए = दूर करता है।11।
अर्थ: हे जोगी! (जिस जोग का हम वर्णन कर रहे हैं उस) रोग का रास्ता मुश्किल है, ये रास्ता उस मनुष्य को मिलता है जिस पर (प्रभु) मेहर की निगाह करता है। वह मनुष्य अपने अंदर से मेर-तेर दूर कर लेता है, अपने अंदर और सारे संसार में सिर्फ एक परमात्मा को ही देखता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विणु वजाई किंगुरी वाजै जोगी सा किंगुरी वजाइ ॥ कहै नानकु मुकति होवहि जोगी साचे रहहि समाइ ॥१२॥१॥१०॥
मूलम्
विणु वजाई किंगुरी वाजै जोगी सा किंगुरी वजाइ ॥ कहै नानकु मुकति होवहि जोगी साचे रहहि समाइ ॥१२॥१॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाजै = बजती है। सा किंगुरी = वह वीणा। कहै = कहता है। मुकति = विकारों से मुक्ति (वाला)। होवहि = तू हो जाएगा। साचे = सदा स्थिर प्रभु में। रहहि समाइ = तू लीन रहेगा।12।
अर्थ: हे जोगी! तू (अमृत नाम की) वह वीणा बजाया कर जो (अंतरात्मा में) बिना बजाए बजती है। नानक कहता है: हे जोगी! (अगर तू हरि-नाम जपने की वीणा बजाएगा, तो) तू विकारों से मुक्ति (का मालिक) हो जाएगा, और सदा कायम रहने वाले परमात्मा में टिका रहेगा।12।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ३ ॥ भगति खजाना गुरमुखि जाता सतिगुरि बूझि बुझाई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ३ ॥ भगति खजाना गुरमुखि जाता सतिगुरि बूझि बुझाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले ने। जाता = पहचाना, कद्र पाई। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझि = (आप) समझ के। बुझाई = समझ दी (सिख को)।1।
अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने वाले ने ही परमात्मा की भक्ति के खजाने की कद्र को समझा है। गुरु ने (स्वयं ये कद्र) समझ (सिख को) बख्शी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतहु गुरमुखि देइ वडिआई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतहु गुरमुखि देइ वडिआई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = देता है। वडिआई = इज्जत मान।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (परमात्मा लोक-परलोक में) उस मनुष्य को इज्जत देता है जो सदा गुरु के सन्मुख रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचि रहहु सदा सहजु सुखु उपजै कामु क्रोधु विचहु जाई ॥२॥
मूलम्
सचि रहहु सदा सहजु सुखु उपजै कामु क्रोधु विचहु जाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सहजु सुखु = आत्मिक अडोलता वाला सुख। विचहु = मन के अंदर से।2।
अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रह के ही) तुम सदा-स्थिर प्रभु में लीन रह सकते हो, (तुम्हारे अंदर) आत्मिक अडोलता वाला सुख पैदा हो सकता है और (तुम्हारे) अंदर से काम-क्रोध दूर हो सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु छोडि नाम लिव लागी ममता सबदि जलाई ॥३॥
मूलम्
आपु छोडि नाम लिव लागी ममता सबदि जलाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। नाम लिव = नाम की लगन। ममता = मैं मेरी का स्वभाव। सबदि = गुरु के शब्द से।3।
अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख मनुष्य ने ही) स्वै भाव छोड़ के (अपने अंदर परमात्मा के) नाम की लगन बनाई है और (अपने अंदर से) मैं-मेरी की आदत गुरु के शब्द द्वारा जला दी है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस ते उपजै तिस ते बिनसै अंते नामु सखाई ॥४॥
मूलम्
जिस ते उपजै तिस ते बिनसै अंते नामु सखाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस ते, तिस ते = जिस परमात्मा से, उस प्रभु के हुक्म से। उपजै = पैदा होता है। सखाई = साथी।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस ते, तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘जिस’ और ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे संत जनो! गुरमुख को ही ये समझ आती है कि) जीव जिस परमात्मा से पैदा होता है उसी के हुक्म के अनुसार ही नाश हो जाता है, और आखिरी समय में सिर्फ प्रभु का नाम ही साथी बनता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा हजूरि दूरि नह देखहु रचना जिनि रचाई ॥५॥
मूलम्
सदा हजूरि दूरि नह देखहु रचना जिनि रचाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। जिनि = जिस (परमात्मा) ने।5।
अर्थ: (हे संत जनो!) जिस परमात्मा ने ये जगत की खेल बनाई है उसको इसमें हर जगह हाजिर-नाजिर देखो, इसमें अलग दूर ना समझो।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा सबदु रवै घट अंतरि सचे सिउ लिव लाई ॥६॥
मूलम्
सचा सबदु रवै घट अंतरि सचे सिउ लिव लाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर। सचा सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द। रवै = मौजूद रहता है। घटि अंतरि = हृदय में। सिउ = साथ। लिव = लगन।6।
अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख हो के ही) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द मनुष्य के हृदय में बस सकता है और सदा-स्थिर प्रभु के साथ लगन लग सकती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतसंगति महि नामु निरमोलकु वडै भागि पाइआ जाई ॥७॥
मूलम्
सतसंगति महि नामु निरमोलकु वडै भागि पाइआ जाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमोलकु = जिसके बराबर का कोई दुनियावी पदार्थ नहीं है। वडै भागि = बड़ी किस्मत से।7।
अर्थ: (हे संत जनो! जो) हरि-नाम किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता वह गुरु की साधु-संगत में बड़ी किस्मत से मिल जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरमि न भूलहु सतिगुरु सेवहु मनु राखहु इक ठाई ॥८॥
मूलम्
भरमि न भूलहु सतिगुरु सेवहु मनु राखहु इक ठाई ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = भटकना में (पड़ कर), भुलेखे में। इक ठाई = एक ही जगह (प्रभु के चरणों में)।8।
अर्थ: (हे संत जनो!) भटक के गलत रास्ते पर ना पड़े रहो, गुरु के दर-घर में बने रहो, (अपने मन को प्रभु-चरणों में ही) एक ही जगह टिकाए रखो।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु नावै सभ भूली फिरदी बिरथा जनमु गवाई ॥९॥
मूलम्
बिनु नावै सभ भूली फिरदी बिरथा जनमु गवाई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूली फिरदी = गलत जीवन-राह पर पड़ी हुई है। बिरथा = व्यर्थ।9।
अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा के) नाम के बिना सारी दुनिया गलत रास्ते पर पड़ी हुई है, और अपना मानव जनम व्यर्थ गवा रही है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगी जुगति गवाई हंढै पाखंडि जोगु न पाई ॥१०॥
मूलम्
जोगी जुगति गवाई हंढै पाखंडि जोगु न पाई ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हंढै = भटकता फिरता है। पाखंडि = पाखण्ड (करने) से, (बाहरी भेस के) पाखंड से। जोगु = प्रभु मिलाप।10।
अर्थ: (हे संत जनो! धार्मिक भेस के) पाखण्ड से प्रभु का मिलाप हासिल नहीं होता; (जो जोगी निरा इस पाखण्ड में पड़ा हुआ है, उस) जोगी ने प्रभु-मिलाप की जुगती (हाथों से) गवा ली है, वह (व्यर्थ में) भटकता-फिरता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव नगरी महि आसणि बैसै गुर सबदी जोगु पाई ॥११॥
मूलम्
सिव नगरी महि आसणि बैसै गुर सबदी जोगु पाई ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव नगरी महि = परमात्मा के शहर में, साधु-संगत में। आसणि = आसन पर। बैसै = बैठता है। सबदी = शब्द से। जोगु = परमात्मा से मिलाप।11।
अर्थ: (हे संत जनो! जो जोगी गुरु के शब्द में जुड़ता है, उसने) गुरु-शब्द की इनायत से प्रभु मिलाप हासिल कर लिया है, वह जोगी साधु-संगत में टिका हुआ (मानो) आसन पर बैठा हुआ है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धातुर बाजी सबदि निवारे नामु वसै मनि आई ॥१२॥
मूलम्
धातुर बाजी सबदि निवारे नामु वसै मनि आई ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धातुर बाजी = (माया की खातिर) दौड़ने भागने वाली खेल, भटकते फिरने की खेल। सबदि = गुरु के शब्द से। मनि = मन में।12।
अर्थ: (हे संत जनो! जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह गुरु के शब्द द्वारा अपने मन की, माया के पीछे भटकने की खेल समाप्त कर लेता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु सरीरु सरवरु है संतहु इसनानु करे लिव लाई ॥१३॥
मूलम्
एहु सरीरु सरवरु है संतहु इसनानु करे लिव लाई ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरवरु = सुंदर तालाब। लिव = लगन, प्रेम की लगन। लाई = लगा के।13।
अर्थ: (हे संत जनो!) यह मनुष्य का शरीर एक सुंदर तालाब है, जो मनुष्य प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है, (वह, मानो, इस तालाब में) स्नान कर रहा है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामि इसनानु करहि से जन निरमल सबदे मैलु गवाई ॥१४॥
मूलम्
नामि इसनानु करहि से जन निरमल सबदे मैलु गवाई ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। करहि = जो लोग करते हैं। सबदे = शब्द के द्वारा ही।14।
अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य प्रभु के नाम में स्नान करते हैं वे पवित्र जीवन वाले हैं, उन्होंने गुरु के शब्द के द्वारा (अपने मन की विकारों वाली) मैल दूर कर ली है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण अचेत नामु चेतहि नाही बिनु नावै बिनसि जाई ॥१५॥
मूलम्
त्रै गुण अचेत नामु चेतहि नाही बिनु नावै बिनसि जाई ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रै गुण = (माया के रजो, तमो, सतो) तीन गुण (के प्रभाव) के कारण। अचेत = गाफल, प्रभु की याद की ओर से बेपरवाह। बिनसि जाई = जीव आत्मिक मौत मर जाता है।15।
अर्थ: (हे संत जनो! प्रभु की माया बड़ी प्रबल है) माया के तीन गुणों के कारण (जीव प्रभु की याद से) बेपरवाह रहते हैं, (प्रभु का) नाम याद नहीं करते। (हे संत जनो! परमात्मा के) नाम के बिना हरेक जीव आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै मूरति त्रिगुणि भरमि भुलाई ॥१६॥
मूलम्
ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै मूरति त्रिगुणि भरमि भुलाई ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महेसु = शिव। त्रै मूरति = तीन गुणों से मिली हुई, तीन गुणों के पूर्ण प्रभाव में। भरमि = भ्रम में, भटकना में। भुलाई = गलत राह पर पड़ जाता है।16।
अर्थ: (हे संत जनो! कोई बड़े से बड़ा भी हो) ब्रहमा (हो), विष्णू (हो), शिव (हो) (परमात्मा के नाम के बिना हरेक जीव माया के) तीन गुणों के पूर्ण प्रभाव तले रहता है। माया के तीन गुणों के प्रभाव के कारण (प्रभु-चरणों से टूटा हुआ हरेक जीव) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ जाता है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी त्रिकुटी छूटै चउथै पदि लिव लाई ॥१७॥
मूलम्
गुर परसादी त्रिकुटी छूटै चउथै पदि लिव लाई ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से। त्रिकुटी = (त्रि+कुटी = तीन टेढ़ी लकीरें जो मन की खीझ के वक्त मनुष्य के माथे पर पड़ जाती हैं) त्यौड़ी। पदि = दर्जे में। चउथै पदि = माया के तीन गुणों के प्रभाव से ऊपर चौथी आत्मिक अवस्थामें। लिव = तवज्जो, ध्यान।17।
अर्थ: (हे संत जनो!) गुरु कृपा से (प्रभु-नाम से जिस मनुष्य की) त्योड़ी (भाव, मन की खीझ) दूर होती है, (वह माया के तीनों गुणों के प्रभाव से ऊपर रह के) चौथी आत्मिक अवस्था में टिक के प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ता है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडित पड़हि पड़ि वादु वखाणहि तिंना बूझ न पाई ॥१८॥
मूलम्
पंडित पड़हि पड़ि वादु वखाणहि तिंना बूझ न पाई ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। पढ़ि = (वेद आदि धार्मिक पुस्तकें) पढ़ के। वादु = झगड़ा, (देवताओं आदि का परस्पर) लड़ाई झगड़ा। वखाणहि = बयान करते हैं, श्रोताओं को सुनाते हैं। बूझ = (आत्मिक जीवन की) सूझ। तिंना = उन (पण्डितों) ने।18।
अर्थ: (हे संत जनो!) पण्डित लोग (पुराण आदि पुस्तकें) पढ़ते हैं, इनको पढ़ के (श्रोताओं को देवताओं आदि के परस्पर) लड़ाई-झगड़े सुनाते हैं, (पर इस तरह) उनको (अपने आपको) ऊँचे आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखिआ माते भरमि भुलाए उपदेसु कहहि किसु भाई ॥१९॥
मूलम्
बिखिआ माते भरमि भुलाए उपदेसु कहहि किसु भाई ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखिआ = माया। माते = मस्त। किसु = और किसको? भाई = हे भाई!।19।
अर्थ: माया के मोह में फसे हुए (वे पण्डित लोग) भटकना के कारण (खुद) गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। फिर, हे भाई! वे और किस को शिक्षा देते हैं? (उनकी शिक्षा से किसी और को कोई लाभ नहीं हो सकता)।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जना की ऊतम बाणी जुगि जुगि रही समाई ॥२०॥
मूलम्
भगत जना की ऊतम बाणी जुगि जुगि रही समाई ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में, हरेक समय में। रही समाई = (सबके दिलों में) रहती है, (सब पर) प्रभाव डालती है। भगत जना की वाणी = परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों के बोले हुए वचन।20।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की भक्ति करने वालों के बोल श्रेष्ठ हुआ करते हैं। वे बोल हरेक युग में (हरेक समय में ही सब पर) अपना असर डालते हैं।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणी लागै सो गति पाए सबदे सचि समाई ॥२१॥
मूलम्
बाणी लागै सो गति पाए सबदे सचि समाई ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लागै = लगता है, तवज्जो जोड़ता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सबदे = शब्द से। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में।21।
अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु की) वाणी में तवज्जो जोड़ता है, वह ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है; गुरु के शब्द के द्वारा वह सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है।21।
[[0910]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ नगरी सबदे खोजे नामु नवं निधि पाई ॥२२॥
मूलम्
काइआ नगरी सबदे खोजे नामु नवं निधि पाई ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। नवंनिधि = नौ खजाने (कुबेर देवते)।22।
अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु के) शब्द के द्वारा अपने शरीर-नगर को खोजता है (अपने जीवन की पड़ताल करता रहता है, वह मनुष्य) परमात्मा का नाम-खजाना पा लेता है।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा मारि मनु सहजि समाणा बिनु रसना उसतति कराई ॥२३॥
मूलम्
मनसा मारि मनु सहजि समाणा बिनु रसना उसतति कराई ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनसा = मन का मायावी फुरना। मारि = मार के। सहिज = आत्मिक अडोलता में। रसना = जीभ।23।
अर्थ: वह मनुष्य मन के मायावी विचारों (फुरनों) को मार के अपने मन को आत्मिक अडोलता में टिका लेता है; वह मनुष्य जीभ को पदार्थों के रसों की ओर से हटा के परमात्मा की महिमा में जोड़ता है।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोइण देखि रहे बिसमादी चितु अदिसटि लगाई ॥२४॥
मूलम्
लोइण देखि रहे बिसमादी चितु अदिसटि लगाई ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोइण = आँखें। बिसमादी = हैरान (हो के), विस्माद अवस्था में पहुँच के। अदिसटि = अदृष्य प्रभु में।24।
अर्थ: उस मनुष्य की आँखें (दुनियावी पदार्थों से हट के) आश्चर्य रूप परमात्मा को (हर जगह) देखती हैं, उसका चिक्त अदृश्य प्रभु में टिका रहता है।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदिसटु सदा रहै निरालमु जोती जोति मिलाई ॥२५॥
मूलम्
अदिसटु सदा रहै निरालमु जोती जोति मिलाई ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप।25।
अर्थ: (हे संत जनो! उस मनुष्य की) ज्योति उस नूरो-नूर-प्रभु में मिली रहती है जो इन आँखों से नहीं दिखता, और सदा निर्लिप रहता है।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ गुरु सालाही सदा आपणा जिनि साची बूझ बुझाई ॥२६॥
मूलम्
हउ गुरु सालाही सदा आपणा जिनि साची बूझ बुझाई ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। सालाही = मैं सलाहता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। साची बूझ = सदा स्थिर प्रभु की सूझ।26।
अर्थ: हे संत जनो! मैं भी अपने उस गुरु की ही सदा महिमा गायन करता (बड़ाई करता) रहता हूँ जिसने (मुझे) सदा कायम रहने वाले परमात्मा की सूझ बख्शी है।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानकु एक कहै बेनंती नावहु गति पति पाई ॥२७॥२॥११॥
मूलम्
नानकु एक कहै बेनंती नावहु गति पति पाई ॥२७॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नावहु = प्रभु के नाम से ही। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।27।
अर्थ: हे संतजनो! नानक एक यह विनती करता है (कि परमात्मा का नाम जपा करो) नाम से ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है, नाम से ही (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है।27।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ३ ॥ हरि की पूजा दुल्मभ है संतहु कहणा कछू न जाई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ३ ॥ हरि की पूजा दुल्मभ है संतहु कहणा कछू न जाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुलंभ = दुर्लभ, जो बड़ी मुश्किल से मिले। संतहु = हे संत जनो! कछू न = कुछ भी नहीं। कहणा जाई = कहा जा सकता है।1।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की पूजा-भक्ति बड़ी मुश्किल से मिलती है। प्रभु की पूजा कितनी दुर्लभ है; इस संबन्धी कुछ भी बताया नहीं जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतहु गुरमुखि पूरा पाई ॥ नामो पूज कराई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतहु गुरमुखि पूरा पाई ॥ नामो पूज कराई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु की शरण पड़ता है। पूरा = सारे गुणों से भरपूर प्रभु। नामो = नाम ही, नाम जपना ही। पूज = पूजा। कराई = (गुरु) करवाता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह सारे गुणों से भरपूर प्रभु को पा लेता है। नाम जपो, नाम ही जपो - गुरु ये पूजा कराता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु सभु किछु मैला संतहु किआ हउ पूज चड़ाई ॥२॥
मूलम्
हरि बिनु सभु किछु मैला संतहु किआ हउ पूज चड़ाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ पूज = पूजा करने के लिए कौन सी चीज? हउ चढ़ाई = मैं भेटा करूँ।2।
अर्थ: (हे संत जनो! दुनिया के लोग फूल-पत्रों आदि से देवताओं की पूजा करते हैं, पर) हे संत जनो! मैं (परमात्मा की पूजा करने के लिए) कौन सी चीज उसके आगे भेटा करूँ? उस प्रभु के नाम के बिना (नाम के मुकाबले में) और हरेक चीज मैली है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि साचे भावै सा पूजा होवै भाणा मनि वसाई ॥३॥
मूलम्
हरि साचे भावै सा पूजा होवै भाणा मनि वसाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। साचे भावै = अगर सदा कायम रहने वाले परमात्मा की रजा अच्छी लगने लग जाए। सा = वही, रजा मीठी लगनी ही। मनि = मन में। वसाई = बसाता है।3।
अर्थ: हे संत जनो! अगर किसी मनुष्य को सदा कायम रहने वाले परमात्मा की रजा अच्छी लगने लग जाए तो उसकी तरफ से यही परमात्मा की पूजा है। (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की) रजा को ही अपने मन में बसाता है (रजा को ही ठीक समझता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजा करै सभु लोकु संतहु मनमुखि थाइ न पाई ॥४॥
मूलम्
पूजा करै सभु लोकु संतहु मनमुखि थाइ न पाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु लोकु = सारा जगत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। थाइ = जगह में, जगह पर। थाइ न पाई = स्वीकार नहीं होती।4।
अर्थ: हे संत जनो! सारा जगत (अपनी ओर से) पूजा करता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की की हुई कोई भी पूजा (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि मरै मनु निरमलु संतहु एह पूजा थाइ पाई ॥५॥
मूलम्
सबदि मरै मनु निरमलु संतहु एह पूजा थाइ पाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। मरै = (विकारों की प्रेरणा की ओर से) मरता है, अर्थात विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता। निरमलु = पवित्र।5।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु के शब्द से विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता उसका मन पवित्र हो जाता है। उसकी यह पूजा प्रभु-दर पे स्वीकार हो जाती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवित पावन से जन साचे एक सबदि लिव लाई ॥६॥
मूलम्
पवित पावन से जन साचे एक सबदि लिव लाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवित = पवित्र। पावन = पवित्र। से = वह (बहुवचन)। साचे = सदा स्थिर प्रभु में लीन। लिव लाई = तवज्जो जोड़ी।6।
अर्थ: हे संत जनो! ऐसे लोग पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के साथ एक-मेक हो जाते हैं; गुरु के शब्द के द्वारा वह लोग एक परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु नावै होर पूज न होवी भरमि भुली लोकाई ॥७॥
मूलम्
बिनु नावै होर पूज न होवी भरमि भुली लोकाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न होवी = नहीं हो सकती। भरमि = भुलेखे में (पड़ कर)। भुली = गलत रास्ते पर पड़ी हुई है। लोकाई = दुनिया।7।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम जपे बिना परमात्मा की किसी और किस्म की पूजा नहीं हो सकती। (नाम से टूट के) भुलेखे में पड़ के दुनिया गलत रास्ते पर पड़ी रहती है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि आपु पछाणै संतहु राम नामि लिव लाई ॥८॥
मूलम्
गुरमुखि आपु पछाणै संतहु राम नामि लिव लाई ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। पछाणै = परखता है, पड़तालता रहता है। नामि = नाम में।8।
अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपने जीवन को पड़तालता रहता है, और, परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे निरमलु पूज कराए गुर सबदी थाइ पाई ॥९॥
मूलम्
आपे निरमलु पूज कराए गुर सबदी थाइ पाई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) खुद ही। निरमलु = पवित्र। गुर सबदी = गुरु के शब्द द्वारा। थाइ पाई = स्वीकार करता है।9।
अर्थ: हे संत जनो! पवित्र प्रभु खुद ही (जीव को गुरु के शब्द में जोड़ के उससे अपनी) पूजा-भक्ति कराता है, और, गुरु के शब्द में उसकी लीनता के कारण उसकी की हुई पूजा स्वीकार करता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजा करहि परु बिधि नही जाणहि दूजै भाइ मलु लाई ॥१०॥
मूलम्
पूजा करहि परु बिधि नही जाणहि दूजै भाइ मलु लाई ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = करते हैं। परु = परन्तु। बिधि = तरीका। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) किसी और के प्यार में। मलु = विकारों की मैल।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भाइ’ शब्द ‘भाउ’ से अधिकरण कारक, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे संत जनो! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य प्रभु की) पूजा तो करते हैं, परन्तु (पूजा का) सही तरीका नहीं जानते। माया के प्यार में फंस के (मनमुख मनुष्य अपने मन को विकारों की) मैल चिपकाए रखते हैं।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि होवै सु पूजा जाणै भाणा मनि वसाई ॥११॥
मूलम्
गुरमुखि होवै सु पूजा जाणै भाणा मनि वसाई ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सु = वह मनुष्य। मनि = मन में। भाणा = प्रभु की रजा। वसाई = बसाता है।11।
अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह परमात्मा की भक्ति करनी जानता है (वह जानता है कि प्रभु की रजा में राजी रहना ही प्रभु की भक्ति है, इस वास्ते वह प्रभु की) रजा को अपने मन में बसाता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भाणे ते सभि सुख पावै संतहु अंते नामु सखाई ॥१२॥
मूलम्
भाणे ते सभि सुख पावै संतहु अंते नामु सखाई ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। भाणे ते = भाणा (प्रभु की मर्जी) मानने से। सभि = सारे। अंते = आखिरी वक्त में। सखाई = मित्र।12।
अर्थ: हे संत जनो! गुरमुख मनुष्य भाणा मानने (प्रभु की मर्जी मानने) से (ही इस लोक में) सारे सुख प्राप्त कर लेता है; आखिरी वक्त भी प्रभु का नाम ही उसका साथी बनता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपणा आपु न पछाणहि संतहु कूड़ि करहि वडिआई ॥१३॥
मूलम्
अपणा आपु न पछाणहि संतहु कूड़ि करहि वडिआई ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ि = झूठ में, माया के मोह में (फसे हुए)। करहि = करते हैं।13।
अर्थ: हे संत जनो! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर) अपने जीवन को नहीं पड़तालते, माया के मोह में फंसे हुए वे मनुष्य अपने आप की ही शोभा करते रहते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाखंडि कीनै जमु नही छोडै लै जासी पति गवाई ॥१४॥
मूलम्
पाखंडि कीनै जमु नही छोडै लै जासी पति गवाई ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाखंडि = पाखण्ड के कारण। पाखंडि कीनै = पाखण्ड करने के कारण। लै जाई = ले जाएगा। पति = इज्जत। गवाई = गवा के।14।
अर्थ: हे संत जनो! (धर्म का) पाखण्ड करने से मौत (के सहम से) निजात नहीं मिलती। जम (नाम-हीन लोगों को) यहाँ से उनकी इज्जत गवा के (परलोक) ले जाएगा।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन अंतरि सबदु आपु पछाणहि गति मिति तिन ही पाई ॥१५॥
मूलम्
जिन अंतरि सबदु आपु पछाणहि गति मिति तिन ही पाई ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिन्होंने। अंतरि = अंदर। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। गति = हालत। मिति = पाप। गति मिति = परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा (बेअंत) है (ये समझ)।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! जिस लोगों के हृदय में गुरु का शब्द बस जाता है, वे अपने जीवन को पड़तालते रहते हैं, उन्होंने ही ये बात समझी है कि परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा (बेअंत) है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु मनूआ सुंन समाधि लगावै जोती जोति मिलाई ॥१६॥
मूलम्
एहु मनूआ सुंन समाधि लगावै जोती जोति मिलाई ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंन = शून्य, वह हालत जब माया के विचार ना उठें। जोति = जीवात्मा। जोती = प्रभु की ज्योति में।16।
अर्थ: (हे संत जनो! जिनके अंदर गुरु-शब्द बसता है उनका) ये मन ऐसी एकाग्रता बनाता है जहाँ माया के फुरने नहीं उठते, उनकी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि गुरमुखि नामु वखाणहि सतसंगति मेलाई ॥१७॥
मूलम्
सुणि सुणि गुरमुखि नामु वखाणहि सतसंगति मेलाई ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि = सुन के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे।17।
अर्थ: (हे संत जनो!) गुरु के सन्मुख रहने वाले वे लोग साधु-संगत में मिल बैठते हैं, (सत-संगियों से) प्रभु का नाम सुन-सुन के वे भी नाम उचारते रहते हैं।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि गावै आपु गवावै दरि साचै सोभा पाई ॥१८॥
मूलम्
गुरमुखि गावै आपु गवावै दरि साचै सोभा पाई ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। गवावै = दूर करता है। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पे।18।
अर्थ: (हे संत जनो!) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु की महिमा के गीत गाता रहता है, अपने अंदर अहम्-अहंकार को दूर करता है, और, सदा-स्थिर प्रभु के दर पर शोभा पाता है।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साची बाणी सचु वखाणै सचि नामि लिव लाई ॥१९॥
मूलम्
साची बाणी सचु वखाणै सचि नामि लिव लाई ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का नाम)। सचि नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। लिव = लगन, तवज्जो, ध्यान।19।
अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) सदा-स्थिर हरि की महिमा की वाणी उचारता है, सदा-स्थिर-प्रभु का नाम उचारता है, सदा-स्थिर-प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै भंजनु अति पाप निखंजनु मेरा प्रभु अंति सखाई ॥२०॥
मूलम्
भै भंजनु अति पाप निखंजनु मेरा प्रभु अंति सखाई ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भैभंजन = भै+भंजन, सारे डरों का नाश करने वाला प्रभु। अति पाप निखंजनु = बड़े बड़े पापों का नाश करने वाला प्रभु। सखाई = साथी। अंति = आखिर को।20।
अर्थ: (हे संत जनो!) जीवों के सारे डर नाश करने वाला और घोर पाप दूर करने वाला परमात्मा आखिर (उनका) साथी बनता है (जो उसकी महिमा में जुड़े रहते हैं)।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु किछु आपे आपि वरतै नानक नामि वडिआई ॥२१॥३॥१२॥
मूलम्
सभु किछु आपे आपि वरतै नानक नामि वडिआई ॥२१॥३॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज। आपे = खुद ही। वरतै = मौजूद है। नामि = नाम में (जुड़ने से)।21।
अर्थ: हे संत जनो! ये सब कुछ (जो दिखाई दे रहा है, इस में) प्रभु स्वयं ही स्वयं हर जगह मौजूद है। हे नानक! उसके नाम में जुड़ने से लोक-परलोक में सम्मान मिलता है।21।3।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ३ ॥ हम कुचल कुचील अति अभिमानी मिलि सबदे मैलु उतारी ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ३ ॥ हम कुचल कुचील अति अभिमानी मिलि सबदे मैलु उतारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम संसारी जीव। कुचल = कु चाल चलन वाले। कुचील = गंदे। मिलि = मिल के। सबदे = गुरु के शब्द में ही।1।
अर्थ: हे संत जनो! हम संसारी जीव (आम तौर पर) बद्-चलन, गंदे आचरण वाले अहंकारी बने रहते हैं। (किसी भाग्यशाली ने) गुरु के शब्द में जुड़ के विकारों की मैल अपने मन से उतार दी होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतहु गुरमुखि नामि निसतारी ॥ सचा नामु वसिआ घट अंतरि करतै आपि सवारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतहु गुरमुखि नामि निसतारी ॥ सचा नामु वसिआ घट अंतरि करतै आपि सवारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। नामि = परमात्मा के नाम से। निसतारी = पार उतारा हो जाता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। घट अंतरि = हृदय में। करतै = कर्तार ने। सवारी = पैज रख ली।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने से परमात्मा के नाम से (संसार-समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर प्रभु का नाम बस जाता है, (समझ लो कि) ईश्वर ने स्वयं उसकी इज्जत रख ली।1। रहाउ।
[[0911]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारस परसे फिरि पारसु होए हरि जीउ अपणी किरपा धारी ॥२॥
मूलम्
पारस परसे फिरि पारसु होए हरि जीउ अपणी किरपा धारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारस = लोहे को सोना कर देने वाला पत्थर, विकारी मन को पवित्र कर देने वाला गुरु पारस। परसे = छू के।2।
अर्थ: जिस मनुष्य पर प्रभु जी अपनी कृपा करते हैं, वह मनुष्य गुरु-पारस को छू के खुद भी पारस बन जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि भेख करहि फिरहि अभिमानी तिन जूऐ बाजी हारी ॥३॥
मूलम्
इकि भेख करहि फिरहि अभिमानी तिन जूऐ बाजी हारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई। तिन = उन्होंने। जूऐ = जूए में।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! जो अनेक जीव धार्मिक पहरावा पहने फिरते हैं और उस भेस के कारण अहंकारी हुए घूमते हैं, उन्होंने मानव जनम की खेल जूए में हार ली (समझो)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु उरि धारी ॥४॥
मूलम्
इकि अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु उरि धारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। उरि = हृदय में।4।
अर्थ: पर, हे संत जनो! कई लोग ऐसे हैं जो दिन-रात हर वक्त परमात्मा के नाम को अपने हृदय में टिका के परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु राते सहजे माते सहजे हउमै मारी ॥५॥
मूलम्
अनदिनु राते सहजे माते सहजे हउमै मारी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राते = रंगे हुए। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त।5।
अर्थ: जो मनुष्य हर वक्त नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं, आत्मिक अडोलता में टिक के वे अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै बिनु भगति न होई कब ही भै भाइ भगति सवारी ॥६॥
मूलम्
भै बिनु भगति न होई कब ही भै भाइ भगति सवारी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै बिनु = प्रभु का डर रखे बिना। कब ही = कभी ही। भै = डर में। भाइ = प्रेम में।6।
अर्थ: हे संत जनो! प्रभु का डर-अदब हृदय में रखे बिना प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती। डर-अदब-प्रेम और भक्ति में टिकने वालों ने अपनी जिंदगी खूबसूरत बना ली।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु सबदि जलाइआ गिआनि तति बीचारी ॥७॥
मूलम्
माइआ मोहु सबदि जलाइआ गिआनि तति बीचारी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। गिआनि = आत्मिक जीवन की सूझ से। तति = जगत के मूल प्रभु में जुड़ के। बीचारी = विचारवान।7।
अर्थ: प्रभु में जुड़ के आत्मिक जीवन की सूझ के द्वारा जो लोग विचारवान हो गए,? उन्होंने गुरु के शब्द के द्वारा अपने अंदर से माया का मोह जला लिया।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे आपि कराए करता आपे बखसि भंडारी ॥८॥
मूलम्
आपे आपि कराए करता आपे बखसि भंडारी ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। करता = कर्तार। बखसि = बख्शता है। भंडारी = खजाने।8।
अर्थ: पर, हे संत जनो! प्रभु स्वयं ही (जीवों से) अपनी भक्ति करवाता है, खुद ही भक्ति के खजाने बख्शता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस किआ गुणा का अंतु न पाइआ हउ गावा सबदि वीचारी ॥९॥
मूलम्
तिस किआ गुणा का अंतु न पाइआ हउ गावा सबदि वीचारी ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिस किआ गुणा का = उस प्रभु के गुणों का। हउ = मैं। गावा = मैं गाता हूँ।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस किआ गुणा का’ में से संबंधक ‘किआ’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! मैं उस प्रभु के गुणों का अंत नहीं पा सकता। (उसकी मेहर से ही) मैं उसके गुण गाता हूँ, गुरु के शब्द द्वारा (उसके गुणों की) विचार करता हूँ।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ जपी हरि जीउ सालाही विचहु आपु निवारी ॥१०॥
मूलम्
हरि जीउ जपी हरि जीउ सालाही विचहु आपु निवारी ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपी = मैं जपता हूँ। सालाही = मैं सलाहता हूं। आपु = स्वै भाव।10।
अर्थ: हे संत जनो! (उसकी कृपा से ही) मैं उसका नाम जपता हूँ, उसकी महिमा करता हूँ, और अपने अंदर से अहंकार दूर करता हूँ।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु पदारथु गुर ते पाइआ अखुट सचे भंडारी ॥११॥
मूलम्
नामु पदारथु गुर ते पाइआ अखुट सचे भंडारी ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पदारथु = कीमती वस्तु। ते = से। अखुट = कभी ना खत्म होने वाली। सचे = सदा स्थिर प्रभु के।11।
अर्थ: हे संत जनो! सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम खजाने कभी खत्म होने वाले नहीं हैं, पर ये नाम-पदार्थ गुरु से ही मिलता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपणिआ भगता नो आपे तुठा अपणी किरपा करि कल धारी ॥१२॥
मूलम्
अपणिआ भगता नो आपे तुठा अपणी किरपा करि कल धारी ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नो = को। तुठा = दयावान होता है। करि = कर कर के। कल = क्षमता। धारी = टिकाता है।12।
अर्थ: हे संत जनो! अपने भक्तों पर प्रभु स्वयं ही दयावान होता है और उनके अंदर खुद ही कृपा करके (नाम जपने की) सत्ता टिकाए रखता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन साचे नाम की सदा भुख लागी गावनि सबदि वीचारी ॥१३॥
मूलम्
तिन साचे नाम की सदा भुख लागी गावनि सबदि वीचारी ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावनि = गाते हैं। सबदि = शब्द से। वीचारी = विचारवान हो के।13।
अर्थ: (इसका नतीजा ये निकलता है कि) उन (भक्तजनों) को सदा-स्थिर प्रभु के नाम की हमेशा भूख लगी रहती है, वह ऊँची विचार के मालिक लोग गुरु के शब्द द्वारा प्रभु के गुण गाते रहते हैं।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ पिंडु सभु किछु है तिस का आखणु बिखमु बीचारी ॥१४॥
मूलम्
जीउ पिंडु सभु किछु है तिस का आखणु बिखमु बीचारी ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तिस का = उस (प्रभु) का। बिखमु = मुश्किल, कठिन। आखणु = बयान करना।14।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! ये जीवात्मा ये शरीर (जीवों को) सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है, (उसकी बख्शिशों का) विचार करना (बहुत) मुश्किल है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि लगे सेई जन निसतरे भउजलु पारि उतारी ॥१५॥
मूलम्
सबदि लगे सेई जन निसतरे भउजलु पारि उतारी ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द में। सेई = वह (लोग)। निसतरे = पार लांघ गए। भउजलु = संसार समुंदर।15।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ते हैं, वही संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं, तैर जाते हैं।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु हरि साचे को पारि न पावै बूझै को वीचारी ॥१६॥
मूलम्
बिनु हरि साचे को पारि न पावै बूझै को वीचारी ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु साचे = सदा स्थिर प्रभु (की मेहर) के बिना। को = कोई विरला। वीचारी = विचारवान।16।
अर्थ: हे संत जनो! कोई विरला विचारवान ये बात समझता है कि सदा-स्थिर प्रभु के नाम के बिना कोई और (इस संसार-समुंदर से) पार नहीं लांघ सकता।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो धुरि लिखिआ सोई पाइआ मिलि हरि सबदि सवारी ॥१७॥
मूलम्
जो धुरि लिखिआ सोई पाइआ मिलि हरि सबदि सवारी ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। मिलि = मिल के। सबदि = शब्द से। सवारी = संवार ली।17।
अर्थ: (पर, हे संत जनो! यह नाम की दाति जीवों के बस की खेल नहीं है, प्रभु ने) धुर-दरगाह से (जीवों के) माथे पर जो लेख लिख दिया वही प्राप्त होता है, और जीव प्रभु-चरणों में जुड़ के गुरु के शब्द के द्वारा अपना जीवन संवारता है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कंचनु सबदे राती साचै नाइ पिआरी ॥१८॥
मूलम्
काइआ कंचनु सबदे राती साचै नाइ पिआरी ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कंचनु = सोना। साचै नाइ = सदा स्थिर प्रभु के नाम में।18।
अर्थ: हे संत जनो! जो शरीर गुरु के शब्द-रंग में रंगा रहता है और सदा-स्थिर प्रभु के नाम में प्यार करता है वह शरीर सोना बन जाता है (शुद्ध सोने जैसा विकार-रहित पवित्र हो जाता है)।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ अम्रिति रही भरपूरे पाईऐ सबदि वीचारी ॥१९॥
मूलम्
काइआ अम्रिति रही भरपूरे पाईऐ सबदि वीचारी ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से।19।
अर्थ: (हे संत जनो! वह शरीर पवित्र है) जो आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल (अमृत) से नाको-नाक भरा रहता है, पर ये नाम-अमृत गुरु के शब्द द्वारा प्रभु के गुणों की विचार करके ही प्राप्त होता है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो प्रभु खोजहि सेई पावहि होरि फूटि मूए अहंकारी ॥२०॥
मूलम्
जो प्रभु खोजहि सेई पावहि होरि फूटि मूए अहंकारी ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजहि = ढूँढते हैं। होरि = और लोग। फूटि मूए = आफर के आत्मिक मौत मर गए।20।
अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य (अपने इस शरीर में ही) प्रभु को तलाशते हैं वही उसका मिलाप हासिल कर लेते हैं। (शरीर से बाहर ढूँढने वाले) और लोग (भेस आदि के) गुमान में आफर-आफर के (अहंकार की हवा ले ले के) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बादी बिनसहि सेवक सेवहि गुर कै हेति पिआरी ॥२१॥
मूलम्
बादी बिनसहि सेवक सेवहि गुर कै हेति पिआरी ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बादी = (वादु = झगड़ा, बहस, चर्चा) निरी चर्चा करने वाले। बिनसहि = आत्मिक मौत ले लेते हैं। सेवहि = सेवा करते हैं, प्रभु की सेवा भक्ति करते हैं। गुर कै हेति = गुरु के (दिए) प्रेम से। पिआरी = प्यार से।21।
अर्थ: हे संत जनो! निरी फोकी बातें करने वाले मनुष्य आत्मिक तौर पर मर जाते हैं, पर भक्तजन गुरु के द्वारा मिले प्रेम-प्यार से परमात्मा की भक्ति करते हैं।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो जोगी ततु गिआनु बीचारे हउमै त्रिसना मारी ॥२२॥
मूलम्
सो जोगी ततु गिआनु बीचारे हउमै त्रिसना मारी ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततु = जगत का मूल प्रभु। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मारी = मार के।22।
अर्थ: हे संत जनो! वही मनुष्य जोगी है (प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ है) जो अपने अंदर से अहंकार मार के तृष्णा दूर करके उच्च आत्मिक जीवन से सांझ डालता है जगत के मूल प्रभु के गुणों को विचारता रहता है।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु दाता तिनै पछाता जिस नो क्रिपा तुमारी ॥२३॥
मूलम्
सतिगुरु दाता तिनै पछाता जिस नो क्रिपा तुमारी ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाता = (नाम की दाति) देने वाला। तिनै = तिनि ही, उस (मनुष्य) ने। जिस नो = जिस पर।23।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु! जीवों के बस की बात नहीं) जिस मनुष्य पर तेरी दया होती है, उसने ये बात समझी होती है कि गुरु (ही तेरे नाम की दाति) देने वाला है।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु न सेवहि माइआ लागे डूबि मूए अहंकारी ॥२४॥
मूलम्
सतिगुरु न सेवहि माइआ लागे डूबि मूए अहंकारी ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न सेवहि = सेवा नहीं करते हैं, शरण नहीं पड़ते। डूबि = (माया के मोह में) डूब के। मूए = आत्मिक मौत सहेड़ बैठे।24।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु के दर पर नहीं आते, वह मनुष्य माया (के मोह) में फसे रहते हैं, (माया के कारण) अहंकारी हुए वे मनुष्य (माया के मोह में) डूब के आत्मिक मौत मरे रहते हैं।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिचरु अंदरि सासु तिचरु सेवा कीचै जाइ मिलीऐ राम मुरारी ॥२५॥
मूलम्
जिचरु अंदरि सासु तिचरु सेवा कीचै जाइ मिलीऐ राम मुरारी ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिचरु = जब तक। कीचै = करनी चाहिए। मुरारी = (मुर+अरि। ‘मुर’ दैत्य का वैरी। श्री कृष्ण) परमात्मा।25।
अर्थ: हे संत जनो! जब तक शरीर में सांस चल रही है तब तक प्रभु की सेवा-भक्ति करते रहना चाहिए। (प्रभु की भक्ति की इनायत से ही) प्रभु को जा मिलते हैं।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु जागत रहै दिनु राती अपने प्रिअ प्रीति पिआरी ॥२६॥
मूलम्
अनदिनु जागत रहै दिनु राती अपने प्रिअ प्रीति पिआरी ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। प्रिअ = प्यारे की। पिआरी = प्यार में।26।
अर्थ: हे संत जनो! अपने प्यारे प्रभु के साथ प्रीत-प्यार से मनुष्य दिन-रात हर वक्त (माया के मोह के हमलों से) सचेत रह सकता है।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु मनु वारी वारि घुमाई अपने गुर विटहु बलिहारी ॥२७॥
मूलम्
तनु मनु वारी वारि घुमाई अपने गुर विटहु बलिहारी ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वारी = मैं वार दूँ। वारि घुमाई = वार के सदके कर दूँ। विटहु = से।27।
अर्थ: (हे संत जनो! तभी तो) मैं अपने गुरु से बलिहार जाता हूँ, गुरु से अपना तन-मन कुर्बान करता हूँ, वार वार जाता हूँ।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहु बिनसि जाइगा उबरे सबदि वीचारी ॥२८॥
मूलम्
माइआ मोहु बिनसि जाइगा उबरे सबदि वीचारी ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उबरे = बच गए। सबदि = शब्द से। वीचारी = (प्रभु के गुणों की) विचार करके।28।
अर्थ: हे संत जनो! गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा के गुणों की विचार करने वाले लोग (संसार-समुंदर से) बच निकलते हैं। (जो भी मनुष्य ये उद्यम करता रहता है,? उसके अंदर से) माया का मोह नाश हो जाता है।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि जगाए सेई जागे गुर कै सबदि वीचारी ॥२९॥
मूलम्
आपि जगाए सेई जागे गुर कै सबदि वीचारी ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वही लोग। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। वीचारी = विचारवान।29।
अर्थ: (हे संत जनो! ये कोई आसान खेल नहीं है। माया के मोह की नींद में से) वही मनुष्य जागते हैं, जिन्हें प्रभु स्वयं जगाता है, ऐसे मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से विचारवान हो जाते हैं।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक सेई मूए जि नामु न चेतहि भगत जीवे वीचारी ॥३०॥४॥१३॥
मूलम्
नानक सेई मूए जि नामु न चेतहि भगत जीवे वीचारी ॥३०॥४॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो लोग। जीवे = आत्मिक जीवन वाले हो गए।30।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे संत जनो!) जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, वही मनुष्य आत्मिक तौर पर मरे रहते हैं। परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के गुणों के विचार सदका आत्मिक जीवन वाले हो गए हैं।30।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ३ ॥ नामु खजाना गुर ते पाइआ त्रिपति रहे आघाई ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ३ ॥ नामु खजाना गुर ते पाइआ त्रिपति रहे आघाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से। त्रिपति रहे = (माया की तृष्णा की ओर से) अघा गए। आघाई रहे = पूरी तौर पर तृप्त हो गए।1।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम-खजाना गुरु के पास से मिलता है, (जिनको ये खजाना मिल जाता है, वे माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तौर से तृप्त हो जाते हैं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
संतहु गुरमुखि मुकति गति पाई ॥ एकु नामु वसिआ घट अंतरि पूरे की वडिआई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतहु गुरमुखि मुकति गति पाई ॥ एकु नामु वसिआ घट अंतरि पूरे की वडिआई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मुकति = विकारों से निजात। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। घट अंतरि = हृदय में। पूरे की = सारे गुणों के मालिक प्रभु की। वडिआई = महानता, मेहर।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह विकारों से निजात हासिल कर लेता है, वह उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है, उसके हृदय में परमात्मा का नाम ही बसा रहता है, (पर गुरु भी तब ही मिलता है जब) सारे गुणों के मालिक प्रभु की मेहर हो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता आपे भुगता देदा रिजकु सबाई ॥२॥
मूलम्
आपे करता आपे भुगता देदा रिजकु सबाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। करता = (जीवों को) पैदा करने वाला। भुगता = (जीवों में बैठ के) भोगने वाला। सबाई = सारी दुनिया को।2।
अर्थ: (हे संत जनो!) परमात्मा स्वयं ही सब जीवों को पैदा करने वाला है, (सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही (सारे भोग) भोगने वाला है, सारी दुनिया को (स्वयं ही) रिज़क देने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करणा सो करि रहिआ अवरु न करणा जाई ॥३॥
मूलम्
जो किछु करणा सो करि रहिआ अवरु न करणा जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न करणा जाई = नहीं किया जा सकता। अवरु = कुछ और।3।
अर्थ: हे संत जनो! वह प्रभु स्वयं ही जो कुछ करना चाहता है कर रहा है, किसी जीव द्वारा उसके विपरीत कुछ और नहीं किया जा सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे साजे स्रिसटि उपाए सिरि सिरि धंधै लाई ॥४॥
मूलम्
आपे साजे स्रिसटि उपाए सिरि सिरि धंधै लाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजे = बनाता है, पैदा करता है। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर। धंधै = (माया के) जंजाल की (पोटली)। लाई = चिपकी हुई है।4।
अर्थ: हे संत जनो! प्रभु खुद ही (सब जीवों की) घाड़त घड़ता है, खुद ही ये जगत पैदा करता है, हरेक जीव के सिर पर उसने खुद ही (माया के) जंजाल की (पोटली) चिपकाई हुई है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसहि सरेवहु ता सुखु पावहु सतिगुरि मेलि मिलाई ॥५॥
मूलम्
तिसहि सरेवहु ता सुखु पावहु सतिगुरि मेलि मिलाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसहि = (तिस ही) उस प्रभु को ही। सरेवहु = सेवा भक्ति करो। सतिगुरि = गुरु ने। मेलि = प्रभु के मिलाप में।5।
अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा को ही स्मरण करते रहो, तब ही आत्मिक आनंद कर सकोगे। (पर स्मरण करता वही है जिसको) गुरु ने परमात्मा के चरणों में जोड़ा है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपणा आपु आपि उपाए अलखु न लखणा जाई ॥६॥
मूलम्
आपणा आपु आपि उपाए अलखु न लखणा जाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै को। उपाए = प्रकट करता है। अलखु = जिसका सही स्वरूप बताया ना जा सके।6।
अर्थ: हे संत जनो! प्रभु खुद ही अपना आप (किसी जीव के हृदय में) प्रकट करता है, वह अलख है, उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मारि जीवाले आपे तिस नो तिलु न तमाई ॥७॥
मूलम्
आपे मारि जीवाले आपे तिस नो तिलु न तमाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारि = मार के, आत्मिक मौत दे के। जीवाले = आत्मिक जीवन देता है। तिलु = रक्ती भर भी। तमाई = तमा, लालच।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे संत जनो! जीवों को) आत्मिक मौत दे के (फिर) खुद ही प्रभु आत्मिक जीवन देता है। उसको किसी तरह का कोई रक्ती भर लालच नहीं है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि दाते इकि मंगते कीते आपे भगति कराई ॥८॥
मूलम्
इकि दाते इकि मंगते कीते आपे भगति कराई ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई (जीव)। दाते = जरूरतमंदों की मदद कर सकने वाले।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! जगत में परमात्मा ने कई जीवों को दूसरों की मदद करने के समर्थ बना दिया है, कई जीव उसने कंगाल-भिखारी बना दिए हैं। (वह जिस पर मेहर करता है उनसे) अपनी भक्ति परमात्मा स्वयं ही करवाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से वडभागी जिनी एको जाता सचे रहे समाई ॥९॥
मूलम्
से वडभागी जिनी एको जाता सचे रहे समाई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वह (लोग)। जाता = पहजाना। सचे = सदा स्थिर प्रभु में। रहे समाई = सदा टिके रहे।9।
अर्थ: हे संत जनो! जिस लोगों ने एक परमात्मा के साथ जान-पहचान बना ली है वे बहुत भाग्यशाली हैं, वे सदा कायम रहने वाले प्रभु (की याद) में लीन रहते हैं।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि सरूपु सिआणा आपे कीमति कहणु न जाई ॥१०॥
मूलम्
आपि सरूपु सिआणा आपे कीमति कहणु न जाई ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरूपु = रूप वाला, सुंदर। आपे = स्वयं ही।10।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा स्वयं (सबसे) सुंदर है (सबसे ज्यादा) समझदार (भी) खुद ही है। (उसके सौन्दर्य व समझदारी का) मूल्य बयान नहीं किया जा सकता।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे दुखु सुखु पाए अंतरि आपे भरमि भुलाई ॥११॥
मूलम्
आपे दुखु सुखु पाए अंतरि आपे भरमि भुलाई ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = (हरेक जीव के) अंदर। भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत रास्ते डाल देता है।11।
अर्थ: हे संत जनो! हरेक जीव के अंदर परमात्मा खुद ही दुख पैदा करता है। आप ही सुख (भी) देता है। वह स्वयं ही जीव को भटकना में डाल के उसको गलत राह पर डाल देता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडा दाता गुरमुखि जाता निगुरी अंध फिरै लोकाई ॥१२॥
मूलम्
वडा दाता गुरमुखि जाता निगुरी अंध फिरै लोकाई ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले ने। अंध = अंधी।12।
अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण ली, उसने उस बड़े दातार प्रभु के साथ सांझ डाल ली; पर माया के मोह में अंधी हुई दुनिया भटकती फिरती है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी चाखिआ तिना सादु आइआ सतिगुरि बूझ बुझाई ॥१३॥
मूलम्
जिनी चाखिआ तिना सादु आइआ सतिगुरि बूझ बुझाई ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सादु = स्वाद, आनंद। सतिगुरि = गुरु ने। बूझ = सूझ। बुझाई = समझाई।13।
अर्थ: हे संत जनो! जिनको गुरु ने (नाम-अमृत की) कद्र बख्शी, जिन्होंने (इस तरह नाम-अमृत) चख लिया, उन्हें उसका आनंद आ गया (और, वे उस सदा नाम में जुड़े रहे)।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकना नावहु आपि भुलाए इकना गुरमुखि देइ बुझाई ॥१४॥
मूलम्
इकना नावहु आपि भुलाए इकना गुरमुखि देइ बुझाई ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकना = कई जीवों को। नावहु = (अपने) नाम से। देइ बुझाई = समझ देता है।14।
अर्थ: (हे संत जनो! जीवों के वश की बात नहीं) कई जीवों को परमात्मा खुद हीअपने नाम से तुड़वा देता है, और कई जीवों को गुरु की शरण में ला के (अपने नाम की) सूझ बख्श देता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा सालाहिहु संतहु तिस दी वडी वडिआई ॥१५॥
मूलम्
सदा सदा सालाहिहु संतहु तिस दी वडी वडिआई ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालाहिहु = महिमा करते रहा करो। तिस की = उस (परमात्मा) की। वडिआई = महानता, शोभा, प्रसिद्धि।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से संबंधक ‘दी’ के कारण ‘तिस’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा की महिमा करते रहा करो सदा करते रहा करो। उस (प्रभु) की महानता बहुत बड़ी है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु बिनु अवरु न कोई राजा करि तपावसु बणत बणाई ॥१६॥
मूलम्
तिसु बिनु अवरु न कोई राजा करि तपावसु बणत बणाई ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजा = हाकम, बादशाह। करि = कर के। तपावसु = न्याय। बणत = मर्यादा, महिमा करने की मर्यादा।16।
अर्थ: हे संत जनो! प्रभु के बिना (उसके बराबर का) और कोई बादशाह नहीं है। उसने पूरा इन्साफ करके महिमा करने की ये रीति चलाई है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निआउ तिसै का है सद साचा विरले हुकमु मनाई ॥१७॥
मूलम्
निआउ तिसै का है सद साचा विरले हुकमु मनाई ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निआउ = इन्साफ। सद = सदा। साचा = अटल, सदा कायम रहने वाला। मनाई = मनाता है, मानने के लिए प्रेरित करता है।17।
अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा का ही न्याय (करने वाला हुक्म) सदा अटल है, किसी विरले (भाग्यशाली) को वह प्रभु (यह) हुक्म मानने की प्रेरणा करता है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस नो प्राणी सदा धिआवहु जिनि गुरमुखि बणत बणाई ॥१८॥
मूलम्
तिस नो प्राणी सदा धिआवहु जिनि गुरमुखि बणत बणाई ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्राणी = हे प्राणी! जिनि = जिस (परमात्मा) ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना। गुरमुखि बणत = गुरु के सन्मुख की रीति।18।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण्र ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्राणियो! जिस परमात्मा ने (लोगों के लिए) गुरु के सन्मुख रहने की मर्यादा चलाई हुई है, सदा उसका ध्यान धरते रहा करो।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर भेटै सो जनु सीझै जिसु हिरदै नामु वसाई ॥१९॥
मूलम्
सतिगुर भेटै सो जनु सीझै जिसु हिरदै नामु वसाई ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटै = मिलता है। सतिगुर भैटै = (जो मनुष्य) गुरु को मिलता है। जिसु हिरदे = जिस के हृदय में।19।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सतिगुरु भैटै’ = जिस मनुष्य को गुरु मिलता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनो! (जो मनुष्य) गुरु को मिलता है (भाव, गुरु की शरण पड़ता है), जिस मनुष्य के हृदय में (गुरु, परमात्मा का) नाम बसाता है वह मनुष्य (जिंदगी की खेल में) कामयाब हो जाता है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा आपि सदा है साचा बाणी सबदि सुणाई ॥२०॥
मूलम्
सचा आपि सदा है साचा बाणी सबदि सुणाई ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीझै = कामयाब हो जाता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। बाणी = वाणी के द्वारा। सबदि = शब्द से। सुणाई = (गुरु) सुनाता है।20।
अर्थ: हे संत जनो! (गुरु अपनी) वाणी के द्वारा (अपने) शब्द से (शरण आए सिखों को ये उपदेश) सुनाता रहता है कि परमात्मा सदा कायम रहने वाला है परमात्मा कायम रहने वाला है।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक सुणि वेखि रहिआ विसमादु मेरा प्रभु रविआ स्रब थाई ॥२१॥५॥१४॥
मूलम्
नानक सुणि वेखि रहिआ विसमादु मेरा प्रभु रविआ स्रब थाई ॥२१॥५॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि वेखि रहिआ = सुन रहा देख रहा, (हरेक जीव की बात) सुन रहा है (हरेक जीव के काम को) देख रहा है। विसमादु = आश्चर्य रूप परमात्मा। रविआ = व्यापक है। स्रब = सब, सारे। थाई = जगहों में।21।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे संत जनो!) परमात्मा आश्चर्यरूप है, मेरा परमात्मा सब जगह मौजूद है (हरेक जीव में व्यापक हो के) वह (हरेक के दिल की) सुन रहा है, (हरेक का काम) देख रहा है।21।1।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला ५ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनही कीआ परविरति पसारा ॥ किनही कीआ पूजा बिसथारा ॥ किनही निवल भुइअंगम साधे ॥ मोहि दीन हरि हरि आराधे ॥१॥
मूलम्
किनही कीआ परविरति पसारा ॥ किनही कीआ पूजा बिसथारा ॥ किनही निवल भुइअंगम साधे ॥ मोहि दीन हरि हरि आराधे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन ही = किसी ने। परविरति = (प्रवृति = active life, taking an active part in world affairs) दुनियादारी, गृहस्थी जीवन। पसारा = खिलारा। बिरथारा = विस्तार। निवल = निउली कर्म, पेट साफ रखने के लिए आँतों को घुमाने की यौगिक क्रिया। भुइअंगम = सांप, सांप की शकल की कुंडलनी नाड़ी, इस नाड़ी में से सांस गुजार के दसवाँ द्वार में पहुँचाने की क्रिया। साधे = साधना की। मोहि = मैं। मोहि दीन = मैं गरीब ने। आराधे = स्मरण किया है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) किसी ने (सिर्फ) दुनियादारी का पसारा बिखेरा हुआ है, किसी ने (देवताओं आदि की) पूजा का आडंबर रचा हुआ है। किसी ने निउली कर्म और कुंडलनी नाड़ी के साधनों में रुची रखी हुई है। पर मैं गरीब परमात्मा का ही स्मरण करता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा भरोसा पिआरे ॥ आन न जाना वेसा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा भरोसा पिआरे ॥ आन न जाना वेसा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरोसा = आसरा। आन = कोई और, अन्य। जाना = मैं जानता। वेस = भेस।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभु! मुझे सिर्फ तेरा आसरा है। मैं कोई भेख करना नहीं जानता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनही ग्रिहु तजि वण खंडि पाइआ ॥ किनही मोनि अउधूतु सदाइआ ॥ कोई कहतउ अनंनि भगउती ॥ मोहि दीन हरि हरि ओट लीती ॥२॥
मूलम्
किनही ग्रिहु तजि वण खंडि पाइआ ॥ किनही मोनि अउधूतु सदाइआ ॥ कोई कहतउ अनंनि भगउती ॥ मोहि दीन हरि हरि ओट लीती ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिह = घर, गृहस्थ। तजि = छोड़ के। वण खंडि = जंगल के हिस्से में, बन ख्ण्ड में। मोनि = सदा चुप रहने वाला। अउधूतु = त्यागी। कहतउ = कहता है। अनंनि = (न+अन्य) कोई और आसरा ना देखने वाला। भगउती = भगवान की भक्ति करने वाला।2।
अर्थ: (हे भाई!) किसी ने घर छोड़ के जंगल के कोने में जा के डेरा डाला हुआ है, किसी ने अपने आप को मौन धारी त्यागी साधु कहलवाया हुआ है। कोई यह कहता है कि मैं अनन्य भगवती हूँ (अन्या सारे आसरे छोड़ कर सिर्फ भगवान का भक्त हूँ)। पर मुझ गरीब ने सिर्फ परमात्मा का आसरा लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनही कहिआ हउ तीरथ वासी ॥ कोई अंनु तजि भइआ उदासी ॥ किनही भवनु सभ धरती करिआ ॥ मोहि दीन हरि हरि दरि परिआ ॥३॥
मूलम्
किनही कहिआ हउ तीरथ वासी ॥ कोई अंनु तजि भइआ उदासी ॥ किनही भवनु सभ धरती करिआ ॥ मोहि दीन हरि हरि दरि परिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। वासी = बसने वाला। उदासी = उपराम। भवनु = रटन। हरि दरि = हरि के दर पर।3।
अर्थ: (हे भाई!) किसी ने कहा है कि मैं तीर्थों पर ही निवास रखता हूँ। कोई मनुष्य अन्न छोड़ के (दुनियादारी से) उपराम हुआ बैठा है। किसी ने सारी धरती का रटन करने का बीड़ा उठाया हुआ है। पर मैं गरीब सिर्फ परमात्मा के दर पर ही आ पड़ा हुआ हूँ।3।
[[0913]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनही कहिआ मै कुलहि वडिआई ॥ किनही कहिआ बाह बहु भाई ॥ कोई कहै मै धनहि पसारा ॥ मोहि दीन हरि हरि आधारा ॥४॥
मूलम्
किनही कहिआ मै कुलहि वडिआई ॥ किनही कहिआ बाह बहु भाई ॥ कोई कहै मै धनहि पसारा ॥ मोहि दीन हरि हरि आधारा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुलहि = कुल की, अच्छे खनदान की। बाह बहु भाई = बहुत सारे भाई हैं, बहुत बाँहें हैं। धनहि = धन का। पसारा = खिलारा, आधारा, आसरा।4।
अर्थ: (हे भाई!) किसी ने कहा कि मैं ऊँचे खानदान की इज्जत वाला हूँ, किसी ने कहा है कि मेरे बहुत सारे भाई हैं, मेरे बहुत सारे साथी हैं। कोई कहता है मैंने बहुत धन कमाया हुआ है। पर मुझ गरीब को सिर्फ परमात्मा का आसरा है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनही घूघर निरति कराई ॥ किनहू वरत नेम माला पाई ॥ किनही तिलकु गोपी चंदन लाइआ ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि धिआइआ ॥५॥
मूलम्
किनही घूघर निरति कराई ॥ किनहू वरत नेम माला पाई ॥ किनही तिलकु गोपी चंदन लाइआ ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि धिआइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घूघर निरति = घुंघरू पहन के नाच। गोपी चंदन = द्वारका के तालाब की पीली मिट्टी का।5।
अर्थ: (हे भाई!) किसी ने घुंघरू बाँध के (देवताओं के आगे) नाच शुरू किए हुए हैं, किसी ने (गले में) माला डाली हुई है और व्रत रखने के नियम धारे हुए हैं। किसी मनुष्य ने (माथे पर) गोपी चंदन का टीका लगाया हुआ है। पर मैं गरीब तो सिर्फ परमात्मा का नाम ही स्मरण करता हूँ।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनही सिध बहु चेटक लाए ॥ किनही भेख बहु थाट बनाए ॥ किनही तंत मंत बहु खेवा ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि सेवा ॥६॥
मूलम्
किनही सिध बहु चेटक लाए ॥ किनही भेख बहु थाट बनाए ॥ किनही तंत मंत बहु खेवा ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि सेवा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = योग साधनों में पुगे हुए जोगी। चेटक = रिद्धियों-सिद्धियों के तमाशे। थाट = बनावट। खेवा = चलाए हैं (जैसे मल्लाह बेड़ी चलाता है)। सेवा = भक्ति।6।
अर्थ: (हे भाई!) किसी मनुष्य ने सिधों वाले नाटक-चेटक दिखाने शुरू किए हुए हैं, किसी मनुष्य ने साधुओं वाले कई भेस बनाए हुए हैं, किसी मनुष्य ने अनेक प्रकार की तंत्रों-मंत्रों की दुकान चलाई हुई है। पर मैं गरीब सिर्फ परमात्मा की भक्ति ही करता हूँ।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई चतुरु कहावै पंडित ॥ को खटु करम सहित सिउ मंडित ॥ कोई करै आचार सुकरणी ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि सरणी ॥७॥
मूलम्
कोई चतुरु कहावै पंडित ॥ को खटु करम सहित सिउ मंडित ॥ कोई करै आचार सुकरणी ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि सरणी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चतुरु = समझदार। खटु = छह। खटु करम = शास्त्रों के बताए हुए छह कर्म (दान देना और लेना, यज्ञ करने और करवाने, विद्या पढ़नी और पढ़ानी)। सहित = साथ। सिउ = साथ, समेत। मंडित = सजा हुआ। आचार = शास्त्रों में बताए हुए कर्म धर्म। सु करणी = श्रेष्ठ करनी।7।
अर्थ: (हे भाई!) कोई मनुष्य (अपने आप को) समझदार पंडित कहलवाता है, कोई मनुष्य (अपने आप को) शास्त्रों से सजाए हुए छह कर्मों से सजाए रखता है, कोई मनुष्य शास्त्रों के कर्म-कांड को श्रेष्ठ करणी समझ के करता रहता है। पर मैं गरीब सिर्फ परमात्मा की शरण पड़ा रहता हूँ।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगले करम धरम जुग सोधे ॥ बिनु नावै इहु मनु न प्रबोधे ॥ कहु नानक जउ साधसंगु पाइआ ॥ बूझी त्रिसना महा सीतलाइआ ॥८॥१॥
मूलम्
सगले करम धरम जुग सोधे ॥ बिनु नावै इहु मनु न प्रबोधे ॥ कहु नानक जउ साधसंगु पाइआ ॥ बूझी त्रिसना महा सीतलाइआ ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगले = सारे। सोधे = परखे हैं। प्रबोधे = जागता। जउ = जब। साध संगु = गुरमुखों का मेल। बूझी = बुझ गई। सीतलाइआ = शांत, ठंडा।8।
अर्थ: (हे भाई! हमने) सारे जुगों सारे कर्म-धर्म परख के देख लिए हैं, परमात्मा के नाम के बिना (माया के मोह की नींद में सोया हुआ) यह मन जागता नहीं। हे नानक! कह: (हे भाई!) जब (किसी मनुष्य ने) साधु-संगत प्राप्त कर ली, (उसके अंदर से माया की) तृष्णा बुझ गई, उसका मन ठंडा-ठार हो गया।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ इसु पानी ते जिनि तू घरिआ ॥ माटी का ले देहुरा करिआ ॥ उकति जोति लै सुरति परीखिआ ॥ मात गरभ महि जिनि तू राखिआ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ इसु पानी ते जिनि तू घरिआ ॥ माटी का ले देहुरा करिआ ॥ उकति जोति लै सुरति परीखिआ ॥ मात गरभ महि जिनि तू राखिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पानी ते = पिता की बूँद से। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तू = तुझे। घरिआ = घड़ा, बनाया। ले = ले के। देहुरा = देह, शरीर। उकति = युक्ति, बुद्धि। लै = ले के। सुरति परीखिआ = पहचानने की ताकत। गरभ = पेट। तू = तुझे।1।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने पिता की बूँद से तुझे बनाया, तेरा यह मिट्टी का पुतला घड़ दिया; जिस प्रभु ने बुद्धि, जीवात्मा और परखने के लिए ताकत तेरे अंदर डाल के तुझे माँ के पेट में (सही सलामत) रखा (उसको हमेशा याद रख)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखनहारु सम्हारि जना ॥ सगले छोडि बीचार मना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राखनहारु सम्हारि जना ॥ सगले छोडि बीचार मना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सम्हारि = संभाल, याद रख। जना = हे जन! सगले = सारे। मना = हे मन!।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा रक्षा कर सकने वाले परमात्मा को ययाद करा कर। हे मेरे मन! (प्रभु की याद के बिना) और सारे विचार (जो विचार प्रभु की याद को भुलाते हैं, वह) छोड़ दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि दीए तुधु बाप महतारी ॥ जिनि दीए भ्रात पुत हारी ॥ जिनि दीए तुधु बनिता अरु मीता ॥ तिसु ठाकुर कउ रखि लेहु चीता ॥२॥
मूलम्
जिनि दीए तुधु बाप महतारी ॥ जिनि दीए भ्रात पुत हारी ॥ जिनि दीए तुधु बनिता अरु मीता ॥ तिसु ठाकुर कउ रखि लेहु चीता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। महतारी = माँ। भ्रात = भाई। हारी = हाली, कामवाले, नौकर। तुधु = तुझे। बनिता = स्त्री। अरु = और। चीता = चिक्त में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने तुझे माता-पिता दिए, जिस प्रभु ने तुझे भाई पुत्र और नौकर दिए, जिस प्रभु ने तुझे सत्री और सज्जन-मित्र दिए, उस मालिक प्रभु को सदा अपने चिक्त में टिकाए रख।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि दीआ तुधु पवनु अमोला ॥ जिनि दीआ तुधु नीरु निरमोला ॥ जिनि दीआ तुधु पावकु बलना ॥ तिसु ठाकुर की रहु मन सरना ॥३॥
मूलम्
जिनि दीआ तुधु पवनु अमोला ॥ जिनि दीआ तुधु नीरु निरमोला ॥ जिनि दीआ तुधु पावकु बलना ॥ तिसु ठाकुर की रहु मन सरना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवनु = हवा। अमोला = निर्मोलक, कीमती। नीरु = पानी। पावकु = आग। बलना = ईधन। मन = हे मन!।3।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने तुझे किसी भी मूल्य पर ना मिल सकने वाली (अनमोल) हवा दी, जिस प्रभु ने तुझे निर्मोलक पानी दिया, जिस प्रभु ने तुझे आग दी, ईधन दिया। हे मन! तू उस मालिक-प्रभु की शरण पड़ा रह।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छतीह अम्रित जिनि भोजन दीए ॥ अंतरि थान ठहरावन कउ कीए ॥ बसुधा दीओ बरतनि बलना ॥ तिसु ठाकुर के चिति रखु चरना ॥४॥
मूलम्
छतीह अम्रित जिनि भोजन दीए ॥ अंतरि थान ठहरावन कउ कीए ॥ बसुधा दीओ बरतनि बलना ॥ तिसु ठाकुर के चिति रखु चरना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छतीह अंम्रित = छत्तीस किस्मों के स्वादिष्ट खाने (खट रस, मिठ रस, मेलि कै, छतीह भोजन होनि रसोई = भाई गुरदास)। अंतरि = पेट के अंदर। कउ = के लिए। बसुधा = धरती। बलना = सामान, वलेवा, बर्तना वलेवा। चिति = चिक्त में।4।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे अनेक किस्मों के स्वादिष्ट खाने दिए, इन खानों को हज़म करने के लिए तेरे अंदर मेहदा आदि अंग बनाए, तुझे धरती दी, तुझे और कार्य-व्यवहार दिया, उस मालिक-प्रभु के चरण अपने चिक्त में परोए रख।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेखन कउ नेत्र सुनन कउ करना ॥ हसत कमावन बासन रसना ॥ चरन चलन कउ सिरु कीनो मेरा ॥ मन तिसु ठाकुर के पूजहु पैरा ॥५॥
मूलम्
पेखन कउ नेत्र सुनन कउ करना ॥ हसत कमावन बासन रसना ॥ चरन चलन कउ सिरु कीनो मेरा ॥ मन तिसु ठाकुर के पूजहु पैरा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखन कउ = देखने के लिए। नेत्र = आँखें। करना = कान। हसत = हाथ। बासन = नाक। मेरा = मेरु, शिरोमणी। मन = हे मन!।5।
अर्थ: हे मेरे मन! उस मालिक प्रभु के पैर सदा पूजता रह (निम्रता धारण करके उस प्रभु का स्मरण करता रह, जिसने) तुझे (दुनिया के रंग-तमाशे) देखने के लिए आँखें दी हैं और सुनने के लिए कान दिए हैं, जिसने काम करने के लिए तुझे हाथ दिए हैं, और नाक व जीभ दी है, जिसने चलने के लिए तुझे पैर दिए हैं और सिर (सभी अंगों में) श्रेष्ठ बनाया है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपवित्र पवित्रु जिनि तू करिआ ॥ सगल जोनि महि तू सिरि धरिआ ॥ अब तू सीझु भावै नही सीझै ॥ कारजु सवरै मन प्रभु धिआईजै ॥६॥
मूलम्
अपवित्र पवित्रु जिनि तू करिआ ॥ सगल जोनि महि तू सिरि धरिआ ॥ अब तू सीझु भावै नही सीझै ॥ कारजु सवरै मन प्रभु धिआईजै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपवित्र = गंदी जगह से। तू = तुझे। सगल = सारी। सिरि = सिर पर। सिरि धरिआ = शिरोमणी बनाया। सीझु = कामयाब हो। भावै = चाहे। कारजु = मानव जनम का उद्देश्य। सवरै = सँवरता है। मन = हे मन! धिआईजै = ध्याना चाहिए।6।
अर्थ: (हे भाई! उस परमात्मा को स्मरण किया कर) जिसने गंदगी से तुझे पवित्र बना दिया, जिसने तुझे सारी जूनियों में सरदार बना दिया। तेरी मर्जी है अब तू (उसका स्मरण करके जिंदगी में) कामयाब हो चाहे ना हो। पर हे मन! परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, (स्मरण करने से ही मानव जीवन का) उद्देश्य सफल होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईहा ऊहा एकै ओही ॥ जत कत देखीऐ तत तत तोही ॥ तिसु सेवत मनि आलसु करै ॥ जिसु विसरिऐ इक निमख न सरै ॥७॥
मूलम्
ईहा ऊहा एकै ओही ॥ जत कत देखीऐ तत तत तोही ॥ तिसु सेवत मनि आलसु करै ॥ जिसु विसरिऐ इक निमख न सरै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। ओही = वह परमात्मा ही। जत कत = जहाँ कहाँ। तोही = तेरे साथ। मनि = मन में। करै = (जीव) करता है। जिसु विसरिऐ = जिसको (विसरने से)। निमख = आँख झपकने जितना समय। न सरै = नहीं निभती।7।
अर्थ: हे भाई! इस लोक में और परलोक में एक वह परमात्मा ही (सहायक) है, जहाँ कहीं भी देखा जाए वहीं-वहीं (परमात्मा ही) तेरे साथ है। (पर देखिए मनुष्य के दुर्भाग्य!) उस परमात्मा को स्मरण करने से (मनुष्य) मन में आलस करता है, जिसके बिसरने से एक पल भर समय भी आसान नहीं गुजर सकता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम अपराधी निरगुनीआरे ॥ ना किछु सेवा ना करमारे ॥ गुरु बोहिथु वडभागी मिलिआ ॥ नानक दास संगि पाथर तरिआ ॥८॥२॥
मूलम्
हम अपराधी निरगुनीआरे ॥ ना किछु सेवा ना करमारे ॥ गुरु बोहिथु वडभागी मिलिआ ॥ नानक दास संगि पाथर तरिआ ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम (संसारी जीव)। करमारे = अच्छे काम। बोहिथु = जहाज। वडभागी = बड़े भाग्यों से। संगि = साथ, उस बोहिथ के साथ। पथर = पत्थर दिल लोग।8।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फंस के) हम संसारी जीव पापी बन जाते हैं, हम ना कोई सेवा-भक्ति करते हैं, ना ही हमारे कर्म अच्छे होते हैं। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्यों को बहुत भाग्यों से गुरु-जहाज मिल गया, उस जहाज़ की संगति में वह पत्थर-दिल मनुष्य भी संसार से पार लांघ गए।8।2।
[[0914]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ काहू बिहावै रंग रस रूप ॥ काहू बिहावै माइ बाप पूत ॥ काहू बिहावै राज मिलख वापारा ॥ संत बिहावै हरि नाम अधारा ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ काहू बिहावै रंग रस रूप ॥ काहू बिहावै माइ बाप पूत ॥ काहू बिहावै राज मिलख वापारा ॥ संत बिहावै हरि नाम अधारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहू = किसी (मनुष्य) को। बिहावै = (उम्र) बीतती है। माई = माँ। मिलख = जमीन की मल्कियत। संत बिहावै = संत की (उम्र) बीतती है। आधारा = आसरा।1।
अर्थ: (चाहे परमात्मा ही हरेक जीव का मालिक है फिर भी) किसी मनुष्य की उम्र रंग-तमाशों, दुनियां के सुंदर रूपों और पदार्थों के रसों-स्वादों में बीत रही है; किसी की उम्र माता-पिता-पुत्र आदि परिवार के मोह में गुजर रही है; किसी मनुष्य की उम्र राज भोग में, जमीन की मल्कियत, व्यापार आदि करने में गुजर रही है। (हे भाई! सिर्फ) संत की उम्र परमात्मा के नाम के आसरे बीतती गुजरती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रचना साचु बनी ॥ सभ का एकु धनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रचना साचु बनी ॥ सभ का एकु धनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सदा कायम रहने वाला प्र्रभू। रचना = सृष्टि। बनी = पैदा की हुई। धनी = मालिक। सभ का = हरेक जीव का।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। ये सारी सृष्टि उसी की पैदा की हुई है। एक वही हरेक जीव का मालिक है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू बिहावै बेद अरु बादि ॥ काहू बिहावै रसना सादि ॥ काहू बिहावै लपटि संगि नारी ॥ संत रचे केवल नाम मुरारी ॥२॥
मूलम्
काहू बिहावै बेद अरु बादि ॥ काहू बिहावै रसना सादि ॥ काहू बिहावै लपटि संगि नारी ॥ संत रचे केवल नाम मुरारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरु = और। बादि = चर्चा में, बहस में (एकवचन)। रसना सादि = जीभ के स्वाद में। लपटि के = चिपक के। संगि = साथ। नारी = स्त्री। रचे = मस्त रहते हैं। केवल = सिर्फ। मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा।2।
अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की उम्र वेद आदि धर्म-पुस्तकें पढ़ने और (धार्मिक) चर्चा में गुजर रही है; किसी मनुष्य की जिंदगी जीभ के स्वाद में बीत रही है; किसी की उम्र स्त्री के साथ काम-पूर्ति में गुजर जाती है। हे भाई! संत ही सिर्फ परमात्मा के नाम में मस्त रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू बिहावै खेलत जूआ ॥ काहू बिहावै अमली हूआ ॥ काहू बिहावै पर दरब चुोराए ॥ हरि जन बिहावै नाम धिआए ॥३॥
मूलम्
काहू बिहावै खेलत जूआ ॥ काहू बिहावै अमली हूआ ॥ काहू बिहावै पर दरब चुोराए ॥ हरि जन बिहावै नाम धिआए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेलत = खेलते हुए। अमली = अफीम आदि नशे का आदी। पर दरब = पराया धन।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘चुोराऐ’ में अक्षर ‘च’ के साथ दो मात्राऐ ‘ु’ व ‘ो’ लगी हैं। शब्द ‘चोर’ से बनता है ‘चोराए’। पर यहाँ पढ़ना है ‘चुराए’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की उम्र जूआ खेलते हुए गुजर जाती है; कोई मनुष्य अफीम आदि नशे का आदी हो जाता है उसकी उम्र नशों में ही बीतती है; किसी की उम्र पराया धन चुराते हुए व्यतीत होती है; पर प्रभु के भक्तों की उम्र प्रभु का नाम स्मरण करते हुए गुजरती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू बिहावै जोग तप पूजा ॥ काहू रोग सोग भरमीजा ॥ काहू पवन धार जात बिहाए ॥ संत बिहावै कीरतनु गाए ॥४॥
मूलम्
काहू बिहावै जोग तप पूजा ॥ काहू रोग सोग भरमीजा ॥ काहू पवन धार जात बिहाए ॥ संत बिहावै कीरतनु गाए ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोग = योग साधन। भरमीजा = भटकना में। सोग = फिक्र, शोक। पवन धार = प्राणों को धारने में, श्वासों के अभ्यास में, प्राणायाम करते हुए। जात बिहाए = बिहाय जात, बीत जाती है।4।
अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की उम्र योग-साधना करते हुए, किसी की धूणियाँ तपाते हुए, किसी की देव-पूजा करते हुए गुजरती है; किसी व्यक्ति की उम्र रोगों में, ग़मों में, अनेक भटकनों में बीतती है; किसी मनुष्य की सारी उम्र प्राणायाम करते हुए गुजर जाती है; पर संत की उम्र गुजरती है परमात्मा की महिमा के गीत गाते हुए।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू बिहावै दिनु रैनि चालत ॥ काहू बिहावै सो पिड़ु मालत ॥ काहू बिहावै बाल पड़ावत ॥ संत बिहावै हरि जसु गावत ॥५॥
मूलम्
काहू बिहावै दिनु रैनि चालत ॥ काहू बिहावै सो पिड़ु मालत ॥ काहू बिहावै बाल पड़ावत ॥ संत बिहावै हरि जसु गावत ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैनि = रात। चलत = चलते हुए। सो पिढ़ु = वह एक ही ठिकाना। मालत = कब्जा करके रखा। सो पिढ़ु मालत = एक ही ठिकाने पर बैठने से। बाल पढ़ावत = बच्चे पढ़ाते हुए। जसु = महिमा।5।
अर्थ: हे भाई! किसी की उम्र बीतती है दिन-रात चलते हुए, पर किसी की गुजर जाती है एक जगह पर ठिकाना बनाए बैठे हुए; किसी मनुष्य की उम्र बच्चे पढ़ाते हुए गुजर जाती है; संत की उम्र बीतती है परमात्मा की महिमा के गीत गाते हुए।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू बिहावै नट नाटिक निरते ॥ काहू बिहावै जीआइह हिरते ॥ काहू बिहावै राज महि डरते ॥ संत बिहावै हरि जसु करते ॥६॥
मूलम्
काहू बिहावै नट नाटिक निरते ॥ काहू बिहावै जीआइह हिरते ॥ काहू बिहावै राज महि डरते ॥ संत बिहावै हरि जसु करते ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरते = नृत्य, नाच। जीआ हिरते = जीवों को चुराते हुए, लोगों का माल छीनते हुए, डाके मारते हुए। राज महि = राज आदि के कामों में। डरते = डरते हुए, थर थर काँपते हुए।6।
अर्थ: किसी मनुष्य की जिंदगी नटों वाले नाटक व नृत्य करते हुए गुजर जाती है; किसी मनुष्य की ये उम्र डाके मारते हुए गुजर जाती है; किसी मनुष्य की जिंदगी राज दरबार में (रह के) थर-थर काँपते हुए गुजरती है; संत की उम्र प्रभु की महिमा करते हुए बीतती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू बिहावै मता मसूरति ॥ काहू बिहावै सेवा जरूरति ॥ काहू बिहावै सोधत जीवत ॥ संत बिहावै हरि रसु पीवत ॥७॥
मूलम्
काहू बिहावै मता मसूरति ॥ काहू बिहावै सेवा जरूरति ॥ काहू बिहावै सोधत जीवत ॥ संत बिहावै हरि रसु पीवत ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मता = सलाह। मसूरति = मश्वरा। जरूरति = आवश्यक्ता। सेवा = नौकरी। सोधत = खोज करते हुए। जीवत = जब तक जीते हैं, सारी उम्र। पीवत = पीते हुए।7।
अर्थ: (दुनियावी मुश्किलों के कारण) किसी की उम्र गिनते-गिनते बीत जाती है; (जिंदगी की) जरूरतें पूरी करने के लिए किसी की जिंदगी नौकरी करते हुए गुजर जाती है; किसी मनुष्य की सारी उम्र खोज करते हुए बीतती है; संत की उम्र बीतती है परमात्मा का नाम-अमृत पीते हुए।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु को लाइआ तित ही लगाना ॥ ना को मूड़ु नही को सिआना ॥ करि किरपा जिसु देवै नाउ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥८॥३॥
मूलम्
जितु को लाइआ तित ही लगाना ॥ ना को मूड़ु नही को सिआना ॥ करि किरपा जिसु देवै नाउ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस (काम) में। को = कोई जीव। तित ही = उस (काम) में ही। को = कोई मनुष्य। मूढ़ = मूर्ख। करि = कर के। जिसु = जिस (जीव) को। ता कै = उस पर से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तित ही’ में से ‘तिति’ की ‘ति’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! ना कोई जीव मूर्ख है, ना ही कोई समझदार। जिस काम में परमात्मा ने जिसको लगाया है उसमें ही वह लगा हुआ है। हे नानक (कह:) प्रभु मेहर करके जिस मनुष्य को अपना नाम बख्शता है, मैं उससे सदके जाता हूँ।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ दावा अगनि रहे हरि बूट ॥ मात गरभ संकट ते छूट ॥ जा का नामु सिमरत भउ जाइ ॥ तैसे संत जना राखै हरि राइ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ दावा अगनि रहे हरि बूट ॥ मात गरभ संकट ते छूट ॥ जा का नामु सिमरत भउ जाइ ॥ तैसे संत जना राखै हरि राइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दावा अगनि = जंगल की आग। रहे = टिकी रहती है। हरि बूट = हरी बूटी में। संकट = दुख। ते = से। छूट = बचाव, खलासी। जा का = जिस (परमात्मा) का। भउ = (हरेक किस्म का) डर। हरि राइ = (हर राय) प्रभु पातशाह। राखै = रक्षा करता है।1।
अर्थ: हे भाई! जंगल की आग हरे पौधे में टिकी रहती है (उसको नहीं जलाती। बाकी जंगल को राख कर देती है); बच्चा माँ के पेट में दुखों से बचा रहता है; इसी तरह वह प्रभु-पातशाह जिसका नाम स्मरण करने से हरेक किस्म का डर दूर हो जाता है, अपने संत जनों की रक्षा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे राखनहार दइआल ॥ जत कत देखउ तुम प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसे राखनहार दइआल ॥ जत कत देखउ तुम प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखनहार = हे रक्षा कर सकने वाले! ऐसे दइआल = तू ऐसा दया का घर है। जत कत = जहाँ कहाँ। देखउ = मैं देखता हूं।1। रहाउ।
अर्थ: हे सबकी रक्षा करने के समर्थ प्रभु! तू बड़ा ही दया का घर है। मैं जिधर देखता हूँ, तू ही सबकी पालना करता ह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलु पीवत जिउ तिखा मिटंत ॥ धन बिगसै ग्रिहि आवत कंत ॥ लोभी का धनु प्राण अधारु ॥ तिउ हरि जन हरि हरि नाम पिआरु ॥२॥
मूलम्
जलु पीवत जिउ तिखा मिटंत ॥ धन बिगसै ग्रिहि आवत कंत ॥ लोभी का धनु प्राण अधारु ॥ तिउ हरि जन हरि हरि नाम पिआरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिउ = जैसे। तिखा = प्यास। धन = स्त्री। बिगसै = खुश होती है। ग्रिहि = घर में। कंत = पति। प्राण आधारु = जिंदगी का सहारा।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे पानी पीने से प्यास मिट जाती है, जैसे पति के घर आने पर स्त्री खुश हो जाती है, जैसे धन-पदार्थ लोभी मनुष्य की जिंदगी का सहारा बने रहते हैं, वैसे ही प्रभु के भक्तों का प्रभु के नाम से प्यार होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरसानी जिउ राखै रखवाला ॥ मात पिता दइआ जिउ बाला ॥ प्रीतमु देखि प्रीतमु मिलि जाइ ॥ तिउ हरि जन राखै कंठि लाइ ॥३॥
मूलम्
किरसानी जिउ राखै रखवाला ॥ मात पिता दइआ जिउ बाला ॥ प्रीतमु देखि प्रीतमु मिलि जाइ ॥ तिउ हरि जन राखै कंठि लाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरसानी = खेती। दइआ = प्यार। बाला = बच्चा। प्रीतम = मित्र। देखि = देख के। मिलि = मिल के। कंठि = गले से।3।
अर्थ: हे भाई! जैसे रखवाला खेती की रखवाली करता है, जैसे माता-पिता अपने बच्चे से प्यार करते हैं, जैसे कोई मित्र अपने मित्र को देख के (उसको) मिल के जाता है, वैसे ही परमात्मा अपने भक्तों को अपने गले से लगा के रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ अंधुले पेखत होइ अनंद ॥ गूंगा बकत गावै बहु छंद ॥ पिंगुल परबत परते पारि ॥ हरि कै नामि सगल उधारि ॥४॥
मूलम्
जिउ अंधुले पेखत होइ अनंद ॥ गूंगा बकत गावै बहु छंद ॥ पिंगुल परबत परते पारि ॥ हरि कै नामि सगल उधारि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधुले = अंधे को। पेखत = देखते हुए, देख सकने की सामर्थ्य मिलने पर। बकत = बोलने से। परते = गुजरते हुए। नामि = नाम में सगल = सारी सृष्टि। उधारि = उद्धार की जाती हैं, पार लंघाई जाती हैं।4।
अर्थ: हे भाई! जैसे यदि किसी अंधे व्यक्ति को देखने की शक्ति मिल जाए तो वह खुश होता है, अगर गूँगा बोलने लग जाए (तो वह खुश होता है, और) कई गीत गाने लग जाता है, कोई लंगड़ा पहाड़ों को पार लांघ सकने पर प्रसन्न होता है, इसी तरह परमात्मा के नाम की इनायत से (जो) दुनिया का उद्धार होता है (इससे वह बहुत खुश होता है)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ पावक संगि सीत को नास ॥ ऐसे प्राछत संतसंगि बिनास ॥ जिउ साबुनि कापर ऊजल होत ॥ नाम जपत सभु भ्रमु भउ खोत ॥५॥
मूलम्
जिउ पावक संगि सीत को नास ॥ ऐसे प्राछत संतसंगि बिनास ॥ जिउ साबुनि कापर ऊजल होत ॥ नाम जपत सभु भ्रमु भउ खोत ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पावक = आग। पावक संगि = आग के साथ। को = का। प्राछत = पाप। संत संगि = संतों की संगति में। साबुन = साबन से। कापर = कपड़े। ऊजल = साफ सुथरे। जपत = जपते हुए। सभु = सारा। भ्रमु = भ्रम, भटकना। खोत = खोया जाता है।5।
अर्थ: हे भाई! जैसे आग से ठंड का नाश हो जाता है, वैसे संतों की संगति करने से पापों का नाश हो जाता है। हे भाई! जैसे साबुन से कपड़े साफ-सुथरे हो जाते हैं, वैसे ही परमात्मा का नाम जपने से हरेक वहिम हरेक डर दूर हो जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ चकवी सूरज की आस ॥ जिउ चात्रिक बूंद की पिआस ॥ जिउ कुरंक नाद करन समाने ॥ तिउ हरि नाम हरि जन मनहि सुखाने ॥६॥
मूलम्
जिउ चकवी सूरज की आस ॥ जिउ चात्रिक बूंद की पिआस ॥ जिउ कुरंक नाद करन समाने ॥ तिउ हरि नाम हरि जन मनहि सुखाने ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आस = इन्तजार। चात्रिक = पपीहा। कुरंक = हिरन। कुरंक करन = हिरन के कान। नाद = आवाज, घंडेहेड़े (खाल से मढ़े हुए घड़े) की आवाज में। समाने = लीन। मनहि = मन में। सुखाने = मीठा लगता है।6।
अर्थ: हे भाई! जैसे चकवी (चकवे को मिलने के लिए) सूरज (के चढ़ने) का इन्तजार करती रहती है, जैसे (प्यास बुझाने के लिए) पपीहे को बरखा की बूँदों की लालसा होती है, जैसे हिरन के कान घंडेहेड़े की आवाज में मस्त रहते हैं, वैसे ही संत जनों के मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है।6।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरी क्रिपा ते लागी प्रीति ॥ दइआल भए ता आए चीति ॥ दइआ धारी तिनि धारणहार ॥ बंधन ते होई छुटकार ॥७॥
मूलम्
तुमरी क्रिपा ते लागी प्रीति ॥ दइआल भए ता आए चीति ॥ दइआ धारी तिनि धारणहार ॥ बंधन ते होई छुटकार ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, साथ, के द्वारा। दइआल = दयावान। चीति = चिक्त में। तिनि = उस (प्रभु) ने। धारणहार = दया धारणहार, दया कर सकने की सामर्थ्य कर सकने वाले प्रभु ने। ते = से। छुटकार = सदा के लिए निजात।7।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर से ही (तेरे चरणों में किसी भाग्यशाली की) प्रीति बनती है। (हे भाई! जिस मनुष्य पर जब प्रभु जी) दयावान होते हैं तब उसके हृदय में आ बसते हैं। हे भाई! दया करने में समर्थ उस (प्रभु) ने (जिस व्यक्ति पर) दया की, (उस व्यक्ति को माया के मोह के) बंधनो से सदा के लिए खलासी मिल गई।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि थान देखे नैण अलोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ भ्रम भै छूटे गुर परसाद ॥ नानक पेखिओ सभु बिसमाद ॥८॥४॥
मूलम्
सभि थान देखे नैण अलोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ भ्रम भै छूटे गुर परसाद ॥ नानक पेखिओ सभु बिसमाद ॥८॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। नैण = आँखों (से)। अलोइ = देख के, ध्यान से देख के। अवरु = कोई और। भै = सारे डर। भ्रम = (बहुवचन) सारे वहम। परसाद = किरपा। सभु = हर जगह। बिसमाद = आश्चर्य रूप परमात्मा।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य के) सारे वहम सारे डर समाप्त हो जाते हैं, वह हर जगह उस आश्चर्य रूप परमात्मा को ही देखता है। वह मनुष्य आँखें खोल के सब जगह देखता है, उसको (कहीं भी) उस परमात्मा के बिना कोई और दूसरा नहीं दिखता।8।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ जीअ जंत सभि पेखीअहि प्रभ सगल तुमारी धारना ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ जीअ जंत सभि पेखीअहि प्रभ सगल तुमारी धारना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। पेखीअहि = देखे जा रहे हैं। प्रभू = हे प्रभु! धारना = आसरा।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पेखीअहि’ करम वाच, वर्तमान काल, बहुवचन, अंनपुरख।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! ये सारे जीव-जंतु जो दिखाई दे रहे हैं, ये सारे तेरे ही आसरे हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु हरि कै नामि उधारना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इहु मनु हरि कै नामि उधारना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि कै नाम = परमात्मा के नाम से। उधारना = पार उतारा, निस्तारा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा आदि से) इस मन को परमात्मा के नाम से ही बचाया जा सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिन महि थापि उथापे कुदरति सभि करते के कारना ॥२॥
मूलम्
खिन महि थापि उथापे कुदरति सभि करते के कारना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थापि = बना के। उथापे = नाश करता है। कुदरति = रचना। करते के = कर्तार के। कारना = ढंग।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा इस रचना को एक-छिन में पैदा करके फिर नाश भी कर सकता है। ये सारे कर्तार के ही खेल हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिदारना ॥३॥
मूलम्
कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिदारना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। बिदारना = नाश किए जा सकते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा आदि विकारों को गुरु की संगति में रह के (अपने मन में से चीर-फाड़ के) दूर कर सकते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु जपत मनु निरमल होवै सूखे सूखि गुदारना ॥४॥
मूलम्
नामु जपत मनु निरमल होवै सूखे सूखि गुदारना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। सूखे सूखि = सुख में ही सुख में ही। गुदारना = गुज़ारना, गुजारी जा सकती है (‘ज़’ की जगह पर ‘द’ का प्रयोग और भी जगहों पर किया गया है = काज़ी, कादी; कागज़, कागद। अरबी में भी ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं: ‘ज़ुआद’ को ‘दुआद’ पढ़ना)।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन पवित्र हो जाता है। (मनुष्य की उम्र) केवल आत्मिक आनंद में ही बीतती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत सरणि जो आवै प्राणी तिसु ईहा ऊहा न हारना ॥५॥
मूलम्
भगत सरणि जो आवै प्राणी तिसु ईहा ऊहा न हारना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की बँदगी करने वाले लोगों की शरण में आता है, वह मनुष्य इस लोक में और परलोक में भी (विकारों के हाथों अपनी मनुष्य जीवन की बाजी) हारता नहीं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूख दूख इसु मन की बिरथा तुम ही आगै सारना ॥६॥
मूलम्
सूख दूख इसु मन की बिरथा तुम ही आगै सारना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरथा = (व्यथा) दुख, फरयाद। सारना = गुजारी जा सकती है।6।
अर्थ: हे भाई! इस मन की सुखों की माँग और दुखों की तरफ से पुकार, प्रभु तेरे आगे ही की जा सकती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू दाता सभना जीआ का आपन कीआ पालना ॥७॥
मूलम्
तू दाता सभना जीआ का आपन कीआ पालना ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीआ = किया हुआ, पैदा किया हुआ जगत।7।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जीवों को ही दातें देने वाला है, अपने पैदा किए जीवों को तू स्वयं ही पालने वाला है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक बार कोटि जन ऊपरि नानकु वंञै वारना ॥८॥५॥
मूलम्
अनिक बार कोटि जन ऊपरि नानकु वंञै वारना ॥८॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनिक बार कोटि = अनेक बार, करोड़ों बार। वंञै वारना = सदके जाता है। नानकु = (कर्ता करक, एकबचन)। नानकु वंञै = नानक जाता है।8।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरा दास) नानक तेरे भक्तों (के चरणों) से अनेक बार करोड़ों बार बलिहार जाता है।8।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला ५ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनु भेटत पाप सभि नासहि हरि सिउ देइ मिलाई ॥१॥
मूलम्
दरसनु भेटत पाप सभि नासहि हरि सिउ देइ मिलाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए, प्राप्त होते। सभि = सारे (बहुवचन)। नासहि = (बहुवचन) नाश हो जाते हैं। सिउ = साथ। देइ = देता है। देइ मिलाई = मिलाय देय, जोड़ देता है।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के दर्शन प्राप्त होने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, (गुरु मनुष्य को) परमात्मा के साथ जोड़ देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा गुरु परमेसरु सुखदाई ॥ पारब्रहम का नामु द्रिड़ाए अंते होइ सखाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरा गुरु परमेसरु सुखदाई ॥ पारब्रहम का नामु द्रिड़ाए अंते होइ सखाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुखदाई = सुखों का दाता। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का कर देता है। अंते = आखिरी समय में भी। सखाई = साथी, मित्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु परमेश्वर (का रूप) है, सारे सुख देने वाला है। हे भाई! गुरु परमात्मा का नाम (मनुष्य के हृदय में) पक्का कर देता है (और इस तरह) आखिरी वक्त भी (मनुष्य का) मित्र बनता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल दूख का डेरा भंना संत धूरि मुखि लाई ॥२॥
मूलम्
सगल दूख का डेरा भंना संत धूरि मुखि लाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। भंना = गिर गया। संत धूरि = गुरु के चरणों की धूल। मुखि = मुँह पर।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुरु के चरणों की धूल (अपने) माथे पर लगाता है (उसके अंदर से) सारा ही दुखों का अड्डा ही समाप्त हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पुनीत कीए खिन भीतरि अगिआनु अंधेरु वंञाई ॥३॥
मूलम्
पतित पुनीत कीए खिन भीतरि अगिआनु अंधेरु वंञाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए लोग। पुनीत = पवित्र। खिन भीतरि = छिन में। अगिआन = आत्मिक जीवन की तरफ से बेसमझी। अंधेरु = अंधेरा। वंञाई = दूर करता है।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु ने) अनेक विकारियों को एक छिन में पवित्र कर दिया, (गुरु मनुष्य के अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (का) अंधकार दूर कर देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करण कारण समरथु सुआमी नानक तिसु सरणाई ॥४॥
मूलम्
करण कारण समरथु सुआमी नानक तिसु सरणाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सभ ताकतों का मालिक।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मालिक-प्रभु सारे जगत का मूल है और सभ ताकतों का मालिक है (गुरु के द्वारा ही) उसकी शरण पड़ा जा सकता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंधन तोड़ि चरन कमल द्रिड़ाए एक सबदि लिव लाई ॥५॥
मूलम्
बंधन तोड़ि चरन कमल द्रिड़ाए एक सबदि लिव लाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तोड़ि = तोड़ के। चरन कमल = परमात्मा के सुंदर चरण। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्के टिका देता है। सबदि = शब्द से। लिव = लगन।5।
अर्थ: (हे भाई! गुरु मनुष्य के माया के) बंधन तोड़ के (उसके अंदर) प्रभु के सुंदर चरणों को पक्की तरह से टिका देता है, (गुरु की कृपा से वह मनुष्य) गुरु-शब्द के द्वारा एक प्रभु में ही तवज्जो जोड़े रखता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध कूप बिखिआ ते काढिओ साच सबदि बणि आई ॥६॥
मूलम्
अंध कूप बिखिआ ते काढिओ साच सबदि बणि आई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूप = कूँआ। बिखिआ = माया। ते = से, में से। साच सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। बणि आई = मन को भा जाता है।6।
अर्थ: (हे भाई! गुरु जिस मनुष्य को) माया (के मोह) के अंधे कूएं में से निकाल लेता है, सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में उसकी प्रीति बन जाती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम मरण का सहसा चूका बाहुड़ि कतहु न धाई ॥७॥
मूलम्
जनम मरण का सहसा चूका बाहुड़ि कतहु न धाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = सहम। चूका = समाप्त हो जाता है। बाहुड़ि = दोबारा, फिर। कतहु = किसी और तरफ से। धाई = दौड़ता, भटकता।7।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से उस मनुष्य का) जनम-मरण के चक्कर का सहम समाप्त हो जाता है, वह फिर और कहीं (किसी जून में) नहीं भटकता फिरता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम रसाइणि इहु मनु राता अम्रितु पी त्रिपताई ॥८॥
मूलम्
नाम रसाइणि इहु मनु राता अम्रितु पी त्रिपताई ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसाइणि = (रस+आसन = रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस) सबसे श्रेष्ठ रस में। राता = रंगा जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पी = पी के। त्रिपताई = अघा जाता है।8।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की मेहर से जिस मनुष्य का) ये मन सब रसों से श्रेष्ठ नाम-रस में रंगा जाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी के (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगि मिलि कीरतनु गाइआ निहचल वसिआ जाई ॥९॥
मूलम्
संतसंगि मिलि कीरतनु गाइआ निहचल वसिआ जाई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) गुरु-संत की संगत में मिल के जिस मनुष्य ने परमात्मा की महिमा के गीत गाने शुरू कर दिए, वह कभी ना डोलने वाले आत्मिक ठिकाने में टिक जाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरै गुरि पूरी मति दीनी हरि बिनु आन न भाई ॥१०॥
मूलम्
पूरै गुरि पूरी मति दीनी हरि बिनु आन न भाई ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। आन = अन्य, कोई और। भाई = भाता है, अच्छा लगता।10।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने (आत्मिक जीवन के बारे में) पूरी समझ बख्श दी, उसको परमात्मा के नाम के बिना कोई और (दुनियावी वस्तु) प्यारी नहीं लगती।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु निधानु पाइआ वडभागी नानक नरकि न जाई ॥११॥
मूलम्
नामु निधानु पाइआ वडभागी नानक नरकि न जाई ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। वडभागी = बहुत भाग्यों से। नरकि = नर्क में। न जाई = नहीं जाता।11।
अर्थ: हे नानक! जिस भाग्यशाली ने (गुरु की शरण पड़ कर) नाम-खजाना पा लिया, वह (दुनियां के दुखों के) नर्क में नहीं पड़ता।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घाल सिआणप उकति न मेरी पूरै गुरू कमाई ॥१२॥
मूलम्
घाल सिआणप उकति न मेरी पूरै गुरू कमाई ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाल = तप आदि की मेहनत। उकति = दलील, युक्ति, शास्त्रार्थ। पूरै गुरू = पूरे गुरु की। कमाई = बख्शिश, खजाना।12।
अर्थ: हे भाई! तप आदिक की किसी मेहनत, विद्या आदि की किसी चतुराई, किसी शास्त्रार्थ की मुझे टेक-ओट नहीं है। यह तो पूरे गुरु की बख्शिश है (कि उसने मुझे परमात्मा के नाम की दाति बख्शी है)।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप संजम सुचि है सोई आपे करे कराई ॥१३॥
मूलम्
जप तप संजम सुचि है सोई आपे करे कराई ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को काबू में रखने के प्रयत्न। सुचि = (शरीर आदि की बाहरी) पवित्रता। सोई = वह गुरु ही, गुरु की शरण पड़े रहना ही। आपे = (गुरु) स्वयं ही। कराई = करता है।13।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ना ही मेरे लिए जप-तप-संजम और शारीरिक पवित्रता का साधन है। (पूरा गुरु) स्वयं ही (मेरे ऊपर मेहर) करता है (और मुझसे प्रभु की सेवा-भक्ति) करवाता है।13।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र कलत्र महा बिखिआ महि गुरि साचै लाइ तराई ॥१४॥
मूलम्
पुत्र कलत्र महा बिखिआ महि गुरि साचै लाइ तराई ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। बिखिआ = माया। गुरि = गुरु ने। साचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के नाम) में। लाइ = लाय, लगा के। तराई = तैराता है, पार लंघाता है।14।
अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ा) उसको पुत्र-स्त्री और बलवान माया के मोह में से गुरु ने सदा-स्थिर प्रभु (के नाम) में जोड़ के पार लंघा लिया।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपणे जीअ तै आपि सम्हाले आपि लीए लड़ि लाई ॥१५॥
मूलम्
अपणे जीअ तै आपि सम्हाले आपि लीए लड़ि लाई ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव। तै = (हे प्रभु!) तू। सम्हाले = संभालता है। लड़ि = पल्ले से।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! (हम तेरे पैदा किए हुए जीव हैं) अपने पैदा किए हुए जीवों की तूने स्वयं खुद ही संभाल की है, तू खुद ही इनको अपने पल्ले से लगाता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साच धरम का बेड़ा बांधिआ भवजलु पारि पवाई ॥१६॥
मूलम्
साच धरम का बेड़ा बांधिआ भवजलु पारि पवाई ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साच धरम = सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण रूप धरम। बांधिआ = तैयार किया। भवजलु = संसार समुंदर।16।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर से ही जिन्होंने) तेरे सदा-स्थिर-नाम के स्मरण का जहाज तैयार कर लिया, तूने उनको संसार-समुंदर से पार लंघा दिया।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेसुमार बेअंत सुआमी नानक बलि बलि जाई ॥१७॥
मूलम्
बेसुमार बेअंत सुआमी नानक बलि बलि जाई ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेसुमार = जिसके गुणों की गिनती ना हो सके (शुमार = गिनती)। जाई = मैं जाता हूँ। बलि जाई = मैं बलिहार जाता हूँ।17।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) वह मालिक-प्रभु बेअंत गुणों का मालिक है बेअंत है। मैं उससे सदके जाता हूँ, सदा बलिहार जाता हूँ।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकाल मूरति अजूनी स्मभउ कलि अंधकार दीपाई ॥१८॥
मूलम्
अकाल मूरति अजूनी स्मभउ कलि अंधकार दीपाई ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकाल = (अ+काल। स्त्रीलिंग) मोह से रहित। मूरति = सरूप, हस्ती। अकाल मूरति = वह प्रभु जिसकी हस्ती मौत रहित है। संभउ = (स्वयंभु) अपने आप से प्रकट होने वाला। कलि = कलियुग, दुनिया, जगत। अंधकार = अंधेरा। दीपाई = (दीप = दीया) प्रकाश करता है।18।
अर्थ: (हे भाई! जो) परमात्मा मौत-रहत अस्तित्व वाला है, जो जूनियों में नहीं आता, जो अपने आप से प्रकट होता है, वह प्रभु (गुरु के) द्वारा जगत के (माया के मोह के) अंधेरे को (दूर करके) आत्मिक जीवन की रौशनी करता है।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरजामी जीअन का दाता देखत त्रिपति अघाई ॥१९॥
मूलम्
अंतरजामी जीअन का दाता देखत त्रिपति अघाई ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। देखत = देखते ही। त्रिपति अघाई = पूरी तौर पर तृप्त हो जाता है।19।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबके दिलों की जानने वाला है, सब जीवों को दातें देने वाला है, (गुरु की शरण पड़ के उस के) दर्शन करने से (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो जाया जाता है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकंकारु निरंजनु निरभउ सभ जलि थलि रहिआ समाई ॥२०॥
मूलम्
एकंकारु निरंजनु निरभउ सभ जलि थलि रहिआ समाई ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकंकारु = सर्व व्यापक प्रभु। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में।20।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के द्वारा ही ये बात समझ आती है कि) सर्व-व्यापक परमात्मा माया के प्रभाव से परे रहने वाला परमात्मा, किसी से भी ना डरने वाला परमात्मा, जल में थल में हर जगह मौजूद है।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति दानु भगता कउ दीना हरि नानकु जाचै माई ॥२१॥१॥६॥
मूलम्
भगति दानु भगता कउ दीना हरि नानकु जाचै माई ॥२१॥१॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। नानकु जाचै = नानक मांगता है। माई = हे माँ!।21।
अर्थ: हे माँ! (गुरु के माध्यम से ही परमात्मा ने अपनी) भक्ति का दान (अपने) भक्तों को (सदा) दिया है। (दास) नानक भी (गुरु के माध्यम से ही) उस परमात्मा से (ये ख़ैर) माँगता है।21।1।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ सलोकु ॥ सिखहु सबदु पिआरिहो जनम मरन की टेक ॥ मुखु ऊजलु सदा सुखी नानक सिमरत एक ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ सलोकु ॥ सिखहु सबदु पिआरिहो जनम मरन की टेक ॥ मुखु ऊजलु सदा सुखी नानक सिमरत एक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदु = गुरु का शब्द, गुरु की उचारी हुई प्रभु के महिमा की वाणी, परमात्मा की महिमा। सिखहु = आदत डालो, स्वभाव बनाओ। पिआरिहो = हे प्यारे सज्जनो! टेक = आसरा। ऊजल = उज्जवल, बेदाग।1।
अर्थ: हे प्यारे मित्रो! परमात्मा की महिमा करने की आदत बनाओ, ये महिमा ही (मनुष्य के लिए) सारी उम्र का सहारा है। हे नानक! (कह: हे मित्रो!) एक परमात्मा का नाम स्मरण करने से (लोक-परलोक में) मुख उज्जवल रहता है और सदा ही सुखी रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु राता राम पिआरे हरि प्रेम भगति बणि आई संतहु ॥१॥
मूलम्
मनु तनु राता राम पिआरे हरि प्रेम भगति बणि आई संतहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राता = रंगा गया। बणि आई = परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन गई।1।
अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्य का तन और मन प्यारे प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, प्रभु की प्रेमा-भक्ति के कारण प्रभु से उसकी गहरी सांझ बन जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि खेप निबाही संतहु ॥ हरि नामु लाहा दास कउ दीआ सगली त्रिसन उलाही संतहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुरि खेप निबाही संतहु ॥ हरि नामु लाहा दास कउ दीआ सगली त्रिसन उलाही संतहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। खेप = (क्षेप) व्यापार का माल, आपस में किया हुआ इकरार, सांझ। निबाही = निबाह दी। संतहु = हे संत जनो! लाहा = लाभ, कमाई। कउ = को। सगली = सारी। उलाही = उतार दी, दूर कर दी।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्य की प्रभु से सांझ गुरु ने बनवा दी, उस सेवक को गुरु ने परमात्मा के नाम का लाभ बख्श दिया, और, इस तरह उसकी सारी मायावी तृष्णा समाप्त कर दी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत लालु इकु पाइआ हरि कीमति कहणु न जाई संतहु ॥२॥
मूलम्
खोजत खोजत लालु इकु पाइआ हरि कीमति कहणु न जाई संतहु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत खोजत = खोज करते करते। लालु = बड़ा ही कीमती पदार्थ।2।
अर्थ: हे संत जनो! (गुरु की शरण पड़ कर खोजने वाले ने) खोज करते-करते परमात्मा का नाम-हीरा पा लिया। उस लाल का मूल्य नहीं पाया जा सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल सिउ लागो धिआना साचै दरसि समाई संतहु ॥३॥
मूलम्
चरन कमल सिउ लागो धिआना साचै दरसि समाई संतहु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। चरन कमल सिउ = सुंदर चरणों से। साचै दरसि = सदा स्थिर प्रभु के दर्शन में। समाई = लीन हो गई।3।
अर्थ: हे संत जनो! (गुरु की कृपा से जिस मनुष्य की) तवज्जो प्रभु के सुंदर चरणों में जुड़ गई, सदा-स्थिर प्रभु के दर्शन में उसकी सदा के लिए लीनता हो गई।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण गावत गावत भए निहाला हरि सिमरत त्रिपति अघाई संतहु ॥४॥
मूलम्
गुण गावत गावत भए निहाला हरि सिमरत त्रिपति अघाई संतहु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहाला = प्रसन्न चिक्त। त्रिपति अघाई = पूरी तौर पर तृप्त हो गए।4।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की महिमा के गीत गाते-गाते (हम) तन से मन से खिल उठते हैं, परमात्मा का स्मरण करते हुए (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त हो जाते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आतम रामु रविआ सभ अंतरि कत आवै कत जाई संतहु ॥५॥
मूलम्
आतम रामु रविआ सभ अंतरि कत आवै कत जाई संतहु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा। कत = कहाँ?।5।
अर्थ: हे संत जनो! (गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य को) सर्व-व्यापक परमात्मा सब जीवों के अंदर बसता दिखाई दे जाता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि जुगादी है भी होसी सभ जीआ का सुखदाई संतहु ॥६॥
मूलम्
आदि जुगादी है भी होसी सभ जीआ का सुखदाई संतहु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = शुरू से ही। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। होसी = सदा के लिए कायम रहेगा।6।
अर्थ: हे संत जनो! (गुरु ने जिस मनुष्य की खेप सिरे चढ़ा दी, उसको ये दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा सबका आदि है, परमात्मा जुगों के आरम्भ से है, परमात्मा इस वक्त भी मौजूद है, परमात्मा सदा के लिए कायम रहेगा। वह परमात्मा सब जीवों को सुख देने वाला है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि बेअंतु अंतु नही पाईऐ पूरि रहिआ सभ ठाई संतहु ॥७॥
मूलम्
आपि बेअंतु अंतु नही पाईऐ पूरि रहिआ सभ ठाई संतहु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नही पाईऐ = नहीं पाया जा सकता। पूरि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है।7।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा बेअंत है, उसके गुणों का अंतिम छोर पाया नहीं जा सकता। वह प्रभु सब जगह व्यापक है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीत साजन मालु जोबनु सुत हरि नानक बापु मेरी माई संतहु ॥८॥२॥७॥
मूलम्
मीत साजन मालु जोबनु सुत हरि नानक बापु मेरी माई संतहु ॥८॥२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत = मित्र। मालु = धन पदार्थ। जोबनु = जवानी। सुत = पुत्र। माई = माँ।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे संत जनो! वह परमात्मा ही मेरा मित्र है, मेरा सज्जन है, मेरा धन-माल है, मेरा जोबन है, मेरा पुत्र है, मेरा पिता है, मेरी माँ है (इन सब जगहों पर मुझे परमात्मा का ही सहारा है)।8।2।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ मन बच क्रमि राम नामु चितारी ॥ घूमन घेरि महा अति बिखड़ी गुरमुखि नानक पारि उतारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ मन बच क्रमि राम नामु चितारी ॥ घूमन घेरि महा अति बिखड़ी गुरमुखि नानक पारि उतारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन बच क्रमि = मन से, बोलों से और कर्मों से। चितारी = याद करता रह। घूमनघेरि = (विकारों की लहरों का) चक्कर, बवंडर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पारि उतारी = (अपनी जीवन = बेड़ी को) पार लंघा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने मन से, अपने हरेक बोल से, अपने हरेक काम से परमात्मा का नाम याद रखा कर। हे नानक! (कह: हे भाई! जगत में विकारों की लहरों का) बड़ा भयानक बवण्डर है। गुरु की शरण पड़ कर (इसमें से अपनी जिंदगी की बेड़ी को) पार लंघा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि सूखा बाहरि सूखा हरि जपि मलन भए दुसटारी ॥१॥
मूलम्
अंतरि सूखा बाहरि सूखा हरि जपि मलन भए दुसटारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। सूखा = सुख। बाहरि = दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए। जपि = जप के। मलन भए = मले जाते हैं (शब्द ‘मलन’ व ‘मलिन’ में फर्क है। मलिन का अर्थ है ‘मलीन’)। दुसटारी = (दुष्ट+अरी) बुरे (कामादिक) वैरी।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप-जप के (कामादिक) दुष्ट वैरी पराजित कर दिए जाते हैं, (तब) हृदय में सदा सुख बना रहता है, दुनिया के साथ व्यवहार करते हुए भी सुख ही टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस ते लागे तिनहि निवारे प्रभ जीउ अपणी किरपा धारी ॥२॥
मूलम्
जिस ते लागे तिनहि निवारे प्रभ जीउ अपणी किरपा धारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लागे = चिपके। तिनहि = तिनि ही, उस (प्रभु) ने ही। धारी = धार के, कर के।2।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु की रजा के अनुसार (ये दुष्ट वैरी) चिपकते हैं, वही प्रभु जी अपनी कृपा करके इनको दूर करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उधरे संत परे हरि सरनी पचि बिनसे महा अहंकारी ॥३॥
मूलम्
उधरे संत परे हरि सरनी पचि बिनसे महा अहंकारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधरे = (बवंडर में से) बच गए। परे = पड़े। पचि = जल के।3।
अर्थ: हे भाई! संत जन तो परमात्मा की शरण पड़ जाते हैं वह तो (इन वैरियों की मार से) बच जाते हैं, पर बड़े अहंकारी मनुष्य (इनमें) जल के आत्मिक मौत मर जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू संगति इहु फलु पाइआ इकु केवल नामु अधारी ॥४॥
मूलम्
साधू संगति इहु फलु पाइआ इकु केवल नामु अधारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। अधारी = आसरा।4।
अर्थ: हे भाई! (संत जनों ने) गुरु की संगति में र हके परमात्मा का नाम-फल पा लिया, केवल हरि-नाम को ही उन्होंने अपनी जिंदगी का आसरा बना लिया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कोई सूरु न कोई हीणा सभ प्रगटी जोति तुम्हारी ॥५॥
मूलम्
न कोई सूरु न कोई हीणा सभ प्रगटी जोति तुम्हारी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरु = सूरमा। हीणा = कमजोर। सभ = हर जगह।5।
अर्थ: पर, हे प्रभु! (अपने आप में) ना कोई जीव शक्तिशाली है ना ही कोई कमजोर। हरेक जीव में तेरी ही ज्योति प्रकट हो रही है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह समरथ अकथ अगोचर रविआ एकु मुरारी ॥६॥
मूलम्
तुम्ह समरथ अकथ अगोचर रविआ एकु मुरारी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = सब ताकतों का मालिक। अकथ = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। अगोचर = (अ+गो+चर, गो = ज्ञान-इंद्रिय। चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। रविआ = व्यापक। मुरारी = मुर+अरि, परमात्मा।6।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब ताकतों का मालिक है, तेरी ताकतें बयान से परे हैं, ज्ञान-इन्द्रियों के द्वारा तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती। हे प्रभु! तू स्वयं सब जीवों में व्यापक है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीमति कउणु करे तेरी करते प्रभ अंतु न पारावारी ॥७॥
मूलम्
कीमति कउणु करे तेरी करते प्रभ अंतु न पारावारी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! पारावारी = पार+अवार, इस पार उस पार का किनारा।7।
अर्थ: हे कर्तार! हे प्रभु! कोई जीव तेरी कीमत नहीं पा सकता। तेरा अंत तेरा इस पार उस पार को नहीं समझ सकता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम दानु नानक वडिआई तेरिआ संत जना रेणारी ॥८॥३॥८॥२२॥
मूलम्
नाम दानु नानक वडिआई तेरिआ संत जना रेणारी ॥८॥३॥८॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेणारी = चरण धूल।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे संत-जनों की चरण-धूल लेने से तेरे नाम की दाति मिलती है, (लोक-परलोक में) सम्मान मिलता है।8।3।8।22।
[[0917]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ३ अनंदु
मूलम्
रामकली महला ३ अनंदु
दर्पण-भाव
पउड़ी वार भाव:
गुरु से परमात्मा के महिमा की दाति मिलती है, और, महिमा की इनायत से मनुष्य के मन में आत्मिक आनंद (पूर्ण खिलाव) पैदा हो जाता है।
जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, परमात्मा उसके सारे दुख दूर कर देता है, उसके सारे काम सँवारता है। वह मनुष्य सारे काम करने योग्य है।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य परमात्मा की महिमा परमात्मा का नाम अपने मन में बसाता है। नाम की इनायत से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा हुआ रहता है।
गुरु की मेहर से परमात्मा का नाम मिलता है। परमात्मा का नाम जिस मनुष्य की जिंदगी का आसरा बन जाता है, उसके अंदर से माया के सारे लालच दूर हो जाते हैं, और उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है।
परमात्मा धुर-दरगाह से जिस मनुष्यों के भाग्यों में नाम-स्मरण के लेख लिख देता है, वे मनुष्य नाम में जुड़ते हैं। नाम की इनायत से कामादिक पाँचों वैरी उन पर अपना जोर नहीं डाल सकते। इस तरह उनके अंदर आत्मिक आनंब बना रहता है।
अगर मनुष्य के मन में परमात्मा के चरणों का प्यार ना बने,तो ये सदा माया के प्रभाव में दुखी सा ही रहता है। मनुष्य की सारी ज्ञान-इंद्रिय माया की दौड़-भाग में लगी रहती हैं। परमात्मा खुद मेहर करे, तो गुरु के शब्द में लग के ये सुधर जाता है।
जिस मनुष्य को असल आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसका जीवन इतने प्यार वाला बन जाता है कि वह सदा मीठे बोल बोलता है। यह आत्मिक आनंद गुरु से ही मिलता है। गुरु उस मनुष्य के अंदर से विकार दूर कर देता है, उसको आत्मिक आनंद की सूझ बख्शता है।
अपने प्रयासों से कोई भी व्यक्ति आत्मिक आनंद नहीं पा सकता, क्योंकि माया के मुकाबले में किसी का वश नहीं चलता। जिस पर परमात्मा मेहर करता है उनको गुरु से मिलाता है। (और) गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल कर वे विकारों से बचते हैं, और, हरि-नाम में जुड़ते हैं। उनके अंदर सदा शांति और शीतलता ही बनी रहती है।
आत्मिक आनंद के दाते परमात्मा से मिलने का सिर्फ एक ही रास्ता है, वह ये है कि मनुष्य अपना-आप गुरु के हवाले करदे। बस! गुरु के बताए हुए रास्ते पर चले, और परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहे। अंदर आनंद ही आनंद बना रहेगा।
अगर मनुष्य अंदर से माया के मोह में फसा रहे, और, बाहर से सिर्फ चतुराई भरी बातों से आत्मिक आनंद की प्राप्ति चाहे, ये नहीं हो सकता।
सदा के लिए आनंद का एक मात्र तरीका है कि मनुष्य दुनिया वाले मोह में फसे रहने की जगह अपने मन में परमात्मा की याद बसाए रखे। बस! यही है गुरु की शिक्षा जो कभी भी भुलाई नहीं जानी चाहिए।
आत्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए सदा प्रभु के दर पर इस प्रकार अरदास करते रहना चाहिए - हे प्रभु! तू बेअंत है, हरेक जीव के अंदर तू ही बोल रहा है, हरेक जीव की तू ही संभाल कर रहा है।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरु मिलता है। गुरु से उसको आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल मिलता है। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता है। उसके अंदर से लब-लोभ-अहंकार आदि सारे विकार दूर हो जाते हैं।
आत्मिक आनंद भोगने वालों की जीवन-जु्रगति दुनिया के लोगों से अलग होती है। वे विकारों से बचे रहते हैं, वे अपनी शोभा नहीं करवाते। पर इस रास्ते पर चलना बहुत ही मुश्किल काम है। गुरु की ही मेहर हो तभी स्वैभाव मिटाया जा सकता है।
आत्मिक आनंद की दाति केवल परमात्मा के अपने हाथ में है। जिस मनुष्य को मेहर करके परमात्मा अपने नाम जपने की तरफ प्रेरित करता है, वह मनुष्य गुरु के दर पर पहुँच के नाम-जपने की इनायत से आत्मिक आनंद भोगता है।
सतिगुरु की वाणी ही आत्मिक आनंद प्राप्त करने की साधन है। पर गुरबाणी उनके ही हृदय में बसती है जिनके भाग्यों में धुर से ये लेख लिखे होते हैं।
गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है जिसकी इनायत से माया वाले होछे रस उनको लुभा नहीं पाते। (इस तरह) उनका जीवन ऊँचा हो जाता है, और, उनकी संपर्क में आकर और का आचरण भी पवित्र हो जाता है।
माया के मोह में फंसे रहने से मन में अशांति सहम बने रहते हैं। इस अशांति और सहम का इलाज है आत्मिक आनंद। और, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है गुरु की कृपा से। सो, गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़े रखो, और परमात्मा की याद में सदा जुड़े रहो।
सिर्फ बाहर से दिखाई देते कर्म करने से मन में विकारों की मैल टिकी रहती है, मन को माया के मोह का रोग चिपका रहता है। जहाँ रोग है वहाँ आनंद कहाँ? सो, सदा हरि-नाम स्मरण करते रहो। यही है मन की आरोग्यता का ढंग, और आत्मिक आनंद देने वाला।
मनुष्य जगत में आत्मिक आनंद का व्यापार करने आता है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है, माया का मोह उसके नजदीक नहीं फटकता। उसका मन विकारों से बचा रहता है। बाहर दुनिया के साथ भी उसका बर्ताव सही रहता है। उसकी जिंदगी कामयाब समझो।
वह मनुष्य खिले माथे रह सकता है, वही मनुष्य सदा आत्मिक आनंद पा सकता है जो मनुष्य सच्चे दिल से गुरु के चरणों में टिका रहता है, जो स्वै-भाव छोड़ के गुरु को ही अपना आसरा बनाए रखता है।
माया के मोह और आत्मिक आनंद - ये दोनों एक ही हृदय में एक साथ नहीं रह सकते। और माया के मोह से खलासी तभी मिलती है जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है। गुरु मनुष्य को जीवन का सही रास्ता बताता है।
जिस मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर भरी निगाह होती है, वे परमात्मा की महिमा वाली गुरबाणी अपने दिल में बसाए रखते हैं। गुरबाणी से वे आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल सदा पीते रहते हैं।
मायावी रसों वाली कविता, गुरु आशय से उलटी जाने वाली वाणी, परमात्मा की महिमा से वंचित वाणी, मन को मायावी पदार्थों की तरफ आकर्षित करने वाली वाणी मन को कमजोर करती है, माया की झलक के सामने थिरका देती है। ऐसी वाणी रोजाना पढ़ने-सुनने वालों के मन माया के मुकाबले में कमजोर पड़ जाते हैं। ऐसे कमजोर हो चुके मन में आत्मिक आनंद का स्वाद नहीं बन सकता। वह मन तो माया के मोह में फंसा होता है।
सतिगुरु की वाणी परमात्मा की ओर से अमोलक दाति है, इसमें परमात्मा की महिमा भरी पड़ी है। जो मनुष्य इस वाणी से अपना मन जोड़ता है, उसके अंदर परमात्मा का प्यार बन जाता है, और जहाँ प्रभु-प्रेम हैवहीं आत्मिक आनंद है।
परमात्मा की रज़ा के अनुसार जीव माया के हाथों में नाच रहे हैं। जिस किसी को गुरु द्वारा बताए हुए रास्ते पर चलने के लायक बनाता है, वह मनुष्य माया के बंधनो से स्वतंत्र हो जाता है, उसकी तवज्जो परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।
कर्मकांड के अनुसार कौन सा पुण्य-कर्म है और कौन सा पाप-कर्म है - सिर्फ ये विचार मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा नहीं कर सकती। गुरु की कृपा से ही जो मनुष्य सदा हरि-नाम स्मरण करता है, महिमा की वाणी उचारता है, वह विकारों की ओर से सचेत रहता है और, आत्मिक आनंद पाता है।
परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्यार बख्शता है, उस मनुष्य पर कोई भी विकार अपना जोर नहीं डाल सकता। गुरु की शरण पड़ कर, गुरु के बताए हुए राह पर चल के सदा परमात्मा की याद अपने हृदय में टिकाए रखनी चाहिए। आत्मिक आनंद की प्राप्ति का यही है साधन।
गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों की तवज्जो दुनियावी कार्य-व्यवहार करते हुए भी प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है। जगत बका हाल तो यह है कि जीव के पैदा होते ही माता-पिता के प्यार से माया प्रभु-चरणों से विछोड़ लेती है।
किसी दुनियावी पदार्थ के बदले परमात्मा का मिलाप नहीं हो सकता। और, जिस हृदय में प्रभु के प्रति प्यार नहीं, वहाँ आत्मिक आनंद कहाँ? हाँ, जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु के साथ लगा देता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं।
गुरु से ही ये समझ आती है कि आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही मनुष्य की राशि-पूंजी बननी चाहिए। ये संपत्ति उन्हीं को मिलती है जिस पर प्रभु मेहर करता है।
कई तरह के खाने खाने से भी मनुष्य की जीभ का चस्का खत्म नहीं होता। बहुत दुखी होता है मनुष्य इस चस्के में। पर जब इसको हरि-नाम-स्मरण का आनंद आने लग जाता है, जीभ का चस्का खत्म हो जाता है। परमात्मा की मेहर से जिसको गुरु मिल जाए, उसको हरि-नाम का आनंद प्राप्त होता है।
सुख-आनंद का दाता है भी परमात्मा स्वयं ही; पर मनुष्य जगत में मायावी पदार्थों में से आनंद तलाशता रहता है। गुरु की मेहर से समझ पड़ती है कि ये जगत तो मदारी का तमाशा ही है, इसमें से सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता।
मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद तब ही बनता है, जब उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है। तब मनुष्य का हृदय विकारों से पवित्र हो जाता है, कोई चिन्ता कोई दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। पर ये प्रकाश गुरु के द्वारा ही होता है।
पिछले किए कर्मों के संस्कारों से प्रेरित मनुष्य बार-बार वैसे ही कर्म करता रहता है। परमात्मा का नाम स्मरण करने की ओर अपने आप नहीं पलट सकता। फिर आत्मिक आनंद कैसे मिले? अच्छे भाग्यों से जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब इसकी जिंदगी सफल होती है।
जब तक मनुष्य जगत में किसी को वैर भाव से देखता है किसी को मित्रता के भाव से, तब तक उसके अंदर मेर-तेर है। जहाँ मेर-तेर है, वहाँ आत्मिक आनंद नहीं हो सकता। गुरु को मिल के मनुष्य की आँखें खुलती हैं, फिर इसे हर जगह परमात्मा ही परमात्मा दिखाई देता है। यही दीदार है आनंद का मूल।
जिस मनुष्य के कानों को अभी निंदा-चुगली सुनने का चस्का है, उसके हृदय में अभी आत्मिक आनंद पैदा नहीं हुआ। आत्मिक आनंद की प्राप्ति उसी मनुष्य को है, जिसके कान, जिसकी जीभ जिसकी सारी ज्ञान-इंद्रिय परमात्मा के महिमा में मगन रहते हैं। वही ज्ञान-इन्द्रियाँ पवित्र हैं।
माया के प्रभाव के कारण ज्ञान-इंद्रिय मनुष्य को माया की ओर ही भगाए फिरतीं हैं ये रास्ता ठीक है अथवा गलत - ये विचार करने वाली शक्ति दबी ही रहती है। जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु के दर पर पहुँचाता है, उसकी विचार-सामर्थ्य जाग उठती है। वह मनुष्य प्रभु के नाम में जुड़ता है और आत्मिक आनंद पाता है।
जिस मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर होती है, वह गुरु के बताए रास्ते पर चल के साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा की वाणी गाते हैं,? और आत्मिक आनंद पाते हैं।
आत्मिक आनंद के लक्षण: जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, उसकी भटकना दूर हो जाती है, उसके सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं, कोई दुख, कोई विकार, कोई कष्ट उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते।
आनंद की ये अवस्था सतिगुरु की वाणी से ही प्राप्त होती है। इस वाणी को गाने वालों, सुनने वालों के जीवन ऊँचे हो जाते हैं। इस वाणी में उन्हें सतिगुरु ही प्रत्यक्ष दिखता है।
समूचा भाव:
(1 से 6) महिमा की इनायत से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं, उसके अंदर से माया के सारे लालच दूर हो जाते हैं, कामादिक पाँचों वैरी उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। पर प्रभु-चरणों से विछुड़ा हुआ मनुष्य दुखी ही रहता है, उसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ माया की दौड़-भाग में ही लगी रहती हैं।
(7 से 15) आत्मिक आनंद गुरु से ही मिलता है। अपने प्रयासों से आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि माया के मुकाबले किसी की भी पेश नहीं चलती। एक ही रास्ता है मनुष्य अपना-आप गुरु के हवाले कर दे। सिर्फ चतुराई की बातें मदद नहीं करतीं। गुरु की ये शिक्षा सदा याद रखो कि मन में परमात्मा की याद टिकी रहे। प्रभु दर पर सदा अरदास करते रहना चाहिए।
गुरु मिलता है परमात्मा की मेहर से। जिसको गुरु मिल जाता है, उसका जीवन स्वच्छ हो जाता है, वह विकारों से बचा रहता है।
(16 से 25) वाणी ही गुरु है। जीवन-यात्रा में वाणी के बताए हुए रास्ते पर चलो - यही है अपने आप को गुरु के हवाले करना। इस तरह माया वाले होछे रस आकर्षित नहीं कर पाऐंगे। बाहर से धार्मिक दिखने वाले कर्म करने से मन विकारों के मुकाबले में अडोल नहीं रह सकेगा। इस राह पर पड़ने से तो जीव-बाजी हार जाई जाती है। अपनी समझदारी छोड़ के वाणी की अगुवाई में जीवन-चाल चलते रहो। माया के मोह और आत्मिक आनंद - ये दोनों एक जगह पर इकट्ठे नहीं रह सकते। साधु-संगत में जा के गुरबाणी गाया करो।
मनुष्य दुनिया के रंग-तमाशों वाली कविता में खुशी तलाशता फिरता है, पर ये कविता मन को विकारों के मुकाबले में कमजोर करती जाती है। अगर आत्मिक आनंद पाना है तो गुरु का शब्द ही गुरु की वाणी ही एक अमूल्य दाति है।
(26 से 39) जीव और माया ये परमात्मा के ही पैदा किए हुए हैं। पर उसकी रज़ा ऐसी है कि जीव माया के हाथों में नाच रहे हैं, और, दुखी हो रहे हैं। कर्मकांड के अनुसार पुण्य कर्म कौन सा है और पाप कर्म कौन सा - ये विचार भी मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा नहीं होने देते। अजब खेल है, जीव के पैदा होते ही माता-पिता के प्यार के द्वारा माया प्रभु-चरणों से विछोड़ लेती है। किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में ये विछोड़ा हटाया नहीं जा सकता। आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही मनुष्य की संपत्ति बनना चाहिए। ये नाम मिलता है गुरु से।
जीभ के चस्के में फंसा हुआ मनुष्य मायावी पदार्थां में से सुख तलाशता फिरता है। मनुष्य के वश में भी क्या? पिछले किए कर्मों के संस्कारों का प्रेरित हुआ बार-बार वैसे ही कर्म किए जा रहा है। आँखें मिली हैं हर जगह परमात्मा को देखने के लिए, पर ये आँखें अंधी हुई रहती हैं माया के मोह में। कान मिले हैं परमात्मा की महिमा सुनने के लिए, पर ये काम निंदा-चुगली में मस्त रहते हैं। इस तरह सारी ही ज्ञान-इन्द्रियाँ मनुष्य को मायावी पदार्थों की तरफ ही भगाए फिरती हैं।
जिस मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर होती है वह गुरु की शरण पड़ कर साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा की वाणी गाते-सुनाते हैं, और आत्मिक आनंद पाते हैं।
(40) आत्मिक आनंद का स्वरूप- इस आत्मिक अवस्था में पहुँचे हुए मनुष्य की मायावी भटकना दूर हो जाती है, कोई दुख विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।
ये आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है सतिगुरु की वाणी में मन जोड़ने से। वाणी पढ़ने से मनुष्य का जीवन पवित्र हो जाता है।
मुख्य भाव:
जीव के पैदा होते ही माता-पिता आदि के प्यार के द्वारा माया आ घेरती है। सारी उम्र माया के हाथों में नाचता रहता है और दुखी रहता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरु मिलाता है। गुरु की वाणी की इनायत से मनुष्य की मायावी भटकना दूर हो जाती है, कोई दुख-विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता। हर वक्त उसका मन खिला रहता है। हर वक्त उसके अंदर आनंद बना रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनंदु भइआ मेरी माए सतिगुरू मै पाइआ ॥ सतिगुरु त पाइआ सहज सेती मनि वजीआ वाधाईआ ॥ राग रतन परवार परीआ सबद गावण आईआ ॥ सबदो त गावहु हरी केरा मनि जिनी वसाइआ ॥ कहै नानकु अनंदु होआ सतिगुरू मै पाइआ ॥१॥
मूलम्
अनंदु भइआ मेरी माए सतिगुरू मै पाइआ ॥ सतिगुरु त पाइआ सहज सेती मनि वजीआ वाधाईआ ॥ राग रतन परवार परीआ सबद गावण आईआ ॥ सबदो त गावहु हरी केरा मनि जिनी वसाइआ ॥ कहै नानकु अनंदु होआ सतिगुरू मै पाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनंदु = परी तरह खिलना। पाइआ = प्राप्त कर लिया। सहज = आत्मिक अडोल अवस्था। सहज सेती = अडोल अवस्था से। मनि = मन में। वाधाई = चढ़दीकला, उत्साह पैदा करने वाला गीत। परीआ = रागों की परीयाँ, रागनियाँ। राग रतन = सुंदर राग। केरा = का।
अर्थ: हे भाई माँ! (मेरे अंदर) पूर्ण खिड़ाव (आनंद) पैदा हो गया है (क्योंकि) मुझे गुरु मिल गया है। मुझे गुरु मिला है, और साथ ही अडोल अवस्था भी प्राप्त हो गई है (भाव, गुरु के मिलने से मेरा मन डोलने से हट गया है); मेरे मन में (मानो) खुशी के बाजे बज उठे हें, सुंदर राग अपने परिवार और रागनियों सहित (मेरे मन में, जैसे) प्रभु की महिमा के गीत गाने आ गए हैं।
(हे भाई! तुम भी) प्रभु की महिमा के गीत गाओ। जिस-जिस ने महिमा के शब्द मन में बसाए हैं (उनके अंदर सम्पूर्ण आनंद पैदा हो जाता है)।
नानक कहता है (मेरे अंदर भी) आनंद बन गया है (क्योंकि) मुझे सतिगुरु मिल गया है।1।
दर्पण-भाव
भाव: गुरु से परमात्मा के महिमा की दाति मिलती है, और महिमा की इनायत से मनुष्य के मन (आनंद से) पूर्ण पुल्कित हो उठता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए मन मेरिआ तू सदा रहु हरि नाले ॥ हरि नालि रहु तू मंन मेरे दूख सभि विसारणा ॥ अंगीकारु ओहु करे तेरा कारज सभि सवारणा ॥ सभना गला समरथु सुआमी सो किउ मनहु विसारे ॥ कहै नानकु मंन मेरे सदा रहु हरि नाले ॥२॥
मूलम्
ए मन मेरिआ तू सदा रहु हरि नाले ॥ हरि नालि रहु तू मंन मेरे दूख सभि विसारणा ॥ अंगीकारु ओहु करे तेरा कारज सभि सवारणा ॥ सभना गला समरथु सुआमी सो किउ मनहु विसारे ॥ कहै नानकु मंन मेरे सदा रहु हरि नाले ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंन मेरे = हे मेरे मन! सभि = सारे। विसारणा = दूर करने वाला। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। समरथु = करने योग्य। मनहु = मन से। विसरे = बिसरता है।
अर्थ: हे मेरे मन! तू सदा प्रभु के साथ जुड़ा रह। हे मेरे मन! तू सदा प्रभु को याद रख। वह प्रभु सारे दुख दूर करने वाला है। वह सदा तेरी सहायता करने वाला है तेरे सारे काम सफल करने के समर्थ है।
(हे भाई!) उस मालिक को क्यों (अपने) मन से भुलाता है जो सारे काम करने योग्य है?
नानक कहता है: हे मेरे मन! तू सदा प्रभु के चरणों में जुड़ा रह।2।
दर्पण-भाव
भाव: जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, परमात्मा उसके सारे दुख दूर कर देता है, उसके सारे काम सँवारता है। वह मालिक सारे काम करने योग्य है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचे साहिबा किआ नाही घरि तेरै ॥ घरि त तेरै सभु किछु है जिसु देहि सु पावए ॥ सदा सिफति सलाह तेरी नामु मनि वसावए ॥ नामु जिन कै मनि वसिआ वाजे सबद घनेरे ॥ कहै नानकु सचे साहिब किआ नाही घरि तेरै ॥३॥
मूलम्
साचे साहिबा किआ नाही घरि तेरै ॥ घरि त तेरै सभु किछु है जिसु देहि सु पावए ॥ सदा सिफति सलाह तेरी नामु मनि वसावए ॥ नामु जिन कै मनि वसिआ वाजे सबद घनेरे ॥ कहै नानकु सचे साहिब किआ नाही घरि तेरै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि तेरै = तेरे घर में। त = तो सभु किछु = हरेक चीज। देहि = तू देता है। सु = वह मनुष्य। पावए = पा लेता है, हासिल करता है। सिफति सालाह = महिमा, बड़ाई। मनि = मन में। वसावए = बसाता है। जिन कै मनि = जिस के मन में। वाजे = बजते हैं। सबद = साजों की आवाज, रागों की सुरें। घनेरे = बेअंत। सचे = सदा कायम रहने वाले!
अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले मालिक (-प्रभु)! (मैं तेरे दर से मन का आनंद माँगता हूं, पर) तेरे घर में कौन सी चीज नहीं है? तेरे घर में तो हरेक चीज मौजूद है, वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसको तू स्वयं देता है (फिर, वह मनुष्य) तेरा नाम और तेरी महिमा (अपने) मन में बसाता है (जिसकी इनायत से उसके अंदर आनंद पैदा हो जाता है)। जिस लोगों के मन में (तेरा) नाम बसता है (उनके अंदर, मानो) बेअंत साजों की (मिली जुलीं) सुरें बजने लग पड़ती हैं (भाव, उनके मन में वह खुशी का चाव पैदा होता है जो कई साजों का मिश्रित राग सुन के पैदा होता है)।
नानक कहता है: हे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरे घर में किसी चीज की कमी नहीं है (और, मैं तेरे दर से आनंद का दान माँगता हूँ)।3।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य परमात्मा की महिमा परमात्मा का नाम अपने मन में बसाता है। नाम की इनायत से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा हुआ रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा नामु मेरा आधारो ॥ साचु नामु अधारु मेरा जिनि भुखा सभि गवाईआ ॥ करि सांति सुख मनि आइ वसिआ जिनि इछा सभि पुजाईआ ॥ सदा कुरबाणु कीता गुरू विटहु जिस दीआ एहि वडिआईआ ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु सबदि धरहु पिआरो ॥ साचा नामु मेरा आधारो ॥४॥
मूलम्
साचा नामु मेरा आधारो ॥ साचु नामु अधारु मेरा जिनि भुखा सभि गवाईआ ॥ करि सांति सुख मनि आइ वसिआ जिनि इछा सभि पुजाईआ ॥ सदा कुरबाणु कीता गुरू विटहु जिस दीआ एहि वडिआईआ ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु सबदि धरहु पिआरो ॥ साचा नामु मेरा आधारो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आधारो = आसरा। जिनि = जिस (नाम) से। भुख = लालच। करि = (पैदा) पैदा करके। मनि = मन में। इछा = मन की कामना। सभि = सारियां। कुरबाणु = सदके। विटहु = से।
अर्थ: (प्रभु की मेहर से उसका) सदा-स्थिर रहने वाला नाम मेरी जिंदगी का आसरा (बन गया) है।
जिस (हरि-नाम) ने मेरे सारे लालच दूर कर दिए हैं, जिस (हरि-नाम) ने मेरे मन की सारी कामनाएं पूरी कर दी हैं, जो हरि-नाम (मेरे अंदर) शांति और सुख पैदा करके मेरे मन में आ टिका है, वह सदा कायम रहने वाला नाम मेरी जिंदगी का आसरा बन गया है।
मैं (अपने आप को) अपने गुरु से सदके करता हूँ, क्योंकि ये सारी बरकतें गुरु की ही हैं।
नानक कहता है: हे संत जनो! (गुरु का शब्द) सुनो, गुरु के शब्द में प्यार बनाओ। (सतिगुरु की मेहर से ही प्रभु का) सदा कायम रहने वाला नाम मेरी जिंदगी का आसरा (बन गया) है।4।
दर्पण-भाव
भाव: गुरु की मेहर से परमात्मा का नाम मिलता है। जिस मनुष्य को नाम प्राप्त हो जाता है, उसके अंदर से माया के सारे लालच दूर हो जाते हैं, और उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाजे पंच सबद तितु घरि सभागै ॥ घरि सभागै सबद वाजे कला जितु घरि धारीआ ॥ पंच दूत तुधु वसि कीते कालु कंटकु मारिआ ॥ धुरि करमि पाइआ तुधु जिन कउ सि नामि हरि कै लागे ॥ कहै नानकु तह सुखु होआ तितु घरि अनहद वाजे ॥५॥
मूलम्
वाजे पंच सबद तितु घरि सभागै ॥ घरि सभागै सबद वाजे कला जितु घरि धारीआ ॥ पंच दूत तुधु वसि कीते कालु कंटकु मारिआ ॥ धुरि करमि पाइआ तुधु जिन कउ सि नामि हरि कै लागे ॥ कहै नानकु तह सुखु होआ तितु घरि अनहद वाजे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाजे = बजते हैं। पंच सबद = पाँच किस्मों के साजों की मिश्रित सुरें। तितु = उस में। तितु घरि = उस हृदय घर में। तितु सभागै घरि = उस भाग्यशाली हृदय घर में। कला = क्षमता। जितु घरि = जिस घर में। धारीआ = तूने डाली है। पंच दूत = कामादिक पाँच वैरी। कंटकु = काँटा। कंटकु कालु = डरावना काल, मौत का डर। धुरि = धुर से। करमि = मेहर से। सि = वह लोग। नामि = नाम में। अनहद = बिना बजाए बजने वाले, एकरस, लगातार।
अर्थ: जिस (हृदय-) घर में (हे प्रभु! तूने) सत्ता डाली है, उस भाग्यशाली (हृदय-) घर में (मानो) पाँच किस्मों के साजों की मिश्रित सुरें बज पड़ती हैं (भाव, उस हृदय में पूर्ण आनंद बन जाता है), (हे प्रभु!) उसके पाँचों कामादिक वैरी तू काबू कर देता है, और डराने वाला काल (भाव, मौत का डर) दूर कर देता है। पर, सिर्फ वही मनुष्य हरि-नाम में जुड़ते हैं जिनके भाग्यों में तूने धुर से ही अपनी मेहर से (स्मरण के लेख लिख के) रख दिए हैं।
नानक कहता है: उस हृदय-घर में सुख पैदा होता है, उस हृदय में (मानो) एकरस (बाजे) बजते हैं।5।
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा धुर दरगाह से जिस मनुष्यों के भाग्यों में नाम-स्मरण के लेख लिख देता है, वे मनुष्य नाम में जुड़ते हैं। नाम की इनायत से पाँचों कामादिक वैरी उन पर अपना जोर नहीं डाल सकते। इस तरह उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साची लिवै बिनु देह निमाणी ॥ देह निमाणी लिवै बाझहु किआ करे वेचारीआ ॥ तुधु बाझु समरथ कोइ नाही क्रिपा करि बनवारीआ ॥ एस नउ होरु थाउ नाही सबदि लागि सवारीआ ॥ कहै नानकु लिवै बाझहु किआ करे वेचारीआ ॥६॥
मूलम्
साची लिवै बिनु देह निमाणी ॥ देह निमाणी लिवै बाझहु किआ करे वेचारीआ ॥ तुधु बाझु समरथ कोइ नाही क्रिपा करि बनवारीआ ॥ एस नउ होरु थाउ नाही सबदि लागि सवारीआ ॥ कहै नानकु लिवै बाझहु किआ करे वेचारीआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साची लिव = सच्ची लगन, सदा कायम रहने वाली लगन, सदा स्थिर प्रभु से प्रीत। देह = शरीर। निमाणी = निआसरी सी। किआ करे = क्या करती है? जो कुछ करती है नकारे काम करती है। बनवारी = हे जगत वाड़ी के मालिक! सवारीआ = सही तरफ लगाई जा सकती हैं। वेचारीआ = पराधीन, निमाणी सी, माया के प्रभाव से।
अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु के चरणों की लगन (के आनंद) के बिना ये (मनुष्य) शरीर निआसरा सा ही रहता है। प्रभु-चरणों की प्रीति के बिना निआसरा होया हुआ ये शरीर जो कुछ भी करता है नकारे काम ही करता है।
हे जगत के मालिक! तेरे बिना और कोई जगह नहीं जहाँ ये शरीर सही तरफ लग सके, कोई और इस को सही दिशा में लगाने के लायक ही नहीं। तू ही कृपा कर, ता कि ये गुरु के शब्द में लग के सुधर जाए।
नानक कहता है: प्रभु-चरणों की प्रीति के बिना पराधीन (भाव, माया के प्रभाव तले) है और जो कुछ करता है निकम्मे काम ही करता है।6।
दर्पण-भाव
भाव: अगर मनुष्य के मन में परमात्मा के चरणों का प्यार ना बने, तो यह सदा माया के प्रभाव में दुखी सा ही रहता है। मनुष्य की सारी ज्ञान-इंद्रिय माया की दौड़-भाग में लगे रहते हैं। परमात्मा स्वयं कृपा करे, तो गुरु के शब्द में लग के ये सुधर जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनंदु आनंदु सभु को कहै आनंदु गुरू ते जाणिआ ॥ जाणिआ आनंदु सदा गुर ते क्रिपा करे पिआरिआ ॥ करि किरपा किलविख कटे गिआन अंजनु सारिआ ॥ अंदरहु जिन का मोहु तुटा तिन का सबदु सचै सवारिआ ॥ कहै नानकु एहु अनंदु है आनंदु गुर ते जाणिआ ॥७॥
मूलम्
आनंदु आनंदु सभु को कहै आनंदु गुरू ते जाणिआ ॥ जाणिआ आनंदु सदा गुर ते क्रिपा करे पिआरिआ ॥ करि किरपा किलविख कटे गिआन अंजनु सारिआ ॥ अंदरहु जिन का मोहु तुटा तिन का सबदु सचै सवारिआ ॥ कहै नानकु एहु अनंदु है आनंदु गुर ते जाणिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। पिआरिआ = हे प्यारे भाई! क्रिपा करे = जब गुरु कृपा करता है। किलविख = पाप। अंजनु = सुरमा। सारिआ = (आँखों में) डालता है। अंदरहु = मन में से। सचै = सदा स्थिर (परमात्मा) ने। सबदु = बोल। सबदु सवारिआ = बोल सवार दिए (भाव, कड़वे बोल निंदा आदि के बोल नहीं बोलता)। एहु अनंदु है = असल आत्मिक आनंद ये है (कि मनुष्य का कड़वा और निंदा आदि वाला स्वभाव ही नहीं रहता)।
अर्थ: कहने को तो हर कोई कह देता है कि मुझे आनंद प्राप्त हो गया है, पर (असल) आनंद की सूझ गुरु से ही मिलती है।
हे प्यारे भाई! (असल) आनंद की सूझ सदा गुरु से ही मिलती है। (वह मनुष्य असल आनंद पाता है, जिस पर गुरु) कृपा करता है। गुरु मेहर करके (उसके) (अंदर से) पाप काट देता है, और (उसकी विचार वाली आँखों में) आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा डालता है।
जिस मनुष्यों के मन में से माया का मोह समाप्त हो जाता है, अकाल-पुरख उनके बोल ही अच्छे और मीठे कर देता है।
नानक कहता है: असल आनंद ही यही है, और यह आनंद गुरु से ही समझा जा सकता है।7।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्य को असल आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसका जीवन इतना प्यार वाला बन जाता है कि वह सदा मीठे बोल बोलता है। ये आत्मिक आनंद गुरु से मिलता है। गुरु उस मनुष्य के अंदर से सारे विकार दूर कर देता है, और उस को आत्मिक जीवन की समझ बख्शता है।
[[0918]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा जिसु तू देहि सोई जनु पावै ॥ पावै त सो जनु देहि जिस नो होरि किआ करहि वेचारिआ ॥ इकि भरमि भूले फिरहि दह दिसि इकि नामि लागि सवारिआ ॥ गुर परसादी मनु भइआ निरमलु जिना भाणा भावए ॥ कहै नानकु जिसु देहि पिआरे सोई जनु पावए ॥८॥
मूलम्
बाबा जिसु तू देहि सोई जनु पावै ॥ पावै त सो जनु देहि जिस नो होरि किआ करहि वेचारिआ ॥ इकि भरमि भूले फिरहि दह दिसि इकि नामि लागि सवारिआ ॥ गुर परसादी मनु भइआ निरमलु जिना भाणा भावए ॥ कहै नानकु जिसु देहि पिआरे सोई जनु पावए ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे हरि! देहि = (आनंद की दाति) देता है। होरि वेचारिआ = और बिचारे जीव। किआ करहि = क्या कर सकते हैं? माया के आगे उनकी पेश नहीं चलती। इकि = कई जीव। भरमि = (माया की) भटकना में। दहदिसि = दसों दिशाओं से। भाणा = रजा।
अर्थ: हे प्रभु जिस मनुष्य को तू (आत्मिक आनंद की दाति) देता है वह प्राप्त करता है, वही मनुष्य (इस दाति को) भोगता है जिसको तू देता है, और बेचारों की (माया के तुफान के आगे) कोई पेश नहीं चलती। कई लोग (माया की) भटकना में (असल रास्ते से) भूले हुए दसों दिशाओं में दौड़ते-फिरते हैं, कई (भाग्यशालियों को) तू अपने नाम में जोड़ के (उनका जनम) सवार देता है। (इस तरह तेरी मेहर से) जिन्हें तेरी रजा प्यारी लग जाती है, गुरु की कृपा से उनका मन पवित्र हो जाता है (और वह आत्मिक आनंद पाते हैं, पर) नानक कहता है: (हे प्रभु!) जिस को तू (आत्मिक आनंद की दाति) बख्शता है वही इसका आनंद पा सकते हैं।8।
दर्पण-भाव
भाव: अपने उद्यम से कोई प्राणी आत्मिक आनंद नहीं ले सकता क्योंकि माया के सामने किसी की पेश नहीं चलती। जिस पर परमात्मा मेहर करता है, उनको गुरु मिलाता है। गुरु के बताए रास्ते पर चल के वह विकारों से बचे रहते हैं, और हरि-नाम में जुड़ते हैं। उनके अंदर सदा शांति और ठंड ही बनी रहती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवहु संत पिआरिहो अकथ की करह कहाणी ॥ करह कहाणी अकथ केरी कितु दुआरै पाईऐ ॥ तनु मनु धनु सभु सउपि गुर कउ हुकमि मंनिऐ पाईऐ ॥ हुकमु मंनिहु गुरू केरा गावहु सची बाणी ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु कथिहु अकथ कहाणी ॥९॥
मूलम्
आवहु संत पिआरिहो अकथ की करह कहाणी ॥ करह कहाणी अकथ केरी कितु दुआरै पाईऐ ॥ तनु मनु धनु सभु सउपि गुर कउ हुकमि मंनिऐ पाईऐ ॥ हुकमु मंनिहु गुरू केरा गावहु सची बाणी ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु कथिहु अकथ कहाणी ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकथ = जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सके। करह = हम करें। कितु दुआरै = किस तरीके से? सउपि = हवाले कर दो। हुकमि मंनिऐ = अगर (प्रभु का) हुक्म मान लिया जाए। केरा = का। केरी = की।
अर्थ: हे प्यारे संत जनो! आओ, हम (मिल के) बेअंत गुणों वाले परमात्मा की महिमा की बातें करें, उस प्रभु की कहानियाँ सुने सुनाएं जिसके गुण बयान से परे हैं। (पर यदि तुम पूछो कि) वह प्रभु किस ढंग से मिलता है (तो उक्तर ये है कि अपना आप माया के हवाले करने की बजाए) अपना तन मन धन सब कुछ गुरु के हवाले करो (इस तरह) यदि गुरु का हुक्म मीठा लग जाए तो परमात्मा मिल जाता है।
(सो, संत जनो!) गुरु के हुक्म पर चलो और सदा कायम रहने वाले प्रभु की महिमा की वाणी गाया करो। नानक कहता है: हे संत जनो सुनो, (उसको मिलने का और आत्मिक आनंद पाने का सही रास्ता यही है कि) उस अकथ प्रभु की कहानियाँ कहा करो।9।
दर्पण-भाव
भाव: आत्मिक आनंद के दाते परमात्मा के मिलाप का एक ही रास्ता है, वह यह है कि मनुष्य पूरी तरह से अपने आप को गुरु के हवाले कर दे। बस! गुरु के बताए हुए रास्ते पर चले और परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहे। अंदर आनंद ही आनंद बना रहेगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए मन चंचला चतुराई किनै न पाइआ ॥ चतुराई न पाइआ किनै तू सुणि मंन मेरिआ ॥ एह माइआ मोहणी जिनि एतु भरमि भुलाइआ ॥ माइआ त मोहणी तिनै कीती जिनि ठगउली पाईआ ॥ कुरबाणु कीता तिसै विटहु जिनि मोहु मीठा लाइआ ॥ कहै नानकु मन चंचल चतुराई किनै न पाइआ ॥१०॥
मूलम्
ए मन चंचला चतुराई किनै न पाइआ ॥ चतुराई न पाइआ किनै तू सुणि मंन मेरिआ ॥ एह माइआ मोहणी जिनि एतु भरमि भुलाइआ ॥ माइआ त मोहणी तिनै कीती जिनि ठगउली पाईआ ॥ कुरबाणु कीता तिसै विटहु जिनि मोहु मीठा लाइआ ॥ कहै नानकु मन चंचल चतुराई किनै न पाइआ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनै = किसी मनुष्य ने भी। मंन मेरिआ = हे मेरे मन (शब्द ‘मंन’ की (ं) एक मात्रा बढ़ाने के लिए ही है, असल शब्द है मन)। जिनि = जिस (माया) ने। एतु भरमि = इस भुलेखे में कि मोह एक मीठी चीज है। भुलाइआ = गलत रास्ते डाल दिया। तिनै = उसी (प्रभु) ने। जिनि = जिस (प्रभु) ने। ठगउली = ठग बूटी। कुरबाणु = सदके, वारने। विटहु = में से।
अर्थ: हे चंचल मन! चालाकियों से किसी ने भी (आत्मिक आनंद) हासिल नहीं किया। हे मेरे मन! तू (ध्यान से) सुन ले कि किसी जीव ने भी चतुराई से (परमात्मा के मिलाप का आनंद) प्राप्त नहीं किया, (अंदर से सुंदर माया में भी फसा रहे, और, बाहर से सिर्फ बातों से आत्मिक आनंद चाहे, ये नहीं हो सकता)।
ये माया जीवों को अपने मोह-जाल में फसाने के लिए बहुत बलवान है, इसने ये भुलेखा डाला हुआ है कि मोह मीठी चीज है, इस कुमार्ग पर डाले रखती है।
(पर, जीव के भी क्या वश?) जिस प्रभु ने माया के मोह की ठग-बूटी (जीवों को) चिपका दी है उसी ने ही ये मोहनी माया पैदा की है।
(सो, हे मेरे मन! अपने आप को माया पर कुर्बान करने की बजाए) उस प्रभु पर से कुर्बान कर जिसने मीठा मोह लगाया है (तब जाकर ये मीठा मोह खत्म होता है)।
नानक कहता है: हे (मेरे) चंचल मन! चतुराईयों से किसी ने (परमात्मा के मिलाप का आत्मिक आनंद) नहीं पाया।10।
दर्पण-भाव
भाव: यदि मनुष्य अंदर से माया के मोह में फसा रहे, और बाहर से सिर्फ चतुराई भरी बातों से आत्मिक आनंद की प्राप्ति चाहे, ऐसा हो नहीं सकता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए मन पिआरिआ तू सदा सचु समाले ॥ एहु कुट्मबु तू जि देखदा चलै नाही तेरै नाले ॥ साथि तेरै चलै नाही तिसु नालि किउ चितु लाईऐ ॥ ऐसा कमु मूले न कीचै जितु अंति पछोताईऐ ॥ सतिगुरू का उपदेसु सुणि तू होवै तेरै नाले ॥ कहै नानकु मन पिआरे तू सदा सचु समाले ॥११॥
मूलम्
ए मन पिआरिआ तू सदा सचु समाले ॥ एहु कुट्मबु तू जि देखदा चलै नाही तेरै नाले ॥ साथि तेरै चलै नाही तिसु नालि किउ चितु लाईऐ ॥ ऐसा कमु मूले न कीचै जितु अंति पछोताईऐ ॥ सतिगुरू का उपदेसु सुणि तू होवै तेरै नाले ॥ कहै नानकु मन पिआरे तू सदा सचु समाले ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाले = संभाल, याद रख। जि = जो। मूले न = बिल्कुल नहीं। कीचै = करना चाहिए। जितु = जिस कारण। अंति = आखिर को।
अर्थ: हे प्यारे मन! (अगर तू हमेशा आत्मिक आनंद चाहता है तो) सदा सच्चे प्रभु को (अपने अंदर) संभाल के रख! ये जो परिवार तू देखता है, इसने तेरे साथ नहीं निभना।
(हे भाई!) इस परिवार के मोह में क्यों फंस जाता है? इसने तेरा साथ आखिर तक नहीं निभा सकना। जिस काम को करने से आखिर में हाथ मलने पड़ें, वह काम कभी भी नहीं करना चाहिए।
(हे भाई!) सतिगुरु की शिक्षा (ध्यान से) सुन, ये गुरु अपदेश हमेशा याद रखना चाहिए।
नानक कहता है: हे प्यारे मन! (यदि तू आनंद चाहता है तो) सदा स्थिर परमात्मा को हर वक्त (अपने अंदर) संभाल के रख।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अगली पौड़ी नंबर 12 को इस पौड़ी के साथ मिला कर पढ़ना है, और अर्थ इस तरह करना है; तू सदा प्रभु को अपने अंदर संभाल के रख और कह: हे अगम अगोचर।
दर्पण-भाव
भाव: सदा और आत्मिक आनंद की प्राप्ति का एक मात्र तरीका है कि मनुष्य दुनिया वाले मोह में फसे रहने की जगह अपने मन में परमात्मा की याद को बसाए रखे। बस! यही है गुरु की शिक्षा जो कभी भुलाई नहीं जानी चाहिए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरा तेरा अंतु न पाइआ ॥ अंतो न पाइआ किनै तेरा आपणा आपु तू जाणहे ॥ जीअ जंत सभि खेलु तेरा किआ को आखि वखाणए ॥ आखहि त वेखहि सभु तूहै जिनि जगतु उपाइआ ॥ कहै नानकु तू सदा अगमु है तेरा अंतु न पाइआ ॥१२॥
मूलम्
अगम अगोचरा तेरा अंतु न पाइआ ॥ अंतो न पाइआ किनै तेरा आपणा आपु तू जाणहे ॥ जीअ जंत सभि खेलु तेरा किआ को आखि वखाणए ॥ आखहि त वेखहि सभु तूहै जिनि जगतु उपाइआ ॥ कहै नानकु तू सदा अगमु है तेरा अंतु न पाइआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! अगोचरा = हे अगोचर हरि! अगोचर = अ+गो+चर, जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। किनै = किसी ने भी। आपु = अपने स्वरूप को। जाणहे = तू जानता है। सभि = सारे। आखि = कह के। वखाणए = बयान करे। को = कोई जीव! आखहि = तू बोलता है। वेखहि = तू संभाल करता है। जिनि = जिस तू ने।
अर्थ: (हे मेरे प्यारे मन! सदा प्रभु को अपने अंदर संभाल के रख, और उसके आगे ऐसे अरजोई कर-) हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले प्रभु! (तेरे गुणों का) किसी ने अंत नहीं पाया। अपने (असल) स्वरूप को तू स्वयं ही जानता है, और कोई जीव तेरे गुणों का अंत नहीं पा सकता।
कोई और जीव (तेरे गुणों को) कह के बयान करे भी किस तरह? ये सारे जीव (तो) तेरे ही रखे हुए एक खेल हैं। हरेक जीव में तू खुद ही बोलता है, हरेक जीव की स्वयं ही संभाल करता है (तू ही करता है) जिसने ये संसार पैदा किया है।
नानक कहता है: (हे मेरे प्यारे मन! प्रभु के आगे अरदास कर-) तू सदा अगम्य (पहुँच से परे) है, (किसी जीव ने तेरे गुणों का कभी) अंत नहीं पाया।12।
दर्पण-भाव
भाव: आत्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए प्रभु के दर पर यूँ आरजू करते रहना चाहिए- हे प्रभु! तू बेअंत है, हरेक जीव के अंदर तू ही बोल रहा है, हरेक जीव की तू ही संभाल कर रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरि नर मुनि जन अम्रितु खोजदे सु अम्रितु गुर ते पाइआ ॥ पाइआ अम्रितु गुरि क्रिपा कीनी सचा मनि वसाइआ ॥ जीअ जंत सभि तुधु उपाए इकि वेखि परसणि आइआ ॥ लबु लोभु अहंकारु चूका सतिगुरू भला भाइआ ॥ कहै नानकु जिस नो आपि तुठा तिनि अम्रितु गुर ते पाइआ ॥१३॥
मूलम्
सुरि नर मुनि जन अम्रितु खोजदे सु अम्रितु गुर ते पाइआ ॥ पाइआ अम्रितु गुरि क्रिपा कीनी सचा मनि वसाइआ ॥ जीअ जंत सभि तुधु उपाए इकि वेखि परसणि आइआ ॥ लबु लोभु अहंकारु चूका सतिगुरू भला भाइआ ॥ कहै नानकु जिस नो आपि तुठा तिनि अम्रितु गुर ते पाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरि = देवते। मुनि जन = मुनी लोग, ऋषि। अंम्रितु = आत्मिक आनंद देने वाला नाम जल। गुरि = गुरु ने। मनि = मन में। सभि = सारे। इकि = कई जीव। वेखि = (गुरु को) देख के। परसणि = (गुरु के चरण) परसने के लिए। भला भाइआ = मीठा लगता है, प्यारा लगता है। ते = से।
अर्थ: (आत्मिक आनंद एक ऐसा) अमृत (है जिस) को देवते मनुष्य मुनि लोग तलाशते फिरते हैं, (पर) यह अमृत गुरु से ही मिलता है। जिस मनुष्य पर गुरु ने मेहर की उसने (यह) अमृत प्राप्त कर लिया (क्योंकि) उसने सदा कायम रहने वाला प्रभु अपने मन में टिका लिया।
हे प्रभु! सारे जीव-जंतु तूने ही पैदा किए हैं (तू ही इनको प्रेरित करता है, तेरी प्रेरणा से ही) कई जीव (गुरु के) दीदार करके (उसके) चरण छूने आते हैं, सतिगुरु उनको प्यारा लगता है (सतिगुरु की कृपा से उनका) लब-लोभ व अहंकार दूर हो जाता है।
नानक कहता है: प्रभु जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, उस मनुष्य ने (आत्मिक आनंद रूप) अमृत गुरु से प्राप्त कर लिया है।13।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरु मिलता है। गुरु से उसको आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल मिलता है। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता है। उसके अंदर से लब-लोभ-अहंकार आदि सारे विकार दूर हो जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगता की चाल निराली ॥ चाला निराली भगताह केरी बिखम मारगि चलणा ॥ लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाही बोलणा ॥ खंनिअहु तिखी वालहु निकी एतु मारगि जाणा ॥ गुर परसादी जिनी आपु तजिआ हरि वासना समाणी ॥ कहै नानकु चाल भगता जुगहु जुगु निराली ॥१४॥
मूलम्
भगता की चाल निराली ॥ चाला निराली भगताह केरी बिखम मारगि चलणा ॥ लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाही बोलणा ॥ खंनिअहु तिखी वालहु निकी एतु मारगि जाणा ॥ गुर परसादी जिनी आपु तजिआ हरि वासना समाणी ॥ कहै नानकु चाल भगता जुगहु जुगु निराली ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगत = आत्मिक आनंद पाने वाले लोग। चाल = जीवन जुगति। निराली = अलग। केरी = की। बिखम = मुश्किल। मारगि = राह पर। तजि = त्याग के। खंनिअहु = खंडे से, तलवार से। वालहु = बाल से। निकी = छोटी, बारीक। एतु मारगि = इस रास्ते पर। आपु = स्वैभाव। जुगहु जुगु = हरेक युग में, सदा ही, हर समय।
अर्थ: (जो सौभाग्यशाली लोग आत्मिक आनंद भोगते हैं वही भकत हैं और उन) भक्तों की जीवन-जुगति (दुनियां के लोगों से सदा) अलग होती है, (ये पक्की बात है कि उन) भक्तों की जीवन-जुगति (औरों से) अलग होती है। वह (बड़े) मुश्किल रास्ते पर चलते हैं, वे लब-लोभ-अहंकार और माया की तृष्णा त्यागते हैं और ज्यादा नहीं बोलते (भाव, अपनी शोभा नहीं करते-फिरते)।
इस रास्ते पर चलना (बड़ी मुश्किल खेल है क्योंकि ये रास्ता) खंडे की धार से ज्यादा नुकीला है और बाल से भी ज्यादा बारीक है (इस पर से गिरने की संभावना हमेशा बनी रहती है क्योंकि दुनियावी वासना मन की अडोलता को धक्का दे देती है)। पर जिन्होंने गुरु की कृपा से स्वै भाव छोड़ दिया है, उनकी (मायावी) वासना हरि-प्रभु की याद में समाप्त हो जाती है।
नानक कहता है: (आत्मिक आनंद भोगने वाले) भक्त-जनों की जीवन-जुगति सदा से ही (दुनिया से ही) अलग चली आ रही है।14।
दर्पण-भाव
भाव: आत्मिक आनंद भोगने वालों की जीवन-जुगति दुनिया के लोगों से अलग होती है। वे विकारों से बचे रहते हैं, वे अपनी शोभा नहीं चाहते पर इस रास्ते पर चलना बहुत ही मुश्किल है। गुरु की मेहर हो तो स्वै भाव खत्म किया जा सकता है।
[[0919]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ तू चलाइहि तिव चलह सुआमी होरु किआ जाणा गुण तेरे ॥ जिव तू चलाइहि तिवै चलह जिना मारगि पावहे ॥ करि किरपा जिन नामि लाइहि सि हरि हरि सदा धिआवहे ॥ जिस नो कथा सुणाइहि आपणी सि गुरदुआरै सुखु पावहे ॥ कहै नानकु सचे साहिब जिउ भावै तिवै चलावहे ॥१५॥
मूलम्
जिउ तू चलाइहि तिव चलह सुआमी होरु किआ जाणा गुण तेरे ॥ जिव तू चलाइहि तिवै चलह जिना मारगि पावहे ॥ करि किरपा जिन नामि लाइहि सि हरि हरि सदा धिआवहे ॥ जिस नो कथा सुणाइहि आपणी सि गुरदुआरै सुखु पावहे ॥ कहै नानकु सचे साहिब जिउ भावै तिवै चलावहे ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलह = हम जीव चलते हैं। होरु = और भेद। किआ जाणा = मैं नहीं जानता। मारगि = (आनंद के) रास्ते पर। पावहे = तू पाता है। लाइहि = तू लगाता है। सि = वे लोग। धिआवे = ध्याते हैं। सुखु = आत्मिक आनंद। तिवै = उसी तरह, वैसे ही।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! जैसे तू (हम जीवों को जीवन-मार्ग पर) चलाता है, वैसे ही हम चलते हैं (बस! मुझे इतनी ही समझ पड़ी है), तेरे गुणों का और भेद मैं नहीं जानता। (मैंने यही समझा है कि) जिस राह पर तू हमें चलाना चाहता है, उसी राह पर हम चलते हैं।
जिस लोगों को (आत्मिक आनंद भोगने के) रास्ते पर चलाता है, जिस पर मेहर करके अपने नाम में जोड़ता है, वह लोग सदा हरि-नाम स्मरण करते हैं। जिस जिस मनुष्य को तू अपनी महिमा की वाणी सुनाता है (सुनने की ओर प्रेरित करता है), वे लोग गुरु के दर पर (पहुँच के) आत्मिक आनंद भोगते हैं।
नानक कहता है: हे सदा-स्थिर रहने वाले मालिक! जैसे तुझे अच्छा लगता है, उसी तरह तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है।15।
दर्पण-भाव
भाव: आत्मिक आनंद की दाति केवल परमात्मा के अपने हाथ में है। जिस मनुष्य को मेहर करके परमात्मा अपने नाम-जपने की ओर प्रेरित करता है, वह मनुष्य गुरु के दर पर पहुँच के नाम-जपने की इनायत से आत्मिक आनंद पाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु सोहिला सबदु सुहावा ॥ सबदो सुहावा सदा सोहिला सतिगुरू सुणाइआ ॥ एहु तिन कै मंनि वसिआ जिन धुरहु लिखिआ आइआ ॥ इकि फिरहि घनेरे करहि गला गली किनै न पाइआ ॥ कहै नानकु सबदु सोहिला सतिगुरू सुणाइआ ॥१६॥
मूलम्
एहु सोहिला सबदु सुहावा ॥ सबदो सुहावा सदा सोहिला सतिगुरू सुणाइआ ॥ एहु तिन कै मंनि वसिआ जिन धुरहु लिखिआ आइआ ॥ इकि फिरहि घनेरे करहि गला गली किनै न पाइआ ॥ कहै नानकु सबदु सोहिला सतिगुरू सुणाइआ ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहिला = खुशी के गीत, आनंद देने वाला गीत। सुहावा = सुंदर। एहु = ये सोहिला। मंनि = मन में (यहाँ ‘मन’ पर ‘ं’ मात्रा सिर्फ काव्य छंदाबंदी की मात्रा के लिए ही है)। इकि = कई जीव। गली = सिर्फ बातें करने से।
अर्थ: (सतिगुरु का) ये सोहाना शब्द (आत्मिक) आनंद देने वाला गीत है, (यकीन जानो कि) सतिगुरु ने सुंदर शब्द सुनाया है वह सदा आत्मिक आनंद देने वाला है। पर ये गुरु-शब्द उनके मन में बसता है जिनके माथे पर धुर से लिखे लेख उघड़ते हैं।
बहुत सारे अनेक ऐसे लोग घूम रहे हैं (जिनके मन में गुरु-शब्द तो नहीं बसा, पर ज्ञान की) बातें करते हैं। सिर्फ बातें करने से आत्मिक आनंद किसी को नहीं मिला।
नानक कहता है: सतिगुरु का सुनाया हुआ शब्द ही आत्मिक आनंद-दाता है।16।
दर्पण-भाव
भाव: सतिगुरु की वाणी ही आत्मिक आनंद प्राप्त करने का एक मात्र तरीका है। पर गुरबाणी उनके ही हृदय में बसती है जिनके भाग्यों में धुर से ये लेख लिखा होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवितु होए से जना जिनी हरि धिआइआ ॥ हरि धिआइआ पवितु होए गुरमुखि जिनी धिआइआ ॥ पवितु माता पिता कुट्मब सहित सिउ पवितु संगति सबाईआ ॥ कहदे पवितु सुणदे पवितु से पवितु जिनी मंनि वसाइआ ॥ कहै नानकु से पवितु जिनी गुरमुखि हरि हरि धिआइआ ॥१७॥
मूलम्
पवितु होए से जना जिनी हरि धिआइआ ॥ हरि धिआइआ पवितु होए गुरमुखि जिनी धिआइआ ॥ पवितु माता पिता कुट्मब सहित सिउ पवितु संगति सबाईआ ॥ कहदे पवितु सुणदे पवितु से पवितु जिनी मंनि वसाइआ ॥ कहै नानकु से पवितु जिनी गुरमुखि हरि हरि धिआइआ ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सहित सिउ = समेत। कुट्रब = परिवार। सबाईआ = सारी ही। मंनि = मन में।
अर्थ: (गुरु के शब्द के सदका) जिस लोगों ने परमात्मा का नाम स्मरण किया (उनके अंदर ऐसा आनंद पैदा हुआ कि माया वाले रसों के प्रति उनमें आकर्षण ही ना रहा, और) वे लोग पवित्र जीवन वाले बन गए। गुरु की शरण पड़ कर जिस-जिस ने हरि का नाम स्मरण किया वे शुद्ध आचरण वाले हो गए! (उनकी लाग से) उनके माता-पिता-परिवार के जीव पवित्र जीवन वाले बने, जिस जिस ने उनकी संगति की वह सारे पवित्र हो गए।
हरि-नाम (एक ऐसा आनंद का श्रोत है कि इस को) जपने वाले भी पवित्र और सुनने वाले भी पवित्र हो जाते हैं, जो इसको मन में बसाते हैं वे भी पवित्र हो जाते हैं।
नानक कहता है: जिस लोगों ने गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम स्मरण किया है वे शुद्ध-आचरण वाले हो गए हैं।17।
दर्पण-भाव
भाव: गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, इसकी इनायत से माया के होछे रस उनको आकर्षित नहीं कर सकते। उनका जीवन ऊँचा हो जाता है, और अनकी संगति से औरों का आचरण भी पवित्र हो जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमी सहजु न ऊपजै विणु सहजै सहसा न जाइ ॥ नह जाइ सहसा कितै संजमि रहे करम कमाए ॥ सहसै जीउ मलीणु है कितु संजमि धोता जाए ॥ मंनु धोवहु सबदि लागहु हरि सिउ रहहु चितु लाइ ॥ कहै नानकु गुर परसादी सहजु उपजै इहु सहसा इव जाइ ॥१८॥
मूलम्
करमी सहजु न ऊपजै विणु सहजै सहसा न जाइ ॥ नह जाइ सहसा कितै संजमि रहे करम कमाए ॥ सहसै जीउ मलीणु है कितु संजमि धोता जाए ॥ मंनु धोवहु सबदि लागहु हरि सिउ रहहु चितु लाइ ॥ कहै नानकु गुर परसादी सहजु उपजै इहु सहसा इव जाइ ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमी = (बाहर से धार्मिक लगने वाले) कामों से, कर्मकांडों से। सहजु = अडोलता, आत्मिक आनंद। सहसा = (माया के मोह से पैदा हुए) चिन्ता सहम। कितै संजमि = किसी जुगती से। रहे = थक गए। मलीणु = मैला। कितु = किस से? कितु संजमि = किस तरीके से। मंनु = मन। इव = इस तरह।
अर्थ: माया के मोह में फंसे रहने से मन में तौख़ला-सहम बना रहता है, (यह) तौखला-सहम आत्मिक आनंद के बिना दूर नहीं होता, (और,) आत्मिक आनंद बाहर से धार्मिक प्रतीत होते कर्म करने से पैदा नहीं हो सकता। अनेक लोग (ऐसे) कर्म कर-कर के हार गए हैं, पर मन का तौख़ला-सहम ऐसे किसी तरीके से नहीं जाता। (जब तक) मन सहम में (है तब तक) मैला रहता है, मन की यह मैल किसी (बाहरी) जुगति से नहीं धुलती।
(हे भाई!) गुरु के शब्द में जुड़ो, परमात्मा के चरणों में सदा चिक्त जोड़े रखो, (अगर) मन (धोना है तो इस तरह) धोवो।
नानक कहता है: गुरु की कृपा से ही (मनुष्य के अंदर) आत्मिक आनंद पैदा होता है, और इस तरह मन का तौख़ला-सहम दूर हो जाता है।18।
दर्पण-भाव
भाव: माया के मोह में फंसे रहने से मन में डर-सहम बना रहता है। इस डर-सहम का इलाज है आत्मिक आनंद, और, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है गुरु की कृपा से। सो, गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़े रखो, और परमात्मा की याद में सदा जुड़े रहो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअहु मैले बाहरहु निरमल ॥ बाहरहु निरमल जीअहु त मैले तिनी जनमु जूऐ हारिआ ॥ एह तिसना वडा रोगु लगा मरणु मनहु विसारिआ ॥ वेदा महि नामु उतमु सो सुणहि नाही फिरहि जिउ बेतालिआ ॥ कहै नानकु जिन सचु तजिआ कूड़े लागे तिनी जनमु जूऐ हारिआ ॥१९॥
मूलम्
जीअहु मैले बाहरहु निरमल ॥ बाहरहु निरमल जीअहु त मैले तिनी जनमु जूऐ हारिआ ॥ एह तिसना वडा रोगु लगा मरणु मनहु विसारिआ ॥ वेदा महि नामु उतमु सो सुणहि नाही फिरहि जिउ बेतालिआ ॥ कहै नानकु जिन सचु तजिआ कूड़े लागे तिनी जनमु जूऐ हारिआ ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअहु = जिंद से, मन में से। तिनी = उन लोगों ने। मरणु = मौत। बेताले = भूतने, ताल से टूटे हुए। जिन = जिन्होंने।
अर्थ: (सिर्फ बाहर से धार्मिक दिखते कर्म करने वाले लोग) मन में (विकारों से) मैले रहते हैं और सिर्फ देखने में ही पवित्र लगते हैं। पर, जो बाहर से पवित्र दिखें, वैसे मन में विकार हों, उन्होंने अपना जीवन यूँ व्यर्थ गवा लिया समझो जैसे कोई जुआरी जूए में धन हार के आता है। (उनको अंदर-अंदर से) माया की तृष्णा का भारी रोग खाए जाता है, (माया के लालच में) मौत को उन्होंने भुलाया होता है। (लोगों की नजरों में धार्मिक दिखने के लिए वे बाहर से धार्मिक दिखाई देते कर्मों की महिमा बताने के लिए वेद आदि धार्मिक-पुस्तकों में से हवाले देते हैं, पर) वेद आदिक धर्म-पुस्तकोंमें जो प्रभु का नाम जपने का उत्तम उपदेश है उस तरफ वे ध्यान नहीं करते, और भूतों की तरह ही जगत में विचरते रहते हैं (जीवन-ताल से विछुड़े रहते हैं)।
नानक कहता है: जिन्होंने परमात्मा का नाम (-स्मरण) छोड़ा हुआ है, और जो माया के मोह में फसे हुए हैं, उन्होंने अपनी जीवन-खेल जूए में हार ली समझो।
दर्पण-भाव
भाव: सिर्फ बाहर से दिखाई देते धार्मिक कर्म करने से मन की विकारों की मैल टिकी रहती है, मन को माया के मोह का रोग चिपका रहता है। जहाँ रोग है वहाँ आनंद कहाँ? सो, सदा हरि-नाम स्मरण करते रहो। यही है मन की अरोग्यता का साधन, और आत्मिक आनंद देने वाला।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअहु निरमल बाहरहु निरमल ॥ बाहरहु त निरमल जीअहु निरमल सतिगुर ते करणी कमाणी ॥ कूड़ की सोइ पहुचै नाही मनसा सचि समाणी ॥ जनमु रतनु जिनी खटिआ भले से वणजारे ॥ कहै नानकु जिन मंनु निरमलु सदा रहहि गुर नाले ॥२०॥
मूलम्
जीअहु निरमल बाहरहु निरमल ॥ बाहरहु त निरमल जीअहु निरमल सतिगुर ते करणी कमाणी ॥ कूड़ की सोइ पहुचै नाही मनसा सचि समाणी ॥ जनमु रतनु जिनी खटिआ भले से वणजारे ॥ कहै नानकु जिन मंनु निरमलु सदा रहहि गुर नाले ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर ते = गुरु से (मिली हुई), जिसका उपदेश गुरु से मिला है। करणी = आचरण, करने योग्य काम। कमाणी = कमाई है। कूड़ = माया का मोह। सोइ = खबर। मनसा = मन का फुरना, मन में माया के मोह का विचार। सचि = प्रभु के स्मरण में। वणजारे = (जगत में भक्ति का) व्यापार करने आए लोग। मंनु = मन।
अर्थ: जो लोग (आचरण-निर्माण की) वह कमाई करते हैं जिसकी हिदायत गुरु से मिलती है, वे मन से भी पवित्र होते हैं, और बाहर से भी पवित्र होते हैं (भाव, उनका जगत से व्यवहार भी सत्य पर आधारित कुशलता वाला होता है), वे बाहर से भी पवित्र और अंदर से भी स्वच्छ रहते हैं। उनके मन का मायावी विचार स्मरण में समाप्त हो जाता है, (उनके अंदर इतना आत्मिक आनंद बनता है कि) माया के मोह की खबर तक उनके मन तक नहीं पहुँचती।
(जीव जगत में आत्मिक आनंद का व्यापार करने आए हैं) वही जीव-व्यापारी बढ़िया कहे जाते हैं जिन्होंने (गुरु के बताए हुए राह पर चल कर नाम-कमाई करके) श्रेष्ठ मानव जन्म को सफल कर लिया।
नानक कहता है: जिस लोगों का मन पवित्र हो जाता है (जिनके अंदर आत्मिक आनंद बन जाता है) वह (अंतरात्मे) सदा गुरु के चरणों में रहते हैं।20।
दर्पण-भाव
भाव: मनुष्य जगत में आत्मिक आनंद का व्यापार करने आता है जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है, माया का मोह उसके नजदीक नहीं फटकता। उसका मन विकारों से बचा रहता है, बाहर दुनिया से भी उसका व्यवहार साफ-सुथरा कुशलता वाला होता है। उसकी जिंदगी कामयाब समझो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को सिखु गुरू सेती सनमुखु होवै ॥ होवै त सनमुखु सिखु कोई जीअहु रहै गुर नाले ॥ गुर के चरन हिरदै धिआए अंतर आतमै समाले ॥ आपु छडि सदा रहै परणै गुर बिनु अवरु न जाणै कोए ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु सो सिखु सनमुखु होए ॥२१॥
मूलम्
जे को सिखु गुरू सेती सनमुखु होवै ॥ होवै त सनमुखु सिखु कोई जीअहु रहै गुर नाले ॥ गुर के चरन हिरदै धिआए अंतर आतमै समाले ॥ आपु छडि सदा रहै परणै गुर बिनु अवरु न जाणै कोए ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु सो सिखु सनमुखु होए ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेती = साथ। सनमुख = सामने मुँह रखने वाला, सही रास्ते पर चलने वाला। होवै = होना चाहे। जीअहु = दिल से। गुर नाले = गुरु के चरणों में। समाले = याद रखे, टिकाए रखे। आपु = स्वै भाव। परणै = आसरे।
अर्थ: जो कोई सिख गुरु के सामने सही रास्ते पर चलने वाला होना चाहता है, जो सिख ये चाहता है कि किसी छुपे हुए खोट के कारण उसको गुरु के सामने आँखें ना झुकानी पड़ें (तो रास्ता एक ही है कि) वह सच्चे दिल से गुरु के चरणों में टिके। सिख गुरु के चरणों को अपने हृदय में जगह दे, अपनी अंत आत्मा के अंदर संभाल के रखे, स्वै भाव छोड़ के सदा गुरु के आसरे, गुरु के बिना किसी और को (अपने आत्मिक जीवन का, आत्मिक आनंद की साधन) ना समझे।
नानक कहता है: हे संत जनो! सुनो, वह सिख (ही) खुश रह सकता है (उसके अंदर ही आत्मिक आनंद हो सकता है)।21।
दर्पण-भाव
भाव: वह मनुष्य खुश रह सकता है, वही मनुष्य सदा आत्मिक आनंद भोग सकता है, जो सच्चे दिल से गुरु के चरणों में टिका रहता है जो स्वै भाव छोड़ के गुरु को ही अपना आसरा बनाए रखता है।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को गुर ते वेमुखु होवै बिनु सतिगुर मुकति न पावै ॥ पावै मुकति न होर थै कोई पुछहु बिबेकीआ जाए ॥ अनेक जूनी भरमि आवै विणु सतिगुर मुकति न पाए ॥ फिरि मुकति पाए लागि चरणी सतिगुरू सबदु सुणाए ॥ कहै नानकु वीचारि देखहु विणु सतिगुर मुकति न पाए ॥२२॥
मूलम्
जे को गुर ते वेमुखु होवै बिनु सतिगुर मुकति न पावै ॥ पावै मुकति न होर थै कोई पुछहु बिबेकीआ जाए ॥ अनेक जूनी भरमि आवै विणु सतिगुर मुकति न पाए ॥ फिरि मुकति पाए लागि चरणी सतिगुरू सबदु सुणाए ॥ कहै नानकु वीचारि देखहु विणु सतिगुर मुकति न पाए ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेमुख = जिसने मुँह दूसरी तरफ किया हुआ है। मुकति = विकारों से खलासी, माया के प्रभाव से मुक्ति। होरथै = किसी और जगह से। बिबेकी = परख वाला आदमी, विचारवान। जाए = जा के। भरमि आवै = भटक के आता है।
अर्थ: (जहाँ माया के मोह के कारण सहम है वहाँ आत्मिक आनंद नहीं फल-फूल सकता, पर) यदि कोई मनुष्य गुरु की और से मुँह मोड़ ले (उसको आत्मिक आनंद नसीब नहीं हो सकता क्योंकि) गुरु के बिना माया के प्रभाव से निजात नहीं मिलती। बेशक, किन्हीं विचारवानों से जा के पूछ लो (और तसल्ली कर लो, ये बात पक्की है कि गुरु के बिना) किसी भी और जगह से मायावी बंधनो से खलासी नहीं मिलती। (माया के मोह में फंसा हुआ मनुष्य) अनेक जूनियों में से भटकता आता है, गुरु की शरण पड़े बिना इस मोह से निजात नहीं मिलती। आखिर, गुरु के चरण लग के ही माया के मोह से छुटकारा मिलता है। क्योंकि गुरु (सही जीवन-मार्ग का) उपदेश सुनाता है।
नानक कहता है: विचार के देख लो, गुरु के बिना माया के बंधनो से आजादी नहीं मिलती, (और इस मुक्ति के बिना आत्मिक आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती)।22।
दर्पण-भाव
भाव: माया का मोह और आत्मिक आनंद - ये दोनों एक ही हृदय में इकट्ठे नहीं टिक सकते। और, माया के मोह से जान तभी छूटती है जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है। गुरु मनुष्य को जीवन का सही रास्ता बताता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवहु सिख सतिगुरू के पिआरिहो गावहु सची बाणी ॥ बाणी त गावहु गुरू केरी बाणीआ सिरि बाणी ॥ जिन कउ नदरि करमु होवै हिरदै तिना समाणी ॥ पीवहु अम्रितु सदा रहहु हरि रंगि जपिहु सारिगपाणी ॥ कहै नानकु सदा गावहु एह सची बाणी ॥२३॥
मूलम्
आवहु सिख सतिगुरू के पिआरिहो गावहु सची बाणी ॥ बाणी त गावहु गुरू केरी बाणीआ सिरि बाणी ॥ जिन कउ नदरि करमु होवै हिरदै तिना समाणी ॥ पीवहु अम्रितु सदा रहहु हरि रंगि जपिहु सारिगपाणी ॥ कहै नानकु सदा गावहु एह सची बाणी ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सची बाणी = परमात्मा की महिमा वाली वाणी, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में जोड़ने वाली वाणी। सिर = सिरपर, सबसे श्रेष्ठ। नदरि = मेहर की नजर। करमु = बख्शिश। हरि रंगि = हरि के प्यार में। सारगि पाणी = धर्नुधारी प्रभु। केरी = की। अंम्रित = आत्मिक आनंद देने वाला नाम जल।
अर्थ: हे सतिगुरु के प्यारे सिखो! आओ, सदा स्थिर परमात्मा में जोड़ने वाली वाणी (मिल के) गाओ। अपने गुरु की वाणी गाओ, ये वाणी और सब बाणियों से सर्वोपरि है (शिरोमणि है)। ये वाणी उन मनुष्यों के हृदय में ही टिकती है जिस पर परमात्मा की मेहर की नजर हो, बख्शिश हो।
(हे प्यारे गुरसिखो!) परमात्मा का नाम स्मरण करो, परमात्मा के प्यार में सदा जुड़े रहो, ये (आनंद देने वाला, आत्मिक हिलैरे देने वाला) नाम-जल पीयो।
नानक कहता है: (हे गुरसिखो!) परमात्मा की महिमा वाली ये वाणी सदा गाओ (इसी में आत्मिक आनंद है)।23।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर की निगाह होती है, वे परमात्मा की महिमा वाली गुरबाणी अपने हृदय में बसाए रखते हैं। गुरबाणी के द्वारा वे आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल सदा पीते रहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरू बिना होर कची है बाणी ॥ बाणी त कची सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ॥ कहदे कचे सुणदे कचे कचीं आखि वखाणी ॥ हरि हरि नित करहि रसना कहिआ कछू न जाणी ॥ चितु जिन का हिरि लइआ माइआ बोलनि पए रवाणी ॥ कहै नानकु सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ॥२४॥
मूलम्
सतिगुरू बिना होर कची है बाणी ॥ बाणी त कची सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ॥ कहदे कचे सुणदे कचे कचीं आखि वखाणी ॥ हरि हरि नित करहि रसना कहिआ कछू न जाणी ॥ चितु जिन का हिरि लइआ माइआ बोलनि पए रवाणी ॥ कहै नानकु सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरू बिना = गुरु आशय के उलट। कची = हलके मेल वाली, मन को छोटा करने वाली, उच्च आत्मिक आनंद को नीचे लाने वाली। कचे = वे लोग जिनका मन कमजोर है, जो माया के प्रभाव के सामने थिड़क सकते हैं। सुणदे कचे = सुनने वालों के मन भी थिड़क जाते हैं (डोल जाते हैं)। कहिआ = जो कुछ मुँह से कहते हैं। हिरि लइआ = चुरा लिया। रवाणी = जबानी जबानी, ऊपर ऊपर से। कचीं = कच्चों ने, कमजोर मन वालों ने।
अर्थ: गुरु आशय के उलट वाणी (माया) की झलक के सामने थिड़का देने वाली होती है। ये बात पक्की है कि गुरु आशै के उलट जाने वाली वाणी को सुनने वालों के मन कमजोर हो जाते हैं, और जो ऐसी वाणी पढ़-पढ़ के व्याख्या करते हैं, वे भी कमजोर मन के हो जाते हैं।
यदि वे लोग जीभ से हरि-नाम भी बोलें तो भी जो कुछ वे बोलते हैं उससे उनकी गहरी समीपता (सांझ गुरु से परमेश्वर से) नहीं पड़ती, क्योंकि उनके मन को माया ने मोह रखा है, वे जो कुछ बोलते हैं ऊपर ऊपर से ही बोलते हैं।
नानक कहता है: गुरु आशै के उलट वाणी मनुष्य के मन को आत्मिक आनंद के ठिकाने से नीचे गिराती है।24।
दर्पण-भाव
भाव: गुरु आशय से उलट जाने वाली वाणी, परमात्मा की महिमा से सूनी वाणी मन को कमजोर करती है, माया की झलक के सामने डावाँडोल कर देती है। ऐसी वाणी नित्य पढ़ने-सुनने वालों के मन माया के प्रभाव के समक्ष कमजोर पड़ जाते हैं। ऐसे कमजोर हो चुके मन में आत्मिक आनंद का स्वाद नहीं बन सकता। वह मन तो माया के मोह में फसा होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु रतंनु है हीरे जितु जड़ाउ ॥ सबदु रतनु जितु मंनु लागा एहु होआ समाउ ॥ सबद सेती मनु मिलिआ सचै लाइआ भाउ ॥ आपे हीरा रतनु आपे जिस नो देइ बुझाइ ॥ कहै नानकु सबदु रतनु है हीरा जितु जड़ाउ ॥२५॥
मूलम्
गुर का सबदु रतंनु है हीरे जितु जड़ाउ ॥ सबदु रतनु जितु मंनु लागा एहु होआ समाउ ॥ सबद सेती मनु मिलिआ सचै लाइआ भाउ ॥ आपे हीरा रतनु आपे जिस नो देइ बुझाइ ॥ कहै नानकु सबदु रतनु है हीरा जितु जड़ाउ ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतंनु = रतन, अमोलक दाति। जितु = जिस (शब्द) में। हीरे = परमात्मा के गुण। जड़ाउ = जड़े हुए। मंनु = मन। एहु समाउ = एसी लीनता। सचै = सदा स्थिर प्रभु में। भाउ = प्यार। बुझाइ देइ = सूझ देता है। हीरा = परमात्मा का नाम। आपे = स्वयं ही।
अर्थ: सतिगुरु का शब्द एक ऐसी अमूल्य दाति है जिसमें परमात्मा की महिमाएं भरी हुई हैं। शब्द, मानो, (ऐसा) रतन है, कि उसके द्वारा (मनुष्य का) मन (परमात्मा की याद में) टिक जाता है (परमात्मा में) एक आश्चर्यजनक लीनता बनी रहती है।
अगर शब्द में (मनुष्य का) मन जुड़ जाए, तो (इसकी इनायत से) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में (उसका) प्रेम बन जाता है। (उसके अंदर परमात्मा का) हीरा-नाम ही टिका रहता है, (परमात्मा की महिमा का) रतन-शब्द ही टिका रहता है। (पर ये दाति उसको ही मिलती है) जिसको (प्रभु आप ये) सूझ बख्शता है।
नानक कहता है: गुरु का शब्द, मानो, एक रतन है जिसमें प्रभु का नाम-रूप हीरा जड़ा हुआ है।25।
दर्पण-भाव
भाव: सतिगुरु की वाणी परमात्मा की ओर से एक अमूल्य दाति है, इसमें परमात्मा की महिमा भरी हुई है। जो मनुष्य इस वाणी से अपना मन जोड़ता है उसके अंदर परमात्मा का प्यार बन जाता है, और, जहाँ प्रभु-प्रेम है वहाँ ही आत्मिक आनंद है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव सकति आपि उपाइ कै करता आपे हुकमु वरताए ॥ हुकमु वरताए आपि वेखै गुरमुखि किसै बुझाए ॥ तोड़े बंधन होवै मुकतु सबदु मंनि वसाए ॥ गुरमुखि जिस नो आपि करे सु होवै एकस सिउ लिव लाए ॥ कहै नानकु आपि करता आपे हुकमु बुझाए ॥२६॥
मूलम्
सिव सकति आपि उपाइ कै करता आपे हुकमु वरताए ॥ हुकमु वरताए आपि वेखै गुरमुखि किसै बुझाए ॥ तोड़े बंधन होवै मुकतु सबदु मंनि वसाए ॥ गुरमुखि जिस नो आपि करे सु होवै एकस सिउ लिव लाए ॥ कहै नानकु आपि करता आपे हुकमु बुझाए ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव = (शिव) चेतन सत्ता, जीवात्मा। सकति = (शक्ति) माया। आपे = स्वयं ही। हुकमु = (ये) हुक्म (कि जीवों पर) माया का प्रभाव बना रहे। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। किसै = किसी (विरले) को। बुझाए = सूझ देता है। मुकतु = माया के प्रभाव से आजाद स्वतंत्र। मंनि = मन में। गुरमुखि = गुरु के राह पर चलने वाला।
अर्थ: जीवात्मा और माया पैदा करके परमात्मा स्वयं ही (ये) हुक्म लागू करवाता है कि (माया का जोर जीवों पर पड़ा रहे) प्रभु सवयं ही ये हुक्म बनाए रखता है, स्वयं ही ये खेल (-तमाशा) देखता है (कि किस तरह जीव माया के हाथों पर नाच रहे हैं), किसी-किसी विरले को गुरु के द्वारा (इस खेल की) सूझ देता है। (जिसको समझ बख्शता है उसके) माया (के मोह) के बंधन तोड़ देता है, वह सख्श माया के बंधनो से स्वतंत्र हो जाता है (क्योंकि) गुरु का शब्द अपने मन में बसा लेता है। गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलने योग्य वही मनुष्य होता है जिसको प्रभु ये समर्थता देता है, वह मनुष्य एक परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ता है (उसके अंदर आत्मिक आनंद बनता है, और वह माया के मोह में से निकलता है)।
नानक कहता है: परमात्मा खुद ही (जीवात्मा और माया की) रचना करता है और खुद ही (किसी विरले को यह) सूझ बख्शता है (कि माया का प्रभाव भी उसका अपना ही) हुक्म (जगत में बरत रहा) है।26।
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा की रजा के अनुसार जीव माया के हाथों पर नाच रहे हें। जिस किसी को गुरु के बताए हुए राह पर चलने के काबिल बनाता है, वह मनुष्य माया के बंधनो से स्वतंत्र हो जाता है, उसकी तवज्जो परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिम्रिति सासत्र पुंन पाप बीचारदे ततै सार न जाणी ॥ ततै सार न जाणी गुरू बाझहु ततै सार न जाणी ॥ तिही गुणी संसारु भ्रमि सुता सुतिआ रैणि विहाणी ॥ गुर किरपा ते से जन जागे जिना हरि मनि वसिआ बोलहि अम्रित बाणी ॥ कहै नानकु सो ततु पाए जिस नो अनदिनु हरि लिव लागै जागत रैणि विहाणी ॥२७॥
मूलम्
सिम्रिति सासत्र पुंन पाप बीचारदे ततै सार न जाणी ॥ ततै सार न जाणी गुरू बाझहु ततै सार न जाणी ॥ तिही गुणी संसारु भ्रमि सुता सुतिआ रैणि विहाणी ॥ गुर किरपा ते से जन जागे जिना हरि मनि वसिआ बोलहि अम्रित बाणी ॥ कहै नानकु सो ततु पाए जिस नो अनदिनु हरि लिव लागै जागत रैणि विहाणी ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततै सार = तत्व की सूझ, अस्लियत की समझ, जो असल ग्रहण योग्य वस्तु है उसकी समझ, आत्मिक आनंद की समझ। तिही गुणी = माया के तीन स्वभावों में। भ्रमि = भटक भटक के। रैणि = उम्र, रात। से = वह लोग। मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त अंम्रित वाणी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी। जगत = विकारों की तरफ से सचेत रहते हुए।
अर्थ: स्मृतियाँ व शास्त्र आदि पढ़ने वाले पण्डित सिर्फ यही विचारें करते हैं कि (इन पुस्तकों के अनुसार) पाप क्या है और पुण्य क्या है, उनको आत्मिक आनंद का रस नहीं आ सकता। (ये बात यकीनी जानिए कि) सतिगुरु की शरण आए बिना आत्मिक आनंद का रस नहीं आ सकता, जगत तीन गुणों में ही भटक-भटक के गाफिल हुआ पड़ा है, माया के मोह में सोए हुए की ही सारी उम्र गुजर जाती है (स्मृतियों-शास्त्रों की विचारें इस नींद में से जगा नहीं सकतीं)।
(मोह की नींद में से) गुरु की कृपा से (सिर्फ) वे मनुष्य जागते हैं जिनके अंदर परमात्मा का नाम बसता है जो परमात्मा की महिमा की वाणी उचारते हैं।
नानक कहता है: वही मनुष्य आत्मिक आनंद भोगता है जो हर वक्त प्रभु की याद की लगन में टिका रहता है, और जिसकी उम्र (इस तरह मोह की नींद में से) जागते हुए बीतती है।27।
दर्पण-भाव
भाव: कर्मकांड के अनुसार कौन सा पुण्य कर्म है और कौन सा पाप कर्म - सिर्फ ये विचार मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा नहीं कर सकती। गुरु की कृपा से जो मनुष्य सदा हरि-नाम स्मरण करता है महिमा की वाणी उचारता है, वह विकारों की ओर से सचेत रहता है, और, आत्मिक आनंद पाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माता के उदर महि प्रतिपाल करे सो किउ मनहु विसारीऐ ॥ मनहु किउ विसारीऐ एवडु दाता जि अगनि महि आहारु पहुचावए ॥ ओस नो किहु पोहि न सकी जिस नउ आपणी लिव लावए ॥ आपणी लिव आपे लाए गुरमुखि सदा समालीऐ ॥ कहै नानकु एवडु दाता सो किउ मनहु विसारीऐ ॥२८॥
मूलम्
माता के उदर महि प्रतिपाल करे सो किउ मनहु विसारीऐ ॥ मनहु किउ विसारीऐ एवडु दाता जि अगनि महि आहारु पहुचावए ॥ ओस नो किहु पोहि न सकी जिस नउ आपणी लिव लावए ॥ आपणी लिव आपे लाए गुरमुखि सदा समालीऐ ॥ कहै नानकु एवडु दाता सो किउ मनहु विसारीऐ ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदर = पेट। मनहु = मन से। किउ विसारीऐ = बिसारना नहीं चाहिए। एवडु = इतना बड़ा। अगनि = आग। आहारु = खुराक। ओस ने = उस व्यक्ति ने। किहु = कुछ। लिव = प्रीत, लगन। गुरमुखि = गुरु से। समालीऐ = स्मरणा चाहिए, हृदय में बसाना चाहिए।
अर्थ: (अगर आत्मिक आनंद प्राप्त करना है तो) उस परमात्मा को कभी भुलाना नहीं चाहिए, जो माँ के पेट में (भी) पालना करता है, इतने बड़े दाते को मन से भुलाना नहीं चाहिए जो (माँ के पेट की) आग में (भी) खुराक पहुँचाता है।
(ये मोह ही है जो आनंद से तोड़ के रखता है, पर) उस व्यक्ति को (मोह आदिक) कुछ भी छू नहीं सकता जिसको प्रभु अपने चरणों की प्रीति बख्शता है। (पर, जीव के भी क्या वश?) प्रभु स्वयं ही अपनी प्रीति की दाति बख्शता है। (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर उसको स्मरण करते रहना चाहिए।
नानक कहता है: (अगर आत्मिक आनंद की आवश्यक्ता है तो) इतने बड़े दातार प्रभु को कभी भुलाना नहीं चाहिए।28।
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्यार बख्शता है, उस मनुष्य पर कोई भी विकार अपना जोर नहीं डाल सकता। गुरु की शरण पड़ कर, गुरु के बताए हुए मार्ग पर चल के सदा परमात्मा की याद अपने दिल में टिकाए रखनी चाहिए। आत्मिक आनंद की प्राप्ति का यही है तरीका।
[[0921]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसी अगनि उदर महि तैसी बाहरि माइआ ॥ माइआ अगनि सभ इको जेही करतै खेलु रचाइआ ॥ जा तिसु भाणा ता जमिआ परवारि भला भाइआ ॥ लिव छुड़की लगी त्रिसना माइआ अमरु वरताइआ ॥ एह माइआ जितु हरि विसरै मोहु उपजै भाउ दूजा लाइआ ॥ कहै नानकु गुर परसादी जिना लिव लागी तिनी विचे माइआ पाइआ ॥२९॥
मूलम्
जैसी अगनि उदर महि तैसी बाहरि माइआ ॥ माइआ अगनि सभ इको जेही करतै खेलु रचाइआ ॥ जा तिसु भाणा ता जमिआ परवारि भला भाइआ ॥ लिव छुड़की लगी त्रिसना माइआ अमरु वरताइआ ॥ एह माइआ जितु हरि विसरै मोहु उपजै भाउ दूजा लाइआ ॥ कहै नानकु गुर परसादी जिना लिव लागी तिनी विचे माइआ पाइआ ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदर = माँ के पेट। बाहरि = संसार में। करतै = कर्तार ने। जा तिसु भाणा = जब उस प्रभु को अच्छा लगा। परवारि = परिवार में। भला भाइआ = प्यारा लगने लग पड़ा। छुड़की = खत्म हो गई, टूट गई। अमरु = हुक्म। अमरु वरताइआ = हुक्म चला दिया, जोर डाल लिया। जितु = जिसके द्वारा। भाउ दूजा = प्रभु के बिना और का प्यार।
अर्थ: जैसे माँ के पेट में आग है वैसे ही बाहर जगत में माया (दुखदाई) है। माया और आग एक जैसी ही हैं, कर्तार ने ऐसी ही खेल रच दी है।
जब परमात्मा की रजा होती है जीव पैदा होता है परिवार में प्यारा लगता है (परिवार के जीव उस नव-जन्मे बच्चे को प्यार करते हैं, इस प्यार में फंस के उसकी प्रभु-चरणों से) प्रीति की तार टूट जाती है, माया की तृष्णा आ चिपकती है, माया (उस पर) अपना जोर डाल लेती है।
माया है ही ऐसी कि इसके कारण ईश्वर भूल जाता है, (दुनिया का) मोह पैदा हो जाता है, (ईश्वर के बिना) और किस्म के प्यार उपज पड़ते हैं (फिर ऐसी हालत में आत्मिक आनंद कहाँ मिले?)
नानक कहता है: गुरु की कृपा से जिस लोगों की प्रीत की डोर प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है, उनको माया में रहते हुए ही (आत्मिक आनंद) मिल जाता है।
दर्पण-भाव
भाव: गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों की तवज्जो दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए ही प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है, उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है। जगत का हाल ये है कि जीव को पैदा होते को ही माता-पिता आदि के प्यार द्वारा माया प्रभु-चरणों से विछोड़ लेती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपि अमुलकु है मुलि न पाइआ जाइ ॥ मुलि न पाइआ जाइ किसै विटहु रहे लोक विललाइ ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै तिस नो सिरु सउपीऐ विचहु आपु जाइ ॥ जिस दा जीउ तिसु मिलि रहै हरि वसै मनि आइ ॥ हरि आपि अमुलकु है भाग तिना के नानका जिन हरि पलै पाइ ॥३०॥
मूलम्
हरि आपि अमुलकु है मुलि न पाइआ जाइ ॥ मुलि न पाइआ जाइ किसै विटहु रहे लोक विललाइ ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै तिस नो सिरु सउपीऐ विचहु आपु जाइ ॥ जिस दा जीउ तिसु मिलि रहै हरि वसै मनि आइ ॥ हरि आपि अमुलकु है भाग तिना के नानका जिन हरि पलै पाइ ॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमुलकु = जो किसी कीमत से ना मिल सके। मुलि = कीमत से, कीमत दे के। किसै विटहु = किसी भी सख्श से। विललाइ = खप खप के। रहे = रह गए, थक गए, हार गए। आपु = स्वै भाव। जिस दा = जिस परमात्मा का पैदा किया हुआ। जीउ = जीव। मनि = मन में। पलै पाइ = (गुरु के) साथ लगा देता है।
अर्थ: (जब तक परमात्मा का मिलाप ना हो तब तक आनंद नहीं पाया जा सकता, पर) प्रभु का मूल्य नहीं पड़ सकता, परमात्मा (धन आदिक) किसी कीमत से नहीं मिल सकता। जीव खप-खप के हार गए, किसी को (धन आदि) कीमत दे के परमात्मा नहीं मिला।
(हाँ,) अगर ऐसा गुरु मिल जाए (जिसके मिलने से मनुष्य के) अंदर से स्वै भाव निकल जाए (और जिस गुरु के मिलने से) जीव उस हरि के चरणों में जुड़ा रहे वह हरि उसके मन में बस जाए जिसका ये पैदा किया हुआ है, तो उस गुरु के आगे अपना सिर भेट कर देना चाहिए (अपना आप अर्पण कर देना चाहिए)।
हे नानक! परमात्मा का मूल्य नहीं आँका जा सकता (किसी कीमत पर नहीं मिलता, पर) पर परमात्मा जिनको (गुरु के) लड़ लगा देता है उनके भाग्य जाग उठते हैं (वे आत्मिक आनंद पाते हैं)।30।
दर्पण-भाव
भाव: किसी दुनियावी पदार्थ के बदले परमात्मा का मिलाप नहीं हो सकता। और, जिस हृदय में प्रभु के साथ प्यार नहीं, वहाँ आत्मिक आनंद कहाँ? हां, जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु के पल्ले से लगा देता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रासि मेरी मनु वणजारा ॥ हरि रासि मेरी मनु वणजारा सतिगुर ते रासि जाणी ॥ हरि हरि नित जपिहु जीअहु लाहा खटिहु दिहाड़ी ॥ एहु धनु तिना मिलिआ जिन हरि आपे भाणा ॥ कहै नानकु हरि रासि मेरी मनु होआ वणजारा ॥३१॥
मूलम्
हरि रासि मेरी मनु वणजारा ॥ हरि रासि मेरी मनु वणजारा सतिगुर ते रासि जाणी ॥ हरि हरि नित जपिहु जीअहु लाहा खटिहु दिहाड़ी ॥ एहु धनु तिना मिलिआ जिन हरि आपे भाणा ॥ कहै नानकु हरि रासि मेरी मनु होआ वणजारा ॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रासि = वाणज्य व्यापार करने के लिए धन की पूंजी। वणजारा = वणज करने वाला। सतिगुर ते जाणी = गुरु से पहचान प्राप्त की। जीअहु = दिल से, पूरे प्रेम से। दिहाड़ी = हर रोज। भाणा = अच्छा लगा।
अर्थ: अपने गुरु से मुझे समझ आई है कि (आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए) परमात्मा का नाम ही मेरी राशि-पूंजी (हो सकती है), मेरा मन (इस वणज का) व्यापारी बन गया है। परमात्मा का नाम मेरी राशि-पूंजी है और मेरा मन व्यापारी हो गया है।
(हे भाई!) तुम भी प्रेम से सदा हरि का नाम जपा करो, और हर रोज (आत्मिक आनंद का) लाभ कमाओ। (हरि-नाम का आत्मिक आनंद का) ये धन उनको ही मिलता है, जिन्हें देना प्रभु को खुद अच्छा लगता है। नानक कहता है: परमात्मा का नाम मेरी पूंजी बन गई है (अब गुरु की कृपा से मैं आत्मिक आनंद की कमाई कमाता हूँ)।31।
दर्पण-भाव
भाव: गुरु से ये समझ आती है कि आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही मनुष्य की राशि-पूंजी बननी चाहिए। ये संपत्ति उनको ही मिलती है जिस पर प्रभु स्वयं मेहर करे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए रसना तू अन रसि राचि रही तेरी पिआस न जाइ ॥ पिआस न जाइ होरतु कितै जिचरु हरि रसु पलै न पाइ ॥ हरि रसु पाइ पलै पीऐ हरि रसु बहुड़ि न त्रिसना लागै आइ ॥ एहु हरि रसु करमी पाईऐ सतिगुरु मिलै जिसु आइ ॥ कहै नानकु होरि अन रस सभि वीसरे जा हरि वसै मनि आइ ॥३२॥
मूलम्
ए रसना तू अन रसि राचि रही तेरी पिआस न जाइ ॥ पिआस न जाइ होरतु कितै जिचरु हरि रसु पलै न पाइ ॥ हरि रसु पाइ पलै पीऐ हरि रसु बहुड़ि न त्रिसना लागै आइ ॥ एहु हरि रसु करमी पाईऐ सतिगुरु मिलै जिसु आइ ॥ कहै नानकु होरि अन रस सभि वीसरे जा हरि वसै मनि आइ ॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ए रसना = हे (मेरी) जीभ! अन रसि = और ही रसों में। राचि रही = मस्त हो रही है। पिआस = स्वादों का चस्का। होरतु कितै = किसी और जगह से। पलै न पाइ = नहीं मिलता। पीऐ = पीता है। बहुड़ि = दोबारा, फिर। करमी = प्रभु की मेहर से। होरि अन रस = और दूसरे सारे स्वाद। सभि = सारे। मन = मन में।
अर्थ: हे (मेरी) जीभ! तू और ही स्वादों में मस्त हो रही है, (इस तरह) तेरे स्वादों का चस्का दूर नहीं हो सकता।
जब तक परमात्मा के स्मरण का आनंद प्राप्त ना हो, (तब तक) किसी और जगह से स्वादों का चस्का मिट नहीं सकता।
जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का आनंद मिल जाए, जो मनुष्य हरि-स्मरण का स्वाद लेने लग पड़े, उसको माया की तृष्णा छू नहीं सकती। पर, यह हरि-नाम का आनंद प्रभु की मेहर से मिलता है (उसको मिलता है) जिसको गुरु मिले।
नानक कहता है: जब हरि-स्मरण का आनंद मन में बस जाए, तब और सारे चस्के भूल जाते हैं।32।
दर्पण-भाव
भाव: कई तरह के खाने खाने से भी जीभ का चस्का खत्म नहीं होता। बड़ा दुखी होता है मनुष्य इस चस्के के कारण। पर जब मनुष्य को हरि-नाम-स्मरण का आनंद आने लग जाता है, जीभ का चस्का खत्म हो जाता है। परमात्मा की मेहर से जिसको गुरु मिल जाए, उसको हरि नाम का आनंद प्राप्त होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए सरीरा मेरिआ हरि तुम महि जोति रखी ता तू जग महि आइआ ॥ हरि जोति रखी तुधु विचि ता तू जग महि आइआ ॥ हरि आपे माता आपे पिता जिनि जीउ उपाइ जगतु दिखाइआ ॥ गुर परसादी बुझिआ ता चलतु होआ चलतु नदरी आइआ ॥ कहै नानकु स्रिसटि का मूलु रचिआ जोति राखी ता तू जग महि आइआ ॥३३॥
मूलम्
ए सरीरा मेरिआ हरि तुम महि जोति रखी ता तू जग महि आइआ ॥ हरि जोति रखी तुधु विचि ता तू जग महि आइआ ॥ हरि आपे माता आपे पिता जिनि जीउ उपाइ जगतु दिखाइआ ॥ गुर परसादी बुझिआ ता चलतु होआ चलतु नदरी आइआ ॥ कहै नानकु स्रिसटि का मूलु रचिआ जोति राखी ता तू जग महि आइआ ॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जीव। उपाइ = पैदा करके। जगतु दिखाइआ = जीव को जगत में भेजता है। चलतु = खेल, तमाशा। मूलु रचिआ = नींव रखी। जिनि = जिस (परमात्मा) ने।
अर्थ: मेरे शरीर! (तू दुनिया के पदार्थों में से आनंद ढूँढता है पर आनंद का श्रोत तो परमात्मा है जो तेरे अंदर बसता है) तू जगत में आया ही तब, जब हरि ने अपनी ज्योति तेरे अंदर रख दी। (ये यकीन जान कि) जब परमात्मा ने तेरे अंदर अपनी ज्योति रखी, तब तू जगत में पैदा हुआ।
जो परमात्मा जीव पैदा करके उसको जगत में भेजता है वह खुद ही इसकी माँ है खुद ही इसका पिता है (प्रभु स्वयं ही माता-पिता की तरह जीव को हर तरह का सुख देता है, सुख-आनंद का दाता है ही प्रभु खुद। पर जीव जगत में से मायावी पदार्थों में से आनंद तलाशता है)। जब गुरु की मेहर से जीव को ज्ञान होता है तब इसको समझ आती है कि ये जगत तो एक खेल ही है, फिर जीव को ये जगत (मदारी का) एक तमाशा ही नजर आने लगता है (सदा-स्थिर रहने वाला आत्मिक आनंद इसमें नहीं हो सकता)।
नानक कहता है: हे मेरे शरीर! जब प्रभु ने जगत रचना की नींव रखी, तेरे अंदर अपनी ज्योति डाली, तब तू जगत में पैदा हुआ।33।
दर्पण-भाव
भाव: सुख-आनंद का दाता है ही परमात्मा स्वयं। पर मनुष्य जगत में मायावी पदार्थों में आनंद तलाशता फिरता है। गुरु की मेहर से ये समझ आ जाती है कि ये जगत तो मदारी का तमाशा ही है, इसमें से सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि चाउ भइआ प्रभ आगमु सुणिआ ॥ हरि मंगलु गाउ सखी ग्रिहु मंदरु बणिआ ॥ हरि गाउ मंगलु नित सखीए सोगु दूखु न विआपए ॥ गुर चरन लागे दिन सभागे आपणा पिरु जापए ॥ अनहत बाणी गुर सबदि जाणी हरि नामु हरि रसु भोगो ॥ कहै नानकु प्रभु आपि मिलिआ करण कारण जोगो ॥३४॥
मूलम्
मनि चाउ भइआ प्रभ आगमु सुणिआ ॥ हरि मंगलु गाउ सखी ग्रिहु मंदरु बणिआ ॥ हरि गाउ मंगलु नित सखीए सोगु दूखु न विआपए ॥ गुर चरन लागे दिन सभागे आपणा पिरु जापए ॥ अनहत बाणी गुर सबदि जाणी हरि नामु हरि रसु भोगो ॥ कहै नानकु प्रभु आपि मिलिआ करण कारण जोगो ॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चाउ = आनंद। प्रभ आगमु = प्रभु का आना। सखी = हे सखी! हे जिंदे! मंगलु = खुशी के गीत, प्रभु के महिमा के गीत। ग्रिहु = हृदय घर। मंदरु = प्रभु का निवास स्थान। न विआपए = नहीं व्यापता, अपना दबाव नहीं डालता। सभागे = भाग्यशाली। जापए = दिख पड़ा है। अनहत = एक रस। अनहत बाणी = एक रस महिमा की लहर। सबदि = शब्द के द्वारा। जोगो = समर्थ।
अर्थ: अपनी हृदय-सेज पर प्रभु-पति का आना मैंने सुन लिया है (मैंने अनुभव कर लिया है कि प्रभु मेरे हृदय में आ के बसा है अब) मेरे मन में आनंद बन गया है। हे मेरी जिंदे! मेरा ये हृदय-घर प्रभु-पति का निवास-स्थान बन गया है, अब तू प्रभु की महिमा के गीत गा। हे जीवात्मा! सदा प्रभु की बड़ाई का गीत गाता रह, (इस तरह) कोई फिक्र कोई दुख (अपना) जोर नहीं डाल सकता।
वह दिन भाग्यशाली होते हैं जब (माथा) गुरु के चरणों पर टिके, प्यारा पति-प्रभु (हृदय में) दिखाई दे जाता है। गुरु के शब्द द्वारा एक-रस महिमा की लहर के साथ सांझ बन जाती है, प्रभु का नाम प्राप्त हो जाता है, प्रभु-मिलाप का आनंद भोगते हैं।
नानक कहता है: (हे जिंदे! खुशी के गीत गा) सब कुछ कर सकने के समर्थ प्रभु खुद आ के मुझे मिल गया है।34।
दर्पण-भाव
भाव: मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद तभी बनता है जब उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है। तब मनुष्य का हृदय विकारों से पवित्र हो जाता है, कोई चिन्ता कोई दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। पर ये प्रकाश गुरु के द्वारा ही होता है।
[[0922]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए सरीरा मेरिआ इसु जग महि आइ कै किआ तुधु करम कमाइआ ॥ कि करम कमाइआ तुधु सरीरा जा तू जग महि आइआ ॥ जिनि हरि तेरा रचनु रचिआ सो हरि मनि न वसाइआ ॥ गुर परसादी हरि मंनि वसिआ पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ कहै नानकु एहु सरीरु परवाणु होआ जिनि सतिगुर सिउ चितु लाइआ ॥३५॥
मूलम्
ए सरीरा मेरिआ इसु जग महि आइ कै किआ तुधु करम कमाइआ ॥ कि करम कमाइआ तुधु सरीरा जा तू जग महि आइआ ॥ जिनि हरि तेरा रचनु रचिआ सो हरि मनि न वसाइआ ॥ गुर परसादी हरि मंनि वसिआ पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ कहै नानकु एहु सरीरु परवाणु होआ जिनि सतिगुर सिउ चितु लाइआ ॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ करम = कौन से काम? और ही काम। जिनि हरि = जिस हरि ने। तेरा रचनु रचिआ = तुझे पैदा किया। मनि = मन में। मंनि = मन में। जिनि = जिस मनुष्य ने। परवाणु = स्वीकार, सफल।
अर्थ: हे मेरे शरीर! इस जगत में जनम ले के तू और ही काम करता रहा। जबका तू संसार में आया है, तू (प्रभु-स्मरण के बिना) और-और ही काम करता रहा। जिस हरि ने तुझे पैदा किया है, उसको तूने अपने मन में नहीं बसाया (उसकी याद में कभी नहीं जुड़ा)।
(पर, हे शरीर! तेरे भी क्या वश?) जिस मनुष्य के पूर्बले किए कर्मों के संस्कार उघड़ते हैं, गुरु की कृपा से उसके मन में परमात्मा बसता है (वही हरि स्मरण में जुड़ता है)।
नानक कहता है: जिस मनुष्य ने गुरु चरणों में चिक्त जोड़ लिया, (उसका) ये शरीर सफल हो जाता है (वह मनुष्य वह उद्देश्य पूरा कर लेता है जिस वास्ते ये बनाया गया)।35।
दर्पण-भाव
भाव: पिछले किए कर्मों के संस्कारों का प्रेरा हुआ मनुष्य बार-बार वैसे काम ही करता रहता है। परमात्मा का नाम स्मरण करने की तरफ अपने आप नहीं परत सकता। फिर आत्मिक आनंद कैसे मिले? अच्छे भाग्यों से जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब इसकी जिंदगी कामयाब होती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए नेत्रहु मेरिहो हरि तुम महि जोति धरी हरि बिनु अवरु न देखहु कोई ॥ हरि बिनु अवरु न देखहु कोई नदरी हरि निहालिआ ॥ एहु विसु संसारु तुम देखदे एहु हरि का रूपु है हरि रूपु नदरी आइआ ॥ गुर परसादी बुझिआ जा वेखा हरि इकु है हरि बिनु अवरु न कोई ॥ कहै नानकु एहि नेत्र अंध से सतिगुरि मिलिऐ दिब द्रिसटि होई ॥३६॥
मूलम्
ए नेत्रहु मेरिहो हरि तुम महि जोति धरी हरि बिनु अवरु न देखहु कोई ॥ हरि बिनु अवरु न देखहु कोई नदरी हरि निहालिआ ॥ एहु विसु संसारु तुम देखदे एहु हरि का रूपु है हरि रूपु नदरी आइआ ॥ गुर परसादी बुझिआ जा वेखा हरि इकु है हरि बिनु अवरु न कोई ॥ कहै नानकु एहि नेत्र अंध से सतिगुरि मिलिऐ दिब द्रिसटि होई ॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। जोति = रौशनी। निहालिआ = निहालो, देखो। नदरी = नजर से, आँखों से। विसु = विश्व, सारा। नदरी आइआ = दिखता हैं अंध = अंधे। से = थे। दिब = (दिव्य) चमकीली, रौशन। द्रिसटि = नजर।
अर्थ: हे मेरी आँखों! परमात्मा ने तुम्हारे अंदर (अपनी) ज्योति टिकाई है (तभी तुम देखने के लायक हो) जिधर देखो, परमात्मा का ही दीदार करो, परमात्मा के बिना और कोई ग़ैर ना दिखे, निगाहों से हरि को देखो।
(हे आँखों!) ये सारा संसार जो तुम देख रही हो, ये प्रभु का ही रूप है, प्रभु का ही रूप दिख रहा है।
गुरु की कृपा से मुझे समझ पड़ी है, अब मैं जब (चुफेरे) देखता हूँ, हर जगह एक परमात्मा ही दिखता है, उसके बिना और कुछ नहीं।
नानक कहता है: (गुरु को मिलने से पहले) ये आँखें (असल में) अंधी थीं, जब गुरु मिला, इनमें रौशनी आई (इन्हें हर जगह परमात्मा दिखने लगा। यही दीदार आनंद का मूल है)।26।
दर्पण-भाव
भाव: जब तक मनुष्य जगत में किसी को वैर भाव से देखता है किसी को मित्रता के भाव से, तब तक इसके अंदर मेर-तेर है। जहाँ मेर-तेर है, वहाँ आत्मिक आनंद नहीं हो सकता। गुरु को मिल के मनुष्य की आँखें खुलती हैं, फिर इसको हर जगह परमात्मा ही परमात्मा दिखाई देता है। यही दीदार है आनंद का मूल।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए स्रवणहु मेरिहो साचै सुनणै नो पठाए ॥ साचै सुनणै नो पठाए सरीरि लाए सुणहु सति बाणी ॥ जितु सुणी मनु तनु हरिआ होआ रसना रसि समाणी ॥ सचु अलख विडाणी ता की गति कही न जाए ॥ कहै नानकु अम्रित नामु सुणहु पवित्र होवहु साचै सुनणै नो पठाए ॥३७॥
मूलम्
ए स्रवणहु मेरिहो साचै सुनणै नो पठाए ॥ साचै सुनणै नो पठाए सरीरि लाए सुणहु सति बाणी ॥ जितु सुणी मनु तनु हरिआ होआ रसना रसि समाणी ॥ सचु अलख विडाणी ता की गति कही न जाए ॥ कहै नानकु अम्रित नामु सुणहु पवित्र होवहु साचै सुनणै नो पठाए ॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रवण = कान। पठाए = भेजे। साचै = सदा स्थिर प्रभु ने। सरीरि = शरीर में। सति बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली वाणी। जितु = जिससे। जितु सुणी = जिसके सुनने से। रसि = आनंद में। हरिआ = खिला हुआ, आनंद से भरपूर। रसना = जीभ। विडाणी = आश्चर्य। गति = हालत। अंम्रित = आत्मिक आनंद देने वाला।
अर्थ: हे मेरे कानो! परमात्मा की महिमा की वाणी सुना करो, सदा स्थिर कर्तार ने तुम्हें यही सुनने के लिए बनाया है, इस शरीर में स्थापित किया है। इस महिमा की वाणी सुनने से तन तन आनंद-भरपूर हो जाता है, जीभ आनंद में मस्त हो जाती है।
सदा स्थिर परमात्मा तो आश्चर्य रूप है, उसका कोई चिन्ह-चक्र बताया नहीं जा सकता, ये नहीं कहा जा सकता है कि वह कैसा है (उसके गुण कहने-सुनने से सिर्फ यही लाभ होता है कि मनुष्य को आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, तभी तो) नानक कहता है: आत्मिक आनंद देने वाला नाम सुना करो, तुम पवित्र हो जाओगे, परमात्मा ने तुम्हें यही सुनने के लिए भेजा (बनाया) है।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्य के कानों को अभी निंदा-चुगली सुनने का चस्का है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद पैदा नहीं हुआ। आत्मिक आनंद की प्राप्ति उसी मनुष्य को है जिसके कान जिसकी जीभ जिसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ परमात्मा की महिमा में मगन रहती हैं। वही ज्ञान-इन्द्रियाँ पवित्र हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ गुफा अंदरि रखि कै वाजा पवणु वजाइआ ॥ वजाइआ वाजा पउण नउ दुआरे परगटु कीए दसवा गुपतु रखाइआ ॥ गुरदुआरै लाइ भावनी इकना दसवा दुआरु दिखाइआ ॥ तह अनेक रूप नाउ नव निधि तिस दा अंतु न जाई पाइआ ॥ कहै नानकु हरि पिआरै जीउ गुफा अंदरि रखि कै वाजा पवणु वजाइआ ॥३८॥
मूलम्
हरि जीउ गुफा अंदरि रखि कै वाजा पवणु वजाइआ ॥ वजाइआ वाजा पउण नउ दुआरे परगटु कीए दसवा गुपतु रखाइआ ॥ गुरदुआरै लाइ भावनी इकना दसवा दुआरु दिखाइआ ॥ तह अनेक रूप नाउ नव निधि तिस दा अंतु न जाई पाइआ ॥ कहै नानकु हरि पिआरै जीउ गुफा अंदरि रखि कै वाजा पवणु वजाइआ ॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद, जीवात्मा। गुफा = शरीर। पवणु वाजा वजाइआ = श्वास रूप बाजा बजाया, बोलने की शक्ति दी। नउ दुआरे = नौ द्वार = 1मुँह, 2कान, 2 आँखें, 2 नासिकाएं, 1 गुदा, 1 लिंग। दसवा दुआर = (भाव) दिमाग (जिसके द्वारा मनुष्य विचार कर सकता है)। भावनी = श्रद्धा, प्रेम। तह = उस अवस्था में। अनेक रूप नाउ = अनेक रूप वाले प्रभु का नाम। निधि = खजाना।
अर्थ: परमात्मा ने जीवात्मा को शरीर गुफा में टिका के जीव को बोलने की शक्ति दी। शरीर को बोलने की शक्ति दी, नाक-कान आदि नौ कर्म-इंद्रिय प्रत्यक्ष रूप से बनाई, दसवें द्वार (दिमाग़) को छुपा के रखा।
प्रभु ने जिनको गुरु दर पर पहुँचा के अपने नाम की श्रद्धा बख्शी, उनको दसवाँ दर भी दिखा दिया (उनको नाम-जपने की विचार-सत्ता भी दे दी जो आत्मिक आनंद का मूल है)। उस अवस्था में मनुष्य को अनेक रूपों-रंगों में व्यापक प्रभु का वह नाम-रूपी नौ खजानों का भण्डार भी प्राप्त हो जाता है जिसका अंत नहीं पड़ सकता (जो कभी खत्म नहीं होता)।
नानक कहता है: प्यारे प्रभु ने जिंद को शरीर-गुफा में टिका के जीव को बोलने की शक्ति भी दी।38।
दर्पण-भाव
भाव: माया के प्रभाव के कारण ज्ञान-इंद्रिय मनुष्य को मायावी पदार्थां की तरफ ही भगाए फिरती हैं। ये रास्ता ठीक है अथवा गलत - ये विचार करने वाली शक्ति दबी ही रहती है। जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु के दर पर पहुँचाता है, उसकी विचार-शक्ति जाग उठती है। वह मनुष्य प्रभु के नाम में जुड़ता है और आत्मिक आनंद पाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु साचा सोहिला साचै घरि गावहु ॥ गावहु त सोहिला घरि साचै जिथै सदा सचु धिआवहे ॥ सचो धिआवहि जा तुधु भावहि गुरमुखि जिना बुझावहे ॥ इहु सचु सभना का खसमु है जिसु बखसे सो जनु पावहे ॥ कहै नानकु सचु सोहिला सचै घरि गावहे ॥३९॥
मूलम्
एहु साचा सोहिला साचै घरि गावहु ॥ गावहु त सोहिला घरि साचै जिथै सदा सचु धिआवहे ॥ सचो धिआवहि जा तुधु भावहि गुरमुखि जिना बुझावहे ॥ इहु सचु सभना का खसमु है जिसु बखसे सो जनु पावहे ॥ कहै नानकु सचु सोहिला सचै घरि गावहे ॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहिला = खुशी का गीत, आत्मिक आनंद पैदा करने वाला गीत, प्रभु की महिमा की वाणी। साचै घरि = सदा स्थिर रहने वाले घर में, साधु-संगत में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। गावहु = गावहि, (सत्संगी) गाते हैं। भावहि = अगर तुझे अच्छे लगें (हे प्रभु!)। बुझावहे = तू सूझ बख्शे। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। पावहे = प्राप्त करते हैं, पाए। गावहे = गाते हैं, गाए।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के महिमा की यह वाणी साधु-संगत में (बैठ के) गाया करो। उस सत्संग में आत्मिक आनंद देने वाली वाणी गाया करो, जहाँ (गुरसिख-जन) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को सदा गाते हैं।
हे प्रभु! तुझ सदा-स्थिर को तब ही जीव स्मरण करते हैं जब तुझे अच्छे लगें, जिन्हें तू गुरु के द्वारा ये सूझ बख्शे।
(हे भाई!) सदा-स्थिर प्रभु सब जीवों का मालिक है, जिस-जिस पर वह मेहर करता है वह वह जीव उसे प्राप्त कर लेते हैं। और, नानक कहता है, वह सत्संग में (बैठ के) प्रभु की महिमा की वाणी गाते हैं।39।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर होती है, वे गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा की वाणी गाते हैं और आत्मिक आनंद पाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदु सुणहु वडभागीहो सगल मनोरथ पूरे ॥ पारब्रहमु प्रभु पाइआ उतरे सगल विसूरे ॥ दूख रोग संताप उतरे सुणी सची बाणी ॥ संत साजन भए सरसे पूरे गुर ते जाणी ॥ सुणते पुनीत कहते पवितु सतिगुरु रहिआ भरपूरे ॥ बिनवंति नानकु गुर चरण लागे वाजे अनहद तूरे ॥४०॥१॥
मूलम्
अनदु सुणहु वडभागीहो सगल मनोरथ पूरे ॥ पारब्रहमु प्रभु पाइआ उतरे सगल विसूरे ॥ दूख रोग संताप उतरे सुणी सची बाणी ॥ संत साजन भए सरसे पूरे गुर ते जाणी ॥ सुणते पुनीत कहते पवितु सतिगुरु रहिआ भरपूरे ॥ बिनवंति नानकु गुर चरण लागे वाजे अनहद तूरे ॥४०॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विसूरे = चिन्ता फिक्र। संताप = कष्ट। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सरसे = स+रस, रहे, आनंद भरपूर। गुर ते = गुरु से। सतिगुरू रहिआ भरपूरे = गुरु (अपनी वाणी मैं) भरपूर है, वाणी गुरु रूप है। अनहद = एक रस। तूरे = बाजे। मनोरथ = मन की दौड़ें।
अर्थ: हे बड़े भाग्यों वालो! सुनो, आनंद यह है कि (उस अवस्था में) मन की सारी दौड़ें समाप्त हो जाती हैं (सारे संकल्प सफल हो जाते हैं), परम आत्मा प्रभु मिल जाता है, सारे चिन्ता-फिक्र मन से उतर जाते हैं। अकाल-पुरख की महिमा की वाणी सुनने से सारे दुख-रोग-कष्ट मिट जाते हैं। जो संत-गुरसिख पूरे गुरु से महिमा की वाणी से सांझ डालनी सीख लेते हैं उनके हृदय खिल उठते हैं। इस वाणी को सुनने वाले उचारने वाले सब पवित्र आत्मा वाले हो जाते हैं, इस वाणी में उनको सतिगुरु ही दिखाई देता है।
नानक विनती करता है: जो लोग गुरु के चरणों में लगते हैं, उनके अंदर एक-रस (खुशी के) बाजे बज उठते हैं (उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है)।40।
दर्पण-भाव
भाव: आत्मिक आनंद के लक्षण: जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, उसकी भटकना दूर हो जाती है, उसके सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं, कोई दुख-रोग कोई कष्ट उस पर जोर नहीं डाल सकते।
आनंद की यह अवस्था सतिगुरु की वाणी से ही प्राप्त होती है। इस वाणी को गाने वालों सुनने वालों के जीवन ऊँचे हो जाते हैं। इस वाणी में उन्हें सतिगुरु ही प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
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दर्पण-टिप्पनी
रामकली सदु॥ ੴ सतिगुर प्रसादि॥ (पन्ना ९२३) इस वाणी का पहला टीका
संन् 1935 में सिख ऐजुकेश्नल कान्फ्रैंस का समागम गुजरांवाले हुआ। उसी कान्फ्रैंस के पण्डाल में मुझे गुरबाणी व्याकरण के बारे में अपने विचार प्रकट करने का मौका मिला। अखबारों के प्रतिनिघि भी मौजूद थे। मैंने व्याकरण की व्याख्या के समय ‘सद’ की पाँचवीं पौड़ी का हवाला भी दिया। मासिक पत्रिका ‘अमृत’ के ऐडीटर स. गंगा सिंह जी ने मुझे समागम के बाद में कहा कि मैं उस सारी वाणी की व्याख्या व्याकरण के अनुसार लिख के किताब की शकल में पेश करूँ। ‘अमृत’ की अपनी प्रेस थी। उन्होंने मेरा ट्रैक्ट ‘रब्बी सद्दा’ छाप दिया।
वह ट्रैक्ट ‘रब्बी सद्दा’ कई सालों से खत्म हो चुका था। पर और-और टीकों, लेखों और पुस्तकों की व्यस्तता के कारण मैं उसका दूसरा संस्करण जल्दी ना छपवा सका।
दूसरी बार ये टीका ‘सद सटीक’ के नाम तहत दिसंबर 1953 में छपा। इसकी अंदरूनी शकल बहुत कुछ बदला के इसको मौजूद रूप दे दिया गया। हाँ, मूल के टीके में कोई फर्क डालने की आवश्यक्ता नहीं थी पड़ी। तब मैं खालसा कालेज अमृतसर से रिटायर हो चुका था, और, मुझे शहीद सिख मिशनरी कालेज अमृतसर में रिहायश लायक जगह मिली हुई थी।
–साहिब सिंह
दर्पण-शीर्षक
रामकली सदु॥ ੴ सतिगुर प्रसादि॥
दर्पण-टिप्पनी
हिन्दू मत के अनुसार अंतिम संस्कार
जब किसी हिन्दू घर में कोई प्राणी मरने लगता है, तो उसके पुत्र–स्त्री आदि वारिस शास्त्रों में बताई मर्यादा के अनुसार उसको चारपाई से नीचे उतार लेते हैं। जमीन पर कपड़ा आदि बिछाने की मर्यादा है। उसके हाथ की तली पर आटे की दीया रख के जला देते हैं, और दीए में ब्राहमण की भेटा के लिए सामर्थ्य अनुसार अठन्नी रुपया आदि चांदी-सोने का सिक्का डाल देते हैं। इस मर्यादा का भाव वे यह समझते हैं कि मरने वाले प्राणी की आत्मा ने आगे बड़े अंधकार भरे रास्तों में से गुजरना है, जहाँ रास्ता देखने के लिए उसको प्रकाश की आवश्यक्ता पड़ती है। मरने के वक्त उसकी तली पर रखा हुआ दीया उसको परलोक के रास्तों में रौशनी देता है।
जब आदमी मर जाता है, तब उसके शरीर का संस्कार करने से पहले जौ के आटे के पेड़े पत्तलों पर रख के मणसे जाते हैं। ब्राहमण पुराण आदि के मंत्र पढ़ता है। सूर्य की ओर मुँह करके पानी की चुल्लियाँ भी भेटा की जाती हैं। ये उस विछुड़ी रूह के लिए ख़ुराक भेजी जाती है।
घर से चल के शमशान से पहले आधे रास्ते पर मृतक का फट्टा नीचे रख दिया जाता है। घर से चलने के वक्त मिट्टी का एक कोरा बर्तन साथ ले लेते हैं। उस अर्धमार्ग पे वह बर्तन तोड़ देते हैं, और मरे हुए प्राणी का पुत्र आदि बहुत ऊँची डरावनी आवाज में ढाहें मारता है। इस रस्म के तहत ख्याल ये है कि मृतक की आत्मा शारीरिक मोह के कारण अभी उस मुर्दे के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगा रही है। इस भयानक आवाज से उसे डराते हैं कि चली जाए।
संस्कार करने के वक्त ब्राहमण फिर कुछ मंत्र पढ़ता है। संस्कार के बाद बच रही हड्डियों (अस्थियों) को हरिद्वार गंगा नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। हिन्दू-विचार के अनुसार जिस की अस्थियां गंगा में डाली जाएं उसकी गति नहीं होती।
मरने के बाद 13 दिन तक हरेक प्राणी की आत्मा प्रेत बनी रहती है, और अपने छोड़े हुए घरों के इर्द-गिर्द ही भटकती फिरती है। जिनका कोई मरता है, उनके घर के शरीके बिरादरी के घरों में से औरतें-मर्द रात को आ के सोते हैं। सवेरे पहर रात रहते मरे हुए प्राणी का पुत्र आदि उठ के ढाहें मारता है। 13 दिन हर सुबह यही कुछ होता है। यह भी मृतक की आत्मा को डराने के लिए किया जाता है। (नोट: जैसे जैसे लोग विद्या के प्रकाश के कारण समझदार होते जा रहे हैं, ये ढाहें मारने वाली रस्म हटती जा रही है)।
तेरहवें दिन मृतक की किरिया की जाती है आचार्य आ के ये रस्म करवाता है। ये रस्म विछुड़ी आत्मा को प्रेत जून में से निकाल के पितृ लोक तक पहुँचाने के लिए की जाती है। शास्त्रों के अनुसार ख्याल ये बना हुआ है कि पितृ लोक पहुँचने के लिए 360 दिन लगते हैं। रास्ता है अनदेखा और अंधकार भरा। इसलिए किरिया करने के वक्त 360 दीए बक्तियाँ और आवश्क्ता अनुसार तेल ला के रख देते हैं। जब वेद-मंत्र आदि पढ़ने की सारी रस्म पूरी जाती है, तब वह बक्तियाँ इकट्ठी करके तेल में भिगो के जला दी जाती हैं, और इस तरह मरे हुए प्राणी को पितृ लोक के लंबे रास्ते में 360 दिन रौशनी मिलती रहती है। इन एक साथ जलाए हुए दीयों के अलावा भी शनि देवते के मन्दिर में साल भर हर रोज दीया जलाने के लिए भी तेल भेजा जाता है। किरिया वाले दिन भी विछुड़ी हुई रूह के लिए खुराक के लिए पिंड भराए जाते हैं। किरिया वाले दिन से ले के एक साल हर रोज ब्राहमण को भोजन करवाया जाता है।
नोट: संस्कार करने के बाद से किरिया वाले दिन तक गरुड़ पुराण की कथा भी कराई जाती है। आम तौर पर ब्राहमण को विनती की जाती है कि अपने घर बैठ के ही गरुड़ का पाठ करता रहे।
साल के बाद मरने की तिथि पर ही वरीण (बरसी) किया जाता है। खुराक के इलावा विछुड़े हुए प्राणी के लिए बर्तन-वस्त्र आदि भी भेजे जाते हैं। सारा सामान आचार्य को दान किया जाता है। इसके बाद हर साल श्राद्धों के दिनों में उस तिथि पर ब्राहमणों को भोजन करवाया जाता है। ये भी विछड़े हुए संबंधी को पहुँचाने के लिए ही होता है।
यदि कोई प्राणी बहुत ज्यादा उम्र का हो के मरे, पौत्र-परपौत्र वाला हो जाए तो उसका संस्कार करने के वक्त ‘वडा’ करते हैं। जिस फट्टे पर मुर्दा उठा के ले जाया जाता है, उस फट्टे को सुंदर कपड़ों व फूलों से सजाते हैं। मुर्दा ले जाने के वक्त उसके ऊपर से उसके पौत्र-परपौत्र आदि छुहारे-मखाने पैसे आदि फेंकते हैं। इस रस्म को ‘बबाण’ निकालना कहा जाता है।
पुराण
पुराण - व्यास ऋषि अथवा उनके नाम पर विद्वानों द्वारा लिखे हुए इतिहास से मिले हुए धर्म-ग्रंथ। इनकी गिनती 18 है। इनमें चार लाख शलोक हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पुराण के लक्षण ये हैं: जगत की उत्पक्ति और पर्लय, देवताओं और पितरों की बंसावली, मनु के राज का समय और उसका हाल, सुर्य और चंद्रवंश की कथा –जिसमें ये पाँच प्रसंग हों वह पुराण है।
गरुड़ पुराण
हिन्दू मानते हैं कि हरेक देवते का कोई विशेष वाहन (सवारी) होता है। जैसे गणेश की सवारी चूहा, ब्रहमा की सवारी हंस, शिव की सवारी बैल। इसी तरह गरुड़ विष्णु की सवारी माना जाता है।
गरुड़ पुराण में विष्णु आपने वाहन गरुड़ को जम-मार्ग का हाल सुनाता है, और कहता है:
मरने के बाद जीव प्रेत जूनि प्राप्त करता है, और इसका शरीर अंगूठे जितना हो जाता है। मरे हुए प्राणी के लिए पिंड भराने आवश्यक हैं। इनकी सहायता से प्रेत का शरीर दस दिनों में हाथ जितना हो जाता है। जब प्राणी मरने लगे तो उसको स्नान और सालिगराम की पूजा करनी चाहिए। सालिगराम सारे पापों का नाश करता है। अगर मरने के वक्त प्राणी के मुँह में सालिगराम का चरणामृत पड़े, तो उसके सारे पाप दूर हो जाते हैं।
जैसे रुई के ढेर आग की एक चिंगारी से जल के राख हो जाते हैं, वैसे ही मरने के वक्त प्राणी शब्द गंगा कहने से मुक्त हो जाता है।
प्रेत-कर्म करवाने के लिए मरे प्राणी के संस्कार से पहले उसका पुत्र व अन्य नजदीकी संबंधी मुण्डन करें। ये अत्यंत आवश्यक है। प्रेत की खातिर मंत्र के साथ तिल व घी की आहुति देनी चाहिए, और बहुत रोना चाहिए। ऐसा करने से मरे हुए प्राणी को सुख मिलता है।
ग्यारह दिन-रात हर वक्त दीया जलते रहना चाहिए। इस दीए से जम-मार्ग में प्रकाश होता है।
प्रेत-कर्म करने से प्राणी दस-दिनों में ही सारे पापों से छुटकारा पा लेता है। गरुड़ पुराण को सुनने और सुनाने वाले पापों से मुक्त हो जाते हैं। इस पुराण को वाचने वाले पण्डित को कपड़े, गहने, गऊ, अन्न, सोना, जमीन आदि सब कुछ दान करना चाहिए, नहीं तो फल की प्राप्ति नहीं होती। कथा सुनाने वाला अगर प्रसन्न हो जाए, तो हे गरुड़! दान करने वाले पर मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ।
गुरु अमरदास जी के बारे में किरिया का भुलेखा
‘सद’ की पाँचवीं पउड़ी को पढ़ कर सिख जनता आम तौर पर धोखा खा जाती है, और अनेक सज्जन ये समझने लग जाते हैं कि इस पउड़ी में गुरु अमरदास जी द्वारा किरिया करने की हिदायत का वर्णन है। मेरा ‘गुरबाणी व्याकरण’ संन 1938 में छपा था। अब तो पढ़े-लिखे सज्जनों को कोई शक नहीं रह गया होगा कि गुरु साहिब जी के वक्त की पंजाबी और अब की पंजाबी के व्याकरण में बहुत ज्यादा फर्क है। गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को सही ढंग से समझने के लिए ये अत्यंत जरूरी है कि उस वक्त की पंजाबी के व्याकर्णिक नियमों की थोड़ी बहुत समझ हो। पाठकों की सहूलत के लिए पाँचवीं पउड़ी के अर्थों में शब्द– पंडित, पढ़हि और पावऐ – की व्याकर्णिक वाकफियत देने की खातिर बहुत विस्तार से काम लिया गया है, ता कि किसी शक की गुंजायश ना रह सके।
भूमिका में सरसरी सी जान-पहचान करने के लिए सिर्फ यही बताना काफी है कि शब्द ‘पण्डित’ बहुवचन है, शब्द ‘पढ़हि’ भी बहुवचन है। हिन्दू सज्जन मरे हुए प्राणी के बाद किरिया करवाते हैं। किरिया करने वाले ब्राहमण को आचार्य कहा जाता है। ये आचार्य खानदानी ही चले आ रहे हैं। हरेक घर का एक ही आचार्य होता है। अगर गुरु अमरदास जी द्वारा किरिया की हिदायत होती तो शब्द ‘पण्डित’ यहाँ एकवचन में होता, अक्षर ‘त’ के अंत में ‘ु’ की मात्रा लगी होती। शब्द ‘गोपाल’ संबंध कारक में है। ‘केसो गोपाल पंडित’ का अर्थ है ‘केसो–गोपाल के पण्डित’। केशव और गोपाल परमात्मा के नाम हैं, जैसे;
‘कबीर केसो केसो कूकीअै’, और ‘गोपाल तेरा आरता’।
सतिगुरु जी द्वारा हिदायत ये है कि हमारे पीछे परमात्मा के पण्डितों को बुलाना, भाव सत्संगियों को बुलाना जो आ के गरुड़ पुराण की जगह ‘हरि हरि कथा’ पढ़ें। इसी हिदायत की प्रौढ़ता अगली दो तुकों में की गई है;
“हरि कथा पढ़ीऐ, हरि नामु सुणीऐ॥ ”
शब्द ‘पावऐ’ वर्तमान काल है, अन्नपुरख, एक वचन। इसका अर्थ है; ‘पाता है’। किसी भी हालत में ये शब्द हुकमी भविष्यत काल (imperative mood) में नहीं है। तीसरी तुक की जिक्र है कि “बेबाणु हरि रंगु भावऐ” (गुरु को हरि का प्यार-रूपी बेबाण अच्छा लगता है)। चौथी तुक के शब्द ‘पावऐ’ का कर्ता शब्द ‘गुरु’ है (गुरु पिंड पतलि किरिआ दीवा फूल – ये सब कुछ ‘हरिसर’ (हरि के सरोवर) में डालता है, भाव, इस सारी रस्म को गुरु सत्संग से सदके करता है)।
दर्पण-शीर्षक
किरिआ आदिक बारे गुरु नानक देव जी की हिदायत
दर्पण-टिप्पनी
ये बात नि: संदेह साबित हो चुकी है कि गुरु नानक देव जी अपनी सारी वाणी स्वयं लिख के अपने साथ रखते रहे थे। अपने हाथों से उन्होंने ये सारी ही गुरु अंगद देव जी के हवाले कर दी थी। गुरु अंगद देव जी ने अपनी वाणी समेत ये सारा संग्रह गुरु अमरदास जी को दे दिया था। इस तरह सिलसिलेवार पहले चार गुरु-व्यक्तियों की सारी वाणी गुरु रामदास जी द्वारा गुरु अरजन साहिब को मिल गई थी। (पढें मेरे लेख इसी ग्रंथ के तीसरे भाग में)
गुरु नानक देव और गुरु अमरदास जी की वाणी को आमने-सामने रख के ये भी पूरी तरह साबित किया जा चुका है कि गुरु अमरदास जी गुरु नानक देव जी की सारी वाणी को बड़े ध्यान से पढ़ते रहते थे। इस वाणी के बारे में उनका अभ्यास कमाल दर्जे का था।
हिंदू प्राणी के अंतिम संस्कार का दीया, पिंड, पतल, किरिआ आदि – के बारे में गुरु नानक देव जी ने पहली ‘उदासी’ के दौरान गया तीर्थ पर पहुँच कर जो अपने विचार प्रगट किए थे, और सारी वाणी के संग्रह में आकर गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थे, वो ये थे:
आसा महला १॥ दीवा मेरा एकु नामु, दुखु विचि पाइआ तेलु॥ उनि चानणि ओहु सोखिआ, चूका जम सिउ मेलु॥१॥ लोका मत को फकड़ि पाइ॥ लख मड़िआ करि एकठे, एक रती ले भाहि॥१॥ रहाउ॥ पिंडु पतलि मेरी केसउ, किरिआ सचु नामु करतारु॥ ऐथै ओथै आगै पाछै, एहु मेरा आधारु॥२॥ गंग बनारसि सिफति तुमारी, नावै आतम राउ॥ सचा नावणु तां थीऐ, जां अहिनिसि लागै भाउ॥३॥ इक लोकी होरु छमिछरी, ब्राहमणु वटि पिंडु खाइ॥ नानक पिंडु बखसीस का, कबहूँ निखूटसि नाहि॥४॥ (पन्ना ३५८)
दीया–बाती, पिंड भराने, किरिया करवानी, फूल हरिद्वार ले जाने– इस सारी ही मर्यादा के बारे में सिख-धर्म के बानी गुरु नानक देव जी ने अपने नाम-लेवा सिखों के लिए हिदायत संन 1509 की वेसाखी के समय स्पष्ट कर दी थी। अपनी सांसारिक जीवन के बाकी 30 साल इस हिदायत का प्रचार करते रहे, और अपने सिखों को इस पर चलाते रहे। ये कोई छोटी सी बात नहीं थी। सारी हिंदू जनता किरिया आदि मर्यादा संबंधी सदियों से ब्राहमणों की मुथाज चली आ रही है। गुरु नानक देव जी ने अपने सिखों को इन बंधनो से स्वतंत्र कर दिया। जहाँ तक रोज का संबंध था, ब्राहमणों को गुरु नानक देव जी और उनके गद्दी-नशीन गुरु-व्यक्तियों से भारी खतरा दिखाई दिया। गुरु इतिहास को ध्यान से पढ़ने वाले सज्जन जानते हैं कि ब्राहमण ने गुरु नानक देव जी के समय से ही सिख धर्म की विरोधता करनी आरम्भ कर दी थी।
ये सवाल ही पैदा नहीं होता कि तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी ब्राहमणों वाली उसी गुलामी में दोबारा खुद पड़ कर अपने सिखों के लिए भी वही अधीनता नए सिरे से कायम कर जाते। हिंदू सज्जन की किरिया होती है कि उसको प्रेत जून में से निकाल के पित्र लोक में पहुँचाया जाए। गुरु अमरदास जी के बारे में ऐसा कोई रंचक मात्र विचार भी लाना एक सिख के लिए अति दर्जे की मानसिक गिरावट है।
दर्पण-शीर्षक
गुरु अमरदास जी और तीर्थ यात्रा
दर्पण-टिप्पनी
जिस लोगों की दीया-बाती पिंड-पत्तल आदि में श्रद्धा है, उनके लिए ये भी जरूरी है कि अपने मरें प्राणी की अस्थियाँ (फूल) हरिद्वार ले जा के गंगा में जल-प्रवाह करें। दूसरे शब्दों में यूँ कह लो कि किरिया आदि के श्रद्धालु के हरिद्वार तीर्थ और गंगा का स्नान अति जरूरी है। पर इस बारे में भी गुरु नानक देव जी ने उसी शब्द में साफ लिख दिया हैकि परमात्मा की सिफतासालाह ही हमारे वास्ते गंगा का स्नान है।
सिख इतिहास लिखता है कि गुरु अंगद साहिब के पास संन 1541 में आने से पहले गुरु अमरदास जी 19 साल हरिद्वार जाते रहे। ये उनका हर साल का नियम थां पर सतिगुरु जी की शरण आ के उन्होंने हिंदू मत वाला तीर्थ-स्नान का नियम ग़ैर-जरूरी समझ लिया। संन् 1541 के बाद अपने 34 साल के शारीरिक जीवन में वे सिर्फ एक बार हरिद्वार गए संन् 1558 में, जब उन्हें गुरु-गद्दी पर बैठे 6 साल हो चुके थे। वह भी एक बार क्यों गए थे? जैसे गुरु नानक देव जी ‘चढ़िया सोधण धरति लुकाई।’ गुरु अमरदास जी के हरिद्वार जाने के बारे में गुरु रामदास जी ने (चौथे गुरु साहिब ने) तुखारी राग में लिखा है;
“तीरथ उदमु सतिगुरू कीआ, सभ लोक उधरण अरथा॥ ”
गुरु की शरण आना, गुरु के शब्द में जुड़ना -सिर्फ यही था सच्चा तीर्थ गुरु अमरदास जी की नजरों में। सूही राग की अष्टपदियों में आप ने लिखा है;
‘सचा तीरथु जितु सतसरि नावणु गुरमुखि आपि बुझाए॥
अठसठि तीरथ गुर सबदि दिखाए तितु नातै मलु जाए॥ ”
सो, जहाँ प्राणी के अंतिम संस्कार के बारे में सिख-धर्म का दृष्टिकोण हिंदू धर्म से बदल चुका था, वहीं तीर्थ स्नान के बारे में भी अलग हो गया था।
दर्पण-शीर्षक
‘सद’ का बीड़ में शामिल किया जाना
दर्पण-टिप्पनी
गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को उस वक्त के व्याकरण के अनुसार समझने में सिख पंथ की लापरवाही ने कई शबदों के बारे में भुलेखे खड़े कर दिए। जैसे ‘सद’ की पाँचवीं पउड़ी से ये भुलेखा बना, इसी तरह भक्तों के कई शब्द भी गुरमति के उलट समझे जाने लगे। शबदों की सही समझ ना पड़ सकने के कारण कई तरह की हास्यास्पद कहानियां-साखियां भी चल पड़ीं।
इसका नतीजा ये निकला कि कई सज्जनों ने ये मान्यता बना ली कि भक्त-वाणी, सत्ते बलवंड की वार आदि कुछ बाणियां गुरु अरजन साहिब की शहीदी के बाद बाबा पृथी चंद जी ने जहाँगीर के साथ साजिश करके ‘बीड़’ में दर्ज करवा दी थीं।
इस प्रस्ताव का उक्तर भी हम इस ग्रंथ के तीसरे संस्करण में दे चुके हैं उसे अब यहाँ दोहराने की जरूरत नहीं है। यहाँ सिर्फ गुरु ग्रंथ साहिब में इस्तेमाल ‘अंकों’ का हवाला दे के बताया जाएगा कि वाणी ‘सदु’ गुरु अरजन साहिब ने स्वयं ही दर्ज कराई थी।
1430 पृष्ठों वाली ‘बीड़’ के अनुसार रामकली राग में बरते अंकों पर विचार की जाएगी।
यह राग पन्ना 876 से शुरू होता है। मर्यादा के अनुसार सबसे पहले गुरु नानक देव जी के शब्द हैं। पन्ना 879 पर कुल जोड़ 11 दिया गया है।
पन्ना 880– शब्द गुरु अमरदास जी। सिर्फ एक ही शब्द है। इसी ही पन्ने पर गुरु रामदास जी के शब्द शुरू होते हैं। पन्ना 882 पर इन शब्दों का जोड़ 6 दिया गया है। यहीं तीनों गुरु-व्यक्तियों के शबदों का जोड़ 18 भी लिखा मिलता है: 11+1+6=18.
पन्ना 882 से गुरु अरजन देव जी के शब्द शुरू हुए हैं। पन्ना886 पर ‘घरु १’ के 11 शब्द खत्म होते हैं। आगे ‘घरु २’ के शब्द हैं। अंक दोहरा कर दिया गया है। पन्ना 901 पर ये कड़ी खत्म होती है। दोहरा जोड़ है।45।56।, भाव 45 शब्द ‘घर २’ के हैं, और 11 ‘घरु १’ के। पर ये तकरीबन सारे शब्द चउपदे हैं। पन्ना 901 पर ‘घरु २’ के ही दो शब्द दुपदे अलग दे के सारा जोड़ 58 दिया गया है। आगे ‘पड़ताल घरु ३’ के दो शब्द हैं। और, आखिर पर गुरु अरजन साहिब के सारे शबदों का जोड़ 60 दिया गया है।
असटपदीया:
पन्ना 902 पर गुरु नानक देव जी की। पन्ना 908 पर समाप्त। जोड़ 9
पन्ना 908 से गुरु अमरदास जी की। पन्ना 912 पर समाप्त। जोड़ 5। दोनों का जोड़ 14 भी दिया गया है।
पन्ना 912 से गुरु अरजन साहिब की। पन्ना 916 पर समाप्त। जोड़ 8। तीनों गुरु-व्यक्तियों की असटपदीयों का जोड़ 22।
पन्ना 917 से महला ३ की वाणी अनंदु। 40 पउड़ियों की पूरी वाणी पन्ना 922 पर समाप्त होती है आखिरी अंक 1, भाव ये एक वाणी समझी जाए।
पन्ना 923 से ‘सदु’। 6 पउड़ीओं की एक वाणी। 924 पर आखिरी अंक।6।1।
पन्ना 924 से ‘छंत महला ५’ के। पन्ना 927 के 4 छंत समाप्त होते हैं, पर पाँचवें छंत की सिर्फ 2 तुकें हैं। इससे आगे ‘महला ५’ कर ‘रुती सलोक’ है। ये एक लंबा छंद है शलोकों समेत। इसके 8 बंद हैं, हरेक के साथ एक-एक शलोक है। सारे छंद को एक (१) समझना है। इस वास्ते पन्ना 929 पर इसके आखिर में अंक है।8।1।
पर इस अंक के साथ ही अंक हैं।6।8। इन्हें जरा समझने की जरूरत है।
असटपदीयों के समाप्त होने पर
अनंदु—————-1 वाणी
सदु——————1 वाणी
छंतु——————5
रुती सलोक———1
कुल —————-8
असटपदीयों के बाद पहले महला ३ की वाणी ‘अनंदु’ है, आखिर में महला ५ का ‘रुती सलोक’ है। और ‘सदु’ समेत जोड़ 8 दिया हुआ है।
अगर गुरु अरजन साहिब की शहादत के बाद ‘सदु’ की वाणी दर्ज हुई होती, तो पहले अंक 7 होता, जिसको शुद्ध करके अंक 8 बनाया जाता।
बाबा सुंदर जी
वाणी ‘सदु’ के करता बाबा सुंदर जी गुरु अमरदास जी के परपौत्र थे।
गुरु अमरदास जी।
बाबा मोहरी जी।
बाबा अनंद जी।
बाबा सुंदर जी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली सदु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली सदु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगि दाता सोइ भगति वछलु तिहु लोइ जीउ ॥ गुर सबदि समावए अवरु न जाणै कोइ जीउ ॥ अवरो न जाणहि सबदि गुर कै एकु नामु धिआवहे ॥ परसादि नानक गुरू अंगद परम पदवी पावहे ॥ आइआ हकारा चलणवारा हरि राम नामि समाइआ ॥ जगि अमरु अटलु अतोलु ठाकुरु भगति ते हरि पाइआ ॥१॥
मूलम्
जगि दाता सोइ भगति वछलु तिहु लोइ जीउ ॥ गुर सबदि समावए अवरु न जाणै कोइ जीउ ॥ अवरो न जाणहि सबदि गुर कै एकु नामु धिआवहे ॥ परसादि नानक गुरू अंगद परम पदवी पावहे ॥ आइआ हकारा चलणवारा हरि राम नामि समाइआ ॥ जगि अमरु अटलु अतोलु ठाकुरु भगति ते हरि पाइआ ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
सदु-शब्द पंजाबी बोली में आम प्रयोग किया जाता है, इसका अर्थ है ‘आवाज’।
ये शब्द संस्कृत के शब्द ‘शब्द’ का प्राक्रित रूप है ‘सद्द’, जो पंजाबी में भी ‘सद’ है। संस्कृत के तालव्य ‘श’ की जगह प्राक्रित में दंतवी ‘स’ ही रह गया और दो अक्षरो ‘ब्द’ की जगह ‘द’ की ही दोहरी आवाज रह गई।
रामकली राग में लिखी गई इस वाणी का नाम ‘सदु’ है, यहाँ इसका भाव है ‘ईश्वर की ओर से गुरु अमरदास जी को आई हुई सदाअ’।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सदु = आवाज। जगि = जग में। भगति वछलु दाता = भक्ति को प्यार करने वाला दाता। तिहु लोइ = तीनों लोकों में। गुर सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। समावए = (उस अकाल-पुरख में) (गुरु अमरदास) समाता है, लीन होता है। न जाणहि = नहीं जानते हैं, (गुरु अमरदास जी) नहीं जानते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दूसरी तुक में शब्द ‘जाणै’ आया है और तीसरी में ‘जाणहि’ है। व्याकरण के अनुसार शब्द ‘जाणै’ वर्तमान काल (Present Tense) अन्य-पुरुष (Third person) एक वचन (singular number) है। इस सारी पौड़ी में ‘गुरु अमरदास जी’ की तरफ इशारा है। सो शब्द ‘गुरु अमरदास’ इस क्रिया का ‘करता’ (subject) है। इसका अर्थ है: (गुरु अमरदास) जानता है।
तीसरी तुक में शब्द ‘जाणहि’ है, ये ‘जाणै’ का बहुवचन (Plural Number) है, जैसे ‘गावै’ से ‘गावहि’ है। जैसे ‘आदर’ प्रकट करने के लिए ‘सुखमनी साहिब’ में शब्द ‘प्रभ’ के साथ ‘जी’ बरत के इसके साथ क्रिया बहुवचन (Plural Number) में बरती गई है;
“प्रभ जी बसहि साध की रसना॥ ”
वैसे ही यहाँ भी ‘आदर’ के लिए क्रिया ‘जाणहि’ बहुवचन में है, इसका अर्थ है – ‘(गुरु अमरदास जी) जानते हैं’।
सबदि गुर के = गुरु के शब्द द्वारा।
धिआवहे–कविता में छंद का ख्याल रख के शब्द ‘धिआवहि’ की आखिरी ‘ि’ को बदल के ‘े’ लगा दी गई है। इसी तरह ‘पावहे’ शब्द ‘पावहि’ से बना है। जैसे ‘आदर’ के लिए ऊपर शब्द ‘जाणहि’ आया है, वैसे ही ये शब्द ‘धआवहे’ और ‘पावहे’ हें; इनका अर्थ है: (गुरु अमरदास जी) ध्याते हैं, (गुरु अमरदास जी) प्राप्त करते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। परसादि नानक = (गुरु) नानक की कृपा से। परसादि नानक गुरू अंगद = गुरु नानक और गुरु अंगद की कृपा से।
हकारा = हाक, आवाज। चलणवारा हकारा = चलने का सदा।
अर्थ: जो अकाल-पुरख जगत में (जीवों को) दातें बख्शने वाला है, जो तीनों लोकों में भक्ति करने वालों को प्यार करता है, (उस अकाल-पुरख में गुरु अमरदास) सतिगुरु के शब्द के द्वारा लीन (रहा) है, (और उस के बिना) किसी और को (उस जैसा) नहीं जानता।
(गुरु अमरदास जी) सतिगुरु के शब्द की इनायत से (अकाल-पुरख के बिना) किसी और को (उस जैसा) नहीं जानते (रहे) हैं, केवल एक ‘नाम’ को ध्याते (रहे) हैं; गुरु नानक और गुरु अंगद देव जी की कृपा से वह ऊँचे दर्जे को प्राप्त कर चुके हैं।
(जो गुरु अमरदास) अकाल-पुरख के नाम में लीन था, (धुर से) उनके चलने की आवाज आ गई; (गुरु अमरदास जी ने) जगत में (रहते हुए) अमर, अटल, अतोल ठाकुर को भक्ति के द्वारा प्राप्त कर लिया हुआ था।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि भाणा गुर भाइआ गुरु जावै हरि प्रभ पासि जीउ ॥ सतिगुरु करे हरि पहि बेनती मेरी पैज रखहु अरदासि जीउ ॥ पैज राखहु हरि जनह केरी हरि देहु नामु निरंजनो ॥ अंति चलदिआ होइ बेली जमदूत कालु निखंजनो ॥ सतिगुरू की बेनती पाई हरि प्रभि सुणी अरदासि जीउ ॥ हरि धारि किरपा सतिगुरु मिलाइआ धनु धनु कहै साबासि जीउ ॥२॥
मूलम्
हरि भाणा गुर भाइआ गुरु जावै हरि प्रभ पासि जीउ ॥ सतिगुरु करे हरि पहि बेनती मेरी पैज रखहु अरदासि जीउ ॥ पैज राखहु हरि जनह केरी हरि देहु नामु निरंजनो ॥ अंति चलदिआ होइ बेली जमदूत कालु निखंजनो ॥ सतिगुरू की बेनती पाई हरि प्रभि सुणी अरदासि जीउ ॥ हरि धारि किरपा सतिगुरु मिलाइआ धनु धनु कहै साबासि जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि भाणा = अकाल-पुरख की रजा। गुर भाइआ = गुरु (अमरदास) को मीठा लगा। गुरु जावै = गुरु (अमरदास) जाता है, भाव, जाने को तैयार हो गया। सतिगुरु = गुरु अमरदास। हरि पहि = हरि के पास। हरि जनह केरी = हरि के दासों की। हरि = हे हरि! अंति = अंत के समय, आखिर वक्त पर। निखंजनो = नाश करने वाला। पाई = की हुई। सतिगुरु की बेनती पाई = गुरु अमरदास जी की की हुई विनती। हरि प्रभि = हरि प्रभु ने। धारि किरपा = कृपा करके। सतिगुरु मिलाइआ = गुरु (अमरदास जी) को (अपने में) मिला लिया। कहै = (अकाल-पुरख) कहता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ ‘वर्तमान काल’ भूत काल के भाव में प्रयोग किया गया है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अकाल-पुरख की रजा गुरु (अमरदास जी) को प्यारी लगी, और सतिगुरु (जी) अकाल-पुरख के पास जाने को तैयार हो गए। गुरु अमरदास जी ने अकाल-पुरख के आगे ये विनती की- ‘(हे हरि!) मेरी अरदास है कि मेरी इज्जत रख। हे हरि! अपने सेवकों की इज्जत रख, और माया से निर्मोह करने वाला अपना नाम बख्श, जमदूतों और काल को नाश करने वाला नाम देह, जो आखिर में (यहाँ से) चलने के वक्त साथी बने।
सतिगुरु की की हुई यह विनती, यह अरदास, अकाल-पुरख प्रभु ने सुन ली, और मेहर करके उसने गुरु अमरदास जी को (अपने चरणों में) जोड़ लिया, और कहने लगे- शाबाश! तू धन्य है, तू धन्य है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे सिख सुणहु पुत भाईहो मेरै हरि भाणा आउ मै पासि जीउ ॥ हरि भाणा गुर भाइआ मेरा हरि प्रभु करे साबासि जीउ ॥ भगतु सतिगुरु पुरखु सोई जिसु हरि प्रभ भाणा भावए ॥ आनंद अनहद वजहि वाजे हरि आपि गलि मेलावए ॥ तुसी पुत भाई परवारु मेरा मनि वेखहु करि निरजासि जीउ ॥ धुरि लिखिआ परवाणा फिरै नाही गुरु जाइ हरि प्रभ पासि जीउ ॥३॥
मूलम्
मेरे सिख सुणहु पुत भाईहो मेरै हरि भाणा आउ मै पासि जीउ ॥ हरि भाणा गुर भाइआ मेरा हरि प्रभु करे साबासि जीउ ॥ भगतु सतिगुरु पुरखु सोई जिसु हरि प्रभ भाणा भावए ॥ आनंद अनहद वजहि वाजे हरि आपि गलि मेलावए ॥ तुसी पुत भाई परवारु मेरा मनि वेखहु करि निरजासि जीउ ॥ धुरि लिखिआ परवाणा फिरै नाही गुरु जाइ हरि प्रभ पासि जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे सिख पुत भाईहो = हे मेरे सिखो! हे मेरे पुत्रो! हे मेरे भाईयो! भाणा = भाया है, अच्छा लगा है। मेरै हरि भाणा = मेरे अकाल पुरख को अच्छा लगा है। मै पासि = मेरे पास। हरि भाणा = अकाल-पुरख की रजा। गुर भाइआ = गुरु को मीठा लगा। करे साबासि = शाबाश कह रहा है। जिसु भावए = जिसको मीठा लगता है। प्रभ भाणा = प्रभु का भाणा। आनंद वाजे = आनंद के बाजे। अनहद = एक रस, लगातार। गलि = गले में। मनि = मन में। करि निरजासि = निर्णय करके। धुरि = धुर से, ईश्वर की ओर से। परवाणा = हुक्म। फिरै नाही = मोड़ा नहीं जा सकता।
अर्थ: हे मेरे सिखो! हे मेरे पुत्रो! हे मेरे भाईयो! सुनो - “मेरे अकाल-पुरख को (ये) अच्छा लगा है (और उसने मुझे हुक्म किया है:) ‘मेरे पास आओ’।
“अकाल-पुरख की रजा गुरु को मीठी लगी है, मेरा प्रभु (मुझे) शाबाश दे रहा है। वह (मनुष्य) भक्त है और पूरा गुरु है जिसको ईश्वर की मर्जी अच्छी लगती है; (उसके अंदर) आनंद के बाजे एक रस बजते हैं, अकाल-पुरख उसको खुद अपने गले से लगाता है
“तुम मेरे पुत्र हो, मेरे भाई हो मेरा परिवार हो; मन में किआस कर के देखो, कि धुर से लिखा हुआ हुक्म (कभी) टल नहीं सकता; (सो, इस वास्ते अब) गुरु, अकाल-पुरख के पास जा रहा है”।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि भाणै आपणै बहि परवारु सदाइआ ॥ मत मै पिछै कोई रोवसी सो मै मूलि न भाइआ ॥ मितु पैझै मितु बिगसै जिसु मित की पैज भावए ॥ तुसी वीचारि देखहु पुत भाई हरि सतिगुरू पैनावए ॥ सतिगुरू परतखि होदै बहि राजु आपि टिकाइआ ॥ सभि सिख बंधप पुत भाई रामदास पैरी पाइआ ॥४॥
मूलम्
सतिगुरि भाणै आपणै बहि परवारु सदाइआ ॥ मत मै पिछै कोई रोवसी सो मै मूलि न भाइआ ॥ मितु पैझै मितु बिगसै जिसु मित की पैज भावए ॥ तुसी वीचारि देखहु पुत भाई हरि सतिगुरू पैनावए ॥ सतिगुरू परतखि होदै बहि राजु आपि टिकाइआ ॥ सभि सिख बंधप पुत भाई रामदास पैरी पाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। भाणै आपणै = अपने भाणे में, अपनी मर्जी से। बहि = बैठ के। मै पिछै = मेरे पीछे से। पैझै = आदर पाता है। बिगसै = खुश होता है। जिसु = जिस (मनुष्य) को। पैज = सत्कार, इज्जत, वडिआई। भावए = भाती है, अच्छी लगती है। वीचारि = विचार के। पुत भाई = हे मेरे पुत्रो और भाईयो! सतिगुरू = गुरु को। पैनावए = सिरोपा दे रहा है, आदर दे रहा है। परतखि होए = इस शरीर में होते हुए, जीते जी। राजु = गुरिआई का राज, गुरु गद्दी। टिकाइआ = स्थापित कर दिया। बंधप = साक संबंधी। रामदास पैरी = गुरु रामदास जी के पैरों पर।
अर्थ: गुरु (अमरदास जी) ने बैठ के अपनी मर्जी से (सारे) परिवार को बुला लिया; (और कहा-) ‘मेरे पीछे कोई रोए नहीं, मुझे वह (रोने वाला) बिल्कुल ही अच्छा नहीं लगना। जिस मनुष्य को अपने मित्र की महिमा (होती) अच्छी लगती है, वह खुश होता है (जब) उसके मित्र को आदर मिलता है। तुम भी, हे मेरे पुत्रो और भाईयो! (अब) विचार के देख लो कि अकाल-पुरख गुरु को आदर दे रहा है (इसलिए तुम भी खुश होवो)।’
(ये उपदेश दे के, फिर) गुरु (अमरदास जी) ने शारीरिक जामें में रहते हुए ही बैठ के खुद गुरु गद्दी (भी) स्थापित कर दी, (और) सारे सिखों को, साक-संबंधियों को, पुत्रों को और भाईयों को (गुरु) रामदास जी के चरणों से लगा दिया।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंते सतिगुरु बोलिआ मै पिछै कीरतनु करिअहु निरबाणु जीउ ॥ केसो गोपाल पंडित सदिअहु हरि हरि कथा पड़हि पुराणु जीउ ॥ हरि कथा पड़ीऐ हरि नामु सुणीऐ बेबाणु हरि रंगु गुर भावए ॥ पिंडु पतलि किरिआ दीवा फुल हरि सरि पावए ॥ हरि भाइआ सतिगुरु बोलिआ हरि मिलिआ पुरखु सुजाणु जीउ ॥ रामदास सोढी तिलकु दीआ गुर सबदु सचु नीसाणु जीउ ॥५॥
मूलम्
अंते सतिगुरु बोलिआ मै पिछै कीरतनु करिअहु निरबाणु जीउ ॥ केसो गोपाल पंडित सदिअहु हरि हरि कथा पड़हि पुराणु जीउ ॥ हरि कथा पड़ीऐ हरि नामु सुणीऐ बेबाणु हरि रंगु गुर भावए ॥ पिंडु पतलि किरिआ दीवा फुल हरि सरि पावए ॥ हरि भाइआ सतिगुरु बोलिआ हरि मिलिआ पुरखु सुजाणु जीउ ॥ रामदास सोढी तिलकु दीआ गुर सबदु सचु नीसाणु जीउ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंते = आखिरी समय में, ज्योति से ज्योति समाने के वक्त। निरबाणु कीरतनु = निरा कीर्तन, सिर्फ कीर्तन। करिअहु = तुम करना। हरि रंगु = अकाल पुरख का प्यार। गुर भावए = गुरु को अच्छा लगता है। हरि सरि = हरि के सर में, अकाल-पुरख के सरोवर में। पावए = (गुरु) पाता है।
अर्थ: ज्योती-ज्योति समाने के वक्त गुरु अमरदास जी ने कहा- (हे भाई!) ‘मेरे पीछे असली कीर्तन करना, केशव गोपाल (अकाल-पुरख) के पंडितों को बुलाना, जो (आ कर) अकाल-पुरख की कथा वार्ता-रूप पुराण पढ़ें। (याद रखना, मेरे पीछे) अकाल-पुरख की कथा (ही) पढ़नी चाहिए, अकाल-पुरख का नाम ही सुनना चाहिए, बेबाण भी गुरु को (केवल) अकाल-पुरख का प्यार ही अच्छा लगता है। गुरु (तो) पिंड पतल, किरिया, दीया और फूल - इन सबको सत्त्संग पर से सदके करता है’। अकाल-पुरख को प्यारे लगे हुए गुरु ने (उस समय) ऐसा कहा।
सतिगुरु को सुजान अकाल-पुरख मिल गया। गुरु अमरदास जी ने सोढी (गुरु) रामदास जी को (गुरिआई का) तिलक (और) गुरु की शब्द रूपी सच्ची राहदारी बख्शी।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस पौड़ी अर्थ संबंधी कई तरह के ख्याल प्रकट किए जा रहे हैं, पर हम जैसे पिछली चार पौड़ियों को शब्दों की बनावट और उनके परस्पर व्याकर्णिक संबंध के अनुसार विचार आए हैं, उसी तरह यहाँ भी केवल दो धुरों को रख कर विचार करेंगे। इस बात का ख्याल नहीं किया जाएगा कि यह अर्थ किसी सज्जन व सज्जनों की मिथी हुई ‘गुरमति’ के अनुसार है या उसके उलट।
इस पउड़ी में विशेष विचार-योग्य निम्न-लिखित चार शब्द है;
- पंडित; 2. पढ़हि; 3. हरिसरि; 4. पावऐ। सो, आओ एक-एक करके इन पर विचार करें।
- पण्डित: जो व्याकरण श्री गुरु ग्रंथ साहिब में प्रयोग हुआ प्रत्यक्ष मिलता है, उसके आधार पर
शब्द ‘पंडित’ 1. कर्ताकारक बहुवचन है, - कहीं ‘संबोधन’ हो जाता है।
और
शब्द ‘पंडितु’ 1. कर्ताकारक, एकवचन है, - कर्म कारक, एक वचन भी।
इस नियम को परखने के लिए गुरबाणी में बरते गए शब्द ‘पंडित’ को पड़तालें–
अ. कर्ताकारक, एकवचन के रूप में; - पढ़ि पढ़ि ‘पंडितु’ बादु वखाणै॥ भीतरि होदी वसतु न जाणै॥३॥४॥
(गउड़ी म: १, पंना 152) - ‘पंडितु’ सासत सिम्रिति पढ़िआ॥ जोगी गोरखु गोरखु करिआ॥१॥१॥३९॥
(गउड़ी गुआरेरी म: ४ पंना 163) - हउ ‘पंडितु’ हउ चतुरु सिआणा॥ करणैहारु न बूझै बिगाना॥३॥९॥७८॥
(गउड़ी गुआरेरी म: ५ पंना 178) - नह ‘पंडितु’ नह चतुरु सिआना॥ नह भूलो नह भरमि भुलाना॥८॥१॥
(गउड़ी म: १) असटपदीआ, पंना 221 - माइआ का मुहताजु ‘पंडितु’ कहावै॥४॥४॥ (गउड़ी म: ३, असटपदीआ)
- सो ‘पंडितु’ जो मन परबोधै॥ …सो ‘पंडितु’ फिरि जोनि न आवै॥४॥९॥
(सुखमनी म: ५) - ना को पढ़िआ ‘पंडितु’ बीना ना को मूरखु मंदा॥४॥२॥३६॥
(आसा म: १, पंना259) - ङंङै ङिआनु बूझै जे कोई पढ़िआ ‘पंडितु’ सोई॥४॥
आसा म: १, पटी लिखी, पंना 832 - सो पढ़िआ सो ‘पंडितु’ बीना गुर सबदि करे वीचारु॥
…अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु॥२॥२१॥
(सोरठि की वार, पंना 650) - ‘पंडितु’ होइ कै बेदु बखानै॥ मूरखु नामदेउ रामहि जानै॥२॥१॥
(टोडी नामदेउ जी, पंना 718) - सची पटी सचु मनि पढ़ीऐ सबदु सु सारु॥
….नानक सो पढ़िआ सो ‘पंडितु’ बीना जिसु राम नामु गलि हारु॥५४॥१॥
(ओअंकारु म: १ पंना 938) - सो ‘पंडितु’ गुर सबदु कमाइ॥ त्रैगुण की ओसु उतरी माइ॥४॥६॥१७॥
(रामकली म: ५, पंना 888) - ‘पंडिुत’ आखाए बहुती राही करोड़ मोठ जिनेहा॥
….अंदरि मोहु नित भरमि विआपिआ तिसटसि नाही देहा॥२॥७॥
(रामकली की वार म: ५, पंना 960) - ‘पंडितु’ पढ़ि न पहुचई बहु आल जंजाला॥
पाप पुंन दुइ संगमे खुधिआ जमकाला॥४॥६॥
(मारू म: १, असटपदीआ, पंना 1012) - पढ़ि ‘पंडितु’ अवरा समझाए॥ घर जलते की खबरि न पाए॥
….बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ पढ़ि थाके सांति न आई हे॥५॥३॥
(मारू म: ३ सोलहे) - होवा ‘पंडितु’ जोतकी वेद पढ़ा मुखि चारि॥
…..नव खंड मधे पूजीआ अपणै चजि वीचारि॥१॥११॥ (मारू की वात म: ३) - जे तूं पढ़िआ ‘पंडितु’ बीना दुइ अखर दुइ नावा॥
…. प्रणवति नानकु एकु लंघाए जे करि सचि समावां॥३॥२॥१०॥
(बसंत हिंडोल म: १) - पवणै पाणी जाणै जाति॥ काइआं अगनि करे निभरांति॥
…. जंमहि जीअ जाणै जे थाउ॥ सुरता ‘पंडितु’ ता का नाउ॥१॥१॥६॥
(मलार महला १ घरु २) - भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी॥
…. खल मूरख ते ‘पंडितु’ करिबो पंडित ते मुगधारी॥३॥२॥ (सारंग म: ५) - सोई चतुरु सिआणा ‘पंडितु’ सो सूरा सो दाना॥
….साध संगि जिनि हरि हरि जपिओ नानक सो परवाना॥२॥६७॥९०॥
(सारंग म: ५) - होवा ‘पंडितु’ जोतकी वेद पढ़ा मुखि चारि॥
….नवा खंडा विचि जाणीआ अपने चज वीचार॥३॥
(सलोक म: ३, वारां ते वधीक) - नाउ फकीरै पातिसाहु मूरख ‘पंडितु’ नाउ॥
अंधे का नाउ पारखू एवै करे गुआउ॥१॥२२॥ (महला १ मलार की वार) - सो पढ़िआ सो ‘पंडितु’ बीना जिनी कमाणा नाउ॥२॥२२॥
(महला १ मलार की वार) - सो ‘पंडितु’ जो तिहां गुणा की पंड उतारै॥ अनदिनु एको नामु वखाणै॥
…. सदा अलगु रहै निरबाणु॥ सो ‘पंडितु’ दरगह परवाणु॥३॥१॥१०॥
(मलार म: ३ घरु २)
आ– करता कारक, बहुवचन के रूप में - गावनि ‘पंडित’ पढ़नि रखीसर जुग जुग वेदा नाले॥२७॥ (जपु म: १)
- गावनि तुधनो ‘पंडित’ पढ़नि रखीसुर जुग जुग वेदा नाले॥
(सो दरु आसा म: १) - पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ जोतकी वाद करहि बीचारु॥३॥३॥३६॥ (सिरी रागु म: ३)
- ‘पंडितु’ वाचहि पोथीआ ना बूझहि वीचारु॥६॥
- केते ‘पंडित’ जोतकी बेदा करहि बीचारु॥७॥५॥
(सिरी रागु म: १ असटपदीआ) - पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मोनी थके दूजै भाइ पति खोई॥७॥१७॥८॥२५॥
(सिरी रागु म: ५ असटपदीआ) - ‘पंडित’ पढ़हि सादु न पावहि॥२॥१२॥१३॥ (माझ महला ३)
- पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मोनी थके चउथे पद की सार न पावणिआ॥५॥१२॥१३॥
(माझ महला ३) - मनमुख पढ़हि ‘पंडित’ कहावहि॥१॥३०॥३१॥ (माझ महला ३)
- ‘पंडित’ पढ़हि वखाणहि वेदु॥४॥२१॥ (आसा महला १)
- ‘पंडित’ पाधे जोइसी नित पढ़हि पुराणा॥४॥१४॥
(आसा महला ३, असटपदीआ) - ‘पंडित’ पढ़दे जोतकी तिन बूझ न पाइ॥२॥५॥२७॥
(आसा महला ३, असटपदीआ) - पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मोनी थाके भेखी मुकति न पाई॥३॥१॥६॥
(आसा महला १, छंत, घरु १) - मूरख ‘पंडित’ हिकमति हुजति संजै करहि पिआरु॥२॥११॥
(आसा दी वार) - ‘पंडित’ भुलि भुलि माइआ वेखहि,
दिखा किनै किहु आणि चढ़ाइआ॥२॥१२॥ (गुजरी की वार महला ३) - पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ वादु वखाणहि बिनु बूझै सुखु न होई॥२॥४॥
(वडहंसु महला ३ छंत) - ‘पंडित’ जोतकी सभि पढ़ि पढ़ि कूकदे
किसु पहि करहि पुकारा राम॥३॥५॥ (वडहंसु महला ३ छंत) - घरि घरि पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ थके सिध समाधि लगाइ॥२॥६॥
(सोरठि की वार) - ‘पंडित मैलु’ न चुकई जे वेद पढ़हि जुग चारि॥ (पंडित मैलु– पंडित की मैल)
…..‘पंडित’ भूले दूजै लागे माइआ कै वापारि॥१॥१३॥ (सोरठि की वार) - बेद पढ़े पढ़ि ‘पंडित’ मूए रूपु देखि देखि नारी॥३॥१॥ (सोरठि कबीर जी)
- काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि ‘पंडित’ पै चले निरासा॥१॥३॥
(सोरठि कबीर जी) - ‘पंडित’ पाधे आणि पती बहि वाचाईआ बलिराम जीउ॥४॥१॥
(सूही म: ४ छंत, घरु १) - पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ करहि बीचार॥१॥१७॥ (म: १, सूही की वार)
- ‘पंडित’ पढ़ि पढ़ि मोनी भुले दूजै भाइ चितु लाइआ॥१॥८॥
(म: ३, बिलावल की वार महला ४) - ‘पंडित’ रोवहि गिआनु गवाइ॥१॥१४॥ (म: १, रामकली की वार म: ३)
- ‘पंडित’ पढ़दे जोतकी ना बूझहि बीचारा॥४॥ (रामकली की वार म: ३)
- ‘पंडित’ पढ़हि पढ़ि वादु वखाणहि तिंना बूझ न पाई॥१८॥
(रामकली म: ३ असटपदीआ) - इकि पाधे ‘पंडित’ मिसर कहावहि॥७॥४॥ (रामकली म: १ असटपदीआ)
- पोथी ‘पंडित’ रहे पुराण॥७॥१॥ (रामकली महला १ असटपदीआ)
- हम बड कबि कुलीन हम ‘पंडित’ हम जोगी संनिआसी॥२॥१॥
(रामकली रविदास जी) - बाहरहु ‘पंडित’ सदाइदे मनहु मूरख गावार॥१॥१६॥
(मारू की वारर महला ३) - जोगी ग्रिही ‘पंडित’ भेखधारी॥१॥२॥ वादु पवखाणदे माइआ मोह सुआइ॥१॥३१॥
(म: ३, सारंग की वार) - ‘पंडित’ जन माते पढ़ि पुरान॥१॥२॥ (बसंतु कबीर जी)
- ‘पंडित’ मोनी पढ़ि पढ़ि थके भेख थके तनु धोइ॥२॥३३॥
(महला ३, सारंग की वार) - पढ़ि पढ़ि ‘पंडित’ मुोनी थके माइआ मोह सुआइ॥१॥३१॥
(म: ३ सारंग की वार) - पढ़ि पढ़ि ‘पंडित वादु वखाणदे देसंतरु भवि थके भेखधारी॥४॥२॥
(म: ३ सारंग की वार) - ‘पंडित’ पढ़ि पढ़ि मोनी सभि थाके भ्रमि भेख थके भेखधारी॥४॥२॥
(सारंग म: ३) - संनिआसी तपसीअह मुखहु ए ‘पंडित’ मिठे॥२॥२०॥
(सवईऐ महले तीजे के ‘भिखा’)
आईए, अब देखें, ये नियम मन-घड़ंत ही है, या बोली के इतिहास से इसका कोई गहरा संबंध है।
संस्कृत धातु ‘य’ का अर्थ होता है ‘जाना’। वाक्य ‘राम जाता है’ को संस्कृत में हम लिखेंगे: रामो याति।
संस्कृत में कर्ताकारक एकवचन का चिन्ह ‘स्’ (:) है, जो कई जगहों पर ‘उ’ (ु) बन जाता है।
जिस अक्षर को पंजाबी में हम मुक्ता-अंत कहते हैं, संस्कृत में उसके अंत में ‘अ’ समझा जाता है; ‘राम’ (रामो) शब्द के अंत के ‘म’ में ‘अ’ भी शामिल है।
‘रामो याति’
असल में पहले यूँ है
‘राम: याति’
राम: का आखिरी चिन्ह ‘: ’ ‘उ (ु) बन के शब्द ‘राम’ के आखिर में ‘अ’ के साथ मिल के ‘ओ’ बन जाता है, और सारा वाक्य ‘रामो याति’ हो गया है।
पर, प्राक्रित’ में अक्षरों के आखीरी ‘अ’ की अलग हस्ती नहीं मानी गई। सो सो, ‘: ’ के ‘उ’ ‘ु’ बनने पर यह ‘ु’ पहले शब्द के साथ सीधा ही प्रयोग किया गया। संस्कृत का शब्द ‘रामो’ प्राक्रित में ‘रामु’ हो गया।
संस्कृत के कई शब्दों का आरम्भ वाला ‘य’ प्राक्रित व पंजाबी में ‘ज’ बन गया क्योंकि ‘ज’ और ‘य’ का उच्चारण-स्थान एक ही है (जीभ को तालू के साथ लगाना); जैसे;
यव = जउं। यमुना = जमुना। यज्ञ = जग। यति = जती।
इस तरह वाक्य ‘रामो याति’ के ‘याति’ का ‘य’ ‘ज’ बन के सारा वाक्य प्राक्रित में यूँ हो गया: रामु जादि;
यह वाक्य पुरानी पंजाबी में ‘रामु जांदा’ बन गया।
उपरोक्त सारी विचार चर्चा से ये हमने देख लिया है कि यह ‘ु’ बोली के इतिहास में विशेष मूल्य रखता है; और इस तरह गुरबाणी के और व्याकर्णिक नियम मन-घडंत बातें नहीं हैं।
इ– संबोधन - ‘पंडित’, हरि पढ़ु तजहु विकारा॥१॥ रहाउ॥२॥
(गउड़ी म: ३, असटपदीआ)
पंडित = हे पण्डित! - कहु रे ‘पंडित’, बामन कब के होए॥१॥ रहाउ॥७॥ (गउड़ी कबीर जी)
- कहु रे ‘पंडित’, अंबरु का सिउ लागा॥१॥ रहाउ॥२९॥ (गउड़ी कबीर जी)
- तुधु सिरि लिखिआ सो पढ़ु ‘पंडित’, अवरा नो न सिखालि बिखिआ॥५॥
(आसा म: ३, पटी) - एको नामु निधानु ‘पंडित’, सुणि सिख सचु सोई॥१॥७॥९॥
(गुजरी महला ३ तीजा) - सुणि ‘पंडित’ करमाकारी॥२॥ (सोरठि म: १, असटपदीआ)
- ‘पंडित’, दही विलोईऐ भाई विचहु निकलै तथु॥५॥
(सोरठि म: १, असटपदीआ) - ‘पंडित’, तिन की बरकती सभु जगतु खाइ जो रते हरि नाइ॥
….‘पंडित’, दूजै भाइ बरकति न होवई ना धनु पलै पाइ॥२॥१२॥
(सोरठि की वार) - राम नाम गुण गाइ, ‘पंडित’॥
… करम कांड अहंकारु न कीजै कुसल सेती घरि जाहि, ‘पंडित’॥१॥ रहाउ॥१७॥२८॥ (रामकली महला ५) - ‘पंडित’, बेदु बीचारि, ‘पंडित’॥ मन का क्रोध्र निवारि, ‘पंडित’॥१॥ रहाउ॥६॥१७॥ (रामकली महला ५)
- कहु ‘पंडित’, सूचा कवनु ठाउ॥१॥ रहाउ॥१॥७॥ (बसंत हिंडोल कबीर जी)
- दुइ माई दुइ बापा पढ़ीअहि, ‘पंडित’, करहु बीचारो॥१॥३॥११॥ (बसंत हिंडोल महला १)
- ‘पंडित’, इसु मन का करहु बीचारु॥१॥ रहाउ॥१॥१०॥ (मलार महला ३ घरु २)
(2) पढ़हि:
यह क्रिया ‘बहुवचन’ है, इसका एकवचन ‘पढ़ै’ है; जैसे–
गावै– एक वचन। गावहि– बहुवचन।
करै– एक वचन। करहि– बहुवचन।
प्रमाण– - पंडित ‘पढ़हि’ सादु न पावहि॥२॥१२॥१३॥ (माझ महला ३)
- मनमुख ‘पढ़हि’ पंडित कहावहि॥१॥३०॥३१॥ (माझ महला ३)
- पंडित ‘पढ़हि’ वखाणहि वेदु॥४॥२१॥ (आसा महला १)
यहाँ शब्द ‘पढ़हि’ बहुवचन है। - दूजै भाइ ‘पढ़हि’ नित बिखिआ नावहु दयि खुआइआ॥२॥१२॥
(गुजरी की वार म: ३) - वेद ‘पढ़हि’ तै वाद वखाणहि बिनु हरि पति गवाई॥७॥१॥
(सोरठि म: ३ असटपदीआ) - धोती ऊजल तिलकु गलि माला॥ अंतरि क्रोधि ‘पढ़हि’ नटसाला॥४॥२॥
(बिलावल म: १, असटपदीआ, घरु १०) - बेद ‘पढ़हि’ हरि नामु न बूझहि माइआ कारणि पढ़ि पढ़ि लूझहि॥१४॥६॥
(मारू म: ३ सोलहे) - मूरख ‘पढ़हि’ सबदु न बूझहि गुरमुखि विरले जाता हे॥१५॥९॥
(मारू म: ३ सोलहे) - बेदु ‘पढ़हि’ पढ़ि बादु वखाणहि॥११॥५॥१४॥ (मारू म: ३ सोलहे)
- बेदु ‘पढ़हि’ संपूरना ततु सार न पेखं॥१३॥ (मारू वार म: ५ डखणे)
- सिंम्रिति सासत्र ‘पढ़हि’ मुनि केते बिनु सबदै सुरति न पाई॥२॥१॥११॥
(भैरउ म: ३ घरु २) - अंदरि कपटु उदरु भरण कै ताई पाठ ‘पढ़हि’ गावारी॥१॥२४॥
(महला ३ सारंग की वार)
शब्द ‘पंडित’, ‘पंडितु’ और ‘पढ़हि’ संबंधी गुरबाणी में से कई प्रमाण पढ़ के हम समझ चुके हैं कि इस पउड़ी की तुक में प्रयोग किया हुआ शब्द ‘पंडित’ बहुवचन है; भाव, यहाँ किसी एक पंडित की ओर इशारा नहीं है, ‘कई पंडितों को’ बुलाने का हुक्म है, जो आ के ‘हरि कथा’ और ‘हरि नाम’ –रूपी पुराण पढ़ें। अगर ‘किरिया कर्म’ की चल रही रीति का हुक्म देते तो ‘केवल एक आचार्य’ को बुलाने का संदेश होता, कभी किसी के घर ‘किरिया’ के लिए बहुत सारे आचार्यों की जरूरत नहीं पड़ती। हिंदू सज्जनों में हरेक घर का ‘एक ही’ आचार्य होता है। इस में कोई शक नहीं कि हिंदू बिरादरी में घर का एक परोहित भी होता है, पर पुरोहित किरिया का धान नहीं खाते, इसको केवल आचार्य ही प्रयोग करते और लेते हैं।
सो, इस तुक में ना किसी आचार्य की ओर ना ही किसी परोहित की ओर इशारा है।
(3) हरिसरि – (हरि के सरोवर में)
अ– हिंदू धर्म के गंगा के किनारे वाले तीर्थ का आम प्रसिद्ध नाम ‘हरिद्वार’ है, कभी किसी हिंदू सज्जन के मुँह से इसका नाम ‘हरिसर’ सुनने में नहीं आया। कोश में भी नाम ‘हरिद्वार’ है, ‘हरिसर’ नहीं।
आ– शब्द ‘हरिदुआर’ गुरबाणी में कई जगह आया है, पर उसका इशारा इस हिन्दू तीर्थ की ओर कहीं भी नहीं है, उसका अर्थ है ‘अकाल-पुरख का दर’; जैसे– - सतिबचन वरतहि ‘हरिदुआरे’॥७॥१॥२९॥ (गौंड असटपदीआ म: ५)
- नानक भगत सोहहि ‘हरिदुआर’॥४॥१॥३४॥ (रामकली म: ५)
- जिन पूरा सतिगुरु सेविआ से असथिरु ‘हरिदुआरि’॥४॥१॥३१॥
(बिलावलु म: ५) - सरनि परिओ नानक ‘हरिदुआरे’॥४॥४॥ (वडहंस म: ५)
- नानक नामि मिलै वडिआई ‘हरि दरि’ सोहनि आगै॥२॥११॥
(वडहंस की वार म: ४) - ‘हरि दरि’ तिन की ऊतम बात है
संतहु हरि कथा जिन जनहु जानी॥ रहाउ॥५॥११॥ (धनासरी म: ४) - जिन जपिआ हरि, ते मुकत प्राणी तिन के ऊजल मुख ‘हरिदुआरि’॥२॥३॥ (तुखारी म: ४ छंत)
इ– अब आईये, देखें, शब्द ‘हरिसर’ गुरबाणी में किस अर्थ में मिलता है: - हउमै मैलु सभ उतरी मेरी जिंदुड़ीए हरि अंम्रित ‘हरिसरि’ नाते राम॥४॥३॥
(बिहागड़ा म: ४) - ‘हरि चरण सरोवर’ तह करहु निवासु मना॥
….करि मजनु ‘हरिसरे’ सभि किलबिख नासु मना॥१॥२॥५॥ (बिहागड़ा म: ५) - जिनि हरि रसु चाखिआ सबदि सुभाखिआ ‘हरिसरि’ रही भरपूरे॥२॥५॥
(वडहंसु म: ३ छंतु) - तुम ‘हरिसरवर’ अति अगाह हम लहि न सकहि अंतु माती॥२॥५॥
(धनासरी म: ४) - हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै॥ ‘सरवर’ महि हंसु प्रानपति पावै॥१॥१॥
(धनासरी म: १ असटपदीआ) - गुरु ‘सरवरु’ मानसरोवरु है वडभागी पुरख लहंनि्॥२॥४॥९॥
(सूही म: ३ असटपदीआ) - ‘हरिसरि’ निरमलि नाए॥२॥१॥३॥ (सूही छंत म: ४)
- ‘हरि जन अंम्रित कुंट सर’ नीके वडभागी तितु नावाईऐ॥१॥४॥
(रामकली म: ४) - दुरमति मैलु गई सभ नीकरि हरि अंम्रिति ‘हरिसरि’ नाता॥१॥२॥
(माली गउड़ा म: ४) - ‘हरिसरु’ सागरु सदा जलु निरमलु नावै सहजि सुभाई॥५॥१॥
(सारग म: ३, असटपदीया) - ‘हरिसरि तीरथि’ जाणि मनूआ नाइआ॥१८॥ (मलार की वार म: १)
इन तुकों में हरि के चरणों को, हरि को, गुरु को और सतसंग को ‘हरिसर’ कहा गया है।
(ई) – ‘हरिसर’ शब्द के अलावा ‘अंम्रितसर’, ‘सतसर’ आदि शब्द भी इसी भाव में प्रयोग किए गए हैं, जैसे; - सचा तीरथु जितु ‘सतसरि’ नावणु गुरमुखि आपि बुझाए॥५॥१॥
(सूही म: ३, असटपदीआ) - गुरि ‘अंम्रितसरि’ नवलाइआ सभि लाथे किलबिख पंङु॥३॥३॥ (सूही म: ४)
- तिन मिलिआ मलु सभ जाए ‘सचै सरि’ न्हाए सचै सहजि सुभाए॥४॥४॥
(वडहंस म: ३ छंत) - मैल गई मनु निरमलु होआ ‘अंम्रितसरि’ तीरथि नाइ॥२॥४॥
(वडहंस की वार) - मनु संपटु जितु ‘सतसरि’ नावणु भावन पाती त्रिपति करे॥३॥१॥
(सूही म: १) - जिन कउ तुम् हरि मेलहु सुआमी ते नाए ‘संतोख गुर सरा’॥४॥३॥
(बिलावलु म: ४ घरु ३) - गुरु सागरु ‘अंम्रितसरु’ जो इछे सो फलु पाए॥७॥५॥ (मारू म: १)
- तितु ‘सत सरि’ मनूआ गुरमुखि नावै
फिरि बाहुड़ि जोनि न पाइदा॥४॥५॥१७॥ (मारू म: १, सोलहे) - बिखिआ मलु जाइ ‘अंम्रितसरि’ नावहु गुर सर संतोखु पाइआ॥८॥५॥२२॥
(मारू म: ३, सोलहे) - काइआ अंदरि ‘अंम्रितसरु’ साचा मनु पीवै भाइ सुभाई हे॥४॥३॥
(मारू म: 3 सोलहे) - गुरमुखि मनु निरमलु ‘सतसरि’ नावै॥
मैलु न लागै सचि समावै॥४॥१॥१५॥ (मारू म: ३ सोलहे)
(उ) – गुरमुखों के चरणों को ‘गंगा’ आदि करोड़ो तीर्थों के बराबर समझते हैं:
…जन पारब्रहम की निरमल महिमा जन के चरन तीरथ कोटि गंगा॥
…जन की धूरि कीओ मजनु नानक जनम जनम के हरे कलंगा॥२॥४॥१२०॥ (बिलावल म: ५)
(5) पावऐ
‘रामकली सदु’ में इसी शब्द जैसे मिलते-जुलते और शब्द भी आए है;
समावऐ– पउड़ी 1। भावऐ– पउड़ी 3।
मेलावऐ– पउड़ी 3। भावऐ– पउड़ी 4।
पैनावऐ– पउड़ी 4। भावऐ– पउड़ी 5।
इस उपरोक्त सारे शब्द ‘वर्तमान काल’ ‘अन्य-पुरुष, एकवचन’ में हैं। ‘पावहे’, ‘धिआवहे’ बहुवचन हैं।
आओ, अब इनके अर्थों को पुनः विचारें:
(1) गुरसबदि समावऐ – ‘गुरु के शब्द द्वारा समाता है’।
प्रश्न: कौन? उक्तर: गुरु अमरदास।
(2) जिसु हरि प्रभ भाणा भावऐ – ‘जिसको हरि प्रभु की मर्जी भाती है।
(3) हरि आपि गलि मेलावऐ– अकाल-पुरख स्वयं गले से लगा लेता है।
(4) जिसु मित की पैज भावऐ– जिस मनुष्य को अपने मित्र की उपमा (होती) अच्छी लगती है।
(5) हरि, सतिगुरु पैनावऐ– अकाल-पुरख गुरु को सम्मान दे रहा है।
(6) हरि रंगु गुर भावऐ– अकाल-पुरख का प्यार गुरु को भाता है।
क्रिया के इस रूप के लिए और प्रमाण–
(अ) घरि त तेरै सभ किछु है जिसु देहि सु ‘पावए’॥
… सदा सिफति सालाह तेरी नामु मनि ‘वसावए’॥3॥ (रामकली म: ३ अनंद)
…पावऐ = पाता है। वसावऐ = बसाता है।
(आ) गुर परसादी मनु भइआ निरमलु, जिना भाणा ‘भावए’॥
कहै नानकु जिस देहि पिआरे, सोई जनु ‘पावए’॥८॥
(रामकली म: ३ अनंद)
भावऐ = भाता है। पावऐ = पाता है।
(इ) मनहु किउ विसारीऐ एवडु दाता जि अगनि महि अहारु ‘पहुचावए’॥
ओस नो किहु पोहि न सकी जिस नउ आपणी लिव ‘लावए’॥२८॥
(रामकली म: ३ अनंद)
पहुचावऐ = पहुँचाता है। लावऐ = लगाता है।
(ई) हरि गाउ मंगलु नित सखीए सोगु दूखु न ‘विआपए’॥
गुर चरन लागे दिन सभागे आपणा पिरु ‘जापए’॥३४॥
(रामकली म: ३ अनंद)
विआपऐ = व्यापता है। जापऐ = प्रतीत होता है, दिखता है।
(उ) भगति करहु तुम सहै केरी, जो सह पिआरे ‘भावए’॥
आपणा भाणा तुम करहु, ता फिरि सह खुसी न ‘आवए’॥
भगति भाव इहु मारगु बिखड़ा, गुर दुआरै को ‘पावए’॥
कहै नानकु जिसु करे किरपा, सो हरि भगती चितु ‘लावए’॥१॥ ….
करि बैरागु तूं छोडि पाखंडु, सो सहु सभ किछु ‘जाणए’॥
जलि थलि महीअलि एको सोई, गुरमुखि हुकमु ‘पछाणए’॥
जिनि हुकमु पछाता हरी केरा सोई सरब सुखु ‘पावए’॥
इव कहै नानकु सो बैरागी अनदिनु हरि लिव ‘लावए’॥२।२॥७।५॥२॥७॥
(आसा म: ३ छंत घरु ३)
भावऐ = भाता है। आवऐ = आता है।
पावऐ = डालता है। लावऐ = लाता है।
जाणऐ = जानता है। पछाणऐ = पहचानता है।
इसी तरह:
(7) हरि सरि ‘पावऐ’,– (गुरु अमरदास) हरि के सरोवर में, भाव, साधु संगति में ‘डालता’ है।
प्रश्न: क्या?
उक्तर: पिंड, पत्तल, किरिया, दीया, फूल – ये सब कुछ।
नोट: यहाँ पाठक सज्जनों के स्मरण के लिए ये सूचना आवश्यक है कि ‘हरिद्वार’ में फूल डालने वाले सज्जन पिंड, पत्तल, दीया हरिद्वार नहीं ले के जाते, ‘केवल फूल’ (अस्थियां-राख) ही ले के जाते हैं।
एक और मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत है। किरिया किसी चीज का नाम नहीं, जो हरिद्वार में प्रवाहित की जा सके (डाली जा सके)। पर सतिगुरु अमरदास जी इन सबको ‘साधसंगति’ में डालते हैं, भाव, इन सबको ‘सत्संगति’ के सदके करते हैं, हर चीज से ज्यादा श्रेष्ठ हे ‘सत्संग’ करना।
नोट: शब्द ‘पंडित’ संबंधी एक और बात याद रखने वाली है। हिन्दू मति के अनुसार हरेक हिन्दू को ‘पंडित’ की आवश्यक्ता सारी जिंदगी में सिर्फ दो बार पड़ती है; विवाह के वक्त, और मरने के बाद ‘किरिया’ आदि के वक्त। कई अमीर लोग बालक के जन्म पर भी ‘पंडित’ से जनम-पत्री आदि बनवाते हैं, पर इसके बिना भी काम चल सकता है, पर विवाह और मरना ‘पंडित’ के बिना नहीं हो सकता।
हिन्दू मत को लेकर सतिगुरु जी ने भी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में ‘अपने अकाल-पुरख के पंडितों’ (भाव, ‘गुरमुख’ सत्संगियों) का बिचौलापन बताया है। मरने के वक्त का वर्णन तो उक्त ‘सदु’ में आ गया है। ‘आत्मिक विवाह’ का वर्णन भी इसी तरह यूँ मिलता है:
आइआ लगनु गणाइ हिरदै धन ओमाहीआ बलिराम जीउ॥ ‘पंडित पाधे’ आणि पती बहि वाचाईआ बलिराम जीउ॥ पती वाचाई मनि वजी वधाई जब साजन सुणे घरि आए॥ गुणी गिआनी बहि मता पकाइआ फेरे ततु दिवाए॥ वरु पाइआ पुरखु अगंमु अगोचरु सद नवतनु बाल सखाई॥ नानक किरपा करि कै मेले विछुड़ि कदे न जाई॥४॥१॥ (सूही म: ४ छंत घरु१)
यहाँ प्रत्यक्ष तौर पर ‘पंडित’ से भाव ‘गुरमुखि जन’ है। बस! सारी वाणी में केवल इन्हीं दो जगहों पर ‘रूहानी पंडितों’ का वर्णन आता है।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु पुरखु जि बोलिआ गुरसिखा मंनि लई रजाइ जीउ ॥ मोहरी पुतु सनमुखु होइआ रामदासै पैरी पाइ जीउ ॥ सभ पवै पैरी सतिगुरू केरी जिथै गुरू आपु रखिआ ॥ कोई करि बखीली निवै नाही फिरि सतिगुरू आणि निवाइआ ॥ हरि गुरहि भाणा दीई वडिआई धुरि लिखिआ लेखु रजाइ जीउ ॥ कहै सुंदरु सुणहु संतहु सभु जगतु पैरी पाइ जीउ ॥६॥१॥
मूलम्
सतिगुरु पुरखु जि बोलिआ गुरसिखा मंनि लई रजाइ जीउ ॥ मोहरी पुतु सनमुखु होइआ रामदासै पैरी पाइ जीउ ॥ सभ पवै पैरी सतिगुरू केरी जिथै गुरू आपु रखिआ ॥ कोई करि बखीली निवै नाही फिरि सतिगुरू आणि निवाइआ ॥ हरि गुरहि भाणा दीई वडिआई धुरि लिखिआ लेखु रजाइ जीउ ॥ कहै सुंदरु सुणहु संतहु सभु जगतु पैरी पाइ जीउ ॥६॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरु पुरखु = पूरा गुरु, गुरु अमरदास। रजाइ = (गुरु का) हुक्म। रामदासै पैरी = गुरु रामदास जी के चरणों पर। पाइ = पड़ कर। सनमुख होइआ = (गुरु अमरदास जी के) सामने आजाद हो के खड़ा हुआ। सभ = सारी दुनिया। केरी = की। सतिगुरू केरी = गुरु रामदास जी की। जिथै = क्योंकि वहाँ, क्यों गुरु रामदास जी में। आपु = (गुरु अमरदास जी ने) अपने आप को, अपनी आत्मा। बखीली = निंदा। आणि = ला कर। गुरहि भाणा = गुरु (अमरदास जी को) अच्छा लगा। दीई = दी (गुरु रामदास जी को)। लेखु रजाइ = अकाल-पुरख का हुक्म। पैरी पाइ = (गुरु रामदास जी के) पैरों पर पड़ा।6।1।
अर्थ: जब गुरु अमरदास जी ने वचन किया (कि सारे गुरु रामदास जी के चरणों में लगें, तो) गुरसिखों ने (गुरु अमरदास जी का) हुक्म मान लिया। (सबसे पहले) (गुरु अमरदास जी के) पुत्र (बाबा) मोहरी जी गुरु रामदास जी के पैरों पर पड़ कर (पिता के) सामने सुर्ख रू होकर आ खड़े हुए। गुरु रामदास जी में गुरु (अमरदास जी) ने अपनी आत्मा टिका दी, (इस वास्ते) सारी लोकाई गुरु (रामदास जी) के पैरों पर आ पड़ी। जो कोई निंदा करके (पहले) नहीं भी झुका, उसको गुरु अमरदास जी ने लाकर पैरों पर रख दिया।
सुंदर कहता है: हे संतहु! सुनो, अकाल-पुरख और गुरु अमरदास जी को (यही) ठीक लगा, (उन्होंने गुरु रामदास जी को) बड़ाई बख्शी; धुर से अकाल-पुरख का यही हुक्म लिख के आया था; (इसलिए) सारा जगत (गुरु रामदास जी के) पैरों पर पड़ा।6।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजनड़ा मेरा साजनड़ा निकटि खलोइअड़ा मेरा साजनड़ा ॥ जानीअड़ा हरि जानीअड़ा नैण अलोइअड़ा हरि जानीअड़ा ॥ नैण अलोइआ घटि घटि सोइआ अति अम्रित प्रिअ गूड़ा ॥ नालि होवंदा लहि न सकंदा सुआउ न जाणै मूड़ा ॥ माइआ मदि माता होछी बाता मिलणु न जाई भरम धड़ा ॥ कहु नानक गुर बिनु नाही सूझै हरि साजनु सभ कै निकटि खड़ा ॥१॥
मूलम्
साजनड़ा मेरा साजनड़ा निकटि खलोइअड़ा मेरा साजनड़ा ॥ जानीअड़ा हरि जानीअड़ा नैण अलोइअड़ा हरि जानीअड़ा ॥ नैण अलोइआ घटि घटि सोइआ अति अम्रित प्रिअ गूड़ा ॥ नालि होवंदा लहि न सकंदा सुआउ न जाणै मूड़ा ॥ माइआ मदि माता होछी बाता मिलणु न जाई भरम धड़ा ॥ कहु नानक गुर बिनु नाही सूझै हरि साजनु सभ कै निकटि खड़ा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजनड़ा = प्यारा सज्जन। निकटि = नजदीक। खलोइड़ा = खड़ा है। जानी = जिंद का मालिक, जान से प्यारा। जानीअड़ा = जान से भी बहुत प्यारा। नैण = आँखों से। अलोइअड़ा = देख लिया है। घटि = हृदय में, शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। सोइआ = सोया हुआ, गुप्त बस रहा है। अति = बहुत। अंम्रित = अमर जीवन वाला, आत्मिक जीवन देने वाला। प्रिअ = प्यारा। गूढ़ा = बहुत। प्रिअ गूढ़ा = बहुत प्यारा, गूढ़ा मित्र। होवंदा = होता, बसता। लहि = ढूँढ। सुआउ = स्वाद, आनंद। मूढ़ = मूर्ख। मदि = मद में, नशे में। माता = मस्त। होछी बाता = तुच्छ बातें। धड़ा = पक्ष, प्रभाव। भरम = भटकना। भरम धड़ा = भ्रम का प्रभाव (होने के कारण)। नानक = हे नानक! सूझै = सूझता है, दिखता। सभ कै निकटि = सब जीवों के पास। खड़ा = खड़ा हुआ।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेरा प्यारा सज्जन है, मेरा प्यारा मित्र है; वह मेरा प्यारा सज्जन (हर वक्त) मेरे पास खड़ा हुआ है। हे भाई! परमात्मा मुझे जान से भी प्यारा है, मुझे जिंद से भी प्यारा है, उस प्यारे जानी प्रभु को मैंने (अपनी) आँखों से देख लिया है।
हे भाई! मैंने आँखों से देख लिया है कि वह अत्यंत मीठा और प्यारा मित्र प्रभु हरेक शरीर में गुप्त रूप से बस रहा है। पर, हे भाई! मूर्ख जीव (उसके मिलाप का) स्वाद नहीं जानता, (क्योंकि) उस हर वक्त साथ बसते मित्र को (मूर्ख मनुष्य) पा नहीं सकता।
हे भाई! मूर्ख जीव माया के नशे में मस्त रहता है और तुच्छ बातें ही करता रहता है। हे भाई! भटकना का प्रभाव होने के कारण (उस प्यारे मित्र को) मिला नहीं जा सकता। हे नानक! कह: सज्जन परमात्मा (चाहे) सब जीवों के नजदीक ही खड़ा हुआ है, पर गुरु के बिना वह दिखाई नहीं देता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंदा मेरे गोबिंदा प्राण अधारा मेरे गोबिंदा ॥ किरपाला मेरे किरपाला दान दातारा मेरे किरपाला ॥ दान दातारा अपर अपारा घट घट अंतरि सोहनिआ ॥ इक दासी धारी सबल पसारी जीअ जंत लै मोहनिआ ॥ जिस नो राखै सो सचु भाखै गुर का सबदु बीचारा ॥ कहु नानक जो प्रभ कउ भाणा तिस ही कउ प्रभु पिआरा ॥२॥
मूलम्
गोबिंदा मेरे गोबिंदा प्राण अधारा मेरे गोबिंदा ॥ किरपाला मेरे किरपाला दान दातारा मेरे किरपाला ॥ दान दातारा अपर अपारा घट घट अंतरि सोहनिआ ॥ इक दासी धारी सबल पसारी जीअ जंत लै मोहनिआ ॥ जिस नो राखै सो सचु भाखै गुर का सबदु बीचारा ॥ कहु नानक जो प्रभ कउ भाणा तिस ही कउ प्रभु पिआरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंदा = हे गोबिंद! प्राण अधारा = हे मेरी जिंदगी के आसरे! किरपाला = हे दया के घर! अपर अपारा = हे बेअंत! घट घट अंतरि = हरेक घट में। दासी = सेविका, माया। धारी = बनाई। सबल = बलवान। पसारी = खिलारा डाला। लै = लेकर, वश में करके। मोहनिआ = मोह लिए। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। कउ = को। भाणा = अच्छा लगा।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे गोबिंद! हे मेरे गोबिंद! हे मेरी जिंदगी के आसरे गोबिंद! हे दया के घर! हे मेरे कृपालु! हे सब दातें देने वाले मेरे कृपालु! हे सब दातें देने वाले! हे बेअंत! हे हरेक शरीर में बस रहे प्रभु! तूने माया दासी पैदा की, उसने बड़ा बलवान पसारा फैलाया है और सब जीवों को अपने वश में करके मोह रखा है। हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा (इस दासी माया से) बचाए रखता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करता रहता है, गुरु के शब्द को अपनी तवज्जो में टिकाए रखता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को अच्छा लगता है उसी को ही परमात्मा प्यारा लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माणो प्रभ माणो मेरे प्रभ का माणो ॥ जाणो प्रभु जाणो सुआमी सुघड़ु सुजाणो ॥ सुघड़ सुजाना सद परधाना अम्रितु हरि का नामा ॥ चाखि अघाणे सारिगपाणे जिन कै भाग मथाना ॥ तिन ही पाइआ तिनहि धिआइआ सगल तिसै का माणो ॥ कहु नानक थिरु तखति निवासी सचु तिसै दीबाणो ॥३॥
मूलम्
माणो प्रभ माणो मेरे प्रभ का माणो ॥ जाणो प्रभु जाणो सुआमी सुघड़ु सुजाणो ॥ सुघड़ सुजाना सद परधाना अम्रितु हरि का नामा ॥ चाखि अघाणे सारिगपाणे जिन कै भाग मथाना ॥ तिन ही पाइआ तिनहि धिआइआ सगल तिसै का माणो ॥ कहु नानक थिरु तखति निवासी सचु तिसै दीबाणो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माणो = मान, फखर। जाणो = सुजान। सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला, समझदार।
सद = सदा। परधाना = जाना माना। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। अघाणे = तृप्त हो जाते हैं। सारिगपाणे = (सारिग = धनुष। पाणि = हाथ। जिस हाथ में धनुष है, धर्नुधारी) परमात्मा। जिन कै मथाना = जिनके माथे पर। सगल = सब जीवों को। थिरु = सदा कायम रहने वाला। तखति = तख्त पर। तिसै = उस का ही। दीबाणो = दीवान, दरबार, कचहरी।3।
अर्थ: (हे भाई! सब जीवों को) प्रभु (के आसरे) का ही गर्व-फ़ख़र हो सकता है, प्रभु ही (सबके दिलों की) की जानने वाला मालिक है, समझदार है, सुजान है।
हे भाई! परमात्मा समझदार है सुजान है सदा ही जाना-माना है; उसका नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। जिस (लोगों) के माथे के भाग्य जागते हैं वह उस धर्नुधारी परमात्मा का नाम-अमृत चख के (माया की भूख से) तृप्त हो जाते हैं। उन लोगों ने ही उस प्रभु को पा लिया है, उन्होंने ही उसका नाम स्मरण किया है।
हे भाई! सब जीवों को प्रभु के आसरे का ही माण-फ़ख़र है (गर्व है)। हे नानक! कह: प्रभु सदा कायम रहने वाला है, (सदा अपने) तख़्त पर टिका रहने वाला है। (सिर्फ) उसका दरबार ही सदा कायम रहने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंगला हरि मंगला मेरे प्रभ कै सुणीऐ मंगला ॥ सोहिलड़ा प्रभ सोहिलड़ा अनहद धुनीऐ सोहिलड़ा ॥ अनहद वाजे सबद अगाजे नित नित जिसहि वधाई ॥ सो प्रभु धिआईऐ सभु किछु पाईऐ मरै न आवै जाई ॥ चूकी पिआसा पूरन आसा गुरमुखि मिलु निरगुनीऐ ॥ कहु नानक घरि प्रभ मेरे कै नित नित मंगलु सुनीऐ ॥४॥१॥
मूलम्
मंगला हरि मंगला मेरे प्रभ कै सुणीऐ मंगला ॥ सोहिलड़ा प्रभ सोहिलड़ा अनहद धुनीऐ सोहिलड़ा ॥ अनहद वाजे सबद अगाजे नित नित जिसहि वधाई ॥ सो प्रभु धिआईऐ सभु किछु पाईऐ मरै न आवै जाई ॥ चूकी पिआसा पूरन आसा गुरमुखि मिलु निरगुनीऐ ॥ कहु नानक घरि प्रभ मेरे कै नित नित मंगलु सुनीऐ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगला = खुशी। मेरे प्रभ कै = मेरे प्रभु के घर में। सुणीऐ = सुना जाता है, संत जन कहते हैं कि। सोहिलड़ा = मीठा सोहिला, महिमा के मीठे गीत, खुशी के मीठे गीत। अनहद = अनहत्, बिना बजाए बजने वाले, एक रस बाजे। अगाजै = गूंज रहे हैं, जोर से बज रहे हैं। जिसहि = जिस परमात्मा की। वधाई = बधाई, चढ़दीकला। न आवै जाई = ना आए ना जाई, ना पैदा होता है न मरता है। सभु किछु = हरेक चीज।
चूकी = समाप्त हो गई। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। मिलु = मेल कर। निरगुनीऐ = माया के तीन गुणों के प्रभाव से परे रहने वाले को।4।
अर्थ: हे भाई! संतजन कहते हैं कि मेरे प्रभु के घर में खुशी सदा खुशी ही रहती है। उस प्रभु के घर में एक-रस सुरीला महिमा का मीठा गीत सदा होता रहता है।
हे भाई! जिस प्रभु की सदा ही चढ़दीकला रहती है, उसके घर में उसकी महिमा के एक-रस बाजे बजते रहते हैं। हे भाई! वह परमात्मा (कभी) मरता नहीं, वह ना पैदा होता है ना मरता है। उस प्रभु को सदा स्मरणा चाहिए (यदि उसका स्मरण करते रहें, तो उसके दर से) हरेक (मुँह मांगी) चीज हासिल कर ली जाती है।
(हे भाई! जो मनुष्य उसका स्मरण करता है उसकी माया की) तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसकी (हरेक) आशा पूरी हो जाती है। (हे भाई! तू भी) गुरु की शरण पड़ कर उस माया-रहित (निर्लिप) परमात्मा का मिलाप हासिल कर। हे नानक! कह: (ये बात गुरमुखों के मुँह से) सुनी जा रही है कि मेरे प्रभु के घर में सदा ही खुशी रहती है।4।1।
[[0925]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ हरि हरि धिआइ मना खिनु न विसारीऐ ॥ राम रामा राम रमा कंठि उर धारीऐ ॥ उर धारि हरि हरि पुरखु पूरनु पारब्रहमु निरंजनो ॥ भै दूरि करता पाप हरता दुसह दुख भव खंडनो ॥ जगदीस ईस गुोपाल माधो गुण गोविंद वीचारीऐ ॥ बिनवंति नानक मिलि संगि साधू दिनसु रैणि चितारीऐ ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ हरि हरि धिआइ मना खिनु न विसारीऐ ॥ राम रामा राम रमा कंठि उर धारीऐ ॥ उर धारि हरि हरि पुरखु पूरनु पारब्रहमु निरंजनो ॥ भै दूरि करता पाप हरता दुसह दुख भव खंडनो ॥ जगदीस ईस गुोपाल माधो गुण गोविंद वीचारीऐ ॥ बिनवंति नानक मिलि संगि साधू दिनसु रैणि चितारीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मना = हे मन! न विसारीऐ = भुलाना नहीं चाहिए। रमा = सुंदर। कंठि = गले में। उर = हृदय। पुरखु = सर्व व्यापक। पूरनु = सब गुणों के मालिक। निरंजनो = निर+अंजन, (माया के मोह की) कालख से रहत, निर्लिप। भै = सारे डर। करता = करने वाला। हरता = नाश करने वाला। दुसह = मुश्किल से सहे जा सकने वाला। भव खंडनो = जन्मों के चक्कर नाश करने वाला। जगदीस = जगत के मालिक के। ईस = मालिक के। माधो = (मा+धव) माया का पति। वीचारीऐ = विचार करना चाहिए, चिक्त में बसाना चाहिए। बिनवंति = विनती करता है। मिलि = मिल के। संगि साधू = गुरु की संगति में। रैणि = रात।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।
नोट: शब्द ‘मिलि’ और ‘मिलु’ में फर्क है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए, रक्ती भर समय के लिए भी उसको भुलाना नहीं चाहिए। हे भाई! उस सुंदर राम को हमेशा ही गले से हृदय में परो के रखना चाहिए। हे भाई! सब गुणों के मालिक पारब्रहम निर्लिप रही सर्व-व्यापक हरि को सदा अपने हृदय में परोए रख। वह हरि सारे डरों को दूर करने वाला है, सारे पाप नाश करने वाला है, जनम-मरण के चक्करों को खत्म करने वाला है, उन दुखों को नाश करने वाला है जो बहुत मुश्किल से बर्दाश्त किए जा सकते हैं।
नानक विनती करता है: (हे भाई!) जगत के मालिक, सबके मालिक, सृष्टि के पालनहार, माया के पति प्रभु के गुणों को सदा चिक्त में बसाए रखना चाहिए; गुरु की संगति में मिल के दिन-रात उसको याद करते रहना चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल आधारु जन का आसरा ॥ मालु मिलख भंडार नामु अनंत धरा ॥ नामु नरहर निधानु जिन कै रस भोग एक नराइणा ॥ रस रूप रंग अनंत बीठल सासि सासि धिआइणा ॥ किलविख हरणा नाम पुनहचरणा नामु जम की त्रास हरा ॥ बिनवंति नानक रासि जन की चरन कमलह आसरा ॥२॥
मूलम्
चरन कमल आधारु जन का आसरा ॥ मालु मिलख भंडार नामु अनंत धरा ॥ नामु नरहर निधानु जिन कै रस भोग एक नराइणा ॥ रस रूप रंग अनंत बीठल सासि सासि धिआइणा ॥ किलविख हरणा नाम पुनहचरणा नामु जम की त्रास हरा ॥ बिनवंति नानक रासि जन की चरन कमलह आसरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। आधारु = आसरा, सहारा। जन का = भक्त जनों के लिए। मिलख = भूमि की मल्कियत। भंडार = खजाने। नामु अनंत = बेअंत प्रभु का नाम। धरा = हृदय का टिकाव।
नरहर नामु = परमात्मा का नाम। निधानु = खजाना। जिन कै = जिस के हृदय में। अनंत बीठल = बेअंत और निर्लिप (प्रभु) का (नाम)। बीठल = वि+स्थल, माया के प्रभाव से परे टिका रहने वाला। (ये शब्द गुरु अरजन देव जी ने बरता है। भक्त नामदेव किसी मूर्ति के पुजारी नहीं थे)। सासि सासि = हरेक सांस के साथ।
किलविख = पाप। हरणा = दूर करने वाला। पुनह चरणा = किसी कार्य की सिद्धि के लिए दुखों-कष्टों-रोगों को दूर करने के लिए किसी देवते के सन्मुख हो के किसी मंत्र का जाप करना, प्रायश्चित कर्म। त्रास = डर। हरा = दूर करने वाला। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। जन की = भक्त जन वास्ते।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण ही भक्त-जनों के वास्ते जीवन का सहारा हैं आसरा हैं। बेअंत प्रभु का नाम हृदय में टिकाना ही भक्त-जनों के लिए धन-पदार्थ है जमीन की मल्कियत है, खजाना है।
हे भाई! जिनके हृदय में परमात्मा का नाम-खजाना बस रहा है, उनके लिए नारायण का नाम जपना ही दुनियां के रसों-भोगों का आनंद है। हे भाई! बेअंत और निर्लिप प्रभु का नाम हरेक सांस के साथ जपते रहना ही उनके लिए दुनिया के रूप-रस और रंग-तमाशे हैं।
हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पाप दूर करने वाला है, प्रभु का नाम ही भक्त-जनों के लिए प्रायश्चित कर्म है, नाम ही मौत का डर दूर करने वाला है। नानक विनती करता है: (हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरणों का आसरा ही भक्त-जनों के लिए (जिंदगी की) संपत्ति है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण बेअंत सुआमी तेरे कोइ न जानई ॥ देखि चलत दइआल सुणि भगत वखानई ॥ जीअ जंत सभि तुझु धिआवहि पुरखपति परमेसरा ॥ सरब जाचिक एकु दाता करुणा मै जगदीसरा ॥ साधू संतु सुजाणु सोई जिसहि प्रभ जी मानई ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा सोइ तुझहि पछानई ॥३॥
मूलम्
गुण बेअंत सुआमी तेरे कोइ न जानई ॥ देखि चलत दइआल सुणि भगत वखानई ॥ जीअ जंत सभि तुझु धिआवहि पुरखपति परमेसरा ॥ सरब जाचिक एकु दाता करुणा मै जगदीसरा ॥ साधू संतु सुजाणु सोई जिसहि प्रभ जी मानई ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा सोइ तुझहि पछानई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे मालिक प्रभु! जानई = (जानाति) जानै, जानता। देखि = देख के। चलत = चलित्र, चोज तमाशे। सुणि = सुन के। सुणि भगत = भक्तों से सुन के। वखानई = बखाने, बयान करता है (एकवचन)।
सभि = सारे। तुझे = तुझे। धिआवहि = (बहुवचन) ध्याते हैं। पुरखपति = हे पुरखों के पति! हे जीवों के मालिक! सरब = सारे। जाचिक = भिखारी (बहुवचन)। एकु = (एकवचन) तू एक। करुणामै = करुणा+मय, हे तरस स्वरूप! जगदीसरा = हे जगत के मालिक!
