[[0719]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु बैराड़ी महला ४ घरु १ दुपदे
मूलम्
रागु बैराड़ी महला ४ घरु १ दुपदे
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि मन अकथ कथा हरि नाम ॥ रिधि बुधि सिधि सुख पावहि भजु गुरमति हरि राम राम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनि मन अकथ कथा हरि नाम ॥ रिधि बुधि सिधि सुख पावहि भजु गुरमति हरि राम राम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अकथ = वह प्रभु जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। अकथ कथा = उस प्रभु के महिमा की बातें जिसका सही स्वरूप बताया नहीं जा सकता। रिधि = धन पदार्थ। बुधि = अकल। सिधि = करामाती ताकतें। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा। गुरमति = गुरु की शिक्षा पर चल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! उस परमात्मा के नाम की महिमा सुना कर जिसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। हे मन! गुरु की मति पर चल के परमात्मा का भजन किया कर। तू धन-पदार्थ, ऊँची अक्ल, करामाती ताकतें, सारे सुख (हरि-नाम में ही) प्राप्त कर लेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना खिआन पुरान जसु ऊतम खट दरसन गावहि राम ॥ संकर क्रोड़ि तेतीस धिआइओ नही जानिओ हरि मरमाम ॥१॥
मूलम्
नाना खिआन पुरान जसु ऊतम खट दरसन गावहि राम ॥ संकर क्रोड़ि तेतीस धिआइओ नही जानिओ हरि मरमाम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानाखिआन = नाना आख्यान। नाना = कई किस्मों के। आख्यान = प्रसंग। जसु = महिमा। खट दरसन = छह शास्त्र। गावहि = गाए जाते हैं। संकर = शिव। मरमाम = मर्म, भेद।1।
अर्थ: हे मन! (उस अकथ परमात्मा का स्मरण किया कर जिसका) उत्तम यश (महाभारत आदि) अनेक प्रसंग, पुराण और छह शास्त्र गाते हैं (पर उसका अंत नहीं पा सके)। शिव जी और तैंतिस करोड़ देवताओं ने भी उसका ध्यान धरा, पर उस हरि का भेद नहीं पाया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरि नर गण गंध्रब जसु गावहि सभ गावत जेत उपाम ॥ नानक क्रिपा करी हरि जिन कउ ते संत भले हरि राम ॥२॥१॥
मूलम्
सुरि नर गण गंध्रब जसु गावहि सभ गावत जेत उपाम ॥ नानक क्रिपा करी हरि जिन कउ ते संत भले हरि राम ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरि = देवते। नर = मनुष्य। गण = शिव जी के सेवक। गंध्रब = गंधर्व, देवताओं के रागी। जेत = जितनी भी। उपाम = पैदा की हुई। करी = की हुई। जिन कउ = जिस पर। ते = वह (बहुवचन)।2।
अर्थ: (हे मन! उस परमात्मा की कथा सुना कर जिसका) यश देवतागण, मनुष्य व गंधर्व गाते आ रहे हैं, जितनी भी पैदा की हुई सृष्टि है, सारी जिसके गुण गाती है। हे नानक! (कह: हे मन!) परमात्मा जिस मनुष्यों पर कृपा करता है, वह मनुष्य उच्च जीवन वाले संत बन जाते हैं (वैसे उसका कोई भेद नहीं पाया जा सकता)।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैराड़ी महला ४ ॥ मन मिलि संत जना जसु गाइओ ॥ हरि हरि रतनु रतनु हरि नीको गुरि सतिगुरि दानु दिवाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बैराड़ी महला ४ ॥ मन मिलि संत जना जसु गाइओ ॥ हरि हरि रतनु रतनु हरि नीको गुरि सतिगुरि दानु दिवाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! मिलि = मिल के। गाइओ = गाया। नीको = अच्छा, कीमती। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! गुरु ने सतिगुरु ने (जिस मनुष्य को परमात्मा से) परमात्मा का नाम-रत्न कीमती नाम बख्शिश के तौर पर दिलवा दिया, उसने संत जनों के साथ मिल के परमात्मा की महिमा करनी शुरू कर दी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु जन कउ मनु तनु सभु देवउ जिनि हरि हरि नामु सुनाइओ ॥ धनु माइआ स्मपै तिसु देवउ जिनि हरि मीतु मिलाइओ ॥१॥
मूलम्
तिसु जन कउ मनु तनु सभु देवउ जिनि हरि हरि नामु सुनाइओ ॥ धनु माइआ स्मपै तिसु देवउ जिनि हरि मीतु मिलाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। देवउ = देऊँ, मैं देता हूँ। जिनि = जिसने। संपै = धन पदार्थ।1।
