[[0721]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु तिलंग महला १ घरु १
मूलम्
रागु तिलंग महला १ घरु १
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यक अरज गुफतम पेसि तो दर गोस कुन करतार ॥ हका कबीर करीम तू बेऐब परवदगार ॥१॥
मूलम्
यक अरज गुफतम पेसि तो दर गोस कुन करतार ॥ हका कबीर करीम तू बेऐब परवदगार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: यक = एक। अरज = विनती। गुफतम = मैंने कही (गुफ़त = कही। म = मैंने)। पेसि = सामने, आगे। पेसि ते = तेरे आगे। दर = में। गोस = गोश, कान। दर गोस = कानों में। कुन = कर। दर गोस कुन = कानों में कर, ध्यान से सुन। करतार = हे कर्तार! हका = सच्चा। कबीर = बड़ा। करीम = कर्म करने वाला, बख्शिश करने वाला। ऐब = ऐब, विकार। बेऐब = निर विकार, पवित्र। परवदगार = पालना करने वाला।1।
अर्थ: हे कर्तार! तू सदा कायम रहने वाला है। तू (सबसे) बड़ा है, तू बख्शिश करने वाला है, तू पवित्र हस्ती वाला है, तू सबकी पालना करने वाला है। मैंने तेरे आगे एक विनती की है, (मेरी विनती) ध्यान से सुन।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुनीआ मुकामे फानी तहकीक दिल दानी ॥ मम सर मूइ अजराईल गिरफतह दिल हेचि न दानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दुनीआ मुकामे फानी तहकीक दिल दानी ॥ मम सर मूइ अजराईल गिरफतह दिल हेचि न दानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकाम = जगह। फानी = फनाह होने वाला, नाशवान। मुकामे फानी = फना की जगह। तहकीक = सच। दिल = हे दिल! छानी = तू जान। मम = मेरा। सर = सिर। मूइ = बाल। मम सर मूइ = मेरे सिर के बाल। अजराईल = मौत के फरिश्ते का नाम है। गिरफतह = गिरफत, पकड़े हुए हैं। दिल = हे दिल! हेचि न = कुछ भी नहीं। दानी = तू जानता।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) दिल! तू सच जान कि ये दुनिया नाशवान है। हे दिल! तू कुछ भी नहीं समझता कि (मौत के फरिश्ते) अजराईल ने मेरे सिर के बाल पकड़े हुए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन पिसर पदर बिरादरां कस नेस दसतंगीर ॥ आखिर बिअफतम कस न दारद चूं सवद तकबीर ॥२॥
मूलम्
जन पिसर पदर बिरादरां कस नेस दसतंगीर ॥ आखिर बिअफतम कस न दारद चूं सवद तकबीर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = स्त्री। पिसर = पुत्र। बिरादर = भाई। बिरादरां = भाईयों में। कस = कोई भी। नेस = नेसत, न अस्त, नहीं है। दसत = हाथ। गीर = पकड़ने वाला। दसतंगीर = हाथ पकड़ने वाला। आखिर = आखिर, अंत को। बिअफतम = (उफतादन = गिरना) मैं गिरूँ। कस = कोई भी। दारदु = रखता, रख सकता। (दाशतन = रखना)। चूं = जब। सवद = होगी। तकबीर = वह नमाज जो मुर्दे के दबाने के वक्त पढ़ी जाती है, जनाजा।2।
अर्थ: स्त्री, पुत्र, पिता, (सारे) भाई, (इनमें से) कोई भी मदद करने वाला नहीं है, (जब) आखिर में मैं गिरूँ (भाव, जब मौत आ गई), जब मुर्दे को दबाने के वक्त की नमाज़ (तकबीर) पढ़ी जाती है, कोई भी (मुझे यहाँ) रख नहीं सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब रोज गसतम दर हवा करदेम बदी खिआल ॥ गाहे न नेकी कार करदम मम ईं चिनी अहवाल ॥३॥
मूलम्
सब रोज गसतम दर हवा करदेम बदी खिआल ॥ गाहे न नेकी कार करदम मम ईं चिनी अहवाल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सब = शब, रात। रोज = रोज़, दिन। गसतम = गशतम, मैं फिरता रहूँ। दर = में। हवा = हिरस, लालच। करदेम = हम करते हैं, मैं करता रहूँ। करद = किया। बदी = बुराई। खिआल = विचार। बदी खिआल = बुराई का ख्याल। गाहे = कभी। गाहे न = कभी भी ना। करदम = मैंने की। ई = ये। चिनी = जैसा। इ चिनी = ऐसा, इस जैसा। अहवाल = हाल।3।
अर्थ: (सारी जिंदगी) मैं रात-दिन लालच में फिरता रहा, मैं बदी के ही ख्याल करता रहा। मैंने कभी कोई नेकी का काम नहीं किया। (हे कर्तार!) मेरा इस तरह का हाल है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बदबखत हम चु बखील गाफिल बेनजर बेबाक ॥ नानक बुगोयद जनु तुरा तेरे चाकरां पा खाक ॥४॥१॥
मूलम्
बदबखत हम चु बखील गाफिल बेनजर बेबाक ॥ नानक बुगोयद जनु तुरा तेरे चाकरां पा खाक ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बद = बुरा। बखत = नसीब। बद बखत = बुरे नसीब वाला। हम = हम। चू = जैसा। हम चू = हमारे जैसा, मेरे जैसा। बखील = चुगली करने वाला। गाफिल = गफ़लत करने वाला, सुस्त, लापरवाह। नजर = नज़र। बेनजर = ढीठ, निलज्ज। बे = बिना। बाक = डर। बेबाक = निडर। बुगोयद = कहता है (गुफ़तन = कहना)। जनु = दास। तुरा = तुझे। पा खाक = पैरों की ख़ाक, चरण धूल। चाकर = सेवक।4।
अर्थ: (हे कर्तार!) मेरे जैसा (दुनिया में) कोई अभागा, निंदक, लापरवाह, ढीठ और निडर नहीं है (पर तेरा) दास नानक तुझे कहता है कि (मेहर कर, मुझे) तेरे सेवकों के चरणों की धूल मिले।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
तिलंग महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ तेरा भांग खलड़ी मेरा चीतु ॥ मै देवाना भइआ अतीतु ॥ कर कासा दरसन की भूख ॥ मै दरि मागउ नीता नीत ॥१॥
मूलम्
भउ तेरा भांग खलड़ी मेरा चीतु ॥ मै देवाना भइआ अतीतु ॥ कर कासा दरसन की भूख ॥ मै दरि मागउ नीता नीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ = डर, अदब। भांग = भांग। खलड़ी = गुत्थी। देवाना = नशई, मस्ताना। अतीतु = विरक्त। कर = दोनों हाथ। कासा = प्याला। दरि = (तेरे) दर से। मागउ = मैं मांगता हूँ। नीता नीत = सदा ही।1।
अर्थ: तेरा डर-अदब मेरे लिए भांग (के समान) है, मेरा मन (इस भांग को संभाल के रखने के लिए) गुत्थी है। (तेरे डर-अदब की भांग से) मैं नशई व विरक्त हो गया हूँ। मेरे दोनों हाथ (तेरे दर से ख़ैर लेने के लिए) प्याला है, (मेरी आत्मा को तेरे) दीदार की भूख (लगी हुई) है, (इस वास्ते) मैं (तेरे) दर से सदा (दीदार की ही मांग) माँगता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ दरसन की करउ समाइ ॥ मै दरि मागतु भीखिआ पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तउ दरसन की करउ समाइ ॥ मै दरि मागतु भीखिआ पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तउ = तेरा। करउ = मैं करता हूँ। समाइ = सदाअ, आवाज़। मागतु = भिखारी। पाइ = दे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) मैं तेरे दर का भिखारी हूँ, मैं तेरे दीदार के लिए सदाअ (आवाज) देता हूँ, मुझे (अपने दीदार की) ख़ैर दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केसरि कुसम मिरगमै हरणा सरब सरीरी चड़्हणा ॥ चंदन भगता जोति इनेही सरबे परमलु करणा ॥२॥
मूलम्
केसरि कुसम मिरगमै हरणा सरब सरीरी चड़्हणा ॥ चंदन भगता जोति इनेही सरबे परमलु करणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुसम = फूल। मिरगमै = मृग मद, कस्तूरी। हरणा = (हिरण्य) सोना। सरीरी = शरीरों पर। जोति = स्वभाव। इनेही = ऐसी। परमलु = सुगंधी।2।
अर्थ: केसर, फूल, कस्तूरी और सोना (इनको अपवित्र कोई नहीं मानता, ये) सभी के शरीरों पर बरते जाते हैं। चंदन सबको सुगंधि देता है, ऐसा ही स्वभाव (तेरे) भक्तों का है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घिअ पट भांडा कहै न कोइ ॥ ऐसा भगतु वरन महि होइ ॥ तेरै नामि निवे रहे लिव लाइ ॥ नानक तिन दरि भीखिआ पाइ ॥३॥१॥२॥
मूलम्
घिअ पट भांडा कहै न कोइ ॥ ऐसा भगतु वरन महि होइ ॥ तेरै नामि निवे रहे लिव लाइ ॥ नानक तिन दरि भीखिआ पाइ ॥३॥१॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घिअ भांडा = घी का बर्तन। पट = रेशम। कहै न कोइ = कोई नहीं पूछता। वरन महि = (भले ही किसी भी) जाति में। तेरै नामि = तेरे नाम में। निवे = विनम्रता वाले। तिन दरि = उनके दर पर। भीखिआ = ख़ैर।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 3 से आगे का अंक 1 बताता है कि ‘घर २’ का ये पहला शब्द है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: रेशम और घी के बर्तनों के बारे में कोई भी मनुष्य पूछ-ताछ नहीं करता (कि इनको किस-किस का हाथ लग चुका है)। (हे प्रभु! तेरा) भक्त भी ऐसा ही होता है, चाहे वह किसी भी जाति में (पैदा) हुआ हो।
हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) जो बंदे तेरे नाम में लीन रहते हैं लगन लगा के रखते हैं, उनके दर पर (रख के मुझे अपने दर्शनों की) ख़ैर डाल।3।1।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
तिलंग महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु तनु माइआ पाहिआ पिआरे लीतड़ा लबि रंगाए ॥ मेरै कंत न भावै चोलड़ा पिआरे किउ धन सेजै जाए ॥१॥
मूलम्
इहु तनु माइआ पाहिआ पिआरे लीतड़ा लबि रंगाए ॥ मेरै कंत न भावै चोलड़ा पिआरे किउ धन सेजै जाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माइआ पाहिआ = माया के साथ लिप्त हो गया। पाहिआ = लाग लगा हुआ, लिप्त।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: कपड़े को कोई पक्का रंग चढ़ाने से पहले नमक फिटकरी व सोडे की लाग दी जाती है। सोडा, नमक, अथवा फिटकरी को पानी में घोल के कपड़ा उस में डुबोया जाता है; फिर रंग पानी में घोल के वह लाग वाला कपड़ा उसमें डाल दिया जाता है)।
दर्पण-भाषार्थ
लबि = जीभ से, चस्के से। लबु = जीभ का चस्का। रंगाए लीतड़ा = रंगा लिया है। चोला = शरीर। चोलड़ा = बेकार चोला। मेरै कंत = मेरे पति को। भावै = अच्छा लगता है। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। सेजै = (प्रभु की) सेज पर, प्रभु के चरणों में। जाए = पहुँचे।1।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री के इस शरीर को माया (के मोह) की लाग लगी हो, और फिर उसने इसको लालच से रंगा लिया हो, वह जीव-स्त्री पति-प्रभु के चरणों में नहीं पहुँच सकती, क्योंकि (जिंद का) ये चोला (ये शरीर, ये जीवन) पति-प्रभु को पसंद नहीं आता।1।
[[0722]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंउ कुरबानै जाउ मिहरवाना हंउ कुरबानै जाउ ॥ हंउ कुरबानै जाउ तिना कै लैनि जो तेरा नाउ ॥ लैनि जो तेरा नाउ तिना कै हंउ सद कुरबानै जाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हंउ कुरबानै जाउ मिहरवाना हंउ कुरबानै जाउ ॥ हंउ कुरबानै जाउ तिना कै लैनि जो तेरा नाउ ॥ लैनि जो तेरा नाउ तिना कै हंउ सद कुरबानै जाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिहरवाना = हे मेहरवान प्रभु!।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मजीठ’ लोग मजीठ को घोल के कपड़े रंगते थे। ये रंग पक्का होता था।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेहरवान प्रभु! मैं कुर्बान जाता हूँ मैं सदके जाता हूँ, मैं वारने जाता हूँ उनसे, जो तेरा नाम स्मरण करते हैं। जो लोग तेरा नाम लेते हैं, मैं उनसे सदा कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ रंङणि जे थीऐ पिआरे पाईऐ नाउ मजीठ ॥ रंङण वाला जे रंङै साहिबु ऐसा रंगु न डीठ ॥२॥
मूलम्
काइआ रंङणि जे थीऐ पिआरे पाईऐ नाउ मजीठ ॥ रंङण वाला जे रंङै साहिबु ऐसा रंगु न डीठ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंङणि = (रंगणि) वह खुला बर्तन जिसमें लिलारी कपड़े रंगता है, बरतन, माटी। थीऐ = बन जाए। साहिबु = मालिक प्रभु।2
अर्थ: (पर, हाँ!) अगर ये शरीर (लिलारी का) बरतन बन जाए, और हे सज्जन! इस में मजीठ जैसे पक्के रंग वाला प्रभु का नाम-रंग पाया जाए, फिर मालिक-प्रभु खुद लिलारी (बन के जीव-स्त्री के मन को) रंग (में डुबो) दे, तो ऐसा रंग चढ़ता है जो कभी पहले देखा ना हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन के चोले रतड़े पिआरे कंतु तिना कै पासि ॥ धूड़ि तिना की जे मिलै जी कहु नानक की अरदासि ॥३॥
मूलम्
जिन के चोले रतड़े पिआरे कंतु तिना कै पासि ॥ धूड़ि तिना की जे मिलै जी कहु नानक की अरदासि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतड़े = रंगे हुए। कहु = कहो। अरदासि = विनती।3।
अर्थ: हे प्यारे (सज्जन!) जिस जीव-स्त्रीयों के (शरीर-) चोले (जीवन नाम-रंग से) रंगे हुए हैं, पति-प्रभु (सदा) उनके पास (बसता) है। हे सज्जन! नानक की ओर से उनके पास विनती कर, भला नानक को भी उनके चरणों की धूल मिल जाए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे साजे आपे रंगे आपे नदरि करेइ ॥ नानक कामणि कंतै भावै आपे ही रावेइ ॥४॥१॥३॥
मूलम्
