११ जैतसरी

[[0696]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ घरु १ चउपदे

मूलम्

जैतसरी महला ४ घरु १ चउपदे

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै हीअरै रतनु नामु हरि बसिआ गुरि हाथु धरिओ मेरै माथा ॥ जनम जनम के किलबिख दुख उतरे गुरि नामु दीओ रिनु लाथा ॥१॥

मूलम्

मेरै हीअरै रतनु नामु हरि बसिआ गुरि हाथु धरिओ मेरै माथा ॥ जनम जनम के किलबिख दुख उतरे गुरि नामु दीओ रिनु लाथा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीअरै = हृदय में। गुरि = गुरु ने। मेरै माथा = मेरे माथे पर। किलबिख = पाप। रिनु = ऋण, कर्जा, विकारों का भार।1।
अर्थ: (हे भाई! जब) गुरु ने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा, तो मेरे हृदय में परमात्मा का रतन (जैसा कीमती) नाम आ बसा। (हे भाई! जिस भी मनुष्य को) गुरु ने परमात्मा का नाम दिया, उसके अनेक जन्मों के पाप-दुख दूर हो गए, (उसके सिर से पापों का) कर्जा उतर गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन भजु राम नामु सभि अरथा ॥ गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ बिनु नावै जीवनु बिरथा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन भजु राम नामु सभि अरथा ॥ गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ बिनु नावै जीवनु बिरथा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सभि = सारे। अरथा = पदार्थ। द्रिढ़ाइआ = पक्का कर दिया, दृढाया। बिरथा = व्यर्थ। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (सदा) परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, (परमात्मा) सारे पदार्थ (देने वाला है)। (हे मन गुरु की शरण पड़ा रह) पूरे गुरु ने (ही) परमात्मा का नाम (हृदय में) पक्का किया है। और, नाम के बिना मानव जन्म व्यर्थ चला जाता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर मूड़ भए है मनमुख ते मोह माइआ नित फाथा ॥ तिन साधू चरण न सेवे कबहू तिन सभु जनमु अकाथा ॥२॥

मूलम्

बिनु गुर मूड़ भए है मनमुख ते मोह माइआ नित फाथा ॥ तिन साधू चरण न सेवे कबहू तिन सभु जनमु अकाथा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूढ़ = मूर्ख। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। ते = वह (बहुवचन)। साधू = गुरु। अकाथा = निश्फल, व्यर्थ।2।
अर्थ: हे भाई! जो लोग अपने मन के पीछे चलते हैं वे गुरु (की शरण) के बिना मूर्ख हुए रहते हैं, वे सदा माया के मोह में फंसे रहते हैं। उन्होंने कभी भी गुरु का आसरा नहीं लिया, उनका सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन साधू चरण साध पग सेवे तिन सफलिओ जनमु सनाथा ॥ मो कउ कीजै दासु दास दासन को हरि दइआ धारि जगंनाथा ॥३॥

मूलम्

जिन साधू चरण साध पग सेवे तिन सफलिओ जनमु सनाथा ॥ मो कउ कीजै दासु दास दासन को हरि दइआ धारि जगंनाथा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पग = पैर, चरण। सफलिओ = कामयाब। सनाथा = पति वाले। मो कउ = मुझे। कउ = को। कीजै = बना ले। जगंनाथा = हे जगत के नाथ!।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों की ओट लेते हैं, वे खसम वाले हो जाते हैं, उनकी जिंदगी कामयाब हो जाती है। हे हरि! हे जगत के नाथ! मेरे पर मेहर कर, मुझे अपने दासों के दासों का दास बना ले।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम अंधुले गिआनहीन अगिआनी किउ चालह मारगि पंथा ॥ हम अंधुले कउ गुर अंचलु दीजै जन नानक चलह मिलंथा ॥४॥१॥

मूलम्

हम अंधुले गिआनहीन अगिआनी किउ चालह मारगि पंथा ॥ हम अंधुले कउ गुर अंचलु दीजै जन नानक चलह मिलंथा ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ = कैसे? चालह = हम चलें। मारगि = रास्ते पर। पंथा = रास्ते पर। गुर = हे गुरु! अंचलु = पल्ला। मिलंथा = मिलके।4।
अर्थ: हे गुरु! हम माया में अंधे हो रहे हैं, हम आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित हैं, हमें सही जीवन जुगति की सूझ नहीं है, हम तेरे बताए हुए जीवन-राह पर नहीं चल सकते। हे दास नानक! (कह:) हे गुरु! हम अंधों को अपना पल्ला पकड़ा, ता कि तेरे पल्ले लग के हम तेरे बताए हुए रास्ते पर चल सकें।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ ॥ हीरा लालु अमोलकु है भारी बिनु गाहक मीका काखा ॥ रतन गाहकु गुरु साधू देखिओ तब रतनु बिकानो लाखा ॥१॥

मूलम्

जैतसरी महला ४ ॥ हीरा लालु अमोलकु है भारी बिनु गाहक मीका काखा ॥ रतन गाहकु गुरु साधू देखिओ तब रतनु बिकानो लाखा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमोलक = दुनिया का कोई भी पदार्थ जिसके बराबर की कीमत का ना हो सके। सीका = बराबर। काखा = तिनका। लाखा = लाख रुपयों का।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम बड़ा ही कीमती हीरा है, लाल है, पर गाहक कि बिना ये हीरा तिनके समान हुआ पड़ा है। जब इस रतन को गाहक गुरु मिल गया, तब ये रतन लाखों रुपयों में बिकने लगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै मनि गुपत हीरु हरि राखा ॥ दीन दइआलि मिलाइओ गुरु साधू गुरि मिलिऐ हीरु पराखा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरै मनि गुपत हीरु हरि राखा ॥ दीन दइआलि मिलाइओ गुरु साधू गुरि मिलिऐ हीरु पराखा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। गुपत = गुप्त। हीरु = हीरा। राखा = रखा हुआ था। दइआलि = दयालु ने। गुरि मिलिऐ = गुरु के मिलने से। पराखा = परख लिया। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे मन में परमात्मा ने अपना नाम-हीरा छुपा के रखा हुआ था। दीनों पर दया करने वाले उस हरि ने मुझे गुरु से मिलवा दिया। गुरु के मिलने से मैंने उस हीरे की परख कर ली (मैंने उस हीरे की कद्र समझ ली)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख कोठी अगिआनु अंधेरा तिन घरि रतनु न लाखा ॥ ते ऊझड़ि भरमि मुए गावारी माइआ भुअंग बिखु चाखा ॥२॥

मूलम्

मनमुख कोठी अगिआनु अंधेरा तिन घरि रतनु न लाखा ॥ ते ऊझड़ि भरमि मुए गावारी माइआ भुअंग बिखु चाखा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोठी = हृदय में। अगिआनु = आत्मिक जीवन की तरफ बेसमझी। घरि = हृदय में। न लाखा = नही देखा। ऊझड़ि = उजाड़ में, गलत रास्ते पर। भरमि = भटकना में। ते = वह (बहुवचन)। मुए = आत्मिक मौत मर गए। भुअंग = सांप। बिखु = जहर।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के हृदय में आत्मिक जीवन की तरफ से बेसमझी (का) अंधकार छाया रहता है, (तभी तो) उन्होंने अपने हृदय-घर में टिके हुए नाम-रतन को कभी नहीं देखा। वे मनुष्य माया-सपनी (के मोह) का जहर खाते रहते हैं, (इसलिए) वे मूर्ख भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ कर आत्मिक मौत मरे रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि साध मेलहु जन नीके हरि साधू सरणि हम राखा ॥ हरि अंगीकारु करहु प्रभ सुआमी हम परे भागि तुम पाखा ॥३॥

मूलम्

हरि हरि साध मेलहु जन नीके हरि साधू सरणि हम राखा ॥ हरि अंगीकारु करहु प्रभ सुआमी हम परे भागि तुम पाखा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! नीके साध = अच्छे संतजन। साधू = गुरु। राखा = रक्षा की। अंगीकारु = मदद। प्रभ = हे प्रभु! पाखा = पक्ष, शरण। भागि = भाग के।3।
अर्थ: हे हरि! मुझे अच्छे संत-जन मिला, मुझे गुरु की शरण में रख। हे प्रभु! हे मालिक! मेरी मदद कर। मैं और लोगों को छोड़ के तेरी शरण आ पड़ा हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहवा किआ गुण आखि वखाणह तुम वड अगम वड पुरखा ॥ जन नानक हरि किरपा धारी पाखाणु डुबत हरि राखा ॥४॥२॥

मूलम्

जिहवा किआ गुण आखि वखाणह तुम वड अगम वड पुरखा ॥ जन नानक हरि किरपा धारी पाखाणु डुबत हरि राखा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखाणह = हम बयान करें। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। पाखाण = पत्थर। राखा = रख लिया।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू बड़ा पुरख है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, हम अपनी जीभ से तेरे कौन-कोन से गुण कह के बता सकते हैं? हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर प्रभु ने मेहर की, उस पत्थर को (संसार-समुंदर में) डूबते हुए को उसने बचा लिया।4।2।

[[0697]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी मः ४ ॥ हम बारिक कछूअ न जानह गति मिति तेरे मूरख मुगध इआना ॥ हरि किरपा धारि दीजै मति ऊतम करि लीजै मुगधु सिआना ॥१॥

मूलम्

जैतसरी मः ४ ॥ हम बारिक कछूअ न जानह गति मिति तेरे मूरख मुगध इआना ॥ हरि किरपा धारि दीजै मति ऊतम करि लीजै मुगधु सिआना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कछूअ = कुछ भी। जानह = हम जानते। गति = हालत। मिति = मर्यादा। गति मिति = कैसा है और कितना बड़ा है। मुगध = मुर्ख। धारि = कर के। ऊतम = श्रेष्ठ। करि लीजै = बना ले।1।
अर्थ: हे भाई! हम तेरे अंजान मूर्ख बच्चे हैं, हम नहीं जान सकते कि तू कैसा है, और कितना बड़ा है। हे हरि! मेहर करके मुझे अच्छी अक्ल दे, मुझ मूर्ख को समझदार बना ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा मनु आलसीआ उघलाना ॥ हरि हरि आनि मिलाइओ गुरु साधू मिलि साधू कपट खुलाना ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा मनु आलसीआ उघलाना ॥ हरि हरि आनि मिलाइओ गुरु साधू मिलि साधू कपट खुलाना ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आलसीआ = सुस्त। उघलाना = सो गया था, ऊँघ रहा था। आनि = ला के। मिलि = मिल के। कपट = कपाट, किवाड़, दरवाजे। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा सुस्त मन (माया की नींद में) सो गया था। परमात्मा ने मुझे गुरु ला के मिला दिया। गुरु को मिल के (मेरे मन के) किवाड़ खुल गए हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर खिनु खिनु प्रीति लगावहु मेरै हीअरै मेरे प्रीतम नामु पराना ॥ बिनु नावै मरि जाईऐ मेरे ठाकुर जिउ अमली अमलि लुभाना ॥२॥

मूलम्

गुर खिनु खिनु प्रीति लगावहु मेरै हीअरै मेरे प्रीतम नामु पराना ॥ बिनु नावै मरि जाईऐ मेरे ठाकुर जिउ अमली अमलि लुभाना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खिनु खिनु = हर वक्त। हीअरै = हृदय में। पराना = प्राण, जिंद। ठाकुर = हे ठाकुर! अमली = नशई मनुष्य। अमलि = नशे में। लुभाना = लोभ करता है।2।
अर्थ: हे गुरु! मेरे हृदय में प्रभु के लिए हर वक्त की प्रीति पैदा कर दे, मेरे प्रीतम-प्रभु का नाम मेरे प्राण बन जाएं। हे मेरे मालिक प्रभु! जैसे नशई मनुष्य नशे में खुश रहता है (और नशे के बिना घबराया फिरता है, वैसे ही) तेरे नाम के बिना जीवात्मा व्याकुल हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन मनि प्रीति लगी हरि केरी तिन धुरि भाग पुराना ॥ तिन हम चरण सरेवह खिनु खिनु जिन हरि मीठ लगाना ॥३॥

मूलम्

जिन मनि प्रीति लगी हरि केरी तिन धुरि भाग पुराना ॥ तिन हम चरण सरेवह खिनु खिनु जिन हरि मीठ लगाना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन मनि = जिस के मन में। केरी = की। पुराना = पुराने। हम सरेवह = हम सेवा करते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा की प्रीति पैदा हो जाती है, उनके धुर-दरगाह से मिले चिरों के भाग्य जाग जाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों को परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, हम हर वक्त उनके चरणों की सेवा करते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि क्रिपा धारी मेरै ठाकुरि जनु बिछुरिआ चिरी मिलाना ॥ धनु धनु सतिगुरु जिनि नामु द्रिड़ाइआ जनु नानकु तिसु कुरबाना ॥४॥३॥

मूलम्

हरि हरि क्रिपा धारी मेरै ठाकुरि जनु बिछुरिआ चिरी मिलाना ॥ धनु धनु सतिगुरु जिनि नामु द्रिड़ाइआ जनु नानकु तिसु कुरबाना ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुरि = ठाकुर ने। जिनि = जिस ने। तिसु = उस (गुरु) से।4।
अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक प्रभु ने जिस मनुष्य पर मेहर की निगाह की, उसको चिरों से विछुड़े हुए को उसने अपने साथ मिला लिया। धंन है गुरु, धंन है गुरु, जिसने उसके हृदय में परमात्मा का नाम पक्का कर दिया। दास नानक उस गुरु से (सदा) सदके जाता है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ ॥ सतिगुरु साजनु पुरखु वड पाइआ हरि रसकि रसकि फल लागिबा ॥ माइआ भुइअंग ग्रसिओ है प्राणी गुर बचनी बिसु हरि काढिबा ॥१॥

मूलम्

जैतसरी महला ४ ॥ सतिगुरु साजनु पुरखु वड पाइआ हरि रसकि रसकि फल लागिबा ॥ माइआ भुइअंग ग्रसिओ है प्राणी गुर बचनी बिसु हरि काढिबा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखु वड = महा पुरुष। रसकि = रस से, स्वाद से। फल लागिबा = फल लगने लगते हैं। भुइअंग = सांप। ग्रसिओ = पकड़ा हुआ। बचनी = वचन पर चला। बिसु = जहर। काढिबा = निकाल देता है।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु (सब का) सज्जन है, गुरु महापुरख है, जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह मनुष्य बड़े चाव से परमात्मा की महिमा के फल खाने लग जाता है। हे भाई! मनुष्य को माया-सपनी ग्रसे रखती है, पर गुरु के वचन पर चलने की इनायत से परमात्मा (उसके अंदर से) वह जहर निकाल देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा मनु राम नाम रसि लागिबा ॥ हरि कीए पतित पवित्र मिलि साध गुर हरि नामै हरि रसु चाखिबा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा मनु राम नाम रसि लागिबा ॥ हरि कीए पतित पवित्र मिलि साध गुर हरि नामै हरि रसु चाखिबा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = रस में। पतित = विकारों में गिरे हुए। मिलि साध गुर = साधू गुरु को मिल के। नामै = नाम में। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से) मेरा मन परमात्मा के नाम के स्वाद में मगन हो गया है। साधु गुरु को मिल के (जो मनुष्य) परमात्मा के नाम में (जुड़ते हैं), परमात्मा का नाम-रस चखते हैं उन विकारियों को भी परमात्मा स्वच्छ जीवन वाले बना लेता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु धनु वडभाग मिलिओ गुरु साधू मिलि साधू लिव उनमनि लागिबा ॥ त्रिसना अगनि बुझी सांति पाई हरि निरमल निरमल गुन गाइबा ॥२॥

मूलम्

धनु धनु वडभाग मिलिओ गुरु साधू मिलि साधू लिव उनमनि लागिबा ॥ त्रिसना अगनि बुझी सांति पाई हरि निरमल निरमल गुन गाइबा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू = गुरु। लिव = लगन। उनमनि = ऊँची आत्मिक अवस्था में।2।
अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य सराहनीय हो जाता है, बड़ी किस्मत वाला हो जाता है जिसको गुरु मिल जाता है। गुरु को मिल के उसकी सूझ ऊँची आत्मिक अवस्था में टिक जाती है। (ज्यों-ज्यों) वह परमात्मा के पवित्र करने वाले गुण गाता है (त्यों-त्यों उसके अंदर से) तृष्णा की आग बुझ जाती है, उसको आत्मिक शांति प्राप्त होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन के भाग खीन धुरि पाए जिन सतिगुर दरसु न पाइबा ॥ ते दूजै भाइ पवहि ग्रभ जोनी सभु बिरथा जनमु तिन जाइबा ॥३॥

मूलम्

तिन के भाग खीन धुरि पाए जिन सतिगुर दरसु न पाइबा ॥ ते दूजै भाइ पवहि ग्रभ जोनी सभु बिरथा जनमु तिन जाइबा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खीन = क्षीण, कमजोर, पतले। दरसु = दर्शन। ते = वह (बहुवचन)। दूजै भाइ = माया के मोह के कारण। पवहि = पड़ते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने (कभी) गुरु के दर्शन नहीं किए वे भाग्यहीन हो गए, धुर दरगाह से ही उनको ये भाग्य-हीनता मिल गई। माया के मोह के कारण वे मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं उनकी सारी जिंदगी व्यर्थ चली जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि देहु बिमल मति गुर साध पग सेवह हम हरि मीठ लगाइबा ॥ जनु नानकु रेण साध पग मागै हरि होइ दइआलु दिवाइबा ॥४॥४॥

मूलम्

हरि देहु बिमल मति गुर साध पग सेवह हम हरि मीठ लगाइबा ॥ जनु नानकु रेण साध पग मागै हरि होइ दइआलु दिवाइबा ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! बिमल = स्वच्छ। पग = पैर। सेवह = हम सेवा करें। रेण = धूल। नानक मगै = नानक मांगता है।4।
अर्थ: हे प्रभु! हमें स्वच्छ बुद्धि दे, हम गुरु के चरणों में लगे रहें, और हे हरि! तू हमें प्यारा लगता रहे। हे भाई! दास नानक (तो प्रभु के दर से) गुरु के चरणों की धूल मांगता है। जिस पर प्रभु दयावान होता है उसे गुरु के चरणों की धूल बख्शता है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ ॥ जिन हरि हिरदै नामु न बसिओ तिन मात कीजै हरि बांझा ॥ तिन सुंञी देह फिरहि बिनु नावै ओइ खपि खपि मुए करांझा ॥१॥

मूलम्

जैतसरी महला ४ ॥ जिन हरि हिरदै नामु न बसिओ तिन मात कीजै हरि बांझा ॥ तिन सुंञी देह फिरहि बिनु नावै ओइ खपि खपि मुए करांझा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन हिरदै = जिस मनुष्यों के हृदय में। तिन मात = उनकी माँ। बांझा = जिसके घर संतान ना पैदा हो सके। सुंञी = सूनी, वंचित। देह = काया। ओइ = वह। मुए = आत्मिक मौत मर गए। करांझा = क्रुझ क्रुझ के, कुढ़ना, चिन्ता में डूब के।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम नहीं बसता, उनकी माँ को हरि बाँझ ही कर दिया करे (तो ठीक है, क्योंकि) उनका शरीर हरि-नाम से सूना रहता है, वे नाम से वंचित ही घूमते फिरते हैं, वे चिंताओं, कुड़न में दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपि राम नामु हरि माझा ॥ हरि हरि क्रिपालि क्रिपा प्रभि धारी गुरि गिआनु दीओ मनु समझा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपि राम नामु हरि माझा ॥ हरि हरि क्रिपालि क्रिपा प्रभि धारी गुरि गिआनु दीओ मनु समझा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माझा = अंदर, जो अंदर ही बस रहा है। क्रिपालि = कृपालु ने। प्रभि = प्रभु ने। गुरि = गुरु ने। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, जो तेरे अंदर ही बस रहा है। हे भाई! कृपालु प्रभु ने (जिस मनुष्य पर) कृपा की उसको गुरु ने आत्मिक जीवन की सूझ बख्शी उसका मन (नाम जपने की महत्वता को) समझ गया। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कीरति कलजुगि पदु ऊतमु हरि पाईऐ सतिगुर माझा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर अपुने जिनि गुपतु नामु परगाझा ॥२॥

मूलम्

हरि कीरति कलजुगि पदु ऊतमु हरि पाईऐ सतिगुर माझा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर अपुने जिनि गुपतु नामु परगाझा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरति = महिमा। कलजुगि = जगत में। पदु = आत्मिक दर्जा। पाईऐ = मिलता है। माझा = के द्वारा। हउ = मैं। जिनि = जिस (गुरु) ने (शब्द ‘जिन’ और ‘जिनि’ का फर्क याद रखो)। गुपतु = अंदर छुपा हुआ।2।
अर्थ: हे भाई! जगत में परमात्मा की महिमा ही सबसे ऊँचा दर्जा है, (पर) परमात्मा गुरु के द्वारा (ही) मिलता है। हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ जिसने मेरे अंदर ही छुपे हुए बसते परमात्मा का नाम प्रगट कर दिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरसनु साध मिलिओ वडभागी सभि किलबिख गए गवाझा ॥ सतिगुरु साहु पाइआ वड दाणा हरि कीए बहु गुण साझा ॥३॥

मूलम्

दरसनु साध मिलिओ वडभागी सभि किलबिख गए गवाझा ॥ सतिगुरु साहु पाइआ वड दाणा हरि कीए बहु गुण साझा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध = गुरु। सभि = सारे। किलबिख = पाप। दाणा = दाना, समझदार। साझा = सांझीवाल।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को बड़े भाग्यों से गुरु के दर्शन प्राप्त होते हैं, उसके सारे पाप दूर हो जाते हैं। जिसे बड़ा समझदार और शाह गुरु मिल गया, गुरु ने परमात्मा के बहुत सारे गुणों से उसको सांझीवाल बना दिया।3।

[[0698]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ क्रिपा करी जगजीवनि हरि उरि धारिओ मन माझा ॥ धरम राइ दरि कागद फारे जन नानक लेखा समझा ॥४॥५॥

मूलम्

जिन कउ क्रिपा करी जगजीवनि हरि उरि धारिओ मन माझा ॥ धरम राइ दरि कागद फारे जन नानक लेखा समझा ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग जीवनि = जगत के जीवन (प्रभु) ने। उरि = हृदय में। माझा = बीच में। दरि = दर से। कागद = कागज, किए कर्मों के लेखे का कागज। फारे = फाड़ दिए गए।4।
अर्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभु ने जिस मनुष्यों पर कृपा की, उन्होंने अपने मन में हृदय में परमात्मा का नाम टिका लिया। हे नानक! (कह: हे भाई!) धर्मराज के दर पर उन मनुष्यों के (किए कर्मों के लेखे के सारे) कागज फाड़ दिए गए, उन दासों का लेखा निपट गया।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ ॥ सतसंगति साध पाई वडभागी मनु चलतौ भइओ अरूड़ा ॥ अनहत धुनि वाजहि नित वाजे हरि अम्रित धार रसि लीड़ा ॥१॥

मूलम्

जैतसरी महला ४ ॥ सतसंगति साध पाई वडभागी मनु चलतौ भइओ अरूड़ा ॥ अनहत धुनि वाजहि नित वाजे हरि अम्रित धार रसि लीड़ा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध = गुरु। चलतो = भटकता, चंचल। अरूड़ा = अस्थिर। अनहत = एक रस, लगातार। धुनि = तुकांत। वाजहि = बजते हैं। अंम्रित धार = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल की धारा। रसि = प्रेम से। लीड़ा = अघा गया।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने बड़े भाग्यों से गुरु की साधु-संगत प्राप्त कर ली, उसका भटकता मन टिक गया। उसके अंदर एक-रस तुकांत से (जैसे) सदा बाजे बजते रहते हैं। आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धारा प्रेम से (पी-पी के) वह तृप्त हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपि राम नामु हरि रूड़ा ॥ मेरै मनि तनि प्रीति लगाई सतिगुरि हरि मिलिओ लाइ झपीड़ा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपि राम नामु हरि रूड़ा ॥ मेरै मनि तनि प्रीति लगाई सतिगुरि हरि मिलिओ लाइ झपीड़ा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! गूढ़ा = सोहणा। मनि = मन में। सतिगुरि = गुरु ने। लाइ झपीड़ा = जप्फी डाल के। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सुंदर परमात्मा का नाम (सदा) जपा कर। हे भाई! गुरु ने मेरे मन में, मेरे हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा कर दिया है, अब परमात्मा मुझे जप्फी डाल के मिल गया है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत बंध भए है माइआ बिखु संचहि लाइ जकीड़ा ॥ हरि कै अरथि खरचि नह साकहि जमकालु सहहि सिरि पीड़ा ॥२॥

