१७ गोंड

[[0859]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड चउपदे महला ४ घरु १ ॥

मूलम्

रागु गोंड चउपदे महला ४ घरु १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे मनि चिति आस रखहि हरि ऊपरि ता मन चिंदे अनेक अनेक फल पाई ॥ हरि जाणै सभु किछु जो जीइ वरतै प्रभु घालिआ किसै का इकु तिलु न गवाई ॥ हरि तिस की आस कीजै मन मेरे जो सभ महि सुआमी रहिआ समाई ॥१॥

मूलम्

जे मनि चिति आस रखहि हरि ऊपरि ता मन चिंदे अनेक अनेक फल पाई ॥ हरि जाणै सभु किछु जो जीइ वरतै प्रभु घालिआ किसै का इकु तिलु न गवाई ॥ हरि तिस की आस कीजै मन मेरे जो सभ महि सुआमी रहिआ समाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउपदे = चार पदों वाले शब्द। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। मन चिंदे = मन मांगे। पाई = पाया, तू हासिल कर लेगा। जीइ = जीअ में। घालिआ = की हुई मेहनत। हरि तिस की = ‘तिसु हरि की’, उस परमात्मा की।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘हरि तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘जीइ’ शब्द ‘जीउ’ से ‘जीइ’ अधिकरण कारक एक वचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! अगर तू अपने मन में अपने चिक्त में सिर्फ परमात्मा पर भरोसा रखे,? तो तू अनेक ही मन मांगे फल हासिल कर लेगा, (क्योंकि) परमात्मा वह सब कुछ जानता है जो (हम जीवों के) मन में घटित होता है, परमात्मा किसीकी की हुई मेहनत को रक्ती भर भी व्यर्थ नहीं जाने देता। सो, हे मेरे मन! उस मालिक परमात्मा की सदा आस रख, जो सब जीवों में मौजूद है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन आसा करि जगदीस गुसाई ॥ जो बिनु हरि आस अवर काहू की कीजै सा निहफल आस सभ बिरथी जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन आसा करि जगदीस गुसाई ॥ जो बिनु हरि आस अवर काहू की कीजै सा निहफल आस सभ बिरथी जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! जगदीस = (जगत+ईस) जगत का मालिक। अवर काहू की = किसी और की। सभ = सारी। बिरथी = व्यर्थ। जाई = जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जगत के मालिक धरती के साई की (सहायता की) आस रखा कर। परमात्मा के बिना जो भी किसी की भी आस की जाती है, वह आस सफल नहीं होती, वह आस व्यर्थ जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो दीसै माइआ मोह कुट्मबु सभु मत तिस की आस लगि जनमु गवाई ॥ इन्ह कै किछु हाथि नही कहा करहि इहि बपुड़े इन्ह का वाहिआ कछु न वसाई ॥ मेरे मन आस करि हरि प्रीतम अपुने की जो तुझु तारै तेरा कुट्मबु सभु छडाई ॥२॥

मूलम्

जो दीसै माइआ मोह कुट्मबु सभु मत तिस की आस लगि जनमु गवाई ॥ इन्ह कै किछु हाथि नही कहा करहि इहि बपुड़े इन्ह का वाहिआ कछु न वसाई ॥ मेरे मन आस करि हरि प्रीतम अपुने की जो तुझु तारै तेरा कुट्मबु सभु छडाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = सारा। मत गवाई = कहीं गवा ना लेना। इन्ह कै हाथि = इनके हाथ में। इहि = यह, वे। बपुड़े = बेचारे। वाहिआ = लागाई हुई वाह, लगाया हुआ जोर। न वसाई = बस नहीं चलता, सफल नहीं होता। तारै = पार लंघाता है।2।
अर्थ: हे मेरे मन! जो यह सारा परिवार दिखाई दे रहा है, यह माया के मोह (का मूल) है। इस परिवार की आस रख के कहीं अपना जीवन व्यर्थ ना गवा बैठना। इन संबन्धियों के हाथ में कुछ नहीं। ये बेचारे क्या कर सकते हैं? इनका लगाया हुआ जोर सफल नहीं हो सकता। सो, हे मेरे मन! अपने प्रीतम प्रभु की ही आस रख, वही तुझे पार लंघा सकता है, तेरे परिवार को भी (हरेक बिपता से) छुड़वा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे किछु आस अवर करहि परमित्री मत तूं जाणहि तेरै कितै कमि आई ॥ इह आस परमित्री भाउ दूजा है खिन महि झूठु बिनसि सभ जाई ॥ मेरे मन आसा करि हरि प्रीतम साचे की जो तेरा घालिआ सभु थाइ पाई ॥३॥

मूलम्

जे किछु आस अवर करहि परमित्री मत तूं जाणहि तेरै कितै कमि आई ॥ इह आस परमित्री भाउ दूजा है खिन महि झूठु बिनसि सभ जाई ॥ मेरे मन आसा करि हरि प्रीतम साचे की जो तेरा घालिआ सभु थाइ पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमित्री = (प्रमित = माया) माया की। करहि = तू करेगा। कितै कंमि = किसी भी काम में। परमित्री आस = माया की आस। भाउ दूजा = प्रभु के बिना और प्यार। थाइ पाई = सफल करेगा।3।
अर्थ: हे भाई! अगर तू (प्रभु को छोड़ के) और माया आदि की आस बनाएगा, कहीं ये ना समझ लेना कि माया तेरे किसी काम आएगी। माया वाली आस (प्रभु के बिना) दूसरा प्यार है, ये सारा झूठा प्यार है, ये तो एक छिन में नाश हो जाएगा। हे मेरे मन! सदा कायम रहने वाले प्रीतम प्रभु की ही आस रख, वह प्रभु तेरी की हुई सारी मेहनत सफल करेगा।3।

[[0860]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा मनसा सभ तेरी मेरे सुआमी जैसी तू आस करावहि तैसी को आस कराई ॥ किछु किसी कै हथि नाही मेरे सुआमी ऐसी मेरै सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ जन नानक की आस तू जाणहि हरि दरसनु देखि हरि दरसनि त्रिपताई ॥४॥१॥

मूलम्

आसा मनसा सभ तेरी मेरे सुआमी जैसी तू आस करावहि तैसी को आस कराई ॥ किछु किसी कै हथि नाही मेरे सुआमी ऐसी मेरै सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ जन नानक की आस तू जाणहि हरि दरसनु देखि हरि दरसनि त्रिपताई ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। सुआमी = हे स्वामी! को = कोई जीव। किसी कै हथि = किसी भी जीव के हाथ में। मेरै सतिगुरि = मेरे गुरु ने। बूझ = समझ। देखि = देख के। दरसनि = दर्शन की इनायत से। त्रिपताई = मन भर जाता है।4।
अर्थ: पर, हे मेरे मालिक-प्रभु! तेरी ही प्रेरणा से जीव आशाएं बाँधता है, मन के फुरने बनाता है। हरेक जीव वैसी ही आशा करता है जैसी तू प्रेरणा करता है। हे मेरे मालिक! किसी भी जीव के वश कुछ नहीं- मुझे तो मेरे गुरु ने ये सूझ बख्शी है। हे प्रभु! (अपने) दास नानक की (धारी हुई) आशा को तू खुद ही जानता है (वह तमन्ना यह है कि) प्रभु के दर्शन करके (नानक का मन) दर्शन की इनायत से (माया की आशाओं की ओर से) अघाया रहे।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ४ ॥ ऐसा हरि सेवीऐ नित धिआईऐ जो खिन महि किलविख सभि करे बिनासा ॥ जे हरि तिआगि अवर की आस कीजै ता हरि निहफल सभ घाल गवासा ॥ मेरे मन हरि सेविहु सुखदाता सुआमी जिसु सेविऐ सभ भुख लहासा ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ४ ॥ ऐसा हरि सेवीऐ नित धिआईऐ जो खिन महि किलविख सभि करे बिनासा ॥ जे हरि तिआगि अवर की आस कीजै ता हरि निहफल सभ घाल गवासा ॥ मेरे मन हरि सेविहु सुखदाता सुआमी जिसु सेविऐ सभ भुख लहासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवीऐ = स्मरणा चाहिए। धिआईऐ = ध्यान करना चाहिए। किलविख = पाप। सभि = सारे। तिआगि = त्याग के। कीजै = किया जाए। घाल = मेहनत। मन = हे मन! जिसु सेवीऐ = जिसकी सेवा भक्ति करने से। सभ भुख = सारी तृष्णा। लहासा = उतर जाती है।1।
अर्थ: हे मेरे मन! जो हरि एक छिन में सारे पाप नाश कर सकता है, सदा उसको स्मरणा चाहिए, सदा उसका ध्यान धरना चाहिए। हे मन! अगर परमात्मा को छोड़ के किसी और की (सहायता की) आशा रखें, तो वह परमात्मा (जीव की उस) सारी की हुई मेहनत को असफल कर देता है, बेकार कर देता है। सो, हे मेरे मन! सारे सुख देने वाले मालिक हरि का स्मरण किया कर, उसका स्मरण करने से सारी तृष्णा भूख उतर जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन हरि ऊपरि कीजै भरवासा ॥ जह जाईऐ तह नालि मेरा सुआमी हरि अपनी पैज रखै जन दासा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन हरि ऊपरि कीजै भरवासा ॥ जह जाईऐ तह नालि मेरा सुआमी हरि अपनी पैज रखै जन दासा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीजै = करना चाहिए। जह = जहाँ। पैज = सत्कार, इज्जत।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (सदा) परमात्मा पर भरोसा रखना चाहिए, क्योंकि, हे मेरे मन! जहाँ भी जाएं, वह मेरा मालिक प्रभु सदा अंग-संग रहता है, और वह प्रभु अपने दासों की अपने सेवकों की इज्जत रखता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे अपनी बिरथा कहहु अवरा पहि ता आगै अपनी बिरथा बहु बहुतु कढासा ॥ अपनी बिरथा कहहु हरि अपुने सुआमी पहि जो तुम्हरे दूख ततकाल कटासा ॥ सो ऐसा प्रभु छोडि अपनी बिरथा अवरा पहि कहीऐ अवरा पहि कहि मन लाज मरासा ॥२॥

मूलम्

जे अपनी बिरथा कहहु अवरा पहि ता आगै अपनी बिरथा बहु बहुतु कढासा ॥ अपनी बिरथा कहहु हरि अपुने सुआमी पहि जो तुम्हरे दूख ततकाल कटासा ॥ सो ऐसा प्रभु छोडि अपनी बिरथा अवरा पहि कहीऐ अवरा पहि कहि मन लाज मरासा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरथा = (व्यथा) पीड़ा, दुख। पहि = पास। कढासा = निकालते हैं, सुनाते हैं। ततकाल = तुरंत। छोडि = छोड़ के। कहीऐ = अगर कहें। कहि = कह कर। मन = हे मन! लाज मरासा = शर्मिन्दा होना पड़ता है, शर्म से मरते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! अगर तू अपना कोई दुख-दर्द (प्रभु को छोड़ के) औरों के आगे पेश करता फिरेगा, तो वह लोग आगे से अपने अनेक दुख-दर्द सुना देंगे। हे भाई! अपना हरेक दुख-दर्द अपने मालिक परमात्मा के पास ही बयान कर, वह तो तेरे दुख तुरंत काट के रख देगा। हे भाई! अगर ऐसे समर्थ प्रभु को छोड़ के अपनी पीड़ा औरों के आगे रखोगे, (तो) औरो के पास कह के, हे मन! शर्मिंदा ही होना पड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो संसारै के कुट्मब मित्र भाई दीसहि मन मेरे ते सभि अपनै सुआइ मिलासा ॥ जितु दिनि उन्ह का सुआउ होइ न आवै तितु दिनि नेड़ै को न ढुकासा ॥ मन मेरे अपना हरि सेवि दिनु राती जो तुधु उपकरै दूखि सुखासा ॥३॥

मूलम्

जो संसारै के कुट्मब मित्र भाई दीसहि मन मेरे ते सभि अपनै सुआइ मिलासा ॥ जितु दिनि उन्ह का सुआउ होइ न आवै तितु दिनि नेड़ै को न ढुकासा ॥ मन मेरे अपना हरि सेवि दिनु राती जो तुधु उपकरै दूखि सुखासा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीसहि = दिखते हैं। अपनै सुआइ = अपने स्वार्थ के कारण। जितु = जिस में। दिनि = दिन में। जितु दिनि = जिस दिन में। सुआउ = मनोरथ, गरज़, स्वार्थ। होइ न आवै = पूरा ना हो सके। तितु = उस में। तितु दिन = उस दिन में (on that day)। सेवि = स्मरण कर। उपकरै = पुकारता है, (दुख सुख में) पहुँचता है। दूखि = दुख में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘स्वाय’ शब्द है ‘स्वाउ’ का कर्णकारक, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! दुनियावी ये साक-सम्बंधी, मित्र, भाई जो भी दिखाई देते हैं, ये तो अपनी-अपनी गर्ज की खातिर ही मिलते हैं। जब उनकी गरज़ पूरी ना हो सके, तब उनमें से कोई भी नजदीक नहीं फटकता। सो, हे मेरे मन! दिन रात हर समय अपने प्रभु का स्मरण करता रह, वही हरेक दुख-सुख में तुझे काम आ सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस का भरवासा किउ कीजै मन मेरे जो अंती अउसरि रखि न सकासा ॥ हरि जपु मंतु गुर उपदेसु लै जापहु तिन्ह अंति छडाए जिन्ह हरि प्रीति चितासा ॥ जन नानक अनदिनु नामु जपहु हरि संतहु इहु छूटण का साचा भरवासा ॥४॥२॥

मूलम्

तिस का भरवासा किउ कीजै मन मेरे जो अंती अउसरि रखि न सकासा ॥ हरि जपु मंतु गुर उपदेसु लै जापहु तिन्ह अंति छडाए जिन्ह हरि प्रीति चितासा ॥ जन नानक अनदिनु नामु जपहु हरि संतहु इहु छूटण का साचा भरवासा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंती = आखिरी वक्त पर। अउसरि = अवसर में, मौके पर। लै = लेकर। अंति = आखिरी समय में। अनदिनु = (अनुदिनं) हर रोज। संतहु = हे संतजनो!।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! जो कोई आखिरी समय में (मौत से हमें) बचा नहीं सकता, उसका भरोसा नहीं करना चाहिए। गुरु का उपदेश ले के (गुरु की शिक्षा पर चल के) परमात्मा का नाम-मंत्र जपा कर। जिस मनुष्यों के चिक्त में परमात्मा का प्यार बसता है, उन्हें परमात्मा आखिरी समय में (जमों के डर से) छुड़वा लेता है। हे दास नानक! (कह:) हे संत जनो! हर वक्त परमात्मा का नाम जपा करो। (दुखों-कष्टों से) बचने का यही पक्का साधन है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ४ ॥ हरि सिमरत सदा होइ अनंदु सुखु अंतरि सांति सीतल मनु अपना ॥ जैसे सकति सूरु बहु जलता गुर ससि देखे लहि जाइ सभ तपना ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ४ ॥ हरि सिमरत सदा होइ अनंदु सुखु अंतरि सांति सीतल मनु अपना ॥ जैसे सकति सूरु बहु जलता गुर ससि देखे लहि जाइ सभ तपना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। अंतरि = हृदय में। सीतल = ठंडा। सकति = माया। सूरु = सूरज। जलता = तपता। ससि = चंद्रमा। तपन = तपश।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सदा सुख आनंद बना रहता है, हृदय में शांति टिकी रहती है, मन ठंडा-ठार रहता है। जैसे माया का सूरज बहुत तपता हो, और, गुरु चंद्रमा का दर्शन करने से (माया के मोह की) सारी तपश दूर हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन अनदिनु धिआइ नामु हरि जपना ॥ जहा कहा तुझु राखै सभ ठाई सो ऐसा प्रभु सेवि सदा तू अपना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन अनदिनु धिआइ नामु हरि जपना ॥ जहा कहा तुझु राखै सभ ठाई सो ऐसा प्रभु सेवि सदा तू अपना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! अनदिनु = हर वक्त। जहा कहा = जहां कहां, हर जगह। ठाई = जगह। सेवि = स्मरण कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! हर वक्त परमात्मा के नाम का ध्यान धर, प्रभु का नाम जपता रह! हे मन! वह प्रभु हर जगह ही तेरी रक्षा करने वाला है, उस अपने प्रभु को सदा ही स्मरण करता रह।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा महि सभि निधान सो हरि जपि मन मेरे गुरमुखि खोजि लहहु हरि रतना ॥ जिन हरि धिआइआ तिन हरि पाइआ मेरा सुआमी तिन के चरण मलहु हरि दसना ॥२॥

मूलम्

जा महि सभि निधान सो हरि जपि मन मेरे गुरमुखि खोजि लहहु हरि रतना ॥ जिन हरि धिआइआ तिन हरि पाइआ मेरा सुआमी तिन के चरण मलहु हरि दसना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा महि = जिस (हरि) में। सभि = सारे। निधान = खजाने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। खोजि = खोज के। लहहु = ढूँढो। जिस = जिनके (जिनि = जिसने)। तिन के हरि दसना = उन हरि के दासों के।2।
अर्थ: हे मेरे मन! उस प्रभु का नाम जपा कर, जिसमें सारे ही खजाने हैं। गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम-रतन को (अपने अंदर से) खोज के तलाश ले। जिस व्यक्ति ने हरि-नाम में ध्यान जोड़ा, उसने हरि का मिलाप हासिल कर लिया। हे मन! उन हरि के दासों के चरण पलोसा करो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदु पछाणि राम रसु पावहु ओहु ऊतमु संतु भइओ बड बडना ॥ तिसु जन की वडिआई हरि आपि वधाई ओहु घटै न किसै की घटाई इकु तिलु तिलु तिलना ॥३॥

मूलम्

सबदु पछाणि राम रसु पावहु ओहु ऊतमु संतु भइओ बड बडना ॥ तिसु जन की वडिआई हरि आपि वधाई ओहु घटै न किसै की घटाई इकु तिलु तिलु तिलना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पछाणि = पहचान के, सांझ डाल के। बड बडाना = बहुत बड़ा। ओह = वह महिमा।3।
अर्थ: हे मन! गुरु के शब्द से सांझ डाल के हरि-नाम का रस प्राप्त कर। (जो मनुष्य ये नाम-रस हासिल करता है) वह श्रेष्ठ संत है वह बहुत भाग्यशाली बन जाता है। ऐसे मनुष्य की इज्जत प्रभु ने खुद बढ़ाई है, किसी के घटाने से वह इज्जत एक तिल जितनी भी नहीं घट सकती।3।

[[0861]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस ते सुख पावहि मन मेरे सो सदा धिआइ नित कर जुरना ॥ जन नानक कउ हरि दानु इकु दीजै नित बसहि रिदै हरी मोहि चरना ॥४॥३॥

मूलम्

जिस ते सुख पावहि मन मेरे सो सदा धिआइ नित कर जुरना ॥ जन नानक कउ हरि दानु इकु दीजै नित बसहि रिदै हरी मोहि चरना ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कर = हाथ (बहुवचन)। जुरना = जोड़ के। कउ = को। हरि = हे हरि! मोहि रिदै = मेरे हृदय में।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! जिस प्रभु से तू सारे सुख पा रहा है, उसको सदा ही दोनों हाथ जोड़ के (पूरी निम्रता से) स्मरण किया कर। हे हरि! (अपने) दास नानक को एक ख़ैर डाल कि तेरे चरण मेरे हृदय में सदा ही बसते रहें।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ४ ॥ जितने साह पातिसाह उमराव सिकदार चउधरी सभि मिथिआ झूठु भाउ दूजा जाणु ॥ हरि अबिनासी सदा थिरु निहचलु तिसु मेरे मन भजु परवाणु ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ४ ॥ जितने साह पातिसाह उमराव सिकदार चउधरी सभि मिथिआ झूठु भाउ दूजा जाणु ॥ हरि अबिनासी सदा थिरु निहचलु तिसु मेरे मन भजु परवाणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपराव = अमीर लोग। सिकदार = सरदार। सभि = सारे। मिथिआ = नाशवान। भाउ दूजा = प्रभु के बिना और प्यार। जाणु = समझ ले। थिरु = कायम रहने वाला। निहचलु = अटल। परवाणु = स्वीकार।1।
अर्थ: हे मन! (जगत में) जितने भी शाह-पातशाह अमीर सरदार चौधरी (दिखाई देते हैं) ये सारे नाशवान हैं, (ऐसे) माया के प्यार को झूठा समझ। सिर्फ परमात्मा ही नाश-रहित है, सदा कायम रहने वाला है, अटल है। हे मेरे मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, तभी स्वीकार होगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन नामु हरी भजु सदा दीबाणु ॥ जो हरि महलु पावै गुर बचनी तिसु जेवडु अवरु नाही किसै दा ताणु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन नामु हरी भजु सदा दीबाणु ॥ जो हरि महलु पावै गुर बचनी तिसु जेवडु अवरु नाही किसै दा ताणु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीबाणु = आसरा। भजु = स्मरण कर, उचार। जो = जो मनुष्य। ताणु = ताकत।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा प्रभु का नाम स्मरण किया कर, यही अटल आसरा है। जो मनुष्य गुरु के वचन पर चल कर प्रभु के चरणों में निवास हासिल कर लेता है, उस मनुष्य के आत्मिक बल जितना और किसी का बल नहीं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितने धनवंत कुलवंत मिलखवंत दीसहि मन मेरे सभि बिनसि जाहि जिउ रंगु कसु्मभ कचाणु ॥ हरि सति निरंजनु सदा सेवि मन मेरे जितु हरि दरगह पावहि तू माणु ॥२॥

मूलम्

जितने धनवंत कुलवंत मिलखवंत दीसहि मन मेरे सभि बिनसि जाहि जिउ रंगु कसु्मभ कचाणु ॥ हरि सति निरंजनु सदा सेवि मन मेरे जितु हरि दरगह पावहि तू माणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुलवंत = ऊँचे कुल वाले। मिलखवंत = जमीनों के मालिक। दीसहि = दिखते हें। कचाणु = कच्चा। सति = सदा कायम रहने वाला। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया के प्रभाव से परे। जितु = जिससे।2।
अर्थ: हे मेरे मन! (दुनिया में) जितने भी धनवान, ऊँची कुल वाले, जमीनों के मालिक दिखाई दे रहे हैं, ये सारे नाश हो जाएंगे, (इनका बड़प्पन वैसे ही कच्चा है) जैसे कुसंभ का रंग कच्चा है। हे मेरे मन! उस परमात्मा को सदा स्मरण कर, जो सदा कायम रहने वाला है, जो माया के प्रभाव से परे है, और जिसके माध्यम से तू प्रभु की हजूरी में आदर हासिल करेगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राहमणु खत्री सूद वैस चारि वरन चारि आस्रम हहि जो हरि धिआवै सो परधानु ॥ जिउ चंदन निकटि वसै हिरडु बपुड़ा तिउ सतसंगति मिलि पतित परवाणु ॥३॥

मूलम्

ब्राहमणु खत्री सूद वैस चारि वरन चारि आस्रम हहि जो हरि धिआवै सो परधानु ॥ जिउ चंदन निकटि वसै हिरडु बपुड़ा तिउ सतसंगति मिलि पतित परवाणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूद = शूद्र। चारि आस्रम = ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास। परधानु = श्रेष्ठ। निकटि = नजदीक। हिरडु बपुड़ा = बेचारा अरिण्ड। मिलि = मिल के। पतित = विकारी।3।
अर्थ: (हे मन! हमारे देश में) ब्राहमण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र - ये चार (प्रसिद्ध) वर्ण हैं, (ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास- ये) चार आश्रम (प्रसिद्ध) हैं। इनमें से जो भी मनुष्य नाम स्मरण करता है, वही (सबसे) श्रेष्ठ है (जाति आदि के कारण नहीं)। जैसे चंदन के नजदीक बेचारा अरिण्ड बसता है (और सुगंधित हो जाता है) वैसे ही साधु-संगत में मिल के विकारी भी (पवित्र हो के) स्वीकार हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओहु सभ ते ऊचा सभ ते सूचा जा कै हिरदै वसिआ भगवानु ॥ जन नानकु तिस के चरन पखालै जो हरि जनु नीचु जाति सेवकाणु ॥४॥४॥

मूलम्

ओहु सभ ते ऊचा सभ ते सूचा जा कै हिरदै वसिआ भगवानु ॥ जन नानकु तिस के चरन पखालै जो हरि जनु नीचु जाति सेवकाणु ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। सूचा = पवित्र। जा कै हिरदै = जिसके हृदय में। नानकु पखालै = नानक धोता है। सेवकाण = सेवक। नीच जाति = नीच जाति का।4।
अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है, वह मनुष्य और सब मनुष्यों से ऊँचा हो जाता है, स्वच्छ हो जाता है। (हे भाई!) दास नानक उस मनुष्य के चरण धोता है, जो प्रभु का सेवक है प्रभु का भक्त है, चाहे वह जाति के आधार पर नीच ही (गिना जाता) है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ४ ॥ हरि अंतरजामी सभतै वरतै जेहा हरि कराए तेहा को करईऐ ॥ सो ऐसा हरि सेवि सदा मन मेरे जो तुधनो सभ दू रखि लईऐ ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ४ ॥ हरि अंतरजामी सभतै वरतै जेहा हरि कराए तेहा को करईऐ ॥ सो ऐसा हरि सेवि सदा मन मेरे जो तुधनो सभ दू रखि लईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। सभतै = हर जगह। वरतै = मौजूद है। को = कोई मनुष्य। करईऐ = करता है। सेवि = स्मरण कर। मन = हे मन! सभदू = सभ (दुखों) से। रखि लईऐ = बचा लेता है।1।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा हरेक के दिल की जानने वाला है, हरेक जगह में मौजूद है, (हरेक जीव के अंदर व्यापक हो के) जैसा काम (किसी जीव से) करवाता है, वैसा ही काम जीव करता है। हे मन! ऐसी ताकत वाले प्रभु को सदा स्मरण करता रह, वह तुझे हरेक दुख-कष्ट से बचा सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन हरि जपि हरि नित पड़ईऐ ॥ हरि बिनु को मारि जीवालि न साकै ता मेरे मन काइतु कड़ईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन हरि जपि हरि नित पड़ईऐ ॥ हरि बिनु को मारि जीवालि न साकै ता मेरे मन काइतु कड़ईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पढ़ईऐ = पढ़ना चाहिए, जपना चाहिए। काइतु = क्यों? किसलिए? कढ़ईऐ = झुरना चाहिए, चिन्ता फिक्र करनी चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा प्रभु का नाम जपना चाहिए, उचारना चाहिए। (जब) परमात्मा के बिना (और) कोई नहीं मार सकता है ना जीवित कर सकता है, तो फिर, हे मेरे मन! (किसी तरह का) चिन्ता-फिक्र नहीं करना चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि परपंचु कीआ सभु करतै विचि आपे आपणी जोति धरईऐ ॥ हरि एको बोलै हरि एकु बुलाए गुरि पूरै हरि एकु दिखईऐ ॥२॥

मूलम्

हरि परपंचु कीआ सभु करतै विचि आपे आपणी जोति धरईऐ ॥ हरि एको बोलै हरि एकु बुलाए गुरि पूरै हरि एकु दिखईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परपंचु = यह दिखाई देता संसार। सभु = सारा। करतै = कर्तार ने। धरईऐ = धरी हुई है। गुरि = गुरु ने। दिखईऐ = दिखाया है।2।
अर्थ: हे मन! ये सारा दिखाई देता जगत कर्तार ने खुद बनाया है, इस जगत में उसने खुद ही अपनी ज्योति रखी हुई है। (सब जीवों में वह) कर्तार स्वयं ही बोल रहा है। (हरेक जीव को) वह प्रभु खुद ही बोलने की ताकत दे रहा है। पूरे गुरु ने (मुझे हर जगह) वह एक प्रभु ही दिखा दिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अंतरि नाले बाहरि नाले कहु तिसु पासहु मन किआ चोरईऐ ॥ निहकपट सेवा कीजै हरि केरी तां मेरे मन सरब सुख पईऐ ॥३॥

मूलम्

हरि अंतरि नाले बाहरि नाले कहु तिसु पासहु मन किआ चोरईऐ ॥ निहकपट सेवा कीजै हरि केरी तां मेरे मन सरब सुख पईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = (हमारे) अंदर। नाले = अंग संग। कहु = बताओ। पासहु = के पास से। किआ चोरईऐ = क्या छुपाया जा सकता है? निह कपट = निरछल (हो के)। सेवा = भक्ति। कीजै = करनी चाहिए। केरी = की। सरब = सारे।3।
अर्थ: हे मन! (हरेक जीव के) अंदर प्रभु स्वयं ही अंग-संग बसता है, बाहर सारे जगत में भी प्रभु ही हर जगह बसता है। बताओ! हे मन! उस (सर्व-व्यापक) से कौन सी बात छुपाई जा सकती है? मेरे मन! उस प्रभु की सेवा भक्ति निर्छल हो के करनी चाहिए, तब ही (उससे) सारे सुख हासिल किए जा सकते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस दै वसि सभु किछु सो सभ दू वडा सो मेरे मन सदा धिअईऐ ॥ जन नानक सो हरि नालि है तेरै हरि सदा धिआइ तू तुधु लए छडईऐ ॥४॥५॥

मूलम्

जिस दै वसि सभु किछु सो सभ दू वडा सो मेरे मन सदा धिअईऐ ॥ जन नानक सो हरि नालि है तेरै हरि सदा धिआइ तू तुधु लए छडईऐ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दै वसि = के वश में। सब दू = सबसे। तुधु = तुझे।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस दै’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दै’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! जिस परमात्मा के वश में हरेक चीज है, वह सबसे बड़ा है, सदा ही उसका ध्यान धरना चाहिए। हे दास नानक! (कह: हे मन!) वह परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है, उसका ध्यान धरा कर, तुझे वह (हरेक दुख-कष्ट से) बचाने वाला है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ४ ॥ हरि दरसन कउ मेरा मनु बहु तपतै जिउ त्रिखावंतु बिनु नीर ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ४ ॥ हरि दरसन कउ मेरा मनु बहु तपतै जिउ त्रिखावंतु बिनु नीर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को, के लिए। तपतै = तप रहा है, तड़प रहा है। त्रिखावंतु = प्यासा मनुष्य। नीर = पानी।1।
अर्थ: (हे सहेलिए! उस प्रेम के तीर के कारण अब) मेरा मन परमात्मा के दर्शनों के लिए (इस प्रकार) व्याकुल है (तड़प रहा है) जैसे पानी के बिना प्यासा मनुष्य।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै मनि प्रेमु लगो हरि तीर ॥ हमरी बेदन हरि प्रभु जानै मेरे मन अंतर की पीर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरै मनि प्रेमु लगो हरि तीर ॥ हमरी बेदन हरि प्रभु जानै मेरे मन अंतर की पीर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। बेदन = (वेदना) पीड़ा। अंतर की = अंदरूनी। पीर = पीड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का प्यार मेरे मन को तीर की तरह लगा हुआ है। (उस प्रेम-तीर के कारण पैदा हुई) मेरे मन की अंदरूनी पीड़ा-वेदना मेरा हरि मेरा प्रभु ही जानता है।1। रहाउ।