आपे साजे आपे रंगे आपे नदरि करेइ ॥ नानक कामणि कंतै भावै आपे ही रावेइ ॥४॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजे = सवारता है। नदरि = मेहर की नजर। करेइ = करता है, करै। कामणि = स्त्री, जीव-स्त्री। रावेइ = माणता है, अपने साथ मिलाता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 4 से अगला अंक 1 बताता है के ‘घरु ३’का ये पहला शब्द है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! जिस जीव-स्त्री पर प्रभु खुद मेहर की नजर करता है उसको वह आप ही सँवारता है खुद ही (नाम का) रंग चढ़ाता है, वह जीव-स्त्री पति-प्रभु को प्यारी लगती है, उसको प्रभु खुद ही अपने चरणों में जोड़ता है।4।1।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग मः १ ॥ इआनड़ीए मानड़ा काइ करेहि ॥ आपनड़ै घरि हरि रंगो की न माणेहि ॥ सहु नेड़ै धन कमलीए बाहरु किआ ढूढेहि ॥ भै कीआ देहि सलाईआ नैणी भाव का करि सीगारो ॥ ता सोहागणि जाणीऐ लागी जा सहु धरे पिआरो ॥१॥
मूलम्
तिलंग मः १ ॥ इआनड़ीए मानड़ा काइ करेहि ॥ आपनड़ै घरि हरि रंगो की न माणेहि ॥ सहु नेड़ै धन कमलीए बाहरु किआ ढूढेहि ॥ भै कीआ देहि सलाईआ नैणी भाव का करि सीगारो ॥ ता सोहागणि जाणीऐ लागी जा सहु धरे पिआरो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इआनी = अंजान लड़की। इआनड़ी = बहुत अंजान लड़की। इआनड़ीए = हे बहुत ही अंजान जिंदे! हे नासमझ जीवात्मा! मानड़ा = अनुचित गुमान। काइ = क्यों? करेहि = तू करती है। घरि = घर में, हृदय में। रंगो = रंगु, आनंद। की = क्यों? धन कंमलीए = हे भोली जीव-स्त्रीये! बाहुर = बाहरी जगत। भाव का = प्रेम का। सलाई = सुरमचू जिससे सुर्मा डाला जाता है। लागी = लगी हुई, जुड़ी हुई।1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘बाहरि’ और ‘बाहरु’ का फर्क याद रखने योग्य है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे अति अंजान जिंदे! तू इतना अनुचित गुमान क्यों करती है? परमात्मा तेरे अपने ही हृदय-घर में है, तू उस (के मिलाप) का आनंद क्यों नहीं लेती? हे भोली जीव-स्त्री! पति-प्रभु (तेरे अंदर ही तेरे) नजदीक बस रहा है, तू (जंगल आदिक) बाहरी संसार क्यों तलाशती फिरती है? (अगर तूने उसका दीदार करना चाहती है, तो अपने ज्ञान की) आँखों में (प्रभु के) डर-अदब (के अंजन) की सलाईयां डाल, प्रभु के प्यार का हार-श्रृंगार कर।
जीव-स्त्री तब ही सोहाग-भाग वाली और प्रभु-चरणों में जुड़ी हुई समझी जाती है, जब प्रभु-पति उससे प्यार करे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इआणी बाली किआ करे जा धन कंत न भावै ॥ करण पलाह करे बहुतेरे सा धन महलु न पावै ॥ विणु करमा किछु पाईऐ नाही जे बहुतेरा धावै ॥ लब लोभ अहंकार की माती माइआ माहि समाणी ॥ इनी बाती सहु पाईऐ नाही भई कामणि इआणी ॥२॥
मूलम्
इआणी बाली किआ करे जा धन कंत न भावै ॥ करण पलाह करे बहुतेरे सा धन महलु न पावै ॥ विणु करमा किछु पाईऐ नाही जे बहुतेरा धावै ॥ लब लोभ अहंकार की माती माइआ माहि समाणी ॥ इनी बाती सहु पाईऐ नाही भई कामणि इआणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ करे = क्या कर सकती है? कंत न भावै = कंत का ठीक ना लगे। करण पलाह = (करुणा प्रलाप) तरले, दुहाई। साधन = जीव-स्त्री। करमा = करम, मेहर, बख्शिश। धावै = दौड़ भाग करे। माती = मस्त। इनी बाती = इन बातों से। कामणि = स्त्री।2।
अर्थ: (पर) नासमझ जीव-स्त्री भी क्या कर सकती है यदि वह जीव-स्त्री प्रभु-पति को अच्छी ना लगे? ऐसी जीव-स्त्री भले कितने ही करुणा प्रलाप करती फिरे, वह प्रभु-पति का महल-गृह नहीं पा सकती। (दरअसल बात ये है कि) जीव-स्त्री भले ही कितनी ही दौड़-भाग करती रहे, प्रभु की मेहर के बिना कुछ भी हासिल नहीं होता।
यदि जीव-स्त्री जीभ के चस्के लालच और अहंकार (आदि) में ही मस्त रहे, और सदा माया (के मोह) में डूबी रहे, तो इन बातों से पति-प्रभु नहीं मिलता। वह जीव-स्त्री बेसमझ ही रही (जो विकारों में मस्त रहके और फिर भी समझे कि वह पति-प्रभु को प्रसन्न कर सकती है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाइ पुछहु सोहागणी वाहै किनी बाती सहु पाईऐ ॥ जो किछु करे सो भला करि मानीऐ हिकमति हुकमु चुकाईऐ ॥ जा कै प्रेमि पदारथु पाईऐ तउ चरणी चितु लाईऐ ॥ सहु कहै सो कीजै तनु मनो दीजै ऐसा परमलु लाईऐ ॥ एव कहहि सोहागणी भैणे इनी बाती सहु पाईऐ ॥३॥
मूलम्
जाइ पुछहु सोहागणी वाहै किनी बाती सहु पाईऐ ॥ जो किछु करे सो भला करि मानीऐ हिकमति हुकमु चुकाईऐ ॥ जा कै प्रेमि पदारथु पाईऐ तउ चरणी चितु लाईऐ ॥ सहु कहै सो कीजै तनु मनो दीजै ऐसा परमलु लाईऐ ॥ एव कहहि सोहागणी भैणे इनी बाती सहु पाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाहै = उनको। हिकमति = चालाकी। हुकमु = जबरदस्ती। जा के प्रेमि = जिसके प्रेम से। तउ = उस की। मनो = मन। परमलु = सुगंधि। एव = इस तरह। कहहि = कहती हैं।3।
अर्थ: (जिनको पति-प्रभु मिल गया है, बेशक) उन सोहाग-भाग वालियों को जा के पूछ के देखो कि किन बातों से पति-प्रभु मिलता है, (वे यही उक्तर देती हैं कि) चालाकी और जबरदस्ती त्याग दो, जो कुछ प्रभु करता है उसको अच्छा समझ के (सिर माथे पर) मानो, जिस प्रभु के प्रेम के सदका नाम-वस्तु मिलती है उसके चरणों में मन जोड़ो, पति-प्रभु जो हुक्म करता है वह करो, अपना शरीर और मन उसके हवाले करो, बस! ये सुगंधि (जिंद के लिए) बरतो। सोहाग-भाग वाली सही कहतीं हैं कि हे बहन! इन बातों से ही पति-प्रभु मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु गवाईऐ ता सहु पाईऐ अउरु कैसी चतुराई ॥ सहु नदरि करि देखै सो दिनु लेखै कामणि नउ निधि पाई ॥ आपणे कंत पिआरी सा सोहागणि नानक सा सभराई ॥ ऐसै रंगि राती सहज की माती अहिनिसि भाइ समाणी ॥ सुंदरि साइ सरूप बिचखणि कहीऐ सा सिआणी ॥४॥२॥४॥
मूलम्
आपु गवाईऐ ता सहु पाईऐ अउरु कैसी चतुराई ॥ सहु नदरि करि देखै सो दिनु लेखै कामणि नउ निधि पाई ॥ आपणे कंत पिआरी सा सोहागणि नानक सा सभराई ॥ ऐसै रंगि राती सहज की माती अहिनिसि भाइ समाणी ॥ सुंदरि साइ सरूप बिचखणि कहीऐ सा सिआणी ॥४॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। अउरु = कोई और उद्यम। कैसी चतुराई = व्यर्थ की चालाकी। लेखै = लेखे में, सफल। नउनिधि = नौ खजाने। सभराई = भाईयों वाली, सारे परिवार में आदर वाली। रंगि = रंग में। राती = रंगी हुई। अहि = दिन। निसि = रात। भाइ = भाउ में, प्रेम में। सुंदरि = सुंदरी। साई = वही स्त्री। सरूप = रूप वाली। बिचखणि = (विचक्षण, विलक्षण) तीक्ष्ण बुद्धि। सा = वह स्त्री।4।
अर्थ: पति-प्रभु तब ही मिलता है जब स्वै भाव दूर करें। इसके बिना किया गया और कोई उद्यम व्यर्थ है, चालाकी है। (जिंदगी का) वह दिन सफल जानो जब पति-प्रभु मेहर की निगाह से देखे, (जिस) जीव-स्त्री (की ओर मेहर की) निगाह करता है वह मानो नौ खजाने पा लेती है।
हे नानक! जो जीव-स्त्री पति-प्रभु को प्यारी है वह सोहाग-भाग वाली है वह (जगत-) परिवार में आदर पाती है। जो प्रभु के प्यार-रंग में रंगी रहती है, जो अडोलता में मस्त रहती है, जो दिन-रात प्रभु के प्रेम-रंग में मगन रहती है, वही सोहानी है सुंदर रूप वाली है तीक्ष्ण बुद्धि वाली है और समझदार कही जाती है।4।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला १ ॥ जैसी मै आवै खसम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो ॥ पाप की जंञ लै काबलहु धाइआ जोरी मंगै दानु वे लालो ॥ सरमु धरमु दुइ छपि खलोए कूड़ु फिरै परधानु वे लालो ॥ काजीआ बामणा की गल थकी अगदु पड़ै सैतानु वे लालो ॥ मुसलमानीआ पड़हि कतेबा कसट महि करहि खुदाइ वे लालो ॥ जाति सनाती होरि हिदवाणीआ एहि भी लेखै लाइ वे लालो ॥ खून के सोहिले गावीअहि नानक रतु का कुंगू पाइ वे लालो ॥१॥
मूलम्
तिलंग महला १ ॥ जैसी मै आवै खसम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो ॥ पाप की जंञ लै काबलहु धाइआ जोरी मंगै दानु वे लालो ॥ सरमु धरमु दुइ छपि खलोए कूड़ु फिरै परधानु वे लालो ॥ काजीआ बामणा की गल थकी अगदु पड़ै सैतानु वे लालो ॥ मुसलमानीआ पड़हि कतेबा कसट महि करहि खुदाइ वे लालो ॥ जाति सनाती होरि हिदवाणीआ एहि भी लेखै लाइ वे लालो ॥ खून के सोहिले गावीअहि नानक रतु का कुंगू पाइ वे लालो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। बाणी = प्रेरणा। करी = मैं करता हूँ। गिआनु = जान पहचान, वाकफियत। करी गिआनु = मैं हाल बताता हूँ। वे = हे! काबलहु = काबुल से। धाइआ = हमला करके आया। जोरी = जोर जबरदस्ती।
सरमु = शर्म, हया। परधानु = चौधरी। थकी = रह गई, खत्म हो गई। अगदु = निकाह, विवाह। करहि खुदाइ = खुदा खुदा करती हैं, खुदा के आगे पुकार करती हैं। सनाती = नीच जाति। एहि भी = ये भी सारी। लेखै लाइ = उस जुल्म के लेखे में ही गिन। खून के सोहिले = दुहाई, विरलाप, वैण। रतु = रक्त, लहू। कुंगू = केसर।1।
अर्थ: हे (भाई) लालो! मुझे जैसी प्रभु-पति से प्रेरणा आई है उसी अनुसार मैं तुझे (उस दुघर्टना के) बारे में बता देता हूँ (जो इस शहर सैदपुर में घटित हुई है)। (बाबर) काबुल से (फौज, जो मानो) पाप-जुल्म की बारात (है) इकट्ठी करके आ चढ़ा है, और जोर-जबरदस्ती से हिन्द की हकूमत रूपी कन्या का दान माँग रहा है। (सैदपुर में से) हया और शर्म दोनों अलोप हो चुके हैं, झूठ ही झूठ चौधरी बना फिरता है। (बाबर के सिपाहियों द्वारा सैदपुर की स्त्रीयों पर इतने अत्याचार हो रहे हैं कि, जैसे) शैतान (इस शहर में) विवाह पढ़ा रहा है और काज़ियों व ब्राहमणों की (शिष्टाचार वाली) मर्यादा समाप्त हो चुकी है। मुसलमान औरतें (भी इस जुल्म का शिकार हो रही हैं जो) इस बिपता में (अपनी धर्म-पुस्तक) कुरान (की आयतें) पढ़ रही है। और ख़ुदा के आगे अरदास कर रही हैं। उच्च जातियों की, नीच जातियों की और भी सारी हिन्दू सि्त्रयाँ - इन सभी पर अत्याचार हो रहे हैं।
हे नानक! (इस ख़ूनी विवाह में सैदपुर नगर के अंदर चारों तरफ) विरलाप हो रहे हैं और लहू का केसर छिड़का जा रहा है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: (दानु) विवाह के समय लड़की वाले के घर लड़के वाले बारात के रूप में आते हैं। खुशी के गीत गाए जाते हैं। हिन्दुओं का विवाह ब्राहमण और मुसलमानों का काजी पढ़ता है। हिन्दू कन्या-दान करते हैं, दान के तौर पर कन्या भेट करते हैं। उस सोहाने समय में बारातियों पर केसर छिड़का जाता है। विवाह का ये दृष्टांत दे के गुरु नानक देव जी इस शब्द के माध्यम से बताते हैं कि बाबर ने काबुल से फौज ले कर चढ़ाई की, जैसे, पाप-जुल्म की बारात ले के हिन्द की हकूमत-रूपी दुल्हन को ब्याहने आया हो। बाबर के फौजियों ने सैदपुर, ऐमनाबाद, की स्त्रीयों की बहुत बेइज्जती की, ये जैसे, काजी और ब्राहमण की जगह शैतान विवाह पढ़ा रहा था। कत्लेआम से शहर की गलियों-बाजारों में लहू ही लहू था। ये मानो, उस खूनी विवाह में केसर छिड़का जा रहा था। विवाहों के खुशी के सोहिलों की जगह खून के सोहिले गाए जा रहे थे, हर तरफ मौत के ताण्डव के कारण विरलाप ही विरलाप पड़ रहे थे।
[[0723]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहिब के गुण नानकु गावै मास पुरी विचि आखु मसोला ॥ जिनि उपाई रंगि रवाई बैठा वेखै वखि इकेला ॥ सचा सो साहिबु सचु तपावसु सचड़ा निआउ करेगु मसोला ॥ काइआ कपड़ु टुकु टुकु होसी हिदुसतानु समालसी बोला ॥ आवनि अठतरै जानि सतानवै होरु भी उठसी मरद का चेला ॥ सच की बाणी नानकु आखै सचु सुणाइसी सच की बेला ॥२॥३॥५॥
मूलम्
साहिब के गुण नानकु गावै मास पुरी विचि आखु मसोला ॥ जिनि उपाई रंगि रवाई बैठा वेखै वखि इकेला ॥ सचा सो साहिबु सचु तपावसु सचड़ा निआउ करेगु मसोला ॥ काइआ कपड़ु टुकु टुकु होसी हिदुसतानु समालसी बोला ॥ आवनि अठतरै जानि सतानवै होरु भी उठसी मरद का चेला ॥ सच की बाणी नानकु आखै सचु सुणाइसी सच की बेला ॥२॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मासपुरी = वह नगर जहाँ हर तरफ मास ही मास बिखरा पड़ा है, जहाँ लाशों के ढेर लगे पड़े हैं, लाशों भरा शहर। आखु = (हे भाई लालो! तू भी) कह। मसोला = मसला, असूल की बात, अटल नियम। जिनि = जिस (मालिक प्रभु) ने। रंगि = रंग में, माया के मोह में। रवाई = पचाई, प्रवृत की। वखि = अलग हो के, निर्लिप रह के। इकेला = अकेला रह के। टुकु टुकु = टुकड़े टुकड़े। होसी = होगा, हो रहा है। समालसी = याद रखेगा। बोला = बात, दुर्घटना। आवनि = आते हैं, आए हैं। अठतरै = अठक्तर में, संवत् 1578 में (सन् 1521में।
जानि = जाते हैं, जाएंगे। सतानवै = संवत् 1597 में (सन् 1540 में)। उठसी = उठेगा, ताकत पकड़ेगा, शक्ति में आएगा। मरद का चेला = शूरवीर।
सच की वाणी = सदा कायम रहने वाले प्रभु की महिमा की वाणी। आखै = कहता है, उचारता है। सुणाइसी = सुनाता रहेगा, उचारता रहेगा, कहता रहेगा। बेला = समय, मानव जन्म का समय। सच की बेला = स्मरण, महिमा का ही यह समय है।2।
