१६ बिलावलु

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला १ चउपदे घरु १ ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला १ चउपदे घरु १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू सुलतानु कहा हउ मीआ तेरी कवन वडाई ॥ जो तू देहि सु कहा सुआमी मै मूरख कहणु न जाई ॥१॥

मूलम्

तू सुलतानु कहा हउ मीआ तेरी कवन वडाई ॥ जो तू देहि सु कहा सुआमी मै मूरख कहणु न जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा हउ = मैं कहता हूँ। कवन वडाई = कोई बड़प्पन नहीं। कहा = मैं कहता हूँ।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी महिमा करके मैं तेरी बड़ाई नहीं कर रहा, (यह तो यूँ ही है कि) तू बादशाह है, और मैं तुझे मीयाँ कह रहा हूँ। (पर, इतनी महिमा करनी मेरी अपनी सामर्थ्य नहीं है) हे मालिक प्रभु! (महिमा करने का) जितना बल तू देता है मैं उतना तेरे गुण कह लेता हूँ। मुझ अन्जान से तेरे गुण बयान नहीं हो सकते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरे गुण गावा देहि बुझाई ॥ जैसे सच महि रहउ रजाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तेरे गुण गावा देहि बुझाई ॥ जैसे सच महि रहउ रजाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावा = मैं गाऊँ। बुझाई = समझ, अक्ल। जैसे = जिस तरह, ता कि। रहउ = मैं टिका रहूँ। रजाई = हे रजा के मालिक प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे रजा के मालिक प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला है। मुझे (ऐसी) समझ दे कि मैं तेरी महिमा कर सकूँ, और, महिमा की इनायत से मैं तेरे (चरणों) में टिका रह सकूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो किछु होआ सभु किछु तुझ ते तेरी सभ असनाई ॥ तेरा अंतु न जाणा मेरे साहिब मै अंधुले किआ चतुराई ॥२॥

मूलम्

जो किछु होआ सभु किछु तुझ ते तेरी सभ असनाई ॥ तेरा अंतु न जाणा मेरे साहिब मै अंधुले किआ चतुराई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुझ ते = तुझसे। असनाई = नाई, बड़ाई (‘स्ना’ अरबी शब्द है, अर्थ है ‘वडिआई’ ‘बड़प्पन’)।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जब किसी शब्द के आरम्भ दो मिले हुए अक्षर हों जिनमें पहला अक्षर ‘स’ हो, तो पंजाबी उच्चारण में उन दोनों अक्षरों को अलग-अलग करके ‘स’ से पहले ‘अ’ लगा के बोला जाता है अथवा ‘स’ को गायब ही कर देते हैं; जैसे:
स्थान– असथान, थान स्तम्भ– असथंभ, थंभ, थंम् स्टेशन– असटेशन, टेशन स्ना–असनाई, नाई (अरबी शब्द)

दर्पण-भाषार्थ

सहिब = हे साहिब! चतुराई = अकल, चालाकी।2।
अर्थ: ये जितना जगत बना हुआ है ये सारा तुझसे ही बना है, ये सारी तेरी ही प्रतिभा है। हे मालिक प्रभु! मैं तेरे गुणों का अंत नहीं जान सकता। मैं अंधा हूँ (तुच्छ बुद्धि हूँ) मेरे में कोई समझदारी नहीं है (कि मैं तेरे गुणों का अंत जान सकूँ)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ हउ कथी कथे कथि देखा मै अकथु न कथना जाई ॥ जो तुधु भावै सोई आखा तिलु तेरी वडिआई ॥३॥

मूलम्

किआ हउ कथी कथे कथि देखा मै अकथु न कथना जाई ॥ जो तुधु भावै सोई आखा तिलु तेरी वडिआई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। कथी = मैं बयान करूँ। कथे कथि = कह के कह के। देखा = मैं देखता हूँ। अकथु = जिसके गुण कहे ना जा सकें। तिलु = रक्ती भर।3।
अर्थ: मैं तेरे गुण बिल्कुल नहीं कह सकता। तेरे गुण कह: कह के जब मैं देखता हूँ (तो मुझे समझ आ जाती है कि) तेरा स्वरूप बयान से परे है, मैं बयान करने के लायक नहीं हूँ। तेरी थोड़ी सी उपमा भी जो मैं करता हूँ वही कहता हूँ जो तुझे भाती है (भाव, जितनी तू बयान करने की खुद ही समझ देता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते कूकर हउ बेगाना भउका इसु तन ताई ॥ भगति हीणु नानकु जे होइगा ता खसमै नाउ न जाई ॥४॥१॥

मूलम्

एते कूकर हउ बेगाना भउका इसु तन ताई ॥ भगति हीणु नानकु जे होइगा ता खसमै नाउ न जाई ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एते = इतने, अनेक। कूकर = कुत्ते, कामादिक विकार। बेगाना = पराया। भउका = मैं भौंकता हूँ। इसु तन ताई = इस शरीर को बचाने के लिए। खसमै नाउ = खसम का नाम, खसम की प्रतिभा, खसम की बड़ाई। न जाई = दूर नहीं हो सकती।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कोई बाहर का कुक्ता किसी गाँव में चला जाए, तो वहाँ के सारे कुत्ते मिल के उसे काटने को पड़ते हैं। वह बेचारा अपने आप को बचाने के लिए डरा-डरा सा भौंकता है। ये दृश्टांत दे के सतिगुरु जी कहते हैं कि इस बेगाने जगत में मैं अकेला हूँ और कामादिक अनेक कुत्ते मुझे काटने को पड़ रहे हैं। इनसे बचने के लिए मैं तेरे दर पे तरले ले रहा हूँ, जैसे वह बाहरी कुक्ता दूसरे कुक्तों से बचने के लिए भौंकता है।4।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु! यहाँ कामादिक) अनेक कुत्ते हैं, मैं (इनमें) बाहर का बेगाना सा (आ के फसा) हूँ, (जितनी भी तेरी महिमा करता हूँ वह भी मैं) अपने इस शरीर को (कामादिक कुक्तों से बचाने के लिए भौंकता ही हूँ, जैसे बाहरी कुक्ता वैरी कुक्तों से बचने के लिए भौंकता है)। (मुझे ये धरवास है कि) अगर (तेरा दास) नानक भक्ति से वंचित है (तो भी तू मेरे सिर पर रखवाला पति है, और तुझ) पति की ये शोभा दूर नहीं हो गई (कि तू आदि युगों से शरण आए हुओं की सहायता करता आया है)।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला १ ॥ मनु मंदरु तनु वेस कलंदरु घट ही तीरथि नावा ॥ एकु सबदु मेरै प्रानि बसतु है बाहुड़ि जनमि न आवा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला १ ॥ मनु मंदरु तनु वेस कलंदरु घट ही तीरथि नावा ॥ एकु सबदु मेरै प्रानि बसतु है बाहुड़ि जनमि न आवा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदरु = देवते का स्थान। तनु = शरीर (भाव, ज्ञान इन्द्रियाँ)। वेस कलंदरु = फकीरी पहरावे वाला। कलंदर = फकीर, रमता फकीर। घट ही = हृदय में ही। तीरथि = तीर्थ पर। नावा = मैं नहाता हूँ। एकु सबदु = परमात्मा की महिमा का शब्द। मेरै प्रानि = मेरी जिंद में। जनमि = जनम में। बाहुड़ि = दोबारा, फिर। आवा = आऊँगा।1।
अर्थ: मेरा मन (प्रभु देव के रहने के लिए) मन्दिर (बन गया) है, मेरा शरीर (भाव, मेरी हरेक ज्ञान-इन्द्रीय मन्दिर की यात्रा करने वाला) रमता साधु बन गया है (भाव, मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ बाहर भटकने की जगह अंदर बसते परमात्मा की ओर पलट आई हैं), अब मैं हृदय-तीर्थ पर स्नान करता हूँ। परमात्मा की महिमा का शब्द मेरी जिंद में टिक गया है (मेरी जिंद का आसरा बन गया है। इस वास्ते मुझे यकीन हो गया है कि) मैं दोबारा जनम में नहीं आऊँगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु बेधिआ दइआल सेती मेरी माई ॥ कउणु जाणै पीर पराई ॥ हम नाही चिंत पराई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मनु बेधिआ दइआल सेती मेरी माई ॥ कउणु जाणै पीर पराई ॥ हम नाही चिंत पराई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेधिआ = भेदा गया है। सेती = साथ। मेरी माई = हे मेरी माँ! कउणु जाणै = और कोई नहीं जानता। पीर = पीड़ा। चिंत पराई = किसी और की आस।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! (मेरा) मन दया-के-घर प्रभु (के चरणों) में भेदा गया है। अब मैं (प्रभु के बिना) किसी और की आस नहीं रखता, क्योंकि मुझे यकीन हो गया है कि (परमात्मा के बिना) कोई और किसी दूसरे का दुख-दर्द नहीं समझ सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम अगोचर अलख अपारा चिंता करहु हमारी ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा घटि घटि जोति तुम्हारी ॥२॥

मूलम्

अगम अगोचर अलख अपारा चिंता करहु हमारी ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा घटि घटि जोति तुम्हारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = हे अगम! हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगोचरु = अ+गो+चर, जिस तक इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। अलख = अदृष्ट। चिंता = फिक्र, ध्यान, संभाल। करहु = तुम करते हो। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। भरिपुरि = भरपूर, नकोनाक। घटि = हृदय में। घटि घटि = हरेक घट में।2।
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे अगोचर! हे अदृश्य! हे बेअंत प्रभू्! तू ही हमारी सब जीवों की संभाल करता है। तू जल में, धरती में, आकाश में हर जगह नाकोनाक व्यापक है, हरेक (जीव के) हृदय में तेरी ज्योति मौजूद है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिख मति सभ बुधि तुम्हारी मंदिर छावा तेरे ॥ तुझ बिनु अवरु न जाणा मेरे साहिबा गुण गावा नित तेरे ॥३॥

मूलम्

सिख मति सभ बुधि तुम्हारी मंदिर छावा तेरे ॥ तुझ बिनु अवरु न जाणा मेरे साहिबा गुण गावा नित तेरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिख = शिक्षा। मति = अकल। मंदिर = जीवों के मन (रूप मंदिर)। छावा = शरीर। जाणा = मैं जानता। गावा = मैं गाता हूँ।3।
अर्थ: हे मेरे मालिक-प्रभु! सब जीवों के मन और शरीर तेरे ही रचे हुए हैं, शिक्षा, बुद्धि, समझ सभ जीवों को तुझसे ही मिलती है। तेरे बराबर का मैं किसी और को नहीं जानता। मैं नित्य तेरे ही गुण गाता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत सभि सरणि तुम्हारी सरब चिंत तुधु पासे ॥ जो तुधु भावै सोई चंगा इक नानक की अरदासे ॥४॥२॥

मूलम्

जीअ जंत सभि सरणि तुम्हारी सरब चिंत तुधु पासे ॥ जो तुधु भावै सोई चंगा इक नानक की अरदासे ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। चिंत = फिक्र, संभाल। तुधु पासे = तेरे पास, तुझे ही।4।
अर्थ: सारे जीव-जंतु तेरे ही आसरे हैं, तुझे ही सबकी संभाल का फिक्र है। नानक की (तेरे दर पर) सिर्फ यही विनती है कि जो तेरी रजा में हो वही मुझे अच्छा लगे (मैं सदा तेरी रजा में राजी रहूँ)।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला १ ॥ आपे सबदु आपे नीसानु ॥ आपे सुरता आपे जानु ॥ आपे करि करि वेखै ताणु ॥ तू दाता नामु परवाणु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला १ ॥ आपे सबदु आपे नीसानु ॥ आपे सुरता आपे जानु ॥ आपे करि करि वेखै ताणु ॥ तू दाता नामु परवाणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदु = महिमा की वाणी। नीसानु = परवाना, राहदारी। सुरता = श्रोता, सुनने वाला। जानु = जानने वाला। करि करि = सृष्टि रच रच के। वेखै = संभाल करता है। ताणु = ताकत, बल। परवाणु = स्वीकार।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य को नाम की दाति मिल जाती है उसे यह यकीन बन जाता है कि प्रभु) स्वयं ही महिमा है (भाव, जहाँ उसकी महिमा होती है वहाँ वह मौजूद है), स्वयं ही (जीव के लिए जीवन-यात्रा में) राहदारी है, प्रभु खुद ही (जीवों की अरदासें) सुनने वाला है, खुद ही (जीवों के दुख-दर्द) जानने वाला है। प्रभु स्वयं ही जगत-रचना रच के खुद ही अपना (यह) बल देख रहा है।
हे प्रभु! तू (जीवों को सबि दातें) देने वाला है, (जिसको तू अपना नाम बख्शता है, वह तेरे दर पर) स्वीकार हो जाता है।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा नामु निरंजन देउ ॥ हउ जाचिकु तू अलख अभेउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा नामु निरंजन देउ ॥ हउ जाचिकु तू अलख अभेउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐसा = ऐसा, इस प्रकार का (भाव, माया के प्रभाव से निर्लिप रखने वाला)। निरंजन = हे निर्लिप प्रभु! देउ = प्रकाश रूप। हउ = मैं। जाचिकु = भिखारी। अलख = जिसका कोई चक्र चिन्ह ना मिल सके। अभेउ = जिसका कोई भेद ना पाया जा सके।1। रहाउ।
अर्थ: हे माया के प्रभाव-रहित प्रकाश-रूप प्रभु! तेरा नाम भी एैसा ही है (जैसा तू खुद है। भाव, तेरा नाम भी माया के मोह से बचाता है)। हे प्रभु! तेरा कोई खास चिन्ह-चक्र नहीं मिल सकता, तेरा भेद नहीं पाया जा सकता। मैं (तेरे दर पर) भिखारी हूँ (और तुझसे तेरे नाम की दाति माँगता हूँ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहु धरकटी नारि ॥ भूंडी कामणि कामणिआरि ॥ राजु रूपु झूठा दिन चारि ॥ नामु मिलै चानणु अंधिआरि ॥२॥

मूलम्

माइआ मोहु धरकटी नारि ॥ भूंडी कामणि कामणिआरि ॥ राजु रूपु झूठा दिन चारि ॥ नामु मिलै चानणु अंधिआरि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धरकटी नारि = व्यभचारिन स्त्री। भूंडी = बुरी। कामणि = स्त्री। कामइआरि = टूणे करने वाली। झूठा = नाशवान। दिन चारि = थोड़े दिन रहने वाला। अंधिआरि = (माया के मोह के) अंधकार में।2।
अर्थ: (नाम जपने वाले को ये समझ आ जाती है कि) माया का मोह एक व्यभिचारिन स्त्री के तुल्य है, माया एक टूणे करने वाली बुरी स्त्री के समान है, दुनियाँ की हकूमतें और सुंदरता नाशवान हैं, थोड़े ही दिन रहने वाले हैं (पर इनके असर तले मनुष्य जहालत के अंधकार में जीवन में ठोकरें खाता फिरता है)। जिस मनुष्य को प्रभु का नाम मिल जाता है, उसको (माया के मोह के) अंधेरे में रोशनी मिल जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चखि छोडी सहसा नही कोइ ॥ बापु दिसै वेजाति न होइ ॥ एके कउ नाही भउ कोइ ॥ करता करे करावै सोइ ॥३॥

मूलम्

चखि छोडी सहसा नही कोइ ॥ बापु दिसै वेजाति न होइ ॥ एके कउ नाही भउ कोइ ॥ करता करे करावै सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चखि छोडी = परख देखी है।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘छोडी’ कर भाव समझने के लिए ‘राग आसा पटी महला १’ में आया शब्द ‘छोडी’)।

दर्पण-भाषार्थ

सहसा = शक। बापु = पिता। दिसै = हरेक का पता हो, प्रत्यक्ष नजर आता हो। वेजाति = हरामी। एके कउ = एक प्रभु पिता वाले को।3।
अर्थ: (ये बात अच्छी तरह) परख के देख ली है, जिसमें कोई शक नहीं कि जिसका पिता प्रत्यक्ष दिखता हो वह बुरे असल वाला नहीं कहलवाता (कि वह पिता के अलावा किसी और की औलाद है) (जो मनुष्य अपने सिर पर पिता-प्रभु को रखवाला मानता है वह विकारों की ओर नहीं पलटता)। एक प्रभु-पिता वाले को (किसी और से) कोई डर नहीं रहता (क्योंकि उसको यकीन बना रहता है कि) वह परमात्मा ही सब कुछ करता है और (जीवों से) करवाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि मुए मनु मन ते मारिआ ॥ ठाकि रहे मनु साचै धारिआ ॥ अवरु न सूझै गुर कउ वारिआ ॥ नानक नामि रते निसतारिआ ॥४॥३॥

मूलम्

सबदि मुए मनु मन ते मारिआ ॥ ठाकि रहे मनु साचै धारिआ ॥ अवरु न सूझै गुर कउ वारिआ ॥ नानक नामि रते निसतारिआ ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से, परमात्मा की महिमा की वाणी मैं (जुड़ के)। मुए = जो मनुष्य स्वैभाव की ओर से मरे हैं। मन ते = मन से, मानसिक फुरनों से, मायावी विचारों से। ठाकि रहे = रुके रहते हैं। साचै = सच्चे प्रभु ने। धारिआ = आसरा दिया है। वारिआ = कुर्बान होते हैं। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के स्वैभाव को खत्म कर देते हैं अपने मन को मायावी फुरनों से रोक लेते हैं, वे विकारों की ओर से रुके रहते हैं क्योंकि सच्चा कर्तार उनके मन को (अपने नाम का) आसरा देता है। मैं गुरु से सदके हूँ, उसके बिना कोई और ऐसा नहीं (जो मन को प्रभु में जोड़ने में सहायक हो)।
हे नानक! प्रभु-नाम में रंगे हुए लोगों को प्रभु (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला १ ॥ गुर बचनी मनु सहज धिआने ॥ हरि कै रंगि रता मनु माने ॥ मनमुख भरमि भुले बउराने ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ गुर सबदि पछाने ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला १ ॥ गुर बचनी मनु सहज धिआने ॥ हरि कै रंगि रता मनु माने ॥ मनमुख भरमि भुले बउराने ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ गुर सबदि पछाने ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर बचनी = गुरु के वचन से, गुरु के वचनों पर चलने से। सहज धिआने = सहज ध्यान, अडोलता की समाधि में। रंगि = रंग में, प्यार में। माने = मान जाता है, परच जाता है। मनमुख = अपने मन की ओर मुँह रखने वाले, अपने मन के पीछे चलने वाले। भरमि = भटकना में। बउराने = कमले, झल्ले। किउ रहीऐ = नहीं रह सकते। गुर सबदि = गुरु के शब्द के द्वारा। पछाने = पहचान, सांझ, मेल जोल।1।
अर्थ: गुरु के वचन पर चल कर जिनका मन अडोलता की समाधि लगा लेता है (भाव, विकारों की ओर डोलने से हट जाता है) परमात्मा के प्रेम में रंगा हुआ वह मन (परमात्मा की याद में ही) परचा रहता है। (पर) अपने मन के पीछे चलने वाले बँदे बावले हुए भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। गुरु के शब्द के द्वारा जिस की सांझ (प्रभु से) बन जाती है वह प्रभु (की याद) के बिना नहीं रह सकते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु दरसन कैसे जीवउ मेरी माई ॥ हरि बिनु जीअरा रहि न सकै खिनु सतिगुरि बूझ बुझाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिनु दरसन कैसे जीवउ मेरी माई ॥ हरि बिनु जीअरा रहि न सकै खिनु सतिगुरि बूझ बुझाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कैसे जीवउ = कैसे जीऊँ, मैं जी नहीं सकता। माई = हे माँ! जीअरा = निमाणी जिंद। खिनु = थोड़ा सा समय भी। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझ = अकल, समझ। बुझाई = समझ दी है।1। रहाउ।
अर्थ: (जब से) सतिगुरु ने (मुझे) सद्बुद्धि दी है (तब से) मेरी जिंद प्रभु (की याद) के बिना नहीं रह सकती। हे मेरी माँ! अब मैं प्रभु के दर्शनों के बिना व्याकुल हो जाती हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा प्रभु बिसरै हउ मरउ दुखाली ॥ सासि गिरासि जपउ अपुने हरि भाली ॥ सद बैरागनि हरि नामु निहाली ॥ अब जाने गुरमुखि हरि नाली ॥२॥

मूलम्

मेरा प्रभु बिसरै हउ मरउ दुखाली ॥ सासि गिरासि जपउ अपुने हरि भाली ॥ सद बैरागनि हरि नामु निहाली ॥ अब जाने गुरमुखि हरि नाली ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ मरउ = मैं मरती हूँ, मेरी जिंद व्याकुल हो जाती है। दुखाली = दुखी। सासि = एक साँस से। गिरासि = एक ग्रास से। सासि गिरासि = एक-एक सांस से और ग्रास से, हर वक्त। भाली = मैं तलाशती हूँ। बैरागनि = दुनिया के रसों से उदास। निहाली = मैं देखती हूँ, नजर रखती हूँ। अब = अब। जाने = जाना है, समझ आई है। गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करने से, गुरु के द्वारा। नाली = साथ, अंग संग।2।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ कर मुझे अब समझ आई है कि परमात्मा (हर वक्त) मेरे अंग-संग है, (अब जब कभी) मुझे मेरा प्रभु बिसर जाए तो मैं दुखी हो के मरने वाली हो जाती हूँ। मैं एक-एक सांस से और ग्रास से (भी) अपने प्रभु को याद करती हूँ और उसी को तलाशती रहती हूँ। दुनिया के रसों से उदास हो के मैं प्रभु के नाम को ही (अपनी निगाह में) रखती हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकथ कथा कहीऐ गुर भाइ ॥ प्रभु अगम अगोचरु देइ दिखाइ ॥ बिनु गुर करणी किआ कार कमाइ ॥ हउमै मेटि चलै गुर सबदि समाइ ॥३॥

मूलम्

अकथ कथा कहीऐ गुर भाइ ॥ प्रभु अगम अगोचरु देइ दिखाइ ॥ बिनु गुर करणी किआ कार कमाइ ॥ हउमै मेटि चलै गुर सबदि समाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथु = वह प्रभु जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। अकथ कथा = बेअंत गुणों वाले प्रभु की महिमा की बातें। कहीऐ = कही जा सकती है। भाउ = प्रेम। भाइ = प्रेम के द्वारा। गुर भाइ = गुरु के प्रेम में जुड़ने से। देइ दिखाइ = दिखा देता है। गुर करणी = गुरु की बताई हुई जीवन जुगति। किआ कार = और कोई कार नहीं। मेटि = मिटा के। समाइ = लीन हो के।3।
अर्थ: बेअंत प्रभु की महिमा गुरु के अनुसार रहने पर ही की जा सकती है। गुरु उस प्रभु का दीदार करा देता है जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है। गुरु की बताई हुई जीवन-जुगति के बिना (आत्मिक जीवन के रास्ते की) कोई और कार करनी व्यर्थ है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है, वह अपना अहंकार दूर करके (जीवन-राह पर) चलता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखु विछुड़ै खोटी रासि ॥ गुरमुखि नामि मिलै साबासि ॥ हरि किरपा धारी दासनि दास ॥ जन नानक हरि नाम धनु रासि ॥४॥४॥

मूलम्

मनमुखु विछुड़ै खोटी रासि ॥ गुरमुखि नामि मिलै साबासि ॥ हरि किरपा धारी दासनि दास ॥ जन नानक हरि नाम धनु रासि ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। रासि = राशि, पूंजी। साबासि = शोभा। दासनि दास = दासों का दास, संत जनों का सेवक।4।
अर्थ: जो मनुष्य (गुरु के बताए राह पर चलने की जगह) अपने मन के पीछे चलता है, वह प्रभु से विछुड़ा रहता है, उसके पल्ले (आत्मिक जीवन-यात्रा के लिए) खोटी पूंजी है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह प्रभु के नाम में जुड़ा रहता है, उसको शोभा मिलती है।
हे दास नानक! प्रभु मेहर करके जिसको अपने सेवकों का दास बनाता है, उसे प्रभु का नाम-धन मिलता है, उसको हरि-नाम की पूंजी मिलती है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगु ध्रिगु खाइआ ध्रिगु ध्रिगु सोइआ ध्रिगु ध्रिगु कापड़ु अंगि चड़ाइआ ॥ ध्रिगु सरीरु कुट्मब सहित सिउ जितु हुणि खसमु न पाइआ ॥ पउड़ी छुड़की फिरि हाथि न आवै अहिला जनमु गवाइआ ॥१॥

मूलम्

ध्रिगु ध्रिगु खाइआ ध्रिगु ध्रिगु सोइआ ध्रिगु ध्रिगु कापड़ु अंगि चड़ाइआ ॥ ध्रिगु सरीरु कुट्मब सहित सिउ जितु हुणि खसमु न पाइआ ॥ पउड़ी छुड़की फिरि हाथि न आवै अहिला जनमु गवाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिगु = (धिक् = fie! Shame!) लाहनत, फिटकार। कापड़ु = कपड़ा। अंगि = शरीर पर। कुटंब = परिवार। सहित = समेत। सिउ = साथ, समेत। जितु = जिस (शरीर) के द्वारा। हुणि = इस जनम में। हाथि = हाथ में। अहिला = बहुत कीमती।1।
अर्थ: हे भाई! अगर इस शरीर के द्वारा इस जनम में पति-प्रभु का मिलाप हासिल नहीं किया, तो यह शरीर धिक्कार-योग्य है, (नाक-कान-आँखों आदि सारे) परिवार समेत धिक्कार-योग्य है। (मनुष्य का सब कुछ) खाना धिक्कार-योग्य है, सोना (सुख-आराम) धिक्कार-योग्य है, शरीर पर कपड़ा पहनना धिक्कार-योग्य है। (हे भाई! यह मनुष्य का शरीर प्रभु के देश में पहुँचने के लिए सीढ़ी है) अगर यह सीढ़ी (हाथ से) निकल जाए तो दोबारा हाथ में नहीं आती। मनुष्य अपना बहुत ही कीमती जीवन गवा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजा भाउ न देई लिव लागणि जिनि हरि के चरण विसारे ॥ जगजीवन दाता जन सेवक तेरे तिन के तै दूख निवारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दूजा भाउ न देई लिव लागणि जिनि हरि के चरण विसारे ॥ जगजीवन दाता जन सेवक तेरे तिन के तै दूख निवारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। दूजा भाउ = प्रभु के बिना और का प्यार, माया का मोह। न देई लागणि = लगने नहीं देता। जिनि = जिस (दूसरे भाव) ने। जग जीवन = जगत की जिंद। तै = तू (शब्द ‘तू’ और ‘तै’ में फर्क समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। निवारै = दूर कर दिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! माया का मोह, जिसने (जीवों को) परमात्मा के चरण (मन में बसाने) भुला दिए हैं, (परमात्मा के चरणों में) तवज्जो जोड़ने नहीं देता। हे प्रभू्! तू खुद ही जगत को आत्मिक जीवन देने वाला है। जो बँदे तेरे सेवक बनते हैं, उनके तूने (मोह से पैदा होने वाले सारे) दुख दूर कर दिए हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू दइआलु दइआपति दाता किआ एहि जंत विचारे ॥ मुकत बंध सभि तुझ ते होए ऐसा आखि वखाणे ॥ गुरमुखि होवै सो मुकतु कहीऐ मनमुख बंध विचारे ॥२॥

मूलम्

तू दइआलु दइआपति दाता किआ एहि जंत विचारे ॥ मुकत बंध सभि तुझ ते होए ऐसा आखि वखाणे ॥ गुरमुखि होवै सो मुकतु कहीऐ मनमुख बंध विचारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआ पति = दया का मालिक। एहि = यह, वे। मुकत = माया के मोह से आजाद। बंध = मोह में बँधे हुए। सभि = सारे। वखाणे = बयान करता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। मनमुख = मन के पीछे चलने वाले।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तू (खुद ही) दया का घर है, दया का मालिक है, तू स्वयं ही (अपने चरणों की प्रीत) देने वाला है (तेरे पैदा किए हुए) इन जीवों के वश में कुछ नहीं। तेरे ही हुक्म में ही कई जीव माया के मोह से आजाद हो जाते हैं, कई जीव मोह में बँधे रहते हैं; कोई विरला गुरमुख ही ये बात कह के समझाता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह माया के मोह से आजाद कहा जाता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले बिचारे मोह में बँधे रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जनु मुकतु जिसु एक लिव लागी सदा रहै हरि नाले ॥ तिन की गहण गति कही न जाई सचै आपि सवारे ॥ भरमि भुलाणे सि मनमुख कहीअहि ना उरवारि न पारे ॥३॥

मूलम्

सो जनु मुकतु जिसु एक लिव लागी सदा रहै हरि नाले ॥ तिन की गहण गति कही न जाई सचै आपि सवारे ॥ भरमि भुलाणे सि मनमुख कहीअहि ना उरवारि न पारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = मनुष्य। लिव = तवज्जो, ध्यान। नाले = नाल। गहण = गहरी। गति = आत्मिक अवस्था। सचै = सदा कायम रहने वाले ने। भरमि = भटकना में। भुलाणे = भूले हुए, गलत रास्ते पर पड़े हुए। कहीअहि = कहे जाते हैं। (कहीऐ = कहा जाता है)। उरवारि = (संसार समुंदर के) उरले पासे।3।
अर्थ: जिस मनुष्य की तवज्जो एक प्रभु में जुड़ी रहती है वह मनुष्य मोह से आजाद हो जाता है, वह सदा प्रभु-चरणों में जुड़ा रहता है। ऐसे लोगों की गहरी आत्मिक अवस्था को बयान नहीं किया जा सकता। सदा स्थिर रहने वाले प्रभु ने खुद ही उनका जीवन सुंदर बना दिया होता है। पर, जो लोग माया की भटकना में पड़ कर जीवन-राह से टूटे रहते हैं, वे लोग मनमुख कहे जाते हैं (वे माया के मोह के समुंदर में डूबे रहते हैं) वे ना इस पार के लायक ना ही उस पार लांघने के काबिल।3।

[[0797]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो नदरि करे सोई जनु पाए गुर का सबदु सम्हाले ॥ हरि जन माइआ माहि निसतारे ॥ नानक भागु होवै जिसु मसतकि कालहि मारि बिदारे ॥४॥१॥

मूलम्

जिस नो नदरि करे सोई जनु पाए गुर का सबदु सम्हाले ॥ हरि जन माइआ माहि निसतारे ॥ नानक भागु होवै जिसु मसतकि कालहि मारि बिदारे ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नदरि = निगाह। समाले = हृदय में बसाता है। निसतारे = पार लंघा लेता है। मसतकि = माथे पर। कालहि = काल को, मौत को, मौत के सहम को, आत्मिक मौत को। मारि = मार के। बिदारे = नाश कर देता है।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश?) जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की निगाह करता है वही मनुष्य (गुरु का शब्द) प्राप्त करता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द को अपने हृदय में संभाल के रखता है। (इसी तरह) प्रभु अपने सेवकों को माया में (रख के भी, मोह के समुंदर से) पार लंघा लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठते हैं, वह (अपने अंदर से) आत्मिक मौत को मार के खत्म कर देता है।4।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: महला ३ के इस संग्रह का यह पहला शब्द है। देखें आखिरी अंक 1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ ॥ अतुलु किउ तोलिआ जाइ ॥ दूजा होइ त सोझी पाइ ॥ तिस ते दूजा नाही कोइ ॥ तिस दी कीमति किकू होइ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ ॥ अतुलु किउ तोलिआ जाइ ॥ दूजा होइ त सोझी पाइ ॥ तिस ते दूजा नाही कोइ ॥ तिस दी कीमति किकू होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अतुल = जिसके बराबर का और कोई नहीं, अ+तुल्य। किउ तोलिआ जाइ = नहीं तोला जा सकता, उसके बराबर की कोई हस्ती नहीं बताई जा सकती। दूजा = प्रभु के बराबर का कोई और। सोझी = (परमात्मा के हस्ती के माप की) समझ। तिस ते = उस प्रभु से (अलग)। तिस दी = (देखें ‘तिस ते’)। किकू = कैसे?।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (जिस मनुष्य के अंदर से भटकना मेर-तेर दूर हो जाती है उसे यकीन आ जाता है कि) परमात्मा की हस्ती को नापा नहीं जा सकता। (उसको निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा से अलग कोई नहीं है, (इस वास्ते) परमात्मा के बराबर की कोई और हस्ती नहीं बताई जा सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादि वसै मनि आइ ॥ ता को जाणै दुबिधा जाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर परसादि वसै मनि आइ ॥ ता को जाणै दुबिधा जाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। मनि = मन में। ता = तब। को = कोई मनुष्य। जाणै = जान पहचान बनाता है। दुबिधा = मेर तेर। जाइ = देर हो जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: (जब) गुरु की कृपा से (किसी भाग्यशाली मनुष्य के) मन में (परमात्मा) आ बसता है, तब वह मनुष्य (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ डाल लेता है, और (उसके अंदर से) भटकना दूर हो जाती हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि सराफु कसवटी लाए ॥ आपे परखे आपि चलाए ॥ आपे तोले पूरा होइ ॥ आपे जाणै एको सोइ ॥२॥

मूलम्

आपि सराफु कसवटी लाए ॥ आपे परखे आपि चलाए ॥ आपे तोले पूरा होइ ॥ आपे जाणै एको सोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सराफु = परखने वाला। कसवटी = वह बट्टा जिस पर सोने को रगड़ लगा के (रगड़ के) देखा जाता है कि ये खरा है कि नहीं। आपे = आप ही। चलाए = प्रचलित करता है, (सिक्के को) चलाता है। एको सोइ = सिर्फ वह (परमात्मा) ही।2।
अर्थ: (जिसके अंदर प्रभु प्रकट हो जाता है, उसे यकीन आ जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही (उच्च जीवन-स्तर की) कसवटी बरत के (जीवों के जीवन) परखने वाला है। प्रभु खुद ही परख करता है, और (स्वीकार करके उस ऊँचे जीवन को) जीवों के सामने लाता है (जैसे खरा सिक्का प्रचलित किया जाता है)। प्रभु आप ही (जीवों के जीवन को) जाँचता-परखता है, (उसकी मेहर से ही कोई जीवन उस परख में) पूरा उतरता है। सिर्फ वह परमात्मा खुद ही (इस खेल को) जानता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ का रूपु सभु तिस ते होइ ॥ जिस नो मेले सु निरमलु होइ ॥ जिस नो लाए लगै तिसु आइ ॥ सभु सचु दिखाले ता सचि समाइ ॥३॥

मूलम्

माइआ का रूपु सभु तिस ते होइ ॥ जिस नो मेले सु निरमलु होइ ॥ जिस नो लाए लगै तिसु आइ ॥ सभु सचु दिखाले ता सचि समाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिस ते = उस (परमात्मा) से ही। जिस नो = (देखें ‘तिस ते’, ‘तिस दी’)। निरमल = पवित्र। लाए = (माया) चिपकाता है। आइ = आ के। लगै = चिपक जाती है। सभु = हर जगह। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।
अर्थ: माया का सारा अस्तित्व उस परमात्मा से ही बना है। जिस मनुष्य को प्रभु (अपने साथ) मिलाता है, वह (इस माया से निर्लिप रह के) पवित्र जीवन वाला बन जाता है। जिस मनुष्य को (प्रभु स्वयं अपनी माया) चिपका देता है, उसे ये आ चिपकती है। (जब किसी मनुष्य को गुरु के द्वारा) हर जगह अपना सदा कायम रहने वाला स्वरूप दिखाता है, तब वह मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे लिव धातु है आपे ॥ आपि बुझाए आपे जापे ॥ आपे सतिगुरु सबदु है आपे ॥ नानक आखि सुणाए आपे ॥४॥२॥

मूलम्

आपे लिव धातु है आपे ॥ आपि बुझाए आपे जापे ॥ आपे सतिगुरु सबदु है आपे ॥ नानक आखि सुणाए आपे ॥४॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: देखें बिलावल महला १ शब्द नं: ३।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धातु = माया। बुझाए = समझ बख्शता है। जापे = जपता है। आखि = उचार के।4।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु) खुद ही (अपने चरणों में) मगनता (देने वाला है), खुद ही माया (चिपकाने वाला) है। प्रभु स्वयं ही (सही जीवन की) सूझ बख्शता है, स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के अपना नाम) जपता है। प्रभु स्वयं ही गुरु है, स्वयं ही (गुरु का) शब्द है। हे नानक! प्रभु खुद ही (गुरु का शब्द) उचार के (और लोगों को) सुनाता है (यह है श्रद्धा उस भाग्यशाली की जिसके मन में वह प्रभु गुरु की कृपा से आ बसता है)।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ ॥ साहिब ते सेवकु सेव साहिब ते किआ को कहै बहाना ॥ ऐसा इकु तेरा खेलु बनिआ है सभ महि एकु समाना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ ॥ साहिब ते सेवकु सेव साहिब ते किआ को कहै बहाना ॥ ऐसा इकु तेरा खेलु बनिआ है सभ महि एकु समाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। साहिब ते = मालिक प्रभु से, मालिक प्रभु की कृपा से। सेव = (मालिक प्रभु की) सेवा भक्ति। बहाना = गलत दलील। ऐसा = ऐसा, आश्चर्य। खेलु = जगत तमाशा। समाना = व्यापक।1।
अर्थ: (हे भाई!) मालिक प्रभु की मेहर से ही (कोई मनुष्य उसका) भक्त बनता है, मालिक प्रभु की कृपा से ही (मनुष्य को उसकी) सेवा भक्ति प्राप्त होती है। (ये सेवा-भक्ति किसी को भी अपने उद्यम से नहीं मिलती) कोई भी मनुष्य ऐसा कोई बहाना नहीं दे सकता।
हे प्रभु! एक तेरा ही आश्चर्यजनक तमाशा बना हुआ है (कि तेरी भक्ति तेरी मेहर से ही मिलती है, वैसे) तू सब जीवों में खुद ही समाया हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि परचै हरि नामि समाना ॥ जिसु करमु होवै सो सतिगुरु पाए अनदिनु लागै सहज धिआना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुरि परचै हरि नामि समाना ॥ जिसु करमु होवै सो सतिगुरु पाए अनदिनु लागै सहज धिआना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु के द्वारा, गुरु की कृपा से। परचै = गिझ जाता है। नामि = नाम में। करमु = बख्शिश। सो = वह मनुष्य। पाए = हासिल कर लेता है। अनदिनु = हर रोज। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज धिआना = आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली मगनता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से (परमात्मा का नाम जपने में) गिझ जाता है, वह परमात्मा के नाम में (सदा) लीन रहता है। (पर) गुरु (भी) उसी को मिलता है जिस पर प्रभु की कृपा होती है, फिर हर वक्त उसकी तवज्जो आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली अवस्था में जुड़ी रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ कोई तेरी सेवा करे किआ को करे अभिमाना ॥ जब अपुनी जोति खिंचहि तू सुआमी तब कोई करउ दिखा वखिआना ॥२॥

मूलम्

किआ कोई तेरी सेवा करे किआ को करे अभिमाना ॥ जब अपुनी जोति खिंचहि तू सुआमी तब कोई करउ दिखा वखिआना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभिमाना = माण। खिंचहि = खींच लेता है। सुआमी = हे मालिक! दिखा = मैं देखूँ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘करउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एकवचन) बेशक करे।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! (अपने उद्यम से) कोई भी मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति नहीं कर सकता, कोई मनुष्य ऐसा कोई गुमान नहीं कर सकता। हे मालिक प्रभु! जब तू किसी जीव में से (सेवा-भक्ति के लिए दिया हुआ) प्रकाश खींच लेता है, तब कोई भी सेवा-भक्ति की बातें नहीं कर सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे गुरु चेला है आपे आपे गुणी निधाना ॥ जिउ आपि चलाए तिवै कोई चालै जिउ हरि भावै भगवाना ॥३॥

मूलम्

आपे गुरु चेला है आपे आपे गुणी निधाना ॥ जिउ आपि चलाए तिवै कोई चालै जिउ हरि भावै भगवाना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेला = सिख। आपे = आप ही। गुणी निधाना = गुणों का खजाना। चलाए = (जीवन-राह पर) चलाता है। भावै = अच्छा लगता है।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा आप ही गुरु है, आप ही सिख है, आप ही गुणों का खजाना है (जो गुण वह गुरु के द्वारा सिख को देता है)। जैसे उस हरि भगवान को अच्छा लगता है, जैसे वह जीव को जीवन-राह पर चलाता है वैसे ही जीव चलता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत नानकु तू साचा साहिबु कउणु जाणै तेरे कामां ॥ इकना घर महि दे वडिआई इकि भरमि भवहि अभिमाना ॥४॥३॥

मूलम्

कहत नानकु तू साचा साहिबु कउणु जाणै तेरे कामां ॥ इकना घर महि दे वडिआई इकि भरमि भवहि अभिमाना ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। कउणु जाणै = कोई नहीं जान सकता। घर महि = हृदय घर में (टिका के), अपने चरणों में (जोड़ के)। दे = देता है। इकि = कई जीव। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भवहि = घूमते हैं।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: नानक कहता है: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, तेरे कामों (के भेद) को कोई नहीं जान सकता। कई जीवों को तू अपने चरणों में टिका के इज्जत बख्शता है। कई जीव गलत रास्ते पर पड़ कर अहंकार में भटकते फिरते हैं।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ ॥ पूरा थाटु बणाइआ पूरै वेखहु एक समाना ॥ इसु परपंच महि साचे नाम की वडिआई मतु को धरहु गुमाना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ ॥ पूरा थाटु बणाइआ पूरै वेखहु एक समाना ॥ इसु परपंच महि साचे नाम की वडिआई मतु को धरहु गुमाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरा थाट = उत्तम युक्ति, गुरु की शरण आ के हरि नाम जपने की उत्तम जुगति। पूरै = पूरे (प्रभु) ने, उस प्रभु ने जिसके कामों में कोई कमी नहीं। एक समाना = एक सी, जो हरेक युग में एक सी चली आ रही है। परपंच = संसार। साचा = सदा कायम रहने वाला। मतु को धरहु = कोई ना धरे। गुमाना = अहंकार।1।
अर्थ: हे भाई! देखो, पूर्ण प्रभु ने (गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम जपने की यह ऐसी) उत्तम जुगती बनाई है जो हरेक युग में एक जैसी ही चली आ रही है। कहीं ऐसा ना हो कि कोई मनुष्य (जत-संयम-तीर्थ आदि कर्मों) का गुमान कर बैठे। इस जगत में सदा स्थिर प्रभु का नाम जपने से ही इज्जत मिलती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर की जिस नो मति आवै सो सतिगुर माहि समाना ॥ इह बाणी जो जीअहु जाणै तिसु अंतरि रवै हरि नामा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुर की जिस नो मति आवै सो सतिगुर माहि समाना ॥ इह बाणी जो जीअहु जाणै तिसु अंतरि रवै हरि नामा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माहि = में। मति = अक्ल, शिक्षा। जीअहु = दिल से। जाणै = पहचानता है, सांझ डालता है। अंतरि = अंदर। रवै = हर वक्त मौजूद रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की शिक्षा पर यकीन आ जाता है, वह मनुष्य गुरु (के उपदेश में) लीन रहता है। जो मनुष्य गुरु की इस वाणी से दिल से सांझ डाल लेता है, उसके अंदर परमात्मा का नाम सदा टिका रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चहु जुगा का हुणि निबेड़ा नर मनुखा नो एकु निधाना ॥ जतु संजम तीरथ ओना जुगा का धरमु है कलि महि कीरति हरि नामा ॥२॥

मूलम्

चहु जुगा का हुणि निबेड़ा नर मनुखा नो एकु निधाना ॥ जतु संजम तीरथ ओना जुगा का धरमु है कलि महि कीरति हरि नामा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हुणि = इस वक्त, गुरु की मति ले के।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: देखें ‘रहाउ’ वाला बंद। उसी में केन्द्रिया भाव है)।

दर्पण-भाषार्थ

निबेड़ा = निर्णय। नो = को। नर मनुख = श्रेष्ठ मनुष्य, गुरमुख, गुरु की मति पर चलने वाले मनुष्य। एकु निधाना = एक प्रभु का नाम खजाना। जतु = काम-वासना को रोकने वाला यत्न। संजम = इन्द्रियों को विकारों की ओर से रोकना। महि = में। कलि = कलियुग। कीरति = महिमा।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से चारों युगों का निर्णय समझ में आता है (कि युग चाहे कोई हो) गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्यों को परमात्मा का नाम-खजाना प्राप्त हो जाता है। (वेद आदि हिन्दू धर्म पुस्तकें बताती हैं कि) जत-संजम और तीर्थ स्नान उन युगों के धर्म थे, पर कलियुग में (गुरु नानक ने आ के बताया है कि) परमात्मा की महिमा, परमात्मा का नाम-जपना ही असल धर्म है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुगि जुगि आपो आपणा धरमु है सोधि देखहु बेद पुराना ॥ गुरमुखि जिनी धिआइआ हरि हरि जगि ते पूरे परवाना ॥३॥

मूलम्

जुगि जुगि आपो आपणा धरमु है सोधि देखहु बेद पुराना ॥ गुरमुखि जिनी धिआइआ हरि हरि जगि ते पूरे परवाना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। सोधि = ध्यान से पढ़ के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जगि = जगत में। ते = वह लोग। परवाना = स्वीकार।3।
अर्थ: हे भाई! वेद-पुराण आदि धर्म-पुस्तकों को ध्यान से पढ़ के देख लो (वह यही कहते हैं कि) हरेक युग में (जत-संजम-तीर्थ आदि) अपना-अपना धर्म (स्वीकार) है। (पर गुरु की शिक्षा ये है कि) जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण किया है, जगत में मनुष्य पूर्ण हैं, स्वीकार हैं।3।

[[0798]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत नानकु सचे सिउ प्रीति लाए चूकै मनि अभिमाना ॥ कहत सुणत सभे सुख पावहि मानत पाहि निधाना ॥४॥४॥

मूलम्

कहत नानकु सचे सिउ प्रीति लाए चूकै मनि अभिमाना ॥ कहत सुणत सभे सुख पावहि मानत पाहि निधाना ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। चूकै = खत्म हो जाता है। मनि = मन में। सभे = सारे। पाहि = पाते हैं, प्राप्त करते हैं। निधाना = नाम खजाना।4।
अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा से प्यार जोड़ता है, उसके मन में से (किसी भी तरह के कर्मकांड का) अहंकार समाप्त हो जाता है। परमात्मा का नाम स्मरण वाले, सुनने वाले, सारे ही आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। जो मनुष्य (गुरु की शिक्षा पर) श्रद्धा रखते हैं, वे प्रभु का नाम-खजाना पा लेते हैं।4।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द में वेद-पुराणों के धर्म और गुरमति में फर्क बताया गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ ॥ गुरमुखि प्रीति जिस नो आपे लाए ॥ तितु घरि बिलावलु गुर सबदि सुहाए ॥ मंगलु नारी गावहि आए ॥ मिलि प्रीतम सदा सुखु पाए ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ ॥ गुरमुखि प्रीति जिस नो आपे लाए ॥ तितु घरि बिलावलु गुर सबदि सुहाए ॥ मंगलु नारी गावहि आए ॥ मिलि प्रीतम सदा सुखु पाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ के। जिस नो = जिस को, जिस मनुष्य के हृदय में। आपे = (प्रभु) आप ही। तितु = उस में। घरि = घर में। तितु घरि = उस हृदय घर में (तिसु घरि = उसके घर में)। बिलावलु = खुशी, आनंद। सबदि = शब्द से। सुहाए = (वह मनुष्य) सुंदर बन जाता है। नारी गावहि = नारियाँ गाती हैं, इंद्रिय गाती हैं। मंगलु = (प्रभु की) महिमा के गीत। आइ = आ के, मिल के। मिलि = मिल के।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘तितु’ है शब्द ‘तिसु’ से अधिकरण कारक।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) गुरु के द्वारा जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु अपना प्यार पैदा करता है, उस हृदय-घर में (सदा) खिड़ाव (बना रहता) है, गुरु की इनायत से उस मनुष्य का जीवन सुंदर बन जाता है। उसकी सारी ज्ञान-इंद्रिय मिल के प्रभु की महिमा के गीत गाते रहते हैं। प्रभु-प्रीतम को मिल के मनुष्य सदा आत्मिक आनंद भोगता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ तिन बलिहारै जिन्ह हरि मंनि वसाए ॥ हरि जन कउ मिलिआ सुखु पाईऐ हरि गुण गावै सहजि सुभाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ तिन बलिहारै जिन्ह हरि मंनि वसाए ॥ हरि जन कउ मिलिआ सुखु पाईऐ हरि गुण गावै सहजि सुभाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। बलिहारै = कुर्बान। मंनि = मन में। वसाए = बसाया है। मिलिआ = मिलने से। कउ = को। पाईऐ = प्राप्त करते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्रेम में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने परमात्मा को अपने मन में बसाया है। (हे भाई!) परमात्मा के (ऐसे) सेवकों की संगति करने से आत्मिक आनंद मिलता है। (जो मनुष्य हरि के जनों को मिलता है, वह भी) आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिक के परमात्मा की महिमा के गीत गाने लग जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा रंगि राते तेरै चाए ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आए ॥ आपे सोभा सद ही पाए ॥ गुरमुखि मेलै मेलि मिलाए ॥२॥

मूलम्

सदा रंगि राते तेरै चाए ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आए ॥ आपे सोभा सद ही पाए ॥ गुरमुखि मेलै मेलि मिलाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = रंग में, प्रेम में। तेरै चाए = तेरे चाव में। मनि = मन में। आए = आ के। आपे = (प्रभु) खुद ही। सद = सदा। मेलि = मेल में, अपने चरणों में।2।
अर्थ: (हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी महिमा करते हैं, वह) सदा तेरे प्रेम में तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं। (हे भाई!) प्रभु स्वयं उनके मन में आ बसता है। प्रभु खुद ही उनको सदा के लिए बड़ाई बख्शता है, गुरु की शरण डाल के उनको अपने साथ मिला लेता है अपने चरणों में जोड़ लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि राते सबदि रंगाए ॥ निज घरि वासा हरि गुण गाए ॥ रंगि चलूलै हरि रसि भाए ॥ इहु रंगु कदे न उतरै साचि समाए ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि राते सबदि रंगाए ॥ निज घरि वासा हरि गुण गाए ॥ रंगि चलूलै हरि रसि भाए ॥ इहु रंगु कदे न उतरै साचि समाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगाए = रंग चढ़ाता है। निज घरि = अपने (हृदय-) घर में। गाए = गा के। चलूलै रंगि = गाढ़े रंग में। भाए = भाए, प्रेम में। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। समाए = लीन हो के।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (जो मनुष्य गुरु के) शब्द में रंगे जाते हैं, (प्रभु उनको अपने नाम का) रंग चढ़ाता है, प्रभु के गुण गा-गा के उनका अपने हृदय-घर में ठिकाना बना रहता है (वे कभी भटकते नहीं) प्रभु के नाम-रस में, प्रेम में (टिके रहने के कारण) वे गाढ़े रंग में रंगे रहते हैं। सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहने के कारण उनका ये नाम-रंग कभी नहीं उतरता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि सबदु मिटिआ अगिआनु अंधेरा ॥ सतिगुर गिआनु मिलिआ प्रीतमु मेरा ॥ जो सचि राते तिन बहुड़ि न फेरा ॥ नानक नामु द्रिड़ाए पूरा गुरु मेरा ॥४॥५॥

मूलम्

अंतरि सबदु मिटिआ अगिआनु अंधेरा ॥ सतिगुर गिआनु मिलिआ प्रीतमु मेरा ॥ जो सचि राते तिन बहुड़ि न फेरा ॥ नानक नामु द्रिड़ाए पूरा गुरु मेरा ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। अगिआनु = (जीवन-राह की ओर से) बेसमझी। सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। बहुड़ि = दोबारा, फिर। द्रिढ़ाए = पक्का कर देता है।4।
अर्थ: हे भाई! जिनके हृदय में गुरु का शब्द बसता है उनके अंदर से अज्ञान-अंधकार दूर हो जाता है, जिन्हें गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान प्राप्त हो जाता है उनको प्यारा प्रभु मिल जाता है। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु (के प्रेम) में मस्त रहते हैं, उनको जनम-मरण का चक्कर नहीं पड़ता। (पर) हे नानक! पूरा गुरु ही (मनुष्य के अंदर) नाम जपने का स्वभाव पक्का कर सकता है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ ॥ पूरे गुर ते वडिआई पाई ॥ अचिंत नामु वसिआ मनि आई ॥ हउमै माइआ सबदि जलाई ॥ दरि साचै गुर ते सोभा पाई ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ ॥ पूरे गुर ते वडिआई पाई ॥ अचिंत नामु वसिआ मनि आई ॥ हउमै माइआ सबदि जलाई ॥ दरि साचै गुर ते सोभा पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। वडिआई = गौरवता, इज्जत। अचिंत नामु = चिन्ता से बचाने वाला हरि नाम। मनि = मन में। सबदि = शब्द ने। दरि = दर पर।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरे गुरु से बड़ाई-इज्जत पा ली, उसके मन में वह हरि-नाम आ बसता है जो हरेक किस्म की फिक्र-चिन्ता दूर कर देता है। जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द के द्वारा (अपने अंदर से) माया के कारण पैदा हुआ अहंकार जला लिया, उसने गुरु की कृपा से सदा कायम रहने वाले परमात्मा के दर पर शोभा पा ली।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगदीस सेवउ मै अवरु न काजा ॥ अनदिनु अनदु होवै मनि मेरै गुरमुखि मागउ तेरा नामु निवाजा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जगदीस सेवउ मै अवरु न काजा ॥ अनदिनु अनदु होवै मनि मेरै गुरमुखि मागउ तेरा नामु निवाजा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगदीस = (जगत+ईश) हे जगत के मालिक! सेवउ = मैं सेवा करता रहूँ। मै = मुझे। अवरु = और। अनदिनु = हर रोज। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। मागउ = माँगू। निवाजा = बख्शिश करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे जगत के मालिक प्रभु! (मेहर कर) मैं (तेरा नाम) स्मरण करता रहूँ, (इससे बेहतर) मुझे और कोई काम ना लगे। (हे प्रभु!) गुरु की शरण पड़ कर (आत्मिक आनंद की) बख्शिश करने वाला तेरा नाम मांगता हूँ (ताकि) मेरे मन में (उस नाम की इनायत से) हर वक्त आनंद बना रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन की परतीति मन ते पाई ॥ पूरे गुर ते सबदि बुझाई ॥ जीवण मरणु को समसरि वेखै ॥ बहुड़ि न मरै ना जमु पेखै ॥२॥

मूलम्

मन की परतीति मन ते पाई ॥ पूरे गुर ते सबदि बुझाई ॥ जीवण मरणु को समसरि वेखै ॥ बहुड़ि न मरै ना जमु पेखै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परतीति = श्रद्धा, निश्चय। मन ते = मन से, अंदर से ही। ते = से। सबदि = शब्द के द्वारा। बुझाई = समझ। जीवण मरणु = जनम से मरन तक, सारी उम्र। को = जो कोई मनुष्य। समसरि = बराबर, एक समान। बहुड़ि = दोबारा। पेखै = देखता।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरे गुरु से (उसके) शब्द से (आत्मिक जीवन की) सूझ प्राप्त कर ली, उसने अपने अंदर से ही अपने मन के वास्ते श्रद्धा-विश्वास की दाति पा ली (ये श्रद्धा कि परमात्मा सारे जगत में एक समान व्यापक है)। हे भाई! जो भी मनुष्य सारी उम्र प्रभु को (सृष्टि में) एक-समान (बसता) देखता है, उसको कभी आत्मिक मौत नहीं व्यापती, उसकी ओर यमराज कभी नहीं देखता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर ही महि सभि कोट निधान ॥ सतिगुरि दिखाए गइआ अभिमानु ॥ सद ही लागा सहजि धिआन ॥ अनदिनु गावै एको नाम ॥३॥

मूलम्

घर ही महि सभि कोट निधान ॥ सतिगुरि दिखाए गइआ अभिमानु ॥ सद ही लागा सहजि धिआन ॥ अनदिनु गावै एको नाम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घर = हृदय घर। महि = में। सभि कोट = सारे किले (कोटि = करोड़। कोटु = किला। कोट = किले)। निधान = खजाने। सतिगुरि = गुरु ने। अभिमानु = अहंकार। सद = सदा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। एको नाम = एक नाम ही।3।
अर्थ: हे भाई! (हरेक मनुष्य के) हृदय-घर में सारे (सुखों के) खजानों के (कोटों के) कोट मौजूद हैं। जिस मनुष्य को गुरु ने (ये कोट) दिखा दिए, उसके अंदर से अहंकार दूर हो गया। वह मनुष्य सदा ही आत्मिक अडोलता में तवज्जो जोड़े रखता है। वह मनुष्य हर वक्त एक ही परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु जुग महि वडिआई पाई ॥ पूरे गुर ते नामु धिआई ॥ जह देखा तह रहिआ समाई ॥ सदा सुखदाता कीमति नही पाई ॥४॥

मूलम्

इसु जुग महि वडिआई पाई ॥ पूरे गुर ते नामु धिआई ॥ जह देखा तह रहिआ समाई ॥ सदा सुखदाता कीमति नही पाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग महि = जगत में। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु से (शिक्षा ले के) प्रभु का नाम स्मरण करता है, वह इस जगत में सम्मान प्राप्त करता है। हे भाई! मैं तो जिधर देखता हूँ, उधर ही परमात्मा मौजूद दिखता है। वह सदा ही (सबको) सुख देने वाला है। पर वह किसी मूल्य से नहीं मिल सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरै भागि गुरु पूरा पाइआ ॥ अंतरि नामु निधानु दिखाइआ ॥ गुर का सबदु अति मीठा लाइआ ॥ नानक त्रिसन बुझी मनि तनि सुखु पाइआ ॥५॥६॥४॥६॥१०॥

मूलम्

पूरै भागि गुरु पूरा पाइआ ॥ अंतरि नामु निधानु दिखाइआ ॥ गुर का सबदु अति मीठा लाइआ ॥ नानक त्रिसन बुझी मनि तनि सुखु पाइआ ॥५॥६॥४॥६॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। अंतरि = (हृदय के) अंदर। निधानु = खजाना। मनि = मन में। तनि = शरीर में।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरी किस्मत से पूरा गुरु पा लिया, गुरु ने उसको उसके हृदय में ही परमात्मा का नाम-खजाना दिखा दिया। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु का शब्द बहुत प्यारा लगने लग पड़ा, उसके अंदर से माया की प्यास बुझ गई। उसको अपने मन में अपने हृदय में आनंद ही आनंद हासिल हो गया।5।6।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ४ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ४ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदम मति प्रभ अंतरजामी जिउ प्रेरे तिउ करना ॥ जिउ नटूआ तंतु वजाए तंती तिउ वाजहि जंत जना ॥१॥

मूलम्

उदम मति प्रभ अंतरजामी जिउ प्रेरे तिउ करना ॥ जिउ नटूआ तंतु वजाए तंती तिउ वाजहि जंत जना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = सबके दिलों की जानने वाला। प्रेरे = प्रेरणा करता है। नटूआ = नाटक करने वाला। तंती = तार। तंती तंतु = वीणा की तार। जंत = यन्त्र, बाजे। वाजहि = बजते हैं। जना = जीव।1।
अर्थ: सबके दिल की जानने वाला परमात्मा उद्यम करने की अक्ल (जीवों को स्वयं देता है)। जैसे वह हमें प्रेरित करता है वैसे ही हम करते हैं। जैसे कोई नाटक करने वाला मनुष्य वीणा (आदि साज) की तार बजाता है (वैसे ही वह साज बजाता है); वैसे ही सारे जीव (जो, मानो) बाजे (हैं, प्रभु के बजाने से) बजते हैं।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन राम नामु रसना ॥ मसतकि लिखत लिखे गुरु पाइआ हरि हिरदै हरि बसना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन राम नामु रसना ॥ मसतकि लिखत लिखे गुरु पाइआ हरि हिरदै हरि बसना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! रसना = जीभ से। मसतकि = माथे पर। हिरदै = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जीभ से परमात्मा का नाम जपा कर। जिस मनुष्य के माथे पर लिखे हुए अच्छे भाग्य जाग जाएं, उसे गुरु मिल जाता है, (गुरु की सहायता से उसके) हृदय में प्रभु आ बसता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ गिरसति भ्रमतु है प्रानी रखि लेवहु जनु अपना ॥ जिउ प्रहिलादु हरणाखसि ग्रसिओ हरि राखिओ हरि सरना ॥२॥

मूलम्

माइआ गिरसति भ्रमतु है प्रानी रखि लेवहु जनु अपना ॥ जिउ प्रहिलादु हरणाखसि ग्रसिओ हरि राखिओ हरि सरना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिरसति = ग्रसा हुआ, जकड़ा हुआ। प्रानी = जीव। जनु = दास। हरणाखसि = हर्णाकश्यप ने। ग्रसिओ = ग्रसित, अपने काबू में किया।2।
अर्थ: हे प्रभु! माया के मोह में फसा हुआ जीव भटकता फिरता है, (मुझे) अपने दास को (इस माया के मोह से) बचा ले (उस तरह बचा ले) जैसे, हे हरि! तूने शरण पड़े प्रहलाद की रक्षा की, जब उसे हणाकश्यप ने दुख दिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवन कवन की गति मिति कहीऐ हरि कीए पतित पवंना ॥ ओहु ढोवै ढोर हाथि चमु चमरे हरि उधरिओ परिओ सरना ॥३॥

मूलम्

कवन कवन की गति मिति कहीऐ हरि कीए पतित पवंना ॥ ओहु ढोवै ढोर हाथि चमु चमरे हरि उधरिओ परिओ सरना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति मिति = हालत। पतित = विकारी, विकारों में गिरे हुए (पत् = to fall)। पवंना = पवित्र। ढोर = मरे हुए पशू। हाथि = हाथ में। चमरे हाथि = चमार के हाथ में। उधरिओ = पार लंघा दिया।3।
अर्थ: हे भाई! किस किस की हालत बताई जाए? वह परमात्मा तो बड़े-बड़े विकारियों को पवित्र कर देता है। (देखो,) वह (रविदास, जो) मरे हुए पशू ढोता था, (उस) चमार के हाथ में (नित्य) चमड़ी (पकड़ी होती) थी, पर जब वह प्रभु की शरण पड़ा, प्रभु ने उसको (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ दीन दइआल भगत भव तारन हम पापी राखु पपना ॥ हरि दासन दास दास हम करीअहु जन नानक दास दासंना ॥४॥१॥

मूलम्

प्रभ दीन दइआल भगत भव तारन हम पापी राखु पपना ॥ हरि दासन दास दास हम करीअहु जन नानक दास दासंना ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन = गरीब, कंगाल। दइआल = दया का घर। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! पपना = पापों से। दास दासंना = दासों का दास।4।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! हे भक्तों को संसार-समुंदर से पार लंघाने वाले प्रभु! हम पापी जीवों को पापों से बचा ले। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) हमें अपने दासों के दासों का दास बना ले।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ हम मूरख मुगध अगिआन मती सरणागति पुरख अजनमा ॥ करि किरपा रखि लेवहु मेरे ठाकुर हम पाथर हीन अकरमा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ हम मूरख मुगध अगिआन मती सरणागति पुरख अजनमा ॥ करि किरपा रखि लेवहु मेरे ठाकुर हम पाथर हीन अकरमा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख। गिआन = ज्ञान, सही जीवन की सूझ। अगिआन मती = (सही जीवन की ओर से) बेसमझी। सरणागति = शरण+आगति, शरण पड़े। पुरख = हे सर्व व्यापक! अजनमा = हे जन्म से रहित! हीन = निमाणे। अकरमा = अ+करम, कर्म हीन, भाग्यहीन।1।
अर्थ: हे सर्व व्यापक प्रभु! हे जूनियों से रहित प्रभु! हम जीव मूर्ख हैं, बड़े मूर्ख हैं, बेसमझ हैं (पर) तेरी शरण में पड़े हैं। हे मेरे ठाकुर! मेहर कर, हमारी रक्षा कर, हम पत्थर (दिल) हैं, हम निमाणे हैं और दुर्भाग्य वाले हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन भजु राम नामै रामा ॥ गुरमति हरि रसु पाईऐ होरि तिआगहु निहफल कामा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन भजु राम नामै रामा ॥ गुरमति हरि रसु पाईऐ होरि तिआगहु निहफल कामा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भजु = स्मरण कर। नामै = नाम को। रसु = आनंद। होरि = और। कामा = काम।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। (हे भाई!) गुरु की मति पर चलने से ही परमात्मा के नाम का आनंद मिलता है। छोड़ें और कर्मों का मोह, (जिंद को उनसे) कोई लाभ नहीं मिलेगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन सेवक से हरि तारे हम निरगुन राखु उपमा ॥ तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे ठाकुर हरि जपीऐ वडे करमा ॥२॥

मूलम्

हरि जन सेवक से हरि तारे हम निरगुन राखु उपमा ॥ तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे ठाकुर हरि जपीऐ वडे करमा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वह लोग। निरगुन = गुण हीन। उपमा = बड़ाई, शोभा। अवरु = और। ठाकुर = हे ठाकुर! वड करमा = बड़े भाग्यों से।2।
अर्थ: हे हरि! जो मनुष्य तेरे (दर के) सेवक बनते हैं तू उनको पार लंघा लेता है। (पर) हम गुणहीन हैं, (गुणहीनों की भी) रक्षा कर (इसमें भी तेरी ही) शोभा होगी। हे मेरे ठाकुर! तेरे बिना मेरा कोई (मददगार) नहीं। (हे भाई!) बड़े भाग्यों से ही प्रभु का नाम जपा जा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामहीन ध्रिगु जीवते तिन वड दूख सहमा ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि मंदभागी मूड़ अकरमा ॥३॥

मूलम्

नामहीन ध्रिगु जीवते तिन वड दूख सहमा ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि मंदभागी मूड़ अकरमा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीन = खाली, हीन, बग़ैर। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। सहंमा = सहम, फिक्र। ओइ = वे। फिरि फिरि = फिर फिर, बार बार। भवाईअहि = चक्कर में घुमाए जाते हैं। अकरम = भाग्यहीन।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य प्रभु के नाम से वंचित रहते हैं, उनका जीना धिक्कारयोग्य होता है। उनको बड़े दुख सहम (चिपके रहते हैं)। वे मनुष्य बार-बार जूनियों में डाले जाते हैं। वे मूर्ख लोग कर्म-हीन ही रहते हैं, भाग्यहीन ही रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन नामु अधारु है धुरि पूरबि लिखे वड करमा ॥ गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ जन नानक सफलु जनमा ॥४॥२॥

मूलम्

हरि जन नामु अधारु है धुरि पूरबि लिखे वड करमा ॥ गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ जन नानक सफलु जनमा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधारु = आसरा। धुरि = धुर दरगाह से। पूरबि = पूर्बले जन्म में। करम = भाग्य। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। द्रिढ़ाइआ = (हृदय में) दृढ़ करा दिया। सफलु = कामयाब।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्तों के लिए परमात्मा का नाम (ही जीवन का) आसरा है। धुर दरगाह से पूर्बले जन्म में (उनके माथे पर) अहो-भाग्य लिखे समझो। हे दास नानक! गुरु ने सतिगुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम-स्मरण पक्का कर दिया, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ हमरा चितु लुभत मोहि बिखिआ बहु दुरमति मैलु भरा ॥ तुम्हरी सेवा करि न सकह प्रभ हम किउ करि मुगध तरा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ हमरा चितु लुभत मोहि बिखिआ बहु दुरमति मैलु भरा ॥ तुम्हरी सेवा करि न सकह प्रभ हम किउ करि मुगध तरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लुभत = लोभ में फसा हुआ, ग्रसा हुआ। मोहि = मोह में। बिखिआ = माया। दुरमति = खोटी मति। भरा = भरा हुआ। करि न सकह = हम कर नहीं सकते। किउ करि = कैसे? मुगध = मूर्ख।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सकह’ है वर्तमानकाल, उत्तमपुरख, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! हम जीवों का मन माया के मोह में फसा रहता है, खोटी मति की बहुत सारी मैल से भरा रहता है; इस वास्ते हम तेरी सेवा-भक्ति नहीं कर सकते। हे प्रभु! हम मूर्ख कैसे संसार-समुंदर से पार लांघे?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपि नरहर नामु नरहरा ॥ जन ऊपरि किरपा प्रभि धारी मिलि सतिगुर पारि परा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपि नरहर नामु नरहरा ॥ जन ऊपरि किरपा प्रभि धारी मिलि सतिगुर पारि परा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! नरहर = (नरहर नरसिंह) परमात्मा। प्रभि = प्रभु ने। मिलि = मिल के। मिलि सतिगुर = गुरु को मिल के। पारि परा = पार लांघ गया।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा जपा कर। जिस मनुष्य पर प्रभु ने कृपा की, वह गुरु को मिल के संसार-समुंदर से पार लांघ गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरे पिता ठाकुर प्रभ सुआमी हरि देहु मती जसु करा ॥ तुम्हरै संगि लगे से उधरे जिउ संगि कासट लोह तरा ॥२॥

मूलम्

हमरे पिता ठाकुर प्रभ सुआमी हरि देहु मती जसु करा ॥ तुम्हरै संगि लगे से उधरे जिउ संगि कासट लोह तरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! मती = मति, बुद्धि। जसु = यश, महिमा। संगि = साथ, संगति में। से = वह लोग (बहुवचन)। कासट = काठ, लकड़ी। लोह = लोहा।2।
अर्थ: हे प्रभु! हे ठाकुर! हे हमारे पिता! हे हमारे मालिक! हे हरि! हमें (ऐसी) समझ बख्श कि हम तेरी महिमा करते रहें। हे प्रभु! जैसे काठ से लग के लोहा (नदी से) पार लांघ जाता है, वैसे ही जो लोग तेरे चरणों में जुड़ते हैं वे विकारों से बच जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत नर होछी मति मधिम जिन्ह हरि हरि सेव न करा ॥ ते नर भागहीन दुहचारी ओइ जनमि मुए फिरि मरा ॥३॥

मूलम्

साकत नर होछी मति मधिम जिन्ह हरि हरि सेव न करा ॥ ते नर भागहीन दुहचारी ओइ जनमि मुए फिरि मरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत नर = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। होछी = हल्की। मधिम = (मध्यम) कमजोर। ते नर = वह लोग (बहुवचन)। दुहचारी = दुराचारी, कुकर्मी। ओइ = वे।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस लोगों ने कभी परमात्मा की सेवा-भक्ति नहीं की, परमात्मा से टूटे हुए उन लोगों की मति होछी और मलीन होती है। वह मनुष्य बद्-किस्मत रह जाते हैं क्योंकि वह (पवित्रता के श्रोत प्रभु से विछुड़ के) बुरे-कर्मों वाले हो जाते हैं। फिर वे सदा जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ तुम्ह हरि मेलहु सुआमी ते न्हाए संतोख गुर सरा ॥ दुरमति मैलु गई हरि भजिआ जन नानक पारि परा ॥४॥३॥

मूलम्

जिन कउ तुम्ह हरि मेलहु सुआमी ते न्हाए संतोख गुर सरा ॥ दुरमति मैलु गई हरि भजिआ जन नानक पारि परा ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। सुआमी = स्वामी! नाए = स्नान करते हैं। संतोख गुर सरा = गुर संतोखसरा, संतोख के सरोवर गुरु में, उस गुरु में जो संतोख का सर है।4।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: अमृतसर वाले संतोखसर का वर्णन यहाँ नहीं हैं अभी ये बना भी नहीं था)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मालिक प्रभु! जिस मनुष्यों को तू अपने चरणों में जोड़ना चाहता है, वे संतोख के सरोवर गुरु में स्नान करते रहते हैं (वे गुरु में लीन हो के अपना जीवन पवित्र बना लेते हैं)। हे दास नानक! जो मनुष्य परमात्मा का भजन करते हैं, (उनके अंदर से) खोटी मति की मैल दूर हो जाती है, वह (वे विकारों की लहरों में से बच के) पार लांघ जाते हैं।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ आवहु संत मिलहु मेरे भाई मिलि हरि हरि कथा करहु ॥ हरि हरि नामु बोहिथु है कलजुगि खेवटु गुर सबदि तरहु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ आवहु संत मिलहु मेरे भाई मिलि हरि हरि कथा करहु ॥ हरि हरि नामु बोहिथु है कलजुगि खेवटु गुर सबदि तरहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! भाई = हे भाईयो! मिलि = मिल के। कथा = महिमा की बातें। बोहिथु = जहाज़। कलजुगि = कलियुग में, कलह भरे संसार में।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: यहाँ युगों के विभाजन का वर्णन नहीं। कलियुग के जमाने में आ के साधारण तौर पर अपने समय का वर्णन कर रहे हैं। गुरु आशय के मुताबिक, एक युग किसी दूसरे युग से बढ़िया अथवा घटिया नहीं है)।

दर्पण-भाषार्थ

खेवटु = मल्लाह। सबदि = शब्द के द्वारा।1।
अर्थ: हे संतजनो! हे भाईयो! (साधु-संगित में) एक साथ मिल के बैठो, और मिल के सदा प्रभु की महिमा की बातें करो। इस कलह भरे संसार में परमात्मा का नाम (जैसे) जहाज है, (गुरु इस जहाज का) मल्लाह (है, तुम) गुरु के शब्द में जुड़ के (संसार-समुंदर से) पार लांघो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन हरि गुण हरि उचरहु ॥ मसतकि लिखत लिखे गुन गाए मिलि संगति पारि परहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन हरि गुण हरि उचरहु ॥ मसतकि लिखत लिखे गुन गाए मिलि संगति पारि परहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उचरहु = उच्चारण करो। मसतकि = माथे पर। पारि परहु = पार लांघो।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा के गुण याद करता रह। जिस मनुष्य के माथे पर लिखे अच्छे भाग्य जागते हैं वह प्रभु के गुण गाता है। (हे मन! तू भी) साधु-संगत में मिल के (गुण गा और संसार-समुंदर से) पार लांघ।1। रहाउ।

[[0800]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ नगर महि राम रसु ऊतमु किउ पाईऐ उपदेसु जन करहु ॥ सतिगुरु सेवि सफल हरि दरसनु मिलि अम्रितु हरि रसु पीअहु ॥२॥

मूलम्

काइआ नगर महि राम रसु ऊतमु किउ पाईऐ उपदेसु जन करहु ॥ सतिगुरु सेवि सफल हरि दरसनु मिलि अम्रितु हरि रसु पीअहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। ऊतमु = श्रेष्ठ, सब से बढ़िया। जन = हे संत जनो! सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ के। सफल = फल देने वाला, आत्मिक जीवन-रूप फल देने वाला। मिलि = (गुरु को) मिल के।2।
अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। दिखहु = देख लो। तिन्ह = उनको। सभि बिख रसहु = सारे जहर रस, सारे वह रस जो आत्मिक जीवन के लिए जहर हैं।3।
अर्थ: (शहरों में खाने-पीने के लिए कई किस्मों के स्वादिष्ट पदार्थ मिलते हैं। मनुष्य का) शरीर (भी, जैसे, एक शहर है, इस) शहर में परमात्मा का नाम (सब पदार्थों से) उत्तम स्वादिष्ट पदार्थ है। (पर) हे संतजनो! (मुझे) समझाओ कि ये कैसे हासिल हो। (संत जन यही बताते हैं कि गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का (आत्मिक जीवन-) फल देने वाले दर्शन करो, गुरु को मिल के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु अम्रितु हरि मीठा हरि संतहु चाखि दिखहु ॥ गुरमति हरि रसु मीठा लागा तिन बिसरे सभि बिख रसहु ॥३॥

मूलम्

हरि हरि नामु अम्रितु हरि मीठा हरि संतहु चाखि दिखहु ॥ गुरमति हरि रसु मीठा लागा तिन बिसरे सभि बिख रसहु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे संतजनो! बेशक चख के देख लो, परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला मीठा जल है। गुरु की शिक्षा पर चल के जिस मनुष्यों को यह नाम-रस स्वादिष्ट लगता है, आत्मिक जीवन को खत्म कर देने वाले और सारे रस उनको भूल जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु रसु राम रसाइणु हरि सेवहु संत जनहु ॥ चारि पदारथ चारे पाए गुरमति नानक हरि भजहु ॥४॥४॥

मूलम्

राम नामु रसु राम रसाइणु हरि सेवहु संत जनहु ॥ चारि पदारथ चारे पाए गुरमति नानक हरि भजहु ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसाइणु = (रस+अयन) रसों का घर, श्रेष्ठ रस। चारे = चार ही। चारि पदारथ = (धर्म अर्थ काम मोक्ष)।4।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम स्वादिष्ट पदार्थ है, रसायन है, सदा इसका सेवन करते रहो (इसका प्रयोग हमेशा करते रहो)। हे नानक! (जगत में कुल) चार पदार्थ (गिने गए हैं, नाम-रसायन की इनायत से यह) चारों ही मिल जाते हैं। (इस वास्ते) गुरु की मति ले के हमेशा हरि-नाम का भजन करते रहो।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु को जापै हरि मंत्रु जपैनी ॥ गुरु सतिगुरु पारब्रहमु करि पूजहु नित सेवहु दिनसु सभ रैनी ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु को जापै हरि मंत्रु जपैनी ॥ गुरु सतिगुरु पारब्रहमु करि पूजहु नित सेवहु दिनसु सभ रैनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूदु = शूद्र। वैस = वैश। को = हर कोई। जापै = जप सकता है। जपैनी = जपने योग्य। करि = कर के, (का रूप) जान के। पूजहु = सेवा करो, शरण पड़ो। रैनी = रात।1।
अर्थ: कोई खत्री हो, चाहे ब्राहमण हो, कोई शूद्र हो चाहे वैश हो, हरेक (श्रेणी का) मनुष्य प्रभु का नाम-मंत्र जप सकता है (ये सबके लिए) जपने-योग्य है। हे हरि जनो! गुरु को परमात्मा का रूप जान के गुरु की शरण पड़ो। दिन-रात हर वक्त गुरु की शरण पड़े रहो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन देखहु सतिगुरु नैनी ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु हरि बोलहु गुरमति बैनी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जन देखहु सतिगुरु नैनी ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु हरि बोलहु गुरमति बैनी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि के सेवको! नैनी = आँखों से, आँखें खोल के। बैनी = वचन, बोल। हरि बैनी = हरि की महिमा के बोल।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु के सेवक जनो! गुरु को आँखें खोल के देखो (गुरु पारब्रहम का रूप है)। गुरु की दी हुई मति पर चल कर परमात्मा के महिमा के वचन बोलो, जो इच्छा करोगे वही फल प्राप्त कर लोगे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक उपाव चितवीअहि बहुतेरे सा होवै जि बात होवैनी ॥ अपना भला सभु कोई बाछै सो करे जि मेरै चिति न चितैनी ॥२॥

मूलम्

अनिक उपाव चितवीअहि बहुतेरे सा होवै जि बात होवैनी ॥ अपना भला सभु कोई बाछै सो करे जि मेरै चिति न चितैनी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाव = ढंग, तदबीर। चितविअहि = चितवे जाते हैं। सा = वही। जि = जो। होवैनी = (प्रभु के हुक्म में) होनी है। सभु कोई = हरेक जीव। बाछै = चाहता है। सो = वह (काम)। जि = जो। मेरै चिति = मेरे चिक्त में। मेरै चिति न चितैनी = ना मेरे चिक्त में, मेरे चिक्त ना चेते।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
नोट: ‘चितविअहि’ है करमवाच, वर्तमान काल, अन्य-पुरुष, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (गुरु परमेश्वर का आसरा-सहारा भुला के अपनी भलाई के) अनेक और बहुत सारे ढंग सोचे जाते हैं, पर बात वही होती है जो (रजा के अनुसार) जरूर होनी होती है। हरेक जीव अपना भला चाहता है, पर प्रभु वह काम कर देता है जो मेरे आपके चिक्त में भी नहीं होता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन की मति तिआगहु हरि जन एहा बात कठैनी ॥ अनदिनु हरि हरि नामु धिआवहु गुर सतिगुर की मति लैनी ॥३॥

मूलम्

मन की मति तिआगहु हरि जन एहा बात कठैनी ॥ अनदिनु हरि हरि नामु धिआवहु गुर सतिगुर की मति लैनी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिआगहु = छोड़ो। हरि जन = हे हरि के जनो! कठैनी = कठिन, मुश्किल। अनुदिनु = हर रोज। लैनी = ले के।3।
अर्थ: हे संतजनो! अपने मन की मर्जी (पर चलना) छोड़ दो (गुरु के हुक्म में चलो), पर ये बात है बहुत मुश्किल। (फिर भी) गुरु पातशाह की मति ले के हर वक्त परमात्मा का नाम जपा करो।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति सुमति तेरै वसि सुआमी हम जंत तू पुरखु जंतैनी ॥ जन नानक के प्रभ करते सुआमी जिउ भावै तिवै बुलैनी ॥४॥५॥

मूलम्

मति सुमति तेरै वसि सुआमी हम जंत तू पुरखु जंतैनी ॥ जन नानक के प्रभ करते सुआमी जिउ भावै तिवै बुलैनी ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुमति = अच्छी अक्ल। वसि = वश में। सुआमी = हे स्वामी! हे मालिक! जंत = बाजे। पुरखु = सवै व्यापक मालिक। जंतैनी = बाजे बजाने वाला। करते = हे कर्तार! जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। बुलैनी = (तू) बुलाता है।4।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! अच्छी-बुरी मति तेरे अपने वश में है (तेरी प्रेरणा के अनुसार ही कोई जीव भले राह पर चलता है और कोई बुरे राह पर), हम तो तेरे बाजे (साज) हैं, तू हमें बजाने वाला सबमें बसने वाला प्रभु है। हे दास नानक के मालिक प्रभु कर्तार! जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू हमें बुलाता है (हमारे मुँह से बोल निकलवाता है)।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ अनद मूलु धिआइओ पुरखोतमु अनदिनु अनद अनंदे ॥ धरम राइ की काणि चुकाई सभि चूके जम के छंदे ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ अनद मूलु धिआइओ पुरखोतमु अनदिनु अनद अनंदे ॥ धरम राइ की काणि चुकाई सभि चूके जम के छंदे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनद मूल = आनंद का श्रोत। पुरखोतमु = उत्तम पुरख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। अनंदे = आनंद में ही। काणि = अधीनता, धौंस, डर। सभि = सारे। चूके = समाप्त हो गए। छंदे = खुशामदें, मुलाहज़े।1।
अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य ने आनंद के श्रोत उत्तम पुरख प्रभु का नाम स्मरण किया, वह हर वक्त आनंद ही आनंद में लीन रहता है, उसको धर्मराज की मुहताजी नहीं रहती, वह मनुष्य यमराज के भी सारे डर खत्म कर देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन हरि हरि नामु गुोबिंदे ॥ वडभागी गुरु सतिगुरु पाइआ गुण गाए परमानंदे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन हरि हरि नामु गुोबिंदे ॥ वडभागी गुरु सतिगुरु पाइआ गुण गाए परमानंदे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! परमानंदे = सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु के।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोबिंदे’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘गोबिंदे’, यहाँ ‘गुबिंदे’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे (मेरे) मन! हरि गोबिंद का नाम सदा जपा कर। जिस अति भाग्यशाली मनुष्य को गुरु मिल गया, वह सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु के गुण गाता है (सो, हे मन! गुरु की शरण पड़)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत मूड़ माइआ के बधिक विचि माइआ फिरहि फिरंदे ॥ त्रिसना जलत किरत के बाधे जिउ तेली बलद भवंदे ॥२॥

मूलम्

साकत मूड़ माइआ के बधिक विचि माइआ फिरहि फिरंदे ॥ त्रिसना जलत किरत के बाधे जिउ तेली बलद भवंदे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए। मूढ़ = मूर्ख। बधिक = बँधे हुए। फिरहि = फिरते हैं। त्रिसना = लालच (की आग)। किरत = पिछले किए कर्म। के = के।2।
अर्थ: हे मन! परमात्मा से टूटे हुए मूर्ख मनुष्य माया (के मोह) में बँधे रहते हैं, और माया की खातिर ही सदा भटकते रहते हैं। अपने किए कर्मों के संस्कारों में बँधे हुए वह मनुष्य तृष्णा (की आग) में जलते रहते हैं और (जनम-मरण के चक्कर में) भटकते रहते हैं जैसे तेलियों के बैल कोहलू के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सेव लगे से उधरे वडभागी सेव करंदे ॥ जिन हरि जपिआ तिन फलु पाइआ सभि तूटे माइआ फंदे ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि सेव लगे से उधरे वडभागी सेव करंदे ॥ जिन हरि जपिआ तिन फलु पाइआ सभि तूटे माइआ फंदे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। से = वह लोग (बहुवचन)। उधरे = (तृष्णा की आग में जलने से) बच जाते हैं। सेव = सेवा भक्ति। सभि फंदे = सारी फाहियाँ।3।
अर्थ: हे मन! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर प्रभु की सेवा-भक्ति में लग गए, वे (तृष्णा की आग में जलने से) बच गए। (पर, हे मन!) बहुत भाग्यशाली मनुष्य ही सेवा-भक्ति करते हैं। जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम जपा, उन्होंने (तृष्णा अग्नि में जलने से बचने का) फल प्राप्त कर लिया। उनकी माया की सारी ही बँदिशें टूट जाती हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे ठाकुरु आपे सेवकु सभु आपे आपि गोविंदे ॥ जन नानक आपे आपि सभु वरतै जिउ राखै तिवै रहंदे ॥४॥६॥

मूलम्

आपे ठाकुरु आपे सेवकु सभु आपे आपि गोविंदे ॥ जन नानक आपे आपि सभु वरतै जिउ राखै तिवै रहंदे ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है।4।
अर्थ: (पर हे मन!) प्रभु स्वयं ही (जीवों का) मालिक है (सब में व्यापक हो के) खुद ही (अपनी) सेवा-भक्ति करने वाला है, हर जगह गोबिंद-रूप खुद ही खुद मौजूद है। हे दास नानक! हर जगह प्रभु स्वयं ही स्वयं बस रहा है। जैसे वह (जीवों को) रखता है उसी तरह ही जीव जीवन निर्वाह करते हैं (कोई उसका स्मरण करते हैं, कोई माया में भटकते हैं)।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बिलावलु महला ४ पड़ताल घरु १३ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बिलावलु महला ४ पड़ताल घरु १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलहु भईआ राम नामु पतित पावनो ॥ हरि संत भगत तारनो ॥ हरि भरिपुरे रहिआ ॥ जलि थले राम नामु ॥ नित गाईऐ हरि दूख बिसारनो ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बोलहु भईआ राम नामु पतित पावनो ॥ हरि संत भगत तारनो ॥ हरि भरिपुरे रहिआ ॥ जलि थले राम नामु ॥ नित गाईऐ हरि दूख बिसारनो ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पड़ताल = (पटहताल। पटह = ढोल) उस तरह की भरवीं ताल जैसे ढोल पर डगे से चोट मारी जाती है। भईआ = हे भाई! पतित = विकारों में गिरे हुए, विकारी। पावनो = पवित्र करने वाला। तारनो = पार लंघाने वाला। भरिपूरे = भरपूर, नाको नाक, हर जगह मौजूद। जलि = जल में। थले = थल में। दूख बिसारनो = दुखों को दूर करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, जो विकारियों को पवित्र बनाने वाला है, जो अपने संतों को अपने भक्तों को (संसार-समुंदर से) पार लंघाने वाला है, जो (सारे जगत में) हर जगह मौजूद है। हे भाई! उस हरि की महिमा के गीत सदा गाने चाहिए, जो पानी में है, जो धरती में है, जो (जीवों के) सारे दुख दूर करने वाला है।1। रहाउ।

[[0801]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कीआ है सफल जनमु हमारा ॥ हरि जपिआ हरि दूख बिसारनहारा ॥ गुरु भेटिआ है मुकति दाता ॥ हरि कीई हमारी सफल जाता ॥ मिलि संगती गुन गावनो ॥१॥

मूलम्

हरि कीआ है सफल जनमु हमारा ॥ हरि जपिआ हरि दूख बिसारनहारा ॥ गुरु भेटिआ है मुकति दाता ॥ हरि कीई हमारी सफल जाता ॥ मिलि संगती गुन गावनो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफल = कामयाब। भेटिआ = मिला। मुकति दाता = (विकारों से) आजादी देने वाला। कीई = की है। जाता = यात्रा, संसार यात्रा, संसार में आना। मिलि = मिल के।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा ने मेरी जिंदगी कामयाब बना दी है, (क्योंकि गुरु की कृपा से) मैं उस परमात्मा का नाम जपने लग पड़ा हूँ, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है। (हे भाई!) विकारों से खलासी दिलाने वाला गुरु मुझे मिल गया, (इसलिए) परमात्मा ने मेरी जीवन-यात्रा कामयाब कर दी है। (अब) मैं साधु-संगत में मिल के प्रभु की महिमा के गीत गाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन राम नाम करि आसा ॥ भाउ दूजा बिनसि बिनासा ॥ विचि आसा होइ निरासी ॥ सो जनु मिलिआ हरि पासी ॥ कोई राम नाम गुन गावनो ॥ जनु नानकु तिसु पगि लावनो ॥२॥१॥७॥४॥६॥७॥१७॥

मूलम्

मन राम नाम करि आसा ॥ भाउ दूजा बिनसि बिनासा ॥ विचि आसा होइ निरासी ॥ सो जनु मिलिआ हरि पासी ॥ कोई राम नाम गुन गावनो ॥ जनु नानकु तिसु पगि लावनो ॥२॥१॥७॥४॥६॥७॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! भाउ = प्यार। भाउ दूजा = माया का मोह। सो जनु = वह मनुष्य। पासी = पास, नजदीक। तिसु पगि = उस (मनुष्य) के पैर में।2।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम के ऊपर ही डोरी रख, परमात्मा का नाम माया के मोह को पूर्ण तौर पर (अंदर से) खत्म कर देता है। (हे भाई!) जो मनुष्य दुनिया के काम-काज में रहता हुआ माया के मोह से निर्लिप रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में मिला रहता है। (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, दास नानक उसके पैर लगता है।2।1।7।4।6।7।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदरी आवै तिसु सिउ मोहु ॥ किउ मिलीऐ प्रभ अबिनासी तोहि ॥ करि किरपा मोहि मारगि पावहु ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु ॥१॥

मूलम्

नदरी आवै तिसु सिउ मोहु ॥ किउ मिलीऐ प्रभ अबिनासी तोहि ॥ करि किरपा मोहि मारगि पावहु ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नदरी आवै = (जो कुछ आँखों से) दिख रहा है। सिउ = साथ। प्रभ = हे प्रभु! तोहि = तुझे। करि = कर के। मोहि = मुझे। मारगि = (सही जीवन) राह पर। कै अंचलि = के पल्ले से।1।
अर्थ: हे सदा-स्थिर रहने वाले! जो कुछ आँखों से दिख रहा है, मेरा उससे सदा मोह बना रहता है (पर तू इन आँखों से दिखता नहीं) तुझे मैं किस तरह मिलूँ? (हे प्रभु!) कृपा करके मुझे (जीवन के सही) रास्ते पर चला, मुझे साधु-संगत के पल्ले से लगे दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किउ तरीऐ बिखिआ संसारु ॥ सतिगुरु बोहिथु पावै पारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किउ तरीऐ बिखिआ संसारु ॥ सतिगुरु बोहिथु पावै पारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ = कैसे? बिखिआ = माया। बोहिथु = जहाज। पावै पारि = पार लंघा देता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) ये संसार माया (के मोह की लहरों से भरपूर) है (इसमें से) कैसे पार लांघा जाए? (उक्तर-) गुरु जहाज़ है (गुरु इस समुंदर में से) पार लंघाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवन झुलारे माइआ देइ ॥ हरि के भगत सदा थिरु सेइ ॥ हरख सोग ते रहहि निरारा ॥ सिर ऊपरि आपि गुरू रखवारा ॥२॥

मूलम्

पवन झुलारे माइआ देइ ॥ हरि के भगत सदा थिरु सेइ ॥ हरख सोग ते रहहि निरारा ॥ सिर ऊपरि आपि गुरू रखवारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पवनु = हवा। झुलारे = झकोले। देइ = देती है। थिरु = अडोल। सोइ = वही (लोग)। हरख = खुशी। सोग = ग़म। ते = से। निराला = निराले, निर्लिप।2।
अर्थ: (हे भाई!) हवा (की तरह) माया (जीवों को) हिलोरे देती रहती है, (इन हिलौरों के सामने सिर्फ) वही लोग अडोल रहते हैं जो सदा प्रभु की भक्ति करते हैं। जिस मनुष्यों के सिर पर गुरु स्वयं रखवाली करने वाला है, वह मनुष्य खुशी-ग़मी (के हिलौरों) से अलग (निर्लिप) रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाइआ वेड़ु माइआ सरब भुइअंगा ॥ हउमै पचे दीपक देखि पतंगा ॥ सगल सीगार करे नही पावै ॥ जा होइ क्रिपालु ता गुरू मिलावै ॥३॥

मूलम्

पाइआ वेड़ु माइआ सरब भुइअंगा ॥ हउमै पचे दीपक देखि पतंगा ॥ सगल सीगार करे नही पावै ॥ जा होइ क्रिपालु ता गुरू मिलावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेड़ु = वलेवां, चारों तरफ उलझा हुआ घेरा बना होना। भुइअंगा = साँप। पचे = जले हुए। दीपक = दीए। देखि = देख के। सगल = सारे।3।
अर्थ: (हे भाई!) साँप (की तरह) माया ने सारे जीवों के चारों तरफ घेरा डाला हुआ है। जीव अहंकार (की आग) में जले हुए हैं जैसे दीयों को देख के पतंगे जलते हैं। (माया-ग्रसित जीव चाहे बाहर के भेस आदि के) सारे श्रृंगार करता रहे, (फिर भी वह) परमात्मा को मिल नहीं सकता। जब परमात्मा स्वयं (जीव पर) दयावान होता है, तो (उसको) गुरु मिलाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ फिरउ उदासी मै इकु रतनु दसाइआ ॥ निरमोलकु हीरा मिलै न उपाइआ ॥ हरि का मंदरु तिसु महि लालु ॥ गुरि खोलिआ पड़दा देखि भई निहालु ॥४॥

मूलम्

हउ फिरउ उदासी मै इकु रतनु दसाइआ ॥ निरमोलकु हीरा मिलै न उपाइआ ॥ हरि का मंदरु तिसु महि लालु ॥ गुरि खोलिआ पड़दा देखि भई निहालु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फिरउ = मैं फिरती हूँ। दसाइआ = पूछा। उपाइआ = उपायों से। हरि का मंदरु = मानव शरीर। गुरि = गुरु ने। निहालु = प्रसंन।4।
अर्थ: (हे भाई!) मैं (भी) नाम-रत्न को तलाशती-तलाशती (बाहर) उदास फिर रही थी, पर वह नाम हीरा अमूल्य है वह (बाहरी भेख आदि) उपायों से नहीं मिलता। (ये शरीर भी) परमात्मा के रहने का घर है, इस (शरीर) में वह लाल बस रहा है। जब गुरु ने (मेरे अंदर से भ्रम-भुलेखे का) परदा खोल दिया, मैं (उस लाल को अपने अंदर ही) देख के पूरी तरह से खिल उठी।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि चाखिआ तिसु आइआ सादु ॥ जिउ गूंगा मन महि बिसमादु ॥ आनद रूपु सभु नदरी आइआ ॥ जन नानक हरि गुण आखि समाइआ ॥५॥१॥

मूलम्

जिनि चाखिआ तिसु आइआ सादु ॥ जिउ गूंगा मन महि बिसमादु ॥ आनद रूपु सभु नदरी आइआ ॥ जन नानक हरि गुण आखि समाइआ ॥५॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

चउपदे = चार बंदों वाले शब्द। पर ये पहला शब्द ‘पंचपदा’ है। इससे आगे 17 शब्द चउपदे हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। सादु = स्वाद। बिसमादु = हैरान, बहुत खुश। आनद रूपु = आनंद का स्वरूप प्रभु। सभु = हर जगह। आखि = कह के, गा के। समाइआ = लीन हो गया।5।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने (नाम-रस) चखा है, उसको (ही) स्वाद आया है। (पर वह यह स्वाद बता नहीं सकता) जैसे गूँगा (कोई स्वादिष्ट पदार्थ खा के और लोगों को बता नहीं सकता वैसे अपने) मन में बहुत गद-गद हो जाता है। हे दास नानक! जो मनुष्य प्रभु के गुण गा-गा के (प्रभु में) लीन रहता है उसको वह आनंद का श्रोत हर जगह बसता दिखता है।5।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सरब कलिआण कीए गुरदेव ॥ सेवकु अपनी लाइओ सेव ॥ बिघनु न लागै जपि अलख अभेव ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सरब कलिआण कीए गुरदेव ॥ सेवकु अपनी लाइओ सेव ॥ बिघनु न लागै जपि अलख अभेव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब कलिआण = सारे सुख। कीए = बना दिए। सेव = सेवा भक्ति में। बिघनु = विकारों की रुकावट। जपि = जप के। अलख = अदृष्य। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस सेवक को प्रभु अपनी सेवा-भक्ति में लगाता है, गुरु उसको सारे सुख दे देता है। अलख और अभेव परमात्मा का नाम जप के (उस मनुष्य की जिंदगी के रास्ते में विकारों की कोई) रुकावट नहीं पड़ती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरति पुनीत भई गुन गाए ॥ दुरतु गइआ हरि नामु धिआए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

धरति पुनीत भई गुन गाए ॥ दुरतु गइआ हरि नामु धिआए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुनीत = पवित्र। धरति = हृदय धरती। दुरतु = पाप।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य) परमात्मा के गुण गाता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है। जो भी मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है (उसके हृदय में से) पाप दूर हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभनी थांई रविआ आपि ॥ आदि जुगादि जा का वड परतापु ॥ गुर परसादि न होइ संतापु ॥२॥

मूलम्

सभनी थांई रविआ आपि ॥ आदि जुगादि जा का वड परतापु ॥ गुर परसादि न होइ संतापु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रविआ = व्यापक। आदि = शुरू से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। परसादि = कृपा से। संतापु = दुख-कष्ट।2।
अर्थ: (जिस मनुष्य को प्रभु अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है, उसको) वह प्रभु ही हर जगह मौजूद दिखता है। जिसका तेज-प्रताप शुरू से जुगों के आरम्भ से बहुत ज्यादा चला आ रहा है। गुरु की कृपा से उस मनुष्य को कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर के चरन लगे मनि मीठे ॥ निरबिघन होइ सभ थांई वूठे ॥ सभि सुख पाए सतिगुर तूठे ॥३॥

मूलम्

गुर के चरन लगे मनि मीठे ॥ निरबिघन होइ सभ थांई वूठे ॥ सभि सुख पाए सतिगुर तूठे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। होइ = हो के। सभ थांई = हर जगह (जहाँ भी वह रहता है)। वूठे = बसता है। सभि = सारे। तूठे = प्रसन्न होने पर।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु के (सोहणे) चरण (अपने) मन में प्यारे लगते हैं, वह जहाँ भी बसता है हर जगह (विकारों की) रुकावट से बचा रहता है। उस मनुष्य पर गुरु दयावान होता है, और, वह सारे सुख प्राप्त कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम प्रभ भए रखवाले ॥ जिथै किथै दीसहि नाले ॥ नानक दास खसमि प्रतिपाले ॥४॥२॥

मूलम्

पारब्रहम प्रभ भए रखवाले ॥ जिथै किथै दीसहि नाले ॥ नानक दास खसमि प्रतिपाले ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिथै किथै = हर जगह। दीसहि = दिखते हैं। नाले = अंग संग। खसमि = पति ने। प्रतिपाले = रक्षा की है।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भूतकाल का अर्थ वर्तमान काल में करना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! पति-प्रभु ने सदा ही अपने दासों की रक्षा की है, प्रभु-पारब्रहम जी सदा अपने सेवकों के रखवाले बनते हैं। सेवकों को प्रभु जी हर जगह अपने अंग-संग दिखते हैं।4।2।

[[0802]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सुख निधान प्रीतम प्रभ मेरे ॥ अगनत गुण ठाकुर प्रभ तेरे ॥ मोहि अनाथ तुमरी सरणाई ॥ करि किरपा हरि चरन धिआई ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सुख निधान प्रीतम प्रभ मेरे ॥ अगनत गुण ठाकुर प्रभ तेरे ॥ मोहि अनाथ तुमरी सरणाई ॥ करि किरपा हरि चरन धिआई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख निधान = हे सुखों के खजाने प्रभु! अगनत = अ+गनत, जो गिने ना जा सकें। मोहि = मैं। धिआई = मैं ध्याऊँ।1।
अर्थ: हे सुखों के खजाने प्रभु! हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे ठाकुर प्रभु! तेरे गुण गिने नहीं जा सकते। मैं अनाथ तेरी शरण आया हूँ। हे हरि! मेरे पर मेहर कर, मैं तेरे चरणों का ध्यान धरता रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दइआ करहु बसहु मनि आइ ॥ मोहि निरगुन लीजै लड़ि लाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

दइआ करहु बसहु मनि आइ ॥ मोहि निरगुन लीजै लड़ि लाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। आइ = आ के। मोहि = मुझे। निरगुन = गुण हीन। लाइ लीजै = लगा लो। लड़ि = पल्ले से। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (मुझ पर) मेहर कर, मेरे मन में आ बस। मुझ गुण-हीन को अपने लड़ लगा लो। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु चिति आवै ता कैसी भीड़ ॥ हरि सेवक नाही जम पीड़ ॥ सरब दूख हरि सिमरत नसे ॥ जा कै संगि सदा प्रभु बसै ॥२॥

मूलम्

प्रभु चिति आवै ता कैसी भीड़ ॥ हरि सेवक नाही जम पीड़ ॥ सरब दूख हरि सिमरत नसे ॥ जा कै संगि सदा प्रभु बसै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। भीड़ = बिपता। सरब = सारे। सिमरत = स्मरण करते हुए। जा कै संगि = जिसके साथ।2।
अर्थ: हे भाई! जब प्रभु मन में आ बसे, तो कोई भी विपदा छू नहीं सकती। प्रभु की सेवा भक्ति करने वाले मनुष्य को जमों का दुख भी डरा नहीं सकता। जिस मनुष्य के अंग-संग सदा परमात्मा बसता है, नाम स्मरण करने से उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ का नामु मनि तनि आधारु ॥ बिसरत नामु होवत तनु छारु ॥ प्रभ चिति आए पूरन सभ काज ॥ हरि बिसरत सभ का मुहताज ॥३॥

मूलम्

प्रभ का नामु मनि तनि आधारु ॥ बिसरत नामु होवत तनु छारु ॥ प्रभ चिति आए पूरन सभ काज ॥ हरि बिसरत सभ का मुहताज ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनि = तन में। आधारु = आसरा। तनु = शरीर। छारु = राख। काज = काम। मुहताज = मजबूर।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (ही मनुष्य के) मन को शरीर को आसरा (देने वाला) है, परमात्मा का नाम भूलने से शरीर (जैसे) राख (की ढेरी) हो जाता है जिस मनुष्य के मन में प्रभु का नाम आ बसता है, उसके सारे काम सफल हो जाते हैं। परमात्मा का नाम बिसर जाने से मनुष्य जगह-जगह का मुहताज हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल संगि लागी प्रीति ॥ बिसरि गई सभ दुरमति रीति ॥ मन तन अंतरि हरि हरि मंत ॥ नानक भगतन कै घरि सदा अनंद ॥४॥३॥

मूलम्

चरन कमल संगि लागी प्रीति ॥ बिसरि गई सभ दुरमति रीति ॥ मन तन अंतरि हरि हरि मंत ॥ नानक भगतन कै घरि सदा अनंद ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। दुरमति = खोटी मति। रीति = रवईआ। मंत = मंत्र। घरि = हृदय घर में।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरणों से जिस मनुष्य का प्यार बन जाता है, उसे खोटी मति वाला सारा (जीवन-) तौर-तरीका (रवईया) भूल जाता है। हे नानक! प्रभु के भक्तों के हृदय में सदा आनंद बना रहता है, क्योंकि उनके मन में उनके शरीर में परमात्मा का नाम-मंत्र बसता रहता है (जो दुर्मति को नजदीक नहीं फटकने देता)।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ घरु २ यानड़ीए कै घरि गावणा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ घरु २ यानड़ीए कै घरि गावणा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै मनि तेरी टेक मेरे पिआरे मै मनि तेरी टेक ॥ अवर सिआणपा बिरथीआ पिआरे राखन कउ तुम एक ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मै मनि तेरी टेक मेरे पिआरे मै मनि तेरी टेक ॥ अवर सिआणपा बिरथीआ पिआरे राखन कउ तुम एक ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। टेक = आसरा। अवर = और। सिआणपा = चतुराईयां। बिरथीआ = व्यर्थ। राखन कउ = रक्षा करने योग्य। तुम एक = सिर्फ तू ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मेरे मन में (एक) तेरा ही आसरा है। हे प्यारे प्रभु! सिर्फ तू ही (हम जीवों की) रक्षा करने योग्य है। (तुझे भुला के रक्षा के लिए) और-और चतुराईयाँ (सोचनी) किसी भी काम की नहीं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु पूरा जे मिलै पिआरे सो जनु होत निहाला ॥ गुर की सेवा सो करे पिआरे जिस नो होइ दइआला ॥ सफल मूरति गुरदेउ सुआमी सरब कला भरपूरे ॥ नानक गुरु पारब्रहमु परमेसरु सदा सदा हजूरे ॥१॥

मूलम्

सतिगुरु पूरा जे मिलै पिआरे सो जनु होत निहाला ॥ गुर की सेवा सो करे पिआरे जिस नो होइ दइआला ॥ सफल मूरति गुरदेउ सुआमी सरब कला भरपूरे ॥ नानक गुरु पारब्रहमु परमेसरु सदा सदा हजूरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो जनु = वह बंदा। निहाला = आनंद भरपूर। होइ = होता है (प्रभु)। सफल मूरति = वह जिसकी हस्ती मानव जन्म का उद्देश्य पूरा कर सकती है। कला = शक्ति, ताकत। हजूरे = अंग संग।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाए, वह सदा खिला रहता है। पर हे भाई! वही मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है जिस पर (प्रभु खुद) दयावान होता है। हे भाई! गुरु स्वामी मानव जनम का उद्देश्य पूरा करने में समर्थ है (क्योंकि) वह सारी ताकतों का मालिक है। हे नानक! गुरु परमात्मा का रूप है। (अपने सेवकों के) सदा ही अंग-संग रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सुणि जीवा सोइ तिना की जिन्ह अपुना प्रभु जाता ॥ हरि नामु अराधहि नामु वखाणहि हरि नामे ही मनु राता ॥ सेवकु जन की सेवा मागै पूरै करमि कमावा ॥ नानक की बेनंती सुआमी तेरे जन देखणु पावा ॥२॥

मूलम्

सुणि सुणि जीवा सोइ तिना की जिन्ह अपुना प्रभु जाता ॥ हरि नामु अराधहि नामु वखाणहि हरि नामे ही मनु राता ॥ सेवकु जन की सेवा मागै पूरै करमि कमावा ॥ नानक की बेनंती सुआमी तेरे जन देखणु पावा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। जीवा = मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। सोइ = शोभा। जाता = पहचाना, सांझ डाली। अराधहि = जपते हैं। वखाणहि = उचारते हैं। राता = रंगा हुआ। मागै = माँगता है। करमि = मेहर से। कमावा = कमाऊँ, मैं कमा सकता हूँ। देखणु पावा = देख सकूँ।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखते हैं, उनकी शोभा सुन-सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (वे भाग्यशाली मनुष्य सदा) परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, परमात्मा का नाम उचारते हैं, परमात्मा के नाम में ही उनका मन रंगा रहता है। हे प्रभु! (तेरा यह) सेवक (तेरे उन) सेवकों की सेवा (की दाति तेरे पास से) माँगता है, (तेरी) पूर्ण बख्शिश से (ही) मैं (उनकी) सेवा की कार कर सकता हूँ। हे मालिक प्रभु! (तेरे सेवक) नानक की (तेरे दर पर) प्रार्थना है, (-मेहर कर) मैं तेरे सेवकों के दर्शन कर सकूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागी से काढीअहि पिआरे संतसंगति जिना वासो ॥ अम्रित नामु अराधीऐ निरमलु मनै होवै परगासो ॥ जनम मरण दुखु काटीऐ पिआरे चूकै जम की काणे ॥ तिना परापति दरसनु नानक जो प्रभ अपणे भाणे ॥३॥

मूलम्

वडभागी से काढीअहि पिआरे संतसंगति जिना वासो ॥ अम्रित नामु अराधीऐ निरमलु मनै होवै परगासो ॥ जनम मरण दुखु काटीऐ पिआरे चूकै जम की काणे ॥ तिना परापति दरसनु नानक जो प्रभ अपणे भाणे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काढीअहि = कहे जाते हैं। वासो = निवास, बैठने खड़े होने। आराधीऐ = आराधा जा सकता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। मनै = मन में। परगासो = प्रकाश। काटीऐ = काटा जाता है। चूकै = समाप्त हो जाती है। काणे = काण, अधीनता। नानक = हे नानक! भाणे = अच्छे लगते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों का बैठना-उठना सदा गुरमुखों की संगति में है, वे मनुष्य अति भाग्यशाली कहे जा सकते हैं। (गुरमुखों की संगति में ही रह के) आत्मिक जीवन देने वाला पवित्र नाम स्मरण किया जा सकता है, और मन में (उच्च आत्मिक जीवन का) प्रकाश (ज्ञान) पैदा होता है। हे भाई! (गुरमुखों की संगति में ही) सारी उम्र दुख काटा जा सकता है, और यमराज की धौंस भी समाप्त हो जाती है। पर, हे नानक! (गुरमुखों के) दर्शन उन मनुष्यों को ही नसीब होते हैं जो अपने परमात्मा को प्यारे लगते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊच अपार बेअंत सुआमी कउणु जाणै गुण तेरे ॥ गावते उधरहि सुणते उधरहि बिनसहि पाप घनेरे ॥ पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै ॥ नानक दास तेरी सरणाई सदा सदा बलिहारै ॥४॥१॥४॥

मूलम्

ऊच अपार बेअंत सुआमी कउणु जाणै गुण तेरे ॥ गावते उधरहि सुणते उधरहि बिनसहि पाप घनेरे ॥ पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै ॥ नानक दास तेरी सरणाई सदा सदा बलिहारै ॥४॥१॥४॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कै घरि = के घर में। यानड़ीऐ कै घरि = उस शब्द के ‘घर’ में जिसकी पहली तुक इआनड़ीऐ मानड़ा काइ करेहि’। ये शब्द तिलंग राग में गुरु नानक देव जी का है (पंना 722)। पर उसका ‘घर’3 है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपार = हे बेअंत! उधरहि = (विकारों से) बच जाते हैं। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। घनेरे = बहुत। परेत = प्रेत, गुजरे हुए, मानवता से गए गुजरे। मुगध = मूर्ख। तारे = तार देता है, पार लंघा देता है। पाहन = पत्थर (-दिल बंदे)। बलिहारे = कुर्बान।4।
अर्थ: हे सबसे ऊँचे, अपार और बेअंत मालिक प्रभु! कोई भी मनुष्य तेरे (सारे) गुण नहीं जान सकता। जो मनुष्य (तेरे गुण) गाते हैं, वे विकारों से बच निकलते हैं। जो मनुष्य (तेरी तारीफ) सुनते हैं, उनके अनेक पाप नाश हो जाते हैं।
हे भाई! परमात्मा पशु-स्वभाव लोगों को, और महामूर्खों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है, बड़े-बड़े कठोर-चिक्त मनुष्यों को भी पार लंघा देता है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे दास तेरी शरण पड़े रहते हैं और सदा ही तुझ पर से बलिहार जाते हैं।4।1।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह चउपदा घर २ का पहला शब्द है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ बिखै बनु फीका तिआगि री सखीए नामु महा रसु पीओ ॥ बिनु रस चाखे बुडि गई सगली सुखी न होवत जीओ ॥ मानु महतु न सकति ही काई साधा दासी थीओ ॥ नानक से दरि सोभावंते जो प्रभि अपुनै कीओ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ बिखै बनु फीका तिआगि री सखीए नामु महा रसु पीओ ॥ बिनु रस चाखे बुडि गई सगली सुखी न होवत जीओ ॥ मानु महतु न सकति ही काई साधा दासी थीओ ॥ नानक से दरि सोभावंते जो प्रभि अपुनै कीओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बनु = पानी (वनं कानने जले)। बिखै बनु = विषौ विकारों का जल। री सखीए = हे सहेलीए! महा रसु = बड़ा स्वादिष्ट अमृत। बुडि गई = डूब रही है। सगली = सारी (सृष्टि)। जीओ = जीउ, जिंद। मानु = फखर, आसरा। महतु = महत्वता, बड़प्पन। सकति = ताकत, शक्ति। काई = (स्त्रीलिंग) कोई ही। थीओ = हो जा। से = वे लोग (बहुवचन)। दरि = (प्रभु के) दर पर। प्रभि = प्रभु ने। प्रभि अपुनै = अपने प्रभु ने। कीओ = कर लिए।1।
अर्थ: हे सहेलिए! विषौ-विकारों का बे-स्वादा पानी (पीना) छोड़ दे। सदा नाम-अमृत पीया कर, यह बहुत स्वादिष्ट है। (नाम अमृत का) स्वाद ना चखने के कारण, सारी सृष्टि (विषौ-विकारों के पानी में) डूब रही है, (फिर भी) जिंद सुखी नहीं होती। कोई (अन्य) आसरा, कोई महानता, कोई ताकत (नाम-अमृत की प्राप्ति का साधन नहीं बन सकते)। हे सहेलिए! (नाम-जल की प्राप्ति के लिए) गुरमुखों की दासी बनी रह। हे नानक! प्रभु के दर पर वह लोग शोभा वाले होते हैं जिनको प्यारे प्रभु ने स्वयं ही शोभा वाले बनाया है।1।

[[0803]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिचंदउरी चित भ्रमु सखीए म्रिग त्रिसना द्रुम छाइआ ॥ चंचलि संगि न चालती सखीए अंति तजि जावत माइआ ॥ रसि भोगण अति रूप रस माते इन संगि सूखु न पाइआ ॥ धंनि धंनि हरि साध जन सखीए नानक जिनी नामु धिआइआ ॥२॥

मूलम्

हरिचंदउरी चित भ्रमु सखीए म्रिग त्रिसना द्रुम छाइआ ॥ चंचलि संगि न चालती सखीए अंति तजि जावत माइआ ॥ रसि भोगण अति रूप रस माते इन संगि सूखु न पाइआ ॥ धंनि धंनि हरि साध जन सखीए नानक जिनी नामु धिआइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरिचंदउरी = हरीचंद नगरी, हवाई किला। भ्रम = भ्रम, भुलेखा। म्रिग त्रिसना = मृग तृष्णा, ठग नीरा। द्रुम = वृक्ष। छाइआ = छाया। चंचलि = (स्त्रीलिंग) कहीं एक जगह ना टिकने वाली। संगि = से। अंति = आखिर को। रसि = स्वाद से। अति = बहुत। माते = मस्त। इन संगि = इनकी संगति में रहने से। धंनि = भाग्यशाली।2।
अर्थ: हे सहेलिए! यह माया (जैसे) हवाई किला है, मन को भटकना में डालने का साधन है, मृग-तृष्णा है, वृक्ष की छाया है। कभी भी एक जगह ना टिक सकने वाली ये माया किसी के साथ नहीं जाती, ये आखिर में (साथ) छोड़ जाती है। स्वाद से दुनिया के पदार्थ भोगने, दुनियाँ के रूपों और रसों में मस्त रहना- हे सखिए! इनकी संगति में आत्मिक आनंद नहीं मिलता। हे नानक! (कह:) हे सहेलिए! भाग्यशाली हैं परमात्मा के भक्त जिन्होंने सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाइ बसहु वडभागणी सखीए संता संगि समाईऐ ॥ तह दूख न भूख न रोगु बिआपै चरन कमल लिव लाईऐ ॥ तह जनम न मरणु न आवण जाणा निहचलु सरणी पाईऐ ॥ प्रेम बिछोहु न मोहु बिआपै नानक हरि एकु धिआईऐ ॥३॥

मूलम्

जाइ बसहु वडभागणी सखीए संता संगि समाईऐ ॥ तह दूख न भूख न रोगु बिआपै चरन कमल लिव लाईऐ ॥ तह जनम न मरणु न आवण जाणा निहचलु सरणी पाईऐ ॥ प्रेम बिछोहु न मोहु बिआपै नानक हरि एकु धिआईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाइ = जा के। बसहु = बसो, टिको। तह = वहाँ। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। लिव = तवज्जो, ध्यान। बिछोहु = विछोड़ा।3।
अर्थ: हे भाग्यशाली सहेलिए! जा के साधु-संगत में टिका कर। गुरमुखों की ही संगति में सदा टिकना चाहिए। वहाँ टिकने से दुनिया के दुख, माया की तृष्णा, कोई रोग आदिक- ये कोई भी अपना जोर नहीं डाल सकते। (साधु-संगत में जा के) प्रभु के सुंदर चरणों में तवज्जो जोड़नी चाहिए। साधु-संगत में रहने से जनम-मरण का चक्कर नहीं सताता, मन की अडोलता कायम रहती है। सो, प्रभु की शरण में पड़े रहना चाहिए। हे नानक! (साधु-संगत की इनायत से) प्रभु-प्रेम की गैर-मौजूदगी और माया का मोह- ये कोई भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। सत-संगति में सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रिसटि धारि मनु बेधिआ पिआरे रतड़े सहजि सुभाए ॥ सेज सुहावी संगि मिलि प्रीतम अनद मंगल गुण गाए ॥ सखी सहेली राम रंगि राती मन तन इछ पुजाए ॥ नानक अचरजु अचरज सिउ मिलिआ कहणा कछू न जाए ॥४॥२॥५॥

मूलम्

द्रिसटि धारि मनु बेधिआ पिआरे रतड़े सहजि सुभाए ॥ सेज सुहावी संगि मिलि प्रीतम अनद मंगल गुण गाए ॥ सखी सहेली राम रंगि राती मन तन इछ पुजाए ॥ नानक अचरजु अचरज सिउ मिलिआ कहणा कछू न जाए ॥४॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। द्रिसटि = निगाह, नजर। बेधिआ = भेद लिया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्यार में। सेज = हृदय सेज। सुहावी = सुख देने वाली। मिलि = मिल के। गाए = गा के। रंगि = रंग में, प्रेम में। अचरजु = हैरान करने वाली हालत में पहुँचा हुआ जीव।4।
अर्थ: हे प्यारे! (प्रभु)! मेहर की निगाह करके तूने जिनका मन अपने चरणों में परो लिया है, वे आत्मिक अडोलता में, प्रेम में, सदा रंगे रहते हैं। हे प्रीतम! तेरे (चरणों) से मिल के उनका हृदय आनंद-भरपूर हो जाता है, तेरे गुण गा-गा के उनके अंदर आनंद बना रहता है।
हे नानक! जो (सत्संगी) सहेलियाँ प्रभु के प्रेम-रंग में रंगी रहती हैं, प्रभु उनके मन की तन की हरेक इच्छा पूरी करता है, उनकी (ऊँची हो चुकी) जिंद आश्चर्य-रूप प्रभु से इस प्रकार मिल जाती है कि (उस अवस्था का) बयान नहीं किया जा सकता।4।2।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक रूप सगलो पासारा ॥ आपे बनजु आपि बिउहारा ॥१॥

मूलम्

एक रूप सगलो पासारा ॥ आपे बनजु आपि बिउहारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक रूप = एक (परमात्मा के अनेक) रूप। सगलो = सारा। पासारा = जगत खिलारा। आपे = आप ही।1।
अर्थ: हे भाई! ये सारा जगत-पसारा उस एक (परमात्मा के ही अनेक) रूप हैं। (सब जीवों में व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही (जगत का) वणज-व्यवहार कर रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो गिआनु बिरलो ई पाए ॥ जत जत जाईऐ तत द्रिसटाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसो गिआनु बिरलो ई पाए ॥ जत जत जाईऐ तत द्रिसटाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = सूझ। ई = ही। बिरलो ई = कोई विरला मनुष्य ही। जत कत = जहाँ तहाँ। द्रिसटाए = दिखता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जगत में जिस-जिस ओर चले जाएं, हर तरफ़ परमात्मा ही नज़र आता है। पर यह सूझ कोई विरला मनुष्य ही हासिल करता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक रंग निरगुन इक रंगा ॥ आपे जलु आप ही तरंगा ॥२॥

मूलम्

अनिक रंग निरगुन इक रंगा ॥ आपे जलु आप ही तरंगा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुन = जिस पर माया के तीनों गुणों का प्रभाव नहीं पड़ता। तरंगा = लहरें।2।
अर्थ: हे भाई! सदा एक-रंग रहने वाले और माया के तीन गुणों से निर्लिप परमात्मा के ही (जगत में दिखाई दे रहे) अनेक रंग-तमाशे हैं। वह प्रभु स्वयं ही पानी है, और, स्वयं ही (पानी में उठ रही) लहरें हैं (जैसे पानी और पानी की लहरें एक ही रूप हैं, वैसे ही परमात्मा से ही जगत के अनेक रूप-रंग बने हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आप ही मंदरु आपहि सेवा ॥ आप ही पूजारी आप ही देवा ॥३॥

मूलम्

आप ही मंदरु आपहि सेवा ॥ आप ही पूजारी आप ही देवा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आप ही = स्वयं ही। आपहि = आप ही। देवा = देवता।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘आप ही’ में से शब्द ‘आपि’ की ‘पि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही मन्दिर है, खुद ही सेवा-भक्ति है, खुद ही (मन्दिर में) देवता है, और स्वयं ही (देवते का) पुजारी है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपहि जोग आप ही जुगता ॥ नानक के प्रभ सद ही मुकता ॥४॥१॥६॥