[[0862]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे हरि प्रीतम की कोई बात सुनावै सो भाई सो मेरा बीर ॥२॥

मूलम्

मेरे हरि प्रीतम की कोई बात सुनावै सो भाई सो मेरा बीर ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बात = बातचीत। बीर = वीर, बड़ा भाई।2।
अर्थ: हे सहेलिए! अब अगर कोई व्यक्ति मुझे मेरे प्रीतम प्रभु की कोई बात सुनाए (तो मुझे ऐसा लगता है कि) वह मनुष्य मेरा भाई है मेरा वीर है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलु मिलु सखी गुण कहु मेरे प्रभ के ले सतिगुर की मति धीर ॥३॥

मूलम्

मिलु मिलु सखी गुण कहु मेरे प्रभ के ले सतिगुर की मति धीर ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलु = (हुकमी भविष्यत)। सखी = हे सहेलीए! कहु = बता, सुन। ले = ले के। धीर = (adjective) कोमलता पैदा करने वाली, शांति देने वाली।3।
अर्थ: हे सहेलिए! गुरु की शांति देने वाली बुद्धि ले के मुझे भी मिला कर, और, मुझे प्यारे प्रभु की महिमा सुनाया कर।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन नानक की हरि आस पुजावहु हरि दरसनि सांति सरीर ॥४॥६॥

मूलम्

जन नानक की हरि आस पुजावहु हरि दरसनि सांति सरीर ॥४॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छका १॥

मूलम्

छका १॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! पुजावहु = पूरी करो। दरसनि = दर्शन से। सांति सरीर = शरीर को शांति, हृदय को ठंड।4।
अर्थ: हे प्रभु! (अपने) दास नानक की (दर्शनों की) आस पूरी कर। हे हरि! तेरे दर्शनों से मेरे हृदय में ठंड पड़ती है।4।6। छक्का 1।
छका-छक्का, छह शबदों का संग्रह।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु करता सभु भुगता ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सभु करता सभु भुगता ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हरेक चीज। करता = पैदा करने वाला। भुगता = भोगने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही हरेक चीज पैदा करने वाला है, (और सबमें व्यापक हो के वही) हरेक चीज भोगने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनतो करता पेखत करता ॥ अद्रिसटो करता द्रिसटो करता ॥ ओपति करता परलउ करता ॥ बिआपत करता अलिपतो करता ॥१॥

मूलम्

सुनतो करता पेखत करता ॥ अद्रिसटो करता द्रिसटो करता ॥ ओपति करता परलउ करता ॥ बिआपत करता अलिपतो करता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखत = देखने वाला। अद्रिसटो = ना दिखता जगत। द्रिसटो = दिखई देता संसार। ओपति = उत्पक्ति, पैदायश। परलउ = (प्रलय) नाश। बिआपत = व्यापक। अलिपतो = निर्लिप।1।
अर्थ: (हे भाई! हरेक में व्यापक हो के) परमात्मा ही सुनने वाला है परमात्मा ही देखने वाला है। जो कुछ दिखाई दे रहा है ये भी परमात्मा (का रूप) है, जो ना-दिखने वाला जगत है वह भी परमात्मा (का ही रूप) है। (सारे जगत की) पैदायश (करने वाला भी) प्रभु ही है, (सबका) नाश (करने वाला भी) प्रभु ही है। सबमें व्याप्त भी प्रभु ही है, (और व्याप्त होते हुए भी) निर्लिप भी प्रभु ही है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बकतो करता बूझत करता ॥ आवतु करता जातु भी करता ॥ निरगुन करता सरगुन करता ॥ गुर प्रसादि नानक समद्रिसटा ॥२॥१॥

मूलम्

बकतो करता बूझत करता ॥ आवतु करता जातु भी करता ॥ निरगुन करता सरगुन करता ॥ गुर प्रसादि नानक समद्रिसटा ॥२॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शीर्षक ‘चउपदे’ है। पर ये पहला शब्द ‘दोपदा’ है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बकतो = बोलने वाला। आवतु = आने वाला, पैदा होता है। जातु = जाता (ये शरीर छोड़ के)। निरगुन = माया के तीनों गुणों से रहित। सरगुन = तीन गुण समेत। प्रसादि = कृपा से। समद्रिसटा = सबमें एक प्रभु को देखने की सूझ।2।
अर्थ: (हरेक में) प्रभु ही बोलने वाला है, प्रभु ही समझने वाला है। जगत में आता भी वही है, यहाँ से जाता भी वह प्रभु ही है। प्रभु, माया के तीन गुणों से परे भी है, तीन गुणों के समेत भी है। हे नानक! परमात्मा को सबमें ही देखने की ये सूझ गुरु की कृपा से प्राप्त होती है।2।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ फाकिओ मीन कपिक की निआई तू उरझि रहिओ कुस्मभाइले ॥ पग धारहि सासु लेखै लै तउ उधरहि हरि गुण गाइले ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ फाकिओ मीन कपिक की निआई तू उरझि रहिओ कुस्मभाइले ॥ पग धारहि सासु लेखै लै तउ उधरहि हरि गुण गाइले ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फाकिओ = फसा हुआ। मीन की निआई = मछली की तरह। कपिक की निआई = बंदर की तरह। की निआई = की तरह। उरझि रहिओ = उलझा हुआ है। कुसंभाइले = कसुंभ (की तरह जल्दी साथ छोड़ देने वाली माया) में। पग धारहि = जो भी तू पैर रखता है। सासु लै = हरेक सांस जो तू ले रहा है। लेखै = (धर्म राज के) लेखे में। तउ = तब। उधरहि = तेरा उद्धार होगा, तू बचेगा।1।
अर्थ: हे मन! तू कुसंभ (की तरह नाशवान माया के मोह) में उलझा रहता है, जैसे (जीभ के स्वाद के कारण) मछली और (एक मुठ चनों की खातिर) बंदर। (मोह में फंस के जितने भी) कदम तू रखता है, जो भी तू सांस लेता है, (वह सब कुछ धर्मराज के) लेखे में (लिखा जा रहा है)। हे मन! परमात्मा के गुण गाया कर, तब ही (इस मोह में से) बच सकेगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन समझु छोडि आवाइले ॥ अपने रहन कउ ठउरु न पावहि काए पर कै जाइले ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन समझु छोडि आवाइले ॥ अपने रहन कउ ठउरु न पावहि काए पर कै जाइले ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! समझु = होश कर। आवाइले = अवैड़ापन। ठउरु = (पकका) ठिकाना। काए = क्यों? पर कै = पराए घर में, किसी और के धन की ओर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! होश कर, अवैड़ा-पन छोड़ दे। अपने रहने के लिए तुझे (यहाँ) पक्का ठिकाना नहीं मिल सकता। फिर, औरों के धन-पदार्थ की ओर क्यों जाता है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ मैगलु इंद्री रसि प्रेरिओ तू लागि परिओ कुट्मबाइले ॥ जिउ पंखी इकत्र होइ फिरि बिछुरै थिरु संगति हरि हरि धिआइले ॥२॥

मूलम्

जिउ मैगलु इंद्री रसि प्रेरिओ तू लागि परिओ कुट्मबाइले ॥ जिउ पंखी इकत्र होइ फिरि बिछुरै थिरु संगति हरि हरि धिआइले ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मन! जैसे हाथी को काम-वासना ने प्रेर के रखा होता है (और वह पराई कैद में फंस जाता है, वैसे ही) तू परिवार के मोह में फसा हुआ है, (पर तू ये याद नहीं रखता कि) कैसे अनेक पक्षी (किसी वृक्ष पर) इकट्ठे होकर (रात काटते हैं, दिन चढ़ने पर) फिर हरेक पंछी विछुड़ जाता है (वैसे ही परिवार के हरेक जीव ने विछुड़ जाना है)। साधु-संगत में टिक के परमात्मा का ध्यान धरा कर, बस! यही है अटल आत्मिक ठिकाना।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे मीनु रसन सादि बिनसिओ ओहु मूठौ मूड़ लोभाइले ॥ तू होआ पंच वासि वैरी कै छूटहि परु सरनाइले ॥३॥

मूलम्

जैसे मीनु रसन सादि बिनसिओ ओहु मूठौ मूड़ लोभाइले ॥ तू होआ पंच वासि वैरी कै छूटहि परु सरनाइले ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैगल = हाथी। रसि = रस में, स्वाद में। रसन = जीभ। ओहु मूढ़ = वह मूर्ख (मछली)। पंच वासि = (कामादिक) पाँचों के वश में। पंच वैरी कै वसि = पाँच वैरियों के वश में। परु = पड़।3।
अर्थ: हे मन! जैसे मछली जीव के स्वाद के कारण नाश हो जाता है, वह मूर्ख लोभ के कारण लूटा जाता है, तू भी (कामादिक) पाँच वैरियों के वश में पड़ा हुआ है। हे मन! प्रभु की शरण पड़, तब ही (इन वैरियों के पँजे में से) निकल पाएगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन सभि तुम्हरे जीअ जंताइले ॥ पावउ दानु सदा दरसु पेखा मिलु नानक दास दसाइले ॥४॥२॥

मूलम्

होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन सभि तुम्हरे जीअ जंताइले ॥ पावउ दानु सदा दरसु पेखा मिलु नानक दास दसाइले ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख का नाश करने वाले! सभि = सारे। पावउ = पाऊँ, मैं प्राप्त करूँ। दानु = ख़ैर। पेखा = मैं देखूँ। मिलु नानक = नानक को मिल।4।
अर्थ: हे दीनों के दुख नाश करने वाले! (हम जीवों पर) दयावान हो। ये सारे जीव-जंतु तेरे ही (पैदा किए हुए) है। (मुझ) नानक को, जो तेरे दासों का दास है, मिल। मैं सदा तेरे दर्शन करता रहूँ (मेहर कर, बस) मैं यही ख़ैर हासिल करना चाहता हूँ।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ प्रान कीए जिनि साजि ॥ माटी महि जोति रखी निवाजि ॥ बरतन कउ सभु किछु भोजन भोगाइ ॥ सो प्रभु तजि मूड़े कत जाइ ॥१॥

मूलम्

जीअ प्रान कीए जिनि साजि ॥ माटी महि जोति रखी निवाजि ॥ बरतन कउ सभु किछु भोजन भोगाइ ॥ सो प्रभु तजि मूड़े कत जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ प्रान = जीवों के प्राण। जिनि = जिस (प्रभु) ने। साजि = साज के, पैदा करके। माटी महि = शरीर में। निवाजि = निवाज के, मेहर करके। कउ = को। सभु किछु = हरेक चीज। भोगाइ = खिलाता है। तजि = त्याग के। मूढ़े = हे मूर्ख! कत = कहाँ? जाइ = जाता है (तेरा मन)।1।
अर्थ: हे मूर्ख! जिस प्रभु ने (तुझे) पैदा करके तुझे जिंद दी, तुझे प्राण दिए, जिस प्रभु ने मेहर करके शरीर में (अपनी) ज्योति रख दी है, बरतने के लिए हरेक चीज दी है, और अनेक किस्मों के भोजन तुझे खिलाता है, उस प्रभु को बिसार के (तेरा मन) और कहाँ भटकता है?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम की लागउ सेव ॥ गुर ते सुझै निरंजन देव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पारब्रहम की लागउ सेव ॥ गुर ते सुझै निरंजन देव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लागउ = मैं लगता हूँ, मैं लगना चाहता हूँ। सेव = सेवा भक्ति। गुर ते = गुरु से। निरंजन देव = वह प्रकाश रूप जो माया के प्रभाव से परे है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं तो परमात्मा की भक्ति में लगना चाहता हूँ। गुरु से ही उस प्रकाश-रूप माया-रहित प्रभु की भक्ति की समझ पड़ सकती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि कीए रंग अनिक परकार ॥ ओपति परलउ निमख मझार ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ सो प्रभु मन मेरे सदा धिआइ ॥२॥

मूलम्

जिनि कीए रंग अनिक परकार ॥ ओपति परलउ निमख मझार ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ सो प्रभु मन मेरे सदा धिआइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीए = बनाए। प्रकार = किस्म। ओपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। निमख = आँख झमकने जितना समय। मझार = में। गति = आतिमक अवस्था। मिति = नाप। गति मिति = कैसा है और कितना बड़ा है (ये बात)। जा की = जिस (प्रभु) की। मन = हे मन!।2।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा उस प्रभु का ध्यान धरा कर, जिसने (जगत में) अनेक किस्मों के रंग (-रूप) पैदा किए हुए हैं, जो अपनी पैदा की हुई रचना को आँख झपकने जितने समय में नाश कर सकता है, और जिसकी बाबत ये नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा है और कितना बड़ा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइ न जावै निहचलु धनी ॥ बेअंत गुना ता के केतक गनी ॥ लाल नाम जा कै भरे भंडार ॥ सगल घटा देवै आधार ॥३॥

मूलम्

आइ न जावै निहचलु धनी ॥ बेअंत गुना ता के केतक गनी ॥ लाल नाम जा कै भरे भंडार ॥ सगल घटा देवै आधार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आइ न = पैदा नहीं होता। न जावै = नहीं मरता। निहचलु = सदा अटल। धनी = मालिक प्रभु। केतक = कितना? गनी = मैं गिनूँ। जा कै = जिसके घर में। भंडार = खजाने। सगल = सारे। घटा = घटों में, शरीरों को। आधार = आसरा।3।
अर्थ: हे मन! वह मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, वह ना पैदा होता है ना मरता है। मैं उसके कितने गुण गिनूँ? वह बेअंत गुणों का मालिक है। उसके घर में उसके गुण-रूपी रत्न-जवाहरात के खजाने भरे पड़े हैं। वह प्रभु सब जीवों को आसरा देता है।3।

[[0863]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति पुरखु जा को है नाउ ॥ मिटहि कोटि अघ निमख जसु गाउ ॥ बाल सखाई भगतन को मीत ॥ प्रान अधार नानक हित चीत ॥४॥१॥३॥

मूलम्

सति पुरखु जा को है नाउ ॥ मिटहि कोटि अघ निमख जसु गाउ ॥ बाल सखाई भगतन को मीत ॥ प्रान अधार नानक हित चीत ॥४॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति पुरखु = सदा स्थिर सर्व व्यापक। जा को = जिसका। कोटि = करोड़ों। अघ = पाप। जसु = महिमा का गीत। गाउ = गाया कर। निमख = आँख झपकने जितना समय। निमख निमख = हर वक्त। बाल सखाई = बचपन का साथी। को = का। प्रान अधार = प्राण का सहारा। हित चीत = अपने चिक्त में उसका प्यार पैदा कर।4।
अर्थ: हे मन! जिस प्रभु का नाम (ही बताता है कि वह) सदा कायम रहने वाला है और सर्व-व्यापक है, उसका यश हर वक्त गाया कर, (उसकी महिमा की इनायत से) करोड़ों पाप मिट जाते हैं। हे नानक! अपने चिक्त में उस प्रभु का प्यार पैदा कर, वह (हरेक जीव का) आरम्भ से ही साथी है, भक्तों का मित्र है और (हरेक की) जीवात्मा का आसरा है।4।1।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ नाम संगि कीनो बिउहारु ॥ नामुो ही इसु मन का अधारु ॥ नामो ही चिति कीनी ओट ॥ नामु जपत मिटहि पाप कोटि ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ नाम संगि कीनो बिउहारु ॥ नामुो ही इसु मन का अधारु ॥ नामो ही चिति कीनी ओट ॥ नामु जपत मिटहि पाप कोटि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाम संगि = प्रभु के नाम से। कीनो = किया है। अधारु = आसरा। चिति = चित में। ओट = आसरा। मिटहि = मिट जाते हैं। कोटि = करोड़ों।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नामुो’ में अक्षर ‘म’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ हैं। असल शब्द ‘नामु’ है, यहाँ ‘नामो’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से अब) मैं प्रभु के नाम से (आत्मिक जीवन का) व्यापार कर रहा हूँ। प्रभु का नाम ही (मेरे) इस मन का आसरा बन गया है। नाम को ही मेरे अपने चिक्त में (जीवन का) सहारा बना लिया है। (हे भाई! प्रभु का) नाम जपने से करोड़ों पाप मिट जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रासि दीई हरि एको नामु ॥ मन का इसटु गुर संगि धिआनु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रासि दीई हरि एको नामु ॥ मन का इसटु गुर संगि धिआनु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति। दीई = दी है (गुरु ने)। इसटु = सबसे प्यारा, (ईष्ट), पूजनीय।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे परमात्मा के नाम की ही संपत्ति दी है (ता कि मैं ऊँचे आत्मिक जीवन का व्यापार कर सकूँ)। (अब प्रभु का नाम ही) मेरे मन का सबसे बड़ा प्यारा (पूज्य देवता बन गया) है। (पर, हे भाई!) गुरु की संगति में रह के ही हरि-नाम का ध्यान किया जा सकता है (हरि-नाम में तवज्जो जुड़ सकती है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु हमारे जीअ की रासि ॥ नामो संगी जत कत जात ॥ नामो ही मनि लागा मीठा ॥ जलि थलि सभ महि नामो डीठा ॥२॥

मूलम्

नामु हमारे जीअ की रासि ॥ नामो संगी जत कत जात ॥ नामो ही मनि लागा मीठा ॥ जलि थलि सभ महि नामो डीठा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ की = जीवात्मा की। संगी = साथी। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। जात = जाता है। मनि = मन में। जलि = जल में। थलि = धरती में, धरती पर। नामो = नाम ही, परमात्मा ही।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से प्रभु का) नाम मेरी जिंद की संपत्ति बन चुका है, नाम ही मेरा साथी मेरे साथ चलता फिरता है। प्रभु का नाम ही मेरे मन को मीठा लग रहा है। पानी में धरती पर सब जीवों में मुझे हरि-नाम ही (हरि ही) दिख रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामे दरगह मुख उजले ॥ नामे सगले कुल उधरे ॥ नामि हमारे कारज सीध ॥ नाम संगि इहु मनूआ गीध ॥३॥

मूलम्

नामे दरगह मुख उजले ॥ नामे सगले कुल उधरे ॥ नामि हमारे कारज सीध ॥ नाम संगि इहु मनूआ गीध ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामे = नाम ही, नाम से ही। मुख उजले = सुर्ख रू। सगले = सारे। उधरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। नामि = नाम से। सीध = सिद्ध, सफल। गीध = गिझ गया है।3।
अर्थ: हे भाई! नाम की इनायत से परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त होता है, नाम से सारी कुलें ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाती हैं। प्रभु के नाम में जुड़ने से मेरे सारे काम-काज सफल हो रहे हैं। अब मेरा ये मन परमात्मा के नाम से गिझ गया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामे ही हम निरभउ भए ॥ नामे आवन जावन रहे ॥ गुरि पूरै मेले गुणतास ॥ कहु नानक सुखि सहजि निवासु ॥४॥२॥४॥

मूलम्

नामे ही हम निरभउ भए ॥ नामे आवन जावन रहे ॥ गुरि पूरै मेले गुणतास ॥ कहु नानक सुखि सहजि निवासु ॥४॥२॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आवन जावन = जनम मरण के चक्कर। रहे = खत्म हो जाते हैं। गुरि = गुरु ने। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-नाम के सदका ही दुनिया का कोई डर नहीं सता सकता। हरि-नाम में जुड़ने से ही जनम-मरन के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। (पर) पूरे गुरु ने (ही सदा) गुणों के खजाने प्रभु के साथ (जीवों को) मिलाया है (गुरु ही मिलाता है)। हे नानक! कह: (प्रभु के नाम की इनायत से) आनंद में आत्मिक अडोलता में ठिकाना मिल जाता है।4।2।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ निमाने कउ जो देतो मानु ॥ सगल भूखे कउ करता दानु ॥ गरभ घोर महि राखनहारु ॥ तिसु ठाकुर कउ सदा नमसकारु ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ निमाने कउ जो देतो मानु ॥ सगल भूखे कउ करता दानु ॥ गरभ घोर महि राखनहारु ॥ तिसु ठाकुर कउ सदा नमसकारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानु = आदर, सत्कार। कउ = को। करता दानु = दान करता है। घोर = भयानक।1।
अर्थ: हे भाई! उस मालिक प्रभु को सदा सिर निवाया कर, जो निमाणे को मान देता है, जो सारे भूखों को रोजी देता है और जो भयानक गर्भ में रक्षा करने योग्य है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो प्रभु मन माहि धिआइ ॥ घटि अवघटि जत कतहि सहाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसो प्रभु मन माहि धिआइ ॥ घटि अवघटि जत कतहि सहाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि = (हरेक) शरीर में। अवघट = शरीर से बाहर। अवघटि = शरीर से बाहरी जगह में। घटि अवघटि = शरीर के अंदर और बाहर। जत कतहि = जहाँ कहाँ, हर जगह। सहाइ = सहायता करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो प्रभु शरीर के अंदर और शरीर के बाहर हर जगह सहायता करने वाला है अपने मन में उस प्रभु का ध्यान धरा कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रंकु राउ जा कै एक समानि ॥ कीट हसति सगल पूरान ॥ बीओ पूछि न मसलति धरै ॥ जो किछु करै सु आपहि करै ॥२॥

मूलम्

रंकु राउ जा कै एक समानि ॥ कीट हसति सगल पूरान ॥ बीओ पूछि न मसलति धरै ॥ जो किछु करै सु आपहि करै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंकु = कंगाल मनुष्य। राउ = राजा। जा कै = जिसकी नजर में। एक समानि = एक जैसे। कीट = कीड़े। हसति = हाथी। सगल = सब में। पूरान = पूर्ण, व्यापक। बीओ = दूसरा, कोई और। पूछि = पूछ के। मसलति = मश्वरा। आपहि = आप ही, खुद ही।2।
अर्थ: (हे भाई! उस प्रभु का ध्यान धरा कर) जिसकी निगाह में एक कंगाल मनुष्य और एक राजा एक जैसे ही हैं, जो कीड़े (से लेकर) हाथी तक सबमें ही व्यापक है, जो किसी और को पूछ के (कोई काम करने की) सालाह नहीं करता, (बल्कि) जो कुछ करता है वह स्वयं ही करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा का अंतु न जानसि कोइ ॥ आपे आपि निरंजनु सोइ ॥ आपि अकारु आपि निरंकारु ॥ घट घट घटि सभ घट आधारु ॥३॥

मूलम्

जा का अंतु न जानसि कोइ ॥ आपे आपि निरंजनु सोइ ॥ आपि अकारु आपि निरंकारु ॥ घट घट घटि सभ घट आधारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानसि = जान सकेगा। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से परे। अकारु = दिखाई देता जगत। निरंकारु = (निर+आकार) आकार रहित, अदृष्ट। घटि = शरीर में, हृदय में। आधारु = आसरा।3।
अर्थ: (हे भाई! उस प्रभु का ध्यान धरा कर) जिस (ही हस्ती) का अंत कोई भी जीव नहीं जान सकेगा। वह माया से निर्लिप प्रभु (हर जगह) स्वयं ही स्वयं है। ये सारा दिखाई देता जगत उसका अपना ही स्वरूप है, आकार-रहित भी वह स्वयं ही है। वह प्रभु सारे शरीरों में मौजूद है और सारे ही शरीरों का आसरा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम रंगि भगत भए लाल ॥ जसु करते संत सदा निहाल ॥ नाम रंगि जन रहे अघाइ ॥ नानक तिन जन लागै पाइ ॥४॥३॥५॥

मूलम्

नाम रंगि भगत भए लाल ॥ जसु करते संत सदा निहाल ॥ नाम रंगि जन रहे अघाइ ॥ नानक तिन जन लागै पाइ ॥४॥३॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = रंग में, प्यार में। जसु = महिमा। करते = करते। निहाल = प्रसन्न। जन = (प्रभु के) सेवक। अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं, तृष्णा से बचे रहते हैं। लागै = लगता है। तिन पाइ = उनके पैरों पर।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य उसके नाम के रंग में लाल हुए रहते हैं। उसकी महिमा के गीत गाते हुए संत जन सदा खिले रहते हैं। हे भाई! प्रभु के सेवक प्रभु के नाम के प्रेम में टिक के माया की तृष्णा से बचे रहते हैं। नानक उन सेवकों के चरण पड़ता है।4।3।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ जा कै संगि इहु मनु निरमलु ॥ जा कै संगि हरि हरि सिमरनु ॥ जा कै संगि किलबिख होहि नास ॥ जा कै संगि रिदै परगास ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ जा कै संगि इहु मनु निरमलु ॥ जा कै संगि हरि हरि सिमरनु ॥ जा कै संगि किलबिख होहि नास ॥ जा कै संगि रिदै परगास ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै संगि = जिस (संत जनों) की संगति में। निरमलु = पवित्र। किलबिख = (सारे) पाप। होहि = हो जाते हैं। रिदै = हृदय में। परगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश।1।
अर्थ: (हे भाई! मेरे मित्र तो वह संतजन हैं) जिनकी संगति में रहने से ये मन पवित्र हो जाता है, जिनकी संगति में सदा हरि-नाम का स्मरण (करने का मौका मिलता) है, जिनकी संगति में रहने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, और जिनकी संगति में टिकने से हृदय में (स्वच्छ आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से संतन हरि के मेरे मीत ॥ केवल नामु गाईऐ जा कै नीत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

से संतन हरि के मेरे मीत ॥ केवल नामु गाईऐ जा कै नीत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वे। केवल = सिर्फ। गाईऐ = गाया जाता है। जा कै = जिनके घर में। नीत = नित्य, सदा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे मित्र तो प्रभु के वह संतजन हैं, जिनकी संगति में सदा सिर्फ हरि का नाम ही गाया जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै मंत्रि हरि हरि मनि वसै ॥ जा कै उपदेसि भरमु भउ नसै ॥ जा कै कीरति निरमल सार ॥ जा की रेनु बांछै संसार ॥२॥

मूलम्

जा कै मंत्रि हरि हरि मनि वसै ॥ जा कै उपदेसि भरमु भउ नसै ॥ जा कै कीरति निरमल सार ॥ जा की रेनु बांछै संसार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै मंत्रि = जिनके मंत्र से, जिस (संतजनों) के उपदेश से। मनि = मन में। भउ = डर। भरमु = वहम। जा कै = जिनके हृदय में। कीरति = महिमा। सार = श्रेष्ठ। जा की रेनु = जिस की चरण धूल। बांछै = इच्छा रखता है।2।
अर्थ: (हे भाई! मेरे मित्र तो वह संत जन हैं) जिनके उपदेश की इनायत से परमात्मा का नाम मन में आ बसता है, जिस के उपदेश से (मन में से) हरेक डर, हरेक भ्रम-वहम दूर हो जाता है, जिनके हृदय में श्रेष्ठ और पवित्र करने वाली हरि-कीर्ति बसती रहती है, और जिनके चरण-धूल की अभिलाषा सारा जगत करता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि पतित जा कै संगि उधार ॥ एकु निरंकारु जा कै नाम अधार ॥ सरब जीआं का जानै भेउ ॥ क्रिपा निधान निरंजन देउ ॥३॥

मूलम्

कोटि पतित जा कै संगि उधार ॥ एकु निरंकारु जा कै नाम अधार ॥ सरब जीआं का जानै भेउ ॥ क्रिपा निधान निरंजन देउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि पतित = करोड़ों विकारी। उधार = (विकारों से) निस्तारा। निरंकारु = आकार रहित प्रभु। जा कै = जिनके हृदय में। नाम अधार = नाम का आसरा। भेउ = भेद। निधान = खजाना। देउ = प्रकाश रूप।3।
अर्थ: (हे भाई! मेरे मित्र तो वह संत जन हैं) जिनकी संगति में रह के करोड़ों विकारियों का (विकारों से) निस्तारा हो जाता है, जिनके हृदय में (हर वक्त) केवल परमात्मा ही बसता है, जिनके अंदर उस परमेश्वर के नाम का आसरा बना रहता है जो सारे जीवों (के दिल) का भेद जानता है, जो कृपा का खजाना है, जो माया के प्रभाव से परे हैं और जो प्रकाश-रूप है।3।

[[0864]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम जब भए क्रिपाल ॥ तब भेटे गुर साध दइआल ॥ दिनु रैणि नानकु नामु धिआए ॥ सूख सहज आनंद हरि नाए ॥४॥४॥६॥

मूलम्

पारब्रहम जब भए क्रिपाल ॥ तब भेटे गुर साध दइआल ॥ दिनु रैणि नानकु नामु धिआए ॥ सूख सहज आनंद हरि नाए ॥४॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तब = उस वक्त। भेटे = मिलते हैं। दइआल = दया के घर। रैणि = रात। नानकु धिआए = नानक स्मरण करता है। सहज = आत्मिक अडोलता। हरि नाए = हरि के नाम में जुड़ने से।4।
अर्थ: (हे भाई!) जब प्रभु जी दयावान होते हैं, तब ऐसे दयालु संतजन मिलते हैं तब सतिगुरु जी मिलते हैं। (हे भाई! ऐसे संत जनों की संगति में) नानक दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरण करता है, और हरि-नाम की इनायत से (नानक के हृदय में) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं।4।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ गुर की मूरति मन महि धिआनु ॥ गुर कै सबदि मंत्रु मनु मान ॥ गुर के चरन रिदै लै धारउ ॥ गुरु पारब्रहमु सदा नमसकारउ ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ गुर की मूरति मन महि धिआनु ॥ गुर कै सबदि मंत्रु मनु मान ॥ गुर के चरन रिदै लै धारउ ॥ गुरु पारब्रहमु सदा नमसकारउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर की मूरति = गुरु का शब्द रूपी मूर्ति। गुर की मूरति धिआनु = गुरु के शब्द रूपी मूर्ति का ध्यान। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। मंत्रु = नाम मंत्र। मान = मानता है। रिदै = हृदय में। लै = ले के। धारउ = मैं धारता हूँ।1।
अर्थ: (तभी तो, हे भाई!) मैं तो गुरु (को) परमात्मा (का रूप जान के उस) को सदा नमस्कार करता हूँ, गुरु के चरण अपने हृदय में धार के बसाए रखता हूँ। गुरु के शब्द से मेरा मन नाम-मंत्र को (सब मंत्रों से श्रेष्ठ मंत्र) मान रहा है। (हे भाई! गुरु का शब्द ही गुरु की मूर्ति है) गुरु की (इस) मूर्ति का (मेरे) मन में ध्यान टिका रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत को भरमि भुलै संसारि ॥ गुर बिनु कोइ न उतरसि पारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मत को भरमि भुलै संसारि ॥ गुर बिनु कोइ न उतरसि पारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मत = कहीं (ऐसा ना हो), मत कहीं। मत को भुलै = कहीं कोई भूल ना जाए। संसारि = संसार में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! दुनियां में कहीं कोई व्यक्ति भटकना में पड़ कर (ये बात) ना भूल जाए, कि गुरु के बिना कोई और जीव (संसार समुंदर से) पार लंघा सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूले कउ गुरि मारगि पाइआ ॥ अवर तिआगि हरि भगती लाइआ ॥ जनम मरन की त्रास मिटाई ॥ गुर पूरे की बेअंत वडाई ॥२॥