अर्थ: (सैदपुर के कत्लेआम की ये दुर्घटना बहुत ही भयानक है, पर ये भी ठीक है कि जगत में ये सब कुछ मालिक-प्रभु की रजा में हो रहा है, इस वास्ते) लाशों भरे शहर में बैठ के भी नानक उस मालिक-प्रभु के गुण गाता है, (हे भाई लालो! तू भी इस) अटल नियम को उचार (याद रख कि) जिस मालिक प्रभु ने (ये सृष्टि) पैदा की है, उसी ने ही इसे माया के मोह में प्रवृति किया हुआ है, वह स्वयं ही निर्लिप रहके (उन दुर्घटनाओं को) देख रहा है (जो माया के मोह के कारण घटित होती हैं)।
वह मालिक-प्रभु अटल नियमों वाला है, उसका न्याय (अब तक) अटल है, वह (भविष्य में भी) अटल नियम को जारी रखेगा वही न्याय करेगा जो अटल है। (उस अटल नियम के मुताबिक ही इस वक्त सैदपुर में हर तरफ़) मानव-शरीर- रूपी कपड़े टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं। ये एक ऐसी भयानक घटना हुई है जिसको हिन्दुस्तान भुला नहीं सकेगा।
(पर, हे भाई लालो! जब तक मनुष्य माया के मोह में प्रवृति हैं, ऐसे कत्लेआम होते रहेंगे, मुग़ल आज) संवत् अठक्तर में आए हैं, ये संवत् सक्तानबे में चले जाएंगे, कोई और सूरमा भी उठ खड़ा होगा। (जीव माया के रंग में मस्त हो के उम्र व्यर्थ गवा रहे हैं) नानक तो (इस वक्त भी) सदा कायम रहने वाले प्रभु की महिमा करता है, (सारी उम्र ही) ये महिमा करता रहेगा, क्योंकि मनुष्य को जीवन का ये समय ईश्वर की महिमा करने के लिए मिला है।2।3।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गुरु नानक साहिब की तीसरी ‘उदासी’ के समय सन् 1518 में मक्के गए थे। वहाँ से ईरान देश व अफगानिस्तान देश के हाजियों से मिल के बग़दाद से काबुल के रास्ते वापस आ के ऐमनाबाद (सैदपुर) सन् 1521 में उसी वक्त पहुँचे थे, जब बाबर शहर स्यालकोट का कत्लेआम करके यहाँ पहुँचा था)।
(नोट: शेरशाह सूरी ने बाबर के पुत्र हिमायूँ को हिन्दुस्तान से मार भगाया और स्वयं सन् 1540 में यहाँ का शासन सम्भाला था)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
तिलंग महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि आए हुकमि खसमाहु हुकमि सभ वरतनी ॥ सचु साहिबु साचा खेलु सभु हरि धनी ॥१॥
मूलम्
सभि आए हुकमि खसमाहु हुकमि सभ वरतनी ॥ सचु साहिबु साचा खेलु सभु हरि धनी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे जीव। हुकमि = हुक्म अनुसार। खसमाहु = पति से। हुकमि = हुक्म में। सभ = सारी सृष्टि। वरतनी = काम कर रही है। सचु = सदा कायम रहने वाला। साचा = अटल (नियमों वाला)। खेलु = जगत तमाशा। सभ = हर जगह। धनी = मालिक।1।
अर्थ: हे भाई! सारे जीव हुक्म अनुसार पति-प्रभु से ही जगत में आए हैं, सारी दुनिया उसके हुक्म में (ही) काम कर रही है। वह मालिक सदा कायम रहने वाला है, उसका (रचा हुआ जगत-) तमाशा अटल (नियमों वाला है)। हर जगह वह मालिक खुद मौजूद है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सालाहिहु सचु सभ ऊपरि हरि धनी ॥ जिसु नाही कोइ सरीकु किसु लेखै हउ गनी ॥ रहाउ॥
मूलम्
सालाहिहु सचु सभ ऊपरि हरि धनी ॥ जिसु नाही कोइ सरीकु किसु लेखै हउ गनी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु सरीकु = जिसके बराबर का। लेखै = लेखे में। हउ = मैं। गनी = मैं (गुण) बयान करूँ। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर हरि की महिमा किया करो। वह हरि सब के ऊपर है और मालिक है। जिस हरि के बराबर का और कोई नहीं है, मैं (तो) किस गिनती में हूँ कि उसके गुण बयान कर सकूँ?। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउण पाणी धरती आकासु घर मंदर हरि बनी ॥ विचि वरतै नानक आपि झूठु कहु किआ गनी ॥२॥१॥
मूलम्
पउण पाणी धरती आकासु घर मंदर हरि बनी ॥ विचि वरतै नानक आपि झूठु कहु किआ गनी ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतै = मौजूद है। कहु = बताओ। किआ = किस को?।2।
अर्थ: हे भाई! हवा, पानी, धरती, आकाश- ये सारे परमात्मा के (रहने के वास्ते) घर-मंदिर बने हुए हैं। हे नानक! इन सभी में परमात्मा खुद बस रहा है। बताओ, इनमें से किसको मैं असत्य कहूँ?।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ४ ॥ नित निहफल करम कमाइ बफावै दुरमतीआ ॥ जब आणै वलवंच करि झूठु तब जाणै जगु जितीआ ॥१॥
मूलम्
तिलंग महला ४ ॥ नित निहफल करम कमाइ बफावै दुरमतीआ ॥ जब आणै वलवंच करि झूठु तब जाणै जगु जितीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहफल = वे काम जिनसे कोई लाभ नहीं होता। बफावै = फुकरी मारता है, गुमान करता है। दुरमतीआ = खोटी बुद्धि वाला मनुष्य। आवै = लाता है। वलवंच = छल। करि = कर के। जाणै = समझता है।1।
अर्थ: हे मेरे मन! दुर्मति वाला मनुष्य सदा वह काम करता रहता है जिनका कोई लाभ नहीं होता, (फिर भी ऐसे व्यर्थ कर्म करके) फुकरियाँ मारता रहता है (बड़े-बड़े बोल बोलता फिरता है)। जब कोई ठगी करके, कोई झूठ बोल के (कुछ धन-माल) ले आता है, तब समझता है कि मैंने दुनिया को जीत लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा बाजी सैसारु न चेतै हरि नामा ॥ खिन महि बिनसै सभु झूठु मेरे मन धिआइ रामा ॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा बाजी सैसारु न चेतै हरि नामा ॥ खिन महि बिनसै सभु झूठु मेरे मन धिआइ रामा ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाजी = खेल, तमाशा। बिनसै = नाश हो जाता है। झूठु = नाशवान। मन = हे मन!। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जगत ऐसा है जैसे एक खेल, ये सारा नाशवान है, एक छिन में नाश हो जाता है (पर खोटी बुद्धि वाला मनुष्य फिर भी) परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता। हे मेरे मन! तू तो परमात्मा का ध्यान धरता रह। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा वेला चिति न आवै जितु आइ कंटकु कालु ग्रसै ॥ तिसु नानक लए छडाइ जिसु किरपा करि हिरदै वसै ॥२॥२॥
मूलम्
सा वेला चिति न आवै जितु आइ कंटकु कालु ग्रसै ॥ तिसु नानक लए छडाइ जिसु किरपा करि हिरदै वसै ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। जितु = जिस (समय) में। आइ = आ के। कंटकु = काँटा, काँटे जैसा दुखदाई। ग्रसै = पकड़ लेता है। जिसु हिरदै = जिसके हृदय में।2।
अर्थ: हे मेरे मन! खोटी मति वाले मनुष्य को वह वक्त (कभी) याद नहीं आता, जब दुखदाई काल आ के पकड़ लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा मेहर करके आ बसता है, उस को (मौत के डर से) छुड़ा लेता है।2।2।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
तिलंग महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥ असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥१॥
मूलम्
खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥ असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाक = ख़ाक, मिट्टी, अचेतन। नूर = ज्योति, आत्मा। करदं = बना दिया। आलम = जहान। जिमी = धरती। दरखत = वृक्ष। आब = पानी। पैदाइसि खुदाइ = परमात्मा की रचना। खुदाइ = परमात्मा।1।
अर्थ: हे भाई! चेतन ज्योति और अचेतन मिट्टी मिला के परमात्मा ने ये जगत ये जहान बना दिया है। आसमान, धरती, वृक्ष, पानी (आदि ये सब कुछ) परमात्मा की ही रचना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंदे चसम दीदं फनाइ ॥ दुनींआ मुरदार खुरदनी गाफल हवाइ ॥ रहाउ॥
मूलम्
बंदे चसम दीदं फनाइ ॥ दुनींआ मुरदार खुरदनी गाफल हवाइ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदे = हे मनुष्य! चसम = आँखें। दीदं = दिखता। फनाइ = नाशवान। मुरदार = हराम। खुरदनी = खाने वाली। गाफल = भूला हुआ। हवाइ = हिरस, लालच। रहाउ।
अर्थ: हे मनुष्य! जो कुछ आँखों से देखता है नाशवान है। पर दुनिया (माया के) लालच में (परमात्मा को) भूली हुई है, हराम खाती रहती है (पराया हक खोती रहती है)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गैबान हैवान हराम कुसतनी मुरदार बखोराइ ॥ दिल कबज कबजा कादरो दोजक सजाइ ॥२॥
मूलम्
गैबान हैवान हराम कुसतनी मुरदार बखोराइ ॥ दिल कबज कबजा कादरो दोजक सजाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गैबान = ना दिखने वाले, भूत प्रेत। हैवान = पशू। कुसतनी = कुश्तनी, मारने वाली। बखोराइ = बख़ोराय, खाती है। कबज कबजा = कबज़ कबज़ा, मुकम्मल कबज़ा। कादरो = पैदा करने वाला प्रभु! दोजक सजाइ = दोज़क सजाय, दोज़क की सज़ा देता है।2।
अर्थ: हे भाई! ग़ाफ़ल मनुष्य भूतों, प्रेतों, पशुओं की तरह हराम मार के हराम खाता है। इसके दिल पर (माया का) पूरी तरह से कब्ज़ा हुआ रहता है, परमात्मा इसको दोजक की सजा देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वली निआमति बिरादरा दरबार मिलक खानाइ ॥ जब अजराईलु बसतनी तब चि कारे बिदाइ ॥३॥
मूलम्
वली निआमति बिरादरा दरबार मिलक खानाइ ॥ जब अजराईलु बसतनी तब चि कारे बिदाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वली निआमति = नियामतें देने वाला पिता। बिरादरा = भाई। मिलक = जाइदाद। खानाइ = ख़ानाय, घर। बसतनी = बाँध लेगा। चि कारे = किस काम के? चि = किस? बिदाइ = विदा होते समय, विदाई के वक्त। अजराईलु = मौत का फरिश्ता।3।
अर्थ: हे भाई! जब मौत का फरिश्ता (आ के) बाँध लेता है, तब पालने वाला पिता, भाई, दरबार, जायदाद, घर- ये सारे (जगत से) विदा होने के वक्त किस काम आएंगे?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हवाल मालूमु करदं पाक अलाह ॥ बुगो नानक अरदासि पेसि दरवेस बंदाह ॥४॥१॥
मूलम्
हवाल मालूमु करदं पाक अलाह ॥ बुगो नानक अरदासि पेसि दरवेस बंदाह ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाक अलाह = पवित्र परमात्मा। अलाह = अल्लाह। हवाल मालूम करदं = (तेरे दिल का) हाल जानता है। बुगो = कह। पेसि = सामने, पेश। पेसि दरवेस बंदाह = दरवेश बँदों के सामने।4।
अर्थ: हे भाई! पवित्र परमात्मा (तेरे दिल का) सारा हाल जानता है। हे नानक! संत जनों की संगति में रह के (परमात्मा के दर पे) अरदास किया कर (कि तुझे माया की हवस में ना फसने दे)।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग घरु २ महला ५ ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू करतारु करहि सो होइ ॥ तेरा जोरु तेरी मनि टेक ॥ सदा सदा जपि नानक एक ॥१॥
मूलम्
तिलंग घरु २ महला ५ ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू करतारु करहि सो होइ ॥ तेरा जोरु तेरी मनि टेक ॥ सदा सदा जपि नानक एक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = तू करता है। जोरु = बल। मनि = मन में। टेक = आसरा। नानक = हे नानक!।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जगत को पैदा करने वाला है, जो कुछ तू करता है, वही होता है, तेरे बिना और कोई दूसरा कुछ करने के काबिल नहीं है। (हम जीवों को) तेरा ही ताण है, (हमारे) मन में तेरा ही सहारा है। हे नानक! सदा उस एक परमात्मा का नाम जपता रह।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ ऊपरि पारब्रहमु दातारु ॥ तेरी टेक तेरा आधारु ॥ रहाउ॥
मूलम्
सभ ऊपरि पारब्रहमु दातारु ॥ तेरी टेक तेरा आधारु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आधारु = आसरा। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सब जीवों को दातें देने वाला परमात्मा सब जीवों के सर पर रखवाला है। हे प्रभु! (हम जीवों को) तेरा ही आसरा है, तेरा ही सहारा है। रहाउ।
[[0724]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
है तूहै तू होवनहार ॥ अगम अगाधि ऊच आपार ॥ जो तुधु सेवहि तिन भउ दुखु नाहि ॥ गुर परसादि नानक गुण गाहि ॥२॥
मूलम्
है तूहै तू होवनहार ॥ अगम अगाधि ऊच आपार ॥ जो तुधु सेवहि तिन भउ दुखु नाहि ॥ गुर परसादि नानक गुण गाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तू है = तू ही। होवनहार = सदा कायम रहने वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = अथाह। आपार = बेअंत। तुधु = तुझे। सेवहि = स्मरण करते हैं। प्रसादि = कृपा से। गाहि = गाते हैं।2।
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे अथाह प्रभु! हे सबसे ऊँचे और बेअंत प्रभु! हर जगह हर वक्त तू ही तू है, तू ही सदा कायम रहने वाला है। हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे स्मरण करते हैं, उनको कोई डर, कोई दुख छू नहीं सकता। हे नानक! गुरु की कृपा से ही (मनुष्य परमात्मा के) गुण गा सकते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो दीसै सो तेरा रूपु ॥ गुण निधान गोविंद अनूप ॥ सिमरि सिमरि सिमरि जन सोइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥३॥
