विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु धनासिरी महला ३ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु धनासिरी महला ३ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम भीखक भेखारी तेरे तू निज पति है दाता ॥ होहु दैआल नामु देहु मंगत जन कंउ सदा रहउ रंगि राता ॥१॥
मूलम्
हम भीखक भेखारी तेरे तू निज पति है दाता ॥ होहु दैआल नामु देहु मंगत जन कंउ सदा रहउ रंगि राता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। भीखक = भिखारी। भेखारी = भिखारी। निज पति = अपने आप का मालिक, स्वतंत्र। दाता = दातें देने वाला। दैआल = दयावान। कंउ = को। रहउ = मैं रहूँ। रंगि = रंग में। राता = रंगा हुआ।1।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव तेरे (दर के) भिखारी हैं, तू स्वतंत्र रह के सब को दातें देने वाला है। हे प्रभु! मेरे पर दयावान हो। मुझ भिखारी को अपना नाम दे (ता कि) मैं सदा तेरे प्रेम-रंग में रंगा रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंउ बलिहारै जाउ साचे तेरे नाम विटहु ॥ करण कारण सभना का एको अवरु न दूजा कोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हंउ बलिहारै जाउ साचे तेरे नाम विटहु ॥ करण कारण सभना का एको अवरु न दूजा कोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारै = कुर्बान। जाउ = मैं जाता हूँ। विटहु = से। करण कारण = जगत का मूल।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे सदा कायम रहने वाले नाम से सदके जाता हूँ। तू सारे जगत का मूल है; तू ही सब जीवों को पैदा करने वाला है कोई और (तेरे जैसा) नहीं है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुते फेर पए किरपन कउ अब किछु किरपा कीजै ॥ होहु दइआल दरसनु देहु अपुना ऐसी बखस करीजै ॥२॥
मूलम्
बहुते फेर पए किरपन कउ अब किछु किरपा कीजै ॥ होहु दइआल दरसनु देहु अपुना ऐसी बखस करीजै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फेर = फेरा, चक्कर। किरपन कउ = कंजूस को, माया ग्रसित को। कीजै = कर। बखस = कृपा।2।
अर्थ: हे प्रभु! मुझ माया-ग्रसित को (अब तक मरने के) अनेक चक्कर लग चुके हैं, अब तो मेरे पर कुछ मेहर कर। हे प्रभु! मेरे पर दया कर। मेरे पर यही कृपा कर कि मुझे अपना दीदार दे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भनति नानक भरम पट खूल्हे गुर परसादी जानिआ ॥ साची लिव लागी है भीतरि सतिगुर सिउ मनु मानिआ ॥३॥१॥९॥
मूलम्
भनति नानक भरम पट खूल्हे गुर परसादी जानिआ ॥ साची लिव लागी है भीतरि सतिगुर सिउ मनु मानिआ ॥३॥१॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भनति = कहता है। भरम पट = भ्रम के पर्दे। परसादी = कृपा से। जानिआ = सांझ डाल ली। साची = सदा कायम रहने वाली। लिव = लगन। भीतरि = अंदर, मन में। सिउ = साथ।3।
अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: गुरु की कृपा से जिस मनुष्य के भ्रम के पर्दे खुल जाते हैं, उसकी (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ बन जाती है। उसके हृदय में (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाली लगन लग जाती है, गुरु के साथ उसका मन पतीज जाता है।3।1।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक१ का भाव है कि ये एक शब्द ‘घरु ४’ का है। गुरु रामदास जी के इसी राग में कुल 9 शब्द हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ४ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो हरि सेवहि संत भगत तिन के सभि पाप निवारी ॥ हम ऊपरि किरपा करि सुआमी रखु संगति तुम जु पिआरी ॥१॥
मूलम्
जो हरि सेवहि संत भगत तिन के सभि पाप निवारी ॥ हम ऊपरि किरपा करि सुआमी रखु संगति तुम जु पिआरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवहि = सेवते हैं, स्मरण करते हैं। सभि = सारे। निवारी = दूर करने वाला। सुआमी = हे मालिक प्रभु! तुम जु पिआरी = जो तुझे प्यारी लगती है।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे जो संत जो भक्त तेरा स्मरण करते हैं, तू उनके (पिछले किए) सारे पाप दूर करने वाला है। हे मालिक प्रभु! हमारे पर भी मेहर कर, (हमें उस) साधु-संगत में रख जो तुझे प्यारी लगती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि गुण कहि न सकउ बनवारी ॥ हम पापी पाथर नीरि डुबत करि किरपा पाखण हम तारी ॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि गुण कहि न सकउ बनवारी ॥ हम पापी पाथर नीरि डुबत करि किरपा पाखण हम तारी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि न सकउ = मैं कह नहीं सकता। बनवारी = (वनमालिन् = जंगली फूलों की माला पहन के रखने वाला कृष्ण) हे परमात्मा! नीरि = पानी में। पाखण = पत्थर। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! मैं तेरे गुण बयान नहीं कर सकता। हम जीव पापी हैं, पापों में डूबे रहते हैं, जैसे पत्थर पानी में डूबे रहते हैं। मेहर कर, हम पत्थरों (पत्थर-दिलों) को संसार समुंदर से पार लंघा ले। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम के लागे बिखु मोरचा लगि संगति साध सवारी ॥ जिउ कंचनु बैसंतरि ताइओ मलु काटी कटित उतारी ॥२॥
मूलम्
जनम जनम के लागे बिखु मोरचा लगि संगति साध सवारी ॥ जिउ कंचनु बैसंतरि ताइओ मलु काटी कटित उतारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर। मोरचा = जंग (लोहे को लगने वाला)। सवारी = स्वच्छ हो जाती है। कंचनु = सोना। बैसंतरि = आग में। ताइओ = तपाया जाता है। काटी = काटी जाती है। कटति = काट के। उतारी = उतर जाती है।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे सोना आग में तपाने से उसकी सारी मैल कट जाती है, उतार दी जाती है, वैसे ही जीवों के अनेक जन्मों के चिपके हुए पापों का जहर पापों का जंग साधु-संगत की शरण पड़ के साफ हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि जपनु जपउ दिनु राती जपि हरि हरि हरि उरि धारी ॥ हरि हरि हरि अउखधु जगि पूरा जपि हरि हरि हउमै मारी ॥३॥
मूलम्
हरि हरि जपनु जपउ दिनु राती जपि हरि हरि हरि उरि धारी ॥ हरि हरि हरि अउखधु जगि पूरा जपि हरि हरि हउमै मारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपउ = मैं जपता हूँ। जपि = जप के। उरि = हृदय में। धारी = मैं टिकाता हूँ। अउखधु = दवा। जगि = जगत में। पूरा = कभी ना खत्म होने वाला, संपूर्ण।3।
अर्थ: (हे भाई! तभी) मैं (भी) दिन-रात परमात्मा के नाम का जाप जपता हूँ, नाम जप के उसको अपने हृदय में बसाए रखता हूँ। हे भाई! परमात्मा का नाम जगत में ऐसी दवाई है जो अपना असर किए बग़ैर नहीं रहती। यह नाम जप के (अंदर से) अहंकार को खत्म किया जा सकता है।3।
[[0667]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि अगम अगाधि बोधि अपर्मपर पुरख अपारी ॥ जन कउ क्रिपा करहु जगजीवन जन नानक पैज सवारी ॥४॥१॥
मूलम्
हरि हरि अगम अगाधि बोधि अपर्मपर पुरख अपारी ॥ जन कउ क्रिपा करहु जगजीवन जन नानक पैज सवारी ॥४॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: चउपदे = चार बंदों वाले शब्द।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगाधि बोधि = इतना गहरा कि मनुष्य की समझ अंदाजा ना लगा सके। अपरंपर = हे परे से परे! पुरख = हे सर्व व्यापक! अपारी = हे बेअंत! जग जीवन = हे जगत के जीवन! पैज = इज्जत।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे मनुष्यों की समझ से परे! हे परे से परे! हे सर्व व्यापक! हे बेअंत! हे जगत जीवन! अपने दासों पर मेहर कर, और (इस विकारों भरे संसार-समुंदर में से) दासों की इज्जत रख ले।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ हरि के संत जना हरि जपिओ तिन का दूखु भरमु भउ भागी ॥ अपनी सेवा आपि कराई गुरमति अंतरि जागी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ हरि के संत जना हरि जपिओ तिन का दूखु भरमु भउ भागी ॥ अपनी सेवा आपि कराई गुरमति अंतरि जागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ = डर। भागी = दूर हो गया। सेवा = सेवा भक्ति। अंतरि = हृदय में।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के जिस संत जनों ने परमात्मा का नाम जपा, उनका हरेक दुख, हरेक भ्रम, हरेक डर दूर हो जाता है। परमात्मा खुद ही उनसे अपनी भक्ति करवाता है। (परमात्मा की कृपा से ही) उनके अंदर गुरु का उपदेश अपना प्रभाव डालता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कै नामि रता बैरागी ॥ हरि हरि कथा सुणी मनि भाई गुरमति हरि लिव लागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि कै नामि रता बैरागी ॥ हरि हरि कथा सुणी मनि भाई गुरमति हरि लिव लागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। रता = मगन। बैरागी = वैरागवान, माया के मोह से निर्लिप। मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। लिव = लगन।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में मगन रहता है वह माया के मोह से निर्लिप हो जाता है। वह (ज्यों-ज्यों) परमात्मा की महिमा की बातें सुनता है, उसको वह मन में अच्छी लगती हैं। गुरु के उपदेश की इनायत से उसकी लगन परमात्मा में लगी रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जना की जाति हरि सुआमी तुम्ह ठाकुर हम सांगी ॥ जैसी मति देवहु हरि सुआमी हम तैसे बुलग बुलागी ॥२॥
मूलम्
संत जना की जाति हरि सुआमी तुम्ह ठाकुर हम सांगी ॥ जैसी मति देवहु हरि सुआमी हम तैसे बुलग बुलागी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सांगी = स्वांग धारण करने वाला, पद्चिन्हों पर चलने वाले। तैसे बुलग बुलागी = वैसे बोल ही बोलते हैं।2।
अर्थ: हे हरि प्रभु! (दुनिया के लोग अपनी उच्च जाति का घमण्ड करते हैं) संत जनों की जाति तो तू स्वयं ही है (संत-जन तुझसे ही आत्मिक जीवन लेते हैं)। हे प्रभु! तू हमारा मालिक है, हम तेरे पद्चिन्हों पर चलने वाले हैं। जैसी तू हमें बुद्धि देता है, हम वैसे ही बोल बोलते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ हम किरम नान्ह निक कीरे तुम्ह वड पुरख वडागी ॥ तुम्हरी गति मिति कहि न सकह प्रभ हम किउ करि मिलह अभागी ॥३॥
मूलम्
किआ हम किरम नान्ह निक कीरे तुम्ह वड पुरख वडागी ॥ तुम्हरी गति मिति कहि न सकह प्रभ हम किउ करि मिलह अभागी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ हम = हमारी क्या बिसात? किरम = कीड़े। नान्ह = नन्हे, बहुत छोटे। निक = छोटे छोटे। गति = आत्मिक अवस्था। मिति = माप, विक्त। किउ करि = कैसे, किस तरह? मिलह = हम मिल सकते हैं। अभागी = भाग्यहीन।3।
अर्थ: हे प्रभु! हमारी क्या बिसात? हम तो बहुत छोटे कीड़े हैं, छोटे छोटे कृमि हैं, तू बड़ा पुरुख है। हम जीव ये नहीं बता सकते कि तू कैसा है, और कितना बड़ा है। हम अभागे जीव (अपने उद्यम से) तुझे कैसे मिल सकते हैं?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि प्रभ सुआमी किरपा धारहु हम हरि हरि सेवा लागी ॥ नानक दासनि दासु करहु प्रभ हम हरि कथा कथागी ॥४॥२॥
मूलम्
हरि प्रभ सुआमी किरपा धारहु हम हरि हरि सेवा लागी ॥ नानक दासनि दासु करहु प्रभ हम हरि कथा कथागी ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! दासनि दासु = दासों का दास। करहु = बना लो। कथागी = कहें।4।
अर्थ: हे हरि प्रभु! हे मालिक! हम पर मेहर कर, हम तेरी सेवा-भक्ति में लगें। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हमें अपने दासों का दास बना ले, हम तेरी महिमा की बातें करते रहें।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ हरि का संतु सतगुरु सत पुरखा जो बोलै हरि हरि बानी ॥ जो जो कहै सुणै सो मुकता हम तिस कै सद कुरबानी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ हरि का संतु सतगुरु सत पुरखा जो बोलै हरि हरि बानी ॥ जो जो कहै सुणै सो मुकता हम तिस कै सद कुरबानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतु पुरखा = महा पुरुष। हरि बानी = परमात्मा की महिमा की वाणी। बोलै = उचारता है। मुकता = विकारों से स्वतंत्र। सद = सदा।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु महापुरुख है, गुरु परमात्मा का संत है, जो परमात्मा की महिमा की वाणी उचारता है। जो जो मनुष्य इस वाणी को पढ़ता-सुनता है वह पापों से मुक्त हो जाता है। हे भाई! मैं उस गुरु से सदके जाता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत सुनहु जसु कानी ॥ हरि हरि कथा सुनहु इक निमख पल सभि किलविख पाप लहि जानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के संत सुनहु जसु कानी ॥ हरि हरि कथा सुनहु इक निमख पल सभि किलविख पाप लहि जानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा। कानी = कानों से, ध्यान से। निमख = आँख झपकने जितना समय। सभि = सारे। किलविख = पाप।1। रहाउ।
अर्थ: हे परमात्मा के संत जनो! परमात्मा की महिमा ध्यान से सुना करो। आँख झपकने के जितने समय के लिए, एक पल के वास्ते भी अगर परमात्मा के महिमा की बातें सुनो, तो सारे पाप-दोख उतर जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा संतु साधु जिन पाइआ ते वड पुरख वडानी ॥ तिन की धूरि मंगह प्रभ सुआमी हम हरि लोच लुचानी ॥२॥
मूलम्
ऐसा संतु साधु जिन पाइआ ते वड पुरख वडानी ॥ तिन की धूरि मंगह प्रभ सुआमी हम हरि लोच लुचानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। जिन = जिन्हों ने। ते = वह (बहुवचन)। वड वडानी = बड़े। मंगह = हम माँगते हैं। धूरि = चरण धूल। लोच लुचानी = चाहत लगी हुई है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने ऐसा संत गुरु पा लिया है, वह बड़े मनुष्य (ऊँचे जीवन वाले मनुष्य) बन गए हैं। हे प्रभु! हे सवामी! हे हरि! मैं उनके चरणों की धूल मांगता हूँ, मुझे उनके चरणों की धूल की चाहत है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि सफलिओ बिरखु प्रभ सुआमी जिन जपिओ से त्रिपतानी ॥ हरि हरि अम्रितु पी त्रिपतासे सभ लाथी भूख भुखानी ॥३॥
मूलम्
हरि हरि सफलिओ बिरखु प्रभ सुआमी जिन जपिओ से त्रिपतानी ॥ हरि हरि अम्रितु पी त्रिपतासे सभ लाथी भूख भुखानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफलिओ = फल देने वाला। बिरखु = वृक्ष। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। त्रिपतानी = तृप्त हो गए। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पी = पी कर। त्रिपतासे = अघा गए। सभ भूख = सारी भूख।3।
अर्थ: हे प्रभु! हे सवामी! हे हरि! तू सारे फल देने वाला (मानो) वृक्ष है। जिस लोगों ने तेरा नाम जपा वे (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गए। हे हरि! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है, (भाग्यशाली मनुष्य ये जल) पी के तृपत हो जाते हैं, उनकी और सारी भूख उतर जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन के वडे भाग वड ऊचे तिन हरि जपिओ जपानी ॥ तिन हरि संगति मेलि प्रभ सुआमी जन नानक दास दसानी ॥४॥३॥
मूलम्
जिन के वडे भाग वड ऊचे तिन हरि जपिओ जपानी ॥ तिन हरि संगति मेलि प्रभ सुआमी जन नानक दास दसानी ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपानी = जाप। प्रभ = हे प्रभु! दास दसानी = दासों का दास।4।
अर्थ: हे भाई! जिस लोगों के बहुत ऊँचे भाग्य होते हैं, वे परमात्मा के नाम का जाप जपते हैं। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! हे प्रभु! हे स्वामी! मुझे उनकी संगति में मिलाए रख, मुझे उनके दासों का दास बना दे।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ हम अंधुले अंध बिखै बिखु राते किउ चालह गुर चाली ॥ सतगुरु दइआ करे सुखदाता हम लावै आपन पाली ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ हम अंधुले अंध बिखै बिखु राते किउ चालह गुर चाली ॥ सतगुरु दइआ करे सुखदाता हम लावै आपन पाली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधुले अंध = बहुत ही अंधे। बिखै बिखु = मायावी पदार्थों का जहर। राते = मगन। किउ चालह = हम कैसे चल सकते हैं? लावै = लगा लिए। पाली = पल्ले से।1।
अर्थ: हे भाई! हम जीव माया के मोह में बहुत अँधे हो के मायावी पदार्थों के जहर में मगन रहते हैं। हम कैसे गुरु के बताए हुए राह पर चल सकते हैं? सुखों को देने वाला गुरु (खुद ही) मेहर करे, और हमें अपने साथ लगा ले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरसिख मीत चलहु गुर चाली ॥ जो गुरु कहै सोई भल मानहु हरि हरि कथा निराली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरसिख मीत चलहु गुर चाली ॥ जो गुरु कहै सोई भल मानहु हरि हरि कथा निराली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत = हे मित्रो! भल = भला। निराली = अनोखी, आश्चर्यजनक।1। रहाउ।
अर्थ: हे गुरसिख मित्रो! गुरु के बताए हुए राह पर चलो। (गुरु कहता है कि परमात्मा की महिमा किया केरो, ये) जो कुछ गुरु कहता है, इसको (अपने लिए) भला समझो, (क्योंकि) प्रभु की महिमा अनोखी (तब्दीली जीवन में पैदा कर देती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत सुणहु जन भाई गुरु सेविहु बेगि बेगाली ॥ सतगुरु सेवि खरचु हरि बाधहु मत जाणहु आजु कि काल्ही ॥२॥
मूलम्
हरि के संत सुणहु जन भाई गुरु सेविहु बेगि बेगाली ॥ सतगुरु सेवि खरचु हरि बाधहु मत जाणहु आजु कि काल्ही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरु सेवहु = गुरु की शरण पड़ जाओ। बेगि = जल्दी। बेगि बेगाली = बहुत जल्दी। खरचु हरि = प्रभु का नाम (जीवन के सफर के लिए) खर्च। बाधहु = (पल्ले) बाँध लो। काली = कल, तड़के।2।
अर्थ: हे हरि के संत जनो! हे भाईयो! सुनो, जल्दी ही गुरु की शरण पड़ जाओ। गुरु की शरण पड़ कर (जीवन-यात्रा के लिए) परमात्मा के नाम की खर्ची (पल्ले) बाँधो। कहीं ये ना समझ लेना कि आज (ये काम कर लेंगे) सवेरे (ये काम कर लेंगे। टाल-मटोल नहीं करना)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत जपहु हरि जपणा हरि संतु चलै हरि नाली ॥ जिन हरि जपिआ से हरि होए हरि मिलिआ केल केलाली ॥३॥
मूलम्
हरि के संत जपहु हरि जपणा हरि संतु चलै हरि नाली ॥ जिन हरि जपिआ से हरि होए हरि मिलिआ केल केलाली ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपणा = जाप। चलै हरि नाली = हरि की रजा में चलता है। केल = चोज, तमाशे। केलाली = तमाशे करने वाला, चोजी।3।
अर्थ: हे हरि के संत जनो! परमात्मा के नाम का जाप किया करो। (इस जाप की इनायत से) हरि का संत हरि की रजा में चलने लग जाता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपते हैं, वे परमात्मा का रूप हो जाते हैं। रंग-तमाशे करने वाला तमाशेबाज (चोजी) प्रभु उन्हें मिल जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि जपनु जपि लोच लुोचानी हरि किरपा करि बनवाली ॥ जन नानक संगति साध हरि मेलहु हम साध जना पग राली ॥४॥४॥
मूलम्
हरि हरि जपनु जपि लोच लुोचानी हरि किरपा करि बनवाली ॥ जन नानक संगति साध हरि मेलहु हम साध जना पग राली ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लुोचानी = (असल शब्द ‘लोचानी’ है यहाँ ‘लोचानी’ पढ़ना है)। हरि = हे हरि! बनवाली = हे परमात्मा! पग = पैर। राली = ख़ाक, धूल।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे बनवारी प्रभु! मुझे तेरा नाम जपने की चाहत लगी हुई है। मेहर कर, मुझे साधु-संगत में मिलाए रख, मुझे तेरे संत-जनों की धूल मिली रहे।4।4।
[[0668]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ हरि हरि बूंद भए हरि सुआमी हम चात्रिक बिलल बिललाती ॥ हरि हरि क्रिपा करहु प्रभ अपनी मुखि देवहु हरि निमखाती ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ हरि हरि बूंद भए हरि सुआमी हम चात्रिक बिलल बिललाती ॥ हरि हरि क्रिपा करहु प्रभ अपनी मुखि देवहु हरि निमखाती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूँद = बरखा की बूँद। चात्रिक = पपीहा। बिलल बिललाती = तरले लेता। प्रभ = हे प्रभु! मुखि = मुँह में। निमखाती = एक निमख के लिए भी, आँख झपकने जितने समय के लिए।1।
अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! मैं पपीहा तेरे नाम की बूँद के लिए तड़प रहा हूँ। (मेहर कर), तेरा नाम मेरे वास्ते (स्वाति) बूँद बन जाए। हे हरि! हे प्रभु! अपनी मेहर कर, आँख झपकने जितने समय के लिए ही मेरे मुँह में (अपने नाम की स्वाति) बूँद डाल दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु रहि न सकउ इक राती ॥ जिउ बिनु अमलै अमली मरि जाई है तिउ हरि बिनु हम मरि जाती ॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिनु रहि न सकउ इक राती ॥ जिउ बिनु अमलै अमली मरि जाई है तिउ हरि बिनु हम मरि जाती ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। राती = रक्ती भर समय के लिए भी। अमली = नशई, नशे का आदी मनुष्य। मरि जाई है = मरने लगता है, तड़फ उठता है। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मैं रक्ती भर समय के लिए भी नहीं रह सकता। जैसे (अफीम आदि) नशे के बिना अमली (नशे का आदी) मनुष्य तड़प उठता है, वैसे ही परमात्मा के नाम के बिना मैं घबरा जाता हूँ। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम हरि सरवर अति अगाह हम लहि न सकहि अंतु माती ॥ तू परै परै अपर्मपरु सुआमी मिति जानहु आपन गाती ॥२॥
मूलम्
तुम हरि सरवर अति अगाह हम लहि न सकहि अंतु माती ॥ तू परै परै अपर्मपरु सुआमी मिति जानहु आपन गाती ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरवर = तालाब, समुंदर। अति अगाह = बहुत गहरा। माती = मात्रा भर, रक्ती भर भी। अपरंपरु = परे से परे। गाती = गति। मिति = माप।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू (गुणों का) बड़ा ही गहरा समुंदर है, हम तेरी गहराई का अंत रक्ती भर भी नहीं पा सकते। तू परे से परे है, तू बेअंत है। हे स्वामी! तू कैसा है और कितना बड़ा है; ये भेद तू खुद ही जानता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत जना हरि जपिओ गुर रंगि चलूलै राती ॥ हरि हरि भगति बनी अति सोभा हरि जपिओ ऊतम पाती ॥३॥
मूलम्
हरि के संत जना हरि जपिओ गुर रंगि चलूलै राती ॥ हरि हरि भगति बनी अति सोभा हरि जपिओ ऊतम पाती ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि चलूले = गाढ़े रंग में। राती = रंगे जाते हैं। पाती = पति, इज्जत।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के जिस संत जनों ने परमात्मा का नाम जपा, वे गुरु के (बख्शे हुए) गाढ़े प्रेम-रंग में रंगे गए, उनके अंदर परमात्मा की भक्ति का रंग बन गया, उनको (लोक-परलोक में) बड़ी शोभा मिली। जिन्होंने प्रभु का नाम जपा, उन्हें श्रेष्ठ सम्मान प्राप्त हुआ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे ठाकुरु आपे सेवकु आपि बनावै भाती ॥ नानकु जनु तुमरी सरणाई हरि राखहु लाज भगाती ॥४॥५॥
मूलम्
आपे ठाकुरु आपे सेवकु आपि बनावै भाती ॥ नानकु जनु तुमरी सरणाई हरि राखहु लाज भगाती ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुरु = मालिक। भाती = भांति भांति के, तरीके, विउंत। भगाती = भक्तों की।4।
अर्थ: पर, हे भाई! भक्ति करने की विधि प्रभु खुद ही बनाता है (खुद ही सबब बनाता है), वह खुद ही मालिक है खुद ही सेवक है। हे प्रभु! तेरा दास नानक तेरी शरण आया है। तू खुद ही अपने भक्तों की इज्जत रखता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ कलिजुग का धरमु कहहु तुम भाई किव छूटह हम छुटकाकी ॥ हरि हरि जपु बेड़ी हरि तुलहा हरि जपिओ तरै तराकी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ कलिजुग का धरमु कहहु तुम भाई किव छूटह हम छुटकाकी ॥ हरि हरि जपु बेड़ी हरि तुलहा हरि जपिओ तरै तराकी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = कष्ट, झगड़े। जुग = समय। कलिजुग = झगड़े कष्टों से भरपूर जगत। कलिजुग का धरमु = वह धर्म जो दुनिया के झमेलों से बचा सके।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ युगों का जिक्र नहीं चल रहां साधारण तौर पर बताया है कि दुनिया में माया के मोह के कारण झगड़े कष्ट बढ़े रहते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
भाई = हे भाई! किव छूटह = हम कैसे बचें? छुटकाकी = बचने के चाहवान। तुलहा = नदी पार करने के लिए बाँसों आदि को बाँध के बनाया हुआ आसरा। तराकी = तैराक।1।
अर्थ: हे भाई! मुझे वह धर्म बता जिससे जगत के विकारों के झमेलों से बचा जा सके। मैं इन झमेलों से बचना चाहता हूँ। बता: मैं कैसे बचूँ? (उक्तर-) परमात्मा के नाम का जाप बेड़ी है, नाम ही तुलहा है। जिस मनुष्य ने हरि का नाम जपा वह तैराक बन के (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जी लाज रखहु हरि जन की ॥ हरि हरि जपनु जपावहु अपना हम मागी भगति इकाकी ॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि जी लाज रखहु हरि जन की ॥ हरि हरि जपनु जपावहु अपना हम मागी भगति इकाकी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाज = इज्जत। हम मागी = हमने मांगी है। इकाकी = एक ही। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (दुनिया के विकारों के झमेलों में से) अपने सेवक की इज्जत बचा ले। हे हरि! मुझे अपना नाम जपने की सामर्थ्य दे। मैं (तुझसे) सिर्फ तेरी भक्ति का दान माँग रहा हूँ। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के सेवक से हरि पिआरे जिन जपिओ हरि बचनाकी ॥ लेखा चित्र गुपति जो लिखिआ सभ छूटी जम की बाकी ॥२॥
मूलम्
हरि के सेवक से हरि पिआरे जिन जपिओ हरि बचनाकी ॥ लेखा चित्र गुपति जो लिखिआ सभ छूटी जम की बाकी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। बचनाकी = वचन से, गुरु की वाणी से। चित्र गुपति = चित्र गुप्त ने (चित्र और गुप्त, ये दोनों धर्मराज के लिखारी माने गए हैं, जो हरेक जीव के किए कर्मों का लेखा लिखते रहते हैं)। छूटी = खत्म हो गई। बाकी = हिसाब।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु के वचन के द्वारा परमात्मा का नाम जपा, वे सेवक परमात्मा को प्यारे लगते हैं। चित्र-गुप्त ने जो भी उनके (कर्मों का) लेख लिख रखा था, धर्मराज का वह सारा हिसाब ही समाप्त हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के संत जपिओ मनि हरि हरि लगि संगति साध जना की ॥ दिनीअरु सूरु त्रिसना अगनि बुझानी सिव चरिओ चंदु चंदाकी ॥३॥
मूलम्
हरि के संत जपिओ मनि हरि हरि लगि संगति साध जना की ॥ दिनीअरु सूरु त्रिसना अगनि बुझानी सिव चरिओ चंदु चंदाकी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। लगि = लग के। दिनीअरु = (दिनकर) सूरज। सूरु = सूर्य। अगनि = आग। सिव = कल्याण स्वरूप परमात्मा। चंदाकी = चांदनी वाला।3।
अर्थ: हे भाई! जिस संत जनों ने साधु जनों की संगति में बैठ के अपने मन में परमात्मा के नाम का जाप किया, उनके अंदर कल्याण स्वरूप (परमात्मा प्रगट हो गया, मानो) ठंडक पहुँचाने वाला चाँद निकल आया हो, जिसने (उनके हृदय में से) तृष्णा की आग बुझा दी; (जिसने विकारों का) तपता सूरज (शांत कर दिया)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम वड पुरख वड अगम अगोचर तुम आपे आपि अपाकी ॥ जन नानक कउ प्रभ किरपा कीजै करि दासनि दास दसाकी ॥४॥६॥
मूलम्
तुम वड पुरख वड अगम अगोचर तुम आपे आपि अपाकी ॥ जन नानक कउ प्रभ किरपा कीजै करि दासनि दास दसाकी ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर; गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। अपाकी = आप ही। कउ = को, पर। करि = बना ले।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू सबसे बड़ा है, तू सर्व-व्यापक है; तू अगम्य (पहुँच से परे) है; ज्ञान-इंद्रिय के द्वारा तुझ तक नहीं पहुँचा जा सकता। तू (हर जगह) खुद ही खुद, स्वयं ही स्वयं है। हे प्रभु! अपने दास नानक पर मेहर कर, और, अपने दासों के दासों का दास बना ले।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ घरु ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ४ घरु ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर धारि बीचारि मुरारि रमो रमु मनमोहन नामु जपीने ॥ अद्रिसटु अगोचरु अपर्मपर सुआमी गुरि पूरै प्रगट करि दीने ॥१॥