मूलम्

साकत बंध भए है माइआ बिखु संचहि लाइ जकीड़ा ॥ हरि कै अरथि खरचि नह साकहि जमकालु सहहि सिरि पीड़ा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए। बंध भए = बंधे हुए। बिखु = (आत्मिक जीवन खत्म करने वाली माया) जहर। संचहि = इकट्ठी करते हैं। जकीड़ा = हठ, जोर। कै अरथि = की खातिर। सिरि = सिर पर। जमकाल पीड़ा = जमकाल का दुख, मौत का दुख।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य माया के मोह में बँधे रहते हैं। वह जोर लगा के (आत्मिक मौत लाने वाली माया) जहर ही इकट्ठी करते रहते हैं। वह मनुष्य उस माया को परमात्मा की राह पर खर्च नहीं कर सकते, (इस वास्ते वे) आत्मिक मौत का दुख अपने सिर पर सहते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि अरथि सरीरु लगाइआ गुर साधू बहु सरधा लाइ मुखि धूड़ा ॥ हलति पलति हरि सोभा पावहि हरि रंगु लगा मनि गूड़ा ॥३॥

मूलम्

जिन हरि अरथि सरीरु लगाइआ गुर साधू बहु सरधा लाइ मुखि धूड़ा ॥ हलति पलति हरि सोभा पावहि हरि रंगु लगा मनि गूड़ा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हर अरथि = परमात्मा की खातिर। साधू = गुरु। मुखि = मुँह पर। धूड़ा = खाक। हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। पावहि = पाते हैं, कमाते हैं। रंगु = प्रेम। मनि = मन में।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने बड़ी श्रद्धा से गुरु के चरणों की धूल अपने माथे पर लगा के अपना शरीर परमात्मा को अर्पित कर दिया, वे मनुष्य इस लोक में परलोक में शोभा कमाते हैं, उनके मन में परमात्मा से गूढ़ा प्यार बन जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि मेलि मेलि जन साधू हम साध जना का कीड़ा ॥ जन नानक प्रीति लगी पग साध गुर मिलि साधू पाखाणु हरिओ मनु मूड़ा ॥४॥६॥

मूलम्

हरि हरि मेलि मेलि जन साधू हम साध जना का कीड़ा ॥ जन नानक प्रीति लगी पग साध गुर मिलि साधू पाखाणु हरिओ मनु मूड़ा ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! कीड़ा = निमाणा दास, कीट। पग = पैर। मिलि = मिल के। पाखाणु = पत्थर की तरह ना भीगने वाला। मूड़ा = मूर्ख।4।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! मुझे गुरु मिला, मैं गुरु के सेवकों का निमाणा दास हूँ। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य के अंदर गुरु के चरणों का प्यार बन जाता है, गुरु को मिल के उसका मूर्ख पत्थर (की तरह कठोर) मन हरा हो जाता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि सिमरहु अगम अपारा ॥ जिसु सिमरत दुखु मिटै हमारा ॥ हरि हरि सतिगुरु पुरखु मिलावहु गुरि मिलिऐ सुखु होई राम ॥१॥

मूलम्

हरि हरि सिमरहु अगम अपारा ॥ जिसु सिमरत दुखु मिटै हमारा ॥ हरि हरि सतिगुरु पुरखु मिलावहु गुरि मिलिऐ सुखु होई राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = पार रहित, बेअंत। हमारा = हम जीवों का। हरि = हे हरि! गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।1।
अर्थ: हे भाई! उस अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम स्मरण किया करो, जिसको स्मरण करने से हम जीवों का हरेक दुख दूर हो सकता है। हे हरि! हे प्रभु! हमें गुरु महांपुरुष मिला दे। अगर गुरु मिल जाए, तो आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण गावहु मीत हमारे ॥ हरि हरि नामु रखहु उर धारे ॥ हरि हरि अम्रित बचन सुणावहु गुर मिलिऐ परगटु होई राम ॥२॥

मूलम्

हरि गुण गावहु मीत हमारे ॥ हरि हरि नामु रखहु उर धारे ॥ हरि हरि अम्रित बचन सुणावहु गुर मिलिऐ परगटु होई राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीत हमारे = हे हीमारे मित्र! उर = हृदय। धारे = टिका के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। परगटु = प्रत्यक्ष।2।
अर्थ: हे मेरे मित्रो! परमात्मा की महिमा के गीत गाया करो, परमात्मा का नाम अपने हृदय में टिकाए रखो। परमात्मा की महिमा के आत्मिक जीवन देने वाले बोल (मुझे भी) सुनाया करो। (हे मित्रो! गुरु की शरण पड़े रहो), अगर गुरु मिल जाए, तो परमात्मा हृदय में प्रगट हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुसूदन हरि माधो प्राना ॥ मेरै मनि तनि अम्रित मीठ लगाना ॥ हरि हरि दइआ करहु गुरु मेलहु पुरखु निरंजनु सोई राम ॥३॥

मूलम्

मधुसूदन हरि माधो प्राना ॥ मेरै मनि तनि अम्रित मीठ लगाना ॥ हरि हरि दइआ करहु गुरु मेलहु पुरखु निरंजनु सोई राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधु सूदन = (मधू राक्षस को मारने वाले) हे प्रभु! माधो = (मा+धव = माया का पति) हे हरि! प्राना = हे मेरी जिंद (के सहारे)! म्नि = मन में। तनि = हृदय में। निरंजनु = निर्लिप (निर+अंजनु। अंजन = माया की कालख)।3।
अर्थ: हे दूतों के नाश करने वाले! हे माया के पति! हे मेरी जिंद (के सहारे)! मेरे मन में, मेरे हृदय में, आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम मीठा लग रहा है। हे हरि! हे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे वह महापुरुष गुरु मिला जो माया के प्रभाव से ऊपर है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु सदा सुखदाता ॥ हरि कै रंगि मेरा मनु राता ॥ हरि हरि महा पुरखु गुरु मेलहु गुर नानक नामि सुखु होई राम ॥४॥१॥७॥

मूलम्

हरि हरि नामु सदा सुखदाता ॥ हरि कै रंगि मेरा मनु राता ॥ हरि हरि महा पुरखु गुरु मेलहु गुर नानक नामि सुखु होई राम ॥४॥१॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै रंगि = के प्रेम में। राता = मगन। गुर = हे गुरु! नामि = नाम से।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा सुख देने वाला है। मेरा मन उस परमात्मा के प्यार में मस्त रहता है। हे नानक! (कह:) हे हरि! मुझे गुरु महापुरुख मिला। हे गुरु! (तेरे बख्शे) हरि-नाम में जुड़ने से आत्मिक आनंद मिलता है।4।1।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी मः ४ ॥ हरि हरि हरि हरि नामु जपाहा ॥ गुरमुखि नामु सदा लै लाहा ॥ हरि हरि हरि हरि भगति द्रिड़ावहु हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥१॥

मूलम्

जैतसरी मः ४ ॥ हरि हरि हरि हरि नामु जपाहा ॥ गुरमुखि नामु सदा लै लाहा ॥ हरि हरि हरि हरि भगति द्रिड़ावहु हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपाहा = जपो। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। लै = लो। लाहा = फायदा। द्रिढ़ावहु = दृढ़ कर लो, हृदय में पक्की कर लो। ओुमाहा = उमाह, उत्साह, चाव, आनंद।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओुमाहा’ (जिस के बरिबर का पंजाबी का असल शब्द है ‘ओमाह’) यहाँ दो मात्राएं लगी हैं ‘ु’ को और ‘ो’ की, जिसे पढ़ना है ‘उमाहा’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपा करो। गुरु की शरण पड़ कर सदा परमात्मा के नाम की कमाई करते रहो। हे भाई! परमात्मा की भक्ति अपने हृदय में पक्की करके टिका लो। परमात्मा का नाम (मनुष्य के मन में) आनंद पैदा करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु दइआलु धिआहा ॥ हरि कै रंगि सदा गुण गाहा ॥ हरि हरि हरि जसु घूमरि पावहु मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥२॥

मूलम्

हरि हरि नामु दइआलु धिआहा ॥ हरि कै रंगि सदा गुण गाहा ॥ हरि हरि हरि जसु घूमरि पावहु मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआलु = दया का घर, दया का पुँज। धिआहा = ध्यावो। कै रंगि = के प्रेम में। गाहा = गाओ। जसु = यश, महिमा। घूमरि = घूम घूम के नाच, मस्त करने वाला नाच। मिलि = मिल के। सतसंगि = सत्संग में।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा दया का श्रोत है, उसका नाम सदा स्मरण करते रहो। परमात्मा के प्रेम-रंग में टिक के उसके गुण गाते रहो। हे भाई! सदा परमात्मा की महिमा करते रहो (महिमा मन को मस्त करने वाला नृत्य है, ये) नाच नाचो। हे भाई! साधु-संगत में मिल के आत्मिक आनंद लिया करो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आउ सखी हरि मेलि मिलाहा ॥ सुणि हरि कथा नामु लै लाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि गुर मेलहु गुरि मिलिऐ हरि ओुमाहा राम ॥३॥

मूलम्

आउ सखी हरि मेलि मिलाहा ॥ सुणि हरि कथा नामु लै लाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि गुर मेलहु गुरि मिलिऐ हरि ओुमाहा राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सहेलियो! हे सत्संगियो! मेलि = मिलाप में, चरणों में। मिलाहा = मिलो। सुणि = सुन के। हरि = हे हरि! गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।3।
अर्थ: हे संत सगियो! आओ, मिल के प्रभु के चरणों में जुड़ें। हे सत्संगियो! परमात्मा के महिमा की बातें सुन के परमात्मा के नाम-जपने की कमाई करते रहो। (प्रभु-दर पे अरदास करो-) हे प्रभु! मेहर कर, (हमें) गुरु मिलवा। हे सत्संगियो! अगर गुरु मिल जाए, तो (हृदय में) आनंद पैदा हो जाता है।3।

[[0699]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि कीरति जसु अगम अथाहा ॥ खिनु खिनु राम नामु गावाहा ॥ मो कउ धारि क्रिपा मिलीऐ गुर दाते हरि नानक भगति ओुमाहा राम ॥४॥२॥८॥

मूलम्

करि कीरति जसु अगम अथाहा ॥ खिनु खिनु राम नामु गावाहा ॥ मो कउ धारि क्रिपा मिलीऐ गुर दाते हरि नानक भगति ओुमाहा राम ॥४॥२॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = करके। कीरति = कीर्ती, महिमा। अथाहा = गहरी, गहरे जिगरे वाली। खिनु खिनु = हर छिन, हर वक्त। मो कउ = मुझे। कउ = को। गुर = हे गुरु!।4।
अर्थ: हे भाई! उस अगम्य (पहुँच से परे) और गहरे जिगरे वाले परमात्मा की महिमा करके, यश करके, हर समय उसका नाम जपा करो। हे नानक! (कह:) हे नाम की दाति देने वाले गुरु! मेरे पर मेहर कर, मुझे मिल, (तेरे मिलाप की इनायत से मेरे अंदर) भक्ति करने का चाव पैदा हो।4।2।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी मः ४ ॥ रसि रसि रामु रसालु सलाहा ॥ मनु राम नामि भीना लै लाहा ॥ खिनु खिनु भगति करह दिनु राती गुरमति भगति ओुमाहा राम ॥१॥

मूलम्

जैतसरी मः ४ ॥ रसि रसि रामु रसालु सलाहा ॥ मनु राम नामि भीना लै लाहा ॥ खिनु खिनु भगति करह दिनु राती गुरमति भगति ओुमाहा राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = आनंद से। रसालु = (रस+आलय) रसों का घर, रसीला। सालाहा = हम सालाहते हैं। नामि = नाम में। भीना = भीग गया। लाहा = लाभ। करह = हम करते हैं। उमाहा = उत्शाह, चाव।1।
अर्थ: हे भाई! हम बड़े आनंद से रसीले राम की महिमा करते हैं। हमारा मन राम के नाम-रस में भीग रहा है, हम (हरि-नाम की) कमाई कर रहे हैं। हम हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करते हैं। गुरु की मति की इनायत से (हमारे अंदर प्रभु की) भक्ति का चाव बन रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि गुण गोविंद जपाहा ॥ मनु तनु जीति सबदु लै लाहा ॥ गुरमति पंच दूत वसि आवहि मनि तनि हरि ओमाहा राम ॥२॥

मूलम्

हरि हरि गुण गोविंद जपाहा ॥ मनु तनु जीति सबदु लै लाहा ॥ गुरमति पंच दूत वसि आवहि मनि तनि हरि ओमाहा राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपाहा = हम जपते हैं। जीति = जीत के, वश में कर के। दूत = (कामादिक) वैरी। वसि = वश में। आवहि = आ जाते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! हम गोबिंद हरि के गुण गा रहे हैं (इस तरह अपने) मन को शरीर को वश में करके गुरु-शब्द (का) लाभ प्राप्त कर रहे हैं। हे भाई! गुरु की मति लेने से (कामादिक) पाँचों वैरी वश में आ जाते हैं, मन में हृदय में हरि-नाम जपने का उत्साह पैदा हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु रतनु हरि नामु जपाहा ॥ हरि गुण गाइ सदा लै लाहा ॥ दीन दइआल क्रिपा करि माधो हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥

मूलम्

नामु रतनु हरि नामु जपाहा ॥ हरि गुण गाइ सदा लै लाहा ॥ दीन दइआल क्रिपा करि माधो हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाइ = गा के। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! माधो = हे माया के पति!।3।
अर्थ: हे भाई! हरि-नाम रत्न (जैसा कीमती पदार्थ है, हम ये) हरि-नाम जप रहे हैं। परमात्मा की महिमा के गीत गा गा के सदा कायम रहने वाली कमाई कमा रहे हैं। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! मेहर कर, हमारे मन में तेरा नाम जपने का चाव बना रहे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि जगदीसु जपउ मन माहा ॥ हरि हरि जगंनाथु जगि लाहा ॥ धनु धनु वडे ठाकुर प्रभ मेरे जपि नानक भगति ओमाहा राम ॥४॥३॥९॥

मूलम्

जपि जगदीसु जपउ मन माहा ॥ हरि हरि जगंनाथु जगि लाहा ॥ धनु धनु वडे ठाकुर प्रभ मेरे जपि नानक भगति ओमाहा राम ॥४॥३॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगदीसु = जगत का मालिक (जगत = ईश)। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ। माहा = में। जगंनाथु = जगत का नाथ। जगि = जगत में। धनु धनु = धन्य धन्य, साराहनीय। प्रभ = हे प्रभु!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे साराहनीय प्रभु! हे मेरे सबसे बड़े मालिक! मैं तुझे जगत के मालिक को अपने मन में सदा जपता रहूँ (क्योंकि) हे हरि! तुझे जगननाथ के नाथ को सदा जपना ही जगत में (असल) लाभ है, (मेहर कर, तेरा नाम) जप के (मेरे अंदर तेरी) भक्ति का उत्शाह बना रहे।4।2।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ ॥ आपे जोगी जुगति जुगाहा ॥ आपे निरभउ ताड़ी लाहा ॥ आपे ही आपि आपि वरतै आपे नामि ओुमाहा राम ॥१॥

मूलम्

जैतसरी महला ४ ॥ आपे जोगी जुगति जुगाहा ॥ आपे निरभउ ताड़ी लाहा ॥ आपे ही आपि आपि वरतै आपे नामि ओुमाहा राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। जुगाहा = सारे युगों में। ताड़ी = समाधि। नामि = नाम में (जोड़ के)। ओुमाहा = उमाह, उत्साह।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही जोगी है, खुद ही सब युगों में जोग की जुगति है, खुद ही निडर हो के समाधि लगाता है। हर जगह स्वयं ही स्वयं काम कर रहा है, आप ही नाम में जोड़ के स्मरण का उत्साह दे रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे दीप लोअ दीपाहा ॥ आपे सतिगुरु समुंदु मथाहा ॥ आपे मथि मथि ततु कढाए जपि नामु रतनु ओुमाहा राम ॥२॥

मूलम्

आपे दीप लोअ दीपाहा ॥ आपे सतिगुरु समुंदु मथाहा ॥ आपे मथि मथि ततु कढाए जपि नामु रतनु ओुमाहा राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीप = द्वीप, जज़ीरे। लोअ = लोक, भवन (बहुवचन)। दीपाहा = रौशनी करने वाला। मथाहा = मथता है। मथि = मथ के। ततु = तत्व, मक्खन, अस्लियत।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही द्वीप है, स्वयं ही सारे भवन है, खुद ही (सारे भवनों में) रौशनी है। प्रभु खुद ही गुरु है, खुद ही (वाणी का) समुंदर है, खुद ही (इस समुंदर को) मथने वाला (विचारने वाला) है। खुद ही (वाणी के समुंदर को) मथ-मथ के (विचार-विचार) के (इसमें से) मक्खन (अस्लियत) मिलवाता है, खुद ही (अपना) रत्न जैसा कीमती नाम जप के (जीवों के अंदर जपने का) चाव पैदा करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखी मिलहु मिलि गुण गावाहा ॥ गुरमुखि नामु जपहु हरि लाहा ॥ हरि हरि भगति द्रिड़ी मनि भाई हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥

मूलम्

सखी मिलहु मिलि गुण गावाहा ॥ गुरमुखि नामु जपहु हरि लाहा ॥ हरि हरि भगति द्रिड़ी मनि भाई हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सहेलियो! मिलि = मिल के। गावाहा = गाएं। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। लाहा = लाभ। द्रिढ़ी = हृदय में पक्की कर ली। मनि = मन में। भाई = प्यारी लगी।3।
अर्थ: हे सत्संगियो! इकट्ठे होवो, आओ, मिल के प्रभु के गुण गाएं। हे सत्संगियो! गुरु की शरण पड़ कर हरि का नाम जपो, (यही है जीव का असल) लाभ। जिस मनुष्य ने प्रभु की भक्ति अपने हृदय में पक्की करके बैठा ली, जिसके मन को प्रभु की भक्ति प्यारी लगने लगी, प्रभु का नाम उसके अंदर (स्मरण का) उत्साह पैदा करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे वड दाणा वड साहा ॥ गुरमुखि पूंजी नामु विसाहा ॥ हरि हरि दाति करहु प्रभ भावै गुण नानक नामु ओुमाहा राम ॥४॥४॥१०॥

मूलम्

आपे वड दाणा वड साहा ॥ गुरमुखि पूंजी नामु विसाहा ॥ हरि हरि दाति करहु प्रभ भावै गुण नानक नामु ओुमाहा राम ॥४॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाणा = दाना, समझदार। साहा = शाह। पूंजी = राशि। विसाहा = ख़रीदता। प्रभ = हे प्रभु! हरि = हे हरि!।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद बहुत सयाना बड़ा शाह है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर उसकी नाम-संपत्ति एकत्र करो। हे नानक! (कह:) हे हरि! हे प्रभु! (मुझे अपने नाम की) दाति दे, अगर तुझे अच्छा लगे, तो मेरे अंदर तेरा नाम बसे, तेरे गुणों को याद करने का चाव पैदा हो।4।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ४ ॥ मिलि सतसंगति संगि गुराहा ॥ पूंजी नामु गुरमुखि वेसाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि मधुसूदन मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥१॥

मूलम्

जैतसरी महला ४ ॥ मिलि सतसंगति संगि गुराहा ॥ पूंजी नामु गुरमुखि वेसाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि मधुसूदन मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। संगि गुराहा = गुरु की संगति में। संगि = से। पूंजी = राशि, संपत्ति। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। विसाहा = खरीदो, इकट्ठा करो। हरि = हे हरि! मधु सूदन = (मधू दैत्य को मारने वाले) हे प्रभु! ओुमाहा = उत्साह।1।
अर्थ: हे वैरियों को नाश करने वाले हरि! (हम जीवों पर) कृपा करें (कि) साधु-संगत में मिल के (हमारे अंदर तेरे नाम का) चाव पैदा हो, साधु-संगत में मिल के, गुरु की शरण पड़ कर, तेरे नाम की संपत्ति एकत्र करें।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण बाणी स्रवणि सुणाहा ॥ करि किरपा सतिगुरू मिलाहा ॥ गुण गावह गुण बोलह बाणी हरि गुण जपि ओुमाहा राम ॥२॥

मूलम्

हरि गुण बाणी स्रवणि सुणाहा ॥ करि किरपा सतिगुरू मिलाहा ॥ गुण गावह गुण बोलह बाणी हरि गुण जपि ओुमाहा राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रवणि = कान से। गावहु = हम गाएं। बोलह = हम बोलें।2।
अर्थ: हे हरि! कृपा करके (मुझे) गुरु मिला (ताकि) तेरे गुणों वाली वाणी हम कानों से सुनें, गुरु की वाणी के द्वारा हम तेरे गुण गाएं, तेरे गुण उचारें। तेरे गुण याद कर-कर के (हमारे अंदर तेरी भक्ति का) चाव पैदा हो जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि तीरथ वरत जग पुंन तुोलाहा ॥ हरि हरि नाम न पुजहि पुजाहा ॥ हरि हरि अतुलु तोलु अति भारी गुरमति जपि ओुमाहा राम ॥३॥

मूलम्

सभि तीरथ वरत जग पुंन तुोलाहा ॥ हरि हरि नाम न पुजहि पुजाहा ॥ हरि हरि अतुलु तोलु अति भारी गुरमति जपि ओुमाहा राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे (बहुवचन)। तुोलाहा = अगर तोलें। पुजहि = पहुँचते हैं। जपि = जप के।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तुोलाहा’ में अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’ असल शब्द है ‘तोलाहा’, यहाँ ‘तुलाहा’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! अगर सारे तीर्थ (-स्नान), व्रत, यज्ञ और पुण्य (निहित नेक कर्म) (इकट्ठे मिला के) तोलें, ये परमात्मा के नाम तक नहीं पहुँच सकते। परमात्मा (का नाम) तोला नहीं जा सकता, उसका बहुत भारा तोल है। गुरु की मति से जप के (मन में और जपने का) उत्साह पैदा होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि करम धरम हरि नामु जपाहा ॥ किलविख मैलु पाप धोवाहा ॥ दीन दइआल होहु जन ऊपरि देहु नानक नामु ओमाहा राम ॥४॥५॥११॥

मूलम्

सभि करम धरम हरि नामु जपाहा ॥ किलविख मैलु पाप धोवाहा ॥ दीन दइआल होहु जन ऊपरि देहु नानक नामु ओमाहा राम ॥४॥५॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलविख = पाप। दीन जन = निमाणे दास।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! अपने निमाणें दासों पर दयावान हो, दासों को अपना नाम दे, (नाम जपने का) उत्साह दे, हम तेरा नाम जपें, तेरा नाम ही सारे (निहित) धार्मिक कर्म हैं, (तेरे नाम की इनायत से) सारे पापों विकारों की मैल धुल जाती है।4।5।11।

[[0700]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोई जानै कवनु ईहा जगि मीतु ॥ जिसु होइ क्रिपालु सोई बिधि बूझै ता की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कोई जानै कवनु ईहा जगि मीतु ॥ जिसु होइ क्रिपालु सोई बिधि बूझै ता की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोई = कोई विरला। ईहा जगि = यहाँ जगत में। सोई = वही मनुष्य। बिधि = जुगति। ता की = उस मनुष्य की। रीति = जीवन जुगति।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य जानता है (कि) यहाँ जगत में (असली) मित्र कौन है। जिस मनुष्य पर (परमात्मा) दयावान होता है, वही मनुष्य इस बात को समझता है, (फिर) उस मनुष्य की जीवन-जुगति पवित्र हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात पिता बनिता सुत बंधप इसट मीत अरु भाई ॥ पूरब जनम के मिले संजोगी अंतहि को न सहाई ॥१॥

मूलम्

मात पिता बनिता सुत बंधप इसट मीत अरु भाई ॥ पूरब जनम के मिले संजोगी अंतहि को न सहाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बनिता = स्त्री। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। इसट = प्यारे। अरु = और। पूरब = पहले। संजोगी = संजोगों से। अंतहि = आखिरी समय में। को = कोई भी। सहाई = साथी।1।
अर्थ: हे भाई! माता-पिता, स्त्री, पुत्र, रिश्तेदार, प्यारे मित्र और भाई - ये सारे पहले जन्मों के संयोगों के कारण (यहाँ) आ मिले हैं। आखिरी वक्त पर इनमें से कोई भी साथी नहीं बनता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकति माल कनिक लाल हीरा मन रंजन की माइआ ॥ हा हा करत बिहानी अवधहि ता महि संतोखु न पाइआ ॥२॥

मूलम्

मुकति माल कनिक लाल हीरा मन रंजन की माइआ ॥ हा हा करत बिहानी अवधहि ता महि संतोखु न पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति = (मौक्तिक) मोती। कनिक = सोना। मन रंजन की = मन को खुश करने वाली। बिहानी = बीत गई। अवधहि = उम्र। ता महि = इन पदार्थों में। संतोखु = शांति, तृप्ति।2।
अर्थ: हे भाई! मोतियों की माला, सोना, लाल, हीरे, मन को खुश करने वाली माया- इनमें (लगने से) सारी उम्र ‘हाय हाय’ करते हुए गुजर जाती है, मन नहीं भरता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हसति रथ अस्व पवन तेज धणी भूमन चतुरांगा ॥ संगि न चालिओ इन महि कछूऐ ऊठि सिधाइओ नांगा ॥३॥