मूलम्

भूले कउ गुरि मारगि पाइआ ॥ अवर तिआगि हरि भगती लाइआ ॥ जनम मरन की त्रास मिटाई ॥ गुर पूरे की बेअंत वडाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। गुरि = गुरु ने। मारगि = रास्ते पर। अवर = और (देवी-देवताओं आदि की भक्ति)। त्रास = डर।2।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की महिमा का अंत नहीं पाया जा सकता। गलत रास्ते पर जा रहे मनुष्य को गुरु ने (ही सही जीवन के) रास्ते पर (हमेशा) डाला है, औरों की (देवी-देवताओं की भक्ति) छुड़वा के परमातमा की भक्ति से जोड़ा है (और, इस तरह उसके अंदर से) जनम-मरण के चक्कर का सहम समाप्त कर दिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर प्रसादि ऊरध कमल बिगास ॥ अंधकार महि भइआ प्रगास ॥ जिनि कीआ सो गुर ते जानिआ ॥ गुर किरपा ते मुगध मनु मानिआ ॥३॥

मूलम्

गुर प्रसादि ऊरध कमल बिगास ॥ अंधकार महि भइआ प्रगास ॥ जिनि कीआ सो गुर ते जानिआ ॥ गुर किरपा ते मुगध मनु मानिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। ऊरध = उलटा हुआ। बिगास = खिलाव। अंधकार = अंधेरा। प्रगास = प्रकाश। जिनि = जिस (प्रभु) ने। ते = से, से। जानिआ = जान लिआ, सांझ डाल ली। मुगध = मूर्ख। मानिआ = पतीज गया।3।
अर्थ: हे भाई! (माया की ओर) उलटा हुआ हृदय-कमल, गुरु की कृपा से (पलट के सीधा हो के) खिल उठता है। (माया के मोह के) घोर अंधेरे में (सही ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। गुरु के द्वारा उस परमात्मा से जान-पहचान बन जाती है जिसने (यह सारा जगत) पैदा किया है। (ये) मूर्ख मन गुरु की कृपा से (प्रभु के चरणों में जुड़े रह के) पतीज जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु करता गुरु करणै जोगु ॥ गुरु परमेसरु है भी होगु ॥ कहु नानक प्रभि इहै जनाई ॥ बिनु गुर मुकति न पाईऐ भाई ॥४॥५॥७॥

मूलम्

गुरु करता गुरु करणै जोगु ॥ गुरु परमेसरु है भी होगु ॥ कहु नानक प्रभि इहै जनाई ॥ बिनु गुर मुकति न पाईऐ भाई ॥४॥५॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणै जोग = सब कुछ करने की सामर्थ्य वाला। होगु = सदा रहेगा। प्रभि = प्रभु ने। इहै = यही बात। जनाई = समझाई है। मुकति = (माया के मोह के अहंकार से) खलासी, मुक्ति। भाई = हे भाई!।4।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु (आत्मिक अवस्था में ईश्वर से एक-सुर होने के कारण) ईश्वर (कर्तार) का ही रूप है जो सब कुछ कर सकने के समर्थ है। गुरु उस परमेश्वर का रूप है, जो (पहले भी मौजूद था) अब भी मौजूद है और सदा कायम रहेगा। हे भाई! गुरु (की शरण पड़े) बिना (माया के मोह के अंधेरे से) मुक्ति नहीं मिल सकती।4।5।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ गुरू गुरू गुरु करि मन मोर ॥ गुरू बिना मै नाही होर ॥ गुर की टेक रहहु दिनु राति ॥ जा की कोइ न मेटै दाति ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ गुरू गुरू गुरु करि मन मोर ॥ गुरू बिना मै नाही होर ॥ गुर की टेक रहहु दिनु राति ॥ जा की कोइ न मेटै दाति ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = याद किया कर। मन मोर = हे मेरे मन! होर = और (टेक, और ही आसरा)। दाति = नाम की दाति।1।
अर्थ: हे मेरे मन! हर वक्त गुरु (के उपदेश) को याद रख, मुझे गुरु के बिना और कोई आसरा नहीं सूझता। हे मन! जिस गुरु की बख्शी हुई आत्मिक जीवन की दाति को कोई मिटा नहीं सकता, उस गुरु के आसरे दिन-रात टिका रह।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु परमेसरु एको जाणु ॥ जो तिसु भावै सो परवाणु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरु परमेसरु एको जाणु ॥ जो तिसु भावै सो परवाणु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = एक रूप। तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। परवाणु = स्वीकार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु और परमात्मा का एक-रूप समझो। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है, वही गुरु भी (सिर-माथे) स्वीकार करता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर चरणी जा का मनु लागै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ गुर की सेवा पाए मानु ॥ गुर ऊपरि सदा कुरबानु ॥२॥

मूलम्

गुर चरणी जा का मनु लागै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ गुर की सेवा पाए मानु ॥ गुर ऊपरि सदा कुरबानु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा का मनु = जिस मनुष्य का मन। पाए = कमाता, पाता। मानु = आदर।2।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में टिका रहता है, उसकी हरेक भटकना हरेक दुख-दर्द दूर हो जाता है। हे मन! गुरु की शरण पड़ के मनुष्य (हर जगह) आदर पाता है। हे मेरे मन! गुरु से सदके हो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ गुर के सेवक की पूरन घाल ॥ गुर के सेवक कउ दुखु न बिआपै ॥ गुर का सेवकु दह दिसि जापै ॥३॥

मूलम्

गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ गुर के सेवक की पूरन घाल ॥ गुर के सेवक कउ दुखु न बिआपै ॥ गुर का सेवकु दह दिसि जापै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि = देख के। निहाल = प्रसन्न। घाल = मेहनत, कमाई। कउ = को। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। दहदिसि = दसों दिशाओं में (दह = दस। दिस = तरफ, दिशाएं)। जापै = प्रकट हो जाता है।3।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु के दर्शन करके (मनुष्य का तन-मन) खिल उठता है। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य की मेहनत सफल हो जाती है। कोई भी दुख गुरु के सेवक पर (अपना) जोर नहीं डाल सकता। गुरु की शरण रहने वाला मनुष्य सारे संसार में प्रकट हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर की महिमा कथनु न जाइ ॥ पारब्रहमु गुरु रहिआ समाइ ॥ कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ गुर चरणी ता का मनु लाग ॥४॥६॥८॥

मूलम्

गुर की महिमा कथनु न जाइ ॥ पारब्रहमु गुरु रहिआ समाइ ॥ कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ गुर चरणी ता का मनु लाग ॥४॥६॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। रहिआ समाइ = हर जगह मौजूद है।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु की महिमा बयान नहीं की जा सकती। गुरु उस परमात्मा का रूप है, जो हर जगह व्यापक है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य के बड़े भाग्य जागते हैं, उसका मन गुरु के चरणों में टिका रहता है।4।6।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ गुरु मेरी पूजा गुरु गोबिंदु ॥ गुरु मेरा पारब्रहमु गुरु भगवंतु ॥ गुरु मेरा देउ अलख अभेउ ॥ सरब पूज चरन गुर सेउ ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ गुरु मेरी पूजा गुरु गोबिंदु ॥ गुरु मेरा पारब्रहमु गुरु भगवंतु ॥ गुरु मेरा देउ अलख अभेउ ॥ सरब पूज चरन गुर सेउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगवंतु = समर्थता वाला। देउ = प्रकाश रूप प्रभु। अलख = अ+लख, जिसका स्वरूप बिआन से परे है। अभेउ = अ+भेव, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। सरब पूज चरन गुर = गुरु के चरण जिस की पूजा सारी सृष्टि करती है। सेउ = सेवूँ, मैं सेवता हूँ।1।
अर्थ: हे भाई! (मेरा) गुरु (गुरु की शरण ही) मेरे वास्ते (देव-) पूजा है, (मेरा) गुरु, गोबिंद (का रूप) है। मेरा गुरु परमात्मा (का रूप) है, गुरु बड़ी ही सामर्थ्य का मालिक है। मेरा गुरु उस प्रकाश-रूप प्रभु का रूप है जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता और जिसका भेद पाया नहीं जा सकता। मैं तो उन गुरु-चरणों की शरण पड़ा रहता हूँ जिनको सारी सृष्टि पूजती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर बिनु अवरु नाही मै थाउ ॥ अनदिनु जपउ गुरू गुर नाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर बिनु अवरु नाही मै थाउ ॥ अनदिनु जपउ गुरू गुर नाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवरु थाउ = और जगह। अनदिनु = हर रोज। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (माया के मोह के घोर अंधकार से बचने के लिए) गुरु के बिना मुझे और कोई जगह नहीं सूझती (जिसका मैं आसरा ले सकूँ। सो) मैं हर वक्त गुरु का नाम जपता हूँ (गुरु की ओट लिए बैठा हूँ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु मेरा गिआनु गुरु रिदै धिआनु ॥ गुरु गोपालु पुरखु भगवानु ॥ गुर की सरणि रहउ कर जोरि ॥ गुरू बिना मै नाही होरु ॥२॥

मूलम्

गुरु मेरा गिआनु गुरु रिदै धिआनु ॥ गुरु गोपालु पुरखु भगवानु ॥ गुर की सरणि रहउ कर जोरि ॥ गुरू बिना मै नाही होरु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = धार्मिक चर्चा। रिदै = हृदय में। धिआनु = समाधि। रहउ = रहूँ, मैं रहता हूँ। कर जोरि = (दोनों) हाथ जोड़ के। होरु = और जगह।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु ही मेरे वास्ते धार्मिक चर्चा है, गुरु (सदा मेरे) हृदय में टिका हुआ है, यही मेरी समाधि है। गुरु उस भगवान का रूप है जो सर्व-व्यापक है और सृष्टि का पालनहार है। मैं (अपने) दोनों हाथ जोड़ के (सदा) गुरु की शरण पड़ा रहता हूँ। गुरु के बिना मुझे कोई और आसरा नहीं सूझता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु बोहिथु तारे भव पारि ॥ गुर सेवा जम ते छुटकारि ॥ अंधकार महि गुर मंत्रु उजारा ॥ गुर कै संगि सगल निसतारा ॥३॥

मूलम्

गुरु बोहिथु तारे भव पारि ॥ गुर सेवा जम ते छुटकारि ॥ अंधकार महि गुर मंत्रु उजारा ॥ गुर कै संगि सगल निसतारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोहिथु = जहाज। भव = संसार समुंदर। ते = से। छुटकारि = खलासी, मुक्ति। अंधकार = घुप अंधेरा। मंत्रु = उपदेश, शब्द। उजारा = उजाला। कै संगि = की संगति में। सगल = सारे जीव। निसतारा = पार उतारा।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु जहाज है जो संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है। गुरु की शरण पड़ने से जमों (के डर) से खलासी मिल जाती है। (माया के मोह के) घोर अंधकार में गुरु का उपदेश ही (आत्मिक जीवन का) प्रकाश देता है। गुरु की संगति में रहने से सारे जीवों का पार-उतारा हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु पूरा पाईऐ वडभागी ॥ गुर की सेवा दूखु न लागी ॥ गुर का सबदु न मेटै कोइ ॥ गुरु नानकु नानकु हरि सोइ ॥४॥७॥९॥

मूलम्

गुरु पूरा पाईऐ वडभागी ॥ गुर की सेवा दूखु न लागी ॥ गुर का सबदु न मेटै कोइ ॥ गुरु नानकु नानकु हरि सोइ ॥४॥७॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों से। पाईऐ = मिलता है।4।
अर्थ: हे भाई! बहुत ही भाग्यों से पूरा गुरु मिलता है। गुरु की शरण पड़ने से कोई दुख छू भी नहीं सकता। (जिस मनुष्य के हृदय में) गुरु का शब्द (बस जाए, उसके अंदर से) कोई मनुष्य (आत्मिक जीवन के उजाले को) मिटा नहीं सकता। हे भाई! गुरु नानक उस परमात्मा का रूप है।4।7।9।

[[0865]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ राम राम संगि करि बिउहार ॥ राम राम राम प्रान अधार ॥ राम राम राम कीरतनु गाइ ॥ रमत रामु सभ रहिओ समाइ ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ राम राम संगि करि बिउहार ॥ राम राम राम प्रान अधार ॥ राम राम राम कीरतनु गाइ ॥ रमत रामु सभ रहिओ समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। बिउहारु = व्यापार, वणज। प्रान अधार = प्राणों का आसरा। रमत = व्यापक। सभ = सारी सृष्टि में।1।
अर्थ: (हे भाई! तू जगत में व्यापार करने आया है) परमात्मा के नाम (की राशि) से (नाम स्मरण का) व्यापार किया कर। परमात्मा के नाम को अपनी जिंद (अपने प्राणों) का आसरा बना ले। जो प्रभु हर जगह व्यापक है, सारी सृष्टि में मौजूद है, हे भाई! सदा ही उसकी महिमा किया कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना मिलि बोलहु राम ॥ सभ ते निरमल पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संत जना मिलि बोलहु राम ॥ सभ ते निरमल पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। सभ ते = सब (कामों) से। पूरन = सफल।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संतजनों के साथ मिल के, परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। ये काम अन्य सारे कामों से पवित्र और सफल है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम धनु संचि भंडार ॥ राम राम राम करि आहार ॥ राम राम वीसरि नही जाइ ॥ करि किरपा गुरि दीआ बताइ ॥२॥

मूलम्

राम राम धनु संचि भंडार ॥ राम राम राम करि आहार ॥ राम राम वीसरि नही जाइ ॥ करि किरपा गुरि दीआ बताइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संचि = इकट्ठा कर। भंडार = खजाने। आहार = (प्राणों की) खुराक। गुरि = गुरु ने। करि = कर के।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम धन संचित किया कर, खजाने भर ले, परमात्मा के नाम को अपने प्राणों की खुराक बना ले। गुरु ने कृपा करके (मुझे ये बात) बता दी है कि (देखना,) कहीं परमात्मा का नाम तुझे भूल ना जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम राम सदा सहाइ ॥ राम राम राम लिव लाइ ॥ राम राम जपि निरमल भए ॥ जनम जनम के किलबिख गए ॥३॥

मूलम्

राम राम राम सदा सहाइ ॥ राम राम राम लिव लाइ ॥ राम राम जपि निरमल भए ॥ जनम जनम के किलबिख गए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाइ = सहायता करने वाला। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़। निरमल = पवित्र। किलबिख = पाप।3।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सदा ही सहायता करने वाला है, उसके चरणों में सदा ही तवज्जो जोड़े रख। परमात्मा का नाम जप-जप के जीव पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, उनके अनेक जन्मों के किए हुए पाप दूर हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमत राम जनम मरणु निवारै ॥ उचरत राम भै पारि उतारै ॥ सभ ते ऊच राम परगास ॥ निसि बासुर जपि नानक दास ॥४॥८॥१०॥

मूलम्

रमत राम जनम मरणु निवारै ॥ उचरत राम भै पारि उतारै ॥ सभ ते ऊच राम परगास ॥ निसि बासुर जपि नानक दास ॥४॥८॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमत = उचारते हुए, स्मरण करते हुए। निवारै = दूर कर देता है। उचरत = उचारते हुए। भै पारि = डर से पार। परगास = प्रकाश। निसि = रात। बासुर = दिन।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से (परमात्मा मनुष्य का) जनम-मरण (का चक्र) दूर कर देता है। प्रभु का नाम उचारते हुए (प्रभु जीव को) सहम (-भरे संसार समुंदर) से पार लंघा देता है। हे दास नानक! सबसे ऊँचे प्रभु (के नाम) का प्रकाश (अपने अंदर) पैदा कर, दिन-रात उसका नाम जपा कर।4।8।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ उन कउ खसमि कीनी ठाकहारे ॥ दास संग ते मारि बिदारे ॥ गोबिंद भगत का महलु न पाइआ ॥ राम जना मिलि मंगलु गाइआ ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ उन कउ खसमि कीनी ठाकहारे ॥ दास संग ते मारि बिदारे ॥ गोबिंद भगत का महलु न पाइआ ॥ राम जना मिलि मंगलु गाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उन कउ = उन (कामादिक पांचों) को। खसमि = पति प्रभु ने। ठाक = मनाही। हारे = (संत जनों के सामने वे) हार गए हैं। संग ते = पास से, से। मारि = मार के। बिदारे = नाश कर दिए। महलु = ठिकाना। मिलि = मिल के। मंगलु = महिमा के गीत।1।
अर्थ: हे भाई! जब मालिक प्रभु ने उन (पाँच चौधरियों) को मना किया, तब वे (प्रभु के सेवकों के समाने) हार मान गए। अपने सेवकों से (प्रभु ने उनको) मार के भगा दिया। वे चौधरी परमात्मा के भक्तों का ठिकाना ना ढूँढ सके, (क्योंकि) परमात्मा के सेवकों ने (सदा) परमात्मा की महिमा का गीत गाया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल स्रिसटि के पंच सिकदार ॥ राम भगत के पानीहार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सगल स्रिसटि के पंच सिकदार ॥ राम भगत के पानीहार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारी। सिकदार = सरदार, चौधरी। पानीहार = पानी भरने वाले गुलाम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार- ये) पाँच सारी सृष्टि के चौधरी हैं। पर प्रभु की बंदगी करने वालों के ये नौकर बन के रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत पास ते लेते दानु ॥ गोबिंद भगत कउ करहि सलामु ॥ लूटि लेहि साकत पति खोवहि ॥ साध जना पग मलि मलि धोवहि ॥२॥

मूलम्

जगत पास ते लेते दानु ॥ गोबिंद भगत कउ करहि सलामु ॥ लूटि लेहि साकत पति खोवहि ॥ साध जना पग मलि मलि धोवहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पास ते = से। दान = दण्ड। करहि = करते हैं। साकत = प्रभु से टूटे हुए लोग। पति = इज्जत। खोवहि = गवा लेते हैं। पग = पैर (बहुवचन)। मलि = मल के।2।
अर्थ: हे भाई! ये पाँच चौधरी दुनिया (के लोगों से) दण्ड (दान, जैसे गुण्डे हफता वगैरा) लेते हैं, पर प्रभु के भक्तों को नमस्कार करते हैं। प्रभु से विछुड़े हुए लोगों की आत्मिक राशि-पूंजी लूट लेते हैं, (साकत, मनमुख यहां अपनी) इज्जत गवा लेते हैं। पर ये चौधरी गुरमुखों के पैर मल-मल के धोते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच पूत जणे इक माइ ॥ उतभुज खेलु करि जगत विआइ ॥ तीनि गुणा कै संगि रचि रसे ॥ इन कउ छोडि ऊपरि जन बसे ॥३॥

मूलम्

पंच पूत जणे इक माइ ॥ उतभुज खेलु करि जगत विआइ ॥ तीनि गुणा कै संगि रचि रसे ॥ इन कउ छोडि ऊपरि जन बसे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच पूत = (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार = ये) पाँच पुत्र। जणे = पैदा किए हैं। माइ = माया ने। उतभुज खेलु = (अंडज, जेरज, सेतज) उतभुज (चार खाणियों) का तमाशा। करि = कर के, रच के। विआइ = पैदा करती है। तीनि = तीन। तीनि गुणा = (रजा, सतो, तमो) तीन गुण। कै संगि = के साथ। रचि = एकमेक हो के। रसे = मस्त हैं। जन = प्रभु के सेवक।3।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के हुक्म में) माया ने उतभुज (उत्पक्ति) आदि का खेल रचा के यह जगत पैदा किया है, (यह कामादिक) पाँचों पुत्र भी उसने ही पैदा किए हैं। (दुनिया के लोग माया के) तीन गुणों के साथ रच-मिच के रस भोग रहे हैं। (जबकि) परमात्मा के भक्त इनको त्याग के ऊँचे आत्मिक मण्डल में बसते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा जन लीए छडाइ ॥ जिस के से तिनि रखे हटाइ ॥ कहु नानक भगति प्रभ सारु ॥ बिनु भगती सभ होइ खुआरु ॥४॥९॥११॥

मूलम्

करि किरपा जन लीए छडाइ ॥ जिस के से तिनि रखे हटाइ ॥ कहु नानक भगति प्रभ सारु ॥ बिनु भगती सभ होइ खुआरु ॥४॥९॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = थे। तिनि = उस (प्रभु) ने। हटाइ = रोक के। सारु = संभाल। सभ = सारी सृष्टि।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! ये कामादिक) जिस (प्रभु) के बनाए हुए हैं, उसने इनको (संत जनों से) दूर ही रोक के रखा है, प्रभु ने मेहर करके संत जनों को इनसे बचा रखा है। हे नानक! कह: (हे भाई!) प्रभु की भक्ति किया कर। भक्ति के बिना सारी सृष्टि (इन चौधरियों के वश में पड़ के) दुखी होती है।4।9।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ कलि कलेस मिटे हरि नाइ ॥ दुख बिनसे सुख कीनो ठाउ ॥ जपि जपि अम्रित नामु अघाए ॥ संत प्रसादि सगल फल पाए ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ कलि कलेस मिटे हरि नाइ ॥ दुख बिनसे सुख कीनो ठाउ ॥ जपि जपि अम्रित नामु अघाए ॥ संत प्रसादि सगल फल पाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि कलेस = झगड़े बखेड़े। नाइ = नाय, नाम से। सुख कीनो ठाउ = सुखों ने अपनी जगह बना ली। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। अघाए = तृप्त हो गए। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। पाए = प्राप्त कर लिए।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘नाउ’ से करण कारक एकवचन है ‘नाय’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! प्रभु के नाम की इनायत से (संतजनों के अंदर से) झगड़े-बखेड़े मिट जाते हैं। उनके सारे दुख नाश हो जाते हैं। सुख उनके अंदर अपना ठिकाना बना लेते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जप-जप के (संतजन माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं। गुरु की कृपा से वे सारे फल प्राप्त कर लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम जपत जन पारि परे ॥ जनम जनम के पाप हरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम जपत जन पारि परे ॥ जनम जनम के पाप हरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। परे = पड़े, लांघ गए। हरे = दूर कर लिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए परमात्मा के भक्त (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। उनके अनेक जन्मों के किए हुए पाप दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर के चरन रिदै उरि धारे ॥ अगनि सागर ते उतरे पारे ॥ जनम मरण सभ मिटी उपाधि ॥ प्रभ सिउ लागी सहजि समाधि ॥२॥

मूलम्

गुर के चरन रिदै उरि धारे ॥ अगनि सागर ते उतरे पारे ॥ जनम मरण सभ मिटी उपाधि ॥ प्रभ सिउ लागी सहजि समाधि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। उरि = हृदय में। धारे = (जिन्होंने) धारे, टिकाए। अगनि = तृष्णा की आग। ते = से। सभ उपाधि = सारी उपाधि, सारा बखेड़ा। सिउ = साथ, में। सहजि = आत्मिक अडोलता से।2।
अर्थ: हे भाई! संत जन अपने दिल में गुरु के चरण बसाए रखते हैं (पूरी श्रद्धा से गुरु के शब्द को मन में टिकाए रखते हैं), इस तरह वे तृष्णा की आग के समुंदर से पार लांघ जाते हैं। वे जनम-मरण के चक्कर का सारा ही बखेड़ा खत्म कर लेते हैं, आत्मिक अडोलता के द्वारा उनकी तवज्जो प्रभु से जुड़ी रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थान थनंतरि एको सुआमी ॥ सगल घटा का अंतरजामी ॥ करि किरपा जा कउ मति देइ ॥ आठ पहर प्रभ का नाउ लेइ ॥३॥

मूलम्

थान थनंतरि एको सुआमी ॥ सगल घटा का अंतरजामी ॥ करि किरपा जा कउ मति देइ ॥ आठ पहर प्रभ का नाउ लेइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थनंतरि = थान अंतरि। थान थनंतरि = थान थान अंतरि, हरेक जगह में। घटा का = घटों का, शरीरों का। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। जा कउ = जिस मनुष्य को। देई = देता है। लेइ = लेता है।3।
अर्थ: हे भाई! जो मालिक प्रभु खुद ही हरेक जगह में बस रहा है और सारे जीवों के दिलों की जानने वाला है, वह प्रभु जिस मनुष्य को मेहर करके समझ बख्शता है, वह मनुष्य आठों पहर (हर वक्त्) परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै अंतरि वसै प्रभु आपि ॥ ता कै हिरदै होइ प्रगासु ॥ भगति भाइ हरि कीरतनु करीऐ ॥ जपि पारब्रहमु नानक निसतरीऐ ॥४॥१०॥१२॥

मूलम्

जा कै अंतरि वसै प्रभु आपि ॥ ता कै हिरदै होइ प्रगासु ॥ भगति भाइ हरि कीरतनु करीऐ ॥ जपि पारब्रहमु नानक निसतरीऐ ॥४॥१०॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै अंतरि = के अंदर। ता कै हिरदै = उस (मनुष्य) के हृदय में। प्रगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। भाइ = भाय, भाउ अनुसार, प्रेम से। करीऐ = करना चाहिए। जपि = जप के। निसतरीऐ = पार लांघ जाया जाता है, निस्तारा हो जाता है।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु स्वयं आ प्रकट होता है, उस व्यक्ति के हृदय में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है। हे नानक! भक्ति की भावना से परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए। परमात्मा का नाम जप के (संसार-समुंदर से) पार लांघा जाता है।4।10।12।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ गुर के चरन कमल नमसकारि ॥ कामु क्रोधु इसु तन ते मारि ॥ होइ रहीऐ सगल की रीना ॥ घटि घटि रमईआ सभ महि चीना ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ गुर के चरन कमल नमसकारि ॥ कामु क्रोधु इसु तन ते मारि ॥ होइ रहीऐ सगल की रीना ॥ घटि घटि रमईआ सभ महि चीना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नमसकारि = प्रणाम कर, सिर झुका। ते = से, में से। होइ रहीऐ = हो के रहना चाहिए। रीना = चरण धूल। घटि घटि = हरेक घट में। घट = शरीर। सभ महि = सब में। चीना = पहचाना।1।
अर्थ: हे भाई! (अपने) गुरु के चरणों पर अपना सिर रखा करो। (गुरु की कृपा से अपने) इस शरीर में से काम और क्रोध (आदि विकारों) को मार डालो। हे भाई! सबके चरणों की धूल हो के रहना चाहिए। हरेक शरीर में सुंदर राम को बसता देख।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन बिधि रमहु गोपाल गुोबिंदु ॥ तनु धनु प्रभ का प्रभ की जिंदु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इन बिधि रमहु गोपाल गुोबिंदु ॥ तनु धनु प्रभ का प्रभ की जिंदु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिधि = तरीका। रमहु = स्मरण करो। जिंदु = जान।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोबिंद’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां पढ़ना है ‘गुबिंदु’।
नोट: ‘जिंदु’ स्त्रीलिंग है, पर इसकी शक्ल पुलिंग वाली है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! इस शरीर को, इस धन को, प्रभु की कृपा समझो, इस प्राण को (भी) प्रभु का ही दिया हुआ समझो। इस तरह सृष्ट के पालक गोबिंद का नाम जपते रहो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर हरि के गुण गाउ ॥ जीअ प्रान को इहै सुआउ ॥ तजि अभिमानु जानु प्रभु संगि ॥ साध प्रसादि हरि सिउ मनु रंगि ॥२॥

मूलम्

आठ पहर हरि के गुण गाउ ॥ जीअ प्रान को इहै सुआउ ॥ तजि अभिमानु जानु प्रभु संगि ॥ साध प्रसादि हरि सिउ मनु रंगि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाउ = गाया करो। को = का। सुआउ = उद्देश्य, लक्ष्य। तजि = त्याग के। संगि = (अपने) साथ। साध प्रसादि = गुरु की कृपा से। सिउ = से। रंगि = रंगि ले, जोड़े रख।2।
अर्थ: हे भाई! आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाते रहा करो। तेरी जिंद-जान का (संसार में) यही (सबसे बड़ा) उद्देश्य है। अहंकार दूर करके प्रभु को अपने अंग-संग बसता समझ। गुरु की कृपा से अपने मन को परमात्मा (के प्रेम-रंग) से रंग ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि तूं कीआ तिस कउ जानु ॥ आगै दरगह पावै मानु ॥ मनु तनु निरमल होइ निहालु ॥ रसना नामु जपत गोपाल ॥३॥

मूलम्

जिनि तूं कीआ तिस कउ जानु ॥ आगै दरगह पावै मानु ॥ मनु तनु निरमल होइ निहालु ॥ रसना नामु जपत गोपाल ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। तूं = तुझे। जानु = सांझ डाल। पावै = प्राप्त करता है। मानु = आदर। निहालु = प्रसन्न। रसना = जीभ (से)।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा किया है उससे सांझ बनाए रख। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है वह) आगे प्रभु की हजूरी में आदर हासिल करता है। हे भाई! जीभ से परमात्मा का नाम जपते हुए मन-तन पवित्र हो जाता है, मन खिला रहता है, शरीर भी प्रफुल्लित रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा मेरे दीन दइआला ॥ साधू की मनु मंगै रवाला ॥ होहु दइआल देहु प्रभ दानु ॥ नानकु जपि जीवै प्रभ नामु ॥४॥११॥१३॥