मूलम्
उर धारि बीचारि मुरारि रमो रमु मनमोहन नामु जपीने ॥ अद्रिसटु अगोचरु अपर्मपर सुआमी गुरि पूरै प्रगट करि दीने ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उर = हृदय। उर धारि = हृदय में बसा के। बीचारि = विचार के। मुरारि = (मुर+अरि) परमात्मा। रमो रमु = राम ही राम। जपीने = जपता है। अद्रिसटु = ना दिखाई देने वाला। अगोचरु = (अ+गो+चरु) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे। अपरंपर = परे से परे, बेअंत। गुरि = गुरु ने।1।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य के हृदय में उस परमात्मा का नाम) प्रगट कर दिया है; जो इन आँखों से नहीं दिखाई देता, जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, बेअंत है, जो सबका मालिक है, (वह मनुष्य उस) मुरारी को मन मोहन के नाम को अपने दिल में बसा के सोच-मण्डल में टिका के सदा जपता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम पारस चंदन हम कासट लोसट ॥ हरि संगि हरी सतसंगु भए हरि कंचनु चंदनु कीने ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम पारस चंदन हम कासट लोसट ॥ हरि संगि हरी सतसंगु भए हरि कंचनु चंदनु कीने ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। कासट = काठ। लोसट = लोहा। संगि = से। कंचनु = सोना।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा पारस है, हम जीव लोहा हैं। परमात्मा चंदन है, हम जीव काठ हैं। जिस मनुष्य का परमात्मा के साथ सत्संग हो जाता है, परमात्मा उस को (लोहे से) सोना बना देता है, (काठ से) चंदन बना देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नव छिअ खटु बोलहि मुख आगर मेरा हरि प्रभु इव न पतीने ॥ जन नानक हरि हिरदै सद धिआवहु इउ हरि प्रभु मेरा भीने ॥२॥१॥७॥
मूलम्
नव छिअ खटु बोलहि मुख आगर मेरा हरि प्रभु इव न पतीने ॥ जन नानक हरि हिरदै सद धिआवहु इउ हरि प्रभु मेरा भीने ॥२॥१॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नव = नौ व्याकरण। छिअ खटु = छह शास्त्र। बोलहि = बोलते हैं। मुख आगर = मुँह जबानी। इव = इस तरह। पतीने = पतीजता, खुश होता। हिरदै = हृदय में। सद = सदा। भीने = भीगता, प्रसन्न होता।2।
अर्थ: (हे भाई! कई पण्डित) नौ व्याकरणों और छह शास्त्रों को मुँह जबानी उचार लेते हैं, (पर) प्यारा हरि-प्रभु इस तरह खुश नहीं होता। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा को अपने हृदय में सदा बसाए रखो, (सिर्फ) इस तरह परमात्मा सदा प्रसन्न होता है।2।1।7।
[[0669]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ गुन कहु हरि लहु करि सेवा सतिगुर इव हरि हरि नामु धिआई ॥ हरि दरगह भावहि फिरि जनमि न आवहि हरि हरि हरि जोति समाई ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ गुन कहु हरि लहु करि सेवा सतिगुर इव हरि हरि नामु धिआई ॥ हरि दरगह भावहि फिरि जनमि न आवहि हरि हरि हरि जोति समाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुन = परमात्मा के गुण। कहु = याद किया कर। लहु = ढूँढ लो, मिलने का प्रयत्न करते रहो। इव = इस तरह। धिआई = ध्याई, तू स्मरण करता रह। भावहि = तू अच्छा लगेगा। न आवहि = तू नहीं आएगा। समाई = लीनता।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण याद किया कर। (इस तरह) परमात्मा को मिलने का प्रयत्न करता रह। गुरु की (बताई) सेवा किया कर। इस तरीके से सदा हरि का नाम स्मरण करता रह। (नाम-जपने की इनायत से) तू परमात्मा की दरगाह में पसंद आ जाएगा, दुबारा जनम (मरन के चक्कर) में नहीं आएगा, तू परमात्मा की ज्योति में सदा लीन रहेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि मन नामु हरी होहि सरब सुखी ॥ हरि जसु ऊच सभना ते ऊपरि हरि हरि हरि सेवि छडाई ॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि मन नामु हरी होहि सरब सुखी ॥ हरि जसु ऊच सभना ते ऊपरि हरि हरि हरि सेवि छडाई ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! होहि = तू होगा। ते = से। सेवि = सेवा भक्ति कर। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर, तू हर जगह सुखी रहेगा। परमात्मा की महिमा बड़ा श्रेष्ठ काम है, और सब कामों से बढ़िया काम है। परमात्मा की सेवा-भक्ति करता रह, (ये सेवा-भक्ति सब दुखों विकारों से) बचा लेती है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि क्रिपा निधि कीनी गुरि भगति हरि दीनी तब हरि सिउ प्रीति बनि आई ॥ बहु चिंत विसारी हरि नामु उरि धारी नानक हरि भए है सखाई ॥२॥२॥८॥
मूलम्
हरि क्रिपा निधि कीनी गुरि भगति हरि दीनी तब हरि सिउ प्रीति बनि आई ॥ बहु चिंत विसारी हरि नामु उरि धारी नानक हरि भए है सखाई ॥२॥२॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपा निधि = कृपा का खजाना प्रभु। गुरि = गुरु ने। सिउ = से। विसारि = भुला दी। उरि = हृदय में। सखाई = मित्र, साथी।2।
अर्थ: पर, हे भाई! कृपा के खजाने परमात्मा ने जिस मनुष्य पर कृपा की, गुरु ने उस मनुष्य को परमात्मा की भक्ति की दाति बख्श दी, तब उस मनुष्य का प्रेम परमात्मा से बन गया। हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम अपने दिल में बसा लिया, उसने (दुनियावी अन्य) बहुत सारी चिंताएं बिसार दीं, परमात्मा उसका साथी मित्र बन गया।2।2।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ५’ का ये दूसरा शब्द है। कुल जोड़ 8 हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ हरि पड़ु हरि लिखु हरि जपि हरि गाउ हरि भउजलु पारि उतारी ॥ मनि बचनि रिदै धिआइ हरि होइ संतुसटु इव भणु हरि नामु मुरारी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ हरि पड़ु हरि लिखु हरि जपि हरि गाउ हरि भउजलु पारि उतारी ॥ मनि बचनि रिदै धिआइ हरि होइ संतुसटु इव भणु हरि नामु मुरारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउजलु = संसार समुंदर। मनि = मन से। बचनि = वचन से। रिदै = हृदय में। होइ संतुसटु = संतोखी हो के। इव = इस तरह। भणु = उचारता है। मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम पढ़ा कर, परमात्मा का नाम लिखता रह, परमात्मा का नाम जपा कर, परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर। परमात्मा संसार समुंदर से पार लंघा लेता है। हे भाई! मन में, हृदय में, जीभ से परमात्मा का नाम याद किया कर। हे भाई! संतोखी हो के इस तरह परमात्मा का नाम उचारा कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि जपीऐ हरि जगदीस ॥ मिलि संगति साधू मीत ॥ सदा अनंदु होवै दिनु राती हरि कीरति करि बनवारी ॥ रहाउ॥
मूलम्
मनि जपीऐ हरि जगदीस ॥ मिलि संगति साधू मीत ॥ सदा अनंदु होवै दिनु राती हरि कीरति करि बनवारी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। जपीऐ = जपना चाहिए। जगदीस = जगत का ईश्वर। मिलि = मिल के। मीत = हे मित्र! कीरति = महिमा। बनवारी = (वनमालिन्) परमात्मा (की)। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! गुरु की संगति में मिल के जगत के मालिक हरि का नाम मन में जपना चाहिए। हे मित्र! परमात्मा की महिमा किया कर, (इस तरह) दिन रात सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि करी द्रिसटि तब भइओ मनि उदमु हरि हरि नामु जपिओ गति भई हमारी ॥ जन नानक की पति राखु मेरे सुआमी हरि आइ परिओ है सरणि तुमारी ॥२॥३॥९॥
मूलम्
हरि हरि करी द्रिसटि तब भइओ मनि उदमु हरि हरि नामु जपिओ गति भई हमारी ॥ जन नानक की पति राखु मेरे सुआमी हरि आइ परिओ है सरणि तुमारी ॥२॥३॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिसटि = नजर, निगाह। मनि = मन में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। सुआमी = हे स्वामी!।2।
अर्थ: हे भाई! जब परमात्मा ने मेहर की निगाह की, तब मन में उद्यम पैदा हुआ, तब ही हमने नाम जपा, और हमारी ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई।
हे मेरे मालिक प्रभु! अपने दास नानक की इज्जत रख, तेरा ये दास तेरी शरण आ पड़ा है (अपने दास को नाम जपने की दाति बख्श)।2।3।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ चउरासीह सिध बुध तेतीस कोटि मुनि जन सभि चाहहि हरि जीउ तेरो नाउ ॥ गुर प्रसादि को विरला पावै जिन कउ लिलाटि लिखिआ धुरि भाउ ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ चउरासीह सिध बुध तेतीस कोटि मुनि जन सभि चाहहि हरि जीउ तेरो नाउ ॥ गुर प्रसादि को विरला पावै जिन कउ लिलाटि लिखिआ धुरि भाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = करामाती योगी, योग मत के नेता। बुध = महात्मा गौतम बुद्ध जैसे ज्ञानवान। तेतीस कोटि = तेतीस करोड़ देवते। सभि = सारे। प्रसादि = कृपा से। लिलाटि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। भाउ = प्रेम।1।
अर्थ: हे प्रभु! जोग-मत के चौरासी नेता, महात्मा बुद्ध जैसे ज्ञानवान, तेतीस करोड़ देवते, अनेक ऋषि-मुनि, ये सारे तेरा नाम (प्राप्त करना) चाहते हैं, पर कोई विरला मनुष्य गुरु की कृपा से (ये दाति) हासिल करता है। (नाम की दाति उनको ही मिलती है) जिनके माथे पर धुर दरगाह से हरि-नाम का प्रेम-लेख लिखा हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि मन रामै नामु हरि जसु ऊतम काम ॥ जो गावहि सुणहि तेरा जसु सुआमी हउ तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि मन रामै नामु हरि जसु ऊतम काम ॥ जो गावहि सुणहि तेरा जसु सुआमी हउ तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! रामै नामु = परमात्मा का नाम ही। जसु = यश, महिमा। सुआमी = हे स्वामी! हउ = मैं। सद = सदा। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम ही जपा कर। परमात्मा की महिमा करना सबसे श्रेष्ठ काम है। हे मालिक प्रभु! जो मनुष्य तेरी महिमा गाते हैं, सुनते हैं, मैं उनसे सदा कुर्बान जाता हूँ। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरणागति प्रतिपालक हरि सुआमी जो तुम देहु सोई हउ पाउ ॥ दीन दइआल क्रिपा करि दीजै नानक हरि सिमरण का है चाउ ॥२॥४॥१०॥
मूलम्
सरणागति प्रतिपालक हरि सुआमी जो तुम देहु सोई हउ पाउ ॥ दीन दइआल क्रिपा करि दीजै नानक हरि सिमरण का है चाउ ॥२॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाउ = पाऊँ, मैं पाता हूँ।2।
अर्थ: हे शरण आए की पालना करने वाले मालिक-प्रभु! मैं (तेरे दर से) वही कुछ ले सकता हूँ जो तू खुद देता है। हे दीनों पर दया करने वाले! कृपा करके नानक को अपने नाम की दाति दे, (नानक को) तेरे नाम के स्मरण का चाव है।2।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ सेवक सिख पूजण सभि आवहि सभि गावहि हरि हरि ऊतम बानी ॥ गाविआ सुणिआ तिन का हरि थाइ पावै जिन सतिगुर की आगिआ सति सति करि मानी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ सेवक सिख पूजण सभि आवहि सभि गावहि हरि हरि ऊतम बानी ॥ गाविआ सुणिआ तिन का हरि थाइ पावै जिन सतिगुर की आगिआ सति सति करि मानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। उतम = श्रेष्ठ। बानी = गुरवाणी। थाइ पावै = जगह में डालता है, स्वीकार करता है। सति सति = बिल्कुल ठीक। करि = कर के, समझ के। मानी = मानी है, अमल किया है।1।
अर्थ: हे भाई! सेवक (कहलवाने वाले) सारे (गुरु-दर पर प्रभु की) पूजा-भक्ति करने आते हैं, और परमात्मा की महिमा के साथ भरपूर उत्तम गुरबाणी को गाते हैं। पर, परमात्मा उन मनुष्यों की वाणी का गाना और सुनना स्वीकार करता है, जिन्होंने गुरु के हुक्म को बिल्कुल सही जान के उस पर अमल (भी) किया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलहु भाई हरि कीरति हरि भवजल तीरथि ॥ हरि दरि तिन की ऊतम बात है संतहु हरि कथा जिन जनहु जानी ॥ रहाउ॥
मूलम्
बोलहु भाई हरि कीरति हरि भवजल तीरथि ॥ हरि दरि तिन की ऊतम बात है संतहु हरि कथा जिन जनहु जानी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई = हे भाई! कीरति = कीर्ति, महिमा। तीरथि = तीर्थ के द्वारा। भवजल तीरथि = संसार समुंदर के तीर्थ द्वारा, संसार समुंदर से पार लंघाने वाले तीर्थ (-गुरु) के द्वारा। दरि = दर पर। बात = बातचीत, शोभा। संतहु = हे संत जनो! जिन जनहु = जिस मनुष्यों ने। जानी = गहरी सांझ डाली। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संसार समुंदर से पार लंघाने वाले (गुरु-) तीर्थ की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा किया करो। परमात्मा के दर पर उन लोगों की बहुत शोभा होती है, जिस लोगों ने परमात्मा की महिमा के साथ गहरी सांझ डाली हुई है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे गुरु चेला है आपे आपे हरि प्रभु चोज विडानी ॥ जन नानक आपि मिलाए सोई हरि मिलसी अवर सभ तिआगि ओहा हरि भानी ॥२॥५॥११॥
मूलम्
आपे गुरु चेला है आपे आपे हरि प्रभु चोज विडानी ॥ जन नानक आपि मिलाए सोई हरि मिलसी अवर सभ तिआगि ओहा हरि भानी ॥२॥५॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) खुद ही। रोज विडानी = आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाला। सोई = वही मनुष्य। मिलसी = मिलेगा। तिआगि = त्याग दे। ओहा = वह महिमा ही। भानी = अच्छी लगती है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु आप ही गुरु है, आप ही सिख है, प्रभु खुद ही आश्चर्यजनक तमाशे करने वाला है। हे दास नानक! वही मनुष्य परमात्मा को मिल सकता है जिसको परमात्मा स्वयं मिलाता है। हे भाई! और सारा (सहारे-आसरे) छोड़ के (गुरु की आज्ञा में चल के महिमा किया कर) प्रभु को वह महिमा ही प्यारी लगती है।2।5।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ इछा पूरकु सरब सुखदाता हरि जा कै वसि है कामधेना ॥ सो ऐसा हरि धिआईऐ मेरे जीअड़े ता सरब सुख पावहि मेरे मना ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ इछा पूरकु सरब सुखदाता हरि जा कै वसि है कामधेना ॥ सो ऐसा हरि धिआईऐ मेरे जीअड़े ता सरब सुख पावहि मेरे मना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरकु = पूरी करने वाला। दाता = देने वाला। सरब = सारे। जा कै वसि = जिस के बस में। धेन = गाय। काम = वासना। कामधेन = स्वर्ग की वह गाय जो सारी वासनाएं पूरी कर देती है। जीअड़े = हे सोहनी जीवात्मा! त = तब। पावहि = पा लेगा।1।
अर्थ: हे मेरी जिंदे! जो हरि सारी ही कामनाएं पूरी करने वाला है, जो सारे ही सुख देने वाला है, जिसके वश में (स्वर्ग में रहने वाली समझी गई) कामधेनु है उस ऐसी स्मर्था वाले परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। हे मेरे मन! (जब तू परमात्मा का स्मरण करेगा) तब सारे सुख हासिल कर लेगा।1।
[[0670]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि मन सति नामु सदा सति नामु ॥ हलति पलति मुख ऊजल होई है नित धिआईऐ हरि पुरखु निरंजना ॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि मन सति नामु सदा सति नामु ॥ हलति पलति मुख ऊजल होई है नित धिआईऐ हरि पुरखु निरंजना ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सति नामु = सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। मुख ऊजल = उज्जवल मुख वाले, सही रास्ते पर। पुरखु = सर्व व्यापक। निरंजना = माया से निर्लिप प्रभु। रहाउ।
अर्थ: हे मन! सदा स्थिर प्रभु का नाम सदा जपा कर। हे भाई! सर्व-व्यापक निर्लिप हरि का सदा ध्यान धरना चाहिए, (इस तरह) लोक-परलोक में इज्जत कमा ली जाती है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह हरि सिमरनु भइआ तह उपाधि गतु कीनी वडभागी हरि जपना ॥ जन नानक कउ गुरि इह मति दीनी जपि हरि भवजलु तरना ॥२॥६॥१२॥
मूलम्
जह हरि सिमरनु भइआ तह उपाधि गतु कीनी वडभागी हरि जपना ॥ जन नानक कउ गुरि इह मति दीनी जपि हरि भवजलु तरना ॥२॥६॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस हृदय में। तह = उस हृदय में से। उपाधि = झगड़ा बखेड़ा। गतु कीनी = विदा हो जाता है। कउ = को। गुरि = गुरु ने। भवजलु = संसार समुंदर।2।
अर्थ: हे भाई! जिस हृदय में परमात्मा की भक्ति होती है उसमें से हरेक किस्म का झगड़ा-बखेड़ा निकल जाता है। (फिर भी) बहुत भाग्य से ही परमात्मा का भजन हो सकता है। हे भाई! दास नानक को (तो) गुरु ने ये समझ दी है कि परमात्मा का नाम जप के संसार समुंदर से पार लांघ जाना है।2।6।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ४ ॥ मेरे साहा मै हरि दरसन सुखु होइ ॥ हमरी बेदनि तू जानता साहा अवरु किआ जानै कोइ ॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ४ ॥ मेरे साहा मै हरि दरसन सुखु होइ ॥ हमरी बेदनि तू जानता साहा अवरु किआ जानै कोइ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसन सुखु = दर्शन का आत्मिक आनंद। होइ = मिल जाए। बेदनि = (दिल की) पीड़ा, वेदना। अवरु कोइ = और कोई। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे पातशाह! (मेहर कर) मुझे तेरे दर्शनों का आनंद प्राप्त हो जाए। हे मेरे पातशाह! मेरे दिल की पीड़ा को तू ही जानता है। कोई और क्या जान सकता है?। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा साहिबु सचु तू मेरे साहा तेरा कीआ सचु सभु होइ ॥ झूठा किस कउ आखीऐ साहा दूजा नाही कोइ ॥१॥
मूलम्
साचा साहिबु सचु तू मेरे साहा तेरा कीआ सचु सभु होइ ॥ झूठा किस कउ आखीऐ साहा दूजा नाही कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। कउ = को। किस कउ = (शब्द ‘किस’ का संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दिया गया है)।1।
अर्थ: हे मेरे पातशाह! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, तू अटल है। जो कुछ तू करता है, उसमें कोई भी कमी खामी नहीं है। हे पातशाह! (सारे संसार में तेरे बिना) और कोई नहीं है (इस वास्ते) किसी को झूठा नहीं कहा जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभना विचि तू वरतदा साहा सभि तुझहि धिआवहि दिनु राति ॥ सभि तुझ ही थावहु मंगदे मेरे साहा तू सभना करहि इक दाति ॥२॥
मूलम्
सभना विचि तू वरतदा साहा सभि तुझहि धिआवहि दिनु राति ॥ सभि तुझ ही थावहु मंगदे मेरे साहा तू सभना करहि इक दाति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतदा = मौजूद। सभि = सारे। थावहु = पास से। तू इक = एक तू ही।2।
अर्थ: हे मेरे पातशाह! तू सब जीवों में मौजूद है, सारे जीव दिन-रात तेरा ही ध्यान धरते हैं। हे मेरे पातशाह! सारे जीव तुझसे ही (मांगें) मांगते हैं। एक तू ही सब जीवों को दातें दे रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु को तुझ ही विचि है मेरे साहा तुझ ते बाहरि कोई नाहि ॥ सभि जीअ तेरे तू सभस दा मेरे साहा सभि तुझ ही माहि समाहि ॥३॥
मूलम्
सभु को तुझ ही विचि है मेरे साहा तुझ ते बाहरि कोई नाहि ॥ सभि जीअ तेरे तू सभस दा मेरे साहा सभि तुझ ही माहि समाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। ते = से। जीअ = जीव। माहि = में।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे पातशाह! हरेक जीव तेरे हुक्म में है, तुझसे आकी कोई जीव हो ही नहीं सकता। हे मेरे पातशाह! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, ये सारे तेरे में ही लीन हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभना की तू आस है मेरे पिआरे सभि तुझहि धिआवहि मेरे साह ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू मेरे पिआरे सचु नानक के पातिसाह ॥४॥७॥१३॥
मूलम्
सभना की तू आस है मेरे पिआरे सभि तुझहि धिआवहि मेरे साह ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू मेरे पिआरे सचु नानक के पातिसाह ॥४॥७॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साह = हे शाह! पतसाह = हे पातशाह! सचु = सदा स्थिर।4।
अर्थ: हे मेरे प्यारे पातशाह! तू सब जीवों की आशाएं-उम्मीदें पूरी करता है सारे जीव तेरा ही ध्यान धरते हैं। हे नानक के पातशाह! हे मेरे प्यारे! जैसे तुझे अच्छा लगता है, वैसे मुझे (अपने चरणों में) रख। तू ही सदा कायम रहने वाला है।4।7।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: 7 शब्द ‘घरु ५’ के हैं। धनासरी में गुरु रामदास जी के कुल 13 शब्द हैं। घर १ के 6 व घर ५ के 7। कुल 13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भव खंडन दुख भंजन स्वामी भगति वछल निरंकारे ॥ कोटि पराध मिटे खिन भीतरि जां गुरमुखि नामु समारे ॥१॥
मूलम्
भव खंडन दुख भंजन स्वामी भगति वछल निरंकारे ॥ कोटि पराध मिटे खिन भीतरि जां गुरमुखि नामु समारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भव खंडन = हे जनम मरण (के चक्कर का) नाश करने वाले! दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! भगति वछल = हे भक्ति के साथ प्यार करने वाले! निरंकारे = हे आकार रहित प्रभु! कोटि = करोड़ों। भीतरि = में। जां = जब। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। समारै = संभालता है।1।
अर्थ: हे जनम-मरण के चक्कर नाश करने वाले! हे दुखों का नाश करने वाले! हे मालिक! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे आकार रहित! जब कोई मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (तेरा) नाम दिल में बसाता है, उसके करोड़ों पाप एक छिन में मिट जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा मनु लागा है राम पिआरे ॥ दीन दइआलि करी प्रभि किरपा वसि कीने पंच दूतारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरा मनु लागा है राम पिआरे ॥ दीन दइआलि करी प्रभि किरपा वसि कीने पंच दूतारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दइआलि = दीनों पर दया करने वाले! प्रभि = प्रभु ने। पंच दूतारै = (कामादिक) पाँच वैरी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा मन प्यारे परमात्मा (के नाम) से लगा हुआ है। दीनों पर दया करने वाले प्रभु ने (खुद ही) कृपा की है, और पाँचों (कामादिक) वैरी (मेरे) वश में कर दिए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा थानु सुहावा रूपु सुहावा तेरे भगत सोहहि दरबारे ॥ सरब जीआ के दाते सुआमी करि किरपा लेहु उबारे ॥२॥
मूलम्
तेरा थानु सुहावा रूपु सुहावा तेरे भगत सोहहि दरबारे ॥ सरब जीआ के दाते सुआमी करि किरपा लेहु उबारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहहि = सोहाने लगते हैं। दाते = हे दातार! लेहु उबारै = बचा लो।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा स्थान सुंदर है, तेरा रूप सुंदर है। तेरे भक्त तेरे दरबार में सुंदर लगते हैं। हे सारे जीवों को दातें देने वाले मालिक प्रभु! मेहर कर; (मुझे कामादिक वैरियों से) बचाए रख।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा वरनु न जापै रूपु न लखीऐ तेरी कुदरति कउनु बीचारे ॥ जलि थलि महीअलि रविआ स्रब ठाई अगम रूप गिरधारे ॥३॥
मूलम्
तेरा वरनु न जापै रूपु न लखीऐ तेरी कुदरति कउनु बीचारे ॥ जलि थलि महीअलि रविआ स्रब ठाई अगम रूप गिरधारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरनु = वर्ण, रंग। रूपु = रूप, शक्ल। कुदरति = ताकत। जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। स्रब ठाई = सर्व स्थान, हर जगह। गिरधारे = हे गिरधारी! (गिरि = पहाड़) हे प्रभु!।3।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा कोई रंग नहीं दिखता; तेरी कोई सूरति नहीं दिखती। कोई मनुष्य नहीं सोच सकता कि तू कितना ताकतवर है। हे अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा! तू पानी में धरती पर आकाश में हर जगह मौजूद है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीरति करहि सगल जन तेरी तू अबिनासी पुरखु मुरारे ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरनि दुआरे ॥४॥१॥
मूलम्
कीरति करहि सगल जन तेरी तू अबिनासी पुरखु मुरारे ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरनि दुआरे ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = स्तुति, कीर्ति, महिमा। करहि = करते हैं। मुरारे = हे मुरारी! पुरखु = सर्व व्यापक।4।
अर्थ: हे मुरारी! तू नाश-रहित है (अविनाशी है); तू सर्व व्यापक है, तेरे सारे सेवक तेरी महिमा करते हैं। हे दास नानक! (कह:) हे स्वामी! मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ, मैं तेरी शरण आया हूँ। जैसे तुझे अच्छा लगे, उसी तरह मेरी रक्षा कर।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ बिनु जल प्रान तजे है मीना जिनि जल सिउ हेतु बढाइओ ॥ कमल हेति बिनसिओ है भवरा उनि मारगु निकसि न पाइओ ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ बिनु जल प्रान तजे है मीना जिनि जल सिउ हेतु बढाइओ ॥ कमल हेति बिनसिओ है भवरा उनि मारगु निकसि न पाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजे है = त्याग देती है। मीना = मछली। जिनि = जिस ने, क्योंकि उस (मछली) ने। सिउ = से। हेतु = प्यार। कमल हेति = कमल के फूल के प्यार में। उनि = उस (भौरे) ने। मारगु = रास्ता। निकसि = (फूल में से) निकल के।1।
अर्थ: हे भाई! मछली पानी से विछुड़ के जान दे देती है क्योंकि उस (मछली) ने पानी के साथ प्यारा बढ़ाया हुआ है। कमल के फूल के प्यार में भौरे ने मौत गले लगा ली, (क्योंकि) उस ने (कमल के फूल में से) निकल के (बाहर का) रास्ता ना तलाशा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मन एकस सिउ मोहु कीना ॥ मरै न जावै सद ही संगे सतिगुर सबदी चीना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब मन एकस सिउ मोहु कीना ॥ मरै न जावै सद ही संगे सतिगुर सबदी चीना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अब = अब, इस मानव जनम में। मोहु = प्रेम। सद ही = सदा ही। सबदी = शब्द के द्वारा। चीना = चीन्ह लिया, पहचान लिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य ने अब (इस जनम में) एक परमात्मा से प्यार कर लिया है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह सदा ही परमात्मा के चरणों में मगन रहता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वह परमात्मा के साथ अपनत्व बनाए रखता है।1। रहाउ।
[[0671]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम हेति कुंचरु लै फांकिओ ओहु पर वसि भइओ बिचारा ॥ नाद हेति सिरु डारिओ कुरंका उस ही हेत बिदारा ॥२॥
मूलम्
काम हेति कुंचरु लै फांकिओ ओहु पर वसि भइओ बिचारा ॥ नाद हेति सिरु डारिओ कुरंका उस ही हेत बिदारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि हेति = काम-वासना की खातिर। कुंचरु = हाथी। फांकिओ = पकड़ा गया। ओहु = वह हाथी। वसि = वश में। नाद हेति = (घंडेहेड़े की) आवाज के मोह में। कुरंका = हिरन। बिदारा = मारा गया।2।
अर्थ: हे भाई! काम-वासना की खातिर हाथी फंस गया, वह विचारा पराधीन हो गया। (घंडेहेड़े की) आवाज के प्यार में हिरन अपना सिर दे बैठता है, उसके प्यार में मारा जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि कुट्मबु लोभि मोहिओ प्रानी माइआ कउ लपटाना ॥ अति रचिओ करि लीनो अपुना उनि छोडि सरापर जाना ॥३॥
मूलम्
देखि कुट्मबु लोभि मोहिओ प्रानी माइआ कउ लपटाना ॥ अति रचिओ करि लीनो अपुना उनि छोडि सरापर जाना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = देख के। कुटंबु = परिवार। लोभि = लालच में। लपटाना = लिपटा रहा। अति रचिओ = (माया में) बहुत मगन हो गया। उनि = उस (मनुष्य) ने। सरापर = जरूर।3।
अर्थ: (हे भाई! इसी तरह) मनुष्य (अपना) परिवार देख के (माया के) लोभ में फंस जाता है, माया से चिपका रहता है, (माया के मोह में) बहुत मगन रहता है, (माया को) अपनी बना लेता है (ये नहीं समझता कि आखिर) उसने जरूर (सब कुछ) छोड़ के यहाँ से चले जाना है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गोबिंद अवर संगि नेहा ओहु जाणहु सदा दुहेला ॥ कहु नानक गुर इहै बुझाइओ प्रीति प्रभू सद केला ॥४॥२॥