मूलम्

हसति रथ अस्व पवन तेज धणी भूमन चतुरांगा ॥ संगि न चालिओ इन महि कछूऐ ऊठि सिधाइओ नांगा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हसति = हाथी। अस्व = अश्व, घोड़े। पवन तेज = हवा के वेग वाले। धणी = धन का मालिक। भूमन = जमीन का मालिक। चतुरांगा = चार अंगों वाली फौज (जिस में हों: हाथी, रथ, घोड़े, पैदल)। संगि = साथ। कछूऐ = कुछ भी।3।
अर्थ: हे भाई! हाथी, रथ, हवा के वेग समान तेज दौड़ने वाले घोड़े (हों), धनाढ हो, जमीन का मालिक हो, चारों किस्म की फौज का मालिक हो - इनमें से कोई (भी) चीज साथ नहीं जाती, (इनका मालिक मनुष्य यहाँ से) नंगा ही उठ के चल पड़ता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के संत प्रिअ प्रीतम प्रभ के ता कै हरि हरि गाईऐ ॥ नानक ईहा सुखु आगै मुख ऊजल संगि संतन कै पाईऐ ॥४॥१॥

मूलम्

हरि के संत प्रिअ प्रीतम प्रभ के ता कै हरि हरि गाईऐ ॥ नानक ईहा सुखु आगै मुख ऊजल संगि संतन कै पाईऐ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रिअ = प्यारे। ता कै = उनकी संगति में। गाईऐ = गाना चाहिए। ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। ऊजल = रौशन। कै संगि = के साथ, की संगति में।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा के संत जन परमात्मा के प्यारे होते हैं, उनकी संगति में परमात्मा की महिमा करनी चाहिए। इस लोक में सुख मिलता है, परलोक में सुख-रू हो जाते हैं। (पर ये दाति) संत-जनों की संगति में ही मिलती है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ घरु ३ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ घरु ३ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहु संदेसरो कहीअउ प्रिअ कहीअउ ॥ बिसमु भई मै बहु बिधि सुनते कहहु सुहागनि सहीअउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

देहु संदेसरो कहीअउ प्रिअ कहीअउ ॥ बिसमु भई मै बहु बिधि सुनते कहहु सुहागनि सहीअउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संदेसरो = प्यारा संदेश। कहीअउ = बताओ। प्रिअ संदेसरो = प्यारे का मीठा संदेशा। बिसमु = हैरान। भई = हो गई। बहु बिधि = कई किस्में। कहहु = बताओ। सहीअउ = हे सहेलियो!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सोहागवती सहेलियो! (हे गुरु के सिखो!) मुझे प्यारे प्रभु का मीठा सा संदेशा दो, बताओ। मैं (उस प्यारे की बाबत) कई तरह (की बातें) सुन-सुन के हैरान हो रही हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

को कहतो सभ बाहरि बाहरि को कहतो सभ महीअउ ॥ बरनु न दीसै चिहनु न लखीऐ सुहागनि साति बुझहीअउ ॥१॥

मूलम्

को कहतो सभ बाहरि बाहरि को कहतो सभ महीअउ ॥ बरनु न दीसै चिहनु न लखीऐ सुहागनि साति बुझहीअउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई। कहतो = कहता है। महीअउ = में। बरनु = रंग, वर्ण। दीसै = दिखता। चिहन = चिन्ह, निशान, लक्षण। लखीऐ = नजर आता। सुहागनि = हे सोहागनो! सति = सति, सच। बुझहीअउ = समझाओ।1।
अर्थ: कोई कहता है, वह सबसे बाहर ही बसता है, कोई कहता है, वह सबमें बसता है। उसका रंग नहीं दिखता, उसका कोई लक्षण नजर नहीं आता। हे सोहागनों! तुम मुझे सच्ची बात बताओ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब निवासी घटि घटि वासी लेपु नही अलपहीअउ ॥ नानकु कहत सुनहु रे लोगा संत रसन को बसहीअउ ॥२॥१॥२॥

मूलम्

सरब निवासी घटि घटि वासी लेपु नही अलपहीअउ ॥ नानकु कहत सुनहु रे लोगा संत रसन को बसहीअउ ॥२॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवासी = निवास करने वाला। घटि घटि = हरेक शरीर में। वासी = बसने वाला। लेपु = (माया का) असर। अलपहीअउ = अल्प मात्र, रती भर भी। नानक कहत = नानक कहता है। हे लोगा = हे लोगो! संत रसन को = संत को रसन, संत की रसना पे। बसहीअउ = बसता है।2।
अर्थ: नानक कहता है: हे लोगो! सुनो! वह परमात्मा सभी में निवास रखने वाला है, हरेक के शरीर में बसने वाला है (फिर भी, उसको माया का) अल्प मात्र भी लेप नहीं है। वह प्रभु संत जनों की जीभ पर बसता है (संतजन हर वक्त उसका नाम जपते हैं)।2।1।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी मः ५ ॥ धीरउ सुनि धीरउ प्रभ कउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी मः ५ ॥ धीरउ सुनि धीरउ प्रभ कउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धीरउ = मैं धीरज हासिल करता हूँ। कउ = को। सुनि = सुन के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं प्रभु (की बातों) को सुन-सुन के (अपने मन में) सदा धीरज हासल करता रहता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ प्रान मनु तनु सभु अरपउ नीरउ पेखि प्रभ कउ नीरउ ॥१॥

मूलम्

जीअ प्रान मनु तनु सभु अरपउ नीरउ पेखि प्रभ कउ नीरउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जिंद। सभु = हरेक चीज, सब कुछ। अरपउ = मैं अर्पित करता हूँ। नीरउ = नेरउ, नजदीक। पेखि = देख के।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु को हर वक्त (अपने) नजदीक देख-देख के मैं अपनी जिंद प्राण, अपना तन-मन सब कुछ उसकी भेट करता रहता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेसुमार बेअंतु बड दाता मनहि गहीरउ पेखि प्रभ कउ ॥२॥

मूलम्

बेसुमार बेअंतु बड दाता मनहि गहीरउ पेखि प्रभ कउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बड = बड़ा। मनहि = मन में। गहीरउ = मैं पकड़े रखता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! वह प्रभु बड़ा दाता है, बेअंत है, उसके गुणों का लेखा नहीं हो सकता। उस प्रभु को (हर जगह) देख के मैं उसको अपने मन में टिकाए रखता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो चाहउ सोई सोई पावउ आसा मनसा पूरउ जपि प्रभ कउ ॥३॥

मूलम्

जो चाहउ सोई सोई पावउ आसा मनसा पूरउ जपि प्रभ कउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाहउ = चाहूँ। सोई सोई = वही वही चीज। पावउ = पाऊँ। मनसा = मनीषा, मन की मुराद। पूरउ = मैं पूरी कर लेता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! मैं (जो जो चीज) चाहता हूँ, वही वही (प्रभु से) प्राप्त कर लेता हूँ। प्रभु (के नाम) को जप जप के मैं अपनी हरेक आस मुराद (उसके दर से) पुरी कर लेता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर प्रसादि नानक मनि वसिआ दूखि न कबहू झूरउ बुझि प्रभ कउ ॥४॥२॥३॥

मूलम्

गुर प्रसादि नानक मनि वसिआ दूखि न कबहू झूरउ बुझि प्रभ कउ ॥४॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। मनि = मन में। दूखि = (किसी) दुख में। झूरउ = झुरता हूँ। बुझि = समझ के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की कृपा से (वह प्रभु मेरे) मन में आ बसा है, अब मैं प्रभु (की उदारता) को समझ के किसी भी दुख में चिंतातुर नहीं होता।4।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ लोड़ीदड़ा साजनु मेरा ॥ घरि घरि मंगल गावहु नीके घटि घटि तिसहि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ लोड़ीदड़ा साजनु मेरा ॥ घरि घरि मंगल गावहु नीके घटि घटि तिसहि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोड़ीदड़ा = जिसको हरेक जीव चाहता है। घरि घरि = हरेक घर में, हरेक ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा। मंगल = महिमा के गीत। नीके = सोहणे। घटि घटि = हरेक शरीर में। तिसहि = उस का ही। बसेरा = निवास।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिसहि’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मेरा सज्जन प्रभु ऐसा है जिसको हरेक जीव मिलना चाहता है। हे भाई! हरेक ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा उसकी महिमा के सोहाने गीत गाया करो। हरेक शरीर में उस का ही निवास है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूखि अराधनु दूखि अराधनु बिसरै न काहू बेरा ॥ नामु जपत कोटि सूर उजारा बिनसै भरमु अंधेरा ॥१॥

मूलम्

सूखि अराधनु दूखि अराधनु बिसरै न काहू बेरा ॥ नामु जपत कोटि सूर उजारा बिनसै भरमु अंधेरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूखि = सुख में। अराधनु = स्मरण। दूखि = दुख में। काहू बेरा = किसी भी समय। जपत = जपते हुए। कोटि = करोड़ों। सूर = सूरज। उजारा = प्रकाश। भरमु = भटकना।1।
अर्थ: हे भाई! सुख में (भी उस परमात्मा का) स्मरण करना चाहिए, दुख में (उसका ही) स्मरण करना चाहिए, वह परमात्मा किसी भी समय हमें ना भूले। उस परमात्मा का नामजपते हुए (मनुष्य के मन में, मानो) करोड़ों सूरजों जितनी रौशनी हो जाती है (मन में से) माया वाली भटकना समाप्त हो जाती है, (आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी का) अंधकार दूर हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थानि थनंतरि सभनी जाई जो दीसै सो तेरा ॥ संतसंगि पावै जो नानक तिसु बहुरि न होई है फेरा ॥२॥३॥४॥

मूलम्

थानि थनंतरि सभनी जाई जो दीसै सो तेरा ॥ संतसंगि पावै जो नानक तिसु बहुरि न होई है फेरा ॥२॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थानि = जगह में। थनंतरि = थान अंतरि, जगह में। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। जाई = जगहों में। संगि = संगति में। बहुरि = फिर, दोबारा। फेरा = जनम मरन का चक्कर।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) हरेक जगह में, सब जगहों में (तू बस रहा है) जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह सब कुछ तेरा ही स्वरूप है। साधु-संगत में रह के जो मनुष्य तुझे ढूँढ लेता है उसको दोबारा जनम-मरण का चक्कर नहीं पड़ता।2।3।4।

[[0701]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मै सुखु पाइओ गुर आग्यि ॥ तजी सिआनप चिंत विसारी अहं छोडिओ है तिआग्यि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब मै सुखु पाइओ गुर आग्यि ॥ तजी सिआनप चिंत विसारी अहं छोडिओ है तिआग्यि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आज्ञि = आज्ञा में। तजी = छोड़ दी है। सिआनप = चतुराई। विसारी = भुला दी है। अहं = अहंकार। तिआज्ञि = त्याग के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अब मैंने गुरु की आज्ञा में (चल के) आनंद प्राप्त कर लिया है। मैंने अपनी चतुराई छोड़ दी है, मैंने चिन्ता भुला दी है, मैंने अहंकार (अपने अंदर से) परे फेंक दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ देखउ तउ सगल मोहि मोहीअउ तउ सरनि परिओ गुर भागि ॥ करि किरपा टहल हरि लाइओ तउ जमि छोडी मोरी लागि ॥१॥

मूलम्

जउ देखउ तउ सगल मोहि मोहीअउ तउ सरनि परिओ गुर भागि ॥ करि किरपा टहल हरि लाइओ तउ जमि छोडी मोरी लागि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = जब। देखउ = देखूँ। सगल = सारी दुनिया। मोहि = मोह में। मोहीअउ = फसी हुई है। भागि = भाग के। करि = कर के। तउ = तब। जमि = जम ने। मोरी लागि = मेरा पीछा।1।
अर्थ: हे भाई! जब मैं देखता हूँ (कि) सारी दुनिया मोह में फंसी हुई है, तब मैं भाग के गुरु की शरण जा पड़ा। (गुरु ने) कृपा करके मुझे परमात्मा की सेवा-भक्ति में जोड़ दिया। तब यमराज ने मेरा पीछा छोड़ दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरिओ सागरु पावक को जउ संत भेटे वड भागि ॥ जन नानक सरब सुख पाए मोरो हरि चरनी चितु लागि ॥२॥१॥५॥

मूलम्

तरिओ सागरु पावक को जउ संत भेटे वड भागि ॥ जन नानक सरब सुख पाए मोरो हरि चरनी चितु लागि ॥२॥१॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। पावक = आग। को = का। वड भागि = बड़ी किस्मत से। सरब सुख = सारे सुख (शब्द ‘सुखु’ और ‘सुख’ में फर्क है याद रखें)। मेरो चितु = मेरा चिक्त। लागि = लग गया है।2।
अर्थ: जब सौभाग्य से मुझे गुरु मिल जाए, मैंने (विकारों की) आग का समुंदर तैर कर पार कर लिया है। हे दास नानक! (कह:) अब मैंने सारे सुख प्राप्त कर लिए हैं, मेरा मन प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है।2।1।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ मन महि सतिगुर धिआनु धरा ॥ द्रिड़्हिओ गिआनु मंत्रु हरि नामा प्रभ जीउ मइआ करा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ मन महि सतिगुर धिआनु धरा ॥ द्रिड़्हिओ गिआनु मंत्रु हरि नामा प्रभ जीउ मइआ करा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिढ़िओ = (दिल में) पक्का कर लिया। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मइआ = दया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जब मैंने) गुरु (के चरणों) का ध्यान (अपने) मन में धरा, परमात्मा ने (मेरे पर) मेहर की, मैंने परमात्मा का नाम-मंत्र हृदय में टिका लिया, आत्मिक जीवन की सूझ दिल में पक्की कर ली।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल जाल अरु महा जंजाला छुटके जमहि डरा ॥ आइओ दुख हरण सरण करुणापति गहिओ चरण आसरा ॥१॥

मूलम्

काल जाल अरु महा जंजाला छुटके जमहि डरा ॥ आइओ दुख हरण सरण करुणापति गहिओ चरण आसरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काल जाल = आत्मिक मौत लाने वाले जंजाल। अरु = और। छुटके = खत्म हो गए। जमहि = जमों के। दुख हरण = दुखों के नाश करने वाले। करुणा = तरस। करुणा पति = तरस का मालिक। गहिओ = पकड़ा है।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की सहायता से) मैं दुखों का नाश करने वाले प्रभु की शरण में आ पड़ा, तरस के मालिक हरि का मैंने आसरा ले लिया। आत्मिक मौत लाने वाले मेरे बंधन (जंजीरें) टूट गए, माया के बड़े जंजाल समाप्त हो गए, जमों का डर दूर हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाव रूप भइओ साधसंगु भव निधि पारि परा ॥ अपिउ पीओ गतु थीओ भरमा कहु नानक अजरु जरा ॥२॥२॥६॥

मूलम्

नाव रूप भइओ साधसंगु भव निधि पारि परा ॥ अपिउ पीओ गतु थीओ भरमा कहु नानक अजरु जरा ॥२॥२॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाव = बेड़ी। नाव रूप भइओ = बेड़ी का रूप बन गया, नाव का काम दे दिया है। रंगु = साथ, संगति। भव निधि = संसार समुंदर। अपिओ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। गतु थीओ = चला गया है। अजरु = जरा रहित आत्मिक दर्जा, वह आत्मिक दर्जा जिसे बुढ़ापा नहीं आ सकता। जरा = प्राप्त कर लिया है।2।
अर्थ: हे भाई्! गुरु की संगति ने मेरे वास्ते नाव का काम किया, (जिसकी सहायता से) मैं संसार-समुंदर से पार लांघ गया हूँ। हे नानक! (कह:) मैंने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी लिया है, मेरे मन की भटकना दूर हो गई है, मैंने वह आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लिया है जिसे बुढ़ापा नहीं आ सकता।2।2।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ जा कउ भए गोविंद सहाई ॥ सूख सहज आनंद सगल सिउ वा कउ बिआधि न काई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ जा कउ भए गोविंद सहाई ॥ सूख सहज आनंद सगल सिउ वा कउ बिआधि न काई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्यों) के लिए। सहाई = मददगार। सहज = आत्मिक अडोलता। सगल = सारे। सिउ = साथ। वा कउ = उनको। काई बिआधि = कोई भी रोग।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के लिए परमात्मा मददगार बन जाता है (उनकी उम्र) आत्मिक अडोलता के सारे सुखों के आनंद से (बीतती है) उन्हें कोई रोग नहीं छूता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीसहि सभ संगि रहहि अलेपा नह विआपै उन माई ॥ एकै रंगि तत के बेते सतिगुर ते बुधि पाई ॥१॥

मूलम्

दीसहि सभ संगि रहहि अलेपा नह विआपै उन माई ॥ एकै रंगि तत के बेते सतिगुर ते बुधि पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीसहि = दिखते हैं। संगि = साथ। रहहि = रहते हैं। अलेपा = निरलेप, निराले। विआपै = जोर डालती है। ऊन = उनको। माई = माया। रंगि = प्रेम में। तत = अस्लियत। बेते = जानने वाले। ते = से। बुधि = अक्ल।1।
अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य सबके साथ (व्यवहार करते) दिखते हैं, पर वे (माया से) निर्लिप रहते हैं, माया उन पर अपना जोर नहीं डाल सकती। वे एक परमात्मा के प्रेम में टिके रहते हैं, वे जीवन की अस्लियत जानने वाले बन जाते हैं: ये बुद्धि उन्होंने गुरु से प्राप्त कर ली होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दइआ मइआ किरपा ठाकुर की सेई संत सुभाई ॥ तिन कै संगि नानक निसतरीऐ जिन रसि रसि हरि गुन गाई ॥२॥३॥७॥

मूलम्

दइआ मइआ किरपा ठाकुर की सेई संत सुभाई ॥ तिन कै संगि नानक निसतरीऐ जिन रसि रसि हरि गुन गाई ॥२॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माइआ = मेहर। सेई = वही। सुभाई = प्रेम भरे हृदय वाले। भाउ = प्रेम। कै संगि = के साथ, की संगति में। निसतरीऐ = पार लांघ जाते हैं। रसि = प्रेम से।2।
अर्थ: हे नानक! वही मनुष्य प्रेम-भरे हृदय वाले संत बन जाते हैं, जिस पर मालिक प्रभु की कृपा मेहर दया होती है जो मनुष्य सदा प्रेम से परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनकी संगति में रह के संसार-समुंदर से पार लांघ जाना है।2।3।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ गोबिंद जीवन प्रान धन रूप ॥ अगिआन मोह मगन महा प्रानी अंधिआरे महि दीप ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ गोबिंद जीवन प्रान धन रूप ॥ अगिआन मोह मगन महा प्रानी अंधिआरे महि दीप ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! जीवन = जिंदगी। रूप = सुंदरता। अगिआन = अज्ञान, आत्मि्क जीवन के प्रति ना समझी। मगन = डूबे हुए, मस्त। दीप = दीया।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद! तू हम जीवों की जिंदगी है, प्रान है, धन है, सुहज है। जीव आत्मिक जीवन की अज्ञानता के कारण, बहुत ज्सादा मोह में डूबे रहते हैं, इस अंधकार में तू (जीवों के लिए) दीपक है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल दरसनु तुमरा प्रभ प्रीतम चरन कमल आनूप ॥ अनिक बार करउ तिह बंदन मनहि चर्हावउ धूप ॥१॥

मूलम्

सफल दरसनु तुमरा प्रभ प्रीतम चरन कमल आनूप ॥ अनिक बार करउ तिह बंदन मनहि चर्हावउ धूप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफल = फल देने वाला। प्रभ = हे प्रभु! आनूप = बेमिसाल, जिस की उपमा ना हो सके, जिस जैसा और कोई नहीं। करउ = मैं करता हूँ। तिह = उनके (चरणों) को। मनहि = मन ही। चरावउ = चढ़ाऊँ, मैं भेट करता हूँ।1।
अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! तेरा दर्शन जीवन उद्देश्य पूरा करने वाला है, तेरे सुंदर चरण बेमिसाल हैं। मैं (तेरे) इन चरणों पर अनेक बार नमस्कार करता हूँ, अपना मन ही (तेरे चरणों के आगे) भेट करता हूँ, यही धूप अर्पित करता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हारि परिओ तुम्हरै प्रभ दुआरै द्रिड़्हु करि गही तुम्हारी लूक ॥ काढि लेहु नानक अपुने कउ संसार पावक के कूप ॥२॥४॥८॥

मूलम्

हारि परिओ तुम्हरै प्रभ दुआरै द्रिड़्हु करि गही तुम्हारी लूक ॥ काढि लेहु नानक अपुने कउ संसार पावक के कूप ॥२॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हारि = थक के। दुआरै = दर पे। द्रिढ़ करि = पक्की करके। गही = पकड़ी। लूक = खतरों से बचने के लिए छुपी हुई जगह, ओट। पावक = आग। कूप = कूआँ।2।
अर्थ: हे प्रभु! (और आसरों से) थक के (निराश हो के) मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ। मैंने तेरी ओट पक्की करके पकड़ ली है। हे प्रभु! संसार आग के कूँएं में से अपने दास नानक को निकाल ले।2।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ कोई जनु हरि सिउ देवै जोरि ॥ चरन गहउ बकउ सुभ रसना दीजहि प्रान अकोरि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ कोई जनु हरि सिउ देवै जोरि ॥ चरन गहउ बकउ सुभ रसना दीजहि प्रान अकोरि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = से। जोरि = जोड़ दे। गहउ = मैं पकड़ लूँ। बकउ = बोलूँ। सुभ = मीठे बोल। रसना = जीभ (से)। अकोरि = भेटा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अगर कोई मनुष्य मुझे परमात्मा (के चरणों) से जोड़ दे, तो मैं उसके चरण पकड़ लूँ, मैं जीभ से (उसके धन्यवाद के) मीठे बोल बोलूँ। मेरे ये प्राण उसके आगे भेटा के तौर पर दिए जाएं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु तनु निरमल करत किआरो हरि सिंचै सुधा संजोरि ॥ इआ रस महि मगनु होत किरपा ते महा बिखिआ ते तोरि ॥१॥

मूलम्

मनु तनु निरमल करत किआरो हरि सिंचै सुधा संजोरि ॥ इआ रस महि मगनु होत किरपा ते महा बिखिआ ते तोरि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआरो = क्यारा। सिचै = सींचता है। सुधा = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। संजोरि = अच्छी तरह जोड़ के। इआ रसि महि = इस रस में। मगनु = मस्त। ते = से। बिखिआ = माया। तोरि = तोड़ के।1।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य परमात्मा की कृपा से अपने मन को शरीर को, पवित्र क्यारा बनाता है, उसमें प्रभु का नाम-जल अच्छी तरह सींचता है, और, बड़ी (मोहनी) माया से (संबंध) तोड़ के इस (नाम-) रस में मस्त रहता है।1।

[[0702]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइओ सरणि दीन दुख भंजन चितवउ तुम्हरी ओरि ॥ अभै पदु दानु सिमरनु सुआमी को प्रभ नानक बंधन छोरि ॥२॥५॥९॥

मूलम्

आइओ सरणि दीन दुख भंजन चितवउ तुम्हरी ओरि ॥ अभै पदु दानु सिमरनु सुआमी को प्रभ नानक बंधन छोरि ॥२॥५॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख दूर करने वाले! चितवउ = मैं चितवता हूँ। ओरि = पासा, ओट। अभै पद = अभय अर्थात निर्भयता की अवस्था। को = का। छोरि = छुड़ा के।2।
अर्थ: हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरा ही आसरा (अपने मन में) चितवता रहता हूँ। हे प्रभु! (मुझ) नानक के (माया वाले) बंधन छुड़वा के मुझे अपने नाम का स्मरण दे, मुझे (विकारों के मुकाबले में) निर्भैता वाली अवस्था दे।2।5।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ चात्रिक चितवत बरसत मेंह ॥ क्रिपा सिंधु करुणा प्रभ धारहु हरि प्रेम भगति को नेंह ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ चात्रिक चितवत बरसत मेंह ॥ क्रिपा सिंधु करुणा प्रभ धारहु हरि प्रेम भगति को नेंह ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। चितवत = चितवता रहता है। बरसत मेंह = (कि) बरसात हो, वर्षा का होना। सिंधु = समुंदर। क्रिपा सिंधु = हे कृपा के समुंदर! करुणा = तरस, दया। कौ = का। नेंह = नेह, प्रेम, लगन, शौक।1। रहाउ।
अर्थ: जैसे पपीहा (हर वक्त) बरसात का होना चितवता रहता है (वर्षा चाहता है), वैसे ही, हे कृपा के समुंदर! हे प्रभु! (मैं चितवता रहता हूँ कि मेरे पर) तरस करो, मुझे अपनी प्यार भरी भक्ति की लगन बख्शो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक सूख चकवी नही चाहत अनद पूरन पेखि देंह ॥ आन उपाव न जीवत मीना बिनु जल मरना तेंह ॥१॥