सुजाणु = समझदार। सोई = वही। जिसहि = जिसको। मानई = माने, आदर मान देता है। करहु = तुम करते हो। पछानई = पहचानता है।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे स्वामी! तेरे गुण बेअंत हैं, कोई भी जीव (तेरे गुणों का अंत) नहीं जानता। (जो भी कोई मनुष्य तेरे कुछ गुणों का बयान करता है, वह) तुझ दयालु के करिश्में देख के (अथवा) भक्त-जनों से सुन के (ही) बयान करता है।
हे जीवों के मालिक! हे परमेश्वर! सारे जीव-जंतु तुझे ध्याते हैं। हे तरस-रूप प्रभु! हे जगत के ईश्वर! तू अकेला ही दाता है, सारे जीव (तेरे दर से) मांगते हैं।
हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं आदर बख्शता है वही साधु है वही सुजान संत है। नानक विनती करता है - हे प्रभु! जिस जीव पर तू कृपा करता है, वही तुझे पहचानता है (तेरे साथ गहरी सांझ डालता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि निरगुण अनाथु सरणी आइआ ॥ बलि बलि बलि गुरदेव जिनि नामु द्रिड़ाइआ ॥ गुरि नामु दीआ कुसलु थीआ सरब इछा पुंनीआ ॥ जलने बुझाई सांति आई मिले चिरी विछुंनिआ ॥ आनंद हरख सहज साचे महा मंगल गुण गाइआ ॥ बिनवंति नानक नामु प्रभ का गुर पूरे ते पाइआ ॥४॥२॥
मूलम्
मोहि निरगुण अनाथु सरणी आइआ ॥ बलि बलि बलि गुरदेव जिनि नामु द्रिड़ाइआ ॥ गुरि नामु दीआ कुसलु थीआ सरब इछा पुंनीआ ॥ जलने बुझाई सांति आई मिले चिरी विछुंनिआ ॥ आनंद हरख सहज साचे महा मंगल गुण गाइआ ॥ बिनवंति नानक नामु प्रभ का गुर पूरे ते पाइआ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। निरगुण = गुण हीन। अनाथु = निआसरा। बलि = बलिहार, सदके, कुर्बान। जिनि = जिस (गुरदेव) ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया है। गुरि = गुरु ने। कुसलु = आनंद। सरब = सारी। इछा = मुरादें। जलने = जलन, ईष्या। चिरी = बहुत समय से, चिरों से। विछुंनिआ = बिछुड़े हुए। हरख = खुशी। ते = से।4।
अर्थ: हे भाई! मैं गुण-हीन था, मैं निआसरा था (गुरु की कृपा से मैं प्रभु की) शरण आ पड़ा हूँ। (उस) गुरु से सदके जाता हूँ, लिहार जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ, जिसने (मेरे हृदय में प्रभु का) नाम पक्का कर दिया है।
गुरु ने (जिस किसी को भी परमात्मा का) नाम दिया (उसके अंदर) आत्मिक आनंद बन गया, (उसकी) सारी मुरादें पूरी हो गई; (गुरु ने उसके अंदर से) ईष्या खत्म कर दी, (उसके अंदर) ठंड पड़ गई, वह (प्रभु से) चिरों से विछुड़ा हुआ (दोबारा) मिल गया।
(हे भाई! जिसने भी गुरु की शरण पड़ कर) बड़ा आनंद पैदा करने वाले हरि-गुण गाने आरम्भ किए, उसके अंदर अटल आत्मिक अडोलता की खुशियां और आनंद बन गए। नानक विनती करता है: हे भाई! परमात्मा का (ऐसा) नाम पूरे गुरु से (ही) मिलता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ ॥ रुण झुणो सबदु अनाहदु नित उठि गाईऐ संतन कै ॥ किलविख सभि दोख बिनासनु हरि नामु जपीऐ गुर मंतन कै ॥ हरि नामु लीजै अमिउ पीजै रैणि दिनसु अराधीऐ ॥ जोग दान अनेक किरिआ लगि चरण कमलह साधीऐ ॥ भाउ भगति दइआल मोहन दूख सगले परहरै ॥ बिनवंति नानक तरै सागरु धिआइ सुआमी नरहरै ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ ॥ रुण झुणो सबदु अनाहदु नित उठि गाईऐ संतन कै ॥ किलविख सभि दोख बिनासनु हरि नामु जपीऐ गुर मंतन कै ॥ हरि नामु लीजै अमिउ पीजै रैणि दिनसु अराधीऐ ॥ जोग दान अनेक किरिआ लगि चरण कमलह साधीऐ ॥ भाउ भगति दइआल मोहन दूख सगले परहरै ॥ बिनवंति नानक तरै सागरु धिआइ सुआमी नरहरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रुणझुणो = रुण झुण, (रुण = बारीक गाने की आवाज। झुण = झांझर की झनकार की आवाज) मीठी मीठी सुर। रुणझुणो सबदु = मीठी मीठी सुर वाला शब्द। अनाहदु = बिना बजाए बजने वाला, एक रस, लगातार। उठि = उठ के। गाईऐ = गाया जाना चाहिए। संतन कै = संतन कै घरि, साधु-संगत में। किलविख = पाप। सभि = सारे। जपीऐ = जपना चाहिए। गुर मंतन कै = गुरु की वाणी के द्वारा।
लीजै = लिआ जाना चाहिए। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीजै = पीना चाहिए। रैणि = रात। जोग = जोग के साधन। दान = दान पुण्य। लगि = लग के। साधीऐ = साधन किया जाता है।
भाउ = प्रेम। परहरै = दूर कर देता है। तरै = पार लांघ जाता है। सागरु = (संसार-) समुंदर। परहरै = परमात्मा को।1।
अर्थ: हे भाई! नित्य उठ के (उद्यम करके) साधु-संगत में जा के परमात्मा की महिमा की मीठी-मीठी सुर वाली वाणी एक-रस गानी चाहिए। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पापों और ऐबों का नाश करने वाला है, यह हरि-नाम गुरु की शिक्षा पर चल कर जपना चाहिए।
हे भाई! परमात्मा का नाम जपना चाहिए, आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल पीना चाहिए, दिन-रात परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। प्रभु के सुंदर-चरणों में जुड़ के (मानो) अनेक योग-साधनों का, अनेक दान-पुन्यों का, अनेक ऐसी और क्रियाओं का साधन हो जाता है।
हे भाई! दया के श्रोत मोहन-प्रभु का प्यार प्रभु की भक्ति सारे दुख दूर कर देती है। नानक कहता है: हे भाई! मालिक प्रभु को स्मरण करके मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख सागर गोबिंद सिमरणु भगत गावहि गुण तेरे राम ॥ अनद मंगल गुर चरणी लागे पाए सूख घनेरे राम ॥ सुख निधानु मिलिआ दूख हरिआ क्रिपा करि प्रभि राखिआ ॥ हरि चरण लागा भ्रमु भउ भागा हरि नामु रसना भाखिआ ॥ हरि एकु चितवै प्रभु एकु गावै हरि एकु द्रिसटी आइआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि करी किरपा पूरा सतिगुरु पाइआ ॥२॥
मूलम्
सुख सागर गोबिंद सिमरणु भगत गावहि गुण तेरे राम ॥ अनद मंगल गुर चरणी लागे पाए सूख घनेरे राम ॥ सुख निधानु मिलिआ दूख हरिआ क्रिपा करि प्रभि राखिआ ॥ हरि चरण लागा भ्रमु भउ भागा हरि नामु रसना भाखिआ ॥ हरि एकु चितवै प्रभु एकु गावै हरि एकु द्रिसटी आइआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि करी किरपा पूरा सतिगुरु पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! गवहि = गाते हैं (बहुवचन)। अनद मंगल = अनेक सुख और खुशियां। लागे = लग के। घनेरे = अनेक, बहुत। सुख निधानु = सुखों के खजाने। हरिआ = दूर हो जाता है। प्रभि = प्रभु ने। भ्रमु = वहम, भटकना। रसना = जीभ (से)। भाखिआ = उचारा, जपा। चितवै = याद रखता है। द्रिसटी = नजरों में।2।
अर्थ: हे सुखों के समुंदर गोबिंद! (तेरे) भक्त (तेरा) स्मरण (करते हैं), तेरे गुण गाते हैं; गुरु के चरणों में लग के उनको अनेक आनंद खुशियां और सुख प्राप्त हो जाते हैं।
(हे भाई! जिसको गुरु मिल जाता है उसको) सुखों का खजाना हरि-नाम मिल जाता है। प्रभु ने कृपा करके जिस मनुष्य की (दुख आदि से) रक्षा की, उसके सारे दुख निर्वित हो गए। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में जुड़ गया, जिसने परमात्मा का नाम अपनी जीभ से उचारना शुरू कर दिया, उसका हरेक किस्म का भ्रम-वहम और डर दूर हो गया।
नानक विनती करता है: हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु ने कृपा की, उसको पूरा गुरु मिल गया, वह मनुष्य (फिर) एक परमात्मा को ही याद करता रहता है एक परमात्मा (के गुणों) को ही गाता रहता है, एक परमात्मा ही उसको हर जगह बसता नजर आता है।
[[0926]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलि रहीऐ प्रभ साध जना मिलि हरि कीरतनु सुनीऐ राम ॥ दइआल प्रभू दामोदर माधो अंतु न पाईऐ गुनीऐ राम ॥ दइआल दुख हर सरणि दाता सगल दोख निवारणो ॥ मोह सोग विकार बिखड़े जपत नाम उधारणो ॥ सभि जीअ तेरे प्रभू मेरे करि किरपा सभ रेण थीवा ॥ बिनवंति नानक प्रभ मइआ कीजै नामु तेरा जपि जीवा ॥३॥
मूलम्
मिलि रहीऐ प्रभ साध जना मिलि हरि कीरतनु सुनीऐ राम ॥ दइआल प्रभू दामोदर माधो अंतु न पाईऐ गुनीऐ राम ॥ दइआल दुख हर सरणि दाता सगल दोख निवारणो ॥ मोह सोग विकार बिखड़े जपत नाम उधारणो ॥ सभि जीअ तेरे प्रभू मेरे करि किरपा सभ रेण थीवा ॥ बिनवंति नानक प्रभ मइआ कीजै नामु तेरा जपि जीवा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि रहीऐ = मिले रहना चाहिए। मिलि = मिल के। सुनीऐ = सुनना चाहिए। दामोदर = (दाम = रससी। उदर = पेट। तगाड़ी) परमात्मा। माधो = (मा+धव। माया का पति) परमात्मा। गुनीअे = गुणों का।
दइआल = दया का घर। दुख हर = दुखों का नाश करने वाला। सगल = सारे। दोख = पाप। निवारणो = दूर करने वाला। सोग = गम। बिखड़े = मुश्किल। उधारणो = बचाने वाला।
सभि = सारे। जीअ = जीव। रेण = चरण धूल। थीवा = मैं हो जाऊँ। प्रभ = हे प्रभु! मइआ = दया। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करूँ।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! प्रभु के भगतों की संगति में मिल के रहना चाहिए, भक्त-जनों को मिल के परमात्मा का कीर्तन सुनना चाहिए। हे भाई! दया के श्रोत दामोदर माया के पति प्रभु के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता।
हे भाई! प्रभु दया का श्रोत है, दुखों का नाश करने वाला है, शरण-योग है, सबको दातें देने वाला है, सारे पापों का नाश करने वाला है। हे भाई! नाम जपने वालों को वह प्रभु मोह-सोग और मुश्किल विकारों से बचाने वाला है।
हे मेरे प्रभु! सारे जीव तेरे (पैदा किए हुए हैं), मेहर कर, मैं सबके चरणों की धूल बना रहूँ। नानक विनती करता है: हे प्रभु! दया कर, मैं तेरा नाम जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखि लीए प्रभि भगत जना अपणी चरणी लाए राम ॥ आठ पहर अपना प्रभु सिमरह एको नामु धिआए राम ॥ धिआइ सो प्रभु तरे भवजल रहे आवण जाणा ॥ सदा सुखु कलिआण कीरतनु प्रभ लगा मीठा भाणा ॥ सभ इछ पुंनी आस पूरी मिले सतिगुर पूरिआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि आपि मेले फिरि नाही दूख विसूरिआ ॥४॥३॥
मूलम्
राखि लीए प्रभि भगत जना अपणी चरणी लाए राम ॥ आठ पहर अपना प्रभु सिमरह एको नामु धिआए राम ॥ धिआइ सो प्रभु तरे भवजल रहे आवण जाणा ॥ सदा सुखु कलिआण कीरतनु प्रभ लगा मीठा भाणा ॥ सभ इछ पुंनी आस पूरी मिले सतिगुर पूरिआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि आपि मेले फिरि नाही दूख विसूरिआ ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। लाए = लगा के। सिमरह = आओ, हम स्मरण करें। धिआए = ध्यान धर के।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सिमरह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरे = पार लांघ गए। भवजल = संसार समुंदर। रहे = समाप्त हो गए। आवण जाणा = पैदा होना मरना। कलिआण = सुख आनंद। प्रभ भाणा = प्रभु की रजा।
सभ इछ = हरेक मुराद। पुंनी = पूरी हो गई। मिले सतिगुर = जो मनुष्य गुरु को मिल गए। प्रभ = प्रभु ने। विसूरिआ = विसूरे, झोरे, चिन्ता फिक्र।4।
अर्थ: (हे भाई! सदा से ही) प्रभु ने अपने चरणों में जोड़ के अपने भक्तों की रक्षा की है। सो, हे भाई! एक हरि नाम का ध्यान धर के, आओ, हम भी आठों पहर अपने प्रभु का स्मरण करते रहें।
(हे भाई! अनेक जीव) उस प्रभु का ध्यान धर के संसार-समुंदर से पार लांघ गए, (उनके) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त हो गए। हे भाई! प्रभु की महिमा करते हुए उनके अंदर सदा सुख-आनंद बना रहा, उनको प्रभु की रजा की रजा मीठी लगने लगी।
नानक विनती करता है: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को मिल गए, उनकी हरेक मुराद पूरी हो गई, उनकी हरेक आस पूरी हो गई। जिनको प्रभु ने स्वयं (अपने चरणों से) मिला लिया, उनको कोई दुख कोई चिन्ता-फिक्र फिर नहीं व्यापते।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ छंत ॥ सलोकु ॥ चरन कमल सरणागती अनद मंगल गुण गाम ॥ नानक प्रभु आराधीऐ बिपति निवारण राम ॥१॥
मूलम्
रामकली महला ५ छंत ॥ सलोकु ॥ चरन कमल सरणागती अनद मंगल गुण गाम ॥ नानक प्रभु आराधीऐ बिपति निवारण राम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सलोकु। चरन कमल = (गुरु के) सुंदर चरण। सरणागती = शरण+आगती, शरण आ के। मंगल = खुशी। गुण गाम = गुण गाने। आराधीऐ = आराधना चाहिए। बिपति = विपदा। निवारण = दूर करने वाला।1।
अर्थ: सलोकु। (हे भाई! जो मनुष्य गुरु के) सुंदर चरणों की शरण आ के (परमात्मा के) गुण गाते हैं, (उनके हृदय में सदा) आनंद-सुख बने रहते हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा की आराधना करनी चाहिए, परमात्मा हरेक विपदा दूर करने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ प्रभ बिपति निवारणो तिसु बिनु अवरु न कोइ जीउ ॥ सदा सदा हरि सिमरीऐ जलि थलि महीअलि सोइ जीउ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि रहिआ इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गुर चरन लागे दिन सभागे सरब गुण जगदीसरै ॥ करि सेव सेवक दिनसु रैणी तिसु भावै सो होइ जीउ ॥ बलि जाइ नानकु सुखह दाते परगासु मनि तनि होइ जीउ ॥१॥
मूलम्
छंतु ॥ प्रभ बिपति निवारणो तिसु बिनु अवरु न कोइ जीउ ॥ सदा सदा हरि सिमरीऐ जलि थलि महीअलि सोइ जीउ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि रहिआ इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गुर चरन लागे दिन सभागे सरब गुण जगदीसरै ॥ करि सेव सेवक दिनसु रैणी तिसु भावै सो होइ जीउ ॥ बलि जाइ नानकु सुखह दाते परगासु मनि तनि होइ जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छंतु। सिमरीऐ = स्मरणा चाहिए। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। पूरि रहिआ = व्यापक है। निमख = आँख झपकने जितना समय। मनहु = मन से। सभागे = भाग्ययशाली। जगदीसरै = जगत के ईश्वर के, जगत के मालिक के। सरब गुण = सारे गुण, सारी बड़ाई, सारी मेहर। सेव सेवक = सेवकों के लिए सेवा। रैणी = रात। तिसु = उस (प्रभु) को। भावै = अच्छा लगता है। बलि जाइ = सदके जाता है। सुखह दाते = सुख देने वाले से। परगासु = (सही आत्मिक जीवन की) रौशनी। मनि = मन में। तनि = तन में।1।
अर्थ: छंत। (हे भाई!) परमात्मा ही (जीवों की हरेक) विपदा दूर करने वाला है, उसके बिना और कोई (ऐसी सामर्थ्य वाला) नहीं है। (हे भाई!) सदा ही सदा ही परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, जल में, धरती में, आकाश में (हर जगह) वह परमात्मा ही मौजूद है।
हे भाई! वह परमात्मा जल में धरती में अंतरिक्ष में (हर जगह) व्यापक है आँख झपकने जितने समय के लिए भी वह प्रभु हमारे मन से भूलना नहीं चाहिए। वह दिन भाग्यशाली (समझो, जब हमारा मन) गुरु के चरणों में जुड़ा रहे, (पर, ये हमारे अपने वश की बात नहीं, ये तब ही होता है जब) उस जगत के मालिक प्रभु की मेहर (हो)।
हे भाई! दिन-रात सेवकों की तरह उस प्रभु की सेवा-भक्ति किया कर; जो कुछ उसको भाता है वही (जगत में) हो रहा है। नानक तो उस सुख-दाते प्रभु से सदके जाता है (उसकी मेहर से ही हमारे) मन में तन में (सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ हरि सिमरत मनु तनु सुखी बिनसी दुतीआ सोच ॥ नानक टेक गुोपाल की गोविंद संकट मोच ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ हरि सिमरत मनु तनु सुखी बिनसी दुतीआ सोच ॥ नानक टेक गुोपाल की गोविंद संकट मोच ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। बिनसी = खत्म हो गई। दुतीआ = दूसरी, अन्य। सोच = चिन्ता फिक्र। टेक = आसरा। संकट = दुख-कष्ट। मोच = नाश करने वाला।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने सारे संकट दूर करने वाले गोबिंद गोपाल का आसरा लिया, परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए उसका मन सुखी हो गया उसका तन सुखी हो गया (क्योंकि प्रभु की याद के कारण उसके) अन्य सारे चिन्ता-फिक्र दूर हो गए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ भै संकट काटे नाराइण दइआल जीउ ॥ हरि गुण आनंद गाए प्रभ दीना नाथ प्रतिपाल जीउ ॥ प्रतिपाल अचुत पुरखु एको तिसहि सिउ रंगु लागा ॥ कर चरन मसतकु मेलि लीने सदा अनदिनु जागा ॥ जीउ पिंडु ग्रिहु थानु तिस का तनु जोबनु धनु मालु जीउ ॥ सद सदा बलि जाइ नानकु सरब जीआ प्रतिपाल जीउ ॥२॥
मूलम्
छंतु ॥ भै संकट काटे नाराइण दइआल जीउ ॥ हरि गुण आनंद गाए प्रभ दीना नाथ प्रतिपाल जीउ ॥ प्रतिपाल अचुत पुरखु एको तिसहि सिउ रंगु लागा ॥ कर चरन मसतकु मेलि लीने सदा अनदिनु जागा ॥ जीउ पिंडु ग्रिहु थानु तिस का तनु जोबनु धनु मालु जीउ ॥ सद सदा बलि जाइ नानकु सरब जीआ प्रतिपाल जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छंतु। भै = भय, डर। दीनानाथ = कमजोरों का रक्षक। प्रतिपाल = पालनहार। अचुत = (अचुत। च्यु = जव सिंस, गिर जाना) कभी ना गिरने वाला, अविनाशी। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम। कर = हाथ (बहुवचन)। मसतक = माथा। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जीउ = जिंद, जीवात्मा, प्राण। पिंडु = शरीर। ग्रिहु = घर। बलि जाइ = सदके जाता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: छंत। हे भाई! जिस मनुष्य ने दीनों के नाथ पालनहार हरि प्रभु के गुण गाने आरम्भ किए, दया के श्रोत नारायण ने उसके सारे डर और दुख-कष्ट काट दिए।
हे भाई! सबको पालने वाला अविनाशी सिर्फ अकाल-पुरख ही है, जिस मनुष्य का प्यार उसके साथ बन गया, जिसने अपने हाथों से अपना माथा उसके चरणों में रख दिया, प्रभु ने उसको अपने साथ जोड़ लिया, (माया के हमलों की तरफ से वह) सदा हर वक्त सचेत रहने लग पड़ा।
हे भाई! (हमारी यह) जीवात्मा (हमारा ये) शरीर, घर, जगह, तन, जोबन और धन-माल सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। वह प्रभु सारे जीवों को पालने वाला है। नानक उससे सदा ही सदके जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ रसना उचरै हरि हरे गुण गोविंद वखिआन ॥ नानक पकड़ी टेक एक परमेसरु रखै निदान ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ रसना उचरै हरि हरे गुण गोविंद वखिआन ॥ नानक पकड़ी टेक एक परमेसरु रखै निदान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। उचरै = उचारता है। टेक = आसरा। रखै = रक्षा करता है। निदान = अंत को।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम उचारता रहता है, गोबिंद के गुण बयान करता रहता है, सदा एक परमेश्वर का आसरा लिए रखता है, परमात्मा आखिर उसकी रक्षा करता है।1।
[[0927]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ सो सुआमी प्रभु रखको अंचलि ता कै लागु जीउ ॥ भजु साधू संगि दइआल देव मन की मति तिआगु जीउ ॥ इक ओट कीजै जीउ दीजै आस इक धरणीधरै ॥ साधसंगे हरि नाम रंगे संसारु सागरु सभु तरै ॥ जनम मरण बिकार छूटे फिरि न लागै दागु जीउ ॥ बलि जाइ नानकु पुरख पूरन थिरु जा का सोहागु जीउ ॥३॥
मूलम्
छंतु ॥ सो सुआमी प्रभु रखको अंचलि ता कै लागु जीउ ॥ भजु साधू संगि दइआल देव मन की मति तिआगु जीउ ॥ इक ओट कीजै जीउ दीजै आस इक धरणीधरै ॥ साधसंगे हरि नाम रंगे संसारु सागरु सभु तरै ॥ जनम मरण बिकार छूटे फिरि न लागै दागु जीउ ॥ बलि जाइ नानकु पुरख पूरन थिरु जा का सोहागु जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छंतु। सुआमी = मालिक। रखको = रक्षक। ता कै अंचलि = उसके पल्ले से। जीउ = हे जी! हे भाई! भजु = भजन कर। साधू संगि = गुरु की संगति में। मति = समझदारी। जीउ = जिंद, अपना स्वयं। धरणी धरै = धरती के आसरे प्रभु की। संगे = संगि। रंगे = रंगि। सभु = सारा। तरै = पार लांघ जाता है। छूटै = समाप्त हो गए। थिरु = सदा के लिए कायम। सोहागु = पति वाला सहारा।3।
अर्थ: छंतु। हे भाई! वही मालिक प्रभु जी (हम जीवों का) रखवाला है, सदा उसके लड़ लगा रह। अपने मन की समझदारी छोड़ दे, गुरु की संगति में टिक के उस दया-के-घर प्रभु का भजन किया कर।
हे भाई! सिर्फ एक परमात्मा का आसरा लेना चाहिए, अपना आप उसके हवाले कर देना चाहिए, सारी सृष्टि के आसरे उस प्रभु की ही आस रखनी चाहिए। जो मनुष्य गुरु की संगत में रह के परमात्मा के नाम के प्यार में टिका रहता है, वह मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। उस मनुष्य के जनम-मरण के चक्कर, उसके पिछले किए हुए सारे कुकर्म खत्म हो जाते हैं, दोबारा कभी उसको विकारों का दाग नहीं लगता।
हे भाई! जिस परमात्मा का पति वाला सहारा सदा (जीवों के सिर पर) कायम रहता है, नानक उस सर्व-गुण-भरपूर सर्व-व्यापक प्रभु से बलिहार जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ धरम अरथ अरु काम मोख मुकति पदारथ नाथ ॥ सगल मनोरथ पूरिआ नानक लिखिआ माथ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ धरम अरथ अरु काम मोख मुकति पदारथ नाथ ॥ सगल मनोरथ पूरिआ नानक लिखिआ माथ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरु = और। सगल = सारे। मनोरथ = मन की मुरादें। माथ = माथे पर।1।
अर्थ: सलोकु। हे नानक! (संसार के चार प्रसिद्ध पदार्थ) धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का मालिक स्वयं प्रभू है। जिस आदमी के माथे पर लेख लिखे हुए होते हैं (उसे वह भगवान आ मिलता है और) उसके सभी उद्देश्य पूरे हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ सगल इछ मेरी पुंनीआ मिलिआ निरंजन राइ जीउ ॥ अनदु भइआ वडभागीहो ग्रिहि प्रगटे प्रभ आइ जीउ ॥ ग्रिहि लाल आए पुरबि कमाए ता की उपमा किआ गणा ॥ बेअंत पूरन सुख सहज दाता कवन रसना गुण भणा ॥ आपे मिलाए गहि कंठि लाए तिसु बिना नही जाइ जीउ ॥ बलि जाइ नानकु सदा करते सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥४॥४॥
मूलम्
छंतु ॥ सगल इछ मेरी पुंनीआ मिलिआ निरंजन राइ जीउ ॥ अनदु भइआ वडभागीहो ग्रिहि प्रगटे प्रभ आइ जीउ ॥ ग्रिहि लाल आए पुरबि कमाए ता की उपमा किआ गणा ॥ बेअंत पूरन सुख सहज दाता कवन रसना गुण भणा ॥ आपे मिलाए गहि कंठि लाए तिसु बिना नही जाइ जीउ ॥ बलि जाइ नानकु सदा करते सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छंतु। इछ = मुरादें। पुंनीआ = पूरी हो गई। निरंजन = निर+अंजन, निर्लिप। राइ = पातिशाह। ग्रिहि = (जिसके) हृदय घर में। आइ = आ के। पुरबि कमाए = पूर्बले जनम में जिसने अच्छे कर्म किए। ता की = उस (परमात्मा) की। उपमा = बड़ाई। गणा = मैं बताऊँ। सहज = आत्मिक अडोलता। रसना = जीभ से। कवन गुण = कौन कौन से गुण? भणा = मैं उचारूँ। आपे = खुद ही। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। जाइ = जगह। करते = कर्तार से।4।।
अर्थ: हे भाई! निर्लिप प्रभु पातशाह (जब से) मुझे मिला है, मेरी सारी मुरादें पूरी हो गई हैं। हे अति भाग्यशाली सज्जनो! जिस मनुष्य के हृदय-गृह में प्रभु जी आ बसते हैं, उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है। पर, हे भाई! उसी के हृदय-गृह में सोहाना पातशाह आ के बसता है जिसने पूर्बले जनम में नेक कर्म कमाए होते हैं। मैं उस प्रभु की कोई उपमा कहने योग्य नहीं हूँ। वह बेअंत है, सारे गुणों से भरपूर है, आत्मिक अडोलता के आनंद बख्शने वाला है। मैं अपनी जीभ से उसके कौन-कौन से गुण बयान करूँ? हे भाई! वह स्वयं ही (किसी भाग्यशाली को अपने चरणों में) जोड़ता है, उसको पकड़ के अपने गले से लगाता है। हे भाई! उस प्रभु के बिना कोई और (मेरा) सहारा नहीं। नानक सदा उस कर्तार से बलिहार जाता है, वह सब जीवों में व्यापक है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु रामकली महला ५ ॥ रण झुंझनड़ा गाउ सखी हरि एकु धिआवहु ॥ सतिगुरु तुम सेवि सखी मनि चिंदिअड़ा फलु पावहु ॥
मूलम्
रागु रामकली महला ५ ॥ रण झुंझनड़ा गाउ सखी हरि एकु धिआवहु ॥ सतिगुरु तुम सेवि सखी मनि चिंदिअड़ा फलु पावहु ॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कर्तार साहिब वाली बीड़ में और छपी हुई बीड़ों में इस छंत की सिर्फ यही दो तुकें हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रण = युद्ध। झुंझना = जीतना। रण झुंझनड़ा = वह सुंदर गीत जिससे इस जगत की रण भूमि में विवेक की सेना मोह की सेना पर विजय पा ले, परमात्मा की महिमा का गीत। सखी = हे सखी! सतिगुरु सेवि = गुरु के चरण पड़ो। मनि = मन में। चिंदिअड़ा = चितवा हुआ।
अर्थ: हे सहेलिहो! हे सत्संगियो! एक परमात्मा का ध्यान धरो; प्रभु की महिमा का (वह) सुंदर गीत गाओ (जिसकी इनायत से विकारों का मुकाबला कर सको)। हे सहेलियो! गुरु की शरण पड़ो, (इस तरह विकारों के मुकाबले में जीत प्राप्त करने का यह) मन-इच्छित फल प्राप्त कर लोगी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला ५ रुती सलोकु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला ५ रुती सलोकु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि बंदन प्रभ पारब्रहम बाछउ साधह धूरि ॥ आपु निवारि हरि हरि भजउ नानक प्रभ भरपूरि ॥१॥
मूलम्
करि बंदन प्रभ पारब्रहम बाछउ साधह धूरि ॥ आपु निवारि हरि हरि भजउ नानक प्रभ भरपूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदन = नमस्कार। बाछउ = मैं मांगता हूं। साधह धूरि = संत जनों की चरण धूल। आपु = स्वै भाव। निवारि = दूर करके। भजउ = मैं जपता हूँ। भरपूरि = सर्व व्यापक।1।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) पारब्रहम प्रभु को नमस्कार करके मैं (उसके दर से) संत-जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ, और स्वै भाव दूर करके मैं उस सर्व-व्यापक प्रभु का नाम जपता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किलविख काटण भै हरण सुख सागर हरि राइ ॥ दीन दइआल दुख भंजनो नानक नीत धिआइ ॥२॥
मूलम्
किलविख काटण भै हरण सुख सागर हरि राइ ॥ दीन दइआल दुख भंजनो नानक नीत धिआइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलविख = पाप। भै = डर, भय। सुख सागर = सुखों का समुंदर। दुख भंजनो = दुखों का नाश करने वाला। नीत = नित्य, सदा।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: प्रभु पातशाह सारे पाप काटने वाला है, सारे डर दूर करने वाला है, सुखों का समुंदर है, गरीबों पर दया करने वाला है, (गरीबों के) दुख नाश करने वाला है। हे नानक! उसको सदा स्मरण करते रहो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ जसु गावहु वडभागीहो करि किरपा भगवंत जीउ ॥ रुती माह मूरत घड़ी गुण उचरत सोभावंत जीउ ॥ गुण रंगि राते धंनि ते जन जिनी इक मनि धिआइआ ॥ सफल जनमु भइआ तिन का जिनी सो प्रभु पाइआ ॥ पुंन दान न तुलि किरिआ हरि सरब पापा हंत जीउ ॥ बिनवंति नानक सिमरि जीवा जनम मरण रहंत जीउ ॥१॥
मूलम्
छंतु ॥ जसु गावहु वडभागीहो करि किरपा भगवंत जीउ ॥ रुती माह मूरत घड़ी गुण उचरत सोभावंत जीउ ॥ गुण रंगि राते धंनि ते जन जिनी इक मनि धिआइआ ॥ सफल जनमु भइआ तिन का जिनी सो प्रभु पाइआ ॥ पुंन दान न तुलि किरिआ हरि सरब पापा हंत जीउ ॥ बिनवंति नानक सिमरि जीवा जनम मरण रहंत जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। जसु = महिमा के गीत। वडभगीहो = बड़े भाग्यों वालो! भगवंत = भगवान। रुती = ऋतुएं। माह = महीने। मूरत = महूरत दो घड़ियों जितना वक्त। उचरत = उचारते हुए। सोभावंत = शोभा वाले। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। धंनि = भाग्यों वाले। ते = वह (बहुवचन)। इक मनि = एक मन से, एकाग्र मन से। सफल = कामयाब। तुलि = बराबर। किरिआ = (निहित हुए धार्मिक) कर्म। पापा हंत = पापों का नाश करने वाला। सिमरि = स्मरण करके। जीवा = मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। रहंत = रह जाता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘मूरत’ और मूरति’ में फर्क है। यहाँ शब्द ‘मूरत’ बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: छंतु। हे अति भाग्यशालियो! परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहा करो। हे भगवान! (मेरे पर) मेहर कर (मैं भी) तेरा यश गाता रहूँ। हे भाई! जो ऋतुएं, जो महूरत, जो घड़ियाँ परमात्मा के गुण उचारते हुए बीतें, वह समय शोभा वाले होते हैं।
हे भाई! जो लोग परमात्मा के गुणों के प्यार-रंग में रंगे रहते हैं, जिस लोगों ने एक-मन हो परमात्मा का स्मरण किया है, वे लोग भाग्यशाली हैं। हे भाई! (नाम-जपने की इनायत से) जिन्होंने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है उनका मानव जीवन कामयाब हो गया है।
हे भाई! परमात्मा (का नाम) सारे पापों को नाश करने वाला है, कोई पुण्य-दान, कोई धार्मिक कर्म हरि-नाम स्मरण के बराबर नहीं है। नानक विनती करता है: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करके मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। (नाम-जपने की इनायत से) जनम-मरन (के चक्कर) समाप्त हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ उदमु अगमु अगोचरो चरन कमल नमसकार ॥ कथनी सा तुधु भावसी नानक नाम अधार ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ उदमु अगमु अगोचरो चरन कमल नमसकार ॥ कथनी सा तुधु भावसी नानक नाम अधार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदमु = (all energy जिसमें कहीं रक्ती भर भी आलस ना हो)। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरो = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों द्वारा पहुँच ना हो सके। कथनी सा = मैं वह बोल बोलूँ। तुधु = तुझे। अधार = आसरा।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू उद्यम-स्वरूप है (तेरे में रक्ती भर भी आलस नहीं है), तू अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इन्द्रियों की तेरे तक पहुँच नहीं, मैं तेरे सुंदर चरणों को नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु! (मेहर कर) मैं (सदा) वह बोल बोलूँ जो तुझे अच्छे लगें। तेरा नाम ही नानक का आसरा बना रहे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत सरणि साजन परहु सुआमी सिमरि अनंत ॥ सूके ते हरिआ थीआ नानक जपि भगवंत ॥२॥
मूलम्
संत सरणि साजन परहु सुआमी सिमरि अनंत ॥ सूके ते हरिआ थीआ नानक जपि भगवंत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजन = हे सज्जनो! परहु = पड़े रहो। सिमरि = स्मरण करके। ते = से। जपि = जप के।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सज्जनो! गुरु संत की शरण पड़े रहो। (गुरु के द्वारा) बेअंत मालिक प्रभु को स्मरण करके, भगवान का नाम जप के (मनुष्य) सूखे से हरा हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ रुति सरस बसंत माह चेतु वैसाख सुख मासु जीउ ॥ हरि जीउ नाहु मिलिआ मउलिआ मनु तनु सासु जीउ ॥ घरि नाहु निहचलु अनदु सखीए चरन कमल प्रफुलिआ ॥ सुंदरु सुघड़ु सुजाणु बेता गुण गोविंद अमुलिआ ॥ वडभागि पाइआ दुखु गवाइआ भई पूरन आस जीउ ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी मिटी जम की त्रास जीउ ॥२॥
मूलम्
छंतु ॥ रुति सरस बसंत माह चेतु वैसाख सुख मासु जीउ ॥ हरि जीउ नाहु मिलिआ मउलिआ मनु तनु सासु जीउ ॥ घरि नाहु निहचलु अनदु सखीए चरन कमल प्रफुलिआ ॥ सुंदरु सुघड़ु सुजाणु बेता गुण गोविंद अमुलिआ ॥ वडभागि पाइआ दुखु गवाइआ भई पूरन आस जीउ ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी मिटी जम की त्रास जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। सरस = रस वाली, रसीली, स्वादिष्ट। मासु = महीना। नाहु = नाथ, पति। मउलिआ = खिल उठा। सासु = सांस। घरि = हृदय घर में। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। सखीए = हे सहेलिए! सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। बेता = (सब कुछ) जानने वाला। वडभागि = बड़ी किस्मत से। त्रास = डर।2।
अर्थ: छंतु। (हे सज्जनो! जिस मनुष्य को) पति-प्रभु मिल जाता है, उसका मन उसका तन उसकी (हरेक) सांस खुशी सें महक उठती है, उसको बसंत की ऋतु आनंदमयी प्रतीत होती है, उसके लिए महीना चेत उसके लिए वैसाख महीना सुखों से भरपूर हो जाता है।
हे सहेलिए! जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु-पति के सुंदर चरण आ बसें, उसका हृदय खिल उठता है। जिसके हृदय-गृह में सदा कायम रहने वाला प्रभु-पति आ बसे, वहाँ सदा आनंद बना रहता है। हे सहेलिए! वह प्रभु सुंदर है, सोहना है, सुजान है, (सबके दिल की) जानने वाला है। उस गोबिंद के गुण किसी मूल्य पर नहीं मिल सकते।
हे सहेलियो! जिस जीव-स्त्री ने अच्छी किस्मत से उसका मिलाप प्राप्त कर लिया, उसने अपना सारा दुख दूर कर लिया, उसकी हरेक आस पूरी हो गई। नानक (भी उसके दर पर) विनती करता है (और कहता है: हे प्रभु! जो भी जीव) तेरी शरण आ गया, (उसके दिल से) मौत का सहम दूर हो गया।2।
[[0928]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ साधसंगति बिनु भ्रमि मुई करती करम अनेक ॥ कोमल बंधन बाधीआ नानक करमहि लेख ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ साधसंगति बिनु भ्रमि मुई करती करम अनेक ॥ कोमल बंधन बाधीआ नानक करमहि लेख ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमि = भटक भटक के। मुई = आत्मिक मौत मर गई। कोमल बंधन = मोह की नाजुक जंजीरें। करमहि लेख = किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार।1।
अर्थ: हे नानक! गुरु की संगत से वंचित रह के और ही कर्म करती हुई जीव-स्त्री (माया के मोह में) भटक-भटक के आत्मिक मौत सहेड़ लेती है। अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार वह जीव-स्त्री माया के मोह की कोमल जंजीरों में बँधी रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो भाणे से मेलिआ विछोड़े भी आपि ॥ नानक प्रभ सरणागती जा का वड परतापु ॥२॥
मूलम्
जो भाणे से मेलिआ विछोड़े भी आपि ॥ नानक प्रभ सरणागती जा का वड परतापु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाणे = भा गए, अच्छे लगे। से उह = (बहुवचन)। सरणागती = शरण पड़े रहो। जा का = जिस (प्रभु) का।2।
अर्थ: हे नानक! जो जीव प्रभु को अच्छे लगने लग जाते हैं, उनको वह अपने चरणों में जोड़ लेता है, (अपने चरणों से) बिछोड़ा भी खुद ही करवाता है। (इसलिए, हे भाई!) उस प्रभु की शरण पड़े रहना चाहिए जिसका बहुत बड़ा तेज-प्रताप है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ ग्रीखम रुति अति गाखड़ी जेठ अखाड़ै घाम जीउ ॥ प्रेम बिछोहु दुहागणी द्रिसटि न करी राम जीउ ॥ नह द्रिसटि आवै मरत हावै महा गारबि मुठीआ ॥ जल बाझु मछुली तड़फड़ावै संगि माइआ रुठीआ ॥ करि पाप जोनी भै भीत होई देइ सासन जाम जीउ ॥ बिनवंति नानक ओट तेरी राखु पूरन काम जीउ ॥३॥
मूलम्
छंतु ॥ ग्रीखम रुति अति गाखड़ी जेठ अखाड़ै घाम जीउ ॥ प्रेम बिछोहु दुहागणी द्रिसटि न करी राम जीउ ॥ नह द्रिसटि आवै मरत हावै महा गारबि मुठीआ ॥ जल बाझु मछुली तड़फड़ावै संगि माइआ रुठीआ ॥ करि पाप जोनी भै भीत होई देइ सासन जाम जीउ ॥ बिनवंति नानक ओट तेरी राखु पूरन काम जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। ग्रीखम = गरमी। गाखड़ी = मुश्किल। अखाड़ै = आसाढ के महीने में। घाम = गर्मी, धूप। बिछोहु = विछोड़ा। प्रेम बिछोहु = प्रेम का ना होना, प्रेम का विछोड़ा। दुहागणी = दुर्भाग्यपूर्ण जीव-स्त्री को। न करी = नहीं करता। द्रिसटी = निगाह। हावै = हाहुके हो के। गारबि = अहंकार में। मुठीआ = लूटी जाती है। संगि = साथ। रुठीआ = प्रभु पति से रूठी हुई। करि = कर के। जोनी = जूनियों में। भै भीत होई = डरी हुई, घबराई हुई। देइ = देता है (एकवचन)। जाम = जम। पूरन काम = हे कामना पूरी करने वाले! 3।
अर्थ: छंत। (हे सहेलिए! जैसे) गर्मी की ऋतु बहुत ही करड़ी होती है, जेठ-हाड़ में बड़ी धूप पड़ती है (इस ऋतु में जीव-जंतु बहुत तंग होते हैं, उसी तरह जिस) दुर्भाग्यपूर्ण जीव-स्त्री की ओर प्रभु-पति निगाह नहीं करते उसे प्रेम की अनुभूति की अनुपस्थिति जलाती है।
जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति नहीं दिखता, वह हाहुके ले ले के मरती रहती है, (माया के) अहंकार में वह अपना आत्मिक जीवन लुटा बैठती है। माया के मोह में फसी हुई वह प्रभु-पति से रूठी रहती है (और ऐसे तड़पती रहती है, जैसे) पानी के बिना मछली तड़पती है।
(हे सहेली! जो जीव-स्त्री) पाप कर-कर के घबराई रहती है, उसको जमराज सदा सजा देता है। नानक विनती करता है: हे सब की मनो कामना पूरी करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे अपने चरणों में जोड़े रख)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ सरधा लागी संगि प्रीतमै इकु तिलु रहणु न जाइ ॥ मन तन अंतरि रवि रहे नानक सहजि सुभाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ सरधा लागी संगि प्रीतमै इकु तिलु रहणु न जाइ ॥ मन तन अंतरि रवि रहे नानक सहजि सुभाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरधा = श्रद्धा, प्रेम, प्यार। संगि = साथ। इकु तिलु = रक्ती जितना समय भी। अंतरि = अंदर। रवि रहे = बसा रहता है। सहजि सुभाइ = सोए हुए ही, बिना किसी प्रयास के, मेहनत-कमाई करते हुए भी।1।
अर्थ: हे नानक! (जिस जीव-स्त्री के हृदय में अपने) प्रीतम-प्रभु के साथ प्यार बनता है, वह उस (प्रीतम के बिना) रक्ती जितने समय के लिए भी नहीं रह सकती। बिना किसी विशेष प्रयास के ही उसके मन में वह प्रीतम हर वक्त टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करु गहि लीनी साजनहि जनम जनम के मीत ॥ चरनह दासी करि लई नानक प्रभ हित चीत ॥२॥
मूलम्
करु गहि लीनी साजनहि जनम जनम के मीत ॥ चरनह दासी करि लई नानक प्रभ हित चीत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। लीनी = अपनी बना ली। साजनहि = सज्जन प्रभु ने। चरनह = चरणों की। हित = प्यार। चीत = चिक्त, ध्यान।2।
अर्थ: हे नानक! अनेक जन्मों से चले आ रहे मित्र सज्जन-प्रभु ने (जिस जीव-स्त्री का) हाथ पकड़ के (उसको अपना) बना लिया, उसको अपना हार्दिक प्यार दे के उसको अपने चरणों की दासी बना लिया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ रुति बरसु सुहेलीआ सावण भादवे आनंद जीउ ॥ घण उनवि वुठे जल थल पूरिआ मकरंद जीउ ॥ प्रभु पूरि रहिआ सरब ठाई हरि नाम नव निधि ग्रिह भरे ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी कुल समूहा सभि तरे ॥ प्रिअ रंगि जागे नह छिद्र लागे क्रिपालु सद बखसिंदु जीउ ॥ बिनवंति नानक हरि कंतु पाइआ सदा मनि भावंदु जीउ ॥४॥
मूलम्
छंतु ॥ रुति बरसु सुहेलीआ सावण भादवे आनंद जीउ ॥ घण उनवि वुठे जल थल पूरिआ मकरंद जीउ ॥ प्रभु पूरि रहिआ सरब ठाई हरि नाम नव निधि ग्रिह भरे ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी कुल समूहा सभि तरे ॥ प्रिअ रंगि जागे नह छिद्र लागे क्रिपालु सद बखसिंदु जीउ ॥ बिनवंति नानक हरि कंतु पाइआ सदा मनि भावंदु जीउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। रुति = ऋतु, मौसम। बरसु = बरखा (का मौसम)। सुहेलीआ = सुखदाई। घण = बादल। उनवि = झुक के। वुठे = बरसने लगे। मकरंद = सुगंधि भरा जल। पूरिआ = भर गया। सरब ठाई = सब जगह। नव निधि = नौ खजाने। ग्रिह = घर। सिमरि = स्मरण करके। समूहा = ढेर। सभि = सारे। प्रिअ रंगि = प्यारे के रंग में। जागे = सचेत हो गए। छिद्र = ऐब, दाग़, छेद। सद = सदा। बखसिंदु = दयावान। कंतु = कसम। मनि = मन में। भावंदु = प्यारा लगने वाला।4।
अर्थ: छंतु। (हे सहेलिए! जैसे) बरखा ऋतु बड़ी सुखदाई होती है, सावन-भादरों के महीनों में (बरखा के कारण) बड़ी मौजें बनी रहती हैं, बादल झुक-झुक के बरसते हैं, तालाबों-छप्पड़ों में, धरती के गड्ढों में हर जगह सुगंधि भरा पानी ही भर जाता है, (वैसे ही जिनके हृदय-) घर परमात्मा के नाम के नौ खजानों से नाको-नाक भर जाते हैं, उनको परमात्मा सब जगह दिखाई देने लग जाता है। सबके दिल की जानने वाले परमात्मा का नाम स्मरण करके उनकी सारी ही कुलें पार लांघ जाती हैं।
हे सहेलिए! जो वडभागी प्यारे प्रभु के प्रेम-रंग में (टिक के माया के मोह के हमलों की ओर से) सचेत हो जाते हैं, उन्हें विकारों के कोई दाग़ नहीं लगते, दया का घर प्रभु सदा ही उन पर प्रसन्न रहता है। नानक विनती करता है: हे सहेलिए! उन्हें मन में सदा प्यारा लगने वाला पति-प्रभु मिल जाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ आस पिआसी मै फिरउ कब पेखउ गोपाल ॥ है कोई साजनु संत जनु नानक प्रभ मेलणहार ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ आस पिआसी मै फिरउ कब पेखउ गोपाल ॥ है कोई साजनु संत जनु नानक प्रभ मेलणहार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फिरउ = मैं फिरती हूँ। पेखउ = मैं देखूँ। मेलणहार = मिलाप कराने लायक।1।
अर्थ: हे नानक! (कह: प्रभु के दर्शनों की) आस (रख के) दर्शनों की तमन्ना से मैं (तलाश करती) फिरती हूँ कि कब मैं गोपाल प्रभु के दर्शन कर सकूँ। (मैं तलाशती हूं कि) कोई सज्जन संत जन मुझे मिल जाए जो मुझे प्रभु से मिलाने की समर्थता रखता हो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु मिलबे सांति न ऊपजै तिलु पलु रहणु न जाइ ॥ हरि साधह सरणागती नानक आस पुजाइ ॥२॥
मूलम्
बिनु मिलबे सांति न ऊपजै तिलु पलु रहणु न जाइ ॥ हरि साधह सरणागती नानक आस पुजाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु मिलबे = मिले बिना। साधह सरणागती = संत जनों की शरण पड़ने से। पुजाइ = पूरी कर देता है।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: परमात्मा को) मिले बिना (हृदय में) ठंड नहीं पड़ती, रक्ती भर समय के लिए भी (शांति से) रहा नहीं जा सकता। प्रभु के संत-जनों की शरण पड़ने से (कोई ना कोई गुरमुख दर्शनों की) आस पूरी कर (ही) देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ रुति सरद अड्मबरो असू कतके हरि पिआस जीउ ॥ खोजंती दरसनु फिरत कब मिलीऐ गुणतास जीउ ॥ बिनु कंत पिआरे नह सूख सारे हार कंङण ध्रिगु बना ॥ सुंदरि सुजाणि चतुरि बेती सास बिनु जैसे तना ॥ ईत उत दह दिस अलोकन मनि मिलन की प्रभ पिआस जीउ ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा मेलहु प्रभ गुणतास जीउ ॥५॥
मूलम्
छंतु ॥ रुति सरद अड्मबरो असू कतके हरि पिआस जीउ ॥ खोजंती दरसनु फिरत कब मिलीऐ गुणतास जीउ ॥ बिनु कंत पिआरे नह सूख सारे हार कंङण ध्रिगु बना ॥ सुंदरि सुजाणि चतुरि बेती सास बिनु जैसे तना ॥ ईत उत दह दिस अलोकन मनि मिलन की प्रभ पिआस जीउ ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा मेलहु प्रभ गुणतास जीउ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। अडंबरो = आडंबर, आरंभ। कतके = कार्तिक में। गुण तास = गुणों का खजाना प्रभु।
सूख सारे = सुखों की सार। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य, फिटकार, व्यर्थं। सुंदरि = सुंदरी, सोहणी। चतुरि = (‘चतुर’ का स्त्रीलिंग)। बेती = विद्यावती। तना = शरीर।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘बेती’ शब्द ‘बेता’ व ‘वेक्ता’ का स्त्रीलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
ईत उत = इधर उधर। दह दिस = दसों दिशाओं में। अलोकन = देख भाल। मनि = मन में। धारि किरपा = कृपा करके। गुणतास प्रभ = हे गुणों के खजाने प्रभु!।5।
अर्थ: छंतु। (हे सहेलिए! जब) असू-कार्तिक में मीठी-मीठी ऋतु का आरम्भ होता है, (तब हृदय में) प्रभु (के मिलाप) की चाहत उपजती है। (जिस जीव-स्त्री के भीतर ये बिरह की अवस्था पैदा होती है, वह) दीदार करने के लिए तलाश करती-फिरती है कि गुणों के खजाने प्रभु के साथ कब मेल हो।
नानक विनती करता है: (हे सहेलिए!) प्यारे पति (के मिलाप) के बिना (उसके मिलाप के) सुख की समझ नहीं पड़ सकती, हार-कंगन (आदि श्रृंगार बल्कि) दुखदाई लगते हैं। स्त्री सुंदर हो, समझदार हो, चतुर हो, विद्यावती हो (पति के मिलाप के बिना ऐसे ही है, जैसे) सांस आए बिना शरीर। (यही हाल होता है जीव-स्त्री का, जो प्रभु-मिलाप से वंचित रहे) इधर-उधर, दसों दिशाओं में देख-भाल करती है, उसके मन में प्रभु को मिलने की तमन्ना बनी रहती है। (वह संत जनों के आगे विनती करती रहती है: हे संत जनो!) कृपा करके मुझे गुणों के खजाने प्रभु से मिला दो।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ जलणि बुझी सीतल भए मनि तनि उपजी सांति ॥ नानक प्रभ पूरन मिले दुतीआ बिनसी भ्रांति ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ जलणि बुझी सीतल भए मनि तनि उपजी सांति ॥ नानक प्रभ पूरन मिले दुतीआ बिनसी भ्रांति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलणि = जलन, तृष्णा की आग। मनि = मन में। तनि = तन में। सांति = ठंड। दुतीआ भ्रांति = (प्रभु को भुला के) और तरफ की भटकना, माया की खातिर भटकना।1।
अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्यों को) पूर्ण प्रभु जी मिल गए (उनके अंदर से) और (किसी तथाकथित शक्तियों की) तरफ की भटकना दूर हो गई; (उनके अंदर से) तृष्णा की आग बुझ गई, (उनके हृदय) ठंडे-ठार हो गए, (उनके) मन में (उनके) तन में शांति पैदा हो गई।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
साध पठाए आपि हरि हम तुम ते नाही दूरि ॥ नानक भ्रम भै मिटि गए रमण राम भरपूरि ॥२॥
मूलम्
साध पठाए आपि हरि हम तुम ते नाही दूरि ॥ नानक भ्रम भै मिटि गए रमण राम भरपूरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरु, संत जन। पठाए = भेजे। ते = से। हम तुम ते = हम जीवों से। भ्रम = भ्रम, भटकना। भै = भय, डर। रमण = स्मरण। भरपूरि = सर्व व्यापक।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! प्रभु ने खुद (ही) गुरु को (जगत में) भेजा। (गुरु ने आ के बताया कि) परमात्मा हम जीवों से दूर नहीं है, (गुरु ने बताया कि) सर्व-व्यापक परमात्मा का स्मरण करने वालों के मन की भटकना और सारे डर दूर हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ रुति सिसीअर सीतल हरि प्रगटे मंघर पोहि जीउ ॥ जलनि बुझी दरसु पाइआ बिनसे माइआ ध्रोह जीउ ॥ सभि काम पूरे मिलि हजूरे हरि चरण सेवकि सेविआ ॥ हार डोर सीगार सभि रस गुण गाउ अलख अभेविआ ॥ भाउ भगति गोविंद बांछत जमु न साकै जोहि जीउ ॥ बिनवंति नानक प्रभि आपि मेली तह न प्रेम बिछोह जीउ ॥६॥
मूलम्
छंतु ॥ रुति सिसीअर सीतल हरि प्रगटे मंघर पोहि जीउ ॥ जलनि बुझी दरसु पाइआ बिनसे माइआ ध्रोह जीउ ॥ सभि काम पूरे मिलि हजूरे हरि चरण सेवकि सेविआ ॥ हार डोर सीगार सभि रस गुण गाउ अलख अभेविआ ॥ भाउ भगति गोविंद बांछत जमु न साकै जोहि जीउ ॥ बिनवंति नानक प्रभि आपि मेली तह न प्रेम बिछोह जीउ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। सिसीअर = सर्दी, ठंडक। पोहि = पोह (के महीने) में। जलनि = तपश, तृष्णा की आग। ध्रोह = ठगी। सभि = सारे। मिलि = मिल के। सेवकि = सेवक ने। डोर = धागा। अभेविआ = अभेव के। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।
भाउ = प्यार। बांछत = मांगते हुए। जोहि न साकै = देख नहीं सकता। प्रभि = प्रभु ने। तह = वहाँ, उसके हृदय में। प्रेम विछोह = प्रभु प्रेम से विछोड़ा।6।
अर्थ: छंत। हे भाई! मघर-पोह के महीने में सर्दी की ऋतु (आ के) ठंडक कर देती है, (इसी तरह जिस जीव के हृदय में) परमात्मा का प्रकाश होता है, जो मनुष्य परमात्मा के दर्शन कर लेता है, उसके अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है, उसके अंदर से माया के वल-छल समाप्त हो जाते हैं।
हे भाई! प्रभु की हजूरी में टिक के प्रभु के जिस चरण-सेवक ने प्रभु की सेवा-भक्ति की, उसकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। (जैसे पति-मिलाप से स्त्री के) सारे किए हुए हार-श्रृंगार (सफल हो जाते हैं, इसी तरह प्रभु-पति के मिलाप में ही जीव-स्त्री के लिए) सारे आनंद हैं (इसलिए, हे भाई!) अलख-अभेव प्रभु के गुण गाते रहा करो।
हे भाई! गोबिंद का प्रेम माँगते हुए गोबिंद की भक्ति (की दाति) माँगते हुए मौत का सहम कभी छू नहीं सकता। नानक विनती करता है: जिस जीव-स्त्री को प्रभु ने खुद अपने चरणों में जोड़ लिया, उसके हृदय में प्रभु-प्यार की कमी (प्रभु-प्यार का खालीपन) नहीं होता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ हरि धनु पाइआ सोहागणी डोलत नाही चीत ॥ संत संजोगी नानका ग्रिहि प्रगटे प्रभ मीत ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ हरि धनु पाइआ सोहागणी डोलत नाही चीत ॥ संत संजोगी नानका ग्रिहि प्रगटे प्रभ मीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहागणी = (सौभागिनी) भाग्यशाली जीव-स्त्री ने। संत संजोगी = संतो के संजोग से, संतों की संगति की इनायत से। ग्रिहि = हृदय घर में।1।
अर्थ: हे नानक! संतों की संगति की इनायत से जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में मित्र प्रभु जी प्रकट हो गए, जिस भाग्यशाली जीव-स्त्री ने प्रभु का नाम-धन हासिल कर लिया, उसका चिक्त (कभी माया की तरफ) नहीं डोलता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाद बिनोद अनंद कोड प्रिअ प्रीतम संगि बने ॥ मन बांछत फल पाइआ हरि नानक नाम भने ॥२॥
मूलम्
नाद बिनोद अनंद कोड प्रिअ प्रीतम संगि बने ॥ मन बांछत फल पाइआ हरि नानक नाम भने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाद = रागों के गाने। बिनोद = तमाशे। कोड = करिश्मे। संगि = साथ, संगति में। भने = उचार के। मन बांछत = मन मांगी।2।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा का नाम उचारते हुए मन-मांगी मुरादें मिल जाती हैं, प्यारे प्रीतम-प्रभु के चरणों में जुड़ने से (मानो, अनेक) रागों-तमाशों के करिश्मों के आनंद (पा लेते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ हिमकर रुति मनि भावती माघु फगणु गुणवंत जीउ ॥ सखी सहेली गाउ मंगलो ग्रिहि आए हरि कंत जीउ ॥ ग्रिहि लाल आए मनि धिआए सेज सुंदरि सोहीआ ॥ वणु त्रिणु त्रिभवण भए हरिआ देखि दरसन मोहीआ ॥ मिले सुआमी इछ पुंनी मनि जपिआ निरमल मंत जीउ ॥ बिनवंति नानक नित करहु रलीआ हरि मिले स्रीधर कंत जीउ ॥७॥
मूलम्
छंतु ॥ हिमकर रुति मनि भावती माघु फगणु गुणवंत जीउ ॥ सखी सहेली गाउ मंगलो ग्रिहि आए हरि कंत जीउ ॥ ग्रिहि लाल आए मनि धिआए सेज सुंदरि सोहीआ ॥ वणु त्रिणु त्रिभवण भए हरिआ देखि दरसन मोहीआ ॥ मिले सुआमी इछ पुंनी मनि जपिआ निरमल मंत जीउ ॥ बिनवंति नानक नित करहु रलीआ हरि मिले स्रीधर कंत जीउ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। हिम = बर्फ। हिमकर = बरफानी, बरफ पैदा करने वाली। मनि = मन में। गुणवंत = गुणों वाले, खूबियों वाले। सखी सहेली = हे सखी सहेली! मंगलो = खुशी के गीत, मंगल, महिमा का गीत। सेज = हृदय सेज। सोहीआ = मस्त हो गई। पुंनी = पूरी हुई। निरमल = पवित्र। मंत = नाम मंत्र। रलीआ = खुशियां। स्री धर = श्री धर, लक्ष्मी का पति, लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सुंदरि’ है ‘सुंदर’ का स्त्रीलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: छंत। (हे सहेलियो!) माघ (का महीना) फागुन (का महीना, ये दोनों ही बड़ी) खूबियों वाले हैं, (इन महीनों की) बर्फानी ऋतुएं मनों की भाती हैं, (इस तरह जिस हृदय में ठंडक का पुँज प्रभु आ बसता है, वहॉ। भी विकारों की तपस समाप्त हो जाती है)। हे सहेलियो! तुम (शांति के श्रोत परमात्मा की) महिमा के गीत गाया करो। (जो जीव-स्त्री ये उद्यम करती है, उसके) हृदय-घर में प्रभु-पति आ प्रकट होता है।
हे सहेलियो! (जिस जीव-स्त्री के हृदय-गृह में) प्रीतम-प्रभु जी आ बसते हैं, (जो जीव-स्त्री अपने) मन में प्रभु-पति का प्यार बनाए रखती है, (उसके हृदय की) सेज सुंदर हो जाती है। वह जीव-स्त्री (उस सर्व-व्यापक का) दर्शन करके मस्त रहती है, उसको जंगल, घास-बूटिआं व सारी ही त्रिभवण हरा-भरा दिखता है।
हे सहेलियो! जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति मिल जाता है, जो जीव-स्त्री अपने मन में उस पवित्र का नाम-मंत्र जपती है, उसकी हरेक मनो-कामना पूरी हो जाती है। नानक विनती करता है: हे सहेलियो! तुम भी माया के आसरे प्रभु पति को मिल के सदा आत्मिक आनंद लिया करो।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ संत सहाई जीअ के भवजल तारणहार ॥ सभ ते ऊचे जाणीअहि नानक नाम पिआर ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ संत सहाई जीअ के भवजल तारणहार ॥ सभ ते ऊचे जाणीअहि नानक नाम पिआर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ के = जिंद के। सहाई = मददगार। भवजल = संसार समुंदर। तारणहार = पार लंघाने की सामर्थ्य वाले। ते = से। जाणीअहि = पहचाने जाते हैं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जाणीअहि’ है वर्तमान काल, कर्म वाच, अन्न पुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! संत जन (जीवों की) जिंद के मददगार (बनते हैं), (जीवों को) संसार-समुंदर से पार लंघाने की समर्थता रखते हैं। हे नानक! परमात्मा के नाम से प्यार करने वाले (गुरमुख जगत में और) सब प्राणियों से श्रेष्ठ माने जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन जानिआ सेई तरे से सूरे से बीर ॥ नानक तिन बलिहारणै हरि जपि उतरे तीर ॥२॥
मूलम्
जिन जानिआ सेई तरे से सूरे से बीर ॥ नानक तिन बलिहारणै हरि जपि उतरे तीर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानिआ = सांझ डाली, जाना, जान पहचान बनाई। सेई = वही लोग। तरे = पार लांघ गए। सूरे = सूरमे। बीर = बहादर। जपि = जप के। तीर = (परले) किनारे।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए, वही (असल) सूरमे हैं, वह (असल) बहादर हैं। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य परमात्मा का नाम जप के (संसार-समुंदर से) परले किनारे पर पहुँच गए, मैं उनसे बलिहार जाता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंतु ॥ चरण बिराजित सभ ऊपरे मिटिआ सगल कलेसु जीउ ॥ आवण जावण दुख हरे हरि भगति कीआ परवेसु जीउ ॥ हरि रंगि राते सहजि माते तिलु न मन ते बीसरै ॥ तजि आपु सरणी परे चरनी सरब गुण जगदीसरै ॥ गोविंद गुण निधि स्रीरंग सुआमी आदि कउ आदेसु जीउ ॥ बिनवंति नानक मइआ धारहु जुगु जुगो इक वेसु जीउ ॥८॥१॥६॥८॥
मूलम्
छंतु ॥ चरण बिराजित सभ ऊपरे मिटिआ सगल कलेसु जीउ ॥ आवण जावण दुख हरे हरि भगति कीआ परवेसु जीउ ॥ हरि रंगि राते सहजि माते तिलु न मन ते बीसरै ॥ तजि आपु सरणी परे चरनी सरब गुण जगदीसरै ॥ गोविंद गुण निधि स्रीरंग सुआमी आदि कउ आदेसु जीउ ॥ बिनवंति नानक मइआ धारहु जुगु जुगो इक वेसु जीउ ॥८॥१॥६॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
छंतु। बिराजित = बस रहे हैं। सभ ऊपरै = और सब ख्यालों से ऊपर। कलेसु = दुख। हरे = दूर हो गए। रंगि = प्यार रंग में। रातै = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। ते = तो। तिलु = रक्ती भर समय भी। तजि = छोड़ के। आपु = स्वै भाव, अहंकार। सरब गुण = सारे गुणों के मालिक। जगदीसर = जगत का ईश्वर। गुण निधि = गुणों का खजाना। स्री रंग = माया का पति। आदेसु = नमस्कार। मइआ = दया। जुगु जुगो = जुग जुग, हरेक युग में। इक वेस = एक तरह का।8।
अर्थ: छंतु। (हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में सदा प्रभु के) चरण टिके रहते हैं, व और मायावी संकल्प प्रभु की याद से नीचे बने रहते हैं (अर्थात प्रभु के प्रति प्रेम सर्वोपरि रहता है, उनके अंदर से हरेक किस्म का) सारा दुख मिट जाता है। जिनके अंदर परमात्मा की भक्ति आ बसती है, उनके जनम-मरण के दुख-कष्ट खत्म हो जाते हैं। वे मनुष्य प्रभु के प्रेम-रंग में (सदा) रंगे रहते हैं, वे आत्मिक अडोलता में (सदा) मस्त रहते हैं, परमात्मा का नाम उनके मन से रक्ती भर पल के लिए भी नहीं बिसरता। वे मनुष्य अहंकार त्याग के सब गुणों के मालिक परमात्मा के चरणों की शरण पड़े रहते हैं।
नानक विनती करता है: हे भाई! गुणों के खजाने, माया के पति, सारी सृष्टि के आदि मूल स्वामी गोबिंद को सदा नमस्कार किया कर, (और अरदास करा कर- हे प्रभु! मेरे पर) मेहर कर (मैं भी तेरा नाम जपता रहूँ), तू हरेक युग में एक ही अटल स्वरूप वाला रहता है।8।1।6।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 8 इस छंद के ‘बंदों’ का नंबर है।
अंक 1 बताता है कि ये आठ ‘बंदों’ वाला एक ही साबत छंद है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ दखणी ओअंकारु
मूलम्
रामकली महला १ दखणी ओअंकारु
दर्पण-भाव
वाणी ‘ओअंकार’ का भाव:
पौड़ी-वार
ओअंकार वह सर्व व्यापक परमात्मा है जिससे ये सारी सृष्टि और समय का विभाजन बना, जिससे ब्रहमा आदि देवते और वेद आदिक धर्म-पुस्तकें बने। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के ‘ओअं’ को सिर झुकाते हैं वे संसार के विकारों से बच निकलते हैं।
सतिगुरु की वाणी बार-बार पढ़ के ये भेद खुलता है कि परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है और वही सदा-स्थिर रहने वाला है, जगत नाशवान है।
सतिगुरु ही कर्तार की बड़ाई की कद्र जानता है। यदि मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है, वह सत्संग में परमात्मा का नाम स्मरण करके नकारे सड़े हुए लोहे से सोना बन जाता है।
परमात्मा की मेहर सदका जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसको परमात्मा प्यारा लगने लगता है। पर गुरु से टूटा हुआ मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ता है।
हरेक मनुष्य कहने भर को ये कह देता है कि परमात्मा हर जगह मौजूद है। पर इस सच्चाई की असल सूझ तब ही पड़ती है जब मनुष्य अपने अंदर से अहम्-अहंकार दूर करता है।
हलांकि परमात्मा हरेक के हृदय में बसता है, जब तक अंदर अहम्-अहंकार है, ये सूझ नहीं आ सकती। अहंकार दूर करके उसको याद करने से उसके साथ जान-पहचान और उसकी महानता की कद्र पड़ती है।
सारी सृष्टि परमात्मा का दिखता-रूप है, पर ये समझ उसी मनुष्य को होती है, जो सतिगुरु के द्वारा अहम्-अहंकार दूर करके परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है।
गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में अपनी महिमा बसाता है, उसको ये समझ आ जाती है कि परमात्मा स्वयं ही इस जगत को बनाने वाला है और स्वयं ही इसको जीवन-राह सिखाने वाला है।
गुरु-शब्द के द्वारा नाम में रंगा हुआ मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है, उसको हरेक जीव में बोलता सुनता कार्य करता परमात्मा ही दिखता है।
गुरु-शब्द का आसरा ले के आनंद-स्वरूप सर्व-व्यापक सदा-स्थिर परमात्मा के साथ स्मरण के द्वारा पक्की जान-पहचान डालने से मनुष्य के अंदर कामादिक विकारों का मुकाबला करने की हिम्मत पैदा हो जाती है।
मनुष्य दुनिया के धन-माल की खातिर परमात्मा को बिसार बैठता है और जीने के लिए और ही चीजों के पीछे भागता फिरता है। पर, सतिगुरु, स्मरण के द्वारा ईश्वरीय-लगन सिखाता है और दुनिया की प्रभुता के बेअर्थ राह से हटाता है।
सतिगुरु के बताए जीवन-राह पर चल कर प्रभु का नाम स्मरण करने से मन बेफिक्र और खिला हुआ (आनंदित) रहता है, और लोक-दिखावे का दबाव हट जाता है।
अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लब-लोभ-अहंकार आदि का नौकर बन के जीवन-खेल हार के जाता है, क्योंकि वह परमात्मा के नाम की असल पूंजी गवा बैठता है।
परमात्मा के स्मरण से टूट के मनुष्य माया के पीछे पागल हो जाता है, माया की तृष्णा में फस के आत्मिक मौत के राह पकड़ लेता है, क्योंकि बुरे लोगों की भी सिर्फ इसलिए खुशामद करने लग जाता है क्योंकि वे माया-धारी होते हैं।
चाहे ये जगत निर्वेर-अजोनी-निर्लिप परमात्मा का अपना बनाया हुआ है और अपना स्वरूप है, पर मनुष्य उसकी याद भुला के माया की भटकना में पड़ जाता है। इस भटकना से खलासी तब ही हो सकती है सुख तब ही मिल सकता है जब प्रभु के स्मरण में जुड़ें।
परमात्मा की याद भुलाने के कारण मनुष्य के आँख-कान-जीभ आदि इन्द्रियाँ पर-तन, पराई निंदा आदि में पड़ कर आत्मिक जीवन को गिरा देते हैं। मनुष्य यहाँ कोई आत्मिक कमाई नहीं कमाता। जो भी मेहनत-कमाई ये करता है, वह खोटी होने के कारण इसको ऊँचे जीवन से और परे और परे ले जाती है।
जो मनुष्य गुरु की बताई हुई मति पर चल कर परमात्मा के गुणों में चिक्त जोड़ता है, परमात्मा के साथ उसकी गहरी जान-पहचान बन जाती है, और प्रभु की बख्शिशों की उसको कद्र पड़ जाती है
परमात्मा की रची मर्यादा के अनुसार अहंकार मनुष्य के आत्मिक जीवन का नाश कर देता है और मनुष्य काम-क्रोध आदि का शिकार हो जाता है। पर, काम-क्रोध में आत्मिक मौत मरा मनुष्य भी प्रभु की मेहर से जब गुरु के बताए हुए राह की मेहनत-कमाई करता है और शिक्षा पर पूरा उतरता है, तो वह सुंदर आचार वाला बन के परमात्मा की नजर में स्वीकार होता है।
निरे दुनियावी भोग आत्मिक मौत लाते हैं। सतिगुरु का शब्द काम-क्रोध आदि की ओर से अडोल कर देता है, स्वार्थ-खुदगर्जी हटाने की ओर प्रेरित करता है, और परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ पैदा करता है। जिसने गुरु-शब्द में मन जोड़ा है वह स्वच्छ और श्रेष्ठ बन जाता है।
सतिगुरु की मति ही मनुष्य-जीवन के लिए श्रेष्ठ रास्ता है। सतिगुरु के राह पर चल कर यदि मनुष्य परमात्मा की राह में अपनी तवज्जो जोड़े तो इसका मन माया में डोलने से बच जाता है।
गुरु की मति वाला राह पकड़े बिना भटकना के कारण जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ता है। गुरु के राह पर चलने से परमात्मा ही जिंद को आसरा-सहारा दिखता है और अंदर हृदय में मिल जाता है।
जो मनुष्य गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलता है, वह अपने मन को परमात्मा की महिमा में जोड़ता है, और जगत के बुरे कर्मों के बंधन नहीं सहेड़ता, स्वच्छ आचरण ही उसके लिए तीर्थ-स्नान है। गुरु-शब्द का आसरा ले के वह विकारों की लहरों से बच निकलता है।
प्रभु की याद से टूट के चंचल मन बार-बार मायावी भोगों की तरफ दौड़ता है और दुख गले पड़वा लेता है। नाम की इनायत से मायावी भोगों से खलासी होती है और मन में सुख-आनंद पैदा होता है।
नित्य मौत के निमंत्रण आते देख के भी जगत होछी माया के मोह में फसा रहता है, जवानी गुजर जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर आई खड़ी प्रतीत होती है, फिर भी माया का मोह खत्म नहीं होता।
सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल कर अगर परमात्मा से उसकी महिमा की दाति माँगते रहें, तो इस तरह माया के हमलों की ओर सचेत रहा जा सकता है।
माया की खातिर जगत से झगड़े मोल लेने से स्वच्छ आत्मिक जीवन की आस नहीं की जा सकती। पर, प्रभु के नाम की इनायत से धरती की सारी दौलत की परवाह नहीं रहती।
गुरु की बताई हुई कार से परे ना जाना, गुरु के बताए हुए उपदेश को हृदय में बसाना - यही तरीका है स्वच्छ पवित्र जीवन बनाने का, यही ढंग है परमात्मा में जुड़ने का। गुरु परमात्मा के गुणों का अथाह समुंदर है।
अहंकार, डोलती श्रद्धा, गिले-गुजारिशें और दुर्मति के कारण परमात्मा से टूटते जाने की गाँठ बँधती जाती है। यह गाँठ तभी खुलती है जब मनुष्य सतिगुरु के शब्द की सहायता से मन के विकारों को शुद्ध कर ले।
माया की खातिर जीव भिड़-भिड़ के मरते और दुखी होते हैं। माया के पीछे दौड़ते चंचल मन को सतिगुरु के शब्द के द्वारा ही रोका जा सकता है।
माया की तृष्णा दुखों का मूल है। जो मनुष्य परमात्मा की मेहर से गुरु के शब्द को हृदय में बसाता है, उसकी ये प्यास मिट जाती है।
तृष्णा के भार से लदे हुए जीव कई तरह के विकारों में गिरते हैं। जो मनुष्य अपना मन गुरु के हवाले करता है वह सत्संग में नाम स्मरण करके विकारों की लहरों में डूबने से बच जाता है।
माया को जीवन-साथी समझना और बनान, दोनों से दुखी ही हुआ जाता है। असल साथी परमात्मा है। जो जीव प्रभु से विछुड़ा हुआ है उसके अंदर जीवन-राग नहीं हो सकता। सो, प्रभु के गुण गाओ। पर, इसका ये मतलब नहीं कि कोई जीव प्रभु के गुणों का अंत पा सकता है। हमने उसके गुण गाने हैं अपनी विछुड़ी हुई रूह को उससे मिलाने के लिए।
जो जीव ज्यादा से ज्यादा माया के पीछे दौड़ता फिरता है वह माया के जाल में फस जाता है, प्रभु की याद की ओर उसकी सूझ ऊँची नहीं हो सकती। जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करे, वह गुरु की शरण पड़ कर प्रभु के गुण गाता है, और इस तरह माया की तृष्णा के जाल से बच जाता है।
परमात्मा का आसरा छोड़ने से जिंद सहमी रहती है। जो मनुष्य गुरु की वाणी में जुड़ के सोचता है उसको ये यकीन बनता है कि परमात्मा ऐसा दाता है जो ना माँगने पर भी हरेक जीव को रिजक देता है। प्रभु की बँदगी ही जीवन का असल काज है।
हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको गुरु मिलाता है। गुरु के बताए हुए राह पर चल कर मनुष्य नाम-जपने की इनायत से प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ता है और प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान डालता है।
अगर परमात्मा के नाम-धन की खातिर दुनियावी धन अपना मन और अपनी जीवत्मा भी देने पड़ जाएं, तो भी ये सौदा सस्ता है, क्योंकि प्रभु का नाम हृदय में बसाने से माया की तृष्णा मिट जाती है। परमात्मा का नाम मिलता अपने अंदर से ही है, पर मिलता है गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के।
परमात्मा ने अहंकार की दूरी बना के खुद ही जीवों को अपने से विछोड़ा हुआ है। कोई करम-धरम जीव की इस दूरी (इस विछोड़े) को मिटा नहीं सकता। प्रभु स्वयं कृपा करके गुरु मिलाता है, और गुरु के सन्मुख हो के नाम स्मरण करने से ये दूरी मिट जाती है।
विकारों में ग्रसे हुए जीव के आत्मिक जीवन को विकार तबाह करते जाते हैं, इसलिए विकार ही उसको मीठे लगते हैं, विकारों के जंजाल में वह घिरा और सदा दुखी रहता है। इस जंजाल में से सिर्फ परमात्मा का नाम ही निकाल सकता है।
विकारों में फसा हुआ जीव दुखी भी होता है, पछताता भी है, पर बेबस हो के बार-बार विकारों की चोग चुगता रहता है। आत्मिक मौत लाने वाले इस जाल में से इसको सतिगुरु ही परमात्मा के नाम का प्यार दे के निकालता है।
ये जानते हुए भी कि शरीर और जीवात्मा का मेल सिर्फ चार दिनों का है, जीव दुनियाँ के पदार्थों में मस्त रहता है। किसी विरले भाग्यशाली को गुरु के दर पर पड़ कर प्रभु के महिमा की सूझ पड़ती है। वह सौभाग्यशाली जीव गुरु की वाणी के द्वारा शारीरिक मोह और विकारों की ओर से पलट के सदा प्रभु में टिका रहता है।
संसार एक समुंदर की तरह है जिसमें आशा तृष्णा की लहरें उठ रही हैं। माया के पीछे भटकते जीवों के लिए इसमें से पार गुजरना बहुत ही मुश्किल खेल है। जिस पर मेहर हो, वे सतिगुरु की मति ले कर महिमा में जुड़ते हैं, और जगत के कार्य-व्यवहार करते हुए ही विकारों से बचे रहते हैं।
सारी उम्र सिर्फ माया के पीछे भटकते हुए जीवन व्यर्थ चला जाता है। मौत आने से माया से तो साथ खत्म हो जाता है, पर इसकी खातिर किए हुए अवगुण जीव के साथ चल पड़ते हैं, और माया छोड़ने के वक्त मन छटपटाता भी बहुत है। यदि महिमा की राशि-पूंजी पल्ले हो, तो ये मुश्किल नहीं होती, मन स्वार्थ की ओर पलटने से बचा रहता है।
ममता बँधे जीव पैदा होने-मरने के चक्करों में पड़े रहते हैं और दुखी होते हैं। फिर भी माया के उस चक्र में से निकलने को जी नहीं करता। जिस मनुष्य के मन को गुरु-शब्द की ठोकर बजती है, उसके अंदर से स्वार्थ मिटता है। महिमा की इनायत से वह माया की बजाए प्रभु से प्यार बनाता है।
कोई अमीर हो चाहे गरीब, एक तो किसी ने भी सदा यहाँ टिक नहीं सकना, दूसरा, हरेक को जीवन-यात्रा की उन मुश्किलों में से गुजरना पड़ता है जहाँ अनेक अवगुण मनुष्य को आ घेरते हैं, और उसके गुण, अवगुणों के नीचे दब के रह जाते हैं। गुणों की समझ तब ही पड़ती है जब गुरु-शब्द की विचार में मन जुड़ता है।
जगत एक रण-भूमि है जहाँ विकारों से मुकाबला करना पड़ता हैं मालिक-प्रभु की रजा में चलने से इन विकारों से मार नहीं खानी पड़ती। पर ये खेल आसान नहीं, जीवन-संग्राम में मनुष्य कई बार सही पैंतरे से टूट के रजा से सिर फेर देता है। जिस सौभाग्यवान पर दाते की मेहर होती है, वह ही रजा में रहके महिमा में जुड़ता है।
जंगल-बियाबान में तलाशने से परमात्मा नहीं मिलता। प्रभु की महिमा का खजाना सतिगुरु के हाथ में है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है, वह परमात्मा के प्यार में जुड़ के जीवन की कमाई कमा लेता है।
मनुष्य का मन सतिगुरु के शब्द के द्वारा ही विकारों से रुक सकता है, और जब मन बस में आ जाए तब ही इसमें परमात्मा का प्रकाश होता है। ये बात पक्की समझ लो कि सतिगुरु के पास ही प्रभु के नाम की राशि-पूंजी है, ये पूंजी तब ही मिलती है, जब गुरु के बताए हुए राह पर चल कर स्वैभाव दूर हो जाए और अहंकार का रोग काटा जाए।
जीव जगत में प्रभु का नाम-धन का व्यापार करने के लिए बन्जारा बन के आया है, पर गलत रास्ते पर पड़ कर दुनियाँ का धन-दौलत ही एकत्र करता रहता है और मेर-तेर में फस के दुखी रहता है। समझदार व्यापारी वह है जो नाम-धन जोड़ता है, उसी को ही प्रभु का प्यार व आदर नसीब होता है। माया को जिंदगी का उद्देश्य बनाने के बजाए माया को पैदा करने वाले प्रभु को हृदय में बसाओ।
ज्यों-ज्यों मनुष्य माया की मंजिलें सर करता है, त्यों-त्यों यह तुच्छ दर्शी और तंग-दिल होता जाता है। इसके अंदर, साथी लोगों के लिए दया-प्यार नहीं रह जाता। भेद-भाव का एक शोला भड़क उठता है जिसमें मंजिलें सर करने वाला भी जलता है और जीव भी दुखी होते हैं। पर जो मनुष्य प्रभु को याद रखता है वह धैर्य और जिगरे वाला होता है, तंग-दिली उसके नजदीक नहीं फटकती।
धन-पदार्थ की खातिर मनुष्य कई तरीके अपनाता रहता है, परमात्मा के आगे तरले करता है, दूसरों की चाकरी करता है, ठगी-ठोरी भी कर लेता है पर मौत आने पर ये धन यहीं का यहीं ही रह जाता है, और मनुष्य अपने मालिक प्रभु की नजरों में भी हल्का पड़ जाता है। परमात्मा की बँदगी ही मनुष्य को धन और मोह से बचा सकती है।
धन-सम्पक्ति इकट्ठी करने से सिर्फ अहंकार में ही वृद्धि होती है जो मनुष्य को तुच्छ दर्शी व तंग दिल बना के दुख ही पैदा करती है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। अगर सुख ढूँढना है तो सतिगुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ सांझ बनाओ, परमात्मा के साथ प्रीति जोड़े। स्मरण के बिना और कोई कर्मकांड ना अहंकार मिटा सकता है और ना ही सुख दे सकता है।
पर जब तक जीव परमात्मा से विछुड़ा हुआ है, तब तक अपनी अलग ‘मैं’ में फसा रहता है, कोई समझदारी-चतुराई इसको ‘मैं’ की तंग-दिली और दुख में से निकाल नहीं सकती। प्रभु की मेहर हो, सतिगुरु के शब्द द्वारा अपनी महिमा की दाति बख्शे, तो प्रभु से विछोड़ा दूर हो के ‘मैं’ समाप्त हो जाती है और जीवन सुखी हो जाता है।
उस अध्यापक (पांधे) को विद्वान जानो जो विद्या की सहायता से ठंडे स्वभाव वाला बनता है, और परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के जीवन का लाभ कमाता है। पर जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलनें की जगह अपने मन के पीछे चलता है, उसको अनपढ़ ही समझो, वह निरी आजीविका की खातिर ही विद्या बेच रहा है, उसमें से कोई आत्मिक गुण ग्रहण नहीं कर रहा।
वही पढ़ा लिखा पण्डित विद्वान व अध्यापक है पंडित है समझदार है जो सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल कर खुद भी परमात्मा का नाम स्मरण करता है, और अपने चेलों, विद्यार्थियों को भी प्रभु का नाम जपने की प्रेरणा करता है। वही पढ़ा लिखा पण्डित इस जीवन से कोई कमाई कमाता है।
लड़ी-वार भाव:
(पउड़ी नंबर 1 से 12 तक)
इस बेअंत सृष्टि को बनाने वाला परमात्मा हर जगह व्यापक है और सदा कायम रहने वाला है। उसको किसी मूर्ति के द्वारा किसी मंदिर में स्थापित नहीं किया जा सकता।
जब तक मनुष्य अपनी तुच्छ सी ‘मैं’ के साथ घिरा हुआ है, तब तक निरा जबानी-जबानी परमात्मा को सर्व-व्यापक कह देने से मनुष्य को उसकी सर्व-व्यापकता की सूझ नहीं पड़ती। परमात्मा की महिमा की असल कद्र सतिगुरु जानता है। मनुष्य ने गुरु के बताए हुए राह पर चल कर, गुरु के शब्द में जुड़ कर अपने संकुचित स्वार्थी जीवन की सीमा में से निकलना है बस! फिर इस को हरेक जीव में बोलता-सुनता कार्य करता परमात्मा ही दिखेगा।
पर जब तक गुरु से टूटा हुआ है, तब तक संकुचित है, स्वार्थी है, इसको हर वक्त अपनी ही ‘मैं’ दिखती-सूझती है, तब तक ये आत्मिक मौत मरा हुआ है।
सतिगुरु परमात्मा के स्मरण के द्वारा मनुष्य की परमात्मा के साथ पक्की जान-पहचान बना देता है, फिर ये आत्म-बली बन के विकारों का मुकाबला करने के योग्य हो जाता है, और-और तरह के जीने की इच्छाएं रखनी छोड़ देता है, और लोक-दिखावे की भावना भी नहीं रहती।
(पउड़ी नंबर 13 से 16 तक)
गुरु का रास्ता छोड़ के अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लब लोभ अहंकार आदि का नौकर बन जाता है, माया के पीछे पागल हो जाता है बुरे शातिर लोगों की भी खुशामद करता फिरता है। उसकी आँख कान जीभ आदि सारी ज्ञान-इंद्रिय उसको पराए रूप पराई निंदा आदि की तरफ धकेल के आत्मिक जीवन से गिरा देती हैं। फिर इसके जीवन को जीवन नहीं कह सकते, ये असल में आत्मिक मौत है।
(पउड़ी नंबर 17 से 22 तक)
काम-क्रोध आदि में आत्मिक मौत मरा मनुष्य भी जब प्रभु की मेहर से गुरु के बताए हुए राह की मेहनत-कमाई करता है परमात्मा की महिमा में जुड़ता है, तो प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान हो जाने के कारण प्रभु की बख्शिशों की उसको कद्र पड़ती है, स्वार्थ-खुदगर्जी से वह संकोच करता है और माया की जगह परमात्मा ही उसको अपनी जीवात्मा का आसरा-सहारा दिखने लग जाता है।
(पउड़ी नंबर 23 से 26 तक)
प्रभु की याद से टूट के मनुष्य का चंचल मन बार-बार मायावी भोगों की तरफ दौड़ता है, नित्य मौत के निमंत्रण आते देख के भी मनुष्य माया के मोह में फसा रहता है, और माया की खातिर जगत से झगड़े सहेड़ता रहता है, जवानी गुजर जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर आ खड़ी होती प्रतीत होती है फिर भी माया का मोह नहीं खत्म होता। पर जब मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल कर नाम स्मरण करता है तो धरती की सारी दौलत की भी परवाह नहीं रह जाती।
(पउड़ी नंबर 27 से 31 तक)
माया की खातिर जीव भिड़-भिड़ के मरते और दुखी होते हैं, तृष्णा के भार से लदे हुए कई विकारों में गिरते हैं; अहंकार, रजा से इनकार गिले-शिकवे आदि के कारण प्रभु से विछोड़े की गाँठ बँधती जाती है और जीवन गँदा होता है। इसका एक मात्र इलाज है: गुरु के बताए हुए राह पर चल कर सत्संग में नाम स्मरणा।
(पउड़ी नंबर 32 से 34 तक)
माया को जीवन-साथी समझने और बनाने से दुखी ही हुआ जाता है, खूब सारी माया जोड़ने की लालच करके इसके जाल में फसते जाना है। गुरु की वाणी का अभ्यास पक्का करो, इस तरह ये यकीन बन जाएगा कि प्रभु ऐसा दाता है जो ना माँगने पर भी हरेक जीव को रिजक देता है।
(पउड़ी नंबर 35 से 37 तक)
कोई भी करम-धरम मनुष्य को तृष्णा के इस जाल में से नहीं निकाल सकता; प्रभु की याद का धन ही तृष्णा को मिटाता है। इस नाम-धन की खातिर हरेक तरह की कुर्बानी कर देनी चाहिए। यह धन मिलता है उस प्रभु की मेहर से और मिलता है गुरु से।
(पउड़ी नंबर 38 से 47 तक)
संसार-समुंदर की आशा-तृष्णाओं की लहरों में फस के जीव बेबसा हो के विकारों से प्यार डाल लेता है, दुख भोगते हुए भी विकारों की चोग चुगे जाता है, चार दिनों के जीवन के बाद माया के त्याग के समय बड़ा छटपटाता है, इसके कारण किए हुए अवगुणों का भार उठाना पड़ जाता है। कोई अमीर हो चाहे गरीब, इस जगत-रणभूमि में हरेक जीव का विकारों से सामना होता है, सही पैंतरे से टूट के जीव आत्मिक मौत खरीद लेता है। दाते प्रभु की मेहर हो, गुरु-शब्द में मन जुड़े, तो महिमा की इनायत से गुणों की सूझ पड़ती है और माया के जंजाल में से खलासी हो जाती है। मेहनत-कमाई छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती, जंगल-बियाबान में तलाशने से ईश्वर नहीं मिलता। एक बात पक्की जानो कि प्रभु के नाम की राशि-पूंजी सतिगुरु के पास ही है।
(पउड़ी नंबर 48 से 52 तक)
परमात्मा की याद को भुला के जीव-बनजारा अपनी अलग ‘मैं’ में फस जाता है; दुनियाँ के मैदान सर करने के आहर लग के संकुचित और तंग-दिल होता जाता है, साथियों से भी कई तरह की ठगीयां करता रहता है, भेदभाव की आग में खुद भी जलता है व और लोगों को भी दुखी करता है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। कोई कर्मकांड कोई चतुराई-समझदारी इस ‘मैं’ में से निकालने में समर्थ नहीं है। प्रभु की मेहर हो, गुरु के शब्द के द्वारा अपनी महिमा की दाति बख्शे, तब ही यह ‘मैं’ खत्म होती है और जीवन सुखी होता है।
(पउड़ी नंबर 53 से 54 तक)
कितना ही पढ़ा लिखा पण्डित व अध्यापक हो, पर अगर जीवन सफर में अपने मन के पीछे चल रहा है तो उसका अनपढ़ ही जानो, वह अपनी विद्या सिर्फ आजीविका के लिए ही इस्तेमाल करता है, उसने कोई आत्मिक गुण नहीं कमाया, पढ़ा-लिखा उसको ही समझो जो गुरु के बताए हुए राह पर चल के खुद भी प्रभु का नाम स्मरण करता है और अपने चेलों को भी प्रेरता है।
समूचा भाव:
(पउड़ी नंबर 1 से 16 तक)
जो मनुष्य जबानी-जबानी तो यह कहता रहे कि परमात्मा हरेक जीव में व्यापक है, पर उसकी रोजाना की करतूत ये हो कि हर वक्त अपनी ही ‘मैं’ सामने रख के संकुचित, स्वार्थी, और लालच, अहंकार आदि का नौकर बना रहे, माया की खातिर बुरे-शातिर लोगों की खुशामद करने से ना झिझके, उसको जीवित ना समझो, वह आत्मिक मौत मरा हुआ है।
(पउड़ी नंबर 17 से 37 तक)
पर ये आत्मिक मौत ला-इलाज नहीं है। परमात्मा की याद से टूट के ही मनुष्य माया का चाकर बनता है और बढ़ते लालच के कारण दूसरों से छीना-झपटी के तारीके ढूँढता रहता है। जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर हो, वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की याद में जुड़ता है। ज्यों-ज्यों प्रभु के साथ जान-पहचान बढ़ती है, स्वार्थ खुदगर्जी से संकोच होता जाता है। बस! यही एक ही इलाज है। और कोई करम-धरम मनुष्य को तृष्णा के जाल में से नहीं निकाल सकता।
(पउड़ी नंबर 38 से 54 तक)
अगर मनुष्य एक बार धन-संपक्ति जोड़ने की राह पकड़ ले, तो ये चस्का इतना बलवान है कि मनुष्य अपने-आप इसमें से नहीं निकल सकता। संकुचित-पना और भेदभाव वृक्ति बढ़ती ही जाती है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। खुद भी दुखी होता है और लोगों को भी दुखी करता है। कोई कर्मकांड कोई चतुराई इस तृष्णा की आग में से निकालने में सक्षम नहीं। गुरु-शब्द के द्वारा महिमा ही इसमें से निकालती है। काम-काज छोड़ के जंगल-बियाबान तलाशने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। पढ़ा-लिखा पण्डित उसी को जानो जो गुरु के बताए हुए राह पर चलके खुद भक्ति करता है और-और लोगों को भी प्रेरता है।
मुख्य भाव: सिर्फ माया की खातिर पढ़ी और इस्तेमाल विद्या मनुष्य को बल्कि माया-जंजाल में फसा के संकुचित व स्वार्थी बना देती है। काम-काज करते हुए ही गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की याद में जुड़ो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ दखणी ओअंकारु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली महला १ दखणी ओअंकारु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओअंकारि ब्रहमा उतपति ॥ ओअंकारु कीआ जिनि चिति ॥ ओअंकारि सैल जुग भए ॥ ओअंकारि बेद निरमए ॥ ओअंकारि सबदि उधरे ॥ ओअंकारि गुरमुखि तरे ॥ ओनम अखर सुणहु बीचारु ॥ ओनम अखरु त्रिभवण सारु ॥१॥
मूलम्
ओअंकारि ब्रहमा उतपति ॥ ओअंकारु कीआ जिनि चिति ॥ ओअंकारि सैल जुग भए ॥ ओअंकारि बेद निरमए ॥ ओअंकारि सबदि उधरे ॥ ओअंकारि गुरमुखि तरे ॥ ओनम अखर सुणहु बीचारु ॥ ओनम अखरु त्रिभवण सारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओअंकारि = ओअंकार से।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओअंकारु’, ‘कार’ संस्कृत का एक ‘पिछेतर’ है, इसका अर्थ है ‘एक रस, लगातार, व्यापक’ जैसे शब्द ‘धुनि’ का अर्थ है ‘ध्यनि’ ‘आवाज’ और, शब्द ‘धुनिकार’ का अर्थ है ‘एक रस आवाज’) ओअं+कार, एक रस ओअं, सर्व व्यापक ओअं, सर्व व्यापक परमात्मा।
दर्पण-भाषार्थ
उतपति = उत्पक्ति, पैदायश, जनम। ब्रहमा उत्पक्ति = ब्रहमा की उत्पक्ति। जिनि = जिस ने, जिस ब्रहमा ने। चिति = चिक्त में। ओअंकारु…चिति = जिनि ओअंकारु चिति कीआ, जिस ब्रहमा ने सर्व व्यापक परमात्मा को (अपने) चिक्त में (बसाया)। सैल = (बेअंत) पहाड़, (भाव,) सृष्टि। जुग = समय का बटवारा। बेद = वेद आदि धर्म पुस्तकें। निरमए = बने, प्रकट हुए। ओअंकारि = ओअंकार से, सर्व प्यापक परमात्मा से। सबदि = शब्द से, शब्द में जुडत्र के। उधरे = (जीव डूबने से) बच गए। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य, वह मनुष्य जिनका मुँह गुरु की ओर होता है। ओनम अखर बीचारु = ओनम अक्षर का विचार। ओअं नम: = ओं को नमस्कार। ओनत अखर = वह हस्ती जिसके लिए शब्द ‘ओनम’ का प्रयोग किया गया है। ओनम अखर बीचारु = उस हस्ती का विचार जिस के लिए शब्द ‘ओनम’ का प्रयोग कर रहे हो। त्रिभवण सारु = तीन भवनों का तत्व, तीन भवनों का मूल, सारी सृष्टि का कर्ता।
अर्थ: (हे पांडे! तुम मन्दिर में स्थापित की हुई मूर्ति को ‘ओंकार’ मिथ रहे हो, और कहते हो सृष्टि को ब्रहमा ने पैदा किया था। ‘ओअंकार’ वह सर्व-व्यापक परमात्मा है जिस) सर्व-व्यापक परमात्मा से ब्रहमा का (भी) जन्म हुआ, उस ब्रह्मा ने भी उस सर्व-व्यापक प्रभु को अपने मन में बसाया। यह सारी सृष्टि और समय के बँटवारे उस सर्व-व्यापक परमात्मा से ही हुए हैं, वेद भी ओअंकार से ही बने। जीव गुरु के शब्द में जुड़ के उस सर्व-व्यापक परमात्मा की सहायता से ही संसार के विकारों से बचते हैं, और गुरु के बताए हुए राह पर चल के संसार-समुंदर से पार लांघते हैं।
(हे पांडे! तुम अपने विद्यार्थियों की पट्टियों पर ‘ओं नमह्’ लिखते हो, पर इस मूर्ति को ही ‘ओअं’ समझ रहे हो) उस महान हस्ती की बाबत भी बात सुनो जिसके लिए तुम शब्द ‘ओं नम: ’ लिखते हो। यह शब्द ‘ओं नम: ’ उस (अकाल-पुरख) के लिए है जो सारी सृष्टि का कर्ता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ’ की तुक में सतिगुरु जी किसी ‘पांडे’ को संबोधन करते हैं। इस पहली पउड़ी में भी उस ‘पांडे’ को कहते हैं, ‘हे पांडे! ओनम अखर बीचारु सुणहु’।
नोट: इस वाणी का नाम ‘ओअंकारु’ है, ‘दखणी ओअंकारु’ नहीं है। शब्द ‘दखणी’ का संबंध ‘रामकली’ राग से है। ‘रामकली दखणी’ रागिनी ‘रामकली की एक किस्म है। इस विचार की प्रोढ़ता में श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कई और प्रमाण मिलते हैं; जैसे:
(पन्ना १०३३) मारू महला १ दखणी, भाव मारू दखणी म: १।
(पन्ना ८४३) बिलावल म: १ छंत दखणी, भाव बिलावल दखणी म: १।
(पन्ना १५२) गउड़ी महला १ दखणी, भाव, गउड़ी दखणी म: १।
(पन्ना ५८०) वडहंसु महला १ दखणी, भाव वडहंस दखणी म: १।
(पन्ना १३४३) प्रभाती महला १ दखणी, भाव, प्रभाती दखणी म: १।
(नोट: इस तुक के शब्द ‘अखर’ और अगली तुक के शब्द ‘अखरु’ का फर्क स्मरणीय है। ‘अखर बीचारु’ में शब्द ‘अखर’ संबंध कारक में है भाव ‘अक्षर का विचार’। अगली तुक में शब्द ‘अखरु’ कर्ता कारक एक वचन है, भाव, ‘ओनम-अखरु त्रिभवण-सारु है’)।
ओनम: (पाठशाला में अध्यापक विद्यार्थियों को पढ़ाने के समय उनकी पट्टी व तख़्ती व स्लेट पर शब्द ‘ओं नम: ’ लिख देते हैं, जिसका अर्थ है ‘ओअं को नमस्कार है, परमात्मा को नमस्कार है’। पहली उदासी में गुरु नानक देव जी जब सिंगलाद्वीप से वापिस सोमनाथ द्वारिका होते हुए नर्बदा नदी के किनारे-किनारे उस जगह पहुँचे जहाँ ओअंकार का मन्दिर है, उन्होंने देखा कि लोग मन्दिर में स्थापित शिव मूर्ति को ‘ओअंकार मिथ के पूजा करते हैं मन्दिर की पाठशाला में विद्यार्थी पट्टियों पर ‘ओं नम: ’ लिखते -लिखाते हैं, पर वे भी उस ‘शिव मूर्ति’ को ही ‘ओअं’ समझ रहे हैं। इस पहली पौड़ी में ये दोनों भुलेखे समझाए गए हैं)
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि पाडे किआ लिखहु जंजाला ॥ लिखु राम नाम गुरमुखि गोपाला ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुणि पाडे किआ लिखहु जंजाला ॥ लिखु राम नाम गुरमुखि गोपाला ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ लिखहु = लिखने का तुझे क्या लाभ? लिखने का कोई फायदा नहीं है। जंजाला = सिर्फ दुनिया के झमेले।
अर्थ: हे पांडे! सुन, निरी (वाद-विवाद और सांसारिक) झमेलों वाली लिखाई लिखने से (कोई आत्मिक) लाभ नहीं हो सकता। (अगर तूने अपना जीवन सफल करना है तो) गुरु के सन्मुख हो के सृष्टि के मालिक परमात्मा का नाम (भी अपने मन में) लिख।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस वाणी ‘ओअंकार’ की 54 पउड़ियां हैं। इस लंबी वाणी का केन्द्रिय भाव इस ‘रहाउ’ वाली तुक में है। शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाओ’, यदि सारी वाणी सार तत्व दो-शब्दों में सुनना है तो इन दो तुकों पर खड़े हो जाओ।
नोट: ‘रहाउ’ की इस तुक के साथ ‘ओअंकार’ की आखिरी पउड़ी को मिला के पढ़ो:
पाधा गुरमुखि आखीऐ, चाटड़िआ मति देइ॥ नामु समालहु नामु संगरहु, लाहा जग महि लेइ॥ सची पटी सचु मनि पढ़ीऐ सबदु सु सारु॥ नानक सो पढ़िआ सो पंडितु बीना, जिस रामनामु गलिहारु॥५४॥
नोट: मंदिरों के साथ खुले हुए पाठशालाओं में पढ़ाई जा रही सांसारिक विद्या को पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग इसे धार्मिक काम समझ रहे हैं। सतिगुरु जी इस भुलेखे को दूर कर रहे हैं। वैसे सतिगुरु जी विद्या पढ़ने और पढ़ाने के विरुद्ध नहीं थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससै सभु जगु सहजि उपाइआ तीनि भवन इक जोती ॥ गुरमुखि वसतु परापति होवै चुणि लै माणक मोती ॥ समझै सूझै पड़ि पड़ि बूझै अंति निरंतरि साचा ॥ गुरमुखि देखै साचु समाले बिनु साचे जगु काचा ॥२॥
मूलम्
ससै सभु जगु सहजि उपाइआ तीनि भवन इक जोती ॥ गुरमुखि वसतु परापति होवै चुणि लै माणक मोती ॥ समझै सूझै पड़ि पड़ि बूझै अंति निरंतरि साचा ॥ गुरमुखि देखै साचु समाले बिनु साचे जगु काचा ॥२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पांधा (पंण्डित व अध्यापक) विद्यार्थी की तख्ती पर ‘ओं नम: ’ लिख के आगे बतौर आर्शीवाद ‘सिद्धं आइअै’ लिखते हैं, जिसका भाव ये है कि ‘तुझे इसमें सिद्धि प्राप्त हो’। पढ़ने के वक्त अक्षर ‘ध’ के (ं) मात्रा ‘अ’ के साथ मिल के ‘ङ’ की तरह उचारी जाएगी। इसलिए सतिगुरु जी ने पहले अक्षर ‘स, ध, ङ, और इ’ लेकर पउड़ियां उचारी हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससै = ‘स’ अक्षर के द्वारा। सहजि = सहज ही, बिना किसी विशेष उद्यम के। तीनि भवन = तीनों भवनों में, आकाश पाताल मातृ लोक में, सारे संसार में। इक जोति = एक परमात्मा की ज्योति। गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह है जिसका, गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। वसतु = गोपाल का राम नाम।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘रहाउ’ की केन्द्रिय तुक में ‘वसतु’ को स्पष्ट शब्दों ‘राम नाम’ में बता दिया है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चुणि लै = (गुरमुखि मनुष्य) चुन लेता है। माणक मोती = परमात्मा का नाम रूपी कीमती धन। अंति = आखिर को। निरंतरि = (निर+अंतर) एक रस, हर जगह मौजूद। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। साचु समाले = सदा कायम रहने वाले परमात्मा को याद करता है। काचा = नाशवान।
अर्थ: जिस परमात्मा ने किसी विशेष उद्यम के बिना ही ये संसार पैदा किया है उसकी ज्योति सारे जगत में पसर रही है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है उसको उस परमात्मा का नाम-पदार्थ मिल जाता है, गुरमुखि मनुष्य परमात्मा का नाम-रूपी कीमती धन इकट्ठा कर लेता है।
वह मनुष्य सतिगुरु (की वाणी) के दृष्टिकोण से ही समझता और सोचता है, सतिगुरु की वाणी बार-बार पढ़ के उसको ये भेद खुल जाता है कि सारी सृष्टि में व्यापक परमात्मा ही अंत में सदा स्थिर रहने वाला है। गुरु के राह पर चलने वाला मनुष्य उस सदा-स्थिर परमात्मा को ही (हर जगह) देखता है और अपने हृदय में बसाता है, परमात्मा के अलावा बाकी सारा जगत उसको नाशवान दिखाई देता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: संस्कृत और हिन्दी के अक्षर ‘सा, धा’ आदि बोल के उचारे जाते हैं। पर गुरमुखी में इन अक्षरों को ‘ससा, धधा’ कह के उचारते हैं। गुरु नानक देव जी भी ‘ससा’, धधा’ कह के ही लिखते हैं। इससे यहाँ यही नतीजा निकलता है कि हजूर गुरमुखी लिपी में लिख रहे थे, देवनागरी लिपी में नहीं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धधै धरमु धरे धरमा पुरि गुणकारी मनु धीरा ॥ धधै धूलि पड़ै मुखि मसतकि कंचन भए मनूरा ॥ धनु धरणीधरु आपि अजोनी तोलि बोलि सचु पूरा ॥ करते की मिति करता जाणै कै जाणै गुरु सूरा ॥३॥
मूलम्
धधै धरमु धरे धरमा पुरि गुणकारी मनु धीरा ॥ धधै धूलि पड़ै मुखि मसतकि कंचन भए मनूरा ॥ धनु धरणीधरु आपि अजोनी तोलि बोलि सचु पूरा ॥ करते की मिति करता जाणै कै जाणै गुरु सूरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरमापुरि = धरम की पुरी में, सत्संग में। धरमु धरे = (सतिगुरु) धरम का उपदेश करता है। गुणकारी = गुणों को पैदा करने वाला। धीरा = टिका हुआ। धूलि = धूल, चरण धूल। मुखि मसतकि = (जिसने) मुँह पर, माथे पर। मनूर = जला हुआ लोहा। धरणीधरु = धरती का आसरा परमात्मा। अजोनी = जनम रहत प्रभु। तोलि = तोल में। बोलि = बोल में। मिति = माप, प्रतिभा, महिमा। कै = या। आपि = आप ही आप, जिसका कोई शरीका नहीं। तोलि बोलि सचु पूरा = (भाव, गुरु की रहन-सहन भी चालिस सेर शुद्ध है, और गुरु की कथनी भी सोलह आने खरी होती है)।
अर्थ: (हे पांडे! गुरु की शरण पड़ कर कर्तार का नाम अपने मन की तख्ती पर लिख, वह बड़ा ही बेअंत है) कर्तार की बड़ाई कर्तार स्वयं ही जानता है, या शूरवीर सतिगुरु जानता है (भाव, सतिगुरु ही परमात्मा की महिमा की कद्र करता है) सतिगुरु सत्संग में (उस कर्तार के स्मरण रूप) धर्म का उपदेश करता है। (नाम-जपने की इनायत से) सतिगुरु का अपना मन टिका रहता है, और वह औरों में भी (ये) गुण पैदा करता है। जिस मनुष्य के मुँह-माथे पर गुरु के चरणों की धूल पड़े, वह नकारे सड़े हुए लोहे से सोना बन जाता है। सतिगुरु तोल में बोल में सच्चा और पूर्ण होता है। और जो परमात्मा सृष्टि का आसरा है जिसका कोई शरीक नहीं है और जो जनम-रहत है वही सतिगुरु का धन है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ङिआनु गवाइआ दूजा भाइआ गरबि गले बिखु खाइआ ॥ गुर रसु गीत बाद नही भावै सुणीऐ गहिर ग्मभीरु गवाइआ ॥ गुरि सचु कहिआ अम्रितु लहिआ मनि तनि साचु सुखाइआ ॥ आपे गुरमुखि आपे देवै आपे अम्रितु पीआइआ ॥४॥
मूलम्
ङिआनु गवाइआ दूजा भाइआ गरबि गले बिखु खाइआ ॥ गुर रसु गीत बाद नही भावै सुणीऐ गहिर ग्मभीरु गवाइआ ॥ गुरि सचु कहिआ अम्रितु लहिआ मनि तनि साचु सुखाइआ ॥ आपे गुरमुखि आपे देवै आपे अम्रितु पीआइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ङिआनु = ज्ञान, गुरु का दिया हुआ उपदेश। दूजा = गुरु उपदेश के बिना कुछ और। भाइआ = (जिस मनुष्य को) अच्छा लगा। गरबि = अहंकार में। गले = गल गए। बिखु = जहर (जो आत्मिक मौत ले आया)। गुर रसु गीत = गुरु की वाणी का आनंद। बाद = कथन, गुरु के वचन। नही भावै सुणीऐ = सुना अच्छा नहीं लगता, सुनने को जी नहीं करता। गहिर गंभीरु = अथाह परमात्मा,बेअंत गुणों का मालिक प्रभु। गुरि = सतिगुरु के द्वारा। सचु कहिआ = (जिसने) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को स्मरण किया। लहिआ = (उसने) पा लिया। मनि = मन में। तनि = तन में। साचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। सुखाइआ = प्यारा लगा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख करके, गुरु के द्वारा। आपे = प्रभु स्वयं ही।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस पौड़ी में शब्छ ‘सवाइआ, भाइआ, खाइआ’, आदि सारे भूतकाल में हैं। इनका भाव वर्तमान काल में लेना है। सो, टीका वर्तमान में किया जाएगा।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु का उपदेश विसार देता है व किसी और जीवन-राह को पसंद करता है, वह अहंकार में रसातल की ओर चला जाता है, और वह (आत्मिक मौत का मूल अहंकार-रूपी) जहर खाता है। उस मनुष्य को (दूसरे भाव के कारण) सतिगुरु की वाणी का आनंद और गुरु के वचन नहीं भाते। वह मनुष्य अथाह गुणों के मालिक परमात्मा से विछुड़ जाता है।
जिस मनुष्य ने सतिगुरु के द्वारा सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण किया है, उसने नाम-अमृत हासिल कर लिया है, फिर उसको वह परमात्मा मन-तन में प्यारा लगता है। (पर, ये उसकी बख्शिश ही है) वह स्वयं ही गुरु की शरण डाल के (नाम-जपने की दाति) देता है और खुद ही नाम-अमृत पिलाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको एकु कहै सभु कोई हउमै गरबु विआपै ॥ अंतरि बाहरि एकु पछाणै इउ घरु महलु सिञापै ॥ प्रभु नेड़ै हरि दूरि न जाणहु एको स्रिसटि सबाई ॥ एकंकारु अवरु नही दूजा नानक एकु समाई ॥५॥
मूलम्
एको एकु कहै सभु कोई हउमै गरबु विआपै ॥ अंतरि बाहरि एकु पछाणै इउ घरु महलु सिञापै ॥ प्रभु नेड़ै हरि दूरि न जाणहु एको स्रिसटि सबाई ॥ एकंकारु अवरु नही दूजा नानक एकु समाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एको एकु = सिर्फ एक (परमात्मा) ही। सभु कोई = हरेक जीव। गरबु = अहंकार। विआपै = छाया रहता है, प्रभाव बनाए रखता है। इउ = (भाव) इस तरह अहंकार गर्व का साया दूर करके। घरु महलु = परमात्मा का स्थान। सिञापै = पहचाना जाता है। दूरि न जाणहु = (हे पांडे!) प्रभु को कहीं दूर ना समझ। एको = एक प्रभु ही। सबाई = सारी। एकंकारु = सर्व व्यापक परमात्मा। समाई = हर जगह मौजूद है।
अर्थ: (वैसे तो) हर कोई कहता है कि एक परमात्मा ही परमात्मा है, पर (जिस मन पर परमात्मा का नाम लिखना है, उस पर) अहम्-अहंकार का प्रभाव बनाए रखता है। अगर मनुष्य (अहंकार का साया दूर करके) अपने हृदय में और सारी सृष्टि में एक परमात्मा को पहचान ले, तो इस तरह उसको परमात्मा के स्थान का ज्ञान हो जाता है।
(हे पांडे!) परमात्मा (तेरे) नजदीक (भाव, हृदय में बस रहा) है, उसको (अपने से) दूर ना समझ, एक परमात्मा ही सारी सृष्टि में मौजूद है। हे नानक! एक सर्व-व्यापक परमात्मा ही (हर जगह) समाया हुआ है, उसके बिना और कोई दूसरा नहीं है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु करते कउ किउ गहि राखउ अफरिओ तुलिओ न जाई ॥ माइआ के देवाने प्राणी झूठि ठगउरी पाई ॥ लबि लोभि मुहताजि विगूते इब तब फिरि पछुताई ॥ एकु सरेवै ता गति मिति पावै आवणु जाणु रहाई ॥६॥
मूलम्
इसु करते कउ किउ गहि राखउ अफरिओ तुलिओ न जाई ॥ माइआ के देवाने प्राणी झूठि ठगउरी पाई ॥ लबि लोभि मुहताजि विगूते इब तब फिरि पछुताई ॥ एकु सरेवै ता गति मिति पावै आवणु जाणु रहाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इसु करते कउ = इस नजदीक बसते कर्तार को (भाव, चाहे कर्तार मेरे अंदर बस रहा है)। गहि राखउ = पकड़ के रखूँ, हृदय में टिकाए रखूँ। अफरिओ = पकड़ा नहीं जा सकता, हृदय में बसाया नहीं जा सकता। तुलिओ न जाई = तोला नहीं जा सकता, उसकी उपमा आँकी नहीं जा सकती। किउ = कैसे? (भाव, जब तक अंदर ‘अहंकार गर्व’ है तब तक नहीं)। दीवाने = मतवाले को। झूठि = झूठ को। ठगउली = ठग बूटी, जादू। लबि = चस्के में। लोभि = लालच में। मुहताजि = अधीनता में। इब तब फिरि = अह तब बार बार, सदा ही। सरेवै = स्मरण करे। गति = परमात्मा की गति, प्रभु के साथ जान पहचान। मिति = परमात्मा की मिति, परमात्मा की महानता की सीमा। रहाई = समाप्त होती है।
अर्थ: (हे पांडे!) चाहे कर्तार मेरे अंदर ही बस रहा है (जब तक मेरे अंदर अहम्-अहंकार है) मैं उसको अपने मन में नहीं बसा सकता, (जब तक मन में अहंकार है तब तक वह कर्तार) मन में बसाया नहीं जा सकता, उसकी बड़ाई को नहीं आँका जा सकता।
माया के मतवाले जीव को (जब तक) झूठ ने ठग-बूटी चिपकाई हुई है, (जब तक जीव) चस्के में लालच में और पराई मुहताजी में दुखी हो रहा है, तब तक हर वक्त इसको सहम ही बना रहता है।
जब मनुष्य (अहंकार दूर करके) एक परमात्मा को स्मरण करता है तब परमात्मा के साथ इसकी जान-पहचान हो जाती है, परमात्मा की महिमा की इसको कद्र पड़ती है, और इसका जनम-मरण खत्म हो जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकु अचारु रंगु इकु रूपु ॥ पउण पाणी अगनी असरूपु ॥ एको भवरु भवै तिहु लोइ ॥ एको बूझै सूझै पति होइ ॥ गिआनु धिआनु ले समसरि रहै ॥ गुरमुखि एकु विरला को लहै ॥ जिस नो देइ किरपा ते सुखु पाए ॥ गुरू दुआरै आखि सुणाए ॥७॥
मूलम्
एकु अचारु रंगु इकु रूपु ॥ पउण पाणी अगनी असरूपु ॥ एको भवरु भवै तिहु लोइ ॥ एको बूझै सूझै पति होइ ॥ गिआनु धिआनु ले समसरि रहै ॥ गुरमुखि एकु विरला को लहै ॥ जिस नो देइ किरपा ते सुखु पाए ॥ गुरू दुआरै आखि सुणाए ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकु, इकु = एक परमात्मा ही। आचारु = कार व्यवहार। असरूपु = (सरूप) स्वरूप। एको भवरु = एक ही आत्मा, एक परमात्मा की ही ज्योति। भवै = पसर रही है, व्यापक है। तिहु लोइ = तीन लोकों में, सारे जगत में। पति = आदर। गिआनु = ज्ञान, परमात्मा के साथ जान पहचान। धिआनु = परमात्मा में टिकी हुई तवज्जो, ध्यान। ले = प्राप्त कर के। समसरि = बराबर। धीरा = अहंकार रहित। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य। इकु = एक परमात्मा को। किरपा ते = (प्रभु अपनी) कृपा से। देइ = देता है। गुरू दुआरे = सतिगुरु के द्वारा। आखि = कह के, मति दे के।
अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख जो) एक खुद ही (हर जगह व्यापक हो के जगत की ये सारी) मेहनत-कमाई (कर रहा) है, (जो) एक स्वयं ही (संसार का यह सारा) रूप-रंग (अपने आप से प्रगट कर रहा) है, और (जगत के यह तत्व) हवा-पानी-आग (जिसका अपना ही) स्वरूप हैं, जिस गोपाल की ज्योति ही सारे जगत में पसर रही है।
जो मनुष्य उस एक परमात्मा को (हर जगह व्यापक) समझता है, जिसको हर जगह परमात्मा ही दिखाई देता है, वह आदर सत्कार हासिल करता है। कोई विरला मनुष्य सतिगुरु के द्वारा परमात्मा के साथ जान-पहचान डाल के, और, उसमें तवज्जो टिका के धैर्य भरे जीवन वाला बनता है, ऐसा मनुष्य उस परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। जिस मनुष्य को प्रभु अपनी मेहर से ये दाति देता है, जिसको गुरु के द्वारा (अपनी सर्व-व्यापकता का उपदेश) सुनाता है वह मनुष्य सुख पाता है।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अक्षर ‘इ’ की तीन पौड़ियां नंबर 5,6,7 में एक ही मिश्रित भाव है कि गुरु के द्वारा अहंकार दूर करने से वह परमात्मा हर जगह व्यापक दिखता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरम धूरम जोति उजाला ॥ तीनि भवण महि गुर गोपाला ॥ ऊगविआ असरूपु दिखावै ॥ करि किरपा अपुनै घरि आवै ॥ ऊनवि बरसै नीझर धारा ॥ ऊतम सबदि सवारणहारा ॥ इसु एके का जाणै भेउ ॥ आपे करता आपे देउ ॥८॥
मूलम्
ऊरम धूरम जोति उजाला ॥ तीनि भवण महि गुर गोपाला ॥ ऊगविआ असरूपु दिखावै ॥ करि किरपा अपुनै घरि आवै ॥ ऊनवि बरसै नीझर धारा ॥ ऊतम सबदि सवारणहारा ॥ इसु एके का जाणै भेउ ॥ आपे करता आपे देउ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊरम = (सं: उरवी) धरती। धूरम = (सं: धूम्र) धूआँ, आकाश। उजाला = प्रकाश, रौशनी। गुर = सबसे बड़ा। गोपाल = पृथ्वी का पालनहार। ऊगविआ = प्रकट हो के। असरूपु = (स्व+रूप) अपना सरूप। घरि आवै = (वह मनुष्य) भटकना से बच जाता है, टिक जाता है। घरि = घर में। ऊनवि = झुक के, नजदीक आ के। नीझर धारा = झड़ी लगा के, एक तार। ऊतम सबदि = गुरु के श्रेष्ठ शब्द के द्वारा। सवारणहारा = जगत को सोहणा बनाने वाला परमात्मा। इसु एके का = जगत को सवारने वाले एक प्रभु का। भेउ = (यह) भेद (कि)। आपे = आप ही, स्वयं ही। देउ = रौशनी देने वाला।
अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख, जो) सबसे बड़ा गोपाल तीन भवनों में व्यापक है, धरती और आकाश में जिसकी ज्योति का प्रकाश है। वह गोपाल अपनी कृपा करके (गुरु के द्वारा) प्रकट हो के जिसको अपना (सर्व-व्यापक) स्वरूप् दिखाता है, वह मनुष्य (भटकना से बच के) अपने आप में टिक जाता है। जगत को सुंदर बनाने वाला प्रभु सतिगुरु के श्रेष्ठ शब्द द्वारा (जिस मनुष्य के हृदय में) नजदीक हो के (अपनी महिमा की) झड़ी लगा के बरसता है, वह मनुष्य (जगत को सवारणहार) इस प्रभु का ये भेद जान लेता है कि प्रभु स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है और खुद ही (अपनी ज्योति से इसको) रौशनी देने वाला है (भाव, प्रभु खुद ही इस जगत को जीवन-राह सिखाने वाला) है।8।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
उगवै सूरु असुर संघारै ॥ ऊचउ देखि सबदि बीचारै ॥ ऊपरि आदि अंति तिहु लोइ ॥ आपे करै कथै सुणै सोइ ॥ ओहु बिधाता मनु तनु देइ ॥ ओहु बिधाता मनि मुखि सोइ ॥ प्रभु जगजीवनु अवरु न कोइ ॥ नानक नामि रते पति होइ ॥९॥
मूलम्
उगवै सूरु असुर संघारै ॥ ऊचउ देखि सबदि बीचारै ॥ ऊपरि आदि अंति तिहु लोइ ॥ आपे करै कथै सुणै सोइ ॥ ओहु बिधाता मनु तनु देइ ॥ ओहु बिधाता मनि मुखि सोइ ॥ प्रभु जगजीवनु अवरु न कोइ ॥ नानक नामि रते पति होइ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरु = सूरज, रौशनी, प्रकाश, गुरु के ज्ञान की रौशनी। असुर = दैत्य, कामादिक विकार। संघारै = खत्म कर देता है। ऊचउ = सबसे ऊँचे हरि को। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। आदि अंति = शुरू से आखिर तक, जब तक दुनिया कायम है। तिहु लोइ = तीन लोकों में, सारे संसार में। आपे = स्वयं ही। सोइ = वह परमात्मा ही। बिधाता = पैदा करने वाला प्रभु। देइ = देता है। मनि = मन में।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘मनु’ और ‘मनि’ का अंतर स्मरणीय है। ‘मनु देइ’, यहाँ ‘मनु’ कर्मकारक है और क्रिया ‘देइ’ का कर्म है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुँह में। मनि सुख सोइ = वह प्रभु ही जीवों के मन में बसता है और मुँह में बसता है, हरेक के अंदर बैठ के वह खुद ही बोलता है। जग जीवन = जगत का जीवन, जगत का आसरा। नामि = नाम में।
अर्थ: (जिस मनुष्य के अंदर सतिगुरु के बख्शे हुए ज्ञान की) रौशनी पैदा होती है वह (अपने अंदर से) कामादिक विकारों को मार देता है। सतिगुरु के शब्द की इनायत से परम पुरख का दीदार करके (वह मनुष्य फिर यूँ) सोचता है (कि) जब तक सृष्टि कायम है वह परमात्मा सारे जगत में (हरेक के सिर) पर खुद (रखवाला) है, वह स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के) काम-काज करता है, बोलता है और सुनता है, वह विधाता (सब जीवों) को जीवात्मा और शरीर देता है, सब जीवों के अंदर बैठ के वह खुद ही बोलता है, और, परमात्मा (ही) जगत का आसरा है, (उसके बिना) कोई और (आसरा) नहीं है।
हे नानक! (उस) परमात्मा के नाम में रंगीज के (ही) आदर-मान मिलता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन राम रवै हितकारि ॥ रण महि लूझै मनूआ मारि ॥ राति दिनंति रहै रंगि राता ॥ तीनि भवन जुग चारे जाता ॥ जिनि जाता सो तिस ही जेहा ॥ अति निरमाइलु सीझसि देहा ॥ रहसी रामु रिदै इक भाइ ॥ अंतरि सबदु साचि लिव लाइ ॥१०॥
मूलम्
राजन राम रवै हितकारि ॥ रण महि लूझै मनूआ मारि ॥ राति दिनंति रहै रंगि राता ॥ तीनि भवन जुग चारे जाता ॥ जिनि जाता सो तिस ही जेहा ॥ अति निरमाइलु सीझसि देहा ॥ रहसी रामु रिदै इक भाइ ॥ अंतरि सबदु साचि लिव लाइ ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हित कारि = हित करि, प्रेम करके, प्यार से। राजन = प्रकाश स्वरूप। रवै = स्मरण करता है। रण = जगत अखाड़ा। मनूआ = अनुचित मन। लूझै = लड़ता है। रंगि = (परमात्मा के) रंग में, प्रेम में। राता = रंगा हुआ। जुग चारे = चारों युगों में मौजूद, सदा स्थिर रहने वाले को। जाता = पहचान लेता है, सांझ डाल लेता है। जिनि = जिस मनुष्य ने। निरमाइलु = निर्मल, पवित्र। देहा = शरीर। सीझसि = सफल हो जाता है। रहसी = रहस्य वाला, आनंद स्वरूप (रहस = आनंद)। इक भाइ = एक रस, लगातार, सदा। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।
अर्थ: (जो मनुष्य) प्रकाश-स्वरूप परमात्मा को प्रेम से स्मरण करता है, वह अपने बुरे मन को वश में ला के इस जगत-अखाड़े में (कामादिक वैरियों के साथ) लड़ता है, वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा के प्यार में रंगा रहता है, तीन भवनों में व्यापक और सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ वह मनुष्य (पक्की) जान-पहचान डाल लेता है।
जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ जान-पहचान डाल ली, वह उस जैसा ही हो गया (भाव, वह माया की मार से ऊपर उठ गया), उसकी आत्मा बड़ी ही पवित्र हो जाती है, और उसका शरीर भी सफल हो जाता है, आनंद-स्वरूप परमात्मा सदा उसके हृदय में टिका रहता है, उसके मन में सतिगुरु का शब्द बसता है और वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में तवज्जो जोड़े रखता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोसु न कीजै अम्रितु पीजै रहणु नही संसारे ॥ राजे राइ रंक नही रहणा आइ जाइ जुग चारे ॥ रहण कहण ते रहै न कोई किसु पहि करउ बिनंती ॥ एकु सबदु राम नाम निरोधरु गुरु देवै पति मती ॥११॥
मूलम्
रोसु न कीजै अम्रितु पीजै रहणु नही संसारे ॥ राजे राइ रंक नही रहणा आइ जाइ जुग चारे ॥ रहण कहण ते रहै न कोई किसु पहि करउ बिनंती ॥ एकु सबदु राम नाम निरोधरु गुरु देवै पति मती ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रोसु = रोष, नाराजगी। कीजै = करना चाहिए। रहणु = रहायश, बसेरा। संसारे = संसार में। राइ = अमीर। रंक = कंगाल। आइ जाइ = जो आया है उसने चले जाना है, जो पैदा हुआ है उसने मरना है। जुग चारे = (ये कुदरती नियम) चारों युगों में ही (चला आ रहा है)। कहण ते = कहने से। रहण कहण ते = ये कहने से कि मैंने जगत में रहना है, मरने से बचने के लिए तरले लेने से। किसु पहि = किस के पास? बिनंती = तरला, विनती। किस पहि करउ बिनंती = किसके पास तरले करूँ? (यहाँ जगत में सदा टिके रहने के लिए) किसी के आगे तरले लेने व्यर्थ हैं। निरोधरु = (सं: निरुध = विकारों से बचा के रखना) विकारों से बचा के रखने वाला। पति मती = पति परमात्मा के साथ मिलाने वाली मति।
अर्थ: (हे पांडे! गुरु के सन्मुख हो के गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख, उस गोपाल से) नाराजगी ही ना किए रखो, उसका नाम-अमृत पीयो। इस संसार में सदा के लिए बसेरा नहीं है। राजे हों, अमीर हो, चाहे कंगाल हों, कोई भी यहाँ सदा नहीं रह सकता। जो पैदा हुआ है उसने मरना है, (ये नियम) सदा के लिए (अटल) है। यहाँ सदा टिके रहने के लिए तरले करने से भी कोई टिका नहीं रह सकता, इस बात के लिए किसी के आगे तरले लेने व्यर्थ हैं।
(हाँ, हे पांडे! गुरु की शरण आओ) सतिगुरु परमात्मा के नाम की महिमा भरा शब्द बख्शता है जो विकारों से बचा लेता है, और, सतिगुरु प्रभु-पति से मिलने की मति देता है।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी 10 और 11 दोनों ‘र’ अक्षर से शुरू होती हैं। यहाँ संस्कृत के स्वर अक्षर ‘रि’ और ‘री’ लिए गए हैं।
नोट: राजे और कंगाल को मौत के सामने एक जैसा बेबस बता के सतिगुरु जी गरीब के मन पर से धनवानों का दबदबा उतारते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाज मरंती मरि गई घूघटु खोलि चली ॥ सासु दिवानी बावरी सिर ते संक टली ॥ प्रेमि बुलाई रली सिउ मन महि सबदु अनंदु ॥ लालि रती लाली भई गुरमुखि भई निचिंदु ॥१२॥
मूलम्
लाज मरंती मरि गई घूघटु खोलि चली ॥ सासु दिवानी बावरी सिर ते संक टली ॥ प्रेमि बुलाई रली सिउ मन महि सबदु अनंदु ॥ लालि रती लाली भई गुरमुखि भई निचिंदु ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाज = लज्जा। लाज मरंती = लोक-सम्मान में मरने वाली, हर वक्त दुनिया में लोक-सम्मान का ख्याल रखने वाली (बुद्धि)। मरि गई = मर जाती है। घूघटु खोलि = घूंघट खोल के, लोक-सम्मान का घूंघट उतार के। चली = चलती है। सासु = सास, माया। बावरी = कमली। सिर ते = सिर पर से। संक = शंका, सहम। टली = टल जाता है, हट जाता है। प्रेमि = प्यार से। रली सिउ = चाव से। बुलाई = बुलाई जाती है, पति प्रभु बुलाता है। लालि = लाल में, प्रीतम पति में। रती = रंगी हुई। लाली भई = (मुँह पर) लाली चढ़ आती है। गुरमुखि = वह जीव-स्त्री जो गुरु की शरण आती है। निचिंदु = चिन्ता रहित।
अर्थ: (हे पांडे!) जो जीव-स्त्री गुरु की शरण आती है उसको दुनियावी कोई भी चिन्ता नहीं सता सकती, प्रीतम पति (के प्रेम) में रंगी हुई के मुँह पर लाली आ जाती है। उसको प्रभु-पति प्यार और चाव से बुलाता है (भाव, अपनी याद की कशिश बख्शता है), उसके मन में (सतिगुरु का) शब्द (आ बसता है, उसके मन में) आनंद (टिका रहता) है। (गुरु की शरण पड़ कर) दुनियावी लोक-सम्मान का हमेशा ध्यान रखने वाली (उसकी पहले वाली बुद्धि) खत्म हो जाती है, अब वह लोक-सम्मान का घूंघट उतार के चलती है; (जिस माया ने उसको पति-प्रभु में जुड़ने से रोका था, उस) झल्ली कमली माया का सहम उसके सिर पर से हट जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाहा नामु रतनु जपि सारु ॥ लबु लोभु बुरा अहंकारु ॥ लाड़ी चाड़ी लाइतबारु ॥ मनमुखु अंधा मुगधु गवारु ॥ लाहे कारणि आइआ जगि ॥ होइ मजूरु गइआ ठगाइ ठगि ॥ लाहा नामु पूंजी वेसाहु ॥ नानक सची पति सचा पातिसाहु ॥१३॥
मूलम्
लाहा नामु रतनु जपि सारु ॥ लबु लोभु बुरा अहंकारु ॥ लाड़ी चाड़ी लाइतबारु ॥ मनमुखु अंधा मुगधु गवारु ॥ लाहे कारणि आइआ जगि ॥ होइ मजूरु गइआ ठगाइ ठगि ॥ लाहा नामु पूंजी वेसाहु ॥ नानक सची पति सचा पातिसाहु ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = (हे पांडे!) याद कर। लाहा = लाभ, कमाई। नामु रतनु = परमात्मा का नाम जो दुनिया के सारे पदार्थों से ज्यादा कीमती है। सारु = सार नाम, श्रेष्ठ नाम। बुरा = खराब, उपद्रवी। लाड़ी चाढ़ी = उतारने की बात और चढ़ाने की बात, निंदा और खुशामद। लाइतबार = ला+ऐतबार, वह ढंग जिससे किसी का ऐतबार गवाया जा सके, चुगली। मन मुखु = वह व्यक्ति जिसका रुख अपने मन की ओर है, मन मर्जी का व्यक्ति। मुगधु = मूर्ख। कारणि = वास्ते। जगि = जग में। होइ = बन के। गइआ ठगाइ = ठगा के गया, बाजी हार के गया। ठगि = ठग से, मोह के। वेसाहु = श्रद्धा। सची = सदा टिकी रहने वाली। पति = इज्जत।
अर्थ: (हे पांडे! परमात्मा का) श्रेष्ठ नाम जप, श्रेष्ठ नाम ही असल लाभ-कमाई है। जीभ का चस्का, माया का लालच, अहंकार, निंदा, खुशामद, चुगली- ये हरेक काम गलत है (बुरा है)। जो मनुष्य (परमात्मा का स्मरण छोड़ के) अपने मन के पीछे चलता है (और लब-लोभ आदि करता है) वह मूर्ख, मूढ़ और अंधा है (भाव, उसको जीवन का सही रास्ता नहीं दिखता)।
जीव जगत में कुछ कमाने की खातिर आता है, पर (माया का) चाकर बन के मोह के हाथों जीवन-खेल हार के जाता है। हे नानक! जो मनुष्य श्रद्धा को राशि-पूंजी बनाता है और (इस पूंजी से) परमात्मा का नाम खरीदता-कमाता है, उसको सदा-स्थिर पातशाह सदा टिकी रहने वाली इज्जत बख्शता है।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी नंबर 12 और 13 ‘ल’ अक्षर से आरम्भ होती हैं। ये अक्षर संस्कृत के अक्षर ‘ल्रि’ और ‘ल्री’ हैं। ये अक्षर ‘स्वर’ ही गिने जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आइ विगूता जगु जम पंथु ॥ आई न मेटण को समरथु ॥ आथि सैल नीच घरि होइ ॥ आथि देखि निवै जिसु दोइ ॥ आथि होइ ता मुगधु सिआना ॥ भगति बिहूना जगु बउराना ॥ सभ महि वरतै एको सोइ ॥ जिस नो किरपा करे तिसु परगटु होइ ॥१४॥
मूलम्
आइ विगूता जगु जम पंथु ॥ आई न मेटण को समरथु ॥ आथि सैल नीच घरि होइ ॥ आथि देखि निवै जिसु दोइ ॥ आथि होइ ता मुगधु सिआना ॥ भगति बिहूना जगु बउराना ॥ सभ महि वरतै एको सोइ ॥ जिस नो किरपा करे तिसु परगटु होइ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आइ = आ के, जनम ले के। विगूता = ख्वार होता है। जगु = जगत (भाव, जीव)। जम पंथु = मौत का रास्ता, आत्मिक मौत का रास्ता। आई = माया, माया की तृष्णा। आथि = माया। सैल = पहाड़। आथि सैल = माल धन के पर्वत, बहुत धन (जैसे, ‘गिरहा सेती मालु धनु’)। नीच = नीच मनुष्य। नीच घरि = गिरे हुए आदमी के घर में। जिसु आथि देखि = और उस (नीच) की माया को देख के। दोइ = दोनों (भाव, अमीर और गरीब)। बउराना = कमला, झल्ला। एको सोइ = वह (गोपाल) स्वयं ही। वरतै = मौजूद है।
अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख) वह (गोपाल) स्वयं ही सब जीवों में मौजूद है, पर ये सूझ उस मनुष्य को आती है जिस पर (गोपाल स्वयं) कृपा करता है।
(गोपाल की) भक्ति के बिना जगत (माया के पीछे) पागल हो रहा है। जीव (संसार में) जनम ले के (गोपाल की भक्ति की जगह माया की खातिर) दुखी होता है, माया की तृष्णा को मिटाने-योग्य नहीं होता और आत्मिक मौत का राह पकड़ लेता है। (जगत का पागल-पन देखिए कि) अगर बहुत सारी माया किसी दुष्ट व बुरे व्यक्ति के घर में हो तो उस माया को देख के (गरीब और अमीर) दोनों ही (उस दुष्ट बुरे व्यक्ति के आगे भी) झुकते हैं; अगर माया (पल्ले) हो तो मूर्ख व्यक्ति भी समझदार (माना जाता) है।14।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गुरु नानक देव जी के ख्याल के अनुसार धन-दौलत का लालच आत्मिक मौत का कारण बनता है। बुरे दुष्ट धनवान की खुशामद करना आत्मिक मौत की ही निशानी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुगि जुगि थापि सदा निरवैरु ॥ जनमि मरणि नही धंधा धैरु ॥ जो दीसै सो आपे आपि ॥ आपि उपाइ आपे घट थापि ॥ आपि अगोचरु धंधै लोई ॥ जोग जुगति जगजीवनु सोई ॥ करि आचारु सचु सुखु होई ॥ नाम विहूणा मुकति किव होई ॥१५॥
मूलम्
जुगि जुगि थापि सदा निरवैरु ॥ जनमि मरणि नही धंधा धैरु ॥ जो दीसै सो आपे आपि ॥ आपि उपाइ आपे घट थापि ॥ आपि अगोचरु धंधै लोई ॥ जोग जुगति जगजीवनु सोई ॥ करि आचारु सचु सुखु होई ॥ नाम विहूणा मुकति किव होई ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगि = युग में। जुगि जुगि = हरेक युग में, हर समय। थापि = स्थापित करके, टिका के, पैदा करके। जनमि = जनम में। मरणि = मरने में। धैरु = भटकना।
जनमि मरणि नही = (वह गोपाल) जनम में और मरने में नहीं (आता)। उपाइ = पैदा करके। घट = सारे शरीर। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच। अ = नहीं) जिस तक मनुष्य की ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं, अगम्य (पहुँच से परे)। लोई = सृष्टि, जगत, लोक। जोग जुगति = (अपने साथ) मिलने की विधि। जग जीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। सोई = खुद ही (बताता है)। आचारु = (अच्छा) कर्तव्य। सचु = प्रभु (का स्मरण)। मुकति = धंधों से मुक्ति। किव होई = कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती।
अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख) जो सदा ही (बहुरंगी दुनिया) पैदा करके खुद निर्वैर रहता है, जो जनम-मरण में नहीं है और (जिसके अंदर जगत का कोई) धंधा भटकना पैदा नहीं करता। वह गोपाल स्वयं ही (सृष्टि) पैदा करके स्वयं ही सारे जीव बनाता है, जो कुछ (जगत में) दिखाई दे रहा है वह गोपाल स्वयं ही स्वयं है (भाव, उस गोपाल का ही स्व्रूप है)।
(हे पांडे!) जगत भटकना में (फसा हुआ) है, जगत का सहारा वह अगम्य (पहुँच से परे) गोपाल स्वयं ही (जीव को इस भटकना में से निकाल के) अपने साथ मिलने की विधि सिखाता है।
(हे पांडे!) उस सदा-स्थिर (गोपाल की याद) को अपना कर्तव्य बना, तब ही सुख मिलता है। उसके नाम से वंचित रह के धंधों से खलासी नहीं हो सकती।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विणु नावै वेरोधु सरीर ॥ किउ न मिलहि काटहि मन पीर ॥ वाट वटाऊ आवै जाइ ॥ किआ ले आइआ किआ पलै पाइ ॥ विणु नावै तोटा सभ थाइ ॥ लाहा मिलै जा देइ बुझाइ ॥ वणजु वापारु वणजै वापारी ॥ विणु नावै कैसी पति सारी ॥१६॥
मूलम्
विणु नावै वेरोधु सरीर ॥ किउ न मिलहि काटहि मन पीर ॥ वाट वटाऊ आवै जाइ ॥ किआ ले आइआ किआ पलै पाइ ॥ विणु नावै तोटा सभ थाइ ॥ लाहा मिलै जा देइ बुझाइ ॥ वणजु वापारु वणजै वापारी ॥ विणु नावै कैसी पति सारी ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेरोधु सरीर = शरीर का विरोध, ज्ञान इन्द्रियों का आत्मिक जीवन से विरोध (भाव, आँख, नाक, जीभ आदि इंद्रिय पर = तन पराई निंदा आदि में पड़ के आत्मिक जीवन को गिराते हैं)। किउ न मिलहि = (हे पांडे!) तू क्यों (गोपाल को) नहीं मिलता? किउ न काटहि = (हे पांडे!) तू क्यों दूर नहीं करता? वटाऊ = राही, मुसाफिर। आवै = जगत में आता है, पैदा होता है। जाइ = मर जाता है। किआ लै आइआ = कुछ भी ले के नहीं आता। किआ पलै पाइ = कुछ भी नहीं कमाता। तोटा = घाटा। जा = अगर। देइ बुझाई = परमात्मा समझ बख्शे। कैसी पति सारी = कोई अच्छी इज्जत नहीं (मिलती)। पीर = पीड़ा, रोग।
अर्थ: (हे पांडे! तू क्यों गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर नहीं लिखता?) तू क्यों (गोपाल की याद में) नहीं जुड़ता? और, क्यों अपने मन का रोग दूर नहीं करता? (गोपाल का) नाम स्मरण के बिना ज्ञान-इन्द्रियों का आत्मिक जीवन से विरोध पड़ जाता है। (गोपाल का नाम अपने मन की तख्ती पर लिखे बिना) जीव-यात्री जगत में (जैसा) आता है और (वैसा ही यहाँ से) चला जाता है, (नाम की कमाई के) बगैर ही यहाँ आता है और (यहाँ रह के भी) कोई आत्मिक कमाई नहीं कमाता।
नाम से टूटे रहने के कारण हर जगह घाटा ही घाटा होता है (भाव, मनुष्य प्रभु को बिसार के जो भी काम-काज करता है वह खोटी होने के कारण ऊँचे जीवन से परे-परे ही ले जाती है)। पर मनुष्य को प्रभु के नाम की कमाई तब ही प्राप्त होती है जब गोपाल खुद ये सूझ बख्शता है।
नाम से वंचित रह के जीव-बन्जारा और तरह के वणज-व्यापार करता है, और (परमात्मा की हजूरी में) इसकी अच्छी साख इज्जत नहीं बनती।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण वीचारे गिआनी सोइ ॥ गुण महि गिआनु परापति होइ ॥ गुणदाता विरला संसारि ॥ साची करणी गुर वीचारि ॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाइ ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाइ ॥ गुणवंती गुण सारे नीत ॥ नानक गुरमति मिलीऐ मीत ॥१७॥
मूलम्
गुण वीचारे गिआनी सोइ ॥ गुण महि गिआनु परापति होइ ॥ गुणदाता विरला संसारि ॥ साची करणी गुर वीचारि ॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाइ ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाइ ॥ गुणवंती गुण सारे नीत ॥ नानक गुरमति मिलीऐ मीत ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण वीचारे = जो मनुष्य गोपाल के गुणों को विचारता है, अपने मन में जगह देता है। गिआनु = (परमात्मा से) जान पहचान। गिआनी = प्रभु के साथ जान पहचान रखने वाला। सोइ = वही मनुष्य। गुण महि = (गोपाल के) गुणों में (चिक्त जोड़ने से)। गुण दाता = (गोपाल के) गुणों के साथ सांझ पैदा करने वाला। संसारि = संसार में। गुर वीचारि = गुरु की दी हुई विचार के द्वारा। करणी = कर्तव्य। साची करणी = सदा-स्थिर प्रभु के गुण याद करने वाला काम। अगोचरु = अगम्य (पहुँच से परे)। कीमति नही पाइ = (गुरु के बिना गोपाल के गुणों की) कद्र नहीं पड़ सकती। गुणवंती = वह जीव-स्त्री जिसके अंदर अच्छे गुण हैं। सारे = संभालती है, याद करती है। गुरमति = सतिगुरु की मति ले के। मिलिऐ मीत = मित्र प्रभु को मिल सकते हैं।
अर्थ: (हे पांडे!) वही मनुष्य गोपाल-प्रभु के साथ सांझ वाला होता है जो उसके गुणों को अपने मन में जगह देता है; गोपाल के गुणों में (चिक्त जोड़ने से ही) गोपाल के साथ सांझ बनती है। पर जगत में कोई विरला (महापुरख जीव की) गोपाल के साथ सांझ करवाता है; गोपाल के गुण याद करने का सच्चा कर्तव्य सतिगुरु के उपदेश से ही हो सकता है।
(हे पांडे!) वह गोपाल अगम्य (पहुँच से परे) है, जीव की ज्ञान-इन्द्रियाँ उस तक नहीं पहुँच सकतीं, (सतिगुरु की दी हुई सूझ के बिना) उसके गुणों की कद्र नहीं पड़ सकती। उस प्रभु को तब ही मिला जा सकता है जब वह (सतिगुरु के द्वारा) खुद मिला ले।
हे नानक! कोई भाग्यशाली जीव-स्त्री गोपाल के गुण हमेशा याद रखती है, सतिगुरु की शिक्षा की इनायत से ही मित्र प्रभु को मिला जा सकता है।17।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु काइआ कउ गालै ॥ जिउ कंचन सोहागा ढालै ॥ कसि कसवटी सहै सु ताउ ॥ नदरि सराफ वंनी सचड़ाउ ॥ जगतु पसू अहं कालु कसाई ॥ करि करतै करणी करि पाई ॥ जिनि कीती तिनि कीमति पाई ॥ होर किआ कहीऐ किछु कहणु न जाई ॥१८॥
मूलम्
कामु क्रोधु काइआ कउ गालै ॥ जिउ कंचन सोहागा ढालै ॥ कसि कसवटी सहै सु ताउ ॥ नदरि सराफ वंनी सचड़ाउ ॥ जगतु पसू अहं कालु कसाई ॥ करि करतै करणी करि पाई ॥ जिनि कीती तिनि कीमति पाई ॥ होर किआ कहीऐ किछु कहणु न जाई ॥१८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ से पट्टी के व्यंञन अक्षर आरम्भ होते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गालै = निर्बल कर देता है। कउ = को। कंचन ढालै = सोने को नर्म करता है। कसि कसवटी = कसवटी का घिसना। सु = वह सोना। ताउ = सेक। वंन = रंग। वंनी = सुनहरे रंग वाला। सराफ = सोने चाँदी का व्यापारी। अहं = अहंकार। कसाई = मारने वाला। कालु = मौत। करि = पैदा करके। करतै = कर्तार ने। करि = कर में, हाथ में, (भाव, जीवों के पल्ले)। करणी = करतूत। करते…पाई = कर्तार ने जीवों के पल्ले अपना अपना कर्म डाला है (भाव, जैसा कर्म कोई जीव करता है वैसा ही उसको फल मिलता है)। जिनि = जिस (कर्तार) ने। कीती = यह (करणी वाली मर्यादा) बनाई है। तिनि = उस (कर्तार) ने। कीमति पाई = (ये मर्यादा की) कद्र जानी है। होर किआ कहीऐ = इस मर्यादा के बारे में और कुछ कहा नहीं जा सकता, (भाव, इस मर्यादा में कोई कमी नहीं पाई जा सकती)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पहली तुक में ‘काइआ’ और ‘कंचन’ की तुलना की गई है। सो, दूसरी तुक में शब्द ‘कसि कसवटी’, ‘ताउ’ और ‘सराफ’ को ‘काइआ’ के लिए प्रयोग करते हुए ‘कसि कसवटी’ का अर्थ है ‘गुरमति’, ये ख्याल पिछली पौड़ी की आखिरी तुक में से लेना है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताउ = गुरु के बताए हुए राह पर चलने की मेहनत-मुशक्कत। सराफ = परमात्मा।
अर्थ: जैसे सोहागा (कुठाली में डाले हुए) सोने को नर्म कर देता है, (वैसे ही) काम और क्रोध (मनुष्य के) शरीर को निर्बल कर देता है। वह (ढला हुआ) सोना (कुठाली में) सेक सहता है, फिर कसवटी का कस सहता है (भाव, कसवटी पर घिसा के परखा जाता है), और, सुनहरे रंग वाला वह सोना सराफ़ की नजर में स्वीकार होता है। (काम-क्रोध से निर्बल हुआ जीव भी प्रभु की मेहर से जब गुरु के बताए हुए राह की मेहनत-मुशक्कत करता है, और गुरु की बताई हुई शिक्षा पर पूरा उतरता है तो वह सुंदर आत्मा वाला प्राणी अकाल-पुरख की नजर में स्वीकार होता है)।
जगत (स्वार्थ में) पशु बना हुआ है, अहंकार रूपी मौत इसके आत्मिक जीवन का सत्यानाश करती है। कर्तार ने सृष्टि रच के यह मर्यादा ही बना दी है कि जैसी करतूत कोई जीव करता है वैसा ही उसको फल मिलता है। पर जिस कर्तार ने यह मर्यादा बनाई है इसकी कद्र वह खुद ही जानता है। इस मर्यादा में कोई कमी नहीं कही जा सकती।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत अम्रितु पीआ ॥ खिमा गही मनु सतगुरि दीआ ॥ खरा खरा आखै सभु कोइ ॥ खरा रतनु जुग चारे होइ ॥ खात पीअंत मूए नही जानिआ ॥ खिन महि मूए जा सबदु पछानिआ ॥ असथिरु चीतु मरनि मनु मानिआ ॥ गुर किरपा ते नामु पछानिआ ॥१९॥
मूलम्
खोजत खोजत अम्रितु पीआ ॥ खिमा गही मनु सतगुरि दीआ ॥ खरा खरा आखै सभु कोइ ॥ खरा रतनु जुग चारे होइ ॥ खात पीअंत मूए नही जानिआ ॥ खिन महि मूए जा सबदु पछानिआ ॥ असथिरु चीतु मरनि मनु मानिआ ॥ गुर किरपा ते नामु पछानिआ ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत खोजत = (गुरु की मति की सहायता से) बार बार खोज के। पीआ = (जिस मनुष्य ने) पीया। खिमा = किसी की ज्यादती सहने का स्वभाव। गही = ग्रहण की, पका ली। सतिगुरि दीआ = सतिगुरु में लीन कर दिया। सभु कोइ = हरेक जीव। जुग चारे = सदा के लिए। खात पीअंत = दुनिया के पदार्थ खाते पीते, दुनिया के भोग भोगते। मूए = जो आत्मिक जीवन की ओर से मर गए। नही जानिआ = (अमृत की) सूझ नहीं पाई। खिन महि मूए = पल में ही स्वै भाव की ओर से मर गए। जा = जब। सबदु पछानिआ = शब्द को पहचान लिया, गुरु के शब्द के साथ गहरी सांझ डाल ली। असथिरु = अडोल। मरनि = मरने में, सवै भाव खत्म करने में, अहंम दूर करने में। मानिआ = पतीज जाता है, शोक प्रकट करता है।
अर्थ:
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘पीआ, दीआ, जानिआ’ आदि भूतकाल में हैं। अर्थ वर्तमान काल में करना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सतिगुरु की मति की सहायता से) जो मनुष्य बार-बार (अपना आप) खोज के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, वह दूसरों की ज्यादती सहने का स्वभाव पक्का कर लेता है, और, अपना मन अपने सतिगुरु में लीन कर देता है। हरेक जीव उसके खरे (स्वच्छ और सच्चे) जीवन की प्रसंशा करता है, वह सदा के लिए सच्चा-श्रेष्ठ बन जाता है।
पर जो जीव दुनिया के भोग भोगते रहते हैं वह आत्मिक जीवन की ओर से मर जाते हैं, उनको (नाम-अमृत की) सूझ नहीं पड़ती। (वही लोग) जब सतिगुरु के शब्द से गहरी सांझ डालते हैं, तब वे एक पल में अहंकार को खत्म कर देते हैं। उनका मन (काम-क्रोध आदि की ओर से) अडोल हो जाता है, और स्वै भाव की ओर से मरने पर प्रसन्न होता है। सतिगुरु की मेहर से परमात्मा के नाम के साथ उनकी गहरी सांझ पड़ जाती है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गगन ग्मभीरु गगनंतरि वासु ॥ गुण गावै सुख सहजि निवासु ॥ गइआ न आवै आइ न जाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥ गगनु अगमु अनाथु अजोनी ॥ असथिरु चीतु समाधि सगोनी ॥ हरि नामु चेति फिरि पवहि न जूनी ॥ गुरमति सारु होर नाम बिहूनी ॥२०॥
मूलम्
गगन ग्मभीरु गगनंतरि वासु ॥ गुण गावै सुख सहजि निवासु ॥ गइआ न आवै आइ न जाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥ गगनु अगमु अनाथु अजोनी ॥ असथिरु चीतु समाधि सगोनी ॥ हरि नामु चेति फिरि पवहि न जूनी ॥ गुरमति सारु होर नाम बिहूनी ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गगन = आकाश जैसा सर्व व्यापक परमात्मा। गंभीरु = धैर्यवान, जिगरे वाला, जीवों के अवगुण देख के गुस्से में ना आने वाला। गगनंतरि = गगन+अंतरि, सर्व व्यापक गोपाल में। सहजि = सहज में, अडोलता में। गइआ न आवै = न जाए ना आए, पैदा होने मरने में नहीं आता। अगंमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अनाथु = जिसके ऊपर कोई नाथ नहीं, जिसको किसी की अधीनता नहीं। असथिरु = स्थिर, टिका हुआ, अडोल। चीतु = चिक्त। समाधि = परमात्मा में लीनता। सगोनी = स+गुणी, गुण पैदा करने वाली। चेति = (हे पांडे!) स्मरण कर, याद कर। पवहि न = (हे पांडे!) तू नहीं पाएगा। सारु = तत्व, श्रेष्ठ। होर = और मति। नाम बिहूनी = नाम से वंचित रखने वाली। गुर परसादि = गुरु की कृपा से।
अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम अपने मन की तख्ती पर लिख, वह गोपाल) सर्व-व्यापक है और जीवों के अवगुण देख के क्रोधित नहीं होता। जिस मनुष्य का मन उस सर्व व्यापक गोपाल में टिकता है, जो मनुष्य उसके गुण गाता है, वह शांति और अडोलता में टिक जाता है; वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, सतिगुरु की कृपा से वह (सर्व-व्यापक गोपाल में) तवज्जो जोड़े रखता है।
वह सर्व-व्यापक गोपाल अगम्य (पहुँच से परे) है (भाव, उसके गुणों का अंत नहीं पड़ सकता), उसके सिर पर कोई अंकुश नहीं है, वह जनम-मरण से रहित है। उसमें जोड़ी हुई तवज्जो मनुष्य के अंदर गुण पैदा करती है, और मन को माया में डोलने से बचा लेती है।
(हे पांडे!) तू (भी) उस हरि गोपाल का नाम स्मरण कर, (नाम-जपने की इनायत से) फिर जनम-मरण में नहीं पड़ेगा। (हे पांडे!) सतिगुरु की मति ही (जीवन के लिए) श्रेष्ठ रास्ता है, और मति उसके नाम से तोड़ती हैं।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घर दर फिरि थाकी बहुतेरे ॥ जाति असंख अंत नही मेरे ॥ केते मात पिता सुत धीआ ॥ केते गुर चेले फुनि हूआ ॥ काचे गुर ते मुकति न हूआ ॥ केती नारि वरु एकु समालि ॥ गुरमुखि मरणु जीवणु प्रभ नालि ॥ दह दिस ढूढि घरै महि पाइआ ॥ मेलु भइआ सतिगुरू मिलाइआ ॥२१॥
मूलम्
घर दर फिरि थाकी बहुतेरे ॥ जाति असंख अंत नही मेरे ॥ केते मात पिता सुत धीआ ॥ केते गुर चेले फुनि हूआ ॥ काचे गुर ते मुकति न हूआ ॥ केती नारि वरु एकु समालि ॥ गुरमुखि मरणु जीवणु प्रभ नालि ॥ दह दिस ढूढि घरै महि पाइआ ॥ मेलु भइआ सतिगुरू मिलाइआ ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घर दर बहुतेरे = बहुत सारे घरों के दरवाजे, कई जूनें। फिरि थाकी = (जीव-स्त्री) भटक भटक के खप ली। असंख = अ+संख, जिस की संख्या ना हो सके, अनगिनत। अंत नही मेरे = मुझसे अंत नहीं पाया जा सकता, मैं गिन नहीं सकता। मेरे = मेरे पास से। केते = कई। सुत = पुत्र। फुनि = फिर, भी। मुकति = जूनों से मुक्ति। काचे गुर ते = कच्चे गुरु से, उस गुरु से जिसका मन कच्चा है, जिसका मन माया के साँचे में ढल जाने वाला है (जैसे कच्ची मिट्टी कुम्हार के चक्के पे रखने पर कई शक्लों के बर्तनों में बदली जा सकती है)। एकु वरु = एक पति प्रभु। समालि = संभाल करता है। केती नारि = कई जीव स्त्रीयां। गुरमुखि मरणु जीवणु = गुरमुख का मरना जीना। मरणु जीवणु = आसरा सहारा, जिसके होने से जीया जा सके और जिसके विछुड़ने से मौत आती हुई लगे। दहदिस = दसों दिशाएं, हर तरफ। घरै महि = घर ही, हृदय घर में ही।
अर्थ: (हे पांडे! गुरु की मति वाला रास्ता पकड़े बिना) जीवात्मा कई जूनियों में भटक-भटक के हार-थक जाती है, इतनी अनगिनत जातियों में से गुजरती है जिनका अंत नहीं पाया जा सकता। (इन बेअंत जूनियों में भटकती जीवात्मा के) कई माता-पिता-पुत्र और बेटियाँ बनती हैं, कई गुरु बनते हैं, और कई चेले भी बनते हैं। इस जूनियों से तब तक खलासी नहीं होती जब तक किसी कच्चे गुरु की शरण ली हुई है।
(हे पांडे! सतिगुरु से विछुड़ी हुई ऐसी) कई जीव-सि्त्रयाँ हैं, पति-प्रभु सबकी संभाल करता है। जो जीवात्मा गुरु के सन्मुख रहती है, उसका आसरा-सहारा गोपाल प्रभु हो जाता है। (हे पांडे! सिर्फ उस जीवात्मा का प्रभु से) मिलाप होता है जिसको सतिगुरु मिलाता है, और हर तरफ ढूँढ-ढूँढ के (गुरु की कृपा से) हृदय-घर में ही गोपाल-प्रभु मिल जाता है।21।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अक्षर ‘घ’ के बाद ‘ङ’ आता है। इसकी जगह अगली पौड़ी में अक्षर ‘ग’ का प्रयोग हुआ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि गावै गुरमुखि बोलै ॥ गुरमुखि तोलि तुोलावै तोलै ॥ गुरमुखि आवै जाइ निसंगु ॥ परहरि मैलु जलाइ कलंकु ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ गुरमुखि मजनु चजु अचारु ॥ गुरमुखि सबदु अम्रितु है सारु ॥ नानक गुरमुखि पावै पारु ॥२२॥
मूलम्
गुरमुखि गावै गुरमुखि बोलै ॥ गुरमुखि तोलि तुोलावै तोलै ॥ गुरमुखि आवै जाइ निसंगु ॥ परहरि मैलु जलाइ कलंकु ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ गुरमुखि मजनु चजु अचारु ॥ गुरमुखि सबदु अम्रितु है सारु ॥ नानक गुरमुखि पावै पारु ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुोलावै = तौलने के लिए और लोगों को प्रेरित करता है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हैं। असल शब्द है ‘तोलावै’ यहाँ पढ़ना है ‘तुलावै’)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निसंगु = बंधन रहित। परहरि = दूर करके। कलंकु = ऐब, विकार। बीचारु = परमात्मा की विचार। मजनु = स्नान, डुबकी। चजु अचारु = ऊँचा आचरण। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य। सारु = श्रेष्ठ।
अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम गुरु के सन्मुख होने से ही मन की पट्टी पर लिखा जा सकता है) गुरमुखि ही (प्रभु के) गुण गाता है, और (प्रभु की महिमा) उचारता है। गुरमुख ही (प्रभु के नाम को अपने मन में) तोलता है (व और लोगों को) तोलने के लिए प्रेरित करता है।
गुरमुख ही (जगत में) बंधन-रहित आता है और बंधन-रहित ही यहाँ से जाता है (भाव, ना ही किसी किस्म का फल भोगने आता है ना ही यहाँ से कोई बुरे कर्म का बंधन ले के जाता है), (क्योंकि गुरमुख मनुष्य मन की) मैल को दूर करके विकारों को (अपने अंदर से) खत्म कर चुका होता है।
(प्रभु के गुणों की) विचार गुरमुख के लिए राग और वेद है, ऊँचा आचरण (बनाना) गुरमुख का (तीर्थ-) स्नान है।
(सतिगुरु का) शब्द गुरमुख के लिए उत्तम अमृत है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (संसार-समुंदर का) दूसरा छोर पा लेता है (भाव, विकारों की लहरों में से बच निकलता है)।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंचलु चीतु न रहई ठाइ ॥ चोरी मिरगु अंगूरी खाइ ॥ चरन कमल उर धारे चीत ॥ चिरु जीवनु चेतनु नित नीत ॥ चिंतत ही दीसै सभु कोइ ॥ चेतहि एकु तही सुखु होइ ॥ चिति वसै राचै हरि नाइ ॥ मुकति भइआ पति सिउ घरि जाइ ॥२३॥
मूलम्
चंचलु चीतु न रहई ठाइ ॥ चोरी मिरगु अंगूरी खाइ ॥ चरन कमल उर धारे चीत ॥ चिरु जीवनु चेतनु नित नीत ॥ चिंतत ही दीसै सभु कोइ ॥ चेतहि एकु तही सुखु होइ ॥ चिति वसै राचै हरि नाइ ॥ मुकति भइआ पति सिउ घरि जाइ ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाइ = जगह पर, ठिकाने पर। चोरी = छुप छुप के। मिरगु = मन रूप हिरन। अंगूरी = नर्म पक्तियाँ, नए नए भोग। उरधारे = (जो) टिका रखता है। चिरु जीवनु = चिरंजीवी, अमर, जनम मरन से बचा हुआ। चेतनु = सचेत। चिंतत = चिंतातुर। सभ कोइ = हरेक जीव। चेतहि = जो स्मरण करते हैं। तही = वहाँ, उनके हृदय में। चिति = चिक्त में। राचै = (जो) मस्त होता है। नाइ = नाम में। पति सिउ = इज्जत से। घरि = घर में।
अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम मन की तख्ती पर लिखे बिना मनुष्य का) चंचल मन टिक के नहीं बैठता, यह (मन) हिरन छुप-छुप के नए-नए भोग भोगता है। (पर) जो मनुष्य (प्रभु के) कमल फूल (जैसे सुंदर) चरण (अपने) चिक्त में बसाता है, वह सदा के लिए अमर और सचेत हो जाता है (भाव, ना विकारों की जंजीरों में फंस जाता है और ना ही जन्मों के चक्कर में पड़ता है)।
(जिधर देखो चंचलता के कारण) हरेक जीव चिंतातुर दिखता है (पर जो मनुष्य) एक (परमात्मा) को स्मरण करते हैं, उनके हृदय में सुख होता है।
(जिस जीव के) चिक्त में प्रभु आ बसता है जो मनुष्य प्रभु के नाम में लीन होता है वह (मायावी भोगों से) मुक्ति पा लेता है (और यहाँ से) इज्जत से (अपने असली) धर में जाता है।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छीजै देह खुलै इक गंढि ॥ छेआ नित देखहु जगि हंढि ॥ धूप छाव जे सम करि जाणै ॥ बंधन काटि मुकति घरि आणै ॥ छाइआ छूछी जगतु भुलाना ॥ लिखिआ किरतु धुरे परवाना ॥ छीजै जोबनु जरूआ सिरि कालु ॥ काइआ छीजै भई सिबालु ॥२४॥
मूलम्
छीजै देह खुलै इक गंढि ॥ छेआ नित देखहु जगि हंढि ॥ धूप छाव जे सम करि जाणै ॥ बंधन काटि मुकति घरि आणै ॥ छाइआ छूछी जगतु भुलाना ॥ लिखिआ किरतु धुरे परवाना ॥ छीजै जोबनु जरूआ सिरि कालु ॥ काइआ छीजै भई सिबालु ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छीजै = नाश हो जाता है। गंढि = (प्राणों की) गाँठ। छेआ = (क्षय) नाश। जगि = जगत में। हंढि = फिर के, भटक के। धूप छाव = दुख सुख। सम = बराबर। मुकति = माया के प्रभाव से मुक्ति। घरि = घर में, मन में। आणै = लाता है। छूछी = थोथी, अंदर से कोरी। छाइआ = माया, छाया। धुरे = धुर से, शुरू से। किरतु = किए हुए कर्मों का समूह। जरूआ = बुढ़ापा। सिरि = सिर पर। सिबालु = पानी का जाला।
अर्थ: (हे पांडे!) सारे जगत में फिर-फिर के देख लो, जब प्राणी (के प्राणों) की गाँठ खुल जाती है तो शरीर नाश हो जाता है। मौत (का यह करिश्मा) नित्य घटित हो रहा है। (हे पांडे!) अगर मनुष्य (इस जीवन में घटित होते) दुखों-सुखों को एक जैसा करके समझ ले तो (माया के) बंधनो को काट के (मायावी भोगों से) आजादी को अपने अंदर ले आता है। (हे पांडे! गोपाल को विसार के) जगत इस थोथी (भाव, जो अंत तक साथ नहीं निभाती) माया (के प्यार) में गलत राह पर पड़ रहा है, (जीवों के माथे पर यही) कर्म-रूपी लेख आरम्भ से लिखा हुआ है (भाव, शुरू से ही जीवों के अंदर माया के मोह के संस्कार-रूप लेख होने के कारण अब भी ये माया के मोह में फसे हुए हैं)। (हे पांडे!) जवानी खत्म होती जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर (खड़ी प्रतीत होती है), शरीर कमजोर हो जाता है (और मनुष्य की चमड़ी पानी के) जाले की तरह ढीली हो जाती है (फिर भी इस का माया का प्यार समाप्त नहीं होता)।24।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जापै आपि प्रभू तिहु लोइ ॥ जुगि जुगि दाता अवरु न कोइ ॥ जिउ भावै तिउ राखहि राखु ॥ जसु जाचउ देवै पति साखु ॥ जागतु जागि रहा तुधु भावा ॥ जा तू मेलहि ता तुझै समावा ॥ जै जै कारु जपउ जगदीस ॥ गुरमति मिलीऐ बीस इकीस ॥२५॥
मूलम्
जापै आपि प्रभू तिहु लोइ ॥ जुगि जुगि दाता अवरु न कोइ ॥ जिउ भावै तिउ राखहि राखु ॥ जसु जाचउ देवै पति साखु ॥ जागतु जागि रहा तुधु भावा ॥ जा तू मेलहि ता तुझै समावा ॥ जै जै कारु जपउ जगदीस ॥ गुरमति मिलीऐ बीस इकीस ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापै = प्रतीत होता है, लगता है, प्रकट है। तिहु लोइ = तीन लोकों में, सारे जगत में। जुगि जुगि = हरेक युग में। जाचउ = मैं माँगता हूँ। देवे = (तेरा ‘जसु’ मुझे) देता है। पति साखु = इज्जत से मशहूरी। तुधु = तुझे। जगदीस जै जैकारु = जगत के मालिक की जैकार। जै = जय, विजय। जैकारु = सदा ही जीत। बीस = बीस बिसवे, अवश्य। इकीस = एक ईश को, एक मालिक को।
अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम मन की पट्टी के ऊपर लिख, जो) खुद सारे जगत में प्रकट है, जो सदा (जीवों का) दाता है (जिसके बिना) और कोई (दाता) नहीं। (हे पांडे! गोपाल ओंकार के आगे अरदास कर और कह: हे प्रभु!) जैसे तू (मुझे) रखना चाहता है वैसे रख; (पर) मैं तेरी महिमा (की दाति) माँगता हूँ, तेरी उपमा ही मुझे आदर और नाम देती है। (हे प्रभु!) अगर मैं तुझे अच्छा लगूँ तो मैं सदा जागता रहूँ (माया के हमलों से सचेत रहूँ), अगर तू (खुद) मुझे (अपने में) जोड़ के रखे, तो मैं तेरे (चरणों) में लीन रहूँ। मैं जगत के मालिक (प्रभु) की सदा जै-जैकार कहता हूँ। (हे पांडे! इस तरह) सतिगुरु की मति ले के बीस-बिसवे एक परमात्मा को मिल सकते हैं।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झखि बोलणु किआ जग सिउ वादु ॥ झूरि मरै देखै परमादु ॥ जनमि मूए नही जीवण आसा ॥ आइ चले भए आस निरासा ॥ झुरि झुरि झखि माटी रलि जाइ ॥ कालु न चांपै हरि गुण गाइ ॥ पाई नव निधि हरि कै नाइ ॥ आपे देवै सहजि सुभाइ ॥२६॥
मूलम्
झखि बोलणु किआ जग सिउ वादु ॥ झूरि मरै देखै परमादु ॥ जनमि मूए नही जीवण आसा ॥ आइ चले भए आस निरासा ॥ झुरि झुरि झखि माटी रलि जाइ ॥ कालु न चांपै हरि गुण गाइ ॥ पाई नव निधि हरि कै नाइ ॥ आपे देवै सहजि सुभाइ ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झखि बोलणु = झखें मारना, बुरा रास्ता। किआ = क्या? (भाव, व्यर्थ)। सिउ = साथ। वादु = चर्चा, बहस। झूरि मरै = झुर झुर मरता है, दुखी रहता है। परमादु = अहंकार। देखै परमादु = अहंकार देखता है, (उस मनुष्य की) आँखों के सामने अहंकार टिका रहता है। जीवन आसा = सच्चे आत्मिक जीवन की आस। आस निरासा = आशा से निराश हो के, कोई कमाई के बिना ही। माटी रलि जाइ = मिट्टी में मिल जाता है, जीवन व्यर्थ गवा जाता है। चांपै = दबाव डालता है। नव निधि = (धरती के) नौ खजाने, धरती का सारा धन। नाइ = नाम (स्मरण) से। सहजि सुभाइ = अपनी मर्जी के अनुसार।
अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम मन की तख्ती पर लिखने की बजाए माया की खातिर) जगत से झगड़ा सहेड़ना व्यर्थ है, ये तो झख मारने वाली बात है; (जो मनुष्य गोपाल का स्मरण छोड़ के झगड़े वाली राह पर पड़ता है) वह झुर-झुर के मरता है (भाव, अंदर-अंदर से अशांत ही रहता है, क्योंकि) उसकी आँखों के सामने (माया का) अहंकार फिरा रहता है। ऐसे लोग जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं, सच्चे आत्मिक जीवन की (उनसे) आस नहीं की जा सकती, वे दुनिया से किसी कमाई के बिना ही चले जाते हैं। (नाम बिसार के दुनिया के झमेलों में परचने वाला मनुष्य इसी) पचड़े में खप-खप के जीवन व्यर्थ गवा जाता है।
पर जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसको मौत का भी डर सता नहीं सकता। प्रभु के नाम की इनायत से वह, सारी धरती का धन प्राप्त कर लेता है। यह दाति प्रभु खुद ही अपनी रजा के अनुसार देता है।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ञिआनो बोलै आपे बूझै ॥ आपे समझै आपे सूझै ॥ गुर का कहिआ अंकि समावै ॥ निरमल सूचे साचो भावै ॥ गुरु सागरु रतनी नही तोट ॥ लाल पदारथ साचु अखोट ॥ गुरि कहिआ सा कार कमावहु ॥ गुर की करणी काहे धावहु ॥ नानक गुरमति साचि समावहु ॥२७॥
मूलम्
ञिआनो बोलै आपे बूझै ॥ आपे समझै आपे सूझै ॥ गुर का कहिआ अंकि समावै ॥ निरमल सूचे साचो भावै ॥ गुरु सागरु रतनी नही तोट ॥ लाल पदारथ साचु अखोट ॥ गुरि कहिआ सा कार कमावहु ॥ गुर की करणी काहे धावहु ॥ नानक गुरमति साचि समावहु ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ञिआनो = गिआनो, ज्ञान। आपे = (गुरु में प्रभु) खुद ही। सूझै = देखता है। अंकि = (जिस मनुष्यों के) हृदय में। भावै = प्यारा लगता है। रतनी = रत्नों की। तोट = कमी, घाटा। अखोट = अखुट, ना खत्म होने वाले। गुरि = गुरु ने। काहे धावहु = क्यों दौड़ते हो? साचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में।
अर्थ: (सतिगुरु रूप हो के) प्रभु स्वयं ही ज्ञान उचारता है, स्वयं ही इस ज्ञान को सुनता है समझता है और विचारता है। (जिस मनुष्यों के) हृदय में सतिगुरु का बताया हुआ (ज्ञान) आ बसता है, वह मनुष्य पवित्र स्वच्छ सच्चे हो जाते हैं, उन्हें सच्चा प्रभु प्यारा लगता है।
सतिगुरु समुंदर है, उसमें (गोपाल के गुणों के) रत्नों की कमी नहीं, वह सच्चे प्रभु का रूप है, लालों का ना खत्म होने वाला (खजाना) है (भाव, सतिगुरु में बेअंत ईश्वरीय गुण हैं)।
(हे पांडे!) वह काम करो जो सतिगुरु ने बताया है, सतिगुरु की बताई हुई करणी से परे ना दौड़ो। हे नानक! सतिगुरु की शिक्षा ले के प्रभु में लीन हो जाओगे।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टूटै नेहु कि बोलहि सही ॥ टूटै बाह दुहू दिस गही ॥ टूटि परीति गई बुर बोलि ॥ दुरमति परहरि छाडी ढोलि ॥ टूटै गंठि पड़ै वीचारि ॥ गुर सबदी घरि कारजु सारि ॥ लाहा साचु न आवै तोटा ॥ त्रिभवण ठाकुरु प्रीतमु मोटा ॥२८॥
मूलम्
टूटै नेहु कि बोलहि सही ॥ टूटै बाह दुहू दिस गही ॥ टूटि परीति गई बुर बोलि ॥ दुरमति परहरि छाडी ढोलि ॥ टूटै गंठि पड़ै वीचारि ॥ गुर सबदी घरि कारजु सारि ॥ लाहा साचु न आवै तोटा ॥ त्रिभवण ठाकुरु प्रीतमु मोटा ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेहु = प्यार। कि = अगर। सही = सामने। कि बोलह = अगर हम मुँह पर सच्ची बात कहें। दिस = पासा, तरफ। गही = पकड़ी हुई। बुर बोलि = कुबोलों से। परहरि छाडी = त्याग दी। ढोलि = ढोले ने, पति ने। टूटे गंठि = गाँठ खुल जाती है, मुश्किल हल हो जाती है। पड़ै वीचारि = अगर मन में अच्छी सोच पड़ जाए, अगर अच्छी विचार आ जाए। घरि = घर में, मन में। सारि = संभाल। मोटा = बड़ा।
अर्थ: किसी को सामने (लगा के) बात कहने से प्यार टूट जाता है; दोनों तरफ से पकड़ने से (खींचने से) बाँह टूट जाती है, कुबोल बोलने से प्रीति टूट जाती है, बुरी स्त्री को पति छोड़ देता है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इस तुक में ‘टूटि गई’ और ‘परहरि छाडि’ भूत काल Past tense में हैं, पर अर्थ पहली तुक के साथ मिलाने के लिए ‘वर्तमान काल’ Present tense में ही किया गया है। क्योंकि भाव यूँ ही है)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: यदि अच्छी तरह विचार आ जाएं तो (समस्या) मुश्किल हल हो जाती है।
(हे पांडे!) तू भी गुरु के शब्द के द्वारा अपने मन में (गोपाल का नाम-स्मरण का) काम संभाल (इस तरह गोपाल के प्रति पड़ी हुई गाँठ खुल जाती है; फिर इस तरफ की ओर कभी) घाटा नहीं पड़ता (गोपाल-प्रभु के नाम का) सदा टिका रहने वाला नफा नित्य बना रहता है, और सारे जगत का बड़ा मालिक प्रीतम-प्रभु (सिर पर सहायक) दिखता है।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठाकहु मनूआ राखहु ठाइ ॥ ठहकि मुई अवगुणि पछुताइ ॥ ठाकुरु एकु सबाई नारि ॥ बहुते वेस करे कूड़िआरि ॥ पर घरि जाती ठाकि रहाई ॥ महलि बुलाई ठाक न पाई ॥ सबदि सवारी साचि पिआरी ॥ साई सुोहागणि ठाकुरि धारी ॥२९॥
मूलम्
ठाकहु मनूआ राखहु ठाइ ॥ ठहकि मुई अवगुणि पछुताइ ॥ ठाकुरु एकु सबाई नारि ॥ बहुते वेस करे कूड़िआरि ॥ पर घरि जाती ठाकि रहाई ॥ महलि बुलाई ठाक न पाई ॥ सबदि सवारी साचि पिआरी ॥ साई सुोहागणि ठाकुरि धारी ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनूआ = (‘मन’ से ‘मनूआ’ अल्पार्थक संज्ञा) चंचल सा मन जो माया के पीछे भटक रहा है। ठाइ = जगह पर। ठहकि मुई = भिड़ के मरी है (सृष्टि)। अवगुणि = अवगुण के कारण, माया के पीछे भटकने की भूल के कारण। सबाई = सारी। कूड़िआरि = झूठ में फसी हुई,माया ग्रसित। घरि = घर में। महलि = प्रभु के महल में। ठाकि = रोक। ठाकुरि = ठाकुर ने। पछुताइ = हाथ मलती है, दुखी होती है। ठाकि रहाई = रोक के रखी (‘ठाकि’ और ‘ठाक’ में फर्क है)। सुोहागणि = (यहाँ ‘सुहागणि’ पढ़ना है)।
अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम मन की पट्टी पर लिख के, माया की ओर दौड़ते) इस चंचल मन को रोके रख, और जगह पर (भाव, अंतरात्मे) टिका के रख। (सृष्टि माया की तृष्णा के) अवगुण में (फंस के आपस में) भिड़-भिड़ के आत्मिक मौत सहेड़ रही है और दुखी हो रही है।
(हे पांडे!) प्रभु- पालनहार एक है, और सारे जीव उसकी नारियाँ हैं, (पर) माया-ग्रसित (जीव-स्त्री पति को नहीं पहचानती, और बाहर) कई भेस करती है (और कई आसरे देखती है)। (जिस जीव-स्त्री को प्रभु ने) पराए घर को जाती को (और आसरे देखती को) रोक लिया है, उसको (उसने अपने महल में बुला लिया है, उसके जीवन-राह में तृष्णा की) कोई रोक नहीं पड़ती। (गुरु के) शब्द द्वारा (उसको प्रभु ने) सँवार लिया है, (वह जीव-स्त्री) सदा-स्थिर प्रभु की प्यारी हो जाती है, वही सोहाग-भाग वाली हो जाती है (क्योंकि) प्रभु ने उसको अपनी बना लिया है।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डोलत डोलत हे सखी फाटे चीर सीगार ॥ डाहपणि तनि सुखु नही बिनु डर बिणठी डार ॥ डरपि मुई घरि आपणै डीठी कंति सुजाणि ॥ डरु राखिआ गुरि आपणै निरभउ नामु वखाणि ॥ डूगरि वासु तिखा घणी जब देखा नही दूरि ॥ तिखा निवारी सबदु मंनि अम्रितु पीआ भरपूरि ॥ देहि देहि आखै सभु कोई जै भावै तै देइ ॥ गुरू दुआरै देवसी तिखा निवारै सोइ ॥३०॥
मूलम्
डोलत डोलत हे सखी फाटे चीर सीगार ॥ डाहपणि तनि सुखु नही बिनु डर बिणठी डार ॥ डरपि मुई घरि आपणै डीठी कंति सुजाणि ॥ डरु राखिआ गुरि आपणै निरभउ नामु वखाणि ॥ डूगरि वासु तिखा घणी जब देखा नही दूरि ॥ तिखा निवारी सबदु मंनि अम्रितु पीआ भरपूरि ॥ देहि देहि आखै सभु कोई जै भावै तै देइ ॥ गुरू दुआरै देवसी तिखा निवारै सोइ ॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डोलत डोलत = डोलते हुए, और ही आसरे देखते हुए। चीर = कपड़े। चीर सीगार = (भाव,) सारे धार्मिक उद्यक के भेस। डाह = दाह, जलन। डाहपणि = जलन में, तृष्णा की आग में जलते हुए। तनि = शरीर में, (भाव,) हृदय में। बिणठी = नाश हो गई। डार = बेअंत जीव। मुई = सवै भाव से मर गई, तृष्णा की ओर से मर गई। कंति = कंत ने। कंति सुजाणि = समझदार कंत ने। गुरि = गुरु ने, गुरु से। डरु = भय, अदब। वखाणि = स्मरण करके। डूगरि = पर्वत पर। घणी = बहुत। भरपूरि = नाको नाक। सभु कोई = हरेक जीव। जै भावै = जो उसको भाता है। तै = उस जीव को। सोइ = वही जीव। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।
अर्थ: हे सखी! भटक-भटक के सारे वस्त्र और श्रृंगार फट गए हैं (भाव, तृष्णा की आग के कारण और-और आसरे देखने से सारे धार्मिक उद्यम व्यर्थ जाते हैं); तृष्णा में जलते हुए हृदय में सुख नहीं हो सकता; (तृष्णा के कारण प्रभु का) डर (हृदय में से) गवाने से बेअंत जीव खप रहे हैं।
(जो जीव-स्त्री प्रभु के) डर से अपने हृदय में (तृष्णा की ओर से) मर गई है (भाव, जिसने तृष्णा की आग बुझा ली है) उसको सुजान कंत (प्रभु) ने (प्यार से) देखा है; अपने गुरु के द्वारा उसने निर्भय प्रभु का नाम स्मरण करके (प्रभु का) डर (हृदय में) बना रखा है।
(हे सखी! जब तक मेरा) बसेरा पर्बत पर रहा, (अर्थात, अहंकार के कारण सिर ऊँचा उठा रहा) माया की बहुत प्यास थी, जब से मैंने प्रभु के दीदार कर लिए, तब इस प्यास को मिटाने वाला अमृत पास ही दिखाई दे गया। मैंने गुरु के शब्द को मान के (माया की) प्यास दूर कर ली और (नाम-) अमृत पेट भर के पी लिया।
हरेक जीव कहता है: (हे प्रभु! मुझे ये अमृत) दे; (मुझे ये अमृत) दे; पर प्रभु उस जीव को देता है जो उसको भाता है। प्रभु जिसको सतिगुरु के माध्यम से (ये अमृत) देगा, वही जीव (माया वाली) प्यास मिटा सकेगा।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ढंढोलत ढूढत हउ फिरी ढहि ढहि पवनि करारि ॥ भारे ढहते ढहि पए हउले निकसे पारि ॥ अमर अजाची हरि मिले तिन कै हउ बलि जाउ ॥ तिन की धूड़ि अघुलीऐ संगति मेलि मिलाउ ॥ मनु दीआ गुरि आपणै पाइआ निरमल नाउ ॥ जिनि नामु दीआ तिसु सेवसा तिसु बलिहारै जाउ ॥ जो उसारे सो ढाहसी तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुर परसादी तिसु सम्हला ता तनि दूखु न होइ ॥३१॥
मूलम्
ढंढोलत ढूढत हउ फिरी ढहि ढहि पवनि करारि ॥ भारे ढहते ढहि पए हउले निकसे पारि ॥ अमर अजाची हरि मिले तिन कै हउ बलि जाउ ॥ तिन की धूड़ि अघुलीऐ संगति मेलि मिलाउ ॥ मनु दीआ गुरि आपणै पाइआ निरमल नाउ ॥ जिनि नामु दीआ तिसु सेवसा तिसु बलिहारै जाउ ॥ जो उसारे सो ढाहसी तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुर परसादी तिसु सम्हला ता तनि दूखु न होइ ॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। करारि = इस पार ही। ढहि पवनि = गिर रहे हैं। ढहि ढहि पवनि = अनेक गिर रहे हैं। अमर = अविनाशी। अजाची = अतोल, बड़ा, जो जाचा ना जा सके। तिन कै = उन लोगों से। अघुलीऐ = छूटते हैं, तैर जाते हैं। गुरि = गुरु से। जिनि = जिस गुरु ने। तनि = शरीर में, तन में।
अर्थ: मैं बहुत ढूँढती फिरी हूँ (हर जगह यही देखा है कि तृष्णा के भाव से) भारी हुए अनेक लोग (संसार-समुंदर के) इस छोर पर ही गिरते जा रहे है; (पर जिनके सिर पर माया की पोटली का भार नहीं, वे) हल्के (होने के कारण) पार लांघ जाते हैं। मैं (पार लांघने वाले) उन लोगों से सदके हूँ, उनको अविनाशी और बड़ा प्रभु मिल गया है, उनकी चरण-धूल लेने से (माया की तृष्णा से) छूटा जाता है, (प्रभु मेहर करे) मैं भी उनकी संगति में उनके साथ रहूँ।
जिस मनुष्य ने अपने सतिगुरु के द्वारा (अपना) मन (प्रभु को) दिया है, उसको (प्रभु का) पवित्र नाम मिल गया है। मैं उस (गुरु) से सदके हूँ, मैं उसकी सेवा करूँगी जिसने (मुझे) ‘नाम’ दिया है।
जो (प्रभु जगत को) रचने वाला है वही नाश करने वाला है, उसके बिना (ऐसी समर्थ वाला) और कोई नहीं है; अगर मैं सतिगुरु की मेहर से उसको सिमरती रहूँ, तो शरीर में कोई दुख पैदा नहीं होता (भाव, कोई विकार नहीं उठता)।31।
[[0934]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
णा को मेरा किसु गही णा को होआ न होगु ॥ आवणि जाणि विगुचीऐ दुबिधा विआपै रोगु ॥ णाम विहूणे आदमी कलर कंध गिरंति ॥ विणु नावै किउ छूटीऐ जाइ रसातलि अंति ॥ गणत गणावै अखरी अगणतु साचा सोइ ॥ अगिआनी मतिहीणु है गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ तूटी तंतु रबाब की वाजै नही विजोगि ॥ विछुड़िआ मेलै प्रभू नानक करि संजोग ॥३२॥
मूलम्
णा को मेरा किसु गही णा को होआ न होगु ॥ आवणि जाणि विगुचीऐ दुबिधा विआपै रोगु ॥ णाम विहूणे आदमी कलर कंध गिरंति ॥ विणु नावै किउ छूटीऐ जाइ रसातलि अंति ॥ गणत गणावै अखरी अगणतु साचा सोइ ॥ अगिआनी मतिहीणु है गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ तूटी तंतु रबाब की वाजै नही विजोगि ॥ विछुड़िआ मेलै प्रभू नानक करि संजोग ॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: णा = ना। गही = मैंने पकड़ी। किस गही = मैं किसको पकड़ूं? किस का आसरा लूँ? होगु = होगा। आवणि = आने में। जाणि = जाने में। दुबिधा = दो+विधा, दो किस्म का, दो-चिक्ता पन। णाम = नाम। रसातलि = पाताल में, नर्क में। अखरी = अक्षरों से। तंतु = तार। विजोगि = वियोग के कारण। करि = कर के। संजोग = मेल।
अर्थ: (गोपाल के बिना मैं) और किस का आसरा लूँ? (जगत में) ना कोई इस वक्त मेरा (असल साथी) है, ना कोई पिछले समय (साथी बना) और ना ही कभी कोई बनेगा। (इस झूठी ममता के कारण, माया को साथी बनाने के कारण) जनम-मरण (के चक्कर) में ही दुखी होना पड़ता है, और दुचिक्तापन का रोग (हम पर) दबाव बनाए रखता है।
‘नाम’ से टूटे हुए लोग ऐसे गिरते हैं (भाव, सांसे व्यर्थ ही गवाते जाते हैं) जैसे कल्लर की दीवार (किरती रहती है)। ‘नाम’ के बिना (ममता से) बचा भी नहीं जा सकता, (मनुष्य) आखिर नर्क में ही गिरता है। (इसका ये भाव नहीं कि प्रभु के गुण याद करने से प्रभु के गुणों का अंत पाया जा सकता है) सदा कायम रहने वाला प्रभु लेखे से परे है (बयान नहीं किया जा सकता, पर जो) मनुष्य उस (के सारे गुणों) को अक्षरों के द्वारा वर्णन करता है, (वह) अंजानी है मति से हीन है। गुरु (की शरण) के बिना (यह बात) समझ भी नहीं आती (कि प्रभु अगणत है)।
रबाब की तार टूट जाए तो विजोग के कारण (भाव, टूट जाने के कारण) वह बज नहीं सकती (राग पैदा नहीं कर सकती; इसी तरह जो जीवात्मा प्रभु से विछुड़ी हुई है उसके अंदर जीवन-राग पैदा नहीं हो सकता, पर) हे नानक! परमात्मा (अपने साथ) मिलाने के सबब बना के विछड़े हुओं को भी मिला लेता है।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरवरु काइआ पंखि मनु तरवरि पंखी पंच ॥ ततु चुगहि मिलि एकसे तिन कउ फास न रंच ॥ उडहि त बेगुल बेगुले ताकहि चोग घणी ॥ पंख तुटे फाही पड़ी अवगुणि भीड़ बणी ॥ बिनु साचे किउ छूटीऐ हरि गुण करमि मणी ॥ आपि छडाए छूटीऐ वडा आपि धणी ॥ गुर परसादी छूटीऐ किरपा आपि करेइ ॥ अपणै हाथि वडाईआ जै भावै तै देइ ॥३३॥
मूलम्
तरवरु काइआ पंखि मनु तरवरि पंखी पंच ॥ ततु चुगहि मिलि एकसे तिन कउ फास न रंच ॥ उडहि त बेगुल बेगुले ताकहि चोग घणी ॥ पंख तुटे फाही पड़ी अवगुणि भीड़ बणी ॥ बिनु साचे किउ छूटीऐ हरि गुण करमि मणी ॥ आपि छडाए छूटीऐ वडा आपि धणी ॥ गुर परसादी छूटीऐ किरपा आपि करेइ ॥ अपणै हाथि वडाईआ जै भावै तै देइ ॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। पंखि = पक्षी। तरवरि = वृक्ष पर। ततु = अस्लियत रूप फल, नाम। मिलि एकसे = एक प्रभु के साथ मिल के। रंच = रक्ती भर भी। बेगुल बेगुले = जल्दबाजी में, जल्दी जल्दी। चोग घणी = बहुत सारा चोगा, कई पदार्थ। अवगुणि = अवगुणों के कारण, बहुत सारी चोग देखने के कारण। करमि = बख्शिश। मणी = माथे के लेख। धणी = मालिक।
अर्थ: (मनुष्य का) शरीर (एक) वृक्ष (के समान) है, (इस) वृक्ष पर मन-पंछी की पाँच (ज्ञान-इंद्रिय) पंछी (बैठे) हुए हैं। (जिस मनुष्यों के ये पंछी) एक प्रभु के साथ मिल के ‘नाम’-रूप फल खाते हैं, उनको रक्ती भर भी (माया की) जंजीरें नहीं पड़ती। (पर जो) जल्दी-जल्दी उड़ते हैं और बहुत सारे चोगे (भाव, बहुत सारे पदार्थ) देखते-फिरते हैं, (उनके) पंख टूट जाते हैं, (उन पर माया के) जाल आ पड़ते हैं और (बहुत सारी चोग की लालच के) अवगुण के बदले उन पर ये बिपता आ पड़ती है।
(इस विपक्ति से) प्रभु (के गुण गायन) के बिना बचा नहीं जा सकता, और प्रभु के गुणों का माथे पर लेख (प्रभु की) बख्शिश से ही (लिखा जा सकता) है। वह स्वयं (सबसे) बड़ा मालिक है; स्वयं ही (माया के जाल से) बचाए तो ही बचा जा सकता है। अगर (गोपाल) खुद मेहर करे तो सतिगुरु की कृपा से (इस मुसीबत से) निकला जा सकता है। (गुण गाने की) ये बख्शिशें उसके अपने हाथ में हैं, उसे ही देता है जो उसको भाता है।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
थर थर क्मपै जीअड़ा थान विहूणा होइ ॥ थानि मानि सचु एकु है काजु न फीटै कोइ ॥ थिरु नाराइणु थिरु गुरू थिरु साचा बीचारु ॥ सुरि नर नाथह नाथु तू निधारा आधारु ॥ सरबे थान थनंतरी तू दाता दातारु ॥ जह देखा तह एकु तू अंतु न पारावारु ॥ थान थनंतरि रवि रहिआ गुर सबदी वीचारि ॥ अणमंगिआ दानु देवसी वडा अगम अपारु ॥३४॥
मूलम्
थर थर क्मपै जीअड़ा थान विहूणा होइ ॥ थानि मानि सचु एकु है काजु न फीटै कोइ ॥ थिरु नाराइणु थिरु गुरू थिरु साचा बीचारु ॥ सुरि नर नाथह नाथु तू निधारा आधारु ॥ सरबे थान थनंतरी तू दाता दातारु ॥ जह देखा तह एकु तू अंतु न पारावारु ॥ थान थनंतरि रवि रहिआ गुर सबदी वीचारि ॥ अणमंगिआ दानु देवसी वडा अगम अपारु ॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअड़ा = निमाणा जीव, निमाणी जीवात्मा।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘जीव’ शब्द से ‘जीअड़ा’ अल्पार्थक संज्ञा है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थानु = आसरा। थानि = आसरा देने वाला। मनि = मान देने वाला। फीटै = बिगड़ता है। थिरु = अटल, सदा कायम रहने वाला। सुरि = देवते। नाथहु नाथु = नाथों का भी पति। थान थनंतरी = हर जगह में। रवि रहिआ = व्यापक है। वीचारि = विचार से।
अर्थ: (जब यह) निमाणी जीवात्मा (गोपाल का) सहारा गवा बैठती है तो थर-थर काँपती है; (हर वक्त सहमी रहती है) (पर जिसको, हे गोपाल!) सहारा देने वाला और आदर देने वाला तू सच्चा खुद है उसका काज (जिंदगी का उद्देश्य) नहीं बिगड़ता, (उसके सिर पर तू) प्रभु कायम है, गुरु रखवाला है, तेरे गुणों की विचार उसके हृदय में टिकी हुई है; उसके वास्ते देवताओं, मनुष्यों और नाथों का भी तू नाथ है तू ही निआसरों का आसरा है।
(हे गोपाल!) तू हर जगह मौजूद है, तू दातों का दाता है; मैं जिधर देखता हूँ तू ही तू है, तेरा अंत तेरा इस पार उस पार का छोर पाया नहीं जा सकता। (हे पांडे!) सतिगुरु के शब्द की विचार में (जुड़ने से) हर जगह वह गोपाल ही मौजूद (दिखाई देता है); बगैर मांगे भी वह (हरेक जीव को) दान देता है, वह सबसे बड़ा है, अगंम है और बेअंत है।34।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दइआ दानु दइआलु तू करि करि देखणहारु ॥ दइआ करहि प्रभ मेलि लैहि खिन महि ढाहि उसारि ॥ दाना तू बीना तुही दाना कै सिरि दानु ॥ दालद भंजन दुख दलण गुरमुखि गिआनु धिआनु ॥३५॥
मूलम्
दइआ दानु दइआलु तू करि करि देखणहारु ॥ दइआ करहि प्रभ मेलि लैहि खिन महि ढाहि उसारि ॥ दाना तू बीना तुही दाना कै सिरि दानु ॥ दालद भंजन दुख दलण गुरमुखि गिआनु धिआनु ॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाना = जानने वाला। बीना = पहचानने वाला। सिरि = सिर पर। दानु = दाना, जानने वाला। दालद = दरिद्र, गरीबी। दलण = नाश करने वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। गिआनु = गहरी सांझ, जान पहचान। धिआनु = ठहरी हुई तवज्जो, ध्यान।
अर्थ: (हे गोपाल!) तू दयालु है, तू (जीवों पर) दया करके बख्शिश करके देख रहा है (भाव, खुश होता है)। हे गोपाल-प्रभु! (जिस पर तू) मेहर करता है उसको अपने (चरणों) में जोड़ लेता है, तू एक पल में गिरा के उसारने में समर्थ है।
(हे गोपाल!) तू (जीवों के दिल की) जानने वाला है और परखने वाला है, तू दानियों का दाना है, दरिद्रता और दुखों का विनाश करने वाला है; तू अपने साथ गहरी सांझ (और अपने चरणों की) तवज्जो सतिगुरु के द्वारा देता है।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनि गइऐ बहि झूरीऐ धन महि चीतु गवार ॥ धनु विरली सचु संचिआ निरमलु नामु पिआरि ॥ धनु गइआ ता जाण देहि जे राचहि रंगि एक ॥ मनु दीजै सिरु सउपीऐ भी करते की टेक ॥ धंधा धावत रहि गए मन महि सबदु अनंदु ॥ दुरजन ते साजन भए भेटे गुर गोविंद ॥ बनु बनु फिरती ढूढती बसतु रही घरि बारि ॥ सतिगुरि मेली मिलि रही जनम मरण दुखु निवारि ॥३६॥
मूलम्
धनि गइऐ बहि झूरीऐ धन महि चीतु गवार ॥ धनु विरली सचु संचिआ निरमलु नामु पिआरि ॥ धनु गइआ ता जाण देहि जे राचहि रंगि एक ॥ मनु दीजै सिरु सउपीऐ भी करते की टेक ॥ धंधा धावत रहि गए मन महि सबदु अनंदु ॥ दुरजन ते साजन भए भेटे गुर गोविंद ॥ बनु बनु फिरती ढूढती बसतु रही घरि बारि ॥ सतिगुरि मेली मिलि रही जनम मरण दुखु निवारि ॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनि गइऐ = अगर धन चला जाए। चीतु गवार = गवार का चिक्त। विरली = विरलों से, किसी एक आध ने। संचिआ = इकट्ठा किया। पिआरि = प्यार से। राचहि = तू रचा रहे। रंगि एक = एक गोपाल के रंग में। टेक = आसरा। भेटे = मिले। बसतु = ‘नाम’ रूपी (असल) चीज। घरि = घर में। बारि = दरवाजे के अंदर। सतिगुरि = गुरु ने।
अर्थ: मूर्ख मनुष्य का मन (सदा) धन में (रहता) है, (इसलिए) यदि धन चला जाए तो बैठा चिंतातुर होता है, विरले लोगों ने प्यार से (गोपाल का) पवित्र नाम-रूप सच्चा धन इकट्ठा किया है।
(हे पांडे! गोपाल के साथ चिक्त जोड़ने से) अगर धन गायब होता है तो गायब होने दे (पर हाँ) अगर तू एक प्रभु के प्यार में जुड़ सके (तो इसकी खातिर) मन भी देना चाहिए, सिर भी अर्पित कर देना चाहिए; (ये सब कुछ दे के) फिर भी कर्तार की (मेहर की) आस रखनी चाहिए।
जिस मनुष्यों के मन में (सतिगुरु का) शब्द (बस जाता) है (राम-नाम का) आनंद (आ जाता) है, वे (माया के) धंधों में भटकने से बच जाते हैं, (क्योंकि) गुरु परमात्मा को मिल के वे बुरे अच्छे बन जाते हैं।
(जो जीव-स्त्री उस प्रभु-नाम की खातिर) जंगल-जंगल ढूँढती फिरी (उसे ना मिला, क्योंकि) वह (नाम-) वस्तु तो हृदय में थी, घर के अंदर ही थी। जब सतिगुरु ने (प्रभु से) मिला दिया तब (वह उसके नाम में) जुड़ बैठी, और उस का जनम-मरण का दुख मिट गया।36।
[[0935]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना करत न छूटीऐ विणु गुण जम पुरि जाहि ॥ ना तिसु एहु न ओहु है अवगुणि फिरि पछुताहि ॥ ना तिसु गिआनु न धिआनु है ना तिसु धरमु धिआनु ॥ विणु नावै निरभउ कहा किआ जाणा अभिमानु ॥ थाकि रही किव अपड़ा हाथ नही ना पारु ॥ ना साजन से रंगुले किसु पहि करी पुकार ॥ नानक प्रिउ प्रिउ जे करी मेले मेलणहारु ॥ जिनि विछोड़ी सो मेलसी गुर कै हेति अपारि ॥३७॥
मूलम्
नाना करत न छूटीऐ विणु गुण जम पुरि जाहि ॥ ना तिसु एहु न ओहु है अवगुणि फिरि पछुताहि ॥ ना तिसु गिआनु न धिआनु है ना तिसु धरमु धिआनु ॥ विणु नावै निरभउ कहा किआ जाणा अभिमानु ॥ थाकि रही किव अपड़ा हाथ नही ना पारु ॥ ना साजन से रंगुले किसु पहि करी पुकार ॥ नानक प्रिउ प्रिउ जे करी मेले मेलणहारु ॥ जिनि विछोड़ी सो मेलसी गुर कै हेति अपारि ॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाना = अनेक कर्म। जम पुरि = जम की पुरी में। जाहि = जाते हैं। तिसु = उस मनुष्य को। एहु = ये लोक। ओहु = परलोक। धिआनु = ऊँची तवज्जो/लगन। कहा = कहाँ? (भाव, नहीं मिलता)। किआ जाणा = समझा नहीं जा सकता। हाथ = (अभिमान का) हाथ, बाँह। रंगुले = रंगे हुए, प्रभु के प्यार में रंगे हुए।
प्रिउ = प्यारा। करी = मैं करूँ। मेलणहारु = जो मिलाने में समर्थ है। जिनि = जिस (प्रभु) ने। हेति = हित से। अपारि हेति = बेअंत प्यार से।
अर्थ: नाना प्रकार के (धार्मिक) कर्म करने से (अहंकार से) खलासी नहीं हो सकती, गोपाल के गुण गाए बिना (इस अहंकार के कारण) नर्क में ही जाया जाता है। (जो मनुष्य सिर्फ ‘कर्मों’ का ही आसरा लेते हैं) उसे ना ये लोक मिला ना ही परलोक (भाव, उसने ना ‘दुनिया’ सवारी ना ही ‘दीन’, ऐसे लोग कर्मकांड के) अवगुण में फसे रहने के कारण पछताते ही हैं। ऐसे मनुष्य की ना गोपाल के साथ गहरी सांझ होती है, ना ही ऊँची सूझ, और ना ही धर्म।
(इस अहंकार के कारण) ‘नाम’ के बिना ‘निर्भय’ प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती, ‘अहंकार’ को समझा नहीं जा सकता (भाव, अहंकार में टिके रहने से ये समझ भी नहीं आती कि हमारे ऊपर अहंकार की काठी पड़ी हुई है)। (ये एक ऐसा समुंदर है कि) इसकी गहराई का परला सिरा नहीं मिल सकता, मैं प्रयत्न कर-कर के थक गई हूँ, पर नहीं पा सकी; गोपाल के नाम में रंगे हुए गुरमुखों के बिना और किसी के आगे ये दुख बताया भी नहीं जा सकता।
हे नानक! अगर मैं उस प्यारे प्रभु को बार-बार याद करूँ तो वह मिलाने में समर्थ प्यारा स्वयं ही मिला लेता है। जिस प्रभु ने (‘अभिमान’ की दूरी बना के) विछोड़ा हुआ है वह गुरु के अथाह प्यार के माध्यम से ही मिलाएगा।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापु बुरा पापी कउ पिआरा ॥ पापि लदे पापे पासारा ॥ परहरि पापु पछाणै आपु ॥ ना तिसु सोगु विजोगु संतापु ॥ नरकि पड़ंतउ किउ रहै किउ बंचै जमकालु ॥ किउ आवण जाणा वीसरै झूठु बुरा खै कालु ॥ मनु जंजाली वेड़िआ भी जंजाला माहि ॥ विणु नावै किउ छूटीऐ पापे पचहि पचाहि ॥३८॥
मूलम्
पापु बुरा पापी कउ पिआरा ॥ पापि लदे पापे पासारा ॥ परहरि पापु पछाणै आपु ॥ ना तिसु सोगु विजोगु संतापु ॥ नरकि पड़ंतउ किउ रहै किउ बंचै जमकालु ॥ किउ आवण जाणा वीसरै झूठु बुरा खै कालु ॥ मनु जंजाली वेड़िआ भी जंजाला माहि ॥ विणु नावै किउ छूटीऐ पापे पचहि पचाहि ॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पापि = पाप से। पापे = पाप का ही। पापे पसारा = पाप का पसारा ही। परहरि = त्याग के। आपु = अपने आप को। विजोगु = विछोड़ा। नरकि = नर्क में। बंचे = ठगे, टाले। बुरा = खराब। झूठु बुरा = चंदरा झूठा। झूठु बुरा कालु = पाप रूपी बुरी मौत। खै = (आत्मिक जीवन का) नाश करता है। वेड़िआ = फसा हुआ, लपेटा हुआ, घिरा हुआ, ग्रसित। पचहि = जलते हैं। पचहि पचाहि = बार बार जलते हैं।
अर्थ: (हे पांडे!) पाप बुरा (काम) है, पर पापी को प्यारा लगता है, वह (पापी) पाप के साथ लदा हुआ पाप का ही पसारा पसारता है। अगर मनुष्य पाप छोड़ के अपने असल को पहचाने तो उसको चिन्ता, विछोड़ा और दुख नहीं व्यापते।
(जब तक) झूठ पाप-रूपी मौत (जीव के आत्मिक जीवन को) तबाह कर रही है, तब तक इसका पैदा होना मरना कैसे खत्म हो? और जमकाल (भाव, मौत के डर) को ये कैसे टाल सके?