मूलम्

करि किरपा मेरे दीन दइआला ॥ साधू की मनु मंगै रवाला ॥ होहु दइआल देहु प्रभ दानु ॥ नानकु जपि जीवै प्रभ नामु ॥४॥११॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! साधू = गुरु। रवाला = चरण धूल। प्रभ = हे प्रभु! जपि = जप के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। प्रभ नामु = प्रभु का नाम।4।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर। (मेरा) मन गुरु के चरणों की धूल माँगता है। हे प्रभु (नानक पर) दयावान हो और ये ख़ैर डाल कि (तेरा दास) नानक, हे प्रभु! तेरा नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहे।4।11।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ धूप दीप सेवा गोपाल ॥ अनिक बार बंदन करतार ॥ प्रभ की सरणि गही सभ तिआगि ॥ गुर सुप्रसंन भए वड भागि ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ धूप दीप सेवा गोपाल ॥ अनिक बार बंदन करतार ॥ प्रभ की सरणि गही सभ तिआगि ॥ गुर सुप्रसंन भए वड भागि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धूप दीप = (मूर्ति की आरती के समय थाल में) धूप धुखाना दीए जलाना। सेवा = भक्ति। बंदन = नमस्कार। गही = पकड़ी। तिआगि = छोड़ के। सुप्रसंन = बहुत खुश। वडभागि = बड़ी किस्मत से।1।
अर्थ: (हे भाई! कर्मकांडी लोग देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, उनके आगे धूप धुखाते हैं और दीए जलाते हैं, पर) जिस मनुष्य पर अहो-भाग्य से गुरु मेहरवान हो जाए, वह (धूप-दीप आदि वाली) सारी क्रिया छोड़ के प्रभु का आसरा लेता है, परमात्मा के दर पे हर वक्त सिर झुकाना, परमात्मा की भक्ति करनी ही उस मनुष्य के लिए ‘धूप-दीप’ की क्रिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर गाईऐ गोबिंदु ॥ तनु धनु प्रभ का प्रभ की जिंदु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आठ पहर गाईऐ गोबिंदु ॥ तनु धनु प्रभ का प्रभ की जिंदु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाईऐ = गाना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का दिया हुआ ये सारा शरीर है, ये प्राण हैं और ये धन है, उसकी महिमा आठों पहर (हर वक्त) करनी चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण रमत भए आनंद ॥ पारब्रहम पूरन बखसंद ॥ करि किरपा जन सेवा लाए ॥ जनम मरण दुख मेटि मिलाए ॥२॥

मूलम्

हरि गुण रमत भए आनंद ॥ पारब्रहम पूरन बखसंद ॥ करि किरपा जन सेवा लाए ॥ जनम मरण दुख मेटि मिलाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमत = स्मरण करते हुए। बखसंद = बख्शिश करने वाला। करि = कर के। मेटि = मिटा के।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेहर करके अपने सेवकों को अपनी भक्ति में जोड़ता है, उनके जनम से ले के मरने तक के सारे दुख मिटा के उनको अपने चरणों में मिला लेता है। सर्व-व्यापक बख्शिंद परमात्मा के गुण गाते हुए अंदर आनंद बना रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करम धरम इहु ततु गिआनु ॥ साधसंगि जपीऐ हरि नामु ॥ सागर तरि बोहिथ प्रभ चरण ॥ अंतरजामी प्रभ कारण करण ॥३॥

मूलम्

करम धरम इहु ततु गिआनु ॥ साधसंगि जपीऐ हरि नामु ॥ सागर तरि बोहिथ प्रभ चरण ॥ अंतरजामी प्रभ कारण करण ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करम धरम = (तीर्थ, व्रत, मूर्ति-पूजा आदि) कर्म जिनको धर्म समझा गया है। ततु गिआनु = असल ज्ञान। साध संगि = गुरु की संगति में। जपीऐ = जपना चाहिए। सागर = (संसार) समुंदर। तरि = पार लांघ। बोहिथ = जहाज। कारण करण = जगत का मूल। कारण = मूल, साधन। करण = जगत।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए, यही है धार्मिक कर्म और यही है असल ज्ञान। हे भाई! सबके दिल की जानने वाले और जगत के पैदा करने वाले परमात्मा के चरणों को जहाज बना के इस संसार-समुंदर से पार हो।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखि लीए अपनी किरपा धारि ॥ पंच दूत भागे बिकराल ॥ जूऐ जनमु न कबहू हारि ॥ नानक का अंगु कीआ करतारि ॥४॥१२॥१४॥

मूलम्

राखि लीए अपनी किरपा धारि ॥ पंच दूत भागे बिकराल ॥ जूऐ जनमु न कबहू हारि ॥ नानक का अंगु कीआ करतारि ॥४॥१२॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। दूत = वैरी। बिकराल = डरावने। जूऐ = जूए में। हारि = हार के, हारता है। अंगु = पक्ष। नानक का अंगु = हे नानक! जिसका पक्ष। करतारि = कर्तार ने।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु अपनी मेहर करके जिस की रक्षा करता है, (कामादिक) पाँचों डरावने वैरी उनसे परे भाग जाते हैं। हे नानक! जिस भी मनुष्य का पक्ष परमात्मा ने किया है, वह मनुष्य (विकारों के) जूए में अपना जीवन कभी नहीं गवाता।4।12।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ करि किरपा सुख अनद करेइ ॥ बालक राखि लीए गुरदेवि ॥ प्रभ किरपाल दइआल गुोबिंद ॥ जीअ जंत सगले बखसिंद ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ करि किरपा सुख अनद करेइ ॥ बालक राखि लीए गुरदेवि ॥ प्रभ किरपाल दइआल गुोबिंद ॥ जीअ जंत सगले बखसिंद ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। करेइ = करता है। बालक = (अपने) बच्चों को। गुरदेवि = गुरदेव ने, सबसे बड़े प्रभु ने। किरपाल = कृपा के घर। सगलै = सारे। बखसिंद = बख्शने वाला।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोबिंद’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां पढ़ना है ‘गुबिंद’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! उस सबसे बड़े प्रभु ने (सदा ही शरण पड़े अपने) बच्चों की रक्षा की है, मेहर करके (उनके हृदय में) आनंद पैदा करता है। हे भाई! गोबिंद प्रभु कृपा का घर है, दया का श्रोत है, सारे ही जीवों पर बख्शिश करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी सरणि प्रभ दीन दइआल ॥ पारब्रहम जपि सदा निहाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तेरी सरणि प्रभ दीन दइआल ॥ पारब्रहम जपि सदा निहाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! जपि = जप के। निहाल = प्रसन्न।1। रहाउ।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (हम जीव) तेरे ही आसरे हैं। हे पारब्रहम! (तेरा नाम) ज पके सदा खिले रहा जा सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ दइआल दूसर कोई नाही ॥ घट घट अंतरि सरब समाही ॥ अपने दास का हलतु पलतु सवारै ॥ पतित पावन प्रभ बिरदु तुम्हारै ॥२॥

मूलम्

प्रभ दइआल दूसर कोई नाही ॥ घट घट अंतरि सरब समाही ॥ अपने दास का हलतु पलतु सवारै ॥ पतित पावन प्रभ बिरदु तुम्हारै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। सरब समाही = तू सभी में समाया हुआ है। हलतु = (अत्र) यह लोक। पलतु = (परत्र) परलोक। सवारै = संवार देता है। पतित पावन = विकारियों को निर्मल जीवन वाले बनाने वाला। प्रभ = हे प्रभु! बिरदु = मूल स्वभाव। तुमारै = तुम्हारै, तेरे घर में।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे जैसा दया का श्रोत (जगत में) और कोई दूसरा नहीं है। तू हरेक शरीर में मौजूद है, तू सारे जीवों में व्यापक है। हे भाई! प्रभु अपने सेवक का ये लोक और परलोक सुंदर बना देता है। हे प्रभु! तेरे घर में यही बिरद है (तेरा मूल स्वभाव है) कि तू विकारियों को निर्मल जीवन वाला बना देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउखध कोटि सिमरि गोबिंद ॥ तंतु मंतु भजीऐ भगवंत ॥ रोग सोग मिटे प्रभ धिआए ॥ मन बांछत पूरन फल पाए ॥३॥

मूलम्

अउखध कोटि सिमरि गोबिंद ॥ तंतु मंतु भजीऐ भगवंत ॥ रोग सोग मिटे प्रभ धिआए ॥ मन बांछत पूरन फल पाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउखध = दवा, इलाज। कोटि = करोड़ों। सोग = चिन्ता फिक्र। मन बांछत = मन मांगे।3।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद का नाम स्मरण किया कर, ये नाम ही करोड़ों दवाईयों (के बराबर) है। हे भाई! भगवान का नाम जपना चाहिए, ये नाम (सबसे बढ़िया) तंत्र और मंत्र है। जो मनुष्य इस नाम को स्मरण करता है, उसके सारे रोग सारी चिन्ता-फिक्रें मिट जाते हैं। वह मनुष्य सारे ही मन मांगे फल प्राप्त कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करन कारन समरथ दइआर ॥ सरब निधान महा बीचार ॥ नानक बखसि लीए प्रभि आपि ॥ सदा सदा एको हरि जापि ॥४॥१३॥१५॥

मूलम्

करन कारन समरथ दइआर ॥ सरब निधान महा बीचार ॥ नानक बखसि लीए प्रभि आपि ॥ सदा सदा एको हरि जापि ॥४॥१३॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करन कारन = जगत को पैदा करने वाला। करन = जगत। दइआर = दयालु। निधान = खजाना। महा बीचार = प्रभु के गुणों के ऊँचे विचार। प्रभि = प्रभु ने।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जगत का मूल है, सब ताकतों का मालिक है, दया का श्रोत है। उसके उच्च गुणों का विचार करना ही (जीव के लिए) सारे खजाने हैं। हे नानक! प्रभु ने खुद ही अपने सेवकों पर सदा बख्शिश की है। हे भाई! सदा ही उस एक परमात्मा का नाम जपा कर।4।13।15।

[[0867]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे मीत ॥ निरमल होइ तुम्हारा चीत ॥ मन तन की सभ मिटै बलाइ ॥ दूखु अंधेरा सगला जाइ ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे मीत ॥ निरमल होइ तुम्हारा चीत ॥ मन तन की सभ मिटै बलाइ ॥ दूखु अंधेरा सगला जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! निरमल = पवित्र। मिटै = मिट जाती है। बलाइ = बिपता। सगला = सारा। जाइ = जाए, दूर हो जाता है।1।
अर्थ: हे मेरे मित्र! परमात्मा का नाम सदा जपा कर, (नाम की इनायत से) तेरा मन पवित्र हो जाएगा। (हे मित्र! नाम जपने से) मन की शरीर की हरेक बिपता मिट जाती है, हरेक दुख दूर हो जाता है, (माया के मोह का) सारा अंधेरा समाप्त हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण गावत तरीऐ संसारु ॥ वड भागी पाईऐ पुरखु अपारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि गुण गावत तरीऐ संसारु ॥ वड भागी पाईऐ पुरखु अपारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। तरीऐ = उद्धार हो जाता है। वडभागी = बड़े भाग्यों से। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। अपारु = अ+पारु, बेअंत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गाते-गाते संसार (-समुंदर से) पार लांघा जाता है, (भाग्य जाग उठते हैं) बहुत भाग्यों से सर्व-व्यापक बेअंत प्रभु मिल जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जनु करै कीरतनु गोपाल ॥ तिस कउ पोहि न सकै जमकालु ॥ जग महि आइआ सो परवाणु ॥ गुरमुखि अपना खसमु पछाणु ॥२॥

मूलम्

जो जनु करै कीरतनु गोपाल ॥ तिस कउ पोहि न सकै जमकालु ॥ जग महि आइआ सो परवाणु ॥ गुरमुखि अपना खसमु पछाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पछाणु = सांझ डाल।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मित्र! जो मनुष्य सृष्टि के पालनहार प्रभु की महिमा के गीत गाता रहता है, उसको मौत का डर छू नहीं सकता, उस मनुष्य का दुनिया में आना सफल हो जाता है। (हे मित्र! तू भी) गुरु की शरण पड़ कर अपने मालिक प्रभु के साथ जान-पहचान बनाए रख।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण गावै संत प्रसादि ॥ काम क्रोध मिटहि उनमाद ॥ सदा हजूरि जाणु भगवंत ॥ पूरे गुर का पूरन मंत ॥३॥

मूलम्

हरि गुण गावै संत प्रसादि ॥ काम क्रोध मिटहि उनमाद ॥ सदा हजूरि जाणु भगवंत ॥ पूरे गुर का पूरन मंत ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। मिटहि = मिट जाते हैं (‘मिटै’ है एकवचन)। उनमाद = (उन्माद = madness, insanity) झल्लापन। मंत = मंत्र, उपदेश।3।
अर्थ: (हे मित्र! जो मनुष्य) गुरु की कृपा से परमात्मा के गुण गाता रहता है, (उसके अंदर से) काम-क्रोध (आदि) उन्माद खत्म हो जाते हैं। (हे मित्र! तू भी) पूरे गुरु का सच्चा उपदेश ले के भगवान को सदा अपने अंग-संग बसता समझा कर।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि धनु खाटि कीए भंडार ॥ मिलि सतिगुर सभि काज सवार ॥ हरि के नाम रंग संगि जागा ॥ हरि चरणी नानक मनु लागा ॥४॥१४॥१६॥

मूलम्

हरि धनु खाटि कीए भंडार ॥ मिलि सतिगुर सभि काज सवार ॥ हरि के नाम रंग संगि जागा ॥ हरि चरणी नानक मनु लागा ॥४॥१४॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाटि = कमा के। भंडार = खजाने। मिलि सतिगुर = गुरु को मिल के। सभि = सारे। नाम रंग संगि = नाम के प्रेम से। संगि = साथ।4।
अर्थ: हे नानक! गुरु को मिल के जिस मनुष्य ने हरि-नाम-धन कमा के खजाने भर लिए, उसने अपने सारे ही काम सँवार लिए। हरि-नाम के प्रेम की इनायत से उसका मन जाग उठता है (काम-क्रोध आदि विकारों से वह सचेत रहता है) उसका मन परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहता है।4।14।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ भव सागर बोहिथ हरि चरण ॥ सिमरत नामु नाही फिरि मरण ॥ हरि गुण रमत नाही जम पंथ ॥ महा बीचार पंच दूतह मंथ ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ भव सागर बोहिथ हरि चरण ॥ सिमरत नामु नाही फिरि मरण ॥ हरि गुण रमत नाही जम पंथ ॥ महा बीचार पंच दूतह मंथ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भव = संसार। सागर = समुंदर। बोहिथ = जहाज। सिमरत = स्मरण करते हुए। मरण = मौत, आत्मिक मौत। रमत = जपते हुए। पंथ = रास्ता। महा बीचार = (प्रभु के गुणों का) विचार जो सब विचारों से उत्तम है। मंथ = नाश करने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण संसार समुंदर से पार लांघने के लिए जहाज़ हैं। परमात्मा का नाम स्मरण करने से बार-बार (आत्मिक) मौत नहीं होती। प्रभु के गुण गाने से जमों का रास्ता नहीं पकड़ना पड़ता। (परमात्मा के गुणों की) विचार जो अन्य सारी विचारों से उत्तम है (कामादिक) पाँच वैरियों का नाश कर देती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तउ सरणाई पूरन नाथ ॥ जंत अपने कउ दीजहि हाथ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तउ सरणाई पूरन नाथ ॥ जंत अपने कउ दीजहि हाथ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ = तेरी। नाथ = हे नाथ! दीजहि = दिए जाने चाहिए (बहुवचन)।1। रहाउ।
अर्थ: हे सारे गुणों से भरपूर पति-प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। (मुझे) अपने पैदा किए गरीब सेवक को कृपा करके अपना हाथ पकड़ा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिम्रिति सासत्र बेद पुराण ॥ पारब्रहम का करहि वखिआण ॥ जोगी जती बैसनो रामदास ॥ मिति नाही ब्रहम अबिनास ॥२॥

मूलम्

सिम्रिति सासत्र बेद पुराण ॥ पारब्रहम का करहि वखिआण ॥ जोगी जती बैसनो रामदास ॥ मिति नाही ब्रहम अबिनास ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहि = करते हैं। रामदास = (दक्षिण में) बैरागियों का एक संप्रदाय जो नृत्यकारी करते हैं। मिति = अंदाजा, अंत।2।
अर्थ: हे भाई! स्मृतियां, शास्त्र, वेद, पुराण (आदि सारी धर्म-पुस्तकें) परमात्मा के गुणों का बयान करते हैं। जोगी-जती, वैश्णव साधु, (नृतकारी करने वाले) बैरागी भक्त भी प्रभु के गुणों का विचार करते हैं, पर उस अविनाशी प्रभु का कोई भी अंत नहीं पा सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण पलाह करहि सिव देव ॥ तिलु नही बूझहि अलख अभेव ॥ प्रेम भगति जिसु आपे देइ ॥ जग महि विरले केई केइ ॥३॥

मूलम्

करण पलाह करहि सिव देव ॥ तिलु नही बूझहि अलख अभेव ॥ प्रेम भगति जिसु आपे देइ ॥ जग महि विरले केई केइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण पलाह = (करुणा प्रलाप) तरले, दुहाई। अलख = जिसका सही स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। तिलु = रक्ती भर भी। देइ = देता है। केई केइ = केई केय, कोई कोई, विरले, दुर्लभ।3।
अर्थ: हे भाई! शिव जी व अन्य अनेक देवते (उस प्रभु का अंत तलाशने के लिए) तरले लेते हैं, पर उसके स्वरूप को रक्ती भर भी नहीं समझ सकते। उस प्रभु का स्वरूप सही तरीके से बयान नहीं किया जा सकता, उस प्रभु का भेद नहीं पाया जा सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि निरगुण गुणु किछहू नाहि ॥ सरब निधान तेरी द्रिसटी माहि ॥ नानकु दीनु जाचै तेरी सेव ॥ करि किरपा दीजै गुरदेव ॥४॥१५॥१७॥

मूलम्

मोहि निरगुण गुणु किछहू नाहि ॥ सरब निधान तेरी द्रिसटी माहि ॥ नानकु दीनु जाचै तेरी सेव ॥ करि किरपा दीजै गुरदेव ॥४॥१५॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि निरगुण = मैं गुणहीन में। सरब निधान = सारे खजाने। द्रिसटी = दृष्टि, नजर, निगाह। नानकु जाचै = नानक मांगता है (नानक = हे नानक!)। गुरदेव = हे सबसे बड़े देव!।4।
अर्थ: हे प्रभु! (मैं तो हूँ नाचीज़। भला मैं तेरा अंत कैसे पा सकता हूँ?) मुझ गुणहीन में कोई भी गुण नहीं है। (हाँ,) तेरी मेहर की निगाह में सारे खजाने हैं (जिस पर नज़र करता है, उसको प्राप्त हो जाते हैं)। हे सबसे बड़े देव! (तेरा दास) गरीब नानक (तुझसे) तेरी भक्ति माँगता है। मेहर कर के ये ख़ैर डाल।4।15।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ संत का लीआ धरति बिदारउ ॥ संत का निंदकु अकास ते टारउ ॥ संत कउ राखउ अपने जीअ नालि ॥ संत उधारउ ततखिण तालि ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ संत का लीआ धरति बिदारउ ॥ संत का निंदकु अकास ते टारउ ॥ संत कउ राखउ अपने जीअ नालि ॥ संत उधारउ ततखिण तालि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लीआ = (अरबी शब्द ‘लईन’ = जिस पर लाहनत दी हो) धिक्कारा हुआ। बिदारउ = मैं चीर दूँ। धरति बिदारउ = मैं धरती को जड़ से उखाड़ दूँ। अकास ते = आकाश से, ऊँचे दर्जे से। टारउ = टालूँ, मैं फेंक दूँ। कउ = को। राखउ = रखूँ, मैं रक्षा करता हूँ। जीअ नालि = जिंद के साथ। उधारउ = उद्धार करूँ, मैं बचा लेता हूँ। ततकालि = तत्काल, उसी वक्त। तालि = ताली बजने जितने समय में।1।
अर्थ: (हे भाई! तभी तो परमात्मा कहता है:) जिस मनुष्य को संत धिक्कार दे, मैं उसकी जड़ें उखाड़ देता हूँ। संत की निंदा करने वाले को मैं ऊँचे दर्जे से नीचे गिरा देता हूँ। संत को सदा मैं अपनी जीवात्मा के साथ रखता हूँ। (किसी भी बिपता से) संत को मैं तुरंत उसी वक्त बचा लेता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई संतु जि भावै राम ॥ संत गोबिंद कै एकै काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोई संतु जि भावै राम ॥ संत गोबिंद कै एकै काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वही (मनुष्य)। जि = जो। भावै राम = राम को अच्छा लगता है। संत गोबिंद कै = संत और परमात्मा के अंदर। एकै = एक समान।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को प्यारा लगने लगता है, वही है संत। संत के हृदय और गोबिंद के मन एक समान ही काम करने लगते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत कै ऊपरि देइ प्रभु हाथ ॥ संत कै संगि बसै दिनु राति ॥ सासि सासि संतह प्रतिपालि ॥ संत का दोखी राज ते टालि ॥२॥

मूलम्

संत कै ऊपरि देइ प्रभु हाथ ॥ संत कै संगि बसै दिनु राति ॥ सासि सासि संतह प्रतिपालि ॥ संत का दोखी राज ते टालि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै ऊपरि = के ऊपर। देइ = देती है। कै संगि = के साथ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। प्रतिपालि = प्रतिपाले, रक्षा करता है। दोखी = वैरी, बुरा चितवने वाला। टालि = टालता है, फेंक देता है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु अपना हाथ (अपने) संत के ऊपर रखता है, प्रभु अपने संत के साथ दिन-रात (हर वक्त) बसता है। प्रभु अपने संतों की (उनकी) हरेक सांस के साथ रक्षा करता है। संत का बुरा माँगने वाले को प्रभु राज-पाट से (भी) नीचे गिरा देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत की निंदा करहु न कोइ ॥ जो निंदै तिस का पतनु होइ ॥ जिस कउ राखै सिरजनहारु ॥ झख मारउ सगल संसारु ॥३॥

मूलम्

संत की निंदा करहु न कोइ ॥ जो निंदै तिस का पतनु होइ ॥ जिस कउ राखै सिरजनहारु ॥ झख मारउ सगल संसारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतनु = नाश, गिरावट। मारउ = बेशक मारे। झख मारउ = बेशक झखें मारे।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस कउ’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। ‘मारउ’ हुकमी भविष्यत, अन्न पुरख, एक वचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! कोई भी मनुष्य किसी संत की निंदा ना किया करे। जो भी मनुष्य निंदा करता है, वह आत्मिक जीवन से गिर जाता है। कर्तार खुद जिस मनुष्य की रक्षा करता है, सारा संसार (उसका नुकसान करने के लिए) बेशक झखें मारता फिरे (उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ अपने का भइआ बिसासु ॥ जीउ पिंडु सभु तिस की रासि ॥ नानक कउ उपजी परतीति ॥ मनमुख हार गुरमुख सद जीति ॥४॥१६॥१८॥

मूलम्

प्रभ अपने का भइआ बिसासु ॥ जीउ पिंडु सभु तिस की रासि ॥ नानक कउ उपजी परतीति ॥ मनमुख हार गुरमुख सद जीति ॥४॥१६॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसासु = विश्वास, भरोसा। जिंदु = प्राण। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। कउ = को। परतीति = प्रतीति, यकीन, निश्चय। मनमुख = अपने मन की ओर मुँह रखने वाला, मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। गुरमुख = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। जीति = जीत।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को अपने प्रभु पर भरोसा बन जाता है (उसको ये निश्चय हो जाता है कि) ये जीवात्मा और ये शरीर सब कुछ उस प्रभु की दी हुई ही राशि-पूंजी है। हे भाई! नानक के दिल में भी ये विश्वास बन चुका है कि अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जीवन की बाज़ी) हार जाता है, गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य को सदा जीत प्राप्त होती है।4।16।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ नामु निरंजनु नीरि नराइण ॥ रसना सिमरत पाप बिलाइण ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ नामु निरंजनु नीरि नराइण ॥ रसना सिमरत पाप बिलाइण ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजनु) माया की कालिख से परे रखने वाला। नामु नराइण = परमात्मा का नाम। नीरि = (क्रिया) (अपने हृदय में) सींच। रसना = जीभ (से)। बिलाइण = दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! नारायण का नाम माया की कालिख से बचाने वाला (है, इसको अपने हृदय में) सींच। (ये नाम) जीभ से जपते हुए (सारे) पाप दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

[[0868]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराइण सभ माहि निवास ॥ नाराइण घटि घटि परगास ॥ नाराइण कहते नरकि न जाहि ॥ नाराइण सेवि सगल फल पाहि ॥१॥

मूलम्

नाराइण सभ माहि निवास ॥ नाराइण घटि घटि परगास ॥ नाराइण कहते नरकि न जाहि ॥ नाराइण सेवि सगल फल पाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घट में, हरेक शरीर में। नरकि = नर्क में। न जाहि = नहीं जाते। सेवि = स्मरण करके।1।
अर्थ: हे भाई! सब जीवों में नारायण का निवास है, हरेक शरीर में नारायण (की ज्योति) का ही प्रकाश है। नारायण (का नाम) जपने वाले जीव नर्क में नहीं पड़ते। नारायण की भक्ति करके सारे फल प्राप्त कर लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराइण मन माहि अधार ॥ नाराइण बोहिथ संसार ॥ नाराइण कहत जमु भागि पलाइण ॥ नाराइण दंत भाने डाइण ॥२॥

मूलम्

नाराइण मन माहि अधार ॥ नाराइण बोहिथ संसार ॥ नाराइण कहत जमु भागि पलाइण ॥ नाराइण दंत भाने डाइण ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधार = आसरा। बोहिथ = जहाज़। भागि = भाग के। पलाइण = पलायन, दौड़ (लगा देता है)। भाने = (भंजन), तोड़ देता है। दंत डाइण = (डायन = माया) डायन के दाँत।2।
अर्थ: हे भाई! नारायण (के नाम) को (अपने) मन में आसरा बना ले, नारायण (का नाम) संसार-समुंदर में पार लंघाने के लिए जहाज है। नारायण का नाम जपने से जम भाग के परे चला जाता है। नारायण (का नाम माया रूपी) डायन के दाँत तोड़ देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराइण सद सद बखसिंद ॥ नाराइण कीने सूख अनंद ॥ नाराइण प्रगट कीनो परताप ॥ नाराइण संत को माई बाप ॥३॥

मूलम्

नाराइण सद सद बखसिंद ॥ नाराइण कीने सूख अनंद ॥ नाराइण प्रगट कीनो परताप ॥ नाराइण संत को माई बाप ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद सद = सदा सदा। बखसिंद = बख्शने वाला। कीने = पैदा कर दिए। को = का।3।
अर्थ: हे भाई! नारायण सदा ही बख्शनहार है। नारायण (अपने सेवकों के दिल में) सुख-आनंद पैदा करता है, (उनके अंदर अपना) तेज-प्रताप प्रकट करता है। हे भाई! नारायण अपने सेवकों-संतों का माता-पिता (जैसे रखवाला) है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराइण साधसंगि नराइण ॥ बारं बार नराइण गाइण ॥ बसतु अगोचर गुर मिलि लही ॥ नाराइण ओट नानक दास गही ॥४॥१७॥१९॥

मूलम्

नाराइण साधसंगि नराइण ॥ बारं बार नराइण गाइण ॥ बसतु अगोचर गुर मिलि लही ॥ नाराइण ओट नानक दास गही ॥४॥१७॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। बारंबार = बार-बार। बसतु = चीज। अगोचर = (अ+गो+चर। गो = इंद्रिय। चर = पहुँच) इन्द्रियों की पहुँच से परे। गुर मिलि = गुरु को मिल के। लही = पा ली। दास = दास ने। गही = पकड़ी। ओट = आसरा।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में टिक के सदा नारायण का नाम जपते हैं, बार-बार उसकी महिमा के गीत गाते हैं, वे मनुष्य गुरु को मिल के (वह मिलाप-रूपी कीमती) वस्तु पा लेते हैं जो इन इन्द्रियों की पहुँच से परे है। हे नानक! नारायण के दास सदा नारायण का आसरा लिए रखते हैं।4।17।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ जा कउ राखै राखणहारु ॥ तिस का अंगु करे निरंकारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ जा कउ राखै राखणहारु ॥ तिस का अंगु करे निरंकारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। राखै = बचाता है। राखणहारु = बचाने की सामर्थ्य वाला प्रभु।अंगु = पक्ष। निरंकारु = आकार रहित प्रभु।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को रखने में समर्थ प्रभु (कामादिक विकारों से) बचाना चाहता है, प्रभु उस मनुष्य का पक्ष करता है (उसकी सहायता करता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात गरभ महि अगनि न जोहै ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु न पोहै ॥ साधसंगि जपै निरंकारु ॥ निंदक कै मुहि लागै छारु ॥१॥

मूलम्

मात गरभ महि अगनि न जोहै ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु न पोहै ॥ साधसंगि जपै निरंकारु ॥ निंदक कै मुहि लागै छारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोहै = देखती, दुख देती। न पोहै = अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। साध संगि = गुरु की संगति में। कै मुहि = के मुँह में, के सिर ऊपर। छारु = राख।1।
अर्थ: हे भाई! (जैसे जीव को) माँ के पेट में आग दुख नहीं देती, (वैसे ही प्रभु जिस मनुष्य की सहायता करता है, उसको) काम-क्रोध-लोभ-मोह (कोई भी) अपने दबाव तले नहीं ला सकते। वह मनुष्य गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का नाम जपता है, (पर उस) की निंदा करने वाले मनुष्य के सिर पर राख पड़ती है (निंदक बदनामी ही कमाता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कवचु दास का संनाहु ॥ दूत दुसट तिसु पोहत नाहि ॥ जो जो गरबु करे सो जाइ ॥ गरीब दास की प्रभु सरणाइ ॥२॥

मूलम्

राम कवचु दास का संनाहु ॥ दूत दुसट तिसु पोहत नाहि ॥ जो जो गरबु करे सो जाइ ॥ गरीब दास की प्रभु सरणाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवचु = (कवच) 1. लोहे का कोट, ज़िरह बकतर। 2. तंत्र जो शस्त्रों की मार से बचा सके। संनाहु = संजोअ। दूत = (कामादिक) वैरी। दुसट = दुष्ट। गरबु = अहंकार। जाइ = नाश हो जाता है। सरणाइ = आसरा।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (का नाम) सेवक के लिए (शस्त्रों की मार से बचाने वाला) तंत्र है, संजाअ है (जिस मनुष्य के पास राम-राम का कवच है संजोअ है) उसको (कामादिक) दुष्ट वैरी छू भी नहीं सकते। (पर) जो जो मनुष्य (अपनी ताकत का) गुमान करते हैं, वे (आत्मिक जीवन की ओर से) तबाह हो जाते हैं। ग़रीब का आसरा सेवक का आसरा प्रभु आप ही है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जो सरणि पइआ हरि राइ ॥ सो दासु रखिआ अपणै कंठि लाइ ॥ जे को बहुतु करे अहंकारु ॥ ओहु खिन महि रुलता खाकू नालि ॥३॥