मूलम्

अनिक सूख चकवी नही चाहत अनद पूरन पेखि देंह ॥ आन उपाव न जीवत मीना बिनु जल मरना तेंह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाहत = चाह। अनद = आनंद, सुख। पेखि = देख के। देंह = दिन। आन = (अन्य) और ही। मीना = मछली। तेंह = उसका। मरना = मौत।1।
अर्थ: हे भाई! चकवी (अन्य) अनेक सुख (भी) नहीं चाहती, सूरज को देख के उसके अंदर पूर्ण आनंद पैदा हो जाता है। (पानी के बिना) अन्य अनेक उपाय करके भी मछली जीवित नहीं रह सकती, पानी के बिना उसकी मौत हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम अनाथ नाथ हरि सरणी अपुनी क्रिपा करेंह ॥ चरण कमल नानकु आराधै तिसु बिनु आन न केंह ॥२॥६॥१०॥

मूलम्

हम अनाथ नाथ हरि सरणी अपुनी क्रिपा करेंह ॥ चरण कमल नानकु आराधै तिसु बिनु आन न केंह ॥२॥६॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाथ = हे नाथ! करेंह = कर। नानकु आराधै = नानक आराधता रहे। तिसुबिनु = उस (आराधना) के बिना। आन = आन। केंह = कुछ भी।2।
अर्थ: हे नाथ! (तेरे बिना) हम निआसरे थे। अपनी मेहर कर, और हमें अपनी शरण में रख। (तेरा दास) नानक तेरे सोहाने चरणों की आराधना करता रहे, स्मरण के बिना (नानक को) और कुछ अच्छा नहीं लगता।2।6।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ मनि तनि बसि रहे मेरे प्रान ॥ करि किरपा साधू संगि भेटे पूरन पुरख सुजान ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ मनि तनि बसि रहे मेरे प्रान ॥ करि किरपा साधू संगि भेटे पूरन पुरख सुजान ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। मेरे प्रान = मेरे प्राणों का आसरा प्रभु! करि = कर के। साधू = गुरु। संगि = संगति में। भेटे = मिल गए। पूरन = सर्व गुण भरपूर। पुरख = सर्व व्यापक।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे प्राणों के आसरे प्रभु जी मेरे मन में मेरे हृदय में बस रहे हैं। वह सर्व गुण समपन्न, सर्व व्यापक, सबके दिलों की जानने वाले प्रभु जी (अपनी) मेहर कर कि मुझे गुरु की संगति में मिल जाए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम ठगउरी जिन कउ पाई तिन रसु पीअउ भारी ॥ ता की कीमति कहणु न जाई कुदरति कवन हम्हारी ॥१॥

मूलम्

प्रेम ठगउरी जिन कउ पाई तिन रसु पीअउ भारी ॥ ता की कीमति कहणु न जाई कुदरति कवन हम्हारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठगउरी = ठग बूटी,वह बूटी जो खिला के राहियों को लूट लेते हैं। कउ = को। पीअउ = पी लिया। ता की = उस (रस) की। कुदरति = ताकत।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को (गुरु से परमात्मा के) प्यार की ठग-बूटी मिल गई है, उन्होंने नाम-रस अघा-अघा के पी लिया। उस (नाम-जल) की कीमति बताई नहीं जा सकती। मेरी क्या ताकत है, (कि मैं उस नाम-जल का मूल्य बता सकूँ)?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाइ लए लड़ि दास जन अपुने उधरे उधरनहारे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइओ नानक सरणि दुआरे ॥२॥७॥११॥

मूलम्

लाइ लए लड़ि दास जन अपुने उधरे उधरनहारे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइओ नानक सरणि दुआरे ॥२॥७॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। उधरे = बचा लिए। उधरनहारे = बचाने की स्मर्था वाले हरि ने। सिमरि = स्मरण करके। दुआरे = दर पर।2।
अर्थ: हे नानक! प्रभु ने (सदा) अपने दास अपने सेवक अपने साथ लगा लगा के रखे हैं, (और, इस तरह) उस बचाने की स्मर्था वाले प्रभु ने (सेवकों को संसार के विचारों से सदा के लिए) बचाया है। प्रभु के दर पर आ के, प्रभु की शरण पड़ कर, सेवकों ने प्रभु को सदा-सदा स्मरण करके (हमेशा) आत्मिक आनंद लिया है।2।7।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ आए अनिक जनम भ्रमि सरणी ॥ उधरु देह अंध कूप ते लावहु अपुनी चरणी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ आए अनिक जनम भ्रमि सरणी ॥ उधरु देह अंध कूप ते लावहु अपुनी चरणी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। उधरु = बचा ले। देह = शरीर, ज्ञानेंद्रियां। अंध = अंधा, अंधेरा। कूप = कूँआं। ते = सैं 1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव कई जन्मों से भटकते हुए अब तेरी शरण आए हैं। हमारे शरीर को (माया के मोह के) घोर अंधेरे भरे कूएं से बचा ले, अपने चरणों में जोड़े रख।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआनु धिआनु किछु करमु न जाना नाहिन निरमल करणी ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु बिखम नदी जाइ तरणी ॥१॥

मूलम्

गिआनु धिआनु किछु करमु न जाना नाहिन निरमल करणी ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु बिखम नदी जाइ तरणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = जुड़ी तवज्जो, ध्यान। करमु = धर्म के काम। न जाना = मैं नहीं जानता। करणी = कतव्र्य, आचरण। कै अंचलि = के पल्ले से। बिखम = मुश्किल। जाइ तरणी = तैरी जा सके।1।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे आत्मिक जीवन की समझ नहीं, मेरी तवज्जो तेरे चरणों में जुड़ी नहीं रहती, मुझे कोई अच्छा काम करना नहीं आता, मेरा आचरण भी स्वच्छ नहीं है। हे प्रभु! मुझे साधु-संगत के पल्ले से लगा दे, ता कि ये मुश्किल (संसार-) दरिया को तैरा जा सके।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख स्मपति माइआ रस मीठे इह नही मन महि धरणी ॥ हरि दरसन त्रिपति नानक दास पावत हरि नाम रंग आभरणी ॥२॥८॥१२॥

मूलम्

सुख स्मपति माइआ रस मीठे इह नही मन महि धरणी ॥ हरि दरसन त्रिपति नानक दास पावत हरि नाम रंग आभरणी ॥२॥८॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संपति = धन। महि = में। त्रिपति = अघाना, संतोष। आभरणी = आभूषण, गहने।2।
अर्थ: हे नानक! दुनिया के सुख, धन, माया के मीठे स्वाद- परमात्मा के दास इन पदार्थों को (अपने) मन में नहीं बसाते। परमात्मा के दर्शनों से वे संतोष हासिल करते हैं, परमात्मा के नाम का प्यार ही उन (के जीवन) का गहना है।2।8।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ ॥ हरि जन सिमरहु हिरदै राम ॥ हरि जन कउ अपदा निकटि न आवै पूरन दास के काम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ ॥ हरि जन सिमरहु हिरदै राम ॥ हरि जन कउ अपदा निकटि न आवै पूरन दास के काम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि जनो! हिरदै = हृदय में। अपदा = मुसीबत, विपक्ति। निकटि = नजदीक। पूरन = सफल।1। रहाउ।
अर्थ: हे परमात्मा के प्यारो! अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। कोई भी विपक्ति प्रभु के सेवकों के निकट नहीं आती, सेवकों के सारे काम सिरे चढ़ते रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि बिघन बिनसहि हरि सेवा निहचलु गोविद धाम ॥ भगवंत भगत कउ भउ किछु नाही आदरु देवत जाम ॥१॥

मूलम्

कोटि बिघन बिनसहि हरि सेवा निहचलु गोविद धाम ॥ भगवंत भगत कउ भउ किछु नाही आदरु देवत जाम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। बिघन = मुश्किलें, रुकावटें। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। धाम = घर, ठिकाना। कउ = को। जाम = यमराज।1।
अर्थ: हे संतजनो! परमात्मा की भक्ति (की इनायत) से (जिंदगी की राह में से) करोड़ों मुश्किलें नाश हो जाती हैं, और, परमात्मा का सदा अटल रहने वाला घर (भी मिल जाता है) भगवान के भक्तों को कोई भी डर सता नहीं सकता, यमराज भी उनका आदर करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तजि गोपाल आन जो करणी सोई सोई बिनसत खाम ॥ चरन कमल हिरदै गहु नानक सुख समूह बिसराम ॥२॥९॥१३॥

मूलम्

तजि गोपाल आन जो करणी सोई सोई बिनसत खाम ॥ चरन कमल हिरदै गहु नानक सुख समूह बिसराम ॥२॥९॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। आन = अन्य। खाम = कमी, कच्ची। गहु = पकड़ रख। सुख समूह = सारे ही सुख। बिसराम = ठिकाना।2।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा (का स्मरण) भुला के और जो भी काम किया जाता है वह नाशवान है और कच्चा (खामियों भरा) है (इस वास्ते, हे नानक!) परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रख, (ये हरि के चरण ही) सारे सुखों के घर हैं।2।9।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूलिओ मनु माइआ उरझाइओ ॥ जो जो करम कीओ लालच लगि तिह तिह आपु बंधाइओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भूलिओ मनु माइआ उरझाइओ ॥ जो जो करम कीओ लालच लगि तिह तिह आपु बंधाइओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूलिओ = (सही जीवन रास्ता) भूला हुआ। उरझाइओ = उलझा हुआ है। लालच = लालच में। लगि = लग के। आपु = अपने आप को। बंधाइओ = बंधा रहा है, फसा रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (सही जीवन-राह) भूला हुआ मन माया (के मोह में) फंसा रहता है। (फिर, ये) लालच में फंस के जो-जो काम करता है, उनसे अपने आप को (माया के मोह में और) फसा लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

समझ न परी बिखै रस रचिओ जसु हरि को बिसराइओ ॥ संगि सुआमी सो जानिओ नाहिन बनु खोजन कउ धाइओ ॥१॥

मूलम्

समझ न परी बिखै रस रचिओ जसु हरि को बिसराइओ ॥ संगि सुआमी सो जानिओ नाहिन बनु खोजन कउ धाइओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखै रस = विषियों के स्वादों में। जसु = महिमा। को = का। संगि = साथ। बनु = जंगल। धाइओ = दौड़ता है।1।
अर्थ: (हे भाई! सही जीवन से राह से टूटे हुए मनुष्य को) आत्मि्क जीवन की समझ नहीं होती। विषियों के स्वाद में मस्त रहता है, परमात्मा की महिमा भुलाए रहता है। परमात्मा (तो इसके) अंग-संग (बसता है) उसके साथ गहरी सांझ नहीं डालता, जंगल में ढूँढने के लिए दौड़ पड़ता है।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रतनु रामु घट ही के भीतरि ता को गिआनु न पाइओ ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु बिरथा जनमु गवाइओ ॥२॥१॥

मूलम्

रतनु रामु घट ही के भीतरि ता को गिआनु न पाइओ ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु बिरथा जनमु गवाइओ ॥२॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भीतरि = अंदर। ता को = उसका। गिआनु = समझ। बिरथा = व्यर्थ।2।
अर्थ: हे भाई! रत्न (जैसा कीमती) हरि-नाम हृदय के अंदर ही बसता है (पर भूला हुआ मनुष्य) उससे सांझ नहीं बनाता। हे दास नानक! (कह:) परमात्मा के भजन के बिना मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है।2।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ९ ॥ हरि जू राखि लेहु पति मेरी ॥ जम को त्रास भइओ उर अंतरि सरनि गही किरपा निधि तेरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ९ ॥ हरि जू राखि लेहु पति मेरी ॥ जम को त्रास भइओ उर अंतरि सरनि गही किरपा निधि तेरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जू = हे प्रभु जी! पति = इज्जत। जम को त्रास = मौत का डर। उर = उरस, हृदय। गही = पकड़ी। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! मेरी इज्जत रख लो। मेरे हृदय में मौत का डर बस रहा है (इससे बचने के लिए) हे कृपा के खजाने प्रभु! मैंने तेरा आसरा लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा पतित मुगध लोभी फुनि करत पाप अब हारा ॥ भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनु जारा ॥१॥

मूलम्

महा पतित मुगध लोभी फुनि करत पाप अब हारा ॥ भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनु जारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरा हुआ, पापी। मुगध = मूर्ख। फुनि = पुनः , दोबारा, फिर। हारा = थक गया। भै = डर। को = का। तिह = उसकी। जारा = जला दिया है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! मैं बड़ा विकारी हूँ, मूर्ख हूँ लालची भी हूँ, पाप करते-करते अब मैं थक गया हूँ। मुझे मरने का डर (किसी भी वक्त) भूलता नहीं, इस (मरने) की चिन्ता ने मेरा शरीर जला दिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीए उपाव मुकति के कारनि दह दिसि कउ उठि धाइआ ॥ घट ही भीतरि बसै निरंजनु ता को मरमु न पाइआ ॥२॥

मूलम्

कीए उपाव मुकति के कारनि दह दिसि कउ उठि धाइआ ॥ घट ही भीतरि बसै निरंजनु ता को मरमु न पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाव = कोशिशें। मुकति = (डर से) खलासी। के कारनि = के वास्ते। दह दिसि = दसों दिशाओं से। उठि = उठ के। निरंजनु = माया की कालिख से रहित। ता को = उसका। मरमु = भेद।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (मौत के इस सहम से) खलासी हासिल करने के लिए मैंने अनेक प्रयास किए हैं, दसों दिशाओं में उठ-उठ के दौड़ा हूँ। (माया के मोह से) निर्लिप परमात्मा हृदय में ही बसता है, उसका भेद नहीं समझा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहिन गुनु नाहिन कछु जपु तपु कउनु करमु अब कीजै ॥ नानक हारि परिओ सरनागति अभै दानु प्रभ दीजै ॥३॥२॥

मूलम्

नाहिन गुनु नाहिन कछु जपु तपु कउनु करमु अब कीजै ॥ नानक हारि परिओ सरनागति अभै दानु प्रभ दीजै ॥३॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अब = अब। कीजै = किया जाए। सरनागति = शरण आया हूँ। अभै दानु = मौत के डर से निर्भयता का दान। प्रभ = हे प्रभु! दीजै = दें।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: परमात्मा की शरण पड़े बिना) कोई गुण नहीं कोई जप-तप नहीं (जो मौत के सहम से बचा ले, फिर) अब कौन सा काम किया जाए? हे प्रभु! (और तरीकों से) हार के मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ। तू मुझे मौत के डर से खलासी का दान दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ९ ॥ मन रे साचा गहो बिचारा ॥ राम नाम बिनु मिथिआ मानो सगरो इहु संसारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जैतसरी महला ९ ॥ मन रे साचा गहो बिचारा ॥ राम नाम बिनु मिथिआ मानो सगरो इहु संसारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे = हे! साचा = अटल, सदा कायम रहने वाला। गहो = पकड़ो, हृदय में संभाल। मिथिआ = नाशवान। मानो = जानो। सगरो = सारा।1। राहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! ये अटल विचार (अपने अंदर) संभाल के रख- परमात्मा के अलावा बाकी इस सारे संसार को नाशवान समझ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ जोगी खोजत हारे पाइओ नाहि तिह पारा ॥ सो सुआमी तुम निकटि पछानो रूप रेख ते निआरा ॥१॥

मूलम्

जा कउ जोगी खोजत हारे पाइओ नाहि तिह पारा ॥ सो सुआमी तुम निकटि पछानो रूप रेख ते निआरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (प्रभु) को। तिह पारा = उस (के स्वरूप) का अंत। निकटि = नजदीक। रेख = चिन्ह। ते = से। निआरा = अलग।1।
अर्थ: हे मेरे मन! जोगी लोग जिस परमात्मा को ढूँढते-ढूँढते थक गए, और उसके स्वरूप का अंत नहीं पा सके, उस मालिक को तू अपने अंग-संग बसता जान, पर उसका कोई रूप उसका कोई चिन्ह बताया नहीं जा सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावन नामु जगत मै हरि को कबहू नाहि स्मभारा ॥ नानक सरनि परिओ जग बंदन राखहु बिरदु तुहारा ॥२॥३॥

मूलम्

पावन नामु जगत मै हरि को कबहू नाहि स्मभारा ॥ नानक सरनि परिओ जग बंदन राखहु बिरदु तुहारा ॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पावन = पवित्र करने वाला। महि = में। को = का। कब हू = कभी भी। संभारा = (दिल में) संभाला। जग बंदन = हे जग बंदन! जगत के वंदनीय! बिरदु = मुढ कदीमों का प्यार वाला स्वभाव। तुहारा = तेरा।2।
अर्थ: हे मेरे मन! जगत में परमात्मा का नाम (ही) पवित्र करने वाला है, तूने उस नाम को (अपने अंदर) कभी संभाल के नहीं रखा। हे नानक! (कह:) हे सारे जगत के वंदनीय प्रभु! मैं तेरी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा कर। ये तेरा मूल कुदरती स्वभाव (बिरद) है (कि तू शरण आए की रक्षा करता है)।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरसन पिआसी दिनसु राति चितवउ अनदिनु नीत ॥ खोल्हि कपट गुरि मेलीआ नानक हरि संगि मीत ॥१॥

मूलम्

दरसन पिआसी दिनसु राति चितवउ अनदिनु नीत ॥ खोल्हि कपट गुरि मेलीआ नानक हरि संगि मीत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिआसी = प्यासी, चाहवान। चितवउ = मैं याद करती हूँ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नीत = नित्य, सदा। खोल्हि = खोल के। कपट = कपाट, किवाड़। खोल्हि कपट = मेरे मन के किवाड़ खोल के, मेरे माया के जाल काट के। गुरि = गुरु ने। मेलीआ = मिला दिया। संगि = साथ।1।
अर्थ: मुझे मित्र प्रभु के दर्शनों की चाहत लगी हुई है, मैं दिन-रात हर वक्त सदा ही (उसके दर्शन ही) चितारती रहती हूँ। हे नानक! (कह:) गुरु ने (मेरे) माया के जाल को काट के मुझे मित्र हरि से मिला दिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंत ॥ सुणि यार हमारे सजण इक करउ बेनंतीआ ॥ तिसु मोहन लाल पिआरे हउ फिरउ खोजंतीआ ॥ तिसु दसि पिआरे सिरु धरी उतारे इक भोरी दरसनु दीजै ॥ नैन हमारे प्रिअ रंग रंगारे इकु तिलु भी ना धीरीजै ॥ प्रभ सिउ मनु लीना जिउ जल मीना चात्रिक जिवै तिसंतीआ ॥ जन नानक गुरु पूरा पाइआ सगली तिखा बुझंतीआ ॥१॥

मूलम्

छंत ॥ सुणि यार हमारे सजण इक करउ बेनंतीआ ॥ तिसु मोहन लाल पिआरे हउ फिरउ खोजंतीआ ॥ तिसु दसि पिआरे सिरु धरी उतारे इक भोरी दरसनु दीजै ॥ नैन हमारे प्रिअ रंग रंगारे इकु तिलु भी ना धीरीजै ॥ प्रभ सिउ मनु लीना जिउ जल मीना चात्रिक जिवै तिसंतीआ ॥ जन नानक गुरु पूरा पाइआ सगली तिखा बुझंतीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत। यार = हे यार! सजण = हे सज्जन! करउ = मैं करती हूँ। हउ फिरउ = मैं फिरती हूँ। तिसु दसि = उसके बारे में बता। धरी = मैं धारण करूँ। उतारे = उतार के। इक भोरी = रक्ती भर ही। दीजै = दे। नैन = आँखें। प्रिअ रंग = प्यारे के प्रेम-रंग में। ना धीरीजै = धैर्य नहीं धरता। सिउ = साथ। लीना = मस्त। जल मीना = पानी की मछली। चात्रिक = पपीहा। तिसंतीआ = प्यासा। तिखा = प्यास।1।
अर्थ: छंत। हे मेरे सत्संगी मित्र! हे मेरे सज्जन! मैं (तेरे आगे) एक आरजू करती हूँ! मैं उस मन को मोह लेने वाले प्यारे लाल को तलाशती फिरती हूँ। (हे मित्र!) मुझे उस प्यारे के बारे में बता, मैं (उसके आगे अपना) सर उतार के रख दूंगी (और कहूँगी - हे प्यारे!) पल भर के लिए हमें भी दर्शन दे (हे गुरु!) मेरी आँखें प्यारे के प्रेम रंग में रंगी गई हैं (उसके दर्शनों के बिना) मुझे रक्ती भर समय के लिए भी चैन नहीं आता। मेरा मन प्रभु के साथ मस्त है जैसे पानी की मछली (पानी में मस्त रहती है), वैसे ही पपीहें को (बरखा की बूँद की) प्यास लगी रहती है।
हे दास नानक! (कह: जिस भाग्यशाली को) पूरा गुरु मिल जाता है (उसके दर्शनों की) सारी प्यास बुझ जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यार वे प्रिअ हभे सखीआ मू कही न जेहीआ ॥ यार वे हिक डूं हिकि चाड़ै हउ किसु चितेहीआ ॥ हिक दूं हिकि चाड़े अनिक पिआरे नित करदे भोग बिलासा ॥ तिना देखि मनि चाउ उठंदा हउ कदि पाई गुणतासा ॥ जिनी मैडा लालु रीझाइआ हउ तिसु आगै मनु डेंहीआ ॥ नानकु कहै सुणि बिनउ सुहागणि मू दसि डिखा पिरु केहीआ ॥२॥

मूलम्

यार वे प्रिअ हभे सखीआ मू कही न जेहीआ ॥ यार वे हिक डूं हिकि चाड़ै हउ किसु चितेहीआ ॥ हिक दूं हिकि चाड़े अनिक पिआरे नित करदे भोग बिलासा ॥ तिना देखि मनि चाउ उठंदा हउ कदि पाई गुणतासा ॥ जिनी मैडा लालु रीझाइआ हउ तिसु आगै मनु डेंहीआ ॥ नानकु कहै सुणि बिनउ सुहागणि मू दसि डिखा पिरु केहीआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रिअ = प्यारे की। हभे = सारी। मू = मैं। कही न जेहीआ = किसी जैसी भी नहीं। डूं = से। हिकि = एक। चाढ़ै = चढ़ते हुए, बढ़िया, सुंदर। हउ = मैं। किसु चितेहीआ = किसे याद हूँ? डूं = से। भोग बिलासा = मिलाप का आनंद। देखि = देख के। मनि = मन में। कदि = कब? पाई = पा सकूँ, मैं मिल सकूँ। देखि = देख के गुणों का खजाना हरि। मैडा = मेरा। रीझाइआ = प्रसन्न कर लिया। जिनी = जिस ने। डेंहीआ = दे दूँ। नानकु कहै = नानक कहता है। बिनउ = विनय, विनती। सुहागणि = हे सोहाग वाली! मू = मुझे। डिखा = देखूँ।2।
अर्थ: हे सत्संगी सज्जन! सारी सहेलियां प्यारे प्रभु की (स्त्रीयां) हैं, मैं (इन में से) किसी जैसी भी नहीं। ये एक से एक सुंदर (सुंदर आत्मिक जीवन वाली) हैं। मैं किस गिनती में हूँ? प्रभु से अनेक ही प्यार करने वाले हैं, एक-दूसरे से बढ़िया जीवन वाले हैं, सदा प्रभु से आत्मिक मिलाप का आनंद लेते हैं। इनको देख के मेरे मन में भी चाव पैदा होता है कि मैं भी कभी उस गुणों के खजाने प्रभु को मिल सकूँ। (हे गुरु!) जिसने (ही) मेरे प्यारे हरि को प्रसन्न कर लिया है, मैं उसके आगे अपना मन भेटा करने को तैयार हूँ।
नानक कहता है: हे सोहागवंती! मेरी विनती सुन! मुझे बता, मैं देखूँ, प्रभु-पति कैसा है।2।

[[0704]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

यार वे पिरु आपण भाणा किछु नीसी छंदा ॥ यार वे तै राविआ लालनु मू दसि दसंदा ॥ लालनु तै पाइआ आपु गवाइआ जै धन भाग मथाणे ॥ बांह पकड़ि ठाकुरि हउ घिधी गुण अवगण न पछाणे ॥ गुण हारु तै पाइआ रंगु लालु बणाइआ तिसु हभो किछु सुहंदा ॥ जन नानक धंनि सुहागणि साई जिसु संगि भतारु वसंदा ॥३॥