मूलम्

आपहि जोग आप ही जुगता ॥ नानक के प्रभ सद ही मुकता ॥४॥१॥६॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ से आगे घरु ४ के चउपदे आरम्भ होते हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोग = जोगी। जुगता = जोग की जुगति, जोग के साधन। मुकता = निर्लिप।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही जोगी है, स्वयं ही जोग का साधन है। (सब जीवों में व्यापक होता हुआ भी) नानक का परमात्मा सदा ही निर्लिप है।4।1।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक1 बताता है कि घरु ४ का यह पहला चउपदा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ आपि उपावन आपि सधरना ॥ आपि करावन दोसु न लैना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ आपि उपावन आपि सधरना ॥ आपि करावन दोसु न लैना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपावन = पैदा करने (वाला)। सधरना = (धन = आसरा) आसरा देने वाला। करावन = (जीवों से काम) करवाने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, और स्वयं ही (सबको) सहारा देने वाला है। (सबमें व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही (सब जीवों से) काम करवाने वाला है, पर प्रभु (इन कामों का) दोष अपने ऊपर नहीं लेता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपन बचनु आप ही करना ॥ आपन बिभउ आप ही जरना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आपन बचनु आप ही करना ॥ आपन बिभउ आप ही जरना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बचनु = हुक्म। बिभउ = प्रताप, ऐश्वर्य। जरना = बर्दाश्त करना, (दुख) सहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (हरेक जीव में व्यापक हो के) अपने बोल (प्रभु स्वयं ही बोल रहा है, और) खुद ही (उस बोल के अनुसार) काम कर रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आप ही मसटि आप ही बुलना ॥ आप ही अछलु न जाई छलना ॥२॥

मूलम्

आप ही मसटि आप ही बुलना ॥ आप ही अछलु न जाई छलना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसटि = चुप। बुलना = बोलता। बुलना = बोलता, बोलने वाला।2।
अर्थ: (हरेक में मौजूद है। यदि कोई मौनधारी बैठा है, तो उस में) प्रभु खुद ही मौनधारी है, (अगर कोई बोल रहा है, तो उसमें) प्रभु स्वयं ही बोल रहा है। प्रभु स्वयं ही (किसी में बैठा) माया के प्रभाव से परे है, माया उसे छल नहीं सकती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आप ही गुपत आपि परगटना ॥ आप ही घटि घटि आपि अलिपना ॥३॥

मूलम्

आप ही गुपत आपि परगटना ॥ आप ही घटि घटि आपि अलिपना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घर में। अलिपना = निर्लिप।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (सब जीवों में) छुपा बैठा है, और, (जगत-रचना के रूप में) स्वयं ही प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। प्रभु स्वयं ही हरेक शरीर में बस रहा है, (हरेक में बसता हुआ) प्रभु स्वयं ही निर्लिप है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे अविगतु आप संगि रचना ॥ कहु नानक प्रभ के सभि जचना ॥४॥२॥७॥

मूलम्

आपे अविगतु आप संगि रचना ॥ कहु नानक प्रभ के सभि जचना ॥४॥२॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। अविगतु = अव्यक्त, अदृष्ट। संगि = साथ। रचना = श्रृष्टि। सभि = सारे। जचना = करिश्मे, चोज।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही अदृष्ट है, खुद ही (अपनी रची हुई) सृष्टि के साथ मिला हुआ है। हे नानक! कह: (जगत में दिखाई दे रहे ये) सारे करिश्मे प्रभु के अपने ही हैं।4।2।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ भूले मारगु जिनहि बताइआ ॥ ऐसा गुरु वडभागी पाइआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ भूले मारगु जिनहि बताइआ ॥ ऐसा गुरु वडभागी पाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूले = (जीवन के सही मार्ग से) भूलते जा रहे को। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। जिनहि = जिनि ही, जिस (गुरु) ने। वड भागी = बड़े भाग्यों से।1।
अर्थ: (हे मन!) ऐसा गुरु बड़े भाग्यों से ही मिलता है, जो (जीवन के सही रास्ते से) विचलित होते जा रहे मनुष्य को (जिंदगी का सही) रास्ता बता देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि मना राम नामु चितारे ॥ बसि रहे हिरदै गुर चरन पिआरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सिमरि मना राम नामु चितारे ॥ बसि रहे हिरदै गुर चरन पिआरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मना = हे मन! चितारे = चितार के, ध्यान जोड़ के। हिरदै = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! ध्यान जोड़ के परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (पर वही मनुष्य हरि नाम का स्मरण करता है, जिसके) हृदय में प्यारे सतिगुरु के चरन बसे रहते हैं (इसलिए, हे मन! तू भी गुरु का आसरा ले)।1। रहाउ।

[[0804]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामि क्रोधि लोभि मोहि मनु लीना ॥ बंधन काटि मुकति गुरि कीना ॥२॥

मूलम्

कामि क्रोधि लोभि मोहि मनु लीना ॥ बंधन काटि मुकति गुरि कीना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। लीना = फसा हुआ। काटि = काट के। गुरि = गुरु ने। मुकति = मुक्ति।2।
अर्थ: (हे मन! देख, मनुष्य का) मन (सदा) काम में, क्रोध में लोभ में फंसा रहता है। (पर जब वह गुरु की शरण आया), गुरु ने (उसके ये सारे) बंधन काट के उसको (इन विकारों से) खलासी दे दी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुख सुख करत जनमि फुनि मूआ ॥ चरन कमल गुरि आस्रमु दीआ ॥३॥

मूलम्

दुख सुख करत जनमि फुनि मूआ ॥ चरन कमल गुरि आस्रमु दीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करत = करते हुए। जनमि = जनम में (आ के), पैदा हो के। फुनि = दोबारा। गुरि = गुरु ने। आस्रमु = आश्रम, सहारा, ठिकाना।3।
अर्थ: हे मन! दुख-सुख करते हुए मनुष्य कभी मरता है कभी जी उठता है (दुख के आने पर सहम जाता है, सुख मिलने पर आराम की साँस लेने लग जाता है। इस प्रकार डुबकियाँ लेते हुए जब मनुष्य गुरु की शरण आया) गुरु ने उसको सुंदर चरणों का आसरा दे दिया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगनि सागर बूडत संसारा ॥ नानक बाह पकरि सतिगुरि निसतारा ॥४॥३॥८॥

मूलम्

अगनि सागर बूडत संसारा ॥ नानक बाह पकरि सतिगुरि निसतारा ॥४॥३॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगनि सागर = (तृष्णा की) आग का समुंदर। बूडत = डूब रहा है। पकरि = पकड़ के। सतिगुरि = सतिगुरु ने। निसतारा = पार लंघा दिया।4।
अर्थ: हे नानक! जगत तृष्णा की आग के समुंदर में डूब रहा है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा) गुरु ने (उसकी) बाँह पकड़ के (उसे संसार-समुंदर में से) पार लंघा दिया।4।3।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ तनु मनु धनु अरपउ सभु अपना ॥ कवन सु मति जितु हरि हरि जपना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ तनु मनु धनु अरपउ सभु अपना ॥ कवन सु मति जितु हरि हरि जपना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरपउ = अर्पित, मैं भेटा करता हूँ, मैं भेटा करने को तैयार हूँ। कवन = कौन सी? सुमति = अच्छी मति। जितु = जिस के द्वारा।1।
अर्थ: हे भाई! वह कौन सी अच्छी शिक्षा है जिसकी इनायत से परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है? (यदि कोई गुरमुख मुझे वह सुमति दे दे, तो) मैं अपना शरीर अपना मन अपना धन सब कुछ भेटा करने को तैयार हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि आसा आइओ प्रभ मागनि ॥ तुम्ह पेखत सोभा मेरै आगनि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करि आसा आइओ प्रभ मागनि ॥ तुम्ह पेखत सोभा मेरै आगनि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के, धारण करके। प्रभ = हे प्रभु! मागनि = माँगने के लिए। तुम्ह पेखत = तेरा दर्शन करते हुए। सोभा = रौनक, उत्साह। मेरै आगनि = मेरे (हृदय-) आँगन में।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तुम् पेखत’ में अक्षर ‘म्’ के साथ आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! आशा धारण करके मैं (तेरे दर पर तेरे नाम की दाति) माँगने आया हूँ। तेरा दर्शन करने से मेरे (हृदय-) आँगन में उत्साह पैदा हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक जुगति करि बहुतु बीचारउ ॥ साधसंगि इसु मनहि उधारउ ॥२॥

मूलम्

अनिक जुगति करि बहुतु बीचारउ ॥ साधसंगि इसु मनहि उधारउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुगति = डंग। बीचारउ = मैं विचारता हूँ। संगि = संग में। मनहि = मन को! उधारउ = उद्धार सकता हूँ, मैं बचा सकता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! मैं अनेक ढंग (अपने सामने) रख के बड़ा विचारता हूँ (कि कैसे इसे विकारों से बचाया जाए। अंत में यही समझ आता है कि) गुरमुखों की संगति में (ही) इस मन को (विकारों से) बचा सकता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति बुधि सुरति नाही चतुराई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥३॥

मूलम्

मति बुधि सुरति नाही चतुराई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता = तब ही। जा = जब। लए मिलाई = मिला लिए।3।
अर्थ: हे भाई! किसी मति, किसी अक्ल, किसी ध्यान, किसी भी चतुराई से परमात्मा नहीं मिल सकता। जब वह प्रभु खुद ही जीव को मिलाता है तब ही उसे मिला जा सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैन संतोखे प्रभ दरसनु पाइआ ॥ कहु नानक सफलु सो आइआ ॥४॥४॥९॥

मूलम्

नैन संतोखे प्रभ दरसनु पाइआ ॥ कहु नानक सफलु सो आइआ ॥४॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैन = आँखें। संतोखे = तृप्त हो गए। सो = वह मनुष्य।4।
अर्थ: हे नानक! कह: उस मनुष्य का जगत में आना मुबारक है, जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, और (दर्शन की इनायत से) जिसकी आँखें (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गई हैं।4।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मात पिता सुत साथि न माइआ ॥ साधसंगि सभु दूखु मिटाइआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मात पिता सुत साथि न माइआ ॥ साधसंगि सभु दूखु मिटाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। साध संगि = गुरमुखों की संगति। सभु = सारा।1।
अर्थ: हे भाई! माता, पिता, पुत्र, माया- (इनमें से कोई भी जीव का सदा के लिए) साथी नहीं बन सकता, (दुख घटित होने पर भी सहायक नहीं बन सकता)। गुरु की संगति में टिकने से सारा दुख-कष्ट दूर किया जा सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रवि रहिआ प्रभु सभ महि आपे ॥ हरि जपु रसना दुखु न विआपे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रवि रहिआ प्रभु सभ महि आपे ॥ हरि जपु रसना दुखु न विआपे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवि रहिआ = मौजूद है। आपे = खुद ही। रसना = जीभ (से)। न विआपे = जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जो) परमात्मा स्वयं ही सब जीवों में व्यापक है उस (के नाम) का जाप जीभ से करता रह (इस तरह) कोई दुख जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिखा भूख बहु तपति विआपिआ ॥ सीतल भए हरि हरि जसु जापिआ ॥२॥

मूलम्

तिखा भूख बहु तपति विआपिआ ॥ सीतल भए हरि हरि जसु जापिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिखा = माया की प्यास। तपति = तपश, जलन, खिझ। विआपिआ = फसा हुआ।2।
अर्थ: हे भाई! जगत माया की तृष्णा, माया की भूख और तपश में फँसा हुआ है। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करते हैं, (उनके हृदय) शीतलता से भर जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि जतन संतोखु न पाइआ ॥ मनु त्रिपताना हरि गुण गाइआ ॥३॥

मूलम्

कोटि जतन संतोखु न पाइआ ॥ मनु त्रिपताना हरि गुण गाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। त्रिपताना = तृप्त हो जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! करोड़ों यत्न करने से भी (माया की तृष्णा) से संतुष्टि नहीं पाई जा सकती। प्रभु की महिमा करने से मन तृप्त हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहु भगति प्रभ अंतरजामी ॥ नानक की बेनंती सुआमी ॥४॥५॥१०॥

मूलम्

देहु भगति प्रभ अंतरजामी ॥ नानक की बेनंती सुआमी ॥४॥५॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सुआमी = हे मालिक!।4।
अर्थ: हे हरेक के दिल की जानने वाले प्रभु! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पे) विनती है कि अपनी भक्ति का दान दे।4।5।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा वडभागी पाईऐ ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआईऐ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा वडभागी पाईऐ ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडभागी = बड़ी किस्मत से। मिलि = मिल के। साधू = गुरु (को)।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़े बिना) और सारे कर्म सिर्फ दिखावा ही हैं। गुरु की संगति में मिल के (ही) संसार-समुंदर से पार-उतारा होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम प्रभ तेरी सरना ॥ किलबिख काटै भजु गुर के चरना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पारब्रहम प्रभ तेरी सरना ॥ किलबिख काटै भजु गुर के चरना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! किलबिख = पाप। भजु = आसरा ले।1। रहाउ।
अर्थ: हे पारब्रहम प्रभु! (मैं) तेरी शरण आया हूँ (मुझे गुरु मिला)। हे भाई! गुरु के चरणों को अपने हृदय में बसा ले, गुरु सारे पाप काट देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरि करम सभि लोकाचार ॥ मिलि साधू संगि होइ उधार ॥२॥

मूलम्

अवरि करम सभि लोकाचार ॥ मिलि साधू संगि होइ उधार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवरि = और (सारे)। सभि = सारे। लोकाचार = लोक आचार, जगत का रिवाज पूरा करने वाले। संगि = साथ में, संगत में। उधार = पार उतारा।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण के बिना) और सारे कर्म निरे दिखावा ही हैं। गुरु की सँगति में मिल के (ही) संसार-समुँद्र से पार-उतारा होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ जपीऐ नामु जितु पारि उतारे ॥३॥

मूलम्

सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ जपीऐ नामु जितु पारि उतारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिंम्रिति = इनकी गिनती 27 के करीब है। वेद आदि के वाक्यों को याद करके हिन्दू-समाज की अगुवाई के लिए लिखे हुए धार्मिक ग्रंथ। सासत = शास्त्र, हिन्दू दर्शन के ग्रंथ: सांख, पतंजलि या योग, न्याय, वैशैषिक, मीसांसा, वेदांत। जितु = जिसके द्वारा।3।
अर्थ: हे भाई! सारे शास्त्र, स्मृतियाँ और वेद विचार करके देख लिए हैं। (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए, इस हरि के नाम द्वारा ही गुरु पार लंघाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन नानक कउ प्रभ किरपा करीऐ ॥ साधू धूरि मिलै निसतरीऐ ॥४॥६॥११॥

मूलम्

जन नानक कउ प्रभ किरपा करीऐ ॥ साधू धूरि मिलै निसतरीऐ ॥४॥६॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! धूरि = चरण धूल। निसतरीऐ = पार लांघ सकते हैं।4।
अर्थ: हे प्रभु! अपने दास नानक पर मेहर कर। (तेरे दास को) गुरु के चरणों की धूल मिल जाए। (गुरु की कृपा से ही) संसार-समुंदर से पार लांघा जासकता है।4।6।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ गुर का सबदु रिदे महि चीना ॥ सगल मनोरथ पूरन आसीना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ गुर का सबदु रिदे महि चीना ॥ सगल मनोरथ पूरन आसीना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदे महि = हृदय में। चीना = पहचाना, विचार किया। सगल = सारे। आसीना = आशाएं।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस भाग्यशालियों ने) गुरु का शब्द अपने हृदय में विचारा, उनके सारे उद्देश्य पूरे हो गए, उनकी सारी ही आशाएं पूरी हो गई।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना का मुखु ऊजलु कीना ॥ करि किरपा अपुना नामु दीना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संत जना का मुखु ऊजलु कीना ॥ करि किरपा अपुना नामु दीना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊजलु = उज्जवल, रौशन। कीना = कर दिया। करि = करके।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके (जिस संत जनों को) अपना नाम बख्शा, उन संत जनों का मुँह (लोक-परलोक में) रौशन हो गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंध कूप ते करु गहि लीना ॥ जै जै कारु जगति प्रगटीना ॥२॥

मूलम्

अंध कूप ते करु गहि लीना ॥ जै जै कारु जगति प्रगटीना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंध कूप ते = अंधे कूएं से। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। जै जैकारु = जै जैकार, फतह का डंका, बहुत शोभा। जगति = जगत में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस भाग्यशालियों को प्रभु ने (माया के मोह के) अंधेरे कूएँ में से हाथ पकड़ के निकाल लिया, सारे जगत में उनकी बहुत ही शोभा पसर गई।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीचा ते ऊच ऊन पूरीना ॥ अम्रित नामु महा रसु लीना ॥३॥

मूलम्

नीचा ते ऊच ऊन पूरीना ॥ अम्रित नामु महा रसु लीना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊन = कम, खाली। पूरीना = भर दिए। महा रस = बहुत स्वादिष्ट। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों ने) आत्मिक जीवन देने वाला और बहुत ही स्वादिष्ट हरि का नाम जपना आरम्भ कर दिया, वे नीच से ऊँचे बन गए (श्रेष्ठ बन गए), वे (जो पहले) गुणहीन थे (अब) गुणवान हो गए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन तन निरमल पाप जलि खीना ॥ कहु नानक प्रभ भए प्रसीना ॥४॥७॥१२॥

मूलम्

मन तन निरमल पाप जलि खीना ॥ कहु नानक प्रभ भए प्रसीना ॥४॥७॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल = पवित्र। जलि = जल के। खीना = समाप्त हो गए। नानक = हे नानक! प्रसीना = प्रसन्न।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्यों पर) प्रभु जी प्रसन्न हो गए, उनके मन, उनके शरीर पवित्र हो गए, उनके सारे पाप जल के राख हो गए।4।7।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सगल मनोरथ पाईअहि मीता ॥ चरन कमल सिउ लाईऐ चीता ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सगल मनोरथ पाईअहि मीता ॥ चरन कमल सिउ लाईऐ चीता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाईअहि = पा लिए जाते हैं। मीता = हे मित्र! लाईऐ = लगाना चाहिए।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पाईअहि’ है कर्मवाच, वर्तमान काल, अन्नपुरख, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के कमल के फूल (जैसे कोमल) चरणों में चिक्त जोड़ना चाहिए। (इस तरह) मन की सारी मुरादें हासिल कर ली जाती हैं।1।

[[0805]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ बलिहारी जो प्रभू धिआवत ॥ जलनि बुझै हरि हरि गुन गावत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ बलिहारी जो प्रभू धिआवत ॥ जलनि बुझै हरि हरि गुन गावत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। जलनि = जलन। गावत = गाते हुए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई मैं उन मनुष्यों से कुर्बान जाता हूँ जो प्रभु का नाम स्मरण करते हैं। प्रभु के गुण गाते-गाते (माया की तृष्णा अग्नि की) जलन बुझ जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल जनमु होवत वडभागी ॥ साधसंगि रामहि लिव लागी ॥२॥

मूलम्

सफल जनमु होवत वडभागी ॥ साधसंगि रामहि लिव लागी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफल = कामयाब। साध संगि = गुरु की संगति में। रामहि = राम में। लिव = तवज्जो, ध्यान।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के जिस मनुष्यों की तवज्जो प्रभु में जुड़ती है, उन भाग्यशालियों की जिंदगी कामयाब हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति पति धनु सुख सहज अनंदा ॥ इक निमख न विसरहु परमानंदा ॥३॥

मूलम्

मति पति धनु सुख सहज अनंदा ॥ इक निमख न विसरहु परमानंदा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = इज्जत। सहज = आत्मिक अडोलता। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। विसरहु = भुला दो। परमानंदा = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु (परम आनंद)।3।
अर्थ: हे भाई! सबसे उच्च आनन्द के मालिक-परमात्मा का नाम आँख झपकने जितने समय के लिए भी ना भुलाओ! (नाम की इनायत से) मति ऊँची हो जाती है। (लोक-परलोक में) इज्जत (मिलती है), आत्मिक-अडोलता के सुख-आनंद का धन प्राप्त होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि दरसन की मनि पिआस घनेरी ॥ भनति नानक सरणि प्रभ तेरी ॥४॥८॥१३॥

मूलम्

हरि दरसन की मनि पिआस घनेरी ॥ भनति नानक सरणि प्रभ तेरी ॥४॥८॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। घनेरी = बहुत। भनति = कहता है। प्रभ = हे प्रभु!।4।
अर्थ: नानक विनती करता है: हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे हरि! मेरे मन में तेरे दर्शन करने की बड़ी तमन्ना है (मेरी ये चाहत पूरी कर)।4।8।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मोहि निरगुन सभ गुणह बिहूना ॥ दइआ धारि अपुना करि लीना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मोहि निरगुन सभ गुणह बिहूना ॥ दइआ धारि अपुना करि लीना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। निरगुन = गुण हीन (को)। बिहूना = विहीन। धारि = धारण करके। करि लीना = बना लिया।1।
अर्थ: हे भाई! मुझ गुण-हीन को सारे गुणों से वंचित को, प्रभु ने कृपा करके अपना (दास) बना लिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा मनु तनु हरि गोपालि सुहाइआ ॥ करि किरपा प्रभु घर महि आइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा मनु तनु हरि गोपालि सुहाइआ ॥ करि किरपा प्रभु घर महि आइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोपालि = गोपाल ने। सुहाइआ = सुंदर बना दिया है। घर महि = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेहर करके प्रभु मेरे हृदय-घर में आ बसा है, (इस तरह उस) गोपाल-प्रभु ने मेरा मन और मेरा शरीर सुंदर बना दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति वछल भै काटनहारे ॥ संसार सागर अब उतरे पारे ॥२॥

मूलम्

भगति वछल भै काटनहारे ॥ संसार सागर अब उतरे पारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति वछल = हे भक्ति से प्यार करने वाले! भै = सारे डर। सागर = समुंदर। अब = अब (जब से तू मेरे दिल में आ बसा है)।2।
अर्थ: हे भक्ति से प्यार करने वाले प्रभु! हे सारे भय दूर करने वाले प्रभु! अब (जबकि तू मेरे दिल में आ बसा है) मैं (तेरी मेहर से) संसार-समुंदर से पार लांघ गया हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित पावन प्रभ बिरदु बेदि लेखिआ ॥ पारब्रहमु सो नैनहु पेखिआ ॥३॥

मूलम्

पतित पावन प्रभ बिरदु बेदि लेखिआ ॥ पारब्रहमु सो नैनहु पेखिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। बिरदु = ईश्वर का मूल स्वभाव। बेदि = वेद ने, वेद (आदि धार्मिक पुस्तकों) ने। नैनहु = आँखों से। पेखिआ = देख लिया है।3।
अर्थ: हे भाई! वेद (आदि हरेक धर्म-पुस्तक) ने जिस प्रभु के संबंध में लिखा है कि वह विकारियों को पवित्र करने वाला है, उस प्रभु को मैंने अपनी आँखों से (हर जगह बसता) देख लिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि प्रगटे नाराइण ॥ नानक दास सभि दूख पलाइण ॥४॥९॥१४॥

मूलम्

साधसंगि प्रगटे नाराइण ॥ नानक दास सभि दूख पलाइण ॥४॥९॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = संगति में। सभि = सारे। पलाइण = दूर हो गए हैं।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) गुरु की संगति में टिके रहने से परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में प्रगट हो जाता है, उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं।4।9।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ कवनु जानै प्रभ तुम्हरी सेवा ॥ प्रभ अविनासी अलख अभेवा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ कवनु जानै प्रभ तुम्हरी सेवा ॥ प्रभ अविनासी अलख अभेवा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवनु जानै = कौन जानता है? कोई नहीं जानता। प्रभ = हे प्रभु! अलख = हे अदृष्ट! अभेवा = हे प्रभु जिसका (तेरा) भेद नहीं पाया जा सकता।1।
अर्थ: हे नाश-रहित प्रभु! हे अदृष्य प्रभु! हे अभेव प्रभु! (अपनी बुद्धि के बल पर) कोई मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति करनी नहीं जानता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण बेअंत प्रभ गहिर ग्मभीरे ॥ ऊच महल सुआमी प्रभ मेरे ॥ तू अपर्मपर ठाकुर मेरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुण बेअंत प्रभ गहिर ग्मभीरे ॥ ऊच महल सुआमी प्रभ मेरे ॥ तू अपर्मपर ठाकुर मेरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहिर = हे गहरे! गंभीर = हे बड़े जिगरे वाले! अपरंपर = परे से परे।1। रहाउ।
अर्थ: हे गहरे प्रभु! हे बड़े जिगरे वाले प्रभु! हे मेरे मालिक प्रभु! हे मेरे ठाकुर! तू बेअंत गुणों का मालिक है, जिस आत्मिक मण्डलों में तू रहता है वह बहुत ऊँचे हैं, तू परे से परे है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस बिनु नाही को दूजा ॥ तुम्ह ही जानहु अपनी पूजा ॥२॥

मूलम्

एकस बिनु नाही को दूजा ॥ तुम्ह ही जानहु अपनी पूजा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानहु = तू जानता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! तुझ एक के बिना (तुझ जैसा) और कोई नहीं है। अपनी भक्ति (करने का तरीका) तू खुद ही जानता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपहु कछू न होवत भाई ॥ जिसु प्रभु देवै सो नामु पाई ॥३॥

मूलम्

आपहु कछू न होवत भाई ॥ जिसु प्रभु देवै सो नामु पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपहु = जिससे अपने बल से। भाई = हे भाई!।3।
अर्थ: हे भाई! (जीवों से) अपने बल पर (प्रभु की भक्ति) रक्ती भर भी नहीं हो सकती। वही मनुष्य हरि-नाम की दाति हासिल करता है जिसको प्रभु (स्वयं) देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक जो जनु प्रभ भाइआ ॥ गुण निधान प्रभु तिन ही पाइआ ॥४॥१०॥१५॥

मूलम्

कहु नानक जो जनु प्रभ भाइआ ॥ गुण निधान प्रभु तिन ही पाइआ ॥४॥१०॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ भाइआ = प्रभु को अच्छा लगा। निधान = खजाना। तिन ही = तिनि ही, उसने ही।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य परमात्मा को प्यारा लग जाता है, उसने ही गुणों के खजाने प्रभु (का मिलाप) प्राप्त किया है।4।10।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मात गरभ महि हाथ दे राखिआ ॥ हरि रसु छोडि बिखिआ फलु चाखिआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मात गरभ महि हाथ दे राखिआ ॥ हरि रसु छोडि बिखिआ फलु चाखिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरभ = गर्भ, पेट। महि = में। दे = दे के। रसु = आनंद। छोडि = छोड़ के। बिखिआ = माया।1।
अर्थ: (हे मूर्ख! जिस प्रभु ने तुझे) माँ के पेट में (अपना) हाथ दे के बचाया था, उसके नाम का आनंद भुला के तू माया का फल चख रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भजु गोबिद सभ छोडि जंजाल ॥ जब जमु आइ संघारै मूड़े तब तनु बिनसि जाइ बेहाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भजु गोबिद सभ छोडि जंजाल ॥ जब जमु आइ संघारै मूड़े तब तनु बिनसि जाइ बेहाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंजाल = मोह के जाल। आइ = आय, आ के। संघारै = मारता है। मूढ़े = हे मूर्ख! बेहाल = दुखी हो के, दुख भोग के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख (मनुष्य)! मोह के सारे जंजाल छोड़ के परमात्मा का नाम पा कर। जिस वक्त जमदूत आ के घातक हमला करता है, उस वक्त शरीर दुख सह के नाश हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु मनु धनु अपना करि थापिआ ॥ करनहारु इक निमख न जापिआ ॥२॥

मूलम्

तनु मनु धनु अपना करि थापिआ ॥ करनहारु इक निमख न जापिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। करि थापिआ = मान रखा है। निमखु = निमेष, आँख झपकने जितना समय।2।
अर्थ: (हे मूर्ख!) तू इस शरीर को, इस धन को अपना माने बैठा है, पर जिस प्रभु ने इन्हें पैदा किया है, उसको तो तूने पल भर के लिए भी नहीं स्मरण किया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा मोह अंध कूप परिआ ॥ पारब्रहमु माइआ पटलि बिसरिआ ॥३॥

मूलम्

महा मोह अंध कूप परिआ ॥ पारब्रहमु माइआ पटलि बिसरिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंध कूप = अंधा कूआँ। पटलि = पर्दे के कारण।3।
अर्थ: (हे मूर्ख!) तू मोह के बड़े घोर अंधकार भरे कूएँ में गिरा पड़ा है, माया (के मोह) के पर्दे के पीछे तुझे परमात्मा भूल चुका है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडै भागि प्रभ कीरतनु गाइआ ॥ संतसंगि नानक प्रभु पाइआ ॥४॥११॥१६॥

मूलम्

वडै भागि प्रभ कीरतनु गाइआ ॥ संतसंगि नानक प्रभु पाइआ ॥४॥११॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडै भागि = बड़ी किस्मत से। संगि = संगति में।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने अहो-भाग्य से परमात्मा की महिमा के गीत गाने शुरू कर दिए, संत-जनों की संगति में रह के उसने प्रभु (का मिलाप) हासिल कर लिया।4।11।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मात पिता सुत बंधप भाई ॥ नानक होआ पारब्रहमु सहाई ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मात पिता सुत बंधप भाई ॥ नानक होआ पारब्रहमु सहाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मात = माँ। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। भाई = भ्राता। नानक सहाई = नानक का मददगार।1।
अर्थ: हे भाई! माता, पिता, पुत्र, रिश्तेदार, भाई (इन सबकी ही तरह) परमात्मा ही नानक का मददगार बना हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूख सहज आनंद घणे ॥ गुरु पूरा पूरी जा की बाणी अनिक गुणा जा के जाहि न गणे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सूख सहज आनंद घणे ॥ गुरु पूरा पूरी जा की बाणी अनिक गुणा जा के जाहि न गणे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घणे = बहुत। जा की = जिस (गुरु) की। जा के = जिस (गुरु) के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो गुरु (सब गुणों से) सम्पन्न है, जिस गुरु की वाणी (आत्मिक आनंद से) भरपूर है, जिस गुरु के अनेक ही गुण हैं जो गिने नहीं जा सकते, (उस गुरु की शरण पड़ने से) आत्मिक अडोलता के अनेक सुख आनंद मिल जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल सरंजाम करे प्रभु आपे ॥ भए मनोरथ सो प्रभु जापे ॥२॥

मूलम्

सगल सरंजाम करे प्रभु आपे ॥ भए मनोरथ सो प्रभु जापे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरंजाम = काम सिरे चढ़ने के उद्यम। सगल = सारे। आपे = आप ही। जापे = जपने से।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (शरण पड़े मनुष्य के) सारे काम सिरे चढ़ाने में मदद करता है, उस प्रभु का नाम जपने से मन की सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरथ धरम काम मोख का दाता ॥ पूरी भई सिमरि सिमरि बिधाता ॥३॥

मूलम्

अरथ धरम काम मोख का दाता ॥ पूरी भई सिमरि सिमरि बिधाता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरी भई = मेहनत सिरे चढ़ गई। सिमरि = स्मरण करके। बिधाता = विधाता प्रभु।3।
अर्थ: हे भाई! (दुनिया के प्रसिद्ध माने हुए चार पदार्थों) धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष देने वाला परमात्मा स्वयं ही है। उस विधाता प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के (स्मरण की) घाल-कमाई सफल हो जाती है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि नानकि रंगु माणिआ ॥ घरि आइआ पूरै गुरि आणिआ ॥४॥१२॥१७॥

मूलम्

साधसंगि नानकि रंगु माणिआ ॥ घरि आइआ पूरै गुरि आणिआ ॥४॥१२॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानकि = नानक ने। घरि = हृदय घर में। गुरि = गुरु ने। आणिआ = लाया।4।
अर्थ: हे भाई! नानक ने (तो) गुरु की संगति में रह के आत्मिक आनंद लिया है, (गुरु की कृपा से) परमात्मा (नानक के) हृदय में आ बसा है, पूरे गुरु ने ला के बसा दिया है।4।12।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ स्रब निधान पूरन गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ स्रब निधान पूरन गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रब = (सर्व) सारे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ने से सारे खजानों का मालिक प्रभु मिल जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपत नर जीवे ॥ मरि खुआरु साकत नर थीवे ॥१॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपत नर जीवे ॥ मरि खुआरु साकत नर थीवे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवे = आत्मिक जीवन तलाश लेते हैं। मरि = आत्मिक मौत सहेड़ के। साकत नर = प्रभु से टूटे हुए बंदे। खुआरु थीवे = परेशान होते हैं।1।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से मनुष्य आत्मिक जीवन पा लेते हैं। पर, परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य आत्मिक मौत का शिकार हो के दुखी होते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु होआ रखवारा ॥ झख मारउ साकतु वेचारा ॥२॥

मूलम्

राम नामु होआ रखवारा ॥ झख मारउ साकतु वेचारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारउ = बेशक मारे।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मारउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्न पुरख, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से मनुष्य आत्मिक जीवन तलाश लेते हैं। पर परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य बेचारा (उसकी निंदा आदि करने के लिए) झखें मारता है (पर उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदा करि करि पचहि घनेरे ॥ मिरतक फास गलै सिरि पैरे ॥३॥

मूलम्

निंदा करि करि पचहि घनेरे ॥ मिरतक फास गलै सिरि पैरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। पचहि = जलते हैं, खिजते हैं। मिरतक फास = मौत की फांसी। सिरि = सिर पर। पैरे = पैरों में। गलै = गले में।3।
अर्थ: अनेक लोग (हरि-नाम का स्मरण करने वाले मनुष्य की) निंदा कर-कर के (बल्कि) परेशान (ही होते) हैं। (आत्मिक) मौत की फाँसी उनके गले में उनके पैरों में पड़ी रहती है, आत्मिक मौत उनके सिर पर सवार रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक जपहि जन नाम ॥ ता के निकटि न आवै जाम ॥४॥१३॥१८॥

मूलम्

कहु नानक जपहि जन नाम ॥ ता के निकटि न आवै जाम ॥४॥१३॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपहि = जपते हैं। ता के निकटि = उनके नजदीक।4।
अर्थ: हे नानक! (बेशक) कह: जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपते हैं, जम भी उनके नजदीक नहीं फटक सकता।4।13।18।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ चार बंदों वाले शब्द (चौपदे) समाप्त होते हैं। आगे दो बंदों वाले (दो-पदे) आरम्भ होते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवन संजोग मिलउ प्रभ अपने ॥ पलु पलु निमख सदा हरि जपने ॥१॥

मूलम्

कवन संजोग मिलउ प्रभ अपने ॥ पलु पलु निमख सदा हरि जपने ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संजोग = मिलाप का समय, लगन, महूरत। मिलउ = मिलूँ। पलु पलु = हरेक पल। निमख = आँख झपकने जितना समय।1।
अर्थ: हे भाई! वह कौन से महूरत हैं जब मैं अपने प्रभु को मिल सकूँ? (वह लगन-महूरत तो हर वक्त ही हैं) एक-एक पल, आँख झपकने जितना समय भर भी सदा ही हरि-नाम जपने से (परमात्मा से मिलाप हो सकता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल प्रभ के नित धिआवउ ॥ कवन सु मति जितु प्रीतमु पावउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

चरन कमल प्रभ के नित धिआवउ ॥ कवन सु मति जितु प्रीतमु पावउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआवउ = मैं ध्यान धरता रहूँ। सुमति = अच्छी मति। जितु = जिसके द्वारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! वह कौन सी सद्-बुद्धि है जिसकी इनायत से मैं अपने प्यारे प्रभु को मिल सकूँ? (वह कौन सी सुमति है जिसके माध्यम से) मैं परमात्मा के सुंदर चरणों का हर वक्त ध्यान धर सकूँ?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी क्रिपा करहु प्रभ मेरे ॥ हरि नानक बिसरु न काहू बेरे ॥२॥१॥१९॥

मूलम्

ऐसी क्रिपा करहु प्रभ मेरे ॥ हरि नानक बिसरु न काहू बेरे ॥२॥१॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! काहू बेरे = किसी भी वक्त। बिसरु न = ना भूल।2।
अर्थ: (पर, प्रभु की अपनी मेहर हो, तो ही स्मरण हो सकता है। इस वास्ते उसके दर पर सदैव अरदास करें-) हे मेरे प्रभु! (मेरे पर) ऐसी मेहर कर, कि, हे हरि! मुझ नानक को तेरा नाम कभी भी ना भूले।2।1।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ चरन कमल प्रभ हिरदै धिआए ॥ रोग गए सगले सुख पाए ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ चरन कमल प्रभ हिरदै धिआए ॥ रोग गए सगले सुख पाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर और कोमल पैर। हिरदै = हृदय में। सगले = सारे।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जिस मनुष्य ने अपने) हृदय में प्रभु के सुंदर चरण-कमलों का ध्यान धरना आरम्भ कर दिया, उसके सारे रोग दूर हो गए, उसने सारे सुख प्राप्त कर लिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि दुखु काटिआ दीनो दानु ॥ सफल जनमु जीवन परवानु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरि दुखु काटिआ दीनो दानु ॥ सफल जनमु जीवन परवानु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। दानु = (नाम की) दाति। सफल = कामयाब। परवानु = (लोक परलोक में) स्वीकार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम की) दात दे दी, उसका सारा दुख भी गुरु ने दूर कर दिया। उस मनुष्य की जिंदगी कामयाब हो गई, (लोक-परलोक में) उसका जीवन स्वीकार हो गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकथ कथा अम्रित प्रभ बानी ॥ कहु नानक जपि जीवे गिआनी ॥२॥२॥२०॥

मूलम्

अकथ कथा अम्रित प्रभ बानी ॥ कहु नानक जपि जीवे गिआनी ॥२॥२॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = वह प्रभु जिसके सारे गुण बयान ना किए जा सके। कथा = महिमा की बातें। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाली। बानी = महिमा की वाणी। गिआनी = ज्ञानवान, प्रभु के साथ गहरी सांझ डालने वाला मनुष्य। गिआन = ज्ञान, परमात्मा से जान पहचान। जीवे = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।
अर्थ: हे नानक! कह: बेअंत गुणों के मालिक प्रभु की महिमा वाली वाणी आत्मिक जीवन देने वाली है। प्रभु से गहरी जान-पहचान वाला मनुष्य प्रभु के गुणों को याद कर-करके आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।2।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सांति पाई गुरि सतिगुरि पूरे ॥ सुख उपजे बाजे अनहद तूरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सांति पाई गुरि सतिगुरि पूरे ॥ सुख उपजे बाजे अनहद तूरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सांति = शांति, आत्मिक ठंड। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। उपजे = पैदा हो गए। बाजे = बज गए। अनहद = अनहत्, बिना बजाए, एक रस। तूरे = बाजे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे सतिगुरु ने, गुरु ने (हरि-नाम की दाति दे के जिस मनुष्य के हृदय में) शीतलता बरता दी, उसके अंदर सारे सुख पैदा हो गए (मानो, उसके अंदर) एक-रस सारे बाजे बजने लग गए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताप पाप संताप बिनासे ॥ हरि सिमरत किलविख सभि नासे ॥१॥

मूलम्

ताप पाप संताप बिनासे ॥ हरि सिमरत किलविख सभि नासे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ताप = दुख। पाप = विकार। संताप = कष्ट। सिमरत = स्मरण करते हुए। किलविख = पाप। सभि = सारे।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से हरि-नाम स्मरणा शुरू कर दिया, उसके सारे) दुख-कष्ट दूर हो गए। परमात्मा का नाम स्मरण करते-स्मरण करते उसके सारे पाप नाश हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदु करहु मिलि सुंदर नारी ॥ गुरि नानकि मेरी पैज सवारी ॥२॥३॥२१॥

मूलम्

अनदु करहु मिलि सुंदर नारी ॥ गुरि नानकि मेरी पैज सवारी ॥२॥३॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदु करहु = आत्मिक आनंद पैदा करो। मिलि = मिल के। नारी = हे नारियो! हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! गुरि = गुरु ने। नानकि = नानक ने। पैज = सत्कार, इज्जत।2।
अर्थ: (नाम की इनायत से) सुंदर (बन चुकी) हे मेरी ज्ञान-इंद्रिय! तुम अब मिल के (सत्संग करके अपने अंदर) आत्मिक आनंद पैदा करो। गुरु नानक ने (मुझे ताप-पाप-संताप से बचा के) मेरी इज्जत रख ली है।2।3।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ ममता मोह ध्रोह मदि माता बंधनि बाधिआ अति बिकराल ॥ दिनु दिनु छिजत बिकार करत अउध फाही फाथा जम कै जाल ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ ममता मोह ध्रोह मदि माता बंधनि बाधिआ अति बिकराल ॥ दिनु दिनु छिजत बिकार करत अउध फाही फाथा जम कै जाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मम = मेरा। ममता = (शब्द ‘मम’ से भाव वाचक संज्ञा) अपनत्व। ध्रोह = ठगी। मदि = नशे में। माता = मस्त। बंधनि = बंधन के साथ, रस्सी। बाधिआ = बँधा हुआ। अति = बहुत। बिकराल = डरावना। दिनु दिनु = हर रोज। छिजत = घटती जाती। अउध = उम्र।1।
अर्थ: (हे प्रभु! इस संसार-समुंदर में फंस के जीव) अपनत्व के मद में, मोह के नशे में, ठगी-चालाकी के मद में मस्त रहता है। माया के मोह की जकड़ से बँधा हुआ जीव बड़े डरावने जीवन वाला बन जाता है। हर रोज विकार करते हुए इसकी उम्र घटती जाती है, ये जम की फाँसी में जम के जाल में हमेशा फसा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी सरणि प्रभ दीन दइआला ॥ महा बिखम सागरु अति भारी उधरहु साधू संगि रवाला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तेरी सरणि प्रभ दीन दइआला ॥ महा बिखम सागरु अति भारी उधरहु साधू संगि रवाला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दीन = गरीब, निमाणे। बिखम = मुश्किल। सागरु = समुंदर। उधरहु = पार लंघा लो। साधू = गुरु। साधू संगि = गुरु की संगति में। रवाला = चरण धूल।1। रहाउ।
अर्थ: दीनों पर दया करने वाले हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। ये (संसार-) समुंदर बहुत बड़ा है, (इसमें से पार होना) बहुत ही मुश्किल है। हे प्रभु! मुझे गुरु की संगति में (रख के) मुझे गुरु की चरण-धूल दे के (इस संसार-समुंर में डूबने से) बचा ले।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ सुखदाते समरथ सुआमी जीउ पिंडु सभु तुमरा माल ॥ भ्रम के बंधन काटहु परमेसर नानक के प्रभ सदा क्रिपाल ॥२॥४॥२२॥

मूलम्

प्रभ सुखदाते समरथ सुआमी जीउ पिंडु सभु तुमरा माल ॥ भ्रम के बंधन काटहु परमेसर नानक के प्रभ सदा क्रिपाल ॥२॥४॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभु = ये सारा। मालु = पूंजी। भ्रम = भटकना।2।
अर्थ: हे सारे सुख देने वाले प्रभु! हे सब ताकतों के मालिक स्वामी! (जीवों को मिला हुआ) ये शरीर और आत्मा (जिंद) सब कुछ तेरा ही दी हुई संपत्ति है। हे नानक के प्रभु! हे सदा कृपालु प्रभु! हे परमेश्वर! (जीव माया में भटक रहे हैं, जीवों के ये) भटकना के बंधन काट दे।2।4।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सगल अनंदु कीआ परमेसरि अपणा बिरदु सम्हारिआ ॥ साध जना होए किरपाला बिगसे सभि परवारिआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सगल अनंदु कीआ परमेसरि अपणा बिरदु सम्हारिआ ॥ साध जना होए किरपाला बिगसे सभि परवारिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारा, पूर्ण। परमेसरि = परमेश्वर ने। बिरदु = ईश्वर की मूल कदीमी स्वभाव। समारिआ = संभाला, याद रखा। बिगसे = खुश हुए, खिल उठे। सभि = सारे। सभ परवारिआ = सारे परिवार।1।
अर्थ: (हे भाई! ये यकीन जानो कि) परमात्मा अपना मूल कदीमी बिरद (भक्त-वछल होने का) स्वभाव हमेशा याद रखता है, अपने संत-जनों पर हमेशा दयावान रहता है, उनको हरेक किस्म का सुख-आनंद देता है, उनके सारे परिवार (सारी ज्ञानेन्द्रियाँ भी) आनंद-भरपूर रहती हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कारजु सतिगुरि आपि सवारिआ ॥ वडी आरजा हरि गोबिंद की सूख मंगल कलिआण बीचारिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कारजु सतिगुरि आपि सवारिआ ॥ वडी आरजा हरि गोबिंद की सूख मंगल कलिआण बीचारिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारजु = काम। सतिगुरि = गुरु ने। सवारिआ = सफल कर दिया। आरजा = उम्र।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! लोग तो देवी आदि की पूजा की प्रेरणा कर रहे थे। पर देखिए, हरिगोबिंद को चेचक के बुखार से आरोग्य करने वाला ये बड़ा) काम (मेरे) सतिगुरु ने खुद ही सफल कर दिया है। (गुरु ने खुद ही) हरिगोबिंद की उम्र लंबी कर दी है, (गुरु ने स्वयं ही हरिगोबिंद को) सुख-खुशी-आनंद देने की विचार की है।1। रहाउ।

[[0807]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

वण त्रिण त्रिभवण हरिआ होए सगले जीअ साधारिआ ॥ मन इछे नानक फल पाए पूरन इछ पुजारिआ ॥२॥५॥२३॥

मूलम्

वण त्रिण त्रिभवण हरिआ होए सगले जीअ साधारिआ ॥ मन इछे नानक फल पाए पूरन इछ पुजारिआ ॥२॥५॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वण = जंगल। त्रिण = घास के तीले। जीअ = सारे जीव। साधारिआ = आसरा दिया है। पूरन = मुकम्मल तौर पर। पुजारिआ = पूरी की।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा की कृपा से सारे जंगल, सारी बनस्पति, तीनों ही भवन हरे-भरे रहते हैं, वह परमात्मा सारे जीवों को आसरा देता है। (जो भी मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ते हैं) वे मन-मांगी मुरादें पा लेते हैं, परमात्मा उनकी सारी कामनाएं पूरी करता है (बस! उस परमात्मा का ही आसरा लिया करो)।2।5।23।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: छेवें गुरु, गुरु हरिगोबिंद साहिब जी को बचपन में माता (चेचक) निकली। लोगों ने अपने भ्रमित स्वभाव के अनुसार, पिता गुरु अरजन देव जी (पाँचवें सतिगुरु) को भी सलाह दी कि बिमार बालक को देवी-माता के मंदिर में ले के जाना चाहिए। उक्त शब्द द्वारा सतिगुरु उस गलत सलाह प्रेरणा का उक्तर दे रहे हैं, और सदा के लिए अपने सिखों को सही मार्ग-दर्शन कर रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जिसु ऊपरि होवत दइआलु ॥ हरि सिमरत काटै सो कालु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जिसु ऊपरि होवत दइआलु ॥ हरि सिमरत काटै सो कालु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु ऊपरि = जिस (मनुष्य) पर। सो = वह मनुष्य। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत से।1। रहाउ।
अर्थ: (गुरु) जिस मनुष्य पर दयावान होता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के अपने आत्मिक मौत के जाल को काट लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि भजीऐ गोपालु ॥ गुन गावत तूटै जम जालु ॥१॥

मूलम्

साधसंगि भजीऐ गोपालु ॥ गुन गावत तूटै जम जालु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में (टिक के)। गोपालु = सृष्टि का पालनहार प्रभु। गावत = गाते हुए। जमु जालु = जम का जाल, आत्मिक मौत की फाही।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के जगत-पालक प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए। प्रभु के गुण गाते-गाते जम का जाल टूट जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे सतिगुरु आपे प्रतिपाल ॥ नानकु जाचै साध रवाल ॥२॥६॥२४॥

मूलम्

आपे सतिगुरु आपे प्रतिपाल ॥ नानकु जाचै साध रवाल ॥२॥६॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। प्रतिपाल = रक्षा करने वाला। जाचै = माँगता है

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ के जोड़ और अर्थ का फर्क याद रखें)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध रवाल = गुरु के चरणों की धूल।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु) खुद ही गुरु (रूप हो के) खुद (जीवों को जम-जाल से) बचाने वाला है। (तभी तो) नानक (सदा) गुरु के चरणों की धूल माँगता है।2।6।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मन महि सिंचहु हरि हरि नाम ॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुण गाम ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मन महि सिंचहु हरि हरि नाम ॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुण गाम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महि = में। सिंचहु = सींचो, छींटे दो। अनदिनु = हर रोज। गाम = गाओ।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन को हमेशा परमात्मा के नाम-अमृत से सींचता रह, हर वक्त परमात्मा की महिमा किया कर, परमात्मा के गुण गाया कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी प्रीति करहु मन मेरे ॥ आठ पहर प्रभ जानहु नेरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसी प्रीति करहु मन मेरे ॥ आठ पहर प्रभ जानहु नेरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! नेरे = नजदीक, अंग संग (बसता)। जानहु = समझो।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार बना कि आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा को अपने नजदीक बसता समझ सके।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक जा के निरमल भाग ॥ हरि चरनी ता का मनु लाग ॥२॥७॥२५॥

मूलम्

कहु नानक जा के निरमल भाग ॥ हरि चरनी ता का मनु लाग ॥२॥७॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! जा के = जिस (मनुष्य) के। ता का = उसका।2।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के सौभाग्य (जागते हैं) उसका मन परमात्मा के चरणों में गिझ जाता है।2।7।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ रोगु गइआ प्रभि आपि गवाइआ ॥ नीद पई सुख सहज घरु आइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ रोगु गइआ प्रभि आपि गवाइआ ॥ नीद पई सुख सहज घरु आइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। नीद = (भाव,) शांति। सहज घरु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के माध्यम से अपने नाम की दाति दे के जिस मनुष्य का रोग) प्रभु ने स्वयं दूर किया है, उसी का ही रोग दूर हुआ है। (नाम की इनायत से उस मनुष्य को) आत्मिक शांति मिल जाती है, उसे सुख व आत्मिक अडोलता वाली अवस्था मिल जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजि रजि भोजनु खावहु मेरे भाई ॥ अम्रित नामु रिद माहि धिआई ॥१॥

मूलम्

रजि रजि भोजनु खावहु मेरे भाई ॥ अम्रित नामु रिद माहि धिआई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रजि = तृप्त हो के, अघा के। भाई = हे भाई! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदु = हृदय। धिआई = ध्यान लगा के।1।
अर्थ: हे मेरे वीर! (परमात्मा का नाम जीवात्मा की खुराक़ है, ये) खुराक़ पेट भर-भर के खाया कर, आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम का अपने हृदय में ध्यान धरा कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक गुर पूरे सरनाई ॥ जिनि अपने नाम की पैज रखाई ॥२॥८॥२६॥

मूलम्

नानक गुर पूरे सरनाई ॥ जिनि अपने नाम की पैज रखाई ॥२॥८॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरु) ने। पैज = सत्कार, इज्जत।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) पूरे गुरु की शरण पड़ा रह (गुरु, शरण पड़े की सहायता करने वाला है), और उस गुरु ने (सदा) अपने इस नाम की इज्जत रखी है।7।8।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सतिगुर करि दीने असथिर घर बार ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सतिगुर करि दीने असथिर घर बार ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर घर बार = गुरु के घर, सत्संग, साधु-संगत। असथिर = सदा कायम रहने वाले। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के घरों को (साधु-संगत-संस्था को परमात्मा ने) सदा कायम रहने वाले बना दिया हुआ है (भाव, साधु-संगत ही सदा के लिए ऐसे स्थान हैं जहाँ परमात्मा का मेल हो सकता है)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जो निंद करै इन ग्रिहन की तिसु आगै ही मारै करतार ॥१॥

मूलम्

जो जो निंद करै इन ग्रिहन की तिसु आगै ही मारै करतार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंद = निंदा। इन ग्रिहन की = इन गृहन की, इन घरों की, सत्संगों की, गुरु स्थानों की। आगै ही = पहले ही। मारै = मार देता है, आत्मिक मौत दे देता है।1।
अर्थ: हे भाई! जो भी मनुष्य इन घरों की (साधु-संगत की) निंदा करता है (भाव, जो भी मनुष्य सत्संग से नफरत करता है) उस मनुष्य को परमात्मा ने पहले ही आत्मिक मौत दी हुई होती है (वह मनुष्य पहले ही आत्मिक तौर पर मरा हुआ होता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक दास ता की सरनाई जा को सबदु अखंड अपार ॥२॥९॥२७॥

मूलम्

नानक दास ता की सरनाई जा को सबदु अखंड अपार ॥२॥९॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! ता की = उस (परमात्मा) की। जा को सबदु = जिस (परमात्मा) का हुक्म। अखंड = कभी नाश ना होने वाला, अटल। अपार = बेअंत।2।
अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा का हुक्म अटल है और बेअंत है उस परमात्मा की शरण में (साधु-संगत की इनायत से ही आया जा सकता है)।2।9।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ ताप संताप सगले गए बिनसे ते रोग ॥ पारब्रहमि तू बखसिआ संतन रस भोग ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ ताप संताप सगले गए बिनसे ते रोग ॥ पारब्रहमि तू बखसिआ संतन रस भोग ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगले = सारे। ते = वह (सारे)।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘ते’ और ‘तै’ में फर्क है। जबकि शब्द ‘ते’ सर्वनाम है तो इसका अर्थ है ‘वह’ बहुवचन। जब ये संबंधक है, अर्थ है ‘से’। जबकि,’तै’ का अर्थ है ‘और’)।

दर्पण-भाषार्थ

तू = तुझे। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। संतन रस भोग = संतों वाले आत्मिक आनंद पाओ। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! अगर) तेरे पर परमात्मा ने बख्शिश की है, तो तू संतों वाले (नाम-स्मरण के) आत्मिक आनंद ले। (जो मनुष्य ये आत्मिक आनंद लेता है, उसके) सारे दुख सारे कष्ट और सारे रोग नाश हो जाते हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब सुखा तेरी मंडली तेरा मनु तनु आरोग ॥ गुन गावहु नित राम के इह अवखद जोग ॥१॥

मूलम्

सरब सुखा तेरी मंडली तेरा मनु तनु आरोग ॥ गुन गावहु नित राम के इह अवखद जोग ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तेरी मंडली = तेरे साथी। आरोग = आरोग्य, रोग रहित। अवखद = दवाई। जोग = फबवीं, ठीक।1।
अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा के गुण गाता रह, (ताप-संताप और रोग आदि को दूर करने के लिए) ये अचूक दवा है। (यदि तू नाम-जपने की ये दवाई बरतता रहेगा, तो) सारे सुख तेरे साथी बने रहेंगे, तेरा मन रोगों से बचा रहेगा, तेरा शरीर रोगों से बचा रहेगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइ बसहु घर देस महि इह भले संजोग ॥ नानक प्रभ सुप्रसंन भए लहि गए बिओग ॥२॥१०॥२८॥

मूलम्

आइ बसहु घर देस महि इह भले संजोग ॥ नानक प्रभ सुप्रसंन भए लहि गए बिओग ॥२॥१०॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आइ = आ के। घर देस महि = हृदय घर में, हृदय देस में। भले संजोग = मिलाप के भले अवसर। बिओग = वियोग, विछोड़े।2।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य जीवन वाले दिनों में ही परमात्मा के साथ) मिलाप पैदा करने के बढ़िया अवसर हैं (जब तक ये जनम मिला हुआ है बाहर भटकना छोड़ के) अपने हृदय-घर रूपी देस में आ के टिका रह। हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर प्रभु जी दयावान हो जाते हैं, (प्रभु से उसके) सारे विछोड़े दूर हो जाते हैं।2।10।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ काहू संगि न चालही माइआ जंजाल ॥ ऊठि सिधारे छत्रपति संतन कै खिआल ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ काहू संगि न चालही माइआ जंजाल ॥ ऊठि सिधारे छत्रपति संतन कै खिआल ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहू संगि = किसी के भी साथ। न चालही = नहीं चलते। जंजाल = खल जगन, बखेड़े, बिखराव। ऊठि = उठ के, छोड़ के। सिधारे = चल पड़े। छत्र पति = छत्र के मालिक, राजे महाराजे। संतन कै = संत जनों के मन में। खिआल = (ये) निश्चय। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संतजनों के मन में (सदा ये) विश्वास बना रहता है कि माया के पसारे किसी भी मनुष्य के साथ नहीं जाते। राजे महाराजे भी (मौत आने पर) इनको छोड़ के चले जाते हैं (इसीलिए संतजन सदा परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अह्मबुधि कउ बिनसना इह धुर की ढाल ॥ बहु जोनी जनमहि मरहि बिखिआ बिकराल ॥१॥

मूलम्

अह्मबुधि कउ बिनसना इह धुर की ढाल ॥ बहु जोनी जनमहि मरहि बिखिआ बिकराल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। कउ = को। बिनसना = (आत्मिक) मौत। ढाल = मर्यादा, रीत। जनमहि = पैदा होते हैं। मरहि = मरते हैं। बिखिआ = माया। बिकराल = भयानक।1।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फंस के हर वक्त ये धार लेने वाले को कि मैं बड़ा बन जाऊँ मैं बड़ा बन जाऊँ - इस) मैं मैं की ही सूझ वाले को (अवश्य) आत्मिक मौत मिलती है; ये मर्यादा धुर-दरगाह से चली आ रही है। माया के मोह के यही भयानक नतीजे होते हैं कि माया-ग्रसित मनुष्य सदा अनेक जूनियों में जन्मते-मरते रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति बचन साधू कहहि नित जपहि गुपाल ॥ सिमरि सिमरि नानक तरे हरि के रंग लाल ॥२॥११॥२९॥

मूलम्

सति बचन साधू कहहि नित जपहि गुपाल ॥ सिमरि सिमरि नानक तरे हरि के रंग लाल ॥२॥११॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति बचन = प्रभु की महिमा। कहहि = उच्चारते हैं। सिमरि = स्मरण करके। तरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए।2।
अर्थ: हे नानक! गुरमुख मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करते हैं, सदा जगत के पालनहार प्रभु का नाम जपते हैं। परमात्मा के गाढ़े प्रेम-रंग में रंग के संतजन सदा प्रभु का नाम स्मरण करके (संसार-समुंदर से, माया के मोह से) पार लांघ जाते हैं।2।11।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सहज समाधि अनंद सूख पूरे गुरि दीन ॥ सदा सहाई संगि प्रभ अम्रित गुण चीन ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सहज समाधि अनंद सूख पूरे गुरि दीन ॥ सदा सहाई संगि प्रभ अम्रित गुण चीन ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सहज समाधि = आत्मिक अडोलता की लीनता, आत्मिक अडोलता में एक रस टिकाव। गुरि = गुरु ने। दीन = दे दिए। संगि = साथ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। चीन्ह = बिचारे हैं। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘चीन्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे अर्ध ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु दयावान होता है, उसको) पूरे गुरु ने आत्मिक अडोलता में एक-रस टिकाव के सारे सुख व आनंद दे दिए। प्रभु उस मनुष्य का हमेशा मददगार बना रहता है, उसके अंग-संग रहता है, वह मनुष्य प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले गुण (अपने मन में) विचारता रहता है। रहाउ।

[[0808]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जै जै कारु जगत्र महि लोचहि सभि जीआ ॥ सुप्रसंन भए सतिगुर प्रभू कछु बिघनु न थीआ ॥१॥

मूलम्

जै जै कारु जगत्र महि लोचहि सभि जीआ ॥ सुप्रसंन भए सतिगुर प्रभू कछु बिघनु न थीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जै जैकारु = शोभा ही शोभा। जगत्र महि = जगत में। लोचहि = लोचते हैं, चाहते हैं। सभि = सारे। बिघनु = रुकावट।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु परमात्मा अच्छी तरह प्रसन्न हो गए, उस मनुष्य के जीवन-राह में कोई रुकावट नहीं आती, सारे जगत में हर जगह उसकी शोभा होती है, (ज्रगत के) सारे जीव (उसके दर्शन करना) चाहते हैं1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा का अंगु दइआल प्रभ ता के सभ दास ॥ सदा सदा वडिआईआ नानक गुर पासि ॥२॥१२॥३०॥

मूलम्

जा का अंगु दइआल प्रभ ता के सभ दास ॥ सदा सदा वडिआईआ नानक गुर पासि ॥२॥१२॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। अंगु = पक्ष। गुर पासि = गुरु के पास (रहने से)।2।
अर्थ: हे भाई! दया का श्रोत प्रभु, जिस (मनुष्य) का पक्ष करता है, सब जीव उसके सेवक हो जाते हैं। हे नानक! गुरु के चरणों में रहने से सदा ही आदर-मान मिलता है।2।12।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ घरु ५ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ घरु ५ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रित मंडल जगु साजिआ जिउ बालू घर बार ॥ बिनसत बार न लागई जिउ कागद बूंदार ॥१॥

मूलम्

म्रित मंडल जगु साजिआ जिउ बालू घर बार ॥ बिनसत बार न लागई जिउ कागद बूंदार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रित मंडल = मौत का चक्र। म्रित मंडल जगु = वह जगत जिस पर मौत का अधिकार है। बालू = रेत। बिनसत = नाश होते हुए। बार = वक्त। कागद = कागज। बूंदार = बारिश की बूँदें।1।
अर्थ: (हे मेरे मन!) ये जगत (परमात्मा ने ऐसा) बनाया है (कि इस पर) मौत का राज है, ये ऐसे है जैसे रेत के बनें हुए घर आदि हों। जिस प्रकार बरसात की बूँदों से कागज़ (तुरंत) गल जाते हैं, ठीक उसी तरह इन (घरों) के नाश होते हुए वक्त नहीं लगता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि मेरी मनसा मनै माहि सति देखु बीचारि ॥ सिध साधिक गिरही जोगी तजि गए घर बार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सुनि मेरी मनसा मनै माहि सति देखु बीचारि ॥ सिध साधिक गिरही जोगी तजि गए घर बार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = (मनीषा = मन का फुरना) हे मेरे मन! मनै माहि = मन में ही, ध्यान से। सति = सत्य। बीचारि = विचार के। सिध = योग साधना में सिद्ध योगी। साधिक = योग साधना करने वाले। गिरही = गृहस्थी। तजि = छोड़ के। गए = चले गए। घर बार = घर घाट, सब कुछ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन के फुरने! (हे मेरे भटकते मन!) ध्यान से सुन। विचार के देख ले, (ये) सच (है कि) सिद्ध-साधिक-जोगी-गृहस्थी - सारे ही (मौत आने पर) अपना सब कुछ (यहीं) छोड़ के (यहाँ से) चले जा रहे हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसा सुपना रैनि का तैसा संसार ॥ द्रिसटिमान सभु बिनसीऐ किआ लगहि गवार ॥२॥

मूलम्

जैसा सुपना रैनि का तैसा संसार ॥ द्रिसटिमान सभु बिनसीऐ किआ लगहि गवार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैनि = रात। द्रिसटिमान = दृष्टिमान, जो कुछ दिख रहा है। किआ लगहि = तू क्यों इससे चिपका हुआ है? गवार = हे मूर्ख!।2।
अर्थ: (हे मेरे भटकते मन!) ये जगत यूँ ही है जैसे रात को (सोए हुए ही) सपना आता है। हे मूर्ख! जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सारा नाशवान है। तू इस में क्यों मोह बना रहा है?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहा सु भाई मीत है देखु नैन पसारि ॥ इकि चाले इकि चालसहि सभि अपनी वार ॥३॥

मूलम्

कहा सु भाई मीत है देखु नैन पसारि ॥ इकि चाले इकि चालसहि सभि अपनी वार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा = कहाँ? नैन = आँखें। पसारि = खोल के। इकि = कई, बहुत। चाले = चले गए हैं। चालसहि = चले जाएंगे। सभि = सारे।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मूर्ख! आँखें खोल के देख। (तेरे) वह भाई वे मित्र कहाँ गए हैं? अपनी बारी आने पर कई (यहाँ से) जा चुके हैं, कई चले जाएंगे। सारे ही जीव अपनी-अपनी बारी (आने पर जाते जा रहे हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन पूरा सतिगुरु सेविआ से असथिरु हरि दुआरि ॥ जनु नानकु हरि का दासु है राखु पैज मुरारि ॥४॥१॥३१॥

मूलम्

जिन पूरा सतिगुरु सेविआ से असथिरु हरि दुआरि ॥ जनु नानकु हरि का दासु है राखु पैज मुरारि ॥४॥१॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेविआ = शरण ली। से = (बहुवचन) वे लोग। असथिरु = स्थिर, टिके हुए, अडोल। दुआरि = दर पर। जनु नानकु = दास नानक। पैज = सत्कार, इज्जत। मुरारि = हे मुरारी!।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नानकु’ है कर्ता कारक, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस लोगों ने पूरे गुरु का आसरा लिया है वह (दिखते इस संसार में मोह डालने की जगह) परमात्मा के दर पर (परमात्मा के चरणों में) टिके रहते हैं। दास नानक (तो) परमात्मा का ही सेवक है (प्रभु के दर पर ही अरदास करता है कि) हे प्रभु! (मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी) इज्जत रख।4।1।31।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ से फिर चौपदे शुरू हो गए हैं। ‘घरु ५’ के।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ लोकन कीआ वडिआईआ बैसंतरि पागउ ॥ जिउ मिलै पिआरा आपना ते बोल करागउ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ लोकन कीआ वडिआईआ बैसंतरि पागउ ॥ जिउ मिलै पिआरा आपना ते बोल करागउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीआ = की। बैसंतरि = आग में। पागउ = मैं डाल दूँ। ते = (बहुवचन) वे लोग। करागउ = मैं करूँगा।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के मिलाप के मुकाबले में) लोगों द्वारा मिल रहे आदर-सम्मान को तो मैं आग में फेंक देने को तैयार हूँ। (दुनिया के लोगों की खुशामद करने की जगह) मैं तो वही बोल बोलूँगा, जिसके सदका मुझे मेरा प्यारा प्रभु मिल जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ प्रभ जीउ दइआल होइ तउ भगती लागउ ॥ लपटि रहिओ मनु बासना गुर मिलि इह तिआगउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जउ प्रभ जीउ दइआल होइ तउ भगती लागउ ॥ लपटि रहिओ मनु बासना गुर मिलि इह तिआगउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = जब। लागऊ = लगूँ, मैं लगता हूँ। लपटि रहिओ = लिपट रहा है। गुर मिलि = गुरु को मिल के। इह = यह वासना। तिआगउं = मैं त्याग दूँगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब प्रभु जी मेरे ऊपर दयावान हों, तब ही मैं उनकी भक्ति में लग सकता हूँ। यह मन (सांसारिक पदार्थों की) वासनाओं में फंसा रहता है, गुरु की शरण पड़ कर ये वासनाएं छोड़ी जा सकती हैं (मैं छोड़ सकता हूँ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करउ बेनती अति घनी इहु जीउ होमागउ ॥ अरथ आन सभि वारिआ प्रिअ निमख सोहागउ ॥२॥

मूलम्

करउ बेनती अति घनी इहु जीउ होमागउ ॥ अरथ आन सभि वारिआ प्रिअ निमख सोहागउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। अति घनी = बहुत ज्यादा। जीउ = जिंद। होमागउ = मैं वार दूँगा। अरथ आन = और (सारे) पदार्थ। सभि = सारे। वारिआ = कुर्बान किए। प्रिअ सुहागउ = प्यारे सोहाग से, प्यारे के मिलाप के आनंद से। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय।2।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर पर) मैं बहुत ही विनम्रता से प्रार्थनाएं करूँगा, अपनी ये जिंद भी कुर्बान कर दूँगा। प्यारे के एक-पल भर के मिलाप के आनंद के बदले में मैं (दुनिया के) सारे पदार्थ सदके कर दूँगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच संगु गुर ते छुटे दोख अरु रागउ ॥ रिदै प्रगासु प्रगट भइआ निसि बासुर जागउ ॥३॥

मूलम्

पंच संगु गुर ते छुटे दोख अरु रागउ ॥ रिदै प्रगासु प्रगट भइआ निसि बासुर जागउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच संग = (कामादिक) पाँचों का साथ। ते = से, के द्वारा। छुटे = दूर होता है। दोख = द्वैष। रागउ = राग, मोह। अरु = और। रिदै = हृदय में। प्रगासु = प्रकाश, सही जीवन की रौशनी। निसि = रात। बासुर = दिन। जागउ = मैं जागता हूँ, मैं (कामादिक विकारों के शोर से) सचेत रहता हूँ।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अरि’ और ‘अरु’ का फर्क याद रखने योग्य है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से (मेरे अंदर से कामादिक) पाँचों (विकारों) का साथ खत्म हो गया है, (मेरे अंदर से) द्वैष और मोह दूर हो गए हैं। मेरे हृदय में (सही जीवन का) प्रकाश हो गया है, अब मैं (कामादिक के हमलों से) रात-दिन सचेत रहता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरणि सोहागनि आइआ जिसु मसतकि भागउ ॥ कहु नानक तिनि पाइआ तनु मनु सीतलागउ ॥४॥२॥३२॥

मूलम्

सरणि सोहागनि आइआ जिसु मसतकि भागउ ॥ कहु नानक तिनि पाइआ तनु मनु सीतलागउ ॥४॥२॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। भागउ = बढ़िया किस्मत। तिनि = उसने। सीतलागउ = शीतल, ठंडा ठार।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पर सौभाग्य जागते हैं, वह सोहागन स्त्री की तरह (गुरु की) शरण पड़ता है, (गुरु की कृपा से) उसने प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया है, उसका मन, उसका शरीर (कामादिक विकारों से निजात हासिल करके) ठंडा-ठार हो जाता है।4।2।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ लाल रंगु तिस कउ लगा जिस के वडभागा ॥ मैला कदे न होवई नह लागै दागा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ लाल रंगु तिस कउ लगा जिस के वडभागा ॥ मैला कदे न होवई नह लागै दागा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाल रंगु = (लाल रंग सोहाग की निशानी है। नव = विवाहिता पहले पहल लाल रंग के कपड़े पहनती है) सोहागनों वाला गाढ़ा प्रेम रंग।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कउ, में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

न होवई = ना हो, नहीं होता। दागा = (विकारों के) दाग़।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के सौभाग्य जाग जाएं, उसके ही मन को प्रभु-प्यार का गाढ़ा लाल रंग चढ़ता है। ये रंग ऐसा है कि इसको (विकारों की) मैल नहीं लगती, इसको विकारों का दाग़ नहीं लगता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु पाइआ सुखदाईआ मिलिआ सुख भाइ ॥ सहजि समाना भीतरे छोडिआ नह जाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभु पाइआ सुखदाईआ मिलिआ सुख भाइ ॥ सहजि समाना भीतरे छोडिआ नह जाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखदाईआ = सुख देने वाला। सुख भाइ = सुख के भाव से, आत्मिक आनंद से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। भीतरे = हृदय में, अंदर ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने (सारे) सुखों को देने वाला परमात्मा पा लिया, जिस मनुष्य को आत्मिक आनंद और प्रेम में टिक के प्रभु मिल गया, वह (हमेशा) अंदर से आत्मिक अडोलता में लीन रहता है, (उसको इतना रस आता है कि फिर वह उसको) छोड़ नहीं सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरा मरा नह विआपई फिरि दूखु न पाइआ ॥ पी अम्रितु आघानिआ गुरि अमरु कराइआ ॥२॥

मूलम्

जरा मरा नह विआपई फिरि दूखु न पाइआ ॥ पी अम्रितु आघानिआ गुरि अमरु कराइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। मरा = मौत, आत्मिक मौत। नह विआपई = नहीं व्याप सकते, जोर नहीं डाल सकते। पी = पी के। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। आघानिआ = तृप्त हो जाता है। गुरि = गुरु ने। अमर = अटल आत्मिक जीवन का मालिक।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने अटल आत्मिक जीवन दे दिया, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी के (माया की भूख से) तृप्त हो जाता है। उसकी इस आत्मिक उच्चता को कभी बुढ़ापा नहीं आता, कभी मौत नहीं आती, उसे फिर कभी कोई दुख छू नहीं सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जानै जिनि चाखिआ हरि नामु अमोला ॥ कीमति कही न जाईऐ किआ कहि मुखि बोला ॥३॥

मूलम्

सो जानै जिनि चाखिआ हरि नामु अमोला ॥ कीमति कही न जाईऐ किआ कहि मुखि बोला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। अमोला = जो किसी भी मूल्य से ना मिल सके। किआ कहि = क्या कह के? मुखि = मुँह से। बोला = मैं बोलूँ।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम किसी भी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। इसकी कद्र वही मनुष्य जानता है जिसने कभी चख के देखा है। हे भाई! हरि-नाम का मूल्य बताया नहीं जा सकता। मैं क्या कह के मुँह से (इसका मोल) बताऊँ?।3।

[[0809]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल दरसु तेरा पारब्रहम गुण निधि तेरी बाणी ॥ पावउ धूरि तेरे दास की नानक कुरबाणी ॥४॥३॥३३॥

मूलम्

सफल दरसु तेरा पारब्रहम गुण निधि तेरी बाणी ॥ पावउ धूरि तेरे दास की नानक कुरबाणी ॥४॥३॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफल = फल देने वाला, मानव जीवन का उद्देश्य पूरा करने वाला। पारब्रहम = हे पारब्रहम! गुण निधि = गुणों का खजाना। पावउ = मैं प्राप्त कर लूँ। धूरि = चरणों की धूल। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे परमात्मा! तेरे दर्शन मानव जन्म के उद्देश्य पूरा करने वाले हैं, तेरी महिमा की वाणी गुणों का खजाना है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर) मैं तेरे सेवक के पैरों की खाक़ हासिल कर सकूँ, मैं तेरे सेवक पर से सदके जाऊँ।4।3।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ राखहु अपनी सरणि प्रभ मोहि किरपा धारे ॥ सेवा कछू न जानऊ नीचु मूरखारे ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ राखहु अपनी सरणि प्रभ मोहि किरपा धारे ॥ सेवा कछू न जानऊ नीचु मूरखारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मोहि = मुझे। किरपा धारे = कृपा करके। न जानउ = मैं नहीं जानता। नीच = निम्न आत्मिक जीवन वाला। मूरखारे = मूर्ख।1।
अर्थ: हे प्रभु! मेहर करके तू मुझे अपनी ही शरण में रख। मैं नीच जीवन वाला हूँ, मैं मूर्ख हूँ। मुझ में तेरी सेवा-भक्ति करने की समझ-अक्ल नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानु करउ तुधु ऊपरे मेरे प्रीतम पिआरे ॥ हम अपराधी सद भूलते तुम्ह बखसनहारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मानु करउ तुधु ऊपरे मेरे प्रीतम पिआरे ॥ हम अपराधी सद भूलते तुम्ह बखसनहारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानु = फखर, गर्व। मानु करउ = मैं गर्व करता हूँ, मैं भरोसा रखे बैठा हूँ। ऊपरे = ऊपर ही, पर ही। प्रीतम = हे प्रीतम! सद = सदा। तुम्ह = (तुम्ह)। बखसनहारे = बख्शिश करने की समर्थता रखने वाले, क्षमादायक।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम! हे मेरे प्यारे! हम जीव सदा अपराध करते रहते हैं, भूलें करते रहते हैं, तू हमेशा हमें क्षमा करने वाला है (इसलिए) मैं तेरे पर ही (तेरी बख्शिश पर ही) भरोसा रखता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम अवगन करह असंख नीति तुम्ह निरगुन दातारे ॥ दासी संगति प्रभू तिआगि ए करम हमारे ॥२॥

मूलम्

हम अवगन करह असंख नीति तुम्ह निरगुन दातारे ॥ दासी संगति प्रभू तिआगि ए करम हमारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम करह = हम करते हैं। नीति = नित्य, सदैव। निरगुन दातारे = गुण हीन का दाता। दासी = (तेरी) दासी, माया। तिआगि = बिसार के।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘करह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! हम हमेशा ही अनगिनत अवगुण करते रहते हैं, तू (फिर भी) हम गुण-हीनों को अनेक दातें देने वाला है। हे प्रभु! हमारे नित्य के कर्म तो ये हैं कि हम तुझे भुला के तेरी सेविका (माया) की संगति में टिके रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह देवहु सभु किछु दइआ धारि हम अकिरतघनारे ॥ लागि परे तेरे दान सिउ नह चिति खसमारे ॥३॥

मूलम्

तुम्ह देवहु सभु किछु दइआ धारि हम अकिरतघनारे ॥ लागि परे तेरे दान सिउ नह चिति खसमारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज। अकिरतघनारे = (कृतघ्न = किए उपकार को भुलाने वाले) नाशुक्र। लागि परे = मोह कर रहे हैं। सिउ = साथ। चिति = चिक्त में।3।
अर्थ: हे प्रभु! हम (जीव) अकृतघ्न हैं (एहसान फरामोश हैं), तू (फर भी) मेहर करके हमें हरेक चीज़ देता है। हे पति-प्रभु! हम तुझे अपने चिक्त में नहीं बसाते, सदा तेरी दी हुई दातों को ही चिपके रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझ ते बाहरि किछु नही भव काटनहारे ॥ कहु नानक सरणि दइआल गुर लेहु मुगध उधारे ॥४॥४॥३४॥

मूलम्

तुझ ते बाहरि किछु नही भव काटनहारे ॥ कहु नानक सरणि दइआल गुर लेहु मुगध उधारे ॥४॥४॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। बाहरि = आकी, अलग। भव = जनम मरन (का चक्र)। गुर = हे गुरु! लेह उधारे = उद्धार ले, बचा ले। मुगध = मूर्ख।4।
अर्थ: हे (जीवों के) जन्मों के चक्र काटने वाले! (जगत में) कोई भी चीज तुझसे आकी नहीं हो सकती (हमें भी सही जीवन-राह पर डाले रख)। हे नानक! कह: हे दया के श्रोत गुरु! हम तेरी शरण आए हैं, हम मूर्खों को (अवगुणों व भूलों से) बचाए रख।4।4।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ दोसु न काहू दीजीऐ प्रभु अपना धिआईऐ ॥ जितु सेविऐ सुखु होइ घना मन सोई गाईऐ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ दोसु न काहू दीजीऐ प्रभु अपना धिआईऐ ॥ जितु सेविऐ सुखु होइ घना मन सोई गाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहू = किसी को भी। न दीजीऐ = नहीं देना चाहिए। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। जितु = जिसके द्वारा। जितु सेविऐ = जिसकी सेवा भक्ति के द्वारा। घना = बहुत। मन = हे मन! सोई = वही प्रभु।1।
अर्थ: हे मेरे मन! (अपनी की हुई भूलों के कारण मिल रहे दुखों के बारे) किसी और को दोष नहीं देना चाहिए (इन दुखों से बचने के लिए) अपने परमात्मा को (ही) याद करना चाहिए क्योंकि उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से बहुत सुख मिलता है, उसकी ही महिमा के गीत गाने चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहीऐ काइ पिआरे तुझु बिना ॥ तुम्ह दइआल सुआमी सभ अवगन हमा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कहीऐ काइ पिआरे तुझु बिना ॥ तुम्ह दइआल सुआमी सभ अवगन हमा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइ = किस को? दइआल = दया का घर। सुआमी = मालिक। हमा = हमारे में ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक प्रभु! तू तो सदा दया का घर है, सारे अवगुण हम जीवों के ही हैं (जिनके कारण हमें दुख-कष्ट होते हैं)। हे प्यारे प्रभु! (इन दुख-कष्टों से बचने के लिए) तेरे बिना और किस के पास विनती की जाए?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ तुम्ह राखहु तिउ रहा अवरु नही चारा ॥ नीधरिआ धर तेरीआ इक नाम अधारा ॥२॥

मूलम्

जिउ तुम्ह राखहु तिउ रहा अवरु नही चारा ॥ नीधरिआ धर तेरीआ इक नाम अधारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहा = रहूँ, मैं रहता हूँ। चारा = जोर। धर = ओट। नीधरिआ = निओट को, बगैर आसरे वालों को। अधारा = आसरा।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू जैसे मुझे रखता है, मैं उसी तरह रह सकता हूँ, (तेरी रजा के उलट) मेरा कोई जोर नहीं चल सकता। हे प्रभु! तू ही निओटिओं की ओट है, मुझे तो सिर्फ तेरे नाम का ही आसरा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तुम्ह करहु सोई भला मनि लेता मुकता ॥ सगल समग्री तेरीआ सभ तेरी जुगता ॥३॥

मूलम्

जो तुम्ह करहु सोई भला मनि लेता मुकता ॥ सगल समग्री तेरीआ सभ तेरी जुगता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि लेता = मान लेता है। मुकता = (अवगुणों से दुखों से) मुक्त व बचा हुआ। सगल = सारी। समग्री = सारे पदार्थ। जुगता = जुगती, मर्यादा।3।
अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तू करता है उसको जो मनुष्य (अपने) भले के लिए (होता) मान लेता है, वह (दुखों-कष्टों की मार से) बच जाता है। हे प्रभु! जगत के सारे पदार्थ तेरे बनाए हुए हैं, सारी ही सामग्री तेरी ही मर्यादा में चल रही है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन पखारउ करि सेवा जे ठाकुर भावै ॥ होहु क्रिपाल दइआल प्रभ नानकु गुण गावै ॥४॥५॥३५॥

मूलम्

चरन पखारउ करि सेवा जे ठाकुर भावै ॥ होहु क्रिपाल दइआल प्रभ नानकु गुण गावै ॥४॥५॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पखारउ = मैं धोऊँ। करि = कर के। भावै = अच्छा लगे। गावै = गाता रहे।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे मालिक! अगर तुझे अच्छा लगे, तो मैं तेरी सेवा-भक्ति करके तेरे चरण धोता रहूँ (भाव, अहंकार को त्याग के तेरे दर पर गिरा रहूँ)। हे प्रभु! दयावान हो, कृपा कर (ताकि तेरी दया और कृपा के बल पर तेरा दास) नानक तेरे गुण गाता रहे।4।5।35।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मिरतु हसै सिर ऊपरे पसूआ नही बूझै ॥ बाद साद अहंकार महि मरणा नही सूझै ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मिरतु हसै सिर ऊपरे पसूआ नही बूझै ॥ बाद साद अहंकार महि मरणा नही सूझै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिरतु = मृत्यु, मौत। बाद = वाद विवाद, झगड़ा। साद = (पदार्थों के) स्वाद। महि = में।1।
अर्थ: हे भाई! मौत (हरेक मनुष्य के) सिर पर (खड़ी) हस रही है (कि मूर्ख मनुष्य माया के मोह में फंस के अपनी मौत को याद ही नहीं करता, पर) पशु (स्वभाव वाला मनुष्य ये बात) समझता ही नहीं। झगड़ों में (पदार्थों के) स्वादों में, अहंकार में (फंस के) मनुष्य को मौत सूझती ही नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवहु आपना काहे फिरहु अभागे ॥ देखि कसु्मभा रंगुला काहे भूलि लागे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुरु सेवहु आपना काहे फिरहु अभागे ॥ देखि कसु्मभा रंगुला काहे भूलि लागे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभागे = हे अभागे! हे बद्किस्मत! देखि = देख के। रंगुला = सुंदर रंग वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे अभागे! क्यों भटकता फिरता है? अपने गुरु की शरण पड़ा रह। सुंदर रंग वाला कुसंभी (मन-मोहनी माया) देख क्यों गलत रास्ते पड़ रहा है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि करि पाप दरबु कीआ वरतण कै ताई ॥ माटी सिउ माटी रली नागा उठि जाई ॥२॥

मूलम्

करि करि पाप दरबु कीआ वरतण कै ताई ॥ माटी सिउ माटी रली नागा उठि जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरबु = द्रव्य, धन। कीआ = इकट्ठा किया। कै ताई = की खातिर। सिउ = साथ। नागा = नंगा, खाली हाथ।2।
अर्थ: हे भाई! (सारी उम्र) पाप कर कर के ही मनुष्य अपने बरतने के लिए धन एकत्र करता रहा, (पर मौत आने पर इसके शरीर की) मिट्टी धरती से मिल गई, और जीव खाली हाथ ही उठ के चल पड़ा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै कीऐ स्रमु करै ते बैर बिरोधी ॥ अंत कालि भजि जाहिगे काहे जलहु करोधी ॥३॥

मूलम्

जा कै कीऐ स्रमु करै ते बैर बिरोधी ॥ अंत कालि भजि जाहिगे काहे जलहु करोधी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै कीऐ = जिस (संबंधियों) की खातिर। स्रमु = मेहनत। ते = वह (बहुवचन)। अंत कालि = आखिरी समय। भजि जाहिगे = साथ छोड़ जाएंगे। करोधी = क्रोध (की आग) में।3।
अर्थ: जिस संबंधियों की खातिर मनुष्य (धन एकत्र करने की) मेहनत करता है वह (आखिर तक इसका साथ नहीं निबाह सकते, इस वास्ते इसके साथ) वैर करने वाले विरोध करने वाले ही बनते हैं। हे भाई! तू (इनकी खातिर औरों से वैर सहेड़-सहेड़ के) क्यों क्रोध में जलता है? ये तो आखिरी वक्त पर तेरा साथ छोड़ जाएंगें3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दास रेणु सोई होआ जिसु मसतकि करमा ॥ कहु नानक बंधन छुटे सतिगुर की सरना ॥४॥६॥३६॥

मूलम्

दास रेणु सोई होआ जिसु मसतकि करमा ॥ कहु नानक बंधन छुटे सतिगुर की सरना ॥४॥६॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रेण = चरणों की धूल। सोई = वही मनुष्य। मसतकि = माथे पर। करमा = भाग्य।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जागते हैं, वही मनुष्य प्रभु के भगतों की चरण-धूल बनता है। गुरु की शरण पड़ने से (माया के मोह के) बंधन टूट जाते हैं।4।6।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ पिंगुल परबत पारि परे खल चतुर बकीता ॥ अंधुले त्रिभवण सूझिआ गुर भेटि पुनीता ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ पिंगुल परबत पारि परे खल चतुर बकीता ॥ अंधुले त्रिभवण सूझिआ गुर भेटि पुनीता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिंगुल = लूले। परे = पार लांघ गए। खल = मूर्ख बंदे। चतुर = समझदार। बकीता = वक्ता, बोलने वाले, बढ़िया व्याख्यान कर सकने वाले। अंधुले = अंधे मनुष्य को। त्रिभवण = तीनों भवन, सारी दुनिया। गुर भेटि = गुरु को मिल के। पुनीता = पवित्र जीवन वाले।1।
अर्थ: हे मित्र! गुरु को मिल के (मनुष्य) पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, (मानो) पिंगले मनुष्य पहाड़ों से पार लांघ जाते हैं, महा मूर्ख मनुष्य समझदार व्याख्यान-कर्ता बन जाते हैं, अंधे को तीनों भवनों की समझ पड़ जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिमा साधू संग की सुनहु मेरे मीता ॥ मैलु खोई कोटि अघ हरे निरमल भए चीता ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

महिमा साधू संग की सुनहु मेरे मीता ॥ मैलु खोई कोटि अघ हरे निरमल भए चीता ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। साधू संग की = गुरु की संगत की। मीता = हे मित्र! कोटि = करोड़ों। अघ = पाप। निरमल = पवित्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र! गुरु की संगति की महिमा (ध्यान से) सुन। (जो भी मनुष्य नित्य गुरु की संगति में बैठता है, उसका) मन पवित्र हो जाता है, (उसके अंदर से विकारों की) मैल दूर हो जाती है, उसके करोड़ों पाप नाश हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी भगति गोविंद की कीटि हसती जीता ॥ जो जो कीनो आपनो तिसु अभै दानु दीता ॥२॥

मूलम्

ऐसी भगति गोविंद की कीटि हसती जीता ॥ जो जो कीनो आपनो तिसु अभै दानु दीता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीटि = कीड़े ने, विनम्र स्वभाव ने। हसती = हाथी, अहंकार। कीनो = बना लिया। तिसु = उस (मनुष्य) को। अभै = निर्भयता।2।
अर्थ: (हे मित्र! साधु-संगत में आ के की हुई) परमात्मा की भक्ति आश्चर्यजनक (ताकत रखती है, इसकी इनायत से) कीड़ी (विनम्रता) ने हाथी (अहंकार) को जीत लिया है। (भक्ति पर प्रसन्न हो के) जिस-जिस मनुष्य को (परमात्मा ने) अपना बना लिया, उसको परमात्मा ने निर्भयता की दाति दे दी।2।

[[0810]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंघु बिलाई होइ गइओ त्रिणु मेरु दिखीता ॥ स्रमु करते दम आढ कउ ते गनी धनीता ॥३॥

मूलम्

सिंघु बिलाई होइ गइओ त्रिणु मेरु दिखीता ॥ स्रमु करते दम आढ कउ ते गनी धनीता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिंघु = शेर, अहंकार। बिलाई = बिल्ली, निम्रता वाला स्वभाव। त्रिणु = तृण, तीला, गरीबी स्वभाव। मेरु = मेरु पर्वत, बड़ी ताकत। स्रमु = श्रम, मेहनत। दम आढ कउ = आधे दाम में, आधी कौड़ी के लिए। गनी = ग़नी, दौलतमंद। धनीता = धनी, धनाढ।3।
अर्थ: (हे मित्र! गुरु की संगति की इनायत से) शेर (अहंकार) बिल्ली (निम्रता) बन जाता है, तीला (गरीबी स्वभाव) सुमेर पर्वत (जैसी बहुत बड़ी ताकत) दिखने लग जाता है। (जो मनुष्य पहले) आधी-आधी कौड़ी के लिए धक्के खाते फिरते हैं, वे दौलत-मंद धनाढ बन जाते हैं (माया की ओर से बेमुथाज हो जाते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवन वडाई कहि सकउ बेअंत गुनीता ॥ करि किरपा मोहि नामु देहु नानक दर सरीता ॥४॥७॥३७॥

मूलम्

कवन वडाई कहि सकउ बेअंत गुनीता ॥ करि किरपा मोहि नामु देहु नानक दर सरीता ॥४॥७॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहि सकउ = मैं बता सकूँ। गुनीता = गुणों के मालिक। दर सरीता = दर का गुलाम।4।
अर्थ: (हे मित्र! साधु-संगत में से मिलते हरि-नाम की) मैं कौन-कौन सी महिमा बताऊँ? परमात्मा का नाम बेअंत गुणों का मालिक है। हे नानक! अरदास कर, और, (कह: हे प्रभु!) मैं तेरे दर का गुलाम हूँ, मेहर कर और, मुझे अपना नाम बख्श।4।7।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ अह्मबुधि परबाद नीत लोभ रसना सादि ॥ लपटि कपटि ग्रिहि बेधिआ मिथिआ बिखिआदि ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ अह्मबुधि परबाद नीत लोभ रसना सादि ॥ लपटि कपटि ग्रिहि बेधिआ मिथिआ बिखिआदि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंबुद्धि, अहंकार वाली मति, मैं मैं करने वाली अक्ल। परबाद = प्रवाद, दूसरे को वंगारने वाले जोश भरे कड़वे बोल। नीत = नित्य, सदा। सादि = स्वाद में। रसना = जीभ। लपटि = लिपट के, फस के। कपटि = कपट में, ठगी फरेब में। ग्रिहि = घर (के मोह) में। मिथिआ = नाशवान। बिखिआद = बिखिआ आदि, माया वगैरा।1।
अर्थ: (प्रभु के नाम से टूट के मनुष्य) अहंकार की बुद्धि के आसरे दूसरों को ललकारने वाले कड़वे बोल बोलता है, सदा लालच और जीभ के स्वाद में (फसा रहता है); घर (के मोह) में, ठगी-फरेब में फंस के, नाशवान माया (के मोह) में भेदा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी पेखी नेत्र महि पूरे गुर परसादि ॥ राज मिलख धन जोबना नामै बिनु बादि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसी पेखी नेत्र महि पूरे गुर परसादि ॥ राज मिलख धन जोबना नामै बिनु बादि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखी = देखी है। महि = में। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। बादि = व्यर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से मैंने अपनी आँखों से ही (जगत के पदार्थों की) ऐसी हालत देख ली है (कि दुनिया की) बादशाहियाँ, ज़मीनों (की मल्कियत), धन और जवानी (आदि सारे ही) परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूप धूप सोगंधता कापर भोगादि ॥ मिलत संगि पापिसट तन होए दुरगादि ॥२॥

मूलम्

रूप धूप सोगंधता कापर भोगादि ॥ मिलत संगि पापिसट तन होए दुरगादि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धूप = धुखाने वाली सुगंधित वस्तुएं। सोगंधता = खुशबू। कापर = कपड़े। भोगादि = भोग आदि, खाने वाले बढ़िया पदार्थ। संगि = साथ। पापिसट = महा पापी। तन = शरीर। दुरगादि = दुर्गन्धि।2।
अर्थ: (प्रभु के नाम से विछुड़ के) महा विकारी मनुष्य (शरीर का गर्व करता है, पर इस विकारी) शरीर के साथ छू के सुंदर-सुंदर पदार्थ, धूप आदि सुगंधियाँ, बढ़िया कपड़े, बढ़िया पकवान (ये सारे ही) दुर्गन्धि देने वाले बन जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फिरत फिरत मानुखु भइआ खिन भंगन देहादि ॥ इह अउसर ते चूकिआ बहु जोनि भ्रमादि ॥३॥

मूलम्

फिरत फिरत मानुखु भइआ खिन भंगन देहादि ॥ इह अउसर ते चूकिआ बहु जोनि भ्रमादि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फिरत फिरत = (कई जूनियों में) भटकते भटकते। खिन भंगन = एक छिन में नाश हो जाने वाला। देहादि = देह, शरीर। अउसर = अवसर। ते = से। चुकिआ = चूक गया, (मौका) हाथ से निकल गया। भ्रमादि = भटकता है।3।
अर्थ: हे भाई! अनेक जूनियों में भटकता-भटकता जीव मनुष्य बनता है, ये शरीर भी एक छिन में नाश हो जाने वाला है (इसका गुमान भी कैसा? इस शरीर में भी परमात्मा के नाम से टूटा रहता है)। इस मौके से विछुड़ा हुआ जीव (फिर) अनेक जूनियों में जा भटकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ किरपा ते गुर मिले हरि हरि बिसमाद ॥ सूख सहज नानक अनंद ता कै पूरन नाद ॥४॥८॥३८॥

मूलम्

प्रभ किरपा ते गुर मिले हरि हरि बिसमाद ॥ सूख सहज नानक अनंद ता कै पूरन नाद ॥४॥८॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरपा ते = कृपा से। बिसमाद = विस्माद, आश्चर्यरूप। ता कै = उस (मनुष्य) के हृदय में। नाद = धुनि, शब्द, बाजे। सहज = आत्मिक अडोलता।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा की कृपा से जो मनुष्य गुरु को मिल गए, उन्होंने आश्चर्य रूप से हरि का नाम जपा, उनके हृदय में आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद के बाजे सदा बजने लग पड़े।4।8।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ चरन भए संत बोहिथा तरे सागरु जेत ॥ मारग पाए उदिआन महि गुरि दसे भेत ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ चरन भए संत बोहिथा तरे सागरु जेत ॥ मारग पाए उदिआन महि गुरि दसे भेत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोहिथा = जहाज। सागरु = (संसार) समुंदर। जेत = जितु, जिस (जहाज) द्वारा। मारग = रास्ता। उदिआन = जंगल, (विकारों की ओर ले जाने वाला) भटकाव भरा राह। गुरि = गुरु ने।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को हरि-नाम स्मरण का) भेद गुरु ने बता दिया, उसने (विकारों की ओर ले जाने वाले) बीयाबान-जंगल में (भी जीवन का सही) रास्ता ढूँढ लिया, गुरु के चरण (उस मनुष्य के लिए) जहाज बन गए जिस (जहाज) के माध्यम से वह मनुष्य (संसार-) समुंदर से पार लांघ गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि हरि हरि हरि हरे हरि हरि हरि हेत ॥ ऊठत बैठत सोवते हरि हरि हरि चेत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि हरि हरि हरि हरे हरि हरि हरि हेत ॥ ऊठत बैठत सोवते हरि हरि हरि चेत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हेत = हित, प्यार। चेत = चेते कर, स्मरण कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! उठते-बैठते-सोए हुए (हर वक्त) परमात्मा का नाम याद करा कर। सदा ही हर वक्त परमात्मा के नाम में प्यार डाल।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच चोर आगै भगे जब साधसंगेत ॥ पूंजी साबतु घणो लाभु ग्रिहि सोभा सेत ॥२॥

मूलम्

पंच चोर आगै भगे जब साधसंगेत ॥ पूंजी साबतु घणो लाभु ग्रिहि सोभा सेत ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच = (कामादिक) पाँच। आगै = आगे से, मुकाबले पर। भगे = दौड़ जाते हैं। संगेत = संगति। पूंजी = (आत्मिक जीवन वाली) राशि, संपत्ति, धन-दौलत। घणो = बहुत। ग्रिहि = घर में, प्रभु की हजूरी में। सेत = से, साथ।2।
अर्थ: (हे भाई!) जब (मनुष्य) साधु-संगत में (जा टिकता है, तब कामादिक) पाँचों चोर उससे टकराने का साहस नहीं करते (उससे दूर भाग जाते हैं)। (तब ना सिर्फ) उसके आत्मिक जीवन की सारी की सारी राशि-पूंजी (लूटे जाने से) बच जाती है। (बल्कि, उसको इस नाम के व्यापार में) बहुत सारा फायदा भी होता है, और परलोक में शोभा ले के जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहचल आसणु मिटी चिंत नाही डोलेत ॥ भरमु भुलावा मिटि गइआ प्रभ पेखत नेत ॥३॥

मूलम्

निहचल आसणु मिटी चिंत नाही डोलेत ॥ भरमु भुलावा मिटि गइआ प्रभ पेखत नेत ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहचल = अडोल। डोलेत = (विकारों में) डोलता। भरमु = भटकना। नेत = नेत्री, आँखों से।3।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से हर जगह) आँखों से परमात्मा के दर्शन करके उस मनुष्य की भटकना समाप्त हो जाती है, गलत रास्ते पर जाने वाली आदत दूर हो जाती है, (विकारों के मुकाबले में) उसका हृदय-आसन अटल हो जाता है, उसकी (हरेक किस्म की) चिन्ता मिट जाती है, वह मनुष्य (विकारों के सामने) डोलता नहीं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गभीर गुन नाइका गुण कहीअहि केत ॥ नानक पाइआ साधसंगि हरि हरि अम्रेत ॥४॥९॥३९॥

मूलम्

गुण गभीर गुन नाइका गुण कहीअहि केत ॥ नानक पाइआ साधसंगि हरि हरि अम्रेत ॥४॥९॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गभीर = गंभीर, गहरा (समुंदर)। गुण नाइका = गुणों का मालिक, गुणों का खजाना। कहीअहि = कहे जाते हैं। कहीअहि केत = कितने (गुण) कहे जा सकते? साध संगि = गुरु की संगति में। अंम्रेत = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम जल।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा गुणों का अथाह समुंदर है, गुणों का खजाना है (बयान करने से) उसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। पर जो मनुष्य साधु-संगत में टिक के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीता है, उसको परमात्मा का मिलाप प्राप्त हो जाता है।4।9।39।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु साधू जो जीवना तेतो बिरथारी ॥ मिलत संगि सभि भ्रम मिटे गति भई हमारी ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु साधू जो जीवना तेतो बिरथारी ॥ मिलत संगि सभि भ्रम मिटे गति भई हमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू = गुरु। तेतो = उतना ही, वह सारा ही। संग = (गुरु के) साथ। भ्रम = भटकना। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु (के मिलाप) के बिना जितनी भी उम्र गुजारनी है, वह सारी व्यर्थ चली जाती है। गुरु की संगति में मिलते ही सारी भटकनें मिट जाती हैं, (गुरु की कृपा से) हम जीवों को उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा दिन भेटे साध मोहि उआ दिन बलिहारी ॥ तनु मनु अपनो जीअरा फिरि फिरि हउ वारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जा दिन भेटे साध मोहि उआ दिन बलिहारी ॥ तनु मनु अपनो जीअरा फिरि फिरि हउ वारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा दिन = जिस दिन। साधू = गुरु जी। भेटे = मिले। मोहि = मुझे। उआ दिन = उस दिन से। जीअरा = प्यारी जीवात्मा। हउ = मैं। वारी = वारूँ, कुर्बान करूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं तो उस दिन पर सदके जाता हूँ, जिस दिन मुझे मेरे गुरु (पातशाह) मिल गए। अब मैं (अपने गुरु से) अपना शरीर, अपना मन, अपनी प्यारी जीवात्मा बारंबार सदके करता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एत छडाई मोहि ते इतनी द्रिड़तारी ॥ सगल रेन इहु मनु भइआ बिनसी अपधारी ॥२॥

मूलम्

एत छडाई मोहि ते इतनी द्रिड़तारी ॥ सगल रेन इहु मनु भइआ बिनसी अपधारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एत = ऐत (अपराधी), इतना अपनत्व। मोहि ते = मुझसे। इतनी = इतनी (विनम्रता)। द्रिढ़तारी = दृढ़ता। रेन = चरण धूल। अपधारी = अपनत्व।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु ने कृपा करके) मुझसे अपनत्व (मोह की पकड़) इतना छुड़वा दिया है, और विनम्रता (मेरे हृदय में) इतनी पक्की कर दी है कि अब मेरा ये मन सभी की चरण-धूल बन गया है, हर वक्त अपने ही स्वार्थ का ख्याल मेरे अंदर से खत्म हो गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंद चिंद पर दूखना ए खिन महि जारी ॥ दइआ मइआ अरु निकटि पेखु नाही दूरारी ॥३॥

मूलम्

निंद चिंद पर दूखना ए खिन महि जारी ॥ दइआ मइआ अरु निकटि पेखु नाही दूरारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंद चिंद = निंदा का ख्याल। पर दूखना = दूसरों का बुरा चितवना। ए = ये विकार। जारी = जला दिए। मइआ = तरस। अरु = और। निकटि पेखु = प्रभु को नजदीक देखना। दूरारी = दूर।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अरि’ और ‘अरु’ में फर्क याद रखने योग्य है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु ने मेरे अंदर से पराई निंदा का ख्याल, दूसरों का बुरा देखना - ये सब कुछ एक छिन में ही जला दिए हैं। (दूसरों पर) दया (करनी), (जरूरतमंदों पर) तरस (करना), और (परमात्मा को हर वक्त) अपने नजदीक देखना- ये हर वक्त मेरे अंदर बसते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन मन सीतल भए अब मुकते संसारी ॥ हीत चीत सभ प्रान धन नानक दरसारी ॥४॥१०॥४०॥

मूलम्

तन मन सीतल भए अब मुकते संसारी ॥ हीत चीत सभ प्रान धन नानक दरसारी ॥४॥१०॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीतल = ठंडे ठार, शांत। अब = अब। मुकते = आजाद। संसारी = दुनियां के बंधनों से। हीत = हित, लगन। चीत = चिक्त, तवज्जो, ध्यान। प्रान = जिंद।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जब से मुझे गुरु मिल गया है, उसकी मेहर से) अब मेरा मन और तन (विकारों की तरफ से) शांत हो गए हैं, दुनियाँ के मोह और बंधनो से आजाद हो गए हैं। अब मेरी लगन, मेरी तवज्जो, मेरी जीवात्मा प्रभु के दर्शनों में ही मगन है, प्रभु के दर्शन ही मेरे वास्ते धन (पदार्थ) हैं।4।10।40।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ टहल करउ तेरे दास की पग झारउ बाल ॥ मसतकु अपना भेट देउ गुन सुनउ रसाल ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ टहल करउ तेरे दास की पग झारउ बाल ॥ मसतकु अपना भेट देउ गुन सुनउ रसाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ = करूँ, करता रहूँ। पर = पैर। झारउ = झाड़ दूँ। बाल = केसों से। मसतकु = माथा, सिर। भेट देउ = मैं अर्पण कर दूँ। सुनउ = सुनूँ। रसाल = (रस आलय) स्वादिष्ट।1।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं तेरे सेवक की सेवा करता रहूँ। मैं (तेरे सेवक के) चरण (अपने) केसों से झाड़ता रहूँ। मैं अपना सिर (तेरे सेवक के आगे) भेटा कर दूँ, (और उससे तेरे) रस भरे गुण सुनता रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह मिलते मेरा मनु जीओ तुम्ह मिलहु दइआल ॥ निसि बासुर मनि अनदु होत चितवत किरपाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुम्ह मिलते मेरा मनु जीओ तुम्ह मिलहु दइआल ॥ निसि बासुर मनि अनदु होत चितवत किरपाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीओ = जी जाता है, आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। दइआल = हे दया के श्रोत! निसि = रात। बासुर = दिन। मनि = मन में (शब्द ‘मनि’ और ‘मनु’ का व्याकर्णिक अर्थ याद रखें)। किरपाल = हे कृपा के श्रोत!।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया के श्रोत प्रभु! तुझे मिलके मेरा मन आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। हे कृपा के घर प्रभु! (तेरे गुण) याद करते हुए दिन-रात मेरे मन में आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत उधारन साध प्रभ तिन्ह लागहु पाल ॥ मो कउ दीजै दानु प्रभ संतन पग राल ॥२॥

मूलम्

जगत उधारन साध प्रभ तिन्ह लागहु पाल ॥ मो कउ दीजै दानु प्रभ संतन पग राल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उधारन = बचाने वाले। साध प्रभ = प्रभु का भजन करने वाले गुरमुख। तिन्ह पाल = तिन्ह पाल, उनके पल्ले, उनकी शरण। मो कउ = मुझे। प्रभ = हे प्रभु! पग राल = पैरों की धूल।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले गुरमुख मनुष्य दुनिया (के लोगों) को (विकारों से) बचाने की स्मर्था वाले होते हैं, (अगर विकारों से बचने की आवश्यक्ता है तो) उनकी शरण पड़े रहो। हे प्रभु! मुझे (भी) अपने संतजनों की चरणों की धूल का दान दे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उकति सिआनप कछु नही नाही कछु घाल ॥ भ्रम भै राखहु मोह ते काटहु जम जाल ॥३॥

मूलम्

उकति सिआनप कछु नही नाही कछु घाल ॥ भ्रम भै राखहु मोह ते काटहु जम जाल ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उकति = युक्ति, दलील। घाल = मेहनत, सेवा। भै = भय, डर। मोह ते = मोह से। जम जाल = जम का जाल।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! मेरे पल्ले दलील करने की स्मर्था नहीं, मेरे अंदर कोई समझदारी नहीं, मैंने किसी सेवा की मेहनत नहीं की, (मेरी तो तेरे ही दर पर आरजू है - हे प्रभु!) मुझे भटकनों से, डरों से, मोह से बचा ले (ये भटकन, ये डर, ये मोह सब जम के जाल, जम के वश में डालने वाले हैं, मेरा यह) जमों का जाल काट दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनउ करउ करुणापते पिता प्रतिपाल ॥ गुण गावउ तेरे साधसंगि नानक सुख साल ॥४॥११॥४१॥

मूलम्

बिनउ करउ करुणापते पिता प्रतिपाल ॥ गुण गावउ तेरे साधसंगि नानक सुख साल ॥४॥११॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनउ = विनय, विनती। करउ = करूँ। करुणा पते = (करुणा = तरस, दया। पते = हे पति!) हे दया के मालिक! गावउ = गाऊँ। साल = (शाला) घर। सुख साल = सुखों का घर।4।
अर्थ: हे तरस के श्रोत! हे रक्षा करने के समर्थ प्रभु! मैं (तेरे आगे) विनती करता हूँ। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर) साधु-संगत में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ। (हे प्रभु!) तेरी साधु-संगत सुखों का घर है।4।11।41।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ कीता लोड़हि सो करहि तुझ बिनु कछु नाहि ॥ परतापु तुम्हारा देखि कै जमदूत छडि जाहि ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ कीता लोड़हि सो करहि तुझ बिनु कछु नाहि ॥ परतापु तुम्हारा देखि कै जमदूत छडि जाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीता लोड़हि = (जो कुछ) तू करना चाहता है। करहि = तू करता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तू करना चाहता है, वही तू करता है, तेरी प्रेरणा के बिना (जीवों से) कुछ नहीं हो सकता। तेरा तेज-प्रताप देख के जमदूत (भी जीव को) छोड़ जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्हरी क्रिपा ते छूटीऐ बिनसै अहमेव ॥ सरब कला समरथ प्रभ पूरे गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुम्हरी क्रिपा ते छूटीऐ बिनसै अहमेव ॥ सरब कला समरथ प्रभ पूरे गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: क्रिपा ते = कृपा से। अहंमेव = (अहं+एव = मैं ही हूँ) अहंकार। कला = ताकत। गुरदेव = हे सबसे बड़े देवते!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभु! हे गुणों से भरपूर प्रभु! हे सबसे बड़े देवते प्रभु! तेरी मेहर से (ही विकारों से) बच सकते हैं। (तेरी कृपा से ही) (जीवों का) अहंकार दूर हो सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोजत खोजत खोजिआ नामै बिनु कूरु ॥ जीवन सुखु सभु साधसंगि प्रभ मनसा पूरु ॥२॥

मूलम्

खोजत खोजत खोजिआ नामै बिनु कूरु ॥ जीवन सुखु सभु साधसंगि प्रभ मनसा पूरु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामै बिनु = (परमात्मा के) नाम के बिना। कूरु = झूठ। सभु = सारा। प्रभ = हे प्रभु! मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। पूरु = पूरा कर।2।
अर्थ: हे प्रभु! तलाश करते-करते (आखिर मैंने ये बात) जान ली है कि (तेरे) नाम के बिना (और सब कुछ) नाशवान है। जिंदगी का सारा सुख साधु-संगत में (ही प्राप्त होता है)। हे प्रभु! (मुझे भी साधु-संगत में टिकाए रख, मेरी ये) तमन्ना पूरी कर।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितु जितु लावहु तितु तितु लगहि सिआनप सभ जाली ॥ जत कत तुम्ह भरपूर हहु मेरे दीन दइआली ॥३॥

मूलम्

जितु जितु लावहु तितु तितु लगहि सिआनप सभ जाली ॥ जत कत तुम्ह भरपूर हहु मेरे दीन दइआली ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस में। जितु जितु = जिस जिस काम में। लगहि = (जीव) लगते हैं। सभ = सारी। जाली = जला दी। जत कत = जहाँ कहाँ।, हर जगह।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस जिस काम में तू (जीवों को) लगाता है, उसी उसी में (जीव) लगते हैं। (इस वास्ते) हे प्रभु! मैंने अपनी सारी चतुराई खत्म कर दी है। (और, तेरी रजा में चलने की चाहत रखता हूँ)। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! तू (सारे जगत में) हर जगह मौजूद है (तुझसे कोई आकी नहीं हो सकता)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु किछु तुम ते मागना वडभागी पाए ॥ नानक की अरदासि प्रभ जीवा गुन गाए ॥४॥१२॥४२॥

मूलम्

सभु किछु तुम ते मागना वडभागी पाए ॥ नानक की अरदासि प्रभ जीवा गुन गाए ॥४॥१२॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुम ते = तेरे से। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन प्राप्त करूँ। गाए = गा के।4।
अर्थ: हे प्रभु! (हम जीव) सब कुछ तुझसे ही माँग सकते हैं। (जो) भाग्यशाली (मनुष्य माँगता है, वह) प्राप्त कर लेता है। हे प्रभु! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पर) अरदास है (मेहर कर, मैं नानक) तेरे गुण गा गा के आत्मिक जीवन हासिल कर लूँ।4।12।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ साधसंगति कै बासबै कलमल सभि नसना ॥ प्रभ सेती रंगि रातिआ ता ते गरभि न ग्रसना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ साधसंगति कै बासबै कलमल सभि नसना ॥ प्रभ सेती रंगि रातिआ ता ते गरभि न ग्रसना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बासबै = के बसेरे से। कलमल = पाप। सभि = सारे। सेती = साथ। रंगि = प्रेम रंग में। ता ते = उस (प्रेम रंग) के कारण। ते = से, के कारण। गरभि = गर्भ में, जनम मरण के चक्कर में। ग्रसना = फसना।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिके रहने से सारे पाप दूर हो जाते हैं। (साधु-संगत की इनायत से) परमात्मा से (सांझ बनने से) परमात्मा के प्रेम-रंग में रंग जाते हैं, जिसके कारण जनम-मरण के चक्कर में नहीं फसते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु कहत गोविंद का सूची भई रसना ॥ मन तन निरमल होई है गुर का जपु जपना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नामु कहत गोविंद का सूची भई रसना ॥ मन तन निरमल होई है गुर का जपु जपना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूची = स्वच्छ, पवित्र। रसना = जीभ। निर्मल = साफ, पवित्र। होई है = हो जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपने से (मनुष्य की) जीभ पवित्र हो जाती है। गुरु का (बताया हुआ हरि नाम का) जाप-जपने से मन पवित्र हो जाता है, शरीर पवित्र हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि रसु चाखत ध्रापिआ मनि रसु लै हसना ॥ बुधि प्रगास प्रगट भई उलटि कमलु बिगसना ॥२॥

मूलम्

हरि रसु चाखत ध्रापिआ मनि रसु लै हसना ॥ बुधि प्रगास प्रगट भई उलटि कमलु बिगसना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसु = स्वाद। ध्रापिआ = तृप्त हो गया। मनि = मन में। हसना = खिल उठा। उलटि = (माया के मोह से) पलट के। कमलु = हृदय का कमल फूल। बिगसना = खिल पड़ा।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम का रस चखने से (माया की लालच से) तृप्त हो जाते हैं, परमात्मा का नाम-रस मन में बसा के सदा खिले रहा जाता है। बुद्धि में (सही जीवन मार्ग का) प्रकाश हो जाता है, बुद्धि उज्जवल हो जाती है। हृदय-कमल (माया के मोह की ओर से) पलट के सदा खिला रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतल सांति संतोखु होइ सभ बूझी त्रिसना ॥ दह दिस धावत मिटि गए निरमल थानि बसना ॥३॥

मूलम्

सीतल सांति संतोखु होइ सभ बूझी त्रिसना ॥ दह दिस धावत मिटि गए निरमल थानि बसना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीतल = ठंडा ठार। सभ त्रिसना = सारी प्यास (माया की)। दह दिस = दसों तरफ। धावत = दौड़ भाग। थानि = जगह में।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम का जाप करने से मनुष्य का मन) ठंडा-ठार हो जाता है, (मन में) शांति और संतोख पैदा हो जाते हैं, माया वाली सारी तृष्णा समाप्त हो जाती है। (माया की खातिर) दसों दिशाओं में (सारे जगत में) दौड़-भाग मिट जाती है, (प्रभु के चरणों में) पवित्र स्थल पर निवास हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखनहारै राखिआ भए भ्रम भसना ॥ नामु निधान नानक सुखी पेखि साध दरसना ॥४॥१३॥४३॥

मूलम्

राखनहारै राखिआ भए भ्रम भसना ॥ नामु निधान नानक सुखी पेखि साध दरसना ॥४॥१३॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखनहारै = रक्षा कर सकने वाले प्रभु ने। भ्रम = भटकना, भ्रम वहिम। भसना = भस्म, राख। निधान = खजाने। पेखि = देख के। साध दरसना = गुरु का दर्शन।4।
अर्थ: हे नानक! रक्षा करने में समर्थ प्रभु ने जिस मनुष्य की (विकारों से) रक्षा की, उसकी सारी ही भटकनें (जल के) राख हो गई। गुरु का दर्शन करके उस मनुष्य ने परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया (जो मानो, दुनिया के सारे ही) खजाने (हैं), (और नाम की इनायत से वह सदा के लिए) सुखी हो गया।4।13।43।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ पाणी पखा पीसु दास कै तब होहि निहालु ॥ राज मिलख सिकदारीआ अगनी महि जालु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ पाणी पखा पीसु दास कै तब होहि निहालु ॥ राज मिलख सिकदारीआ अगनी महि जालु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पीसु = पीसना। दास कै = प्रभु के सेवक के घर में। निहालु = आनंद भरपूर। मिलख = भूमि (की मल्कियत)। जालु = जला के।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के भक्त के घर में पानी (ढोया कर), पंखा (फेरा कर), (आटा) पीसा) कर, तब ही तू आनंद भोगेगा। दुनियाँ की हकूमतें, जमीनों की मल्कियत, सरदारियाँ - इन को आग में जला के (इन का लालच छोड़ दे)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना का छोहरा तिसु चरणी लागि ॥ माइआधारी छत्रपति तिन्ह छोडउ तिआगि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संत जना का छोहरा तिसु चरणी लागि ॥ माइआधारी छत्रपति तिन्ह छोडउ तिआगि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छोहरा = लड़का, नौकर। छत्रपति = राजा, छत्र के मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो गुरमुख मनुष्यों का नौकर हो, उसके चरणों में लगा कर। (हे भाई!) मैं तो (जो) बड़े-बड़े धनाढ राजे (हों) उनका साथ छोड़ने को तैयार होऊँगा (पर संतजनों के सेवकों के चरणों में रहना पसंद करूँगा)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन का दाना रूखा सो सरब निधान ॥ ग्रिहि साकत छतीह प्रकार ते बिखू समान ॥२॥

मूलम्

संतन का दाना रूखा सो सरब निधान ॥ ग्रिहि साकत छतीह प्रकार ते बिखू समान ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाना = अन्न। सरब = सारे। निधान = खजाने। ग्रिहि = घर में। साकत = प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य। ग्रिहि साकत = साकत के घर में। छतीह प्रकार = छक्तिस किस्मों के (भोजन)। बिखु = जहर। समान = बराबर, जैसे।2।
अर्थ: हे भाई! गुरमुखों के घर की रूखी रोटी (अगर मिले तो उसको दुनिया के) सारे खजाने (समझ)। पर परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के घर में (यदि) कई किस्म के भोजन (मिलें, तो) उसे जहर जैसा समझ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत जना का लूगरा ओढि नगन न होई ॥ साकत सिरपाउ रेसमी पहिरत पति खोई ॥३॥

मूलम्

भगत जना का लूगरा ओढि नगन न होई ॥ साकत सिरपाउ रेसमी पहिरत पति खोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लूगरा = फटी हुई लोई। ओढि = पहन के। पिरपाउ = सिरोपा। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु की भक्ति करने वाले मनुष्यों से अगर फटा हुआ कपड़े का टुकड़ा भी मिल जाए, तो उसे पहन के नंगा होने का डर नहीं रहता। प्रभु से टूटे हुए मनुष्य से अगर रेशमी सिरोपा भी मिले, उसके पहनने से अपनी इज्जत गवा लेते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत सिउ मुखि जोरिऐ अध वीचहु टूटै ॥ हरि जन की सेवा जो करे इत ऊतहि छूटै ॥४॥

मूलम्

साकत सिउ मुखि जोरिऐ अध वीचहु टूटै ॥ हरि जन की सेवा जो करे इत ऊतहि छूटै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। मुखि जोरिऐ = अगर मुँह जोड़ा जाए, अगर मेल जोल रखा जाए। इत ऊतहि = इत ही उत ही, इस लोक में भी परलोक में भी।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य से मेल-जोल रखने से वह मेल-जोल (सिरे नहीं चढ़ता) अध-बीच में ही टूट जाता है। जो मनुष्य प्रभु की भक्ति करने वाले बंदों की सेवा करता है, वह इस लोक में भी और परलोक में भी (झगड़ों-बखेड़ों से) बचा रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ किछु तुम्ह ही ते होआ आपि बणत बणाई ॥ दरसनु भेटत साध का नानक गुण गाई ॥५॥१४॥४४॥

मूलम्

सभ किछु तुम्ह ही ते होआ आपि बणत बणाई ॥ दरसनु भेटत साध का नानक गुण गाई ॥५॥१४॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। बणत = रचना। दरसनु भेटत = दर्शन करते हुए। भेटत = मिल के, परसने से। साधू = गुरु। गाई = मैं गाऊँ।5।
अर्थ: (पर, हे प्रभु! जीवों के भी क्या वश? जीवों का) हरेक काम तेरी प्रेरणा से ही होता है। तूने स्वयं ही ये सारी खेल रची हुई है। हे नानक! (अरदास कर, और कह: हे प्रभु! मेहर कर) मैं गुरु के दर्शन करके (गुरु की संगति में रह के सदा) तेरे गुण गाता रहूँ।5।14।44।

[[0812]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ स्रवनी सुनउ हरि हरि हरे ठाकुर जसु गावउ ॥ संत चरण कर सीसु धरि हरि नामु धिआवउ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ स्रवनी सुनउ हरि हरि हरे ठाकुर जसु गावउ ॥ संत चरण कर सीसु धरि हरि नामु धिआवउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रवनी = श्रवणों से, कानों से। सुनउ = मैं सुनूँ। जसु = यश, महिमा। गावउ = गाऊँ। कर = हाथ (बहुवचन)। सीसु = सिर। धरि = धर के।1।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं अपने कानों से सदा (तुझ) हरि का नाम सुनता रहूँ, (तुझ) ठाकुर की महिमा गाता रहूँ। संतों के चरणों पर मैं अपने दोनों हाथ और अपना सिर रख कर (तुझ) हरि का नाम स्मरण करता रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा दइआल प्रभ इह निधि सिधि पावउ ॥ संत जना की रेणुका लै माथै लावउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करि किरपा दइआल प्रभ इह निधि सिधि पावउ ॥ संत जना की रेणुका लै माथै लावउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = (क्रिया)। प्रभ = हे प्रभु! निधि = नो खजाने। सिधि = अठारह सिद्धियाँ। पावउ = पाऊँ। रेणुका = चरण धूल। माथै = माथे पर। लै = ले कर। लावउ = लगाऊँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया के श्रोत प्रभु! मेहर कर, मैं तेरे संत-जनों की चरण-धूल ले के अपने माथे पर (सदा) लगाता रहूँ। (मैं तेरे दर से) यह (दाति) हासिल कर लूँ, (यही मेरे वास्ते दुनिया के) नौ खजाने (हैं, यही मेरे वास्ते अठारह) सिद्धियाँ (हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीच ते नीचु अति नीचु होइ करि बिनउ बुलावउ ॥ पाव मलोवा आपु तिआगि संतसंगि समावउ ॥२॥

