[[0711]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु टोडी महला ४ घरु १ ॥
मूलम्
रागु टोडी महला ४ घरु १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु रहि न सकै मनु मेरा ॥ मेरे प्रीतम प्रान हरि प्रभु गुरु मेले बहुरि न भवजलि फेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिनु रहि न सकै मनु मेरा ॥ मेरे प्रीतम प्रान हरि प्रभु गुरु मेले बहुरि न भवजलि फेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेले = (जिसको) मिला देता है। बहुरि = दोबारा। भवजलि = संसार समुंदर में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा मन परमात्मा की याद के बिना नहीं रह सकता। गुरु (जिस मनुष्य को) जिंद का प्यारा प्रभु मिला देता है, उसको संसार-समुंदर में दोबारा नहीं आना पड़ता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै हीअरै लोच लगी प्रभ केरी हरि नैनहु हरि प्रभ हेरा ॥ सतिगुरि दइआलि हरि नामु द्रिड़ाइआ हरि पाधरु हरि प्रभ केरा ॥१॥
मूलम्
मेरै हीअरै लोच लगी प्रभ केरी हरि नैनहु हरि प्रभ हेरा ॥ सतिगुरि दइआलि हरि नामु द्रिड़ाइआ हरि पाधरु हरि प्रभ केरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हीअरै = हृदय में। लोच = चाहत, चाहत। केरी = की। नैनहु = आँखों से। हेरा = रेरूँ, देखूँ। सतिगुरि = गुरु ने। दइआलि = दयालु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर लिया। पाधरु = सपाट रास्ता। केरा = का, मिलने का।1।
अर्थ: हे भाई! मेरे हृदय में प्रभु (के मिलाप) की तमन्ना लगी हुई थी (मेरा जी करता था कि) मैं (अपनी) आँखों से हरि-प्रभु को देख लूँ। दयालु गुरु ने परमात्मा का नाम मेरे दिल में दृढ़ कर दिया- यही है हरि-प्रभु (को मिलने) का सपाट रास्ता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रंगी हरि नामु प्रभ पाइआ हरि गोविंद हरि प्रभ केरा ॥ हरि हिरदै मनि तनि मीठा लागा मुखि मसतकि भागु चंगेरा ॥२॥
मूलम्
हरि रंगी हरि नामु प्रभ पाइआ हरि गोविंद हरि प्रभ केरा ॥ हरि हिरदै मनि तनि मीठा लागा मुखि मसतकि भागु चंगेरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगी = अनेक रंगो करिश्मों का मालिक। मनि = मन में। तनि = तन में। मुखि = मुख पर। मसतकि = माथे पर।2।
अर्थ: हे भाई! अनेक करिश्मों के मालिक हरि प्रभु गोबिंद का नाम जिस मनुष्य ने प्राप्त कर लिया, उसके हृदय में, उसके मन में शरीर में, परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, उसके माथे पे मुँह पे अच्छे भाग्य जाग पड़ते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभ विकार जिना मनु लागा हरि विसरिआ पुरखु चंगेरा ॥ ओइ मनमुख मूड़ अगिआनी कहीअहि तिन मसतकि भागु मंदेरा ॥३॥
मूलम्
लोभ विकार जिना मनु लागा हरि विसरिआ पुरखु चंगेरा ॥ ओइ मनमुख मूड़ अगिआनी कहीअहि तिन मसतकि भागु मंदेरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ = वह। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। मूढ़ = मूर्ख। कहीअहि = कहलाते हैं। अगिआनी = आत्मिक जीवन से बेसमझ।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, हे भाई! जिस मनुष्यों के मन लोभ आदि विकारों में मस्त रहते हैं, उनको अच्छा अकाल-पुरख भूला रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले वे मनुष्य मूर्ख कहे जाते हैं, आत्मिक जीवन की ओर से बे-समझ कहे जाते हैं। उनके माथे पर बुरी किस्मत (उघड़ी हुई समझ लो)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिबेक बुधि सतिगुर ते पाई गुर गिआनु गुरू प्रभ केरा ॥ जन नानक नामु गुरू ते पाइआ धुरि मसतकि भागु लिखेरा ॥४॥१॥
मूलम्
बिबेक बुधि सतिगुर ते पाई गुर गिआनु गुरू प्रभ केरा ॥ जन नानक नामु गुरू ते पाइआ धुरि मसतकि भागु लिखेरा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिबेक बुधि = (अच्छे बुरे की) परख करने वाली अक्ल। ते = से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धुरि = धुर दरगाह से। लिखेरा = लिखा हुआ।4।
अर्थ: हे दास नानक! जिस मनुष्यों के माथे पर धुर से लिखे अच्छे भाग्य उघड़ आए, उन्होंने गुरु से परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया, उन्होंने गुरु से अच्छे-बुरे काम की परख वाली बुद्धि हासिल कर ली, उन्होंने परमात्मा के मिलाप के लिए गुरु से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त कर ली।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ घरु १ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी महला ५ घरु १ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतन अवर न काहू जानी ॥ बेपरवाह सदा रंगि हरि कै जा को पाखु सुआमी ॥ रहाउ॥
मूलम्
संतन अवर न काहू जानी ॥ बेपरवाह सदा रंगि हरि कै जा को पाखु सुआमी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवर काहू = किसी और की (अधीनता)। हरि कै रंगि = परमात्मा के प्यार में। जा को = जिस का। पाखु = पक्ष, मदद। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिनकी मदद परमात्मा करता है वे संत जन किसी और की (अधीनता करनी) नहीं जानते। वे परमात्मा के प्यार में (टिक के) सदा बेपरवाह रहते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊच समाना ठाकुर तेरो अवर न काहू तानी ॥ ऐसो अमरु मिलिओ भगतन कउ राचि रहे रंगि गिआनी ॥१॥
मूलम्
ऊच समाना ठाकुर तेरो अवर न काहू तानी ॥ ऐसो अमरु मिलिओ भगतन कउ राचि रहे रंगि गिआनी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाना = शामियाना, शाही ठाठ। ठाकुर = हे ठाकुर! न तानी = नही ताना हुआ। अमरु = अटल परमात्मा। कउ = को। राचि रहे = मस्त रहते हैं। रंगि = प्रेम में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाले।1।
अर्थ: (हे भाई! वे संत जन यूँ कहते रहते हैं -) हे मालिक प्रभु! तेरा शामयाना (सब शाहों-बादशाहों के शामयानों से) ऊँचा है, किसी और ने (इतना ऊँचा शामयाना कभी) नहीं ताना। हे भाई! संत जनों को ऐसा सदा कायम रहने वाला हरि मिला रहता है, आत्मिक जीवन की सूझ वाले वे संत जन (सदा) परमात्मा के प्रेम में ही मस्त रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोग सोग दुख जरा मरा हरि जनहि नही निकटानी ॥ निरभउ होइ रहे लिव एकै नानक हरि मनु मानी ॥२॥१॥
मूलम्
रोग सोग दुख जरा मरा हरि जनहि नही निकटानी ॥ निरभउ होइ रहे लिव एकै नानक हरि मनु मानी ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोग = चिन्ता। जरा = बुढ़ापा, बुढ़ापे का डर। मरा = मौत, मौत का डर। निकटानी = नजदीक। लिव एकै = एक में ही तवज्जो/ध्यान जोड़ के। मानी = माना रहता है, पतीज जाता है।2।
अर्थ: हे नानक! रोग, चिन्ता-फिक्र, बुढ़ापा, मौत (इनके सहम) परमात्मा के सेवकों कें नजदीक भी नहीं फटकते। वह एक परमात्मा में ही तवज्जो जोड़ के (दुनिया के डरों की ओर से) निडर रहते हैं उनका मन प्रभु की याद में पतीजा रहता है।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ हरि बिसरत सदा खुआरी ॥ ता कउ धोखा कहा बिआपै जा कउ ओट तुहारी ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ हरि बिसरत सदा खुआरी ॥ ता कउ धोखा कहा बिआपै जा कउ ओट तुहारी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खुआरी = बेइज्जती। कउ = को। कहा बिआपै = नहीं व्याप सकता। ओट = आसरा। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (के नाम) को भुलाने से सदा (माया के हाथों मनुष्य की) बेइज्जती ही होती है। हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा आसरा हो, उसको (माया के किसी भी विकार से) धोखा नहीं लग सकता। रहाउ।
[[0712]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन जो जीवनु बलना सरप जैसे अरजारी ॥ नव खंडन को राजु कमावै अंति चलैगो हारी ॥१॥
मूलम्
बिनु सिमरन जो जीवनु बलना सरप जैसे अरजारी ॥ नव खंडन को राजु कमावै अंति चलैगो हारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलना = बिलाना, गुजारना। अरजारी = उम्र। नव खंडन को राजु = सारी धरती का राज। अंति = आखिर को। हारी = हार के (मनुष्य जीवन की बाजी)।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम-स्मरण के बिना जितनी भी जिंदगी गुजारनी है (वो ऐसे होती है) जैसे साँप (अपनी) उम्र गुजारता है (उम्र चाहे लंबी होती है, पर वह सदा अपने अंदर जहर पैदा करता रहता है)। (स्मरण से वंचित रहने वाला मनुष्य अगर) सारी धरती का राज भी करता रहे, तो भी आखिर मानव जीवन की बाजी हार के ही जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण निधान गुण तिन ही गाए जा कउ किरपा धारी ॥ सो सुखीआ धंनु उसु जनमा नानक तिसु बलिहारी ॥२॥२॥
मूलम्
गुण निधान गुण तिन ही गाए जा कउ किरपा धारी ॥ सो सुखीआ धंनु उसु जनमा नानक तिसु बलिहारी ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण निधान गुण = गुणों के खजाने प्रभु के गुण। तिन ही = उसने ही। जा कउ = जिस पर। धारी = की। धंनु = मुबारक। तिसु = उस से कुर्बान।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुणों के खजाने हरि के गुण उस मनुष्य ने ही गाए हैं जिस पर हरि ने मेहर की है। वह मनुष्य सदा सुखी जीवन व्यतीत करता है, उसकी जिंदगी सदा मुबारिक होती है। ऐसे मनुष्य से कुर्बान होना चाहिए।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी महला ५ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धाइओ रे मन दह दिस धाइओ ॥ माइआ मगन सुआदि लोभि मोहिओ तिनि प्रभि आपि भुलाइओ ॥ रहाउ॥
मूलम्
धाइओ रे मन दह दिस धाइओ ॥ माइआ मगन सुआदि लोभि मोहिओ तिनि प्रभि आपि भुलाइओ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे मन = हे मन! दह दिस = दसों दिशाओं में। सुआदि = स्वाद में। लोभि = लोभ में। तिनि = उस ने। तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। भुलाइओ = गलत रास्ते पर डाल दिया है। रहाउ।
अर्थ: हे मन! जीव दसों दिशाओं में दौड़ता-फिरता है, माया के स्वाद में मस्त रहता है, लोभ में मोहा रहता है, (पर जीव के भी क्या वश?) उस प्रभु ने खुद ही उसे गलत रास्ते पर डाल रखा है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कथा हरि जस साधसंगति सिउ इकु मुहतु न इहु मनु लाइओ ॥ बिगसिओ पेखि रंगु कसु्मभ को पर ग्रिह जोहनि जाइओ ॥१॥
मूलम्
हरि कथा हरि जस साधसंगति सिउ इकु मुहतु न इहु मनु लाइओ ॥ बिगसिओ पेखि रंगु कसु्मभ को पर ग्रिह जोहनि जाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जस सिउ = महिमा से। मुहतु = महूरत, आधी घड़ी। बिगसिओ = खुश होता है। पेखि = देख कें। को = का। पर ग्रिह = पराए घर। जोहनि = देखने के लिए।1।
अर्थ: मनुष्य परमात्मा की महिमा की बातों से, साधु-संगत से, एक पल के लिए भी अपना ये मन नहीं जोड़ता। कुसंभ के फूल के रंग देख के खुश होता है, पराया घर देखने को चल पड़ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल सिउ भाउ न कीनो नह सत पुरखु मनाइओ ॥ धावत कउ धावहि बहु भाती जिउ तेली बलदु भ्रमाइओ ॥२॥
मूलम्
चरन कमल सिउ भाउ न कीनो नह सत पुरखु मनाइओ ॥ धावत कउ धावहि बहु भाती जिउ तेली बलदु भ्रमाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्यार। सत पुरखु = महापुरख, गुरु। मनाइओ = प्रसन्न किया। धावत कउ = नाशवान (पदार्थों) की खातिर। धावहि = तू दौड़ता है। बहु भाती = कई तरीकों से।2।
अर्थ: हे मन! तूने प्रभु के सोहणें चरणों से प्यार नहीं डाला, तूने गुरु को प्रसन्न नहीं किया। नाशवान पदार्थों की खातिर तू दौड़ता फिरता है (ये तेरी भटकना कभी समाप्त नहीं होती) जैसे तेली का बैल (कोल्हू के आगे जुत के) चलता रहता है (उस कोल्हू के इर्द-गिर्द ही उसका रास्ता समाप्त नहीं होता, बारंबार उसके ही चक्कर लगाता रहता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम दानु इसनानु न कीओ इक निमख न कीरति गाइओ ॥ नाना झूठि लाइ मनु तोखिओ नह बूझिओ अपनाइओ ॥३॥
मूलम्
नाम दानु इसनानु न कीओ इक निमख न कीरति गाइओ ॥ नाना झूठि लाइ मनु तोखिओ नह बूझिओ अपनाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इसनान = पवित्र जीवन। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। कीरति = महिमा। नाना = कई प्रकार के। झूठि = झूठ में। तोखिओ = खुश किया। अपनाइओ = अपनी असल चीज को।3।