मूलम्

यार वे पिरु आपण भाणा किछु नीसी छंदा ॥ यार वे तै राविआ लालनु मू दसि दसंदा ॥ लालनु तै पाइआ आपु गवाइआ जै धन भाग मथाणे ॥ बांह पकड़ि ठाकुरि हउ घिधी गुण अवगण न पछाणे ॥ गुण हारु तै पाइआ रंगु लालु बणाइआ तिसु हभो किछु सुहंदा ॥ जन नानक धंनि सुहागणि साई जिसु संगि भतारु वसंदा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: यार वे = हे सत्सयंगी मित्र! भाणा = भा गया। नीसी = नहीं। छंदा = अधीनता। तै = तू। राविआ = मिलाप हासिल कर लिया। मू = मुझे। दसंदा = पूछता हूँ। आपु = स्वै भाव। जै धन मथाणे = जिस (जीव-) स्त्री के माथे पर। पकड़ि = पकड़ के। ठाकुरि = ठाकुर ने। घिधी = ले ली, अपनी बना ली। गुण हारु = गुणों का हार। हभो किछु = सब कुछ, सारा जीवन। तिसु = उसे (मिल के)। साई = वही। संगि = साथ।3।
अर्थ: हे सत्संगी सज्जन! (जिस जीव-स्त्री को) अपना प्रभु-पति प्यारा लगने लग जाता है (उसे किसी की) कोई अधीनता नहीं रह जाती। हे सत्संगी सज्जन! तूने सोहाने प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया है, मैं पूछता हूँ, मुझे भी उसके बारे में बता। तूने सोहणे लाल को ढूँढ लिया है, और (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लिया है। जिस जीव-स्त्री के माथे के भाग्य जागते हैं (उसे मिलाप होता है)। (हे सखी!) मालिक प्रभु ने (मेरी भी) बाँह पकड़ के मुझे अपनी बना लिया है, मेरा कोई गुण-अवगुण उसने नहीं परखा। हे दास नानक! (कह:) वह जीव-स्त्री भाग्यशाली है, जिसके साथ (जिसके हृदय में) पति-प्रभु बसता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यार वे नित सुख सुखेदी सा मै पाई ॥ वरु लोड़ीदा आइआ वजी वाधाई ॥ महा मंगलु रहसु थीआ पिरु दइआलु सद नव रंगीआ ॥ वड भागि पाइआ गुरि मिलाइआ साध कै सतसंगीआ ॥ आसा मनसा सगल पूरी प्रिअ अंकि अंकु मिलाई ॥ बिनवंति नानकु सुख सुखेदी सा मै गुर मिलि पाई ॥४॥१॥

मूलम्

यार वे नित सुख सुखेदी सा मै पाई ॥ वरु लोड़ीदा आइआ वजी वाधाई ॥ महा मंगलु रहसु थीआ पिरु दइआलु सद नव रंगीआ ॥ वड भागि पाइआ गुरि मिलाइआ साध कै सतसंगीआ ॥ आसा मनसा सगल पूरी प्रिअ अंकि अंकु मिलाई ॥ बिनवंति नानकु सुख सुखेदी सा मै गुर मिलि पाई ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख = सुख की आस सुखणा। सुखेदी = मैं सुख की मनोकामना सुखती हूँ, निश्चय करती हूँ, संकल्प लेती हूँ (सुख की मन्नत माननी)। सा = वह (सुखना)। लोड़ींदा = जो मुझे जरूरत थी। वधाई = उत्साह। रहसु = आनंद। सद = सदा। नव रंगीआ = नए रंग वाला। भागि = किस्मत से। गुरि = गुरु ने। कै सत्संगीआ = की संगति में। मनसा = मुराद। अंकि = अंक में। अंकु = अंग, स्वै। मिलि = मिल के। गुर मिलि = गुरु को मिल के।4।
अर्थ: हे सत्संगी सज्जन! जो सुख की मन्नतें सदा मैं मनाती रहती थी, वह (सुखना, मुराद) मेरी पूरी हो गई है। जिस प्रभु-पति को मैं (चिरों से) ढूँढती आ रही थी वह (मेरे हृदय में) आ बसा है, अब मेरे अंदर आत्मिक उत्साह के बाजे बज रहे हैं। सदा नए प्रेम-रंग वाला और दया का स्रोत प्रभु-पति (मेरे अंदर आ बसा है, अब मेरे अंदर) बड़ा आनंद और उत्साह बन रहा है। हे सत्संगी सज्जन! बड़ी किस्मत से वह प्रभु-पति मुझे मिला है, गुरु ने मुझे साधु-संगत में (उससे) मिला दिया है। (गुरु ने) मेरा स्वै प्यारे के अंक में मिला दिया है, मेरी हरेक आस-मुराद पूरी हो गई है।
नानक विनती करता है: जो सुखना (सुख की मन्नत) मैं सुखती रहती थी, गुरु को मिल के वह (मुराद) मैंने हासिल कर ली है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ घरु २ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ घरु २ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ ऊचा अगम अपार प्रभु कथनु न जाइ अकथु ॥ नानक प्रभ सरणागती राखन कउ समरथु ॥१॥

मूलम्

सलोकु ॥ ऊचा अगम अपार प्रभु कथनु न जाइ अकथु ॥ नानक प्रभ सरणागती राखन कउ समरथु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। कथनु न जाइ = बयान नहीं हो सकता। अकथु = बयान से परे। प्रभ = हे प्रभु! राखन कउ = रक्षा करने के लिए। समरथु = ताकत वाला।1।
अर्थ: सलोकु। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, तू (शरण आए की) रक्षा करने की ताकत रखता है। हे सबसे ऊँचे! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! तू सबका मालिक है, तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, बयान से परे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंतु ॥ जिउ जानहु तिउ राखु हरि प्रभ तेरिआ ॥ केते गनउ असंख अवगण मेरिआ ॥ असंख अवगण खते फेरे नितप्रति सद भूलीऐ ॥ मोह मगन बिकराल माइआ तउ प्रसादी घूलीऐ ॥ लूक करत बिकार बिखड़े प्रभ नेर हू ते नेरिआ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु काढि भवजल फेरिआ ॥१॥

मूलम्

छंतु ॥ जिउ जानहु तिउ राखु हरि प्रभ तेरिआ ॥ केते गनउ असंख अवगण मेरिआ ॥ असंख अवगण खते फेरे नितप्रति सद भूलीऐ ॥ मोह मगन बिकराल माइआ तउ प्रसादी घूलीऐ ॥ लूक करत बिकार बिखड़े प्रभ नेर हू ते नेरिआ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु काढि भवजल फेरिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! गनउ = मैं गिनूँ। असंख = अनगिनत। खते = पाप। फेरे = चक्कर। नि प्रति = सदा ही। सद = सदा। बिकराल = भयानक। तउ प्रसादी = तेरी कृपा से। घूलीऐ = बच सकते हैं। लूक करत = छुपते हुए। बिखड़े = मुश्किल। नेर हू ते नेरिआ = नजदीक से नजदीक। भवजल = संसार समुंदर। फेरिआ = चक्करों में से।1।
अर्थ: छंतु। हे हरि! हे प्रभु! मैं तेरा हूँ, जैसे ठीक समझो वैसे (माया के मोह से) मेरी रक्षा कर। मैं (अपने) कितने अवगुण गिनूँ? मेरे अंदर अनगिनत अवगुण हैं। हे प्रभु! मेरे अनगिनत ही अवगुण हैं, पापों के चक्करों में फंसा रहता हूँ, नित्य ही हमेशा ही गलतियां करता रहता हँ (मात खा जाता हूँ)। (वैसे तो मनुष्य) भयानक माया के मोह में मस्त रहता है, तेरी कृपा से ही बचा जा सकता है। हम जीव दुखदाई विकार (अपनी ओर से) पर्दे में रह कर करते हैं, पर, हे प्रभु! तू हमारे नजदीक से नजदीक (हमारे साथ ही) बसता है। नानक विनती करता है हे प्रभु! हम पर मेहर कर, हम जीवों को संसार-समुंदर के (विकारों के) चक्करों में से निकाल ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ निरति न पवै असंख गुण ऊचा प्रभ का नाउ ॥ नानक की बेनंतीआ मिलै निथावे थाउ ॥२॥

मूलम्

सलोकु ॥ निरति न पवै असंख गुण ऊचा प्रभ का नाउ ॥ नानक की बेनंतीआ मिलै निथावे थाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरति = निर्णय, परख। असंख = अनगिनत। निथावै = निआसरे को।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के अनगिनत गुणों का निर्णय नहीं हो सकता, उसका बड़प्पन सबसे ऊँचा है। नानक की (उसके दर पर ही) अरदास है कि (मुझ) निआसरे को (उसके चरणों में) जगह मिल जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंतु ॥ दूसर नाही ठाउ का पहि जाईऐ ॥ आठ पहर कर जोड़ि सो प्रभु धिआईऐ ॥ धिआइ सो प्रभु सदा अपुना मनहि चिंदिआ पाईऐ ॥ तजि मान मोहु विकारु दूजा एक सिउ लिव लाईऐ ॥ अरपि मनु तनु प्रभू आगै आपु सगल मिटाईऐ ॥ बिनवंति नानकु धारि किरपा साचि नामि समाईऐ ॥२॥

मूलम्

छंतु ॥ दूसर नाही ठाउ का पहि जाईऐ ॥ आठ पहर कर जोड़ि सो प्रभु धिआईऐ ॥ धिआइ सो प्रभु सदा अपुना मनहि चिंदिआ पाईऐ ॥ तजि मान मोहु विकारु दूजा एक सिउ लिव लाईऐ ॥ अरपि मनु तनु प्रभू आगै आपु सगल मिटाईऐ ॥ बिनवंति नानकु धारि किरपा साचि नामि समाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

छंतु। ठाउ = जगह, आसरा। का पहि = किस के पास? कर = (बहुवचन) दोनों हाथ। जोड़ि = जोड़ कर। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। धिआइ = स्मरण करके। मनहि = मन में ही। चिंदिआ = चितवा हुआ। तजि = छोड़ के। विकारु दूजा = कोई अन्य आसरा तलाशने की गुस्ताखी। सिउ = साथ। अरपि = भेटा कर के। आपु = स्वै भाव। साचि = सदा स्थिर रहने वाले में। साचि नामि = सदा स्थिर रहने वाले हरि नाम में। समाईऐ = लीन रहना चाहिए।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मनहि’ में से ‘मनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: छंतु। हे भाई! हम जीवों के लिए परमात्मा के बिना और कोई जगह नहीं है, (परमात्मा का दर छोड़ के) हम और किस के पास जा सकते हैं? दोनों हाथ जोड़ के आठों पहर (हर वक्त) प्रभु का ध्यान धरना चाहिए। हे भाई! अपने उस प्रभु का ध्यान धर के (उसके दर से) मन मांगी मुरादें हासिल कर ली जाती हैं। (अपने अंदर से) अहंकार, मोह, और कई अन्य आसरे तलाशने की बुराई त्याग के एक परमात्मा के चरणों से ही तवज्जो जोड़नी चाहिए। हे भाई! प्रभु की हजूरी में अपना मन अपना शरीर भेटा करके (अपने अंदर से) सारा स्वै भाव मिटा देना चाहिए। नानक (तो प्रभु के दर पर ही) बिनती करता है (और कहता है: हे प्रभु!) मेहर कर (तेरी मेहर से ही तेरे) सदा-स्थिर रहने वाले नाम में लीन हुआ जा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ रे मन ता कउ धिआईऐ सभ बिधि जा कै हाथि ॥ राम नाम धनु संचीऐ नानक निबहै साथि ॥३॥

मूलम्

सलोकु ॥ रे मन ता कउ धिआईऐ सभ बिधि जा कै हाथि ॥ राम नाम धनु संचीऐ नानक निबहै साथि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता कउ = उस (प्रभु के नाम) को। सभ बिधि = हरेक किस्म की जुगति। हाथि = हाथ में। जा कै हाथि = जिसके हाथ में। संचीऐ = इकट्ठा करना चाहिए। निबहै = साथ करता है। साथि = साथ।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जिस परमात्मा के हाथ में (हमारी) हरेक (जीवन-) जुगति है, उसका नाम स्मरणा चाहिए। हे नानक! परमात्मा का नाम-धन एकत्र करना चाहिए, (यही धन) हमारे साथ साथ निभाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंतु ॥ साथीअड़ा प्रभु एकु दूसर नाहि कोइ ॥ थान थनंतरि आपि जलि थलि पूर सोइ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि रहिआ सरब दाता प्रभु धनी ॥ गोपाल गोबिंद अंतु नाही बेअंत गुण ता के किआ गनी ॥ भजु सरणि सुआमी सुखह गामी तिसु बिना अन नाहि कोइ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु तिसु परापति नामु होइ ॥३॥

मूलम्

छंतु ॥ साथीअड़ा प्रभु एकु दूसर नाहि कोइ ॥ थान थनंतरि आपि जलि थलि पूर सोइ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि रहिआ सरब दाता प्रभु धनी ॥ गोपाल गोबिंद अंतु नाही बेअंत गुण ता के किआ गनी ॥ भजु सरणि सुआमी सुखह गामी तिसु बिना अन नाहि कोइ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु तिसु परापति नामु होइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

छंतु। साथीअड़ा = प्यारा साथी। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। जलि = जल में। थलि = थल में। पूर = व्यापक। सोइ = वह ही। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। धनी = मालिक। ता के = उसके। किआ गनी = मैं क्या गिन सकता हूँ? भजु = जा, भाग। सुखहगामी = सुख पहुँचाने वाला। अन = अन्य। धारहु = करते हो।3।
अर्थ: छंतु। हे भाई! सिर्फ परमात्मा ही (सदा साथ निभने वाला) साथी है, उसके बिना और कोई (साथी) नहीं। वही परमात्मा पानी में, धरती पर, आकाश में बस रहा है। हे भाई! वह मालिक प्रभु पानी में, धरती पर, आकाश में व्याप रहा है, सब जीवों को दातें देने वाला है। उस गोपाल गोबिंद (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, उसके गुण बेअंत हैं, मैं उसके क्या गुण गिन सकता हूँ? हे भाई! उस मालिक की शरण पड़ा रह, वह ही सारे सुख पहुँचाने वाला है। उसके बिना (हम जीवों का) और कोई (सहारा) नहीं है। नानक विनती करता है: हे प्रभु! जिस के ऊपर तू मेहर करता है, उसको तेरा नाम हासिल हो जाता है।3।

[[0705]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ चिति जि चितविआ सो मै पाइआ ॥ नानक नामु धिआइ सुख सबाइआ ॥४॥

मूलम्

सलोकु ॥ चिति जि चितविआ सो मै पाइआ ॥ नानक नामु धिआइ सुख सबाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। जि = जो कुछ। चितविआ = सोचा, मांगा, धार लिया। सबाइआ = सारे।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, (उसके दर से) सारे सुख (मिल जाते हैं), मैंने तो जो भी मांग अपनी चिक्त में (उससे) मांगी है, वह मुझे (सदा) मिल गई है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंतु ॥ अब मनु छूटि गइआ साधू संगि मिले ॥ गुरमुखि नामु लइआ जोती जोति रले ॥ हरि नामु सिमरत मिटे किलबिख बुझी तपति अघानिआ ॥ गहि भुजा लीने दइआ कीने आपने करि मानिआ ॥ लै अंकि लाए हरि मिलाए जनम मरणा दुख जले ॥ बिनवंति नानक दइआ धारी मेलि लीने इक पले ॥४॥२॥

मूलम्

छंतु ॥ अब मनु छूटि गइआ साधू संगि मिले ॥ गुरमुखि नामु लइआ जोती जोति रले ॥ हरि नामु सिमरत मिटे किलबिख बुझी तपति अघानिआ ॥ गहि भुजा लीने दइआ कीने आपने करि मानिआ ॥ लै अंकि लाए हरि मिलाए जनम मरणा दुख जले ॥ बिनवंति नानक दइआ धारी मेलि लीने इक पले ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

छंतु। अब = अब। छूटि गइआ = (माया के मोह से) आजाद हो गया। साधू = गुरु। संगि = संगति में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जोती = प्रभु की ज्योति में। जोति = तवज्जो, जिंद। किलबिख = पाप। तपति = विकारों की जलन। अघानिआ = तृप्त हो गए। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। करि = बना के। मानिआ = आदर दिया। अंकि = अंक में, गोद में, चरणों में। जले = जल जाते हैं। धारी = की। इक पले = एक पल में।2।
अर्थ: छंतु। हे भाई! गुरु की संगति में मिल के अब (मेरा) मन (माया के मोह से) स्वतंत्र हासे गया है। (जिन्होंने भी) गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उनकी जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन रहती है। हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से सारे पाप मिट जाते हैं, (विकारों की) जलन समाप्त हो जाती है, (मन माया की ओर से) तृप्त हो जाता है। जिस पर प्रभु दया करता है, जिनकी बाँह पकड़ के अपना बना लेता है, आदर देता है, जिनको अपने चरणों में जोड़ लेता है अपने साथ मिला लेता ळै, उनके जनम-मरन के सारे दुख जल (के राख हो) जाते हैं, उनको एक पल में अपने साथ मिला लेता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी छंत मः ५ ॥ पाधाणू संसारु गारबि अटिआ ॥ करते पाप अनेक माइआ रंग रटिआ ॥ लोभि मोहि अभिमानि बूडे मरणु चीति न आवए ॥ पुत्र मित्र बिउहार बनिता एह करत बिहावए ॥ पुजि दिवस आए लिखे माए दुखु धरम दूतह डिठिआ ॥ किरत करम न मिटै नानक हरि नाम धनु नही खटिआ ॥१॥

मूलम्

जैतसरी छंत मः ५ ॥ पाधाणू संसारु गारबि अटिआ ॥ करते पाप अनेक माइआ रंग रटिआ ॥ लोभि मोहि अभिमानि बूडे मरणु चीति न आवए ॥ पुत्र मित्र बिउहार बनिता एह करत बिहावए ॥ पुजि दिवस आए लिखे माए दुखु धरम दूतह डिठिआ ॥ किरत करम न मिटै नानक हरि नाम धनु नही खटिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाधाणू = पांधी, मुसाफिर, राही। गारबि = अहंकार से। अटिआ = लिबड़ा हुआ। रंग रटिआ = रंग में रंगे हुए। लोभि = लोभ में। बूडे = डूबे हुए। मरणु = मौत। चीति = चिक्त में। आवए = आए, आता। बनिता = स्त्री। बिउहार = वर्तण-व्यवहार, मेल जोल। करत = करते हुए। पुजि आए = समाप्त हो गए। दिवस = जिंदगी के दिन। माए = हे माँ! किरत = किए हुए।1।
अर्थ: हे भाई! जगत मुसाफिर है (फिर भी) अहंकार में लिबड़ा रहता है। माया के कौतकों में मस्त जीव अनेक पाप करते रहते हैं। (जीव) लोभ में, (माया के) मोह में, अहंकार में डूबे रहते हैं (इनको) मौत याद नहीं आती। पुत्र, मित्र, स्त्री (आदि) के मेल-मिलाप- यही करते हुए उम्र गुजर जाती है। हे माँ! (धुर से) लिखे हुए (उम्र के) दिन जब खत्म हो जाते हैं, तो धर्मराज के दूतों को देख कर बड़ी तकलीफ़ होती है। हे नानक! (मनुष्य यहाँ) परमात्मा का नाम-धन नहीं कमाता, (अन्य) किए कर्मों (का लेखा) नहीं मिटता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदम करहि अनेक हरि नामु न गावही ॥ भरमहि जोनि असंख मरि जनमहि आवही ॥ पसू पंखी सैल तरवर गणत कछू न आवए ॥ बीजु बोवसि भोग भोगहि कीआ अपणा पावए ॥ रतन जनमु हारंत जूऐ प्रभू आपि न भावही ॥ बिनवंति नानक भरमहि भ्रमाए खिनु एकु टिकणु न पावही ॥२॥

मूलम्

उदम करहि अनेक हरि नामु न गावही ॥ भरमहि जोनि असंख मरि जनमहि आवही ॥ पसू पंखी सैल तरवर गणत कछू न आवए ॥ बीजु बोवसि भोग भोगहि कीआ अपणा पावए ॥ रतन जनमु हारंत जूऐ प्रभू आपि न भावही ॥ बिनवंति नानक भरमहि भ्रमाए खिनु एकु टिकणु न पावही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहि = करते हैं। गावही = गाते हैं। भरमहि = भटकते हैं। असंख = अनगिनत। मरि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। जनमहि = पैदा होते हैं। आवही = (जूनों में) आते हैं। सैल = पत्थर। तरवर = वृक्ष। न आवए = न आए, नही आती। बोवसि = (तू) बीजेगा। भोगहि = (तू) भोगेगा। पावए = पाता है। हारंत = हारने वाले। जूऐ = जूए में। भावही = अच्छे लगते हैं। भरमहि = भटकते हैं। भरमाए = गलत राह पर पड़े हुए। न पावही = नहीं पाते।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य और बहुत सारे अनेक उद्यम करते हैं, पर परमात्मा का नाम नहीं जपते, वे अनगिनत जूनियों में भटकते फिरते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ के (बार-बार) पैदा होते हैं (बार-बार जगत में) आते हैं। (वह मनुष्य) पशु-पक्षी, पत्थर, वृक्ष (आदि अनेक जूनियों में पड़ते हैं, जिस की) कोई गिनती नहीं हो सकती। (हे भाई! चेते रख, जैसा) तू बीज बीजेगा (वैसा ही) फल खाएगा। (हरेक मनुष्य) अपना किया पाता है। जो मनुष्य इस कीमती मानव जन्म को जूए में हार रहे हैं, वे परमात्मा को भी अच्छे नहीं लगते। नानक विनती करता है ऐसे मनुष्य (माया के हाथों) गलत रास्ते पर पड़े हुए (जूनों में) भटकते फिरते हैं, (जूनों के चक्करों में से) एक छिन भर भी टिक नहीं सकते।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोबनु गइआ बितीति जरु मलि बैठीआ ॥ कर क्मपहि सिरु डोल नैण न डीठिआ ॥ नह नैण दीसै बिनु भजन ईसै छोडि माइआ चालिआ ॥ कहिआ न मानहि सिरि खाकु छानहि जिन संगि मनु तनु जालिआ ॥ स्रीराम रंग अपार पूरन नह निमख मन महि वूठिआ ॥ बिनवंति नानक कोटि कागर बिनस बार न झूठिआ ॥३॥

मूलम्

जोबनु गइआ बितीति जरु मलि बैठीआ ॥ कर क्मपहि सिरु डोल नैण न डीठिआ ॥ नह नैण दीसै बिनु भजन ईसै छोडि माइआ चालिआ ॥ कहिआ न मानहि सिरि खाकु छानहि जिन संगि मनु तनु जालिआ ॥ स्रीराम रंग अपार पूरन नह निमख मन महि वूठिआ ॥ बिनवंति नानक कोटि कागर बिनस बार न झूठिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोबनु = जवानी। कर = (बहुवचन) दोनों हाथ। कंपहि = काँपते हैं। डोल = झोला। दीसै = दिखता। ईस = ईश्वर। न मानहि = नहीं मानते। सिरि = सिर पर। संगि = साथ। जालिआ = जला दिया। रंग = प्यार। वूठिआ = बसा। कोटि = करोड़ों (कोटि = करोड़। कोटु = किला। कोट = किले)। बार = देर। झूठिआ = नाशवान। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय।3।
अर्थ: हे भाई! आखिर जवानी बीत जाती है, (उसकी जगह) बुढ़ापा आ जाता है। हाथ काँपने लग जाते हैं, सिर कंपन करने लगता है, आँखों से कुछ दिखता नहीं। आँखों से कुछ नहीं दिखता, (जिस माया की खातिर) परमात्मा के भजन से वंचित रहा, (आखिर उस) माया को (भी) छोड़ के चल पड़ता है। जिस (पुत्र आदि संबन्धियों के) साथ (अपना) मन (अपना) शरीर (तृष्णा की आग में) जलता रहा; (बुढ़ापे के वक्त वह भी) कहा नहीं मानते, सिर पर राख ही डालते हैं (बात-बात पर टके सा कोरा जवाब ही देते हैं)। (माया के मोह में फंसे रहने के कारण) बेअंत, सर्व-व्यापक परमात्मा के प्रेम की बातें एक छिन के वास्ते भी मन में ना बसीं। नानक विनती करता है: ये नाशवान (शरीर के) नाश होने में समय नहीं लगता जैसे करोड़ों (मन) काग़ज (पल में जल के राख हो जाते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल सरणाइ नानकु आइआ ॥ दुतरु भै संसारु प्रभि आपि तराइआ ॥ मिलि साधसंगे भजे स्रीधर करि अंगु प्रभ जी तारिआ ॥ हरि मानि लीए नाम दीए अवरु कछु न बीचारिआ ॥ गुण निधान अपार ठाकुर मनि लोड़ीदा पाइआ ॥ बिनवंति नानकु सदा त्रिपते हरि नामु भोजनु खाइआ ॥४॥२॥३॥