मूलम्

जो जो सरणि पइआ हरि राइ ॥ सो दासु रखिआ अपणै कंठि लाइ ॥ जे को बहुतु करे अहंकारु ॥ ओहु खिन महि रुलता खाकू नालि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राइ = राजा, बादशाह। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। खाकू नालि = मिट्टी में।3।
अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य प्रभु-पातशाह की शरण पड़ जाता है, उस सेवक को प्रभु अपने गले से लगा के (दुष्ट दूतों से) बचा लेता है। पर जो मनुष्य (अपनी ही ताकत पर) बड़ा घमण्ड करता है, वह मनुष्य (इन दूतों के मुकाबले के दौरान) एक छिन में ही मिट्टी में मिल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

है भी साचा होवणहारु ॥ सदा सदा जाईं बलिहार ॥ अपणे दास रखे किरपा धारि ॥ नानक के प्रभ प्राण अधार ॥४॥१८॥२०॥

मूलम्

है भी साचा होवणहारु ॥ सदा सदा जाईं बलिहार ॥ अपणे दास रखे किरपा धारि ॥ नानक के प्रभ प्राण अधार ॥४॥१८॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: है भी = अब भी मौजूद है। साचा = सदा कायम रहने वाला। होवणहारु = आगे को भी कायम रहने वाला। जाई = मैं जाता हूँ। बलिहार = कुर्बान। धारि = धार के, कर के। अधार = आसरा।4।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला प्रभु अब भी मौजूद है, सदा के लिए मौजूद रहेगा। मैं सदा उस पर सदके जाता हूँ। हे भाई! नानक के प्रभु जी अपने दासों की जिंद के आसरा हैं। प्रभु अपने दास को कृपा करके (विकारों से सदा) बचाता है।4।18।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ अचरज कथा महा अनूप ॥ प्रातमा पारब्रहम का रूपु ॥ रहाउ॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ अचरज कथा महा अनूप ॥ प्रातमा पारब्रहम का रूपु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचरज = हैरान करने वाली। अनूप = उपमा रहित, अद्वितीय, जिस जैसी और कोई चीज ना हो। प्रातमा = जीवात्मा। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जीवात्मा उस परमात्मा का रूप है जिसकी महिमा की बातें आश्चर्यजनक हैं और बहुत ही अद्वितीय हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना इहु बूढा ना इहु बाला ॥ ना इसु दूखु नही जम जाला ॥ ना इहु बिनसै ना इहु जाइ ॥ आदि जुगादी रहिआ समाइ ॥१॥

मूलम्

ना इहु बूढा ना इहु बाला ॥ ना इसु दूखु नही जम जाला ॥ ना इहु बिनसै ना इहु जाइ ॥ आदि जुगादी रहिआ समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाला = बालक। जम जाला = जमों का जाल। जाइ = पैदा होता है। आदि = आरम्भ से। जुगादि = युगों के आरम्भ से।1।
अर्थ: (हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है वह ऐसा है कि) ना ये कभी बुड्ढा होता है, ना ही ये कभी बालक (अवस्था में पराधीन) होता है। इसको कोई दुख छू नहीं सकता, जमों का जाल फंसा नहीं सकता। (परमात्मा ऐसा है कि) ना ये कभी मरता है ना कभी पैदा होता है, ये तो आरम्भ से ही, युगों की शुरूवात से ही (हर जगह) व्यापक चला आ रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना इसु उसनु नही इसु सीतु ॥ ना इसु दुसमनु ना इसु मीतु ॥ ना इसु हरखु नही इसु सोगु ॥ सभु किछु इस का इहु करनै जोगु ॥२॥

मूलम्

ना इसु उसनु नही इसु सीतु ॥ ना इसु दुसमनु ना इसु मीतु ॥ ना इसु हरखु नही इसु सोगु ॥ सभु किछु इस का इहु करनै जोगु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसनु = उष्ण, गरमी, (विकारों की) गर्मी। सीतु = ठंढ। हरखु = हर्ष, खुशी। सोगु = शोक, फिक्र। करनै जोगु = करने की ताकत रखने वाला।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इस का’ में से ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है वह ऐसा है कि) इसको (विकारों की) तपश नहीं सता सकती (चिन्ता-फिक्र का) पाला नहीं व्याप सकता। ना इसका कोई वैरी है ना मित्र है (क्योंकि इसके बराबर का कोई नहीं है)। कोई खुशी अथवा ग़मी भी इसके ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकती। (जगत की) हरेक चीज़ इसी की ही पैदा की हुई है, ये सब कुछ करने के समर्थ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना इसु बापु नही इसु माइआ ॥ इहु अपर्मपरु होता आइआ ॥ पाप पुंन का इसु लेपु न लागै ॥ घट घट अंतरि सद ही जागै ॥३॥

मूलम्

ना इसु बापु नही इसु माइआ ॥ इहु अपर्मपरु होता आइआ ॥ पाप पुंन का इसु लेपु न लागै ॥ घट घट अंतरि सद ही जागै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माइआ = माँ। अपरंपरु = परे से परे। लेपु = असर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। सद = सदा। जागै = (विकारों से) सचेत रहता है।3।
अर्थ: (हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है वह ऐसा है कि) इसका ना कोई पिता है, ना ही इसकी माँ है। यह तो परे से परे है, और सदा अस्तित्व वाला है। पाप और पून्य का भी इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह प्रभु हरेक शरीर के अंदर मौजूद है, और सदा ही सचेत रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीनि गुणा इक सकति उपाइआ ॥ महा माइआ ता की है छाइआ ॥ अछल अछेद अभेद दइआल ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ ता की गति मिति कछू न पाइ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाइ ॥४॥१९॥२१॥

मूलम्

तीनि गुणा इक सकति उपाइआ ॥ महा माइआ ता की है छाइआ ॥ अछल अछेद अभेद दइआल ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ ता की गति मिति कछू न पाइ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाइ ॥४॥१९॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सकति = माया। ता की = उस (प्रभु) की। छाइआ = छाया, परछाई। गति = आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, बिक्त। बलि = सदके।4।
अर्थ: (हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है) यह बहुत ही बलवान माया उसी की ही परछाई है, ये तीन गुणों वाली माया उसी ने ही पैदा की है। उस प्रभु को (कोई विकार) छल नहीं सकते, भेद नहीं सकते, उसका भेद नहीं पाया जा सकता, वह दया का घर है, वह दीनों पर सदा दया करने वाला है, और, दया कास श्रोत है। वह प्रभु कैसा है और कितना बड़ा है; ये भेद पाया नहीं जा सकता। नानक उस प्रभु से हमेशा ही सदके जाता है।4।19।21।

[[0869]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड महला ५ ॥ संतन कै बलिहारै जाउ ॥ संतन कै संगि राम गुन गाउ ॥ संत प्रसादि किलविख सभि गए ॥ संत सरणि वडभागी पए ॥१॥

मूलम्

गोंड महला ५ ॥ संतन कै बलिहारै जाउ ॥ संतन कै संगि राम गुन गाउ ॥ संत प्रसादि किलविख सभि गए ॥ संत सरणि वडभागी पए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै = से। जाउ = जाऊँ, जाता हूँ। बलिहारै = कुर्बान। कै संगि = की संगति में। गाउ = मैं गाता हूँ। संत प्रसादि = संत जनों की कृपा से। किलविख = पाप। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले लोग।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने वाले) संत जनों से मैं बलिहार जाता हूँ, उन संत जनों की संगति में रह के मैं (भी) परमात्मा के गुण गाता हूँ। हे भाई! संत जनों की कृपा से सारे पाप दूर हो जाते हैं। बहुत भाग्यशाली लोग ही संत जनों की शरण पड़ते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामु जपत कछु बिघनु न विआपै ॥ गुर प्रसादि अपुना प्रभु जापै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रामु जपत कछु बिघनु न विआपै ॥ गुर प्रसादि अपुना प्रभु जापै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। बिघनु = रुकावट। न विआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता। जापै = (हर जगह बसता) दिखाई देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से प्यारा प्रभु (हर जगह बसता) दिखाई देने लगता है, (इसलिए) प्रभु का नाम जपते हुए (किसी किस्म का) कोई बिघ्न (नाम जपने वाले पर) अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमु जब होइ दइआल ॥ साधू जन की करै रवाल ॥ कामु क्रोधु इसु तन ते जाइ ॥ राम रतनु वसै मनि आइ ॥२॥

मूलम्

पारब्रहमु जब होइ दइआल ॥ साधू जन की करै रवाल ॥ कामु क्रोधु इसु तन ते जाइ ॥ राम रतनु वसै मनि आइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआल = दयावान। साधू जन = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने वाले सेवक। रवाल = चरण धूल। तन ते = शरीर से। जाइ = चला जाता है। मनि = मन में। आइ = आ के।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जब (किसी मनुष्य पर) दयावान होता है, (तो उस मनुष्य को) गुरु के (बताए हुए राह पर चलने वाले) सेवकों के चरणों की धूल बनाता है। परमात्मा का अमूल्य नाम उस मनुष्य के मन में आ बसता है, उसके शरीर में से काम चला जाता है क्रोध चला जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफलु जनमु तां का परवाणु ॥ पारब्रहमु निकटि करि जाणु ॥ भाइ भगति प्रभ कीरतनि लागै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥३॥

मूलम्

सफलु जनमु तां का परवाणु ॥ पारब्रहमु निकटि करि जाणु ॥ भाइ भगति प्रभ कीरतनि लागै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफलु = कामयाब। परवाणु = स्वीकार। ता का = उस (मनुष्य) का। निकटि = नजदीक। करि = कर के। निकटि करि = नजदीक बसता। जाणु = समझ ले। भाइ = प्रेम से (भाउ = प्रेम)। कीरतनि = कीर्तन में। सोइआ = सोया हुआ, गाफल होया हुआ।3।
अर्थ: हे भाई! परमातमा को (हर वक्त अपने) नजदीक बसता समझ (जो मनुष्य परमात्मा को अपने पास बसता समझता है) उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है (प्रभु के दर पर) स्वीकार हो जाती है। वह मनुष्य भक्ति-भाव से प्रभु की महिमा में लग जाता है, और अनेक जन्मों से (माया की गहरी नींद का) सोया हुआ जाग उठता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल जन का आधारु ॥ गुण गोविंद रउं सचु वापारु ॥ दास जना की मनसा पूरि ॥ नानक सुखु पावै जन धूरि ॥४॥२०॥२२॥६॥२८॥

मूलम्

चरन कमल जन का आधारु ॥ गुण गोविंद रउं सचु वापारु ॥ दास जना की मनसा पूरि ॥ नानक सुखु पावै जन धूरि ॥४॥२०॥२२॥६॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आधारु = आसरा। रउं = रवउं, मैं (भी) याद करता रहूँ। सचु = सदा स्थिर। मनसा = मन की कामना। पूरि = पूरी करता है। जन धूरि = सेवक के चरणों की धूल में।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने वाले) सेवकों (की जिंदगी) का आसरा बन जाते हैं। मैं भी (सेवकों की संगति की इनायत से) परमात्मा के गुण गाता हूँ, (इसी उद्यम को जिंदगी का) सदा कायम रहने वाला व्यापार समझता हूँ। हे नानक! परमात्मा अपने सेवकों के मन की कामना पूरी करता है। (प्रभु का सेवक) संत जनों की चरण-धूल में आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।4।20।22।6।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड असटपदीआ महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड असटपदीआ महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि नमसकार पूरे गुरदेव ॥ सफल मूरति सफल जा की सेव ॥ अंतरजामी पुरखु बिधाता ॥ आठ पहर नाम रंगि राता ॥१॥

मूलम्

करि नमसकार पूरे गुरदेव ॥ सफल मूरति सफल जा की सेव ॥ अंतरजामी पुरखु बिधाता ॥ आठ पहर नाम रंगि राता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि नमसकार = सिर झुका कर। सफल = फल देने वाली, जीवन उद्देश्य पूरा करने वाली। सफल मूरति = वह गुरु जिसका दर्शन जीवन उद्देश्य पूरा करता है। जा की = जिस (गुरु) की। सेव = सेवा, शरण। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = पैदा करने वाला। नाम रंगि = (प्रभु के) नाम के रंग में। राता = रंगा हुआ।1।
अर्थ: हे भाई! पूरे सतिगुरु के आगे सदा सिर झुकाया कर, उसका दर्शन जीवन का लक्ष्य पूरा करता है, उसकी शरण पड़ने से जीवन सफल हो जाता है। हे भाई! गुरु उस प्रभु के नाम के रंग में रंगा रहता है जो हरेक के दिल की जानने वाला है, जो सबमें व्यापक है और जो सबको पैदा करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु गोबिंद गुरू गोपाल ॥ अपने दास कउ राखनहार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरु गोबिंद गुरू गोपाल ॥ अपने दास कउ राखनहार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। राखनहार = बचाने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु गोबिंद (का रूप) है, गुरु गोपाल (का रूप) है, जो अपने सेवकों को (निंदा आदि से) बचाने योग्य है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातिसाह साह उमराउ पतीआए ॥ दुसट अहंकारी मारि पचाए ॥ निंदक कै मुखि कीनो रोगु ॥ जै जै कारु करै सभु लोगु ॥२॥

मूलम्

पातिसाह साह उमराउ पतीआए ॥ दुसट अहंकारी मारि पचाए ॥ निंदक कै मुखि कीनो रोगु ॥ जै जै कारु करै सभु लोगु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उमराउ = अमीर। पतीआए = तसल्ली कर देता है, प्रीत बना देता है। दुसट = बुरे। मारि = आत्मिक मौत मार के। पचाए = दुखी करता है। कै मुखि = के मुँह में। रोगु = (निंदा की) बीमारी। जै जैकारु = (हर वक्त) शोभा। सभु लोगु = सारा जगत।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा के प्रति प्यार दृढ़ कर देता है वे आत्मिक मण्डल में शाह-पातशाह व अमीर बन जाते हैं। दुष्टों-अहंकारियों को (अपने दर से) दुत्कार के दर-दर भटकने के राह पर डाल देता है। (सेवक की) निंदा करने वाले मनुष्य के मुँह में (निंदा करने की) बीमारी ही बन जाती है, सारा जगत (उस मनुष्य की) सदा शोभा करता है (जो गुरु की शरण पड़ा रहता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन कै मनि महा अनंदु ॥ संत जपहि गुरदेउ भगवंतु ॥ संगति के मुख ऊजल भए ॥ सगल थान निंदक के गए ॥३॥

मूलम्

संतन कै मनि महा अनंदु ॥ संत जपहि गुरदेउ भगवंतु ॥ संगति के मुख ऊजल भए ॥ सगल थान निंदक के गए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै मनि = के मन में। जपहि = जपते हैं। भगवंतु = भाग्यों वाला। संगति के मुख = गुरु के पास रहने वाले सेवकों के मुँह। ऊजल = उज्जवल, रौशन।3।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़े रहते हैं, उन) संत-जनों के मन में बड़ा आत्मिक आनंद बना रहता है, संत जन गुरु को भगवान को अपने हृदय में बसाए रखते हैं। गुरु के पास रहने वाले सेवक के मुँह (लोक-परलोक में) रौशन हो जाते हैं पर निंदा करने वाले मनुष्य के (लोक-परलोक) सभी जगहें हाथों से निकल जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासि सासि जनु सदा सलाहे ॥ पारब्रहम गुर बेपरवाहे ॥ सगल भै मिटे जा की सरनि ॥ निंदक मारि पाए सभि धरनि ॥४॥

मूलम्

सासि सासि जनु सदा सलाहे ॥ पारब्रहम गुर बेपरवाहे ॥ सगल भै मिटे जा की सरनि ॥ निंदक मारि पाए सभि धरनि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस के साथ। सलाहे = उपमा करता है। बेपरवाह = बेमुथाज। भै = डर, भय। जा की = जिस (गुरु) की। सभि = सारे। पाए धरनि = धरती पर डाल देता है, नीच आचरण के गड्ढे में फेंक देता है। मारि = मार के, दुत्कार के।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाला) सेवक अपने हरेक सांस के साथ परमात्मा और बेमुथाज (बेपरवाह) गुरु की सिफल-सालाह करता रहता है। हे भाई! जिस गुरु की शरण पड़ने से सारे डर-सहम दूर हो जाते हैं, वह गुरु सेवकों की निंदा करने वाले लोगों को (अपने दर से) दुत्कार के नीच आचरण के गड्ढे में फेंक देता है (भाव, निंदकों को गुरु का दर पसंद नहीं आता। नतीजतन, वे गुरु दर से टूट के निंदा में पड़ के अपने आचरण में दिन-ब-दिन नीच से नीच होते चले जाते हैं)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन की निंदा करै न कोइ ॥ जो करै सो दुखीआ होइ ॥ आठ पहर जनु एकु धिआए ॥ जमूआ ता कै निकटि न जाए ॥५॥

मूलम्

जन की निंदा करै न कोइ ॥ जो करै सो दुखीआ होइ ॥ आठ पहर जनु एकु धिआए ॥ जमूआ ता कै निकटि न जाए ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोइ = कोई भी मनुष्य। जनु = प्रभु का सेवक। एकु = एक प्रभु को। ता कै निकटि = उसके नजदीक।5।
अर्थ: (इसलिए, हे भाई!) गुरु के सेवक की निंदा किसी भी मनुष्य को करनी ही नहीं चाहिए। जो भी मनुष्य (भले लोगों की) निंदा करता है, वह स्वयं दुखी रहता है। गुरु का सेवक तो हर वक्त एक परमात्मा का ध्यान धरे रखता है, जम-राज भी उसके नजदीक नहीं फटकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन निरवैर निंदक अहंकारी ॥ जन भल मानहि निंदक वेकारी ॥ गुर कै सिखि सतिगुरू धिआइआ ॥ जन उबरे निंदक नरकि पाइआ ॥६॥

मूलम्

जन निरवैर निंदक अहंकारी ॥ जन भल मानहि निंदक वेकारी ॥ गुर कै सिखि सतिगुरू धिआइआ ॥ जन उबरे निंदक नरकि पाइआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन = प्रभु के सेवक (शब्द ‘जनु’ और ‘जन’ में फर्क देखें)। भल मानहि = सब का भला मांगते हैं। वेकारी = विकारों में बुरा चितवने के कुकर्मों में। कै सिखि = के सिख ने। उबरे = बच जाते हैं। नरकि = नर्क में।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सेवक किसी के साथ बैर नहीं रखते, पर उनकी निंदा करने वाले मनुष्य उनका बुरा चितवने और कुकर्मों में फंसे रहते हैं। हे भाई! गुरु के सिख ने तो सदा अपने गुरु (के चरणों) में तवज्जो जोड़ी होती है। (इसलिए) सेवक तो (निंदा आदि के नर्क में से) बच निकलते हैं, पर निंदक (अपने आप को इस) नर्क में डाले रखते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि साजन मेरे मीत पिआरे ॥ सति बचन वरतहि हरि दुआरे ॥ जैसा करे सु तैसा पाए ॥ अभिमानी की जड़ सरपर जाए ॥७॥

मूलम्

सुणि साजन मेरे मीत पिआरे ॥ सति बचन वरतहि हरि दुआरे ॥ जैसा करे सु तैसा पाए ॥ अभिमानी की जड़ सरपर जाए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजन = हे सज्जन! सति = सत्य, अटल, सदा कायम रहने वाला। वरतहि = बरतते हैं, घटित होता है। दुआरे = द्वार, दर पर। सु = वह (मनुष्य)। सरपर = अवश्य।7।
अर्थ: हे मेरे सज्जन! हे प्यारे मित्र! सुन (मैं तुझे वह) अटल नियम (बताता हूँ जो) परमात्मा के दर पर (सदा) घटित होते हैं। (वह अटल नियम ये है कि) मनुष्य जिस तरह का कर्म करता है वैसा ही फल पा लेता है। अहंकारी मनुष्य की जड़ अवश्य काटी जाती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीधरिआ सतिगुर धर तेरी ॥ करि किरपा राखहु जन केरी ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी ॥ जा कै सिमरनि पैज सवारी ॥८॥१॥२९॥

मूलम्

नीधरिआ सतिगुर धर तेरी ॥ करि किरपा राखहु जन केरी ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी ॥ जा कै सिमरनि पैज सवारी ॥८॥१॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीधरिआ = निआसरों को। धर = आसरा। सतिगुर = हे गुरु! राखहु = तू रखता है। कै सिमरनि = के स्मरण ने। पैज = इज्जत।8।
अर्थ: हे सतिगुरु! निआसरे लोगों को तेरा ही आसरा है। तू मेहर करके अपने सेवकों की इज्जत स्वयं रखता है। हे नानक! कह: मैं उस गुरु से सदके जाता हूँ जिसकी ओट चितारने ने मेरी इज्जत रख ली (और, मुझे निंदा आदि से बचा के रखा)।8।1।29।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये एक ही अष्टपदी है, पर शीर्षक में शब्द ‘असटपदीयां’ (बहुवचन) दर्ज है।

[[0870]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड बाणी भगता की ॥ कबीर जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड बाणी भगता की ॥ कबीर जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥ मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥

मूलम्

संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥ मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असंतु = अ+संतु, जो संत नहीं, बुरा मनुष्य। मसटि = चुप।1।
अर्थ: अगर कोई भला मनुष्य मिल जाए तो (उसकी शिक्षा) सुननी चाहिए, और (जीवन के राह की गुंझलें) पूछनी चाहिए। पर अगर कोई बुरा आदमी मिल जाए, तो वहाँ चुप रहना ही ठीक है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥ जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥ जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ बोलना = कैसी बातचीत? जैसे = जिसके सदका। रवि रहीऐ = जुड़े रहें।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जगत में रहते हुए) कैसे बोल बोलें, जिनकी इनायत से परमात्मा के नाम के साथ तवज्जो टिकी रहे?।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: बाकी के सारे शब्द में इस प्रश्न का उक्तर है।)

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन सिउ बोले उपकारी ॥ मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥

मूलम्

संतन सिउ बोले उपकारी ॥ मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोले = बोलने से। उपकारी = भलाई की बात। झख मारी = व्यर्थ की खप खपाई।2।
अर्थ: (क्योंकि) भलों के साथ बात करने से कोई भलाई की बात निकलेगी, और मूर्ख से बात करने पर बेकार की झख मारने वाली बात होगी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥ बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥

मूलम्

बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥ बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोलत = (असंत से) बोलते हुए। बढहि = बढ़ते हैं। बिनु बोले = यदि (संत से भी) ना बोलें। बिचारा = विचार की बात।3।
अर्थ: (फिर) ज्यों-ज्यों (मूर्ख के साथ) बातें करेंगे (उसके कुसंग में) विकार ही विकार बढ़ते हैं; (पर इसका मतलब ये नहीं कि किसी के भी साथ उठना-बैठना नहीं चाहिए)। अगर भले मनुष्यों के साथ भी नहीं बोलेंगे, (भाव, अगर भलों के पास भी नहीं बैठेंगे) तो विचार की बातें कैसे कर सकते हैं?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥ भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥

मूलम्

कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥ भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छूछा = (गुणों से) वंचित। बोलै = बहुत सी फालतू बातें करता है। भरिआ = जो गुणवान है।4।
अर्थ: हे कबीर! सच बात ये है कि (जैसे) खाली घड़ा बोलता है, अगर वह (पानी के साथ) भरा हुआ हो तो वह कभी छलकता नहीं (इसी तरह बहुत फालतू बातें गुणहीन मनुष्य ही करता है। जो गुणवान है वह अडोल रहता है। सो, जगत में कोई ऐसा उद्यम करें, जिससे गुण ग्रहण कर सकें, और ये गुण मिल सकते हैं भले लोगों के पास से ही)।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: भले लोगों की संगत में रहने से भलाई सीखी जाती है, और परमात्मा की ओर की लगन बनी रहती है। पर अगर बुरे लोगों की संगत में बैठेंगे तो एक तो वहाँ बेकार की झखमारी ही होगी, दूसरा विकारों की तरफ रुचि बढ़ जाने का ख़तरा बना रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ नरू मरै नरु कामि न आवै ॥ पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ नरू मरै नरु कामि न आवै ॥ पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नरू = मनुष्य। दस काज = कई काम।1।
अर्थ: (मेरे कभी विचार में भी नहीं आता कि मैं किस शरीर पर गुमान करके बुरे काम करता रहता हूँ, मेरा असल तो यही है ना कि) जब मनुष्य मर जाता है तो मनुष्य (का शरीर) किसी काम नहीं आता, पर पशु मरता है तो (फिर भी उसका शरीर मनुष्य के) कई काम सँवारता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥ मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥ मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करम की गति = जो कर्म मैं कर रहा हूँ उनकी हालत, जो काम मैं किए जा रहा हूँ उनका अच्छा भला। मै किआ जानउ = मैं क्या जानूँ? मुझे क्या पता? मुझे समझ नहीं आती। अपने…जानउ = जो काम मैं नित्य किए जा रहा हूँ, उनमें मुझे कोई भलाई नहीं दिख रही (भाव, मैं बुरे काम ही किए जा रहा हूँ)। रे बाबा = हे पिता!।1। रहाउ।
अर्थ: हे बाबा! मैं कभी सोचता ही नहीं कि मैं कैसे नित्य के कर्म किए जा रहा हूँ, (मैं बुरी तरफ ही लगा रहता हूँ, और) मुझे ख्याल ही नहीं आता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥ केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥

मूलम्

हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥ केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तूला = गट्ठा। घास = घास। पूला = मुट्ठा, पुलिंदा।2।
अर्थ: (हे बाबा! मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मौत आने से इस शरीर की) हड्डियां लकड़ी के ढेर की तरह जल जाती हैं, और (इसके) बाल घास के पूले की तरह जल जाते हैं (और जिस शरीर का बाद में ये हाल होता है, उस पर सारी उम्र मैं ऐसे ही गर्व करता रहता हूँ)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥ जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥

मूलम्

कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥ जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागै = बुरे कर्मों से सचेत हो जाता है। डंडु = डण्डा। मूंड महि = सिर पर।3।
अर्थ: पर, हे कबीर! सच ये है कि मनुष्य इस मूर्खता से तब ही जागता है (तब ही पछताता है) जब मौत का डंडा इसके सिर पर आ बजता है।3।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शरीर की आखिरी दशा का सहज-स्वभाव वर्णन करते हुए भी कबीर जी हिन्दू मर्यादा ही बताते हैं कि मरणोपरांत शरीर अग्नि भेट हो जाता है। इस शब्द में किसी भी मजहब की बाबत कोई बहस नहीं है; साधारण तौर पर इन्सानी हालत बयान की है। इस साधारण हालत के बताने में भी सिर्फ जलाने के रिवाज का जिक्र साफ जाहिर करता है कि कबीर जी मुसलमान नहीं थे, हिन्दू घर में ही जन्मे-पले थे।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: मनुष्य अपने शरीर की ममता में फस के विकार करता रहता है। ये कभी भी नहीं सोचता कि प्रभु की याद के बिना ये शरीर तो पशु के शरीर से भी बेकार का है, और यहीं जल के राख हो जाता है। मरने के वक्त पछताने का क्या लाभ?