अर्थ: हे मन! (माया के स्वाद में मस्त मनुष्य) प्रभु का नाम नहीं जपता, सेवा नहीं करता, जीवन पवित्र नहीं बनाता, एक पल भी प्रभु की महिमा नहीं करता। कई किस्म के नाशवान (जगत) में अपने मन को जोड़ के संतुष्ट रहता है, अपने असल पदार्थ को नहीं पहचानता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परउपकार न कबहू कीए नही सतिगुरु सेवि धिआइओ ॥ पंच दूत रचि संगति गोसटि मतवारो मद माइओ ॥४॥
मूलम्
परउपकार न कबहू कीए नही सतिगुरु सेवि धिआइओ ॥ पंच दूत रचि संगति गोसटि मतवारो मद माइओ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि = सेवा करके, शरण पड़ कर। गोसटि = मेल मिलाप। मतवारो = मस्त। मद = नशा।4।
अर्थ: हे मन! (माया-मगन मनुष्य) कभी औरों की सेवा-भलाई नहीं करता, गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता, (कामादिक) पाँचों वैरियों का साथ बनाए रखता है, मेल-मिलाप रखता है, माया के नशे में मस्त रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउ बेनती साधसंगति हरि भगति वछल सुणि आइओ ॥ नानक भागि परिओ हरि पाछै राखु लाज अपुनाइओ ॥५॥१॥३॥
मूलम्
करउ बेनती साधसंगति हरि भगति वछल सुणि आइओ ॥ नानक भागि परिओ हरि पाछै राखु लाज अपुनाइओ ॥५॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = करूँ, मैं करता हूँ। भगति वछल = भक्ति से प्यार करने वाला। भागि = भाग के। लाज = इज्जत।5।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं (तो) साधु-संगत में जा के विनती करता हूँ- हे हरि! मैं ये सुन के तेरी शरण आया हूँ कि तू भक्ति से प्यार करने वाला है। मैं दौड़ के प्रभु के दर पर आ पड़ा हूँ (और विनती करता हूँ- हे प्रभु!) मुझे अपना बना के मेरी इज्जत रख।5।1।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ मानुखु बिनु बूझे बिरथा आइआ ॥ अनिक साज सीगार बहु करता जिउ मिरतकु ओढाइआ ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ मानुखु बिनु बूझे बिरथा आइआ ॥ अनिक साज सीगार बहु करता जिउ मिरतकु ओढाइआ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साज सीगार = श्रृंगारों की बनावटें। मिरतकु = मुर्दा। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जनम उद्देश्य को) समझे बिना मनुष्य (जगत में) आया व्यर्थ ही जानो। (जनम-उद्देश्य की सूझ के बिना मनुष्य अपने शरीर के लिए) अनेक श्रृंगार की बनावटें करता है (तो ये ऐसे ही है) जैसे मुर्दे को कपड़े डाले जा रहे हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धाइ धाइ क्रिपन स्रमु कीनो इकत्र करी है माइआ ॥ दानु पुंनु नही संतन सेवा कित ही काजि न आइआ ॥१॥
मूलम्
धाइ धाइ क्रिपन स्रमु कीनो इकत्र करी है माइआ ॥ दानु पुंनु नही संतन सेवा कित ही काजि न आइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धाइ = दौड़ के। क्रिपन = कंजूस। स्रमु = मेहनत। कित ही काजि = किसी भी काम।1।
अर्थ: (हे भाई! जीवन-उद्देश्य की समझ के बिना मनुष्य ऐसे ही है, जैसे) कोई कंजूस दौड़-भाग कर-कर के मेहनत करता है, माया जोड़ता है, (पर उस माया से) वह दान-पुण्य नहीं करता, संत जनों की सेवा भी नहीं करता। वह धन उसके किसी भी काम नहीं आता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि आभरण सवारी सेजा कामनि थाटु बनाइआ ॥ संगु न पाइओ अपुने भरते पेखि पेखि दुखु पाइआ ॥२॥
मूलम्
करि आभरण सवारी सेजा कामनि थाटु बनाइआ ॥ संगु न पाइओ अपुने भरते पेखि पेखि दुखु पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आभरण = आभूषण, गहने। कामिनी = स्त्री। थाटु = बनतर। संगु = मिलाप। पेखि = देख के।2।
अर्थ: (हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ के बिना मनुष्य यूँ ही है, जैसे) कोई स्त्री गहने पहन के सेज सवाँरती है, (सुंदरता का) आडंबर करती है, पर उसे अपने पति का मिलाप हासिल नहीं होता। (उन गहने आदि को) देख-देख के उसे बल्कि अफसोस ही होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारो दिनसु मजूरी करता तुहु मूसलहि छराइआ ॥ खेदु भइओ बेगारी निआई घर कै कामि न आइआ ॥३॥
मूलम्
सारो दिनसु मजूरी करता तुहु मूसलहि छराइआ ॥ खेदु भइओ बेगारी निआई घर कै कामि न आइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूसलहि = मूसल से। खेदु = दुख। निआई = जैसे। घर कै कामि = अपने घर के काम में।3।
अर्थ: (ठीक ऐसे ही है नाम-हीन मनुष्य, जैसे) कोई मनुष्य सारा दिन (ये) मजदूरी करता है (कि) मूसली से तूह ही छोड़ता रहता है (अथवा) किसी वेगारी को (वेगार में निरा) कष्ट ही मिलता है। (मजदूर की मजदूरी या वेगारी की वेगार में से) उनके अपने काम कुछ भी नहीं आता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ अनुग्रहु जा कउ प्रभ को तिसु हिरदै नामु वसाइआ ॥ साधसंगति कै पाछै परिअउ जन नानक हरि रसु पाइआ ॥४॥२॥४॥
मूलम्
भइओ अनुग्रहु जा कउ प्रभ को तिसु हिरदै नामु वसाइआ ॥ साधसंगति कै पाछै परिअउ जन नानक हरि रसु पाइआ ॥४॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। को = की। हिरदै = हृदय में। कै पाछै = की शरण।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा की कृपा होती है, उसके हृदय में (परमात्मा अपना) नाम बसाता है, वह मनुष्य साधु-संगत की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के नाम का आनंद लेता है।4।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ क्रिपा निधि बसहु रिदै हरि नीत ॥ तैसी बुधि करहु परगासा लागै प्रभ संगि प्रीति ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ क्रिपा निधि बसहु रिदै हरि नीत ॥ तैसी बुधि करहु परगासा लागै प्रभ संगि प्रीति ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! रिदै = हृदय में। नीत = नित्य। करहु परगासा = प्रगट करो। संगि = साथ। रहाउ।
अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभु! मेरे हृदय में बसता रह। हे प्रभु! मेरे अंदर ऐसी बुद्धि का प्रकाश कर, कि तेरे साथ मेरी प्रीति बनी रहे। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दास तुमारे की पावउ धूरा मसतकि ले ले लावउ ॥ महा पतित ते होत पुनीता हरि कीरतन गुन गावउ ॥१॥
मूलम्
दास तुमारे की पावउ धूरा मसतकि ले ले लावउ ॥ महा पतित ते होत पुनीता हरि कीरतन गुन गावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। धूरा = चरण धूल। मसतकि = माथे पर। लावउ = लगाऊँ। पतित = विकारी। ते = से। होत = हो जाते हैं। पुनीता = पवित्र। गावउ = मैं गाऊँ।1।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे सेवक की चरण-धूल प्राप्त करूँ, (वह चरण-धूल) ले ले के मैं (अपने) माथे पर लगाता रहूँ। (जिसकी इनायत से) बड़े-बड़े विकारी भी पवित्र हो जाते हैं।1।
[[0713]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगिआ तुमरी मीठी लागउ कीओ तुहारो भावउ ॥ जो तू देहि तही इहु त्रिपतै आन न कतहू धावउ ॥२॥
मूलम्
आगिआ तुमरी मीठी लागउ कीओ तुहारो भावउ ॥ जो तू देहि तही इहु त्रिपतै आन न कतहू धावउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआ = हुक्म, रजा। लागउ = लगे। भावउ = अच्छा लगे, पसन्द आ जाए। तही = उसी में। त्रिपतै = तृप्त रहे। आन = अन्य, और तरफ। आन कत हू = किसी और तरफ। धावउ = मैं दौड़ूँ।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लागउ’ है हुकमी भविष्यत, अन पुरख, एकवचन।
नोट: ‘भावउ’ है हुकमी भविष्यत, अन पुरख, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मुझे तेरी रजा मीठी लगती रहे, मुझे तेरा किया अच्छा लगता रहे। जो कुछ तू मुझे देता है, उसी में ही (मेरा) ये मन संतुष्ट रहे, मैं किसी भी ओर दिशा में भटकता ना फिरूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद ही निकटि जानउ प्रभ सुआमी सगल रेण होइ रहीऐ ॥ साधू संगति होइ परापति ता प्रभु अपुना लहीऐ ॥३॥
मूलम्
सद ही निकटि जानउ प्रभ सुआमी सगल रेण होइ रहीऐ ॥ साधू संगति होइ परापति ता प्रभु अपुना लहीऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। निकटि = नजदीक। जानउ = मैं जानूँ। रेण = चरण धूल। होइ = हो के। लहीऐ = ढूँढ सकते हैं।3।
अर्थ: हे मेरे मालिक-प्रभु! मैं तुझे सदा अपने नजदीक (बसता) जानता रहूँ। हे भाई! सभी की चरणों की धूल बन के रहना चाहिए। जब गुरु की संगति हासिल होती है, तब अपने प्रभु को पा लिया जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा हम छोहरे तुमरे तू प्रभ हमरो मीरा ॥ नानक बारिक तुम मात पिता मुखि नामु तुमारो खीरा ॥४॥३॥५॥
मूलम्
सदा सदा हम छोहरे तुमरे तू प्रभ हमरो मीरा ॥ नानक बारिक तुम मात पिता मुखि नामु तुमारो खीरा ॥४॥३॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हम जीव सदा ही तेरे अंजान बच्चे हैं, तू हमारी माँ है हमारा पिता है (मेहर कर) तेरा नाम हमारे मुँह पर रहे (जैसे) माता-पिता अपने बच्चे के मुँह में दूध (डालते रहते हैं)।4।3।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागउ दानु ठाकुर नाम ॥ अवरु कछू मेरै संगि न चालै मिलै क्रिपा गुण गाम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मागउ दानु ठाकुर नाम ॥ अवरु कछू मेरै संगि न चालै मिलै क्रिपा गुण गाम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागउ = माँगू। ठाकुर = हे मालिक! अवरु कछु = और कुछ भी। संगि = साथ। गुण गाम = (तेरे) गुणों का गाना, (तेरी) महिमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! मैं (तेरे पास से तेरे) नाम का दान माँगता हूँ। कोई भी और चीज तेरे साथ नहीं जा सकती। अगर तेरी कृपा हो, तो मुझे तेरी महिमा मिल जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजु मालु अनेक भोग रस सगल तरवर की छाम ॥ धाइ धाइ बहु बिधि कउ धावै सगल निरारथ काम ॥१॥
मूलम्
राजु मालु अनेक भोग रस सगल तरवर की छाम ॥ धाइ धाइ बहु बिधि कउ धावै सगल निरारथ काम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरवर = वृक्ष। छाम = छाया। धाइ = दौड़ के। बहु बिधि = कई तरीकों से। धावै = दज्ञैड़ता है। धाइ धाइ धावै = सदा ही दौड़ता रहता है। निरारथ = व्यर्थ, निरर्थ।1।
अर्थ: हे भाई! हकूमत, धन और अनेक पदार्थों के स्वाद - ये सारे वृक्ष की छाया समान हैं (सदा एक जगह टिके नहीं रह सकते)। मनुष्य (इनकी खातिर) सदा ही कई तरीकों से दौड़-भाग करता रहता है, पर उसके सारे काम व्यर्थ चले जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गोविंद अवरु जे चाहउ दीसै सगल बात है खाम ॥ कहु नानक संत रेन मागउ मेरो मनु पावै बिस्राम ॥२॥१॥६॥
मूलम्
बिनु गोविंद अवरु जे चाहउ दीसै सगल बात है खाम ॥ कहु नानक संत रेन मागउ मेरो मनु पावै बिस्राम ॥२॥१॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरु = और। चाहउ = चाहूँ, मैं माँगता रहूँ। खाम = खामी, कच्ची, नाशवान। नानक = हे नानक! रेन = चरण धूल। बिस्राम = (भटकने से) टिकाव।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) अगर मैं परमात्मा के नाम के बिना कुछ और ही माँगता रहूँ, तो यही सारी बात कच्ची है। मैं तो संतजनों के चरणों की धूल माँगता हूँ, (ता कि) मेरा मन (दुनियावी दौड़-भाग से) ठिकाना हासिल कर सके।2।1।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ प्रभ जी को नामु मनहि साधारै ॥ जीअ प्रान सूख इसु मन कउ बरतनि एह हमारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ प्रभ जी को नामु मनहि साधारै ॥ जीअ प्रान सूख इसु मन कउ बरतनि एह हमारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। मनहि = मन को। साधारै = आधार सहित करता है, आसरा देता है। जीअ = जिंद। कउ = के वास्ते। बरतनि = हर वक्त काम आने वाली चीज। हमारै = मेरे वास्ते।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी का नाम (ही) मन को आसरा देता है। नाम ही इस मन के वास्ते जान है, और सुख है। मेरे वास्ते तो हरि-नाम ही हर वक्त काम आने वाली चीज है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु जाति नामु मेरी पति है नामु मेरै परवारै ॥ नामु सखाई सदा मेरै संगि हरि नामु मो कउ निसतारै ॥१॥
मूलम्