मूलम्

चरन कमल सरणाइ नानकु आइआ ॥ दुतरु भै संसारु प्रभि आपि तराइआ ॥ मिलि साधसंगे भजे स्रीधर करि अंगु प्रभ जी तारिआ ॥ हरि मानि लीए नाम दीए अवरु कछु न बीचारिआ ॥ गुण निधान अपार ठाकुर मनि लोड़ीदा पाइआ ॥ बिनवंति नानकु सदा त्रिपते हरि नामु भोजनु खाइआ ॥४॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर कोमल चरण। दुतरु = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है। भै = डर। प्रभि = प्रभु ने। मिलि = मिल के। संगे = संगि, संगति मे। स्रीधर = लक्ष्मी का पति, परमात्मा। करि = कर के। अंगु = पक्ष। मानि लीए = आदर दिया। अवरु कछु = कुछ और। निधान = खजाना। मनि = मन में। लोड़ीदा = जिसको मिलने की चाहत रखी हुई थी। त्रिपते = अघाए रहते हैं।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! नानक (तो प्रभु के) कोमल चरणों की शरण आ पड़ा है। ये संसार (समुंदर) अनेक डरों से भरपूर है, इससे पार लांघना मुश्किल है, (जो भी मनुष्य प्रभु की शरण आ पड़े उन्हें सदा ही) प्रभु ने खुद (इस संसार-समुंदर से) पार लंघा लिया। प्रभु ने सदा उनको आदर-मान दिया, अपने नाम की दाति दी उनके किसी और गुण-अवगुण की विचार ना की।
नानक विनती करता है: जिस मनुष्यों ने (आत्मिक जीवन जिंदा रखने के लिए) परमात्मा के नाम का भोजन खाया, वे (माया की तृष्णा से) सदा के लिए तृप्त हो गए उन्होंने उस गुणों के खजाने बेअंत मालिक प्रभु को अपने मन में पा लिया, जिसको मिलने की उन्होंने तमन्ना रखी हुई थी।4।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी महला ५ वार सलोका नालि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी महला ५ वार सलोका नालि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ आदि पूरन मधि पूरन अंति पूरन परमेसुरह ॥ सिमरंति संत सरबत्र रमणं नानक अघनासन जगदीसुरह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ आदि पूरन मधि पूरन अंति पूरन परमेसुरह ॥ सिमरंति संत सरबत्र रमणं नानक अघनासन जगदीसुरह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: संत जन उस सर्व-व्यापक परमेश्वर को स्मरण करते हैं जो जगत के शुरू से हर जगह मौजूद है, अब भी सर्व व्यापक है और आखिर में भी हर जगह हाजर-नाजर रहेगा। हे नानक! वह जगत का मालिक प्रभु सब पापों को नाश करने वाला है।1।

[[0706]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखन सुनन सुनावनो मन महि द्रिड़ीऐ साचु ॥ पूरि रहिओ सरबत्र मै नानक हरि रंगि राचु ॥२॥

मूलम्

पेखन सुनन सुनावनो मन महि द्रिड़ीऐ साचु ॥ पूरि रहिओ सरबत्र मै नानक हरि रंगि राचु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = जगत के आरम्भ से। पूरन = हर जगह मौजूद। मधि = बीच के समय। अंति = जगत के समाप्त हो जाने पर। सरबत्र रमणं = हर जगह व्यापक प्रभु को। पूरि रहिओ = मौजूद है। सरबत्र मै = हर जगह व्यापक। हरि रंगि = हरि के प्यार में। राचु = लीन हो जा।2।
अर्थ: उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को मन में अच्छी तरह धारण करना चाहिए जो (हर जगह) खुद ही देखने वाला है, खुद ही सुनने वाला है और खुद ही सुनाने वाला है। हे नानक! उस हरि की प्यारी याद में लीन हो जा जो सब जगह मौजूद है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि एकु निरंजनु गाईऐ सभ अंतरि सोई ॥ करण कारण समरथ प्रभु जो करे सु होई ॥ खिन महि थापि उथापदा तिसु बिनु नही कोई ॥ खंड ब्रहमंड पाताल दीप रविआ सभ लोई ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी निरमल जनु सोई ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि एकु निरंजनु गाईऐ सभ अंतरि सोई ॥ करण कारण समरथ प्रभु जो करे सु होई ॥ खिन महि थापि उथापदा तिसु बिनु नही कोई ॥ खंड ब्रहमंड पाताल दीप रविआ सभ लोई ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी निरमल जनु सोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंजन = निर+अंजन (अंजन = कालिख, माया) माया से निर्लिप। करण = रचा हुआ जगत। करण कारण = सारे जगत का मूल। खिनु = पल। थापि = पैदा करके। उथापदा = नाश कर देता है। खंड = धरती के टुकड़े, बड़े बड़े देश। ब्रहमंड = सारा जगत। दीप = द्वीप। लोई = जगत, लोक। निरमल = पवित्र। सु = सो, वही।
अर्थ: जो प्रभु माया से निर्लिप है सिर्फ उसकी ही महिमा करनी चाहिए, वही सबके अंदर मौजूद है। वह प्रभु सारे जगत का मूल है, सब किस्म की ताकत वाला है, (जगत में) वही कुछ होता है जो वह प्रभु करता है। एक पलक में (जीवों को) पैदा करके नाश कर देता है, उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। सब देशों में, सारे ब्रहमण्ड में, जमीन के नीचे, द्वीपों में, सारे जगत में वह प्रभु व्यापक है।
जिस मनुष्य को (ये) समझ खुद प्रभु देता है, उसे समझ आ जाता है और वह मनुष्य पवित्र हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ रचंति जीअ रचना मात गरभ असथापनं ॥ सासि सासि सिमरंति नानक महा अगनि न बिनासनं ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ रचंति जीअ रचना मात गरभ असथापनं ॥ सासि सासि सिमरंति नानक महा अगनि न बिनासनं ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ रचना = जीवों की बनावट। रचंति = बनाता है। असथापनं = टिकाता है। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। महा अगनि = (माँ के पेट की) बड़ी आग।1।
अर्थ: जो परमात्मा जीवों की बनतर बनाता है उनको माँ के पेट में जगह देता है, हे नानक! जीव उसको हरेक सांस के साथ-साथ याद करते हैं और (माँ के पेट की) बड़ी (भयानक) आग उनका नाश नहीं कर सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखु तलै पैर उपरे वसंदो कुहथड़ै थाइ ॥ नानक सो धणी किउ विसारिओ उधरहि जिस दै नाइ ॥२॥

मूलम्

मुखु तलै पैर उपरे वसंदो कुहथड़ै थाइ ॥ नानक सो धणी किउ विसारिओ उधरहि जिस दै नाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तलै = नीचे को। कुहथड़ै थाइ = मुश्किल जगह में। धणी = मालिक प्रभु। उधरहि = बचता है। जिस दे नाइ = जिस प्रभु के नाम से।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जब तेरा मुँह नीचे को था, पैर ऊपर की तरफ थे, बड़ी मुश्किल जगह में तू बसता था तब जिस प्रभु के नाम की इनायत से तू बचा रहा, अब उस मालिक को तूने क्यों भुला दिया?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ रकतु बिंदु करि निमिआ अगनि उदर मझारि ॥ उरध मुखु कुचील बिकलु नरकि घोरि गुबारि ॥ हरि सिमरत तू ना जलहि मनि तनि उर धारि ॥ बिखम थानहु जिनि रखिआ तिसु तिलु न विसारि ॥ प्रभ बिसरत सुखु कदे नाहि जासहि जनमु हारि ॥२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ रकतु बिंदु करि निमिआ अगनि उदर मझारि ॥ उरध मुखु कुचील बिकलु नरकि घोरि गुबारि ॥ हरि सिमरत तू ना जलहि मनि तनि उर धारि ॥ बिखम थानहु जिनि रखिआ तिसु तिलु न विसारि ॥ प्रभ बिसरत सुखु कदे नाहि जासहि जनमु हारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रकतु = खून। बिंदु = वीर्य। निंमिआ = उगा। उदर = पेट। मझारि = में। उरध = उल्टा। कुचील = गंदा। बिकलु = डरावना। नरकि = नर्क में। गुबारि नरकि = अंधेरे नर्क में। मनि = मन में। तनि = तन में। उर = हृदय। बिखम = मुश्किल। थानहु = जगह से।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘रकतु’ शब्द के आखिर में सदा ‘ु’ की मात्रा आती है, देखने में पुलिंग प्रतीत होता है, पर है ‘स्त्रीलिंग’, देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे जीव!) (माँ के) रक्त और (पिता के) वीर्य से (माँ के) पेट की आग में तू उगा। तेरा मुँह नीचे को था, गंदा और डरावना था, (जैसे) एक अंधेरे घोर नर्क में पड़ा हुआ था। जिस प्रभु को स्मरण करके तू जलता नहीं था- उसको (अब भी) मन से तन से हृदय में याद कर। जिस प्रभु ने तुझे मुश्किल जगह से बचाया, उसको रक्ती भर भी ना भुला।
प्रभु को भुलाने से कभी सुख नहीं मिलता, (अगर भुलाएगा तो) मानव जन्म (की बाजी) हार के जाएगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ मन इछा दान करणं सरबत्र आसा पूरनह ॥ खंडणं कलि कलेसह प्रभ सिमरि नानक नह दूरणह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ मन इछा दान करणं सरबत्र आसा पूरनह ॥ खंडणं कलि कलेसह प्रभ सिमरि नानक नह दूरणह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन इछा = मन की अभिलाषा अनुसार। दान करणं = दान देता है। सरबत्र = हर जगह। कलि = झगड़े।1।
अर्थ: हे नानक! जो प्रभु हमें मन-मांगी दातें देता है जो सब जगह (सब जीवों की) आशाएं पूरी करता है, जो हमारे झगड़े और कष्ट नाश करने वाला है उसको याद कर, वह तुझसे दूर नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हभि रंग माणहि जिसु संगि तै सिउ लाईऐ नेहु ॥ सो सहु बिंद न विसरउ नानक जिनि सुंदरु रचिआ देहु ॥२॥

मूलम्

हभि रंग माणहि जिसु संगि तै सिउ लाईऐ नेहु ॥ सो सहु बिंद न विसरउ नानक जिनि सुंदरु रचिआ देहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हभि = सभ, सारे। माणहि = तू माणता है। जिसु संगि = जिसकी इनायत से। तै सिउ = उसके साथ। बिंद = थोड़ा सा समय भी। न विसरउ = भूल ना जाए। जिनि = जिस प्रभु ने। सुंदरु देहु = सोहणा जिस्म।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘विसरउ’ है हुकमी भविष्यत, अंन्न पुरख, एकवचन।
नोट: शब्द ‘देहु’ पुलिंग के रूप में प्रयोग किया गया है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जिस प्रभु की इनायत से तू सारी मौजें मनाता है, उससे प्रीत जोड़। जिस प्रभु ने तेरा सोहणा शरीर बनाया है, रब करके वह तुझे कभी भी ना भूले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जीउ प्रान तनु धनु दीआ दीने रस भोग ॥ ग्रिह मंदर रथ असु दीए रचि भले संजोग ॥ सुत बनिता साजन सेवक दीए प्रभ देवन जोग ॥ हरि सिमरत तनु मनु हरिआ लहि जाहि विजोग ॥ साधसंगि हरि गुण रमहु बिनसे सभि रोग ॥३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जीउ प्रान तनु धनु दीआ दीने रस भोग ॥ ग्रिह मंदर रथ असु दीए रचि भले संजोग ॥ सुत बनिता साजन सेवक दीए प्रभ देवन जोग ॥ हरि सिमरत तनु मनु हरिआ लहि जाहि विजोग ॥ साधसंगि हरि गुण रमहु बिनसे सभि रोग ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। रसु = स्वादिष्ट पदार्थ। ग्रिह = गृह, घर। मंदर = सुंदर मकान। असु = अश्व, घोड़े। संजोग = भाग्य। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। साजन = मित्र। देवन जोग = जो देने को समर्थ है। हरिआ = खिड़ा हुआ। विजोग = विछोड़े के दुख। रमहु = याद रखो।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: संस्कृत शब्द ‘अश्व’ है, बहुवचन भी ‘असु’ ही है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (प्रभु ने तुझे) जिंद, प्राण, शरीर और धन दिया, और स्वादिष्ट पदार्थ भोगने को दिए। तेरे अच्छे भाग्य बना के, तुझे उसने घर, सुंदर मकान, रथ, घोड़े दिए। सब कुछ देने वाले प्रभु ने तुझे पुत्र, पत्नी, मित्र और नौकर दिए।
उस प्रभु को स्मरण करके मन खिला रहता है, सारे दुख मिट जाते हैं। (हे भाई!) सत्संग में उस हरि के गुण चेते किया करो, सारे रोग (उसको स्मरण करने से) नाश हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ कुट्मब जतन करणं माइआ अनेक उदमह ॥ हरि भगति भाव हीणं नानक प्रभ बिसरत ते प्रेततह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ कुट्मब जतन करणं माइआ अनेक उदमह ॥ हरि भगति भाव हीणं नानक प्रभ बिसरत ते प्रेततह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जतन = कोशिशें। अनेक उदमह = कई प्रकार के उद्यम। भगति भाव हीणं = बंदगी की तमन्ना से वंचित। प्रेततह = जिन्न भूत।1।
अर्थ: मनुष्य अपने परिवार के लिए कई कोशिशें करते हैं, माया की खातिर अनेक उद्यम करते हैं, पर प्रभु की भक्ति की तमन्ना से वंचित रहते हैं, और हे नानक! जो जीव प्रभु को बिसारते हैं वे (मानो) जिंन भूत हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुटड़ीआ सा प्रीति जो लाई बिअंन सिउ ॥ नानक सची रीति सांई सेती रतिआ ॥२॥

मूलम्

तुटड़ीआ सा प्रीति जो लाई बिअंन सिउ ॥ नानक सची रीति सांई सेती रतिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुटड़ीआ = टूट गई। सा = वह। बिअंन सिउ = किसी और से। सची = सदा कायम रहने वाली। रीति = मर्यादा। सेती = से। रतिआ = अगर लीन रहें।2।
अर्थ: जो प्रीति (प्रभु के बिना) किसी और के साथ लगाई जाती है, वह आखिर में टूट जाती है। पर, हे नानक! अगर सांई प्रभु में लीन रहें, तो ऐसी जीवन-जुगति सदा कायम रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिसु बिसरत तनु भसम होइ कहते सभि प्रेतु ॥ खिनु ग्रिह महि बसन न देवही जिन सिउ सोई हेतु ॥ करि अनरथ दरबु संचिआ सो कारजि केतु ॥ जैसा बीजै सो लुणै करम इहु खेतु ॥ अकिरतघणा हरि विसरिआ जोनी भरमेतु ॥४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिसु बिसरत तनु भसम होइ कहते सभि प्रेतु ॥ खिनु ग्रिह महि बसन न देवही जिन सिउ सोई हेतु ॥ करि अनरथ दरबु संचिआ सो कारजि केतु ॥ जैसा बीजै सो लुणै करम इहु खेतु ॥ अकिरतघणा हरि विसरिआ जोनी भरमेतु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु बिसरत = जिस जिंद के विछोड़े से। भसम = राख। प्रेतु = अपवित्र हस्ती। सभि = सारे लोग। सोई हेतु = इतना प्यार। अनरथ = बुरे काम। दरबु = धन। संचिआ = इकट्ठा किया। करि = करके। केतु कारजि = (उस जिंद के) किस काम की? लुणै = काटता है। इहु = ये शरीर। करम खेतु = कर्मों का खेत। अकिरतघणा = (कृतघ्न) किए को भुलाने वाला।
अर्थ: जिस जिंद के विछुड़ने से (मनुष्य का) शरीर राख हो जाता है, सारे लोग (उस शरीर) को अपवित्र कहने लग जाते हैं; जिस संबन्धियों से इतना प्यार होता है, वे एक पलक के लिए भी घर में रहने नहीं देते। पाप कर करके धन एकत्र करता रहा, पर उस जिंद के किसी काम में ना आया।
ये शरीर (किए) कर्मों की (जैसे) खेती है (इसमें) जैसा (कर्म रूपी बीज कोई) बीजता है है वही काटता है। जो मनुष्य (प्रभु के) किए (उपकारों) को भुलाते हैं वे उसको बिसार देते हैं (आखिर) जूनियों में भटकते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ कोटि दान इसनानं अनिक सोधन पवित्रतह ॥ उचरंति नानक हरि हरि रसना सरब पाप बिमुचते ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ कोटि दान इसनानं अनिक सोधन पवित्रतह ॥ उचरंति नानक हरि हरि रसना सरब पाप बिमुचते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। अनिक = अनेक। सोधन = स्वच्छता रखने वाले साधन। रसना = जीभ (से)। सरब = सारे। बिमुचते = नाश हो जाते हैं।1।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य जीभ से प्रभु का नाम उचारते हैं, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं, सो उन्होंने, मानो करोड़ो (रुपए) दान कर लिए, करोड़ों बार तीर्थ स्नान कर लिए हैं और अनेक स्वच्छता व पवित्रता के साधन कर लिए हैं।1।

[[0707]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईधणु कीतोमू घणा भोरी दितीमु भाहि ॥ मनि वसंदड़ो सचु सहु नानक हभे डुखड़े उलाहि ॥२॥

मूलम्

ईधणु कीतोमू घणा भोरी दितीमु भाहि ॥ मनि वसंदड़ो सचु सहु नानक हभे डुखड़े उलाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईधणु = ईधन। मू = मैं। घणा = बहुत सारा। भोरी = रक्ती भर। दितीमु = मैंने दी। भाहि = आग। मनि = मन में। हभे = सारे ही। डुखड़े = बुरे दुख। उलाहि = दूर हो जाते हैं।2।
अर्थ: मैंने बहुत सारा ईधन एकत्र कर लिया और उसे थोड़ी सी आग लगा दी (वह सारा ईधन जल के राख हो गया, इसी तरह) हे नानक! अगर मन में सच्चा साई बस जाए तो सारे बुरे दुख उतर जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ कोटि अघा सभि नास होहि सिमरत हरि नाउ ॥ मन चिंदे फल पाईअहि हरि के गुण गाउ ॥ जनम मरण भै कटीअहि निहचल सचु थाउ ॥ पूरबि होवै लिखिआ हरि चरण समाउ ॥ करि किरपा प्रभ राखि लेहु नानक बलि जाउ ॥५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ कोटि अघा सभि नास होहि सिमरत हरि नाउ ॥ मन चिंदे फल पाईअहि हरि के गुण गाउ ॥ जनम मरण भै कटीअहि निहचल सचु थाउ ॥ पूरबि होवै लिखिआ हरि चरण समाउ ॥ करि किरपा प्रभ राखि लेहु नानक बलि जाउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़। अघ = पाप। पाईअहि = पाते हैं। मन चिंदे = मन इच्छित। कटीअहि = काटे जाते हैं। निहचल = अटल। पूरबि = आदि से। समाउ = समाई।
अर्थ: प्रभु का नाम स्मरण करने से करोड़ों पाप सारे के सारे नाश हो जाते हैं। प्रभु की महिमा करने से मन-इच्छित फल पा लेते हैं, पैदा होने से मरने तक के सारे सहम काटे जाते हैं और अटल सच्ची पदवी मिल जाती है। (पर) प्रभु के चरणों में समाई तब ही होती है अगर धुर से माथे पर भाग्य लिखे हों। (इस वास्ते) हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर कि) हे प्रभु! मेहर कर, मुझे (पापों से) बचा ले, मैं तुझसे कुर्बान हूँ।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ ग्रिह रचना अपारं मनि बिलास सुआदं रसह ॥ कदांच नह सिमरंति नानक ते जंत बिसटा क्रिमह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ ग्रिह रचना अपारं मनि बिलास सुआदं रसह ॥ कदांच नह सिमरंति नानक ते जंत बिसटा क्रिमह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिह रचना अपारं = घर की बेअंत सजावटें। मनि = मन में। बिलास = चाव खुशियां। रसह सुआदं = (रस: स्वादं) स्वादिष्ट पदार्थों के चस्के। कदांच नह = (कदांच न:) कभी भी नहीं। क्रिमह = (कृमि) कीड़े।1।
अर्थ: घर की बेअंत सजावटें, मन के चाव उद्वेग, स्वादिष्ट पदार्थों के चस्के - (इनमें लग के) हे नानक! जो मनुष्य कभी परमात्मा को याद नहीं करते, वह (जैसे) विष्टा के कीड़े हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुचु अड्मबरु हभु किहु मंझि मुहबति नेह ॥ सो सांई जैं विसरै नानक सो तनु खेह ॥२॥

मूलम्

मुचु अड्मबरु हभु किहु मंझि मुहबति नेह ॥ सो सांई जैं विसरै नानक सो तनु खेह ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुचु = बहुत, बड़ा। अडंबरु = सज धज, खिलारा। हभु किहु = हरेक चीज। मंझि = (हृदय) में। नेह = प्यार। जैं = जिस बंदे को। तनु = शरीर। खेह = राख।2।
अर्थ: बड़ी सज-धज हो, हरेक चीज (मिली हुई) हो, हृदय में (इन दुनियावी पदार्थों की) मुहब्बत और कसक हो- इनके कारण, हे नानक! जिसको साई (की याद) भूल गई है वह शरीर (जैसे) राख (ही) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सुंदर सेज अनेक सुख रस भोगण पूरे ॥ ग्रिह सोइन चंदन सुगंध लाइ मोती हीरे ॥ मन इछे सुख माणदा किछु नाहि विसूरे ॥ सो प्रभु चिति न आवई विसटा के कीरे ॥ बिनु हरि नाम न सांति होइ कितु बिधि मनु धीरे ॥६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सुंदर सेज अनेक सुख रस भोगण पूरे ॥ ग्रिह सोइन चंदन सुगंध लाइ मोती हीरे ॥ मन इछे सुख माणदा किछु नाहि विसूरे ॥ सो प्रभु चिति न आवई विसटा के कीरे ॥ बिनु हरि नाम न सांति होइ कितु बिधि मनु धीरे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरे = सम्पूर्ण। ग्रिह सोइन = सोने के घर। सुगंध = खुशबू। विसूरे = फिक्र, चिन्ता। चिति = चिक्त में। कीरे = कीड़े। कितु बिधि = किस विधि से? धीरे = धैर्य।
अर्थ: अगर सुंदर सेज मिली हो, अनेक सुख हों, सब किस्म के स्वादिष्ट भोग हों भोगने के लिए। अगर हीरे-मोती से जड़े हुए सोने के घर हों जिनमें चन्दन की सुगन्धि हो। अगर मनुष्य मन-मानी मौजें माणता हो, और कोई चिन्ता-झोरा ना हो, (पर ये सब कुछ होते हुए) अगर (ये दातें देने वाला) वह प्रभु मन में याद नहीं है तो (इन भोगों को भोगने वाले को) गंदगी का कीड़ा समझो, क्योकि प्रभु के नाम के बिना शांति नहीं मिलती, किसी और तरह भी मन को धैर्य नहीं मिलता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ चरन कमल बिरहं खोजंत बैरागी दह दिसह ॥ तिआगंत कपट रूप माइआ नानक आनंद रूप साध संगमह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ चरन कमल बिरहं खोजंत बैरागी दह दिसह ॥ तिआगंत कपट रूप माइआ नानक आनंद रूप साध संगमह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरन कमल बिरहं = प्रभु के सुंदर चरण-कमल के वियोग में। बिरह = मिलने की खींच, वियोग। दह = दस। दिसह = दिशाएं। दह दिसह = दसों दिशाएं। बैरागी = वैराग वान, आशिक, प्रेमी। कप्ट = छल। साध संगमह = साधु-संगत।1।
अर्थ: हे नानक! प्रभु का प्रेमी प्रभु के सुंदर चरणों से जुड़ने की कसक में दसों दिशाओं में भटकता है, (जब) छल-रूपी माया (को) छोड़ता है तब (ढूँढ-ढूँढ के उसे) आनंद-रूप साधु-संगत प्राप्त होती है (जहाँ उसे प्रभु की महिमा सुनने का अवसर प्राप्त होता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि सांई मुखि उचरा वता हभे लोअ ॥ नानक हभि अड्मबर कूड़िआ सुणि जीवा सची सोइ ॥२॥