मूलम्
जो दीसै सो तेरा रूपु ॥ गुण निधान गोविंद अनूप ॥ सिमरि सिमरि सिमरि जन सोइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीसै = दिखता है। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! अनूप = हे सुंदर! जन = हे जन! सेइ = उस परमात्मा को ही। करमि = मेहर से।3।
अर्थ: हे गुणों के खजाने! हे सुंदर गोबिंद! (जगत में) जो कुछ दिखता है तेरा ही स्वरूप है। हे मनुष्य! सदा उस परमात्मा का स्मरण करता रह। हे नानक! (परमात्मा का स्मरण) परमात्मा की कृपा से ही मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि जपिआ तिस कउ बलिहार ॥ तिस कै संगि तरै संसार ॥ कहु नानक प्रभ लोचा पूरि ॥ संत जना की बाछउ धूरि ॥४॥२॥
मूलम्
जिनि जपिआ तिस कउ बलिहार ॥ तिस कै संगि तरै संसार ॥ कहु नानक प्रभ लोचा पूरि ॥ संत जना की बाछउ धूरि ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै संगि = के साथ। लोचा = चाहत। पूरि = पूरी कर। बाछउ = मैं चाहता हूँ। धूरि = चरण धूल।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है, उससे कुर्बान होना चाहिए। उस मनुष्य की संगति में (रह के) सारा जगत संसार समुंदर से पार लांघ जाता है। हे नानक! कह: हे प्रभु! मेरी तमन्ना पूरी कर, मैं (तेरे दर से) तेरे संत जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ मिहरवानु साहिबु मिहरवानु ॥ साहिबु मेरा मिहरवानु ॥ जीअ सगल कउ देइ दानु ॥ रहाउ॥
मूलम्
तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ मिहरवानु साहिबु मिहरवानु ॥ साहिबु मेरा मिहरवानु ॥ जीअ सगल कउ देइ दानु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिहरवानु = दयालु। साहिबु = मालिक। जीअ = जीव। देइ = देता है। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ/जीव’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक प्रभु सदा दया करने वाला है, सदा दयालु है, सदा दयालु है। वह सारे जीवों को (सब पदार्थों का) दान देता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू काहे डोलहि प्राणीआ तुधु राखैगा सिरजणहारु ॥ जिनि पैदाइसि तू कीआ सोई देइ आधारु ॥१॥
मूलम्
तू काहे डोलहि प्राणीआ तुधु राखैगा सिरजणहारु ॥ जिनि पैदाइसि तू कीआ सोई देइ आधारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डोलहि = तू घबराता है। प्राणीआ = हे प्राणी! तुधु = तुझे। सिरजणहारु = पैदा करने वाला प्रभु। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तू = तुझे। आधारु = आसरा।1।
अर्थ: हे भाई! तू क्यों घबराता है? पैदा करने वाला प्रभु तेरी (जरूर) रक्षा करेगा। जिस (प्रभु) ने तुझे पैदा किया है, वही (सारी सृष्टि को) आसरा (भी) देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि उपाई मेदनी सोई करदा सार ॥ घटि घटि मालकु दिला का सचा परवदगारु ॥२॥
मूलम्
जिनि उपाई मेदनी सोई करदा सार ॥ घटि घटि मालकु दिला का सचा परवदगारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेदनी = धरती। सार = संभाल। घटि घटि = हरेक शरीर में। परवदगारु = पालने वाला।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने सृष्टि पैदा की है, वही (इसकी) संभाल करता है। हरेक शरीर में बसने वाला प्रभु (सारे जीवों के) दिलों का मालिक है, वह सदा कायम रहने वाला है, और, सब की पालना करने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुदरति कीम न जाणीऐ वडा वेपरवाहु ॥ करि बंदे तू बंदगी जिचरु घट महि साहु ॥३॥
मूलम्
कुदरति कीम न जाणीऐ वडा वेपरवाहु ॥ करि बंदे तू बंदगी जिचरु घट महि साहु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीम = कीमति, मूल्य। वेपरवाहु = बेमुथाज। घट महि = शरीर में। साहु = सांस।3।
अर्थ: हे भाई! उस मालिक की कुदरत का मूल्य नहीं समझा जा सकता, वह सबसे बड़ा है उसे किसी की अधीनता नहीं। हे बँदे! जब तक तेरे शरीर में सांस चलती है तब तक उस मालिक की बँदगी करता रह।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू समरथु अकथु अगोचरु जीउ पिंडु तेरी रासि ॥ रहम तेरी सुखु पाइआ सदा नानक की अरदासि ॥४॥३॥
मूलम्
तू समरथु अकथु अगोचरु जीउ पिंडु तेरी रासि ॥ रहम तेरी सुखु पाइआ सदा नानक की अरदासि ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथु = सब ताकतों का मालिक। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। रहम = रहिमत, कृपा।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब ताकतों का मालिक है, तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, ज्ञानेन्दिंयों के द्वारा तुझ तक पहुँच नहीं की जा सकती। (हम जीवों का ये) शरीर और जिंद तेरी ही दी हुई पूंजी है। जिस मनुष्य पर तेरी मेहर हो उस को (तेरे दर से बँदगी का) सुख मिलता है। नानक की भी सदा तेरे दर पे यही अरदास है (कि तेरी बँदगी का सुख मिले)।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ करते कुदरती मुसताकु ॥ दीन दुनीआ एक तूही सभ खलक ही ते पाकु ॥ रहाउ॥
मूलम्
तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ करते कुदरती मुसताकु ॥ दीन दुनीआ एक तूही सभ खलक ही ते पाकु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! कुदरती = कुदरत से, तेरी कुदरत देख के। मुसताकु = मुश्ताक, (तेरे दर्शनों का) चाहवान। ते = से। पाकु = निर्लिप। रहाउ।
अर्थ: हे कर्तार! तेरी कुदरत को देख के मैं दशनों का चाहवान हो गया हूँ। मेरे दीन और दुनिया की दौलत एक तू ही है। तू सारी सृष्टि से निर्लिप रहता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिन माहि थापि उथापदा आचरज तेरे रूप ॥ कउणु जाणै चलत तेरे अंधिआरे महि दीप ॥१॥
मूलम्
खिन माहि थापि उथापदा आचरज तेरे रूप ॥ कउणु जाणै चलत तेरे अंधिआरे महि दीप ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहि = में। थापि = बना के, पैदा करके। उथापदा = नाश कर देता है। आचरज = हैरान कर देने वाला। चलत = करिश्मे। दीप = दीया, प्रकाश।1।
अर्थ: हे कर्तार! तू एक-छिन में (जीवों को) बना के नाश भी कर देता है तेरे स्वरूप हैरान कर देने वाले हैं। कोई जीव तेरे करिश्मों को समझ नहीं सकता। (अज्ञानता के) अंधेरे में (तू खुद ही जीवों के वास्ते) रौशनी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खुदि खसम खलक जहान अलह मिहरवान खुदाइ ॥ दिनसु रैणि जि तुधु अराधे सो किउ दोजकि जाइ ॥२॥
मूलम्
खुदि खसम खलक जहान अलह मिहरवान खुदाइ ॥ दिनसु रैणि जि तुधु अराधे सो किउ दोजकि जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खुदि = खुद। अलह = हे अल्लाह! हे परमात्मा! जहान = दुनिया। खुदाइ = ख़ुदाय, परमात्मा। रैणि = रात। जि = जो। तुधु = तुझे। दोजकि = नर्क में।2।
अर्थ: हे अल्लाह! हे मेहरवान ख़ुदा! सारी सृष्टि का सारे जहान का तू खुद ही मालिक है। जो मनुष्य दिन-रात तुझे आराधता है, वे दोज़क कैसे जा सकता है?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजराईलु यारु बंदे जिसु तेरा आधारु ॥ गुनह उस के सगल आफू तेरे जन देखहि दीदारु ॥३॥
मूलम्
अजराईलु यारु बंदे जिसु तेरा आधारु ॥ गुनह उस के सगल आफू तेरे जन देखहि दीदारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजराईलु = मौत का फरिश्ता। आधारु = आसरा। गुनह = गुनाह, पाप। सगल = सारे। आफू = अफ़व, बख्शे जाते हैं। तेरे जन = तेरे दास। देखहि = देखते हें।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा आसरा मिल जाता है, मौत का फरिश्ता उस मनुष्य का मित्र बन जाता है (उसे मौत का डर नहीं रहता) (क्योंकि) उस मनुष्य के सारे पाप बख्शे जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुनीआ चीज फिलहाल सगले सचु सुखु तेरा नाउ ॥ गुर मिलि नानक बूझिआ सदा एकसु गाउ ॥४॥४॥
मूलम्
दुनीआ चीज फिलहाल सगले सचु सुखु तेरा नाउ ॥ गुर मिलि नानक बूझिआ सदा एकसु गाउ ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुनीआ चीज = दुनिया के सारे पदार्थ। फिलहाल = फिल हाल, अभी अभी के लिए, छण भंगुर, जल्दी नाश हो जाने वाले। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुर मिलि = गुरु को मिल के। एकसु = एक को ही। गाउ = गाऊँ।4।
अर्थ: हे प्रभु! दुनिया के (और) सारे पदार्थ जल्दी ही नाश हो जाने वाले हैं। सदा कायम रहने वाला सुख तेरा नाम (ही बख्शता) है। हे नानक! कह: ये बात (मैंनें गुरु को मिल के समझी है, इस वास्ते) मैं सदा एक परमात्मा का ही यश गाता रहता हूँ।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ५ ॥ मीरां दानां दिल सोच ॥ मुहबते मनि तनि बसै सचु साह बंदी मोच ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तिलंग महला ५ ॥ मीरां दानां दिल सोच ॥ मुहबते मनि तनि बसै सचु साह बंदी मोच ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीरां = हे सरदार! दानां = हे समझदार! दिल सोच = हे (जीवों के) दिलों को पवित्र करने वाले! सोच = पवित्रता। मुहबते = तेरी मुहब्बत। मनि = मन में। तनि = तन में। सचु साह = हे सदा कायम रहने वाले शाह! बंदी मोच = हे बंधनो से छुड़ाने वाले! बँदी = कैद।1। रहाउ।
अर्थ: हे सरदार! हे समझदार! हे (जीवों के) दिल को पवित्र करने वाले! हे सदा स्थिर शाह! हे बंधनो से छुड़ाने वाले! तेरी मुहब्बत मेरे मन में मेरे दिल में बस रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीदने दीदार साहिब कछु नही इस का मोलु ॥ पाक परवदगार तू खुदि खसमु वडा अतोलु ॥१॥
मूलम्
दीदने दीदार साहिब कछु नही इस का मोलु ॥ पाक परवदगार तू खुदि खसमु वडा अतोलु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीदन = देखना। साहिब = हे मालिक! पाक = हे पवित्र! परवदगार = हे पालनहार! खुदि = खुद, आप।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस का’ में से ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मालिक! तेरे दर्शन करना (एक अमोलक दाति है), तेरे इस (दर्शन) का कोई मुल्य नहीं आँका जा सकता। हे पवित्र! हे पालणहार! तू खुद (हमारा) पति है तू सबसे बड़ा है, तेरी बड़ी हस्ती को तोला नहीं जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दस्तगीरी देहि दिलावर तूही तूही एक ॥ करतार कुदरति करण खालक नानक तेरी टेक ॥२॥५॥
मूलम्
दस्तगीरी देहि दिलावर तूही तूही एक ॥ करतार कुदरति करण खालक नानक तेरी टेक ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दस्त = हाथ। दस्तगीरी = हाथ पकड़ने की क्रिया, सहायता। दस्तगीरी देहि = (मेरा) हाथ पकड़, मेरी सहायता कर। दिलावर = हे दिलावर! हे सूरमे प्रभु! करतार = हे कर्तार! कुदरति करण = हे कुदरति के रचनहार! खालक = हे सृष्टि के मालिक! टेक = आसरा।2।
अर्थ: हे सूरमे प्रभु! मेरी सहायता कर, एक तू ही (मेरा आसरा) है। हे नानक! (कह:) हे कर्तार! हे कुदरति के रचनहार! हे सृष्टि के मालिक! मुझे तेरा सहारा है।2।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
तिलंग महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि कीआ तिनि देखिआ किआ कहीऐ रे भाई ॥ आपे जाणै करे आपि जिनि वाड़ी है लाई ॥१॥
मूलम्
जिनि कीआ तिनि देखिआ किआ कहीऐ रे भाई ॥ आपे जाणै करे आपि जिनि वाड़ी है लाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कीआ = बनाया है। तिनि = उस (परमात्मा) ने। देखिआ = संभाल की है। रे भाई = हे भाई! किआ कहीऐ = (उसकी जगत संभाल के बाबत) कुछ नहीं कहा जा सकता। आपे = आप ही। वाड़ी = जगत-बगीची।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (ये जगत) बनाया है, उसने ही (सदा) इसकी संभाल की है। ये कहा नहीं जा सकता (कि वह कैसे संभाल करता है)।
जिसने ये जगत-वाड़ी लगाई है वह खुद ही (इसकी जरूरतें) जानता है, और खुद (वह जरूरतें पूरी) करता है।1।
[[0725]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
राइसा पिआरे का राइसा जितु सदा सुखु होई ॥ रहाउ॥
मूलम्
राइसा पिआरे का राइसा जितु सदा सुखु होई ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राइसा = (राइसो) जीवन कथा, प्रसंग, महिमा की बातें। जितु = जिस (राइसो) के द्वारा। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे (भाई!) परमात्मा की महिमा करनी चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा ही सदा आत्मिक आनंद मिलता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि रंगि कंतु न राविआ सा पछो रे ताणी ॥ हाथ पछोड़ै सिरु धुणै जब रैणि विहाणी ॥२॥
मूलम्