(जब तक) मन (पापों के) जंजालों से घिरा हुआ है, यह (इन पापों के) और-और जंजालों में पड़ता है, गोपाल के नाम के बिना (इन जंजालों से) बचा नहीं जा सकता, (बल्कि जीव) पापों में ही बार-बार दुखी होते हैं।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फिरि फिरि फाही फासै कऊआ ॥ फिरि पछुताना अब किआ हूआ ॥ फाथा चोग चुगै नही बूझै ॥ सतगुरु मिलै त आखी सूझै ॥ जिउ मछुली फाथी जम जालि ॥ विणु गुर दाते मुकति न भालि ॥ फिरि फिरि आवै फिरि फिरि जाइ ॥ इक रंगि रचै रहै लिव लाइ ॥ इव छूटै फिरि फास न पाइ ॥३९॥
मूलम्
फिरि फिरि फाही फासै कऊआ ॥ फिरि पछुताना अब किआ हूआ ॥ फाथा चोग चुगै नही बूझै ॥ सतगुरु मिलै त आखी सूझै ॥ जिउ मछुली फाथी जम जालि ॥ विणु गुर दाते मुकति न भालि ॥ फिरि फिरि आवै फिरि फिरि जाइ ॥ इक रंगि रचै रहै लिव लाइ ॥ इव छूटै फिरि फास न पाइ ॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कऊआ = मूर्ख, काली करतूतों वाला मनुष्य। आखी = आँखों से। जम कालि = मौत के जाल में, मौत को लाने वाले जाल में। इक रंगि = एक गोपाल के प्यार में। इव = इस तरह।
अर्थ: कालियां करतूतों वाला मनुष्य बार-बार जाल में फंस जाता है, (फंस के) फिर पछताता है कि ये क्या हो गया; फसा हुआ भी (जाल में फसाने वाला) चोगा ही चुगे जाता है और होश नहीं करता। अगर सतिगुरु (इसको) मिल जाए, तो आँखों से (अस्लियत) दिखाई दे जाती है। जैसे मछली मौत लाने वाले जाल में फंस जाती है (वैसे ही जीव आत्मिक मौत लाने वाले पापों में फंस जाता है)। (हे पांडे! गोपाल के नाम की) दाति देने वाले गुरु के बिना (इस जाल में से) छुटकारा (भी) ना तलाश (भाव, नहीं मिलता)। (इस जाल में फसा हुआ जीव) बार-बार पैदा होता है और मरता है। जो जीव एक गोपाल के प्यार में जुड़ता है और तवज्जो लगाए रखता है; वह इस तरह विकारों की जंजीरों में से निकल जाता है, और फिर उस को बंधन नहीं पड़ते।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीरा बीरा करि रही बीर भए बैराइ ॥ बीर चले घरि आपणै बहिण बिरहि जलि जाइ ॥ बाबुल कै घरि बेटड़ी बाली बालै नेहि ॥ जे लोड़हि वरु कामणी सतिगुरु सेवहि तेहि ॥ बिरलो गिआनी बूझणउ सतिगुरु साचि मिलेइ ॥ ठाकुर हाथि वडाईआ जै भावै तै देइ ॥ बाणी बिरलउ बीचारसी जे को गुरमुखि होइ ॥ इह बाणी महा पुरख की निज घरि वासा होइ ॥४०॥
मूलम्
बीरा बीरा करि रही बीर भए बैराइ ॥ बीर चले घरि आपणै बहिण बिरहि जलि जाइ ॥ बाबुल कै घरि बेटड़ी बाली बालै नेहि ॥ जे लोड़हि वरु कामणी सतिगुरु सेवहि तेहि ॥ बिरलो गिआनी बूझणउ सतिगुरु साचि मिलेइ ॥ ठाकुर हाथि वडाईआ जै भावै तै देइ ॥ बाणी बिरलउ बीचारसी जे को गुरमुखि होइ ॥ इह बाणी महा पुरख की निज घरि वासा होइ ॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीरा = हे वीर! हे भाईया! बैराइ = बैराय, बेगाने। बहिण = बहन, ये काया। बिरहि = विरह, विछोड़ा। बाबुल = पिता। कै घरि = के घर में। बाबुल कै घरि = पेके घर में, इस जगत में। बेटड़ी = बालिका, अंजान बेटी। बाली बालै नेहि = गुड्डी गुड्डों के प्यार में। नेहि = प्यार में। हितेहि = हित से। कामणी = हे (जीव-) स्त्री! बूझणउ = समझ वाला। साचि = सच्चे प्रभु से, गोपाल की कृपा से। महा पुरख = सतिगुरु। निज घरि = अपने घर में। गिआनी = ज्ञानवान, जिसने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली है। वडाईआ = गुण गाने।
अर्थ: (हे पांडे!) ये काया (जीवात्मा को) ‘वीर वीर’ कहती रह जाती है (पर मौत के आने पर) वीर जी बेगाने हो जाते हैं, वीर (जी) (परलोक में) अपने घर चले जाते हैं और बहन (काया) विछोड़े में (भाव, मौत के आने पर) जल जाती है। (फिर भी यह) अंजान (काया) बच्ची पिता के घर में रहती हुई गुड्डे-गुड्डियों के प्यार में ही लगी रहती है (भाव, शरीर और जीवात्मा का मेल चार दिनों का जानते हुए भी जीव दुनियां के पदार्थों में मस्त रहता है)। (जीवात्मा को ये शिक्षा देनी चाहिए कि) हे (जीव-) स्त्री! अगर पति (-प्रभु) को मिलना चाहती है तो प्यार से सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल।
जिस जीव को गोपाल की कृपा से सतिगुरु मिलता है वह (इस बात को) समझता है। पर कोई विरला मनुष्य ही यह सूझ हासिल करता है।
गोपाल-प्रभु के गुण गाने गोपाल के अपने हाथ में है, (यह दाति वह) उसको देता है जो उसको भाता है। कोई विरला गुरमुख सतिगुरु की वाणी को विचारता है, वह वाणी सतिगुरु की (ऐसी) है कि (इसकी विचार से) मनुष्य स्वै-स्वरूप में टिक जाता है।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भनि भनि घड़ीऐ घड़ि घड़ि भजै ढाहि उसारै उसरे ढाहै ॥ सर भरि सोखै भी भरि पोखै समरथ वेपरवाहै ॥ भरमि भुलाने भए दिवाने विणु भागा किआ पाईऐ ॥ गुरमुखि गिआनु डोरी प्रभि पकड़ी जिन खिंचै तिन जाईऐ ॥ हरि गुण गाइ सदा रंगि राते बहुड़ि न पछोताईऐ ॥ भभै भालहि गुरमुखि बूझहि ता निज घरि वासा पाईऐ ॥ भभै भउजलु मारगु विखड़ा आस निरासा तरीऐ ॥ गुर परसादी आपो चीन्है जीवतिआ इव मरीऐ ॥४१॥
मूलम्
भनि भनि घड़ीऐ घड़ि घड़ि भजै ढाहि उसारै उसरे ढाहै ॥ सर भरि सोखै भी भरि पोखै समरथ वेपरवाहै ॥ भरमि भुलाने भए दिवाने विणु भागा किआ पाईऐ ॥ गुरमुखि गिआनु डोरी प्रभि पकड़ी जिन खिंचै तिन जाईऐ ॥ हरि गुण गाइ सदा रंगि राते बहुड़ि न पछोताईऐ ॥ भभै भालहि गुरमुखि बूझहि ता निज घरि वासा पाईऐ ॥ भभै भउजलु मारगु विखड़ा आस निरासा तरीऐ ॥ गुर परसादी आपो चीन्है जीवतिआ इव मरीऐ ॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भनि भनि = बार बार तोड़ के। घड़ि घड़ि = बार बार बना के। उसरे = बने हुए। सोखै = सुखाता है। पोखै = नाकोनाक भरता है। भरमि = भ्रम में। किआ पाईऐ = कुछ नहीं मिलता। प्रभि = प्रभु ने। जिन = जिन्होंने। जाईऐ = (ले) जाता है। आस निरासा = आशाओं की तरफ से निराश हो के। आपो = अपने आप को। इव = इस तरह।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: हिन्दी अक्षरों को ‘पा, फा, बा, भा’ आदि कह के उच्चारते हैं, और गुरमुखी अक्षरों को ‘पपा, फफा, बबा, भभा’ कह के। गुरु नानक साहिब ‘भभा’ प्रयोग कर रहे हैं, जिससे ये स्पष्ट है कि वे अपनी वाणी हिन्दी व उर्दू लिपी में नहीं लिख रहे थे।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (इस जगत की संरचना) बार-बार तोड़ी जाती है और बनाई जाती है, बार बार निर्माण और विनाश की प्रक्रिया चलती है। (वह गोपाल इस संसार-) सरोवर को भर के सुखा देता है, फिर और लबालब भर देता है। वह गोपाल प्रभु सब कुछ कर सकने योग्य है, बेपरवाह है।
(हे पांडे! उस गोपाल प्रभु को भुला के) जो जीव भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़े हुए हैं वह (माया के पीछे ही) पागल हुए पड़े हैं, (उनको) भाग्यों के बगैर (उस बेपरवाह की महिमा के तौर पर) कुछ नहीं मिलता। सतिगुरु की ज्ञान-रूप डोरी प्रभु ने (अपने) हाथ में पकड़ रखी है, जिनको (इस डोरी से अपनी ओर) खींचता है वह (उसकी ओर) चल पड़ते हैं (भाव, जिस पर गोपाल प्रभु मेहर करता है वे गुरु के बताए हुए राह पर चल कर उसके चरणों में जुड़ते हैं) वह प्रभु के गुण गा के उसके प्यार में मस्त रहते हैं, फिर उन्हें पछताना नहीं पड़ता, वह (प्रभु की ही) तलाश करते हैं। (जब) सतिगुरु के द्वारा (रास्ता) समझ लेते हैं तो अपने (असल) घर में टिक जाते हैं (भटकने से हट जाते हैं)।
यह संसार-समुंदर (जीवों के वास्ते) मुश्किल रास्ता है, इसमें से तभी तैरा जा सकता है अगर (दुनिया वाली) आशाएं बाँधनी छोड़ दें, सतिगुरु की मेहर से अपने आप को (अपनी अस्लियत को) पहचानें; इस तरह जीते हुए मर जाना है (भाव, इसी जीवन में ही मन को विकारों से हटा लेना है)।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ माइआ करि मुए माइआ किसै न साथि ॥ हंसु चलै उठि डुमणो माइआ भूली आथि ॥ मनु झूठा जमि जोहिआ अवगुण चलहि नालि ॥ मन महि मनु उलटो मरै जे गुण होवहि नालि ॥ मेरी मेरी करि मुए विणु नावै दुखु भालि ॥ गड़ मंदर महला कहा जिउ बाजी दीबाणु ॥ नानक सचे नाम विणु झूठा आवण जाणु ॥ आपे चतुरु सरूपु है आपे जाणु सुजाणु ॥४२॥
मूलम्
माइआ माइआ करि मुए माइआ किसै न साथि ॥ हंसु चलै उठि डुमणो माइआ भूली आथि ॥ मनु झूठा जमि जोहिआ अवगुण चलहि नालि ॥ मन महि मनु उलटो मरै जे गुण होवहि नालि ॥ मेरी मेरी करि मुए विणु नावै दुखु भालि ॥ गड़ मंदर महला कहा जिउ बाजी दीबाणु ॥ नानक सचे नाम विणु झूठा आवण जाणु ॥ आपे चतुरु सरूपु है आपे जाणु सुजाणु ॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डुमणो = दुचिक्ता (भाव, एक तरफ इधर माया में फसा हुआ है, दूसरी तरफ मौत बदोबदी ले के जा रही है)।
पद्अर्थ: आथि = है। भूली आथि = भूल जाती है, साथ छूट जाता है। झूठा = झूठे पदार्थों में फसा हुआ, साथ ना निभने वाली माया में फसा हुआ। जमि = जम ने। जोहिआ = देखा, ताड़ना की, डराया। उलटो = पलट के, माया से उलट के। मरै = ‘अहं भाव’ से मर जाता है। भालि = ढूँढ के। कहा = कहाँ गए? साथ छोड़ गए। बाजी = मदारी की खेल। दीबाणु = कचहरी, हकूमत। झूठा = व्यर्थ। गढ़ = किले। आवण जाणु = आना और जाना, (भाव,) सारा जीवन।
अर्थ: (बेअंत जीव) माया के लिए तरले लेते मर गए, पर माया किसी के साथ ना निभी, जब (जीव-) हंस दुचिक्ती में हो के (मौत आने पर) उठ चलता है तो माया का साथ छूट जाता है। जो मन माया में फसा होता है उसको जम की ओर से ताड़ना मिलती है (भाव, वह मौत का नाम सुन-सुन के डरता है), (माया तो यहीं ही रह गई, पर माया की खातिर किए हुए) अवगुण साथ चल पड़ते हैं।
पर अगर मनुष्य के पल्ले में गुण हों तो मन माया की तरफ से पलट के अपने अंदर ही अहं भाव को मार लेता है (और इस तरह इसमें मोह आदि विकार नहीं रह जाते)।
परमात्मा का ‘नाम’ भुला के (सिर्फ) माया को ही अपनी समझ के (इस तरह बल्कि) दुख ले के ही (बेअंत जीव) चले गए, किले, पक्के घर, महल-माढ़ियां और हकूमतें (सब) साथ छोड़ गए, ये तो (मदारी का) तमाशा ही था।
हे नानक! प्रभु के नाम के बिना सारा जीवन व्यर्थ जाता है (पर जीव विचारों के भी क्या वश? ये बेसमझ है) प्रभु खुद ही समझदार है, स्वयं ही सब कुछ जानता है (वही समझाए तो जीव समझे)।42।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: फरीद जी सूही राग में लिखते हैं ‘हंसु चलसी डुमणा’। गुरु नानक देव जी की तुक ‘हंस चलै उठि डुमणो’ को फरीद जी की तुक से मिला के देखो। ये शब्दों की समानता सबब से नहीं हो गई। स्पष्ट है, गुरु नानक देव जी के पास फरीद जी की वाणी मौजूद थी।
नोट: तुक ‘गढ़ मंदर महल कहा’ पाठकों के सामने ऐमनाबाद का वह नजारा सामने ले आती है जो गुरु नानक देव जी ने राग आसा की अष्टपदी में यूँ बयान की है ‘कहा सु घरु दरु मंडप महला, कहा सु बंक सराई’। क्या यह वाणी बाबरवाणी के बाद करतारपुर बैठ के लिखी गई थी?
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जो आवहि से जाहि फुनि आइ गए पछुताहि ॥ लख चउरासीह मेदनी घटै न वधै उताहि ॥ से जन उबरे जिन हरि भाइआ ॥ धंधा मुआ विगूती माइआ ॥ जो दीसै सो चालसी किस कउ मीतु करेउ ॥ जीउ समपउ आपणा तनु मनु आगै देउ ॥ असथिरु करता तू धणी तिस ही की मै ओट ॥ गुण की मारी हउ मुई सबदि रती मनि चोट ॥४३॥
मूलम्
जो आवहि से जाहि फुनि आइ गए पछुताहि ॥ लख चउरासीह मेदनी घटै न वधै उताहि ॥ से जन उबरे जिन हरि भाइआ ॥ धंधा मुआ विगूती माइआ ॥ जो दीसै सो चालसी किस कउ मीतु करेउ ॥ जीउ समपउ आपणा तनु मनु आगै देउ ॥ असथिरु करता तू धणी तिस ही की मै ओट ॥ गुण की मारी हउ मुई सबदि रती मनि चोट ॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फुनि = फिर, उसी हालत में, ममता में बँधे हुए ही। मेदनी = सृष्टि। उताहि = ऊपर को। उबरे = बचे हैं। विगूती = दुखी हुई है। विगूती माया = माया दुखी होती है, माया उन्हें मोहने में कामयाब नहीं होती। समपउ = अर्पण करते हुए। आगै देउ = भेटा रखूँ। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक। हउ = अहंकार। सबदि = शब्द में। मनि = मन में।
अर्थ: जो जीव (माया की ममता के बँधे हुए जगत में) आते हैं वह (इस ममता में फसे हुए यहॉँ से) चले जाते हैं, बार-बार पैदा होते मरते हैं और दुखी होते हैं; (उनके लिए) ये चौरासी लाख जूनियों वाली सृष्टि रक्ती भर भी कम-ज्यादा नहीं होती (भाव, उन्हें ममता के कारण चौरासी लाख जूनियों में से गुजरना पड़ता है)। (उनमें से) बचते सिर्फ वे हैं जिनको प्रभु प्यारा लगता है (क्योंकि उनकी माया के पीछे) भटकना समाप्त हो जाती है, माया (उनकी ओर आने पर) दुखी होती है (उन्हें मोह नहीं सकती)।
(जगत में तो) जो भी दिखाई देता है नाशवान है, मैं किस को मित्र बनाऊँ? (साथ निभाने वाला मित्र तो सिर्फ परमात्मा ही है, उसके आगे ही) मैं अपनी जीवात्मा अर्पित करूँ और तन-मन की भेट रखूँ।
हे कर्तार! तू ही सदा कायम रहने वाला मालिक है। (हे पांडे!) मुझे कर्तार का ही आसरा है। प्रभु के गुण गाने पर ही अहंकार मरता है। (क्योंकि) सतिगुरु के शब्द में रंगीज के मन में ठोकर (लगती है)।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राणा राउ न को रहै रंगु न तुंगु फकीरु ॥ वारी आपो आपणी कोइ न बंधै धीर ॥ राहु बुरा भीहावला सर डूगर असगाह ॥ मै तनि अवगण झुरि मुई विणु गुण किउ घरि जाह ॥ गुणीआ गुण ले प्रभ मिले किउ तिन मिलउ पिआरि ॥ तिन ही जैसी थी रहां जपि जपि रिदै मुरारि ॥ अवगुणी भरपूर है गुण भी वसहि नालि ॥ विणु सतगुर गुण न जापनी जिचरु सबदि न करे बीचारु ॥४४॥
मूलम्
राणा राउ न को रहै रंगु न तुंगु फकीरु ॥ वारी आपो आपणी कोइ न बंधै धीर ॥ राहु बुरा भीहावला सर डूगर असगाह ॥ मै तनि अवगण झुरि मुई विणु गुण किउ घरि जाह ॥ गुणीआ गुण ले प्रभ मिले किउ तिन मिलउ पिआरि ॥ तिन ही जैसी थी रहां जपि जपि रिदै मुरारि ॥ अवगुणी भरपूर है गुण भी वसहि नालि ॥ विणु सतगुर गुण न जापनी जिचरु सबदि न करे बीचारु ॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगु = रंक, कंगाल। तुंगु = ऊँचा, अमीर। कोइ न बंधै धीर = कोई किसी को धीरज देने के लायक नहीं। भीहावला = डरावना। सर = समुंदर। असगाह = जिसकी गहराई नापी ना जा सके। डुगर = पहाड़। मै तनि = मेरे शरीर में। घरि = घर में, मंजिल पर। पिआरि = प्यारों को। अवगणी = अवगुणों से। भरपूर = नाको नाक भरा हुआ। लै = लेकर, पल्ले बाँध कर। मुरारि = प्रभु।
अर्थ: (जगत में) ना कोई राणा ना कोई कंगाल हमेशा जीवित रह सकता है; ना कोई अमीर ना कोई फकीर; हरेक अपनी-अपनी बारी आने पर (यहाँ से चल पड़ता है) कोई किसी को ये तसल्ली देने के लायक ही नहीं (कि तू सदा यहाँ टिका रहेगा)।
(जगत का) रास्ता बहुत मुश्किल और डरावना है, (यह एक) बहुत ही गहरे समुंदर (की यात्रा है) पहाड़ी रास्ता है। मेरे अंदर तो कई अवगुण हैं जिनके कारण दुखी हो रही हूँ, (मेरे पल्ले गुण नहीं हैं) गुणों के बगैर कैसे मंजिल तक पहुँचूं? (भाव, प्रभु चरणों में नहीं जुड़ सकती)।
गुणों वाले, गुण पल्ले बाँध के प्रभु को मिल चुके हैं (मेरा भी दिल करता है कि) उन प्यारों को मिलूँ (पर) कैसे (मिलूं)? यदि प्रभु को हमेशा हृदय में जपूँ तब ही उन गुणवान गुरमुखों जैसी बन सकती हूँ।
(माया-ग्रसित जीव) अवगुणों से नाको-नाक भरा रहता है (वैसे) गुण भी उसके अंदर ही बसते हैं (क्योंकि गुणवान प्रभु अंदर बस रहा है), पर सतिगुरु के बिना गुणों की समझ नहीं पड़ती। (तब तक नहीं पड़ती) जब तक गुरु के शब्द में विचार ना की जाए।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लसकरीआ घर समले आए वजहु लिखाइ ॥ कार कमावहि सिरि धणी लाहा पलै पाइ ॥ लबु लोभु बुरिआईआ छोडे मनहु विसारि ॥ गड़ि दोही पातिसाह की कदे न आवै हारि ॥ चाकरु कहीऐ खसम का सउहे उतर देइ ॥ वजहु गवाए आपणा तखति न बैसहि सेइ ॥ प्रीतम हथि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥ आपि करे किसु आखीऐ अवरु न कोइ करेइ ॥४५॥
मूलम्
लसकरीआ घर समले आए वजहु लिखाइ ॥ कार कमावहि सिरि धणी लाहा पलै पाइ ॥ लबु लोभु बुरिआईआ छोडे मनहु विसारि ॥ गड़ि दोही पातिसाह की कदे न आवै हारि ॥ चाकरु कहीऐ खसम का सउहे उतर देइ ॥ वजहु गवाए आपणा तखति न बैसहि सेइ ॥ प्रीतम हथि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥ आपि करे किसु आखीऐ अवरु न कोइ करेइ ॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लसकरीआ = लश्करों ने, सिपाहियों ने।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जगत एक रण-भूमि है, जहाँ विकारों से मुकाबला करना पड़ता है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घर = डेरे। वजहु = तन्खाह, (भाव) रिज़क। सिरि = सिर पर। धणी = मालिक की। पलै पाइ = हासिल करके, कमा के। गढ़ि = शरीर रूप किले में। लबु = चस्का। दोही = दुहाई, राज, हकूमत। सउहे = सामने। तखति = तख्त पर। सेइ = वह सिपाही। किसु आखीऐ = किसी और के आगे पुकार नहीं की जा सकती।
अर्थ: (इस जगत रण-भूमि में, जीव) सिपाहियों ने (शरीर रूपी) डेरे सम्भाले हुए हैं, (प्रभु-पति से) रिज़क लिखा के (यहाँ) आए हैं। जो सिपाही हरि नाम की कमाई कमा के मालिक की (रजा-रूपी) कार कमाते हैं उन्होंने चस्का-लालच व अन्य विकार मन में से निकाल दिए हैं। जिस (जीव-) सिपाही ने (शरीर-) किले में (प्रभु-) पातशाह की दुहाई डाली है (भाव, स्मरण को हर वक्त शरीर में बसाया है) वह (कामादिक पाँचों के मुकाबले पर) कभी हार के नहीं आते।
(पर जो मनुष्य) प्रभु मालिक का नौकर भी कहलवाए और सामने से (पलट) जवाब भी दे (भाव, उसके हुक्म में ना चले) वह अपनी तनख्वाह गवा लेता है (भाव, वह मेहर से वंचित रहता है), ऐसे जीव (ईश्वरीय) तख्त पर नहीं बैठ सकते (भाव, उसके साथ एक-रूप नहीं हो सकते)।
पर, प्रभु के गुण गाने प्रीतम-प्रभु के अपने हाथ में है, जो उसको भाता है उसको (वह) देता है, किसी और के आगे पुकार नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रभु स्वयं ही सब कुछ करता है, कोई और कुछ नहीं कर सकता।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीजउ सूझै को नही बहै दुलीचा पाइ ॥ नरक निवारणु नरह नरु साचउ साचै नाइ ॥ वणु त्रिणु ढूढत फिरि रही मन महि करउ बीचारु ॥ लाल रतन बहु माणकी सतिगुर हाथि भंडारु ॥ ऊतमु होवा प्रभु मिलै इक मनि एकै भाइ ॥ नानक प्रीतम रसि मिले लाहा लै परथाइ ॥ रचना राचि जिनि रची जिनि सिरिआ आकारु ॥ गुरमुखि बेअंतु धिआईऐ अंतु न पारावारु ॥४६॥
मूलम्
बीजउ सूझै को नही बहै दुलीचा पाइ ॥ नरक निवारणु नरह नरु साचउ साचै नाइ ॥ वणु त्रिणु ढूढत फिरि रही मन महि करउ बीचारु ॥ लाल रतन बहु माणकी सतिगुर हाथि भंडारु ॥ ऊतमु होवा प्रभु मिलै इक मनि एकै भाइ ॥ नानक प्रीतम रसि मिले लाहा लै परथाइ ॥ रचना राचि जिनि रची जिनि सिरिआ आकारु ॥ गुरमुखि बेअंतु धिआईऐ अंतु न पारावारु ॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीजउ = दूसरा। दुलीचा पाइ = आसन बिछा के, गद्दी लगा के। नरहनरु = पुरखपति। साचै नाइ = सच्चे नाम के द्वारा (मिलती है)। वणु = जंगल। त्रिणु = तिनका, घास। वणु त्रिणु = सारा जंगल बेल बूटियाँ। फिरि = घूम के, फिर के। रही = थक गई। करउ = मैं करती हूँ। हाथि = हाथ में। एकै भाइ = एकाग्र हो के। रसि = रस में, आनंद में। परथाइ = पर जगह का। परथाइ लाहा = परलोक की कमाई। सिरिआ = सृजना की। आकारु = जगत का स्वरूप। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।
अर्थ: मुझे कोई और दूसरा नहीं सूझता जो (सदा के लिए) आसन बिछा के बैठ सके (भाव, जो सारे जगत का अटल मालिक कहलवा सके); जीवों के नरक दूर करने वाला और जीवों का मालिक सदा कायम रहने वाला एक प्रभु ही है जो नाम (स्मरण) के द्वारा (मिलता) है।
(उस प्रभु की खातिर) मैं जंगल-बेला ढूँढ-ढूँढ के थक गई हूँ, (अब जब) मैं मन में सोचती हूँ (तो समझ आई है कि) लालों-रत्नों और मोतियों (भाव, ईश्वरीय गुणों) का खजाना सतिगुरु के हाथ में है; अगर मैं एक मन हो के (स्मरण करके) शुद्ध-आत्मा हो जाऊँ तो मुझे प्रभु मिल जाए। हे नानक! जो जीव प्रीतम प्रभु के प्यार में जुड़े हुए हैं वह परलोक की कमाई कमा लेते हैं।
(हे पांडे!) जिस (प्रभु) ने रचना रची है जिसने जगत का ढाँचा बनाया है, जो स्वयं बेअंत है, जिसका अंत और हदबंदी नहीं पाई जा सकती, उसको गुरु के बताए हुए राह पर चल के स्मरण किया जा सकता है।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ड़ाड़ै रूड़ा हरि जीउ सोई ॥ तिसु बिनु राजा अवरु न कोई ॥ ड़ाड़ै गारुड़ु तुम सुणहु हरि वसै मन माहि ॥ गुर परसादी हरि पाईऐ मतु को भरमि भुलाहि ॥ सो साहु साचा जिसु हरि धनु रासि ॥ गुरमुखि पूरा तिसु साबासि ॥ रूड़ी बाणी हरि पाइआ गुर सबदी बीचारि ॥ आपु गइआ दुखु कटिआ हरि वरु पाइआ नारि ॥४७॥
मूलम्
ड़ाड़ै रूड़ा हरि जीउ सोई ॥ तिसु बिनु राजा अवरु न कोई ॥ ड़ाड़ै गारुड़ु तुम सुणहु हरि वसै मन माहि ॥ गुर परसादी हरि पाईऐ मतु को भरमि भुलाहि ॥ सो साहु साचा जिसु हरि धनु रासि ॥ गुरमुखि पूरा तिसु साबासि ॥ रूड़ी बाणी हरि पाइआ गुर सबदी बीचारि ॥ आपु गइआ दुखु कटिआ हरि वरु पाइआ नारि ॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूड़ा = सुंदर। गारुड़ु = (मन रूप) साँप को कीलने वाला मंत्र। मतु = कहीं ऐसा ना हो। रासि = राशि, पूंजी। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। साबासि = प्रशंसा। रूड़ी = सुंदर। आपु = स्वै भाव, अहम्। वरु = पति। नारि = (जीव-) स्त्री।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: संस्कृत में अक्षर ‘ड़ा’ नहीं है, होता, तो उसका उच्चारण भी ‘ड़ा’ होता। गुरमुखी अक्षर को हम ‘ड़ड़ा’ कह के उचारते हैं। गुरु नानक देव जी गुरमुखि अक्षर बरत रहे थे)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वह प्रभु ही (सबसे ज्यादा) सुंदर है, उसके बिना कोई और (भाव, उसके बराबर का) हाकिम नहीं है।
(हे पांडे!) तू मन को वश में करने के लिए (‘गुरु-शब्द रूपी) मंत्र सुन (इससे) यह प्रभु मन में आ बसेगा। (पर) कहीं कोई इस भुलेखे में ना पड़ जाए, (कि प्रभु गुरु के बिना प्राप्त हो सकता है) प्रभु (तो) गुरु की मेहर से ही मिलता है। गुरु ही सच्चा शाह है जिसके पास प्रभु का नाम-रूपी पूंजी है, गुरु ही पूर्ण पुरख है, गुरु को ही धन्य-धन्य कहो।
(जिस किसी को मिला है) सतिगुरु की सुंदर वाणी के द्वारा ही, गुरु के शब्द के विचार से ही प्रभु मिला है; (गुरु-शब्द से जिसका) अहंकार दूर हुआ है (स्वै, अहम् का) दुख काटा गया है उस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति को पा लिया है।47।
[[0937]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुइना रुपा संचीऐ धनु काचा बिखु छारु ॥ साहु सदाए संचि धनु दुबिधा होइ खुआरु ॥ सचिआरी सचु संचिआ साचउ नामु अमोलु ॥ हरि निरमाइलु ऊजलो पति साची सचु बोलु ॥ साजनु मीतु सुजाणु तू तू सरवरु तू हंसु ॥ साचउ ठाकुरु मनि वसै हउ बलिहारी तिसु ॥ माइआ ममता मोहणी जिनि कीती सो जाणु ॥ बिखिआ अम्रितु एकु है बूझै पुरखु सुजाणु ॥४८॥
मूलम्
सुइना रुपा संचीऐ धनु काचा बिखु छारु ॥ साहु सदाए संचि धनु दुबिधा होइ खुआरु ॥ सचिआरी सचु संचिआ साचउ नामु अमोलु ॥ हरि निरमाइलु ऊजलो पति साची सचु बोलु ॥ साजनु मीतु सुजाणु तू तू सरवरु तू हंसु ॥ साचउ ठाकुरु मनि वसै हउ बलिहारी तिसु ॥ माइआ ममता मोहणी जिनि कीती सो जाणु ॥ बिखिआ अम्रितु एकु है बूझै पुरखु सुजाणु ॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूपा = चाँदी। संचीऐ = इकट्ठा करते हैं। बिखु = विष, जहर। छारु = राख, व्यर्थ। संचि = इकट्ठा कर के, जोड़ के। दुबिधा = दोचिक्तापन, भेदभाव। सचिआरी = सच के बनजारों ने। सचु नामु अमोलु = सदा स्थिर रहने वाला नाम-धन। निरमाइलु = पवित्र। पति = इज्जत। मनि = (जिसके) मन में। तिसु = उस (जीव हंस) से। जिनि = जिस गोपाल ने। बिखिआ = माया। एकु = सिर्फ।
अर्थ: (आम तौर जगत में) सोना-चाँदी ही इकट्ठा किया जाता है, पर ये धन होछा है, विष (-रूप, भाव दुखदाई) है, तुच्छ है। जो मनुष्य (ये) धन जोड़ के (अपने आप को) शाह कहलवाता है वह मेर-तेर में दुखी होता है।
सच्चे व्यापारियों ने सदा-स्थिर रहने वाला नाम-धन इकट्ठा किया है, सच्चा अमूल्य नाम-धन सम्भाला है, उज्जवल और पवित्र प्रभु (का नाम कमाया है), उनको सच्ची इज्जत मिलती है (प्रभु के) सच्चे (मीठे आदर वाले) बोल (मिलते हैं)। (हे पांडे! तू भी मन की तख्ती पर गोपाल का नाम लिख और उसके आगे ऐसे अरदास कर - हे प्रभु!) तू ही (सच्चा) समझदार सज्जन-मित्र है, तू ही (जगत-रूप) सरोवर है और तू ही (इस सरोवर का जीव-रूप) हँस है; मैं सदके हूँ उस (हँस) से जिसके मन में तू सच्चा ठाकुर बसता है।
(हे पांडे!) उस गोपाल को याद रख जिसने मोहनी माया की ममता (जीवों को) लगा दी है, जिस किसी ने उस सुजान पुरख को समझ लिया है, उसके लिए सिर्फ (नाम-) अमृत ही ‘माया’ है।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिमा विहूणे खपि गए खूहणि लख असंख ॥ गणत न आवै किउ गणी खपि खपि मुए बिसंख ॥ खसमु पछाणै आपणा खूलै बंधु न पाइ ॥ सबदि महली खरा तू खिमा सचु सुख भाइ ॥ खरचु खरा धनु धिआनु तू आपे वसहि सरीरि ॥ मनि तनि मुखि जापै सदा गुण अंतरि मनि धीर ॥ हउमै खपै खपाइसी बीजउ वथु विकारु ॥ जंत उपाइ विचि पाइअनु करता अलगु अपारु ॥४९॥
मूलम्
खिमा विहूणे खपि गए खूहणि लख असंख ॥ गणत न आवै किउ गणी खपि खपि मुए बिसंख ॥ खसमु पछाणै आपणा खूलै बंधु न पाइ ॥ सबदि महली खरा तू खिमा सचु सुख भाइ ॥ खरचु खरा धनु धिआनु तू आपे वसहि सरीरि ॥ मनि तनि मुखि जापै सदा गुण अंतरि मनि धीर ॥ हउमै खपै खपाइसी बीजउ वथु विकारु ॥ जंत उपाइ विचि पाइअनु करता अलगु अपारु ॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खूहणि = (संस्कृत: अक्षौहिणी = एक बड़ी भारी सेना जिसमें 21870 रथ, 21870 हाथी, 65610 घोड़ सवार और 109350 पैदल सिपाही हों) बेअंत जीव। असंख = अनगिनत। किउ गणी = गिनने का क्या लाभ? गिने नहीं जा सकते। बिसंख = अनगिनत। खूलै = खुल जाता है, खुले दिल वाला हो जाता है। बंधु = रोक, तंग दिली। महली = महल वाला, ठिकाने वाला, टिका हुआ। तू = हे प्रभु! तू। खरा = प्रकट, प्रत्यक्ष, असल सवरूप में। सुख भाइ = आसानी से। खरचु = जिंदगी के सफर की पूंजी। वसहि = तू बसता है। सरीरि = (उसके) शरीर में। जापै = जपता है। अंतरि = (उसके) अंदर। बीजउ वथु = दूसरी वस्तु, दूसरी राशि-पूंजी। विचि = (अहंकार) में। पाइअनु = डाले है उस (प्रभु) ने। अलगु = अलग, निर्लिप।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इस शब्द की व्याकरण के अनुसार संरचना समझने के लिए देखें मेरा ‘गुरबाणी व्याकरण’। उपाइअनु = उसने उपाए हैं। लाइअनु = उसने लगाए हैं। खुआइअनु = उसने गवाए हैं। रखिअनु = उसने रखे हैं। बखसिअनु = उसने बख्शे। शब्द ‘पाइअनु’ और ‘पाईअनु’ में अंतर का ध्यान रखें। ‘पाइअनु’ के अर्थ है उसने डाले। ‘पाईअनु’ का मतलब उसने पाए। उपाईअनु = उसने पैदा की।)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (मोहनी माया की ममता से पैदा हुए भेदभाव के कारण) क्षमा-हीन हो के बेअंत, लाखों अनगिनत जीव खप के मर गए हैं, गिने नहीं जा सकते। गिनती का भी क्या लाभ? अगिनत ही जीव (क्षमा-विहीन हो के) दुखी हुए हैं।
जो मनुष्य अपने मालिक प्रभु को पहचानता है, वह खुले दिल वाला हो जाता है, तंग-दिली (उसमें) नहीं रहती, गुरु के शब्द के द्वारा वह टिक जाता है (भाव, जिगरे वाला हो जाता है); (हे प्रभु!) तू उसे प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे जाता है, क्षमा और सत्य उसको आसानी से मिल जाते हैं। (हे प्रभु!) तू ही उसका (जिंदगी के सफर का) खर्च बन जाता है, तू ही उसका खरा (सच्चा) धन हो जाता है, तू स्वयं ही उसका ध्यान (तवज्जो का निशाना) बन जाता है, तू स्वयं ही उसके शरीर में (प्रत्यक्ष) बसने लग जाता है, वह मन से, तन से, मुँह से सदा (तुझे ही) जपता है, उसके अंदर (तेरे) गुण पैदा हो जाते हैं, उसके मन में धीरज आ जाता है।
(गोपाल के नाम के बिना) दूसरा पदार्थ विकार (-रूप) है, (इसके कारण) जीव अहंकार में खपता-खपाता है। (आश्चर्यजनक खेल ये है) कर्तार ने जंतु पैदा करके (अहंकार) में डाल दिए हैं, (पर) वह बेअंत कर्तार अलग ही रहता है।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रिसटे भेउ न जाणै कोइ ॥ स्रिसटा करै सु निहचउ होइ ॥ स्मपै कउ ईसरु धिआईऐ ॥ स्मपै पुरबि लिखे की पाईऐ ॥ स्मपै कारणि चाकर चोर ॥ स्मपै साथि न चालै होर ॥ बिनु साचे नही दरगह मानु ॥ हरि रसु पीवै छुटै निदानि ॥५०॥
मूलम्
स्रिसटे भेउ न जाणै कोइ ॥ स्रिसटा करै सु निहचउ होइ ॥ स्मपै कउ ईसरु धिआईऐ ॥ स्मपै पुरबि लिखे की पाईऐ ॥ स्मपै कारणि चाकर चोर ॥ स्मपै साथि न चालै होर ॥ बिनु साचे नही दरगह मानु ॥ हरि रसु पीवै छुटै निदानि ॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रिसटा = सृष्टा, विधाता, कर्तार। भेउ = भेद। निहचउ = अवश्य। संपै = सम्पक्ति, धन। ईसरु = परमात्मा। पुरबि = (अब से) पहले समय में, अब तक के समय में। होर = और (की बन जाती है)। निदानि = अंत को। छुटै = (माया के मोह से) बचता है।
अर्थ: कोई जीव विधाता प्रभु का भेद नहीं पा सकता (और, कोई उसकी रजा में दख़ल नहीं दे सकता, क्योंकि जगत में) अवश्य ही वही होता है जो विधाता कर्तार करता है। (विधाता की यह एक अजब खेल है कि आम तौर पर मनुष्य) धन की खातिर ही परमात्मा को ध्याता है, और अबतक की हुई मेहनत के अनुसार धन मिल (भी) जाता है। धन की खातिर मनुष्य दूसरों के नौकर (भी) बनते हैं, चोर (भी) बनते हैं (भाव, चोरी भी करते हैं)। पर, धन किसी के साथ नहीं निभता, (मरने पर) औरों का बन जाता है।
सदा-स्थिर रहने वाला गोपाल (के नाम) के बिना उसकी हजूरी में आदर नहीं मिलता। जो मनुष्य परमात्मा के नाम का रस पीता है वह (वह धन-संपक्ति के मोह से) अंत को बच जाता है।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेरत हेरत हे सखी होइ रही हैरानु ॥ हउ हउ करती मै मुई सबदि रवै मनि गिआनु ॥ हार डोर कंकन घणे करि थाकी सीगारु ॥ मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सगल गुणा गलि हारु ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ हरि सिउ प्रीति पिआरु ॥ हरि बिनु किनि सुखु पाइआ देखहु मनि बीचारि ॥ हरि पड़णा हरि बुझणा हरि सिउ रखहु पिआरु ॥ हरि जपीऐ हरि धिआईऐ हरि का नामु अधारु ॥५१॥
मूलम्
हेरत हेरत हे सखी होइ रही हैरानु ॥ हउ हउ करती मै मुई सबदि रवै मनि गिआनु ॥ हार डोर कंकन घणे करि थाकी सीगारु ॥ मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सगल गुणा गलि हारु ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ हरि सिउ प्रीति पिआरु ॥ हरि बिनु किनि सुखु पाइआ देखहु मनि बीचारि ॥ हरि पड़णा हरि बुझणा हरि सिउ रखहु पिआरु ॥ हरि जपीऐ हरि धिआईऐ हरि का नामु अधारु ॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हेरत हेरत = देख देख के। करती = करने वाली। सबदि = शब्द में। मनि = मन में। गिआनु = प्रभु से जान पहचान। कंकन = कंगन। घणे = बहुत। गलि = गले में। किनि = किस ने? किसी ने भी नहीं। बीचारि = विचार के। अधारु = आसरा।
अर्थ: हे सखी! (ये बात) देख-देख के मैं हैरान हो रही हूँ कि (मेरे अंदर) ‘मैं मैं’ करने वाली ‘मैं’ मर गई है (भाव, अहंकार करने वाली आदत खत्म हो गई है)। (अब मेरी तवज्जो) गुरु-शब्द में जुड़ रही है, और (मेरे) मन में प्रभु के साथ जान-पहचान बन गई है।
मैं बहुत सारे हारों-कंगनों के हार श्रृंगार करके थक चुकी थी (पर प्रीतम-प्रभु के मिलाप का सुख ना मिला, भाव, बाहरी धार्मिक उद्यमों से आनंद नहीं मिल पाया, पर, अब जब ‘अहंकार’ खत्म हो गया) प्रीतम-प्रभु को मिल के सुख मिल गया है (उसके गुण मेरे हृदय में आ बसे हैं, यही उसके) सारे गुणों का मेरे गले में हार है (अब किसी और हार-श्रृंगार की आवश्यक्ता नहीं रही)।
हे नानक! प्रभु के साथ प्रीत, प्रभु से प्यार, सतिगुरु के माध्यम से ही हो सकता है; और, (बेशक) मन में विचार के देख लो, (भाव, तुम्हे अपनी आत्म-बीती ही बता देगी कि) प्रभु के मेल के बिना कभी किसी को सुख नहीं मिला।
(सो, हे पांडे! अगर सुख तलाशता है तो) प्रभु का नाम पढ़, प्रभु का नाम विचार, प्रभु के साथ ही प्यार बना, (जीभ से) प्रभु का नाम जपें, (मन में) प्रभु को ही स्मरण करें, और प्रभु का नाम ही (जिंदगी का) आसरा (बनाएं)।51।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लेखु न मिटई हे सखी जो लिखिआ करतारि ॥ आपे कारणु जिनि कीआ करि किरपा पगु धारि ॥ करते हथि वडिआईआ बूझहु गुर बीचारि ॥ लिखिआ फेरि न सकीऐ जिउ भावी तिउ सारि ॥ नदरि तेरी सुखु पाइआ नानक सबदु वीचारि ॥ मनमुख भूले पचि मुए उबरे गुर बीचारि ॥ जि पुरखु नदरि न आवई तिस का किआ करि कहिआ जाइ ॥ बलिहारी गुर आपणे जिनि हिरदै दिता दिखाइ ॥५२॥
मूलम्
लेखु न मिटई हे सखी जो लिखिआ करतारि ॥ आपे कारणु जिनि कीआ करि किरपा पगु धारि ॥ करते हथि वडिआईआ बूझहु गुर बीचारि ॥ लिखिआ फेरि न सकीऐ जिउ भावी तिउ सारि ॥ नदरि तेरी सुखु पाइआ नानक सबदु वीचारि ॥ मनमुख भूले पचि मुए उबरे गुर बीचारि ॥ जि पुरखु नदरि न आवई तिस का किआ करि कहिआ जाइ ॥ बलिहारी गुर आपणे जिनि हिरदै दिता दिखाइ ॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लेखु = (अहंकार का) लेख, किए कर्मों के अनुसार मन में अहंकार के बने हुए संस्कार। करतारि = कर्तार ने (भाव, कर्तार की बनाई हुई मर्यादा में)। जिनि = जिस (कर्तार) ने। पगु धारि = पगु धारे, (हृदय में) चरण रखता है, मिलता है। वडिआईआ = प्रभु के गुण गाने, प्रभु की महिमा। लिखिआ = अहंकार के संस्कार जो हमारे मन में उकरे जाते हैं। फेरि न सकीऐ = पलटे नहीं जा सकते। सारि = संभाल। जि पुरखु = जो व्यापक प्रभु। हिरदै = हृदय में। कारणु = (‘अहंकार’ के लेख का) सबब, (भाव, प्रभु चरणों से विछोड़ा जिसके कारण व्यक्ति अहंकार में फसता है)।
अर्थ: हे सखी! (हमारे किए कर्मों के अनुसार, अहंकार का) जो लेख कर्तार ने (हमारे माथे पर) लिख दिया है वह (हमारी अपनी चतुराई व हिम्मत से) नहीं मिट सकते। (यह लेख तब ही मिटता है, जब) जिस प्रभु ने खुद ही (इस अहंकार के लेख का) सबब, (भाव, विछोड़ा) बनाया है वह मेहर करके (हमारे अंदर) आ बसे।
कर्तार के गुण गाने की दाति कर्तार के अपने हाथ में है; गुरु के शब्द की विचार के द्वारा समझने का यत्न करो (तो समझ आ जाएगी)।
(हे प्रभु! अहंकार के) जो संस्कार (हमारे मन में हमारे कर्मों के अनुसार) उकरे जाते हैं वह (हमारी अपनी चतुराई से) बदले नहीं जा सकते; जैसे तुझे अच्छा लगे तू स्वयं (हमारी) संभाल कर। हे नानक! (कह:) गुरु के शब्द को विचार के (देख लिया है कि हे प्रभु!) तेरी मेहर की नजर से ही सुख मिलता है।
जो मनुष्य अपने मन के पीछे चले वह (इस अहंकार के चक्र-व्यूह में फंस के) दुखी हुए। बचे वह जो गुरु-शब्द की विचार में (जुड़े)। (मनुष्य अपनी चतुराई करे भी क्या? क्योंकि) जो प्रभु (इन आँखों से) दिखता ही नहीं, उसके गुण गाए नहीं जा सकते। (तभी तो) मैं अपने गुरु से सदके हूँ जिसने (मुझे मेरे) हृदय में ही (प्रभु) दिखा दिया है।52।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पाधा पड़िआ आखीऐ बिदिआ बिचरै सहजि सुभाइ ॥ बिदिआ सोधै ततु लहै राम नाम लिव लाइ ॥ मनमुखु बिदिआ बिक्रदा बिखु खटे बिखु खाइ ॥ मूरखु सबदु न चीनई सूझ बूझ नह काइ ॥५३॥
मूलम्
पाधा पड़िआ आखीऐ बिदिआ बिचरै सहजि सुभाइ ॥ बिदिआ सोधै ततु लहै राम नाम लिव लाइ ॥ मनमुखु बिदिआ बिक्रदा बिखु खटे बिखु खाइ ॥ मूरखु सबदु न चीनई सूझ बूझ नह काइ ॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखीऐ = कहा जाता है। पढ़िआ = विद्वान। बिदिआ = विद्या के द्वारा। बिचरै = विचरता है, जीवन व्यतीत करता है। सहजि = सहिज में, अडोलता में, शांति में। सोधै = (अपने आप को) सही करता रहता है, (अपने आप का) विचार करता है, सवै चिंतन करता है और स्वयं को सुधारता है। ततु = अस्लियत, जीवन का असल जीवन उद्देश्य। बिक्रदा = बिक्री करता, बेचता। बिखु = जहर। चीनई = पहचानता, समझता। काइ = कोई भी।
अर्थ: उस पांधे (पंडित व अध्यापक) को विद्वान कहना चाहिए, जो विद्या के द्वारा शांति के स्वभाव में जीवन व्यतीत करता है, जो विद्या के द्वारा ही अपने असल की विचार करता है, और परमात्मा के नाम के साथ तवज्जो जोड़ के जीवन का असल उद्देश्य हासिल कर लेता है।
(पर) जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह विद्या को (सिर्फ) बेचता ही है (भाव, सिर्फ आजीविका के लिए इस्तेमाल करता है। विद्या के बदले आत्मिक मौत लाने वाली) माया-विष को ही कमाता है। वह मूर्ख गुरु के शब्द को नहीं पहचानता, शब्द की सुध-बुध उसको रक्ती भर भी नहीं होती।53।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाधा गुरमुखि आखीऐ चाटड़िआ मति देइ ॥ नामु समालहु नामु संगरहु लाहा जग महि लेइ ॥ सची पटी सचु मनि पड़ीऐ सबदु सु सारु ॥ नानक सो पड़िआ सो पंडितु बीना जिसु राम नामु गलि हारु ॥५४॥१॥
मूलम्
पाधा गुरमुखि आखीऐ चाटड़िआ मति देइ ॥ नामु समालहु नामु संगरहु लाहा जग महि लेइ ॥ सची पटी सचु मनि पड़ीऐ सबदु सु सारु ॥ नानक सो पड़िआ सो पंडितु बीना जिसु राम नामु गलि हारु ॥५४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। चाटड़िआ = चेलों, शागिर्दों, विद्यार्थियों को। समालहु = याद करो। संगरहु = संग्रह करो। लाहा = लाभ। मनि = मन में। सारु = श्रेष्ठ। बीना = देखने वाला, समझदार। जिसु गलि = जिसके गले में।
अर्थ: वह पांधा (पंडित, शिक्षक व अध्यापक) गुरमुखि कहा जाना चाहिए, (वह पांधा) दुनिया में (असल) लाभ कमाता है जो अपने शागिर्दों को ये शिक्षा देता है कि (हे विद्यार्थियो!) प्रभु का नाम जपो और नाम-धन एकत्र करो।
सच्चा प्रभु मन में बस जाना - यही सच्ची पट्टी है (जो पांधे को अपने चेलों को पढ़ाना चाहिए)। (प्रभु को हृदय में बसाने के लिए) सतिगुरु का श्रेष्ठ शब्द पढ़ना चाहिए। हे नानक! वही मनुष्य विद्वान है वही पंडित है और समझदार है जिसके गले में प्रभु का नाम-रूप हार है (भाव, जो हर वक्त प्रभु को याद रखता है और हर जगह देखता है)।54।1।
दर्पण-भाव
सिध गोसटि (गुरु नानक देव जी की सिद्धों के साथ हुई गोष्ठी) का भाव
पउड़ी वार:
(1) पहली पौड़ी ‘मंगलाचरन’ की है। इसमें ‘संत सभा’ की बड़ाई की गई है कि ‘सत्संगि’ की इनायत से परमात्मा की प्राप्ति होती है।
(रहाउ) देश-देशांतर और तीर्थों के प्रर्यटन से कोई लाभ नहीं होता। सतिगुरु के शब्द द्वारा परमात्मा में जुड़ने से ही संसार-समुंदर की विकार-लहरों से बचाव हो सकता है और आत्मिक पवित्रता हासिल होती है।
(2,3) चरपट जोगी द्वारा प्रश्न- तुम्हारा क्या मत है और उसका क्या उद्देश्य है? गुरु नानक देव जी का उक्तर- मेरा मत है ‘सतसंग का आसरा ले के प्रभु का स्मरण करना’। मनुष्य की सबसे बड़ी समझदारी यही है कि गुरु के बताए हुए राह पर चल कर अपने आप को पहचाने और प्रभु चरणों में जुड़ा रहे।
(4,5) चरपट का प्रश्न- संसार एक ऐसे समुंदर जैसा है जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है। तुम्हारे मन के मुताबिक इसमें से पार लांघने का क्या तरीका है?
गुरु नानक साहिब का उक्तर- जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा एक परमात्मा को अपने मन में बसाए रखता है वह दुनियावी आशाओं के जाल से बचा रहता है, और इस तरह जगत में मेहनत-कमाई करता हुआ भी ऐसे अछूता रहता है जैसे पानी में भी कमल का फूल नहीं भीगता अथवा जैसे मुर्गाबी के पंख नहीं भीगते।
(6) चरपट का प्रश्न- पर, ये कैसे पता चले कि गुरु का दर मिल गया है?
उक्तर: गुरु को मिलने की निशानी ये है कि चंचल मन चंचलता छोड़ के प्रभु की याद में जुड़ा रहता है, प्रभु का नाम मनुष्य की जिंदगी का आसरा बन जाता है। वैसे यह प्राप्ति अकाल पुरख की मेहर से होती है।
(7,8) संसार-समुंदर से अछोह रहने के लिए लोहारीपा जोगी ने जोग-मत की विधि इस प्रकार बताई- दुनियां के धंधों से अलग रहना, घर-बार त्याग के वृक्षों के नीचे ठहरना और कंद-मूल खा के गुजारा करना, और तीर्थों का स्नान - इस तरह मन को विकारों की मैल नहीं लगती और मन सुखी रहता है।
गुरु नानक देव जी का उक्तर- जो मनुष्य सतिगुरु की मति ले के प्रभु का नाम स्मरण करता है, वह घर-परिवार वाला होते हुए भी धंधों में खचित नहीं होता, उसका मन सदा अडोल रहता है, कोई सांसारिक चस्के उसको छू नहीं सकते।
(9,10,11) लोहारीपा जोगी अपने मत की प्रसंशा करता है - अगर जोगियों के ‘आई पंथियों’ का भेस धारण किया जाए, मुंद्रा, झोली और गोदड़ी पहनी जाए, तो मन माया की चोट से बच जाता है।
गुरु नानक देव जी का उक्तर- गुरु के शब्द को मन में बसाना कानों की मुद्राएं हैं, हर जगह प्रभु को व्यापक जानना गोदड़ी और झोली है, नाम की इनायत से सांसारिक ख्वाहिशों से मुड़ी हुई सूझ खप्पर है, शरीर को विकारों से पवित्र रखना दभ का आसन है, वश में किया हुआ मन लंगोटी है। सो, गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम ही स्मरण करो।
नोट: चरपट जोगी ने दो प्रश्न किए जो पौड़ी नंबर 4 और 6 में दर्ज हैं। लोहारीपा जोगी ने अपने मत की प्रसंशा करके गुरु नानक देव जी को जोग मत में शामिल होने की प्रेरणा की। ये ज़िक्र और इसका उक्तर नं: 9,10और 11 में है। इससे आगे जोगियों द्वारा प्रश्न और सतिगुरु जी द्वारा उक्तर हैं, पर किसी विशेष जोगी का नाम नहीं है।
(12,13) लोहारीपे ने तो जोग के चिन्ह धारण करने के लिए प्रेरित किया था, पर सतिगुरु जी ने जवाब दिया था कि हर जगह व्यापक प्रभु को जानो, गुरु के शब्द को मन में बसाओ, और तवज्जो को सांसारिक ख्वाहिशों से मोड़ लो। इसी ही विचार-कड़ी को जारी रख के और जोगियों ने पूछा कि वह कौन है जिसको आप ‘भरपुरि रहिआ’ कहते हो, और उसमें मन से तन से कैसे लीन हो के मुक्त हो सकते हैं।12।
सतिगुरु जी का उक्तर-परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है, गुरु के शब्द द्वारा मन से तन से उसमें जुड़ के ‘दुनिया सागर दुतरु’ से मुक्त हुआ जाता है। पर जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह चाहे मुंद्रा, खिंथा आदि भी धारण कर ले, फिर भी वह जनम-मरन के चक्कर में पड़ा रहता है।13।
(14,15,16) प्रश्न-यह जीव कैसे ऐसा बँधा हुआ है कि सर्पनी माया इसे खाए जा रही है, और ये आगे से अपने बचाव के लिए भाग भी नहीं सकता?
उक्तर- मनुष्य खोटी मति का शिकार हुआ रहता है, माया सर्पनी इसको अंदर-अंदर से खाती जा रही है, पर चस्कों में से इसका निकलने को जी नहीं करता, चस्कों का यह अंधकार इसको अच्छा लगता है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है उसका मन चस्कों से ऊपर उठ के एक ऐसी अवस्था पर पहुँचता है जहाँ माया वाली भटकना छू नहीं सकती, जहाँ माया के फुरनों की ओर से, जैसे, शून्यता बनी रहती है।
घर त्याग के किसी गुफा में समाधि लगाने के बजाय हम गृहस्थ में रहते हुए ही उस सहज-गुफा में बैठ के सुंन-समाधि लगाते हैं।15, 16।
(17,18) प्रश्न-जब सुमेर पर्वत पर आप हमें मिले थे, तब तो आपने भी उदासी भेस धारण किया हुआ था। अगर ‘हाटी बाटी’ को त्यागना नहीं है, तो आपने घर क्यों छोड़ा था? इस संसार-सागर से पार लांघनें के लिए अपने सिखों को आप कौन सा रास्ता बताते हो?।17।
उक्तर-हम तो तब गुरमुखों को ढूँढने के लिए घर से निकले थे। ‘दुतर सागर’ से पार लांघने के लिए गृहस्थ त्यागने की जरूरत नहीं, मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम स्मरण करके विकारों से बच सकता है।18।
(19,20) प्रश्न- दुनिया में रह के माया के प्रभाव से बचना इस तरह ही बहुत मुश्किल है जैसे कोई मनुष्य दाँतों के बग़ैर लोहा चबाने की कोशिश करे। हे नानक! तूने अपनी जिंदगी कैसे पलट ली? मन की आशाएं और मन के फुरने तूने कैसे समाप्त कर लिए? तुझे कैसे मिल गया ईश्वरीय प्रकाश?।19।
उक्तर-माया की चोट से बचना है तो वाकई लोहा चबाने के समान, बड़ा मुश्किल। पर मैं जैसे जैसे गुरु की शिक्षा पर चला, मेरे मन की भटकना खत्म होती गई। जैसे जैसे मुझे प्रभु के चरणों में जुड़ने का आनंद आया, मेरा मन ठहरता गया। गुरु के शब्द की इनायत से मेरे मन के फुरने और दुनिया की आशाएं खत्म होती गई। मुझे ईश्वरीय-प्रकाश मिल गया, और माया मेरे नजदीक ना पहुँच सकी। ये सब कुछ प्रभु की अपनी मेहर थी।20।
नोट: धर्म से संबंध रखने वाले व्यक्तियों का ये स्वभाव ही बन गया है कि वे सृष्टि की उत्पक्ति के बारे में प्रश्न भी धर्म में से हल करना चाहते हैं। जोगियों ने भी अब गुरु नानक देव जी से ऐसे ही सवाल पूछने शुरू कर दिए।
(21,22,23) प्रश्न- सृष्टि की उत्पक्ति के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? जब जगत नहीं होता, तब निर्गुण-स्वरूप प्रभु कहाँ रहता है? ये जीव कहाँ से आता है? कहाँ चला जाता है?
नोट: इन प्रश्नों के साथ-साथ और भी साधारण प्रश्न भी जोगियों ने पूछे: ज्ञान प्राप्त करने का क्या साधन है? मौत का डर कैसे दूर किया जा सकता है? कामादिक वैरियों पर विजय कैसे पाई जा सकती है?
नोट: पौड़ी नंबर 21 और 22 में छह-छह तुकें हैं। दोनों पौड़ियों की पहली चार-चार तुकों में जोगियों द्वारा किए गए प्रश्न हैं, और आखिरी दो-दो तुकों में सतिगुरु जी द्वारा साधारण सा उक्तर है, फिर पौड़ी नंबर 23 में विस्तार से उक्तर दिया गया है।
उक्तर-सृष्टि की उत्पक्ति का विचार तो हैरानी ही हैरानी पैदा करता है, कोई भी इसके बारे में कुछ नहीं बता सकता। जब जगत नहीं था तब परमात्मा अपने आप में ही समाया हुआ था। जगत रचना हो जाने पर ये जीव प्रभु के हुक्म में ही यहाँ आता है और हुक्म के अनुसार ही यहाँ से चल पड़ता है।
और प्रश्नों के उक्तर- ज्ञान प्राप्त करने का असल साधन ये है कि मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़े। सतिगुरु के शब्द द्वारा ही अदृश्य प्रभु में लीन हुआ जा सकता है, कामादिक वैरियों पर विजय पाई जा सकती है, और मौत का डर नहीं सताता।
नोट: इससे आगे पौड़ी नंबर 42 तक प्रश्नोक्तर नहीं हैं। सतिगुरु जी खुद ही अपने मत की व्याख्या करते हैं।
(24) गुरु-शब्द की इनायत से मनुष्य को यकीन बन जाता है कि ये सारा जगत-पसारा प्रभु ने अपने-आप से बनाया है। इस ऊँची आत्मिक अवस्था पर पहुँच के वह मनुष्य सब जीवों में उसी ज्योति को देखता है जो उसके अपने अंदर है, सब जीवों से दया-प्रेम का बर्ताव करता है, और, उसका अपना हृदय-कमल खिला रहता है। बस! यही है असल योगी।
(25) गुरु-शब्द में टिका रहने वाला मनुष्य प्रभु में जुड़ा रहता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा भटकना में पड़ा रहता है, नाम बिसारने के कारण उसको सदा ही अहंकार की पीड़ा सताती है। इससे निजात पाने का एक मात्र गुरु-शब्द ही तरीका है।
(26) अपने मन के पीछे चलने वाला सख्श कई किस्म के विकारों वाले बुराईयों के रास्ते पर पड़ा रहता है, मुँह से भी जब बोलता है, दुर-वचन ही बोलता है, इस तरह वह हमेशा घाटे वाले रास्ते पर ही चलता है।
(27) गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य गुरु-शब्द की सहायता से अपने इस अमोघ मन को सुधारता है, प्रभु की महिमा के द्वारा ऊँचा आत्मिक जीवन बना के प्रभु में ही एक रूप हो जाता है।
(28) गुरु के सन्मुख हो के मनुष्य ज्यों-ज्यों गुरु के शब्द में जुड़ता है, इसकी समझ ऊँची होती जाती है, अपनी आत्मा की इसको सूझ पड़ जाती है और संसार के विकारों से बच के जीने की विधि आ जाती है।
(29) गुरमुख मनुष्य घर-बार वाला होते हुए ही जिंदगी की बाजी में सिद्ध-हस्त हो जाता है, क्योंकि शब्द की सहायता से वह प्रभु की प्रेमा-भक्ति करता है और शुद्ध-आचरण वाला बनता है, उसके अंदर अहंकार (खुदगर्जी) नहीं रहती।
(30) परमात्मा ने यह जगत बनाया ही इसलिए है कि इसमें मनुष्य सतिगुरु के शब्द के द्वारा प्रभु से प्यार जोड़ के गुरमुख बनें और यहाँ से इज्जत कमा के जाएं।
(31) गुरु के सन्मुख हो के मनुष्य को ये समझ आ जाती है कि यहाँ गुण ग्रहण करने हैं और विकार त्यागने हैं; गुरमुख को किसी रिद्धि-सिद्धि की चाहत नहीं रह जाती।
(32,33, 34) ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, उसका अहंकार (खुदगर्ज स्वभाव) दूर होता है, और सारी सृष्टि ही इसको अपनी लगने लगती है। परमात्मा के साथ मिलाप का साधन ही यही है कि उसकी याद में जुड़ें, क्योंकि नाम-स्मरण में जुड़ने से ही प्रभु के गुणों के साथ जान-पहचान बनती है। पर नाम की दाति सिर्फ गुरु के पास से ही मिलती है। कोई अपने आप को जोगी कहलवाए अथवा सन्यासी, जो गुरु के शब्द में नहीं जुड़ा वह माया-जाल में ही फसा रहा।
(35) गुरु के सन्मुख रहके मनुष्य ज्यों-ज्यों प्रभु में तवज्जो जोड़ता है उसका मन प्रभु की याद में जुड़ जाता है, और विकारों की मार नहीं खाता।
(36) अपने आप को गुरु के हवाले करने से ही मनुष्य का मन नाम में अडोल रह सकता है। स्वै को गुरु के अर्पण करना ही असल में दान है, गुरु-तीर्थ में डुबकी लगानी ही असल तीर्थ-स्नान है। ऐसा मनुष्य और लोगों को भी प्रभु-चरणों में जोड़ता है।
(37) गुरु के हुक्म में चलना ही सभी धर्म-पुस्तकों का ज्ञान है। गुरु के हुक्म में चल के मनुष्य परमात्मा की सर्व-व्यापकता का भेद समझ लेता है। इसलिए वह दूसरों के साथ वैर-विरोध रखना बिल्कुल ही भुला देता है। बस! ईश्वर को पहचाना ही उसने है (ईश्वर के साथ सांझ डाली ही उसने है) जो गुरु के हुक्म में चला है।
(38) जब तक मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलता, इसका मन माया के मोह (लालच) की चोटें खाता रहता है, कोई भी और घाल-मुशक्कत मनुष्य को इस मार से नहीं बचा सकती।
(39) जिस मनुष्य को सतिगुरु मिल जाता है वह अपने तन को सुंदर सी दुकान पर मन को व्यापारी बना के माया के मोह की ओर से अडोल रहके नाम का वणज करता है। इस तरह माया के बंधनो से निजात पा के वह संसार-रूप ‘दुतर सागर’ से पार लांघ जाता है।
(40) रावण सीता को समुंदर से पार लंका में ले के गया था, श्री रामचंद्र जी ने समुंदर पर पुल बाँधा, दैत्यों को मारा, लंका लूटी और सीता को छुड़ा के ले आए। घर के भेदी विभीषण के बताए हुए भेद ने ये सारी मुहिम में बहुत सहायता की।
इस तरह, माया-ग्रसित मन ने जीव-स्त्री को प्रभु-पति से विछोड़ा हुआ है। दोनों के बीच संसार-समुंदर की दूरी बनी हुई है। परमात्मा ने जगत में गुरु भेजा। गुरु, मानो, पुल बन गया। जिस जीव-स्त्री को गुरु मिला, उसकी प्रभु-पति से दूरी मिट गई। गुरु ने घर का भेद समझाया कि कैसे मन विकारों में फसाता है। सो, गुरु-शरण आ के लाखों पत्थर-दिल जीव संसार-समुंदर से पार लांघते हैं।
(41) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह खोटे और खरे कामों का भेदी हो जाता है, इस वास्ते वह खोटे कामों में फसता नहीं, सिर्फ प्रभु की महिमा में उसकी तवज्जो टिकी रहती है, जिसकी इनायत के सदका कोई विकार उसके जीवन-सफर में रुकावट नहीं डाल सकता।
(42) अहंकार और हरि-नाम एक साथ नहीं रह सकते। जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है, वह गुरु-शब्द में मन जोड़ के अंदर से अहंकार (खुद गर्जी) दूर कर लेता है, महिमा की इनायत से उसको सारे संसार में ही परमात्मा की ज्योति दिखाई देती है।
नोट: इससे आगे फिर प्रश्नोक्तरों का सिलसिला आरम्भ होता है।
(43,44) प्रश्न- मनुष्य किस के आसरे जीवित रह सकता है? मनुष्य किस की शिक्षा पर चले कि ‘दुतर सागर’ दुनिया में रहते हुए भी माया के मोह से निर्लिप रह सके?
उक्तर-जीवन सांसों के आसरे टिका रहता है। अगर मनुष्य सतिगुरु के शब्द में अपनी तवज्जो जोड़े रखे, परमात्मा के गुण याद रखता रहे, तो माया के मोह से बचा रहता है, क्योंकि गुरु-शब्द से मनुष्य के अहंकार की आग जल जाती है।
(45,46, 47) मनुष्य के अंदर ईश्वरीय ज्योति बस रही है जो प्यार, कोमलता और शांति का पुँज है; पर माया की ममता के कारण इस जीव को तृष्णा की आग ने घेरा हुआ है, इस आग में जीव जलता है और भटकता है। अहंकार में फस के जीव दूसरों से रूखा सलूक करता है, इस रूखे-पन के कारण जीवन दुखदाई हो जाता है, जैसे, जीव को लोहा चबाना पड़ रहा है।
नोट: जोगी गुरु नानक देव जी से इस अवस्था के बारे में रम्ज़ भरे प्रश्न पूछते हैं;
प्रश्न- मोम के दाँतों के साथ लोहा कैसे चबाया जाए?
बर्फ के घर के चारों तरफ अगर आग का चोला डाला हुआ हो, तो कौन सी गुफा बरतें जहाँ वह बर्फ पिघले ना?
उक्तर-ईश्वरीय कोमलता और शांति बर्फ के समान हैं, इसको तृष्णा की आग से बचाने के लिए एक ही तरीका है कि मनुष्य गुरु की रजा में चले, और हर जगह एक परमात्मा को ही देखे। गुरु की रजा के अंदर रहना एक ऐसी गुफा है जहाँ तृष्णा की आग अंदरूनी आत्मिक शांति को मिटा नहीं सकती।
ज्यों-ज्यों मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है त्यों-त्यों उसका अहंकार बढ़ता है, दूसरों के साथ रूखा सलूक करता है, और चारों तरफ़ से अपने लिए रूखापन सहेड़ता है जो इसको दुखी करता है। इसका इलाज यही है कि मनुष्य सतिगुरु के शब्द में अपना मन जोड़े; शब्द की इनायत से ज्यों-ज्यों अहंकार मिटेगा, जगत की ओर से भी रूखा सलूक नहीं होगा। इस तरह अपने अंदर नया पैदा हुआ प्यार बाहरी रूखे बोलों को खत्म कर देगा। यही है मोम के दाँतों से लोहे को चबाना।46।
सतिगुरु के शब्द की सहायता से परमात्मा का अदब हृदय में टिकाने से मनुष्य का तन-मन शीतल हो जाता है, इस शीतलता की इनायत से वह काम-क्रोध-अहंकार और तृष्णा की अग्नि समाप्त हो जाती है जो इस जीवन को दुखी बना रही थीं।47।
नोट: उस चर्चा को जारी रखते हुए जोगियों ने फिर रम्ज़ भरे अंदाज में पूछा कि (48 से 49)
वह कौन सा तरीका है जिससे बर्फ का चन्द्रमा अपना प्रभाव बनाए रखे? और
कैसे सूरज तपता रहे?
भाव
- किस तरह मनुष्य के मन में सदा ठंड-शांति बनी रह सकती है?
- कैसे मन में ज्ञान का प्रकाश सदा बना रह सकता है?
- कैसे मौत का सहम मनुष्य के मन से दूर हो?।48।
उक्तर-ज्यों-ज्यों मनुष्य गुरु के शब्द को अपने मन में बसाता है, उसके अंदर शांति पैदा होती है, और शांत हृदय में ज्ञान का सूरज चढ़ने से मनुष्य के अंदर से अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाता है।
गुरु-शब्द की इनायत से जब मनुष्य प्रभु की याद को अपनी जिंदगी का रास्ता बनाता है तो प्रभु इसको ‘दुतर सागर’ से पार लंघा लेता है। सतिगुरु के शब्द के साथ गहरी सांझ बनाने से मन हर वक्त प्रभु-चरणों में लीन रहने के कारण उसे मौत का सहम नहीं व्यापता।49।
नोट: अगली पाँच पौड़ियों में प्रभु की याद की महत्वता के बारे में ही जोर देते हैं;
प्रभु का नाम स्मरण करने से मेर-तेर वाला स्वभाव दूर हो जाता है, मनुष्य के अंदर रूहानी-जीवन की एक ऐसी लहर चल पड़ती है कि जीव का प्रभु के साथ मिलाप सदा के लिए पक्का हो जाता है।50।
नाम-जपने की इनायत से मनुष्य को ये समझ आ जाती है कि परमात्मा हरेक घट में मौजूद भी है और फिर भी उस पर माया का कोई असर नहीं पड़ता। इस यकीन से ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, वह खुद भी दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ माया के मोह से बचा रहता है।51।
ये बात याद रखने वाली है कि ये ऊपर वर्णन किया गया निर्लिप और शून्य अवस्था वाला जीवन जीने से ही इस अवस्था की समझ पड़ सकती है। इस अवस्था में टिके हुए लोग परमात्मा जैसे ही हो जाते हैं।52।
नाम-जपने की इनायत से मनुष्य को परमात्मा अपने अंग-संग और सबमें व्यापक दिख जाता है, निर्लिप अवस्था उसके अंदर इतनी बलवान हो जाती है कि कोई भी और विचार वहाँ नहीं आ सकता, उसकी इन्द्रियों की मायावी पदार्थों की तरफ की दौड़ खत्म हो जाती है।53।
महिमा की वाणी मनुष्य को परमात्मा में जोड़े रखती है, इस वाणी की सहायता से गुरमुखि खुद विकारों से बचा रहता है व दूसरों को भी ‘दुतर सागर’ से बाहर लंघाता है।54।
(55,56, 57) प्रश्न- बुरी मति के पीछे लग के मनुष्य लोगों में आदर-ऐतबार गवा लेता है, दुनिया के विकारों में फसा होने के कारण मौत से भी हर वक्त सहमा रहता है। ऐसा मारें सदा खाता है और दुखी होता है, फिर भी इसको जीवन के सही रास्ते की समझ नहीं पड़ती। इसे कैसे समझ आए, और बुरी मति से इसकी कैसे खलासी हो?
उक्तर-गुरु की शरण पड़ कर, गुरु के शब्द के विचारने से दुर्मति दूर हो जाती है, ऐसा मनुष्य विकारों में पड़ने की बजाए नाम-धन कमा के खुद ‘दुष्तर सागर’ से पार लांघता है। व और लोगों को भी इस रास्ते की सूझ देता है; उसके हर तरफ प्रभु ही प्रभु व्यापक दिखाई देता है।56, 57।
(58,59 60) प्रश्न-जिस शब्द की बाबत तुम कहते हो कि उसके द्वारा संसार-समुंदर तैरा जा सकता है उस शब्द का निवास कहाँ है?
ये श्वास, जो बाहर निकालने पर हवा दस उंगली के फासले तक बाहर जाती है, ये दस-उंगल-प्रमाण श्वास किसके आसरे हैं?
उक्तर-प्रभु और प्रभु की महिमा का शब्द एक-रूप ही हैं, मैं जिधर देखता हूँ शब्द ही शब्द है। और, जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है उसके हृदय में यह शब्द बसता है। जो मनुष्य इस शब्द को पहचान लेता है उस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसके अंदर से मेर-तेर मिट जाती है।
यह महिमा का शब्द ही, प्रभु का नाम ही, गुरमुखि के श्वासों का आसरा है, गुरमुखि श्वास-श्वास प्रभु को याद करता है। गुरमुखि मनुष्य को अपने स्वरूप की समझ बख्शता है। गुरमुख को ये ज्ञान हो जाता है कि प्रभु का मिलाप ईड़ा, पिंगला, सुखमना के अभ्यास से ऊपर है, प्रभु में तो गुरु के शब्द द्वारा ही लीन हो सकते हैं।59।60।
नोट: पौड़ी नंबर: 61 में दो बार प्रश्न किए हैं, और इसी में ही उक्तर भी दिए गए हैं। पौड़ी नं: 62 और 63 में उन उक्तरों का विस्तार है।
(61,62, 63) प्रश्न- प्राणों का आसरा क्या है? और ज्ञान की प्राप्ति का कौन सा साधन है?
उक्तर-सतिगुरु का शब्द ही गुरमुख के प्राणों का आसरा है।
प्रश्न- वह कौन सी मति है जिससे मन सदा टिका रह सकता है?
उक्तर-गुरु से जो मति मिलती है उससे मन अडोल हो जाता है, चाहे सुख मिले या दुख हो।
जिस मनुष्य ने सतिगुरु के शब्द का आसरा नहीं लिया, वह जती बन के भी कुछ नहीं कमाता, और प्राणायाम में से उसको कुछ हासिल नहीं होता।
ज्ञान की प्राप्ति का साधन केवल गुर-शब्द ही है; जिसको यह दाति मिलती है उसकी तृष्णा-अग्नि बुझ जाती है, उसको आत्मिक सुख प्राप्त हो जाता है।
(64, 65) प्रश्न-यह मन जो आम तौर पर माया में मस्त रहता है कहाँ टिकता है? ये प्राण कहाँ टिकते हैं
जिस शब्द से तुम्हारे मत के मुताबिक मन की भटकना समाप्त होती है वह शब्द कहाँ बसता है?
उक्तर-जब प्रभु मेहर की नजर करता है तो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है और ये मन अडोल हो के अंदर ही हृदय में टिक जाता है। प्राणों का स्तम्भ नाभि है। दुष्तर सागर से तैराने वाला शब्द शून्य प्रभु में टिकता है, भाव शब्द और प्रभु में कोई भेद नहीं है। शब्द के द्वारा ये समझ आ जाती है कि ईश्वरीय जीवन की लहर हर जगह एक-रस व्यापक है।
(66,67) प्रश्न- जब ना ये हृदय था, ना ही ये शरीर था, तब मन (चेतन सत्ता) का ठिकाना कहाँ था?
जब नाभि का चक्कर ही नहीं था, तब श्वास कहाँ टिकते थे?
जब कोई रूप-रेख नहीं था, तब शब्द का ठिकाना कहाँ था?
जब ये शरीर नहीं था, तब मन प्रभु में कैसे जुड़ता था?
उक्तर-जब हृदय और शरीर नहीं थे, तब वैरागी मन निर्गुण प्रभु में लीन था।
जब नाभि, चक्र का स्तम्भ नहीं थी, तब प्राण भी प्रभु में ही टिके हुए थे।
जब जगत का रूप-रेख ही नहीं था, तब ‘दुष्तर सागर’ से तैराने वाला शब्द भी प्रभु में ही लीन था, क्योंकि जब जगत का अस्तित्व ही नहीं था, तब आकार-रहित त्रिभवणी ज्योति स्वयं ही स्वयं थी।
(68,69,70, 71) प्रश्न-जगत क्यों पैदा होता है? और, दुखी क्यों होता है?
उक्तर- जगत अहंकार में पैदा होता है (भाव, जगत की भाग-दौड़ स्वार्थ के आसरे है)। अगर इसको प्रभु का नाम बिसर जाए तो ये दुख पाता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा अहंकार (स्वार्थ) को जलाता है वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में टिका रहता है।68।
नोट: पौड़ी नं: 69,70 और 71 में फिर इसी ख्याल पर जोर देते हैं कि सतिगुरु के बताए हुए रास्ते पर चलना ही जीवन का सही रास्ता है, सतिगुरु की वाणी के द्वारा ही परमात्मा मनुष्य के हृदय में प्रकट होता है। गुरु के हुक्म में चलने वाला ही असल योगी है। गुरु के मिले बिना मनुष्य घोर अंधकार में टिका रहता है, और जिंदगी की बाजी हार के जाता है।
नोट: पौड़ी नंबर 72 में सारी चर्चा का तत्व-सार बताते हैं।
(72) सारे उपदेश का तत्व-सार ये है कि प्रभु की याद के बिना जोग (प्रभु से मिलाप) नहीं है, और, प्रभु का नाम सतिगुरु से ही मिलता है।
(73) नोट: जैसे एक लंबी वाणी के आरम्भ में मंगलाचरण की पौड़ी थी, अब पौड़ी नं: 72 तक ‘प्रभु मिलाप’ के बारे में सारी चर्चा समाप्त करके आखिर में ‘प्रार्थना’ है, हे प्रभु! ये बात तू खुद ही जानता है कि तू कैसा और कितना बड़ा है। जिनको तू बँदगी की दाति बख्शता है वे तेरे दर्शन से बलिहार जाते हैं। तू खुद ही इस रचना की खेल रचने वाला है।
दर्पण-शीर्षक
सिध गोसटि (सिद्ध गोष्ठी) के दौरान जोगियों द्वारा किए गए प्रश्न
दर्पण-टिप्पनी
गुरु नानक देव से किए गए निजी प्रश्न:
तुम्हारा मत क्या है और उसका उद्देश्य क्या है?
तुम्हारे मत के मुताबिक संसार-समुंदर से कैसे पार लांघा जाता है?
तुम जो कहते हो कि गुरु के माध्यम से संसार-समुंदर तैरा जाता है, ये कैसे पता लगे कि गुरु मिल गया है
नोट: ये तीनों प्रश्न चरपट जोगी ने किए थे। गुरु नानक देव जी का उक्तर सुन के लोहारीपा जोगी ने जगत से अछोह रहने के लिए अपने-अपने मत की प्रशंसा की, घर-बार छोड़ के वृक्षों के नीचे ठिकाना, कंद-मूल खा के गुजारा करना, तीर्थ-स्नान, मुंद्रा झोली गोदड़ी आदि धारण करने, इस तरह मन माया की चोट से बच जाता है।
पर सतिगुरु जी ने इस रास्ते को गलत बताया।
इससे आगे जोगियों द्वारा खुले सवाल हैं।
किसी विशेष जोगी की ओर से नहीं।
वह कौन है जिसे तुम ‘भरपुरि रहिआ’ कहते हो? उसमें कैसे मन से तन से लीन हो के मुक्त हुआ जा सकता है?
ये जीव कैसे ऐसा बँधा पड़ा है कि सपनी माया इसे खाए जा रही है, और ये आगे से अपने बचाव के लिए भाग भी नहीं सकता?
जब आप हमें सुमेर पर्वत पर मिले थे, तब आपने भी उदासी का भेस धारण किया हुआ था। ‘अगर ‘हाटी बाटी’ को त्यागना ही नहीं, तब आपने घर छोड़ा क्यों था? तुम अपने सिखों को कौन सा रास्ता बताते हो?
दुनिया में रहके माया के प्रभाव से बचना वैसे ही बड़ा मुश्किल है, जैसे कोई मनुष्य दाँतों के बिना लोहा चबाने की कोशिश करे। हे नानक! तूने अपने जिंदगी कैसे पलट ली? मन की आशाओं और मन के फुरने कैसे खत्म कर लिए? ईश्वरीय प्रकाश तुम्हें कैसे मिल गया?
सृष्टि की उत्पक्ति के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? जब जगत नहीं होता, तब निर्गुण-रूप प्रभु कहाँ टिका रहता है? ये जीव कहाँ से आता है? कहाँ चला जाता है?
ज्ञान प्राप्त करने के क्या साधन हैं?
मौत का डर कैसे दूर हो सकता है?
कामादिक वैरियों को कैसे जीता जाता है?
मनुष्य किस आसरे से जीवित रह सकता है? किस की शिक्षा पर चल कर मनुष्य दुनियाँ में रहता हुआ भी माया के मोह से बचा रह सकता है?
मोम के दाँतों से लोहा कैसे चबाया जाए? यदि बर्फ के घर के चारों तरफ आग का गोला हो, तो कौन सी गुफा बरतें कि बर्फ पिघल ना जाए?
वह कौन सा साधन है जिससे बर्फ का घर-चंद्रमा अपना प्रभाव बनाए रखे? किस तरह सूरज हमेशा तपता रहे? मौत का सहम कैसे दूर हो?
बुरी मति के पीछे लग के मनुष्य इज्जत-ऐतबार गवा लेता है, हर वक्त सहमा भी रहता है। इस दुमर्ति से खलासी कैसे मिले?
जिस शब्द की बाबत तुम कहते हो कि उसके द्वारा संसार-समुंदर तैरा जाता है, उस शब्द का निवास कहाँ है? ये दस-उंगल-प्रमाण प्राण किस के आसरे हैं?
प्राणों का आसरा क्या है? ज्ञान की प्राप्ति का कौन सा साधन है? मन कैसे सदा टिका रह सकता है?
जिस शब्द के माध्यम से तुम्हारे मत के मुताबिक मन की भटकना खत्म होती है वह शब्द बसता कहाँ है?
जब ना ये हृदय था, ना ये शरीर था तब चेतन-सत्ता का ठिकाना कहाँ था? जब नाभि का चक्र ही नहीं था, तब श्वास कहाँ टिकते थे? जब कोई रूप-रेख ही नहीं था, तब शब्द का ठिकाना कहाँ था? जब ये शरीर ही नहीं था, तब मन प्रभु में कैसे जुड़ता था?
जगत क्यों पैदा होता है? और, जगत दुखी क्यों होता है?
दर्पण-भाव
हरेक शब्द का, अथवा लंबी वाणी का केन्द्रिय भाव उन तुकों में हुआ करता है जिनके आखिर में शब्द ‘रहाउ’ लिखा होता है। शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाउ’, भाव, अगर आपने सारे शब्द का या सारी वाणी का केन्द्रिय भाव समझना है तो इन तुकों को ध्यान से विचारो।
‘सिध गोसटि’ की ‘रहाउ’ की तुकें ये है;
किआ भवीअै? सचि सूचा होइ॥
साच सबद बिनु मुकति न कोइ॥
सो, ‘सिध गोसटि’ का केन्द्रिय विचार है: गृहस्थ छोड़ने का कोई लाभ नहीं। गृहस्थ छोड़ के कोई सच्चा व पवित्र नहीं हो सकता, माया के बंधनो से आजादी नहीं मिलती। परमात्मा की याद में जुड़ने से मन पवित्र होता है। जब तक प्रभु की महिमा की वाणी में मन ना जुड़े, माया की कसक से खलासी नहीं होती।
सारी ‘सिध गोसटि’ में इसी केन्द्रिय विचार का विस्तार है।
जोगियों और गुरु नानक देव जी केमत में फर्क;
मनुष्य आजीविका के लिए पहले रोजी कमानी आरम्भ करता है। पर धीरे-धीरे उस कमाई से मनुष्य का प्यार बढ़ना शुरू हो जाता है। यहाँ तक, कि आखिर इसको हर समय अपने ही सुख का, अपने ही बड़प्पन का ख्याल बना रहता है। गुरमति की बोली में इस अवस्था का नाम ‘हउमै’ (अहंकार) है। इसका कुदरती नतीजा यह निकलता है कि इसके अंदर मेर-तेर बढ़ती है, भेदभाव पक्का होता जाता है, अपनापन और बेगानापन बढ़ता जाता है। सतिगुरु जी ने इस हालत को बयान करने के लिए शब्द ‘दुबिधा’ बरता है। ‘दुबिधा’ का अर्थ है ‘दो किस्म का’, ‘दो हिस्सों में बँटा हुआ’। मन की यही अवस्था भेदभाव का मूल है। ये ‘दुबिधा’ कहाँ से पैदा होती है? ‘हउमै’ से, अहंकार से।
‘हउमै दो शब्दों का जोड़ है: ‘हउ’ और ‘मैं’। ‘हउ’ संस्कृत के शब्द ‘अहं’ का प्राक्रित रूप है, जिसका अर्थ है ‘मैं’। सो, ‘हउमै’ का अर्थ है ‘मैं मैं’ हर बात में, हर जगह, हर समय यही ख्याल बना रहना कि ‘मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं अमीर हो जाऊँ, इस काम में से मैं ही कमा लूँ, मैं ही मैं, मैं ही मैं’। भाव, स्वार्थ खुदगर्जी। जिस मनुष्य ने स्वार्थ को ही जीवन का निशाना बना लिया हो, वह कुदरती तौर पर भेदभाव में फस जाता है, दूसरों का नुकसान करके भी अपना लाभ सोचता है।
परिवार, कौम, देश, दुनियाकहीं भी ध्यान मार के देख लो, हर जगह स्वार्थ ही, वैर-विरोध का मूल है। एक घर के जीव खुदगर्जी के कारण वैरी बन जाते हैं, एक ही कौम के लोग एक ही देश के बाशिंदे एक-दूसरे के लहू के प्यासे हो जाते हैं, देश-देश आपस में टकरा जाते हैं। यह स्वार्थ दुनिया को नर्क बना देता है। स्वार्थी व्यक्ति दूसरों को भी दुखी करता है, और खुद भी सुखी नहीं रह सकता।
जोगियों ने इसका इलाज ये समझा कि घर-घाट छोड़ के, मल्कियत खत्म करके जंगल बसेरा कर लिया जाए। पर, माया सिर्फ स्त्री-बच्चों का प्यार ही नहीं, माया केवल धन का नाम नहीं। माया के अनेक रूप हैं। जंगल में किए तपों का घमण्ड भी माया है, समाधियों की एकाग्रता से पैदा हुई मानसिक ताकतों का नशा भी माया है, इन मानसिक शक्तियों के आसरे लोगों को वर-श्राप के लालच-डरावे देने भी माया के हाथों में ही खेलना है। जंगलों में जा के भी ‘मैं मैं’ ही टिकी रही, ‘मैं वर दे सकता हूँ, मैं श्राप दे सकता हूँ’ अहंकार और क्रोध बने रहे।
धरती के सारे मनुष्यों के लिए यह रास्ता है ही असम्भव। काम-काज छोड़ने से, सारे जीवों के लिए वृक्ष खुराक पैदा नहीं कर सकते। अगर सारे ही मनुष्य गृहस्थ छोड़ के जंगल में चलें जाएं, तो मनुष्य जाति ही खत्म हो जाएगी। पर अगर जंगल जा के भी, स्त्री-पुरुष संबंध बने रहे, तो फिर गृहस्थ हो गया।
गुरु नानक देव जी का रास्ता यह है कि गृहस्थ में ही रह के ‘हउमै’ का त्याग किया जाए। ‘हउमै’ ही जगत के दुखों का मूल कारण है। ‘हउमै’ को त्यागना है दुखों से बचने के लिए। पर सिर्फ त्याग से क्या बनेगा? असल निशाना है मन की शांति, मन का सदीवी सुख। सुख-शांति का श्रोत है परमात्मा। सो नरक भरे जीवन से बचने के लिए परमात्मा में मिले रहना आवश्यक शर्त है। पर, पूर्ण मिलाप सिर्फ उन पदार्थों का ही हो सकता है जिनका असल एक ही हो। पानी और तेल को बोतल में डाल कर जितना मर्जी हिलाएं, फिर भी वे अलग-अलग ही रहेंगे। परमात्मा है सारे जीवों को प्यार करने वाला, हम है सिर्फ अपने आप को प्यार करने वाले। वह है सर्व-प्रिय, हम हैं स्वै-प्रिय। वह है अल-गरज, हम हैं खुद गरज। खुद-गरज और अल-गरज एक जान कैसे हो सकेंगे?
हउमै नावै नालि विरोधु है, दुइ न वसहि इक ठाइ॥
फिर, मेल का कोई तरीका? हाँ, पानी बन के ही पानी में समाया जा सकता है। हमारा और प्रभु का स्वभाव मिलने पर ही हम उसमें एक-मेक हो सकते हैं। अपने आप को प्यार करना छोड़ दें, परमात्मा की तरह सारी सृष्टि को प्यार करने लग पड़ें। कोई ऐसा प्रबंध बने कि सारा ही जगत प्रभु-पिता का एक ही परिवार दिखने लग जाए। स्वभाव मिलाने का एक मात्र तरीका है वह है प्यार। जिसके साथ गहरा प्यार बन जाए, उसके साथ स्वभाव भी मिल जाता है। पर यह गहरा प्यार कैसे पड़े? जिससे प्यार हो? उसे याद किए बिना नहीं रह सकते। जैसे-जैसे बार-बार किसी को याद करते रहें, वैसे-वैसे उसके साथ प्यार बढ़ता जाता है। याद और प्यार, प्यार और याद-इनका आपस में गहरा रिश्ता है। परमात्मा की याद परमात्मा से प्यार पैदा करेगी। प्यार उसके साथ हमारा स्वभाव मिलाएगा। हम खुद-गरजी से हट के सारे जगत को एक का परिवार समझ के सारे जगत से प्यार करने लगेंगे। बस! स्वभाव मिल गया तो एक हो गए;
‘जिउ जल महि जलु आइ खटाना॥
तिउ जोती संगि जोति समाना॥’
सो, गुरु नानक देव जी का ये मार्ग है कि गृहस्थ में रहते हुए लोगों के लिए जीएं; लोगों से प्यार, ख़ालक से प्यार डालने पर ही बन सकता है।
दर्पण-टिप्पनी
सिध गोसटि के लिखे जाने का अवसर:
संन् 1521 में तीसरी ‘उदासी’ (गुरु नानक देव जी द्वारा की गई तीन यात्राओं में से तीसरी यात्रा) से वापस आ के गुरु नानक देव जी पक्के तौर पर करतारपुर आ के बस गए थे। करतारपुर सन् 1515 के आखिर में बसाया गया था, जब सतिगुरु जी पहली ‘उदासी’ से वापस आ के तलवंडी माता-पिता को मिलने के बाद पखोके रंधावे अपनी पत्नी और बच्चों को मिलने के लिए आए थे। सतिगुरु जी ने सिर्फ तीन ‘उदासियां’ ही की थीं।
करतारपुर रावी नदी के उक्तरी किनारे पर बसा हुआ है। यहाँ से बटाला नगर तकरीबन 21 मील की दूरी पर दक्षिण की ओर है। डेहरा बाबा नानक से बटाले को सीधी सड़क जाती है। इस सड़क पर बटाले से तीन मील की दूरी पर एक मन्दिर है जिसका नाम ‘अचल’ है। यही मंदिर जोगियों का है। हर साल फाल्गुन के महीने यहाँ मेला लगता था, और, जोगी लोग दूर-दूर से यहाँ आ के इकट्ठे होते थे। इलाके के गाँवों के लोग इन जोगियों की बड़ी मानता-पूजा करते थे।
संन् 1539 के मेले पर गुरु नानक देव जी भी करतारपुर से चल कर अचल गए। जोगी गाँवों के भोले-भाले लोगों पर अपनी रिद्धियों-सिद्धियों का प्रभाव डाल रहे थे। यही इन लोगों की राशि-पूंजी थी। किसी को वर का लालच देना और किसी को श्राप से डराना; यही था इनके पास हथियार, जिसके चलते गृहस्थी लोग इनकी मानता करते थे। पर, गुरु नानक देव जी के प्रचार का असर बढ़ रहा था। लोगों के दिलों में जोगियों की कद्र कम हो रही थी। जोगियों को भी ये काँटा चुभ रहा था।
जब जोगियों ने गुरु नानक देव जी को अचल के मेले में आया हुआ देखा, तो उन्होंने आपस में राय बनाई कि अब मौका है ढलता रसूख बहाल करने का, लोगों को करामातें दिखा के अपनी महानता का सिक्का जमाएं, जब गुरु नानक कोई करामात नहीं दिखा पाएगा, तो हमारे पैर फिर जम जाएंगे।
जोगियों ने लोगों को कई करिश्मे दिखाए। फिर गुरु नानक देव जी को भी वंगारा। पर सतिगुरु जी ने सिर्फ ये सादा सा उक्तर दिया कि हमारे पास तो केवल प्रभु की याद ही याद है जिसकी इनायत से हमें वह सब जीवों में दिखाई देता है, और हम किसी पर और कोई डर-दबाव नहीं डालते। लोगों को डराने की जगह उनसे प्यार करना; हमें सबसे बड़ी करामात यही दिखती है, और, ये करामात मिलती है साधु-संगत में से।
सुनने-देखने वाले लोगों को जोगियों के तमाशों से गुरु नानक देव जी का उक्तर ज्यादा जचा। उनके रसूख पर बल्कि एक और चोट लगी। अब उन्होंने नया पैंतरा बदला। सारे जोगी सतिगुरु जी के चारों तरफ बहस करने के लिए इकट्ठे हो गए।
नोट: इस लेख के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए पढ़ें मेरा लेख ‘गुरु नानक देव जी की उदासियाँ’ पंना 114 पुस्तक ‘गुरमति प्रकाश’ (सिंघ ब्रदर्ज, बाजार माई सेवा, अमृतसर)
दर्पण-शीर्षक
मुखिया सिध
दर्पण-टिप्पनी
जो बहस गुरु नानक देव जी की जोगियों के साथ हुई, सतिगुरु जी ने उसको इतमिनान से कविता का रूप दे के ‘सिध गोसटि’ नाम दिया। ‘सिध गोसटि’ में सतिगुरु जी ने सिर्फ दो सिधों का नाम लिखा है: चरपट और लोहारीपा। चर्चा छेड़ने वाले यही दोनों थे। यही मेले में एकत्र हुए जोगियों के मुखी होंगे। पर अन्य जोगी भी कई प्रश्न पूछते रहे। गुरु नानक देव जी ने वह सारे प्रश्न और अपनी ओर से दिए गए उक्तर तो ‘सिध गोसटि’ में दर्ज कर दिए हैं, पर प्रश्न करने वाले जोगियों के नाम नहीं दिए। हाँ, भाई गुरदास जी ने उनमें से एक का नाम भंगरनाथ दिया है, जिसने ये पूछा था कि अगर जिंदगी का सही रास्ता गृहस्थ में रह के स्वार्थहीन होना है तो गृहस्थ क्यों छोड़ा था।
नोट: पहला चरपट जोगी दसवीं शताब्दी में हुआ, गुरु नानक देव से पाँच सदी पहले। पर हम ये बात आम देखते हैं कि प्रसिद्ध हस्तियों के नाम उनके श्रद्धालु अपने परिवारों में बरतते रहते हैं। सिख पंथ में पाँच-प्यारों के नाम खास आदर-सत्कार रखते हैं, पर ये नाम आम बरते जा रहे हैं। कई सज्जन तो सतिगुरु जी के नाम के प्रयोग से भी नहीं झिझकते। इस तरह ये चरपट भी गुरु नानक देव जी के समय का कोई प्रसिद्ध जोगी है।
दर्पण-शीर्षक
कब लिखी गई?
दर्पण-टिप्पनी
भाई गुरदास जी ने अपनी पहली ‘वार’ में इस बहस का काफी विस्तार से जिक्र किया है। वहाँ वे लिखते हैं कि शिवरात्रि का मेला सुन के गुरु नानक देव जी करतारपुर से अचल बटाले गए। मेला खत्म होने पर आप मुल्तान पहुँचे। मुल्तान से वापस करतारपुर आ के जल्द ही सतिगुरु जी ने बाबा लहिणा जी को अपनी जिम्मेवारी सौंप दी।
शिवरात्रि फरवरी-मार्च में आती है। गुरु नानक देव जी सितंबर 1539 में ज्योति-ज्योति समाए थे (देहांत)। इससे प्रकट होता है कि सिद्धों से सतिगुरु जी की गोसटि फरवरी-मार्च संन् 1539 में हुई थी, और मुल्तान से वापस करतारपुर पहुँच के सतिगुरु जी ने वाणी ‘सिध गोसटि’ लिखी थी, जो हर हालत में सितंबर से पहले थी।
नोट: जोगियों को गुरु नानक देव जी पहली ‘उदासी’ के वक्त भी ‘गोरख मते’ आदि जगहों पर मिले थे। दूसरी उदासी में तो गए ही सीधे सुमेर पर्वत पर और जोगियों के पास ही। जोगी हमेशा प्रश्न करते रहे, और सतिगुरु जी को अपने मत में लाने के लिए प्रेरते रहे। वाणी ‘सिध गोसटि’ में गुरु नानक देव जी ने वह सारे ही प्रश्नोक्तर दर्ज किए हैं। पहले मिलने की बाबत जोगी भंगरनाथ का प्रश्न बताता है।
दर्पण-शीर्षक
‘सिध गोसटि’ के बारे में भाई गुरदास जी की लिखत
दर्पण-टिप्पनी
तीसरी ‘उदासी’ से वापस मुड़ के
फिरि बाबा आइआ करतारपुरि, भेख उदासी सगल उतारा॥ पहिरि संसारी कपड़े, मंजी बैठि कीआ अवतारा॥ उलटी गंग वहाईओनि, गुर अंगदु सिरि उपरि धारा॥ पुतरी कउलु न पालिआ, मनि खोटे आकी नसिआरा॥ बाणी मुखहु उचारीऐ, हुइ रुशनाई मिटै अंधारा॥ गिआनु गोसटि चरचा सदा, अनहदि सबदि उठे धुनकारा॥ सोदरु आरती गावीऐ, अंम्रित वेले जापु उचारा॥ गुरमुखि भारि अथरबणि तारा॥३८॥१॥
नोट: बाबा लहिणा जी संन् 1532 में गुरु नानक देव जी की शरण आए थे।
मेला सुणि सिवराति दा, बाबा अचल वटाले आई॥ दरसनु वेखणि कारने, सगली उलटि पई लोकाई॥ लगी बरसणि लछमी, रिधि सिधि नउ निधि सवाई॥ जोगी वेखि चलत्र नो, मन विचि रिसकि घनेरी खाई॥ भगतीआ पाई भगति आणि, लोटा जोगी लइआ छपाई॥ भगतीआ गई भगति भुलि, लोटे अंदरि सुरति भुलाई॥ बाबा जाणी जाणु पुरख, कढिआ लोटा जहा लुकाई॥ वेखि चलित्रि जोगी खुणिसाई॥३९॥
खाधी खुणसि जोगीसोरां, गोसटि करनि सभे उठि आई॥ पुछै जोगी भंगर नाथु, तुहि दुध विचि किउ कांजी पाई॥ फिटिआ चाटा दुध दा, रिड़किआ मखणु हथि न आई॥ भेख उतारि उदासि दा वति किउ संसारी की रीति चलाई॥ नानक आखै, भंगरनाथ! तेरी माउ कुचजी आई॥ भांडा धोइ न जातिओनु, भाइ कुचजे फुलु सड़ाई॥ होइ अतीतु ग्रिहसति तजि, फिरि उनहु के घरि मंगणि जाई॥ बिनु दिते किछु हथि न आई॥४०॥
दर्पण-भाव
भाव: हक की कमाई में से बाँट के खाए बिना आत्मिक सुख नहीं मिलता।
दर्पण-टिप्पनी
इहि सुणि बचनि जोगीसरां, मारि किलक बहु रूइ उठाई॥ खटि दरसन कउ खेदिआ, कलिजुगि बेदी नानक आई॥ सिधि बोलनि सभि अउखधीआ, तंत्र मंत्र की धुनो चढ़ाई॥ रूप वटाए जोगीआं, सिंघ बाघि बहु चलत दिखाई॥ इकि पर करि कै उडरनि, पंखी जिवै रहे लीलाई॥ इक नाग होइ पउनु छोडि, इकना वरखा अगनि वसाई॥ तारे तोड़े भंगरनाथु, इक उडि मिरगानी जलु तरि जाई॥ सिधां अगनि न बुझै बुझाई॥४१॥
अगनि-ईष्या की आग।
दर्पण-शीर्षक
करामातें दिखा के
दर्पण-टिप्पनी
सिधि बोलनि, सुणि नानका! तुहि जग नो करामाति दिखाई॥ कुछु दिखाइ असानूं भी, तूं किउं ढिल अजेही लाई॥ बाबा बोलै, नाथ जी! असां वेखे जोगी वसतु न काई॥
दर्पण-भाव
(भाव, हमारे पास जोगियों को दिखाने के लिए कोई चीज नहीं)
दर्पण-टिप्पनी
गुरुसंगति बाणी बिना, दूजी ओट नही है राई॥ सिव रूपी करता पुरखु, चलै नाही धरति चलाई॥ सिधि तंत्र मंत्र करि झड़ि पए, सबद गुरू के कला छपाई॥ ददै दाता गुरू है, कके कीमति किनै न पाई॥ सो दीन, नानक सतिगुरु सरणाई॥४२॥
बाबा बोलै, नाथ जी! सबदु सुनहु सचु, मुखहु अलाई॥ बाझहु सचे नाम दे, होर करामाति असांथै नाहीं॥ करउं रसोई सार दी, सगली धरती नथि चलाई॥ बसत्र पहिरउं अगनि के बरफ हिमालै मंदरु छाई॥ एवड करीं विथार कउ, सगली धरती हकी जाई॥ तोलीं धरति अकासु दुइ, पिछै छाबै टंकु चढ़ाई॥ इहु बलु रखां आप विचि, जिसु आखां तिसु पारि कराई॥ सतिनामु बिनु, बादर छाई॥४३॥
बाबे कीती सिध गोसटि, शबद शांति सिधां विचि आई॥ जिणि मेला शिवराति दा, खट दरसनि आदेसु कराई॥ सिधि बोलनि शुभ बचन, धंन नानक! तेरी वडी कमाई॥ वडा पुरखु परगटिआ, कलिजुग अंदरि जोति जगाई॥ मेलिओं बाबा उठिआ, मुलतानै दी ज़िआरति जाई॥ अगहु पीर मुलतान दे, दूध कटोरा भरि लै आई॥ बाबे कढि करि बगल ते, चंबेली दुधि विचि मिलाई॥ जिउ सागर विचि गंग समाई॥४४॥
ज़िआरति करि मुलतान दी, फिरि करतारपुरे नो आइआ॥ चढ़ै सवाई दह दिही, कलिजुगि नानकि नामु धिआइआ॥ विणु नावै होरु मंगणा, सिरि दुखां दै दुखु सबाइआ॥ मारिआ सिका जगति विचि, नानक निरमलु पंथु चलाइआ॥ थापिआ लहिणा जींवदै, गुरिआई सिरि छत्रु फिराइआ॥ जोती जोति मिलाइ कै, सतिगुरि नानकि रूपु वटाइआ॥ लखि न कोई सकई, आचरजै आचरजु दिखाइआ॥ काइआ पलटि सरुपु बणाइआ॥४५॥
दर्पण-शीर्षक
थोड़ा बहुत योग मत के बारे में
दर्पण-टिप्पनी
जोगी शिव जी के उपासक हैं, जिसे वे महायोगी और सबसे पहला योगी मानते हैं। पंजाब में जगह-जगह पर, खास करके शमशान-मढ़ियों में, भैरव की मूर्तियां देखने को मिल जाती हैं।
हर धर्म के लोग जोग मत धारण कर सकते हैं। जो जाने-माने जोगी-फकीर हैं, उनके 12 पंथ हैं: हेतू, पाव, आई, राम्य, पागल, गोपाल, कंथड़ी, बन, ध्वज, चोली, रावल और दास।
सभी जोगी रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। बहुत सारे मांस खाते हैं, शराब और चरस पीते हैं, इनको वे जरूरी समझते हैं।
गोरखनाथ के पंथ के जोगीश्वर अथवा कान-फटे, कानों में लकड़ी, शीशे या पत्थर की बड़ी-बड़ी मुद्राएं पहनते हैं। इनके नाम के पीछे शब्द ‘नाथ’ आता है। औघड़ व ओघड़ जोगियों के नाम से शब्द ‘दास’ होता है।
जोग का निशाना यह है कि मनुष्य पत्थर-रूप हो जाए। इस अवस्था का नाम वे ‘कैवल्य’ रखते हैं।
हमारे देश के पुरातन विद्वानों के मुताबिक शरीर में बहक्तर हजार नाड़ियाँ हैं, जो दिल में से निकलती हैं। जिस-जिस जगह ये नाड़ियाँ चारों तरफ से आ के मिलती हैं, वहाँ पदम् अथवा कमल बन जाते हैं। ये कमल हर किस्म के शारीरिक कामों को करने के लिए ताकत का श्रोत होते हैं। काठ-उपनिशद में लिखा है कि दिल में इकहक्तर सौ नाड़ियाँ हैं। उनमें से एक (सुखमना नाड़ी) सिर को जाती है। मौत के समय इस रास्ते से जीव ऊपर चढ़ कर अमर होता है।
‘ज्ञान सरोदय’ (प्राणायम की एक शाखा) के अनुसार एक नाड़ी (ईड़ा) दाहिनी नासिका को आती है, और ‘पिंगला’ बांई नासिका की ओर। ‘सुखमना’ (सुस्मना) दसवाँ द्वार को जाती है।
योग के निम्न-लिखित आठ अंग हैं:
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रतिआहार, धारणा, ध्यान, समाधि।
- ‘यम’– अन्य लोगों के साथ स्वच्छ व्यवहार रखने के लिए अपने ऊपर लगाए हुए अनुशासन का नाम ‘यम’ है। भाईचारिक जीव साधारण-सरल बनाए रखने के लिए योग के इस अंग की अत्यंत आवश्यक्ता है।
‘यम’ दस किस्म का निहित किया गया है;
अहिंसा, सत्य, असतेय, ब्रहमचर्य, क्षमा, धैर्य (ध्रिती), दया, सादगी (आरजव), मिताहार व शोच।
अहिंसा– अपने मन वचन और कर्मों से किसी को भी दुख-कष्ट ना देने को अहिंसा कहते हैं।
सत्य– सच, सच बोलना।
असतेय– पर धन का त्याग, कोई भी पराई चीज अंगीकार ना करने का नाम है ‘असतेय’।
ब्रहमचर्य– स्थिर वीर्य रहने को ब्रहमचर्य कहा जाता है। काम-वासना के अधीन ना होना।
क्षमा– बोल और कुबोल दोनों को एकसमान सहने को क्षमा कहते हैं।
धैर्य (ध्रिती) – सुख और विपक्ति के समय अडोलचिक्त रहना धीरज है।
दया– वैरी और परदेसी के साथ मित्र वाला हित करने का नाम दया है।
सादगी (आरजव) – सादगी भरा जीवन, सादा जीवन।
मिताहार– कम खाना।
शोच– अंदरूनी और बाहरी पवित्रता।
नोट: इनके अलावा निर्लोभता और निर्भयता को विद्वान ‘यम’ में ही शामिल करते हैं। - नियम– अपने अंदर शांति कायम रखने के लिए अपने ऊपर लगाई हुई बंदिश का नाम नियम है। नियम की भी निम्न-लिखित दस किस्में होती हैं;
तप, संतोष, आस्तिकता, दान, ईश्वर भक्ति, सिद्धांत श्रवण, हृ (लज्जा), मती (श्रद्धा), जप, हुती।
तप– सर्दी–गर्मी आदि द्वंद सहने का नाम तप है।
संतोष– सहज स्वभाव से आए सुख–दुख को खुशी से सहना।
आस्तिकता– परमात्मा के अस्तित्व को मानना।
दान– हक की कमाई में से भले पुरुषों की सेवा करनी।
ईश्वर भक्ति– परमात्मा की पूजा।
सिद्धांत श्रवण– धर्म–ग्रंथों को सुनना और मानना।
हृ (लज्जा) – कोई बुरा काम करने से मन में संकोच पैदा होना।
मती (श्रद्धा) – धर्म शास्त्र के बताए हुए काम को करने में दृढ़ विश्वास।
जप–मंत्र को बार बार उचारना।
हुती– हवन।
नोट: कई शास्त्रकार पाँच-पाँच नियम बताते हैं, कई दस-दस कहते हैं, और कई दसों से भी ज्यादा बताते हैं। पर इस गिनती के कम-ज्यादा होने से कोई नुकसान नहीं है। ये सारे गुण एक-दूसरे के पूरक और आसरे हैं। - आसन: योग के तीसरे अंग का नाम है ‘आसन’। आसनों के अभ्यास से शरीर में खून का संचार ठीक तरह बना रहता है, शरीर की सारी माँस-पेशियाँ नरोई और साफ रहती हैं, और आँतों की प्राकृतिक हालत ठीक बनी रहती है। जिन्होंने पहले पहल ही आसन सीखने शुरू करने हों, उन्हें पतझड़ व बसंत ऋतु में आरम्भ करने चाहिए। आसन करने के लिए जगह भी कोई ऐसी चाहिए जो एकांत व साफ-सुथरा हो, जहाँ कोई विकार आदि उपद्रव मन को बिगाड़ ना सकें।
हरेक आसन का शरीर और मन पर अपना असर होता है। अलग-अलग आसन और प्राणायाम करके जोगी हर किस्म की बिमारी से बच सकता है।
वशिष्ट, यज्ञ वलक्य व अन्य कई ऋषियों ने आसनों की गिनती 84 लिखी है। इन आसनों का अगुवा महादेव माना गया है। पर, मुख्य आसन दस हैं। योगाभ्यास करते हुए जब तक आसन ठीक ना हो जाए, तब तक अगले आसन करने की मनाही है। - प्राणायाम– कुछ नियमों के अनुसार सांस अंदर खींचना (पूरक), बाहर निकालना (रेचक), और अंदर रोक के रखना (कुंभक); इस अभ्यास को प्राणायाम कहते हैं। इस अभ्यास का मुख्य मंतव ये है कि ‘प्राण वायु’ को ‘अपान वायु’ (बिल्कुल नीचे की वायु) से मिला के आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर खींचा जाए। इस तरह करने से नाभि के पास जो अनोखी शक्ति कुण्डलनी की पड़ी हुई गाँठ खुल जाती है, और रिद्धियाँ-सिद्धियाँ मिलती हैं।
प्राणों की वाहन (नाड़ियां) जब तक अशुद्ध पदार्थों के कारण रुकी हुई हैं, तब तक प्राण सुखमना नाड़ी में नहीं चलता, और ‘उनमनी’ मुद्रा प्राप्त नहीं हो सकती। सो इन अशुद्धियों को दूर करने के लिए पहले प्राणायाम करने की आवश्यक्ता होती है। - प्रत्याहार– इन्द्रियों का अपने-अपने काम से रुकना।
नोट: ये उपरोक्त पाँचों बाहरी साधन हैं। - धारना– चिक्त को किसी जगह बाँध के टिका के रखना।
- ध्यान– मन का किसी चीज के साथ एक–रूप हो जाना।
- समाधि– मन अपना स्वरूप ही भूल के ‘ध्यान’ वाली चीज बन जाएं उस अवस्था का नाम है समाधि।
नोट: ये उपरोक्त तीनों संयम हैं। इनके अभ्यास से विभूतियाँ और सिद्धियाँ हासिल होती हैं।
दर्पण-शीर्षक
सिद्धियाँ
दर्पण-टिप्पनी
अणिमा, गरिमा, लघिमा, महिमा, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व, काम-वश्यत्व। (देखें पौड़ी नं: 31)
दर्पण-शीर्षक
खट कर्म
दर्पण-टिप्पनी
अगर जोगी, उपरोक्त 8 अंगों से शरीर को शुद्ध ना कर सकें, तो उनको छह और अभ्यास करने पड़ते हैं:
नेती– काले सूत्र का एक धागा ग्यारह इंच ले के एक नासिका से चढ़ा के मुँह में से निकाल के नासिका में फेरना। इसी तरह दूसरी नासिका में से।
धोती–तीन इंच चौड़ी पंदरह हाथ लंबी नर्म बारिका कपड़े का टुकड़ा पानी से गीला करके निगलना, और फिर बाहर निकालना।
निउली– नाक और पेट सीधे रख के, झुक के, घुटनों पर रख कर आँतों को चक्कर दिलाने।
त्राटक– नाक की नोक पर दोनों आँखों से निगाह केंद्रित करनी।
गज करम– मेदे को गले तक पानी से भर के और भरवटों के बीच नजर टिका के उल्टी (कै) करनी।
दर्पण-शीर्षक
उनमनी
दर्पण-टिप्पनी
जब नाड़ियाँ साफ हो जाएं और सुखमना नाड़ी खुल जाए तब मन में वह शांति पैदा हो जाती है जो समाधि का अत्यंत आवश्यक निशाना है। उस शांत अवस्था का नाम उनमनी अवस्था है।
मुद्रा और बँध
प्राणायाम की सहायता के लिए कुछ क्रिया करनी पड़ती है जिसको मुद्रा और बँध कहते हैं।
बँध चार हैं: मूल, जालंधर, उद्यान और महाबँध।
मुद्राएं दस हैं: महा मुद्रा, महा वेध, खेचरी, भूचरी, चाचरी, विपरीत करणी, वजरोली, शक्ति चालन, अगोचरी, उनमनी।
खेचरी मुद्रा में जोगी जीभ को गले में निगल लेता है, जिसके कारण खुली सांस आनी बंद हो जाती है। फेफड़ों को हवा के साथ भर के शरीर को सब छेद मोम मोम अथवा रूई की बक्तियों से बंद कर देता है।
भूचरी– पदम आसन लगा के नाक की नोक पर ताड़ी लगानी।
चाचरी– आँखों से तीन इंच ऊपर नजर जमानी।
मूल बँध-बाँई एड़ी गुदा पर और दाहिनी लिंग पर दबा के पदम आसन लगा के बैठना, गुदा का रास्ता बंद कर देना कि हवा ना निकले।
योग की किस्में
योग चार तरह का है: मंत्र, लय, राज, हठ।
मंत्र जोग– किसी देवते के नाम का, या, किसी और शब्द का एक-रस दिल लगा के जाप करना।
लय योग– किसी चीज या उसके ख्याल पर ऐसा मन जमाना कि उसके साथ एक-रूप हो जाए।
राज योग– सांस को इस तरह रोकना कि उससे मन की दौड़ रुक जाए।
हठ योग–कई तरह के आसन करके मन की स्थिरता हासिल करनी।
दर्पण-शीर्षक
सिध गोसटि की बोली
दर्पण-टिप्पनी
इस वाणी के तकरीबन पौने सात हजार अक्षर हैं। पर आश्चर्यजनक बात ये है गुरु ग्रंथ साहिब के नौ पृष्ठों की वाणी में सिर्फ निम्न-लिखित 15 शब्द फारसी बोली के आए हैं:
अरबी– रजाए, दुनिया, तमाई, हुक्म, सिफति, नदरि, हजूरे, कीमति, फुरमाणे।
फारसी– बखसि, दरगह, पिराहनु, दाना, बीना, गुबारि।
इन शब्दों की भी शक्ल अरबी फारसी वाली नहीं रह गई। पंजाबियों की ज़बान पर चढ़ कर इनका रूप बदल गया, और ये शब्द भी वो हैं जो आम बोलचाल में शामिल हैं। सिर्फ शब्द ‘पिराहनु’ जरा अलग सा लग रहा है। अरबी के अक्षर ‘ज़े’, ‘ज़ुइ’, ‘ज़ुआद’ का उच्चारण पंजाबी में आम तौर पर अक्षर ‘द’ के रूप में होने लग पड़ा। ऐसी तब्दीलियाँ जान-बूझ के नहीं की जातीं, अलग-अलग जलवायु के असर तले लोगों की जीभ विशेष तरह की आवाजें ही उचारने की आदी हो जाती हैं। अरब लोग खुद भी ‘ज़ुआद’ को ‘ज़ुआद’ और ‘दुआद’, दो तरह से उचारते हैं। गुरबाणी में इन अक्षरों वाले शब्द यूँ मिलते हैं:
कागज़– कागद।
हज़ूरि– हदूरि (कहीं कहीं ‘हजूरि’ भी)
काज़ी– कादी।
नज़रि– नदरि।
जिक्र ये चला था कि इतनी लंबी वाणी में इस्लामी शब्द सिर्फ 15 ही आए हैं। ये क्यों? क्या गुरु नानक देव जी इस्लामी शब्दों के प्रयोग से संकोच करते थे? नहीं; देखें निम्न-लिखित शब्द:
सिरी रागु महला १ घरु ३॥ अमलु करि धरती, बीजु सबदो करि, सच की आब नित देहि पाणी॥ होइ किरसाणु ईमानु जंमाइलै, भिसतु दोजकु मूढ़े एव जाणी॥१॥ मतु जाणसहि गली पाइआ॥ माल कै माणै रूप की सोभा, इतु बिधी जनमु गवाइआ॥१॥ रहाउ॥ एब तनि चिकड़ो, इहु मनु मीडको, कमल की सार नही मूलि पाई॥ भउरु उसतादु नित भाखिआ बोले, किउ बूझै जा नह बुझाई॥२॥ आखणु सुणणा पउण की बाणी इहु मनु रता माइआ॥ खसम की नदरि दिलहि पसिंदे, जिनी करि एकु धिआइआ॥३॥ तीह करि रखे पंज करि साथी, नाउ सैतानु मतु कटि जाई॥ नानकु आखै राहि पै चलणा, मालु धनु कित कू संजिआही॥४॥
चार बंदों वाले इस शब्द में कितने ही इस्लामी शब्द आ गए हैं। इसे जरा सा ध्यान से पढ़ के देखें, साफ दिखाई देता है कि किसी उस नमाज़ी और रोज़े रखने वाले इनसान को समझा रहे हैं जो शरह में तो पक्का है पर दुनिया वाली ‘मैं मेरी’ में भी नाको नाक डूबा हुआ है।
‘सिध गोसटि’ से पहले लिखी वाणी ‘ओअंकारु’ है। उसकी विषय-वस्तु साफ बताती है कि किसी पांडे से हुई चर्चा को वाणी का रूप दे रहे हैं। ‘ओअंकारु’ में भी थोड़े से तकरीबन वही इस्लामी शब्द हैं जो ‘सिध गोसटि’ में आए हैं, और लोगों की रोजमर्रा की आम बोली में शामिल हो चुके हैं।
‘सिध गोसटि’ के बारे में भी यही बात है। इस वाणी में उस चर्चा का वर्णन है जो योगियों-सिद्धों के साथ हुई। आम तौर पर वे लोग हिन्दू धर्म में से ही थे। उनकी बोली भी हिन्दकी। उनके मत के साथ संबंध रखने वाले खास शब्द भी हिन्दके। यही कारण है कि गुरु नानक देव जी ने भी उस चर्चा को वाणी का रूप देते हुए हिन्दके शब्द ही बरते हैं।
दर्पण-शीर्षक
दो मात्राओं वाले अक्षर
दर्पण-टिप्पनी
गुरबाणी में कई जगहों पर एक ही अक्षर पर दो मात्राएं (ु) (ो) लगी होती हैं। (ु) एक-मात्रा और (ो) दु-मात्रा है। छंद की चाल के अनुसार कई बार एक मात्रक अक्षर को दु-मात्रक पढ़ना पड़ता है, और कभी-कभी दु-मात्रक को एक-मात्रक। ऐसी जगहों पर (ु) अथवा (ो) वाले अक्षर के साथ दोनों मात्राएं दी गई हैं। जैसे;
‘टूटी गाढनहारु गुोपाल’ –सुखमनी
यहाँ असल शब्द ‘गोपाल’ है। अक्षर ‘ग’ की दो मात्राएं हैं, पर छंद की चाल में ‘ग’ को एक-मात्रक पढ़ने की आवश्यक्ता है। इसलिए इसके साथ (ु) भी लगा दिया गया है। यहाँ भाव ये है कि असल शब्द ‘गोपाल’ है इसे पढ़ना ‘गुपाल’ है।
‘सिध गोसटि’ में भी दो जगहों पर (ु) और (ो) का एक साथ प्रयोग मिलता है।
- पउड़ी 59
नदरि करे सबदु घट महि वसै, विचहु भरमु गवाए॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी, नामुो मंनि वसाए॥
असल शब्द है ‘नामु’, पढ़ना है ‘नामो’। - पउड़ी नं: 71
गुरमुखि मेलि मिलाए सुो जाणै॥ नानक गुरमुखि सबदि पछाणै॥
असल शब्द ‘सो’ है, यहाँ पढ़ना है ‘सु’।
जिसु, तिसु, किसु, इसु, उसु
ऊपर लिखे सर्वनाम सदा (ु) से बंद होते हैं। पर जब इनके साथ को निम्न-लिखित संबंधक प्रयोग किया जाए तो ये (ु) मात्रा हट जाती है; - का, के, की, कै, दा, दे, दी, दै
- कउ, नो
- ते
जैसे: - जिस का – पउड़ी 43
- जिस कउ – पउड़ी 45
- जिस ते – पउड़ी 52
नोट: पाठक याद रखें कि किसी और संबंधक के साथ प्रयोग करने से ये (ु) नहीं हटेगी। जैसे; - तिसु आगै – पउड़ी 1
नोट: जब ये शब्द किसी संज्ञा का विशेषण हो, तब भी इनकी (ु) मात्रा नहीं हटेगी, चाहे ऊपर दिए गए तीनों किस्मों के संबंधक भी साथ लगे हों। जैसे; - किसु वखर के –पउड़ी 17
- ऐसु सबद कउ – पउड़ी 43
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली महला १ सिध गोसटि
मूलम्
रामकली महला १ सिध गोसटि
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = जोग साधना में माहिर जोगी। गोसटि = गोष्ठी, चर्चा, बहस, बातचीत।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘सिध’ का दूसरा अर्थ है ‘परमात्मा’; जैसे:
सिध साधिक जोगी अरु जंगम एकु सिधु जिनी धिआइआ॥
परसत पैर सिझत ते सुआमी अखरु जिन कउ आइआ॥२॥६॥ (रामकली महला १, पंना 878)
इस तुक में पहले शब्द ‘सिध’ का अर्थ है ‘पहुँचे हुए जोगी’; दूसरे शब्द ‘सिधु’ का अर्थ है ‘परमात्मा’। शब्द ‘गोसटि’ का भी दूसरा अर्थ है ‘मेल, संबंध’। सो, इस तरह ‘सिध गोसटि’ के दो अर्थ हैं:
(1) सिद्धों के साथ बातचीत
(2) परमात्मा के साथ मिलाप
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: इस सारी वाणी में उस चर्चा का वर्णन है जो गुरु नानक देव जी की सिद्धों के साथ हुई। उस चर्चा का विषय-वस्तु क्या था? विषय-वस्तु था ‘सिध गोसटि’, भाव, ‘परमात्मा से मिलाप’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिध सभा करि आसणि बैठे संत सभा जैकारो ॥ तिसु आगै रहरासि हमारी साचा अपर अपारो ॥ मसतकु काटि धरी तिसु आगै तनु मनु आगै देउ ॥ नानक संतु मिलै सचु पाईऐ सहज भाइ जसु लेउ ॥१॥
मूलम्
सिध सभा करि आसणि बैठे संत सभा जैकारो ॥ तिसु आगै रहरासि हमारी साचा अपर अपारो ॥ मसतकु काटि धरी तिसु आगै तनु मनु आगै देउ ॥ नानक संतु मिलै सचु पाईऐ सहज भाइ जसु लेउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = सिद्ध की, परमात्मा की। सभा = मजलिस। सिध सभा = ईश्वरीय सभा, वह मजलिस जहाँ परमात्मा की बातें हो रही हों। करि = बना के। आसणि = आसन पर (भाव) अडोल। जैकारो = नमस्कार। तिसु आगै = उस ‘संत सभा’ के आगे। रहरासि = अरदास। मसतकु = माथा। धरी = मैं धरूँ। सहज भाइ = आसानी से ही। जसु लेउ = यश करूँ, प्रभु के गुण गाऊँ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘सिध’ का अर्थ ‘परमात्मा’ किया गया है। इसी ही वाणी की पौड़ी नं: 33 में भी शब्द ‘सिध’ आया है जिसका अर्थ है ‘परमात्मा’:
‘नामि रते सिध गोसटि होइ॥ नामि रते सदा तपु होइ॥’
‘सिध गोसटि’ = प्रभु से मिलाप।
‘सिध गोसटि’ की लंबी वाणी के आरम्भ में पहली पउड़ी ‘मंगलाचरण’ के रूप में है, जो अपने आप में वाणी का उद्देश्य भी प्रकट करता है। ‘मंगलाचरण’ है संत सभा की महिमा। ‘उद्देश्य’ है ‘सचु पाईअै’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हमारी) नमस्कार उन संतों की सभा को है जो ‘ईश्वरीय सभा’ (सत्संग) बना के अडोल बैठे हैं, हमारी अरदास उस संत सभा के आगे है जिसमें सदा कायम रहने वाला अपर-अपार प्रभु (प्रत्यक्ष बसता) है। मैं उस संत-सभा के आगे सिर काट के धर दूँ, तन और मन भेट कर दूँ (ताकि) आसानी से ही प्रभु के गुण गा सकूँ; (क्योंकि) हे नानक! संत मिल जाए तो ईश्वर मिल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ भवीऐ सचि सूचा होइ ॥ साच सबद बिनु मुकति न कोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किआ भवीऐ सचि सूचा होइ ॥ साच सबद बिनु मुकति न कोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ भवीऐ = भ्रमण करने का क्या लाभ? देस देसांतरों व तीर्थों पर भ्रमण का क्या लाभ? सचि = ‘सच’ में, सदा कायम रहने वाले प्रभु में (जुड़ने से)। सूचा = पवित्र। रहाउ = ठहर जाओ, (भाव) इस सारी लंबी वाणी का ‘मुख्य भाव’ इन दो तुकों में है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सुखमनी’ की 24 अष्टपदीयां हैं, पर इस लंबी वाणी का भी भाव इन दो तुकों में है, जिनके अंत में ‘रहाउ’ दर्ज है:
सुखमनी सुख अंम्रित प्रभ नामु॥ भगत जना कै मनि बिस्राम॥ रहाउ॥
इसी तरह ‘ओअंकारु’ एक लंबी वाणी है, इसका ‘मुख्य भाव’ भी ‘रहाउ’ की तुक में इस प्रकार है:
सुणि पाडे, किआ लिखहु जंजाला॥
लिखु राम नामु, गुरमुखि गोपाला॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे चरपट! देश-देसांतरों और तीर्थों पर) भ्रमण करने से क्या लाभ? सदा कायम रहने वाले प्रभु में जुड़ने से ही पवित्र हुआ जा सकता है; (सतिगुरु के) सच्चे शब्द के बिना (‘दुनिया सागर दुतर से’ अर्थात दुश्वार दुनिया सागर से) निजात नहीं मिलती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन तुमे किआ नाउ तुमारा कउनु मारगु कउनु सुआओ ॥ साचु कहउ अरदासि हमारी हउ संत जना बलि जाओ ॥ कह बैसहु कह रहीऐ बाले कह आवहु कह जाहो ॥ नानकु बोलै सुणि बैरागी किआ तुमारा राहो ॥२॥
मूलम्
कवन तुमे किआ नाउ तुमारा कउनु मारगु कउनु सुआओ ॥ साचु कहउ अरदासि हमारी हउ संत जना बलि जाओ ॥ कह बैसहु कह रहीऐ बाले कह आवहु कह जाहो ॥ नानकु बोलै सुणि बैरागी किआ तुमारा राहो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुम्हे = तुझ को। मारगु = रास्ता, पंथ, मत। सुआओ = लक्ष्य, उद्देश्य, प्रयोजन। कहउ = मैं कहता हूँ, मैं जपता हूँ। हउ = मैं। कह = कहाँ? किस के आसरे? बैसहु = (तुम) बैठते हो, शांत चिक्त होते हो। बाले = हे बालक! क्ह = कहाँ? नानकु बोलै = नानक कहता है (कि जोगी ने पूछा)। बैरागी = हे वैरागी! हे वैरागवान! हे संत जी! साचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। राहो = राह, मत, मार्ग।
अर्थ: (चरपट जोगी ने पूछा-) तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है? तुम्हारा क्या मत है? (उस मत का) उद्देश्य क्या है?
(गुरु नानक देव जी का उक्तर-) मैं सदा कायम रहने वाले प्रभु को जपता हूँ, हमारी (प्रभु के आगे ही सदा) प्रार्थना है और मैं संत जनों से बलिहार जाता हूँ (बस! यह मेरा मत है)।
(नानक कहता है: चरपट ने पूछा-) हे बालक! तुम किस के आसरे शांत-चिक्त हो? तुम्हारी तवज्जो किसमें जुड़ती है? कहाँ से आते हो? कहाँ जाते हो? हे संत! सुन, तेरा क्या मत है?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि बैसि निरंतरि रहीऐ चालहि सतिगुर भाए ॥ सहजे आए हुकमि सिधाए नानक सदा रजाए ॥ आसणि बैसणि थिरु नाराइणु ऐसी गुरमति पाए ॥ गुरमुखि बूझै आपु पछाणै सचे सचि समाए ॥३॥
मूलम्
घटि घटि बैसि निरंतरि रहीऐ चालहि सतिगुर भाए ॥ सहजे आए हुकमि सिधाए नानक सदा रजाए ॥ आसणि बैसणि थिरु नाराइणु ऐसी गुरमति पाए ॥ गुरमुखि बूझै आपु पछाणै सचे सचि समाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि = घट में, शरीर में। घटि घटि = हरेक घट में, हरेक शरीर में (भाव, हरेक घट में व्यापक प्रभु की याद में)। बैसि = बैठ के, टिक के। निरंतरि = निर+अंतरि, एक रस, सदा। अंतर = दूरी, वकफा। रहीऐ = रहते हैं, तवज्जो जुड़ती है। भाए = भाव में, मर्जी में। सहजे = सहज ही। हुकमि = हुक्म में। सिधाए = फिरते हैं। रजाए = रजा में। आसणि = आसन वाला। बैसणि = बैठने वाला। थिरु = कायम रहने वाला। बूझै = समझ वाला बनता है, ज्ञानवान होता है। आपु = अपने आप को।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी नंबर 2 की आखिरी दो तुकों के प्रश्न का उक्तर पौड़ी नं: 3 में है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सतिगुरु जी का उक्तर-) (हे चरपट! -) सर्व-व्यापक प्रभु (की याद) में जुड़ के सदा शांत-चित रहते हैं। हम सतिगुरु जी की मर्जी से चलते हैं। हे नानक- (कह:) प्रभु के हुक्म में सहज ही (जगत में) आए, हुक्म में विचर रहे हैं, सदा उसकी ही रजा में रहते हैं। (पक्के) आसन वाला, (सदा) टिके रहने वाला प्रभु खुद ही है, हमने यही गुरु-शिक्षा ली है। गुरु के राह पर चलने वाला मनुष्य ज्ञानवान हो जाता है, अपने आप को पहचानता है, और, सदा सच्चे प्रभु में जुड़ा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुनीआ सागरु दुतरु कहीऐ किउ करि पाईऐ पारो ॥ चरपटु बोलै अउधू नानक देहु सचा बीचारो ॥ आपे आखै आपे समझै तिसु किआ उतरु दीजै ॥ साचु कहहु तुम पारगरामी तुझु किआ बैसणु दीजै ॥४॥
मूलम्
दुनीआ सागरु दुतरु कहीऐ किउ करि पाईऐ पारो ॥ चरपटु बोलै अउधू नानक देहु सचा बीचारो ॥ आपे आखै आपे समझै तिसु किआ उतरु दीजै ॥ साचु कहहु तुम पारगरामी तुझु किआ बैसणु दीजै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुतरु = दुश्+तर, जिसको तैरना मुश्किल है। किउ करि = कैसै? किस तरह? पारो = परला किनारा। नानक = हे नानक! अउधू = विरक्त। साचु कहहु = सदा कायम रहने वाले प्रभु को जपो। पारगरामी = (संसार समुंदर से) पार लंघाने वाला। बैसणु = (संस्कृत: व्यसन) कमी, नुक्स (व्यसन = प्रहारी; संस्कृत. व्यसन प्रहारिन; वह जो चर्चा में अपने विरोधी की किसी कमी पर चोट मारता है)।
अर्थ: चरपट कहता है (भाव, चरपट ने कहा-) जगत (एक ऐसा) समुंदर कहा जाता है जिसको तैरना मुश्किल है, हे विरक्त नानक! ठीक विचार बता कि (इस संसार समुंदर का) परला किनारा कैसे मिले?
उक्तर- (जो मनुष्य जो कुछ) स्वयं कहता है और स्वयं ही (उसको) समझता (भी) है उसको (उसके प्रश्न का) उक्तर देने की आवश्यक्ता नहीं होती; (इस वास्ते, हे चरपट!) तेरे (प्रश्न) में कोई कमी ढूँढने की जरूरत नहीं, (वैसे उक्तर ये है कि) सदा कायम रहने वाले प्रभु को जपो तो तुम (इस दुष्तर सागर से) पार लांघ जाओगे।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नै साणे ॥ सुरति सबदि भव सागरु तरीऐ नानक नामु वखाणे ॥ रहहि इकांति एको मनि वसिआ आसा माहि निरासो ॥ अगमु अगोचरु देखि दिखाए नानकु ता का दासो ॥५॥
मूलम्
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नै साणे ॥ सुरति सबदि भव सागरु तरीऐ नानक नामु वखाणे ॥ रहहि इकांति एको मनि वसिआ आसा माहि निरासो ॥ अगमु अगोचरु देखि दिखाए नानकु ता का दासो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरालमु = निरालंभ, (निर+आलंभ) निर आसरा, (निर+आलय) निराला, अलग। नै = नयी, नदी में। साणे = जैसे। सबदि = शब्द में। वखाणे = बखान के, जप के। अगमु = अ+गम, जिस तक जाया ना जा सके (गम = जाना)। अगोचर = अ+गो+चर (अ = नहीं। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चर = पहुँचना) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दूसरी और चौथी तुक के शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ में अंतर को समझें।
नोट: सतिगुरु जी का उक्तर इस पौड़ी के आखिर तक चला आ रहा है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जैसे पानी में (उगा हुआ) कमल का फूल (पानी से) निराला रहता है, जैसे नदी में (तैरती) मुरगाई (भाव, उसके पंख पानी से नहीं भीगते, इसी तरह) हे नानक! गुरु के शब्द में तवज्जो (जोड़ के) नाम जपने से संसार समुंदर तैरा जा सकता है।
(जो मनुष्य संसार की) आशाओं में निराश रहते हैं, जिनके मन में एक प्रभु ही बसता है (वे संसार में रहते हुए भी संसार से अलग) एकांत में बसते हैं। (ऐसे जीवन वाला जो मनुष्य) अगम और अगोचर प्रभु के दर्शन करके और लोगों को दर्शन करवाता है, नानक उसका दास है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुआमी अरदासि हमारी पूछउ साचु बीचारो ॥ रोसु न कीजै उतरु दीजै किउ पाईऐ गुर दुआरो ॥ इहु मनु चलतउ सच घरि बैसै नानक नामु अधारो ॥ आपे मेलि मिलाए करता लागै साचि पिआरो ॥६॥
मूलम्
सुणि सुआमी अरदासि हमारी पूछउ साचु बीचारो ॥ रोसु न कीजै उतरु दीजै किउ पाईऐ गुर दुआरो ॥ इहु मनु चलतउ सच घरि बैसै नानक नामु अधारो ॥ आपे मेलि मिलाए करता लागै साचि पिआरो ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सही, ठीक। रोसु = गुस्सा। गुरदुआरो = गुरु का दर। चलतउ = चंचल। सच घरि = सच्चे के घर में, सदा कायम रहने वाले प्रभु की याद में। अधारो = आसरा। साचि = सच्चे प्रभु में।
अर्थ: (चरपट के प्रश्न:) हे स्वामी! मेरी विनती सुन, मैं सही विचार पूछता हूँ; गुस्सा ना करना, उक्तर देना कि गुरु का दर कैसे प्राप्त होता है? (भाव, कैसे पता लगे कि गुरु का दर प्राप्त हो गया है)?