नामु जाति नामु मेरी पति है नामु मेरै परवारै ॥ नामु सखाई सदा मेरै संगि हरि नामु मो कउ निसतारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। परवारै = परिवार। सखाई = मित्र, साथी। संगि = साथ। मो कउ = मुझे। कउ = को। निसतारै = पार लंघाता है।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु का नाम (ही मेरे वास्ते ऊँची) जाति है, हरि नाम ही मेरी इज्जत है, हरि नाम ही मेरा परिवार है। प्रभु का नाम (ही मेरा) मित्र है (जो) सदा मेरे साथ रहता है। परमात्मा का नाम (ही) मुझे संसार समुंदर से पार लंघाने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखै बिलास कहीअत बहुतेरे चलत न कछू संगारै ॥ इसटु मीतु नामु नानक को हरि नामु मेरै भंडारै ॥२॥२॥७॥
मूलम्
बिखै बिलास कहीअत बहुतेरे चलत न कछू संगारै ॥ इसटु मीतु नामु नानक को हरि नामु मेरै भंडारै ॥२॥२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखै बिलास = विषियों का भोग। कहीअत = कहे जाते हैं। चलत = चलता, जाता। कछु = कुछ भी। संगारै = संग, साथ। इसटु = ईष्ट, प्यारा। को = का। भंडारै = खजाने में।2।
अर्थ: हे भाई! विषियों के बहुत सारे भोग बताए जाते हैं, पर कोई भी चीज मनुष्य के साथ नहीं जाती। (इस वास्ते) नानक का सबसे प्यारा मित्र प्रभु का नाम ही है। प्रभु का नाम ही मेरे खजाने में (धन) है।2।2।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी मः ५ ॥ नीके गुण गाउ मिटही रोग ॥ मुख ऊजल मनु निरमल होई है तेरो रहै ईहा ऊहा लोगु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी मः ५ ॥ नीके गुण गाउ मिटही रोग ॥ मुख ऊजल मनु निरमल होई है तेरो रहै ईहा ऊहा लोगु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीके = सोहाने, अच्छे। गाउ = गा, गाया कर। मिटहि = मिट जाते हैं। ऊजल = रौशन। रहै = बना रहता है। ईहा ऊहा लोगु = ये लोक और परलोक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर गुण गाता रहा कर। (महिमा की इनायत से) सारे रोग मिट जाते हैं। (इस तरह) तेरा ये लोक और परलोक संवर जाएंगे, मन पवित्र हो जाएगा, (लोक परलोक में) मुँह भी रौशन रहेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन पखारि करउ गुर सेवा मनहि चरावउ भोग ॥ छोडि आपतु बादु अहंकारा मानु सोई जो होगु ॥१॥
मूलम्
चरन पखारि करउ गुर सेवा मनहि चरावउ भोग ॥ छोडि आपतु बादु अहंकारा मानु सोई जो होगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाखारि = धो के। करउ = मैं करूँ। मनहि = मन को ही। चरावउ = मैं चढ़ा दूँ। भोग = भेट। छोडि = छोड़ के। आपतु = स्वै भाव। बादु = झगड़ा। मानु = मंन। होगु = होगा।1।
अर्थ: हे भाई! मैं (तो) गुरु के चरण धो के गुरु की सेवा करता हूँ, अपना मन गुरु के आगे भेटा करता हूँ (क्योंकि गुरु की कृपा से ही प्रभु की महिमा की जा सकती है)। हे भाई! तू भी (गुरु की शरण पड़ कर) स्वै भाव, (माया वाला) झगड़ा और अहंकार त्याग, जो कुछ प्रभु की रजा में होता है उस को (मीठा करके) मान।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत टहल सोई है लागा जिसु मसतकि लिखिआ लिखोगु ॥ कहु नानक एक बिनु दूजा अवरु न करणै जोगु ॥२॥३॥८॥
मूलम्
संत टहल सोई है लागा जिसु मसतकि लिखिआ लिखोगु ॥ कहु नानक एक बिनु दूजा अवरु न करणै जोगु ॥२॥३॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। मसतकि = माथे पर। लिखोगु = लेख। करणै जोगु = करने की सामर्थ्य वाला।2।
अर्थ: (पर) हे नानक! कह: गुरु की सेवा में वही मनुष्य लगता है जिसके माथे पर (धुर से यह) लेख लिखा होता है, उस एक परमात्मा के बिना कोई और (ये मेहर) करने के काबिल नहीं है।2।3।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ सतिगुर आइओ सरणि तुहारी ॥ मिलै सूखु नामु हरि सोभा चिंता लाहि हमारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ सतिगुर आइओ सरणि तुहारी ॥ मिलै सूखु नामु हरि सोभा चिंता लाहि हमारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरु! लाहि = दूर कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे गुरु! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेरी चिन्ता दूर कर (मेहर कर, तेरे दर से मुझे) परमात्मा का नाम मिल जाए, (यही मेरे वास्ते) सुख (है, यही मेरे वास्ते) शोभा (है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर न सूझै दूजी ठाहर हारि परिओ तउ दुआरी ॥ लेखा छोडि अलेखै छूटह हम निरगुन लेहु उबारी ॥१॥
मूलम्
अवर न सूझै दूजी ठाहर हारि परिओ तउ दुआरी ॥ लेखा छोडि अलेखै छूटह हम निरगुन लेहु उबारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवर ठाहर = कोई और आसरा। हारि = हार के। तउ दुआरी = तेरे दर पे। अलेखै = बिना लेखा किए। छूटह = हम आजाद हो सकते हैं। निरगुन = गुणहीन। लेहु उबारी = उबार लो।1।
अर्थ: हे प्रभु! (मैं अन्य आसरों की तरफ से) हार के तेरे दर पर आ पड़ा हूँ, अब मुझे और कोई आसरा नहीं सूझता। हे प्रभु! हम जीवों के कर्मों का लेखा ना कर, हम तभी आजाद हो सकते हैं, अगर हमारे कर्मों का लेखा ना किया जाए। हे प्रभु! हम गुणहीन जीवों को (विकारों से तू खुद) बचा ले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद बखसिंदु सदा मिहरवाना सभना देइ अधारी ॥ नानक दास संत पाछै परिओ राखि लेहु इह बारी ॥२॥४॥९॥
मूलम्
सद बखसिंदु सदा मिहरवाना सभना देइ अधारी ॥ नानक दास संत पाछै परिओ राखि लेहु इह बारी ॥२॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। बखसिंदु = बख्शिश करने वाला। देइ = देता है। अधारी = आसरा। संत पाछै = गुरु की शरण। इह बारी = इस बार, इस जनम में।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा बख्शिशें करने वाला है, सदा मेहर करने वाला है, वह सब जीवों को आसरा देता है। हे दास नानक! (तू भी आरजू कर और कह:) मैं गुरु की शरण आ पड़ा हूँ, मुझे इस जनम में (विकारों से) बचाए रख।2।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ रसना गुण गोपाल निधि गाइण ॥ सांति सहजु रहसु मनि उपजिओ सगले दूख पलाइण ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ रसना गुण गोपाल निधि गाइण ॥ सांति सहजु रहसु मनि उपजिओ सगले दूख पलाइण ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। निधि = खजाना। सहजु = आत्मिक अडोलता। रहसु = हर्ष, खुशी। मुनि = मन में। पलाइण = दौड़ जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (सारे सुखों के) खजाने गोपाल प्रभु के गुण जीभ से गाते हुए मन में शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक अडोलता पैदा होती है, सुख पैदा होता है, सारे दुख दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जो मागहि सोई सोई पावहि सेवि हरि के चरण रसाइण ॥ जनम मरण दुहहू ते छूटहि भवजलु जगतु तराइण ॥१॥
मूलम्
जो मागहि सोई सोई पावहि सेवि हरि के चरण रसाइण ॥ जनम मरण दुहहू ते छूटहि भवजलु जगतु तराइण ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागहि = (जीव) माँगते हैं। सेवि = सेवा करके। रसाइण = सारे रसों का घर। ते = से। छूटहि = बच जाते हैं। भवजलु = संसार समुंदर।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु सारे रसों का घर है उसके चरणों की सेवा करके (मनुष्य) जो कुछ (उसके दर से) माँगते हैं, वही कुछ प्राप्त कर लेते हैं, (निरा यही नहीं, प्रभु की सेवा-भक्ति करने वाले मनुष्य) जन्म और मौत दोनों से बच जाते हैं, संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत ततु बीचारिओ दास गोविंद पराइण ॥ अबिनासी खेम चाहहि जे नानक सदा सिमरि नाराइण ॥२॥५॥१०॥
मूलम्
खोजत खोजत ततु बीचारिओ दास गोविंद पराइण ॥ अबिनासी खेम चाहहि जे नानक सदा सिमरि नाराइण ॥२॥५॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततु = अस्लियत। पराइण = आसरे। अबिनासी खेम = कभी नाश ना होने वाला सुख। चाहहि = तू चाहता है।2।
अर्थ: हे भाई! खोज करते-करते प्रभु के दास असल तत्व को समझ लेते हैं, और प्रभु के ही आसरे रहते हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) अगर तू कभी ना खत्म होने वाला सुख चाहता है, तो सदा परमात्मा का स्मरण किया कर।2।5।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ निंदकु गुर किरपा ते हाटिओ ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला सिव कै बाणि सिरु काटिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ निंदकु गुर किरपा ते हाटिओ ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला सिव कै बाणि सिरु काटिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। गुर किरपा ते = गुरु की कृपा से, जब गुरु की कृपा होती है। हाटिओ = हट जाता है, (निंदा करने की आदत से) हट जाता है। कै बाणि = के बाण से। सिव कै बाणि = कल्याण-रूप प्रभु के नाम-तीर से। सिरु = अहंकार। काटिओ = काट देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब गुरु कृपा करता है तो निंदा के स्वभाव वाला मनुष्य (निंदा करने से) हट जाता है। (जिस निंदक पर) प्रभु परमात्मा जी दयावान हो जाते हैं, कल्याण-रूवरूप हरि के नाम-तीर से (गुरु उसका) सिर काट देता है (उसका अहंकार नाश कर देता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालु जालु जमु जोहि न साकै सच का पंथा थाटिओ ॥ खात खरचत किछु निखुटत नाही राम रतनु धनु खाटिओ ॥१॥
मूलम्
कालु जालु जमु जोहि न साकै सच का पंथा थाटिओ ॥ खात खरचत किछु निखुटत नाही राम रतनु धनु खाटिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काल = आत्मिक मौत। जालु = (माया का) जाल। जमु = मौत (का डर)। जोहि न साकै = देख भी नहीं सकता। सच का पंथा = सदा स्थिर हरि नाम स्मरण करने वाला रास्ता। पंथा = रास्ता। थाटिओ = कब्जा कर लेता है। खात = खाते हुए। खरचत = और लोगों को बाँटते हुए।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु प्रभु दयावान होते हैं) उस मनुष्य को आत्मिक मौत, माया का जाल, मौत का डर (कोई भी) देख नहीं सकता, (क्योंकि गुरु की कृपा से वह मनुष्य) सदा-स्थिर हरि-नाम-जपने वाले रास्ते पर कब्जा कर लेता है। वह मनुष्य परमात्मा का रत्न (जैसा कीमती) नाम-धन कमा लेता है। खुद बरत के, और लोगों को बाँट के ये धन रक्ती भर भी नहीं खत्म होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भसमा भूत होआ खिन भीतरि अपना कीआ पाइआ ॥ आगम निगमु कहै जनु नानकु सभु देखै लोकु सबाइआ ॥२॥६॥११॥
मूलम्
भसमा भूत होआ खिन भीतरि अपना कीआ पाइआ ॥ आगम निगमु कहै जनु नानकु सभु देखै लोकु सबाइआ ॥२॥६॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भसमा भूत = राख हो जाता है, नामो निशान मिट जाता है। अपना कीआ पाइआ = (जिस निंदा स्वभाव के कारण) अपना किया पाता था, दुखी होता रहता था। आगम निगमु = ईश्वरीय अगंमी खेल। सबाइआ = सारा।2।
अर्थ: हे भाई! (जिस निंदा स्वभाव के कारण, जिस स्वै भाव के कारण, निंदक सदा) दुखी होता रहता था, (प्रभु के दयाल होने से, गुरु की कृपा से) एक छिन में ही उस स्वभाव का नामो-निशान मिट जाता है। (इस आश्चर्यजनक तब्दीली को) सारा जगत हैरान हो-हो के देखता है। दास नानक ये अगंमी-रूहानी खेल बयान करता है।2।6।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी मः ५ ॥ किरपन तन मन किलविख भरे ॥ साधसंगि भजनु करि सुआमी ढाकन कउ इकु हरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी मः ५ ॥ किरपन तन मन किलविख भरे ॥ साधसंगि भजनु करि सुआमी ढाकन कउ इकु हरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरपन = हे कंजूस! (वह मनुष्य जो अपनी स्वासों की पूंजी को कभी भी स्मरण में खर्च नहीं करता)। किलविख = पाप। हरे = हरि।1। रहाउ।
अर्थ: हे कंजूस! (स्वासों की पूंजी स्मरण में ना खर्च करने के कारण तेरा) मन और शरीर पापों से भरे पड़े हैं। हे कंजूस! साधु-संगत में टिक के मालिक प्रभु का भजन किया कर। सिर्फ वह प्रभु ही इन पापों पर पर्दा डालने में समर्थ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक छिद्र बोहिथ के छुटकत थाम न जाही करे ॥ जिस का बोहिथु तिसु आराधे खोटे संगि खरे ॥१॥
मूलम्