मूलम्
बिनु गोबिंद अवर संगि नेहा ओहु जाणहु सदा दुहेला ॥ कहु नानक गुर इहै बुझाइओ प्रीति प्रभू सद केला ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। नेहा = प्यार। दुहेला = दुखी। गुरि = गुरु ने। सद = सदा। केला = आनंद।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के बिना किसी अन्य से प्यार डालता है, यकीन जानें, वह सदा दुखी रहता है। हे नानक! कह: गुरु ने (मुझे) ये ही समझ दी है कि परमात्मा से प्यार करने से सदा आत्मिक आनंद बना रहता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी मः ५ ॥ करि किरपा दीओ मोहि नामा बंधन ते छुटकाए ॥ मन ते बिसरिओ सगलो धंधा गुर की चरणी लाए ॥१॥
मूलम्
धनासरी मः ५ ॥ करि किरपा दीओ मोहि नामा बंधन ते छुटकाए ॥ मन ते बिसरिओ सगलो धंधा गुर की चरणी लाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। मोहि = मुझे। ते = से। छुटकाए = छुड़ा ले। ते = से। सगलो धंधा = हरेक किस्म के झगड़े झमेले। लाए = लगा के।1।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत ने) कृपा करके मुझे परमात्मा का नाम दिया, और गुरु के चरणों में लगा के मुझे माया के बंधनो से छुड़ा लिया (जिस के कारण मेरे) मन से सारा झगड़ा-झमेला उतर गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि चिंत बिरानी छाडी ॥ अह्मबुधि मोह मन बासन दे करि गडहा गाडी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साधसंगि चिंत बिरानी छाडी ॥ अह्मबुधि मोह मन बासन दे करि गडहा गाडी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = संग में। चिंत = आस। बिरानी = बेगानी। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। बासन = वासना। दे करि = दे कर। गडहा = गड्ढा। गाडी = गाड़ दी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में आ के मैंने पराई आशा छोड़ दी है। अहंकार, माया के मोह, मन की वासना- इन सभी को गड्ढा खोद के दबा दिया (सदा के लिए दबा दिया)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना को मेरा दुसमनु रहिआ ना हम किस के बैराई ॥ ब्रहमु पसारु पसारिओ भीतरि सतिगुर ते सोझी पाई ॥२॥
मूलम्
ना को मेरा दुसमनु रहिआ ना हम किस के बैराई ॥ ब्रहमु पसारु पसारिओ भीतरि सतिगुर ते सोझी पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किस के = किसी के। बैराई = वैरी। पसारु = पसारा। भीतरि = (हरेक के) अंदर। ते = से।2।
अर्थ: (हे भाई साधु-संगत की इनायत से) मेरा कोई दुश्मन नहीं रह गया (मुझे कोई वैरी नहीं दिखता), मैं भी किसी का वैरी नहीं बनता। मुझे गुरु से ये समझ प्राप्त हो गई है कि ये सारा जगत-पसारा परमात्मा खुद ही है, (सबके) अंदर (परमात्मा ने खुद ही खुद को) बिखेरा हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु को मीतु हम आपन कीना हम सभना के साजन ॥ दूरि पराइओ मन का बिरहा ता मेलु कीओ मेरै राजन ॥३॥
मूलम्
सभु को मीतु हम आपन कीना हम सभना के साजन ॥ दूरि पराइओ मन का बिरहा ता मेलु कीओ मेरै राजन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक प्राणी। हम = हम, मैं। पराइओ = चला गया। बिरहा = (प्रभु से) विछोड़ा। ता = तब। मेलु = मिलाप। मेरै राजन = मेरे प्रभु पातशाह ने।3।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से) हरेक प्राणी को मैं अपना मित्र समझता हूँ, मैं भी सबका मित्र-सज्जन ही बना रहता हूँ। मेरे मन का (परमात्मा से बना हुआ) विछोड़ा (साधु-संगत की कृपा से) कहीं दूर चला गया है, जब से मैंने साधु-संगत में शरण ली, तब से मेरे प्रभु-पातशाह ने मुझे (अपने चरणों का) मिलाप दे दिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनसिओ ढीठा अम्रितु वूठा सबदु लगो गुर मीठा ॥ जलि थलि महीअलि सरब निवासी नानक रमईआ डीठा ॥४॥३॥
मूलम्
बिनसिओ ढीठा अम्रितु वूठा सबदु लगो गुर मीठा ॥ जलि थलि महीअलि सरब निवासी नानक रमईआ डीठा ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढीठा = ढीठ पन। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। वूठा = आ बसा। सबदु गुर = गुरु का शब्द। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, आकाश में, अंतरिक्ष में। रमईआ = सुंदर राम।4।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत की कृपा से मेरे मन का) ढीठ-पन समाप्त हो गया है, मेरे अंदर आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल आ बसा है, गुरु का शब्द मुझे प्यारा लग रहा है। हे नानक! (कह: हे भाई!) अब मैंने जल में, धरती में, आकाश में सब जगह बसने वाले सुंदर राम को देख लिया है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी मः ५ ॥ जब ते दरसन भेटे साधू भले दिनस ओइ आए ॥ महा अनंदु सदा करि कीरतनु पुरख बिधाता पाए ॥१॥
मूलम्
धनासरी मः ५ ॥ जब ते दरसन भेटे साधू भले दिनस ओइ आए ॥ महा अनंदु सदा करि कीरतनु पुरख बिधाता पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब ते = जब से। भेटे = मिले, प्राप्त किए। साधू दरसन = गुरु के दर्शन। ओइ = वह। करि = कर के। पुरख बिधाता = सर्व व्यापक कर्तार।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जब से गुरु के दर्शन प्राप्त हुए हैं, मेरे ऐसे भले दिन आ गए हैं कि परमात्मा की महिमा कर करके सदा मेरे अंदर सुख बना रहता है, मुझे सर्व-व्यापक कर्तार मिल गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मोहि राम जसो मनि गाइओ ॥ भइओ प्रगासु सदा सुखु मन महि सतिगुरु पूरा पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब मोहि राम जसो मनि गाइओ ॥ भइओ प्रगासु सदा सुखु मन महि सतिगुरु पूरा पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। जसो = यश, महिमा। मनि = मन में। प्रगास = (आत्मिक जीवन देने वाला) प्रकाश।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मुझे पूरा गुरु मिल गया है, (इस वास्ते उसकी कृपा से) अब मैं परमात्मा की महिमा (अपने) मन में गा रहा हूँ, (मेरे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, मेरे मन में सदा आनंद बना रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण निधानु रिद भीतरि वसिआ ता दूखु भरम भउ भागा ॥ भई परापति वसतु अगोचर राम नामि रंगु लागा ॥२॥
मूलम्
गुण निधानु रिद भीतरि वसिआ ता दूखु भरम भउ भागा ॥ भई परापति वसतु अगोचर राम नामि रंगु लागा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। रिद = हृदय। अगोचर वसतु = वह चीज जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। नामि = नाम में। रंगु = प्यार।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘वस्तु’ स्त्रीलिंग है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जब से) गुणों का खजाना परमात्मा मेरे हृदय में आ बसा है, तब से मेरा दुख-भ्रम-डर दूर हो गया है। परमात्मा के नाम में मेरा प्यार बन गया है, मुझे (वह उत्तम) वस्तु प्राप्त हो गई है जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिंत अचिंता सोच असोचा सोगु लोभु मोहु थाका ॥ हउमै रोग मिटे किरपा ते जम ते भए बिबाका ॥३॥
मूलम्
चिंत अचिंता सोच असोचा सोगु लोभु मोहु थाका ॥ हउमै रोग मिटे किरपा ते जम ते भए बिबाका ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचिंता = चिन्ता रहित। असोचा = सोचों से रहित। सोगु = ग़म। ते = से, साथ। बिबाका = निडर, बेबाक।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के दर्शनों की इनायत से) मैं सारी चिंताओं व सोचों से बच गया हूँ, (मेरे अंदर से) दुख समाप्त हो गया है, लोभ खत्म हो गया है, मोह दूर हो गया है। (गुरु की) कृपा से (मेरे अंदर से) अहंकार आदि रोग मिट गए हैं, मैं यम-राज से भी अब नहीं डरता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की टहल गुरू की सेवा गुर की आगिआ भाणी ॥ कहु नानक जिनि जम ते काढे तिसु गुर कै कुरबाणी ॥४॥४॥
मूलम्
गुर की टहल गुरू की सेवा गुर की आगिआ भाणी ॥ कहु नानक जिनि जम ते काढे तिसु गुर कै कुरबाणी ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाणी = अच्छी लगती है। जिनि = जिस (गुरु) ने। कै = से। कुरबाणी = सदके।4।
अर्थ: हे भाई! अब मुझे गुरु की टहल सेवा, गुरु की रजा ही प्यारी लगती है। हे नानक! कह: हे भाई! मैं उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिसने मुझे यमों से बचा लिया है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जिस का तनु मनु धनु सभु तिस का सोई सुघड़ु सुजानी ॥ तिन ही सुणिआ दुखु सुखु मेरा तउ बिधि नीकी खटानी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जिस का तनु मनु धनु सभु तिस का सोई सुघड़ु सुजानी ॥ तिन ही सुणिआ दुखु सुखु मेरा तउ बिधि नीकी खटानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वह (प्रभु) ही। सुघड़ु = निपुण आत्मिक घाड़त वाला। सुजानी = सुजान, समझदार। तउ = तब। नीकी बिधि = अच्छी हालत। खटानी = बन गई।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘जिस का’, ‘तिस का’ में से ‘जिसु’ ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का दिया हुआ ये शरीर और मन है, ये सारा धन-पदार्थ भी उसी का दिया हुआ है, वही कुशलता वाला है और समझदार है। हम जीवों का दुख-सुख (सदा) उस परमात्मा ने ही सुना है, (जब वह हमारी प्रार्थना आरजू सुनता है) तब (हमारी) हालत अच्छी बन जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ की एकै ही पहि मानी ॥ अवरि जतन करि रहे बहुतेरे तिन तिलु नही कीमति जानी ॥ रहाउ॥
मूलम्
जीअ की एकै ही पहि मानी ॥ अवरि जतन करि रहे बहुतेरे तिन तिलु नही कीमति जानी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ की = जिंद की। एकै ही पहि = एक परमात्मा के पास ही। मानी = मानी जाती है। अवरि = और। तिन कीमति = उन (प्रयत्नों) की कीमत। जानी = जानी जाती। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिंद की (अरदास) एक परमात्मा के पास ही मानी जाती है। (परमात्मा के आसरे के बिना लोग) और ज्यादा यत्न करके थक जाते हैं, उन प्रयत्नों का मूल्य एक तिल जितना भी नहीं समझा जाता। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु निरमोलकु हीरा गुरि दीनो मंतानी ॥ डिगै न डोलै द्रिड़ु करि रहिओ पूरन होइ त्रिपतानी ॥२॥
मूलम्
अम्रित नामु निरमोलकु हीरा गुरि दीनो मंतानी ॥ डिगै न डोलै द्रिड़ु करि रहिओ पूरन होइ त्रिपतानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निरमोलकु = जिसका कोई मूल्य ना पाया जा सके। गुरि = गुरु ने। मंतानी = मंत्र। द्रिढ़ करि रहिओ = पक्के तौर पर टिक गया।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, नाम एक ऐसा हीरा है जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। गुरु ने ये नाम-मंत्र (जिसय मनुष्य को) दे दिया, वह मनुष्य (विकारों में) गिरता नहीं, डोलता नहीं, वह मनुष्य पक्के इरादे वाला बन जाता है, वह मुक्मल तौर पर (माया की ओर से) संतुष्ट रहता है।2।
[[0672]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओइ जु बीच हम तुम कछु होते तिन की बात बिलानी ॥ अलंकार मिलि थैली होई है ता ते कनिक वखानी ॥३॥
मूलम्
ओइ जु बीच हम तुम कछु होते तिन की बात बिलानी ॥ अलंकार मिलि थैली होई है ता ते कनिक वखानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ = वह। ओइ बीच = वह दूरियां, वो अंतराल। हम तुम बीच = हमारे तुम्हारे वाले भेदभाव। बिलानी = बीत जाती है, समाप्त हो जाती है। अलंकार = गहने। मिलि = मिल के। थैली = रैणी, ढेली। ता ते = उस (ढेली) से। कनिक = सोना।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की तरफ से नाम-हीरा मिल जाता है, उसके अंदर से) उस मेर-तेर वाले सारे भेदभाव वाली बात खत्म हो जाती है जो जगत में बड़े प्रबल हैं। (उस मनुष्य को हर तरफ से परमात्मा ही ऐसा दिखता है, जैसे) अनेक गहने मिल के (गलाए जाने पर) रैणी बन जाते हैं, और उस ढेली के रूप में भी वह सोना ही कहलाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगटिओ जोति सहज सुख सोभा बाजे अनहत बानी ॥ कहु नानक निहचल घरु बाधिओ गुरि कीओ बंधानी ॥४॥५॥
मूलम्
प्रगटिओ जोति सहज सुख सोभा बाजे अनहत बानी ॥ कहु नानक निहचल घरु बाधिओ गुरि कीओ बंधानी ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज सुख = आत्मिक अडोलता के आनंद। बाजे = बजते हैं। अनहत = एक रस, लगातार। बानी = महिमा वाली गुरवाणी। निहचल = अटल। गुरि = गुरु ने। बंधानी = मर्यादा।4।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर गुरु की कृपा से) परमात्मा की ज्योति का प्रकाश हो जाता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के आनंद पैदा हो जाते हैं, उसको हर जगह शोभा मिलती है, उसके हृदय में महिमा की वाणी के (मानो) एक-रस बाजे बजते रहते हैं। हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के वास्ते ये प्रबंध कर दिया, वह मनुष्य सदा के लिए प्रभु-चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लेता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ वडे वडे राजन अरु भूमन ता की त्रिसन न बूझी ॥ लपटि रहे माइआ रंग माते लोचन कछू न सूझी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ वडे वडे राजन अरु भूमन ता की त्रिसन न बूझी ॥ लपटि रहे माइआ रंग माते लोचन कछू न सूझी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजन = राजे। भूमन = जमीन के मालिक। ता की = उनकी। त्रिसन = लालच, प्यास। लपटि रहे = चिपके रहते हैं। माते = मस्त। लोचन = आँखें।1।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया में) बड़े-बड़े राजे हैं, बड़े-बड़े जिमींदार हैं, (माया से) उनकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती वे माया के करिश्मों में मस्त रहते हैं, माया से चिपके रहते हैं। (माया के बिना) और कुछ उन्हें आँखों से दिखता ही नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखिआ महि किन ही त्रिपति न पाई ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै बिनु हरि कहा अघाई ॥ रहाउ॥
मूलम्
बिखिआ महि किन ही त्रिपति न पाई ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै बिनु हरि कहा अघाई ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखिआ = माया। किन ही = किनि ही, किसी ने भी। त्रिपति = तृप्ती, शांति। पावकु = आग। ईधनि = ईधन से। ध्रापै = अघाती। कहा = कहाँ? अघाई = तृप्त होती है। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! माया (के मोह) में (फसे रह के) किसी मनुष्य ने (माया की ओर से) तृप्ती प्राप्त नहीं की, जैसे आग ईधन से नहीं अघाती। परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनु दिनु करत भोजन बहु बिंजन ता की मिटै न भूखा ॥ उदमु करै सुआन की निआई चारे कुंटा घोखा ॥२॥
मूलम्
दिनु दिनु करत भोजन बहु बिंजन ता की मिटै न भूखा ॥ उदमु करै सुआन की निआई चारे कुंटा घोखा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिनु दिनु = हर रोज। बिंजन = (व्यंजन) स्वादिष्ट खाने। ता की = उस (मनुष्य) की। सुआन = कुक्ता। निआई = की तरह। घोखा = ढूँढता फिरता है।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर रोज स्वादिष्ट खाने खाता रहता है, उसकी (स्वादिष्ट खानों की) भूख कभी खत्म नहीं होती। (स्वादिष्ट खानों की खातिर) वह आदमी कुत्ते की तरह दौड़-भाग करता रहता है, चारों तरफ तलाशता फिरता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामवंत कामी बहु नारी पर ग्रिह जोह न चूकै ॥ दिन प्रति करै करै पछुतापै सोग लोभ महि सूकै ॥३॥
मूलम्
कामवंत कामी बहु नारी पर ग्रिह जोह न चूकै ॥ दिन प्रति करै करै पछुतापै सोग लोभ महि सूकै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामवंत = काम-वासना वाला। कामी = विषयी। पर ग्रिह जोह = पराए घर में निगाह। जोह = ताकना, मंद दृष्टि, बुरी विकार भरी निगाह। दिन प्रति = हर रोज। सूकै = सूखता जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! काम-वश हुए विषयी मनुष्य की भले ही कितनियां ही स्त्रीयां क्यों ना हों, पराए घर की ओर उसकी बुरी निगाह फिर भी नहीं हटती। वह हर रोज (विषौ-पाप) करता है, और पछताता (भी) है। सो, यह काम-वासना में और पछतावे में उसका आत्मिक जीवन सूखता जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु अपार अमोला अम्रितु एकु निधाना ॥ सूखु सहजु आनंदु संतन कै नानक गुर ते जाना ॥४॥६॥
मूलम्
हरि हरि नामु अपार अमोला अम्रितु एकु निधाना ॥ सूखु सहजु आनंदु संतन कै नानक गुर ते जाना ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधाना = खजाना। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। सहजु = आत्मिक अडोलता। कै = के (हृदय) में। ते = से।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही एक ऐसा बेअंत और कीमती खजाना है जो आत्मिक जीवन देता है, (इस नाम-खजाने की इनायत से) संत-जनों के हृदय-घर में आत्मिक अडोलता बनी रहती है, सुख आनंद बना रहता है। पर, हे नानक! गुरु से इस खजाने की जान-पहचान प्राप्त होती है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी मः ५ ॥ लवै न लागन कउ है कछूऐ जा कउ फिरि इहु धावै ॥ जा कउ गुरि दीनो इहु अम्रितु तिस ही कउ बनि आवै ॥१॥
मूलम्
धनासरी मः ५ ॥ लवै न लागन कउ है कछूऐ जा कउ फिरि इहु धावै ॥ जा कउ गुरि दीनो इहु अम्रितु तिस ही कउ बनि आवै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लवै न = नजदीक नहीं पहुँच सकती। कछूऐ = कोई भी चीज। जा कउ = जिस की खातिर। फिरि = बार बार। धावै = दौड़ता है। गुरि = गुरु ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। बनि आवै = शोभती है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! ये मनुष्य जिस-जिस मायावी पदार्थों की खातिर भटकता फिरता है, उनमें से कोई भी चीज (परमात्मा के नाम-अमृत की) बराबरी नहीं कर सकती। गुरु ने जिस मनुष्य को ये आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल दे दिया, उसे ही उसकी कद्र की समझ पड़ती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ आइओ एकु रसा ॥ खान पान आन नही खुधिआ ता कै चिति न बसा ॥ रहाउ॥
मूलम्
जा कउ आइओ एकु रसा ॥ खान पान आन नही खुधिआ ता कै चिति न बसा ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खुधिआ = भूख। आन = कोई और। ता कै चिति = उसके चिक्त में। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का स्वाद आ गया, उसे खाने-पीने आदि की कोई भूख नहीं रहती, कोई और भूख उसके चिक्त में टिक नहीं सकती। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मउलिओ मनु तनु होइओ हरिआ एक बूंद जिनि पाई ॥ बरनि न साकउ उसतति ता की कीमति कहणु न जाई ॥२॥
मूलम्
मउलिओ मनु तनु होइओ हरिआ एक बूंद जिनि पाई ॥ बरनि न साकउ उसतति ता की कीमति कहणु न जाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मउलिओ = खिल पड़ा। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। बरनि न साकउ = (सकूँ) मैं बयान नहीं करा सकता। ता की = उस (मनुष्य) की।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने (नाम-जल की) सिर्फ एक बूँद हासिल कर ली, उसका मन खिल उठता है उसका शरीर (आत्मिक जल से) हरा हो जाता है। हे भाई! मैं उस मनुष्य की आत्मिक महिमा बयान नहीं कर सकता, उस मनुष्य (के आत्मिक जीवन) की कीमत नहीं बताई जा सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घाल न मिलिओ सेव न मिलिओ मिलिओ आइ अचिंता ॥ जा कउ दइआ करी मेरै ठाकुरि तिनि गुरहि कमानो मंता ॥३॥
मूलम्
घाल न मिलिओ सेव न मिलिओ मिलिओ आइ अचिंता ॥ जा कउ दइआ करी मेरै ठाकुरि तिनि गुरहि कमानो मंता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाल = मेहनत। अचिंता = उसके चिक्त चेते से बाहर ही। ठाकुरि = ठाकुर ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। गुरहि मंता = गुरु का ही उपदेश।3।
अर्थ: हे भाई! यह नाम-रस (अपनी किसी) मेहनत से नहीं मिलता, अपनी किसी सेवा के बल पर नहीं मिलता। प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उस मनुष्य ने गुरु के उपदेश पर अमल किया, और, उसे अचेतन ही प्राप्त हो गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दैआल सदा किरपाला सरब जीआ प्रतिपाला ॥ ओति पोति नानक संगि रविआ जिउ माता बाल गुोपाला ॥४॥७॥
मूलम्
दीन दैआल सदा किरपाला सरब जीआ प्रतिपाला ॥ ओति पोति नानक संगि रविआ जिउ माता बाल गुोपाला ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओति पोति = ताने पेटे की तरह। ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ। संगि = साथ। गुोपाला = (असल शब्द ‘गोपाल’ है यहाँ ‘गुपाला’ पढ़ना है) परमात्मा।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा दीनों पर दया करने वाला है, सदा ही मेहरवान रहता है, सारे जीवों की पलना करता है। जैसे माँ अपने बच्चे को सदा चिक्त में टिकाए रखती है, इसी तरह वह गोपाल-प्रभु ताने-बाने की तरह मनुष्य को मिला रहता है (जिसे हरि नाम का स्वाद आ जाता है)।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ बारि जाउ गुर अपुने ऊपरि जिनि हरि हरि नामु द्रिड़्हाया ॥ महा उदिआन अंधकार महि जिनि सीधा मारगु दिखाया ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ बारि जाउ गुर अपुने ऊपरि जिनि हरि हरि नामु द्रिड़्हाया ॥ महा उदिआन अंधकार महि जिनि सीधा मारगु दिखाया ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बारि जाउ = (जाऊँ) मैं सदके जाता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। उदिआन = जंगल। अंधकार = घुप अंधेरा। मारगु = रास्ता।1।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ, जिसने परमात्मा का नाम (मेरे हृदय में) पक्का कर दिया है; जिसने इस बड़े और (माया के मोह के) घोर अंधकार (संसार-) जगंल में (आत्मिक जीवन प्राप्त करने के लिए) मुझे सीधा राह दिखा दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरे प्रान गुपाल गोबिंद ॥ ईहा ऊहा सरब थोक की जिसहि हमारी चिंद ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हमरे प्रान गुपाल गोबिंद ॥ ईहा ऊहा सरब थोक की जिसहि हमारी चिंद ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान = जिंद, जिंद का आसरा। गुपाल = गोपाल, सृष्टि को पालने वाला। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। जिसहि = जिस (प्रभु) को। चिंद = चिन्ता, ध्यान।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा को (इस लोक में परलोक में) हमारी जरूरतें पूरी करने का फिक्र है वह हमारी जिंद का आसरा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै सिमरनि सरब निधाना मानु महतु पति पूरी ॥ नामु लैत कोटि अघ नासे भगत बाछहि सभि धूरी ॥२॥
मूलम्
जा कै सिमरनि सरब निधाना मानु महतु पति पूरी ॥ नामु लैत कोटि अघ नासे भगत बाछहि सभि धूरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै सिमरन = के स्मरण से। निधान = खजाने। मानु = आदर। महतु = बड़ाई, महत्वता। पति = इज्जत। लैत = लेते हुए, स्मरण करते हुए। अघ = पाप। बाछहि = चाहते हैं। सभि = सारे। धूरी = चरण धूल।2।
अर्थ: हे भाई! (वह परमात्मा हमारी जिंद का आसरा है) जिसके नाम-जपने की इनायत से सारे खजाने प्राप्त हो जाते हैं, आदर मिलता है, महातम मिलता है, पूरी इज्जत मिलती है, जिसका नाम स्मरण करने से करोड़ों पाप नाश हो जाते हैं। (हे भाई!) सारे भक्त उस परमात्मा के चरणों की धूल लोचते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब मनोरथ जे को चाहै सेवै एकु निधाना ॥ पारब्रहम अपर्मपर सुआमी सिमरत पारि पराना ॥३॥
मूलम्
सरब मनोरथ जे को चाहै सेवै एकु निधाना ॥ पारब्रहम अपर्मपर सुआमी सिमरत पारि पराना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनोरथ = मनो कामना, मन की मुरादें। को = कोई मनुष्य। सेवै = स्मरण करे। अपरंपर = बेअंत। पारि पराना = पार लांघ जाते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य सारी मुरादें (पूरी करना) चाहता है (तो उसे चाहिए कि) वह उस एक परमात्मा की सेवा-भक्ति करे जो सारे पदार्थों का खजाना है। हे भाई! सारे जगत के मालिक बेअंत परमात्मा का स्मरण करने से (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतल सांति महा सुखु पाइआ संतसंगि रहिओ ओल्हा ॥ हरि धनु संचनु हरि नामु भोजनु इहु नानक कीनो चोल्हा ॥४॥८॥
मूलम्
सीतल सांति महा सुखु पाइआ संतसंगि रहिओ ओल्हा ॥ हरि धनु संचनु हरि नामु भोजनु इहु नानक कीनो चोल्हा ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतल = ठंडा। संगि = संगति में। ओला = पर्दा, इज्जत। संचनु = इकट्ठा करना। चोला = स्वादिष्ट खाना।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम-धन एकत्र किया है, परमात्मा के नाम को (अपनी आत्मा के लिए) भोजन बनाया है स्वादिष्ट खाना बनाया है, (उसका हृदय) ठंडा-ठार रहता है, उसको शांति प्राप्त रहती है, उसे बड़ा आनंद बना रहता है। गुरमुखों की संगति में रह के उसकी इज्जत बनी रहती है (और कोई पाप उसके नजदीक नहीं फटकते)।4।8।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जिह करणी होवहि सरमिंदा इहा कमानी रीति ॥ संत की निंदा साकत की पूजा ऐसी द्रिड़्ही बिपरीति ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जिह करणी होवहि सरमिंदा इहा कमानी रीति ॥ संत की निंदा साकत की पूजा ऐसी द्रिड़्ही बिपरीति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह करणी = जिस काम के करने से। होवहि = तू होगा। रीति = मर्यादा, चाल। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। पूजा = आदर सत्कार। बिपरीत = उल्टी चाल।1।
अर्थ: हे भाई! जिस कामों से तू (परमात्मा की दरगाह में) शर्मिंदा होगा उन कामों को ही तू किए जा रहा है। तू संत जनों की निंदा करता रहता है, और, परमात्मा के साथ टूटे हुए मनुष्यों का आदर-सत्कार करता रहता है। तूने आश्चर्यजनक उल्टी मति ग्रहण की हुई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोह भूलो अवरै हीत ॥ हरिचंदउरी बन हर पात रे इहै तुहारो बीत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माइआ मोह भूलो अवरै हीत ॥ हरिचंदउरी बन हर पात रे इहै तुहारो बीत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूलो = कुमार्ग पर पड़ा रहा। अवरै = (परमात्मा के बिना) और में। हीत = हित, मोह। हरिचंउरी = हरी चंद की नगरी, आकाश में काल्पनिक नगर, हवाई किला। बन हर पात = जंगल के हरे पत्ते। रे = हे भाई! बीत = विक्त, सीमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह (में फंस के) तू गलत राह पर पड़ गया है, (परमात्मा को छोड़ के) और में प्यार डाल रहा है। तेरी अपनी विक्त तो इतनी ही है जितनी जंगल के हरे पक्तों की, जितनी आकाश में दिख रही हरीचंद की नगरी की।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदन लेप होत देह कउ सुखु गरधभ भसम संगीति ॥ अम्रित संगि नाहि रुच आवत बिखै ठगउरी प्रीति ॥२॥
मूलम्
चंदन लेप होत देह कउ सुखु गरधभ भसम संगीति ॥ अम्रित संगि नाहि रुच आवत बिखै ठगउरी प्रीति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देह कउ = शरीर को। गरधभ = गधा। भसम = राख। संगीति = साथ। संगि = साथ। रचु = प्यार। बिखै = विषौ। ठगउरी = ठग बूटी।2।
अर्थ: हे भाई! गधा मिट्टी में (लेटने से) खुद को सुखी समझता है, चाहे उसके शरीर पर चंदन का लेप करते रहें (यही हाल तेरा है) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से तेरा प्यार नहीं बनता। तू विषियों की ठग-बूटी से ही प्यार करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उतम संत भले संजोगी इसु जुग महि पवित पुनीत ॥ जात अकारथ जनमु पदारथ काच बादरै जीत ॥३॥
मूलम्