मूलम्

नीच ते नीचु अति नीचु होइ करि बिनउ बुलावउ ॥ पाव मलोवा आपु तिआगि संतसंगि समावउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। नीच ते नीचु = नीचे से नीचा। होइ = हो के। करि = कर के। बिनउ = विनती। पाव = दोनों पैर। मलोवा = मलूं, मैं मलूँ, मैं घोटूं। आपु = स्वै भाव। तिआगि = त्याग के। संगि = संगति में। समावउ = समाऊँ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘थाव’ है ‘थाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं नीच से नीचा बहुत नीचा हो के (संतों के आगे) विनती करके उनको बुलाता रहूँ, मैं स्वै भाव छोड़ के संतों के पैर मलता रहूँ और संतों की संगति में टिका रहूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासि सासि नह वीसरै अन कतहि न धावउ ॥ सफल दरसन गुरु भेटीऐ मानु मोहु मिटावउ ॥३॥

मूलम्

सासि सासि नह वीसरै अन कतहि न धावउ ॥ सफल दरसन गुरु भेटीऐ मानु मोहु मिटावउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक साँस के साथ। अन = (अन्य) और। अन कतहि = किसी भी और जगह। धावउ = मैं दौड़ूं, मैं भटकूँ। सफल = कामयाब। सफल दरसन = जिसके दर्शन जीवन को कामयाब बनाता है। भेटीऐ = मिल जाए। मिटावउ = समा जाऊ, खुद को मिटा दूँ।3।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मुझे हरेक साँस के साथ कभी तेरा नाम ना भूले (गुरु का दर छोड़ के) मैं किसी और तरफ़ ना भटकता फिरूँ। (हे प्रभु! अगर तेरी मेहर हो तो) मुझे वह गुरु मिल जाए, जिसका दर्शन जीवन को कामयाब कर देता है, (गुरु के दर पर टिक के) मैं (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लूँ, मोह को मिटा दूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतु संतोखु दइआ धरमु सीगारु बनावउ ॥ सफल सुहागणि नानका अपुने प्रभ भावउ ॥४॥१५॥४५॥

मूलम्

सतु संतोखु दइआ धरमु सीगारु बनावउ ॥ सफल सुहागणि नानका अपुने प्रभ भावउ ॥४॥१५॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बनावउ = बनाऊँ। प्रभ भावउ = मैं प्रभु को अच्छा लगूँ।4।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं सत्य को, संतोख को, दया को, धर्म को, (अपने आत्मिक जीवन की) सजावट बनाए रखूँ। हे नानक! (कह: जैसे) सोहागिन स्त्री (अपनी पति को प्यारी लगती है, वैसे ही, अगर उसकी मेहर हो, तो) कामयाब जीवन वाला बन के अपने प्रभु को प्यारा लग सकता हूँ।4।15।45।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ अटल बचन साधू जना सभ महि प्रगटाइआ ॥ जिसु जन होआ साधसंगु तिसु भेटै हरि राइआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ अटल बचन साधू जना सभ महि प्रगटाइआ ॥ जिसु जन होआ साधसंगु तिसु भेटै हरि राइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अटल = कभी ना टलने वाले। साधू बचन = गुरु के वचन। जना = हे भाई! सभ महि = सारी श्रृष्टि में। प्रगटाइआ = प्रगट कर दिया है। साध संगु = गुरु का संग। तिसु = उस (मनुष्य) को। भेटै = मिल जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन कभी टलने वाले नहीं हैं। गुरु ने सारे जगत में ये बात प्रकट रूप से सुना दी है कि जिस मनुष्य को गुरु का संग प्राप्त होता है, उसको प्रभु-पातशाह मिल जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह परतीति गोविंद की जपि हरि सुखु पाइआ ॥ अनिक बाता सभि करि रहे गुरु घरि लै आइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इह परतीति गोविंद की जपि हरि सुखु पाइआ ॥ अनिक बाता सभि करि रहे गुरु घरि लै आइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परतीति = यकीन, निश्चय। जपि = जप के। सभि = सारे जीव। घरि = घर में, प्रभु चरणों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सारे जीव (और-और) अनेक बातें कर कर के थक जाते हैं (और-और बातें सफल नहीं होतीं), गुरु (ही) प्रभु चरणों में (जीव को) ला जोड़ता है। (गुरु ही) परमात्मा के बारे में यह निश्चय (जीव के अंदर पैदा करता है कि) परमात्मा का नाम जप के (मनुष्य) आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरणि परे की राखता नाही सहसाइआ ॥ करम भूमि हरि नामु बोइ अउसरु दुलभाइआ ॥२॥

मूलम्

सरणि परे की राखता नाही सहसाइआ ॥ करम भूमि हरि नामु बोइ अउसरु दुलभाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहसाइआ = शक। करम भूमि = कर्म (बीजने के लिए) धरती, मानव जन्म, मानव शरीर। बोइ = बीजो। अउसरु = अवसर, मौका, मानव जन्म का समय। दुलभाइआ = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु बताता है कि) परमात्मा उस मनुष्य की इज्जत रख लेता है जो उसकी शरण आ पड़ता है; इसमें रक्ती भर भी शक नहीं। (इस वास्ते, हे भाई!) इस मनुष्य शरीर में परमात्मा के नाम का बीज बीजो। यह मौका बड़ी मुश्किल से मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरजामी आपि प्रभु सभ करे कराइआ ॥ पतित पुनीत घणे करे ठाकुर बिरदाइआ ॥३॥

मूलम्

अंतरजामी आपि प्रभु सभ करे कराइआ ॥ पतित पुनीत घणे करे ठाकुर बिरदाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। पतित = विकारी, (पापों में) गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। घणे = अनेक, बहुत। बिरदाइआ = बिरदा, आदि कदीमी स्वभाव।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु बताता है कि) परमात्मा स्वयं ही हरेक के दिल की जानने वाला है। सारी सृष्टि वैसे ही करती है जैसे परमात्मा प्रेरता है। (शरण पड़े) अनेक ही विकारियों को परमात्मा पवित्र जीवन वाला बना देता है; ये उसका मूल बिरद भरा स्वभाव है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत भूलहु मानुख जन माइआ भरमाइआ ॥ नानक तिसु पति राखसी जो प्रभि पहिराइआ ॥४॥१६॥४६॥

मूलम्

मत भूलहु मानुख जन माइआ भरमाइआ ॥ नानक तिसु पति राखसी जो प्रभि पहिराइआ ॥४॥१६॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानुख जन = हे मनुष्यो! माइआ भरमाइआ = माया की भटकना में पड़ कर। पति = इज्जत। प्रभि = प्रभु ने। पहिराइआ = पहनाया, सिरोपा दिया, सम्मान दिया।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मनुष्यो! माया की भटकना में पड़ कर ये बात भूल ना जाना कि जिस मनुष्य को प्रभु ने खुद आदर बख्शा (बड़ाई दी) उसकी वह इज्जत जरूर रख लेता है।4।16।46।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ माटी ते जिनि साजिआ करि दुरलभ देह ॥ अनिक छिद्र मन महि ढके निरमल द्रिसटेह ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ माटी ते जिनि साजिआ करि दुरलभ देह ॥ अनिक छिद्र मन महि ढके निरमल द्रिसटेह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। साजिआ = बनाया। देह = शरीर। छिद्र = ऐब। द्रिसटेह = देखने को।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (जीव का) दुर्लभ मानव शरीर बना के मिट्टी से इसको पैदा कर दिया, उसने ही जीव के अनेक ही ऐब उसके अंदर छुपा कर रखे हैं, जीव का शरीर फिर भी साफ-सुथरा दिखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किउ बिसरै प्रभु मनै ते जिस के गुण एह ॥ प्रभ तजि रचे जि आन सिउ सो रलीऐ खेह ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किउ बिसरै प्रभु मनै ते जिस के गुण एह ॥ प्रभ तजि रचे जि आन सिउ सो रलीऐ खेह ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनै ते = मन से। जि = जो मनुष्य। तजि = छोड़ के। आन सिउ = (अन्य) और से। खेह = मिट्टी।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) के यह (अनेक) गुण हैं, वह हमारे मन से कभी भी भूलना नहीं चाहिए। जो मनुष्य प्रभु (की याद) छोड़ के और-और पदार्थों के साथ मोह बनाता है, वह मिट्टी में मिल जाता है (उसका जीवन व्यर्थ चला जाता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरहु सिमरहु सासि सासि मत बिलम करेह ॥ छोडि प्रपंचु प्रभ सिउ रचहु तजि कूड़े नेह ॥२॥

मूलम्

सिमरहु सिमरहु सासि सासि मत बिलम करेह ॥ छोडि प्रपंचु प्रभ सिउ रचहु तजि कूड़े नेह ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस के साथ। बिलम = देर, ढील। मत करेह = मत करो, ना करनी। प्रपंच = ये दिखता जगत। कूड़े = झूठे, नाशवान।2।
अर्थ: हे भाई! हरेक सांस के साथ हर वक्त उस परमात्मा को याद करते रहो। देखना, रक्ती भर भी ढील नहीं करनी। हे भाई! दुनिया के नाशवान पदार्थों का प्यार त्याग के, दिखाई देते जगत का मोह छोड़ के, परमात्मा के साथ प्यार बनाए रखो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि अनिक एक बहु रंग कीए है होसी एह ॥ करि सेवा तिसु पारब्रहम गुर ते मति लेह ॥३॥

मूलम्

जिनि अनिक एक बहु रंग कीए है होसी एह ॥ करि सेवा तिसु पारब्रहम गुर ते मति लेह ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होसी = कायम रहेगा। सेवा = भक्ति। ते = से। मति = अक्ल, शिक्षा।3।
अर्थ: हे भाई! जिस एक परमात्मा ने (अपने आप से जगत के) यह अनेक बहुत रंग बना दिए हैं, वह अब भी (हर जगह) मौजूद है, आगे को भी (सदा) कायम रहेगा। गुरु से शिक्षा ले के उस परमात्मा की सेवा-भक्ति किया करो।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचे ते ऊचा वडा सभ संगि बरनेह ॥ दास दास को दासरा नानक करि लेह ॥४॥१७॥४७॥

मूलम्

ऊचे ते ऊचा वडा सभ संगि बरनेह ॥ दास दास को दासरा नानक करि लेह ॥४॥१७॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ संगि = सारी सृष्टि के साथ। बरनेह = बयान किया जाता है। को = का। दासरा = छोटा सा दास। करि लेह = बना ले।4।
अर्थ: हे भाई! वह प्रभु (जगत की) ऊँची से ऊँची हस्ती से भी ऊँचा है, बड़ों से भी बड़ा है, वैसे वह सारे जीवों के साथ (बसता हुआ भी) बताया जाता है।
हे नानक! (उस प्रभु के दर पर अरदास कर, और कह: हे प्रभु!) मुझे अपने दासों के दासों का छोटा सा दास बना ले।4।17।47।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ एक टेक गोविंद की तिआगी अन आस ॥ सभ ऊपरि समरथ प्रभ पूरन गुणतास ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ एक टेक गोविंद की तिआगी अन आस ॥ सभ ऊपरि समरथ प्रभ पूरन गुणतास ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = ओट। अन = अन्य। समरथ = समर्थ, ताकतवर। गुण तास = गुणों का खजाना।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के भक्त एक प्रभु की ही ओट लेते हैं, अन्य (आसरों की) आस त्याग देते हैं। (उन्हें विश्वास रहता है कि) प्रभु सब जीवों पर ताकत रखने वाला है, सब ताकतों से भरपूर है, सब गुणों का खजाना है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन का नामु अधारु है प्रभ सरणी पाहि ॥ परमेसर का आसरा संतन मन माहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जन का नामु अधारु है प्रभ सरणी पाहि ॥ परमेसर का आसरा संतन मन माहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन = दास, सेवक। अधारु = आसरा। पाहि = (दास) पड़ते हैं। माहि = में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवकों (की जिंदगी) का आसरा परमात्मा का नाम (ही होता) है, सेवक सदा परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, सेवकों के मन में सदा परमात्मा (के नाम) का ही सहारा होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि रखै आपि देवसी आपे प्रतिपारै ॥ दीन दइआल क्रिपा निधे सासि सासि सम्हारै ॥२॥

मूलम्

आपि रखै आपि देवसी आपे प्रतिपारै ॥ दीन दइआल क्रिपा निधे सासि सासि सम्हारै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपि = प्रभु सवयं। प्रतिपारै = पालता है। क्रिपा निधे = कृपा का खजाना। सासि सासि = (जीव के) हरेक सांस के साथ। समारै = संभाल करता है।2।
अर्थ: (हे भाई! संतजनों को यकीन है कि) परमात्मा स्वयं हरेक जीव की रक्षा करता है, खुद हरेक दाति देता है, खुद ही (हरेक की) पालना करता है, प्रभु दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का श्रोत है, और (हरेक जीव की) हरेक सांस के साथ संभाल करता है।2।

[[0813]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

करणहारु जो करि रहिआ साई वडिआई ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ सुखु खसम रजाई ॥३॥

मूलम्

करणहारु जो करि रहिआ साई वडिआई ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ सुखु खसम रजाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणहारु = सब कुछ कर सकने वाला। साई = वही। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। रजाई = रज़ा में (रहने से)।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने (सही जीवन की) शिक्षा दी (उसे विश्वास हो गया कि) मालिक-प्रभु की रज़ा में रहने से ही सुख मिलता है, सब कुछ करने में समर्थ प्रभु जो कुछ कर रहा है वही जीवों की भलाई के लिए है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिंत अंदेसा गणत तजि जनि हुकमु पछाता ॥ नह बिनसै नह छोडि जाइ नानक रंगि राता ॥४॥१८॥४८॥

मूलम्

चिंत अंदेसा गणत तजि जनि हुकमु पछाता ॥ नह बिनसै नह छोडि जाइ नानक रंगि राता ॥४॥१८॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। जनि = दास ने। रंगि = रंग में, प्यार में।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा के दास ने (दुनिया वाले) चिन्ता-फिक्र-झोरे छोड़ के सदा परमात्मा के आदेश को (ही अपने भले के लिए) पहचाना है। प्रभु का दास सदा प्रभु के प्रेम रंग में रंगा रहता है (उसको यकीन है कि) प्रभु कभी मरता नहीं, और ना ही अपने सेवक का कभी साथ छोड़ता है।4।18।48।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ महा तपति ते भई सांति परसत पाप नाठे ॥ अंध कूप महि गलत थे काढे दे हाथे ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ महा तपति ते भई सांति परसत पाप नाठे ॥ अंध कूप महि गलत थे काढे दे हाथे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तपति = (विकारों की) तपश। सांति = शांति, शीतलता। परसत = छूते हुए। अंध कूप = अंधेरा कूआँ। दे = दे के।1।
अर्थ: हे भाई! (उन संत जनों के पैर) परसने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, मन में विकारों की भारी तपश से शांति बनी रहती है। जो मनुष्य (विकारों-पापों के) घोर अंधेरे कूएं में गल-सड़ रहे होते हैं, उनको (वे संत-जन अपना) हाथ दे के (उस कूएं में से) निकाल लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओइ हमारे साजना हम उन की रेन ॥ जिन भेटत होवत सुखी जीअ दानु देन ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ओइ हमारे साजना हम उन की रेन ॥ जिन भेटत होवत सुखी जीअ दानु देन ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओइ = वह (संत जन)। साजना = सज्जन, मित्र। रेन = चरण धूल। भेटत = मिलने से। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। देन = देते हैं।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिनको मिलने से (मेरा मन) आनंद से भर जाता है, जो (मुझे) आत्मिक जीवन की दाति देते हैं, वह (संतजन ही) मेरे (असल) मित्र हैं, मैं उनके चरणों की धूल (की चाहत रखता) हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परा पूरबला लीखिआ मिलिआ अब आइ ॥ बसत संगि हरि साध कै पूरन आसाइ ॥२॥

मूलम्

परा पूरबला लीखिआ मिलिआ अब आइ ॥ बसत संगि हरि साध कै पूरन आसाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परा पूरबला = बहुत जन्मों का। अब = अब जब हरि साधु मिल गया है। संगि = साथ। हरि साध कै संगि = प्रभु के भक्त के साथ। आसाइ = आशाएं।2।
अर्थ: हे भाई! इस मानव जन्म में (जब किसी मनुष्य को कोई संतजन मिल जाता है, तब) बड़े पूर्बले जन्मों से उसके माथे पर लेख उघड़ पड़ते हैं। प्रभु के सेवक-जन की संगति में बसते हुए (उस मनुष्य की) सारी आशाएं पूरी हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै बिनसे तिहु लोक के पाए सुख थान ॥ दइआ करी समरथ गुरि बसिआ मनि नाम ॥३॥

मूलम्

भै बिनसे तिहु लोक के पाए सुख थान ॥ दइआ करी समरथ गुरि बसिआ मनि नाम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = सारे डर। तिहु लोक के = तीनों भवनों के, सारे जगत के। सुख थान = सुख देने वाली जगह, साधु-संगत। गुरि = गुरु ने। समरथ = सब कुछ कर सकने वाला। मनि = मन में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सब कुछ कर सकने वाले गुरु ने जिस मनुष्य पर दया की, उसके मन में प्रभु का नाम बस पड़ता है, सारे जगत को डराने वाले (उसके) सारे डर नाश हो जाते हैं (क्योंकि गुरु की कृपा से) उसको सुखों का ठिकाना (साधु-संगत) मिल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक की तू टेक प्रभ तेरा आधार ॥ करण कारण समरथ प्रभ हरि अगम अपार ॥४॥१९॥४९॥

मूलम्

नानक की तू टेक प्रभ तेरा आधार ॥ करण कारण समरथ प्रभ हरि अगम अपार ॥४॥१९॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = ओट, सहारा। प्रभ = हे प्रभु! आधार = आसरा। करण कारण = जगत का कारण, जगत का मूल। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत।4।
अर्थ: हे जगत के मूल प्रभु! हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे बेअंत हरि! नानक की तू ही ओट है, नानक का तू ही आसरा है (मुझे नानक को भी गुरु मिला, संत जन मिला)।4।19।49।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सोई मलीनु दीनु हीनु जिसु प्रभु बिसराना ॥ करनैहारु न बूझई आपु गनै बिगाना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सोई मलीनु दीनु हीनु जिसु प्रभु बिसराना ॥ करनैहारु न बूझई आपु गनै बिगाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। मलीन = मैला, गंदा। दीनु = कंगाल। हीनु = नीच। आपु = अपने आप को। गनै = समझता है। बिगाना = बे ज्ञाना, मूर्ख।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा भूल जाता है, वही मनुष्य गंदा है, कंगाल है, नीच है। वह मूर्ख मनुष्य अपने आप को (कोई बड़ी हस्ती) समझता रहता है, सब कुछ करने के समर्थ प्रभु को कुछ समझता नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूखु तदे जदि वीसरै सुखु प्रभ चिति आए ॥ संतन कै आनंदु एहु नित हरि गुण गाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दूखु तदे जदि वीसरै सुखु प्रभ चिति आए ॥ संतन कै आनंदु एहु नित हरि गुण गाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तदे = तब ही। जदि = जब। चिति = चिक्त में। प्रभ चिति आए = प्रभु चिक्त आने से। गाए = गाता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य को) तब ही दुख होता है जब इसे परमात्मा भूल जाता है। परमात्मा के मन में बसने से (हमेशा) सुख प्रतीत होता है। प्रभु का सेवक सदा प्रभु के गुण गाता रहता है। सेवक के हृदय में ये आनंद टिका रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचे ते नीचा करै नीच खिन महि थापै ॥ कीमति कही न जाईऐ ठाकुर परतापै ॥२॥

मूलम्

ऊचे ते नीचा करै नीच खिन महि थापै ॥ कीमति कही न जाईऐ ठाकुर परतापै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। खिन महि = तुरंत। थापै = गद्दी पर बैठा देता है, इज्जत वाला बना देता है। ठाकुर परतापै = ठाकुर के प्रताप की।2।
अर्थ: (पर, हे भाई! याद रख) परमात्मा ऊँचे (घमण्डी, अकड़वाले) से नीचा बना देता है, और नीचों को एक पल में इज्जत वाले बना देता है। उस परमात्मा के प्रताप का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखत लीला रंग रूप चलनै दिनु आइआ ॥ सुपने का सुपना भइआ संगि चलिआ कमाइआ ॥३॥

मूलम्

पेखत लीला रंग रूप चलनै दिनु आइआ ॥ सुपने का सुपना भइआ संगि चलिआ कमाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लीला = खेल तमाशे। सुपने का सुपना भइआ = जो चीज़ थी ही सपना, वह आखिर में सपना ही बन गई। संगि = साथ। कमाइआ = किए हुए कर्म।3।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया के) खेल-तमाशे (दुनिया के) रंग-रूप देखते-देखते (ही मनुष्य के दुनिया से) चलने के दिन आ पहुँचते हैं। इन रंग-तमाशों से तो साथ खत्म ही होना था, वह साथ खत्म हो जाता है, मनुष्य के साथ तो किए हुए कर्म ही जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण कारण समरथ प्रभ तेरी सरणाई ॥ हरि दिनसु रैणि नानकु जपै सद सद बलि जाई ॥४॥२०॥५०॥

मूलम्

करण कारण समरथ प्रभ तेरी सरणाई ॥ हरि दिनसु रैणि नानकु जपै सद सद बलि जाई ॥४॥२०॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण कारण = हे जगत के रचनहार! करण = जगत। दिनसु रैणि = दिन रात। नानकु जपै = नानक जपता है (शब्द ‘नानकु’ और ‘नानक’ में फर्क है)। सद सद = सदा ही। बलि जाई = सदके जाता है।4।
अर्थ: हे जगत के रचनहार प्रभु! हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! (तेरा दास नानक) तेरी शरण आया है। हे हरि! नानक दिन-रात (तेरा ही नाम) जपता है, तुझसे ही सदा-सदा सदके जाता है।4।20।50।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जलु ढोवउ इह सीस करि कर पग पखलावउ ॥ बारि जाउ लख बेरीआ दरसु पेखि जीवावउ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जलु ढोवउ इह सीस करि कर पग पखलावउ ॥ बारि जाउ लख बेरीआ दरसु पेखि जीवावउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ढोवउ = मैं ढोऊँ। इह सीस करि = इस सीस से। कर = हाथों से (कर्ण कारक, बहुवचन)। पग = (बहुवचन) दोनों पैरों से। पखलावउ = मैं धोऊँ। बारि जाउ = मैं कुर्बान जाऊँ। बेरीआ = बारी। पेखि = देख के। जीवावउ = (मैं अपने अंदर) आत्मिक जीवन पैदा करूँ।1।
अर्थ: (हे भाई! मेरी यह तमन्ना है कि गुरु के घर में) मैं अपने सिर पर पानी ढोया करूँ, और अपने हाथों से (संत जनों के) पैर धोया करूँ। मैं लाखों बार (गुरु से) सदके जाऊँ और (गुरु की संगति के) दर्शन करके (अपने अंदर) आत्मिक जीवन पैदा करता रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करउ मनोरथ मनै माहि अपने प्रभ ते पावउ ॥ देउ सूहनी साध कै बीजनु ढोलावउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करउ मनोरथ मनै माहि अपने प्रभ ते पावउ ॥ देउ सूहनी साध कै बीजनु ढोलावउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ = करूँ। मनोरथ = जरूरत, मांग। ते = से। पावउ = पाऊँ। देउ = मैं दूँ। सूहनी = झाड़ू। साध कै = गुरु के घर में। बीजनु = पंखा। ढोलावउ = (पंखा) झलूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मेरी सदा यही आरजू है कि) मैं जो भी माँग अपने मन में करूँ, वह माँग मैं अपने परमात्मा से प्राप्त कर लूँ, मैं गुरु के घर में (साधु-संगत में) झाड़ू दिया करूँ और पंखा झला करूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित गुण संत बोलते सुणि मनहि पीलावउ ॥ उआ रस महि सांति त्रिपति होइ बिखै जलनि बुझावउ ॥२॥

मूलम्

अम्रित गुण संत बोलते सुणि मनहि पीलावउ ॥ उआ रस महि सांति त्रिपति होइ बिखै जलनि बुझावउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित गुण = आत्मिक जीवन देने वाले हरि गुण। सुणि = सुन के। मनहि = मन को। पीवावउ = पिलाऊँ। साति = शांति। त्रिपति = तृप्ति। बिखै जलनि = विषयों की जलन। बुझावउ = बुझाऊँ।2।
अर्थ: (हे भाई! मेरी ये अरदास है कि साधु-संगत में) संत जन परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले जो गुण उचारते हैं, उनको सुन के मैं अपने मन को (नाम अमृत) पिलाया करूँ, (नाम अमृत के) उस स्वाद में (मेरे अंदर) शांति और (तृष्णा से) तृप्ति पैदा हो, (नाम-अमृत की सहायता से) मैं (अपने अंदर से) विषियों की जलन बुझाता रहूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब भगति करहि संत मंडली तिन्ह मिलि हरि गावउ ॥ करउ नमसकार भगत जन धूरि मुखि लावउ ॥३॥

मूलम्

जब भगति करहि संत मंडली तिन्ह मिलि हरि गावउ ॥ करउ नमसकार भगत जन धूरि मुखि लावउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहि = करते हैं। संत मंडली = सत्संगी। मिलि = मिल के। गावउ = गाऊँ। मुखि = मुँह पर। लावउ = लगाऊँ।3।
अर्थ: (हे भाई! मेरी यही अरदास है कि) जब संत जन साधु-संगत में बैठ के परमात्मा की भक्ति करते हैं, उनके साथ मिल के मैं भी परमात्मा के गुण गान करूँ, मैं संतजनों के आगे सिर झुकाया करूँ, और उनके चरणों की धूल (अपने) माथे पर लगाया करूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊठत बैठत जपउ नामु इहु करमु कमावउ ॥ नानक की प्रभ बेनती हरि सरनि समावउ ॥४॥२१॥५१॥

मूलम्

ऊठत बैठत जपउ नामु इहु करमु कमावउ ॥ नानक की प्रभ बेनती हरि सरनि समावउ ॥४॥२१॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपउ = जपूँ। करमु = कर्म। कमावउ = मैं करूँ। प्रभ = हे प्रभु! समावउ = मैं लीन रहूँ।4।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दर पर) नानक की यही विनती है कि उठते-बैठते (हर वक्त) मैं (तेरा) नाम जपा करूँ, मैं इस काम को (ही श्रेष्ठ जान के नित्य) करा करूँ, और, हे हरि! मैं तेरे ही चरणों में लीन रहूँ4।21।51।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ इहु सागरु सोई तरै जो हरि गुण गाए ॥ साधसंगति कै संगि वसै वडभागी पाए ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ इहु सागरु सोई तरै जो हरि गुण गाए ॥ साधसंगति कै संगि वसै वडभागी पाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। सोई = वही मनुष्य। कै संगि = के साथ। वसै = बसता है। वडभागी = बड़े भाग्यों वाला मनुष्य।1।
अर्थ: (हे भाई! ये जगत, मानो, एक समुंदर है जिसमें विकारों का पानी भरा पड़ा है) इस समुंदर में से वही मनुष्य पार लांघता है, जो परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है, जो साधु-संगत के साथ मेल-जोल रखता है। (पर यह दाति) कोई भाग्यशाली मनुष्य ही प्राप्त करता है।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सुणि जीवै दासु तुम्ह बाणी जन आखी ॥ प्रगट भई सभ लोअ महि सेवक की राखी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सुणि सुणि जीवै दासु तुम्ह बाणी जन आखी ॥ प्रगट भई सभ लोअ महि सेवक की राखी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। तुम्ह जन = तुम्ह जन, तेरे जनों ने। लोअ महि = लोक में, जगत में। राखी = बचाई हुई इज्जत।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक तेरी महिमा की जो वाणी उचारते हैं, तेरा दास उस वाणी को हर वक्त सुन-सुन के आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। (इस तरह विकारों से बचा के) तू अपने सेवक की जो इज्जत रखता है वह सारे संसार में प्रकट हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगनि सागर ते काढिआ प्रभि जलनि बुझाई ॥ अम्रित नामु जलु संचिआ गुर भए सहाई ॥२॥

मूलम्

अगनि सागर ते काढिआ प्रभि जलनि बुझाई ॥ अम्रित नामु जलु संचिआ गुर भए सहाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से, में से। अगनि = आग। प्रभि = प्रभु ने। जलनि = जलन। संचिआ = छिड़का।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस सेवक ने महिमा की वाणी सुन के आत्मिक जीवन प्राप्त कर लिया) परमात्मा ने खुद उसको (विकारों की) आग के समुंदर में से निकाल लिया, परमात्मा ने स्वयं (उसके अंदर से विकारों की जलन) शांत कर दी। सतिगुरु जी ने उस सेवक की सहायता की, और (उसके हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल छिड़का।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम मरण दुख काटिआ सुख का थानु पाइआ ॥ काटी सिलक भ्रम मोह की अपने प्रभ भाइआ ॥३॥

मूलम्

जनम मरण दुख काटिआ सुख का थानु पाइआ ॥ काटी सिलक भ्रम मोह की अपने प्रभ भाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिलक = फाही। प्रभ भाइआ = प्रभु को प्यारा लगा।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस सेवक ने महिमा की वाणी सुन-सुन के आत्मिक जीवन पा लिया) उसने जनम-मरण के चक्कर का दुख काट लिया, उसने वह (आत्मिक) ठिकाना पा लिया जहाँ सुख ही सुख है, उसने (अपने अंदर से) भटकना और मोह की फाँसी काट ली, वह सेवक अपने प्रभु को प्यारा लगने लग पड़ा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत कोई जाणहु अवरु कछु सभ प्रभ कै हाथि ॥ सरब सूख नानक पाए संगि संतन साथि ॥४॥२२॥५२॥

मूलम्

मत कोई जाणहु अवरु कछु सभ प्रभ कै हाथि ॥ सरब सूख नानक पाए संगि संतन साथि ॥४॥२२॥५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ = सारी (जीवन जुगति)। हाथि = हाथ में। साथि = साथ में। संगि = साथ।4।
अर्थ: (पर, हे भाई!) कहीं यह ना समझ लेना (कि ऐसा आत्मिक) आनंद लेने के लिए हमारा (जीवों का) और कोई चारा चल सकता है (यकीन से जानो कि) हरेक जुगति परमात्मा के (अपने) हाथ में है। हे नानक! वही सेवक सारे सुख प्राप्त करता है जो संत-जनों की संगति में रहता है जो संतजनों के साथ रहता है।4।22।52।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ बंधन काटे आपि प्रभि होआ किरपाल ॥ दीन दइआल प्रभ पारब्रहम ता की नदरि निहाल ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ बंधन काटे आपि प्रभि होआ किरपाल ॥ दीन दइआल प्रभ पारब्रहम ता की नदरि निहाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। किरपाल = (कृपा+आलय) दयावान। नदरि = निगाह। निहाल = आनंद भरपूर।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर पूरे गुरु ने कृपा कर दी) प्रभु ने खुद (उसके सारे) बंधन काट दिए, प्रभु उस मनुष्य पर दयावान हो गया। (हे भाई!) प्रभु पारब्रहम दीनों पर दया करने वाला है (जिस भी गरीब पर प्रभु निगाह करता है) वह मनुष्य उस (प्रभु) की निगाह से आनंद-भरपूर हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि पूरै किरपा करी काटिआ दुखु रोगु ॥ मनु तनु सीतलु सुखी भइआ प्रभ धिआवन जोगु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरि पूरै किरपा करी काटिआ दुखु रोगु ॥ मनु तनु सीतलु सुखी भइआ प्रभ धिआवन जोगु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। सीतलु = ठंडा, शांत। धिआवन जोगु = जिस का ध्यान धरना चाहिए1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर पूरे गुरु ने कृपा कर दी, ध्यान-करने-योग्य प्रभु का ध्यान धर के उस मनुष्य का (हरेक) दुख (हरेक) रोग दूर हो जाता है, उसका मन, उसका हृदय ठंडाठार हो जाता है, वह मनुष्य सुखी हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउखधु हरि का नामु है जितु रोगु न विआपै ॥ साधसंगि मनि तनि हितै फिरि दूखु न जापै ॥२॥

मूलम्

अउखधु हरि का नामु है जितु रोगु न विआपै ॥ साधसंगि मनि तनि हितै फिरि दूखु न जापै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउखधु = दवा। जितु = जिस (दवा) के द्वारा। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। साध संगि = गुरु की संगति में। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। हितै = (नाम दवा) प्यारी लगती है। न जापै = प्रतीत नहीं होता।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (एक ऐसी) दवा है जिसकी इनायत से (कोई भी) रोग जोर नहीं डाल सकता। जब गुरु की संगति में टिक के (मनुष्य के) मन में तन में (हरि नाम) प्यारा लगने लग जाता है, तब (मनुष्य को) कोई दुख महसूस नहीं होता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि हरि हरि जापीऐ अंतरि लिव लाई ॥ किलविख उतरहि सुधु होइ साधू सरणाई ॥३॥

मूलम्

हरि हरि हरि हरि जापीऐ अंतरि लिव लाई ॥ किलविख उतरहि सुधु होइ साधू सरणाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जापीऐ = जपना चाहिए। अंतरि = (मन के) अंदर। लाई = लगा के। किलविख = (सारे) पाप। सुधु = पवित्र। साध = गुरु।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर अपने अंदर तवज्जो जोड़ कर, सदा परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए। (इस तरह सारे) पाप (मन से) उतर जाते हैं, (मन) पवित्र हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत जपत हरि नाम जसु ता की दूरि बलाई ॥ महा मंत्रु नानकु कथै हरि के गुण गाई ॥४॥२३॥५३॥

मूलम्

सुनत जपत हरि नाम जसु ता की दूरि बलाई ॥ महा मंत्रु नानकु कथै हरि के गुण गाई ॥४॥२३॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जसु = शोभा, बड़ाई। नाम जसु = नाम की बड़ाई, नाम का यश। ता की = उस (मनुष्य) की। बलाई = बला, बिपता। महा मंत्र = सबसे बड़ा मंत्र। गाई = गाता है।4।
अर्थ: हे भाई! नानक (एक) सबसे बड़ा मंत्र बताता है (मंत्र ये है कि जो मनुष्य) परमात्मा के गुण गाता रहता है, परमात्मा के नाम की महिमा सुनते और जपते हुए उस मनुष्य की हरेक बला (विपदा) दूर हो जाती है।4।23।53।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ भै ते उपजै भगति प्रभ अंतरि होइ सांति ॥ नामु जपत गोविंद का बिनसै भ्रम भ्रांति ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ भै ते उपजै भगति प्रभ अंतरि होइ सांति ॥ नामु जपत गोविंद का बिनसै भ्रम भ्रांति ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। भै ते = (संबंधक के साथ ‘भउ’ से शब्द ‘भै’ बन जाता है। भउ = डर, अदब, निर्मल डर) निरमल डर की इनायत से। अंतरि = अंदर, हृदय में। भ्रांति = भटकना।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से परमात्मा का निर्मल डर हृदय में पैदा हो जाता है, उस) भय-अदब के द्वारा प्रभु की भक्ति (हृदय में) पैदा होती है, और मन में ठंड पड़ जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम जपते-जपते (हरेक किस्म की) भ्रम-भटकना नाश हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु पूरा जिसु भेटिआ ता कै सुखि परवेसु ॥ मन की मति तिआगीऐ सुणीऐ उपदेसु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरु पूरा जिसु भेटिआ ता कै सुखि परवेसु ॥ मन की मति तिआगीऐ सुणीऐ उपदेसु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिस = जिस (मनुष्य) को। भेटिआ = मिल गया। ता के = उस के (हृदय) में। सुखि = सुख ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने मन की मति छोड़ देनी चाहिए, (गुरु का) उपदेश सुनना चाहिए। जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, (विश्वास कीजिए कि) उस (मनुष्य) के हृदय में सुख ने प्रवेश कर लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरत सिमरत सिमरीऐ सो पुरखु दातारु ॥ मन ते कबहु न वीसरै सो पुरखु अपारु ॥२॥

मूलम्

सिमरत सिमरत सिमरीऐ सो पुरखु दातारु ॥ मन ते कबहु न वीसरै सो पुरखु अपारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरत सिमरत = हर वक्त स्मरण करते हुए। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। मन ते = मन से।2।
अर्थ: हे भाई! सब दातें बख्शने वाले उस सर्व-व्यापक प्रभु को हर वक्त ही स्मरण करते रहना चाहिए। (हे भाई! ख़्याल रख कि) वह अकाल पुरख कभी भी मन से ना बिसरे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल सिउ रंगु लगा अचरज गुरदेव ॥ जा कउ किरपा करहु प्रभ ता कउ लावहु सेव ॥३॥

मूलम्

चरन कमल सिउ रंगु लगा अचरज गुरदेव ॥ जा कउ किरपा करहु प्रभ ता कउ लावहु सेव ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। रंगु = प्यारा। जा कउ = जिसको, जिस (मनुष्य) पर। प्रभ = हे प्रभु!।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की यह आश्चर्यजनक महिमा है कि उसकी कृपा से परमात्मा के सुंदर चरणों से प्रीति बन जाती है। हे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है (उसको गुरु मिलाता है और उसको) तू अपनी सेवा-भक्ति में लगा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निधि निधान अम्रितु पीआ मनि तनि आनंद ॥ नानक कबहु न वीसरै प्रभ परमानंद ॥४॥२४॥५४॥

मूलम्

निधि निधान अम्रितु पीआ मनि तनि आनंद ॥ नानक कबहु न वीसरै प्रभ परमानंद ॥४॥२४॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधि = (दुनिया के सारे) खजाने। निधान = खजाने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मनि = मन में। तनि = तन में। परमानंद = (परम+आनंद) सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु।4।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जिस मनुष्य ने) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी लिया (जो) सारे खजानों का खजाना है, (उस मनुष्य के) मन में हृदय में खुशी भरी रहती है। हे नानक! (ख़्याल रख कि) सबसे ऊँचे आनंद का मालिक परमात्मा कभी भी (मन से) बिसर ना जाए।4।24।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ त्रिसन बुझी ममता गई नाठे भै भरमा ॥ थिति पाई आनदु भइआ गुरि कीने धरमा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ त्रिसन बुझी ममता गई नाठे भै भरमा ॥ थिति पाई आनदु भइआ गुरि कीने धरमा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व (मम = मेरा। ममता = ये आकर्षण कि माया मेरी हो जाए)। भै = सारे डर। भरमा = वहिम। थिति = (स्थिति) शांति, टिकाव। गुरि = गुरु ने। कीने धरमा = (सहायता करने का) नियम निबाह दिया है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु का आसरा लिया) गुरु ने उसकी सहायता करने का नेम-निर्वाह दिया, (उसके अंदर से माया की) तृष्णा मिट गई, (माया की) ममता दूर हो गई, उसके सारे डर-वहिम भाग गए, उसने आत्मिक अडोलता हासिल कर ली, उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु पूरा आराधिआ बिनसी मेरी पीर ॥ तनु मनु सभु सीतलु भइआ पाइआ सुखु बीर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरु पूरा आराधिआ बिनसी मेरी पीर ॥ तनु मनु सभु सीतलु भइआ पाइआ सुखु बीर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरी पीर = ममता का दुख। सीतलु = शांत। बीर = हे भाई!।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस भी मनुष्य ने) पूरे गुरु का आसरा लिया है। उसका (माया की) ममता वाला दुख दूर हो जाता है। उसका मन उसका तन ठंडा-ठार हो जाता है, उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोवत हरि जपि जागिआ पेखिआ बिसमादु ॥ पी अम्रितु त्रिपतासिआ ता का अचरज सुआदु ॥२॥

मूलम्

सोवत हरि जपि जागिआ पेखिआ बिसमादु ॥ पी अम्रितु त्रिपतासिआ ता का अचरज सुआदु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोवत = माया के मोह में सोया हुआ। जपि = जप के। बिसमादु = आश्चर्य रूप प्रभु। पी = पी कर। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ता का = उस (अमृत) का।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु का पल्ला पकड़ा, माया के मोह में) सोया हुआ उसका मन परमात्मा का नाम जप के जाग पड़ा, उसने (हर जगह) आश्चर्य-रूप परमात्मा के दर्शन कर लिए। आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अमृत) पी के उसका मन (माया की ओर से) तृप्त हो गया। हे भाई! उस नाम-अमृत का स्वाद है ही आश्चर्य भरा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि मुकतु संगी तरे कुल कुट्मब उधारे ॥ सफल सेवा गुरदेव की निरमल दरबारे ॥३॥

मूलम्

आपि मुकतु संगी तरे कुल कुट्मब उधारे ॥ सफल सेवा गुरदेव की निरमल दरबारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। संगी = साथी। निरमल दरबारे = पवित्र हजूरी में।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य) खुद (माया के बंधनो से) आजाद हो जाता है, उसके साथी भी (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, वह मनुष्य अपनी कुलों को, अपने परिवार को पार लंघा लेता है। गुरु की की हुई सेवा उसे फलदायक साबित हो जाती है, (प्रभु की) पवित्र हजूरी में (उसे जगह मिल जाती है)।3।

[[0815]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीचु अनाथु अजानु मै निरगुनु गुणहीनु ॥ नानक कउ किरपा भई दासु अपना कीनु ॥४॥२५॥५५॥

मूलम्

नीचु अनाथु अजानु मै निरगुनु गुणहीनु ॥ नानक कउ किरपा भई दासु अपना कीनु ॥४॥२५॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजानु = अंजान। नानक कउ = नानक को, नानक पर। कीनु = बना लिया।4।
अर्थ: हे भाई! मैं नीच था, अनाथ था, अंजान था, मेरे अंदर कोई गुण नहीं थे, मैं गुणों से वंचित था (पर, गुरु की शरण पड़ने के कारण, मुझ) नानक पर परमात्मा की मेहर हुई, परमात्मा ने मुझे अपना सेवक बना लिया।4।25।55।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ हरि भगता का आसरा अन नाही ठाउ ॥ ताणु दीबाणु परवार धनु प्रभ तेरा नाउ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ हरि भगता का आसरा अन नाही ठाउ ॥ ताणु दीबाणु परवार धनु प्रभ तेरा नाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अन = अन्य। ठाउ = स्थान। ताण = बल। दीबाणु = आसरा। प्रभ = हे प्रभु!।1।
अर्थ: हे हरि! (तूने अपने भक्तों की रक्षा की है, क्योंकि) तेरे भक्तों को तेरा ही आसरा रहता है, (उनकी सहायता के लिए) और कोई जगह नहीं सूझती। हे प्रभु! तेरा नाम ही (तेरे भक्तों के वास्ते) ताण है, सहारा है, परिवार है, धन है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा प्रभि आपणी अपने दास रखि लीए ॥ निंदक निंदा करि पचे जमकालि ग्रसीए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करि किरपा प्रभि आपणी अपने दास रखि लीए ॥ निंदक निंदा करि पचे जमकालि ग्रसीए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। रखि लीए = रक्षा की। पचे = (प्लुष) जलते रहे। जम कालि = जम काल ने, आत्मिक मौत ने। ग्रसिए = ग्रस लिए, हड़प कर लिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके अपने सेवकों की सदा ही स्वयं रक्षा की है। निंदक (सेवकों की) निंदा कर करके (सदा) जलते-भुजते रहे, उन्हें (बल्कि) आत्मिक मौत ने हड़प किए रखा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संता एकु धिआवना दूसर को नाहि ॥ एकसु आगै बेनती रविआ स्रब थाइ ॥२॥

मूलम्

संता एकु धिआवना दूसर को नाहि ॥ एकसु आगै बेनती रविआ स्रब थाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई। रविआ = व्यापक। स्रब = सर्व, सारे। थाइ = जगह में।2।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु अपने संत जनों की सदा रक्षा करता है, क्योंकि) संतजन सदा एक प्रभु का ही ध्यान धरते हैं, किसी और का नहीं। जो प्रभु सब जगहों में व्यापक है, संत जन सिर्फ उसके दर पर ही अरजोई करते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथा पुरातन इउ सुणी भगतन की बानी ॥ सगल दुसट खंड खंड कीए जन लीए मानी ॥३॥

मूलम्

कथा पुरातन इउ सुणी भगतन की बानी ॥ सगल दुसट खंड खंड कीए जन लीए मानी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगतन की बानी = भक्तों के वचनों के द्वारा, भक्तों की ज़बानी। सगल = सारे। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। लीए मानी = मान लिए, आदर दिया।3।
अर्थ: हे भाई! भक्तजनों की अपनी वाणी के द्वारा ही पुराने समय से ही इस प्रकार कथा सुनी जा रही है, कि परमात्मा ने (हर समय) अपने सेवकों का आदर किया, और (उनके) सारे वैरियों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति बचन नानकु कहै परगट सभ माहि ॥ प्रभ के सेवक सरणि प्रभ तिन कउ भउ नाहि ॥४॥२६॥५६॥

मूलम्

सति बचन नानकु कहै परगट सभ माहि ॥ प्रभ के सेवक सरणि प्रभ तिन कउ भउ नाहि ॥४॥२६॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति = अटल। परगट = प्रत्यक्ष तौर पर।4।
अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: ये वचन सारी सृष्टि में ही प्रत्यक्ष तौर पर अटल हैं कि प्रभु के सेवक प्रभु की शरण पड़े रहते हैं, (इस वास्ते) उनको कोई डर छू नहीं सकता।4।26।56।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ बंधन काटै सो प्रभू जा कै कल हाथ ॥ अवर करम नही छूटीऐ राखहु हरि नाथ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ बंधन काटै सो प्रभू जा कै कल हाथ ॥ अवर करम नही छूटीऐ राखहु हरि नाथ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काटै = काटता है। जा कै हाथ = जिसके हाथों में। अवर करम = और कामों में। नाथ = हे नाथ!।1।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के हाथों में (हरेक) ताकत है वह प्रभु (शरण पड़े मनुष्य के माया के सारे) बंधन काट देता है। (हे भाई! प्रभु की शरण पड़े बिना) अन्य कामों के करने से (इन बंधनों से) खलासी नहीं मिल सकती (बस! हर वक्त यह अरदास करो-) हे हरि! हे नाथ! हमारी रक्षा कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तउ सरणागति माधवे पूरन दइआल ॥ छूटि जाइ संसार ते राखै गोपाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तउ सरणागति माधवे पूरन दइआल ॥ छूटि जाइ संसार ते राखै गोपाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ = तेरी। सरणागति = सरण+आगति, शरण आने वाला। माधवे = (मा = माया, लक्ष्मी। धव = पति) हे माधवे! हे माया के पति! हे प्रभु! दइआल = हे दया के घर! संसार ते = संसार से, संसार के मोह से। राखै = रक्षा करता है। गोपाल = सृष्टि का मालिक प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे माया के पति प्रभु! हे (सारे गुणों से) भरपूर प्रभु! हे दया के श्रोत प्रभु! (मैं) तेरी शरण आया (हूँ, मेरी संसार के मोह से रक्षा कर)। (हे भाई!) सृष्टि के पालक प्रभु (जिस मनुष्य की) रक्षा करता है, वह मनुष्य संसार के मोह से बच जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा भरम बिकार मोह इन महि लोभाना ॥ झूठु समग्री मनि वसी पारब्रहमु न जाना ॥२॥

मूलम्

आसा भरम बिकार मोह इन महि लोभाना ॥ झूठु समग्री मनि वसी पारब्रहमु न जाना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इन महि = इन्ह महि, इन में। झूठु = नाशवान, जिसके साथ सदा नहीं रह सकता। मनि = मन में। न जाना = नहीं पहचाना, सांझ नहीं डाली।2।
अर्थ: (हे भाई! दुर्भाग्यशाली जीव) दुनियावी आशाएं-वहिम-विकार-माया का मोह -इनमें ही फसा रहता है। जो माया, के साथ आखिर तक साथ नहीं निभना, वही इसके मन में टिकी रहती है, (कभी भी यह) परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम जोति पूरन पुरख सभि जीअ तुम्हारे ॥ जिउ तू राखहि तिउ रहा प्रभ अगम अपारे ॥३॥

मूलम्

परम जोति पूरन पुरख सभि जीअ तुम्हारे ॥ जिउ तू राखहि तिउ रहा प्रभ अगम अपारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोति = प्रकाश का श्रोत। पुरख = हे सर्व व्यापक! सभि = सारे। जीअ = जीव। रहा = रहूँ, मैं रहता हूँ, मैं रह सकता हूँ। प्रभ = हे प्रभु! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)!।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे सबसे ऊँचे प्रकाश के श्रोत! हे सब गुणों से भरपूर प्रभु! हे सर्व-व्यापक प्रभु! (हम) सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं। हे अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु! जैसे तू ही हमें रखता है, मैं उसी तरह ही रह सकता हूँ (माया के बंधनो से तू ही मुझे बचा सकता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण कारण समरथ प्रभ देहि अपना नाउ ॥ नानक तरीऐ साधसंगि हरि हरि गुण गाउ ॥४॥२७॥५७॥

मूलम्

करण कारण समरथ प्रभ देहि अपना नाउ ॥ नानक तरीऐ साधसंगि हरि हरि गुण गाउ ॥४॥२७॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण = जगत। करण कारण = हे जगत के रचनहार! तरीऐ = पार लांघ सकती है। साध संगि = गुरु की संगति में। गुण गाउ = गुण गाया कर।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे जगत के रचनहार प्रभु! हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभु! (मुझे) अपना नाम बख्श। (हे भाई!) साधु-संगत में टिक के सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर, (इसी तरह ही संसार-समुंदर से) पार लांघा जा सकता है।4।27।57।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ कवनु कवनु नही पतरिआ तुम्हरी परतीति ॥ महा मोहनी मोहिआ नरक की रीति ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ कवनु कवनु नही पतरिआ तुम्हरी परतीति ॥ महा मोहनी मोहिआ नरक की रीति ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतरिआ = (प्रतारय = to deceive, to cheat। पतारना = बदनाम करना) धोखा खा गया, बदनाम हुआ। परतीति = ऐतबार। महा = बहुत बड़ी। मोहिआ = ठग लिया। रीति = मर्यादा, रास्ता।1।
अर्थ: हे मन! तेरा ऐतबार कर-करके किस-किस ने धोखा नहीं खाया? तू बहुत बड़ी मोहने वाली माया के मोह में फसा रहता है (और, यह) रास्ता (सीधा) नर्कों का है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन खुटहर तेरा नही बिसासु तू महा उदमादा ॥ खर का पैखरु तउ छुटै जउ ऊपरि लादा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन खुटहर तेरा नही बिसासु तू महा उदमादा ॥ खर का पैखरु तउ छुटै जउ ऊपरि लादा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन खुटहर = हे खोटे मन! बिसासु = ऐतबार। उदमादा = उन्माद में, मस्त हुआ। खर = गधा। पैखरु = पिछाड़ी, वह रस्सी जो गधे के पिछले पैरों के साथ बाँध कर खूँटे के साथ बँधी होती है। तउ छुटै = तब खुलता है। जउ = जब।1। रहाउ।
अर्थ: हे खोटे मन! तेरा ऐतबार नहीं किया जा सकता, (क्योंकि) तू (माया के नशे में) बहुत मस्त रहता है। (जैसे) गधे की पिछाड़ी तब खोली जाती है, जब उसे ऊपर से लाद लिया जाता है (वैसे ही) तुझे भी खरमस्ती करने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जप तप संजम तुम्ह खंडे जम के दुख डांड ॥ सिमरहि नाही जोनि दुख निरलजे भांड ॥२॥

मूलम्

जप तप संजम तुम्ह खंडे जम के दुख डांड ॥ सिमरहि नाही जोनि दुख निरलजे भांड ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को रोक के रखने का यत्न। खंडे = नाश कर दिए, तोड़ दिए। डांड = दण्ड। सिमरि नाही = तू याद नहीं करता, तुझे भूल गए हैं। निरजल = बेशर्म। भांड = हे भांड!।2।
अर्थ: हे मन! तू जप-तप-संजम (आदि भले कामों के नियम) तोड़ देता है, (इस करके) जमराज के दुख और दण्ड सहता है। हे बेशर्म भांड! तू जनम-मरण के चक्कर के दुख याद नहीं करता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि संगि सहाई महा मीतु तिस सिउ तेरा भेदु ॥ बीधा पंच बटवारई उपजिओ महा खेदु ॥३॥

मूलम्

हरि संगि सहाई महा मीतु तिस सिउ तेरा भेदु ॥ बीधा पंच बटवारई उपजिओ महा खेदु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। सहाई = सहायक, मददगार। सिउ = साथ, से। भेदु = अलग, दूरी, असमानता। बीधा = भेद डाला। बटवारई = बटवारियों ने, लुटेरों ने। पंच = कामादिक पाँच। खेदु = दुख-कष्ट।3।
अर्थ: हे मन! परमात्मा (ही सदा) तेरे साथ है, तेरा मददगार है तेरा मित्र है, उससे तेरी दूरी बनी हुई है। तुझे (कामादिक) पाँच लुटेरों ने अपने वश में कर रखा है (जिसके कारण तेरे अंदर) बड़ा दुख-कष्ट बना रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक तिन संतन सरणागती जिन मनु वसि कीना ॥ तनु धनु सरबसु आपणा प्रभि जन कउ दीन्हा ॥४॥२८॥५८॥

मूलम्

नानक तिन संतन सरणागती जिन मनु वसि कीना ॥ तनु धनु सरबसु आपणा प्रभि जन कउ दीन्हा ॥४॥२८॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! वसि = वश में। कीना = किया हुआ है। सरबसु = (सर्वस्व। सर्व = सारा। स्व = धन) सब कुछ। प्रभि = प्रभु ने। कउ = को। दीना = दीन्हा, दिया।4।
अर्थ: हे नानक! जिस संत जनों ने (अपना) मन (अपने) वश में कर लिया है, जिस जनों को प्रभु ने (यह दाति) दी है, उनकी शरण पड़ना चाहिए। अपना तन, अपना धन, सब कुछ उन संत जनों के सदके करना चाहिए।4।28।58।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ उदमु करत आनदु भइआ सिमरत सुख सारु ॥ जपि जपि नामु गोबिंद का पूरन बीचारु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ उदमु करत आनदु भइआ सिमरत सुख सारु ॥ जपि जपि नामु गोबिंद का पूरन बीचारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख सारु = सुखों का तत्व, सबसे श्रेष्ठ सुख। जपि = जप के।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम जपने का) उद्यम करते हुए (मन में) सरूर पैदा हो है, नाम स्मरण करते हुए सबसे श्रेष्ठ सुख मिलता है। परमात्मा का नाम बारंबार जप-जप के सब गुणों से भरपूर परमात्मा के गुणों का विचार (मन में टिका रहता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल गुर के जपत हरि जपि हउ जीवा ॥ पारब्रहमु आराधते मुखि अम्रितु पीवा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

चरन कमल गुर के जपत हरि जपि हउ जीवा ॥ पारब्रहमु आराधते मुखि अम्रितु पीवा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। हउ = मैं। जीवा = मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। जपते = स्मरण करते हुए। मुखि = मुँह से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीवा = पीऊँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सुंदर चरणों का ध्यान धर के, परमात्मा की आराधना करते हुए, परमात्मा का नाम जप-जप के, (ज्यों-ज्यों) मैं मुँह से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता हूँ, (त्यों-त्यों) मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत सभि सुखि बसे सभ कै मनि लोच ॥ परउपकारु नित चितवते नाही कछु पोच ॥२॥

मूलम्

जीअ जंत सभि सुखि बसे सभ कै मनि लोच ॥ परउपकारु नित चितवते नाही कछु पोच ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जीव। सभि = सारे। सुखि = सुख में। कै मनि = के मन में। पर उपकारु = दूसरों की भलाई का काम। पोच = पाप।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की आराधना करते हुए) सारे जीव-जंतु आत्मिक आनंद में लीन रहते हैं, (जपने वाले) सबके मनों में (स्मरण करने की) तमन्ना पैदा हुई रहती है। (जो-जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे) सदा दूसरों की भलाई करने का काम सोचते रहते हैं, कोई पाप-विकार उन पर अपना असर नहीं डाल सकता।2।

[[0816]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

धंनु सु थानु बसंत धंनु जह जपीऐ नामु ॥ कथा कीरतनु हरि अति घना सुख सहज बिस्रामु ॥३॥

मूलम्

धंनु सु थानु बसंत धंनु जह जपीऐ नामु ॥ कथा कीरतनु हरि अति घना सुख सहज बिस्रामु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनु = धन्य, भाग्यशाली। बसंत = बसने वाले। जह = जहाँ। जपीऐ = जपा जाता है। अति घना = बहुत ज्यादा। सहज बिस्रामु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना।3।
अर्थ: हे भाई! जिस जगह पर परमात्मा का नाम जपा जाता है, वह जगह भाग्यशाली हो जाती है, वहाँ बसने वाले भी भाग्यशाली बन जाते हैं (क्योंकि जिस जगह) परमात्मा की कथा-वार्ता, प्रभु की महिमा बहुत होती रहे, वह जगह आत्मिक आनंद का, आत्मिक अडोलता का ठिकाना (श्रोत) बन जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन ते कदे न वीसरै अनाथ को नाथ ॥ नानक प्रभ सरणागती जा कै सभु किछु हाथ ॥४॥२९॥५९॥

मूलम्

मन ते कदे न वीसरै अनाथ को नाथ ॥ नानक प्रभ सरणागती जा कै सभु किछु हाथ ॥४॥२९॥५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। को = का। अनाथ को नाथ = निखसमों का खसम। जा कै हाथ = जिसके वश में।4।
अर्थ: (इस वास्ते) हे नानक! (कह: हे भाई!) वह अनाथों का नाथ प्रभु कभी मन से भूलना नहीं चाहिए, उस प्रभु की शरण सदा पड़े रहना चाहिए, जिसके हाथ में सब कुछ है।4।29।59।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जिनि तू बंधि करि छोडिआ फुनि सुख महि पाइआ ॥ सदा सिमरि चरणारबिंद सीतल होताइआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जिनि तू बंधि करि छोडिआ फुनि सुख महि पाइआ ॥ सदा सिमरि चरणारबिंद सीतल होताइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तू = तुझे। बंधि करि छोडिआ = बाँध के रखा हुआ था (माँ के पेट में)। फुनि = फिर (माँ के पेट में से निकाल के)। चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल का फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। शीतल = शांत चिक्त। होताइआ = हो जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे (पहले माँ के पेट में) बाँध के रखा हुआ था, फिर (माँ के पेट में से निकाल के जगत में ला के जगत के) सुखों में ला फसाया है, उसके सुंदर चरण सदा स्मरण करता रह। (इस तरह सदा) शांत-चिक्त रह सकते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवतिआ अथवा मुइआ किछु कामि न आवै ॥ जिनि एहु रचनु रचाइआ कोऊ तिस सिउ रंगु लावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जीवतिआ अथवा मुइआ किछु कामि न आवै ॥ जिनि एहु रचनु रचाइआ कोऊ तिस सिउ रंगु लावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अथवा = और। जीवतिआ = जीते जी, इस लोक में। मुइआ = मरणोंपरांत, परलोक में। कामि = काम। तिस कोऊ = कोई विरला। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो माया) इस लोक में और परलोक में कहीं भी साथ नहीं निभाती (जीव सदा ही उसके साथ मोह डाले रखता है)। जिस परमात्मा ने ये सारा जगत पैदा किया है, उसके साथ कोई विरला मनुष्य ही प्यार बनाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे प्राणी उसन सीत करता करै घाम ते काढै ॥ कीरी ते हसती करै टूटा ले गाढै ॥२॥

मूलम्

रे प्राणी उसन सीत करता करै घाम ते काढै ॥ कीरी ते हसती करै टूटा ले गाढै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसन = गरमी। सीत = ठंडक। करता = कर्तार। घाम ते = तपश से। कीरी = कीड़ी। ते = से। हस्ती = हाथी। ले = ले कर (अपने चरणों के साथ लगा कर)।2।
अर्थ: हे भाई! (विकारों की) गर्मी और (नाम की) ठंडक परमात्मा स्वयं ही बनाता है, वह (खुद ही विकारों की) तपश में से निकालता है। वह प्रभु कीड़ी (नाचीज जीव से) हाथी (विशालकाय आदर सम्मान वाला) बना देता है, (अपने चरणों से) टूटे हुए जीव को वह खुद ही (बाँह से) पकड़ कर (अपने चरणों से) बाँध लेता है (उसीकी शरण पड़ा रह)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंडज जेरज सेतज उतभुजा प्रभ की इह किरति ॥ किरत कमावन सरब फल रवीऐ हरि निरति ॥३॥

मूलम्

अंडज जेरज सेतज उतभुजा प्रभ की इह किरति ॥ किरत कमावन सरब फल रवीऐ हरि निरति ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंडज = अण्डे से पैदा हुए जीव, (पंछी आदि)। जेरज = जिउर से पैदा हुए (मनुष्य और पशू)। सेतज = (सैत = पसीना) पसीने से पैदा हुए (जूआँ आदि)। उतभुजा = पानी की मदद से धरती में से पैदा हुए (बनस्पति)। किरति = रचना। निरति = (नि+रति। रति = प्यार, मोह) निर्मोही हो के।3।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया में) अंडे से पैदा हुए जीव, जिओर से पैदा हुए जीव, पसीने से पैदा हुए जीव, सारी बनस्पति - ये सारी परमात्मा की ही पैदा की हुई रचना है। उस परमात्मा का नाम (इस रचना से) निर्मोह रह के स्मरणा चाहिए- ये कमाई करने से (जीवन के) सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम ते कछू न होवना सरणि प्रभ साध ॥ मोह मगन कूप अंध ते नानक गुर काढ ॥४॥३०॥६०॥

मूलम्

हम ते कछू न होवना सरणि प्रभ साध ॥ मोह मगन कूप अंध ते नानक गुर काढ ॥४॥३०॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम ते = हम (जीवों) से। प्रभ = हे प्रभु! सरणि साध = गुरु की शरण (रख)। मगन = डूबे हुए। कूप = कूआँ। अंध = अंधा। गुर = हे गुरु!।4।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीवों से तो कुछ भी नहीं हो सकता (हमें) गुरु की शरण डाले रख। हे नानक! (अरदास किया कर-) हे गुरु! हम जीव माया के मोह में डूबे रहते हैं, (हमें मोह के इस) अंधेरे कूएं में से निकाल ले।4।3।60।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ खोजत खोजत मै फिरा खोजउ बन थान ॥ अछल अछेद अभेद प्रभ ऐसे भगवान ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ खोजत खोजत मै फिरा खोजउ बन थान ॥ अछल अछेद अभेद प्रभ ऐसे भगवान ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फिरा = फिरूँ, मैं फिरता हूँ। खोजउ = खोजूँ। थान = (अनेक) जगहें। अछेद = जिसका नाश ना हो सके, अ+छेद।1।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु को) ढूँढता-ढूँढता मैं (हर तरफ़) फिरता रहता हूँ, मैं कई जंगल, अनेक जगहों में खोजता फिरता हूँ (पर मुझे प्रभु कहीं भी नहीं मिलता। मैंने सुना है कि वह) भगवान प्रभु जी ऐसे हैं कि उनको माया छल नहीं सकती, वे नाश-रहित हैं, और उनका भेद नहीं पाया जा सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कब देखउ प्रभु आपना आतम कै रंगि ॥ जागन ते सुपना भला बसीऐ प्रभ संगि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कब देखउ प्रभु आपना आतम कै रंगि ॥ जागन ते सुपना भला बसीऐ प्रभ संगि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कब = कब? देखउ = देखूँ। कै रंगि = के रंग में। बसीऐ = अगर बस सकें।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मुझे हर वक्त ये तमन्ना रहती है कि) अपनी जीवात्मा के चाव से कब मैं अपने (प्यारे) प्रभु को देख सकूँगा। (यदि रात को सोए हुए सपने में भी) प्रभु के साथ बस सकें, तो इस जागते रहने से बेहतर (सोए हुए का वह) सपना भला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरन आस्रम सासत्र सुनउ दरसन की पिआस ॥ रूपु न रेख न पंच तत ठाकुर अबिनास ॥२॥

मूलम्

बरन आस्रम सासत्र सुनउ दरसन की पिआस ॥ रूपु न रेख न पंच तत ठाकुर अबिनास ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरन = चार वर्ण (ब्राहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। आस्रम = चार आश्रम (ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास)। सुनउ = सुनूँ।2।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर्शन करने के लिए) मैं चारों वर्णों और चारों आश्रमों के कर्म करता हूँ, शास्त्रों (के उपदेश भी) सुनता हूँ (पर, दर्शन नहीं होते) दर्शनों की लालसा बनी ही रहती है। (हे भाई!) उस अविनाशी ठाकुर प्रभु का ना कोई रूप, चिन्ह-चक्र है और ना ही वह (जीवों की तरह) पाँच तत्वों का ही बना हुआ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओहु सरूपु संतन कहहि विरले जोगीसुर ॥ करि किरपा जा कउ मिले धनि धनि ते ईसुर ॥३॥

मूलम्

ओहु सरूपु संतन कहहि विरले जोगीसुर ॥ करि किरपा जा कउ मिले धनि धनि ते ईसुर ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहहि = कहते हैं, बताते हैं। जोगीसुर = (जोगी+ईसुर) जोगी राज। करि = कर के। जा कउ = जिस को। ते = वह (बहुवचन)। ईसुर = बड़े मनुष्य।3।
अर्थ: (हे भाई!) कृपा करके प्रभु स्वयं ही जिनको मिलता है, वह महान जोगी हैं वह बहुत भाग्यवान हैं। वे विरले जोगीराज ही वे संत जन ही (उस प्रभु का) वह स्वरूप बयान करते हैं (कि उसका कोई रूप-रेख नहीं है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो अंतरि सो बाहरे बिनसे तह भरमा ॥ नानक तिसु प्रभु भेटिआ जा के पूरन करमा ॥४॥३१॥६१॥

मूलम्

सो अंतरि सो बाहरे बिनसे तह भरमा ॥ नानक तिसु प्रभु भेटिआ जा के पूरन करमा ॥४॥३१॥६१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = (हरेक जीव के) अंदर। बाहरे = बाहरि, सब से अलग। तह = वहाँ, उसमें (टिकने से)। भेटिआ = मिला। तिसु = उस (मनुष्य) को। करमा = भाग्य।4।
अर्थ: (हे भाई! विरले संतजन ही बताते हैं कि) वह प्रभु सब जीवों के अंदर बसता है, और वह सबसे अलग भी है, उस प्रभु के चरणों में जुड़ने से सारे भ्रम-वहिम नाश हो जाते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग उठते हैं उसको वह प्रभु (स्वयं ही) मिल जाता है।4।31।61।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जंत सुप्रसंन भए देखि प्रभ परताप ॥ करजु उतारिआ सतिगुरू करि आहरु आप ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जंत सुप्रसंन भए देखि प्रभ परताप ॥ करजु उतारिआ सतिगुरू करि आहरु आप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ जंत = (वह) सारे जीव। सुप्रसंन = बहुत प्रसन्न, निहाल। देखि = देख के। परताप = प्रताप, बड़ाई। करजु = कर्जा, विकारों का भार। करि = कर के। आहरु = उद्यम।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने स्वयं उद्यम करके (जिस-जिस जीव को गुरु-शब्द की दाति दे के उनके सिर पर पिछले जन्मों के किए हुए) विकारों का कर्जा (भार) उतार दिया, वे सारे जीव परमात्मा की साक्षात महानता देख के निहाल हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खात खरचत निबहत रहै गुर सबदु अखूट ॥ पूरन भई समगरी कबहू नही तूट ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

खात खरचत निबहत रहै गुर सबदु अखूट ॥ पूरन भई समगरी कबहू नही तूट ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खात = खाते हुए। खरचत = बाँटते हुए। निबहत रहै = निर्वाह होता है, उम्र बीतती रहती है। अखूट = कभी ना खत्म होने वाली। समगरी = (कोई स्वादिष्ट पकवान बनाने के लिए आवश्यक) रसद, सामग्री। पूरन भई = जरूरत के मुताबिक पूरी हो जाती है। तूट = तोटि, कमी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द (आत्मिक जीवन के प्रफुल्लित होने के लिए एक ऐसा भोजन है जो) कभी समाप्त नहीं होता। (जिस मनुष्य की उम्र यह भोजन खुद) खाते हुए (और, और लोगों को) बाँटते हुए गुजरती है, उसके पास (इस) सामग्री के भण्डार भरे रहते हैं, (इस सामग्री में) कभी भी कमी नहीं आती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि आराधना हरि निधि आपार ॥ धरम अरथ अरु काम मोख देते नही बार ॥२॥

मूलम्

साधसंगि आराधना हरि निधि आपार ॥ धरम अरथ अरु काम मोख देते नही बार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। निधि = खजाना। आपार = बेअंत। अरु = और। बार = समय।2।
अर्थ: (इस वास्ते, हे भाई!) गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, ये एक ऐसा खजाना है जो कभी समाप्त नहीं होता। (दुनिया में) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष (ये चार ही प्रसिद्ध अमूल्य पदार्थ माने गए हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, परमात्मा उसको ये पदार्थ) देते हुए समय नहीं लगाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत अराधहि एक रंगि गोबिंद गुपाल ॥ राम नाम धनु संचिआ जा का नही सुमारु ॥३॥

मूलम्

भगत अराधहि एक रंगि गोबिंद गुपाल ॥ राम नाम धनु संचिआ जा का नही सुमारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अराधहि = स्मरण करते हैं। रंगि = प्रेम में। संचिआर = संचित कर लिया, इकट्ठा कर लिया। जा का = जिस (धन) का। सुमारु = शुमार, अंदाजा।3।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद गोपाल के भक्त एक-रस प्रेम-रंग में टिक के उसका नाम स्मरण करते हैं। वह मनुष्य परमात्मा के नाम का धन (इतना) इकट्ठा करते रहते हैं कि उसका अंदाजा नहीं लग सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरनि परे प्रभ तेरीआ प्रभ की वडिआई ॥ नानक अंतु न पाईऐ बेअंत गुसाई ॥४॥३२॥६२॥

मूलम्

सरनि परे प्रभ तेरीआ प्रभ की वडिआई ॥ नानक अंतु न पाईऐ बेअंत गुसाई ॥४॥३२॥६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! गुसाई = धरती का पति।4।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे भक्त तेरी कृपा से) तेरी शरण पड़े रहते हैं। (हे भाई! प्रभु के भक्त) प्रभु की महिमा ही करते रहते हैं। हे नानक! जगत के पति प्रभु के गुण बेअंत हैं, उनका अंत नहीं पाया जा सकता।4।32।62।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि पूरन प्रभू कारज भए रासि ॥ करतार पुरि करता वसै संतन कै पासि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि पूरन प्रभू कारज भए रासि ॥ करतार पुरि करता वसै संतन कै पासि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। पूरन = सारे गुणों से भरपूर। कारज = (सारे) काम। भए रासि = सफल हो जाते हैं। करतार पुरि = कर्तार के शहर में, उस स्थान में जहाँ कर्तार सदा बसता है, साधसंगति में। करता = परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में परमात्मा (स्वयं) बसता है, अपने संतजनों के अंग संग बसता है। (साधु-संगत में) सारे गुणों से भरपूर प्रभु (का नाम) स्मरण कर-कर के (मनुष्य के) सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिघनु न कोऊ लागता गुर पहि अरदासि ॥ रखवाला गोबिंद राइ भगतन की रासि ॥१॥

मूलम्

बिघनु न कोऊ लागता गुर पहि अरदासि ॥ रखवाला गोबिंद राइ भगतन की रासि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिघनु = रुकावट। कोऊ = कोई भी। पहि = पास। राइ = राजा। रासि = राशि।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु पातशाह अपने संत जनों का (हमेशा) स्वयं रखवाला है, प्रभु (का नाम) संत जनों की राशि-पूंजी है। (जो भी मनुष्य साधु-संगत में आ के) गुरु के दर पर अरदास करते रहते हैं, (उनकी जिंदगी के रास्ते में) कोई रुकावट पैदा नहीं होती।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

तोटि न आवै कदे मूलि पूरन भंडार ॥ चरन कमल मनि तनि बसे प्रभ अगम अपार ॥२॥

मूलम्

तोटि न आवै कदे मूलि पूरन भंडार ॥ चरन कमल मनि तनि बसे प्रभ अगम अपार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तोटि = कमी। न मूलि = बिल्कुल नहीं। पूरन = भरे हुए। भंडार = खजाने। मनि = मन में। तनि = तन में। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत।2।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत एक ऐसा स्थान है जहाँ बख्शिशों के) भण्डारे भरे रहते हैं, (वहाँ इस बख्शिशों की) कभी भी कमी नहीं आती। (जो भी मनुष्य साधु-संगत में निवास रखता है, उसके) मन में (उसके) हृदय में अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु के सुंदर चरण टिके रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बसत कमावत सभि सुखी किछु ऊन न दीसै ॥ संत प्रसादि भेटे प्रभू पूरन जगदीसै ॥३॥

मूलम्

बसत कमावत सभि सुखी किछु ऊन न दीसै ॥ संत प्रसादि भेटे प्रभू पूरन जगदीसै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बसत = (साधसंगति में, कर्तार के शहर में) बसते हुए। सभि = सारे। ऊन = कमी, घाटा। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। भेटे = मिल जाते हैं। जगदीसै = जगत का मालिक।3।
अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य साधु-संगत में) निवास रखते हैं और नाम-जपने की कमाई करते हैं, वे सारे सुखी रहते हैं, उन्हें किसी बात की कोई कमी नहीं दिखती। गुरु की कृपा से उनको जगत के मालिक पूर्ण प्रभु जी मिल जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जै जै कारु सभै करहि सचु थानु सुहाइआ ॥ जपि नानक नामु निधान सुख पूरा गुरु पाइआ ॥४॥३३॥६३॥

मूलम्

जै जै कारु सभै करहि सचु थानु सुहाइआ ॥ जपि नानक नामु निधान सुख पूरा गुरु पाइआ ॥४॥३३॥६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जै जैकारु = शोभा गुणगान, बड़ाई। करहि = करते हैं। सचु = सदा कायम रहने वाला। सुहाइआ = सुंदर। जपि = जप के। निधान सुख = सुखों के खजाने।4।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में टिकते हैं) सारे लोक (उनकी) शोभा-बड़ाई करते हैं। साधु-संगत एक ऐसा सुंदर स्थान है जो सदा कायम रहने वाला है। हे नानक! (साधु-संगत की इनायत से) सारे सुखों के खजाने हरि-नाम को जप के पूरे गुरु का (सदा के लिए) मिलाप हासिल कर लेते हैं।4।33।63।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ होईऐ आरोग ॥ रामचंद की लसटिका जिनि मारिआ रोगु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ होईऐ आरोग ॥ रामचंद की लसटिका जिनि मारिआ रोगु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आराधीऐ = आराधना करनी चाहिए। होईऐ = हुआ जाता है। आरोग = आरोग्य, रोग रहित। लसटीका = लाठी, छड़ी, राज दण्ड। जिनि = जिस (हरि की आराधना) ने। मारिआ = समाप्त कर दिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, (नाम-जपने की इनायत से विकार आदि) रोगों से रहित हुआ जाता है। ये नाम-जपना ही श्री रामचंद्र जी की छड़ी है (जिस छड़ी के भय से कोई दुष्ट सिर नहीं उठा सकता था)। इस (स्मरण) ने (हरेक स्मरण करने वाले के अंदर से हरेक) रोग दूर कर दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु पूरा हरि जापीऐ नित कीचै भोगु ॥ साधसंगति कै वारणै मिलिआ संजोगु ॥१॥

मूलम्

गुरु पूरा हरि जापीऐ नित कीचै भोगु ॥ साधसंगति कै वारणै मिलिआ संजोगु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जापीऐ = जपना चाहिए। नित = सदा। कीचै = कर सकते हैं। भोगु = आत्मिक आनंद। कै वारणै = से सदके। संजोग = मिलाप के अवसर।1।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ना चाहिए और प्रभु का नाम जपना चाहिए। (इस तरह) सदा आत्मिक आनंद भोग सकते हैं। गुरु की संगति से कुर्बान जाना चाहिए (साधु-संगत की कृपा से) परमात्मा के मिलाप के अवसर बनते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु सिमरत सुखु पाईऐ बिनसै बिओगु ॥ नानक प्रभ सरणागती करण कारण जोगु ॥२॥३४॥६४॥

मूलम्

जिसु सिमरत सुखु पाईऐ बिनसै बिओगु ॥ नानक प्रभ सरणागती करण कारण जोगु ॥२॥३४॥६४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाईऐ = पा लेते हैं। बिओगु = वियोग, विछोड़ा। सरणागती = शरण पड़ना चाहिए। जोगु = योग्य, समर्थ। करण कारण जोगु = जगत की रचना करने के समर्थ।2।
अर्थ: हे नानक! उस प्रभु की शरण पड़े रहना चाहिए, जो जगत की रचना करने के समर्थ है, जिसका स्मरण करने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है और प्रभु से विछोड़ा दूर हो जाता है।2।34।64।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये ऊपर दिए हुए शबदों का संग्रह 34 शबदों का है। इसमें पहले 33 चौपदे (चार पदों वाले शब्द) हैं, आखिरी शब्द दो पदों वाला है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरि उपाव सभि तिआगिआ दारू नामु लइआ ॥ ताप पाप सभि मिटे रोग सीतल मनु भइआ ॥१॥

मूलम्

अवरि उपाव सभि तिआगिआ दारू नामु लइआ ॥ ताप पाप सभि मिटे रोग सीतल मनु भइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवरि = और सारे। उपाव = प्रयत्न। सभि = सारे। दारू = दवा। सीतल = शांति। भइआ = भया, हो गया।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने सिर्फ गुरु का पल्ला पकड़ा है, अन्य सारे हीले-वसीले छोड़ दिए हैं और परमात्मा का नाम (की ही) दवा बरती है, उसके सारे दुख-कष्ट, सारे पाप, सारे रोग मिट गए हैं; उसका मन (विकारों की तपश से बच के) ठंडा-ठार हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु पूरा आराधिआ सगला दुखु गइआ ॥ राखनहारै राखिआ अपनी करि मइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरु पूरा आराधिआ सगला दुखु गइआ ॥ राखनहारै राखिआ अपनी करि मइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आराधिआ = हृदय में बसाया। सगला = सारा। राखनहारै = रक्षा कर सकने वाले प्रभु ने। करि = कर के। मइआ = दया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को अपने दिल में बसाए रखता है, उसका सारा दुख-कष्ट दूर हो जाता है, (क्योंकि) रक्षा करने के समर्थ परमात्मा ने (उस पर) कृपा करके (दुख-कष्टों से सदा) उसकी रक्षा की है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह पकड़ि प्रभि काढिआ कीना अपनइआ ॥ सिमरि सिमरि मन तन सुखी नानक निरभइआ ॥२॥१॥६५॥

मूलम्

बाह पकड़ि प्रभि काढिआ कीना अपनइआ ॥ सिमरि सिमरि मन तन सुखी नानक निरभइआ ॥२॥१॥६५॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दुपदे = दो पदों व दो बंदों वाले शब्द।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पकड़ि = पकड़ के। प्रभि = प्रभु ने। अपनइआ = अपना। सिमरि = स्मरण करके। निरभइआ = निर्भय।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु को अपने हृदय में बसाया है) प्रभु ने (उसकी) बाँह पकड़ के उसको अपना बना लिया है। हे नानक! प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के उसका मन उसका हृदय आनंद-भरपूर हो गया है, और उसको (ताप-पाप रोग आदि का) कोई डर नहीं रह जाता।2।1।65।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ करु धरि मसतकि थापिआ नामु दीनो दानि ॥ सफल सेवा पारब्रहम की ता की नही हानि ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ करु धरि मसतकि थापिआ नामु दीनो दानि ॥ सफल सेवा पारब्रहम की ता की नही हानि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। धारि = धार के। मसतकि = माथे पर। थापिआ = थापी देनी, आर्शिवाद देना, हल्लाशेरी देनी। दानि = दान के तौर पर। ता की = उस (सेवा) की। हानि = नुकसान।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु अपने भक्तजनों के) माथे पर (अपना) हाथ रख के उनको आर्शिवाद देता है और बख्शिश के तौर पर (उनको अपना) नाम देता है। हे भाई! परमात्मा की की हुई सेवा-भक्ति जीवन का लक्ष्य पूरा करती है, ये की हुई सेवा-भक्ती व्यर्थ नहीं जाती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे ही प्रभु राखता भगतन की आनि ॥ जो जो चितवहि साध जन सो लेता मानि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आपे ही प्रभु राखता भगतन की आनि ॥ जो जो चितवहि साध जन सो लेता मानि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। आनि = सत्कार, इज्जत। चितवहि = मन में धारते हैं। लेता मानि = मान लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने भक्तों की इज्जत परमात्मा खुद ही बचाता है। परमात्मा के भक्त जो कुछ अपने मन में धारते हैं, परमात्मा वही कुछ मान लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरणि परे चरणारबिंद जन प्रभ के प्रान ॥ सहजि सुभाइ नानक मिले जोती जोति समान ॥२॥२॥६६॥

मूलम्

सरणि परे चरणारबिंद जन प्रभ के प्रान ॥ सहजि सुभाइ नानक मिले जोती जोति समान ॥२॥२॥६६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरबिंद = कमल का फूल) कमल जैसे सुंदर चरण। प्रान = जिंद (जैसे प्यारे)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। समान = लीन हो जाती है। जोती = परमात्मा।2।
अर्थ: हे भाई! जो संतजन प्रभु के सुंदर चरण-कमलों का आसरा लेते हैं, वे प्रभु को प्राणों के समान प्यारे हो जाते हैं। हे नानक! वह संत जन आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम में टिक के प्रभु के साथ मिल जाते हैं। उनकी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है।2।2।66।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दो बंदों वाले शबदों के इस नए संग्रह का ये दूसरा शब्द है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ चरण कमल का आसरा दीनो प्रभि आपि ॥ प्रभ सरणागति जन परे ता का सद परतापु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ चरण कमल का आसरा दीनो प्रभि आपि ॥ प्रभ सरणागति जन परे ता का सद परतापु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। ता का = (प्रभु) का।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस सेवकों को साधु-संगत में) प्रभु ने खुद अपने सुंदर चरण-कमलों का आसरा दिया है, वह सेवक उसका सदा कायम रहने वाला प्रताप देख के उसकी शरण पड़े रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखनहार अपार प्रभ ता की निरमल सेव ॥ राम राज रामदास पुरि कीन्हे गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राखनहार अपार प्रभ ता की निरमल सेव ॥ राम राज रामदास पुरि कीन्हे गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखनहार = रक्षा करने की समर्थता वाला। ता की सेव = उस (प्रभु) की सेवा-भक्ति। निरमल = पवित्र। रामदास पुरि = राम के दासों के शहर में, सत्संगियों के टिकने वाली जगह में, साधु-संगत में। राम राज = रूहानी राज।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने साधु-संगत में रूहानी राज कायम कर दिया है। प्रभु बेअंत और रक्षा करने में समर्थ है, (साधु-संगत में टिक के की हुई) उसकी सेवा-भक्ति (जीवन को) पवित्र (बना देती है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा सदा हरि धिआईऐ किछु बिघनु न लागै ॥ नानक नामु सलाहीऐ भइ दुसमन भागै ॥२॥३॥६७॥

मूलम्

सदा सदा हरि धिआईऐ किछु बिघनु न लागै ॥ नानक नामु सलाहीऐ भइ दुसमन भागै ॥२॥३॥६७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाहीऐ = सराहना करनी चाहिए। भाइ = भय, (नाम से) डर से।2।
अर्थ: हे नानक! (साधु-संगत में टिक के) सदा ही परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए (इस तरह जीवन के रास्ते में) कोई रुकावट नहीं पड़ती। परमात्मा के नाम की बड़ाई करनी चाहिए (प्रभु के) डर के कारण (कामादिक) सारे वैरी भाग जाते हैं।2।3।67।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मनि तनि प्रभु आराधीऐ मिलि साध समागै ॥ उचरत गुन गोपाल जसु दूर ते जमु भागै ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मनि तनि प्रभु आराधीऐ मिलि साध समागै ॥ उचरत गुन गोपाल जसु दूर ते जमु भागै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। आराधीऐ = आराधना चाहिए। मिलि = मिल के। साध समागै = साध समागम में, साधु-संगत में। उचरत = उचरते हुए। जसु = यश, महिमा। ते = से।1।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में मिल के मन से हृदय से परमात्मा के नाम की आराधना करते रहना चाहिए। जगत के रक्षक प्रभु के गुण और यश उचारने से जम (भी) दूर से ही भाग जाता है।1।

[[0818]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु जो जनु जपै अनदिनु सद जागै ॥ तंतु मंतु नह जोहई तितु चाखु न लागै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम नामु जो जनु जपै अनदिनु सद जागै ॥ तंतु मंतु नह जोहई तितु चाखु न लागै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। सद = सदा। जागै = (विकारों की ओर से) सचेत रहते हैं। तंतु मंतु = जादू टूणा। जोहई = जोहै, देख सकता, असर कर सकता। तितु = उस (मनुष्य) पर। चाखु = चक्षु, बुरी नज़र।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता रहता है, वह हर वक्त सदा (विकारों से) सचेत रहता है। कोई जादू-टूणा उस पर असर नहीं कर सकता, कोई बुरी नजर उसको नहीं लग सकती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध मद मान मोह बिनसे अनरागै ॥ आनंद मगन रसि राम रंगि नानक सरनागै ॥२॥४॥६८॥

मूलम्

काम क्रोध मद मान मोह बिनसे अनरागै ॥ आनंद मगन रसि राम रंगि नानक सरनागै ॥२॥४॥६८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मद मान = अहंकार की मस्ती। मद = मस्ती। अन रागै = अन्य के मोह प्यार में। मगन = मस्त। रसि = रस में, स्वाद में। रंगि = प्रेम में।2।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के रस में टिका रहता है, प्रभु के प्रेम में मस्त रहता है, प्रभु की शरण पड़ा रहता है, वह सदा आत्मिक आनंद में मस्त रहता है। (उसके अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार की मस्ती, मोह और-और पदार्थों के चस्के सब नाश हो जाते हैं।2।4।68।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जुगति वसि प्रभू कै जो कहै सु करना ॥ भए प्रसंन गोपाल राइ भउ किछु नही करना ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जुगति वसि प्रभू कै जो कहै सु करना ॥ भए प्रसंन गोपाल राइ भउ किछु नही करना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ जुगति = जीवों का जिंदगी गुजारने का ढंग। वसि = वश में। कै वसि = के बस में। कहै = कहता है, प्रेरित करता है। गोपाल राइ = जगत का मालिक पातशाह। भउ = डर।1।
अर्थ: हे भाई! हम जीवों की जीवन-जु्रगति परमात्मा के वश में है, जो कुछ करने के लिए वह हमें प्रेरित करता है वही हम कर सकते हैं। जिस मनुष्य पर जगत-पालक पातशाह दयावान होता है, उसे किसी से डरने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूखु न लागै कदे तुधु पारब्रहमु चितारे ॥ जमकंकरु नेड़ि न आवई गुरसिख पिआरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दूखु न लागै कदे तुधु पारब्रहमु चितारे ॥ जमकंकरु नेड़ि न आवई गुरसिख पिआरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितारे = चिक्त में बसाए रख। जम कंकरु = जम का सेवक, जम दूत। आवई = आए, आता। गुर सिख = हे गुरु के सिख! पिआरे = हे प्यारे!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे गुरसिख! परमात्मा को अपने चिक्त में बसाए रख। तुझे कभी भी कोई दुख छू नहीं सकेगा, (दुख तो कहीं रहे) जमदूत (भी) तेरे नजदीक नहीं आएगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण कारण समरथु है तिसु बिनु नही होरु ॥ नानक प्रभ सरणागती साचा मनि जोरु ॥२॥५॥६९॥

मूलम्

करण कारण समरथु है तिसु बिनु नही होरु ॥ नानक प्रभ सरणागती साचा मनि जोरु ॥२॥५॥६९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण = जगत। कारण = मूल। करण कारण समरथु = जगत की रचना करने के ताकत रखने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में। जोरु = ताकत, बल, आसरा।2।
अर्थ: हे नानक! प्रभु ही जगत की रचना करने की ताकत वाला है, उसके बिना कोई और (इस प्रकार की सामर्थ्य वाला) नहीं है। हम जीव उस प्रभु की शरण में ही रह सकते हैं, (हमारे) मन में उसी का ही सदा कायम रहने वाला आसरा है।2।5।69।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु आपना नाठा दुख ठाउ ॥ बिस्राम पाए मिलि साधसंगि ता ते बहुड़ि न धाउ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु आपना नाठा दुख ठाउ ॥ बिस्राम पाए मिलि साधसंगि ता ते बहुड़ि न धाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। नाठा = भाग गया। दुख ठाउ = दुखों की जगह। बिस्राम = विश्राम, ठिकाना। मिलि = मिल के। साध संगि = गुरु की संगति में। ता ते = उस (साधु-संगत) से। बाहुड़ि = दोबारा। न धाउ = मैं नहीं दौड़ता।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में मिल के मैंने प्रभु के चरणों में निवास हासिल कर लिया है (इस वास्ते) उस (साधु-संगत) से कभी परे नहीं भागता। (गुरु की संगति की इनायत से) मैं अपने प्रभु का हर वक्त स्मरण करके (ऐसी अवस्था में पहुँच गया हूँ कि मेरे अंदर से) दुखों का ठिकाना ही दूर हो गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिहारी गुर आपने चरनन्ह बलि जाउ ॥ अनद सूख मंगल बने पेखत गुन गाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बलिहारी गुर आपने चरनन्ह बलि जाउ ॥ अनद सूख मंगल बने पेखत गुन गाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलिहारी = कुर्बान। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। पेखत = दर्शन करके। गाउ = मैं गाता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, मैं (अपने गुरु के) चरणों से सदके जाता हूँ। गुरु के दर्शन करके मैं प्रभु की महिमा के गीत गाता हूँ, और मेरे अंदर सारे आनंद, सारे सुख सारे चाव-हिल्लोरे बने रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथा कीरतनु राग नाद धुनि इहु बनिओ सुआउ ॥ नानक प्रभ सुप्रसंन भए बांछत फल पाउ ॥२॥६॥७०॥

मूलम्

कथा कीरतनु राग नाद धुनि इहु बनिओ सुआउ ॥ नानक प्रभ सुप्रसंन भए बांछत फल पाउ ॥२॥६॥७०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुनि = ध्वनि, सुर, लगन। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य। सुप्रसन्न = बहुत खुश। पाउ = पाऊँ, मैं पा रहा हूँ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु की कृपा से) प्रभु की कथा-कहानियाँ, कीर्तन, महिमा की लगन - यही मेरी जिंदगी का निशाना बन गए हैं। (गुरु की मेहर से) प्रभु जी (मेरे पर) बहुत खुश हो गए हैं, मैं अब मन-माँगा फल प्राप्त कर रहा हूँ।2।6।70।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ दास तेरे की बेनती रिद करि परगासु ॥ तुम्हरी क्रिपा ते पारब्रहम दोखन को नासु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ दास तेरे की बेनती रिद करि परगासु ॥ तुम्हरी क्रिपा ते पारब्रहम दोखन को नासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिद = हृदय में। परगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। ते = से, साथ। पारब्रहम = हे परमात्मा! दोख = ऐब, विकार। दोखन को = विचारों का।1।
अर्थ: हे पारब्रहम! (मैं तेरा दास हूँ) तेरे दास की (तेरे दर पर) आरजू है कि मेरे हृदय में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर (ता कि) तेरी कृपा से (मेरे अंदर से) विकारों का नाश हो जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल का आसरा प्रभ पुरख गुणतासु ॥ कीरतन नामु सिमरत रहउ जब लगु घटि सासु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

चरन कमल का आसरा प्रभ पुरख गुणतासु ॥ कीरतन नामु सिमरत रहउ जब लगु घटि सासु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पुरख = हे सर्व व्यापक! गुणतासु = गुणों का बर्तन। रहउ = रहूँ। सिमरत रहउ = मैं स्मरण करता रहूँ। घटि = (मेरे) शरीर में। सासु = सांस।1। रहाउ।
अर्थ: हे सर्व-व्यापक प्रभु! तू (ही) सारे गुणों का खजाना है। मुझे (तेरे) ही सुंदर चरणों का आसरा है। (मुझ पर मेहर कर) जब तक (मेरे) शरीर में सांस (चल रही है), मैं तेरा नाम स्मरण करता रहूँ, तेरी महिमा करता रहूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात पिता बंधप तूहै तू सरब निवासु ॥ नानक प्रभ सरणागती जा को निरमल जासु ॥२॥७॥७१॥

मूलम्

मात पिता बंधप तूहै तू सरब निवासु ॥ नानक प्रभ सरणागती जा को निरमल जासु ॥२॥७॥७१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मात = माता। बंधप = रिश्तेदार। सरब = सारे जीवों में। जा को = जिस (प्रभु) का। जासु = जस, महिमा। निरमलु = पवित्र।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरी माँ है, तू ही मेरा पिता है, तू ही मेरा साक-संबंधी है, तू सारे ही जीवों में बसता है। हे नानक! जिस प्रभु की महिमा (जीवन) पवित्र कर देती है, उसकी शरण पड़े रहना चाहिए।2।7।71।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सरब सिधि हरि गाईऐ सभि भला मनावहि ॥ साधु साधु मुख ते कहहि सुणि दास मिलावहि ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सरब सिधि हरि गाईऐ सभि भला मनावहि ॥ साधु साधु मुख ते कहहि सुणि दास मिलावहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब सिधि हरि = सारी ही सिद्धियों का मालिक परमात्मा। गाईऐ = (अगर) महिमा करते रहें। सभि = सारे लोक। भला मनावहि = भला मांगते हैं। साधु = भले मनुष्य, गुरमुख। ते = से। कहहि = कहते हैं। सुण = सुन के। मिलावहि = मिलते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! सारी सिद्धियों के मालिक प्रभु की महिमा करते रहना चाहिए, (जो मनुष्य महिमा करता है) सारे लोग (उसकी) सुख मांगते हैं। मुँह से (सभी लोग उसे) गुरमुखि गुरमुखि कहते हैं, (उसके वचन) सुन के सेवक भाव से उसके चरणों में लगते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूख सहज कलिआण रस पूरै गुरि कीन्ह ॥ जीअ सगल दइआल भए हरि हरि नामु चीन्ह ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सूख सहज कलिआण रस पूरै गुरि कीन्ह ॥ जीअ सगल दइआल भए हरि हरि नामु चीन्ह ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। रस = स्वाद। पूरै गुरि = पूरे गुरु ने। जीअ लगन = सारे जीवों पर। दइआल = दयावान। चीन्ह = चीन्ह, (जो मनुष्य) पहचानता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता के सुख आनंद रस बख्श दिए, वह मनुष्य सदा परमात्मा के साथ सांझ डाले रखता है और (परमात्मा को सर्व-व्यापक जानता हुआ) सारे जीवों पर दयावान रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरि रहिओ सरबत्र महि प्रभ गुणी गहीर ॥ नानक भगत आनंद मै पेखि प्रभ की धीर ॥२॥८॥७२॥

मूलम्

पूरि रहिओ सरबत्र महि प्रभ गुणी गहीर ॥ नानक भगत आनंद मै पेखि प्रभ की धीर ॥२॥८॥७२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरि रहिओ = भरपूर है, मौजूद है। सरबत्र महि = सबमें। गुणी = गुणों का मालिक। गहीर = गहरा, अथाह। आनंद मै = आनंद मय, आनंद भरपूर। पेखि = देख के। धीर = आसरा।2।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु की महिमा करने वाले) भक्त-जन प्रभु का आसरा देख के सदा आनंद-भरपूर रहते हैं, (उन्हें) निश्चय होता है कि सारे गुणों का मालिक अथाह प्रभु सारे जीवों में बसता है।2।8।72।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ अरदासि सुणी दातारि प्रभि होए किरपाल ॥ राखि लीआ अपना सेवको मुखि निंदक छारु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ अरदासि सुणी दातारि प्रभि होए किरपाल ॥ राखि लीआ अपना सेवको मुखि निंदक छारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दातारि = दातार ने। प्रभि = प्रभु ने। राखि लीआ = रक्षा की। मुखि = मुँह पर। छारु = राख।1।
अर्थ: हे मित्र! जिस सेवक की अरदास प्रभु ने सुन ली, जिस सेवक पर प्रभु जी दयावान हो गए, अपने उस सेवक की प्रभ ने (सदा) रक्षा की है, उस सेवक के दुखदाई-निंदक के मुँह पर राख ही पड़ी है (निंदक हमेशा धिक्कारा ही गया है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझहि न जोहै को मीत जन तूं गुर का दास ॥ पारब्रहमि तू राखिआ दे अपने हाथ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुझहि न जोहै को मीत जन तूं गुर का दास ॥ पारब्रहमि तू राखिआ दे अपने हाथ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुझहि = तुझे। जोहै = देख सकता, बुरी निगाह से देख सकता है। को = कोई भी। मीत = हे मित्र! पारब्रहमि = पारब्रहम ने। तू = तुझे। दे = दे के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! हे सज्जन! (अगर) तू गुरु का सेवक (बना रहे, तो विश्वास रख कि) परमात्मा ने अपना हाथ दे के तेरी रक्षा करनी है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअन का दाता एकु है बीआ नही होरु ॥ नानक की बेनंतीआ मै तेरा जोरु ॥२॥९॥७३॥

मूलम्

जीअन का दाता एकु है बीआ नही होरु ॥ नानक की बेनंतीआ मै तेरा जोरु ॥२॥९॥७३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बीआ = दूसरा। मै = मुझे। जोरु = ताण, सहारा।2।
अर्थ: हे मित्र! सारे जीवों को दातें देने वाला सिर्फ परमात्मा ही है, उसके बिना कोई और दूसरा (दातें देने के काबिल) नहीं है (उस प्रभु की शरण पड़ा रह)। नानक की (भी प्रभु-दर पर ही सदा) अरदास है: (हे प्रभु!) मुझे तेरा ही आसरा है।2।9।73।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मीत हमारे साजना राखे गोविंद ॥ निंदक मिरतक होइ गए तुम्ह होहु निचिंद ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मीत हमारे साजना राखे गोविंद ॥ निंदक मिरतक होइ गए तुम्ह होहु निचिंद ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीत हमारे साजना = हे मेरे मित्रो! हे मेरे सज्जनो! राख = रक्षा करता है। गोबिंद = सृष्टि की पालना करने वाला। मिरतक = आत्मिक तौर पर मुर्दे। निचिंद = बेफिक्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्रो! हे मेरे सज्जनो! (यकीन रखो कि) परमात्मा (अपने सेवकों की जरूर) रक्षा करता है। (सेवक की) निंदा करने वाले (खुद ही) आत्मिक मौत मर जाते हैं। (इस वास्ते तुम परमात्मा का आसरा-सहारा लिए रखो, और निंदकों की तरफ से) बेफिक्र रहो।1। रहाउ।

[[0819]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल मनोरथ प्रभि कीए भेटे गुरदेव ॥ जै जै कारु जगत महि सफल जा की सेव ॥१॥

मूलम्

सगल मनोरथ प्रभि कीए भेटे गुरदेव ॥ जै जै कारु जगत महि सफल जा की सेव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारे। प्रभि = प्रभु ने। भेटे = मिल गए। जै जैकारु = शोभा ही शोभा। जा की सेव = जिस (प्रभु) की सेवा भक्ति। सफल = फल देने वाली।1।
अर्थ: हे मेरे मित्रो! जिस प्रभु की सेवा-भक्ति उद्देश्य पूरे करती है, उस प्रभु ने (सदा ही उस सेवक के) सारे उद्देश्य पूरे किए हैं जिसको (भाग्यों से) गुरु मिल गया, (उसके निरे उद्देश्य ही पूरे नहीं होते) सारे जगत में उसकी शोभा होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊच अपार अगनत हरि सभि जीअ जिसु हाथि ॥ नानक प्रभ सरणागती जत कत मेरै साथि ॥२॥१०॥७४॥

मूलम्

ऊच अपार अगनत हरि सभि जीअ जिसु हाथि ॥ नानक प्रभ सरणागती जत कत मेरै साथि ॥२॥१०॥७४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपार = बेअंत, अ+पार। अगनत = (अ+गनत) जिसके गुण गिने नहीं जा सकते। सभि = सारे। जीअ = जीव। जिसु हाथि = जिस (प्रभु) के हाथ में। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। मेरै साथि = मेरे साथ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जो प्रभु! (सबसे) ऊँचा है, बेअंत है, जिसके गुण गिने नहीं जा सकते, सारे ही जीव जिसके वश में हैं। (तू उस) प्रभु की शरण पड़ा रह (और, विश्वास रख कि) वह प्रभु हर जगह मेरे अंग-संग है।2।10।74।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा आराधिआ होए किरपाल ॥ मारगु संति बताइआ तूटे जम जाल ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा आराधिआ होए किरपाल ॥ मारगु संति बताइआ तूटे जम जाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आराधिआ = मन में याद रखा। किरपाल = दयावान (कृपा+आलय)। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। संति = गुरु ने, संत ने। जम जाल = जम की फाहियां।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को हृदय में बसाए रखता है, जिस पर गुरु दयावान होता है, जिस मनुष्य को गुरु ने (सही जीवन का) रास्ता बता दिया, उसकी जम वाली सारी जंजीरें टूट जाती हैं (उसके वह मानसिक बंधन टूट जाते हैं, जो आत्मिक मौत लाने के लिए जिम्मेवार हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूख भूख संसा मिटिआ गावत प्रभ नाम ॥ सहज सूख आनंद रस पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दूख भूख संसा मिटिआ गावत प्रभ नाम ॥ सहज सूख आनंद रस पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसा = संशय, सहम। सहज = आत्मिक अडोलता। सभि = सारे। काम = कर्म।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सारे दुख, सारी भूखें, सारे सहम मिट जाते हैं। (नाम की इनायत से) आत्मिक अडोलता के सुख आनंद स्वाद (प्राप्त हो जाते हैं)। सारी आवश्यक्ताएं पूरी हो जाती हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलनि बुझी सीतल भए राखे प्रभि आप ॥ नानक प्रभ सरणागती जा का वड परताप ॥२॥११॥७५॥

मूलम्

जलनि बुझी सीतल भए राखे प्रभि आप ॥ नानक प्रभ सरणागती जा का वड परताप ॥२॥११॥७५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलनि = जलन। प्रभि = प्रभु ने। जा का = जिस (प्रभु) का।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु का नाम स्मरण किया) प्रभु ने खुद (उसकी जम जाल से) रक्षा की (उसके अंदर से विकारों की) जलन मिट गई, उसका मन शीतल हो गया। हे नानक! जिस प्रभु में इतनी बड़ी ताकत है तू भी उसकी शरण पड़ा रह।2।11।75।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ धरति सुहावी सफल थानु पूरन भए काम ॥ भउ नाठा भ्रमु मिटि गइआ रविआ नित राम ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ धरति सुहावी सफल थानु पूरन भए काम ॥ भउ नाठा भ्रमु मिटि गइआ रविआ नित राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धरति = (कर्म बीज बीजने वाली) शरीर धरती। सुहावी = सुंदर। सफल = कामयाब। थानु = हृदय स्थल। काम = (सारे) काम। भ्रमु = भ्रम, भटकना। रविआ = स्मरण किया।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य साधसंगति में टिक के) प्रभु का नाम स्मरण करता है, (उसके मन में से हरेक किस्म का) डर दूर हो जाता है, भटकना मिट जाती है, उसका शरीर सुंदर हो जाता है (उसकी ज्ञान-इंद्रिय सदाचारी हो जाती हैं), उसका हृदय-स्थल जीवन का लक्ष्य पूरा करने वाला बन जाता है, उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध जना कै संगि बसत सुख सहज बिस्राम ॥ साई घड़ी सुलखणी सिमरत हरि नाम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

साध जना कै संगि बसत सुख सहज बिस्राम ॥ साई घड़ी सुलखणी सिमरत हरि नाम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै संगि = के साथ, की संगति में। बसत = बसते हुए। सहज = आत्मिक अडोलता। बिस्राम = शांति। साई = वही (स्त्रीलिंग)। सुलखणी = अच्छे लक्षणों वाली, भाग्यशाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरमुखों के संगति में टिके रहने से आत्मिक अडोलता का आनंद प्राप्त होता है, (मन को) शांति मिलती है। (हे भाई! मनुष्य के जीवन में) वही घड़ी भाग्यशाली होती है (जब मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के) परमात्मा का नाम स्मरण करता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगट भए संसार महि फिरते पहनाम ॥ नानक तिसु सरणागती घट घट सभ जान ॥२॥१२॥७६॥

मूलम्

प्रगट भए संसार महि फिरते पहनाम ॥ नानक तिसु सरणागती घट घट सभ जान ॥२॥१२॥७६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रगट = प्रसिद्ध, नामवर। महि = में। पहनाम = (फारसी = पिनहां) छुपे हुए, जिन्हें कोई जानता-बूझता नहीं था। तिसु = उस (परमात्मा) की। घट घट जान = हरेक के दिल की जानने वाला।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को पहले कोई जानता-पहचानता नहीं था (साधु-संगत में टिक के नाम-जपने की इनायत से) वे जगत में मशहूर हो जाते हैं। हे नानक! (साधु-संगत का आसरा ले के) उस परमात्मा की शरण पड़े रहना चाहिए जो हरेक जीव के दिल की हरेक बात जानने वाला है।2।12।76।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ रोगु मिटाइआ आपि प्रभि उपजिआ सुखु सांति ॥ वड परतापु अचरज रूपु हरि कीन्ही दाति ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ रोगु मिटाइआ आपि प्रभि उपजिआ सुखु सांति ॥ वड परतापु अचरज रूपु हरि कीन्ही दाति ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। उपजिआ = पैदा हुआ। वड परतापु = बड़े प्रताप वाला। अचरज रूपु = आश्चर्य स्वरूप वाला।1।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा बड़े प्रताप वाला है, आश्चर्य स्वरूप वाला है, उसी ने ही (मेरे पर) बख्शिश की है। प्रभु ने खुद ही (मेरे प्यारे का) रोग दूर किया है, (उसकी मेहर से) सुख मिला है शांति मिली है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि गोविंदि क्रिपा करी राखिआ मेरा भाई ॥ हम तिस की सरणागती जो सदा सहाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरि गोविंदि क्रिपा करी राखिआ मेरा भाई ॥ हम तिस की सरणागती जो सदा सहाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। गोबिंद = गोबिंद ने। भाई = प्यारा। सहाई = सहायता करने वाला।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मैंने तो उस परमात्मा का ही आसरा लिया हुआ है, जो सदा सहायता करने वाला है। (देखो, उसकी मेहर कि) गुरु ने परमात्मा ने (ही मेरे ऊपर) कृपा की है, मेरे प्यारे को (हाथ दे के) बचा लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरथी कदे न होवई जन की अरदासि ॥ नानक जोरु गोविंद का पूरन गुणतासि ॥२॥१३॥७७॥

मूलम्

बिरथी कदे न होवई जन की अरदासि ॥ नानक जोरु गोविंद का पूरन गुणतासि ॥२॥१३॥७७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरथी = व्यर्थ, फल हीन। होवई = होती है। जन = सेवक। जोरु = बल, आसरा। गुण तासि = गुणों का खजाना।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! प्रभु के दर के ही सेवक बने रहो) सेवक की आरजू कभी खाली नहीं जाती (प्रभु जरूर सहायता करता है, और, रोग आदि से खुद ही बचाता है)। वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, सारे गुणों से भरपूर है। मुझे तो उस परमात्मा का ही आसरा है।2।13।77।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मरि मरि जनमे जिन बिसरिआ जीवन का दाता ॥ पारब्रहमु जनि सेविआ अनदिनु रंगि राता ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मरि मरि जनमे जिन बिसरिआ जीवन का दाता ॥ पारब्रहमु जनि सेविआ अनदिनु रंगि राता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। जिन = जिनको। जीवन = जिंदगी। जनि = जन ने, सेवक ने। सेविआ = स्मरण किया। अनदिनु = हर रोज। रंगि = प्रेम में।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को जिंदगी देने वाला परमात्मा भूल जाता है, वह आत्मिक मौत सहेड़ के जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। पर प्रभु के सेवक ने प्रभु को हर वक्त स्मरण किया है, (प्रभु का सेवक प्रभु के) प्रेम-रंग में रंगा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांति सहजु आनदु घना पूरन भई आस ॥ सुखु पाइआ हरि साधसंगि सिमरत गुणतास ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सांति सहजु आनदु घना पूरन भई आस ॥ सुखु पाइआ हरि साधसंगि सिमरत गुणतास ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। घना = बहुत। साध संगि = साधु-संगत में। गुणतास = गुणों का खजाना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! सेवक ने) गुणों के खजाने हरि (का नाम) साधु-संगत में स्मरण करते हुए (सदा) आत्मिक आनंद प्राप्त किया है। (सेवक के हृदय में) शांति, आत्मिक अडोलता और बहुत आनंद बना रहता है। (सेवक की) हरेक कामना पूरी हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सुआमी अरदासि जन तुम्ह अंतरजामी ॥ थान थनंतरि रवि रहे नानक के सुआमी ॥२॥१४॥७८॥

मूलम्

सुणि सुआमी अरदासि जन तुम्ह अंतरजामी ॥ थान थनंतरि रवि रहे नानक के सुआमी ॥२॥१४॥७८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुनी। सुआमी = हे स्वामी! अरदासि जन = (अपने) सेवक की अरदास। अंतरजामी = दिलों की जानने वाला। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। रवि रहे = तुम मौजूद हो।2।
अर्थ: हे सवामी! नानक के मालिक! तू हर जगह में बसता है, तू हरेक के दिल की जानने वाला है, तू (अपने) सेवक की अरदास (सदा) सुनता है।2।14।78।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ ताती वाउ न लगई पारब्रहम सरणाई ॥ चउगिरद हमारै राम कार दुखु लगै न भाई ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ ताती वाउ न लगई पारब्रहम सरणाई ॥ चउगिरद हमारै राम कार दुखु लगै न भाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ताती = गरम। ताती वाउ = गर्म हवा, सेक। लगई = लगे, लगता। चउगिरद = चौगिर्दा, चारों तरफ। रामकार = राम के नाम की लकीर।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: बनवास के समय रावण सीता को छलने आया। सीता जी की प्रेरणा से श्री रामचंद्र हिरन को पकड़ने गए, लक्ष्मण को सीता जी के पास छोड़ गए। जंगल में से इस तरह की आवाज आई जैसे श्री रामचंद्र जी को किसी बिपता ने आ के ग्रस लिया है। सीता जी के कहने पर लक्ष्मण सीता जी के चारों तरफ राम-कार खींच के श्री रामचंद्र जी की तलाश में चले गए। पर सीता जी को हिदायत कर गए कि इस लकीर से बाहर नहीं निकलना। रावण का दाव तब ही लगा, जब सीता जी उससे बाहर निकल आए)।

दर्पण-भाषार्थ

भाई = हे भाई!।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की शरण पड़ने से (व्याधियों का) सेक नहीं लगता। हे भाई! हम जीवों के चारों तरफ परमात्मा का नाम (मानो) एक लकीर है (जिसकी इनायत से) कोई दुख छू नहीं सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु पूरा भेटिआ जिनि बणत बणाई ॥ राम नामु अउखधु दीआ एका लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुरु पूरा भेटिआ जिनि बणत बणाई ॥ राम नामु अउखधु दीआ एका लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटिआ = मिल गया। जिनि = जिस (गुरु) ने। बणत = (व्याधियों को दूर करने की) बिउंत। अउखधु = दवा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु ने (परमात्मा का नाम-दवा दे के जीवों के रोग दूर करने की) बिउंत बना रखी है, वह पूरा गुरु (जिस मनुष्य को) मिल जाता है और परमात्मा का नाम दवाई देता है, वह मनुष्य सदा परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखि लीए तिनि रखनहारि सभ बिआधि मिटाई ॥ कहु नानक किरपा भई प्रभ भए सहाई ॥२॥१५॥७९॥

मूलम्

राखि लीए तिनि रखनहारि सभ बिआधि मिटाई ॥ कहु नानक किरपा भई प्रभ भए सहाई ॥२॥१५॥७९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उसने। रखनहारि = रखने की समर्थता वाले ने। बिआधि = रोग। सहाई = मददगार।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्य को गुरु मिल गया उसको) उस रखवाले प्रभु ने बचा लिया, (उसके अंदर से) हरेक रोग दूर कर दिया, उस मनुष्य पर प्रभु की कृपा हो गई, प्रभु उस मनुष्य का मददगार बन गया।2।15।79।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ अपणे बालक आपि रखिअनु पारब्रहम गुरदेव ॥ सुख सांति सहज आनद भए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ अपणे बालक आपि रखिअनु पारब्रहम गुरदेव ॥ सुख सांति सहज आनद भए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रखिअनु = रखे हैं उस (प्रभु) ने। गुरदेव = सबसे बड़ा देवता। सहज = आत्मिक अडोलता। सेव = नाम-जपने की मेहनत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबसे बड़ा देवता (है, हम जीव उसके बच्चे हैं) अपने बच्चों की वह सदा ही स्वयं रक्षा करता आया है। (जो मनुष्य उसकी शरण पड़ते हैं, उनके अंदर) शांति, आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद पैदा होते हैं, उनकी सेवा-नाम-जपने की मेहनत सफल हो जाती है।1। रहाउ।

[[0820]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत जना की बेनती सुणी प्रभि आपि ॥ रोग मिटाइ जीवालिअनु जा का वड परतापु ॥१॥

मूलम्

भगत जना की बेनती सुणी प्रभि आपि ॥ रोग मिटाइ जीवालिअनु जा का वड परतापु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। जीवालिअनु = उसने जीवित किए हैं, उसने आत्मिक जीवन दिया है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का (सबसे) बड़ा तेज-प्रताप है उस ने अपने भक्तों की आरजू (सदा) सुनी है (उनके अंदर से) रोग मिटा के उनको आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोख हमारे बखसिअनु अपणी कल धारी ॥ मन बांछत फल दितिअनु नानक बलिहारी ॥२॥१६॥८०॥

मूलम्

दोख हमारे बखसिअनु अपणी कल धारी ॥ मन बांछत फल दितिअनु नानक बलिहारी ॥२॥१६॥८०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दोख = ऐब, विकार। बखसिअनु = उसने बख्शे हैं। कल = कला, क्षमता। धारी = टिकाई है। मन बांछत = मन मांगे। दितिअनु = दिए हैं उस प्रभु ने।2।
अर्थ: हे भाई! उस प्रभु-पिता ने हम बच्चों के ऐब सदा माफ कर दिए हैं, और हमारे अंदर अपने नाम की ताकत भरी है। हे नानक! प्रभु पिता ने हम बच्चों को सदा मन-मांगे फल दिए हैं, उस प्रभु से सदा सदके जाना चाहिए।2।16।80।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मोहन स्रवनी इह न सुनाए ॥ साकत गीत नाद धुनि गावत बोलत बोल अजाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मोहन स्रवनी इह न सुनाए ॥ साकत गीत नाद धुनि गावत बोलत बोल अजाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहन = हे जीवों के मन को मोह लेने वाले! हे सुंदर! स्रवनी = श्रवणी, (मेरे) कानों में। न सुनाए = ना सुनाए। साकत = परमात्मा से टूटे हुए लोग। धुनि = सुर। अजाए = व्यर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (जो गंदे) गीतों नादों धुनियों के बोल बोलते हैं और गाते हैं वह (आत्मिक जीवन के लिए) व्यर्थ हैं। हे मेरे मोहन! ऐसे बोल मेरे कानों में ना पड़ें।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवत सेवि सेवि साध सेवउ सदा करउ किरताए ॥ अभै दानु पावउ पुरख दाते मिलि संगति हरि गुण गाए ॥१॥

मूलम्

सेवत सेवि सेवि साध सेवउ सदा करउ किरताए ॥ अभै दानु पावउ पुरख दाते मिलि संगति हरि गुण गाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवि सेवि = सदा सेवा करके। साध सेवउ = मैं गुरु की सेवा करता रहूँ। किरताए = कार्य, काम काज। अभै = निर्भयता। पावउ = पाऊँ। पुरख = हे सर्व व्यापक! मिलि = मिल के। गाए = गा के।1।
अर्थ: हे सर्व-व्यापक दातार! हे हरि! (मेहर कर) गुरु की संगति में मिल के, तेरे गुण गा के मैं (तेरे दर से) निर्भयता की दाति प्राप्त करूँ। मैं सदा ही हर वक्त गुरु की शरण पड़ा रहूँ, मैं सदा यही काम करता रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना अगह अगह गुन राती नैन दरस रंगु लाए ॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन मोहि चरण रिदै वसाए ॥२॥

मूलम्

रसना अगह अगह गुन राती नैन दरस रंगु लाए ॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन मोहि चरण रिदै वसाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। अगह = अगम्य (पहुँच से परे)। राती = रति रहे, रंगी रहे। नैन = आँखें। दरस रंगु = दर्शन का आनंद। लाए = लगा के। दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मोहि रिदै = मेरे हृदय में। वसाए = बसाए रख।2।
अर्थ: हे दीनों के दुख दूर करने वाले! (मुझ पर) दयावान हो, अपने चरण मेरे हृदय में बसाए रख, मेरी आँखें तेरे दर्शन कर-करके मेरी जीभ तुझ अगम्य (पहुँच से परे) के गुणों में रति रहे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभहू तलै तलै सभ ऊपरि एह द्रिसटि द्रिसटाए ॥ अभिमानु खोइ खोइ खोइ खोई हउ मो कउ सतिगुर मंत्रु द्रिड़ाए ॥३॥

मूलम्

सभहू तलै तलै सभ ऊपरि एह द्रिसटि द्रिसटाए ॥ अभिमानु खोइ खोइ खोइ खोई हउ मो कउ सतिगुर मंत्रु द्रिड़ाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तलै = नीचे। द्रिसटि = दृष्टि, निगाह। द्रिसटाए = दिखाए। खोई = दूर कर के। खोइ खोइ खोई हउ = मैं बिल्कुल दूर कर दूँ। मो कउ = मुझे। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाए = दृढ़ कर, पक्का कर।3।
अर्थ: हे मोहन! मेरी निगाह में ऐसी ज्योति पैदा कर कि मैं अपने आप को सबसे नीच समझूँ और सबको अपने से ऊँचा जानूँ। हे मोहन! मेरे दिल में गुरु का उपदेश पक्का कर दे, ता कि मैं सदा के लिए अपने अंदर से अहंकार दूर कर दूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतुलु अतुलु अतुलु नह तुलीऐ भगति वछलु किरपाए ॥ जो जो सरणि परिओ गुर नानक अभै दानु सुख पाए ॥४॥१॥८१॥

मूलम्

अतुलु अतुलु अतुलु नह तुलीऐ भगति वछलु किरपाए ॥ जो जो सरणि परिओ गुर नानक अभै दानु सुख पाए ॥४॥१॥८१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। सरणि गुर = गुरु की शरण। पाए = पाया जाता है।4।
अर्थ: हे मोहन! तू अतुल है, तू अतुल है, तू अतुल है, (तेरे बड़प्पन को) तोला नहीं जा सकता, तू भक्ति को प्यार करने वाला है, तू सबके ऊपर कृपा करता है। हे नानक! (मोहन-प्रभु की कृपा से) जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह निर्भयता की दाति हासिल कर लेता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है।4।1।81।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस संग्रह का शीर्षक है ‘चउपदे दुपदे’। पर इस में सिर्फ पहला शब्द ही चार बंदों वाला है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ प्रभ जी तू मेरे प्रान अधारै ॥ नमसकार डंडउति बंदना अनिक बार जाउ बारै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ प्रभ जी तू मेरे प्रान अधारै ॥ नमसकार डंडउति बंदना अनिक बार जाउ बारै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रान अधारै = जिंद का आसरा। डंडउति बंदना = डंडे की तरह सीधा लंबे पड़कर नमस्कार (दण्डवत)। बार = बारी। बारै = वारने, सदके।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू (ही) मेरी जिंद का सहारा है। हे प्रभु! मैं तेरे ही आगे नमस्कार करता हूँ, दण्डवत् करके नमस्कार करता हूँ। मैं अनेक बार तुझसे सदके जाता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊठत बैठत सोवत जागत इहु मनु तुझहि चितारै ॥ सूख दूख इसु मन की बिरथा तुझ ही आगै सारै ॥१॥

मूलम्

ऊठत बैठत सोवत जागत इहु मनु तुझहि चितारै ॥ सूख दूख इसु मन की बिरथा तुझ ही आगै सारै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुझहि = तुझे ही। चितारै = याद करता है। बिरथा = व्यथा, पीड़ा। सारै = संभालता है, पेश करता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! उठते, बैठते, सोते, जागते (हर वक्त) मेरा ये मन तुझे ही याद करता रहता है। मेरा ये मन अपना सुख अपना दुख अपनी हरेक पीड़ा तेरे ही आगे रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू मेरी ओट बल बुधि धनु तुम ही तुमहि मेरै परवारै ॥ जो तुम करहु सोई भल हमरै पेखि नानक सुख चरनारै ॥२॥२॥८२॥