अनिक छिद्र बोहिथ के छुटकत थाम न जाही करे ॥ जिस का बोहिथु तिसु आराधे खोटे संगि खरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छिद्र = छेद। बोहिथ = जहाज। थाम न करे जाही = थामे नहीं जा सकते। आराधे = आराध। संगि = साथ।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे कंजूस! (स्मरण से सूना रहने के कारण तेरे शरीर-) जहाज में अनेक छेद हो गए हैं, (स्मरण के बिना किसी भी और तरीके से) ये छेद बंद नहीं किए जा सकते। जिस परमात्मा का दिया हुआ ये (शरीर) जहाज है, उसकी आराधना किया कर। उसकी संगति में खोटी (हो चुकी ज्ञान-इंद्रिय) खरी हो जाएंगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गली सैल उठावत चाहै ओइ ऊहा ही है धरे ॥ जोरु सकति नानक किछु नाही प्रभ राखहु सरणि परे ॥२॥७॥१२॥
मूलम्
गली सैल उठावत चाहै ओइ ऊहा ही है धरे ॥ जोरु सकति नानक किछु नाही प्रभ राखहु सरणि परे ॥२॥७॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गली = बातों से। सैल = पहाड़। ओइ = वह। प्रभ = हे प्रभु!।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर मनुष्य निरी बातों से ही पहाड़ उठाना चाहता है (सिर्फ बातों से) वह पहाड़ वहीं के वहीं धरे रह जाते हैं। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! (इन छेदों से बचने के लिए हम जीवों में) कोई जोर कोई ताकत नहीं। हम तेरी शरण आ पड़े हैं, हमें तू खुद ही बचा ले।2।7।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ हरि के चरन कमल मनि धिआउ ॥ काढि कुठारु पित बात हंता अउखधु हरि को नाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ हरि के चरन कमल मनि धिआउ ॥ काढि कुठारु पित बात हंता अउखधु हरि को नाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = कमल के फूल जैसे कोमल चरण। मनि = मन में। धिआउ = ध्याऊँ। काढि = निकाल के। कुठारु = कोहाड़ा। पित = पिक्त, गर्मी, (क्रोध)। बात = वायु, वाई (अहंकार)। अउखधु = दवा। को = का।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं तो अपने मन में परमात्मा के कोमल चरणों का ध्यान धरता हूँ। परमात्मा का नाम (एक ऐसी) दवाई है जो (मनुष्य के अंदर से) क्रोध और अहंकार (आदि रोगों को) पूरी तरह से निकाल देती है (जैसे, दवा शरीर में से गर्मी और वाई के रोग दूर करती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीने ताप निवारणहारा दुख हंता सुख रासि ॥ ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जा की प्रभ आगै अरदासि ॥१॥
मूलम्
तीने ताप निवारणहारा दुख हंता सुख रासि ॥ ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जा की प्रभ आगै अरदासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीने ताप = आधि व्याधि, उपाधि (मानसिक रोग, शारीरिक रोग व झगड़े आदि)। रासि = राशि, पूंजी। ता कउ = उस (मनुष्य) को। बिघनु = रुकावट।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (का नाम मनुष्य के अंदर से आधि, व्याधि व उपाधि) तीनों ही ताप दूर करने वाला है, सारे दुखों का नाश करने वाला है, और सारे सुखों की राशि है। जिस मनुष्य की अरदास सदा प्रभु के दर पे जारी रहती है, उसके जीवन के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि बैद नाराइण करण कारण प्रभ एक ॥ बाल बुधि पूरन सुखदाता नानक हरि हरि टेक ॥२॥८॥१३॥
मूलम्
संत प्रसादि बैद नाराइण करण कारण प्रभ एक ॥ बाल बुधि पूरन सुखदाता नानक हरि हरि टेक ॥२॥८॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। बैद = हकीम। करण कारण = जगत का मूल। बाल बुधि = बालकों वाली सरल बुद्धि वाले मनुष्य, जो चतुराई छोड़ देते हैं। टेक = आसरा।2।
अर्थ: हे भाई! एक परमात्मा ही जगत का मूल है, (जीवों के रोग दूर करने वाला) हकीम है। ये प्रभु गुरु की कृपा से मिलता है। हे नानक! जो मनुष्य अपने अंदर से चतुराई दूर कर देते हैं, सारे सुख देने वाला परमात्मा उन्हें मिल जाता है, उन (की जिंदगी) का सहारा बन जाता है।2।8।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ हरि हरि नामु सदा सद जापि ॥ धारि अनुग्रहु पारब्रहम सुआमी वसदी कीनी आपि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ हरि हरि नामु सदा सद जापि ॥ धारि अनुग्रहु पारब्रहम सुआमी वसदी कीनी आपि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। जापि = जपा कर। अनुग्रहु = कृपा। धारि = धर के, कर के। वसदी कीनी = बसा दी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपा कर। (जिस भी मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है) मालिक प्रभु ने अपनी मेहर कर के (उसकी सूनी पड़ी हृदय-नगरी को सुंदर आत्मिक गुणों से) खुद बसा दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस के से फिरि तिन ही सम्हाले बिनसे सोग संताप ॥ हाथ देइ राखे जन अपने हरि होए माई बाप ॥१॥
मूलम्
जिस के से फिरि तिन ही सम्हाले बिनसे सोग संताप ॥ हाथ देइ राखे जन अपने हरि होए माई बाप ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = थे। तिन ही = तिनि ही, उसने ही। समाले = संभाल करता है। सोग = चिन्ता फिक्र। संताप = दुख-कष्ट। देइ = दे के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के हम पैदा किए हुए हैं, वह प्रभु (उन मनुष्यों की) खुद संभाल करता है (जो उसका नाम जपते हैं, उनके सारे) चिन्ता-फिक्र, दुख-कष्ट नाश हो जाते हैं। परमात्मा अपना हाथ दे के अपने सेवकों को (चिन्ता-फिक्र, दुख-कष्टों से) आप बचाता है, उनका माँ-बाप बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत होए मिहरवाना दया धारी हरि नाथ ॥ नानक सरनि परे दुख भंजन जा का बड परताप ॥२॥९॥१४॥
मूलम्
जीअ जंत होए मिहरवाना दया धारी हरि नाथ ॥ नानक सरनि परे दुख भंजन जा का बड परताप ॥२॥९॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ जंत = सारे ही जीव। जा का = जिस (परमात्मा) का।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे ही जीवों पर मेहर करने वाला है, वह पति प्रभु सब पे दया करता है। हे नानक! (कह:) मैं उस प्रभु की शरण पड़ा हूँ, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, और, जिसका तेज-प्रताप बहुत है।2।9।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ स्वामी सरनि परिओ दरबारे ॥ कोटि अपराध खंडन के दाते तुझ बिनु कउनु उधारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ स्वामी सरनि परिओ दरबारे ॥ कोटि अपराध खंडन के दाते तुझ बिनु कउनु उधारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्वामी = हे नानक! परिओ = आ पड़ा हूँ। दरबारे = तेरे दर पर। कोटि = करोड़ों। अपराध = भूलें। खंडन के दाते = नाश करने के समर्थ, हे दातार! उधारे = (भूलों से) बचाए।1। रहाउ।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, मैं तेरे दर पर (आ गिरा हूँ)। हे करोड़ों भूलें नाश करने के समर्थ दातार! तेरे बिना और कौन मुझे भूलों से बचा सकता है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत बहु परकारे सरब अरथ बीचारे ॥ साधसंगि परम गति पाईऐ माइआ रचि बंधि हारे ॥१॥
मूलम्
खोजत खोजत बहु परकारे सरब अरथ बीचारे ॥ साधसंगि परम गति पाईऐ माइआ रचि बंधि हारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत = तलाशते हुए। बहु परकारे = कई तरीकों से। सरब अरथ = सारी बातें। संगि = संगति में। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। रचि = रच के, फस के। बंधि = बंधन में। माइआ रचि बंधि = माया के (मोह के) बंधन में फंस के। हारे = मानव जन्म की बाजी हार जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! कई ढंगों से खोज कर करके मैंने सारी बातें विचारी हैं (और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ, कि) गुरु की संगति में टिकने से सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली जाती है, और माया के (मोह के) बंधनो में फंस के (मानव जन्म की बाजी) हार जाते हैं।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल संगि प्रीति मनि लागी सुरि जन मिले पिआरे ॥ नानक अनद करे हरि जपि जपि सगले रोग निवारे ॥२॥१०॥१५॥
मूलम्
चरन कमल संगि प्रीति मनि लागी सुरि जन मिले पिआरे ॥ नानक अनद करे हरि जपि जपि सगले रोग निवारे ॥२॥१०॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। मनि = मन में। सुरिजन = गुरमुख सज्जन। करे = करता है। जपि = जप के। सगले = सारे। निवारे = दूर कर लेता है।2।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को प्यारे गुरसिख सज्जन मिल जाते हैं उसके मन में परमात्मा के कोमल चरणों का प्यार पैदा हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम जप-जप के आत्मिक आनंद लेता है और वह (अपने अंदर से) सारे रोग दूर कर लेता है।2।10।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ घरु ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी महला ५ घरु ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हां हां लपटिओ रे मूड़्हे कछू न थोरी ॥ तेरो नही सु जानी मोरी ॥ रहाउ॥
मूलम्
हां हां लपटिओ रे मूड़्हे कछू न थोरी ॥ तेरो नही सु जानी मोरी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हां हां = ठीक है, मैंने समझ लिया है। रे मूढ़े = हे मूर्ख (मन)! थोरी = थोड़ी। सु = वह (माया)। जानी मोरी = तू अपनी समझ बैठा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख (मन)! मैंने समझ लिया है कि तू (माया के साथ) चिपका हुआ है, (तेरी उसके साथ प्रीति भी) कुछ थोड़ी सी नहीं है। (जो माया सदा) तेरी नहीं बनी रहनी, उसको तू अपनी समझ रहा है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपन रामु न चीनो खिनूआ ॥ जो पराई सु अपनी मनूआ ॥१॥
मूलम्
आपन रामु न चीनो खिनूआ ॥ जो पराई सु अपनी मनूआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चीनो = पहचाना, सांझ डाली। खिनूआ = एक छिन वास्ते भी। मनूआ = मानी हुई है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (ही) अपना (असल साथी है उससे तूने) एक छिन के लिए भी जान-पहचान नहीं बनाई। जो (माया) बेगानी (बन जानी) है उसको तूने अपनी मान लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु संगी सो मनि न बसाइओ ॥ छोडि जाहि वाहू चितु लाइओ ॥२॥
मूलम्
नामु संगी सो मनि न बसाइओ ॥ छोडि जाहि वाहू चितु लाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगी = साथी। मनि = मन में। छोडि जाहि = (जो पदार्थ) छोड़ जाएंगे। वाहू = उनके साथ।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (असल) साथी है, उसको तूने अपने मन में (कभी) नहीं बसाया। (जो पदार्थ आखिर) छूट जाएंगे, उनसे तूने चिक्त जोड़ा हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो संचिओ जितु भूख तिसाइओ ॥ अम्रित नामु तोसा नही पाइओ ॥३॥
मूलम्
सो संचिओ जितु भूख तिसाइओ ॥ अम्रित नामु तोसा नही पाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संचिओ = इकट्ठा किया है। जितु = जिससे। तिसाइओ = तिखा, प्यास। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। तोसा = रास्ते का खर्च।3।
अर्थ: हे भाई! तू उस धन-पदार्थ को इकट्ठा कर रहा है, जिससे (माया की) भूख-प्यास (बनी रहेगी)। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम जीवन-सफर का खर्च है, तूने वह हासिल नहीं किया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोधि मोह कूपि परिआ ॥ गुर प्रसादि नानक को तरिआ ॥४॥१॥१६॥
मूलम्
काम क्रोधि मोह कूपि परिआ ॥ गुर प्रसादि नानक को तरिआ ॥४॥१॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रोधि = क्रोध में। कूपि = कूएं में। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। को = कोई विरला।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) तू काम-क्रोध में तू मोह के कूएं में पड़ा हुआ है। (पर, तेरे भी क्या वश?) कोई विरला मनुष्य ही गुरु की कृपा से (इस कूएं में से) पार लांघता है।4।1।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ हमारै एकै हरी हरी ॥ आन अवर सिञाणि न करी ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ हमारै एकै हरी हरी ॥ आन अवर सिञाणि न करी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमारै = मेरे वास्ते, मेरे हृदय में। आन अवर = कोई और। न करी = मैं नहीं करता। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैंने अपने दिल में एक परमात्मा का ही आसरा रखा हुआ है। (परमात्मा के बिना) मैं कोई और आसरा नहीं पहचानता। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडै भागि गुरु अपुना पाइओ ॥ गुरि मो कउ हरि नामु द्रिड़ाइओ ॥१॥