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले ॥ आनद मूलु सदा पुरखोतमु घटु बिनसै गगनु न जाइले ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले ॥ आनद मूलु सदा पुरखोतमु घटु बिनसै गगनु न जाइले ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आकासि = आकाश में। गगनु = चेतन सत्ता, वह चेतनता जो सारे जगत की सत्ता का मूल है। पातालि = पाताल में। चहु दिसि = चारों तरफ। रहाइले = मौजूद है। मूलु = कारण, आरम्भ। घटु = शरीर। न जाइले = नाश नहीं होती।1।
अर्थ: (ये जीवात्मा जिसका अंश है वह) चेतन-सत्ता आकाश से पाताल तक हर तरफ मौजूद है, वही (जीवों के) सुख का मूल कारण है। वह सदा कायम रहने वाला है, वह ही (है जिसको) उत्तम पुरुष (परमात्मा कहते) हैं। (जीवों का) शरीर नाश हो जाता है, पर (शरीर में बसती जीवात्मा का श्रोत) चेतन-सत्ता नाश नहीं होती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि बैरागु भइओ ॥ इहु जीउ आइ कहा गइओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मोहि बैरागु भइओ ॥ इहु जीउ आइ कहा गइओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। बैरागु भइओ = (और बातों से) उपरामता हो रही है, मुझे और बातें ग़ैर जरूरी प्रतीत होती हैं; और बातों से हट के मुझे यह सोच आ रही है कि। जीउ = जीवात्मा। इहु…गइओ = कहा ते इह जीउ आय कहा गयो? ना कहीं से आता है ना कहीं जाता है, ये जीवात्मा कभी नहीं मरती।1। रहाउ।
अर्थ: मेरा निष्चय अब इस बात पर टिक गया है कि ये जीवात्मा कभी मरती नहीं (क्योंकि ये जीवात्मा उस सर्व-व्यापक सदा-स्थिर चेतन-सत्ता का अंश है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच ततु मिलि काइआ कीन्ही ततु कहा ते कीनु रे ॥ करम बध तुम जीउ कहत हौ करमहि किनि जीउ दीनु रे ॥२॥

मूलम्

पंच ततु मिलि काइआ कीन्ही ततु कहा ते कीनु रे ॥ करम बध तुम जीउ कहत हौ करमहि किनि जीउ दीनु रे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। रे = हे भाई! ततु = हवा, आग, मिट्टी आदि तत्व जो जगत रचना का मूल है। करम बध = पिछले किए कर्मों का बँधा हुआ। करमहि = कर्मों को। किनि = (चेतना सत्ता के बिना और) किस ने? जीउ दीनु = वजूद दिया, हस्ती में लाया।2।
अर्थ: पाँच तत्वों ने मिल के ये शरीर बनाया है (पर इन तत्वों का भी कोई अलग अस्तित्व नहीं है), ये तत्व भी और कहाँ से बनने थे? (ये भी चेतन-सत्ता से ही बने हैं)। तुम लोग, हे भाई! ये कहते हो कि जीवात्मा किए हुए कर्मों की बँधी हुई है, (पर, दरअसल बात ये है कि) कर्मों को भी पहले चेतन-सत्ता के बिना और किसने वजूद में लाना था? (भाव, कर्मों को भी पहले ये चेतन-सत्ता ही अस्तित्व में वजूद में लाती है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि महि तनु है तन महि हरि है सरब निरंतरि सोइ रे ॥ कहि कबीर राम नामु न छोडउ सहजे होइ सु होइ रे ॥३॥३॥

मूलम्

हरि महि तनु है तन महि हरि है सरब निरंतरि सोइ रे ॥ कहि कबीर राम नामु न छोडउ सहजे होइ सु होइ रे ॥३॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंतरि = अंदर एक रस। सोइ = वह गगन ही, वह चेतन सत्ता ही। सहजे…होइ = (ये यकीन बन जाता है कि) जो कुछ जगत में हो रहा है (रजा के अनुसार) सहज ही हो रहा है।3।
अर्थ: हे भाई! उस चेतन-सत्ता प्रभु के अंदर ये (जीवों का) शरीर वजूद में आता है और शरीरों में वह प्रभु बसता है। सबके अंदर वही है, कहीं भी दूरी नहीं है। सो, कबीर कहता है: ऐसे चेतन-सत्ता परमात्मा का नाम मैं कभी नहीं भुलाउंगा, (नाम जपने की इनायत से ये समझ आती है कि) जो कुछ जगत में हो रहा है सहज ही (उस चेतन-सत्ता प्रभु की रज़ा में) हो रहा है।3।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: राग सोरठि में रविदास जी लिखते हैं:
सरबे एकु अनेकै सुआमी, सभ घट भुोगवै सोई॥ कहि रविदास हाथ पै नेरे, सहजे होइ सु होई॥४॥१॥
यहाँ देखें कबीर जी की आखिरी तुक “सहजे होइ सु होइ रे”।
दोनों बनारस के रहने वाले और समकाली थे। एक-दूसरे के साथ प्यार और विचारों में गहरी समानता थी।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: सर्व-व्यापक परमात्मा ही सारी सृष्टि का कर्ता है। जीवात्मा उसी की अंश है, जीवों के शरीर को बनाने वाला भी प्रभु ही है, और जीवों के कर्मों को पहले वही अस्तित्व में ले के आया। जो कुछ हो रहा है, सहज ही उसी की रजा के अनुसार हो रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड बाणी कबीर जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड बाणी कबीर जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥ हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥ हसति भागि कै चीसा मारै ॥ इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥

मूलम्

भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥ हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥ हसति भागि कै चीसा मारै ॥ इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुजा = बाँह। भिला = शिलाए पत्थर। भिला करि = पत्थर बना के; ढीम की तरह। डारिओ = फेंक दिया। क्रोधि = (महावत ने) गुस्से में (आ के)। हसती मूंड महि = हाथी के सर पर। हउ = मैं।1।
अर्थ: मेरी बाँहे बाँध के ढेम की तरह (मुझे इन लोगों ने हाथी के आगे) फेंक दिया है, (महावत ने) गुस्से में आ के हाथी के सिर के ऊपर (चोट) मारी है। पर हाथी (मुझे पैरों के तले लिताड़ने के बजाय) चिल्लाता हुआ (और तरफ को) भागता है, (जैसे कह रहा हो-) मैं बलिहार जाऊँ इस अच्छे आदमी पर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥ काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥ काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आहि = है। ठाकुर = हे ठाकुर! जोरु = ताकत, आसरा। बकिबो = बोलता है। तोरु = चला।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! काज़ी तो कह रहा है कि (इस कबीर पर) हाथी चढ़ा दे, पर मुझे तेरा भरोसा है (सो, तेरी इनायत से मुझे कोई फिक्र नहीं है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे महावत तुझु डारउ काटि ॥ इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥ हसति न तोरै धरै धिआनु ॥ वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥

मूलम्

रे महावत तुझु डारउ काटि ॥ इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥ हसति न तोरै धरै धिआनु ॥ वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे = हे! वा कै = उस के।2।
अर्थ: (काज़ी कहता है:) इस हाथी पर चोट मार और (कबीर की तरफ़) हाँक, नहीं तो मैं तेरा सर उतरवा दूँगा। पर हाथी चलता ही नहीं (वह तो ऐसे दिखता है जैसे) प्रभु के चरणों में मस्त है (जैसे) उसके हृदय में परमात्मा (प्रकट हो के) बस रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥ बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥ कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥ बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥

मूलम्

किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥ बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥ कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥ बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पोट = पोटली। कुंचरु = हाथी। अंधिआरै = अंधेरे में।3।
अर्थ: मेरी पोटली बाँध के (इन्होंने मुझे) हाथी के आगे फेंक दिया, भला मैंने अपने प्रभु के सेवक ने इनका क्या बिगाड़ा था? पर काज़ी को (तुअस्सब के) अंधेरे में ये समझ नहीं आई, (और उधर) हाथी (मेरे शरीर की बनी हुई) पोटली को बार-बार सिर झुका (के नमस्कार कर) रहा है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥ मन कठोरु अजहू न पतीना ॥ कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥ चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥

मूलम्

तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥ मन कठोरु अजहू न पतीना ॥ कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥ चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतीआ = अज़मायश। पतीना = पतीजा, तसल्ली हुई। चउथे पद महि = उस अवस्था में जो तीन गुणों के ऊपर है, प्रभु चरणों में।4।
अर्थ: (काज़ी ने हाथी को मेरे ऊपर चढ़ाने की) तीन बार कोशिशें कीं, पर (फिर भी) उसकी तसल्ली नहीं हुई (क्योंकि वह) मन का कठोर था। कबीर कहता है: (काज़ी को ये समझ ना आई कि) हमारा (प्रभु के सेवकों का रखवाला) परमात्मा है, प्रभु के दासों की जिंद हमेशा प्रभु के चरणों में टिकी रहती है (इस वास्ते उनको कोई डरा-धमका नहीं सकता)।4।1।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: स्मरण करने वाले लोगों की तवज्जो सदा प्रभु-चरणों में रहती है, इस वास्ते उनको कोई डरा-धमका नहीं सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ ना इहु मानसु ना इहु देउ ॥ ना इहु जती कहावै सेउ ॥ ना इहु जोगी ना अवधूता ॥ ना इसु माइ न काहू पूता ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ ना इहु मानसु ना इहु देउ ॥ ना इहु जती कहावै सेउ ॥ ना इहु जोगी ना अवधूता ॥ ना इसु माइ न काहू पूता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इहु = यह जो शरीर रूपी मन्दिर में बसने वाला है। मानसु = मनुष्य। देउ = देवता। सेउ = शिव का उपासक। अवधूता = त्यागी। माइ = माँ। इसु = इस की। काहू = किसी का।1।
अर्थ: (क्या मनुष्य, क्या देवते; क्या जती और क्या शिव-उपासक; क्या जोगी और क्या त्यागी; हरेक में एक वही बसता है; पर फिर भी सदा के लिए) ना ये मनुष्य है ना ये देवता; ना जती है ना शिव-उपासक, ना जोगी है ना त्यागी; ना इसकी कोई माँ है ना ये किसी का पुत्र है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इआ मंदर महि कौन बसाई ॥ ता का अंतु न कोऊ पाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इआ मंदर महि कौन बसाई ॥ ता का अंतु न कोऊ पाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इआ मंदरि महि = इस शरीर घर में। बसाई = बसता है। ता का = उस बसने वाले का।1। रहाउ।
अर्थ: (हमारे) इस शरीर-रूपी घर में कौन बसता है? उसकी अस्लियत क्या है? - इस बात की तह तक कोई नहीं पहुँच सका।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना इहु गिरही ना ओदासी ॥ ना इहु राज न भीख मंगासी ॥ ना इसु पिंडु न रकतू राती ॥ ना इहु ब्रहमनु ना इहु खाती ॥२॥

मूलम्

ना इहु गिरही ना ओदासी ॥ ना इहु राज न भीख मंगासी ॥ ना इसु पिंडु न रकतू राती ॥ ना इहु ब्रहमनु ना इहु खाती ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिरही = गृहस्थी, परिवार वाला। भीख मंगासी = भिखारी। पिंडु = शरीर। रकतू = रक्त। राती = रक्ती भर भी। खाती = क्षत्रिय।2।
अर्थ: (गृहस्थी, उदासी; राजा, कंगाल; ब्राहमण, क्षत्रिय; सब में यही बसता है; फिर भी इनमें रहने के कारण सदा के लिए) ना ये गृहस्थी है ना उदासी, ना ये राजा है ना भिखारी, ना यह ब्राहमण है ना क्षत्रिय, ना इसका कोई शरीर है ना ही इसमें रक्ती भर भी लहू है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना इहु तपा कहावै सेखु ॥ ना इहु जीवै न मरता देखु ॥ इसु मरते कउ जे कोऊ रोवै ॥ जो रोवै सोई पति खोवै ॥३॥

मूलम्

ना इहु तपा कहावै सेखु ॥ ना इहु जीवै न मरता देखु ॥ इसु मरते कउ जे कोऊ रोवै ॥ जो रोवै सोई पति खोवै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति खोवै = इज्जत गवाता है, दुखी होता है।3।
अर्थ: (तपे, शेख सब में यही है; सब शरीरों में आ के पैदा होता मरता भी प्रतीत होता है, फिर भी सदा के लिए) ना ये कोई तपस्वी है ना कोई शेख है; ना यह पैदा होता है ना मरता है। जो कोई जीव इस (अंदर बसते) को मरता समझ के रोता है वह दुखी ही होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर प्रसादि मै डगरो पाइआ ॥ जीवन मरनु दोऊ मिटवाइआ ॥ कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥ जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥

मूलम्

गुर प्रसादि मै डगरो पाइआ ॥ जीवन मरनु दोऊ मिटवाइआ ॥ कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥ जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। डगरो = (जिंदगी का सही) रास्ता। अंसु = हिस्सा, ज्योति। जस = जैसे। कागद पर = कागज पर लिखी हुई। मंसु = स्याही।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: (जब से) मैंने अपने गुरु की कृपा से (जिंदगी का सही) रास्ता पा लिया है, मैंने अपने जनम-मरण दोनों समाप्त करवा लिए हैं (भाव, मेरे जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो गया है; अब मुझे समझ आ गई है कि) हमारे अंदर बसने वाला ये परमात्मा की अंश है, और ये दोनों आपस में यूँ जुड़े हुए हैं जैसे कागज़ और (कागज़ पर लिखे हुए अक्षरों की) स्याही।4।2।5।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: परमात्मा हरेक जीव में व्यापक भी है, और सबसे अलग भी है। जीवों की तरह उसको जनम-मरण का चक्कर नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ तूटे तागे निखुटी पानि ॥ दुआर ऊपरि झिलकावहि कान ॥ कूच बिचारे फूए फाल ॥ इआ मुंडीआ सिरि चढिबो काल ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ तूटे तागे निखुटी पानि ॥ दुआर ऊपरि झिलकावहि कान ॥ कूच बिचारे फूए फाल ॥ इआ मुंडीआ सिरि चढिबो काल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निखुटी = समाप्त हो गई है। पानि = पाण, आटे की पकी हुई लुग्दी जो सूत पर कपड़ा उनने से पहले लगाई जाती है। कान = काने। फूए फाल = तीला तीला हो गए, बिखरे रहते हैं। इआ मुंडीआ सिरि = (मेरे) इस (पति) सा के सिर पर। चढिबो = चढ़ा हुआ है, सवार है।1।
अर्थ: (इसको घर के काम-काज का कोई फिक्र ही नहीं, अगर) ताणी के धागे टूटे पड़े हैं (तो टूटे पड़े रहते हैं), अगर पाण (लुग्दी, अरारोट मिश्रण) खत्म हो गया है (तो खत्म ही पड़ा है)। दरवाजे पर (बगैर संभाले) काने चमकते रहते हैं (जो इस्तेमाल ही नहीं किए जा रहे हैं); बेचारे फूए (कुच) तीला तीला हो रहे हैं; (पता नहीं इस साधु का क्या बनेगा), इस साधु के सिर पर मौत सवार हो गई प्रतीत होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मुंडीआ सगलो द्रबु खोई ॥ आवत जात नाक सर होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इहु मुंडीआ सगलो द्रबु खोई ॥ आवत जात नाक सर होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रब = द्रव्य, धन। खोई = गवा रहा है। नाक सर = नाक में दम।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: समस्या ये नहीं थी कि कबीर जी कमाते नहीं थे, बल्कि ये कि सत्संगियों को खिला देते थे।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (मेरा) ये (पति) साधु सारा (कमाया हुआ) धन गवाए जा रहा है (इसके सत्संगियों की) आवा-जाई से मेरे नाक में जान आई हुई है (नाक में दम किया हुआ है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुरी नारि की छोडी बाता ॥ राम नाम वा का मनु राता ॥ लरिकी लरिकन खैबो नाहि ॥ मुंडीआ अनदिनु धापे जाहि ॥२॥

मूलम्

तुरी नारि की छोडी बाता ॥ राम नाम वा का मनु राता ॥ लरिकी लरिकन खैबो नाहि ॥ मुंडीआ अनदिनु धापे जाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुरी = कपड़ा बुनने वाले करघे की वह लठ/धुरा (रोलर किस्म का भाग) जिस पर उना हुआ कपड़ा लिपटता जाता है। नारि = नाल, जिसमें धागे की नली डाली जाती है। वा का = (उस कबीर) का। खैबो = खाने लायक। अनदिनु = हर रोज। धापे = तृप्त हुए।2।
अर्थ: तुरी और नाल (के इस्तेमाल) का इसे कोई चिन्ता ही नहीं, (भाव, कपड़ा बुनने का इसे कोई ख्याल ही नहीं है), इसका मन सदा राम-नाम में लगा रहता है, (घर में) लड़की-लड़कों के खाने के लिए कुछ भी नहीं (रहता) पर इसके सत्संगी हर रोज आ के तृप्त हो के (खुब खा के) जाते हैं।2।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शिकायत यही है कि संभाल नहीं सकता। काम करना छोड़ा नहीं है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इक दुइ मंदरि इक दुइ बाट ॥ हम कउ साथरु उन कउ खाट ॥ मूड पलोसि कमर बधि पोथी ॥ हम कउ चाबनु उन कउ रोटी ॥३॥

मूलम्

इक दुइ मंदरि इक दुइ बाट ॥ हम कउ साथरु उन कउ खाट ॥ मूड पलोसि कमर बधि पोथी ॥ हम कउ चाबनु उन कउ रोटी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदरि = घर में। बाट = राह पर (भाव, चले आ रहे हैं, आवा जाई लगी रहती है)। साथरु = स्थर, जमीन पर। खाट = चारपाई। पलोसि = हाथ फेर के। कमर = कमर। चाबनु = भुने हुए दाने।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ तक तो दुनियावी गिला-शिकवा है। अगली पंक्तियों में बँदगी करने वाले का दृष्टिकोण है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर एक-दो साधु (हमारे) घर बैठे हैं और एक-दो चले भी आ रहे हैं, (हर वक्त आवाजाही लगी रहती है), हमें जमीन पर सोना पड़ता है, उनको चारपाई मुहईआ की जाती है। वे साधु कमर से पोथियाँ लटकाए सिरों पर हाथ फेरते चले आते हैं (कई बार उनके बेवक्त आ जाने पर) हमें तो भुने हुए दाने ही चबाने पड़ते हैं, उन्हें रोटियाँ मिलती हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुंडीआ मुंडीआ हूए एक ॥ ए मुंडीआ बूडत की टेक ॥ सुनि अंधली लोई बेपीरि ॥ इन्ह मुंडीअन भजि सरनि कबीर ॥४॥३॥६॥

मूलम्

मुंडीआ मुंडीआ हूए एक ॥ ए मुंडीआ बूडत की टेक ॥ सुनि अंधली लोई बेपीरि ॥ इन्ह मुंडीअन भजि सरनि कबीर ॥४॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुंडीआ = सत्संगी। बूडत की टेक = (संसार समुंदर में) डूबते हुओं का सहारा। बेपीरि = निगुरी, बे+पीर (के) बिना पीर (अथवा कहें बिना गुरु के)।4।
अर्थ: हे कबीर! (कह: इन सत्संगियों से ये प्यार इसलिए है कि) सत्संगियों के दिल आपस में मिले हुए हैं, और ये सत्संगी (संसार-समुंदर के विकारों में) डूबते हुओं का सहारा हैं। हे अंधी निगुरी लोई! सुन, तू भी इन सत्संगियों की शरण पड़।4।3।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इसी ही राग के शब्द नंबर 8 को ध्यान से पढ़ें। कबीर जी जानते हैं कि गृहस्थी के लिए धन कमाना जरूरी है, ता कि अपना व घर आए सज्जनों की उदर-पूर्ति कर सकें। अपनी रोजी-रोटी का भार औरों पर डाल देना; ना ये शिक्षा गुरु नानक देव जी की है, और ना ही कबीर जी की, जिनकी ये वाणी इतने प्यार से संभाल के लाए थे। हाँ, एक बात अगले ही शब्द नंबर 7 में कबीर जी ने साफ़ बताई है कि वे माया को अपना सब कुछ जिंद-जान बनाने को तैयार नहीं थे।
नोट: राग आसा में शब्द ‘करवत भला’ और बिलावल में शब्द ‘नित उठि कोरी’ के अर्थ करने के वक्त बताया जा चुका है कि शब्द का कोई भी हिस्सा कबीर जी की पत्नी व माँ का उचारा हुआ नहीं हो सकता। ये वचन कबीर जी के अपने हैं। इनमें बताया गया है कि बंदगी करने वाले मनुष्य और दुनियादार का जिंदगी का निशाना अलग-अलग होने के कारण दोनों का मेल मुश्किल है। ये बात भी गलत है कि कबीर जी काम करना छोड़ बैठे थे। आखिर, परिवार के निर्वाह के लिए और कौन काम करता था? घर में इतने सत्संगी भी आए रहते थे, परिवार भी था, इन सभी के लिए कबीर जी ही मेहनत करते थे। पर असल बात ये है कि कबीर जी की पत्नी को इन सत्संगियों का नित्य का आना पसंद नहीं था। इस वास्ते मानवीय स्वभाव के अनुसार गिला बढ़ा के किया है। हर कोई ऐसा ही करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥ उसु रखवारा अउरो होवै ॥ रखवारे का होइ बिनास ॥ आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥ उसु रखवारा अउरो होवै ॥ रखवारे का होइ बिनास ॥ आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खसम = पति, मालिक, मनुष्य। नारि = माया। ईहा = यहाँ, इस जीवन में।1।
अर्थ: (पर इस माया को स्त्री बना के रखने वाला) मनुष्य (आखिर) मर जाता है, ये (माया) पत्नी (उसके मरने पर) रोती भी नहीं, क्योंकि इसका रखवाला (पति) कोई पक्ष और बन जाता है (सो, ये कभी भी विधवा नहीं होती)। (इस माया का) रखवाला मर जाता है, मनुष्य यहाँ इस माया के भोगों (में मस्त रहने) के कारण आगे (अपने लिए) नर्क बना लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक सुहागनि जगत पिआरी ॥ सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

एक सुहागनि जगत पिआरी ॥ सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (ये माया) एक एैसी सोहागन नारि है जिसको सारा जगत प्यार करता है, सारे जीव-जंतु इसको अपनी स्त्री बना के रखना चाहते हैं (अपने वश में रखना चाहते हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोहागनि गलि सोहै हारु ॥ संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥ करि सीगारु बहै पखिआरी ॥ संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥

मूलम्

सोहागनि गलि सोहै हारु ॥ संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥ करि सीगारु बहै पखिआरी ॥ संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गलि = गले में। सोहै = सुंदर लगता है। बिखु = जहर। बिगसै = खुश रहता है। पखिआरी = वेश्या। ठिठकी = धिक्कारी हुई।2।
अर्थ: इस सोहागनि नारी के गले में हार शोभा देता है (भाव, जीवों का मन-मोहनें के लिए सदा सजी-धजी सुंदर बनी रहती है)। (इस को देख-देख के) जगत खुश होता है, पर संतों को ये जहर (जैसी) लगती है। वेश्वा (की तरह) सदा श्रृंगार किए रहती है, पर संतों द्वारा धिक्कारी हुई बेचारी (संतों से) परे-परे ही फिरती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत भागि ओह पाछै परै ॥ गुर परसादी मारहु डरै ॥ साकत की ओह पिंड पराइणि ॥ हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥

मूलम्

संत भागि ओह पाछै परै ॥ गुर परसादी मारहु डरै ॥ साकत की ओह पिंड पराइणि ॥ हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओह = वह माया। मारहु = (संतों की) मार से। पिंड पराइणि = शरीर का आसरा, जिंद जान। द्रिसटि परै = दिखाई देती है। त्रखि = तीखी, भयानक।3।
अर्थ: (ये माया) भाग के संतों की शरण पड़ने की कोशिश करती है, पर (संतों पर) गुरु की मेहर होने के कारण (ये संतों की) मार से डरती है (इस वास्ते नजदीक नहीं आती)। ये माया प्रभु से टूटे हुए लोगों की जिंद-जान बनी रहती है, पर मुझे (तो) ये भयानक डायन दिखती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥ जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥ कहु कबीर अब बाहरि परी ॥ संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥

मूलम्

हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥ जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥ कहु कबीर अब बाहरि परी ॥ संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेउ = भेद। बाहरि परी = मन में से निकल गई है। अंचलि = पल्ले। लरी = लगी।4।
अर्थ: जब मेरे सतिगुरु जी मेरे पर दयालु हुए और मुझे मिल गए, तब से मैंने इस माया के भेद को पा लिया है। हे कबीर! अब तू बेशक कह: मुझसे तो यह माया परे हट गई है, और संसारी जीवों के पल्ले जा लगी है।4।4।7।

[[0872]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि ॥ आवत पहीआ खूधे जाहि ॥ वा कै अंतरि नही संतोखु ॥ बिनु सोहागनि लागै दोखु ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि ॥ आवत पहीआ खूधे जाहि ॥ वा कै अंतरि नही संतोखु ॥ बिनु सोहागनि लागै दोखु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिहि = घर में। जा कै ग्रिहि = जिसके घर में। सोभा = माया। रे = हे भाई! पहीआ = राही, पांधी, अभ्यागत। खूधे = भूखे। वा कै अंतरि = उस गृहस्थी के मन में भी। संतोखु = खुशी, धरवास। सोहागनि = यह सदा पति वती रहने वाली माया। दोखु = दोश, एैब।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के घर में (घर की सुंदरता) माया नहीं है, उस घर में आए पांधी (मेहमान) भूखे चले जाते हैं, उस घर के मालिक के हृदय में भी धरवास नहीं बनता। सो, माया के बिना गृहस्थ पर गिला आता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु सोहागनि महा पवीत ॥ तपे तपीसर डोलै चीत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

धनु सोहागनि महा पवीत ॥ तपे तपीसर डोलै चीत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धनु = मुबारक। पवीत = पवित्र।1। रहाउ।
अर्थ: सदा पति-वती रहने वाली माया धन्य है, (ये बुरी नहीं) बड़ी पवित्र है, (इसके बिना) बड़े-बड़े तपस्वियों के मन (भी) डोल जाते हैं (भाव, अगर शरीर के निर्वाह के लिए माया ना मिले तो तपस्वी भी घबरा जाते हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोहागनि किरपन की पूती ॥ सेवक तजि जगत सिउ सूती ॥ साधू कै ठाढी दरबारि ॥ सरनि तेरी मो कउ निसतारि ॥२॥

मूलम्

सोहागनि किरपन की पूती ॥ सेवक तजि जगत सिउ सूती ॥ साधू कै ठाढी दरबारि ॥ सरनि तेरी मो कउ निसतारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरपन = कंजूस। पूती = पुत्री। सेवक तजि = प्रभु के भक्तों को छोड़ के। ठाढी = खड़ी। दरबारि = दर पर।2।
अर्थ: पर ये माया कंजूसों की बेटी बन के रहती है, (भाव, कंजूस इकट्ठी किए जाता है, इस्तेमाल नहीं करता) प्रभु के सेवकों के बिना और सभी को इसने अपने वश में किया हुआ है। भक्त-जन के दर पर खड़ी (पुकारती है कि) मैं तेरी शरण आई हूँ, मुझे बचा ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोहागनि है अति सुंदरी ॥ पग नेवर छनक छनहरी ॥ जउ लगु प्रान तऊ लगु संगे ॥ नाहि त चली बेगि उठि नंगे ॥३॥

मूलम्

सोहागनि है अति सुंदरी ॥ पग नेवर छनक छनहरी ॥ जउ लगु प्रान तऊ लगु संगे ॥ नाहि त चली बेगि उठि नंगे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पग = पैरों में। नेवर = झांजरें। बेगि = जल्दी।3।
अर्थ: माया बहुत सुंदर है। इसके पैरों में, मानो, झांझरें छन-छन कर रही हैं। (वैसे) जब तक मनुष्य के अंदर जिंद है तब तक ही इसके साथ रहती है नहीं तो (भाव, प्राण के निकलते ही) ये भी नंगे पैर उठ भागती है (भाव, उसी वक्त साथ छोड़ जाती है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोहागनि भवन त्रै लीआ ॥ दस अठ पुराण तीरथ रस कीआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसर बेधे ॥ बडे भूपति राजे है छेधे ॥४॥

मूलम्

सोहागनि भवन त्रै लीआ ॥ दस अठ पुराण तीरथ रस कीआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसर बेधे ॥ बडे भूपति राजे है छेधे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लीआ = वश किए हुए हैं। दस अठ = अठारह। रस = प्यार। बेधे = भेदे हुए। भूपति = राजे (भू = धरती। पति = मालिक)। छेधे = छेद किए हुए।4।
अर्थ: इस माया ने सारे जगत के जीवों को वश में किया हुआ है, अठारह पुराण पढ़ने वाले और तीर्थों पर जाने वालों को भी मोह लिया है, ब्रहमा, विष्णु और शिव (जैसे देवते) इसने भेद रखे हैं, सभ राजे-महाराजे भी इसने छेद डाले हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोहागनि उरवारि न पारि ॥ पांच नारद कै संगि बिधवारि ॥ पांच नारद के मिटवे फूटे ॥ कहु कबीर गुर किरपा छूटे ॥५॥५॥८॥

मूलम्

सोहागनि उरवारि न पारि ॥ पांच नारद कै संगि बिधवारि ॥ पांच नारद के मिटवे फूटे ॥ कहु कबीर गुर किरपा छूटे ॥५॥५॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उरवारि = इस पार। पांच कै संगि = पाँचों के साथ। नारद = (ब्रहमा के मन से पैदा हुए दस पुत्रों में से एक का नाम नारद था। देवताओं और मनुष्यों में झगड़े डलवाना उसका शौक था) ज्ञान-इंद्रिय जो माया के प्रभाव में आ के मनुष्य के आत्मिक जीवन में गड़बड़ डालते हैं। बिध वारि = (विध = penatration, भेदना) बिध वारी, भेदने वाली, मिली हुई। मिटवे = मिट्टी के बर्तन। फूटे = टूट गए।5।
अर्थ: ये माया बड़े पसारे वाली है, इसका अंत नहीं पाया जा सकता; पाँचों ही ज्ञान-इन्द्रियों के साथ घुल-मिल के रहती है। पर, हे कबीर! तू कह: मैं सतिगुरु की कृपा से इस (की मार) से बच गया हूँ, क्योंकि मेरी पाँचों ही इन्द्रियों के बर्तन टूट चुके हैं (भाव, ज्ञान-इन्द्रियों पर इस माया का प्रभाव नहीं पड़ता)।5।5।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै ॥ नाम बिना कैसे पारि उतरै ॥ कु्मभ बिना जलु ना टीकावै ॥ साधू बिनु ऐसे अबगतु जावै ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै ॥ नाम बिना कैसे पारि उतरै ॥ कु्मभ बिना जलु ना टीकावै ॥ साधू बिनु ऐसे अबगतु जावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदर = घर। बलहर = शतीरी, (छत बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले लकड़ी के) बल्ले। ठाहरै = टिकता। कुंभ = घड़ा। साधू = गुरु। अबगतु = अविगत, गति के बिना, मुक्ति के बिना, बुरे हाल ही।1।
अर्थ: जैसे घर में शतीर (बाला) है (बाले के बिना घर की छत) नहीं टिक सकती, वैसे ही प्रभु के नाम के बिना (मनुष्य का मन संसार-समुंदर के बवण्डर में से) पार नहीं लांघ सकता। जैसे घड़े के बिना पानी नहीं टिक सकता, वैसे ही गुरु के बिना (मनुष्य का मन नहीं टिकता और व्यक्ति दुनिया से) बुरे हाल ही जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जारउ तिसै जु रामु न चेतै ॥ तन मन रमत रहै महि खेतै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जारउ तिसै जु रामु न चेतै ॥ तन मन रमत रहै महि खेतै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जारउ = मैं जला दूँ। तिसै = उस (नाम) को। तन मन = तन से मन से, पूरी तरह। रमत रहै = आनंद लेता रहे। महि खेतै = खेतै महि, शरीर में ही, शारीरिक भोगों में ही।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उस (मन) को जला डालूँ जो उस प्रभु को नहीं स्मरण करता और सदा शारीरिक भोगों में ही खचित रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे हलहर बिना जिमी नही बोईऐ ॥ सूत बिना कैसे मणी परोईऐ ॥ घुंडी बिनु किआ गंठि चड़्हाईऐ ॥ साधू बिनु तैसे अबगतु जाईऐ ॥२॥

मूलम्

जैसे हलहर बिना जिमी नही बोईऐ ॥ सूत बिना कैसे मणी परोईऐ ॥ घुंडी बिनु किआ गंठि चड़्हाईऐ ॥ साधू बिनु तैसे अबगतु जाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हलहर = हलधर, किसान। जिमी = ज़मीन। मणी = मणके। गंठि = गाँठ।2।
अर्थ: जैसे किसान के बिना जमीन नहीं बीजी जा सकती, सूतर के बिना मणके परोए नहीं जा सकते, घुंडी के बिना गाँठ नहीं लगाई जा सकती, वैसे ही गुरु की शरण के बिना मनुष्य बुरे हाल ही जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे मात पिता बिनु बालु न होई ॥ बि्मब बिना कैसे कपरे धोई ॥ घोर बिना कैसे असवार ॥ साधू बिनु नाही दरवार ॥३॥