मूलम्

तू मेरी ओट बल बुधि धनु तुम ही तुमहि मेरै परवारै ॥ जो तुम करहु सोई भल हमरै पेखि नानक सुख चरनारै ॥२॥२॥८२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओट = आसरा। बल = ताण। तुमहि = तुम ही, तू ही। मेरै = मेरे लिए। परवारै = परिवार। भल = भला। हमारै = हमारे लिए। पेखि चरनारै = (तेरे) चरणों के दर्शन करके।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरा सहारा है, तू ही मेरा माण है, तू ही मेरा ताण (बल) है, तू ही मेरी बुद्धि है, तू ही मेरी समृद्धि (धन) है, और तू ही मेरे वास्ते मेरा परिवार है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जो कुछ तू करता है मेरे वास्ते वही भलाई है। तेरे चरणों के दर्शन करके मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।2।2।82।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: नए संग्रह का ये दूसरा शब्द है। इस राग में महला ५ के अब तक 82 शब्द आ चुके हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सुनीअत प्रभ तउ सगल उधारन ॥ मोह मगन पतित संगि प्रानी ऐसे मनहि बिसारन ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सुनीअत प्रभ तउ सगल उधारन ॥ मोह मगन पतित संगि प्रानी ऐसे मनहि बिसारन ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुनीअत = सुनी जाती है। प्रभ = हे प्रभु! तउ = तेरी (वजह से)। सगल = सारे जीवों को। उधारन = (विकारों से) बचाने वाला। मगन = डूबे हुए। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। संगि प्रानी = प्राणियों से। ऐसे = इस तरह, बेपरवाही से। मनहि = मन से।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी बाबत सुना जाता है कि तू सारे जीवों को विकारों से बचाने वाला है, (तू उनको भी बचा लेता है, जो) मोह में डूबे हुए विकारों में गिरे हुए प्राणियों के साथ उठना-बैठना रखते हैं और बड़ी बेपरवाही से तुझे मन से भुलाए रखते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संचि बिखिआ ले ग्राहजु कीनी अम्रितु मन ते डारन ॥ काम क्रोध लोभ रतु निंदा सतु संतोखु बिदारन ॥१॥

मूलम्

संचि बिखिआ ले ग्राहजु कीनी अम्रितु मन ते डारन ॥ काम क्रोध लोभ रतु निंदा सतु संतोखु बिदारन ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संचि = संचित करके। बिखिआ = माया। ग्राहजु = ग्राह्य, ग्रहण करने योग्य। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से। डारन = फेंक दिया। रतु = रता हुआ, मस्त। सतु = दान। बिदारन = चीर फाड़ दिया, चीर डाला।1।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे पैदा किए हुए जीव) माया इकट्ठी करके ही इसको ग्रहण करने योग्य बनाते हैं, पर आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम-जल अपने मन से परे फेंक देते हैं। (ऐसे) जीव काम-क्रोध-लोभ-निंदा (आदि विकारों) में मस्त रहते हैं और सेवा-संतोख आदि गुण को कतरा-कतरा कर रहे हैं (हे प्रभु! मेहर कर, इनको विकारों से बचा ले)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन ते काढि लेहु मेरे सुआमी हारि परे तुम्ह सारन ॥ नानक की बेनंती प्रभ पहि साधसंगि रंक तारन ॥२॥३॥८३॥

मूलम्

इन ते काढि लेहु मेरे सुआमी हारि परे तुम्ह सारन ॥ नानक की बेनंती प्रभ पहि साधसंगि रंक तारन ॥२॥३॥८३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इनते = इनसे। सुआमी = हे नानक! हारि = हार के, थक के। सारन = शरण। पहि = पास। संगि = संगति में। रंक = कंगाल, आत्मिक जीवन से वंचित।2।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! इन विकारों से हमें बचा ले (हमारी इनके आगे पेश नहीं जाती) हार के तेरी शरण आ पड़े हैं। हे प्रभु! (तेरे दर के सेवक) नानक की (तेरे आगे) आरजू है कि आत्मिक जीवन से बिल्कुल वंचित लोगों को भी साधु-संगत में ला के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।2।3।83।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ संतन कै सुनीअत प्रभ की बात ॥ कथा कीरतनु आनंद मंगल धुनि पूरि रही दिनसु अरु राति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ संतन कै सुनीअत प्रभ की बात ॥ कथा कीरतनु आनंद मंगल धुनि पूरि रही दिनसु अरु राति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतन कै = संतों के घर में, संतों की संगति में, साधु-संगत में। बात = कथा वारता। सुनीअत = सुनी जाती है। धुनि = तुकांत। पूरि रही = भरी रहती है। दिनसु = दिन। अरु = और।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! साधु संगत में प्रभु की महिमा की कथा-वार्ता (सदा) सुनी जाती है। वहाँ दिन-रात हर वक्त प्रभु की कथा-कहानियाँ होती हैं, कीर्तन होता है, आत्मिक आनंद हिल्लौरे पैदा करने वाली धुनि सदा चली रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा अपने प्रभि कीने नाम अपुने की कीनी दाति ॥ आठ पहर गुन गावत प्रभ के काम क्रोध इसु तन ते जात ॥१॥

मूलम्

करि किरपा अपने प्रभि कीने नाम अपुने की कीनी दाति ॥ आठ पहर गुन गावत प्रभ के काम क्रोध इसु तन ते जात ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = करके। प्रभि = प्रभु ने। तन ते = शरीर से। जात = दूर हो जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! संतजनों को प्रभु ने मेहर करके अपने सेवक बना लिया होता है, उनको अपने नाम की दाति बख्शी होती है। आठों पहर प्रभु के गुण गाते-गाते (उनके) इस शरीर में से काम-क्रोध (आदि विकार) दूर हो जाते हैं।1।

[[0821]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिपति अघाए पेखि प्रभ दरसनु अम्रित हरि रसु भोजनु खात ॥ चरन सरन नानक प्रभ तेरी करि किरपा संतसंगि मिलात ॥२॥४॥८४॥

मूलम्

त्रिपति अघाए पेखि प्रभ दरसनु अम्रित हरि रसु भोजनु खात ॥ चरन सरन नानक प्रभ तेरी करि किरपा संतसंगि मिलात ॥२॥४॥८४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति। अघाए = तृप्त हो गए। पेखि = देख के। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। प्रभ = हे प्रभु! संगि = संगत में।2।
अर्थ: हे भाई! संत जन प्रभु के दर्शन करके (माया की तृष्ण की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं, संत जन सदा आत्मिक जीवन देने वाला नाम हरि-नाम का स्वादिष्ट भोजन खाते हैं। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे चरणों की शरण में आते हैं, तू कृपा करके उनको संत जनों की संगति में मिला देता है।2।4।84।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ राखि लीए अपने जन आप ॥ करि किरपा हरि हरि नामु दीनो बिनसि गए सभ सोग संताप ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ राखि लीए अपने जन आप ॥ करि किरपा हरि हरि नामु दीनो बिनसि गए सभ सोग संताप ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखि लीए = (सदा) रक्षा की है। जन = सेवक। करि = कर के। दीनो = दिया है। सोग = चिन्ता, ग़म। संताप = दुख-कष्ट।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने सदा अपने सेवकों की रक्षा की है। मेहर करके (अपने सेवकों को) अपने नाम की दाति देता आया है (जिनको नाम की दाति बख्शता है उनकी) सारी चिन्ता-फिक्रें व दुख-कष्ट नाश हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गोविंद गावहु सभि हरि जन राग रतन रसना आलाप ॥ कोटि जनम की त्रिसना निवरी राम रसाइणि आतम ध्राप ॥१॥

मूलम्

गुण गोविंद गावहु सभि हरि जन राग रतन रसना आलाप ॥ कोटि जनम की त्रिसना निवरी राम रसाइणि आतम ध्राप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुण गोविंद = गोविंद के गुण। सभि = सारे (मिल के)। हरि जन = हे संत जनो! रतन राग = सुंदर रागों के द्वारा। रसना = जीभ (से)। आलाप = उचारण करो। कोटि = करोड़ों। निवरी = दूर हो जाती है। रसाइणि = रसायन से। रसाइण = रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। आतम = जीवात्मा, जिंद। ध्राप = तृप्त हो जाती है।1।
अर्थ: हे संत जनो! सारे (मिल के) प्रभु के गुण गाते रहा करो, जीभ से सुंदर रागों में उसके गुणों का उच्चारण करते रहा करो। (जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उच्चारण करते हैं, उनकी) करोड़ों जन्मों की (माया की) तृष्णा दूर हो जाती है, सब रसों से श्रेष्ठ राम-रस की इनायत से उनका मन तृप्त हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरण गहे सरणि सुखदाते गुर कै बचनि जपे हरि जाप ॥ सागर तरे भरम भै बिनसे कहु नानक ठाकुर परताप ॥२॥५॥८५॥

मूलम्

चरण गहे सरणि सुखदाते गुर कै बचनि जपे हरि जाप ॥ सागर तरे भरम भै बिनसे कहु नानक ठाकुर परताप ॥२॥५॥८५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहे = पकड़े। कै बचनि = के वचनों से। सागर = (संसार-) समुंदर। तरे = पार लांघ गए। भै = सारे डर। ठाकुर परताप = मालिक प्रभु की बड़ाई।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सुखों के दाता प्रभु के चरण पकड़ के रखते हैं, सुखदाते प्रभु की शरण पड़े रहते हैं, गुरु के उपदेश के द्वारा प्रभु के नाम का जाप जपते रहते हैं, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। हे नानक! कह: यह सारी महानता मालिक प्रभु की ही है।2।5।85।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ तापु लाहिआ गुर सिरजनहारि ॥ सतिगुर अपने कउ बलि जाई जिनि पैज रखी सारै संसारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ तापु लाहिआ गुर सिरजनहारि ॥ सतिगुर अपने कउ बलि जाई जिनि पैज रखी सारै संसारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाहिआ = उतारा। सिरजनहारि = विधाता ने, कर्तार ने। कउ = को, से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। पैज = सत्कार, इजजत। संसारि = संसार में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने कर्तार ने (खुद बालक हरिगोबिंद का) ताप उतारा है। मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ, जिसने सारे संसार में (मेरी) इज्जत रख ली है (नहीं तो, भ्रमित लोग तो, सीतला देवी आदि की पूजा के लिए खूब प्रेरणा करते रहे)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करु मसतकि धारि बालिकु रखि लीनो ॥ प्रभि अम्रित नामु महा रसु दीनो ॥१॥

मूलम्

करु मसतकि धारि बालिकु रखि लीनो ॥ प्रभि अम्रित नामु महा रसु दीनो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। धारि = रख के। रखि लीन = (ताप से) बचा लिया है। प्रभि = प्रभु ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। महा रस = बहुत ही स्वादिष्ट। दीनो = दीन्हो।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने अपना हाथ (बालक के) सिर पर रख कर बालक को (ताप से) बचा लिया (सिर्फ ताप से ही नहीं बचाया, ईश्वर को छोड़ के किसी और की पूजा से बचा के) प्रभु ने आत्मिक जीवन देने वाला और सबसे श्रेष्ठ रस वाला अपना नाम भी दिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दास की लाज रखै मिहरवानु ॥ गुरु नानकु बोलै दरगह परवानु ॥२॥६॥८६॥

मूलम्

दास की लाज रखै मिहरवानु ॥ गुरु नानकु बोलै दरगह परवानु ॥२॥६॥८६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाज = इज्जत। रखै = रखता है। परवानु = स्वीकार।2।
अर्थ: (हे भाई! याद रख) गुरु नानक (वही कुछ) कहता है (जो परमात्मा की) दरगाह में स्वीकार है (और, गुरु नानक कहता है कि) मेहरवान प्रभु अपने सेवक की इज्जत (अवश्य) रखता है (सो, हे भाई! दुख-कष्ट के वक्त घबरा के और-और के आसरे ना ढूँढते फिरो)।2।6।86।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर सबदि उजारो दीपा ॥ बिनसिओ अंधकार तिह मंदरि रतन कोठड़ी खुल्ही अनूपा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुर सबदि उजारो दीपा ॥ बिनसिओ अंधकार तिह मंदरि रतन कोठड़ी खुल्ही अनूपा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द के द्वारा। सबदि दीपा = शब्द दीपक के द्वारा। उजारो = उजाला, आत्मिक जीवन की सूझ। अंधकार = घोर अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा। तिह मंदरि = उस मन मन्दिर में। अनूपा = बहुत सुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मन-मन्द्रिर में गुरु के शब्द-दीप से (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, उस मन-मन्दिर में आत्मिक गुण-रत्नों की बहुत ही सुंदर कोठरी खुल जाती है (जिसकी इनायत से नीच जीवन वाले) अंधकार का वहाँ से नाश हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिसमन बिसम भए जउ पेखिओ कहनु न जाइ वडिआई ॥ मगन भए ऊहा संगि माते ओति पोति लपटाई ॥१॥

मूलम्

बिसमन बिसम भए जउ पेखिओ कहनु न जाइ वडिआई ॥ मगन भए ऊहा संगि माते ओति पोति लपटाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसमन बिसम = हैरान से हैरान, बहुत हैरानी। जउ = जब। कहनु न जाइ = बयान नहीं हो सकती। मगन = डुबकी लगा ली। संगी = साथ। माते = मस्त। ओति = उनने में। पोति = पोत में, परोने में। ओति पोति = ताने पेटे की तरह मिले हुए।1।
अर्थ: (गुरु शब्द-दीपक की रौशनी में) जब (अंदर बस रहे) प्रभु के दर्शन होते हैं तब मेर-तेर वाली सारी सुधें भूल जाती हैं, पर उस अवस्था की महानता बयान नहीं की जा सकती। जैसे ताने-पेटे के उने हुए धागे आपस में मिले होते हैं, वैसे ही उस प्रभु में ही तवज्जो लग जाती है, उस प्रभु के चरणों में ही मस्त हो जाते हैं, उसके चरणों से ही चिपके रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आल जाल नही कछू जंजारा अह्मबुधि नही भोरा ॥ ऊचन ऊचा बीचु न खीचा हउ तेरा तूं मोरा ॥२॥

मूलम्

आल जाल नही कछू जंजारा अह्मबुधि नही भोरा ॥ ऊचन ऊचा बीचु न खीचा हउ तेरा तूं मोरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आल जाल = घर (के मोह) के जाल। जंजारा = झमेले। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। भोरा = थोड़ा सा भी। ऊचन ऊचा = बहुत ऊँचा। बीचु = पर्दा, दूरी, अंतर। खीचा = खिचा हुआ, ताना हुआ। हउ = मैं। मोरा = मेरा।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के शब्द-दीपक से जब मन-मन्दिर में प्रकाश होता है, तब उस अवस्था में) गृहस्थ के मोह के जाल और झमेले महिसूस ही नहीं होते, अंदर कहीं रक्ती भर भी ‘मैं मैं’ करने वाली बुद्धि नहीं रह जाती। तब मन-मन्दिर में वह महान ऊँचा परमात्मा ही बसता दिखाई देता है, उससे कोई पर्दा नहीं रह जाता। (उस वक्त उसे यही कहते हैं: हे प्रभु!) मैं तेरा (दास) हूँ, तू मेरा (मालिक) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकंकारु एकु पासारा एकै अपर अपारा ॥ एकु बिसथीरनु एकु स्मपूरनु एकै प्रान अधारा ॥३॥

मूलम्

एकंकारु एकु पासारा एकै अपर अपारा ॥ एकु बिसथीरनु एकु स्मपूरनु एकै प्रान अधारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एकंकारु = एक सर्व व्यापक परमात्मा। अपर = परे से परे। अपारा = बेअंत। बिसथीरनु = विस्तार, खिलारा, प्रकाश। संपूरनु = हर जगह व्यापक। अधारा = आसरा।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के शब्द-दीपक से जब मन-मन्दिर में आत्मिक जीवन का प्रकाश होता है, तब बाहर जगत में भी) एक ही सर्व-व्यापक बेअंत परमात्मा स्वयं ही स्वयं पसरा हुआ दिखाई देता है। वह स्वयं ही बिखरा हुआ (उसका विस्तार) और व्यापक प्रतीत होता है, वही जीवों की जिंदगी का आसरा दिखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल निरमल सूचा सूचो सूचा सूचो सूचा ॥ अंत न अंता सदा बेअंता कहु नानक ऊचो ऊचा ॥४॥१॥८७॥

मूलम्

निरमल निरमल सूचा सूचो सूचा सूचो सूचा ॥ अंत न अंता सदा बेअंता कहु नानक ऊचो ऊचा ॥४॥१॥८७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल निरमल = महान पवित्र। सूचा…सूचा = महान स्वच्छ।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (जब मन-मन्दिर में गुर-शब्द-दीपक का प्रकाश होता है तब ये स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा महान पवित्र है, महान स्वच्छ है, उसका कभी अंत नहीं पड़ सकता, वह सदा ही बेअंत है, और ऊँचों से ऊँचा है (उस जैसा ऊँचा और कोई नहीं)।4।1।87।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस संग्रह में 30 शब्द हैं। शीर्षक बताता है कि ये चौपदे और दुपदे मिले हुए हैं। इनमें से पहले 2 चौपदे हैं (चार बंदों वाले शब्द), बाकी के 28 दुपदे (दो बंदों वाले शब्द) हैं। अगला शब्द चउपदे है। इसके आगे दुपदे आरम्भ हो जाएंगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु हरि कामि न आवत हे ॥ जा सिउ राचि माचि तुम्ह लागे ओह मोहनी मोहावत हे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु हरि कामि न आवत हे ॥ जा सिउ राचि माचि तुम्ह लागे ओह मोहनी मोहावत हे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कामि = काम में। सिउ = जिस (माया) से। राचि माचि = रच मिच के। मोहनी = मन को मोहने वाली माया। मोहावत = ठग रही है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (कोई और चीज तेरे आत्मिक जीवन के) काम नहीं आ सकती। जिस मन-मोहनी माया के साथ तू रचा-मिचा रहता है, वह तो तुझे ठग रही है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनिक कामिनी सेज सोहनी छोडि खिनै महि जावत हे ॥ उरझि रहिओ इंद्री रस प्रेरिओ बिखै ठगउरी खावत हे ॥१॥

मूलम्

कनिक कामिनी सेज सोहनी छोडि खिनै महि जावत हे ॥ उरझि रहिओ इंद्री रस प्रेरिओ बिखै ठगउरी खावत हे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कनिक = सोना। कामिनी = स्त्री। छोडि = छोड़ के। खिनै महि = छिन में ही। उरझि रहिओ = उलझा रहता है, फसा रहता है। इंद्री रस = काम-वासना के स्वाद। बिखै ठगउरी = विषियों की ठग-बूटी। ठगउरी = वह बूटी जो ठग लोग राहगीरों को खिला के बेहोश कर लेते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! सोना (धन-पदार्थ), स्त्री की सुंदर सेज- ये तो एक छिन में छोड़ के मनुष्य यहाँ से चल पड़ता है। काम-वासना के स्वादों से प्रेरित हुआ तू काम-वासना में फंसा पड़ा है, और विषौ-विकारों की ठग-बूटी खा रहा है (जिसके कारण तू आत्मिक जीवन की ओर से बेहोश पड़ा है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिण को मंदरु साजि सवारिओ पावकु तलै जरावत हे ॥ ऐसे गड़ महि ऐठि हठीलो फूलि फूलि किआ पावत हे ॥२॥

मूलम्

त्रिण को मंदरु साजि सवारिओ पावकु तलै जरावत हे ॥ ऐसे गड़ महि ऐठि हठीलो फूलि फूलि किआ पावत हे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिण को = तीलों का। मंदरु = घर। साजि = बना के। पावकु = आग। तलै = नीचे। गढ़ = शरीर किला। ऐठि = ऐंठन, अकड़ से। हठीलो = हठी, जिद्दी। फूलि फूलि = फूल फूल के।2।
अर्थ: हे भाई! तीलियों का घर बना-सँवार के तू उसके नीचे आग जला रहा है (इस शरीर में कामादिक विकारों के शोले भड़का के आत्मिक जीवन को राख किए जा रहा है। विकारों में जल रहे) इस शरीर-किले में अकड़ के जिद्दी हुआ बैठा तू गुमान कर-कर के हासिल तो कुछ भी नहीं कर रहा।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच दूत मूड परि ठाढे केस गहे फेरावत हे ॥ द्रिसटि न आवहि अंध अगिआनी सोइ रहिओ मद मावत हे ॥३॥

मूलम्

पंच दूत मूड परि ठाढे केस गहे फेरावत हे ॥ द्रिसटि न आवहि अंध अगिआनी सोइ रहिओ मद मावत हे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। मूड परि = सिर पर। ठाढे = खड़े हैं। गहे = पकड़े, पकड़ के। केस गहे = केसों को पकड़ के। फेरावत = घुमाते हैं। द्रिसटि न आवहि = दिखते नहीं। अंध = अंधा। मद = नशा। मावत = मस्त।3।
अर्थ: हे अंधे-अज्ञानी! कामादिक पाँचों वैरी तेरे सिर पर खड़े हुए तुझे ज़लील कर रहे हैं, पर तुझे वे दिखाई नहीं देते, तू विकारों के नशे में मस्त हो के आत्मिक जीवन की ओर से बेफिक्र हुआ पड़ा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जालु पसारि चोग बिसथारी पंखी जिउ फाहावत हे ॥ कहु नानक बंधन काटन कउ मै सतिगुरु पुरखु धिआवत हे ॥४॥२॥८८॥

मूलम्

जालु पसारि चोग बिसथारी पंखी जिउ फाहावत हे ॥ कहु नानक बंधन काटन कउ मै सतिगुरु पुरखु धिआवत हे ॥४॥२॥८८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पसारि = फैला के। बिसथारी = फैला दी, बिखेर दी। पंखी = पक्षी। कउ = वास्ते।4।
अर्थ: हे भाई! जैसे किसी पंछी को पकड़ने के लिए जाल बिखरा के उसके ऊपर दाने बिखेरे जाते हैं, वैसे ही तू (भी दुनिया के पदार्थों की चोग के चक्कर में) फंस रहा है। हे नानक! कह: (हे भाई!) माया के बंधनो को काटने के लिए मैं तो गुरु महापुरुख को अपने हृदय में बसा रहा हूँ।4।2।88।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: चउपदे समाप्त हुए। आगे दुपदे आरम्भ होते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि नामु अपार अमोली ॥ प्रान पिआरो मनहि अधारो चीति चितवउ जैसे पान त्मबोली ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि नामु अपार अमोली ॥ प्रान पिआरो मनहि अधारो चीति चितवउ जैसे पान त्मबोली ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमोली = अमोलक, अमूल्य, जो किसी भी मूल्य में नहीं मिल सकता। प्रान पिआरो = जीवात्मा का प्यारा। मनहि अधारो = मन का आसरा। चीति = चिक्त में। चितवउ = मैं चितवती हूँ। तंबोली = पान बेचने वाली।1। रहाउ।
अर्थ: (हे सहेली!) बेअंत हरि का नाम किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। वह हरि का नाम मेरी जिंद का प्यारा बन गया है, मेरे मन का सहारा बन गया है। जैसे कोई पान बेचने वाली (अपने) पानों का ख्याल रखती है, वैसे ही मैं हरि-नाम को अपने चिक्त में चितारती रहती हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहजि समाइओ गुरहि बताइओ रंगि रंगी मेरे तन की चोली ॥ प्रिअ मुखि लागो जउ वडभागो सुहागु हमारो कतहु न डोली ॥१॥

मूलम्

सहजि समाइओ गुरहि बताइओ रंगि रंगी मेरे तन की चोली ॥ प्रिअ मुखि लागो जउ वडभागो सुहागु हमारो कतहु न डोली ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। गुरहि = गुरु ने। रंगि = प्रेम में। प्रिअ मुखि लागो = प्यारे के मुँह लगी, प्यारे का दर्शन हुआ। जउ = जब। कतहु = कहीं भी। डोली = डोलता है।1।
अर्थ: (हे सखी!) जब गुरु ने मुझे (भेद) बता दिया, तो मैं आत्मिक अडोलता में लीन हो गई, अब मेरी शरीर चोली प्रभु के प्रेम रंग में रंगी गई है। जब से (गुरु की कृपा से) मेरे अहो भाग्य जाग उठे हैं तब से मुझे प्यारे के दर्शन हो रहे हैं। अब मेरा ये सोहाग (मेरे सिर से) दूर नहीं होएगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूप न धूप न गंध न दीपा ओति पोति अंग अंग संगि मउली ॥ कहु नानक प्रिअ रवी सुहागनि अति नीकी मेरी बनी खटोली ॥२॥३॥८९॥

मूलम्

रूप न धूप न गंध न दीपा ओति पोति अंग अंग संगि मउली ॥ कहु नानक प्रिअ रवी सुहागनि अति नीकी मेरी बनी खटोली ॥२॥३॥८९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंध = सुगंधियां। दीपा = दीया। ओति पोति = ताने पेटे की तरह मिल गई। संगि = साथ। मउली = खिल उठी। प्रिअ = प्यारे ने। रवी = मेल का आनंद दिया। अति नीकी = बहुत सुंदर। खटोली = छोटी सी खाट, हृदय सेज।2।
अर्थ: (हे सखी!) ना कोई सुंदर पदार्थ, ना कोई धूप, ना सुगंधियाँ, ना दीए (-कोई भी ऐसे पदार्थ मैंने अपने पति देव के आगे भेटा नहीं किए। गुरु की कृपा से ही) मेरा स्वै प्रभु-पति के साथ एक-मेक हो गया है, उसके साथ मिल के मेरा मन खिल उठा है। हे नानक! कह: (हे सहेली!) प्यारे प्रभु ने मुझे सुहागिन बना के अपने साथ मिला लिया है, अब मेरी हृदय-सेज बहुत ही सुंदर बन गई है।2।3।89।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद मई ॥ जब ते भेटे साध दइआरा तब ते दुरमति दूरि भई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद मई ॥ जब ते भेटे साध दइआरा तब ते दुरमति दूरि भई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोबिंद मई = गोबिंद+मय, गोबिंद का रूप। जब ते = जब से। भेटे = मिले हैं। साध = गुरु। दइआरा = दयालु। दुरमति = खोटी मति।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब से (किसी मनुष्य को) दया का श्रोत गुरु मिल जाता है, तब से (उसके अंदर से) खोटी मति दूर हो जाती है, सदा गोबिंद का नाम स्मरण कर-कर के वह गोबिंद का ही रूप हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरन पूरि रहिओ स्मपूरन सीतल सांति दइआल दई ॥ काम क्रोध त्रिसना अहंकारा तन ते होए सगल खई ॥१॥

मूलम्

पूरन पूरि रहिओ स्मपूरन सीतल सांति दइआल दई ॥ काम क्रोध त्रिसना अहंकारा तन ते होए सगल खई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरि रहिओ = व्यापक है, हर जगह मौजूद है। सीतल = ठंड देने वाला। दई = दय, प्यारा। तन ते = शरीर से। खई = नाश हो गए।1।
अर्थ: (हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरु मिल जाता है तब उसे निश्चय हो जाता है कि) दया और शांति का पुँज सारे गुणों से भरपूर प्यारा प्रभु हर जगह व्यापक है। (नाम-जपने की इनायत से) उसके शरीर में से काम-क्रोध-तृष्णा-अहंकार आदि सारे विकार नाश हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतु संतोखु दइआ धरमु सुचि संतन ते इहु मंतु लई ॥ कहु नानक जिनि मनहु पछानिआ तिन कउ सगली सोझ पई ॥२॥४॥९०॥

मूलम्

सतु संतोखु दइआ धरमु सुचि संतन ते इहु मंतु लई ॥ कहु नानक जिनि मनहु पछानिआ तिन कउ सगली सोझ पई ॥२॥४॥९०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। सुचि = आत्मिक पवित्रता। संतन ते = संत जनों से। मंतु = उपदेश। जिनि = जिस जिस ने। मनहु = मन से। पछानिआ = सांझ डाली। सगली = सारी।2।
अर्थ: (हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह) सेवा, संतोख, दया, धर्म, पवित्र जीवन (अपने अंदर पैदा करने का) यह उपदेश संतजनों से ग्रहण करता है। हे नानक! कह: जिस जिस मनुष्य ने अपने मन के द्वारा (गुरु के साथ) सांझ बनाई, उन्हें (ऊँचे आत्मिक जीवन की) सारी समझ आ गई।2।4।90।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ किआ हम जीअ जंत बेचारे बरनि न साकह एक रोमाई ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा बेअंत ठाकुर तेरी गति नही पाई ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ किआ हम जीअ जंत बेचारे बरनि न साकह एक रोमाई ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा बेअंत ठाकुर तेरी गति नही पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरनि न साकह = हम बयान नहीं कर सकते। साकह = सकते। रोमाई = रोम जितना भी। महेस = शिव। सिध = सिद्ध योगी। मुनि = समाधियां लगाए बैठे ऋषि जन। ठाकुर = हे ठाकुर! गति = हालत। तेरी गति नही पाई = तू कैसा है इस बात की समझ नहीं आ सकी।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘साकह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरुष, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मालिक! (हम जीव तेरे पैदा किए हुए हैं) हम बिचारे जीवों की कोई बिसात ही नहीं कि तेरी बाबत एक रोम जितना भी कुछ कह सकें। (हम साधारण जीव तो किसी गिनती में ही नहीं) ब्रहमा, शिव, सिद्ध, मुनी, इन्द्र (आदि जैसे) बेअंत ये समझ नहीं सके कि तू कैसा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ कथीऐ किछु कथनु न जाई ॥ जह जह देखा तह रहिआ समाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ कथीऐ किछु कथनु न जाई ॥ जह जह देखा तह रहिआ समाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ कथीऐ = क्या बताएं? जह जह = जहाँ जहॉ। मैं देखता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा कैसा है? - ये बात) क्या बताएं? बताई नहीं जा सकती। मैं तो जिधर देखता हूँ, उधर परमात्मा ही सब जगह मौजूद है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह महा भइआन दूख जम सुनीऐ तह मेरे प्रभ तूहै सहाई ॥ सरनि परिओ हरि चरन गहे प्रभ गुरि नानक कउ बूझ बुझाई ॥२॥५॥९१॥

मूलम्

जह महा भइआन दूख जम सुनीऐ तह मेरे प्रभ तूहै सहाई ॥ सरनि परिओ हरि चरन गहे प्रभ गुरि नानक कउ बूझ बुझाई ॥२॥५॥९१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहाँ। भइआन = भयानक। दूख जम = जमों के दुख। तह = वहाँ। प्रभ = हे प्रभु! गहे = पकड़े। गुरि = गुरु ने। कउ = को। बूझ बुझाई = समझ दी है।2।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! जहाँ ये सुना जाता है कि जमों के बड़े ही भयानक दुख मिलते हैं, वहीं तू ही (बचाने के लिए) मददगार है; गुरु ने (मुझे) नानक को यह समझ दी है। तभी मैं नानक तेरी शरण आ पड़ा हूँ, तेरे चरण पकड़ लिए हैं।2।5।91।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ अगम रूप अबिनासी करता पतित पवित इक निमख जपाईऐ ॥ अचरजु सुनिओ परापति भेटुले संत चरन चरन मनु लाईऐ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ अगम रूप अबिनासी करता पतित पवित इक निमख जपाईऐ ॥ अचरजु सुनिओ परापति भेटुले संत चरन चरन मनु लाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगम रूप = अगम्य (पहुँच से परे) हस्ती वाला। पतित पवित = विकारियों को पवित्र करने वाला। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। इक निमख = एक-एक पल, हर वक्त। जपाईऐ = जपना चाहिए। परापति = मिलाप। भेटुले = मिलने पर। चरन = चरणों में।1।
अर्थ: हे भाई! विकारियों को पवित्र करने वाले, अगम्य (पहुँच से परे) हस्ती वाले नाश-रहित कर्तार को हर पल जपते रहना चाहिए। ये सुनते हैं कि वह आश्चर्य है आश्चर्य है, (उससे) मिलाप हो जाता है अगर संतजनों के चरणों से मिलाप प्राप्त हो जाए। (तो संतजनों के) चरणों में मन जोड़ना चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कितु बिधीऐ कितु संजमि पाईऐ ॥ कहु सुरजन कितु जुगती धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कितु बिधीऐ कितु संजमि पाईऐ ॥ कहु सुरजन कितु जुगती धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कितु बिधीऐ = किसी बिधि से? कितु संजमि = किस संजम से? कितु = (शब्द ‘किसु’ का कर्ण कारक) किसके द्वारा? संजम = संयम। सुरजन = हे भले पुरुख! कहु = बताओ। कितु जुगती = किस तरीके से?।1। रहाउ।
अर्थ: हे भले पुरुष! (मुझे) बताओ कि परमात्मा को किस तरीके से स्मरणा चाहिए। किस बिधि से, किस संजम से वह मिल सकता है?।1। रहाउ

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो मानुखु मानुख की सेवा ओहु तिस की लई लई फुनि जाईऐ ॥ नानक सरनि सरणि सुख सागर मोहि टेक तेरो इक नाईऐ ॥२॥६॥९२॥

मूलम्

जो मानुखु मानुख की सेवा ओहु तिस की लई लई फुनि जाईऐ ॥ नानक सरनि सरणि सुख सागर मोहि टेक तेरो इक नाईऐ ॥२॥६॥९२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिस की = उस की (की हुई सेवा)। लई लई जाईऐ = लिए ही जाता है, सदा याद रखता है। सुख सागर = सुखों का समुंदर। मोहि = मुझे। इक नाईऐ = एक नाम की, सिर्फ नाम की। फुनि = दोबारा, बार बार।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जो मानुखु मानुख की’ में से शब्द ‘मानुखु’ और ‘मानुख’ का व्याकर्णिक फर्क याद रखने योग्य है।
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जो मनुष्य किसी और मनुष्य की (कोई) सेवा करता है वह उसकी की हुई सेवा को सदा ही बार-बार याद करता रहता है; पर हे प्रभु! तू सुखों का समुंदर है (तू अनेक ही सुख बख्शता है इस वास्ते) मैं सदा तेरी ही शरण तेरी ही शरण पड़ा रहूँगा, मुझे सिर्फ तेरे नाम का ही सहारा है।2।6।92।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ संत सरणि संत टहल करी ॥ धंधु बंधु अरु सगल जंजारो अवर काज ते छूटि परी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ संत सरणि संत टहल करी ॥ धंधु बंधु अरु सगल जंजारो अवर काज ते छूटि परी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत सरणि = गुरु की शरण। करी = (जब) मैंने की। धंधु = धंधा। बंधु = बंधन। अरु = और। जंजारो = जंजाल। काज ते = कामों से। छूटि परी = (मेरी तवज्जो) छूट गई।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब मैं गुरु की शरण आ पड़ा, जब मैं गुरु की सेवा करने लग पड़ा, (मेरे अंदर से) धंधा, बंधन और सारा जंजाल (समाप्त हो गए), मेरी रुचि और-और काम से मुक्त हो गई।1। रहाउ।

[[0823]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूख सहज अरु घनो अनंदा गुर ते पाइओ नामु हरी ॥ ऐसो हरि रसु बरनि न साकउ गुरि पूरै मेरी उलटि धरी ॥१॥

मूलम्

सूख सहज अरु घनो अनंदा गुर ते पाइओ नामु हरी ॥ ऐसो हरि रसु बरनि न साकउ गुरि पूरै मेरी उलटि धरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घनो = घणो, बहुत। ते = से। ऐसो = ऐसे। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। गुरि = पूरे गुरु ने। मेरी = मेरी रुचि। उलटि धरी = (माया की ओर से) पलटा दी।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु से मैंने परमात्मा का नाम प्राप्त हासिल कर लिया (जिसकी इनायत से) आत्मिक अडोलता का सुख और आनंद (मेरे अंदर उत्पन्न हो गया)। हरि-नाम का स्वाद मुझे ऐसा आया कि मैं वह बयान नहीं कर सकता। गुरु ने मेरी रुचि माया की तरफ से पलट दी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखिओ मोहनु सभ कै संगे ऊन न काहू सगल भरी ॥ पूरन पूरि रहिओ किरपा निधि कहु नानक मेरी पूरी परी ॥२॥७॥९३॥

मूलम्

पेखिओ मोहनु सभ कै संगे ऊन न काहू सगल भरी ॥ पूरन पूरि रहिओ किरपा निधि कहु नानक मेरी पूरी परी ॥२॥७॥९३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखिआ = मैंने देख लिया। मोहनु = सुंदर प्रभु (देखें मूल पंना 248। वहाँ भी प्रभु का ही जिकर है, बाबा मोहन जी का नहीं)। कै संगे = के साथ। ऊन = कमी, ऊणा, खाली। सगल = सारी सृष्टि। किरपा निधि = कृपा के खजाने प्रभु। नानक = हे नानक! पूरी परी = मेरी मेहनत सफल हो गई।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) सुंदर प्रभु को मैंने सबमें बसता देख लिया है, कोई भी जगह उस प्रभु से वंचित नहीं दिखती, सारी ही सृष्टि प्रभु की जीवन-लहर से भरपूर दिखाई दे रही है। कृपा के खजाने परमात्मा हर जगह पूर्ण तौर पर व्यापक दिख रहे हैं। हे नानक! कह: (हे भाई! गुरु की मेहर से) मेरी मेहनत सफल हो गई है।2।7।93।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मन किआ कहता हउ किआ कहता ॥ जान प्रबीन ठाकुर प्रभ मेरे तिसु आगै किआ कहता ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मन किआ कहता हउ किआ कहता ॥ जान प्रबीन ठाकुर प्रभ मेरे तिसु आगै किआ कहता ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे (मेरे) मन! हउ = जीव। जान = जाननहार। प्रबीन = समझदार। तिसु आगै = उस (प्रभु) के सामने।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तू क्या कह रहा है? हे जीव! तू क्या कहता है? मेरे ठाकुर प्रभु जी तो सब जीवों के दिलों की जानने वाले और समझने वाले हैं। हे जीव! उसके आगे कोई (ठगी-फरेब की) बात नहीं कही जा सकती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनबोले कउ तुही पछानहि जो जीअन महि होता ॥ रे मन काइ कहा लउ डहकहि जउ पेखत ही संगि सुनता ॥१॥

मूलम्

अनबोले कउ तुही पछानहि जो जीअन महि होता ॥ रे मन काइ कहा लउ डहकहि जउ पेखत ही संगि सुनता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनबोले = ना बोले हुए बोल को। जीअन = दिलों में। काइ = क्यों? कहा लउ = कब तक? डहकहि = तू ठगी करेगा। जउ = जब। संगि = साथ।1।
अर्थ: हे प्रभु! जो हम जीवों के दिलों में होता है, उसको बताए बिना तू खुद ही (पहले ही) पहचान लेता है। हे मन! तू क्यों ठगी करता है? कब तक ठगी किए जाएगा? परमात्मा तो तेरे साथ (बसता हुआ तेरे कर्म) देख रहा है, और, सुन भी रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो जानि भए मनि आनद आन न बीओ करता ॥ कहु नानक गुर भए दइआरा हरि रंगु न कबहू लहता ॥२॥८॥९४॥

मूलम्

ऐसो जानि भए मनि आनद आन न बीओ करता ॥ कहु नानक गुर भए दइआरा हरि रंगु न कबहू लहता ॥२॥८॥९४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानि = जान के। मनि = मन में। आन = अन्य, कई और। बीओ = दूसरा। दइआरा = दयावान।2।
अर्थ: हे भाई! यह जान के कि, परमात्मा के बिना और दूसरा कुछ भी करने के योग्य नहीं, (जानने वाले के) मन में हिलौरे पैदा हो जाते हैं। हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर गुरु मेहरवान होता है (उसके दिल में से) परमात्मा का प्रेम-रंग कभी नहीं उतरता।2।8।94।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ निंदकु ऐसे ही झरि परीऐ ॥ इह नीसानी सुनहु तुम भाई जिउ कालर भीति गिरीऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ निंदकु ऐसे ही झरि परीऐ ॥ इह नीसानी सुनहु तुम भाई जिउ कालर भीति गिरीऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झरि = झड़ के, गिर के। परीऐ = नीचे गिर पड़ता है, आत्मिक मौत के गढे में जा पड़ता है। भाई = हे भाई! नीसानी = लक्षण। कालर भीति = कल्लर की दीवार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सुन, कल्लर की दीवार (किर किर के) गिर जाती है, यही निशानी निंदक के जीवन की है। निंदक भी इसी तरह आत्मिक उच्चता से गिर जाता है (निंदा उसके आत्मिक जीवन को, मानो, कल्लर लगा हुआ है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ देखै छिद्रु तउ निंदकु उमाहै भलो देखि दुख भरीऐ ॥ आठ पहर चितवै नही पहुचै बुरा चितवत चितवत मरीऐ ॥१॥

मूलम्

जउ देखै छिद्रु तउ निंदकु उमाहै भलो देखि दुख भरीऐ ॥ आठ पहर चितवै नही पहुचै बुरा चितवत चितवत मरीऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = जब। छिद्रु = नुक्स। तउ = तब। उमाहै = खुश होता है। भलो = (किसी की) भलाई। चितवै = (किसी के नुकसान करने की) सोच सोचता रहता है। नही पहुचै = (बुराई करने तक) पहुँच नहीं सकता। मरीऐ = आत्मिक मौत मर जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! जब (कोई) निंदक (किसी मनुष्य में कोई) खामी देखता है तब वह खुश होता है, पर किसी के गुण देख के निंदक दुखी होता है। आठों पहर (हर वक्त) निंदक किसी के साथ बुराई करने की सोचें सोचता रहता है, बुराई कर सकने तक पहुँच तो सकता नहीं, बुराई की बिउंत सोचते-सोचते ही आत्मिक मौत मर जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदकु प्रभू भुलाइआ कालु नेरै आइआ हरि जन सिउ बादु उठरीऐ ॥ नानक का राखा आपि प्रभु सुआमी किआ मानस बपुरे करीऐ ॥२॥९॥९५॥

मूलम्

निंदकु प्रभू भुलाइआ कालु नेरै आइआ हरि जन सिउ बादु उठरीऐ ॥ नानक का राखा आपि प्रभु सुआमी किआ मानस बपुरे करीऐ ॥२॥९॥९५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालु = मौत, आत्मिक मौत। सिउ = साथ। बादु = झगड़ा। बपुरे = बिचारे।2।
अर्थ: हे भाई! निंदक को ज्यों-ज्यों प्रभु (निंदा वाले) गलत रास्ते पर डालता है, त्यों त्यों निंदक की मुकम्मल आत्मिक मौत नजदीक आती जाती है, वह निंदक संत जनों से वैर लिए रहता है। पर, हे नानक! संतजनों का रखवाला मालिक-प्रभु खुद ही है। बिचारे जीव उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।2।9।95।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसे काहे भूलि परे ॥ करहि करावहि मूकरि पावहि पेखत सुनत सदा संगि हरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसे काहे भूलि परे ॥ करहि करावहि मूकरि पावहि पेखत सुनत सदा संगि हरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐसे = इस तरह। काहे = क्यों? भूलि परे = (जीव) भूले पड़े हैं, गलत राह पर पड़े हुए हैं। करहि करावहि = (जीव सब कुछ) करते कराते हैं। पेखत = देखता। संगि = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! पता नहीं जीव) क्यों इस तरह गलत राह पर पड़े रहते हैं। (जीव सारे बुरे कर्म) करते कराते भी हैं, (फिर) मुकर भी जाते हैं (कि हमने नहीं किए)। पर परमात्मा सदा सब जीवों के साथ बसता (सबकी करतूतें) देखता-सुनता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काच बिहाझन कंचन छाडन बैरी संगि हेतु साजन तिआगि खरे ॥ होवनु कउरा अनहोवनु मीठा बिखिआ महि लपटाइ जरे ॥१॥

मूलम्

काच बिहाझन कंचन छाडन बैरी संगि हेतु साजन तिआगि खरे ॥ होवनु कउरा अनहोवनु मीठा बिखिआ महि लपटाइ जरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काच = काँच। बिहाझन = खरीदना, व्यापार करना। कंचन = सोना। हेतु = प्यार। खरे साजन = सच्चे मित्र। होवनु = जो सदा कायम है, परमात्मा। कउरा = कौड़ा। अनहोवन = जो सदा रहने वाला नहीं, जगत। बिखिआ = माया। जरे = जलते हैं, खिझते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! काँच का व्यापार करना, सोना छोड़ देना, सच्चे मित्र त्याग के वैरी से प्यार- (ये हैं जीवों की करतूतें)। परमात्मा (का नाम) कड़वा लगना, माया का मोह मीठा लगना (-यह है जीवों का नित्य का स्वभाव। माया के मोह में फंस के सदा खिजते रहते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंध कूप महि परिओ परानी भरम गुबार मोह बंधि परे ॥ कहु नानक प्रभ होत दइआरा गुरु भेटै काढै बाह फरे ॥२॥१०॥९६॥

मूलम्

अंध कूप महि परिओ परानी भरम गुबार मोह बंधि परे ॥ कहु नानक प्रभ होत दइआरा गुरु भेटै काढै बाह फरे ॥२॥१०॥९६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंध कूप महि = अंधे कूएं में। भरमु = भटकना। गुबार = अंधेरा। बंधि = बंधन में। दइआरा = दइआल। भेटै = मिलता है। फरे = पकड़े।2।
अर्थ: हे भाई! जीव (सदा) मोह के अंधे (अंधेरे) कूएं में पड़े रहते हैं, (जीवों को सदा) भटकना लगी रहती है, मोह के अंधेरे जकड़ में फसे रहते हैं (पता नहीं ये क्यों इस तरह गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं)। हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर प्रभु दयावान होता है, उसे गुरु मिल जाता है (और, उस गुरु की) बाँह पकड़ के (उसको अंधेरे कूएं में से) निकाल लेता है।2।10।96।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मन तन रसना हरि चीन्हा ॥ भए अनंदा मिटे अंदेसे सरब सूख मो कउ गुरि दीन्हा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मन तन रसना हरि चीन्हा ॥ भए अनंदा मिटे अंदेसे सरब सूख मो कउ गुरि दीन्हा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि चीना = हरि चीन्हा, प्रभु से सांझ डाल ली। रसना = जीभ। मो कउ = मुझे। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मेरे) गुरु ने मुझे सारे (ही) सुख दे दिए हैं, मेरे फिक्र-अंदेशे मिट गए हैं, मेरे अंदर आनंद ही आनंद बन गया है (क्योंकि गुरु की कृपा से) मेरे मन मेरे तन मेरी जीभ ने परमात्मा के साथ सांझ डाल ली है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इआनप ते सभ भई सिआनप प्रभु मेरा दाना बीना ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ काहू न करते कछु खीना ॥१॥

मूलम्

इआनप ते सभ भई सिआनप प्रभु मेरा दाना बीना ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ काहू न करते कछु खीना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इआनप = बेसमझी। ते = से। दाना = जानने वाला। बीना = देखने वाला। देइ = दे के। कउ = को। खीना = नुकसान।1।
अर्थ: हे भाई! बेसमझी की जगह मेरे अंदर अब समझदारी पैदा हो गई है (क्योंकि गुरु की कृपा से मुझे विश्वास हो गया है कि) परमात्मा (सब दिलों की) जानने वाला है (सबके किए काम) देखने वाला है। (मुझे निश्चय हो गया है कि) परमात्मा अपने सेवकों को आप हाथ दे के बचा लेता है, कोई भी मनुष्य (सेवक का) कुछ बिगाड़ नहीं सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि जावउ दरसन साधू कै जिह प्रसादि हरि नामु लीना ॥ कहु नानक ठाकुर भारोसै कहू न मानिओ मनि छीना ॥२॥११॥९७॥

मूलम्

बलि जावउ दरसन साधू कै जिह प्रसादि हरि नामु लीना ॥ कहु नानक ठाकुर भारोसै कहू न मानिओ मनि छीना ॥२॥११॥९७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जावउ = जाऊँ। बलि जावउ = मैं सदके जाता हूँ। साधू = गुरु। जिह प्रसादि = जिस (गुरु) की कृपा से। मनि = मन में। छीना = एक छिन भर भी। कहु = किसी और को।
अर्थ: हे भाई! मैं गुरु के दर्शनों से सदके जाता हूँ, क्योंकि उस गुरु की कृपा से (ही) मैं परमात्मा का नाम जप सका हूँ। हे नानक! कह: (अब) परमात्मा के भरोसे पर किसी और (के आसरे) को एक पल के लिए भी अपने मन में नहीं मानता।2।11।97।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ गुरि पूरै मेरी राखि लई ॥ अम्रित नामु रिदे महि दीनो जनम जनम की मैलु गई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ गुरि पूरै मेरी राखि लई ॥ अम्रित नामु रिदे महि दीनो जनम जनम की मैलु गई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदे महि = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! विकारों से मुकाबले में) पूरे गुरु ने मेरी इज्जत रख ली है। गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हरि-नाम मेरे हृदय में बसा दिया है, (उस नाम की इनायत से) अनेक जन्मों के किए कर्मों की मैल मेरे मन में से दूर हो गई है।1। रहाउ।

[[0824]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवरे दूत दुसट बैराई गुर पूरे का जपिआ जापु ॥ कहा करै कोई बेचारा प्रभ मेरे का बड परतापु ॥१॥

मूलम्

निवरे दूत दुसट बैराई गुर पूरे का जपिआ जापु ॥ कहा करै कोई बेचारा प्रभ मेरे का बड परतापु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवरे = दूर हो गए हैं। दूत = (कामादिक) दुश्मन। बैराई = वैरी। कहा करै = क्या कर सकता है? कुछ बिगाड़ नहीं सकता। परतापु = ताकत।1।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु का बताया हुआ हरि-नाम का जाप जब से मैंने जपना शुरू किया है, (कामादिक) सारे वैरी दुर्जन भाग गए हैं। मेरे प्रभु की बड़ी ताकत है, अब (इनमें से) कोई भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ चरन कमल रखु मन माही ॥ ता की सरनि परिओ नानक दासु जा ते ऊपरि को नाही ॥२॥१२॥९८॥

मूलम्

सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ चरन कमल रखु मन माही ॥ ता की सरनि परिओ नानक दासु जा ते ऊपरि को नाही ॥२॥१२॥९८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रखु = टेक, आसरा। माही = में। ता की = उस (प्रभु) की। जा ते ऊपरि = जिससे बड़ा।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की किरपा से परमात्मा के सोहणे चरण) मेरे मन में आसरा बन गए हैं, उसका नाम (हर वक्त) स्मरण कर-कर के मैंने आत्मिक आनंद प्राप्त किया है। हे भाई! (प्रभु का) दास नानक उस (प्रभु) की शरण पड़ गया है जिससे बड़ा और कोई नहीं।2।12।98।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सदा सदा जपीऐ प्रभ नाम ॥ जरा मरा कछु दूखु न बिआपै आगै दरगह पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सदा सदा जपीऐ प्रभ नाम ॥ जरा मरा कछु दूखु न बिआपै आगै दरगह पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपीऐ = जपना चाहिए। जरा = बुढ़ापा। मरा = मौत। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकते। आगै = आगे, परलोक में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपना चाहिए, (नाम जपने की इनायत से ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है, जिसको) बुढ़ापा, मौत अथवा दुख कुछ भी छू नहीं सकते। आगे भी परमात्मा की हजूरी में भी सफलता ही मिलती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपु तिआगि परीऐ नित सरनी गुर ते पाईऐ एहु निधानु ॥ जनम मरण की कटीऐ फासी साची दरगह का नीसानु ॥१॥

मूलम्

आपु तिआगि परीऐ नित सरनी गुर ते पाईऐ एहु निधानु ॥ जनम मरण की कटीऐ फासी साची दरगह का नीसानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वैभाव। परीऐ = पड़ना चाहिए। ते = से। निधानु = खजाना। कटीऐ = काट सकते हैं। नीसानु = राहदारी, परवाना।1।
अर्थ: (पर, हे भाई!) ये (नाम-) खजाना गुरु से (ही) मिलता है, स्वैभाव त्याग के सदा (गुरु की) शरण पड़ना चाहिए। ये नाम सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में पहुँचने के लिए परवाना है, (नाम की सहायता से) जनम-मरन की फाँसी (भी) काटी जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तुम्ह करहु सोई भल मानउ मन ते छूटै सगल गुमानु ॥ कहु नानक ता की सरणाई जा का कीआ सगल जहानु ॥२॥१३॥९९॥

मूलम्

जो तुम्ह करहु सोई भल मानउ मन ते छूटै सगल गुमानु ॥ कहु नानक ता की सरणाई जा का कीआ सगल जहानु ॥२॥१३॥९९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानउ = मानूँ, मानता हूँ। मन ते = मन से। छूटै = खत्म हो जाता है। गुमानु = अहंकार। ता की = उस (प्रभु) की। सगल = सारा।2।
अर्थ: (हे भाई! अगर मुझे तेरा नाम मिल जाए, तो) जो कुछ तू करता है, वह मैं भला समझने लग जाऊँगा, (तेरे नाम की इनायत से) मन से सारा अहंकार समाप्त हो जाता है। हे नानक! कह (-हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़े रहना चाहिए, जिसका पैदा किया हुआ सारा जहान है।2।13।99।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मन तन अंतरि प्रभु आही ॥ हरि गुन गावत परउपकार नित तिसु रसना का मोलु किछु नाही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मन तन अंतरि प्रभु आही ॥ हरि गुन गावत परउपकार नित तिसु रसना का मोलु किछु नाही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन तन अंतरि = मन अंतर तन अंतर। आही = है, बसता है। गावत = गाते हुए। रसना = जीभ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में तन में (हृदय में) (सदा) प्रभु बसता है, प्रभु के गुण गाते हुए, दूसरे की भलाई की बातें हमेशा करते हुए, उस मनुष्य की जीभ अमल्य हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुल समूह उधरे खिन भीतरि जनम जनम की मलु लाही ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना अनद सेती बिखिआ बनु गाही ॥१॥

मूलम्

कुल समूह उधरे खिन भीतरि जनम जनम की मलु लाही ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना अनद सेती बिखिआ बनु गाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुल समूह = सारी कुलें। उधरे = (संसार समुंदर से) बच निकलती हैं, उद्धार हो जाता है। भीतरि = में। सिमरि = स्मरण करके। सेती = साथ। बिखिआ = माया। बनु = जंगल। गाही = नाप ली, थाह पा ली, गाह ली।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मालिक प्रभु का नाम सदा स्मरण करके (स्मरण करने वाले संत-भक्त) माया (के संसार-) जंगल से बड़े ही मजे पार लांघ जाते हैं, वे अपनी जन्मों-जन्मों के किए कर्मों की मैल उतार लेते हैं, उनकी सारी कुलें भी छिन में (संसार-जंगल में से) बच के निकल जाती हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन प्रभू के बोहिथु पाए भव सागरु पारि पराही ॥ संत सेवक भगत हरि ता के नानक मनु लागा है ताही ॥२॥१४॥१००॥

मूलम्

चरन प्रभू के बोहिथु पाए भव सागरु पारि पराही ॥ संत सेवक भगत हरि ता के नानक मनु लागा है ताही ॥२॥१४॥१००॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोहिथु = जहाज। भव सागरु = संसार समुंदर। पराही = पड़े, पड़ जाते हैं, पार हो जाते हैं। ता के = उस (प्रभु) के। ताही = उस (प्रभु) में ही।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के चरणों का जहाज़ प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। हे नानक! वही मनुष्य उस प्रभु के संत हैं, भक्त हैं, सेवक हैं। उनका मन उस प्रभु में ही सदा टिका रहता है।2।14।100।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ धीरउ देखि तुम्हारे रंगा ॥ तुही सुआमी अंतरजामी तूही वसहि साध कै संगा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ धीरउ देखि तुम्हारे रंगा ॥ तुही सुआमी अंतरजामी तूही वसहि साध कै संगा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धीरउ = मेरे मन को धैर्य आ जाता है। देखि = देख के। रंगा = करिश्मे। सुआमी = मालिक। अंतरजामी = दिलों की जानने वाले। वसहि = बसता है। कै संगा = के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे चोज-तमाशे देख-देख के मुझे (भी) हौसला बन रहा है (कि तू मेरी भी सहायता करेगा)। तू ही (हमारा) मालिक है, तू ही हमारे दिलों की जानने वाला है, तू ही (हरेक) साधु-जन के साथ बसता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिन महि थापि निवाजे ठाकुर नीच कीट ते करहि राजंगा ॥१॥

मूलम्

खिन महि थापि निवाजे ठाकुर नीच कीट ते करहि राजंगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापि = स्थापित करके, शाबाशी दे के। निवाजे = आदर सम्मान वाले बना दिए। ठाकुर = हे ठाकुर! कीट ते = कीड़े से। करहि = तू कर देता है। राजंगा = राजा।1।
अर्थ: हे मालिक! तू नीच कीड़ों (जैसे नाचीज़ बंदों) को राजा बना देता है। तू एक छिन में ही (नीच लोगों को) थापणा दे के आदर-सम्मान वाले बना देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहू न बिसरै हीए मोरे ते नानक दास इही दानु मंगा ॥२॥१५॥१०१॥

मूलम्

कबहू न बिसरै हीए मोरे ते नानक दास इही दानु मंगा ॥२॥१५॥१०१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कब हू = कभी भी। हीए ते = हृदय से। मंगा = मैं माँगता हूँ।2।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर, तेरा नाम) मेरे हृदय में से कभी ना भूले। (तेरे दर से) मैं ख़ैर माँगता हूँ।2।15।101।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ अचुत पूजा जोग गोपाल ॥ मनु तनु अरपि रखउ हरि आगै सरब जीआ का है प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ अचुत पूजा जोग गोपाल ॥ मनु तनु अरपि रखउ हरि आगै सरब जीआ का है प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचुत = अविनाशी, कभी नाश ना होने वाला। पूजा जोग = पूजा के काबिल। गोपाल = धरती का रखवाला। अरपि = भेटा करके। रखउ = मैं रखूँ। प्रतिपाल = पालना करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! धरती का रखवाला और अबिनाशी प्रभु ही पूजा का हकदार है। मैं अपना मन और अपना तन भेटा करके उस प्रभु के आगे (ही) रखता हूँ। वह प्रभु सारे जीवों को पालने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरनि सम्रथ अकथ सुखदाता किरपा सिंधु बडो दइआल ॥ कंठि लाइ राखै अपने कउ तिस नो लगै न ताती बाल ॥१॥

मूलम्

सरनि सम्रथ अकथ सुखदाता किरपा सिंधु बडो दइआल ॥ कंठि लाइ राखै अपने कउ तिस नो लगै न ताती बाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरनि सम्रथ = शरण आए की सहायता करने योग्य। अकथ = जिसके स्वरूप का बयान ना किया जा सके। सिंधु = समुंदर। कंठि = गले से। कउ = को। ताती बाल = गर्म हवा, सेक।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! प्रभु शरण पड़े जीव की रक्षा करने के समर्थ है, उसके स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता, वह सारे सुखों को देने वाला है, कृपा का समुंदर है, बड़ा ही दयालु है। वह प्रभु अपने (सेवक) को अपने गले से लगा के रखता है, (फिर) उस (सेवक) को कोई दुख-कष्ट रक्ती भर भी छू नहीं सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दामोदर दइआल सुआमी सरबसु संत जना धन माल ॥ नानक जाचिक दरसु प्रभ मागै संत जना की मिलै रवाल ॥२॥१६॥१०२॥

मूलम्

दामोदर दइआल सुआमी सरबसु संत जना धन माल ॥ नानक जाचिक दरसु प्रभ मागै संत जना की मिलै रवाल ॥२॥१६॥१०२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दामोदर = (दामन उदर) परमात्मा। सरबसु = (सर्वस्व = सारा धन पदार्थ) सब कुछ। जाचिक = भिखारी। प्रभ = हे प्रभु! रवाल = चरण धूल।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा दया का घर है, सबका मालिक है, संतजनों के वास्ते वही धन माल है और सब कुछ है। उस प्रभु (के दर) का भिखारी नानक उसके दर्शन की खैर माँगता है (और अरजोई करता है कि उसके) संत जनों के चरणों की धूल मिल जाएं2।16।102।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरत नामु कोटि जतन भए ॥ साधसंगि मिलि हरि गुन गाए जमदूतन कउ त्रास अहे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरत नामु कोटि जतन भए ॥ साधसंगि मिलि हरि गुन गाए जमदूतन कउ त्रास अहे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जतन = (तीर्थ, कर्मकांड आदि) उद्यम। साध संगि = गुरु की संगति में। मिलि = मिल के। कउ = को। त्रास = डर। अहे = हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से (तीर्थ, कर्मकांड आदि) करोड़ों ही उद्यम (मानों अपने आप) हो जाते हैं। (जिस मनुष्य ने) गुरु की संगति में मिल के प्रभु के गुण गाने शुरू कर दिए, जमदूतों को (उसके नजदीक जाने से) डर आने लग पड़ा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेते पुनहचरन से कीन्हे मनि तनि प्रभ के चरण गहे ॥ आवण जाणु भरमु भउ नाठा जनम जनम के किलविख दहे ॥१॥

मूलम्

जेते पुनहचरन से कीन्हे मनि तनि प्रभ के चरण गहे ॥ आवण जाणु भरमु भउ नाठा जनम जनम के किलविख दहे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेते = जितने ही, सारे ही। पुनह चरन = प्रायश्चित वाले कर्म, पापों की निर्विति के लिए किए हुए कर्म। से = (बहुवचन) वह। मनि = मन में। तनि = हृदय में। गहे = पकड़े। नाठा = भाग गया। किलविख = पाप। दहे = दहन हो गया, जल गया।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु के चरण अपने मन में अपने दिल में बसा लिए, उसने (पिछले कर्मों के संस्कारों को मिटाने के लिए, मानो) सारे ही प्रायश्चित कर्म कर लिए। उसके जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो गया, उसका हरेक भ्रम डर दूर हो गया, उसके अनेक जन्मों के किए पाप जल गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरभउ होइ भजहु जगदीसै एहु पदारथु वडभागि लहे ॥ करि किरपा पूरन प्रभ दाते निरमल जसु नानक दास कहे ॥२॥१७॥१०३॥

मूलम्

निरभउ होइ भजहु जगदीसै एहु पदारथु वडभागि लहे ॥ करि किरपा पूरन प्रभ दाते निरमल जसु नानक दास कहे ॥२॥१७॥१०३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगदीसै = जगत के ईश (मालिक) को। वड भागि = बड़ी किस्मत से। लहे = पाता है। प्रभ = हे प्रभु! दाते = हे दातार! निरमल = पवित्र करने वाला। जसु = यश, महिमा।2।
अर्थ: (इसलिए, हे भाई!) निडर हो के (कर्मकांड का भ्रम उतार के) जगत के मालिक प्रभु का नाम जपा करो। ये नाम-पदार्थ बड़ी किस्मत से मिलता है। हे सर्व-व्यापक दातार प्रभु! मेहर कर, ता कि तेरा दास नानक पवित्र करने वाली तेरी महिमा करता रहे।2।17।103।

[[0825]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ सुलही ते नाराइण राखु ॥ सुलही का हाथु कही न पहुचै सुलही होइ मूआ नापाकु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ सुलही ते नाराइण राखु ॥ सुलही का हाथु कही न पहुचै सुलही होइ मूआ नापाकु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। नाराइण = हे प्रभु! राखु = बचा ले। कही = कहीं भी। नापाकु = अपवित्र, मलीन बुद्धि।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु मुझ सेवक की तो तेरे पास ही अरजोई थी कि) हे प्रभु! (हमें) सूलही (खान) से बचा ले, और सूलही का (जुल्म भरा) हाथ (हम पर) कहीं भी ना पहुँच सके। (हे भाई! प्रभु ने स्वयं मेहर की है) सूलही (खान) मलीन बुद्धि हो के मरा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काढि कुठारु खसमि सिरु काटिआ खिन महि होइ गइआ है खाकु ॥ मंदा चितवत चितवत पचिआ जिनि रचिआ तिनि दीना धाकु ॥१॥

मूलम्

काढि कुठारु खसमि सिरु काटिआ खिन महि होइ गइआ है खाकु ॥ मंदा चितवत चितवत पचिआ जिनि रचिआ तिनि दीना धाकु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काढि = निकाल के। कुठारु = (मौत रूप) कुहाड़ा। खसमि = मालिक (-प्रभु) ने। खाकु = मिट्टी, राख। पचिआ = जल के मर गया है। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिनि = उस (प्रभु) ने। धाकु = धक्का।1।
अर्थ: हे भाई! पति प्रभु ने (मौत रूपी) कुहाड़ा निकाल के (सूलही का) सिर कलम कर दिया है, (जिसके कारण वह) एक पल में ही राख की ढेरी हो गया है। औरों का नुकसान करना सोचते सोचते (सूलही खुद) जल मरा है। जिस प्रभु ने उसको पैदा किया था, उसने (ही उसको परलोक की ओर) धकेल दिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्र मीत धनु किछू न रहिओ सु छोडि गइआ सभ भाई साकु ॥ कहु नानक तिसु प्रभ बलिहारी जिनि जन का कीनो पूरन वाकु ॥२॥१८॥१०४॥

मूलम्

पुत्र मीत धनु किछू न रहिओ सु छोडि गइआ सभ भाई साकु ॥ कहु नानक तिसु प्रभ बलिहारी जिनि जन का कीनो पूरन वाकु ॥२॥१८॥१०४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न रहिओसु = उस (सुलही) का नहीं रहा। छोडि = छोड़ के। कहु = कह। बलिहारी = कुर्बान। जिनि = जिस (प्रभु) ने। जन का वाकु = सेवक की अरदास।2।
अर्थ: हे भाई! सारे संबंधी (कुटंब) छोड़ के (सूलही इस दुनिया से) चला गया है। उसके लिए तो ना कोई पुत्र रह गया, ना कोई मित्र रह गया, ना धन रह गया, उसकी बाबत तो कुछ भी ना रहा। हे नानक! कह: मैं उस प्रभु से कुर्बान जाता हूँ, जिसने अपने सेवक की अरदास सुनी है (और, सेवक को सूलही से बचाया है)।2।18।104।

दर्पण-भाव

भाव: कोई भी बिपता आती दिखाई दे, परमात्मा के दर पर ही अरजोई करनी फबती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ पूरे गुर की पूरी सेव ॥ आपे आपि वरतै सुआमी कारजु रासि कीआ गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ पूरे गुर की पूरी सेव ॥ आपे आपि वरतै सुआमी कारजु रासि कीआ गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरी = सफल। सेव = सेवा भक्ति, शरण, ओट। आपे = आप। वरतै = हर जगह मौजूद है। रासि कीआ = सफल कर दिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु का आसरा (जिंदगी को) कामयाब (बना देता है)। (शरण आए सिख का) हरेक काम गुरु ने (सदा) सफल किया है। (गुरु की कृपा से ये विश्वास बन जाता है कि) मालिक-प्रभु हर जगह खुद ही खुद मौजूद है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदि मधि प्रभु अंति सुआमी अपना थाटु बनाइओ आपि ॥ अपने सेवक की आपे राखै प्रभ मेरे को वड परतापु ॥१॥

मूलम्

आदि मधि प्रभु अंति सुआमी अपना थाटु बनाइओ आपि ॥ अपने सेवक की आपे राखै प्रभ मेरे को वड परतापु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = शुरू में। मधि = (जगत रचना के) बीच, अब। अंति = आखिर में भी। थाटु = जगत रचना। परतापु = ताकत।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु ये श्रद्धा पैदा करता है कि) जिस प्रभु ने अपना ये जगत-खेल बनाया है वह मालिक प्रभु (इस खेल के) आरम्भ में, अब और आखिर में सदा कायम रहने वाला है। (गुरु से ये निश्चय मिलता है कि) उस परमात्मा की बड़ी ताकत है, अपने सेवक की वह स्वयं ही इज्जत (सदा) रखता आया हैं1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम परमेसुर सतिगुर वसि कीन्हे जिनि सगले जंत ॥ चरन कमल नानक सरणाई राम नाम जपि निरमल मंत ॥२॥१९॥१०५॥

मूलम्

पारब्रहम परमेसुर सतिगुर वसि कीन्हे जिनि सगले जंत ॥ चरन कमल नानक सरणाई राम नाम जपि निरमल मंत ॥२॥१९॥१०५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। सगले = सारे। नानक = हे नानक! जपि = जप के। निरमल = पवित्र आचरण वाला। मंत = मंत्र।2।
अर्थ: हे नानक! जिस पारब्रहम परमेश्वर ने सारे जीव-जंतु अपने वश में रखे हुए हैं, उसके सुंदर चरणों की शरण पड़े रहना चाहिए, गुरु की शरण पड़े रहना चाहिए। (गुरु की शरण पड़ के) प्रभु का नाम-मंत्र जपने से पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं।2।19।105।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ ताप पाप ते राखे आप ॥ सीतल भए गुर चरनी लागे राम नाम हिरदे महि जाप ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ ताप पाप ते राखे आप ॥ सीतल भए गुर चरनी लागे राम नाम हिरदे महि जाप ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ताप ते = दुख-कष्टों से। राखे = बचाता है। सीतल = शांत। महि = में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों में लगते हैं और परमात्मा का नाम हृदय में जपते हैं, उनके हृदय ठंडे-ठार हो जाते हैं क्योंकि परमात्मा स्वयं उनको सारे दुख-कष्टों व विकारों से बचा लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा हसत प्रभि दीने जगत उधार नव खंड प्रताप ॥ दुख बिनसे सुख अनद प्रवेसा त्रिसन बुझी मन तन सचु ध्राप ॥१॥

मूलम्

करि किरपा हसत प्रभि दीने जगत उधार नव खंड प्रताप ॥ दुख बिनसे सुख अनद प्रवेसा त्रिसन बुझी मन तन सचु ध्राप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। हसत = हाथ। प्रभि = प्रभु ने। जगत उधार = सारे जगत को पार उतारने वाला। नवखंड = नौ खण्डों में, सारे संसार में। प्रताप = तेज। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। ध्राप = तृप्त हो जाते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हैं) प्रभु ने सदा मेहर कर के अपने हाथ (उनके सिर पर) रखे हैं। वह प्रभु सारे जगत को पार लंघाने वाला है, उसका तेज सारे संसार में चमक रहा है। (स्मरण करने वाले मनुष्यों के) सारे दुख नाश हो जाते हैं, उनके हृदय में सुख-आनंद आ बसते हैं, सदा स्थिर हरि-नाम जप के उनकी तृष्णा मिट जाती है, उनका मन तृप्त हो जाता है, उनका शरीर (इन्द्रियाँ) संतुष्ट हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाथ को नाथु सरणि समरथा सगल स्रिसटि को माई बापु ॥ भगति वछल भै भंजन सुआमी गुण गावत नानक आलाप ॥२॥२०॥१०६॥

मूलम्

अनाथ को नाथु सरणि समरथा सगल स्रिसटि को माई बापु ॥ भगति वछल भै भंजन सुआमी गुण गावत नानक आलाप ॥२॥२०॥१०६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। नाथु = पति। सरणि समरथा = शरण पड़े की सहायता के समर्थ। भगति वछल = भक्ति को प्यार करने वाला है। भै भंजन = सारे डर नाश करने वाला। आलाप = उच्चारण कर।2।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा निखस्मों का खसम है, शरण आए हुओं की सहायता करने योग्य है, सारी सृष्टि का माता-पिता है। वह मालिक-प्रभु भक्ति को प्यार करने वाला है, सारे डर दूर करने वाला है, उसके गुण गा-गा के उसका नाम जपा कर।2।20।106।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जिस ते उपजिआ तिसहि पछानु ॥ पारब्रहमु परमेसरु धिआइआ कुसल खेम होए कलिआन ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जिस ते उपजिआ तिसहि पछानु ॥ पारब्रहमु परमेसरु धिआइआ कुसल खेम होए कलिआन ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिस ते = जिस (परमात्मा) से। ते = से। तिसहि = तिसु ही, उसको ही। पछाण = पहचान, सांझ डाल। कुसल खेम = सुख सांद।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा से तू पैदा हुआ है, उसके साथ ही (सदा) सांझ डाले रख। जिस मनुष्य ने उस पारब्रहम परमेश्वर का नाम स्मरण किया है उसके अंदर शांति सुख व आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु पूरा भेटिओ बड भागी अंतरजामी सुघड़ु सुजानु ॥ हाथ देइ राखे करि अपने बड समरथु निमाणिआ को मानु ॥१॥

मूलम्

गुरु पूरा भेटिओ बड भागी अंतरजामी सुघड़ु सुजानु ॥ हाथ देइ राखे करि अपने बड समरथु निमाणिआ को मानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटिओ = मिला। बडभागी = जिस बड़े भाग्य वाले को। सुघड़ु = सुघड़, सोहना। सुजान = समझदार। देइ = दे के।1।
अर्थ: हे भाई! जिस भाग्यशाली लोगों को पूरा गुरु मिल जाता है, उन्हें हाथ दे के अपने बना के वह परमात्मा (सब प्रकार के डरों-भ्रमों से) बचाए रखता है, जो हरेक के दिल की जानने वाला है, सोहणा है, समझदार है, जो बड़ी ताकत का मालिक है और जो निमाणों को आदर-मान देने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रम भै बिनसि गए खिन भीतरि अंधकार प्रगटे चानाणु ॥ सासि सासि आराधै नानकु सदा सदा जाईऐ कुरबाणु ॥२॥२१॥१०७॥

मूलम्

भ्रम भै बिनसि गए खिन भीतरि अंधकार प्रगटे चानाणु ॥ सासि सासि आराधै नानकु सदा सदा जाईऐ कुरबाणु ॥२॥२१॥१०७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = सारे डर। अंधकार = अंधेरा। चानाणु = प्रकाश। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। कुरबाणु = सदके।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसके) सारे डर-भ्रम छिन में नाश हो जाते हैं, (उसके अंदर से मोह का) अंधकार दूर हो के (आत्मिक जीवन की) रौशनी हो जाती है। नानक (तो) हरेक सांस के साथ (उसी परमात्मा को) स्मरण करता है। (हे भाई! उस परमात्मा से) सदा सदके जाना चाहिए।2।21।107।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ दोवै थाव रखे गुर सूरे ॥ हलत पलत पारब्रहमि सवारे कारज होए सगले पूरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ दोवै थाव रखे गुर सूरे ॥ हलत पलत पारब्रहमि सवारे कारज होए सगले पूरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दोवै थाव = (ये लोक और परलोक) दोनों जगहें। गुर सूरे = सूरमे गुरु ने। हलत = अत्र, यह लोक। पलत = परत्र, परलोक। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सवारे = सवार दिए हैं। सगले = सारे। पूरे = सफल।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘थाव’ शब्द ‘थाउ’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हैं) सूरमा गुरु (उसका ये लोक और परलोक) दोनों ही (बिगड़ने से) बचा लेता है। परमात्मा ने (सदा ही ऐसे मनुष्य के) यह लोक और परलोक सुंदर बना दिए, उस मनुष्य के सारे ही काम सफल हो जाते हैं1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपत सुख सहजे मजनु होवत साधू धूरे ॥ आवण जाण रहे थिति पाई जनम मरण के मिटे बिसूरे ॥१॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपत सुख सहजे मजनु होवत साधू धूरे ॥ आवण जाण रहे थिति पाई जनम मरण के मिटे बिसूरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। सहजे = आत्मिक अडोलता में। मजनु = स्नान। साधू धूरे = गुरु के चरणों की धूल में। थिति = स्थिति, टिकाव। बिसूरे = चिन्ता फिक्र।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से आनंद प्राप्त होता है, आत्मिक अडोलता में टिके रहा जाता है, गुरु के चरणों की धूल का स्नान प्राप्त होता है, जनम मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, (प्रभु चरणों में) टिकाव प्राप्त होता है, जनम से मरने तक के सारे चिन्ता-फिक्र समाप्त हो जाते हैं।1।

[[0826]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रम भै तरे छुटे भै जम के घटि घटि एकु रहिआ भरपूरे ॥ नानक सरणि परिओ दुख भंजन अंतरि बाहरि पेखि हजूरे ॥२॥२२॥१०८॥

मूलम्

भ्रम भै तरे छुटे भै जम के घटि घटि एकु रहिआ भरपूरे ॥ नानक सरणि परिओ दुख भंजन अंतरि बाहरि पेखि हजूरे ॥२॥२२॥१०८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरे = पार लांघ गए। भै = भय, डर। घटि घटि = हरेक शरीर में। एकु = एक परमात्मा ही। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। पेखि = देखता है। हजूरे = अंग संग।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम जपता है, वह संसार-समुंदर के सारे) डरों-भ्रमों से पार लांघ जाता है, जमदूतों के बारे में भी उसके डर समाप्त हो जाते हैं, उस मनुष्य को परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक दिखता है, वह मनुष्य सारे दुखों के नाश करने वाले प्रभु की शरण पड़ा रहता है, और अंदर-बाहर हर जगह प्रभु को अपने अंग-संग बसता देखता है।2।22।108।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ दरसनु देखत दोख नसे ॥ कबहु न होवहु द्रिसटि अगोचर जीअ कै संगि बसे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ दरसनु देखत दोख नसे ॥ कबहु न होवहु द्रिसटि अगोचर जीअ कै संगि बसे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दोख = (सारे) ऐब, विकार। द्रिसटि अगोचर = नजर की पहुँच से परे। जीअ कै संगि = जीवात्मा के साथ। बसे = बसे रहे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु तेरे) दर्शन करते हुए (जीवों के) सारे विकार दूर हो जाते हैं। (हे प्रभु! मेहर कर) कभी भी मेरी नजर से परे ना हो, सदा मेरे प्राणों के साथ बसता रह।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतम प्रान अधार सुआमी ॥ पूरि रहे प्रभ अंतरजामी ॥१॥

मूलम्

प्रीतम प्रान अधार सुआमी ॥ पूरि रहे प्रभ अंतरजामी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रान अधार = जिंद का आसरा। पूरि रहे = हर जगह मौजूद। प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला।1।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे जीवों की जिंद के आसरे! हे स्वामी! तू सबके दिल की जानने वाला है और सबमें व्यापक है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ गुण तेरे सारि सम्हारी ॥ सासि सासि प्रभ तुझहि चितारी ॥२॥

मूलम्

किआ गुण तेरे सारि सम्हारी ॥ सासि सासि प्रभ तुझहि चितारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सारि = याद करके। समारी = मैं सम्भालूँ, मैं हृदय में बसाऊँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। चितारी = मैं याद करता रहूँ।2।
अर्थ: (हे प्रभु! तू बेअंत गुणों का मालिक है) मैं तेरे कौन-कौन से गुण याद कर कर के अपने हृदय में बसाऊँ? हे प्रभु! (कृपा कर) मैं अपनी हरेक सांस के साथ तुझे ही याद करता रहूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरपा निधि प्रभ दीन दइआला ॥ जीअ जंत की करहु प्रतिपाला ॥३॥

मूलम्

किरपा निधि प्रभ दीन दइआला ॥ जीअ जंत की करहु प्रतिपाला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! प्रतिपाला = पालना।3।
अर्थ: हे कृपा के खजाने! हे गरीबों पर दया करने वाले प्रभु! सारे जीवों की तू स्वयं ही पालना करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर तेरा नामु जनु जापे ॥ नानक प्रीति लाई प्रभि आपे ॥४॥२३॥१०९॥

मूलम्

आठ पहर तेरा नामु जनु जापे ॥ नानक प्रीति लाई प्रभि आपे ॥४॥२३॥१०९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = दास, सेवक। प्रभि = प्रभु ने। आपे = स्वयं ही।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा सेवक आठों पहर तेरा नाम जपता रहता है। (पर) हे नानक! (वही मनुष्य सदा नाम जपता है, जिसको) प्रभु ने स्वयं ही यह लगन लगाई है।4।23।109।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ तनु धनु जोबनु चलत गइआ ॥ राम नाम का भजनु न कीनो करत बिकार निसि भोरु भइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ तनु धनु जोबनु चलत गइआ ॥ राम नाम का भजनु न कीनो करत बिकार निसि भोरु भइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोबनु = जवानी। चलत गइआ = धीरे-धीरे साथ छोड़ जाता है। करत = करते हुए। बिकार = बुरे काम। निसि = रात (काले केसों वाली उम्र)। भोरु = (सफेद) दिन (सफेद बालों वाली उम्र)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य का यह) शरीर, धन, जवानी (हरेक ही) आहिस्ता-आहिस्ता (मनुष्य का) साथ छोड़ते जाते हैं, (पर इनके मोह में फंसा हुआ मनुष्य) परमात्मा के नाम का भजन नहीं करता, बुरे काम करते करते काले केसों वाली उम्र से सफेद बालों वाली उम्र आ जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक प्रकार भोजन नित खाते मुख दंता घसि खीन खइआ ॥ मेरी मेरी करि करि मूठउ पाप करत नह परी दइआ ॥१॥

मूलम्

अनिक प्रकार भोजन नित खाते मुख दंता घसि खीन खइआ ॥ मेरी मेरी करि करि मूठउ पाप करत नह परी दइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनिक प्रकार = कई किसमों के। भोजन = खाने। खाते = खाते हुए। घसि = घिस के। खीन = क्षीण, कमजोर। खइआ = नाश हो जाते हैं। मूठउ = ठगा जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! कई किस्मों के खाने नित्य खाते हुए मुँह के दाँत भी घिस के कमजोर हो जाते हैं, और आखिर गिर जाते हैं। ममता के पँजे में फंस के मनुष्य (आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी) लुटा लेता है, बुरे काम करते हुए इसके अंदर दया-तरस भी नहीं रह जाती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा बिकार घोर दुख सागर तिसु महि प्राणी गलतु पइआ ॥ सरनि परे नानक सुआमी की बाह पकरि प्रभि काढि लइआ ॥२॥२४॥११०॥

मूलम्

महा बिकार घोर दुख सागर तिसु महि प्राणी गलतु पइआ ॥ सरनि परे नानक सुआमी की बाह पकरि प्रभि काढि लइआ ॥२॥२४॥११०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घोर दुख = बहुत सारे दुख। सागर = समुंदर। तिसु महि = उस (सागर) में। गलतु पइआ = ग़लतान, डूबा रहता है। पकरि = पकड़ के। प्रभि = प्रभु ने।2।
अर्थ: (हे भाई! यह संसार) बड़े विकारों और भारे दुखों का समुंदर है (भजन से टूटा हुआ) मनुष्य इस (समुंदर) में डूबा रहता है। हे नानक! जो मनुष्य मालिक प्रभु की शरण आ पड़े, उन्हे प्रभु ने बाँह पकड़ के (इस संसार-समुंदर में से) निकाल लिया, (ये उसका आदि कदीमी बिरद भरा स्वभाव है)।2।24।110।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ आपना प्रभु आइआ चीति ॥ दुसमन दुसट रहे झख मारत कुसलु भइआ मेरे भाई मीत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ आपना प्रभु आइआ चीति ॥ दुसमन दुसट रहे झख मारत कुसलु भइआ मेरे भाई मीत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। दुसट = दुष्ट। रहे झख मारत = झख मारते रह गए, नुकसान करने का प्रयत्न कर कर के थक गए। कुसलु = सुख। भाई = हे भाई! मीत = हे मित्र!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे वीर! हे मेरे मित्र! जिस मनुष्य के चिक्त में प्यारा प्रभु आ बसता है, बुरे लोग और वैरी उसको नुकसान पहुँचाने का यत्न करते थक जाते हैं (उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते, उसके हृदय में सदा) आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गई बिआधि उपाधि सभ नासी अंगीकारु कीओ करतारि ॥ सांति सूख अरु अनद घनेरे प्रीतम नामु रिदै उर हारि ॥१॥

मूलम्

गई बिआधि उपाधि सभ नासी अंगीकारु कीओ करतारि ॥ सांति सूख अरु अनद घनेरे प्रीतम नामु रिदै उर हारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिआधि = शारीरिक रोग। उपाधि = ठगी, फरेब, धोखा। अंगीकारु = सहायता, पक्ष। करतारि = कर्तार ने। अरु = और। घनेरे = अनेक। रिदै = हृदय में। उरहारि = उर धारि, हृदय में बसा के। उर = हृदय।1।
अर्थ: हे मित्र! कर्तार ने (जब भी किसी की) सहायता की, उसका हरेक रोग दूर हो गया, (उसके साथ किसी का भी किया हुआ) कोई छल कामयाब नही हुआ। प्रीतम प्रभु का नाम हृदय में बसाने की इनायत से उस मनुष्य के अंदर शांति सुख और अनेक आनंद पैदा हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीउ पिंडु धनु रासि प्रभ तेरी तूं समरथु सुआमी मेरा ॥ दास अपुने कउ राखनहारा नानक दास सदा है चेरा ॥२॥२५॥१११॥

मूलम्

जीउ पिंडु धनु रासि प्रभ तेरी तूं समरथु सुआमी मेरा ॥ दास अपुने कउ राखनहारा नानक दास सदा है चेरा ॥२॥२५॥१११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। प्रभ = हे प्रभु! समरथु = सारी ताकतों का मालिक। कउ = को। राखनहारा = बचाने वाला। चेरा = गुलाम।2।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे ये प्राण, मेरा ये शरीर, मेरा यह धन- सब कुछ तेरी ही दी हुई संपत्ति है। तू मेरा स्वामी सब ताकतों का मालिक है। तू अपनें सेवक को (उपाधियों-व्याधियों से सदा) बचाने वाला है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं भी तेरा ही दास हूँ, तेरा ही गुलाम हूँ (मुझे तेरा ही भरोसा है)।2।25।111।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ गोबिदु सिमरि होआ कलिआणु ॥ मिटी उपाधि भइआ सुखु साचा अंतरजामी सिमरिआ जाणु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ गोबिदु सिमरि होआ कलिआणु ॥ मिटी उपाधि भइआ सुखु साचा अंतरजामी सिमरिआ जाणु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। कलिआणु = सुख। उपाधि = छल धोखा। मिटी उपाधि = किसी की की हुई चोट सफल नहीं होती। साचा = सदा कायम रहने वाला। जाणु = सुजान।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने हरेक दिल की जानने वाले सुजान प्रभु का नाम स्मरण किया, उस पर किसी की चोट कारगर ना हो सकी, उसके अंदर सदा कायम रहने वाला सुख पैदा हो गया। गोबिंद का नाम स्मरण करके (उसके अंदर) सुख ही सुख बन गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस के जीअ तिनि कीए सुखाले भगत जना कउ साचा ताणु ॥ दास अपुने की आपे राखी भै भंजन ऊपरि करते माणु ॥१॥

मूलम्

जिस के जीअ तिनि कीए सुखाले भगत जना कउ साचा ताणु ॥ दास अपुने की आपे राखी भै भंजन ऊपरि करते माणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जीव। तिनि = उस (प्रभु) ने। सुखाले = सुखी। कउ = को। ताणु = सहारा। भै भंजन = सारे डर दूर कर सकने वाला। करते = करते हैं। माणु = फखर, भरोसा।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के ये सारे जीव-जंतु हैं (इनको) सुखी भी उसने खुद ही किया है (सुखी करने वाला भी स्वयं ही है)। प्रभु की भक्ति करने वालों को यही सदा कायम रहने वाला सहारा है। हे भाई! प्रभु अपने सेवकों की इज्जत स्वयं ही रखता है। भक्त उस प्रभु पर ही भरोसा रखते हैं, जो सारे डरों का नाश करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भई मित्राई मिटी बुराई द्रुसट दूत हरि काढे छाणि ॥ सूख सहज आनंद घनेरे नानक जीवै हरि गुणह वखाणि ॥२॥२६॥११२॥

मूलम्

भई मित्राई मिटी बुराई द्रुसट दूत हरि काढे छाणि ॥ सूख सहज आनंद घनेरे नानक जीवै हरि गुणह वखाणि ॥२॥२६॥११२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मित्राई = मित्रता, प्यार की सांझ। बुराई = बुरी चितवनी। द्रुसट = दुष्ट, बुरा चितवने वाले। दूत = वैरी। छाणि = चुन के। सहज = आत्मिक अडोलता, शांति। जीवै = जीता है, आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। गुणह वखाणि = (प्रभु के) गुण उचार के।2।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करता है, प्रभु उसका) बुरा चितवने वाले वैरियों को चुन के निकाल देता है (उनकी बल्कि सेवक से) प्यार की सांझ बन जाती है (उनके अंदर से उस सेवक की बाबत) वैर भाव मिट जाता है। हे नानक! सेवक के हृदय में सुख आत्मिक अडोलता और बहुत सारा आनंद बना रहता है। सेवक परमात्मा के गुण उचार-उचार के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहता है।2।26।112।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ पारब्रहम प्रभ भए क्रिपाल ॥ कारज सगल सवारे सतिगुर जपि जपि साधू भए निहाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ पारब्रहम प्रभ भए क्रिपाल ॥ कारज सगल सवारे सतिगुर जपि जपि साधू भए निहाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: क्रिपाल = (कृपा+आलय) दयावान। सगल = सारे। जपि = जप के। जपि साधू = गुरु का आसरा हर वक्त चितार के। साधू = गुरु। निहाल = खुश, आनंद भरपूर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों पर परमात्मा दयावान होता है, गुरु उनके सारे काम सिरे चढ़ा देता है। वह मनुष्य गुरु की ओट हर वक्त चितार के सदा प्रसन्न रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै दोखी सगले भए रवाल ॥ कंठि लाइ राखे जन अपने उधरि लीए लाइ अपनै पाल ॥१॥

मूलम्

अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै दोखी सगले भए रवाल ॥ कंठि लाइ राखे जन अपने उधरि लीए लाइ अपनै पाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभु ने। दोखी = वैरी। रवाल = धूल, मिट्टी। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। जन = सेवक। उधरि लीए = बचा लिए। पाल = पल्ले।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने (जिस अपने सेवकों की) सहायता की, उनके सारे वैरी नाश हो गए (अर्थात, वैर-भाव चितवने से हट गए)। प्रभु ने अपने सेवकों को (सदा) अपने गले से लगा के (उनकी) सहायता की, उनको अपने लड़ लगा के (दोखियों से) बचाया।1।

[[0827]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सही सलामति मिलि घरि आए निंदक के मुख होए काल ॥ कहु नानक मेरा सतिगुरु पूरा गुर प्रसादि प्रभ भए निहाल ॥२॥२७॥११३॥

मूलम्

सही सलामति मिलि घरि आए निंदक के मुख होए काल ॥ कहु नानक मेरा सतिगुरु पूरा गुर प्रसादि प्रभ भए निहाल ॥२॥२७॥११३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सही सलामति = आत्मिक जीवन की सारी राशि-पूंजी समेत। मिलि = (गुरु को) मिल के। घरि = हृदय घर में। काल = काले। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से।2।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के सेवक गुरु चरणों में) मिल के आत्मिक जीवन की सारी राशि-पूंजी समेत हृदय-घर में टिके रहते हैं, उनकी निंदा करने वाले मनुष्य बदनामी कमाते हैं। हे नानक! कह: मेरा गुरु सारी सामर्थ्य वाला है, (गुरु के दर पर आए भाग्यशालियों पर) गुरु की कृपा से परमात्मा खुश रहता है।2।27।113।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मू लालन सिउ प्रीति बनी ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मू लालन सिउ प्रीति बनी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मू प्रीति = मेरी प्रीति। लालन सिउ = सोहणे लाल से। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्यार (तो अब) सुंदर प्रभु से बन गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोरी न तूटै छोरी न छूटै ऐसी माधो खिंच तनी ॥१॥

मूलम्

तोरी न तूटै छोरी न छूटै ऐसी माधो खिंच तनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तोरी = तोड़ने से। छोरी = छोड़ने से। माधो = (मा+धव। माया का पति) परमात्मा (ने)। खिंच = 1. वह रस्सा जो जुलाहे ताने को डाल के एक किल्ले पर से ला के खड्डी के पास के दूसरे किल्ले से बाँध के रखते हैं। ज्यों ज्यों कपड़ा उनते जाते हैं, उस रस्से को ढीला करते जाते हैं ताकि उना हुआ कपड़ा तना रहे और सही ढंग से उना जा सके। 2. बैलगाड़ी पर गन्ना लाद के उस पर रस्सा डालके बाँधते है, उसको भी दोआबे वाले इलाके में खेंज (खिंच) ही कहते हैं। तनी = तनी हुई है (माधो ने)।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने प्यार की डोर ऐसी कसी हुई है, कि वह डोर ना अब तोड़े टूटती है ना ही छोड़े से छुड़ाई जा सकती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिनसु रैनि मन माहि बसतु है तू करि किरपा प्रभ अपनी ॥२॥

मूलम्

दिनसु रैनि मन माहि बसतु है तू करि किरपा प्रभ अपनी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैनि = रात। माहि = में। बसतु है = बसता है। प्रभ = हे प्रभु!।2।
अर्थ: हे भाई! वह प्यार अब दिन-रात मेरे मन में बस रहा है। हे प्रभु! तू अपनी कृपा किए रख (कि ये प्यार कायम रहे)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि बलि जाउ सिआम सुंदर कउ अकथ कथा जा की बात सुनी ॥३॥

मूलम्

बलि बलि जाउ सिआम सुंदर कउ अकथ कथा जा की बात सुनी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाउ = मैं जाता हूँ। बलि बलि = कुर्बान। सिआम सुंदर कउ = सुंदर श्याम को, प्रभु से। अकथ = बयान से परे। बात = बात।3।
अर्थ: (हे भाई! उस प्यार की इनायत से) मैं (हर वक्त) उस सुंदर प्रभु से सदके जाता हूँ जिसकी बाबत ये बात सुनी हुई है कि उसकी महिमा की कहानी बयान से परे हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन नानक दासनि दासु कहीअत है मोहि करहु क्रिपा ठाकुर अपुनी ॥४॥२८॥११४॥

मूलम्

जन नानक दासनि दासु कहीअत है मोहि करहु क्रिपा ठाकुर अपुनी ॥४॥२८॥११४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दासनि दासु = दासों का दास। कहीअत है = कहा जाता है। मोहि = मेरे पर। ठाकुर = हे ठाकुर!।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! तेरा यह सेवक नानक तेरे) दासों का दास कहलवाता है। हे ठाकुर! अपनी कृपा मेरे पर किए रख (और, यह प्यार बना रहे)।4।28।114।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ हरि के चरन जपि जांउ कुरबानु ॥ गुरु मेरा पारब्रहम परमेसुरु ता का हिरदै धरि मन धिआनु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ हरि के चरन जपि जांउ कुरबानु ॥ गुरु मेरा पारब्रहम परमेसुरु ता का हिरदै धरि मन धिआनु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपि = जप के, हृदय में बसा के। जांउ = मैं जाता हूँ। कुरबानु = बलिहार, सदके। हिरदै = हृदय में। मन = हे मन! ता का = उस (गुरु) का।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण हृदय में बसा के, मैं उससे (सदा) सदके जाता हूँ। हे मेरे मन! मेरा गुरु (भी) परमात्मा (का रूप) है, हृदय में उस (गुरु) का ध्यान धरा कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि सिमरि सिमरि सुखदाता जा का कीआ सगल जहानु ॥ रसना रवहु एकु नाराइणु साची दरगह पावहु मानु ॥१॥

मूलम्

सिमरि सिमरि सिमरि सुखदाता जा का कीआ सगल जहानु ॥ रसना रवहु एकु नाराइणु साची दरगह पावहु मानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करता रह। कीआ = पैदा किया हुआ। सगलु = सारा। रसना = जीभ से। रवहु = जपते रहो। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर।1।
अर्थ: हे भाई! ये सारा जगत जिस परमात्मा का पैदा किया हुआ है, सारे सुख देने वाले उस परमात्मा को सदा ही याद करता रह। (अपनी) जीभ से उस एक परमात्मा का नाम जपा कर, (परमात्मा की) सदा कायम रहने वाली हजूरी में आदर प्राप्त करोगे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू संगु परापति जा कउ तिन ही पाइआ एहु निधानु ॥ गावउ गुण कीरतनु नित सुआमी करि किरपा नानक दीजै दानु ॥२॥२९॥११५॥

मूलम्

साधू संगु परापति जा कउ तिन ही पाइआ एहु निधानु ॥ गावउ गुण कीरतनु नित सुआमी करि किरपा नानक दीजै दानु ॥२॥२९॥११५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगु = गुरु का साथ। जा कउ = जिस (मनुष्य) को। तिनही = उसने ही। निधानु = खजाना। गावउ = मैं गाता रहूँ। नित = सदा। करि = कर के। नानक दीजै = नानक को दीजिये। दानु = दाति, खैर।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिनही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर, हे भाई! ये नाम-खजाना उस मनुष्य ने ही हासिल किया है, जिसको गुरु की संगति प्राप्त हुई है।
हे मेरे मालिक! मेहर करके (मुझे) नानक को ये ख़ैर डाल कि मैं सदा ही तेरे गुण गाता रहूँ, सदा तेरी महिमा करता रहूँ।2।29।115।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ राखि लीए सतिगुर की सरण ॥ जै जै कारु होआ जग अंतरि पारब्रहमु मेरो तारण तरण ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ राखि लीए सतिगुर की सरण ॥ जै जै कारु होआ जग अंतरि पारब्रहमु मेरो तारण तरण ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखि लीए = बचा लिए। जै जैकारु = सदा की शोभा। अंतरि = अंदर, में। तारणु = पार लांघने के वास्ते। तरण = बेड़ी, जहाज।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! ये संसार एक समुंदर है, जिसमें से) पार लंघाने के लिए मेरा जीवन (मानो, एक) जहाज़ है। (जिस मनुष्यों को वह बचाना चाहता है, उनको) गुरु की शरण में डाल के (इस समुंदर में से डूबने से) बचा लेता है, जगत में उनकी सदा शोभा होती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिस्व्मभर पूरन सुखदाता सगल समग्री पोखण भरण ॥ थान थनंतरि सरब निरंतरि बलि बलि जांई हरि के चरण ॥१॥

मूलम्

बिस्व्मभर पूरन सुखदाता सगल समग्री पोखण भरण ॥ थान थनंतरि सरब निरंतरि बलि बलि जांई हरि के चरण ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिस्वंभर = (विश्व = सारा संसार) सारे जगत को पालने वाला। पूरन = सर्व व्यापक। समग्री = पदार्थ। पोखण भरण = पालने पोसने वाला। थान थनंतरि = थान थान अंतरि, हरेक जगह में। निरंतरि = एक रस (निर+अंतर। अंतर = दूरी) दूरी के बिना। जांई = मैं जाता हूँ। बलि बलि = कुर्बान।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे जगत को पालने वाला है, सर्व व्यापक है, सारे सुख देने वाला है, (जगत को) पालने-पोसने के लिए सारे पदार्थ उसके हाथ में हैं। वह परमात्मा हरेक जगह में बस रहा है, सभी में एक रस बस रहा है। मैं उसके चरणों से सदा सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जुगति वसि मेरे सुआमी सरब सिधि तुम कारण करण ॥ आदि जुगादि प्रभु रखदा आइआ हरि सिमरत नानक नही डरण ॥२॥३०॥११६॥

मूलम्

जीअ जुगति वसि मेरे सुआमी सरब सिधि तुम कारण करण ॥ आदि जुगादि प्रभु रखदा आइआ हरि सिमरत नानक नही डरण ॥२॥३०॥११६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ जुगति = प्राणों की मर्यादा। वसि = वश में। सुआमी = हे स्वामी! सिधि = सिद्धियां। करण = सबब, मूल। कारण = जगत। आदि = शुरू से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से।2।
अर्थ: हे मेरे मालिक! (सब जीवों की) जीवन-जुगति तेरे वश में है, तेरे वश में सारी ताकतें हैं, तू ही सारे जगत को पैदा करने वाला है। हे नानक! शुरू से ही परमात्मा (शरण पड़े की) रक्षा करता आ रहा है। उसका नाम स्मरण करने से कोई डर नहीं रह जाता है।2।30।116।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ८ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ८ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै नाही प्रभ सभु किछु तेरा ॥ ईघै निरगुन ऊघै सरगुन केल करत बिचि सुआमी मेरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मै नाही प्रभ सभु किछु तेरा ॥ ईघै निरगुन ऊघै सरगुन केल करत बिचि सुआमी मेरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सभु किछु = हरेक चीज। ईघै = एक तरफ। निरगुन = माया के तीन गुणों से परे। ऊघै = दूसरी तरफ। सरगुन = माया के तीन गुणों से जुड़ा हुआ। केल = जगत तमाशा। बिचि = निर्गुण सरगुन दोनों के बीच का।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेरी (अपने आप में) कोई ताकत नहीं है। (मेरे पास) हरेक चीज तेरी ही बख्शी हुई है। हे भाई! एक तरफ तो प्रभु माया के तीन गुणों से परे है (निर्गुण), दूसरी तरफ प्रभु माया के तीनों गुणों समेत है (सर्गुण)। इन दोनों ही हालातों के बीच मेरा मालिक-प्रभु यह जगत-तमाशा रचाए बैठा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नगर महि आपि बाहरि फुनि आपन प्रभ मेरे को सगल बसेरा ॥ आपे ही राजनु आपे ही राइआ कह कह ठाकुरु कह कह चेरा ॥१॥

मूलम्

नगर महि आपि बाहरि फुनि आपन प्रभ मेरे को सगल बसेरा ॥ आपे ही राजनु आपे ही राइआ कह कह ठाकुरु कह कह चेरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नगर = शरीर। फुनि = दोबारा, भी। आपन = आप ही। को = का। सगल = सब में। राजन = राजा, बादशाह। राइआ = प्रजा, रिआइआ, रईअत। कह कह = कहीं कहीं। ठाकुरु = मालिक। चेरा = नौकर।1।
अर्थ: हे भाई! (हरेक शरीर-) नगर में प्रभु स्वयं ही है, बाहर (सारे जगत में) भी स्वयं ही है। सब जीवों में मेरे प्रभु का ही निवास है। हे भाई! प्रभु स्वयं ही राजा है, स्वयं ही प्रजा है। कहीं मालिक बना हुआ है, कहीं सेवक बना हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

का कउ दुराउ का सिउ बलबंचा जह जह पेखउ तह तह नेरा ॥ साध मूरति गुरु भेटिओ नानक मिलि सागर बूंद नही अन हेरा ॥२॥१॥११७॥

मूलम्

का कउ दुराउ का सिउ बलबंचा जह जह पेखउ तह तह नेरा ॥ साध मूरति गुरु भेटिओ नानक मिलि सागर बूंद नही अन हेरा ॥२॥१॥११७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: का कउ = किस तरफ से? दुराउ = ओहला, छुपा हुआ। का सिउ = किस से? बलबंचा = वल छल, ठगी। जह जह = जहाँ जहाँ। पेखउ = मैं देखता हूँ। तह तह = वहाँ वहाँ। नेरा = नजदीक। साध मूरति = पवित्र हस्ती वाला (साधु = Virtuous)। भेटिओ = मिला। मिलि सागर = समुंदर को मिल के। अन = अन्य, और, अलग। हेरा = देखी जाती।2।
अर्थ: हे भाई! मैं जिधर-जिधर देखता हूँ हर जगह परमात्मा ही (हरेक के) अंग-संग बस रहा है। (उसके बिना कहीं भी कोई और नहीं है, इस वास्ते) किस की ओर से कोई झूठ कहा जाए या छुपाया जाए, और किससे ठगी-फरेब किया जाए? (वह तो सब कुछ देखता व जानता है)। हे नानक! जिस मनुष्य को पवित्र हस्ती वाला गुरु मिल जाता है (उसे यह समझ आ जाती है कि) समुंदर में मिल के पानी की बूँद (समुंदर से) अलग नहीं दिखती।2।1।117।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ से घर 8 के शबदों का संग्रह आरम्भ हुआ है।

[[0828]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ तुम्ह समरथा कारन करन ॥ ढाकन ढाकि गोबिद गुर मेरे मोहि अपराधी सरन चरन ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ तुम्ह समरथा कारन करन ॥ ढाकन ढाकि गोबिद गुर मेरे मोहि अपराधी सरन चरन ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समरथा = सारी ताकतों का मालिक। कारन = सबब, मूल। करन = जगत। कारन करन = जगत का मूल। ढाकन = पर्दा। गोबिद = हे गोबिंद! गुर = हे सबसे बड़े! मोहि = मैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे गोबिंद! हे मेरे सबसे बड़े (मालिक)! तू सब ताकतों का मालिक है, तू जगत का रचनहार है, मेरा पर्दा ढक ले, मैं पापी तेरे चरणों में (तेरी) शरण आया हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जो कीनो सो तुम्ह जानिओ पेखिओ ठउर नाही कछु ढीठ मुकरन ॥ बड परतापु सुनिओ प्रभ तुम्हरो कोटि अघा तेरो नाम हरन ॥१॥

मूलम्

जो जो कीनो सो तुम्ह जानिओ पेखिओ ठउर नाही कछु ढीठ मुकरन ॥ बड परतापु सुनिओ प्रभ तुम्हरो कोटि अघा तेरो नाम हरन ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीनो = किया। पेखिओ = देखा। ठउरु मुकरन = मुकरने की जगह, ना मानने की गुंजायश। ढीठ = बार बार वही किए जाना, बेशर्म, र्निलज। प्रभ = हे प्रभु! कोटि = करोड़ों। अघा = पाप। हरन = दूर करने वाला।1।
अर्थ: जो कुछ मैं नित्य करता रहता हूँ, हे प्रभु! वह तू सब कुछ जानता है और देखता है, (इन करतूतों से) मुझ ढीठ के मुकरने की कोई गुंजायश नहीं, (फिर भी मैं किए भी जाता हूँ, और छुपाता भी हूँ)। हे प्रभु! मैंने सुना है कि तू बहुत बड़ी सामर्थ्य वाला है, तेरा नाम करोड़ों पाप दूर कर सकता है (मुझे भी अपना नाम बख्श)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरो सहाउ सदा सद भूलन तुम्हरो बिरदु पतित उधरन ॥ करुणा मै किरपाल क्रिपा निधि जीवन पद नानक हरि दरसन ॥२॥२॥११८॥

मूलम्

हमरो सहाउ सदा सद भूलन तुम्हरो बिरदु पतित उधरन ॥ करुणा मै किरपाल क्रिपा निधि जीवन पद नानक हरि दरसन ॥२॥२॥११८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाउ = स्वभाव। सद = सदा। बिरदु = मूल कदीमी स्वभाव। पतित = विकारों में गिरे हुए। उधरन = (विकारों में से) निकालना। करुणा मै = करुणामय, तरस भरपूर। निधि = खजाना। जीवन पद = आत्मिक जीवन का दर्जा।2।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीवों का सवभाव ही है नित्य भूलें करते रहना। तेरा मूल कदीमी स्वभाव (बिरद) है विकारियों को विकार से बचाना। हे तरस के श्रोत (करुणामय)! हे कृपालु! हे कृपा निधि (खजाने)! नानक को अपने दर्शन दे, तेरे दर्शन उच्च आत्मिक जीवन का दर्जा बख्शने वाले हैं।2।2।118।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसी किरपा मोहि करहु ॥ संतह चरण हमारो माथा नैन दरसु तनि धूरि परहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसी किरपा मोहि करहु ॥ संतह चरण हमारो माथा नैन दरसु तनि धूरि परहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे, मेरे पर। संतह = संतों के। हमारो = हमारे। तनि = शरीर पर। परहु = डाल दो।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे पर मेहर कर कि संतों के चरणों पर मेरा माथा (सिर) पड़ा रहे, मेरी आँखों में संत जनों के दर्शन टिके रहें, मेरे शरीर पर संतों के चरणों की धूल पड़ी रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर को सबदु मेरै हीअरै बासै हरि नामा मन संगि धरहु ॥ तसकर पंच निवारहु ठाकुर सगलो भरमा होमि जरहु ॥१॥

मूलम्

गुर को सबदु मेरै हीअरै बासै हरि नामा मन संगि धरहु ॥ तसकर पंच निवारहु ठाकुर सगलो भरमा होमि जरहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। हीअरै = हृदय में। बासै = बसता रहे। मन संगि = मन के साथ। तसकर = चोर। निवारहु = निकाल लो। ठाकुर = हे ठाकुर! सगले = सारा। होमि = हवन में। जरहु = जलाओ।1।
अर्थ: (हे प्रभु! मेरे पर यह मेहर करो-) गुरु का शब्द मेरे हृदय में (सदा) बसता रहे, हे हरि! अपना नाम मेरे मन में टिकाए रख। हे ठाकुर! (मेरे अंदर से कामादिक) पाँचों चोर निकाल दे, मेरी सारी भटकना आग में जला दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तुम्ह करहु सोई भल मानै भावनु दुबिधा दूरि टरहु ॥ नानक के प्रभ तुम ही दाते संतसंगि ले मोहि उधरहु ॥२॥३॥११९॥

मूलम्

जो तुम्ह करहु सोई भल मानै भावनु दुबिधा दूरि टरहु ॥ नानक के प्रभ तुम ही दाते संतसंगि ले मोहि उधरहु ॥२॥३॥११९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भल = भला। मानै = (मेरा मन) मान ले। भावनु = भावना, अच्छा लगे। भावनु दुबिधा = दुबिधा अच्छी लगनी। दुबिधा = मेर तेर, भेदभाव। टरहु = टाल दो। प्रभ = हे प्रभु! संगि = संगति में। ले = ले के, रख के। मोहि = मुझे। उधरहु = (तस्करों से) बचा लो।2।
अर्थ: (हे प्रभु मेरे ऊपर यह मेहर कर-) जो कुछ तू करता है, उसी को (मेरा मन) ठीक मान ले। (हे प्रभु! मेरे अंदर से) भेद-भाव भरी तेर-मेर निकाल दे। हे प्रभु! तू ही नानक को सब दातें देने वाला है। (नानक की यह आरजू है कि) संतों की संगति में रख के मुझे (नानक को कामादिक तस्करों से) बचा ले।2।3।119।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसी दीखिआ जन सिउ मंगा ॥ तुम्हरो धिआनु तुम्हारो रंगा ॥ तुम्हरी सेवा तुम्हारे अंगा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसी दीखिआ जन सिउ मंगा ॥ तुम्हरो धिआनु तुम्हारो रंगा ॥ तुम्हरी सेवा तुम्हारे अंगा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीखिआ = शिक्षा। जन सिउ = (हे प्रभु! तेरे) जनों के पास से। मंगा = मैं मांगूं। रंगा = रंग, प्रेम। अंगा = अंग, से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे) सेवकों से मैं ये शिक्षा मांगता हूँ कि तेरे ही चरणों का ध्यान, तेरा ही प्रेम (मेरे अंदर बना रहे) तेरी ही सेवा भक्ति करता रहूँ, तेरे ही चरणों से जुड़ा रहूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन की टहल स्मभाखनु जन सिउ ऊठनु बैठनु जन कै संगा ॥ जन चर रज मुखि माथै लागी आसा पूरन अनंत तरंगा ॥१॥

मूलम्

जन की टहल स्मभाखनु जन सिउ ऊठनु बैठनु जन कै संगा ॥ जन चर रज मुखि माथै लागी आसा पूरन अनंत तरंगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संभाखनु = बोल चाल। जिउ = साथ। ऊठनु बैठनु = उठने बैठने, मेल जोल। कै संगा = के साथ। चर रज = चरणों की रज, चरणों की धूल। मुखि = मुँह पर। अनत = अनंत, बेअंत। तरंगा = लहरें।1।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे सेवकों से मैं यह दान माँगता हूँ कि तेरे) सेवकों की मैं टहल करता रहूँ, तेरे सेवकों के साथ ही मेरा बोल-चाल रहे, मेरा मेल-जोल भी तेरे ही सेवकों के साथ रहे। तेरे सेवकों की धूल मेरे मुँह माथे पर लगती रहे- ये चरण-धूल (माया की) अनेक लहरें पैदा करने वाली आशाओं को शांत कर देती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन पारब्रहम जा की निरमल महिमा जन के चरन तीरथ कोटि गंगा ॥ जन की धूरि कीओ मजनु नानक जनम जनम के हरे कलंगा ॥२॥४॥१२०॥

मूलम्

जन पारब्रहम जा की निरमल महिमा जन के चरन तीरथ कोटि गंगा ॥ जन की धूरि कीओ मजनु नानक जनम जनम के हरे कलंगा ॥२॥४॥१२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटी = करोड़ों। मजनु = स्नान, डुबकी। हरे = दूर कर दिए। कलंगा = कलंक, पाप।2।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा के सेवक ऐसे है कि उनकी शोभा दाग़हीन होती है, सेवकों के चरण, गंगा आदि करोड़ों तीर्थों के तुल्य हैं। जिस मनुष्य ने प्रभु के सेवकों की चरण-धूल में स्नान कर लिया, उसके अनेक जन्मों के (किए हुए) पाप दूर हो जाते हैं।2।4।120।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जिउ भावै तिउ मोहि प्रतिपाल ॥ पारब्रहम परमेसर सतिगुर हम बारिक तुम्ह पिता किरपाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जिउ भावै तिउ मोहि प्रतिपाल ॥ पारब्रहम परमेसर सतिगुर हम बारिक तुम्ह पिता किरपाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिउ भावै = जैसे तुझे ठीक लगे, जैसे हो सके। मोहि = मुझे। प्रतिपाल = बचा ले। हम = हम (जीव)। बारिक = बच्चे।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! जैसे हो सके, वैसे (अवगुणों से) मेरी रक्षा कर। हे पारब्रहम! हे परमेश्वर! हे सतिगुरु! हम (जीव) तुम्हारे हैं, तुम हमारे पालनहार पिता हो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि निरगुण गुणु नाही कोई पहुचि न साकउ तुम्हरी घाल ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानहु जीउ पिंडु सभु तुमरो माल ॥१॥

मूलम्

मोहि निरगुण गुणु नाही कोई पहुचि न साकउ तुम्हरी घाल ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानहु जीउ पिंडु सभु तुमरो माल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि निरगुण = मैं गुण हीन में। साकउ = सकूँ। पहुचि न साकउ = मैं पहुँच नहीं सकता, मैं मूल्य नहीं आंक सकता, मैं कद्र नहीं जान सकता। घाल = मेहनत, वह मेहनत जो तू हमें पालने के लिए करता है। गति = आत्मिक हालत। मिति = माप। तुमरी गति मिति = तेरी आत्मिक अवस्था तेरा माप, तू कैसा है और कितना बड़ा है। जीउ = प्राण। पिंडु = शरीर। सभु = सारा। माल = संपत्ति।1।
अर्थ: हे प्रभु! मुझ गुण-हीन में कोई भी गुण नहीं है, मैं उस मेहनत की कद्र नहीं जान सकता (जो तू हम जीवों के लिए कर रहा है)। हे प्रभु! तू कैसा है और कितना बड़ा है; ये बात तू खुद ही जानता है। (हम जीवों का यह) शरीर और प्राण तेरे ही दिए हुए संपत्ति हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरजामी पुरख सुआमी अनबोलत ही जानहु हाल ॥ तनु मनु सीतलु होइ हमारो नानक प्रभ जीउ नदरि निहाल ॥२॥५॥१२१॥

मूलम्

अंतरजामी पुरख सुआमी अनबोलत ही जानहु हाल ॥ तनु मनु सीतलु होइ हमारो नानक प्रभ जीउ नदरि निहाल ॥२॥५॥१२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले! पुरख = हे सर्व व्यापक! अनबोलत = बिना बोले। सीतल = ठंडा ठार, शांत। प्रभ = हे प्रभु! निहाल = देख। नदरि = मेहर की निगाह से।2।
अर्थ: हे हरेक के दिल की जानने वाले! हे सर्व व्यापक मालिक! बिना हमारे बोले ही तू हमारा हाल जानता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु जी! मेहर की निगाह से मेरी ओर देख, ताकि मेरा तन मेरा मन शीतल हो जाए।2।5।121।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ राखु सदा प्रभ अपनै साथ ॥ तू हमरो प्रीतमु मनमोहनु तुझ बिनु जीवनु सगल अकाथ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ राखु सदा प्रभ अपनै साथ ॥ तू हमरो प्रीतमु मनमोहनु तुझ बिनु जीवनु सगल अकाथ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपनै साथ = अपने साथ, अपने चरणों में। प्रभ = हे प्रभु! हमरो = हमारा। मन मोहनु = मन को मोहने वाला। सगल = सारा। अकाथ = व्यर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! हमें तू सदा अपने चरणों में टिकाए रख। तू हमारा प्यारा है, तू हमारे मन को आकर्षित करने वाला है। तुझसे विछुड़ के (हम जीवों की) सारी ही जिंदगी व्यर्थ है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रंक ते राउ करत खिन भीतरि प्रभु मेरो अनाथ को नाथ ॥ जलत अगनि महि जन आपि उधारे करि अपुने दे राखे हाथ ॥१॥

मूलम्

रंक ते राउ करत खिन भीतरि प्रभु मेरो अनाथ को नाथ ॥ जलत अगनि महि जन आपि उधारे करि अपुने दे राखे हाथ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंक = कंगाल। ते = से। राउ = राजा। भीतरि = में। को = का। नाथ = पति। जलत = जलते को। उधारे = बचा लेता है। करि = बना ले। दे हाथ = हाथ दे के।1।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु निखसमियों का खसम है (जिनका कोई मालिक नहीं उनका मालिक है), एक छिन में कंगाल को राजा बना देता है, (तृष्णा की) आग में जलते को सेवक बना के खुद बचा लेता है, अपने बना के हाथ दे के, उनकी रक्षा करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतल सुखु पाइओ मन त्रिपते हरि सिमरत स्रम सगले लाथ ॥ निधि निधान नानक हरि सेवा अवर सिआनप सगल अकाथ ॥२॥६॥१२२॥

मूलम्

सीतल सुखु पाइओ मन त्रिपते हरि सिमरत स्रम सगले लाथ ॥ निधि निधान नानक हरि सेवा अवर सिआनप सगल अकाथ ॥२॥६॥१२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीतल = ठंड देने वाला, शांति देने वाला। त्रिपते = तृप्त हो जाते हैं। सिमरत = स्मरण करते हुए। स्रम = श्रम, थकावट, दौड़ भाग, भटकना। सगले = सारे। निधि निधान = खजानों का खजाना। सेवा = भक्ति। अवर = और। सिआनप = चतुराई।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए शांति देने वाला आनंद मिल जाता है, मन (माया की तृष्णा की तरफ से) तृप्त हो जाता है, (माया की) सारी भटकनें खत्म हो जाती हैं। हे नानक! परमात्मा की सेवा-भक्ति ही सारे खजानों का खजाना है। (माया की खातिर की हुई) और सारी चतुराई (भी प्रभु की सेवा भक्ति के सामने) व्यर्थ हैं।2।6।122।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ अपने सेवक कउ कबहु न बिसारहु ॥ उरि लागहु सुआमी प्रभ मेरे पूरब प्रीति गोबिंद बीचारहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ अपने सेवक कउ कबहु न बिसारहु ॥ उरि लागहु सुआमी प्रभ मेरे पूरब प्रीति गोबिंद बीचारहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। कबहु = कभी भी। उरि = छाती से। सुआमी = हे मालिक! प्रभ = हे प्रभु! पूरब = पहली। गोबिंद = हे गोबिंद!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! (मुझे) अपने सेवक को कभी ना भुलाना, मेरे हृदय में बसे रहो। हे मेरे गोबिंद! मेरी पिछली प्रीति को याद रखो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित पावन प्रभ बिरदु तुम्हारो हमरे दोख रिदै मत धारहु ॥ जीवन प्रान हरि धनु सुखु तुम ही हउमै पटलु क्रिपा करि जारहु ॥१॥

मूलम्

पतित पावन प्रभ बिरदु तुम्हारो हमरे दोख रिदै मत धारहु ॥ जीवन प्रान हरि धनु सुखु तुम ही हउमै पटलु क्रिपा करि जारहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करना)। बिरदु = मूल कदीमी स्वभाव। तुमारो = (तुम्हारो)। दोख = ऐब। रिदै = हृदय में। मत = ना। धारहु = टिकाव। जीवन प्रान = जिंद जान। पटलु = पर्दा। करि = कर के। जारहु = जला के।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा मूल कदीमी बिरद भरा स्वभाव है कि तू विकारों में गिरे हुओं को पवित्र कर देता है। हे प्रभु! मेरे ऐब (भी) अपने हृदय में ना रखना। हे हरि! तू ही मेरी जिंद जान है, तू ही मेरा धन है, तू ही मेरा सुख है। मेहर करके (मेरे अंदर से) अहंकार का पर्दा जला दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल बिहून मीन कत जीवन दूध बिना रहनु कत बारो ॥ जन नानक पिआस चरन कमलन्ह की पेखि दरसु सुआमी सुख सारो ॥२॥७॥१२३॥

मूलम्

जल बिहून मीन कत जीवन दूध बिना रहनु कत बारो ॥ जन नानक पिआस चरन कमलन्ह की पेखि दरसु सुआमी सुख सारो ॥२॥७॥१२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिहून = बिना। मीन = मछली। कत = कैसे? रहनु = टिकने, जीने। बारो = बालक। कमलन्ह = कमलन्ह। पेखि = देख के। सुआमी = हे मालिक! सारो = सारे।2।
अर्थ: हे मेरे मालिक-प्रभु! पानी के बिना मछली कभी जीवित नहीं रह सकती। दूध के बिना बच्चा नहीं रह सकता। (वैसे ही तेरे) दास नानक को तेरे सुंदर चरणों के दर्शनों की प्यास है, दर्शन करके (तेरे सेवक को) सारे ही सुख प्राप्त हो जाते हैं।2।7।123।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ आगै पाछै कुसलु भइआ ॥ गुरि पूरै पूरी सभ राखी पारब्रहमि प्रभि कीनी मइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ आगै पाछै कुसलु भइआ ॥ गुरि पूरै पूरी सभ राखी पारब्रहमि प्रभि कीनी मइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आगै = परलोक में। पाछै = इस लोक में। कुसलु = सुख। भइआ = हो गया, हो जाता है। गुरि = गुरु ने। राखी = (विकारों के मुकाबले में इज्जत) रखी। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभु ने। मइआ = दया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर पारब्रहम ने प्रभु ने मेहर कर दी, (दूत-दुष्ट के मुकाबले में) पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य की) इज्जत अच्छी तरह बचा ली, उस मनुष्य के लिए इस लोक में और परलोक में सुख बना रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि तनि रवि रहिआ हरि प्रीतमु दूख दरद सगला मिटि गइआ ॥ सांति सहज आनद गुण गाए दूत दुसट सभि होए खइआ ॥१॥