मूलम्

मनि सांई मुखि उचरा वता हभे लोअ ॥ नानक हभि अड्मबर कूड़िआ सुणि जीवा सची सोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। मुखि = मुख से। वता = भटकता हूँ। हभे लोअ = सारे लोकों में, सारे जगत में। हभी = सारे। कूड़िआ = नाशवान। सोइ = सूह, खबर।2।
अर्थ: हे नानक! (जगत वाले) सारे दिखावे मुझे नाशवान दिख रहे हैं, मेरे मन में साई (की याद) है, मैं मुँह से उसका नाम उचारता हूँ और सारे जगत में चक्कर लगाता हूँ (कि कहीं उसकी महिमा सुन सकूँ) उसकी सदा-स्थिर रहने वाली शोभा सुन के मैं जी पड़ता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ बसता तूटी झु्मपड़ी चीर सभि छिंना ॥ जाति न पति न आदरो उदिआन भ्रमिंना ॥ मित्र न इठ धन रूपहीण किछु साकु न सिंना ॥ राजा सगली स्रिसटि का हरि नामि मनु भिंना ॥ तिस की धूड़ि मनु उधरै प्रभु होइ सुप्रसंना ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ बसता तूटी झु्मपड़ी चीर सभि छिंना ॥ जाति न पति न आदरो उदिआन भ्रमिंना ॥ मित्र न इठ धन रूपहीण किछु साकु न सिंना ॥ राजा सगली स्रिसटि का हरि नामि मनु भिंना ॥ तिस की धूड़ि मनु उधरै प्रभु होइ सुप्रसंना ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झुंपड़ी = झोपड़ी, कुल्ली। चीर = कपड़े। छिंना = फटे हुए। पति = इज्जत। उदिआन = उद्यान, जंगल। भ्रमिंना = भटकना। इठ = प्यारा। सिंना = सैण, संबंधी। भिंना = भीगा। उधरै = (विकारों से) उद्धार होता है। नामि = नाम में।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य टूटी हुई कुल्ली में रहता हो, उसके सारे कपड़े फटे हुए हों, ना उसकी ऊँची जाति हो, ना कोई इज्जत आदर करता हो, और वह उजाड़ में भटकता हो (भाव, कहीं मान-सम्मान ना होने के कारण उसकी बाबत तो हर तरफ उजाड़ ही हुआ)। कोई उसका मित्र-प्यारा ना हो, ना धन ही हो, ना रूप ही हो, और कोई साक-संबंधी भी ना हों, (ऐसा निथावां होते हुए भी) अगर उसका मन प्रभु के नाम में भीगा हुआ है तो उसे सारी धरती का राजा समझो। उस मनुष्य के चरणों की धूड़ी ले के मन विकारों से बचता है और परमात्मा प्रसन्न होता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ अनिक लीला राज रस रूपं छत्र चमर तखत आसनं ॥ रचंति मूड़ अगिआन अंधह नानक सुपन मनोरथ माइआ ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ अनिक लीला राज रस रूपं छत्र चमर तखत आसनं ॥ रचंति मूड़ अगिआन अंधह नानक सुपन मनोरथ माइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लीला = चोज तमाशे। राज रस = राज की मौजें। रूप = सुंदरता। छत्र = (सिर पर) छत्र। चमर = चवर, चौर। तखतआसनं = बैठने का शाही तख़्त। मूढ़ = मूर्ख। अंधह = अंधे। मनोरथ = (मनो+रथ) मन की दौड़ें, मन बांछत पदार्थ।1।
अर्थ: अनेक चोज तमाशे, राज की मौजें, सुंदरता, (सिर पर) छत्र-चउर, और बैठने के लिए शाही तख़्त- इन पदार्थों में, हे नानक! अंधे मूर्ख अज्ञानी बंदे ही मस्त होते हैं, माया के ये करिश्में तो स्वप्न की चीजों (के समान) हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपनै हभि रंग माणिआ मिठा लगड़ा मोहु ॥ नानक नाम विहूणीआ सुंदरि माइआ ध्रोहु ॥२॥

मूलम्

सुपनै हभि रंग माणिआ मिठा लगड़ा मोहु ॥ नानक नाम विहूणीआ सुंदरि माइआ ध्रोहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हभि = सारे। सुंदरि माइआ = सोहणी माया। ध्रोहु = छल, धोखा।2।
अर्थ: हे नानक! अगर प्रभु के नाम से वंचित रहे तो सुंदर माया धोखा ही है (ये ऐसे हैं जैसे) सपने में सारी मौजें लीं, उनके मोह की कसक डाल ली (पर जाग खुली तो पल्ले कुछ भी ना रहा)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सुपने सेती चितु मूरखि लाइआ ॥ बिसरे राज रस भोग जागत भखलाइआ ॥ आरजा गई विहाइ धंधै धाइआ ॥ पूरन भए न काम मोहिआ माइआ ॥ किआ वेचारा जंतु जा आपि भुलाइआ ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सुपने सेती चितु मूरखि लाइआ ॥ बिसरे राज रस भोग जागत भखलाइआ ॥ आरजा गई विहाइ धंधै धाइआ ॥ पूरन भए न काम मोहिआ माइआ ॥ किआ वेचारा जंतु जा आपि भुलाइआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेती = से, साथ। मूरखि = मूर्ख ने। जागत = जागते हुए ही। भखलाइआ = बड़ बड़ाता है। आरजा = उम्र। धंधै = धंधें में। धाइआ = भटकता फिरता है। पूरन भए न = खत्म नहीं होते, सिरे नहीं चढ़ते।8।
अर्थ: मूर्ख मनुष्य ने सपने से प्यार डाला हुआ है। इस राज व रसों के भोगों में प्रभु को विसार के जागते हुए ही बड़ बड़ाता है। दुनिया के धंधों में भटकते की सारी उम्र बीत जाती है, पर माया में मोहे हुए के काम खत्म होने में नहीं आते। विचारे जीव के भी क्या वश? उस प्रभु ने खुद ही इसको भुलेखे में डाला हुआ है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ बसंति स्वरग लोकह जितते प्रिथवी नव खंडणह ॥ बिसरंत हरि गोपालह नानक ते प्राणी उदिआन भरमणह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ बसंति स्वरग लोकह जितते प्रिथवी नव खंडणह ॥ बिसरंत हरि गोपालह नानक ते प्राणी उदिआन भरमणह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बसंति = बसते हों। स्वरग लोकह = स्वर्ग जैसे देशों में। जितते = जीत लें। नव खंडणह प्रिथमी = नौ खण्डों वाली धरती, सारी धरती। गोपाल = (गो+पाल) धरती को पालने वाला। उदिआन = जंगल।1।
अर्थ: अगर स्वर्ग जैसे देश में बसते हों, अगर सारी धरती को जीत लें, पर, हे नानक! अगर जगत के रखवाले प्रभु को बिसार दे, तो वे मनुष्य (मानो) जंगल में भटक रहे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउतक कोड तमासिआ चिति न आवसु नाउ ॥ नानक कोड़ी नरक बराबरे उजड़ु सोई थाउ ॥२॥

मूलम्

कउतक कोड तमासिआ चिति न आवसु नाउ ॥ नानक कोड़ी नरक बराबरे उजड़ु सोई थाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउतक = खेल, चोज। कोड = करोड़ों। चिति = चिक्त में। न आवसु = अगर उसे ना आए। कोड़ी नर्क = घोर भयानक नर्क। उजड़ु = उजाड़।2।
अर्थ: जगत के करोड़ों चोज-तमाशों के कारण अगर प्रभु का नाम चिक्त में (याद) ना रहे, तो हे नानक! वह जगह तो उजाड़ ही समझो, वह जगह भयानक नर्क के बराबर है।2।

[[0708]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ महा भइआन उदिआन नगर करि मानिआ ॥ झूठ समग्री पेखि सचु करि जानिआ ॥ काम क्रोधि अहंकारि फिरहि देवानिआ ॥ सिरि लगा जम डंडु ता पछुतानिआ ॥ बिनु पूरे गुरदेव फिरै सैतानिआ ॥९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ महा भइआन उदिआन नगर करि मानिआ ॥ झूठ समग्री पेखि सचु करि जानिआ ॥ काम क्रोधि अहंकारि फिरहि देवानिआ ॥ सिरि लगा जम डंडु ता पछुतानिआ ॥ बिनु पूरे गुरदेव फिरै सैतानिआ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महा भइआन = बड़ा डरावना। उदिआन = जंगल। नगर = शहर। समग्री = पदार्थ। झूठ = नाश हो जाने वाला। पेखि = देख के। सचु = सदा स्थिर रहने वाले। क्रोधि = क्रोध में। देवानिआ = पागल। सिरि = सिर पर।
अर्थ: बड़े डरावने जंगल को जीवों ने शहर समझ लिया है, इन नाशवान पदार्थों को देख के सदा टिके रहने वाले समझ लिया है। (इस वास्ते इनकी खातिर) काम में क्रोध में अहंकार में पागल हुए फिरते हैं, जब मौत का डण्डा सिर पे आ बजता है, तब पछताते हैं। (हे भाई! मनुष्य) पूरे गुरु की शरण के बिना शैतान के समान फिरता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ राज कपटं रूप कपटं धन कपटं कुल गरबतह ॥ संचंति बिखिआ छलं छिद्रं नानक बिनु हरि संगि न चालते ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ राज कपटं रूप कपटं धन कपटं कुल गरबतह ॥ संचंति बिखिआ छलं छिद्रं नानक बिनु हरि संगि न चालते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कपटं = छल। गरबतह = गुमान। संचंति = संचय करते हैं, इकट्ठा करते हैं। बिखिआ = माया। छिद्र = ऐब, दोष।1।
अर्थ: हे नानक! ये राज, रूप, धन (ऊँची) कुल का माण- सब छल रूप है। जीव छल करके दूसरों पर दूषण लगा लगा के (कई ढंगों से) माया जोड़ते हैं, पर प्रभु के नाम के बिना कोई भी चीज यहाँ से साथ नहीं जाती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखंदड़ो की भुलु तुमा दिसमु सोहणा ॥ अढु न लहंदड़ो मुलु नानक साथि न जुलई माइआ ॥२॥

मूलम्

पेखंदड़ो की भुलु तुमा दिसमु सोहणा ॥ अढु न लहंदड़ो मुलु नानक साथि न जुलई माइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखंदड़ो = देखने को। दिसमु = मुझे दिखा। अढु = आधी कौड़ी। न जुलई = नहीं जाती।
अर्थ: (मुझसे) देखने में कहाँ भूल हो गई, तुंमा (धतूरे का फल) देखने में तो सुंदर दिखा, पर इसका तो आधी कौड़ी भी मूल्य नहीं मिलता। हे नानक! यही हाल माया का है, (जीव के लिए तो ये एक कौड़ी की भी नहीं क्योंकि यहाँ से चलने के वक्त) ये माया जीव के साथ नहीं जाती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ चलदिआ नालि न चलै सो किउ संजीऐ ॥ तिस का कहु किआ जतनु जिस ते वंजीऐ ॥ हरि बिसरिऐ किउ त्रिपतावै ना मनु रंजीऐ ॥ प्रभू छोडि अन लागै नरकि समंजीऐ ॥ होहु क्रिपाल दइआल नानक भउ भंजीऐ ॥१०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ चलदिआ नालि न चलै सो किउ संजीऐ ॥ तिस का कहु किआ जतनु जिस ते वंजीऐ ॥ हरि बिसरिऐ किउ त्रिपतावै ना मनु रंजीऐ ॥ प्रभू छोडि अन लागै नरकि समंजीऐ ॥ होहु क्रिपाल दइआल नानक भउ भंजीऐ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संजीऐ = इकट्ठी करें। तिस का = उसकी खातिर। जिस ते = जिससे। वंजीऐ = बिछुड़ जाना है। किउ त्रिपतावै = तृप्त नहीं हो सकता। रंजीऐ = प्रसन्न होता है। अन = अन्य, और तरफ। नरकि = नर्क में। समंजीऐ = समाते हैं। नानक भउ = नानक का सहम। भंजीऐ = नाश कर।10।
अर्थ: उस माया को इकट्ठा करने का क्या लाभ, जो (जगत से चलने के वक्त) साथ नहीं जाती, जिसने आखिर विछुड़ ही जाना है, उसकी खातिर बताओ क्या प्रयत्न करने हुए? प्रभु को बिसर के (निरी माया से) ना तो तृप्त हुआ जा सकता है ना ही मन प्रसन्न होता है। हे प्रभु! कृपा कर, दया कर, नानक का सहम दूर कर दे।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ नच राज सुख मिसटं नच भोग रस मिसटं नच मिसटं सुख माइआ ॥ मिसटं साधसंगि हरि नानक दास मिसटं प्रभ दरसनं ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ नच राज सुख मिसटं नच भोग रस मिसटं नच मिसटं सुख माइआ ॥ मिसटं साधसंगि हरि नानक दास मिसटं प्रभ दरसनं ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: च = और। न च = और साथ ही। मिसटं = मीठा। रस = स्वाद, चस्के। साध संगि = साधु-संगत में। दास मिसटं = दासों को मीठा लगता है। प्रभ दरसनं = प्रभु के दीदार।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लगड़ा सो नेहु मंन मझाहू रतिआ ॥ विधड़ो सच थोकि नानक मिठड़ा सो धणी ॥२॥

मूलम्

लगड़ा सो नेहु मंन मझाहू रतिआ ॥ विधड़ो सच थोकि नानक मिठड़ा सो धणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: ना ही राज के सुख, ना ही भोगों के चस्के और ना ही माया की मौजें - ये कोई भी स्वादिष्ट नहीं हैं। हे नानक! सत्संग में (मिलने से) प्रभु का नाम मीठा है और सेवक को प्रभु के दीदार मीठे लगते हैं।1।
पद्अर्थ: नेहु = प्रेम। मझारु = अंदर से। रतिआ = रंगा गया है। विधड़ो = भेदा गया है। सच थोक = सच्चे नाम रूपी पदार्थ से। धणी = मालिक प्रभु।2।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को वह प्यारा लग जाए जिससे अंदर से मन (प्रभु के साथ) रंगा जाए, और जिसका मन सच्चे नाम-रूप पदार्थ (भाव, मोती) से परोया जाए उस मनुष्य को मालिक प्रभु प्यारा लगता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि बिनु कछू न लागई भगतन कउ मीठा ॥ आन सुआद सभि फीकिआ करि निरनउ डीठा ॥ अगिआनु भरमु दुखु कटिआ गुर भए बसीठा ॥ चरन कमल मनु बेधिआ जिउ रंगु मजीठा ॥ जीउ प्राण तनु मनु प्रभू बिनसे सभि झूठा ॥११॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि बिनु कछू न लागई भगतन कउ मीठा ॥ आन सुआद सभि फीकिआ करि निरनउ डीठा ॥ अगिआनु भरमु दुखु कटिआ गुर भए बसीठा ॥ चरन कमल मनु बेधिआ जिउ रंगु मजीठा ॥ जीउ प्राण तनु मनु प्रभू बिनसे सभि झूठा ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आन = और। सभि = सारे। निरनउ = निर्णय, परख। बसीठा = वकील, बिचोला। चरन कमल = कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। बेधिआ = भेद दिया। जीउ = जिंद। सभि = सारे। कछू = कुछ भी।11।
अर्थ: परमात्मा (के नाम) के बिना भक्तों को और कोई चीज मीठी नहीं लगती। उन्होंने खोज के देख लिया है कि (नाम के बिना) और सारे स्वाद फीके हैं। सतिगुरु (उनके लिए) वकील बना और (प्रभु को मिलने के कारण उनका) अज्ञान भटकना और दुख सब कुछ दूर हो गया है। जैसे मजीठे से (कपड़े पर पक्का) रंग चढ़ता है, वैसे ही उनका मन प्रभु के सुंदर चरणों में (पक्की तरह से) भेदित हो जाता है। प्रभु ही उनकी जिंद-प्राण है और तन-मन है, अन्य नाशवान प्यार उनके अंदर से नाश हो गए हैं।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ तिअकत जलं नह जीव मीनं नह तिआगि चात्रिक मेघ मंडलह ॥ बाण बेधंच कुरंक नादं अलि बंधन कुसम बासनह ॥ चरन कमल रचंति संतह नानक आन न रुचते ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ तिअकत जलं नह जीव मीनं नह तिआगि चात्रिक मेघ मंडलह ॥ बाण बेधंच कुरंक नादं अलि बंधन कुसम बासनह ॥ चरन कमल रचंति संतह नानक आन न रुचते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिअकत = त्याग के, छोड़ के। मीन = मछली। तिआगि = त्याग के। चात्रिक = पपीहा। मंडल = इलाका। बेधं = भेदा जाता है। च = और। कुरंक = हिरन। नादं = राग। अलि = भौरा। कुसम = फूल। बासनह = वासना, सुगंधि। आन = और कोई। रुचते = पसंद आता, भाता।1।
अर्थ: पानी को छोड़ के मछली जी नहीं सकती, बादलों के बिना पपीहे की भी जिंदगी नहीं है, हिरन राग के तीर से भेदा जाता है और फूलों की सुगंधि भौरे के बंधन का कारण बन जाती है। इसी तरह, हे नानक! संत प्रभु के चरणों में मस्त रहते हैं, प्रभु-चरणों के बिना उन्हें और कुछ नहीं भाता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखु डेखाऊ पलक छडि आन न डेऊ चितु ॥ जीवण संगमु तिसु धणी हरि नानक संतां मितु ॥२॥

मूलम्

मुखु डेखाऊ पलक छडि आन न डेऊ चितु ॥ जीवण संगमु तिसु धणी हरि नानक संतां मितु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डेखाऊ = मैं देखूँ। पलक = आँख फड़कने जितने समय के लिए। छडि = छोड़ के। डेऊ = मैं दूँ, देऊँ। जीवण संगम = जीने का संगम। धणी = मालिक।2।
अर्थ: अगर एक पलक मात्र ही मैं तेरा मुख देख लूँ, तो तुझे छोड़ के मैं किसी और की तरफ चिक्त (की प्रीत) ना लगाऊँ। हे नानक! जीवन का जोड़ उस मालिक प्रभु के साथ ही हो सकता है, वह प्रभु संतों का मित्र है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिउ मछुली बिनु पाणीऐ किउ जीवणु पावै ॥ बूंद विहूणा चात्रिको किउ करि त्रिपतावै ॥ नाद कुरंकहि बेधिआ सनमुख उठि धावै ॥ भवरु लोभी कुसम बासु का मिलि आपु बंधावै ॥ तिउ संत जना हरि प्रीति है देखि दरसु अघावै ॥१२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिउ मछुली बिनु पाणीऐ किउ जीवणु पावै ॥ बूंद विहूणा चात्रिको किउ करि त्रिपतावै ॥ नाद कुरंकहि बेधिआ सनमुख उठि धावै ॥ भवरु लोभी कुसम बासु का मिलि आपु बंधावै ॥ तिउ संत जना हरि प्रीति है देखि दरसु अघावै ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूँद = वर्षा की बूँद। कुरंकहि = हिरन को। बेधिआ = भेद डालता है। सनमुख = नाद के सामने, उस तरफ जिधर से घण्डेहेड़े के आवाज आती है। कुसम = फूल। बासु = सुगंधि। आपु = अपने आप को। अघावै = तृप्त हो जाते हैं। चात्रिक = पपीहा। नाद = आवाज (हिरन को पकड़ने के लिए घड़े को खाल से मढ़ के उसमें से आवाज निकालते हैं। ये आवाज हिरन को प्यारी लगती है। जिधर से ये आवाज आती है, हिरन उधर को चल पड़ता है)।12।
अर्थ: जैसे मछली पानी के बिना जी नहीं सकती, जैसे बासात की बूँद के बिना पपीहा तृप्त नहीं होता, जैसे (घण्डेहेड़े की) आवाज हिरन को मोहित कर लेती है, वह उधर को ही उठ दौड़ता है, जैसे भौरा फूल की सुगंधि का आशिक होता है, (फूल से) मिल के अपने आप को फसा लेता है। वैसे ही, संतों को प्रभु से प्रेम होता है, प्रभु दीदार करके वे तृप्त हो जाते हैं।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ चितवंति चरन कमलं सासि सासि अराधनह ॥ नह बिसरंति नाम अचुत नानक आस पूरन परमेसुरह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ चितवंति चरन कमलं सासि सासि अराधनह ॥ नह बिसरंति नाम अचुत नानक आस पूरन परमेसुरह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितवंति = याद करते हैं, ध्यान धरते हैं। सासि सासि = हरेक सास के साथ। अराधनह = याद करते हैं। अचुत = (अ+च्युत, चयु = नाश होना; च्युत = नाश हो जाने वाला) ना नाश होने वाला।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अचुत’ शब्द के उच्चारण में ‘अच’ को ‘्’ के साथ पढ़ना है, ताकि उच्चारण का जोर पहले हिस्से में रहे।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के चरण-कमलों का ध्यान धरते हैं और श्वास-श्वास उसका स्मरण करते हैं, जो अविनाशी प्रभु का नाम कभी नहीं भुलाते, हे नानक! परमेश्वर उनकी आशाएं पूरी करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतड़ा मंन मंझाहि पलक न थीवै बाहरा ॥ नानक आसड़ी निबाहि सदा पेखंदो सचु धणी ॥२॥

मूलम्

सीतड़ा मंन मंझाहि पलक न थीवै बाहरा ॥ नानक आसड़ी निबाहि सदा पेखंदो सचु धणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंन मंझाहि = मन में। न थीवै = नहीं होता। बाहरा = जुदा। सचु धणी = सच्चा मालिक।2।
अर्थ: जिस मनुष्यों के मन में प्रभु (सदा) परोया रहता है, जिनसे एक छिन के लिए भी जुदा नहीं होता, हे नानक! उनकी वह सच्चा मालिक आशाएं पूरी करता है और सदा उनकी संभाल करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आसावंती आस गुसाई पूरीऐ ॥ मिलि गोपाल गोबिंद न कबहू झूरीऐ ॥ देहु दरसु मनि चाउ लहि जाहि विसूरीऐ ॥ होइ पवित्र सरीरु चरना धूरीऐ ॥ पारब्रहम गुरदेव सदा हजूरीऐ ॥१३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आसावंती आस गुसाई पूरीऐ ॥ मिलि गोपाल गोबिंद न कबहू झूरीऐ ॥ देहु दरसु मनि चाउ लहि जाहि विसूरीऐ ॥ होइ पवित्र सरीरु चरना धूरीऐ ॥ पारब्रहम गुरदेव सदा हजूरीऐ ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आसावंती = जिसने आस लगाई हुई है। गुसाई = हे (गो+सांई) धरती के मालिक! पूरीऐ = पूरी कर। गोपाल = हे (गो+पाल) धरती के रक्षक! न झूरीऐ = चिन्ता ना करूँ। मनि = मन में। विसूरीऐ = चिन्ता फिक्र।
अर्थ: हे धरती के पति! हे धरती के रखवाले! हे गोबिंद! मुझ आसवंत की आशा पूरी कर। मुझे मिल, ताकि मैं कभी तौखले चिन्ता ना करूँ। मेरे मन में कसक है, मुझे दीदार दे और मेरे झोरे मिट जाएं। तेरे पैरों की खाक से मेरा शरीर पवित्र हो जाए। हे प्रभु! हे गुरदेव! (मेहर कर) मैं सदा तेरी हजूरी में रहूँ।13।

[[0709]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ रसना उचरंति नामं स्रवणं सुनंति सबद अम्रितह ॥ नानक तिन सद बलिहारं जिना धिआनु पारब्रहमणह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ रसना उचरंति नामं स्रवणं सुनंति सबद अम्रितह ॥ नानक तिन सद बलिहारं जिना धिआनु पारब्रहमणह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। सबद अंम्रितह = पवित्र सबद, महिमा की पवित्र वाणी। स्रवण = कानों से। बलिहार = सदके।1।
अर्थ: जो मनुष्य जीभ से पारब्रहम का नाम उचारते हैं, जो कानों से महिमा की पवित्र वाणी सुनते हैं और पारब्रहम का ध्यान (धरते हैं), हे नानक! मैं उन लोगों से सदा सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हभि कूड़ावे कम इकसु साई बाहरे ॥ नानक सेई धंनु जिना पिरहड़ी सच सिउ ॥२॥

मूलम्

हभि कूड़ावे कम इकसु साई बाहरे ॥ नानक सेई धंनु जिना पिरहड़ी सच सिउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हभि = सारे। कूड़ावे = झूठे, व्यर्थ, निष्फल। साई = पति प्रभु। सेई = वही मनुष्य। धंनु = भाग्यशाली।2।
अर्थ: एक पति-प्रभु की याद के बिना और सारे ही काम व्यर्थ हैं (भाव, यदि पति-प्रभु को भुला दिया तो….)। हे नानक! सिर्फ वही लोग भाग्यशाली हैं, जिनका सदा कायम रहने वाले प्रभु के साथ प्यार है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सद बलिहारी तिना जि सुनते हरि कथा ॥ पूरे ते परधान निवावहि प्रभ मथा ॥ हरि जसु लिखहि बेअंत सोहहि से हथा ॥ चरन पुनीत पवित्र चालहि प्रभ पथा ॥ संतां संगि उधारु सगला दुखु लथा ॥१४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सद बलिहारी तिना जि सुनते हरि कथा ॥ पूरे ते परधान निवावहि प्रभ मथा ॥ हरि जसु लिखहि बेअंत सोहहि से हथा ॥ चरन पुनीत पवित्र चालहि प्रभ पथा ॥ संतां संगि उधारु सगला दुखु लथा ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथा = बातें। परधान = सबसे अच्छे। सोहहि = सुंदर लगते हैं। पुनीत = पवित्र। पथा = राह (संस्कृत: पथिन)। संगि = संगति में। उधारु = (दुखों से) बचाव। जि = जो मनुष्य।
अर्थ: मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो प्रभु की बातें सुनते हैं। वे मनुष्य सब गुणों वाले व सबसे अच्छे हैं जो प्रभु के आगे सिर निवाते हैं। (उनके) हाथ सुंदर लगते हैं जो बेअंत प्रभु की महिमा लिखते हैं और वह पैर पवित्र हैं जो प्रभु की राह पर चलते हैं। (ऐसे) संतों की संगति में (दुख-विकारों से) बचाव हो जाता है, सारा दुख दूर हो जाता है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ भावी उदोत करणं हरि रमणं संजोग पूरनह ॥ गोपाल दरस भेटं सफल नानक सो महूरतह ॥१॥