उतम संत भले संजोगी इसु जुग महि पवित पुनीत ॥ जात अकारथ जनमु पदारथ काच बादरै जीत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भले संजोगी = भले संजोगों से (मिलते हैं)। जुग = जगत, संसार। पुनीत = पवित्र। जात अकारथ = व्यर्थ जा रहा है। काच = कच्चा। बादरै = बदले में। जीत = जीता जा रहा है।3।
अर्थ: हे भाई! ऊँचे जीवन वाले संत जो इस संसार (के विकारों) में भी पवित्र ही रहते हैं, भले संजोगों से ही मिलते हैं। (उनकी संगति से वंचित रह के) तेरा कीमती मानव जन्म व्यर्थ जा रहा है, काँच के बदले में जीता जा रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम के किलविख दुख भागे गुरि गिआन अंजनु नेत्र दीत ॥ साधसंगि इन दुख ते निकसिओ नानक एक परीत ॥४॥९॥
मूलम्
जनम जनम के किलविख दुख भागे गुरि गिआन अंजनु नेत्र दीत ॥ साधसंगि इन दुख ते निकसिओ नानक एक परीत ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलविख = पाप। गुरि = गुरु ने। अंजनु = सुरमा। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। नेत्र = आँखें। साध संगि = गुरु की संगति में। ते = में से। निकसिओ = निकल गया।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य की आँखों में गुरु ने आत्मिक सूझ वाला सुरमा डाल दिया, उसके अनेक जन्मों के किए पाप दूर हो गए। संगति में टिक के वह मनुष्य इन दुखों-पापों से बच निकला, उसने एक परमात्मा के साथ प्यार डाल लिया।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ पानी पखा पीसउ संत आगै गुण गोविंद जसु गाई ॥ सासि सासि मनु नामु सम्हारै इहु बिस्राम निधि पाई ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ पानी पखा पीसउ संत आगै गुण गोविंद जसु गाई ॥ सासि सासि मनु नामु सम्हारै इहु बिस्राम निधि पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पीसउ = पीसूँ, मैं (आटा) पीसूँ। संत आगै = संतों की सेवा में। जसु = महिमा। गाई = मैं गाऊँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथं। समारै = याद करता रहे। बिस्राम निधि = सुख का खजाना। पाई = मैं हासिल कर लूँ।1।
अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं (तेरे) संतों की सेवा में (रह के, उनके लिए) पानी (ढोता रहूँ, उनको) पंखा (झलता रहूँ, उनके वास्ते आटा) पीसता रहूँ, और, हे गोबिंद! तेरी महिमा! तेरे गुण गाता रहूँ। मेरा मन हरेक सांस के साथ (तेरा) नाम चेता करता रहे, मैं तेरा यह नाम प्राप्त कर लूँ जो सुख शांति का खजाना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह करहु दइआ मेरे साई ॥ ऐसी मति दीजै मेरे ठाकुर सदा सदा तुधु धिआई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम्ह करहु दइआ मेरे साई ॥ ऐसी मति दीजै मेरे ठाकुर सदा सदा तुधु धिआई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे साई = हे मेरे साई! ठाकुर = हे मालिक! धिआई = मैं ध्याऊँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे पति-प्रभु! (मेरे पर) दया कर। हे मेरे ठाकुर! मुझे ऐसी बुद्धि दे कि मैं सदा तेरा नाम स्मरण करता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरी क्रिपा ते मोहु मानु छूटै बिनसि जाइ भरमाई ॥ अनद रूपु रविओ सभ मधे जत कत पेखउ जाई ॥२॥
मूलम्
तुम्हरी क्रिपा ते मोहु मानु छूटै बिनसि जाइ भरमाई ॥ अनद रूपु रविओ सभ मधे जत कत पेखउ जाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। छुटै = समाप्त हो जाए। भरमाए = भटकना। अनद = आनंद। रविओ = व्यापक। मधे = में। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = देखूँ। जाई = जा के।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी कृपा से (मेरे अंदर से) माया का मोह समाप्त हो जाए, अहंकार दूर हो जाए, मेरी भटकना नाश हो जाए, मैं जहाँ-कहीं भी देखूँ, सबमें मुझे तू ही आनंद स्वरूप बसता दिखे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह दइआल किरपाल क्रिपा निधि पतित पावन गोसाई ॥ कोटि सूख आनंद राज पाए मुख ते निमख बुलाई ॥३॥
मूलम्
तुम्ह दइआल किरपाल क्रिपा निधि पतित पावन गोसाई ॥ कोटि सूख आनंद राज पाए मुख ते निमख बुलाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधि = खजाना। पतित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। गोसाई = हे धरती के पति! कोटि = करोड़ों। ते = से। मुख ते = मुँह से। निमख = आँख झपकने जितने समय के लिए। बुलाई = मैं (तेरा नाम) उचारूँ।3।
अर्थ: हे धरती के पति! तू दयालु है, कृपालु है, तू दया का खजाना है, तू विकारियों को पवित्र करने वाला है। जब मैं आँख झपकने जितने समय के लिए भी मुँह से तेरा नाम उचारता हूँ, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैंने राज-भाग के करोड़ों सुख-आनंद भोग लिए हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाप ताप भगति सा पूरी जो प्रभ कै मनि भाई ॥ नामु जपत त्रिसना सभ बुझी है नानक त्रिपति अघाई ॥४॥१०॥
मूलम्
जाप ताप भगति सा पूरी जो प्रभ कै मनि भाई ॥ नामु जपत त्रिसना सभ बुझी है नानक त्रिपति अघाई ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। कै मनि = के मन में। भाई = पसंद आती है। त्रिपति अघाई = पूर्ण तौर पर अघा जाते हैं।4।
अर्थ: हे नानक! वही जाप-ताप वही भक्ति सिरे चढ़ी समझें, जो परमात्मा को पसंद आती है। परमात्मा का नाम जपने से सारी तृष्णा समाप्त हो जाती है, (मायावी पदार्थों की ओर से) पूरे तौर पर तृप्त हो जाते हैं।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जिनि कीने वसि अपुनै त्रै गुण भवण चतुर संसारा ॥ जग इसनान ताप थान खंडे किआ इहु जंतु विचारा ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जिनि कीने वसि अपुनै त्रै गुण भवण चतुर संसारा ॥ जग इसनान ताप थान खंडे किआ इहु जंतु विचारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (माया) ने। अपुनै वसि = अपने वश में। त्रैगुण भवन = माया के तीन गुण वाले जगत को। चतुर संसारा = चार कूट संसार को। खंडे = खण्डित किए, तोड़ दिए, जीत लिए हैं।1।
अर्थ: हे भाई! जिस (माया) ने सारे त्रैगुणी संसार को चार-कूट जगत को अपने वश में किया हुआ है, जिसने यज्ञ करने वाले, स्नान करने वाले, तप करने वाले स्तम्भों को चकनाचूर कर रखा है, इस जीव विचारे की क्या ताकत है (कि उससे टक्कर ले सके)?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की ओट गही तउ छूटो ॥ साध प्रसादि हरि हरि हरि गाए बिखै बिआधि तब हूटो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ की ओट गही तउ छूटो ॥ साध प्रसादि हरि हरि हरि गाए बिखै बिआधि तब हूटो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गही = पकड़ी। ओट = आसरा। तउ = तब। छूटो = बचा। साध प्रसादि = गुरु की कृपा से। बिखै बिआधि = विषियों के रोग। हूटो = खत्म हो गया, थक गया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य ने परमात्मा का पल्ला पकड़ा, तब वह (माया के फंदे से) बच गया। जब गुरु की कृपा से मनुष्य ने परमात्मा की महिमा के गीत गाने शुरू कर दिए, तब विकारों का रोग (उसके अंदर से) खत्म हो गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह सुणीऐ नह मुख ते बकीऐ नह मोहै उह डीठी ॥ ऐसी ठगउरी पाइ भुलावै मनि सभ कै लागै मीठी ॥२॥
मूलम्
नह सुणीऐ नह मुख ते बकीऐ नह मोहै उह डीठी ॥ ऐसी ठगउरी पाइ भुलावै मनि सभ कै लागै मीठी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणीऐ = आवाज सुनी जाती। मुख ते = मुँह से। बकीऐ = बोलती। डीठी = दिखती। उह = (स्त्रीलिंग) वह माया। ठगउरी = ठग बूटी, नशीली चीज। भुलावै = कुमार्ग पर देती है। कै मनि = के मन में।2।
अर्थ: हे भाई! वह माया जब मनुष्य को आ के भरमाती है, तब ना उसकी आवाज सुनाई देती है, ना वह मुँह से बोलती है, ना ही आँखों से दिखती है। कोई ऐसी नशीली चीज खिला के मनुष्य को गलत राह पर डाल देती है कि सबके मन को वह प्यारी लगती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइ बाप पूत हित भ्राता उनि घरि घरि मेलिओ दूआ ॥ किस ही वाधि घाटि किस ही पहि सगले लरि लरि मूआ ॥३॥
मूलम्
माइ बाप पूत हित भ्राता उनि घरि घरि मेलिओ दूआ ॥ किस ही वाधि घाटि किस ही पहि सगले लरि लरि मूआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माइ = माँ। हित = हित करने के लिए, मित्र। उनि = उस (माया) ने। घरि घरि = हरेक घर में, हरेक हृदय घर में। दूआ = द्वैत, भेद भाव। वाधि = ज्यादा, बहुत। घाटि = कमी, थोड़ी।3।
अर्थ: हे भाई! माता-पिता-पुत्र-मित्र-भाई, उस माया ने हरेक के दिल में भेद भाव डाल रखा है। किसी के पास (माया) बहुत है, किसी के पास थोड़ी है (बस, इसी बात पर) सारे (आपस में) लड़-लड़ के खपते रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ बलिहारी सतिगुर अपुने जिनि इहु चलतु दिखाइआ ॥ गूझी भाहि जलै संसारा भगत न बिआपै माइआ ॥४॥
मूलम्
हउ बलिहारी सतिगुर अपुने जिनि इहु चलतु दिखाइआ ॥ गूझी भाहि जलै संसारा भगत न बिआपै माइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। जिनि = जिस (गुरु) ने। चलतु = तमाशा। गूझी = छुपी हुई। भाहि = आग। ना बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।4।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, जिसने मुझे (माया का) ये तमाशा (आखों से) दिखा दिया है। (मैंने देख लिया है कि माया की इस) छुपी हुई आग में सारा जगत जल रहा है। परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य पर माया (अपना) जोर नहीं डाल सकती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि महा सुखु पाइआ सगले बंधन काटे ॥ हरि हरि नामु नानक धनु पाइआ अपुनै घरि लै आइआ खाटे ॥५॥११॥
मूलम्
संत प्रसादि महा सुखु पाइआ सगले बंधन काटे ॥ हरि हरि नामु नानक धनु पाइआ अपुनै घरि लै आइआ खाटे ॥५॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। सगले = सारे। अपुनै घरि = अपने हृदय घर में। खाटे = कमा के।5।
अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य ने) परमात्मा का नाम-धन ढूँढ लिया है, और ये धन कमा के अपने हृदय में बसा लिया है, वह बड़ा आत्मिक आनंद पाता है, उसके (मायावी) सारे बंधन काटे जाते हैं।5।11।
[[0674]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ तुम दाते ठाकुर प्रतिपालक नाइक खसम हमारे ॥ निमख निमख तुम ही प्रतिपालहु हम बारिक तुमरे धारे ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ तुम दाते ठाकुर प्रतिपालक नाइक खसम हमारे ॥ निमख निमख तुम ही प्रतिपालहु हम बारिक तुमरे धारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रतिपालक = पालने वाले। नाइक = नेता। निमख = आँख झपकने जितना समय। तुमरे धारे = तेरे आसरे।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू सबको दातें देने वाला है, तू मालिक है, तू सबको पालने वाला है, तू हमारा नायक है (जीवन की अगुवाई देने वाला है), तू हमारा पति है। हे प्रभु! तू ही एक-एक छिन हमारी पालना करता है, हम (तेरे) बच्चे तेरे आसरे (जीते) हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिहवा एक कवन गुन कहीऐ ॥ बेसुमार बेअंत सुआमी तेरो अंतु न किन ही लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिहवा एक कवन गुन कहीऐ ॥ बेसुमार बेअंत सुआमी तेरो अंतु न किन ही लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिहवा = जीभ। कहीऐ = बयान किया जा सकता है। तेरो = तेरा। किन ही = किसी से ही। लहीऐ = पाया जा सकता है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किन ही” में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे अनगिनत गुणों के मालिक! हे बेअंत मालिक प्रभु! किसी भी पक्ष से तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। (मनुष्य की) एक जीभ से तेरा कौन-कौन सा गुण बताया जाए?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि पराध हमारे खंडहु अनिक बिधी समझावहु ॥ हम अगिआन अलप मति थोरी तुम आपन बिरदु रखावहु ॥२॥
मूलम्
कोटि पराध हमारे खंडहु अनिक बिधी समझावहु ॥ हम अगिआन अलप मति थोरी तुम आपन बिरदु रखावहु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। पराध = अपराध। खंडहु = नाश करते हो। बिधि = तरीका। अगिआन = ज्ञान हीन। आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित। अलप = थोड़ी, होछी। बिरदु = प्रभु का मूल (प्यार वाला) स्वभाव।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू हमारे करोड़ों अपराध नाश करता है, तू हमें अनेक तरीकों से (जीवन जुगति) समझाता है। हम जीव आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित हैं, हमारी अक्ल थोड़ी है होछी है। (फिर भी) तू अपना बिरद भरा प्यार वाला स्वभाव सदा कायम रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरी सरणि तुमारी आसा तुम ही सजन सुहेले ॥ राखहु राखनहार दइआला नानक घर के गोले ॥३॥१२॥
मूलम्
तुमरी सरणि तुमारी आसा तुम ही सजन सुहेले ॥ राखहु राखनहार दइआला नानक घर के गोले ॥३॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुमारी = तेरी ही। सुहेले = सुख देने वाले। राखनहार = रक्षा करने की सामर्थ्य करने वाले! गोले = गुलाम।3।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हम तेरे ही आसरे-सहारे से हैं, हमें तेरी ही (सहायता की) आस है, तू ही हमारा सज्जन है, तू ही हमें सुख देने वाला है। हे दयावान! हे सबकी रक्षा करने के समर्थ! हमारी रक्षा कर, हम तेरे घर के गुलाम हैं।3।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ पूजा वरत तिलक इसनाना पुंन दान बहु दैन ॥ कहूं न भीजै संजम सुआमी बोलहि मीठे बैन ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ पूजा वरत तिलक इसनाना पुंन दान बहु दैन ॥ कहूं न भीजै संजम सुआमी बोलहि मीठे बैन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देन = देने। कहूँ = किसी के साथ भी। भीजै = भीगता, खुश होता। कहूँ संजम = किसी भी जुगति से। बोलहि = बोलते हैं। बैन = वचन।1।
अर्थ: हे भाई! लोग देव-पूजा करते हैं, व्रत रखते हैं, माथे पर तिलक लगाते हैं, तीर्थों पर स्नान करते हैं, (गरीबों को) बड़े दान-पुण्य करते है, मीठे बोल बोलते हैं, पर ऐसी किसी भी जुगति से मालिक प्रभु खुश नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ जी को नामु जपत मन चैन ॥ बहु प्रकार खोजहि सभि ता कउ बिखमु न जाई लैन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ जी को नामु जपत मन चैन ॥ बहु प्रकार खोजहि सभि ता कउ बिखमु न जाई लैन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। मन चैन = मन की शांति। बहु प्रकार = कई तरीकों से। सभि = सारे जीव। ता कउ = उस (परमात्मा) को। बिखमु = मुश्किल। लैन न जाई = मिलता नहीं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपने से ही मन को शांति (प्राप्त होती है)। सारे लोक कई तरीकों से उस परमात्मा का ढूँढते हैं, (पर स्मरण के बिना उसे तलाशना) मुश्किल है, नहीं ढूँढ सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाप ताप भ्रमन बसुधा करि उरध ताप लै गैन ॥ इह बिधि नह पतीआनो ठाकुर जोग जुगति करि जैन ॥२॥
मूलम्
जाप ताप भ्रमन बसुधा करि उरध ताप लै गैन ॥ इह बिधि नह पतीआनो ठाकुर जोग जुगति करि जैन ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसुधा = धरती। भ्रमन बसुधा करि = सारी धरती पर चक्कर लगा के। उरध ताप = उल्टे हो के तप करने। गैन = गगन, आकाश, दसवाँ द्वार। लै गैन = दसवाँ द्वार में प्राण चढ़ा के। पतीआनो = पतीजता। जैन जुगति करि = जैनियों वाली जुगती करके।2।
अर्थ: हे भाई! जप-तप करके, सारी धरती के चक्कर लगा के, सिर-भार तप करके, प्राण दसवाँ द्वार पर चढ़ा के, योग मत की युक्तियां करके, जैन मत के तरीके अपना के -इन तरीकों से भी मालिक प्रभु नहीं पतीजता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु निरमोलकु हरि जसु तिनि पाइओ जिसु किरपैन ॥ साधसंगि रंगि प्रभ भेटे नानक सुखि जन रैन ॥३॥१३॥
मूलम्
अम्रित नामु निरमोलकु हरि जसु तिनि पाइओ जिसु किरपैन ॥ साधसंगि रंगि प्रभ भेटे नानक सुखि जन रैन ॥३॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमोलकु = जिसका कोई मूल्य ना डाला जा सके। तिनि = उस (मनुष्य) ने। जिसु किरपैन = जिस जिस पर कृपा होती है। साध संगि = गुरु की संगति में। रंगि = रंग में। भेटे = मिलते हैं। सुखि = सुख आनंद में। जन रैन = उस मनुष्य की (उम्र की) रात (गुजरती है)।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, परमात्मा की महिमा एक ऐसा पदार्थ है जिसका कोई मूल्य नहीं पड़ सकता -ये दाति उस मनुष्य ने हासिल की है जिस पर परमात्मा की कृपा हुई है। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की संगति से प्रेम-रंग में जुड़ के जिस मनुष्य को प्रभु जी मिले हैं, उस मनुष्य की जीवन-रात्रि ही सुख-आनंद में बीतती है।3।13।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ तक धनासरी राग में ‘महला ५’ के 13 शब्द आ चुके हैं। इससे आगे के शब्द का अंक जोड़ 14 है। इसका भाव ये है कि अंक 13 से आगे नया शब्द शुरू हुआ है। शीर्षक ‘धनासरी महला ५’ ना लिखने से भी कोई भुलेखे वाली बात नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ बंधन ते छुटकावै प्रभू मिलावै हरि हरि नामु सुनावै ॥ असथिरु करे निहचलु इहु मनूआ बहुरि न कतहू धावै ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ बंधन ते छुटकावै प्रभू मिलावै हरि हरि नामु सुनावै ॥ असथिरु करे निहचलु इहु मनूआ बहुरि न कतहू धावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। छुटकावै = छुड़ा दे। असथिरु = अडोल। निहचलु = चंचलता हीन। बहुरि = दुबारा। कत हू = कहीं भी। धावै = दौड़े।1।
अर्थ: जो मित्र मुझे माया के बंधनो से छुड़ा ले, मुझे परमात्मा मिला दे, मुझे परमात्मा का नाम सदा सुनाया करे, मेरे इस मन को डोलने से चंचलता से हटा ले, ता कि ये फिर किसी भी तरफ ना भटके (मैं अपना सब कुछ उसके हवाले कर दूँ)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
है कोऊ ऐसो हमरा मीतु ॥ सगल समग्री जीउ हीउ देउ अरपउ अपनो चीतु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
है कोऊ ऐसो हमरा मीतु ॥ सगल समग्री जीउ हीउ देउ अरपउ अपनो चीतु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समग्री = माल असबाब। जीउ = जीवात्मा। हीउ = हृदय। देउ = दे दूँ। अरपउ = अर्पण करूँ।1। रहाउ।
अर्थ: यदि मुझे कोई ऐसा मित्र मिल जाए (जो मुझे माया के बंधनो से छुड़ा ले) मैं उसे अपना सारा धन-पदार्थ, अपनी जिंद, अपना हृदय दे दूँ। मैं अपना चिक्त उसके हवाले कर दूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर धन पर तन पर की निंदा इन सिउ प्रीति न लागै ॥ संतह संगु संत स्मभाखनु हरि कीरतनि मनु जागै ॥२॥
मूलम्
पर धन पर तन पर की निंदा इन सिउ प्रीति न लागै ॥ संतह संगु संत स्मभाखनु हरि कीरतनि मनु जागै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर तन = पराया शरीर, पराई स्त्री। संभाखनु = वचन विलास, गोसटि। कीरतनि = कीर्तन में।2।
अर्थ: (कोई ऐसा मित्र मिल जाए जिसकी कृपा से) पराया धन, पराई स्त्री, पराई निंदा- इन सबसे मेरा प्यार ना रहे। मैं संतों का संग किया करूँ, मेरा संतों से वचन-बिलास रहे, परमात्मा की महिमा में मेरा मन हर वक्त सुचेत रहा करे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण निधान दइआल पुरख प्रभ सरब सूख दइआला ॥ मागै दानु नामु तेरो नानकु जिउ माता बाल गुपाला ॥३॥१४॥
मूलम्
गुण निधान दइआल पुरख प्रभ सरब सूख दइआला ॥ मागै दानु नामु तेरो नानकु जिउ माता बाल गुपाला ॥३॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण निधान = हे गुणों के खजाने! पुरख = हे सर्व व्यापक! नानकु मागै = नानक माँगता है। गुपाला = हे गोपाल!।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ में अंतर है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे गुणों के खजाने! हे दया के घर! हे सर्व व्यापक! हे प्रभु! हे सारे सुखों की बख्शिश करने वाले! हे गोपाल! जैसे बच्चे अपनी माँ से (खाने-पीने के लिए माँगते हैं) मैं तेरा दास नानक तुझसे तेरे नाम का दान माँगता हूँ।3।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ हरि हरि लीने संत उबारि ॥ हरि के दास की चितवै बुरिआई तिस ही कउ फिरि मारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ हरि हरि लीने संत उबारि ॥ हरि के दास की चितवै बुरिआई तिस ही कउ फिरि मारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लीने उबारि = (सदा ही) बचा लिए हैं, बचाता आ रहा है। चितवै = सोचता है। बुरिआई = हानि, नुकसान। तिस ही कउ = उसी को ही। मारि = मार के, मार देता है, आत्मिक मौत मार देता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने संतों को सदा ही बचाता आ रहा है। अगर कोई मनुष्य परमात्मा के सेवक की कोई हानि करने की सोचें सोचता है, तो परमात्मा उसको ही आत्मिक मौत मार देता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन का आपि सहाई होआ निंदक भागे हारि ॥ भ्रमत भ्रमत ऊहां ही मूए बाहुड़ि ग्रिहि न मंझारि ॥१॥
मूलम्
जन का आपि सहाई होआ निंदक भागे हारि ॥ भ्रमत भ्रमत ऊहां ही मूए बाहुड़ि ग्रिहि न मंझारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहाई = मददगार। हारि = हार खा के, असफल हो के। भ्रमत भ्रमत = (निंदा के काम में) भटकते भटकते। ऊहां ही = उस निंदा के चक्कर में। मूए = आत्मिक मौत मर गए। बाहुड़ि = दुबारा। ग्रिहिन मंझारि = घरों में ही, अनेक जूनियों में।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पाठ ‘ग्रिहि न मंझारि’ गलत है। अगर संबंधक ‘मंझारि’ का शब्द ‘ग्रिहि’ साथ होता, तो यहाँ शब्द ‘ग्रिह’ होता, ना कि ‘ग्रिहि’। ‘ग्रिहि’ का अर्थ है ‘घर में’। इसे और संबंधक की जरूरत नहीं रही। सो, असल पाठ है ‘ग्रिहिन मंझारि’। शब्द ‘ग्रिहिन’, ‘ग्रिह’ से बना हुआ बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक का आप मददगार बनता है, उसके निंदक (निंदा के काम में) हार खा के भाग जाते हैं। निंदक मनुष्य निंदा के काम में भटक के निंदा के चक्कर में ही आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, और फिर अनेक जूनियों में जा पड़ते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक सरणि परिओ दुख भंजन गुन गावै सदा अपारि ॥ निंदक का मुखु काला होआ दीन दुनीआ कै दरबारि ॥२॥१५॥
मूलम्
नानक सरणि परिओ दुख भंजन गुन गावै सदा अपारि ॥ निंदक का मुखु काला होआ दीन दुनीआ कै दरबारि ॥२॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुख भंजन सरणि = दुखों के नाश करने वाले की शरण में। अपारि = अपार प्रभु में लीन हो के। कै दरबारि = के दरबार में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जो मनुष्य) दुखों के नाश करने वाले परमात्मा की शरण आ पड़ता है, वह उस बेअंत प्रभु में लीन हो के सदा उसके गुण गाता रहता है। पर, उसकी निंदा करने वाले मनुष्य का मुँह दुनिया के दरबार में और दीन के दरबार में (लोक-परलोक में) काला होता है (निंदक लोक-परलोक में बदनामी कमाता है)।2।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासिरी महला ५ ॥ अब हरि राखनहारु चितारिआ ॥ पतित पुनीत कीए खिन भीतरि सगला रोगु बिदारिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासिरी महला ५ ॥ अब हरि राखनहारु चितारिआ ॥ पतित पुनीत कीए खिन भीतरि सगला रोगु बिदारिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब, इस मानव जन्म में। चितारिआ = याद करना शुरू किया। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। खिन भीतरि = एक छिन में। बिदारिआ = नाश कर दिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने इस मानव जन्म में (विकारों से) बचा सकने वाले परमात्मा को याद करना शुरू कर दिया, परमात्मा ने एक छिन में उन्हें विकारियों से पवित्र जीवन वाले बना दिया, उनके सारे रोग काट दिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोसटि भई साध कै संगमि काम क्रोधु लोभु मारिआ ॥ सिमरि सिमरि पूरन नाराइन संगी सगले तारिआ ॥१॥
मूलम्
गोसटि भई साध कै संगमि काम क्रोधु लोभु मारिआ ॥ सिमरि सिमरि पूरन नाराइन संगी सगले तारिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोसटि = मिलाप। साध = गुरु। संगमि = संगति में। सिमरि = स्मरण करके। संगी = साथी।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में जिस मनुष्यों का मेल हो गया, (परमात्मा ने उनके अंदर से) काम-क्रोध-लोभ मार दिया। सर्व-व्यापक परमात्मा का नाम बार-बार स्मरण करके उन्होंने अपने सारे साथी भी (संसार-समंद्र से) पार लंघा लिए।1।
[[0675]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउखध मंत्र मूल मन एकै मनि बिस्वासु प्रभ धारिआ ॥ चरन रेन बांछै नित नानकु पुनह पुनह बलिहारिआ ॥२॥१६॥
मूलम्
अउखध मंत्र मूल मन एकै मनि बिस्वासु प्रभ धारिआ ॥ चरन रेन बांछै नित नानकु पुनह पुनह बलिहारिआ ॥२॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखध मूल = सब दवाओं का मूल। मंत्र मूल = सब मंत्रों का मूल। मन = हे मन! एकै = एक परमात्मा का (नाम ही)। मनि = मन में। बिस्वासु = विश्वास, श्रद्धा, निश्चय। रेन = धूल। बांछै = चाहता है। नानक बांछै = नानक मांगता है। पुनह पुनह = बार बार।2।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का एक नाम ही सारी दवाओं का मूल है, सारे मंत्रों का मूल है। जिस मनूष्य ने अपने मन में परमात्मा के लिए श्रद्धा धारण कर ली है, नानक उसके चरणों की धूल सदा मांगता है, नानक उस मनुष्य से सदा सदके जाता है।2।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ मेरा लागो राम सिउ हेतु ॥ सतिगुरु मेरा सदा सहाई जिनि दुख का काटिआ केतु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ मेरा लागो राम सिउ हेतु ॥ सतिगुरु मेरा सदा सहाई जिनि दुख का काटिआ केतु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लागो = लग गया। सिउ = से। हेतु = प्यार। सहाई = मददगार। जिनि = जिस (गुरु) ने। केतु = चोटी वाला तारा जो मनहूस समझा जाता है, झण्डा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु ने (शरण आए हरेक मनुष्य का) चोटी वाला तारा ही सदा के लिए काट दिया है (जो गुरु हरेक शरण आए मनुष्य के दुखों की जड़ ही काट देता है), वह गुरु मेरा भी सदा के लिए मददगार बन गया है (और, उसकी कृपा से) मेरा परमात्मा से प्यार बन गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाथ देइ राखिओ अपुना करि बिरथा सगल मिटाई ॥ निंदक के मुख काले कीने जन का आपि सहाई ॥१॥
मूलम्
हाथ देइ राखिओ अपुना करि बिरथा सगल मिटाई ॥ निंदक के मुख काले कीने जन का आपि सहाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = दे के। करि = बना के। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दर्द। सगल = सारी। निंदक के मुख = निंदकों के मुँह। जन = सेवक।1।
अर्थ: (हे भाई! वह परमात्मा अपने सेवकों को अपना) हाथ दे के (दुखों से) बचाता है, (सेवकों को) अपने बना के उनका सारा दुख-दर्द मिटा देता है। परमात्मा अपने सेवकों का आप मददगार बनता है, और, उनकी निंदा करने वालों का मुँह काला करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा साहिबु होआ रखवाला राखि लीए कंठि लाइ ॥ निरभउ भए सदा सुख माणे नानक हरि गुण गाइ ॥२॥१७॥
मूलम्
साचा साहिबु होआ रखवाला राखि लीए कंठि लाइ ॥ निरभउ भए सदा सुख माणे नानक हरि गुण गाइ ॥२॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारा = सदा कायम रहने वाला। कंठि = गले से। माणे = इस्तेमाल करे, भोगे। सुख = आत्मिक आनंद। गाइ = गा के।2।