अर्थ: हे मन! मैं उस मनुष्य को अपना मन तन सब कुछ भेटा करता हूँ, धन-पदार्थ-माया उसके हवाले करता हूँ, जिसने (मुझे) परमात्मा का नाम सुनाया है, जिसने (मुझे) मित्र प्रभु मिलाया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिनु किंचित क्रिपा करी जगदीसरि तब हरि हरि हरि जसु धिआइओ ॥ जन नानक कउ हरि भेटे सुआमी दुखु हउमै रोगु गवाइओ ॥२॥२॥
मूलम्
खिनु किंचित क्रिपा करी जगदीसरि तब हरि हरि हरि जसु धिआइओ ॥ जन नानक कउ हरि भेटे सुआमी दुखु हउमै रोगु गवाइओ ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खिनु = छिन भर के लिए। किंचित = थोड़ी सी भी। जगदीसरि = जगदीश्वर ने, जगत के ईश्वर ने। भेटे = मिले। जन कउ = जिस मनुष्य को।2।
अर्थ: हे मन! जगत के मालिक प्रभु ने जब (किसी सेवक पर) एक पल भर के लिए थोड़ी जितनी भी मेहर कर दी, उसने तब परमात्मा की महिमा करनी शुरू कर दी। हे नानक! जिस मनुष्य को मालिक प्रभु जी मिल गए, उसका हरेक दुख (और) अहम् अहंकार का रोग दूर हो गया।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैराड़ी महला ४ ॥ हरि जनु राम नाम गुन गावै ॥ जे कोई निंद करे हरि जन की अपुना गुनु न गवावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बैराड़ी महला ४ ॥ हरि जनु राम नाम गुन गावै ॥ जे कोई निंद करे हरि जन की अपुना गुनु न गवावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावै = गाता रहता है। की = की। गुनु = गुण, स्वभाव।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भक्त सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है। अगर कोई मनुष्य उस भक्त की निंदा (भी) करता है तो वह भक्त अपना स्वभाव नहीं त्यागता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करे सु आपे सुआमी हरि आपे कार कमावै ॥ हरि आपे ही मति देवै सुआमी हरि आपे बोलि बुलावै ॥१॥
मूलम्
जो किछु करे सु आपे सुआमी हरि आपे कार कमावै ॥ हरि आपे ही मति देवै सुआमी हरि आपे बोलि बुलावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। बोलि = बोल के। बोलि बुलावै = (खुद ही हरेक जीव में) बोलता है खुद ही जीवों को बोलने के लिए प्रेरता है।1।
अर्थ: हे भाई! (भक्त अपनी निंदा सुन के भी अपना स्वभाव नहीं त्यागता, क्योंकि वह जानता है कि) जो कुछ कर रहा है मालिक-प्रभु खुद ही (जीवों में बैठ के) कर रहा है, वह खुद ही हरेक कार कर रहा है। मालिक-प्रभु खुद ही (हरेक जीव को) मति देता है, खुद ही (हरेक में बैठा) बोल रहा है, खुद ही (हरेक जीव को) बोलने की प्रेरणा कर रहा है।1।
[[0720]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपे पंच ततु बिसथारा विचि धातू पंच आपि पावै ॥ जन नानक सतिगुरु मेले आपे हरि आपे झगरु चुकावै ॥२॥३॥
मूलम्
हरि आपे पंच ततु बिसथारा विचि धातू पंच आपि पावै ॥ जन नानक सतिगुरु मेले आपे हरि आपे झगरु चुकावै ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच ततु = जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश। पंच धातु = जल में रस, अग्नि में रूप, पृथ्वी में गंध, वायु में स्पर्श, आकाश में शब्द। झगरु = झगड़ा, खींचतान। चुकावै = चुकाता है।2।
अर्थ: हे भाई! (भक्त जानता है कि) परमात्मा ने खुद ही (अपने आप से) पाँच तत्वों का जगत पसारा पसारा हुआ है, खुद ही इन तत्वों में पाँचों विषौ भरे हुए हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा आप ही अपने सेवक को मिलाता है, और, आप ही (उसके अंदर से हरेक किस्म की) खींचतान खत्म करता है।2।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन राम नामु निसतारा ॥ कोट कोटंतर के पाप सभि खोवै हरि भवजलु पारि उतारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन राम नामु निसतारा ॥ कोट कोटंतर के पाप सभि खोवै हरि भवजलु पारि उतारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! निसतारा = पार उतारा। कोटु = किला। कोट = किले। कोटि = करोड़। कोट कोटंतर के = अनेक किलों के, अनेक जूनियों के। सभि = सारे। खोवै = नाश करता है। भवजलु = संसार समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर, (ये नाम संसार-समुंदर से) पार उतारा कर देता है। (परमात्मा का नाम) अनेक जूनियों के (किए) पाप नाश कर देता है, परमात्मा (स्मरण करने वाले जीव को) संसार-समुंदर से पार लंघा देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ नगरि बसत हरि सुआमी हरि निरभउ निरवैरु निरंकारा ॥ हरि निकटि बसत कछु नदरि न आवै हरि लाधा गुर वीचारा ॥१॥