मूलम्

मनि तनि रवि रहिआ हरि प्रीतमु दूख दरद सगला मिटि गइआ ॥ सांति सहज आनद गुण गाए दूत दुसट सभि होए खइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। रवि रहिआ = रह वक्त मौजूद रहता है। सगला = सारा। सहज = आत्मिक अडोलता। दूत = वैरी। दुसट = बुरे विकार। सभि = सारे। खइआ = खै, क्षय,नाश।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य की इज्जत पूरा गुरु बचाता है, उसके) मन में हृदय में प्रीतम हरि, हर वक्त बसा रहता है, उसके सारे दुख-दर्द मिट जाते हैं। वह (हर वक्त प्रभु के) गुण गाता रहता है (जिसकी इनायत से उसके अंदर) शांति और अडोलता के आनंद बने रहते हैं, (कामादिक) सारे (उसके) दुखदाई वैरी नाश हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुनु अवगुनु प्रभि कछु न बीचारिओ करि किरपा अपुना करि लइआ ॥ अतुल बडाई अचुत अबिनासी नानकु उचरै हरि की जइआ ॥२॥८॥१२४॥

मूलम्

गुनु अवगुनु प्रभि कछु न बीचारिओ करि किरपा अपुना करि लइआ ॥ अतुल बडाई अचुत अबिनासी नानकु उचरै हरि की जइआ ॥२॥८॥१२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। करि = कर के। करि लइआ = बना लिया, बना लेता है। अतुल = जो तोली ना जा सके, जिसके बराबर की कोई और चीज ना हो, बेमिसाल। अचुत = (च्युत = गिरा हुआ) जो गिर ना सके, कभी ना गिर सकने वाला। नानकु उचरै = नानक उचारता है। जइआ = जै।2।
अर्थ: (हे भाई! पूरा गुरु जिस मनुष्य की इज्जत बचाता है) परमात्मा उसका कोई गुण-अवगुण नहीं पड़तालता, मेहर करके उसको प्रभु अपना (सेवक) बना लेता है। हे भाई! अटल और अविनाशी परमात्मा की ताकत बेमिसाल है। नानक सदा उसी प्रभु की जै-जैकार उचारता रहता है।2।8।128।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु भै भगती तरनु कैसे ॥ करहु अनुग्रहु पतित उधारन राखु सुआमी आप भरोसे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ बिनु भै भगती तरनु कैसे ॥ करहु अनुग्रहु पतित उधारन राखु सुआमी आप भरोसे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै बिनु = (संबंधक ‘बिनु’ के कारण शब्द ‘भउ’ से ‘भै’ बन गया है) डर अदब के बिना। तरनु = संसार समुंदर से पार उतारा। कैसे = कैसे? अनुग्रहु = दया, कृपा। पतित उधारन = हे विकारियों को बचाने वाले! सुआमी = हे मालिक! आप भरोसे = आप के आसरे, तेरे आसरे। राख = मदद कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का डर-अदब मन में बसाए बिना, भक्ति किए बिना संसार-समुंदर से पार उतारा नहीं हो सकता। हे विकारियों को विकारों से बचाने वाले स्वामी! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे (इन विकारों से) बचाए रख, मैं तेरे ही आसरे हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरनु नही आवत फिरत मद मावत बिखिआ राता सुआन जैसे ॥ अउध बिहावत अधिक मोहावत पाप कमावत बुडे ऐसे ॥१॥

मूलम्

सिमरनु नही आवत फिरत मद मावत बिखिआ राता सुआन जैसे ॥ अउध बिहावत अधिक मोहावत पाप कमावत बुडे ऐसे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नही आवत = नहीं आता, विधि नहीं। मद = नशा। मावत = मस्त। बिखिआ = माया। राता = रंगा हुआ, मगन। सुआन जैसे = जैसे कुक्ता (भटकता फिरता है)। अउध = उम्र। अधिक = बहुत। मोहावत = ठगा जाता है। बुडे = डूबते जाते हैं। ऐसे = इस प्रकार।1।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर के बिना जीव को तेरा) स्मरण करने की विधि नहीं आती, माया के नशे में मस्त भटकता है, माया (के रंग) में रंगा हुआ जीव इस तरह फिरता है जैसे (पागल हुआ) कुक्ता। हे प्रभु! ज्यों-ज्यों उम्र बीतती है, जीव (विकारों के हाथों से) बहुत ज्यादा लूटे जाते हैं, बस! यूँ ही पाप करते-करते संसार-समुंदर में डूबते जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरनि दुख भंजन पुरख निरंजन साधू संगति रवणु जैसे ॥ केसव कलेस नास अघ खंडन नानक जीवत दरस दिसे ॥२॥९॥१२५॥

मूलम्

सरनि दुख भंजन पुरख निरंजन साधू संगति रवणु जैसे ॥ केसव कलेस नास अघ खंडन नानक जीवत दरस दिसे ॥२॥९॥१२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुख भंजन = हे दुखों के नाश करने वाले! पुरख = हे सर्व व्यापक! निरंजन = हे माया के प्रभाव से परे। रवणु = स्मरण। जैसे = जैसे कि। केसव = हे केशव! हे सुंदर केशों वाले! (केशा: प्रशस्या: सन्ति अस्य)। कलेस नास = हे कष्ट नाश करने वाले! अघ खंडन = हे पापों के नाश करने वाले! दिसे = दिखने से।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे दुखों के नाश करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले! (मेहर कर, ता कि) जैसे भी हो सके (तेरा दास) साधु-संगत में (टिक के तेरा) स्मरण करता रहे। हे केशव! हे कष्ट नाश करने वाले! हे पापों का नाश करने वाले! (तेरा दास) नानक तेरे दर्शन करके ही आत्मिक जीवन हासिल करता है।2।9।125।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपहि मेलि लए ॥ जब ते सरनि तुमारी आए तब ते दोख गए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आपहि मेलि लए ॥ जब ते सरनि तुमारी आए तब ते दोख गए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपहि = आपि ही। ते = से। दोख = ऐब विकार।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘आपहि’ में से ‘आपि’ की ‘हि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! जब से (जो मनुष्य) तेरी शरण आते हैं, तब से (उनके सारे) पाप दूर हो जाते हैं, क्योंकि तू स्वयं ही उनको अपने चरणों में मिला लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तजि अभिमानु अरु चिंत बिरानी साधह सरन पए ॥ जपि जपि नामु तुम्हारो प्रीतम तन ते रोग खए ॥१॥

मूलम्

तजि अभिमानु अरु चिंत बिरानी साधह सरन पए ॥ जपि जपि नामु तुम्हारो प्रीतम तन ते रोग खए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरु = और। तजि = त्याग के। चिंत बिरानी = बेगानी आस का ख्याल। साधह = संत जनों की। जपि = जप के। प्रीतम = हे प्रीतम! खए = नाश हो गए हैं।1।
अर्थ: (हे प्रभु! जिन्हें तू अपने चरणों में जोड़ता है, वह मनुष्य) अहंकार छोड़ के बेगानी आस का ख्याल छोड़ के संत जनों की शरण आ पड़ते हैं, और, हे प्रीतम! सदा तेरा नाम जप-जप के उनके शरीर में से सारे रोग नाश हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा मुगध अजान अगिआनी राखे धारि दए ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिओ आवन जान रहे ॥२॥१॥१२६॥

मूलम्

महा मुगध अजान अगिआनी राखे धारि दए ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिओ आवन जान रहे ॥२॥१॥१२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख। दए = दया। धारि = धारण करके। भेटिओ = मिला। रहे = समाप्त हो गए।2।
अर्थ: (हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी कृपा से संत-जनों की शरण पड़ते हैं, उन) बड़े-बड़े मूर्खों अंजान व अज्ञानियों को भी तू दया करके (विकारों, रोगों से) बचा लेता है। हे नानक! कह: (हे भाई! जिस मनुष्यों को) पूरा गुरु मिल जाता है, (उनके) जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।2।1।126।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: नए संग्रह का यह पहला शब्द है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ जीवउ नामु सुनी ॥ जउ सुप्रसंन भए गुर पूरे तब मेरी आस पुनी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ जीवउ नामु सुनी ॥ जउ सुप्रसंन भए गुर पूरे तब मेरी आस पुनी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवउ = जीऊँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। सुनी = सुन के। जउ = जब। पुनी = पुग जाती है, पूरी हो जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का) नाम सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है (पर प्रभु का नाम स्मरण करने की) मेरी आशा तब पूरी होती है जब पूरा गुरु (मेरे ऊपर) बहुत प्रसन्न होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीर गई बाधी मनि धीरा मोहिओ अनद धुनी ॥ उपजिओ चाउ मिलन प्रभ प्रीतम रहनु न जाइ खिनी ॥१॥

मूलम्

पीर गई बाधी मनि धीरा मोहिओ अनद धुनी ॥ उपजिओ चाउ मिलन प्रभ प्रीतम रहनु न जाइ खिनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पीर = पीड़ा। बाधी = बंध गई। मनि = मन में। धीरा = धीरज। अनद धुनी = आनंद की लहर से। खिनी = एक छिन वास्ते भी।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जब मैं नाम जपता हूँ, मेरे अंदर से) पीड़ा दूर हो जाती है, मेरे में हौंसला बन जाता है, मैं (अपने अंदर पैदा हुए) आत्मिक आनंद की लहर से मस्त हो जाता हूँ, मेरे अंदर प्रीतम प्रभु को मिलने का चाव पैदा हो जाता है, (वह चाव इतना तीव्र हो जाता है कि प्रभु के मिलाप के बिना) एक छिन भी रहा नहीं जा सकता।1।

[[0830]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक भगत अनिक जन तारे सिमरहि अनिक मुनी ॥ अंधुले टिक निरधन धनु पाइओ प्रभ नानक अनिक गुनी ॥२॥२॥१२७॥

मूलम्

अनिक भगत अनिक जन तारे सिमरहि अनिक मुनी ॥ अंधुले टिक निरधन धनु पाइओ प्रभ नानक अनिक गुनी ॥२॥२॥१२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरहि = स्मरण करते हैं। टिक = टेक, सहारा। निरधन = कंगाल। अनिक गुनी = हे अनेक गुणों के मालिक!।2।
अर्थ: हे मालिक! (कह:) हे अनेक गुणों के मालिक प्रभु! (तेरा नाम) अंधे मनुष्य को, जैसे, छड़ी मिल जाती है, कंगाल को धन मिल जाता है। हे प्रभु! अनेक ही ऋषि-मुनि तेरा नाम स्मरण करते हैं। (स्मरण करने वाले) अनेक ही भक्त अनेक ही सेवक, हे प्रभु! तूने (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिए हैं।2।2।127।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ घरु १३ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ घरु १३ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहन नीद न आवै हावै हार कजर बसत्र अभरन कीने ॥ उडीनी उडीनी उडीनी ॥ कब घरि आवै री ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मोहन नीद न आवै हावै हार कजर बसत्र अभरन कीने ॥ उडीनी उडीनी उडीनी ॥ कब घरि आवै री ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पड़ताल = पटह ताल (पटन = ढोल) ढोल की तरह खड़क के बजने वाली ताल। मोहन = हे मोहन! हे प्यारे प्रभु! हावै = आह भर के। कजर = काजल। अभरण = आभूषण, गहने। उडीनी = उदास (इन्तजार में)। घरि = घर में। री = हे बहन! हे सुहागण बहन!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मोहन प्रभु! (जैसे पति से विछुड़ी हुई स्त्री चाहे जैसे भी) हार, काजल, कपड़े, गहने पहनती है (पर विछोड़े के कारण) आहें भरती (उसे) नींद नहीं आती, (पति के इन्तजार में वह) हर वक्त उदास रहती है, (और सहेली से पूछती है:) हे बहन! (मेरा पति) कब घर आएगा? (इसी तरह, हे मोहन! तुझसे विछुड़ के मुझे शांति नहीं आती)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरनि सुहागनि चरन सीसु धरि ॥ लालनु मोहि मिलावहु ॥ कब घरि आवै री ॥१॥

मूलम्

सरनि सुहागनि चरन सीसु धरि ॥ लालनु मोहि मिलावहु ॥ कब घरि आवै री ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहागनि = गुरमुख सहेली, गुरु। सीसु = सिर। धरि = धर के। लालनु = सोहणे लाल। मोहि = मुझे। घरि = हृदय घर में।1।
अर्थ: हे मोहन प्रभु! मैं गुरमुख सोहागिन की शरण पड़ती हूँ, उसके चरणों पे (अपना) सिर धर के (पूछती हूँ-) हे बहन! मुझे सोहाना लाल मिला दे (बता, वह) कब मेरे हृदय-घर में आएगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु सहेरी मिलन बात कहउ सगरो अहं मिटावहु तउ घर ही लालनु पावहु ॥ तब रस मंगल गुन गावहु ॥ आनद रूप धिआवहु ॥ नानकु दुआरै आइओ ॥ तउ मै लालनु पाइओ री ॥२॥

मूलम्

सुनहु सहेरी मिलन बात कहउ सगरो अहं मिटावहु तउ घर ही लालनु पावहु ॥ तब रस मंगल गुन गावहु ॥ आनद रूप धिआवहु ॥ नानकु दुआरै आइओ ॥ तउ मै लालनु पाइओ री ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहेली = हे सहेली! मिलन बात = मिलने की बात। कहउ = मैं कहती हूँ। सगरो = सारी। अहं = अहंकार। तउ = तब। घर ही = घरि ही, घर में ही। रस = आनंद। मंगल = खुशी। आनद रूपु = वह प्रभु जो सही आनंद ही आनंद है। नानकु आइओ = नानक आया है। दुआरै = दर पे।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘घर ही’ में से ‘घरि’ की ‘रि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (सोहागिन कहती है:) हे सहेली! सुन, मैं तुझे मोहन-प्रभु मिलन की बात सुनाती हूँ। तू (अपने अंदर से) सारा अहंकार दूर कर दे। तब तू अपने हृदय-घर में उस सोहणे लाल को पा लेगी। (हृदय-घर में उसके दर्शन करके) फिर तू खुशी-आनंद पैदा करने वाले हरि-गुण गाया करना जो सिर्फ आनंद ही आनंद रूप है।
हे बहन! नानक (भी उस गुरु के) दर पर आ गया है, (गुरु के दर पर आ के) मैंने (नानक के हृदय-घर में ही) सोहणा लाल पा लिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहन रूपु दिखावै ॥ अब मोहि नीद सुहावै ॥ सभ मेरी तिखा बुझानी ॥ अब मै सहजि समानी ॥ मीठी पिरहि कहानी ॥ मोहनु लालनु पाइओ री ॥ रहाउदूजा ॥१॥१२८॥

मूलम्

मोहन रूपु दिखावै ॥ अब मोहि नीद सुहावै ॥ सभ मेरी तिखा बुझानी ॥ अब मै सहजि समानी ॥ मीठी पिरहि कहानी ॥ मोहनु लालनु पाइओ री ॥ रहाउदूजा ॥१॥१२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रूपु दिखावै = दर्शन देता है, अपना रूप दिखाता है। मोहि = मुझे। नीद = (माया के मोह से) बेपरवाही। सुहावै = सुहाती है। त्रिखा = प्यास, तृष्णा, माया की प्यास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। पिरहि = पिर की, प्रभु पति की। रहाउ दूजा।1।128।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: नए संग्रह का ये पहला शब्द है। पहले ‘रहाउ’ में प्रश्न किया गया है कि ‘कब घरि आवै री’। बंद 2 में मिलाप का तरीका बताया गया है, दूसरे ‘रहाउ’ में उक्तर दिया है कि ‘अहं’ मिटाने से ‘मोहन लालन पाइओ री’। ये शब्द दो बंदों वाला ही है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे बहन! (अब) मोहन प्रभु मुझे दर्शन दे रहे हैं, अब (माया के मोह की ओर से पैदा हुई) उपरामता मुझे मीठी लग रही है, मेरी सारी माया की तृष्णा मिट गई है। अब मैं आत्मिक अडोलता में टिक गई हूँ। प्रभु-पति की महिमा की बातें मुझे प्यारी लग रही हैं। हे बहन! अब मैंने सोहणा लाल मोहन पा लिया है। रहाउ दूजा।1।128।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ मोरी अहं जाइ दरसन पावत हे ॥ राचहु नाथ ही सहाई संतना ॥ अब चरन गहे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ मोरी अहं जाइ दरसन पावत हे ॥ राचहु नाथ ही सहाई संतना ॥ अब चरन गहे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोरी = मेरी। अहं = अहंकार। जाइ = दूर हो जाती है। राचहु = रचे रहो, मिले रहो। सहाई संतना = संतों के सहाई। अब = अब। गहे = पकड़े हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संतों के सहायक पति-प्रभु के चरणों में सदा जुड़े रहो। मैंने तो अब उसी के ही चरण पकड़ लिए हैं। पति-प्रभु के दर्शन करने से अब मेरा अहंकार दूर हो गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहे मन अवरु न भावै चरनावै चरनावै उलझिओ अलि मकरंद कमल जिउ ॥ अन रस नही चाहै एकै हरि लाहै ॥१॥

मूलम्

आहे मन अवरु न भावै चरनावै चरनावै उलझिओ अलि मकरंद कमल जिउ ॥ अन रस नही चाहै एकै हरि लाहै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आहे = चाहता है, पसंद करता है। मन न भावै = मन को अच्छा नहीं लगता। अवरु = कोई और पदार्थ। चरनावै = चरणों की ही तरफ आता है। अलि = भँवरा। मकरंद = फूल की धूड़ी। अन = अन्य। लाहै = पाता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘मन’ है संप्रदान कारक, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर्शन की इनायत से) मेरे मन को और कुछ अच्छा नहीं लगता, (प्रभु के दर्शनों को ही) तड़पता रहता है। जैसे भौंरा कमल-पुष्प के मकरंद पर ही लिपटा रहता है, वैसे ही मेरा मन प्रभु के चरणों की ओर ही बार-बार पलटता है। मेरा मन और (पदार्थों के) स्वाद को नहीं ढूँढता, एक परमात्मा को ही तलाशता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन ते टूटीऐ रिख ते छूटीऐ ॥ मन हरि रस घूटीऐ संगि साधू उलटीऐ ॥ अन नाही नाही रे ॥ नानक प्रीति चरन चरन हे ॥२॥२॥१२९॥

मूलम्

अन ते टूटीऐ रिख ते छूटीऐ ॥ मन हरि रस घूटीऐ संगि साधू उलटीऐ ॥ अन नाही नाही रे ॥ नानक प्रीति चरन चरन हे ॥२॥२॥१२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। अन ते = किसी और (पदार्थों के) मोह से। टूटीऐ = संबंध तोड़ लेते हैं। रिख = हृषीक, इंद्रिय। छूअीऐ = (पकड़ से) निजात प्राप्त कर लेते हैं। घूटीऐ = चूसा जाता है। साधू = गुरु। संगि = संगति में। उलटीऐ = (रुचि) परत जाती है। रे = हे भाई!।2।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर्शन की इनायत से) और (पदार्थों के मोह) संबंध तोड़ लेते हैं, इन्द्रियों की पकड़ से निजात पा लेते हैं। हे मन! गुरु की संगति में रह के परमात्मा का नाम-रस चूसते हैं, और (माया के मोह से रुचि) पलट जाती है। हे नानक! (कह:) हे भाई! (दर्शन की इनायत से) और मोह बिल्कुल ही नहीं भाते, (अगर कोई मोह अच्छा लगता है तो वह है) हर वक्त प्रभु के चरणों से ही प्यार बना रहता है।2।2।129।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ९ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ९ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुख हरता हरि नामु पछानो ॥ अजामलु गनिका जिह सिमरत मुकत भए जीअ जानो ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दुख हरता हरि नामु पछानो ॥ अजामलु गनिका जिह सिमरत मुकत भए जीअ जानो ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पछानो = पछानु, जान पहचान डाल, सांझ डाले रख। हरता = हरने वाला, नाश करने वाला। जिह = जिसको। जीअ जानो = जिंद और जान, हृदय में सांझ डाल। अजामलु = भागवत की कथा है कि ये एक ब्राहमण था कन्नौज का रहने वाला। था कुकर्मी, वैश्वागामी। अपने एक पुत्र का इसने ‘नारायण’ नाम रख लिया। यहीं से नारायण (परमात्मा) के नाम-जपने की लगन लग गई। गनिका = एक वेश्या थी। एक साधु ने इसको एक तोता दिया और कहा कि तोते को ‘राम नाम’ पढ़ाया कर। उसे वहीं से लगन लग गई।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के साथ सांझ डाले रख, ये नाम सारे दुखों का नाश करने वाला है। इस नाम को स्मरण करते-स्मरण करते अजामल विकारों से हट गया, गनिका विकारों से मुक्त हो गई। तू भी अपने दिल में उस हरि-नाम के साथ जान-पहचान बनाए रख।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गज की त्रास मिटी छिनहू महि जब ही रामु बखानो ॥ नारद कहत सुनत ध्रूअ बारिक भजन माहि लपटानो ॥१॥

मूलम्

गज की त्रास मिटी छिनहू महि जब ही रामु बखानो ॥ नारद कहत सुनत ध्रूअ बारिक भजन माहि लपटानो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गज = भागवत की ही कथा है। एक गंधर्व किसी ऋषी के श्राप से हाथी के जन्म में चला गया। वरुण देवते के तालाब में इसे एक तंदुए ने अपनी तंदों में जकड़ लिया। परमात्मा की ओट ने वहाँ से छुड़ाया और श्राप से भी बचाया। त्रास = डर। बखानो = उचारा। कहत = कहता, उपदेश करता था। लपटानो = मस्त हो गया।1।
अर्थ: हे भाई! जब गज ने परमात्मा का नाम उचारा, उसकी बिपदा भी एक पल में दूर हो गई। नारद का दिया हुआ उपदेश सुनते ही बालक ध्रुव परमात्मा के भजन में मस्त हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचल अमर निरभै पदु पाइओ जगत जाहि हैरानो ॥ नानक कहत भगत रछक हरि निकटि ताहि तुम मानो ॥२॥१॥

मूलम्

अचल अमर निरभै पदु पाइओ जगत जाहि हैरानो ॥ नानक कहत भगत रछक हरि निकटि ताहि तुम मानो ॥२॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचल = अटल। अमर = कभी ना समाप्त होने वाला। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई आत्मिक डर छू ना सके। जाहि = जिस से। रछक = रक्षक, रक्षा करने वाला। निकटि = नजदीक, अंग संग। ताहि = उसको। मानो = मानो।2।
अर्थ: (हरि-नाम के भजन की इनायत से ध्रुव ने) ऐसा आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लिया जो सदा के लिए अटल और अमर हो गया। उसको देख के दुनिया हैरान हो रही है। नानक कहता है: हे भाई! तू भी उस परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता समझ, वह परमात्मा अपने भक्तों की रक्षा करने वाला है।2।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ९ ॥ हरि के नाम बिना दुखु पावै ॥ भगति बिना सहसा नह चूकै गुरु इहु भेदु बतावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ९ ॥ हरि के नाम बिना दुखु पावै ॥ भगति बिना सहसा नह चूकै गुरु इहु भेदु बतावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहस = सहम। चूकै = खत्म होता। भेदु = (जीवन मार्ग की) गहरी बात।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु (जीवन-मार्ग की) यह गहरी बात बताता है, कि परमात्मा की भक्ति किए बिना मनुष्य का सहम खत्म नहीं होता, परमात्मा का नाम (स्मरण) के बिना दुख सहता रहता है।1। रहाउ।

[[0831]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहा भइओ तीरथ ब्रत कीए राम सरनि नही आवै ॥ जोग जग निहफल तिह मानउ जो प्रभ जसु बिसरावै ॥१॥

मूलम्

कहा भइओ तीरथ ब्रत कीए राम सरनि नही आवै ॥ जोग जग निहफल तिह मानउ जो प्रभ जसु बिसरावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा भइओ = क्या हुआ? कोई फायदा नहीं। तिह = उस (मनष्य) के। मानउ = मानूँ। जसु = यश, महिमा। जो = जो मनुष्य। जोग = योग साधन। निहफल = व्यर्थ।1।
अर्थ: हे भाई! अगर मनुष्य परमात्मा की शरण नहीं पड़ता, तो उसका तीर्थ-यात्रा करने का कोई लाभ नहीं, व्रत रखने का कोई फायदा नहीं। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा भुला देता है मैं समझता हूँ कि उसके योग-साधना और यज्ञ (आदि कर्मकांड सब) व्यर्थ हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मान मोह दोनो कउ परहरि गोबिंद के गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि को प्रानी जीवन मुकति कहावै ॥२॥२॥

मूलम्

मान मोह दोनो कउ परहरि गोबिंद के गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि को प्रानी जीवन मुकति कहावै ॥२॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मान = अहंकार। दोनों कउ = दोनों को। परहरि = त्याग के। को = का। इह बिधि को = इस किस्म का (जीवन व्यतीत करने वाला)। प्रानी = मनुष्य। जीवन मुकति = जीते ही विकारों से आजाद।2।
अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य अहंकार और माया का मोह छोड़ के परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है, जो मनुष्य इस किस्म का जीवन व्यतीत करने वाला है, वह जीवन-मुक्त कहलवाता है (वह मनुष्य उस श्रेणी में से गिना जाता है, जो इस जिंदगी में विकारों की पकड़ से बचे रहते हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ९ ॥ जा मै भजनु राम को नाही ॥ तिह नर जनमु अकारथु खोइआ यह राखहु मन माही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु महला ९ ॥ जा मै भजनु राम को नाही ॥ तिह नर जनमु अकारथु खोइआ यह राखहु मन माही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा महि = जिस मनुष्य (के हृदय) में। को = का। तिह नर = उस मनुष्य ने। अकारथु = व्यर्थ। खोइआ = गवा लिया। यह = यह बात। माही = में। राखहु मन माही = पक्की तरह से याद रखो।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! ये बात अच्छी तरह याद रखो कि जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा के नाम का भजन नहीं है उस मनुष्य ने अपनी जिंदगी व्यर्थ ही गवा ली है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीरथ करै ब्रत फुनि राखै नह मनूआ बसि जा को ॥ निहफल धरमु ताहि तुम मानहु साचु कहत मै या कउ ॥१॥

मूलम्

तीरथ करै ब्रत फुनि राखै नह मनूआ बसि जा को ॥ निहफल धरमु ताहि तुम मानहु साचु कहत मै या कउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फुनि = भी। बसि = वश में। जा के मनूआ = जिसका मन। ताहि = उसका। मानहु = समझो। साचु = सच्ची बात। या कउ = उसको।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन अपने बस में नहीं है, वह चाहे तीर्थों पर स्नान करता है, व्रत भी रखता है, पर तुम (ये तीर्थ व्रत आदि वाला) उसका धर्म व्यर्थ समझो। मैं ऐसे मनुष्य को भी यह सच्ची बात कह देता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे पाहनु जल महि राखिओ भेदै नाहि तिह पानी ॥ तैसे ही तुम ताहि पछानहु भगति हीन जो प्रानी ॥२॥

मूलम्

जैसे पाहनु जल महि राखिओ भेदै नाहि तिह पानी ॥ तैसे ही तुम ताहि पछानहु भगति हीन जो प्रानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाहनु = पत्थर। महि = में। भेदै = भेदता है। तिह = उसको। पछानहु = समझो। हीन = बगैर।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे पत्थर पानी में रखा हुआ हो, उसको पानी भेद नहीं सकता। (पानी उस पर असर नहीं कर सकता), ऐसा ही तुम उस मनुष्य को समझ लो जो प्रभु-भक्ती से वंचित है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल मै मुकति नाम ते पावत गुरु यह भेदु बतावै ॥ कहु नानक सोई नरु गरूआ जो प्रभ के गुन गावै ॥३॥३॥

मूलम्

कल मै मुकति नाम ते पावत गुरु यह भेदु बतावै ॥ कहु नानक सोई नरु गरूआ जो प्रभ के गुन गावै ॥३॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि महि = संसार में, मानव जनम में। ते = से। मुकति = विकारों से खलासी। भेदु = गहरी बात। गरूआ = भारा, आदर योग।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु जिंदगी का यह राज बताता है कि मानव जीवन में इन्सान परमात्मा के नाम के द्वारा ही विकारों से खलासी प्राप्त कर सकता है। हे नानक! कह: वही मनुष्य आदरणीय हैं जो परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।3।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बिलावल में गुरु तेग बहादर जी के ये तीन शब्द हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु असटपदीआ महला १ घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु असटपदीआ महला १ घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकटि वसै देखै सभु सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ विणु भै पइऐ भगति न होई ॥ सबदि रते सदा सुखु होई ॥१॥

मूलम्

निकटि वसै देखै सभु सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ विणु भै पइऐ भगति न होई ॥ सबदि रते सदा सुखु होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। सोई = वही (प्रभु)। बूझै = समझता है। विणु भै पइऐ = (परमात्मा के) डर में रहे बिना, मन में परमात्मा का डर अदब ना रहे।1।
अर्थ: परमात्मा (हरेक जीव के) नजदीक बसता है, वह स्वयं ही हरेक की संभाल करता है, पर यह भेद कोई विरला बंदा ही समझता है जो गुरु के सन्मुख रह के नाम जपता है। जब तक (यह) डर पैदा ना हो (कि वह हर वक्त नजदीक से देख रहा है) परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। जो बंदे गुरु के शब्द के द्वारा (नाम-रंग में) रंगे जाते हैं उनको सदा आत्मिक आनंद मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा गिआनु पदारथु नामु ॥ गुरमुखि पावसि रसि रसि मानु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा गिआनु पदारथु नामु ॥ गुरमुखि पावसि रसि रसि मानु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = (परमात्मा से) गहरी सांझ। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु की ओर मुँह रखता है। पावसि = हासिल करेगा। रसि = (नाम के) रस में। रसि = रस के, भीग के। मानु = आदर।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का नाम एक ऐसा श्रेष्ठ पदार्थ है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा कर देता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के (ये पदार्थ) हासिल करता है, वह (इसके) रस में भीग के (लोक-परलोक में) आदर पाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआनु गिआनु कथै सभु कोई ॥ कथि कथि बादु करे दुखु होई ॥ कथि कहणै ते रहै न कोई ॥ बिनु रस राते मुकति न होई ॥२॥

मूलम्

गिआनु गिआनु कथै सभु कोई ॥ कथि कथि बादु करे दुखु होई ॥ कथि कहणै ते रहै न कोई ॥ बिनु रस राते मुकति न होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथै = कहता है। सभु कोई = हरेक जीव। कथि कथि = (ज्ञान चर्चा) कह कह के। बादु = चर्चा। कथि = कह के। कहणै ते = कहने से। रहै न = हटना नहीं। मुकति = (विकारों से) मुक्ति।2।
अर्थ: (ज़बानी ज़बानी तो) हर कोई कहता है (कि मुझे परमात्मा का) ज्ञान (प्राप्त हो गया है,) ज्ञान (मिल गया है), (ज्यों-ज्यों ज्ञान-ज्ञान) कह के चर्चा करता है (उस चर्चा में से) कष्ट ही पैदा होता है। चर्चा करके (ऐसी आदत पड़ जाती है कि) चर्चा करने से जीव हटता भी नहीं। (पर चर्चा से कोई आत्मिक आनंद नहीं मिलता, क्योंकि) परमात्मा के नाम-रस में रंगे जाए बिना विकारों से खलासी नहीं मिलती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआनु धिआनु सभु गुर ते होई ॥ साची रहत साचा मनि सोई ॥ मनमुख कथनी है परु रहत न होई ॥ नावहु भूले थाउ न कोई ॥३॥

मूलम्

गिआनु धिआनु सभु गुर ते होई ॥ साची रहत साचा मनि सोई ॥ मनमुख कथनी है परु रहत न होई ॥ नावहु भूले थाउ न कोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से। धिआनु = प्रभु में तवज्जो का टिकाव। रहत = आचरण। साचा = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। परु = परंतु। नावहु = नाम से।3।
अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ और उसमें तवज्जो का टिकाव- ये सब कुछ गुरु से ही मिलता है। (जिसको मिलता है उसकी) रहनी पवित्र हो जाती है उसके मन में वह सदा-स्थिर प्रभु बस जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा (निरे ज्ञान की बातें) ही करता है, पर उसकी रहनी (पवित्र) नहीं होती। परमात्मा के नाम से टूटे हुए को (माया की भटकना से बचाने के लिए) कोई आसरा नहीं मिलता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु माइआ बंधिओ सर जालि ॥ घटि घटि बिआपि रहिओ बिखु नालि ॥ जो आंजै सो दीसै कालि ॥ कारजु सीधो रिदै सम्हालि ॥४॥

मूलम्

मनु माइआ बंधिओ सर जालि ॥ घटि घटि बिआपि रहिओ बिखु नालि ॥ जो आंजै सो दीसै कालि ॥ कारजु सीधो रिदै सम्हालि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सर जालि = (मोह के) तीरों के जाल में। बंधिओ = बँधा हुआ है। बिखु = माया जहर। आंजै = लाया जाता है, पैदा होता है। कालि = काल में, काल के वश में, आत्मिक मौत के अधीन। कारजु = (मनुष्य जीवन में करने योग्य) काम। सीधो = सफल।4।
अर्थ: माया ने (जीवों के) मन को (मोह के) तीरों के जाल में बाँधा हुआ है। (चाहे परमात्मा) हरेक शरीर में मौजूद है, पर (माया के मोह का) जहर भी हरेक के अंदर ही है, (इस वास्ते) जो भी (जगत में) पैदा होता है वह आत्मिक मौत के वश में दिख रहा है। परमात्मा को हृदय में याद करने से ही (मनुष्य जीवन में) करने योग्य काम सिरे चढ़ते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो गिआनी जिनि सबदि लिव लाई ॥ मनमुखि हउमै पति गवाई ॥ आपे करतै भगति कराई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥५॥

मूलम्

सो गिआनी जिनि सबदि लिव लाई ॥ मनमुखि हउमै पति गवाई ॥ आपे करतै भगति कराई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। लिव = लगन। पति = इज्जत। करतै = कर्तार ने।5।
अर्थ: वही मनुष्य ज्ञान-वान (कहलवा सकता) है जिसने गुरु के शब्द के माध्यम से प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़ी है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अहंकार के अधीन रह के अपनी इज्जत गवाता है। (पर जीव के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही अपनी भक्ति (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही (जीव को) गुरु के सन्मुख करके बड़ाई (सम्मान) देता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रैणि अंधारी निरमल जोति ॥ नाम बिना झूठे कुचल कछोति ॥ बेदु पुकारै भगति सरोति ॥ सुणि सुणि मानै वेखै जोति ॥६॥

मूलम्

रैणि अंधारी निरमल जोति ॥ नाम बिना झूठे कुचल कछोति ॥ बेदु पुकारै भगति सरोति ॥ सुणि सुणि मानै वेखै जोति ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैणि = (जिंदगी की) रात। कुचल = गंदे। कछोति = कु+छूत, बुरी छूत वाले। सरोति = शिक्षा। मानै = मानता है, श्रद्धा लाता है।6।
अर्थ: (स्मरण के बिना मनुष्य की उम्र) एक अंधेरी रात है, परमात्मा की ज्योति के प्रकट होने के साथ ही ये रौशन हो सकती है। नाम से टूटे हुए बंदे झूठे हैं गंदे हैं और बुरी छूत वाले हैं, (भाव, और लोगों को भी गलत रास्ते पर डाल देते हैं)। वेद आदि हरेक धर्म-पुस्तक भक्ति की शिक्षा ही पुकार-पुकार के बताता है। जो जो जीव इस शिक्षा को सुन-सुन के श्रद्धा (मन में) बसाता है वह ईश्वरीय ज्योति को (हर जगह) देखता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासत्र सिम्रिति नामु द्रिड़ामं ॥ गुरमुखि सांति ऊतम करामं ॥ मनमुखि जोनी दूख सहामं ॥ बंधन तूटे इकु नामु वसामं ॥७॥

मूलम्

सासत्र सिम्रिति नामु द्रिड़ामं ॥ गुरमुखि सांति ऊतम करामं ॥ मनमुखि जोनी दूख सहामं ॥ बंधन तूटे इकु नामु वसामं ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिड़ामं = दृढ़ कराते हैं, ताकीद करते हैं। ऊतमा करमं = श्रेष्ठ कर्म। वसामं = बसाने से।7।
अर्थ: स्मृतियाँ-शास्त्र आदि धर्म-पुस्तकें भी नाम-जपने की ताकीद करते हैं, जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर स्मरण करते हैं उनके अंदर शांति पैदा होती है, उनकी रहन-सहन श्रेष्ठ हो जाती है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदेजनम-मरण का दुख सहते हैं, ये बंधन तब ही टूटते हैं जब परमात्मा के नाम को दिल में बसाया जाए।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंने नामु सची पति पूजा ॥ किसु वेखा नाही को दूजा ॥ देखि कहउ भावै मनि सोइ ॥ नानकु कहै अवरु नही कोइ ॥८॥१॥

मूलम्

मंने नामु सची पति पूजा ॥ किसु वेखा नाही को दूजा ॥ देखि कहउ भावै मनि सोइ ॥ नानकु कहै अवरु नही कोइ ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सची = सदा स्थिर रहने वाली। पति = इज्जत। वेखा = मैं देखूँ। देखि = देख के। कहउ = मैं कहता हूँ, मैं महिमा करता हूँ। सोइ = वह प्रभु।8।
अर्थ: परमात्मा के बिना कोई और (उस जैसा) नहीं है, जो बंदा उसके नाम को (अपने हृदय में) दृढ़ करता है उसको सच्ची इज्जत मिलती है, उसका आदर होता है।
नानक कहता है: मैं हर जगह उसी को देखता हूँ, उसके बिना उस जैसा कोई और नहीं है। उसे (हर जगह) देख के मैं उसकी महिमा करता हूँ, वही मुझे अपने मन में प्यारा लगता है।8।1।

[[0832]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला १ ॥ मन का कहिआ मनसा करै ॥ इहु मनु पुंनु पापु उचरै ॥ माइआ मदि माते त्रिपति न आवै ॥ त्रिपति मुकति मनि साचा भावै ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला १ ॥ मन का कहिआ मनसा करै ॥ इहु मनु पुंनु पापु उचरै ॥ माइआ मदि माते त्रिपति न आवै ॥ त्रिपति मुकति मनि साचा भावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = बुद्धि, अक्ल। उचरै = बातें करता है। मदि = नशे में। माते = मस्ते हुए को। मुकति = (माया के पँजे से) खलासी। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु।1।
अर्थ: (प्रभु नाम से टूटे हुए मनुष्य की) बुद्धि (भी) मन के कहे में चलती है, और ये मन निरी यही बातें सोचता है कि (शास्त्रों की मर्यादा के अनुसार) पुन्न क्या है और पाप क्या है। माया के नशे में मस्त मनुष्य का (माया से) पेट नहीं भरता। माया से तृप्ति और माया के मोह से खलासी तभी होती है जब मनुष्य को सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मन में प्यारा लगने लग जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु धनु कलतु सभु देखु अभिमाना ॥ बिनु नावै किछु संगि न जाना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तनु धनु कलतु सभु देखु अभिमाना ॥ बिनु नावै किछु संगि न जाना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलत = स्त्री। अभिमाना = हे अभिमानी!।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ये लक्षण देखने में पुलिंग है। संस्कृत का शब्द ‘कलत्र’ नपुंसक लिंग है)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे अभिमानी जीव! देख, ये शरीर, ये धन, ये स्त्री- ये सब (सदा साथ निभने वाले नहीं हैं) परमात्मा के नाम के बिना कोई चीज (जीव के) साथ नहीं जाती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीचहि रस भोग खुसीआ मन केरी ॥ धनु लोकां तनु भसमै ढेरी ॥ खाकू खाकु रलै सभु फैलु ॥ बिनु सबदै नही उतरै मैलु ॥२॥

मूलम्

कीचहि रस भोग खुसीआ मन केरी ॥ धनु लोकां तनु भसमै ढेरी ॥ खाकू खाकु रलै सभु फैलु ॥ बिनु सबदै नही उतरै मैलु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीचहि = करते हैं। केरी = की। भसमै = राख की। खाकू = ख़ाक में। फैलु = फलाव, पसारा।2।
अर्थ: मयावी रसों के भोग किए जाते हैं, मन की मौजें माणी जाती हैं, (पर मौत आने पर) धन (और) लोगों का बन जाता है और ये शरीर मिट्टी की ढेरी हो जाता है। यह सारा ही पसारा (अंत में) ख़ाक में ही मिल जाता है (मन पर विषय-विकारों की मैल इकट्ठी होती जाती है, वह) मैल गुरु के शब्द के बिना नहीं उतरती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गीत राग घन ताल सि कूरे ॥ त्रिहु गुण उपजै बिनसै दूरे ॥ दूजी दुरमति दरदु न जाइ ॥ छूटै गुरमुखि दारू गुण गाइ ॥३॥

मूलम्

गीत राग घन ताल सि कूरे ॥ त्रिहु गुण उपजै बिनसै दूरे ॥ दूजी दुरमति दरदु न जाइ ॥ छूटै गुरमुखि दारू गुण गाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घन = बहुत। सि = यह सारे। कूरे = झूठे। त्रिहु गुण = माया के तीन गुणों में। उपजै बिनसै = (जीव) पैदा होता मरता है। दूजी = प्रभु के बिना और आसरे की झाक। दरद = रोग।3।
अर्थ: (प्रभु के नाम से टूट के) मनुष्य अनेक किस्मों के गीत राग व ताल आदि में मन परचाता है पर ये सब झूठे उद्यम हैं (क्योंकि नाम के बिना जीव) तीन गुणों के असर तले पैदा होता मरता रहता है और (प्रभु-चरणों से) विछुड़ा रहता है। (इन गीतों-रागों की सहायता से जीव की) और चाहत (ज्यादा से ज्यादा मिलने के लालच, झाक) व दुमर्ति दूर नहीं होती, आत्मिक रोग नहीं जाता। (इस दूसरी झाक व दुमर्ति से, आत्मिक रोग से वह मनुष्य) खलासी पा लेता है जो गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा के गुण गाता है (ये महिमा ही इन रोगों का) दारू है।3[

विश्वास-प्रस्तुतिः

धोती ऊजल तिलकु गलि माला ॥ अंतरि क्रोधु पड़हि नाट साला ॥ नामु विसारि माइआ मदु पीआ ॥ बिनु गुर भगति नाही सुखु थीआ ॥४॥

मूलम्

धोती ऊजल तिलकु गलि माला ॥ अंतरि क्रोधु पड़हि नाट साला ॥ नामु विसारि माइआ मदु पीआ ॥ बिनु गुर भगति नाही सुखु थीआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उजल = सफेद। गलि = गले में। नाट साला = नाट्य घर, जहाँ नाटक सिखाया जाता है। मदु = शराब।4।
अर्थ: जो मनुष्य सफेद धोती पहनते हैं (माथे पर) तिलक लगाते हैं, गले में माला डालते हैं और (वेद आदि के मंत्र) पढ़ते हैं पर उनके अंदर क्रोध प्रबल है उनका उद्यम यूँ ही है जैसे किसी नाट्य-घर में (नाट्य-विद्या की सिखलाई कर करा रहे हैं)।
जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम भुला के माया (के मोह) की शराब पी हुई हो, (उनको सुख नहीं हो सकता)। गुरु के बिना प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती, और भक्ति के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिलता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूकर सुआन गरधभ मंजारा ॥ पसू मलेछ नीच चंडाला ॥ गुर ते मुहु फेरे तिन्ह जोनि भवाईऐ ॥ बंधनि बाधिआ आईऐ जाईऐ ॥५॥

मूलम्

सूकर सुआन गरधभ मंजारा ॥ पसू मलेछ नीच चंडाला ॥ गुर ते मुहु फेरे तिन्ह जोनि भवाईऐ ॥ बंधनि बाधिआ आईऐ जाईऐ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूकर = सूअर। सुआन = कुत्ते। गरधब = गधे। मंजारा = बिल्ला। ते = से। बंधनि = बंधन में।5।
अर्थ: जिस लोगों ने अपना मुँह गुरु से मोड़ा हुआ है उन्हें सूअर-कुत्ते-गधे-बिल्ले-पशू-मलेछ-नीच-चण्डाल आदिक की जूनों में घुमाया जाता है। माया के मोह के बंधन में बंधा हुआ मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा ते लहै पदारथु ॥ हिरदै नामु सदा किरतारथु ॥ साची दरगह पूछ न होइ ॥ माने हुकमु सीझै दरि सोइ ॥६॥

मूलम्

गुर सेवा ते लहै पदारथु ॥ हिरदै नामु सदा किरतारथु ॥ साची दरगह पूछ न होइ ॥ माने हुकमु सीझै दरि सोइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लहै = प्राप्त करता है। पदारथु = नाम वस्तु। किरतारथु = सफल, कामयाब। सीझै = कामयाब होता है। दरि = प्रभु के दर पर। सोइ = वह मनुष्य।6।
अर्थ: गुरु की बताई हुई सेवा के द्वारा ही मनुष्य नाम-संपत्ति प्राप्त करता है। जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम सदा बसता है वह (जीवन-यात्रा में) सफल हो गया है। परमात्मा की दरगाह में उससे लेखा नहीं मांगा जाता (क्योंकि उसके जिंमें कुछ भी बकाया नहीं निकलता)। जो मनुष्य परमात्मा की रजा को (सिर माथे) मानता है वह परमात्मा के दर पर कामयाब हो जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मिलै त तिस कउ जाणै ॥ रहै रजाई हुकमु पछाणै ॥ हुकमु पछाणि सचै दरि वासु ॥ काल बिकाल सबदि भए नासु ॥७॥

मूलम्

सतिगुरु मिलै त तिस कउ जाणै ॥ रहै रजाई हुकमु पछाणै ॥ हुकमु पछाणि सचै दरि वासु ॥ काल बिकाल सबदि भए नासु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिस कउ = उस (परमात्मा) को। रजाई = रजा में। पछाणि = पहचान के। काल बिकाल = मौत और जनम, जनम मरण।7।
अर्थ: जब मनुष्य को गुरु मिल जाता है तो यह उस परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना लेता है, परमात्मा की रजा को समझता है और रज़ा में (राज़ी) रहता है। सदा-स्थिर प्रभु की रजा को समझ के उसके दर पर जगह हासिल कर लेता है। गुरु के शब्द के द्वारा उसके जनम-मरण (के चक्र) खत्म हो जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहै अतीतु जाणै सभु तिस का ॥ तनु मनु अरपै है इहु जिस का ॥ ना ओहु आवै ना ओहु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥२॥

मूलम्

रहै अतीतु जाणै सभु तिस का ॥ तनु मनु अरपै है इहु जिस का ॥ ना ओहु आवै ना ओहु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अतीतु = निर्लिप, त्यागी। तिस का = उस परमात्मा का। अरपै = भेटा करता है। ओहु = वह जीव। साचे साचि = सदा ही सच्चे हरि में।8।
अर्थ: (नाम-जपने की इनायत से) जो मनुष्य (अंतरात्मे माया के मोह की ओर से) उपराम रहता है वह हरेक चीज को परमात्मा की (दी हुई) ही समझता है। जिस परमात्मा ने ये शरीर और मन दिया है उसके हवाले करता है।
हे नानक! वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर से बच जाता है, वह सदा-सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ असटपदी घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ असटपदी घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु कऊआ मुखि चुंच गिआनु ॥ अंतरि लोभु झूठु अभिमानु ॥ बिनु नावै पाजु लहगु निदानि ॥१॥

मूलम्

जगु कऊआ मुखि चुंच गिआनु ॥ अंतरि लोभु झूठु अभिमानु ॥ बिनु नावै पाजु लहगु निदानि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगु = जगत, माया ग्रसित जीव। कऊआ = कौआ। मुखि = मुंह से। चूंच गिआनु = चोंच चर्चा, निरी बातों से आत्मिक जीवन की बातें। अंतरि = मन में, अंदर। पाजु = दिखावा। लहगु = उतर जाएगा (भविष्यत काल, पुलिंग)। निदानि = अंत को, आखिर।1।
अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित मनुष्य कौए (की तरह काँ-काँ करने वाले) हैं, (सिर्फ) मुँह से (ही) बातों-बातों से आत्मिक जीवन की सूझ (बताते रहते हैं, जैसे कि कौआ अपनी चोंच से ‘कां कां’ करता है)। (पर उस चोंच ज्ञानी के) मन में लोभ (टिका रहता) है, अहंकार (टिका रहता) है। हे भाई! नाम से टूटे रह के यह धार्मिक दिखावा आखिर बेपर्दा हो ही जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर सेवि नामु वसै मनि चीति ॥ गुरु भेटे हरि नामु चेतावै बिनु नावै होर झूठु परीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुर सेवि नामु वसै मनि चीति ॥ गुरु भेटे हरि नामु चेतावै बिनु नावै होर झूठु परीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर सेवि = गुरु की शरण पड़ कर। मनि = मन में। चीति = चिक्त में। भेटे = मिलता है। चेतावै = जपाता है, चेते करवाता है। परीति = प्यार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से (परमात्मा का) नाम (मनुष्य के) मन में चिक्त में आ बसता है। (जिस मनुष्य को) गुरु मिल जाता है, उसको (गुरु, परमात्मा का) नाम जपाता है। हे भाई! (परमात्मा के) नाम (के प्यार) के बिना और प्यार झूठे हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि कहिआ सा कार कमावहु ॥ सबदु चीन्हि सहज घरि आवहु ॥ साचै नाइ वडाई पावहु ॥२॥

मूलम्

गुरि कहिआ सा कार कमावहु ॥ सबदु चीन्हि सहज घरि आवहु ॥ साचै नाइ वडाई पावहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सा = वह (स्त्रीलिंग)। चीन्हि = पहचान के, सांझ डाल के। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज घरि = आत्मिक अडोलता के घर में। नाइ = नाम से। साचै नाइ = सदा स्थिर प्रभु के नाम से। वडाई = इज्जत।2।
अर्थ: हे भाई! वह काम किया करो जो गुरु ने बताया है (वह काम है नाम का स्मरण), परमात्मा की महिमा की वाणी से गहरी सांझ डाल के आत्मिक अडोलता के घर में टिका करो। सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ के (लोक-परलोक की) महिमा हासिल करोगे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि न बूझै लोक बुझावै ॥ मन का अंधा अंधु कमावै ॥ दरु घरु महलु ठउरु कैसे पावै ॥३॥

मूलम्

आपि न बूझै लोक बुझावै ॥ मन का अंधा अंधु कमावै ॥ दरु घरु महलु ठउरु कैसे पावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूझै = समझता। बुझावै = समझाता है। अंधु कमावै = अंधों वाला काम करता है। कैसे = कैसे?।3।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य आत्मिक जीवन के बारे में) खुद (तो कुछ) समझते नहीं, पर लोगों को समझाते रहते हैं, उनका अपना आपा (आत्मिक जीवन की ओर से) बिल्कुल कोरा है (अंधा है, इस वास्ते आत्मिक जीवन के रास्ते में वह अंधों की तरह ठोकरें खाता रहता है) अंधों वाले काम करता रहता है। हे भाई! ऐसा मनुष्य परमात्मा का दर-घर, परमात्मा का महल, परमात्मा का ठिकाना बिल्कुल नहीं पा सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ सेवीऐ अंतरजामी ॥ घट घट अंतरि जिस की जोति समानी ॥ तिसु नालि किआ चलै पहनामी ॥४॥

मूलम्

हरि जीउ सेवीऐ अंतरजामी ॥ घट घट अंतरि जिस की जोति समानी ॥ तिसु नालि किआ चलै पहनामी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेविऐ = सेवा भक्ति करनी चाहिए। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। समानी = लीन है, समाई हुई है। पहनामी = लुका छिपा।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस की’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की ज्योति हरेक शरीर में मौजूद है, जो सबके दिल की जानने वाला है, उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करनी चाहिए। उससे कोई लुका-छुपा नहीं चल सकता।4।

[[0833]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा नामु साचै सबदि जानै ॥ आपै आपु मिलै चूकै अभिमानै ॥ गुरमुखि नामु सदा सदा वखानै ॥५॥

मूलम्

साचा नामु साचै सबदि जानै ॥ आपै आपु मिलै चूकै अभिमानै ॥ गुरमुखि नामु सदा सदा वखानै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। साचै सबदि = सदा स्थिर हरि (की महिमा) के शब्द द्वारा। जानै = जानता है, गहरी सांझ डालता है। आपै = (परमात्मा के) आपे में। आपु = अपना आप। चूकै = समाप्त हो जाता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम सदा ही जपता रहता है, जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि की महिमा के शब्द के द्वारा सदा-स्थिर हरि-नाम के साथ गहरी सांझ डाल लेता है, उसका अपना आप परमात्मा के आपे में मिल जाता है, (उसके अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि सेविऐ दूजी दुरमति जाई ॥ अउगण काटि पापा मति खाई ॥ कंचन काइआ जोती जोति समाई ॥६॥

मूलम्

सतिगुरि सेविऐ दूजी दुरमति जाई ॥ अउगण काटि पापा मति खाई ॥ कंचन काइआ जोती जोति समाई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि सेविऐ = गुरु की शरण पड़ने से। दुरमति = खोटी अकल। जाई = समाप्त हो जाती है। काटि = काट के। खाई = खाई जाती है। कंचन = सोना। काइआ = शरीर। कंचन काइआ = शरीर विकारों से बचा रहता है। जोती = प्रभु की ज्योति में। जोति = जिंद, प्राण।6।
अर्थ: हे भाई! यदि गुरु की शरण पड़े रहें, तो (अंदर से) माया के मोह वाली खोटी मति दूर हो जाती है। (अंदर से) सारे अवगुण काटे जाते हैं, पापों वाली मति खत्म हो जाती है। (विकारों से बचे रहने के कारण) शरीर सोने जैसा शुद्ध हो रहता है, (मनुष्य की) जिंद परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि मिलिऐ वडी वडिआई ॥ दुखु काटै हिरदै नामु वसाई ॥ नामि रते सदा सुखु पाई ॥७॥

मूलम्

सतिगुरि मिलिऐ वडी वडिआई ॥ दुखु काटै हिरदै नामु वसाई ॥ नामि रते सदा सुखु पाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। काटै = काट देता है। हिरदै = हृदय में। नामि = नाम में। पाई = प्राप्त करता है।7।
अर्थ: हे भाई! अगर गुरु मिल जाए, तो (लोक-परलोक में) बड़ा सम्मान मिलता है। (गुरु मनुष्य का) हरेक दुख काट देता है, (मनुष्य के) हृदय में (परमात्मा का) नाम बसा देता है। (परमात्मा के) नाम में रंगीज़ के (मनुष्य) सदा आत्मिक आनंद पाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति मानिआ करणी सारु ॥ गुरमति मानिआ मोख दुआरु ॥ नानक गुरमति मानिआ परवारै साधारु ॥८॥१॥३॥

मूलम्

गुरमति मानिआ करणी सारु ॥ गुरमति मानिआ मोख दुआरु ॥ नानक गुरमति मानिआ परवारै साधारु ॥८॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानिआ = मानने से पतीजने से। सार = श्रेष्ठ। करणी = आचरण। मोख दुआरु = विकारों से खलासी प्राप्त करने का दरवाजा। परवारै = परिवार के लिए। साधारु = स+आधार, आधार सहित, आसरा देने योग्य।8।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शिक्षा में पतीजने से (मनुष्य का) आचरण अच्छा बन जाता है, गुरु की मति में मन मानने से विकारों की तरफ़ से मुक्ति पाने का रास्ता मिल जाता है। हे नानक! गुरु की शिक्षा में पतीजने से (मनुष्य) अपने सारे परिवार को भी (हरि-नाम का) आसरा देने के काबिल बन जाता है।8।1।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ असटपदीआ घरु ११ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ असटपदीआ घरु ११ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपै आपु खाइ हउ मेटै अनदिनु हरि रस गीत गवईआ ॥ गुरमुखि परचै कंचन काइआ निरभउ जोती जोति मिलईआ ॥१॥

मूलम्

आपै आपु खाइ हउ मेटै अनदिनु हरि रस गीत गवईआ ॥ गुरमुखि परचै कंचन काइआ निरभउ जोती जोति मिलईआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपै = परमात्मा के आपे में। आपु = अपना आपा। खाइ = खा के, समाप्त करके। हउ = अहंम्। अनदिनु = हर रोज। हरि रस गीत = हरि नाम रस के गीत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। परचै = परच जाता है, पतीजता है। कंचन = सोना, सोने जैसी शुद्ध। काइआ = शरीर। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = जिंद।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त हरि-नाम रस के गीत गाता रहता है, जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के (हरि-नाम में) पसीजा रहता है, वह मनुष्य (परमात्मा के) स्वै में अपना स्वै विलीन कर के (अपने अंदर से) अहंकार मिटा लेता है, (विकारों से बचे रहने के कारण) उसका शरीर सोने जैसा शुद्ध हो जाता है, उसकी जिंद निर्भय प्रभु की ज्योति में लीन रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै हरि हरि नामु अधारु रमईआ ॥ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु नावै गुरमुखि हरि हरि पाठ पड़ईआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मै हरि हरि नामु अधारु रमईआ ॥ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु नावै गुरमुखि हरि हरि पाठ पड़ईआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आधारु = आसरा। नामु रमईआ = सोहाने राम का नाम। रहि न सकउ = मै रह नहीं सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सोहाने राम का हरि-नाम मेरे वास्ते (मेरी जिंदगी का) आसरा (बन गया) है, (अब) मैं उसके नाम के बिना एक छिन एक पल भी नहीं रह सकता। गुरु की शरण पड़ कर (मैं तो) हरि-नाम का पाठ (ही) पढ़ता रहता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु गिरहु दस दुआर है जा के अहिनिसि तसकर पंच चोर लगईआ ॥ धरमु अरथु सभु हिरि ले जावहि मनमुख अंधुले खबरि न पईआ ॥२॥

मूलम्

एकु गिरहु दस दुआर है जा के अहिनिसि तसकर पंच चोर लगईआ ॥ धरमु अरथु सभु हिरि ले जावहि मनमुख अंधुले खबरि न पईआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिरहु = गृह, (शरीर-) घर। दुआर = दरवाजे। जा के = जिस (शरीर घर) के। अहि = दिन। निसि = रात। तसकर = चोर। पंच चोर = (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार) पाँच चोर। अरथु = धन। सभु = सारा। हिरि ले जावहि = चुरा ले जाते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंधुले = (आत्मिक जीवन की ओर से) अंधे मनुष्य को।2।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का ये शरीर) एक ऐसा घर है जिसके दस दरवाजे हैं, (इन दरवाजों से) दिन-रात- (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार) पाँच चोर सेंध लगाए रखते हैं, (इसके अंदर से) आत्मिक जीवन वाला सारा धन चुरा के ले जाते हैं। (आत्मिक जीवन द्वारा) अंधे हो चुके मन के मुरीद मनुष्य को (अपने लूटे जाने का) पता नहीं लगता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंचन कोटु बहु माणकि भरिआ जागे गिआन तति लिव लईआ ॥ तसकर हेरू आइ लुकाने गुर कै सबदि पकड़ि बंधि पईआ ॥३॥

मूलम्

कंचन कोटु बहु माणकि भरिआ जागे गिआन तति लिव लईआ ॥ तसकर हेरू आइ लुकाने गुर कै सबदि पकड़ि बंधि पईआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंचन कोटु = सोने का किला। माणिक = ऊँचे आत्मिक गुणों से, मनकों से। जागे = जो मनुष्य जागते रहे, सचेत रहे। तति = तत्व में। गिआन तति = आत्मिक जीवन के तत्व में। लिव लईआ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। तसकर = चोर। हेरू = डाकू। कै सबदि = के शब्द से। पकड़ि = पकड़ के। बंधि पईआ = बाँध लिए।3।
अर्थ: हे भाई! (यह मानव शरीर, जैसे) सोने का किला (उच्च आत्मिक गुणों के) मोतियों से भरा हुआ है, (इन हीरों को चुराने के लिए लूटने के लिए कामादिक) चोर डाकू आ के (इसमें) छुपे रहते हैं। जो मनुष्य आत्मिक जीवन के श्रोत प्रभु में तवज्जो जोड़ के सचेत रहते हैं, वह मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा (इन चोर-डाकूओं को) पकड़ के बाँध लेते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु पोतु बोहिथा खेवटु सबदु गुरु पारि लंघईआ ॥ जमु जागाती नेड़ि न आवै ना को तसकरु चोरु लगईआ ॥४॥

मूलम्

हरि हरि नामु पोतु बोहिथा खेवटु सबदु गुरु पारि लंघईआ ॥ जमु जागाती नेड़ि न आवै ना को तसकरु चोरु लगईआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पोतु = जहाज। बोहिथा = जहाज। खेवटु = मल्लाह। जागाती = मसूलिया। को तसकरु = कोई चोर। लगईआ = सेंध लगाता।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जहाज है जहाज़। (उस जहाज़ का) मल्लाह (गुरु का) शब्द है, (जो मनुष्य इस जहाज़ का आसरा लेता है, उसको) गुरु (विकारों भरे संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। जमराज मूसलिया (भी उसके) नजदीक नहीं आता, (कामादिक) कोई चोर भी सेंध नहीं लगा सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण गावै सदा दिनु राती मै हरि जसु कहते अंतु न लहीआ ॥ गुरमुखि मनूआ इकतु घरि आवै मिलउ गुोपाल नीसानु बजईआ ॥५॥

मूलम्

हरि गुण गावै सदा दिनु राती मै हरि जसु कहते अंतु न लहीआ ॥ गुरमुखि मनूआ इकतु घरि आवै मिलउ गुोपाल नीसानु बजईआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावै = गा रहा है। जसु = महिमा। कहते = कहते हुए। अंतु = सिफतों की सीमा। गुरमुखि = गुरु के शरण पड़ कर। इकतु = एक में ही। घरि = घर में। इकतु घरि = एक घर में ही, प्रभु चरणों में ही। आवै = आ जाता है। मिलउ = मिलूँ। नीसानु बजईआ = ढोल बजा के, निसंग हो के।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाल’ है। यहाँ पढ़ना है ‘गुपाल’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (मेरा मन अब) सदा दिन रात परमात्मा के गुण गाता रहता है, मैं प्रभु की महिमा करते-करते (कीर्ति का) अंत नहीं पा सकता। गुरु की शरण पड़ कर (मेरा यह) मन प्रभु के चरणों में ही टिका रहता है, मैं लोक-सम्मान दूर करके जगत पालक प्रभु को मिला रहता हूँ।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैनी देखि दरसु मनु त्रिपतै स्रवन बाणी गुर सबदु सुणईआ ॥ सुनि सुनि आतम देव है भीने रसि रसि राम गोपाल रवईआ ॥६॥

मूलम्

नैनी देखि दरसु मनु त्रिपतै स्रवन बाणी गुर सबदु सुणईआ ॥ सुनि सुनि आतम देव है भीने रसि रसि राम गोपाल रवईआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैनी = आँखों से। देखि = देख के। त्रिपतै = (और वासना से) तृप्त हुआ रहता है। स्रवन = कान। सुनि = सुन के। आतमदेव = आत्मा, जिंद। है भीने = भीगा रहता है। रसि = रस से, स्वाद से। रसि रसि = बड़े स्वाद से। रवईआ = स्मरण करता है।6।
अर्थ: हे भाई! आँखों से (हर जगह प्रभु के) दर्शन करके (मेरा) मन (और वासना से) तृप्त रहता है, (मेरे) कान गुरु की वाणी गुरु के शब्द को (ही) सुनते रहते हैं। (प्रभु की महिमा) सुन-सुन के (मेरी) जिंद (नाम-रस में) भीगी रहती है, (मैं) बड़े आनंद से राम-गोपाल के गुण गाता रहता हूँ।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण माइआ मोहि विआपे तुरीआ गुणु है गुरमुखि लहीआ ॥ एक द्रिसटि सभ सम करि जाणै नदरी आवै सभु ब्रहमु पसरईआ ॥७॥

मूलम्

त्रै गुण माइआ मोहि विआपे तुरीआ गुणु है गुरमुखि लहीआ ॥ एक द्रिसटि सभ सम करि जाणै नदरी आवै सभु ब्रहमु पसरईआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रैगुण = (रजो, सतो, तमो = माया के यह) तीन गुण, इन तीनों गुणों के असर तले रहने वाले जीव। मोहि = मोह में। विआपे = फसे हुए। तुरीआ गुण = वह आत्मिक अवस्था जहाँ माया के तीन गुणों का प्रभाव नहीं पड़ता, चौथा पद। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सभ = सारी लुकाई। सम = बराबर, एक सा। जाणै = जानता है। नदरी आवै = दिखता है। सभु = हर जगह। पसरईआ = पसरा हुआ।7।
अर्थ: हे भाई! माया के तीन गुणों के असर तले रहने वाले जीव (सदा) माया के मोह में फसे रहते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (वह) चौथा पद प्राप्त कर लेता है (जहाँ माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता)। (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) एक (प्यार-भरी) निगाह से सारी दुनिया को एक जैसा जानता है, उसको (यह प्रत्यक्ष) दिखाई देता है (कि) हर जगह परमात्मा ही पसरा हुआ है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु है जोति सबाई गुरमुखि आपे अलखु लखईआ ॥ नानक दीन दइआल भए है भगति भाइ हरि नामि समईआ ॥८॥१॥४॥

मूलम्

राम नामु है जोति सबाई गुरमुखि आपे अलखु लखईआ ॥ नानक दीन दइआल भए है भगति भाइ हरि नामि समईआ ॥८॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबाई = सारी सृष्टि। गुरमुखि लखईआ = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य समझ लेता है। आपे = आप ही। अलख = वह परमात्मा जिसका सही स्वरूप नहीं समझा जा सकता। भगति भाइ = भक्ति के भाव से। (भाउ = प्रेम। भाइ = प्रेम से)। नामि = नाम में।8।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (ये) समझ लेता है कि अलख प्रभु स्वयं ही स्वयं (हर जगह मौजूद) है, हर जगह परमात्मा का ही नाम है, सारी दुनिया में परमात्मा की ही ज्योति है। हे नानक! दीनों पर दया करने वाले प्रभु जी जिस पर मेहरवान होते हैं, वह मनुष्य भक्ति-भावना से परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ हरि हरि नामु सीतल जलु धिआवहु हरि चंदन वासु सुगंध गंधईआ ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ मै हिरड पलास संगि हरि बुहीआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ हरि हरि नामु सीतल जलु धिआवहु हरि चंदन वासु सुगंध गंधईआ ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ मै हिरड पलास संगि हरि बुहीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीतल = ठंढ देने वाला। धिआवहु = स्मरण किया करो। वासु = सुगंधि। गंधईआ = सुगंधित करती है। मिलि = मिल के। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। हिरड = अरिंड, अरण्डी। पलास = पलाह, पलाश, छिछरा। संगि = (चंदन के) साथ। बुहीआ = सुगंधित हो जाता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! प्रभु का नाम स्मरण किया करो, ये नाम ठंडक पहुँचाने वाला जल है, ये नाम चंदन की सुगंधि है जो (सारी बनस्पति को) सुगन्धित कर देती है। हे भाई! साधु-संगत में मिल के सभ से ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल किया जा सकता है। जैसे अरण्डी और पलाह (आदि निकम्मे पौधे चंदन की संगति में) सुगंधित हो जाते हैं, (वैसे ही) मेरे जैसे जीव (हरि नाम की इनायत से ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं)।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि जगंनाथ जगदीस गुसईआ ॥ सरणि परे सेई जन उबरे जिउ प्रहिलाद उधारि समईआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि जगंनाथ जगदीस गुसईआ ॥ सरणि परे सेई जन उबरे जिउ प्रहिलाद उधारि समईआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपि = जपा कर। जगंनाथ = जगत का नाथ। जगदीस = जगत का ईश्वर। गुसईआ = धरती का पति। उबरे = विकारों से बच गए। उधारि = पार उतार करके।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जगत के नाथ, जगत के ईश्वर, धरती के पति प्रभु का नाम जपा कर। जो मनुष्य प्रभु की शरण आ पड़ते हैं, वह मनुष्य (संसार-समुंदर में से) बच निकलते हैं, जैसे प्रहलाद (आदि भक्तों) को (परमात्मा ने संसार-समुंदर से) पार लंघा के (अपने चरणों में) लीन कर लिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार अठारह महि चंदनु ऊतम चंदन निकटि सभ चंदनु हुईआ ॥ साकत कूड़े ऊभ सुक हूए मनि अभिमानु विछुड़ि दूरि गईआ ॥२॥

मूलम्

भार अठारह महि चंदनु ऊतम चंदन निकटि सभ चंदनु हुईआ ॥ साकत कूड़े ऊभ सुक हूए मनि अभिमानु विछुड़ि दूरि गईआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भार अठारह = सारी बनस्पति (प्राचीन विचार चला आ रहा है कि हरेक पौधे के एक-एक पक्ता ले के तौलने पर 18 भार तोल बनता है। एक भार बराबर है पाँच मन कच्चे का)। निकटि = नजदीक। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। ऊभ सुक = (धरती पर) खड़े हुए सूखे वृक्ष। मनि = मन में। विछुड़ि = विछुड़ के।2।
अर्थ: हे भाई! सारी बनस्पतियों में चंदन सबसे श्रेष्ठ (वृक्ष) है, चंदन के नजदीक (उगा हुआ) हरेक पौधा चंदन बन जाता है। पर परमात्मा से टूटे हुए माया-ग्रसित प्राणी (उन पौधों जैसे हैं जो धरती से खुराक मिलने पर भी) खड़े हुए ही सूख जाते हैं, (उनके) मन में अहंकार बसता है, (इस वास्ते परमात्मा से) विछुड़ केवे कहीं दूर पड़े रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गति मिति करता आपे जाणै सभ बिधि हरि हरि आपि बनईआ ॥ जिसु सतिगुरु भेटे सु कंचनु होवै जो धुरि लिखिआ सु मिटै न मिटईआ ॥३॥

मूलम्

हरि गति मिति करता आपे जाणै सभ बिधि हरि हरि आपि बनईआ ॥ जिसु सतिगुरु भेटे सु कंचनु होवै जो धुरि लिखिआ सु मिटै न मिटईआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = गिनती, मर्यादा, सीमा। आपे = खुद ही। सभ बिधि = सारी मर्यादा। भेटे = मिलता है। कंचनु = सोना। धुरि = धुर दरगाह से।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है; यह बात वह स्वयं ही जानता है। (जगत की) सारी मर्यादाएं उसने खुद ही बनाई हुई हैं। (उस मर्यादा के अनुसार) जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह सोना बन जाता है (स्वच्छ जीवन वाला बन जाता है)। हे भाई! धुर दरगाह से (जीवों के किए कर्मों के अनुसार जीवों के माथे ऊपर जो लेख) लिखे जाते हैं, वह लेख (किसी के अपने उद्यम से) मिटाए मिट नहीं सकता (गुरु को मिल के ही लोहे से कंचन बनता) है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रतन पदारथ गुरमति पावै सागर भगति भंडार खुल्हईआ ॥ गुर चरणी इक सरधा उपजी मै हरि गुण कहते त्रिपति न भईआ ॥४॥

मूलम्

रतन पदारथ गुरमति पावै सागर भगति भंडार खुल्हईआ ॥ गुर चरणी इक सरधा उपजी मै हरि गुण कहते त्रिपति न भईआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमति = गुरु की मति से। पावै = (मनुष्य) पा लेता है। सागर = समुंदर। इक सरधा = एक परमात्मा का प्यार। कहते = कहते हुए। खुल्ईआ = खुल्हईआ। त्रिपति = तृप्ति।4।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के अंदर) भक्ति के समुंदर (भरे पड़े) हैं, भक्ति के खजाने खुले पड़े हैं, गुरु की मति पर चल के ही मनुष्य (ऊँचे आत्मिक गुण) रत्न प्राप्त कर सकता है। (देखो) गुरु के चरणों में लग के (ही मेरे अंदर) एक परमात्मा के लिए प्यार पैदा हुआ है (अब) परमात्मा के गुण गाते हुए मेरा मन भरता नहीं है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम बैरागु नित नित हरि धिआए मै हरि गुण कहते भावनी कहीआ ॥ बार बार खिनु खिनु पलु कहीऐ हरि पारु न पावै परै परईआ ॥५॥

मूलम्

परम बैरागु नित नित हरि धिआए मै हरि गुण कहते भावनी कहीआ ॥ बार बार खिनु खिनु पलु कहीऐ हरि पारु न पावै परै परईआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परम बैरागु = सबसे ऊँचा वैराग, सबसे उच्च लगन। भावनी = प्यार। बार बार = बारंबार। कहीऐ = स्मरणा चाहिए। पारु = परला छोर। परै परईआ = परे से परे।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा ही परमात्मा का ध्यान धरता रहता है उसके अंदर सबसे ऊँची लगन बन जाती है। प्रभु के गुण गाते-गाते जो प्यार मेरे अंदर बना है, (मैंने तुम्हें उसका हाल) बताया है। सो, हे भाई! बार बार, हरेक पल, हरेक छिन, परमात्मा का नाम जपना चाहिए (पर, यह याद रखो कि) परमात्मा परे से परे है, कोई जीव उस (की हस्ती) का परला छोर ढूँढ नहीं सकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासत बेद पुराण पुकारहि धरमु करहु खटु करम द्रिड़ईआ ॥ मनमुख पाखंडि भरमि विगूते लोभ लहरि नाव भारि बुडईआ ॥६॥

मूलम्

सासत बेद पुराण पुकारहि धरमु करहु खटु करम द्रिड़ईआ ॥ मनमुख पाखंडि भरमि विगूते लोभ लहरि नाव भारि बुडईआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुकारहि = पुकारते हैं, (इस बात पर) जोर देते हैं। धरमु = (षट् = करमी। खट कर्मी) धर्म। खट करम = छह धार्मिक कर्म (विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करने और कराने, दान देना और लेना)। द्रिढ़ईआ = दृढ़ करते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। पाखंड = पाखण्ड में। भरमि = भटकना में। विगूते = दुखी होते हैं। नाव = (जिंदगी की) बेड़ी। भारि = भार से।6।
अर्थ: हे भाई! वेद-पुरान-शास्त्र (आदि धर्म पुस्तकें इसी बात पर) जोर देते हैं (कि खट-कर्मी) धर्म कमाया करो, इन छह धार्मिक कर्मों के बारे में ही दृढ़ करते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (इसी) पाखण्ड में भटकना में (पड़ कर) दुखी होते रहते हैं, (उनकी जिंदगी की) बेड़ी (अपने ही पाखण्ड के) भार से लोभ की लहर में डूब जाती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु जपहु नामे गति पावहु सिम्रिति सासत्र नामु द्रिड़ईआ ॥ हउमै जाइ त निरमलु होवै गुरमुखि परचै परम पदु पईआ ॥७॥

मूलम्

नामु जपहु नामे गति पावहु सिम्रिति सासत्र नामु द्रिड़ईआ ॥ हउमै जाइ त निरमलु होवै गुरमुखि परचै परम पदु पईआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामे = नाम से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। द्रिढ़ईआ = हृदय में पक्का करो। जाइ = दूर होती है। त = तब। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारां। परचै = (नाम में) परचता है। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।7।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपा करो, नाम में जुड़ के ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करोगे। (अपने हृदय में परमात्मा का) नाम दृढ़ करके टिकाए रखो, (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के लिए ये हरि-नाम ही) स्मृतियों-शास्त्रों का उपदेश है। (हरि-नाम के द्वारा ही जब मनुष्य के अंदर से) अहंकार दूर हो जाता है, तब मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है। गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य (परमात्मा के नाम में) पतीजता है, तब सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु वरनु रूपु सभु तेरा जितु लावहि से करम कमईआ ॥ नानक जंत वजाए वाजहि जितु भावै तितु राहि चलईआ ॥८॥२॥५॥

मूलम्

इहु जगु वरनु रूपु सभु तेरा जितु लावहि से करम कमईआ ॥ नानक जंत वजाए वाजहि जितु भावै तितु राहि चलईआ ॥८॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरनु = वर्ण,रंग। जितु = जिस (काम) से। लावहि = तू लगाता है। से = वह (बहुवचन)। जंत = जीव (बहुवचन)। वाजहि = बजते हैं। जितु = जिस (राह) में। भावै = तुझे अच्छा लगता है। तितु राहि = उस राह पर।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) यह सारा जगत तेरा ही रूप है तेरा ही रंग है। जिस तरफ तू (जीवों को) लगाता है, जीव वही कर्म करते है। जीव (तेरे बाजे हैं) जैसे तू बजाता है, वैसे ही बजते हैं। जिस राह पर चलाना तुझे अच्छा लगता है, उसी राह पर जीव चलते हैं।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ गुरमुखि अगम अगोचरु धिआइआ हउ बलि बलि सतिगुर सति पुरखईआ ॥ राम नामु मेरै प्राणि वसाए सतिगुर परसि हरि नामि समईआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ गुरमुखि अगम अगोचरु धिआइआ हउ बलि बलि सतिगुर सति पुरखईआ ॥ राम नामु मेरै प्राणि वसाए सतिगुर परसि हरि नामि समईआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ कर। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। हउ = मैं। बलि बलि = सदके। मेरै प्राणि = मेरी जिंद में, मेरे हरेक श्वास में। परसि = छू के। नामि = नाम में।1।
अर्थ: हे भाई! मैं गुरु महापुरुख से सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। गुरु की शरण पड़ कर मैं उस अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का नाम स्मरण कर रहा हूँ जिस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। गुरु ने परमात्मा का नाम मेरे हरेक सांस में बसा दिया है। गुरु (के चरणों) को छू के परमात्मा के नाम में लीन रहता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन की टेक हरि नामु टिकईआ ॥ सतिगुर की धर लागा जावा गुर किरपा ते हरि दरु लहीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जन की टेक हरि नामु टिकईआ ॥ सतिगुर की धर लागा जावा गुर किरपा ते हरि दरु लहीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = आसरा। टिकईआ = टिका दी है, बना दी है। धर = आसरा। जावा = जाऊँ, मैं (जीवन-राह पर) चलता जा रहा हूँ। धर लागा = पल्ला पकड़ के। ते = से, के द्वारा। लहीआ = पा लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं गुरु का पल्ला पकड़ के (जीवन-राह पर) चला जा रहा हूँ, गुरु की मेहर से मैंने परमात्मा (के महल) का दरवाजा ढूँढ लिया है। (गुरु ने) परमात्मा का नाम (मुझ) दास (की जिंदगी) का सहारा बना दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु सरीरु करम की धरती गुरमुखि मथि मथि ततु कढईआ ॥ लालु जवेहर नामु प्रगासिआ भांडै भाउ पवै तितु अईआ ॥२॥

मूलम्

इहु सरीरु करम की धरती गुरमुखि मथि मथि ततु कढईआ ॥ लालु जवेहर नामु प्रगासिआ भांडै भाउ पवै तितु अईआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मथि = मथ के, रिड़क के, सुधार के। ततु = मक्खन, ऊँचा आत्मिक जीवन। प्रगासिआ = प्रकाश कर दिया है (गुरु ने), प्रकट कर दिया है। भांडै तितु = उस (हृदय-) बर्तन में। भाउ = प्यार, प्रेम। अईआ = आ पड़ा है।2।
अर्थ: हे भाई! यह (मानव) शरीर (एक ऐसी) धरती है जिसमें (रोजाना किए जा रहे) कर्म (-बीज) बीजे जा रहे हैं। (जैसे) दूध को मथ-मथ के मक्खन निकाल लिया जाता है (वैसे ही,) गुरु की शरण पड़ कर (इन रोजाना किए जा रहे कर्मों को मथ-मथ के सुधार के ऊँचा आत्मिक जीवन प्राप्त कर लिया जाता है)। (जिस हृदय-रूप बर्तन में गुरु परमात्मा का) महान कीमती नाम प्रकट कर देता है, उस (हृदय-) बर्तन में प्रेम आ बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दासनि दास दास होइ रहीऐ जो जन राम भगत निज भईआ ॥ मनु बुधि अरपि धरउ गुर आगै गुर परसादी मै अकथु कथईआ ॥३॥

मूलम्

दासनि दास दास होइ रहीऐ जो जन राम भगत निज भईआ ॥ मनु बुधि अरपि धरउ गुर आगै गुर परसादी मै अकथु कथईआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होइ = हो के, बन के। रहीऐ = रहना चाहिए। जो जन = जो मनुष्य। निज = अपने खास। अरपि = अर्पण करके। धरउ = मैं धरता हूँ। परसादी = कृपा से ही। अकथु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। कथईआ = मैं महिमा कर रहा हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के खास भक्त बन जाते हैं, उनके दासों के दासों के दास बन के रहना चाहिए। मैंने (अपने) गुरु के आगे (अपना) मन भेट कर दिया है, अपनी अक्ल भेट कर दी है। गुरु की कृपा से ही मैं उस परमात्मा की महिमा करता हूँ, जिसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख माइआ मोहि विआपे इहु मनु त्रिसना जलत तिखईआ ॥ गुरमति नामु अम्रित जलु पाइआ अगनि बुझी गुर सबदि बुझईआ ॥४॥

मूलम्

मनमुख माइआ मोहि विआपे इहु मनु त्रिसना जलत तिखईआ ॥ गुरमति नामु अम्रित जलु पाइआ अगनि बुझी गुर सबदि बुझईआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मोहि = मोह में। विआपे = फसे रहते हैं। तिखईआ = तृष्णा, प्यास। अंम्रित जलु = अमृत जल, आत्मिक जीवन देने वाला जल। अगनि = अग्नि (तृष्णा की)। गुर सबदि = गुरु के शब्द ने।4।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (सदा) माया के मोह में फसे रहते हैं, (उनका) यह मन (माया की) तृष्णा (की आग) में जलता रहता है। (जिस मनुष्य ने) गुरु की शिक्षा ले के आत्मिक जीवन वाला नाम-जल पा लिया (उसके अंदर से तृष्णा की) आग बुझ गई, गुरु के शब्द ने बुझा दी।4।

[[0835]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु नाचै सतिगुर आगै अनहद सबद धुनि तूर वजईआ ॥ हरि हरि उसतति करै दिनु राती रखि रखि चरण हरि ताल पूरईआ ॥५॥

मूलम्

इहु मनु नाचै सतिगुर आगै अनहद सबद धुनि तूर वजईआ ॥ हरि हरि उसतति करै दिनु राती रखि रखि चरण हरि ताल पूरईआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाचै = नाचता है। नाचै सतिगुर आगै = गुरु के आगे नाचता है, जिधर गुरु चलाए उधर चलता है (ज्यादा तर क्या होता है मनुष्य माया के हाथों में नाचता फिरता है)। अनहद = अन्हत्, बिना बजाए बजने वाला, एक रस, लगातार। धुनि = ध्वनि। तूर = बाजे। उसतति = महिमा। चरण हरि = हरि के चरण। रखि रखि = बार बार रख के, हर वक्त रख के।5।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ताल में नाचने वाले के साथ राग के साज़ भी बजाए जाते हैं। गुरु की रजा में चलना; ये है नाचना। एक रस महिमा की वाणी की लगन, ये हैं बाजे। प्रभु की याद हर वक्त मन में बसाए रखना, ये है ताल में कदम उठाने)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) ये मन जिधर गुरु चलाता है उधर को चलता रहता है, (उसके अंदर) महिमा की वाणी की तुकांत (ध्वनि) के एक-रस बाजे बजते रहते हैं। वह मनुष्य दिन रात हर वक्त परमात्मा की महिमा करता रहता है, प्रभु के चरणों को हर वक्त (हृदय में) बसा के (वह मनुष्य के जीवन की चाल को) ताल में चलाए रखता है (बेताला नहीं होता)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कै रंगि रता मनु गावै रसि रसाल रसि सबदु रवईआ ॥ निज घरि धार चुऐ अति निरमल जिनि पीआ तिन ही सुखु लहीआ ॥६॥

मूलम्

हरि कै रंगि रता मनु गावै रसि रसाल रसि सबदु रवईआ ॥ निज घरि धार चुऐ अति निरमल जिनि पीआ तिन ही सुखु लहीआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै रंगि = के (प्रेम-) रंग में। रता = रंगा हुआ। रसि = स्वाद से। रसाल = (रसालय) रसों का श्रोत प्रभु। रसालि रसि = परमात्मा के प्रेम में। रविआ = हृदय में बसाए रखता है। निज घरि = अपने (हृदय) घर में। चुऐ = टपकती रहती है। अति = बहुत। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिन ही = उसने ही।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! प्रभु के (प्रेम-) रंग में रंगा हुआ (जिस मनुष्य का) मन (महिमा के गीत) गाता रहता है, रसों के श्रोत प्रभु के प्यार में स्वाद से (जो मनुष्य) गुरु के शब्द को जपता रहता है, उस मनुष्य के हृदय में (आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की) बड़ी ही पवित्र धारा टपकती रहती है। जिस मनुष्य ने (यह नाम-जल) पीया उसने ही आत्मिक आनंद प्राप्त किया।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनहठि करम करै अभिमानी जिउ बालक बालू घर उसरईआ ॥ आवै लहरि समुंद सागर की खिन महि भिंन भिंन ढहि पईआ ॥७॥

मूलम्

मनहठि करम करै अभिमानी जिउ बालक बालू घर उसरईआ ॥ आवै लहरि समुंद सागर की खिन महि भिंन भिंन ढहि पईआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन हठि = (अपने) मन के हठ से। करम = (निहित हुए धार्मिक) कर्म। अभिमानी = अहंकारी (हो जाता है)। बालू = रेत।7।
अर्थ: (जो मनुष्य अपने) मन के हठ से (निहित हुए धार्मिक) कर्म करता रहता है, उसको (अपने धर्मी होने का) गुमान हो जाता है, (उसके ये उद्यम फिर यूँ ही हैं) जैसे बच्चे रेत के घर उसारते हैं, समुंदर के पानी की लहर आती है, और वे घर एक पल में तिनका-तिनका हो के ढह जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सरु सागरु हरि है आपे इहु जगु है सभु खेलु खेलईआ ॥ जिउ जल तरंग जलु जलहि समावहि नानक आपे आपि रमईआ ॥८॥३॥६॥

मूलम्

हरि सरु सागरु हरि है आपे इहु जगु है सभु खेलु खेलईआ ॥ जिउ जल तरंग जलु जलहि समावहि नानक आपे आपि रमईआ ॥८॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरु = सरोवर,तालाब। सागरु = समुंदर। आपे = स्वयं ही। सभु = सारा। तरंग = लहरें। जलहि = पानी में ही। समावहि = लीन हो जाती हैं।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जलहि’ में से ‘जलि’ की ‘लि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! ये सारा जगत (परमात्मा ने) एक तमाशा रचा हुआ है, वह स्वयं ही (जीवन का) सरावर है, समुंदर है (सारे जीव उस समुंदर की लहरें हैं)। हे नानक! जैसे (समुंदर के) पानी की लहरें (समुंदर का) पानी (ही हैं) पानी में ही मिल जाती हैं (इस तरह) वह सुंदर राम (हर जगह) स्वयं ही स्वयं है।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ सतिगुरु परचै मनि मुंद्रा पाई गुर का सबदु तनि भसम द्रिड़ईआ ॥ अमर पिंड भए साधू संगि जनम मरण दोऊ मिटि गईआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ सतिगुरु परचै मनि मुंद्रा पाई गुर का सबदु तनि भसम द्रिड़ईआ ॥ अमर पिंड भए साधू संगि जनम मरण दोऊ मिटि गईआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परचै = प्रसन्न हो जाता है (जिस मनुष्यों पर)। मनि = मन में। तनि = तन पे। भसम = राख। द्रिढ़ईआ = (हृदय में) दृढ़ करके बसा लिया। अमर = अ+मर, ना मरने वाले। पिंड = शरीर। अमर पिंड = मौत रहित शरीरों वाले, जनम मरण के चक्करों से बचे हुए। साधू संगि = गुरु की संगति में। दोऊ = दोनों ही।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों पर) गुरु प्रसन्न हो जाता है (गुरु की यह प्रसन्नता उनके अपने) मन में (जोगियों वाली) मुंद्रे डाली हुई है, गुरु का शब्द (जो उन्होंने अपने हृदय में) दृढ़ करके बसाया हुआ है (ये उन्होंने अपने) शरीर पर (जैसे) राख मली हुई है। (इस तरह) गुरु की संगति में रह के वे जनम-मरण के चक्कर से बच गए हैं, उनके जनम और मौत दोनों ही समाप्त हो गए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन साधसंगति मिलि रहीआ ॥ क्रिपा करहु मधसूदन माधउ मै खिनु खिनु साधू चरण पखईआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन साधसंगति मिलि रहीआ ॥ क्रिपा करहु मधसूदन माधउ मै खिनु खिनु साधू चरण पखईआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! मिलि = मिल के। मध सूदन = हे मघु सूदन! हे मधू राक्षस को मारने वाले! माधउ = (मा+धव, धव = पति) हे माया के पति! पखईआ = मैं धोता रहूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की संगति में मिल के रहना चाहिए (और आरजू करते रहना चाहिए कि) हे मधुसूदन! हे माधव! (मेरे पर) मेहर कर, मैं हर वक्त गुरु के चरण धोता रहूँ (हर वक्त गुरु की शरण पड़ा रहूँ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तजै गिरसतु भइआ बन वासी इकु खिनु मनूआ टिकै न टिकईआ ॥ धावतु धाइ तदे घरि आवै हरि हरि साधू सरणि पवईआ ॥२॥

मूलम्

तजै गिरसतु भइआ बन वासी इकु खिनु मनूआ टिकै न टिकईआ ॥ धावतु धाइ तदे घरि आवै हरि हरि साधू सरणि पवईआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजै = त्यागता है, छोड़ देता है। बनवासी = जंगल का वासी। धावतु = भटकता मन। धाइ = भटक के, दौड़ के। तदे = तब ही। घरि = घर में। साधू = गुरु।2।
अर्थ: पर, हे भाई! (जो मनुष्य) गृहस्थ छोड़ जाता है और जंगल का वासी बनता है (इस तरह उसका) मन (तो) टिकाएं तो भी एक छिन-पल के लिए भी नहीं टिकता। हे भाई! ये भटकता मन भटक-भटक के तब ही ठहराव में आता है, जब मनुष्य परमात्मा की गुरु की शरण पड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धीआ पूत छोडि संनिआसी आसा आस मनि बहुतु करईआ ॥ आसा आस करै नही बूझै गुर कै सबदि निरास सुखु लहीआ ॥३॥

मूलम्

धीआ पूत छोडि संनिआसी आसा आस मनि बहुतु करईआ ॥ आसा आस करै नही बूझै गुर कै सबदि निरास सुखु लहीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। मनि = मन में। करै = करता है। बूझै = समझता। कै सबदि = के शब्द से। निरास = आशा रहित हो के।3।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) पुत्री-पुत्रों (परिवार) को छोड़ के सन्यासी जा बनता है (वह तो फिर भी अपने) मन में अनेक आशाएं बनाता रहता है, नित्य आशाएं बुनता है (इस तरह सही आत्मिक जीवन को) नहीं समझता। पर, हाँ! गुरु के शब्द के द्वारा दुनियाँ की आशाओं से ऊपर उठ कर मनुष्य आत्मिक आनंद भोग सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपजी तरक दिग्मबरु होआ मनु दह दिस चलि चलि गवनु करईआ ॥ प्रभवनु करै बूझै नही त्रिसना मिलि संगि साध दइआ घरु लहीआ ॥४॥

मूलम्

उपजी तरक दिग्मबरु होआ मनु दह दिस चलि चलि गवनु करईआ ॥ प्रभवनु करै बूझै नही त्रिसना मिलि संगि साध दइआ घरु लहीआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरक = नफरत। दिगंबरु = (दिग+अंबर। दिग = दिशा। अंबरु = कपड़ा) जिसने चारों दिशाओं को ही कपड़ा बनाया है, नांगा, जैनी। दहदिस = दसों दिशाओं में। चलि चलि = जा जा के, भटक भटक के। गवनु = रटन, दौड़ भाग। प्रभवनु = (सारे देशों का) रटन। मिलि = मिल के। दइआ घरु = दया का घर, दया का श्रोत हरि।4।
अर्थ: हे भाई! (कोई मनुष्य ऐसा है जिसके मन में दुनिया के प्रति) नफरत पैदा होती है, वह नांगा साधु बन जाता है, (फिर भी उसका) मन दसों दिशाओं में दौड़-दौड़ के भटकता फिरता है, (वह मनुष्य धरती पर) रटन करता फिरता है, (उसकी माया की) तृष्णा (फिर भी) नहीं मिटती। हाँ, गुरु की संगति में मिल के मनुष्य दया के श्रोत परमात्मा को पा लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसण सिध सिखहि बहुतेरे मनि मागहि रिधि सिधि चेटक चेटकईआ ॥ त्रिपति संतोखु मनि सांति न आवै मिलि साधू त्रिपति हरि नामि सिधि पईआ ॥५॥

मूलम्

आसण सिध सिखहि बहुतेरे मनि मागहि रिधि सिधि चेटक चेटकईआ ॥ त्रिपति संतोखु मनि सांति न आवै मिलि साधू त्रिपति हरि नामि सिधि पईआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिध = सिद्ध (योग साधना में) सिद्धहस्त जोगी। सिखहि = सीखते हैं। मनि = मन में। मागहि = मांगते हैं। रिधि सिधि = रिद्धियां सिद्धियां, करामाती ताकतें। चेटक = करामाती तमाशे। तिपति = (माया से) तृप्ति। मनि = मन में। मिलि साधू = गुरु को मिल के। सिधि = सफलता।5।
अर्थ: हे भाई! (जो साधनों में) पहुँचे हुए जोगी अनेक आसन सीखते हैं (शीर्ष आसन, पदम् आसन आदि), पर वह भी अपने मन में करामाती ताकतों व नाटक-चेटक (करामाती प्रदर्शन) ही माँगते रहते हैं (जिससे वे आम जनता पर अपना प्रभाव डाल सकें)। (उनके) मन में माया की ओर से तृप्ति नहीं होती, उन्हें संतोष नहीं प्राप्त होता, मन में शांति नहीं आती। हाँ, गुरु को मिल के परमात्मा के नाम से मनुष्य तृप्ति हासिल कर लेता है, आत्मिक जीवन की सफलता प्राप्त कर लेता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंडज जेरज सेतज उतभुज सभि वरन रूप जीअ जंत उपईआ ॥ साधू सरणि परै सो उबरै खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु चंडालु चंडईआ ॥६॥

मूलम्

अंडज जेरज सेतज उतभुज सभि वरन रूप जीअ जंत उपईआ ॥ साधू सरणि परै सो उबरै खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु चंडालु चंडईआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंडज = अण्डों से पैदा होने वाले। जेरज = जियोर से (गर्भ से) पैदा होने वाले। सेतज = पसीने से पैदा होने वाले। उतभुज = उद्भिज्ज, धरती में से फूटने वाले। सभि = सारे। वरन = रंग। परै = पड़ता है। उबरै = (संसार समुंदर से) बच निकलता है।6।
अर्थ: हे भाई! अण्डों में से पैदा होने वाले, जियोर में से पैदा होने वाले, पसीने में से पैदा होने वाले, धरती में से फूटने वाले- ये सारे अनेक रूप-रंगों के जीव-जंतु परमात्मा के पैदा किए हुए हैं। (इनमें से जो जीव) गुरु की शरण आ पड़ता है, वह (संसार-समुंदर में से) बच निकलता है, चाहे वह खत्री है चाहे ब्राहमण है, चाहे शूद्र है, चाहे वैश्य है, चाहे महा चण्डाल है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामा जैदेउ क्मबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ ॥ जो जो मिलै साधू जन संगति धनु धंना जटु सैणु मिलिआ हरि दईआ ॥७॥

मूलम्

नामा जैदेउ क्मबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ ॥ जो जो मिलै साधू जन संगति धनु धंना जटु सैणु मिलिआ हरि दईआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउजाति = नीच जाति वाला। साधू जन संगति = संत जनों की संगति में। धनु = धन्य, भाग्यों वाला। दइआ = दया का घर प्रभु।7।
अर्थ: हे भाई! नामदेव, जैदेव, कबीर, त्रिलोचन, नीच जाति वाला रविदास, धन्ना जाट, सैण (नाई) - जो जो भी संत जनों की संगति में मिलता आया है, वह भाग्यशाली बन गया, वह दया के श्रोत परमात्मा को मिल गया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना की हरि पैज रखाई भगति वछलु अंगीकारु करईआ ॥ नानक सरणि परे जगजीवन हरि हरि किरपा धारि रखईआ ॥८॥४॥७॥

मूलम्

संत जना की हरि पैज रखाई भगति वछलु अंगीकारु करईआ ॥ नानक सरणि परे जगजीवन हरि हरि किरपा धारि रखईआ ॥८॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पैज = इज्जत। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला हरि। अंगीकारु = पक्ष। सरणि जग जीवन = जगत के जीवन प्रभु की शरण। रखईआ = रक्षा करता है।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा भक्ति से प्यार करने वाला है, अपने संतजनों की सदा इज्जत रखता आया है, संत जनों का पक्ष करता आया है। जो मनुष्य जगत के जीवन प्रभु की शरण पड़ते हैं, मेहर करके (प्रभु) उनकी रक्षा करता है।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ अंतरि पिआस उठी प्रभ केरी सुणि गुर बचन मनि तीर लगईआ ॥ मन की बिरथा मन ही जाणै अवरु कि जाणै को पीर परईआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ अंतरि पिआस उठी प्रभ केरी सुणि गुर बचन मनि तीर लगईआ ॥ मन की बिरथा मन ही जाणै अवरु कि जाणै को पीर परईआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = (मेरे) अंदर। पिआस = तमन्ना। प्रभ केरी = प्रभु (को मिलने) की। सुणि = सुन के। मनि = (मेरे) मन में। बिरहा = पीड़ा। मन ही = मनु ही। जाणै = जानता है। अवरु को = कोई और। कि = क्या? परईआ = पराई।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मन ही’ में से ‘मनु’ की ‘नु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन सुन के (ऐसे हुआ है जैसे मेरे) मन में (बिरह के) तीर लग गए हैं, मेरे अंदर प्रभु के दर्शन की तमन्ना पैदा हो गई है। हे भाई! (मेरे) मन की (इस वक्त की) पीड़ा को (मेरा अपना) मन ही जानता है। कोई और पराई पीड़ा को क्या जान सकता है?।1।

[[0836]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम गुरि मोहनि मोहि मनु लईआ ॥ हउ आकल बिकल भई गुर देखे हउ लोट पोट होइ पईआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम गुरि मोहनि मोहि मनु लईआ ॥ हउ आकल बिकल भई गुर देखे हउ लोट पोट होइ पईआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे (मेरे) राम! गुरि = गुरु ने। मोहनि = मोहन ने। गुरि मोहनि = मोहन गुरु ने, प्यारे गुरु ने। मोहि लीआ = मोह लिया, अपने वश में कर लिया है। हउ = मैं। आकल बिकल = (disturbed, unnerved) व्याकुल, घबराई हुई। आकल बिकल भई = अपनी चतुराई समझदारी गवा बैठी हूँ। लोट पोट = काबू से बाहर, अपने मन के काबू से बाहर।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) राम! प्यारे गुरु ने (मेरा) मन अपने वश में कर लिया है। गुरु के दर्शन करके (अब) मैं अपनी चतुराई समझदारी गवा बैठी हूँ, मेरा अपना आप मेरे वश में नहीं रहा (मेरा मन और मेरी ज्ञान-इंद्रिय गुरु के वश में हो गई हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ निरखत फिरउ सभि देस दिसंतर मै प्रभ देखन को बहुतु मनि चईआ ॥ मनु तनु काटि देउ गुर आगै जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखईआ ॥२॥

मूलम्

हउ निरखत फिरउ सभि देस दिसंतर मै प्रभ देखन को बहुतु मनि चईआ ॥ मनु तनु काटि देउ गुर आगै जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखईआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरखत फिरउ = (फिरूँ) मैं तलाशती फिरती हूँ। सभि = सारे। दिसंतर = देश+अंतर, देशान्तर। को = का। मनि = (मेरे) मन में। चईआ = चाव। काटि = काट के। देउ = देऊँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। दिखईआ = दिखा दिया है।2।
अर्थ: हे भाई! (मेरे) मन में प्रभु के दर्शन करने की तीव्र इच्छा पैदा हो चुकी है, मैं सारे देशों-देशांतरों में (उसको) तलाशती फिरती हूँ (थी)। जिस (गुरु) ने (मुझे) प्रभु (के मिलाप) का रास्ता दिखा दिया है, उस गुरु के आगे मैंअपना तन काट के भेट कर रही हूँ (अपना आप गुरु के हवाले कर रही हूँ)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोई आणि सदेसा देइ प्रभ केरा रिद अंतरि मनि तनि मीठ लगईआ ॥ मसतकु काटि देउ चरणा तलि जो हरि प्रभु मेले मेलि मिलईआ ॥३॥

मूलम्

कोई आणि सदेसा देइ प्रभ केरा रिद अंतरि मनि तनि मीठ लगईआ ॥ मसतकु काटि देउ चरणा तलि जो हरि प्रभु मेले मेलि मिलईआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आणि सदेसा = संदेश ला के। देइ = देता है। केरा = का। रिद अंतरि = हृदय में। मनि = मन में। तनि = तन में। लगईआ = लगता है। मसतकु = माथा, सिर। काटि = काट के। देउ = मैं देता हूँ। तलि = नीचे।3।
अर्थ: हे भाई! (अब अगर) कोई प्रभु का संदेश ला के (मुझे) देता है, तो वह मेरे दिल, मेरे मन, मेरे तन को प्यारा लगता है। हे भाई! जो कोई सज्जन मुझे प्रभु से मिलाता है, मैं अपना सिर काट के उसके पैरों के नीचे रखने को तैयार हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलु चलु सखी हम प्रभु परबोधह गुण कामण करि हरि प्रभु लहीआ ॥ भगति वछलु उआ को नामु कहीअतु है सरणि प्रभू तिसु पाछै पईआ ॥४॥

मूलम्

चलु चलु सखी हम प्रभु परबोधह गुण कामण करि हरि प्रभु लहीआ ॥ भगति वछलु उआ को नामु कहीअतु है सरणि प्रभू तिसु पाछै पईआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चलु = आ चल। सखी = हे सहेली! प्रभु परबोधह = हम प्रभु (के प्यार) को जगाएं, झकझोलें। कामण = टूणे, मोहित करने वाले गीत, वह गीत जो बारात के आगमन पर लड़कियाँ दूल्हे को वश में करने के लिए गाती हैं। करि = कर के। लहीआ = ढूँढ लें। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। कहीअतु = कहा जाता है। उआ को = उसका।4।
अर्थ: हे सखी! आ चल, हे सखी! आ चल। हम (चल के) प्रभु (के प्यार) को जगा दें, (आत्मिक) गुणों वाले मोहक गीत (कामिनी) गा के उस प्रभु-पति को वश में करें। ‘भक्ति से प्यार करने वाला’ (भक्त वछल) - ये उसका नाम कहा जाता है। (हे सखी! आ) उसकी शरण पड़ जाएं, उसके दर पर गिर पड़ें।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिमा सीगार करे प्रभ खुसीआ मनि दीपक गुर गिआनु बलईआ ॥ रसि रसि भोग करे प्रभु मेरा हम तिसु आगै जीउ कटि कटि पईआ ॥५॥

मूलम्

खिमा सीगार करे प्रभ खुसीआ मनि दीपक गुर गिआनु बलईआ ॥ रसि रसि भोग करे प्रभु मेरा हम तिसु आगै जीउ कटि कटि पईआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खिमा = किसी की ज्यादती को सहने का स्वभाव। सीगार = श्रृंगार, सजावट। मनि = मन में। दीपक = दीया। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बलईआ = जलाती है, जगाती है। रसि रसि = बड़े स्वाद से। भोग करे = मिलाप आनंद लेता है। जीउ = जिंद। कटि कटि = बार बार कट कट के।5।
अर्थ: हे सखी! जो जीव-स्त्री खिमा वाले स्वभाव को अपने आत्मिक जीवन की सजावट बनाती है, जो अपने मन में गुरु से मिली आत्मिक जीवन की सूझ (का) दीपक जगाती है, प्रभु-पति उस पर प्रसन्न हो जाता है। प्रभु उसके आत्मिक मिलाप को बड़े ही आनंद से भोगता है। हे सहेली! मैं उस प्रभु-पति के आगे अपने प्राणों को बार-बार वारने को तैयार हूँ।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि हारु कंठि है बनिआ मनु मोतीचूरु वड गहन गहनईआ ॥ हरि हरि सरधा सेज विछाई प्रभु छोडि न सकै बहुतु मनि भईआ ॥६॥

मूलम्

हरि हरि हारु कंठि है बनिआ मनु मोतीचूरु वड गहन गहनईआ ॥ हरि हरि सरधा सेज विछाई प्रभु छोडि न सकै बहुतु मनि भईआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंठि = गले में। मोतीचूरु = सिर का एक गहना। गहन = गहने। मनि = मन में। भईआ = प्यारा लगता है।6।
अर्थ: हे सखी! परमात्मा के नाम (की हरेक सांस में याद) की माला मैंने (अपने) गले में डाल ली है (याद की इनायत से सुंदर हो चुके अपने) मन को मैंने सबसे बढ़िया मोतीचूर गहना बना लिया है। हरि-नाम की श्रद्धा की मैंने (अपने हृदय में) सेज बिछा दी है, मेरे मन को वह प्रभु-पति बहुत प्यारा लग रहा है (अब तुझे विश्वास है कि) प्रभु-पति मुझे छोड़ के नहीं जा सकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहै प्रभु अवरु अवरु किछु कीजै सभु बादि सीगारु फोकट फोकटईआ ॥ कीओ सीगारु मिलण कै ताई प्रभु लीओ सुहागनि थूक मुखि पईआ ॥७॥

मूलम्

कहै प्रभु अवरु अवरु किछु कीजै सभु बादि सीगारु फोकट फोकटईआ ॥ कीओ सीगारु मिलण कै ताई प्रभु लीओ सुहागनि थूक मुखि पईआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीजै = करते रहें। सभु सीगारु = सारा श्रृंगार। फोकट = फोका, व्यर्थ। मिलण कै ताई = मिलने के लिए। लीओ सुहागनि = सोहागनि को अपनी बना लिया। मुखि = (सिर्फ श्रृंगार करने वाली के) मुँह पर।7।
अर्थ: हे सहेली! (अगर) प्रभु-पति कुछ और कहता रहे, और, (जीव-स्त्री) कुछ और करती रहे, तो (उस जीव-स्त्री का) सारा किया हुआ श्रृंगार (सारा धार्मिक उद्यम) व्यर्थ चला जाता है, बिल्कुल फोका बन जाता है। (उसके) मुँह पर तो थूकें ही पड़ीं, और प्रभु पति ने तो (किसी और) सोहागनि को अपनी बना लिया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम चेरी तू अगम गुसाई किआ हम करह तेरै वसि पईआ ॥ दइआ दीन करहु रखि लेवहु नानक हरि गुर सरणि समईआ ॥८॥५॥८॥

मूलम्

हम चेरी तू अगम गुसाई किआ हम करह तेरै वसि पईआ ॥ दइआ दीन करहु रखि लेवहु नानक हरि गुर सरणि समईआ ॥८॥५॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेरी = दासी। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गुसाई = धरती का पति। किआ हम करह = हम क्या कर सकती हैं? तेरै वसि = तेरे बस में। दीन = गरीबों पर।8।
अर्थ: हे प्रभु! हम तेरी दासियाँ हैं तू अगम्य (पहुँच से परे) और धरती का पति है। हम जीव-स्त्रीयां (तेरे आदेश के बाहर) कुछ नहीं कर सकती, हम तो सदा तेरे वश में हैं। हे नानक! (कह:) हे हरि! हम कंगालों पर मेहर कर, हमें अपने चरणों में रख, हमें गुरु के चरणों में जगह दिए रख।8।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ ॥ मै मनि तनि प्रेमु अगम ठाकुर का खिनु खिनु सरधा मनि बहुतु उठईआ ॥ गुर देखे सरधा मन पूरी जिउ चात्रिक प्रिउ प्रिउ बूंद मुखि पईआ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ ॥ मै मनि तनि प्रेमु अगम ठाकुर का खिनु खिनु सरधा मनि बहुतु उठईआ ॥ गुर देखे सरधा मन पूरी जिउ चात्रिक प्रिउ प्रिउ बूंद मुखि पईआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। मै तनि = मेरे तन में। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सरधा = तमन्ना। सरधा मन = मन की तमन्ना। चात्रिक मुखि = पपीहे के मुँह में।1।
अर्थ: हे सखी! मेरे मन में, मेरे तन में, अगम्य (पहुँच से परे) मालिक-प्रभु का प्यार पैदा हो चुका है, मेरे मन में घड़ी-घड़ी उसके मिलाप की तीव्र इच्छा पैदा हो रही है। हे सखिए! गुरु का दर्शन करके मेरी यह इच्छा पूरी होती है, जैसे ‘प्रिउ प्रिउ’ करते पपीहे के मुँह में (बरखा की) बूँद पड़ जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलु मिलु सखी हरि कथा सुनईआ ॥ सतिगुरु दइआ करे प्रभु मेले मै तिसु आगै सिरु कटि कटि पईआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मिलु मिलु सखी हरि कथा सुनईआ ॥ सतिगुरु दइआ करे प्रभु मेले मै तिसु आगै सिरु कटि कटि पईआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सहेली! कथा = महिमा। सुनईआ = सुनिए। मेले = मिलाता है। मै सिरु = मेरा सिर। पईआ = पड़ाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! आ, इकट्ठे बैठें, एक साथ बैठें (और, बैठ के) परमात्मा की महिमा सुनें। जिसके ऊपर गुरु मेहर करता है, उसको प्रभु (साथ) मिला देता है। उस (गुरु) के आगे मेरा सिर बार-बार कुर्बान जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोमि रोमि मनि तनि इक बेदन मै प्रभ देखे बिनु नीद न पईआ ॥ बैदक नाटिक देखि भुलाने मै हिरदै मनि तनि प्रेम पीर लगईआ ॥२॥

मूलम्

रोमि रोमि मनि तनि इक बेदन मै प्रभ देखे बिनु नीद न पईआ ॥ बैदक नाटिक देखि भुलाने मै हिरदै मनि तनि प्रेम पीर लगईआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रोमि रोमि = हरेक रोम में। बेदन = बिरहा की पीड़ा। बैदक = वैद्य, हकीम। नाटिक = नाड़ी, नब्ज़। देखि = देख के। पीर = पीड़ा।2।
अर्थ: हे सखिए! मेरे हरेक रोम में, मेरे मन में, मेरे तन में (प्रभु से विछोड़े की) पीड़ा है, प्रभु का दर्शन किए बिना मुझे शांति नहीं मिलती। हकीम (मेरी) नब्ज़ देख के (ही) ग़लती खा जाते हैं, (हकीम को नहीं पता कि) मेरे हृदय में, मेरे मन में, मेरे तन में तो प्रभु-प्यार की पीड़ा उठ रही है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु प्रीतम जिउ बिनु अमलै अमली मरि गईआ ॥ जिन कउ पिआस होइ प्रभ केरी तिन्ह अवरु न भावै बिनु हरि को दुईआ ॥३॥

मूलम्

हउ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु प्रीतम जिउ बिनु अमलै अमली मरि गईआ ॥ जिन कउ पिआस होइ प्रभ केरी तिन्ह अवरु न भावै बिनु हरि को दुईआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। सकउ = सकूँ। अमल = नशा। अमली = नशई मनुष्य। पिआस = चाहत, चाहत, तमन्ना। केरी = की। को दुईआ = कोई दूसरा।3।
अर्थ: हे सखी! जैसे कोई नशेड़ी मनुष्य नशे के बग़ैर मरने वाला (लाचार) हो जाता है, वैसे ही मैं प्रीतम-प्रभु के मिलाप के बिना एक छिन एक पल भी नहीं रह सकती। हे सखिए! जिस जीव-स्त्रीयों को प्रभु-पति के मिलाप की तमन्ना होती है, उन्हें प्रभु के बिना और कोई दूसरा अच्छा नहीं लगता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोई आनि आनि मेरा प्रभू मिलावै हउ तिसु विटहु बलि बलि घुमि गईआ ॥ अनेक जनम के विछुड़े जन मेले जा सति सति सतिगुर सरणि पवईआ ॥४॥

मूलम्

कोई आनि आनि मेरा प्रभू मिलावै हउ तिसु विटहु बलि बलि घुमि गईआ ॥ अनेक जनम के विछुड़े जन मेले जा सति सति सतिगुर सरणि पवईआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आनि = आ के। विटहु = से। घुमि गईआ = सदके जाती हूँ।4।
अर्थ: हे सखिए! जो कोई आ के मुझे मेरा प्यारा प्रभु मिला दे, तो मैं उससे सदके कुर्बान जाती हूँ। हे सखिए! जब सतिगुरु की शरण पड़ते हैं, तो सतिगुरु अनेक जन्मों के विछुड़ों को (प्रभु के साथ) मिला देता है।4।

[[0837]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेज एक एको प्रभु ठाकुरु महलु न पावै मनमुख भरमईआ ॥ गुरु गुरु करत सरणि जे आवै प्रभु आइ मिलै खिनु ढील न पईआ ॥५॥

मूलम्

सेज एक एको प्रभु ठाकुरु महलु न पावै मनमुख भरमईआ ॥ गुरु गुरु करत सरणि जे आवै प्रभु आइ मिलै खिनु ढील न पईआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेज = हृदय की सेज। महलु = ठिकाना। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। भरमईआ = भटकती है। करत = करते हुए। आइ = आ के। ढील = देर।5।
अर्थ: हे सखिए! (जीव-स्त्री की) एक हृदय ही सेज है जिस पर ठाकुरु-प्रभु खुद ही बसता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री (प्रभु-पति का) ठिकाना नहीं पा सकती, वह भटकती ही फिरती है। अगर वह ‘गुरु गुरु’ करती गुरु की शरण आ पड़े, तो प्रभु आ के उस को मिल पड़ता है, थोड़ा सा भी वक्त नहीं लगता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि करि किरिआचार वधाए मनि पाखंड करमु कपट लोभईआ ॥ बेसुआ कै घरि बेटा जनमिआ पिता ताहि किआ नामु सदईआ ॥६॥

मूलम्

करि करि किरिआचार वधाए मनि पाखंड करमु कपट लोभईआ ॥ बेसुआ कै घरि बेटा जनमिआ पिता ताहि किआ नामु सदईआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। करि करि = बार बार करके। किरिआचार = क्रिया+आचार, कर्मकांड। मनि = मन में। पाखण्ड = दिखावा। कपट = धोखा, छल। बेसुआ = बाज़ारी औरत। कै घरि = के घर में। ताहि पिता नामु = उसके पिता का नाम। किआ सदईआ = क्या कहा जा सकता है?।6।
अर्थ: पर यदि कोई मनुष्य (गुरु का आसरा छोड़ के हरि नाम का स्मरण भुला के) बार-बार (तीर्थ-यात्रा आदि के निहित हुए धार्मिक कर्म) करके इन कर्मकांडी कर्मों को ही बढ़ाता जाए, तो उसके मन में लोभ छल-कपट दिखावे आदि का कर्म ही टिका रहेगा (पति-प्रभु का मिलाप नहीं होगा)। बाजारी औरत (वैश्या) के घर अगर पुत्र पैदा हो जाए तो उस पुत्र के पिता का कोई नाम नहीं बताया जा सकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरब जनमि भगति करि आए गुरि हरि हरि हरि हरि भगति जमईआ ॥ भगति भगति करते हरि पाइआ जा हरि हरि हरि हरि नामि समईआ ॥७॥

मूलम्

पूरब जनमि भगति करि आए गुरि हरि हरि हरि हरि भगति जमईआ ॥ भगति भगति करते हरि पाइआ जा हरि हरि हरि हरि नामि समईआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरब जनमि = पिछले जनम में। करि = कर के। आए = (मनुष्य जनम में) आ गए। गुरि = गुरु ने। भगति जमईआ = (परमात्मा की) भक्ति (का बीज उनके अंदर) बो दिया। करते = करते हुए। भगति भगति करते = हर समय भक्ति करते हुए। नामि = नाम में।7।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) पिछले जनम में (परमात्मा की) भक्ति करके (अब मानव जन्म में) आए हैं, गुरु ने (उनके अंदर) हर वक्त भक्ति करने का बीज बो दिया है। जब वे हर समय हरि-नाम स्मरण करते-स्मरण करते हरि-नाम में लीन हो गए, तब हर वक्त भक्ति करते हुए उनका परमात्मा से मिलाप हो गया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभि आणि आणि महिंदी पीसाई आपे घोलि घोलि अंगि लईआ ॥ जिन कउ ठाकुरि किरपा धारी बाह पकरि नानक कढि लईआ ॥८॥६॥२॥१॥६॥९॥

मूलम्

प्रभि आणि आणि महिंदी पीसाई आपे घोलि घोलि अंगि लईआ ॥ जिन कउ ठाकुरि किरपा धारी बाह पकरि नानक कढि लईआ ॥८॥६॥२॥१॥६॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। आणि = ला के। आपे = स्वयं ही। घोलि = घोल के। अंगि = शरीर पर। ठाकुरि = ठाकुर ने। पकरि = पकड़ के।8।
अर्थ: (पर, हे भाई! परमात्मा की भक्ति करना जीव के अपने इखि्तयार की बात नहीं है। ये मेहनत, ये कमाई, प्रभु की मेहर से ही हो सकती है। प्रभु की भक्ति करनी, मानो, महिंदी को पीसने के समान है। स्त्री मेहंदी को खुद ही पीसती है, खुद ही घिसती है, और खुद ही उसको अपने हाथों पैरों पर लगाती है। वह स्वयं ही मेहंदी को इस काबिल बनाती है कि वह उस स्त्री के अंगों पर लग सके)। प्रभु ने खुद ही (जीव के मन को अपने चरणों में) लगा-लगा के (भक्ति करने की) मेहंदी (जीव से) पिसवाई है, फिर स्वयं ही उसकी भक्ति-रूपी मेहंदी को घोल-घोल के (रंगीली प्यार-भरी बना-बना के) अपने चरणों में उसे जोड़ा है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस पर मालिक-प्रभु ने मेहर की, उनकी बाँह पकड़ के (उनको संसार-समुंदर में से बाहर) निकाल लिया।8।6।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिलावलु महला ५ असटपदी घरु १२ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिलावलु महला ५ असटपदी घरु १२ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपमा जात न कही मेरे प्रभ की उपमा जात न कही ॥ तजि आन सरणि गही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

उपमा जात न कही मेरे प्रभ की उपमा जात न कही ॥ तजि आन सरणि गही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपमा = बड़ाई। जात न कही = बयान नहीं की जा सकती। तजि = त्याग के। आन = अन्य, और (आसरे)। गही = (मैंने) पकड़ी है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु की महिमा बयान नहीं की जा सकती, (किसी हालत में भी) बयान नहीं की जा सकती। हे भाई! (मैंने तो) और आसरे त्याग के प्रभु का ही आसरा लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ चरन कमल अपार ॥ हउ जाउ सद बलिहार ॥ मनि प्रीति लागी ताहि ॥ तजि आन कतहि न जाहि ॥१॥

मूलम्

प्रभ चरन कमल अपार ॥ हउ जाउ सद बलिहार ॥ मनि प्रीति लागी ताहि ॥ तजि आन कतहि न जाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ अपार = बेअंत प्रभु के। हउ = मैं। जाउ = मैं जाता हूँ। सद = सदा। मनि = (जिनके) मन में। ताहि = उस (प्रभु) की। आन कतहि = किसी भी और जगह। जाहि = जाते (बहुवचन)।
अर्थ: हे भाई! मैं (तो) सदा बेअंत प्रभु के सुंदर चरणों से सदके जाता हूँ। हे भाई! (जिस मनुष्यों के) मन में उस (प्रभु के) प्रति प्यार पैदा हो जाता है, (वे मनुष्य प्रभु का दर) छोड़ के किसी और जगह नहीं जाते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नाम रसना कहन ॥ मल पाप कलमल दहन ॥ चड़ि नाव संत उधारि ॥ भै तरे सागर पारि ॥२॥

मूलम्

हरि नाम रसना कहन ॥ मल पाप कलमल दहन ॥ चड़ि नाव संत उधारि ॥ भै तरे सागर पारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। कहन = उचारना। कलमल = पाप। दहन = जलना। नाव = बेड़ी। (‘हरि नाम कहन’ वाली) बेड़ी। चढ़ि = चढ़ के। उधारि = (डूबने से) बचा लिए गए। भै सागर पारि = भयानक (संसार-) समुंदर से पार। तरे = पार लांघ गए।2।
अर्थ: हे भाई! जीभ से परमात्मा का नाम उचारना अनेक पापों-विकारों की मैल को जलाना है। (अनेक मनुष्य ‘हरि नाम कहन’ वाली) संत जनों की (इस) बेड़ी में चढ़ के (विकारों में डूबने से) बचा लिए जाते हैं (हरि-नाम जपने की बेड़ी में चढ़ के) भयानक संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि डोरि प्रेम परीति ॥ इह संत निरमल रीति ॥ तजि गए पाप बिकार ॥ हरि मिले प्रभ निरंकार ॥३॥

मूलम्

मनि डोरि प्रेम परीति ॥ इह संत निरमल रीति ॥ तजि गए पाप बिकार ॥ हरि मिले प्रभ निरंकार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। डोरि = डोरी, तार, लगन। निरमल रीति = पवित्र करने वाली मर्यादा। निरंकार = आकार रहित प्रभु (को)।3।
अर्थ: हे भाई! (अपने) मन में (प्रभु चरणों के लिए) प्यार भरी लगन पैदा करनी- संत जनों द्वारा बताई हुई इस (जीवन को) पवित्र करने वाली मर्यादा है। (जो मनुष्य ये लगन पैदा करते हैं, वे) सारे पापों-विकारों का साथ छोड़ जाते हैं, वे मनुष्य हरि-प्रभु निरंकार को जा मिलते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ पेखीऐ बिसमाद ॥ चखि अनद पूरन साद ॥ नह डोलीऐ इत ऊत ॥ प्रभ बसे हरि हरि चीत ॥४॥