(उक्तर:) (जब सच-मुच गुरु का दर प्राप्त हो जाता है तब) हे नानक! ये चंचल मन प्रभु की याद में जुड़ा रहता है, (प्रभु का) नाम (जिंदगी का) आसरा हो जाता है। (पर ऐसा) प्यार सच्चे प्रभु में (तब ही) लगता है (जब) कर्तार स्वयं (जीव को) अपनी याद में जोड़ लेता है।6।
[[0939]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाटी बाटी रहहि निराले रूखि बिरखि उदिआने ॥ कंद मूलु अहारो खाईऐ अउधू बोलै गिआने ॥ तीरथि नाईऐ सुखु फलु पाईऐ मैलु न लागै काई ॥ गोरख पूतु लोहारीपा बोलै जोग जुगति बिधि साई ॥७॥
मूलम्
हाटी बाटी रहहि निराले रूखि बिरखि उदिआने ॥ कंद मूलु अहारो खाईऐ अउधू बोलै गिआने ॥ तीरथि नाईऐ सुखु फलु पाईऐ मैलु न लागै काई ॥ गोरख पूतु लोहारीपा बोलै जोग जुगति बिधि साई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हाटी = मेला, मंडी, दुकान। बाटी = घर बार के काम। रूखि = पेड़ों के तले। बिरखि = वृक्षों के तले। उदिआने = जंगल में। कंद = धरती के अंदर उगने वाली गाजर मूली जैसी सब्जियां। कंद मूल = मूली। अहारो = खुराक। अउधू = विरक्त, जोगी। बोलै = (भाव) बोला। तीरथि = तीर्थ पर। गोरख पूतु = गोरखनाथ का चेला। साई = यही।
अर्थ: जोगी ने (जोग का) ज्ञान-मार्ग इस तरह बताया- हम (दुनिया के) मेलों-मसाधों (भाव, सांसारिक झमेलों) से अलग जंगलों में किसी पेड़-वृक्ष के तले रहते हैं और गाजर-मूली पर गुजारा करते हैं; तीर्थों पर स्नान करते हैं; इसका फल मिलता है ‘सुख’, और (मन को) कोई मैल (भी) नहीं लगती। गोरखनाथ का चेला लोहारीपा बोलाकि यही है जोग की जुगती, जोग की बिधि।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाटी बाटी नीद न आवै पर घरि चितु न डुोलाई ॥ बिनु नावै मनु टेक न टिकई नानक भूख न जाई ॥ हाटु पटणु घरु गुरू दिखाइआ सहजे सचु वापारो ॥ खंडित निद्रा अलप अहारं नानक ततु बीचारो ॥८॥
मूलम्
हाटी बाटी नीद न आवै पर घरि चितु न डुोलाई ॥ बिनु नावै मनु टेक न टिकई नानक भूख न जाई ॥ हाटु पटणु घरु गुरू दिखाइआ सहजे सचु वापारो ॥ खंडित निद्रा अलप अहारं नानक ततु बीचारो ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूख = तृष्णा, लालच। हाटु = (असल व्यापार ‘नाम’ विहाजने के लिए) दुकान। पटणु = शहर। सहजे = थोड़ा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘डुोलाई’ में अक्षर ‘ड’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। शब्द की असल मात्रा (ो) है, पर यहाँ छंद की चाल को पूरा रखने के लिए (ु) लगा के पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! असल (ज्ञान की) विचार यह है कि दुनियावी धंधों में रहते हुए मनुष्य को नींद ना आए (भाव, धंधों में ही ना ग़र्क हो जाए), पराए घर में मन को डोलने ना दे; (पर) हे नानक! प्रभु के नाम के बिना मन टिक के नहीं रह सकता और (माया की) तृष्णा हटती नहीं।
(जिस मनुष्य को) सतिगुरु ने (नाम विहाजने का असल) ठिकाना, शहर और घर दिखा दिया है वह (दुनियां के धंधों में भी) अडोल रह कर ‘नाम’ विहाजता है; उस मनुष्य की नींद भी कम और खुराक भी थोड़ी होती है। (भाव, वह चस्कों में नहीं पड़ता)।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनु भेख करहु जोगिंद्रा मुंद्रा झोली खिंथा ॥ बारह अंतरि एकु सरेवहु खटु दरसन इक पंथा ॥ इन बिधि मनु समझाईऐ पुरखा बाहुड़ि चोट न खाईऐ ॥ नानकु बोलै गुरमुखि बूझै जोग जुगति इव पाईऐ ॥९॥
मूलम्
दरसनु भेख करहु जोगिंद्रा मुंद्रा झोली खिंथा ॥ बारह अंतरि एकु सरेवहु खटु दरसन इक पंथा ॥ इन बिधि मनु समझाईऐ पुरखा बाहुड़ि चोट न खाईऐ ॥ नानकु बोलै गुरमुखि बूझै जोग जुगति इव पाईऐ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसनु = मत, धर्म मार्ग। जोगिंद्रा = जोगी राज का। खिंथा = गोदड़ी। बारह = जोगियों के बारह पंथ = रावल, हेतु पंथ, पाव पंथ, आई पंथ, गम्य पंथ, पागल पंथ, गोपाल पंथ, कंथड़ी पंथ, बन पंथ, ध्वज पेथ, चोली और दास पंथ। एकु = एक ‘आई पंथ’, हमारा आई पंथ। सरेवहु = धारण करो, स्वीकार करो। खटु दरसनु = छह भेख = जगम, जोगी, जैनी, सन्यासी, बैरागी, बैसनो। इक पंथा = हमारा जोगी पंथ।
पुरखा = हे पुरख नानक! गुरमुखि = गुरु के सन्मुख।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ये शब्द बताता है है कि यहाँ से सतिगुरु जी ने उक्तर शुरू कर दिया है)।
दर्पण-भाषार्थ
इव = इस तरह (जैसे आगे बताया है)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जोगी यहाँ अपने मत की बढ़ाई करता है। पहली तीन तुकों में सतिगुरु जी जोगी का ख्याल बताते हैं। आखिरी तुक में अपना उक्तर शुरू करते हैं जो पउड़ी नंबर 11 तक जाता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: नानक कहता है (कि जोगी ने कहा-) हे पुरख (नानक!) छह भेखों में एक जोगी पंथ है, उसके बारह फिरके हैं, उनमें से हमारे ‘आई पंथ’ को धारण करो, जोगियों के इस बड़े भेख का मत स्वीकार करो, मुद्रा, झोली और गोदड़ी पहनो। हे पुरखा! ठस तरह मन को बुद्धि दी जा सकती है और फिर (माया की) चोट नहीं खानी पड़ती।
(उक्तर:) नानक कहता है: गुरु के सन्मुख होने से मनुष्य (मन को समझाने का ढंग) समझता है, जोग की जुगति (तो) इस तरह मिलती है (कि),।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि सबदु निरंतरि मुद्रा हउमै ममता दूरि करी ॥ कामु क्रोधु अहंकारु निवारै गुर कै सबदि सु समझ परी ॥ खिंथा झोली भरिपुरि रहिआ नानक तारै एकु हरी ॥ साचा साहिबु साची नाई परखै गुर की बात खरी ॥१०॥
मूलम्
अंतरि सबदु निरंतरि मुद्रा हउमै ममता दूरि करी ॥ कामु क्रोधु अहंकारु निवारै गुर कै सबदि सु समझ परी ॥ खिंथा झोली भरिपुरि रहिआ नानक तारै एकु हरी ॥ साचा साहिबु साची नाई परखै गुर की बात खरी ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = (मन के) अंदर। निरंतरि = निर+अंतर, एक रस, मतवातर, सदा। मम = मेरा। ममता = मेरा पन, अपनत्व, दुनियावी पदार्थों को अपना बनाने का विचार। निवारै = दूर करता है। सबदि = शब्द से। सु = अच्छी। भरि पुरि = भरपूर, नाको नाक, सब जगह मौजूद। साचा = सदा कायम रहने वाला। नाई = बड़ाई।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: अरबी में ‘स्ना’ के दो पंजाबी रूप हैं, ‘असनाई’ और ‘नाई’। देखें गुरबाणी व्याकरण)।
दर्पण-भाषार्थ
खरी बात = खरी बातों से, सच्चे शब्द से।
अर्थ: मन में सतिगुरु के शब्द को एक रस बसाना - ये (कानों में) मुद्राएं (पहननी) हैं, (जो मनुष्य गुरु शब्द को बसाता है वह) अपने अहंकार और ममता को दूर कर लेता है; काम, क्रोध और अहंकार को मिटा लेता है, गुरु के शब्द के द्वारा उसको सोहानी सूझ पड़ जाती है। हे नानक! प्रभु को सब जगह व्यापक समझना उस मनुष्य की गोदड़ी और झोली है। सतिगुरु के सच्चे शब्द के द्वारा वह मनुष्य ये निर्णय कर लेता है कि एक परमात्मा ही (माया की चोट से) बचाता है जो सदा कायम रहने वाला मालिक है और जिसकी महिमा भी सदा टिकी रहने वाली है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊंधउ खपरु पंच भू टोपी ॥ कांइआ कड़ासणु मनु जागोटी ॥ सतु संतोखु संजमु है नालि ॥ नानक गुरमुखि नामु समालि ॥११॥
मूलम्
ऊंधउ खपरु पंच भू टोपी ॥ कांइआ कड़ासणु मनु जागोटी ॥ सतु संतोखु संजमु है नालि ॥ नानक गुरमुखि नामु समालि ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊँधउ = औंधा, उल्टा हुआ, सांसारिक ख्वाहिशों से मुड़ा हुआ। खपरु = जोगी अथवा भिखारी का वह प्याला जिसमें भिक्षा डलवाता है। भू = तत्व। पंचभू = पंच तत्वों के उपकारी गुण = (आकाश की निर्लिपता, अग्नि का स्वभाव मैल जलाना, वायु की समदर्शिता, जल की शीतलता, धरती का धैर्य)। कड़ासणु = कट का आसन। कट = फूहड़ी (a straw mat)। जागोटी = लंगोटी। गुरमुखि = गुरु से। समालि = सम्भालता है।
अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य) गुरु के द्वारा (प्रभु का) नाम याद करता है, सांसारिक ख्वाहिशों से पलटी हुई तवज्जो उसका खप्पर है, पाँच तत्वों के दैवी गुण उसकी टोपी हैं, शरीर (को विकारों से निर्मल रखना) उसका दभ का आसन है, (बस में आया हुआ) मन उसकी लंगोटी है, सत संतोख और संयम उसके साथ (तीन चेले) हैं।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी नं: 9 की चौथी तुक से शुरू हुआ उक्तर यहाँ आ के समाप्त होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवनु सु गुपता कवनु सु मुकता ॥ कवनु सु अंतरि बाहरि जुगता ॥ कवनु सु आवै कवनु सु जाइ ॥ कवनु सु त्रिभवणि रहिआ समाइ ॥१२॥
मूलम्
कवनु सु गुपता कवनु सु मुकता ॥ कवनु सु अंतरि बाहरि जुगता ॥ कवनु सु आवै कवनु सु जाइ ॥ कवनु सु त्रिभवणि रहिआ समाइ ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि गुपता गुरमुखि मुकता ॥ अंतरि बाहरि सबदि सु जुगता ॥ मनमुखि बिनसै आवै जाइ ॥ नानक गुरमुखि साचि समाइ ॥१३॥
मूलम्
घटि घटि गुपता गुरमुखि मुकता ॥ अंतरि बाहरि सबदि सु जुगता ॥ मनमुखि बिनसै आवै जाइ ॥ नानक गुरमुखि साचि समाइ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुपता = छुपा हुआ। अंतरि = अंदर से। बाहरि = बाहर से। अंतरि बाहरि = (भाव,) मन से और शरीर से। जुगता = जुड़ा हुआ, मिला हुआ। आवै जाइ = पैदा होता मरता। त्रिभवण = तीन भवनों के मालिक में, तीन भवनों में व्यापक प्रभु में (तीन भवन = आकाश, मातृ लोक, और पाताल लोक। सं: त्रिभवण)। घटि घटि = हरेक घट में (बरतने वाला प्रभु)। गुरमुखि = जो मनुष्य के सन्मुख है, जो गुरु के बताए हुए राह पर चलता है। सबदि = शब्द में (जुड़ा हुआ)। बिनसै = नाश होता है। साचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी नं: 11 तक चरपट और लोहारीपा जोगी के प्रश्न समाप्त हो जाते हैं। अब आगे खुले प्रश्नोक्तर हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (प्रश्न:) छुपा हुआ कौन है? वह कौन है जो मुक्त है? वह कौन है जो अंदर बाहर से (भाव, जिसका मन भी और शारीरिक इंद्रिय भी) मिली हुई हैं? (सदा) पैदा होता व मरता कौन है? त्रिलोकी के नाथ में लीन कौन है?।12।
(उक्तर:) जो (प्रभु) हरेक शरीर में मौजूद है वह गुप्त है; गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य (माया के बंधनो से) मुक्त है। जो मनुष्य गुरु-शब्द में जुड़ा है वह मन और तन से (प्रभु में) जुड़ा हुआ है। मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पैदा होता मरता रहता है। हे नानक! गुरमुख मनुष्य सच्चे प्रभु में लीन रहता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किउ करि बाधा सरपनि खाधा ॥ किउ करि खोइआ किउ करि लाधा ॥ किउ करि निरमलु किउ करि अंधिआरा ॥ इहु ततु बीचारै सु गुरू हमारा ॥१४॥
मूलम्
किउ करि बाधा सरपनि खाधा ॥ किउ करि खोइआ किउ करि लाधा ॥ किउ करि निरमलु किउ करि अंधिआरा ॥ इहु ततु बीचारै सु गुरू हमारा ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरपनि = सपनी, माया। किउकरि = कैसे? सु गुरू हमारा = वह हमारा गुरु है, हम उसको अपना गुरु मनाएंगे, हम उसके आगे सिर निवाएंगे।
अर्थ: (प्रश्न:) (ये जीव) कैसे (ऐसा) बँधा पड़ा है कि सर्पनी (माया इस को) खाई जा रही है (और ये आगे से अपने बचाव के लिए भाग भी नहीं सकता)? (इस जीव ने) कैसे (अपने जीवन का लाभ) गवा लिया है? कैसे (दोबारा वह लाभ) पा सके? (ये जीव) कैसे पवित्र हो सके? कैसे (इसके आगे) अंधेरा (टिका हुआ) है? जो इस अस्लियत को (ठीक तरह) विचारे, हमारी उसको नमस्कार है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरमति बाधा सरपनि खाधा ॥ मनमुखि खोइआ गुरमुखि लाधा ॥ सतिगुरु मिलै अंधेरा जाइ ॥ नानक हउमै मेटि समाइ ॥१५॥
मूलम्
दुरमति बाधा सरपनि खाधा ॥ मनमुखि खोइआ गुरमुखि लाधा ॥ सतिगुरु मिलै अंधेरा जाइ ॥ नानक हउमै मेटि समाइ ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंन निरंतरि दीजै बंधु ॥ उडै न हंसा पड़ै न कंधु ॥ सहज गुफा घरु जाणै साचा ॥ नानक साचे भावै साचा ॥१६॥
मूलम्
सुंन निरंतरि दीजै बंधु ॥ उडै न हंसा पड़ै न कंधु ॥ सहज गुफा घरु जाणै साचा ॥ नानक साचे भावै साचा ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेटि = मिटा के। सुंन = (संस्कृत = शून्य) अफुर परमात्मा, निर्गुण स्वरूप प्रभु। निरंतरि = एक रस, लगातार। बंधु = बंध, दीवार, रोक। उडै न = भटकता नहीं। हंसा = जीव, मन। कंधु = शरीर। न पड़ै = नहीं ढहता, गिरता नहीं, जर जर नहीं होता। सहज = मन की वह हालत जब यह अडोल है, अडोलता।
अर्थ: (उक्तर:) (यह जीव) बुरी मति में (ऐसे) बँधा पड़ा है कि सर्पनी (माया इसको) खाए जा रही है (और इन चस्कों में से इसका निकलने को जी नहीं करता); मन के पीछे लगने वाले ने (जीवन का लाभ) गवा लिया है, और, गुरु के हुक्म में चलने वाले ने कमा लिया है। (माया के चस्कों का) अंधकार तब ही दूर होता है अगर सतिगुरु मिल जाए (भाव, अगर मनुष्य गुरु के बताए रास्ते पर चलने लग जाए)। हे नानक! (मनुष्य) अहंकार को मिटा के ही प्रभु में लीन हो सकता है।15।
(यदि माया के हमलों के राह में) एक-रस अफुर परमात्मा (की याद) की अटुट दीवार बना दें, (तो फिर माया की खातिर) मन भटकता नहीं, और शरीर भी जर्जर नहीं होता (भाव, शरीर का सत्यानाश नहीं होता)। हे नानक! जो मनुष्य सहज-अवस्था की गुफा को अपना सदा टिके रहने का घर समझ ले (भाव, जिस मनुष्य का मन सदा अडोल रहे), वह परमात्मा का रूप हो के उस प्रभु को प्यारा लगने लगता है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किसु कारणि ग्रिहु तजिओ उदासी ॥ किसु कारणि इहु भेखु निवासी ॥ किसु वखर के तुम वणजारे ॥ किउ करि साथु लंघावहु पारे ॥१७॥
मूलम्
किसु कारणि ग्रिहु तजिओ उदासी ॥ किसु कारणि इहु भेखु निवासी ॥ किसु वखर के तुम वणजारे ॥ किउ करि साथु लंघावहु पारे ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किसु कारणु = किस लिए? तजिओ = त्यागा था। उदासी = विरक्त हो के। निवासी = धारने वाले (हुए थे)। वणजारे = व्यापारी। साथु = (संस्कृत: सारथु) काफला।
अर्थ: (प्रश्न:) (अगर ‘हाटी बाटी’ को त्यागना नहीं था, तो) तुमने क्यों घर छोड़ा था और ‘उदासी’ बने थे? क्यों यह (उदासी-) भेस (पहले) धारण किया था? तुम किस सौदे के व्यापारी हो? (अपने श्रद्धालुओं की) जमात को (इस ‘दुष्तर सागर’ से) कैसे पार करवाओगे? (भाव, अपने सिखों को इस संसार से पार लंघाने का उद्धार का तुमने कौन सा राह बताया है)?।17।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘साथु’ और ‘साथि’ का फर्क याद रखने योग्य है। ‘साथु’ संज्ञा है, और ‘साथि’ संबंधक है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।
नोट: सिधों से यह गोष्ठि बटाले (जिला गुरदासपुर, पंजाब) के पास ‘अचल’ में हुई थी। सतिगुरू जी ‘शिवरात्रि’ का मेला सुन के करतारपुर से आए थे और इस वक्त गृहस्थी लिबास में थे, तभी भंगरनाथ ने पूछा था– ‘भेख उतारि उदासि दा, वति किउ संसारी रीति चलाई॥’ इससे पहले दूसरी ‘उदासी’ के वक्त इन सिधों को सुमेर पर्वत पर मिले थे, तब उदासी (संतो वाले) भेष में थे।
यहाँ पौड़ी नं: 17 के प्रश्न में उस वक्त के उदासी वेष की तरफ इशारा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि खोजत भए उदासी ॥ दरसन कै ताई भेख निवासी ॥ साच वखर के हम वणजारे ॥ नानक गुरमुखि उतरसि पारे ॥१८॥
मूलम्
गुरमुखि खोजत भए उदासी ॥ दरसन कै ताई भेख निवासी ॥ साच वखर के हम वणजारे ॥ नानक गुरमुखि उतरसि पारे ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भए = बने थे। कै ताई = के लिए। दरसन = गुरमुखों के दर्शन।
अर्थ: (उक्तर:) हम गुरमुखों को तलाशने के लिए उदासी बने थे, हमने गुरमुखों के दर्शनों के लिए (उदासी-) भेस धारण किया था। हम सच्चे प्रभु के नाम के सौदे के व्यापारी हैं। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के बताए राह पर चलता है वह (दुष्तर सागर से) पार लांघ जाता है।18।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
कितु बिधि पुरखा जनमु वटाइआ ॥ काहे कउ तुझु इहु मनु लाइआ ॥ कितु बिधि आसा मनसा खाई ॥ कितु बिधि जोति निरंतरि पाई ॥ बिनु दंता किउ खाईऐ सारु ॥ नानक साचा करहु बीचारु ॥१९॥
मूलम्
कितु बिधि पुरखा जनमु वटाइआ ॥ काहे कउ तुझु इहु मनु लाइआ ॥ कितु बिधि आसा मनसा खाई ॥ कितु बिधि जोति निरंतरि पाई ॥ बिनु दंता किउ खाईऐ सारु ॥ नानक साचा करहु बीचारु ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितु बिधि = किस तरीके से? जनमु वटाइआ = जिंदगी पलट ली है। काहे कउ = किस से? मनसा = मन का फुरना। खाई = खा ली है। निरंतरि = एक रस। जोति = रूहानी प्रकाश। दंत = दाँत। सारु = लोहा।
अर्थ: (प्रश्न:) हे पुरखा! तूने अपनी जिंदगी किस ढंग से पलट ली है? तूने अपना ये मन किसमें जोड़ा है? मन की आशाएं और मन के फुरने तूने कैसे खत्म कर लिए हैं? रूहानी प्रकाश तुझे एक-रस कैसे मिल गया है? (माया के इस प्रभाव सें बचना वैसे ही मुश्किल है जैसे दाँतों के बिना लोहे चबाना) दाँतों के बिना लोहा कैसे चबाया जाए? हे नानक! कोई सही विचार बताओ? (भाव, कोई ऐसा तरीका बताओ जिससे हम संतुष्ट हो जाएं)।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर कै जनमे गवनु मिटाइआ ॥ अनहति राते इहु मनु लाइआ ॥ मनसा आसा सबदि जलाई ॥ गुरमुखि जोति निरंतरि पाई ॥ त्रै गुण मेटे खाईऐ सारु ॥ नानक तारे तारणहारु ॥२०॥
मूलम्
सतिगुर कै जनमे गवनु मिटाइआ ॥ अनहति राते इहु मनु लाइआ ॥ मनसा आसा सबदि जलाई ॥ गुरमुखि जोति निरंतरि पाई ॥ त्रै गुण मेटे खाईऐ सारु ॥ नानक तारे तारणहारु ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर कै = सतिगुरु के घर में। सतिगुर के जनमे = सतिगुरु के घर में जनम लेने से, जब गुरु की शरण आ के पिछला स्वभाव मिटा दिया। गवनु = भटकना, आवागवन। अनहति = अनाहद में। अनहत = एक रस व्यापक प्रभु (अनाहतं = आहतं छेदो भोगो वा तन्नास्ति यस्य)। राते = मस्त हुआ। लाइआ = लगा लिया, प्रभावित कर लिया। त्रैगुण = माया के तीन गुण = तमो गुण; रजो गुण; सतो गुण। अज्ञान, प्रवृक्ति, ज्ञान; प्रकृति में से उठी लहरें जो तीन किस्म के असर हमारे मन पर डालती हैं, ये तीन गुण हैं माया के = सुस्ती, चुस्ती और शांति।
अर्थ: (उक्तर:) ज्यों-ज्यों सतिगुरु की शिक्षा पर चले, त्यों-त्यों मन की भटकना समाप्त होती गई। ज्यों-ज्यों एक-रस व्यापक प्रभु में जुड़ने का आनंद आया, त्यों-त्यों ये मन परचता गया (प्रभावित हो के उसमें समाता चला गया)। मन के फुरने और दुनियावी आशाएं हमने गुरु के शब्द से जला दी हैं, गुरु के सन्मुख होने से ही एक-रस रूहानी-प्रकाश मिला है। (इस ईश्वरीय-रौशनी की इनायत से) हमने माया के झलक की तीनों ही किस्मों के प्रभाव (तमो, रजो, सतो) अपने ऊपर नहीं पड़ने दिए, और (इस तरह माया की चोट से बचने का अत्यंत आसान कार्य-रूपी) लोहा चबाया गया है। (पर) हे नानक! (इस ‘दुश्तर सागर’ से) तैराने का समर्थ प्रभु स्वयं ही उद्धार करता है।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि कउ कवनु बीचारु कथीअले सुंन कहा घर वासो ॥ गिआन की मुद्रा कवन कथीअले घटि घटि कवन निवासो ॥ काल का ठीगा किउ जलाईअले किउ निरभउ घरि जाईऐ ॥ सहज संतोख का आसणु जाणै किउ छेदे बैराईऐ ॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारै ता निज घरि होवै वासो ॥ जिनि रचि रचिआ तिसु सबदि पछाणै नानकु ता का दासो ॥२१॥
मूलम्
आदि कउ कवनु बीचारु कथीअले सुंन कहा घर वासो ॥ गिआन की मुद्रा कवन कथीअले घटि घटि कवन निवासो ॥ काल का ठीगा किउ जलाईअले किउ निरभउ घरि जाईऐ ॥ सहज संतोख का आसणु जाणै किउ छेदे बैराईऐ ॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारै ता निज घरि होवै वासो ॥ जिनि रचि रचिआ तिसु सबदि पछाणै नानकु ता का दासो ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = शुरूआत, आरम्भ, जगत रचना का आरंभ। कथीअले = कहा जाता है। सुंन = (सं: शून्य) अफुर परमात्मा, निर्गुण स्वरूप प्रभु। घर वासो = ठिकाना, स्थान। गिआन = ज्ञान, परमात्मा के साथ गहरी जान पहचान। मुद्रा = 1. मुंद्राएं, 2. निशानी, 3. जोगियों के पाँच साधन = खचरी, भूचरी, गोचरी, चाचरी और उनमनी। ठीगा = चोट, सोटा, डंडा। जलाईअले = जलाया जाए। घरि = घर में। बैराईऐ = वैरी को। जिनि = जिस (प्रभु) ने।
अर्थ: (प्रश्न:) तुम (सृष्टि के) के आदि के बारे में क्या कहते हो? (तब) अफुर परमात्मा का कहाँ निवास था? परमात्मा को जानने के साधन क्या बताते हो? हरेक घट में किस का निवास है? काल की चोट कैसे समाप्त की जाए? निर्भय अवस्था तक कैसे पहुँच जाता है? कैसे (अहंकार) वैरी का नाश हो जिससे सहज और संतोख के आसन को पहचाना जा सके (भाव, जिसके कारण सहज और संतोख प्राप्त हो)?
(उक्तर:) (जो मनुष्य) सतिगुरु के शब्द के द्वारा अहंकार के जहर को खत्म कर लेता है, वह निज-स्वरूप में टिक जाता है। जिस प्रभु ने रचना रची है जो मनुष्य उसको गुरु के शब्द में जुड़ के पहचानता है, नानक उसका दास है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा ते आवै कहा इहु जावै कहा इहु रहै समाई ॥ एसु सबद कउ जो अरथावै तिसु गुर तिलु न तमाई ॥ किउ ततै अविगतै पावै गुरमुखि लगै पिआरो ॥ आपे सुरता आपे करता कहु नानक बीचारो ॥ हुकमे आवै हुकमे जावै हुकमे रहै समाई ॥ पूरे गुर ते साचु कमावै गति मिति सबदे पाई ॥२२॥
मूलम्
कहा ते आवै कहा इहु जावै कहा इहु रहै समाई ॥ एसु सबद कउ जो अरथावै तिसु गुर तिलु न तमाई ॥ किउ ततै अविगतै पावै गुरमुखि लगै पिआरो ॥ आपे सुरता आपे करता कहु नानक बीचारो ॥ हुकमे आवै हुकमे जावै हुकमे रहै समाई ॥ पूरे गुर ते साचु कमावै गति मिति सबदे पाई ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा ते = कहां से? इहु = ये जीव। अरथावै = समझा दे। तमाई = तमा, लालच। ततु = तत्व, अस्लियत, जगत की अस्लियत प्रभु। अविगत = अव्यक्त, व्यक्ति रहत, अदृश्य प्रभु। सुरता = श्रोता, सुनने वाला। गति = हालत। मिति = माप।
अर्थ: (प्रश्न:) ये जीव कहाँ से आता है? कहाँ जाता है? कहाँ टिका रहता है? (भाव, जीव कैसे जीवन व्यतीत करता है?) - जो ये बात समझा दे, (हम मानेंगे कि) उस गुरु को रक्ती भर भी लोभ नहीं है। जीव जगत के मूल व अदृश्य प्रभु को कैसे मिले? गुरु के द्वारा (प्रभु के साथ इसका) प्यार कैसे बने? हे नानक! (हमें उस प्रभु की) विचार बता जो स्वयं ही (जीवों को) पैदा करने वाला है और स्वयं ही, (उनकी) सुनने वाला है।
(उक्तर:) (जीव प्रभु के) हुक्म में ही (यहाँ) आता है, हुक्म में ही (यहाँ से) चला जाता है, जीव को हुक्म में ही जीवन व्यतीत करना पड़ता है। पूरे गुरु के द्वारा मनुष्य सच्चे प्रभु के (स्मरण की) कमाई करता है, ये बात गुरु के शब्द से ही मिलती है कि प्रभु कैसा है और कितना (बेअंत) है।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि कउ बिसमादु बीचारु कथीअले सुंन निरंतरि वासु लीआ ॥ अकलपत मुद्रा गुर गिआनु बीचारीअले घटि घटि साचा सरब जीआ ॥ गुर बचनी अविगति समाईऐ ततु निरंजनु सहजि लहै ॥ नानक दूजी कार न करणी सेवै सिखु सु खोजि लहै ॥ हुकमु बिसमादु हुकमि पछाणै जीअ जुगति सचु जाणै सोई ॥ आपु मेटि निरालमु होवै अंतरि साचु जोगी कहीऐ सोई ॥२३॥
मूलम्
आदि कउ बिसमादु बीचारु कथीअले सुंन निरंतरि वासु लीआ ॥ अकलपत मुद्रा गुर गिआनु बीचारीअले घटि घटि साचा सरब जीआ ॥ गुर बचनी अविगति समाईऐ ततु निरंजनु सहजि लहै ॥ नानक दूजी कार न करणी सेवै सिखु सु खोजि लहै ॥ हुकमु बिसमादु हुकमि पछाणै जीअ जुगति सचु जाणै सोई ॥ आपु मेटि निरालमु होवै अंतरि साचु जोगी कहीऐ सोई ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसमादु = आश्चर्य। निरंतरि = एक रस। कलपत = कल्पित, बनाई हुई, नकली। अकलपत = अकल्पित, असली। मुद्रा = साधन। अविगत = अव्यक्त हरि में, अदृश्य प्रभु में। सहजि = अडोलता में। निरालमु = निराला, निर्लिप।
अर्थ: (पउड़ी नंबर 21 और 22 का उक्तर:) सृष्टि के आदि का विचार तो ‘आश्चर्य, आश्चर्य’ ही कहा जा सकता है, (तब) एक-रस अफुर परमात्मा का ही वजूद था। ज्ञान का असली साधन ये समझो कि सतिगुरु से मिला ज्ञान हो (भाव, ज्ञान प्राप्ति का असली साधन सतिगुरु की शरण ही है)। हरेक घट में, सारे जीवों में, सदा कायम रहने वाला प्रभु ही बसता है। अदृश्य प्रभु में सतिगुरु के शब्द द्वारा लीन हुआ जाता है, (गुरु-शब्द के द्वारा) अडोल अवस्था में टिका जगत का मूल निरंजन (माया से रहित प्रभु) मिल जाता है। हे नानक! (निरंजन को तलाशने के लिए गुरु के वचन पर चलने के अतिरिक्त) और कोई काम करने की आवश्यक्ता नहीं, जो सिख (गुरु के आशय अनुसार) सेवा करता है वह तलाश के ‘निरंजन’ को पा लेता है।
‘हुक्म’ मानना आश्चर्य (ख्याल) है, भाव यह (ख्याल कि गुरु के हुक्म में चलने से ‘अविगत’ में समाया जाता है हैरानगी पैदा करने वाला है; पर) जो मनुष्य ‘हुक्म’ में (चल के ‘हुक्म’ को) पहचानता है वह जीवन की (सही) जुगति के ‘सच’ को जान लेता है; वह ‘स्वै भाव’ (अहंम्) मिटा के (दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से) अलग होता है (क्योंकि उसके) हृदय में सदा कायम रहने वाला प्रभु (साक्षात) है, (बस!) ऐसा मनुष्य ही जोगी कहलवाने के योग्य है।23।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इससे आगे पौड़ी नं: 42 तक प्रश्न-उक्तर नहीं हैं, सतिगुरु जी अपने ही मत की व्याख्या करते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविगतो निरमाइलु उपजे निरगुण ते सरगुणु थीआ ॥ सतिगुर परचै परम पदु पाईऐ साचै सबदि समाइ लीआ ॥ एके कउ सचु एका जाणै हउमै दूजा दूरि कीआ ॥ सो जोगी गुर सबदु पछाणै अंतरि कमलु प्रगासु थीआ ॥ जीवतु मरै ता सभु किछु सूझै अंतरि जाणै सरब दइआ ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई आपु पछाणै सरब जीआ ॥२४॥
मूलम्
अविगतो निरमाइलु उपजे निरगुण ते सरगुणु थीआ ॥ सतिगुर परचै परम पदु पाईऐ साचै सबदि समाइ लीआ ॥ एके कउ सचु एका जाणै हउमै दूजा दूरि कीआ ॥ सो जोगी गुर सबदु पछाणै अंतरि कमलु प्रगासु थीआ ॥ जीवतु मरै ता सभु किछु सूझै अंतरि जाणै सरब दइआ ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई आपु पछाणै सरब जीआ ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अविगतो = अव्यक्त से, अदृश्य से। उपजे = प्रकट होता है। निरगुण = माया के तीन गुणों से रहत। सरगुणु = माया के तीन गुणों समेत। परचै = पतीजने से। परम पदु = ऊँची आत्मिक अवस्था।
अर्थ: (जब) अदृश्य अवस्था से निर्मल प्रभु प्रकट होता है और निर्गुण रूप से सर्गुण बनता है (भाव, अपने अदृश्य आत्मिक स्वरूप से आकार वाला बन के सूक्ष्म और स्थूल रूप धारण कर लेता है) तब इस दृश्यमान संसार में से जिस जीव का मन सतिगुरु के शब्द से पतीजता जाता है (उस जीव को) ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है (तब समझें कि) गुरु के शब्द के द्वारा सच्चे प्रभु ने (उसको अपने में) लीन कर लिया है।
(तब) वह केवल एक प्रभु को ही (सदा रहने वाली हस्ती) जानता है, उसने अहंकार व दूजा भाव (अर्थात, प्रभु के बिना किसी और ऐसी हस्ती की संभावना का ख्याल) दूर कर लिया होता है, (बस!) वही (असल) जोगी है, वह सतिगुरु के शब्द को समझता है उसके अंदर (हृदय-रूप) कमल-फूल खिल उठा होता है।
जो मनुष्य जीते हुए ही मर जाता है (भाव, ‘अहम्’ का त्याग करता है, स्वार्थ मिटाता है) उसको (जिंदगी के) हरेक (पहलू) की समझ आ जाती है, वह मनुष्य सारे जीवों पर दया करने (का असूल) अपने मन में पक्का कर लेता है। हे नानक! उसी मनुष्य को आदर मिलता है, वह सारे जीवों में अपने आप को देखता है (भाव, वह उसी ज्योति को सबमें देखता है जो उसके अपने अंदर है)।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचौ उपजै साचि समावै साचे सूचे एक मइआ ॥ झूठे आवहि ठवर न पावहि दूजै आवा गउणु भइआ ॥ आवा गउणु मिटै गुर सबदी आपे परखै बखसि लइआ ॥ एका बेदन दूजै बिआपी नामु रसाइणु वीसरिआ ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए गुर कै सबदि सु मुकतु भइआ ॥ नानक तारे तारणहारा हउमै दूजा परहरिआ ॥२५॥
मूलम्
साचौ उपजै साचि समावै साचे सूचे एक मइआ ॥ झूठे आवहि ठवर न पावहि दूजै आवा गउणु भइआ ॥ आवा गउणु मिटै गुर सबदी आपे परखै बखसि लइआ ॥ एका बेदन दूजै बिआपी नामु रसाइणु वीसरिआ ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए गुर कै सबदि सु मुकतु भइआ ॥ नानक तारे तारणहारा हउमै दूजा परहरिआ ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचौ = सदा कायम रहने वाले प्रभु से। सूचे = पवित्र मनुष्य। एक मइआ = एक मेक, एक रूप। आवा गउणु = आवागवन, जनम मरण का चक्कर। बेदन = वेदना, पीड़ा, दुख। दूजै = प्रभु के बिना और से प्यार के कारण। बिआपी = सता रही है। रसाइणु = (रस+अयन) रसों का घर। आपि = (पउड़ी नं: 24 में शब्द ‘आपि’ का फर्क समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। परहरिआ = दूर किया।
अर्थ: (गुरमुखि) सच्चे प्रभु से पैदा होता है और सच्चे में ही लीन रहता है; प्रभु और गुरमुख एक-रूप हो जाते हैं। पर झूठे (भाव, नाशवान माया में लगे हुए लोग) जगत में आते हैं, उनको मन का टिकाव नहीं हासिल होता (सो इस) दूजे-भाव के कारण उनका जनम-मरण का चक्कर बना रहता है।
ये जनम-मरण का चक्कर सतिगुरु के शब्द से ही मिटता है (गुरु-शब्द में जुड़े मनुष्य को) प्रभु स्वयं पहचान लेता है, और (उस पर) मेहर करता है। (पर जिनको) सारे रसों-का-घर-प्रभु का नाम बिसर जाता है उन्हें दूसरे भाव में फसने के कारण यह अहंकार की पीड़ा सताती है।
(ये भेद) वह मनुष्य समझता है जिसको प्रभु खुद समझ बख्शता है, गुरु के शब्द में जुड़ने के कारण वह मनुष्य (अहंकार से) आजाद हो जाता है। हे नानक! जिसने अहंकार और दूजा भाव त्याग दिया है उसको तारनहार प्रभु तार लेता है।25।
[[0941]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखि भूलै जम की काणि ॥ पर घरु जोहै हाणे हाणि ॥ मनमुखि भरमि भवै बेबाणि ॥ वेमारगि मूसै मंत्रि मसाणि ॥ सबदु न चीनै लवै कुबाणि ॥ नानक साचि रते सुखु जाणि ॥२६॥
मूलम्
मनमुखि भूलै जम की काणि ॥ पर घरु जोहै हाणे हाणि ॥ मनमुखि भरमि भवै बेबाणि ॥ वेमारगि मूसै मंत्रि मसाणि ॥ सबदु न चीनै लवै कुबाणि ॥ नानक साचि रते सुखु जाणि ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काणि = अधीनता। जोहै = देखता है। होणे हाणि = हानि ही हानि, घाटा ही घाटा। भरमि = भ्रम में, भुलेखे में। बेबाणि = जंगल में। वेमारगि = कुमार्ग, गलत रास्ते पर। मूसै = ठगा जाता है। मंत्रि = मंत्र पढ़ने वाला। मसाणि = मसाण में। लवै = लब लबाना, ऊल जलूल बोलना। कुबाणि = दुरवचन, कुबोल।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है वह (जीवन का सही रास्ता) गवा देता है और जम की अधीनता में हो जाता है, पराया घर देखता है, उसको (इस कुकर्म में) घाटा ही घाटा रहता है।
भुलेखे में पड़ा हुआ मनमुख (मानो) जंगल में भटक रहा है, गलत रास्ते पर पड़ कर (इस प्रकार) ठगा जा रहा है जैसे मसाण में मंत्र पढ़ने वाला मनुष्य (बुरी तरफ पड़ा है)।
(मनमुख) गुरु के शब्द को नहीं पहचानता (भाव, गुरु के शब्द की उसको कद्र नहीं पड़ती), और दुर्वचन ही बोलता है।
हे नानक! सुख उसको (मिला) जानो जो सच्चे प्रभु में रंगा हुआ है।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि साचे का भउ पावै ॥ गुरमुखि बाणी अघड़ु घड़ावै ॥ गुरमुखि निरमल हरि गुण गावै ॥ गुरमुखि पवित्रु परम पदु पावै ॥ गुरमुखि रोमि रोमि हरि धिआवै ॥ नानक गुरमुखि साचि समावै ॥२७॥
मूलम्
गुरमुखि साचे का भउ पावै ॥ गुरमुखि बाणी अघड़ु घड़ावै ॥ गुरमुखि निरमल हरि गुण गावै ॥ गुरमुखि पवित्रु परम पदु पावै ॥ गुरमुखि रोमि रोमि हरि धिआवै ॥ नानक गुरमुखि साचि समावै ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अघड़ु = बिना घड़ा हुआ मन, अमोड़ मन, जो अच्छी तरह घड़ा नहीं हुआ, बगैर तराशे हुए। परम पदु = सबसे उत्तम दर्जा। रोमि रोमि = हरेक रोम से, (भाव,) तन मन से। साचि = सच्चे प्रभु में।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के अनुसार हो के चलता है वह सच्चे प्रभु का डर अपने हृदय में बसाता है, गुरु की वाणी से अपने अमोड़ मन को तराशता है, निर्मल परमात्मा की महिमा करता है (और इस तरह) पवित्र और ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।
गुरमुख मनुष्य तन-मन से परमात्मा को याद करता है, हे नानक! (बँदगी से) गुरमुख सदा कायम रहने वाले प्रभु में लीन रहता है।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि परचै बेद बीचारी ॥ गुरमुखि परचै तरीऐ तारी ॥ गुरमुखि परचै सु सबदि गिआनी ॥ गुरमुखि परचै अंतर बिधि जानी ॥ गुरमुखि पाईऐ अलख अपारु ॥ नानक गुरमुखि मुकति दुआरु ॥२८॥
मूलम्
गुरमुखि परचै बेद बीचारी ॥ गुरमुखि परचै तरीऐ तारी ॥ गुरमुखि परचै सु सबदि गिआनी ॥ गुरमुखि परचै अंतर बिधि जानी ॥ गुरमुखि पाईऐ अलख अपारु ॥ नानक गुरमुखि मुकति दुआरु ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परचा = गहरी सांझ, प्यार (संस्कृत: परिचि = परिचय बनाना, मित्रता कायम करनी, सांझ बनानी)। अंतर = अंदर की।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पौड़ी नं: 24 में शब्द ‘अंतरि’ और इस ‘अंतर’ में फर्क है। अंतरि = अपने अंदर। अंतर बिधि = अंदर की हालत)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञानवान, प्रभु के साथ गहरी जान पहचान वाला। अलख = जिसके कोई खास चिन्ह व निशान नहीं। दुआरु = द्वार, दरवाजा।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के साथ गहरी सांझ बना लेता है (भाव, जिसको सतिगुरु में पूर्ण विश्वास हो जाता है) वह (मानो) वेदों का ज्ञाता हो गया है (उसको वेदों की आवश्क्ता नहीं रह जाती)। गुरु के साथ गहरी सांझ बनाने से संसार-समुंदर से पार हुआ जाता है, गुरु शब्द के माध्यम से परमात्मा के साथ जान-पहचान वाला बना जाता है और (अपने) अंदर की सूझ आ जाती है।
गुरु के सन्मुख होने से अदृश्य और बे-अंत प्रभु मिल जाता है; हे नानक! गुरु के द्वारा ही (अहंकार से) खलासी का रास्ता मिलता है।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि अकथु कथै बीचारि ॥ गुरमुखि निबहै सपरवारि ॥ गुरमुखि जपीऐ अंतरि पिआरि ॥ गुरमुखि पाईऐ सबदि अचारि ॥ सबदि भेदि जाणै जाणाई ॥ नानक हउमै जालि समाई ॥२९॥
मूलम्
गुरमुखि अकथु कथै बीचारि ॥ गुरमुखि निबहै सपरवारि ॥ गुरमुखि जपीऐ अंतरि पिआरि ॥ गुरमुखि पाईऐ सबदि अचारि ॥ सबदि भेदि जाणै जाणाई ॥ नानक हउमै जालि समाई ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकथु = जो कथन ना किया जा सके, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। बीचारि = विचार से। निबहै = निभता है, पुगता है। सपरवारि = स+परवारि, परिवार में रहते हुए। अंतरि = हृदय में। पिआरि = प्यार से। सबदि = गुर शब्द से। अचारि = आचार से, अच्छे आचरण से। भेदि = भेदित करके। जाणाई = जनाता है, और लोगों को बताता है। जालि = जला के।
अर्थ: गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य (गुरु की बताई) विचार से उस प्रभु के गुण गाता है जिसका सही रूप बयान नहीं किया जा सकता, (इस तरह) गुरमुख घर-बार वाला होते हुए ही (जिंदगी की बाजी में) सिद्ध (सफल, माहिर) हो जाता है।
गुरु के सन्मुख होने से ही हृदय में प्यार से प्रभु का नाम जपा जा सकता है, और गुर-शब्द के द्वारा ऊँचा आचरण बन के प्रभु मिलता है।
(गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य) गुरु के शब्द द्वारा (अपने मन को) परो के (प्रभु को) पहचानता है व और लोगों को पहचान करवाता है। हे नानक! गुरमुख (अपने) अहंकार (खुदगर्जी को) जला के (प्रभु में) लीन रहता है।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि धरती साचै साजी ॥ तिस महि ओपति खपति सु बाजी ॥ गुर कै सबदि रपै रंगु लाइ ॥ साचि रतउ पति सिउ घरि जाइ ॥ साच सबद बिनु पति नही पावै ॥ नानक बिनु नावै किउ साचि समावै ॥३०॥
मूलम्
गुरमुखि धरती साचै साजी ॥ तिस महि ओपति खपति सु बाजी ॥ गुर कै सबदि रपै रंगु लाइ ॥ साचि रतउ पति सिउ घरि जाइ ॥ साच सबद बिनु पति नही पावै ॥ नानक बिनु नावै किउ साचि समावै ॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचै = सच्चे प्रभु ने। तिसु महि = उस (धरती) में। ओपति = उत्पक्ति। खपति = खपत, नाश। बाजी = खेल। रपै = रंगा रहता है। रतउ = रति हुआ, रंगा हुआ। पति = इज्ज्त। रंगु = प्यार।
अर्थ: सच्चे प्रभु ने गुरमुख मनुष्य (पैदा करने) के लिए धरती बनाई है; इस धरती में उत्पक्ति और नाश (गुरमुखता के विकास के लिए) एक खेल है; जब मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु के साथ प्यार जोड़ के (प्रभु के रंग में) रंगा जाता है तो सच्चे में रति हुआ (गुरमुखि) इज्जत ले के अपने घर में पहुँचता है (और उसकी बनने-टूटने की खेल समाप्त हो जाती है)।
सच्चे शब्द के बिना कोई मनुष्य इज्जत हासिल नहीं कर सकता। हे नानक! प्रभु के नाम के बिना प्रभु में मनुष्य कैसे समा सकता है? (नहीं समा सकता)।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि असट सिधी सभि बुधी ॥ गुरमुखि भवजलु तरीऐ सच सुधी ॥ गुरमुखि सर अपसर बिधि जाणै ॥ गुरमुखि परविरति नरविरति पछाणै ॥ गुरमुखि तारे पारि उतारे ॥ नानक गुरमुखि सबदि निसतारे ॥३१॥
मूलम्
गुरमुखि असट सिधी सभि बुधी ॥ गुरमुखि भवजलु तरीऐ सच सुधी ॥ गुरमुखि सर अपसर बिधि जाणै ॥ गुरमुखि परविरति नरविरति पछाणै ॥ गुरमुखि तारे पारि उतारे ॥ नानक गुरमुखि सबदि निसतारे ॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह रखना, गुरु के बताए हुए राह पर चलना। असट = आठ। असट सिधी = आठ सिद्धियां (आठ करामाती ताकतें = अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशीता, वशिता। अणिमा = दूसरे का रूप हो जाना। महिमा = देह को बड़ा कर लेना। लघिमा = शरीर को छोटा कर लेना। गरिमा = भारी हो जाना। प्राप्ति = मन इच्छित भोग हासिल कर लेने की सामर्थ्य। प्राकाम्य = औरों के दिल की जानने की ताकत। ईशीता = अपनी इच्छा अनुसार सबको प्रेरित करना। वशिता = सब को वश में कर लेना)। सुधी = श्रेष्ठ मत। अपसर = बुरा समय। सर = अच्छा समय। परविरति = ग्रहण। नरविरति = त्याग।
अर्थ: गुरु के बताए हुए राह पर चलना ही सारी आठों करामाती ताकतों और कौशल की प्राप्ति है, गुरु के सन्मुख होने से संसार-समुंदर से पार हुआ जाता है और सच्चे की सुंदर मति आ जाती है। गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य अच्छे-बुरे समय की हालत को जान लेता है, और पहचान लेता है कि क्या छोड़ना है और क्या ग्रहण करना है। गुरमुख मनुष्य (और लोगों को संसार-समुंदर से) तैरा के उस पार लगा देता है। हे नानक! गुरु की शिक्षा पर चलने वाला बंदा (गुरु के) शब्द से (दूसरों की भी) उद्धार कर देता है।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामे राते हउमै जाइ ॥ नामि रते सचि रहे समाइ ॥ नामि रते जोग जुगति बीचारु ॥ नामि रते पावहि मोख दुआरु ॥ नामि रते त्रिभवण सोझी होइ ॥ नानक नामि रते सदा सुखु होइ ॥३२॥
मूलम्
नामे राते हउमै जाइ ॥ नामि रते सचि रहे समाइ ॥ नामि रते जोग जुगति बीचारु ॥ नामि रते पावहि मोख दुआरु ॥ नामि रते त्रिभवण सोझी होइ ॥ नानक नामि रते सदा सुखु होइ ॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामे = नाम में ही। मोख = मुक्ति, आजादी, खलासी, अहंकार से मुक्ति। त्रिभवण = त्रिलोकी की। सदा सुख = सदा कायम रहने वाला सुख। राते = रंगे हुए की।
अर्थ: (प्रभु के) नाम में रंगे हुए का अहंकार नाश होता है। जो मनुष्य प्रभु के नाम में रंगे हुए हैं वह प्रभु में समाए रहते हैं। जो प्राणी प्रभु के नाम में रंगे हुए हैं उन्हें ही जोग की जुगति और विचार प्राप्त हूई है। प्रभु के नाम में रंगे हुए बंदे ही अहंकार से छुटकारा पाने का रास्ता पाते हैं, (क्योंकि) नाम में रति हुए (रंगे हुए) बंदों को त्रिलोकी की सूझ पड़ जाती है (भाव, अपनी छोटी सी अपनत्व की पकड़ की जगह सारी त्रिलोकी ही उन्हें रूहानी सांझ के कारण अपनी ही दिखती है)। हे नानक! प्रभु के नाम में रते हुए को सदा टिके रहने वाला सुख मिलता हैं।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामि रते सिध गोसटि होइ ॥ नामि रते सदा तपु होइ ॥ नामि रते सचु करणी सारु ॥ नामि रते गुण गिआन बीचारु ॥ बिनु नावै बोलै सभु वेकारु ॥ नानक नामि रते तिन कउ जैकारु ॥३३॥
मूलम्
नामि रते सिध गोसटि होइ ॥ नामि रते सदा तपु होइ ॥ नामि रते सचु करणी सारु ॥ नामि रते गुण गिआन बीचारु ॥ बिनु नावै बोलै सभु वेकारु ॥ नानक नामि रते तिन कउ जैकारु ॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = पूरन परमात्मा। गोसटि = मिलाप। सिध गोसटि = परमात्मा से मिलाप (देखें, इस वाणी के आरंभ में शब्द ‘सिध गोसटि’ पर विचार)। सारु = श्रेष्ठ। वेकारु = व्यर्थ। तपु = 1. मन को मारने के लिए शरीर पर कष्ट सहने का साधन; 2. पुण्य कर्म। गिआन = ज्ञान, पहचान, सांझ।
अर्थ: (प्रभु के) नाम में रति रहने पर ही प्रभु से मिलाप होता है। प्रभु-नाम में रंगे रहना ही सदा कायम रहने वाला पुण्य कर्म है।
नाम में लगना ही सच्ची और उत्तम करणी है। नाम में रति रहने से ही प्रभु के गुणों के साथ जान-पहचान होती है और सांझ बनती है।
(प्रभु के) नाम के बिना मनुष्य जो बोलता है व्यर्थ है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में रति हैं, उनको हमारी नमस्कार है।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरे गुर ते नामु पाइआ जाइ ॥ जोग जुगति सचि रहै समाइ ॥ बारह महि जोगी भरमाए संनिआसी छिअ चारि ॥ गुर कै सबदि जो मरि जीवै सो पाए मोख दुआरु ॥ बिनु सबदै सभि दूजै लागे देखहु रिदै बीचारि ॥ नानक वडे से वडभागी जिनी सचु रखिआ उर धारि ॥३४॥
मूलम्
पूरे गुर ते नामु पाइआ जाइ ॥ जोग जुगति सचि रहै समाइ ॥ बारह महि जोगी भरमाए संनिआसी छिअ चारि ॥ गुर कै सबदि जो मरि जीवै सो पाए मोख दुआरु ॥ बिनु सबदै सभि दूजै लागे देखहु रिदै बीचारि ॥ नानक वडे से वडभागी जिनी सचु रखिआ उर धारि ॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचि = सच में, सदा कायम रहने वाले प्रभु में। बारह = जोगियों के बारह फिरके = हेतु, पाव, आई, गम्य, पागल, कंथड़ी, बन, आरन्य,गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वत, भारती, पुरी। उरधारि = उरि+धारि, हृदय में धार के। उर = हृदय।
अर्थ: (प्रभु का) नाम गुरु से मिलता है। सच्चे प्रभु में लीन रहना- यही है (असल) जोग की जुगति। (पर) जोगी लोग (अपने) बारह फिरकों (के बँटवारे) में (इस असल निशाने से) टूट रहे हैं और संयासी लोग (अपने) दस फिरकों (अलग-अलग साधनों) में। जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द के द्वारा (माया की ओर से) मर के जीता है वह (अहंकार से) मुक्ति का राह ढूँढ लेता है।
हृदय में विचार के देख लो (भाव, अपना जाती तजरबा ही इस बात की गवाही दे देगा कि) गुरु के शब्द (में जुड़े) बिना सारे लोग (प्रभु को छोड़ के) और ही (व्यस्तता) में लगे रहते हैं। हे नानक! वे मनुष्य बड़े हैं और बहुत भाग्यशाली हैं जिन्होंने सच्चे प्रभु को टिका रखा है।34।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि रतनु लहै लिव लाइ ॥ गुरमुखि परखै रतनु सुभाइ ॥ गुरमुखि साची कार कमाइ ॥ गुरमुखि साचे मनु पतीआइ ॥ गुरमुखि अलखु लखाए तिसु भावै ॥ नानक गुरमुखि चोट न खावै ॥३५॥
मूलम्
गुरमुखि रतनु लहै लिव लाइ ॥ गुरमुखि परखै रतनु सुभाइ ॥ गुरमुखि साची कार कमाइ ॥ गुरमुखि साचे मनु पतीआइ ॥ गुरमुखि अलखु लखाए तिसु भावै ॥ नानक गुरमुखि चोट न खावै ॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है। रतनु = प्रभु का नाम रूप कीमती पदार्थ। सुभाइ = स्वाभाविक ही, सहज ही।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जैसे ‘नाउ’ और ‘नाइ’ करणकारक हैं वैसे ही ‘भाउ’ और ‘भाइ’)। ‘सुभाउ’ असल में है ‘स्वभाव’ = अपना प्यार, अपनी लगन। अपनी लगन से ही।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतीआइ = तसल्ली करा लेता है। अलखु = जिसका कोई खास लक्षण ना दिखे। लखाए = सूझ पैदा कर देता है। तिसु = उस प्रभु को। चोट = मार।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के कहे पर चलता है वह (प्रभु में) तवज्जो जोड़ के प्रभु-नाम-रूप रतन पा लेता है, वह मनुष्य (इस) अपनी लगन से ही नाम-रतन की कद्र जान लेता है। (बस! यही) सच्ची कार गुरमुख कमाता है और सच्चे प्रभु में अपने मन को मिला लेता है। (जब) उस प्रभु को भाता है तब गुरमुख उस अलख प्रभु (के गुणों की और लोगों को भी) सूझ दे देता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के कहे पर चलता है वह (वह) विकारों की मार नहीं खाता।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नामु दानु इसनानु ॥ गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥ गुरमुखि पावै दरगह मानु ॥ गुरमुखि भउ भंजनु परधानु ॥ गुरमुखि करणी कार कराए ॥ नानक गुरमुखि मेलि मिलाए ॥३६॥
मूलम्
गुरमुखि नामु दानु इसनानु ॥ गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥ गुरमुखि पावै दरगह मानु ॥ गुरमुखि भउ भंजनु परधानु ॥ गुरमुखि करणी कार कराए ॥ नानक गुरमुखि मेलि मिलाए ॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि नामु = गुरमुखि मनुष्य का ही नाम (जपना स्वीकार है), गुरु के हुक्म में चल के ही नाम जपना ठीक है।
दर्पण-टिप्पनी
सतगुरु पुरख न मंनिओ सबदि न लगो पिआर॥ इसनानु दानु जेता करहि दूजै भाइ खुआर॥५॥२०॥ सिरी रागु म: ३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ भंजनु = दुनिया वाले डर सहम नाश करने वाला प्रभु। परधानु = सब का मुखी, सबका मालिक। गुरमुखि…परधानु = गुरमुखि (पावै) भउ भंजनु परधानु। करणी कार = करने योग्य काम।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, उसका नाम जपना दान करना और स्नान करना स्वीकार है। गुरु के सन्मुख होने से ही अडोल अवस्था में तवज्जो जुड़ती है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है वह प्रभु की हजूरी में आदर पाता है वह उस प्रभु को मिल जाता है जो डर-सहम नाश करने वाला है और जो सबका मालिक है।
गुरमुख मनुष्य (औरों से भी यही, भाव, गुरु के हुक्म में चलने वाला) करने-योग्य काम करवाता है, (और इस तरह उनको) हे नानक! (प्रभु के) मेल में मिला देता है।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सासत्र सिम्रिति बेद ॥ गुरमुखि पावै घटि घटि भेद ॥ गुरमुखि वैर विरोध गवावै ॥ गुरमुखि सगली गणत मिटावै ॥ गुरमुखि राम नाम रंगि राता ॥ नानक गुरमुखि खसमु पछाता ॥३७॥
मूलम्
गुरमुखि सासत्र सिम्रिति बेद ॥ गुरमुखि पावै घटि घटि भेद ॥ गुरमुखि वैर विरोध गवावै ॥ गुरमुखि सगली गणत मिटावै ॥ गुरमुखि राम नाम रंगि राता ॥ नानक गुरमुखि खसमु पछाता ॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेद = राज़, रम्ज़। घटि घटि = हरेक घट में व्यापक प्रभु। गणत = लेखा, हिसाब।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, वह (मानो) शास्त्रों स्मृतियों और वेदों का ज्ञान हासिल कर चुका है, (भाव, गुरु के हुक्म में चलना ही गुरसिख के लिए वेद-शास्त्रों व वेदों का ज्ञान है)। गुरु के हुक्म में चल के वह हरेक घट में व्यापक प्रभु का (सर्र्व-व्यापकता का) भेद समझ लेता है, (इस वास्ते) गुरमुखि (दूसरों के साथ) वैर-विरोध रखना भुला देता है, (इस वैर-विरोध का) सारा लेखा ही मिटा देता है (भाव, कभी ये सोच आने ही नहीं देता कि किसी ने कभी उसके साथ धक्केशाही की)।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है, वह प्रभु के नाम के प्यार में रंगा रहता है। हे नानक! गुरु के सन्मुख मनुष्य ने पति (-प्रभु) को पहचान लिया है।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गुर भरमै आवै जाइ ॥ बिनु गुर घाल न पवई थाइ ॥ बिनु गुर मनूआ अति डोलाइ ॥ बिनु गुर त्रिपति नही बिखु खाइ ॥ बिनु गुर बिसीअरु डसै मरि वाट ॥ नानक गुर बिनु घाटे घाट ॥३८॥
मूलम्
बिनु गुर भरमै आवै जाइ ॥ बिनु गुर घाल न पवई थाइ ॥ बिनु गुर मनूआ अति डोलाइ ॥ बिनु गुर त्रिपति नही बिखु खाइ ॥ बिनु गुर बिसीअरु डसै मरि वाट ॥ नानक गुर बिनु घाटे घाट ॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमै = भटकता है। थाइ न पवई = स्वीकार नहीं होती। मनूआ = चंचल मन (‘मन’ से ‘मनूआ’ अल्पार्थक संज्ञा है, देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। डोलाइ = डोलता है, शंकाओं से घिरा रहता है। बिखु = विष, जहर। त्रिपति = तृप्ति, संतोख। बिसीअरु = साँप (जगत का मोह)।
अर्थ: सतिगुरु (की शरण आए) बिना (मनुष्य माया में) भटकता है और पैदा होता मरता रहता है। गुरु की शरण के बिना कोई मेहनत स्वीकार नहीं होती (क्योंकि ‘अहंकार’ टिका रहता है)। सतिगुरु के बिना ये चंचल मन बहुत शंकाओं में घिरा रहता है, जहर खा-खा के भी (भाव दुनिया के पदार्थ भोग भोग के) तृप्त नहीं होता। गुरु (की राह पर चले) बिना (जगत का मोह-रूपी) साँप डंग मारता रहता है, (जिंदगी के सफर के) आधे रास्ते पर ही (आत्मिक मौत) मर जाता है। हे नानक! सतिगुरु के (हुक्म में चले) बिना मनुष्य को (आत्मिक जीवन में) घाटा ही घाटा रहता है।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु गुरु मिलै तिसु पारि उतारै ॥ अवगण मेटै गुणि निसतारै ॥ मुकति महा सुख गुर सबदु बीचारि ॥ गुरमुखि कदे न आवै हारि ॥ तनु हटड़ी इहु मनु वणजारा ॥ नानक सहजे सचु वापारा ॥३९॥
मूलम्
जिसु गुरु मिलै तिसु पारि उतारै ॥ अवगण मेटै गुणि निसतारै ॥ मुकति महा सुख गुर सबदु बीचारि ॥ गुरमुखि कदे न आवै हारि ॥ तनु हटड़ी इहु मनु वणजारा ॥ नानक सहजे सचु वापारा ॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण = गुणों से, गुण दे के। हारि = हार के। हटड़ी = सुंदर सी दुकान (‘हट’ से ‘हटड़ी’ अल्पार्थक संज्ञा है, देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। सहजे = सहज अवस्था में जुड़ के, आत्मिक अवस्था में टिक के।
अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु मिल जाता है उसको (वह दुष्तर सागर से) पार लंघा लेता है, गुरु उसके अवगुण मिटा देता है और गुण दे के उसको (विकारों से) बचा लेता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख (है वह जिंदगी की बाज़ी कभी) हार के नहीं आता, सतिगुरु का शब्द विचार के उसको (माया के बंधनो से) आजादी का बड़ा सुख मिलता है। हे नानक! गुरमुख (अपने) शरीर को सुंदर सी दुकान व मन को व्यापारी बनाता है, अडोलता में रह के नाम का व्यापार करता है।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि बांधिओ सेतु बिधातै ॥ लंका लूटी दैत संतापै ॥ रामचंदि मारिओ अहि रावणु ॥ भेदु बभीखण गुरमुखि परचाइणु ॥ गुरमुखि साइरि पाहण तारे ॥ गुरमुखि कोटि तेतीस उधारे ॥४०॥
मूलम्
गुरमुखि बांधिओ सेतु बिधातै ॥ लंका लूटी दैत संतापै ॥ रामचंदि मारिओ अहि रावणु ॥ भेदु बभीखण गुरमुखि परचाइणु ॥ गुरमुखि साइरि पाहण तारे ॥ गुरमुखि कोटि तेतीस उधारे ॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेतु = पुल। बिधाते = विधाता ने, कर्तार ने। दैत = दैत्य, राक्षस। संतापै = दुखी करता है। रामचंदि = श्री राम चंद्र ने। अहि = सांप (मन)। परचाइणु = उपदेश। साइरि = सागर पर। पाहण = पत्थर। बभीखण = रावण का भाई जिसने राम चंद्र जी को सारे भेद बताए थे।
अर्थ: कर्तार ने (संसार-समुंदर पर) गुरमुखि-रूप पुल बना दिया (जैसे रामचंद्र जी ने सीता को लाने के लिए पुल बाँधा था)। (रामचंद्र जी ने) लंका लूटी और राक्षस मारे, (वेसे ही गुरु ने कामादिकों के वश में हुए शरीर को उनसे छुड़वा लिया और वह पंच दूत भी वश में हो गए)। रामचंद्र (जी) ने रावण को मारा वैसे ही गुरमुख ने मन साँप को मार दिया; सतिगुरु का उपदेश (मन को मारने के लिए यूँ काम आया जैसे) विभीषण का भेद बताना (रावण को मारने के लिए काम आया)। (रामचंद्र जी ने पुल बनाने के लिए पत्थर समुंदर पर तैराए) सतिगुरु ने (संसार-) समुंदर से (पत्थर दिलों को) पार लंघा दिया, गुरु के द्वारा तेतीस करोड़ (भाव, बेअंत जीवों का) उद्धार हो गया।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि चूकै आवण जाणु ॥ गुरमुखि दरगह पावै माणु ॥ गुरमुखि खोटे खरे पछाणु ॥ गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥ गुरमुखि दरगह सिफति समाइ ॥ नानक गुरमुखि बंधु न पाइ ॥४१॥
मूलम्
गुरमुखि चूकै आवण जाणु ॥ गुरमुखि दरगह पावै माणु ॥ गुरमुखि खोटे खरे पछाणु ॥ गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥ गुरमुखि दरगह सिफति समाइ ॥ नानक गुरमुखि बंधु न पाइ ॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पछाणु = पहचान। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। बंधु = रोक। गुरमुखि = गुरु के हुक्म में चलने वाला मनुष्य।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है उसके जनम-मरन का चक्कर समाप्त हो जाता है, वह प्रभु की हजूरी में आदर लेता है। गुरु के सन्मुख मनुष्य खोटे और खरे कामों का भेदी हो जाता है (इस वास्ते खोटे कामों में फंसता नहीं और) अडोलता में उसकी तवज्जो जुड़ी रहती है। गुरमुखि मनुष्य प्रभु की महिमा के द्वारा प्रभु की हजूरी में टिका रहता है, (इस तरह) हे नानक! गुरमुख (की जिंदगी) के राह में (विकारों की) कोई रोक नहीं पड़ती।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नामु निरंजन पाए ॥ गुरमुखि हउमै सबदि जलाए ॥ गुरमुखि साचे के गुण गाए ॥ गुरमुखि साचै रहै समाए ॥ गुरमुखि साचि नामि पति ऊतम होइ ॥ नानक गुरमुखि सगल भवण की सोझी होइ ॥४२॥
मूलम्
गुरमुखि नामु निरंजन पाए ॥ गुरमुखि हउमै सबदि जलाए ॥ गुरमुखि साचे के गुण गाए ॥ गुरमुखि साचै रहै समाए ॥ गुरमुखि साचि नामि पति ऊतम होइ ॥ नानक गुरमुखि सगल भवण की सोझी होइ ॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजन = निर+अंजन, माया से रहत (अंजन = सुरमा, कालख, माया की कालिख)। साचै = सच्चे प्रभु में। साचि = सत्य में। नामि = नाम में। पति = इज्जत।
अर्थ: गुरु के हुक्म में चलने वाला मनुष्य निरंजन का नाम प्राप्त करता है (क्योंकि) वह (अपने) अहंकार को गुरु के शब्द द्वारा जला देता है। गुरु के सन्मुख हो के मनुष्य सच्चे प्रभु के गुण गाता है और सदा कायम रहने वाले प्रभु में लीन रहता है।
सच्चे नाम में जुड़े रहने के कारण गुरमुखि को उच्च आदर मिलता है, हे नानक! गुरमुख मनुष्य को सारे भावनों की सोझी हो जाती है (भाव, गुरमुख को ये समझ आ जाती है कि प्रभु सारे ही भवनों में मौजूद है)।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवण मूलु कवण मति वेला ॥ तेरा कवणु गुरू जिस का तू चेला ॥ कवण कथा ले रहहु निराले ॥ बोलै नानकु सुणहु तुम बाले ॥ एसु कथा का देइ बीचारु ॥ भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥४३॥
मूलम्
कवण मूलु कवण मति वेला ॥ तेरा कवणु गुरू जिस का तू चेला ॥ कवण कथा ले रहहु निराले ॥ बोलै नानकु सुणहु तुम बाले ॥ एसु कथा का देइ बीचारु ॥ भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूल = आदि, आरम्भ। वेला = समय। कथा = बात। कवण कथा ले = किस बात से। निराले = अलग, निर्लिप। बाले = हे बालक! सबदि = शब्द द्वारा। लंघावनहार = पार कराने में समर्थ।
अर्थ: (प्रश्न:) - (जीवन का) मूल क्या है? कौन सी शिक्षा लेने का (इस मनुष्य जनम का) समय है? तू किस गुरु का चेला है? कौन सी बात से तू निर्लिप रहता है?
नानक कहता है (जोगियों ने कहा-) हे बालक (नानक!) सुन, (हमें) इस बात की विचार बता (हमें ये बात समझा कि कैसे) शब्द से (गुरु जीव को) संसार समुंदर से पार लंघाने के समर्थ है।43।
[[0943]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवन अर्मभु सतिगुर मति वेला ॥ सबदु गुरू सुरति धुनि चेला ॥ अकथ कथा ले रहउ निराला ॥ नानक जुगि जुगि गुर गोपाला ॥ एकु सबदु जितु कथा वीचारी ॥ गुरमुखि हउमै अगनि निवारी ॥४४॥
मूलम्
पवन अर्मभु सतिगुर मति वेला ॥ सबदु गुरू सुरति धुनि चेला ॥ अकथ कथा ले रहउ निराला ॥ नानक जुगि जुगि गुर गोपाला ॥ एकु सबदु जितु कथा वीचारी ॥ गुरमुखि हउमै अगनि निवारी ॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवन = प्राण। सुरति धुनि = तवज्जो की धुनि, लगन, टिकाव। अकथ = वह प्रभु जिसका सही स्वरूप बयान नहीं हो सकता। रहउ = मैं रहता हूँ।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ऊपरोक्त पौड़ी में शब्द ‘रहहु’ के जोड़ के इस शब्द से फर्क ध्यानयोग्य है, उसका अर्थ है ‘तुम रहते हो’)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में। गोपाल = धरती को पालने वाला। एकु सबदु = केवल एक शब्द ही। जितु = जिससे। निवारी = दूर की।
अर्थ: (उक्तर:) प्राण ही अस्तित्व का मूल हैं। (ये मनुष्य जनम का) समय सतिगुरु की शिक्षा लेने का है। शब्द (मेरा) गुरु है, मेरी तवज्जो का टिकाव (उस गुरु का) सिख है।
मैं अकथ प्रभु की बातें करके (भाव, गुण गा के) माया से निर्लिप रहता हूँ। और, हे नानक! वह गुरु गोपाल हरेक जुग में मौजूद है।
केवल गुरु-शब्द ही है जिससे प्रभु के गुण विचारे जा सकते हैं, (इस शब्द से ही) गुरमुख मनुष्य ने अहंकार (खुदगर्जी की) आग (अपने अंदर से) दूर की है।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैण के दंत किउ खाईऐ सारु ॥ जितु गरबु जाइ सु कवणु आहारु ॥ हिवै का घरु मंदरु अगनि पिराहनु ॥ कवन गुफा जितु रहै अवाहनु ॥ इत उत किस कउ जाणि समावै ॥ कवन धिआनु मनु मनहि समावै ॥४५॥
मूलम्
मैण के दंत किउ खाईऐ सारु ॥ जितु गरबु जाइ सु कवणु आहारु ॥ हिवै का घरु मंदरु अगनि पिराहनु ॥ कवन गुफा जितु रहै अवाहनु ॥ इत उत किस कउ जाणि समावै ॥ कवन धिआनु मनु मनहि समावै ॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मैण = मोम।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘मैण’ संस्कृत के ‘मदन’ का प्राक्रित-रूप है; ‘मदन’ का अर्थ है ‘मोम’। ‘मदन’ मअण, मैण)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारु = लोहा। जितु = जिससे। गरबु = अहंकार। अहारु = खाना। हिव = हिम, बरफ। पिराहनु = पैराहन, चोला। जितु गुफा = जिस गुफा में। अवाहनु = अडोल, अहिल। इत उत = यहां वहां, लोक परलोक में, हर जगह। मनहि = मन में ही। धिआन = तवज्जो का निशाना, मन को एक ठिकाने रखने के लिए टिका हुआ ख्याल।
अर्थ: (प्रश्न:) मोम के दातों से लोहा कैसे खाया जाए? वह कौन सा खाना है जिससे (मन का) अहंकार दूर हो जाए? अगर बरफ का मन्दिर हो, उस पर आग का चोला हो, तो उसको किस गुफा में रखें कि टिका रहे?
यहां-वहां (हर जगह) किस को पहचान के (उस में ये मन) लीन रहे? वह कौन सा ध्यान है जिससे मन अपने अंदर ही टिका रहे (और बाहर ना भटके)?।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ हउ मै मै विचहु खोवै ॥ दूजा मेटै एको होवै ॥ जगु करड़ा मनमुखु गावारु ॥ सबदु कमाईऐ खाईऐ सारु ॥ अंतरि बाहरि एको जाणै ॥ नानक अगनि मरै सतिगुर कै भाणै ॥४६॥
मूलम्
हउ हउ मै मै विचहु खोवै ॥ दूजा मेटै एको होवै ॥ जगु करड़ा मनमुखु गावारु ॥ सबदु कमाईऐ खाईऐ सारु ॥ अंतरि बाहरि एको जाणै ॥ नानक अगनि मरै सतिगुर कै भाणै ॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजा = दूसरा, मेर तेर, भेदभाव। सारु = लोहा। अगनि = तृष्णा की आग। हउ हउ मै मै = हर वक्त ‘मैं’ का ख्याल, मैं बड़ा हो जाऊँ, मैं अमीर हो जाऊँ = हर वक्त यही ख्याल, खुदगर्जी।
अर्थ: (उक्तर:) (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है वह) मन में से खुदगर्जी दूर करता है, भेदभाव मिटा देता है, (सब से) सांझ बनाता है। (पर) जो मूर्ख मनुष्य मन के पीछे चलता है उसके लिए जगत कठिन (राह) है (भाव जीवन दुखों की खान है)। यह (जगत का दुख-रूपी) लोहा तभी खाया जा सकता है अगर सतिगुरु का शब्द कमाएं (भाव, गुरु के हुक्म में चलें)। (बस! यह है मोम के दातों से लोहे को चबाना)। हे नानक! जो मनुष्य (अपने) अंदर और बाहर (सारे जगत में) एक प्रभु को (मौजूद) समझता है उसकी तृष्णा की आग सतिगुरु की रजा में चलने से मिट जाती है।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सच भै राता गरबु निवारै ॥ एको जाता सबदु वीचारै ॥ सबदु वसै सचु अंतरि हीआ ॥ तनु मनु सीतलु रंगि रंगीआ ॥ कामु क्रोधु बिखु अगनि निवारे ॥ नानक नदरी नदरि पिआरे ॥४७॥
मूलम्
सच भै राता गरबु निवारै ॥ एको जाता सबदु वीचारै ॥ सबदु वसै सचु अंतरि हीआ ॥ तनु मनु सीतलु रंगि रंगीआ ॥ कामु क्रोधु बिखु अगनि निवारे ॥ नानक नदरी नदरि पिआरे ॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सच भै = सच्चे प्रभु के भय में। गरबु = अहंकार। अंतरि हीआ = हृदय में। रंगि = रंग में। नदरी = (मेहर की) नजर करने वाला प्रभु।
अर्थ: जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले प्रभु के डर में रति है (भाव, जिसके अंदर सदा प्रभु का भय मौजूद है) वह अहंकार दूर कर देता है, वह (सदा) सतिगुरु के शब्द को विचारता है, (और शब्द की सहायता से) उसने (हर जगह) एक प्रभु को पहचान लिया है।
जिस मनुष्य के हृदय में गुरु का शब्द बसता है उसके अंदर प्रभु (स्वयं) बसता है प्रभु के प्यार में रंग के उसका मन उसका तन शीतल हो जाता है (क्योंकि) वह अपने अंदर से काम-क्रोध रूपी जहर और तृष्णा की आग मिटा देता है। हे नानक! वह मनुष्य मेहर करने वाले प्यारे प्रभु की नजर में रहता है।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन मुखि चंदु हिवै घरु छाइआ ॥ कवन मुखि सूरजु तपै तपाइआ ॥ कवन मुखि कालु जोहत नित रहै ॥ कवन बुधि गुरमुखि पति रहै ॥ कवनु जोधु जो कालु संघारै ॥ बोलै बाणी नानकु बीचारै ॥४८॥
मूलम्
कवन मुखि चंदु हिवै घरु छाइआ ॥ कवन मुखि सूरजु तपै तपाइआ ॥ कवन मुखि कालु जोहत नित रहै ॥ कवन बुधि गुरमुखि पति रहै ॥ कवनु जोधु जो कालु संघारै ॥ बोलै बाणी नानकु बीचारै ॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन मुखि = किस द्वार से? किस तरीके से? किस तरह? हिवै घरु = बरफ का घर। छाइआ = प्रभाव डाले रखे। सूरज = ज्ञान का सूरज। जोहत = देखता। जोधु = योद्धा, सूरमा। संघारे = मार दे। बाणी बीचारै = विचार की वाणी, ‘गोष्ठि’ के संबंध में।
अर्थ: नानक कहता है, ‘गोष्ठि’ के सिलसिले में (जोगियों ने पूछा-) कैसे (मनुष्य के मन में) शीतलता का घर चंद्रमा टिका रहे (भाव, किस तरह मन मे हमेशा ठंड-शांति बनी रहे)? कैसे (मन में) ज्ञान का सूरज तपाया तपता रहे? (भाव, कैसे ज्ञान का प्रकाश हमेशा बना रहे?) कैसे काल नित्य देखने से रह जाए (भाव, कैसे हर वक्त बना हुआ मौत का सहम खत्म हो जाए?) वह कौन सी समझ है जिस के कारण गुरमुखि मनुष्य की इज्जत बनी रहती है? वह कौन सा सूरमा है जो मौत को (मौत के भय को) मार लेता है।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदु भाखत ससि जोति अपारा ॥ ससि घरि सूरु वसै मिटै अंधिआरा ॥ सुखु दुखु सम करि नामु अधारा ॥ आपे पारि उतारणहारा ॥ गुर परचै मनु साचि समाइ ॥ प्रणवति नानकु कालु न खाइ ॥४९॥
मूलम्
सबदु भाखत ससि जोति अपारा ॥ ससि घरि सूरु वसै मिटै अंधिआरा ॥ सुखु दुखु सम करि नामु अधारा ॥ आपे पारि उतारणहारा ॥ गुर परचै मनु साचि समाइ ॥ प्रणवति नानकु कालु न खाइ ॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाखत = उचारते हूए। ससि = चंद्रमा। घरि = घर में। सूरु = सूरज (ज्ञान)। सम = एक जैसा, बराबर। अधार = आसरा। गुर परचै = सतिगुरु के साथ गहरी सांझ बनाने से। साचि = सच्चे प्रभु में। प्रणवति = विनती करता है।
अर्थ: (उक्तर:) (जब) सतिगुरु का शब्द उचारते हुए (हृदय में) चंद्रमा की अपार ज्योति प्रगट हो जाती है (भाव, हृदय में शांति पैदा होती है) चंद्रमा के घर में सूरज आ बसता है (भाव, शांत हृदय में ज्ञान का सूरज उग आता है, तब अज्ञानता का) अंधकार मिट जाता है।
(गुरु-शब्द की इनायत से जब गुरमुखि) सुख और दुख को एक-समान समझ के ‘नाम’ को (जिंदगी का) आसरा बनाता है (भाव, जब ना सुख में और ना ही दुख में प्रभु को भुलाए) (तब) तारनहार प्रभु उसको स्वयं ही (‘दुश्तर सागर’ से) पार लंघा लेता है।
नानक विनती करता है कि सतिगुरु के साथ गहरी सांझ बनाने से (गुरमुख का) मन सच्चे प्रभु में लीन रहता है, और उसको मौत का डर नहीं व्यापता।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम ततु सभ ही सिरि जापै ॥ बिनु नावै दुखु कालु संतापै ॥ ततो ततु मिलै मनु मानै ॥ दूजा जाइ इकतु घरि आनै ॥ बोलै पवना गगनु गरजै ॥ नानक निहचलु मिलणु सहजै ॥५०॥
मूलम्
नाम ततु सभ ही सिरि जापै ॥ बिनु नावै दुखु कालु संतापै ॥ ततो ततु मिलै मनु मानै ॥ दूजा जाइ इकतु घरि आनै ॥ बोलै पवना गगनु गरजै ॥ नानक निहचलु मिलणु सहजै ॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततु = अस्लियत, सच्चाई। नाम ततु = प्रभु के नाम की सच्चाई। सभ ही सिरि जापै = सारे जपों के सिर पर है, सारे जपों सें श्रेष्ठ है। संतापे = दुखी करता है। ततो ततु = असली तत्व, निर्मल प्रभु के नाम की सच्चाई। इकतु घरि = एक घर में (भाव, एकता के घर में)। पवन = प्राण। बोले पवना = प्राण बोलता है, रूहानी जीवन की लहर चल पड़ती है। गगनु = आकाश, दसवाँ द्वार, ईश्वरीय मिलाप की अवस्था। गरजै = गरजता है, बलवान होता है। मिलणु = मिलाप। सहजै = सहज अवस्था में, आत्मिक अडोलता में।
अर्थ: प्रभु के नाम की सच्चाई (हृदय में सही करणी) सारे जापों का शिरोमणि (जाप) है। जब तक हृदय में नाम (-तत्व) सही नहीं होता, (मनुष्य को कई किस्म के) दुख सताते हैं और मौत का डर दुखी करता है। (जब हृदय में) निर्मल प्रभु के नाम की सच्चाई (भाव, ये श्रद्धा कि प्रभु का नाम ही सदा स्थिर रहने वाला है) प्रकट हो जाती है तब (मनुष्य का) मन (उस सच्चाई में) पतीज जाता है, मेर-तेर वाला स्वभाव दूर हो जाता है, मनुष्य ऐकता के घर में आ टिकता है, रूहानी जीवन की लहर चल पड़ती है, ईश्वरीय मिलाप की अवस्था बलवान हो जाती है (और, इस तरह) हे नानक! सहज अवस्था में टिकने से (जीव और प्रभु का) मिलाप (सदा के लिए) पक्का हो जाता है।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि सुंनं बाहरि सुंनं त्रिभवण सुंन मसुंनं ॥ चउथे सुंनै जो नरु जाणै ता कउ पापु न पुंनं ॥ घटि घटि सुंन का जाणै भेउ ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ ॥ जो जनु नाम निरंजन राता ॥ नानक सोई पुरखु बिधाता ॥५१॥
मूलम्
अंतरि सुंनं बाहरि सुंनं त्रिभवण सुंन मसुंनं ॥ चउथे सुंनै जो नरु जाणै ता कउ पापु न पुंनं ॥ घटि घटि सुंन का जाणै भेउ ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ ॥ जो जनु नाम निरंजन राता ॥ नानक सोई पुरखु बिधाता ॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंन = निर्गुण प्रभु, वह प्रभु जिसमें माया वाले फुरने नहीं उठते। सुंन मसुंन = शून्य ही शून्य, निर्मल निर्गुण प्रभु ही, निर्मल वही प्रभु जो माया के फुरनों के असर तले नहीं आ सकता। चउथे सुंन = चौथी अवस्था वाले निर्गुण प्रभु को, वह निर्गुण प्रभु जो तीन गुणी माया के असर से ऊपर है। घटि घटि सुंन का = हरेक घट में व्यापक प्रभु का, उस प्रभु का जो हरेक घट में मौजूद भी है और निर्लिप भी है। भेउ = भेद। आदि = सब का आरम्भ। बिधाता = कर्ता, विधाता, निर्माता।
अर्थ: (जब हृदय में निर्मल प्रभु नाम की सच्चाई प्रकट हो जाती है तब ये यकीन हो जाता है कि) अंदर और बाहर (भाव, गुप्त और प्रकट, दिखाई देते और अदृश्य पदार्थों में हर जगह) सारी त्रिलोकी में वही प्रभु व्यापक है जिसमें माया वाले फुरने नहीं उठते (क्योंकि माया तो उसकी अपनी बनाई खेल है)। जो मनुष्य त्रिगुण माया के असर से ऊपर रहने वाले उस प्रभु को (सही तौर पर) समझ लेता है, उसको भी (चौथी अवस्था में टिका होने के कारण) पाप और पुण्य छू नहीं सकता (भाव, कोई पाप किसी कुकर्म की ओर नहीं प्रेरता और कोई पुण्य कर्म उसके अंदर किसी स्वर्ग आदि की लालसा पैदा नहीं करता)।
जो मनुष्य हरेक घट में व्यापक निर्गुण प्रभु का भेद जान लेता है (भाव, जो मनुष्य ये दृढ़ कर लेता है कि प्रभु हरेक घट में मौजूद भी है, और फिर भी निर्लिप है, वह मनुष्य भी दुनिया में रहते हुए निर्लिप हो के) आदि पुरख निरंजन का रूप हो जाता है।
हे नानक! जो मनुष्य माया से रहित परमात्मा के नाम का मतवाला है, वही विधाता प्रभु का रूप हो जाता है।51।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंनो सुंनु कहै सभु कोई ॥ अनहत सुंनु कहा ते होई ॥ अनहत सुंनि रते से कैसे ॥ जिस ते उपजे तिस ही जैसे ॥ ओइ जनमि न मरहि न आवहि जाहि ॥ नानक गुरमुखि मनु समझाहि ॥५२॥
मूलम्
सुंनो सुंनु कहै सभु कोई ॥ अनहत सुंनु कहा ते होई ॥ अनहत सुंनि रते से कैसे ॥ जिस ते उपजे तिस ही जैसे ॥ ओइ जनमि न मरहि न आवहि जाहि ॥ नानक गुरमुखि मनु समझाहि ॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंनो सुंनु = शून्य ही शून्य, निर्मल वह अवस्था जहाँ माया के फुरने ना उठें। अनहत = एक रस, सदा टिकी रहने वाली। कहा ते = किससे? कहाँ से? कैसे? सुंनि = अफुर अवस्था में। ओइ = वह लोग। सभु कोई = हरेक मनुष्य।
अर्थ: हरेक मनुष्य ‘अफुर अवस्था’ का जिक्र करता है (पर व्यवहारिक जीवन में यह बात कोई विरला ही जानता है कि) सदा टिकी रहने वाली अफुर अवस्था कैसे बन सकती है (क्योंकि इस अवस्था वाला जीवन जीने से ही ये अवस्था समझ में आ सकती है)।
(कहने मात्र को अगर कोई पूछे कि) अफुर अवस्था में जुड़े हुए बंदे कैसे होते हैं (तो इसका उक्तर ये है कि) वे मनुष्य उस परमात्मा जैसे ही हो जाते हैं जिससे वे पैदा हुए हैं। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चल के मन को सुमति की ओर लगाते हैं, वे (बार-बार) ना पैदा होते हैं ना मरते हैं, उनके आवा-गवन का चक्कर समाप्त हो जाता है।52।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउ सर सुभर दसवै पूरे ॥ तह अनहत सुंन वजावहि तूरे ॥ साचै राचे देखि हजूरे ॥ घटि घटि साचु रहिआ भरपूरे ॥ गुपती बाणी परगटु होइ ॥ नानक परखि लए सचु सोइ ॥५३॥
मूलम्
नउ सर सुभर दसवै पूरे ॥ तह अनहत सुंन वजावहि तूरे ॥ साचै राचे देखि हजूरे ॥ घटि घटि साचु रहिआ भरपूरे ॥ गुपती बाणी परगटु होइ ॥ नानक परखि लए सचु सोइ ॥५३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दूसरी तुक का शब्द ‘तह’ बताता है कि पहली तुक के साथ ‘जह’ का प्रयोग करना है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जिस अवस्था में। नउ सर = शरीर के नौ दरवाजे। सुभर = नाको नाक भरे हुए। नउ सर सुभर = नाको नाक भरे हुए सरोवर जैसे नौ दरवाजे, उन सरोवरों जैसे नो द्वार जिनका बहना रुका हुआ है। दसवै = दसवें (सर) में। तह = उस अवस्था में। अनहत सुंन तूरे = एक रस अफुर अवस्था के बाजे। तूरे = बाजे। हजूरे = हाजर नाजर, अंग संग। गुपती बाणी = छुपी हुई लहर। सोइ = वह मनुष्य।
अर्थ: (नाम की इनायत से) जब नौ द्वार नाको-नाक भर के (भाव, बाहर की ओर का बहाव बंद करके, अर्थात मायावी पदार्थों की ओर की दौड़ मिटा के) दसवें सर में (भाव, प्रभु मिलाप की अवस्था में) जा पड़ते हैं, तब (गुरमुख) एक-रस अफुर अवस्था के बाजे बजाते हैं (भाव, अफुर अवस्था उनके अंदर इतनी बलवान हो जाती है कि और कोई फुरना व विचार वहाँ आ ही नहीं सकता)। (इस अवस्था में पहुँचे हुए गुरमुख) सदा कायम रहने वाले प्रभु को अंग-संग देख के उस में टिके रहते हैं, उन्हें वह सच्चा प्रभु हरेक घट में व्यापक दिखाई देता है। (इस तरह जिस मनुष्य के अंदर वह) छुपी हुई (रूहानी जीवन की) लहर प्रकट होती है (भाव, जिस को वह अपने अंग-संग और सबमें व्यापक दिखाई दे जाता है), हे, नानक! वह मनुष्य उस सच्चे प्रभु (के नाम-रूप सौदे) की कद्र समझ लेता है।53।
[[0944]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज भाइ मिलीऐ सुखु होवै ॥ गुरमुखि जागै नीद न सोवै ॥ सुंन सबदु अपर्मपरि धारै ॥ कहते मुकतु सबदि निसतारै ॥ गुर की दीखिआ से सचि राते ॥ नानक आपु गवाइ मिलण नही भ्राते ॥५४॥
मूलम्
सहज भाइ मिलीऐ सुखु होवै ॥ गुरमुखि जागै नीद न सोवै ॥ सुंन सबदु अपर्मपरि धारै ॥ कहते मुकतु सबदि निसतारै ॥ गुर की दीखिआ से सचि राते ॥ नानक आपु गवाइ मिलण नही भ्राते ॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज भाइ = सहज अवस्था के भाव में, अडोलता में पहुँच के। सुंन सबदु = निरगुण प्रभु की महिमा की वाणी। अपरंपरि = अपरंपर में, बेअंत प्रभु में। सबदि = शब्द से। दीखिआ = वह शिक्षा जिससे सिख अपने आप को गुरु के हवाले करता है। भ्राते = भ्रांति, भटकना।
अर्थ: अगर अडोलता में रह के (प्रभु को) मिलें तो (सम्पूर्ण) सुख होता है। जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है वह सचेत रहता है (माया की) नींद में नहीं सोता, परमात्मा की महिमा की वाणी उसको बेअंत प्रभु में टिकाए रखती है, (इस वाणी को) उचार-उचार के गुरमुख अहंकार से स्वतंत्र हो जाता है और (और लोगों को) इस शब्द के माध्यम से मुक्त कराता है।
हे नानक! जिन्होंने गुरु की शिक्षा ग्रहण की है वह सच्चे प्रभु में रंगे गए हैं, अहंकार को मिटा के उनका मेल (प्रभु से) हो जाता है, (मन की) भटकना मिट जाती है।54।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुबुधि चवावै सो कितु ठाइ ॥ किउ ततु न बूझै चोटा खाइ ॥ जम दरि बाधे कोइ न राखै ॥ बिनु सबदै नाही पति साखै ॥ किउ करि बूझै पावै पारु ॥ नानक मनमुखि न बुझै गवारु ॥५५॥
मूलम्
कुबुधि चवावै सो कितु ठाइ ॥ किउ ततु न बूझै चोटा खाइ ॥ जम दरि बाधे कोइ न राखै ॥ बिनु सबदै नाही पति साखै ॥ किउ करि बूझै पावै पारु ॥ नानक मनमुखि न बुझै गवारु ॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चवावै = चुका दे, दूर कर दे। सो = ये बात। कित ठाइ = किस जगह पर? दरि = दर पर। पति साख = इज्जत और एतबार। पारु = परला छोर।
अर्थ: (प्रश्न:) ये बात किस जगह पर हो सकती है कि मनुष्य अपनी दुर्मति दूर कर ले? मनुष्य क्यों अस्लियत नहीं समझता और दुखी होता है, जम के दर पर बँधे हुए की कोई सहायता नहीं कर सकता, सतिगुरु के शब्द के बिना इसकी कहीं इज्जत नहीं, ऐतबार नहीं (भाव, गुरु के शब्द ना चलने के कारण मनुष्य लोगों में अपनी इज्जत व ऐतबार गवा लेता है, दुनियां की मौजों में फसे होने के कारण मौत से भी हर वक्त डरता है, ऐसी चोटें खाता रहता है, दुखी रहता है, फिर भी अस्लियत को नहीं समझता। ऐसा क्यों?)।
हे नानक! मनमुख मूर्ख समझता नहीं, ये कैसे समझे और (‘दुष्तर सागर’ के) उस पार लगे?।55।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुबुधि मिटै गुर सबदु बीचारि ॥ सतिगुरु भेटै मोख दुआर ॥ ततु न चीनै मनमुखु जलि जाइ ॥ दुरमति विछुड़ि चोटा खाइ ॥ मानै हुकमु सभे गुण गिआन ॥ नानक दरगह पावै मानु ॥५६॥
मूलम्
कुबुधि मिटै गुर सबदु बीचारि ॥ सतिगुरु भेटै मोख दुआर ॥ ततु न चीनै मनमुखु जलि जाइ ॥ दुरमति विछुड़ि चोटा खाइ ॥ मानै हुकमु सभे गुण गिआन ॥ नानक दरगह पावै मानु ॥५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटै = मिले। दुरमति = बुरी अकल के कारण। चोटा खाइ = मार खाता है, दुखी होता है।
अर्थ: (उक्तर:) सतिगुरु का शब्द विचारने से दुर्मति दूर होती है। जब गुरूमिल जाता है, तब इस दुर्मति से मुक्ति का राह (भी) मिल जाता है। (पर) जो मनुष्य मन के पीछे चलता है वह अस्लियत को नहीं पहचानता, (विकारों में) जलता रहता है दुर्मति के कारण (प्रभु से) विछुड़ के दुखी होता है।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु का हुक्म मानता है, उसमें सारे गुण आ जाते हैं, उसे सारी सूझ प्राप्त हो जाती है, और वह प्रभु की हजूरी में आदर पाता है।56।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचु वखरु धनु पलै होइ ॥ आपि तरै तारे भी सोइ ॥ सहजि रता बूझै पति होइ ॥ ता की कीमति करै न कोइ ॥ जह देखा तह रहिआ समाइ ॥ नानक पारि परै सच भाइ ॥५७॥
मूलम्
साचु वखरु धनु पलै होइ ॥ आपि तरै तारे भी सोइ ॥ सहजि रता बूझै पति होइ ॥ ता की कीमति करै न कोइ ॥ जह देखा तह रहिआ समाइ ॥ नानक पारि परै सच भाइ ॥५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पलै होइ = हासिल किया हो। सोइ = वह मनुष्य। सहजि = सहज में, अडोलता में। पति = आदर, इज्जत। सच भाइ = सच के भाव में, सच्चे प्रभु के अनुसार हो के, सच्चे के अनुसार रह के।
अर्थ: जिस मनुष्य ने नाम-धन रूपी सच्चा-सौदा कमाया है वह स्वयं (‘दुष्तर सागर’ से) पार होता है और (और लोगों को भी) पार करा देता है, अडोल अवस्था में रह कर अस्लियत को समझता है और आदर पाता है। ऐसे मनुष्य का कोई मोल नहीं कर सकता।
हे नानक! सच्चे की रजा में रहके वह मनुष्य (‘दुष्तर सागर’ से) पार लांघ जाता है, जिधर देखता है उधर प्रभु ही प्रभु उसको व्यापक दिखाई देता है।57।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पौड़ी नं: 55 के शब्द ‘पारु’ और यहाँ आए शब्द ‘पारि’ में फर्क याद रखें। ‘पारु’ है ‘संज्ञा’ (परला किनारा) ‘पारि’ है ‘क्रिया विशेषण’ (परले किनारे पर)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सु सबद का कहा वासु कथीअले जितु तरीऐ भवजलु संसारो ॥ त्रै सत अंगुल वाई कहीऐ तिसु कहु कवनु अधारो ॥ बोलै खेलै असथिरु होवै किउ करि अलखु लखाए ॥ सुणि सुआमी सचु नानकु प्रणवै अपणे मन समझाए ॥ गुरमुखि सबदे सचि लिव लागै करि नदरी मेलि मिलाए ॥ आपे दाना आपे बीना पूरै भागि समाए ॥५८॥
मूलम्
सु सबद का कहा वासु कथीअले जितु तरीऐ भवजलु संसारो ॥ त्रै सत अंगुल वाई कहीऐ तिसु कहु कवनु अधारो ॥ बोलै खेलै असथिरु होवै किउ करि अलखु लखाए ॥ सुणि सुआमी सचु नानकु प्रणवै अपणे मन समझाए ॥ गुरमुखि सबदे सचि लिव लागै करि नदरी मेलि मिलाए ॥ आपे दाना आपे बीना पूरै भागि समाए ॥५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सु = उस। जितु = जिस (शब्द) से। कथीअले = कहा जाए। त्रै सत = तीन और सात, दस। वाई = प्राण।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जोगियों के ख्याल के अनुसार सांस बाहर की तरफ निकालने से दस उंगलियों के फासले तक जाती है, फिर सांस अंदर की ओर खींचते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
त्रै सत अंगुल वाई = दस उंगली प्रमाण, प्राण। कहु = बताओ। कवनु = कौन सा? सुणि = सुन के। मन समझाए = कैसे अपने मन को समझाएं?
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पहली चार तुकों में जोगी का प्रश्न है, पाँचवीं तुक में उक्तर शुरू होता है)।
दर्पण-भाषार्थ
गुरमुखि = गुरु के हुक्म के अनुसार चलने वाला मनुष्य। सबदे = शब्द के द्वारा। सचि = सच्चे प्रभु में। नदरी = मेहर की नजर। दाना = दिल की जानने वाला प्रभु। बीना = पहचानने वाला। पूरै भागि = ऊँची किस्मत से। समाए = (प्रभु में) लीन रहता है।
अर्थ: (प्रश्न:) जिस शब्द से संसार-समुंदर तैरा जाता है उस शब्द का ठिकाना कहाँ कहा जा सकता है? ‘प्राण’ (भाव, श्वास) को दस-अंगुली-प्रमाण कहा जाता है बताओ, इसका आसरा क्या है? (जो जीवात्मा इस शरीर में) बोलती और कलोल करती है वह सदा के लिए कैसे अडोल हो सकती है और कैसे उस प्रभु को देखें जिसका कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं है। नानक कहता है (जोगियों ने पूछा-) हे स्वामी! सच्चे प्रभु की बात सुन के मनुष्य अपने मन को कैसे सद्बुद्धि दे सकता है?
(उक्तर:) जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है, गुरु के शब्द द्वारा उसकी लगन सच्चे प्रभु में लग जाती है, (और, प्रभु) मेहर की नजर करके उसको अपने में जोड़ लेता है, (क्योंकि) प्रभु (उसके दिल की) स्वयं ही जानता है, स्वयं ही पहचानता है। (इस तरह) ऊँची किस्मत से (गुरमुख मनुष्य प्रभु में) लीन रहता है।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सु सबद कउ निरंतरि वासु अलखं जह देखा तह सोई ॥ पवन का वासा सुंन निवासा अकल कला धर सोई ॥ नदरि करे सबदु घट महि वसै विचहु भरमु गवाए ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी नामुो मंनि वसाए ॥ सबदि गुरू भवसागरु तरीऐ इत उत एको जाणै ॥ चिहनु वरनु नही छाइआ माइआ नानक सबदु पछाणै ॥५९॥
मूलम्
सु सबद कउ निरंतरि वासु अलखं जह देखा तह सोई ॥ पवन का वासा सुंन निवासा अकल कला धर सोई ॥ नदरि करे सबदु घट महि वसै विचहु भरमु गवाए ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी नामुो मंनि वसाए ॥ सबदि गुरू भवसागरु तरीऐ इत उत एको जाणै ॥ चिहनु वरनु नही छाइआ माइआ नानक सबदु पछाणै ॥५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। निरंतरि = एक रस।
देखा = देखता हूँ। पवन = शब्द, गुरु का शब्द, प्रभु की महिमा का शब्द।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘त्रै सत अंगुल वाई’ का उक्तर पौड़ी नं: 60 में है। सो, यहाँ ‘पवन’ का अर्थ ‘वायु’ अथवा ‘हवा’ नहीं है। भाई गुरदास जी लिखते हैं: ‘पवन गुरु गुरसबदु है,’ भाव, ‘पवन’ ‘गुरसबदु’ है)।
दर्पण-भाषार्थ
अकल = (संस्कृत: अकल = नास्ति कला अवयवो यस्य) जिसके टुकड़े टुकड़े नहीं हैं, पूरन पारब्रहम। कलाधार = सत्ता धरने वाला। नामुो = प्रभु नाम से। मंनि = मन में। भव = संसार। छाइआ = प्रभाव, साया।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘नामुो’ में अक्षर ‘म’ को दो मात्राएं हैं, पढ़ना ‘मो’ है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (जिस शब्द से ‘दुष्तर सागर’ तैरा जाता है) उस ‘शब्द’ को एकरस जगह (निरंतर) (मिली हुई) है (भाव, वह शब्द हर जगह भरपूर है), ‘शब्द’ अलख (प्रभु का रूप) है, मैं जिधर देखता हूँ वह शब्द ही शब्द है, जैसे अफुर प्रभु का वास (हर जगह) है वैसे ही ‘शब्द’ का वास (हर जगह) व्यापक है।‘शब्द’ वही है जो संपूर्ण सक्ताधारी (प्रभु) है (भाव, ‘प्रभु’ और प्रभु की महिमा का ‘शब्द’ एक ही हैं)।
जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है, उसके हृदय में ये ‘शब्द’ बसता है, वह मनुष्य हृदय में से भटकना दूर कर लेता है, उसका तन उसका मन और उसकी वाणी पवित्र हो जाती है। प्रभु का नाम ही वह मनुष्य अपने मन में बसाए रखता है।
सतिगुरु के ‘शब्द’ के द्वारा संसार-समुंदर पार किया जाता है। (जो पार हो गया है वह) यहाँ और वहाँ (इस लोक में और परलोक में हर जगह) एक प्रभु को व्यापक जानता है। हे नानक! जो मनुष्य इस ‘शब्द’ को पहचान लेता है ‘शब्द’ के साथ गहरी सांझ बना लेता है उस पर माया का प्रभाव नहीं रहता और उसका अपना अलग चिन्ह और वर्ण नहीं रह जाता (भाव, उसका अपना अलगपना मिट जाता है, उसके अंदर से मेर-तेर दूर हो जाती है)।59।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी नं: 21 में जोगी का प्रश्न है: ‘सुंन कहा घर वासै’। पौड़ी नं: 23 में सतिगुरु जी का जवाब है: ‘सुंन निरंतरि वासु लीआ’। इसी तरह पौड़ी नं: 58 में प्रश्न है: ‘सु सबद का कहा वासु’। यहाँ उक्तर है: ‘सु सबद कउ निरंतरि वासु’। भाव, ‘सुंन’ और ‘सबद’ दोनों का ‘निरंतरि वासु’ है। इसका भाव ये है कि गुरु नानक देव जी की नजरों में ‘प्रभु’ और उसकी महिमा का ‘शब्द’ एक रूप हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै सत अंगुल वाई अउधू सुंन सचु आहारो ॥ गुरमुखि बोलै ततु बिरोलै चीनै अलख अपारो ॥ त्रै गुण मेटै सबदु वसाए ता मनि चूकै अहंकारो ॥ अंतरि बाहरि एको जाणै ता हरि नामि लगै पिआरो ॥ सुखमना इड़ा पिंगुला बूझै जा आपे अलखु लखाए ॥ नानक तिहु ते ऊपरि साचा सतिगुर सबदि समाए ॥६०॥
मूलम्
त्रै सत अंगुल वाई अउधू सुंन सचु आहारो ॥ गुरमुखि बोलै ततु बिरोलै चीनै अलख अपारो ॥ त्रै गुण मेटै सबदु वसाए ता मनि चूकै अहंकारो ॥ अंतरि बाहरि एको जाणै ता हरि नामि लगै पिआरो ॥ सुखमना इड़ा पिंगुला बूझै जा आपे अलखु लखाए ॥ नानक तिहु ते ऊपरि साचा सतिगुर सबदि समाए ॥६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधू = हे जोगी! आहारो = खुराक, आसरा। बोलै = जपता है। ततु = अस्लियत। विरोलै = मथता है। ईड़ा = बाई नासिका की नाड़ी। पिंगुला = दाहिनी नासिका की नाड़ी। सुखमना = बीच की नाड़ी जहाँ प्राणायाम के वक्त श्वास टिकाए जाते हैं। तिहु ते = तिन से, ईड़ा = पिंगला और सुखमना के अभ्यास से, प्राणयाम से। मनि = मन में से। चूकै = खत्म हो जाता है।
अर्थ: (उक्तर:) हे जोगी! दस-उंगली-प्रमाण प्राणों की खुराक अफुर सच्चा प्रभु है (भाव, हरेक सांस में प्रभु का नाम ही जपना है, प्रभु का नाम ही प्राणों का आसरा है) जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चल के (श्वास-श्वास प्रभु का नाम) जपता है, वह अस्लियत (भाव, जगत के मूल को) हासिल कर लेता है (प्रभु के साथ गहरी सांझ बना लेता है)।
जब मनुष्य गुरु का शब्द हृदय में बसाता है (शब्द की इनायत से माया का) त्रै-गुणी प्रभाव मिटा लेता है, तब उसके मन में अहंकार का नाश हो जाता है। (इस तरह) जब वह अपने अंदर और बाहर (जगत में) एक प्रभु को ही देखता है, तब उसका प्यार प्रभु के नाम में बन जाता है।
हे नानक! जब अलख प्रभु अपना आप लखाता है (अर्थात अपने स्वरूप की समझ बख्शता है), तब गुरमुख ईड़ा-पिंगला और सुखमना को समझ लेता है (भाव, गुरमुख को ये समझ आ जाती है कि) सदा कायम रहने वाला प्रभु ईड़ा-पिंगा व सुखमना के अभ्यास से ऊपर है, उसमें तो सतिगुरु के शब्द द्वारा ही समाया जाता है।60।
[[0945]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन का जीउ पवनु कथीअले पवनु कहा रसु खाई ॥ गिआन की मुद्रा कवन अउधू सिध की कवन कमाई ॥ बिनु सबदै रसु न आवै अउधू हउमै पिआस न जाई ॥ सबदि रते अम्रित रसु पाइआ साचे रहे अघाई ॥ कवन बुधि जितु असथिरु रहीऐ कितु भोजनि त्रिपतासै ॥ नानक दुखु सुखु सम करि जापै सतिगुर ते कालु न ग्रासै ॥६१॥
मूलम्
मन का जीउ पवनु कथीअले पवनु कहा रसु खाई ॥ गिआन की मुद्रा कवन अउधू सिध की कवन कमाई ॥ बिनु सबदै रसु न आवै अउधू हउमै पिआस न जाई ॥ सबदि रते अम्रित रसु पाइआ साचे रहे अघाई ॥ कवन बुधि जितु असथिरु रहीऐ कितु भोजनि त्रिपतासै ॥ नानक दुखु सुखु सम करि जापै सतिगुर ते कालु न ग्रासै ॥६१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद, आसरा। पवनु = प्राण। रसु = खुराक। कहा = कहाँ? मुद्रा = साधन। अउधू = हे जोगी! सिध = जोग साधना में सिद्धस्त योगी। कवन कमाई = क्या मिल जाता है? अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं। कितु भोजनि = किस भोजन से? त्रिपतासै = तृप्त रहा जाता है। सम = बराबर, एक समान। ग्रासै = ग्रसता, व्यापता।
अर्थ: (प्रश्न:) मन का आसरा प्राण कहें जाते हैं, प्राण कहाँ से खुराक़ लेते हैं? (भाव, प्राणों का आसरा कौन है?) हे जोगी! ज्ञान की प्राप्ति का कौन सा साधन है? जोग-साधना में सिद्धस्थ योगी को क्या प्राप्त हो जाता है?
(उक्तर:) हे जोगी! सतिगुरु के शब्द के बिना (प्राणों को) रस नहीं आता (भाव, गुरु का शब्द ही प्राणों का आसरा है, प्राणों की खुराक़ है)। गुरु-शब्द के बिना अहंकार की प्यास नहीं मिटती। जो मनुष्य गुरु के शब्द में रंगे जाते हैं, उनको सदा टिके रहने वाला नाम-रस मिल जाता है, वे सच्चे प्रभु में तृप्त रहते हैं (भाव, नाम में जुड़ के संतोषी हो जाते हैं)।
(प्रश्न:) वह कौन सी मति है जिसके माध्यम से मन सदा टिका रह सकता है? कौन सी खुराक़ से मन सदा तृप्त रह सके?
(उक्तर:) हे नानक! सतिगुरु से (जो मति मिलती है उससे) दुख और सुख एक-समान प्रतीत होने लगते हैं, सतिगुरु से (जो नाम-भोजन मिलता है, उसके सदका) मौत (का डर) छू भी नहीं सकता।61।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रंगि न राता रसि नही माता ॥ बिनु गुर सबदै जलि बलि ताता ॥ बिंदु न राखिआ सबदु न भाखिआ ॥ पवनु न साधिआ सचु न अराधिआ ॥ अकथ कथा ले सम करि रहै ॥ तउ नानक आतम राम कउ लहै ॥६२॥
मूलम्
रंगि न राता रसि नही माता ॥ बिनु गुर सबदै जलि बलि ताता ॥ बिंदु न राखिआ सबदु न भाखिआ ॥ पवनु न साधिआ सचु न अराधिआ ॥ अकथ कथा ले सम करि रहै ॥ तउ नानक आतम राम कउ लहै ॥६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि = रंग में, प्यार में। रसि = रस में। माता = मस्त, खीवा। ताता = जलता, खिझता। बिंदु = वीर्य। बिंदु ना राखिआ = उस मनुष्य ने वीर्य नहीं संभाला (भाव, वह कैसा जती?) पवनु न साधिआ = (प्राणायाम द्वारा) प्राण वश में नहीं किए।
अर्थ: सतिगुरु के शब्द (की कमाई किए) बिना मनुष्य (मायावी धंधों में) जल-बल के खिझता रहता है, (इस वास्ते उसका मन) प्रभु के प्यार में रंगा नहीं जाता और वह प्रभु के आनंद में मस्त नहीं होता।
जिस मनुष्य ने गुरु-शब्द नहीं उचारा, उसने जती बन के कुछ नहीं कमाया। जिसने सच्चे प्रभु को नहीं स्मरण किया, उसने प्राणायाम करके क्या लिया?
हे नानक! अगर मनुष्य अकथ प्रभु के गुण गा के (दुख-सुख को) एक-समान जान के जीवन व्यतीत करे, तो वह सारे संसार की जिंद प्रभु को प्राप्त कर लेता है।62।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी रंगे राता ॥ अम्रितु पीआ साचे माता ॥ गुर वीचारी अगनि निवारी ॥ अपिउ पीओ आतम सुखु धारी ॥ सचु अराधिआ गुरमुखि तरु तारी ॥ नानक बूझै को वीचारी ॥६३॥
मूलम्
गुर परसादी रंगे राता ॥ अम्रितु पीआ साचे माता ॥ गुर वीचारी अगनि निवारी ॥ अपिउ पीओ आतम सुखु धारी ॥ सचु अराधिआ गुरमुखि तरु तारी ॥ नानक बूझै को वीचारी ॥६३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगे = (प्रभु के) प्यार में। पीआ = पीया। अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीओ = पीया। धारी = धारण किया, पाया। वीचारी = विचारवान। तरु तारी = तारी तैर, पार हो। को = कोई विरला।
अर्थ: सतिगुरु की मेहर से जो मनुष्य प्रभु के प्यार में रंगा जाता है, वह नाम-अमृत पी लेता है, और सच्चे प्रभु में मस्त (खीवा) रहता है।
जो मनुष्य गुरु- (शब्द) के द्वारा विचारवान हो गया है उसने (तृष्णा) अग्नि बुझा ली है, उसने (नाम-) अमृत पी लिया है, उसने आत्मिक सुख पा लिया है। (हे जोगी!) गुरु के राह पर चल के सच्चे प्रभु का स्मरण करके (‘दुष्तर सागर’ से) पार हो। (पर) हे नानक! कोई विरला विचारवान (इस बात को) समझता है।63।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु मैगलु कहा बसीअले कहा बसै इहु पवना ॥ कहा बसै सु सबदु अउधू ता कउ चूकै मन का भवना ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मेले ता निज घरि वासा इहु मनु पाए ॥ आपै आपु खाइ ता निरमलु होवै धावतु वरजि रहाए ॥ किउ मूलु पछाणै आतमु जाणै किउ ससि घरि सूरु समावै ॥ गुरमुखि हउमै विचहु खोवै तउ नानक सहजि समावै ॥६४॥
मूलम्
इहु मनु मैगलु कहा बसीअले कहा बसै इहु पवना ॥ कहा बसै सु सबदु अउधू ता कउ चूकै मन का भवना ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मेले ता निज घरि वासा इहु मनु पाए ॥ आपै आपु खाइ ता निरमलु होवै धावतु वरजि रहाए ॥ किउ मूलु पछाणै आतमु जाणै किउ ससि घरि सूरु समावै ॥ गुरमुखि हउमै विचहु खोवै तउ नानक सहजि समावै ॥६४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मैगलु = (संस्कृत: मदकल) मस्त हाथी। भवना = भटकना। आपै आपु = अपने आप को। धावतु = दौड़ता (है विकारों की ओर)। वरजि = रोक के। ससि = चंद्रमा। हउमै = हउ+मैं, मैं मैं, हर वक्त मैं का ही ध्यान, अपने आप के बारे में हर वक्त, खुदगर्जी, मतलब प्रस्ती। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में।
अर्थ: (प्रश्न:) मस्त हाथी (जैसा) ये मन कहाँ बसता है? ये प्राण कहाँ बसतें हैं? हे जोगी (नानक!) वह शब्द कहाँ बसता है (जिससे तुम्हारे मत के अनुसार) मन की भटकना खत्म होती है?
(उक्तर:) अगर प्रभु मेहर की निगाह करे तो वह सतिगुरु मिलाता है और (गुरु के मिलने पर) ये मन अपने ही घर में (भाव, अपने आप में) टिक जाता है। (गुरु के हुक्म में चल के जब) मन अपने आपको खा जाता है (भाव, अपने संकल्प-विकल्प समाप्त कर देता है, जब मनुष्य अपने मन के पीछे चलने की बजाएगुरू के हुक्म में चलता है) तो मन पवित्र हो जाता है (क्योंकि इस तरह गुरु के उपदेशों से मनुष्य) माया की ओर दौड़ते मन को रोके रखता है।
(प्रश्न:) मनुष्य (जगत के) आदि (प्रभु) को कैसे पहचाने? अपने आत्मा को कैसे समझे? चंद्रमा के घर में सूरज कैसे टिके?
(उक्तर:) जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है वह अपने अंदर से ‘अहंकार’ दूर करता है, तब हे नानक! वह सहज अवस्था में टिक जाता है।64।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु निहचलु हिरदै वसीअले गुरमुखि मूलु पछाणि रहै ॥ नाभि पवनु घरि आसणि बैसै गुरमुखि खोजत ततु लहै ॥ सु सबदु निरंतरि निज घरि आछै त्रिभवण जोति सु सबदि लहै ॥ खावै दूख भूख साचे की साचे ही त्रिपतासि रहै ॥ अनहद बाणी गुरमुखि जाणी बिरलो को अरथावै ॥ नानकु आखै सचु सुभाखै सचि रपै रंगु कबहू न जावै ॥६५॥
मूलम्
इहु मनु निहचलु हिरदै वसीअले गुरमुखि मूलु पछाणि रहै ॥ नाभि पवनु घरि आसणि बैसै गुरमुखि खोजत ततु लहै ॥ सु सबदु निरंतरि निज घरि आछै त्रिभवण जोति सु सबदि लहै ॥ खावै दूख भूख साचे की साचे ही त्रिपतासि रहै ॥ अनहद बाणी गुरमुखि जाणी बिरलो को अरथावै ॥ नानकु आखै सचु सुभाखै सचि रपै रंगु कबहू न जावै ॥६५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहचलु = अडोल हो के (भाव, भटकने से हट के)। हिरदै = हृदय में। आसणि = आसन पर। बैसै = बैठता है। निज घरि = अपने असल घर में। आछै = है। अरथावै = अर्थ समझता है, अस्लियत समझता है। सचि = सच में। रपै = रंगा रहता है।
अर्थ: जब मनुष्य गुरु के हुक्म में चल के (जगत के) मूल- (प्रभु) को पहचानता है (प्रभु के साथ सांझ डालता है), तो यह मन अडोल हो के हृदय में टिकता है। प्राण (भाव, श्वास) नाभि-रूप घर में आसन पर बैठता है (भाव, प्राणों का आरम्भ नाभि से होता है), गुरु के माध्यम से खोज करके मनुष्य अस्लियत को तलाशता है। वह शब्द (जो ‘दुश्तर सागर’ से पार लंघाता है) एक-रस अपने असल घर में (भाव, शून्य प्रभु में) टिकता है, मनुष्य उस प्रभु के द्वारा (ही) त्रिलोकी में व्यापक प्रभु की ज्योति ढूँढता है, (ज्यों-ज्यों) सच्चे प्रभु को मिलने की तमन्ना बढ़ती है (त्यों-त्यों) मनुष्य दुखों को समाप्त करता जाता है, सच्चे प्रभु में ही तृप्त रहता है।
एक-रस व्यापक ईश्वरीय जीवन-लहर को किसी विरले गुरमुख ने जाना है किसी विरले ने ये राज़ समझा है। नानक कहता है (जिसने समझा है) वह सच्चे प्रभु को स्मरण करता है, सच्चे में रंगा रहता है, उसका ये रंग कभी उतरता नहीं।65।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा इहु हिरदा देह न होती तउ मनु कैठै रहता ॥ नाभि कमल असथ्मभु न होतो ता पवनु कवन घरि सहता ॥ रूपु न होतो रेख न काई ता सबदि कहा लिव लाई ॥ रकतु बिंदु की मड़ी न होती मिति कीमति नही पाई ॥ वरनु भेखु असरूपु न जापी किउ करि जापसि साचा ॥ नानक नामि रते बैरागी इब तब साचो साचा ॥६६॥
मूलम्
जा इहु हिरदा देह न होती तउ मनु कैठै रहता ॥ नाभि कमल असथ्मभु न होतो ता पवनु कवन घरि सहता ॥ रूपु न होतो रेख न काई ता सबदि कहा लिव लाई ॥ रकतु बिंदु की मड़ी न होती मिति कीमति नही पाई ॥ वरनु भेखु असरूपु न जापी किउ करि जापसि साचा ॥ नानक नामि रते बैरागी इब तब साचो साचा ॥६६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देह = शरीर। मनु = चेतन सत्ता। केठै = कहाँ? किस जगह पर? असथंभु = स्तम्भ, खम्भा, सहारा। पवनु = प्राण, श्वास। सहता = आसरा लेता था। सबदि = शब्द ने। रकतु = रक्त, खून। बिंदु = वीर्य। मढ़ी = शरीर। मिति = अंदाजा। असरूपु = स्वरूप। इब = अब जबकि (शरीर मौजूद है)। तब = तब जब कि (शरीर नहीं था)।
अर्थ: (प्रश्न:) जब ना ये हृदय था ना ही ये शरीर था, तब मन (चेतन सत्ता) कहाँ रहती थी? जब नाभि के चक्र का स्तम्भ नहीं था तो प्राण (श्वास) किस घर में आसरा लेते थे? जब कोई रूप-रेख नहीं था तब शब्द ने कहाँ लगन लगाई हुई थी? जब (माँ का) रक्त और (पिता के) वीर्य से बना ये शरीर नहीं था तब जिस प्रभु का अंदाजा और मूल्य नहीं पड़ सकता उसमें ये मन लगन कैसे लगाता था? जिस प्रभु का रंग-भेख और स्वरूप नहीं दिखता, वह सदा कायम रहने वाला प्रभु कैसे देखा जाता है?
(उक्तर:) हे नानक! प्रभु के नाम में रति हुए वैरागवान को हर वक्त सच्चा प्रभु ही (मौजूद) प्रतीत होता है।66।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदा देह न होती अउधू तउ मनु सुंनि रहै बैरागी ॥ नाभि कमलु असथ्मभु न होतो ता निज घरि बसतउ पवनु अनरागी ॥ रूपु न रेखिआ जाति न होती तउ अकुलीणि रहतउ सबदु सु सारु ॥ गउनु गगनु जब तबहि न होतउ त्रिभवण जोति आपे निरंकारु ॥ वरनु भेखु असरूपु सु एको एको सबदु विडाणी ॥ साच बिना सूचा को नाही नानक अकथ कहाणी ॥६७॥
मूलम्
हिरदा देह न होती अउधू तउ मनु सुंनि रहै बैरागी ॥ नाभि कमलु असथ्मभु न होतो ता निज घरि बसतउ पवनु अनरागी ॥ रूपु न रेखिआ जाति न होती तउ अकुलीणि रहतउ सबदु सु सारु ॥ गउनु गगनु जब तबहि न होतउ त्रिभवण जोति आपे निरंकारु ॥ वरनु भेखु असरूपु सु एको एको सबदु विडाणी ॥ साच बिना सूचा को नाही नानक अकथ कहाणी ॥६७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधू = हे जोगी! सुंनि = अफुर प्रभु में। अनरागी = प्रेमी हो के। जाति = अस्तित्व, उत्पक्ति। अकुलीणि = अकुलीण में, कुल रहत प्रभु में। गउनु = गवनु, गमन, चाल, जगत की चाल, जगत का अस्तित्व। गगनु = आकाश। विडाणी = आश्चर्य।
अर्थ: (उक्तर:) हे जोगी! जब ना हृदय था ना शरीर था, तब वैरागी का मन निरगुण प्रभु में टिका हुआ था। जब नाभि-चक्र-रूपी-स्तम्भ नहीं था तब प्राण (प्रभु के) प्रेमी हो के अपने असल घर (प्रभु) में बसते थे। जब (जगत का) का कोई रूप-रेख नहीं था तब वह श्रेष्ठ शब्द (जो ‘दुष्तर सागर’ से पार लंघाता है) कुल-रहित प्रभु में रहता था; जब जगत की हस्ती नहीं थी, आकाश नहीं था, तब आकार-रहित त्रिभवणी ज्योति (भाव, अब त्रिलोकी में व्यापक होने वाली ज्योति) स्वयं ही स्वयं थी। एक मात्र आश्चर्य शब्द-रूप प्रभु ही था, वही (जगत का) रूप-रंग और भेख था।
हे नानक! (ऐसे उस) सदा कायम रहने वाले प्रभु (को मिले) बिना, जिसका कोई सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, कोई मनुष्य सच्चा नहीं है।67।
[[0946]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कितु कितु बिधि जगु उपजै पुरखा कितु कितु दुखि बिनसि जाई ॥ हउमै विचि जगु उपजै पुरखा नामि विसरिऐ दुखु पाई ॥ गुरमुखि होवै सु गिआनु ततु बीचारै हउमै सबदि जलाए ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी साचै रहै समाए ॥ नामे नामि रहै बैरागी साचु रखिआ उरि धारे ॥ नानक बिनु नावै जोगु कदे न होवै देखहु रिदै बीचारे ॥६८॥
मूलम्
कितु कितु बिधि जगु उपजै पुरखा कितु कितु दुखि बिनसि जाई ॥ हउमै विचि जगु उपजै पुरखा नामि विसरिऐ दुखु पाई ॥ गुरमुखि होवै सु गिआनु ततु बीचारै हउमै सबदि जलाए ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी साचै रहै समाए ॥ नामे नामि रहै बैरागी साचु रखिआ उरि धारे ॥ नानक बिनु नावै जोगु कदे न होवै देखहु रिदै बीचारे ॥६८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितु = किससे? कितु बिधि = किस विधि से? पुरखा = हे पुरख! दुखि = दुख से। हउमै = अहंकार, मेर तेर, अपनी अलग अस्तित्व का ख्याल। नामि विसरिऐ = अगर नाम बिसर जाए। सबदि = गुर शब्द के द्वारा। साचै = सच्चे प्रभु में। नामे नामि = नामि ही नामि, नाम ही नाम में, निर्मल प्रभु नाम में। जोगु = मिलाप।
अर्थ: (प्रश्न:) हे पुरख! जगत किस-किस विधि से उपजता है, किस तरह दुख में (पड़ता) है और कैसे नाश हो जाता है?
(उक्तर:) हे पुरख! जगत अहंकार में पैदा होता है, अगर (इसको) प्रभु का नाम बिसर जाए तो दुख पाता है। जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है, वह तत्व-ज्ञान को विचारता है और (अपने) अहंकार को गुरु के शब्द द्वारा जलाता है, उसका तन उसका मन और उसकी वाणी पवित्र हो जाते हैं; वह सदा कायम रहने वाले प्रभु में टिका रहता है; वह मनुष्य (प्रभु-चरणों का) मतवाला हो के निर्मल प्रभु-नाम में जुड़ा रहता है, सदा प्रभु को हृदय में टिकाए रखता है। हे नानक! प्रभु के नाम के बिना प्रभु से मिलाप कभी नहीं हो सकता, अपने हृदय में विचार के देख लो (भाव, तुम्हारा अपना व्यक्तिगत अनुभव भी यही गवाही देगा)।68।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि साचु सबदु बीचारै कोइ ॥ गुरमुखि सचु बाणी परगटु होइ ॥ गुरमुखि मनु भीजै विरला बूझै कोइ ॥ गुरमुखि निज घरि वासा होइ ॥ गुरमुखि जोगी जुगति पछाणै ॥ गुरमुखि नानक एको जाणै ॥६९॥
मूलम्
गुरमुखि साचु सबदु बीचारै कोइ ॥ गुरमुखि सचु बाणी परगटु होइ ॥ गुरमुखि मनु भीजै विरला बूझै कोइ ॥ गुरमुखि निज घरि वासा होइ ॥ गुरमुखि जोगी जुगति पछाणै ॥ गुरमुखि नानक एको जाणै ॥६९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाणी = गुरु की वाणी के द्वारा। निज घरि = अपने असल स्वरूप में। जुगति = जोग की युक्ति।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है वह सच्चे शब्द को बिचारता है, सतिगुरु की वाणी के माध्यम से सच्चा प्रभु (उसके हृदय में) प्रकट हो जाता है।
गुरमुख मनुष्य का मन (नाम-रस में) भीगता है, (पर इस बात को) कोई विरला ही समझता है। गुरु के सन्मुख मनुष्य का निवास अपने असल स्वरूप में बना रहता है।
जो मनुष्य सतिगुरु के हुक्म में चलता है वह (असल) जोगी है वह (प्रभु से मिलाप की) जुगति पहचानता है। हे नानक! गुरु के हुक्म में चलने वाला मनुष्य एक प्रभु को (हर जगह व्यापक) जानता है।69।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ॥ बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ॥ बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ॥ बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ॥ नानक बिनु गुर मुआ जनमु हारि ॥७०॥
मूलम्
बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ॥ बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ॥ बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ॥ बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ॥ नानक बिनु गुर मुआ जनमु हारि ॥७०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गुबारि = अंधेरे में। हारि = हार के। जोगु = (परमात्मा से) मिलाप।
अर्थ: सतिगुरु की बताई हुई कार किए बिना (प्रभु से) मेल नहीं होता, गुरु को मिले बिना मुक्ति नहीं मिलती। गुरु को मिले बगैर प्रभु का नाम नहीं मिल सकता, मनुष्य बहुत कष्ट उठाता है। गुरु को मिले बग़ैर घोर अंधकार में अहंकार में रहता है। हे नानक! सतिगुरु के बिना मनुष्य जिंदगी (की बाजी) हार के आत्मिक मौत सहेड़ता है।70।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि मनु जीता हउमै मारि ॥ गुरमुखि साचु रखिआ उर धारि ॥ गुरमुखि जगु जीता जमकालु मारि बिदारि ॥ गुरमुखि दरगह न आवै हारि ॥ गुरमुखि मेलि मिलाए सुो जाणै ॥ नानक गुरमुखि सबदि पछाणै ॥७१॥
मूलम्
गुरमुखि मनु जीता हउमै मारि ॥ गुरमुखि साचु रखिआ उर धारि ॥ गुरमुखि जगु जीता जमकालु मारि बिदारि ॥ गुरमुखि दरगह न आवै हारि ॥ गुरमुखि मेलि मिलाए सुो जाणै ॥ नानक गुरमुखि सबदि पछाणै ॥७१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उर = हृदय। बिदारि = फाड़ के। मेलि = संयोग से, संजोग बना के।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘सुो’ अक्षर में ‘स’ के साथ दो मात्राएं = ‘ु’ और ‘ो’ हैं, पर यहाँ छंद की चाल को ठीक रखने के लिए (ु) लगा के पढ़नी है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है उसने (अपने) अहंकार को मार के अपना मन जीत लिया है, उसने सदा टिके रहने वाले प्रभु को अपने हृदय में परो लिया है, मौत का डर मार के उसने जगत जीत लिया है, वह (मनुष्य-जीवन की बाज़ी) हार के हजूरी में नहीं जाता (बल्कि, जीत के जाता है)।
गुरमुख मनुष्य को प्रभु संजोग बना के (अपने में) मिला लेता है (इस भेद को) वह गुरमुख (ही) समझता है। हे नानक! गुरु के सनमुख मनुष्य गुरु के शब्द के माध्यम से (प्रभु के साथ) जान-पहचान बना लेता है।71।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदै का निबेड़ा सुणि तू अउधू बिनु नावै जोगु न होई ॥ नामे राते अनदिनु माते नामै ते सुखु होई ॥ नामै ही ते सभु परगटु होवै नामे सोझी पाई ॥ बिनु नावै भेख करहि बहुतेरे सचै आपि खुआई ॥ सतिगुर ते नामु पाईऐ अउधू जोग जुगति ता होई ॥ करि बीचारु मनि देखहु नानक बिनु नावै मुकति न होई ॥७२॥
मूलम्
सबदै का निबेड़ा सुणि तू अउधू बिनु नावै जोगु न होई ॥ नामे राते अनदिनु माते नामै ते सुखु होई ॥ नामै ही ते सभु परगटु होवै नामे सोझी पाई ॥ बिनु नावै भेख करहि बहुतेरे सचै आपि खुआई ॥ सतिगुर ते नामु पाईऐ अउधू जोग जुगति ता होई ॥ करि बीचारु मनि देखहु नानक बिनु नावै मुकति न होई ॥७२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदै का = सारे शब्द का, सारे उपदेश का। निबेड़ा = फैसला, सार। अउधू = हे जोगी! माते = मतवाले, मस्त। सचै = सच्चे प्रभु ने। खुआई = गलत रास्ते पर डाले हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।
अर्थ: हे जोगी! सुन, सारे उपदेश का सार (ये है कि) प्रभु के नाम के बिना जोग (प्रभु का मिलाप) नहीं। जो ‘नाम’ में रति हैं वे हर समय मतवाले हैं। ‘नाम’ से ही सुख मिलता है; ‘नाम’ से ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है, ‘नाम’ से ही सारी सूझ पड़ती है।
प्रभु के नाम को छोड़ के जो मनुष्य और बहुत सारे भेख करते हैं उन्हें सच्चे प्रभु ने स्वयं गलत राह पर डाल दिया है।
हे जोगी! सतिगुरु से प्रभु का ‘नाम’ मिलता है (‘नाम’ मिलने से ही) जोग की तवज्जो सिरे चढ़ती है। हे नानक! मन में विचार के देख लो, ‘नाम’ के बिना मुक्ति नहीं मिलती (भाव, तुम्हारा अपना व्यक्तिगत अनुभव स्पष्ट कर देगा कि नाम स्मरण के बिना अहंकार से निजात नहीं मिलती)।72।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी गति मिति तूहै जाणहि किआ को आखि वखाणै ॥ तू आपे गुपता आपे परगटु आपे सभि रंग माणै ॥ साधिक सिध गुरू बहु चेले खोजत फिरहि फुरमाणै ॥ मागहि नामु पाइ इह भिखिआ तेरे दरसन कउ कुरबाणै ॥ अबिनासी प्रभि खेलु रचाइआ गुरमुखि सोझी होई ॥ नानक सभि जुग आपे वरतै दूजा अवरु न कोई ॥७३॥१॥
मूलम्
तेरी गति मिति तूहै जाणहि किआ को आखि वखाणै ॥ तू आपे गुपता आपे परगटु आपे सभि रंग माणै ॥ साधिक सिध गुरू बहु चेले खोजत फिरहि फुरमाणै ॥ मागहि नामु पाइ इह भिखिआ तेरे दरसन कउ कुरबाणै ॥ अबिनासी प्रभि खेलु रचाइआ गुरमुखि सोझी होई ॥ नानक सभि जुग आपे वरतै दूजा अवरु न कोई ॥७३॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस लंबी वाणी के आरम्भ में जैसे ‘मंगलाचरण’ की पउड़ी थी, अब पौड़ी नं: 72 तक ‘प्रभु मिलाप’ के बारे में चर्चा को समाप्त करके आखिर में ‘प्रार्थना’ है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = हालत। मिति = मिनती। साधिक = साधना करने वाले। सिध = जोग साधना में सिद्धस्त जोगी। फुरमाणे = फुरमान में ही, तेरे हुक्म में ही। प्रभि = प्रभु ने।
अर्थ: तू कैसा है और कितना बड़ा है, हे प्रभु! ये बात तू स्वयं ही जानता है। कोई और क्या कह के बता सकता है? तू स्वयं ही छुपा हुआ है तू स्वयं ही प्रकट है (भाव, सूक्षम और स्थूल तू स्वयं ही है), तू स्वयं ही सारे रंग भोग रहा है।
साधना करने वाले और साधना में सिद्ध जोगी, गुरु और उनके कई चेले तेरे हुक्म में तुझे खोजते फिरते हैं, तुझसे तेरा ‘नाम’ माँगते हैं, तुझसे ये भिक्षा ले के तेरे दीदार से सदके होते हैं।
हे नानक! अविनाशी प्रभु ने (इस जगत की) खेल रची है गुरमुख मनुष्य को ये समझ आ जाती है। सारे ही युगों में वह स्वयं ही मौजूद है, कोई और दूसरा (उस जैसा) नहीं।73।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आखिर में अंक ‘1’ का भाव है कि ‘सिध गोसटि’ की 73 पौड़ियों को समूचे तौर पर केवल एक ही वाणी समझना; सारी वाणी का एक सांझा भाव है।
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दर्पण-भाव
पउड़ी का भाव:
ये सारी कुदरत परमात्मा ने खुद रची है, अपने बैठने के लिए तख़्त बनाया है।
सृष्टि रंग-बिरंगी है।
इसमें कई जीवों को परमात्मा ने अपनी महिमा में लगा रखा है।
माया का मोह भी उसने आप ही बनाया है।
6. जो मनुष्य गुरु की शरण आते हैं, वह परमात्मा का स्मरण करते हैं।
7. सरगुण रूप से पहले क्या था- ये नहीं बताया जा सकता। जब परमात्मा ने सृष्टि रच दी, तब धर्म-पुस्तकों के द्वारा भले-बुरे की सूझ पड़ने लगी।
8. गुरु के शब्द से जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करते हैं वह सुखी हैं।
9. परमात्मा का नाम-अमृत मनुष्य के अंदर ही है, पर जिसको गुरु मिलता है वही पीता है।
10. सबकी संभाल परमात्मा स्वयं करता है। ‘झूठ’ में लगाने वाला भी स्वयं ही है, और महिमा में जोड़ने वाला भी स्वयं ही है।
11. गुरु के माध्यम से समझ आ जाती है कि परमात्मा इस शरीर में रहता है, ये शरीर उसका ‘मन्दिर’ है।
12. सो, गुरु के हुक्म में चल के इस ‘घर’ में ही उसको तलाशना चाहिए।
13. वैसे तो प्रभु हरेक शरीर में है, पर मिलता गुरु के माध्यम से ही है। जो मनुष्य गुरु की शरण में आया, उसका अहंकार दूर हो गया, उसका हृदय खिला रहता है।
14. परमात्मा सबके अंदर है पर गुप्त है। गुरु के द्वारा गुण गाने से प्रकट होता है।
15. प्रभु इस शरीर-किले में बैठा है। पर माया के तगड़े किवाड़ लगे हुए हैं जो गुरु के शब्द से खुलते हैं।
16. अंदर-बाहर सब जगह परमात्मा स्वयं ही है। गुरु के हुक्म में चलने से ये समझ आती है।
17. अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अंधेरे में रहता है, पर गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य को आत्मिक जीवन की सूझ पड़ जाती है प्रकाश हो जाता है।
18. जिस मनुष्यों ने गुरु के हुक्म में चल के ‘नाम’ का व्यापार किया, उनकी तृष्णा समाप्त हो गई।
19. जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर नाम स्मरण करते हैं वह प्रभु का रूप ही हो जाते हैं।
20. हरि-नाम ही सदा साथ निभने वाला धन है, इसके बिना जीवन व्यर्थ है।
21. बुरा किसे कहें? हरेक में वह स्वयं ही स्वयं है, गुरु के द्वारा स्वयं ही भक्ति में जोड़ता है।
लड़ीवार भाव:
(1से 7) ये रंग-बिरंगी सृष्टि परमात्मा ने स्वयं बनाई है, इसमें हर जगह वह स्वयं ही मौजूद है। माया रचने वाला भी स्वयं ही है। उसकी रजा के अनुसार ही कई जीव माया के मोह में फसे रहते हैं, कई गुरु की शरण पड़ के उसका नाम स्मरण करते हैं। ये कोई जीव नहीं बता सकता कि इस जगत-रचना से पहले क्या था।
(8 से 14) परमात्मा हरेक मनुष्य के अंदर ही बसता है, पर गुरु की शरण पड़ने से ही मनुष्य को ये समझ आती है। गुरु के बताए हुए राह पर चल के मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, जो स्मरण करता है उसका मन सदा खिला रहता है।
(15 से 21) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को सही आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती। भले ही परमात्मा हरेक मनुष्य के शरीर-किले में बसता है पर मनुष्य की परमात्मा से दूरी बनी रहती है। गुरु की शरण पड़े रहने से ये समझ आती है कि सदा साथ निभने वाला परमात्मा का नाम ही है। पर किसी को बुरा नहीं कहा जा सकता। प्रभु स्वयं ही गुरु की शरण में लगा के मनुष्य को अपनी भक्ति में जोड़ता है।
मुख्य भाव:
सर्व-व्यापक विधाता प्रभु स्वयं ही गुरु की शरण में लगा के माया के मोह में से निकालता है और अपनी भक्ति में जोड़ता है। अपनी रची हुई माया में वह खुद ही फसाता है, और अपनी भक्ति में भी खुद ही जोड़ता है।
दर्पण-टिप्पनी
‘वार’ की संरचना:
इस ‘वार’ में 21 पउड़ियाँ हैं। हरेक पौड़ी में पाँच-पाँच तुकें हैं। पर इस ‘वार’ की अनोखी बात ये है कि पहली पौड़ी के साथ ‘रहाउ’ की भी तुक है: ‘वाहु वाहु सचे पातिसाह तू, सची नाई’। हरेक पौड़ी की आखिरी तुक का आखिरी शब्द, उच्चारण में इस ‘रहाउ’ की तुक के आखिरी शब्द ‘नाई’ जैसा ही तुकबंद किया हुआ है: धिआई, सुणाई, पाई, समाई, बुलाई, लखाई, मिलाई, बुझाई, पिआई, सनाई, जाई, जाई, बुझाई, वडिआई, रचाई, पाई, जाई, बुझाई, वडिआई, रचाई, पाई, जाई, बुझाई, वडिआई, जाई, वडिआई।
शब्द ‘नानक’ सिर्फ आखिरी पउड़ी में है। सारी पौड़ियों की सारी ही तुकें तकरीबन एक ही आकार की हैं। काव्य-रचना के दृष्टिकोण से सारी ही ‘वार’ एकसमान है।
सलोकों का वेरवा:
सारे शलोक 52 हैं। पउड़ियों की काव्य-संरचना तो बंधी हुई एकसमान है, पर शलोकों की शूलियत में कोई नियम नहीं अपनाया गया है। पौड़ी नंबर 1, 4, 8, 16 और 19 के साथ तीन-तीन शलोक हैं। पौड़ी नंबर 12 के साथ सात शलोक हैं। बाकी 15 पौड़ियों के साथ दो-दो शलोक हैं।
पउड़ी नंबर 8 के साथ दिया हुआ पहला शलोक शेख फरीद जी के शलोकों में भी है नंबर 52 पर। वहाँ ये शलोक फरीद जी के शलोक नंबर 51 के प्रथाय लिखा है:
फरीदा रती रतु न निकलै, जे तनु चीरै कोइ॥ जो तन रते रब सिउ, तिन तनि रतु न होइ॥५१॥
महला ३॥ इहु तनु सभो रतु है, रतु बिनु तंनु न होइ॥ जो सह रते आपणे, तितु तनि लोभु रतु न होइ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ, लोभु रतु विचहु जाइ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ, तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ॥ नानक ते जन सोहणे, जि रते हरि रंगु लाइ॥५२॥
कबीर जी के शलोक:
पउड़ी नंबर 2 के साथ पहला शलोक कबीर जी का है, जो कबीर जी के शलोकों में नंबर 65 पर इस प्रकार है;
कबीर महिदी करि घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥
तै सह बात न पूछीऐ, कबहु न लाई पाइ॥६५॥
पर पौड़ी नंबर 2 के साथ थोड़े से फर्क के साथ इस तरह लिखा हुआ है;
कबीर महिदी करि कै घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥
तै सह बात न पुछीआ, कबहू न लाई पाइ॥१॥
फर्क– नं: 65 में – करि
‘वार’ में – करि कै
नं: 65 में – पूछीअै
‘वार’ में – पुछीआ
नं: 65 में – कबहु
‘वार’ में – कबहू
नोट: इस शलोक के प्रथाय पौड़ी नंबर 2 के साथ दूसरा शलोक महला ३ का है;
नानक महिदी करि कै रखिआ, सो सहु नदरि करेइ॥ आपे पीसै आपे घसै, आपे ही लाइ लएइ॥ इहु पिरम पिआला खसम का, जै भावै तै देइ॥२॥
सरसरी नजर से पढ़ने पर साफ दिखता है कि महला ३ का ये शलोक कबीर जी के शलोक के संबंध में है। पर ये शलोक कबीर जी के शलोकों में शलोक नं: 65 में दर्ज नहीं है। सारे ही गुरु ग्रंथ साहिब में और कहीं भी नहीं। इसका भाव ये है कि पहले ये शलोक गुरु अमरदास जी के शलोकों के संग्रह में था, वहाँ से निकाल के गुरु अरजन देव जी ने कबीर जी के शलोक नं: 65 समेत इस पउड़ी नं: 2 के साथ दर्ज कर दिया।
पउड़ी नंबर 4 के साथ शामिल कबीर जी का शलोक, शलोकों के संग्रह में नंबर 33 पर है। इसमें थोड़ा सा फर्क है:
जो मर जीवा होइ॥ पउड़ी नंबर 4 के साथ
जो मरि जीवा होइ॥ शलोक नंबर 33
सारे शलोक गुरु अरजन देव जी द्वारा दर्ज किए गए:
गुरु अमरदास जी की 4 वारें निम्न-लिखित रागों में हैं:
- गुजरी, 2. सूही, 3. रामकली और 4. मारू
गुजरी की वार महला ३ में पउड़ी नं: 4 के साथ पहला शलोक कबीर जी का है, बाकी सारे शलोक गुरु अमरदास जी के हैं। कुल पौड़ियाँ 22 हैं।
सूही की वार महला ३ की 20 पउड़ियाँ हैं। इसमें 46 शलोक हैं: शलोक महला ३ के 14; शलोक म: २ के 11 और शलोक महला १ के 21 शब्द।
रामकली की वार महला ३ की 21 पौड़ियां हैं। इसके साथ भी शलोक म: ३, महला २ और महला १ के शब्द हैं। दो शलोक कबीर जी के हैं।
ये ठीक है कि गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक देव जी की सारी वाणी मौजूद थी, गुरु अंगद देव जी की भी सारी वाणी मौजूद थी। भगतों की वाणी पहली ‘उदासी’ के समय गुरु नानक देव जी लाए थे, ये भी गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थी।
पर इसका ये मतलब नहीं कि राग गुजरी, सूही और रामकली की ‘वारों’ की पउड़ियों के साथ शलोक गुरु अमरदास जी ने खुद ही दर्ज किए थे।
ये घुंडी खुलती है मारू की वार महला ३ में से। इस ‘वार’ की 22 पउड़ियां हैं। इसके साथ 47 शलोक हैं। शलोकों का वेरवा– महला १=18; महला २=1; म: ३=22; म: ४=3; म: ५=2। कुल=47। पउड़ी नंबर 1 के साथ एक शलोक महला ४ का है और एक शलोक म: ३ का। पउड़ी नंबर 2 के साथ 2 शलोक महला ४ के हैं, और एक शलोक म: ३ का। पउड़ी नंबर 20 के साथ दोनों शलोक म: ५ के हैं; म: ३ का एक भी नहीं।
अगर ये सारे शलोक गुरु अमरदास जी ने खुद ही दर्ज किए होते, तो पउड़ी नं: 20को खाली ना रहने देते, और पउड़ी नं: 1 और 2 के साथ एक-एक ही अपना शलोक दर्ज करके बस ना कर देते। महला ४ और म: ५ के शलोक तो उनके पास थे नहीं। सो, इस ‘वार’ में सारे शलोक गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए।
ये भी नहीं हो सकता था कि 4 ‘वारों’ में से गुरु अमरदास जी की एक ‘वार’ की पउड़ियां बिल्कुल खाली रहने देते, और बाकी की 3 ‘वारों’ की पौड़ियों के साथ शलोक दर्ज कर देते। सारा ही उद्यम काव्य-दृष्टिकोण से एकसमान था।
सारी ही ‘वारों’ की पउड़ियों के साथ शलोक गुरु अरजन साहिब ने ही दर्ज किए हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामकली की वार महला ३ ॥ जोधै वीरै पूरबाणी की धुनी ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामकली की वार महला ३ ॥ जोधै वीरै पूरबाणी की धुनी ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: इस वार की पौड़ियां उसी सुर (धुनि) में गानी हैं जिस सुर में जोधे और वीरे की वार की पउड़ियाँ गाई जाती थीं।
दर्पण-टिप्पनी
जोधा और वीरा दो भाई थे, एक राजपूत पूरबाण के पुत्र थे। जंगल में रहते थे। अकबर बादशाह से आकी हुए थे। अकबर ने इन पर हमला बोल दिया, ये बड़ी ही बहादुरी से रण में लड़ के मरे। ढाढियों ने इनकी शूरवीरता की वार बनाई, इस वार में से बतौर नमूना निम्न-लिखित पौड़ी यहाँ दी जा रही है;
जोधे वीर पूरबाणिऐं दो गलां करीन करारीआं॥ फौजां चाढ़ीआं बादशाह अकबर ने भारीआं॥ सनमुख होए राजपूत सुत्री रण कारीआं॥ इंदर सणे अपछरां मिलि करनि जुहारीआं॥ एही कीती जोध वीर पतशाही गलां सारीआं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ सतिगुरु सहजै दा खेतु है जिस नो लाए भाउ ॥ नाउ बीजे नाउ उगवै नामे रहै समाइ ॥ हउमै एहो बीजु है सहसा गइआ विलाइ ॥ ना किछु बीजे न उगवै जो बखसे सो खाइ ॥ अ्मभै सेती अ्मभु रलिआ बहुड़ि न निकसिआ जाइ ॥ नानक गुरमुखि चलतु है वेखहु लोका आइ ॥ लोकु कि वेखै बपुड़ा जिस नो सोझी नाहि ॥ जिसु वेखाले सो वेखै जिसु वसिआ मन माहि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ सतिगुरु सहजै दा खेतु है जिस नो लाए भाउ ॥ नाउ बीजे नाउ उगवै नामे रहै समाइ ॥ हउमै एहो बीजु है सहसा गइआ विलाइ ॥ ना किछु बीजे न उगवै जो बखसे सो खाइ ॥ अ्मभै सेती अ्मभु रलिआ बहुड़ि न निकसिआ जाइ ॥ नानक गुरमुखि चलतु है वेखहु लोका आइ ॥ लोकु कि वेखै बपुड़ा जिस नो सोझी नाहि ॥ जिसु वेखाले सो वेखै जिसु वसिआ मन माहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = अडोलता। भाउ = प्यार। नामे = नाम में ही। बीजु = मूल, आदि। गइआ विलाइ = दूर हो जाता है। अंभु = पानी (संस्कृत: अंभस्)। बहुड़ि = फिर। निकसिआ जाइ = निकाला नहीं जा सकता, अलग नहीं किया जा सकता। चलतु = खेल। बपुड़ा = बिचारा।
अर्थ: सतिगुरु अडोलता और शांति का खेत है, (प्रभु) जिसको (इस अडोलता के खेत गुरु से) प्यार बख्शता है (वह भी ‘सहजै दा खेतु’ बन जाता है, तो वह उस खेत में) प्रभु का नाम बीजता है (वहाँ) नाम उगता है, वह मनुष्य नाम में टिका रहता है। ये जो (शंकाओं का) मूल अहंकार है (ये अहंकार उस मनुष्य में नहीं होता, सो इससे पैदा होने वाली) ‘शंका’ (उस मनुष्य की) दूर हो जाती है, ना वह कोई ऐसा बीज बीजता है ना (वहाँ ‘शंका’) उपजती है। वह मनुष्य प्रभु की बख्शिश का फल खाता है। (नाम स्मरण करता है, नाम में लीन रहता है)।
जैसे पानी में पानी मिल जाए तो फिर (वह पानी) अलग नहीं किया जा सकता। इसी तरह, हे नानक! उस मनुष्य की हालत है जो गुरु के हुक्म में चलता है। हे लोगो! (बेशक) आ के देख लो (परख लो)।
पर बेचारा जगत क्या देखे? इसको तो (ये परखने की) समझ ही नहीं है; (ये बात) वही मनुष्य देख सकता है जिसको प्रभु स्वयं देखने की विधि सिखाए, जिसके मन में प्रभु स्वयं आ बसे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मनमुखु दुख का खेतु है दुखु बीजे दुखु खाइ ॥ दुख विचि जमै दुखि मरै हउमै करत विहाइ ॥ आवणु जाणु न सुझई अंधा अंधु कमाइ ॥ जो देवै तिसै न जाणई दिते कउ लपटाइ ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा अवरु न करणा जाइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मनमुखु दुख का खेतु है दुखु बीजे दुखु खाइ ॥ दुख विचि जमै दुखि मरै हउमै करत विहाइ ॥ आवणु जाणु न सुझई अंधा अंधु कमाइ ॥ जो देवै तिसै न जाणई दिते कउ लपटाइ ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा अवरु न करणा जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुखि = दुख में। विहाइ = बीतती है (उम्र)। अंधु = अंधों वाला काम। दिते कउ = (प्रभु के) दिए हुए पदार्थों को। लपटाइ = जफा मारता है। पूरबि = पहले किए अनुसार। लिखिआ = उकरा हुआ।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है वह (समझो) दुखों का खेत है (जिसमें) वह दुख बीजता है और दुख (ही फल काट के) खाता है। मनमुख दुख में पैदा होता है, दुख में मरता है, उसकी सारी उम्र ‘मैं, मैं’ करते हुए गुजरती है। उसको ये समझ में नहीं आता कि मैं जनम-मरण के चक्करों में पड़ा हुआ हूँ, वह अंधा जहालत के ही काम किए जाता है।
मनमुख उस मालिक को नहीं पहचानता जो (दातें) देता है, पर उसके दिए हुए पदार्थों को जफा मारता है। हे नानक! (मनमुख करे भी क्या?) पिछले किए कर्मों के अनुसार जो (संस्कार मन पर) उकरे पड़े हैं (उसके असर तले मनुष्य) कर्म किए जाता है (उन संस्कारों से अलग) और कुछ नहीं कर सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सतिगुरि मिलिऐ सदा सुखु जिस नो आपे मेले सोइ ॥ सुखै एहु बिबेकु है अंतरु निरमलु होइ ॥ अगिआन का भ्रमु कटीऐ गिआनु परापति होइ ॥ नानक एको नदरी आइआ जह देखा तह सोइ ॥३॥
मूलम्
मः ३ ॥ सतिगुरि मिलिऐ सदा सुखु जिस नो आपे मेले सोइ ॥ सुखै एहु बिबेकु है अंतरु निरमलु होइ ॥ अगिआन का भ्रमु कटीऐ गिआनु परापति होइ ॥ नानक एको नदरी आइआ जह देखा तह सोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोइ = वह (प्रभु)। सुखै = सुख का। बिबेकु = परख, पहचान। अंतरु = अंदरूनी (भाव, आत्मा)। भ्रमु = वहम, भुलेखा। एको = एक (प्रभु) ही। गिआनु = प्रभु के साथ जान पहचान।
अर्थ: अगर सतिगुरु मिल जाए तो हमेशा के लिए सुख हो जाता है, (पर गुरु मिलता उसे है) जिसको वह प्रभु स्वयं मिलाए। (फिर) उस सुख की पहचान ये है कि (मनुष्य) अंदर से पवित्र हो जाता है, आत्मिक जीवन की ओर से बे-समझी की भूल दूर हो जाती है, आत्मिक जीवन की समझ हासिल हो जाती है। हे नानक! (हर जगह) वह प्रभु ही दिखता है, जिधर देखो उधर वही प्रभु (दिखता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सचै तखतु रचाइआ बैसण कउ जांई ॥ सभु किछु आपे आपि है गुर सबदि सुणाई ॥ आपे कुदरति साजीअनु करि महल सराई ॥ चंदु सूरजु दुइ चानणे पूरी बणत बणाई ॥ आपे वेखै सुणे आपि गुर सबदि धिआई ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सचै तखतु रचाइआ बैसण कउ जांई ॥ सभु किछु आपे आपि है गुर सबदि सुणाई ॥ आपे कुदरति साजीअनु करि महल सराई ॥ चंदु सूरजु दुइ चानणे पूरी बणत बणाई ॥ आपे वेखै सुणे आपि गुर सबदि धिआई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचै = सदा कायम रहने वाले प्रभु ने। जांई = जगह। सबदि = शब्द ने। सुणाई = बताई है। साजीअनु = पैदा की है उसने (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। पूरी मुकम्मल, जो अधूरी नहीं है। गुर सबदि = गुरु के शब्द से।
अर्थ: सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने ये (जगत-रूपी) तख्त अपने बैठने के लिए जगह बनाई है। (इस जगत में) हरेक चीज उस प्रभु का अपना ही स्वरूप है; ये बात सतिगुरु ने शब्द द्वारा समझाई है। ये सारी कुदरति उसने खुद ही पैदा की है, (कुदरति के सारे पेड़-पौधे आदि, मानो, उसने निवास के लिए) महल-माढ़ियां हैं; इन महल-माढ़ियों (में) चंद्रमा और सूरज दोनों (जैसे उसके जगाए हुए) दीए हैं। (प्रभु ने कुदरति की सारी) संरचना सम्पूर्ण बनाई हुई है। (इसमें बैठ के वह) खुद ही देख रहा है, खुद ही सुन रहा है; उस प्रभु को सतिगुरु के शब्द द्वारा ध्याया जा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहु वाहु सचे पातिसाह तू सची नाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
वाहु वाहु सचे पातिसाह तू सची नाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाओ’, भाव, इस सारी लंबी वाणी का केन्द्रिय मूल भाव इस तुक में है जिसके अंत में शब्द ‘रहाउ’ लिखा गया है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाहु = आश्चर्य। पातिशाह = हे पातशाह! नाई = बड़ाई, महिमा।
अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले पातशाह! तू आश्चर्य है, तू अचम्भा है। तेरी महिमा सदा कायम रहने वाली है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ कबीर महिदी करि कै घालिआ आपु पीसाइ पीसाइ ॥ तै सह बात न पुछीआ कबहू न लाई पाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ कबीर महिदी करि कै घालिआ आपु पीसाइ पीसाइ ॥ तै सह बात न पुछीआ कबहू न लाई पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। सह = हे पति! पाइ = पैर में। तै = तू।
अर्थ: हे कबीर! (कह:) मैंने अपने आप को महिंदी बना के (भाव, महिंदी की तरह) पीस-पीस के बड़ी मेहनत की, (पर) हे पति (प्रभु!) तूने मेरी बात भी नहीं पूछी (भाव, तूने मेरी सार ही नहीं ली) और तूने मुझे अपने चरणों से नहीं लगाया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ नानक महिदी करि कै रखिआ सो सहु नदरि करेइ ॥ आपे पीसै आपे घसै आपे ही लाइ लएइ ॥ इहु पिरम पिआला खसम का जै भावै तै देइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ नानक महिदी करि कै रखिआ सो सहु नदरि करेइ ॥ आपे पीसै आपे घसै आपे ही लाइ लएइ ॥ इहु पिरम पिआला खसम का जै भावै तै देइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरम पिआला = प्रेम का प्याला। जै भावै = जो उसको अच्छा लगता है।
अर्थ: हे नानक! (हमें) महिंदी बनाया भी उसने खुद ही है, जब वह पति (प्रभु) मेहर की नजर करता है, वह खुद ही (महिंदी को) पीसता है, खुद ही (महिंदी को) रगड़ता है, खुद ही (अपने पैरों पर) लगा लेता है (भाव, बंदगी की मेहनत बंदे को खुद ही लगाता है)। ये प्रेम का प्याला पति प्रभु की अपनी (वस्तु) है, उस मनुष्य को देता है जो उसको प्यारा लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ वेकी स्रिसटि उपाईअनु सभ हुकमि आवै जाइ समाही ॥ आपे वेखि विगसदा दूजा को नाही ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू गुर सबदि बुझाही ॥ सभना तेरा जोरु है जिउ भावै तिवै चलाही ॥ तुधु जेवड मै नाहि को किसु आखि सुणाई ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ वेकी स्रिसटि उपाईअनु सभ हुकमि आवै जाइ समाही ॥ आपे वेखि विगसदा दूजा को नाही ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू गुर सबदि बुझाही ॥ सभना तेरा जोरु है जिउ भावै तिवै चलाही ॥ तुधु जेवड मै नाहि को किसु आखि सुणाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेकी = अलग अलग किस्म की। उपाईअनु = उसने पैदा की है। हुकमि = हुक्म में, हुक्म अनुसार। समाही = समा जाते हैं। विगसदा = खुश होता है। बुझाही = (तू) समझ देता है। चलाही = तू चलाता है। किसु = किसकी बाबत? सुणाई = मैं सुनाऊँ।
अर्थ: उस (प्रभु) ने रंग-बिरंगी सृष्टि पैदा की है, सारे जीव उसके हुक्म में पैदा होते और समा जाते हैं; प्रभु ही (अपनी रचना को) देख के खुश हो रहा है, उसका कोई शरीक नहीं।
(हे प्रभु!) जैसे तुझे अच्छा लगे वैसे (जीवों को) रख; तू स्वयं ही गुरु शब्द के द्वारा (जीवों को) मति देता है। सब जीवों को तेरा आसरा है, जैसे तुझे अच्छा लगे वैसे (जीवों को) तू चलाता है।
मुझे, (हे प्रभु!) तेरे जितना कोई नहीं दिखाई देता; किस की बाबत कह के बताऊँ (कि वह तेरे जितना है)?
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ भरमि भुलाई सभु जगु फिरी फावी होई भालि ॥ सो सहु सांति न देवई किआ चलै तिसु नालि ॥ गुर परसादी हरि धिआईऐ अंतरि रखीऐ उर धारि ॥ नानक घरि बैठिआ सहु पाइआ जा किरपा कीती करतारि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ भरमि भुलाई सभु जगु फिरी फावी होई भालि ॥ सो सहु सांति न देवई किआ चलै तिसु नालि ॥ गुर परसादी हरि धिआईऐ अंतरि रखीऐ उर धारि ॥ नानक घरि बैठिआ सहु पाइआ जा किरपा कीती करतारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = भ्रम में। भालि = तलाश के। न देवई = न दे, नहीं देता। तिसु नालि = उस प्रभु से। अंतरि = (पहली पौड़ी के शलोक नं: 3 में के शब्द ‘अंतरु’ और इस ‘अंतरि’ में फर्क है)। करतारि = कर्तार ने।
अर्थ: भुलेखे में भूली हुई मैं (परमात्मा को तलाशने के लिए) सारा जगत भटकी और ढूँढ-ढूँढ के थक गई, (पर इस तरह) वह पति (प्रभु) (हृदय में) शांति नहीं देता, उसके साथ कोई जोर नहीं चल सकता।
(पर, हाँ) सतिगुरु की मेहर से प्रभु को स्मरण किया जा सकता है और हृदय में बसाया जा सकता है। हे नानक! (गुरु की मेहर से) मैंने घर में बैठे ही पति को पा लिया, जब कर्तार ने (मेरे पर) कृपा की (और गुरु मिलाया)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ धंधा धावत दिनु गइआ रैणि गवाई सोइ ॥ कूड़ु बोलि बिखु खाइआ मनमुखि चलिआ रोइ ॥ सिरै उपरि जम डंडु है दूजै भाइ पति खोइ ॥ हरि नामु कदे न चेतिओ फिरि आवण जाणा होइ ॥ गुर परसादी हरि मनि वसै जम डंडु न लागै कोइ ॥ नानक सहजे मिलि रहै करमि परापति होइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ धंधा धावत दिनु गइआ रैणि गवाई सोइ ॥ कूड़ु बोलि बिखु खाइआ मनमुखि चलिआ रोइ ॥ सिरै उपरि जम डंडु है दूजै भाइ पति खोइ ॥ हरि नामु कदे न चेतिओ फिरि आवण जाणा होइ ॥ गुर परसादी हरि मनि वसै जम डंडु न लागै कोइ ॥ नानक सहजे मिलि रहै करमि परापति होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धावत = दौड़ते हुए, भटकते हुए। रैणि = (सं: रजनी) रात। सोइ = सो के। बिखु = जहर। मनमुखि = जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है। डंडु = दण्ड, डंडा। दूजै भाइ = (प्रभु को छोड़ के) और में प्यार के कारण। मनि = मन में। सहजे = सहज में, अडोल अवस्था में। करमि = बख्शिश से।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसका (सारा) दिन (दुनिया के) धंधों में भटकते हुए बीत जाता है, और रात को वह सो के गवा लेता है, (इन धंधों में पड़ा हुआ) झूठ बोल के जहर खाता है (भाव, दुनिया के पदार्थ भोगता है) और (अंत को यहाँ से) रो के चल पड़ता है, उसके सिर पर मौत का डंडा (तैयार रहता) है, (भाव, हर वक्त मौत से डरता है), (प्रभु को बिसार के) और में प्यार के कारण (अपनी) इज्जत गवा लेता है; उसने परमात्मा का नाम तो कभी याद नहीं किया होता, (इसलिए) बार-बार जनम-मरण का चक्कर (उसे नसीब) होता है।
(पर जिस मनुष्य के) मन में सतिगुरु की मेहर से परमात्मा बसता है उसको कोई मौत का डंडा नहीं लगता (भाव, उसे मौत डरा नहीं सकती)। हे नानक! वह अडोल अवस्था में टिका रहता है (यह अवस्था उसको) परमात्मा की कृपा से मिल जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ इकि आपणी सिफती लाइअनु दे सतिगुर मती ॥ इकना नो नाउ बखसिओनु असथिरु हरि सती ॥ पउणु पाणी बैसंतरो हुकमि करहि भगती ॥ एना नो भउ अगला पूरी बणत बणती ॥ सभु इको हुकमु वरतदा मंनिऐ सुखु पाई ॥३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ इकि आपणी सिफती लाइअनु दे सतिगुर मती ॥ इकना नो नाउ बखसिओनु असथिरु हरि सती ॥ पउणु पाणी बैसंतरो हुकमि करहि भगती ॥ एना नो भउ अगला पूरी बणत बणती ॥ सभु इको हुकमु वरतदा मंनिऐ सुखु पाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई जीव। लाइअनु = लगाए हैं उसने।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी नं: 2 में शब्द ‘उपाइअनु’ है, दोनों की बनावट में व्याकर्णक भेद समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।
नोट: ‘इकि’ शब्द ‘इक’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
बखसिओनु = बख्शा उसने। असथिरु नाउ = सदा रहने वाला नाम। सती = सदा कायम रहने वाला। बैसंतरो = आग। करहि = करते हैं। अगला = बहुत। मंनिऐ = अगर मान लें।
अर्थ: (इस ‘वेकी सृष्टि’ में, प्रभु ने) कई जीवों को सतिगुरु की मति दे के अपनी महिमा में लगाया हुआ है, कई जीवों को सदा कायम रहने वाले हरि ने अपना सदा-स्थिर रहने वाला ‘नाम’ बख्शा हुआ है।
हवा, पानी, आग (आदि तत्व भी) उसके हुक्म में चल के उसकी भक्ति कर रहे हैं, इन (तत्वों) को उस मालिक का बड़ा भय रहता है (सो, जगत का क्या आश्चर्य) सम्पूर्ण संरचना बनी हुई है, हर जगह प्रभु का ही हुक्म चल रहा है। (प्रभु के हुक्म को) मानने (भाव, हुक्म में चलने से ही) सुख पाया जा सकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ कबीर कसउटी राम की झूठा टिकै न कोइ ॥ राम कसउटी सो सहै जो मरजीवा होइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ कबीर कसउटी राम की झूठा टिकै न कोइ ॥ राम कसउटी सो सहै जो मरजीवा होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कसउटी = कसवटी, वह छोटा सा पत्थर जिस पर साने को कस लगाई जाती है, परख। मरजीवा = जो मनुष्य दुनिया के चस्कों की ओर से मर के रब की ओर जी उठा है।
अर्थ: हे कबीर! परमात्मा की कसवटी (ऐसा निखेड़ा करने वाली है कि इस) पर झूठा मनुष्य पूरा नहीं उतर सकता; परमात्मा की परख पर वही पूरा उतरता है जो दुनिया की तरफ से मर के ईश्वर के लिए जीता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ किउ करि इहु मनु मारीऐ किउ करि मिरतकु होइ ॥ कहिआ सबदु न मानई हउमै छडै न कोइ ॥ गुर परसादी हउमै छुटै जीवन मुकतु सो होइ ॥ नानक जिस नो बखसे तिसु मिलै तिसु बिघनु न लागै कोइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ किउ करि इहु मनु मारीऐ किउ करि मिरतकु होइ ॥ कहिआ सबदु न मानई हउमै छडै न कोइ ॥ गुर परसादी हउमै छुटै जीवन मुकतु सो होइ ॥ नानक जिस नो बखसे तिसु मिलै तिसु बिघनु न लागै कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिरतकु = मुर्दा, दुनिया के चस्को से हटा हुआ। न मानई = नहीं मानता। जीवन मुकतु = जगत में जीता हुआ माया के बंधनो से आजाद। बिघनु = रुकावट।
अर्थ: कैसे इस मन को मारे? कैसे ये मन दुनियावी चस्कों से हटे? कोई भी मनुष्य कहने से (भाव, समझाने से) ना गुरु के शब्द को मानता है और ना अहंकार छोड़ता है।
सतिगुरु की मेहर से अहंकार दूर होता है। (जिसका अहंकार नाश हो जाता है) वह मनुष्य जगत में रहता हुआ जगत के चस्कों से दूर रहता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है उसको (जीवन मुक्ति का दर्जा) प्राप्त हो जाता है और (उसके जिंदगी के सफर में मायावी रसों के कारण) कोई रुकावट नहीं आती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ जीवत मरणा सभु को कहै जीवन मुकति किउ होइ ॥ भै का संजमु जे करे दारू भाउ लाएइ ॥ अनदिनु गुण गावै सुख सहजे बिखु भवजलु नामि तरेइ ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥३॥
मूलम्
मः ३ ॥ जीवत मरणा सभु को कहै जीवन मुकति किउ होइ ॥ भै का संजमु जे करे दारू भाउ लाएइ ॥ अनदिनु गुण गावै सुख सहजे बिखु भवजलु नामि तरेइ ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हर कोई, हरेक मनुष्य। संजमु = परहेज। दारू = दवाई। नामि = नाम के द्वारा।
अर्थ: (जगत में) जीते हुए (जगत की ओर से) मरने की बातें हर कोई करता है, पर ये ‘जीवन मुक्ति’ (की अवस्था) प्राप्त कैसे हो?
अगर मनुष्य (दुनिया के चस्कों का ये जहर दूर करने के लिए) परमात्मा का प्यार (-रूप) दवा प्रयोग करे और प्रभु का डर परहेज बन जाए (भाव, ज्यों-ज्यों मनुष्य ये डर दिल में रखेगा कि प्रभु हर वक्त अंग-संग है उससे कुछ भी छुप नहीं सकता) और हर रोज नित्य आनंद के साथ अडोलता में टिक के प्रभु के गुण गाए तो प्रभु के नाम से वह इस विष-रूप संसार-समुंदर को तैर जाता है।
हे नानक! जिस पर प्रभु मेहर की नजर करता है उसको ये (जीवन-मुक्ति की अवस्था) सतिगुरु के द्वारा ही मिलती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ दूजा भाउ रचाइओनु त्रै गुण वरतारा ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु उपाइअनु हुकमि कमावनि कारा ॥ पंडित पड़दे जोतकी ना बूझहि बीचारा ॥ सभु किछु तेरा खेलु है सचु सिरजणहारा ॥ जिसु भावै तिसु बखसि लैहि सचि सबदि समाई ॥४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ दूजा भाउ रचाइओनु त्रै गुण वरतारा ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु उपाइअनु हुकमि कमावनि कारा ॥ पंडित पड़दे जोतकी ना बूझहि बीचारा ॥ सभु किछु तेरा खेलु है सचु सिरजणहारा ॥ जिसु भावै तिसु बखसि लैहि सचि सबदि समाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजा भाउ = (परमात्मा के बिना) और प्यार। रचाइओनु = रचाया उसने। उपाइओनु = उपाए उसने (दूसरी पौड़ी में देखें शब्द ‘उपाइअनु’, ये फर्क समझने के लिए पढ़ें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। जोतकी = ज्योतिषी। बखसि लैहि = तू बख्श लेता है। सचि = सच में।
अर्थ: (जीवों का) माया से प्यार और माया के तीन गुणों का प्रभाव (वरतारा) भी उस विधाता ने (स्वयं ही) पैदा किए हैं, (तीन गुणों से तीनों देवते) ब्रह्मा, विष्णू और शिव उसने (स्वयं ही) पैदा किए हैं, (ये त्रैदेव) उसके हुक्म में ही काम कर रहे हैं। ज्योतिषी (आदि) विद्वान लोग (विचार वाली पुस्तकें) पढ़ते हैं पर (प्रभु के इस करिश्मे की) विचार को नहीं समझते।
(हे प्रभु!) (यह जगत रचना) सारा ही तेरा (एक) खेल है, तू (इस खेल को) बनाने वाला है और सदा कायम रहने वाला है। जो तुझे भाता है उस पर (तू) बख्शिश करता है और वह गुरु के शब्द के द्वारा तेरे सच्चे स्वरूप में टिका रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ मन का झूठा झूठु कमावै ॥ माइआ नो फिरै तपा सदावै ॥ भरमे भूला सभि तीरथ गहै ॥ ओहु तपा कैसे परम गति लहै ॥ गुर परसादी को सचु कमावै ॥ नानक सो तपा मोखंतरु पावै ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ मन का झूठा झूठु कमावै ॥ माइआ नो फिरै तपा सदावै ॥ भरमे भूला सभि तीरथ गहै ॥ ओहु तपा कैसे परम गति लहै ॥ गुर परसादी को सचु कमावै ॥ नानक सो तपा मोखंतरु पावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माइआ नो = माया की खातिर। गहै = पकड़ता है। परम = सबसे ऊँची। गति = आत्मिक अवस्था। मोखंतरु = मोक्ष+अंतरु, अंदरूनी मुक्ति।
अर्थ: (जो मनुष्य वैसे तो) माया की खातिर फिरता है (पर अपने आप को) तपा (तपस्वी) कहलवाता है, मन का झूठा है (भाव, मन में झूठ है, तप के उलट भाव हैं) और झूठ कमाता है (भाव, बाहर से देखने में तपस्वी है पर कर्म उसके उलट हैं), (अपने आप को तपा समझने के) भुलेखे में भूला हुआ सारे तीथों में भटकता है, ऐसा तपस्वी उच्च आत्मिक अवस्था कैसे प्राप्त करे?