मूलम्

जैसे मात पिता बिनु बालु न होई ॥ बि्मब बिना कैसे कपरे धोई ॥ घोर बिना कैसे असवार ॥ साधू बिनु नाही दरवार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिंब = पानी। घोर = घोड़ा। दरवार = प्रभु का दर।3।
अर्थ: जैसे माता-पिता (के मेल) के बिना बालक पैदा नहीं होता, पानी के बिना कपड़े नहीं धुलते, घोड़े के बिना मनुष्य असवार नहीं कहलवा सकता, वैसे ही गुरु के बिना प्रभु के दर की प्राप्ति नहीं होती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे बाजे बिनु नही लीजै फेरी ॥ खसमि दुहागनि तजि अउहेरी ॥ कहै कबीरु एकै करि करना ॥ गुरमुखि होइ बहुरि नही मरना ॥४॥६॥९॥

मूलम्

जैसे बाजे बिनु नही लीजै फेरी ॥ खसमि दुहागनि तजि अउहेरी ॥ कहै कबीरु एकै करि करना ॥ गुरमुखि होइ बहुरि नही मरना ॥४॥६॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नही लीजै फेरी = नाच नहीं हो सकता। खसमि = पति ने। अउहेरी = (संस्कृत: अवहेलित, disregarded, rejected) दुत्कार दी। करना = करने योग्य काम। बहुरि = दोबारा, फिर।4।
अर्थ: साजों के बिना जैसे नृत्य नहीं हो सकता (वैसे ही पति के बिना स्त्री सोहागनि नहीं हो सकती) दोहागनि (बुरे स्वभाव वाली स्त्री) को पति ने त्याग के सदा दुत्कारा ही होता है।
कबीर कहता है: एक ही करनेयोग्य कार्य कर, गुरु के सन्मुख हो (और नाम स्मरण कर) बार-बार पैदा होना-मरना नहीं पड़ेगा।4।6।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै ॥ मन कूटै तउ जम ते छूटै ॥ कुटि कुटि मनु कसवटी लावै ॥ सो कूटनु मुकति बहु पावै ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै ॥ मन कूटै तउ जम ते छूटै ॥ कुटि कुटि मनु कसवटी लावै ॥ सो कूटनु मुकति बहु पावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूटनु = 1. (संस्कृत: कूट = झूठ, ठगी, फरेब), ठगी, फरेबी, दल्ला; 2. कूटने वाला। छूटै = बच जाता है। कसवटी लावै = परखता रहे, पड़ताल करता रहे।1।
अर्थ: (तुम ‘कूटन’ ठग को कहते हो, पर) कूटन वह भी है जो अपने मन को मारता है और जो मनुष्य अपने मन को मारता है वह जमों की मार से बच जाता है। जो मनुष्य बार-बार मन को मार के (फिर उसकी) जाँच-पड़ताल करता रहता है, वह (अपने मन को कूटने वाला) ‘कूटन’ मुक्ति हासिल कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूटनु किसै कहहु संसार ॥ सगल बोलन के माहि बीचार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कूटनु किसै कहहु संसार ॥ सगल बोलन के माहि बीचार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसार = हे संसार! हे लोगो! बीचार = अर्थ, भाव,अलग अलग भाव।1। रहाउ।
अर्थ: हे जगत के लोगों! तुम ‘कूटन’ किस को कहते हो? सब शब्दों के अलग-अलग भाव हो सकते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै ॥ झूठि न पतीऐ परचै साचै ॥ इसु मन आगे पूरै ताल ॥ इसु नाचन के मन रखवाल ॥२॥

मूलम्

नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै ॥ झूठि न पतीऐ परचै साचै ॥ इसु मन आगे पूरै ताल ॥ इसु नाचन के मन रखवाल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाचनु = (संस्कृत: नर्तक a dancer) कंजर। मन सिउ = मन से। झूठि = झूठ में। पतीऐ = पतीजता। पूरै ताल = ताल पूरी करता है, नाचने में सहायता के लिए ताल देता है, मन को आत्मिक उमाह में लाने के यत्न करता है। मन = मन का।2।
अर्थ: (तुम ‘नाचन’ कंजर को कहते हो, पर हमारे विचार के अनुसार) ‘नाचन’ वह है जो (शरीर के साथ नहीं) मन से नाचता है, झूठ में नहीं पतीजता, सच से पतीजता है, मन को आत्मिक उमाह में लाने का प्रयत्न करता है। ऐसे ‘नाचन’ के मन का रखवाला (प्रभु स्वयं बनता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बजारी सो जु बजारहि सोधै ॥ पांच पलीतह कउ परबोधै ॥ नउ नाइक की भगति पछानै ॥ सो बाजारी हम गुर माने ॥३॥

मूलम्

बजारी सो जु बजारहि सोधै ॥ पांच पलीतह कउ परबोधै ॥ नउ नाइक की भगति पछानै ॥ सो बाजारी हम गुर माने ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बजारी = बाजारों में घूमने वाला, मसखरा। बजारहि = शरीर रूपी बाजार को। पांच पलीता = पाँचो पलीत हुई अपवित्र हुई इन्द्रियों को। परबोधै = जगाता है। नउ नाइक = नौखण्ड पृथ्वी के मालिक। हम = मैं।3।
अर्थ: (तुम ‘बाजारी’ मसखरे को कहते हो, पर) ‘बाजारी’ वह है जो अपने शरीर रूपी बाजार को पड़तालता है (आत्मावलोकन, आत्म चिंतन करता है), पाँचों ही बिगड़ी हुई ज्ञान-इन्द्रियों को जगाता है, नौ-खण्ड धरती के मालिक-प्रभु की बँदगी करने की विधि सीखता है। हम ऐसे ‘बाजारी’ को बड़ा (श्रेष्ठ) मनुष्य मानते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तसकरु सोइ जि ताति न करै ॥ इंद्री कै जतनि नामु उचरै ॥ कहु कबीर हम ऐसे लखन ॥ धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन ॥४॥७॥१०॥

मूलम्

तसकरु सोइ जि ताति न करै ॥ इंद्री कै जतनि नामु उचरै ॥ कहु कबीर हम ऐसे लखन ॥ धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन ॥४॥७॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तसकरु = चोर। ताति = ईष्या। इंद्री कै जतनि = इंद्री को वश में करने के यत्न, इन्द्रीय को वश करके। बिचखन = समझदार।4।
अर्थ: (तुम ‘तस्कर’ चोर को कहते हो, पर) तस्कर वह है जो तात (ईष्या को अपने मन में से चुरा ले जाता है) नहीं करता, जो इन्द्रियों को वश में करके प्रभु का नाम स्मरण करता है। हे कबीर! जिसकी इनायत से मैंने ये लक्षण (गुण) प्राप्त किए हैं, मेरा वह गुरु, सुंदर, समझदार व धन्यता का पात्र है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह कुदरती बात थी कि उच्च जाति वाले लोग कबीर जी से नफ़रत करें और उन्हें अपशब्दों भरे नामों से याद करें। पर कबीर जी पर किसी की ईष्या का असर नहीं होता।

[[0873]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ धंनु गुपाल धंनु गुरदेव ॥ धंनु अनादि भूखे कवलु टहकेव ॥ धनु ओइ संत जिन ऐसी जानी ॥ तिन कउ मिलिबो सारिंगपानी ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ धंनु गुपाल धंनु गुरदेव ॥ धंनु अनादि भूखे कवलु टहकेव ॥ धनु ओइ संत जिन ऐसी जानी ॥ तिन कउ मिलिबो सारिंगपानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनु = (संस्कृत: धन्य = 1- Bestowing wealth 2- wealthy, rich 3- good] excellent] virtuous 4- blessed, fortunate, lucky) भाग्यशाली, सुंदर, गुणवान। गुपाल = धरती को पालने वाला प्रभु। गुरदेव = सतिगुरु। अनादि = अंन आदि, अनाज। कवलु = हृदय। टहकेव = टहक पड़ता है, खिल उठता है। जिन = जिन्होंने। मिलिबो = मिलेगा। सारिंग पानी = धनुषधारी प्रभु।1।
अर्थ: सो, धन्य है धरती का पालनहार प्रभु (जो अन्न पैदा करता है), धन्य है सतिगुरु (जो ऐसे प्रभु की समझ बख्शता है), और धन्य है अन्न जिससे भूखे मनुष्य का हृदय (फूल की तरह) खिल उठता है। वे संत भी भाग्यशाली हैं जिन्हें ये बात समझ आ गई है (कि अन्न निंदनीय नहीं है और अन्न खा के प्रभु का स्मरण करते हैं), उनको परमात्मा मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदि पुरख ते होइ अनादि ॥ जपीऐ नामु अंन कै सादि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आदि पुरख ते होइ अनादि ॥ जपीऐ नामु अंन कै सादि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि पुरख = परमात्मा। अंन कै सादि = अन्न के स्वाद के साथ, अन्न खाते हुए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) अनाज (जिसको त्यागने में तुम भक्ति समझते हो) परमात्मा से ही पैदा होता है, और परमात्मा का नाम भी अन्न खा के ही जपा जा सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपीऐ नामु जपीऐ अंनु ॥ अ्मभै कै संगि नीका वंनु ॥ अंनै बाहरि जो नर होवहि ॥ तीनि भवन महि अपनी खोवहि ॥२॥

मूलम्

जपीऐ नामु जपीऐ अंनु ॥ अ्मभै कै संगि नीका वंनु ॥ अंनै बाहरि जो नर होवहि ॥ तीनि भवन महि अपनी खोवहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंभ = पानी। वंनु = रंग। अपनी = अपनी (इज्जत)।2।
अर्थ: (इसलिए) प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए और अनाज को भी प्यार करना चाहिए (भाव, अन्न पर तर्क करने की जगह अन्न को ऐसे धीरे-धीरे प्रीत से खाएं जैसे अडोल हो के प्यार से नाम स्मरणा है)। (देखिए, जिस पानी को रोजाना प्रयोग करते हो, उसी) पानी की संगति से इस अन्न का कैसा सुंदर रंग निकलता है! (यदि पानी के प्रयोग से कोई पाप नहीं तो अन्न से नफ़रत क्यों?)। जो मनुष्य अन्न से तर्क करते है वे हर जगह अपनी इज्जत गवाते हैं (भाव, अन्न का त्याग कोई ऐसा काम नहीं जिसे दुनिया पसंद करे)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छोडहि अंनु करहि पाखंड ॥ ना सोहागनि ना ओहि रंड ॥ जग महि बकते दूधाधारी ॥ गुपती खावहि वटिका सारी ॥३॥

मूलम्

छोडहि अंनु करहि पाखंड ॥ ना सोहागनि ना ओहि रंड ॥ जग महि बकते दूधाधारी ॥ गुपती खावहि वटिका सारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंड = रंडियां, विधवाएं। बकते = कहते हैं। दूधाधारी = दूध+आधारी, दूध के आसरे रहने वाले, सिर्फ दूध पी के जीवन निर्वाह करने वाले। गुपती = छुप के। वटिका = (संस्कृत: a kind of cake or bread made of rice and mash) चावल और माँह की बनी हुई पिन्नी व रोटी।3।
अर्थ: जो लोग अन्न छोड़ देते हैं और (वे) पाखण्ड करते हैं, वे (उन बेमतलब की औरतों की तरह हैं जो) ना सोहगनें हैं ना ही विधवा। (अन्न छोड़ने वाले साधु,) लोगों में कहते-फिरते हैं, हम निरा दूध पी के ही निर्वाह करते हैं, पर चोरी-चोरी सारी की सारी वटिका ही खाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंनै बिना न होइ सुकालु ॥ तजिऐ अंनि न मिलै गुपालु ॥ कहु कबीर हम ऐसे जानिआ ॥ धंनु अनादि ठाकुर मनु मानिआ ॥४॥८॥११॥

मूलम्

अंनै बिना न होइ सुकालु ॥ तजिऐ अंनि न मिलै गुपालु ॥ कहु कबीर हम ऐसे जानिआ ॥ धंनु अनादि ठाकुर मनु मानिआ ॥४॥८॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजीऐ अंनि = अगर अनाज त्यागा जाए, अन्न त्याग से।4।
अर्थ: अन्न के बगैर सुकाल नहीं हो सकता, अन्न के छोड़ने से ईश्वर नहीं मिलता। हे कबीर! (बेशक) कह: हमें ये यकीन है कि अन्न बड़ा ही सुंदर (व उत्तम) पदार्थ है जिसको खाने से (स्मरण करके) हमारा मन परमात्मा के साथ जुड़ता है।4।8।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड बाणी नामदेउ जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड बाणी नामदेउ जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुमेध जगने ॥ तुला पुरख दाने ॥ प्राग इसनाने ॥१॥

मूलम्

असुमेध जगने ॥ तुला पुरख दाने ॥ प्राग इसनाने ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असुमेध = (संस्कृत: अश्वमेध: अश्व: प्रधानतया मेध्यते हिस्यतेऽत्र) वैदिक युग में संतान के लिए राजे यह यज्ञ किया करते थे। बाद में वे राजे भी करने लगे जो आस-पास के रजवाड़ों में सबसे बड़ा कहलवाना चाहते थे। एक घोड़ा सजा के उसे शूरवीरों की निगरानी में एक साल के लिए छोड़ दिया जाता था; जिस रजवाड़े के राज से घोड़ा गुजरे, वह राजा या तो लड़े या ईन माने। साल के उपरांत जब वह घोड़ा वापस अपने राज में आता तो यज्ञ किया जाता था। एसे 100 यज्ञ करने पर इन्द्र की पदवी मिल जाती थी। तभी ये ख्याल बना हुआ है कि इन्द्र इन यज्ञों के राह अवरोध खड़े किया करता था। तुला = तुल के बराबर का। प्राग = प्रयाग, हिन्दू तीर्थ, (इस शहर का नाम आजकल इलाहाबाद है)।1।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य अश्वमेध यज्ञ करे, अपने बराबर का तोल के (सोना चाँदी आदि) दान करे, और प्रयाग आदि तीर्थों पर स्नान करे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तउ न पुजहि हरि कीरति नामा ॥ अपुने रामहि भजु रे मन आलसीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तउ न पुजहि हरि कीरति नामा ॥ अपुने रामहि भजु रे मन आलसीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: तो भी ये सारे काम प्रभु के नाम की, परमात्मा के महिमा की बराबरी नहीं कर सकते। सो, हे मेरे आलसी मन! अपने प्यारे प्रभु को स्मरण कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गइआ पिंडु भरता ॥ बनारसि असि बसता ॥ मुखि बेद चतुर पड़ता ॥२॥

मूलम्

गइआ पिंडु भरता ॥ बनारसि असि बसता ॥ मुखि बेद चतुर पड़ता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गइआ = गया, हिन्दू तीर्थ, जो हिन्दू दीया बाती के कारण मर जाए उसकी अंतिम क्रिया गया जा के करवाई जाती है। पिंडु = चावल व जौ के आटे के पेड़े जो पित्रों के नमिक्त मणसे जाते हैं। असि = बनारस के पास बहती नदी का नाम है। मुखि = मुँह से। चतुर = चार।2।
अर्थ: यदि मनुष्य गया (आदि) तीर्थ पर जाकर पित्रों के नमिक्त पिंड भराए, यदि काशी के साथ बहती असि नदी के तट पर बसता हो, अगर मुँह से चारों वेद (ज़बानी) पढ़ता हो।2।;

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल धरम अछिता ॥ गुर गिआन इंद्री द्रिड़ता ॥ खटु करम सहित रहता ॥३॥

मूलम्

सगल धरम अछिता ॥ गुर गिआन इंद्री द्रिड़ता ॥ खटु करम सहित रहता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अछिता = (संस्कृत: अक्षर) संयुक्त। द्रिढ़ता = वश में रखे। खटु करम = छह कर्म (विद्या पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और करवाना, दान लेना व देना)।3।
अर्थ: अगर मनुष्य सारे धर्म-कर्म करता हो, अपने गुरु की शिक्षा ले के इन्द्रियों को काबू में रखता हो, अगर ब्राहमणों वाले खट-करम सदा ही करता रहे,।3।;

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिवा सकति स्मबादं ॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं ॥ सिमरि सिमरि गोबिंदं ॥ भजु नामा तरसि भव सिंधं ॥४॥१॥

मूलम्

सिवा सकति स्मबादं ॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं ॥ सिमरि सिमरि गोबिंदं ॥ भजु नामा तरसि भव सिंधं ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिवा सकति संबाद = शिव और पार्वती की परस्पर बातचीत, रामायण। रामायण की सारी वार्ता, शिव जी ने पार्वती को ये वार्ता घटित होने से पहले ही सुनाई बताई जाती है। भेद = (प्रभु से) दूरी रखने वाले काम। तरसि = तैरेगा। भव सिंध = भव सागर, संसार समुंदर।4।
अर्थ: रामायण (आदि) का पाठ - हे मेरे मन! ये सारे करम छोड़ दे, त्याग दे, ये सभ प्रभु से दूरियां बढ़ाने वाले ही हैं। हे नामदेव! गोबिंद का भजन कर, (प्रभु का) नाम स्मरण कर, (नाम स्मरण करने से ही) संसार-समुंदर से पार होगा।4।1।

दर्पण-भाव

भाव: यज्ञ, दान, तीर्थ स्नान आदि कोई भी कर्म नाम-जपने की बराबरी नहीं कर सकता। देखें रामकली राग में नामदेव जी का शब्द नंबर 4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ नाद भ्रमे जैसे मिरगाए ॥ प्रान तजे वा को धिआनु न जाए ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ नाद भ्रमे जैसे मिरगाए ॥ प्रान तजे वा को धिआनु न जाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाद = आवाज, घंडेहेड़े की आवाज़, हिरन को पकड़ने के लिए घड़े पर खाल मढ़ के बनाया हुआ साज़, इसकी आवाज़ हिरन को मोह लेती है। भ्रमे = भटकता है, दौड़ता है। मिरगाए = मृग, हिरन। वा को = उस (नाद) का।1।
अर्थ: जैसे हिरन (अपना आप भुला के) नाद के पीछे दौड़ता है, प्राण दे देता है पर उसे उस नाद का ध्यान नहीं बिसरता।1।;

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे रामा ऐसे हेरउ ॥ रामु छोडि चितु अनत न फेरउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसे रामा ऐसे हेरउ ॥ रामु छोडि चितु अनत न फेरउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हेरउ = मैं देखता हूँ। अनत = और तरफ (अन्यत्र)। न फेरउ = मैं नहीं फेरता।1। रहाउ।
अर्थ: मैं अपने प्यारे प्रभु की याद छोड़ के किसी और तरफ अपने चिक्त को नहीं जाने देता, मैं भी प्रभु को यूं ही देखता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ मीना हेरै पसूआरा ॥ सोना गढते हिरै सुनारा ॥२॥

मूलम्

जिउ मीना हेरै पसूआरा ॥ सोना गढते हिरै सुनारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीना = मछलियाँ। पसूआरा = (पशुहारिन्) माहीगीर, झीवर, मछुआरा। गढते = घड़ते हुए। हिरै = हेरै, ध्यान से देखता है, ढूँढता है।2।
अर्थ: जैसे माहीगीर मछलियों की ओर देखता है, जैसे सोना घड़ते हुए सोनारा (सोने की ओर ध्यान से) देखता है।2।;

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ बिखई हेरै पर नारी ॥ कउडा डारत हिरै जुआरी ॥३॥

मूलम्

जिउ बिखई हेरै पर नारी ॥ कउडा डारत हिरै जुआरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखई = विषयी मनुष्य। हेरै = देखता है। डारत = फेंकते हुए। हिरै = हेरै, देखता कि कौन सी सोट पड़ी है।3।
अर्थ: जैसे विषयी मनुष्य पराई नारि की ओर ध्यान से देखता है, जैसे (जुआ खेलने के वक्त) जुआरी कौड़ी फेंक के ध्यान से देखता है (कि कौन सा दांव पड़ा है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह देखउ तह तह रामा ॥ हरि के चरन नित धिआवै नामा ॥४॥२॥

मूलम्

जह जह देखउ तह तह रामा ॥ हरि के चरन नित धिआवै नामा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह जह = जिधर जिधर।4।
अर्थ: मैं नामदेव भी (इन्हीं की तरह) सदा अपने प्रभु को (एक मन एक चिक्त हो के) स्मरण करता हूँ और जिधर देखता हूँ प्रभु को ही देखता हूँ (मेरी तवज्जो सदा प्रभु में ही रहती है)।4।2।

दर्पण-भाव

भाव: प्रभु के साथ ऐसी प्रीति होनी चाहिए कि ख़ुद को ही भूल जाएं, तवज्जो सदा प्रभु में रहे।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘रहाउ’ की तुक में वर्णन है कि मैं राम को ‘हेरता हूँ’ देखता हूँ, इस तरह और विचारों को भुला के मैं उसे ढूंढता हूँ, जैसे हिरन, मछुआरा, विषयी व्यक्ति आदि। जुआरी कोड़ियाँ फेंक के उन्हें चुराता नहीं, बल्कि ध्यान से देखता है कि कौड़ी फेंक के कौन सा दाव लगा है। सो, यहाँ शब्द ‘हिरै’ शब्द ‘हेरै’ की जगह प्रयोग किया गया है। इसी तरह ‘हिरै सुनारा’ का भाव है ‘हेरै सुनारा’। ये सारे दृष्टांत ‘हेरन’ (देखने, ढूँढने) के ही संबंध में हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ मो कउ तारि ले रामा तारि ले ॥ मै अजानु जनु तरिबे न जानउ बाप बीठुला बाह दे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गोंड ॥ मो कउ तारि ले रामा तारि ले ॥ मै अजानु जनु तरिबे न जानउ बाप बीठुला बाह दे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। रामा = हे राम!
तरिबे न जानउ = मैं तैरना नहीं जानता। दे = दे, पकड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! मुझे (संसार समुंदर से) तार ले, बचा ले। हे मेरे पिता प्रभु! मुझे अपनी बाँह पकड़ा, मैं तेरा अंजान सेवक हूँ, मैं तैरना नहीं जानता। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: नामदेव जी जिसको ‘बाप बीठुला’ कह रहे हैं उसी को ‘राम’ कह के पुकारते हैं, सो, किसी ‘बीठुल-मूर्ति की ओर इशारा नहीं है, परमात्मा के आगे अरदास है। धु्रव व नारद का संबंध किसी बीठुल-मूर्ति के साथ नहीं हो सकता)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नर ते सुर होइ जात निमख मै सतिगुर बुधि सिखलाई ॥ नर ते उपजि सुरग कउ जीतिओ सो अवखध मै पाई ॥१॥

मूलम्

नर ते सुर होइ जात निमख मै सतिगुर बुधि सिखलाई ॥ नर ते उपजि सुरग कउ जीतिओ सो अवखध मै पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। सुर = देवते। निमख मै = आँख फरकने के वक्त में। मै = में, महि, माहि। सतिगुर बुधि सिखलाई = गुरु की सिखाई हुई मति से। उपजि = पैदा हो के। अवखध = दवाई। पाई = पा लूँ।1।
अर्थ: (हे बीठल पिता! मुझे भी गुरु से मिला दे) गुरु से मिली हुई बुद्धि की इनायत से आँख झपकने जितने समय में ही मनुष्य से देवता बन जाया जाता है, हे पिता! (मेहर कर) मैं भी वह दवाई हासिल कर लूँ जिससे मनुष्यों से पैदा हो के (भाव, मनुष्य जाति में से हो के) स्वर्ग को जीता जा सकता है (भाव, स्वर्ग की भी परवाह नहीं रहती)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहा जहा धूअ नारदु टेके नैकु टिकावहु मोहि ॥ तेरे नाम अविल्मबि बहुतु जन उधरे नामे की निज मति एह ॥२॥३॥

मूलम्

जहा जहा धूअ नारदु टेके नैकु टिकावहु मोहि ॥ तेरे नाम अविल्मबि बहुतु जन उधरे नामे की निज मति एह ॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जहा जहा = जिस अवस्था में। टेके = टिकाए हैं, स्थित किए हैं। नैकु = (संस्कृत; नैकश, Repeatedly, often. न ऐकश: not once) सदा। मोहि = मुझे। अविलंब = आसरा। अविलंबि = आसरे से। उधरे = (संसार समुंदर के विकारों से) बच गए। निज मति = अपनी मति, पक्का निश्चय।2।
अर्थ: हे मेरे राम! तूने जिस-जिस आत्मिक ठिकाने पर धु्रव और नारद (जैसे भक्तों) को पहुँचाया है, मुझे (भी) सदा के लिए पहुँचा दे, मेरा नामदेव का ये पक्का विश्वास है कि तेरे नाम के आसरे बेअंत जीव (संसार-समुंदर के विकारों से) बच निकलते हैं।2।3।

दर्पण-भाव

भाव: प्रभु से नाम-जपने की मांग। नाम की इनायत से स्वर्ग की भी लालसा नहीं रहती।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ मोहि लागती तालाबेली ॥ बछरे बिनु गाइ अकेली ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ मोहि लागती तालाबेली ॥ बछरे बिनु गाइ अकेली ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। तालाबेली = तिलमिली, तिलमिलाहट। गाइ = गाय।1।
अर्थ: जैसे बछड़े से विछुड़ के अकेली गाय (घबराती) है, वैसे ही मुझे (भी प्रभु से विछुड़ के) तिलमिलाहट होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पानीआ बिनु मीनु तलफै ॥ ऐसे राम नामा बिनु बापुरो नामा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पानीआ बिनु मीनु तलफै ॥ ऐसे राम नामा बिनु बापुरो नामा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीनु = मछली। तलफै = तड़पती है। बापरो = बेचारा, घबराया हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: जैसे पानी के बिना मछली तड़फती है, वैसे ही मैं नामदेव प्रभु के नाम के बिना घबराता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे गाइ का बाछा छूटला ॥ थन चोखता माखनु घूटला ॥२॥

मूलम्

जैसे गाइ का बाछा छूटला ॥ थन चोखता माखनु घूटला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छूटला = खूँटे से खुल जाता है। बाछा = बछड़ा। चोखता = चूँघता। घूटला = घूँट भरता है।2।
अर्थ: जैसे (जब) गाय का बछड़ा खूँटे से खुल जाता है तो (गाय के) थन चूँघता है, और मक्खन के घूँट भरता है,।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामदेउ नाराइनु पाइआ ॥ गुरु भेटत अलखु लखाइआ ॥३॥

मूलम्

नामदेउ नाराइनु पाइआ ॥ गुरु भेटत अलखु लखाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए ही। अलखु = जो लखा ना जा सके, जिसके गुणों का थाह नहीं पाया जा सकता।3।
अर्थ: वैसे ही जब मुझे नामदेव को सतिगुरु मिला, मुझे अलख प्रभु की सूझ पड़ गई, मुझे ईश्वर मिल गया; और ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे बिखै हेत पर नारी ॥ ऐसे नामे प्रीति मुरारी ॥४॥

मूलम्

जैसे बिखै हेत पर नारी ॥ ऐसे नामे प्रीति मुरारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखै हेत = विषय विकारों की खातिर।4।
अर्थ: जैसे (विषयी व्यक्ति को) विषय पूर्ति के लिए पराई नारि से प्यार होता है, मुझ नामे को प्रभु से प्यार है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे तापते निरमल घामा ॥ तैसे राम नामा बिनु बापुरो नामा ॥५॥४॥

मूलम्

जैसे तापते निरमल घामा ॥ तैसे राम नामा बिनु बापुरो नामा ॥५॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तपते = तपते हैं। निरमल = साफ। घामा = धूप, गर्मी।5।
अर्थ: प्रभु के नाम से विछुड़ के मैं नामदेव इस तरह घबराता हूँ, जैसे चमकती धूप में (जीव-जंतु) तपते-तड़पते हैं।5।4।

दर्पण-भाव

भाव: प्रीत का स्वरूप- वियोग असहि होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड बाणी नामदेउ जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड बाणी नामदेउ जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि करत मिटे सभि भरमा ॥ हरि को नामु लै ऊतम धरमा ॥ हरि हरि करत जाति कुल हरी ॥ सो हरि अंधुले की लाकरी ॥१॥

मूलम्

हरि हरि करत मिटे सभि भरमा ॥ हरि को नामु लै ऊतम धरमा ॥ हरि हरि करत जाति कुल हरी ॥ सो हरि अंधुले की लाकरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि हरि करत = प्रभु का नाम स्मरण करते हुए। भरमा = भटकना। लै नामु = नाम स्मरण कर। ऊतम = सबसे श्रेष्ठ। हरी = नाश हो जाती है। लाकरी = लकड़ी, डंगोरी, आसरा।1।
अर्थ: हरि-नाम स्मरण करने से सभ भटकनें दूर हो जाती हैं; हे भाई! नाम स्मरण कर, यही है सबसे अच्छा धर्म। नाम स्मरण करने से (नीच और ऊँची) जाति कुल का भेद-भाव दूर हो जाता है। वह हरि-नाम ही मुझ अंधे का आसरा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरए नमसते हरए नमह ॥ हरि हरि करत नही दुखु जमह ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरए नमसते हरए नमह ॥ हरि हरि करत नही दुखु जमह ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरए = हरि को (देखें मेरी ‘सुखमनी सटीक’ में शब्द ‘गुरऐ’ की व्याख्या)।1। रहाउ।
अर्थ: मेरा उस परमात्मा को नमस्कार है, जिसका स्मरण करने से जमों का दुख नहीं रहता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरनाकस हरे परान ॥ अजैमल कीओ बैकुंठहि थान ॥ सूआ पड़ावत गनिका तरी ॥ सो हरि नैनहु की पूतरी ॥२॥

मूलम्

हरि हरनाकस हरे परान ॥ अजैमल कीओ बैकुंठहि थान ॥ सूआ पड़ावत गनिका तरी ॥ सो हरि नैनहु की पूतरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरे परान = प्राण हरे, जान ले ली, मार दिया। थान = जगह। सूआ = तोता। गनिका = वेश्वा। पूतरी = पुतली।2।
अर्थ: प्रभु ने हरणाक्षस (दैत्य) को मारा, अजामल पापी को बैकुंठ में जगह दी। उस हरि का नाम तोते को पढ़ाते हुए वेश्या भी विकारों से हट गई; वही प्रभु मेरी आँखों की पुतली है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि करत पूतना तरी ॥ बाल घातनी कपटहि भरी ॥ सिमरन द्रोपद सुत उधरी ॥ गऊतम सती सिला निसतरी ॥३॥