मूलम्

प्रभ पेखीऐ बिसमाद ॥ चखि अनद पूरन साद ॥ नह डोलीऐ इत ऊत ॥ प्रभ बसे हरि हरि चीत ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखीऐ = देखा जा सकता है, दर्शन कर सकते हैं। प्रभू बिसमाद = आश्चर्य रूप प्रभु को। चखि = चख के। सादु = स्वाद। आनद पूरन साद = पूर्ण आनंद स्वरूप प्रभु (के नाम रस का) स्वाद। नह डोलिऐ = नहीं डोलता। इत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। चीत = चिक्त में।4।
अर्थ: हे भाई! पूर्ण आनंद स्वरूप प्रभु (के नाम-रस) का स्वाद चख के आश्चर्य-रूप प्रभु के दर्शन कर सकते हैं। हे भाई! अगर हरि-प्रभु जी हृदय में बसे रहें, तो इस लोक में और परलोक में (विकारों के हमलों के सामने) घबराहट नहीं होती।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन्ह नाहि नरक निवासु ॥ नित सिमरि प्रभ गुणतासु ॥ ते जमु न पेखहि नैन ॥ सुनि मोहे अनहत बैन ॥५॥

मूलम्

तिन्ह नाहि नरक निवासु ॥ नित सिमरि प्रभ गुणतासु ॥ ते जमु न पेखहि नैन ॥ सुनि मोहे अनहत बैन ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। गुण तासु = सारे गुणों का खजाना। ते = वह बंदे (बहुवचन)। न पेखहि = नहीं देखते। नैन = आँखों से। सुनि = सुन के। अनहत = एक रस (बज रही)। बैन = बेन, बँसरी।5।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुणों के खजाने प्रभु का स्मरण करके उसको सदा (हृदय में बसाए रखते हैं) उनको नर्कों में निवास नहीं मिलता। जो मनुष्य एक रस (बज रही महिमा की) बँसरी सुन के (उसी में) मस्त रहते हैं, वे (अपनी) आँखों से जमराज को नहीं देखते (जमों से उनका वास्ता नहीं पड़ता)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सरणि सूर गुपाल ॥ प्रभ भगत वसि दइआल ॥ हरि निगम लहहि न भेव ॥ नित करहि मुनि जन सेव ॥६॥

मूलम्

हरि सरणि सूर गुपाल ॥ प्रभ भगत वसि दइआल ॥ हरि निगम लहहि न भेव ॥ नित करहि मुनि जन सेव ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूर = सूरमा। भगत वसि = भक्तों के वश में। हरि भेव = हरि का भेद। निगम = वेद। करहि = करते हैं। सेव = सेवा भक्ति।6।
अर्थ: हे भाई! दया का श्रोत परमात्मा (अपने) भक्तों के वश में रहता है, भक्त उस सूरमें गोपाल-हरि की शरण में पड़े रहते हैं। हे भाई! वेद (भी) उस हरि का भेद नहीं पा सकते, सारे ऋषी-मुनि उस (प्रभु) की सेवा-भक्ति सदा करते रहते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुख दीन दरद निवार ॥ जा की महा बिखड़ी कार ॥ ता की मिति न जानै कोइ ॥ जलि थलि महीअलि सोइ ॥७॥

मूलम्

दुख दीन दरद निवार ॥ जा की महा बिखड़ी कार ॥ ता की मिति न जानै कोइ ॥ जलि थलि महीअलि सोइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवार = दूर करने वाला। जा की = जिस (परमात्मा) की। बिखड़ी = मुश्किल। ता की = उस (परमात्मा) की। मिति = माप, पैमायश, हद बंदी। कोइ = कोई भी जीव। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, पाताल में, आकाश में अंतरिक्ष में।7।
अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) की (सेवा-भक्ति) करनी बहुत मुशिकल है वह (परमात्मा) गरीबों के दुख-दर्द दूर करने वाला है। कोई मनुष्य उस (की हस्ती) की हदबंदी नहीं जानता। वह प्रभु जल में, थल में, धरती में, आकाश में स्वयं ही मौजूद है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि बंदना लख बार ॥ थकि परिओ प्रभ दरबार ॥ प्रभ करहु साधू धूरि ॥ नानक मनसा पूरि ॥८॥१॥

मूलम्

करि बंदना लख बार ॥ थकि परिओ प्रभ दरबार ॥ प्रभ करहु साधू धूरि ॥ नानक मनसा पूरि ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = मैं करता हूँ। बंदना = नमस्कार। थकि = थक के, हार के। प्रभ = हे प्रभु! साधू धूरि = संत जनों की धूल। मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। पूरि = पूरी कर।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! (अन्य सभी आसरों से) हार के मैं तेरे दर पे आया हूँ, (तेरे ही दर पर) मैं अनेक बार सिर निवाता हूँ। मुझे (अपने) संत जनों के चरणों की धूल बनाए रख, मेरी ये तमन्ना पूरी कर।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ प्रभ जनम मरन निवारि ॥ हारि परिओ दुआरि ॥ गहि चरन साधू संग ॥ मन मिसट हरि हरि रंग ॥ करि दइआ लेहु लड़ि लाइ ॥ नानका नामु धिआइ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ प्रभ जनम मरन निवारि ॥ हारि परिओ दुआरि ॥ गहि चरन साधू संग ॥ मन मिसट हरि हरि रंग ॥ करि दइआ लेहु लड़ि लाइ ॥ नानका नामु धिआइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! निवारि = दूर कर। दुआरि = (तेरे) दर पर। हारि = हार के, थके के (और तरफ से) आस त्याग के। गहि = पकड़ के। मिसट = मीठा। करि = करके। लड़ि = पल्ले से। नानका = हे नानक!।1।
अर्थ: हे नानक! प्रभु का नाम स्मरण किया कर (और विनती किया कर-) हे प्रभु! (मेरे) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त कर दे, मैं (औरों की) आस त्याग के तेरे दर पर आ गिरा हूँ। (मेहर कर) तेरे संत-जनों के चरण पकड़ के (तेरे संतजनों का) पल्ला पकड़ के, मेरे मन को, हे हरि! तेरा प्यार मीठा लगता रहे। मेहर करके मुझे अपने लड़ लगा ले।1।

[[0838]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीना नाथ दइआल मेरे सुआमी दीना नाथ दइआल ॥ जाचउ संत रवाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दीना नाथ दइआल मेरे सुआमी दीना नाथ दइआल ॥ जाचउ संत रवाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीना नाथ = हे गरीबों के पति! दइआल = हे दया के श्रोत! जाचउ = मैं माँगता हूँ। रवाल = चरण धूल।1। रहाउ।
अर्थ: हे गरीबों के पति! हे दया के श्रोत! हे मेरे स्वामी! हे दीनों के नाथ! हे दयालु! मैं तेरे संत जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसारु बिखिआ कूप ॥ तम अगिआन मोहत घूप ॥ गहि भुजा प्रभ जी लेहु ॥ हरि नामु अपुना देहु ॥ प्रभ तुझ बिना नही ठाउ ॥ नानका बलि बलि जाउ ॥२॥

मूलम्

संसारु बिखिआ कूप ॥ तम अगिआन मोहत घूप ॥ गहि भुजा प्रभ जी लेहु ॥ हरि नामु अपुना देहु ॥ प्रभ तुझ बिना नही ठाउ ॥ नानका बलि बलि जाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। कूप = कूँआ। तम = अंधेरा। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। तम घूप = घोर अंधेरा। मोहत = मोह रहा है। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। ठाउ = जगह, आसरा। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।2।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु के दर पर आस कर, और, कह:) हे प्रभु! मैं (तेरे नाम से) सदके जाता हूं, कुर्बान जाता हूँ। तेरे बिना मेरा और कोई आसरा नहीं है। हे प्रभु! मुझे अपना नाम बख्श। यह जगत माया (के मोह) का कूँआ है, आत्मिक जीवन के प्रति अज्ञानता का घोर-अंधकार (मुझे) मोह रहा है। (मेरी) बाँह पकड़ के (मुझे) बचा ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभि मोहि बाधी देह ॥ बिनु भजन होवत खेह ॥ जमदूत महा भइआन ॥ चित गुपत करमहि जान ॥ दिनु रैनि साखि सुनाइ ॥ नानका हरि सरनाइ ॥३॥

मूलम्

लोभि मोहि बाधी देह ॥ बिनु भजन होवत खेह ॥ जमदूत महा भइआन ॥ चित गुपत करमहि जान ॥ दिनु रैनि साखि सुनाइ ॥ नानका हरि सरनाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोभि = लोभ से, लोभ में। मोहि = मोह में। देह = शरीर। खेह = मिट्टी, राख। भइआन = भयानक, डरावने। चित गुपत = चित्रगुप्त। करमहि = (मेरे) कर्मों को। रैनि = रात। साखि = गवाही। सुनाइ = सुना के। हरि = हे हरि!।3।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेरा शरीर लोभ में मोह में फंसा हुआ है, (तेरा) भजन किए बिना मिट्टी हुआ जा रहा है। (मुझे) जमदूत बड़े ही डरावने (लग रहे हैं)। चित्रगुप्त (मेरे) कर्मों को जानते हैं। दिन और रात (ये भी मेरे कर्मों की) गवाही दे के (यही कह रहे हैं कि मैं कुकर्मी हूँ)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै भंजना मुरारि ॥ करि दइआ पतित उधारि ॥ मेरे दोख गने न जाहि ॥ हरि बिना कतहि समाहि ॥ गहि ओट चितवी नाथ ॥ नानका दे रखु हाथ ॥४॥

मूलम्

भै भंजना मुरारि ॥ करि दइआ पतित उधारि ॥ मेरे दोख गने न जाहि ॥ हरि बिना कतहि समाहि ॥ गहि ओट चितवी नाथ ॥ नानका दे रखु हाथ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = सारे डर। मुरारि = हे प्रभु! भै भंजना = हे सारे डर नाश करने वाले! करि = कर के। पतित = विकारी। उधारि = बचा ले। दोख = ऐब, पाप। कतहि = और कहाँ? समाहि = समा सकते हैं, माफ हो सकते हैं। गहि = पकड़ ले (मेरी बाँह)। ओट = आसरा। चितवी = (मैंने) सोची है। नाथ = हे नाथ! दे हाथ = हाथ दे के।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सारे डरों को नाश करने वाले प्रभु! मेहर करके (मुझ) विकारी को (विकारों से) बचा ले। मेरे विकार गिने नहीं जा सकते (अनगिनत हैं)। हे हरि! तेरे बिना किसी और के दर पर भी ये बख्शे नहीं जा सकते। हे नाथ! मैंने तेरा ही आसरा सोचा है, (मेरी बाँह) पकड़ ले, (अपना) हाथ दे के मेरी रक्षा कर।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण निधे गोपाल ॥ सरब घट प्रतिपाल ॥ मनि प्रीति दरसन पिआस ॥ गोबिंद पूरन आस ॥ इक निमख रहनु न जाइ ॥ वड भागि नानक पाइ ॥५॥

मूलम्

हरि गुण निधे गोपाल ॥ सरब घट प्रतिपाल ॥ मनि प्रीति दरसन पिआस ॥ गोबिंद पूरन आस ॥ इक निमख रहनु न जाइ ॥ वड भागि नानक पाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुण निधे = हे गुणों के खजाने! गोपाल = हे सृष्टि के पालनहार! घट = शरीर। प्रतिपाल = हे पालने वाले! मनि = (मेरे) मन में। पिआस = तमन्ना। पूरन आस = आशा पूरी कर। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। वड भागि = बड़ी किस्मत से। पाइ = (तेरा मिलाप) हासिल कर सकता हूँ।5।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! हे गुणों के खजाने! हे धरती के रक्षक! हे सब शरीरों के पालनहार! हे गोबिंद! (मेरे मन की) आस पूरी कर, (मेरे) मन में (तेरी) प्रीति (बनी रहे, तेरे) दर्शनों की चाहत (बनी रहे, तेरे दर्शन के बिना मुझसे) एक पल भर के लिए भी रहा नहीं जा सकता। बहुत भाग्यों से ही कोई तेरा मिलाप प्राप्त करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ तुझ बिना नही होर ॥ मनि प्रीति चंद चकोर ॥ जिउ मीन जल सिउ हेतु ॥ अलि कमल भिंनु न भेतु ॥ जिउ चकवी सूरज आस ॥ नानक चरन पिआस ॥६॥

मूलम्

प्रभ तुझ बिना नही होर ॥ मनि प्रीति चंद चकोर ॥ जिउ मीन जल सिउ हेतु ॥ अलि कमल भिंनु न भेतु ॥ जिउ चकवी सूरज आस ॥ नानक चरन पिआस ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मनि = (मेरे) मन में। मीन = मछली। सिउ = से। हेतु = प्यार। अलि = भौरा। कमल = कमल का फूल। भिंनु = अलग। भेतु = दूरी। पिआस = चाहत, तमन्ना। भिंनु भेतु = भिन्न भेद, फर्क।6।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरे बिना (मेरा कोई) और (आसरा) नहीं है। (मेरे) मन में (तेरे चरणों की) प्रीति है (जैसे) चकोर को चाँद से प्यार है, जैसे मछली को पानी से प्यार है, (जैसे) भौंरे का कमल पुष्प् से कोई फर्क नहीं रह जाता, जैसे चकवी को सूर्य (उदय) की उम्मीद लगी रहती है (इसी तरह, हे प्रभु! मुझे तेरे) चरणों की चाहत है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ तरुनि भरत परान ॥ जिउ लोभीऐ धनु दानु ॥ जिउ दूध जलहि संजोगु ॥ जिउ महा खुधिआरथ भोगु ॥ जिउ मात पूतहि हेतु ॥ हरि सिमरि नानक नेत ॥७॥

मूलम्

जिउ तरुनि भरत परान ॥ जिउ लोभीऐ धनु दानु ॥ जिउ दूध जलहि संजोगु ॥ जिउ महा खुधिआरथ भोगु ॥ जिउ मात पूतहि हेतु ॥ हरि सिमरि नानक नेत ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरुनि = जवान स्त्री। भरत = पति। परान = प्राण, जिंद, बहुत प्यारा। लोभीऐ = लोभी को, लालची मनुष्य को। दानु = दिया जाना, प्राप्ति। जलहि = पानी से। संजोगु = मिलाप। खुधियारथ = छुद्धार्थ, भुखे को। भोगु = भोजन। पूतहि = पुत्र से। हेतु = प्यार। नेत = नित्य, सदा।7।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जैसे जवान स्त्री को (अपना) पति बहुत प्यारा होता है, जैसे लालची मनुष्य को धन-प्राप्ति (से खुशी मिलती है), जैसे दूध का पानी से मिलाप हो जाता है, जैसे बहुत भूखे को भोजन (तृप्त कर देता है), जैसे माँ का पुत्र से प्यार होता है, वैसे ही सदा परमात्मा को (प्यार से, स्नेह से) स्मरण किया कर।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ दीप पतन पतंग ॥ जिउ चोरु हिरत निसंग ॥ मैगलहि कामै बंधु ॥ जिउ ग्रसत बिखई धंधु ॥ जिउ जूआर बिसनु न जाइ ॥ हरि नानक इहु मनु लाइ ॥८॥

मूलम्

जिउ दीप पतन पतंग ॥ जिउ चोरु हिरत निसंग ॥ मैगलहि कामै बंधु ॥ जिउ ग्रसत बिखई धंधु ॥ जिउ जूआर बिसनु न जाइ ॥ हरि नानक इहु मनु लाइ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीप = दीया। पतन = गिरना (पत् = जव सिंस)। पतंग = पतंगा। हिरत = चुराता है। निसंग = शर्म उतार के। मैगल = हाथी। कामै बंदु = काम-वासना का मेल। बंधु = सम्बंध, मेल। ग्रसत = ग्रसता है, काबू किए रखता है। धंधु = (विषियों का) धंधा। बिखई = विषयी (मनुष्य) को। बिसनु = (व्यसन) बुरी आदत। लाइ = जोड़े रख।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जैसे (प्रेम में बँधे हुए) पतंगे दीए पर गिरते हैं, जैसे चोर शर्म त्याग के चोरी करता है, जैसे हाथी का काम-वासना के साथ मेल है, जैसे (विषियों का) धंधा विषयी मनुष्य को ग्रसे रखता है, जैसे जुआरी की (जूआ खेलने की) बुरी आदत दूर नहीं होती, वैसे ही (अपने) इस मन को (प्रभु-चरणों में प्यार से, स्नेह से) जोड़े रख।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरंक नादै नेहु ॥ चात्रिकु चाहत मेहु ॥ जन जीवना सतसंगि ॥ गोबिदु भजना रंगि ॥ रसना बखानै नामु ॥ नानक दरसन दानु ॥९॥

मूलम्

कुरंक नादै नेहु ॥ चात्रिकु चाहत मेहु ॥ जन जीवना सतसंगि ॥ गोबिदु भजना रंगि ॥ रसना बखानै नामु ॥ नानक दरसन दानु ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुरंक = हिरन। नादै नेहु = नाद का प्यार। नाद = खाल से मढ़े हुए घड़े की आवाज। चात्रिकु = पपीहा। मेहु = वर्षा। सतसंगि = सत्संग में। रंगि = प्यार में। बखानै = उचारता है। दरसन दानु = दर्शन की दाति।9।
अर्थ: जैसे हिरन का घंडेखेड़े की आवाज़ से प्यार होता है, जैसे पपीहा (हर वक्त) वर्षा माँगता है, वैसे ही, हे नानक! (परमात्मा के) सेवक का (सुखी) जीवन साधु-संगत में (ही होता) है, सेवक प्यार से परमात्मा (के नाम) को जपता है, (अपनी) जीभ से (परमात्मा का) नाम उचारता रहता है और (परमात्मा के) दर्शनों की दाति (माँगता रहता है)।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुन गाइ सुनि लिखि देइ ॥ सो सरब फल हरि लेइ ॥ कुल समूह करत उधारु ॥ संसारु उतरसि पारि ॥ हरि चरन बोहिथ ताहि ॥ मिलि साधसंगि जसु गाहि ॥ हरि पैज रखै मुरारि ॥ हरि नानक सरनि दुआरि ॥१०॥२॥

मूलम्

गुन गाइ सुनि लिखि देइ ॥ सो सरब फल हरि लेइ ॥ कुल समूह करत उधारु ॥ संसारु उतरसि पारि ॥ हरि चरन बोहिथ ताहि ॥ मिलि साधसंगि जसु गाहि ॥ हरि पैज रखै मुरारि ॥ हरि नानक सरनि दुआरि ॥१०॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाइ = गा के। सुनि = सुन के। लिखि = लिख के। देइ = देता है। सरब फल हरि = सारे फल देने वाला हरि। लेइ = (मिलाप) हासल करता है। कुल समूह = सारी कुलों को। उधारु = पार उतारा। उतरसि = पार लांघ जाता है। बोहिथ = जहाज़। ताहि = उनके वास्ते। मिलि = मिल के। साध संगि = गुरु की संगति में। जसु = महिमा। गाहि = गाते हैं (बहुवचन)। पैज = सत्कार, इज्जत। दुआरि = दर पे।10।
अर्थ: जो मनुष्य (परमात्मा के) गुण गा गा के, सुन के, लिख के (यह दाति और लोगों को भी) देता है, वह मनुष्य सारे फल देने वाले प्रभु का मिलाप प्राप्त कर लेता है। वह मनुष्य (अपनी) सारी कुलों का (ही) पार-उतारा करवा लेता है, वह मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु की संगति में मिल के परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहते हैं, (संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए) परमात्मा के चरण उनके लिए जहाज़ (का काम देते) हैं। मुरारी प्रभु उनकी इज्जत रखता है, वे हरि की शरण पड़े रहते हैं, वे हरि के दर पर टिके रहते हैं।10।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला १ थिती घरु १० जति ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला १ थिती घरु १० जति ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकम एकंकारु निराला ॥ अमरु अजोनी जाति न जाला ॥ अगम अगोचरु रूपु न रेखिआ ॥ खोजत खोजत घटि घटि देखिआ ॥ जो देखि दिखावै तिस कउ बलि जाई ॥ गुर परसादि परम पदु पाई ॥१॥

मूलम्

एकम एकंकारु निराला ॥ अमरु अजोनी जाति न जाला ॥ अगम अगोचरु रूपु न रेखिआ ॥ खोजत खोजत घटि घटि देखिआ ॥ जो देखि दिखावै तिस कउ बलि जाई ॥ गुर परसादि परम पदु पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थिती = तिथिएं। थिति = a lunar day, चाँद के कम होने बढ़ने के हिसाब से दिन।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘थिती’ शब्द ‘थिति’ का बहुवचन; जैसे ‘राति’ से ‘राती’, ‘रुति’ से ‘रुती’।
नोट: पूरनमासी को चाँद वाला महीना पूरा हो जाता है। आगे नया महीना चढ़ता है: वदी, ऐकम, दूज, तीज आदि…।

दर्पण-भाषार्थ

जति = जोड़ी (तबला) बजाने की एक गति।
एकम = चाँद के महीने की पहली तारीख। निराला = (निर+आलय) जिसका कोई खास घर नहीं। जाला = जाल, बंधन। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं। रूपु = शकल। रेखिआ = निशान। घटि घटि = हरेक शरीर में। जो = जो (गुरु)। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाई = मैं प्राप्त कर सकता हूँ। परसादि = कृपा से।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: परमात्मा एक है (उसके बराबर का और कोई नहीं)। उसका कोई खास घर नहीं, वह कभी मरता नहीं, वह जूनियों में नहीं आता, उसकी कोई खास जाति नहीं, उसको (माया आदि का) कोई बंधन नहीं (व्यापता)। वह एक परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, (मनुष्य के) ज्ञान-इन्द्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती, (क्योंकि) उसकी कोई खास शक्ल नहीं, कोई खास निशान (चिन्ह) नहीं। पर तलारश करते-करते उसे हरेक शरीर में देखा जा सकता है।
मैं उस (गुरु) से सदके जाता हूँ जो (हरेक शरीर में प्रभु को) देख के (और लोगों को भी) दिखा देता है। गुरु की कृपा से (ही उसके हरेक शरीर में दर्शन करने की) ऊँची से ऊँची पदवी मैं प्राप्त कर सकता हूँ।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ जपु जापउ बिनु जगदीसै ॥ गुर कै सबदि महलु घरु दीसै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ जपु जापउ बिनु जगदीसै ॥ गुर कै सबदि महलु घरु दीसै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ जपु = और कौन सा जप? जापउ = मैं जपूँ? जगदीस = (जगत+ईश) जगत का मालिक। सबदि = शब्द से, शब्द में जुड़ने से। महलु = परमात्मा का ठिकाना। दीसै = दिख सकता है।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के शब्द में जुड़ के (परमात्मा का स्मरण करने से परमात्मा का) दर-घर दिख सकता है (परमातमा के चरणों में टिक सकते हैं, इसलिए) जगत के मालिक परमात्मा के स्मरण के बिना मैं और कोई भी जाप नहीं जपता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजै भाइ लगे पछुताणे ॥ जम दरि बाधे आवण जाणे ॥ किआ लै आवहि किआ ले जाहि ॥ सिरि जमकालु सि चोटा खाहि ॥ बिनु गुर सबद न छूटसि कोइ ॥ पाखंडि कीन्है मुकति न होइ ॥२॥

मूलम्

दूजै भाइ लगे पछुताणे ॥ जम दरि बाधे आवण जाणे ॥ किआ लै आवहि किआ ले जाहि ॥ सिरि जमकालु सि चोटा खाहि ॥ बिनु गुर सबद न छूटसि कोइ ॥ पाखंडि कीन्है मुकति न होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाइ = प्रेम में। भाउ = प्रेम। दूजै भाइ = (प्रभु को भुला के) किसी और प्रेम में। जम दरि = जम के दर पर। बाधे = बंधे हुए। आवण जाणे = जनम जनम के चक्कर। किआ लै = क्या ले के, खाली-हाथ। जाहि = चले जाते हैं। सिरि = सिर पर। जमकालु = मौत, जमराज, मौत का डर, आत्मिक मौत। सि = ऐसे लोग। खाहि = खाते हैं। न छूटसि = खलासी प्राप्त नहीं करेगा। कोइ = कोई जीव। पाखंडि = पाखण्ड से। पाखंडि कीन्है = किए हुए पाखण्ड से, पाखण्ड करने से। मुकति = (आत्मिक मौत से) मुक्तिं2।
अर्थ: जो जीव (परमात्मा को बिसार के) किसी अन्य मोह में फंसे रहते हैं वह (आखिर) पछताते हैं। वे जमराज के दर पर बँधे रहते हैं, उनके जनम-मरण का चक्कर बना रहता है। जगत में खाली हाथ आते हैं (भाव, स्मरण सेवा आदि की आत्मिक राशि-पूंजी तो इकट्ठी ना की, व और जोड़ा हुआ कमाया धन-पदार्थ जगत में ही रह गया)। उनके सिर पर आत्मिक मौत (हर वक्त खड़ी रहती है) और वे (नित्य इस आत्मिक मौत की) चोटें सहते रहते हैं।
गुरु के शब्द के बिना कोई मनुष्य आत्मिक मौत से नहीं बच सकता। पाखण्ड करने से (बाहर से धार्मिक भेस बनाने से) विकारों से खलासी नहीं मिल सकती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे सचु कीआ कर जोड़ि ॥ अंडज फोड़ि जोड़ि विछोड़ि ॥ धरति अकासु कीए बैसण कउ थाउ ॥ राति दिनंतु कीए भउ भाउ ॥ जिनि कीए करि वेखणहारा ॥ अवरु न दूजा सिरजणहारा ॥३॥

मूलम्

आपे सचु कीआ कर जोड़ि ॥ अंडज फोड़ि जोड़ि विछोड़ि ॥ धरति अकासु कीए बैसण कउ थाउ ॥ राति दिनंतु कीए भउ भाउ ॥ जिनि कीए करि वेखणहारा ॥ अवरु न दूजा सिरजणहारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = (परमात्मा) स्वयं ही। सचु = सदा कायम रहने वाला। कीआ = (ये ब्रहमण्ड सदा-स्थिर प्रभु ने खुद ही) बनाया है। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ कर। कर जोड़ि = हाथ जोड़ के, हाथ हिला के, उद्यम करके, हुक्म करके। अंडज = ब्रहमाण्ड। फोड़ि = तोड़ के, नाश करके। जोड़ि = जोड़ के, (फिर) पैदा करके। विछोड़ि = विछोड़ के, तोड़ के नाश करके। कीए = बनाए हैं। बैसण कउ = बैठने के लिए, (जीवों के) बसने के लिए। दिनंतु = दिन। भउ = डर। भाउ = प्यार। जिनि = जिस (परमात्म) ने। करि = (पैदा) करके। अवरु = (कोई) और।3।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, (ये ब्रहमण्ड उस सदा स्थिर प्रभु ने) हुक्म करके (स्वयं ही) पैदा किया है। इस ब्रहमण्ड को नाश करके, (फिर) पैदा करके, (फिर) नाश करके (फिर आप ही पैदा कर देता है)।
हे भाई! (ये) धरती (और) आकाश (परमात्मा ने जीवों के) बसने के लिए जगह बनाई है। (परमात्मा ने स्वयं ही) दिन और रात बनाए हैं, (जीवों के अंदर) डर और प्यार (भी परमात्मा ने खुद ही पैदा किए हैं)।
हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (सारे जीव) पैदा किए हैं, (इनको) पैदा करके (स्वयं ही इनकी) सम्भाल करने वाला है। हे भाई! (परमात्मा के बिना) कोई और दूसरा (इस ब्रहिमण्ड को) पैदा करने वाला नहीं है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रितीआ ब्रहमा बिसनु महेसा ॥ देवी देव उपाए वेसा ॥ जोती जाती गणत न आवै ॥ जिनि साजी सो कीमति पावै ॥ कीमति पाइ रहिआ भरपूरि ॥ किसु नेड़ै किसु आखा दूरि ॥४॥

मूलम्

त्रितीआ ब्रहमा बिसनु महेसा ॥ देवी देव उपाए वेसा ॥ जोती जाती गणत न आवै ॥ जिनि साजी सो कीमति पावै ॥ कीमति पाइ रहिआ भरपूरि ॥ किसु नेड़ै किसु आखा दूरि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रितीआ = तृतीया, पूरनमासी के बाद का तीसरा दिन। महेसा = शिव। उपाए = पैदा किए। वेसा = वेश, स्वरूप। जोति = प्रकाश, रोशनी। जाती = जाति, हस्ती। जिनि = जिस (कर्तार) ने। सो = वह परमात्मा। कीमति = कद्र, मूल्य। आखा = मैं कहूँ।4।
अर्थ: परमात्मा ने ही ब्रहमा, विष्णु और शिव को पैदा किया, परमात्मा ने ही देवियाँ-देवते आदि अनेक हस्तियाँ पैदा कीं। दुनियां को रौशन करने वाली इतनी हस्तियां उसने पैदा की हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती।
जिस परमात्मा ने (ये सारी सृष्टि) पैदा की है वह (ही) इसकी कद्र जानता है (भाव, इससे प्यार करता है, और) इसमें हर जगह मौजूद (इसकी सम्भाल करता) है। मैं क्या बताऊँ कि किस के वह परमात्मा नजदीक है और किस से दूर? (भाव, परमात्मा ना किसी के नजदीक है ना ही किसी से दूर, हरेक में एक-समान व्यापक है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चउथि उपाए चारे बेदा ॥ खाणी चारे बाणी भेदा ॥ असट दसा खटु तीनि उपाए ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ तीनि समावै चउथै वासा ॥ प्रणवति नानक हम ता के दासा ॥५॥

मूलम्

चउथि उपाए चारे बेदा ॥ खाणी चारे बाणी भेदा ॥ असट दसा खटु तीनि उपाए ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ तीनि समावै चउथै वासा ॥ प्रणवति नानक हम ता के दासा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउथि = पूरनमासी के बाद का चौथा दिन। चारे बेद = ऋग, यजुर, साम, अथर्व वेद। खाणी चारे = जगत उत्पक्ति की चारों खानें (अण्डज, जेरज, सेतज और उतभुज)। बाणी भेदा = अलग अलग बोलियां। असट = आठ। असट दसा = (आठ और दस) अठारह पुराण। खटु = छै (शास्त्र) (सांख, योग, न्याय, विषौशिक, मीमांसा, वेदांत)। तीनि = (माया के) तीन गुण (रजो, सतो, तमो)। समावै = समाप्त कर लिए। चउथै = चौथे (पद) में, आत्मिक अडोलता में। ता के = उस (गुरमुख) के।5।
अर्थ: परमात्मा ने स्वयं ही चार वेद पैदा किए हैं, स्वयं ही (जगत उत्पक्ति की) चार खाणियां पैदा की हैं और खुद ही जीवों की अलग-अलग बोलियां बना दी हैं। अकाल पुरख ने खुद ही अठारह पुराण छह शास्त्र और (माया के) तीन (गुण) पैदा किए हैं। इस भेद को वही मनुष्य समझता है जिस को परमात्मा खुद समझ बख्शे।
नानक विनती करता है: मैं उस मनुष्य का दास हूँ जो माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा के आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंचमी पंच भूत बेताला ॥ आपि अगोचरु पुरखु निराला ॥ इकि भ्रमि भूखे मोह पिआसे ॥ इकि रसु चाखि सबदि त्रिपतासे ॥ इकि रंगि राते इकि मरि धूरि ॥ इकि दरि घरि साचै देखि हदूरि ॥६॥

मूलम्

पंचमी पंच भूत बेताला ॥ आपि अगोचरु पुरखु निराला ॥ इकि भ्रमि भूखे मोह पिआसे ॥ इकि रसु चाखि सबदि त्रिपतासे ॥ इकि रंगि राते इकि मरि धूरि ॥ इकि दरि घरि साचै देखि हदूरि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच भूत = पाँच तत्वों में ही प्रवृत जीव। बेताला = जीवन विधि से, ताल से टूटे हुए जीव, भूतने। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँचना) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। निराला = (निर+आलय) जिसका कोई खास घर नहीं, जो किसी खास एक शरीर घर में नहीं, निर्लिप। इकि = कई, अनेक जीव। भ्रमि = भटकना में पड़ के। भूखे = माया की भूख के अधीन, तृष्णा में लिप्त। रसु = नाम रस। त्रिपतासे = माया से तृप्त। राते = रंगे हुए। मरि = (आत्मिक मौत) मर के, आत्मिक जीवन गवा के। धूरि = मिट्टी। दरि = प्रभु के दर से। घरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के घर में। देखि = देख के।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सर्व-व्यापक (पुरख) परमात्मा स्वयं तो ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है और निर्लिप है पर उसके पैदा किए हुए जो जीव पाँच तत्वों में ही प्रवृक्त हैं वे सही जीवन विधि से टूटे हुए हैं। (ऐसे) अनेक जीव भटकना के कारण तृष्णा-अधीन हैं, माया के मोह में फंसे हुए हैं। पर कई ऐसे (भाग्यशाली) हैं जो (परमात्मा के नाम का) स्वाद चख के गुरु के शब्द में जुड़ के माया की ओर से तृप्त हैं, और परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुए हैं। पर एक ऐसे हैं जो आत्मिक मौत सहेड़ के मिट्टी हुए पड़े हैं (बिल्कुल ही जीवन गवा चुके हैं)। एक ऐसे हैं जो प्रभु को अपने अंग-संग देख के उस सदा स्थिर प्रभु के दर पे टिके रहते हैं उसके चरणों में जुड़े रहते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झूठे कउ नाही पति नाउ ॥ कबहु न सूचा काला काउ ॥ पिंजरि पंखी बंधिआ कोइ ॥ छेरीं भरमै मुकति न होइ ॥ तउ छूटै जा खसमु छडाए ॥ गुरमति मेले भगति द्रिड़ाए ॥७॥

मूलम्

झूठे कउ नाही पति नाउ ॥ कबहु न सूचा काला काउ ॥ पिंजरि पंखी बंधिआ कोइ ॥ छेरीं भरमै मुकति न होइ ॥ तउ छूटै जा खसमु छडाए ॥ गुरमति मेले भगति द्रिड़ाए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झूठा = झूठ का वयापारी जीव। पति = इज्जत। नाउ = नाम, इज्जत। सूचा = पवित्र। पिंजरि = पिंजरे में। बंधिआ = कैद किया हुआ। छेरीं = पिंजरे की जाली की खाली जगहों, छेदों में। भरमै = भटकता है। मुकति = पिंजरे से मुक्ति। तउ = तब ही। खसमु = मालिक, पति। द्रिढ़ाए = दृढ़ कर दे, हृदय में पक्का कर देता है।7।
अर्थ: जो मनुष्य दुनियावी पदार्थों का ही प्रेमी बना रहता है, उसको (लोक-परलोक में कहीं भी) आदर-सम्मान नसीब नहीं होता। जिस मनुष्य का मन विकारों से कौए की तरह काला हो जाए वह (माया में फंसा रह के) कभी भी पवित्र नहीं हो सकता।
कोई पक्षी पिंजरे में कैद हो जाए, वह पिंजरे की विरलों में चाहे भटकता फिरे (पर, इस तरह वह पिंजरें की) कैद में से निकल नहीं सकता। तब ही पिंजरे में से आजाद होगा जब उसका मालिक उसको आजादी देगा (वैसे ही माया के मोह में कैद जीव को मालिक प्रभु खुद ही खलासी देता है)। प्रभु उसको गुरु की मति से जोड़ता है, अपनी भक्ति उसके हृदय में पक्की कर देता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खसटी खटु दरसन प्रभ साजे ॥ अनहद सबदु निराला वाजे ॥ जे प्रभ भावै ता महलि बुलावै ॥ सबदे भेदे तउ पति पावै ॥ करि करि वेस खपहि जलि जावहि ॥ साचै साचे साचि समावहि ॥८॥

मूलम्

खसटी खटु दरसन प्रभ साजे ॥ अनहद सबदु निराला वाजे ॥ जे प्रभ भावै ता महलि बुलावै ॥ सबदे भेदे तउ पति पावै ॥ करि करि वेस खपहि जलि जावहि ॥ साचै साचे साचि समावहि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खसटी = छेवीं तिथि। खटु दरसन = छह भेस (जोगी, सन्यासी, जंगम, बोधी, सरेवड़े, बैरागी)। प्रभ = प्रभु की खातिर, प्रभु को मिलने के लिए। अनहद = एक रस, बिना बजाए बजने वाला। सबदु = महिमा की धुनि। निराला = अलग ही, (भेषों के आडंबरों से) अलग ही। प्रभ भावै = प्रभु को पसंद आ जाए। महलि = अपनी हजूरी में। सबदे = महिमा की वाणी से। भेदे = भेद डाले, मोहित कर लिए। तउ = तब। पति = इज्जत। वेस = धार्मिक पहरावे। जलि जावहि = जल जाते हैं। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। साचे = सदा स्थिर प्रभु का रूप हो के। साचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम के स्मरण से।8।
अर्थ: प्रभु को मिलने के लिए (जोगी-सन्यासी आदि) छह भेस बनाए गए, पर एक-रस महिमा का शब्द (का बाजा इन भेखों के बाजे से) अलग ही बजता है (भिन्न प्रभाव डालता है)। अगर प्रभु को (कोई भाग्यशाली) भा जाए, तो उसको प्रभु अपने चरणों में जोड़ लेता है। जब कोई मनुष्य महिमा की वाणी के द्वारा (अपने मन को प्रभु की याद में) परो लेता है, तब वह (प्रभु की हजूरी में) आदर-सम्मान पाता है।
जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के नाम स्मरण से सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाते हैं वे सदा-स्थिर प्रभु में लीन हो जाते हैं। पर, (भेखी साधु) धार्मिक भेस कर-कर के ही खपते रहते हैं और (तृष्णा की अग्नि में) जलते रहते हैं।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सपतमी सतु संतोखु सरीरि ॥ सात समुंद भरे निरमल नीरि ॥ मजनु सीलु सचु रिदै वीचारि ॥ गुर कै सबदि पावै सभि पारि ॥ मनि साचा मुखि साचउ भाइ ॥ सचु नीसाणै ठाक न पाइ ॥९॥

मूलम्

सपतमी सतु संतोखु सरीरि ॥ सात समुंद भरे निरमल नीरि ॥ मजनु सीलु सचु रिदै वीचारि ॥ गुर कै सबदि पावै सभि पारि ॥ मनि साचा मुखि साचउ भाइ ॥ सचु नीसाणै ठाक न पाइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरीरि = (जिसके) शरीर में। सचु = दान, सेवा। सात समुंदु = पाँच ज्ञान इन्द्रिया और मन व बुद्धि। नीरि = (नाम-) जल से। सीलु = पवित्र आचरण। मजनु = स्नान। सचु = सदा स्थिर प्रभु। वीचारि = बिचार के, टिका के। सबदि = शब्द से। पावै पारि = पार लंघा लेता है। सभि = सारे सात समुंद्रों को। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। साचउ = सदा स्थिर प्रभु। भाइ = प्रेम में। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। नीसाणै = नीसाण के कारण, राहदारी के कारण।9।
अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर दूसरों की सेवा व संतोख (पलते) हैं, जिस मनुष्य की पाँचों ज्ञान-इंद्रिय मन व बुद्धि परमात्मा के पवित्र नाम-जल से पवित्र भरपूर हो जाती हैं, जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु को अपने दिल में टिका के (अंतर-आत्मे) पवित्र-आचरण-रूप स्नान करता रहता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से सभी को (भाव पाँचों ज्ञान-इंद्रिय मन व बुद्धि को विकारों के प्रभाव से बचा के) पार लंघा लेता है।
जिस मनुष्य के मन में सदा-स्थिर प्रभु बसता है, जिस मनुष्य की जीभ पर सदा-स्थिर प्रभु ही बसता है जो सदा प्रभु के प्रेम में लीन रहता है, सदा-स्थिर नाम उसके पास (जीवन-यात्रा में) राहदारी है, इस राहदारी के कारण (उसके रास्ते में विकार आदि की कोई) रोक व्यवधान नहीं पड़ता।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असटमी असट सिधि बुधि साधै ॥ सचु निहकेवलु करमि अराधै ॥ पउण पाणी अगनी बिसराउ ॥ तही निरंजनु साचो नाउ ॥ तिसु महि मनूआ रहिआ लिव लाइ ॥ प्रणवति नानकु कालु न खाइ ॥१०॥

मूलम्

असटमी असट सिधि बुधि साधै ॥ सचु निहकेवलु करमि अराधै ॥ पउण पाणी अगनी बिसराउ ॥ तही निरंजनु साचो नाउ ॥ तिसु महि मनूआ रहिआ लिव लाइ ॥ प्रणवति नानकु कालु न खाइ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असट = आठ। असटमी = आठवीं। असट सिधि = आठ सिद्धियां (अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशिता, वशिता)। बुधि = अक्ल। साधै = काबू में रखता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। निहकेवलु = (निष्कैवल्य) पवित्र। करमि = (प्रभु की) मेहर से। अराधै = स्मरण करता है। पउण = रजो गुण। पाणी = सतो गुण। अगनी = तमो गुण। बिसराउ = अभाव। तिसु महि = उस परमात्मा में। प्रणवति = विनती करता है। कालु = आत्मिक मौत।10।
अर्थ: जो मनुष्य (जोगियों वाली) आठ सिद्धियां हासिल करने की चाहत रखने वाली बुद्धि को अपने काबू में रखता है (भाव, जो मनुष्य सिद्धियाँ प्राप्त करने की लालसा से ऊपर रहता है), जो पवित्र-स्वरूप सदा-स्थिर प्रभु को उसकी मेहर से (सदा) स्मरण करता है, जिसके हृदय में रजो, सतो और तमो गुण का अभाव रहता है, उसके हृदय में निर्लिप परमात्मा बसता है, सदा-स्थिर प्रभु का नाम बसता है।
जिस मनुष्य का मन उस अकाल-पुरख में सदा लीन रहता है, नानक कहता है, उसको आत्मिक मौत नहीं खाती (आत्मिक मौत उसके आत्मिक जीवन को बर्बाद नहीं करती)।10।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नाउ नउमी नवे नाथ नव खंडा ॥ घटि घटि नाथु महा बलवंडा ॥ आई पूता इहु जगु सारा ॥ प्रभ आदेसु आदि रखवारा ॥ आदि जुगादी है भी होगु ॥ ओहु अपर्मपरु करणै जोगु ॥११॥

मूलम्

नाउ नउमी नवे नाथ नव खंडा ॥ घटि घटि नाथु महा बलवंडा ॥ आई पूता इहु जगु सारा ॥ प्रभ आदेसु आदि रखवारा ॥ आदि जुगादी है भी होगु ॥ ओहु अपर्मपरु करणै जोगु ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नवे नाथ = नौ ही नाथ, सारे नौ नाथ (आदि नाथ, मछन्दर नाथ, उदय नाथ, संतोख नाथ, कंक्थड़ नाथ, सत्य नाथ, अचंभ नाथ, चौरंगी नाथ, गोरख नाथ)। नाथ = जोगियों के महंत। नव खंड = धरती के सारे नौ हिस्से, सारी धरती के जीव। घटि घटि = हरेक शरीर में (व्यापक)। बलवंड = बली। माई = माया, मां। आदेसु = नमस्कार। प्रभ आदेसु = प्रभु को नमस्कार। जुगादी = जुगों के आरम्भ से। अपरंपरु = परे से परे, जिसका पार ना पाया जा सके। जोगु = समर्थ।11।
अर्थ: (असल) नाथ (वह प्रभु है जो) हरेक शरीर में व्यापक है, जो महाबली है, जोगियों के नौ नाथ और धरती के सारे जीव जिसका नाम जपते हैं।
(वह नाथ-प्रभु सारे जगत का माँ है) यह सारा जगत उस मां (-नाथ-प्रभु) की संतान है (का पैदा किया हुआ है)। उस प्रभु को ही नमस्कार करना चाहिए, वह सबका आदि है, युगों के आरम्भ से ही है, अब भी है और सदा के लिए रहेगा। वह प्रभु-नाथ परे से परे है (उसका पार नहीं पाया जा सकता) वह सब कुछ करने की ताकत रखता है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दसमी नामु दानु इसनानु ॥ अनदिनु मजनु सचा गुण गिआनु ॥ सचि मैलु न लागै भ्रमु भउ भागै ॥ बिलमु न तूटसि काचै तागै ॥ जिउ तागा जगु एवै जाणहु ॥ असथिरु चीतु साचि रंगु माणहु ॥१२॥

मूलम्

दसमी नामु दानु इसनानु ॥ अनदिनु मजनु सचा गुण गिआनु ॥ सचि मैलु न लागै भ्रमु भउ भागै ॥ बिलमु न तूटसि काचै तागै ॥ जिउ तागा जगु एवै जाणहु ॥ असथिरु चीतु साचि रंगु माणहु ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, सदा। मजनु = स्नान। सचा = सदा स्थिर। गुण गिआनु = परमात्मा के गुणो से जान पहचान। सचि = सदा स्थिर प्रभु नाम में (जुड़ने से)। भ्रमु = भटकना। बिलमु = देर, ढील। असथिरु = स्थिर। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।
अर्थ: परमात्मा का नाम जपना ही दसवीं तिथि पर दान करना और स्नान करना है। प्रभु के गुणों से गहरी सांझ ही सदा स्थिर रहने वाला नित्य का तीर्थ-स्नान है। सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से (मन को विकारों की) मैल नहीं लगती, मन की भटकना दूर हो जाती है, मन का सहम समाप्त हो जाता है (ऐसे तुरंत खत्म होता है, जैसे) कच्चे धागे को टूटते हुए विलम्ब नहीं लगता।
(हे भाई!) जगत (के संबंध) को ऐसे ही समझो जैसे कच्चा धागा है; अपने मन को हमेशा सदा-स्थिर प्रभु-नाम में टिका के रखो, और आत्मिक आनंद लो।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकादसी इकु रिदै वसावै ॥ हिंसा ममता मोहु चुकावै ॥ फलु पावै ब्रतु आतम चीनै ॥ पाखंडि राचि ततु नही बीनै ॥ निरमलु निराहारु निहकेवलु ॥ सूचै साचे ना लागै मलु ॥१३॥

मूलम्

एकादसी इकु रिदै वसावै ॥ हिंसा ममता मोहु चुकावै ॥ फलु पावै ब्रतु आतम चीनै ॥ पाखंडि राचि ततु नही बीनै ॥ निरमलु निराहारु निहकेवलु ॥ सूचै साचे ना लागै मलु ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक = एक (परमात्मा) को। रिदै = हृदय में। वसावै = बसाता है। हिंसा = निदर्यता। ममता = मल्कियत की लालसा। चुकावै = दूर करता है। आतम चीनै = अपने आप को पहचानता है। अपने जीवन को परखता रहता है। पाखंडि = दिखावे में। राइ = रच के, व्यस्त हो के। ततु = अस्लियत। बीनै = देखता, देख सकता। निराहारु = (निर+आहार) जिसे किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं। निहकेवलु = (निष्कैवल्य) शुद्ध स्वरूप। सूचै = पवित्र प्रभु में। साचे = सदा स्थिर प्रभु का रूप। एकादसी = चाँद के हिसाब से पूरनमासी व अमावस (मसया) का ग्यारहवां दिन। कर्मकांडी लोग उस दिन व्रत रखते हैं, निराहार रहते हैं।13।
अर्थ: जो मनुष्य एक (परमात्मा) को (अपने) हृदय में बसाता है, (वह मनुष्य अपने अंदर से) निदर्यता, माया का अपनत्व और माया का मोह दूर कर लेता है। (जो मनुष्य हिंसा-मोह आदि से बचे रहने वाला यह) व्रत (रखता है, वह इस व्रत का ये) फल प्राप्त करता है कि (हमेशा) अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है। पर दिखावे (के व्रत) में पतीज के मनुष्य (सारे जगत के) मूल (परमात्मा को) नहीं देख सकता।
हे भाई! परमात्मा को विकारों की मैल नहीं लगती, परमात्मा को किसी भोजन की जरूरत नहीं (वह हर वक्त व्रतमय है), परमात्मा शुद्ध-स्वरूप है, (जो मनुष्य उस) पवित्र प्रभु में (जुड़ के) उस सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाते हैं, उनको (भी विकारों की) मैल नहीं लगती।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह देखउ तह एको एका ॥ होरि जीअ उपाए वेको वेका ॥ फलोहार कीए फलु जाइ ॥ रस कस खाए सादु गवाइ ॥ कूड़ै लालचि लपटै लपटाइ ॥ छूटै गुरमुखि साचु कमाइ ॥१४॥

मूलम्

जह देखउ तह एको एका ॥ होरि जीअ उपाए वेको वेका ॥ फलोहार कीए फलु जाइ ॥ रस कस खाए सादु गवाइ ॥ कूड़ै लालचि लपटै लपटाइ ॥ छूटै गुरमुखि साचु कमाइ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहाँ भी। देखउ = देखता हूँ। तह = वह। एको एका = एक परमात्मा ही। होरि = और (बहुत सारे)। होरि जीअ = बाकी सारे जीव। वेको वेका = भांति भांति के। फलोहार = फलों का आहार (ऐकादशी के व्रत पर अन्न छोड़ कर कर्मकांडी सिर्फ फल खाते हैं, और सिर्फ इतने प्रयास से ही व्रत का फल मिलता समझ लेते हैं। असल व्रत है ‘विकारों से परहेज़’, उसका फल है ‘उच्च आत्मिक जीवन)। रस कस = कई स्वादों वाले फल आदि पदार्थ। सादु = स्वाद, मजा। लालचि = लालच में। कूड़ै लालच = झूठे लालच में। लपटै = चिपका रहता है। छूटै = (लालच से) मुक्त होता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साच = सदा-स्थिर हरि-नाम का स्मरण।14।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ, उधर एक परमात्मा ही परमात्मा दिखता है। (उसने) भांति-भांति के ये सारे जीव पैदा किए हुए हैं (जो व्रत आदि कई भ्रमों में पड़े रहते हैं)।
हे भाई! (एकादशी वाले दिन अन्न छोड़ के) सिर्फ फल खाने से (व्रत का असल) फल नहीं मिलता (असल व्रत है ‘विकारों से परहेज़’, उसका फल है ‘उच्च आत्मिक जीवन)। (अन्न की जगह) कई स्वादिष्ट फल आदि पदार्थ (जो मनुष्य) खाता है, (वह तो वैसे ही व्रत का) मज़ा गवा लेता है। (व्रत रखने वाला मनुष्य व्रत के फल की आस धार के) माया की लालच में ही फसा रहता है। (इस लालच से वह मनुष्य) खलासी हासिल करता है जो गुरु की शरण पड़ कर सदा-स्थिर प्रभु का नाम जपने की कमाई करता है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुआदसि मुद्रा मनु अउधूता ॥ अहिनिसि जागहि कबहि न सूता ॥ जागतु जागि रहै लिव लाइ ॥ गुर परचै तिसु कालु न खाइ ॥ अतीत भए मारे बैराई ॥ प्रणवति नानक तह लिव लाई ॥१५॥

मूलम्

दुआदसि मुद्रा मनु अउधूता ॥ अहिनिसि जागहि कबहि न सूता ॥ जागतु जागि रहै लिव लाइ ॥ गुर परचै तिसु कालु न खाइ ॥ अतीत भए मारे बैराई ॥ प्रणवति नानक तह लिव लाई ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुआदसि = बारहवीं तिथि, पूरनमासी व अमावस का बारहवां दिन। मुद्रा = मोहर, छाप, भेस का चिन्ह। दुआदसि मुद्रा = भेषों के बारह चिन्ह {(ब्रहमचारी के पाँच चिन्ह: जनेऊ, मृगछाला, मूंझ की तड़ागी, कमण्डल, शिखा)। वैश्नव के तीन चिन्ह: तिलक, कंठी, तुलसी माला। शैव (शिव उपासक) के दो चिन्ह: रुद्राक्ष की माला, त्रिपुंड्र (गाय के गोबर की राख से माथे पर डाली हुई तीन लकीरें) जोगी का एक चिन्ह: मुंदरें (कानों में डाली जाने वाली)। सन्यासी का एक चिन्ह: त्रिदंड। (5+3+2+1+1 = कुल 12)}।
दुआदसि मुद्रा मनु = जिसका मन बारह छापों को का धारणी है। अउधूता = त्यागी। अहि = दिन। निसि = रात। जागहि = जागते रहते हैं, सचेत रहते हैं। जागि = जाग के। लिव = तवज्जो, ध्यान। लाइ रहै = जोड़े रखता है। गुर परचै = गुरु के उपदेश में। कालु = आत्मिक मौत। अतीत = विरक्त। बैराई = (कामादिक) वैरी। तह = वहाँ, उस ठिकाने पर।15।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के उपदेश में जुड़ के जो मनुष्य) दिन रात (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं (माया के मोह की नींद में) कभी नहीं सोते, (वही हैं असल) त्यागी, (उनका) मन (मानो, भेषों के) बारह के बारह चिन्हों का धरणी होता है। हे भाई! गुरु के उपदेश में (टिक के जो मनुष्य माया के हमलों की ओर से) जागता रहता है, और सचेत रह के (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़े रखता है, उस (के आत्मिक जीवन) को (आत्मिक) मौत खा नहीं सकती।
नानक विनती करता है: (जिस मनुष्यों ने) वहाँ (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ी हुई है, उन्होंने (कामादिक) सारे वैरी खत्म कर लिए, वे (असल) त्यागी बन गए।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुआदसी दइआ दानु करि जाणै ॥ बाहरि जातो भीतरि आणै ॥ बरती बरत रहै निहकाम ॥ अजपा जापु जपै मुखि नाम ॥ तीनि भवण महि एको जाणै ॥ सभि सुचि संजम साचु पछाणै ॥१६॥

मूलम्

दुआदसी दइआ दानु करि जाणै ॥ बाहरि जातो भीतरि आणै ॥ बरती बरत रहै निहकाम ॥ अजपा जापु जपै मुखि नाम ॥ तीनि भवण महि एको जाणै ॥ सभि सुचि संजम साचु पछाणै ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुआदसि = बारहवीं तिथि। करि जाणै = करना जानता है। दानु करि जानै = दान करना जानता है। दइआ = प्यार। जातो = जाता, भटकता। आणै = लाता है। बरती बरत = व्रतों में श्रेष्ठ व्रत। निहकामु = वासना से रहित। अजपा जापु = जपे बिना किआ हुआ (किसी मंत्र का) जाप। मुखि = मुँह से। जपै = जपता है। तीनि भवण = तीनों भवनों में, सारे जगत में। एको = एक (परमात्मा) को ही। सभि = सारे। संजम = ज्ञान इन्द्रियों को वश में करने के यत्न। सुचि = शारीरिक पवित्रता के उद्यम। साचु = सदा स्थिर प्रभु। पछाणे = सांझ डालता है।16।
अर्थ: हे भाई! (कर्मकांडी मनुष्य किसी व्रत आदि के समय माया का दान करता है, और किसी मंत्र का अजपा जाप करता है, पर जो मनुष्य जाति में) प्यार बाँटना जानता है, बाहर भटकते मन को (हरि-नाम की सहायता से अपने) अंदर ही ले आता है, जो मनुष्य वासना-रहित जीवन जीता है, और मुँह से परमात्मा का नाम जपता है, वह मनुष्य (मानो) अजपा जाप कर रहा है। हे भाई! जो मनुष्य सारे संसार में एक परमात्मा को ही बसता समझता है, और उस सदा स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, वह (मानो) शारीरिक पवित्रता के सारे उद्यम कर रहा है, ज्ञान-इन्द्रियों को वश में करने के सारे यत्न कर रहा है।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरसि तरवर समुद कनारै ॥ अम्रितु मूलु सिखरि लिव तारै ॥ डर डरि मरै न बूडै कोइ ॥ निडरु बूडि मरै पति खोइ ॥ डर महि घरु घर महि डरु जाणै ॥ तखति निवासु सचु मनि भाणै ॥१७॥

मूलम्

तेरसि तरवर समुद कनारै ॥ अम्रितु मूलु सिखरि लिव तारै ॥ डर डरि मरै न बूडै कोइ ॥ निडरु बूडि मरै पति खोइ ॥ डर महि घरु घर महि डरु जाणै ॥ तखति निवासु सचु मनि भाणै ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तेरसि = तेरहवीं तिथि। कनारै = किनारे पर। तरवर = वृक्ष। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मूलु = जड़, मूल। सिखरि = शिखर पर। लिव तारै = लगन की तार में। डर = (सांसारिक) डरों से। डरि मरै न = डर के नहीं मरता। न बूडै = नहीं डूबता। निडरु = (परमात्मा का) डर अदब ना रखने वाला। बूडि = (विकारों में) डूब के। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। पति = इज्जत। खोइ = गवा के। घरु = ठिकाना। घर महि = हृदय घर में। जाणै = (जो मनुष्य) जानता है। तखति = तख़्त पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है।17।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) समुंदर के किनारे पर उगे हुए पेड़ की (पायां है अर्थात जड़ें कमजोर होती हैं, वैसे ही यह शरीर है। पर जो मनुष्य) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल को (अपने जीवन की) जड़ बनाता है, (वह सिर्फ) तवज्जो की डोर की इनायत से वह शिखर पर (प्रभु-चरणों में जा पहुँचता है)। (जो भी मनुष्य यह उद्यम करता है, वह सांसारिक) डरों के साथ डर-डर के आत्मिक मौत नहीं मरता, वह (विकारों में) नहीं डूबता। (पर, परमात्मा का) डर-अदब ना रखने वाला मनुष्य (लोक-परलोक की) इज्जत गवा के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा के) डर-अदब में (अपना) ठिकाना बनाए रखता है, जो मनुष्य अपने हृदय-घर में (प्रभु का) डर-अदब बनाए रखना जानता है, जिस मनुष्य को अपने मन में सदा-स्थिर प्रभु प्यारा लगने लग जाता है, उसको (ऊँचे आत्मिक जीवन के ईश्वरीय) तख़्त पर निवास मिलता है।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चउदसि चउथे थावहि लहि पावै ॥ राजस तामस सत काल समावै ॥ ससीअर कै घरि सूरु समावै ॥ जोग जुगति की कीमति पावै ॥ चउदसि भवन पाताल समाए ॥ खंड ब्रहमंड रहिआ लिव लाए ॥१८॥

मूलम्

चउदसि चउथे थावहि लहि पावै ॥ राजस तामस सत काल समावै ॥ ससीअर कै घरि सूरु समावै ॥ जोग जुगति की कीमति पावै ॥ चउदसि भवन पाताल समाए ॥ खंड ब्रहमंड रहिआ लिव लाए ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउदसि = पूरनमासी का चौदहवां दिन। चउथे थावहि = चौथी जगह को, उस आत्मिक अवस्था जहाँ माया के तीन गुण अपना प्रभाव नहीं डाल सकते, तुरियावस्था। लहि पावै = ढूँढ लेता है, हासिल कर लेता है। राजस तामस सत = रजो गुण, तमो गुण, सतो गुण। काल = समय। समावै = लीन हो जाता है। ससीअर = चंद्रमा। कै घरि = के घर में। सीसअर कै घरि = शांति के घर में। सूरु = सूरज, तपश, मन की तपश। जोग जुगति = प्रभु मिलाप का तरीका। कीमति = कद्र, सार। चउदसि भवन = चौदह भवनों में। लिव लाए = तवज्जो/ध्यान जोड़ता है।18।
अर्थ: (जब मनुष्य गुरु की कृपा से) तुरियावस्था को पा लेता है, तब रजो गुण, तमो गुण और सतो गुण (माया का ये हरेक गुण चौथे पद में) लीन हो जाता है। शांति के घर में (मनुष्य के मन की) तपश समा जाती है, (उस वक्त मनुष्य परमात्मा से) मिलाप की जुगति की कद्र समझता है। तब मनुष्य उस परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है जो खण्डों-ब्रहमण्डों में, चौदह भवनों में पातालों में हर जगह समाया हुआ है।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमावसिआ चंदु गुपतु गैणारि ॥ बूझहु गिआनी सबदु बीचारि ॥ ससीअरु गगनि जोति तिहु लोई ॥ करि करि वेखै करता सोई ॥ गुर ते दीसै सो तिस ही माहि ॥ मनमुखि भूले आवहि जाहि ॥१९॥

मूलम्

अमावसिआ चंदु गुपतु गैणारि ॥ बूझहु गिआनी सबदु बीचारि ॥ ससीअरु गगनि जोति तिहु लोई ॥ करि करि वेखै करता सोई ॥ गुर ते दीसै सो तिस ही माहि ॥ मनमुखि भूले आवहि जाहि ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुपतु = छुपा हुआ। गैणारि = आकाश में। बीचारि = विचार के, मन में बसा के। गिआनी = हे आत्मिक जीवन की सूझ के खोजी मनुष्य! ससीअरु = चँद्रमा। गगनि = आकाश में। तिहु लोई = तीन लोकों में, तीनों भवनों में, सारे संसार में। करि = पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। करता सोई = वह कर्तार ही। ते = से। दीसै = दिखाई देता है। सो = वह (मनुष्य)। तिस ही माहि = उस (परमात्मा) में ही। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। आवहि = पैदा होते हैं। जाहि = मरते हैं।19।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जैसे) अमावस को चाँद आकाश में गुप्त रहता है (वैसे ही परमात्मा हरेक के हृदय में गुप्त बस रहा है)। हे आत्मिक जीवन की सूझ के खोजी मनुष्य! गुरु के शब्द को मन में बसा के (ही इस भेद को) समझ सकोगे। (जैसे) चंद्रमा आकाश में (हर तरफ रौशनी दे रहा है, वैसे ही परमात्मा की) ज्योति सारे संसार में (जीवन-क्षमता दे रही है)। वह कर्तार स्वयं ही (सब जीवों को) पैदा करके (सबकी) संभाल कर रहा है। जिस मनुष्य को गुरु से यह सूझ मिल जाती है, वह मनुष्य उस परमात्मा में सदा के लिए लीन रहता है।
पर, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ कर जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरु दरु थापि थिरु थानि सुहावै ॥ आपु पछाणै जा सतिगुरु पावै ॥ जह आसा तह बिनसि बिनासा ॥ फूटै खपरु दुबिधा मनसा ॥ ममता जाल ते रहै उदासा ॥ प्रणवति नानक हम ता के दासा ॥२०॥१॥

मूलम्

घरु दरु थापि थिरु थानि सुहावै ॥ आपु पछाणै जा सतिगुरु पावै ॥ जह आसा तह बिनसि बिनासा ॥ फूटै खपरु दुबिधा मनसा ॥ ममता जाल ते रहै उदासा ॥ प्रणवति नानक हम ता के दासा ॥२०॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापि = स्थापित करके, पक्का ठिकाना बना के। घरु दरु = प्रभु चरणों को, प्रभु के दर को। थिरु = टिक के। थानि = (उस) जगह में, प्रभु चरणों में। सुहावै = सोहाना बन जाता है, सोहाने जीवन वाला बन जाता है। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = परखता है। जा = जब। पावै = मिलाप हासिल करता है। जह = जहाँ, जिस हृदय में। तह = उस दिल में। बिनसि = नाश हो के, आशाओं का नाश हो के। बिनासा = आशाओं का अभाव। फूटै = टूट जाता है। खपरु = बर्तन। दुबिधा = मेर तेर। मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। ते = से। ममता = अपनत्व, मल्कियत की चाहत। ता के = उस (मनुष्य) के।20।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरु (का मिलाप) हासिल कर लेता है, तब अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना शुरू कर देता है, और प्रभु-चरणों को प्रभु के दर को (अपना) पक्का आसरा बना के उस जगह में (प्रभु-चरणों में) टिक के सोहाने जीवन वाला बन जाता है। जिस हृदय में (पहले दुनियावी) आशाएं (ही आशाएं टिकी रहती थीं) वहाँ आशाओं का पूर्ण अभाव हो जाता है, (उसके अंदर से) मेरे-तेर और मन के फुरनों का बर्तन ही फूट जाता है। वह मनुष्य (माया के) ममता जाल से अलग रहता है। नानक विनती करता है: मैं ऐसे मनुष्य का (सदा) दास हूँ।20।1।

[[0841]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ वार सत घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ वार सत घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित वारि आदि पुरखु है सोई ॥ आपे वरतै अवरु न कोई ॥ ओति पोति जगु रहिआ परोई ॥ आपे करता करै सु होई ॥ नामि रते सदा सुखु होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥१॥

मूलम्

आदित वारि आदि पुरखु है सोई ॥ आपे वरतै अवरु न कोई ॥ ओति पोति जगु रहिआ परोई ॥ आपे करता करै सु होई ॥ नामि रते सदा सुखु होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदित = (आदित्य) सूर्यं। वारि = वार में, वार से। आदित वारि = ऐतवार के द्वारा। आदि = सभ का मूल। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु! सोई = वह स्वयं ही। आपे = खुद ही। वरतै = (हर जगह) मौजूद है। ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में (ओत प्रोत)। रहिआ परोई = परो रहा है। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए को। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।1।
अर्थ: हे भाई! (सारे जगत का) मूल वह अकाल-पुरख स्वयं ही (सब जगह) मौजूद है (उसके बिना) और कोई नहीं है। वह परमात्मा सारे जगत को ताने-पेटे की तरह (अपनी रज़ा में) परो रहा है। (जगत में) वही कुछ होता है जो कर्तार स्वयं ही करता है। उसके नाम में रंगे हुए मनुष्य को सदा आत्मिक आनंद मिलता है। पर कोई दुलर्भ (विरला) मनुष्य (इस बात को) समझता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरदै जपनी जपउ गुणतासा ॥ हरि अगम अगोचरु अपर्मपर सुआमी जन पगि लगि धिआवउ होइ दासनि दासा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हिरदै जपनी जपउ गुणतासा ॥ हरि अगम अगोचरु अपर्मपर सुआमी जन पगि लगि धिआवउ होइ दासनि दासा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। जपनी = माला। जपउ = मैं जपता हूँ। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जो ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे है। अपरंपर = परे से परे। जन पगि = संत जनों के पैरों में। लगि = लग के। होइ = बना के। धिआवउ = मैं स्मरण करता हूँ।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: महला १ की वाणी ‘थिती’ की ‘रहाउ’ की तुक को ध्यान से पढ़ें: “किआ जपु जापउ बिनु जगदीसै”। इसी तरह, ‘वार सत’ की भी ‘रहाउ’ के तुक देखें: “हिरदै जपनी जपउ गुण तासा”। शब्दों की समानता बताती है कि जब गुरु अमरदास जी ने ‘वार सत’ वाणी लिखी, तब उनके पास वाणी ‘थिती’ मौजूद थी। दोनों का ही ‘घरु १०’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मैं (अपने) हृदय में गुणों के खजाने (परमात्मा के नाम) को जपता हूँ (यही है मेरी) माला। परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, परे से परे है, सबका मालिक है, उस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मैं तो संत जनों के चरणों में लग के संत जनों का दासों का दास बन के उसको स्मरण करता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमवारि सचि रहिआ समाइ ॥ तिस की कीमति कही न जाइ ॥ आखि आखि रहे सभि लिव लाइ ॥ जिसु देवै तिसु पलै पाइ ॥ अगम अगोचरु लखिआ न जाइ ॥ गुर कै सबदि हरि रहिआ समाइ ॥२॥

मूलम्

सोमवारि सचि रहिआ समाइ ॥ तिस की कीमति कही न जाइ ॥ आखि आखि रहे सभि लिव लाइ ॥ जिसु देवै तिसु पलै पाइ ॥ अगम अगोचरु लखिआ न जाइ ॥ गुर कै सबदि हरि रहिआ समाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। आखि आखि = कह कह के। रहे = थक गए। सभि = सारे। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। देवै = (महिमा की दाति प्रभु स्वयं) देता है। तिसु पलै पाइ = उसके पल्ले में पड़ती है, उसको मिलती है। लखिआ न जाइ = (सही स्वरूप) बयान नहीं किया जा सकता। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। रहिआ समाइ = लीन हुआ रहता है।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा) सदा-थिर परमात्मा (की याद) में लीन हुआ रहता है (उसका आत्मिक जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) उसका मूल्य नहीं आँका जा सकता। (पर यह स्मरण और याद की दाति) जिस (मनुष्य) को (परमात्मा स्वयं) देता है, उसको (ही) मिलती है।, (अपने उद्यम से तवज्जो जोड़ने वाले और महिमा करने वाले मनुष्य) तारीफ कह कह के और तवज्जो जोड़-जोड़ के ही थक जाते हैं।
हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। गुरु के शब्द द्वारा (ही मनुष्य) परमात्मा में लीन रह सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंगलि माइआ मोहु उपाइआ ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाइआ ॥ आपि बुझाए सोई बूझै ॥ गुर कै सबदि दरु घरु सूझै ॥ प्रेम भगति करे लिव लाइ ॥ हउमै ममता सबदि जलाइ ॥३॥

मूलम्

मंगलि माइआ मोहु उपाइआ ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाइआ ॥ आपि बुझाए सोई बूझै ॥ गुर कै सबदि दरु घरु सूझै ॥ प्रेम भगति करे लिव लाइ ॥ हउमै ममता सबदि जलाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंगलि = मंगल वार के द्वारा। आपे = स्वयं ही। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक (जीव के) सिर पर। धंधै = (माया के) धंधे में। बुझाए = समझ बख्शता है। बूझै = समझता है। कै सबदि = के शब्द से। दरु घरु = परमात्मा का दरवाजा, परमात्मा का ठिकाना। सूझै = दिखता है। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। सबदि = शब्द से।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने) माया का मोह (स्वयं ही) पैदा किया है, खुद ही (इस मोह को) हरेक (जीव के) सिर पर (स्थापित करके हरेक को माया के) धंधे में लगाया हुआ है। जिस मनुष्य को (परमात्मा) स्वयं समझ बख्शता है, वही (इस मोह की खेल को) समझता है। गुरु के शब्द की इनायत से उसको (परमात्मा का) दर-घर दिख जाता है। वह मनुष्य तवज्जो जोड़ के प्रेम से परमात्मा की भक्ति करता है, (और, इस तरह) शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) अहंकार और (माया की) ममता को जला देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुधवारि आपे बुधि सारु ॥ गुरमुखि करणी सबदु वीचारु ॥ नामि रते मनु निरमलु होइ ॥ हरि गुण गावै हउमै मलु खोइ ॥ दरि सचै सद सोभा पाए ॥ नामि रते गुर सबदि सुहाए ॥४॥

मूलम्

बुधवारि आपे बुधि सारु ॥ गुरमुखि करणी सबदु वीचारु ॥ नामि रते मनु निरमलु होइ ॥ हरि गुण गावै हउमै मलु खोइ ॥ दरि सचै सद सोभा पाए ॥ नामि रते गुर सबदि सुहाए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही (देता है)। बुधि सारु = बुद्धि का सार, श्रेष्ठ बुद्धि। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के, गुरु के द्वारा। करणी = अच्छा आचरण। वीचारु = (गुणों को) मन में बसाना। नामि रते मनु = नाम में रंगे हुए (मनुष्य का) मन। खोइ = दूर करके। दरि = दर पर। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पे। सद = सदा। नामि रते = नाम में रंगे हुए मनुष्य। सबदि = शब्द के द्वारा। सुआए = सोहाने जीवन वाले बन जाते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) स्वयं ही (मनुष्य को) गुरु की शरण में रख के श्रेष्ठ बुद्धि, ऊँचा आचरण, महिमा और (अपने गुणों की) विचार (बख्शता है, इस तरह उसके) नाम में रंगे हुए मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है, (मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर करके परमात्मा के गुण गाता रहता है, और सदा-स्थिर प्रभु के दर पर सदा शोभा कमाता है।
हे भाई! गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा के नाम में रंगे हुए मनुष्य सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाहा नामु पाए गुर दुआरि ॥ आपे देवै देवणहारु ॥ जो देवै तिस कउ बलि जाईऐ ॥ गुर परसादी आपु गवाईऐ ॥ नानक नामु रखहु उर धारि ॥ देवणहारे कउ जैकारु ॥५॥

मूलम्

लाहा नामु पाए गुर दुआरि ॥ आपे देवै देवणहारु ॥ जो देवै तिस कउ बलि जाईऐ ॥ गुर परसादी आपु गवाईऐ ॥ नानक नामु रखहु उर धारि ॥ देवणहारे कउ जैकारु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाहा = लाभ। गुर दुआरि = गुरु के दर पर। देवणहारु = दे सकने वाला प्रभु। जो = जो प्रभु।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कउ’ में से संबंधक ‘कउ’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलि जाईऐ = कुर्बान जाना चाहिए। परसादी = कृपा से। आपु = स्वै भाव, अहंकार। गवाईऐ = दूर करना चाहिए। उर = हृदय। उर धारि = हृदय में टिका के। कउ = को। जैकारु = महिमा, बड़ाई, महिमा।5।
अर्थ: हे भाई! गुरु के दर पे (रह के मनुष्य परमात्मा का) नाम-लाभ कमा लेता है, (पर ये दाति है, और यह दाति) देने की सामर्थ्य वाला प्रभु स्वयं ही देता है। सो, जो प्रभु (यह दाति) देता है उससे (सदा) सदके जाना चाहिए, गुरु की कृपा से (अपने अंदर से) स्वै भाव (अहंकार) दूर करना चाहिए।
हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखो, और, उस सब कुछ दे सकने वाले प्रभु की महिमा हमेशा करते रहो।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीरवारि वीर भरमि भुलाए ॥ प्रेत भूत सभि दूजै लाए ॥ आपि उपाए करि वेखै वेका ॥ सभना करते तेरी टेका ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ सो मिलै जिसु लैहि मिलाई ॥६॥

मूलम्

वीरवारि वीर भरमि भुलाए ॥ प्रेत भूत सभि दूजै लाए ॥ आपि उपाए करि वेखै वेका ॥ सभना करते तेरी टेका ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ सो मिलै जिसु लैहि मिलाई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वीरवारि = बृहस्पतिवार से। वीर = बावन वीर (हनुमान आदि)। भरमि = भटकना में (डाल के)। भुलाए = गलत रास्ते पर डाले रखे। सभि = सारे। दूजै = माया के मोह में। लाए = लगा दिए। उपाए = पैदा किए। करि = करके, बना के। वेका = अलग अलग किस्म के। वेखै = देखता है, संभाल करता है। करते = हे कर्तार! टेक = आसरा। मिलै = (तुझे) मिलता है। लैहि मिलाइ = तू (खुद) मिला लेता है।6।
अर्थ: हे भाई! (बावन) वीरों को (भी परमात्मा ने) भटकना में डाल के (माया के मोह में) भुलाए रखा, सारे भूत-प्रेत भी माया के मोह में लगाए हुए हैं। परमात्मा ने खुद (ही ये सारे) पैदा किए, (इनको) अलग-अलग किस्मों के बना के (सबकी) संभाल (भी) करता है।
हे कर्तार! सब जीवों को तेरा ही आसरा है। सारे जीव-जंतु तेरी ही शरण में हैं। वह मनुष्य (ही तुझे) मिलता है जिसको तू खुद (अपने साथ) मिलाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुक्रवारि प्रभु रहिआ समाई ॥ आपि उपाइ सभ कीमति पाई ॥ गुरमुखि होवै सु करै बीचारु ॥ सचु संजमु करणी है कार ॥ वरतु नेमु निताप्रति पूजा ॥ बिनु बूझे सभु भाउ है दूजा ॥७॥

मूलम्

सुक्रवारि प्रभु रहिआ समाई ॥ आपि उपाइ सभ कीमति पाई ॥ गुरमुखि होवै सु करै बीचारु ॥ सचु संजमु करणी है कार ॥ वरतु नेमु निताप्रति पूजा ॥ बिनु बूझे सभु भाउ है दूजा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाइ = पैदा करके। सभ = सारी सृष्टि। कीमति = कद्र। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सु = वह मनुष्य। सचु = सदा स्थिर हरि नाम का स्मरण। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से बचाए रखने का उद्यम। करणी = कर्तव्य। कार = रोजाना काम। निताप्रति = सदा ही, रोजाना। पूजा = देव पूजा। सभु = सारा। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना किसी) और के साथ प्यार।7।
अर्थ: हे भाई! (सारी सृष्टि में) परमात्मा व्यापक है, (सृष्टि को) खुद (ही) पैदा करके सारी सृष्टि की कद्र भी खुद ही जानता है।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह मनुष्य (परमात्मा के गुणों को) अपने मन में बसाता है। सदा-स्थिर हरि-नाम का स्मरण, और इन्द्रियों को विकारों से बचाए रखने का उद्यम- यह उस मनुष्य का नित्य का कर्तव्य, नित्य की कार हो जाती है।
पर, व्रत रखना, कर्मकांड के हरेक नियम निबाहने, रोजाना देव-पूजा- आत्मिक जीवन की सूझ के बिना ये सारा उद्यम माया का प्यार (ही पैदा करने वाला) है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छनिछरवारि सउण सासत बीचारु ॥ हउमै मेरा भरमै संसारु ॥ मनमुखु अंधा दूजै भाइ ॥ जम दरि बाधा चोटा खाइ ॥ गुर परसादी सदा सुखु पाए ॥ सचु करणी साचि लिव लाए ॥८॥

मूलम्

छनिछरवारि सउण सासत बीचारु ॥ हउमै मेरा भरमै संसारु ॥ मनमुखु अंधा दूजै भाइ ॥ जम दरि बाधा चोटा खाइ ॥ गुर परसादी सदा सुखु पाए ॥ सचु करणी साचि लिव लाए ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सउण = शोनक ऋषी। सउण सासत = शोनक का लिखा ज्योतिष शास्त्र। मेरा = ममता। भरमै = भटकता है। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै भाइ = माया के प्यार में। (भाउ = प्यार। भाइ = प्यार में)। दरि = दर पर। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव लाए = तवज्जो जोड़ता है।8।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का स्मरण छोड़ के) शोनक का ज्योतिष शास्त्र (आदि) विचारते रहना- (इसके कारण) जगत ममता और अहंकार में भटकता रहता है। आत्मिक जीवन से अंधा, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में फंसा रहता है, (ऐसा मनुष्य) जमराज के दर में बँधा हुआ (विकारों की) चोटें खाता रहता है।
जो मनुष्य गुरु की कृपा से सदा-स्थिर हरि-नाम-स्मरण को (अपना रोजाना) का कर्तव्य बनाता है और सदा-स्थिर प्रभु में तवज्जो जोड़े रखता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥ हउमै मारि सचि लिव लागी ॥ तेरै रंगि राते सहजि सुभाइ ॥ तू सुखदाता लैहि मिलाइ ॥ एकस ते दूजा नाही कोइ ॥ गुरमुखि बूझै सोझी होइ ॥९॥

मूलम्

सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥ हउमै मारि सचि लिव लागी ॥ तेरै रंगि राते सहजि सुभाइ ॥ तू सुखदाता लैहि मिलाइ ॥ एकस ते दूजा नाही कोइ ॥ गुरमुखि बूझै सोझी होइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहि = सेवते हैं, सेवा भक्ति करते हैं, शरण पड़ते हैं (बहुवचन)। से = वह (बहुवचन)। मारि = मार के। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव = तवज्जो, ध्यान। तेरै संगि = तेरे (प्रेम) रंग में। राते = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में। लैहि मिलाइ = तू मिला लेता है। ते = के (बिना)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बूझै = समझ लेता है।9।
अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य बहुत भाग्यशाली होते हैं जो गुरु की शरण पड़ते हैं, (अपने अंदर से) अहंकार को समाप्त करके (उनकी) तवज्जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लग जाती है।
हे प्रभु! (गुरु की शरण आने वाले मनुष्य) तेरे प्यार-रंग में टिके रहते हैं। सारे सुख देने वाला तू (खुद ही उनको अपने चरणों में) मिला लेता है।
हे भाई! एक परमात्मा के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह इस बात को समझ लेता है, (उसको आत्मिक जीवन की सूझ आ जाती है)।9।

[[0842]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंद्रह थितीं तै सत वार ॥ माहा रुती आवहि वार वार ॥ दिनसु रैणि तिवै संसारु ॥ आवा गउणु कीआ करतारि ॥ निहचलु साचु रहिआ कल धारि ॥ नानक गुरमुखि बूझै को सबदु वीचारि ॥१०॥१॥

मूलम्

पंद्रह थितीं तै सत वार ॥ माहा रुती आवहि वार वार ॥ दिनसु रैणि तिवै संसारु ॥ आवा गउणु कीआ करतारि ॥ निहचलु साचु रहिआ कल धारि ॥ नानक गुरमुखि बूझै को सबदु वीचारि ॥१०॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = और। वार = दिन (सूरज के हिसाब)। थिती = चाँद के हिसाब से दिन। माहा = महीने। रुती = रुतें। आवहि = आते हैं। वार वार = अपनी-अपनी बारी, बार बार। रैणि = रात। तिवै = उसी तरह। आवागउण = जनम मरन का चक्कर। करतारि = कर्तार ने। निहचलु = अटल। साचु = सदा स्थिर प्रभु। कल = क्षमता, ताकत। रहिआ धारि = टिका रहा है। को = कोई विरला।10।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) पंद्रह तिथियाँ और सात वार, महीने, ऋतुएं, रात-दिन, बार बार आते रहते हैं। कर्तार ने (खुद ही जीवों के वास्ते) जनम-मरण का चक्कर बना दिया है। अटल रहने वाला सदा-स्थिर प्रभु ही है जो (सारी सृष्टि में अपनी) सत्ता टिका रहा है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई (भाग्यशाली) मनुष्य (गुरु के) शब्द को (अपने) मन में बसा के (इस बात को) समझ लेता है।10।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: गुरु अमरदास जी की इस वाणी का शीर्षक ‘वार सत’ है। आखिरी पौड़ी नंबर 10 में आप ‘थितीं’ का भी ज़िक्र कर रहे हैं। इसका कारण स्पष्ट ये है कि गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक देव जी की यह वाणी मौजूद थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ३ ॥ आदि पुरखु आपे स्रिसटि साजे ॥ जीअ जंत माइआ मोहि पाजे ॥ दूजै भाइ परपंचि लागे ॥ आवहि जावहि मरहि अभागे ॥ सतिगुरि भेटिऐ सोझी पाइ ॥ परपंचु चूकै सचि समाइ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ३ ॥ आदि पुरखु आपे स्रिसटि साजे ॥ जीअ जंत माइआ मोहि पाजे ॥ दूजै भाइ परपंचि लागे ॥ आवहि जावहि मरहि अभागे ॥ सतिगुरि भेटिऐ सोझी पाइ ॥ परपंचु चूकै सचि समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि पुरखु = जगत का मूल अकाल-पुरख। आपे = खुद ही। स्रिसटि = जगत। मोहि = मोह में। पाजे = डाले हुए हैं, जोड़े हुए हैं। दूजै भाइ = (प्रभु को छोड़ के) और प्यार में। परपंचि = परपंच में, दिखते नाशवान जगत (के मोह) में (प्रपंच)। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। अभागे = भाग हीन जीव। सतिगुरि भेटीऐ = अगर गुरु मिल जाए। सोझी = (आत्मिक जीवन की) समझ। परपंचु = जगत का मोह। चूकै = समाप्त हो जाता है। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।1।
अर्थ: हे भाई! सारे जगत का मूल अकाल पुरख स्वयं ही जगत को पैदा करता है, (किए कर्मों के अनुसार) जीवों को (उसने) माया के मोह में जोड़ा हुआ है। (जीव परमात्मा को भुला के) और प्यार में दिखाई देते जगत के मोह में फंसे रहते हैं, (ऐसे) भाग्यहीन जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं, आत्मिक मौत सहेड़े रखते हैं।
अगर (किसी भाग्यशाली को) गुरु मिल जाए, तो वह (आत्मिक जीवन की) समझ हासिल कर लेता है, (उसके अंदर से) जगत का मोह समाप्त हो जाता है, (वह मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की) याद में लीन रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै मसतकि लिखिआ लेखु ॥ ता कै मनि वसिआ प्रभु एकु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जा कै मसतकि लिखिआ लेखु ॥ ता कै मनि वसिआ प्रभु एकु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। कै मसतकि = के माथे पर। ता कै मनि = उसके मन में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (मनुष्य के किए कर्मों के अनुसार परमात्मा की ओर से) लेख लिखा होता है, उस (मनुष्य) के मन में एक परमात्मा (ही) टिका रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रिसटि उपाइ आपे सभु वेखै ॥ कोइ न मेटै तेरै लेखै ॥ सिध साधिक जे को कहै कहाए ॥ भरमे भूला आवै जाए ॥ सतिगुरु सेवै सो जनु बूझै ॥ हउमै मारे ता दरु सूझै ॥२॥

मूलम्

स्रिसटि उपाइ आपे सभु वेखै ॥ कोइ न मेटै तेरै लेखै ॥ सिध साधिक जे को कहै कहाए ॥ भरमे भूला आवै जाए ॥ सतिगुरु सेवै सो जनु बूझै ॥ हउमै मारे ता दरु सूझै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाइ = पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। तेरै लेखै = (हे भाई!) तेरे (लिखे) लेख को। सिध = योग साधनों में सिद्ध हुए जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। को = कोई (मनुष्य)। कहै = (अपने आप को) कहे। कहाए = (अपने आप को) कहलवाए। भरमे = भटकना में। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। आवै जाए = जनम मरण के चक्कर में पड़ जाता है। सेवै = शरण पड़ता है। बूझै = (जीवन का सही रास्ता) समझता है। ता = तब। दरु = प्रभु का दरवाजा। सूझै = दिखता है।2।
अर्थ: हे भाई! जगत पैदा करके (परमात्मा) स्वयं ही हरेक की संभाल करता है। (हे प्रभु! जीव के किए कर्मों के अनुसार उसके माथे पर जो लेख तू लिखता है) तेरे (उस लिखे) लेख को कोई जीव (अपने उद्यम से) मिटा नहीं सकता।
हे भाई! (अपने अहंकार के आसरे) अगर कोई मनुष्य (अपने आप को) सिद्ध कहलवाता है, साधक कहता कहलवाता है, वह मनुष्य (अहंकार की) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।
हे भाई! जो मनुष्य (अपने अहंकार का आसरा छोड़ के) गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य (जीवन का) सही रास्ता समझ लेता है। जब मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को मिटाता है, तब (उसको परमात्मा का) दर दिखाई दे जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकसु ते सभु दूजा हूआ ॥ एको वरतै अवरु न बीआ ॥ दूजे ते जे एको जाणै ॥ गुर कै सबदि हरि दरि नीसाणै ॥ सतिगुरु भेटे ता एको पाए ॥ विचहु दूजा ठाकि रहाए ॥३॥

मूलम्

एकसु ते सभु दूजा हूआ ॥ एको वरतै अवरु न बीआ ॥ दूजे ते जे एको जाणै ॥ गुर कै सबदि हरि दरि नीसाणै ॥ सतिगुरु भेटे ता एको पाए ॥ विचहु दूजा ठाकि रहाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एकसु ते = एक (परमात्मा) से ही। सभ दूजा = सारा अलग (दिखाई दे रहा जगत)। एको = एक (परमात्मा) ही। बीआ = दूसरा। वरतै = व्यापक है, मौजूद है। ते = से। दूजे ते = इस अलग दिखाई दे रहे जगत से (ऊँचा हो के)। जाणै = सांझ डाल ली। कै सबदि = के शब्द द्वारा। दरि = दर से। नीसाणै = परवाने समेत, राहदारी सहित। भेटे = मिल जाए। दूजा = माया का मोह। ठाकि = रोक के।3।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा से) अलग दिख रहा ये सारा जगत एक परमात्मा से ही बना है। (सारे जगत में) एक प्रभु ही मौजूद है, (उसके बिना) कोई और दूसरा नहीं है।
अगर (मनुष्य) इस अलग दिखाई दे रहे जगत (के मोह) से (ऊँचा हो के) एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखें, तो गुरु के शब्द की इनायत से राहदारी समेत (बिना रोक-टोक के) प्रभु के दर पर (पहुँच जाता है)।
अगर (मनुष्य को) गुरु मिल जाए, तो वह उस परमात्मा का मिलाप प्राप्त कर लेता है, और (अपने) अंदर से अलग दिख रहे जगत का मोह रोके रखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस दा साहिबु डाढा होइ ॥ तिस नो मारि न साकै कोइ ॥ साहिब की सेवकु रहै सरणाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ तिस ते ऊपरि नाही कोइ ॥ कउणु डरै डरु किस का होइ ॥४॥

मूलम्

जिस दा साहिबु डाढा होइ ॥ तिस नो मारि न साकै कोइ ॥ साहिब की सेवकु रहै सरणाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ तिस ते ऊपरि नाही कोइ ॥ कउणु डरै डरु किस का होइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डाढा = तगड़ा, बलवान। होइ = होता है। तिस नो = उस (मनुष्य) को। रहै = टिका रहता है। आपे = (साहिब) खुद ही। दे = देता है। ऊपरि = बड़ा, ऊँचा। डरु…होइ = किस का डर हो सकता है? किसी से डर नहीं लगता।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। ‘जिस दा’ में संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। ‘किस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (माया के कामादिक सूरमे हैं तो बड़े बली, पर) जिस मनुष्य के सिर पर रक्षक सबसे बलशाली मालिक-प्रभु स्वयं हो, उसको कोई (कामादिक वैरी) परास्त नहीं सकता। (क्योंकि) सेवक (अपने) मालिक प्रभु की शरण पड़ा रहता है, वह स्वयं ही (उस पर) बख्शिश करता है, (और, उसको) आदर देता है।
हे भाई! उस (परमात्मा) से बड़ा और कोई नहीं है (सेवक को ये यकीन बन जाता है, इस वास्ते) किसी से नहीं डरता, उसको किसी (कामादिक वैरी) का डर-दबाव नहीं रहतां4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमती सांति वसै सरीर ॥ सबदु चीन्हि फिरि लगै न पीर ॥ आवै न जाइ ना दुखु पाए ॥ नामे राते सहजि समाए ॥ नानक गुरमुखि वेखै हदूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥५॥

मूलम्

गुरमती सांति वसै सरीर ॥ सबदु चीन्हि फिरि लगै न पीर ॥ आवै न जाइ ना दुखु पाए ॥ नामे राते सहजि समाए ॥ नानक गुरमुखि वेखै हदूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमती = गुरु की मति पर चलने से। चीन्हि = पहचान के, सांझ डाल के। पीर = (विकारों से) कष्ट। आवै न जाइ = ना पैदा होता है ना मरता है, जनम मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। नामे = नाम में ही। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। हदूरि = अंग संग, हाज़र नाज़र।5।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति पर चल के (भाग्यशाली मनुष्य के) हृदय में शांति पैदा हो जाती है, गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल के उसको (कामादिक वैरी से कोई) कष्ट नहीं छू सकता। वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह (इस चक्कर के) दुख नहीं सहता। हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगे हुए मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।
हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (परमात्मा को अपने) अंग-संग बसता देखता है (और कहता है कि) मेरा परमात्मा सदा हर जगह मौजूद है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि सेवक इकि भरमि भुलाए ॥ आपे करे हरि आपि कराए ॥ एको वरतै अवरु न कोइ ॥ मनि रोसु कीजै जे दूजा होइ ॥ सतिगुरु सेवे करणी सारी ॥ दरि साचै साचे वीचारी ॥६॥

मूलम्

इकि सेवक इकि भरमि भुलाए ॥ आपे करे हरि आपि कराए ॥ एको वरतै अवरु न कोइ ॥ मनि रोसु कीजै जे दूजा होइ ॥ सतिगुरु सेवे करणी सारी ॥ दरि साचै साचे वीचारी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = कई। भरमि = भटकना में। भुलाए = गलत रास्ते पर डाल रखे हैं। आपे = आप ही। एको = एक खुद ही। वरतै = (हर जगह) मौजूद है। मनि = मन में। रोसु = गिला। कीजै = किया जाए। सेवे = शरण पड़े। सारी = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य। दरि साचे = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। साचे = सही रास्ते पर चलने वाले। वीचारी = विचारवान।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (सब जीवों में व्यापक हो के) परमात्मा खुद ही (सब कुछ) करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है, कई (जीवों को उसने अपने) सेवक बनाया हुआ है, और कई जीवों को भटकना में (डाल के) गलत राह पर डाला हुआ है। (हर जगह) परमात्मा खुद ही मौजूद है, (उसके बिना) और कोई नहीं है। (किसी को गुरमुख और किसी को मनमुख देख के) मन में गिला तो ही किया जाए अगर (परमात्मा के बिना कहीं) कोई और हो।
हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़े रहते हैं, वे मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के दर पर सुर्ख-रू होते हैं, विचारवान (माने जाते) हैं (गुरु की शरण पड़े रहना ही) सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थिती वार सभि सबदि सुहाए ॥ सतिगुरु सेवे ता फलु पाए ॥ थिती वार सभि आवहि जाहि ॥ गुर सबदु निहचलु सदा सचि समाहि ॥ थिती वार ता जा सचि राते ॥ बिनु नावै सभि भरमहि काचे ॥७॥

मूलम्

थिती वार सभि सबदि सुहाए ॥ सतिगुरु सेवे ता फलु पाए ॥ थिती वार सभि आवहि जाहि ॥ गुर सबदु निहचलु सदा सचि समाहि ॥ थिती वार ता जा सचि राते ॥ बिनु नावै सभि भरमहि काचे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थिती = तिथिएं, चाँद के बढ़ने घटने से निहित किए हुए दिन। सभि = सारे। सबदि = शब्द के द्वारा। सुहाए = सोहाने हैं। सेवे = शरण पड़े। आवहि जाहि = बार बार आते हैं और गुजर जाते हैं। निहचलु = अटल। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। जा = जब। भरमहि = भटकते हैं। काचे = कमजोर आत्मिक जीवन वाले मनुष्य।7।
अर्थ: हे भाई! (लोग खास-खास तिथियों और वारों को पवित्र मान के खास-खास धार्मिक कर्म करते हैं और खास-खास फल मिलने की आशा रखते हैं, पर) सारी तिथियाँ और सारे वार (तब ही) सुंदर हैं (उत्तम हैं) (अगर मनुष्य गुरु के) शब्द में (जुड़े रहें)। (मनुष्य) गुरु की शरण पड़े, तब ही (मानव जीवन का श्रेष्ठ फल) हासिल करता है। यह तिथियाँ ये वार सारे आते हैं और गुज़र जाते हैं। गुरु का शब्द (ही) अटल रहने वाला है (शब्द की बरकत से मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में सदा लीन रह सकते हैं, (यह) तिथियाँ और वार तब ही (मानवता के भले के लिए होते हैं) जब मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटे हुए सारे जीव कमजोर आत्मिक जीवन वाले (होने के कारण) भटकते रहते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख मरहि मरि बिगती जाहि ॥ एकु न चेतहि दूजै लोभाहि ॥ अचेत पिंडी अगिआन अंधारु ॥ बिनु सबदै किउ पाए पारु ॥ आपि उपाए उपावणहारु ॥ आपे कीतोनु गुर वीचारु ॥८॥

मूलम्

मनमुख मरहि मरि बिगती जाहि ॥ एकु न चेतहि दूजै लोभाहि ॥ अचेत पिंडी अगिआन अंधारु ॥ बिनु सबदै किउ पाए पारु ॥ आपि उपाए उपावणहारु ॥ आपे कीतोनु गुर वीचारु ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं। मरि = मर के, आत्मिक मौत मर के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। बिगति = बुरी आत्मिक अवस्था वाले। चेतहि = स्मरण करते (बहुवचन)। दूजै = माया में। लोभाहि = फसे रहते हैं। अचेत = गाफिल। अचेत पिंडी = मूर्ख मति वाला। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझ। अंधारु = (माया के मोह में फस के सही जीवन से) अंधा। पारु = (संसार समुंदर से) उसपार का किनारा। उपाए = पैदा करता है। आपे = खुद ही। कीतोनु = उसने किया है।8।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, आत्मिक मौत मर के (जगत से) खराब आत्मिक हालत में ही जाते हैं (क्योंकि) वह (कभी) परमातमा का स्मरण नहीं करते; और माया के मोह में ही फसे रहते हैं।
हे भाई! मूर्ख मति वाला मनुष्य, आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ मनुष्य, माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य (विकारों भरे संसार-समुंदर का) उस पार का किनारा नहीं पा सकता (वह सदा विकारों में ही डूबा रहता है)। (पर, जीव के वश की बात नहीं), (जीवों को) पैदा करने की सामर्थ्य वाले परमात्मा ने खुद (ही जीवों को) पैदा किया है, (उसने) स्वयं ही (सही जीवन के बारे में) गुरु का (बताया) विचार बनाया हुआ है (गुरु के बताए रास्ते पर वह खुद ही जीवों को चलाता है)।8।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुते भेख करहि भेखधारी ॥ भवि भवि भरमहि काची सारी ॥ ऐथै सुखु न आगै होइ ॥ मनमुख मुए अपणा जनमु खोइ ॥ सतिगुरु सेवे भरमु चुकाए ॥ घर ही अंदरि सचु महलु पाए ॥९॥

मूलम्

बहुते भेख करहि भेखधारी ॥ भवि भवि भरमहि काची सारी ॥ ऐथै सुखु न आगै होइ ॥ मनमुख मुए अपणा जनमु खोइ ॥ सतिगुरु सेवे भरमु चुकाए ॥ घर ही अंदरि सचु महलु पाए ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेखधारी = निरे धार्मिक पहरावे का आसरा लेने वाले मनुष्य। भवि भवि = (तीर्थ आदि जगह) भटक भटक के। भरमहि = भटकते फिरते हैं। सारी = नरद। काची सारी = कच्ची नरद।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: चौपड़ की खेल में एक खिलाड़ी की नरद अपने घर से चल के बयालिस घरों तक कच्ची ही रहती है। दूसरे की नरद पीछे से आ के उसको मार सकती है। अगर इतने घरों (42) को पार कर जाए तो वह विरोधी की मार से बच जाती है)।

दर्पण-भाषार्थ

ऐथै = इस लोक में। आगै = परलोक में। मुए = आत्मिक मौत मर गए। खोइ = व्यर्थ गवा के। सेवे = शरण पड़ता है। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर कर लेता है। सचु महलु = प्रभु का सदा स्थिर ठिकाना।9।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ धार्मिक पहरावे का आसरा लेने वाले मनुष्य अनेक भेस करते रहते हैं, (तीर्थों आदि कई जगहों पर) भटक-भटक के चलते-फिरते हैं, (ऐसे मनुष्य) कच्ची नरदों (की तरह विकारों से मार खाते ही रहते हैं) उनको आत्मिक आनंद ना तो इस लोक में मिलता है ना ही परलोक में मिलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले (ऐसे मनुष्य) अपना मानव जनम व्यर्थ गवा के आत्मिक मौत मरे रहते हैं।
जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (अपने अंदर से) भटकना खत्म कर लेता है, वह अपने हृदय-घर में ही सदा-स्थिर-प्रभु का ठिकाना ढूँढ लेता है (उसे तिथियों आदि का आसरा ले के तीर्थों आदि पर भटकने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती)।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे पूरा करे सु होइ ॥ एहि थिती वार दूजा दोइ ॥ सतिगुर बाझहु अंधु गुबारु ॥ थिती वार सेवहि मुगध गवार ॥ नानक गुरमुखि बूझै सोझी पाइ ॥ इकतु नामि सदा रहिआ समाइ ॥१०॥२॥

मूलम्

आपे पूरा करे सु होइ ॥ एहि थिती वार दूजा दोइ ॥ सतिगुर बाझहु अंधु गुबारु ॥ थिती वार सेवहि मुगध गवार ॥ नानक गुरमुखि बूझै सोझी पाइ ॥ इकतु नामि सदा रहिआ समाइ ॥१०॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। एहि = यह, वे। दूजा = माया का मोह। दोइ = मेर तेर, द्वैत। अंधु गुबारु = पूरी तौर पर अंधा। सेवहि = मनाते हैं। बूझै = समझता है। सोझी = समझ। इकतु = सिर्फ एक में। इकतु नामि = सिर्फ हरि के नाम में। रहिआ समाइ = लीन रहता है।10।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! पूरन-प्रभु खुद ही (जो कुछ) करता है वही होता है (विषोश तिथियों को बढ़िया उत्तम जान के भटकते ना फिरो, बल्कि) बल्कि ये तिथियाँ ये वार मननाने तो माया का मोह पैदा करने का कारण बनते हैं, मेर-तेर पैदा करते हैं।
गुरु की शरण आए बिना मनुष्य (आत्मिक जीवन की ओर से) पूरी तौर पर अंधा हुआ रहता है, (गुरु का आसरा छोड़ के) मूर्ख मनुष्य ही तिथियों और वार मनाते फिरते हैं।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (जो मनुष्य) समझता है, उसको (आत्मिक जीवन की) सूझ आ जाती है, वह मनुष्य सदा सिर्फ परमात्मा के नाम नही लीन रहता है।10।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला १ छंत दखणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला १ छंत दखणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुंध नवेलड़ीआ गोइलि आई राम ॥ मटुकी डारि धरी हरि लिव लाई राम ॥ लिव लाइ हरि सिउ रही गोइलि सहजि सबदि सीगारीआ ॥ कर जोड़ि गुर पहि करि बिनंती मिलहु साचि पिआरीआ ॥ धन भाइ भगती देखि प्रीतम काम क्रोधु निवारिआ ॥ नानक मुंध नवेल सुंदरि देखि पिरु साधारिआ ॥१॥

मूलम्

मुंध नवेलड़ीआ गोइलि आई राम ॥ मटुकी डारि धरी हरि लिव लाई राम ॥ लिव लाइ हरि सिउ रही गोइलि सहजि सबदि सीगारीआ ॥ कर जोड़ि गुर पहि करि बिनंती मिलहु साचि पिआरीआ ॥ धन भाइ भगती देखि प्रीतम काम क्रोधु निवारिआ ॥ नानक मुंध नवेल सुंदरि देखि पिरु साधारिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुंध = (मुग्धा = a young girl attractive by her youthful simplicity) जवान लड़की जिसको अभी अपनी जवानी का अहिसास नहीं है, भले स्वभाव वाली जीव-स्त्री। नवेलड़ीआ = नई, विकारों से बची हुई। गोइलि = गोइल में (आम तौर पर नदियों के किनारे की वह हरी भरी जगहें जहाँ पर लोग जरूरत के समय अपना पशु-मवेशी चराने के लिए अस्थाई रूप से आ बसते हैं), चार दिन के बसेरे वाले जगत में। मटुकी = चाटी (‘मट’ से ‘मटकी’ अल्पार्थक संज्ञा है)। मटुकी डारि धरी = मटकी सिर पर से उतार के किनारेपर रख दी है, शरीर का मोह त्याग दिया है, देह-अध्यास छोड़ दिया है। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। सबदि = गुरु के शब्द से। सीगारीआ = श्रृंगार किया है, अपना जीवन सुंदर बनाया है। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। (देखें सूही महला १, छंत नंबर ५, अंक नंबर ६)। करि = करे, करती है। साचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)। पिआरीआ = मैं प्रभु को प्यार कर सकूँ। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। भाइ = भाव से, प्रेम में जुड़ के। भाउ = प्रेम। नवेल = नई, विकारों से बची हुई। सुंदरी = सुंदरी, सुंदर जीवन वाली। देखि पिरु = प्रभु पति को देख के। साधारिआ = आधार सहित हो जाती है प्रभु का आसरा हृदय में बनाती है।1।
अर्थ: थोड़े दिनों के बसेरे वाले इस जगत में आ के जो जीव-स्त्री विकारों से बची रहती है, जिसने परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ी हुई है और शरीर का मोह त्याग दिया है, जो प्रभु चरणों में प्रीति जोड़ के इस जगत में जीवन बिताती है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के सतिगुरु के शब्द की इनायत से अपना जीवन सुंदर बना लेती है। वह (सदा दोनों) हाथ जोड़ के गुरु के पास विनती करती रहती है (कि, हे गुरु! मुझे) मिल (ताकि मैं तेरी कृपा से) सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ के उसको प्यार कर सकूँ।
ऐसी जीव-स्त्री प्रीतम-प्रभु की भक्ति के द्वारा प्रीतम प्रभु के प्रेम में टिक के उसका दर्शन करके काम-क्रोध (आदि विकारों को अपने अंदर से) दूर कर लेती है। हे नानक! पवित्र और सुंदर जीवन वाली वह जीव-स्त्री प्रभु-पति के दीदार करके (उसकी याद को) अपने हृदय का आसरा बना लेती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचि नवेलड़ीए जोबनि बाली राम ॥ आउ न जाउ कही अपने सह नाली राम ॥ नाह अपने संगि दासी मै भगति हरि की भावए ॥ अगाधि बोधि अकथु कथीऐ सहजि प्रभ गुण गावए ॥ राम नाम रसाल रसीआ रवै साचि पिआरीआ ॥ गुरि सबदु दीआ दानु कीआ नानका वीचारीआ ॥२॥

मूलम्

सचि नवेलड़ीए जोबनि बाली राम ॥ आउ न जाउ कही अपने सह नाली राम ॥ नाह अपने संगि दासी मै भगति हरि की भावए ॥ अगाधि बोधि अकथु कथीऐ सहजि प्रभ गुण गावए ॥ राम नाम रसाल रसीआ रवै साचि पिआरीआ ॥ गुरि सबदु दीआ दानु कीआ नानका वीचारीआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के। नवेइड़ीए = हे विकारों से बची हुई जीव-स्त्री! जोबनि = जोबन में, जवानी में। बाली = बाल स्वभाव वाली, भोले स्वभाव वाली। कही = कहीं, किसी और जगह। आउ न जाउ = न आ न जा। नाली = साथ। सह नाली = पति प्रभु के साथ (जुड़ी रह)। नाह संगि = पति के साथ। मै = मुझे। भावए = भाव, प्यारी लगती है। अगाधि = अगाध (प्रभु) में। अगाध = (नदिंजीवदंइइसम) अथाह। बोधि = बुद्धि से, (गुरु के बख्शे) ज्ञान की इनायत से। अकथु = वह प्रभु जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। कथीऐ = कहना चाहिए, गुणानुवाद करना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। गावए = (जो) गाती है। रसाल = (रस+आलय) रसों का घर, रसों का श्रोत। रसीआ = रसों के मालिक। साचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। पिआरिआ = प्यार करने वालों को। गुरि = गुरु ने। वीचारीआ = विचारवान।2।
अर्थ: हे सदा-स्थिर प्रभु में जुड़ के विकारों से बची हुई जीव-स्त्री! जवानी में भी भोले स्वभाव वाली (बनी रह; अहंकार छोड़ के) अपने पति-प्रभु (के चरणों) में टिकी रह (देखना, उसका पल्ला छोड़ के) किसी और जजगह ना भटकती फिरना।
वही दासी (सौभाग्य है जो) अपने पति की संगति में रहती है। (हे सखिए!) मुझे भी प्रभु-पति की भक्ति प्यारी लगती है, (जो जीव-स्त्री) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु के गुण गाती है (वह दासी अपने पति-प्रभु की संगति में शोभा पाती है)। (सो, सहेली! गुरु के बख्शे) ज्ञान से (गुणों के) अथाह (समुद्र-) प्रभु में (डुबकी लगा के) उस प्रभु के गुणगान करने चाहिए। वह प्रभु ऐसे स्वरूप वाला है जिसका बयान नहीं हो सकता।
रसों के श्रोत, रसों के मालिक प्रभु उस जीव-स्त्री को अपने चरणों में जोड़ता है जो उसके सदा-स्थिर नाम में प्यार डालती है। हे नानक! जिस सौभाग्यवती जीव-स्त्री को गुरु ने परमात्मा की महिमा का शब्द दिया, जिसको यह ऊँची दाति बख्शी, वह उच्च विचार के मालिक बन जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रीधर मोहिअड़ी पिर संगि सूती राम ॥ गुर कै भाइ चलो साचि संगूती राम ॥ धन साचि संगूती हरि संगि सूती संगि सखी सहेलीआ ॥ इक भाइ इक मनि नामु वसिआ सतिगुरू हम मेलीआ ॥ दिनु रैणि घड़ी न चसा विसरै सासि सासि निरंजनो ॥ सबदि जोति जगाइ दीपकु नानका भउ भंजनो ॥३॥

मूलम्

स्रीधर मोहिअड़ी पिर संगि सूती राम ॥ गुर कै भाइ चलो साचि संगूती राम ॥ धन साचि संगूती हरि संगि सूती संगि सखी सहेलीआ ॥ इक भाइ इक मनि नामु वसिआ सतिगुरू हम मेलीआ ॥ दिनु रैणि घड़ी न चसा विसरै सासि सासि निरंजनो ॥ सबदि जोति जगाइ दीपकु नानका भउ भंजनो ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्री = श्री, लक्ष्मी, माया। स्रीधर = लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा। मोहिअड़ी = मोही हुई, प्यार वश हो चुकी। संगि = साथ। सूती = सोई हुई, चरणों में जुड़ी हुई। भाइ = प्यार में, अनुसार। चलो = चाल, जीवन। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। संगती = संगति में, लीन। धन = जीव-स्त्री। संगि सखी सहेलीआ = सत्संगियों की संगति में। इक भाइ = एक के प्रेम में, सिर्फ परमात्मा के प्रेम में। इक मनि = एकाग्र मन से। हम = हमें। रैणि = रात। चसा = पल का बीसवां हिस्सा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। निरंजनो = (निर+अंजन) जिस पर माया के मोह की कालिख का प्रभाव नहीं पड़ सकता। सबदि = गुरु के शब्द से। जगाइ = जगा के। दीपकु = दीया। भउ = (हरेक) डर, सहम। भंजनो = नाश कर लिया है।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस जीव-स्त्री की) जीवन-चाल गुरु के अनुसार रहती है जो जीव-स्त्री सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहती है, (वह जीव-स्त्री) माया के पति प्रभु के प्यार-वश में हो जाती है वह जीव-स्त्री पति-प्रभु के चरणों में जुड़ी रहती है। हे भाई! सत्संगी सहेलियों के साथ मिल के जो जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में लीन होती है, प्रभु-पति के चरणों में जुड़ती है, परमात्मा के प्यार में एकाग्र-मन टिकने के कारण (उसके अंदर परमात्मा का) नाम आ बसता है (उसके अंदर ये श्रद्धा बन जाती है कि) गुरु ने (मुझे) प्रभु के चरणों में मिलाया है। (उस जीव-स्त्री को) दिन-रात घड़ी-पल (किसी वक्त भी परमात्मा की याद) नहीं भूलती, (वह जीव-स्त्री) हरेक सांस के साथ निरंजन-प्रभु (को याद रखती है)। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु के शब्द के द्वारा (अपने अंदर ईश्वरीय) ज्योति जगा के दीया जला के (वह जीव-स्त्री अपने अंदर से हरेक) डर-सहम नाश कर लेती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोति सबाइड़ीए त्रिभवण सारे राम ॥ घटि घटि रवि रहिआ अलख अपारे राम ॥ अलख अपार अपारु साचा आपु मारि मिलाईऐ ॥ हउमै ममता लोभु जालहु सबदि मैलु चुकाईऐ ॥ दरि जाइ दरसनु करी भाणै तारि तारणहारिआ ॥ हरि नामु अम्रितु चाखि त्रिपती नानका उर धारिआ ॥४॥१॥

मूलम्

जोति सबाइड़ीए त्रिभवण सारे राम ॥ घटि घटि रवि रहिआ अलख अपारे राम ॥ अलख अपार अपारु साचा आपु मारि मिलाईऐ ॥ हउमै ममता लोभु जालहु सबदि मैलु चुकाईऐ ॥ दरि जाइ दरसनु करी भाणै तारि तारणहारिआ ॥ हरि नामु अम्रितु चाखि त्रिपती नानका उर धारिआ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबाइड़ीए = सबाइ अड़ीए! सबाइ = सब जगह। अड़ीए = हे सहेली! त्रिभवण = तीन भवन, सारा जगत। सारे = संभाल करता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। रवि रहिआ = व्यापक है। अलख = अद्रिष्ट। अपार = बेअंत। साचा = सदा कायम रहने वाला। आपु = स्वै भाव। मारि = मार के। जालहु = जला दो। ममता = (मम = मेरी) अपनत्व, माया जोड़ने की खींच। सबदि = गुरु के शब्द से। चुकाईऐ = दूर कर सकती है। दरि = (गुरु के) दर पर। करी = कर लेना, हे सहेली! भाणै = रजा में। तारणहारिआ = हे तारनहार! तैराने की समर्थता रखने वाले हे प्रभु! अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। त्रिपती = (माया की तृष्णा से) तृपत हो गई। उर = हृदय।4।
अर्थ: हे सहेलीए! (परमात्मा की) ज्योति हर जगह (पसरी हुई) है, वह प्रभु सारे जगत की संभाल करता है। वह अदृष्य और बेअंत प्रभु हरेक शरीर में मौजूद है।
हे सहेली! वह परमात्मा अदृष्य है बेअंत है, बेअंत है, वह सदा कायम रहने वाला है। स्वै भाव मार के (ही उसको) मिला जा सकता है। हे सहेली! (अपने अंदर से) अहंकार, माया जोड़ने की कसक और लालच जला दे (सहेलिए! अहंकार ममता लोभ आदि की) मैल गुरु के शब्द से ही समाप्त की जा सकती है।
(सो, हे सहेलिए! गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा की) रजा में (चल के जीवन व्यतीत कर, और अरदास किया कर-) हे तारणहार प्रभु! (मुझे विकारों के समुंदर से) पार लंघा ले (इस तरह, हे सहेलिए! गुरु के) दर पर जा के (परमात्मा के) दर्शन कर लेगी।
हे नानक! (कह: हे सहेली! जो जीव-स्त्री प्रभु का नाम अपने) हृदय में बसाती है वह आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल चख के (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाती है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला १ ॥ मै मनि चाउ घणा साचि विगासी राम ॥ मोही प्रेम पिरे प्रभि अबिनासी राम ॥ अविगतो हरि नाथु नाथह तिसै भावै सो थीऐ ॥ किरपालु सदा दइआलु दाता जीआ अंदरि तूं जीऐ ॥ मै अवरु गिआनु न धिआनु पूजा हरि नामु अंतरि वसि रहे ॥ भेखु भवनी हठु न जाना नानका सचु गहि रहे ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला १ ॥ मै मनि चाउ घणा साचि विगासी राम ॥ मोही प्रेम पिरे प्रभि अबिनासी राम ॥ अविगतो हरि नाथु नाथह तिसै भावै सो थीऐ ॥ किरपालु सदा दइआलु दाता जीआ अंदरि तूं जीऐ ॥ मै अवरु गिआनु न धिआनु पूजा हरि नामु अंतरि वसि रहे ॥ भेखु भवनी हठु न जाना नानका सचु गहि रहे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। घणा = बहुत। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में (टिक के)। विगासी = मैं खिल रही हूँ, मेरा मन खिला रहता है। पिरे = पिर ने। प्रभि = प्रभु ने। अविगतो = (अव्यतत्र) अद्रिष्ट। नाथु नाथह = नाथों का नाथ। तिसै = उस (प्रभु) को ही। थीऐ = होता है। जीऐ = जिंद देने वाला। अवरु = और। गिआनु = धर्म चर्चा। धिआनु = समाधि आदि का उद्यम। भवनी = तीर्थ यात्रा। हठु = हठ (के आसरे किए) योग आसन। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।1।
अर्थ: हे सहेली! अविनाशी प्यारे प्रभु ने (मेरे मन को अपने) प्रेम (की खींच से) मस्त कर रखा है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (के नाम) में (टिक के) मेरा मन खिला रहता है, मेरे मन में बहुत चाव बना रहता है। हे सहेली! वह परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता, पर वह परमात्मा (बड़े-बड़े) नाथों का (भी) नाथ है, (जगत में) वह ही होता है, जो उस परमात्मा को ही अच्छा लगता है।
हे प्रभु! तू मेहर का समुंदर है, तू सदा ही दया का श्रोत है, तू ही सब दातें देने वाला है, तू ही सब जीवों के अंदर का प्राण है।
हे सहेली! (मेरे) मन में परमात्मा का नाम बस रहा है (इस हरि-नाम के बराबर की) मुझे कोई धर्म-चर्चा, कोई समाधि, कोई देव-पूजा नहीं सूझती। हे नानक! (कह: हे सहेलिए!) मैंने सदा कायम रहने वाले हरि-नाम को (अपने हृदय में) पक्की तरह टिका लिया है (इसके बराबर का) मैं कोई भेस, कोई तीर्थ-रटन, कोई हठ योग नहीं समझती।1।

[[0844]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिंनड़ी रैणि भली दिनस सुहाए राम ॥ निज घरि सूतड़ीए पिरमु जगाए राम ॥ नव हाणि नव धन सबदि जागी आपणे पिर भाणीआ ॥ तजि कूड़ु कपटु सुभाउ दूजा चाकरी लोकाणीआ ॥ मै नामु हरि का हारु कंठे साच सबदु नीसाणिआ ॥ कर जोड़ि नानकु साचु मागै नदरि करि तुधु भाणिआ ॥२॥

मूलम्

भिंनड़ी रैणि भली दिनस सुहाए राम ॥ निज घरि सूतड़ीए पिरमु जगाए राम ॥ नव हाणि नव धन सबदि जागी आपणे पिर भाणीआ ॥ तजि कूड़ु कपटु सुभाउ दूजा चाकरी लोकाणीआ ॥ मै नामु हरि का हारु कंठे साच सबदु नीसाणिआ ॥ कर जोड़ि नानकु साचु मागै नदरि करि तुधु भाणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भिंनड़ी = (हरि नाम के रस से) भीगी हुई (जीव-स्त्री) को। रैणि = रात। सुहाए = सुहावने, सुख देने वाले। निज घरि = अपने घर में, अपने आप में। सूतड़ीए = हे सोई हुई जीव-स्त्री! हे हरि नाम से बेपपरवाह हो रही जीव-स्त्री! पिरमु = प्रभु का प्रेम। जगाए = (माया के मोह से) सचेत करता है। हाणि = (हायन) साल, वर्ष। नव हाणि = नई उम्र वाली, विकारों से बची हुई। धन = जीव-स्त्री। नव = नई। सबदि = गुरु के शब्द से। जागी = (माया के मोह से) सचेत रहती है। पिर भाणीआ = प्रभु का प्यारी लगती है। तजि = त्याग के। कूड़ु = झूठ, नाशवान पदार्थों का मोह। सुभाउ दूजा = प्रभु को छोड़ के अन्य से प्यार डालने वाली आदत। लोकाणीआ = लोगों की। चाकरी = खुशामद, अधीनता। कंठे = गले में। साच सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा। नीसाणिआ = परवाना, राहदारी, जिंदगी की अगुवाई करने वाला परवाना। कर = हाथ (बहुवचन)। साचु = सदा स्थिर हरि नाम। नदरि = मेहर की निगाह। तुधु भाणिआ = अगर तुझे अच्छा लगे।2।
अर्थ: हे अपने आप में मस्त रहने वाली जीव-स्त्री! (देख, जिस जीव-स्त्री को) परमात्मा का प्यार (माया के मोह से) सचेत करता है, जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द की इनायत से (माया के मोह से) सचेत होती है, वह जीव-स्त्री विकारों से बची रहती है, हरि-नाम रस में भीगी हुई उस जीव-स्त्री को (जिंदगी की) रातें और दिन सब सुहावने लगते हैं। वह जीव-स्त्री नाशवान पदार्थों का मोह, ठगी-फरेब, माया से प्यार डाले रखने वाली आदत, और लोगों की अधीनता छोड़ के अपने प्रभु-पति को प्यारी लगने लग जाती है।
हे सखिए! (जैसे) गले में हार (डाला जाता है, वैसे ही) परमातमा का नाम मैंने (अपने गले में परो लिया है) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा (मेरी जिंदगी की अगवाई करने वाला) परवाना है। नानक (दोनों) हाथ जोड़ के (परमात्मा के दर से उसका) सदा-स्थिर रहने वाला नाम मांगता रहता है (अऔर कहता है: हे प्रभु!) अगर तुझे अच्छा लगे (तो मेरे ऊपर) मेहर की निगाह कर (मुझे अपना नाम दे)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जागु सलोनड़ीए बोलै गुरबाणी राम ॥ जिनि सुणि मंनिअड़ी अकथ कहाणी राम ॥ अकथ कहाणी पदु निरबाणी को विरला गुरमुखि बूझए ॥ ओहु सबदि समाए आपु गवाए त्रिभवण सोझी सूझए ॥ रहै अतीतु अपर्मपरि राता साचु मनि गुण सारिआ ॥ ओहु पूरि रहिआ सरब ठाई नानका उरि धारिआ ॥३॥