हे नानक! जो तपस्वी गुरु की कृपा से सच कमाता है (भाव, प्रभु के अस्तित्व को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाता है) वह अंदरूनी मुक्ति प्राप्त करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सो तपा जि इहु तपु घाले ॥ सतिगुर नो मिलै सबदु समाले ॥ सतिगुर की सेवा इहु तपु परवाणु ॥ नानक सो तपा दरगहि पावै माणु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ सो तपा जि इहु तपु घाले ॥ सतिगुर नो मिलै सबदु समाले ॥ सतिगुर की सेवा इहु तपु परवाणु ॥ नानक सो तपा दरगहि पावै माणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु को मिलता है (गुरु की शरण पड़ता है) और गुरु का शब्द (हृदय में) संभाल के रखता है, जो मनुष्य ये तप कमाता है वह (असल) तपस्वी है।
सतिगुरु की (बताई हुई) कार करनी- ये तप (प्रभु की नजरों में) स्वीकार है; हे नानक! ये तप करने वाला तपा प्रभु की हजूरी में आदर पाता है।2।
[[0949]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ राति दिनसु उपाइअनु संसार की वरतणि ॥ गुरमती घटि चानणा आनेरु बिनासणि ॥ हुकमे ही सभ साजीअनु रविआ सभ वणि त्रिणि ॥ सभु किछु आपे आपि है गुरमुखि सदा हरि भणि ॥ सबदे ही सोझी पई सचै आपि बुझाई ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ राति दिनसु उपाइअनु संसार की वरतणि ॥ गुरमती घटि चानणा आनेरु बिनासणि ॥ हुकमे ही सभ साजीअनु रविआ सभ वणि त्रिणि ॥ सभु किछु आपे आपि है गुरमुखि सदा हरि भणि ॥ सबदे ही सोझी पई सचै आपि बुझाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतणि = बर्ताव व्यवहार के लिए। घटि = हृदय में। बिनासणि = नाश करने के लिए। सभ = सारी सृष्टि। वणि = वन में। त्रिणि = तृण में। सचै = सच्चे ने।
अर्थ: (इस ‘वेकी सृष्टि’ में) संसार के बर्ताव-व्यवहार के लिए उस (प्रभु ने) रात और दिन पैदा किए हैं; (जीवों के दिलों में) अंधेरा (जो उसने स्वयं ही बनाया है) दूर करने के लिए सतिगुरु की मति के द्वारा (मनुष्य के) हृदय में रौशनी (भी वह खुद ही पैदा करने वाला है)।
सारी सृष्टि उसने अपने हुक्म में ही रची है और वह हरेक वन में तृण में खुद ही मौजूद है, (जो कुछ बना हुआ है वह) सब कुछ स्वयं ही स्वयं है, गुरु के हुक्म में चल के सदा उस प्रभु को स्मरण किया जा सकता है।
गुरु के शब्द के द्वारा ही (जीव को) सूझ पड़ती है, प्रभु स्वयं समझ देता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ अभिआगत एहि न आखीअनि जिन के चित महि भरमु ॥ तिस दै दितै नानका तेहो जेहा धरमु ॥ अभै निरंजनु परम पदु ता का भूखा होइ ॥ तिस का भोजनु नानका विरला पाए कोइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ अभिआगत एहि न आखीअनि जिन के चित महि भरमु ॥ तिस दै दितै नानका तेहो जेहा धरमु ॥ अभै निरंजनु परम पदु ता का भूखा होइ ॥ तिस का भोजनु नानका विरला पाए कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभिआगत = (संस्कृत: अभ्यागत, a guest, a visitor, प्राहुणा, मेहमान, परदेसी) अनजान बंदा, फकीर, भिखारी, जरूरतमंद, परदेसी। भरमु = भटकना। एहि = ऐसा मनुष्य। आखीअनि = कहे जाते हैं (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। धरमु = पुण्य। अभै = भय से रहित। भूखा = जरूरतमंद। पाए = देता है।
अर्थ: जिस मनुष्यों के मन में भटकना हो (भाव, जो दर-दर पर भटक के रोटियाँ आटा माँगते फिरें) उनको ‘अभ्यागत’ नहीं कहते; हे नानक! ऐसे व्यक्ति को देने से पुण्य भी ऐसा ही होता है (भाव, कोई पुण्य-कर्म नहीं)।
सबसे ऊँचा दर्जा है निर्भय और माया-रहित प्रभु को मिलना। जो मनुष्य इस ‘परम पद’ का अभिलाषी है, हे नानक! उसकी आवश्यक खुराक कोई विरला सख्श ही देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ अभिआगत एहि न आखीअनि जि पर घरि भोजनु करेनि ॥ उदरै कारणि आपणे बहले भेख करेनि ॥ अभिआगत सेई नानका जि आतम गउणु करेनि ॥ भालि लहनि सहु आपणा निज घरि रहणु करेनि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ अभिआगत एहि न आखीअनि जि पर घरि भोजनु करेनि ॥ उदरै कारणि आपणे बहले भेख करेनि ॥ अभिआगत सेई नानका जि आतम गउणु करेनि ॥ भालि लहनि सहु आपणा निज घरि रहणु करेनि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करेनि = करते हैं (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। उदर = पेट। बहले = कई। गउणु = सैर। लहनि = लेते हैं। रहणु = निवास।
अर्थ: जो मनुष्य पराए घर में रोटी खाते हैं और अपना पेट भरने की खातिर कई भेस करते हैं, उनको अभ्यागत (साधु) नहीं कहा जाता।
हे नानक! ‘अभ्यागत’ वही हैं जो आत्मिक मण्डल की सैर करते हैं, अपने असल घर (प्रभु) में निवास रखते हैं और अपने पति-प्रभु को पा लेते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अ्मबरु धरति विछोड़िअनु विचि सचा असराउ ॥ घरु दरु सभो सचु है जिसु विचि सचा नाउ ॥ सभु सचा हुकमु वरतदा गुरमुखि सचि समाउ ॥ सचा आपि तखतु सचा बहि सचा करे निआउ ॥ सभु सचो सचु वरतदा गुरमुखि अलखु लखाई ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अ्मबरु धरति विछोड़िअनु विचि सचा असराउ ॥ घरु दरु सभो सचु है जिसु विचि सचा नाउ ॥ सभु सचा हुकमु वरतदा गुरमुखि सचि समाउ ॥ सचा आपि तखतु सचा बहि सचा करे निआउ ॥ सभु सचो सचु वरतदा गुरमुखि अलखु लखाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंबरु = आकाश। विछोड़िअनु = विछोड़े हैं उस (प्रभु) ने। सचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। असराउ = असराज, स्वराज, अपना हुक्म। सचि = सच्चे में। सभु = सब जगह। अलखु = जिसका कोई खास चिन्ह लक्षण नहीं।
अर्थ: (इस ‘वेकी सृष्टि’ में) आकाश और धरती उस प्रभु ने खुद ही अलग-अलग किए हैं, और इनके अंदर वह सदा स्थिर प्रभु अपना हुक्म चला रहा है; (इस सृष्टि में) हरेक घर हरेक दर सदा-स्थिर प्रभु (का ठिकाना) है क्योंकि इसमें (हर जगह) सच्चा ‘नाम’ मौजूद है। हर जगह (प्रभु का) सदा कायम रहने वाला हुक्म चल रहा है, गुरु के हुक्म में चल के उस सदा-स्थिर प्रभु में लीनता होती है।
प्रभु स्वयं सदा एक-रस रहने वाला है, (जगत-रूप उसका) तख्त (भी) (उसी का स्वरूप) सच्चा है, (इस तख़्त पर) बैठ के वह अटल न्याय कर रहा है। हर जगह वही सच्चा निर्मल प्रभु मौजूद है, (पर) वह अलख प्रभु लखा तभी जा सकता है अगर सतिगुरु के सन्मुख हों (घर-घाट को त्याग के नहीं)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ३ ॥ रैणाइर माहि अनंतु है कूड़ी आवै जाइ ॥ भाणै चलै आपणै बहुती लहै सजाइ ॥ रैणाइर महि सभु किछु है करमी पलै पाइ ॥ नानक नउ निधि पाईऐ जे चलै तिसै रजाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ३ ॥ रैणाइर माहि अनंतु है कूड़ी आवै जाइ ॥ भाणै चलै आपणै बहुती लहै सजाइ ॥ रैणाइर महि सभु किछु है करमी पलै पाइ ॥ नानक नउ निधि पाईऐ जे चलै तिसै रजाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणाइर = (सं: रय+नार। रय = नदी का बहाव। नार = नीर, जल) नदियों का सारा जल, समुंदर। कूड़ी = झूठ (नाशवान पदार्थों) में लगी हुई। करमी = मेहर से। नउनिधि = नौ खजाने (प्रभु का नाम जो, मानो, सृष्टि के नौ खजाने हैं)।
अर्थ: (इस संसार-) समुंदर में बेअंत प्रभु स्वयं बस रहा है, पर (उस ‘अनंत’ को छोड़ के) नाशवान पदार्थों में लगी हुई जिंद पैदा होती-मरती रहती है।
जो मनुष्य अपनी मर्जी के अनुसार चलता है उसको बहुत दुख प्राप्त होता है (क्योंकि वह ‘अनंत’ को छोड़ के नाशवान पदार्थों के पीछे दौड़ता है); सब कुछ इस सागर में मौजूद है, पर प्रभु की मेहर से मिलता है। हे नानक! मनुष्य को सारे ही नौ खजाने मिल जाते हैं अगर मनुष्य (इस सागर में व्यापक प्रभु की) रजा में चले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ सहजे सतिगुरु न सेविओ विचि हउमै जनमि बिनासु ॥ रसना हरि रसु न चखिओ कमलु न होइओ परगासु ॥ बिखु खाधी मनमुखु मुआ माइआ मोहि विणासु ॥ इकसु हरि के नाम विणु ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वासु ॥ जा आपे नदरि करे प्रभु सचा ता होवै दासनि दासु ॥ ता अनदिनु सेवा करे सतिगुरू की कबहि न छोडै पासु ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतो वरतै तिउ विचे गिरह उदासु ॥ जन नानक करे कराइआ सभु को जिउ भावै तिव हरि गुणतासु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ सहजे सतिगुरु न सेविओ विचि हउमै जनमि बिनासु ॥ रसना हरि रसु न चखिओ कमलु न होइओ परगासु ॥ बिखु खाधी मनमुखु मुआ माइआ मोहि विणासु ॥ इकसु हरि के नाम विणु ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वासु ॥ जा आपे नदरि करे प्रभु सचा ता होवै दासनि दासु ॥ ता अनदिनु सेवा करे सतिगुरू की कबहि न छोडै पासु ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतो वरतै तिउ विचे गिरह उदासु ॥ जन नानक करे कराइआ सभु को जिउ भावै तिव हरि गुणतासु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजे = सहज अवस्था में, अडोलता में, सिदक श्रद्धा से। जनमि = जनम के, पैदा हो के। रसना = जीभ (से)। परगासु = खिलाव। मोहि = मोह में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। वासु = बसेवा, वासा। दासनि दासु = दासों का दास। अनदिनु = हर रोज, नित्य। पासु = पासा, साथ। अलिपतो = अलिप्त, निर्लिप, निराला। गिरहु = गृहस्थ। गुणतासु = गुणों का खजाना।
अर्थ: जो मनुष्य सिदक-श्रद्धा से सतिगुरु के हुक्म में नहीं चला, वह अहंकार में (रह के) (जगत में) जनम ले के (जीवन) वयर्थ गवा गया; जिसने जीभ से प्रभु के नाम का आनंद नहीं लिया उसका हृदय-रूप कमल पुष्प नहीं खिला।
अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (विकारों की) विष खाता रहा, (असल जीवन की ओर से) मरा ही रहा और माया के मोह में उसकी जिंदगी तबाह हो गई। एक प्रभु का नाम स्मरण बिना (जगत में) जीना-बसना धिक्कारयोग्य है।
जब सच्चा प्रभु स्वयं ही मेहर की नजर करता है तो मनुष्य (प्रभु के) सेवकों का सेवक बन जाता है, नित्य सतिगुरु के हुक्म में चलता है, कभी गुरु का पल्ला नहीं छोड़ता, (फिर) वह गृहस्थ में रहता हुआ भी ऐसे उपराम सा रहता है जैसे पानी में (उगा हुआ) कमल-फूल (पानी के असर से) बचा रहता है।
हे दास नानक! जैसे गुणों के खजाने परमात्मा को अच्छा लगता है वैसे हरेक जीव उसका कराया हुआ (जो वह करवाना चाहता है) ही करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ छतीह जुग गुबारु सा आपे गणत कीनी ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपि मति दीनी ॥ सिम्रिति सासत साजिअनु पाप पुंन गणत गणीनी ॥ जिसु बुझाए सो बुझसी सचै सबदि पतीनी ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे बखसि मिलाई ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ छतीह जुग गुबारु सा आपे गणत कीनी ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपि मति दीनी ॥ सिम्रिति सासत साजिअनु पाप पुंन गणत गणीनी ॥ जिसु बुझाए सो बुझसी सचै सबदि पतीनी ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे बखसि मिलाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छतीह जुग = (भाव,) कई जुग, बहुत सारा समय। गुबारु = अंधेरा (भाव, उस समय की हालत का कोई बयान नहीं किया जा सकता)। सा = थी। गणत = विचार, सृष्टि रचने का ख्याल।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘साजीअनु’ और ‘साजिअनु’ में फर्क समझने के लिए पढ़ें ‘गुरबाणी व्याकरण’।
दर्पण-भाषार्थ
गणत = लेखा, विचार, निर्णय। पतीनी = पतीजता। सभु = हर जगह, हरेक कार्य में।
अर्थ: (पहले जब प्रभु निर्गुण रूप में थे तब) कई युगों तक (बहुत समय) अंधकार था (अर्थात, तब क्या स्वरूप था- ये बात बताई नहीं जा सकती), (फिर सरगुण रूप रच के) उसने स्वयं ही (जगत-रचना की) विचार की; उस (प्रभु) ने स्वयं ही सृष्टि पैदा की और स्वयं ही (जीवों को) बुद्धि दी; (इस तरह मनुष्य) बुद्धिवानों के द्वारा उसने स्वयं ही स्मृतियाँ और शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकें) बनाए, (उनमें) पाप और पुण्य का निखेड़ा किया (भाव, बताया कि ‘पाप’ क्या है और ‘पुण्य’ क्या है)।
जिस मनुष्य को (ये सारा राज़) समझाता है वही समझता है, उस मनुष्य का मन गुरु के सच्चे शब्द में श्रद्धा धार लेता है। हरेक कार्य में प्रभु स्वयं ही स्वयं मौजूद है, स्वयं ही मेहर करके (जीव को अपने में) मिलाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ इहु तनु सभो रतु है रतु बिनु तंनु न होइ ॥ जो सहि रते आपणै तिन तनि लोभ रतु न होइ ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभ रतु विचहु जाइ ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ ॥ नानक ते जन सोहणे जो रते हरि रंगु लाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ इहु तनु सभो रतु है रतु बिनु तंनु न होइ ॥ जो सहि रते आपणै तिन तनि लोभ रतु न होइ ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभ रतु विचहु जाइ ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ ॥ नानक ते जन सोहणे जो रते हरि रंगु लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतु = लहू। रतु बिनु = लहू के बिना।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘संबंधक’ के साथ भी शब्द ‘रतु’ की ‘ु’ मात्रा टिकी रही, इसको समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।
दर्पण-भाषार्थ
तंनु = शरीर। आपणे सहि = अपने पति में। तनि = शरीर में। भै पइऐ = अगर भय में रहें। खीणु = क्षीण, नर्म दिल हो जाता है और पराया हक नहीं छेड़ता। बैसंतरि = आग में। रंगु = प्यार।
अर्थ: ये सारा शरीर लहू है (भाव, सारे शरीर में लहू मौजूद है), लहू के बिना शरीर रह नहीं सकता (फिर शरीर को चीरने से, अर्थात शरीर की पड़ताल करने से कौन सा लहू नहीं निकलता?) जो बंदे अपने पति (-प्रभु के प्यार) में रंगे हुए हैं उनके शरीर में लालच का लहू नहीं होता।
अगर (परमात्मा के) डर में जीएं तो शरीर (इस तरह) क्षीण हो जाता है (कि) इसमें से लोभ का लहू निकल जाता है। जैसे आग में (डालने पर सोना आदि) धातु साफ हो जाती है, इसी तरह परमात्मा का डर (मनुष्य की) दुर्मति की मैल को काट देता है। हे नानक! वह लोग सुंदर हैं जो परमात्मा के साथ प्रेम जोड़ के (उसके प्रेम में) रंगे हुए हैं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये श्लोक गुरु अमरदास जी ने फरीद जी के एक श्लोक की व्याख्या के लिए उचारा था; देखें फरीद जी के शलोक नं: 51, 52।
[[0950]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ रामकली रामु मनि वसिआ ता बनिआ सीगारु ॥ गुर कै सबदि कमलु बिगसिआ ता सउपिआ भगति भंडारु ॥ भरमु गइआ ता जागिआ चूका अगिआन अंधारु ॥ तिस नो रूपु अति अगला जिसु हरि नालि पिआरु ॥ सदा रवै पिरु आपणा सोभावंती नारि ॥ मनमुखि सीगारु न जाणनी जासनि जनमु सभु हारि ॥ बिनु हरि भगती सीगारु करहि नित जमहि होइ खुआरु ॥ सैसारै विचि सोभ न पाइनी अगै जि करे सु जाणै करतारु ॥ नानक सचा एकु है दुहु विचि है संसारु ॥ चंगै मंदै आपि लाइअनु सो करनि जि आपि कराए करतारु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ रामकली रामु मनि वसिआ ता बनिआ सीगारु ॥ गुर कै सबदि कमलु बिगसिआ ता सउपिआ भगति भंडारु ॥ भरमु गइआ ता जागिआ चूका अगिआन अंधारु ॥ तिस नो रूपु अति अगला जिसु हरि नालि पिआरु ॥ सदा रवै पिरु आपणा सोभावंती नारि ॥ मनमुखि सीगारु न जाणनी जासनि जनमु सभु हारि ॥ बिनु हरि भगती सीगारु करहि नित जमहि होइ खुआरु ॥ सैसारै विचि सोभ न पाइनी अगै जि करे सु जाणै करतारु ॥ नानक सचा एकु है दुहु विचि है संसारु ॥ चंगै मंदै आपि लाइअनु सो करनि जि आपि कराए करतारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। बनिआ = फब गया, सफल हुआ। भंडारु = खजाना। अगला = बहुत। रवै = भोगती है। जासनि = जाएंगे। हारि = हार के। होइ खुआरु = ख्वार हो के। पाइनी = पाते हैं। अगै = परलोक में। जि करे = जो कुछ (प्रभु) करता है। दुहु विचि = जनम मरण में। चंगै = अच्छे काम में। लाइअनु = लगाए हैं उसने।
अर्थ: रामकली (रागिनी) के माध्यम से अगर राम (जीव-स्त्री) के मन में बस जाए तब ही उसका (प्रभु-पति को मिलने के लिए किया हुआ उद्यम रूप) श्रृंगार सफल है। अगर सतिगुरु के शब्द के द्वारा हृदय-कमल खिल जाए तो ही भक्ति का खजाना मिलता है। अगर (गुरु-शब्द के द्वारा) मन की भटकना दूर हो जाए तो ही मन जागा हुआ (समझो, क्योंकि) अज्ञान का अंधकार समाप्त हो जाता है। जिस (जीव-स्त्री) का प्रभु (-पति) के साथ प्यार बन जाता है उस (की आत्मा) को बहुत सुंदर रूप चढ़ता है, वह शोभावंती (जीव-) स्त्री सदा अपने (प्रभु-) पति को सिमरती है।
मन के पीछे चलने वाली (जीव-सि्त्रयाँ प्रभु को प्रसन्न करने वाला) श्रृंगार करना नहीं जानतीं; वे सारा (मनुष्य-) जनम हार के जाएंगी; प्रभु (-पति) की भक्ति के बिना (और कर्म-धर्म आदि) शृंगार जो (जीव-सि्त्रयाँ) करती हैं वह नित्य ख्वार हो के पैदा होती हैं (भाव, जनम-मरण के चक्कर में पड़ती हैं और दुखी रहती हैं); ना तो उन्हें इस लोक में शोभा मिलती है और परलोक में जो उनके साथ बर्ताव होता हैं वह प्रभु ही जानता है।
हे नानक! (जनम-मरण से रहित) सदा कायम रहने वाला एक परमात्मा ही है, संसार (भाव, दुनियादार) जनम-मरण (के चक्कर) में है। अच्छे काम में और बुरे काम में (जीव) प्रभु ने स्वयं ही लगाए हुए हैं, जो कुछ कर्तार (उनसे) करवाता है वही वे करते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे सांति न आवई दूजी नाही जाइ ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ विणु करमा पाइआ न जाइ ॥ अंतरि लोभु विकारु है दूजै भाइ खुआइ ॥ तिन जमणु मरणु न चुकई हउमै विचि दुखु पाइ ॥ जिनी सतिगुर सिउ चितु लाइआ सो खाली कोई नाहि ॥ तिन जम की तलब न होवई ना ओइ दुख सहाहि ॥ नानक गुरमुखि उबरे सचै सबदि समाहि ॥३॥
मूलम्
मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे सांति न आवई दूजी नाही जाइ ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ विणु करमा पाइआ न जाइ ॥ अंतरि लोभु विकारु है दूजै भाइ खुआइ ॥ तिन जमणु मरणु न चुकई हउमै विचि दुखु पाइ ॥ जिनी सतिगुर सिउ चितु लाइआ सो खाली कोई नाहि ॥ तिन जम की तलब न होवई ना ओइ दुख सहाहि ॥ नानक गुरमुखि उबरे सचै सबदि समाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाइ = जगह। खुआइ = ख्वार होता है, दुखी होता है। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) किसी और से प्यार के कारण। तलब = सदा। ओइ = वह लोग।
अर्थ: सतिगुरु के हुक्म में चले बिना (मन को) शांति नहीं आती (और इस शांति के लिए गुरु के बिना) कोई (और) जगह नहीं; चाहे कितनी तमन्ना करें, भाग्यों के बिना (गुरु) मिलता भी नहीं (क्योंकि जितने समय तक मनुष्य के) अंदर लोभ -रूपी विकार है (तब तक वह प्रभु को छोड़ के) औरों के प्यार में ही भटकता फिरता है, (जिनका ये हाल है) उनका जनम-मरण का चक्कर समाप्त नहीं होता, उन्हें अहंकार में (ग्रसित हुओं को) दुख मिलता है।
जिस मनुष्यों ने सतिगुरु से मन लगाया है उनमें से कोई भी (प्यार से) सूने हृदय वाला नहीं है; उन्हें जम का बुलावा नहीं आता (भाव, उनको मौत से डर नहीं लगता) ना ही वे किसी तरह दुखी होते हैं। हे नानक! गुरु के हुक्म में चलने वाले लोग (‘जम की तलब’ से) बचे हुए हैं (क्योंकि) वे गुरु के शब्द द्वारा सच्चे प्रभु में लीन रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपि अलिपतु सदा रहै होरि धंधै सभि धावहि ॥ आपि निहचलु अचलु है होरि आवहि जावहि ॥ सदा सदा हरि धिआईऐ गुरमुखि सुखु पावहि ॥ निज घरि वासा पाईऐ सचि सिफति समावहि ॥ सचा गहिर ग्मभीरु है गुर सबदि बुझाई ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपि अलिपतु सदा रहै होरि धंधै सभि धावहि ॥ आपि निहचलु अचलु है होरि आवहि जावहि ॥ सदा सदा हरि धिआईऐ गुरमुखि सुखु पावहि ॥ निज घरि वासा पाईऐ सचि सिफति समावहि ॥ सचा गहिर ग्मभीरु है गुर सबदि बुझाई ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलिपतु = अलिप्त, निर्लिप, निराला। होरि = और सारे जीव। धंधै = दुनिया के झमेले में। धावहि = दौड़ते हैं। निहचलु = ना हिलने वाला, अटल। निज घरि = अपने असल घर में। सचि = सच्चे प्रभु में। गहिर गंभीरु = गहरा, अथाह।
अर्थ: (परमात्मा) स्वयं (माया के प्रभाव से) निराला रहता है, और सारे जीव (माया के) झमेले में भटक रहे हैं। प्रभु स्वयं सदा-स्थिर और अटल है, और जीव पैदा होते-मरते रहते हैं, (ऐसे प्रभु को) सदा स्मरणा चाहिए। (जो) गुरु के हुक्म में चल के (स्मरण करते हैं वे) सुख पाते हैं (गुरु के द्वारा प्रभु को स्मरण करके) अपने असल घर में जगह मिलती है, महिमा के द्वारा (गुरमुखि) सच्चे प्रभु में लीन रहते हैं।
प्रभु सदा कायम रहने वाला और अथाह है (ये बात वह स्वयं ही) सतिगुरु के शब्द द्वारा समझाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ सचा नामु धिआइ तू सभो वरतै सचु ॥ नानक हुकमै जो बुझै सो फलु पाए सचु ॥ कथनी बदनी करता फिरै हुकमु न बूझै सचु ॥ नानक हरि का भाणा मंने सो भगतु होइ विणु मंने कचु निकचु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ सचा नामु धिआइ तू सभो वरतै सचु ॥ नानक हुकमै जो बुझै सो फलु पाए सचु ॥ कथनी बदनी करता फिरै हुकमु न बूझै सचु ॥ नानक हरि का भाणा मंने सो भगतु होइ विणु मंने कचु निकचु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभो = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। सचु फलु = प्रभु की प्राप्ति रूपी फल। कथनी बदनी = मुँह की बातें। सचु = सदा कायम रहने वाला। कचु निकचु = बिल्कुल कच्चा, अल्हड़ मन वाला।
अर्थ: हे नानक! (उस प्रभु का) सदा-स्थिर रहने वाला नाम स्मरण कर जो हर जगह मौजूद है। जो मनुष्य प्रभु के हुक्म को समझता है (भाव, हुक्म में चलता है) वह प्रभु की प्राप्ति रूपी फल पाता है, (पर, जो मनुष्य सिर्फ) मुँह की बातें ही करता है वह अटल हुक्म को नहीं समझता। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा का हुक्म मानता है वह (असल) भक्त है। हुक्म माने बिना मनुष्य बिल्कुल कच्चा है (भाव, अल्लहड़ मन वाला है जो हर वक्त डोलता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणनी ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ ओइ थाउ कुथाउ न जाणनी उन अंतरि लोभु विकारु ॥ ओइ आपणै सुआइ आइ बहि गला करहि ओना मारे जमु जंदारु ॥ अगै दरगह लेखै मंगिऐ मारि खुआरु कीचहि कूड़िआर ॥ एह कूड़ै की मलु किउ उतरै कोई कढहु इहु वीचारु ॥ सतिगुरु मिलै ता नामु दिड़ाए सभि किलविख कटणहारु ॥ नामु जपे नामो आराधे तिसु जन कउ करहु सभि नमसकारु ॥ मलु कूड़ी नामि उतारीअनु जपि नामु होआ सचिआरु ॥ जन नानक जिस दे एहि चलत हहि सो जीवउ देवणहारु ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणनी ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ ओइ थाउ कुथाउ न जाणनी उन अंतरि लोभु विकारु ॥ ओइ आपणै सुआइ आइ बहि गला करहि ओना मारे जमु जंदारु ॥ अगै दरगह लेखै मंगिऐ मारि खुआरु कीचहि कूड़िआर ॥ एह कूड़ै की मलु किउ उतरै कोई कढहु इहु वीचारु ॥ सतिगुरु मिलै ता नामु दिड़ाए सभि किलविख कटणहारु ॥ नामु जपे नामो आराधे तिसु जन कउ करहु सभि नमसकारु ॥ मलु कूड़ी नामि उतारीअनु जपि नामु होआ सचिआरु ॥ जन नानक जिस दे एहि चलत हहि सो जीवउ देवणहारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थाउ कुथाउ = अच्छी बुरी जगह। उन अंतरि = उनके अंदर। सुआइ = स्वार्थ की खातिर। बहि = बैठ के। जंदारु = (फारसी: जंदाल) अवैड़ा, वहिशी, जालम। लेखै मंगीऐ = लेखा माँगे जाने पर।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पाठक शब्द ‘मंगीअै’ और ‘मंगिअै’ में फर्क को समझें)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीचहि = किए जाते हैं। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी। कूड़ै की = उस पदार्थ की जिसने साथ नहीं निभना। किउ = कैसे? कढहु = बताओ, ढूँढो। दिढ़ाए = दृढ़ कराता है। किलविख = पाप। सभि = सारे। नामि = नाम से। उतारीअनु = उतारी है उसने। सचिआरु = सच का वणजारा। हहि = हैं। जीवउ = (रब करके) जीओ (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं चुँकि उनके मन में काम-क्रोध और लोभ अहंकार प्रबल हैं वे ना ही जगह वगैरा समझते हैं और ना ही समय सिर सटीक बात करनी जानते हैं; (जहाँ भी) वह आ के बैठते हैं (सत्संग में आ के भी) अपने स्वार्थ के अनुसार ही बातें करते हैं, (सो हर वक्त) उन्हें भयानक जम मारता रहता है (भाव, हर वक्त आत्मिक मौत उन्हें दबा के रखती है); आगे प्रभु की हजूरी में लेखा माँगे जाने से वह झूठ के व्यापारी मार-मार के ख्वार किए जाते हैं
कोई मनुष्य ये विचार बताए कि यह झूठ की मैल (भाव, उन पदार्थों के मोह जो साथ नहीं निभने) कैसे दूर हो।
अगर सतिगुरु मिल जाए वह प्रभु का नाम (हृदय में) पक्का करके बैठा देता है (गुरु ये बात दृढ़ करा देता है कि) ‘नाम’ सारे पापों को काटने में समर्थ है। (सो, गुरु के सन्मुख हो के) जो मनुष्य नाम जपता है नाम ही स्मरण करता है उस मनुष्य को सारे सिर झुकाओ, झूठे पदार्थों (के मोह) की मैल उस मनुष्य ने प्रभु के नाम के द्वारा उतार ली है, नाम जप के वह सत्य का व्यापारी बन गया है।
हे दास नानक! (अरदास कर कि) जिस प्रभु के नाम में ये बरकतें हैं वह दाता जीता रहे (भाव, सदा हमारे सिर पर हाथ रखी रखे)।2।
[[0951]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तुधु जेवडु दाता नाहि किसु आखि सुणाईऐ ॥ गुर परसादी पाइ जिथहु हउमै जाईऐ ॥ रस कस सादा बाहरा सची वडिआईऐ ॥ जिस नो बखसे तिसु देइ आपि लए मिलाईऐ ॥ घट अंतरि अम्रितु रखिओनु गुरमुखि किसै पिआई ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तुधु जेवडु दाता नाहि किसु आखि सुणाईऐ ॥ गुर परसादी पाइ जिथहु हउमै जाईऐ ॥ रस कस सादा बाहरा सची वडिआईऐ ॥ जिस नो बखसे तिसु देइ आपि लए मिलाईऐ ॥ घट अंतरि अम्रितु रखिओनु गुरमुखि किसै पिआई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किसु = किसलिए? रस = रस छह किस्म के हैं (कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त, कषाय)। कस = कसैला रस। देइ = देता है। रखिओनु = रखा है उसने (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। पिआई = पिलाता है। जिथहु = (भाव) सतिगुरु से।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे जितना कोई दाता नहीं, किस की बाबत कह के बताएं (कि वह तेरे जितना दाता है)? (भावसब दातें तुझसे ही मिलती हैं, नाम-अमृत का दाता भी तू ही है)। (अमृत) सतिगुरु की कृपा से ही मिलता है, जहाँ से (भाव,? गुरु से ही) अहंकार नाश होता है, (नाम अमृत का दाता प्रभु) सारे रसों और स्वादों (के प्रभाव) से ऊपर है, उसकी प्रतिभा सदा कायम रहने वाली है। प्रभु जिस पर मेहर करता है उसको (अमृत) बख्शता है और उसको स्वयं ही (अपने में) जोड़ लेता है, (वैसे तो यह) अमृत उसने हरेक के हृदय में रखा हुआ है पर जिस किसी को मिलाता है गुरु के माध्यम से मिलाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ बाबाणीआ कहाणीआ पुत सपुत करेनि ॥ जि सतिगुर भावै सु मंनि लैनि सेई करम करेनि ॥ जाइ पुछहु सिम्रिति सासत बिआस सुक नारद बचन सभ स्रिसटि करेनि ॥ सचै लाए सचि लगे सदा सचु समालेनि ॥ नानक आए से परवाणु भए जि सगले कुल तारेनि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ बाबाणीआ कहाणीआ पुत सपुत करेनि ॥ जि सतिगुर भावै सु मंनि लैनि सेई करम करेनि ॥ जाइ पुछहु सिम्रिति सासत बिआस सुक नारद बचन सभ स्रिसटि करेनि ॥ सचै लाए सचि लगे सदा सचु समालेनि ॥ नानक आए से परवाणु भए जि सगले कुल तारेनि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबाणी = बाबे की। बाबाणीआ = बाबों की, बुजुर्गों की, सतिगुरु की। सपुत = सपुत्र। करेनि = बना देती हैं। बिआस = ये ‘पराशर’ ऋषि का पुत्र था, पहले इसका नाम ‘कृष्णद्वैपायन’ था क्योंकि इसका रंग काला (कृष्ण) था और ये द्वीप में पैदा हुआ था; पर बाद में इसका नाम ‘ब्यास’ पड़ गया। शब्द ‘व्यास’ का अर्थ है ‘तरतीब देने वाला’, इसके बारे में विचार है कि इस ऋषि ने वेदों को मौजूदा तरतीब दी थी (विव्यास वेदान् यस्मात्स: तस्माद् व्यास इति स्मृत:)। ‘महाभारत का कर्ता भी इसी ऋषि को बताया जाता है, अठारह पुराण, ब्रह्म सूत्र व अन्य कई पुस्तकें भी इसी की लिखी मानी जाती हैं। सात प्रसिद्ध ‘चिरचीवियों’ में से एक ये भी था। सुक = एक ऋषि का नाम है। नारद = (नरस्य धर्मो नारं तत् ददाति स नारद:) ब्रह्मा के दस पुत्रों में से एक था, उसकी जाँघ में से पैदा हुआ माना जाता है। इसकी बाबत ये माना जाता है कि ये देवताओं के संदेश मनुष्यों के पास और मनुष्यों के संदेश व आवश्यक्ताएं देवताओं के पास पहुँचाता था। देवताओं और मनुष्यों के बीच झगड़े डालने का इसको बड़ा शौक था; सो इसका नाम पड़ गया ‘कलिप्रिय’ (कलहप्रेमी)। ‘वीणा’ साज का जन्मदाता यही ऋषी माना जाता है। इसने एक ‘स्मृति’ भी लिखी थी। बचन = उपदेश। सचै = सदा स्थिर प्रभु ने। सचि = सच्चे में। सगले = सारे।
अर्थ: सतिगुरु की साखियाँ (सिख-) पुत्रों को (गुरमुख) पुत्र बना देती हैं; (गुरु-साखियों की इनायत से, गुरमुख सिख-पुत्र) उन बातों पर विश्वास करने लगते हैं और वह काम करते हैं जो सतिगुरु को भाते हैं। (अगर इस बात की तस्दीक करनी हो तो पुरातन धर्म-पुस्तक) स्मृतियाँ और शास्त्र (और पुरातन ऋषी) व्यास, सुक और नारद (आदि) को पूछ के देख लो (भाव, उनकी रचनाएं पढ़ के देख लो) जो सारी सृष्टि को (सांझा) उपदेश देते हैं।
जिनको सच्चे प्रभु ने (सतिगुरु के करिश्मों की याद में) लगाया, वह सच्चे प्रभु में (भी) जुड़े, वह सदा सच्चे प्रभु को (भी) याद रखते हैं। हे नानक! (वे सिर्फ स्वयं ही नहीं पार हुए, अपनी) सारी कुलों को भी पार लंघाते हैं, उनका ही जगत में आना स्वीकार है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ गुरू जिना का अंधुला सिख भी अंधे करम करेनि ॥ ओइ भाणै चलनि आपणै नित झूठो झूठु बोलेनि ॥ कूड़ु कुसतु कमावदे पर निंदा सदा करेनि ॥ ओइ आपि डुबे पर निंदका सगले कुल डोबेनि ॥ नानक जितु ओइ लाए तितु लगे उइ बपुड़े किआ करेनि ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ गुरू जिना का अंधुला सिख भी अंधे करम करेनि ॥ ओइ भाणै चलनि आपणै नित झूठो झूठु बोलेनि ॥ कूड़ु कुसतु कमावदे पर निंदा सदा करेनि ॥ ओइ आपि डुबे पर निंदका सगले कुल डोबेनि ॥ नानक जितु ओइ लाए तितु लगे उइ बपुड़े किआ करेनि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस में, जिस तरफ। तितु = उसी में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘डुोबेनि’ में अक्षर ‘ड’ के साथ (ु) मात्रा लगा के पढ़ना है, वैसे शब्द ‘डोबेनि’ है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस मनुष्यों का गुरु (खुद) अज्ञानी अंधा है वह सिख भी अंधे काम (भाव, बुरे काम) ही करते हैं; (अंधे गुरु के) वह (सिख) अपने मर्जी के पीछे लगते हैं, और सदा झूठ बोलते हैं; झूठ और ठगी कमाते हैं, सदा दूसरों की निंदा करते हैं; दूसरों की निंदा करने वाले वह मनुष्य खुद भी डूबते हैं और अपनी सारी कुलों को भी ग़रक करते हैं।
(पर) हे नानक! वह बिचारे करें भी क्या? जिधर उनको (प्रभु ने) लगाया है वे उधर ही लगे हुए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सभ नदरी अंदरि रखदा जेती सिसटि सभ कीती ॥ इकि कूड़ि कुसति लाइअनु मनमुख विगूती ॥ गुरमुखि सदा धिआईऐ अंदरि हरि प्रीती ॥ जिन कउ पोतै पुंनु है तिन्ह वाति सिपीती ॥ नानक नामु धिआईऐ सचु सिफति सनाई ॥१०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सभ नदरी अंदरि रखदा जेती सिसटि सभ कीती ॥ इकि कूड़ि कुसति लाइअनु मनमुख विगूती ॥ गुरमुखि सदा धिआईऐ अंदरि हरि प्रीती ॥ जिन कउ पोतै पुंनु है तिन्ह वाति सिपीती ॥ नानक नामु धिआईऐ सचु सिफति सनाई ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई जीव। कूड़ि = झूठ में। कुसति = कुसत्य में। लाइअनु = लगाए हैं उसने। पोतै = पल्ले में, कपड़े में। वाति = (वात में), मुँह में। तिन्ह = तिन्ह। सिपीती = सिफति। सनाई = (अरबी = स्ना) बड़ाई, उपमा।
अर्थ: (प्रभु ने) जितनी सृष्टि पैदा की है, उस सारी को अपनी नजर तले रखता है, उसने कई जीवों को झूठ और ठगी में लगा रखा है, वह जीव अपने मन के पीछे चल के ख्वार हो रहे हैं। जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलते हैं वे सदा प्रभु का ध्यान धरते हैं क्योंकि उनके हृदय में प्रभु की प्रीति है। जिनके पल्ले (कोई पिछली की हुई) भलाई है उनके मुँह में (प्रभु की) महिमा टिकी रहती है। हे नानक! नाम ही स्मरणा चाहिए। परमातमा की महिमा ही सदा कायम रहने वाली चीज है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ सती पापु करि सतु कमाहि ॥ गुर दीखिआ घरि देवण जाहि ॥ इसतरी पुरखै खटिऐ भाउ ॥ भावै आवउ भावै जाउ ॥ सासतु बेदु न मानै कोइ ॥ आपो आपै पूजा होइ ॥ काजी होइ कै बहै निआइ ॥ फेरे तसबी करे खुदाइ ॥ वढी लै कै हकु गवाए ॥ जे को पुछै ता पड़ि सुणाए ॥ तुरक मंत्रु कनि रिदै समाहि ॥ लोक मुहावहि चाड़ी खाहि ॥ चउका दे कै सुचा होइ ॥ ऐसा हिंदू वेखहु कोइ ॥ जोगी गिरही जटा बिभूत ॥ आगै पाछै रोवहि पूत ॥ जोगु न पाइआ जुगति गवाई ॥ कितु कारणि सिरि छाई पाई ॥ नानक कलि का एहु परवाणु ॥ आपे आखणु आपे जाणु ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ सती पापु करि सतु कमाहि ॥ गुर दीखिआ घरि देवण जाहि ॥ इसतरी पुरखै खटिऐ भाउ ॥ भावै आवउ भावै जाउ ॥ सासतु बेदु न मानै कोइ ॥ आपो आपै पूजा होइ ॥ काजी होइ कै बहै निआइ ॥ फेरे तसबी करे खुदाइ ॥ वढी लै कै हकु गवाए ॥ जे को पुछै ता पड़ि सुणाए ॥ तुरक मंत्रु कनि रिदै समाहि ॥ लोक मुहावहि चाड़ी खाहि ॥ चउका दे कै सुचा होइ ॥ ऐसा हिंदू वेखहु कोइ ॥ जोगी गिरही जटा बिभूत ॥ आगै पाछै रोवहि पूत ॥ जोगु न पाइआ जुगति गवाई ॥ कितु कारणि सिरि छाई पाई ॥ नानक कलि का एहु परवाणु ॥ आपे आखणु आपे जाणु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सती = (Virtuous men) धरमी लोग। सतु = सद् आचरण, धर्म। गुर जाहि = गुरु जाते हैं। घरि = (चेलों के) घर में। दीखिआ = शिक्षा। पुरखै भाउ = पति का प्यार, पति से प्यार। आपो आपै पूजा = अपने-अपने गरज की पूजा। निआइ = न्याय करने के लिए। तुरक मंत्रु = तुर्क (हाकिम) का मंत्र। कनि = कान में। समाहि = टिका के रखते हैं। मुहावहि = लुटाते हैं। चाड़ी = चुग़ली। गिरही = गृहस्थी। बिभूत = राख। सिरि = सिर पर। छाई = राख। परवाणु = माप, प्रभाव। आखणु = कहने वाला, चौधरी। जाणु = जानने वाला, कद्र करने वाला, बड़ाई करने वाला।
अर्थ: जो मनुष्य अपने आप को धर्मी (भाव, सदाचारी) कहलवाते हैं वे (छुप के) विकार करके भी (बाहर) जाहिर यही करते हैं कि धर्म कमा रहे हैं। (अपने आप को) गुरु (कहलवाने वाले) (माया की खातिर) चेलों के घर में शिक्षा देने जाते हैं।
(कहलवाती पतिव्रता है पर) स्त्री का अपने पति के साथ प्यार तभी है जब वह कमा के लाए (वरना) पति चाहे घर आए चाहे चला जाए (स्त्री परवाह नहीं करती)।
(ब्राह्मण का हाल देखो, अपने) कोई भी वेद-शास्त्र नहीं मान रहा, अपनी-अपनी मतलब की ही पूजा हो रही है।
काज़ी बन के (दूसरों का) न्याय करने बैठता है, तसब्बी फेरता है खुदा खुदा कहता है, (पर न्याय करने के वक्त) रिश्वत ले के (दूसरे का) हक मारता है, अगर कोई (उसके इस काम पर) ऐतराज़ करे तो (कोई ना कोई शरा की बात) पढ़ के सुना देता है
(हिन्दू आगुओं का हाल देखो, अपने) कान और हृदय में (तो) तुर्क (हाकिमों) का हुक्म टिकाए रखते हैं, लोगों को लुटवाते हैं उनकी चुगली (हाकिमों के पास) करते हैं, पर देखो ऐसे हिन्दू की ओर (सिर्फ) चौका दे के ही स्वच्छ बना फिरता है।
जोगी ने बालों की जटा रखी हुई हैं, राख भी मली हुई है, पर है गृहस्थी, उसके आगे-पीछे बच्चे रोते-फिरते हैं, जोग-मार्ग भी नहीं मिला और जीने की जुगति भी गवा बैठे हैं। सिर पर राख उसने किस लिए डाली है?
हे नानक! ये है कलियुग का प्रभाव कि कलिजुग खुद ही (भाव, विवाद वाला स्वभाव वाला आदमी खुद ही) चौधरी है और खुद ही अपनी करतूत की महिमा करने वाला है।1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इस शलोक में उन लोगों की हालत को बयान किया गया है जो अपने आप को धर्मी कहलवाते हैं, पर अंदर से जीवन घटिया है)।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ हिंदू कै घरि हिंदू आवै ॥ सूतु जनेऊ पड़ि गलि पावै ॥ सूतु पाइ करे बुरिआई ॥ नाता धोता थाइ न पाई ॥ मुसलमानु करे वडिआई ॥ विणु गुर पीरै को थाइ न पाई ॥ राहु दसाइ ओथै को जाइ ॥ करणी बाझहु भिसति न पाइ ॥ जोगी कै घरि जुगति दसाई ॥ तितु कारणि कनि मुंद्रा पाई ॥ मुंद्रा पाइ फिरै संसारि ॥ जिथै किथै सिरजणहारु ॥ जेते जीअ तेते वाटाऊ ॥ चीरी आई ढिल न काऊ ॥ एथै जाणै सु जाइ सिञाणै ॥ होरु फकड़ु हिंदू मुसलमाणै ॥ सभना का दरि लेखा होइ ॥ करणी बाझहु तरै न कोइ ॥ सचो सचु वखाणै कोइ ॥ नानक अगै पुछ न होइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ हिंदू कै घरि हिंदू आवै ॥ सूतु जनेऊ पड़ि गलि पावै ॥ सूतु पाइ करे बुरिआई ॥ नाता धोता थाइ न पाई ॥ मुसलमानु करे वडिआई ॥ विणु गुर पीरै को थाइ न पाई ॥ राहु दसाइ ओथै को जाइ ॥ करणी बाझहु भिसति न पाइ ॥ जोगी कै घरि जुगति दसाई ॥ तितु कारणि कनि मुंद्रा पाई ॥ मुंद्रा पाइ फिरै संसारि ॥ जिथै किथै सिरजणहारु ॥ जेते जीअ तेते वाटाऊ ॥ चीरी आई ढिल न काऊ ॥ एथै जाणै सु जाइ सिञाणै ॥ होरु फकड़ु हिंदू मुसलमाणै ॥ सभना का दरि लेखा होइ ॥ करणी बाझहु तरै न कोइ ॥ सचो सचु वखाणै कोइ ॥ नानक अगै पुछ न होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिंदू = (भाव) ब्राहमण। पढ़ि = (मंत्र आदि) पढ़ के। थाइ न पाई = स्वीकार नहीं होता। दसाइ = पूछता है। को = कोई विरला। करणी = अच्छा आचरण। भिसति = बहिश्त, स्वर्ग। दसाई = पूछता है। तितु कारणि = उस (‘जुगति’) की खातिर। संसारि = संसार में। जिथै किथै = हर जगह। वाटाऊ = मुसाफिर। चीरी = चिट्ठी, आमंत्रण। एथै = इस जीवन में। फकड़ु = फोकट, फोका दावा। दरि = प्रभु के दर पर। सचो सचु = केवल सच्चे प्रभु को। कोइ = अगर कोई।
अर्थ: (किसी खत्री आदि) हिन्दू के घर में ब्राहमण आता है और (मंत्र आदि) पढ़ के (उस खत्री के) गले में धागा जनेऊ डाल देता है; (ये मनुष्य जनेऊ पहन तो लेता है, पर) जनेऊ पहन के भी बुरे-कर्म किए जाता है (इस तरह नित्य) नहाने-धोने से वह (प्रभु के दर पर) स्वीकार नहीं हो जाता।
मुसलमान मनुष्य (दीन की) बड़ाई (बड़ाई) करता है पर अगर गुरु-पीर के हुक्म में नहीं चलता तो (दरगाह में) स्वीकार नहीं हो सकता। (बहिश्त का) रास्ता तो हर कोई पूछता है पर उस रास्ते पर चलता कोई विरला है और नेक अमलों के बिना बहिश्त नहीं मिलता।
जोगी के डेरे पर (मनुष्य जोग की) जुगति पूछने जाता है उस (‘जुगति’) की खातिर कान में मुंद्राएं डाल लेता है; मुंद्राएं डाल के संसार में चक्कर लगाता है (भाव, गृहस्थ छोड़ के बाहर जगत में भटकता है), पर विधाता तो हर जगह मौजूद है (बाहर जंगलों में तलाशना व्यर्थ है)।
(जगत में) जितने भी जीव (आते) हैं सारे मुसाफिर हैं, जिस-जिस को आमंत्रण आता है वह यहाँ देरी नहीं कर सकता (जाना ही पड़ता है); जिसने इस जनम में ईश्वर को पहचान लिया है वह (परलोक में) जा के भी पहचान लेता है (अगर ये उद्यम नहीं किया तो) और दावा कि मैं हिन्दू हूँ अथवा मुसलमान हूँ, सब फोका है। (हिंदू हो चाहे मुसलमान) हरेक के कर्मों का लेखा प्रभु की हजूरी में होता है, अपने नेक आचरण के बिना कभी कोई पार नहीं लांघा। जो मनुष्य (इस जन्म में) केवल सच्चे ईश्वर को याद करता है, हे नानक! परलोक में उसको लेखा नहीं पूछा जाता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि का मंदरु आखीऐ काइआ कोटु गड़ु ॥ अंदरि लाल जवेहरी गुरमुखि हरि नामु पड़ु ॥ हरि का मंदरु सरीरु अति सोहणा हरि हरि नामु दिड़ु ॥ मनमुख आपि खुआइअनु माइआ मोह नित कड़ु ॥ सभना साहिबु एकु है पूरै भागि पाइआ जाई ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि का मंदरु आखीऐ काइआ कोटु गड़ु ॥ अंदरि लाल जवेहरी गुरमुखि हरि नामु पड़ु ॥ हरि का मंदरु सरीरु अति सोहणा हरि हरि नामु दिड़ु ॥ मनमुख आपि खुआइअनु माइआ मोह नित कड़ु ॥ सभना साहिबु एकु है पूरै भागि पाइआ जाई ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटु = किला। गढ़ = किला। जवेहरी = जवाहरात, हीरे। खुआइअनु = गवाए हैं उसने। कढ़ु = काढ़ा, झोरा, चिन्ता। आखीऐ = कहना चाहिए।
अर्थ: इस शरीर को परमात्मा के रहने के लिए सुंदर घर कहना चाहिए, किला गढ़ कहा जाना चाहिए। अगर गुरु के हुक्म में चल के परमात्मा का नाम जपोगे तो इस शरीर के अंदर ही अच्छे गुण-रूपी लाल-जवाहर मिल जाएंगे।
(हे मन!) परमात्मा का नाम (हृदय में) पक्का करके रख, तब ही ये शरीर ये प्रभु का मन्दिर बहुत सुंदर हो सकता है। (पर) जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं उन्हें प्रभु ने स्वयं तोड़ा हुआ है उनको माया के मोह की चिन्ता नित्य (दुखी करती) है।
सारे जीवों का मालिक वही एक परमात्मा है, पर मिलता पूरी किस्मत से है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ ना सति दुखीआ ना सति सुखीआ ना सति पाणी जंत फिरहि ॥ ना सति मूंड मुडाई केसी ना सति पड़िआ देस फिरहि ॥ ना सति रुखी बिरखी पथर आपु तछावहि दुख सहहि ॥ ना सति हसती बधे संगल ना सति गाई घाहु चरहि ॥ जिसु हथि सिधि देवै जे सोई जिस नो देइ तिसु आइ मिलै ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई जिसु घट भीतरि सबदु रवै ॥ सभि घट मेरे हउ सभना अंदरि जिसहि खुआई तिसु कउणु कहै ॥ जिसहि दिखाला वाटड़ी तिसहि भुलावै कउणु ॥ जिसहि भुलाई पंध सिरि तिसहि दिखावै कउणु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ ना सति दुखीआ ना सति सुखीआ ना सति पाणी जंत फिरहि ॥ ना सति मूंड मुडाई केसी ना सति पड़िआ देस फिरहि ॥ ना सति रुखी बिरखी पथर आपु तछावहि दुख सहहि ॥ ना सति हसती बधे संगल ना सति गाई घाहु चरहि ॥ जिसु हथि सिधि देवै जे सोई जिस नो देइ तिसु आइ मिलै ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई जिसु घट भीतरि सबदु रवै ॥ सभि घट मेरे हउ सभना अंदरि जिसहि खुआई तिसु कउणु कहै ॥ जिसहि दिखाला वाटड़ी तिसहि भुलावै कउणु ॥ जिसहि भुलाई पंध सिरि तिसहि दिखावै कउणु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ना सति = (संस्कृत: नास्ति, न+अस्ति) नहीं है, भाव सिद्धि और बड़ाई (बड़ाई, महानता) नहीं है। मूंड = सिर। मूंड केसी मुडाई = सिर के केस मुंडाने से।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: हरेक विचार के साथ शब्द ‘नासति’ बरता गया है; सो, ‘मूड मुंडाई केसी’ इकट्ठा ही एक ख्याल है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। तछावहि = कटाते हैं। रवै = व्यापक है, मौजूद है। खुआई = मैं गवाता हूँ। वाटड़ी = सुंदर वाट, बढ़िया रास्ता। पंध सिरि = पंध के सिर पर, (पंध = राह), यात्रा के आरम्भ में ही।
अर्थ: (तप आदि से) दुखी होने में (सिद्धि और महानता की प्राप्ति) नहीं है, सुख में भी नहीं, और पानी में खड़े हो के भी नहीं है (अगर ऐसा होता तो बेअंत) जीव जो पानी में ही विचरते हैं (उन्हें सहज ही सिद्धि मिल जाती)। सिर के केश मुनाने में (भाव, रुंड-मुंड हो जाने पर) सिद्धि नहीं है; इस बात में भी (जीवन-उद्देश्य की) सिद्धि नहीं कि विद्वान बन के (और लोगों को चर्चा में जीतने के लिए) देश-देशांतरों में फिरें। रुखों-वृक्षों और पत्थरों पर भी सिद्धि नहीं है ये अपने आप को कटाते हैं और (कई किस्म के) दुख बर्दाश्त करते हैं (भाव, रुखो-वृक्षों व पत्थरों की तरह ही जड़ हो के अपने ऊपर कई तरह के कष्ट सहने से भी जनम-उद्देश्य की सिद्धि प्राप्त नहीं होती)। (कमर के साथ संगल बाँधने से भी) सिद्धि नहीं है, हाथी संगलों से ही बँधे होते हैं; (कंद-मूल खाने में भी) सिद्धि नहीं है, गाएं घास चुगती ही हैं (भाव, हाथियों की तरह संगल बाँधने में और गायों की तरह कंद-मूल खाने में भी सिद्धि की प्राप्ति नहीं है)।
जिस प्रभु के हाथ में सफलता है अगर वह स्वयं दे और जिसको देता है उसको प्राप्त होती है। हे नानक! महानता (आदर व बड़ाई) उस जीव को मिलता है जिसके हृदय में (प्रभु की महिमा का) शब्द हर वक्त मौजूद है।
(प्रभु तो ऐसे कहता है कि जीवों के) सारे शरीर मेरे (शरीर) हैं, मैं सबमें बसता हूँ, जिस जीव को मैं गलत रास्ते पर डाल देता हूँ उसको कौन समझा सकता है? जिसको मैं सुंदर (बढ़िया) रास्ता दिखा देता हूँ उसको कौन भुला सकता है? जिसको मैंने (जिंदगी के) सफर के आरम्भ में भटका दिया उसको रास्ता कौन दिखा सकता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सो गिरही जो निग्रहु करै ॥ जपु तपु संजमु भीखिआ करै ॥ पुंन दान का करे सरीरु ॥ सो गिरही गंगा का नीरु ॥ बोलै ईसरु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ सो गिरही जो निग्रहु करै ॥ जपु तपु संजमु भीखिआ करै ॥ पुंन दान का करे सरीरु ॥ सो गिरही गंगा का नीरु ॥ बोलै ईसरु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिरही = गृहस्थी। निग्रहु = इन्द्रियों को विकारों की ओर जाने से रोकना। भीखिआ करै = (प्रभु से) भिक्षा मांगे, ख़ैर मांगे। नीरु = जल। सति = परम ज्योति, परम आत्मा। तंत = (सं: तंतु = The Supreme Brahm) परम ज्योति, अकाल-पुरख। पुंन = भलाई। दान = सेवा।
अर्थ: (असल) गृहस्थी वह है जो इन्द्रियों को विकारों की ओर से रोकता है, जो (प्रभु से) जप-तप और संजम रूपी खैर माँगता है, जो अपना शरीर भी पुण्य-दान वाला ही बना लेता है (भाव, लोगों की सेवा व भलाई करने का स्वभाव जिसके शरीर के साथ रच-मिच जाता है); वह गृहस्थी गंगा जल (जैसा पवित्र) हो जाता है।
अगर ईशर (जोगी भी असल गृहस्थी वाली ये जुगति लगा के) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को जपे तो ये भी परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाए (अर्थात, हे ईशर जोगी! अगर तू भी ऊपर बताई हुई जुगति से प्रभु को जपे तो तू भी परम-ब्रहम में एक-मेक हो जाए; गृहस्थ त्यागने की आवश्यक्ता ही नहीं पड़ेगी)।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ईशर जोगी को असल गृहस्थी के लक्षण बता के, उस जोगी को संबोधन करने की बजाए अन्य-पुरुष (Third Person) के रूप में प्रयोग किया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सो अउधूती जो धूपै आपु ॥ भिखिआ भोजनु करै संतापु ॥ अउहठ पटण महि भीखिआ करै ॥ सो अउधूती सिव पुरि चड़ै ॥ बोलै गोरखु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥३॥
मूलम्
मः १ ॥ सो अउधूती जो धूपै आपु ॥ भिखिआ भोजनु करै संतापु ॥ अउहठ पटण महि भीखिआ करै ॥ सो अउधूती सिव पुरि चड़ै ॥ बोलै गोरखु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधूती = अवधूत, जिसने माया के बंधन तोड़ दिए हैं। धूपै = धुखाता है, जला देता है। आपु = स्वै भाव। भिखिआ भोजनु = मांग मांग के लाया हुआ भोजन। संतापु = खिझ। शिव = कल्याण रूप प्रभु। पुरी = पुरी में। अउहठ = अवघट, हृदय। पटण = शहर।
अर्थ: (असल) अवधूत वह है जो स्वै भाव (अहंकार) को जला देता है; जो संताप (खिझ) को मांग-मांग के लाया हुआ भोजन बनाता है (जो मांग-मांग के लाए हुए टुकड़े खाने की जगह संताप को ही खा जाए, समाप्त कर दे); जो हृदय-रूपी शहर में टिक के (प्रभु से) खैर माँगता है, वह अवधूत कल्याण-रूप प्रभु के देश में पहुँच जाता है।
अगर गोरख (जोगी भी इस अवधूत की जुगति प्रयोग करके) सति-स्वरूप प्रभु को जपे तो (ये गोरख भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सो उदासी जि पाले उदासु ॥ अरध उरध करे निरंजन वासु ॥ चंद सूरज की पाए गंढि ॥ तिसु उदासी का पड़ै न कंधु ॥ बोलै गोपी चंदु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥४॥
मूलम्
मः १ ॥ सो उदासी जि पाले उदासु ॥ अरध उरध करे निरंजन वासु ॥ चंद सूरज की पाए गंढि ॥ तिसु उदासी का पड़ै न कंधु ॥ बोलै गोपी चंदु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदासी = विरक्त, माया से उपराम। उदासु = माया से उपरामता। पाले = सदा कायम रखता है। अरध = (सं: अर्ध; जैसे ‘अर्धदेव’ देवताओं के पास रहने वाला), आधे बीच में, नजदीक। उरध = (सं: उध्र्व) ऊपर। अरध उरध = नजदीक और ऊपर, (भाव, हर जगह)। निरंजन = माया से रहित। चंद = शीतलता, शांति। सूरज = ज्ञान का तेज। पड़ै न = नहीं पड़ता, नहीं गिरता। कंधु = दीवार, शरीर।
अर्थ: (असल) विरक्त वह है जो उपरामता को सदा कायम रखता है, हर जगह माया-रहित प्रभु का निवास जानता है; (अपने हृदय में) शांति और ज्ञान दोनों को इकट्ठा करता है; उस विरक्त मनुष्य का शरीर (विकारों में) नहीं गिरता।
अगर गोपी चंद (जोगी) (भी इस उदासी की जुगति बरत के) सति-स्वरूप प्रभु को जपे तो (ये गोपीचंद भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसका कोई (अलग) रूप-रेख ना रह जाए।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सो पाखंडी जि काइआ पखाले ॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले ॥ सुपनै बिंदु न देई झरणा ॥ तिसु पाखंडी जरा न मरणा ॥ बोलै चरपटु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥५॥
मूलम्
मः १ ॥ सो पाखंडी जि काइआ पखाले ॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले ॥ सुपनै बिंदु न देई झरणा ॥ तिसु पाखंडी जरा न मरणा ॥ बोलै चरपटु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाखंडी = संस्कृत: पाखंड = a heretic) नास्तिक वाम-मार्गियों का एक फिरका। पखाले = धोए, पापों से साफ़ रखे। अगनि ब्रहमु = ब्रहमाग्नि, ईश्वरीय ज्योति। परजाले = (सं: प्रज्वालय) अच्छी तरह चमकाए, रौशन करे। बिंदु = वीर्य। जरा = बुढ़ापा।
अर्थ: (असली) नास्तिक वह है जो (परमात्मा की हस्ती ना मानने की जगह) शरीर को धोए (भाव, शरीर में से पापों की मौजूदगी मिटा दे), जो अपने शरीर में ईश्वरीय ज्योति जगाता है, सपने में भी वीर्य को गिरने नहीं देता (भाव, सपने में भी अपने आप को काम-वश नहीं होने देता); उस नास्तिक को (भाव, उस मनुष्य को जिसने अपने अंदर से पापों का नाश कर दिया है) बुढ़ापा और मौत (उसे) छू नहीं सकते (भाव, वह इनके डर से मुक्त हो जाता है)।
अगर चरपट (भी ऐसी नास्तिक जुगति बरत के) सति-स्वरूप प्रभु को जपे तो (ये चरपट भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाए।5।
[[0953]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सो बैरागी जि उलटे ब्रहमु ॥ गगन मंडल महि रोपै थमु ॥ अहिनिसि अंतरि रहै धिआनि ॥ ते बैरागी सत समानि ॥ बोलै भरथरि सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥६॥
मूलम्
मः १ ॥ सो बैरागी जि उलटे ब्रहमु ॥ गगन मंडल महि रोपै थमु ॥ अहिनिसि अंतरि रहै धिआनि ॥ ते बैरागी सत समानि ॥ बोलै भरथरि सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैराग = (सं: वैराग्य) दुनिया से उपरामता। बैरागी = वह मनुष्य जिसने दुनियां की ख्वाहिशों से मन मोड़ लिया है। उलटे = पलट लिया, फेर लिया। गगन = आकाश, दसवाँ द्वार। मंडल = चक्र। गगन मंडल = दसवाँ द्वार का चक्र, वह अवस्था जहाँ मनुष्य की तवज्जो प्रभु में जुड़ती है। रोपै = खड़ा करता है। अहि = दिन। निसि = रात। धिआनि = ध्यान में। सत = सदा कायम रहने वाला प्रभु। समानि = जैसा।
अर्थ: (असल) बैरागी वह है जो प्रभु को (अपने हृदय की ओर) पलटाता है (अर्थात, जो प्रभु पति को अपनी हृदय-सेज पर ला बसाता है), जो प्रभु का नाम-रूप दसवाँ द्वार (रूपी शामियाने) में खड़ा करता है (भाव, जो मनुष्य प्रभु के नाम को इस तरह अपना सहारा बनाता है कि उसकी तवज्जो सदा ऊपर को प्रभु-चरणों में टिकी रहती है, मायावी पदार्थों के प्रभाव में नीचे नहीं गिरती), जो दिन-रात अपने अंदर ही (भाव, हृदय में ही) प्रभु की याद में जुड़ा रहता है। ऐसे बैरागी प्रभु का रूप हो जाते हैं।
अगर भरथरी (भी ऐसे बैरागी की जुगति बरत के) सति-स्वरूप प्रभु को जपे तो (ये भरथरी भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाए।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ किउ मरै मंदा किउ जीवै जुगति ॥ कंन पड़ाइ किआ खाजै भुगति ॥ आसति नासति एको नाउ ॥ कउणु सु अखरु जितु रहै हिआउ ॥ धूप छाव जे सम करि सहै ॥ ता नानकु आखै गुरु को कहै ॥ छिअ वरतारे वरतहि पूत ॥ ना संसारी ना अउधूत ॥ निरंकारि जो रहै समाइ ॥ काहे भीखिआ मंगणि जाइ ॥७॥
मूलम्
मः १ ॥ किउ मरै मंदा किउ जीवै जुगति ॥ कंन पड़ाइ किआ खाजै भुगति ॥ आसति नासति एको नाउ ॥ कउणु सु अखरु जितु रहै हिआउ ॥ धूप छाव जे सम करि सहै ॥ ता नानकु आखै गुरु को कहै ॥ छिअ वरतारे वरतहि पूत ॥ ना संसारी ना अउधूत ॥ निरंकारि जो रहै समाइ ॥ काहे भीखिआ मंगणि जाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरै = दूर हो। मंदा = बुराई। किउ = कैसे? जीवै = सही जीवन जीए। जुगति = इस तरीके से। किआ खाजै = खाने का क्या लाभ? भुगति = जोगियों का चूरमा। आसति = अस्ति, मौजूद है। नासति = ना+अस्ति, नहीं है। हिआउ = हृदय। धूप छाव = दुख और सुख। सम = बराबर, एक समान। गुरु कहै = गुरु गुरु कहता है, गुरु को याद रखता है। को = कोई वह मनुष्य। छिअ वरतारे = छह भेषों में। पूत = चेले (जोगियों के)। निरंकारि = निरंकार में।
अर्थ: कान फड़वा के चूरमा खाने का कोई (आत्मिक) लाभ नहीं (क्योंकि) इस जुगति से ना (मन में से) विकार दूर होता है ना ही (ऊँचा) जीवन मिलता है।
(अगर कोई पूछे कि यदि कान छेद करवाने से मन नहीं टिकता तो) वह कौन सा अक्षर है जिसमें हृदय जुड़ा रह सकता है (और बुराई मिट जाती है, तो इसका उक्तर ये है कि वह) केवल वही (प्रभु का) नाम है जो संसार का अस्तित्व और अस्तित्व-हीन दोनों अवस्थाओं के वक्त मौजूद है। अगर कोई मनुष्य (इस ‘नाम’ की इनायत से) दुख और सुख को एक-समान सहता है, तो, नानक कहता है, वह मनुष्य ही (असल में) गुरु को याद रखता है (भाव, गुरु के वचन के मुताबिक चलता है)।
(नाथ ने) चेले (भाव, जोगी लोग) (जो निरे) छह भेषों में ही व्यस्त हैं, (दरअसल) ना वे गृहस्थी हैं और ना ही विरक्त। जो मनुष्य एक निरंकार में जुड़ा रहता है वह क्यों कहीं ख़ैर माँगने जाए? (भाव, उसको फकीर बनने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती, हाथों से मेहनत-कमाई करता हुआ भी प्रभु के चरणों में लीन रहता है)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि मंदरु सोई आखीऐ जिथहु हरि जाता ॥ मानस देह गुर बचनी पाइआ सभु आतम रामु पछाता ॥ बाहरि मूलि न खोजीऐ घर माहि बिधाता ॥ मनमुख हरि मंदर की सार न जाणनी तिनी जनमु गवाता ॥ सभ महि इकु वरतदा गुर सबदी पाइआ जाई ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि मंदरु सोई आखीऐ जिथहु हरि जाता ॥ मानस देह गुर बचनी पाइआ सभु आतम रामु पछाता ॥ बाहरि मूलि न खोजीऐ घर माहि बिधाता ॥ मनमुख हरि मंदर की सार न जाणनी तिनी जनमु गवाता ॥ सभ महि इकु वरतदा गुर सबदी पाइआ जाई ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंदरु = घर, रहने की जगह। मानव देह = मनुष्य शरीर। सभु = हर जगह। बिधाता = विधाता, निर्माता। हरि मंदर = ईश्वर के घर की। सार = मुल्य, कद्र।
अर्थ: (वैसे तो सारे शरीर ही ‘हरि मंदरु’ अर्थात, ईश्वर के रहने की जगह हैं, पर असल में) वही शरीर ‘हरि मंदरु’ कहा जाना चाहिए जिसमें ईश्वर पहचाना जाए; (सो, मनुष्य का शरीर ‘हरि मंदरु’ है, क्योंकि) मनुष्य-शरीर में गुरु के हुक्म में चल के ईश्वर को पा सकता है, हर जगह व्यापक ज्योति दिखती है।
(शरीर से) बाहर तलाशने की बिल्कुल ही आवश्यक्ता नहीं, (इस शरीर-) घर में ही विधाता बस रहा है। पर मन के पीछे चलने वाले बंदे (इस मनुष्य-शरीर) ‘हरि मंदरु’ की कद्र नहीं जानते, वे मानव जन्म (मन के पीछे चल के ही) गवा जाते हैं।
(वैसे तो) सभी में एक ही प्रभु व्यापक है, पर मिलता है गुरु के शब्द से ही।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ मूरखु होवै सो सुणै मूरख का कहणा ॥ मूरख के किआ लखण है किआ मूरख का करणा ॥ मूरखु ओहु जि मुगधु है अहंकारे मरणा ॥ एतु कमाणै सदा दुखु दुख ही महि रहणा ॥ अति पिआरा पवै खूहि किहु संजमु करणा ॥ गुरमुखि होइ सु करे वीचारु ओसु अलिपतो रहणा ॥ हरि नामु जपै आपि उधरै ओसु पिछै डुबदे भी तरणा ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे जो देइ सु सहणा ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ मूरखु होवै सो सुणै मूरख का कहणा ॥ मूरख के किआ लखण है किआ मूरख का करणा ॥ मूरखु ओहु जि मुगधु है अहंकारे मरणा ॥ एतु कमाणै सदा दुखु दुख ही महि रहणा ॥ अति पिआरा पवै खूहि किहु संजमु करणा ॥ गुरमुखि होइ सु करे वीचारु ओसु अलिपतो रहणा ॥ हरि नामु जपै आपि उधरै ओसु पिछै डुबदे भी तरणा ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे जो देइ सु सहणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लखण = लक्षण, इलामतें। करणा = कर्तव्य। मुगधु = मोहा हुआ, माया का ठगा हुआ। एतु कमाणै = माया के मोह में और अहंकार में रहने से। अति पिआरा = माया से बहुत प्यार करने वाला। किहु संजम करणा = बचाव का कौन सा उद्यम किया जा सकता है? खूहि = माया के कूएं में। संजमु = बचाव का उद्यम। किहु = कुछ, कोई। अलिपत = अलिप्त, अलग, निराला।
अर्थ: मूर्ख का कहा वही सुनता है (भाव, मूर्ख के कहे वही लगता है) जो खुद मूर्ख हो। मूर्ख के क्या लक्षण हैं? कैसी करतूत होती है मूर्ख की? जो मूर्ख माया का ठगा हुआ हो और जो अहंकार में आत्मिक मौत मरा हुआ हो, उसको मूर्ख कहा जाता है। माया की मस्ती ओर अहंकार में जो कुछ करें उससे सदा दुख प्राप्त होता है और सदा दुखी रहा जाता है।
माया से ज्यादा प्यार करने वाला मनुष्य (माया के मोह के) कूएं में गिरा रहता है। उसके बचाव के लिए कौन से प्रयास किए जा सकते हैं? जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह इस पर विचार करता है और (इस माया के मोह-रूप कूएं से) अलग रहता है; वह प्रभु का नाम जपता है, (नाम की इनायत से) वह खुद बचता है और उसके पद्चिन्हों पर चल कर डूबता हुआ साथी भी बच निकलता है।
हे नानक! जो कुछ प्रभु को भाता है वही कुछ वह करता है (माया के मोह में पड़ के दुख या इससे अलोप रहके सुख) जो कुछ प्रभु देता है वही जीव सहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ नानकु आखै रे मना सुणीऐ सिख सही ॥ लेखा रबु मंगेसीआ बैठा कढि वही ॥ तलबा पउसनि आकीआ बाकी जिना रही ॥ अजराईलु फरेसता होसी आइ तई ॥ आवणु जाणु न सुझई भीड़ी गली फही ॥ कूड़ निखुटे नानका ओड़कि सचि रही ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ नानकु आखै रे मना सुणीऐ सिख सही ॥ लेखा रबु मंगेसीआ बैठा कढि वही ॥ तलबा पउसनि आकीआ बाकी जिना रही ॥ अजराईलु फरेसता होसी आइ तई ॥ आवणु जाणु न सुझई भीड़ी गली फही ॥ कूड़ निखुटे नानका ओड़कि सचि रही ॥२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: किसी मुसलमान के साथ हुए ये विचार हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सही = सच्ची। सिख = शिक्षा। वही = बही, अमलों की किताब। तलबा = बुलावे। आकी = बाग़ी। बाकी = लेखे में से बकाया। अजराईलु फरेसता = मौत का फरिश्ता। तई = तैयार, तईनात, तैनात, स्थापित। फही = फसी हुई (जिंद) को। कूड़ = झूठ कमाने वाले। निखुटे = हार जाते हैं। सचि = सच से, सच्चा सौदा करने से। आवण जाणु = कोई चारा, किधर जाऊँ क्या करूँ? = ये बात।
अर्थ: नानक कहता है: हे मन! सच्ची शिक्षा सुन, (तेरे किए अमलों अर्थात तेरे किए कर्मों के लेखे वाली) किताब निकाल के बैठा हुआ ईश्वर (तुझसे) हिसाब पूछेगा।
जिस-जिस का लेखे का हिसाब बकाया रह जाता है उन-उन लोगों को बुलावे आएंगे, मौत का फरिश्ता (किए हुए कर्मों के अनुसार दुख देने के लिए सिर पर) आ तैयार खड़ा होगा। उस मुश्किल में फसी हुई जिंद को (उस वक्त) कुछ सूझता नहीं।
हे नानक! झूठ के व्यापारी हार के जाते हैं, सच का सौदा करने से ही अंत को विजय मिलती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हरि का सभु सरीरु है हरि रवि रहिआ सभु आपै ॥ हरि की कीमति ना पवै किछु कहणु न जापै ॥ गुर परसादी सालाहीऐ हरि भगती रापै ॥ सभु मनु तनु हरिआ होइआ अहंकारु गवापै ॥ सभु किछु हरि का खेलु है गुरमुखि किसै बुझाई ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हरि का सभु सरीरु है हरि रवि रहिआ सभु आपै ॥ हरि की कीमति ना पवै किछु कहणु न जापै ॥ गुर परसादी सालाहीऐ हरि भगती रापै ॥ सभु मनु तनु हरिआ होइआ अहंकारु गवापै ॥ सभु किछु हरि का खेलु है गुरमुखि किसै बुझाई ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = हर जगह। आपै = खुद ही। न जापै = नहीं सूझता। रापै = रंगे जाते हैं। गवापै = नाश हो जाता है। किसै = किसी विरले को।
अर्थ: ये सारा (जगत का आसरा) परमात्मा का (मानो) शरीर है, हर जगह प्रभु खुद ही व्यापक है, परमात्मा (की महानता बड़ाई) का मूल्य नहीं आँका जा सकता, कोई बात सूझती नहीं (जिससे) उसकी महानता को बयान कर सकें। सतिगुरु की कृपा से परमात्मा की महिमा की जा सकती है (जो करता है वह प्रभु की भक्ति में रंगा जाता है, उसका मन और तन खिल उठता है और अहंकार नाश हो जाता है)।
ये सारा जगत प्रभु का बनाया हुआ तमाशा है, सतिगुरु के द्वारा किसी विरले को इस खेल की समझ देता है।13।
[[0954]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ सहंसर दान दे इंद्रु रोआइआ ॥ परस रामु रोवै घरि आइआ ॥ अजै सु रोवै भीखिआ खाइ ॥ ऐसी दरगह मिलै सजाइ ॥ रोवै रामु निकाला भइआ ॥ सीता लखमणु विछुड़ि गइआ ॥ रोवै दहसिरु लंक गवाइ ॥ जिनि सीता आदी डउरू वाइ ॥ रोवहि पांडव भए मजूर ॥ जिन कै सुआमी रहत हदूरि ॥ रोवै जनमेजा खुइ गइआ ॥ एकी कारणि पापी भइआ ॥ रोवहि सेख मसाइक पीर ॥ अंति कालि मतु लागै भीड़ ॥ रोवहि राजे कंन पड़ाइ ॥ घरि घरि मागहि भीखिआ जाइ ॥ रोवहि किरपन संचहि धनु जाइ ॥ पंडित रोवहि गिआनु गवाइ ॥ बाली रोवै नाहि भतारु ॥ नानक दुखीआ सभु संसारु ॥ मंने नाउ सोई जिणि जाइ ॥ अउरी करम न लेखै लाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ सहंसर दान दे इंद्रु रोआइआ ॥ परस रामु रोवै घरि आइआ ॥ अजै सु रोवै भीखिआ खाइ ॥ ऐसी दरगह मिलै सजाइ ॥ रोवै रामु निकाला भइआ ॥ सीता लखमणु विछुड़ि गइआ ॥ रोवै दहसिरु लंक गवाइ ॥ जिनि सीता आदी डउरू वाइ ॥ रोवहि पांडव भए मजूर ॥ जिन कै सुआमी रहत हदूरि ॥ रोवै जनमेजा खुइ गइआ ॥ एकी कारणि पापी भइआ ॥ रोवहि सेख मसाइक पीर ॥ अंति कालि मतु लागै भीड़ ॥ रोवहि राजे कंन पड़ाइ ॥ घरि घरि मागहि भीखिआ जाइ ॥ रोवहि किरपन संचहि धनु जाइ ॥ पंडित रोवहि गिआनु गवाइ ॥ बाली रोवै नाहि भतारु ॥ नानक दुखीआ सभु संसारु ॥ मंने नाउ सोई जिणि जाइ ॥ अउरी करम न लेखै लाइ ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शलोक में उन पौराणिक कथाओं के हवाले दिए गए हैं जो हिन्दुओं में आम प्रचलित हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहंसर = हजार। दान = दण्ड। हजार भगों का दण्ड जो इन्द्र देवते को गौतम ऋषि ने श्राप दे के लगाया था। इन्द्र ने ऋषि की स्त्री अहिल्या के साथ धोखे से संग किया था। परस रामु = ब्राहमण था, इसके पिता जमदगनी को सहस्रबाहु ने मार दिया था; बदले की आग में परसराम ने क्षत्रिय-कुल का नाश करना शुरू कर दिया, पर जब इसने श्री रामचंद्र जी पर अपना कोहाड़ा उठाया तो उन्होंने इसका बल खींच लिया। अजै = राजा अजै ने (जो श्री रामचंद्र जी का दादा था) एक साधू को भिक्षा में लिद दी थी, बाद में उसे खुद खानी पड़ी।
निकाला = देश निकाला। दहदिसु = (सं: दशशिर) दस सिरों वाला, रावण। डउरू वाइ = डमरू बजा के, साधू का भेस बना के। सुआमी = कृष्ण जी। खुइ गइआ = गवा बैठा। एकी = एक गली। जनमेजा (जो हस्तिनापुर का राजा था) ने 18 ब्राहमणों को मार दिया था, जिसका प्रायश्चित करने के लिए इसने ऋषि ‘वैशंपाइन’ से ‘महाभारत’ सुना था।
मसाइक = मशायख़, शेख (बहुवचन)। भीड़ = मुसीबत। राजे = भरथरी गोपीचंद आदि राजे। किरपन = कंजूस। संचहि = इकट्ठा करते हैं। बाली = लड़की। जिणि = जीत के। अउरी = और।
अर्थ: (गौतम ऋषि ने) हजार (भगों) का दण्ड दे के इन्द्र का रुला दिया, (श्री रामचंद्र से अपना बल छिनवा के) परस राम घर आ के रोया। राजा अजै रोया जब उसको (लिद की दी हुई) भिक्षा खानी पड़ी, प्रभु की हजूरी से ऐसी ही सजा मिलती है।
जब राम (जी) को देश निकाला मिला सीता लक्ष्मण विछुड़े तब राम जी भी रोए। रावण, जिसने साधु बन के सीता (का हरण करके) ले आया, लंका गवा के रोया। (पाँचों) पाण्डव, जिनके पास श्री कृष्ण जी रहते थे (भाव, जिनका पक्ष करते थे), जब (राजा वैराट के) मजदूर बने तब रोए। राजा जनमेजा चूक गया (18 ब्राहमणों को जान से मार बैठा, प्रायश्चित के लिए ‘महाभारत’ सुना, पर शंका की, इस) एक गलती के कारण पापी ही बना रहा (भाव, कोढ़ ना हटा) और रोया।
शेख पीर आदि भी रोते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि अंत के समय कोई बिपता आ पड़े। (भरथरी गोपीचंद आदिक) राजा, जोगी बन के दुखी होते हैं जब घर-घर जा के भिक्षा माँगते हैं। कँजूस धन इकट्ठा करते हैं पर रोते हैं ज बवह धन (उनके पास से) चला जाता है, ज्ञान की कमी के कारण पण्डित भी ख्वार होते हैं। स्त्री रोती है जब (सिर पर) पति ना रहे। हे नानक! सारा जगत ही दुखी है।
जो मनुष्य प्रभु के नाम को मानता है (भाव, जिसका मन प्रभु के नाम में पतीजता है) वह (जिंदगी की बाजी) जीत के जाता है, (‘नाम’ के बिना) कोई और काम (जिंदगी की बाजी जीतने के लिए) सफल नहीं होता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ जपु तपु सभु किछु मंनिऐ अवरि कारा सभि बादि ॥ नानक मंनिआ मंनीऐ बुझीऐ गुर परसादि ॥२॥
मूलम्
मः २ ॥ जपु तपु सभु किछु मंनिऐ अवरि कारा सभि बादि ॥ नानक मंनिआ मंनीऐ बुझीऐ गुर परसादि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक (उद्यम)। मंनीऐ = अगर मान लें, अगर मन प्रभु के नाम में पतीज जाए। अवरि कारा = और सारे काम। बादि = व्यर्थ। मंनिआ = जो मान गया है, जिसने ‘नाम’ मान लिया है, जिसका मन नाम में पतीज गया है। मंनीऐ = माना जाता है, आदर पाता है। परसादि = कृपा से।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘मंनिअै’ और ‘मंनीअै’ का फर्क याद रखने योग्य है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: यदि मन प्रभु के नाम में पतीज जाए जो जप-तप आदि हरेक उद्यम (उसी में आ जाता है), (नाम के बिना) और सारे कर्म व्यर्थ हैं। हे नानक! ‘नाम’ को मानने वाला आदर पाता है, ये बात गुरु की कृपा से समझी जा सकती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ काइआ हंस धुरि मेलु करतै लिखि पाइआ ॥ सभ महि गुपतु वरतदा गुरमुखि प्रगटाइआ ॥ गुण गावै गुण उचरै गुण माहि समाइआ ॥ सची बाणी सचु है सचु मेलि मिलाइआ ॥ सभु किछु आपे आपि है आपे देइ वडिआई ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ काइआ हंस धुरि मेलु करतै लिखि पाइआ ॥ सभ महि गुपतु वरतदा गुरमुखि प्रगटाइआ ॥ गुण गावै गुण उचरै गुण माहि समाइआ ॥ सची बाणी सचु है सचु मेलि मिलाइआ ॥ सभु किछु आपे आपि है आपे देइ वडिआई ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हंस = (संस्कृत शब्द) जीवात्मा। धुरि = आदि से। करतै = कर्तार ने। लिखि = लिख के (भाव) अपने हुक्म के अनुसार। गुपतु = छुपा हुआ।
अर्थ: शरीर और जीवात्मा का संजोग धुर से कर्तार ने अपने हुक्म के अनुसार बना दिया है। प्रभु सब जीवों में छुपा हुआ मौजूद है, गुरु के द्वारा प्रकट होता है, (जो मनुष्य गुरु की शरण आ के प्रभु के) गुण गाता है गुण उचारता है वह गुणों में लीन हो जाता है। (सतिगुरु की) सच्ची वाणी के द्वारा वह मनुष्य सच्चे प्रभु का रूप हो जाता है, गुरु ने सच्चा प्रभु उसको संगति में (रख के) मिला दिया।
हरेक हस्ती में (अस्तित्व में) प्रभु स्वयं ही मौजूद है और स्वयं ही बड़ाई (महानता, महिमा) बख्शता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः २ ॥ नानक अंधा होइ कै रतना परखण जाइ ॥ रतना सार न जाणई आवै आपु लखाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः २ ॥ नानक अंधा होइ कै रतना परखण जाइ ॥ रतना सार न जाणई आवै आपु लखाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य खुद अंधा हो और चल पड़े रत्न परखने, वह रत्नों की कद्र तो जानता नहीं, पर अपने आप को उजागर करा आता है (भाव, अपना अंधापन जाहिर कर आता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ रतना केरी गुथली रतनी खोली आइ ॥ वखर तै वणजारिआ दुहा रही समाइ ॥ जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ ॥ रतना सार न जाणनी अंधे वतहि लोइ ॥२॥
मूलम्
मः २ ॥ रतना केरी गुथली रतनी खोली आइ ॥ वखर तै वणजारिआ दुहा रही समाइ ॥ जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ ॥ रतना सार न जाणनी अंधे वतहि लोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतन = नाम रत्न, प्रभु के गुण। रतनी = रतनों की परख करने वाला सतिगुरु। वखर = (भाव) व्यापार करने वाला, वस्तु बेचने वाला। तै = और। वणजारा = वाणज्य करने वाला गुरमुख। माणक = रतन, नाम। सेइ = वही लोग। वतहि = भटकते हैं। लोइ = जगत में। केरी = की।
अर्थ: प्रभु के गुण रूपी थैली सतिगुरु ने आ के खोली है, से गुत्थी बेचने वाले सतिगुरु और लेने वाले गुरमुख दोनों के हृदय में टिक रही है (भाव, दोनों को ये गुण प्यारे लग रहे हैं)।
हे नानक! जिनके पास (भाव, हृदय में) प्रभु की महिमा के गुण मौजूद हैं वही मनुष्य ही नाम-रत्न का लेन-देन (व्यापार) करते हैं; पर जो इन रत्नों की कद्र नहीं जानते वे अंधों की तरह जगत में फिरते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नउ दरवाजे काइआ कोटु है दसवै गुपतु रखीजै ॥ बजर कपाट न खुलनी गुर सबदि खुलीजै ॥ अनहद वाजे धुनि वजदे गुर सबदि सुणीजै ॥ तितु घट अंतरि चानणा करि भगति मिलीजै ॥ सभ महि एकु वरतदा जिनि आपे रचन रचाई ॥१५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नउ दरवाजे काइआ कोटु है दसवै गुपतु रखीजै ॥ बजर कपाट न खुलनी गुर सबदि खुलीजै ॥ अनहद वाजे धुनि वजदे गुर सबदि सुणीजै ॥ तितु घट अंतरि चानणा करि भगति मिलीजै ॥ सभ महि एकु वरतदा जिनि आपे रचन रचाई ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरवाजै = इन्द्रियों के रूप में द्वार। कोटु = किला। बजर = कठोर। कपाट = किवाड़। खुलीजै = खुलते हैं। अनहद = एक रस। धुनि = सुर। तितु = उस में। घट = शरीर। जिनि = जिस प्रभु ने।
अर्थ: शरीर (मानो एक) किला है, इसकी नौ इन्द्रियों के रूप में गुप्त दरवाजे (प्रकट) हैं, और दसवाँ द्वार गुप्त रखा हुआ है; (उस दसवें दरवाजे के) किवाड़ बड़े कठोर हैं खुलते नहीं, खुलते (केवल) सतिगुरु के शब्द से ही हैं, (जब ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं तो, मानो,) एक-रस वाले बाजे बज पड़ते हैं जो सतिगुरु के शब्द के द्वारा सुने जाते हैं। (जिस हृदय में ये आनंद पैदा होता है) उस हृदय में (ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है, प्रभु की भक्ति करके वह मनुष्य प्रभु में मिल जाता है।
जिस प्रभु ने यह सारी रचना रची है वह सारे जीवों में व्यापक है (पर उस से मेल गुरु के द्वारा ही होता है)।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः २ ॥ अंधे कै राहि दसिऐ अंधा होइ सु जाइ ॥ होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ि पाइ ॥ अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहि ॥ अंधे सेई नानका खसमहु घुथे जाहि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः २ ॥ अंधे कै राहि दसिऐ अंधा होइ सु जाइ ॥ होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ि पाइ ॥ अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहि ॥ अंधे सेई नानका खसमहु घुथे जाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राहि दसिऐ = राह बताने वाला। अंधै कै राहि दसिऐ = अंधे के राह बताने से, अगर अंधा मनुष्य राह बताए। सु = वही मनुष्य। उझड़ि = गलत राह पर। एहि = (शब्द ‘आखीअनु’ और ‘आखिअनि’ में फर्क देखने योग्य है देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। मुखि = मुँह पर। लोइण = आँखें।
अर्थ: अगर कोई अंधा मनुष्य (किसी और को) राह बताए तो (उस राह पर) वही चलता है जो खुद अंधा हो; हे नानक! आँख वाला मनुष्य (अंधे के कहने पर) गलत राह पर नहीं पड़ता। (पर आत्मिक जीवन में) ऐसे लोगों को अंधे नहीं कहा जाता जिनके मुँह पर आँखें नहीं हैं, हे नानक! अंधे वही हैं जो मालिक प्रभु से टूटे हुए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ साहिबि अंधा जो कीआ करे सुजाखा होइ ॥ जेहा जाणै तेहो वरतै जे सउ आखै कोइ ॥ जिथै सु वसतु न जापई आपे वरतउ जाणि ॥ नानक गाहकु किउ लए सकै न वसतु पछाणि ॥२॥
मूलम्
मः २ ॥ साहिबि अंधा जो कीआ करे सुजाखा होइ ॥ जेहा जाणै तेहो वरतै जे सउ आखै कोइ ॥ जिथै सु वसतु न जापई आपे वरतउ जाणि ॥ नानक गाहकु किउ लए सकै न वसतु पछाणि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिबि = सहिब ने, प्रभु ने। जेहा जाणै = (अंधा मनुष्य) जैसे समझता है। सउ = सौ बार। जे = यद्यपि। जिथै = जिस मनुष्य के अंदर। आपे वरतउ = स्वै भाव वाला व्यवहार, अपने समझ की बर्ताव, अहंकार का जोर। जाणि = जानो।
अर्थ: जिस मनुष्य को मालिक-प्रभु ने स्वयं अंधा कर दिया है वह तब ही आँख वाला हो सकता है यदि प्रभु स्वयं (आँख वाला) बनाए, (नहीं तो, अंधा मनुष्य तो) जिस तरह की समझ रखता है उसी तरह किए जाता है चाहे उसको कोई सौ बार समझाए। जिस मनुष्य के अंदर ‘नाम’-रूप पदार्थ की समझ नहीं वहाँ अहंकार वाला व्यवहार ही समझो, (क्योंकि) हे नानक! गाहक जिस सौदे को पहचान ही नहीं सकता उसका वह वणज ही कैसे करे?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः २ ॥ सो किउ अंधा आखीऐ जि हुकमहु अंधा होइ ॥ नानक हुकमु न बुझई अंधा कहीऐ सोइ ॥३॥
मूलम्
मः २ ॥ सो किउ अंधा आखीऐ जि हुकमहु अंधा होइ ॥ नानक हुकमु न बुझई अंधा कहीऐ सोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुकमहु = हुक्म से, रजा में। अंधा = नेत्र हीन।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 2 का भाव है महला 2।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु की रजा में नेत्र-हीन हो गया उसको हम अंधा नहीं कहते, हे नानक! वह मनुष्य अंधा कहा जाता है जो रजा को समझता नहीं।3।
[[0955]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ काइआ अंदरि गड़ु कोटु है सभि दिसंतर देसा ॥ आपे ताड़ी लाईअनु सभ महि परवेसा ॥ आपे स्रिसटि साजीअनु आपि गुपतु रखेसा ॥ गुर सेवा ते जाणिआ सचु परगटीएसा ॥ सभु किछु सचो सचु है गुरि सोझी पाई ॥१६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ काइआ अंदरि गड़ु कोटु है सभि दिसंतर देसा ॥ आपे ताड़ी लाईअनु सभ महि परवेसा ॥ आपे स्रिसटि साजीअनु आपि गुपतु रखेसा ॥ गुर सेवा ते जाणिआ सचु परगटीएसा ॥ सभु किछु सचो सचु है गुरि सोझी पाई ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाईअनु = लगाई हुई उसने। साजीअनु = रची है उसने। गुर सेवा = गुरु की बताई हुई सेवा से, गुरु के हुक्म में चल के। गुरि = गुरु से।
अर्थ: (मनुष्य का) शरीर के अंदर (मनुष्य का हृदय-रूप) जिस प्रभु का किला है गढ़ है वह प्रभु सारे देश-देशांतरों में मौजूद है, सारे जीवों के अंदर परवेश करके उसने खुद ही (जीवों के अंदर) समाधि (ताड़ी) लगाई हुई है (वह खुद ही जीवों के अंदर टिका हुआ है)। प्रभु ने खुद ही सृष्टि रची है और खुद ही (उस सृष्टि में उसने अपने आप को) छुपाया हुआ है। उस प्रभु की सूझ सतिगुरु के हुक्म में चलने से आती है (तब ही) सच्चा प्रभु प्रकट होता है।
है तो हर जगह सच्चा प्रभु खुद ही खुद, पर ये समझ सतिगुरु के द्वारा ही आती है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ सावणु राति अहाड़ु दिहु कामु क्रोधु दुइ खेत ॥ लबु वत्र दरोगु बीउ हाली राहकु हेत ॥ हलु बीचारु विकार मण हुकमी खटे खाइ ॥ नानक लेखै मंगिऐ अउतु जणेदा जाइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ सावणु राति अहाड़ु दिहु कामु क्रोधु दुइ खेत ॥ लबु वत्र दरोगु बीउ हाली राहकु हेत ॥ हलु बीचारु विकार मण हुकमी खटे खाइ ॥ नानक लेखै मंगिऐ अउतु जणेदा जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरोगु = झूठ। बीउ = बींज। हाली राहकु = हल चलाने वाला, बीजने वाला। हेत = मोह। मण = बोहल। अउतु = (अ+उतु, अ+पुतु) बगैर पुत्र के, संतान हीन। जणेदा = पैदा करने वाला, पिता।
अर्थ: (जिस जीव की) रात खरीफ (सावणी) की फसल है और ‘काम’ जिसका खेत है (भाव, जो जीव अपनी रात ‘काम’ के अधीन हो के गुजारता है), जिसका दिन रबी (हाड़ी) की फसल है और ‘क्रोध’ जिसका खेत है (भाव, जो दिन का समय क्रोध में बिताता है), जिस जीव के लिए ‘लब’ वत्र (वतर- जोत के सींच के तैयार की गई जमीन की उपयुक्त अवस्था जो बीज बीजने का सही समय होता है) का काम (देता) है और झूठ (जिसकी फसल के लिए) बीज है (भाव, जो लब अर्थात लालच का प्रेरा हुआ झूठ बोलता है), ‘मोह’ जिस जीव के लिए हल चलाने वाला है और बीज बीजने वाला है; विकारों की विचार जिस जीव का ‘हल’ है; जिसने विकारों के बोहल (अनाज की ढेरी) इकट्ठे किए हैं, वह मनुष्य प्रभु के हुक्म में अपनी की हुई कमाई का कमाया खाता है। हे नानक! जब जीव की करतूत का लेखा माँगा जाता है तब पता लगता है कि ऐसा (जीव-रूप) पिता (जगत से) बे-औलाद ही चला जाता है (भाव, जीवन व्यर्थ गवा के जाता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ भउ भुइ पवितु पाणी सतु संतोखु बलेद ॥ हलु हलेमी हाली चितु चेता वत्र वखत संजोगु ॥ नाउ बीजु बखसीस बोहल दुनीआ सगल दरोग ॥ नानक नदरी करमु होइ जावहि सगल विजोग ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ भउ भुइ पवितु पाणी सतु संतोखु बलेद ॥ हलु हलेमी हाली चितु चेता वत्र वखत संजोगु ॥ नाउ बीजु बखसीस बोहल दुनीआ सगल दरोग ॥ नानक नदरी करमु होइ जावहि सगल विजोग ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुइ = भूमि, खेती, पैली। पवितु = पवित्र, शुद्ध आचरण। बलेद = बल्द, बैल। संजोगु = गुरु के साथ मेल। दरोग = नाशवान। करमु = कृपा, बख्शिश। हलेमी = निम्रता। चेता = स्मरण। वखत = बीजने का समय।
अर्थ: अगर प्रभु का डर भूमि बने, शुद्ध आचरण (उस खेती के लिए) (सिंचाई का) पानी हो, सत् और संतोख (उस खेती को जोतने के लिए) बैल हो; विनम्रता हल हो, (जुड़ा हुआ) चिक्त हल जोतने वाला हो, प्रभु के स्मरण का वतर (बीज बीजने के लिए तैयार भूमि) हो और गुरु का मिलाप (बीज बीजने का) समय हो, प्रभु का ‘नाम’ बीज हो तो प्रभु की बख्शिश का बोहल (फसल का ढेर) इकट्ठा होता है और (तब) दुनिया सारी झूठी दिख पड़ती है (भाव, ये समझ आ जाती है कि दुनिया का साथ सदा निभने वाला नहीं)।
हे नानक! (इस उद्यम से जब) प्रभु की मेहर होती है तब (उससे) सारे विछोड़े दूर हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ मनमुखि मोहु गुबारु है दूजै भाइ बोलै ॥ दूजै भाइ सदा दुखु है नित नीरु विरोलै ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ मथि ततु कढोलै ॥ अंतरि परगासु घटि चानणा हरि लधा टोलै ॥ आपे भरमि भुलाइदा किछु कहणु न जाई ॥१७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ मनमुखि मोहु गुबारु है दूजै भाइ बोलै ॥ दूजै भाइ सदा दुखु है नित नीरु विरोलै ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ मथि ततु कढोलै ॥ अंतरि परगासु घटि चानणा हरि लधा टोलै ॥ आपे भरमि भुलाइदा किछु कहणु न जाई ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुबारु = गहरा अंधेरा। भाइ = भाव में, प्यार में। दूजै भाइ = प्रभु के बिना किसी और के मोह में। नीरु = पानी। विरोलै = रिड़कता है, मथता है। मथि = मथ के। ततु = अस्लियत। टोलै = टोल के।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसके अंदर मोह-रूपी घोर अंधेरा है, (वह जो वचन बोलता है) माया के मोह में ही बोलता है, वह (मानो) सदा पानी मथता है और माया के मोह के कारण उसको सदा दुख (होता) है।
जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है वह प्रभु का नाम स्मरण करता है वह (मानो, दूध) मथ के प्रभु का नाम-रूप मक्खन निकालता है। उसके हृदय में (प्रभु का) प्रकाश हो जाता है दिल में (ज्ञान की) रौशनी हो जाती है, उसने (गुरु के द्वारा) तलाश करके प्रभु को पा लिया है।
(जिस किसी को भुलाता है) प्रभु खुद ही भ्रम में भुलाता है (किसी के सिर क्या दोष?) कोई बात कहीं नहीं जा सकती।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः २ ॥ नानक चिंता मति करहु चिंता तिस ही हेइ ॥ जल महि जंत उपाइअनु तिना भि रोजी देइ ॥ ओथै हटु न चलई ना को किरस करेइ ॥ सउदा मूलि न होवई ना को लए न देइ ॥ जीआ का आहारु जीअ खाणा एहु करेइ ॥ विचि उपाए साइरा तिना भि सार करेइ ॥ नानक चिंता मत करहु चिंता तिस ही हेइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः २ ॥ नानक चिंता मति करहु चिंता तिस ही हेइ ॥ जल महि जंत उपाइअनु तिना भि रोजी देइ ॥ ओथै हटु न चलई ना को किरस करेइ ॥ सउदा मूलि न होवई ना को लए न देइ ॥ जीआ का आहारु जीअ खाणा एहु करेइ ॥ विचि उपाए साइरा तिना भि सार करेइ ॥ नानक चिंता मत करहु चिंता तिस ही हेइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिंता = फिक्र। तिस ही = उस प्रभु को ही। उपाइअनु = पैदा किए हैं उसने। रोजी = रिज़क। ओथै = पानी में। किरस = खेती, किसानी। आहारु = खुराक। साइरा = समुंद्रों। सार = संभाल।
अर्थ: हे नानक! (अपनी रोजी के लिए) फिक्र-चिन्ता ना करो, ये फिक्र उस प्रभु को खुद ही है। उसने पानी में जीव पैदा किए हैं उनको भी रिजक देता है; पानी में ना कोई दुकान चलती है ना ही वहाँ कोई खेती करता है, ना वहाँ कोई सौदा-सूत हो रहा है ना ही कोई लेन-देन का व्यापार है; पर वहाँ ये खुराक बना दी है कि जीवों का खाना जीव ही हैं। सो, जिनको समुंदर में उसने पैदा किया है उनकी भी संभाल करता है। हे नानक! (रोजी के लिए) चिन्ता ना करो, उस प्रभु को खुद ही फिक्र है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ नानक इहु जीउ मछुली झीवरु त्रिसना कालु ॥ मनूआ अंधु न चेतई पड़ै अचिंता जालु ॥ नानक चितु अचेतु है चिंता बधा जाइ ॥ नदरि करे जे आपणी ता आपे लए मिलाइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ नानक इहु जीउ मछुली झीवरु त्रिसना कालु ॥ मनूआ अंधु न चेतई पड़ै अचिंता जालु ॥ नानक चितु अचेतु है चिंता बधा जाइ ॥ नदरि करे जे आपणी ता आपे लए मिलाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मछुली = छोटी सी मछली। झीवरु = माछी, मछली पकड़ने वाला जाल। कालु = मौत, आत्मिक मौत लाने वाला। मनूआ = मूर्ख मन। अचिंता = अचानक, बेखबरी में। अचेतु = गाफल, बेपरवाह।
अर्थ: हे नानक! ये जिंद छोटी सी मछली है, आत्मिक मौत लाने वाली तृष्णा रूपी जाल है; मूर्ख मन (इस तृष्णा में) अंधा (होया हुआ परमात्मा को) याद नहीं करता, बेख़बरी में ही (आत्मिक मौत का) जाल (इस पर) पड़ता जाता है। हे नानक! (तृष्णा में फसा हुआ) मन गाफ़िल हो रहा है, सदा चिन्ता में जकड़ा रहता है। अगर प्रभु स्वयं अपनी मेहर की नजर करे तो (जीवात्मा को तृष्णा की पकड़ से निकाल के) अपने में मिला लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ से जन साचे सदा सदा जिनी हरि रसु पीता ॥ गुरमुखि सचा मनि वसै सचु सउदा कीता ॥ सभु किछु घर ही माहि है वडभागी लीता ॥ अंतरि त्रिसना मरि गई हरि गुण गावीता ॥ आपे मेलि मिलाइअनु आपे देइ बुझाई ॥१८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ से जन साचे सदा सदा जिनी हरि रसु पीता ॥ गुरमुखि सचा मनि वसै सचु सउदा कीता ॥ सभु किछु घर ही माहि है वडभागी लीता ॥ अंतरि त्रिसना मरि गई हरि गुण गावीता ॥ आपे मेलि मिलाइअनु आपे देइ बुझाई ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। गावीता = गाने से। मिलाइअनु = मिलाए हैं उस (प्रभु) ने। बुझाई = समझ, मति।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने प्रभु का नाम-अमृत पीया है वह मनुष्य नित्य प्रभु के साथ एक-रूप रहते हैं, गुरु के हुक्म में चलके सदा कायम रहने वाला प्रभु उनके मन में बसता है, उन्होंने प्रभु का नाम-रूपी वणज किया है। ये नाम-रूपी सौदा है तो सारा मनुष्य के हृदय में ही, पर (इसका) वाणिज्य किया है बड़े भाग्यशालियों ने ही; (जिन्होंने ये वाणिज्य किया है) प्रभु के गुण गा के उनके अंदर से तृष्णा मर गई है।
(ये नाम-रूप सौदा करने की) मति प्रभु ही देता है, और उसने खुद ही (नाम के व्यापारी अपने) मेल में मिलाए हैं।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः १ ॥ वेलि पिंञाइआ कति वुणाइआ ॥ कटि कुटि करि खु्मबि चड़ाइआ ॥ लोहा वढे दरजी पाड़े सूई धागा सीवै ॥ इउ पति पाटी सिफती सीपै नानक जीवत जीवै ॥ होइ पुराणा कपड़ु पाटै सूई धागा गंढै ॥ माहु पखु किहु चलै नाही घड़ी मुहतु किछु हंढै ॥ सचु पुराणा होवै नाही सीता कदे न पाटै ॥ नानक साहिबु सचो सचा तिचरु जापी जापै ॥१॥
मूलम्
सलोक मः १ ॥ वेलि पिंञाइआ कति वुणाइआ ॥ कटि कुटि करि खु्मबि चड़ाइआ ॥ लोहा वढे दरजी पाड़े सूई धागा सीवै ॥ इउ पति पाटी सिफती सीपै नानक जीवत जीवै ॥ होइ पुराणा कपड़ु पाटै सूई धागा गंढै ॥ माहु पखु किहु चलै नाही घड़ी मुहतु किछु हंढै ॥ सचु पुराणा होवै नाही सीता कदे न पाटै ॥ नानक साहिबु सचो सचा तिचरु जापी जापै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोहा = कैंची। इउ = इसी तरह ही। पति पाटी = गवाई हुई इज्जत। सिफती = प्रभु की महिमा करने से। जीवत जीवै = असल जीवन गुजारने लग पड़ता है। माहु = महीना। पखु = (प्रकाश और अंधकार पक्ष) आधा महीना। किहु = कुछ। चलै = चलता है। मुहतु = महूरत, घड़ी। तिचरु जापी जापे = उतने समय तक दिखता है जितने समय तक जपें।
अर्थ: (रूई को बेलने में) बेल के पिंजाई की जाती है, कात के (कपड़ा) बुना जाता है, इसके टुकड़े करके (धोने के लिए) साँचे में चढ़ाते हैं। (इस कपड़े को) कैंची कतरती है, दर्जी इसे चीरता है, और सूई-धागा सिलता है। (जैसे ये कटा हुआ फाड़ा हुआ कपड़ा सुई-धागे से सिला जाता है) वैसे ही, हे नानक! मनुष्य की खोई हुई इज्जत प्रभु की महिमा करने से फिर बन जाती है और मनुष्य सदाचारी जीवन गुजारने लग जाता है।
कपड़ा पुराना हो के फट जाता है, सुई-धागा इसको सी देता है, (पर ये सिला हुआ मरम्मत किया हुआ पुराना कपड़ा) कोई महीना आधा महीना नहीं चलता, सिर्फ घड़ी दो घड़ी (थोड़े वक्त) ही चलता है; (पर) प्रभु का नाम (-रूपी पटोला) कभी पुराना नहीं होता, (नाम से) सिला हुआ कभी फटता नहीं (उस प्रभु से जुड़ा हुआ मन उससे कभी टूटता नहीं)। हे नानक! प्रभु-पति सदा कायम रहने वाला है, पर इस बात की समझ तब ही पड़ती है जब उसको स्मरण करें।1।
[[0956]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ सच की काती सचु सभु सारु ॥ घाड़त तिस की अपर अपार ॥ सबदे साण रखाई लाइ ॥ गुण की थेकै विचि समाइ ॥ तिस दा कुठा होवै सेखु ॥ लोहू लबु निकथा वेखु ॥ होइ हलालु लगै हकि जाइ ॥ नानक दरि दीदारि समाइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ सच की काती सचु सभु सारु ॥ घाड़त तिस की अपर अपार ॥ सबदे साण रखाई लाइ ॥ गुण की थेकै विचि समाइ ॥ तिस दा कुठा होवै सेखु ॥ लोहू लबु निकथा वेखु ॥ होइ हलालु लगै हकि जाइ ॥ नानक दरि दीदारि समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काती = (सं: कर्तरी) कैंची, चाकू, छूरी। सारु = लोहा। थेक = म्यान। कुठा = कोह के निर्दयता से मारा हुआ, हलाल। निकथा = निकला। हकि = हक में, सदा कायम रहने वाले ईश्वर में। दरि = प्रभु के दर पर। दीदारि = दीदार में।
अर्थ: अगर प्रभु के नाम की छुरी हो, प्रभु का नाम ही (उस छुरी का) सारा लोहा हो, उस छुरी की संरचना बहुत सुंदर होती है; ये छुरी सतिगुरु के शब्द की सान पर रख कर तेज (धार) की जाती है, और ये प्रभु के गुणों की म्यान में टिकी रहती है।
अगर शेख इस छुरी का कुठा हुआ हो (भाव, अगर ‘शेख’ का जीवन प्रभु के नाम, सतिगुरु के शब्द और प्रभु की महिमा में घड़ा हुआ हो) तो उसके अंदर से लालच रूपी लहू अवश्य निकल जाता है, इस तरह हलाल हो के (कुठा जा के) वह प्रभु में जुड़ता है, और, हे नानक! प्रभु के दर पर (पहुँच के) उसके दर्शन में लीन हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ कमरि कटारा बंकुड़ा बंके का असवारु ॥ गरबु न कीजै नानका मतु सिरि आवै भारु ॥३॥
मूलम्
मः १ ॥ कमरि कटारा बंकुड़ा बंके का असवारु ॥ गरबु न कीजै नानका मतु सिरि आवै भारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कमरि = कमर पर। बंकुड़ा = बाँका सा, सुंदर सा। कटारा = खंजर। बंके का = सुंदर घोड़े का। गरबु = अहंकारु। मतु = कहीं ऐसा ना हो। सिरि = सिर पर। आवै भारु = (सारा) बोझ सिर पर आ जाए, भाव, सिर के भार गिर जाए।
अर्थ: कमर पर सुंदर सी कटार हो और सुंदर घोड़े पर सवार हो, (फिर भी) हे नानक! गुमान ना करें, (क्या पता है) मत कहीं सिर के बल ही गिर ही ना पड़े।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सो सतसंगति सबदि मिलै जो गुरमुखि चलै ॥ सचु धिआइनि से सचे जिन हरि खरचु धनु पलै ॥ भगत सोहनि गुण गावदे गुरमति अचलै ॥ रतन बीचारु मनि वसिआ गुर कै सबदि भलै ॥ आपे मेलि मिलाइदा आपे देइ वडिआई ॥१९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सो सतसंगति सबदि मिलै जो गुरमुखि चलै ॥ सचु धिआइनि से सचे जिन हरि खरचु धनु पलै ॥ भगत सोहनि गुण गावदे गुरमति अचलै ॥ रतन बीचारु मनि वसिआ गुर कै सबदि भलै ॥ आपे मेलि मिलाइदा आपे देइ वडिआई ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख, गुरु के हुक्म में। सो = वह मनुष्य। सबदि = गुरु के शब्द में। धिआइनि = ध्याते हैं। जिन पलै = जिस के पल्ले में, जिस के पास। सोहनि = शोभा देते हैं। अचलै = अडोल (हो जाते हैं)। रतन बीचारु = प्रभु के नाम रतन की विचार, प्रभु के श्रेष्ठ नाम की विचार। सबदि भलै = सुंदर शब्द से।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है वह साधु-संगत में आ के गुरु के शब्द में जुड़ता है। जिस मनुष्यों के पल्ले प्रभु का नाम-रूपी धन है (जिंदगी के सफर के लिए) खर्च है वह सदा कायम रहने वाले प्रभु को स्मरण करते हैं और उसी का रूप हो जाते हैं। बँदगी करने वाले लोग प्रभु के गुण गाते हैं और सुंदर लगते हैं, सतिगुरु की मति को ले के वे अडोल हो जाते हैं, सतिगुरु के सोहाने शब्द के द्वारा उनके मन में प्रभु के श्रेष्ठ नाम की विचार आ बसती है।
(भक्त जनों को) प्रभु खुद ही अपने में मिलाता है, स्वयं ही उनको शोभा देता है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ३ ॥ आसा अंदरि सभु को कोइ निरासा होइ ॥ नानक जो मरि जीविआ सहिला आइआ सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ३ ॥ आसा अंदरि सभु को कोइ निरासा होइ ॥ नानक जो मरि जीविआ सहिला आइआ सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कोइ = कोई विरला। निरासा = आशाओं से बचा हुआ। मरि = मर के, आशाओं से हट के। सहिला = सफल।
अर्थ: हरेक जीव आशाओं में (फसा हुआ) है (भाव, नित्य-नई आशाएं तमन्नाएं बनाता रहता है), कोई विरला मनुष्य है जो आशाओं से बचा रहता है। हे नानक! जो मनुष्य आशाओं से हट के (प्रभु के स्मरण में) जीवन गुजारता है उसका आना सफल है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ३ ॥ ना किछु आसा हथि है केउ निरासा होइ ॥ किआ करे एह बपुड़ी जां भुोलाए सोइ ॥२॥
मूलम्
मः ३ ॥ ना किछु आसा हथि है केउ निरासा होइ ॥ किआ करे एह बपुड़ी जां भुोलाए सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसा हथि = आशा के हाथ में, आशा के वश में। केउ = कैसे, किस तरह? एह = ये आशा। बपुड़ी = बेचारी। सोइ = वह प्रभु खुद।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भुोलाऐ’ में से अक्षर ‘भ’ की ‘ो’ मात्रा यहाँ पढ़नी है अर्थात यहाँ ‘भोलाए’ पढ़ना है जबकि असल शब्द है ‘भुलाए’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: ‘आसा’ के हाथ में कोई ताकत नहीं (कि जीवों को फसा सके; सो, अपने उद्यम से भी) मनुष्य ‘आशा’ से नहीं बच सकता। ये बेचारी ‘आसा’ क्या कर सकती है? भुलाता तो वह प्रभु खुद है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ध्रिगु जीवणु संसार सचे नाम बिनु ॥ प्रभु दाता दातार निहचलु एहु धनु ॥ सासि सासि आराधे निरमलु सोइ जनु ॥ अंतरजामी अगमु रसना एकु भनु ॥ रवि रहिआ सरबति नानकु बलि जाई ॥२०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ध्रिगु जीवणु संसार सचे नाम बिनु ॥ प्रभु दाता दातार निहचलु एहु धनु ॥ सासि सासि आराधे निरमलु सोइ जनु ॥ अंतरजामी अगमु रसना एकु भनु ॥ रवि रहिआ सरबति नानकु बलि जाई ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। संसार जीवणु = दुनिया का जीना। निहचलु = ना नाश होने वाला। एहु = ये नाम। सासि सासि = हरेक सांस में। सोइ = सो ही, वही। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। अगमु = अ+गमु, जिस तक पहुँच ना हो सके। रसना = जीभ। भनु = उचार, जप। रवि रहिआ = व्यापक है। सरबति = सभी में।
अर्थ: सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम स्मरण के बिना जगत में जीना धिक्कारयोग्य है। प्रभु ही (सबका) दाता है सब दातें देने वाला है; सो, उसका ये (नाम-) धन ही (ऐसा है जो) कभी नाश होने वाला नहीं। वही मनुष्य पवित्र (जीवन वाला) है जो (प्रभु को) हरेक सांस के साथ याद करता है। (हे भाई!) जीभ से उस एक प्रभु को याद कर जो सबके दिल की जानता है और जो (जीवों की) पहुँच से परे है। नानक उस प्रभु से सदके है जो सभी में व्यापक है।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः १ ॥ सरवर हंस धुरे ही मेला खसमै एवै भाणा ॥ सरवर अंदरि हीरा मोती सो हंसा का खाणा ॥ बगुला कागु न रहई सरवरि जे होवै अति सिआणा ॥ ओना रिजकु न पइओ ओथै ओन्हा होरो खाणा ॥ सचि कमाणै सचो पाईऐ कूड़ै कूड़ा माणा ॥ नानक तिन कौ सतिगुरु मिलिआ जिना धुरे पैया परवाणा ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः १ ॥ सरवर हंस धुरे ही मेला खसमै एवै भाणा ॥ सरवर अंदरि हीरा मोती सो हंसा का खाणा ॥ बगुला कागु न रहई सरवरि जे होवै अति सिआणा ॥ ओना रिजकु न पइओ ओथै ओन्हा होरो खाणा ॥ सचि कमाणै सचो पाईऐ कूड़ै कूड़ा माणा ॥ नानक तिन कौ सतिगुरु मिलिआ जिना धुरे पैया परवाणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरे ही = धुर से ही, आदि से ही। मेला = मेल। खसमै = पति को। खाणा = खुराक। कागु = कौआ। सरवरि = सरवर में। जे = हलांकि। ओना = उन कौए और बगुलों का। सचि कमाणै = यदि प्रभु का स्मरण रूप कमाई की जाए। कूड़ै = झूठ की कमाई का। परवाणा = परवाना, हुक्म।
अर्थ: (गुरु-) सरोवर और (गुरमुख-) हंस का मेल धुर से चला आ रहा है, पति-प्रभु को ये बात अच्छी लगती है, हंसों (गुरमुखों) की ख़ुराक (प्रभु की महिमा रूपी) हीरे मोती है जो (गुरु-) सरोवर में मिलते हैं। कौए और बगुला (मनमुख) भले ही कितना ही समझदार (चतुर) हो वहाँ (गुरु की संगति में) नहीं रह सकता, (क्योंकि) उन (कौए बगुले मनमुखों) की ख़ुराक वहाँ नहीं है, उनकी खुराक अलग ही होती है।
अगर सदा कायम रहने वाले प्रभु की बँदगी-रूपी कमाई करें तो सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मिलता है, (पर) झूठ की कमाई का गुमान भी झूठा ही है। (पर, इन मनमुखों के भी क्या वश?) हे नानक! जिनको धुर से प्रभु की आज्ञा मिली है उनको ही सतिगुरु (-सरोवर) मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः १ ॥ साहिबु मेरा उजला जे को चिति करेइ ॥ नानक सोई सेवीऐ सदा सदा जो देइ ॥ नानक सोई सेवीऐ जितु सेविऐ दुखु जाइ ॥ अवगुण वंञनि गुण रवहि मनि सुखु वसै आइ ॥२॥
मूलम्
मः १ ॥ साहिबु मेरा उजला जे को चिति करेइ ॥ नानक सोई सेवीऐ सदा सदा जो देइ ॥ नानक सोई सेवीऐ जितु सेविऐ दुखु जाइ ॥ अवगुण वंञनि गुण रवहि मनि सुखु वसै आइ ॥२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शलोक के साथ किसी ‘महले’ की जिकर नहीं; यहाँ भी पहले शलोक का ‘महला १’ ही समझना।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उजला = पवित्र। चिति करेइ = चिक्त में बसाता है। देइ = देता है। जितु सेविऐ = जिसका स्मरण करने से।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘सेवीअै’ और ‘सेविअै’ के ‘उच्चारण’ और ‘अर्थ’ का फर्क याद रखने योग्य है)।
दर्पण-भाषार्थ
वंञनि = वंजनि, दूर हो जाते हैं। रवहि = आ बसते हैं। मनि = मन में।
अर्थ: मेरा मालिक (-प्रभु) पवित्र है जो कोई भी उसको अपने हृदय में बसाता है (वह भी पवित्र हो जाता है)। हे नानक! जो प्रभु सदा ही (जीवों को दातें) देता है उसको स्मरणा चाहिए।
हे नानक! उस प्रभु को ही स्मरणा चाहिए जिसका स्मरण करने से दुख दूर हो जाता है, अवगुण दूर हो जाते हैं, गुण (हृदय में) बस जाते हैं और सुख मन में आ बसता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे आपि वरतदा आपि ताड़ी लाईअनु ॥ आपे ही उपदेसदा गुरमुखि पतीआईअनु ॥ इकि आपे उझड़ि पाइअनु इकि भगती लाइअनु ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी आपे नाइ लाईअनु ॥ नानक नामु धिआईऐ सची वडिआई ॥२१॥१॥ >सुधु ॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे आपि वरतदा आपि ताड़ी लाईअनु ॥ आपे ही उपदेसदा गुरमुखि पतीआईअनु ॥ इकि आपे उझड़ि पाइअनु इकि भगती लाइअनु ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी आपे नाइ लाईअनु ॥ नानक नामु धिआईऐ सची वडिआई ॥२१॥१॥ >सुधु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाइअनु = लगाई है उसने। गुरमुखि = गुरु से। पतीआईनु = (सृष्टि) पतिआई है उसने। इकि = कई जीव। उझड़ि = कुराहे, गलत राह पर। लाइअनु = लगाए हैं उसने। नाइ = नाम में। लाईअनु = (दृष्टि) लगाई है उसने।
अर्थ: (सृष्टि में) प्रभु स्वयं ही (हर जगह) मौजूद है उसने स्वयं ही ताड़ी (समाधि) लगाई हुई है (भाव, खुद ही गुप्त रूप में व्याप्त है)। (गुरु-रूप हो के) स्वयं ही (जीवों को) उपदेश दे रहा है, गुरु के माध्यम से स्वयं ही उसने सृष्टि को पतियाया हुआ है। कई जीव उसने खुद ही गलत राह पर डाले हुए हैं और कई जीव उसने बँदगी में लगाए हुए हैं। प्रभु स्वयं जिस जीव को समझ देता है वह ही (सही रास्ते को) समझता है, उसने स्वयं ही (सृष्टि) अपने नाम में लगाई हुई है।
हे नानक! प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए, ये ही सदा कायम रहने वाली बड़ाई है।21।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली की वार महला ५
मूलम्
रामकली की वार महला ५
दर्पण-भाव
पउड़ी-वार भाव:
ये सारी जगत रचना परमात्मा ने स्वयं रची है, और इसमें हर जगह वह स्वयं ही व्यापक है। इतनी बेअंत कुदरत रचने वाला वह स्वयं ही है। इस काम में कोई उसका सलाहकार नहीं है।
जगत में बेअंत जीव-जंतु पैदा करके सबको रिजक भी वह परमात्मा स्वयं ही पहुँचाता है। सबका आसरा-परना भी वह स्वयं ही है। जीवों की पालना ऐसे करता है जैसे माता-पिता अपने बच्चों को पालते हैं। किसी को किसी पर आश्रित नहीं रखता।
परमात्मा सब जीवों के अंग-संग बसता है। कोई जीव कोई काम उससे छुपा के नहीं कर सकता। जगत में कामादिक अनेक विकार भी हैं। परमात्मा जिस मनुष्य को आत्मिक ताकत बख्शता है वह इन विकारों में दुखी होने से बच जाता है।
जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु की शरण में रख के अपनी महिमा की दाति देता है उसका मन परमात्मा के प्यार-रंग में इतना रंगा जाता है कि कामादिक विकार उस पर जोर नहीं डाल सकते। ऐसे मनुष्य की संगति में और भी अनेक लोग परमात्मा की महिमा को अपनी जिंदगी का आसरा बना लेते हैं।
परमात्मा की महिमा करने वाले लोगों की संगति में रह के वह मन भी पवित्र हो जाता है जो विकारों से मैला हो के विकार-रूप ही हो चुका होता है। ऐसे गुरमुखों की संगति परमात्मा की मेहर से ही मिलती है। जिसके माथे के भाग्य जाग उठें, उसको गुरु के चरणों की धूल प्राप्त होती है।
जिस मनुष्य के मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है परमात्मा की महिमा प्यारी लगती है उसके अंदर से तंग-दिली दूर हो जाती है उसको सारा संसार ही एक बड़ा परिवार दिखने लगता है। कोई चिन्ता उसे छू नहीं सकती।
जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है वह मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है उसका स्वै-भाव (अहम्) मिट जाता है, वह माया के हमलों के मुकाबले के सन्मुख अडोल हो जाता है तृष्णा की आग उसको छू नहीं सकती। ये सदाचारी जीवन उसको गुरु से हासिल होता है।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है वह मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है कोई विकार उसके आत्मिक जीवन को बिगाड़ नहीं सकता उसका जीवन पवित्र हो जाता है और उसको किसी की अधीनगी नहीं रह जाती।
परमात्मा हर जगह हरेक जीव की संभाल करता है। जिस पर उसकी मेहर की नजर होती है वह गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा की महिमा करता है और संसार-समुंदर के विकारों की लहरों में से आत्मिक जीवन की बेड़ी को सही सलामत पार लंघा लेता है।
परमात्मा उन लोगों से प्यार करता है जो परमात्मा की भक्ति करते हैं और परमात्मा को ही अपना आसरा-परना बनाए रखते हैं। दिखावे के तरले, धर्म-पुस्तकों के पठन-पाठन, तीर्थ स्नान, धरती का रटन, चतुराई-समझदारी - ऐसे किसी भी साधन से परमात्मा का प्यार नहीं जीता जा सकता।
जिस मनुष्य को परमात्मा की महिमा की लगन लग जाती है, वह विकारों की गिरफत में आ के मनुष्य-जनम की बाजी नहीं हारता। परमात्मा की महिमा वह मनुष्य की आत्मिक खुराक बन जाती है। इस खुराक के बिना वह रह नहीं सकता।
परमात्मा की महिमा सुन के मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मनुष्य के अंदर से पशु-स्वभाव नीच स्वभाव दूर हो जाता है। नाम की इनायत से माया की भूख-प्यास मिट जाती है, कोई दुख कोई विकार मनुष्य के मन पर अपना जोर नहीं डाल सकता। पर, ये नाम-हीरा गुरु के शब्द में जुड़ने से ही प्राप्त होता है।
गुरु के द्वारा जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है वह जीवन की बाजी हार के नहीं जाता। गुरु उसको अवश्य विकारों की लहरों में डूबने से बचा लेता है, मायावी भटकना उसके अंदर से समाप्त हो जाती है। वह मनुष्य सबकी धूल बना रहता है।
परमात्मा की याद से टूटे हुए मनुष्य को सारे दुख-कष्ट आ दबाते हैं, किसी भी उपाय से इनसे खलासी नहीं होती। आत्मिक गुणों से वह मनुष्य कंगाल ही रहता है, अनेक विकारों में गलतान रहता है, सारी उम्र वह ‘मैं, मैं’ करने में ही गुजारता है, और खिझा हुआ ही रहता है।
साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा की इनायत से मनुष्य की सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ वश में आ जाती हैं उसके अंदर से माया की खातिर भटकना माया की झाक समाप्त हो जाती है, उसको हरेक के अंदर परमात्मा ही बसता दिखाई देता है, उसकी तवज्जो हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है।
महिमा की इनायत से मनुष्य को परमात्मा की रजा प्यारी लगने लग जाती है। परमात्मा के साथ सदा सांझ डाले रखने वाले लोगों पर कोई विकार जोर नहीं डाल सकता।
परमात्मा की मेहर की निगाह से जो मनुष्य उसकी सेवा-भक्ति में लगता है वह विकारों के हमलों की ओर से सदा सचेत रहता है, वह अपने मन को अपने काबू में रखता है वह विकारों का मुकाबला करने के लायक हो जाता है।
महिमा करने वाले मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि परमात्मा सब जीवों में मौजूद है, और सब ताकतों का मालिक है, इतने जगत-पसारे का मालिक होते हुए भी उसे कोई परेशानी नहीं होती।
जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है। गुरु उसको परमात्मा की महिमा की दाति देता है जिसकी इनायत से उसका जीवन बहुत ऊँचा हो जाता है।
परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को गुरु के माध्यम से हरि-नाम की दाति मिलती है उसको समझ आ जाती है कि इस जगत-पसारे का रचनहार परमात्मा स्वयं ही है, इसमें हर जगह व्यापक होते हुए वह इससे निर्लिप भी रहता है। हरि-नाम की इनायत से उस मनुष्य का जीवन पवित्र हो जाता है।
परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को नाम की दाति मिलती है, उसके अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है। इस संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से परमात्मा उसकी जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघा देता है, उसको माया के मोह के घुप अंधेरे कूएँ में से बाहर निकाल लेता है।
स्मरण महिमा करने वाले मनुष्य को दृढ़ विश्वास हो जाता है कि परमात्मा ने खुद ही ये जगत रचा है और खुद ही इसमें हर जगह मौजूद है, सर्व-व्यापक होता हुआ भी वह निर्लिप भी है।
मुख्य भाव:
इस सारे जगत को पैदा करने वाला और इसमें हर जगह व्यापक परमात्मा स्वयं ही है। जिस मनुष्य पर वह मेहर करता है उसको गुरु मिलाता है, गुरु की शरण में डाल के उसको अपनी महिमा बख्शता है।
महिमा की इनायत से मनुष्य का आत्मिक जीवन बहुत ऊँचा हो जाता है, कोई विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।
दर्पण-टिप्पनी
‘वार’ की संरचना:
इस ‘वार’ में 22 पौड़ियाँ हैं, हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुकें हैं। किसी भी पौड़ी में गिनती की उलंघना नहीं है।
इस ‘वार’ के साथ जो शलोक दर्ज हैं वह भी ‘वार’ की ही तरह सारे गुरु अरजन देव जी के ही हैं। पर कई शलोक बहुत बड़े हैं और कई शलोक सिर्फ दो-दो तुकों के हैं। पउड़ी नं: 20 के साथ दर्ज शलोक हैं तो गुरु अरजन साहिब के पर हैं ये कबीर जी के एक शलोक के संदर्भ में। पउड़ी नं: 21 के साथ दर्ज शलोक भी हैं तो गुरु अरजन साहिब के, पर हैं बाबा फरीद जी के शलोकों के प्रथाय। इस विचार से नतीजा ये निकलता है कि पौड़ियाँ और शलोक एक ही समय में उचारे हुए नहीं हैं। ये ‘वार’ पहले सिर्फ पौड़ियों का ही संग्रह था।
इसके मुकाबले में देखिए गुरु अरजन साहिब की जैतसरी राग की ‘वार’। वहाँ पौड़ियों की एकसारता की तरह शलोक भी एकसार ही हैं। शलोक और पौड़ियों के शब्द भी मिलते-जुलते हैं। स्पष्ट है वह ‘वार’ शलोकों समेत एक समय पर ही लिखी गई है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ जैसा सतिगुरु सुणीदा तैसो ही मै डीठु ॥ विछुड़िआ मेले प्रभू हरि दरगह का बसीठु ॥ हरि नामो मंत्रु द्रिड़ाइदा कटे हउमै रोगु ॥ नानक सतिगुरु तिना मिलाइआ जिना धुरे पइआ संजोगु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ जैसा सतिगुरु सुणीदा तैसो ही मै डीठु ॥ विछुड़िआ मेले प्रभू हरि दरगह का बसीठु ॥ हरि नामो मंत्रु द्रिड़ाइदा कटे हउमै रोगु ॥ नानक सतिगुरु तिना मिलाइआ जिना धुरे पइआ संजोगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसीठु = बिचौला, वकील। मंत्रु = उपदेश। धुरे = धुर से, आदि से। संजोगु = मेल, मिलाप।
अर्थ: सतिगुरु (के बारे में) जिस प्रकार का सुनते थे, वैसा ही मैंने (आँखों से) देख लिया है, गुरु प्रभु की हजूरी का बिचौला है, प्रभु से विछुड़ों को (दोबारा) प्रभु से मिला देता है, प्रभु के नाम स्मरण का उपदेश (जीव के हृदय में) दृढ़ कर देता है (और इस तरह उसका) अहंकार का रोग दूर कर देता है।
पर, हे नानक! प्रभु उनको ही गुरु से मिलाता है जिनके भाग्यों में धुर से ही ये मेल लिखा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ इकु सजणु सभि सजणा इकु वैरी सभि वादि ॥ गुरि पूरै देखालिआ विणु नावै सभ बादि ॥ साकत दुरजन भरमिआ जो लगे दूजै सादि ॥ जन नानकि हरि प्रभु बुझिआ गुर सतिगुर कै परसादि ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ इकु सजणु सभि सजणा इकु वैरी सभि वादि ॥ गुरि पूरै देखालिआ विणु नावै सभ बादि ॥ साकत दुरजन भरमिआ जो लगे दूजै सादि ॥ जन नानकि हरि प्रभु बुझिआ गुर सतिगुर कै परसादि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वादि = झगड़ा करने वाले, वैरी। बादि = व्यर्थ। साकत = ईश्वर से टूटे हुए। सादि = स्वाद में। नानकि = नानक ने। परसादि = मेहर से। बुझिआ = ज्ञान हासिल कर लिया है, सांझ डाल ली है।
अर्थ: अगर एक प्रभु मित्र बन जाए तो सारे जीव मित्र बन जाते हैं; पर अगर एक अकाल-पुरख वैरी हो जाए तो सारे जीव वैरी बन जाते हैं (भाव, एक प्रभु को मित्र बनाने से सारे जीव प्यारे लगते हैं, और प्रभु से विछुड़ने पर जगत के सारे जीवों से दूरी बन जाती है)। ये बात पूरे गुरु ने दिखा दी है कि नाम-स्मरण के बिना (प्रभु को सज्जन बनाए बिना) और हरेक कार्य व्यर्थ है, (क्योंकि) ईश्वर से टूटे हुए विकारी व्यक्ति जो माया के स्वाद में मस्त रहते हैं वे भटकते फिरते हैं।
दास नानक ने सतिगुरु की मेहर का सदका परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ थटणहारै थाटु आपे ही थटिआ ॥ आपे पूरा साहु आपे ही खटिआ ॥ आपे करि पासारु आपे रंग रटिआ ॥ कुदरति कीम न पाइ अलख ब्रहमटिआ ॥ अगम अथाह बेअंत परै परटिआ ॥ आपे वड पातिसाहु आपि वजीरटिआ ॥ कोइ न जाणै कीम केवडु मटिआ ॥ सचा साहिबु आपि गुरमुखि परगटिआ ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ थटणहारै थाटु आपे ही थटिआ ॥ आपे पूरा साहु आपे ही खटिआ ॥ आपे करि पासारु आपे रंग रटिआ ॥ कुदरति कीम न पाइ अलख ब्रहमटिआ ॥ अगम अथाह बेअंत परै परटिआ ॥ आपे वड पातिसाहु आपि वजीरटिआ ॥ कोइ न जाणै कीम केवडु मटिआ ॥ सचा साहिबु आपि गुरमुखि परगटिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थटणहारै = बनाने वाले (प्रभु) ने। थाटु = बनावट। आपे = खुद ही। थटिआ = बनाया। खटिआ = (हरि नाम के व्यापार की) कमाई की। पसारु = जग रचना का पसारा। रटिआ = रति हुआ। कीम = कीमत। अलख = जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। परै परटिआ = परे से परे। वजीरटिआ = वजीर, सलाह देने वाला। मटिआ = मट, ठिकाना। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु के सन्मुख होने से, गुरु के बताए हुए राह पर चलने से।
अर्थ: बनाने वाले (प्रभु) ने खुद ही ये (जगत-) रचना बनाई है। (इस जगत-हाट में) वह खुद ही पूरा शाह है, और खुद ही (अपने नाम की) कमाई कमा रहा है। प्रभु खुद ही (जगत-) पसारा पसार के खुद ही (इस पसारे के) रंगों में मिला हुआ है। उस अलख परमात्मा की रची हुई कुरदति का मूल्य नहीं डाला जा सकता। प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, (वह एक ऐसा समुंदर है जिसकी) गहराई मापी नहीं जा सकती, उसका अंत नहीं पाया जा सकता, वह परे से परे है।
प्रभु स्वयं ही बहुत बड़ा पातशाह है, स्वयं ही अपना सलाहकार है। कोई जीव प्रभु की प्रतिभा का मूल्य नहीं डाल सकता, कोई नहीं जानता उसका कितना बड़ा (ऊँचा) ठिकाना है। प्रभु स्वयं ही सदा स्थिर रहने वाला मालिक है। गुरु के द्वारा ही उसके बारे में समझ पड़ती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ५ ॥ सुणि सजण प्रीतम मेरिआ मै सतिगुरु देहु दिखालि ॥ हउ तिसु देवा मनु आपणा नित हिरदै रखा समालि ॥ इकसु सतिगुर बाहरा ध्रिगु जीवणु संसारि ॥ जन नानक सतिगुरु तिना मिलाइओनु जिन सद ही वरतै नालि ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ५ ॥ सुणि सजण प्रीतम मेरिआ मै सतिगुरु देहु दिखालि ॥ हउ तिसु देवा मनु आपणा नित हिरदै रखा समालि ॥ इकसु सतिगुर बाहरा ध्रिगु जीवणु संसारि ॥ जन नानक सतिगुरु तिना मिलाइओनु जिन सद ही वरतै नालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। हउ = मैं। तिसु = उस (गुरु) को। बाहरा = बगैर। संसारि = जगत में। मिलाइअनु = मिलाया है उस (प्रभु) ने। वरतै = रहता है। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।
अर्थ: हे मेरे प्यारे सज्जन प्रभु! (मेरी विनती) सुन, मुझे गुरु के दीदार करा दे; मैं गुरु को अपना मन दे दूँगा और उसको सदा अपने हृदय में संभाल के रखूँगा, (क्योंकि) एक गुरु के बिना जगत में जीना धिक्कारयोग्य है (गुरु के बताए हुए राह पर चले बिना जगत में धिक्कारना ही मिलती हैं)। हे दास नानक! उस (प्रभु) ने उन (भाग्यशालियों) को गुरु मिलाया है, जिनके साथ प्रभु स्वयं बसता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ मेरै अंतरि लोचा मिलण की किउ पावा प्रभ तोहि ॥ कोई ऐसा सजणु लोड़ि लहु जो मेले प्रीतमु मोहि ॥ गुरि पूरै मेलाइआ जत देखा तत सोइ ॥ जन नानक सो प्रभु सेविआ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ मेरै अंतरि लोचा मिलण की किउ पावा प्रभ तोहि ॥ कोई ऐसा सजणु लोड़ि लहु जो मेले प्रीतमु मोहि ॥ गुरि पूरै मेलाइआ जत देखा तत सोइ ॥ जन नानक सो प्रभु सेविआ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोचा = तमन्ना, चाहत। पावा = पाऊँ, मिलूँ। प्रभ = हे प्रभु! तोहि = तुझे। लोड़ि लहु = ढूँढ दो। मोहि = मुझे। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। जत = जिधर। तत = उधर। सेविआ = स्मरण किया है। जेवडु = जितना, बराबर का।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे हृदय में तुझे मिलने की तमन्ना है, तुझे कैसे मिलूँ? (हे भाई!) मुझे कोई ऐसा मित्र ढूँढ दो जो मुझे प्यारे प्रभु से मिला दे। (मेरी आरजू सुन के) पूरे गुरु ने मुझे प्रभु से मिला दिया है, (अब) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही प्रभु दिखाई देता है। हे दास नानक! (कह:) मैं अब उस प्रभु को स्मरण करता हूँ, उस प्रभु के बराबर का कोई और नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ देवणहारु दातारु कितु मुखि सालाहीऐ ॥ जिसु रखै किरपा धारि रिजकु समाहीऐ ॥ कोइ न किस ही वसि सभना इक धर ॥ पाले बालक वागि दे कै आपि कर ॥ करदा अनद बिनोद किछू न जाणीऐ ॥ सरब धार समरथ हउ तिसु कुरबाणीऐ ॥ गाईऐ राति दिनंतु गावण जोगिआ ॥ जो गुर की पैरी पाहि तिनी हरि रसु भोगिआ ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ देवणहारु दातारु कितु मुखि सालाहीऐ ॥ जिसु रखै किरपा धारि रिजकु समाहीऐ ॥ कोइ न किस ही वसि सभना इक धर ॥ पाले बालक वागि दे कै आपि कर ॥ करदा अनद बिनोद किछू न जाणीऐ ॥ सरब धार समरथ हउ तिसु कुरबाणीऐ ॥ गाईऐ राति दिनंतु गावण जोगिआ ॥ जो गुर की पैरी पाहि तिनी हरि रसु भोगिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितु मुखि = कौन से मुँह से? धारि = धार के, कर के। समाहीऐ = पकड़ाता है। वसि = वश में, आसरे। इक धर = एक (प्रभु ही) आसरा। कर = हाथ (बहुवचन)। बिनोद = खेल तमाशे। सरब धार = सबको आसरा देने वाला। हउ = मैं। जो पाहि = जो (लोग) पड़ते हैं। तिनी = उन्होंने ही। रसु = आनंद। भोगिआ = आनंद लिया।
अर्थ: (सब जीवों को रिजक) देने वाले प्रभु को किसी मुँह से भी सराहा नहीं जा सकता (कोई भी जीव उसकी महिमा पूरी तरह नहीं कर सकता)। प्रभु मेहर करके जिस जीव की रक्षा करता है उसको रिजक पहुँचाता है। (दरअसल) कोई जीव किसी (और जीव) के आसरे नहीं है, सब जीवों का आसरा एक परमात्मा ही है। वह स्वयं ही (अपना) हाथ दे के बालक की तरह पालता है।
प्रभु स्वयं ही चोज-तमाशे कर रहा है, (उसके इन चोज-तमाशों की) कोई समझ नहीं पड़ सकती। मैं सदके हूँ उस प्रभु से जो सब जीवों का आसरा है और सब कुछ करने की ताकत रखता है।
रात-दिन प्रभु की स्तुति करनी चाहिए। परमात्मा ही एक ऐसी हस्ती है जिसके गुण गाने चाहिए। (पर) उन लोगों ने प्रभु (के गुण गाने) का आनंद पाया है जो सतिगुरु के चरणों में पड़ते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ भीड़हु मोकलाई कीतीअनु सभ रखे कुट्मबै नालि ॥ कारज आपि सवारिअनु सो प्रभ सदा सभालि ॥ प्रभु मात पिता कंठि लाइदा लहुड़े बालक पालि ॥ दइआल होए सभ जीअ जंत्र हरि नानक नदरि निहाल ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ भीड़हु मोकलाई कीतीअनु सभ रखे कुट्मबै नालि ॥ कारज आपि सवारिअनु सो प्रभ सदा सभालि ॥ प्रभु मात पिता कंठि लाइदा लहुड़े बालक पालि ॥ दइआल होए सभ जीअ जंत्र हरि नानक नदरि निहाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीड़हु = भीड़ से, मुसीबत से। मोकलाई = खलासी, निजात, छुट्टी। कीतीअनु = की है उस (प्रभु) ने। कुटंबै नालि = परिवार समेत। सवारिअनु = सवारे हैं उसने। सभालि = याद रख, याद कर। कंठि = गले से। लहुड़े = छोटे, अंजान। पालि = पाल के। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाल = देखता है।
अर्थ: (हे मन!) उस प्रभु को सदा याद कर जो तेरे सारे काम आप सवाँरता है, जो तुझे दुखों से खलासी देता है और तेरे सारे परिवार समेत तेरी रक्षा करता है। माता-पिता की तरह अंजाने बालकों को पाल के प्रभु (जीवों को) गले से लगाता है। हे नानक! जिस मनुष्य की ओर प्रभु मेहर की निगाह से देखता है, उस पर सब जीव दयालु हो जाते हैं।1।
[[0958]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ विणु तुधु होरु जि मंगणा सिरि दुखा कै दुख ॥ देहि नामु संतोखीआ उतरै मन की भुख ॥ गुरि वणु तिणु हरिआ कीतिआ नानक किआ मनुख ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ विणु तुधु होरु जि मंगणा सिरि दुखा कै दुख ॥ देहि नामु संतोखीआ उतरै मन की भुख ॥ गुरि वणु तिणु हरिआ कीतिआ नानक किआ मनुख ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = जो कुछ। दुखा कै सिरि दुख = दुखों के सिर दुख, बहुत सारे भारी दुख। संतोखीआ = मुझे संतोष आ जाए। भुख = तृष्णा। गुरि = गुरु ने। वणु = बन, जंगल। तिणु = तीला, घास का तीला।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे नाम के बिना (तुझसे) कुछ और माँगना भारी दुख सहने के तुल्य है; (हे प्रभु!) मुझे अपना नाम दे ता कि मुझे संतोख आ जाए और मेरे मन की तृष्णा समाप्त हो जाए।
हे नानक! जिस गुरु ने जंगल और (जंगल की सूखी) घास हरि कर दी, मनुष्य को हरा करना उसके लिए कौन सी बड़ी बात है?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सो ऐसा दातारु मनहु न वीसरै ॥ घड़ी न मुहतु चसा तिसु बिनु ना सरै ॥ अंतरि बाहरि संगि किआ को लुकि करै ॥ जिसु पति रखै आपि सो भवजलु तरै ॥ भगतु गिआनी तपा जिसु किरपा करै ॥ सो पूरा परधानु जिस नो बलु धरै ॥ जिसहि जराए आपि सोई अजरु जरै ॥ तिस ही मिलिआ सचु मंत्रु गुर मनि धरै ॥३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सो ऐसा दातारु मनहु न वीसरै ॥ घड़ी न मुहतु चसा तिसु बिनु ना सरै ॥ अंतरि बाहरि संगि किआ को लुकि करै ॥ जिसु पति रखै आपि सो भवजलु तरै ॥ भगतु गिआनी तपा जिसु किरपा करै ॥ सो पूरा परधानु जिस नो बलु धरै ॥ जिसहि जराए आपि सोई अजरु जरै ॥ तिस ही मिलिआ सचु मंत्रु गुर मनि धरै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहु = मन से। मुहतु = 48 मिनटों जितना समय। चसा = पल का तीसवाँ हिस्सा। ना सरै = नहीं निभता। लुकि = छुप के। भवजलु = संसार समुंदर। परधानु = श्रेष्ठ मनुष्य। बलु धरै = आत्मिक ताकत दे। अजरु = मानसिक ताकत की वह अवस्था जिसको बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल है। जरै = जरता है, सहता है, संभालता है। मंत्रु गुर = गुरु का उपदेश। मनि = मन में। पूरा = सफल कमाई वाला। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘स’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: ऐसी दातें देने वाला प्रभु मन से भूलना नहीं चाहिए, (क्योंकि) उसके बिना (उसको भुला के, जिंदगी की) घड़ी दो घड़ियाँ पल आदि (थोड़ा भी समय) आसान नहीं गुजरता। प्रभु जीव के (सदा) अंदर (बसता है,) उसके बाहर (चौगिर्दे भी) मौजूद है, कोई जीव कोई काम उससे लुका-छिपा के नहीं कर सकता।
वही मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघता है (संसार के विकारों से बचता है) जिसकी इज्जत की रक्षा प्रभु स्वयं करता है। वही भक्त है, वही ज्ञानवान है, वही तपस्वी है, जिस पर प्रभु मेहर करता है। जिसको (विकारों का मुकाबला करने के लिए) प्रभु (आत्मिक) ताकत बख्शता है, उसकी कमाई सफल हो जाती है, वह आदर पाता है। (वैसे मानसिक ताकत भी एक ऐसी अवस्था है जिसकी प्राप्ति पर संभलने की बहुत आवश्यक्ता होती है, आम तौर पर मनुष्य रिद्धियों-सिद्धियों की ओर पलट जाता है) इस डाँवाडोल करने वाली अवस्था में वही मनुष्य संभलता है, जिसको प्रभु स्वयं संभलने की सहायता दे।
जो मनुष्य गुरु का उपदेश हृदय में टिकाता है, उसको सदा-स्थिर प्रभु मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु मः ५ ॥ धंनु सु राग सुरंगड़े आलापत सभ तिख जाइ ॥ धंनु सु जंत सुहावड़े जो गुरमुखि जपदे नाउ ॥ जिनी इक मनि इकु अराधिआ तिन सद बलिहारै जाउ ॥ तिन की धूड़ि हम बाछदे करमी पलै पाइ ॥ जो रते रंगि गोविद कै हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ आखा बिरथा जीअ की हरि सजणु मेलहु राइ ॥ गुरि पूरै मेलाइआ जनम मरण दुखु जाइ ॥ जन नानक पाइआ अगम रूपु अनत न काहू जाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु मः ५ ॥ धंनु सु राग सुरंगड़े आलापत सभ तिख जाइ ॥ धंनु सु जंत सुहावड़े जो गुरमुखि जपदे नाउ ॥ जिनी इक मनि इकु अराधिआ तिन सद बलिहारै जाउ ॥ तिन की धूड़ि हम बाछदे करमी पलै पाइ ॥ जो रते रंगि गोविद कै हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ आखा बिरथा जीअ की हरि सजणु मेलहु राइ ॥ गुरि पूरै मेलाइआ जनम मरण दुखु जाइ ॥ जन नानक पाइआ अगम रूपु अनत न काहू जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरंगड़े = सुंदर। आलापत = अलापते हुए, उचारते हुए। तिख = तृष्णा, प्यास। बाछदे = चाहते हैं। करमी = (प्रभु की) मेहर से। पलै पाइ = पलै पाय, मिलती है। रंगि = प्यार में। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख। गुरि = गुरु ने। जनम मरण दुखु = सारी उम्र का दुख। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगम रूपु = वह प्रभु जिसके स्वरूप की सही समझ नहीं पड़ सकती। अनत = किसी और जगह, अन्यत्र। राइ = राय, पातशाह।
अर्थ: वह सुंदर राग मुबारक हैं जिनके गाने से (मन की) तृष्णा नाश हो जाए, वे सुंदर जीव भाग्यशाली हैं जो गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम जपते हैं।
मैं उन लोगों से सदा सदके हूँ जो एक-मन हो के प्रभु को स्मरण करते हैं, हम (मैं) उनके चरणों की धूल चाहते हैं (चाहता हूँ), पर ये धूल प्रभु की मेहर से मिलती है।
जो मनुष्य परमात्मा के प्यार में रंगे हुए हैं, मैं उनसे कुर्बान हूँ मैं उनके आगे दिल का दुख बताता हूँ (और कहता हूँ कि) मुझे प्यारा प्रभु पातशाह मिलाओ।
जिस मनुष्य को पूरे सतिगुरु ने प्रभु मिला दिया उसका सारी उम्र का दुख-कष्ट मिट जाता है, और, हे नानक! उस मनुष्य को अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु मिल जाता है और वह किसी और तरफ नहीं भटकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ धंनु सु वेला घड़ी धंनु धनु मूरतु पलु सारु ॥ धंनु सु दिनसु संजोगड़ा जितु डिठा गुर दरसारु ॥ मन कीआ इछा पूरीआ हरि पाइआ अगम अपारु ॥ हउमै तुटा मोहड़ा इकु सचु नामु आधारु ॥ जनु नानकु लगा सेव हरि उधरिआ सगल संसारु ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ धंनु सु वेला घड़ी धंनु धनु मूरतु पलु सारु ॥ धंनु सु दिनसु संजोगड़ा जितु डिठा गुर दरसारु ॥ मन कीआ इछा पूरीआ हरि पाइआ अगम अपारु ॥ हउमै तुटा मोहड़ा इकु सचु नामु आधारु ॥ जनु नानकु लगा सेव हरि उधरिआ सगल संसारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरतु = महूरत। सारु = श्रेष्ठ। संजोगड़ा = सुंदर संजोग। जितु = जिस में। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारु = बेअंत, जिसका परला छोर ना मिल सके। मोहड़ा = चंदरा मोह। आधारु = आसरा। सेव हरि = हरि की सेवा में। उधरिआ = (विकारों से) बच जाता है। सगल = सारा। सचु = सदा कायम रहने वाला।
अर्थ: वह वक्त वह घड़ी भाग्यशाली हैं, वह महूरत मुबारक है, वह पल सोहाना है, वह दिन और वह संजोग मुबारक हैं जब सतिगुरु के दर्शन होते हैं। (सतिगुरु के दीदार की इनायत से) मन की सारी तमन्नाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, मन वासना-रहित हो जाता है) और अगम-बेअंत प्रभु मिल जाता है, अहंम् नाश हो जाता है, मोह समाप्त हो जाता है और प्रभु का सदा कायम रहने वाला नाम ही (जीवन का) आसरा बन जाता है।
दास नानक भी (गुरु के दीदार की इनायत से ही) प्रभु के सिमरान में लगा है (जिस स्मरण के सदका) सारा जगत (विकार आदि से) बच जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सिफति सलाहणु भगति विरले दितीअनु ॥ सउपे जिसु भंडार फिरि पुछ न लीतीअनु ॥ जिस नो लगा रंगु से रंगि रतिआ ॥ ओना इको नामु अधारु इका उन भतिआ ॥ ओना पिछै जगु भुंचै भोगई ॥ ओना पिआरा रबु ओनाहा जोगई ॥ जिसु मिलिआ गुरु आइ तिनि प्रभु जाणिआ ॥ हउ बलिहारी तिन जि खसमै भाणिआ ॥४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सिफति सलाहणु भगति विरले दितीअनु ॥ सउपे जिसु भंडार फिरि पुछ न लीतीअनु ॥ जिस नो लगा रंगु से रंगि रतिआ ॥ ओना इको नामु अधारु इका उन भतिआ ॥ ओना पिछै जगु भुंचै भोगई ॥ ओना पिआरा रबु ओनाहा जोगई ॥ जिसु मिलिआ गुरु आइ तिनि प्रभु जाणिआ ॥ हउ बलिहारी तिन जि खसमै भाणिआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दितीअनु = उस (प्रभु) ने दी है। भंडार = महिमा के खजाने। पुछ = किए कर्मों का लेखा। लीतीअनु = उस (प्रभु) ने ली। रंगि = (प्यार के) रंग में। अधारु = आसरा। भतिआ = भक्ता, खुराक (आत्मिक)। भुंचै = (महिमा की खुराक) खाता है। ओनाहा जोगई = उन (महिमा करने वालों) के वश में हो जाता है। आइ = आ के। तिनि = उस (मनुष्य) ने। खसमै = पति प्रभु को।
अर्थ: महिमा और भक्ति (की दाति) उस (प्रभु) ने किसी विरले (भाग्यशाली) को दी है। जिस (मनुष्य) को उसने (महिमा के) खजाने सौंपे हैं; उससे फिर किए कर्मों का लेखा नहीं मांगा, क्योंकि जिस-जिस मनुष्य को (महिमा से) इश्क-मुहब्बत हो गई, वह उसी रंग में (सदा के लिए) रंगे गए, प्रभु की याद ही उनकी जिंदगी का आसरा बन जाता है यही एक नाम उनकी (आत्मिक) खुराक हो जाता है।
ऐसे लोगों के पद्चिन्हों पर चल के (सारा) जगत (महिमा की) खुराक खाता है भोगता है। उन्हें ईश्वर (इतना) प्यारा लगता है कि ईश्वर उनके प्यार के वश में हो जाता है।
पर प्रभु से (सिर्फ) उस मनुष्य ने जान-पहचान बनाई है जिसे गुरु आ के मिल गया है।
मैं सदके हूँ उन (सौभाग्यशाली) लोगों पर से जो पति-प्रभु को भा गए हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ हरि इकसै नालि मै दोसती हरि इकसै नालि मै रंगु ॥ हरि इको मेरा सजणो हरि इकसै नालि मै संगु ॥ हरि इकसै नालि मै गोसटे मुहु मैला करै न भंगु ॥ जाणै बिरथा जीअ की कदे न मोड़ै रंगु ॥ हरि इको मेरा मसलती भंनण घड़न समरथु ॥ हरि इको मेरा दातारु है सिरि दातिआ जग हथु ॥ हरि इकसै दी मै टेक है जो सिरि सभना समरथु ॥ सतिगुरि संतु मिलाइआ मसतकि धरि कै हथु ॥ वडा साहिबु गुरू मिलाइआ जिनि तारिआ सगल जगतु ॥ मन कीआ इछा पूरीआ पाइआ धुरि संजोग ॥ नानक पाइआ सचु नामु सद ही भोगे भोग ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ हरि इकसै नालि मै दोसती हरि इकसै नालि मै रंगु ॥ हरि इको मेरा सजणो हरि इकसै नालि मै संगु ॥ हरि इकसै नालि मै गोसटे मुहु मैला करै न भंगु ॥ जाणै बिरथा जीअ की कदे न मोड़ै रंगु ॥ हरि इको मेरा मसलती भंनण घड़न समरथु ॥ हरि इको मेरा दातारु है सिरि दातिआ जग हथु ॥ हरि इकसै दी मै टेक है जो सिरि सभना समरथु ॥ सतिगुरि संतु मिलाइआ मसतकि धरि कै हथु ॥ वडा साहिबु गुरू मिलाइआ जिनि तारिआ सगल जगतु ॥ मन कीआ इछा पूरीआ पाइआ धुरि संजोग ॥ नानक पाइआ सचु नामु सद ही भोगे भोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगु = प्यार। संगु = साथ। मै = मेरा। गोसटि = उठना बैठना, मेल जोल। भंगु = (माथे की) त्योड़ी, टूटना। बिरथा = पीड़ा। मसलति = सलाहकार। सिरि = सिर पर। सतिगुरि = गुरु ने। संतु = शांति का श्रोत परमात्मा। मसतकि = माथे पर। जिनि = जिस (हरि) ने। धुरि = धुर से।
अर्थ: मेरी एक प्रभु के साथ ही मित्रता है, सिर्फ प्रभु से ही मेरा प्यार है, केवल प्रभु ही मेरा सच्चा मित्र है एक प्रभु से ही मेरा सच्चा साथ है, और केवल प्रभु से ही मेरा मेल-जोल है, (क्योंकि) वह प्रभु कभी मुँह मोटा नहीं करता, कभी माथे पर त्योड़ी नहीं डालता, मेरे दिल की वेदना को समझता है, वह कभी मेरे प्यार को धक्का नहीं देता।
(सब जीवों को) पैदा करने वाला और मारने की ताकत रखने वाला एक परमात्मा ही मेरा सलाहकार है; जगत के सब दानियों के सिर पर जिस प्रभु का हाथ है केवल वही मुझे दातें देने वाला है।
जो परमात्मा सब जीवों के सिर पर बली है मुझे केवल उसी का आसरा है, वह शांति का श्रोत परमात्मा सतिगुरु ने मेरे माथे पर हाथ रख के मुझे मिलाया है, वह बड़ा मालिक जिसने सारे संसार का उद्धार किया है (भाव, जो सारे संसार के उद्धार में समर्थ है) मुझे गुरु ने मिलाया है।
हे नानक! जिसको धुर से ये भाग्य बनता है उसको प्रभु का सदा-स्थिर रहने वाला नाम मिलता है, उसके मन की सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, वह वासना-रहित हो जाता है) और वह सदा ही आनंद पाता है (सदा ही खिला रहता है)।1।
[[0959]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ मनमुखा केरी दोसती माइआ का सनबंधु ॥ वेखदिआ ही भजि जानि कदे न पाइनि बंधु ॥ जिचरु पैननि खावन्हे तिचरु रखनि गंढु ॥ जितु दिनि किछु न होवई तितु दिनि बोलनि गंधु ॥ जीअ की सार न जाणनी मनमुख अगिआनी अंधु ॥ कूड़ा गंढु न चलई चिकड़ि पथर बंधु ॥ अंधे आपु न जाणनी फकड़ु पिटनि धंधु ॥ झूठै मोहि लपटाइआ हउ हउ करत बिहंधु ॥ क्रिपा करे जिसु आपणी धुरि पूरा करमु करेइ ॥ जन नानक से जन उबरे जो सतिगुर सरणि परे ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ मनमुखा केरी दोसती माइआ का सनबंधु ॥ वेखदिआ ही भजि जानि कदे न पाइनि बंधु ॥ जिचरु पैननि खावन्हे तिचरु रखनि गंढु ॥ जितु दिनि किछु न होवई तितु दिनि बोलनि गंधु ॥ जीअ की सार न जाणनी मनमुख अगिआनी अंधु ॥ कूड़ा गंढु न चलई चिकड़ि पथर बंधु ॥ अंधे आपु न जाणनी फकड़ु पिटनि धंधु ॥ झूठै मोहि लपटाइआ हउ हउ करत बिहंधु ॥ क्रिपा करे जिसु आपणी धुरि पूरा करमु करेइ ॥ जन नानक से जन उबरे जो सतिगुर सरणि परे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केरी = की। सनबंधु = संबंध, जोड़। वेखदिआ ही = देखते देखते, बड़ी जल्दी। भजि जानि = भाग जाते हैं, साथ छोड़ देते हैं। पाइनि = पाते हैं। बंधु = बंधन, पक्की गाँठ। पैननि = पहनते हैं, पहनने को कपड़ा मिलता है। खावने = खाते हैं, खाने को मिलता है। गंढु = गाँठ, मेल। गंधु = गंदे बोल, रूखे बोल। चिकड़ि = कीचड़ से। पथर बंधु = पत्थरों का बाँध। फकड़ु धंधु = फजूल का टंटा। बिहंधु = बीतती है। करमु = मेहर। से जन = वह लोग।
अर्थ: मन के पीछे चलने वाले लोगों की मित्रता निरी माया की खातिर ही ताना-बाना होता है, वह कभी (मित्रता की) पक्की गाँठ नहीं डालते, जल्दी ही साथ छोड़ जाते हैं। मनमुख को जब तक पहनने-खाने को मिलता रहे तब तक ही जोड़ के रखते हैं, जिस दिन उनके खाने-पहनने की बात रास नहीं आती, उस दिन वे फीके बोल बोलने लगते हैं; अंधे ज्ञान-हीन मनुष्यों को (सिर्फ शरीर का ही फिक्र रहता है) आत्मा की कोई सूझ नहीं होती।
मनमुखों का कच्चा ताना-बाना (बहुत समय तक) नहीं चलता जैसे कीचड़ से बंधा हुआ पत्थरों का बाँध (जल्दी ही गिर जाता है); अंधे मनमुख अपने असल को नहीं समझते (सिर्फ बाहरी) व्यर्थ की व्यथा को रोते-पीटते रहते हैं, निकम्मे मोह में फंसे हुए मनमुखों की उम्र ‘मैं मैं’ करते हुए गुजर जाती है।
हे नानक! जिस-जिस मनुष्य पर प्रभु अपनी कृपा करता है, धुर से ही पूरी बख्शिश करता है वह लोग (इस झूठे मोह में से) बच जाते हैं, वे सतिगुरु की शरण पड़ते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जो रते दीदार सेई सचु हाकु ॥ जिनी जाता खसमु किउ लभै तिना खाकु ॥ मनु मैला वेकारु होवै संगि पाकु ॥ दिसै सचा महलु खुलै भरम ताकु ॥ जिसहि दिखाले महलु तिसु न मिलै धाकु ॥ मनु तनु होइ निहालु बिंदक नदरि झाकु ॥ नउ निधि नामु निधानु गुर कै सबदि लागु ॥ तिसै मिलै संत खाकु मसतकि जिसै भागु ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जो रते दीदार सेई सचु हाकु ॥ जिनी जाता खसमु किउ लभै तिना खाकु ॥ मनु मैला वेकारु होवै संगि पाकु ॥ दिसै सचा महलु खुलै भरम ताकु ॥ जिसहि दिखाले महलु तिसु न मिलै धाकु ॥ मनु तनु होइ निहालु बिंदक नदरि झाकु ॥ नउ निधि नामु निधानु गुर कै सबदि लागु ॥ तिसै मिलै संत खाकु मसतकि जिसै भागु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हाकु = कह, समझ। किउ = कैसे? किस तरह? खाकु = चरण धूल। पाकु = पवित्र। महलु = ठिकाना। ताकु = दरवाजा। धाकु = धक्का। निहाल = प्रसन्न। बिंदक = रक्ती भर भी। झाकु = झाती, निगाह। सबदि = शब्द में। संत खाकु = गुरु के चरणों की धूल। मसतकि = माथे पर।
अर्थ: जिस लोगों को प्रभु के दर्शन का रंग चढ़ गया है, उन्हें ही सच्चे प्रभु का रूप समझो। जिन्होंने पति-प्रभु के साथ सांझ डाल ली है, प्रयत्न करो कि किसी ना किसी तरह उनकी चरण-धूल मिल जाए, क्योंकि जो मन (विकारों से) मैला हो के विकार-रूप ही बन चुका है वह उनकी संगति में पवित्र हो जाता है, (उनकी संगति की इनायत से) प्रभु का दर दिखाई दे जाता है, और, भ्रम-भुलेखों के कारण (बंद होया हुआ आत्मिक) दरवाजा खुल जाता है।
(पर ये प्रभु की अपनी मेहर ही है) जिसको अपना ठिकाना दिखा देता है, उसको (उसके उस ठिकाने से फिर) धक्का नहीं मिलता, उस प्रभु की मेहर की रक्ती भर भी निगाह से उसका तन-मन खिल उठता है।
(हे भाई!) गुरु के शब्द में जुड़, परमात्मा का नाम रूपी नौ खजाने (मिल जाएंगे)। जिसके माथे पर भाग्य जाग उठे, उसको गुरु के चरणों की धूल मिलती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ हरणाखी कू सचु वैणु सुणाई जो तउ करे उधारणु ॥ सुंदर बचन तुम सुणहु छबीली पिरु तैडा मन साधारणु ॥ दुरजन सेती नेहु रचाइओ दसि विखा मै कारणु ॥ ऊणी नाही झूणी नाही नाही किसै विहूणी ॥ पिरु छैलु छबीला छडि गवाइओ दुरमति करमि विहूणी ॥ ना हउ भुली ना हउ चुकी ना मै नाही दोसा ॥ जितु हउ लाई तितु हउ लगी तू सुणि सचु संदेसा ॥ साई सुोहागणि साई भागणि जै पिरि किरपा धारी ॥ पिरि अउगण तिस के सभि गवाए गल सेती लाइ सवारी ॥ करमहीण धन करै बिनंती कदि नानक आवै वारी ॥ सभि सुहागणि माणहि रलीआ इक देवहु राति मुरारी ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ हरणाखी कू सचु वैणु सुणाई जो तउ करे उधारणु ॥ सुंदर बचन तुम सुणहु छबीली पिरु तैडा मन साधारणु ॥ दुरजन सेती नेहु रचाइओ दसि विखा मै कारणु ॥ ऊणी नाही झूणी नाही नाही किसै विहूणी ॥ पिरु छैलु छबीला छडि गवाइओ दुरमति करमि विहूणी ॥ ना हउ भुली ना हउ चुकी ना मै नाही दोसा ॥ जितु हउ लाई तितु हउ लगी तू सुणि सचु संदेसा ॥ साई सुोहागणि साई भागणि जै पिरि किरपा धारी ॥ पिरि अउगण तिस के सभि गवाए गल सेती लाइ सवारी ॥ करमहीण धन करै बिनंती कदि नानक आवै वारी ॥ सभि सुहागणि माणहि रलीआ इक देवहु राति मुरारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरणाखी = हिरन की आँखों जैसी आँखों वाली, सुंदर जीव-स्त्री। कू = को। तउ = तेरा। छबीली = हे सुंदरी! मन साधारणु = मन को आसरा देने वाला। विखा = मैं देखूँ। ऊणी = कम, खाली। झूणी = उदास। करम = भाग्य। जै = जिस पर। पिरि = पिर ने। वैणु = वचन, बात। जितु = जिस तरफ। धन = स्त्री। कदि = कब। मुरारी = हे प्रभु!