जिनि रंगि कंतु न राविआ सा पछो रे ताणी ॥ हाथ पछोड़ै सिरु धुणै जब रैणि विहाणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव-स्त्री) ने। रंगि = प्रेम में। राविआ = माणा, स्मरण किया। सा = वह जीव-स्त्री। रे = हे भाई! पछोताणी = पछताती है। हाथ पछोड़ै = हाथ मलती है। सिरु धुणै = सिर मारती है। रैणि = रात। विहाणी = बीत जाती है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस जीव-स्त्री ने प्रेम से पति-प्रभु का स्मरण नहीं किया, वह आखिर को पछताती है। जब उसकी जिंदगी की रात बीत जाती है तब वह अपने हाथ मलती है, सिर मारती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पछोतावा ना मिलै जब चूकैगी सारी ॥ ता फिरि पिआरा रावीऐ जब आवैगी वारी ॥३॥
मूलम्
पछोतावा ना मिलै जब चूकैगी सारी ॥ ता फिरि पिआरा रावीऐ जब आवैगी वारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चुकैगी = बीत जाएगी, खत्म हो जाएगी। सारी = सारी उम्र रात। रावीऐ = स्मरण किया जा सकता है। जब = जब। वारी = मनुष्य जन्म की बारी।3।
अर्थ: (पर) जब जिंदगी की सारी रात समाप्त हो जाएगी, तब पछतावा करने से कुछ हासिल नहीं होता। उस प्यारे प्रभु को फिर तभी स्मरण किया जा सकता है, जब (फिर कभी) मानव जीवन की बारी मिलेगी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंतु लीआ सोहागणी मै ते वधवी एह ॥ से गुण मुझै न आवनी कै जी दोसु धरेह ॥४॥
मूलम्
कंतु लीआ सोहागणी मै ते वधवी एह ॥ से गुण मुझै न आवनी कै जी दोसु धरेह ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंतु = पति प्रभु। सोहागणी = सौभाग्यवती। मै ते = मेरे से। ते = से। वधवी = अच्छी। मुझै = मेरे अंदर, मुझे। आवनी = आते हैं, पैदा होते हैं। कै = किस पे? धरेह = धरूँ, रखूँ।4।
अर्थ: जिस अच्छे भाग्यों वाली (जीव-स्त्रीयों) ने प्रभु-पति का मिलाप हासिल कर लिया है, वह मुझसे अच्छी हैं, (जो गुण उनके अंदर हैं) वह गुण मेरे अंदर पैदा नहीं होते, (इस वास्ते) मैं किस को दोष दूँ (कि मुझे प्रभु-पति नहीं मिलता)?।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी सखी सहु राविआ तिन पूछउगी जाए ॥ पाइ लगउ बेनती करउ लेउगी पंथु बताए ॥५॥
मूलम्
जिनी सखी सहु राविआ तिन पूछउगी जाए ॥ पाइ लगउ बेनती करउ लेउगी पंथु बताए ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनी सखी = जिस सहेलियों ने। सहु = पति प्रभु। राविआ = स्मरण किया। जाए = जा के। पाइ = पैरों पर। लगउ = मैं लगूँगी। करउ = मैं करूँगी। पंथु = रास्ता। बताए लेउगी = पूछ लूँगी।5।
अर्थ: (अब) मैं उन सहेलियों को जा के पूछूंगी, जिन्होंने प्रभु-पति का मिलाप प्राप्त कर लिया है। मैं उनके चरणों में लगूँगी, मैं उनके आगे विनती करूँगी, (और उनसे प्रभु-पति के मिलाप का) रास्ता पूछ लूँगी।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु पछाणै नानका भउ चंदनु लावै ॥ गुण कामण कामणि करै तउ पिआरे कउ पावै ॥६॥
मूलम्
हुकमु पछाणै नानका भउ चंदनु लावै ॥ गुण कामण कामणि करै तउ पिआरे कउ पावै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ = डर अदब। कामण = टूणे, जादू। कामणि = स्त्री। तउ = तब।6।
अर्थ: हे नानक! जब (जीव-स्त्री प्रभु-पति की) रजा को समझ लेती है, जब उसके डर-अदब को (जिंद के लिए सुगंधि बनाती है, जैसे शरीर पर कोई स्त्री) चंदन लगाती है, जब स्त्री (पति को वश में करने के लिए आत्मिक) गुणों के टूणे बनाती है, तब वह प्रभु प्यारे का मिलाप हासिल कर लेती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो दिलि मिलिआ सु मिलि रहिआ मिलिआ कहीऐ रे सोई ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ बाती मेलु न होई ॥७॥
मूलम्
जो दिलि मिलिआ सु मिलि रहिआ मिलिआ कहीऐ रे सोई ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ बाती मेलु न होई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिलि = दिल में। रे = हे भाई! सोई = वही मनुष्य। लोचीऐ = तमन्ना करें। बाती = बातों से। मेलु = मिलाप।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने दिल के माध्यम से (परमात्मा के चरणों में) मिला है, वह सदा प्रभु से मिला रहता है, वही मनुष्य (प्रभु-चरणों में) मिला हुआ कहा जा सकता है। सिर्फ बातों से (प्रभु के साथ) मिलाप नहीं हो सकता, चाहे कितनी ही चाहत करते रहें।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धातु मिलै फुनि धातु कउ लिव लिवै कउ धावै ॥ गुर परसादी जाणीऐ तउ अनभउ पावै ॥८॥
मूलम्
धातु मिलै फुनि धातु कउ लिव लिवै कउ धावै ॥ गुर परसादी जाणीऐ तउ अनभउ पावै ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धातु = (सोना आदि) धातु। फुनि = दोबारा (गल के)। कउ = को। लिव = लगन, प्यार। लिवै कउ = प्यार को ही। धावै = दौड़ता है। परसादी = कृपा से ही। जाणीऐ = समझ आती है। तउ = तब। अनभउ = भय रहित प्रभु।8।
अर्थ: हे भाई! (जैसे सोना आदि) धातु (कुठाली में गल के) फिर (और) (सोने-) धातु से मिल जाती है, (इसी तरह) प्यार प्यार की तरफ दौड़ता है (आकर्षित होता है)। जब गुरु की कृपा से ये सूझ पड़ती है, तब मनुष्य डर रहित प्रभु को मिल जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाना वाड़ी होइ घरि खरु सार न जाणै ॥ रसीआ होवै मुसक का तब फूलु पछाणै ॥९॥
मूलम्
पाना वाड़ी होइ घरि खरु सार न जाणै ॥ रसीआ होवै मुसक का तब फूलु पछाणै ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पना वाड़ी = पानों की क्यारी। घरि = घर में। खरु = गधा, मूर्ख मन। सार = कद्र। रसीआ = प्रेमी। मुसक = मुश्क, सुगंधि, कस्तूरी। पछाणै = सांझ डालता है।9।
अर्थ: हे भाई! पानों की क्यारी (हृदय) घर में लगी हुई है, पर गधा (मूर्ख मन इसकी) कद्र नहीं जानता। जब मनुष्य सुगंधि का प्रेमी बन जाता है, तब फूलों से प्यार पाता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपिउ पीवै जो नानका भ्रमु भ्रमि समावै ॥ सहजे सहजे मिलि रहै अमरा पदु पावै ॥१०॥१॥
मूलम्
अपिउ पीवै जो नानका भ्रमु भ्रमि समावै ॥ सहजे सहजे मिलि रहै अमरा पदु पावै ॥१०॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपिउ = अंमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भ्रमु = भटकना। भ्रमि = भटकना में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अमर = मौत से रहित। अमरा पदु = वह दर्जा जहाँ आत्मिक मौत नहीं पहुँचती।10।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, उस (के मन) की भटकना अंदर-अंदर से समाप्त हो जाती है। वह सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह मनुष्य वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है जहाँ आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती।10।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस वाणी के आरम्भ में कोई शीर्षक नहीं है, पर ये ‘अष्टपदी’ ही है। वैसे, साधारण नियम के अनुसार ‘अष्टपदीयां’ तब ही दर्ज होती हैं, जब महला ९ के शब्द भी दर्ज हो चुकते हैं। इस राग में महला ९ के शब्द अभी आगे आने हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ४ ॥ हरि कीआ कथा कहाणीआ गुरि मीति सुणाईआ ॥ बलिहारी गुर आपणे गुर कउ बलि जाईआ ॥१॥
मूलम्
तिलंग महला ४ ॥ हरि कीआ कथा कहाणीआ गुरि मीति सुणाईआ ॥ बलिहारी गुर आपणे गुर कउ बलि जाईआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीआ = की। कथा कहाणीआ = महिमा की बातें। गुरि = गुरु ने। मीति = मित्र ने। कउ = को, से। बलि जाईआ = मैं सदके जाता हूँ।1।
अर्थ: हे गुरसिख! मित्र गुरु ने (मुझे) परमात्मा की महिमा की बातें सुनाई हैं। मैं अपने गुरु से बार-बार सदके कुर्बान जाता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आइ मिलु गुरसिख आइ मिलु तू मेरे गुरू के पिआरे ॥ रहाउ॥
मूलम्
आइ मिलु गुरसिख आइ मिलु तू मेरे गुरू के पिआरे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आइ = आ के। गुरसिख = हे गुरु के सिख!। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे गुरु के प्यारे सिख! मुझे आ के मिल, मुझे आ के मिल। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के गुण हरि भावदे से गुरू ते पाए ॥ जिन गुर का भाणा मंनिआ तिन घुमि घुमि जाए ॥२॥
मूलम्
हरि के गुण हरि भावदे से गुरू ते पाए ॥ जिन गुर का भाणा मंनिआ तिन घुमि घुमि जाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भावदे = अच्छे लगते हैं। से = वह गुण (बहुवचन)। ते = से। भाणा = रजा। घुमि घुमि जाए = मैं बार बार सदके जाता हूँ।2।
अर्थ: हे गुरसिख! परमात्मा के गुण (गाने) परमात्मा को पसंद आते हैं। मैंने वह गुण (गाने) गुरु से सीखे हैं। मैं उन (भाग्यशालियों से) बार-बार कुर्बान जाता हूँ, जिन्होंने गुरु के हुक्म को (मीठा समझ के) माना है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन सतिगुरु पिआरा देखिआ तिन कउ हउ वारी ॥ जिन गुर की कीती चाकरी तिन सद बलिहारी ॥३॥
मूलम्
जिन सतिगुरु पिआरा देखिआ तिन कउ हउ वारी ॥ जिन गुर की कीती चाकरी तिन सद बलिहारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। चाकरी = सेवा। सद = सदा।3।
अर्थ: हे गुरसिख! मैं उनके सदके जाता हूँ, जिस प्यारों ने गुरु का दर्शन किया है, जिन्होंने गुरु की (बताई) सेवा की है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि तेरा नामु है दुख मेटणहारा ॥ गुर सेवा ते पाईऐ गुरमुखि निसतारा ॥४॥
मूलम्
हरि हरि तेरा नामु है दुख मेटणहारा ॥ गुर सेवा ते पाईऐ गुरमुखि निसतारा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि! ते = से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। निसतारा = पार उतारा।4।
अर्थ: हे हरि! तेरा नाम सारे दुख दूर करने के समर्थ है, (पर यह नाम) गुरु की शरण पड़ने से ही मिलता है। गुरु के सन्मुख रहने से ही (संसार-समुंदर से) पार लांघा जा सकता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो हरि नामु धिआइदे ते जन परवाना ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ सदा सदा कुरबाना ॥५॥
मूलम्
जो हरि नामु धिआइदे ते जन परवाना ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ सदा सदा कुरबाना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = वह (बहुवचन)। परवाना = स्वीकार, मंजूर। विटहु = से।5।
अर्थ: हे गुरसिख! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाते हैं। नानक उन मनुष्यों से कुर्बान जाता है, सदा सदके जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा हरि तेरी उसतति है जो हरि प्रभ भावै ॥ जो गुरमुखि पिआरा सेवदे तिन हरि फलु पावै ॥६॥
मूलम्
सा हरि तेरी उसतति है जो हरि प्रभ भावै ॥ जो गुरमुखि पिआरा सेवदे तिन हरि फलु पावै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। हरि प्रभ = हे हरि प्रभु! भावै = (तुझे) अच्छी लगती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पावै = देता है।6।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! वही महिमा तेरी महिमा कही जा सकती है जो तुझे पसंद आ जाती है। (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के प्यारे प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं, उनको प्रभु (सुख-) फल देता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिना हरि सेती पिरहड़ी तिना जीअ प्रभ नाले ॥ ओइ जपि जपि पिआरा जीवदे हरि नामु समाले ॥७॥
मूलम्
जिना हरि सेती पिरहड़ी तिना जीअ प्रभ नाले ॥ ओइ जपि जपि पिआरा जीवदे हरि नामु समाले ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेती = से। पिरहड़ी = प्रेम। तिना जीअ = उनके दिल। जीअ = जीव। ओइ = वह लोग। जपि = जप के। जीवदे = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। समाले = हृदय में संभाल के।7।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस लोगों का परमात्मा से प्यार पड़ जाता है, उनके दिल (सदा) प्रभु (के चरणों के) साथ ही (जुड़े रहते) हैं। वह मनुष्य प्यारे प्रभु को स्मरण कर-कर के, प्रभु का नाम हृदय में संभाल के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन गुरमुखि पिआरा सेविआ तिन कउ घुमि जाइआ ॥ ओइ आपि छुटे परवार सिउ सभु जगतु छडाइआ ॥८॥
मूलम्
जिन गुरमुखि पिआरा सेविआ तिन कउ घुमि जाइआ ॥ ओइ आपि छुटे परवार सिउ सभु जगतु छडाइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। घुमि जाइआ = मैं सदके जाता हूँ। सिउ = समेत। सभु = सारा।8।