अर्थ: हे नानक! सदा कायम रहने वाला मालिक (अपने सेवकों का स्वयं) रक्षक बनता है, उनको अपने गले से लगा के रखता है। परमात्मा के सेवक परमात्मा के गुण गा-गा के, और सदा आत्मिक आनंद पा कर (दुख-कष्टों से) निडर हो जाते हैं।2।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासिरी महला ५ ॥ अउखधु तेरो नामु दइआल ॥ मोहि आतुर तेरी गति नही जानी तूं आपि करहि प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासिरी महला ५ ॥ अउखधु तेरो नामु दइआल ॥ मोहि आतुर तेरी गति नही जानी तूं आपि करहि प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखधु = औषधि, दवा। दइआल = हे दया के घर! आतुर = दुखी। मोहिह आतुर = मैं दुखी ने। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। करहि = तू करता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया के घर प्रभु! तेरा नाम (मेरे हरेक रोग की) दवा है, पर, मुझ दुखी ने समझा ही नहीं कि तू कितनी ऊँची आत्मिक अवस्था वाला है, (फिर भी) तू खुद मेरी पालना करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे दुतीआ भाउ निवारि ॥ बंधन काटि लेहु अपुने करि कबहू न आवह हारि ॥१॥
मूलम्
धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे दुतीआ भाउ निवारि ॥ बंधन काटि लेहु अपुने करि कबहू न आवह हारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। दुतीआ भाउ = दूसरा भाव, मेर तेर, माया का मोह। निवारि = दूर कर। काटि = काट के। करि लेहु = बना ले। आवह = हम आएं। हारि = हार के।1।
अर्थ: हे मेरे मालिक! मेरे पर मेहर कर (मेरे अंदर से) माया का मोह दूर कर। हे प्रभु! हमारे (माया के मोह के) बंधन काट के हमें अपने बना लो, हम कभी (मानव जनम की बाजी) हार के ना आएं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी सरनि पइआ हउ जीवां तूं सम्रथु पुरखु मिहरवानु ॥ आठ पहर प्रभ कउ आराधी नानक सद कुरबानु ॥२॥१८॥
मूलम्
तेरी सरनि पइआ हउ जीवां तूं सम्रथु पुरखु मिहरवानु ॥ आठ पहर प्रभ कउ आराधी नानक सद कुरबानु ॥२॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ जीवां = मैं आत्मिक जीवन वाला बना रहता हूँ। संम्रथु = समर्थ, सब ताकतों का मालिक। पुरखु = सर्व व्यापक। कउ = को। आराधी = मैं आराधता रहूँ। सद = सदा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरी शरण पड़ कर मैं आत्मिक जीवन वाला बना रहता हूँ (मुझे अपनी शरण में रख) तू सारी शक्तियों का मालिक है, तू सर्व-व्यापक है, तू (सब पर) दया करने वाला है। (हे भाई! मेरी यही अरदास है कि) मैं आठों पहर परमात्मा की आराधना करता रहूँ, मैं उससे सदा कुर्बान जाता हूँ।2।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु धनासरी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु धनासरी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा हा प्रभ राखि लेहु ॥ हम ते किछू न होइ मेरे स्वामी करि किरपा अपुना नामु देहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हा हा प्रभ राखि लेहु ॥ हम ते किछू न होइ मेरे स्वामी करि किरपा अपुना नामु देहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हा हा = हाय हाय। प्रभ = हे प्रभु! हम ते = हम जीवों से। स्वामी = हे स्वामी! 1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! हमें बचा ले, हमें बचा ले। हे मेरे मालिक! (इन विकारों से बचने के लिए) हम जीवों से कुछ नहीं हो सकता। मेहर कर! अपना नाम बख्श!।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगनि कुट्मब सागर संसार ॥ भरम मोह अगिआन अंधार ॥१॥
मूलम्
अगनि कुट्मब सागर संसार ॥ भरम मोह अगिआन अंधार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागर = समुंदर। अगनि = आग। कुटंब = परिवार (का मोह)। भरम = भटकना। अगिआन = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी। अंधार = अंधेरे।1।
अर्थ: हे प्रभु! ये संसार-समुंदर परिवार (के मोह) की आग (से भरा पड़ा) है। भटकना, माया का मोह, आत्मिक जीवन से बेसमझी- ये सारे घुप अंधकार बनाए हुए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊच नीच सूख दूख ॥ ध्रापसि नाही त्रिसना भूख ॥२॥
मूलम्
ऊच नीच सूख दूख ॥ ध्रापसि नाही त्रिसना भूख ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊच = मन का ऊँचा हो जाना, अहंकार। नीच = गिरती कला में सोच, विचारों का ढलान की ओर होना। ध्रापसि नाही = अघाता नहीं, तृप्त नहीं होता।2।
अर्थ: हे प्रभु! दुनिया के सुख मिलने से जीव को अहंकार पैदा हो जाता है, दुख मिलने पर वह ढलती सोच वाली हालत में जाता है। जीव (माया से किसी भी समय) तृप्त नहीं होता, इसे माया की प्यास माया की भूख चिपकी रहती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि बासना रचि बिखै बिआधि ॥ पंच दूत संगि महा असाध ॥३॥
मूलम्
मनि बासना रचि बिखै बिआधि ॥ पंच दूत संगि महा असाध ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: म्नि = मन में। बासना = वासना। रचि = रच के, बना के। बिखै = विषौ विकार। बिआधि = रोग। दूत = वैरी। संगि = साथ। असाध = काबू ना आ सकने वाले।3।
अर्थ: हे प्रभु! जीव अपने मन में वासनाएं खड़ी करके विषौ-विकारों के कारण रोग सहेड़ लेता है। ये बड़े आकी (कामादिक) पाँचो वैरी इसके साथ चिपके रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जहानु प्रान धनु तेरा ॥ नानक जानु सदा हरि नेरा ॥४॥१॥१९॥
मूलम्
जीअ जहानु प्रान धनु तेरा ॥ नानक जानु सदा हरि नेरा ॥४॥१॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = सारे जीव। नानक = हे नानक! जानु = समझ। नेरा = नजदीक।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (अगर इन वैरियों से बचना है, तो) परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता समझ (उसके आगे अरदास किया कर- हे प्रभु!) ये सारे जीव, ये जगत, ये धन, जीवों के प्राण - ये सब कुछ तेरा ही रचा हुआ है (तू ही विकारों से बचाने के समर्थ है)।4।1।19।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 1 बताता है कि ‘महला ५’ के शबदों का ये एक नया संग्रह है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ दीन दरद निवारि ठाकुर राखै जन की आपि ॥ तरण तारण हरि निधि दूखु न सकै बिआपि ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ दीन दरद निवारि ठाकुर राखै जन की आपि ॥ तरण तारण हरि निधि दूखु न सकै बिआपि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = गरीब, अनाथ। निवारि = दूर करके। जन = सेवक। राखै = इज्जत रखता है। तरण = जहाज। निधि = खजाना। न सकै बिआपि = व्याप नहीं सकता।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अनाथों के दुख दूर करके अपने सेवकों की इज्जत स्वयं रखता है। वह प्रभु (संसार समुंदर से पार) लंघाने के लिए (जैसे) जहाज है, वह हरि सारे सुखों का खजाना है, (उसकी शरण पड़ने से कोई) दुख व्याप नहीं सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू संगि भजहु गुपाल ॥ आन संजम किछु न सूझै इह जतन काटि कलि काल ॥ रहाउ॥
मूलम्
साधू संगि भजहु गुपाल ॥ आन संजम किछु न सूझै इह जतन काटि कलि काल ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। गोपाल = धरती का पालने वाला। आन = (अन्य) कोई और। संजम = जुगति। कटि = काट ले। कलि काल = संसार की कल्पना, जगत के झमेले। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में (रह के) परमात्मा का नाम जपा कर। इन यत्नों से ही संसार के झमेलों के फंदों को काट। (मुझे इसके बिना) और कोई युक्ति नहीं सूझती। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि अंति दइआल पूरन तिसु बिना नही कोइ ॥ जनम मरण निवारि हरि जपि सिमरि सुआमी सोइ ॥२॥
मूलम्
आदि अंति दइआल पूरन तिसु बिना नही कोइ ॥ जनम मरण निवारि हरि जपि सिमरि सुआमी सोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = शुरू से। अंति = आखिर में। आदि अंति = जगत के आरम्भ से लेकर आखीर तक, सदा ही। दइआल = दया का घर। पूरन = सर्व व्यापक। निवारि = दूर कर ले। जपि = जप के। सोइ = वही।2।
अर्थ: हे भाई! जो दया का घर, सर्व-व्यापक प्रभु हमेशा ही (जीवों के सिर पर रखवाला) है और उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं उसी मालिक का नाम सदा स्मरण किया कर, उसी हरि का नाम जप के अपने जनम-मरण के चक्कर दूर कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद सिम्रिति कथै सासत भगत करहि बीचारु ॥ मुकति पाईऐ साधसंगति बिनसि जाइ अंधारु ॥३॥
मूलम्
बेद सिम्रिति कथै सासत भगत करहि बीचारु ॥ मुकति पाईऐ साधसंगति बिनसि जाइ अंधारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = करते हैं। मुकति = (जगत के झगड़ों झमेलों से) खलासी। अंधारु = अंधेरा।3।
अर्थ: हे भाई! वेद-स्मृति-शास्त्र (हरेक धर्म पुस्तक जिस परमात्मा का) वर्णन करती है, भक्त जन (भी जिस परमात्मा के गुणों के) विचार करते हैं, साधु-संगत में (उसका नाम स्मरण करके जगत के झमेलों से) निजात मिलती है, (माया के मोह के) अंधेरे दूर हो जाते हैं।3।
[[0676]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल अधारु जन का रासि पूंजी एक ॥ ताणु माणु दीबाणु साचा नानक की प्रभ टेक ॥४॥२॥२०॥
मूलम्
चरन कमल अधारु जन का रासि पूंजी एक ॥ ताणु माणु दीबाणु साचा नानक की प्रभ टेक ॥४॥२॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधारु = आसरा। साचा = सदा कायम रहने वाला।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण ही भक्तों (के आत्मिक जीवन) की राशि-पूंजी है, परमात्मा की ओट ही उनका बल है, सहारा है, सदा कायम रहने वाला आसरा है।4।2।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ फिरत फिरत भेटे जन साधू पूरै गुरि समझाइआ ॥ आन सगल बिधि कांमि न आवै हरि हरि नामु धिआइआ ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ फिरत फिरत भेटे जन साधू पूरै गुरि समझाइआ ॥ आन सगल बिधि कांमि न आवै हरि हरि नामु धिआइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फिरत फिरत = तलाश करते करते। भेटे = मिले। भेटे जन साधू = (जब) गुरु पुरख को मिले। गुरि = गुरु ने। आन = अन्य। आन सगल बिधि = और सारी युक्तियां। कांमि = काम में। कांमि न आवै = लाभदायक नहीं हो सकती।1।
अर्थ: हे भाई! तलाश करते करते जब मैं गुरु महापुरुष को मिला, तो पूरे गुरु ने (मुझे) ये समझ बख्शी कि (माया के मोह से बचने कि लिए) अन्य सारी युक्तियों में से कोई एक युक्ति भी काम नहीं आती। परमात्मा का नाम स्मरण किया हुआ ही काम आता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता ते मोहि धारी ओट गोपाल ॥ सरनि परिओ पूरन परमेसुर बिनसे सगल जंजाल ॥ रहाउ॥
मूलम्
ता ते मोहि धारी ओट गोपाल ॥ सरनि परिओ पूरन परमेसुर बिनसे सगल जंजाल ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता ते = इस लिए। मोहि = मैंने। ओट = आसरा। रहाउ।
अर्थ: इसलिए, हे भाई! मैंने परमात्मा का आसरा ले लिया। (जब मैं) सर्व-व्यापक परमात्मा की शरण पड़ा, तो मेरे सारे (माया के) जंजाल नाश हो गए। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरग मिरत पइआल भू मंडल सगल बिआपे माइ ॥ जीअ उधारन सभ कुल तारन हरि हरि नामु धिआइ ॥२॥
मूलम्
सुरग मिरत पइआल भू मंडल सगल बिआपे माइ ॥ जीअ उधारन सभ कुल तारन हरि हरि नामु धिआइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरग = देव लोक। मिरत = मातृ लोक। पइआल = पाताल। भू मंडल = सारी धरतियां। बिआपे = ग्रसे हुए। माइ = माया (में)। जीअ = जिंद। जीअ उधारन = जिंद को (माया के मोह से) बचाने के लिए।2।
अर्थ: हे भाई! देव-लोक, मात-लोक, पाताल-लोक, सारी ही सृष्टि माया (के मोह) में फंसी हुई है। हे भाई! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, यही है जिंद को (माया के मोह में से) बचाने वाला, यही है सारी कुलों के उद्धार करने वाला।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक नामु निरंजनु गाईऐ पाईऐ सरब निधाना ॥ करि किरपा जिसु देइ सुआमी बिरले काहू जाना ॥३॥३॥२१॥
मूलम्
नानक नामु निरंजनु गाईऐ पाईऐ सरब निधाना ॥ करि किरपा जिसु देइ सुआमी बिरले काहू जाना ॥३॥३॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंजनु = माया से निर्लिप (निर+अंजन। अंजनु = माया की कालिख़)। निधान = खजाने। देइ = देता है। काहू बिरले = किसी विरले मनुष्य ने।3।
अर्थ: हे नानक! माया से निर्लिप परमात्मा का नाम गाना चाहिए, (नाम की इनायत से) सारे खजानों की प्राप्ति हो जाती है, पर (ये भेद) किसी (उस) विरले मनुष्य ने समझा है जिसे मालिक प्रभु स्वयं मेहर करके (नाम की दाति) देता है।3।3।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि जाहि से करहि पराल ॥ कामि न आवहि से जंजाल ॥ संगि न चालहि तिन सिउ हीत ॥ जो बैराई सेई मीत ॥१॥
मूलम्
छोडि जाहि से करहि पराल ॥ कामि न आवहि से जंजाल ॥ संगि न चालहि तिन सिउ हीत ॥ जो बैराई सेई मीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाहि = जाते हैं। करहि = करते हैं। से पराल = वह व्यर्थ काम (पराल = पराली)। कामि न आवहि = काम नहीं आते। से = वह (बहुवचन)। संगि = से। हीत = हित, प्यार। बैराई = वैरी।1।
अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित जीव वही निकम्मे काम करते रहते हैं, जिनकों आखिर छोड़ के यहाँ से चले जाना है। वही जंजाल सहेड़े रखते हैं, जो इनके किसी काम नहीं आते। उनसे मोह प्यार बनाए रहते हैं, जो (अंत समय) साथ नहीं जाते। उन (विकारों) को मित्र समझते रहते हैं जो (दरअसल आत्मिक जीवन के) वैरी हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे भरमि भुले संसारा ॥ जनमु पदारथु खोइ गवारा ॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसे भरमि भुले संसारा ॥ जनमु पदारथु खोइ गवारा ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = भ्रम में। भूले = गलत राह पर पड़ा हुआ। संसारा = जगत। खोइ = गवा लेता है। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मूर्ख जगत (माया की) भटकना में पड़ कर अभी गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है (कि अपना) कीमती मानव जनम गवा रहा है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचु धरमु नही भावै डीठा ॥ झूठ धोह सिउ रचिओ मीठा ॥ दाति पिआरी विसरिआ दातारा ॥ जाणै नाही मरणु विचारा ॥२॥
मूलम्
साचु धरमु नही भावै डीठा ॥ झूठ धोह सिउ रचिओ मीठा ॥ दाति पिआरी विसरिआ दातारा ॥ जाणै नाही मरणु विचारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरि नाम का स्मरण। भावै = अच्छा लगता है। धोह = ठगी। सिउ = से। मीठा = मीठा (जान के)। मरणु = मौत।2।
अर्थ: हे भाई! (माया-ग्रसित मूर्ख मनुष्य को) सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण करने वाला धर्म आँखों से देखना भी नहीं भाता। झूठ को ठगी को मीठा जान के इनसे मस्त रहता है। दातार प्रभु को भुलाए रखता है, उसकी दी हुई दाति इसको प्यारी लगती है। (मोह में) बेबस हुआ जीव अपनी मौत को याद नहीं करता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसतु पराई कउ उठि रोवै ॥ करम धरम सगला ई खोवै ॥ हुकमु न बूझै आवण जाणे ॥ पाप करै ता पछोताणे ॥३॥
मूलम्
वसतु पराई कउ उठि रोवै ॥ करम धरम सगला ई खोवै ॥ हुकमु न बूझै आवण जाणे ॥ पाप करै ता पछोताणे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसतु = चीज। कउ = की खातिर। उठि = उठ के। रोवै = रोता है। सगला ई = सारा ही। खोवै = गवा लेता है। हुकमु = रजा। आवण जाणे = जनम मरन के गेड़।3।
अर्थ: हे भाई! (भटकना में पड़ा हुआ जीव) उस चीज के लिए दौड़-दौड़ के तरले लेता है जो आखिर बेगानी हो जानी है। अपना इन्सानी फर्ज सारा ही भुला देता है। मनुष्य परमात्मा की रजा को नहीं समझता (जिसके कारण इसके वास्ते) जनम-मरण के चक्कर (बने रहते हैं) नित्य पाप करता रहता है, आखिर में पछताता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तुधु भावै सो परवाणु ॥ तेरे भाणे नो कुरबाणु ॥ नानकु गरीबु बंदा जनु तेरा ॥ राखि लेइ साहिबु प्रभु मेरा ॥४॥१॥२२॥
मूलम्
जो तुधु भावै सो परवाणु ॥ तेरे भाणे नो कुरबाणु ॥ नानकु गरीबु बंदा जनु तेरा ॥ राखि लेइ साहिबु प्रभु मेरा ॥४॥१॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नो = को, से। जनु = दास। साहिबु = मालिक।4।
अर्थ: (पर, हे प्रभु! जीवों के भी क्या वश?) जो तुझे अच्छा लगता है, वही हम जीवों को स्वीकार होता है। हे प्रभु! मैं तेरी मर्जी पर से सदके हूँ। गरीब नानक तेरा दास है तेरा गुलाम है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभु (अपने दास की इज्जत खुद) रख लेता है।4।1।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ मोहि मसकीन प्रभु नामु अधारु ॥ खाटण कउ हरि हरि रोजगारु ॥ संचण कउ हरि एको नामु ॥ हलति पलति ता कै आवै काम ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ मोहि मसकीन प्रभु नामु अधारु ॥ खाटण कउ हरि हरि रोजगारु ॥ संचण कउ हरि एको नामु ॥ हलति पलति ता कै आवै काम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। मसकीन = अज़िज़, निमाणा। मोहि मसकीन = मुझ निमाणे को। अधारु = आसरा। खाटण कउ = कमाने के लिए। रोजगारु = रोजी कमाने के लिए काम। संचण कउ = जमा करने के लिए। हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। ता कै काम = उस मनुष्य के काम।1।
अर्थ: हे भाई! मुझ आज़िज़ को परमात्मा का नाम (ही) आसरा है, मेरे लिए कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही रोजी है। मेरे लिए एकत्र करने के लिए भी परमात्मा का नाम ही है। (जो मनुष्य हरि-नाम-धन इकट्ठा करता है) इस लोक में और परलोक में उसके काम आता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामि रते प्रभ रंगि अपार ॥ साध गावहि गुण एक निरंकार ॥ रहाउ॥
मूलम्
नामि रते प्रभ रंगि अपार ॥ साध गावहि गुण एक निरंकार ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। रंगि = प्रेम रंग में। अपार = बेअंत। साध = संत जन। गवहि = गाते हैं। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संत जन परमात्मा के नाम में मस्त हो के, बेअंत प्रभु के प्रेम में जुड़ के एक निरंकार के गुण गाते रहते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध की सोभा अति मसकीनी ॥ संत वडाई हरि जसु चीनी ॥ अनदु संतन कै भगति गोविंद ॥ सूखु संतन कै बिनसी चिंद ॥२॥
मूलम्
साध की सोभा अति मसकीनी ॥ संत वडाई हरि जसु चीनी ॥ अनदु संतन कै भगति गोविंद ॥ सूखु संतन कै बिनसी चिंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति मसकीनी = बहुत निम्रता। चीनी = पहचानी। जसु = महिमा। संतन कै = संतों के हृदय में। चिंद = चिन्ता।2।
अर्थ: हे भाई! बहुत विनम्र स्वभाव संत की शोभा (का मूल) है, परमात्मा की महिमा करनी ही संत का बड़प्पन (का कारण) है। परमात्मा की भक्ति संत जनों के हृदय में आनंद पैदा करती है। (भक्ति की इनायत से) संतजनों के दिल में सुख बना रहता है (उनके अंदर से) चिन्ता नाश हो जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह साध संतन होवहि इकत्र ॥ तह हरि जसु गावहि नाद कवित ॥ साध सभा महि अनद बिस्राम ॥ उन संगु सो पाए जिसु मसतकि कराम ॥३॥
मूलम्
जह साध संतन होवहि इकत्र ॥ तह हरि जसु गावहि नाद कवित ॥ साध सभा महि अनद बिस्राम ॥ उन संगु सो पाए जिसु मसतकि कराम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। इकत्र = इकट्ठे। नाद = साज (बजा के)। कवित = कविता (पढ़ के)। बिस्राम = शांति। उन संगु = उनकी संगति। मसतकि = माथे पर। कराम = करम, बख्शिश।3।
अर्थ: हे भाई! साधु-संत जहाँ (भी) इकट्ठे होते हैं वहाँ वे साज़ बजा के वाणी पढ़ के परमात्मा की महिमा के गीत (ही) गाते हैं। हे भाई! संतों की संगति में बैठने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है शांति हासिल होती है। पर, उनकी संगति वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसके माथे पर बख्शिश (का लेख लिखा हो)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुइ कर जोड़ि करी अरदासि ॥ चरन पखारि कहां गुणतास ॥ प्रभ दइआल किरपाल हजूरि ॥ नानकु जीवै संता धूरि ॥४॥२॥२३॥
मूलम्
दुइ कर जोड़ि करी अरदासि ॥ चरन पखारि कहां गुणतास ॥ प्रभ दइआल किरपाल हजूरि ॥ नानकु जीवै संता धूरि ॥४॥२॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुइ कर = दोनों हाथ (बहुवचन)। करी = करूँ। पखारि = धो के। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। धूरि = चरण धूल।4।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने दोनों हाथ जोड़ के अरदास करता हूँ कि मैं संतजनों के चरण धो के गुणों के खजाने परमात्मा का नाम उचारता रहूँ। हे भाई! नानक उन संत जनों के चरणों की धूल से आत्मिक जीवन प्राप्त करता है जो दयालु कृपालु प्रभु की हजूरी में (सदा टिके रहते हैं)।4।2।23।
[[0677]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी मः ५ ॥ सो कत डरै जि खसमु सम्हारै ॥ डरि डरि पचे मनमुख वेचारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी मः ५ ॥ सो कत डरै जि खसमु सम्हारै ॥ डरि डरि पचे मनमुख वेचारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कत = कहाँ? जि = जो। समारै = हृदय में बसाए रखता है। डरि = डर के। पचे = ख्वार हुए, दुखी हुए। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। वेचारे = अनाथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले निमाणे (मौत आदि से डर के) डर-डर के ख्वार होते रहते हैं, पर जो मनुष्य पति-प्रभु को अपने हृदय में बसाए रखता है, वह कहीं भी नहीं डरता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिर ऊपरि मात पिता गुरदेव ॥ सफल मूरति जा की निरमल सेव ॥ एकु निरंजनु जा की रासि ॥ मिलि साधसंगति होवत परगास ॥१॥
मूलम्
सिर ऊपरि मात पिता गुरदेव ॥ सफल मूरति जा की निरमल सेव ॥ एकु निरंजनु जा की रासि ॥ मिलि साधसंगति होवत परगास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरदेव = सबसे बड़ा प्रकाश रूप प्रभु। सफल मूरति = जिसके दीदार से सारे फल प्राप्त हो जाते हैं। जा की = जिस परमात्मा की। निरमल = पवित्र करने वाली। जा की रासि = जिस मनुष्य की पूंजी। परगास = आत्मिक जीवन का प्रकाश।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के दर्शन करने से सारे फल प्राप्त होते हैं, जिसकी सेवा-भक्ति पवित्र जीवन वाली बना देती है, उस प्रकाश-रूप प्रभु को माता-पिता की तरह जो मनुष्य अपने सिर के ऊपर (रखवाला समझता है), माया से निर्लिप प्रभु का नाम ही जिस मनुष्य (के आत्मिक जीवन) की संपत्ति बन जाता है, साधु-संगत में मिल के उस मनुष्य के अंदर जीवन-प्रकाश हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअन का दाता पूरन सभ ठाइ ॥ कोटि कलेस मिटहि हरि नाइ ॥ जनम मरन सगला दुखु नासै ॥ गुरमुखि जा कै मनि तनि बासै ॥२॥
मूलम्
जीअन का दाता पूरन सभ ठाइ ॥ कोटि कलेस मिटहि हरि नाइ ॥ जनम मरन सगला दुखु नासै ॥ गुरमुखि जा कै मनि तनि बासै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन = व्यापक। सभ ठाइ = हर जगह में। कोटि = करोड़ों। नाइ = नाम से। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जा कै मनि = जिस मनुष्य के मन में। बासै = बसता है।2।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सब जीवों को दातें देने वाला है, जो हर जगह मौजूद है, जिस प्रभु के नाम में जुड़ने से करोड़ों दुख-कष्ट मिट जाते हैं, गुरु के द्वारा वह प्रभु जिस मनुष्य के मन में हृदय में आ बसता है, उसके जनम-मरण का सारा दुख नाश हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो आपि लए लड़ि लाइ ॥ दरगह मिलै तिसै ही जाइ ॥ सेई भगत जि साचे भाणे ॥ जमकाल ते भए निकाणे ॥३॥
मूलम्
जिस नो आपि लए लड़ि लाइ ॥ दरगह मिलै तिसै ही जाइ ॥ सेई भगत जि साचे भाणे ॥ जमकाल ते भए निकाणे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। जाइ = जगह। जि = जो। साचे = सदा स्थिर प्रभु को। निकाणे = निडर, बेमुहताज।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य को स्वयं अपने पल्ले से लगा लेता है, उसी को ही परमात्मा की हजूरी में जगह मिलती है। हे भाई! वही मनुष्य परमात्मा के भक्त कहलवा सकते हैं, जो उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को प्यारे लगते हैं। वह मनुष्य मौत से निडर हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा साहिबु सचु दरबारु ॥ कीमति कउणु कहै बीचारु ॥ घटि घटि अंतरि सगल अधारु ॥ नानकु जाचै संत रेणारु ॥४॥३॥२४॥
मूलम्
साचा साहिबु सचु दरबारु ॥ कीमति कउणु कहै बीचारु ॥ घटि घटि अंतरि सगल अधारु ॥ नानकु जाचै संत रेणारु ॥४॥३॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। घटि घटि = हरेक घट में। अंतरि = (सबके) अंदर। अधारु = आसरा। जाचै = मांगता है। रेणारु = चरण धूल।4।
अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसका दरबार (भी) सदा कायम रहने वाला है। कोई मनुष्य उसकी कीमत नहीं विचार सकता। वह प्रभु हरेक के शरीर में बसता है, (सब जीवों के) अंदर बसता है, सब जीवों का आसरा है। नानक उस प्रभु के संत जनों की चरण-धूल माँगता है।4।3।24।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इससे आगे फिर नया संग्रह आरम्भ होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरि बाहरि तेरा भरवासा तू जन कै है संगि ॥ करि किरपा प्रीतम प्रभ अपुने नामु जपउ हरि रंगि ॥१॥
मूलम्
घरि बाहरि तेरा भरवासा तू जन कै है संगि ॥ करि किरपा प्रीतम प्रभ अपुने नामु जपउ हरि रंगि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि = घर में। भरवासा = आसरा, सहारा। कै संगि = के साथ। है = है। प्रीतम प्रभ = हे प्रीतम प्रभु! जपउ = मैं जपूँ। रंगि = प्रेम में (टिक) के।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक को घर के अंदर भी, घर से बाहर भी तेरा ही सहारा रहता है, तू अपने सेवक के (सदा) साथ रहता है। हे मेरे प्रीतम प्रभु! (मेरे पर भी) मेहर कर, मैं तेरे प्यार में टिक के तेरा नाम जपता रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन कउ प्रभ अपने का ताणु ॥ जो तू करहि करावहि सुआमी सा मसलति परवाणु ॥ रहाउ॥
मूलम्
जन कउ प्रभ अपने का ताणु ॥ जो तू करहि करावहि सुआमी सा मसलति परवाणु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। ताणु = आसरा। करावहि = जीवों से करवाता है। सुआमी = हे स्वामी! सा = वह (स्त्रीलिंग)। मसलति = सलाह, प्रेरणा। परवाणु = स्वीकार, सपंद। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के सेवक को अपने प्रभु का आसरा होता है। हे मालिक प्रभु! जो कुछ तू करता है जो कुछ तू (सेवक से) करवाता है, (सेवक को) वही प्रेरणा पसंद आती है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पति परमेसरु गति नाराइणु धनु गुपाल गुण साखी ॥ चरन सरन नानक दास हरि हरि संती इह बिधि जाती ॥२॥१॥२५॥
मूलम्
पति परमेसरु गति नाराइणु धनु गुपाल गुण साखी ॥ चरन सरन नानक दास हरि हरि संती इह बिधि जाती ॥२॥१॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। गुपाल गुण साखी = गोपाल के गुणों की साखियां। दास हरि = हरि के दास। संती = संतों ने। इह बिधि = ये जीवन जुगति। जाती = समझी है।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के सेवक के लिए) परमात्मा (का नाम ही) इज्जत है, परमात्मा (का नाम ही) ऊँची आत्मिक अवस्था है, परमात्मा के गुणों की साखियां सेवक के लिए धन-पदार्थ हैं। हे नानक! प्रभु के सेवक प्रभु के चरणों की शरण पड़े रहते हैं। संत जनों ने उसी को ही (सही) जीवन जुगति समझा है।2।1।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ सगल मनोरथ प्रभ ते पाए कंठि लाइ गुरि राखे ॥ संसार सागर महि जलनि न दीने किनै न दुतरु भाखे ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ सगल मनोरथ प्रभ ते पाए कंठि लाइ गुरि राखे ॥ संसार सागर महि जलनि न दीने किनै न दुतरु भाखे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनोरथ = मुरादें, मनों कामनाएं। ते = से। कंठि = गले से। गुरि = गुरु ने। सागर = समुंदर। किनै = (उनमें से) किसी ने भी। दुतरु = दुश्तर, मुश्किल तैरना। भाखे = कहा।1।