मूलम्
वडै भागि गुरु अपुना पाइओ ॥ गुरि मो कउ हरि नामु द्रिड़ाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भागि = क्सिमत से। गुरि = गुरु ने। कउ = को। मो कउ = मुझे। द्रिढ़ाइओ = पक्का कर दिया है।1।
अर्थ: हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे अपना गुरु मिला। गुरु ने मुझे परमात्मा का नाम (दे के) मेरे हृदय में पक्का कर दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि जाप ताप ब्रत नेमा ॥ हरि हरि धिआइ कुसल सभि खेमा ॥२॥
मूलम्
हरि हरि जाप ताप ब्रत नेमा ॥ हरि हरि धिआइ कुसल सभि खेमा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेमा = धार्मिक रहित। कुसल खेम = खुशियां सुख। सभि = सारे।2।
अर्थ: अब, हे भाई! परमात्मा का नाम ही (मेरे लिए) जप-तप है, व्रत है, धार्मिक नियम है। परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के मुझे सारे सुख-आनंद प्राप्त हो रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार बिउहार जाति हरि गुनीआ ॥ महा अनंद कीरतन हरि सुनीआ ॥३॥
मूलम्
आचार बिउहार जाति हरि गुनीआ ॥ महा अनंद कीरतन हरि सुनीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आचार बिउहार = कर्मकांड, धार्मिक रस्में। गुनीआ = गुण। सुनीआ = सुन के।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गाने (अब मेरे लिए) धार्मिक रस्में और (उच्च) जाति है। परमात्मा की महिमा सुन-सुन के (मेरे अंदर) बड़ा आनंद पैदा होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिनि ठाकुरु पाइआ ॥ सभु किछु तिस के ग्रिह महि आइआ ॥४॥२॥१७॥
मूलम्
कहु नानक जिनि ठाकुरु पाइआ ॥ सभु किछु तिस के ग्रिह महि आइआ ॥४॥२॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! जिनि = जिस (मनुष्य) ने। ग्रिह = घर।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने (अपने हृदय में बसता) परमात्मा पा लिया, उसके हृदय घर में हरेक चीज आ गई।4।2।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूड़ो मनु हरि रंगो लोड़ै ॥ गाली हरि नीहु न होइ ॥ रहाउ॥
मूलम्
रूड़ो मनु हरि रंगो लोड़ै ॥ गाली हरि नीहु न होइ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर। रूढ़ो हरि रंगो = परमात्मा का सुंदर प्रेम रंग। लोड़ै = चाहता है। गाली = (सिर्फ) बातों से। नीहु = प्रेम। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! वैसे तो ये) मन परमात्मा के सुदर प्रेम-रंग को (प्राप्त करना) चाहता ही रहता है, पर केवल बातों से प्रेम नहीं मिलता। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ ढूढेदी दरसन कारणि बीथी बीथी पेखा ॥ गुर मिलि भरमु गवाइआ हे ॥१॥
मूलम्
हउ ढूढेदी दरसन कारणि बीथी बीथी पेखा ॥ गुर मिलि भरमु गवाइआ हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। ढूढेदी = ढूँढती रही। बीथी = विथि, गली। बीथी बीथी = गली गली, जाप ताप, कर्मकांड आदि की हरेक गली। पेखा = देखूँ। मिलि = मिल के। भरमु = भटकता।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन करने के लिए मैं (जाप-ताप-कर्मकांड आदि की) गली-गली ढूँढती रही, देखती रही। (आखिर) गुरु को मिल के (अपने मन की) भटकना दूर की है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह बुधि पाई मै साधू कंनहु लेखु लिखिओ धुरि माथै ॥ इह बिधि नानक हरि नैण अलोइ ॥२॥१॥१८॥
मूलम्
इह बुधि पाई मै साधू कंनहु लेखु लिखिओ धुरि माथै ॥ इह बिधि नानक हरि नैण अलोइ ॥२॥१॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बुधि = अकल, समझ। साधू कंनहु = गुरु से। धुरि = धुर दरगाह से। अलोइ = (मैंने) देख लिया।2।
अर्थ: (हे भाई! मन की भटकना दूर करने की) ये बुद्धि मैंने गुरु से हासिल की, मेरे माथे पर (गुरु के मिलाप का) लेख धुर-दरगाह से लिखा हुआ था। हे नानक! (कह:) इस तरह मैंने परमात्मा को (हर जगह बसता) अपनी आँखों से देख लिया।2।1।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ गरबि गहिलड़ो मूड़ड़ो हीओ रे ॥ हीओ महराज री माइओ ॥ डीहर निआई मोहि फाकिओ रे ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ गरबि गहिलड़ो मूड़ड़ो हीओ रे ॥ हीओ महराज री माइओ ॥ डीहर निआई मोहि फाकिओ रे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गहिलड़ो = गकिहला, बावला, झल्ला। मूढ़ड़ो = मूढ़ा, मूर्ख। हीओ = हृदय। रे = हे भाई! महराज री = महाराज की। माइओ = माया (ने)। डीहर निआई = मछली की तरह। मोहि = मोह में। फाकिओ = फसा ली है। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मूर्ख हृदय अहंकार में झल्ला हुआ रहता है। इस दिल को महाराज (प्रभु) की माया ने मछली की तरह मोह में फसा रखा है (जैसे मछली को कुण्डी में)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घणो घणो घणो सद लोड़ै बिनु लहणे कैठै पाइओ रे ॥ महराज रो गाथु वाहू सिउ लुभड़िओ निहभागड़ो भाहि संजोइओ रे ॥१॥
मूलम्
घणो घणो घणो सद लोड़ै बिनु लहणे कैठै पाइओ रे ॥ महराज रो गाथु वाहू सिउ लुभड़िओ निहभागड़ो भाहि संजोइओ रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घणो = बहुत। सद = सदा। लोड़ै = मांगता है। बिनु लहणे = भाग्य के बिना। कैठे = किस जगह से? कहाँ से? महराज रो = महराज का। गाथु = शरीर। वाहू सिउ = उस (शरीर) से ही। लुभड़िओ = लोभ कर रहा है, मोह कर रहा है। निहभागड़ो = निभागा, भाग्यहीन। भाहि = (तृष्णा की) आग। संजोइओ = जोड़े हुए है, इकट्ठी कर रहा है।1।
अर्थ: हे भाई! (मोह में फंसा हुआ हृदय) सदा बहुत-बहुत (माया) मांगता रहता है, पर बिना भाग्यों के कहाँ मिलती है? हे भाई! महाराज का (दिया हुआ) ये शरीर है, इसी के साथ (मूर्ख जीव) मोह करता रहता है। भाग्यहीन मनुष्य (अपने मन को तृष्णा की) आग से जोड़े रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि मन सीख साधू जन सगलो थारे सगले प्राछत मिटिओ रे ॥ जा को लहणो महराज री गाठड़ीओ जन नानक गरभासि न पउड़िओ रे ॥२॥२॥१९॥
मूलम्
सुणि मन सीख साधू जन सगलो थारे सगले प्राछत मिटिओ रे ॥ जा को लहणो महराज री गाठड़ीओ जन नानक गरभासि न पउड़िओ रे ॥२॥२॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सीख = शिक्षा। साधू जन = गुरमुखि सतसंगी। सगलो = सारे। थारे = तेरे। प्राछत = पाप। जा को = जिसका। गठड़िओ = गठड़ी में से। गरभासि = गर्भ जून में। न पउड़िओ = नहीं पड़ता।2।
अर्थ: हे मन! सारे साधु-जनों की शिक्षा को सुना कर, (इसकी इनायत से) तेरे सारे पाप मिट जाएंगे। हे दास नानक! (कह:) महाराज के खजाने में से जिसके भाग्यों में कुछ प्राप्ति लिखी हुई है, वह जूनियों में नहीं पड़ता।2।2।19।
[[0716]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ घरु ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी महला ५ घरु ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसो गुनु मेरो प्रभ जी कीन ॥ पंच दोख अरु अहं रोग इह तन ते सगल दूरि कीन ॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसो गुनु मेरो प्रभ जी कीन ॥ पंच दोख अरु अहं रोग इह तन ते सगल दूरि कीन ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुनु = उपकार। पंच दोख = (कामादिक) पाँच विकार। अरु = और। अहं रोग = अहंकार का रोग। ते = से। सगल = सारे। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे प्रभु जी ने (मेरे पर) ऐसा उपकार कर दिया है, (कि) कामादिक पाँचों विकार और अहंकार का रोग- ये सारे उसने मेरे शरीर में से बाहर निकाल दिए हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंधन तोरि छोरि बिखिआ ते गुर को सबदु मेरै हीअरै दीन ॥ रूपु अनरूपु मोरो कछु न बीचारिओ प्रेम गहिओ मोहि हरि रंग भीन ॥१॥
मूलम्
बंधन तोरि छोरि बिखिआ ते गुर को सबदु मेरै हीअरै दीन ॥ रूपु अनरूपु मोरो कछु न बीचारिओ प्रेम गहिओ मोहि हरि रंग भीन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंधन = फाहिआं। तोरि = तोड़ के। छोरि = छुड़ा के। बिखिआ = माया (के मोह) से। को = का। मेरै हीअरै = मेरे हृदय में। रूपु = सुहज। अनरूपु = अपाहज, करूप, जो सुंदर ना हों। गहिओ = पकड़ लिया, बाँध दिया। मोहि = मुझे। रंगि = प्रेम रंग में। भीन = भिगो दिया।1।
अर्थ: (हे भाई! मेरे प्रभु जी ने मेरी माया की) फाहियां तोड़ के (मुझे) माया (के मोह) से छुड़ा के गुरु का शब्द मेरे हृदय में बसा दिया है। मेरा कोई सुहज कोई अपाहज (कोई अच्छाई कोई बुराई), वह कुछ भी अपने मन में नहीं लाया। मुझे उसने अपने प्रेम से बाँध दिया है। अपने प्यार रंग में भिगो दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेखिओ लालनु पाट बीच खोए अनद चिता हरखे पतीन ॥ तिस ही को ग्रिहु सोई प्रभु नानक सो ठाकुरु तिस ही को धीन ॥२॥१॥२०॥
मूलम्
पेखिओ लालनु पाट बीच खोए अनद चिता हरखे पतीन ॥ तिस ही को ग्रिहु सोई प्रभु नानक सो ठाकुरु तिस ही को धीन ॥२॥१॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लालनु = सुंदर लाल। पाट बीच = बीच के पर्दे। खोए = दूर करके। हरखे = खुशी में। पतीन = पतीज गया। ग्रिह = शरीर घर। ठाकुरु = मालिक। को धीन = का अधीन, का सेवक।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) अब जबकि बीच के पर्दे दूर करके मैंने सुंदर लाल को देखा है, तो मेरे चिक्त में आनंद पैदा हो गया है, मेरा मन खुशी से गद-गद हो उठा है। (अब मेरा ये शरीर) उसी का ही घर (बन गया है) वही (इस घर का) मालिक (बन गया है), उसी का ही मैं सेवक बन गया हूँ।2।1।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ माई मेरे मन की प्रीति ॥ एही करम धरम जप एही राम नाम निरमल है रीति ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ माई मेरे मन की प्रीति ॥ एही करम धरम जप एही राम नाम निरमल है रीति ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! एही = यही, ये प्रीत ही। करम धरम = धार्मिक कर्म (निहित तीर्थ स्नान आदि)। रीति = जीव मर्यादा। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (गुरु की कृपा से) मेरे मन में परमात्मा का प्यार पैदा हो गया है। मेरे लिए ये (तीर्थ-स्नान आदि निहित) धार्मिक कर्म है, यही जप तप है। परमात्मा का नाम स्मरणा ही जिंदगी को पवित्र करने का तरीका है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रान अधार जीवन धन मोरै देखन कउ दरसन प्रभ नीति ॥ बाट घाट तोसा संगि मोरै मन अपुने कउ मै हरि सखा कीत ॥१॥
मूलम्
प्रान अधार जीवन धन मोरै देखन कउ दरसन प्रभ नीति ॥ बाट घाट तोसा संगि मोरै मन अपुने कउ मै हरि सखा कीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान अधार = जिंद का आसरा। मोरै = मेरे लिए। बाट = रास्ता। घाट = पत्तन। तोसा = राह का खर्च। संगि = साथ। कउ = के लिए। सखा = मित्र।1।
अर्थ: हे माँ! (मेरी यही तमन्ना है कि) मुझे सदा प्रभु के दर्शन होते रहें - यही मेरी जिंद का सहारा है यही मेरे वास्ते सारी जिंदगी का (कमाया हुआ) धन है। रास्ते में, पत्तन पर (जिंदगी के सफर में हर जगह परमात्मा का प्यार ही) मेरे साथ राह का खर्च है। (गुरु की कृपा से) मैंने अपने मन के लिए परमात्मा को मित्र बना लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि भए मन निरमल करि किरपा अपुने करि लीत ॥ सिमरि सिमरि नानक सुखु पाइआ आदि जुगादि भगतन के मीत ॥२॥२॥२१॥
मूलम्
संत प्रसादि भए मन निरमल करि किरपा अपुने करि लीत ॥ सिमरि सिमरि नानक सुखु पाइआ आदि जुगादि भगतन के मीत ॥२॥२॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। करि = कर के। करि लीत = बना लिया है। सिमरि = स्मरण करके। नानक = हे नानक! आदि = शुरू से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) गुरु की कृपा से जिनके मन पवित्र हो जाते हैं, परमात्मा मेहर करके उनको अपने (सेवक) बना लेता है। सदा परमात्मा का नाम स्मरण करके वे आत्मिक आनंद लेते हैं। आरम्भ से ही, जुगों की शुरूवात से ही, परमात्मा अपने भक्तों का मित्र है।2।2।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ प्रभ जी मिलु मेरे प्रान ॥ बिसरु नही निमख हीअरे ते अपने भगत कउ पूरन दान ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ प्रभ जी मिलु मेरे प्रान ॥ बिसरु नही निमख हीअरे ते अपने भगत कउ पूरन दान ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे प्रान = हे मेरी जिंद (के मालिक)! निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। हीअरे ते = हृदय से। कउ = को। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! हे मेरी जिंद (के मालिक)! (मुझे) मिल। आँख झपकने जितने वक्त के लिए भी मेरे हृदय को तू ना भूल। अपने भक्त को ये पूरी दाति बख्श। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोवहु भरमु राखु मेरे प्रीतम अंतरजामी सुघड़ सुजान ॥ कोटि राज नाम धनु मेरै अम्रित द्रिसटि धारहु प्रभ मान ॥१॥