अर्थ: हे भाई! मैं उन मनुष्यों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर प्यारे प्रभु की सेवा भक्ति की है। वह मनुष्य स्वयं (अपने) परिवार समेत (संसार-समुंदर के विकारों से) बच गए, उन्होंने सारा संसार भी बचा लिया है।8।
[[0726]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि पिआरै हरि सेविआ गुरु धंनु गुरु धंनो ॥ गुरि हरि मारगु दसिआ गुर पुंनु वड पुंनो ॥९॥
मूलम्
गुरि पिआरै हरि सेविआ गुरु धंनु गुरु धंनो ॥ गुरि हरि मारगु दसिआ गुर पुंनु वड पुंनो ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि पिआरै = प्यारे गुरु के द्वारा। धंनु = धन्य, सराहनीय। गुरि = गुरु ने। मारगु = रास्ता। गुर पुंनु = गुरु का उपकार।9।
अर्थ: हे भाई! गुरु सराहनीय है, गुरु सराहना के योग्य है, प्यारे गुरु के द्वारा (ही) मैंने परमात्मा की सेवा-भक्ति आरम्भ की है। मुझे गुरु ने (ही) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता बताया है। गुरु का (मेरे पर ये) उपकार है, बड़ा उपकार है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो गुरसिख गुरु सेवदे से पुंन पराणी ॥ जनु नानकु तिन कउ वारिआ सदा सदा कुरबाणी ॥१०॥
मूलम्
जो गुरसिख गुरु सेवदे से पुंन पराणी ॥ जनु नानकु तिन कउ वारिआ सदा सदा कुरबाणी ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरसिख = गुरु के सिख। पुंन = (विशेषण) पवित्र, भाग्यशाली। से पराणी = वह लोग।10।
अर्थ: हे भाई! गुरु के जो सिख गुरु की (बताई) सेवा करते हैं, वे भाग्यशाली हो गए हैं। दास नानक उनसे सदके जाता है, सदा ही कुर्बान जाता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि सखी सहेलीआ से आपि हरि भाईआ ॥ हरि दरगह पैनाईआ हरि आपि गलि लाईआ ॥११॥
मूलम्
गुरमुखि सखी सहेलीआ से आपि हरि भाईआ ॥ हरि दरगह पैनाईआ हरि आपि गलि लाईआ ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखी = सखियां, सहेलियां। से = वह सखियां। भाईआ = भाई, अच्छी लगीं। पैनाईआ = आदर मिला, उन्हें सिरोपा मिला। गलि = गले से। लाईआ = लगाई।11।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (परस्पर प्रेम से रहने वाली सत्संगी) सहेलियाँ (ऐसी हो जाती हैं कि) वह अपने आप प्रभु को प्यारी लगने लगती हैं। परमात्मा की हजूरी में उन्हें आदर मिलता है, परमात्मा ने उन्हें स्वयं अपने गले से (सदा के लिए) लगा लिया है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो गुरमुखि नामु धिआइदे तिन दरसनु दीजै ॥ हम तिन के चरण पखालदे धूड़ि घोलि घोलि पीजै ॥१२॥
मूलम्
जो गुरमुखि नामु धिआइदे तिन दरसनु दीजै ॥ हम तिन के चरण पखालदे धूड़ि घोलि घोलि पीजै ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीजै = कृपा करके दे। पखालदे = धोते हैं। घोलि = घोल के।12।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (तेरा) नाम स्मरण करते हैं, उनके दर्शन मुझे बख्श। मैं उनके चरण धोता रहूँ, और, उनके चरणों की धूल घोल-घोल के पीता रहूँ।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पान सुपारी खातीआ मुखि बीड़ीआ लाईआ ॥ हरि हरि कदे न चेतिओ जमि पकड़ि चलाईआ ॥१३॥
मूलम्
पान सुपारी खातीआ मुखि बीड़ीआ लाईआ ॥ हरि हरि कदे न चेतिओ जमि पकड़ि चलाईआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खातीआ = खाती। मुखि = मुँह में। बीड़ीआ = बीड़ी, बीड़े, पानों के बीड़े। जमि = जम ने, मौत ने। पकड़ि = पकड़ के।13।
अर्थ: हे भाई! जो जीव-सि्त्रयाँ पान-सुपारी आदि खाती रहती हैं, मुँह में पान चबाती रहती हैं (भाव, सदा पदार्थों के भोग में मस्त हैं), और जिन्होंने परमात्मा का नाम कभी नहीं स्मरण किया, उनको मौत (के चक्कर) ने पकड़ के (सदा के लिए) आगे लगा लिया (अर्थात, वे चौरासी के चक्करों में पड़ गई)।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन हरि नामा हरि चेतिआ हिरदै उरि धारे ॥ तिन जमु नेड़ि न आवई गुरसिख गुर पिआरे ॥१४॥
मूलम्
जिन हरि नामा हरि चेतिआ हिरदै उरि धारे ॥ तिन जमु नेड़ि न आवई गुरसिख गुर पिआरे ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। उरि = हृदय में। धारे = धार के। जमु = मौत, मौत का डर। आवई = आता।14।
अर्थ: हे भाई! जिन्होंने अपने मन में हृदय में टिका के परमात्मा का नाम स्मरण किया, उन गुरु के प्यारे गुरसिखों के नजदीक मौत (का डर) नहीं आता।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु निधानु है कोई गुरमुखि जाणै ॥ नानक जिन सतिगुरु भेटिआ रंगि रलीआ माणै ॥१५॥
मूलम्
हरि का नामु निधानु है कोई गुरमुखि जाणै ॥ नानक जिन सतिगुरु भेटिआ रंगि रलीआ माणै ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। कोई = कोई विरला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य। भेटिआ = मिल गया। रंगि = प्रेम रंग में। माणै = माणता है। नानक = हे नानक!।15।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम खजाना है, कोई विरला मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (नाम से) सांझ डालता है। हे नानक! (कह:) जिस मनुष्यों को गुरु मिल जाता है, वह (हरेक मनुष्य) हरि-नाम के प्रेम में जुड़ के आत्मिक आनंद का सुख लेता है।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु दाता आखीऐ तुसि करे पसाओ ॥ हउ गुर विटहु सद वारिआ जिनि दितड़ा नाओ ॥१६॥
मूलम्
सतिगुरु दाता आखीऐ तुसि करे पसाओ ॥ हउ गुर विटहु सद वारिआ जिनि दितड़ा नाओ ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाता = (नाम की दाति) देने वाला। आखीऐ = कहना चाहिए। तुसि = प्रसन्न हो के। पसाओ = प्रसादि, कृपा। हउ = मैं। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान। जिनि = जिस (गुरु) ने। नाओ = नाम।16।
अर्थ: हे भाई! गुरु को (ही नाम की दाति) देने वाला कहना चाहिए। गुरु प्रसन्न हो के (नाम देने की) कृपा करता है। मैं (तो) सदा गुरु से (ही) कुर्बान जाता हूँ, जिसने (मुझे) परमात्मा का नाम दिया है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो धंनु गुरू साबासि है हरि देइ सनेहा ॥ हउ वेखि वेखि गुरू विगसिआ गुर सतिगुर देहा ॥१७॥
मूलम्
सो धंनु गुरू साबासि है हरि देइ सनेहा ॥ हउ वेखि वेखि गुरू विगसिआ गुर सतिगुर देहा ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंनु = सराहनीय। देइ = देता है। सनेहा = उपदेश। वेखि = देख के। विगसिआ = खिल पड़ा हूँ। गुर देहा = गुरु की देह।17।
अर्थ: हे भाई! वह गुरु सराहनीय है, उस गुरु की प्रशन्सा करनी चाहिए, जो परमात्मा का नाम जपने का उपदेश देता है। मैं (तो) गुरु को देख-देख के गुरु का (सुंदर) शरीर देख के खिल रहा हूँ।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर रसना अम्रितु बोलदी हरि नामि सुहावी ॥ जिन सुणि सिखा गुरु मंनिआ तिना भुख सभ जावी ॥१८॥
मूलम्
गुर रसना अम्रितु बोलदी हरि नामि सुहावी ॥ जिन सुणि सिखा गुरु मंनिआ तिना भुख सभ जावी ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। नामि = नाम से। सुहावी = सुंदर। जिन = जिनका। सिखा = सिखों ने। जावी = दूर हो जाती है।18।
दर्पण-टिप्पनी
(‘जिनि’ और ‘जिन’ में फर्क नोट करें)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु की जीभ आत्मिक जीवन देने वाली हरि-नाम उचारती है, हरि-नाम (उच्चारण के कारण) सुंदर लगती है। जिस सिखों ने (गुरु का उपदेश) सुन के गुरु पर यकीन किया है, उनकी (माया की) सारी भूख दूर हो गई है।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का मारगु आखीऐ कहु कितु बिधि जाईऐ ॥ हरि हरि तेरा नामु है हरि खरचु लै जाईऐ ॥१९॥
मूलम्
हरि का मारगु आखीऐ कहु कितु बिधि जाईऐ ॥ हरि हरि तेरा नामु है हरि खरचु लै जाईऐ ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। कहु = कहो। कितु बिधि = किस तरीके से?।19।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम जपना ही) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता कहा जाता है। हे भाई! बताओ, किस ढंग से (इस रास्ते पर) चला जा सकता है? हे प्रभु! तेरा नाम ही (रास्ते का) खर्च है, ये खर्च ही पल्ले बाँध के (इस रास्ते पर) चलना चाहिए।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन गुरमुखि हरि आराधिआ से साह वड दाणे ॥ हउ सतिगुर कउ सद वारिआ गुर बचनि समाणे ॥२०॥
मूलम्
जिन गुरमुखि हरि आराधिआ से साह वड दाणे ॥ हउ सतिगुर कउ सद वारिआ गुर बचनि समाणे ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। से = वह (बहुवचन)। साह = शाह। दाणे = सियाणे, दानशमंद। सद = सदा। गुर बचनि = गुरु के वचन के द्वारा।20।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपा है वे बड़े समझदार शाह बन गए हैं। मैं सदा गुरु से कुर्बान जाता हूँ, गुरु के वचन के द्वारा (परमात्मा के नाम में) लीन हुआ जा सकता है।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू ठाकुरु तू साहिबो तूहै मेरा मीरा ॥ तुधु भावै तेरी बंदगी तू गुणी गहीरा ॥२१॥
मूलम्
तू ठाकुरु तू साहिबो तूहै मेरा मीरा ॥ तुधु भावै तेरी बंदगी तू गुणी गहीरा ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिबो = साहिब, मालिक। मीरा = सरदार, पातशाह। तुधु = तुझे। गुणी = गुणों का मालिक। गहीरा = गहरे जिगरे वाला।21।
अर्थ: हे प्रभु! तू मेरा मालिक है। तू मेरा साहिब है, तू ही मेरा पातशाह है। अगर तू पसंद आए, तो ही तेरी भक्ति की जा सकती है। तू गुणों का खजाना है, तू गहरे जिगरे वाला है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे हरि इक रंगु है आपे बहु रंगी ॥ जो तिसु भावै नानका साई गल चंगी ॥२२॥२॥
मूलम्
आपे हरि इक रंगु है आपे बहु रंगी ॥ जो तिसु भावै नानका साई गल चंगी ॥२२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। इक रंगु = एक स्वरूप वाला। बहु रंगी = अनेक स्वरूपों वाला।22।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा आप ही (निर्गुण स्वरूप में) एक मात्र हस्ती है, और, आप ही (सर्गुण स्वरूप में) अनेक रूपों वाला है। जो बात उसे अच्छी लगती है, वही बात जीवों के भले के लिए होती है।22।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ९ काफी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
तिलंग महला ९ काफी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चेतना है तउ चेत लै निसि दिनि मै प्रानी ॥ छिनु छिनु अउध बिहातु है फूटै घट जिउ पानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चेतना है तउ चेत लै निसि दिनि मै प्रानी ॥ छिनु छिनु अउध बिहातु है फूटै घट जिउ पानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तउ = तो। निसि = रात। दिनि मै = दिन में। निस दिन महि = रात दिन में, रात दिन एक करके। प्रानी = हे मनुष्य! अउधु = उम्र। बिहातु है = बीतती जा रही है। जिउ = जैसे। फूटै = टूटे हुए घड़े में से।1।
अर्थ: हे मनुष्य! अगर तूने परमात्मा का नाम स्मरणा है, तो दिन-रात एक करके स्मरणा शुरू कर दे, (क्योंकि) जैसे चटके हुए घड़े में से पानी (धीरे-धीरे निकलता रहता है, वैसे ही) एक-एक छिन करके उम्र बीतती जा रही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि गुन काहि न गावही मूरख अगिआना ॥ झूठै लालचि लागि कै नहि मरनु पछाना ॥१॥
मूलम्
हरि गुन काहि न गावही मूरख अगिआना ॥ झूठै लालचि लागि कै नहि मरनु पछाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहि = क्यों? गावही = तू गाता है। मूरख = हे मूर्ख! अगिआना = हे ज्ञान हीन! ललचि = लालच में। लागि कै = फस के। मरनु = मौत।1।
अर्थ: ओह, बेवकूफ! ओह, समझ से बाहर! तुम परमेश्वर की स्तुति के गीत क्यों नहीं गाते हो? झूठे प्रलोभन का लालच में फंस कर मौत तुझे याद नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजहू कछु बिगरिओ नही जो प्रभ गुन गावै ॥ कहु नानक तिह भजन ते निरभै पदु पावै ॥२॥१॥
मूलम्
अजहू कछु बिगरिओ नही जो प्रभ गुन गावै ॥ कहु नानक तिह भजन ते निरभै पदु पावै ॥२॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: काफी एक रागिनी का नाम है। इन शबदों को तिलंग और काफी दोनों मिश्रित रागों में गाना है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजहू = अभी भी। जो = अगर। गावै = गाने शुरू कर दे। कहु = कह। नानक = हे नानक! तिह भजन ते = उस परमात्मा के भजन से। तिह = उस। ते = से। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई डर छू नहीं सकता। पावै = प्राप्त कर लेता है।2।