अर्थ: हे भाई! उन मनुष्यों को गुरु ने (अपने) गले से लगा के (संसार-समुंदर से) बचा लिया, उन्होंने अपनी सारी मुरादें परमात्मा से हासिल कर लीं। गुरु परमेश्वर ने उनको संसार-समुंदर (के विकारों की आग) में नहीं जलने दिया। (उनमें से) किसी ने भी ये नहीं कहा कि संसार-समुंदर में से पार लांघना मुश्किल है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कै मनि साचा बिस्वासु ॥ पेखि पेखि सुआमी की सोभा आनदु सदा उलासु ॥ रहाउ॥
मूलम्
जिन कै मनि साचा बिस्वासु ॥ पेखि पेखि सुआमी की सोभा आनदु सदा उलासु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै मनि = के मन में। साचा = अटल। बिस्वास = श्रद्धा। पेखि = देख के। उलासु = खुशी, चाव। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में (गुरु परमेश्वर के लिए) अटल श्रद्धा (बन जाती) है, मालिक प्रभु की शोभा-बड़ाई देख-देख के उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है, खुशी बनी रहती है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन सरनि पूरन परमेसुर अंतरजामी साखिओ ॥ जानि बूझि अपना कीओ नानक भगतन का अंकुरु राखिओ ॥२॥२॥२६॥
मूलम्
चरन सरनि पूरन परमेसुर अंतरजामी साखिओ ॥ जानि बूझि अपना कीओ नानक भगतन का अंकुरु राखिओ ॥२॥२॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। साखिओ = प्रत्यक्ष देख लिया। जानि = जान के। बूझि = समझ के। अंकुरु = नए उगते पौधे की कोमल कपोल। राखिओ = बचा ली।2।
अर्थ: हे भाई! उन मनुष्यों ने सर्व-व्यापक परमात्मा की शरण में रह के हरेक के दिल की जानने वाले परमात्मा को प्रत्यक्ष (हर जगह) देख लिया है। हे नानक! (उनके दिल की) जान के समझ के परमात्मा ने उनको अपना बना लिया, (और, इस तरह अपने उन) भक्तों के अंदर भक्ति के फूटते कोमल अंकुर को (विकारों की आग में जलने से) परमात्मा ने बचा लिया।2।2।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जह जह पेखउ तह हजूरि दूरि कतहु न जाई ॥ रवि रहिआ सरबत्र मै मन सदा धिआई ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जह जह पेखउ तह हजूरि दूरि कतहु न जाई ॥ रवि रहिआ सरबत्र मै मन सदा धिआई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। पेखउ = देखता हूँ। तह = वहाँ। हजूरि = अंग संग, हाजिर। कतहु जाई = किसी भी जगह से। जाई = जगह। रवि रहिआ = बस रहा है। सरबत्र मै = सब में। मन = हे मन!।1।
अर्थ: हे भाई! मैं जहाँ-जहाँ देखता हूँ वहाँ-वहाँ ही परमात्मा हाजिर-नाजर है, वह किसी भी जगह से दूर नहीं है। हे (मेरे) मन! तू सदा उस प्रभु का स्मरण किया कर, जो सब में बस रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईत ऊत नही बीछुड़ै सो संगी गनीऐ ॥ बिनसि जाइ जो निमख महि सो अलप सुखु भनीऐ ॥ रहाउ॥
मूलम्
ईत ऊत नही बीछुड़ै सो संगी गनीऐ ॥ बिनसि जाइ जो निमख महि सो अलप सुखु भनीऐ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। बीछड़ै = विछुड़ता। संगी = साथी। गनीऐ = समझना चाहिए। निमख = आँख झपकने जितना समय। अलप = छोटा, थोड़ा, होछा। भनीऐ = कहना चाहिए। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! उस (परमात्मा) को ही (असल) समझना चाहिए, (जो हमसे) इस लोक में परलोक में (कहीं भी) अलग नहीं होता। उस सुख को होछा सुख कहना चाहिए जो आँख झपकने जितने समय में ही समाप्त हो जाता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिपालै अपिआउ देइ कछु ऊन न होई ॥ सासि सासि समालता मेरा प्रभु सोई ॥२॥
मूलम्
प्रतिपालै अपिआउ देइ कछु ऊन न होई ॥ सासि सासि समालता मेरा प्रभु सोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपिआउ = रस आदि खुराक। ऊन = कमी। सासि सासि = हरेक सांस के साथ।2।
अर्थ: हे भाई! मेरा वह प्रभु भोजन दे के (सबको) पालता है, (उसकी कृपा से) किसी भी चीज की कमी नहीं रहती। वह प्रभु (हमारी) हरेक सांस के साथ-साथ हमारी संभाल करता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अछल अछेद अपार प्रभ ऊचा जा का रूपु ॥ जपि जपि करहि अनंदु जन अचरज आनूपु ॥३॥
मूलम्
अछल अछेद अपार प्रभ ऊचा जा का रूपु ॥ जपि जपि करहि अनंदु जन अचरज आनूपु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अछल = जिसको धोखा नहीं दिया जा सकता। अछेद = जिसको छेदा ना जा सके। जा का रूपु = जिसकी हस्ती। जपि = जप के। जन = सेवक, भक्त। आनूपु = जिस के बराबर का और कोई नहीं।3।
अर्थ: हे भाई! जो प्रभु छला नहीं जा सकता, नाश नहीं किया जा सकता, जिसकी हस्ती सबसे ऊँची है, और हैरान करने वाली है, जिसके बराबर का और कोई नहीं, उसके भक्त उसका नाम जप-जप के आत्मिक आनंद लेते रहते हैं।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सा मति देहु दइआल प्रभ जितु तुमहि अराधा ॥ नानकु मंगै दानु प्रभ रेन पग साधा ॥४॥३॥२७॥
मूलम्
सा मति देहु दइआल प्रभ जितु तुमहि अराधा ॥ नानकु मंगै दानु प्रभ रेन पग साधा ॥४॥३॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। प्रभ = हे प्रभु! जितु = जिस (मति) से। रेन = धूल। पग = पैर।4।
अर्थ: हे दया के घर प्रभु! मुझे वह समझ बख्श जिसकी इनायत से मैं तुझे ही स्मरण करता रहूँ। हे प्रभु! नानक (तेरे पास से) तेरे संत जनों के चरणों की धूल मांगता है।4।3।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जिनि तुम भेजे तिनहि बुलाए सुख सहज सेती घरि आउ ॥ अनद मंगल गुन गाउ सहज धुनि निहचल राजु कमाउ ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जिनि तुम भेजे तिनहि बुलाए सुख सहज सेती घरि आउ ॥ अनद मंगल गुन गाउ सहज धुनि निहचल राजु कमाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तुम = तुझे (हे जिंदे!)। तिनहि = उसी ने ही। बुलाए = (अपनी ओर) प्रेरणा की है। सहज सेती = आत्मिक अडोलता से। घरि = धर में, हृदय में, स्वै स्वरूप में। आउ = आ, टिका रह। मंगल = खुशी। धुनि = तुकांत। निहचल राजु = अटल हुक्म।1।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) जिसने तुझे (संसार में) भेजा है, उसने तुझे अपनी ओर प्रेरित करना आरम्भ किया हुआ है, तू आनंद से आत्मिक अडोलता से हृदय-घर में टिका रह। हे जिंदे! आत्मिक अडोलता की लहर में, आनंद-खुशी पैदा करने वाले हरि-गुण गाया कर (इस तरह कामादिक वैरियों पर) अटल राज कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम घरि आवहु मेरे मीत ॥ तुमरे दोखी हरि आपि निवारे अपदा भई बितीत ॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम घरि आवहु मेरे मीत ॥ तुमरे दोखी हरि आपि निवारे अपदा भई बितीत ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे गीत = हे मेरे मित्र! दोखी = (कामादिक) वैरी। निवारे = दूर कर दिए हैं। अपदा = मुसीबत। रहाउ।
अर्थ: मेरे मित्र (मन)! (अब) तू हृदय-घर में टिका रह (आ जा)। परमात्मा ने खुद ही (कामादिक) तेरे वैरी दूर कर दिए हैं, (कामादिक वैरियों से पड़ रही मार की) विपदा (अब) समाप्त हो गई है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगट कीने प्रभ करनेहारे नासन भाजन थाके ॥ घरि मंगल वाजहि नित वाजे अपुनै खसमि निवाजे ॥२॥
मूलम्
प्रगट कीने प्रभ करनेहारे नासन भाजन थाके ॥ घरि मंगल वाजहि नित वाजे अपुनै खसमि निवाजे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करनेहार = सब कुछ कर सकने वाले ने। नासन भाजन = भटकना। घरि = हृदय में। वाजहि = बजते हैं। खसमि = पति ने। निवाजे = आदर मान दिया।2।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) सब कुछ कर सकने वाले पति-प्रभु ने जिस पर मेहर की, उनके अंदर उसने अपना आप प्रगट कर दिया, उनकी भटकनें खत्म हो गई, उनके हृदय-घर में आत्मिक आनंद के (मानो) बाजे सदा बजने लग जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असथिर रहहु डोलहु मत कबहू गुर कै बचनि अधारि ॥ जै जै कारु सगल भू मंडल मुख ऊजल दरबार ॥३॥
मूलम्
असथिर रहहु डोलहु मत कबहू गुर कै बचनि अधारि ॥ जै जै कारु सगल भू मंडल मुख ऊजल दरबार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कबहू = कभी भी। कै बचनि = के वचन में। कै अधारि = के आसरे में। जै जै कारु = शोभा। भू मण्डल = सृष्टि। ऊजल = रौशन।3।
अर्थ: (हे जिंदे!) गुरु के उपदेश पर चल के, गुरु के आसरे रह के, तू भी (कामादिक वैरियों की टक्कर में) मजबूती से खड़ा हो जा, देखना, कभी भी डोलना नहीं। सारी सृष्टि में शोभा होगी, प्रभु की हजूरी में तेरा मुँह उज्जवल होगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन के जीअ तिनै ही फेरे आपे भइआ सहाई ॥ अचरजु कीआ करनैहारै नानक सचु वडिआई ॥४॥४॥२८॥
मूलम्
जिन के जीअ तिनै ही फेरे आपे भइआ सहाई ॥ अचरजु कीआ करनैहारै नानक सचु वडिआई ॥४॥४॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस के = जिस प्रभु जी के। जीअ = सारे जीव। फेरे = चक्कर। सहाई = मददगार। अचरजु = अनोखा खेल। सचु = सदा स्थिर।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, आदर सत्कार के रूप में बरता गया है। जैसे, ‘प्रभ जी बसहि साध की रसना’।
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! जिस प्रभु जी ने जीव पैदा किए हुए हैं, वह स्वयं ही इनको (विकारों से) बचाता है, वह खुद ही मददगार बनता है। सब कुछ कर सकने वाले परमात्मा ने ये अनोखी खेल बना दी है, उसकी महिमा सदा कायम रहने वाली है।4।4।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु संत पिआरे बिनउ हमारे जीउ ॥ हरि बिनु मुकति न काहू जीउ ॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनहु संत पिआरे बिनउ हमारे जीउ ॥ हरि बिनु मुकति न काहू जीउ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत पिआरे = हे संत प्यारे जनों! बिनउ = विनय, विनती। मुकति = (माया के बंधनों से) खलासी। काहू = किसी की भी। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे संत जनो! मेरी विनती सुनो, परमात्मा (के स्मरण) के बिना (माया के बंधनो से) किसी की भी खलासी नहीं होती। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन निरमल करम करि तारन तरन हरि अवरि जंजाल तेरै काहू न काम जीउ ॥ जीवन देवा पारब्रहम सेवा इहु उपदेसु मो कउ गुरि दीना जीउ ॥१॥
मूलम्
मन निरमल करम करि तारन तरन हरि अवरि जंजाल तेरै काहू न काम जीउ ॥ जीवन देवा पारब्रहम सेवा इहु उपदेसु मो कउ गुरि दीना जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! तरन = जहाज। अवरि = अन्य। देवा = प्रकाश रूप। सेवा = भक्ति। मो कउ = मुझे। गुरि = गुरु ने।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मन! (जीवन को) पवित्र करने वाले (हरि स्मरण के) काम किया कर, परमात्मा (का नाम ही संसार-समुंदर से) पार लंघाने के लिए जहाज है। (दुनिया के) और सारे जंजाल तेरे किसी भी काम नहीं आने वाले। प्रकाश-रूप परमात्मा की सेवा-भक्ति ही (असल) जीवन है: ये शिक्षा मुझे गुरु ने दी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु सिउ न लाईऐ हीतु जा को किछु नाही बीतु अंत की बार ओहु संगि न चालै ॥ मनि तनि तू आराध हरि के प्रीतम साध जा कै संगि तेरे बंधन छूटै ॥२॥
मूलम्
तिसु सिउ न लाईऐ हीतु जा को किछु नाही बीतु अंत की बार ओहु संगि न चालै ॥ मनि तनि तू आराध हरि के प्रीतम साध जा कै संगि तेरे बंधन छूटै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = से। हीतु = हित, प्यार। जा को बीतु = जिसका विक्त, जिसकी सीमा। बार = बारी। संगि = साथ। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। साध = संत जन। जा कै संगि = जिनकी संगति में। छूटै = खत्म हो सकते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! उस (धन-पदार्थ) से प्यार नहीं डालना चाहिए, जिसकी कोई पायां नहीं। वह (धन-पदार्थ) आखिर के वक्त साथ नहीं जाता। अपने मन में हृदय में तू परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। परमात्मा से प्यार करने वाले संत जनों (की संगति किया कर), क्योंकि उन (संत जनों की) संगति में तेरे (माया के) बंधन समाप्त हो सकते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहु पारब्रहम सरन हिरदै कमल चरन अवर आस कछु पटलु न कीजै ॥ सोई भगतु गिआनी धिआनी तपा सोई नानक जा कउ किरपा कीजै ॥३॥१॥२९॥
मूलम्
गहु पारब्रहम सरन हिरदै कमल चरन अवर आस कछु पटलु न कीजै ॥ सोई भगतु गिआनी धिआनी तपा सोई नानक जा कउ किरपा कीजै ॥३॥१॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहु = पकड़। हिरदै = हृदय में (समा के)। कमल चरन = फूल जैसे कोमल चरण। पटलु = पर्दा, आसरा। कीजै = करना चाहिए। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला। धिआनी = प्रभु चरणों में तवज्जो/ध्यान जोड़ के रखने वाला। तपा = तप करने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का आसरा ले, (अपने) हृदय में (परमात्मा के) कोमल चरण (बसा) (परमात्मा के बिना) किसी और की आस नहीं करनी चाहिए, कोई और आसरा नहीं ढूँढना चाहिए। हे नानक! वही मनुष्य भक्त है, वही ज्ञानवान है, वही सूझ-अभ्यासी है, वही तपस्वी है, जिस पर परमात्मा कृपा करता है।3।1।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ मेरे लाल भलो रे भलो रे भलो हरि मंगना ॥ देखहु पसारि नैन सुनहु साधू के बैन प्रानपति चिति राखु सगल है मरना ॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ मेरे लाल भलो रे भलो रे भलो हरि मंगना ॥ देखहु पसारि नैन सुनहु साधू के बैन प्रानपति चिति राखु सगल है मरना ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाल = हे लाल! हे प्यारे! भलो = अच्छा। रे = हे भाई! पसारि नैन = आँखें खोल के। साधू = गुरु। बैन = वचन। प्रानपति = जिंद का मालिक। चिति = चिक्त में। सगल = सबमें। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! हे भाई! (परमात्मा के दर से) परमात्मा (का नाम) मांगना सबसे अच्छा काम है। हे सज्जन! गुरु की वाणी (हमेशा) सुनते रहो, जिंद के मालिक प्रभु को अपने दिल में बसाए रखो। आँखें खोल के देखो, (आखिर) सबने मरना है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंदन चोआ रस भोग करत अनेकै बिखिआ बिकार देखु सगल है फीके एकै गोबिद को नामु नीको कहत है साध जन ॥ तनु धनु आपन थापिओ हरि जपु न निमख जापिओ अरथु द्रबु देखु कछु संगि नाही चलना ॥१॥
मूलम्
चंदन चोआ रस भोग करत अनेकै बिखिआ बिकार देखु सगल है फीके एकै गोबिद को नामु नीको कहत है साध जन ॥ तनु धनु आपन थापिओ हरि जपु न निमख जापिओ अरथु द्रबु देखु कछु संगि नाही चलना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चोआ = इत्र। बिखिआ = माया। है = है। फीके = बेस्वाद। को = का। नीको = अच्छा, सुंदर। आपन थापिआ = (तूने) अपना मिथ लिया है। निमख = आँख झपके जितना समय (निमेष)। अरथु = अर्थ,धन। द्रबु = द्रव्य, धन। संगि = साथ।1।
अर्थ: हे सज्जन! तू चंदन-इत्र का प्रयोग करता है और अनेक ही स्वादिष्ट खाने खाता है। पर, देख, ये विकार पैदा करने वाले सारे ही मायावी भोग फीके हैं। संत जन कहते हैं कि सिर्फ परमात्मा का नाम ही अच्छा है। तू इस शरीर का, इस धन को अपना समझ रहा है, (इनके मोह में फंस के) परमात्मा का नाम तू एक छिन भर भी नहीं जपता। देख, ये धन-पदार्थ कुछ भी (तेरे) साथ नहीं जाएगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा को रे करमु भला तिनि ओट गही संत पला तिन नाही रे जमु संतावै साधू की संगना ॥ पाइओ रे परम निधानु मिटिओ है अभिमानु एकै निरंकार नानक मनु लगना ॥२॥२॥३०॥
मूलम्
जा को रे करमु भला तिनि ओट गही संत पला तिन नाही रे जमु संतावै साधू की संगना ॥ पाइओ रे परम निधानु मिटिओ है अभिमानु एकै निरंकार नानक मनु लगना ॥२॥२॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा को भला करमु = जिसकी अच्छी किस्मत। तिनि = उस (मनुष्य) ने। ओट = आसरा। गही = पकड़ी, ली। पला = पल्ला। तिन = उन्होंने (बहुवचन)। निधानु = खजाना। एकै निरंकार = एक निरंकार में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के भाग्य अच्छे हुए, उसने संतों का आसरा लिया, उसने संतों का पल्ला पकड़ा। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में रहते हैं, उन्हें मौत का डर नहीं सता सकता।
हे नानक! जिस मनुष्य का मन सिर्फ परमात्मा में जुड़ा रहता है उसने सबसे बढ़िया खजाना पा लिया उसके अंदर से अहंकार मिट गया।2।2।30।
[[0679]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि एकु सिमरि एकु सिमरि एकु सिमरि पिआरे ॥ कलि कलेस लोभ मोह महा भउजलु तारे ॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि एकु सिमरि एकु सिमरि एकु सिमरि पिआरे ॥ कलि कलेस लोभ मोह महा भउजलु तारे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिआरे = हे प्यारे! कलि कलेस = सांसारिक झगड़े। महा = बड़े (भयानक)। भउजलु = संसार समुंदर। तारे = पार लंघा देता है। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (ये स्मरण) इस बड़े भयानक संसार समुंदर से पार लंघा देता है जिसमें बेअंत सांसारिक झगड़े हैं। जिसमें लोभ मोह (की लहरें उठ रही) हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासि सासि निमख निमख दिनसु रैनि चितारे ॥ साधसंग जपि निसंग मनि निधानु धारे ॥१॥
मूलम्
सासि सासि निमख निमख दिनसु रैनि चितारे ॥ साधसंग जपि निसंग मनि निधानु धारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस में। निमख = आँख झपकने जितना समय, निमेष। रैनि = रात। चितारे = याद रख। साध संग = साधु-संगत में। निसंग = शर्म उतार के। मनि = मन में। निधानु = खजाना। धारे = धार के, टिका ले।1।
अर्थ: हे भाई! दिन-रात छिन-छिन हरेक सांस के साथ (परमात्मा का नाम) याद करता रह। साधु-संगत में (बैठ के) बेशर्म हो के परमात्मा का नाम जपा कर। ये नाम-खजाना अपने मन में बसाए रख।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल नमसकार गुन गोबिद बीचारे ॥ साध जना की रेन नानक मंगल सूख सधारे ॥२॥१॥३१॥
मूलम्
चरन कमल नमसकार गुन गोबिद बीचारे ॥ साध जना की रेन नानक मंगल सूख सधारे ॥२॥१॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीचारे = सोच मण्डल में बसा ले। रेन = चरण धूल। मंगल = खुशी। सधारे = देती है।2।
अर्थ: हे प्यारे! परमात्मा के कोमल चरणों पर अपना सिर निवाए रख। गोविंद के गुण अपने सोच-मण्डल में बसा। हे नानक! संत जनों के चरणों की धूल (अपने माथे पर लगाया कर, ये चरण-धूल) आत्मिक खुशियां व आत्मिक आनंद देती है।2।1।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु ८ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु ८ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरउ सिमरि सिमरि सुख पावउ सासि सासि समाले ॥ इह लोकि परलोकि संगि सहाई जत कत मोहि रखवाले ॥१॥
मूलम्
सिमरउ सिमरि सिमरि सुख पावउ सासि सासि समाले ॥ इह लोकि परलोकि संगि सहाई जत कत मोहि रखवाले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। सिमरि = स्मरण करके। पावउ = मैं पाता हूँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समाले = संभाल के, हृदय में बसा के। लोकि = लोक में। संगि = साथ। सहाई = मददगार। जत कत = जहाँ तहाँ, हर जगह। मोहि = मेरा।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम को मैं अपने) हरेक सांस के साथ हृदय में बसा के स्मरण करता हूँ, और, स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद प्राप्त करता हूँ। ये हरि नाम इस लोक में और परलोक में मेरे साथ मददगार है, हर जगह मेरा रखवाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का बचनु बसै जीअ नाले ॥ जलि नही डूबै तसकरु नही लेवै भाहि न साकै जाले ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर का बचनु बसै जीअ नाले ॥ जलि नही डूबै तसकरु नही लेवै भाहि न साकै जाले ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = (मेरी) जिंद के साथ। जलि = जल में। तसकरु = चोर। भाहि = आग। न साकै जाले = जला नहीं सकती।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की महिमा से भरपूर) गुरु का शब्द मेरी जिंद के साथ बसता है। (परमात्मा का नाम) एक ऐसा धन है जो पानी में डूबता नहीं, जिसको चोर चुरा नहीं सकता, जिसे आग नहीं जला सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरधन कउ धनु अंधुले कउ टिक मात दूधु जैसे बाले ॥ सागर महि बोहिथु पाइओ हरि नानक करी क्रिपा किरपाले ॥२॥१॥३२॥
मूलम्
निरधन कउ धनु अंधुले कउ टिक मात दूधु जैसे बाले ॥ सागर महि बोहिथु पाइओ हरि नानक करी क्रिपा किरपाले ॥२॥१॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = के लिए। टिक = टेक, सहारा। बालै = बालक के लिए। बोहिथु = जहाज।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम कंगाल के लिए धन है, अंधे के वास्ते डंगोरी (छड़ी) है, जैसे बच्चे के लिए माँ का दूध है (वैसे ही हरि-नाम मनुष्य की आत्मा के लिए भोजन है)। हे नानक! जिस मनुष्य पर कृपालु प्रभु ने कृपा की, उसको (ये नाम) मिल गया (जो) समुंदर में जहाज है।2।1।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ भए क्रिपाल दइआल गोबिंदा अम्रितु रिदै सिंचाई ॥ नव निधि रिधि सिधि हरि लागि रही जन पाई ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ भए क्रिपाल दइआल गोबिंदा अम्रितु रिदै सिंचाई ॥ नव निधि रिधि सिधि हरि लागि रही जन पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = दयावान। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। रिदै = हृदय में। सिंचाई = मैं भी भर लूँ। नव निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। जन पाई = संत जनों के पैरों में।1।
अर्थ: हे भाई! धरती के सारे नौ खजाने, सारी ही करामाती नौ ताकतें, संत जनों के पैरों पर टिकी रहती हैं। प्रभु जी अपने सेवकों पर (सदा) कृपाल रहते हैं, दयावान रहते हैं। (अगर प्रभु की कृपा हो, तो संत जनों की शरण पड़ कर) मैं भी अपने हृदय में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल इकट्ठा कर सकूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतन कउ अनदु सगल ही जाई ॥ ग्रिहि बाहरि ठाकुरु भगतन का रवि रहिआ स्रब ठाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतन कउ अनदु सगल ही जाई ॥ ग्रिहि बाहरि ठाकुरु भगतन का रवि रहिआ स्रब ठाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। जाई = जगह। सगल जाई = सब जगहों में। ग्रिहि = घर में। रवि रहिआ = बस रहा है। स्रब = सर्व, सारी। ठाई = जगहों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संतजनों को (हरि-नाम की इनायत से) सब जगह आत्मिक आनंद बना रहता है। घर में, बाहर (हर जगह) परमात्मा भक्तों का (रखवाला) है। (भक्तों को प्रभु) सब जगह बसता दिखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता कउ कोइ न पहुचनहारा जा कै अंगि गुसाई ॥ जम की त्रास मिटै जिसु सिमरत नानक नामु धिआई ॥२॥२॥३३॥
मूलम्
ता कउ कोइ न पहुचनहारा जा कै अंगि गुसाई ॥ जम की त्रास मिटै जिसु सिमरत नानक नामु धिआई ॥२॥२॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहुचनहारा = बराबरी कर सकने वाला। जा कै अंगि = जिसके पक्ष में। गुसाई = धरती का पति प्रभु। त्रास = डर। धिआई = ध्याऊँ।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के पक्ष में परमात्मा खुद होता है, उस मनुष्य की कोई और मनुष्य बराबरी नहीं कर सकता। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से मौत का सहम समाप्त हो जाता है (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती), तू भी उसका नाम स्मरण किया कर।2।2।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ दरबवंतु दरबु देखि गरबै भूमवंतु अभिमानी ॥ राजा जानै सगल राजु हमरा तिउ हरि जन टेक सुआमी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ दरबवंतु दरबु देखि गरबै भूमवंतु अभिमानी ॥ राजा जानै सगल राजु हमरा तिउ हरि जन टेक सुआमी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरबु = द्रव्य, धन। दरबवंतु = धनवान मनुष्य, धनी। देखि = देख के। गरबै = अहंकार करता है। भूमवंतु = जमीन का मालिक। अभिमानी = अहंकारी। राजु = हकूमत। जानै = समझता है। टेक = आसरा।1।
अर्थ: (हे भाई! धनी मनुष्य को धन का आसरा होता है, पर) धनी मनुष्य धन को देख के अहंकार करने लग जाता है। (जमीन के मालिक को जमीन का सहारा होता है, पर) जमीन का मालिक (अपनी जमीन को देख के) अहंकारी हो जाता है। राजा समझता है कि सारे देश में मेरा ही राज है (राजे को राज का सहारा है, पर राज का अहंकार भी है)। इसी तरह परमात्मा के सेवक को मालिक प्रभु का आसरा है (पर उसको कोई अहंकार नहीं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे कोऊ अपुनी ओट समारै ॥ जैसा बितु तैसा होइ वरतै अपुना बलु नही हारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जे कोऊ अपुनी ओट समारै ॥ जैसा बितु तैसा होइ वरतै अपुना बलु नही हारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोऊ = कोई मनुष्य। ओट = आसरा। समारै = संभाले, हृदय में बसाए रखे। बितु = विक्त, पायां। वरतै = बरताव, जगत से कार्य व्यवहार रखता है। बलु = ताकत, हौसला।1। रहाउ।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य असली ओट (परमात्मा) को अपने हृदय में टिकाए रखे, तो वह (अहंकार आदि के मुकाबले पर) अपना हौसला नहीं हारता, (क्योंकि) वह मनुष्य अपनी पायां के मुताबिक बरतता है (अपनी सीमा से बाहर नहीं होता, अहंकार में नहीं आता, मानवता से नहीं गिरता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन तिआगि भए इक आसर सरणि सरणि करि आए ॥ संत अनुग्रह भए मन निरमल नानक हरि गुन गाए ॥२॥३॥३४॥
मूलम्
आन तिआगि भए इक आसर सरणि सरणि करि आए ॥ संत अनुग्रह भए मन निरमल नानक हरि गुन गाए ॥२॥३॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = और सारे (आसरे)। तिआगि = छोड़ के। इक आसर = एक आसरे वाले। करि = कर के, कह के। अनुग्रह = कृपा से। गाए = गा के।2।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य और सारे (धन भूमि राज आदि के) आसरे छोड़ के एक प्रभु का आसरा रखने वाले बन जाते हैं, जो ये कह के प्रभु के दर पर आ जाते हैं कि, हे प्रभु! हम तेरी शरण आए हैं, गुरु की कृपा से परमात्मा के गुण गा गा के उनके मन पवित्र हो जाते हैं।2।3।34।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जा कउ हरि रंगु लागो इसु जुग महि सो कहीअत है सूरा ॥ आतम जिणै सगल वसि ता कै जा का सतिगुरु पूरा ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जा कउ हरि रंगु लागो इसु जुग महि सो कहीअत है सूरा ॥ आतम जिणै सगल वसि ता कै जा का सतिगुरु पूरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। रंगु = प्रेम। इसु जुग महि = इस जगत में। सूरा = शूरवीर। आतमु = अपने आप को, अपने मन को। जिणै = जीत लेता है। वसि = वश में। ता कै वसि = उसके वश में।1।
अर्थ: हे भाई! इस जगत में वही मनुष्य शूरवीर कहलवाता है जिसके (हृदय-घर में) प्रभु के प्रति प्यार पैदा हो जाता है। पूरा गुरु जिस मनुष्य का (मददगार बन जाता) है, वह मनुष्य अपने मन को जीत लेता है, सारी (सृष्टि) उसके वश में आ जाती है (दुनिया का कोई पदार्थ उसको मोह नहीं सकता)।1।
[[0680]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठाकुरु गाईऐ आतम रंगि ॥ सरणी पावन नाम धिआवन सहजि समावन संगि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ठाकुरु गाईऐ आतम रंगि ॥ सरणी पावन नाम धिआवन सहजि समावन संगि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतम रंगि = दिली प्यार से। गाईऐ = गाना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। संगि = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! दिल में प्यार से परमात्मा की महिमा करनी चाहिए। उस परमात्मा की शरण में टिके रहना, उसका नाम स्मरणा - इस तरीके से आत्मिक अडोलता में टिक के उस में लीन हो जाना है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन के चरन वसहि मेरै हीअरै संगि पुनीता देही ॥ जन की धूरि देहु किरपा निधि नानक कै सुखु एही ॥२॥४॥३५॥