मूलम्
खोवहु भरमु राखु मेरे प्रीतम अंतरजामी सुघड़ सुजान ॥ कोटि राज नाम धनु मेरै अम्रित द्रिसटि धारहु प्रभ मान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोवहु = नाश करो। भरमु = भटकना। राखु = रक्षा कर। प्रीतम = हे प्रीतम! सुघड़ = हे सोहाने! सुजान = हे सयाने! हे समझदार! कोटि राज = करोड़ों बादशाहियां। मेरै = मेरे वास्ते। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। द्रिसटि = निगाह। मान = मेरे मन पर, मेरे पर।1।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम! हे अंतरजामी! हे सोहाने सुजान! मेरे मन की भटकना दूर कर, मेरी रक्षा कर। हे प्रभु! मेरे पर आत्मिक जीवन देने वाली निगाह कर। मेरे लिए तेरे नाम का धन करोड़ों बादशाहियों (के बराबर बना रहे)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आठ पहर रसना गुन गावै जसु पूरि अघावहि समरथ कान ॥ तेरी सरणि जीअन के दाते सदा सदा नानक कुरबान ॥२॥३॥२२॥
मूलम्
आठ पहर रसना गुन गावै जसु पूरि अघावहि समरथ कान ॥ तेरी सरणि जीअन के दाते सदा सदा नानक कुरबान ॥२॥३॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। जसु = महिमा। पूरि = भर के। अघावहि = तृप्त रहें। समरथ = हे समर्थ! कान = कान। जीअन के दाते = हे सब जीवों के दातार!।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सब ताकतों के मालिक! (मेहर कर) मेरी जीभ आठों पहर तेरे गुण गाती रहे, मेरे कान (अपने अंदर) तेरी महिमा भर के (इसी से) तृप्त रहें। हे सब जीवों के दातार! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तुझसे सदा ही सदके जाता हूँ।2।3।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ प्रभ तेरे पग की धूरि ॥ दीन दइआल प्रीतम मनमोहन करि किरपा मेरी लोचा पूरि ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ प्रभ तेरे पग की धूरि ॥ दीन दइआल प्रीतम मनमोहन करि किरपा मेरी लोचा पूरि ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पग = चरण। धूरि = धूल। प्रीतम = हे प्रीतम! मन मोहन = हे मन को मोहने वाले! लोचा = तमन्ना। पूरि = पूरी कर। रहाउ।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! हे प्रीतम! हे मन मोहन! मेहर कर, मेरी तमन्ना पूरी कर, मुझे तेरे चरणों की धूल मिलती रहे। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दह दिस रवि रहिआ जसु तुमरा अंतरजामी सदा हजूरि ॥ जो तुमरा जसु गावहि करते से जन कबहु न मरते झूरि ॥१॥
मूलम्
दह दिस रवि रहिआ जसु तुमरा अंतरजामी सदा हजूरि ॥ जो तुमरा जसु गावहि करते से जन कबहु न मरते झूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दहदिस = दसों दिशाओं में, सारे संसार में। रवि रहिआ = पसरा हुआ। जसु = शोभा। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाले! हजूरि = अंग संग। गावहि = गाते हैं। करते = हे कर्तार! न मरते = आत्मिक मौत नहीं सहेड़ते। झूरि = (माया की खातिर) चिन्ता में झूर के।1।
अर्थ: हे अंतरजामी! तू सदा (सब जीवों के) अंग संग रहता है, तेरी शोभा सारे संसार में बिखरी रहती है। हे कर्तार! जो मनुष्य तेरी महिमा के गीत गाते रहते हैं, वे (माया की खातिर) चिन्ता-फिक्र कर कर के कभी भी आत्मिक मौत नहीं सहेड़ते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंध बंध बिनसे माइआ के साधू संगति मिटे बिसूर ॥ सुख स्मपति भोग इसु जीअ के बिनु हरि नानक जाने कूर ॥२॥४॥२३॥
मूलम्
धंध बंध बिनसे माइआ के साधू संगति मिटे बिसूर ॥ सुख स्मपति भोग इसु जीअ के बिनु हरि नानक जाने कूर ॥२॥४॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंध बंध = धंधों के बंधन। बिसूर = चिन्ता फिक्र। संपति = धन पदार्थ। जीअ के = जिंद के। कूर = झूठ, नाशवान, झूठे।2।
अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य कर्तार के यश गाते रहते हैं) साधु-संगत की इनायत से उनके सारे चिन्ता-फिक्र खत्म हो जाते हैं, (उनके वास्ते) माया के धंधों की फाहियां नाश हो जाती हैं। दुनिया के सुख, धन पदार्थ, इस जिंद को प्यारे लगने वाले मायावी पदाथों के भोग - परमात्मा के नाम के बिना वे मनुष्य इन सबको झूठे जानते हैं।2।4।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी मः ५ ॥ माई मेरे मन की पिआस ॥ इकु खिनु रहि न सकउ बिनु प्रीतम दरसन देखन कउ धारी मनि आस ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी मः ५ ॥ माई मेरे मन की पिआस ॥ इकु खिनु रहि न सकउ बिनु प्रीतम दरसन देखन कउ धारी मनि आस ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! सकउ = सकूँ। रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। मनि = मन में। धारी = बनाई। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! प्रीतम प्रभु (का दर्शन करने) के बिना मैं एक छिन भर भी रह नहीं सकता। मैंने अपने मन में उसके दर्शन करने के लिए आस बनाई हुई है। मेरे मन में ये प्यास (सदा टिकी रहती है)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरउ नामु निरंजन करते मन तन ते सभि किलविख नास ॥ पूरन पारब्रहम सुखदाते अबिनासी बिमल जा को जास ॥१॥
मूलम्
सिमरउ नामु निरंजन करते मन तन ते सभि किलविख नास ॥ पूरन पारब्रहम सुखदाते अबिनासी बिमल जा को जास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरउ = स्मरण करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। निरंजन नामु = निरंजन का नाम। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया की कालिख) माया के प्रभाव से रहित। करते = कर्तार का। ते = से। सभि = सारे। किलविख = पाप। सुख दाते नामु = सुखों को देने वाले नाम। बिमल = पवित्र। जा को जास = जिसका यश।1।
अर्थ: हे माँ! जिस अविनाशी प्रभु की महिमा (जीवों को) पवित्र (कर देती) है, उस निरंजन कर्तार का, उस पूर्ण पारब्रहम का, उस सुखदाते का नाम मैं (सदा) स्मरण करता रहता हूँ। (नाम-जपने की इनायत से, हे माँ) मन से, तन से, सारे पाप दूर हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि मेरे पूर मनोरथ करि किरपा भेटे गुणतास ॥ सांति सहज सूख मनि उपजिओ कोटि सूर नानक परगास ॥२॥५॥२४॥
मूलम्
संत प्रसादि मेरे पूर मनोरथ करि किरपा भेटे गुणतास ॥ सांति सहज सूख मनि उपजिओ कोटि सूर नानक परगास ॥२॥५॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। पूर = पूरे हो गए हैं। मनोरथ = मुरादें। भेटे = मिल गए हैं। गुणतास = गुणों के खजाने प्रभु जी। सहज = आत्मिक अडोलता। कोटि = करोड़ों। सूर = सूरज।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे माँ!) गुरु की कृपा से मेरी मुरादें पूरी हो गई हैं, गुणों के खजाने प्रभु जी मेहर करके (मुझे) मिल गए हैं। (मेरे) मन में शांति पैदा हो गई है, आत्मिक अडोलता के सुख पैदा हो गए हैं, (मानो) करोड़ों सूरजों का (मेरे अंदर) उजाला पैदा हो गया है।2।5।24।
[[0717]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ हरि हरि पतित पावन ॥ जीअ प्रान मान सुखदाता अंतरजामी मन को भावन ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ हरि हरि पतित पावन ॥ जीअ प्रान मान सुखदाता अंतरजामी मन को भावन ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए, विकारी। पावन = पवित्र (करने वाला)। जीअ प्रान मान = जिंद का प्राणों का मान (आसरा)। को = का। मन को भावन = मन का प्यारा (जो भा जाए)। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा विकारियों को पवित्र करने वाला है। वह (सब जीवों के) जिंद-प्राणों का सहारा है, (सब को) सुख देने वाला है, (सबके) दिल की जानने वाला है, (सबके) मन का प्यारा है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंदरु सुघड़ु चतुरु सभ बेता रिद दास निवास भगत गुन गावन ॥ निरमल रूप अनूप सुआमी करम भूमि बीजन सो खावन ॥१॥
मूलम्
सुंदरु सुघड़ु चतुरु सभ बेता रिद दास निवास भगत गुन गावन ॥ निरमल रूप अनूप सुआमी करम भूमि बीजन सो खावन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुघड़ = बढ़िया (मानसिक) घाड़त वाला। चतुरु = सियाना। बेता = जानने वाला। रिद दास निवास = दासों के हृदय में निवास रखने वाला। अनूप = बहुत सुंदर, बेमिसाल। करम भूमि = शरीर, कर्म बीजने वाली धरती।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सुंदर है, निपुण घाड़त वाला है, सयाना है, सब कुछ जानने वाला है, अपने दासों के हृदय में निवास रखने वाला है, भक्त उसके गुण गाते हैं। वह मालिक पवित्र-स्वरूप है, बेमिसाल है। उसका बनाया ये मानव-शरीर करम बीजने के लिए धरती है, जो कुछ जीव इसमें बीजते हैं, वही खाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसमन बिसम भए बिसमादा आन न बीओ दूसर लावन ॥ रसना सिमरि सिमरि जसु जीवा नानक दास सदा बलि जावन ॥२॥६॥२५॥
मूलम्
बिसमन बिसम भए बिसमादा आन न बीओ दूसर लावन ॥ रसना सिमरि सिमरि जसु जीवा नानक दास सदा बलि जावन ॥२॥६॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसमन बिसम बिसमादा = बहुत ही हैरान। आन = अन्य। बीओ = दूसरा। लावन = बराबर। रसना = जीभ (से)। सिमरि = स्मरण करके। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। बलि = सदके।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! उस परमात्मा के बारे में सोच के) बहुत ही आश्चर्य होता है। कोई भी और दूसरा उसके बराबर का नहीं है। उसके सेवक हमेशा उससे सदके जाते हैं। हे भाई! उसकी महिमा (अपनी) जीभ से कर-कर के मैं (भी) आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा हूँ।2।6।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ माई माइआ छलु ॥ त्रिण की अगनि मेघ की छाइआ गोबिद भजन बिनु हड़ का जलु ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ माई माइआ छलु ॥ त्रिण की अगनि मेघ की छाइआ गोबिद भजन बिनु हड़ का जलु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! छलु = धोखा। त्रिण = तीले, तृण। मेघ = बादल। छाइआ = छाया। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! माया एक छलावा है (जो कोई रूप दिखा के जल्दी ही गुम हो जाता है)। परमात्मा के भजन के बिना (इस माया की पाया इतनी है जैसे) तिनकों की आग है, बादलों की छाया है, (नदी) की बहाड़ का पानी है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि सिआनप बहु चतुराई दुइ कर जोड़ि साध मगि चलु ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी मानुख देह का इहु ऊतम फलु ॥१॥
मूलम्
छोडि सिआनप बहु चतुराई दुइ कर जोड़ि साध मगि चलु ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी मानुख देह का इहु ऊतम फलु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। कर = (बहुवचन) हाथ। दुइ कर = दोनों हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मगि = रास्ते पर। चलु = चल। देहु = शरीर। ऊतम = सबसे अच्छा।1।
अर्थ: हे भाई! (माया के छलावे के धोखे से बचने के लिए) बहुत चालाकियां-समझदारियां छोड़ के, दोनों हाथ जोड़ के गुरु के (बताए हुए) रास्ते पर चला कर, अंतरजामी प्रभु का नाम स्मरण किया कर- मानव शरीर के लिए सबसे अच्छा फल यही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद बखिआन करत साधू जन भागहीन समझत नही खलु ॥ प्रेम भगति राचे जन नानक हरि सिमरनि दहन भए मल ॥२॥७॥२६॥
मूलम्