अर्थ: हे मूर्ख! हे बेसमझ! तू परमात्मा की महिमा के गीत गाने आरम्भ कर दे (भले ही स्मरण के बग़ैर कितनी ही उम्र बीत चुकी हो) फिर भी कोई नुकसान नहीं होता, (क्योंकि) उस परमात्मा के भजन की इनायत से मनुष्य वह आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लेता है, जहाँ कोई डर छू नहीं सकता।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ९ ॥ जाग लेहु रे मना जाग लेहु कहा गाफल सोइआ ॥ जो तनु उपजिआ संग ही सो भी संगि न होइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तिलंग महला ९ ॥ जाग लेहु रे मना जाग लेहु कहा गाफल सोइआ ॥ जो तनु उपजिआ संग ही सो भी संगि न होइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाग लेहु = होश कर, सचेत हो। कहा = क्यों? गाफल = बेफिक्र। संग ही = संगि ही, साथ ही। संगि = साथ। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘संग ही’ में से ‘संगि’ की ‘गि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मन! होश कर, होश कर! तू क्यों (माया के मोह में) बेपरवाह हो के सो रहा है? (देख) जो (ये) शरीर (मनुष्य के साथ) ही पैदा होता है; ये भी (आखिर) साथ नहीं जाता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मात पिता सुत बंध जन हितु जा सिउ कीना ॥ जीउ छूटिओ जब देह ते डारि अगनि मै दीना ॥१॥
मूलम्
मात पिता सुत बंध जन हितु जा सिउ कीना ॥ जीउ छूटिओ जब देह ते डारि अगनि मै दीना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंध जन = रिश्तेदार। हितु = प्यार। जा सिउ = जिस से। जीउ = जिंद। छूटिओ = निकल जाती है। देह ते = शरीर में से। ते = से। डारि दीना = डाल दिया, फेंक दिया। अगनि महि = आग में।1।
अर्थ: हे मन! (देख,) माता, पिता, पुत्र, रिश्तेदार- जिनसे मनुष्य (सारी उम्र) प्यार करता रहता है, जब जीवात्मा शरीर से अलग होती है, तब (वह सारे रिश्तेदार, उसके शरीर को) आग में डाल देते हैं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवत लउ बिउहारु है जग कउ तुम जानउ ॥ नानक हरि गुन गाइ लै सभ सुफन समानउ ॥२॥२॥
मूलम्
जीवत लउ बिउहारु है जग कउ तुम जानउ ॥ नानक हरि गुन गाइ लै सभ सुफन समानउ ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवत लउ = जिंदगी तक। लउ = तक। बिउहारु = व्यवहार। जग कउ = जगत को। जानउ = समझो। समानउ = समान, जैसा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे मन!) जगत को तू ऐसा ही समझ (कि यहाँ) जिंदगी तक ही बर्ताव-व्यवहार रहता है। वैसे भी, ये सारा सपने की तरह ही है। (इस वास्ते जब तक जीता है) परमात्मा के गुण गाता रह।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग महला ९ ॥ हरि जसु रे मना गाइ लै जो संगी है तेरो ॥ अउसरु बीतिओ जातु है कहिओ मान लै मेरो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तिलंग महला ९ ॥ हरि जसु रे मना गाइ लै जो संगी है तेरो ॥ अउसरु बीतिओ जातु है कहिओ मान लै मेरो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा। संगी = साथी। अउसरु = अवसर, (जिंदगी का) समय। बीतिओ जातु है = बीतता जा रहा है। मेरो कहिओ = मेरा कहा, मेरा वचन।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा के महिमा के गीत गाया कर, ये महिमा ही तेरा असल साथी है। मेरे वचन मान ले। उम्र का समय बीतता जा रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मपति रथ धन राज सिउ अति नेहु लगाइओ ॥ काल फास जब गलि परी सभ भइओ पराइओ ॥१॥
मूलम्
स्मपति रथ धन राज सिउ अति नेहु लगाइओ ॥ काल फास जब गलि परी सभ भइओ पराइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संपति = धन पदार्थ। सिउ = साथ। नेहु = प्यार। फास = फासी। जब = जब। गलि = गले में। परी = पड़ती है। सभ = हरेक चीज। पराइओ = बेगानी।1।
अर्थ: हे मन! मनुष्य धन-पदार्थ, रथ, माल, राज माल से बड़ा मोह करता है। पर जब मौत की फाँसी (उसके) गले में पड़ती है, हरेक चीज बेगानी हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानि बूझ कै बावरे तै काजु बिगारिओ ॥ पाप करत सुकचिओ नही नह गरबु निवारिओ ॥२॥
मूलम्
जानि बूझ कै बावरे तै काजु बिगारिओ ॥ पाप करत सुकचिओ नही नह गरबु निवारिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानि कै = जान के, जानते हुए। बूझि कै = समझ के, समझते हुए। बावरे = हे झल्ले! तै बिगारिओ = तूने बिगाड़ लिया है। काजु = काम। करत = करता। सुकचिओ = संकोचित हुआ, शर्माया। गरबु = अहंकार। निवारिओ = दूर किया।2।
अर्थ: हे झल्ले मनुष्य! ये सब कुछ जानते हुए समझते हुए भी तू अपना काम बिगाड़ रहा है। तू पाप करते हुए (कभी) संकोचित नहीं होता, तू (इस धन-पदार्थ का) अहंकार भी दूर नहीं करता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह बिधि गुर उपदेसिआ सो सुनु रे भाई ॥ नानक कहत पुकारि कै गहु प्रभ सरनाई ॥३॥३॥
मूलम्
जिह बिधि गुर उपदेसिआ सो सुनु रे भाई ॥ नानक कहत पुकारि कै गहु प्रभ सरनाई ॥३॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह बिधि = जिस तरीके से। गुरि = गुरु ने। रे = हे! पुकारि कै = ऊँचा बोल के। गहु = पकड़। प्रभ सरनाई = प्रभु की शरण।3।
अर्थ: नानक (तुझे) पुकार के कहता है: हे भाई! गुरु ने (मुझे) जिस तरह उपदेश किया है, वह (तू भी) सुन ले (कि) प्रभु की शरण पड़ा रह (सदा प्रभु का नाम जपा कर)।3।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलंग बाणी भगता की कबीर जी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
तिलंग बाणी भगता की कबीर जी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥ टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥
मूलम्
बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥ टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कतेब = पष्चिमी मतों की धार्मिक पुस्तक (तौरेत, ज़ंबूर, अंजील, कुरान)। इफतरा = (अरबी) मुबालग़ा, बनावट, अस्लियत से बढ़ा चढ़ा के बताई हुई बातें। फिकरु = सहम, अशांति। टुकु = थोड़ी सी। टुकु दमु = पलक भर। करारी = टिकाउ एकाग्रता। जउ = अगर। हाजिर हजूरि = हर जगह मौजूद। खुदाइ = रब, परमात्मा।1।
अर्थ: हे भाई! (वाद-विवाद की खातिर) वेदों-कतेबों के हवाले दे-दे कर ज्यादा बातें करने से (मनुष्य के अपने) दिल का सहम दूर नहीं होता। (हे भाई!) अगर तुम अपने मन को पलक भर के लिए ही टिकाओ, तो तुम्हें सब में ही बसता ईश्वर दिखेगा (किसी के विरुद्ध तर्क करने की आवश्यक्ता नहीं पड़ेगी)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥ इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥ इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदे = हे मनुष्य! परेसानी = घबराहट। सिहरु = जादू, वह जिसकी अस्लियत कुछ और हो पर देखने को कुछ अजीब मन मोहना दिखता हो। मेला = खेल, तमाशा। दसतगीरी = (दसत = हाथ। गीरी = पकड़ना) हाथ पल्ले पड़ने वाली चीज, सदा संभाल के रखने वाली चीज। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (अपने ही) दिल को हर वक्त खोज, (बहस मुबाहसे की) घबराहट में ना भटक। ये जगत एक जादू सा है, एक तमाशे जैसा है, (इसमें से इस व्यर्थ के वाद-विवाद से) हाथ-पल्ले पड़ने वाली कोई चीज़ नहीं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥ हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥
मूलम्
दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥ हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरोगु = झूठ। दरोगु पढ़ि पढ़ि = ये पढ़ के कि वेद झूठे हैं अथवा ये पढ़ के कि कतेब झूठे हैं। होइ = हो के। बेखबर = अन्जान मनुष्य। बादु = झगड़ा, बहस। बकाहि = बोलते हैं। बादु बकाहि = बहस करते हैं। हकु सचु = सदा कायम रहने वाला रब। मिआने = में। सिआम मूरति = श्याम मूर्ति, कृष्ण जी की मूर्ति। नाहि = (रब) नहीं है।2।
अर्थ: बेसमझ लोग (दूसरे मतों की धर्म-पुस्तकों के बारे में ये) पढ़-पढ़ के (कि इनमें जो लिखा है) झूठ (है), खुश हो-हो के बहस करते हैं। (पर, वे ये नहीं जानते कि) सदा कायम रहने वाला ईश्वर सृष्टि में (भी) बसता है, (ना वह अलग सातवें आसमान पर बैठा है और) ना ही वह परमात्मा कृष्ण की मूर्ति है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असमान म्यिाने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥ करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥
मूलम्
असमान म्यिाने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥ करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असमान = आकाश, दसवाँ द्वार, अंतहकर्ण, मन। मिआने = मिआने, अंदर। लहंग = लांघता है, गुजरता है, बहता है। दरीआ = (सर्व व्यापक प्रभु-रूप) नदी। गुसल = स्नान। करदन बूद = (करदनी बूद) करना चाहिए था। फकरु = फकीरी, बंदगी वाला जीवन। चसमे = ऐनकें। जह तहा = हर जगह।3।
अर्थ: (सातवें आसमान में बैठा समझने की जगह, हे भाई!) वह प्रभु-रूप दरिया व अंतहकर्ण में लहरें मार रहा है, तूने उसमें स्नान करना था। सो, हमेशा उसकी बँदगी कर, (ये भक्ति की) ऐनक लगा (के देख), वह हर जगह मौजूद है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥ कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥
मूलम्
अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥ कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलाह = अल्लाह। पाकं पाक = पवित्र से भी पवित्र, सबसे पवित्र। सक = शक, भ्रम। करउ = मैं करूँ। दूसर = (उस जैसा कोई और) दूसरा। करम = बख्शश। करीम = बख्शिश करने वाला। उहु = वह प्रभु। सोइ = वह मनुष्य (जिस पर प्रभु बख्शिश करता है)।4।
अर्थ: ईश्वर सब से पवित्र (हस्ती) है (उससे पवित्र और कोई नहीं है), इस बात पर मैं तब ही शक करूँ, अगर उस ईश्वर जैसा दूसरा और कोई हो। हे कबीर! (इस भेद को) वह मनुष्य ही समझ सकता है जिसको वह समझने के काबिल बनाए। और, ये बख्शिश उस बख्शिश करने वाले के अपने हाथ में है।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के दूसरे बँद के शब्द ‘बादु’ व ‘सिआम मूरति’ से ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर जी किसी काजी और पण्डित की बहस को ना-पसंद करते हुए ये शब्द उचार रहे हैं। बहसों में आम-तौर पर एक-दूसरे की धर्म-पुस्तकों पर कीचड़ उछालने के यत्न किए जाते हैं, दूसरे मत को झूठा साबित करने की कोशिश की जाती है। पर बहस करने वाले से कोई पूछे कि कभी इस में से दिल को भी कोई शांति हासिल हुई है? कोई कहता है कि रब सातवें स्थान पर है, कोई कहता है कृष्ण जी की मूर्ति ही परमात्मा है; पर ये भेद बँदगी करने वाले को समझ में आता है कि परमात्मा सृष्टि में बसता है, परमात्मा हर जगह मौजूद है।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: दूसरे की धर्म-पुस्तकों पर कीचड़ उछाल के मन को शांति नहीं मिल सकती। अंदर बसते रब की बँदगी करो, सारी सृष्टि में दिख जाएगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामदेव जी ॥ मै अंधुले की टेक तेरा नामु खुंदकारा ॥ मै गरीब मै मसकीन तेरा नामु है अधारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नामदेव जी ॥ मै अंधुले की टेक तेरा नामु खुंदकारा ॥ मै गरीब मै मसकीन तेरा नामु है अधारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेक = ओट, सहारा। खुंदकारा = सहारा। खुंदकार = बादशाह, हे मेरे पातशाह! मसकीन = आजिज़। अधारा = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे पातशाह! तेरा नाम मुझ अंधे की डंगोरी है, सहारा है; मैं कंगाल हूँ, मैं मसकीन हूँ, तेरा नाम (ही) मेरा आसरा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करीमां रहीमां अलाह तू गनीं ॥ हाजरा हजूरि दरि पेसि तूं मनीं ॥१॥
मूलम्
करीमां रहीमां अलाह तू गनीं ॥ हाजरा हजूरि दरि पेसि तूं मनीं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करीमां = हे करीम! हे बख्शिश करने वाले! रहीमां = हे रहीम! ळे रहम करने वाले! गनीं = अमीर, भरा पूरा। हाजरा हजूरि = हर जगह मौजूद, प्रत्यक्ष, मौजूद। दरि = में। पेसि = सामने। दरि पेसि मनीं = मेरे सामने।1।
अर्थ: हे अल्लाह! हे करीम! हे रहीम! तू (ही) अमीर है, तू हर वक्त मेरे सामने है (फिर, मुझे किसी और की क्या अधीनता?)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरीआउ तू दिहंद तू बिसीआर तू धनी ॥ देहि लेहि एकु तूं दिगर को नही ॥२॥
मूलम्
दरीआउ तू दिहंद तू बिसीआर तू धनी ॥ देहि लेहि एकु तूं दिगर को नही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिहंद = देने वाला, दाता। बिसीआर = बहुत। धनी = धनवाला। देहि = तू देता है। लेहि = तू लेता है। दिगर = कोई और, दूसरा।2।