मूलम्
जन के चरन वसहि मेरै हीअरै संगि पुनीता देही ॥ जन की धूरि देहु किरपा निधि नानक कै सुखु एही ॥२॥४॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसहि = बस जाए। मेरै हीअरै = मेरे हृदय में। पुनीता = पवित्र। देही = शरीर। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! नानक कै = नानक के दिल में।2।
अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभु! अगर तेरे दासों के चरण मेरे हृदय में बस जाएं, तो उनकी संगति में मेरा शरीर पवित्र हो जाए। (मेहर कर, मुझे) अपने दासों की चरण-धूल बख्श, मुझ नानक के लिए (सबसे बड़ा) सुख यही है।2।4।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जतन करै मानुख डहकावै ओहु अंतरजामी जानै ॥ पाप करे करि मूकरि पावै भेख करै निरबानै ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जतन करै मानुख डहकावै ओहु अंतरजामी जानै ॥ पाप करे करि मूकरि पावै भेख करै निरबानै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जतन = प्रयत्न (बहुवचन)। डहकावै = धोखा देता है, ठगता है। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। जानै = जानता है। करि = कर के। भेख = पहिरावा। निरबानै = वासना रहित, विरक्त।1।
अर्थ: हे भाई! (लालची मनुष्य) अनेक प्रयत्न करता है, लोगों को धोखा देता है, विरक्तों वाले धार्मिक पहरावे पहने रखता है, पाप करके (फिर उन पापों से) मुकर भी जाता है, पर सबके दिल की जानने वाला वह परमात्मा (सब कुछ) जानता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानत दूरि तुमहि प्रभ नेरि ॥ उत ताकै उत ते उत पेखै आवै लोभी फेरि ॥ रहाउ॥
मूलम्
जानत दूरि तुमहि प्रभ नेरि ॥ उत ताकै उत ते उत पेखै आवै लोभी फेरि ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! तुमहि = तुझे। उत = उधर। ताकै = देखता है। ते = से। लोभी = लालची। फेरि = (लालच के) चक्कर में। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू (सब जीवों के) नजदीक बसता है, पर (लालची पाखण्डी मनुष्य) तुझे दूर (बसता) समझता है। लालची मनुष्य (लालच के) चक्कर में फसा रहता है, (माया की खातिर) उधर देखता है, उधर से और उधर देखता है (उसका मन टिकता नहीं)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब लगु तुटै नाही मन भरमा तब लगु मुकतु न कोई ॥ कहु नानक दइआल सुआमी संतु भगतु जनु सोई ॥२॥५॥३६॥
मूलम्
जब लगु तुटै नाही मन भरमा तब लगु मुकतु न कोई ॥ कहु नानक दइआल सुआमी संतु भगतु जनु सोई ॥२॥५॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। भरमा = भटकना। मुकतु = (लोभ से) आजाद। सोई = वही मनुष्य।2।
अर्थ: हे भाई! जब तक मनुष्य के मन की (माया वाली) भटकना दूर नहीं होती, इस (लालच के पँजे से) आजाद नहीं हो सकता। हे नानक! कह: (पहरावों से भक्त नहीं बन जाते) जिस मनुष्य पर मालिक-प्रभु खुद दयावान होता है (और, उसको नाम की दाति देता है) वही मनुष्य संत है भक्त है।2।5।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ नामु गुरि दीओ है अपुनै जा कै मसतकि करमा ॥ नामु द्रिड़ावै नामु जपावै ता का जुग महि धरमा ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ नामु गुरि दीओ है अपुनै जा कै मसतकि करमा ॥ नामु द्रिड़ावै नामु जपावै ता का जुग महि धरमा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कै मसतकि = के माथे पर। करमा = किस्मत। द्रिढ़ावै = (और लोगों को) दृढ़ करवाता है। जुग महि = जगत में। धरम = फर्ज, कर्म।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य (जाग पड़े) उसे प्यारे गुरु ने परमात्मा का नाम दे दिया। उस मनुष्य का (फिर) सदा का काम ही जगत में ये बन जाता है कि वह और लोगों को हरि-नाम दृढ़ करवाता है जपवाता है (जपने के लिए प्रेरित करता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन कउ नामु वडाई सोभ ॥ नामो गति नामो पति जन की मानै जो जो होग ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जन कउ नामु वडाई सोभ ॥ नामो गति नामो पति जन की मानै जो जो होग ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। वडाई = बड़ाई। सोभ = शोभा। नामो = नाम ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। मानै = मानता है। होग = होगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक के लिए परमात्मा का नाम (ही) बड़ाई है नाम ही शोभा है। हरि-नाम ही उसकी ऊँची आत्मिक अवस्था है, नाम ही उसकी इज्जत है। जो कुछ परमात्मा की रजा में होता है, सेवक उसको (सिर-माथे) मानता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम धनु जिसु जन कै पालै सोई पूरा साहा ॥ नामु बिउहारा नानक आधारा नामु परापति लाहा ॥२॥६॥३७॥
मूलम्
नाम धनु जिसु जन कै पालै सोई पूरा साहा ॥ नामु बिउहारा नानक आधारा नामु परापति लाहा ॥२॥६॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै पालै = के पल्ले में। बिउहारा = कार्य व्यवहार। आधारा = आसरा। लाहा = लाभ, कमाई।2।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा का नाम-धन जिस मनुष्य के पास है, वही पूरा शाहूकार है। वह मनुष्य हरि-नाम स्मरण को ही अपना असल व्यवहार समझता है, नाम का ही उसको असल आसरा रहता है, नाम की ही वह कमाई करता है।2।6।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ नेत्र पुनीत भए दरस पेखे माथै परउ रवाल ॥ रसि रसि गुण गावउ ठाकुर के मोरै हिरदै बसहु गोपाल ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ नेत्र पुनीत भए दरस पेखे माथै परउ रवाल ॥ रसि रसि गुण गावउ ठाकुर के मोरै हिरदै बसहु गोपाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र। पेखे = देख के। माथै = माथे पर। परउ = पड़ा रहूँ। रवाल = चरण धूल। रसि = स्वाद से। गावउ = मैं गाता हूँ। मोरै हिरदै = मेरे हृदय में।1।
अर्थ: हे सृष्टि के पालनहार! मेरे हृदय में आ बस। मैं बड़े स्वाद से तेरे गुण गाता रहूँ, मेरे माथे पर तेरी चरण-धूल टिकी रहे। तेरा दर्शन करके आँखें पवित्र हो जाती हैं (विकारों से हट जाती हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम तउ राखनहार दइआल ॥ सुंदर सुघर बेअंत पिता प्रभ होहु प्रभू किरपाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम तउ राखनहार दइआल ॥ सुंदर सुघर बेअंत पिता प्रभ होहु प्रभू किरपाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखनहार = रक्षा करने की सामर्थ्य वाला। सुघर = सुघड़, समझदार।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया के घर प्रभु! तू तो (सब जीवों की) रक्षा करने में समर्थ है। तू सुंदर है, समझदार है, बेअंत है। हे पिता प्रभु! (मेरे पर भी) दयावान हो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा अनंद मंगल रूप तुमरे बचन अनूप रसाल ॥ हिरदै चरण सबदु सतिगुर को नानक बांधिओ पाल ॥२॥७॥३८॥
मूलम्
महा अनंद मंगल रूप तुमरे बचन अनूप रसाल ॥ हिरदै चरण सबदु सतिगुर को नानक बांधिओ पाल ॥२॥७॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनूप = उपमा रहित, बहुत सुंदर। रसाल = रस भरे (रस+आलय)। हिरदै = हृदय में। को = का। पाल = पल्ले।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू आनंद स्वरूप है (आनंद ही आनंद; खुशी ही खुशी तेरा वजूद है)। हे प्रभु! तेरी महिमा की वाणी सुंदर है रसीली है। हे नानक! जिस मनुष्य ने सतिगुरु की वाणी पल्ले बाँध ली उसके हृदय में परमात्मा के चरण बसे रहते हैं।2।7।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ अपनी उकति खलावै भोजन अपनी उकति खेलावै ॥ सरब सूख भोग रस देवै मन ही नालि समावै ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ अपनी उकति खलावै भोजन अपनी उकति खेलावै ॥ सरब सूख भोग रस देवै मन ही नालि समावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उकति = युक्ति, जुगति, ढंग, तरीका, विउंत। खलावै भोजन = खाना खिलाता है। खेलावै = खेलाता है। सरब = सारे। मनही नालि = हमारे मन के साथ ही, हमारे सदा अंग संग। समावै = मौजूद रहता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने ही ढंग से जीवों को खाने-पीने के लिए देता है, अपने ही ढंग से जीवों को खेलों में मस्त रखता है, (अपने ही ढंग से जीवों को) सारे सुख देता है, सारे स्वादिष्ट पदार्थ देता है, और, सदा सबके अंग-संग टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरे पिता गोपाल दइआल ॥ जिउ राखै महतारी बारिक कउ तैसे ही प्रभ पाल ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हमरे पिता गोपाल दइआल ॥ जिउ राखै महतारी बारिक कउ तैसे ही प्रभ पाल ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपाल = हे सृष्टि के पालनहार! महतारी = माँ। बारिक कउ = बच्चे को। पाल = पालने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया के घर! हे सृष्टि के पालनहार! हे हमारे पिता प्रभु! जैसे माँ अपने बच्चे की पालना करती है वैसे ही तू हम जीवों की पालना करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीत साजन सरब गुण नाइक सदा सलामति देवा ॥ ईत ऊत जत कत तत तुम ही मिलै नानक संत सेवा ॥२॥८॥३९॥
मूलम्
मीत साजन सरब गुण नाइक सदा सलामति देवा ॥ ईत ऊत जत कत तत तुम ही मिलै नानक संत सेवा ॥२॥८॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब गुण = सारे गुणों वाला। नाइक = नेता, नायक, जीवन अगुवाई करने वाला। सलामति = जीवित। देवा = प्रकाश रूप प्रभु। ईत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। जत कत तत = जहाँ कहाँ तहाँ, हर जगह। नानक = हे नानक!।2।
अर्थ: हे प्रकाश-रूप प्रभु! तू हमारा मित्र है, सज्जन है, सारे गुणों का मालिक है, सबकी जीवन की अगुवाई करने वाला है। सदा जीवित है, तू हर जगह इस लोक में परलोक में मौजूद है। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने से वह प्रभु मिलता है।2।8।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ संत क्रिपाल दइआल दमोदर काम क्रोध बिखु जारे ॥ राजु मालु जोबनु तनु जीअरा इन ऊपरि लै बारे ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ संत क्रिपाल दइआल दमोदर काम क्रोध बिखु जारे ॥ राजु मालु जोबनु तनु जीअरा इन ऊपरि लै बारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दमोदर = दाम+उदर, परमात्मा। बिखु = जहर। जारे = जला दिए। जीअरा = जिंद। इन ऊपरि = इन संत जनों से। बारे = वार जाना, सदके जाना।1।
अर्थ: हे भाई! (अपने मन में हृदय में परमात्मा का प्यार सदा टिठकाए रखने वाले) संत जन कृपा के श्रोत दया के श्रोत परमात्मा (के रूप हैं); वे अपने अंदर से काम-क्रोध (आदि विकारों के) जहर जला लेते हैं। ऐसे संतों से राज-माल-जवानी-शरीर-जीवात्मा, सब कुछ कुर्बान कर देनी चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि तनि राम नाम हितकारे ॥ सूख सहज आनंद मंगल सहित भव निधि पारि उतारे ॥ रहाउ॥
मूलम्
मनि तनि राम नाम हितकारे ॥ सूख सहज आनंद मंगल सहित भव निधि पारि उतारे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। हितकारे = प्यार। सहज = आत्मिक अडोलता। सहित = समेत। भवनिधि = संसार समुंदर। पारि उतारे = पार लंघा दिया है। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिनके मन में हृदय में परमात्मा के नाम का प्यार सदा बना रहता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद व खुशियां पाते हैं, (और लोगों को भी) संसार समुंदर से पार लंघा देते हैं। रहाउ।
[[0681]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंनि सु थानु धंनि ओइ भवना जा महि संत बसारे ॥ जन नानक की सरधा पूरहु ठाकुर भगत तेरे नमसकारे ॥२॥९॥४०॥
मूलम्
धंनि सु थानु धंनि ओइ भवना जा महि संत बसारे ॥ जन नानक की सरधा पूरहु ठाकुर भगत तेरे नमसकारे ॥२॥९॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंनि = भाग्यशाली। सु = वह। ओइ = वह। भावना = घर। जा महि = जिस में। बसारे = बसते हैं। सरधा = चाहत। पूरहु = पूरी करे।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! वह स्थान भाग्यशाली है, वह घर भाग्यशाली है, जिनमें संत जन बसते हैं। हे ठाकुर! दास की तमन्ना पूरी कर, कि तेरे भक्तों को सदा सिर झुकाता रहूँ।2।9।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ छडाइ लीओ महा बली ते अपने चरन पराति ॥ एकु नामु दीओ मन मंता बिनसि न कतहू जाति ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ छडाइ लीओ महा बली ते अपने चरन पराति ॥ एकु नामु दीओ मन मंता बिनसि न कतहू जाति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महा बली ते = बड़ी ताकत वाली (माया) से। पराति = परो के। मंता = मंत्र, उपदेश। बिनसि न जाति = नाश नहीं होता, ना ही गायब होता है। कत हू = कहीं भी।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, गुरु उसको) अपने चरणों में लगा के उसको बड़ी ताकत वाली (माया) से बचा लेता है। उसके मन के लिए गुरु परमात्मा का नाम-मंत्र देता है; जो ना नाश होता है ना ही कहीं गायब होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि पूरै कीनी दाति ॥ हरि हरि नामु दीओ कीरतन कउ भई हमारी गाति ॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुरि पूरै कीनी दाति ॥ हरि हरि नामु दीओ कीरतन कउ भई हमारी गाति ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। दाति = बख्शिश। कउ = वास्ते। गाति = गति, उच्च आत्मिक अवस्था। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (मेरे पर) कृपा की है। (गुरु ने मुझे) परमात्मा का नाम कीर्तन करने के लिए दिया है, (जिसकी इनायत से) मेरी उच्च आत्मिक अवस्था बन गई है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंगीकारु कीओ प्रभि अपुनै भगतन की राखी पाति ॥ नानक चरन गहे प्रभ अपने सुखु पाइओ दिन राति ॥२॥१०॥४१॥
मूलम्
अंगीकारु कीओ प्रभि अपुनै भगतन की राखी पाति ॥ नानक चरन गहे प्रभ अपने सुखु पाइओ दिन राति ॥२॥१०॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभु ने। पाति = पति, इज्जत। गहे = पकड़े।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने (हमेशा ही) अपने भक्तों का पक्ष लिया है, (भक्तों की) इज्जत रखी है। हे नानक! जिस मनुष्य ने (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के चरण पकड़ लिए उसने दिन-रात हर वक्त आत्मिक आनंद पाया है।2।10।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ पर हरना लोभु झूठ निंद इव ही करत गुदारी ॥ म्रिग त्रिसना आस मिथिआ मीठी इह टेक मनहि साधारी ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ पर हरना लोभु झूठ निंद इव ही करत गुदारी ॥ म्रिग त्रिसना आस मिथिआ मीठी इह टेक मनहि साधारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर = पराया (धन)। हरना = चुराना। निंद = निंदा। इव ही = इसी तरह ही। गुदारी = गुजारा, गुजार लिया। म्रिग त्रिसना = मृग तृष्णा, मारीचिका, प्यास केमारे हिरन को पानी दिखने वाला रेगिस्तान। मिथिआ = झूठी। मनहि = मन में। साधारी = आसरा बना लिया।1।
अर्थ: हे भाई! पराया धन चुराना, लोभ करना, झूठ बोलना, निंदा करनी - इसी तरह करते हुए (साकत सारी उम्र) गुजारता है। जैसे प्यासे हिरन को मारीचिका अच्छी लगती है, वैसे ही साकत झूठी आशाओं को अच्छा समझता है। (झूठी आशाओं की) टेक को अपने मन में स्तंभ बनाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत की आवरदा जाइ ब्रिथारी ॥ जैसे कागद के भार मूसा टूकि गवावत कामि नही गावारी ॥ रहाउ॥
मूलम्
साकत की आवरदा जाइ ब्रिथारी ॥ जैसे कागद के भार मूसा टूकि गवावत कामि नही गावारी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। आवरदा = आरजा, उम्र। ब्रिथारी = व्यर्थ। कागद = कागज (शब्द ‘गुदारी’, ‘आवरदा”, ‘कागद’ के अक्षर ‘द’, अक्षर ‘ज’ से बदला हुआ है। इसी तरह ‘काजी’ का दूसरा उच्चारण ‘कादी’ है। ‘जपु’ (जपु जी साहिब) में शब्द ‘कादियां’ मिर्जों के नगर ‘कादियां के लिए नहीं है। वह भी ‘काजियों’ का दूसरा उच्चारण है)। टूकि = कतर कतर के। गावार = मूर्ख। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की उम्र अवश्य व्यर्थ जाती है, जैसे कोई चूहा कुतर-कुतर के कागजों के ढेर बेकार कर देता है, पर वह कागज उस मूर्ख के काम नहीं आते। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा पारब्रहम सुआमी इह बंधन छुटकारी ॥ बूडत अंध नानक प्रभ काढत साध जना संगारी ॥२॥११॥४२॥
मूलम्
करि किरपा पारब्रहम सुआमी इह बंधन छुटकारी ॥ बूडत अंध नानक प्रभ काढत साध जना संगारी ॥२॥११॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहम = हे परमात्मा! अंध = (माया के मोह में) अंधे हो चुके। प्रभ = हे प्रभु! संगारी = संगति में।2।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! तू आप ही कृपा करके (माया के) इन बंधनो से छुड़वाता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! माया के मोह में अँधे हो चुके मनुष्यों को, मोह में डूबते हुओं को, संत जनों की संगति में ला के तू खुद ही डूबने से बचाता है।2।11।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना सीतल तनु मनु छाती ॥ रूप रंग सूख धनु जीअ का पारब्रहम मोरै जाती ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना सीतल तनु मनु छाती ॥ रूप रंग सूख धनु जीअ का पारब्रहम मोरै जाती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। सीतल = ठंडा, शांत। छाती = हृदय। जीअ का = जीवात्मा का, जिंद के लिए। मोरै = मेरे लिए। जाती = उच्च जाति।1।
अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु (का नाम) बार-बार स्मरण करके शरीर मन व हृदय शांत हो जाते हैं। हे भाई! मेरे वास्ते भी परमात्मा का नाम ही रूप है, रंग है, सुख है, धन है, और ऊँची जाति है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसना राम रसाइनि माती ॥ रंग रंगी राम अपने कै चरन कमल निधि थाती ॥ रहाउ॥
मूलम्
रसना राम रसाइनि माती ॥ रंग रंगी राम अपने कै चरन कमल निधि थाती ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। रसाइन = (रस+आयन। आयन = घर) रसों का घर, रसों का खजाना। रसाइनि = रसों के खजाने में। माती = मस्त। निधि = खजाना। थाती = इकट्ठा किया। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य की जीभ परमात्मा के नाम-रसायन में मस्त रहती है, और प्यारे प्रभु के प्रेम-रंग से रंगी जाती है, वही मनुष्य परमात्मा के कोमल चरणों की याद का खजाना (अपने हृदय में) इकट्ठा कर लेता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस का सा तिन ही रखि लीआ पूरन प्रभ की भाती ॥ मेलि लीओ आपे सुखदातै नानक हरि राखी पाती ॥२॥१२॥४३॥
मूलम्
जिस का सा तिन ही रखि लीआ पूरन प्रभ की भाती ॥ मेलि लीओ आपे सुखदातै नानक हरि राखी पाती ॥२॥१२॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = थी। भाती = तरीका, ढंग। सुखदातै = सुखदाते ने। पाती = पति, इज्जत।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! प्रभु का (जीवों के दुखों रोगों से) बचाने का तरीका उत्तम है। जो मनुष्य उस प्रभु का (सेवक) बन गया, उसको उसने बचा लिया। हे नानक! (शरण पड़े मनुष्य को) सुखदाते प्रभु ने आप ही सदा (अपने चरणों में) मिला लिया, और उसकी इज्जत रख ली।2।12।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ दूत दुसमन सभि तुझ ते निवरहि प्रगट प्रतापु तुमारा ॥ जो जो तेरे भगत दुखाए ओहु ततकाल तुम मारा ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ दूत दुसमन सभि तुझ ते निवरहि प्रगट प्रतापु तुमारा ॥ जो जो तेरे भगत दुखाए ओहु ततकाल तुम मारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूत = वैरी। सभि = सारे। तुझ ते = तुझसे, तेरी कृपा से। ते = से। निवरहि = दूर हो जाते हैं। प्रतापु = तेज, इकबाल। जो जो = जो जो मनुष्य। दुखाए = दुख देता है। ओह = (एकवचन) वह मनुष्य। ततकाल = उस वक्त। मारा = मार दिया, आत्मिक मौत मार दिया।1।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे भक्तों के) सारे वैरी दुश्मन तेरी कृपा से दूर होते हैं, तेरा तेज-प्रताप (सारे जगत में) स्पष्ट है। जो जो तेरे भक्त को दुख देता है, तू उसको तुरंत (आत्मिक) मौत मार देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरखउ तुमरी ओरि हरि नीत ॥ मुरारि सहाइ होहु दास कउ करु गहि उधरहु मीत ॥ रहाउ॥
मूलम्
निरखउ तुमरी ओरि हरि नीत ॥ मुरारि सहाइ होहु दास कउ करु गहि उधरहु मीत ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरखउ = निरीक्षण करता हूँ, ध्यान से देखता हूं, देखता हूँ। ओरि = एक तरफ। नीत = सदा। मुरारि = हे मुरारी! हे हरि! सहाइ = मददगार। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। उधरहु = बचा लो। मीत = हे मित्र!। रहाउ।
अर्थ: हे मुरारी! हे हरि! मैं सदा तेरी ओर (सहायता के लिए) देखता रहता हूँ। (अपने) दास के वास्ते मददगार बन। हे मित्र प्रभु! (अपने सेवक का) हाथ पकड़ के इस को बचा ले। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणी बेनती ठाकुरि मेरै खसमाना करि आपि ॥ नानक अनद भए दुख भागे सदा सदा हरि जापि ॥२॥१३॥४४॥
मूलम्
सुणी बेनती ठाकुरि मेरै खसमाना करि आपि ॥ नानक अनद भए दुख भागे सदा सदा हरि जापि ॥२॥१३॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुरि मेरै = मेरे ठाकुर ने। खसमाना = खसम वाले फर्ज। करि = कर के। जापि = जप के।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मेरे मालिक प्रभु ने पति वाला फर्ज पूरा करके (जिस मनुष्य की) विनती खुद सुन ली, उस मनुष्य को सदा ही परमात्मा का नाम जप के आत्मिक आनंद मिलता रहा, उसके सारे दुख नाश हो गए।2।13।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ चतुर दिसा कीनो बलु अपना सिर ऊपरि करु धारिओ ॥ क्रिपा कटाख्य अवलोकनु कीनो दास का दूखु बिदारिओ ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ चतुर दिसा कीनो बलु अपना सिर ऊपरि करु धारिओ ॥ क्रिपा कटाख्य अवलोकनु कीनो दास का दूखु बिदारिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चतुर = चार। दिसा = दिशाओं। थलु = धरती। करु = हाथ (एकवचन)। कटाख् = कटाक्ष्य, निगाह। अवलोकनु = देखना। अवलोकनु कीनो = देखा। बिदारिओ = दूर कर दिया।1।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने चारों तरफ (सारी सृष्टि में) अपनी कला फैलाई हुई है, उसने (अपने दास के) सिर पर सदा ही अपना हाथ रखा हुआ है। मेहर की निगाह से अपने दास की ओर देखता है, और, उसका हरेक दुख दूर कर देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन राखे गुर गोविंद ॥ कंठि लाइ अवगुण सभि मेटे दइआल पुरख बखसंद ॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि जन राखे गुर गोविंद ॥ कंठि लाइ अवगुण सभि मेटे दइआल पुरख बखसंद ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = सेवक, दास (बहुवचन)। गुर गोविंद = बड़े मालिक ने। गोविंद = पृथ्वी का मालिक। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। सभि = सारे। पुरख = सर्व व्यापक। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक की (हमेशा) रखवाली करता है। (सेवक को अपने) गले से लगा के दया-का-घर सर्व-व्यापक बख्शनहार प्रभु उनके सारे अवगुण मिटा देता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो मागहि ठाकुर अपुने ते सोई सोई देवै ॥ नानक दासु मुख ते जो बोलै ईहा ऊहा सचु होवै ॥२॥१४॥४५॥
मूलम्
जो मागहि ठाकुर अपुने ते सोई सोई देवै ॥ नानक दासु मुख ते जो बोलै ईहा ऊहा सचु होवै ॥२॥१४॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागहि = मांगते हैं। ते = से। मुख ते = मुँह से। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला वचन, अटल वचन।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के दास अपने प्रभु से जो कुछ माँगते हैं वह वही कुछ उनको देता है। हे नानक! (प्रभु का) सेवक जो कुछ मुँह से बोलता है, वह इस लोक में परलोक में अटल हो जाता है।2।14।45।
[[0682]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ अउखी घड़ी न देखण देई अपना बिरदु समाले ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ सासि सासि प्रतिपाले ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ अउखी घड़ी न देखण देई अपना बिरदु समाले ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ सासि सासि प्रतिपाले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखी = दुख देने वाली। देई = देता। बिरदु = मूल कदीमों का (प्यार वाला) स्वभाव। समाले = याद रखता है। देइ = दे के। राखै = रक्षा करता है। कउ = को। सासि सासि = हरेक सांस के साथ।1।
अर्थ: हे भाई! (वह प्रभु अपने सेवक को) कोई दुख देने वाला समय नहीं देता, वह अपना प्यार वाला बिरद स्वभाव सदा याद रखता है। प्रभु अपना हाथ दे के अपने सेवक की रक्षा करता है, (सेवक को उसके) हरेक सांस के साथ पालता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ सिउ लागि रहिओ मेरा चीतु ॥ आदि अंति प्रभु सदा सहाई धंनु हमारा मीतु ॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ सिउ लागि रहिओ मेरा चीतु ॥ आदि अंति प्रभु सदा सहाई धंनु हमारा मीतु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। आदि अंति = शुरू से आखिर तक, सदा ही। सहाई = मददगार। धंनु = सराहनीय। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा मन (भी) उस प्रभु से जुड़ा रहता है, जो आरम्भ से आखिर तक सदा ही मददगार बना रहता है। हमारा वह मित्र प्रभु धन्य है (उसकी सदा तारीफ करनी चाहिए)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि बिलास भए साहिब के अचरज देखि बडाई ॥ हरि सिमरि सिमरि आनद करि नानक प्रभि पूरन पैज रखाई ॥२॥१५॥४६॥
मूलम्
मनि बिलास भए साहिब के अचरज देखि बडाई ॥ हरि सिमरि सिमरि आनद करि नानक प्रभि पूरन पैज रखाई ॥२॥१५॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। बिलास = खुशियां। देखि = देख के। सिमरि = स्मरण करके। करि = मान। प्रभि = प्रभु ने। पैज = इज्जत।2।
अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु के हैरान करने वाले करिश्मे देख के, उसका बड़प्पन देख के (सेवक के) मन में (भी) खुशियां बनी रहती हैं। हे नानक! तू भी परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद ले। (जिस भी मनुष्य ने स्मरण किया) प्रभु ने पूरे तौर पर उसकी इज्जत रख ली।2।15।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जिस कउ बिसरै प्रानपति दाता सोई गनहु अभागा ॥ चरन कमल जा का मनु रागिओ अमिअ सरोवर पागा ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जिस कउ बिसरै प्रानपति दाता सोई गनहु अभागा ॥ चरन कमल जा का मनु रागिओ अमिअ सरोवर पागा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान पति = प्राणों का मालिक, जिंद का मालिक। गनहु = जानो, समझो। अभागा = बद किस्मत। रागिओ = प्रेमी हो गया। पागा = प्राप्त किया।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस कउ’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! उस मनुष्य को बद्-किस्मत समझो, जिसको जिंद का मालिक प्रभु बिसर जाता है। जिस मनुष्य का मन परमात्मा के कोमल चरणों का प्रेमी हो जाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का सरोवर ढूँढ लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा जनु राम नाम रंगि जागा ॥ आलसु छीजि गइआ सभु तन ते प्रीतम सिउ मनु लागा ॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा जनु राम नाम रंगि जागा ॥ आलसु छीजि गइआ सभु तन ते प्रीतम सिउ मनु लागा ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनु = दास। रंगि = प्रेम में। जागा = सचेत रहता है। छीजि गइआ = समाप्त हो गया। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा सेवक तेरे नाम रंग में टिक के (माया के मोह से सदा) सचेत रहता है। उसके शरीर में से सारा आलस समाप्त हो जाता है, उसका मन, (हे भाई!) प्रीतम प्रभु से जुड़ा रहता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह जह पेखउ तह नाराइण सगल घटा महि तागा ॥ नाम उदकु पीवत जन नानक तिआगे सभि अनुरागा ॥२॥१६॥४७॥