मूलम्

जागु सलोनड़ीए बोलै गुरबाणी राम ॥ जिनि सुणि मंनिअड़ी अकथ कहाणी राम ॥ अकथ कहाणी पदु निरबाणी को विरला गुरमुखि बूझए ॥ ओहु सबदि समाए आपु गवाए त्रिभवण सोझी सूझए ॥ रहै अतीतु अपर्मपरि राता साचु मनि गुण सारिआ ॥ ओहु पूरि रहिआ सरब ठाई नानका उरि धारिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागु = (माया के हमलों की ओर से) सावधान रह। लोइण = आँखें। सलोनड़ीए = हे सुंदर नेत्रों वाली जीव-स्त्री! बोलै = बोलती है, जगाती है, सावधान करती है। जिनि = जिस ने। सुणि = सुन के। अकथ कहाणी = अकथ प्रभु की महिमा। अकथ = अ+कथ, जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। पदु = आत्मिक दर्जा। निरबार = वासना रहित। को = कोई। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बूझए = समझता है। सबदि = गुरु के शब्द में। आपु = स्वै भाव। त्रिभवण सोझी = सारे जगत में व्यापक प्रभु की सूझ। अतीतु = विरक्त, माया के मोह से परे। अपरंपरि = परे से परे प्रभु में, बेअंत प्रभु में। राता = मस्त। साचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। सारिआ = संभालता है। ओहु = वह (अपरंपर प्रभु)। सरब ठाई = सब जगह। उरि = हृदय में।3।
अर्थ: हे सुंदर नेत्रों वाली जीव-स्त्री! (माया के हमलों की ओर से) सावधान रह, (तुझे) गुरु की वाणी जगा रही है। जिस (जीव-स्त्री) ने (गुरु की वाणी) सुन के (उसमें) श्रद्धा बनाई है, वह अकथ परमात्मा की महिमा करने लग जाती है। अकथ प्रभु की महिमा की इनायत सेवह उस आत्मिक दर्जे पर पहुँच जाती है जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।
पर गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला यह बात समझता है, वह (गुरमुख) मनुष्य गुरु के शब्द में लीन रहता है, (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेता है, जगत में व्यापक परमात्मा के साथ उसकी गहरी सांझ हो जाती है। वह मनुष्य माया के मोह से बचा रहता है, बेअंत प्रभु (के प्रेम) में मस्त रहता है, सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा (हर वक्त उसके) मन में (बसा रहता है), वह (परमात्मा के) गुणों को अपने हृदय में बसाए रखता है। हे नानक! वह मनुष्य उस प्रभु को अपने हृदय में बसाए रखता है जो सब जगह व्यापक हो रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महलि बुलाइड़ीए भगति सनेही राम ॥ गुरमति मनि रहसी सीझसि देही राम ॥ मनु मारि रीझै सबदि सीझै त्रै लोक नाथु पछाणए ॥ मनु डीगि डोलि न जाइ कत ही आपणा पिरु जाणए ॥ मै आधारु तेरा तू खसमु मेरा मै ताणु तकीआ तेरओ ॥ साचि सूचा सदा नानक गुर सबदि झगरु निबेरओ ॥४॥२॥

मूलम्

महलि बुलाइड़ीए भगति सनेही राम ॥ गुरमति मनि रहसी सीझसि देही राम ॥ मनु मारि रीझै सबदि सीझै त्रै लोक नाथु पछाणए ॥ मनु डीगि डोलि न जाइ कत ही आपणा पिरु जाणए ॥ मै आधारु तेरा तू खसमु मेरा मै ताणु तकीआ तेरओ ॥ साचि सूचा सदा नानक गुर सबदि झगरु निबेरओ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महलि = महल में, प्रभु के चरणों में, प्रभु दर पर। बुलाड़ीए = हे बुलाई हुई जीव-स्त्री! महलि बुलाइड़ीए = हे प्रभु दर पर पहुँची हुई जीव-स्त्री! सनेही = प्यार करने वाला। भगति सनेही = भक्ति से प्यार करने वाला। मनि = मन में। रहसी = प्रसन्न। सीझसि = सफल हो जाती है। देही = काया, शरीर। मारि = मार के, वश में ला के। रीझै = खुश होती है, आत्मिक आनंद हासिल करती है। सबदि = शब्द से। सीझै = कामयाब होती है। पछाणए = पहचानती है। डीगि = गिर के, ठोकर खा के। डोलि = डोल के। कतही = कहीं भी। जाणए = जाने। आधारु = आसरा। ताणु = बल, सहारा। तकीआ = आसरा। तेरओ = तेरा ही। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। सूचा = स्वच्छ जीवन वाला। झगरु = (माया के मोह की) खहि खहि। निबेरिओ = खत्म कर लेता है।4।
अर्थ: हे प्रभु दर पर पहुँची हुई जीव-स्त्री! (जिस प्रभु ने तुझे अपने चरणों में जोड़ा है, वह) भक्ति से प्यार करने वाला है। (जो जीव-स्त्री) गुरु की मति पर चल के (प्रभु की भक्ति करती है, उसके) मन में आत्मिक आनंद बना रहता है, (उसका मानव) शरीर सफल हो जाता है।
(जो जीव-स्त्री अपने) मन को वश में करके आत्मिक आनंद हासिल करती है, गुरु के शब्द से वह (जीवन में) कामयाब होती है सारे जगत के मालिक प्रभु से वह सोझ डाल लेती है। (उसका मन) किसी भी और तरफ डोलता नहीं, वह (हर वक्त) अपने प्रभु-पति के साथ गहरी सांझ डाले रखती है।
हे प्रभु! मुझे तेरा ही आसरा है, तू (ही) मेरा पति है, मुझे तेरा ही आसरा तेरा ही सहारा है। हे नानक! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में (सदा लीन रहता है) वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। गुरु के शब्द के द्वारा (वह मनुष्य माया के मोह की) चिक-चिक ख्खत्म कर लेता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंत बिलावलु महला ४ मंगल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

छंत बिलावलु महला ४ मंगल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा हरि प्रभु सेजै आइआ मनु सुखि समाणा राम ॥ गुरि तुठै हरि प्रभु पाइआ रंगि रलीआ माणा राम ॥ वडभागीआ सोहागणी हरि मसतकि माणा राम ॥ हरि प्रभु हरि सोहागु है नानक मनि भाणा राम ॥१॥

मूलम्

मेरा हरि प्रभु सेजै आइआ मनु सुखि समाणा राम ॥ गुरि तुठै हरि प्रभु पाइआ रंगि रलीआ माणा राम ॥ वडभागीआ सोहागणी हरि मसतकि माणा राम ॥ हरि प्रभु हरि सोहागु है नानक मनि भाणा राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेजै = (हृदय की) सेज पर। सुखि = आनंद में। गुरि तुठै = गुरु के मेहरवान होने पर, गुरु के प्रसन्न होने पर। रंगि = प्रेम में। रलीआ = मिलाप का स्वाद, रलियां। वडभागीआ = बड़े भाग्यों वाली। सोहागणी = प्रभु पति वालियां। मसतकि = माथे पर। माणा = माणिक। सोहागु = पति। मनि = मन में। भाणा = प्यारा लगा।1।
अर्थ: हे सहेलिए! (जिस भाग्यशाली जीव-स्त्री की हृदय-) सेज पर प्यारा हरि-प्रभु आ बैठा, उसका मन आत्मिक आनंद में मगन हो जाता है। गुरु के प्रसन्न होने पर जिस (जीव-स्त्री) को हरि-प्रभु मिल गया, वह प्रेम में (मस्त हो के प्रभु के मिलाप का) स्वाद भोगती है।
हे नानक! (कह: हे सहेलिए!) जिनके माथे पर हरि (-मिलाप का) मोती (चमक जाता) है, वे भाग्यशाली हो जाती हैं, वे सुहागनें बन जाती हैं। हरि-प्रभु-पति (उनके सिर पर) विद्यमान हो जाता है, उनको पति-प्रभु मन में प्यारा लगने लगता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमाणिआ हरि माणु है हरि प्रभु हरि आपै राम ॥ गुरमुखि आपु गवाइआ नित हरि हरि जापै राम ॥ मेरे हरि प्रभ भावै सो करै हरि रंगि हरि रापै राम ॥ जनु नानकु सहजि मिलाइआ हरि रसि हरि ध्रापै राम ॥२॥

मूलम्

निमाणिआ हरि माणु है हरि प्रभु हरि आपै राम ॥ गुरमुखि आपु गवाइआ नित हरि हरि जापै राम ॥ मेरे हरि प्रभ भावै सो करै हरि रंगि हरि रापै राम ॥ जनु नानकु सहजि मिलाइआ हरि रसि हरि ध्रापै राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपै = आपे में, आत्मा में, जिंद में, प्राण में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। आपु = स्वै भाव। जापै = जपता है। भावै = अच्छा लगता है। रंगि = प्रेम रंग में। रापै = रंगा जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। ध्रापै = तृप्त होता है। हरि रसि = हरि नाम रस की इनायत से।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेता है, और सदा परमात्मा का नाम जपता रहता है, हरि-प्रभु उसके स्वै में (जिंद में) सदा टिका रहता है (उसको समझ आ जाती है कि) जिनको कोई आदर नहीं देता, परमात्मा उनका आदर-सहारा बन जाता है। (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) सदा प्रभु के प्रेम रंग में रंगा रहता है (उसे यह विश्वास हो जाता है कि) मेरा प्रभु वही कुछ करता है जो उसको अच्छा लगता है।
दास नानक (कहता है - हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) आत्मिक अडोलता में लीन रहता है, परमात्मा के नाम-रस की इनायत से वह (माया की ओर से) तृप्त रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माणस जनमि हरि पाईऐ हरि रावण वेरा राम ॥ गुरमुखि मिलु सोहागणी रंगु होइ घणेरा राम ॥ जिन माणस जनमि न पाइआ तिन्ह भागु मंदेरा राम ॥ हरि हरि हरि हरि राखु प्रभ नानकु जनु तेरा राम ॥३॥

मूलम्

माणस जनमि हरि पाईऐ हरि रावण वेरा राम ॥ गुरमुखि मिलु सोहागणी रंगु होइ घणेरा राम ॥ जिन माणस जनमि न पाइआ तिन्ह भागु मंदेरा राम ॥ हरि हरि हरि हरि राखु प्रभ नानकु जनु तेरा राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माणस जनमि = मानव जनम में। पाईऐ = मिल सकते हैं। रावण वेरा = मिलाप की बारी। वेरा = बारी, वेला, समय। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सोहागणी = हे अच्छे भाग्यों वाली जीव-स्त्री! घणेरा = बहुत। मंदेरा = खोटा। प्रभ = हे प्रभु! जन = दास।3।
अर्थ: हे भाई! मानव जन्म में (ही) परमात्मा को मिल सकते हैं। (मनुष्य जन्म ही) परमात्मा का मिलाप पाने का वक्त है। हे सौभाग्यशाली जीव-सि्त्रऐ! गुरु के द्वारा प्रभु को मिल। (गुरु की शरण पड़ने से मिलाप का प्रेम-) रंग बहुत चढ़ता है।
हे भाई! जिन्होंने मानव जन्म में परमात्मा का मिलाप हासिल ना किया, उनकी खोटी किस्मत जानो। हे हरि! हे प्रभु! नानक को (अपने चरणों में) जोड़े रख, नानक तेरा दास है।3।

[[0845]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि हरि प्रभु अगमु द्रिड़ाइआ मनु तनु रंगि भीना राम ॥ भगति वछलु हरि नामु है गुरमुखि हरि लीना राम ॥ बिनु हरि नाम न जीवदे जिउ जल बिनु मीना राम ॥ सफल जनमु हरि पाइआ नानक प्रभि कीना राम ॥४॥१॥३॥

मूलम्

गुरि हरि प्रभु अगमु द्रिड़ाइआ मनु तनु रंगि भीना राम ॥ भगति वछलु हरि नामु है गुरमुखि हरि लीना राम ॥ बिनु हरि नाम न जीवदे जिउ जल बिनु मीना राम ॥ सफल जनमु हरि पाइआ नानक प्रभि कीना राम ॥४॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर दिया। रंगि = (प्यार-) रंग में। भीना = भीग जाता है। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। हरि नामु = हरि का नाम। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। लीना = लीन हो के, मगन। मीना = मछली। सफल = कामयाब। प्रभि = प्रभु ने।4।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के दिल में) गुरु ने अगम्य (पहुँच से परे) हरि-प्रभु (का नाम) दृढ़ कर दिया, उसका मन उसका तन (परमात्मा के प्रेम-) रंग में भीगा रहता है। वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ करउस परमात्मा में लीन रहता है जिसका नाम है ‘भक्ति को प्यार करने वाला’।
हे भाई! जैसे मछली पानी के बिना नहीं रह सकती, वैसे ही (परमात्मा में लीन रहने वाले मनुष्य) परमात्मा (की याद) के बिना नहीं जी सकते। हे नानक! (गुरु के द्वारा जिस मनुष्य ने) प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया, प्रभु ने उसकी जिंदगी कामयाब बना दी।4।1।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ४ सलोकु ॥ हरि प्रभु सजणु लोड़ि लहु मनि वसै वडभागु ॥ गुरि पूरै वेखालिआ नानक हरि लिव लागु ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ४ सलोकु ॥ हरि प्रभु सजणु लोड़ि लहु मनि वसै वडभागु ॥ गुरि पूरै वेखालिआ नानक हरि लिव लागु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोड़ि लहु = ढूँढ लो। मनि = मन में। वसै = आ बसता है। वडभागु = बड़े भाग्यों वाला। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। लिव = तवज्जो, ध्यान, लगन।1।
अर्थ: सलोक। हे भाई! (असल) मित्र परमात्मा को ढूँढ लो। (जिसके) मन में वह आ बसता है, वह मनुष्य भाग्यशाली हो जाता है। हे नानक! (जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने परमात्मा के दर्शन करवा दिए उसकी तवज्जो परमात्मा में जुड़ गई।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंत ॥ मेरा हरि प्रभु रावणि आईआ हउमै बिखु झागे राम ॥ गुरमति आपु मिटाइआ हरि हरि लिव लागे राम ॥ अंतरि कमलु परगासिआ गुर गिआनी जागे राम ॥ जन नानक हरि प्रभु पाइआ पूरै वडभागे राम ॥१॥

मूलम्

छंत ॥ मेरा हरि प्रभु रावणि आईआ हउमै बिखु झागे राम ॥ गुरमति आपु मिटाइआ हरि हरि लिव लागे राम ॥ अंतरि कमलु परगासिआ गुर गिआनी जागे राम ॥ जन नानक हरि प्रभु पाइआ पूरै वडभागे राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत। रावणि = (मिलाप का आनंद) लेने के लिए। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाले (अहंकार का) ज़हर। झागे = झाग, (अहंकार के समुंदर) मुश्किल में से गुजर के। आपु = स्वै भाव। कमलु = हृदय का कमल फूल। परगासिआ = खिल उठता है। गुर गिआनी = गुरु के दी हुई आत्मिक जीवन की सूझ के द्वारा। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। जागे = (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहता है।1।
अर्थ: हे सहेलिए! (जो जीव-स्त्री) आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार के जहर (से भरे हुए समुंदर) को मुश्किल से पार करके प्रभु-पति को मिलने के लिए (गुरु की शरण) आती है, गुरु की मति पर चल क रवह (अपने अंदर से) स्वै भाव मिटाती है, (और, फिर) उसकी लगन परमात्मा में लग जाती है। गुरु से मिली आत्मिक जीवन की सूझ से वह (विकारों के हमलों की ओर से सदा) सचेत रहती हैं, उसके अंदर हृदय-कमल-पुष्प् खिल उठता है।
हे दास नानक! पूर्ण सौभाग्य से ही परमात्मा मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि प्रभु हरि मनि भाइआ हरि नामि वधाई राम ॥ गुरि पूरै प्रभु पाइआ हरि हरि लिव लाई राम ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ जोति परगटिआई राम ॥ जन नानक नामु अधारु है हरि नामि समाई राम ॥२॥

मूलम्

हरि प्रभु हरि मनि भाइआ हरि नामि वधाई राम ॥ गुरि पूरै प्रभु पाइआ हरि हरि लिव लाई राम ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ जोति परगटिआई राम ॥ जन नानक नामु अधारु है हरि नामि समाई राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगा। नामि = नाम से। वधाई = उत्साह, चढ़दीकला। गुरि पूरै = पूरे गुरु से। लिव = लगन, तवज्जो, ध्यान। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी। परगटिआई = प्रकट हो गई, रौशन हो पड़ी। अधारु = आसरा। नामि = नाम में। समाई = लीन हो गई।2।
अर्थ: हे भाई! (पूरे गुरु के द्वारा जिस मनुष्य के) मन में हरि-प्रभु प्यारा लगने लग जाता है, हरि-नाम की इनायत से (उसके अंदर) चढ़दीकला (उत्साह भरी आत्मिक अवस्था) बनी रहती है। पूरे गुरु के माध्यम से जिसे प्रभु मिल गया, वह हर वक्त परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है। (उसके अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (का) अंधकार मिट जाता है, (उसके अंदर) ईश्वरीय ज्योति जाग पड़ती है। हे दास नानक! (कह:) उस मनुष्य के लिए परमात्मा का नाम (जिंदगी का) आसरा बन जाता है, परमात्मा के नाम में उसकी लीनता बनी रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन हरि प्रभि पिआरै रावीआ जां हरि प्रभ भाई राम ॥ अखी प्रेम कसाईआ जिउ बिलक मसाई राम ॥ गुरि पूरै हरि मेलिआ हरि रसि आघाई राम ॥ जन नानक नामि विगसिआ हरि हरि लिव लाई राम ॥३॥

मूलम्

धन हरि प्रभि पिआरै रावीआ जां हरि प्रभ भाई राम ॥ अखी प्रेम कसाईआ जिउ बिलक मसाई राम ॥ गुरि पूरै हरि मेलिआ हरि रसि आघाई राम ॥ जन नानक नामि विगसिआ हरि हरि लिव लाई राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। प्रभि = प्रभु ने। प्रभि पिआरै = प्यारे प्रभु ने। रावीआ = रावी, भोगी, अपने साथ मिला ली। जां = जब। प्रभ भाई = प्रभु को प्यारी लगी। अखी = आखें, (उसकी) आँखें। कसाईआ = कसी गई, आकर्षित हुई। बिलक = बिल्ली। मसाई = मूसा, चूहा। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। हरि रसि = हरि नाम के स्वाद से। आघाई = (माया की तृष्णा की ओर से) अघा गई, तृप्त हो गई। नामि = नाम की इनायत से। विगसिआ = खिल उठा। लिव लाई = तवज्जो जोड़ ली।3।
अर्थ: हे भाई! जब कोई (जीव-स्त्री) प्रभु का अच्छी लगी, (तब) प्यारे प्रभु ने (उस) जीव-स्त्री को अपने साथ मिला लिया, (उस जीव-स्त्री की) आँखें प्यार में ऐसे आकर्षित हुई, जैसे बिल्ली (की आँखे) चूहे की और (खिच जाती हैं)।
हे दास नानक! पूरे गुरु ने (जिस जीव-स्त्री को) परमात्मा के साथ मिला दिया, (वह जीव-स्त्री) हरि-नाम-रस के स्वाद की इनायत से (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गई, हरि-नाम के कारण उसका हृदय-कमल खिल उठता है, वह सदा परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम मूरख मुगध मिलाइआ हरि किरपा धारी राम ॥ धनु धंनु गुरू साबासि है जिनि हउमै मारी राम ॥ जिन्ह वडभागीआ वडभागु है हरि हरि उर धारी राम ॥ जन नानक नामु सलाहि तू नामे बलिहारी राम ॥४॥२॥४॥

मूलम्

हम मूरख मुगध मिलाइआ हरि किरपा धारी राम ॥ धनु धंनु गुरू साबासि है जिनि हउमै मारी राम ॥ जिन्ह वडभागीआ वडभागु है हरि हरि उर धारी राम ॥ जन नानक नामु सलाहि तू नामे बलिहारी राम ॥४॥२॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम जीव। मुगध = मूर्ख, बेसमझ। धनु धंनु = धन्य धन्य, सराहनीय। जिनि = जिस (गुरु) ने। उर = हृदय। सलाहि = महिमा करा कर। बलिहारी = सदके।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (मेरे पर) मेहर की है, और मुझ मूर्ख को अंजान को (गुरु के द्वारा अपने चरणों में) जोड़ लिया है। (मेरा) गुरु सराहनीय है, गुरु को साबाश है, जिसने (मेरे अंदर से) अहंकार को दूर कर दिया है।
हे भाई! जिस बहुत भाग्यशालियों की किस्मत जागती है, वह परमात्मा को अपने हृदय में बसाती हैं। हे दास नानक! (तू भी) परमात्मा का नाम सराहा कर, नाम से सदके हुआ कर।4।2।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंगल साजु भइआ प्रभु अपना गाइआ राम ॥ अबिनासी वरु सुणिआ मनि उपजिआ चाइआ राम ॥ मनि प्रीति लागै वडै भागै कब मिलीऐ पूरन पते ॥ सहजे समाईऐ गोविंदु पाईऐ देहु सखीए मोहि मते ॥ दिनु रैणि ठाढी करउ सेवा प्रभु कवन जुगती पाइआ ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा लैहु मोहि लड़ि लाइआ ॥१॥

मूलम्

मंगल साजु भइआ प्रभु अपना गाइआ राम ॥ अबिनासी वरु सुणिआ मनि उपजिआ चाइआ राम ॥ मनि प्रीति लागै वडै भागै कब मिलीऐ पूरन पते ॥ सहजे समाईऐ गोविंदु पाईऐ देहु सखीए मोहि मते ॥ दिनु रैणि ठाढी करउ सेवा प्रभु कवन जुगती पाइआ ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा लैहु मोहि लड़ि लाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंगल साजु = खुशी का सामान, खुशी का रंग ढंग। अबिनासी = नाश ना होने वाला। वरु = (प्रभु) पति। मनि = मन में। चाइआ = चाव। वडै भागै = बड़ी किस्मत से। पते = पति को। सहजे = आत्मिक अडोलता में। पाईऐ = मिल जाता है। सखीए = हे सहेलिए! मोहि = मुझे। मते = मति, उपदेश। रैणि = रात। ठाढी = खड़ी। करउ = मैं करूँ। कवन जुगती = किस तरीके से? लैहु लाइआ = लगा लो। लड़ि = पल्ले से।1।
अर्थ: हे सहेलिए! प्यारे प्रभु की महिमा का गीत गाने से (मन में) खुशी का रंग-ढंग बन जाता है। उस कभी ना मरने वाले पति-प्रभु (का नाम) सुनने से मन में चाव पैदा हो जाता है।
(जब) बहुत किस्मत से (किसी जीव-स्त्री के) मन में परमात्मा-पति का प्यार पैदा होता है, (तब वह उतावली हो-हो पड़ती है उस) सारे गुणों के मालिक प्रभु-पति को कब मिला जा सकेगा। (उसके आगे यह उक्तर मिलता है: अगर) आत्मिक अडोलता में लीन रहें तो परमात्मा पति मिल जाता है। (वह भाग्यशाली जीव-स्त्री बार-बार पूछती है:) हे सहेलिए! मुझे बुद्धि दे कि किस तरीके से प्रभु-पति मिल सकता है (हे सहेलिए! बता) मैं दिन-रात खड़ी हुई तेरी सेवा करूँगी।
नानक (भी) विनती करता है: (हे प्रभु! मेरे ऊपर) मेहर कर, (मुझे अपने) पल्ले से लगाए रख।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भइआ समाहड़ा हरि रतनु विसाहा राम ॥ खोजी खोजि लधा हरि संतन पाहा राम ॥ मिले संत पिआरे दइआ धारे कथहि अकथ बीचारो ॥ इक चिति इक मनि धिआइ सुआमी लाइ प्रीति पिआरो ॥ कर जोड़ि प्रभ पहि करि बिनंती मिलै हरि जसु लाहा ॥ बिनवंति नानक दासु तेरा मेरा प्रभु अगम अथाहा ॥२॥

मूलम्

भइआ समाहड़ा हरि रतनु विसाहा राम ॥ खोजी खोजि लधा हरि संतन पाहा राम ॥ मिले संत पिआरे दइआ धारे कथहि अकथ बीचारो ॥ इक चिति इक मनि धिआइ सुआमी लाइ प्रीति पिआरो ॥ कर जोड़ि प्रभ पहि करि बिनंती मिलै हरि जसु लाहा ॥ बिनवंति नानक दासु तेरा मेरा प्रभु अगम अथाहा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समाहड़ा = (समाह = समाश्वास:) हौसला, धीरज। विसाहा = खरीदा। खोजि = खोज के, तलाश करके। पाहा = पास से। धारे = धार के। कथहि = कथते हैं, सुनाते हैं। अकथ बीचारो = अकथ प्रभु के गुणों का विचार। अकथ = अ+कथ, जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। इक चिति = एक चिक्त से, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। इक मनि = एक मन से, मन लगा के। धिआइ = ध्यान धर। लाइ = लगा के। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। पहि = पास। मिलै = मिलता है। जसु = महिमा। लाहा = लाभं। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाहा = जिसकी गहारई ना पता चल सके।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम किमती रत्न है, जो मनुष्य यह) हरि-नाम का व्यापर करता है (उसके अंदर) धीरज पैदा हो जाता है। पर, ये नाम-रत्न (कोई दुर्लभ) खोज करने वाला मनुष्य तलाश करके संत-जनों से ही हासिल करता है। जिस भाग्यशाली मनुष्य को प्यारे संत-जन मिल जाते हैं, (वही) मेहर करके (उसको) अकथ प्रभु की महिमा की बातें सुनाते हैं।
हे भाई! (संत-जनों की संगति में रह के) तवज्जो जोड़ के, मन लगा के प्रभु-चरणों से प्यार डाल के (परमात्मा का) नाम स्मरण किया कर। प्रभु के दर पर (दोनों) हाथ जोड़ के अरदास किया कर। (जो मनुष्य नित्य अरदास करता रहता है, उसको मानव जीवन की) कमाई (के तौर पर) परमात्मा की महिमा (की दाति) मिलती है।
हे अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह प्रभु! नानक (तेरे दर पर) विनती करता है: मैं तेरा दास हूँ, तू मेरा मालिक है (मुझे अपनी महिमा की दाति बख्श)।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

साहा अटलु गणिआ पूरन संजोगो राम ॥ सुखह समूह भइआ गइआ विजोगो राम ॥ मिलि संत आए प्रभ धिआए बणे अचरज जाञीआं ॥ मिलि इकत्र होए सहजि ढोए मनि प्रीति उपजी माञीआ ॥ मिलि जोति जोती ओति पोती हरि नामु सभि रस भोगो ॥ बिनवंति नानक सभ संति मेली प्रभु करण कारण जोगो ॥३॥

मूलम्

साहा अटलु गणिआ पूरन संजोगो राम ॥ सुखह समूह भइआ गइआ विजोगो राम ॥ मिलि संत आए प्रभ धिआए बणे अचरज जाञीआं ॥ मिलि इकत्र होए सहजि ढोए मनि प्रीति उपजी माञीआ ॥ मिलि जोति जोती ओति पोती हरि नामु सभि रस भोगो ॥ बिनवंति नानक सभ संति मेली प्रभु करण कारण जोगो ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साहा = विवाह का महूरत। अटलु = कभी ना टलने वाला। पूरन संजोगो = पूर्ण प्रभु का मिलाप। सुखह समूह = सुखों का समूह, सारे सुखों का मेल। विजोगो = विछोड़ा। मिलि = मिल के। जाञीआं = जांजियां। जांञी = जांजी, दूल्हे के साथी, बाराती। इकत्र = (सत्संग में) एकत्र। सहजि = आत्मिक अडोलता में। ढोए = पहुँचे, बारात बन के लड़की वालों के घर पहुँचे। मनि = मन में। माञीआ = मांजियां, मांजी, लड़की वालों की तरफ के बाराती। माञीआ मनि = लड़की के संबंधियों के मन में, ज्ञान इन्द्रियों के अंदर। जोति = जीव के प्राण। जोती = प्रभु की ज्योति। ओति पोती = ताने पेटे की तरह। सभि रस = सारे स्वादिष्ट पदार्थ। संति = गुर संत ने। सभ = (शरण पड़ी) सारी दुनिया। करण कारण = सारे जगत का मूल। जोगो = सब ताकतों के मालिक।3।
अर्थ: (लडकी-लड़के के विवाह का महूरत निहित किया जाता है। दूल्हे के साथ बाराती आते हैं, लड़की वालों के घर पहुँचते हैं, उस वक्त लड़की वालों सगे-संबन्धियों के मन में खुशी होती है। बारातियों को कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खिलाते हैं। पंडित लावें पढ़ के लड़की-लड़के का मेल करा देता है)। (इसी तरह साधु-संगत की इनायत से जीव-स्त्री और प्रभु-पति के मिलाप का) कभी ना टलने वाला महूरत बन जाता है। (साधु-संगत की कृपा से जीव-स्त्री का) पूरन-परमात्मा से मिलाप (विवाह) हो जाता है, (जीव-स्त्री के हृदय में) सारे सुख आ बसते हैं (प्रभु-पति से उसका) विछोड़ा (वियोग) मिट जाता है।
संतजन मिल के (साधु-संगत में) आते हैं, प्रभु की महिमा करते हैं (जीव-स्त्री को प्रभु-पति को मिलाने के लिए ये सत्संगी) आश्चर्यजनक बाराती (जांजी) बन जाते हैं। (संतजन) मिल के (साधु-संगत में) इकट्ठे होते हैं, आत्मिक अडोलता में (टिकते हैं, जैसे लड़की वालों के घर बाराती) पहुँच रहे होते हैं, (जैसे) लड़की वाले सगे-संबन्धियों के मन में उत्साह-खुशी पैदा होती है (वैसे ही प्राणों के साथियों के मन में, सारी ज्ञान-इंद्रिय के अंदर चाव पैदा होता है। (साधु-संगत के प्रताप से जीव-स्त्री के) प्राण प्रभु की ज्यरेति में मिल के ओत-प्रोत एक-मेक हो जाते हैं (जैसे दोनों तरफ के बारातियों- जांजियों मांजियों - को) सारे स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए जाते हैं, (वैसे ही जीव-स्त्री को) परमात्मा का नाम-भोजन प्राप्त होता है।
नानक बिनती करता है: (यह सारी गुरु की ही मेहर है) गुरु संत ने (शरण पड़ी) सारी लुकाई को सारे जगत का मूल सब ताकतों का मालिक मिलाया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवनु सुहावड़ा धरति सभागी राम ॥ प्रभु घरि आइअड़ा गुर चरणी लागी राम ॥ गुर चरण लागी सहजि जागी सगल इछा पुंनीआ ॥ मेरी आस पूरी संत धूरी हरि मिले कंत विछुंनिआ ॥ आनंद अनदिनु वजहि वाजे अहं मति मन की तिआगी ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी संतसंगि लिव लागी ॥४॥१॥

मूलम्

भवनु सुहावड़ा धरति सभागी राम ॥ प्रभु घरि आइअड़ा गुर चरणी लागी राम ॥ गुर चरण लागी सहजि जागी सगल इछा पुंनीआ ॥ मेरी आस पूरी संत धूरी हरि मिले कंत विछुंनिआ ॥ आनंद अनदिनु वजहि वाजे अहं मति मन की तिआगी ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी संतसंगि लिव लागी ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भवनु = घर, शरीर। सुहावड़ा = सुंदर। धरति = हृदय। सभागी = भाग्यशाली (हृदय = धरती)। घरि = (हृदय) घर में। आइअड़ा = आ गया, प्रगट हुआ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जागी = (विकारों के हमलों की ओर से) सचेत हो गई। मेरी आस = ममता बढ़ाने वाली आस। विछुंनिआ = छेदित हुआ। अनदिनु = हर रोज। वजहि = बजते हैं। आनंद वाजे = आनंद रूपी बाजे।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: जब कहीं बाजे बज रहे हों तो पास खड़े लोग एक-दूसरे की बात सुन नहीं सकते, क्योंकि बजते बाजों का शोर बहुत प्रबल होता है। इसी प्रकार जिस हृदय में आत्मिक आनंद बहुत प्रबल हो जाए वहाँ ‘अहंकार’ आदि की प्रेरणा कोई नहीं सुनता)।

दर्पण-भाषार्थ

संत संगि = गुरु की संगति में।4।
अर्थ: (जो जीव-स्त्री) गुरु के चरणों में लगती है, उसके (हृदय-) घर में प्रभु-पति आ बैठता है, उसका (शरीर-) भवन सुंदर हो जाता है, उसकी (हृदय-) धरती भाग्यशाली हो जाती है। (जो जीव-स्त्री) गुरु के चरणों में लगती है, वह आत्मिक अडोलता में (टिक के विकारों के हमलों से) सचेत रहती है, उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। साधु-संगत की चरण-धूल के प्रताप से (उसके अंदर से) ममता बढ़ाने वाली आस खत्म हो जाती है, उसको चिरों से विछड़े हुए प्रभु-कंत मिल जाते हैं।
नानक विनती करता है: (गुरु के चरणों में लगी हुई जीव-स्त्री के अंदर) हर वक्त आत्मिक आनंद के बाजे बजते रहते हैं (जिसके सदका वह अपने) मन के अहंकार की मति त्याग देती है साधु-संगत में रह के उसकी तवज्जो मालिक-प्रभु में लगी रहती है, वह जीव-स्त्री मालिक प्रभु की शरण पड़ी रहती है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ भाग सुलखणा हरि कंतु हमारा राम ॥ अनहद बाजित्रा तिसु धुनि दरबारा राम ॥ आनंद अनदिनु वजहि वाजे दिनसु रैणि उमाहा ॥ तह रोग सोग न दूखु बिआपै जनम मरणु न ताहा ॥ रिधि सिधि सुधा रसु अम्रितु भगति भरे भंडारा ॥ बिनवंति नानक बलिहारि वंञा पारब्रहम प्रान अधारा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ भाग सुलखणा हरि कंतु हमारा राम ॥ अनहद बाजित्रा तिसु धुनि दरबारा राम ॥ आनंद अनदिनु वजहि वाजे दिनसु रैणि उमाहा ॥ तह रोग सोग न दूखु बिआपै जनम मरणु न ताहा ॥ रिधि सिधि सुधा रसु अम्रितु भगति भरे भंडारा ॥ बिनवंति नानक बलिहारि वंञा पारब्रहम प्रान अधारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुलखणा = (सु+लक्षणा) सुंदर लक्षणों वाले। भाग सुलखणा = सुंदर लक्षणों वाले भाग्य। बाजित्रा = वादित्रं (a musical intrument) बाजा। तिसु दरबारा = उस (केत प्रभु) के दरबार में। अनाहद = (अनाहत, not produced by beating, बिना बजाए बज रहे) एक रस। अनदिनु = हर रोज। वजहि = बजते हैं। रैण = रात। उमाहा = उत्साह, चाव। तह = ‘तिसु दरबार’, वहाँ, उस प्रभु के दरबार में। बिआपै = जोर डाल सकता। ताहा = उसको। रिधि सिधि = रिद्धियां सिद्धियां, करामाती ताकतें। सुधा अम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। वंञा = वंजां, जाऊँ। बलिहार वंञा = मैं सदके जाता हूँ। प्राण अधारा = जिंद का आसरा।1।
अर्थ: हे सहेलिए! हमारा कंत-प्रभु सुंदर लक्षणों वाले भाग्यों वाला है, उस (कंत) के दरबार में एक-रस (बस रहे) बाजों की धुनि उठ रही है।
हे सहेलिए! (उस कंत के दरबार में सदा) आनंद के बाजे बजते रहते हैं, दिन-रात (वहाँ) चाव (बना रहता है)। वहाँ रोग नहीं है, वहाँ चिन्ता-फिक्र नहीं हैं, वहाँ (कोई) दुख अपना जोर नहीं डाल सकता, उस (कंत) को पैदा होने-मरने का चक्कर नहीं हैं।
हे सहेलिए! (उस कंत-प्रभु के दरबार में) रिद्धियां हैं सिद्धियां हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस है, भक्ति के खजाने भरे हुए हैं। नानक विनती करता है: (सब जीवों की) जिंदगी के आसरे उस पारब्रहम से सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सखीअ सहेलड़ीहो मिलि मंगलु गावह राम ॥ मनि तनि प्रेमु करे तिसु प्रभ कउ रावह राम ॥ करि प्रेमु रावह तिसै भावह इक निमख पलक न तिआगीऐ ॥ गहि कंठि लाईऐ नह लजाईऐ चरन रज मनु पागीऐ ॥ भगति ठगउरी पाइ मोहह अनत कतहू न धावह ॥ बिनवंति नानक मिलि संगि साजन अमर पदवी पावह ॥२॥

मूलम्

सुणि सखीअ सहेलड़ीहो मिलि मंगलु गावह राम ॥ मनि तनि प्रेमु करे तिसु प्रभ कउ रावह राम ॥ करि प्रेमु रावह तिसै भावह इक निमख पलक न तिआगीऐ ॥ गहि कंठि लाईऐ नह लजाईऐ चरन रज मनु पागीऐ ॥ भगति ठगउरी पाइ मोहह अनत कतहू न धावह ॥ बिनवंति नानक मिलि संगि साजन अमर पदवी पावह ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखीअ = हे सखीओ! मिलि = मिल के। मंगलु = महिमा का गीत। गावह = आओ हम गाएं। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। करे = करके। कउ = को। रावह = आओ स्मरण करें। तिसै भावह = उस (कंत प्रभु को) अच्छी लगें। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। न तिआगीऐ = त्यागना नहीं चाहिए। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। लाईऐ = लगा लेना चाहिए। नह लजाईऐ = शर्म नहीं करनी चाहिए। रज = धूल। पागीऐ = लेप लेनी चाहिए। ठगउरी = ठग बूटी। मोहह = आओ हम मोह लें। अनत = (अन्यत्र) किसी और जगह। न धावह = हम ना दौड़ें। अमर पदवी = वह आत्मिक दर्जा जिसको कभी मौत नहीं आती। पावह = हम हासिल करें।2।
अर्थ: हे सखियो! हे सहेलियो! सुनो, आओ मिल के परमात्मा की महिमा के गीत गाएं। हे सहेलियो! मन में हृदय में प्यार पैदा करके उस प्रभु को स्मरण करें। (हृदय में) प्रेम पैदा करके (उसको) स्मरण करें, और उसे प्यारी लगें। हे सहेलियो! (उस कंत-प्रभु को) आँख झपकने जितने समय के लिए भी भुलाना नहीं चाहिए, उसको पकड़ के गले से लगा लेना चाहिए (उसका नाम तवज्जो जोड़ के गले में परो लेना चाहिए, इस काम से) शर्म नहीं करनी चाहिए, (उसके) चरणों की धूल से (अपना यह) मन रंग लेना चाहिए।
नानक विनती करता है: हे सहेलियो! भक्ति की ठग-बूटी का प्रयोग करके, आओ, उस कंत-प्रभु को वश में कर लें, व, किसी और तरफ़ ना भटकती फिरें। उस सज्जन प्रभु को मिल के वह दर्जा हासिल कर लें, जहाँ आत्मिक मौत कभी छू नहीं सकती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिसमन बिसम भई पेखि गुण अबिनासी राम ॥ करु गहि भुजा गही कटि जम की फासी राम ॥ गहि भुजा लीन्ही दासि कीन्ही अंकुरि उदोतु जणाइआ ॥ मलन मोह बिकार नाठे दिवस निरमल आइआ ॥ द्रिसटि धारी मनि पिआरी महा दुरमति नासी ॥ बिनवंति नानक भई निरमल प्रभ मिले अबिनासी ॥३॥

मूलम्

बिसमन बिसम भई पेखि गुण अबिनासी राम ॥ करु गहि भुजा गही कटि जम की फासी राम ॥ गहि भुजा लीन्ही दासि कीन्ही अंकुरि उदोतु जणाइआ ॥ मलन मोह बिकार नाठे दिवस निरमल आइआ ॥ द्रिसटि धारी मनि पिआरी महा दुरमति नासी ॥ बिनवंति नानक भई निरमल प्रभ मिले अबिनासी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसम = हैरान। बिसमन बिसम = बहुत ही हैरान। पेखि = देख के। अबिनासी = नाश रहित। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। भुजा = बांह। कटि = काट के। गहि लीनी = पकड़ ली है। दासि = दासी। अंकुरि = अंकुर के कारण, (भाग्य के फूट रहे) अंकुर के कारण। उदोतु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। जणाइआ = बता दिया है, दिखा दिया है। मलन = मैले, बुरे। नाठे = भाग गए हैं। निरमल = पवित्र। द्रिसटि = मेहर की निगाह। मनि = मन में। दुरमति = खोटी मति।3।
अर्थ: हे सहेलियो! अविनाशी कंत-प्रभु के गुण (उपकार) देख-देख के मैं तो हैरान ही हो गई हूँ। (उसने मेरा) हाथ पकड़ के, (मेरी) जमों वाले बंधन काट के, मेरी बाँह पकड़ ली है। उसने मेरी बाँह कस के पकड़ ली है, मुझे (अपनी) दासी बना लिया है, (मेरे सौभाग्य के फूट रहे) अंकुर के कारण, (उसने मेरे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर दिया है। मोह आदि बुरे विकार (मेरे अंदर से) भाग गए हैं, (मेरी जिंदगी के) पवित्र दिन आ गए हैं।
नानक विनती करता है: (हे सहेलियो! उस कंत-प्रभु ने मेरे ऊपर प्यार भरी) निगाह की (जो मेरे) मन को भा गई है, (उसके प्रताप से मेरे अंदर से) दुमर्ति नाश हो चुकी है, अविनाशी प्रभु जी (मुझे मिल गए हैं, मैं पवित्र जीवन वाली हो गई हूँ)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूरज किरणि मिले जल का जलु हूआ राम ॥ जोती जोति रली स्मपूरनु थीआ राम ॥ ब्रहमु दीसै ब्रहमु सुणीऐ एकु एकु वखाणीऐ ॥ आतम पसारा करणहारा प्रभ बिना नही जाणीऐ ॥ आपि करता आपि भुगता आपि कारणु कीआ ॥ बिनवंति नानक सेई जाणहि जिन्ही हरि रसु पीआ ॥४॥२॥

मूलम्

सूरज किरणि मिले जल का जलु हूआ राम ॥ जोती जोति रली स्मपूरनु थीआ राम ॥ ब्रहमु दीसै ब्रहमु सुणीऐ एकु एकु वखाणीऐ ॥ आतम पसारा करणहारा प्रभ बिना नही जाणीऐ ॥ आपि करता आपि भुगता आपि कारणु कीआ ॥ बिनवंति नानक सेई जाणहि जिन्ही हरि रसु पीआ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिले = मिल के। सूरज किरणि मिले = सूरज की किरण के साथ मिल के। संपूरनु थीआ = सारे गुणों के मालिक प्रभु का रूप हो जाता है। दीसै = दिखता है (हर तरफ)। सुणीऐ = (हरेक में बोलता) उसको सुना जाता हैं। वखाणीऐ = ज़िक्र होता है। पसारा = खिलारा, प्रकाश। कारणु कीआ = (जगत का) आरम्भ हुआ। सेई = वह लोग। जाणहि = जानते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) सूरज की किरण से मिल के (बर्फ से) पानी का पानी बन जाता है (सूरज की गर्मी बर्फ बने पानी पानी की कठोरता खत्म हो जाती है), (वैसे महिमा की इनायत से जीव के अंदर का रूखा-पन खत्म हो के जीव की) जीवात्मा परमात्मा की ज्योति के साथ एक-मेक हो जाती है, जीव सारे गुणों के मालिक परमात्मा का रूप हो जाता है। (तब उसको हर जगह) परमात्मा ही (बसता) नजर आता है, (हरेक में) परमात्मा ही (बोलता उसको) सुनाई देता है (उसको ऐसा प्रतीत होता है कि हर जगह) परमात्मा खुद (ही सबको) पैदा करने वाला है, (जीवों में व्यापक हो के) खुद (ही सारे रंग) माण रहा है, वह खुद हरेक काम की प्रेरणा कर रहा है।
(पर) नानक विनती करता है (कि इस अवस्था को) वही मनुष्य समझते हैं, जिन्होंने परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है।4।2।

[[0847]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखी आउ सखी वसि आउ सखी असी पिर का मंगलु गावह ॥ तजि मानु सखी तजि मानु सखी मतु आपणे प्रीतम भावह ॥ तजि मानु मोहु बिकारु दूजा सेवि एकु निरंजनो ॥ लगु चरण सरण दइआल प्रीतम सगल दुरत बिखंडनो ॥ होइ दास दासी तजि उदासी बहुड़ि बिधी न धावा ॥ नानकु पइअ्मपै करहु किरपा तामि मंगलु गावा ॥१॥

मूलम्

सखी आउ सखी वसि आउ सखी असी पिर का मंगलु गावह ॥ तजि मानु सखी तजि मानु सखी मतु आपणे प्रीतम भावह ॥ तजि मानु मोहु बिकारु दूजा सेवि एकु निरंजनो ॥ लगु चरण सरण दइआल प्रीतम सगल दुरत बिखंडनो ॥ होइ दास दासी तजि उदासी बहुड़ि बिधी न धावा ॥ नानकु पइअ्मपै करहु किरपा तामि मंगलु गावा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सहेलिए! वसि = रजा में (चलें)। मंगलु = सिुत सालाह के गीत। गावह = आओ गाएं। तजि = त्याग दे। मानु = अहंकार। मतु = शायद। प्रीतम भावह = प्रीतम को अच्छा लगे। बिकारु दूजा = माया के प्यार वाला विकार। सेवि = शरण पड़ो। निरंजनो = (निर+अंजन) जिसको माया के मोह की कालिख नहीं लग सकती। दुरत = पाप। दुरत बिखंडनो = पापों को नाश करने वाला। सगल = सारे। होइ = बन के। दास दासी = दासों की दासी। तजि = त्याग के। उदासी = (महिमा से) उपरामता। बहुड़ि = फिर। बिधि = (अनेक) तरीकों से। न धावा = ना दौड़ूं, मैं ना भटकूँ। पइअंपै = विनती करता है। तामि = तब। गावा = गाऊँ, मैं गा सकूँ।1।
अर्थ: हे सहेलिए! आओ (मिल के बैठें) हे सहेलिए! आओ प्रभु की रजा में चलें, और प्रभु-पति की महिमा का गीत गाएं। हे सहेलिए! (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर, शायद (इस तरह) हम अपने प्रीतम प्रभु को अच्छी लग सकें।
हे सहेलिए! (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर, मोह दूर कर, माया के प्यार वाला विकार दूर कर, सिर्फ निर्लिप प्रभु की शरण पड़ी रह, सारे पापों के नाश करने वाले दया के श्रोत प्रीतम प्रभु के चरणों की औट पकड़े रख।
नानक बिनती करता है: हे सहेलिए! (मेरे ऊपर भी) मेहर कर, मैं (प्रभु के) दासों की दासी बन के, (महिमा की ओर से) उपरामता त्याग के बार-बार और तरफ ना भटकता फिरूँ। (तू मेहर करे), तब ही मैं (भी) महिमा के गीत गा सकूँगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु प्रिअ का नामु मै अंधुले टोहनी ॥ ओह जोहै बहु परकार सुंदरि मोहनी ॥ मोहनी महा बचित्रि चंचलि अनिक भाव दिखावए ॥ होइ ढीठ मीठी मनहि लागै नामु लैण न आवए ॥ ग्रिह बनहि तीरै बरत पूजा बाट घाटै जोहनी ॥ नानकु पइअ्मपै दइआ धारहु मै नामु अंधुले टोहनी ॥२॥

मूलम्

अम्रितु प्रिअ का नामु मै अंधुले टोहनी ॥ ओह जोहै बहु परकार सुंदरि मोहनी ॥ मोहनी महा बचित्रि चंचलि अनिक भाव दिखावए ॥ होइ ढीठ मीठी मनहि लागै नामु लैण न आवए ॥ ग्रिह बनहि तीरै बरत पूजा बाट घाटै जोहनी ॥ नानकु पइअ्मपै दइआ धारहु मै नामु अंधुले टोहनी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। टोहनी = टोहने वाली डंडी, आसरा। अंधुले = (माया के मोह में) अंधे (हो चुके) को। ओह = (स्त्रीलिंग) वह मोहनी माया। जोहै = देखती है। सुंदरि = सुंदरी। मोहनी = मन को फसाने वाली। बचित्रि = (स्त्रीलिंग) कई रंगों वाली। भाव = नखरे। दिखावए = (वर्तमान काल) दिखाती है। होइ = हो के। मनहि = मन में। लैण न आवए = लिया नहीं जा सकता। ग्रिह = घर, गृहस्थ। बनहि = जंगल में। तीरै = (दरिया के) किनारे पर, (किसी तीर्थ आदि पर)। बाट = रास्ता। घाटै = पक्तण पर। जोहनी = देखने वाली। नानकु पइअंपै = नानक बिनती करता है।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम मेरे जीवन के लिए सहारा है जैसे अंधे को छड़ी का सहारा होता है, (क्योंकि) वह मन को फसाने वाली सुंदरी माया कई तरीकों से (जीवों को) ताड़ती (देखती) रहती है (और अपने मोह में अंधा कर लेती है)।
हे भाई! कई रंगों वाली और मन को मोहने वाली चंचल माया (जीवों को) अनेक नखरे दिखाती रहती है, ढीठ बन के (भाव, बार-बार अपने हाव-भाव दिखा के, आखिर जीवों को) प्यारी लगने लग जाती है, (इस मोहनी माया के असर तले परमात्मा का) नाम नहीं जपा जा सकता।
हे भाई! गृहस्थ में (गृहस्तियों को) जंगलों में (त्यागियों को), तीर्थों के किनारे (तीर्थ-स्नानियों को), व्रत (रखने वालों को) देव-पूजा (करने वालों को), राहों में, पक्तनों पर (हर जगह माया अपनी) ताक में रहती है।
नानक विनती करता है: (हे प्रभु! मेरे पर) मेहर कर (इस माया की ताक से बचने के लिए) मुझे अपना नाम (का सहारा दिए रख, जैसे) अंधे को छड़ी का सहारा होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि अनाथ प्रिअ नाथ जिउ जानहु तिउ रखहु ॥ चतुराई मोहि नाहि रीझावउ कहि मुखहु ॥ नह चतुरि सुघरि सुजान बेती मोहि निरगुनि गुनु नही ॥ नह रूप धूप न नैण बंके जह भावै तह रखु तुही ॥ जै जै जइअ्मपहि सगल जा कउ करुणापति गति किनि लखहु ॥ नानकु पइअ्मपै सेव सेवकु जिउ जानहु तिउ मोहि रखहु ॥३॥

मूलम्

मोहि अनाथ प्रिअ नाथ जिउ जानहु तिउ रखहु ॥ चतुराई मोहि नाहि रीझावउ कहि मुखहु ॥ नह चतुरि सुघरि सुजान बेती मोहि निरगुनि गुनु नही ॥ नह रूप धूप न नैण बंके जह भावै तह रखु तुही ॥ जै जै जइअ्मपहि सगल जा कउ करुणापति गति किनि लखहु ॥ नानकु पइअ्मपै सेव सेवकु जिउ जानहु तिउ मोहि रखहु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। अनाथ = निमाणे को, अनाथ को। प्रिअ नाथ = हे प्रिय पति प्रभु! मोहि = मैं में। रीझावउ = रिझाऊँ, मैं (तुझे) प्रसन्न कर सकूँ। कहि = (कुछ) कह के। मुखहु = मुँह से। चतुरि = समझदार (स्त्रीलिंग)। सुघरि = सुघड़, अच्छी मानसिक घाड़त वाली। बेती = जानने वाली, अच्छी सूझ वाली। मोहि निरगुनि = मैं गुणहीन में। धूप = सुगंधि (अच्छे गुणों वाली)। बंके = सुंदर, बांके। नैण = आँखें। जह = जहाँ। भावै = तुझे अच्छा लगे। जै जै = जैकार, महिमा। जइअंपहि = उचारते हैं। जा कउ = जिसको। करुणापति = (करुणा = तरस, दया। पति = मालिक) हे दया के मालिक! गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। किनि = किस ने? मोहि = मुझे। रखहु = रक्षा कर।3।
अर्थ: हे प्यारे पति-प्रभु! जैसे हो सके, (इस मोहनी माया के पंजे से) मुझ निमाणे को (बचा के) रख। मेरे अंदर कोई समझदारी नहीं कि मैं (कुछ) मुँह से कह के तुझे प्रसन्न कर सकूँ।
हे प्यारे नाथ! मैं चतुर नहीं, मैं उत्तम मानिसक घाड़त वाली नहीं, मैं समझदार नहीं, मैं बढ़िया सूझ वाली नहीं, मुझ गुण-हीन में (कोई भी) गुण नहीं। ना मेरा सुंदर रूप है, ना (मेरे अंदर अच्छे गुणों वाली) सुगंधि है ना ही मेरे बाँके नयन हैं - जहाँ तेरी रज़ा हो वहां ही मुझे (इस मोहनी माया से) बचा ले।
हे तरस के मालिक प्रभु! (तू ऐसा है) जिसकी सारे जीव जै-जैकार करते हैं। तू कैसा है; किसी ने भी यह भेद नहीं समझा। नानक बिनती करता है: हे प्रभु! (मैं तेरा) सेवक हूँ (मुझे अपनी) सेवा-भक्ति (दे) जैसे भी हो सके, मुझे (इस मोहनी माया से) बचाए रख।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि मछुली तुम नीर तुझ बिनु किउ सरै ॥ मोहि चात्रिक तुम्ह बूंद त्रिपतउ मुखि परै ॥ मुखि परै हरै पिआस मेरी जीअ हीआ प्रानपते ॥ लाडिले लाड लडाइ सभ महि मिलु हमारी होइ गते ॥ चीति चितवउ मिटु अंधारे जिउ आस चकवी दिनु चरै ॥ नानकु पइअ्मपै प्रिअ संगि मेली मछुली नीरु न वीसरै ॥४॥

मूलम्

मोहि मछुली तुम नीर तुझ बिनु किउ सरै ॥ मोहि चात्रिक तुम्ह बूंद त्रिपतउ मुखि परै ॥ मुखि परै हरै पिआस मेरी जीअ हीआ प्रानपते ॥ लाडिले लाड लडाइ सभ महि मिलु हमारी होइ गते ॥ चीति चितवउ मिटु अंधारे जिउ आस चकवी दिनु चरै ॥ नानकु पइअ्मपै प्रिअ संगि मेली मछुली नीरु न वीसरै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मैं। मछुली = मछली। तुम नीर = तेरा नाम पानी है। किउ सरै = निभ नहीं सकती, मेरा जीवन संभव नहीं है। चात्रिक = पपीहा। त्रिपतउ = तृप्त होऊँ। मुखि = (मेरे) मुँह में। परै = (नाम की बूँद) पड़ती है। हरै = दूर कर देती है। जीअ पते = हे मेरे जीअ के पति! हे मेरे प्राणपति! प्रान पते = हे मेरे प्राणों के मालिक! लाडिले = हे प्यारे! लाड लडाइ = प्यार भरे करिश्मे करके। सभ महि = सारी सृष्टि में। गते = गति, उच्च आत्मिक अवस्था। चीति = चिक्त में। चितवउ = मैं चितारती हूँ। मिटु = दूर हो जा। अंधारे = हे अंधेरे! चरै = चढ़ रहा है। प्रिअ = हे प्यारे! संगि = (अपने) साथ। मेली = मिला ले।4।
अर्थ: हे प्रभु! मुझ मछली (के लिए) तू (तेरा नाम) पानी (के तुल्य) है, तेरे बिना (तेरी याद के बग़ैर) मेरा जीवन संभव नहीं है। हे प्रभु! मुझ पपीहे (के लिए) तू (तेरा नाम) बरखा की बूँद है, मुझे (तब) शांति आती है (जब नाम-बूँद मेरे) मुँह में पड़ती है। (जैसे बरसात की बूँद पपीहे के मुँह में पड़ती है तो वह बूँद उसकी प्यास दूर कर देती है, वैसे ही जब तेरे नाम की बूँद मेरे) मुँह में पड़ती है तो वह (मेरे अंदर से माया की) तृष्णा दूर कर देती है। हे मेरी जिंद के मालिक! हे मेरे दिल के साई! हे मेरे प्राणों के नाथ! हे प्यारे! प्यार भरे करिश्मे करके तू सारी सृष्टि में (बस रहा है। हे प्यारे! मुझे) मिल, ताकि मेरी उच्च आत्मिक अवस्था बन सके।
हे प्रभु! जैसे चकवी आस बनाए रखती है कि दिन चढ़ रहा है, वैसे मैं भी (तेरा मिलाप ही) चितारती रहती है (और, कहती रहती है:) हे अंधकार! (माया के मोह के अंधेर! मेरे अंदर से) दूर हो जा। नानक विनती करता है: हे प्यारे (मुझे अपने) साथ मिला ले, (मैं) मछली को (तेरा नाम-) पानी भूल नहीं सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनि धंनि हमारे भाग घरि आइआ पिरु मेरा ॥ सोहे बंक दुआर सगला बनु हरा ॥ हर हरा सुआमी सुखह गामी अनद मंगल रसु घणा ॥ नवल नवतन नाहु बाला कवन रसना गुन भणा ॥ मेरी सेज सोही देखि मोही सगल सहसा दुखु हरा ॥ नानकु पइअ्मपै मेरी आस पूरी मिले सुआमी अपर्मपरा ॥५॥१॥३॥

मूलम्

धनि धंनि हमारे भाग घरि आइआ पिरु मेरा ॥ सोहे बंक दुआर सगला बनु हरा ॥ हर हरा सुआमी सुखह गामी अनद मंगल रसु घणा ॥ नवल नवतन नाहु बाला कवन रसना गुन भणा ॥ मेरी सेज सोही देखि मोही सगल सहसा दुखु हरा ॥ नानकु पइअ्मपै मेरी आस पूरी मिले सुआमी अपर्मपरा ॥५॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धनि धंनि = (धन्य धन्य) बहुत ही सराहनीय। घरि = घर में। पिरु = प्रभु पति। सोहे = सुंदर बन गए हैं। बंक = बांके। दुआर = (इस शरीर घर के) दरवाजे, सारी ज्ञान-इंद्रिय। बनु = जंगल, जूह, हृदय-जंगल। हरा = आत्मिक जीवन वाला। हर हरा = हरा हरा, आत्मिक जीवन से भरपूर। सुखहगामी = सुखों तक पहुँचाने वाला। मंगल = खुशी। रसु = स्वाद, आनंद। घणा = बहुत। नवल = नया। नवतन = नए प्यार वाला। नाहु = नाथ, पति प्रभु। रसना = जीभ से। कवन गुन = कौन कौन से गुण? भणा = मैं बयान करूँ। सेज = हृदय सेज। सोही = सज गई है। देखि = देख के। सहसा = सहम। हरा = हर लिया, दूर कर दिया। अपरंपरा = परे से परे, बेअंत।5।
अर्थ: हे सहेलिए! (मेरे हृदय-) घर में मेरा (प्रभु) पति आ बसा है, मेरे भाग्य जाग पड़े हैं। (मेरे इस शरीर-घर के) दरवाजे (सारी ज्ञान-इंद्रिय) सुंदर बन गए हैं (भाव, अब ये ज्ञानेन्दियां विकारों की ओर नहीं खींचतीं, मेरा) सारा हृदय-जंगल आत्मिक जीवन वाला हो गया है।
हे सहेलिए! आत्मिक जीवन से भरपूर और सुखों की दाति देने वाला मालिक-प्रभु (मेरे हृदय-घर में आ बसा है, जिसके सदका मेरे अंदर) आनंद की अनुभूति बन गई है, खुशियों ने डेरा डाल दिया है, बहुत मजे बन गए हैं। हे सहेलिए! मेरा पति-प्रभु हर वक्त नया है जवान है (भाव, उसका प्यार कभी कमजोर नहीं पड़ता)। मैं (अपनी) जीभ से (उसके) कौन-कौन से गुण बताऊँ?
नानक विनती करता है: (हे सहेलिए! पति-प्रभु के मेरे हृदय में आ बसने से) मेरी हृदय-सेज सज गई है, (उस प्रभु-पति का) दर्शन करके मैं मस्त हो रही हूँ (उसने मेरे अंदर से) हरेक सहम और दुख दूर कर दिया है। मुझे बेअंत मालिक-प्रभु मिल गया है, मेरी हरेक आशा पूरी हो गई है।5।3।

[[0848]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ छंत मंगल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ छंत मंगल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ सुंदर सांति दइआल प्रभ सरब सुखा निधि पीउ ॥ सुख सागर प्रभ भेटिऐ नानक सुखी होत इहु जीउ ॥१॥

मूलम्

सलोकु ॥ सुंदर सांति दइआल प्रभ सरब सुखा निधि पीउ ॥ सुख सागर प्रभ भेटिऐ नानक सुखी होत इहु जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: (दइआल = दया+आलय) दया का घर। सरब सुखा निधि = सारे सुखों का खजाना। पीउ = प्रभु पति। सागर = समुंदर। प्रभ भेटिऐ = अगर प्रभु मिल जाए। जीउ = जिंद।1।
अर्थ: सलोक- हे नानक! प्रभु-पति सुंदर है शांति-रूप है, दया का श्रोत है और सारे सुखों का खजाना है। अगर वह सुखों का समुंदर प्रभु मिल जाए, तो यह जिंद सुखी हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंत ॥ सुख सागर प्रभु पाईऐ जब होवै भागो राम ॥ माननि मानु वञाईऐ हरि चरणी लागो राम ॥ छोडि सिआनप चातुरी दुरमति बुधि तिआगो राम ॥ नानक पउ सरणाई राम राइ थिरु होइ सुहागो राम ॥१॥

मूलम्

छंत ॥ सुख सागर प्रभु पाईऐ जब होवै भागो राम ॥ माननि मानु वञाईऐ हरि चरणी लागो राम ॥ छोडि सिआनप चातुरी दुरमति बुधि तिआगो राम ॥ नानक पउ सरणाई राम राइ थिरु होइ सुहागो राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत। पाईऐ = मिलता है। भागो = भाग्य, किस्मत। माननि = हे माण वालिए! , हे गौरवमयी जीव स्त्रीए! वञाईऐ = दूर करना चाहिए। लागो = लगी रह। चातुरी = चतुराई। दुरमति = खोटी मति। तिआगो = त्याग, दूर कर। थिरु = अटल। सुहागो = सोहाग, पति।1।
अर्थ: छंत- हे गौरवमयी जीव सि्त्रये! जब (माथे के) भाग्य जागते हैं तब सुखों का समुंदर प्रभु मिल जाता है (पर उसको मिलने के लिए अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेना चाहिए। हे जीव-स्त्री! (गुमान त्याग के) प्रभु के चरणों में जुड़ी रह, समझदारी चतुराई छोड़ दे, खोटी मति-बुद्धि (अपने अंदर से) दूर कर। हे नानक! (कह: हे जीव-स्त्री!) प्रभु पातशाह की शरण पड़ी रह, (तो ही तेरे सिर पर तेरे सिर का) साई (पति-प्रभु) सदा टिका रहेगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो प्रभु तजि कत लागीऐ जिसु बिनु मरि जाईऐ राम ॥ लाज न आवै अगिआन मती दुरजन बिरमाईऐ राम ॥ पतित पावन प्रभु तिआगि करे कहु कत ठहराईऐ राम ॥ नानक भगति भाउ करि दइआल की जीवन पदु पाईऐ राम ॥२॥

मूलम्

सो प्रभु तजि कत लागीऐ जिसु बिनु मरि जाईऐ राम ॥ लाज न आवै अगिआन मती दुरजन बिरमाईऐ राम ॥ पतित पावन प्रभु तिआगि करे कहु कत ठहराईऐ राम ॥ नानक भगति भाउ करि दइआल की जीवन पदु पाईऐ राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजि = त्याग के, विसार के। कतु = (कुत्र) कहाँ? लागीऐ = लगे रहते हैं। मरि जाईऐ = आत्मिक मौत मर जाया जाता है। लाज = शर्म। अगिआन = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी। अगिआन मती = वह मनुष्य जिसकी मति आत्मिक जीवन की ओर से कोरी है। बिरमाईऐ = लीन रहता है। दुरजन = बुरे लोगों में। पतित = विकारों में गिरे हुए, विकारी। पतित पावन प्रभू = विकारियों को पवित्र करने वाला प्रभु। करे = करि। तिआगि करे = त्याग के। कहु = बताओ। कत = कहाँ? ठहराईऐ = ठहराव आ सकता है, शांति इा सकती है। भाउ = प्रेम। पदु = दर्जा। जीवन पदु = आत्मिक जीवन वाला दर्जा। पाईऐ = मिलता है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा की याद) के बिना आत्मिक मौत सहेड़ ली जाती है, उसको भुला के किसी और जगह लीन नहीं होना चाहिए। पर जिस मनुष्य की मति आत्मिक जीवन की ओर से कोरी है (प्रभु की याद को भुला के) उसको शर्म नहीं आती, वह मनुष्य बुरे लोगों में खचित रहता है। हे भाई! विकारियों को पवित्र करने वाले प्रभु को भुला के और शांति कहाँ आ सकती है? प्रभु से प्यार डाले रख (इस तरह) आत्मिक जीवन वाला (ऊँचा) दर्जा मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्री गोपालु न उचरहि बलि गईए दुहचारणि रसना राम ॥ प्रभु भगति वछलु नह सेवही काइआ काक ग्रसना राम ॥ भ्रमि मोही दूख न जाणही कोटि जोनी बसना राम ॥ नानक बिनु हरि अवरु जि चाहना बिसटा क्रिम भसमा राम ॥३॥

मूलम्

स्री गोपालु न उचरहि बलि गईए दुहचारणि रसना राम ॥ प्रभु भगति वछलु नह सेवही काइआ काक ग्रसना राम ॥ भ्रमि मोही दूख न जाणही कोटि जोनी बसना राम ॥ नानक बिनु हरि अवरु जि चाहना बिसटा क्रिम भसमा राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्री गोपाल = श्री गोपाल, सृष्टि के पालनहार प्रभु। न उचरहि = (हे जीभ!) तू नहीं उचारती। बलि गईए = (निंदा, ईष्या की आग में) जल रही (जीभ!)। दुहचारणि रसना = (निंदा करने के) बुरे काम में पड़ी हुई हे जीभ! भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। नह सेवही = तू सेवा भक्ति नहीं करती। काइआ = शरीर। काक = (कामादिक) कौए। काक ग्रसना = (कामादिक) कौए खाए जा रहे हैं। भ्रमि = भ्रम में। मोही = ठगी हुई। न जाणही = तू नहीं जानती। कोटि = करोड़ों। अवरु सि = जो कोई और। क्रिम = कीड़ा। भसमा = राख।3।
अर्थ: हे (निंदा-ईष्या की आग में) जल रही (जीभ!) (निंदा करने के) बुरे काम में व्यस्त हे जीभ! तू सृष्टि के पालनहार प्रभु (का नाम) याद नहीं करती। हे जिंदे! जो प्रभु भक्ति से प्यार करने वाला है, तू उसकी सेवा-भक्ति नहीं करती, (तेरे इस) शरीर को (कामादिक) कौऐ (अंदर ही अंदर से) खाए जा रहे हैं।
हे जिंदे! भटकना के कारण तू (आत्मिक संपत्ति) लुटाए जा रही है, (नाम भुला के) करोड़ों जूनियों में पड़ना पड़ता है, तू इन दुखों को नहीं समझती! हे नानक! (कह: हे जिंदे!) परमात्मा के बिना किसी और को प्यार करना जो है, (वह इस तरह है जैसे) विष्ठा के कीड़े का (विकारों के गंद में पड़े रह के) आत्मिक जीवन (जल के) राख हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाइ बिरहु भगवंत संगे होइ मिलु बैरागनि राम ॥ चंदन चीर सुगंध रसा हउमै बिखु तिआगनि राम ॥ ईत ऊत नह डोलीऐ हरि सेवा जागनि राम ॥ नानक जिनि प्रभु पाइआ आपणा सा अटल सुहागनि राम ॥४॥१॥४॥

मूलम्

लाइ बिरहु भगवंत संगे होइ मिलु बैरागनि राम ॥ चंदन चीर सुगंध रसा हउमै बिखु तिआगनि राम ॥ ईत ऊत नह डोलीऐ हरि सेवा जागनि राम ॥ नानक जिनि प्रभु पाइआ आपणा सा अटल सुहागनि राम ॥४॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरहु = प्यार। संगे = साथ। होइ बैरागनि = वैरागिन हो के। चीर = (सुंदर) कपड़े। रसा = स्वादिष्ट भोजन। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर। तिआगनि = त्याग देते हैं। ईत ऊत = यहाँ वहाँ। जागनि = जागते हैं, सचेत रहते हैं। जिनि = जिस (जीव-स्त्री) ने। सा = वह (जीव-स्त्री)।4।
अर्थ: हे सहेलिये! भगवान से प्रीति बनाए रख। (दुनियावी पदार्थों की ओर से) वैरागिन हो के (मोह तोड़ कर प्रभु के चरणों में) जुड़ी रह। (जो जीव-स्त्रीयां प्रभु चरणों में जुड़ी रहती हैं, वह) चंदन, सुंदर कपड़े, सुगन्धियां, स्वादिष्ट भोजन (आदि से पैदा होने वाली) आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार के जहर को त्याग देती हैं। (हे सहेलिए! इन रसों की खातिर) इधर-उधर डोलना नहीं चाहिए, (पर इनकी तरफ से) वही सचेत रहती हैं जो प्रभु की सेवा-भक्ति में लीन रहती हैं।
हे नानक! जिस (जीव-स्त्री) ने अपने प्रभु (का मिलाप) हासल कर लिया, वह सदा के लिए पति वाली (सोहागिन) हो जाती है।4।1।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु महला ५ ॥ हरि खोजहु वडभागीहो मिलि साधू संगे राम ॥ गुन गोविद सद गाईअहि पारब्रहम कै रंगे राम ॥ सो प्रभु सद ही सेवीऐ पाईअहि फल मंगे राम ॥ नानक प्रभ सरणागती जपि अनत तरंगे राम ॥१॥

मूलम्

बिलावलु महला ५ ॥ हरि खोजहु वडभागीहो मिलि साधू संगे राम ॥ गुन गोविद सद गाईअहि पारब्रहम कै रंगे राम ॥ सो प्रभु सद ही सेवीऐ पाईअहि फल मंगे राम ॥ नानक प्रभ सरणागती जपि अनत तरंगे राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडभागीहो = हे अहो भाग्य वालो! मिलि = मिल के। साधू संगे = गुरु की संगति में। सद = सदा। गाईअहि = गाए जाने चाहिए। कै रंगे = के प्यार रंग में (टिक के)। सेवीऐ = सेवा भक्ति करनी चाहिए। पाईअहि = मिल जाते हैं। प्रभ सरणागती = प्रभु की शरण पड़ा रह। जपि = जपा कर। अनत = अनंत, अनेक। तरंग = लहर। अनत तरंगे = अनेक लहरों का मालिक प्रभु।1।
अर्थ: हे बड़े भाग्य वालियो! गुरु की संगति में मिल के परमात्मा की तलाश करते रहो। हे भाई! परमात्मा के प्यार-रंग में (टिक के) उसके गुण गाए जाने चाहिए।
हे भाई! सदा ही उस प्रभु की सेवा भक्ति करनी चाहिए (उसकी भक्ति की इनायत से) मुँह-मांगे फल मिल जाते हैं। हे नानक! (सदा) प्रभु की शरण पड़ा रह, उस अनेक लहरों के मालिक प्रभु का नाम जपा कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु तिलु प्रभू न वीसरै जिनि सभु किछु दीना राम ॥ वडभागी मेलावड़ा गुरमुखि पिरु चीन्हा राम ॥ बाह पकड़ि तम ते काढिआ करि अपुना लीना राम ॥ नामु जपत नानक जीवै सीतलु मनु सीना राम ॥२॥

मूलम्

इकु तिलु प्रभू न वीसरै जिनि सभु किछु दीना राम ॥ वडभागी मेलावड़ा गुरमुखि पिरु चीन्हा राम ॥ बाह पकड़ि तम ते काढिआ करि अपुना लीना राम ॥ नामु जपत नानक जीवै सीतलु मनु सीना राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकु तिलु = रक्ती भर समय के लिए भी। जिनि = जिस (प्रभु) ने। मेलावड़ा = मिलाप। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। पिरु = प्रभु पति को। चीना = पहचाना। पकड़ि = पकड़ के। तम = (माया के मोह का) अंधेरा। ते = से। करि = कर के, बना के। जपत = जपते हुए। जीवे = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। सीतलु = ठंडा, शांत। सीना = छाती, हृदय।2।
अर्थ: हे भाई! जिस (प्रभु) ने हरेक पदार्थ दिया है, उसको पल भर के समय के लिए भी नहीं भूलना चाहिए। (पर उससे) मिलाप बड़े भाग्यों से ही होता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उस प्रभु-पति के साथ गहरी सांझ डालता है। (सांझ डालने वाले की) बाँह पकड़ के (उसको माया के मोह के) अंधेरे में से निकाल लेता है, और उसको अपना बना लेता है।
हे नानक! (परमात्मा का) नाम जपते हुए (मनुष्य) आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है, (नाम जपने वाले का) मन हृदय शीतल रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ गुण तेरे कहि सकउ प्रभ अंतरजामी राम ॥ सिमरि सिमरि नाराइणै भए पारगरामी राम ॥ गुन गावत गोविंद के सभ इछ पुजामी राम ॥ नानक उधरे जपि हरे सभहू का सुआमी राम ॥३॥

मूलम्

किआ गुण तेरे कहि सकउ प्रभ अंतरजामी राम ॥ सिमरि सिमरि नाराइणै भए पारगरामी राम ॥ गुन गावत गोविंद के सभ इछ पुजामी राम ॥ नानक उधरे जपि हरे सभहू का सुआमी राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहि सकउ = मैं कह सकता हूँ। प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = सबके दिलों की जानने वाला। सिमरि = स्मरण करके। नाराइणै = नारायण को। पारगरामी = (संसार समुंदर से) पार लंघाने योग्य। गावत = गाते हुए। इछ = इच्छाएं। पुजामी = पूरी हो जाती हैं। उधरे = विकारों से अच जाते हैं। जपि = जप के। सुआमी = मालिक।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों के दिल की जानने वाला है। मैं तेरे कौन-कौन से गुण बता सकता हूँ? हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के जीव संसार-समुंदर से पार लांघने-योग्य हो जाते हैं। परमात्मा के गुण गाते हुए सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। हे नानक! जो परमात्मा सब जीवों का मालिक है, उसका नाम जप के जीव विकारों से बच जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रस भिंनिअड़े अपुने राम संगे से लोइण नीके राम ॥ प्रभ पेखत इछा पुंनीआ मिलि साजन जी के राम ॥ अम्रित रसु हरि पाइआ बिखिआ रस फीके राम ॥ नानक जलु जलहि समाइआ जोती जोति मीके राम ॥४॥२॥५॥९॥

मूलम्

रस भिंनिअड़े अपुने राम संगे से लोइण नीके राम ॥ प्रभ पेखत इछा पुंनीआ मिलि साजन जी के राम ॥ अम्रित रसु हरि पाइआ बिखिआ रस फीके राम ॥ नानक जलु जलहि समाइआ जोती जोति मीके राम ॥४॥२॥५॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भिंनिअड़े = भीगे हुए। संगे = साथ। से = वह (बहुवचन)। लोइण = आँखें। नीके = सोहणे। पेखत = देखते हुए। पुंनीआ = पूरी हो जाती है। मिलि = मिल के। जी के = जिंद के। साजन जी के = जिंद के सज्जन को। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। बिखिआ रस = माया के स्वाद। फीके = बेस्वादे। जलहि = जल में। मीके = एक मेक।4।
अर्थ: हे भाई! वह आँखें ही सुंदर हैं, जो परमात्मा के नाम-रस में भीगी रहती हैं। हे भाई! प्राणों के मित्र प्रभु को मिल के प्रभु के दर्शन करने से हरेक इच्छा पूरी हो जाती है।
जिस मनुष्य ने परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस प्राप्त कर लिया, उसको माया के सारे स्वाद फीके प्रतीत होते हैं। हे नानक! (नाम-रस प्राप्त कर लेने वाले की) जीवात्मा परमात्मा की ज्योति में (इस प्रकार) एक-मेक हो जाती है, (जैसे) पानी पानी में मिल जाता है।4।2।5।9।

[[0849]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावल की वार महला ४

मूलम्

बिलावल की वार महला ४

दर्पण-भाव

पउड़ी-वार भाव:

  1. सारा जगत परमात्मा ने स्वयं पैदा किया है, और स्वयं ही हर जगह सब जीवों में मौजूद है। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभु का स्मरण करता है वह उसके नाम में लीन रह के आत्मिक आनंद पाता है।
  2. वह सर्व-व्यापक परमात्मा अपने भक्तों से प्यार करता है, हर जगह हर वक्त भक्तों का साथी बना रहता है। भक्त उसको अपने हृदय में बसा के आनंद लेते हैं।
  3. पर उस परमात्मा का स्मरण गुरु के द्वारा ही किया जा सकता है। जो मनुष्य अपना दिल गुरु के आगे खोल के रखता है वह हर किस्म का आनंद प्राप्त करता है, उसकी माया की तृष्णा मिट जाती है। अच्छे भाग्यों से ही नाम-जपने की दाति मिलती है।
  4. परमात्मा का नाम जपाने का गुण गुरु में परमात्मा ने स्वयं ही टिका रखा है। गुरु की शोभा दिन-ब-दिन बढ़ती है। निंदक गुरु की शोभा बर्दाश्त नहीं कर सकते। पर वे गुरु का कुछ बिगाड़ नहीं सकते।
  5. इस लोक में परलोक में हर जगह परमात्मा स्वयं मौजूद है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर उसका नाम स्मरण करते हैं उनको लोक-परलोक में आदर मिलता है, सुख मिलता है। माया के मोह में फंसे जीवों को हर जगह फिटकार ही पड़ती है।
  6. दुनिया के राजे बादशाह भी परमात्मा के पैदा किए हुए हैं, और परमात्मा के दर के ही भिखारी हैं। इतनी समर्थता वाला प्रभु हमेशा गुरु का पक्ष करता है। बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी परमात्मा ने गुरु के दर के नौकर बनाए हुए हैं। जो मनुष्य उस प्रभु का स्मरण करता है उसके अंदर से कामादिक सारे वैरी वह खत्म कर देता है।
  7. वह मनुष्य बड़ा शाहूकार है जिसको परमात्मा ने अपना नाम-धन दिया है। सारा जगत उस भक्त के दर पर भिखारी होता है। जिनके पल्ले नाम-धन है वे किसी के मुथाज नहीं रहते।
  8. यह नाम-धन गुरु के पास से मिलता है। जो मनुष्य इस धन से वंचित रहते हैं वे हारे हुए जुआरियों की तरह अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं।
  9. इस नाम-धन पर किसी का कोई जद्दी हक नहीं होता, किसी के भी पास इसकी मल्कियत का पट्टा नहीं होती। सिर्फ सतिगुरु ही ये हरि-धन परमात्मा से दिला सकता है।
  10. परमात्मा ने गुरु से ही सारे संसार को अपने नाम की बख्शिश की है। गुरु ही नाम की दाति देने के समर्थ है। जो मनुष्य गुरु पर श्रद्धा रखते हैं, उसका जीवन सफल हो जाता है। आत्मिक खुराक गुरु के दर से ही मिलती है।
  11. गुरु ने जिस मनुष्य के मन में से भटकना दूर की, उसके अंदर से सारे कामादिक वैरी खत्म हो गए, उसने हरि-नाम मन में बसा लिया, और, उसने साधु-संगत में टिक के अपना जीवन सफल कर लिया।
  12. गुरु का उपदेश सारे जगत में प्रभाव डालता है। गुरु ही परमात्मा के बेअंत गुणों की सूझ बख्शता है। परमात्मा का नाम, आत्मिक अडोलता, आत्मिक आनंद- ये गुरु के द्वारा ही मिलते हैं।
  13. गुरु बड़ा ही उदार-चिक्त है। शरण पड़े निंदक के भी अवगुण बख्श के (माफ करके) उसको साधु-संगत में जोड़ देता है। सो, जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह हर जगह आदर-मान प्राप्त करता है।
    मुख्य भाव:
    सब ताकतों के मालिक और सर्व-व्यापक परमात्मा के नाम की दाति गुरु से ही मिलती है। बड़े-बड़े दुनियादार सब गुरु के दर पर भिखारी हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसको नाम-धन मिलता है आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसके अंदर से सारे विकार दूर हो जाते हैं, सारे जगत में उसको आदर-मान हासिल होता है, उसकी जिंदगी सफल हो जाती है।
दर्पण-टिप्पनी

जिस सतिगुरु जी की उचारी हुई ये वार है, उनका अपना शलोक सिर्फ एक ही है, जो पहली ही पौड़ी के साथ दर्ज है, गुरु नानक देव जी के दोनों शलोक पउड़ी नं: 11 के साथ दर्ज हैं।
हरेक पउड़ी में पांच-पांच तुकें हैं, सिर्फ पउड़ी नंबर 10 में 6 तुके हैं; पर तुकों की लंबाई एक जैसी नहीं है, कई पौड़ियों में कई तुकें बहुत ही लंबी हैं; देखें पउड़ी नं: 6,9 और 13।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर में जो शलोक दर्ज हैं, उनका शीर्षक है “सलोक वारां ते वधीक”। यह ‘शीर्षक” गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ तैयार करने के वक्त श्री गुरु अरजन देव जी लिखाया; इस शीर्षक से यह साफ जाहिर है कि ‘वारें’ के साथ सलोक दर्ज हैं, यह गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए।
सो, बिलावल राग की यह ‘वार’ भी गुरु रामदास जी ने सिर्फ ‘पउड़ियों’ की शकल में ही उचारी थी, साथ के 27 सलोक बीड़ तैयार करने के वक् गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ४ ॥ हरि उतमु हरि प्रभु गाविआ करि नादु बिलावलु रागु ॥ उपदेसु गुरू सुणि मंनिआ धुरि मसतकि पूरा भागु ॥ सभ दिनसु रैणि गुण उचरै हरि हरि हरि उरि लिव लागु ॥ सभु तनु मनु हरिआ होइआ मनु खिड़िआ हरिआ बागु ॥ अगिआनु अंधेरा मिटि गइआ गुर चानणु गिआनु चरागु ॥ जनु नानकु जीवै देखि हरि इक निमख घड़ी मुखि लागु ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ४ ॥ हरि उतमु हरि प्रभु गाविआ करि नादु बिलावलु रागु ॥ उपदेसु गुरू सुणि मंनिआ धुरि मसतकि पूरा भागु ॥ सभ दिनसु रैणि गुण उचरै हरि हरि हरि उरि लिव लागु ॥ सभु तनु मनु हरिआ होइआ मनु खिड़िआ हरिआ बागु ॥ अगिआनु अंधेरा मिटि गइआ गुर चानणु गिआनु चरागु ॥ जनु नानकु जीवै देखि हरि इक निमख घड़ी मुखि लागु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नादु = गुरु का शब्द। नादु बिलावलु रागु = गुरु का शब्द-रूप बिलावलु राग। करि = कर के, उचार के। सुणि = सुन के। धुरि = धर से, आदि से। मसतकि = माथे पर।
रैणि = रात। उरि = हृदय में। देखि = देख के। निमख = आँख झपकने जितना समय। मुखि लागु = मुंह लगे, दर्शन दे।1।
अर्थ: हे भाई! (पिछले किए कर्मों के मुताबिक) जिस मनुष्य के माथे पर धुर से ही पूर्ण भाग्य हैं, (जिसके हृदय में पूर्ण भले संस्कारों का लेख उघड़ता है) उसने गुरु का शब्द रूपी बिलावल राग उचार के सबसे श्रेष्ठ परमात्मा के गुण गाए हैं, उसने सतिगुरु का उपदेश सुन के हृदय में बसाया है।
वह मनुष्य सारा दिन और सारी रात (आठों पहर) परमात्मा के गुण गाता है (क्योंकि उसके) हृदय में परमात्मा की याद की लगन लगी रहती है। उसका सारा तन सारा मन हरा-भरा हो जाता है (आत्मिक जीवन के रस से भर जाता है), उसका मन (ऐसे) खिल जाता है (जैसे) हरा-भरा बाग़ होता है।
गुरु की दी हुई आत्मिक जीवन की सूझ (उसके अंदर, मानो) दीया रौशन कर देती है (जिसकी इनायत से उसके अंदर से) आत्मिक जीवन की बे-समझी (का) अंधेरा मिट जाता है। हे हरि! (तेरा) दास नानक (ऐसे गुरमुख मनुष्य को) देख के आत्मिक जीवन हासिल करता है (और, चाहता है कि) चाहे एक पल भर ही उसके दर्शन हों।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ बिलावलु तब ही कीजीऐ जब मुखि होवै नामु ॥ राग नाद सबदि सोहणे जा लागै सहजि धिआनु ॥ राग नाद छोडि हरि सेवीऐ ता दरगह पाईऐ मानु ॥ नानक गुरमुखि ब्रहमु बीचारीऐ चूकै मनि अभिमानु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ बिलावलु तब ही कीजीऐ जब मुखि होवै नामु ॥ राग नाद सबदि सोहणे जा लागै सहजि धिआनु ॥ राग नाद छोडि हरि सेवीऐ ता दरगह पाईऐ मानु ॥ नानक गुरमुखि ब्रहमु बीचारीऐ चूकै मनि अभिमानु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिलावलु = पूर्ण खिलाव (आनंद में), आत्मिक आनंद। कीजीऐ = किया जा सकता है, पाया जा सकता है। मुखि = मुँह में। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। जा = जब। सहजि = आत्मिक अडोलता में। धिआनु = तवज्जो, ध्यान। सेवीऐ = स्मरण करें। पाईऐ = पाते हैं। मनि = मन में (टिका हुआ)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। बीचारीऐ = मन में टिकाएं।2।
अर्थ: हे भाई! पूर्ण आत्मिक आनंद तब ही पाया जा सकता है, जब परमात्मा का नाम (मनुष्य के) मुँह में टिकता है। हे भाई! राग और नाद (भी) गुरु के शब्द द्वारा तब ही सुंदर लगते हैं जब (शब्द की इनायत से मनुष्य की) तवज्जो आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है। हे भाई! (सांसारिक) राग-रंग (का रस) छोड़ के परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए, तब ही परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है। हे नानक! (कह:) अगर गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा की याद मन में टिकाएं, तो मन में (ठहरा हुआ) अहंकार दूर हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तू हरि प्रभु आपि अगमु है सभि तुधु उपाइआ ॥ तू आपे आपि वरतदा सभु जगतु सबाइआ ॥ तुधु आपे ताड़ी लाईऐ आपे गुण गाइआ ॥ हरि धिआवहु भगतहु दिनसु राति अंति लए छडाइआ ॥ जिनि सेविआ तिनि सुखु पाइआ हरि नामि समाइआ ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तू हरि प्रभु आपि अगमु है सभि तुधु उपाइआ ॥ तू आपे आपि वरतदा सभु जगतु सबाइआ ॥ तुधु आपे ताड़ी लाईऐ आपे गुण गाइआ ॥ हरि धिआवहु भगतहु दिनसु राति अंति लए छडाइआ ॥ जिनि सेविआ तिनि सुखु पाइआ हरि नामि समाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! प्रभु = (सब जीवों का) मालिक। अगंमु = अगम, अगम्य (पहुँच से परे), जीवों की पहुँच से परे। सभि = सारे (जीव)। तुधु = तू ही। वरतदा = मौजूद है। सभु = सारा। सबाइआ = सारा। ताड़ी = समाधि। भगतहु = हे संत जनो! अंति = आखिर में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सेविआ = स्मरण किया। तिनि = उस (मनुष्य) ने। नामि = नाम में।1।
अर्थ: हे हरि! तू खुद ही (सब जीवों का) मालिक है, सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं, पर तू जीवों की पहुँच से परे है। (यह जो) सारा जगत (दिखाई दे रहा) है (इस में हर जगह) तू खुद ही खुद व्यापक है! (सारे जीवों में व्यापक हो के) समाधि भी तू खुद ही लगा रहा है, और (अपने) गुण भी तू खुद ही गा रहा है।
हे संत जनो! दिन-रात (हर समय) परमात्मा का ध्यान धरा करो, वह परमात्मा ही अंत में बचाता है। जिस (भी) मनुष्य ने उसकी सेवा-भक्ति की, उसने ही सुख प्राप्त किया, (क्योंकि वह सदा) परमात्मा के नाम में लीन रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ दूजै भाइ बिलावलु न होवई मनमुखि थाइ न पाइ ॥ पाखंडि भगति न होवई पारब्रहमु न पाइआ जाइ ॥ मनहठि करम कमावणे थाइ न कोई पाइ ॥ नानक गुरमुखि आपु बीचारीऐ विचहु आपु गवाइ ॥ आपे आपि पारब्रहमु है पारब्रहमु वसिआ मनि आइ ॥ जमणु मरणा कटिआ जोती जोति मिलाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ दूजै भाइ बिलावलु न होवई मनमुखि थाइ न पाइ ॥ पाखंडि भगति न होवई पारब्रहमु न पाइआ जाइ ॥ मनहठि करम कमावणे थाइ न कोई पाइ ॥ नानक गुरमुखि आपु बीचारीऐ विचहु आपु गवाइ ॥ आपे आपि पारब्रहमु है पारब्रहमु वसिआ मनि आइ ॥ जमणु मरणा कटिआ जोती जोति मिलाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = (परमात्मा को भुला के) किसी और के प्यार में, माया के मोह में (टिके रहने से)। बिलावलु = आत्मिक आनंद। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। थाइ न पाइ = स्वीकार नहीं होता। पाखंडि = पाखण्ड से। मन हठि = मन के हठ से। कोई = कोई मनुष्य। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। बीचारीऐ = पड़तालना चाहिए। आपु = स्वै भाव। गवाइ = दूर करके। मनि = मन में। मिलाइ = जोड़ के। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = तवज्जो, ध्यान।1।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह में (टिके रहने से) आत्मिक आनंद नहीं मिलता, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (परमात्मा की निगाहों में) स्वीकार नहीं होता (क्योंकि) अंदर से और व बाहर से और रहने से परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती, इस तरह परमात्मा नहीं मिल सकता। (अंदर प्रभु से प्यार ना हो तो निरे) मन के हठ से किए कर्म से कोई मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होता।
हे नानक! (कह: हे भाई!) अंदर से स्वै-भाव दूर करके गुरु की शरण पड़ के अपना आत्मिक जीवन पड़तालना (आत्म-चिंतन, आत्मावलोचन करना) चाहिए, (इस तरह वह) परमात्मा (जो हर जगह) स्वयं ही स्वयं है मन में आ बसता है। परमात्मा की ज्योति में (अपनी) तवज्जो जोड़ने से जनम-मरण के चक्कर खत्म हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ बिलावलु करिहु तुम्ह पिआरिहो एकसु सिउ लिव लाइ ॥ जनम मरण दुखु कटीऐ सचे रहै समाइ ॥ सदा बिलावलु अनंदु है जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ सतसंगती बहि भाउ करि सदा हरि के गुण गाइ ॥ नानक से जन सोहणे जि गुरमुखि मेलि मिलाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ बिलावलु करिहु तुम्ह पिआरिहो एकसु सिउ लिव लाइ ॥ जनम मरण दुखु कटीऐ सचे रहै समाइ ॥ सदा बिलावलु अनंदु है जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ सतसंगती बहि भाउ करि सदा हरि के गुण गाइ ॥ नानक से जन सोहणे जि गुरमुखि मेलि मिलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एकसु सिउ = एक (परमात्मा) के साथ। लिव लाइ = (प्रेम की) लगन लगा ले। कटीऐ = काटा जाता है। सचे = सदा स्थिर प्रभु में। रहै समाइ = लीन रहता है। जनम मरण दुखु = सारी उम्र का दुख। चलहि = चलते हैं, चलते रहें। सतिगुर भाइ = गुरु के अनुसार, गुरु की रजा में। सतसंगती बहि = सत्संगति में बैठ के। भाउ = प्यार। जि = जो (शब्द ‘जे’ का अर्थ है = अगर, ‘जि’ है = जो)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के! मेलि = मिलाप में।2।
अर्थ: हे प्यारे सज्जनो! एक (परमात्मा) से तवज्जो जोड़ के तुम आत्मिक आनंद भोगते रहो। (जो मनुष्य एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है, उसका) सारी उम्र का दुख काटा जाता है, (क्योंकि) वह सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में (सदा) लीन रहता है।
अगर (मनुष्य) सत्संगति में बैठ के प्यार से सदा परमात्मा की महिमा कर के गुरु के हुक्म अनुसार जीवन व्यतीत करते रहें (तो उनके अंदर) सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहके प्रभु की याद में टिके रहते हैं, वह सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सभना जीआ विचि हरि आपि सो भगता का मितु हरि ॥ सभु कोई हरि कै वसि भगता कै अनंदु घरि ॥ हरि भगता का मेली सरबत सउ निसुल जन टंग धरि ॥ हरि सभना का है खसमु सो भगत जन चिति करि ॥ तुधु अपड़ि कोइ न सकै सभ झखि झखि पवै झड़ि ॥२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सभना जीआ विचि हरि आपि सो भगता का मितु हरि ॥ सभु कोई हरि कै वसि भगता कै अनंदु घरि ॥ हरि भगता का मेली सरबत सउ निसुल जन टंग धरि ॥ हरि सभना का है खसमु सो भगत जन चिति करि ॥ तुधु अपड़ि कोइ न सकै सभ झखि झखि पवै झड़ि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो हरि = वह परमात्मा। सभु कोई = हरेक जीव। कै वसि = के वश में है। घरि = हृदय घर में। सरब = सर्वत्र, हर जगह। मेली = साथी। सउ = सो, (भाव) सोते हैं। निसुल = टांग पसार के, बेफिक्र हो के। टंग धरि = लात पर लात धर के, बेपरवाह हो के। चिति = चिक्त में। चिति करि = चिक्त में करते हैं, स्मरण करते हैं। सभ = सारी दुनिया। झखि झखि = खप खप के, दुखी हो हो के। पवै झड़ि = थक जाती है।2।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा खुद सब जीवों में मौजूद है वह ही भक्तों का मित्र है। भक्तों के हृदय-घर में सदा आनंद बना रहता है (क्योंकि वह जानते हैं कि) हरेक जीव परमात्मा के वश में है (और वह परमात्मा उनका मित्र है)। परमात्मा हर जगह अपने भक्तों का साथी-मददगार है (इस वास्ते उसके) भक्त लात पर लात रख के बेफिक्र हो के सोते हैं (निष्चिंत जीवन व्यतीत करते हैं)। जो परमात्मा सब जीवों का पति है, उसको भक्त-जन (सदा अपने) हृदय में बसाए रखते हैं।
हे प्रभु! सारी दुनिया खप-खप के थक जाती है, कोई तेरे गुणों का अंत नहीं पा सकता।2।

[[0850]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदहि ते ब्राहमणा जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ जिन कै हिरदै हरि वसै हउमै रोगु गवाइ ॥ गुण रवहि गुण संग्रहहि जोती जोति मिलाइ ॥ इसु जुग महि विरले ब्राहमण ब्रहमु बिंदहि चितु लाइ ॥ नानक जिन्ह कउ नदरि करे हरि सचा से नामि रहे लिव लाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदहि ते ब्राहमणा जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ जिन कै हिरदै हरि वसै हउमै रोगु गवाइ ॥ गुण रवहि गुण संग्रहहि जोती जोति मिलाइ ॥ इसु जुग महि विरले ब्राहमण ब्रहमु बिंदहि चितु लाइ ॥ नानक जिन्ह कउ नदरि करे हरि सचा से नामि रहे लिव लाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिंदहि = पहचानते हैं, गहरी सांझ डालते हैं। ब्रहमु = परमात्मा। भाइ = प्यार में। चलहि = (जीवन सफर में) चलते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। कै हिरदै = के हृदय में। गवाइ = दूर कर के। रवहि = याद करते हैं। संग्रहहि = इकट्ठे करते हैं। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति मिलाइ = (अपनी) तवज्जो/ध्यान जोड़ के। जुग महि = मनुष्य जीवन में। लाइ = लगा के। नदरि = मेहर की निगाह। सचा = सदा कायम रहने वाला। नामि = नाम में। लिव = तवज्जो, ध्यान।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखते हैं, सतिगुरु की रज़ा में जीवन व्यतीत करते हैं (अपने अंदर से) अहंकार (का) रोग दूर करके जिनके हृदय में सदा परमात्मा बसता है वह मनुष्य हैं (असल) ब्राहमण। (वह ब्राहमण) परमात्मा की ज्योति में (अपनी) तवज्जो जोड़ के परमात्मा के गुण याद करते रहते हैं और परमात्मा के गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करते रहते हैं। पर, हे भाई! इस मनुष्य जीवन में (ऐसे) ब्राहमण दुर्लभ (विरले) ही होते हैं जो मन लगा के ब्रह्म के साथ गहरी सांझ डाले रखते हैं।
हे नानक! जिस (इस प्रकार के ब्राहमणों) पर सदा कायम रहने वाला परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है वह सदा परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सतिगुर की सेव न कीतीआ सबदि न लगो भाउ ॥ हउमै रोगु कमावणा अति दीरघु बहु सुआउ ॥ मनहठि करम कमावणे फिरि फिरि जोनी पाइ ॥ गुरमुखि जनमु सफलु है जिस नो आपे लए मिलाइ ॥ नानक नदरी नदरि करे ता नाम धनु पलै पाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सतिगुर की सेव न कीतीआ सबदि न लगो भाउ ॥ हउमै रोगु कमावणा अति दीरघु बहु सुआउ ॥ मनहठि करम कमावणे फिरि फिरि जोनी पाइ ॥ गुरमुखि जनमु सफलु है जिस नो आपे लए मिलाइ ॥ नानक नदरी नदरि करे ता नाम धनु पलै पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेव = सेवा। सबदि = गुरु के शब्द में। भाउ = प्यार। दीरघु = दीर्घ, लंबा। बहु सुआउ = बहुत सारे स्वादों की ओर प्रेरने वाला। हठि = हठ से। पाइ = पड़ता है। सफलु = कामयाब। आपे = (प्रभु) खुद ही। नदरी = मेहर की निगाह करने वाला प्रभु। पलै पाइ = हासिल कर लेता है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की बताई हुई सेवा-कमाई नहीं की, जिसका प्यार (गुरु के) शब्द से ना बना (अपने ही मन का मुरीद रह के उसने) अनेक चस्कों की ओर प्रेरने वाला बहुत लंबा अहंकार का रोग ही कमाया; अपने मन के हठ के आसरे (और ही और) काम करते रहने के कारण वह मनुष्य बार-बार जूनियों (के चक्कर) में पड़ता है।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का जीवन कामयाब हो जाता है (पर, वही मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है) जिसको (परमात्मा) स्वयं ही (गुरु के चरणों में) जोड़ता है। हे नानक! जब मेहर की निगाह करने वाला प्रभु (किसी मनुष्य पर मेहर की) निगाह करता है तब वह परमात्मा का नाम-धन प्राप्त कर लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सभ वडिआईआ हरि नाम विचि हरि गुरमुखि धिआईऐ ॥ जि वसतु मंगीऐ साई पाईऐ जे नामि चितु लाईऐ ॥ गुहज गल जीअ की कीचै सतिगुरू पासि ता सरब सुखु पाईऐ ॥ गुरु पूरा हरि उपदेसु देइ सभ भुख लहि जाईऐ ॥ जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो हरि गुण गाईऐ ॥३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सभ वडिआईआ हरि नाम विचि हरि गुरमुखि धिआईऐ ॥ जि वसतु मंगीऐ साई पाईऐ जे नामि चितु लाईऐ ॥ गुहज गल जीअ की कीचै सतिगुरू पासि ता सरब सुखु पाईऐ ॥ गुरु पूरा हरि उपदेसु देइ सभ भुख लहि जाईऐ ॥ जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो हरि गुण गाईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ वडिआईआ = सारे गुण। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर, गुरु के बताए हुए राह पर चल के। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। जि वसतु = जो चीज़। नामि = नाम में। गुहज गल = अंदरूनी बात, दिल की घुंडी। जीअ की = दिल की। पूरबि = पहले से, आदि से। लिखिआ = (महिमा के संस्कारों का) लिखा हुआ लेख।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने में सारे गुण हैं (अगर मनुष्य नाम स्मरण करे तो उसके अंदर सारे आत्मिक गुण पैदा हो जाते हैं, पर) परमात्मा (का नाम) गुरु की शरण पड़ने से ही स्मरण किया जा सकता है। हे भाई! अगर परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़े रखें तो (उसके दर से) जो भी चीज मांगी जाती है वही मिल जाती है। हे भाई! जब दिल की घुण्डी सतिगुरु के आगे खोली जाती है तो हरेक किस्म का सुख मिल जाता है। पूरा सतिगुरु परमात्मा (के स्मरण) का उपदेश देता है (और नाम-जपने की इनायत से) सारी तृष्णा मिट जाती है।
पर, हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर आदि से (महिमा के संस्कारों के) लेख लिखे होते हैं वह ही परमात्मा के गुण गाता है (बाकी सारी लुकाई तो माया के जाल में ही फसी रहती है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ सतिगुर ते खाली को नही मेरै प्रभि मेलि मिलाए ॥ सतिगुर का दरसनु सफलु है जेहा को इछे तेहा फलु पाए ॥ गुर का सबदु अम्रितु है सभ त्रिसना भुख गवाए ॥ हरि रसु पी संतोखु होआ सचु वसिआ मनि आए ॥ सचु धिआइ अमरा पदु पाइआ अनहद सबद वजाए ॥ सचो दह दिसि पसरिआ गुर कै सहजि सुभाए ॥ नानक जिन अंदरि सचु है से जन छपहि न किसै दे छपाए ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ सतिगुर ते खाली को नही मेरै प्रभि मेलि मिलाए ॥ सतिगुर का दरसनु सफलु है जेहा को इछे तेहा फलु पाए ॥ गुर का सबदु अम्रितु है सभ त्रिसना भुख गवाए ॥ हरि रसु पी संतोखु होआ सचु वसिआ मनि आए ॥ सचु धिआइ अमरा पदु पाइआ अनहद सबद वजाए ॥ सचो दह दिसि पसरिआ गुर कै सहजि सुभाए ॥ नानक जिन अंदरि सचु है से जन छपहि न किसै दे छपाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरै प्रभि = प्यारे प्रभु में। मेलि मिलाए = मेल के मिला देता है, पूरी तौर पर मिला देता है। सफलु = स+फल, फल देने वाला। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। त्रिसना = प्यास, लालच। पी = पी के। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। मनि = मन में। अमरापदु = वह दर्जा जो कभी नाश नहीं होता।
अनहद = एक रस, लगातार। अनहद सबद = एक रस बाजे। दहदिसि = दसों तरफ़। गुर कै = गुरु के द्वारा (मिली हुई)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में।
अर्थ: हे भाई! गुरु के दर से (कभी) कोई ख़ाली (निराश) नहीं गया, (दर पर आए सभी को) प्यारे प्रभु में (गुरु) पूरी तौर पर मिला देता है। गुरु का दीदार भी फलदायक है, जैसी किसी की भावना होती है वैसा ही उसको फल मिल जाता है। हे भाई! गुरु का शब्द आत्मिक जीवन देने वाला (मानो) जल है (जैसे जल पी के प्यास मिटा ली जाती है, वैसे ही शब्द-जल की इनायत से मनुष्य के अंदर से माया की) प्यास (तृष्णा) भूख सब मिट जाती है। (गुरु के शब्द से) परमात्मा का नाम-रस पी के (मनुष्य के अंदर) संतोष पैदा होता है, और सदा कायम रहने वाला प्रभु उसके मन में आ बसता है। हे भाई! जो गुरु के द्वारा अडोल अवस्था में प्यार अवस्था में पहुँचता है उसे दसों ही दिशाओं में सदा कायम रहने वाला परमात्मा व्यापक दिखता है। सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को स्मरण करके उसको ऐसा आत्मिक दर्जा मिल जाता है जो कभी नाश नहीं होता, वह (अपने अंदर महिमा के) एक-रस बाजे बजाता है (आत्मिक जीवन देने वाली अवस्था उसके अंदर सदा प्रबल रहती है)।
हे नानक! जिस मनुष्यों के हृदय में सदा-स्थिर प्रभु टिका रहता है वह मनुष्य किसी के छुपाए नहीं छुपते (कोई मनुष्य उनकी शोभा को मिटा नहीं सकता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ गुर सेवा ते हरि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥ मानस ते देवते भए सची भगति जिसु देइ ॥ हउमै मारि मिलाइअनु गुर कै सबदि सुचेइ ॥ नानक सहजे मिलि रहे नामु वडिआई देइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ गुर सेवा ते हरि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥ मानस ते देवते भए सची भगति जिसु देइ ॥ हउमै मारि मिलाइअनु गुर कै सबदि सुचेइ ॥ नानक सहजे मिलि रहे नामु वडिआई देइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर सेवा ते = गुरु की बताई हुई कार करने से। जा कउ = जिस को। ते = से। सची भगति = सदा कायम रहने वाली भक्ति। देइ = देता है। मारि = मार के। मिलाइअनु = मिला लिए हैं उस (प्रभु) ने। कै सबदि = के शब्द से। सुचेइ = सुच्चेय, पवित्र जीवन वाले। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में (टिक के)। वडिआई = गुण, महानता।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बताए हुए काम करने से परमात्मा मिल जाता है (पर मिलता उसको है) जिस पर (परमात्मा स्वयं) मेहर करता है। (गुरु के द्वारा बताया हुआ काम करने से मनुष्य), मनुष्य से देवते बन जाते हैं। (पर, वही मनुष्य देवता बनता है) जिसको प्रभु सदा कायम रहने वाली भक्ति (की दाति) देता है। गुरु के शब्द के द्वारा जो मनुष्य पवित्र जीवन वाले बन गए, परमात्मा ने (उनके अंदर से) अहंकार मिटा के (उनको अपने साथ) मिला लिया। हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा) नाम (जपने का) गुण बख्शता है, (वह मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिक के (प्रभु चरणों में) जुड़ा रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ गुर सतिगुर विचि नावै की वडी वडिआई हरि करतै आपि वधाई ॥ सेवक सिख सभि वेखि वेखि जीवन्हि ओन्हा अंदरि हिरदै भाई ॥ निंदक दुसट वडिआई वेखि न सकनि ओन्हा पराइआ भला न सुखाई ॥ किआ होवै किस ही की झख मारी जा सचे सिउ बणि आई ॥ जि गल करते भावै सा नित नित चड़ै सवाई सभ झखि झखि मरै लोकाई ॥४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ गुर सतिगुर विचि नावै की वडी वडिआई हरि करतै आपि वधाई ॥ सेवक सिख सभि वेखि वेखि जीवन्हि ओन्हा अंदरि हिरदै भाई ॥ निंदक दुसट वडिआई वेखि न सकनि ओन्हा पराइआ भला न सुखाई ॥ किआ होवै किस ही की झख मारी जा सचे सिउ बणि आई ॥ जि गल करते भावै सा नित नित चड़ै सवाई सभ झखि झखि मरै लोकाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नावै की वडिआई = नाम (जपने जपाने के) गुण। करतै = कर्तार ने। सभि = सारे। जीवन्हि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। भाई = अच्छी लगती है। वेखि न सकनि = देख के जर नहीं सकते, देख के बर्दाश्त नहीं कर सकते। न सुखाई = अच्छा नहीं लगता। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभु से। बणि आई = प्रीत बनी हुई है। किआ होवै = क्या होगा? कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जि गल = जो बात। सा = वह बात। चढ़ै सवाई = बढ़ती है लोकाई = लोग, दुनिया के लोग। खपि खपि मरै = झख मार मार के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के अंदर (परमात्मा का) नाम (जपने-जपाने) का बड़ा गुण है, परमात्मा ने स्वयं (यह गुण गुरु में) बढ़ाया है। (सतिगुरु के) सारे सिख सेवक (गुरु के) इस गुण को देख के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, उनको (गुरु का ये गुण अपने) हृदय में प्यारा लगता है। (गुरु की) निंदा करने वाले और बुरे लोग (सतिगुरु की) महिमा देख के बर्दाश्त नहीं कर पाते, उन्हें किसी और की भलाई अच्छी नहीं लगती।
पर जब गुरु का प्यार सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ बना हुआ है, तो किसी (निंदक दुष्ट) के झख मारने से गुरु का कुछ नहीं बिगड़ सकता। जो बात ईश्वर को अच्छी लगती है वह दिन-ब-दिन बढ़ती है (और निंदा करने वाली) सारी लुकाई खिझ-खिझ के आत्मिक मौत सहेड़ती रहती है।4।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ ध्रिगु एह आसा दूजे भाव की जो मोहि माइआ चितु लाए ॥ हरि सुखु पल्हरि तिआगिआ नामु विसारि दुखु पाए ॥ मनमुख अगिआनी अंधुले जनमि मरहि फिरि आवै जाए ॥ कारज सिधि न होवनी अंति गइआ पछुताए ॥ जिसु करमु होवै तिसु सतिगुरु मिलै सो हरि हरि नामु धिआए ॥ नामि रते जन सदा सुखु पाइन्हि जन नानक तिन बलि जाए ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ ध्रिगु एह आसा दूजे भाव की जो मोहि माइआ चितु लाए ॥ हरि सुखु पल्हरि तिआगिआ नामु विसारि दुखु पाए ॥ मनमुख अगिआनी अंधुले जनमि मरहि फिरि आवै जाए ॥ कारज सिधि न होवनी अंति गइआ पछुताए ॥ जिसु करमु होवै तिसु सतिगुरु मिलै सो हरि हरि नामु धिआए ॥ नामि रते जन सदा सुखु पाइन्हि जन नानक तिन बलि जाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार योग्य। दूजे भाव की = (परमात्मा के बिना) किसी और से प्यार डालने वाली। मोहि = मोह में। पल्रि = पराली के बदले (पराली = फूस। तुच्छ वस्तु के बदले में)। विसारि = भुला के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अगिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित। अंधुले = जिनको जीवन का सही रास्ता नहीं दिखता। जनमि मरहि = पैदा हो के मरते हैं। सिधि = कामयाबियाँ। न होनी = नहीं होतीं। अंति = आखिर को। करमु = बख्शिश। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। पाइनि! = डालते हैं। बलि जाए = सदके जाता है।1।
अर्थ: जो मनुष्य माया के मोह में (अपने) चिक्त को जोड़ता है उसकी ये माया से प्यार बढ़ाने वाली आस (और आदत) (उसके लिए) धिक्कार ही कमाने वाली (साबित) होती है (क्योंकि वह मनुष्य) परमात्मा के नाम के आनंद को पराली के बदले में त्याग देता है, परमात्मा का नाम भुला के वह दुख (ही) पाता है।
अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक जीवन की समझ से वंचित रहते हैं, जीवन का सही रास्ता उन्हें नहीं दिखाई देता (इसलिए वे) जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। मनमुख बंदा बारंबार पैदा होता मरता रहता है। (प्रभु को बिसार के मनमुख ने और ही कई तरह के धंधे बुने होते हैं, उन) कामों में (उसको) सफलताएं नहीं मिलतीं, आखिर यहाँ से आहें भरता ही जाता है।
जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है, वह सदा प्रभु का नाम स्मरण करता है। नाम में रंगे हुए मनुष्य सदा आत्मिक आनंद का सुख पाते हैं। हे दास नानक! (कह:) मैं उनसे सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ आसा मनसा जगि मोहणी जिनि मोहिआ संसारु ॥ सभु को जम के चीरे विचि है जेता सभु आकारु ॥ हुकमी ही जमु लगदा सो उबरै जिसु बखसै करतारु ॥ नानक गुर परसादी एहु मनु तां तरै जा छोडै अहंकारु ॥ आसा मनसा मारे निरासु होइ गुर सबदी वीचारु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ आसा मनसा जगि मोहणी जिनि मोहिआ संसारु ॥ सभु को जम के चीरे विचि है जेता सभु आकारु ॥ हुकमी ही जमु लगदा सो उबरै जिसु बखसै करतारु ॥ नानक गुर परसादी एहु मनु तां तरै जा छोडै अहंकारु ॥ आसा मनसा मारे निरासु होइ गुर सबदी वीचारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना, (हर वक्त) माया की चितवनी। जगि = जगत में। जिनि = जिस ने। सभु को = हरेक जीव। जम = मौत, आत्मिक मौत। चीरा = पल्ला, हल्का, घेरा। जेता = जितना भी। आकारु = दिखता जगत। लगदा = जोर डालता। उबरे = बचता है। परसादि = कृपा से। जा = जब। निरासु = (माया की) आशाओं से निर्लिप।2।
अर्थ: हे भाई! (हर वक्त माया की) आशा (हर समय माया की ही) चितवनी जगत में (जीवों को) मोह रही है, इसने सारे जगत को अपने वश में किया हुआ है। जितना भी जगत दिखाई दे रहा है (इस आशा-मनसा के कारण जगत का) हरेक जीव आत्मिक मौत के पंजे में है। (पर) ये आत्मिक मौत (परमात्मा के) हुक्म में ही व्यापती है (इस वास्ते इससे) वही बचता है जिस पर कर्तार मेहर करता है (और, परमात्मा कृपा करता है गुरु के माध्यम से)।
हे नानक! जब गुरु की कृपा से मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार दूर करता है, जब गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ता है तब मनुष्य आसा-मनसा को खत्म कर लेता है (दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही) आशाओं से ऊपर रहता है, तब मनुष्य का मन (आसा-मनसा के चक्र-व्यूह में से, बवंडर में से) पार लांघ जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिथै जाईऐ जगत महि तिथै हरि साई ॥ अगै सभु आपे वरतदा हरि सचा निआई ॥ कूड़िआरा के मुह फिटकीअहि सचु भगति वडिआई ॥ सचु साहिबु सचा निआउ है सिरि निंदक छाई ॥ जन नानक सचु अराधिआ गुरमुखि सुखु पाई ॥५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिथै जाईऐ जगत महि तिथै हरि साई ॥ अगै सभु आपे वरतदा हरि सचा निआई ॥ कूड़िआरा के मुह फिटकीअहि सचु भगति वडिआई ॥ सचु साहिबु सचा निआउ है सिरि निंदक छाई ॥ जन नानक सचु अराधिआ गुरमुखि सुखु पाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महि = में। तिथै = वहीं। साई = पति। अगै = परलोक में। सभु = हर जगह। आपे = आप ही। वरतदा = मौजूद है। सचा = सदा कायम रहने वाला। निआई = न्याय करने वाला। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी, माया ग्रसित जीव। फिटकीअहि = फिटकारे जाते हैं। सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम। वडिआई = आदर। सिरि = सिर पर। छाई = राख। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।5।
अर्थ: हे भाई! संसार में जिस जगह भी जाएं, वहीं मालिक प्रभु हाजिर है। परलोक में भी हर जगह सच्चा न्याय करने वाला परमात्मा स्वयं ही काम-काज चला रहा है। (उसकी हजूरी में) माया-ग्रसित जीवों को धिक्कारें पड़ती हैं। (पर जिनके हृदय में) सदा-स्थिर हरि-नाम बसता है प्रभु की भक्ति टिकी हुई है, उनको सम्मान मिलता है।
हे भाई! मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है उसका इन्साफ भी अटल है। (उसके न्याय के अनुसार ही गुरमुखों की) निंदा करने वालों के सिर पर राख पड़ती है।
हे नानक! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण किया है उनको आत्मिक आनंद मिला है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ पूरै भागि सतिगुरु पाईऐ जे हरि प्रभु बखस करेइ ॥ ओपावा सिरि ओपाउ है नाउ परापति होइ ॥ अंदरु सीतलु सांति है हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा पैन्हणा नानक नाइ वडिआई होइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ पूरै भागि सतिगुरु पाईऐ जे हरि प्रभु बखस करेइ ॥ ओपावा सिरि ओपाउ है नाउ परापति होइ ॥ अंदरु सीतलु सांति है हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा पैन्हणा नानक नाइ वडिआई होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरे भागि = पूरी किस्मत से। बखस = बख्शिश, मेहर। ओपावा सिर = सारे उपायों के सिर पर, सभी उपायों से बढ़िया। अंदरु = मन, हृदय। हिरदै = हृदय में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। नाइ = नाम से।1।
अर्थ: हे भाई! अगर परमात्मा मेहर करे तो (मनुष्य को) बड़ी किस्मत से गुरु मिल जाता है। (गुरु का मिलना ही) सारे उपायों से बढ़िया उपाय है (जिसके द्वारा परमात्मा का) नाम हासिल होता है। (नाम की इनायत से मनुष्य का) मन ठंडा शीतल हो जाता है (मनुष्य के) हृदय में सदा आनंद बना रहता है। हे नानक! (सतिगुरु के मिलने से जिस मनुष्य की) खुराक और पोशाक (भाव, जिंदगी का आसरा) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बन जाता है उसको नाम के द्वारा (हर जगह) आदर मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ ए मन गुर की सिख सुणि पाइहि गुणी निधानु ॥ सुखदाता तेरै मनि वसै हउमै जाइ अभिमानु ॥ नानक नदरी पाईऐ अम्रितु गुणी निधानु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ ए मन गुर की सिख सुणि पाइहि गुणी निधानु ॥ सुखदाता तेरै मनि वसै हउमै जाइ अभिमानु ॥ नानक नदरी पाईऐ अम्रितु गुणी निधानु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ए मन = हे मन! सिख = सिख, शिक्षा। पाइहि = तू पा लेगा। गुणी निधानु = गुणों का खजाना परमात्मा। तेरै मनि = तेरे मन में। वसै = बस जाएगा, बसता दिख जाएगा। जाइ = दूर हो जाएगा। नदरी = मेहर की निगाह से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला।1।
अर्थ: हे मन! गुरु की शिक्षा अपने अंदर बसा (इस तरह) तू गुणों के खजाने परमात्मा को ढूँढ लेगा। (सारे) सुख देने वाला परमात्मा तुझे तेरे अंदर बसता दिख पड़ेगा (तेरे अंदर से) अहंकार दूर हो जाएगा। हे नानक! आत्मिक जीवन देने वाला और सारे गुणों का खजाना परमात्मा (गुरु के द्वारा अपनी) मेहर की निगाह से (ही) मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जितने पातिसाह साह राजे खान उमराव सिकदार हहि तितने सभि हरि के कीए ॥ जो किछु हरि करावै सु ओइ करहि सभि हरि के अरथीए ॥ सो ऐसा हरि सभना का प्रभु सतिगुर कै वलि है तिनि सभि वरन चारे खाणी सभ स्रिसटि गोले करि सतिगुर अगै कार कमावण कउ दीए ॥ हरि सेवे की ऐसी वडिआई देखहु हरि संतहु जिनि विचहु काइआ नगरी दुसमन दूत सभि मारि कढीए ॥ हरि हरि किरपालु होआ भगत जना उपरि हरि आपणी किरपा करि हरि आपि रखि लीए ॥६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जितने पातिसाह साह राजे खान उमराव सिकदार हहि तितने सभि हरि के कीए ॥ जो किछु हरि करावै सु ओइ करहि सभि हरि के अरथीए ॥ सो ऐसा हरि सभना का प्रभु सतिगुर कै वलि है तिनि सभि वरन चारे खाणी सभ स्रिसटि गोले करि सतिगुर अगै कार कमावण कउ दीए ॥ हरि सेवे की ऐसी वडिआई देखहु हरि संतहु जिनि विचहु काइआ नगरी दुसमन दूत सभि मारि कढीए ॥ हरि हरि किरपालु होआ भगत जना उपरि हरि आपणी किरपा करि हरि आपि रखि लीए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिकदार = चौधरी। हहि = हैं। तितने सभि = वह सारे ही। कीए = पैदा किए हुए। ओइ = वह, वे। करहि = करते हैं। अरथीए = भिखारी। प्रभु = मालिक। कै वलि = के पक्ष में। तिनि = उस (प्रभु) ने। चारे खाणी = चारों खाणियों के जीव। सभ = सारे। गोले = दास। करि = बना के। दीए = रख दिए हैं। संतहु = हे संत जनो! जिनि = जिस (हरि) ने। वडिआई = गुण। काया = शरीर। मारि = मार के। करि = कर के।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जगत में) जितने भी शाह, बादशाह, राजे, ख़ान, अमीर और सरदार हैं, वह सारे परमात्मा के (ही) पैदा किए हुए हैं। जो कुछ परमात्मा (उनसे) करवाता है वही वह करते हैं, वह सारे परमात्मा के (दर पर ही) मांगते हैं।
हे भाई! ऐसी सामर्थ्य वाला सब जीवों का मालिक वह परमात्मा (सदा) सतिगुरु के पक्ष में रहता है। उस परमात्मा ने चारों वर्णों चारों खाणियों के सारे जीव सारी ही सृष्टि (के जीव) (गुरु के) सेवक बना के गुरु के दर पर सेवा करने के लिए खड़े किए हुए हैं।
हे संतजनो! देखो, परमात्मा की भक्ति करने का ये गुण है कि उस (परमात्मा) ने (भक्ति करने वाले अपने सेवक के) शरीर-नगर में से (कामादिक) सारे वैरी दुश्मन मार के (बाहर) निकाल दिए हैं। हे भाई! परमात्मा अपने भक्तों पर (सदा) दयावान होता है। परमात्मा मेहर करके (अपने भक्तों को कामादिक वैरियों से) स्वयं बचाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ अंदरि कपटु सदा दुखु है मनमुख धिआनु न लागै ॥ दुख विचि कार कमावणी दुखु वरतै दुखु आगै ॥ करमी सतिगुरु भेटीऐ ता सचि नामि लिव लागै ॥ नानक सहजे सुखु होइ अंदरहु भ्रमु भउ भागै ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ अंदरि कपटु सदा दुखु है मनमुख धिआनु न लागै ॥ दुख विचि कार कमावणी दुखु वरतै दुखु आगै ॥ करमी सतिगुरु भेटीऐ ता सचि नामि लिव लागै ॥ नानक सहजे सुखु होइ अंदरहु भ्रमु भउ भागै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कपटु = खोट। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। धिआनु न लागै = तवज्जो नहीं जुड़ती। वरतै = व्याप्त है। आगै = आगे, परलोक में। करमी = (परमात्मा की) मेहर से। भेटीऐ = मिलता है। ता = तब। सचि = सदा स्थिर में। सचि नामि = सदा-स्थिर हरि नाम में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अंदरहु = मन में से। भ्रमु = भटकना। भउ = सहम।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के मन में खोट टिका रहता है (इस वास्ते उसको) सदा (आत्मिक) कष्ट रहता है, उसकी तवज्जो (परमात्मा में) नहीं जुड़ती। उस मनुष्य की सारी मेहनत-कमाई दुख-कष्ट में ही होती है (उसको हर वक्त) कष्ट ही बना रहता है, परलोक में भी उसके वास्ते कष्ट ही है।
हे नानक! (जब परमात्मा की) मेहर से (मनुष्य को) गुरु मिलता है तब सदा-स्थिर हरि-नाम में उसकी लगन लग जाती है, आत्मिक अडोलता में (टिकने के कारण उसको आत्मिक) आनंद मिला रहता है और उसके मन में से भटकना दूर हो जाती है सहम दूर हो जाता है।1।