अर्थ: हे सुंदर जीव-स्त्री! मैं तुझे एक सच्ची बात सुनाती हूँ जो तेरा उद्धार करेगी। हे सुंदरी! तू वह सुंदर वचन सुन- तेरा पति-प्रभु मन को आसरा देने वाला है (उसको बिसार के) तूने दुर्जन से प्यार डाल लिया है, मुझे बता, मैं देखूँ इसका क्या कारण है। तू किसी बात में कम नहीं है, किसी गुण की कमी नहीं है, पर तुझ कर्मों की मारी ने बुरी मति के पीछे लग के सुंदर बाँका पति भुला दिया है।
(हे सखी!) तू सच्चा उक्तर सुन ले- मैंने भूल नहीं की, मैंने कोई गलती नहीं की, मेरे में दोष नहीं, मुझे जिस तरफ उसने लगाया है, मैं उधर लगी हूँ। वही जीव-स्त्री सोहाग-भाग्य वाली हो सकती हैजिस पर पति ने स्वयं मेहर की है, पति-प्रभु ने उस स्त्री के सारे ही अवगुण दूर कर दिए हैं और उसको गले से लगा के सँवार दिया है।
मैं भाग्यहीन जीव-स्त्री आरजू करती हूँ, मुझ नानक की कब बारी आएगी? हे प्रभु! सारी सुहागनें मौजें कर रही हैं, मुझे भी (मिलने के लिए) एक रात दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ काहे मन तू डोलता हरि मनसा पूरणहारु ॥ सतिगुरु पुरखु धिआइ तू सभि दुख विसारणहारु ॥ हरि नामा आराधि मन सभि किलविख जाहि विकार ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन रंगु लगा निरंकार ॥ ओनी छडिआ माइआ सुआवड़ा धनु संचिआ नामु अपारु ॥ अठे पहर इकतै लिवै मंनेनि हुकमु अपारु ॥ जनु नानकु मंगै दानु इकु देहु दरसु मनि पिआरु ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ काहे मन तू डोलता हरि मनसा पूरणहारु ॥ सतिगुरु पुरखु धिआइ तू सभि दुख विसारणहारु ॥ हरि नामा आराधि मन सभि किलविख जाहि विकार ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन रंगु लगा निरंकार ॥ ओनी छडिआ माइआ सुआवड़ा धनु संचिआ नामु अपारु ॥ अठे पहर इकतै लिवै मंनेनि हुकमु अपारु ॥ जनु नानकु मंगै दानु इकु देहु दरसु मनि पिआरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनसा = मन की कामना। पुरखु = व्यापक प्रभु। सभि = सारे। मन = हे मन! किलविख = पाप। जाहि = नाश हो जाएंगे। पूरबि = पिछले, पहले के। रंगु = प्रेम। सुआवड़ा = कड़वा स्वाद, बुरा चस्का। संचिआ = जोड़ा। इकतै = एक में ही। मनि = मन में।
अर्थ: हे मन! तू क्यों डोलता है? परमात्मा तेरी कामना पूरी करने वाला है, गुरु को अकाल-पुरख को स्मरण कर, वह सारे दुख नाश करने वाला है। हे मन! प्रभु का नाम जप, तेरे सारे पाप और विकार दूर हो जाएंगे।
जिनके माथे पर धुर से लेख लिखा हो, उनके हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा होता है, वे माया का बुरा चस्का छोड़ देते हैं, और बेअंत प्रभु का नाम-धन इकट्ठा करते हैं, वे आठों पहर एक प्रभु की ही याद में जुड़े रहते हैं, प्रभु का ही हुक्म मानते हैं।
(हे प्रभु!) दास नानक भी (तेरे दर से) एक ख़ैर माँगता है: मुझे दीदार दे और मुझे मन में अपना प्यार बख्श।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिसु तू आवहि चिति तिस नो सदा सुख ॥ जिसु तू आवहि चिति तिसु जम नाहि दुख ॥ जिसु तू आवहि चिति तिसु कि काड़िआ ॥ जिस दा करता मित्रु सभि काज सवारिआ ॥ जिसु तू आवहि चिति सो परवाणु जनु ॥ जिसु तू आवहि चिति बहुता तिसु धनु ॥ जिसु तू आवहि चिति सो वड परवारिआ ॥ जिसु तू आवहि चिति तिनि कुल उधारिआ ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिसु तू आवहि चिति तिस नो सदा सुख ॥ जिसु तू आवहि चिति तिसु जम नाहि दुख ॥ जिसु तू आवहि चिति तिसु कि काड़िआ ॥ जिस दा करता मित्रु सभि काज सवारिआ ॥ जिसु तू आवहि चिति सो परवाणु जनु ॥ जिसु तू आवहि चिति बहुता तिसु धनु ॥ जिसु तू आवहि चिति सो वड परवारिआ ॥ जिसु तू आवहि चिति तिनि कुल उधारिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। जम दुख = जमों के दुख सहम। कि काड़िआ = कौन सी चिन्ता? सभि = सारे। परवाणु = स्वीकार। वड परवारिआ = बड़े परिवार वाला, जिसको सारा जगत ही अपना परिवार दिखाई देता है। तिनि = उस (मनुष्य) ने। उधारिआ = (विकारों से) बचा लिया।
अर्थ: हे प्रभु! तू जिस मनुष्य के हृदय में बस जाए, वह मनुष्य (तेरी नजरों में) स्वीकार हो गया। उसके पास तेरा बेअंत नाम-धन इकट्ठा हो जाता है, (तेरी याद की इनायत से) सारा जगत ही उसको अपना परिवार दिखाई देता है, उसने अपनी (भी) सारी कुलों (के जीवों) को (संसार समुंदर की विकार-लहरों से) पार लंघा लिया है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ अंदरहु अंना बाहरहु अंना कूड़ी कूड़ी गावै ॥ देही धोवै चक्र बणाए माइआ नो बहु धावै ॥ अंदरि मैलु न उतरै हउमै फिरि फिरि आवै जावै ॥ नींद विआपिआ कामि संतापिआ मुखहु हरि हरि कहावै ॥ बैसनो नामु करम हउ जुगता तुह कुटे किआ फलु पावै ॥ हंसा विचि बैठा बगु न बणई नित बैठा मछी नो तार लावै ॥ जा हंस सभा वीचारु करि देखनि ता बगा नालि जोड़ु कदे न आवै ॥ हंसा हीरा मोती चुगणा बगु डडा भालण जावै ॥ उडरिआ वेचारा बगुला मतु होवै मंञु लखावै ॥ जितु को लाइआ तित ही लागा किसु दोसु दिचै जा हरि एवै भावै ॥ सतिगुरु सरवरु रतनी भरपूरे जिसु प्रापति सो पावै ॥ सिख हंस सरवरि इकठे होए सतिगुर कै हुकमावै ॥ रतन पदारथ माणक सरवरि भरपूरे खाइ खरचि रहे तोटि न आवै ॥ सरवर हंसु दूरि न होई करते एवै भावै ॥ जन नानक जिस दै मसतकि भागु धुरि लिखिआ सो सिखु गुरू पहि आवै ॥ आपि तरिआ कुट्मब सभि तारे सभा स्रिसटि छडावै ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ अंदरहु अंना बाहरहु अंना कूड़ी कूड़ी गावै ॥ देही धोवै चक्र बणाए माइआ नो बहु धावै ॥ अंदरि मैलु न उतरै हउमै फिरि फिरि आवै जावै ॥ नींद विआपिआ कामि संतापिआ मुखहु हरि हरि कहावै ॥ बैसनो नामु करम हउ जुगता तुह कुटे किआ फलु पावै ॥ हंसा विचि बैठा बगु न बणई नित बैठा मछी नो तार लावै ॥ जा हंस सभा वीचारु करि देखनि ता बगा नालि जोड़ु कदे न आवै ॥ हंसा हीरा मोती चुगणा बगु डडा भालण जावै ॥ उडरिआ वेचारा बगुला मतु होवै मंञु लखावै ॥ जितु को लाइआ तित ही लागा किसु दोसु दिचै जा हरि एवै भावै ॥ सतिगुरु सरवरु रतनी भरपूरे जिसु प्रापति सो पावै ॥ सिख हंस सरवरि इकठे होए सतिगुर कै हुकमावै ॥ रतन पदारथ माणक सरवरि भरपूरे खाइ खरचि रहे तोटि न आवै ॥ सरवर हंसु दूरि न होई करते एवै भावै ॥ जन नानक जिस दै मसतकि भागु धुरि लिखिआ सो सिखु गुरू पहि आवै ॥ आपि तरिआ कुट्मब सभि तारे सभा स्रिसटि छडावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंदरहु बाहरहु = मन से भी और कर्मों से भी। कूड़ी कूड़ी = झूठ मूठ। देही = शरीर। धावै = भटकता है। कामि = कामना से। बैसनौ = विष्णु का भक्त। हउ = अहम्। जुगता = जुड़ा हुआ। तुह = चावलों के छिलके। बगु = बगुला। तार = ताड़ी, तवज्जो, ध्यान। मुंञु = मेरा स्वै। होवै लखावै = उघड़ आए। जितु = जिस तरफ। दिचै = दिया जाए। भावै = अच्छा लगता है। सरवरु = सुंदर तालाब। सरवरि = सरोवर में। हुकमावै = हुक्म अनुसार।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तित ही’ में से ‘तितु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अगर मनुष्य मन से माया में फसा हुआ है और करतूतें भी काली हैं, पर झूठ-मूठ में (विष्णु-पद) गाता है, शरीर को स्नान करवाता है (शरीर पर) चक्र बनवाता है, और वैसे माया की खातिर भटकता फिरता है, (इन चक्र आदि से) मन में से अहंकार की मैल नहीं उतरती, वह बार-बार जनम के चक्कर में पड़ा रहता है; गफ़लत की नींद में दबा हुआ, काम का मारा हुआ, मुँह से ही ‘हरे! हरे!! ’ कहता है, अपना नाम भी वैश्णव (विष्णु का भक्त) रखा हुआ है, पर करतूतों के कारण अहंकार में जकड़ा हुआ है, (सो, शरीर धोने, चक्र बनाने आदि कर्म चावल के छिलके के कूटने के तूल्य हैं) चावल का छिलका कूटने से (उनमें से) चावल नहीं निकलने वाले।
हंसों में बैठा हुआ बगुला हंस नहीं बन जाता, (हंसों में) बैठा हुआ भी वह सदा मछली (पकड़ने) के लिए ताड़ी लगाता है; जब हंस मिल के विचार करके देखते हैं तो (यही नतीजा निकलता है कि) बगलों के साथ उनका मेल फबता नहीं, (क्योंकि) हंसों की खुराक़ हीरे-मोती हैं और बगुला मेंढकियाँ तलाशने जाता है; बेचारा बगुला (आखिर हंसों के झुंड में से) उड़ ही जाता है कि कहीं मेरी पोल खुल ही ना जाए।
पर, दोष किस को दिया जाए? परमात्मा को भी यही बात भाती है; जिधर कोई जीव लगाया जाता है उधर ही वह लगता है। सतिगुरु (मानो) एक सरोवर है जो रत्नों से नाको-नाक भरा हुआ है, जिसके भाग्य हों उसी को ही मिलता है। सतिगुरु के हुक्म अनुसार ही सिख-हंस (गुरु की शरण-रूप) सरोवर में आ एकत्र होते हैं, उस सरोवर में (प्रभु के गुण रूप) हीरे-मोती नाको-नाक भरे हुए हैं, सिख इनको खुद इस्तेमाल करते व और लोगों को बाँटते हैं ये हीरे-मोती खत्म नहीं होते। कर्तार को ऐसा ही भाता है कि सिख-हंस गुरु-सरोवर से दूर नहीं जाता।
हे नानक! धुर से ही जिसके माथे पर लिखे लेख हों वह सिख सतिगुरु की शरण आता है, (गुरु शरण आ के) वह स्वयं तैर जाता है, सारे संबंधियों को तैरा लेता है और सारे जगत को बचा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ पंडितु आखाए बहुती राही कोरड़ मोठ जिनेहा ॥ अंदरि मोहु नित भरमि विआपिआ तिसटसि नाही देहा ॥ कूड़ी आवै कूड़ी जावै माइआ की नित जोहा ॥ सचु कहै ता छोहो आवै अंतरि बहुता रोहा ॥ विआपिआ दुरमति कुबुधि कुमूड़ा मनि लागा तिसु मोहा ॥ ठगै सेती ठगु रलि आइआ साथु भि इको जेहा ॥ सतिगुरु सराफु नदरी विचदो कढै तां उघड़ि आइआ लोहा ॥ बहुतेरी थाई रलाइ रलाइ दिता उघड़िआ पड़दा अगै आइ खलोहा ॥ सतिगुर की जे सरणी आवै फिरि मनूरहु कंचनु होहा ॥ सतिगुरु निरवैरु पुत्र सत्र समाने अउगण कटे करे सुधु देहा ॥ नानक जिसु धुरि मसतकि होवै लिखिआ तिसु सतिगुर नालि सनेहा ॥ अम्रित बाणी सतिगुर पूरे की जिसु किरपालु होवै तिसु रिदै वसेहा ॥ आवण जाणा तिस का कटीऐ सदा सदा सुखु होहा ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ पंडितु आखाए बहुती राही कोरड़ मोठ जिनेहा ॥ अंदरि मोहु नित भरमि विआपिआ तिसटसि नाही देहा ॥ कूड़ी आवै कूड़ी जावै माइआ की नित जोहा ॥ सचु कहै ता छोहो आवै अंतरि बहुता रोहा ॥ विआपिआ दुरमति कुबुधि कुमूड़ा मनि लागा तिसु मोहा ॥ ठगै सेती ठगु रलि आइआ साथु भि इको जेहा ॥ सतिगुरु सराफु नदरी विचदो कढै तां उघड़ि आइआ लोहा ॥ बहुतेरी थाई रलाइ रलाइ दिता उघड़िआ पड़दा अगै आइ खलोहा ॥ सतिगुर की जे सरणी आवै फिरि मनूरहु कंचनु होहा ॥ सतिगुरु निरवैरु पुत्र सत्र समाने अउगण कटे करे सुधु देहा ॥ नानक जिसु धुरि मसतकि होवै लिखिआ तिसु सतिगुर नालि सनेहा ॥ अम्रित बाणी सतिगुर पूरे की जिसु किरपालु होवै तिसु रिदै वसेहा ॥ आवण जाणा तिस का कटीऐ सदा सदा सुखु होहा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहुती राही = बहुत शास्त्र आदि को पढ़ने से, बहुत राहों से। जिनेहा = जैसा। तिसटसि = टिकता। तिसटसि नाही देहा = शरीर टिकता नहीं, भटकना खतम नहीं होती। कूड़ी = झूठ मूठ, व्यर्थ। जोहा = ताकना, झाक। छोह = खिझ। रोह = गुस्सा। कुमूड़ा = बहुत मूर्ख। मनि = मन में। सेती = साथ। नदरी विचदो कढै = नजर में से निकालता है, गहु से परखता है। मनूर = जला हुआ लोहा। कंचनु = सोना। सत्र = शत्रु, वैरी। समाने = बराबर, एक जैसे। सुधु = शुद्ध, पवित्र। सनेहा = स्नेह, प्यार। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी।
अर्थ: बहुत सारे शास्त्र आदि पढ़ने के कारण (ही अगर अपने आप को कोई मनुष्य) पंडित कहलवाता है (पर) है वह कोड़कू मोठ जैसा (जैसा उबालने पर गलता नहीं), उसके मन में मोह (प्रबल) है, उस पण्डित की (विद्या वाली) सारी दौड़-भाग झूठ-मूठ है (क्योंकि) उसको सदा माया की ही झाक लगी रहती है। यदि उसे कोई ये अस्लियत बताए तो उसको खिझ चढ़ती है (क्योंकि शास्त्र आदि पढ़ के भी) उसके मन में गुस्सा बहुत है। (ऐसा पंडित असल में) बुरी अनुचित मति का मारा हुआ महा मूर्ख होता है क्योंकि उसके मन में माया का मोह (बलवान) है। ऐसे ठग के साथ एक और ऐसा ही ठग मिल जाता है, दोनों का बाखूब मेल बन जाता है।
जब सर्राफ़ सतिगुरु ध्यान से परख करता है तो (ये बाहर से विद्या से चमकता सोना दिखने वाला, पर अंदर से) लोहा उघड़ आता है। कई जगह चाहे इसे मिला मिला के रखें, पर इसका पाज खुल के अस्लियत सामने आ ही जाती है। (ऐसा व्यक्ति भी) यदि सतिगुरु की शरण में आ जाए तो जले हुए लोहे से (जंग लगे लोहे से) सोना बन जाता है।
सतिगुरु को किसी के साथ वैर नहीं, उसको पुत्र और वैरी एक समान ही प्यारे लगते हैं (अगर कोई भी उसकी शरण आए उसके) अवगुण काट के (गुरु) उसके शरीर को शुद्ध कर देता है।
हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर धुर से लेख लिखें हों, उसका गुरु से प्रेम बनता है; पूरे गुरु की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी उस मनुष्य के हृदय में बसती है जिस पर गुरु मेहर करे। उस मनुष्य का जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है, उसको सदा ही सुख प्राप्त होता है।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जो तुधु भाणा जंतु सो तुधु बुझई ॥ जो तुधु भाणा जंतु सु दरगह सिझई ॥ जिस नो तेरी नदरि हउमै तिसु गई ॥ जिस नो तू संतुसटु कलमल तिसु खई ॥ जिस कै सुआमी वलि निरभउ सो भई ॥ जिस नो तू किरपालु सचा सो थिअई ॥ जिस नो तेरी मइआ न पोहै अगनई ॥ तिस नो सदा दइआलु जिनि गुर ते मति लई ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जो तुधु भाणा जंतु सो तुधु बुझई ॥ जो तुधु भाणा जंतु सु दरगह सिझई ॥ जिस नो तेरी नदरि हउमै तिसु गई ॥ जिस नो तू संतुसटु कलमल तिसु खई ॥ जिस कै सुआमी वलि निरभउ सो भई ॥ जिस नो तू किरपालु सचा सो थिअई ॥ जिस नो तेरी मइआ न पोहै अगनई ॥ तिस नो सदा दइआलु जिनि गुर ते मति लई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुधु = तुझे। भाणा = प्यारा लगा। बुझई = समझता है, सांझ डाल लेता है। सिझई = कामयाब हो जाता है। तिसु = उसकी। हउमै = मैं मैं, अहंकार, स्वै भाव, खुद गर्जी। संतुसटु = प्रसन्न। कलमल = पाप। खई = नाश हो गए। थिअई = हो जाता है। मइआ = दया। अगनई = (विकारों की) आग। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। मति = अक्ल। वलि = पक्ष से, की ओर। सचा = अडोल चिक्त। ते = से।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! जो जीव तुझे प्यारा लगता है, वह तेरे साथ सांझ डाल लेता है, वह (जीवन-यात्रा में) सफल (हो के) तेरी हजूरी में पहुँचता है।
जिस पर तेरी मेहर की नजर हो, उसका स्वै भाव दूर हो जाता है। जिस पर तू खुश हो जाए उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
(हे भाई!) मालिक प्रभु जिस मनुष्य के पक्ष में हो, वह (दुनियां के डर-सहम से) निडर हो जाता है।
हे प्रभु! जिस पर तू दयालु हो, वह (माया के हमलों के आगे) अडोल हो जाता है, जिस पर तेरी मेहर हो उसका (माया की) आग छू भी नहीं सकती।
पर, (हे प्रभु!) तू उस पर सदा दयालु है, जिसने गुरु से (मनुष्य-जीवन जीने की) युक्ति (मति) सीखी।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ करि किरपा किरपाल आपे बखसि लै ॥ सदा सदा जपी तेरा नामु सतिगुर पाइ पै ॥ मन तन अंतरि वसु दूखा नासु होइ ॥ हथ देइ आपि रखु विआपै भउ न कोइ ॥ गुण गावा दिनु रैणि एतै कमि लाइ ॥ संत जना कै संगि हउमै रोगु जाइ ॥ सरब निरंतरि खसमु एको रवि रहिआ ॥ गुर परसादी सचु सचो सचु लहिआ ॥ दइआ करहु दइआल अपणी सिफति देहु ॥ दरसनु देखि निहाल नानक प्रीति एह ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ करि किरपा किरपाल आपे बखसि लै ॥ सदा सदा जपी तेरा नामु सतिगुर पाइ पै ॥ मन तन अंतरि वसु दूखा नासु होइ ॥ हथ देइ आपि रखु विआपै भउ न कोइ ॥ गुण गावा दिनु रैणि एतै कमि लाइ ॥ संत जना कै संगि हउमै रोगु जाइ ॥ सरब निरंतरि खसमु एको रवि रहिआ ॥ गुर परसादी सचु सचो सचु लहिआ ॥ दइआ करहु दइआल अपणी सिफति देहु ॥ दरसनु देखि निहाल नानक प्रीति एह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = खुद ही। जपी = मैं जपूँ। पाइ = पैरों पर। न विआपै = जोर ना डाल ले। रैणि = रात। कंमि = काम में। निरंतरि = एक रस सब में। रवि रहिआ = मौजूद है। लोहिआ = पा लिया।
अर्थ: हे कृपालु (प्रभु)! मेहर कर, और तू स्वयं ही मुझे बख्श ले, सतिगुरु के चरणों में गिर के मैं सदा ही तेरा नाम जपता रहूँ।
(हे कृपालु!) मेरे मन में तन में आ बस (ता कि) मेरे दुख समाप्त हो जाएं; तू स्वयं मुझे अपना हाथ दे के रख, कोई डर मुझ पर अपना जोर ना डाल सके।
(हे कृपालु!) मुझे इसी काम में लगाए रख कि मैं दिन-रात तेरे गुण गाता रहूँ, गुरमुखों की संगति में रह के मेरा अहंकार का रोग काटा जाए।
(हे भाई! भले ही) पति-प्रभु सब जीवों में एक रस व्यापक है, पर उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को जिसने पाया है गुरु की मेहर से पाया है।
हे दयालु प्रभु! दया कर, मुझे अपनी महिमा बख्श, (मुझ) नानक की यही तमन्ना है कि तेरे दर्शन करके प्रफुल्लित रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ एको जपीऐ मनै माहि इकस की सरणाइ ॥ इकसु सिउ करि पिरहड़ी दूजी नाही जाइ ॥ इको दाता मंगीऐ सभु किछु पलै पाइ ॥ मनि तनि सासि गिरासि प्रभु इको इकु धिआइ ॥ अम्रितु नामु निधानु सचु गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ वडभागी ते संत जन जिन मनि वुठा आइ ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ दूजा कोई नाहि ॥ नामु धिआई नामु उचरा नानक खसम रजाइ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ एको जपीऐ मनै माहि इकस की सरणाइ ॥ इकसु सिउ करि पिरहड़ी दूजी नाही जाइ ॥ इको दाता मंगीऐ सभु किछु पलै पाइ ॥ मनि तनि सासि गिरासि प्रभु इको इकु धिआइ ॥ अम्रितु नामु निधानु सचु गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ वडभागी ते संत जन जिन मनि वुठा आइ ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ दूजा कोई नाहि ॥ नामु धिआई नामु उचरा नानक खसम रजाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनै माहि = मन ही में। पिरहड़ी = प्रेम। जाइ = जगह। पलै पाइ = पलै पाय, मिलता है। सभु किछु = हरेक चीज। गिरासि = ग्रास के साथ, खाते पीते। निधानु = खजाना। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले। मनि = मन में। वुठा = बसा। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, धरती के ऊपर, आकाश में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला।
अर्थ: एक प्रभु को ही मन में ध्याना चाहिए, एक प्रभु की ही शरण लेनी चाहिए। हे मन! एक प्रभु के साथ ही प्रेम डाल, उसके बिना और कोई जगह-ठिकाना नहीं है। एक प्रभु-दाते से ही माँगना चाहिए, हरेक चीज उसी से ही मिलती है। हे भाई! मन से शरीर से श्वास-श्वास खाते-पीते एक प्रभु को ही स्मरण कर।
प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा कायम रहने वाला खजाना गुरु के द्वारा ही मिलता है। वह गुरमुख लोग बड़े ही भाग्यों वाले हैं जिनके मन में प्रभु आ बसता है।
प्रभु जल में धरती में आकाश में (हर जगह) मौजूद है, उसके बिना (कहीं भी) कोई और नहीं है। हे नानक! (अरदास कर कि) मैं भी उस प्रभु का नाम स्मरण करूँ, नाम (मुँह से) उचारूँ और उस पति-प्रभु की रजा में रहूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिस नो तू रखवाला मारे तिसु कउणु ॥ जिस नो तू रखवाला जिता तिनै भैणु ॥ जिस नो तेरा अंगु तिसु मुखु उजला ॥ जिस नो तेरा अंगु सु निरमली हूं निरमला ॥ जिस नो तेरी नदरि न लेखा पुछीऐ ॥ जिस नो तेरी खुसी तिनि नउ निधि भुंचीऐ ॥ जिस नो तू प्रभ वलि तिसु किआ मुहछंदगी ॥ जिस नो तेरी मिहर सु तेरी बंदिगी ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिस नो तू रखवाला मारे तिसु कउणु ॥ जिस नो तू रखवाला जिता तिनै भैणु ॥ जिस नो तेरा अंगु तिसु मुखु उजला ॥ जिस नो तेरा अंगु सु निरमली हूं निरमला ॥ जिस नो तेरी नदरि न लेखा पुछीऐ ॥ जिस नो तेरी खुसी तिनि नउ निधि भुंचीऐ ॥ जिस नो तू प्रभ वलि तिसु किआ मुहछंदगी ॥ जिस नो तेरी मिहर सु तेरी बंदिगी ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिनै = उसी ने। भैणु = भवन, जगत। अंगु = पक्ष, आसरा। तिसु मुखु = उसका मुँह। लेखा = जिंदगी में किए कर्मों का हिसाब। तिनि = उस ने। भुंचीऐ = बरता है, भोगा है। मुहछंदगी = अधीनता।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य को तू रक्षक मिला है, उसको कोई (विकार आदि) मार नहीं सकता, क्योंकि उसने तो (सारा) जगत (ही) जीत लिया है।
(हे प्रभु!) जिसको तेरा आसरा प्राप्त है वह (मानवता की जिम्मेवारी में) आजाद हो गया है, वह बड़े ही पवित्र जीवन वाला बन गया है।
(हे प्रभु!) जिसको तेरी (मेहर की) नजर नसीब हुई है उसको (जिंदगी में किए कामों का) हिसाब नहीं पूछा जाता, क्योंकि हे प्रभु! जिसको तेरी खुशी प्राप्त हुई है उसने तेरे नाम-रूप नौ खजानों का आनंद ले लिया है।
हे प्रभु! तू जिस व्यक्ति के पक्ष में है उसको किसी की अधीनता नहीं रहती (क्योंकि) जिस पर तेरी मेहर है वह तेरी भक्ति करता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला ५ ॥ होहु क्रिपाल सुआमी मेरे संतां संगि विहावे ॥ तुधहु भुले सि जमि जमि मरदे तिन कदे न चुकनि हावे ॥१॥
मूलम्
सलोक महला ५ ॥ होहु क्रिपाल सुआमी मेरे संतां संगि विहावे ॥ तुधहु भुले सि जमि जमि मरदे तिन कदे न चुकनि हावे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विहावे = बीत जाए। सि = वह लोग। तिन = उनके। हावे = हाहुके, आहें। चुकनि = खत्म होते।
अर्थ: हे मेरे स्वामी! मेरे पर दया कर, मेरी उम्र संतों की संगति में रह कर बीते। जो मनुष्य तुझसे विछुड़ जाते हैं वे सदा पैदा होते मरते रहते हैं, उनकी आहें कभी खत्म नहीं होतीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ सतिगुरु सिमरहु आपणा घटि अवघटि घट घाट ॥ हरि हरि नामु जपंतिआ कोइ न बंधै वाट ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ सतिगुरु सिमरहु आपणा घटि अवघटि घट घाट ॥ हरि हरि नामु जपंतिआ कोइ न बंधै वाट ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि = हृदय में। अवघटि = हृदय में। घट = घाटी। घाट = पत्तन। घट घाट = घाटी हो चाहे पत्तन, (भाव,) हर समय हर जगह। कोइ = कोई (विकार)। बंधै = रोक सकता, रुकावट डाल सकता। वाट = रास्ता, जिंदगी की बाट।
अर्थ: (हे भाई!) अपने गुरु को (अपने) हृदय में उठते-बैठते हर समय (हर जगह) याद रखो। परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए जिंदगी के रास्ते में कोई विकार रुकावट नहीं डाल सकता।2।
[[0962]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तिथै तू समरथु जिथै कोइ नाहि ॥ ओथै तेरी रख अगनी उदर माहि ॥ सुणि कै जम के दूत नाइ तेरै छडि जाहि ॥ भउजलु बिखमु असगाहु गुर सबदी पारि पाहि ॥ जिन कउ लगी पिआस अम्रितु सेइ खाहि ॥ कलि महि एहो पुंनु गुण गोविंद गाहि ॥ सभसै नो किरपालु सम्हाले साहि साहि ॥ बिरथा कोइ न जाइ जि आवै तुधु आहि ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तिथै तू समरथु जिथै कोइ नाहि ॥ ओथै तेरी रख अगनी उदर माहि ॥ सुणि कै जम के दूत नाइ तेरै छडि जाहि ॥ भउजलु बिखमु असगाहु गुर सबदी पारि पाहि ॥ जिन कउ लगी पिआस अम्रितु सेइ खाहि ॥ कलि महि एहो पुंनु गुण गोविंद गाहि ॥ सभसै नो किरपालु सम्हाले साहि साहि ॥ बिरथा कोइ न जाइ जि आवै तुधु आहि ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथु = सहायता करने योग्य। रख = रक्षा, आसरा। उदर अगनी = (माँ के) पेट की आग। बिखमु = मुश्किल। असगाहु = बहुत गहरा, जिसका थाह ना पाया जा सके। पारि पाहि = पार लांघ जाते हैं। सेइ = वही लोग। कलि = संसार। पुंन = नेक काम। गाहि = गाते हैं। सभसै नो = हरेक जीव को। साहि साहि = हरेक सांस में। बिरथा = व्यर्थ, खाली। तुधु आहि = तेरी शरण। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। खाहि = खाते हैं। जि = जो।
अर्थ: (हे प्रभु!) जहाँ और कोई (जीव सहायता करने लायक) नहीं, वहाँ हे प्रभु! तू ही मदद करने योग्य है, माँ के पेट की आग में जीव को तेरा ही आसरा होता है।
(हे प्रभु! तेरा नाम) सुन के जमदूत (नजदीक नहीं फटकते), तेरे नाम की इनायत से (जीव को) छोड़ के चले जाते हैं। इस मुश्किल और अथाह संसार-समुंदर को जीव गुरु के शब्द (की सहायता) से पार कर लेते हैं।
पर वही लोग आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते हैं जिनके अंदर इसकी भूख-प्यास पैदा हुई है, जो संसार में नाम-स्मरण को ही सबसे अच्छा नेक काम जान के प्रभु के गुण गाते हैं।
कृपालु प्रभु हरेक जीव की सांस-सांस संभाल करता है।
हे प्रभु! जो जीव तेरी शरण आता है वह (तेरे दर से) खाली नहीं जाता।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ दूजा तिसु न बुझाइहु पारब्रहम नामु देहु आधारु ॥ अगमु अगोचरु साहिबो समरथु सचु दातारु ॥ तू निहचलु निरवैरु सचु सचा तुधु दरबारु ॥ कीमति कहणु न जाईऐ अंतु न पारावारु ॥ प्रभु छोडि होरु जि मंगणा सभु बिखिआ रस छारु ॥ से सुखीए सचु साह से जिन सचा बिउहारु ॥ जिना लगी प्रीति प्रभ नाम सहज सुख सारु ॥ नानक इकु आराधे संतन रेणारु ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ दूजा तिसु न बुझाइहु पारब्रहम नामु देहु आधारु ॥ अगमु अगोचरु साहिबो समरथु सचु दातारु ॥ तू निहचलु निरवैरु सचु सचा तुधु दरबारु ॥ कीमति कहणु न जाईऐ अंतु न पारावारु ॥ प्रभु छोडि होरु जि मंगणा सभु बिखिआ रस छारु ॥ से सुखीए सचु साह से जिन सचा बिउहारु ॥ जिना लगी प्रीति प्रभ नाम सहज सुख सारु ॥ नानक इकु आराधे संतन रेणारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु = उस मनुष्य को। आधारु = आसरा। निहचलु = अटल। पारावारु = पार+अवार, इस पार उस पार। बिखिआ = माया। रस = चस्के। छारु = राख। रेणारु = चरण धूल। सारु = श्रेष्ठ। सहज = आत्मिक अडोलता।
अर्थ: हे पारब्रहम! जिस मनुष्य को तू अपने नाम का आसरा देता है, उसको तू कोई और आसरा नहीं सुझाता; तू अगम्य (पहुँच से परे) है, इन्द्रियों की दौड़ से परे है, तू हरेक सत्ता वाला मालिक है, तू सदा-स्थिर रहने वाला दाता है, तू अटल है, तेरा किसी के साथ वैर नहीं, तेरा दरबार सदा कायम रहने वाला है, तेरा अंत नहीं पाया जा सकता, तेरी हद-बंदी नहीं मिल सकती, तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता।
(हे भाई!) परमात्मा को बिसार के और-और चीजें माँगनी- ये सब माया के चस्के हैं और राख के तुल्य हैं। (असल में) वही लोग सुखी हैं, वही सदा कायम रहने वाले शाह हैं जिन्होंने सदा-स्थिर रहने वाले नाम का व्यापार किया है। जिस लोगों की प्रीति प्रभु के नाम के साथ बनी है उनको आत्मिक अडोलता का श्रेष्ठ सुख नसीब है। हे नानक! वह मनुष्य गुरमुखों की चरणों की धूल में रह कर एक प्रभु को जपते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ अनद सूख बिस्राम नित हरि का कीरतनु गाइ ॥ अवर सिआणप छाडि देहि नानक उधरसि नाइ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ अनद सूख बिस्राम नित हरि का कीरतनु गाइ ॥ अवर सिआणप छाडि देहि नानक उधरसि नाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाइ = (गाय), गा के, गाने से। नाइ = (नाय) नाम से। उधरसि = उद्धार होगा, तू बच जाएगा।
अर्थ: प्रभु की महिमा करने से सदा आनंद सदा सुख और सदा शांति बनी रहती है। हे नानक! और चतुराईयाँ छोड़ दे, नाम की इनायत से (संसार समुंदर से तेरा) उद्धार हो जाएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ना तू आवहि वसि बहुतु घिणावणे ॥ ना तू आवहि वसि बेद पड़ावणे ॥ ना तू आवहि वसि तीरथि नाईऐ ॥ ना तू आवहि वसि धरती धाईऐ ॥ ना तू आवहि वसि कितै सिआणपै ॥ ना तू आवहि वसि बहुता दानु दे ॥ सभु को तेरै वसि अगम अगोचरा ॥ तू भगता कै वसि भगता ताणु तेरा ॥१०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ना तू आवहि वसि बहुतु घिणावणे ॥ ना तू आवहि वसि बेद पड़ावणे ॥ ना तू आवहि वसि तीरथि नाईऐ ॥ ना तू आवहि वसि धरती धाईऐ ॥ ना तू आवहि वसि कितै सिआणपै ॥ ना तू आवहि वसि बहुता दानु दे ॥ सभु को तेरै वसि अगम अगोचरा ॥ तू भगता कै वसि भगता ताणु तेरा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घिणावणे = घिघियाने से, दिखावे वाले तरले लेने से। तीरथि = तीर्थ पर। धरती धाईऐ = सारी धरती पर अगर दौड़ते फिरें। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगोचर = अ+गो+चर, गो = ज्ञान इन्द्रियाँ। चर = पहुँच। अगोचर = जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। ताणु = बल, आसरा। भगत = भजन करने वाले। वसि = वश में। नाईऐ = अगर स्नान किया जाए। दे = दे के। सभु को = हरेक जीव।
अर्थ: हे प्रभु! बहुत दिखावे वाले तरले लेने से, वेद पढ़ने-पढ़ाने से, तीर्थ पर स्नान करने से, (रमते साधुओं की तरह) सारी धरती गाहने से, किसी चतुराई-सयानप से, बहुत दान देने से, तू किसी जीव के वश में नहीं आता (किसी पर रीझता नहीं)।
हे अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर प्रभु! हरेक जीव तेरे अधीन है (इन दिखावे के उद्यमों से कोई जीव तेरी प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता)।
तू सिर्फ उन पर रीझता है जो सदा तेरा स्मरण करते हैं, (क्योंकि) तेरा भजन-स्मरण करने वालों को (सिर्फ) तेरा आसरा-सहारा होता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ आपे वैदु आपि नाराइणु ॥ एहि वैद जीअ का दुखु लाइण ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु खाइण ॥ नानक जिसु मनि वसै तिस के सभि दूख मिटाइण ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ आपे वैदु आपि नाराइणु ॥ एहि वैद जीअ का दुखु लाइण ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु खाइण ॥ नानक जिसु मनि वसै तिस के सभि दूख मिटाइण ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एहि वैद = ये (दुनिया वाले) हकीम, पाखण्डी धार्मिक नेता। जीअ का = जिंद का, आत्मा का। खाइण = खाने के लिए (भोजन)। जिसु मनि = जिस के मन में। नाराइणु = परमात्मा। सभि = सारे।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही (आत्मा के रोग हटाने वाला) हकीम है, ये (दुनियावी) हकीम (पाखण्डी धार्मिक नेता) आत्मा पर बल्कि दुख चिपका देते हैं; (आत्मा का रोग काटने के लिए) खाने योग्य चीज (औषधि) सतिगुरु का शब्द है (जिसमें से) अमृत का स्वाद (आता है), हे नानक! जिस मनुष्य के मन में (गुरु का शब्द) बसता है उसके सारे दुख मिट जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ हुकमि उछलै हुकमे रहै ॥ हुकमे दुखु सुखु सम करि सहै ॥ हुकमे नामु जपै दिनु राति ॥ नानक जिस नो होवै दाति ॥ हुकमि मरै हुकमे ही जीवै ॥ हुकमे नान्हा वडा थीवै ॥ हुकमे सोग हरख आनंद ॥ हुकमे जपै निरोधर गुरमंत ॥ हुकमे आवणु जाणु रहाए ॥ नानक जा कउ भगती लाए ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ हुकमि उछलै हुकमे रहै ॥ हुकमे दुखु सुखु सम करि सहै ॥ हुकमे नामु जपै दिनु राति ॥ नानक जिस नो होवै दाति ॥ हुकमि मरै हुकमे ही जीवै ॥ हुकमे नान्हा वडा थीवै ॥ हुकमे सोग हरख आनंद ॥ हुकमे जपै निरोधर गुरमंत ॥ हुकमे आवणु जाणु रहाए ॥ नानक जा कउ भगती लाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उछलै = उछलता है, कूदता है, भटकता है। रहै = टिकता है। सम = बराबर। दाति = बख्शिश। नाना = नन्हा सा। हरख = हर्ष, खुशी। निरुध = (to ward of evil) दुख-कष्ट विकार आदि को दूर करना। निरोधर = विकारों को दूर करने वाला। हुकमि = हुक्म अनुसार।
अर्थ: प्रभु के हुक्म अनुसार जीव भटकता है, हुक्म अनुसार ही टिका रहता है; प्रभु के हुक्म में ही जीव दुख-सुख को एक समान जान के सहता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु बख्शिश करता है, वह उसके हुक्म में ही दिन-रात उसका नाम जपता है।
प्रभु के हुक्म में जीव मरता है, हुक्म में ही जीता है, हुक्म में ही (पहले) छोटा सा (और फिर) बड़ा हो जाता है; हुक्म में ही (जीव को) चिन्ता और खुशी आनंद घटित होते हैं, प्रभु के हुक्म में ही (कोई जीव) गुरु का शब्द जपता है जो विकारों को दूर करने के समर्थ है।
हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभु अपनी भक्ति में जोड़ता है उसका पैदा होना मरना भी प्रभु अपने अनुसार ही रोकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हउ तिसु ढाढी कुरबाणु जि तेरा सेवदारु ॥ हउ तिसु ढाढी बलिहार जि गावै गुण अपार ॥ सो ढाढी धनु धंनु जिसु लोड़े निरंकारु ॥ सो ढाढी भागठु जिसु सचा दुआर बारु ॥ ओहु ढाढी तुधु धिआइ कलाणे दिनु रैणार ॥ मंगै अम्रित नामु न आवै कदे हारि ॥ कपड़ु भोजनु सचु रहदा लिवै धार ॥ सो ढाढी गुणवंतु जिस नो प्रभ पिआरु ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हउ तिसु ढाढी कुरबाणु जि तेरा सेवदारु ॥ हउ तिसु ढाढी बलिहार जि गावै गुण अपार ॥ सो ढाढी धनु धंनु जिसु लोड़े निरंकारु ॥ सो ढाढी भागठु जिसु सचा दुआर बारु ॥ ओहु ढाढी तुधु धिआइ कलाणे दिनु रैणार ॥ मंगै अम्रित नामु न आवै कदे हारि ॥ कपड़ु भोजनु सचु रहदा लिवै धार ॥ सो ढाढी गुणवंतु जिस नो प्रभ पिआरु ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढाढी = वार (पंजाबी लोक गायन विषोश रूप से वीर रस की शैली) गाने वाला, महिमा करने वाला। अपार = मैं। अपार = बेअंत प्रभु के। धनु धंनु = भाग्यों वाला। लोड़े = प्यार करता है। भागठु = भाग्यों वाला। बारु = दरवाजा। कलाणे = तारीफ करता है। दिनु रैणार = दिन रात, हर वक्त। हारि = हार के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सचा = सदा कायम रहने वाला।
अर्थ: हे प्रभु! मैं उस ढाढी से सदके जाता हूँ जो तेरी सेवा-भक्ति करता है, मैं उस ढाढी से वारने जाता हूँ जो तेरे बेअंत गुण गाता है।
भाग्यशाली है वह ढाढी, जिसको अकाल-पुरख स्वयं चाहता है, मुबारक है वह ढाढी, जिसको प्रभु का सच्चा दर प्राप्त है।
हे प्रभु! ऐसा (सौभाग्यशाली) ढाढी सदा तुझे ध्याता है, दिन-रात तेरे गुण गाता है, तुझसे तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल माँगता है। वह ढाढी मानव जन्म की बाजी हार के तेरे पास नहीं आता (जीत के ही आता है)।
हे प्रभु! तेरा सदा-स्थिर नाम ही (उस ढाढी के पास, पर्दा ढकने के लिए) कपड़ा है, और (आत्मिक) खुराक है, वह सदा एक-रस तेरी याद में जुड़ा रहता है।
(दरअसल) गुणवान वही ढाढी है जिसको प्रभु का प्यार हासिल है।11।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ अम्रित बाणी अमिउ रसु अम्रितु हरि का नाउ ॥ मनि तनि हिरदै सिमरि हरि आठ पहर गुण गाउ ॥ उपदेसु सुणहु तुम गुरसिखहु सचा इहै सुआउ ॥ जनमु पदारथु सफलु होइ मन महि लाइहु भाउ ॥ सूख सहज आनदु घणा प्रभ जपतिआ दुखु जाइ ॥ नानक नामु जपत सुखु ऊपजै दरगह पाईऐ थाउ ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ अम्रित बाणी अमिउ रसु अम्रितु हरि का नाउ ॥ मनि तनि हिरदै सिमरि हरि आठ पहर गुण गाउ ॥ उपदेसु सुणहु तुम गुरसिखहु सचा इहै सुआउ ॥ जनमु पदारथु सफलु होइ मन महि लाइहु भाउ ॥ सूख सहज आनदु घणा प्रभ जपतिआ दुखु जाइ ॥ नानक नामु जपत सुखु ऊपजै दरगह पाईऐ थाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली गुरवाणी के द्वारा। अमिउ रसु = अमृत का स्वाद। गुण गाउ = महिमा करो। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य। पदारथु = कीमती चीज। जनमु = मानव जीवन। भाउ = प्रेम, प्यार। सहज = आत्मिक अडोलता।
अर्थ: प्रभु का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है, अमृत का स्वाद देने वाला है; (हे भाई!) सतिगुरु की अमृत बरसाने वाली वाणी के द्वारा इस प्रभु नाम को मन में, शरीर में, हृदय में स्मरण करो और आठों पहर प्रभु की महिमा करो।
हे गुर-सिखो! (महिमा वाला यह) उपदेश सुनो, जिंदगी का असल उद्देश्य यही है। मन में (प्रभु का) प्यार टिकाओ, ये मानव-जीवन रूपी बहुमूल्य निधि सफल हो जाएगी।
प्रभु का स्मरण करने से दुख दूर हो जाता है, सुख, आत्मिक अडोलता और बेअंत खुशी प्राप्त होती है। हे नानक! प्रभु का नाम जपने से (इस लोक में) सुख पैदा होता है और प्रभु की हजूरी में जगह मिलती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ नानक नामु धिआईऐ गुरु पूरा मति देइ ॥ भाणै जप तप संजमो भाणै ही कढि लेइ ॥ भाणै जोनि भवाईऐ भाणै बखस करेइ ॥ भाणै दुखु सुखु भोगीऐ भाणै करम करेइ ॥ भाणै मिटी साजि कै भाणै जोति धरेइ ॥ भाणै भोग भोगाइदा भाणै मनहि करेइ ॥ भाणै नरकि सुरगि अउतारे भाणै धरणि परेइ ॥ भाणै ही जिसु भगती लाए नानक विरले हे ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ नानक नामु धिआईऐ गुरु पूरा मति देइ ॥ भाणै जप तप संजमो भाणै ही कढि लेइ ॥ भाणै जोनि भवाईऐ भाणै बखस करेइ ॥ भाणै दुखु सुखु भोगीऐ भाणै करम करेइ ॥ भाणै मिटी साजि कै भाणै जोति धरेइ ॥ भाणै भोग भोगाइदा भाणै मनहि करेइ ॥ भाणै नरकि सुरगि अउतारे भाणै धरणि परेइ ॥ भाणै ही जिसु भगती लाए नानक विरले हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। भाणै = अपनी रजा में। संजम = इन्द्रियों को वश में लाने की क्रिया। बख्स = बख्शिश। करम = मेहर। मिटी = शरीर। जोति = जिंद। मनहि करेइ = रोक देता है। अउतारे = उतरता है, पाता है। धारणि = धरती। धरणि परेइ = धरती से गिरता है, नाश होता है। नरकि = नर्क में। सुरगि = स्वर्ग में।
अर्थ: हे नानक! पूरा गुरु (तो यह) मति देता है कि प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए; (पर वैसे) जप तप संजम (आदिक कर्मकांड) प्रभु की रजा में ही हो रहे हैं, रजा अनुसार ही प्रभु (इस कर्मकांड में से जीवों को) निकाल लेता है।
प्रभु की रजा अनुसार ही जीव जूनियों में भटकता है, रजा में ही प्रभु (जीव पर) बख्शिश करता है। उसकी रजा में ही (जीव को) दुख-सुख भोगना पड़ता है, अपनी रजा अनुसार ही प्रभु (जीवों पर) मेहर करता है।
प्रभु अपनी रजा में ही शरीर बना के (उस में) जीवन डाल देता है, रजा में ही भोगों की ओर प्रेरता है और रजा के अनुसार ही भोगों से रोकता है।
अपनी रजा अनुसार ही प्रभु (किसी को) नर्क में (किसी को) स्वर्ग में डालता है, प्रभु की रजा में ही जीव का नाश हो जाता है। अपनी रजा अनुसार ही जिस मनुष्य को बँदगी में जोड़ता है (वह मनुष्य बँदगी करता है, पर) हे नानक! बँदगी करने वाले बँदे बहुत ही विरले विरले हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ वडिआई सचे नाम की हउ जीवा सुणि सुणे ॥ पसू परेत अगिआन उधारे इक खणे ॥ दिनसु रैणि तेरा नाउ सदा सद जापीऐ ॥ त्रिसना भुख विकराल नाइ तेरै ध्रापीऐ ॥ रोगु सोगु दुखु वंञै जिसु नाउ मनि वसै ॥ तिसहि परापति लालु जो गुर सबदी रसै ॥ खंड ब्रहमंड बेअंत उधारणहारिआ ॥ तेरी सोभा तुधु सचे मेरे पिआरिआ ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ वडिआई सचे नाम की हउ जीवा सुणि सुणे ॥ पसू परेत अगिआन उधारे इक खणे ॥ दिनसु रैणि तेरा नाउ सदा सद जापीऐ ॥ त्रिसना भुख विकराल नाइ तेरै ध्रापीऐ ॥ रोगु सोगु दुखु वंञै जिसु नाउ मनि वसै ॥ तिसहि परापति लालु जो गुर सबदी रसै ॥ खंड ब्रहमंड बेअंत उधारणहारिआ ॥ तेरी सोभा तुधु सचे मेरे पिआरिआ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि सुणे = सुन सुन के। हउ जीवा = मैं जीता हूँ। खणे = खिन में, छिन में। रैणि = रात। विकराल = डरावनी, भयानक। नाइ तेरै = तेरे नाम से। ध्रापीऐ = तृप्त हो जाती है। वंञै = दूर हो जाता है। जिसु मनि = जिस के मन में। रसै = रसता है, रस सहित होता है। तुधु = तुझे (ही फबती है)। सचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। उधारणहारिआ = हे तारणहार!
अर्थ: प्रभु के सच्चे नाम की तारीफ (करके और) सुन-सुन के मेरे अंदर जान पड़ जाती है (मुझे आत्मिक जीवन हासिल होता है), (प्रभु का नाम) पशु-स्वभाव, प्रेत-स्वभाव और ज्ञान-हीनों का एक छिन में उद्धार कर देता है।
हे प्रभु! दिन-रात सदा ही तेरा नाम जपना चाहिए, तेरे नाम के द्वारा (माया की) डरावनी भूख-प्यास मिट जाती है।
जिस मनुष्य के मन में प्रभु का नाम बस जाता है उसके मन में से (विकार-) रोग संशय और दुख दूर हो जाते हैं। पर ये नाम हीरा उस मनुष्य को ही हासिल होता है जो गुरु के शब्द में रच-मिच जाता है।
हे खंडों-ब्रहमण्डों के बेअंत जीवों का उद्धार करने वाले प्रभु! हे सदा स्थिर रहने वाले मेरे प्यारे! तेरी शोभा तुझे ही फबती है (अपनी महानता को तू स्वयं ही जानता है)।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ मित्रु पिआरा नानक जी मै छडि गवाइआ रंगि कसु्मभै भुली ॥ तउ सजण की मै कीम न पउदी हउ तुधु बिनु अढु न लहदी ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ मित्रु पिआरा नानक जी मै छडि गवाइआ रंगि कसु्मभै भुली ॥ तउ सजण की मै कीम न पउदी हउ तुधु बिनु अढु न लहदी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि कसुंभै = कसुंभ के रंग में (कुसंभ के फूल का रंग खासा गाढ़ा व शौख़ होता है, पर दो-चार दिन में ही खराब हो जाता है; इसी तरह माया के भोग भी बड़े मन-मोहक होते हैं, पर रहते चार दिन ही हैं)। अढु = आधी दमड़ी। न लहदी = मैं नहीं लेती। तउ की = तेरी। कीम = कीमत, कद्र।
अर्थ: हे नानक जी! मैं कुसंभ (जैसी माया) के रंग में गलती कर बैठी और प्यारा मित्र प्रभु बिसार के गवा बैठी।
हे सज्जन प्रभु! (इस गलती के कारण) मुझसे तेरी कद्र ना हो सकी, पर तेरे बगैर मैं आधी कौड़ी की भी नहीं हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ ससु विराइणि नानक जीउ ससुरा वादी जेठो पउ पउ लूहै ॥ हभे भसु पुणेदे वतनु जा मै सजणु तूहै ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ ससु विराइणि नानक जीउ ससुरा वादी जेठो पउ पउ लूहै ॥ हभे भसु पुणेदे वतनु जा मै सजणु तूहै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससु = अविद्या। विराइणि = वैरनि। ससुरा = ससुर, देह अध्यास, शरीर से प्यार। वादी = झगड़ालू, शरीर के पालने के लिए बार बार माँगने वाला। जेठ = जमराज, मौत का डर। पउ पउ = बार बार (आसा कबीर जी: ‘सासु की दुखी ससुर की पिआरी जेठि के नामि डरउ रे’ भाव, माया के हाथों दुखी हूँ, फिर भी शरीर से प्यार होने के कारण मरने को चिक्त नहीं करता, जम से डर लगता है)। हभे = सारे ही। भसु = राख। पुणेदे वतनु = छानते फिरें, बेशक जोर लगा लें। लूहै = जलाता है, दुखी करता है। मै = मेरा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘वतनु’ है हुकमी भविष्यत काल, imperative mood, अन्न पुरख, Third person, बहुवचन, Plural; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक जी! अविद्या (जीव-स्त्री की) वैरनि है, शरीर का मोह (शरीर की पालना के लिए नित्य) झगड़ा करता है (भाव, खाने को माँगता है), मौत का डर बार-बार दुखी करता है। पर, (हे प्रभु!) अगर तू मेरा मित्र बने, तो ये सारे बेशक ख़ाक छानते फिरें (भाव मेरे पर ये सारे कोई प्रभाव नहीं डाल सकते)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिसु तू वुठा चिति तिसु दरदु निवारणो ॥ जिसु तू वुठा चिति तिसु कदे न हारणो ॥ जिसु मिलिआ पूरा गुरू सु सरपर तारणो ॥ जिस नो लाए सचि तिसु सचु सम्हालणो ॥ जिसु आइआ हथि निधानु सु रहिआ भालणो ॥ जिस नो इको रंगु भगतु सो जानणो ॥ ओहु सभना की रेणु बिरही चारणो ॥ सभि तेरे चोज विडाण सभु तेरा कारणो ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिसु तू वुठा चिति तिसु दरदु निवारणो ॥ जिसु तू वुठा चिति तिसु कदे न हारणो ॥ जिसु मिलिआ पूरा गुरू सु सरपर तारणो ॥ जिस नो लाए सचि तिसु सचु सम्हालणो ॥ जिसु आइआ हथि निधानु सु रहिआ भालणो ॥ जिस नो इको रंगु भगतु सो जानणो ॥ ओहु सभना की रेणु बिरही चारणो ॥ सभि तेरे चोज विडाण सभु तेरा कारणो ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वुठा = आ बसा। चिति = चिक्त में। जिसु चिति = जिस (मनुष्य) के चिक्त में। निवारणो = (तू) दूर कर देता है। सरपर = अवश्य। सचि = सच में, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। जिसु हथि = जिसके हाथ में। निधानु = नाम खजाना। रहिआ = हट जाता है। रेणु = चरणों की धूल। बिरही = प्रेमी। चारणो = (प्रभु के) चरणों का। सभि = सारे। विडाण = आश्चर्य। कारणो = खेल। चोज = तमाशे।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के मन में तू बस जाता है उसके मन का दुख दर्द तू दूर कर देता है, वह मानव जन्म की बाजी कभी हारता नहीं।
(हे भाई!) जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाए, (गुरु) उसको जरूर (संसार समुंदर से) बचा लेता है (क्योंकि गुरु) जिस मनुष्य को सच्चे हरि में जोड़ता है, वह सदा हरि को (अपने मन में) संभाल के रखता है।
(हे भाई!) जिस मनुष्य के हाथ में नाम-खजाना आ जाता है, वह माया की भटकना से हट जाता है। उसी मनुष्य को भक्त समझो जिसके मन में (माया की जगह) एक प्रभु का ही प्यार है, प्रभु के चरणों का वह प्रेमी सबके चरणों की धूल (बना रहता) है।
(पर) हे प्रभु! ये सारे तेरे ही आश्चर्य तमाशे हैं, ये सारा तेरा ही खेल है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ उसतति निंदा नानक जी मै हभ वञाई छोड़िआ हभु किझु तिआगी ॥ हभे साक कूड़ावे डिठे तउ पलै तैडै लागी ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ उसतति निंदा नानक जी मै हभ वञाई छोड़िआ हभु किझु तिआगी ॥ हभे साक कूड़ावे डिठे तउ पलै तैडै लागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = बड़ाई। हभु = सब कुछ। वञाई = (वंजाई) छोड़ दी है। कूड़ावे = झूठे। तेडै पलै = तेरे पल्ले। तउ = इस लिए।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु) जी! किसी को अच्छा और किसी को बुरा कहना -ये सब कुछ मैंने छोड़ दिया है, त्याग दिया है; मैंने देख लिया है कि (दुनिया के) सारे संबंध झूठे हैं (भाव, कोई सिरे तक निभने वाला नहीं), इसलिए (हे प्रभु!) मैं तेरे पल्ले आ लगी हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ फिरदी फिरदी नानक जीउ हउ फावी थीई बहुतु दिसावर पंधा ॥ ता हउ सुखि सुखाली सुती जा गुर मिलि सजणु मै लधा ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ फिरदी फिरदी नानक जीउ हउ फावी थीई बहुतु दिसावर पंधा ॥ ता हउ सुखि सुखाली सुती जा गुर मिलि सजणु मै लधा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। फावी = व्याकुल। थीई = हे गई। दिसावर = (देश+अवर) और-और देश। दिसावर पंधा = और-और देशों के रास्ते। सुखि = सुख से। ता = तब। गुर मिलि = गुरु को मिल के। जा = जब। सुखाली = आसान।
अर्थ: हे नानक जी! मैं भटकती-भटकती व और-और देशों में दर-ब-दर फिरती व्याकुल हो गई थी, पर जब सतिगुरु को मिल के मुझे सज्जन-प्रभु मिल गया तो मैं बड़े सुख से सो गई (भाव, मेरे अंदर पूर्ण आत्मिक आनंद बन गया)।2।
[[0964]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सभे दुख संताप जां तुधहु भुलीऐ ॥ जे कीचनि लख उपाव तां कही न घुलीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु निरधनु कांढीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु जोनी हांढीऐ ॥ जिसु खसमु न आवै चिति तिसु जमु डंडु दे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति रोगी से गणे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति सु खरो अहंकारीआ ॥ सोई दुहेला जगि जिनि नाउ विसारीआ ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सभे दुख संताप जां तुधहु भुलीऐ ॥ जे कीचनि लख उपाव तां कही न घुलीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु निरधनु कांढीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु जोनी हांढीऐ ॥ जिसु खसमु न आवै चिति तिसु जमु डंडु दे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति रोगी से गणे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति सु खरो अहंकारीआ ॥ सोई दुहेला जगि जिनि नाउ विसारीआ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संताप = मन के कष्ट। भुलीऐ = भटक जाएं। कीचनि = किए जाएं। घुलीऐ = छूटते हैं। कही न = किसी भी उपाय से नहीं। कांढीऐ = कहा जाता है। हांढीऐ = भटकता है। जिसु चिति = जिस (मनुष्य) के चिक्त में। दे = देता है। डंडु = सजा। गणे = गिने जाते हैं। से = वह बँदे। खरो = बहुत। दुहेला = दुखी। जगि = जगत में। जिनि = जिस ने।
अर्थ: जब हे प्रभु! तेरी याद से टूट जाएं तो (मन को) सारे दुख-कष्ट (आ व्यापते हैं)। (तेरी याद के बिना और) अगर लाखों प्रयत्न भी किए जायं, किसी भी उपाय से (उन दुखों-कष्टों से) खलासी नहीं होती।
(हे भाई!) जिस मनुष्य को प्रभु का नाम (स्मरणा) भूल जाए वह कंगाल कहा जाता है (जैसे कोई कंगाल भिखारी दर-दर पर भटकता है, वैसे ही) वह जूनियों में भटकता फिरता है।
जिस मनुष्य के चिक्त में पति-प्रभु नहीं आता उसको जमराज सजा देता है (क्योंकि) ऐसे लोग रोगी गिने जाते हैं, ऐसा सख्श बहुत अहंकारी होता है (हर वक्त ‘मैं मैं’ ही करता है)।
जिस मनुष्य ने प्रभु का नाम भुला दिया है वही जगत में दुखी है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ तैडी बंदसि मै कोइ न डिठा तू नानक मनि भाणा ॥ घोलि घुमाई तिसु मित्र विचोले जै मिलि कंतु पछाणा ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ तैडी बंदसि मै कोइ न डिठा तू नानक मनि भाणा ॥ घोलि घुमाई तिसु मित्र विचोले जै मिलि कंतु पछाणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तैडी = तेरी। बंदसि = बंदिश, मन की स्वतंत्रता के रास्ते में रुकावट। तूं = तुझे। मनि भाणा = मन में प्यारा लगने वाला। विचोला = वकील, बीच में पड़ के मिलाने वाला। जै मिलि = जिसको मिल के। कंतु = पति।
अर्थ: हे (गुरु) नानक (जी)! तेरी कोई बात मुझे बंदिश नहीं लगती, मैं तो तुझे (बल्कि) मन में प्यारा लगने वाला देखा है।
मैं उस प्यारे बिचोलिए (गुरु) से सदके हूँ जिसको मिल के मैंने अपने पति-प्रभु को पहचाना है (पति-प्रभु के साथ सांझ डाल ली है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ पाव सुहावे जां तउ धिरि जुलदे सीसु सुहावा चरणी ॥ मुखु सुहावा जां तउ जसु गावै जीउ पइआ तउ सरणी ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ पाव सुहावे जां तउ धिरि जुलदे सीसु सुहावा चरणी ॥ मुखु सुहावा जां तउ जसु गावै जीउ पइआ तउ सरणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाव = पैर। सुहावै = सुंदर लगे। तउ धिरि = तेरी तरफ। जुलदे = चलते। जीउ = जिंद। तउ = तेरा। जसु = यश, महिमा के गीत।
अर्थ: वह पैर सुंदर हैं जो तेरी ओर चलते हैं, वह सिर भाग्यशाली है जो तेरे कदमों पर गिरता है; मुँह मन-मोहक लगता है जो तेरा यश गाता है, जीवात्मा खूबसूरत लगने लगती है जब तेरी शरण पड़ती है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस दूसरे शलोक को जरा ध्यान से समझने पर उपरोक्त शलोक के शब्द ‘बंदसि’ का भाव स्पष्ट हो जाता है: तेरी ओर आना, तेरे बताए राह पर चलना मुझे कोई बंधन नहीं प्रतीत होता, बल्कि वह पैर सुंदर जो तेरी ओर आते हैं, वह सिर सोहाना जो तेरे चरणों पर गिरता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ मिलि नारी सतसंगि मंगलु गावीआ ॥ घर का होआ बंधानु बहुड़ि न धावीआ ॥ बिनठी दुरमति दुरतु सोइ कूड़ावीआ ॥ सीलवंति परधानि रिदै सचावीआ ॥ अंतरि बाहरि इकु इक रीतावीआ ॥ मनि दरसन की पिआस चरण दासावीआ ॥ सोभा बणी सीगारु खसमि जां रावीआ ॥ मिलीआ आइ संजोगि जां तिसु भावीआ ॥१५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ मिलि नारी सतसंगि मंगलु गावीआ ॥ घर का होआ बंधानु बहुड़ि न धावीआ ॥ बिनठी दुरमति दुरतु सोइ कूड़ावीआ ॥ सीलवंति परधानि रिदै सचावीआ ॥ अंतरि बाहरि इकु इक रीतावीआ ॥ मनि दरसन की पिआस चरण दासावीआ ॥ सोभा बणी सीगारु खसमि जां रावीआ ॥ मिलीआ आइ संजोगि जां तिसु भावीआ ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि सतसंग = सत्संग में मिल के। नारी = (जिस) जीव-स्त्री ने। मंगलु = महिमा का गीत। घर का = उस (नारी) के (शरीर-) घर का। बंधानु = बंधन, मर्यादा। बहुड़ि = दोबारा। न धावीआ = भटकती नहीं। बिनठी = नाश हो गई। दुरतु = पाप। सोइ कूड़ावीआ = कूड़ की सोय, नाशवान पदार्थों की ललक (झाक)। सीलवंति = अच्छे स्वभाव वाली। परधानि = जानी मानी हुई। रिदै = हृदय में। सचावीआ = सच वाली। रीतावीआ = रीत, जीवन जुगति। दासावीआ = दासी। खसमि = पति ने। रावीआ = भोगी, अपने साथ मिलाई। संजोगि = (प्रभु की) संयोग सत्ता से। तिसु = उस (प्रभु) को।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने सत्संग में मिल के प्रभु की महिमा के गीत गाए, उसके शरीर घर का ठुक बन गया (उसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ उसके वश में आ गई), वह फिर (माया के पीछे) भटकती नहीं, (उसके अंदर से) बुरी मति पाप व नाशवान पदार्थों की झाक खत्म हो जाती है।
ऐसी जीव-स्त्री अच्छे स्वभाव वाली हो जाती है, (सहेलियों में) आदर-मान पाती है, उसके हृदय में प्रभु के प्रति लगन टिकी रहती है, उसको अपने अंदर व सारी सृष्टि में एक प्रभु ही दिखता है, बस! यही उसकी जीवन-जुगति बन जाती है।
उस जीव-स्त्री के मन में प्रभु के दीदार की तमन्ना बनी रहती है, वह प्रभु के चरणों की ही दासी बनी रहती है।
जब उस जीव-स्त्री को पति-प्रभु ने अपने साथ मिला लिया, तो ये मिलाप ही उसके लिए शोभा और श्रृंगार होता है! जब उस प्रभु को वह जिंद-वधू प्यारी लग जाती है, तो प्रभु की संयोग-सत्ता की इनायत से वह प्रभु की ज्योति में मिल जाती है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ हभि गुण तैडे नानक जीउ मै कू थीए मै निरगुण ते किआ होवै ॥ तउ जेवडु दातारु न कोई जाचकु सदा जाचोवै ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ हभि गुण तैडे नानक जीउ मै कू थीए मै निरगुण ते किआ होवै ॥ तउ जेवडु दातारु न कोई जाचकु सदा जाचोवै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हभि = सारे। जीउ = हे प्रभु जी! मै कू = मुझे। थीए = मिले हैं। किआ होवै = कुछ नहीं हो सकता। तउ जेवडु = तेरे जितना। जाचकु = भिखारी। जाचोवै = माँगता है।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु) जी! सारे गुण तेरे ही हैं, तुझसे ही मुझे मिले हैं, मुझ गुण-हीन से कुछ नहीं हो सकता, तेरे जितना बड़ा कोई दातार नहीं है, मैं मँगते ने सदा तुझसे ही माँगना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ देह छिजंदड़ी ऊण मझूणा गुरि सजणि जीउ धराइआ ॥ हभे सुख सुहेलड़ा सुता जिता जगु सबाइआ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ देह छिजंदड़ी ऊण मझूणा गुरि सजणि जीउ धराइआ ॥ हभे सुख सुहेलड़ा सुता जिता जगु सबाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देह = शरीर। छिजंदड़ी = छिज गई, जर्जर हो गई। ऊणम = ऊनी, खाली। झूणा = उदास। गुरि = गुरु ने। सजणि = सज्जन ने। जीउ = जिंद। धराइआ = धरवास दिया। सुहेलड़ा = आसान। जिता = जीत लिया। सबाइआ = पूरा, सारा।
अर्थ: मेरा शरीर जर्जर होता जा रहा था, चिक्त में खिचाव सा हो रहा था और चिंतातुर हो रहा था; पर जब प्यारे सतिगुरु ने जीवात्मा को धरवास दिया तो (अब) सारे ही सुख मिल गए है, मैं सकून में टिका हुआ हूँ, (ऐसा प्रतीत होता है जैसे मैंने) सारा जहान जीत लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ वडा तेरा दरबारु सचा तुधु तखतु ॥ सिरि साहा पातिसाहु निहचलु चउरु छतु ॥ जो भावै पारब्रहम सोई सचु निआउ ॥ जे भावै पारब्रहम निथावे मिलै थाउ ॥ जो कीन्ही करतारि साई भली गल ॥ जिन्ही पछाता खसमु से दरगाह मल ॥ सही तेरा फुरमानु किनै न फेरीऐ ॥ कारण करण करीम कुदरति तेरीऐ ॥१६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ वडा तेरा दरबारु सचा तुधु तखतु ॥ सिरि साहा पातिसाहु निहचलु चउरु छतु ॥ जो भावै पारब्रहम सोई सचु निआउ ॥ जे भावै पारब्रहम निथावे मिलै थाउ ॥ जो कीन्ही करतारि साई भली गल ॥ जिन्ही पछाता खसमु से दरगाह मल ॥ सही तेरा फुरमानु किनै न फेरीऐ ॥ कारण करण करीम कुदरति तेरीऐ ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सिरि = सिर पर। छतु = छत्र। निआउ = न्याय। करतारि = इश्वर ने। साई = वही। मल = पहलवान। दरगाह मल = दरगाह के पहलवान, हजूरी पहलवान। करीम = बख्शिश करने वाला। कारण करण = सृष्टि का कर्ता।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा दरबार बड़ा है, तेरा तख्त सदा स्थिर रहने वाला है, तेरा चवर और छत्र अटल है, तू (दुनिया के सारे) शाहों के सिर पर पातशाह है।
(हे भाई!) वह न्याय अटल है जो परमात्मा को अच्छा लगता है, अगर उसे ठीक लगे तो निआसरों को आसरा मिल जाता है।
(जीवों के लिए) वही बात ठीक है जो कर्तार ने (खुद उनके लिए) की है। जिस लोगों ने पति-प्रभु के साथ सांझ डाल ली, वह हजूरी पहलवान बन जाते हैं (कोई विकार उनको छू नहीं सकता)।
हे प्रभु! तेरा हुक्म (सदा) ठीक होता है, किसी जीव ने (कभी) वह मोड़ा नहीं। हे सृष्टि के रचयता! हे जीवों पर बख्शिश करने वाले! (ये सारी) तेरी ही (रची हुई) कुदरति है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ सोइ सुणंदड़ी मेरा तनु मनु मउला नामु जपंदड़ी लाली ॥ पंधि जुलंदड़ी मेरा अंदरु ठंढा गुर दरसनु देखि निहाली ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ सोइ सुणंदड़ी मेरा तनु मनु मउला नामु जपंदड़ी लाली ॥ पंधि जुलंदड़ी मेरा अंदरु ठंढा गुर दरसनु देखि निहाली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोइ = सोय, खबर, शोभा। मउला = हरा हो जाता है। पंधि = (तेरे) राह पर। जुलंदड़ी = चलते हुए। अंदरु = हृदय। देखि = देख के। निहाली = प्रसन्न हुई।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी शोभा सुन के मेरा तन मन हरा हो आता है, तेरा नाम जपते हुए मुझे खुशी की लाली चढ़ जाती है, तेरे राह पर चलते हुए मेरा हृदय ठंडा हो जाता है और सतिगुरु का दीदार करके मेरा मन खिल उठता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ हठ मंझाहू मै माणकु लधा ॥ मुलि न घिधा मै कू सतिगुरि दिता ॥ ढूंढ वञाई थीआ थिता ॥ जनमु पदारथु नानक जिता ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ हठ मंझाहू मै माणकु लधा ॥ मुलि न घिधा मै कू सतिगुरि दिता ॥ ढूंढ वञाई थीआ थिता ॥ जनमु पदारथु नानक जिता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हठ = हृदय। मंझाहू = में। माणकु = लाल। घिधा = लिया। मैकू = मुझे। सतिगुरि = सतिगुरु ने। ढूँढ = तलाश, भटकना। वञाई = वंजाई, समाप्त कर दी है। थीआ थिता = टिक गया हूँ। पदारथु = कीमती चीज।
अर्थ: मैंने अपने हृदय में एक लाल पाया है, (पर वह मैंने कोई) मोल दे के नहीं लिया, (ये लाल) मुझे सतिगुरु ने दिया है, (इसकी इनायत से) मेरी भटकना समाप्त हो गई है, मैं टिक गया हूँ, हे नानक! मैंने मानव जीवन-रूपी कीमती वस्तु (का लाभ) हासिल कर लिया है।2।
[[0965]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जिस कै मसतकि करमु होइ सो सेवा लागा ॥ जिसु गुर मिलि कमलु प्रगासिआ सो अनदिनु जागा ॥ लगा रंगु चरणारबिंद सभु भ्रमु भउ भागा ॥ आतमु जिता गुरमती आगंजत पागा ॥ जिसहि धिआइआ पारब्रहमु सो कलि महि तागा ॥ साधू संगति निरमला अठसठि मजनागा ॥ जिसु प्रभु मिलिआ आपणा सो पुरखु सभागा ॥ नानक तिसु बलिहारणै जिसु एवड भागा ॥१७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जिस कै मसतकि करमु होइ सो सेवा लागा ॥ जिसु गुर मिलि कमलु प्रगासिआ सो अनदिनु जागा ॥ लगा रंगु चरणारबिंद सभु भ्रमु भउ भागा ॥ आतमु जिता गुरमती आगंजत पागा ॥ जिसहि धिआइआ पारब्रहमु सो कलि महि तागा ॥ साधू संगति निरमला अठसठि मजनागा ॥ जिसु प्रभु मिलिआ आपणा सो पुरखु सभागा ॥ नानक तिसु बलिहारणै जिसु एवड भागा ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। करमु = बख्शिश, प्रभु की बख्शिश का लेखा। जिसु कमलु = जिसका हृदय कमल। अनदिनु = हर रोज, सदा। जागा = (विकारों की घात की ओर से) सचेत। चरणारबिंद = चरण +अरविंद। अरविंद = कमल का फूल। आगंजत = अविनाशी प्रभु। पागा = पा लेता है। जिसहि = जिस ही ने। तागा = मुकाबला करने योग्य। मजनागा = स्नान।
अर्थ: जिस मनुष्य के माथे पर प्रभु की कृपा (के लेख) हों वह प्रभु की सेवा-भक्ति में लगता है। गुरु को मिल के जिस मनुष्य का हृदय-कमल खिल उठता है, वह (विकारों के हमलों से) सदा सचेत रहता है। जिस मनुष्य (के मन) में प्रभु के सुंदर चरणों का प्यार होता है, उसकी भटकना उसका डर-भय दूर हो जाता है, क्योंकि गुरु की मति ले के वह अपने मन को जीत लेता है, और उसको अविनाशी प्रभु मिल जाता है।
जिस ही मनुष्य ने परमात्मा प्रभु को स्मरण किया है वह संसार में (विकारों का) मुकाबला करने के योग्य हो जाता है, गुरमुखों की संगति में उसका मन पवित्र हो जाता है, मानो, उसने अढ़सठ तीर्थों का स्नान करि लिया है।
भाग्यशाली है वह मनुष्य जिसको प्यारा प्रभु मिल गया। हे नानक! (कह:) मैं सदके हूँ उस पर से जिसके इतने बड़े भाग्य हैं।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ जां पिरु अंदरि तां धन बाहरि ॥ जां पिरु बाहरि तां धन माहरि ॥ बिनु नावै बहु फेर फिराहरि ॥ सतिगुरि संगि दिखाइआ जाहरि ॥ जन नानक सचे सचि समाहरि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ जां पिरु अंदरि तां धन बाहरि ॥ जां पिरु बाहरि तां धन माहरि ॥ बिनु नावै बहु फेर फिराहरि ॥ सतिगुरि संगि दिखाइआ जाहरि ॥ जन नानक सचे सचि समाहरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरु = पति परमात्मा। अंदरि = हृदय में (प्रत्यक्ष)। धन = जीव-स्त्री। बाहरि = निर्लिप (धंधों से)। जां पिरु बाहरि = जब पति प्रभु जीव-स्त्री की याद से परे हो जाता है। माहरि = चौधराणी, धंधों में खचित। फेर = जन्मों के चक्कर, भटकना। सतिगुरि = गुरु ने। संगि = अंदर साथ ही। सचे सचि = निर्मल सदा स्थिर हरि में। समाहरि = समाया रहता है, टिका रहता है। जाहरि = प्रत्यक्ष।
अर्थ: जब पति-प्रभु जीव-स्त्री के हृदय में प्रत्यक्ष मौजूद हो, तो जीव-स्त्री मायावी धंधों झमेलों से निर्लिप रहती है। जब पति-प्रभु याद से दूर हो जाए, तो जीव-स्त्री मायावी-धंधों में खचित होने लग जाती है। प्रभु की याद के बिना जीव अनेक भटकनों में भटकता है।
हे दास नानक! जिस मनुष्य को गुरु ने हृदय में प्रत्यक्ष प्रभु दिखा दिया, वह सदा स्थिर प्रभु में ही टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ आहर सभि करदा फिरै आहरु इकु न होइ ॥ नानक जितु आहरि जगु उधरै विरला बूझै कोइ ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ आहर सभि करदा फिरै आहरु इकु न होइ ॥ नानक जितु आहरि जगु उधरै विरला बूझै कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। इकु आहरु = एक प्रभु की याद करने का उद्यम। जितु आहरि = जिस प्रयास से, जिस उद्यम से। उधरै = (विकारों से) बचता है (उद्धार होता है)।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘आहरु, आहर,आहरि; व्याकरण के अनुसार तीन विभिन्न रूप हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! मनुष्य अन्य सारे उद्यम करता फिरता है, पर एक प्रभु के स्मरण का प्रयास नहीं करता। जिस उद्यम से जगत विकारों से बच सकता है (उस उद्यम को) कोई विरला मनुष्य ही समझता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ वडी हू वडा अपारु तेरा मरतबा ॥ रंग परंग अनेक न जापन्हि करतबा ॥ जीआ अंदरि जीउ सभु किछु जाणला ॥ सभु किछु तेरै वसि तेरा घरु भला ॥ तेरै घरि आनंदु वधाई तुधु घरि ॥ माणु महता तेजु आपणा आपि जरि ॥ सरब कला भरपूरु दिसै जत कता ॥ नानक दासनि दासु तुधु आगै बिनवता ॥१८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ वडी हू वडा अपारु तेरा मरतबा ॥ रंग परंग अनेक न जापन्हि करतबा ॥ जीआ अंदरि जीउ सभु किछु जाणला ॥ सभु किछु तेरै वसि तेरा घरु भला ॥ तेरै घरि आनंदु वधाई तुधु घरि ॥ माणु महता तेजु आपणा आपि जरि ॥ सरब कला भरपूरु दिसै जत कता ॥ नानक दासनि दासु तुधु आगै बिनवता ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपारु = अ+पारु, जिसका परला छोर ना मिल सके। दर्जा = रुतबा। रंग परंग = रंग बिरंगे। न जापनि = समझे नहीं जा सकते। जीउ = जिंद, सहारा। जाणला = जानने वाला। वसि = वश में। भला = सोहना। घरि = घर में। तुधु घरि = तेरे घर में। वधाई = खुशियाँ, शादियाने। महता = महत्वता, बड़ाई। तेजु = प्रताप। जरि = जरता है। कला = ताकत, सत्ता। जत कता = हर जगह। दासनि दासु = दासों का दास।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा बेअंत ही बड़ा रुतबा है, (संसार में) तेरे अनेक ही किस्मों के करिश्मे हो रहे हैं जो समझे नहीं जा सकते। सब जीवों के अंदर तू ही जिंद-रूप है, तू (जीवों की) हरेक बात जानता है। सुंदर है तेरा ठिकाना, सारी सृष्टि तेरे ही वश में है।
(इतनी सृष्टि का मालिक होते हुए भी) तेरे हृदय में सदा आनंद और खुशियाँ हैं, तू अपने इतने बड़े मान-सम्मान के प्रताप को खुद ही जरता है (सहता है)।
(हे भाई!) सारी ताकतों का मालिक प्रभु हर जगह दिख रहा है। हे प्रभु! नानक तेरे दासों का दास तेरे आगे (ही) अरदास विनती करता है।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ छतड़े बाजार सोहनि विचि वपारीए ॥ वखरु हिकु अपारु नानक खटे सो धणी ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ छतड़े बाजार सोहनि विचि वपारीए ॥ वखरु हिकु अपारु नानक खटे सो धणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छतड़े = (आकाश छत से) छते हुए। बाजार = सारा जगत मण्डल (मानो, बाजार है)। विचि = इन जगत मण्डलों में। वपारीए = प्रभु नाम का व्यापार करने वाले। वखरु = प्रभु नाम का सौदा। हिकु = एक। धणी = धनाढ, धनवंत। अपारु = कभी ना खत्म होने वाला।
अर्थ: (इसके ऊपर दिखते आकाश छत के नीचे) छता हुआ (बेअंत जगत-मण्डल, जैसे) बाजार हैं, इनमें (प्रभु के नाम का व्यापार करने वाले जीव-) व्यापारी ही खूबसूरत लगते हैं। हे नानक! (इस जगत-मण्डल में) वह मनुष्य धनवान हैं जो एक अखुट हरि-नाम का सौदा ही कमाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला ५ ॥ कबीरा हमरा को नही हम किस हू के नाहि ॥ जिनि इहु रचनु रचाइआ तिस ही माहि समाहि ॥२॥
मूलम्
महला ५ ॥ कबीरा हमरा को नही हम किस हू के नाहि ॥ जिनि इहु रचनु रचाइआ तिस ही माहि समाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे कबीर! जिस परमात्मा ने ये रचना रची है, हम तो उसी की याद में टिके रहते हैं, क्योंकि ना कोई हमारा ही सदा का साथी है, और ना ही हम ही सदा के लिए साथी बन सकते हैं (बेड़ी की यात्रा का मेला है)।2।
दर्पण-टिप्पनी
देखें मेरा ‘सटीक शलोक भक्त कबीर जी’।
नोट: ये शलोक गुरु अरजन देव जी का है। देखें शलोक नं: 214 ‘सलोक कबीर जी के’। कबीर जी के निम्न-लिखित सलोक नंबर 212, 213 के प्रथाय है:
नामा माइआ मोहिआ, कहै तिलोचनु मीतु॥
काहे छीपहु छाइले राम न लावहु चीतु॥212।
नामा कहै तिरलोचना, मुख ते रामु समालि॥
हाथ पाउ करि कामु सभ, चीतु निरंजन नालि॥213॥
जो उक्तर नामदेव जी ने त्रिलोचन जी को दिया था, उसका हवाला दे कर कबीर जी इन शलोकों में कहते हैं कि दुनिया की मेहनत-कमाई नहीं छोड़नी, ये करते हुए ही हमने अपना चिक्त इससे अलग रखना है।
सलोक नं: 214 में गुरु अरजन साहिब ने ये बताया है कि साक-संबंधियों में रहते हुए और माया में विचरते हुए हर वक्त ये याद रखना है कि ये सब कुछ यहाँ सिर्फ चार दिन के साथी हैं, असल साथी परमात्मा का नाम है और मेहनत-कमाई करते हुए उसको भी हर वक्त याद रखना है।
नोट: ये शलोक सतिगुरु जी ने कबीर जी के शलोक नं: 212 और 213 के प्रथाय लिखा है, इस वास्ते इसमें नाम ‘नानक’ की जगह ‘कबीर’ बरता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ सफलिउ बिरखु सुहावड़ा हरि सफल अम्रिता ॥ मनु लोचै उन्ह मिलण कउ किउ वंञै घिता ॥ वरना चिहना बाहरा ओहु अगमु अजिता ॥ ओहु पिआरा जीअ का जो खोल्है भिता ॥ सेवा करी तुसाड़ीआ मै दसिहु मिता ॥ कुरबाणी वंञा वारणै बले बलि किता ॥ दसनि संत पिआरिआ सुणहु लाइ चिता ॥ जिसु लिखिआ नानक दास तिसु नाउ अम्रितु सतिगुरि दिता ॥१९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ सफलिउ बिरखु सुहावड़ा हरि सफल अम्रिता ॥ मनु लोचै उन्ह मिलण कउ किउ वंञै घिता ॥ वरना चिहना बाहरा ओहु अगमु अजिता ॥ ओहु पिआरा जीअ का जो खोल्है भिता ॥ सेवा करी तुसाड़ीआ मै दसिहु मिता ॥ कुरबाणी वंञा वारणै बले बलि किता ॥ दसनि संत पिआरिआ सुणहु लाइ चिता ॥ जिसु लिखिआ नानक दास तिसु नाउ अम्रितु सतिगुरि दिता ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफलिउ = फल वाला, जो हरेक के मेहनत को फल लगाए। सुहावड़ा = सोहाना। घिता वंञै = लिया जा सके। वरन = रंग। चिहन = निशान। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। जीअ का = जिंद का। भिता = भेद। करी = मैं करूँ। मै = मुझे। मिता = हे मित्र! बले बलि = बलिहार। किता = किया। दसनि = बताते हैं। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अंमित = आत्मिक जीवन देने वाले।
अर्थ: परमात्मा (जैसे) एक खूबसूरत फलदार वृक्ष है जिस पर आत्मिक जीवन देने वाले फल लगे हुए हैं।
मेरा मन उस प्रभु को मिलने के लिए तड़पता है (पर पता नहीं लगता कि) कैसे मिला जाए क्योंकि ना उसका कोई रंग है ना निशान, उस तक पहुँचा नहीं जा सकता, उसको जीता नहीं जा सकता।
जो सज्जन, (मुझे) ये भेद समझा दे, वह मेरी जिंद-जान को प्यारा लगेगा। हे मित्र! मुझे (यह भेद) बताओ, मैं तुम्हारी सेवा करूँगा, मैं तुमसे सदके कुर्बान वारने जाऊँगा।
प्यारे संत (गुरसिख वह भेद) बताते हैं (और कहते हैं कि) ध्यान से सुन- हे दास नानक! जिसके माथे पर लेख लिखा (उघड़ता) है उसको सतिगुरु ने प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शा है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक महला ५ ॥ कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ॥ धरती भारि न बिआपई उन कउ लाहू लाहि ॥१॥
मूलम्
सलोक महला ५ ॥ कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ॥ धरती भारि न बिआपई उन कउ लाहू लाहि ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला ५ ॥ कबीर चावल कारणे तुख कउ मुहली लाइ ॥ संगि कुसंगी बैसते तब पूछे धरम राइ ॥२॥
मूलम्
महला ५ ॥ कबीर चावल कारणे तुख कउ मुहली लाइ ॥ संगि कुसंगी बैसते तब पूछे धरम राइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरती साध की = सतिगुरु की धरती, सतिगुरु की संगति। तसकर = चोर, विकारी लोग। बैसहि = आ बैठते हैं, अगर आ के बैठें। गाहि = गहि, पकड़ के, सिदक से, और विचार त्याग के। भारि = भार से, भार तले, तस्करों के भार के नीचे। न बिआपई = दबती नहीं, असर तले नहीं आती। उन कउ = उन (तस्करों) को। लाहू = लाहा ही, लाभ ही (मिलता है)। लाहि = लहहिं, लेते हैं, वे विकारी बल्कि लाभ ही उठाते हैं।1।
तुख = तोह, चावलों के छिलके। लाइ = लाय, लगती है, बजती है।2।
अर्थ: हे कबीर! अगर विकारी मनुष्य (सौभाग्यवश) और ताक छोड़ के सतिगुरु की संगति में आ के बैठें, तो विकारियों का असर उस संगत पर नहीं पड़ता। हाँ, विकारी लोगों को अवश्य लाभ पहुँचता है, वे विकारी व्यक्ति जरूर लाभ उठाते हैं।1।
हे कबीर! (तोख से) चावल (अलग करने) के लिए (छाँटने वक्त) तोखों को मोहली (की चोट) बजती है। इसी तरह जो मनुष्य विकारियों की सोहबत में बैठता है (वह भी विकारों की मार खाता है, विकार करने लग जाता है) उससे धर्मराज लेखा माँगता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये दोनों शलोक ‘कबीर जी के सलोक संग्रह’ में नं: 210 और 211 में दर्ज हैं। कबीर जी के शलोक नं: 208 के प्रथाय गुरु अरजन साहिब के 3 सलोक हैं: 208, 210 और 211। कबीर जी का शलोक इस प्रकार है;
कबीर टालै टोलै दिनु गइआ, विआजु बढंतउ जाइ॥
ना हरि भजिओ न खतु फटिओ, कालु पहूँचो आइ॥२०८॥
इस शलोक के साथ गुरु अरजन देव जी का शलोक नं: 208 इस प्रकार है;
कबीर कूकरु भउकना, करंग पिछै उठि धाइ॥
करमी सतिगुरु पाइआ, जिनि हउ लीआ छडाइ॥२०९॥
शलोक नं: 207 में कबीर जी ने कहा था कि जिनको गुरु मिल जाता है उनको वह विकारों और आशाओं के चक्कर से निकाल लेता है। नं: 208 में कहते हैं कि जिनको गुरु नहीं मिलता, वे हरि का स्मरण नहीं कर सकते, और ना ही विकारों और आशाओं से उनकी मुक्ति हो सकती है। कबीर जी के इसी विचार को गुरु अरजन साहिब और खुलासा करते हैं कि गुरु के बिना ये जीव टाल-मटोल करने पर मजबूर है क्योंकि इसका स्वभाव कुत्ते जैसा है, इसकी फितरत ही ऐसे है कि हर वक्त मुर्दे के पीछे दौड़ता फिरे। सलोक नं: 209 वाले ही विचार को जारी रख के 210 में कहते हैं कि विकारी लोगों का जोर गुरु और गुरु-संगति पर नहीं पड़ सकता, क्योंकि गुरु महान ऊँचा है। पर हाँ, गुरु और उसकी संगति की इनायत से विकारियों को अवश्य लाभ पहुँचता है। ‘साधु की धरती’ और ‘तस्कर’ का उदाहरण दे के कहते हैं कि ‘तस्करों’ का असर ‘धरती’ पर नहीं पड़ सकता। क्यों? क्योंकि ‘धरती’ का भार ‘तस्करों’ के भार से बहुत ज्यादा है। अगर भलाई वाला पासा तगड़ा हो, तो वहाँ विकारीलोग भी आ के भलाई की तरफ पलट पड़ते हैं। नं: 211 में ‘चावल’ और ‘तुख’ (छिलका) की मिसाल है। वनज में ‘चावल’ भारा है। ‘तुख’ हल्का है। कमजोर होने के कारण ‘तुख’ मार खाता है। इसी तरह विकारियों के तगड़े समूह में यदि कोई साधारण सा मनुष्य (चाहे वह भला ही हो, पर उनके मुकाबले में कमजोर दिल हो) बैठना शुरू कर दे; तो वह भी उसी स्वभाव का बन के विकारों की मार खाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे ही वड परवारु आपि इकातीआ ॥ आपणी कीमति आपि आपे ही जातीआ ॥ सभु किछु आपे आपि आपि उपंनिआ ॥ आपणा कीता आपि आपि वरंनिआ ॥ धंनु सु तेरा थानु जिथै तू वुठा ॥ धंनु सु तेरे भगत जिन्ही सचु तूं डिठा ॥ जिस नो तेरी दइआ सलाहे सोइ तुधु ॥ जिसु गुर भेटे नानक निरमल सोई सुधु ॥२०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे ही वड परवारु आपि इकातीआ ॥ आपणी कीमति आपि आपे ही जातीआ ॥ सभु किछु आपे आपि आपि उपंनिआ ॥ आपणा कीता आपि आपि वरंनिआ ॥ धंनु सु तेरा थानु जिथै तू वुठा ॥ धंनु सु तेरे भगत जिन्ही सचु तूं डिठा ॥ जिस नो तेरी दइआ सलाहे सोइ तुधु ॥ जिसु गुर भेटे नानक निरमल सोई सुधु ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वड परवारु = (जगत रूप) बड़े परिवार वाला। इकातीआ = एकांत में रहने वाला, अकेला रहने वाला। जातीआ = जाणी। उपंनीआ = पैदा हुआ, दिखते रूप में आया। वरंनिआ = वर्णन किया। वुठा = बसा। तूं डिठा = तुझे देखा। भेटै = मिले। सुधु = पवित्र।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से शब्द ‘जिसु’ का ‘ु’ संबंधक ‘नो’ के कारण उड़ गया है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही (जगत रूप) बड़े परिवार वाला है, और (इससे निर्लिप) अकेला रहने वाला भी है। अपनी प्रतिभा की कद्र बनाने वाला भी तू स्वयं ही है, और कद्र जानने वाला भी तू खुद ही है। ये सारा जगत तेरा अपना ही (सरगुण) रूप है, और ये तुझसे ही इस दिखाई देते रूप में आया है, इस सारे पैदा किए हुए जगत को रंग-रूप देने वाला भी तू खुद ही है।
वह स्थान भाग्यशाली है जहाँ, हे प्रभु! तू बसता है, तेरे वह भक्त भाग्यशाली हैं जिन्होंने तेरा दीदार किया है।
वही सख्श तेरी महिमा कर सकता है जिस पर तेरी मेहर होती है। हे नानक! (प्रभु की मेहर से) जिसको गुरु मिल जाए, वह शुद्ध पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है।20।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बागु ॥ जो नर पीरि निवाजिआ तिन्हा अंच न लाग ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बागु ॥ जो नर पीरि निवाजिआ तिन्हा अंच न लाग ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ फरीदा उमर सुहावड़ी संगि सुवंनड़ी देह ॥ विरले केई पाईअन्हि जिन्हा पिआरे नेह ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ फरीदा उमर सुहावड़ी संगि सुवंनड़ी देह ॥ विरले केई पाईअन्हि जिन्हा पिआरे नेह ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूमि = धरती। रंगावली = रंग+आवली। आवली = कतार, सिलसिला। रंगा = आनंद। रंगावली = सुंदर। मंझि = (इस) में। विसूला = विष भरा, विहुला।1।
सुहावड़ी = सुहावनी, सुख भरी। संगि = (उम्र के) साथ। सुवंन = सुंदर रंग। सुवंनड़ी = सुंदर रंग वाली। देह = शरीर। पाईअन्हि = पाए जाते हैं, मिलते हैं। नेह = प्यार।
अर्थ: हे फरीद! (ये) धरती (तो) सुहावनी है (पर मनुष्य के मन के टोए-टिब्बों के कारण इस) में विषौला बाग़ (लगा हुआ) है (जिसमें दुखों की आग जल रही है)। जिस जिस मनुष्य को सतिगुरु ने महान बना दिया है (ऊँचा किया है), उनको (दुख-अग्नि का) सेक नहीं लग सकता।1।
हे फरीद! (उन लोगों की) जिंदगी आसान है और शरीर भी सुंदर रंग वाला (भाव, रोग-रहित) है जिनका प्यार प्यारे परमात्मा के साथ है (‘विसूला बाग’ और ‘दुख-अगनी’ उनको नहीं छूते, पर ऐसे लोग) कोई विरले ही मिलते हैं।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये दोनों शलोक गुरु अरजन देव जी के हैं। फरीद जी के शलोक संग्रह में नं: 825 और 83 हैं। ये दोनों शलोक फरीद जी के शलोक नं: 81 के प्रथाय हैं, जो इस प्रकार हैं;
फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू, दुखु सबाइऐ जगि॥
ऊचै चढ़ि कै देखिआ, तां घरि घरि एहा अगि॥८१॥
फरीद जी शलोक नं: 74 में मन के ‘टोऐ टिबे’ बता के शलोक नं: 81 में उन ‘टोऐ टिबों’ का असर बयान करते हैं कि इनके कारण सारे जगत में दुख ही दुख फैला हुआ है। पर इस बात की समझ उसको पड़ती है जो खुद मन के ‘टोए टिब्बों’ से ऊँचा होता है।
गुरु अरजन देव जी अपने दो शलोकों में लिखते हैं कि वही विरले लोग दुखों की मार से बचे हुए हैं जो गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा को याद करते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जपु तपु संजमु दइआ धरमु जिसु देहि सु पाए ॥ जिसु बुझाइहि अगनि आपि सो नामु धिआए ॥ अंतरजामी अगम पुरखु इक द्रिसटि दिखाए ॥ साधसंगति कै आसरै प्रभ सिउ रंगु लाए ॥ अउगण कटि मुखु उजला हरि नामि तराए ॥ जनम मरण भउ कटिओनु फिरि जोनि न पाए ॥ अंध कूप ते काढिअनु लड़ु आपि फड़ाए ॥ नानक बखसि मिलाइअनु रखे गलि लाए ॥२१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जपु तपु संजमु दइआ धरमु जिसु देहि सु पाए ॥ जिसु बुझाइहि अगनि आपि सो नामु धिआए ॥ अंतरजामी अगम पुरखु इक द्रिसटि दिखाए ॥ साधसंगति कै आसरै प्रभ सिउ रंगु लाए ॥ अउगण कटि मुखु उजला हरि नामि तराए ॥ जनम मरण भउ कटिओनु फिरि जोनि न पाए ॥ अंध कूप ते काढिअनु लड़ु आपि फड़ाए ॥ नानक बखसि मिलाइअनु रखे गलि लाए ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देहि = तू देवे। बुझाइहि = तू मिटा देवे। जिसु अगनि = जिस (मनुष्य) की तृष्णा आग। रंगु = प्यार। सिउ = साथ। कटि = काट के। नामि = नाम से। कटिओनु = उस (प्रभु) ने काट दिया। अंध कूप = अंधा कूँआ, वह कूआँ जिसमें अज्ञानता का अंधेरा ही अंधेरा है। काढिअनु = उस (प्रभु) ने निकाल लिए। लड़ु = पल्ला। बखसि = बख्श के, मेहर करके। मिलाइअनु = उसने मिला लिए। गलि = गले से।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू (नाम की दाति) देता है वह (मानो) जप तप संजम दया और धर्म प्राप्त कर लेता है (पर) तेरा नाम वही स्मरण करता है जिसकी तृष्णा की अग्नि को तू खुद बुझाता है।
घट-घट की जानने वाला अगम्य (पहुँच से परे) व्यापक प्रभु जिस मनुष्य की ओर मेहर की एक निगाह करता है, वह सत्संग के आसरे रह के परमात्मा के साथ प्यार डाल लेता है। परमात्मा उसके सारे अवगुण काट के उसको आजाद करता है और अपने नाम के द्वारा (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है। उस (परमात्मा) ने उस मनुष्य का जनम-मरण का डर दूर कर दिया है, और उसको फिर जनम-मरण के चक्कर में नहीं डालता।
प्रभु ने जिनको अपना पल्ला पकड़ाया है, उनको (माया के मोह के) घोर अंधेरे भरे कूएँ से (बाहर) निकाल लिया है। हे नानक! प्रभु ने उन पर मेहर करके अपने साथ मिला लिया है, अपने गले से लगा लिया है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक मः ५ ॥ मुहबति जिसु खुदाइ दी रता रंगि चलूलि ॥ नानक विरले पाईअहि तिसु जन कीम न मूलि ॥१॥
मूलम्
सलोक मः ५ ॥ मुहबति जिसु खुदाइ दी रता रंगि चलूलि ॥ नानक विरले पाईअहि तिसु जन कीम न मूलि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुहबति = प्यार। रंगि = रंग में। चलुलि = गाढ़े लाल रंग में। चलूल = गाढ़ा लाल। पाईअहि = मिलते हैं। कीम = कीमत। न मूलि = बिल्कुल नहीं।
अर्थ: जिस मनुष्य को रब का प्यार (प्राप्त हो जाता है), और वह (उसके प्यार के) गाढ़े रंग में रंगा जाता है, उस मनुष्य की कीमत नहीं आँकी जा सकती। पर, हे नानक! ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मः ५ ॥ अंदरु विधा सचि नाइ बाहरि भी सचु डिठोमि ॥ नानक रविआ हभ थाइ वणि त्रिणि त्रिभवणि रोमि ॥२॥
मूलम्
मः ५ ॥ अंदरु विधा सचि नाइ बाहरि भी सचु डिठोमि ॥ नानक रविआ हभ थाइ वणि त्रिणि त्रिभवणि रोमि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंदरु = अंदरूनी, हृदय। सचि = सच में। नाइ = नाय, नाम में। डिठोमि = मैंने देखा। रविआ = व्यापक। हभ थाइ = हरेक जगह में। वणि = वन में। त्रिणि = तृण में। त्रिभवणि = त्रिभवन में। रोमि = रोम रोम में।
अर्थ: जब मेरा अंदरला (भाव, मन) सच्चे नाम में भेदा गया, तब मैंने बाहर भी उस सदा स्थिर प्रभु को देख लिया। हे नानक! (अब मुझे ऐसे दिखता है कि) परमात्मा हरेक जगह मौजूद है, हरेक वन में, हरेक तीले में, सारे ही त्रिभवन, संसार में, रोम-रोम में।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आपे कीतो रचनु आपे ही रतिआ ॥ आपे होइओ इकु आपे बहु भतिआ ॥ आपे सभना मंझि आपे बाहरा ॥ आपे जाणहि दूरि आपे ही जाहरा ॥ आपे होवहि गुपतु आपे परगटीऐ ॥ कीमति किसै न पाइ तेरी थटीऐ ॥ गहिर ग्मभीरु अथाहु अपारु अगणतु तूं ॥ नानक वरतै इकु इको इकु तूं ॥२२॥१॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आपे कीतो रचनु आपे ही रतिआ ॥ आपे होइओ इकु आपे बहु भतिआ ॥ आपे सभना मंझि आपे बाहरा ॥ आपे जाणहि दूरि आपे ही जाहरा ॥ आपे होवहि गुपतु आपे परगटीऐ ॥ कीमति किसै न पाइ तेरी थटीऐ ॥ गहिर ग्मभीरु अथाहु अपारु अगणतु तूं ॥ नानक वरतै इकु इको इकु तूं ॥२२॥१॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुधु ॥
मूलम्
सुधु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीतो रचनु = जगत रचना रची। रतिआ = (रचना में) मिला हुआ है। इकु = निराकार रूप स्वयं ही स्वयं। बहु भतिआ = सरगुण रूप में अनेक रंगों रूपों वाला। मंझि = में। जाणहि = तू जानता है। दूरि = रची हुई रचना से अलग। तेरी थटीऐ = तेरी कुदरति की। अगणतु = जिसके गुण गिने ना जा सकें।
अर्थ: ये जगत-रचना प्रभु ने स्वयं ही रची है, और स्वयं ही इसमें मिला हुआ है। (कभी रचना को समेट के) एक स्वयं ही स्वयं हो जाता है, कभी अनेक रंगों-रूपों वाला बन जाता है। प्रभु स्वयं ही सारे जीवों में मौजूद है, और निर्लिप भी स्वयं ही है।
हे प्रभु! तू खुद ही अपने आप को रचना से अलग जानता है, और खुद ही हर जगह हाजर-नाजर है। तू स्वयं ही छुपा हुआ है, और प्रकट भी स्वयं ही है। तेरी इस रचना का मूल्य किसी ने नहीं पाया। तू गंभीर है, तेरी थाह नहीं पड़ सकती, तू बेअंत है, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते।
हे नानक! हर जगह एक प्रभु ही मौजूद है। हे प्रभु! एक तू ही तू है।22। सुधु।
दर्पण-टिप्पनी
‘वार’ किस को कहते हैं?
अन्य अनेक पंजाबी शब्दों की तरह शब्द ‘वार’ भी संस्कृत बोली में से अपने असली रूप में ही पंजाबी बोली में शामिल चला आ रहा है। संस्कृत में इस शब्द के कई अर्थ हैं, पंजाबी में भी कई अर्थों में इसका प्रयोग होता है।
पंजाबी साहित्य में ‘वार’ उस कविता को कहते हैं जिसमें किसी शूरवीर की रणभूमि में दिखाई गई वीरता के किसी कर्तव्य का वर्णन किया गया हो। ‘वार’ में किसी व्यक्ति का सारा जीवन चित्रण नहीं किया जाता, जीवन में से एक विशेष झाकी दिखाई जाती है।
योद्धाओं की ‘वारें’ गाने का रिवाज:
गाँवों में ‘जागरे’ व ‘जगराते’ की बहुत पुरानी रीति चली आ रही है। ये ‘जागरा’ आम तौर पर देवी के वार पर किया जाता है। ‘वारों’ के गवईए ज्यादातर झिऊर बिरादरी में ही मिलते हैं। सारी रात जागने के कारण इसका नाम ‘जागर’ है। ‘जागरा’ आरम्भ करने के वक्त पहले देवी की उपमा में भजन गाए जाते हैं, फिर आम तौर पर कौरवों-पाँडवों के युद्ध की वार अथवा श्री रामचंद्र जी और रावण के युद्ध की वार गाते हैं। इन वारों के माध्यम से गाँवों के अनपढ़ स्त्री-मर्दों में भी हिन्दू धर्म का प्रभाव जीवित टिका रहता है, बच्चों को भी अपने उन बुर्जुगों के नाम और कारनामे याद रहते हैं। गाँवों के वाशिंदे जानते हैं कि ‘जागरे’ वाली रात कैसे बच्चे से लेकर बुर्जुग तक हरेक ग्रामवासी के अंदर उत्साह रहता है। लाखों रुपए खर्च के भी गाँवों में उतना धर्म प्रचार नहीं किया जा सकता, जितना ये गरीब झिउर ढाढी पैंच थोड़े से खर्च से करते रहते हैं।
गुरु नानक देव जी की ‘वारें’:
सतिगुरु नानक देव जी ने युद्धों में होती इन्सानी काट-मार सुनने की लोगों की इस रुची को परमात्मा और लोगों के प्यार की ओर पलटने के लिए तीन ‘वारें’ लिखीं, जो अब गुरु ग्रंथ साहिब के राग मल्हार, माझ और आसा में दर्ज हैं।
सन् 1521 में बाबर ने हिन्दुस्तान पर हमला किया, ऐमनाबाद पहुँच के इस शहर को आग लगवा दी, शहर में खूब अत्याचार के अलावा कत्लेआम भी करवाया। गुरु नानक देव जी इस दुर्घटना के समय ऐमनाबाद में ही थे। हजूर तीसरी ‘उदासी’ के संबंध में मक्के मदीने बग़दाद से काबुल के रास्ते हसन-अब्दाल भेरे डिंगे होते हुए ऐमनाबाद आए थे। ऐमनाबाद में सतिगुरु जी ने ‘वार’ का नक्शा लोगों की आप-बीती घटित होता स्वयं देखा। अन्य कवि तो ऐसे मौके पर अपने किसी साथी शूरवीर मनुष्य के किसी खास जंगी कारनामे को कविता में लिखते हैं; पर गुरु नानक देव जी को एक ऐसा महान योद्धा नजर आ रहा था, जिसके इशारे पर जगत के सारे ही जीव कामादिक वैरियों के साथ एक महान जंग में लगे हुए थे। ऐमनाबाद की जंग देख के गुरु नानक साहिब जी ने भी एक जंगी कारनामे पर ही ‘वार’ लिखी, पर उनका शिरोमणी पात्र अकाल-पुरख स्वयं था। ऐमनाबाद की जंग से प्रेरित होकर गुरु नानक देव जी ने जो ‘वार’ लिखी थी, वह अब गुरु ग्रंथ साहिब में ‘मलार’ राग में दर्ज है। इसमें रणभूमि का और लड़ने वालों का जिक्र है; देखें उस ‘वार’; की पउड़ी नं: 4:
आपे छिंझ पवाइ, मलाखड़ा रचिआ॥ लथे भड़थू पाइ, गुरमुखि मचिआ॥
मनमुख मारे पछाड़ि, मूरख कचिआ॥ आपि भिड़ै मारे आपि, आपि कारजु रचिआ॥
ऐमनाबाद का युद्ध देख के सतिगुरु जी ने महाबली योद्धे अकाल-पुरख के उस जंग का हाल लिखा है जो सारी जगत-रूपी रण-भूमि में हो रहा है। ऐमनाबाद के कत्लेआम की दुर्घटना सन्1521 में हुई थी। सो, ‘मलार की वार’ संन् 1521 में करतारपुर में लिखी गई। इस सारी ‘वार’ का विषयवस्तु (मज़मून) एक ही है: तृष्णा की आग जो परमात्मा के हुक्म में जीवों को जला रही है। पउड़ी नं: 26 में हजूर लिखते हैं;
सिरि सिरि होइ निबेड़ु, हुकमि चलाइआ॥ तेरै हथि निबेड़ु, तू है मनि भाइआ॥
कालु चलाए बंनि्, कोइ न रखसी॥ जरु जरवाणा, कंनि् चढ़िआ नचसी॥
सतिगुरु बोहिथु बेड़ु, सचा रखसी॥ अगनि भखै भड़हाड़ु, अनदिनु भखसी॥
फाथा चुगै चोग, हुकमी छुटसी॥ करता करे सु होगु, कूड़ु निखुटसी॥२६॥
इसी ही ‘भखदी अगनि’ (धधकती आग) का जिक्र हजूर ने पउड़ी नं: 9 में इस तरह किया है;
नाथ जती सिध पीर किनै अंतु न पाइआ॥ गुरमुखि नामु धिआइ, तुझै समाइआ॥
जगु छतीह गुबारु, तिस ही बुझाइआ॥ जला बिंबु असराल, तिनै वरताइआ॥
नीलु अलीलु अगंमु, सरजीत सबाइआ॥ अगनि उपाई वादु, भुख तिहाइआ॥
दुनीआ कै सिरि कालु, दूजा भाइआ॥ रखै रखणहार, जिनि सबदु बुझाइआ॥९॥
हजूर लिखते हैं कि इस धधकती तृष्णा-अग्नि से जंगल में बसेरा, सरेवड़ों वाली कुचीलता, अन्न का त्याग, विद्धता, भगवा वेश आदिक बचा नहीं सकते:
इकि रणखंडि बैसहि जाइ, सद न देवही॥ …
इकि अगनि जलावहि अंगु, आपु विगोवही॥१५॥ …
इकि जैनी उझड़ि पाइ, धुरहु खुआइआ॥१६॥ …
इकि अंनु न खाहि मूरख, तिना किआ कीजई॥ त्रिसना होई बहुतु, किवै न धीजई॥१७॥
पढ़िआ लेखेदारु, लेखा मंगीऐ॥ विणु नावै कूड़िआर, अउखा तंगीऐ॥२३॥
इकि भगवा वेस करि भरमदे, विणु सतिगुर किनै न पाइआ॥
देस दिसंतरि भवि थके, तुधु अंदरि आपु लुकाइआ॥२५॥
इस ‘वार’ की कुल 28 पउड़ियाँ हैं, पर पौड़ी नंबर 27 गुरु अरजन देव जी की है, गुरु नानक साहिब की लिखी हुई सिर्फ 27 पउड़ियाँ हैं, और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुकें हैं।
अब इस ‘वार’ की तुलना करते हैं ‘माझ की वार’ के साथ। उसमें भी 27 पउड़ियाँ हैं और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुकें हैं। दोनों वारों की विषयवस्तु भी एक जैसी ही है तृष्णा की आग। ‘–माझ की वार’ की पौड़ी नंबर 2 में इस ‘तृष्णा-अग्नि’ का वर्णन इस तरह है;
तुधु आपेू जगत उपाइ कै, तुधु आपे धंधै लाइआ॥
मोह ठगउली पाइ कै, तुधु आपहु जगतु खुआइआ॥
तिसना अंदरि अगनि है, नह तिपतै भुखा तिहाइआ॥
सहसा इहु संसारु है, मरि जंमै आइआ जाइआ॥
बिनु सतिगुर मोहु न तुटई, सभि थके करम कमाइआ॥
गुरमती नामु धिआईऐ, सुख रजा जा तुधु भाइआ॥
कुल उधारे आपणा, धंनु जणेदी माइआ॥
सभा सुरति सुहावणी, जिनि हरि सेती चितु लाइआ॥२॥
‘मलार की वार’ की तरह इस वार में भी सतिगुरु जी कहते हैं कि इस तृष्णा की आग से जंगल-वास, अन्न का त्याग, भगवा वेश, विद्या आदि बचा नहीं सकते;
इकि कंद मूलु चिणि खाहि, वण खंडि वासा॥
इकि भगवा वेसु करि फिरहि, जोगी संनिआसा॥
अंदरि त्रिसना बहुतु, छादन भोजन की आसा॥ पउड़ी नं: 5।
तूं गणतै किनै न पाइओ, सचे अलख अपारा॥
पढ़िआ मूरखु आखीऐ, जिसु लबु लोभु अहंकारा॥ पउड़ी नं: 6।
इन दोनों ‘वारों’ की इस तुलना से ये साफ तौर पर सिद्ध होता है कि ‘मलार की वार’ लिखने के थोड़े ही वक्त के बाद सतिगुरु जी ने ये दूसरी ‘माझ की वार’ लिखी सन् 1521 में करतार पुर में। तीनों ‘उदासियाँ’ समाप्त करके अभी करतारपुर आ के टिके ही थे। ‘उदासियों’ के समय कई जोगियों, सन्यासियों, सरेवड़ों और विद्वान पंडितों आदि से मिले थे, वे ख्याल अभी ताजा थे, जो इन दोनों ‘वारों’ में प्रकट किए हैं, जैसे कि ऊपर बताया गया है।
पर ‘आसा दी वार’ इनसे अलग किस्म की है। इस वार में 24 पउड़ियाँ हैं। कहीं भी इन जोगियों, सन्यासियों, सरेवड़ों व विद्वान पंडितों की तरफ इशारा नहीं है, जिनको ‘उदासियों’ के वक्त मिले थे। इस ‘वार’ में एक ऐसे जीवन की तस्वीर खींची गई है, जिसकी हरेक मनुष्य-मात्र को आवश्यक्ता है, जिसको याद रखना हरेक इन्सान के लिए हर रोज आवश्यक सा प्रतीत होता है। शायद इसी वास्ते इस ‘वार’ का कीर्तन नित्य करना सिख-मर्यादा में बताया गया है। ‘आसा दी वार’ क्या है? जीवन-उद्देश्य की व्याख्या, एक उच्च दर्जे का जीवन-दर्शन। ऐमनाबाद का कत्लेआम, सरेवड़ों की कुचीलता, पण्डितों का विद्या अहंकार इससे दूर काफी पीछे रह गए हैं। सो, ये ‘वार’ गुरु नानक साहिब की जीवन-यात्रा के आखिरी हिस्से की है, रावी दरिया के किनारे, किसी निर्मल रूहानी ऐकांत में बैठे हुए।
गुरु ग्रंथ साहिब जी की और वारें:
गुरु नानक देव जी के पद्चिन्हों पर चल के गुरु अमरदास जी गुरु रामदास जी और गुरु अरजन साहिब जी ने भी ‘वारें’ लिखीं जो गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हैं। इनका वेरवा इस प्रकार है;
गुरु अमरदास जी– 4 ‘वारे’, जो निम्न-लिखित रागों में दर्ज हैं;
गूजरी, सूही, रामकली, मारू।
गुरु रामदास जी– 8 ‘वारें’, जो निम्न-लिखित रागों में दर्ज हैं;
सिरी राग, गउड़ी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठि, बिलावल, सारंग, कानड़ा।
गुरु अरजन साहिब– 6 ‘वारें’, जो निम्न-लिखित रागों में दर्ज हैं;
गउड़ी, गूजरी, जैतसरी, रामकली, मारू, बसंत।
एक वार सत्ते बलवंड की है जो रामकली राग में दर्ज है। सारी ‘वारों’ का जोड़ 22 है;
आरम्भ में ‘वारों’ में सिर्फ पउड़ियों का ही संग्रह था:
गुरु ग्रंथ साहिब की 22 ‘वारों’ में से सिर्फ 2 ऐसी ‘वारें’ हैं जिनके साथ कोई शलोक नहीं है: बसंत की वार महला ५ और सते बलवंड की वार। बाकी सारी ‘वारों’ के साथ शलोक हैं, हरेक पउड़ी के साथ कमि से कम 2 शलोक। ये सारे श्लोक गुरु साहिबानों के शलोकों में चुन-चुन के प्रसंग के अनुसार हरेक पौड़ी के साथ गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए थे। उन संग्रहों में से जो श्लोक फिर भी बढ़ गए, वह सतिगुरु जी ने गुरु ग्रंथ साहिब जी के आखिर में दर्ज कर दिए। ये बात उन श्लोकों के शीर्षकों से साफ प्रकट होती है। शीर्षक है ‘सलोक वारां ते वधीक’।
यदि हम हरेक ‘वार’ की अंदरूनी संरचना को ध्यान से देखें, तो भी इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि वधीक ‘वार’ (अतिरिक्त ‘वारें’) पहले सिर्फ पोड़ियों का ही संग्रह था। पाठकों की जानकारी और तसल्ली के लिए हम यहाँ कुछ ‘वारों’ की संराचना के संबंध में विचार पेश कर रहे हैं;
सिरी राग की वार महला ४:
इस ‘वार’ में 21 पउड़ियां हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो-दो शलोक हैं, पर पौड़ी नं: 14 के साथ तीन श्लोक हैं। शलोकों की कुल गिनती 43 है। हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं। शलोकों का वेरवा इस तरह है;
‘वार’ गुरु रामदास जी की उचारी हुई है, पर उनका अपना एक शलोक भी नहीं है। इससे ये सिद्ध होता है कि गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज होने से पहले ये ‘वार’ सिर्फ पौड़ियों में ही थी। इसके साथ दर्ज हुए शलोक गुरु अरजन साहिब ने शामिल किए।
एक और अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि 42 शलोक उन गुरु-व्यक्तियों के हैं जो गुरु रामदास जी से पहले शारीरिक जामे में हो चुके थे। क्या ये नहीं हो सकता कि गुरु रामदास जी ने स्वयं ही गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी के शलोक दर्ज कर लिए हों? इस एतराज को मान लेने पर, वैसे यहाँ से एक और बड़ा नतीजा निकल सकता है कि गुरु रामदास जी के पास पहले गुरु साहिबानों की वाणी मौजूद थी। पर, जहाँ तक इस ‘वार’ का संबंध है, ये शलोक गुरु रामदास जी ने खुद दर्ज नहीं किए। हरेक पौड़ी में एक जितनी ही तुकें देख के ये मानना पड़ेगा कि कविता के दृष्टिकोण से गुरु रामदास जी जैसे पौड़ियों की तुकों की गिनती एक समान रखने का ख्याल रखते रहे, पौड़ी नं: 15 के साथ सिर्फ एक ही शलोक दर्ज ना करते। इस पउड़ी के साथ एक शलोक गुरु अरजन साहिब का है। सो, ये सारे शलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए हैं। पहले ये ‘वार’ सिर्फ पौड़ियों का संग्रह था।
माझ की वार महला १:
इस ‘वार’ की संरचना में निम्न-लिखित बातें ध्यान-योग्य है:
कुल 27 पउड़ियाँ हैं, और हरेक पउड़ी की आठ-आठ तुकें हैं।
27 पौड़ियों में से सिर्फ 14 ऐसी हैं जिनके साथ शलोक सिर्फ गुरु नानक देव जी के हैं जिनकी ये ‘वार’ है।
पर इन शलोकों की गिनती हरेक पौड़ी के साथ एक समान नहीं है। 10 पउड़ियों के साथ दो-दो शलोक हैं, और नीचे लिखी 4 पौड़ियों के शलोक इस प्रकार है:
पउड़ी नं: 2 के साथ 3 सलोक
पउड़ी नं: 7 के साथ 3 सलोक
पउड़ी नं: 9 के साथ 4 सलोक
पउड़ी नं: 13 के साथ 7 सलोक
पउड़ी 3, 18, 22 और 24 के साथ कोई भी शलोक गुरु नानक देव जी का नहीं है।
बाकी रह गई 9 पउड़ियाँ। इनके साथ एक-एक सलोक गुरु नानक देव जी का है और एक-एक अन्य गुरु साहिबान का।
हरेक पउड़ी में तुकों की गिनती एक जैसी होने के कारण ये बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि सतिगुरु नानक देव जी ने ये ‘वार’ लिखने के वक्त ‘कविता’ के सुहज की ओर भी ध्यान रखा है। पर जिस कवि-गुरु ने पौड़ियों की बनतर पर इतना ध्यान दिया है, उस संबंधी ये नहीं माना जा सकता कि सलोक लिखने के वक्त वे कहीं दो-दो लिखते कहीं तीन-तीन, कहीं चार, कहीं सात लिखते और कई पौड़ियॉ। खाली ही रहने देते। दरअसल, बात यही है कि पहले ये ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियों’ का ही संग्रह थी।
आसा की वार महला १:
इस ‘वार’ की 24 पउड़ियाँ हैं, और इनके साथ 59 सलोक हैं। वेरवा इस तरह है:
सलोक महला १ – 44
सलोक महला २ – 15
पउड़ी नंबर 1, 2,11, 12, 15, 18 और 22– इन 7 पौड़ियों को छोड़ के बाकी की 17 पउड़ियों के साथ दो-दो सलोक हैं, जोड़– 34।
पउड़ी नं: 1, 2, 11 और 18 के साथ तीन-तीन सलोक हैं; जोड़–12।
पउड़ी नं: 12 और 15 के साथ चार-चार सलोक हैं; जोड़–8।
पउड़ी नं: 22 के साथ 5 सलोक हैं।
…कुल जोड़– 34+12+8+ 5 =59।
पउड़ी नं: 21, 22 और 23 के साथ गुरु नानक देव जी का कोई भी सलोक नहीं है। पउड़ी नं: 7 और 24 के साथ सतिगुरु नानक देव जी का एक-एक सलोक है। पउड़ी नं: 11 और 18 के साथ तीन-तीन और पौड़ी नं: 15 के साथ गुरु नानक साहिब के चार सलोक हैं।
कविता की दृष्टि-कोण से पउड़ियों की बनावट की तरफ देखें। पउड़ी नं: 18, 22 और 23 को छोड़ के बाकी सब की बनावट एक जैसी है, तुकों की गिनती एक समान है। अगर गुरु नानक देव जी ने ‘वार’ उचारने के वक्त सलोक भी साथ-साथ उचारे होते, तो खुद इन पौड़ियों के साथ दर्ज किए होते, तो ऐसा नहीं हो सकता था कि कुछ पौड़ियों सलोकों के बिल्कुल बगैर ही रहने देते। फिर, सलोकों के विषयवस्तु की तरफ देखें, साफ दिखाई देता है कि ये सब अलग-अलग समय की हैं; जनेऊ, सूतक, मुर्दे दबने जलाने, चौके की सुच, रासें आदिक। सो, ये विचार चर्चा स्पष्ट करती हैं कि ये ‘वार’ पहले पउड़ियाँ ही थीं। गुरु नानक देव जी के समय से ले के गुरु रामदास जी के समय तक ये इसी ही रूप में रहीं। सलोक गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए थे।
इस विषय को और लंबा नहीं किया जा सकता। विचार के इस उपरोक्त आधार पर अन्य ‘वारों’ की संरचना को पाठक सज्जन स्वयं ही विचार के देख लें। इसी ही नतीजे पर पहुँचेंगे कि आरम्भ में ‘वार’ सिर्फ पौड़ियों का ही संग्रह थीं।
‘वार’ का केन्द्रिय विषय-वस्तु:
योद्धाऔं की ‘वारों’ में भी किसी योद्धा का सारा जीवन नहीं दिखाया जाता। उसके जीवन में से एक विषोश कारनामा चुन लिया जाता है, और दिलकश कविता में श्रोताओं के सामने गाया जाता है, ताकि आम जनता भी उसी जीवन-तरंग की लहरों का आनंद ले सके।
दुनिया के कवियों ने किसी शूरवीर की वह बहादरी लोगों के सामने पेश की है जो उसने रण-भूमि में तलवार पकड़ के दिखाई। गुरु-व्यक्त्यिों ने इस सारे जगत को एक रण-भूमि के रूप में देखा, सब जीव सिपाही कामादिक बेअंत वैरियों से लड़ रहे हैं। आम दुनिया तो मात खा रही है, पर विरले-विरले गुरमुख-योद्धे वैरियों को करारे हाथ दिखाते हैं। तलवार वाली रण-भूमि में तलवार चलाने के लिए कई दाँव-पेंच होते हैं, और कवि प्रसिद्ध योद्धाओं के वह विशेष दाँव-पेंच कविता में बयान करते हैं। आत्म-संग्राम में भी कामादिक वैरियों का मुकाबला करने के लिए कई सदाचार भरे दाँव-पेंच हैं जो गुरमुख-योद्धे प्रयोग करते हैं। स्मरण, सेवा, कीर्तन, सत्संग, प्रेम आदि इस अखाड़े के दाँव-पेंच हैं। गुरु-व्यक्तियों ने आत्म-संग्राम के कारनामों पर जो ‘वारें’ लिखीं हैं, इनमें भी कोई एक कारनामा चुना होता है, किसी एक-एक आत्म दाँव-पेंच की व्याख्या की होती है। मिसाल के तौर पर–
सिरी राग की वार महला ४ में ‘मनुष्य जीवन का उद्देश्य’।
माझ की वार महला १ में ‘बहु रंगी जगत की ममता’।
गउड़ी की वार महला ४ में ‘सतिगुर की शरण’।
गउड़ी की वार महला ५ में ‘साध संगति’।
आसा की वार महला १ में ‘मनुष्य जीवन का मनोरथ’।
गूजरी की वार महला ३ में ‘माया का प्रभाव’।
गूजरी की वार महला ५ में ‘जगत के विकार’।
हरेक वार का केन्द्रिया विषय-वस्तु एक ही हुआ करता है।
पंजाबी की और ‘वारें’:
पंजाब प्रांत हिन्दोस्तान के उक्तर-पश्चिमी सिरे की सीमा पर होने के कारण काबुल की तरफ से हमले नित्य ही होते रहते थे और युद्धों-जंगों की संभावनाएं हमेशा बनी रहती थीं। देश की इज्जत-स्वाभिमान बचाने के लिए इस धरती पर योद्धाओं-शूरवीरों का पैदा होना भी स्वाभाविक बात थी, और कवि लोग इन योद्धाओं का कोई ना कोई कारनामा लिख के आम जनता के अंदर दलेरी पैदा करने की कोशिश करते थे। सो, पंजाब में कई ‘वारें’ लोगों को याद थीं, और ‘जागरे’ आदि में गाई जाती थीं।
उसी दौर की प्रसिद्ध ‘वारों’ में से निम्न-लिखित नौ ‘वारों’ का वर्णन गुरु ग्रंथ साहिब की ‘वारों’ के शीर्षक में मिलता है;
मलिक मुरीद तथा चंद्रहड़ा सोहिया की वार।
राय कमाल की मौजदी की वार।
लला बहिलीमा की वार।
टुंडे अस राजे की वार।
सिकंदर इब्राहिम की वार।
हसने महमे की वार।
मूसे की वार।
जोधे वीरे की वार।
राणा कैलाश देव मालदे की वार।
पंजाब में और भी बहुत सारी ‘वारें प्रचलित थीं। लोगों के कम होते शौक के कारण कई वारें तो ढाढियों के साथ ही खत्म हो गई। कुछ प्रसिद्ध ‘वारों’ के नाम नीचे दिए जा रहे हैं:
जैमल फत्ते की वार।
दहूद की वार।
बंदा साहिब की वार –हाकम राय।
नादिर शाह की वार– नज़ाबत कवि।
सिंघा दी वार– भाई गुरदास जी दूसरे।
गाजा सिंघ दी वार।
सरदार महा सिंघ की वार– हाशम कवि।
चठियों की वार– मीयाँ पीर मुहम्मद कवि।
हकीकत राय की वार– अगरा कवि।
सरदार हरी सिंघ की वार– कादर यार कवि।
भाई गुरदास जी की वारें।
श्री भगवती जी की वार।
सत्ते बलंवंड की वाणी ‘वार’ कैसे कहला सकती है?
हम पीछे विचार कर आए हैं कि ‘वार’ में किसी योद्धे के किसी विशेष कारनामे को दिल-कश कविता के माध्यम से बयान किया जाता है। गुरु-व्यक्तियों ने जो ‘वारें’ लिखीं, उनमें भी संसार व आत्म-संग्राम की कोई झाकी दिखाई गई है।
क्या सते बलवंड की वाणी में भी कोई एक ही विषया-वस्तु है, जिसके आधार पर इसको ‘वार’ लिखा गया है?
इस वाणी की कुल 8 पौड़ियाँ हैं। इसकी चौथी पौड़ी पढ़ कर देखें, सतिगुरु नानक देव जी के चलाए नए रास्ते को विचार के सता (वाणी का रचयता) बहुत हैरान होता है और लिखता है कि दुनिया के लोग आश्चर्यचकित हो के कहते हैं ‘गुरु नानक जगत के नाथ ने हद से ऊँचा वचन बोला है, उसने और तरफ़ से ही गंगा चला दी है, ये उसने क्या कर दिया? ’
होरिओं गंगु वहाईऐ, दुनिआई आखै कि किओनु॥
नानक ईसरि जगनाथि, उचहदी वैणु विरिकिओनु॥
वह हैरानी वाली बात ये है कि गुरु नानक साहिब ने बाबा लहणा जी के सिर पर गुरयाई का छत्र धर के उनकी शोभा आसमान तक पहुँचा दी है। गुरु नानक साहिब जी की आत्मा बाबा लहिणा जी की आत्मा में इस तरह मिल गई है कि गुरु नानक ने अपने आप को अपने ‘आपे’ बाबा लहिणा जी के साथ मिला लिया है:
लहणे धरिओनु छत्रु सिरि, असमानि किआड़ा छिकिओनु॥
जोति समाणी जोति माहि, आपु आपै सेती मिकिओनु॥
दुनिया ने सिख धर्म की ये नई चाल देखी कि गुरु नानक देव जी ने अपने सेवक को अपने जैसा बना लिया, और उसके आगे अपना सिर झुकाया।
बलवंड ने भी पहली पौड़ी में इसी नई मर्यादा को हैरानी से देखा और लिखा कि गुरु नानक साहिब ने धर्म का एक नया राज चलाया है, अपने सेवक बाबा लहणा जी को अपने जैसा बना के गुरु होते हुए अपने चेले के आगे माथा टेका है।
नानकि राजु चलाइआ सचु कोटु सताणी नीव दै॥ …
गुरि चेले रहिरासि कीई, नानकि सलामति थीवदै॥१॥
दूसरी पौड़ी में भी बलवंड (जी) इसी आश्चर्य भरी नई मर्यादा का वर्णन करते हैं कि जब गुरु नानक देव जी ने गुरयाई का तिलक बाबा लहणा जी को दे दिया तो गुरु नानक साहिब की महानता की इनायत से बाबा लहिणा जी की महानता की धुंमें पड़ गई, क्योंकि बाबा लहिणा जी के अंदर वही गुरु नानक देव जी वाली ज्योति थी, जीवन का ढंग भी वही गुरु नानक देव जी वाला था, गुरु नानक ने केवल शरीर में से (ज्योति) बदली थी:
लहणे दी फेराईऐ, नानका दोही खटीऐ॥
जोति ओहा, जुगति साइ, सहि काइआ फेरि पलटीऐ॥
तीसरी पौड़ी में बलवंड जी फिर वही बातें कहते हैं कि सैकड़ों सेवकों वाला गुरु नानक शरीर बदल के (भाव, गुरु अंगद देव जी के स्वरूप में) गद्दीह संभाल के बैठा हुआ है। गुरु अंगद देव जी के अंदर गुरु नानक साहिब वाली ही ज्योति है, केवल शरीर ही पलटा है:
गुर अंगद दी दोही फिरी, सचु करतै बंधि बहाली॥
नानक काइआ पलटु करि, मलि तखतु बैठा सै डाली॥
ये पहली तीन पौड़ियां बलवंड जी की हैं। चौथी पौड़ी में सत्ता जी शुरू करते हुए कहते हैं कि इस नए करिश्मे को देख के सारी दुनिया हैरान हो रही है। छेवीं पउड़ी में सता जी गुरु अमरदास जी का जिक्र करते हैं, और दोबारा उसी आश्चर्य भरी मर्यादा के बारे में कहते हैं कि पौत्र-गुरु (भाव, गुरु अमरदास जी भी) जाना-माना गुरु है, क्योंकि वह भी गुरु नानक और गुरु अंगद जैसा ही है, इसके माथे पर भी वही नूर है, इसका भी वही तख़्त है वही दरबार है जो गुरु नानक और गुरु अंगद का था;
सो टिका सो बैहणा, सोई दीबाणु॥ पियू दादे जेविहा, पोता परवाणु॥
अगली पौड़ी में गुरु अमरदास जी को संबोधन करके भी सता जी वही विचार प्रकट करते हैं;
नानक तू, लहिणा तू है, गुरु अमरु तू वीचारिआ॥
और आखिरी पउड़ी में भी सता जी कहते हैं कि गुरु नानक देव जी के ही;
तखति बैठा अरजन गुरू, सतिगुर का खिवै चंदोआ॥
हमने देख लिया है कि इस सारी ही रचना में एक ही केन्द्रिय विचार है: “गुरू दी अपणे चेले अगे रहिरासि”॥ इसलिए इस बाणी को ‘वार’ की श्रेणी में रखा गया है।
दर्पण-शीर्षक
‘वार’ के आखिर में मिलते शब्द ‘सुधु’ के बारे में निर्णय:
दर्पण-टिप्पनी
गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल 22 ‘वारें’ हैं। इनमें से निम्न-लिखित 16 ‘वारों’ के समाप्त होने पर अंत में शब्द ‘सुधु’ लिखा मिलता है: सिरी राग की वार म: ४ माझ की वार महला १ गउड़ी की वार म: ४ आसा की वार म: १ गूजरी की वार म: ३ गूजरी की वार म: ५ बिहागड़े की वार म: ४ वडहंस की वार म: ४ सोरठि की वार म: ४ बिलावल की वार म: ४ रामकली की वार म: ३ रामकली की वार म: ५ मारू की वार म: ३ सारंगकी वार म: ४ मलार की वार म: १ कानड़े की वार म: ४
नीचे लिखी एक ‘वार’ के आखिर में शब्द ‘सुध कीचे’ है:
गउड़ी की वार महला ५।
निम्न-लिखित 5 ‘वारों’ के आखिर में ‘सुधु’ व ‘सुधु कीचे’ कोई शब्द नहीं है;
जैतसरी की वार महला ५
सूही की वार महला ३
सते बलवंड की वार (राग रामकली)
मारू की वार महला ५
बसंत की वार महलु ५।
भाई गुरदास जी के हाथों की लिखी हुई जो ‘बीड़’ (संस्करण) करतारपुर साहिब है, उसमें ‘वारों’ के सम्बंध में अनोखी बातें मिलती हैं:
अ– जहाँ वार समाप्त होती है, वहाँ बाकी का पेज खाली रहने दिया गया है। (नोट: खाली सफे और भी कई जगहों पर हैं)। फिर भी ये शब्द ‘सुधु’ अथवा ‘सुधु कीचे’ पृष्ठ के हाशिए के बाहरी ओर लिखा है। जैसे छपी हुई ‘बीड़ों’ में ‘वार’ के साथ ही आखिर में दर्ज है, वहाँ ऐसे नहीं है।
आ– पउड़ियों के साथ जो शब्द ‘सलोक महला १’ आदि बरते हैं, वह बारीक कलम से लिखे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सलोक लिखने के वक्त ‘शीर्षक’ के लिए जगह खाली रखी गई और फिर वह बारीक कलम से भरी गई।
नोट: शब्द ‘सुधु’ व ‘सुधु कीचे’ सिर्फ ‘वारों’ के आखिर में ही लिखे हुए हैं (हां, टोडी महला ५ ‘हरि हरि चरन रिदै उरधारै’ के आखिर पर ही शब्द ‘सुधु’ सामने की ओर हाशिए में ही है)।
नोट: ये बात याद रखने वाली है कि जिस ‘वा’ के आखिर में शब्द ‘सुधु कीचे’ है वह ‘वार’ गुरु अरजन साहिब जी की अपनी उचारी हुई है और उसमें सारे ही शलोक गुरु अरजन साहिब के ही हैं।
ध्यान से विचार करने पर शब्द ‘सुधु’ व ‘सुधु कीचे’ के बारे में हम निम्न-लिखित नतीजों पर पहुँचते हैं:
हाशिए से बाहर ये शब्द लिखे जाने के कारण ये सिर्फ भाई गुरदास जी को हिदायत की गई थी। ‘बीड़’ में के शीर्षकों और गिनती के हिन्दसों की तरह शब्द ‘सुधु’ व ‘सुधु कीचे’ का संबंध मूल–वाणी के साथ नहीं।
‘वारों’ के शब्दों के ‘जोड़ों, लगों-मात्राओं’ के साथ ही शब्द ‘सुधु’ का कोई संबंध नहीं है। ये ‘शोध’ (सुधाई) सिर्फ ये देखने के लिए की गई थी कि पौड़ियों के साथ जो सलोक दर्ज किए गए हैं, उनके रचयता–गुरु का अंक (महला १,२,३,४,५) लिखने में कहीं कोई कमी ना रह गई हो।
जिस ‘वार’ (गउड़ी की वार महला ५) के आखिर में हिदायत है ‘सुधु कीचे’, उस ‘वार’ में गुरु अरजन साहिब के अपने ही सलोक और पउड़ियाँ हैं। यहाँ ज्यादा एहतियात की आवश्यक्ता नहीं थी।
खाली ‘वारों’ (जैतसरी, मारू) दोनों ही गुरु अरजन साहिब की हैं, सलोक समेत ही। शलोकों के कर्ता–गुरु के बारे में यहाँ भी किसी भुलेखे की संभावना नहीं थी।
‘वार’ बसंत महला ५ और सते बलवंड की वार के साथ कोई भी शलोक नहीं है। इस वास्ते यहाँ पर तो सलोकों के रचयता–गुरु के बारे में किसी ‘सुधाई’ का सवाल ही नहीं उठता। इनके साथ भी शब्द ‘सुधु’ नहीं बरता गया।
बाकी रह गई ‘सूही की वार महला ३’। ‘वारों’ की परस्पर तुलना से हम जिस नतीजे पर पहुँचे हैं, उसके अनुसार इस ‘वार’ के आखिर के शब्द ‘सुधु’ का प्रयोग जच सकता है पर यहाँ पर ये लिखा नहीं मिलता।
दर्पण-शीर्षक
सते बलवंड की वार और गुरबाणी में गहरी व्याकर्णिक सांझ
दर्पण-टिप्पनी
शब्दों की बनावट की तरफ थोड़ा सा भी ध्यान देने पर पाठकों को ये यकीन दिला देगा कि श्री मुख वाक वाणी और इस ‘वार’ में बरते गए व्याकरण के नियम एक समान हैं। सहूलत के लिए कुछ प्रमाण यहाँ दिए जा रहे हैं;
‘गुरि चेले रहिरासि कीई’ –पउड़ी नं: 1 सते बलवंड की वार।
गुरि–गुरु ने।
‘गुरि खोलिआ पडदा देखि भई निहालु’।४।१। बिलावल म: ५।
गुरि–गुरु ने।
‘नानकि राजु चलाइआ’ – पउड़ी नं: 1
नानकि–नानक ने।
‘साध संगि नानकि रंगु माणिआ।
घरि आइआ पूरै गुरि आणिआ’।4।27।27। बिलावल म: ५।
ननकि– नानक ने।
गुरि–गुरु ने।
‘लहणे धरिओनु छतु सिरि’ –पउड़ी नं: 1।
सिरि–सिर पर।
‘जिनि ऐहि लिखे तिसु सिरि नाहि’ –19। जपु म: १।
सिरि–सिर पर।
‘लहणे धरिआनु छतु सिरि’ –पउड़ी नं: 1।
‘आपु आपै सेती मिकिओनु’ –पउड़ी नं: 4।
‘लहणा टिकिओनु’ –पउड़ी नं: 4।
‘असमानि किआडा छिकिओनु’– पउड़ी नं: 4।
धरिओनु– धरा उसने।
मिकिओनु–मेचा उसने (मेचना– नापना)
टिकिओनु–वह टिका।
छिकिओनु–उसने खींचा।
‘जेहा धुरि लिखि पाइओनु’– सूही की वार म: ४।
पाइओनु–पाया उसने।
‘सचा अमरु चलाइओनु’।11। सूही की वार म: ४।
चलाइओनु–चलाया उसने।
‘इकना नो नाउ बखसिओनु’।3। रामकली की वार म: ३।
बखसिओनु–बख्शा उसने।
‘घट अंतरि अंम्रितु रखिओनु’।9। रामकली की वार म: ३।
रखिओनु–रक्षा की उसने।
‘कुदरति अहि वेखालीअनु’– पउड़ी नं: ४।
वेखालीअनु–दिखाई उसने।
‘हुकमी स्रिसटि साजीअनु’।2। सूही की वार म: ४।
साजीअनु–साजी उसने। (साजना–सृजना, उत्पक्ति)
‘चउदह रतन निकालिअनु’ –पउड़ी नं: 5।
निकालीअनु–निकाले उसने।
‘राति दिनसु उपाइअनु’।5। रामकली की वार म: ३।
उपाइअनु–उपाऐ उसने (उपाए–पैदा किए, सृजन)
अगर पाठक सज्जन व्याकरण की दृष्टिकोण से इस ‘वार’ को ध्यान से पढ़ेंगे, तो पाएंगे कि एक-एक शब्द का व्याकर्णिक-रूप श्री मुख वाक वाणी के साथ पूरी तौर पर मेल खाता है। यहाँ ज्यादा प्रमाण देने पर लेख का आकार अनावश्यक रूप से बढ़ने का डर है।
वार का शीर्षक:
पाठकों का ध्यान इस ‘वार’ के शीर्षक की तरफ दिलाना भी आवश्यक प्रतीत होता है। शीर्षक है; रामकली की वार राय बलवंड तथा सतै डूमि आखी। इसका शब्द ‘आखी’ बहुत अनोखा लग रहा है। गुरु ग्रंथ साहिब की 22 ‘वारों’ में से किसी के भी शीर्षक में ये शब्द नहीं आया। ‘आखी’ का अर्थ है ‘सुनाई’। पहले पहले बलवंड और सते ने मिल के ये ‘वार’ सतिगुरु जी की हजूरी में सिर्फ ‘सुनाई’ थी। इसको लिखती रूप उन्होंने नही दिया।
गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी का व्याकरण आजकल की पंजाबी को अनोखा सा चाहे लगे, पर जब यह वाणी उचारी लिखी गई थी, तब के पंजाबियों को इसको समझने-पढ़ने-लिखने में कोई मुश्किल नहीं थी, क्योंकि उस वक्त की पंजाबी बोली का व्याकरण ही यही था। सते बलवंड की ‘वार’ के व्याकरण की श्री मुख वाक वाणी की व्याकरण से समानता होना स्वाभाविक बात थी। ये तो थे ही गुरु घर के कीर्तनिए, हर रोज वाणी गाने-सुनने वाले। इन्हें साधारण सिखों से ज्यादा वाणी के सही व्यकार्णिक स्वरूप की जानकारी होगी ही।
एक ही अक्षर के साथ दो मात्राएं:
पुरानी पंजाबी को पढ़ के देखें। शब्दों के बहुत सारे व्याकर्णिक स्वरूप संस्कृत आदि बोलियों में से कुछ बदले हुए से मिल रहे हैं। पर गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी में एक व्याकर्णिक रीति ऐसी मिलती है जो संस्कृत आदि किसी बोली में नहीं। ये रीति गुरु अरजन साहिब जी की ही चलाई हुई है। कई अक्षरों के साथ दो मात्राएं प्रयोग की गई हैं।
कविता में कई बार छंद की चाल को ठीक रखने के लिए शब्दों की मात्राओं को कम-ज्यादा करना पड़ जाता है। ‘गुरु’ मात्रा को ‘लघु’ कर देना, अथवा ‘लघु’ मात्रा को ‘गुरु’ कर देना; ये रीति पंजाबी काव्य में पुरानी चली आ रही है। गुरबाणी के वर्णिक रूप को खोज से पढ़ने के अभिलाशियों के लिए ये रीति परखनी बहुत ही मजेदार होगी।
(ु) – अंत अक्षर एक मात्रा वाला है। जब इसे दो मात्रिक करने की आवश्यक्ता पड़ी है, तो (ु) की जगह (ो) लगाया गया है।
(ो) – अंत अक्षर दो मात्रा वाला है। जब इसे एक-मात्रिक करने की जरूरत पड़ी तो (ु) बरता गया है।
पर कई जगह शब्द का असल रूप भी कायम रखने की आवश्यक्ता थी, वहाँ एक ही अक्षर के साथ दोनों मात्राएं (ो और ु) प्रयोग की गई हैं। इस बात को समझने के लिए कुछ प्रमाण देख लें;
गुरमुखि मेलि मिलाए ‘सुोजाणै’।
…नानक गुरमुखि सबदि पछाणै॥17। (सिध गोसटि म: १)
यहाँ पढ़ना ‘सोजाणै’ है, असल शब्द है ‘सुजाणै’।
प्रभ किरपाल दइआल ‘गुोबिंद’।
….जीअ जंत सगले बखसिंद।1।13।15। (गोंड म: ५)
यहाँ पढ़ना ‘गुबिंद’ है, असली शब्द है: ‘गोबिंद’।
गुरमुखि गावै गुरमुखि बोलै।
… गुरमुखि तोलि ‘तुोलावै’ तोलै।22। (ओअंकारु)
यहाँ पढ़ना ‘तुलावै’ है, असल शब्द है ‘तोलावै’।
ऐसे ही और प्रमाण पाठक खुद भी ढूँढ सकते हैं। हमने यहाँ इस अनोखी बनावट की तरफ निम्न-लिखित तथ्यों का ध्यान दिलाना है:
(अ) उच्चारण के वक्त केवल एक ही मात्रा उचारी जा सकती है, चाहे (ो) उचारें अथवा (ु)। दोनों का एक साथ उच्चारण असंभव है।
(आ) शब्दों के बहुत सारे व्याकर्णिक रूप तो संस्कृत आदि बोलियों में से बदले हुए रूप में मिल रहे हैं, पर ये दोहरी ‘मात्रा’ उन बोलियों में नहीं मिलती। ये रीति श्री गुरु अरजन साहिब जी की अपनी चलाई हुई है।
(इ) इस वार में से निम्न-लिखित तुक में ये दोनों मात्राएं एक साथ बरती हुई की परख करने वाले सज्जन को पूर्ण विश्वास दिलाती हैं कि इस ‘वार’ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज करने वाले श्री गुरु अरजन देव जी थे।
‘जिनी गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मुोआ॥8।1।
यहाँ पढ़ना ‘मोआ’ है, जबकि असल शब्द ‘मुआ’ है।
आदि बीड़ और सते बलवंड की वार:
भक्त वाणी के विरोधी सज्जनों ने बड़ी मेहनत करके ये साबित करने के यत्न किए हैं कि भक्त वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में गुरु अरजन देव जी की शहीदी के बाद बाबा प्रिथी चंद और चंदू की साजिश से शामिल की गई थी। इस प्रयास में उन्होंने एक नई कहानी भी घड़ी है कि जहांगीर ने पंचम पातशाह को शहीद करके ‘पोथी साहिब’ (गुरु ग्रंथ साहिब) को ज़ब्त (कानून विरुद्ध) करार दे दिया था।
इस बारे में इस ‘दर्पण’ की तीसरे संस्करण में विस्तार सहित चर्चा पेश कर दी गई है। उस में मैंने उस कहानी की कमियां बता कर उस कहानी के हरेक पहलू पर विचार करके ये साबित कर दिया है कि भक्त-वाणी गुरु अरजन साहिब ने खुद ही गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज करवाई थी।
उपरोक्त लेखक जी गुरु ग्रंथ साहिब जी की के ज़ब्त होने की कहानी के आखिर में भट्टों के सवैयों और सते बलवंड की वार के बारे में यूँ लिखते हैं: “उक्त पैक्ट जहाँगीर और प्रीथिए की पार्टी के साथ हुआ। ये समय खालसे की जिंदगी मौत का था। जब निर्मल वाणी के अंदर हिन्दू, मुसलमान भक्तों, भट्टों और डूमों की रचना मिला के ‘सतिगुरु बिना होर कची है वाणी’ की उलंघना करके हमेशा के लिए वाणी को मिल–गोभा वाणी बना दिया है”।
पुस्तक की सिफारिश करने वाले अपील करते हैं कि ‘पूर्ण निश्चय है कि गुरमति खोजी सज्जन शांत-चिक्त हो के विचार करेंगे।’ पर पुस्तक के लेखक जी ने खुद रूखेपन का प्रयोग किया है। सते बलवंड का वर्णन करते हुए पुस्तक के पंना नं: 149 में गुरु घर के इन कीर्तनियों के बारे में इस प्रकार लिखा है: “ये ठीक हो सकता है कि लालची डूम (रबाबियों) को गुरु-निंदा का फल कुष्ट का हो जाना भुगतना पड़ा हो।…साबित होता है कि उक्त दोनों मरासियों ने गुरु जी की शरण केवल लालच के ख्याल से ली थी।…टका करमं टका धरमं’ इनका विचार था।”
इस मजमून के आखिर में लेखक सज्जन ‘सते बलवंड दी वार’ में अपनी राय इस प्रकार से देते हैं: “इस वार की आठों पौड़ियाँ उनकी तरफ से माफीनामा है। उन्होंने ये माफीनामा दे के अपना अपराध बख्शाया था। सो ये रचना वाणी की तुल्यता नहीं रखती। यह एक फैसला है जो खालसा दरबार की फाईलों में बतौर रिकार्ड के रखा जाना चाहिए था। हाँ, इतिहास का अंग अवश्य है। पर इसको गुरबाणी का दर्जा देना अथवा गुरबाणी कहना गुरमति के विरुद्ध है।”
हमने अपने इस लेख में ये देखना है कि ‘सते बलवंड दी वार’ गुरु अरजन साहिब जी के समय गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज थी या नहीं। यदि दर्ज थी, तो इसका आदर-सत्कार करने अथवा ना करने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि हम गुरु ग्रंथ साहिब को समूचे तौर पर ही गुरु मान के इसके आगे सिर झुकाते हैं।
प्राचीन बीड़ें (अर्थात गुरु ग्रंथ साहिब के पुरातन संस्करण):
‘प्राचीन बीड़ों’ के लेखक सरदार जी.बी. सिंह जी ने पुरानी लिखी हुई बीड़ों के अध्ययन में बहुत मेहनत से काम किया है। उनकी लिखत में से भी साफ दिखता है कि सिख धर्म के हमदर्द नहीं थे, गुरु साहिबान में उनकी श्रद्धा नहीं थी, क्योंकि कई जगहों पर उन्होंने गुरु साहिब की शान में रूखे-बोल बरते हुए हैं। भाई बंनो वाली बीड़ को असल पुरातन बीड़ और करतारपुर वाली ‘आदि बीड़’ को भाई बंनो वाली बीड़ का उतारा (कापी) साबित करने के लिए सरदार जी. बी. सिंह ने खासा जोर लगाया है। पर इसका मतलब ये नहीं कि हम उनकी नीयत पर शक करें। पुरानी बीड़ों की खोज का उन्हें शौक था। जहाँ-जहाँ उन्हें मौका मिला, उन्होंने इस लगन में समय दिया। हाँ, हमारी ये राय अवश्य है कि वे अपनी इतनी बड़ी मेहनत के बावजूद सही नतीजे निकालने में चूक करते रहे।
जी. बी. सिंह ने अपनी पुस्तक में कई पुरातन हस्त-लिखित बीड़ों के हवाले दिए हैं, उनके उतारों (नकल) की तारीखें भी दी हैं। भाई बंन्नो वाली बीड़ और गाँव बोहड़ (जिला गुजरात) वाली बीड़ ये दोनों गुरु अरजन साहिब जी की जिंदगी के दौरान ही लिखी गई थीं। गाँव बोहड़ वाली बीड़ के आखिरी 26 पृष्ठों के अतिरिक्त बाकी सारी की सारी एक ही हाथ से लिखी हुई है। जी. बी. सिंह ने अपनी आँखों से देख कर ये तथ्य दिए हैं। जो फालतू बाणियां दर्ज हुई हैं, उनके बारे में जी. बी. सिंह ने जोर-शोर से लिखा है, कोई तथ्य छुपा के नहीं रखा। अगर भक्तों की सारी वाणी, भट्टों के सवैये, और सते बलवंड दी वार, बोहड़ वाली बीड़ में किसी और के हाथों लिखे हुए होते, तो सरदार जी. बी. सिंह इस बात को बिल्कुल छुपाते नहीं, अवश्य जिक्र करते। खोजी क्या और छुपाना क्या? खोजी भी वह जो साथ-साथ सिख धर्म और इसके इतिहास का कुछ मजाक भी उड़ा रहा है।
माँगट के रास्ते पर नहीं:
सिख इतिहासकारों ने तो ये लिखा था कि भाई बन्नो वाली बीड़ माँगट (जिला गुजरात) के ढर्रे पर लिखी गई थी, पर हम ये साबित कर चुके हैं (नोट: ये लेख पुस्तक ‘गुरु ग्रंथ प्रकाश’ में पेश किया जाएगा) कि ये बीड़ अमृतसर में ही लिखी गई, और भाई गुरदास जी के सामने लिखी गई थी। भाई गुरदास जी की निगरानी होते हुए इस बीड़ में किसी तरह की मिलावट की गुँजाइश नहीं हो सकती थी। भाई बन्नो की बीड़ से बोहड़ वाली बीड़ लिखी गई, एक साल के अंदर-अंदर ही, संवत् 1662 में, गुरु अरजन देव जी जीवित थे। बोहड़ वाली बीड़ लिखी हुई भी एक ही हाथ की है। सो, सिर्फ यही गवाही ये साबित करने लिए काफी है कि बाबा प्रिथी चंद और चंदू, जहाँगीर के साथ साजिश करके ‘आदि बीड़’ में कोई मिलावट नहीं कर सके। सारी भक्त वाणी, भट्टों के सवैये, और सते बलवंड दी वार; ये सारी बाणियाँ भाई गुरदास जी के हाथों द्वारा ही गुरु साहिब की आज्ञा अनुसार गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हुई थीं।
आदर-सत्कार:
बाकी रहा सवाल ‘सते बलवंड दी वार’ के आदर-सत्कार का। हमें गुरु अरजन साहिब जी के वक्त का ही एक और साक्ष्य मिल रहा है, जो ये साबित करता है कि ये वाणी उसी तरह ही पढ़ी, सुनी और बरती जा रही थी, जैसे गुरु ग्रंथ साहिब में लिखीं अन्य बाणियाँ।
भाई गुरदास जी और गुरबाणी:
भाई गुरदास जी का नाम सिख पंथ में सूर्य की तरह रौशन है। ये गुरु अमरदास जी के भतीजे थे। गुरु रामदास जी के वक्त से ही इन्हें उक्तर प्रदेश में सिख धर्म का प्रचार करने के लिए भेजा जाता रहा। प्रचार आखिर गुरबाणी के द्वारा ही हो सकता था, और भाई गुरदास जी वाणी के प्रसिद्ध विद्वान व रसिए थे। इन्होंने स्वयं भी गुरमति पर दो पुस्तके लिखीं: ‘वारें’ और ‘कबित’। ‘वारें’ ठेठ पंजाबी में, ‘कबिक्त’ बृज-भाषा में। भाई गुरदास जी की वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी की कूँजी कही जाती है। इसका ये भाव लिया जा सकता है कि इन्होंने गुरमति के सिद्धांत अपनी रचना में स्पष्ट तौर पर समझाए हैं, और इस काम के लिए इन्होंने अपनी वाणी (रचना) लिखने में गुरबाणी का बहुत आसरा लिया है। इस विचार को खोल के बताने के लिए हम भाई गुरदास जी की 26वीं वार पाठकों के सामने पेश करते हैं। आप इसमें देखेंगे कि जगह-जगह पर भाई गुरदास जी की तुकें गुरबाणी के साथ मिलती हैं:
- पउड़ी नं: 2–
आदि पुरखु आदेसु है, ओहु वेखै ओन्हा नदरि न आइआ।
जपु जी में देखें;
‘ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु॥ पउड़ी नं30। - पउड़ी नं: 3
अंबरु धरति विछोड़िअनु, कुदरति करि करतार कहाइआ॥ धरती अंदरि पाणीऐ, विणु थंमां आगासु रहाइआ॥ इधंण अंदरि अगि धरि, अहिनिसि सूरजु चंदु उपाइआ।
मलार की वार म: १ पउड़ी १:
आपीनै आपु साजि, आपु पछाणिआ॥ अंबरु धरति विछोड़ि, चंदोआ ताणिआ॥ विणु थंमा गगनु रहाइ, सबदु नीसाणिआ॥ सूरजु चंदु उपाइ, जोति समाणिआ॥ कीए राति दिनंतु, चोज विडाणिआ॥ - पउड़ी नं: 5
ओअंकारि आकारु करि, लख दरिआउ न कीमति पाई।… केवडु वडा आखीअै, कवणु थाउ किसु पुछां जाई। अपड़ि कोइ न हंघई, सुणि सुणि आखण आखि सुणाई।
सिरी राग म: १:
भी तेरी कीमति ना पवै, हउ केवडु आखा नाउ॥1॥ साचा निरंकारु निज थाइ॥ सुणि सुणि आखण आखणा, जे भावै करे तमाइ॥ रहाउ॥ - पउड़ी नं: 7
कलिजुगि बीजै सो लुणै, वरतै धरम निआउ सुखाला।
बारह माहा मांझ म: ५:
जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेतु॥ - पउड़ी नं: 8:
सतिजुगि सति त्रेते जगी, दुआपरि पूजा बहली घाला।
कलिजुगि गुरमुखि नाउ लै, पारि पवै भवजल भरनाला।
गउड़ी बैरागणि, भक्त रविदास जी:
सतजुगि सतु, त्रेता जगी, दुआपरि पूजाचार॥ तीनौ जुग तीनौ दिढ़े, कलि केवल नाम आधार॥1॥
नोट: यहाँ ये भी देख लें कि गुरु ग्रंथ साहिब में भाई गुरदास जी के सामने भक्त रविदास जी की वाणी भी मौजूद है। - (अ) पउड़ी नं: 9:
जिनां भउ तिन नाहि भउ, मुचु भउ अगै निभविआहा॥
सलोक म: २:
जिना भउ तिना नाहि भउ, मुचु भउ निभविआह॥
(आ) धरि ताराजू तोलीअै, हउला भारा तोलु तुलाहा।
म: १, आसा दी वार:
धरि ताराजू तोलीऐ, निवै सु गउरा होइ॥
पउड़ी नं: 10:
कारणु करतै वसि है, विरलै दा ओहु करै कराइआ।
म: २।
कारणु करतै वसि है, जिनि कलि रखी धारि॥
पउड़ी नं: 13:
गुरु दरीआउ अमाउ है, लख दरीआउ समाउ करंदा।….
साइरु सणु रतनावली, चारि पदारथु मीन तरंदा।
प्रभाती म: १:
गुर उपदेसि जवाहर माणक, सेवे सिखु सुो खोजि लहै॥ … गुरु दरीआउ सदा जलु निरमलु, मिलिआ दुरमति मैलु हरै॥
हमने उदारण के तौर पर ये वार नं: 26 पेश की है। ज्यों ज्यों आप भाई गुरदास जी की वारें ध्यान से पढ़ेंगे आपको ये बात साफ दिखती जाएगी कि भाई गुरदास जी को गुरबाणी की गहरी जानकारी थी, और वह अपनी सारी वाणी में गुरबाणी में से बहुत प्रमाण लेते थे।
अब देखें वार नं: 24:
हू-ब-हू इसी तरह ही भाई साहिब ‘सते बलवंड दी वार’ का प्रयोग करते हैं। पढ़ें उनकी वार नं: 24। इस वार की 25 पौड़ियाँ हैं। गुरु अरजन साहिब की शहादत के बाद ये लिखी गई थी, क्यों इसमें पंचम गुरु की शहीदी का वर्णन है, और गुरु हरि गोबिंद साहिब की स्तुति भी दर्ज है। हरेक गुरु-व्यक्ति की महिमा में निम्न-लिखित अनुसार पौड़ियां दर्ज हैं:
1 से 4 तक गुरु नानक देव जी
5 से 8 तक गुरु अंगद देव जी
9 से 13 तक गुरु अमरदास साहिब जी
14 से 17 तक गुरु रामदास साहिब जी
18 से 20तक गुरु अरजन साहिब जी
21 से 22 तक गुरु हरि गोबिंद साहिब जी
23 गुरु अरजन देव जी की शहीदी
24 गुरु हरि गोबिंद साहिब जी
25 ‘गुर–मूरति गुरु–शबदु है’।
अब हम पाठकों की दिलचस्पी के लिए इस ‘वार’ में से वह प्रमाण पेश करते हैं जो सते बलवंड दी वार’ के साथ गहरी समानता रखते हैं:
पउड़ी नं: 2, भाई गुरदास जी:
निहचल नीव धराईओनु, साध संगति सच खंड समेउ।
पउड़ी नं: 1, बलवंड:
नानकि राजु चलाइआ, सचु कोटु सताणी नीव दै॥
पउड़ी नं: 3, भाई गुरदास जी:
इकु छति राजु कमांवदा, दुसमणु दूतु न सोर शराबा।
नं: 1, बलवंड:
नानकि राजु चलाइआ…..॥
पउड़ी नं: 2, 3, भाई गुरदास जी;
जगतु गुरू गुरु नानकु देउ। –2
जाहर पीरु जगतु गुरु बाबा। –3
बलवंड पउड़ी नं: 1 में कहते हैं कि गुरु नानक देव जी की प्रसिद्धि को बयान नहीं किया जा सकता:
नाउ करता कादरु करे, किउ बोलु होवै जोखीवदै॥ –1
पउड़ी नं: 6 – भाई गुरदास जी
जोति समाणी जोति विचि, गुरमति सुखु, दुरमति दुख दहणा।
पउड़ी नं: 4 सता:
जोति समाणी जोति माहि, आपु आपै सेती मिकिओनु॥
पउड़ी नं: 7– भाई गुरदास जी
‘पुतु सपुतु बबाणे लहिणा।’ इसके मुकाबले पर
बलवंड, पउड़ी नं: 2:
पुत्री कउलु न पालिओ, करि पीरहु कंन् मुरटीऐ॥
पउड़ी नं: 10, भाई गुरदास जी:
पोता परवाणीक नवेला।
नं: 6, सता:
पियू दादे जेविहा, पोता परवाणु॥
गुरु अमरदास जी की बाबत
पउड़ी नं: 12, भाई गुरदास जी:
सो टिका सो बैहणा, सोई सचा हुकम चलाइआ।
पउड़ी नं: 6, सता:
सो टिका सो बैहणा, सोई दीबाणु॥
पउड़ी नं: 15, भाई गुरदास जी:
पीऊ दादे जेविहा, पड़दादे परवाणु पड़ोता।
पउड़ी नं: 6, सता:
पियू दादे जेविहा, पोता परवाणु॥
पउड़ी नं: 19, भाई गुरदास जी:
तखतु बखतु लै मलिआ, सबद सुरति वापारि सपता।
पउड़ी नं: 8, सता:
तखति बैठा अरजन गुरू….॥
पउड़ी नं: 20, भाई गुरदास जी:
लंगरु चलै गुर सबदि, पूरे पूरी बणी बणता।
पउड़ी नं: 2, बलवंड:
लंगरु चलै गुर सबदि, हरि तोटि न आवी खटीऐ॥
पउड़ी नं: 20, भाई गुरदास जी:
गुरमुखि छत्रु निरंजनी, पूरन ब्रहम परमपद मता।
पउड़ी नं: 2, बलवंड:
झुलै सु छत्रु निरंजनी, मलि तखतु बैठा गुर हटीऐ॥
उपरोक्त पुस्तक में सते बलवंड के ऊपर ये दूषण लगाया गया है कि उन्होंने गुरु अंगद साहिब का नाम ‘लहिणा’ लिख के मन मति की है। देखें पन्ना 151। (नोट: गुरु अंगद साहिब को लहिणा शब्द बरत के अति गलती की है। गुरु नानक साहिब ने बाबे लहणे को गुरता दे के गुरु अंगद में तब्दील कर दिया था, क्यों मरासी गुरमति फिलासफी से नावाकिफ़ थे, इस वास्ते उन्होंने ऐसा किया होगा। पर सिखी के नुक्ता-निगाह के मुताबिक अपराध है।)
इस संबंध में हम इसके लेखक के विचार के लिए भाई गुरदास जी की उसी ‘वार’ नं: 24 में से प्रमाण पेश करते हैं।
भाई गुरदास जी गुरु अंगद साहिब की महिमा करते हुए इस तरह लिखते हैं;
(अ) बाबाणै घरि चानणु लहणा। – पउड़ी नं: 6
(आ) पुतु सपुतु बबाणै लहणा। – पउड़ी नं: 7
भाई गुरदास जी की इस ‘वार’ नं: 24 और सते बलवंड दी वार में और भी कई समानताएं हैं। हमने यहाँ पाठकों को सिर्फ झलक ही दिखलाई है। पाठक स्वयं निर्णय कर लेंगें कि ‘सते बलवंड दी वार’ गुरु अरजन साहिब की जिंदगी के दौरान ही गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज थी।
ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥
सते बलवंड ने यह ‘वार’ कब और क्यों उचारी?
कवि संतोख सिंह जी ने “गुर प्रताप सूरज प्रकाश” में इनकी जो साखियां लिखीं हैं वह बड़ी सुंदर व दिलकश हैं। कवि जी ने ये घटना गुरु अरजन देव जी के समय की बताई है। साखी इस प्रकार है कि बलवंड और सता गुरु अरजन साहिब के दरबार में कीर्तन करते थे। लड़की की शादी के लिए धन माँगा। जितना उन्होंने आशा की थी उतना धन ना मिला, तो कीर्तन करने से रूठ गए, गुरु अरजन साहिब जी खुद बुलाने गए तो भी वे ना माने; बल्कि गुरु नानक देव जी की शान मे कुबोल कहे। सतिगुरु जी ने संगति को खुद कीर्तन करने का हुक्म किया और कहा बलवंड सते से कोई कीर्तन ना सुने। ये जब भूखे मरने लगे, घमण्ड टूट गया, तब लाहौर निवासी भाई लद्धा जी को सिफारिश के लिए साथ लाए। माफी मिली और गुर-स्तुति में ‘वार’ उचारी।
कुछ लिखारी इस ‘वार’ का संबंध गुरु अंगद देव जी से जोड़ते हैं।
मिस्टर मैकालिफ़ ने अपने सिख सलाहकारों की बताई हुई विचार के मुताबिक ये साखी गुरु अंगद देव जी के वक्त की लिखी है। इसकी प्रोढ़ता में वह लिखते हैं कि हमने ज्ञानी सरदूल सिंह और ज्ञानी ध्यान सिंह से ये ख्याल लिया है। ज्ञानी बिशन सिंह ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब के टीके में दोनों विचारों को मिलगोभा कर दिया है। आरम्भ में लिखते हैं कि ये घटना गुरु अरजन साहिब जी के समय हुई, पर अंत में लिखते हैं कि ये ‘वार’ गुरु अंगद देव जी की गुरु-गद्दी नशीनी के वक्त पढ़ी गई। ‘शब्दार्थ’ के लिखारी लिखते हैं कि मर्दाना जी की औलाद में सता और बलवंड दो भाई गुरु अंगद देव जी के दरबार में कीर्तन करते थे; लड़की की शादी पर वैसाखी का चढ़ावा मिला, जो बहुत कम था, रूठ गए। भाई लद्धा जी की सिफारिश से फटकार दूर हुई और उन्होंने गुरु साहिबान की स्तुति में ये ‘वार’ उचारी। ‘शब्दार्थ’ के अनुसार ये डूम गुरु हरिगोबिंद साहिब के समय तक जीवित रहे, हरेक गुरु की ‘गद्दी-नशीनी’ के वक्त स्तुति की पउड़ी रचते रहे; जो पउड़ी उन्होंने गुरु हरिगोबिंद साहिब की ‘गद्दी-नशीनी’ के समय उचारी, वह शहर रावलपिंडी धर्मशाला ‘भाई बूटा सिंह जी’ में रखी एक पुरातन बीड़ में दर्ज है। मिस्टर मैकालिफ लिखता है यह ‘वार’ बलवंड ने गुरु अंगद साहिब से माफी मिलने पर लिखी थी, झगड़ा है ही बलवंड का था। सते ने आखिरी तीन पौड़ियां गुरु अरजन साहिब के समय लिखीं, मात्र इसलिए कि ‘पांचों गुरूओं की स्तुति मुकम्मल हो जाए और ‘वार’ को बीड़ में चढ़ाया जा सके। इस ‘वार’ की पाँचवीं पौड़ी का अर्थ करते समय तुक ‘लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु” पर मैकालिफ नोट लिखता है कि यहाँ ‘बलवंड’ अपने आप को धिक्कारता है। सो, मैकालिफ़ के विचार के अनुसार पहली पाँच पौड़ियां बलवंड द्वारा उचारी गई, और झगड़ा भी इसी से हुआ था। ‘शब्दार्थ’ वालों ने ये निर्णय नहीं किया कि किस-किस ने कौन-कौन सी पौड़ी उचारी। आखिर दोनों एक साथ एक ही चीज़ के रचयता नहीं थे हो सकते।
इस उपरोक्त चर्चा में आए हुए सज्जनों की सारी विचार का नतीजा:
बलवंड और सता, मर्दाने जी की औलाद में से थे। –शब्दार्थ
गुरु अंगद साहिब जी से ये नाराज हुए थे।– मैकालिफ और शब्दार्थ
भाई लद्धा जी के माध्यम से गुरु अंगद देव जी से माफी मिली थी।
पहली 5 पौड़ियां गुरु अंगद साहिब के सामने दोनों ने उचारीं।
पिछली 3 पौड़ियाँ गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अरजन साहिब जी की गुरु-गद्दी नशीनी के वक्त इन दोनों ने उचारीं।
गुरु हरि गोबिंद साहिब की स्तुति वाली पौड़ी दर्ज होने से रह गई है।
पहली पाँच पौड़ियां बलवंड ने उचारीं, झगड़ा इन्हीं के साथ था; सते ने तो गुरु अरजन साहिब के वक्त इस ‘वार’ को सम्पूर्ण करने के लिए 3 पौड़ियां उचारीं।– मैकालिफ़
ये ‘वार’ गुरु अंगद साहिब की गुरु अंगद साहिब की गुरु-गद्दी नशीनी के वक्त पढ़ी गई
बलवंड और सते की लड़की की शादी पर ये नाराजगी हुई। पर दोनों में से लड़की किसकी थी? ये किसी ने नहीं लिखा। हाँ, मैकालिफ़ द्वारा ये लिखे जाने पर कि झगड़ा बलवंड के साथ था ये अंदाजा लग सकता है कि मैकालिफ़ अनुसार लड़की ‘बलवंड’ की थी।
अब उक्त तथ्यों को एक-एक करके विचारते हैं:
क्या बलवंड और सता गुरु अंगद देव जी से नाराज़ हुए थे?
साखी के अनुसार, बलवंड या सते की लड़की की शादी के मौके पर नाराजगी हुई थी। इनमें से जिसकी भी लड़की थी, विवाह के योग्य लड़की उम्र यदि 16 साल मान ली जाए और अगर ये बड़ी बेटी भी थी तब अगर लड़की के पिता की उम्र लड़की के पैदा होने के कम से कम 20 साल मिथ ली जाए तो लड़की की शादी के वक्त उसकी उम्र 36 साल होनी चाहिए।
रूठने का कारण ये था कि विवाह के लिए जितना धन इन्हें चाहिए था, उतना इन्हें गुरु-घर से नहीं मिल सका। साखी के अनुसार, वैसाखी के पर्व के समय का सारा चढ़ावा भी इनके लिए काफी नहीं हो सका। ये रूठ के चले गए; सतिगुरु जी मनाने गए पर वे ना आए। इनको घमण्ड था कि जहाँ भी जा के कीर्तन करेंगे, रोजी कमा लेंगे। रूठने का कारण विवाह के लिए आवश्यक धन ना मिलना ही था, अगर उन्हें धन मिल जाता तो रूठने की जरूरत नहीं पड़ती। सो, अगर इस साखी पर गहराई से विचार करें तो निम्न-लिखित शंके खड़े होते हैं;
क्या सचमुच गुरु अंगद देव जी के दरबार में इतनी भेटा भी नहीं थी आती कि वह गुरु-दर के कीर्तनियों की एक मामूली सी आवश्यक्ता भी पूरी ना कर सके?
बलवंड और सते का रोजगार सतिगुरु जी के दर पर कीर्तन करना था; उनकी आर्थिक आवश्यक्ताएं उसी दर से पूरी होनी थीं। ये बात अनहोनी सी लगती है कि सतिगुरु जी ने किसी एक विशेष दिन की ही भेटा देने से इन्कार किया हो। उनकी कमी पूरी ना करके किसी जबानी ढारस के आसरे उन्हें मनाने जाना भी व्यर्थ ही प्रतीत होता है।
कई इतिहासकार लिखते हैं कि जब बलवंड और सते ने लड़की के विवाह के लिए धन माँगा तो सतिगुरु जी ने कहा कि दो महीनों में वैसाखी के मेले पर प्रबंध कर देंगे, पर रबाबी इस बात से रूठ गए कि अभी ही क्यों नहीं प्रबंध किया जाता। ये विचार बहुत ही कच्चा सा है। हरेक मनुष्य जिसको अपने हाथों से नौकरी व मजदूरी आदि से रोजी कमानी पड़ती है अपने अंदर ध्यान मार के देख ले कि क्या एक साधारण सी बात के पीछे वह अपने रोजगार के जरीए से इस तरह तोड़-विछोड़ कर सकता है। हाँ, सता और बलवंड तब ही कर सकते थे, यदि;
उन्हें दो महीने में भी आवश्यक धन मिलने की आस नहीं थी, और
किसी और ने उन्हें भड़काया हुआ था अथवा उम्मीद थी कि इस गुरु को छोड़ के इन जैसे किसी और के पास चल के कीर्तन करेंगे।
ये ‘उकसावा’ व ‘उम्मीद’ भी तब ही संभव हो सकती थी कि अगर सतिगुरु जी का कोई विरोधी हो जो गुरुता गद्दी का शरीक हो, और
जिस गुरु से वे रूठे थे वे अभी नए-नए ही गद्दी पर बैठे हों, और
उनका अपना जीवन अभी इतना मशहूर ना हुआ हो जिसका गहरा प्रभाव सते-बलवंड के मन पर इतना पड़ सकता कि वे धन की कमी में भी तोड़-तड़ाग ना करते।
उम्र का भी बहुत असर पड़ता है। बड़ी उम्र के आगे स्वाभाविक तौर पर सिर झुक जाता है, और जिनका रोजी का सवाल हो वे तो मामूली सी बात पर बागी हो ही नहीं सकते। क्या गुरु अंगद साहिब की उम्र इस घटना के वक्त लड़की के पिता-रबाबी की उम्र से ज्यादा कम थी कि वह इस बिल्कुल ही छोटी सी बात पर आगे से बोल पड़ा?
एक बात और भी है हैरानी भरी। सता और बलवंड भाई मर्दाने की औलाद में से थे, तो इतने रूखे हो के सतिगुरु जी से तोड़ने के वक्त उन्हें ये भी ख्याल नहीं आया कि उनके बुर्जुगों ने अपनी सारी उम्र गुरु नानक साहिब के साथ गुजारी थी। अभी कोई ज्यादा समय नहीं बीता था, गुरु की अभी ये दूसरी ही पीढ़ी थी। तोड़ी भी तो किस बात पर? भला घरों में केई कारणों से नियत हुए विवाह भी कई बार साल-साल छह-छह महीने पीछे टालने नहीं पड़ते?
फिर, जिस दर पर हिन्दोस्तान का मुगल बादशाह भी आ के झुके, उसके आगे गरीब मरासियों का कुबोल बोलने की हिम्मत कर लेना एक बड़ी आश्चर्य वाली बात है। सो, अगर ये घटना सचमुच गुरु अंगद साहिब के ही समय हुई थी, तो हिमायूँ बादशाह के आने से पहले ही हुई होगी। हिमायूँ की शेरशाह से संन 1540 में हार हुई थी और वह गुरु अंगद साहिब जी के पास खडूर साहिब आया था।
आईऐ, इन सभी आशंकाओं की निर्विक्ति के लिए गुरु अंगद देव जी के जीवन में ध्यान से झाँकें।
गुरु-गद्दी को लेकर गुरु अंगद देव जी का कोई शरीका व विरोधी नहीं था, जिससे बलवंड को शह मिलती:
सतिगुरु नानक देव जी ने बाबा लहिणा जी को कम से कम 7 साल अच्छी तरह इस नए जीवन और जिंमेवारी के लिए तैयार किया, कई बार परखा, जब कसवटी पर हर बार खरे साबित होते रहे, तब जा कर सितंबर 1539 में गुरुता बख्शी। बाबा लहिणा जी का जीवन इतना ऊँचा बना कि गुरु नानक देव जी स्वयं उनके आगे झुके। उस वक्त बाबा लहिणा जी की उम्र 35 साल से ज्यादा थी, क्योंकि इनका जन्म अप्रैल संन 1504 में हुआ था। ये ठीक है कि गुरु नानक जी की परख-कसवटी पर उनके साहिबजादे पूरे ना उतर सके, पर इसका ये भाव नहीं कि बाबा श्री चंद कोई साधारण से लोग थे। बाबा जी ने अपनी सारी उम्र बंदगी में गुजारी और गुरु अंगद साहिब जी की कभी भी कोई विरोधता नहीं की। इतिहास में कहीं ये वर्णन नहीं आता कि गुरु अंगद साहिब जी के लंगर में कभी किसी प्रकार की कमी आई हो; बल्कि गुरता के अगले ही साल हिन्दोस्तान के बादशाह हिमायूँ का उनके पास सवाली बन के आना बताता है कि गुरु अंगद देव जी का तेज-प्रताप भी गुरु नानक साहिब जैसा ही था।
सो, इस विचार में ये बातें देख चुके हैं:
गुरु पद के मामले में गुरु अंगद देव जी का कोई शरीक नहीं था, जहाँ सता और बलवंड इनसे मुँह फेर के जा सकते। गुरु पद का कोई शरीक ना होने के कारण सते-बलवंड को किसी की उकसाहट भी नहीं थी। गुरु अंगद साहिब जी की गुरु नानक देव जी के समय की 7 साल की हुई मेहनत इनको गुरु नानक साहिब के समय में ही इतना ऊँचा बना गई थी कि किसी को भी इस बारे में कोई शक नहीं पड़ सकता। सो, सते और बलवंड को ये आशा कभी भी नहीं हो सकती थी कि गुरु घर से मुँह मोड़ के सिख-संगतों में कहीं भी आदर-मान पा सकते अथवा रोजी कमा सकते।
बड़ी छोटी उम्र का सवाल:
इतने ऊँचे आत्मिक जीवन के होते हुए, छोटी-बड़ी उम्र का सवाल उठता ही नहीं, पर उम्र से भी गुरु अंगद देव जी छोटे नहीं थे, हिमायूँ के आने के वक्त सतिगुरु जी की उम्र 36 साल से ज्यादा थी।
सो, कहीं भी कोई ऐसी गुँजाइश नहीं दिखती जिसका आसरा ले के ये माना जा सके कि बलवंड और सता गुरु अंगद देव जी के समय में रूठे थे।
पर, जब हम पढ़ते-सुनते हैं कि मर्दाना जी की औलाद में हुए सते बलवंड ने गुरु अंगद देव जी से छोटी सी बात को लेकर मुँह मोड़ा, तो ये बात बिल्कुल ही र्निमूल सी लगती है। ऐतिहासिक तौर पर इसे परख कर देख लें। हम ये बता चुके हैं कि इस तरह का व्यवहार गुरता से पहले हो सकता है, जब सतिगुरु जी का तेज-प्रताप अभी चमका ना हो। भाई मर्दाना जी संन् 1521 में अभी जीवित थे, क्यों इस समय आप गुरु नानक साहिब के साथ ऐमनाबाद में मौजूद थे जब बाबर ने हमला किया। इससे कुछ साल बाद मर्दाना जी का निधन हुआ। गुरु नानक देव जी 1539 में ज्योति से ज्योति समाए। इस तरह उम्र के लिहाज से गुरु नानक साहिब और भाई मर्दाना तकरीब हम-उम्र थे। गुरु नानक साहिब के ज्योति-ज्योति समाने के वक्त बड़े साहिबजादे बाबा श्री चंद जी की उम्र 42 साल के करीब थी। सो, गुरु अंगद देव जी के गद्दी पर बैठने के थोड़े ही समय बाद ये घटना होने की हालत में भाई मर्दाना जी के पुत्रों की उम्र भी बाबा श्री चंद जी के बराबर की ही कही जा सकती है। अगर बहुत खींच-घसीट भी करें, तो भी मुश्किल से ये मान सकेंगे कि सता और बलवंड भाई मर्दाना जी के (यदि वे उसी खानदान में से हुए तो) पौत्र हुए हैं। पर अगर ये बात ठीक होती तो हरेक इतिहासकार बड़ी आसानी से लिख जाता कि सता और बलवंड भाई मर्दाना के पौत्र थे। 1539 तक गुरु नानक साहिब के पास भाई मर्दाना जी के उपरांत उनका पुत्र कीर्तन करता रहा; यदि पौत्र अगले ही साल अथवा अगले 12 सालों के भीतर (गुरु अंगद साहिब के ज्योति-ज्योति समाने के समय तक) वर-योग कन्या के पिता हो सकते हैं तो ये भी मानना पड़ेगा कि ये पौत्र भी गुरु नानक साहिब के पास कीर्तन करते रहे। सो, इतनी जल्दी ये पौत्र गुरु नानक साहिब के दर से मुँह नहीं मोड़ सकते।
दरअसल बात ये है कि भाई बलवंड और सता भाई मर्दाना की संतान में से नहीं थे। भाई मर्दाना चोंहबड़ जाति का मरासी था, और सता और बलवंड मोखड़ जाति के मरासी।
माफी दिलाने वाले भाई लद्धा जी कब हुए हैं?