मूलम्

हरि हरि करत पूतना तरी ॥ बाल घातनी कपटहि भरी ॥ सिमरन द्रोपद सुत उधरी ॥ गऊतम सती सिला निसतरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूतना = उस दाई का नाम था जिसको कंस ने गोकुल में कृष्ण जी को मारने के लिए भेजा था; ये स्तनों पर जहर लगा के गई, पर कृष्ण जी ने स्तन मुँह में ले कर इसके प्राण खींच लिए; आखिर मुक्ति भी दे दी। घातनी = मारने वाली। कपट = धोखा, फरेब। द्रोपद सुत = राजा द्रोपद की बेटी, द्रोपदी। सती = नेक स्त्री, जो अपने पति के श्राप से सिला बन गई थी, श्री राम चंद्र जी ने इसको मुक्त किया था।3।
अर्थ: बच्चों को मरने वाली और कपट से भरी हुई पूतना दाई का भी उद्धार हो गया, जब उसने हरि-नाम स्मरण किया; नाम-जपने की इनायत से ही द्रोपदी (निरादरी से) बची थी, गौतम की नेक स्त्री का पार उतारा हुआ था, जो (गौतम के श्राप से) शिला बन गई थी।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

केसी कंस मथनु जिनि कीआ ॥ जीअ दानु काली कउ दीआ ॥ प्रणवै नामा ऐसो हरी ॥ जासु जपत भै अपदा टरी ॥४॥१॥५॥

मूलम्

केसी कंस मथनु जिनि कीआ ॥ जीअ दानु काली कउ दीआ ॥ प्रणवै नामा ऐसो हरी ॥ जासु जपत भै अपदा टरी ॥४॥१॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केसी = वह दैंत जिसको कंस ने कृष्ण जी के मारने को लिए गोकुल भेजा था। मथनु = नाश। जिनि = जिसने। काली = एक नाग था जिसे कृष्ण जी ने जमुना से निकाला था। जीअ दानु = प्राण क्षमा करने। प्रणवै = विनती करता है। जासु = जिसको। अपदा = मुसीबत। टरी = टल जाती है।4।
अर्थ: उसी प्रभु ने केसी व कंस का नाश किया था, और काली नाग की जान बख्श दी थी। नामदेव विनती करता है - प्रभु ऐसा (कृपालु बख्शिंद) है कि उसका नाम स्मरण करने से सब डर और मुसीबतें टल जाती हैं।4।1।5।

दर्पण-भाव

भाव: प्रभु का स्मरण सभी धर्मों से श्रेष्ठ धर्म है। नाम-जपने की इनायत से सब मुसीबतें टल जाती हैं, बड़े-बड़े विकारी भी विकारों से हट जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ भैरउ भूत सीतला धावै ॥ खर बाहनु उहु छारु उडावै ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ भैरउ भूत सीतला धावै ॥ खर बाहनु उहु छारु उडावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भैरउ = एक जती का नाम था, सवारी काले कुत्ते की बताई जाती है। शिव की आठ भयानक शक्लों में से एक भैरव की है। इसका मन्दिर जम्मू के आगे दुर्गा के मन्दिर के ऊपर दो मील पर बना हुआ है। सीतला = चेचक (small pox) की देवी, इसकी सवारी गधे की है। खर = गधा। खर बाहनु = गधे की सवारी करने वाला। छार = राख।1।
अर्थ: जो मनुष्य भैरव की ओर जाता है (भाव, जो भैरव की आराधना करता है) वह (ज्यादा से ज्यादा भैरव जैसा ही) भूत बन जाता है। जो सीतला को आराधता है वह (सीतला की ही तरह) गधे की सवारी करता है और (गधे के साथ) राख ही उड़ाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ तउ एकु रमईआ लैहउ ॥ आन देव बदलावनि दैहउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ तउ एकु रमईआ लैहउ ॥ आन देव बदलावनि दैहउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ = तब। रमईआ = सुंदर राम। लै हउ = लाऊँगा। आन = और। बदलावनि = बदले में। दै हउ = दे दूंगा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे पण्डित!) मैं तो एक सुंदर राम का नाम ही लूँगा, (तुम्हारे) बाकी सारे देवताओं को उस नाम के बदले में दे दूँगा, (अर्थात, प्रभु-नाम के मुकाबले में मुझे तुम्हारे किसी भी देवते की आवश्यक्ता नहीं है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिव सिव करते जो नरु धिआवै ॥ बरद चढे डउरू ढमकावै ॥२॥

मूलम्

सिव सिव करते जो नरु धिआवै ॥ बरद चढे डउरू ढमकावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरद = बैल (ये शिव जी की सवारी है)। डउरू = डमरू।2।
अर्थ: जो मनुष्य शिव का नाम जपता है वह (ज्यादा से ज्यादा जो कुछ हासिल कर सकता है वह ये है कि शिव का रूप ले के, शिव की सवारी) बैल के ऊपर चढ़ता है और (शिव की ही तरह) डमरू बजाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा माई की पूजा करै ॥ नर सै नारि होइ अउतरै ॥३॥

मूलम्

महा माई की पूजा करै ॥ नर सै नारि होइ अउतरै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महा = बड़ी। महा माई = बड़ी माँ, पार्वती। सै = से। होइ = बना के। अउतरै = पैदा होता है।3।
अर्थ: जो मनुष्य पार्वती की पूजा करता है वह मनुष्य नर से नारी हो के जन्म लेता है (क्योंकि पूजा करने वाला अपने पूज्य का रूप ही बन सकता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू कहीअत ही आदि भवानी ॥ मुकति की बरीआ कहा छपानी ॥४॥

मूलम्

तू कहीअत ही आदि भवानी ॥ मुकति की बरीआ कहा छपानी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहीअत = कही जाती है। भवानी = दुर्गा देवी। बरीआ = बारी। छपानी = छुप जाती है।4।
अर्थ: हे भवानी! तू सबका आदि कहलवाती है, पर (अपने भक्तों को) मुक्ति देने के समय तू भी, पता नहीं कहाँ छुपी रहती है (भाव, मुक्ति भवानी के पास भी नहीं है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति राम नाम गहु मीता ॥ प्रणवै नामा इउ कहै गीता ॥५॥२॥६॥

मूलम्

गुरमति राम नाम गहु मीता ॥ प्रणवै नामा इउ कहै गीता ॥५॥२॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहु = पकड़, आसरा ले। मीता = हे मित्र पंडित! इउ = इसी तरह ही।5।
अर्थ: सो, नामदेव विनती करता है: हे मित्र (पण्डित!) सतिगुरु की शिक्षा ले के परमात्मा के नाम की ओट ले, (तुम्हारी धर्म-पुस्तक) गीता भी यही उपदेश देती है।5।2।6।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: पूजा करके ज्यादा से ज्यादा अपने पूज्य का रूप ही बन सकता है। संसार-समुंदर से मुक्ति दिलानी किसी देवी-देवते के हाथ में नहीं; इसलिए परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए, प्रभु ही मुक्तिदाता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: आखिरी पद में संबोधन करके जिस ‘मीत’ को नामदेव जी इस शब्द के द्वारा भैरव, शिव, महामाई आदि की पूजा करने से रोकते हैं वह कोई पंडित प्रतीत होता है, क्योंकि उसका ध्यान उसकी अपनी ही पुस्तक ‘गीता’ की ओर भी दिलाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु गोंड ॥ आजु नामे बीठलु देखिआ मूरख को समझाऊ रे ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु गोंड ॥ आजु नामे बीठलु देखिआ मूरख को समझाऊ रे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आजु = आज, अब, इसी जनम में। बीठलु = (संस्कृत: विष्ठल One situated at a distance. वि = परे, दूर। स्थल = खड़ा हुआ) वह जो माया के प्रभाव से परे है। रे = हे पांडे! समझाऊ = मैं समझाऊँ। रहाउ।
अर्थ: हे पांडे! मैंने तो इसी जनम में परमात्मा के दर्शन कर लिए हैं (पर, तू मूर्ख ही रहा, तुझे दर्शन नहीं हुए; आ) मैं (तुझ) मूर्ख को समझाऊँ (कि तुझे दर्शन क्यों नहीं होते)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांडे तुमरी गाइत्री लोधे का खेतु खाती थी ॥ लै करि ठेगा टगरी तोरी लांगत लांगत जाती थी ॥१॥

मूलम्

पांडे तुमरी गाइत्री लोधे का खेतु खाती थी ॥ लै करि ठेगा टगरी तोरी लांगत लांगत जाती थी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुमरी गायत्री = जिसको तुम गायत्री कहते हो और जिसके बाबत श्रद्धा-हीन कहानी भी बना रखी है। गाइत्री = (संस्कृत: गायत्री) = एक बड़ा पवित्र मंत्र जिसका पाठ हरेक ब्राहमण के लिए सवेरे शाम करना आवश्यक है। वह मंत्र इस तरह है: तत्सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमही धयो यो न: प्रचोदयात्। लोधा = जाटों की जाति का नाम है। ठेगा = डंडा, सोटा। लांगत = लंगड़ा लंगड़ा के।1।
अर्थ: हे पांडे! (पहली बात तो ये कि जिस गायत्री का तू पाठ करता है उस पर तेरी श्रद्धा नहीं बन सकती, क्योंकि) तेरी गायत्री (वह है जिसके बारे में तू खुद ही कहता है कि एक बार श्राप के कारण ये गाय की जून में आ के) एक लोधे जाट के खेत को चरने चली गई, उसने डंडा मार के लात तोड़ दी तब (से बेचारी) लंगड़ा-लंगड़ा के चलने लगी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांडे तुमरा महादेउ धउले बलद चड़िआ आवतु देखिआ था ॥ मोदी के घर खाणा पाका वा का लड़का मारिआ था ॥२॥

मूलम्

पांडे तुमरा महादेउ धउले बलद चड़िआ आवतु देखिआ था ॥ मोदी के घर खाणा पाका वा का लड़का मारिआ था ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महादेव = शिव। मउले = सफेद। मोदी = भण्डारी। वा का = उसका।2।
अर्थ: हे पांडे! (फिर तू जिस शिव की आराधना करता है उसे ही बड़ा क्रोधी समझता है और कहता है कि गुस्से में आ के वह श्राप दे देता है, भस्म कर देता है। ऐसे शिव से तू प्यार कैसे कर सकता है?) तेरा शिव (तो वह है जिसके बारे में तू कहता है) किसी भण्डारी के घर में उसके लिए भोजन तैयार हुआ, शिव को सफेद बैल पर चढ़ा हुआ जाता देखा, (भाव, तू बताता है कि शिव जी सफेद बैल की सवारी करते थे) (पर, शायद वह भोजन पसंद नहीं आया, शिव जी ने श्राप दे के) उसका लड़का मार दिया।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

पांडे तुमरा रामचंदु सो भी आवतु देखिआ था ॥ रावन सेती सरबर होई घर की जोइ गवाई थी ॥३॥

मूलम्

पांडे तुमरा रामचंदु सो भी आवतु देखिआ था ॥ रावन सेती सरबर होई घर की जोइ गवाई थी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरबर = लड़ाई। जाइ = स्त्री।3।
अर्थ: हे पांडे! तेरे श्री रामचंद्र जी भी आते हुए देखे हैं (भाव, जिस श्री रामचंद्र जी की तू उपासना करता है, उनकी बाबत भी तुझसे ऐसा ही कुछ हमने सुना है कि) रावण से उनकी लड़ाई हो गई, क्योंकि वे पत्नी (सीता जी को) गवा बैठे थे।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘रामायण’ और ‘उक्तर राम चरित्र’ आदि पुस्तकों में कई दूषण भी श्री रामचंद्र जी पर आरोपित किए गए हैं, चाहे वह भक्ति-भाव में लपेटे हुए हैं: बाली को छिप के मारना, एक राक्षणी को मारना, सीता जी को घर से निकाल देना इत्यादिक। ये दूषण लगा के उनमें पूरी श्रद्धा रखनी असंभव हो जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिंदू अंन्हा तुरकू काणा ॥ दुहां ते गिआनी सिआणा ॥ हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीति ॥ नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीति ॥४॥३॥७॥

मूलम्

हिंदू अंन्हा तुरकू काणा ॥ दुहां ते गिआनी सिआणा ॥ हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीति ॥ नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीति ॥४॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुरकू = मुसलमान। जह = जिसका। देहुरा = मन्दिर।4।
अर्थ: सो हिन्दू दोनों ही आँखें गवा बैठा है, पर मुसलमान की एक आँख ही खराब हुई है। इन दोनों से ज्यादा समझदार वह व्यक्ति है जिसको (प्रभु की हस्ती का सही) ज्ञान हो गया है। (हिन्दू ने एक आँख तो तब गवाई जब वह अपने ईष्ट के बारे में श्रद्धा-हीन कहानियां घड़ने लग पड़ा; और दूसरी गवाई, जब वह परमात्मा को सिर्फ मन्दिर में बैठा समझ के) मन्दिर को पूजने लग पड़ा, मुसलमान (की हज़रत मुहम्मद साहिब में पूरी श्रद्धा होने के कारण एक आँख तो साबत है पर दूसरी गवा बैठा है, क्योंकि रब को सिर्फ मस्जिद में ही जान के) मस्जिद को ही खुदा का घर समझ रहा है। मैं नामदेव उस परमात्मा का स्मरण करता हूँ जिसका ना कोई खास मन्दिर है ना ही मस्जिद।4।3।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कई विद्वान सज्जनों ने विचार रखा है कि भक्त नामदेव जी ने इस शब्द में ‘हास्य रस’ का प्रयोग किया है। पर, सच्चाई बयान करके किसी गलत रास्ते पर जाते को सही रास्ता दिखाना और बात है, और किसी के धार्मिक जजबातों का मजाक उड़ाना ठोकर मारनी बहुत ही दुखद कार्य है। ये बात नहीं मानी जा सकती कि भक्त जी इस तरह किसी का दिल दुखा सकते थे, या, ऐसे दुख देने वाले वाक्य को सतिगुरु जी उस ‘वाणी बोहिथ’ में दर्ज करते जो सिख के जीवन का आसरा है। ये कहना कि हास्य रस के माध्यम से बड़े-बड़े देवताओं के बड़े-बड़े कामों को परमात्मा की महिमा के सामने तुच्छ बताया है, फबता नहीं है। किसी लड़के को मार देना कोई बहुत बड़ा काम नहीं है, अपनी स्त्री गवा लेनी कोई महानता भरा काम नहीं, और टांग तुड़वा लेनी कोई फखर वाला काम नहीं है। फिर, इन ‘बड़े कामों’ के मुकाबले में परमात्मा के किसी भी बड़े काम का यहाँ कोई वर्णन नहीं है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को अपने प्राणों का आसरा समझने वाले सिख ने तो ये देखना है कि उसे ये शब्द पढ़ते हुए क्या सहारा मिलता है, क्या रौशनी मिलती है। किसी के धार्मिक जज़बातों का मज़ाक उड़ा के उसके दिल को ठोकर मारनी धर्म का मार्ग नहीं हो सकता। हमें इसमें से सच्चाई की किरण की आवश्यक्ता है; हमें इसमें से ऊँची उड़ान की जरूरत है जो हमें भी ऊँचा कर सके। हमने किसी का मज़ाक उड़ा के ये नहीं समझ लेना कि इस शब्द में से हमें जीवन-राह मिल गया है।
जो किसी शब्द को खिला हुआ सुंदर फूल समझ लें, तो ‘रहाउ’ की तुक उस फूल का ‘मकरंद’ होता है। ‘रहाउ’ में वह केन्द्रिय रम्ज़ हुआ करती है, जिसका विस्तार सारे शब्द में किया जाता है। इसी नियम को यदि इस शब्द में भी ध्यान से बरतेंगे, तो वह सुगंधि जो इस ‘रहाउ-मकरंद’ में छुपी हुई है, सारे खिले हुए फूल में से महक देने लग जाएगी, सारी रम्ज़ खुल जाएगी। शब्द के तीन बंदों में किसी पांडे को संबोधन कर रहे हैं। सो, ‘रहाउ’ में प्रयोग किया गया शब्द ‘रे’ भी उसी पांडे के लिए ही है। इस तुक में पांडे को अपना हाल बताते हैं कि मैंने तो बीठल का दीदार कर लिया। तू तो मूर्ख ही रहा, तुझे दीदार ना हुए। बाकी सारे शब्द में पांडे को उसकी खामियां गिना रहे हैं, जिन्होंने उसे बीठल के दर्शन नहीं करने दिए।
यहाँ एक ओर मजेदार बात देखने वाली है। अगर नामदेव जी का ‘बीठल’ किसी मन्दिर में स्थापित किया हुआ होता, तो उस मन्दिर में रहने वाले ‘पांडे’ को तो उसके दर्शन, जब वह चाहता, हो सकते थे, क्योंकि पांडा उच्च जाति का था। पर, शूद्र नामदेव को ‘बीठल’ के दर्शन कैसे हुए? इसे तो शूद्र होने के कारण बल्कि धक्के पड़ सकते थे। पर, दरअसल बात ये है कि नामदेव का ‘बीठल’ किसी मन्दिर में स्थापित किया हुआ ‘बीठल’ नहीं था, वह ‘बीठल’ वह था ‘जह देहुरा न मसीति’। क्या अभी भी कोई शक रह जाता है कि भक्त नामदेव जी किसी मन्दिर में स्थापित ‘बीठल’ के पुजारी नहीं थे? वे तो बल्कि मन्दिर में स्थापित ‘बीठल’ की पूजा करने वाले पांडे को कह रहे हैं कि तू मूर्ख ही रहा, तुझे अभी तक बीठल के दर्शन नहीं हो सके।
पांडे को ‘बीठल’ के दर्शन क्यों नहीं हो सके? इसका उक्तर शब्द के सारे पदों में है। मुख्य बात ये कही है कि पांडा अंधा है और इसकी दोनों आँखें बंद हैं। ज्ञान-दाता गुरु के साथ लगना; ये है आत्मिक तौर पर आँख वाले बंदे की एक आँख। परमात्मा का सही स्वरूप; यह है दूसरी आँख। पांडे ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए गायत्री का पवित्र जाप किया, महादेव की ओट ली, श्री रामचंद्र जी के पैरों पर गिरा; पर इनमें से किसी के भी साथ ना जुड़ा किसी पर भी श्रद्धा ना बनाई, बल्कि इनके बारे में ऐसी कहानियाँ घड़ लीं कि पूर्ण श्रद्धा बन ही ना सके। शब्द गायत्री महादेव और रामचंद्र के साथ प्रयोग किए गए शब्द ‘तुमरी’ और ‘तुमरा’ खास तौर पर समझने-योग्य हैं। भाव ये है कि हे पांडे! जिस गायत्री आदि को ‘तू’ अपना ज्ञान-दाता कहता है, उसमें ‘तू खुद ही’ नुक्स बताए जा रहा है। फिर तेरा सिदक कैसे बंधे? ज्ञान की एक आँख गई। दूसरी का भी यही हाल हुआ। ‘बीठल’ था, माया से परे और सर्व व्यापक। पर, पांडे ने उसको मन्दिर में कैद कर दिया; सिर्फ उसकी मूर्ति को ‘बीठल’ समझा जो मन्दिर में थी, संसार में बसता ‘बीठल’ उसको ना दिखा।
तुर्क इस बात से बचा रहा इसने हज़रत मुहम्मद साहिब में पूरा सिदक बनाया है। पर एक गलती ये भी कर गए, इसने मस्जिद को खुदा का घर समझ लिया है, इसने सिर्फ काबे में ही रब को देखने की कोशिश की है। सो, एक आँख से काना रह गया।
गुरु नानक साहिब को ये शब्द क्यों भा गया? उन्होंने भक्त जी के वतन से क्यों इसे संभाल के ले लिया? अब उपरोक्त विचार के समक्ष उक्तर स्पष्ट है: 1. गुरु (ग्रंथ साहिब) की वाणी सिख के जीवन का आसरा है, पर इसमें कहीं कोई शक नहीं रहना चाहिए कि फलाना शब्द तो हमें नहीं जचता; 2. अगर पांडे के महादेव की तरह सिख ने भी अपने प्रीतम को श्राप देने वाला मान लिया; तो जैसे पांडा महादेव को पूजता तो है पर उससे काँपता भी रहता है कि कहीं श्राप ना मिल जाए, सिख का भी यही हाल रहेगा, गुरु के चरणों से रीझ के बलिहार नहीं जा सकेगा, क्योंकि उसे यही डर बना रहेगा कि गुरु गुस्से में आ के श्राप दे सकता है; 3. सिख का पूज्य अकालपुरुख हर जगह विद्यमान है, और सिख का तीर्थ उसका अपना हृदय है, जहाँ नित्य जुड़ के सिख स्नान करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गोंड बाणी रविदास जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गोंड बाणी रविदास जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकंद मुकंद जपहु संसार ॥ बिनु मुकंद तनु होइ अउहार ॥ सोई मुकंदु मुकति का दाता ॥ सोई मुकंदु हमरा पित माता ॥१॥

मूलम्

मुकंद मुकंद जपहु संसार ॥ बिनु मुकंद तनु होइ अउहार ॥ सोई मुकंदु मुकति का दाता ॥ सोई मुकंदु हमरा पित माता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकंद = (संस्कृत: मुकुन्द मुकुं ददाति इति = One who gives salvation) मुक्ति दाता प्रभु। संसार = हे संसार! हे लोगो! अउहार = (संस्कृत: अवहार्य = to be taken away) नाशवान (भाव, व्यर्थ जाने वाला)।1।
अर्थ: हे लोगो! मुक्ति दाते प्रभु को हमेशा स्मरण करते रहो, उसके स्मरण के बिना ये शरीर व्यर्थ ही चला जाता है। मेरा तो माता-पिता ही वह प्रभु ही है, वही दुनिया के बंधनो से मेरी रक्षा कर सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवत मुकंदे मरत मुकंदे ॥ ता के सेवक कउ सदा अनंदे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जीवत मुकंदे मरत मुकंदे ॥ ता के सेवक कउ सदा अनंदे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवत = जीते हुए, सारी उम्र। मरत = मरने के वक्त भी। ता के = उस मुकंद के।1। रहाउ।
अर्थ: माया के बंधनो से मुक्ति देने वाले प्रभु की बंदगी करने वाले को सदा ही आनंद बना रहता है, क्योंकि वह जीवित ही प्रभु को स्मरण करता है और मरते हुए भी उसी को याद करता है (सारी उम्र ही प्रभु को याद रखता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकंद मुकंद हमारे प्रानं ॥ जपि मुकंद मसतकि नीसानं ॥ सेव मुकंद करै बैरागी ॥ सोई मुकंदु दुरबल धनु लाधी ॥२॥

मूलम्

मुकंद मुकंद हमारे प्रानं ॥ जपि मुकंद मसतकि नीसानं ॥ सेव मुकंद करै बैरागी ॥ सोई मुकंदु दुरबल धनु लाधी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रानं = जिंद, आसरा। मसतकि = माथे पर। नीसानं = निशान, नूर। सेव मुकंद = मुकंद की सेवा। बैरागी = वैरागवान। दुरबल = कमजोर को, निर्धन को। लाधी = (मुझे) मिल गई।2।
अर्थ: प्रभु का स्मरण मेरे प्राणों (का आसरा बन गए) हैं, प्रभु को स्मरण करके मेरे माथे के भाग्य जाग उठे हैं; प्रभु की भक्ति (मनुष्य को) वैरागवान कर देती है, मुझ गरीब को प्रभु का नाम ही धन प्राप्त हो गया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु मुकंदु करै उपकारु ॥ हमरा कहा करै संसारु ॥ मेटी जाति हूए दरबारि ॥ तुही मुकंद जोग जुग तारि ॥३॥

मूलम्

एकु मुकंदु करै उपकारु ॥ हमरा कहा करै संसारु ॥ मेटी जाति हूए दरबारि ॥ तुही मुकंद जोग जुग तारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपकारु = मेहर, भलाई। कहा करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकता। दरबारि = दरबारी, प्रभु की हजूरी में बसने वाले। जोग जुग = जुगों जुगों में। तारि = तारनहार।3।
अर्थ: यदि एक परमात्मा मुझ पर मेहर करे, तो (मुझे चमार-चमार कहने वाले ये) लोग मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। हे प्रभु! (तेरी भक्ति ने) मेरी (नीच) जाति (वाली आत्मिक हीनता भरी अवस्था को मेरे अंदर से) मिटा दिया है, क्योंकि मैं सदा तेरे दर पर रहता हूँ; तू ही सदा मुझे (दुनिया के बंधनो व मजबूरियों, मुथाजियों से) पार लंघाने वाला है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपजिओ गिआनु हूआ परगास ॥ करि किरपा लीने कीट दास ॥ कहु रविदास अब त्रिसना चूकी ॥ जपि मुकंद सेवा ताहू की ॥४॥१॥

मूलम्

उपजिओ गिआनु हूआ परगास ॥ करि किरपा लीने कीट दास ॥ कहु रविदास अब त्रिसना चूकी ॥ जपि मुकंद सेवा ताहू की ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परगास = प्रकाश। कीट = कीड़े, निमाणे। चूकी = समाप्त हो गई। ताहू की = उस मुकंद की ही। जपि = जपूँ, मैं जपता हूँ।4।
अर्थ: (प्रभु की बँदगी से मेरे अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गई है, प्रकाश हो गया है। मेहर करके मुझ निमाने दास को प्रभु ने अपना बना लिया है। हे रविदास! कह: अब मेरी तृष्णा खत्म हो गई है, मैं अब प्रभु को स्मरण करता हूँ, नित्य प्रभु की ही भक्ति करता हूँ।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: परमात्मा का स्मरण किया करो। स्मरण नीचों को ऊँचा बना देता है, तृष्णा समाप्त कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड ॥ जे ओहु अठसठि तीरथ न्हावै ॥ जे ओहु दुआदस सिला पूजावै ॥ जे ओहु कूप तटा देवावै ॥ करै निंद सभ बिरथा जावै ॥१॥

मूलम्

गोंड ॥ जे ओहु अठसठि तीरथ न्हावै ॥ जे ओहु दुआदस सिला पूजावै ॥ जे ओहु कूप तटा देवावै ॥ करै निंद सभ बिरथा जावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ (६८)। दुआदस सिला = बारह शिवलिंग (सोमनाथ, बद्रीनाथ, केदार, बिषोश्वर, रामेश्वर, नागेश्वर, बैजनाथ, भीमशंकर आदि)। कूप = कूआँ। तटा = (नडाग) तालाब।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: सालग्राम की पूजा विष्णु की पूजा है। ‘सिला’ की पूजा शिव की पूजा है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: यदि कोई मनुष्य अढ़सठ तीर्थों का स्नान (भी) करे, और बारहों शिवलिंगों की पूजा भी करे, अगर (लोगों के भले के लिए) कूएं तालाब (आदि) बनवाए; पर अगर वह (गुरमुखों की) निंदा करता है, तो उसकी यह सारी मेहनत व्यर्थ जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध का निंदकु कैसे तरै ॥ सरपर जानहु नरक ही परै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

साध का निंदकु कैसे तरै ॥ सरपर जानहु नरक ही परै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केसै करे = नहीं तैर सकता। सरपर = जरूर।1। रहाउ।
अर्थ: साधु गुरमुखि की निंदा करने वाला मनुष्य (जगत की गिरावटों में से) पार नहीं लांघ पाता, यकीन जानिए वह सदा नर्क में ही पड़ा रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे ओहु ग्रहन करै कुलखेति ॥ अरपै नारि सीगार समेति ॥ सगली सिम्रिति स्रवनी सुनै ॥ करै निंद कवनै नही गुनै ॥२॥

मूलम्

जे ओहु ग्रहन करै कुलखेति ॥ अरपै नारि सीगार समेति ॥ सगली सिम्रिति स्रवनी सुनै ॥ करै निंद कवनै नही गुनै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुलखेति = कुलक्षेत्र (कुरुक्षेत्र तीर्थ) पर (जा के)। ग्रहन करै = ग्रहण (के समय पर स्नान) करे। अरपै = भेटा करे, दान करे। स्रवनी = कानों से।2।
अर्थ: यदि कोई मनुष्य कुरुक्षेत्र पर (जा के) ग्रहण (का स्नान) करे, गहनों समेत अपनी पत्नी (ब्राहमणों को) दान कर दे, सारी स्मृतियाँ ध्यान से सुने; पर अगर वह भले लोगों की निंदा करता है, तो इन सारे कामों का कोई लाभ नहीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे ओहु अनिक प्रसाद करावै ॥ भूमि दान सोभा मंडपि पावै ॥ अपना बिगारि बिरांना सांढै ॥ करै निंद बहु जोनी हांढै ॥३॥

मूलम्

जे ओहु अनिक प्रसाद करावै ॥ भूमि दान सोभा मंडपि पावै ॥ अपना बिगारि बिरांना सांढै ॥ करै निंद बहु जोनी हांढै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रसाद = भोजन, ठाकुरों का भोग। मंडपि = जगत में। बिगारि = बिगाड़ के। सांढै = सवारे। हांढै = भटकता है।3।
अर्थ: यदि कोई मनुष्य ठाकुरों को कई तरह के भोग लगाए, भूमि का दान करे (जिसके कारण) जगत में उसकी प्रसिद्धि हो, (और) यदि वह अपना नुकसान करके भी दूसरों के काम सवारे, तो भी अगर वह भले लोगों की निंदा करता है तो वह कई जूनियों में भटकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदा कहा करहु संसारा ॥ निंदक का परगटि पाहारा ॥ निंदकु सोधि साधि बीचारिआ ॥ कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ ॥४॥२॥११॥७॥२॥४९॥

मूलम्

निंदा कहा करहु संसारा ॥ निंदक का परगटि पाहारा ॥ निंदकु सोधि साधि बीचारिआ ॥ कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ ॥४॥२॥११॥७॥२॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोड़ु ॥

मूलम्

जोड़ु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा = क्यों? परगटि = प्रगटे, प्रकट हो जाता है। पहारा = दुकान, (ठग की) दुकान। सोधि साधि = अच्छी तरह विचार के। “कहु, रविदास! सोधि साधि बीचारिआ, पापी निंदकु नरकि सिधारिआ” = अनवै।4।
अर्थ: हे दुनिया के लोगो! तुम (संतों की) निंदा क्यों करते हो? (भले ही बाहर से कई तरह के धार्मिक कर्म करे, पर यदि कोई मनुष्य संत की निंदा करता है तो सारे धार्मिक कर्म एक ठगी ही हैं, और) निंदक की ये ठगी भरी दुकान की पोल खुल जाती है। हे रविदास! हमने अच्छी तरह विचार के देख लिया है कि संत का निंदक कुकर्मी रहता है और नर्क में पड़ा रहता है।4।2।11।7।2।49।

दर्पण-भाव

भाव: गुरमुखों के निंदक का कोई भी धार्मिक उद्यम उस निंदक का उद्धार नहीं कर सकता।