[[0852]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ गुरमुखि सदा हरि रंगु है हरि का नाउ मनि भाइआ ॥ गुरमुखि वेखणु बोलणा नामु जपत सुखु पाइआ ॥ नानक गुरमुखि गिआनु प्रगासिआ तिमर अगिआनु अंधेरु चुकाइआ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ गुरमुखि सदा हरि रंगु है हरि का नाउ मनि भाइआ ॥ गुरमुखि वेखणु बोलणा नामु जपत सुखु पाइआ ॥ नानक गुरमुखि गिआनु प्रगासिआ तिमर अगिआनु अंधेरु चुकाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुख = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगता है। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। तिमर = अंधेरा। अगिआनु = आत्मिक जीवन की वजह से बेसमझी। चुकाइआ = समाप्त हो जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है (उसके अंदर) सदा परमात्मा के नाम की रंगत चढ़ी रहती है, उसको परमात्मा का नाम (अपने) मन में प्यारा लगता है। (वह मनुष्य हर जगह परमात्मा को ही) देखता है (सदा परमात्मा का) नाम ही उचारता है, नाम जपते हुए उसको आत्मिक आनंद मिला रहता है।
हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश हो जाता है (जिसकी इनायत से उसके अंदर से) सही जीवन की सूझ की वजह से बेसमझी का घोर अंधेरा समाप्त हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ मनमुख मैले मरहि गवार ॥ गुरमुखि निरमल हरि राखिआ उर धारि ॥ भनति नानकु सुणहु जन भाई ॥ सतिगुरु सेविहु हउमै मलु जाई ॥ अंदरि संसा दूखु विआपे सिरि धंधा नित मार ॥ दूजै भाइ सूते कबहु न जागहि माइआ मोह पिआर ॥ नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का बीचार ॥ हरि नामु न भाइआ बिरथा जनमु गवाइआ नानक जमु मारि करे खुआर ॥३॥

मूलम्

मः ३ ॥ मनमुख मैले मरहि गवार ॥ गुरमुखि निरमल हरि राखिआ उर धारि ॥ भनति नानकु सुणहु जन भाई ॥ सतिगुरु सेविहु हउमै मलु जाई ॥ अंदरि संसा दूखु विआपे सिरि धंधा नित मार ॥ दूजै भाइ सूते कबहु न जागहि माइआ मोह पिआर ॥ नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का बीचार ॥ हरि नामु न भाइआ बिरथा जनमु गवाइआ नानक जमु मारि करे खुआर ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैले = विकारी मन वाले। मरहि = आत्मिक मौत पाते हैं। गवार = मूर्ख। निरमल = पवित्र जीवन वाले। उर = हृदय। धारि = टिका के। भनति = कहता है। जन भाई = हे जनो! हे भाई! सेविहु = कार करते रहो। संसा = सहम, चिन्ता। विआपे = जोर डाले रखता है। सिरि = सिर पर। धंधा = कज़िया। मार = खपाना। दूजै भाइ = माया के प्यार में। न चेतहि = नहीं स्मरण करते। बीचार = सोचने का ढंग। भाइआ = अच्छा लगा। जमु = (आत्मिक) मौत। मारि = मार के, सही आत्मिक जीवन समाप्त करके।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य विकारी मन वाले रहते हैं और आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य पवित्र जीवन वाले होते हैं (क्योंकि उन्होंने) परमात्मा (के नाम) को अपने हृदय में टिका के रखा होता है। नानक कहता है: हे भाई जनो! सुनो, गुरु के बताए हुए राह पर चला करो (इस तरह अंदर से) अहंकार की मैल दूर हो जाती है।
पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के अंदर सहम और कष्ट जोर डाले रखता है, उनके सिर पर (ऐसा) कज़िया खपाना बना ही रहता है (सिर पर धंधो का खपखाना, उलझनें बनी रहती हैं)। माया के प्यार में (फंस के वह सही जीवन की ओर से) सोए रहते हैं, कभी होश नहीं करते। माया का मोह माया का प्यार (इतना प्रबल होता है कि) वे कभी हरि-नाम नहीं स्मरण करते, महिमा की वाणी को नहीं विचारते- बस! मन के मुरीद लोगों के सोचने का ढंग ही ये बन जाता है। उनको परमात्मा का नाम अच्छा नहीं लगता, वे अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा लेते हैं, आत्मिक मौत उनके सही जीवन को समाप्त करके उनको तड़पाती रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिस नो हरि भगति सचु बखसीअनु सो सचा साहु ॥ तिस की मुहताजी लोकु कढदा होरतु हटि न वथु न वेसाहु ॥ भगत जना कउ सनमुखु होवै सु हरि रासि लए वेमुख भसु पाहु ॥ हरि के नाम के वापारी हरि भगत हहि जमु जागाती तिना नेड़ि न जाहु ॥ जन नानकि हरि नाम धनु लदिआ सदा वेपरवाहु ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिस नो हरि भगति सचु बखसीअनु सो सचा साहु ॥ तिस की मुहताजी लोकु कढदा होरतु हटि न वथु न वेसाहु ॥ भगत जना कउ सनमुखु होवै सु हरि रासि लए वेमुख भसु पाहु ॥ हरि के नाम के वापारी हरि भगत हहि जमु जागाती तिना नेड़ि न जाहु ॥ जन नानकि हरि नाम धनु लदिआ सदा वेपरवाहु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर नाम धन। बखसीअनु = बख्शी है उस (प्रभु) ने। सचा साहु = वह शाहूकार जिसके पास धन कभी समाप्त नहीं होता। मुहताजी = अधीनता, खुशामद। होरतु हटि = और किसी हट में। वथु = सौदा। वेसाहु = वणज, व्यापार। कउ = को, की ओर। सनमुख = सामने मुँह रखने वाला। रासि = राशि, संपत्ति। वेमुखु = परे मुँह रखने वाला, पीठ देने वाला। भसु = भस्म, राख, खजालत, खुवारी। पाहु = पड़ती है। हहि = है। जागाती = मसूलीआ। नानकि = नानक ने। वेपरवाहु = बेमुथाज।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति सदा कायम रहने वाला धन है। जिस मनुष्य को परमात्मा ने भक्ति (की दाति) दी, वह सदा के लिए शाहूकार बन गया। सारा जगत उसके दर का अर्थिया बनता है (क्योंकि) किसी और हाट में ना ये सौदा मिलता है ना ही इसका वणज होता है। जो मनुष्य भक्त जनों की तरफ़ अपना मुँह रखता है, उसको ये संपत्ति ये पूंजी मिल जाती है, पर भक्त-जनों से मुँह मोड़ने वाले के सिर पर राख ही पड़ती है।
हे भाई! परमात्मा के भक्त परमात्मा के नाम का वणज करते हैं, जम मसूलिया उनके नजदीक नहीं फटकता। दास नानक ने (भी) परमात्मा के नाम-धन का सौदा लादा है (इस वास्ते दुनिया के धन की ओर से) बेमुहताज रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ इसु जुग महि भगती हरि धनु खटिआ होरु सभु जगतु भरमि भुलाइआ ॥ गुर परसादी नामु मनि वसिआ अनदिनु नामु धिआइआ ॥ बिखिआ माहि उदास है हउमै सबदि जलाइआ ॥ आपि तरिआ कुल उधरे धंनु जणेदी माइआ ॥ सदा सहजु सुखु मनि वसिआ सचे सिउ लिव लाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महादेउ त्रै गुण भुले हउमै मोहु वधाइआ ॥ पंडित पड़ि पड़ि मोनी भुले दूजै भाइ चितु लाइआ ॥ जोगी जंगम संनिआसी भुले विणु गुर ततु न पाइआ ॥ मनमुख दुखीए सदा भ्रमि भुले तिन्ही बिरथा जनमु गवाइआ ॥ नानक नामि रते सेई जन समधे जि आपे बखसि मिलाइआ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ इसु जुग महि भगती हरि धनु खटिआ होरु सभु जगतु भरमि भुलाइआ ॥ गुर परसादी नामु मनि वसिआ अनदिनु नामु धिआइआ ॥ बिखिआ माहि उदास है हउमै सबदि जलाइआ ॥ आपि तरिआ कुल उधरे धंनु जणेदी माइआ ॥ सदा सहजु सुखु मनि वसिआ सचे सिउ लिव लाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महादेउ त्रै गुण भुले हउमै मोहु वधाइआ ॥ पंडित पड़ि पड़ि मोनी भुले दूजै भाइ चितु लाइआ ॥ जोगी जंगम संनिआसी भुले विणु गुर ततु न पाइआ ॥ मनमुख दुखीए सदा भ्रमि भुले तिन्ही बिरथा जनमु गवाइआ ॥ नानक नामि रते सेई जन समधे जि आपे बखसि मिलाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इसु जुग महि = इस मानव जीवन में। भगती = भक्तों ने। सभु = सारा। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाइआ = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है। परसादी = प्रसादि, कृपा से। मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बिखिआ = माया। उदास = उपराम, निर्लिप। सबदि = शब्द से। उधरे = बच गए। जणेदी माइआ = पैदा होने वाली माँ। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभु से। लिव = लगन, ध्यान। महादेउ = शिव जी। भुले = ग़लती खा गए। पढ़ि = पढ़ के। मोनी = समाधियां लगाने वाले। दूजै भाइ = माया के मोह में। जंगम = शैव मति के रमते साधु। ततु = असल चीज। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भ्रमि = भटकना में (पड़ कर)। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। समधे = समाधि वाले हुए, पूर्ण अवस्था वाले बने। जि = जिन्हें। बखसि = बख्शिश करके, मेहर करके।1।
अर्थ: हे भाई! इस मनुष्य जन्म में (सिर्फ) भक्तों ने ही परमात्मा का नाम-धन कमाया है, बाकी सारा जगत (माया की) भटकना में (पड़ कर, सही राह से) टूटा रहता है। (जिस मनुष्य के) मन में गुरु की मेहर से परमात्मा का नाम आ बसता है, वह हर वक्त नाम स्मरण करता है। वह माया में (विचरता हुआ भी माया के मोह से) निर्लिप रहता है, गुरु के शब्द की इनायत से (वह अपने अंदर से) अहंकार को जला देता है। धन्य है वह पैदा करने वाली माँ! वह स्वयं (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है (उसके सदका उसकी) कुलें भी (संसार-समुंदर में डूबने से) बच जाती हैं।
(हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना) ब्रहमा, विष्णु, शिव जी (जैसे बड़े-बड़े देवते भी) माया के तीन गुणों के कारण सही जीवन-राह से विछुड़ते रहे (उनके अंदर) अहंकार बढ़ता रहा (माया का) मोह बढ़ता रहा। (हे भाई! गुरु की शरण के बिना) पंडित (वेद आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के (भी) भटकते रहे, मुनी लोग (मौन धार के) विछुड़ते रहे, (उन्होंने भी) माया के मोह में ही अपना चिक्त जोड़े रखा। हे भाई! गुरु के बिना जोगी, जंगम और सन्यासी सभी कुमार्ग पर पड़े रहे, उन्होंने भी असली वस्तु ना पाई।
हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले सदा दुखी ही रहे, भटकना में पड़ कर सही जीवन-राह से विछुड़े ही रहे, उन्होंने अपना जन्म व्यर्थ ही गवाया।
पर, हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) जिस मनुष्यों को (परमात्मा) खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) मिलाता है, वह (उसके) नाम में रंगे रहते हैं और वही कामयाब जीवन वाले होते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ नानक सो सालाहीऐ जिसु वसि सभु किछु होइ ॥ तिसहि सरेवहु प्राणीहो तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुरमुखि अंतरि मनि वसै सदा सदा सुखु होइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ नानक सो सालाहीऐ जिसु वसि सभु किछु होइ ॥ तिसहि सरेवहु प्राणीहो तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुरमुखि अंतरि मनि वसै सदा सदा सुखु होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! सालाहीऐ = महिमा करनी चाहिए। जिसु वसि = जिस (परमात्मा) के वश में। सभु किछु = हरेक चीज। सरेवहु = स्मरण करो। प्राणीहो = हे प्राणियो! गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। अंतरि = अंदर, हृदय में। मनि = मन में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में हरेक चीज है उसकी महिमा करनी चाहिए। हे प्राणियो! उस प्रभु को (सदा) स्मरण करते रहो, उसके बिना कोई और (उस जैसा) नहीं है। पर, हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से ही (वह परमात्मा मनुष्य के) हृदय में मन में बसता है (जिसके अंदर आ बसता है, उसके अंदर) सदा ही आत्मिक आनंद बना रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिनी गुरमुखि हरि नाम धनु न खटिओ से देवालीए जुग माहि ॥ ओइ मंगदे फिरहि सभ जगत महि कोई मुहि थुक न तिन कउ पाहि ॥ पराई बखीली करहि आपणी परतीति खोवनि सगवा भी आपु लखाहि ॥ जिसु धन कारणि चुगली करहि सो धनु चुगली हथि न आवै ओइ भावै तिथै जाहि ॥ गुरमुखि सेवक भाइ हरि धनु मिलै तिथहु करमहीण लै न सकहि होर थै देस दिसंतरि हरि धनु नाहि ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिनी गुरमुखि हरि नाम धनु न खटिओ से देवालीए जुग माहि ॥ ओइ मंगदे फिरहि सभ जगत महि कोई मुहि थुक न तिन कउ पाहि ॥ पराई बखीली करहि आपणी परतीति खोवनि सगवा भी आपु लखाहि ॥ जिसु धन कारणि चुगली करहि सो धनु चुगली हथि न आवै ओइ भावै तिथै जाहि ॥ गुरमुखि सेवक भाइ हरि धनु मिलै तिथहु करमहीण लै न सकहि होर थै देस दिसंतरि हरि धनु नाहि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। देवालीए = मानव जीवन की बाज़ी हारे हुए। जुग माहि = जगत में। ओइ = वे। मुहि = मुँह पर। न पाहि = नहीं डालते। बखीली = निंदा चुगली। परतीति = एतबार। खोवनि = गवा लेते हैं। सगवा = बल्कि ठीक तरह। आपु = अपना (बुरा) असला। लखाहि = दिखाते हैं। कारणि = वास्ते। हथि = हाथ में। जाहि = जाएं। सेवक भाइ = सेवक भावना से। करमहीण = अभागे लोग। होरथै = किसी और जगह। दिसंतरि = और देश में।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम-धन नहीं कमाया, वे जगत में मानव-जीवन की बाज़ी हार चुके समझो (जैसे जुआरी जूए में हार के कंगाल हो जाता है)। ऐसे मनुष्य (उन मंगतों के समान हैं जो) सारे संसार में मांगते फिरते हैं, पर उनके मुँह पर कोई थूकता भी नहीं। हे भाई! ऐसे लोग दुनिया की निंदा करते हैं (और इस तरह) अपना एतबार गवा लेते हैं, बल्कि अच्छी तरह अपना (बुरी) अस्लियत को दिखा देते हैं। ऐसे मनुष्य जहाँ जी चाहे जाएं, जिस धन की खातिर (लालच में आ के) चुगली करते हैं, चुगली से वह धन उन्हें नहीं मिलता। हे भाई! सेवक-भावना से गुरु की शरण पड़ने पर ही परमात्मा का नाम-धन मिलता है; पर वह (निंदक) अभागे वहाँ से (गुरु के दर से) ये धन नहीं ले जा सकते (और, गुरु के दर के बिना) किसी और जगह किसी और देश में ये नाम-धन है ही नहीं।8।

[[0853]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि संसा मूलि न होवई चिंता विचहु जाइ ॥ जो किछु होइ सु सहजे होइ कहणा किछू न जाइ ॥ नानक तिन का आखिआ आपि सुणे जि लइअनु पंनै पाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि संसा मूलि न होवई चिंता विचहु जाइ ॥ जो किछु होइ सु सहजे होइ कहणा किछू न जाइ ॥ नानक तिन का आखिआ आपि सुणे जि लइअनु पंनै पाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसा = तौख़ला। मूलि न = बिल्कुल नहीं। सहजे = सहज ही, परमात्मा की रजा में। लइअनु = लिए हैं उसने। पंनै = पल्ले में। पंनै पाइ लइअनु = उसने अपने पल्ले डाल लिया है।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहते हैं, उनको (किसी किस्म का) तौखला बिल्कुल ही नहीं होता, उनके अंदर से चिन्ता दूर हो जाती है। (उनको ये निष्चय हो जाता है कि संसार में) जो कुछ हो रहा है वह परमात्मा की रजा में हो रहा है, उस पर कोई एतराज नहीं किया जा सकता। हे नानक! जिस मनुष्यों को परमात्मा अपने लड़ लगा लेता है उनकी आरजू (परमात्मा सदा) स्वयं सुनता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ कालु मारि मनसा मनहि समाणी अंतरि निरमलु नाउ ॥ अनदिनु जागै कदे न सोवै सहजे अम्रितु पिआउ ॥ मीठा बोले अम्रित बाणी अनदिनु हरि गुण गाउ ॥ निज घरि वासा सदा सोहदे नानक तिन मिलिआ सुखु पाउ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ कालु मारि मनसा मनहि समाणी अंतरि निरमलु नाउ ॥ अनदिनु जागै कदे न सोवै सहजे अम्रितु पिआउ ॥ मीठा बोले अम्रित बाणी अनदिनु हरि गुण गाउ ॥ निज घरि वासा सदा सोहदे नानक तिन मिलिआ सुखु पाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। मारि = मार के। मनसा = मन का मायावी फुरना। मनहि = मन में ही। समाणी = लीन कर लेता है। अनदिनु = हर रोज। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पिआउ = खुराक। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली (गुरु की) वाणी के द्वारा। निज घरि = अपने घर में, प्रभु की याद में। सोहदे = शोभा देते हैं, सुंदर जीवन वाले होते हैं। पाउ = पाऊँ, मैं हासिल करता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसता है वह आत्मिक मौत को समाप्त करके मन के मायावी फुरने को मन में ही दबा देता है। वह मनुष्य (माया के हमलों की ओर से) हर वक्त सचेत रहता है, कभी वह (गफ़लत की नींद में) नहीं सोता। आत्मिक अडोलता में टिक के परमातमा नाम-अमृत (उसकी) खुराक होता है। वह मनुष्य (सदा) मीठा बोलता है, (सतिगुरु की) आत्मिक जीवन देने वाली वाणी के द्वारा वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है।
ऐसे मनुष्य सदा परमात्मा के चरणों में टिके रहते हैं, उनका जीवन सुंदर बन जाता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) ऐसे मनुष्यों को मिल के मैं भी आत्मिक आनंद पाता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि धनु रतन जवेहरी सो गुरि हरि धनु हरि पासहु देवाइआ ॥ जे किसै किहु दिसि आवै ता कोई किहु मंगि लए अकै कोई किहु देवाए एहु हरि धनु जोरि कीतै किसै नालि न जाइ वंडाइआ ॥ जिस नो सतिगुर नालि हरि सरधा लाए तिसु हरि धन की वंड हथि आवै जिस नो करतै धुरि लिखि पाइआ ॥ इसु हरि धन का कोई सरीकु नाही किसै का खतु नाही किसै कै सीव बंनै रोलु नाही जे को हरि धन की बखीली करे तिस का मुहु हरि चहु कुंडा विचि काला कराइआ ॥ हरि के दिते नालि किसै जोरु बखीली न चलई दिहु दिहु नित नित चड़ै सवाइआ ॥९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि धनु रतन जवेहरी सो गुरि हरि धनु हरि पासहु देवाइआ ॥ जे किसै किहु दिसि आवै ता कोई किहु मंगि लए अकै कोई किहु देवाए एहु हरि धनु जोरि कीतै किसै नालि न जाइ वंडाइआ ॥ जिस नो सतिगुर नालि हरि सरधा लाए तिसु हरि धन की वंड हथि आवै जिस नो करतै धुरि लिखि पाइआ ॥ इसु हरि धन का कोई सरीकु नाही किसै का खतु नाही किसै कै सीव बंनै रोलु नाही जे को हरि धन की बखीली करे तिस का मुहु हरि चहु कुंडा विचि काला कराइआ ॥ हरि के दिते नालि किसै जोरु बखीली न चलई दिहु दिहु नित नित चड़ै सवाइआ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जवेहरी = जवाहरात, हीरे। गुरि = गुरु ने। पासहु = पास से। किहु = कुछ। अकै = या, अथवा। जोरि कीतै = अगर जोर जबरदस्ती की जाए। सरधा = प्रतीत। हथि = हाथ में। हथि आवै = मिलती है। वंड = हिस्सा। धुरि = धुर से, आदि से, किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। खतु = पट्टा, लिखत, मल्कियत का पट्टा। सीव बंनै = किनारे की बंध, हदबंदी, मेढ़। रोलु = झगड़ा, रौला। बखीली = चुगली, ईष्या। दिहु दिहु = हर रोज। चढ़ै सवाइआ = बढ़ता है।9।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम-धन हीरे-जवाहरात हैं। यह हरि-नाम-धन (जिसको) परमात्मा के पास से दिलवाया है गुरु ने (ही) दिलवाया है। अगर किसी मनुष्य को (गुरु के बिना किसी और के पास) कुछ और दिख जाए तो (उससे कोई) कुछ भी मांग ले, अथवा, कोई कुछ दिला दे। पर यह नाम-धन पक्का करके (भी) किसी के साथ बांटा नहीं जा सकता (ये तो परमात्मा की मेहर से गुरु के द्वारा ही मिलता है)। हे भाई! परमात्मा ने धुर से ही जिस मनुष्य के माथे पर लेख लिख दिए हैं, परमात्मा उस मनुष्य की गुरु में श्रद्धा बनाता है, और (गुरु के द्वारा) उस मनुष्य को नाम-धन का हिस्सा मिलता है।
हे भाई! ये नाम-धन (ऐसी जयदाद है कि) इसका कोई शरीक नहीं बन सकता (इसके ऊपर) कोई अपना हक नहीं बना सकता, किसी के पास इसकी मलकियत का पट्टा भी नहीं हो सकता। (जैसे जिमींदारों का ज़मीन की) हदबंदी का झगड़ा (हो सकता है,) इस हरि-नाम-धन का ऐसा कोई झगड़ा भी नहीं उठ सकता। (किसी गुरमुखि को देख के) अगर कोई मनुष्य इस नाम-धन की (खातिर) ईष्या करता है, उसको बल्कि हर तरफ से धिक्कारें ही पड़ती हैं।
(हे भाई! यह नाम-धन परमात्मा खुद ही गुरु के द्वारा देता हैं, और) अगर परमात्मा किसी को यह नाम-धन दे दे तो किसी और का ज़ोर नहीं चल सकता, किसी की ईष्या कुछ बिगाड़ नहीं सकती (यह एक ऐसी दाति है कि) यह हर रोज सदा बढ़ती ही जाती है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ जगतु जलंदा रखि लै आपणी किरपा धारि ॥ जितु दुआरै उबरै तितै लैहु उबारि ॥ सतिगुरि सुखु वेखालिआ सचा सबदु बीचारि ॥ नानक अवरु न सुझई हरि बिनु बखसणहारु ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ जगतु जलंदा रखि लै आपणी किरपा धारि ॥ जितु दुआरै उबरै तितै लैहु उबारि ॥ सतिगुरि सुखु वेखालिआ सचा सबदु बीचारि ॥ नानक अवरु न सुझई हरि बिनु बखसणहारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलंदा = (विकारों में) जलता। रखि लै = बचा ले। धारि = धारण करके। जितु दुआरै = जिस दर से, जिस भी तरीके से। उबरै = बच सके। तितै = उसी ही तरह। सतिगुरि = गुरु ने। सुखु = आत्मिक आनंद। सचा सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। बीचारि = विचार के, मन में टिका के। अवरु = कोई और।1।
अर्थ: हे प्रभु! (विकारों में) जल रहे संसार को अपनी मेहर से बचा लें, जिस भी तरीके से ये बच सकता है उसी तरह बचा ले।
हे नानक! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी मन में बसा के (जिस मनुष्य को) सतिगुरु ने (स्मरण का) आत्मिक आनंद दिखा दिया, उसको यह समझ आ जाती है कि परमात्मा के बिना कोई और ये बख्शिश करने वाला नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ हउमै माइआ मोहणी दूजै लगै जाइ ॥ ना इह मारी न मरै ना इह हटि विकाइ ॥ गुर कै सबदि परजालीऐ ता इह विचहु जाइ ॥ तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥ नानक माइआ का मारणु सबदु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ हउमै माइआ मोहणी दूजै लगै जाइ ॥ ना इह मारी न मरै ना इह हटि विकाइ ॥ गुर कै सबदि परजालीऐ ता इह विचहु जाइ ॥ तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥ नानक माइआ का मारणु सबदु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउमै = अहंकार में। हउमै माइआ = माया का अहंकार, माया की चाहत। दूजै = (प्रभु के बिना) और (के मोह) में। हटि = दुकान में। कै सबदि = के शब्द से। परजालीऐ = अच्छी तरह से जला दी जाए। उजला = पवित्र। मनि = मन में। मारणु = प्रभाव खत्म करने का तरीका।2।
अर्थ: हे भाई! माया का अहंकार (सारे संसार को) अपने वश में करने की समर्थता रखने (की मानसिकता) वाला है, (इसके असर तले जीव परमात्मा को बिसार के) और (के मोह) में फंस जाता है। ये अहंकार ना (किसी और से) मारा जा सकता है, ना ही ये खुद मरता है, ना ही यह किसी दुकान पर बेचा जा सकता है। जब इसको गुरु के शब्द द्वारा अच्छी तरह जलाया जाता है, तब ही यह (जीव के) अंदर से समाप्त होता है। (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर से माया का अहंकार खत्म हो जाता है उसका) तन (उसका) मन पवित्र हो जाता है, उसके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है।
हे नानक! गुरु का शब्द ही माया के प्रभाव को (असर को) खत्म करने का एक मात्र) साधन है, और, ये शब्द गुरु की शरण पड़ने पर ही मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सतिगुर की वडिआई सतिगुरि दिती धुरहु हुकमु बुझि नीसाणु ॥ पुती भातीई जावाई सकी अगहु पिछहु टोलि डिठा लाहिओनु सभना का अभिमानु ॥ जिथै को वेखै तिथै मेरा सतिगुरू हरि बखसिओसु सभु जहानु ॥ जि सतिगुर नो मिलि मंने सु हलति पलति सिझै जि वेमुखु होवै सु फिरै भरिसट थानु ॥ जन नानक कै वलि होआ मेरा सुआमी हरि सजण पुरखु सुजानु ॥ पउदी भिति देखि कै सभि आइ पए सतिगुर की पैरी लाहिओनु सभना किअहु मनहु गुमानु ॥१०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सतिगुर की वडिआई सतिगुरि दिती धुरहु हुकमु बुझि नीसाणु ॥ पुती भातीई जावाई सकी अगहु पिछहु टोलि डिठा लाहिओनु सभना का अभिमानु ॥ जिथै को वेखै तिथै मेरा सतिगुरू हरि बखसिओसु सभु जहानु ॥ जि सतिगुर नो मिलि मंने सु हलति पलति सिझै जि वेमुखु होवै सु फिरै भरिसट थानु ॥ जन नानक कै वलि होआ मेरा सुआमी हरि सजण पुरखु सुजानु ॥ पउदी भिति देखि कै सभि आइ पए सतिगुर की पैरी लाहिओनु सभना किअहु मनहु गुमानु ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडिआई = इज्जत। सतिगुरि = सतिगुरु ने। धरहु = धुर से ही, हजूरी से। हुकमु = हुक्म में, रजा। बुझि = समझ के। नीसाणु = निशान, परवाना, राहदारी। पुती = पुत्रों ने। भातीई = भतीजों ने। सकी = साक संबन्धियों नें। अगहु पिछहु = आगे-पीछे से, अच्छी तरह। टोलि = टोल के, परख के। लाहिओनु = उतार दिया उसने। को = कोई मनुष्य। बखसिओसु = उसने बख्शा। जि = जो मनुष्य। मिलि = मिल के। मंने = पतीजता है। सु = वह मनुष्य। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सिझै = कामयाब होता है। फिरै = भटकता फिरता है। थानु = हृदय स्थल। भरिआ = (विकारों से) गंदा। जन कै वलि = (अपने) सेवक के पक्ष में। सुजानु = समझदार, सबके दिल की जानने वाला। भिति = चोग, खुराक, आत्मिक भोजन। सभि आइ = सारे आए। लाहिओनु = उसने उतार दिया। किअहु मनहु = के मन से।10।
अर्थ: (जो) इज्जत गुरु (अमरदास जी) की (हुई, वह) गुरु (अंगद देव जी) ने परमात्मा की हजूरी से (मिला) हुक्म समझ के परवाना समझ के (उनको) दी। पुत्रों ने, भतीजों ने, और साक-संबन्धियों ने अच्छी तरह परख के देख लिया था (गुरु ने) सबका गुमान दूर कर दिया।
हे भाई! परमात्मा ने (गुरु के माध्यम से) सारे संसार को (नाम की) बख्शिश की है; जहाँ भी कोई देखता है वहाँ ही प्यारा गुरु (नाम की दाति देने के लिए मौजूद) है। जो मनुष्य गुरु को मिल के पतीजता है वह इस लोक में और परलोक में कामयाब हो जाता है, पर जो मनुष्य गुरु की तरफ से मुँह मोड़ता है, वह भटकता फिरता है, उसका हृदय-स्थल (विकारों से) गंदा बना रहता है। हे नानक! (कह:) सब के दिल की जानने वाला सब का मित्र सबमें व्यापक प्रभु अपने सेवक के पक्ष में रहता है।
हे भाई! (गुरु के दर से) आत्मिक खुराक मिलती देख के सारे लोग गुरु के चरणों में आ लगे। गुरु ने सबके मन से अहंकार दूर कर दिया।10।

[[0854]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः १ ॥ कोई वाहे को लुणै को पाए खलिहानि ॥ नानक एव न जापई कोई खाइ निदानि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः १ ॥ कोई वाहे को लुणै को पाए खलिहानि ॥ नानक एव न जापई कोई खाइ निदानि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहे = जोतता है। को = कोई (और)। लुणै = (फसल) काटता है। खलिहानि = खलिहान में (वह मैदान जहाँ पकने के बाद काट के फसल लाई जाती है और साफ करके दाना संभाला जाता है)। नानक = हे नानक! एव = इस तरह। न जापई = (परमात्मा की रजा की) समझ नहीं पड़ती। कोई = कोई (और)। निदानि = अंत को, आखिर में।1।
अर्थ: हे नानक! कोई मनुष्य हल चलाता है, कोई (और) मनुष्य (उस पकी हुई फसल को) काटता है, कोई (और) मनुष्य (उस कटी हुई फसल को) खलिहान में लाता है; पर आखिर में (उस अन्न को) खाता कोई और है। सो, इसी तरह (परमात्मा की रजा को) समझा नहीं जा सकता (कि कब क्या कुछ घटित होगा)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ जिसु मनि वसिआ तरिआ सोइ ॥ नानक जो भावै सो होइ ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ जिसु मनि वसिआ तरिआ सोइ ॥ नानक जो भावै सो होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तरिआ = (संसार समुंदर के विकारों से) पार लांघ गया। सोइ = वह मनुष्य। जो भावै = जो कुछ (परमात्मा को) अच्छा लगता है।2।
अर्थ: महला १- हे नानक! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसता है वह (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है (उसको समझ आ जाती है कि जगत में) वही कुछ होता है जो (परमात्मा को) अच्छा लगता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ पारब्रहमि दइआलि सागरु तारिआ ॥ गुरि पूरै मिहरवानि भरमु भउ मारिआ ॥ काम क्रोधु बिकरालु दूत सभि हारिआ ॥ अम्रित नामु निधानु कंठि उरि धारिआ ॥ नानक साधू संगि जनमु मरणु सवारिआ ॥११॥

मूलम्

पउड़ी ॥ पारब्रहमि दइआलि सागरु तारिआ ॥ गुरि पूरै मिहरवानि भरमु भउ मारिआ ॥ काम क्रोधु बिकरालु दूत सभि हारिआ ॥ अम्रित नामु निधानु कंठि उरि धारिआ ॥ नानक साधू संगि जनमु मरणु सवारिआ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। दइआलि = दयालु ने। सागरु = संसार समुंदर। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। भरमु = (मन की) भटकना। भउ = (मन का) सहम। बिकरालु = विकराल, भयानक, डरावना। दूत = वैरी। सभि = सारे। हारिआ = थक गए। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निधानु = (सारे सुखों का) खजाना। कंठि = गले में। उरि = हृदय में। साधू संगि = गुरु की संगति में। जनमु मरणु = सारा जीवन (जन्म से मौत तक)।11।
अर्थ: हे भाई! पूरे मेहरवान गुरु ने (जिस मनुष्य के मन की) भटकना और सहम समाप्त कर दिए, भयानक क्रोध और काम (आदि) सारे (उसके) वैरी (उस पर प्रभाव डालने से) हार गए। हे नानक! (उस मनुष्य ने) सारे सुखों का खजाना (परमात्मा का) आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने) गले में (अपने) हृदय में (सदा के लिए) टिका लिया (और इस तरह) गुरु की संगति में (रह के उसने अपना) सारा जीवन संवार लिया। दयालु पारब्रहम ने उसको संसार-समुंदर से पार लंघा लिया।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ कूड़े कहण कहंन्हि ॥ पंच चोर तिना घरु मुहन्हि हउमै अंदरि संन्हि ॥ साकत मुठे दुरमती हरि रसु न जाणंन्हि ॥ जिन्ही अम्रितु भरमि लुटाइआ बिखु सिउ रचहि रचंन्हि ॥ दुसटा सेती पिरहड़ी जन सिउ वादु करंन्हि ॥ नानक साकत नरक महि जमि बधे दुख सहंन्हि ॥ पइऐ किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंन्हि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ कूड़े कहण कहंन्हि ॥ पंच चोर तिना घरु मुहन्हि हउमै अंदरि संन्हि ॥ साकत मुठे दुरमती हरि रसु न जाणंन्हि ॥ जिन्ही अम्रितु भरमि लुटाइआ बिखु सिउ रचहि रचंन्हि ॥ दुसटा सेती पिरहड़ी जन सिउ वादु करंन्हि ॥ नानक साकत नरक महि जमि बधे दुख सहंन्हि ॥ पइऐ किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंन्हि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूड़े कहण = नाशवान पदार्थों की बातें। कहंन्हि = कहनि्ह, कहते हैं। मुहन्हि = (मुहनि्ह) ठग रहे हैं, लूट रहे हैं। संन्हि = (सनि्ह) दीवार फाड़ के चोरी का उद्यम, सेंध। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। मुठे = ठगे जा रहे। दुरमती = खोटी मति वाले। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। भरमि = (मन की) भटकना में। बिखु = जहर। रचहि रचंन्हि = सदा मस्त रहते हैं। सेती = साथ। पिरहड़ी = प्यार। जन = भक्त, सेवक। वादु = झगड़ा। जमि = जम से। पइऐ किरति = पिछले इकट्ठे किए हुए कर्मों के अनुसार। राखहि = हे प्रभु तू रखता है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने (परमात्मा का) नाम भुला दिया, वह सदा नाशवान पदार्थों की ही बातें करते रहते हैं। (कामादिक) पाँचों चोर उनका (हृदय-) घर लूटते रहते हैं, उनके अंदर अहंकार (की) सेंध लगी रहती है। वह परमात्मा से टूटे हुए खोटी मति वाले मनुष्य (इन विकारों के हाथों ही) लूटे जाते हैं, प्रभु के नाम का स्वाद वे नहीं जानते-पहचानते।
हे भाई! जिस मनुष्यों ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस (मन की) भटकना में (ही) हुटा दिया, वे (आत्मिक जीवन का नाश करने वाली माया) जहर से ही प्यार डाले रखते हैं, बुरे मनुष्यों से उनका प्यार होता है, परमात्मा के सेवकों के साथ वे झगड़ते रहते हैं। हे नानक! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य आत्मिक मौत (के बंधनों) में बंधे हुए मनुष्य (मानो) नरकों में पड़े रहते हैं (सदा) दुख ही सहते रहते हैं।
(पर, हे प्रभु! जीवों के भी क्या वश?) जैसे तू (इनको) रखता है वैसे ही रहते हैं, और, पूर्बले किए कर्मों के अनुसार (अब भी वैसे ही) कर्म किए जा रहे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ ताणु निताणे तिसु ॥ सासि गिरासि सदा मनि वसै जमु जोहि न सकै तिसु ॥ हिरदै हरि हरि नाम रसु कवला सेवकि तिसु ॥ हरि दासा का दासु होइ परम पदारथु तिसु ॥ नानक मनि तनि जिसु प्रभु वसै हउ सद कुरबाणै तिसु ॥ जिन्ह कउ पूरबि लिखिआ रसु संत जना सिउ तिसु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ ताणु निताणे तिसु ॥ सासि गिरासि सदा मनि वसै जमु जोहि न सकै तिसु ॥ हिरदै हरि हरि नाम रसु कवला सेवकि तिसु ॥ हरि दासा का दासु होइ परम पदारथु तिसु ॥ नानक मनि तनि जिसु प्रभु वसै हउ सद कुरबाणै तिसु ॥ जिन्ह कउ पूरबि लिखिआ रसु संत जना सिउ तिसु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरु सेविआ = गुरु की बताई हुई कार की। ताणु = (आत्मिक) बल। सासि = (हरेक) सांस से। गिरासि = (हरेक) ग्रास से। मनि = मन में। जोहि न सकै = देख भी नहीं सकता, नजदीक नहीं फटकता। हिरदै = हृदय में। रसु = स्वाद। कवला = लक्ष्मी, माया। सेवकि = दासी। परम पदारथु = सबसे ऊँचा (नाम) पदार्थ। तनि = तन में, हृदय में। हउ = मैं। सद = सदा। पूरबि लिखिआ = पूर्बले किए कर्मों के अनुसार लिखे हुए लेख। रस = प्रेम, आनंद। सिउ = साथ।2।
अर्थ: हे भाई! जो जो दुर्बल (शक्तिहीन) मनुष्य (भी) गुरु की बताई हुई (स्मरण की) कार करता है, उसको (आत्मिक) बल मिल जाता है। हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ हर वक्त (परमात्मा उसके) मन में आ बसता है, आत्मिक मौत उसके जनदीक नहीं फटकती। उसको अपने हृदय में परमात्मा के नाम का स्वाद आता रहता है, माया उसकी दासी बन जाती है (उसके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)। वह मनुष्य प्रभु के सेवकों का सेवक बना रहता है, उसको सबसे श्रेष्ठ पदार्थ (हरि-नाम) प्राप्त हो जाता है।
हे नानक! (कह:) मैं उस मनुष्य से सदके जाता हूँ जिसके मन में जिसके हृदय में परमात्मा (का नाम) टिका रहता है। पर, हे भाई! उस-उस मनुष्य का प्यार संत जनों के साथ बनता है जिस-जिस के भाग्यों में पिछले किए कर्मों के अनुसार (स्मरण के) लेख लिखे होते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जो बोले पूरा सतिगुरू सो परमेसरि सुणिआ ॥ सोई वरतिआ जगत महि घटि घटि मुखि भणिआ ॥ बहुतु वडिआईआ साहिबै नह जाही गणीआ ॥ सचु सहजु अनदु सतिगुरू पासि सची गुर मणीआ ॥ नानक संत सवारे पारब्रहमि सचे जिउ बणिआ ॥१२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जो बोले पूरा सतिगुरू सो परमेसरि सुणिआ ॥ सोई वरतिआ जगत महि घटि घटि मुखि भणिआ ॥ बहुतु वडिआईआ साहिबै नह जाही गणीआ ॥ सचु सहजु अनदु सतिगुरू पासि सची गुर मणीआ ॥ नानक संत सवारे पारब्रहमि सचे जिउ बणिआ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। सुणिआ = ध्यान दिया। सोई = वही वचन। घटि घटि = हरेक हृदय में। मुखि = मुंह से। भणिआ = उचारा। साहिबै = मालिक की। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। सहजु = आत्मिक अडोलता। सची = सदा कायम रहने वाली। मणीआ = मणी, रत्न, उपदेश। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभु जैसे।12।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु जो (महिमा का) वचन बोलता है, परमात्मा उसकी ओर ध्यान देता है। गुरु के वह वचन सारे संसार पर प्रभाव डालते हैं, हरेक हृदय में (प्रभाव डालते हैं, हरेक मनुष्य अपने) मुँह से उचारता है। (हे भाई! गुरु बताता है कि) मालिक प्रभु में बेअंत गुण हैं जो गिने नहीं जा सकते। हे भाई! प्रभु का सदा-स्थिर नाम, आत्मिक अडोलता, आत्मिक आनंद (ये) गुरु के पास (ही हैं, गुरु से ही ये दातें मिलती हैं)। गुरु का उपदेश सदा कायम रहने वाला रत्न है।
हे नानक! परमात्मा अपने सेवकों के जीवन स्वयं सुंदर बनाता है, संत जन सदा कामय रहने वाले परमात्मा जैसे बन जाते हैं।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ अपणा आपु न पछाणई हरि प्रभु जाता दूरि ॥ गुर की सेवा विसरी किउ मनु रहै हजूरि ॥ मनमुखि जनमु गवाइआ झूठै लालचि कूरि ॥ नानक बखसि मिलाइअनु सचै सबदि हदूरि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ अपणा आपु न पछाणई हरि प्रभु जाता दूरि ॥ गुर की सेवा विसरी किउ मनु रहै हजूरि ॥ मनमुखि जनमु गवाइआ झूठै लालचि कूरि ॥ नानक बखसि मिलाइअनु सचै सबदि हदूरि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपणा आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। जाता = समझा। विसरी = भूल गई। किउ रहै = रह सकता है? नहीं रह सकता। हजूरि = (परमात्मा की) हजूरी में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। लालचि = लालच में। कूरि = झूठ में, माया के मोह में। बखसि = बख्शिश करके। मिलाइअनु = मिला लिए हैं उस परमात्मा ने। सचे सबदि = महिमा के शब्द से। हदूरि = (अपनी) हजूरी में।1।
अर्थ: (हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य) अपने आत्मिक जीवन को (कभी) परखता नहीं, वह परमात्मा को (कहीं) दूर बसता समझता है, उसको गुरु द्वारा बताए हुए काम (सदा) भूले रहते हैं, (इस वास्ते उसका) मन (परमात्मा की) हजूरी में (कभी) नहीं टिकता।
हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने झूठे लालच में (लग के) माया के मोह में (फंस के ही अपना) जीवन गवा लिया होता है। जो मनुष्य महिमा वाले गुरु शब्द के द्वारा (परमात्मा की) हजूरी में टिके रहते हैं, उनको परमात्मा ने मेहर करके (अपने चरणों में) मिला लिया होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ हरि प्रभु सचा सोहिला गुरमुखि नामु गोविंदु ॥ अनदिनु नामु सलाहणा हरि जपिआ मनि आनंदु ॥ वडभागी हरि पाइआ पूरनु परमानंदु ॥ जन नानक नामु सलाहिआ बहुड़ि न मनि तनि भंगु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ हरि प्रभु सचा सोहिला गुरमुखि नामु गोविंदु ॥ अनदिनु नामु सलाहणा हरि जपिआ मनि आनंदु ॥ वडभागी हरि पाइआ पूरनु परमानंदु ॥ जन नानक नामु सलाहिआ बहुड़ि न मनि तनि भंगु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। सोहिला = महिमा के गीत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। अनदिनु = हर वक्त, हर रोज। मनि = मन में। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले ने। परमानंदु = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु। बहुड़ि = दोबारा फिर। तनि = तन में। भंगु = तोट, प्रभु से बिछोड़ा, भंग होना।2।
अर्थ: हे भाई! हरि प्रभु गोविंद सदा कायम रहने वाला है, (उसकी) महिमा का गीत (उसका) नाम गुरु की शरण पड़ने से (मिलता है)। (जिस मनुष्य को हरि-नाम मिलता है, वह) हर वक्त ही नाम स्मरण करता रहता है, और परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए (उसके) मन में आत्मिक आनंद बना रहता है। पर, हे भाई! परम-आनंद का मालिक पूर्ण प्रभु परमात्मा बहुत भाग्यों से ही मिलता है। हे नानक! (कह: जिस) दासों ने (परमात्मा का) नाम स्मरण किया, उनके मन में उनके तन में फिर कभी (परमातमा से) दूरी पैदा नहीं होती।2।

[[0855]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ कोई निंदकु होवै सतिगुरू का फिरि सरणि गुर आवै ॥ पिछले गुनह सतिगुरु बखसि लए सतसंगति नालि रलावै ॥ जिउ मीहि वुठै गलीआ नालिआ टोभिआ का जलु जाइ पवै विचि सुरसरी सुरसरी मिलत पवित्रु पावनु होइ जावै ॥ एह वडिआई सतिगुर निरवैर विचि जितु मिलिऐ तिसना भुख उतरै हरि सांति तड़ आवै ॥ नानक इहु अचरजु देखहु मेरे हरि सचे साह का जि सतिगुरू नो मंनै सु सभनां भावै ॥१३॥१॥ सुधु ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ कोई निंदकु होवै सतिगुरू का फिरि सरणि गुर आवै ॥ पिछले गुनह सतिगुरु बखसि लए सतसंगति नालि रलावै ॥ जिउ मीहि वुठै गलीआ नालिआ टोभिआ का जलु जाइ पवै विचि सुरसरी सुरसरी मिलत पवित्रु पावनु होइ जावै ॥ एह वडिआई सतिगुर निरवैर विचि जितु मिलिऐ तिसना भुख उतरै हरि सांति तड़ आवै ॥ नानक इहु अचरजु देखहु मेरे हरि सचे साह का जि सतिगुरू नो मंनै सु सभनां भावै ॥१३॥१॥ सुधु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुनह = गुनाह, अवगुण। मीहि वुठै = (पूर्व पूरन कारदंतक locative absolute) बरसात हुई। सुरसरी = गंगा। पावनु = पवित्र। जितु मिलिऐ = जिसके मिलने से, अगर वह मिल जाए। हरि सांति = परमात्मा (के मिलाप) की ठंड। सचे साह का = सदा कायम रहने वाले शाह का। मंनै = श्रद्धा लाए। भावै = अच्छा लगता है।13।
अर्थ: (अगर) कोई मनुष्य (पहले) गुरु की निंदा करने वाला हो (पर) फिर गुरु की शरण में आ जाए, तो सतिगुरु (उसके) पिछले अवगुण बख्श लेता है और (उसको) साधु-संगत में मिला लेता है।
हे भाई! जैसे बरसात होने से गली-नाली-टोभों का पानी (जब) गंगा में जा पड़ता है (और) गंगा में मिलते ही (वह पानी) पूरी तौर से पवित्र हो जाता है, (वैसे ही) निरवैर सतिगुरु में (भी) ये गुण हैं कि उस (गुरु) को मिलने से (मनुष्य को माया की) प्यास (माया की) भूख दूर हो जाती है (और, उसके अंदर) परमात्मा (के मिलाप) की ठंड तुरंत पड़ जाती है।
हे नानक! (कह: हे भाई!) सदा कायम रहने वाले शाह परमात्मा का ये आश्चर्यजनक तमाशा देखो कि जो मनुष्य गुरु पर श्रद्धा रखता है वह मनुष्य सभी को प्यारा लगने लग जाता है।13।1। सुधु।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ की ੴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ की ੴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥ सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥ सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखना = देखने में आ रहा है। रहनु पई है = रहना पड़ेगा, रह सकेगा। रे = हे भाई! सूधे = सीधे। रेगि = राह पर। नतर = नहीं तो। कुधका = कु धक्का, बहुत ज्यादती। दिवई है = मिलेगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे जिंदे! ये जगत ऐसा देखने में आ रहा है, कि यहां पर कोई भी जीव हमेशा नहीं रहेगा। सो, तू सीधे राह चलना, नहीं तो (तेरे साथ) बहुत ज्यादती होने का डर है (भाव, इस भुलेखे में कि यहां सदा बैठे रहना है, कुराह पर पड़ने का बहुत बड़ा खतरा होता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥ मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥

मूलम्

बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥ मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारे = बालक। तरुने = जवान। भईआ = हे भाई! सभ हू = सभी को ही। लै जई है = ले जाएगा। बपुरा = बेचारा। मूसा = चूहा। मीचु = मौत। बिलईआ = बिल्ला।1।
अर्थ: हे जिंदे! बालक हो, बुढा हो, चाहे जवान हो, मौत सबको ही यहां से ले जाती है। मनुष्य बेचारा तो, मानो, चूहा बनाया गया है जिसको मौत रूप बिल्ला खा जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥ राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥

मूलम्

धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥ राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनई = मनुष्य (पूर्व देश की बोली)। कानी = अधीनता, लिहाज। सम = बराबर। बडानी = बड़ा, बली।2।
अर्थ: हे जिंदे! मनुष्य धनवान हो चाहे कंगाल, मौत को किसी का लिहाज नहीं है। मौत राजे और प्रजा में भेद नहीं करती (एक समान मार लेती है), ये मौत है ही इतनी बलवान।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥ आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥

मूलम्

हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥ आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाए = प्यारे लगते हैं। कथा = बात। निरारी = अलग, निराली। संगारी = संगी, साथी।3।
अर्थ: पर जो लोग प्रभु की भक्ति करते हैं और प्रभु को प्यारे लगते हैं, उनकी बात (सारे जहान से) निराली है। वे ना पैदा होते है ना मरते हैं, क्योंकि, हे जिंदे! वे परमात्मा का सदा अपना संगी-साथी जानते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥ कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥

मूलम्

पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥ कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलत्र = वधू। इहै = यह ही, इनका मोह ही। तजहु = छोड़ दो। जीअ रे = हे जिंदे! जीअ जानी रे = हे जानी जीअ! हे प्यारी जिंदे! सारिगपान = (सारिग = विष्णु का धनुष। पानी = पाणि, हाथ) जिसके हाथ में सारिग धनुष है जो सब का नाश करने वाला है, परमात्मा।4।
अर्थ: सो, हे प्यारी जिंद! पुत्र, पत्नी, धन पदार्थ- इनका मोह छोड़ दे। कबीर कहता है: हे संतजनो! मोह त्यागने से परमात्मा मिल जाता है (और मौत का डर समाप्त हो जाता है)।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: मौत हरेक जीव को यहाँ से ले जाती है। सदा किसी ने भी यहां बैठे नहीं रहना। जीवन के ठीक राह पर चलो, प्रभु का स्मरण करो, मौत का डर समाप्त हो जाएगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥ हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥

मूलम्

बिलावलु ॥ बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥ हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न परउ = न पढ़ूँ, मैं नहीं पढ़ता। बादु = बहस, झगड़ा। जानउ = जानूं, मैं जानता। बउरानो = पागल सा।1।
अर्थ: (बहसों की खातिर) मैं (तुम्हारी तर्क भरी) विद्या नहीं पढ़ता, ना ही मैं (धार्मिक) बहसें करनी जानता हूँ (भाव, आत्मिक जीवन के लिए मैं किसी विद्वता भरी धार्मिक-चर्चा की आवश्यक्ता नहीं समझता)। मैं तो प्रभु की महिमा करने-सुनने में मस्त रहता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥ मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥ मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सैआनी = समझदार। बिगरिओ = बिगड़ गया हूँ। मति = शायद कहीं (एसा ना हो)। अउरा = कोई और।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे सज्जन! (लोगों के लिए तो) मैं पागल हूँ। लोग समझदार हैं मैं बवरा हूँ। (लोगों के विचार से) मैं गलत रास्ते पड़ गया हूँ (क्योंकि मैं अपने गुरु के राह पर चल कर प्रभु का भजन करता हूँ), (पर लोग अपना ध्यान रखें, इस) गलत राह पर कोई और ना चले।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥ सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥

मूलम्

आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥ सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जारि गइओ = जला गया है। भ्रमु = भ्रम, भुलेखा।2।
अर्थ: मैं अपने आप (इस प्रकार) बावरा नहीं बना, यह तो मुझे मेरे प्रभु ने (अपनी भक्ति में जोड़ के) पागल कर दिया है, और मेरे गुरु ने मेरा भ्रम-वहम सब जला डाले हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै बिगरे अपनी मति खोई ॥ मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥

मूलम्

मै बिगरे अपनी मति खोई ॥ मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मति = बुद्धि। खोई = गवा ली है। मति भूलउ = कोई भूले ना।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘भूलउ’ व्याकरण के अनुसार ‘हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एक वचन’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (यदि) कुमार्ग पर पड़े हुए ने अपनी बुद्धि गवा ली है (तो भला लोगों को क्यों मेरा इतना फिक्र है?) तो कोई और मेरे वाले इस भुलेखे में बेशक ना पड़े।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो बउरा जो आपु न पछानै ॥ आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥

मूलम्

सो बउरा जो आपु न पछानै ॥ आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने असल को। एकै = एक प्रभु को ही।4।
अर्थ: (पर लोगों को ये भुलेखा है कि प्रभु की भक्ति करने वाला आदमी पागल होता है। जबकि दरअसल) पागल वह सख्श है जो अपनी अस्लियत को नहीं पहचानता। जो अपने आप को पहचानता है वह हर जगह एक परमात्मा को बसता जानता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबहि न माता सु कबहु न माता ॥ कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥

मूलम्

अबहि न माता सु कबहु न माता ॥ कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अबहि = अब ही, इस जनम में ही माता = मस्त। रामै रंगि = राम के ही रंग में। राता = रंगा हुआ।5।
अर्थ: कबीर कहता है: परमात्मा के प्यार में रंग के जो मनुष्य इस जीवन में दीवाना नहीं बनता, उसने (फिर) कभी भी नहीं बनना (और वह जीवन व्यर्थ गवा के जाएगा)।5।2।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: आत्मिक जीवन के लिए किसी चोंच-चर्चा की आवश्यक्ता नहीं होतीं असल जरूरत ये है कि मनुष्य अपने असल को पहचान के सिर्फ परमात्मा की भक्ति में मस्त रहे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥ अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥

मूलम्

बिलावलु ॥ ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥ अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिह = घर, गृहस्थ। तजि = त्याग के। बनखंड = जंगलों में। कंदा = गाजर आदि धरती में उगने वाली चीजें। अजहु = अभी भी, फिर भी।1।
अर्थ: अगर गृहस्थ त्याग के जंगलों में चले जाएं, और गाजर-मूली खा के गुजारा करें, तो भी ये पापी मन विकार नहीं त्यागता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥ राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥ राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ छूटउ = मैं कैसे (इन विकारों से) बच सकता हूं? भव = संसार। जल निधि = समंद्र। बीठुला = हे बीठल! हे प्रभु! (संस्कृत: विष्ठल = one that is far away वह जो माया के प्रभाव से परे है। वि = परे है। सथल = टिका हुआ। वि = सथल, विशठल, बीठल = जो माया से दूर परे है)।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शब्द सिर्फ नामदेव जी ने ही नहीं बरता, कबीर जी भी प्रयोग करते हैं और सतिगुरु जी ने भी कई जगह इस्तेमाल किया है। इस आधार पर नामदेव जी को बीठुल की किसी मूर्ति का पुजारी समझना भूल है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे प्रभु! मैं तेरा दास तेरी शरण आया हूँ, मुझे (इन विकारों से) बचा। मैं कैसे इनसे खलासी कराऊँ? यह संसार बहुत बड़ा समुंदर है, मैं कैसे इससे पार लांघू?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥ अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥

मूलम्

बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥ अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखै बिखै की = कई किस्म के विषौ विकारों की। बासना = वासना, कसक, चस्का। लपटाई = चिपकता है।2।
अर्थ: हे मेरे बीठल! मुझसे इन अनेक किस्मों के विषौ विकारों के चस्के छोड़े नहीं जा सकते। कई प्रयत्न करके इस मन को रोकने की कोशिश करते हैं, पर ये बार-बार विषियों की वासनाओं को ही जा चिपकता है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥ इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥

मूलम्

जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥ इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। जीवन जोबनु = जिंदगी का जोबन, जवानी की उम्र। नीका = भला काम। जीअरा = ये सुंदर सी जिंद। मीका = बराबर।3।
अर्थ: बुढ़ापा आ गया है, जवानी की उम्र गुजर गई है, पर मैंने अब तक कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरे ये प्राण अमूल्य थे, पर मैंने इनको कौड़ियों के बराबर का कर डाला है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥ तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥

मूलम्

कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥ तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधवा = हे प्रभु! समसरि = बराबर। मोहि समसरि = मेरे जैसा।4।
अर्थ: हे कबीर! (अपने प्रभु के आगे इस प्रकार) बिनती कर- हे प्यारे प्रभु! तू सब जीवों में व्यापक है (और सबके दिल की जानता है, मेरे अंदर का हाल भी तू ही जानता है) तेरे जितना और कोई दयालु नहीं, और मेरे जितना कोई पापी नहीं (सो, मुझे तू खुद ही इन विकारों से बचा)।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥ ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥

मूलम्

बिलावलु ॥ नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥ ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोरी = जुलाह।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: कोरा बर्तन सिर्फ उस बर्तन को कहते हैं, जिसमें अभी पानी ना डाला गया हो। हर रोज कोरा घड़ा लाने की कबीर जी को क्या आवश्यक्ता पड़ सकती थी? और ना ही उनकी आर्थिक अवस्था ऐसी थी कि वे हर रोज कोरा घड़ा खरीद सकते। कर्मकांड का इतना तीव्र विरोध करने वाले कबीर जी कभी खुद ऐसा नहीं कर सकते कि बंदगी करने के लिए नित्य नई गागर खरीदतें फिरें। इस तरह, ‘कोरी’ शब्द ‘गागरि’ का विशेषण नहीं हैं)।

दर्पण-भाषार्थ

आनै = लाता है। लीपत = लीपते हुए। जीउ गइआ = प्राण भी खप जाते हैं। रसि = रस में, आनंद में।1।
अर्थ: ये जुलाहा (पुत्र) रोज सवेरे उठ के (पानी की) गागरि ले आता है और पोचा फेरता थक जाता है, इसको अपने बुनाई-कताई के काम की तवज्जो ही नहीं रही, सदा हरि के रस में लीन-मगन रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥ जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥ जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउने = किस ने? (भाव, किसी ने नहीं)। निपूते = इस कपूत ने।1।रहाउ।
अर्थ: हमारी कुल में कभी किसी ने परमात्मा का भजन नहीं किया था। जब से मेरा (ये) कुपूत (पुत्र) भक्ति में लगा है, तब से हमें कोई सुख नहीं रहा।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘माला’ कबीर जी की माला कबीर जी के अपने जबान से ये है: “कबीर मेरी सिमरनी रसना उपरि रामु।” कबीर जी की माँ को कबीर जी की भजन-बंदगी वाला जीवन पसंद नहीं था, और जो बात अच्छी ना लगे उसका गिला करते वक्त आम तौर पर बहुत बढ़ा-चढ़ा के बात कही जाती है। सो, शब्द ‘माला’ तो कबीर जी की माँ कबीर की बँदगी के प्रति नफ़रत जाहिर करने के लिए कहती है; पर साथ ही ये बात बहुत बढ़ा के भी कही जा रही है कि कबीर जी नित्य सवेरे पोचा फेरते थे।
हरेक मनुष्य, अगर चाहे तो, अपने जीवन में से कई ऐसी घटनाएं देख सकता है कि हम उस बात को कैसे बढ़ा के बयान करते हैं, जो हमें पसंद नहीं होता। मैंने कई ऐसे लोग देखे हैं जो वृद्ध होने के कारण खुद रक्ती भर भी कमाई नहीं कर सकते थे, उनका निर्वाह उनके पुत्रों के आसरे ही था। पर जब कभी वह पुत्र किसी सत्संग व किसी दीवान में जाने लगता था तो वह वृद्ध पिता सौ-सौ गालियां निकालता और कहता कि इस नकारे ने सारा घर उजाड़ दिया है। सो, जगत की यही चाल है। सत्संग किसी विरले को ही भाता है। जिनकी तवज्जो लगी हुई है उनकी विरोधता होती ही है, और होती ही रहेगी। उनके विरुद्ध बढ़ा-चढ़ा के बातें हमेशा की जाती हैं। कबीर जी ना सदा पोचा फेरना अपना धर्म माने बैठे थे, और ना ही माला गले में डाले फिरते थे। हाँ, यहाँ एक बात और याद रखी जानी चाहिए। उन दिनों शहरों में ना ही म्यिूसिपलिटी के नलके लगे थे ना ही घरों में अपने-अपने नलके हुआ करते थे। हरेक घर वालों को गलियों-बाजारों के सांझे कूओं से पानी खुद ही लाना पड़ता था। अमीर लोग तो नौकरों से पानी मंगवा लिया करते थे, पर गरीबों को तो ये काम खुद ही करना पड़ता था। आलस के कारण तो दुनियादार तो दिन चढ़े तक चारपाई पर पड़े रहते हैं, पर बँदगी वाला आदमी नित्य सवेरे उठने का आदी होता है, उसके लिए स्नान करना भी स्वभाविक ही बात है। अब भी गाँवों में जा के देखें। लोग कूँओं पर नहाने जाते हैं, वापसी पर घर के लिए घड़ा या गागर भर के ले आते हैं। पर, कबीर जी, उद्यमी कबीर जी, ये सारा काम घर वालों के जागने से पहले ही कर लिया करते थे। माँ को उनका भजन पसंद ना होने के कारण ये भी बुरा लगता था कि वे सवेरे-सवेरे पानी ले आते हैं। और, इसको वह बढ़ा के कहती है कि कबीर नित्य पोचा फेरता रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥ सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥

मूलम्

सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥ सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सात सूत = सूत्र आदि, सूत्र आदि से काम करना।2।
अर्थ: हे मेरी देवरानियों! जेठानियो! सुनो, (हमारे घर) ये कैसी आश्चर्यजनक होनी हो गई है? कि इस मूर्ख बेटे ने सूत्र आदि का काम ही त्याग दिया है। इससे बेहतर होता ये मर ही जाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥ संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥

मूलम्

सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥ संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = सतिगुरु ने। पैज = सत्कार, इज्जत। जिनि = जिस (प्रभु) ने। नख = नाखूनों से। बिदरिओ = चीर दिया, चीर के मार दिया।3।
अर्थ: (पर) जिस परमात्मा ने हिर्णाकश्यप को नाखूनों से मार के अपने भक्त प्रहलाद की इज्जत रखी थी, जो प्रभु सारे सुख देने वाला है उसका नाम (मुझ कबीर को मेरे) गुरु ने बख्शा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥ कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥

मूलम्

घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥ कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पितर की छोडी = पिता पुरखी छोड़ दी है। को = का। संतह = संतों की संगत में ले के।4।
अर्थ: कबीर कहता है: मैंने पिता-पुरखी त्याग दी है, मैंने अपने घर में पूजे जाने वाले देवते (भाव, ब्राहमण आदि) छोड़ बैठा हूँ। अब मैंनें सतिगुरु का शब्द ही धारण किया है। जो प्रभु सारे पापों का नाश करने वाला है, सत्संग में उसका नाम स्मरण करके मैं (संसार-सागर से) पार लांघ आया हूँ।4।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द में कबीर जी खुद ही अपने वचनों द्वारा अपनी माँ का रवईया और गिले बयान करके फिर खुद ही अपना नित्य का काम बताते हैं। ये शब्द कबीर जी की माँ के उचारे हुए नहीं हैं। बल्कि कबीर जी ने उसका वर्णन किया है। वैसे भी सिर्फ भक्त जी की वाणी को ही गुरु नानक साहिब जी की वाणी के साथ जगह मिल सकती थी, किसी और को नहीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ कोऊ हरि समानि नही राजा ॥ ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु ॥ कोऊ हरि समानि नही राजा ॥ ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोऊ = कोई भी जीव। समानि = बराबर, जैसा। ए भूपति = इस दुनिया के राजे। दिवस = दिन। झूठे = जो सदा कायम नहीं रह सकते। दिवाजा = दिखलाए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जगत में कोई जीव परमात्मा के बराबर का राजा नहीं है। ये दुनिया के सब राजे चार दिन के राजे होते हैं, (ये लोग अपने राज-भाग के) झूठे दिखावे करते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥ हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥

मूलम्

तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥ हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = दास, भक्त। कत = क्यों? कत डोलै = (इस दुनिया के राजाओं के आगे) नहीं डोलता। पर = में। तीनि भवन पर = तीन भवनों में, सारे जगत में। छाजा = प्रभाव छाया रहता है, महिमा बनी रहती है। को = कौन? जन कउ = भक्त को। पसारि सकै = बिखेर सकता है, उठा सकता है। अंदाजा = (प्रताप का) अनुमान।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) जो मनुष्य तेरा दास हो के रहता है वह (इन दुनिया के राजाओं के सामने) घबराता नहीं, (क्योंकि, हे प्रभु! तेरे सेवक का प्रताप) सारे जगत में छाया रहता है। हाथ उठाना तो कहाँ रहा, तेरे सेवक के सामने वे ऊँची आवाज में बोल भी नहीं सकते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥ कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥

मूलम्

चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥ कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचेत मन = हे गाफल मन! बाजे = बज जाएं। अनहद बाजा = एक रस (आनंद के) बाजे। कहि = कहे, कहता है। भ्रमु = भटकना। संसा = सहम। चूको = खत्म हो जाता है। निवाजा = निवाजता है, सम्मान देता है, पालता है।2।
अर्थ: हे मेरे गाफ़ल मन! तू भी प्रभु को स्मरण कर, (ताकि तेरे अंदर महिमा के) एक-रस बाजे बजने लगें (और तुझे, दुनियावी राजाओं के सामने कोई घबराहट ना हो)। कबीर कहता है: (जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करता है, उसका) सहम, उसकी भटकना सब दूर हो जाते हैं, प्रभु (अपने सेवक को) ध्रुव और प्रहलाद की तरह पालता है।2।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ राखि लेहु हम ते बिगरी ॥ सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु ॥ राखि लेहु हम ते बिगरी ॥ सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम ते = हम जीवों से, मुझ से। बिगरी = बिगड़ी है, बुरा काम हुआ है। सीलु = अच्छा स्वभाव। धरमु = जिंदगी का फर्ज। जपु = बंदगी। हउ = मैं। टेड = टेढ़ी। पगरी = पकड़ी।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेरी इज्जत रख ले। मुझसे बहुत बुरा काम हुआ है कि ना मैंने अच्छा स्वभाव बनाया, ना ही मैंने जीवन का फर्ज कमाया, और ना ही तेरी बँदगी, तेरी भक्ति की। मैं सदा अहंकार करता रहा, और गलत रास्ते पर पड़ा रहा हूँ (टेढ़ा-पन पकड़ा हुआ है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥ जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥

मूलम्

अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥ जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमर = (अ+मर) ना मरने वाली, ना नाश होने वाली। जानि = समझ के। संची = संचय करनी, संभाल के रखी, पालता रहा। काइआ = शरीर। मिथिआ = झूठी, नाशवान। गगरी = घड़ा। जिनहि = जिस (प्रभु) ने। निवाजि = आदर दे के, मेहर करके। साजि = पैदा करके। हम = हमें, मुझे। अवर = और ही तरफ से।1।
अर्थ: इस शरीर को कभी ना मरने वाला समझ के मैं सदा इसको ही पालता रहता, (ये सोच ही नहीं आई कि) यह शरीर तो कच्चे घड़े की तरह नाशवान है। जिस प्रभु ने मेहर करके मेरा ये सुंदर शरीर बना के मुझे पैदा किया, उसको बिसार मैं और ही तरफ लगा रहा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥ कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥

मूलम्

संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥ कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संधिक = चोर। तोहि = तेरा। कहीअउ = मैं कहलवा सकता हूँ। तुमरी पगरी = तेरे चरणों की। मत घालहु = मत/ना भेजना। खबरी = खबर, सोय।2।
अर्थ: (सो) कबीर कहता है: (हे प्रभु!) मैं तेरा चोर हूँ, मैं भला (आदमी) नहीं कहलवा सकता। फिर भी (हे प्रभु!) मैं तेरे चरणों की शरण आ पड़ा हूँ; मेरी ये आरजू सुन, मुझें जमों की ख़बर ना भेजना (भाव, मुझे जनम-मरन के चक्कर में ना डालना)।2।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ दरमादे ठाढे दरबारि ॥ तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु ॥ दरमादे ठाढे दरबारि ॥ तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरमादे = (फारसी: दरमांदा) आजिज, भिखारी। ठाढे = खड़ा हूँ। दरबारि = (तेरे) दर पर। सुरति = संभाल, ख़बर गीरी। को = कौन? खोल्हि = खोल के। किवार = किवाड़, दरवाजा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे दर पर भिखारी बन के खड़ा हूँ। भला तेरे बिना और कौन मेरी संभाल (प्रतिपालना) कर सकता है? दरवाजा खोल के मुझे (अपने) दर्शन दो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥ मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥

मूलम्

तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥ मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धन धनी = धन के मालिक। उदार = खुले दिल वाला। तिआगी = दानी। स्रवनन्ह = श्रवणों से, कानों से। सुनीअत = सुना जाता है। सुजसु = सु+यश, सुंदर शोभा। मागउ = माँगूं। काहि = किससे? रंक = कंगाल। निसतारु = पार उतारा।1।
अर्थ: तू ही (जगत के सारे) धन-पदार्थ का मालिक है, और बड़ा खुले दिल वाला दानी है। (जगत में) तेरी ही (दानी होने की) मीठी (सुंदर) शोभा कानों में पड़ रही है। मैं और किससे माँगूं? मुझे तो (तेरे समक्ष) सब कंगाल दिख रहे हैं। मेरा बेड़ा तेरे से ही पार हो सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥ कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥

मूलम्

जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥ कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: उक्त शब्द में जिस अक्षर के नीचे ‘्’ लगा है उसे आधा ‘ह’ पढ़ना है जैसे; खोलि् को ‘खोल्हि; तुमार को ‘तुम्हार’; और स्रवनन् को ‘स्रवनन्ह’।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जैदेउ = भक्त जैदेव जी बारहवीं सदी में संस्कृत के एक प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं, इनकी भक्ति-रस में लिखी हुई पुस्तक ‘गीत गोविंद’ बहुत ही सम्मान पा रही है। दक्षिणी बंगाल के गाँव कंनदूली में आप पैदा हुआ थे। उचच जीवन वाले प्रभु-भक्त हुए हैं। गुरु ग्रंथ साहिब में आपके दो शब्द दर्ज हैं, जो गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी के दौरान बंगाल की ओर जाते संकलित किए थे।
नामा = भक्त नामदेव जी बंबई (मुम्बई) के जिला सतारा के एक गाँव में पैदा हुए और सारा जीवन आपने पांधरपुर में गुजारा। कबीर जी यहाँ उनकी अनन्य भक्ति व प्रभु की उन पर अपार कृपा का वर्णन कर रहे हैं। सो, एसा विचार करना भारी भूल है कि नामदेव जी मूर्ति-पूजक थे अथवा मूर्तिपूजा से उन्हें ईश्वर मिला था। बिप = विप्र, ब्राहमण। बार = समय।2।
अर्थ: कबीर कहता है: तू सब दातें देने के योग्य दातार है। जीवों को चारों पदार्थ देते हुए तुझे रक्ती भर भी ढील नहीं लगती। जैदेव, नामदेव, सुदामा ब्राहमण-इन पर तेरी बेअंत कृपा हुई थी।2।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥ भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥

मूलम्

बिलावलु ॥ डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥ भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खिंथा = गोदड़ी, खफ़नी। आधारी = वह झोली जिसमें जोगी भिक्षा मांग के डाल लेते हैं। भाइ = भावना में, अनुसार। भ्रम कै भाइ = भ्रम के आसरे, भ्रम के अधीन हो के, भटकना में पड़ के। भवै = तू भटक रहा है। भेख धारी = भेस धारण करने वाला, धार्मियों वाला पहरावा पहन के।1।
अर्थ: हे जोगी! तू भटकना में पड़ कर, डंडा, मुंद्रा, गोदड़ी और झोली आदि का धार्मिक पहरावा पहन के, गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है।1।

[[0857]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसनु पवन दूरि करि बवरे ॥ छोडि कपटु नित हरि भजु बवरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आसनु पवन दूरि करि बवरे ॥ छोडि कपटु नित हरि भजु बवरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आसनु = जोगाभ्यास के आसन। पवन = प्राणायाम। बवरे = हे कमले योगी! कपटु = ठगी, पाखण्ड।1। रहाउ।
अर्थ: हे बावरे जोगी! योगाभ्यास व प्राणायाम को छोड़ दे। इस पाखण्ड को छोड़, और सदा प्रभु की बँदगी कर।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: योगाभ्यास, प्राणायाम को छोड़ के प्रभु के स्मरण करने के उपदेश से बात स्पष्ट होती है कि कबीर जी भक्ति के मार्ग में इन क्रियाओं की कोई आवश्यक्ता नहीं समझते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह तू जाचहि सो त्रिभवन भोगी ॥ कहि कबीर केसौ जगि जोगी ॥२॥८॥

मूलम्

जिह तू जाचहि सो त्रिभवन भोगी ॥ कहि कबीर केसौ जगि जोगी ॥२॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जो कुछ, जिस (माया) को। जाचहि = की तू याचना करता है, तू जो चाहता है। त्रिभवण = तीनों भवनों के जीवों ने, सारे जगत के जीवों ने। केसौ = केशव, परमात्मा (का नाम ही मांगने योग्य है)। जोगी = हे जोगी!।2।
अर्थ: (जोग-अभ्यास व प्राणायाम के नाटक-चेटक दिखा के) जो माया तू माँगता फिरता है, उसको सारे जगत के जीव भोग रहे हैं। कबीर कहता है: हे जोगी! जगत में माँगने के लायक एक प्रभु का नाम ही है।2।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक में कबीर जी स्पष्ट शब्दों में योगाभ्यास व प्राणायाम को कपट कह रहे हैं, और किसी योगी को समझाते हैं के इस गलत रास्ते को छोड़ दे। ये माया के लिए ही किया जाने वाला एक डंभ है। योगाभ्यास-प्राणायाम बाबत कबीर जी के इन स्पष्ट व बेबाक विचारों को छोड़ के अन्य स्वार्थी लोगों की मन-घड़ंत कहानियों को मान के कबीर जी को जोग-अभ्यासी मिथ लेना एक भारी भूल है।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रभु का नाम ही मानव जन्म का उद्देश्य है। नाम स्मरण के लिए जोगियों के आसनों व प्राणायाम की कोई आवश्यक्ता नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे ॥ किंचत प्रीति न उपजै जन कउ जन कहा करहि बेचारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु ॥ इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे ॥ किंचत प्रीति न उपजै जन कउ जन कहा करहि बेचारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इन्हि = इनि्ह, इसी ने। इन्हि माइआ = इसी माया ने। जगदीस = हे जगत के ईश! किंचत = (संस्कृत: किंचिंत) रक्ती भर भी, थोड़ी भी। जन कउ = लोगों को। बेचारे जन = बेचारे जीव।1। रहाउ।
अर्थ: हे जगत के मालिक! हे जगत के पति! (तेरी पैदा की हुई) इस माया ने (हम जीवों के दिलों में से) तेरे चरणों की याद भुला दी है। जीव भी बेचारे क्या करें? (इस माया के कारण) जीवों के अंदर (तेरे चरणों का) रक्ती भर भी प्यार पैदा नहीं होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु ध्रिगु इह माइआ ध्रिगु ध्रिगु मति बुधि फंनी ॥ इस माइआ कउ द्रिड़ु करि राखहु बांधे आप बचंनी ॥१॥

मूलम्

ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु ध्रिगु इह माइआ ध्रिगु ध्रिगु मति बुधि फंनी ॥ इस माइआ कउ द्रिड़ु करि राखहु बांधे आप बचंनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। तनु = शरीर। फंनी = लोगों को धोखा देने वाली। द्रिढ़ु करि राखहु = अच्छी तरह संभाल के रख। बांधे = (ये माया जीवों को) बाँधती है। आप बचंनी = (हे प्रभु!) तेरे हुक्म के अनुसार।1।
अर्थ: लाहनत है इस शरीर और धन-पदार्थों को; धिक्कारयोग्य है (मनुष्य की यह) बुद्धि, जो (जो धन-पदार्थों की खातिर) और लोगों को धोखा देती है। हे जगदीश! तेरे हकम के मुताबिक ही ये माया जीवों को अपने मोह में बाँध रही है। सो, तू खुद ही इसको अच्छी तरह अपने काबू में रख।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ खेती किआ लेवा देई परपंच झूठु गुमाना ॥ कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना ॥२॥९॥

मूलम्

किआ खेती किआ लेवा देई परपंच झूठु गुमाना ॥ कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना ॥२॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लेवा देई = लेन देन, कार व्यवहार, व्यापार। परपंच गुमाना = इस पसारे का गुमान। झूठ = व्यर्थ। कहि = कहे, कहता है। अंति = अंत को आखिर। बिगूते = दुखी हुए, पछताए। निदाना = आखिर में (अवश्य ही)।2।
अर्थ: कबीर कहता है: क्या खेती क्या व्यापार? जगत के इस पसारे का गुमान झूठा है, क्योंकि आखिर में जब मौत आती है तब (इस पसारे के मोह-मान में फसे हुए) जीव आखिर में सिसकियां भरते हैं।2।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप ॥ परम जोति पुरखोतमो जा कै रेख न रूप ॥१॥

मूलम्

बिलावलु ॥ सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप ॥ परम जोति पुरखोतमो जा कै रेख न रूप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भीतरे = भीतर ही, अंदर ही। सरोवर = सुंदर सर। आछै = है। अनूप = जिस जैसे और नहीं, बड़ा सुंदर। पुरखोतमो = उत्तम पुरुष प्रभु। जा कै = जिसके अंदर। रेख = लकीर।1।
अर्थ: हे मन! जिस उत्तम पुरुष प्रभु की परम ज्योति की रूप-रेखा बताई नहीं जा सकती, वह प्रभु इस शरीर रूपी सुंदर सर (शरीर-सरोवर) के अंदर ही है, उसी की इनायत से हृदय-रूपी कमल फूल सुंदर खिला रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे मन हरि भजु भ्रमु तजहु जगजीवन राम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रे मन हरि भजु भ्रमु तजहु जगजीवन राम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमु = भटकना, माया के पीछे दौड़ भाग। जग जीवन = जगत की जिंदगी, जगत का आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (माया के पीछे) भटकना छोड़ दे, और उस परमात्मा का भजन कर, जो सारे जगत का आसरा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवत कछू न दीसई नह दीसै जात ॥ जह उपजै बिनसै तही जैसे पुरिवन पात ॥२॥

मूलम्

आवत कछू न दीसई नह दीसै जात ॥ जह उपजै बिनसै तही जैसे पुरिवन पात ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कछू न दीसई = कुछ नहीं दिखता। जात = जाता, मरता। जह = जहाँ। उपजै = (माया की खेल) पैदा होती है। तही = वहां ही। पुरिवन पात = (पुरिवन, चुपक्ती, जल कुमद्नी, Water Lilly) के पत्ते।2।
अर्थ: वह ईश्वरीय ज्योति ना कभी पैदा होती है, और ना कभी मरती दिखाई देती है। पर ये माया की खेल जल-कुमद्नी के पक्तों जैसी, उसी (प्रभु में से) पैदा होती है और उसी में लीन हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथिआ करि माइआ तजी सुख सहज बीचारि ॥ कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि ॥३॥१०॥

मूलम्

मिथिआ करि माइआ तजी सुख सहज बीचारि ॥ कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि ॥३॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिथिआ = नाशवान। करि = कर के, जान के, समझ के। बीचारि = विचार के। मन मंझि = मन के अंदर ही।3।
अर्थ: सहज अवस्था के सुख की विचार करके (भाव, ये समझ के कि माया का मोह छोड़ने से, माया में डोलने से हट के, सुख बन जाएगा) कबीर ने इस माया को नाशवान जान के (इसका मोह) छोड़ दिया है और अब कहता है: हे मन! अपने अंदर ही (टिक के) परमात्मा का स्मरण कर।3।10।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: माया की भटकना छोड़ के अपने अंदर बसते प्रभु का स्मरण करो। यही है सुख का साधन।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी ॥ जीवत सुंनि समानिआ गुर साखी जागी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु ॥ जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी ॥ जीवत सुंनि समानिआ गुर साखी जागी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमु = भ्रम, भटकना, चक्कर। गइआ = चला गया, समाप्त हो गया। लिव = लगन, ध्यान। सुंनि = उस अवस्था में जहाँ माया के विचारों से शून्य है, शून्य अवस्था में। साखी = शिखा से। गुर साखी = सतिगुरु की शिक्षा से। जागी = (बुद्धि) जाग उठी है।1। रहाउ।
अर्थ: (मेरे अंदर) सतिगुरु जी की शिक्षा से ऐसी बुद्धि जाग उठी है कि मेरे जनम-मरण की भटकना समाप्त हो गई है, प्रभु चरणों में मेरी तवज्जो जुड़ गई है, और मैं जगत में विचरता हुआ ही उस हालत में टिका रहता हूँ जहाँ माया के विचार नहीं उठते।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई ॥ कासी फूटी पंडिता धुनि कहां समाई ॥१॥

मूलम्

कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई ॥ कासी फूटी पंडिता धुनि कहां समाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कासी = कांसे (का बर्तन)। धुनि = आवाज। जाई = लीन हो जाती है। कासी फूटी = कांसे का बर्तन टूटा। पंडिता = हे पण्डित! कहां = कहाँ? त्रिकुटी = (संस्कृत: त्रृ+कुटी। त्रृ = तीन। कुटी = टेढ़ी लकीरें) तीन टेढ़ी लकीरें जो मनुष्य के माथे पर पड़ जाती हैं।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कांसे के बर्तन को ठनकाएं तो इसमें से एक आवाज़ निकलती है, अगर ठनकाना छोड़ दें तो आवाज भी बंद हो जाती है। पर जब बर्तन टूट जाता है, तो ठनकाने से भी वह आवाज़ नहीं निकलती। शरीर का मोह (देह-अध्यास) मानो, कांसे का बर्तन है, जब तक देह-अध्यास मनुष्य के अंदर कायम रहता है, दुनिया के पदार्थ ज्ञान-इंद्रिय को ठनकाते रहते हैं, और, मन में तृष्णा की सुर छिड़ी ही रहती है। पर, जब शरीर का मोह समाप्त हो जाए, तो ना कोई पदार्थ इन्द्रियों को प्रेरित कर सकता है, ना ही कोई ठोकर बजती है (ठनकाहट होती है), और ना ही अंदर की तृष्णा का राग छिड़ता है। फिर, पता नहीं वह राग कहाँ जा समाता है।
नोट: जैसे संस्कृत शब्द ‘निकटी’ से पंजाबी शब्द ‘नेड़े’ (नजदीक) बन गया; जैसे शब्द ‘कटक’ से ‘कड़ा’ बना, वैसे ही संस्कृत शब्द ‘त्रिकुटी’ का पंजाबी शब्द है ‘तिउड़ी’। मनुष्य के माथे पर त्रिकुटी तब ही पड़ती है, जब इसके मन में झल्लाहट हो। सो, ‘त्रिकुटी विंनण’ का भाव है ‘त्रिकुटी को भेदना’ या ‘मन में से झल्लाहट मिटानी’। इसमें कोई शक नहीं कि शब्द ‘त्रिकुटी’ जोगियों के मण्डल में प्रयोग किया जाता है, पर ये जरूरी नहीं कि कबीर जी की वाणी में भी ये शब्द उसी भाव में हो। सिर्फ इस शब्द के प्रयोग से ये अंदाजा लगाना ग़लत है कि कबीर जी प्राणायाम करते थे। अगर हमने ऐसी ही कसवटी बरती, तो गुरु नानक देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु अरजन देव जी को हम अपने अंजानपने के कारण प्राणायाम के हामी कह बैठेंगे।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे पंडित! जैसे कांसे के बर्तन को ठनकाने से उसमें से आवाज़ निकलती है, यदि (ठनकाना) छोड़ दें तो वह आवाज़ कांसे में ही समाप्त हो जाती है, वैसे ही शारीरिक मोह का हाल है। (जब से बुद्धि का प्रकाश हुआ है) मेरे शरीर से मोह समाप्त हो गया है (मेरा यह मायावी पदार्थों से ठनकाने वाला बर्तन टूट गया है), अब पता ही नहीं कि वह तृष्णा की आवाज कहाँ जा के गुम हो गई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घट जागी ॥ ऐसी बुधि समाचरी घट माहि तिआगी ॥२॥

मूलम्

त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घट जागी ॥ ऐसी बुधि समाचरी घट माहि तिआगी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संधि = सेंध के, फोड़ के, नाश करके। घट हू घट = हरेक घट में। समाचरी = पैदा हुई, उपजी है। तिआगी = माया से उपराम, मोह से रहित।2।
अर्थ: (सतिगुरु की शिक्षा से बुद्धि जागने पर) मैंने अंदरूनी खिझ (बौखलाहट) दूर कर ली है, अब मुझे हरेक घट में प्रभु की ज्योति जगती दिखाई दे रही है; मेरे अंदर ऐसी मति पैदा हो गई है कि मैं अंदर से विरक्त हो गया हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपु आप ते जानिआ तेज तेजु समाना ॥ कहु कबीर अब जानिआ गोबिद मनु माना ॥३॥११॥

मूलम्

आपु आप ते जानिआ तेज तेजु समाना ॥ कहु कबीर अब जानिआ गोबिद मनु माना ॥३॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। आप ते = अंदर से ही। तेजु = प्रभु की ज्योति। माना = पतीज गया है।3।
अर्थ: अब अंदर से मुझे अपने आप की समझ पैदा हो गई है, मेरी ज्योति, रूहानी-ज्योति में जा मिली हे। हे कबीर! कह: अब मैंने गोबिंद के साथ जान-पहिचान बना ली है, मेरा मन गोबिंद के साथ रम गया है।3।11।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जब तक शरीर के साथ मोह है, देह-अध्यास है, तब तक मन में बौखलाहट पैदा होने के कारण बनते ही रहते हैं, माथे पर त्रिकुटी पड़ती ही रहती हैं। पर गुरु की शरण पड़ के नाम जपने से ये त्रिकुटी खत्म हो जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव ॥ मानौ सभ सुख नउ निधि ता कै सहजि सहजि जसु बोलै देव ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु ॥ चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव ॥ मानौ सभ सुख नउ निधि ता कै सहजि सहजि जसु बोलै देव ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ डोलै = नहीं डोलता, माया के हाथों में नहीं नाचता। देव = हे प्रभु! मानौ = ऐसा समझ लो। निधि = खजाना। ता कै = उसके पास हैं। सहजि = सहज अवस्था में। जसु = महिमा, गुण। रहाउ।
अर्थ: हे देव! जिस मनुष्य के हृदय में तेरे सुंदर चरण बसते हैं, वह माया के हाथों में नहीं नाचता, वह अडोल अवस्था में टिका रह के तेरी महिमा करता है। उसके अंदर, मानो, सारे सुख और जगत के नौ खजाने आ जाते हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब इह मति जउ सभ महि पेखै कुटिल गांठि जब खोलै देव ॥ बारं बार माइआ ते अटकै लै नरजा मनु तोलै देव ॥१॥

मूलम्

तब इह मति जउ सभ महि पेखै कुटिल गांठि जब खोलै देव ॥ बारं बार माइआ ते अटकै लै नरजा मनु तोलै देव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखै = देखता है। कुटिल = टेढ़ी। अटकै = (मन को) रोकता है। नरजा = तराजू।1।
अर्थ: (नाम-जपने की इनायत से) जब मनुष्य अपने अंदर से कुटिलता (टेढ़-मेढ़) निकाल देता है, तो उसके अंदर ये मति उपजती है कि उसको हर जगह प्रभु ही दिखाई देता है। वह मनुष्य बार बार अपने मन को माया की ओर से रोकता है, और तराजू ले के तोलता रहता है (भाव, हमेशा आत्म चिंतन करके मन के अवगुणों को पड़तालता रहता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह उहु जाइ तही सुखु पावै माइआ तासु न झोलै देव ॥ कहि कबीर मेरा मनु मानिआ राम प्रीति कीओ लै देव ॥२॥१२॥

मूलम्

जह उहु जाइ तही सुखु पावै माइआ तासु न झोलै देव ॥ कहि कबीर मेरा मनु मानिआ राम प्रीति कीओ लै देव ॥२॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहाँ। तासु = उसको। झोलै = डोलाती, भरमाती। लै = लीन। कीओ = कर दिया है।2।
अर्थ: जहाँ भी वह मनुष्य जाता है, वहीं सुख पाता है, उसे माया नहीं भरमाती। कबीर कहता है: मैंने भी अपने मन को प्रभु की प्रीति में लीन कर दिया है, अब ये मेरा मन प्रभु के साथ पतीज गया है।2।12।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रभु के चरणों में चिक्त जोड़ने से मनुष्य का मन माया के हाथों पर नहीं नाचता। उसे माया की परवाह ही नहीं रहती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल जनमु मो कउ गुर कीना ॥ दुख बिसारि सुख अंतरि लीना ॥१॥

मूलम्

सफल जनमु मो कउ गुर कीना ॥ दुख बिसारि सुख अंतरि लीना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। सफल जनमु = वह मनुष्य जिसका जनम सफल हो गया है, वह मनुष्य जिसने मानव जीवन का उद्देश्य हासिल कर लिया है। सुख अंतरि = सुख में। बिसारि = भुला के।1।
अर्थ: मुझे मेरे सतिगुरु ने सफल जीवन वाला बना दिया है, मैं अब (जगत के सारे) दुख भुला के (आत्मिक) सुख में लीन हो गया हूँ।1।

[[0858]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआन अंजनु मो कउ गुरि दीना ॥ राम नाम बिनु जीवनु मन हीना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गिआन अंजनु मो कउ गुरि दीना ॥ राम नाम बिनु जीवनु मन हीना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। गुरि = गुरु ने। मन = हे मन! हीना = तुच्छ, नकारा।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे सतिगुरु ने अपने ज्ञान का (ऐसा) सुरमा दिया है कि हे मन! अब प्रभु की बंदगी के बिना जीना व्यर्थ लगता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामदेइ सिमरनु करि जानां ॥ जगजीवन सिउ जीउ समानां ॥२॥१॥

मूलम्

नामदेइ सिमरनु करि जानां ॥ जगजीवन सिउ जीउ समानां ॥२॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामदेइ = नामदेव को। करि = कर के। जानां = जान लिया है, पहचान लिया है। सिउ = साथ। जीउ = जिंद। समानां = लीन हो गई है।2।
अर्थ: मैं नामदेव ने प्रभु का भजन करके प्रभु से सांझ डाल ली है और जगत-के-आसरे प्रभु में मेरे प्राण लीन हो गए हैं।2।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: स्मरण से ही जनम सफल होता है। यह दाति गुरु से मिलती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु बाणी रविदास भगत की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिलावलु बाणी रविदास भगत की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारिदु देखि सभ को हसै ऐसी दसा हमारी ॥ असट दसा सिधि कर तलै सभ क्रिपा तुमारी ॥१॥

मूलम्

दारिदु देखि सभ को हसै ऐसी दसा हमारी ॥ असट दसा सिधि कर तलै सभ क्रिपा तुमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दारिदु = गरीबी। सभ को = हरेक बंदा। हसै = मजाक करता है। दसा = दशा, हालत। असट दसा = अठारह। कर तलै = हाथ की तली पर, काबू में।1।
अर्थ: हरेक आदमी (किसी की) गरीबी देख के मजाक उड़ाता है, (और) ऐसी ही हालत मेरी भी थी (कि लोग मेरी गरीबी पर मजाक किया करते थे), पर अब अठारह सिद्धियां मेरी हथेली पर (नाचती) हैं; हे प्रभु ये सारी तेरी मेहर है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू जानत मै किछु नही भव खंडन राम ॥ सगल जीअ सरनागती प्रभ पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तू जानत मै किछु नही भव खंडन राम ॥ सगल जीअ सरनागती प्रभ पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै किछु नही = मै कुछ भी नहीं, मेरी कोई बिसात नहीं। भवखंडन = हे जनम मरण नाश करने वाले! जीअ = जीव। पूरन काम = हे सबकी कामना पूरी करने वाले!।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीवों के जनम-मरण के चक्कर खत्म करने वाले राम! हे सबकी कामना पूरी करने वाले प्रभु! सारे जीव-जंतु तेरी ही शरण आते हैं (मैं गरीब भी तेरी ही शरण में हूँ) तू जानता है कि मेरी अपनी कोई बिसात नहीं है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तेरी सरनागता तिन नाही भारु ॥ ऊच नीच तुम ते तरे आलजु संसारु ॥२॥

मूलम्

जो तेरी सरनागता तिन नाही भारु ॥ ऊच नीच तुम ते तरे आलजु संसारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरनागता = शरण आए हैं। भारु = बोझ (विकारों का)। तुम ते = तेरी मेहर से। ते = से। आलजु = (इस शब्द के दो हिस्से ‘आल’ और ‘जु’ करना ठीक नहीं, अलग-अलग करके पाठ करना ही असंभव हो जाता है। ‘आलजु’ का अर्थ ‘अलजु’ करना भी गलत होगा; ‘आ’ और ‘अ’ में बहुत फर्क है। वाणी मैं ‘अलजु’ शब्द नहीं है, ‘निरलजु’ शब्द ही आया है। आम बोलचाल में भी हम ‘निरलज’ ही कहते हैं) आल+जु। आल = आलय, बेहतर, घर, गृहस्थ का जंजाल। आलजु = गृहस्थ के जंजालों से पैदा हुआ, जंजालों से भरा हुआ।2।
अर्थ: चाहे उच्च जाति वाले हों, चाहे नीच जाति वाले, जो जो भी तेरी शरण आते हैं, उनकी (आत्मा) पर (विकारों का) वज़न भार नहीं रह जाता, इस वास्ते वे तेरी मेहर से इस बखेड़ों भरे संसार (समुंदर) में से (आसानी से) पार हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि रविदास अकथ कथा बहु काइ करीजै ॥ जैसा तू तैसा तुही किआ उपमा दीजै ॥३॥१॥

मूलम्

कहि रविदास अकथ कथा बहु काइ करीजै ॥ जैसा तू तैसा तुही किआ उपमा दीजै ॥३॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = अ+कथ, बयान से परे। बहु = बहत बात। काइ = किस लिए? उपमा = तशबीह, बराबरी, तुलना।3।
अर्थ: रविदास कहता है: हे प्रभु! तेरे गुण बयान नहीं किए जा सकते (तू कंगालों को भी शहनशाह बनाने वाला है), चाहे कितने भी प्रयत्न करें, तेरे गुण नहीं कहे जा सकते। अपने जैसा तम स्वयं ही है; (जगत) में कोई ऐसा नहीं जिसको तेरे जैसा कहा जा सके।3।1।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा का स्मरण नीचों को भी ऊँचा कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावलु ॥ जिह कुल साधु बैसनौ होइ ॥ बरन अबरन रंकु नही ईसुरु बिमल बासु जानीऐ जगि सोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिलावलु ॥ जिह कुल साधु बैसनौ होइ ॥ बरन अबरन रंकु नही ईसुरु बिमल बासु जानीऐ जगि सोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह कुल = जिस कुल में। बैसनौ = वैश्णव, परमात्मा का भक्त। होइ = पैदा हो जाए। बरन = वर्ण, ऊँची जाति। अबरन = नीच जाति। रंकु = गरीब। ईसुरु = धनाड, अमीर। बिमल बासु = निरमल शोभा वाला। बासु = सुगंधि, अच्छी शोभा। जगि = जगत में। सोइ = वह मनुष्य।1। रहाउ।
अर्थ: जिस किसी भी कुल में परमात्मा का भक्त पैदा हो जाए, चाहे वह अच्छी जाति का है चाहे नीच जाति का है, चाहे कंगाल है चाहे धनाढ, (उसकी जाति व धन आदि का वर्णन ही) नहीं (छिड़ता), वह जगत में निर्मल शोभा वाला प्रसिद्ध होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमन बैस सूद अरु ख्यत्री डोम चंडार मलेछ मन सोइ ॥ होइ पुनीत भगवंत भजन ते आपु तारि तारे कुल दोइ ॥१॥

मूलम्

ब्रहमन बैस सूद अरु ख्यत्री डोम चंडार मलेछ मन सोइ ॥ होइ पुनीत भगवंत भजन ते आपु तारि तारे कुल दोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डोम = डूम, मरासी। मलेछ मन = मलीन मन वाला। आपु = अपने आप को। तारि = तार के। दोइ = दोनों।1।
अर्थ: कोई ब्राहमण हो, क्षत्रिय हो, डूम-चण्डाल अथवा मलीन मन वाला हो, परमात्मा के भजन से मनुष्य पवित्र हो जाता है; वह अपने आप को (संसार-समुंदर से) पार करके अपनी दोनों कुलें भी तैरा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धंनि सु गाउ धंनि सो ठाउ धंनि पुनीत कुट्मब सभ लोइ ॥ जिनि पीआ सार रसु तजे आन रस होइ रस मगन डारे बिखु खोइ ॥२॥

मूलम्

धंनि सु गाउ धंनि सो ठाउ धंनि पुनीत कुट्मब सभ लोइ ॥ जिनि पीआ सार रसु तजे आन रस होइ रस मगन डारे बिखु खोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनि = भाग्यशाली। गाउ = गाँव। ठाउ = जगह। लोइ = जगत में। जिनि = जिस ने। सार = श्रेष्ठ। तजे = त्यागे। आन = अन्य। मगन = मस्त। बिखु = जहर। खोइ डारे = नाश कर दिया।2।
अर्थ: संसार में वह गाँव मुबारक है, वह स्थान धन्य है, वह पवित्र कुल भाग्यशाली है, (जिसमें पैदा हो के) किसी ने परमात्मा के नाम का श्रेष्ठ रस पीया है, अन्य (बुरे) रस छोड़े हैं, और, प्रभु के नाम-रस में मस्त हो के (विकार-वासना का) जहर (अपने अंदर से) नाश कर दिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंडित सूर छत्रपति राजा भगत बराबरि अउरु न कोइ ॥ जैसे पुरैन पात रहै जल समीप भनि रविदास जनमे जगि ओइ ॥३॥२॥

मूलम्

पंडित सूर छत्रपति राजा भगत बराबरि अउरु न कोइ ॥ जैसे पुरैन पात रहै जल समीप भनि रविदास जनमे जगि ओइ ॥३॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूर = सूरमा। छत्रपति = छत्र धारी। पुरैन पात = जल कुदमिनी के पत्र, जलकुम्भी के पत्ते। समीप = नजदीक। रहै = रह सकती है, जी सकती है। भनि = कहता है। जनमे = पैदा हुए हैं। जनमे ओइ = वही पैदा हुए हैं, उनका ही पैदा होना सफल है। ओइ = वह लोग।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: बहुत विद्वान हो चाहे शूरवीर, चाहे छत्रपति राजा हो, कोई भी मनुष्य परमात्मा के भक्त के बराबर का नहीं हो सकता। रविदास कहता है: भक्तों का ही पैदा होना जगत में मुबारक है (वे प्रभु के चरणों में रह के ही जी सकते हैं), जैसे जल कुदमिनी पानी के समीप रह के ही (हरि) रह सकती है।3।2।

दर्पण-भाव

भाव: स्मरण नीचों को ऊँच कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाणी सधने की रागु बिलावलु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बाणी सधने की रागु बिलावलु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्रिप कंनिआ के कारनै इकु भइआ भेखधारी ॥ कामारथी सुआरथी वा की पैज सवारी ॥१॥

मूलम्

न्रिप कंनिआ के कारनै इकु भइआ भेखधारी ॥ कामारथी सुआरथी वा की पैज सवारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न्रिप = राजा। के कारने = की खातिर। भेखधारी = भेस धारण करने वाला, सिर्फ धार्मिक लिबास वाला, जिसने लोक दिखावे की खातिर बाहरी धार्मिक चिन्ह रखे हुए हों पर अंदर से धर्म की ओर से कोरा हो। कामारथी = कामी, काम-वासना पूरी करने का चाहवान। सुआरथी = स्वार्थी। वा की = उस (भेषधारी) की। पैज सवारी = सत्कार रखी, (उसे) विकारों में गिरने से बचा लिया।1।
अर्थ: हे प्रभु! तूने तो उस कामी और स्वार्थी व्यक्ति की भी इज्जत रखी (भाव, तूने उसको काम-वासना के विकार में गिरने से बचाया था) जिसने एक राजे की लड़की की खातिर (धार्मिक होने का) भेस धारण किया था।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव गुन कहा जगत गुरा जउ करमु न नासै ॥ सिंघ सरन कत जाईऐ जउ ज्मबुकु ग्रासै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तव गुन कहा जगत गुरा जउ करमु न नासै ॥ सिंघ सरन कत जाईऐ जउ ज्मबुकु ग्रासै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तव = तेरे। कहा = कहाँ? जगत गुरा = हे जगत के गुरु! जउ = अगर। करमु = किए कर्मों का फल। कत = किस लिए? जंबुकु = गीदड़। ग्रासे = खा जाए।1। रहाउ।
अर्थ: हे जगत के गुरु प्रभु! अगर मेरे पिछले किए कर्मों का फल नाश ना हुआ (भाव, यदि मैं अब भी पूर्बले किए हुए बुरे कर्मों के संस्कारों के मुताबक ही बुरे काम ही करता रहा) तो तेरी शरण आने का भी क्या लाभ? शेर की शरण आने का भी क्या फायदा, अगर फिर भी गीदड़ खा जाए?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक बूंद जल कारने चात्रिकु दुखु पावै ॥ प्रान गए सागरु मिलै फुनि कामि न आवै ॥२॥

मूलम्

एक बूंद जल कारने चात्रिकु दुखु पावै ॥ प्रान गए सागरु मिलै फुनि कामि न आवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूँद जल = जल की बूँद। चात्रिक = पपीहा। प्रान गए = प्राण चले गए। सागरु = समुंदर। फुनि = फिर, प्राण चले जाने के बाद।2।
अर्थ: पपीहा जल की एक बूँद के लिए दुखी होता है (और चिल्लाता है; पर इन्जार में ही) अगर उसके प्राण चले जाएं तो फिर (बाद में) उसको (पानी का) समुंदर भी मिल जाए तो उसके किसी काम नहीं आ सकता; (वैसे ही), हे प्रभु! अगर तेरे नाम-अमृत के बग़ैर मेरी जीवात्मा विकारों में मर गई, तो फिर तेरी मेहर का समुंदर मेरा क्या सवारेगा?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रान जु थाके थिरु नही कैसे बिरमावउ ॥ बूडि मूए नउका मिलै कहु काहि चढावउ ॥३॥

मूलम्

प्रान जु थाके थिरु नही कैसे बिरमावउ ॥ बूडि मूए नउका मिलै कहु काहि चढावउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरमावउ = मैं धीरज दूँ। बूडि मूए = यदि डूब के मरे। नउका = नौका, बेड़ी। काहि = किसको? चढावउ = मैं चढ़ाऊँगा।3।
अर्थ: (तेरी मेहरबानियों का इन्तजार कर-करके) मेरी जीवात्मा थकी हुई है, (विकारों में) डोल रही है, इसे किस तरह विकारों से रोकूँ? हे प्रभु! यदि मैं (विकारों के समुंदर में) डूब ही गया, तो बाद में तेरी नौका मिल भी गई, तो, बता, उस बेड़ी में मैं किस को चढ़ाऊँगा?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै नाही कछु हउ नही किछु आहि न मोरा ॥ अउसर लजा राखि लेहु सधना जनु तोरा ॥४॥१॥

मूलम्

मै नाही कछु हउ नही किछु आहि न मोरा ॥ अउसर लजा राखि लेहु सधना जनु तोरा ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोरा = मेरा। अउसर = अवसर, समय। अउसर लजा = सत्कार रखने का समय है। तोरा = तेरा।4।
अर्थ: हे प्रभु! मेरी कोई बिसात नहीं, मेरा कोई आसरा नहीं; (ये मानव जनम ही) मेरी इज्जत रखने का समय है, मैं सधना तेरा दास हूँ, मेरी इज्जत रख (और विकारों के समुंदर में डूबने से मुझे बचा ले)।4।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के माध्यम से मन की बुरी वासनाओं से बुरे विचारों से बचने के लिए प्रभु के आगे प्रार्थना की गई है।
नोट: शब्द का भाव तो बड़ा ही साफ और सीधा है कि भक्त धन्ना जी परमात्मा के आगे अरदास करके कहते हैं: हे प्रभु! संसार-समुंदर में विकारों की अनेक लहरें उठ रही हैं; मैं अपनी हिम्मत से इनमें अपनी कमजोर जीवात्मा की छोटी सी बेड़ी को डूबने से नहीं बचा सकता। मानव जीवन का समय समाप्त होता जा रहा है, और विकार बार-बार हमले कर रहे हैं; जल्दी आओ, मुझे इनके हमलों से बचा लो।
पर पंडित तारा सिंह जी इस बारे में यूँ लिखते हैं:
“सधना कसाई अपने कुल का कार त्याग के काहूँ हिन्दू साधु से परमेश्वर भक्ति का उपदेश लेकर परम प्रेम से भक्ति करने लगा। मुसलमान उसको काफर कहने लगे। काजी लोगों ने उस समय के राजा को कहा इसको बुर्ज में चिनना चाहिए। नहीं तो यह काफ़र बहुत मुसलमानों को हिन्दू मत की रीत सिखाय कर काफ़र करेगा। पातशाह ने काजियों के कहने से बुरज में चिनने का हुक्म दिया। राज (मिस्त्री) चिनने लगे। तिस समें सधने भक्त ने यह वचन कहिआ।”
आजकल के टीकाकार इस शब्द की उथानका इस प्रकार देते हैं:
“काजियों की शरारत के कारण बादशाह ने सधने को बुर्ज में चिनवाना आरम्भ किया तो भक्त जी वाहिगुरू के आगे विनती करते हैं।”
और
“ये भक्त सिंध के गाँव सिहवां में पैदा हुआ। नामदेव का समकाली था। काम कसाई का करता था। जब भक्त जी को एक राजे ने कष्ट देने की तैयारी की, तो इन्होंने इस प्रकार शब्द की प्रार्थना की।”
भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन इस शब्द को गुरमति के उलट समझते हुए भक्त सधना जी के बारे में यूँ लिखते हैं;
“भक्त सधना जी मुसलमान कसाईयों में से थे। आप हैदराबाद सिंध के पास सेहवाल नगर के रहने वाले थे। कई आप जी को हिन्दू भी मानते हैं। बताया जाता है कि भक्त जी सलिगराम के पुजारी थे, जो उल्टी बात है कि हिन्दू होते हुए सलिगराम से मास तोल के नहीं बेच सकते थे। ऐसी कथाओं से तो यही सिद्ध होता है कि आप मुसलमान ही थे क्योंकि मांस बेचने वाले कसाई हिन्दू नहीं थे (आजकल भी हिंदू लोग मांस कम ही बेचते हैं)। अगर मुसलमान थे तो सलिगराम की पूजा क्यों करते? दूसरी तरफ़, आप जी की रचना आपको हिन्दू वैश्नव साबित करती है।”
“सधना जी की रचना साफ बता रही है कि भक्त जी ने किसी बिपता के समय छुटकारा पाने के लिए श्री विष्णू जी की आराधना की है। कईयों का ख्याल है कि यह शब्द आप जी ने उस भय से बचने के वक्त डरते हुए रचा था जब राजे की तरफ़ से जिंदा दीवार में चिनवा देने का हुक्म था।”
“चाहे शब्द रचना का कारण कुछ भी हो पर आराधना विष्णू जी की है, जो गुरमति के आशय से करोड़ों दूर है।”
“सो, यह शब्द गुरमति के आशय से बहुत दूर है। असल में जान-बख्शी के लिए मिन्नतें हैं।”
हमेशा कहानियों वाला जमाना टिका नहीं रह सकता था। आखिर इन पर ऐतराज़ होने ही थे। ऐतराज़ करने वाले सज्जनों को चाहिए ये था कि सिर्फ बनावटी कहानियों को शबदों से अलग कर देते, पर यहाँ तो जल्दबाज़ी में शबदों के विरोध में ही कटु-वचन बोले जाने लगे हैं।
आओ, अब ध्यान से उथानका को और विरोधी नुक्ता-चीनी को विचारें। पंडित तारा सिंह जी लिखते हैं कि सधना जी मुसलमान थे, और, किसी हिन्दू साधु के प्रभाव में आकर परमेश्वर की भक्ति करने लग पड़े। जो मुसलमानों को बहुत कड़वा लगा। मुसलमानों को कड़वा लगना ही था, खास तौर पर तब जब यहाँ राज ही मुसलमानों का था। पर एक बात साफ स्पष्ट है। ऐसी घटना ताजा ताजा ही जोश पैदा कर सकती है। अगर सधना जी को मुसलमान से हिन्दू बने हुए पाँच-सात साल बीत जाते, तो इतना समय बीत जाने पर बात पुरानी हो जाती, बात आई गई हो जाती, लोग भूल जाते, फिर किसी भी मुसलमान को अपने दीन वाले भाई का काफ़र बन जाना चुभ नहीं सकता था। सो, मुसलमानों ने तुरंत ही सधना जी को दीवार में चिनने का हुक्म जारी कर दिया होगा। यहाँ बड़ी हैरानी वाली बात ये है कि मुसलमान घरों में जन्मे-पले सधने ने हिन्दू बनते सार ही अपनी इस्लामी बोली कैसे भुला दी, और, एका-एक संस्कृत के विद्वान बन गए। फरीद जी के शलोक पढ़ के देखें, ठेठ पंजाबी में हैं; पर फिर भी इस्लामी सभ्यता वाले शब्द जगह-जगह पर बरते हुए मिलते हैं। सधने जी के शब्द पढ़ के देखिए, कहीं एक शब्द भी उर्दू-फ़ारसी का नहीं है, सिंधी बोली के भी नहीं हैं, सारे के सारे संस्कृत व हिन्दी के हैं। ये बात प्राकृतिक नियम के बिल्कुल उलट है कि दिनों में मुसलमान सधना हिन्दू भक्त बन के अपनी बोली को भी भुला देता और नई बोली सीख लेता। साथ ही, मुसलमानी बोली टिकी रहने से सधना जी की भक्ति में कैसे कोई फर्क पड़ जाना था? सो, सधना जी हिन्दू घर के जन्मे-पले थे।
और, सालिगराम से माँस तोलने की कहानियाँ जोड़ने वालों पर से तो बलिहार जाएं, शब्द में तो कहीं कोई ऐसा वर्णन नहीं है। ये हो सकता है कि सधना जी पहले बुत-पूज हों, फिर उन्होंने मूर्ति-पूजा छोड़ दी हो। इसमें कोई बुराई नही। गुरु नानक साहिब ने देवी पूजा और मढ़ी आदि के पूजा करने वालों को ही जीवन का सही रास्ता बता के ईश्वर का उपासक बनाया था, उनकी संतान सिख कौम को आज कोई मूर्ति-पूजक नहीं कह सकता।
सधना जी के शब्द में कोई भी ऐसा इशारा नहीं है जिससे ये साबित हो सके भक्त जी ने किसी बुर्ज में चिने जाने के डर से जान-बख्शी के तरले लिए हैं। ये मेहरबानी कहानी-घड़ने वालों की है। ऐसी गलती तो हमारे सिख विद्वान भी सतिगुरु पातशाह का इतिहास लिखने के वक्त खा गए हैं देखें, गुरु तेग बहादर जी की शहीदी का हाल बताते हुए ज्ञानी ज्ञान सिंह ‘तवारीख़ ख़ालसा’ में क्या लिखते हैं;
“बुड्ढे के गुरदित्ते ने विनती की ‘सच्चे पातशाह, दुष्ट औरंगे ने कल को हमें भी इसी तरह मारना है, जिस तरह हमारे दो भाई मारे गए।’ गुरु जी बड़े धीरज से बोले, ‘हमने तो पहले ही तुम्हे कह दिया था कि हमारे साथ वह चले जिसने कष्ट सह के भी धर्म पर कुर्बान होना हो। सो अब भी अगर तुम जाना चाहते हो, चले जाओ।’ उन्होंने कहा, ‘बेड़ियां, संगल पड़े, पहरे खड़े, ताले लगे हुए कैसे जाएं।’ वचन हुआ, ‘ये शब्द पढ़ो:
काटी बेरी पगह ते गुरि कीनी बंदि खलास॥
तब उनके बंधन इस तुक से पढ़ने से टूट गए, और पहरेदार सो गए, दरवाजा खुल गया। सिख चले तो गुरु जी ने ये शलोक उचारा:
संग सखा सभि तजि गए, कोऊ न निबहिओ साथि॥ कहु नानक इह बिपत मै, टेक एक रघुनाथ॥55॥
“ये वचन सुन के सिखों के नेत्र बह गए, और धीरज आ गया, दोबारा गुरु जी के पास आ बैठे। फिर गुरु साहिब ने बहुत कहा, पर वे ना गए।”
आगे चल के ज्ञानी ज्ञान सिंघ जी लिखते हैं कि सतिगुरु जी ने जेल में से अपनी माता जी को चिट्ठी लिखी, और,
‘इसी पत्रिका में दसमेश्वर का निश्चय परखने के लिए ये दोहरा लिखा था:
बलु छुटकिओ बंधन परे, कछू न होत उपाइ॥ कहु नानक अब ओट हरि, गज जिउ होहु सहाइ॥ इसका उक्तर (बलु होआ बंधन छुटे, सभ किछु होत उपाइ॥ नानक सभु किछु तुमरै हाथ मै, तुम ही होत सहाइ॥)
ये लिख के दसवाँ पातशाह उसी वक्त सिख के हाथ नौवें पातशाह के पास दिल्ली भेज दी।”
आजकल के विद्वान टीकाकारों ने भी सलोक महला ९वें के इन शलोकों के बारे में यूँ लिखा है: “कहते हैं यह दोहरा गुरु जी ने दिल्ली से कैद की हालत में लिख के दशमेश जी को भेजा था। इसमें उनका इरादा अपने सपुत्र के दिल की दृढ़ता को परखना था। अगले दोहरे में दशमेश जी द्वारा दिया गया उक्तर है। कई बीड़ों (जैसे कि भाई बंनो वाली) में इसके साथ महला १०वाँ दिया हुआ है।”
जो सज्जन अपने सतिगुरु पातशाह को पूर्ण महापुरुख समझते हैं, जिसमें कमी का कहीं भी नामो-निशान नहीं, और जो सज्जन “बाबाणीआ कहाणीआ पुत सपुत करेनि” के गुर-वाक अनुसार गुरु पातशह जी की जीवन-साखियों में से अपने जीवन की रहनुमाई के लिए कोई झलक देखना चाहते हैं उन्हें इन इतिहास-कारों और टीकाकारों के सादा शब्दों में बड़ी ही मुश्किलें आ रही हैं। गुरु तेग बहादर जी अपनी खुशी से दुखियों का दुख बाँटने के लिए दिल्ली गए थे। ये बात सारे जहान में सूर्य की तरह रौशन है। पर उनके शलोक नंबर 55 को इस साखी में ऐसे तरीके से दर्ज किया गया है, जिससे ये जाहिर हो रहा है कि सतिगुरु जी उस कैद को ‘बिपता’ मान रहे थे और उसको सहने के लिए अपने साथी सिखों का आसरा तलाशते थे। कोई भी सिख कभी भी इस शलोक में से ऐसे अर्थ निकालने को तैयार नहीं हो सकता, पर साखी ने जबरदस्ती ये अर्थ बना दिए हैं।
साखी के दूसरे हिस्से में श्रद्धावान सिख के लिए और भी ज्यादा परेशानी बन जाती है। इतिहासकार और टीकाकार दोनों पक्ष लिखते हैं कि गुरु तेग बहादर जी ने अपने पुत्र को परखने के लिए ये शलोक लिखा था। इसका भाव ये निकला कि वे कोई निर्बलता के बंधनो की तकलीफ़ महसूस नहीं कर रहे थे, सिर्फ दशमेश जी का दिल जानने के लिए ही लिखा था। अगर साखी को सही मान लें, तो दूसरे शब्दों में ये कहना पड़ेगा कि सतिगुरु जी ने अपने बारे में जो कुछ इस शलोक में लिखा था वह ठीक नहीं था। पर ये शलोक तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, और, इस बारे में कभी भी ऐसा सोचा नहीं जा सकता कि सतिगुरु जी ने ये ऐसे ही लिखा था। और, अगर ये कहें कि सतिगुरु जी ने जो कुछ चिट्ठी में लिखा था ठीक लिखा था, तो हम एक और उपद्रव कर बैठते हैं, तो हम अंजानपने में ये मानते हैं कि सतिगुरु जी कैद के बंधनो में अपने आप को परेशान महसूस कर रहे थे, और कह रहे थे कि “गज जिउ होहु सहाइ”।
पाठक-जन देख चुके हैं कि शलोकों के साथ गलत साखी जोड़ के इतिहासकार ने हमारे दीन-दुनी के मालिक पातशाह के विरुद्ध वही अनुचित दूषण खड़ा कर दिया है जो भक्त सधना जी के शब्द के साथ साखी लिख के भक्त जी के विरुद्ध लगवाया है। दरअसल बात ये है कि दशमेश जी को परखने वाली साखी मनघड़ंत है, और भक्त सधना जी के बारे में बुर्ज में चिने जाने वाली साखी भी बनावटी है।
विरोधी सज्जन लिखता है कि इस शब्द में भक्त जी ने विष्णू जी की आराधना की है। मुश्किल ये बनी हुई है कि जागते हुओं को कौन जगाए। नहीं तो, जिसको भक्त जी संबोधन करते हैं उसके लिए शब्द ‘जगत-गुरा’ बरतते हैं। किसी तरह से भी खींच-घसीट के इस शब्द का अर्थ ‘विष्णू’ नहीं किया जा सकता। शब्द ‘जगत गुरा’ के अर्थ ‘विष्णू’ करने का सिर्फ एक ही कारण हो सकता है। वह यह है कि शब्द की पहली तुक में जिस कहानी की तरफ इशारा किया गया है वह विष्णू के बारे में है। पर निरी इतनी बात से सधना जी को विष्णु उपासक नहीं कहा जा सकता। गुरु तेग बहादर साहिब जी मारू राग में एक शब्द के द्वारा परमात्मा के नाम जपने की महिमा को इस प्रकार बयान करते हैं:
मारू महला ९॥ हरि को नामु सदा सुखदाई॥ जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ, गनका हू गति पाई॥१॥ रहाउ॥ पंचाली कउ राज सभा महि, राम नाम सुधि आई॥ ता को दूखु हरिओ करुणामै, अपनी पैज बढाई॥१॥ जिह नर जसु किरपानिधि गाइओ, ता कउ भइओ सहाई॥ कहु नानक मै इही भरोसै, गही आनि सरनाई॥२॥१॥ (पंना: 1008)
‘पंचाली’ द्रोपदी का नाम है, और हरेक हिन्दू सज्जन जानता है कि द्रोपदी ने दुष्शासन की सभा में नगन होने से बचने के लिए कृष्ण जी की आराधना की थी। इससे ये नतीजा नहीं निकल सकता कि इस शब्द में सतिगुरु जी कृष्ण-भक्ति का उपदेश कर रहे हैं। इसी प्रकार, सधना जी का ‘जगत-गुरु’ भी विष्णू नहीं है।
सधना जी के शब्द की पहली तुक में जिस कहानी की ओर इशारा किया गया है उस संबंधी विरोधी सज्जन जी ने लिखा है: कामारथी से भाव उस साखी की ओर इशारा है जिसमें एक बढ़ई (तरखाण) ने राजे की लड़की खातिर विष्णू का भेस बना लिया था, पर ये साखी गंदी है।
हमारे कई टीकाकारों ने इस बढ़ई की कहानी को थोड़े-थोड़े फर्क के साथ यूँ लिखा है:
एक राजे की लड़की ने प्रण कर लिया था कि मैंने विष्णु भगवान से ही विवाह करवाना है। तब एक बढ़ई के बेटे ने विष्णु (उकर) का भेस धार के विवाह करवा लिया। एक दिन उस राजे पर किसी और राजे ने हमला बोल दिया। ये बात सुन के पाखण्डी बढ़ई दौड़ गया और देवनेत वाहिगुरू ने इस राजे की जीत की। इस प्रसंग में हिन्दू मत की साखी ले के सधना जी कहते हैं। देखें शिवनाथ कृत पंचतंत्र का पहला तंत्र 5 कथा 63 से ले के 70 तक। कई नृप कन्या मीरा बाई की साखी से जोड़ते हैं और कहते हैं कि उसके पास गिरधर भेस धार करके आया था।
यहाँ कहानी के गंदे होने के बारे में विरोधी सज्जन से सहमत नहीं हुआ जा सकता। कहानी में ठगी तो जरूर है इसको गंदी नहीं कहा जा सकता। इसके मुकाबले में देखिए इन्द्र देवते की वह कहानी जिसका वर्णन श्री गुरु नानक देव जी ने अपने एक शलोक में यूँ किया है, “सहंसर दान दे इंद्रु रोआइआ।’ पर ऐसी दलील पेश करके हम असल विषय-वस्तु से बाहर जा रहे हैं। इन कहानियों के गंदे होने अथवा ना होने की जिंमेवारी सधना जी या गुरु नानक साहिब जी पर नहीं आ सकती। हिन्दू देवताओं की ये कहानियाँ हिन्दू जनता में आम प्रचलित हैं।
अब तक की विचार में हम निम्न-लिखित नतीजों पर पहुँच चुके हैं:

  1. भक्त जी इस शब्द के द्वारा विकारों से बचने के लिए परमात्मा के आगे अरजोई कर रहे हैं। विष्णू-पूजा का यहाँ कोई वर्णन नहीं है। ना ही जान-बख्शी के लिए यहां कोई तरला है। साखी मनघड़ंत है।
  2. सधना जी मुसलमान नहीं थे, हिन्दू घर में जन्मे-पले थे।
  3. शब्द का भाव बिलकुल गुरमति के अनुसार है।