अर्थ: तू (रहमत का) दरिया है, तू दाता है, तू बहुत ही धन वाला है; एक तू ही (जीवों को पदार्थ) देता है, और मोड़ लेता है, कोई और ऐसा नहीं (जो ये सामर्थ्य रखता हो)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं दानां तूं बीनां मै बीचारु किआ करी ॥ नामे चे सुआमी बखसंद तूं हरी ॥३॥१॥२॥
मूलम्
तूं दानां तूं बीनां मै बीचारु किआ करी ॥ नामे चे सुआमी बखसंद तूं हरी ॥३॥१॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानां = जानने वाला। बीनां = देखने वाला। च = का। चे = के। ची = की। नामे चे = नामे के। नामे चे सुआमी = हे नामदेव के स्वामी!।3।
अर्थ: हे नामदेव के पति-परमेश्वर! हे हरि! तू सब बख्शिशें करने वाला है, तू (सबके दिल की) जानने वाला है और (सबके काम) देखने वाला है; हे हरि! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बखान करूँ?।3।1।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अगर इस्लामी शब्द, अल्लाह, करीम, रहीम के प्रयोग से हम नामदेव जी को मुसलमान नहीं समझ सकते, तो कृष्ण और बीठुल आदि शब्दों के प्रयोग पर भी ये अंदाजा लगाना ग़लत है कि नामदेव जी बीठुल मूर्ति के पुजारी थे।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु का गुणानुवाद: तू ही मेरा सहारा है। सब का राज़क तू ही है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हले यारां हले यारां खुसिखबरी ॥ बलि बलि जांउ हउ बलि बलि जांउ ॥ नीकी तेरी बिगारी आले तेरा नाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हले यारां हले यारां खुसिखबरी ॥ बलि बलि जांउ हउ बलि बलि जांउ ॥ नीकी तेरी बिगारी आले तेरा नाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हले यारां = हे मित्र! हे सज्जन! खुसि = खुशी देने वाली, ठंड डालने वाली। खबरी = तेरी ख़बर, तेरी सोय (जैसे; “सोइ सुणंदड़ी मेरा तनु मनु मउला”)। बलि बलि = सदके जाता हूँ। हउ = मैं। नीकी = सुंदर, अच्छी, प्यारी। बिगारी = वेगार, किसी और के लिए किया हुआ काम।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दुनिया के सारे धंधे हम इस शरीर की खातिर और पुत्र-स्त्री आदि संबंधियों की खातिर करते हैं, पर समय आता है जब ना ये शरीर साथ निभाता है ना ही संबंधी। सो सारी उम्र वेगार ही करते रहते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
तेरी बिगारी = ये रोजी आदि कमाने का काम जिस में तूने हमें लगाया हुआ है। आले = आहला, ऊँचा, बड़ा, सब से प्यारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे सज्जन! हे प्यारे! तेरी खबर ठंडक देने वाली है (भाव, तेरी कथा-कहानियाँ सुन के मुझे सकून मिलता है); मैं सदा तुझसे सदके जाता हूँ, कुर्बान हूँ। (हे मित्र!) तेरा नाम (मुझे) सबसे ज्यादा प्यारा (लगता) है, (इस नाम की इनायत से ही, दुनिया के कार्य वाली) तेरी दी हुई वेगार भी (मुझे) मीठी लगती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुजा आमद कुजा रफती कुजा मे रवी ॥ द्वारिका नगरी रासि बुगोई ॥१॥
मूलम्
कुजा आमद कुजा रफती कुजा मे रवी ॥ द्वारिका नगरी रासि बुगोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुजा = (अज़) कुजा, कहाँ से? आमद = आमदी, तू आया। कुजा = कहाँ? रफती = तू गया था। मे रवी = तू जा रहा है। कुजा…मे रवी = तू कहाँ से आया? तू कहाँ गया? तू कहाँ जा रहा है? (भाव, ना तू कहीं से आया, ना तू कहीं कभी गया, और ना ही तू कहीं जा रहा है; तू सदा अटल है)। रासि = (संस्कृत: रास, a kind of dance practiced by Krishna and the cowherds but particularly the gopis or cowherdesses of Vrindavana, 2. Speech) रासें जहाँ कृष्ण जी नृत्य करते व गीत सुनाते थे। बुगोई = तू (ही) कहता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
(रासि मंडलु कीनो आखारा। सगलो साजि रखिओ पासारा। —– सूही महला ५)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे सज्जन!) ना तू कहीं से आया, ना तू कभी कहीं गया और ना ही तू कहीं जा रहा है (भाव, तू सदा अटल है) द्वारिका नगरी में रास भी तू स्वयं ही डालता है (भाव, कृष्ण भी तू खुद ही है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खूबु तेरी पगरी मीठे तेरे बोल ॥ द्वारिका नगरी काहे के मगोल ॥२॥
मूलम्
खूबु तेरी पगरी मीठे तेरे बोल ॥ द्वारिका नगरी काहे के मगोल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खूब = सुंदर। द्वारिका नगरी….मगोल = काहे के द्वारका नगरी, काहे के मगोल; किस लिए द्वारका नगरी में और किसलिए मुगल (-धर्म) के नगर में? ना तू सिर्फ द्वारका में है, और ना तू सिर्फ मुसलमानी धर्म केन्द्र मक्के में है।2।
अर्थ: हे यार! सुंदर सी तेरी पगड़ी है (भाव, तेरा स्वरूप सुंदर है) और प्यारे तेरे वचन हैं, ना तू सिर्फ द्वारिका में है और तू सिर्फ इस्लामी धर्म केन्द्र मक्के में है (बल्कि, तू हर जगह है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदीं हजार आलम एकल खानां ॥ हम चिनी पातिसाह सांवले बरनां ॥३॥
मूलम्
चंदीं हजार आलम एकल खानां ॥ हम चिनी पातिसाह सांवले बरनां ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंदीं हजार = कई हजारों। आलम = दुनिया। एकल = अकेला। खानां = खान, मालिक। हम चिनी = इसी ही तरह का। हम = भी। चिनी = ऐसा। सांवले बरनां = साँवले रंग वाला, कृष्ण।3।
अर्थ: (सृष्टि के) कई हजार मण्डलों का तू इकलौता (खद ही) मालिक है। हे पातशाह! ऐसा ही साँवले रंग वाला कृष्ण है (भाव, कृष्ण भी तू स्वयं ही है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असपति गजपति नरह नरिंद ॥ नामे के स्वामी मीर मुकंद ॥४॥२॥३॥
मूलम्
असपति गजपति नरह नरिंद ॥ नामे के स्वामी मीर मुकंद ॥४॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असपति = (अश्वपति = Lord of horses) सूर्य देवता। गजपति = इन्द्र देवता। नरह मरिंद = नरों का राजा, ब्रहमा। मुकंद = (संस्कृत: मुकुंद = मुकुं दाति इति) मुक्ति देने वाला, विष्णु और कृष्ण जी का नाम है।4।
अर्थ: हे नामदेव के पति-प्रभु! तू स्वयं ही मीर है तू खुद ही कृष्ण है, तू स्वयं ही सूर्य देवता है, तू खुद ही इन्द्र है, और तू खुद ही ब्रहमा है।4।2।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 4 का भाव है कि इस शब्द के 4 बंद हैं। अंक 2 बताता है कि नामदेव जी का ये दूसरा शब्द है। अंक 3 ये बताने के लिए है कि भगतों के सारे शबदों का जोड़ 3 है: 1 कबीर जी का और 2 नामदेव जी के।
नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुई वाणी (चाहे वह सतिगुरु जी की अपनी उचारी हुई है और चाहे किसी भक्त की) सिख में जीवन पैदा करने के लिए है, सिख के जीवन का स्तम्भ है। अगर वह मुगल की कहानी ठीक मान ली जाए, तो सिख इस वक्त इस शब्द को अपने जीवन का आसरा कैसे बनाएं? हुक्म है: “परथाइ साखी महापुरख बोलदै साझी सगल जहानै”। मुगलों के राज के वक्त नामदेव जी को किसी मुग़ल हाकम में रब दिखाई दे गया, तो क्या अंग्रेजी हकूमत के वक्त अगर कोई अंग्रेज़ किसी सिख पर वहिशियाना जुल्म करे तो सिख उस अंग्रेज में रब देखे? क्या ये शब्द सिर्फ पिछली बीत चुकी कहानी से ही संबंध रखता था? क्या इसकी अब किसी सिख को अपने अमली जीवन में जरूरत नहीं दिखती?
अगर नामदेव जी किसी उच्च जाति के होते, धन-पदार्थ वाले भी होते और किसी अति नीच कंगाल आदमी को देख के वज़द में आते और उसे रब कहते, तब तो हमें गुरु नानक देव जी का ऊँचा निशाना इस तरह सामने दिखाई दे जाता;
“नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीच॥
नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस॥ ”
पर, कमजोर आदमी हमेश बलवान को ‘माई बाप’ कह दिया करता है। इस में कोई फख्र नहीं किया जा सकता। सो, मुग़ल और उसकी बछेरी वाली कहानी यहाँ बेमतलब और जल्दबाजी में जोड़ी गई है।
इस शब्द में बरते हुए शब्द ‘पगरी’ और ‘मगोल’ से शायद ये कहानी चल पड़ी हो, क्योंकि शब्द ‘पगरी’ का प्रयोग करके तो किसी मनुष्य का ही जिक्र किया प्रतीत होता है। पर, ऐसे तो गुरु नानक देव जी परमात्मा की स्तुति करते-करते उसके नाक व सुंदर केसों का भी जिक्र करते हैं। क्या वहाँ भी किसी मनुष्य की कहानी जोड़नी पड़ेगी? देखें;
वडहंस महला १ छंत
तेरे बंके लोइण दंत रीसाला॥ सोहणे नक जिन लंमड़े वाला॥
कंचन काइआ सुइने की ढाला॥ …..॥7॥
तेरी चाल सुहाई मधुराड़ी बाणी॥ ….
बिनवंति नानकु दासु हरि का तेरी चाल सुहावी मधुराड़ी बाणी॥8॥2॥
नामदेव जी के इस शब्द में किसी घोड़ी अथवा घोड़ी के बछड़े का तो कोई वर्णन नहीं, सिर्फ शब्द ‘बिगार’ ही मिलता है; पर ये शब्द सतिगुरु जी ने भी कई बार प्रयोग किया है; जैसे,
नित दिनसु राति लालचु करे, भरमै भरमाइआ॥
वेगारि फिरै वेगारीआ, सिरि भारु उठाइआ॥
जो गुर की जनु सेवा करे, सो घर कै कंमि हरि लाइआ॥1॥48॥
(गउड़ी बैरागणि महला ४, पन्ना 166)
क्यों ना इस शब्द में भी ये शब्द उसी भाव में समझा जाए जिसमें सतिगुरु जी ने प्रयोग किया है? फिर, किसी घोड़ी के वर्णन को लाने की आवश्यक्ता ही नहीं रहेगी।
जिस तरीके से मुगल की घोड़ी का संबंध इस शब्द के साथ जोड़ा जाता है, वह बड़ा अप्रासंगिक सा लगता है। कहते कि जब वृद्ध अवस्था में नामदेव जी कपड़ों की गठड़ी उठा के घाट तक पहुँचाने में मुश्किल महसूस करने लगे, तो उनके मन में विचार उठा कि अगर एक घोड़ी ले लें तो कपड़े उस पर लाद लिए जाया करें। पर नामदेव जी का ये ख्याल परमात्मा को अच्छा ना लगा, क्योंकि इस तरह नामदेव के माया में फसने का खतरा प्रतीत होता था।
कहानी बहुत ही कच्ची सी लगती है। कुदरत के नियम के मुताबिक ही मनुष्य पर वृद्ध अवस्था आती है। तब शारीरिक कमजोरी के कारण भक्त नामदेव जी को अपने जीवन निर्वाह के लिए मजदूरी करने में घोड़ी की जरूरत हुई तो ये कोई पाप नहीं। खाली रह के, भक्ति के बदले लोगों पर अपनी रोटी का भार डालना तो प्रत्यक्ष तौर पर बुरा काम है। पर, भक्ति के साथ-साथ मेहनत-कमाई भी अपने हाथों से करनी, ये तो बल्कि धर्म का सही निशाना है।
पंडित तारा सिंह जी ने इस कहानी की जगह सिर्फ यही लिखा है कि द्वारका से चलने के समय नामदेव जी को थकावट से बचने के लिए घोड़ी की आवश्यक्ता महसूस हुई। शब्द में चुँकि घोड़ी और बछेड़े का कोई जिक्र नहीं है, अब के विद्वानों ने ये लिखा है कि द्वारिका में नामदेव को किसी मुग़ल ने वेगारे पकड़ लिया, तो उस मुग़ल में भी रब देख के ये शब्द उचारा।
एक ही शब्द के बारे में अलग-अलग उथानकें बन जाएं तो ही शक पक्का होता जाता है कि शब्द के अर्थ की मुश्किल ने मजबूर किया है कोई आसान हल तलाशने के लिए, वरना किसी घोड़ी अथवा वेगार वाली कोई घटना नहीं घटी। इस बात के बारे में विद्वान मानते हैं कि नामदेव जी की उस वक्त इतनी ऊँची आत्मिक अवस्था थी कि वे अकाल-पुरख को हर जगह प्रत्यक्ष देख रहे थे, उस मुग़ल में भी उन्होंने अपने परमात्मा को ही देखा;उस वक्त वे जगत के कर्तार के निर्गुण स्वरूप के अनिन्य भक्त थे। पर यहाँ एक भारी मुश्किल आ पड़ती है, वह ये कि भक्त नामदेव जी तब द्वारिका क्या करने गए थे? कई कारण हो सकते हैं: सैर करने, किसी साक-संबंधी को मिलने, रोजी संबंधी किसी कार्य-व्यवहार के लिए, किसी वैद्य-हकीम से कोई दवा दारू लेने? जब हम ये देखते हैं कि नामदेव जी के नगर पंडरपुर से द्वारका की दूरी छह सौ मील के करीब है, तो उपरोक्त सारे अंदाजे बेअर्थ रह जाते हैं, क्योंकि उस जमाने में गाड़ियों आदि का कोई सिलसिला नहीं था। इतनी लंबी दूरी तक चल के जाने के लिए आखिर कोई खासी जरूरत ही पड़ी होगी। द्वारिका कृष्ण जी की नगरी है और कृष्ण जी के भक्त दूर-दूर से द्वारिका के दर्शनों को जाते हैं। गुरु अमरदास जी के समय की पण्डित माई दास की कथा भी बहुत प्रसिद्ध है। सो, क्या भक्त नामदेव जी बाकी के कृष्ण भक्तों की ही तरह द्वारिका के दर्शनों को गए थे? ये नहीं हो सकता। नामदेव जी का ये शब्द ही बताता है कि वे ‘चंदी हजार आलम’ के ‘एकल खानां’ के अनिन्य भक्त थे। मुग़ल की कहानी लिखने वाले भी ये मानते हैं कि उन्होंने मुग़ल में भी रब देखा। इसलिए सर्व-व्यापक परमात्मा के भक्त को विशेष तौर पर छह सौ मील रास्ता चल के मूर्ति के दर्शनों के लिए द्वारका जाने की जरूरत नहीं थी। ये कहानी इस शब्द के शब्द “दुआरका, मगोल, पगरी, बिगारी” को जल्दबाजी में जोड़ के बनाई गई है। इस शब्द में केवल अकाल-पुरख की महिमा की गई है बस।
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा सदा अटल है, और हर जगह मौजूद है।