बेद बखिआन करत साधू जन भागहीन समझत नही खलु ॥ प्रेम भगति राचे जन नानक हरि सिमरनि दहन भए मल ॥२॥७॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेद बखिआन = ज्ञान की व्याख्या, आत्मिक जीवन की समझ की व्याख्या। साधू जन = भले मनुष्य। खलु = मूर्ख। राचे = मस्त। सिमरनि = स्मरण से। मल = (कामादिक) पहलवान (बहुवचन)। दहन भए = जल जाते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! भले मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ का यह उपदेश करते ही रहते हैं, पर अभागा मूर्ख मनुष्य (इस उपदेश) को नहीं समझता। हे नानक! प्रभु के दास प्रभु की प्रेमा-भक्ति में मस्त रहते हैं।
परमात्मा के नाम-जपने की इनायत से (उनके अंदर से कामादिक) पहलवान जल के राख हो जो जाते हैं।27।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ माई चरन गुर मीठे ॥ वडै भागि देवै परमेसरु कोटि फला दरसन गुर डीठे ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ माई चरन गुर मीठे ॥ वडै भागि देवै परमेसरु कोटि फला दरसन गुर डीठे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! भागि = किस्मत से। कोटि = करोड़ों। डीठे = देखने से। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! गुरु के चरण (मुझे) प्यारे लगते हैं। (जिस मनुष्य को) बड़ी किस्मत से परमात्मा (गुरु के चरणों का मिलाप) देता है, गुरु के दर्शन करने से (उस मनुष्य को) करोड़ों (पुन्यों के) फल प्राप्त हो जाते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुन गावत अचुत अबिनासी काम क्रोध बिनसे मद ढीठे ॥ असथिर भए साच रंगि राते जनम मरन बाहुरि नही पीठे ॥१॥
मूलम्
गुन गावत अचुत अबिनासी काम क्रोध बिनसे मद ढीठे ॥ असथिर भए साच रंगि राते जनम मरन बाहुरि नही पीठे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। अचुत = (अचुत्य। च्यु = गिर जाना) कभी ना गिरने वाला, कभी ना नाश होने वाला। मद = अहंकार। ढीठे = ढीठ। असथिर = स्थिर, अडोल। साच रंगि = सदा स्थिर प्रभु के प्रेम रंग में। बाहुरि = दोबारा। पीठे = पीठे जाते हैं।1।
अर्थ: हे माँ! (गुरु के चरणों में पड़ कर) अटल अविनाशी परमात्मा के गुण गाते-गाते बार-बार ढीठ बन कर आने वाले काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार) नाश हो जाते हैं। (गुरु के चरणों की इनायत से जो मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं वह (वे विकारों के हमलों के मुकाबले में) अडोल हो जाते हैं, वे जनम-मरन (की चक्की) में बार बार नहीं पीसे जाते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु हरि भजन रंग रस जेते संत दइआल जाने सभि झूठे ॥ नाम रतनु पाइओ जन नानक नाम बिहून चले सभि मूठे ॥२॥८॥२७॥
मूलम्
बिनु हरि भजन रंग रस जेते संत दइआल जाने सभि झूठे ॥ नाम रतनु पाइओ जन नानक नाम बिहून चले सभि मूठे ॥२॥८॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने भी हैं। संत दइआल = दया के घर गुरु (की कृपा से)। सभि = सारे। मूठे = ठगे हुए।2।
अर्थ: हे माँ! (जो मनुष्य गुरु के चरणों में लगते हैं, वह) दया के घर गुरु की कृपा से परमात्मा के भजन (के आनंद) के बिना और सारे ही (दुनियावी) स्वादों व तमाशों को झूठे जानते हैं। हे नानक! (कह: हे माँ!) परमात्मा के सेवक (गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का) रत्न (जैसा कीमती) नाम हासिल करते हैं। हरि नाम से टूटे हुए सारे ही जीव (अपना आत्मिक जीवन) लुटा के (जगत से) जाते हैं।2।8।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ साधसंगि हरि हरि नामु चितारा ॥ सहजि अनंदु होवै दिनु राती अंकुरु भलो हमारा ॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ साधसंगि हरि हरि नामु चितारा ॥ सहजि अनंदु होवै दिनु राती अंकुरु भलो हमारा ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। सहजि = आत्मिक अडोलता के कारण। अंकुरु = (पिछले बीजे हुए कर्मों के) फल। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है (उसके अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, उस) आत्मिक अडोलता के कारण (उसके अंदर) दिन रात (हर वक्त) आनंद बना रहता है। (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से) हम जीवों के पिछले किए कर्मों के भले अंकुर फूट पड़ते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु पूरा भेटिओ बडभागी जा को अंतु न पारावारा ॥ करु गहि काढि लीओ जनु अपुना बिखु सागर संसारा ॥१॥
मूलम्
गुरु पूरा भेटिओ बडभागी जा को अंतु न पारावारा ॥ करु गहि काढि लीओ जनु अपुना बिखु सागर संसारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटिओ = मिल गए। बड भागी = बड़ी किस्मत से। जा को = जिस (परमात्मा) का। पारावारा = पार अवार, परला उरला छोर। करु = (एकवचन) हाथ। गहि = पकड़ के। जनु अपुना = अपने सेवक को। बिखु = जहर, आत्मिक जीवन को समाप्त करने वाली माया के मोह का जहर।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसकी हस्ती का इस पार उस पार का छोर नहीं मिल सकता, वह परमात्मा अपने उस सेवक को (उसका) हाथ पकड़ के संसार समुंदर से बाहर निकाल लेता है, (जिस सेवक को) बड़ी किस्मत से पूरा गुरु मिल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम मरन काटे गुर बचनी बहुड़ि न संकट दुआरा ॥ नानक सरनि गही सुआमी की पुनह पुनह नमसकारा ॥२॥९॥२८॥
मूलम्
जनम मरन काटे गुर बचनी बहुड़ि न संकट दुआरा ॥ नानक सरनि गही सुआमी की पुनह पुनह नमसकारा ॥२॥९॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर बचनी = गुरु के वचनों से। संकट दुआरा = कष्टों (वाले चौरासी के चक्करों) का दरवाजा। गही = पकड़ी। पुनह पुनह = बार बार।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन पर चलने से जनम-मरण में डालने वाली फाहियां कट जाती हैं, कष्टों भरे चौरासी के चक्करों का दरवाजा दोबारा नहीं देखना पड़ता। हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु की संगति की इनायत से) मैंने भी मालिक-प्रभु का आसरा लिया है, मैं (उसके दर पर) बार बार सिर निवाता हूँ।2।9।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ माई मेरे मन को सुखु ॥ कोटि अनंद राज सुखु भुगवै हरि सिमरत बिनसै सभ दुखु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ माई मेरे मन को सुखु ॥ कोटि अनंद राज सुखु भुगवै हरि सिमरत बिनसै सभ दुखु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! को = का। कोटि = करोड़ों। भुगवै = भोगता है। सिमरत = स्मरण करते हुए।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए) मेरे मन का सुख (इतना ऊँचा हो जाता है कि ऐसा प्रतीत होता है, जैसे मेरा मन) करोड़ों आनंद भोग रहा है; करोड़ों बादशाहियों का सुख ले रहा है। हे माँ! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सारा दुख नाश हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि जनम के किलबिख नासहि सिमरत पावन तन मन सुख ॥ देखि सरूपु पूरनु भई आसा दरसनु भेटत उतरी भुख ॥१॥
मूलम्
कोटि जनम के किलबिख नासहि सिमरत पावन तन मन सुख ॥ देखि सरूपु पूरनु भई आसा दरसनु भेटत उतरी भुख ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलबिख = पाप। नासहि = नाश हो जाते हैं। पावन = पवित्र। देखि = देख के।1।
अर्थ: हे माँ! परमात्मा का नाम स्मरण करने से तन-मन पवित्र हो जाते हैं, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, करोड़ों जन्मों के (किए हुए) पाप नाश हो जाते हैं। (नाम-जपने की इनायत से) प्रभु के दीदार करके (मन की हरेक) मुराद पूरी हो जाती है, दर्शन करते हुए (माया की) भूख दूर हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पदारथ असट महा सिधि कामधेनु पारजात हरि हरि रुखु ॥ नानक सरनि गही सुख सागर जनम मरन फिरि गरभ न धुखु ॥२॥१०॥२९॥
मूलम्
चारि पदारथ असट महा सिधि कामधेनु पारजात हरि हरि रुखु ॥ नानक सरनि गही सुख सागर जनम मरन फिरि गरभ न धुखु ॥२॥१०॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। असट = आठ। महा सिधि = बड़ी करामाती ताकतें। कामधेनु = (काम = वासना। धेनु = गाय) स्वर्ग की वह गाय जो हरेक कामना पूरी कर देती है। पारजात = इन्द्र के बाग़ का पारजात वृक्ष जो मन मांगी मुरादें पूरी करता है। धुखु = धुक धुकी, चिन्ता।2।
अर्थ: हे माँ! चार पदार्थ (देने वाला), आठ बड़ी करामाती ताकतें (देने वाला) परमात्मा स्वयं ही है। परमात्मा खुद ही है कामधेनु; परमात्मा स्वयं ही है पारजात वृक्ष। हे नानक! (कह: हे माँ! जिस मनुष्य ने) सुखों के समुंदर परमात्मा का आसरा ले लिया, उसको जनम-मरण के चक्कर का फिक्र, जूनियों में पड़ने की चिन्ता नहीं रहती।2।10।29।
[[0718]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ५ ॥ हरि हरि चरन रिदै उर धारे ॥ सिमरि सुआमी सतिगुरु अपुना कारज सफल हमारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
टोडी महला ५ ॥ हरि हरि चरन रिदै उर धारे ॥ सिमरि सुआमी सतिगुरु अपुना कारज सफल हमारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। उर धारे = उर धारि, हृदय में टिकाए रख। सिमरि = स्मरण करके। सुआमी = मालिक प्रभु। हमारे = हम जीवों के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण सदा अपने हृदय में संभाल के रख। अपने गुरु को, मालिक प्रभु को स्मरण करके हम जीवों के सारे काम सिरे चढ़ सकते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंन दान पूजा परमेसुर हरि कीरति ततु बीचारे ॥ गुन गावत अतुल सुखु पाइआ ठाकुर अगम अपारे ॥१॥
मूलम्
पुंन दान पूजा परमेसुर हरि कीरति ततु बीचारे ॥ गुन गावत अतुल सुखु पाइआ ठाकुर अगम अपारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = महिमा। ततु बीचारे = सारी विचारों का निचोड़। गावत = गाते हुए। अतुल = जो तोला ना जा सके, नाप से परे। गुन ठाकुर = ठाकुर के गुण। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।1।
अर्थ: हे भाई! सारी विचारों का निचोड़ ये है कि परमात्मा की महिमा ही परमात्मा की पूजा है, और दान-पुण्य है। अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत मालिक-प्रभु के गुण गा के बेअंत सुख प्राप्त कर लेने हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जन पारब्रहमि अपने कीने तिन का बाहुरि कछु न बीचारे ॥ नाम रतनु सुनि जपि जपि जीवा हरि नानक कंठ मझारे ॥२॥११॥३०॥
मूलम्
जो जन पारब्रहमि अपने कीने तिन का बाहुरि कछु न बीचारे ॥ नाम रतनु सुनि जपि जपि जीवा हरि नानक कंठ मझारे ॥२॥११॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। बाहुरि = दोबारा, फिर। कछु न बीचारे = कोई लेखा नहीं करता। सुनि = सुन के। जपि = जप के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ। कंठ = गला। मझारे = बीच में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को परमात्मा ने अपने (सेवक) बना लिया उनके कर्मों का फिर लेखा नहीं पूछता। हे नानक! (कह:) मैंने भी परमात्मा के रत्न (जैसे कीमती) नाम को अपने गले से परो लिया है, नाम सुन-सुन के जप-ज पके मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा हूँ।2।11।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहउ कहा अपनी अधमाई ॥ उरझिओ कनक कामनी के रस नह कीरति प्रभ गाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कहउ कहा अपनी अधमाई ॥ उरझिओ कनक कामनी के रस नह कीरति प्रभ गाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहउ = कहूँ, मैं कहूँ। कहा = कहाँ तक? अधमाई = नीचता। उरझिओ = उलझा हुआ है, फसा हुआ है। कनक = सोना। कामनी = स्त्री। रस = स्वादों में। कीरति = महिमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं अपनी नीचता कितनी बयान करूँ? मैंने (कभी) परमात्मा की महिमा नहीं की। (मेरा मन) धन-पदार्थ और स्त्री के रसों में फसा रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग झूठे कउ साचु जानि कै ता सिउ रुच उपजाई ॥ दीन बंध सिमरिओ नही कबहू होत जु संगि सहाई ॥१॥
मूलम्
जग झूठे कउ साचु जानि कै ता सिउ रुच उपजाई ॥ दीन बंध सिमरिओ नही कबहू होत जु संगि सहाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। साचु = सदा कायम रहने वाला। जानि कै = समझ के। ता सिउ = उस (जगत से)। रुचि = लगन। उपजाई = पैदा की हुई है। दीन बंधु = दीनों का रिश्तेदार। जु = जो। संगि = साथ। सहाई = मददगार।1।