मूलम्

सलोकु ॥ भावी उदोत करणं हरि रमणं संजोग पूरनह ॥ गोपाल दरस भेटं सफल नानक सो महूरतह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भावी = माथे के भाग्य, जो कुछ अवश्य घटित होना है। उदोत = प्रगट होना, उघड़ना। भावी उदोत करणं = माथे पर लिखे लेखों का उघड़ना। संजोग पूरनह = पूरे संयोगों से। गोपाल दरस भेटं = जगत के रक्षक प्रभु का दीदार होना। महूरतह = महूरतए घड़ी, समय। सफल = इनायत वाला।1।
अर्थ: हे नानक! वह घड़ी इनायत वाली होती है, जब पूर्ण संयोगों से माथे पर लिखे लेख उघड़ते हैं, प्रभु का स्मरण करते हैं और गोपाल हरि का दीदार होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीम न सका पाइ सुख मिती हू बाहरे ॥ नानक सा वेलड़ी परवाणु जितु मिलंदड़ो मा पिरी ॥२॥

मूलम्

कीम न सका पाइ सुख मिती हू बाहरे ॥ नानक सा वेलड़ी परवाणु जितु मिलंदड़ो मा पिरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीम = कीमत। मिती = अंदाजा, लेखा, मिनती। मिती हू बाहरे = पैमायश से परे। वेलती = सुंदर घड़ी। जितु = जिस घड़ी में। मा पिरी = मेरा प्यारा।2।
अर्थ: इतने असीम सुख प्रभु देता है कि मैं उनका मूल्य नहीं पा सकता, (पर) हे नानक! वही सुलक्षणी घड़ी स्वीकार होती है जब अपना प्यारा प्रभु मिल जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सा वेला कहु कउणु है जितु प्रभ कउ पाई ॥ सो मूरतु भला संजोगु है जितु मिलै गुसाई ॥ आठ पहर हरि धिआइ कै मन इछ पुजाई ॥ वडै भागि सतसंगु होइ निवि लागा पाई ॥ मनि दरसन की पिआस है नानक बलि जाई ॥१५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सा वेला कहु कउणु है जितु प्रभ कउ पाई ॥ सो मूरतु भला संजोगु है जितु मिलै गुसाई ॥ आठ पहर हरि धिआइ कै मन इछ पुजाई ॥ वडै भागि सतसंगु होइ निवि लागा पाई ॥ मनि दरसन की पिआस है नानक बलि जाई ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा…है = वह कौन सी बेला हो? (भाव, वह घड़ी जल्दी आए)। जितु = जिस वक्त। मूरतु = महूरत, साहा। संजोगु = मिलने का समय। मन इछ = मन की इच्छा। पुजाई = पूरी करूँ। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। निवि = झुक के। पाई = पैरों पर। मनि = मन में।15।
अर्थ: (रब करके) वह बेला जल्दी से आए जब मैं प्रभु से मिलूँ। वह महूरत, वह मिलने का समय भाग्यशाली होता है, जब धरती का साई मिलता है। (मेहर कर) आठों पहर स्मरण करके मैं अपने मन की चाह पूरी करूँ। अच्छी किस्मत से सत्संग मिल जाए और मैं झुक-झुक के (सत्संगियों के) पैरों पर लगूँ। मेरे मन में (प्रभु के) दर्शनों की प्यास है। हे नानक! (कह) मैं (सत्संगियों पर से) सदके जाता हूँ।15।*

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ पतित पुनीत गोबिंदह सरब दोख निवारणह ॥ सरणि सूर भगवानह जपंति नानक हरि हरि हरे ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ पतित पुनीत गोबिंदह सरब दोख निवारणह ॥ सरणि सूर भगवानह जपंति नानक हरि हरि हरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। पतित पुनीत = विकारियों को पवित्र करने वाला। सरब = सारे। दोख = ऐब। सरणि सूर = शरण का सूरमा, शरण आए को बचाने के समर्थ। जपंति = जो जपते हैं।1।
अर्थ: गोबिंद विकारियों को पवित्र करने वाला है। (पापियों के) सारे एैब दूर करने वाला है। हे नानक! जो मनुष्य उस प्रभु को जपते हैं, भगवान उन शरण आए हुओं की इज्जत रखने के समर्थ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छडिओ हभु आपु लगड़ो चरणा पासि ॥ नठड़ो दुख तापु नानक प्रभु पेखंदिआ ॥२॥

मूलम्

छडिओ हभु आपु लगड़ो चरणा पासि ॥ नठड़ो दुख तापु नानक प्रभु पेखंदिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छडिओ = जिसने छोड़ा है। हभु आप = सारा स्वै भाव, सारा अहंकार। लगड़ो = जो लगा है। नठड़ो = भाग गए हैं। पेखंदिआ = दीदार करने से।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने सारा स्वै भाव मिटा दिया, जो मनुष्य प्रभु के चरणों के साथ जुड़ा रहा, हे नानक! प्रभु का दीदार करने से उसके सारे दुख-कष्ट नाश हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ मेलि लैहु दइआल ढहि पए दुआरिआ ॥ रखि लेवहु दीन दइआल भ्रमत बहु हारिआ ॥ भगति वछलु तेरा बिरदु हरि पतित उधारिआ ॥ तुझ बिनु नाही कोइ बिनउ मोहि सारिआ ॥ करु गहि लेहु दइआल सागर संसारिआ ॥१६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ मेलि लैहु दइआल ढहि पए दुआरिआ ॥ रखि लेवहु दीन दइआल भ्रमत बहु हारिआ ॥ भगति वछलु तेरा बिरदु हरि पतित उधारिआ ॥ तुझ बिनु नाही कोइ बिनउ मोहि सारिआ ॥ करु गहि लेहु दइआल सागर संसारिआ ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआल = (दया+आलय) दया का घर, हे दयालु! ढहि पए = आ गिरा हूँ। भ्रमत = भटकते। हारिआ = थक गया हूँ। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। बिरदु = पुराना स्वभाव। पतित उधारिआ = विकारों में गिरे हुओं को बचाने वाला। बिनउ मोहि = मेरी विनती को। सारिआ = सार लेने वाला, सिरे चढ़ाने वाला। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। सागर = समुंदर।
अर्थ: हे दयालु! मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ, मुझे (अपने चरणों में) जोड़ ले। हे दीनों पर दया करने वाले! मुझे रख ले, मैं भटकता-भटकता अब बहुत थक गया हूँ। भक्ति को प्यार करना और गिरे हुओं को बचाना- ये तेरा बिरद स्वभाव है। हे प्रभु! तेरे बिना और कोई नहीं जो मेरी इस विनती को सिरे चढ़ा सके। हे दयालु! मेरा हाथ पकड़ ले (और मुझे) संसार-समुंदर में से बचा ले।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ संत उधरण दइआलं आसरं गोपाल कीरतनह ॥ निरमलं संत संगेण ओट नानक परमेसुरह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ संत उधरण दइआलं आसरं गोपाल कीरतनह ॥ निरमलं संत संगेण ओट नानक परमेसुरह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत उधरण = संतों को (विकारों की तपस से) बचाने वाला। दइआलं = दयालु प्रभु। आसरं गोपाल कीरतनह = (जिस को) गोपाल के कीर्तन का आसरा है, जिन्होंने गोपाल के कीर्तन को अपने जीवन का आसरा बनाया है। संत संगेण = (उन) संतों की संगति करने से।1।
अर्थ: जो संत जन गोपाल प्रभु के कीर्तन को अपने जीवन का सहारा बना लेते हैं, दयाल प्रभु उन संतों को (माया की तपस से) बचा लेता है, उन संतों की संगति करने से पवित्र हो जाते हैं। हे नानक! (तू भी ऐसे गुरमुखों की संगति में रह के) परमेश्वर का पल्ला पकड़।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चंदन चंदु न सरद रुति मूलि न मिटई घांम ॥ सीतलु थीवै नानका जपंदड़ो हरि नामु ॥२॥

मूलम्

चंदन चंदु न सरद रुति मूलि न मिटई घांम ॥ सीतलु थीवै नानका जपंदड़ो हरि नामु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरद रुति = शरद ऋतु, ठण्ड का मौसम। घांम = धूप, मन की तपस। सीतलु = शांत, ठंड।2।
अर्थ: चाहे चंदन (का लेप किया) हो चाहे चंद्रमा (की चाँदनी) हो, और चाहे ठंडी ऋतु हो - इनसे मन की तपस बिल्कुल भी समाप्त नहीं हो सकती। हे नानक! प्रभु का नाम स्मरण करने से ही मनुष्य (का मन) शांत होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ चरन कमल की ओट उधरे सगल जन ॥ सुणि परतापु गोविंद निरभउ भए मन ॥ तोटि न आवै मूलि संचिआ नामु धन ॥ संत जना सिउ संगु पाईऐ वडै पुन ॥ आठ पहर हरि धिआइ हरि जसु नित सुन ॥१७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ चरन कमल की ओट उधरे सगल जन ॥ सुणि परतापु गोविंद निरभउ भए मन ॥ तोटि न आवै मूलि संचिआ नामु धन ॥ संत जना सिउ संगु पाईऐ वडै पुन ॥ आठ पहर हरि धिआइ हरि जसु नित सुन ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओट = आसरा। सगल = सारे। जन = मनुष्य। परतापु = बड़ाई। निरभउ = निडर। तोटि = कमी, घटा। न मूलि = कभी भी नहीं। संचिआ = इकट्ठा किया। वडै पुन = अच्छे भाग्यों से। मिल = कमल का फूल। चरन कमल = कमल के फूल जैसे चरन।
अर्थ: प्रभु के सुंदर चरणों का आसरा ले के सारे जीव (दुनिया की तपस से) बच जाते हैं। गोबिंद की महिमा सुन के (बँदगी वालों के) मन निडर हो जाते हैं। वे प्रभु का नाम-धन इकट्ठा करते हैं और उस धन में कभी घाटा नहीं पड़ता। ऐसे गुरमुखों की संगति बड़े भाग्यों से मिलती है, ये संत जन आठों पहर प्रभु को स्मरण करते हैं और सदा प्रभु का यश सुनते हैं।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ दइआ करणं दुख हरणं उचरणं नाम कीरतनह ॥ दइआल पुरख भगवानह नानक लिपत न माइआ ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ दइआ करणं दुख हरणं उचरणं नाम कीरतनह ॥ दइआल पुरख भगवानह नानक लिपत न माइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरतन = महिमा, बड़ाई। लिपत न = नहीं लिबड़ता, नहीं फसता। पुरख = सार व्यापक। भगवान = भाग्यशाली, प्रतापवान प्रभु।1।
अर्थ: हे नानक! अगर मनुष्य दयालु सर्व-व्यापक भगवान के नाम की बड़ाई करे तो प्रभु मेहर करता है, उसके दुखों का नाश करता है और वह मनुष्य माया के मोह में नहीं फंसता।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

भाहि बलंदड़ी बुझि गई रखंदड़ो प्रभु आपि ॥ जिनि उपाई मेदनी नानक सो प्रभु जापि ॥२॥

मूलम्

भाहि बलंदड़ी बुझि गई रखंदड़ो प्रभु आपि ॥ जिनि उपाई मेदनी नानक सो प्रभु जापि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाहि = आग। जिनि = जिस प्रभु ने। मेदनी = धरती, सृष्टि।2।
अर्थ: हे नानक! जिस प्रभु ने सारी दुनिया रची है उसका स्मरण कर, (स्मरण करने से) वह प्रभु खुद जीव का रखवाला बनता है और उसके अंदर जलती हुई (तृष्णा की) आग बुझ जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जा प्रभ भए दइआल न बिआपै माइआ ॥ कोटि अघा गए नास हरि इकु धिआइआ ॥ निरमल भए सरीर जन धूरी नाइआ ॥ मन तन भए संतोख पूरन प्रभु पाइआ ॥ तरे कुट्मब संगि लोग कुल सबाइआ ॥१८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जा प्रभ भए दइआल न बिआपै माइआ ॥ कोटि अघा गए नास हरि इकु धिआइआ ॥ निरमल भए सरीर जन धूरी नाइआ ॥ मन तन भए संतोख पूरन प्रभु पाइआ ॥ तरे कुट्मब संगि लोग कुल सबाइआ ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती। कोटि अघा = करोड़ों पाप। निरमल = पवित्र। जन धूरी = संत जनों की चरण धूल में। नाइआ = नहाने से। कुटंब = परिवार। सबाइआ = सारी।
अर्थ: जब (जीव पर) प्रभु जी मेहरवान हों तो माया जोर नहीं डाल सकती। एक प्रभु को स्मरण करने से करोड़ों ही पाप नाश हो जाते हैं, स्मरण करने वाले बँदों की चरण-धूल में नहाने से शरीर पवित्र हो जाते हैं, (संतों की संगति में) पूर्ण प्रभु मिल जाता है और मन व तन दोनों को संतोष प्राप्त होता है। ऐसे मनुष्यों की संगति में उनके परिवार के लोग और सारी ही कुलों का उद्धार हो जाता है।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ गुर गोबिंद गोपाल गुर गुर पूरन नाराइणह ॥ गुर दइआल समरथ गुर गुर नानक पतित उधारणह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ गुर गोबिंद गोपाल गुर गुर पूरन नाराइणह ॥ गुर दइआल समरथ गुर गुर नानक पतित उधारणह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरन = सर्व व्यापक। पतित उधारणह = विकारियों का उद्धार करने वाला।1।
अर्थ: हे नानक! गुरु गोबिंद रूप है, गोपाल रूप है, सर्व व्यापक नारायण का रूप है। गुरु दया का घर है, सामर्थ्य वाला है और विकारियों का भी तारनहार है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भउजलु बिखमु असगाहु गुरि बोहिथै तारिअमु ॥ नानक पूर करम सतिगुर चरणी लगिआ ॥२॥

मूलम्

भउजलु बिखमु असगाहु गुरि बोहिथै तारिअमु ॥ नानक पूर करम सतिगुर चरणी लगिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भउजल = संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल, डरावना। असगाहु = अथाह। गुरि = गुरु ने। बोहिथै = जहाज ने। गुरि बोहिथै = गुरु जहाज ने। तारिअमु = मुझे तैरा लिया है। पूर करंम = पूरे भाग्य, अच्छे भाग्य।1।
अर्थ: संसार-समुंदर बड़ा भयानक और अथाह है, पर गुरु जहाज ने मुझे इसमें से बचा लिया है। हे नानक! जो मनुष्य सतिगुरु के चरणों में लगते हैं, उनके भाग्य अच्छे होते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ धंनु धंनु गुरदेव जिसु संगि हरि जपे ॥ गुर क्रिपाल जब भए त अवगुण सभि छपे ॥ पारब्रहम गुरदेव नीचहु उच थपे ॥ काटि सिलक दुख माइआ करि लीने अप दसे ॥ गुण गाए बेअंत रसना हरि जसे ॥१९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ धंनु धंनु गुरदेव जिसु संगि हरि जपे ॥ गुर क्रिपाल जब भए त अवगुण सभि छपे ॥ पारब्रहम गुरदेव नीचहु उच थपे ॥ काटि सिलक दुख माइआ करि लीने अप दसे ॥ गुण गाए बेअंत रसना हरि जसे ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनु गुरदेव = सदके हूँ गुरु से। जिसु संगि = जिसकी संगति में। सभि अवगुण = सारे ऐब। छपे = दूर हो जाते हैं। नीचहु = नीचे से। उच थपे = ऊँचा स्थापित कर देता है। सिलक = (अरबी में) फासी, रस्सी। अप दसे = अपने दास। रसना = जीभ (से)। जसे = यश।
अर्थ: सदके हूँ उस गूरू से जिसकी संगति में रहने से प्रभु का भजन किया जा सकता है, जब सतिगुरु मेहरवान होता है तो सारे अवगुण दूर हो जाते हैं, प्रभु का रूप गुरु नीच से उच्च श्रेणी का बना देता है, माया और दुखों की फाँसी काट के अपने सेवक बना लेता है, (गुरु की संगति में रहने से) जीभ से बेअंत प्रभु के गुण गाए जा सकते हैं, प्रभु की महिमा की जा सकती है।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ द्रिसटंत एको सुनीअंत एको वरतंत एको नरहरह ॥ नाम दानु जाचंति नानक दइआल पुरख क्रिपा करह ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ द्रिसटंत एको सुनीअंत एको वरतंत एको नरहरह ॥ नाम दानु जाचंति नानक दइआल पुरख क्रिपा करह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = एक प्रभु ही। द्रिसटंत = दिखता है। वरतंत = मौजूद है। नरहरह = नरों का मालिक, खलकत का मालिक। जाचंति = जो मांगते हैं। दानु = खैर।1।
अर्थ: हे नानक! जिस पर दयालु प्रभु मेहर करता है वह उसके पास से बँदगी की ख़ैर माँगते हैं, उन्हें हर जगह वह सृष्टि का मालिक ही दिखता है, सुनाई देता है, व्यापक प्रतीत होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिकु सेवी हिकु समला हरि इकसु पहि अरदासि ॥ नाम वखरु धनु संचिआ नानक सची रासि ॥२॥

मूलम्

हिकु सेवी हिकु समला हरि इकसु पहि अरदासि ॥ नाम वखरु धनु संचिआ नानक सची रासि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवी = मैं स्मरण करूँ। संमला = मैं हृदय में संभाल के रखूँ। वखरु = सौदा। संचिआ = जोड़ा है। रासि = राशि, पूंजी।2।
अर्थ: मेरी एक प्रभु के पास ही आरजू है कि मैं प्रभु को ही स्मरण करूँ और प्रभु को ही हृदय में संभाल कर रखूँ। हे नानक! जिस लोगों ने नाम-रूप सौदा नाम-रूप धन जोड़ा है, उनकी ये पूंजी सदा ही कायम रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ प्रभ दइआल बेअंत पूरन इकु एहु ॥ सभु किछु आपे आपि दूजा कहा केहु ॥ आपि करहु प्रभ दानु आपे आपि लेहु ॥ आवण जाणा हुकमु सभु निहचलु तुधु थेहु ॥ नानकु मंगै दानु करि किरपा नामु देहु ॥२०॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ प्रभ दइआल बेअंत पूरन इकु एहु ॥ सभु किछु आपे आपि दूजा कहा केहु ॥ आपि करहु प्रभ दानु आपे आपि लेहु ॥ आवण जाणा हुकमु सभु निहचलु तुधु थेहु ॥ नानकु मंगै दानु करि किरपा नामु देहु ॥२०॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरन = हर जगह व्यापक। इक एहु = सिर्फ एक बेअंत प्रभु। कहा केहु = कौन सा बताऊँ? (भाव, कोई और बता नहीं सकता)। आपे = खुद ही। आवण जाणा = पैदा होना और मरना। निहचल = अटल। थेहु = ठिकाना। तुधु = तेरा।
अर्थ: सिर्फ ये दयालु और बेअंत प्रभु ही हर जगह मौजूद है, वह खुद ही खुद सब कुछ है, और दूसरा कौन सा कहूँ? (जो उस जैसा हो)?
हे प्रभु! तू खुद ही दान करने वाला है और खुद ही वह दान लेने वाला है। (जीवों का) पैदा होना और मरना - ये तेरा हुक्म है (भाव तेरी खेल है), तेरा अपना ठिकाना सदा अटल है। नानक (तुझसे) खैर माँगता है, मेहर कर और नाम बख्श।20।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैतसरी बाणी भगता की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

जैतसरी बाणी भगता की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ कछूअ न जानउ ॥ मनु माइआ कै हाथि बिकानउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नाथ कछूअ न जानउ ॥ मनु माइआ कै हाथि बिकानउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाथ = हे नाथ! हे प्रभु! न जानउ = मैं नहीं जानता। कछूअ न जानउ = मैं कुछ भी नहीं जानता, मेरी कोई पेश नहीं चलती। बिकानउ = मैंने बेच दिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं अपना मन माया के हाथ में बेच चुका हूँ, मेरी इसके आगे (अब) कोई पेश नहीं चलती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम कहीअत हौ जगत गुर सुआमी ॥ हम कहीअत कलिजुग के कामी ॥१॥

मूलम्

तुम कहीअत हौ जगत गुर सुआमी ॥ हम कहीअत कलिजुग के कामी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहीअत हौ = तू कहलवाता है। कामी = विषयी।1।
अर्थ: हे नाथ! तू जगत का पति कहलवाता है, हम विवाद वाले विषई जीव हैं (मेरी सहायता कर)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन पंचन मेरो मनु जु बिगारिओ ॥ पलु पलु हरि जी ते अंतरु पारिओ ॥२॥

मूलम्

इन पंचन मेरो मनु जु बिगारिओ ॥ पलु पलु हरि जी ते अंतरु पारिओ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंचन = कामादिक पाँच विकारों ने। जु = इतना सा। ते = से। अंतरु = दूरी।2।
अर्थ: (कामादिक) इन पाँचों ने ही मेरा मन इतना बिगाड़ दिया है कि हर दम मेरी परमात्मा से दूरियाँ डलवा रहे हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जत देखउ तत दुख की रासी ॥ अजौं न पत्याइ निगम भए साखी ॥३॥

मूलम्

जत देखउ तत दुख की रासी ॥ अजौं न पत्याइ निगम भए साखी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जत = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। रासी = खान, समान। न पतिआइ = पतीजता नहीं, मानता नहीं। निगम = वेद आदि धर्म पुस्तक। साखी = गवाह।3।
अर्थ: (इन्होंने जगत को बहुत दुखी किया हुआ है) मैं जिधर देखता हूँ, उधर दुखों की राशि-पूंजी बनी हुई है। ये देख के भी (कि विकारों का नतीजा है दुख) मेरा मन नहीं माना, वेदादिक धर्म-पुस्तकें भी (कथाओं के माध्यम से) यही गवाही दे रहे हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोतम नारि उमापति स्वामी ॥ सीसु धरनि सहस भग गांमी ॥४॥

मूलम्

गोतम नारि उमापति स्वामी ॥ सीसु धरनि सहस भग गांमी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोतम नारि = गौतम की पत्नी, अहिल्या। उमापति = पार्वती का पति, शिव। सीसु धरनि = (ब्रहमा का) सिर धारने वाला शिव।
सहस = हजार। भग = और के गुप्तांग। सहस भग गामी = हजारों भगों के निशान वाला।4।
अर्थ: गौतम की पत्नी अहिल्या, पार्वती का पति शिव, ब्रहमा, हजारों भगों वाला इन्द्र - (इन सभी को इन पाँचों ने ही ख्वार किया)।4।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: जब ब्रहमा अपनी ही पुत्री पर मोहित हो गया, तो जिधर वह जाए उधर ब्रहमा अपना मुँह बनाए जाए; वह आकाश की ओर उड़ के खड़ी हो गई, ब्रहमा ने पाँचवां मुँह ऊपर की ओर बना लिया। ये अति देख के शिव ने ब्रहमा का सिर ही काट दिया। पर, ब्रहम-हत्या का पाप हो जाने के कारण ये सिर शिव के हाथों से ही चिपक गया)।
नोट: जब इन्द्र ने गौतम की पत्नी के साथ व्यभचार किया, तो गौतम के श्राप से उसके शरीर पर हजारों भगें बन गई।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन दूतन खलु बधु करि मारिओ ॥ बडो निलाजु अजहू नही हारिओ ॥५॥

मूलम्

इन दूतन खलु बधु करि मारिओ ॥ बडो निलाजु अजहू नही हारिओ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूतन = दूतों ने। खलु = मूर्ख। बधु = मार कुटाई। बधु करि मारिओ = मार मार के मारा है, बुरी तरह मारा है।5।
अर्थ: इन दुष्टों ने (विकारों ने) (मेरे) मूर्ख (मन) को बुरी तरह से मार रखा है, पर ये मन बड़ा बेशर्म है, अभी भी विकारों की ओर से नहीं मुड़ा।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि रविदास कहा कैसे कीजै ॥ बिनु रघुनाथ सरनि का की लीजै ॥६॥१॥

मूलम्

कहि रविदास कहा कैसे कीजै ॥ बिनु रघुनाथ सरनि का की लीजै ॥६॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। कहा = कहाँ (जाऊँ)? रघुनाथ = परमात्मा।6।
अर्थ: रविदास कहता है: और कहाँ जाऊँ? और क्या करूँ? (इन विकारों से बचने के लिए) परमात्मा के बिना और किसी का आसरा लिया नहीं जा सकता।6।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द में जिस शब्द को ‘रघुनाथ’ के नाम से याद किया है उसके लिए शब्द ‘जगत गुर सुआमी’ भी बरता है। शब्द ‘रघुनाथ’ सतिगुरु जी ने स्वयं भी कई जगह इस्तेमाल किया है, परमात्मा के अर्थों में।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: विकारों की मार से बचने के लिए परमात्मा का आसरा लेना ही एकमात्र तरीका है।