मूलम्
काइआ नगरि बसत हरि सुआमी हरि निरभउ निरवैरु निरंकारा ॥ हरि निकटि बसत कछु नदरि न आवै हरि लाधा गुर वीचारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। नगरि = नगर में। निरंकारा = आकार रहित। निकटि = नजदीक। गुर वीचारा = गुरु की दी हुई समझ से।1।
अर्थ: (हे भाई!) मालिक प्रभु (हमारे) शरीर-शहर में बसता है, (फिर भी) उसे कोई डर नहीं होता, उसे किसी का वैर नहीं, उसका कोई खास आकार नहीं। परमात्मा (सदा हमारे) नजदीक बसता है, (पर हमें) दिखता नहीं (हाँ,) गुरु की बख्शी हुई सूझ से वही हरि मिल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपे साहु सराफु रतनु हीरा हरि आपि कीआ पासारा ॥ नानक जिसु क्रिपा करे सु हरि नामु विहाझे सो साहु सचा वणजारा ॥२॥४॥
मूलम्
हरि आपे साहु सराफु रतनु हीरा हरि आपि कीआ पासारा ॥ नानक जिसु क्रिपा करे सु हरि नामु विहाझे सो साहु सचा वणजारा ॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = आप ही। पासारा = खिलारा। विहाझे = खरीदता है। सचा = सदा स्थिर।2।
अर्थ: (गुरु की बख्शी हुई दाति से ये समझ आ जाती है कि) परमात्मा स्वयं ही हीरा है, खुद ही रत्न है, खुद ही (इसका व्यापार करने वाला) शाहूकार है सर्राफ है, उसने खुद ही इस जगत का पसारा रचा हुआ है। हे नानक! जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है, वह मनुष्य उसके नाम का सौदा करता है, वह मनुष्य (नाम-रत्न का) शाहूकार बन जाता है, वह सदा के लिए (इस नाम-रत्न का) व्यापार करता रहता है।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन हरि निरंजनु निरंकारा ॥ सदा सदा हरि धिआईऐ सुखदाता जा का अंतु न पारावारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन हरि निरंजनु निरंकारा ॥ सदा सदा हरि धिआईऐ सुखदाता जा का अंतु न पारावारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! निरंजनु = (निर+अंजन। अंजन = माया की कालिख) माया के प्रभाव से रहित। जा का = जिस (हरि) का। पारावार = पार+अवार, इस पार उस पार।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, जो माया के प्रभाव से परे है, जिसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता। हे मन! जिस (प्रभु के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस (के स्वरूप की) हद-बंदी नहीं मिलती, उस सुख देने वाले को सदा ही स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगनि कुंट महि उरध लिव लागा हरि राखै उदर मंझारा ॥ सो ऐसा हरि सेवहु मेरे मन हरि अंति छडावणहारा ॥१॥
मूलम्
अगनि कुंट महि उरध लिव लागा हरि राखै उदर मंझारा ॥ सो ऐसा हरि सेवहु मेरे मन हरि अंति छडावणहारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगनि कुंट = अग्नि का कुंड। महि = में। उरध = उल्टा (लटका हुआ)। लिव लागा = तवज्जो जोड़े रखता है। उदर = (माँ का) पेट। मंझारा = मंझ, में। अंति = आखिरी समय।1।
अर्थ: हे मन! जब जीव (माँ के पेट की) आग के कुंड में उल्टा लटका हुआ (उसके चरणों में) तवज्जो जोड़े रखता है (तब) परमात्मा (माँ के) पेट में उसकी रक्षा करता है। हे मेरे मन! ऐसी सामर्थ्य वाले प्रभु की सदा सेवा-भक्ति किया कर, आखिरी वक्त भी वही प्रभु छुड़ा सकने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै हिरदै बसिआ मेरा हरि हरि तिसु जन कउ करहु नमसकारा ॥ हरि किरपा ते पाईऐ हरि जपु नानक नामु अधारा ॥२॥५॥
मूलम्
जा कै हिरदै बसिआ मेरा हरि हरि तिसु जन कउ करहु नमसकारा ॥ हरि किरपा ते पाईऐ हरि जपु नानक नामु अधारा ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै हिरदै = के दिल में। ते = से। पाईऐ = ढूँझता है। हरि जपु = हरि का जप। अधारा = आसरा।2।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा सच्चा बसा रहता है, हे मेरे मन! उस मनुष्य के आगे सदा सिर निवाया कर। हे नानक! (कह: हे मन!) परमात्मा की कृपा से ही परमात्मा के नाम का जाप प्राप्त होता है (जिसको प्राप्त हो जाता है) नाम (उसकी जिंदगी का) आसरा बन जाता है।2।