अर्थ: हे भाई! इस नाशवान संसार को सदा कायम रहने वाला समझ के मैंने इस संसार से ही प्रीति बनाई हुई है। मैंने उस परमात्मा का नाम कभी नहीं स्मरण किया जो दीन-बँधु है और जो (सदा हमारे) साथ मददगार है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मगन रहिओ माइआ मै निस दिनि छुटी न मन की काई ॥ कहि नानक अब नाहि अनत गति बिनु हरि की सरनाई ॥२॥१॥३१॥
मूलम्
मगन रहिओ माइआ मै निस दिनि छुटी न मन की काई ॥ कहि नानक अब नाहि अनत गति बिनु हरि की सरनाई ॥२॥१॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मगन = मस्त। महि = में। निसि = रात। काई = पानी का जाला। अब = अब (जब मैं गुरु की शरण पड़ा हूँ)। अनत = (अन्यत्र), किसी और जगह। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।2।
अर्थ: हे भाई! मैं रात-दिन माया (के मोह) में मस्त रहा हूँ, (इस तरह मेरे) मन की मैल दूर नहीं हो सकी। हे नानक! कह: अब (जब मैं गुरु की शरण पड़ा हूँ, तब मुझे समझ आई है कि) प्रभु की शरण पड़े बिना किसी भी और जगह उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती।2।1।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टोडी बाणी भगतां की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
टोडी बाणी भगतां की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई बोलै निरवा कोई बोलै दूरि ॥ जल की माछुली चरै खजूरि ॥१॥
मूलम्
कोई बोलै निरवा कोई बोलै दूरि ॥ जल की माछुली चरै खजूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोलै = कहता है। निरवा = नजदीक। चरै = चढ़ती है, चढ़ने का यत्न करती है। खजूरि = खजूर के पेड़ पर।1।
अर्थ: कोई मनुष्य कहता है (परमात्मा हमारे) नजदीक (बसता है), कोई कहता है (प्रभु हमसे कहीं) दूर (जगह पर है); (पर निरी बहस से निर्णय करना यूँ ही असंभव है जैसे) पानी में रहने वाली मछली खजूर पर चढ़ने का प्रयत्न करे (जिस पर आदमी भी बड़ी ही मुश्किल से चढ़ता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कांइ रे बकबादु लाइओ ॥ जिनि हरि पाइओ तिनहि छपाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कांइ रे बकबादु लाइओ ॥ जिनि हरि पाइओ तिनहि छपाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! कांइ = किस लिए? बक बादु = बहस, व्यर्थ झगड़ा। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। पाइओ = पाया है। तिनहि = तिन ही, उसने ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (ईश्वर नजदीक है कि दूर जिस बाबत अपनी विद्या का बखान करने के लिए) क्यों व्यर्थ की बहस करते हो? जिस मनुष्य ने रब को पा लिया उसने (अपने आप को) छुपाया है (भाव, वह इन बहसों से अपनी विद्या का ढंढोरा नहीं पीटता फिरता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडितु होइ कै बेदु बखानै ॥ मूरखु नामदेउ रामहि जानै ॥२॥१॥
मूलम्
पंडितु होइ कै बेदु बखानै ॥ मूरखु नामदेउ रामहि जानै ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंडित = (संस्कृत: पंडा = wisdom, learning, learned, wise) विद्वान। होइ कै = बन के। बखानै = (संस्कृत: व्याख्या = to dwell at large) विस्तार से विचार को सुनाता है। रामहि = राम को ही।2।
अर्थ: विद्या हासिल करके (ब्राहमण आदि तो) वेद (आदि धार्मिक पुस्तकों) की विस्तार से चर्चा करता फिरता है, पर मूर्ख नामदेव सिर्फ परमात्मा को ही पहचानता है (केवल परमात्मा के साथ ही उसके स्मरण के द्वारा सांझ डालता है)।2।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: विद्या के बल से परमात्मा की हस्ती के बारे में बहस करना व्यर्थ का उद्यम है; उसकी भक्ति करना ही जिंदगी का सही रास्ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउन को कलंकु रहिओ राम नामु लेत ही ॥ पतित पवित भए रामु कहत ही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कउन को कलंकु रहिओ राम नामु लेत ही ॥ पतित पवित भए रामु कहत ही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउन को = किस (मनुष्य) का? कलंकु = पाप। कउन…रहिओ = किस मनुष्य का पाप रह गया? किसी मनुष्य का कोई पाप नहीं रह जाता। पतित = (विकारों में) गिरे हुए लोग। भए = हो जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का नाम स्मरण करने से किसी जीव का कोई (भी) पाप नहीं रह जाता; विकारों में खचित लोग भी प्रभु का भजन करके पवित्र हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम संगि नामदेव जन कउ प्रतगिआ आई ॥ एकादसी ब्रतु रहै काहे कउ तीरथ जाईं ॥१॥
मूलम्
राम संगि नामदेव जन कउ प्रतगिआ आई ॥ एकादसी ब्रतु रहै काहे कउ तीरथ जाईं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम संगि = नाम की संगति में, परमात्मा के चरणों में जुड़ के। जन कउ = दास को। प्रतगिआ = निश्चय। रहै = रह गया है, कोई जरूरत नहीं। काहे कउ = किस लिए? जाईं = मैं जाऊँ।1।
अर्थ: प्रभु के चरणों में जुड़ के दास नामदेव को ये निश्चय आ गया है कि किसी एकादसी (आदि) व्रत की जरूरत नहीं; और मैं तीर्थों पर भी क्यों जाऊँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भनति नामदेउ सुक्रित सुमति भए ॥ गुरमति रामु कहि को को न बैकुंठि गए ॥२॥२॥
मूलम्
भनति नामदेउ सुक्रित सुमति भए ॥ गुरमति रामु कहि को को न बैकुंठि गए ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भनति = कहता है। सुक्रित = अच्छी करणी वाले। सुमति = सद् बुद्धि वाले। गुरमति = गुरु की मति ले के गुरु के बताए हुए राह पर चल के। रामु कहि = प्रभु का नाम स्मरण करके। को को न = कौन कौन नहीं? (भाव, हरेक जीव)। बैकुंठि = बैकुंठ में, प्रभु के देश में।2।
अर्थ: नामदेव कहता है: गुरु के बताए हुए राह पर चल के, प्रभु का नाम स्मरण करके सब जीव प्रभु के देश में पहुँच जाते हैं, (क्योंकि नाम की इनायत से जीव) अच्छी करणी वाले और अच्छी अक्ल वाले हो जाते हैं।2।2।
दर्पण-भाव
भाव: नाम-जपने की इनायत से विकारी भी भले बन जाते हैं। तीर्थ व्रत आदि किसी का कुछ नहीं सवारते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीनि छंदे खेलु आछै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तीनि छंदे खेलु आछै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (परमात्मा का रचा हुआ ये जगत) त्रै-गुणी स्वाभाव का तमाशा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कु्मभार के घर हांडी आछै राजा के घर सांडी गो ॥ बामन के घर रांडी आछै रांडी सांडी हांडी गो ॥१॥
मूलम्
कु्मभार के घर हांडी आछै राजा के घर सांडी गो ॥ बामन के घर रांडी आछै रांडी सांडी हांडी गो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (साधारण तौर पर) कुम्हार के घर हांडी (ही मिलती) है, राजा के घर सांढी (आदि ही) है; और ब्राहमण के घर (शगुन, महूरत आदि विचारने के लिए) पत्री (आदि पुस्तकें ही मिलती) हैं। (इन घरों में) पत्री, सांढनी, बर्तन (हांडी) ही (प्रधान हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणीए के घर हींगु आछै भैसर माथै सींगु गो ॥ देवल मधे लीगु आछै लीगु सीगु हीगु गो ॥२॥
मूलम्
बाणीए के घर हींगु आछै भैसर माथै सींगु गो ॥ देवल मधे लीगु आछै लीगु सीगु हीगु गो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: दुकानदार के घर (भाव, दुकान में) हींग (आदि ही मिलती) है, भैंसे के माथे पर (उसके स्वभाव के मुताबिक) सींग (ही) हैं, और देवालय (देवस्थान) में लिंग (ही गढ़ा हुआ) दिखता है। (इन जगहों पर) हींग, सींग, और लिंग ही (प्रधान) हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेली कै घर तेलु आछै जंगल मधे बेल गो ॥ माली के घर केल आछै केल बेल तेल गो ॥३॥
मूलम्
तेली कै घर तेलु आछै जंगल मधे बेल गो ॥ माली के घर केल आछै केल बेल तेल गो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (यदि) तेली के घर (जाऐ, तो वहाँ अंदर-बाहर) तेल (ही तेल पड़ा) है, जंगलों में बेल (ही बेल) हैं और माली के घर केला (ही लगा मिलता) है। इन स्थानों पर तेल, बेलें और केले ही (प्रधान हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतां मधे गोबिंदु आछै गोकल मधे सिआम गो ॥ नामे मधे रामु आछै राम सिआम गोबिंद गो ॥४॥३॥
मूलम्
संतां मधे गोबिंदु आछै गोकल मधे सिआम गो ॥ नामे मधे रामु आछै राम सिआम गोबिंद गो ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (तो फिर, इस जगत-तमाशे का रचयता कहाँ हुआ?) (जैसे) गोकुल में कृष्ण जी (की ही बात चल रही) है, (वैसे ही इस खेल का मालिक) गोबिंद संतों के हृदय में बस रहा है। (वही) राम नामदेव के (भी) अंदर (प्रत्यक्ष बस रहा) है। (जिस जगहों पर, भाव, संतों के हृदय में, गोकुल में और नामदेव के अंदर) गोबिंद श्याम और राम ही (गरज रहे) हैं।4।3।
दर्पण-टिप्पनी
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज की हुई सारी वाणी के संबंध में, सतिगुरु जी भक्त कबीर जी के द्वारा इस प्रकार फर्माते हैं;
लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचारु॥ जिउ कासी उपदेसु होइ मानस मरती बार॥३॥१॥४॥५५॥ (गउड़ी कबीर जी)
इस हुक्म के अनुसार ये शब्द भी ‘ब्रहम विचार’ है। हरेक शब्द के ‘रहाउ’ वाले बंद में ‘मुख्य उपदेश’ होता है, ‘शब्द का सार’ होता है, बाकी के बंद ‘रहाउ’ के बंद का विकास हैं; शब्द रूपी खिले हुए फूल के अंदर ‘रहाउ’ कह पंक्ति जैसे मकरंद है।
पर जब हम विद्वानों के मुँह से सुनते हैं, तो वे इस ‘रहाउ’ की तुक के अर्थ यूँ करते हैं:
इस छंद में तीन-तीन हिस्सों के बढ़िया प्रसंगों के खेल इकट्ठे किए हुए हैं।
अथवा
ये छंद तीनों पदों पर खेल रूप है।
सारा शब्द ‘ब्रहम विचार’ है, शब्द फूल का मकरंद ये पंक्ति ‘तीनि छंदे खेल आछै’ है, पर इस पंक्ति के ऊपर लिखे अर्थों में गुरमति उपदेश की सुगंधि तलाशनी बहुत कठिन प्रतीत हाती है।
जैसे ‘सदु’ पर विचार करते हुए ‘सद-सटीक’ पुस्तक में विस्तार से बताया गया है, ऐसे मौकों पर अगर मुकाबले में गुरबाणी में से अन्य शब्दों की सहायता ली जाए, तो कई उलझनें आसान हो जाती हैं। शब्द ‘खेलु’ गुरु ग्रंथ साहिब में कई बार आया है; प्रमाण के तौर पर:
सुपनंतरु संसार सभु सभु बाजी ‘खेलु’ खिलावैगो॥ लाहा नामु गुरमति लै चालहु हरि दरगह पैधा जावैगो॥५॥५॥ (कानड़ा महला ४ असटपदी)
राम नामु वखरु है उतमु हरि नाइकु पुरखु हमारा॥ हरि ‘खेलु’ कीआ हरि आपे वरतै सभु जगतु कीआ वणजारा॥४॥ (कानड़े की वार)
जैसे हरहट की माला टिंड लगत है॥ इक सखनी होर फेर भरीअत है॥ तैसो ही इह ‘खेलु’ खसम का जिउ उसकी वडिआई॥२॥८॥ (प्रभाती महला १)
आपे भांत बणाए बहुरंगी स्रिसटि उपाई प्रभि ‘खेलु’ कीआ॥ करि करि वेखै करे कराए सरब जीआ नो रिजकु दीआ॥१॥६॥ (प्रभाती महला ३)
पीत बसन कुंद-दसन प्रिअ सहित कंठ माल मुकटु सीसि मोर पंख चाहि जीउ॥ बेवजीर बडे धीर धरम अंग अलख अगम ‘खेलु’ कीआ आपणै उछाहि जीउ॥३॥८॥ (सवैए महले चौथे के, गयंद)
कीआ ‘खेलु’ बडमेलु तमासा॥ वाहि गुरू तेरी सभ रचना॥ तू जलि थलि गगनि पयालि पूरि रहा अंम्रित ते मीठे जा के बचना॥३॥१३॥४२॥ (सवैए महले चौथे के, गयंद)
सो,
‘खेलु’ का अर्थ है: ‘जगत रूपी तमाशा’। तीनि छंदे खेलु = त्रिछंदे का खेल, त्रिछंदे (संसार) का खेल।
नोट: यहाँ ‘तीन छंदा’ समासी शब्द है, भाव, ‘वह जिसके तीन छंद हैं’। ‘छंद’ संस्कृत शब्द है जिसका मतलब है ‘स्वभाव’।
सो,
‘तीनि छंदे खेलु’ का अर्थ है ‘उस (संसार) का तमाशा, जिसमें तीन स्वभाव मिले हुए हैं, जिसमें तीन गुण मिले हुए है, भाव, ‘त्रैगुणी संसार का तमाशा’।
‘रहाउ’ की पंक्ति का अर्थ:
(परमात्मा का रचा हुआ) ये त्रैगुणी संसार का तमाशा है।
अगर इस अर्थ को शब्द के बाकी बंदों के साथ मिला के पढ़ें, तो ‘रहाउ’ की तुक का भाव ये बनता है:
इस त्रै-गुणी संसार में अकाल पुरख का तमाशा हो रहा है, सब त्रैगुणी जीव अपने-अपने स्वभाव के अनुसार साधारण तौर पर प्रवृत हैं।
इसी विचार का विस्तार बाकी के शब्द में है: राजाओं के घर सांढनी आदि राजस्वी सामान हैं; कुम्हार, तेली, बनिए आदि के घर (अपने) कामकाज के अनुसार बर्तन, तेल, हींग आदि चीजों के व्यवहार में प्रवृत हैं; पंडित लोग पत्री आदि पुस्तकों के व्यवहार में मस्त हैं।
भक्त को तो इन त्रै-गुणी पदार्थों आदि में खचित होने की जरूरत नहीं, वह तो तलाशता है इस त्रै-गुणी खेल के कर्तार को। वह कहाँ है? – ‘संतां मधे’।