इतिहास में ये बात जानी मानी है कि सते और बलवंड को भाई लद्धा जी की परोपकारी रुचि द्वारा ही माफी मिली थी। भाई लद्धा जी की सिफारिश तब ही कारगर सिद्ध हो सकती थी जब वह अपने जीवन-स्तर को ऊँचा उठा के गुरु नजरों में स्वीकार हो चुका हो। यदि भाई लद्धा जी का जीवन गुरु अंगद देव जी के जीवन-काल में महान हो चुका होता तो भाई गुरदास जी इनका नाम गुरु अंगद देव जी के सिखों की फरिश्त में लिखते। भाई बूड़ा जी (बाबा बुड्ढा जी) गुरु नानक साहिब के वक्त ही प्रसिद्ध हो गए, उनका नाम भाई गुरदास जी ने गुरु नानक साहिब के सिखों में लिखा है। फिर और किसी जगह जिक्र नहीं आया। पर बाबा जी ने गुरु हरिगोबिंद साहिब जी को भी गुरु-तिलक दिया था। सो, भाई लद्धा जी गुरु अरजन साहिब के समय में ही प्रसिद्ध हुए। गुरु अंगद देव के समय में इतिहास इनसे वाकिफ नहीं है।
सते बलवंड की घटना गुरु अरजन साहिब के समय हुई थी:
गुरु-व्यक्तियों में सबसे पहले गुरु रामदास जी ही थे, जिनकी संतान को जन्म से ही लेकर गुरु-मति के संस्कारों के असर तले पलने का मौका मिला। इसका नतीजा ये निकला कि गुरु रामदास जी के बाद गुरु-पद की जिमेवारी के लिए किसी ऐसी तैयारी व मेहनत की आवश्यक्ता नहीं पड़ी जो बाबा लहिणा जी, गुरु अमरदास जी और भाई जेठा जी के बाबत करनी पड़ी थी। सतिगुरु जी खुद अपने बच्चों में से उनके रोजाना के जीवन के स्वभाव आदि को देख के फैसला कर लेते रहे कि कौन इस जिंमवारी को ठीक से निभाने में समर्थ है। पर, इसका एक और भी नतीजा निकला। गुरु-पद के लिए बड़े शरीक खड़े होने शुरू हो गए। सतिगुरु तो कसौटी वही बरतते थे, जो गुरु नानक, गुरु अंगद और गुरु अमरदास जी ने बरती थी, पर कुछ अपनी जद्दी हक समझ के चुने गए भ्राता-गुरु से ईष्या करने लग जाते थे। सिख-गुरु-इतिहास में शरीक और ईष्या वाली दास्तान सबसे पहले गुरु अरजन साहिब के हिस्से आई। इनके बड़े भाई बाबा प्रिथी चंद जी ने हर तरह का जोर लगा के विरोधता की, इनकी कामयाबी के राह में कई तरह की रुकावटें डालीं। गुरु-गद्दी के वक्त पिता गुरु रामदास जी को कुबोल बोले, गुरु रामदास जी के ज्योति-ज्योति समाने पर गोविंदवाल दस्तारबंदी के वक्त भी शोर मचाया, अमृतसर आ के नगर के पँचों को उकसाया। जब दूर से सिख-संगत दर्शनों के लिए आती तो बाबा प्रिथी चंद ने अपने धड़े वाले कुछ लोगों के माध्यम से आए सिखों को बहला-फुसला के उनसे चढ़ावा ले लिया करते थे, और आम तौर पर लंगर के वक्त उनको गुरु के लंगर में (जो गुरु अरजन साहिब की निगरानी में सबके लिए सांझा चलता था) भेज दिया करते थे। आमदनी तो बाबा प्रिथी चंद की तरफ जाती थी पर खर्च गुरु अरजन साहिब को करना पड़ता था। इतिहासकार लिखते हैं कि नतीजा ये निकला कि कई बार लंगर एक ही वक्त पकता था और चने की रोटी भी मिलने लग गई थी। जब भाई गुरदास जी आगरे से वापस आए, ये हालत देखी, तब बाबा बुड्ढा जी जैसे समझदार सिखों के साथ सलाह करके इन्होंने मिल के सिख-संगतों को इस बहलाने-फुसलाने वाली चाल से बचाना शुरू किया। गुरु रामदास जी सन् 1581 में ज्योति-ज्योति समाए थे, बाबा पृथ्वी चंद ने तब से ही ये विरोधता आरम्भ कर दी थी। सते-बलवंड की लड़की की शादी वैसाखी से दो महीने पहले या वैसाखी के आस-पास थी। सो, सते-बलवंड के बाग़ी होने की घटना वैसाखी सन् 1582 की ही हो सकती है, क्योंकि इन ही महीनों में इतिहास के अनुसार निम्न-लिखित घटनाएं घटित हुई थीं;
गुरु-गद्दी की खातिर शरीका और विरोधता।
विरोधी शरीक भाई बाबा पृथ्वी चंद जी वहाँ बसते थे जहाँ गुरु अरजन साहिब रहते थे।
चढ़ावे की भेटा बाबा पृथ्वी चंद जी को जाती थी और खर्च गुरु अरजन साहिब जी के लंगर पर पड़ता था।
गुरु के खजाने में आमदनी बहुत कम थी।
किन हालातों में सता-बलवंड रूठे?
बलवंड और सता रोजी की खातिर कीर्तन करते थे, जैसे अब श्री हरिमंदर साहिब अमृतसर में रबाबी कीर्तन करते आए हैं। कोई सिख भी हो तो भी जिसका रोजी का साधन कीर्तन ही बन जाए तब तक ही यह काम करेगा जब तक उसकी रोजी रोटी कायम है। बलवंड और सते ने लड़की की शादी के लिए भी धन वहीं से लेना था जहाँ वे काम करते थे। पर बाबा पृथ्वी चंद जी गुरु अरजन साहिब जी के रास्ते में रुकावटें खड़ी करने पर तुले हुए थे। अमृतसर में बसते कई लोगों को लालच दे के उकसाते होंगे; संगतों को भुलेखा डालने के लिए भी तो आखिर कुछ साथी साथ मिलाए ही थे। ये हो सकता है कि सते बलवंड को भी प्रेरित किया गया हो; पर वे ना माने हों। ये भी हो सकता है कि लड़की की शादी के समय गुरु अरजन साहिब जी से ज्यादा माया (धन) माँगने की प्रेरणा बाबा पृथ्वी चंद के आदमियों द्वारा कराई गई हो। अगर ये उकसावा अथवा प्रेरणा ना भी हो तो भी ये हो सकता है कि गुरु अरजन साहिब के दर पर अपनी जरूरत पूरी ना होती देख के सता और बलवंड ये आस बनाए बैठे हों कि अगर बाबा पृथ्वी चंद जा का असर रसूख बढ़ गया और गुरु अरजन साहिब का पासा ढीला पड़ गया तो दूसरी तरफ जा के कीर्तन करेंगे। सो, ये रूठ गए। गुरु अरजन साहिब इनको मनाने गए। धन होता तो ये रूठते ही क्यों? गुरु अरजन साहिब की उम्र भी अभी अठारह-उन्नीस साल की ही थी, अभी तक इन लोगों ने सतिगुरु जी के जीवन में से कोई ऐसे ऊँचे चमत्कार भी नहीं देखे थे, जो बाबा लहणा जी गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी गुरु बनने से पहले दिखा चुके थे। सो, गुरु अरजन साहिब जी का खुद चलके जाना भी सते-बलवंड को प्रेरित ना कर सका। बल्कि ये और भटक गए, समझ बैठे, पृथ्वी चंद की विरोधता के कारण गुरु अरजन साहिब की गुरु-पदवी भी हमारे ही आसरे है। अहंकार में आ गए और गुरु नानक साहिब की शान में भी कुबोल बोल दिए। बस! स्ंबंध टूट गया। सतिगुरु जी ने आ के संगतों को सते-बलवंड से कीर्तन सुनने से मना कर दिया। रबाबियों ने संगतों को मोहने के लिए अपने हुनर का बहुत जोर लगाया होगा, पर सिख भवरे असल फूल को पहचान चुके थे, किसी ने धोखा नहीं खाया। उधर भाई गुरदास जी और बाबा बुड्ढा जी के उद्यम से भेटा और लंगर के बारे में पृथ्वी चंद की चाल भी नाकामयाब रह गई। सो, सता बलवंड किसी जगह के लायक नहीं रहे। जब भूख से बहुत दुखी हुए तो लाहौर से सतिगुरु अरजन साहिब के महान सिख भाई लद्धा जी को साथ ला के माफी ली।
इस ‘वार’ का किसी गुरु-व्यक्ति की गद्दी-नशीनी से कोई संबंध नहीं पड़ता:
रावलपिंडी की किसी धर्मशाला वाली एक पुरानी ‘बीड़’ की तरफ ध्यान दिलाने से कोई खासा लाभ नहीं हो सकता। लिखती ‘बीड़ों’ में लोगों ने कई जगहों पर और ही ज्यादा तथा-कथित ‘शब्द’ दर्ज किए हुए हैं, सिख गलती करके इनका कीर्तन भी किया करते हैं। क्या इन बाहरी ‘शबदों’ का रिवाज़ डालना ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के बारे में सिखों के दिल में शक नहीं पैदा करेगा? इस तरह तो कौम को कई भुलेखे डाले जा सकते हैं।
इस ‘वार’ की किसी भी पउड़ी के साथ ये जिक्र नहीं कि आखिरी 3 पउड़ियाँ तीसरे, चौथे और पाँचवें गुरु की ‘गद्दी-नशीनी’ के वक्त सता और बलवंड उचारते रहे। रूठने और गद्दी नशीनी के दो अलग-अलग मामले एक लड़ी में नहीं परोए जा सकते। इस ‘वार’ का आखिरी अंक ‘1’ भी प्रकट करता है कि ये सारी वाणी समूचे तौर पर एक चीज़ है, किसी एक घटना के बारे है। ‘वार’ में हमेशा किसी एक ही जीवन-झाकी का वर्णन हुआ करता है।
इस ‘वार’ में सते बलवंड का अलग-अलग हिस्सा:
पहली 3 पउड़ियाँ बलवंड की;
मैकालिफ ने नोट में लिखा है जब इस ‘वार’ की वाणी को ध्यान से पढ़ें तो पता लगता है कि पहली पाँच पउड़ियां बलवंड ने उचारी थीं। झगड़ा भी इसी का ही था; सो, मैकालिफ़ के विचार के अनुसार लड़की भी इसी की ही होगी क्योंकि सते ने तो गुरु अरजन साहिब के वक्त ‘वार’ को केवल ‘मुकम्मल’ करने के लिए बाकी की 3 पउड़ियाँ उचारीं।
अब हम ‘वाणी’ को ध्यान से विचार के ये देखेंगे कि बलवंड की ‘आखी’ हुई कितनी है, सते बलवंड की कितनी और इनमें से लड़की किसकी थी, भाव, असल झगड़ा किसने उठाया था।
पहली पउड़ी:
पहली पउड़ी में गुरु नानक साहिब की महिमा की गई है और कहा गया है कि गुरु नानक देव जी का ‘नाम’ कादर कर्तार ने स्वयं बड़ा किया और ये धर्म का राज गुरु नानक देव जी ने चलाया। गुरु नानक देव जी ने अपने सेवक बाबा लहणा जी के आगे माथा टेका और अपनी हयाती (जिंदगी) में ही उनको अपनी जगह पर चुन लिया। इस पौड़ी में पौड़ी के उचारने वाले का नाम नहीं है।
दूसरी पउड़ी:
दूसरी पौड़ी में बाबा लहणा जी की महिमा है। कहा है कि गुरु नानक देव जी की महानता की इनायत से लहिणा जी की धूम पड़ गई; इन्होंने आज्ञा मानने की अलूणी सिल (बग़ैर नमक वाली शिला) चाटी थी, पर गुरु गुरु नानक देव जी के पुत्र इस बात से चूक गए थे।
इस पउड़ी में भी लेखक का नाम नहीं है।
तीसरी पउड़ी:
तीसरी पौड़ी में फिर गुरु अंगद साहिब का वर्णन है; विचार भी पिछली पौड़ी वाले ही दोहराए हुए हैं।
पउड़ी नं: 2 में लिखा है:
‘सहि काइआ फेरि पलटीऐ’।
यहाँ नं: 3 में कहा है:
‘नानक काइआ पलटु करि’।
पउड़ी नं: 2 में कहा है:
‘लहणे दी फेराईऐ नानका दोही खटीऐ’।
नं: 3 में कहा है:
‘गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली’।
पउड़ी नं: 2 में बाबा लहणा जी के ‘हुक्म मानने’ का जिक्र है:
‘करहि जि गुर फरमाइआ’।
नं: 3 में भी:
‘जिनि कीती जो मंनणा’।
फिर, पउड़ी नं 2:
‘लंगरु चलै गुर सबदि… खरचे दिति खसंम दी…’।
पउड़ी नं: 3:
‘लंगरि दउलति वंडीऐ…’।
पउड़ी नं: 2:
‘मलि तखतु बैठा गुर हटीऐ’।
पउड़ी नं: 3
‘मलि तखतु बैठा सै डाली’।
इस पौड़ी नं: 3 में उचारने वाले का नाम ‘बलवंड’ दर्ज है। सो, ये तीनों पौड़ियाँ बलवंड की हैं; पहली गुरु नानक देव जी की स्तुति में, और दूसरी व तीसरी गुरु अंगद साहिब की महिमा में।
चौथी पउड़ी:
चौथी पौड़ी में फिर नए सिरे से गुरु नानक देव जी की स्तुति शुरू हो गई है। सिखों को, पुत्रों को परखना, और, शोध करके बाबा लहणा जी को चुनना। अगर ये पउड़ी बलवंड जी ने उचारी होती तो बाबा लहणा जी की स्तुति तक पहुँच के पीछे जाने की आवश्यक्ता नहीं थी; इस पौड़ी को भी पौड़ी नं: 1 के साथ रखा होता। पर ये नहीं हुआ। बलवंड ‘वार’ का हिस्सा खत्म कर चुका है, दूसरा साथी आरम्भ करता है, वह भी गुरु नानक साहिब से आारम्भ करता है।
इस पौड़ी में किसी का नाम दर्ज नहीं है।
पाँचवीं पौड़ी बलवंड की नहीं है:
पउड़ी नं: 5 में गुरु अंगद साहिब जी की महिमा दर्ज है। इसमें दो तुकें ऐसी हैं जिनसे जाहिर होता है कि इस पउड़ी को उचारने वाला अपनी भूल पर पशेमान (प्रायश्चित करना) हो रहा है;
‘लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु’…. ‘निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु’
बलवंड गुरु अंगद साहिब जी की उपमा पौड़ी नं 2, 3 में कर चुका है, नं: 3 में उसका नाम भी आ गया है। ये बात मानने योग्य नहीं प्रतीत होती कि उसने फिर दोबारा से शुरू कर लिया हो। यहाँ एक और मजेदार बात भी है। तीसरी पौड़ी में बलवंड गुरु अंगद साहिब के लंगर की तारीफ करता रहा है, कहा;
‘लंगरि दउलति वंडीऐ रसु अंम्रितु खीरि घिआली’
लंगर का जिक्र करके और गुरु के महल माता खीवी जी का भी जिक्र करके, फिर नए सिरे से गुरु नानक साहिब की स्तुति करके बलवंड का पाँचवीं पउड़ी में ये कहना कि ‘टिका ले के (तिलक ले के) ‘लै के’ ‘फेरुआणि’ सतिगुर ने खडूर को जा के भाग लगाए, बड़ी आश्चर्य भरी संरचना लगती है। अगर बलवंड जी ये बात कह रहे होते तो क्रमवार वे गुरु-गद्दी के बाद उनका खडूर जाने का जिक्र करके उनके द्वारा चलाए जाने वाले लंगर आदि की महिमा बयान करते। इस तरह, ये पउड़ी बलवंड की नहीं है।
चौथी और छेवीं पौड़ी को उचारने वाला भी एक ही है:
और वह है सता:
छेवीं पौड़ी में शब्द ‘पोता’ बताता है कि ये पउड़ी गुरु अमरदास जी की स्तुति में उचारी गई है। कहा है कि गुरु अमरदास जी ने ‘बासकु’ को ‘नेत्रे’ डाल के ‘मेरु’ को ‘मधाणु’ बना के ‘समुंदु’ मथा और ‘चौदह रत्न’ निकाले, जिनसे जगत में प्रकाश कर दिया। चौथी पौड़ी में भी जहाँ कि गुरु नानक साहिब की स्तुति है यही ख्याल दिया गया है, सिर्फ ख्याल ही नहीं, शब्द भी दोनों में सांझे हैं।
चौथी पौड़ी में:
माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु॥
चउदह रतन निकालिअनु करि आवागउणु चिलकिओनु॥
छेवीं पौड़ी में:
जिनि बासकु नेत्रे घतिआ करि नेही ताणु॥
जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु॥
चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु॥
(इसमें कोई शक नहीं कि चौथी पउड़ी की तुक ‘लहणे धरिओनु छतु सिरि’ पहली पौड़ी में भी मिलती है, पर हम बता चुके हैं कि अगर चौथी पउड़ी बलवंड की उचारी हुई होती तो इसकी उचित जगह पहली पौड़ी के साथ थी)।
चौथी पउड़ी में कहा है:
‘आवागउणु चिलकिओनु’
छेवीं में:
‘आवा गउणु निवारिओ’
इस छेवीं पउड़ी को उचारने वाला ‘सता’ है। निम्न-लिखित तुक में ये नाम मिलता है;
‘दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु॥’
चौथी और छेवीं पउड़ी के ख्याल और शब्दों की समानता के कारण ये बात मानने में कोई शक नहीं रह जाता कि ‘चौथी’ पौड़ी भी ‘सते’ ने ‘आखी’ थी। पाँचवीं पउड़ी के बारे में हम पहले ही बता आए हैं कि वह बलवंड की नहीं हो सकती। सो, ये बात नि: संदेह प्रत्यक्ष हो गई कि चौथी, पाँचवीं और छेवीं– तीनों ही पउड़ियां “सते” ने ‘कही’ थीं।
लड़की सते की थी:
थोड़ा सा ध्यान से ये देखें कि छेवीं पउड़ी में सता कहते क्या हैं?
‘दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु॥’
इन दोनों भाईयों ने लड़की के विवाह का खर्च पूरा करने के लिए ‘दानु’ मांगा था, पर जितनी बख्शिश गुरु अरजन साहिब ने की, उस पर वे रूठ गए थे। अब ‘सता’ पछताया और कहने लगा: ‘हजूर! मुझ ‘सते’ को बख्शिश वही ठीक है जो सतिगुरु को अच्छी लगे।
और फिर दोनों में से लड़की किस की थी? ‘सते’ की। कुबोल ज्यादा किसने बोले थे? सते ने, क्योंकि चौथी पौड़ी में ‘सता’ ही पछताता है और कहता है;
‘लबु विहाणे माणसा जिउ पाणी बूरु … … … … … … … निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु॥’
ये ‘वार’ गुरु अरजन साहिब की हजूरी में उचारी गई थी:
एक बात और देखने वाली है कि ‘सता’ जब ‘बख्शीश’ के बारे में पछताता है तब गुरु अमरदास जी को संबोधन कर रहा है, कहता है;
‘किआ सालाही सचे पातिसाह, जां तू सुघड़ु सुजाणु॥ दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु॥’
गुरु अंगद साहिब की उपमा करते हुए भी सता गुरु अंगद साहिब को संबोधन करते हुए कहता है:
जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु॥ … … … … … … निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु॥’
ये ‘वार’ ना गुरु अमरदास जी की हजूरी में और ना ही गुरु अंगद साहिब की हजूरी में उचारी गई। फिर इस ‘संबोधन’ करने का भाव क्या है? भट्टों की तरह ये भी गुरु नानक साहिब से ले के गुरु अरजन साहिब तक सारे ‘गुर महलों’ को एक रूप जान के गुरु अरजन साहिब की हजूरी में केवल ‘गुरु’ के आगे ये स्तुति कह रहे हैं।
इस विचार को और भी ज्यादा दृढ़ता मिल जाती है जब हम अगली पउड़ी में देखते हैं कि पाँचवीं और छेवीं पौड़ी में गुरु अंगद और गुरु अमरदास को संबोधन करने वाला ‘सता’ गुरु रामदास जी को भी संबोधन करके कहता है;
‘नानकु तू लहणा तू है गुरु अमरु तू वीचारिआ॥’
छेवीं पउड़ी गुरु अमरदास जी की गुर-गद्दी के समय की नहीं है:
अब तक हम ये देख आए हैं कि बलवंड ने पहली 3 और सते ने अगली 3 पौड़ियां उचारीं माफी मिलने के वक्त। लालच और निंदा वाले अपराध ‘सता’ ही मानता है, गुरु-दर से ‘दानु’ मिलने और उसमें संतोख ना करने की भूल भी ‘सता’ ही मानता है, और मानता उस पउड़ी में है जो उसने गुरु अमरदास जी की स्तुति में उचारी थी। यहाँ ‘गद्दी नशीनी’ के वक्त पौड़ियां उचारे जाने वाला भुलेखा भी काटा गया, क्योंकि असल भूल का जिक्र तो है ही इस छेवीं पौड़ी में, जो अमरदास जी की स्तुति में है।
सातवीं आठवीं पौड़ी का भी किसी गुरु-गद्दी से संबंध नहीं:
छेंवीं पौड़ी के संबंध में तो साबित हो गया है कि ये गद्दी-नशीनी के वक्त की नहीं है, ये सते को माफी मिलने के वक्त ही उचारी थी अगर ये माफी गुरु अंगद साहिब से मांगी गई होती, तो माफी माँगने वाला ‘सता’ गुरु अंगद साहिब की हजूरी में खड़े हो के गुरु अमरदास जी के बारे में ये पौड़ी उचार नहीं सकता था, क्योंकि अभी तो पहरा गुरु अंगद साहिब का था। गुरु अमरदास जी के वक्त भी ये घटना नहीं हुई, किसी इतिहासकार ने नहीं लिखा। ना ही गुरुता बारे में कोई शरीका अथवा कोई विरोधता थी, जिसके कारण सते-बलवंड को कोई शहि मिल सकती। बाबा दातू जी ने थोड़ा सा झगड़ा खड़ा किया था, वह भी सिर्फ एक दिन में ही खत्म हो गया था कि अगले दिन बाबा जी खडूर साहिब वापस मुड़ आए थे। इसी ही विचार अनुसार गुरु रामदास जी के समय भी सते-बलवंड के रूठने की कोई संभावना नहीं थी हो सकती। जब छेवीं पौड़ी की बाबत ये पक्का निर्णय हो गया कि वह तो ‘सते’ ने (जिसकी लड़की की शादी थी) माफी लिखने के वक्त ही उचारी थी, तो ‘गद्दी-नशीनी’ के वक्त बाकी की दो पौड़ियाँ उचारने वाला ख्याल भी साथ में ही गलत साबत हो जाता है।
सता बलवंड गुरु अरजन साहिब के समय ही हुए:
बाकी रहा ये ख्याल कि सता और बलवंड खडूर साहिब के रहने वाले थे। शायद इसी ख्याल ने ही साखी को गलत ऐतिहासिक जगह पर रख देने में सहायता की हो। खडूर साहिब के बाशिंदे होते हुए भी ये आवश्यक नहीं कि वे गुरु अंगद देव जी के समय के हुए हों। जब अमृतसर शहर बसा तो गुरु अरजन साहिब ने भिन्न-भिन्न काम-काज वालों विभिन्न शहरों से लोगों को ला के यहाँ बसाया था। सता और बलवंड भी खडूर साहिब से यहाँ आ के बसे होंगे; इनका तो काम भी ‘कीर्तन’ था जिसकी ज्यादा माँग गुरु के दरबार में ही हो सकती थी।
शायद कई सज्जन ये ख्याल बना लें कि सते और बलवंड ने भूल तो गुरु अंगद साहिब के वक्त की थी, पर माफी उनको गुरु अरजन जी के समय मिली थी। ये भी अनहोनी है। रूठना धन के कारण था। अगर सता और बलवंड पैसे वाले होते तो झगड़ा उठता ही क्यों? और अगर वे गुरु अंगद साहिब के दरबार में से हटाए जाने के बाद 30 साल तक निर्वाह कर सके तो उन्हें माफी किस लिए माँगनी थी? (गुरु अंगद देव जी के ज्योति-ज्योति समाने के 30 साल बाद गुरु अरजन साहिब जी गुरु गद्दी पर बिराजमान हुए थे)
इस तरह, उपरोक्त सारी विचार का सारांश:
सता और बलवंड भाई मर्दाना जी के वंश में से नहीं थे, भाई मर्दाना ‘चौंहबड़’ थे और ये ‘मोखड़’ थे।
ये दोनों गुरु अरजन साहिब जी के पास कीर्तन करते थे।
सते की लड़की की शादी थी; और इन्होंने सतिगुरु जी से विवाह के लिए धन मांगा, जो इनकी उम्मीद के मुताबिक इन्हें नहीं मिल सकी क्योंकि बाबा पृथ्वी चंद जी की विरोधता के कारण भेटा गुरु-घर में पहुँचती ही बहुत कम थी।
ये घटना मार्च-अप्रैल 1582 की है।
कुछ महीनों के बाद भाई लद्धा जी लाहौर निवासी ने इन्हें माफी ले दी। माफी मिलने और गुरु-स्तुति में बलवंड ने पहली 3 पउड़ियाँ और सता ने अगली 5 पउड़ियाँ गुरु अरजन साहिब जी के सामने संगति में उचारीं।
जैसे भट्टों की ‘गुर-महिमा’ की वाणी, जो उन्होंने सितंबर 1581 में उचारी थी, सतिगुरु जी ने ‘बीड़’ में दर्ज की, वैसे ही ये ‘वार’ भी ‘बीड़’ तैयार करने के वक्त दर्ज की।
ये दोनों ‘बाणियाँ’ सिख इतिहास संबंधी बहुत ही आवश्यक ‘यादगारें’ हैं। दस्तारबंदी के समय बाबा पृथ्वी चंद जी ने जोर-जबरदस्ती ‘दस्तार’ छीननी चाही; इस तरह गुरु नानक साहिब के पवित्र अमृत के प्रवाह को दुनियावी धड़े की नाली में से गुजारना चाहते थे। उस समय दूर से आए निष्पक्ष परदेसी भट्टों ने भरे दरबार में इस वाणी ‘सवैयों’ के माध्यम से सच्चाई का हौका दिया। ये घटना गोविंदवाल में हुई थी। यहाँ से आ के बाबा जी ने अपने साथियों की मदद से उस अमृत के श्रोत को सुखाने के लिए कई महीने गुरु घर की एक किस्म की नाका-बंदी किए रखी, जिस नाका-बंदी के टूटने की यादगार ये ‘रूहानी कलाम’ रूप ‘वार’ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली की वार राइ बलवंडि तथा सतै डूमि आखी
मूलम्
रामकली की वार राइ बलवंडि तथा सतै डूमि आखी
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राइ बलवंडि = राय बलवंड ने। तथा = और। सतै = सते ने। डूमि = डूम ने,मिरासी ने, रबाबी ने। सतै डूमि = सते रबाबी ने। आखी = उचारण की, सुनाई।
अर्थ: रामकली रागिनी की यह ‘वार’ जो राय बलवंड और सते डूम ने सुनाई थी।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: किसी काव्य रचना को कोई एक लिखारी ही लिख सकता है, एक रचना के एक से ज्यादा लेखक नहीं हो सकते। इस उपरोक्त शीर्षक में दो नाम हैं: बलवंड और सता। इसका भाव ये है कि इन्होंने एक साथ मिल के गुरु अरजन साहिब के दरबार में यह ‘वार’ ‘आखी’ थी, सुनाई थी। इस ‘वार’ की आठ पौड़ियाँ हैं। पहली 3 पौड़ियों का कर्ता बलवंड है और अखिरी 5 पौड़ियों का कर्ता सता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाउ करता कादरु करे किउ बोलु होवै जोखीवदै ॥ दे गुना सति भैण भराव है पारंगति दानु पड़ीवदै ॥ नानकि राजु चलाइआ सचु कोटु सताणी नीव दै ॥
मूलम्
नाउ करता कादरु करे किउ बोलु होवै जोखीवदै ॥ दे गुना सति भैण भराव है पारंगति दानु पड़ीवदै ॥ नानकि राजु चलाइआ सचु कोटु सताणी नीव दै ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाउ = नाम, मशहूरी, प्रसिद्धि, इज्जत, महिमा, बड़ाई। बोलु = वचन, बात। जोखीवदै = जोखने के लिए, तोले जाने के लिए, (उस प्रसिद्धि को) मापने के लिए। किउ होवै = कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। दे गुना सति = सति आदि दैवी गुण। पारंगति = पार लंघा सकने वाली आत्मिक अवस्था। दानु = बख्शिश। पड़ीवदै = प्राप्त करने के लिए। नानकि = नानक ने। कोटु = किला। सताणी = ताण वाली, बल वाली। नीव = नींव। दै = दे के।
अर्थ: (किसी पुरुख की) प्रसिद्धि जो कादर-कर्ता स्वयं (ऊँचा) करे, उसको तौलने के लिए (किसी तरफ) कोई बात नहीं हो सकती (भाव, मैं बलवंड बेचारा कौन हूँ जो गुरु के ऊँचे दर्जे को बयान कर सकूँ?) संसार-समुंदर से पार लंघा सकने वाली आत्म-अवस्था की बख्शिश हासिल करने के लिए जो सत्य आदि ईश्वरीय गुण (लोग बड़े बड़े प्रयत्नों से अपने अंदर पैदा करते हैं, वह गुण सतिगुरु जी के तो) बहिन-भाई हैं (भाव,) उनके अंदर तो स्वभाविक (रूप से ही सतिवादी गुण) मौजूद हैं। (इस महान नामवर गुरु) नानक देव जी ने सच-रूप किला बना के और पक्की नींव रख के (धर्म का) राज चलाया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लहणे धरिओनु छतु सिरि करि सिफती अम्रितु पीवदै ॥ मति गुर आतम देव दी खड़गि जोरि पराकुइ जीअ दै ॥
मूलम्
लहणे धरिओनु छतु सिरि करि सिफती अम्रितु पीवदै ॥ मति गुर आतम देव दी खड़गि जोरि पराकुइ जीअ दै ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरिओनु = धरा उनि (गुरु नानक ने)। लहणे धरिओनु छतु सिरि = लहणे सिरि छतु धरिओनु, लहणे के सिर पर उन्होंने (गुरु नानक देव जी ने) छत्र रखा। करि सिफती = तारीफ करके, सराहना करके। अंम्रितु पीवदै = नाम अमृत पीते (लहणे जी के सिर पर)। मति गुर आतम देव दी = आतमदेव गुरु की मति के द्वारा। आतमदेव = अकाल पुरख। खड़गि = खड़ग से। जोरि = जोर से। पराकुइ = पराक्रम द्वारा, ताकत से।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘पराकुइ’, शब्द ‘पराकउ’ से कर्ण कारक एक वचन है। ‘पराकउ’ संस्कृत शब्द ‘प्राक्रम’ का प्राकृत रूप है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव दान, आत्म दान, आत्मिक जीवन। दै = दे कर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।
अर्थ: गुरु अकाल-पुरख की (बख्शी हुई) मति-रूपी तलवार से, जोर से बल से (अंदर से पहले जीवन निकाल के) आत्मिक जिंदगी बख्श के, (बाबा) लहिणा जी के सिर पर, जो महिमा करके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी रहे थे, गुरु नानक देव जी ने (गुरुता का) छत्र धरा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि चेले रहरासि कीई नानकि सलामति थीवदै ॥ सहि टिका दितोसु जीवदै ॥१॥
मूलम्
गुरि चेले रहरासि कीई नानकि सलामति थीवदै ॥ सहि टिका दितोसु जीवदै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने, गुरु नानक देव जी ने। चेले रहिरासि = चेले (बाबा लहिणा जी) की रहरासि। रहरासि = अरदास, प्रणाम, नमस्कार। कीई = की। गुरि नानकि = गुरु नानक ने। सलामति थीवदै = सलामत होते ही, अपनी सलामती में ही, शारीरिक तौर पर जीवित होते ही। सहि = सहु ने, मालिक ने, गुरु ने। दितोसु = दिया उसको। जीवदै = जीवित रहते हुए ही।
अर्थ: (अब) अपनी सलामती में ही गुरु नानक देव जी ने अपने सिख (बाबा लहिणा जी के) आगे माथा टेका, और सतिगुरु जी ने जीवित रहते हुए ही (अपने जीते जी गुरु गद्दी का) तिलक (बाबा लहिणा जी को) दे दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लहणे दी फेराईऐ नानका दोही खटीऐ ॥ जोति ओहा जुगति साइ सहि काइआ फेरि पलटीऐ ॥
मूलम्
लहणे दी फेराईऐ नानका दोही खटीऐ ॥ जोति ओहा जुगति साइ सहि काइआ फेरि पलटीऐ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लहणे दी = लहणे की (दोही), बाबा लहणा जी की महिमा की धूम। फेराईऐ = फिर गई, मच गई, पसर गई, बिखर गई। नानका दोही खटीऐ = (गुरु) नानक की दोहाई की इनायत से। दोही = शोभा की धूम। खटीऐ = कमाई के कारण, इनायत से। साइ = वही। जुगति = जीवन का ढंग। सहि = सहु (गुरु) ने। काइआ = काया, शरीर।
अर्थ: (जब गुरु नानक देव जी ने गुरूता का तिलक बाबा लहणा जी को दे दिया, तब) गुरु नानक साहिब की महिमा की धूम की इनायत से, बाबा लहिणा जी की महिमा की धूम पड़ गई; क्योंकि (बाबा लहिणा जी के अंदर) वही (गुरु नानक साहिब वाली) ज्योति थी, जीवन का ढंग भी वही (गुरु नानक साहिब वाला) था, गुरु (नानक देव जी) ने (केवल शरीर ही) दोबारा बदला था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झुलै सु छतु निरंजनी मलि तखतु बैठा गुर हटीऐ ॥ करहि जि गुर फुरमाइआ सिल जोगु अलूणी चटीऐ ॥
मूलम्
झुलै सु छतु निरंजनी मलि तखतु बैठा गुर हटीऐ ॥ करहि जि गुर फुरमाइआ सिल जोगु अलूणी चटीऐ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सु छत्रु निरंजनी = सुंदर रूहानी छत्र। मलि = मल के, संभाल के। गुर हटीऐ = गुरु (नानक) की दुकान में, गुरु नानक के घर में। करहि = (बाबा लहिणा जी) करते हैं। गुर फुरमाइआ = गुरु का फरमाया हुआ हुक्म। जोगु = ‘गुर फरमाइआ’ रूप जोग। सिल अलूणी चटीऐ = (गुरु का हुक्म कमाले-रूपी जोग, जो) अलूणी शिला चाटने के समान (बहुत ही मुश्किल काम) है।
अर्थ: (बाबा लहणा जी के सिर पर) सुंदर रूहानी छत्र झूल रहा है। गुरु नानक देव जी की दुकान में (बाबा लहणा) (गुरु नानक देव जी से ‘नाम’ पदार्थ ले के बाँटने के लिए) गद्दी संभाल के बैठा है। (बाबा लहिणा जी) गुरु नानक साहिब के फरमाए हुए हुक्म को पाल रहे हैं: यह ‘हुक्म पालण’-रूप जोग की कमाई अलूणी सिल चाटने (जैसा बड़ा ही करड़ा काम) है।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटीऐ ॥ खरचे दिति खसम दी आप खहदी खैरि दबटीऐ ॥
मूलम्
लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटीऐ ॥ खरचे दिति खसम दी आप खहदी खैरि दबटीऐ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर सबदि = सतिगुरु के शब्द से। आवी = आती। हरि तोटि…खटीऐ = हरि खटीऐ तोटि न आवी, हरि नाम की कमाई में घाटा नहीं पड़ता; भाव, बाबा लहणा जी के दर पर सतिगुरु जी के शब्द द्वारा नाम का भण्डारा बाँट रहा है, (इतना बँटने पर भी) बाबा लहणा जी की नाम की कमाई में कोई घाटा नहीं पड़ता। खरचे = खर्च रहा है, बाँट रहा है। दिति खसंम दी = पति (अकाल-पुरख) की (बख्शी हुई) दाति। आप खहदी = (नाम की दाति) आप बरती। खैरि = खैर में, दान में। दबटीऐ = दबा दब बाँटी, दिल खोल के बाँटी।
अर्थ: (बाबा लहिणा जी) अकाल-पुरख की दी हुई नाम-दाति बाँट रहे हैं, खुद भी इस्तेमाल करते हैं और (और लोगों को भी) दिल खोल के दान कर रहे हैं, (गुरु नानक की दुकान में) गुरु के शब्द के द्वारा (नाम का) लंगर चल रहा है, (पर बाबा लहणा जी की) नाम-कमाई में कोई घाटा नहीं पड़ता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होवै सिफति खसम दी नूरु अरसहु कुरसहु झटीऐ ॥ तुधु डिठे सचे पातिसाह मलु जनम जनम दी कटीऐ ॥
मूलम्
होवै सिफति खसम दी नूरु अरसहु कुरसहु झटीऐ ॥ तुधु डिठे सचे पातिसाह मलु जनम जनम दी कटीऐ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नूरु = प्रकाश। अरस = अर्श, आसमान, आकाश। कुरस = सूरज चाँद की टिक्की। अरसहु कुरसहु = आत्मिक मण्डल से, रुहानी देश से। झटीऐ = झटा जा रहा है, झड़ रहा है, दबा दबा सींचा जा रहा है। सचे पातसाह = हे सच्चे सतिगुरु अंगद देव जी! जनम जनम दी = कई जन्मों की।
अर्थ: (गुरु अंगद साहिब जी के दरबार में) मालिक अकाल-पुरख की महिमा हो रही है, रूहानी देशों से (उसके दर पर) नूर झड़ रहा है। हे सच्चे सतिगुरु (अंगद देव जी)! तेरा दीदार करने से कई जन्मों की (विकारों की) मैल काटी जा रही है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु जि गुरि फुरमाइआ किउ एदू बोलहु हटीऐ ॥ पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्ह मुरटीऐ ॥
मूलम्
सचु जि गुरि फुरमाइआ किउ एदू बोलहु हटीऐ ॥ पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्ह मुरटीऐ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु (नानक) ने। एदू = इससे। एदू बोलहु = इस बोल से, सतिगुरु नानक के फरमाए हुए बोल से। किउ हटीऐ = कैसे हटा जा सके? भाव, हे गुरु अंगद साहिब जी! आपने गुरु नानक के फरमाए हुए हुक्म के मानने से ना नहीं की। पुत्री = पुत्रों ने। कउलु = वचन, हुक्म। न पालिओ = नहीं माना। कंन्ह = कंधे। करि कंन्ह = कंधा करके, मुँह मोड़ के, पीठ करके। पीरहु = पीर से, सतिगुरु द्वारा। मुरटीऐ = मोड़ते रहे।
अर्थ: (हे गुरु अंगद साहिब जी!) गुरु (नानक साहिब) ने जो भी हुक्म किया, आप ने सत्य (करके माना, और आप ने) उसे मानने से ना नहीं की; (सतिगुरु जी के) पुत्रों ने वचन नहीं माना, वे गुरु की ओर पीठ दे के ही (हुक्म) मोड़ते रहे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिलि खोटै आकी फिरन्हि बंन्हि भारु उचाइन्हि छटीऐ ॥ जिनि आखी सोई करे जिनि कीती तिनै थटीऐ ॥ कउणु हारे किनि उवटीऐ ॥२॥
मूलम्
दिलि खोटै आकी फिरन्हि बंन्हि भारु उचाइन्हि छटीऐ ॥ जिनि आखी सोई करे जिनि कीती तिनै थटीऐ ॥ कउणु हारे किनि उवटीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिलि खोटै = खोटा दिल होने के कारण। आकी फिरन्हि = (जो) आकी फिरते हैं। बंन्हि = बाँध के। उचाइन्हि = उठाते हैं, सहते हैं। भारु छटीऐ = थैली का भार।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘फिरनि्’, बंनि् और ‘उचाइनि्’ के अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है।
दर्पण-भाषार्थ
जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। आखी = (हुक्म मानने की शिक्षा) बताई। सोई = (वह गुरु) खुद ही। करे = (हुक्म में चलने की कार) कर रहा है। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। कीती = (ये रजा में चलने वाली खेल) रचाई। तिनै = उसने खुद ही। थटीऐ = (बाबा लहिणा जी को) थापा, स्थापित किया, हुक्म मानने के समर्थ बनाया। कउणु हारे = (हुक्म में चलने की बाजी) कौन हारा? किनि = किस ने? उवटीऐ = कमाया, बाजी जीती, लाभ कमाया। कउणु हारे किनि उवटीऐ = कौन (इस हुक्म-खेल) में हारा, और किस ने (लाभ) कमाया? भाव, (अपनी समर्थता से, इस हूकम = खेल में) ना कोई हारने वाला है ना ही कोई जीतने योग्य है।
अर्थ: जो लोग खोटा दिल होने के कारण (गुरु से) आकी हुए फिरते हैं, वे लोग (दुनिया के धंधों की) थैली का भार बाँध के उठाए फिरते हैं। (पर, जीवों के क्या वश है? अपनी सार्मथ्य के सहारे, इस हुक्म-खेल में) ना कोई हारने वाला है और ना ही कोई जीतने-योग्य है। जिस गुरु नानक ने ये रजा-मानने का हुक्म फरमाया, वह खुद ही कार करने वाला था, जिसने यह (हुक्म-खेल) रची, उसने खुद ही बाबा लहिणा जी को (हुक्म मानने के) समर्थ बनाया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि कीती सो मंनणा को सालु जिवाहे साली ॥ धरम राइ है देवता लै गला करे दलाली ॥
मूलम्
जिनि कीती सो मंनणा को सालु जिवाहे साली ॥ धरम राइ है देवता लै गला करे दलाली ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरु अंगद देव जी) ने। कीती = (गुरु का हुक्म मानने की मेहनत) की। मंनणा = मानने योग्य, आदर योग्य। को = कौन, और कौन? सालु = सार, श्रेष्ठ, अच्छा। जिवाहे = जिवाहां (जिवांह बेट के इलाके में वहाँ उगती है जहाँ नदी की बाढ़ से मलबा इकट्ठा हो के जगह ऊँची हो जाती है। बरखा ऋतु में सड़ जाती है। पोहली की तरह जिवांह में काँटे होते हैं)। साली = शाली, मूँजी जो नीची जगह ही उगती है और पल सकती है। लै गला = बातें सुन के, आर्जूएं सुन के। दलाली = विचोला पन।
अर्थ: जिस (गुरु अंगद देव जी) ने (विनम्रता में रह के सतिगुरु का हुक्म मानने की मेहनत कमाई) की, वह मानने योग्य (पूज्य) हो गया। (दोनों में से) श्रेष्ठ कौन है; जिवांह कि मूंजी? (मूंजी ही अच्छी है, जो नीची जगह पलती है। इसी तरह जो विनम्रता से हुक्म मानता है वह आदर पा लेता है)। गुरु अंगद साहिब धरम का राजा हो गया है, धरम का देवता हो गया है, जीवों की आरजूएं सुन के परमात्मा के साथ जोड़ने वाला बिचौला-पन कर रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु आखै सचा करे सा बात होवै दरहाली ॥ गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली ॥
मूलम्
सतिगुरु आखै सचा करे सा बात होवै दरहाली ॥ गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = अकाल पुरख। करे = इस्तेमाल में लाता है। सा = वही। दरहाली = तुरंत, उसी वक्त। दोही फिरी = महिमा की धूम पड़ गई। करतै = कर्तार ने। बंधि = बाँध के, पक्की करके। बहाली = टिका दिया, कायम कर दी।
अर्थ: (अब) सतिगुरु (अंगद देव) जो वचन बोलते हैं अकाल-पुरख वही करता है, वही बात तुरंत हो जाती है। गुरु अंगद देव (जी की) महिमा की धूम पड़ गई है, सच्चे कर्तार ने पक्की करके कायम कर दी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानकु काइआ पलटु करि मलि तखतु बैठा सै डाली ॥ दरु सेवे उमति खड़ी मसकलै होइ जंगाली ॥ दरि दरवेसु खसम दै नाइ सचै बाणी लाली ॥
मूलम्
नानकु काइआ पलटु करि मलि तखतु बैठा सै डाली ॥ दरु सेवे उमति खड़ी मसकलै होइ जंगाली ॥ दरि दरवेसु खसम दै नाइ सचै बाणी लाली ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। पलटु करि = बदल के। मलि तखतु = गद्दी संभाल के। सै डाली = सैकड़ों डालियों वाला, सैकड़ों सिखों वाला। उमति = संगति। खड़ी = खड़ी हुई, सावधान हो के, प्रेम से।
दरु सेवे = दरवाजे पर सेवा करती है, दर पर बैठी है। मसकलै = मसकले से। होइ जंगाली = जंग वाली धात (साफ) हो जाती है। दरि = (गुरु नानक के) दर पर। दरवेसु = नाम की दाति का सवाली। खसंम दै नाइ सचै = मालिक के सच्चे नाम के द्वारा, मालिक का सच्चा नाम जपने की इनायत से। बाणी = बनी हुई है।
अर्थ: सैकड़ों सेवकों वाला गुरु नानक शरीर बदल के (भाव, गुरु अंगद देव जी के स्वरूप में) गद्दी संभाल के बैठा हुआ है (गुरु अंगद देव जी के अंदर गुरु नानक साहिब वाली ही ज्योति है, केवल शरीर बदला है)। संगति (गुरु अंगद देव जी के) दर (पर आ कर) प्रेम से सेवा कर रही है (और अपनी आत्मा को पवित्र कर रही है, जैसे) जंग लगी हुई धातु (लोहा) मसकले से (साफ) हो जाती है। (गुरु नानक के) दर पर (गुरु अंगद) नाम की दाति का सवाली है। अकाल-पुरख का सच्चा नाम जपने की इनायत से (गुरु अंगद साहिब के मुँह पर) लाली बनी हुई है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलवंड खीवी नेक जन जिसु बहुती छाउ पत्राली ॥ लंगरि दउलति वंडीऐ रसु अम्रितु खीरि घिआली ॥ गुरसिखा के मुख उजले मनमुख थीए पराली ॥
मूलम्
बलवंड खीवी नेक जन जिसु बहुती छाउ पत्राली ॥ लंगरि दउलति वंडीऐ रसु अम्रितु खीरि घिआली ॥ गुरसिखा के मुख उजले मनमुख थीए पराली ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलवंड = हे बलवंड! खीवी = गुरु अंगद जी की पत्नी (माता) खीवी। जिसु = जिस (माता खीवी जी) की। पत्राली = पत्रों वाली, सघन। लंगरि = लंगर में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। घिआली = घी वाली। पराली = मुंजी का अथवा धान का पौधा जिससे दाने झाड़े जा चुके होते हैं, पौधे का रंग पीला हो गया होता है; पीले मुँह वाले, शर्मिंदे।
अर्थ: हे बलवंड! (गुरु अंगद देव जी की पत्नी) (माता) खीवी जी (भी अपने पति की तरह) बड़े भले हैं, माता खीवी जी की छाया बहुत पुत्रों वाली (सघन) है (भाव, माता खीवी जी के पास बैठने से भी हृदय में शांति पैदा होती है)। (जैसे गुरु अंगद देव जी के सत्संग-रूप) लंगर में (नाम की) दौलत बाँटी जा रही है, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बाँटा जा रहा है (वैसे ही माता खीवी जी की सेवा सदका लंगर में सबको) घी वाली खीर बाँटी जा रही है।
(गुरु अंगद देव जी के दर पर आकर) गुरसिखों के माथे खिले हुए हैं, पर गुरु की ओर से बेमुखों के मुँह (ईष्या के कारण) पीले पड़ते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस ‘वार’ के आरम्भ में लिखा है कि ये ‘वार’ ‘राय बलवंड’ और ‘सते डूंम’ ने उचारी थी। इस पउड़ी नं: 3 में शब्द ‘बलवंड’ से ये साबित होता है कि ये पहली 3 पौड़ियाँ ‘बलवंड’ की उचारी हुई हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पए कबूलु खसम नालि जां घाल मरदी घाली ॥ माता खीवी सहु सोइ जिनि गोइ उठाली ॥३॥
मूलम्
पए कबूलु खसम नालि जां घाल मरदी घाली ॥ माता खीवी सहु सोइ जिनि गोइ उठाली ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पए कबूलु = (गुरु अंगद देव जी) स्वीकार हुए। खसंम नालि = अपने सतिगुरु (गुरु नानक देव जी) से। मरदी धाल = मर्दों वाली मेहनत। सहु = पति। सोइ = सोय, वह। जिनि = जिस ने। गोइ = गोय, धरती।
अर्थ: माता खीवी जी का वह पति (गुरु अंगद देव ऐसा था) जिस ने (सारी) धरती (का भार) उठाया हुआ था। जब (गुरु अंगद देव जी ने) मर्दों वाली मेहनत कमाई की तो वह अपने सतिगुरु (गुरु नानक) के दर पर स्वीकार हुए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होरिंओ गंग वहाईऐ दुनिआई आखै कि किओनु ॥ नानक ईसरि जगनाथि उचहदी वैणु विरिकिओनु ॥
मूलम्
होरिंओ गंग वहाईऐ दुनिआई आखै कि किओनु ॥ नानक ईसरि जगनाथि उचहदी वैणु विरिकिओनु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होरिंओ = होर+पासियों, और तरफ से। वहाईऐ = वहाई है, चलाई है। दुनिआई = लोकाई, दुनिया के लोग। कि = क्या? किओनु = कीआ+उनि, किया है उसने। ईसरि = ईश्वर ने, मालिक ने, गुरु ने। जगनाथि = जगन्नाथ ने, जगत के नाथ ने। उचहदी = हद से ऊँचा। वैणु = वयण, बयन, वचन। विरिकिओनु = विरकिआ है उसने, बोला है उसने।
अर्थ: दुनिया कहती है जगत के नाथ गुरु नानक ने हद से ऊँचा वचन बोला है उसने और ही तरफ से गंगा चला दी है। ये उसने क्या किया है?
विश्वास-प्रस्तुतिः
माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु ॥ चउदह रतन निकालिअनु करि आवा गउणु चिलकिओनु ॥
मूलम्
माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु ॥ चउदह रतन निकालिअनु करि आवा गउणु चिलकिओनु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परबतु = सुमेर पर्वत (भाव, ऊँची सोच, ध्यान। पौराणिक कथा अनुसार जैसे देवताओं ने क्षीर समुंदर को मथने के लिए सुमेर पर्वत को मथानी बनाया, वैसे ही गुरु नानक देव जी ने ऊँची सूझ को मधाणी बनाया)। बासकु = संस्कृत (बासुकि) साँपों का राजा। नेत्रि = नेत्रे में, मथने वाला रस्सा। करि नेत्रि बासकु = बासक नाग को नेत्रे में करके (भाव, मन-रूप साँप का नेत्रा बना के, मन को काबू करके)। निकालिअनु = निकाले उस (गुरु नानक) ने। आवागउणु = संसार। चिलकिओनु = चिलकाया उसने, चमकाया उसने, सुख रूप बना दिया उस (गुरु नानक) ने।
अर्थ: उस (गुरु नानक) ने ऊँची सूझ को मधाणी बना के, (मन रूप) बासक नाग को नेत्रे में डाल के (भाव, मन को काबू करके) ‘शब्द’ में मथा (भाव, ‘शब्द’ को विचारा; इस तरह) उस (गुरु नानक) ने (इस ‘शब्द’ समुंदर में से ‘रूहानी-गुण’ ईश्वरीय गुणों रूपी) चौदह रतन (जैसे समुंदर में से देवताओं ने चौदह रतन निकाले थे) निकाले और (ये उद्यम करके) संसार को सुंदर बना दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुदरति अहि वेखालीअनु जिणि ऐवड पिड ठिणकिओनु ॥ लहणे धरिओनु छत्रु सिरि असमानि किआड़ा छिकिओनु ॥
मूलम्
कुदरति अहि वेखालीअनु जिणि ऐवड पिड ठिणकिओनु ॥ लहणे धरिओनु छत्रु सिरि असमानि किआड़ा छिकिओनु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुदरति = समर्थता, ताकत। अहि = ऐसी। वेखालीअनु = दिखाई उस (नानक) ने। जिणि = जीत के, (बाबा लहिणा जी के मन को जीत के)। ऐवड = इतना बड़ा। पिड = पिंड, शरीर। ऐवड पिड = इतनी ऊँची आत्मा। ठिणकिओनु = ठणकाया उसने, जैसे नया बर्तन लेने के वक्त ठनका के देखते हैं, परखा उस गुरु नानक ने। लहणे सिरि = लहणे के सिर पर। धरिओनु = धरा उसने। असमानि = आसमान तक। किआड़ा = गर्दन। छिकिओनु = खींचा उसने।
अर्थ: उस (गुरु नानक) ने ऐसी समर्थता दिखाई कि (पहले बाबा लहिणा जी का मन) जीत के इतनी उच्च आत्मा को परखा, (फिर) बाबा लहिणा जी के सिर पर (गुरु-गद्दी का) छत्र धरा और (उनकी) शोभा आसमान तक पहुँचाई।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोति समाणी जोति माहि आपु आपै सेती मिकिओनु ॥ सिखां पुत्रां घोखि कै सभ उमति वेखहु जि किओनु ॥ जां सुधोसु तां लहणा टिकिओनु ॥४॥
मूलम्
जोति समाणी जोति माहि आपु आपै सेती मिकिओनु ॥ सिखां पुत्रां घोखि कै सभ उमति वेखहु जि किओनु ॥ जां सुधोसु तां लहणा टिकिओनु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। आपै सेती = अपने ‘आपे’ से। मिकिओनु = मिका उस (गुरु नानक) ने, बराबर किया उस (गुरु नानक) ने।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: कबड्डी आदि खेल खेलने के वक्त एक समान ताकत और कद वाले मड़के पहले ‘मिक के’ आते हैं, दो बराबर के लड़के आते हैं जिनको दोनों तरफ की ओर चुना जाता है)।
दर्पण-भाषार्थ
घोखि कै = परख के।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पुरानी पंजाबी के ‘कै’ की जगह आजकल हम ‘के’ का प्रयोग करते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
उमति = संगति। जि = जो कुछ। किओनु = किया उस (गुरु नानक) ने। सुधोसु = शोध किया उसको, सुधारा उसको। टिकिओनु = टिकाया उसने, चुना उस (गुरु नानक) ने।
अर्थ: (गुरु नानक साहिब दी) आत्मा (बाबा लहिणा जी की) आत्मा में इस तरह मिल गई कि गुरु नानक ने अपने आप को अपने ‘आपे’ (बाबा लहिणा जी) के साथ साथ एक-मेक कर लिया। हे सारी संगति! देखो, जो उस (गुरु नानक) ने किया, अपने सिखों और पुत्रों को परख के जब उसने सुधाई की तब उसने (अपनी जगह के वास्ते बाबा) लहणा (जी को) चुना।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥ जपु तपु संजमु नालि तुधु होरु मुचु गरूरु ॥
मूलम्
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥ जपु तपु संजमु नालि तुधु होरु मुचु गरूरु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाडूरु वसाइआ = नगर खडूर में रौनक बढ़ाई। फेरुआणि सतिगुरि = (बाबा) फेरू के पुत्र सतिगुरु ने। होरु = और संसार। मुचु = बहुत। गरूरु = अहंकार। फेरि = इसके बाद।
अर्थ: फिर (जब बाबा लहिणा जी को गुरुता मिली तब) बाबा फेरू जी के पुत्र सतिगुरु ने खडूर की रौनक बढ़ाई (भाव, करतारपुर से खडूर आ के टिके)। (हे सतिगुरु!) और जगत तो बहुत अहंकार करता है, पर तेरे पास जप-तप-संजम (आदि की इनायत होने के कारण तू पहले की ही तरह गरीबी स्वभाव में ही) रहा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु ॥ वर्हिऐ दरगह गुरू की कुदरती नूरु ॥ जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु ॥ नउ निधि नामु निधानु है तुधु विचि भरपूरु ॥
मूलम्
लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु ॥ वर्हिऐ दरगह गुरू की कुदरती नूरु ॥ जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु ॥ नउ निधि नामु निधानु है तुधु विचि भरपूरु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विणाहे = विनाशे, नाश करता है। वर्हिऐ = बरसने के कारण, बरखा होने के कारण। कुदरती = रूहानी, प्राकृतिक रूप में। जितु = जिस में। हाथ = गहराई का अंत। ठरूरु = ठंडा हुआ जल, शीतल समुंदर। नउनिधि = नौ खजाने। निधानु = खजाना। भरपूरु = नाको नाक भरा हुआ।
अर्थ: जैसे पानी को बूर खराब करता है वैसे ही मनुष्यों को लोभ तबाह करता है, (पर) गुरु (नानक) की दरगाह में (‘नाम’ की) बरखा होने के कारण (हे गुरु अंगद! तेरे ऊपर) ईश्वरीय नूर (छलकें मार रहा) है। तू वह शीतल समुंदर है जिसकी थाह नहीं पाई जा सकती। जो (जगत के) नौ ही खजाने-रूप प्रभु का नाम-खजाना है, (हे गुरु!) (वह खजाना) तेरे हृदय में नाको-नाक भरा हुआ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु ॥ नेड़ै दिसै मात लोक तुधु सुझै दूरु ॥ फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥५॥
मूलम्
निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु ॥ नेड़ै दिसै मात लोक तुधु सुझै दूरु ॥ फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वंञै चूरु = चूर हो जाता है। नेड़ै = नजदीक के पदार्थ।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) जो मनुष्य तेरी निंदा करे वह (स्वयं ही) तबाह हो जाता है (वह खुद ही अपनी आत्मिक मौत सहेड़ लेता है); सांसारिक जीवों को तो नजदीक के ही पदार्थ दिखाई देते हैं (वे दुनियां की खातिर निंदा का पाप कर बैठते हैं, इसका नतीजा नहीं जानते, पर हे गुरु!) तूझे आगे घटित होने वाले हाल का भी पता होता है। (हे भाई!) फिर बाबा फेरू जी के पुत्र सतिगुरु (अंगद देव जी) ने खडूर को भाग्य लगाए।5।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ॥ जिनि बासकु नेत्रै घतिआ करि नेही ताणु ॥ जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ॥ चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ॥
मूलम्
सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ॥ जिनि बासकु नेत्रै घतिआ करि नेही ताणु ॥ जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ॥ चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टिका = टीका, माथे का नूर। बैहणा = तख्त। दीबाणु = दीवान, दरबार। पियू जेविहा = पिता (गुरु अंगद देव जी) जैसा। दादे जेविहा = दादे (गुरु नानक) जैसा। परवाणु = स्वीकार, मानने योग्य। जिनि = जिस (पौत्र गुरु) ने। नेही = नेहणा। बासकु = टेढ़ा मन रूपी नाग। ताणु = आत्मिक बल। विरोलिआ = मथा, बिलौना। मेरु = सुमेर पर्वत, ऊँची रुचि, ध्यान। कीतोनु = किया उसने।
अर्थ: पौत्र-गुरु (गुरु अमरदास भी) जाना-माना हुआ (गुरु) है (क्योंकि वह भी) गुरु नानक और गुरु अंगद जैसा ही है; (इसके माथे पर भी) वही नूर है, (इसका भी) वही तख़्त है, वही दरबार है (जो गुरु नानक और गुरु अंगद साहिब का था)।
इस गुरु अमरदास जी ने भी आत्मिक बल को नेहणी बना के (मन-रूप) नाग को नेत्रे डाला है, (ऊँची सूझ रूप) सुमेर पर्वत को मथानी बना के (गुरु-शब्द रूप) समुंदर में बिलोया है (मथा है), (उस ‘शब्द-समुंदर’ में से ईश्वरीय-गुण रूप) चौदह रतन निकाले (जिनसे) उसने (जग्रत में आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश पैदा किया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ॥ धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ॥ कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ॥ सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ॥
मूलम्
घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ॥ धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ॥ कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ॥ सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = अडोल अवस्था। जतु = इन्द्रियों को विकारों की तरफ से रोकने की ताकत। पलाणु = काठी। धणखु = धनुष, कमान। सत = सत्य आचरण, सदाचार। जस हंदा = (परमात्मा की) महिमा का। कलि = कष्ट भरा संसार। धू अंधारु = घुप अंधेरा। रै = (रय) किरणें। भाणु = भानु, सूरज। सतहु = ‘सत्य’ से, सच्चे आचरण के बल से। छावाणु = छाया, रक्षा। सा = था। बाणु = तीर।
अर्थ: (गुरु अमरदास ने) सहज-अवस्था को घोड़ा बनाया, विकारों से इन्द्रियों को रोक के रखने की ताकत को काठी बनाया; सच्चे आचरण की कमान कसी और परमात्मा की महिमा का तीर (पकड़ा, चलाया)।
संसार में (विकारों का) घोर अंधकार था। (गुरु अमरदास, जैसे) किरणों से भरा हुआ सूरज चढ़ आया, जिसने ‘सत’ के बल से ही (उजड़ी हुई) खेती जमाई (हरि भरी कर दी) और ‘सत’ से ही उसकी रक्षा की।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ॥ चारे कुंडां सुझीओसु मन महि सबदु परवाणु ॥ आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ॥
मूलम्
नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ॥ चारे कुंडां सुझीओसु मन महि सबदु परवाणु ॥ आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाणु = खण्ड, शक्कर। सुझीओसु = उसे सूझीं। नीसाणु = निशान, परवाना, राहदारी।
अर्थ: (हे गुरु अमरदास!) तेरे लंगर में (भी) नित्य घी, मैदा और खण्ड (आदि उत्तम पदार्थ) प्रयोग हो रहे हैं जिस मनुष्य ने अपने मन में तेरा शब्द टिका लिया है उसको चहु कुंटों (चारों कोनों) की सूझ आ गई है। (हे गुरु!) जिसको तूने मेहर की नजर करके (शब्द रूप) राह-दारी बख्शी है उसके पैदा होने-मरने के चक्कर तूने समाप्त कर दिए हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ॥ झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ॥ जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ॥
मूलम्
अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ॥ झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ॥ जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउतरिआ = पैदा हुआ है। पुरखु सुजाणु = सुजान अकाल पुसख। झखड़ि = तूफान में, धूल भरी आंधी तूफान। मेराणु = सुमेर। बिरथा जीअ की = दिल की पीड़ा।
अर्थ: वह अकाल पुरख (स्वयं गुरु अमरदास के रूप में) अवतार ले के जगत में आया है। (गुरु अमरदास विकारों के) तूफान में नहीं डोलता, (विकारों की) अंधेरी भी झूल जाए तब भी नहीं डोलता, वह तो (जैसे) सुमेर पर्वत है; जीवों के दिल की पीड़ा जानता है, (दिलों की जानने वाला) जानी-जान है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ सालाही सचे पातिसाह जां तू सुघड़ु सुजाणु ॥ दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु ॥
मूलम्
किआ सालाही सचे पातिसाह जां तू सुघड़ु सुजाणु ॥ दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। सुजाणु = सुजान, सयाना। दानु = बख्शिश। सतिगुर भावसी = गुरु को अच्छी लगे। सो सते दाणु = (मुझे) सते को तेरी वह बख्शिश (अच्छी) है।
अर्थ: हे सदा-स्थिर राज वाले पातशाह! मैं तेरी क्या महिमा करूँ? तू सुंदर आत्मा वाला समझदार है। मुझ सते को तेरी वही बख्शिश अच्छी है जो (तुझे) सतिगुरु को अच्छी लगती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक हंदा छत्रु सिरि उमति हैराणु ॥ सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोत्रा परवाणु ॥६॥
मूलम्
नानक हंदा छत्रु सिरि उमति हैराणु ॥ सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोत्रा परवाणु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हंदा = संदा, का। सिरि = सिर पर। उमति = संगीत।
अर्थ: (गुरु अमरदास जी के) सिर पर गुरु नानक देव जी वाला छत्र संगति (देख के) आश्चर्य-चकित हो रही है। पौत्र-गुरु (गुरु अमरदास भी) जाने-माने गुरु हैं (क्योंकि वह भी) गुरु नानक और गुरु अंगद साहिब जैसे ही हैं, (इनके माथे पर भी) वही नूर है, (इनका भी) वही तख्त है, वही दरबार है (जो गुरु नानक और गुरु अंगद साहिब का था)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ ॥ पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ ॥ सिखी अतै संगती पारब्रहमु करि नमसकारिआ ॥
मूलम्
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ ॥ पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ ॥ सिखी अतै संगती पारब्रहमु करि नमसकारिआ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरिआ = पैदा किया। सिखी = सिखीं, सिखों ने। अतै = और।
अर्थ: गुरु रामदास जी धन्य हैं धन्य हैं! जिस अकाल-पुरख ने (गुरु रामदास को) पैदा किया उसने उन्हें सुंदर भी बनाया। ये एक मुकम्मल करामात हुई है कि विधाता ने स्वयं (अपने आप को उसमें) टिकाया है। सब सिखों ने और संगतों ने उनको अकाल-पुरख का रूप जान के (उनकी) बँदना की है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अटलु अथाहु अतोलु तू तेरा अंतु न पारावारिआ ॥ जिन्ही तूं सेविआ भाउ करि से तुधु पारि उतारिआ ॥ लबु लोभु कामु क्रोधु मोहु मारि कढे तुधु सपरवारिआ ॥ धंनु सु तेरा थानु है सचु तेरा पैसकारिआ ॥
मूलम्
अटलु अथाहु अतोलु तू तेरा अंतु न पारावारिआ ॥ जिन्ही तूं सेविआ भाउ करि से तुधु पारि उतारिआ ॥ लबु लोभु कामु क्रोधु मोहु मारि कढे तुधु सपरवारिआ ॥ धंनु सु तेरा थानु है सचु तेरा पैसकारिआ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अथाहु = जिसकी थाह ना पाई जा सके, बड़ा गंभीर। पारावारिआ = पार+अवार, इस पार उस पार। तू = तूने। भाउ = प्रेम। तुधु = तू। सपरवारिआ = (बाकी विकारों = रूप) परिवार समेत। पैसकारिआ = पेशकारी किसी बड़े आदमी के आने पर जो रौनक उसके स्वागत के लिए की जाती है, संगति रूप पसारा।
अर्थ: (हे गुरु रामदास!) तू सदा कायम रहने वाला है, तू तोला नहीं जा सकता (भाव, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते; तू एक ऐसा समुंदर है जिसकी) थाह नहीं पाई जा सकती, इस पार उस पार का अंत नहीं पाया जा सकता। जिस लोगों ने प्यार से तेरा हुक्म माना है तूने उनको (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया है। उनके अंदर से तूने लालच, लोभ, काम, क्रोध, मोह व अन्य सारे विकार मार के निकाल दिए हैं।
(हे गुरु रामदास!) मैं सदके हूँ उस जगह पर से, जहाँ तू बसा। तेरी संगति सदा अटल है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानकु तू लहणा तूहै गुरु अमरु तू वीचारिआ ॥ गुरु डिठा तां मनु साधारिआ ॥७॥
मूलम्
नानकु तू लहणा तूहै गुरु अमरु तू वीचारिआ ॥ गुरु डिठा तां मनु साधारिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वीचारिआ = मैंने समझा है। साधारिआ = टिकाने आया, ठहराव, सहज में आ गया। तू = तुझे।
अर्थ: (हे गुरु रामदास जी!) तू ही गुरु नानक है, तू ही बाबा लहणा है, मैंने तुझे ही गुरु अमरदास समझा है।
(जिस किसी ने) गुरु (रामदास) का दीदार किया है उसी का मन तब से ठहराव में आ गया है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥ आपीन्है आपु साजिओनु आपे ही थम्हि खलोआ ॥ आपे पटी कलम आपि आपि लिखणहारा होआ ॥ सभ उमति आवण जावणी आपे ही नवा निरोआ ॥
मूलम्
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥ आपीन्है आपु साजिओनु आपे ही थम्हि खलोआ ॥ आपे पटी कलम आपि आपि लिखणहारा होआ ॥ सभ उमति आवण जावणी आपे ही नवा निरोआ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारे = चारे (पहले गुरु)। चहु जुगी = अपने चारों जामों में। जागे = प्रकट हुए, रौशन हुए।
पंचाइणु = (पंच अयन, पाँचों का घर, पाँच तत्वों का श्रोत) अकाल पुरख; जैसे:
दर्पण-टिप्पनी
माणकु मनु महि मनु मारसी, सचि न लागै कतु॥ राजा तखति टिकै गुणी, भै पंचाइण रतु॥१॥ मारू महला १ (पन्ना 992)
दर्पण-भाषार्थ
भै पंचाइण = पंचायण के डर से, परमात्मा के डर में।
दर्पण-टिप्पनी
और
तसकर मारि वसी पंचाइणि, अदलु करे वीचारे॥ नानक राम नामि निसतारा गुरमति मिलहि पिआरे॥२॥१॥३॥ सूही छंतु म: १ घरु ३
दर्पण-भाषार्थ
पंचाइणि = पंचाइण में, परमात्मा में।
आपीनै = आप ही ने, प्रभु ने स्वयं ही। आपु = अपने आप को। साजिओनु = उसने प्रकट किया (सृष्टि के रूप में)। थंम्हि = थंम के, सहारा दे के। लिखणहारा = लिखने वाला, पद्चिन्ह डालने वाला, मार्गदर्शक। उमति = सृष्टि। निरोआ = निर+रोग, रोग रहित।
अर्थ: चारों गुरु (साहिबान) अपने-अपने समय में रौशन हुए हैं, अकाल-पुरख स्वयं ही (उनमें) प्रकट हुआ। अकाल-पुरख ने अपने आप ही अपने आप को (सृष्टि के रूप में) जाहिर किया और खुद ही (गुरु रूप हो के) सृष्टि को सहारा दे रहा है। (जीवों की अगुवाई के लिए, मार्ग दर्शन के लिए) प्रभु स्वयं ही तख्ती (स्लेट) है और खुद ही कलम है और (गुरु रूप हो के) खुद ही मार्ग दशर्न लिखने वाला है। सारी सृष्टि तो जनम-मरण के चक्कर में है, पर प्रभु स्वयं (सच्चा) नया है और निरोया (निरोग) है (भाव, हर नए रंग में है और निर्लिप भी है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तखति बैठा अरजन गुरू सतिगुर का खिवै चंदोआ ॥ उगवणहु तै आथवणहु चहु चकी कीअनु लोआ ॥
मूलम्
तखति बैठा अरजन गुरू सतिगुर का खिवै चंदोआ ॥ उगवणहु तै आथवणहु चहु चकी कीअनु लोआ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। खिवै = चमकता है (संस्कृत: क्षिभ् चमकता)। तै = और। उगवणहु = सूरज उगने से। आथवणहु = सूरज डूबने से। चहु चकी = चहुँ कुंटों में। कीअनु = किया है उसने। लोआ = लौअ, प्रकाश।
अर्थ: (उस नए-निरोए सतिगुरु के बख्शे) तख्त के ऊपर (जिस पर चारों गुरु अपने-अपने समय में रौशन हुए हैं, अब) गुरु अरजन बैठे हुए हैं, सतिगुरु का चंदोआ चमक रहा है (भाव, सतिगुरु अरजन साहिब का तेज-प्रताप हर तरफ पसर रहा है)। सूरज के उगने से (डूबने तक) और डूबने से (चढ़ने तक) चहुँ कुंटों में इस (गुरु अरजन देव जी) ने रौशनी कर दी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ही गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मोआ ॥ दूणी चउणी करामाति सचे का सचा ढोआ ॥ चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥८॥१॥
मूलम्
जिन्ही गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मोआ ॥ दूणी चउणी करामाति सचे का सचा ढोआ ॥ चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुोआ = मरी (यहाँ पढ़ना है = ‘मोआ’, असल शब्द है ‘मुआ’)। करामाति = करामात, बड़ाई, प्रतिभा। ढोआ = सौगात, तोहफा। चउणी = चार गुनी।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले जिस लोगों ने गुरु का हुक्म ना माना वे मर गए (भाव, वे आत्मिक मौत मर गए)। गुरु अरजन की (दिन-) दुगनी और रात चौगुनी प्रतिभा बढ़ रही है; (सृष्टि को) गुरु, सच्चे प्रभु की सच्ची सौगात है।
चारों गुरु अपने-अपने समय में प्रकाशमान हुए, अकाल-पुरख (उनमें) प्रकट हुआ।8।1।
[[0969]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥ त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥
मूलम्
काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥ त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलालनि = वह मटकी जिसमें गुड़, सक आदि डाल के शराब निकालने केू लिए खमीर तैयार करते हैं। लाहनि = ख़मीर के लिए सामग्री। रे = हे भाई! कीनु = किया है, (मैंने) बनाया है। मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। कसु = सक्के।1।
अर्थ: हे भाई! मैंने बढ़िया शरीर को मटकी बनाया है, और इसमें (नाम-अमृत-रूप शराब तैयार करने के लिए) खमीर (fermentation) की सामग्री एकत्र कर रहा हूँ- सतिगुरु के शब्द को मैंने गुड़ बनाया है, तृष्णा-काम-क्रोध-अहंकार और ईष्या को काट-काट के सक्क (उस गुण में) मिला दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥ एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥ एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! सहज अंतरि = अडोल अवस्था में टिका हुआ। दलाल = वह मनुष्य जो दो धिरों में किसी चीज का समझौता करवाता है और उसके बदले दोनों तरफ से अथवा एक तरफ नीयत रकम लेता है, उस रकम को ‘दलाली’ कहते हैं। भरि = के बराबर। जो कलाली = जो साकी, जो शराब पिलाने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! क्या मुझे कोई ऐसा संत मिल जाएगा (भाव, मेरा मन चाहता है कि मुझे कोई ऐसा संत मिल जाए) जो खुद अडोल अवस्था में टिका हुआ हो, सुख में टिका हो? यदि कोई ऐसा साकी (-संत) मुझे (नाम-अमृत-रूपी) नशा पिलाए, तो मैं उस अमृत की एक बूँद के बदले अपना तन-मन उसके हवाले कर दूँ, मैं (जोगियों और पंडितों के बताए हुए) जप और तप उस संत को बतौर दलाली दे दूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥ मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥
मूलम्
भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥ मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवन चतुर दस = चौदह भवनों (का मोह), जगत का मोह। तनि = शरीर में। मुद्रा = ढक्कन, डाट। मदक = शराब व अर्क निकालने वाली नाल। मुद्रा मदक = मदक की मुद्रा, नाल का ढक्कन। धुनि = लगन। सुखमन = मन की सुख वाली अवस्था। पोचनहारी = नाल पर पोचा देने वाली (नाल पर पोचा देते हैं ता कि भाप ठंडी हो हो के अर्क व शराब बन = बन के बर्तन में टपकती रहे)।2।
अर्थ: चौदह भवनों को मैंने भट्ठी बनाया है, अपने शरीर में ईश्वरीय-ज्योति रूपी आग जलाई है (भाव, सारे जगत के मोह को मैंने शरीर के अंदर की ब्रहमाग्नि से जला डाला है)। हे भाई! मेरी तवज्जो (मेरी लगन) अडोल अवस्था में लग गई है, ये मैंने उस नाल का डाट बनाया है (जिसमें से शराब निकलती है)। मेरे मन की सुख अवस्था उस नाल पर पोचा दे रही है (ज्यों-ज्यों मेरा मन अडोल होता है, सुख अवस्था में पहुँचता है, त्यों-त्यों मेरे अंदरनाम-अमृत का प्रवाह चलता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥ सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥
मूलम्
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥ सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवि = सूरज, दाहिनी नासिका की नाड़ी, पिंगला सुर। ससि = चंद्रमा, बाँई नासिका की नाड़ी, ईड़ा सुर। गहनै = गिरवी। पिआल = प्याला। सुधा = अमृत। महा रसु = सबसे श्रेष्ठ अमृत। पेउ = मैं पीता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-चरणों में जुड़ी हुई अपनी तवज्जो को मैंने प्याला बना लिया है और (नाम-) अमृत पी रहा हूँ। ये नाम-अमृत सब रसों से श्रेष्ठ रस है। इस नाम-अमृत के बदले मैंने (पंडितों और जोगियों के बताए हुए) तीर्थ-स्नान, व्रत, नेम, सुच, संजम, प्राणायाम में श्वासों के चढ़ाने व उतारने- ये सब कुछ गिरवी रख दिए हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥ कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥
मूलम्
निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥ कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निझर = (संस्कृत: निर्झर) चश्मा। मनूआ = सुंदर मन। छूछे = थोथे, फोके। साचो = सदा टिके रहने वाला।4।
अर्थ: (अब मेरे अंदर नाम-अमृत के) चश्मे की बहुत साफ धारा पड़ रही है। मेरा मन, हे भाई! इसके स्वाद में रंगा हुआ है। कबीर कहता है: अन्य सारे नशे फोके हैं, एक यही सबसे श्रेष्ठ रस सदा कायम रहने वाला है।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जोगी लोग शराब पीया करते थे, उनका ख्याल था कि शराब पी के समाधि लगाने से तवज्जो बढ़िया जुड़ती है। शराब तैयार करने के लिए गुड़ और सक्क एक मटकी में काफी समय तक डाल के सड़ाया जाता है, और फिर उस सड़े हुए खमीर का अर्क निकाल लेते हैं। एक भट्ठी में आग जला के उस पर मटकी रख देते हैं, मटकी के मुँह पर ‘नाल’ रख के बर्तन के मुँह को आटे आदि से अच्छी तरह बँद कर देते हैं। आग के सेक से मटकी का पानी उबल के भाप बन के ‘नाल’ में आना शुरू हो जाता है। उस ‘नाल’ पर ठँडे पानी का पोचा फेरते जाते हैं, और इस ठ। डक से वही भाप अर्क बन-बन के ‘नाल’ के दूसरे मुँह के आगे रखे हुए बर्तन में पड़ता जाता है।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: समाधियों से श्रेष्ठ है परमात्मा की याद और स्मरण, जो सतिगुरु के शब्द के द्वारा ही हो सकता है। सूझ-शब्द की इनायत से तृष्णा, काम आदि विकार काटे जाते हैं, मन में सुख अवस्था बनती जाती है और तवज्जो और ज्यादा ‘नाम’ में जुड़ती है। इस नाम-रस के मुकाबले में जप, समाधियाँ, तीर्थ-स्नान, सुच और प्राणायाम आदि का कौड़ी भी मूल्य नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥ सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥
मूलम्
गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥ सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनु = ऊँची समझ, ज्ञान। धिआनु = प्रभु चरणों में जुड़ी हुई तवज्जो, ध्यान। महूआ = एक वृक्ष जिसके फूल शराब तैयार करने में प्रयोग होते हैं। भाठी = आग वाली भट्ठी। भउ = प्रभु का डर। नारी = नाड़ी। समानी = लीनता। पीवनहार = पीने के लायक हुआ मन।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जोगी गुड़, महूए के फूल आदि मिला के भट्ठी में शराब निकालते हैं, वह शराब पी के प्राणायाम आदि द्वारा सुखमना नाड़ी में प्राण टिकाते हैं। नाम का रसिया इन की जगह ऊँची मति, प्रभु चरणों में जुड़ी तवज्जो और प्रभु का भय; इनकी सहायता से सहज अवस्था में पहुँचता है। इस तरह नाम-अमृत पीने का अधिकारी हो जाता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (नाम-रस की शराब निकालने के लिए) मैंने आत्मिक-ज्ञान का गुड़, प्रभु चरणों में जुड़ी तवज्जो को महूए के फूल, और अपने मन में टिकाए हुए प्रभु के भय को भट्ठी बनाया है। (इस ज्ञान-ध्यान और भय से उपजा नाम-रस पी के, मेरा मन) अडोल अवस्था में लीन हो गया है (जैसे जोगी शराब पी के अपने प्राण) सुखमना नाड़ी में टिकाता है। अब मेरा मन नाम-रस को पीने के लायक हो के पी रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउधू मेरा मनु मतवारा ॥ उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अउधू मेरा मनु मतवारा ॥ उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधू = हे जोगी! मतवारा = मतवाला, मस्त। उनमद = (तुरीया अवस्था की) मस्ती। मदन = मस्त करने वाला। त्रिभवण = तीन भवनों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! मेरा (भी) मन मस्त होया हुआ है, मुझे (ऊँची आत्मिक अवस्था की) मस्ती चढ़ी हुई है। (पर) मैंने मस्त करने वाला (नाम-) रस चखा है, (उसकी इनायत से) सारे ही जगत में मुझे उसी की ही ज्योति जल रही दिखाई देती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥ कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥
मूलम्
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥ कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुइ पुर जोरि = दोनों पुड़ जोड़ के, धरती आकाश को इकट्ठा करके, सारे जगत का मोह काबू करके, माया के मोह को वश में करके। रसाइ = चमकाई, मघाई। पीउ = मैं पीता हूँ। जलेता = ईधन। संसारी = संसार में खचित होने वाली रुचि।2।
अर्थ: माया के मोह को वश में करके मैंने (जोगी वाली) भट्ठी तपाई है, अब मैं बड़ा महान नाम-रस पी रहा हूँ। काम और क्रोध दोनों को मैंने ईधन बना दिया है (और, इस भट्ठी में जला डाला है, भाव, मोह को वश में करने से काम-क्रोध भी खत्म हो गए हैं)। इस तरह संसार में फंसने वाली रुचि खत्म हो गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥ दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥
मूलम्
प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥ दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गंमति = प्रभु तक पहुँचने वाला। सुधि = सूझ। तासु = उसके। मद = नशा। उचकि न जाई = टूटता नहीं, खत्म नहीं होता।3।
अर्थ: (प्रभु तक) पहुँच वाले गुरु के ज्ञान की इनायत से मेरे अंदर (नाम का) प्रकाश हो गया है, गुरु से मुझे (ऊँची) समझ मिली हुई है। प्रभु का दास कबीर उस नशे में मस्त है, उसकी मस्ती कभी समाप्त होने वाली नहीं है।3।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: मुसलमान अपनी बोली में अपने लिए शब्द ‘दास’ नहीं प्रयोग करते। यहाँ शब्द ‘दास’ का प्रयोग जाहिर करता है कि कबीर जी हिन्दू थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥ ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥
मूलम्
तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥ ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरु परबतु = सबसे ऊँचा पर्वत, सबसे बड़ा आसरा। ओट = आसरा। गही = पकड़ी है। रखि लीनी = (इज्जत) रख ली है।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (ही) मेरा सबसे बड़ा आसरा है। मैंने तेरी ही ओट पकड़ी है (किसी तीर्थ पर बसने का तकिया आसरा मैंने नहीं ताका) तू सदा अडोल रहने वाला है (तेरा पल्ला पकड़ के) मैं भी नहीं डोलता, क्योंकि तूने खुद मेरी इज्जत रख ली है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब तब जब कब तुही तुही ॥ हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब तब जब कब तुही तुही ॥ हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब तब = अब और तब। जब कब = जब कभी। तुअ परसाद = तव प्रसादि, तेरी मेहर से।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! सदा के लिए तू ही तू ही मेरा सहारा है। तेरी मेहर से मैं सदा ही सुखी हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥ पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥
मूलम्
तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥ पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मगहर = गोरखपुर के पास एक शहर जिसके बारे में पुराना ख्याल है कि इस जगह को श्राप मिला हुआ है कि जो मनुष्य यहाँ मरता है वह गधे की जूनि में जा पड़ता है।2।
अर्थ: (लोग कहते हैं मगहर श्रापित धरती है, पर) मैं तेरे पर भरोसा करके मगहर जा बसा, (तूने मेहर की और) मेरे शरीर की (विकारों की) तपस (मगहर में ही) बुझा दी। मैंने, हे प्रभु! तेरा दीदार पहले मगहर में ही रहते हुए किया था, और बाद में मैं काशी आ के बसा।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ ये जाहिर होता है कि कबीर जी दो बार मगहर जा के रहे हैं। दूसरी बार तो शरीर भी वहीं जा के त्यागा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥ हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥
मूलम्
जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥ हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै करि = एक समान। मरते फूटि = फूट मरते हैं, अहंकार में दुखी होते हैं।3।
अर्थ: जैसे किसी कंगाल को धन मिल जाए, (वैसे ही) मुझ कंगाल को तेरा धन मिल गया है, (उसकी इनायत से) मैंने मगहर और काशी दोनों को एक जैसा ही समझा है। पर, (जिन्हें काशी तीर्थ पर बसने का गर्व है वह) वे अहंकारी अहंकार में दुखी होते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥ अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥
मूलम्
करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥ अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूला = शूल, काँटें। अजै = अब तक। पचाही = दुखी होते हैं।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुमान करता है (गुमान चाहे किसी भी बात का क्यों ना हो) उसको (ऐसे होता है जैसे) शूलें चुभती हैं। कोई उनकी ये शूलें उखाड़ नहीं सकता। सारी उम्र (वह अहंकारी) उसकी चुभन से बिलखते हैं, मानो, घोर नर्क में जल रहे हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥ हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥
मूलम्
कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥ हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दोऊ = दोनों ही। रादे = रद्द कर दिए हैं। काणि = अधीनता।5।
अर्थ: (ये लोग कहते हैं कि काशी में रहने वाला स्वर्ग भोगता है, पर) नर्क क्या, और बेचारा स्वर्ग क्या? संतों ने दोनों ही रद्द कर दिए हैं; क्योंकि संत अपने गुरु की कृपा से (ना स्वर्ग और ना ही नर्क) किसी के भी मुथाज नहीं हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥ राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥
मूलम्
अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥ राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिंघासनि = तख्त पर, दसवाँ द्वार में, उच्च आत्मिक अवस्था में।6।
अर्थ: (अपने गुरु की कृपा से) मैं अब उच्च आत्मिक ठिकाने पर पहुँच गया हूँ, जहाँ मुझे परमात्मा मिल गया है। मैं कबीर और मेरा राम एक-रूप हो गए हैं, कोई भी हमारे बीच में फर्क नहीं बता सकता।6।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥ दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥
मूलम्
संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥ दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानउ = मानूँ, मैं आदर देता हूँ, स्वागत करता हूँ। दूत = विकार। डानउ = मैं दण्ड देता हूँ, मार भगाता हूँ। कुटवार = कोतवाल, शहर का रखवाला, (शरीर रूप) शहर का रखवाला। कुटवारी = शरीर रूप शहर की रखवाली का फर्ज। दिवस = दिन। पलोसउ = पलोसना, मैं मलता हूँ, घोटता हूँ। करि = बना के। फेरी = मैं फेरता हूँ।1।
अर्थ: अपने इस शरीर-रूप शहर की रक्षा करने के लिए मेरा फर्ज ये है मैं भले गुणों का स्वागत करूँ और विकारों को मार निकालूँ। दिन-रात, हे प्रभु तेरे चरण परसूँ और अपने केसों का चवर तेरे ऊपर झुलाऊँ।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जिस मनुष्य के अपने सिर पर केस ना हों, वह ये मुहावरा प्रयोग नहीं कर सकता। स्वाभाविक तौर पर मनुष्य की बोली अपने रोजाना जीवन के अनुसार हो जाती है। कबीर जी केसाधारी थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम कूकर तेरे दरबारि ॥ भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हम कूकर तेरे दरबारि ॥ भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरबारि = दर पर। बचनु = मुंह। पसारि = खोल के, पसार के। हम = हम, मैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे दर पर (बैठा हुआ एक) कुक्ता हूँ, और मुँह आगे कर-करके भौंक रहा हूँ (भाव, तेरे दर पे जो तेरी महिमा कर रहा हूँ), ये अपने शरीर को विकारी-कुक्तों से बचाने के लिए है, जैसे एक कुक्ता किसी पराई गली के कुक्तों से अपने-आप की रक्षा करने के लिए भौंकतास है। यही बात सतिगुरु नानक देव जी ने इस तरह कही है; ऐते कूकर हउ बेगाना भउका इसु तन ताई।1। रहाउ। (बिलावल महला १)
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥ तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥
मूलम्
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥ तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिटिआ = हटा। धुनि = आवाज, लगन, लहर। माथै मेरे दगाई = मेरे माथे पर दागी गई है, मेरे माथे पर उकरी गई है, मेरे भाग्यों में आ गई है, मुझे प्राप्त हो गई है।2।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तो पहले जन्मों में भी तेरा ही सेवक रहा हूँ, अब भी तेरे दर से हटा नहीं जा सकता। तेरे दर पर रहने से (मनुष्य के अंदर) अडोल अवस्था की लहर (चल पड़ती है, वह लहर) मुझे भी प्राप्त हो गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥ साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥
मूलम्
दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥ साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दागे होहि = जिस पर निशान होता है। रन = रण, लड़ाई का मैदान। जूझहि = लड़ मरते हैं। लए खजानै पाई = स्वीकार कर लेता है, स्वीकार कर लेता है।3।
अर्थ: जिनके माथे पर मालिक का (ये भक्ति का) निशान होता है, वे रण-भूमि में लड़ मरते हैं। जो इस निशान से वंचित हैं वह (मुकाबला होने पर) भांझ खा जाते हैं, (भाव,) जो मनुष्य प्रभु का भक्त बनता है, वही भक्ति से सांझ डालता है और प्रभु उसको अपने दर पर स्वीकार कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥ गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥
मूलम्
कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥ गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परम = सबसे अच्छी। कोठरा = छोटा सा कोठा। बीचारि = नाम की विचार से। गुरि = गुरु ने। बसतु = नाम पदार्थ। समारि = संभाल के।4।
अर्थ: (मनुष्य का शरीर, जैसे, एक छोटा सा कोठा है, इस) छोटे से सुंदर कोठे में (दिमाग, बुद्धि एक और) छोटी सी कोठरी है, परमात्मा के नाम के विचार की इनायत सेये छोटी सी कोठरी और भी सुंदर बनती जाती है। मुझ कबीर को मेरे गुरु ने नाम-वस्तु दी (और, कहने लगे) ये वस्तु (एक छोटी सी कोठरी में) संभाल के रख ले।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥ अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥
मूलम्
कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥ अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीई = दी है। मसतकि = माथे पर। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। थिरु = सदा टिके रहने वाला। सोहागु = (सं: सौभाग्य = good luck) अच्छी किस्मत।5।
अर्थ: मैं कबीर ने ये नाम-वस्तु जगत के लोगों को (भी बाँट) दी, पर किसी भाग्यशाली ने (ही) हासिल की। जिस किसी ने इस नाम-अमृत का स्वाद चखा है, वह सदा के लिए भाग्यशाली हो गया है।5।4।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु की महिमा की इनायत से दुनिया के विकार मनुष्य के नजदीक नहीं फटकते। पर यह दाति किसी सौभाग्यशाली को ही गुरु से मिलती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥ जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥
मूलम्
जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥ जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह मुख = जिस परमात्मा के मुँह में से। निकसै = निकलता है। बिसरु करै = बिसारता है। जा कै जाइ = जा कै जाए, जिसके पैर पर, जिसके पैरों के सदके।1।
अर्थ: ब्राह्मण उस प्रभु को क्यों बिसारता है, जिसके मुँह में से वेद और गयात्री (आदि) निकले (ऐसा तू मानता) है? पण्डित उस परमात्मा को क्यों नहीं स्मरण करता, जिसके चरणों पर सारा संसार पड़ता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥ रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥ रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाम्न = हे ब्राहमण! रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पहली तुक में शब्द ‘ब्रहमन’ कर्ताकारक, एक वचन है, ‘रहाउ’ में शब्द ‘बाम्न अथवा बाह्मन’ संबोधन एक वचन है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे ब्राह्मण! तू परमात्मा का नाम क्यों नहीं स्मरण करता? हे पंडित! तू राम नहीं बोलता, और दोज़क (नर्क का दुख) सह रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥ चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥
मूलम्
आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥ चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदरु = पेट। रचि रचि = (बनावटी) बना बना के। कर दीपकु = हाथों पर दीया। कूपि = कूँए में।2।
अर्थ: हे ब्राह्मण! तू अपने आप को ऊँची कुल का (समझता है), पर भोजन पाता है (अपने से) नीची कुल वाले घरों में से। तू हठ वाले कर्म करके (और लोगों को दिखा-दिखा के) अपना पेट पालता है। चौदवीं और अमावस्या (आदि तिथियाँ बनावटी) बना-बना के तू (जजमानों से) माँगता है; तू (अपने आप को विद्वान समझता है पर यह विद्या-रूप) दीया हाथों पर रख कर (भी) कूँएं में गिर रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥ हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥
मूलम्
तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥ हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कासीक = काशी का। उबरे = (संसार समुंदर से) बच गए।3।
अर्थ: तू (अपने आप को ऊँची कुल का) ब्राहमण (समझता है), मैं (तेरी नजरों में) काशी का (गरीब) जुलाहा हूँ। सो, मेरी तेरी बराबरी कैसे हो सकती है? (भाव, तू मेरी बात अपने गुमान के कारण सुनने को तैयार नहीं हो सकता)। पर हम (जुलाहे तो) परमात्मा का नाम स्मरण करके (संसार-समुंदर से) बच रहे हैं, और तुम, हे पांडे! वेदों के (बताए हुए कर्मकांड के) भरोसे रह के ही डूब के मर रहे हो।3।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कबीर जी के विचार के अनुसार अमावस-संग्रांद आदि बनावटी तिथियाँ बनाने वालों अपनी उदर पूर्ति की खातिर ही बनाई हुई हैं। और, ये शब्द गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥ इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥
मूलम्
तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥ इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। डार = डाली। साखा = शाखाएं, टहनियाँ। पुहप = पुष्प, फूल। भरीआ = भरी हुई, लदी हुई। बाड़ी = बगीचे। रे = हे भाई! तिनि हरि = उस प्रभु ने। करीआ = बनाई।1।
अर्थ: (गुरु के सन्मुख हुए ऐसे मनुष्य को ये समझ आ जाती है कि) संसार एक वृक्ष (के समान) है, (जगत के जीव-जंतु, मानो, उस वृक्ष की) बेअंत डालियाँ और टहनियाँ हैं, जो फूलों, पक्तों और रस भरे फलों से लदी हुई हैं। ये संसार अमृत की एक बागीची है, जो उस पूर्ण परमात्मा ने बनाई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥ अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥ अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हे = हे भाई! जानी = (‘विरले गुरमुखि’ ने) जानी है। कहानी = किसी बीत चुकी या घटित हो रही घटना का हाल। राजा राम की कहानी = उस घटना का हाल जो प्रकाश रूप प्रभु का स्मरण करने से किसी मनुष्य के मन में घटित होती है, प्रभु मिलाप का हाल। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो जाता है, जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर पूर्ण तौर पर चल पड़ता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य अपने आप को गुरु के हवाले करता है, वह प्रकाश-रूप परमात्मा के मेल की अवस्था को समझ लेता है, उसके अंदर ज्योति जग उठती है, उसके अंदर राम का प्रकाश हो जाता है। पर इस अवस्था से जान-पहचान करने वाला होता कोई विरला ही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥ सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥
मूलम्
भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥ सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवरु = भौरा। पुहप = फूल। बीधा = भेदा हुआ, मस्त। बारह = फूल की बारह खिली हुई पंखुड़ियाँ, खिला हुआ फूल, पूर्ण खिलाव। सोरह = सोलह (पक्तोकं वाला विशद्धि चक्र, जो गले में जोगी बाँधते हैं)। सोरह मधे = जाप में लग के। सोरह….झकोरिआ = श्वास श्वास नाम जपता है। आकासे = आकाश में, ऊँची अवस्था में, दसवाँ द्वार में। फरु फरिआ = फड़ फड़ाया, उड़ान भरी।2।
अर्थ: (जैसे) एक भौरा फूल के रस में मस्त हो के फूल की खिली हुई पंखुड़ियों में अपने आप को जा बँधाता है, (जैसे कोई पक्षी अपने पंखों से) हवा को हिलौरे दे के आकाश में उड़ता है, वैसे ही वह गुरमुखि नाम-रस में मस्त हो के पूर्ण-खिलाव को हृदय में टिकाता है, और सोच-मण्डल में हिलौरे दे के प्रभु-चरणों में उड़ानें भरता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥ कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥
मूलम्
सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥ कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंनि = शून्य में, अफुर अवस्था में। बिरवा = कोमल पौधा। धरती = शरीर रूप धरती का। जलहर = जलधर, बादल (तृष्णा)। सोखिआ = सुखा दिया, चूस लिया। जिनि = जिस (गुरमुखि) ने।3।
अर्थ: उस गुरमुखि की उस अडोल और अफुर अवस्था में उसके अंदर (कोमलता-रूप) मानो, एक कोमल पौधा उगता है, जो उसके शरीर की तृष्णा को सुखा देता है। कबीर कहता है: मैं उस गुरमुख का दास हूँ, जिसने (अपने अंदर उगा हुआ) ये कोमल पौधा देखा है।3।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ’ वाली तुक सारे शब्द का बीज-रूप है। यहाँ बताया गया है कि जो मनुष्य अपने आप को गुरु के हवाले करके नाम स्मरण करता है; प्रभु मिलाप वाली अवस्था से उसकी जान-पहचान हो जाती है। शब्द के तीन बंदों में उस मेल-अवस्था के लक्षण दिए गए हैं: 1. ये जगत उसको प्रभु की बनाई हुई एक बगीची सी प्रतीत होती है, जिसमें ये जीव-जंतु, शाखाएं, फूल, पत्ते आदि हैं; 2. जैसे भौरा फूल के रस में मस्त हो के फूल की पंखुड़ियों में ही अपने आप को कैद करा लेता है, जैसे पक्षी अपने पंखों से हवा को झकोला दे के आकाश में उड़ता है, वैसे ही स्मरण करने वाला नाम-रस में मस्त होता है और प्रभु-चरणों में ऊँची उड़ानें लगाता है; और 3. उसके हृदय में एक ऐसी कोमलता पैदा होती है, जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा मिट जाती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥ खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥
मूलम्
मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥ खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोनि = चुप, मन की चुप, मन की शांति। झोली = जिसमें जोगी आटा माँग के डालता है। पत्रका = (पात्र+खप्पर) सुंदर खप्पर। रे = हे जोगी! खिंथा = गोदड़ी। इहु तनु सीअउ = इस शरीर को सीता हूँ, विकारों से बचाए रखता हूँ।1।
अर्थ: हे जोगी! (मन को विकारों की ओर से) शांति (देनी, ये कानों की) मुंद्रा बना, और (प्रभु के गुणों की) विचार को खप्पर बना। (मैं भी तेरी ही तरह एक जोगी हूँ, पर) मैं अपने शरीर को विकारों से बचाता हूँ, ये मैंने गोदड़ी सिली हुई है, जोगी! मैंने प्रभु के नाम को (अपनी जिंद का) आसरा बनाया हुआ है (ये मेरा राख विभूति का बटूआ है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥ जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥ जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। भोगी = गृहस्थी।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! गृहस्थ में रहते हुए ही सतिगुरु के सन्मुख रहो, गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलना ही जप है, यही तप है, और यही संजम है। बस! यही योगाभ्यास करो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥ करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥
मूलम्
बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥ करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिभूति = राख। सिंगी = छोटा सा सींग जो जोगी बजाते हैं। किंगुरी = छोटी किंग।2।
अर्थ: (हे जोगी!) अपनी बुद्धि को मैं (ऊँचे ठिकाने प्रभु चरणों में) चढ़ाए रखता हूँ, ये मैंने (शरीर पर) राख मली हुई है; मैंने अपने मन की तवज्जो को (प्रभु चरणों में) जोड़ा है, ये मेरी सिंज्ञी है। माया की ओर से वैराग करके मैं भी (साधु बन के) फिरता हूँ, पर मैं अपने ही शरीर रूप नगर में फिरता हूँ (भाव, खोज करता हूँ); मैं अपने मन की ही किंगरी बजाता हूँ (भाव, मन में प्रभु की लगन लगाए रखता हूँ)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥
मूलम्
पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच ततु = पाँचों का तत्व, पाँचों का मूल, पाँच तत्वों का मूल कारण प्रभु। निरालम = निरालम्ब, बिना किसी (बाहरी) आसरे के, एक टक। ताड़ी = समाधि। बाड़ी = बगीची।3।
अर्थ: (हे जोगी!) प्रभु को अपने हृदय में परोए रखो, इस तरह की समाधि एक-टक बनी रहती है। कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो, (प्रभु-चरणों में जुड़ के) धर्म और दया की (अपने) मन में सुंदर सी बगीची बनाओ।3।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥ भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥
मूलम्
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥ भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काज = काम। सिरजे = पैदा हुए। जनमि = पैदा हो के। भवनिधि = संसार समुंदर। तरन = बेड़ी, जहाज। चिंतामनि = मन इच्छित फल देने वाली मणि।1।
अर्थ: कौन से कामों के लिए हम जगत में पैदा हुए? जनम ले के हमने क्या कमाया? हमने एक पल भर के लिए भी (उस प्रभु के चरणों में) चिक्त नहीं जोड़ा जो संसार-समुंदर से तैराने के लिए जहाज़ है, जो, मानो, मन-इच्छित फल देने वाला हीरा है।1।
[[0971]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥ जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥ जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। जिनि प्रभि = जिस प्रभु ने। जीउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद! हम जीव ऐसे विकारी हैं कि जिस तू प्रभु ने ये जीवात्मा और शरीर दिया उसकी बँदगी नहीं की, उससे प्यार नहीं किया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥ आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥
मूलम्
पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥ आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर तन = पराया शरीर, पराई स्त्री। परती = पराई।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इसे ‘पर ती’ पढ़ना और अर्थ ‘पर+त्रिया’ करना गलत है क्योंकि पहले ही ‘पराई स्त्री’ का जिक्र शब्द ‘पर तन’ द्वारा आ चुका है। चार चीजों का यहाँ वर्णन है: धन, तन, निंदा और अपबाद; हरेक के साथ शब्द ‘पर’ बरता गया है। यदि शब्द ‘ती’ अलग किया जाए, तो शब्द ‘निंदा’ के साथ बाकी शब्द धन, तन ती और अपबाद की तरह शब्द ‘पर’ नहीं रह जाता। सो, ‘परती’ एक ही शब्द है। वाणी में और प्रमाण भी ऐसे मिलते हैं, जो साबित करते हैं कि शब्द ‘तन’ स्त्री के लिए है; जैसे:
पर धन, पर तन, पर की निंदा, इन सिउ प्रीति न लागै॥२॥१४॥ (धनासरी म: ५)
नोट: कबीर जी ने ‘परती निंदा’ लिखा है, सतिगुरु अरजन साहिब ने ‘पर की निंदा’ कहा है
पर धन, पर तन परती निंदा, अखाधि ताहि हरकाइआ॥३।३।१२४॥ आसा म: ५)
नोट: यहाँ तो हू-ब-हू कबीर जी वाले ही शब्द हैं।
पर धन, पर अपवाद, नारि, निंदा, यह मीठी जीअ माहि हितानी॥१॥ (सवैये श्री मुख बाक् महला ५)
नोट: यहॉ। चार विचारों का वर्णन है: पराया धन, दूसरों से विरोध, पराई स्त्री और पराई निंदा। इन ही चारों का जिक्र कबीर जी ने किया हुआ है।
सो, शब्द ‘परती’ एक ही शब्द है, इसका अर्थ है ‘पराई’।
दर्पण-भाषार्थ
अपबादु = विरोध, झगड़ा। फुनि फुनि = बार बार। परसंगु = झेड़ा, सिलसिला, प्रसंग।2।
अर्थ: (हे गोबिंद!) पराए धन (की लालसा), पराई स्त्री (की कामना), पराई चुग़ली, दूसरों से विरोध- ये विकार दूर नहीं होते, बार-बार जनम-मरण का चक्कर (हमें) मिल रहा है; फिर भी पर मन, पर तन आदि का ये लंबा सिलसिला खत्म नहीं होता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥ ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥
मूलम्
जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥ ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लंपट = विषियों में लिबड़े हुए। दूत = बुरे लोग। मतवारे = शराबी।3।
अर्थ: जिस जगहों में प्रभु के भक्त मिल के प्रभु की महिमा करते हैं, वहाँ मैं एक पलक के लिए भी फेरा नहीं मारता। पर विषयी, चोर, बदमाश, शराबी- इनके साथ मेरा साथ रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥ दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥
मूलम्
काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥ दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। संपै = धन, संपक्ति। मो माही = मेरे अंदर। सुपनंतरि = सपने में भी।4।
अर्थ: काम, क्रोध, माया का मोह, अहंकार, ईष्या- मेरे पल्ले, बस! यही धन है। दया, धर्म, सतिगुरु की सेवा- मुझे इनका विचार कभी सपने में भी नहीं आया।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥ कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥
मूलम्
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥ कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै हारी = डर का नाश करने वाले प्रभु! भीर = मुसीबत, बिपता। करउ = करूँ।5।
अर्थ: कबीर कहता है: हे दीनों पर दया करने वाले! हे कृपालु! हे दामोदर! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे भय हरण! मुझ दास को (विकारों की) बिपता में से बचा ले, मैं (नित्य) तेरी ही बँदगी करूँ।5।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥ जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥ निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥ अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥
मूलम्
जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥ जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥ निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥ अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरनि = स्मरण करने वाला। दुआरु = द्वार, दरवाजा। होइ = होय, होता है, दिख जाता है। जाहि = तू जाएगा। संसारि = संसार में, संसार समुंदर में। घरि = घर में। तूर = बाजे। अनहद = एक रस। वजहि = (तूर) बजें, बाजे बजते हैं। भरपूर = नाको नाक, किसी कमी के बिना।1।
अर्थ: जिस नाम-जपने की इनायत से मुक्ति का दर दिखाई दे जाता है, (उस रास्ते) तू प्रभु के चरणों में जा पहुँचेगा, संसार (-समुंदर) में नहीं (भटकेगा); जिस अवस्था में कोई डर नहीं छूता, उसमें पहुँच के तू (आत्मिक आनंद के, मानो) बाजे बजाएगा, वह बाजे (तेरे अंदर) सदा एक-रस बजेंगे, (उस आनंद में) कोई कमी नहीं आएगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥ बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥ बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कत = कहीं भी, किसी भी और तरीके से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रभु का स्मरण किए बिना किसी भी अन्य तरीके से (माया के बंधनो) से निजात नहीं मिलती तू अपने मन में ऐसा (बल रखने वाला) स्मरण कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥ मुकति करै उतरै बहु भारु ॥ नमसकारु करि हिरदै माहि ॥ फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥
मूलम्
जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥ मुकति करै उतरै बहु भारु ॥ नमसकारु करि हिरदै माहि ॥ फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ननकारु = इन्कार, रोक टोक, विकारों से रुकावट। भारु = विकारों का बोझ।2।
अर्थ: जिस स्मरण से (विकार तेरे राह में) रुकावट नहीं डाल सकेगे, वह स्मरण (माया के बंधनो से) आजाद कर देता है, (विकारों का) बोझ (मन से) उतर जाता है। प्रभु को सदा सिर झुका, ता कि बार-बार तुझे (जगत में) आना ना पड़े।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह सिमरनि करहि तू केल ॥ दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥ सो दीपकु अमरकु संसारि ॥ काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥
मूलम्
जिह सिमरनि करहि तू केल ॥ दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥ सो दीपकु अमरकु संसारि ॥ काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केल = खुशियाँ, आनंद। बांधि धरिओ = (जलता दीपक) टिका रखा है। अमरकु = अमर करने वाला। संसारि = संसार में। बिखु = जहर।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस स्मरण से तू आनंद ले रहा है (भाव, चिन्ता आदि से बचा रहता है), तेरे अंदर सदा (ज्ञान का) दीपक जलता रहता है, (विकारों के) तेल (वाला दीया) नहीं रहता, वह दीया (जिस मनुष्य के अंदर जग जाए उसको) संसार में अमर कर देता है, काम-क्रोध आदि के जहर को (अंदर से) मार के निकाल देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥ सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥ सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥ गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥
मूलम्
जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥ सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥ सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥ गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = मुक्ति, उच्च आत्मिक अवस्था। नही राखु उतारि = (गले से) उतार के ना रख।4।
अर्थ: जिस नाम-जपने की इनायत से तेरी उच्च आत्मिक अवस्था बनती है, तू उस स्मरण (रूपी माला) को परो के सदा गले में डाले रख, (कभी भी गले से) उतार के ना रखना, सदा स्मरण कर, गुरु की मेहर से (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥ मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥ सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥ सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥
मूलम्
जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥ मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥ सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥ सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कानि = काण, अधीनता। मंदरि = घर में, हृदय घर में, स्वै स्वरूप में। पटंबर = पट अंबर, पाट/रेशम के कपड़े। पटंबर तानि = पाट/रेशम के कपड़े तान के, बेफिक्र हो के। सेज = हृदय। बिगसै = खिल उठता है। अनदिनु = हर रोज।5।
अर्थ: (हे भाई!) जिस स्मरण से तुझे किसी की अधीनता नहीं रहती, अपने घर में बे-फिक्र हो के सोता है, हृदय में सुख है, जीवात्मा खिली रहती है, ऐसा स्मरण-रूपी अमृत हर वक्त पीता रह।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥ जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥ सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥ इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥
मूलम्
जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥ जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥ सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥ इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलाइ = रोग। माइ = माया। मनि = मन में।6।
अर्थ: जिस स्मरण के कारण तेरा आत्मिक रोग काटा जाता है, तुझे माया नहीं सताती, हे भाई! सदा ये स्मरण कर, अपने मन में हरि की महिमा कर (पर, गुरु की शरण पड़), ये स्मरण गुरु से ही मिलता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥ ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥ जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥ हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥
मूलम्
सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥ ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥ जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥ हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासि = सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। सोइ = सो के। संजोग = भाग्यों से।7।
अर्थ: हे भाई! सदा दिन-रात, उठते-बैठते, खाते हुए, साँस लेते हुए, सोते हुए हर वक्त स्मरण का रस ले। (हे भाई!) प्रभु का स्मरण सौभाग्य से मिलता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥ सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥ कहि कबीर जा का नही अंतु ॥ तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥
मूलम्
जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥ सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥ कहि कबीर जा का नही अंतु ॥ तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधारु = आसरा। तंतु = टूणा, तंत्र।8।
अर्थ: जिस स्मरण से तेरे ऊपर से (विकारों का) बोझ उतर जाएगा, प्रभु के नाम के उस स्मरण को (अपनी जीवात्मा का) आसरा बना। कबीर कहता है: उस प्रभु के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, (उसकी याद के बिना) कोई और मंत्र, कोई और टूणा-टटका उसके सामने नहीं चल सकता (किसी और ढंग-तरीके से उसको मिला नहीं जा सकता)।8।9।
[[0972]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली घरु २ बाणी कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली घरु २ बाणी कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंधचि बंधनु पाइआ ॥ मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥ जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥ तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥
मूलम्
बंधचि बंधनु पाइआ ॥ मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥ जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥ तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंधचि = बंधन डालने वाली माया को। मुकतै गुरि = मुक्त गुरु ने। अनलु = आग। नख सिख = (पैरों के) नाखूनों से लेकर सिर की चोटी तक, सारे को अच्छी तरह। अंतरि = अपने अंदर ही। मजनु = चुभ्भी, स्नान।1।
अर्थ: (माया से) मुक्त गुरु ने माया को रोक लगा दी है, मेरी तृष्णा की आग बुझा दी है। अब जब अपने इस मन को अच्छी तरह देखता हूँ, तो अपने अंदर ही स्नान करता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥ नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥ नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवन = हवा (जैसा चंचल मन)। पवन पति = मन की मालिक जीवात्मा। उन्मनि = उन्मन में, पूर्ण खिलाव की अवस्था में। खरा = सबसे अच्छी दशा। मिरतु = मौत। जरा = बुढ़ापा।1। रहाउ।
अर्थ: जीवात्मा का पूर्ण खिड़ाव में बने रहना ही आत्मा की सबसे श्रेष्ठ अवस्था है, इस अवस्था को जनम-मरन और बुढ़ापा छू नहीं सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उलटी ले सकति सहारं ॥ पैसीले गगन मझारं ॥ बेधीअले चक्र भुअंगा ॥ भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥
मूलम्
उलटी ले सकति सहारं ॥ पैसीले गगन मझारं ॥ बेधीअले चक्र भुअंगा ॥ भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलटीले = उलट जाता है। सकति सहारं = माया का सहारा। पैसीले = पड़ जाते हैं। गगन मझारं = गगन में, आकाश में, ऊँची उड़ान में, दसवाँ द्वार में। बेधीअले = भेदे जाते हैं। चक्र भुअंगा = भुयंगम नाड़ी के चक्र, टेढ़े चक्रों वाला मन, टेढ़ी चालों वाला मन। भेटीअले = मिल जाता है। राइ = राय, राजा प्रभु।2।
अर्थ: माया वाला सहारा अब उलट गया है, (माया की जगह मेरा मन अब) प्रभु-चरणों में डुबकी लगा रहा है। टेढ़ी चालें चलने वाला ये मन अब भेदा जा चुका है क्योंकि निसंग हो के अब ये प्रभु को मिल गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चूकीअले मोह मइआसा ॥ ससि कीनो सूर गिरासा ॥ जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥ तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥
मूलम्
चूकीअले मोह मइआसा ॥ ससि कीनो सूर गिरासा ॥ जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥ तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोह मइ = मोह मय, मोह की भरी हुई। ससि = चंद्रमा, ठंड, आत्मिक शांति। सूर = सूरज, तपस, मन की विकारों की गर्मी। गिरासा कीनो = ग्रास बना लिया, हड़प् कर लेती है। भरिपुरि = भरपूर में, उस प्रभु रूप समुंदर में जो सब जगह भरपूर है। कुंभकु = प्राणों को रोकना। वासना के मूल = मन की रुचि। अनहद = एक रस।3।
अर्थ: मेरी मोह भरी आशाएं अब खत्म हो गई हैं; (मेरे अंदर की) शांति ने मेरे अंदर की तपश बुझा दी है। अब जबकि मन की रुचि सर्व-व्यापक प्रभु में जुड़ गई है, इस अवस्था में (मेरे अंदर, मानो) एक-रस वीणा बज रही है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥ सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥ करि करता उतरसि पारं ॥ कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥
मूलम्
बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥ सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥ करि करता उतरसि पारं ॥ कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बकतै = उपदेश करने वाले (गुरु) ने। बकि = बोल के। सुनतै = सुनने वाले ने। सुनि = सुन के। मंनि = मन में। करि करता = ‘करता करता’ करके, ‘प्रभु प्रभु’ कह के, प्रभु का स्मरण करके। सारं = श्रेष्ठ बात, असल भेद की बात।4।
अर्थ: कबीर कहता है (कि इस सारी तब्दीली में) असल राज की बात (ये है) - उपदेश करने वालें सतिगुरु ने जिसको अपना शब्द सुनाया, अगर उसको ध्यान से सुन के अपने मन में बसा लिया, तब प्रभु का स्मरण करके वह पार लांघ गया।4।1।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस राज की बात को, जो कबीर जी ने आखिरी बंद में बताई है, कहीं सिख समझने में चूक ना कर जाएं; शायद इस ख्याल से ही सतिगुरु नानक देव जी ने इस आखिरी बंद की और भी खुली व्याख्या अपने शब्द में कर दी है। वह शब्द भी राग रामकली में ही है और छंद की चाल भी इसी शब्द की चाल जैसी ही है।
रामकली महला १॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी॥ ता हउमै विचहु मारी॥ सो सेवकि राम पिआरी॥ जो गुर सबदी बीचारी॥१॥ सो हरि जनु हरि प्रभ भावै॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती लाज छोडि हरि के गुण गावै॥१॥ रहाउ॥ धुनि वाजे अनहद घोरा॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा॥ गुर पूरै सचु समाइआ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ॥२॥ सभि नाद बेद गुरबाणी॥ मनु राता सारिगपाणी॥ तह तीरथ वरत तप सारे॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे॥३॥ जह आपु गइआ भउ भागा॥ गुर चरणी सेवकु लागा॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ॥४॥१०॥ (पन्ना ८७९)
नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है, इस केन्द्रिय भाव को सारे शब्द में विस्तार से बयान किया गया है। ‘रहाउ’ में बताया गया है कि जीवात्मा की सबसे उच्च अवस्था वह है जब यह ‘उनमन’ में पहुँचती है; इस अवस्था को जनम-मरण और बुढ़ापा छू नहीं सकते। इस अवस्था की और सारी हालत सारे शब्द में बताई गई है, और ये सारी हालत उस केन्द्रिय तब्दीली का नतीजा है। गगन, भुअंग, ससि, सूर, कुंभक आदि शब्दों के द्वारा जो हालात बयान किए गए हैं वे सारे ‘उनमन’ में पहुँचे हुए के नतीजे हैं। पहले आत्मा ‘उनमन’ में पहुँची है और देखने में जो बाहरी चक्र-चिन्ह बने हैं, उनका वर्णन सारे शब्द में है। साफ शब्दों में ऐसा कह लें कि यहाँ ये वर्णन नहीं कि गगन, भुअंग, ससि, सूर आदि वाले साधन करने का नतीजा निकला ‘उनमन’; बल्कि ‘उनमन’ के असल प्रयोग का हाल है। और, यह ‘उनमन’ कैसे बनी? नाम-जपने की इनायत से। कबीर जी कहते हैं कि यही असल भेद की बात है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥ जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥
मूलम्
चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥ जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुइ = दोनों। जोति सरूपु = (प्रभु के) नूर के स्वरूप। जोती अंतरि = हरेक प्रकाश देने वाली चीज़ के अंदर। अनूपु = (अन+ऊप) जिस जैसा और कोई नहीं, बेमिसाल।1।
अर्थ: ये चाँद और सूरज दोनों ही उस परमात्मा की ज्योति का (बाहरी दिखाई देता) स्वरूप हैं, हरेक की रौशनी में सुंदर प्रभु स्वयं बस रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥ जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥ जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे गिआनी = हे ज्ञानवान मूर्ख! ब्रहम बीचारु = परमात्मा (की कुदरत) की विचार। धरिआ = बनाया। पसारु = जगत रचना।1। रहाउ।
अर्थ: हे विचारवान मनुष्य! (तू तो चाँद-सूरज आदि रौशनी वाली चीजें देख के सिर्फ इन्हें ही सलाह रहा है, इनको नूर देने वाले, रौशन करने वाले) परमात्मा (की महिमा) की विचार कर, उसने यह सारा संसार अपने नूर में से पैदा किया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥ कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥
मूलम्
हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥ कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = देख के। हीरा = चमकता कीमती पत्थर। करउ = मैं करता हूँ। आदेसु = नमस्कार। अलेखु = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें।2।
अर्थ: कबीर कहता है: मैं हीरे (आदि सुंदर कीमती चमकते पदार्थों) को देख के (उस) हीरे को सिर झुकाता हूँ (जिसने इनको ये गुण बख्शा है, और जो इनमें बसता हुआ भी) माया के प्रभाव से रहित है, और जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।2।2।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: चाँद-सूरज को माथे टेकने से मना किया गया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥ निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥ निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुनीआ = हे जगत (के लोगो!)। हुसीआर = सचेत (रहो)। बेदार = जागते (रहो)। मुसीअत हउ = लूटे जा रहे हो। रे भाई = हे भाई! निगम = वेद शास्त्र। हुसीआर पहरूआ = सचेत पहरेदार। देखत = देखते हुए। लै जाई = ले जा रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हे जगत के लोगो! सचेत रहो, जागते रहो, तुम तो (अपनी ओर से) जागते हुए लूटे जा रहे हो; वेद शास्त्र रूपी सचेत पहरेदारों के देखते हुए भी तुम्हें जम-राज लिए जा रहा है (भाव, शास्त्रों की रक्षा पहरेदारी में भी तुम ऐसे काम किए जा रहे हो, जिनके कारण जनम-मरण का चक्कर बना हुआ है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नींबु भइओ आंबु आंबु भइओ नींबा केला पाका झारि ॥ नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥
मूलम्
नींबु भइओ आंबु आंबु भइओ नींबा केला पाका झारि ॥ नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नींबु = नीम का वृक्ष। केला पाका = पका हुआ केला। झारि = (काँटों वाली) झाड़ी। सेबरि = सिंबल। मुगध = मूर्ख। गवार = अंजान।1।
अर्थ: (शास्त्रों के बताए कर्मकांड में फंसे) मूर्ख मति-हीन अंजान लोगों को नीम का वृक्ष आम दिखाई देता है, आम का पौधा नीम लगता है; पका हुआ केला इन्हें झाड़ियाँ नजर आती हैं, और सिंबल इन्हें नारियल का पका फल दिखाई देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥ कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥
मूलम्
हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥ कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेतु महि = रेत में। हसतीं = हाथियों से। पांति = खानदान।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रेतु महि’ संबंधक ‘मोह’ के होते हुए शब्द ‘रेतु’ की (ु) मात्रा कायम है, ऐसे कुछ शब्द ऐसे हैं जिनके अंत में ‘ु’ की मात्रा टिकी रहती है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कबीर कहता है: परमात्मा को ऐसे समझो जैसे खाण्ड रेत में मिली हुई हो। वह खांड हाथियों द्वारा नहीं चुनी जा सकती। (हाँ, अगर) चींटी हो तो वह (इस खाण्ड को) चुन के खा सकती है। इसी तरह मनुष्य कुल-जाति-खानदान (का गुमान) छोड़ के प्रभु को मिल सकता है।2।3।12।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: हमारे आत्मिक जीवन के रखवाले वेद-शास्त्र ने ऊँची-नीच जाति का भेद-भाव पैदा करके ऊँची जाति वालों को अहंकार में डाल दिया है। ये रास्ता परमात्मा के राह से दूर ले जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणी नामदेउ जीउ की रामकली घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
बाणी नामदेउ जीउ की रामकली घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनीले कागदु काटीले गूडी आकास मधे भरमीअले ॥ पंच जना सिउ बात बतऊआ चीतु सु डोरी राखीअले ॥१॥
मूलम्
आनीले कागदु काटीले गूडी आकास मधे भरमीअले ॥ पंच जना सिउ बात बतऊआ चीतु सु डोरी राखीअले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आनीले = ले आए। काटीले = काट के बनाई। मधे = बीच में। भरमीअले = उड़ाई। बात बतऊआ = बात चीत, गप्पें।1।
अर्थ: (हे त्रिलोचन! देख, लड़का) कागज लाता है, उसकी पतंग काटता है उस पतंग को आसमान में उड़ाता है, साथियों के साथ गप्पें भी मारता जाता है, पर उसका मन (पतंग की) डोर में टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु राम नामा बेधीअले ॥ जैसे कनिक कला चितु मांडीअले ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मनु राम नामा बेधीअले ॥ जैसे कनिक कला चितु मांडीअले ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेधीअले = भेद गया है। कनिक = सोना। कला = हुनर। कनिक कला = सोने का कारीगर, सोनियारा। मांडीअले = (सोने में) मढ़ा रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे त्रिलोचन!) जैसे सोनियारे का मन (औरों से बात-चीत करते हुए भी, कुठाली में पड़े हुए सोने में) जुड़ा रहता है, वैसे ही मेरा मन परमात्मा के नाम में बेधा हुआ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनीले कु्मभु भराईले ऊदक राज कुआरि पुरंदरीए ॥ हसत बिनोद बीचार करती है चीतु सु गागरि राखीअले ॥२॥
मूलम्
आनीले कु्मभु भराईले ऊदक राज कुआरि पुरंदरीए ॥ हसत बिनोद बीचार करती है चीतु सु गागरि राखीअले ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुंभु = घड़ा। ऊदक = पानी। कुआरि = कँवारी। राज कुआरि = जवान कवारियाँ। पुरंदरीए = (पुर+अंदर से) शहर में से। हसत = हसते हुए। बिनोद = हसीं की बातें।2।
अर्थ: (हे त्रिलोचन!) जवान लड़कियाँ शहर से (बाहर जाती हैं) अपना-अपना घड़ा उठा लेती हैं, पानी से भरती हैं, (आपस में) हसती हैं, हसीं की बातें व और कई विचारें करती हैं, पर अपना चिक्त अपने-अपने घड़े में रखती हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंदरु एकु दुआर दस जा के गऊ चरावन छाडीअले ॥ पांच कोस पर गऊ चरावत चीतु सु बछरा राखीअले ॥३॥
मूलम्
मंदरु एकु दुआर दस जा के गऊ चरावन छाडीअले ॥ पांच कोस पर गऊ चरावत चीतु सु बछरा राखीअले ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे त्रिलोचन!) एक घर है जिसके दस दरवाजे हैं, इस घर में से मनुष्य गऊएं चराने के लिए छोड़ता है; ये गाएँ पाँच कोस पर जा के चरती हैं, पर अपना चिक्त अपने बछड़े में रखती हैं (वैसे ही दस-इन्द्रियों वाले इस शरीर में से मेरी ज्ञान-इंद्रिय शरीर के निर्वाह के लिए काम-काज करती हैं, पर मेरी तवज्जो अपने प्रभु-चरणों में ही है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत नामदेउ सुनहु तिलोचन बालकु पालन पउढीअले ॥ अंतरि बाहरि काज बिरूधी चीतु सु बारिक राखीअले ॥४॥१॥
मूलम्
कहत नामदेउ सुनहु तिलोचन बालकु पालन पउढीअले ॥ अंतरि बाहरि काज बिरूधी चीतु सु बारिक राखीअले ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे त्रिलोचन! सुन, नामदेव (एक और दृष्टांत) कहता है: माँ अपने बच्चे को पालने में डालती है, अंदर-बाहर घर के कामों में व्यस्त रहती है, पर अपनी तवज्जो अपने बच्चे में रखती है।4।1।
दर्पण-भाव
भाव: प्रीति का स्वरूप- काम काज करते हुए तवज्जो हर वक्त प्रभु की याद में बनी रहे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पुरान सासत्र आनंता गीत कबित न गावउगो ॥ अखंड मंडल निरंकार महि अनहद बेनु बजावउगो ॥१॥
मूलम्
बेद पुरान सासत्र आनंता गीत कबित न गावउगो ॥ अखंड मंडल निरंकार महि अनहद बेनु बजावउगो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आनंता = बेअंत। न गावउगो = ना गाऊँ, मैं नहीं गाता। अखंड = अविनाशी। अखंड मंडल = अविनाशी ठिकाने वाला (प्रभु)। अनहद बेनु = एक रस बजती रहने वाली बाँसुरी। बजावउगो = बजाऊँ, मैं बजा रहा हूँ।1।
अर्थ: मुझे वेद-शास्त्र, पुराण आदि के गीत काव्य आदि गाने की आवश्यक्ता नहीं, क्योंकि मैं अविनाशी ठिकाने वाले निरंकार में जुड़ के (उसके प्यार की) एक-रस बाँसुरी बजा रहा हूँ।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
बैरागी रामहि गावउगो ॥ सबदि अतीत अनाहदि राता आकुल कै घरि जाउगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बैरागी रामहि गावउगो ॥ सबदि अतीत अनाहदि राता आकुल कै घरि जाउगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागी = वैरागवान हो के, माया से उपराम हो के, माया से मोह तोड़ के। सबदि = (गुरु के) शब्द द्वारा। अतीत = विरक्त, उदास। अनाहदि = अनाहद में, एक रस टिके रहने वाले हरि में, अविनाशी प्रभु में। आकुल कै घरि = सर्व व्यापक प्रभु के चरणों में। जाउगो = जाऊँ, मैं जाता हूँ, मैं टिका रहता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (सतिगुरु के) शब्द की इनायत से मैं वैरागवान हो के, विरक्त हो के प्रभु के गुण गा रहा हूँ, अविनाशी प्रभु (के प्यार) में रंगा गया हूँ, और सर्व-कुल-व्यापक प्रभु के चरणों में पहुँच गया हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इड़ा पिंगुला अउरु सुखमना पउनै बंधि रहाउगो ॥ चंदु सूरजु दुइ सम करि राखउ ब्रहम जोति मिलि जाउगो ॥२॥
मूलम्
इड़ा पिंगुला अउरु सुखमना पउनै बंधि रहाउगो ॥ चंदु सूरजु दुइ सम करि राखउ ब्रहम जोति मिलि जाउगो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउनै बंधि = पवन को बाँध के, पवन जैसे चंचल मन को काबू में रख के।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सारे बंद ध्यान से पढ़ें; महिमा के मुकाबले में कर्मकांड और तीर्थ स्नान आदि का विरोध कर रहे हैं; इस बंद में भी प्राणायाम को गैर-जरूरी कह रहे हैं।
दर्पण-भाषार्थ
सुखमना = (सं: सुषुमणा– a particular Artery of the human body said to lie between eerhaa and Pinglaa two of the vessels of the body) नाक के ऊपर माथे के बीच की वह नाड़ी जिसमें प्राणायाम के वक्त जोगी लोग बाई सुर (ईड़ा) के रास्ते प्राण चढ़ा के टिकाते हैं और दाई नासिका की नाड़ी पिंगला के रास्ते उतार देते हैं।
चंदु = बाई सुर ईड़ा। सूरज = दाहिनी सुर पिंगला। सम = बराबर, एक समान।2।
अर्थ: (प्रभु की महिमा की इनायत से) चंचल मन को रोक के (मैं प्रभु-चरणों में) टिका हुआ हूँ- यही मेरा ईड़ा, पिंगला, सुखमना (का साधन) है; मेरे लिए बाई और दाई सारी सुर एक जैसी हैं (भाव, प्राण चढ़ाने उतारने मेरे लिए एक जैसे ही हैं, अनावश्यक हैं), क्योंकि मैं परमात्मा की ज्योति में टिका बैठा हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथ देखि न जल महि पैसउ जीअ जंत न सतावउगो ॥ अठसठि तीरथ गुरू दिखाए घट ही भीतरि न्हाउगो ॥३॥
मूलम्
तीरथ देखि न जल महि पैसउ जीअ जंत न सतावउगो ॥ अठसठि तीरथ गुरू दिखाए घट ही भीतरि न्हाउगो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न पैसउ = नहीं पड़ता। भीतरि = अंदर।3।
अर्थ: न मैं तीर्थों के दर्शन करता हूँ, ना उनके पानी में चुभ्भी लगाता हूँ, और ना ही मैं उस पानी में रहने वाले जीवों को डराता हूँ। मुझे तो मेरे गुरु ने (मेरे अंदर ही) अढ़सठ तीर्थ दिखा दिए हैं। सो, मैं अपने अंदर ही (आत्म-तीर्थ पर) स्नान करता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच सहाई जन की सोभा भलो भलो न कहावउगो ॥ नामा कहै चितु हरि सिउ राता सुंन समाधि समाउगो ॥४॥२॥
मूलम्
पंच सहाई जन की सोभा भलो भलो न कहावउगो ॥ नामा कहै चितु हरि सिउ राता सुंन समाधि समाउगो ॥४॥२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘गावउगो, बजावउगो’ आदि में अक्षर ‘गो’ सिर्फ पद-पूर्ती के लिए ही है, भविष्यत काल के लिए नहीं। अर्थ करने के वक्त इनको ‘गावउ, बजावउ’ आदि ही समझना है।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जिस मनुष्य का मन महिमा की इनायत से सदा परमात्मा में टिका रहे, उसको शास्त्रों के कर्मकांड, जोगियों के प्राणायाम, तीर्थों के स्नान और लोक-शोभा की परवाह नहीं रहती।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच सहाई = सज्जन मित्र। राता = रंगा हुआ। सुंन समाधि = मन की वह एकाग्रता जिसमें कोई मायावी फुरना नहीं उठता, जिसमें माया के फुरनों की तरफ से शून्य ही शून्य है।4।
अर्थ: नामदेव कहता है: (कर्मकांड, तीर्थ आदिक से लोग जगत में शोभा की कामना करते हैं, पर) मुझे (इन कर्मों के आधार पर) सज्जनों-मित्रों व लोगों की प्रसंशा की आवश्यक्ता नहीं है, मुझे ये गर्ज नहीं कि कोई मुझे भला कहे; मेरा चिक्त प्रभु (-प्यार) में रंगा गया है, मैं उस ठहराव में ठहरा हुआ हूँ जहाँ माया का कोई विचार नहीं चलता।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइ न होती बापु न होता करमु न होती काइआ ॥ हम नही होते तुम नही होते कवनु कहां ते आइआ ॥१॥
मूलम्
माइ न होती बापु न होता करमु न होती काइआ ॥ हम नही होते तुम नही होते कवनु कहां ते आइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माइ = माय, माँ। काइआ = काया, मनुष्य शरीर। हम तुम = हम सारे जीव। होते = होते थे।1।
अर्थ: (नहीं तो, अगर ये मान लें कि कर्मों की खेल है तो) जब माँ थी ना पिता था; ना कोई मनुष्य-शरीर था, और ना ही उसके द्वारा किए हुए कोई कर्म; जब कोई जीव ही नहीं थे, तब (हे प्रभु! तेरे बिना) और किस जगह से कोई जीव जनम ले सकता था?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम कोइ न किस ही केरा ॥ जैसे तरवरि पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम कोइ न किस ही केरा ॥ जैसे तरवरि पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे प्रभु! (तेरे बिना)। केरा = का। तरवर = वृक्षों पर। पंखि = पक्षी।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! तेरे बिना और कोई भी किसी का सहायक नहीं है (ना कोई ‘कर्म’ आदि इस जीव को जनम-मरण में लाने वाला है, और ना ही कोई शास्त्र-निहित कर्म अथवा प्राणायाम आदि इसको चक्कर में से निकालने में समर्थ है), जैसे वृक्षों पर पक्षियों का बसेरा होता है (वैसे ही तेरे भेजे हुए जीव यहाँ आते हैं और तू स्वयं ही इन्हें अपने में जोड़ता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदु न होता सूरु न होता पानी पवनु मिलाइआ ॥ सासतु न होता बेदु न होता करमु कहां ते आइआ ॥२॥
मूलम्
चंदु न होता सूरु न होता पानी पवनु मिलाइआ ॥ सासतु न होता बेदु न होता करमु कहां ते आइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरु = सूरज। मिलाइआ = मिलाया, प्रभु ने अपने ही में मिलाए हुए थे, प्रभु ने अभी बनाए नहीं थे। करमु कहां ते आइआ = जीव के किए कर्मों का अभी अस्तित्व ही नहीं था।2।
अर्थ: जब ना चाँद था ना सूरज; जब पानी, हवा आदि तत्व भी अभी पैदा नहीं हुए थे, जब कोई वेद-शास्त्र भी नहीं थे; तब (हे प्रभु!) कर्मों का कोई अस्तित्व ही नहीं था।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेचर भूचर तुलसी माला गुर परसादी पाइआ ॥ नामा प्रणवै परम ततु है सतिगुर होइ लखाइआ ॥३॥३॥
मूलम्
खेचर भूचर तुलसी माला गुर परसादी पाइआ ॥ नामा प्रणवै परम ततु है सतिगुर होइ लखाइआ ॥३॥३॥
दर्पण-भाव
भाव: अपने उद्धार के लिए कोई तो शास्त्रों द्वारा बताए गए अच्छे कर्मों की आस रखे बैठा है, कोई प्राणायाम की टेक रखता है, किसी ने तुलसी माला आदि धार्मिक चिन्हों का आसरा लिया है; पर गुरु की शरण पड़ने से समझ आती है कि असल सहायक प्रभु स्वयं है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेचर = (खे = आकाश। चर = चलना) प्राण ऊपर चढ़ाने। भूचर = (भू = धरती) प्राण नीचे उतारने। खेचर भूचर = प्राण चढ़ाने उतारने, प्राणायाम। ततु = मूल। परम ततु = सबसे बड़ा जो जगत का मूल है। होइ = होय, प्रकट हो के, मिल के।3।
अर्थ: नामदेव कहता है: कोई प्राणायाम करता है (और इसमें अपनी मुक्ति समझता है), कोई तुलसी की माला आदि धारण करता है; पर मुझे अपने गुरु की कृपा से समझ आई है। गुरु ने मिल के मुझे ये बात समझाई है कि असल सहाई सबसे ऊँचा वह प्रभु (ही) है, जो जगत का मूल है (उसने जगत बनाया, और वही संसार-समुंदर में से पार उतारता है)।3।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली घरु २ ॥ बानारसी तपु करै उलटि तीरथ मरै अगनि दहै काइआ कलपु कीजै ॥ असुमेध जगु कीजै सोना गरभ दानु दीजै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥१॥
मूलम्
रामकली घरु २ ॥ बानारसी तपु करै उलटि तीरथ मरै अगनि दहै काइआ कलपु कीजै ॥ असुमेध जगु कीजै सोना गरभ दानु दीजै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलटि = उल्टा लटक के। दहै = जले। काइआ = काया, शरीर। कलप = सं: कल्प, medical treatment of the sick, इलाज। काइआ कलपु = काया कल्प, शरीर का इलाज, योग अभ्यास और दवाईयों से शरीर को नया-निरोया करके बुढ़ापे से बचा लेना और चिरंजीवी हो जाना। असमेध जगु = अश्वमेध यज्ञ, वह यज्ञ जिसमें घोड़े की कुर्बानी दी जाती थी। गरभ दानु = (फल आदि में) छुपा के दान। सरि = के बराबर।1।
अर्थ: (हे मेरे मन!) यदि कोई मनुष्य काशी जा के उल्टा लटक के तप करे, तीर्थों पर शरीर त्यागे, (धूणियों की) आग में जले, या योगाभ्यास आदि से शरीर को चिरंजीवी कर ले, अगर कोई अश्वमेघ यज्ञ करे, या सोना (फल आदि में) छुपा के दान करे; तो भी ये सारे काम प्रभु के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि छोडि रे पाखंडी मन कपटु न कीजै ॥ हरि का नामु नित नितहि लीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
छोडि छोडि रे पाखंडी मन कपटु न कीजै ॥ हरि का नामु नित नितहि लीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे (मेरे) पाखण्डी मन! कपट ना कर, छोड़ ये कपट, ये कपट छोड़ दे। सदा परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गंगा जउ गोदावरि जाईऐ कु्मभि जउ केदार न्हाईऐ गोमती सहस गऊ दानु कीजै ॥ कोटि जउ तीरथ करै तनु जउ हिवाले गारै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥२॥
मूलम्
गंगा जउ गोदावरि जाईऐ कु्मभि जउ केदार न्हाईऐ गोमती सहस गऊ दानु कीजै ॥ कोटि जउ तीरथ करै तनु जउ हिवाले गारै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुंभि = कुंभ (समय) पर। केदार = एक हिन्दू तीर्थ है, जो रियासत गढ़वाल (उक्तर प्रदेश, भारत) में रुद्र हिमालय की बर्फानी धारा में महा पंथ की चोटी के नीचे एक टीले पर स्थित है। इसकी ऊँचाई समुंदर तल से 11753 फुट है। यहाँ सदा-शिव का मंदिर है, जिसमें भैंसे की शक्ल का महादेव है। बताया जाता है कि पांडवों से हार खा के शिव जी इस जगह पर भैंसा बन कर आए। अंदर के पुजारी जंगम हैं। अर्जुन से हार खा के शिव ने भैंसे के रूप में यहाँ पनाह ली। धड़ पहाड़ में धँस गया, सिर्फ पीठ बाहर दिखाई देती है, जिसकी लोग पूजा करते हैं। बाकी हिस्सों की पूजा चार अन्य स्थलों पर होती है = बाँहों की पूजा तुंगनाथ पर, मुँह की रुद्रनाथ पर, नाभि की मध्यमेश्वर पर और सिर और जटाओं की कल्पेश्वर पर। ये पाँचों स्थान पाँच केदार कहलाते हैं।
गोमती = एक नदी जो उक्तर प्रदेश में पीलीभीत में से शाहजहाँपुर की झील से निकल के खेड़ी, लखनऊ, जौनपुर आदि 500 मील बहती हुई सैदपुर के मकाम (जिला गाजीपुर में) गंगा से जा मिलती है। इसका दूसरा नाम वशिष्ट भी है। गोमती नाम की एक नदी द्वारावती के पास भी है।
गोदावरि = गो (स्वर्ग) देने वाली दक्षिण की एक नदी जो पूर्बी घाटों के त्रियंबक में से निकल के नौ सौ मील बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। हजूर साहिब इसी नदी के किनारे पर है। सहस = हजार। कोटि = करोड़ों। हिवाले = हिमालय पर्वत पर, बर्फ में।2।
अर्थ: (हे मेरे मन!) कुम्भ के मेले पर अगर गंगा या गोदावरी तीर्थ पर जाएं, केदार तीर्थ पर स्नान करें अथवा गोमती नदी के किनारे पर हजार गऊऔं का दान करें; (हे मन!) अगर कोई करोड़ों बार तीर्थ यात्रा करे, या अपना शरीर हिमालय पर्वत की बर्फ में गला दे, तो भी ये सारे काम प्रभु के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असु दान गज दान सिहजा नारी भूमि दान ऐसो दानु नित नितहि कीजै ॥ आतम जउ निरमाइलु कीजै आप बराबरि कंचनु दीजै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥३॥
मूलम्
असु दान गज दान सिहजा नारी भूमि दान ऐसो दानु नित नितहि कीजै ॥ आतम जउ निरमाइलु कीजै आप बराबरि कंचनु दीजै राम नाम सरि तऊ न पूजै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असु = अश्व, घोड़े। सिहजा = सेज। भूमि = जमीन। आतमु = अपना आप। निरमाइलु = (सं: निर्माल्य) देवताओं की भेंट। कंचनु = सोना।3।
अर्थ: (हे मेरे मन!) यदि घोड़े दान करें, हाथी दान करें, पत्नी दान कर दें, अपनी जमीन दान कर दें; अगर सदा ही ऐसा (कोई ना कोई) दान करते ही रहें; अगर अपना-आप भी भेट कर दें; अगर अपने बराबर तोल के सोना दान करें, तो भी (हे मन!) ये सारे काम प्रभु के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनहि न कीजै रोसु जमहि न दीजै दोसु निरमल निरबाण पदु चीन्हि लीजै ॥ जसरथ राइ नंदु राजा मेरा राम चंदु प्रणवै नामा ततु रसु अम्रितु पीजै ॥४॥४॥
मूलम्
मनहि न कीजै रोसु जमहि न दीजै दोसु निरमल निरबाण पदु चीन्हि लीजै ॥ जसरथ राइ नंदु राजा मेरा राम चंदु प्रणवै नामा ततु रसु अम्रितु पीजै ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहि = मन में। रोसु = गिला, गुस्सा। जमहि = जम को। निरबाण पदु = वह अवस्था जो वासना रहित है। चीन्हि लीजै = पहचान लें। जसरथ राइ नंदु = राजा यशरथ का पुत्र। मेरा = मेरे लिए, मेरे हिस्से का। ततु रसु = नाम रूप रस। पीजै = पीना चाहिए। राइ = राय, राजा। नंदु = पुत्र।4।
अर्थ: (हे जिंदे! यदि सदा ऐसे ही काम करते रहना है, और नाम नहीं स्मरणा तो फिर) मन में गिला ना करना, जम को दोष ना देना (कि वह क्यों आ गया है; इन कामों से जम से खलासी नहीं मिलनी); (हे जिंदे!) पवित्र, वासना-रहित अवस्था के साथ जान-पहचान डाल, नामदेव विनती करता है (सब रसों का) मूल-रस नाम-अमृत ही पीना चाहिए, ये नाम-अमृत ही मेरा (नामदेव का) राजा रामचंद्र है, जो राजा दशरथ का पुत्र है।4।4।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: नाम-जपने की महानता-तप, तीर्थ स्नान, दान, मूर्ति पूजा, ये कोई भी नाम-जपने की बराबरी नहीं कर सकते।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ’ की तुक में जिक्र है कि प्रभु का नाम स्मरण करे बिना बाकी और धार्मिक आहर पाखण्ड ही हैं। ये है शब्द का बीज रूप भाव; इसका विस्तार चार बँदों में है। पहले तीन बँदों में तो ये साफ तौर पर उन कामों का वर्णन है जिनको जोग धार्मिक समझते हैं, पर जो भक्त जी के ख्याल में स्मरण करने के सामने बिल्कुल पाखण्ड है। आखिर में कहते हैं कि अगर तुम ऐसे काम ही करते रहे तो जमों से निजात नहीं मिलनी, फिर ये गिला ना करना कि जम सिर पर ही रहा।
पर चौथे पद में अचानक दशरथ के पुत्र राजा रामचंद्र जी का नाम आ जाना हैरानी में डाल देता है। कई सज्जन अर्थ करते हैं: ‘राजा दशरथ के पुत्र का राजा’। ये अर्थ गलत है क्योंकि ‘नंदु’ का अर्थ है ‘पुत्र’; ‘पुत्र का’ नहीं हो सकता। अगर इसका अर्थ ‘पुत्र का’ होता तो ‘नंदु’ के नीचे ‘ु’ मात्रा ना होती। कई सज्जन ये समझते हैं कि श्री राम चंद्र जी ने बड़े-बड़े काम किए हैं, इस वास्ते इन कामों को परमात्मा के काम बता के शब्द ‘राम चंदु’ को परमात्मा के प्रथाय बरता है। ये बात भी अनहोनी है। फिर, इस बात की क्या आवश्यक्ता थी कि श्री रामचंद्र के पिता का नाम भी बताया जाता? शब्द कृष्ण, दामोदर, माधो, मुरारि, राम, रामचंद आदि भक्तों ने और सतिगुरु जी ने भी सैकड़ों बार परमात्मा के वास्ते प्रयोग किए हैं; पर जब किसी के पिता का नाम भी साथ लगा दिया जाए, तो उस वक्त उस नाम को परमात्मा के लिए नहीं बरता जा सकता। फिर तो किसी व्यक्ति विशेष का वर्णन ही हो सकता है।
दरअसल बात ये है कि जैसे तीन बँदों में तप, यज्ञ, तीर्थ-स्नान और दान को नाम के मुकाबले में हल्का सा काम बताया है, वैसे ही किसी अवतार की मूर्ति को पूजना भी परमात्मा का नाम स्मरण के मुकाबले पर एक बहुत ही हल्का काम बताया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली बाणी रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली बाणी रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पड़ीऐ गुनीऐ नामु सभु सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ॥ लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे जउ पारसहि न परसै ॥१॥
मूलम्
पड़ीऐ गुनीऐ नामु सभु सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ॥ लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे जउ पारसहि न परसै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़ीऐ = पढ़ते हैं। गुनीऐ = विचारते हैं। सभु = हर जगह। सुनीऐ = सुनते हैं। भाउ = प्रेम, लगन, आकर्षण। अनभउ = अनुभव, Direct perception, प्रत्यक्ष दर्शन। कंचनु = सोना। हिरन = (सं: हिरण्य) सोना। पारसहि = पारस को। परसै = छूए।1।
अर्थ: हर जगह प्रभु का नाम पढ़ते (भी) हैं, सुनते (भी) हैं और विचारते (भी) हैं (भाव, सब जीव प्रभु का नाम पढ़ते हैं, विचारते हैं और सुनते हैं; पर कामादिकों के कारण मन मेंसंशय की गाँठ बनी रहने के कारण, इनके अंदर) प्रभु का प्यार पैदा नहीं होता, प्रभु के दर्शन नहीं होते; (दर्शन हों भी तो कैसे? कामादिकों के कारण, मन के साथ प्रभु की छूह ही नहीं बनती, और) जब तक लोहा पारस से ना छूए, तब तक ये शुद्ध सोना कैसे बन सकता है?।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
देव संसै गांठि न छूटै ॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देव संसै गांठि न छूटै ॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसै = संशय की, डर की, सहम की। गांठि = गाँठ। न छूटै = नहीं खुलती। मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। इन पंचहु = (कामादिक) इन पाँचों ने। लूटे = (सब जीव) लूट लिए हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! काम, क्रोध, माया (का मोह), अहंकार और ईष्या-जलन - इन पाँचों ने मिल के (सब जीवों के आत्मिक गुणों को) लूट लिया है (इस वास्ते निताणे हो जाने के कारण जीवों के अंदर से) सहम की गाँठ नहीं खुलती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ॥ गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ॥२॥
मूलम्
हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ॥ गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कबि = कवि। कुलीन = अच्छे कुल वाले। गुनी = गुणवान। सूर = सूरमे।2।
अर्थ: (कामादिकों की लूट के कारण, जीवों के अंदर से) कभी भी ये (बन चुकी) धारणा नहीं हटती कि हम बड़े कवि हैं, अच्छी कुल वाले हैं, विद्वान हैं, जोगी हैं, सन्यासी हैं, ज्ञानवान हैं, गुणवान हैं, सूरमे हैं या दाते हैं (जिस भी तरफ जीव पड़े उसी का गुमान हो गया)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ॥ मोहि अधारु नामु नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ॥३॥१॥
मूलम्
कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ॥ मोहि अधारु नामु नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभै = सारे जीव (जिनको पांचों ने कामादिक वैरियों ने लूट लिया है)। भूलि परे = भूल गए हैं, गलती खा गए हैं। मोहि = मुझे। जीवन = जिंद। मोरे = मेरे लिए।3।
अर्थ: हे रविदास! कह: (जिनको कामादिक ने लूट लिया है, वह) सारे ही पागलों की भांति गलतियाँ किए जा रहे हैं और (यह) नहीं समझते (कि जिंदगी का असल आसरा प्रभु का नाम है); मुझे रविदास को परमात्मा का नाम ही आसरा है, नाम ही मेरी जिंद है, नाम ही मेरे प्राण हैं, नाम ही मेरा धन है।3।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा का नाम-जपना ही विकारों की मार से बचा सकता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकली बाणी बेणी जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रामकली बाणी बेणी जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इड़ा पिंगुला अउर सुखमना तीनि बसहि इक ठाई ॥ बेणी संगमु तह पिरागु मनु मजनु करे तिथाई ॥१॥
मूलम्
इड़ा पिंगुला अउर सुखमना तीनि बसहि इक ठाई ॥ बेणी संगमु तह पिरागु मनु मजनु करे तिथाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईड़ा = बाई नासिका की नाड़ी, जिस रास्ते जोगी लोग प्राणायाम करने के समय श्वास ऊपर को खींचते हैं। पिंगुला = दाहिनी नासिका की नाड़ी, जिस रास्ते प्राण उतरते हैं। सुखमना = (सं: सुषमणा) नाम के ऊपर की नाड़ी जहाँ प्राणायाम के वक्त प्राण टिकाते हैं। तीनि = ईड़ा, पिंगला और सुखमना तीनों ही नाड़ियाँ। इक ठाई = एक जगह पर (जहाँ निरंजन प्रभु बसता है)। बेणी = त्रिवेणी। बेणी संगमु = त्रिबेणी का मूल, वह जगह जहाँ गंगा-जमुना-सरस्वती तीनों ही नदियाँ मिलती हैं। तह = वहीं ही (जहाँ निरंजन राम प्रकट हुआ है)। पिरागु = प्रयाग तीर्थ। मजनु = स्नान।1।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु की कृपा से उस मिलन-अवस्था में पहुँचा है, उसके वास्ते) ईड़ा, पिंगला और सुखमना तीनों ही एक ही जगह बसती हैं, त्रिबेणी संगम प्रयाग तीर्थ भी (उस मनुष्य के लिए) वहीं बसते हैं। भाव, उस मनुष्य को ईड़ा, पिंगुला सुखमना के अभ्यास की आवश्यक्ता नहीं रह जाती; उसको तृवेणी और प्रयाग के स्नान की जरूरत नहीं रहती। (उस मनुष्य का) मन प्रभु के (मिलाप रूप तृवेणी में) स्नान करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतहु तहा निरंजन रामु है ॥ गुर गमि चीनै बिरला कोइ ॥ तहां निरंजनु रमईआ होइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतहु तहा निरंजन रामु है ॥ गुर गमि चीनै बिरला कोइ ॥ तहां निरंजनु रमईआ होइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तहा = वहाँ (जहाँ मन डुबकी लगता है)। गमि = पहुँच के। गुर गमि = गुरु तक पहुँच के, गुरु की शरण पहुँच के। चीनै = पहचानता है, सांझ बनाता है। रमईआ = सुंदर राम।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! माया-रहित राम उस अवस्था में (मनुष्य के मन में) बसता है, निरंजन सोहाना राम प्रकट होता है, जिस अवस्था से सांझ कोई विरला मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ कर बनाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव सथानै किआ नीसाणी ॥ तह बाजे सबद अनाहद बाणी ॥ तह चंदु न सूरजु पउणु न पाणी ॥ साखी जागी गुरमुखि जाणी ॥२॥
मूलम्
देव सथानै किआ नीसाणी ॥ तह बाजे सबद अनाहद बाणी ॥ तह चंदु न सूरजु पउणु न पाणी ॥ साखी जागी गुरमुखि जाणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देव सथान = प्रभु के रहने की जगह, वह जगह जहाँ प्रभु प्रकट हो गया है। बाजे = बजता है।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: घर में चाहे कई बढ़िया-बढ़िया साज पड़े रहें, जब तक वे बजाए ना जाएं, उनके बजने से जो उत्साह पैदा होता है, वह पैदा नहीं हो सकता) आनंद लाता है, हुलारा लाता है। सबद बाजे, वाणी बाजे, सतिगुरु का शब्द, प्रभु की महिमा की वाणी, हुलारा पैदा करते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
तह = उस अवस्था में (जब निरंजन राम प्रकट होता है)। साखी = शिक्षा से। जागी = (तवज्जो) जाग उठती है। जाणी = सूझ पड़ जाती है।2।
अर्थ: (अगर कोई पूछे कि) जिस अवस्था में प्रभु (मन के अंदर) आ टिकता है, उसकी पहचान क्या है (तो उक्तर ये है कि) उस अवस्था में सतिगुरु का शब्द प्रभु की महिमा की वाणी (मनुष्य के हृदय में) हिल्लौरे पैदा करती हैं; (जगत के अंधेरे को दूर करने के लिए) चाँद और सूरज (उतने समर्थ) नहीं (जितना वह हिलौरा मन के अंधेरे को दूर करने के लिए होता है), पवन पानी (आदि तत्व जगत को उतना सुख) नहीं (दे सकते, जितना सुख ये हिलौरा मनुष्य के मन को देता है); मनुष्य की तवज्जो गुरु की शिक्षा के साथ जाग उठती है, गुरु के द्वारा सूझ पड़ जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपजै गिआनु दुरमति छीजै ॥ अम्रित रसि गगनंतरि भीजै ॥ एसु कला जो जाणै भेउ ॥ भेटै तासु परम गुरदेउ ॥३॥
मूलम्
उपजै गिआनु दुरमति छीजै ॥ अम्रित रसि गगनंतरि भीजै ॥ एसु कला जो जाणै भेउ ॥ भेटै तासु परम गुरदेउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छीजै = नाश हो जाती है। अंम्रित रसि = नाम अमृत के रस से। गगनंतरि = गगन+अंतरि, गगन में, आकाश में, ऊँची उड़ान में। भीजै = (मन) भीग जाता है, रस जाता है। कला = हुनर। भेउ = भेद। तासु = उसको। परम = सबसे ऊँचा।3।
अर्थ: (प्रभु-मिलाप वाली अवस्था में मनुष्य की) प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान बन जाती है। दुमर्ति नाश हो जाती है; ऊँची उड़ान में (पहुँचा हुआ मन) नाम-अमृत के रस के साथ रस जाता है; जो मनुष्य इस (अवस्था में पहुँच सकने वाले) हुनर का भेद जान लेता है, उसको अकाल-पुरख मिल जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसम दुआरा अगम अपारा परम पुरख की घाटी ॥ ऊपरि हाटु हाट परि आला आले भीतरि थाती ॥४॥
मूलम्
दसम दुआरा अगम अपारा परम पुरख की घाटी ॥ ऊपरि हाटु हाट परि आला आले भीतरि थाती ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआर = दरवाजा, द्वार (जहाँ से किसी मकान के बाहरी हिस्से का संबंध मकान के अंदरूनी हिस्से से बनता है। मनुष्य शरीर के दस दरवाजे हैं, जिनके माध्यम से बाहरी पदार्थों का संबंध शरीर से और अंदर का बाहर से बनता है। नौ दरवाजे तो जगत से साधारण सांझ बनाने के लिए हैं, पर दिमाग एक ऐसा दरवाजा है जिसकी इनायत से मनुष्य प्रभु से सांझ बना सकता है, क्योंकि सोच-विचार इसी ‘द्वार’ के माध्यम से हो सकती है)। दसम दुआर = शरीर का दसवाँ द्वार, दिमाग़। घाटी = जगह। थाती = (सं: स्थिति) टिकाउ।4।
अर्थ: अगम्य (पहुँच से परे), बेअंत और परम पुरख प्रभु के प्रकट होने का ठिकाना (मनुष्य के शरीर का दिमाग़-रूप) दसवाँ-द्वार है; शरीर के ऊपरी हिस्से में (सिर, मानो) एक हाट है, उस हाट में (दिमाग़, मानो) एक बेहतर है, इस आले के द्वारा प्रभु का प्रकाश होता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागतु रहै सु कबहु न सोवै ॥ तीनि तिलोक समाधि पलोवै ॥ बीज मंत्रु लै हिरदै रहै ॥ मनूआ उलटि सुंन महि गहै ॥५॥
मूलम्
जागतु रहै सु कबहु न सोवै ॥ तीनि तिलोक समाधि पलोवै ॥ बीज मंत्रु लै हिरदै रहै ॥ मनूआ उलटि सुंन महि गहै ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पलोवै = दौड़ जाते हैं, प्रभाव नहीं डाल सकते। उलटि = (‘तीन तिलोक’ की ओर से) पलट के। गहै = (ठिकाना) पकड़ता है।5।
अर्थ: (जिसके अंदर परमात्मा प्रकट हो गया) वह सदा जागता रहता है (सचेत रहता है), (माया की नींद में) कभी सोता नहीं; वह एक ऐसी समाधि में टिका रहता है जहाँ से माया के तीनों गुण और तीनों लोकों की माया परे ही रहती है; वह मनुष्य प्रभु का नाम-मंत्र अपने हृदय में टिका के रखता है, (जिसकी इनायत से) उसका मन माया की ओर से पलट के (सचेत रहता है), उस अवस्था में ठिकाना पकड़ता है जहाँ कोई फुरना नहीं उठता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागतु रहै न अलीआ भाखै ॥ पाचउ इंद्री बसि करि राखै ॥ गुर की साखी राखै चीति ॥ मनु तनु अरपै क्रिसन परीति ॥६॥
मूलम्
जागतु रहै न अलीआ भाखै ॥ पाचउ इंद्री बसि करि राखै ॥ गुर की साखी राखै चीति ॥ मनु तनु अरपै क्रिसन परीति ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलीआ = (सं: अलीक) झूठ। साखी = शिक्षा। चीति = चिक्त में। क्रिशन = प्रभु।6।
अर्थ: वह मनुष्य सदा जागता है, (सचेत रहता है), कभी झूठ नहीं बोलता; पाँचों ही इन्द्रियों को अपने काबू में रखता है, सतिगुरु का उपदेश अपने मन में संभाल के रखता है, अपना मन, अपना शरीर प्रभु के प्यार से सदके करता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर पलव साखा बीचारे ॥ अपना जनमु न जूऐ हारे ॥ असुर नदी का बंधै मूलु ॥ पछिम फेरि चड़ावै सूरु ॥ अजरु जरै सु निझरु झरै ॥ जगंनाथ सिउ गोसटि करै ॥७॥
मूलम्
कर पलव साखा बीचारे ॥ अपना जनमु न जूऐ हारे ॥ असुर नदी का बंधै मूलु ॥ पछिम फेरि चड़ावै सूरु ॥ अजरु जरै सु निझरु झरै ॥ जगंनाथ सिउ गोसटि करै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर = हाथ की (उंगलियाँ)। पलव = पत्र। साखा = शाखा, टहणियाँ। असुर नदी = विकारों की नदी। मूलु = श्रोत। बंधै = रोक देता है, बंद कर देता है। फेरि = मोड़ के, हटा के। पछमि = पश्चिम, उतरता पासा, वह दिशा जिधर सूरज डूबता है, वह पासा जिधर ज्ञान के सूर्य के डूबने का खतरा होता है, अज्ञानता। सूरु = ज्ञान का सूर्य। निझरु = चश्मा, झरना। गोसटि = मिलाप। अजरु = अ+जरा, जिसको कभी बुढ़ापा ना आए।7।
अर्थ: वह मनुष्य (जगत को) हाथ (की उंगलियाँ, वृक्ष की) टहनियाँ और पत्ते समझता है (इसलिए मूल प्रभु को छोड़ के इसके पसारे में फंस के) अपनी जिंदगी जूए के खेल में नहीं गवाता; विकारों की नींद का श्रोत ही बंद कर देता है, मन को अज्ञानता के अंधेरे से पलट के (इसमें ज्ञान का) सूरज चढ़ाता है; (सदा के लिए) परमात्मा के साथ मेल कर लेता है, (मिलाप का उसके अंदर) एक चश्मा फूट पड़ता है, (वह एक ऐसी मौज) का आनंद लेता है, जिसको कभी बुढ़ापा नहीं (भाव, कभी खत्म नहीं होता)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चउमुख दीवा जोति दुआर ॥ पलू अनत मूलु बिचकारि ॥ सरब कला ले आपे रहै ॥ मनु माणकु रतना महि गुहै ॥८॥
मूलम्
चउमुख दीवा जोति दुआर ॥ पलू अनत मूलु बिचकारि ॥ सरब कला ले आपे रहै ॥ मनु माणकु रतना महि गुहै ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पलू = पल्लव, पक्तियाँ, पंखुड़ियाँ। अनत = अनंत। रहै = रहता है। रतन = प्रभु के गुण। गुहै = छुपा रहता है, जुड़ा रहता है। सरब कला = सारी ताकतों वाला प्रभु।8।
अर्थ: प्रभु की ज्योति द्वारा उसके अंदर (मानो) चार मुँह वाला दीपक जग उठता है (जिसके कारण हर तरफ प्रकाश ही प्रकाश रहता है); (उसके अंदर, मानो, एक ऐसा फूल खिल उठता है, जिसके) बीच में प्रभु-रूप मकरंद होता है और उसकी बेअंत पक्तियाँ होती हैं (अनंत रचना वाला प्रभु उसके अंदर प्रकट हो जाता है) वह मनुष्य सारी ताकतों के मालिक प्रभु को अपने अंदर बसा लेता है, उसका मन मोती (बन के प्रभु के गुण रूप) रत्नों में जुड़ा रहता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मसतकि पदमु दुआलै मणी ॥ माहि निरंजनु त्रिभवण धणी ॥ पंच सबद निरमाइल बाजे ॥ ढुलके चवर संख घन गाजे ॥ दलि मलि दैतहु गुरमुखि गिआनु ॥ बेणी जाचै तेरा नामु ॥९॥१॥
मूलम्
मसतकि पदमु दुआलै मणी ॥ माहि निरंजनु त्रिभवण धणी ॥ पंच सबद निरमाइल बाजे ॥ ढुलके चवर संख घन गाजे ॥ दलि मलि दैतहु गुरमुखि गिआनु ॥ बेणी जाचै तेरा नामु ॥९॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। पदमु = कमल फूल। मणी = हीरे। माहि = धुर अंदर। धणी = मालिक। पंच सबद = पाँचों ही किस्मों के साजों की आवाज। निरमाइल = निर्मल, पवित्र, सोहाने। ढुलके = झूल रहा है। घन = बहुत। दलि = दलै, दल देता है। दैतहु = दैत्यों को, कामादिक विकारों को। जाचै = मांगता है।9।
अर्थ: उस बंदे के धुर अंदर त्रिलोकी का मालिक प्रभु आ टिकता है। (उसकी इनायत से) उसके माथे पर (मानो) कमल फूल (खिल उठता है, और) उस फूल के चारों तरफ हीरे (परोए जाते हैं); (उसके अंदर मानो एक ऐसा सुंदर राग होता है कि) पाँचों ही किस्मों के सुंदर साज बज उठते हैं, बड़े शंख बजने लग जाते हैं, उसके ऊपर चवर झूलने लगता है (भाव, उसका मन शहनशाहों का शाह बन जाता है)। सतिगुरु से मिला हुआ प्रभु के नाम का ये प्रकाश कामादिक विकारों को मार खत्म कर देता है।
हे प्रभु! (तेरा दास) बेणी (भी तेरे दर से) (ये) नाम ही माँगता है।9।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: बेणी जी इस अष्टपदी में कई अलंकारों के माध्यम से वह सुख बयान करते हैं जो मन को प्रभु के चरणों में जोड़ने से मिलता है; माया के तीन गुणों और कामादिक की मार से मन ऊँचा हो जाता है। अगर निरी कविता का ही ख्याल करें तो भी बहुत सुंदर रचना है, पर अलंकारों के कारण मुश्किल जरूर लगती है।
ऐसा प्रतीत होता है जैसे गुरु नानक देव जी ने सादे शब्दों में अपनी एक अष्टपदी के माध्यम से इस शब्द के भाव को बयान कर दिया है; कई शब्द सांझे मिलते थे; जैसे: सुंन समाधि, दुरमति, नामु रतनु, अनाहद, जागि रहे, पंच तसकर, वाजै आदि। गुरु नानक देव जी वाली अष्टपदी भी इसी राग में ही है।
रामकली महला १॥ खटु मटु देही मनु बैरागी॥ सुरति सबदु धुनि अंतरि जागी॥ वाजै अनहदु मेरा मनु लीणा॥ गुर बचनी सचि नामि पतीणा॥१॥ प्राणी राम भगति सुखु पाईऐ॥ गुरमुखि हरि हरि मीठा लागै हरि हरि नामि समाईऐ॥१॥ रहाउ॥ माइआ मोहु बिवरजि समाए॥ सतिगुरु भेटै मेलि मिलाए॥ नामु रतनु निरमोलकु हीरा॥ तितु राता मेरा मनु धीरा॥२॥ हउमै ममता रोगु न लागै॥ राम भगति जम का भउ भागै॥ जंमु जंदारु न लागै मोहि॥ निरमल नामु रिदै महि सोहि॥३॥ सबदु बीचारि भए निरंकारी॥ गुरमति जागे दुरमति परहारी॥ अनदिनु जागि रहे लिव लाई॥ जीवन मुकति गति अंतरि पाई॥४॥ अलिपत गुफा महि रहहि निरारे॥ तसकर पंच सबदि संघारे॥ पर घर जाइ न मनु डोलाए॥ सहज निरंतरि रहउ समाए॥५॥ गुरमुखि जागि रहे अउधूता॥ सद बैरागी ततु परोता॥ जगु सूता मरि आवै जाइ॥ बिनु गुर सबद न सोझी पाइ॥६॥ अनहद सबदु वजै दिनु राती॥ अविगत की गति गुरमुखि जाती॥ तउ जानी जा सबदि पछानी॥ एको रवि रहिआ निरबानी॥७॥ सुंन समाधि सहजि मनु राता॥ तजि हउ लोभा एको जाता॥ गुर चेले अपना मनु मानिआ॥ नानक दूजा मेटि समानिआ॥८॥३॥ (पन्ना ९०३–९०४)
भक्त वाणी के विरोधी सज्जन जी भक्त-वाणी को गुरबाणी गुरमति के उलट समझ के भक्त बेणी जी के बारे में यूँ लिखते हैं: ‘आप जाति के ब्राहमण थे, जोग-अभ्यास के पक्के श्रद्धालु थे, कर्मकांड की भी बहुत हिमायत करते थे।’
इससे आगे बेणी जी का रामकली राग वाला ये उपरोक्त शब्द दे के फिर लिखते हैं: ‘उक्त शब्द के अंदर भक्त जी ने ‘अनहत शब्द’, निउली करम, जोग-अभ्यास का उपदेश दे के जोरदार शब्दों द्वारा मंडन किया है। इससे साबित होता है कि भक्त जी जोग-अभ्यास और वैश्णव मत के पक्के श्रद्धालु थे’।
पर, पाठक सज्जन बेणी जी के शब्द में देख आए हैं कि नियोली करम का कोई वर्णन नहीं है, विरोधी सज्जन ने शब्द के प्रति उपरामता पैदा करने के लिए बढ़ा-चढ़ा के बात लिखी है। जोग-अभ्यास का भी भक्त जी ने उपदेश नहीं किया, बल्कि खण्डन किया है और कहा है कि प्रभु-मेल की अवस्था के बीच ही जोग-अभ्यास और त्रिवेणी का स्नान आ जाते हैं। अब रहा भक्त जी का ‘अनहद शब्द’ का उपदेश। ऊपर लिखी गुरु नानक पातशाह की अष्टपदी पढ़ें; साहिब कहते हैं: ‘वाजै अनहदु, अलिपत गुफा महि रहहि निरारे, अनहद सबदु वजै, सुंन समाधि सहजि मनु राता।’ इसे पढ़ कर विरोधी सज्जन क्या गुरु नानक साहिब को जोग-अभ्यास व वैश्णव मत का श्रद्धालू समझ लेगा? जल्दबाजी त्याग के, धैर्य से एक-एक शब्द की संरचना समझ के, उस समय की व्याकरण के अनुसार शब्दों के परस्पर संबंध को ध्यान से समझ के, पक्षपात से ऊपर उठ कर, अगर शब्द को पढ़ेंगे, तो ये शब्द निर्मल गुरमति अनुसार दिखाई दे जाएगा। भक्त जी तो आरम्भ में ही ‘रहाउ’ की तुकों में कहते हैं कि परमात्मा उस आत्मिक अवस्था में प्रकट होता है, जिस अवस्था की सूझ गुरु की शरण पड़ने से मिलती है। आखिरी तुक में फिर कहते हैं कि ‘गुरमुखि गिआनु’ गुरु से मिला हुआ ज्ञान (विकार) दैत्यों को नाश कर देता है। ये कह के प्रभु से नाम की दाति माँगते हैं।
अफसोस! जल्दबाजी और बे-प्रतीती में इस शब्द को पढ़ के विरोधी सज्जन गलत अर्थ लगा रहे हैं।
विरोधी सज्जन सिर्फ गलती ही नहीं कर रहे, खुद को कुछ हद तक धोखा भी दे रहे हैं। देखिए, भक्त बेणी जी के बाकी शबदों को सामने पेश किए बिना उनके बारे में ऐसा लिखना– “भक्त जी के दो और शब्द सिरी राग और प्रभाती राग में आए हैं, पर उन शबदों से भी गुरमति के किसी सिद्धांत पर रौशनी नहीं पड़ती। इससे साबित हुआ कि भक्त बेणी जी की रचना गुरमति का कोई प्रचार नहीं करती, बल्कि गुरमति की विरोधी है।”
रामकली राग के शब्द को तो पाठक पढ़ ही चुके हैं और देख चुके हैं कि ये हू-ब-हू आशय से मिलता है। बेणी जी का सिरी राग वाला शब्द पहले विचारा जा चुका है। हम यहाँ सिर्फ ‘रहाउ’ का बंद फिर देते हैं।
‘फिरि पछुतावहिगा मूढ़िआ, तूं कवन कुमति भ्रमि लागा। चेति रामु, नाही जमपुरि जाहिगा, जनु बिचरै अनराधा’।1। रहाउ।
क्यों भाई साहब! प्रभु के नाम स्मरण के लिए प्रेरणा करनी भी गुरमति के उलट ही है? इससे तो ऐसा लगता है कि जानबूझ के विरोधता की जा रही है।
बेणी जी का अगला शब्द प्रभाती राग वाला भी पढ़ कर देखना। जाति के ब्राहमण बेणी जी, ब्राहमण द्वारा डाले गए कर्मकांड के जाल का पाज और किस तगड़े ढंग साफ शब्दों में खोलते? लगता है भाई साहब ने ये शब्द पढ़ा ही नहीं। हठ-अधीन हो के सच्चाई से दूर ही जा पड़ते हैं।