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन हरि हरि नामु नित धिआइ ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि फिरि दूखु न लागै आइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन हरि हरि नामु नित धिआइ ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि फिरि दूखु न लागै आइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! धिआइ = ध्यान धर के। नित = सदा। इछहि = तू चाहेगा। पावहि = तू हासिल कर लेगा। न लागै = नहीं लगेगा। आइ = आ के।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा प्रभु का नाम जपा कर, प्रभु का ध्यान धरा कर, (उस प्रभु के दर से) जो कुछ माँगेगा, वही प्राप्त कर लेगा। कोई दुख भी तुझे आ के नहीं लग सकेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो जपु सो तपु सा ब्रत पूजा जितु हरि सिउ प्रीति लगाइ ॥ बिनु हरि प्रीति होर प्रीति सभ झूठी इक खिन महि बिसरि सभ जाइ ॥१॥
मूलम्
सो जपु सो तपु सा ब्रत पूजा जितु हरि सिउ प्रीति लगाइ ॥ बिनु हरि प्रीति होर प्रीति सभ झूठी इक खिन महि बिसरि सभ जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस (स्मरण) से। सो जपु = वह (स्मरण भी) जप है। झूठी = नाशवान। सभ = सारी। बिसरि जाइ = भूल जाती है।1।
अर्थ: हे मन! जिस नाम-जपने की इनायत से परमात्मा के साथ प्रीति बनी रहती है, वह नाम जपना ही जप है, वह नाम जपना ही तप है, वह नाम जपना ही व्रत है, वह नाम जपना ही पूजा है। प्रभु-चरणों के प्यार के बिना और (जप-तप आदि का) प्यार झूठा है, एक छिन में वह प्यार भूल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू बेअंतु सरब कल पूरा किछु कीमति कही न जाइ ॥ नानक सरणि तुम्हारी हरि जीउ भावै तिवै छडाइ ॥२॥६॥
मूलम्
तू बेअंतु सरब कल पूरा किछु कीमति कही न जाइ ॥ नानक सरणि तुम्हारी हरि जीउ भावै तिवै छडाइ ॥२॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सारी। कल = ताकतें। हरि जीउ = हे प्रभु जी! भावै = (जैसे तुझे) अच्छा लगे। छडाइ = (औरों की प्रीति से) बचा ले।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु जी! तू बेअंत है, तू सारी ताकतों से भरपूर है, तेरा मूल्य नहीं डाला जा सकता। मैं (नानक) तेरी शरण आया हूँ, जैसे तुझे ठीक लगे, मुझे अपने चरणों की प्रीति के अलावा औरों की प्रीति से बचाए रखो।2।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु बैराड़ी महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु बैराड़ी महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जना मिलि हरि जसु गाइओ ॥ कोटि जनम के दूख गवाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संत जना मिलि हरि जसु गाइओ ॥ कोटि जनम के दूख गवाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। जसु = यश, महिमा के गीत। गाइओ = गाया। कोटि = करोड़ों। गवाइओ = गवा दिए, दूर कर दिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस भी मनुष्य ने गुरमुखों की संगति में मिल के परमात्मा की महिमा के गीत गाए हैं, उसके अपने करोड़ों जन्मों के दुख दूर कर लिए है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो चाहत सोई मनि पाइओ ॥ करि किरपा हरि नामु दिवाइओ ॥१॥
मूलम्
जो चाहत सोई मनि पाइओ ॥ करि किरपा हरि नामु दिवाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चाहत = चाहता है। सोई = वही मुराद। मनि = मन में। पाइओ = प्राप्त कर ली। करि = कर के। दिवाइओ = (प्रभु से) दिला दिया।1।
अर्थ: हे भाई! महिमा करने वाले मनुष्य ने जो कुछ भी अपने मन में चाह की, उसको वहीं प्राप्त हो गई। (गुरु ने) कृपा करके उसको (प्रभु के दर से) प्रभु का नाम भी दिलवा दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब सूख हरि नामि वडाई ॥ गुर प्रसादि नानक मति पाई ॥२॥१॥७॥
मूलम्
सरब सूख हरि नामि वडाई ॥ गुर प्रसादि नानक मति पाई ॥२॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि नामि = प्रभु के नाम में (जुड़ने से)। सरब = सारे। वडाई = आदर इज्ज्त। प्रसादि = कृपा से। मति = अक्ल।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में (जुड़ने से) सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं, (लोक-परलोक में) इज्जत (भी मिल जाती है)। हे नानक! (प्रभु के नाम में जुड़ने की यह) अकल गुरु की कृपा से ही मिलती है।2।1।7।