मूलम्
जह जह पेखउ तह नाराइण सगल घटा महि तागा ॥ नाम उदकु पीवत जन नानक तिआगे सभि अनुरागा ॥२॥१६॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। पेखउ = मैं देखूँ। तह = वहाँ। घटा महि = शरीरों में। तागा = धागा (जैसे मणकों में धागा परोया होता है)। उदकु = पानी, जल। पीवत = पीते हुए। सभि = (और) सारे। अनुरागा = प्यार।2।
अर्थ: हे भाई! (उसके नाम-जपने की इनायत से) मैं (भी) जिधर-जिधर देखता हूँ, वहाँ वहाँ परमात्मा ही सारे शरीरों में मौजूद दिखता है जैसे धागा (सारे मणकों में परोया होता है)। हे नानक! प्रभु के दास उस का नाम-जल पीते ही और सारे मोह-प्यार छोड़ देते हैं।2।19।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ जन के पूरन होए काम ॥ कली काल महा बिखिआ महि लजा राखी राम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ जन के पूरन होए काम ॥ कली काल महा बिखिआ महि लजा राखी राम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन = सफल। कली काल महि = झगड़ों भरे संसार में। महा बिखिआ महि = बड़ी (मोहनी) माया में। लजा = शर्म, इज्जत, सत्कार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक के सारे काम सफल हो जाते हैं। इस झमेलों भरे संसार में, इस बड़ी (मोहनी) माया में, परमात्मा (अपने सेवकों की) इज्जत रख लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपुना निकटि न आवै जाम ॥ मुकति बैकुंठ साध की संगति जन पाइओ हरि का धाम ॥१॥
मूलम्
सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपुना निकटि न आवै जाम ॥ मुकति बैकुंठ साध की संगति जन पाइओ हरि का धाम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। निकटि = नजदीक। जाम = जम, मौत, आत्मिक मौत। मुकति = विकारों से खलासी। बैकुंठ = स्वर्ग। धाम = घर।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मालिक प्रभु का नाम बार-बार स्मरण करके (सेवकों के) नजदीक आत्मिक मौत नहीं फटकती। सेवक गुरु की संगति प्राप्त कर लेते हैं जो परमात्मा का घर है। (ये साधु-संगत ही उनके वास्ते) विष्णु की पुरी है, विकारों से खलासी (पाने की जगह) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल हरि जन की थाती कोटि सूख बिस्राम ॥ गोबिंदु दमोदर सिमरउ दिन रैनि नानक सद कुरबान ॥२॥१७॥४८॥
मूलम्
चरन कमल हरि जन की थाती कोटि सूख बिस्राम ॥ गोबिंदु दमोदर सिमरउ दिन रैनि नानक सद कुरबान ॥२॥१७॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थाती = (स्थिति) आसरा। कोटि = करोड़ों। बिस्राम = ठिकाना। सिमरउ = स्मरण करूँ। रैनि = रात। सद = सदा।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु के सेवकों के लिए प्रभु के चरन ही आसरा हैं, करोड़ों सुखों का ठिकाना हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) मैं (भी) उस गोबिंद को दामोदर को दिन-रात स्मरण करता रहता हूँ, और उससे सदके जाता हूँ।2।17।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ मांगउ राम ते इकु दानु ॥ सगल मनोरथ पूरन होवहि सिमरउ तुमरा नामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ मांगउ राम ते इकु दानु ॥ सगल मनोरथ पूरन होवहि सिमरउ तुमरा नामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मांगउ = मांगूँ। ते = से। सिमरउ = स्मरण करूँ। मनोरथ = मुरादें।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा से एक ख़ैर माँगता हूँ (परमात्मा के आगे मैं विनती करता हूँ-) हे प्रभु! मैं तेरा नाम (सदा) स्मरण करता रहूँ, (तेरे नाम-जपने की इनायत से) सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन तुम्हारे हिरदै वासहि संतन का संगु पावउ ॥ सोग अगनि महि मनु न विआपै आठ पहर गुण गावउ ॥१॥
मूलम्
चरन तुम्हारे हिरदै वासहि संतन का संगु पावउ ॥ सोग अगनि महि मनु न विआपै आठ पहर गुण गावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वासहि = बसते रहें। हिरदै = हृदय में। संगु = साथ, संगति। पावउ = पाऊँ। सोग = चिन्ता। महि = में। न विआपै = नहीं फसता। गावउ = गाऊँ।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे चरण मेरे हृदय में बसते रहें, मैं तेरे संत जनों की संगति हासिल कर लूँ, मैं आठों पहर तेरे गुण गाता रहूँ। (तेरी महिमा की इनायत से) मन चिन्ता की आग में नहीं फंसता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वसति बिवसथा हरि की सेवा मध्यंत प्रभ जापण ॥ नानक रंगु लगा परमेसर बाहुड़ि जनम न छापण ॥२॥१८॥४९॥
मूलम्
स्वसति बिवसथा हरि की सेवा मध्यंत प्रभ जापण ॥ नानक रंगु लगा परमेसर बाहुड़ि जनम न छापण ॥२॥१८॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्वसति = शांति, स्वस्थ, सुख। बिवसथा = अवस्था, हालत। सेवा = सेवा भक्ति। मध्यंत = बीच से आखिर तक, सदा ही। जापण = जपने से। रंगु = प्यार। बाहुड़ि = दोबारा। छापण = मौत, छुपना।2।
अर्थ: हे नानक! हमेशा प्रभु का नाम जपने से, हरि की सेवा भक्ति करने से (मन में) शांति की हालत बनी रहती है। जिस मनुष्य (के मन में) परमात्मा का प्यार बन जाए वह बार-बार जनम-मरन (के चक्कर) में नहीं आता।2।18।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ मांगउ राम ते सभि थोक ॥ मानुख कउ जाचत स्रमु पाईऐ प्रभ कै सिमरनि मोख ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ मांगउ राम ते सभि थोक ॥ मानुख कउ जाचत स्रमु पाईऐ प्रभ कै सिमरनि मोख ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मांगउ = माँगूं, मैं माँगता हूँ। ते = से। सभि = सारे। थोक = पदार्थ। कउ = को। जाचत = मांगते हुए। स्रमु = थकावट। कै सिमरनि = के स्मरण से। मोख = (माया के मोह से) खलासी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं (तो) सारे पदार्थ परमात्मा से (ही) माँगता हूँ। मनुष्यों से माँगते हुए निरी परेशानी ही हासिल होती है, (दूसरी तरफ) परमात्मा के स्मरण के द्वारा (पदार्थ भी मिलते हैं और) माया के मोह से खलासी (भी) प्राप्त हो जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोखे मुनि जन सिम्रिति पुरानां बेद पुकारहि घोख ॥ क्रिपा सिंधु सेवि सचु पाईऐ दोवै सुहेले लोक ॥१॥
मूलम्
घोखे मुनि जन सिम्रिति पुरानां बेद पुकारहि घोख ॥ क्रिपा सिंधु सेवि सचु पाईऐ दोवै सुहेले लोक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घोखे = ध्यान से विचारे। मुनि जन = ऋषि मुनी। पुकारहि = ऊँचा ऊँचा पढ़ते हैं। घोख = घोख के, ध्यान से विचार के। सिंधु = समुंदर। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ कर। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सुहेले = आसान।1।
अर्थ: हे भाई! ऋषियों ने स्मृतियों-पुराणों को ध्यान से विचार के देखे, वेदों को (भी) विचार के ऊँची आवाज में पढ़ते हैं, (पर) कृपा के समुंदर परमात्मा की शरण पड़ कर ही उसका सदा-स्थिर नाम प्राप्त होता है (जिसकी इनायत से) लोक-परलोक दोनों ही सुखद हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन अचार बिउहार है जेते बिनु हरि सिमरन फोक ॥ नानक जनम मरण भै काटे मिलि साधू बिनसे सोक ॥२॥१९॥५०॥
मूलम्
आन अचार बिउहार है जेते बिनु हरि सिमरन फोक ॥ नानक जनम मरण भै काटे मिलि साधू बिनसे सोक ॥२॥१९॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = अन्य, और। अचार = धार्मिक रस्में। बिउहार = व्यवहार। जेते = जितने भी। फोक = फोके, व्यर्थ। भै = सारे डर। मिलि = मिल के। साधू = गुरु। सोक = चिन्ता ग़म।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के स्मरण के बिना जितने और भी धार्मिक रिवाज और व्यवहार हैं सारे व्यर्थ हैं। हे नानक! गुरु को मिल के जनम-मरण के सारे डर काटे जाते हैं, और सारी चिन्ता-फिक्र नाश हो जाते हैं।2।19।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ त्रिसना बुझै हरि कै नामि ॥ महा संतोखु होवै गुर बचनी प्रभ सिउ लागै पूरन धिआनु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ त्रिसना बुझै हरि कै नामि ॥ महा संतोखु होवै गुर बचनी प्रभ सिउ लागै पूरन धिआनु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै नामि = के नाम से। गुर बचनी = गुरु के वचन पर चलने से। सिउ = से। धिआनु = लगन।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में जुड़ने से (माया के मोह की) प्यास समाप्त हो जाती है। गुरु की वाणी का आसरा लेने से (मन में) बड़ा संतोष पैदा हो जाता है, और, परमात्मा के चरणों में पूरे तौर पर तवज्जो जुड़ जाती है।1। रहाउ।
[[0683]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा कलोल बुझहि माइआ के करि किरपा मेरे दीन दइआल ॥ अपणा नामु देहि जपि जीवा पूरन होइ दास की घाल ॥१॥
मूलम्
महा कलोल बुझहि माइआ के करि किरपा मेरे दीन दइआल ॥ अपणा नामु देहि जपि जीवा पूरन होइ दास की घाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलोल = चोज तमाशे, नखरे। बुझहि = बुझ जाते हैं, प्रभाव नहीं डाल सकते। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! जपि = जप के। जीवा = जाऊँ, मै आत्मिक जीवन प्राप्त करूँ। पूरन = सफल। घाल = मेहनत।1।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है, माया के रंग-तमाशे उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते। हे प्रभु! (मुझे भी) अपना नाम बख्श, तेरा नाम जप के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर सकूँ, तेरे (इस) दास की मेहनत सफल हो जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब मनोरथ राज सूख रस सद खुसीआ कीरतनु जपि नाम ॥ जिस कै करमि लिखिआ धुरि करतै नानक जन के पूरन काम ॥२॥२०॥५१॥
मूलम्
सरब मनोरथ राज सूख रस सद खुसीआ कीरतनु जपि नाम ॥ जिस कै करमि लिखिआ धुरि करतै नानक जन के पूरन काम ॥२॥२०॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सारे। मनोरथ = मुरादें। सद = सदा। जपि = जप के। जिस कै करमि = जिसकी किस्मत में। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। पूरन = सफल।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस कै करमि’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप के, परमात्मा की महिमा करके सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं (मानो) राज के सुख और रस मिल जाते हैं, सदा आनंद बना रहता है। (पर) हे नानक! कर्तार ने जिस मनुष्य की किस्मत में धुर दरगाह से (ये नाम की दाति) लिख दी, उसी मनुष्य के सारे कार्य सफल होते हैं।2।20।51।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी मः ५ ॥ जन की कीनी पारब्रहमि सार ॥ निंदक टिकनु न पावनि मूले ऊडि गए बेकार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी मः ५ ॥ जन की कीनी पारब्रहमि सार ॥ निंदक टिकनु न पावनि मूले ऊडि गए बेकार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सार = संभाल। टिकनु न पावनि = (सेवक के मुकाबले में) टिकाव हासिल नहीं कर सकते, नहीं अड़ सकते। मूले = बिल्कुल ही। बेकार = नकारा (हो के)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (सदा ही) अपने सेवकों की संभाल की है। (उनकी) निंदा करने वाले उनके मुकाबले में बिल्कुल ही अड़ नहीं सकते। (जैसे हवा के आगे बादल उड़ जाते हैं वैसे ही निंदक सेवकों के मुकाबले में हमेशा) नकारे हो के उड़ गए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह जह देखउ तह तह सुआमी कोइ न पहुचनहार ॥ जो जो करै अवगिआ जन की होइ गइआ तत छार ॥१॥
मूलम्
जह जह देखउ तह तह सुआमी कोइ न पहुचनहार ॥ जो जो करै अवगिआ जन की होइ गइआ तत छार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। पहुचनहारा = बराबरी कर सकने लायक। जो जो = जो जो मनुष्य। अवगिआ = निरादरी। तत = तुरंत। छार = स्वाह, राख।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की कोई भी बराबरी नहीं कर सकता, मैं जहाँ जहाँ देखता हूँ वहाँ ही वह मालिक प्रभु बसता है, उसके सेवक की जो भी निरादरी करता है, (वह आत्मिक जीवन में) तुरंत राख हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करनहारु रखवाला होआ जा का अंतु न पारावार ॥ नानक दास रखे प्रभि अपुनै निंदक काढे मारि ॥२॥२१॥५२॥
मूलम्
करनहारु रखवाला होआ जा का अंतु न पारावार ॥ नानक दास रखे प्रभि अपुनै निंदक काढे मारि ॥२॥२१॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (करने वाला प्रभु) का। प्रभि = प्रभु ने। मारि = मार के, आत्मिक मौत मार के।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसकी हस्ती का परला-उरला छोर नहीं पाया जा सकता, वह सबको पैदा करने वाला परमात्मा (अपने सेवकों का सदा) रखवाला रहता है। हे नानक! प्रभु ने अपने सेवकों की सदा रखवाली की है, और उनकी निंदा करने वालों को आत्मिक मौत मार के (अपने दर से) निकाल बाहर करता है।2।21।52।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु ९ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु ९ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चरन सरन गोबिंद दुख भंजना दास अपुने कउ नामु देवहु ॥ द्रिसटि प्रभ धारहु क्रिपा करि तारहु भुजा गहि कूप ते काढि लेवहु ॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि चरन सरन गोबिंद दुख भंजना दास अपुने कउ नामु देवहु ॥ द्रिसटि प्रभ धारहु क्रिपा करि तारहु भुजा गहि कूप ते काढि लेवहु ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि! गोबिंद = हे गोबिंद! दुख भंजना = हे दुखों के नाश करने वाले! कउ = को। द्रिसटि = नजर। प्रभ = हे प्रभु! करि = कर के। तारहु = पार लंघा ले। भुजा = बाँह। गहि = पकड़ के। कूप ते = कूएं में से। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! हे गोबिंद! हे दुखों का नाश करने वाले! अपने दास को अपना नाम बख्श। हे प्रभु! (अपने दास पर) मेहर की निगाह कर, कृपा करके (दास को संसार समुंदर से) पार लंघा ले, (दास की) बाँह पकड़ के (दास को मोह के) कूएं में से निकाल ले। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध करि अंध माइआ के बंध अनिक दोखा तनि छादि पूरे ॥ प्रभ बिना आन न राखनहारा नामु सिमरावहु सरनि सूरे ॥१॥
मूलम्
काम क्रोध करि अंध माइआ के बंध अनिक दोखा तनि छादि पूरे ॥ प्रभ बिना आन न राखनहारा नामु सिमरावहु सरनि सूरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = के कारण। अंध = (बहुवचन) अंधे होए हुए। बंध = बंधनों में। दोखा = पाप। तनि = शरीर में। छाइ = छाए हुए। पूरे = पूरी तरह। आन = अन्य, कोई और। सरनि सूरे = हे शरण के सूरमे, हे शरण आए हुए की सहायता करने वाले।1।
अर्थ: हे प्रभु! काम-क्रोध (आदि विकारों) के कारण (जीव) अंधे हुए पड़े हैं, माया के बंधनो में फसे पड़े हैं, अनेक विकार (इनके) शरीर में पूरी तरह से प्रभाव डाले बैठे हैं। हे प्रभु! तेरे बिना कोई और (जीवों की विकारों से) रक्षा करने के लायक नहीं। हे शरण आए की इज्जत रख सकने वाले! अपना नाम जपा!।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित उधारणा जीअ जंत तारणा बेद उचार नही अंतु पाइओ ॥ गुणह सुख सागरा ब्रहम रतनागरा भगति वछलु नानक गाइओ ॥२॥१॥५३॥
मूलम्
पतित उधारणा जीअ जंत तारणा बेद उचार नही अंतु पाइओ ॥ गुणह सुख सागरा ब्रहम रतनागरा भगति वछलु नानक गाइओ ॥२॥१॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित उधारणा = हे विकारियों को बचाने वाले! बेद उचार = वेदों का पाठ करने वालों ने। गुणह सागरा = हे गुणों के समुंदर! रतनागरा = हे रत्नों की खान! वछलु = वत्सल, प्यार करने वाला। नानक = हे नानक!।2।
अर्थ: हे विकारियों को बचाने वाले! हे सारे जीवों को पार लंघाने वाले! वेदों को पढ़ने वाले भी तेरे गुणों का अंत नहीं पा सके। हे नानक! (कह:) हे गुणों के समुंदर! हे रत्नों की खान पारब्रहम! मैं तुझे भक्ति से प्यार करने वाला जान के तेरी महिमा कर रहा हूँ।2।1।53।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ हलति सुखु पलति सुखु नित सुखु सिमरनो नामु गोबिंद का सदा लीजै ॥ मिटहि कमाणे पाप चिराणे साधसंगति मिलि मुआ जीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ हलति सुखु पलति सुखु नित सुखु सिमरनो नामु गोबिंद का सदा लीजै ॥ मिटहि कमाणे पाप चिराणे साधसंगति मिलि मुआ जीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। नित = नित्य। सिमरनो = स्मरण करने से। लीजै = लेना चाहिए। मिटहि = मिट जाते हैं। कमाणे चिराणे = चिर से कमाए हुए। मिलि = मिल के। मुआ = आत्मिक मौत मरा हुआ। जीजै = जी पड़ता है, आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए। स्मरण इस लोक में और परलोक में सदा ही सुख देने वाला है (नाम-जपने की इनायत से) चिरों के किए हुए पाप मिट जाते हैं। हे भाई! साधु-संगत में मिल के (स्मरण करने से) आत्मिक मौत मरा हुआ मनुष्य दोबारा आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज जोबन बिसरंत हरि माइआ महा दुखु एहु महांत कहै ॥ आस पिआस रमण हरि कीरतन एहु पदारथु भागवंतु लहै ॥१॥
मूलम्
राज जोबन बिसरंत हरि माइआ महा दुखु एहु महांत कहै ॥ आस पिआस रमण हरि कीरतन एहु पदारथु भागवंतु लहै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसरंत = भुला देते हैं। महा = बड़ा। एहु = ये (वचन)। महांत = बड़ी आत्मा वाले। कहै = कहें। पिआस = तमन्ना। रमण = स्मरण। कीरतन = महिमा। भागवंतु = किस्मत वाला मनुष्य। लहै = प्राप्त करता है।1।
अर्थ: हे भाई! राज और जवानी (के हुल्लारे) परमात्मा का नाम भुला देते हैं। माया का मोह बड़े दुखों (का मूल) है - ये बात महापुरुख बताते हैं। परमात्मा के नाम के स्मरण, परमात्मा की महिमा की आस व तमन्ना - ये कीमती चीज कोई दुर्लभ भाग्यशाली मनुष्य प्राप्त करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरणि समरथ अकथ अगोचरा पतित उधारण नामु तेरा ॥ अंतरजामी नानक के सुआमी सरबत पूरन ठाकुरु मेरा ॥२॥२॥५४॥
मूलम्
सरणि समरथ अकथ अगोचरा पतित उधारण नामु तेरा ॥ अंतरजामी नानक के सुआमी सरबत पूरन ठाकुरु मेरा ॥२॥२॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरणि समरथ = हे शरण आए की सहायता करने वाले! अकथ = हे एसे प्रभु जिसका स्वरूप बयान नहीं हो सकता। अगोचरा = हे अगोचर! (अ+गो+चर। गो = ज्ञानेंद्रियां। चर = पहुँच) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे रहने वाले हे प्रभु! पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित उधारण = विकारियों को विकारों से बचाने वाला। अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले! सरबत = सर्वत्र, हर जगह।2।
अर्थ: हे शरण आए की सहायता करने के लायक! हे अकथ! , हे अगोचर! , हे अंतरजामी! हे नानक के मालिक! तेरा नाम विकारियों को विकारों से बचा लेने वाला है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभु सब जगह व्यापक है।2।2।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु १२ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु १२ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंदना हरि बंदना गुण गावहु गोपाल राइ ॥ रहाउ॥
मूलम्
बंदना हरि बंदना गुण गावहु गोपाल राइ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदना = नमसकार। गुण गोपाल राइ = प्रभु पातशाह के गुण। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा को हमेशा नमस्कार किया करो, प्रभु पातशाह के गुण गाते रहो। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडै भागि भेटे गुरदेवा ॥ कोटि पराध मिटे हरि सेवा ॥१॥
मूलम्
वडै भागि भेटे गुरदेवा ॥ कोटि पराध मिटे हरि सेवा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। भेटे = मिलता है। कोटि = करोड़ों। सेवा = भक्ति।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को खुश-किस्मती से गुरु मिल जाता है, (गुरु के द्वारा) परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से उसके करोड़ों पाप मिट जाते हैं।1।
[[0684]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल जा का मनु रापै ॥ सोग अगनि तिसु जन न बिआपै ॥२॥
मूलम्
चरन कमल जा का मनु रापै ॥ सोग अगनि तिसु जन न बिआपै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। रापै = रंगा जाता है। सोग = चिन्ता। बिआपै = जोर डालती।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन परमात्मा के सोहणें चरणों (के प्रेम-रंग में) रंगा जाता है, उस मनुष्य पर चिन्ता की आग जोर नहीं डाल सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सागरु तरिआ साधू संगे ॥ निरभउ नामु जपहु हरि रंगे ॥३॥
मूलम्
सागरु तरिआ साधू संगे ॥ निरभउ नामु जपहु हरि रंगे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। साधू = गुरु। रंगे = रंगि, प्रेम से।3।
अर्थ: हे भाई! प्रेम सं निर्भय प्रभु का नाम जपा करो। गुरु की संगति में (नाम जपने की इनायत से) संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर धन दोख किछु पाप न फेड़े ॥ जम जंदारु न आवै नेड़े ॥४॥
मूलम्
पर धन दोख किछु पाप न फेड़े ॥ जम जंदारु न आवै नेड़े ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर धन = पराया धन। दोख = ऐब। फेड़े = बुरे कर्म। जंदारु = (जंदाल) अवैड़ा।4।
अर्थ: हे भाई! (स्मरण के सदका) पराए धन (आदि) के कोई ऐब आदि दुष्कर्म नहीं होते, भयानक यम भी नजदीक नहीं फटकता (मौत का डर नहीं व्याप्ता, आत्मिक मौत नजदीक नहीं आती)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना अगनि प्रभि आपि बुझाई ॥ नानक उधरे प्रभ सरणाई ॥५॥१॥५५॥
मूलम्
त्रिसना अगनि प्रभि आपि बुझाई ॥ नानक उधरे प्रभ सरणाई ॥५॥१॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। उधरे = (विकारों से) बच गए।5।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य प्रभु के गुण गाते हैं) उनकी तृष्णा की आग प्रभु ने खुद बुझा दी है। हे नानक! प्रभु की शरण पड़ कर (अनेक जीव तृष्णा की आग में से) बच निकलते हैं।5।1।55।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ त्रिपति भई सचु भोजनु खाइआ ॥ मनि तनि रसना नामु धिआइआ ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ त्रिपति भई सचु भोजनु खाइआ ॥ मनि तनि रसना नामु धिआइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपति = शांति। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। मनि = मन में। तनि = हृदय में। रसना = जीभ (से)।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने मन में, हृदय में, जीभ से परमात्मा का नाम स्मरणा शुरू कर दिया, जिसने सदा-स्थिर हरि नाम (की) खुराक खानी शुरू कर दी उसको (माया की तृष्णा की ओर से) शांति आ जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवना हरि जीवना ॥ जीवनु हरि जपि साधसंगि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीवना हरि जीवना ॥ जीवनु हरि जपि साधसंगि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जपा करो। साध संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (बैठ के) परमात्मा का नाम जपा करो- यही है असल जीवन, यही है असल जिंदगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक प्रकारी बसत्र ओढाए ॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुन गाए ॥२॥
मूलम्
अनिक प्रकारी बसत्र ओढाए ॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुन गाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनिक प्रकारी = कई किसमों के। बसत्र = वस्त्र, कपड़े। ओढाए = पहन लिए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।2।
अर्थ: जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा की महिमा करता है, प्रभु के गुण गाता है, उसने (मानो) कई किस्मों के (रंग-बिरंगे) कपड़े पहन लिए हैं (और वह इन सुंदर पोशाकों का आनंद ले रहा है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हसती रथ असु असवारी ॥ हरि का मारगु रिदै निहारी ॥३॥
मूलम्
हसती रथ असु असवारी ॥ हरि का मारगु रिदै निहारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हसती = हाथी। असु = अश्व, घोड़े। मारगु = रास्ता। रिदै = हृदय में। निहारी = देखता है।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा के मिलाप का राह देखता रहता है, वह (जैसे) हाथी, रथों, घोड़ों की सवारी (के सुख मजे ले रहा है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन तन अंतरि चरन धिआइआ ॥ हरि सुख निधान नानक दासि पाइआ ॥४॥२॥५६॥
मूलम्
मन तन अंतरि चरन धिआइआ ॥ हरि सुख निधान नानक दासि पाइआ ॥४॥२॥५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। सुख निधान = सुखों का खजाना। दासि = (उस) दास ने।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने अपने मन में हृदय में परमात्मा के चरणों का ध्यान धरना शुरू कर दिया है, उस दास ने सुखों के खजाने प्रभु को पा लिया है।4।2।56।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ गुर के चरन जीअ का निसतारा ॥ समुंदु सागरु जिनि खिन महि तारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ गुर के चरन जीअ का निसतारा ॥ समुंदु सागरु जिनि खिन महि तारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ का = जिंद का। निसतारा = पार उतारा। सागरु = समुंदर। जिनि = जिस (गुरु) ने। तारा = पार लंघा लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) ने (शरण आए मनुष्य को सदा) एक छिन में संसार समुंदर से पार लंघा दिया; उस गुरु के चरणों का ध्यान जिंद के वास्ते संसार-समुंदर से पार लंघाने के लिए साधन हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई होआ क्रम रतु कोई तीरथ नाइआ ॥ दासीं हरि का नामु धिआइआ ॥१॥
मूलम्
कोई होआ क्रम रतु कोई तीरथ नाइआ ॥ दासीं हरि का नामु धिआइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रम = कर्मकांड, धार्मिक रस्में। रतु = मस्त, प्रेमी। तीरथ = तीर्थों पर। दासीं = दासों ने।1।
अर्थ: हे भाई1 कोई मनुष्य धार्मिक रस्मों का प्रेमी बन जाता है; कोई मनुष्य तीर्थों पर स्नान करता फिरता है। परमात्मा के दासों ने (सदा) परमात्मा का नाम ही स्मरण किया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंधन काटनहारु सुआमी ॥ जन नानकु सिमरै अंतरजामी ॥२॥३॥५७॥
मूलम्
बंधन काटनहारु सुआमी ॥ जन नानकु सिमरै अंतरजामी ॥२॥३॥५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काटनहारु = काट सकने वाला। सुआमी = मालिक। नानकु सिमरै = नानक स्मरण करता है।2।
अर्थ: हे भाई! दास नानक (भी उस परमात्मा का नाम) स्मरण करता है जो सबके दिल की जानने वाला है, जो सबका मालिक है, जो (जीवों के माया के) बंधन काटने की सामर्थ्य रखता है।2।3।57।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ ॥ कितै प्रकारि न तूटउ प्रीति ॥ दास तेरे की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ ॥ कितै प्रकारि न तूटउ प्रीति ॥ दास तेरे की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितै प्रकारि = किसी भी तरह से। न तूटउ = टूट ना जाए। निरमल = पवित्र। रीति = जीवन जुगति, जीवन मर्यादा, रहन-सहन।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे दासों का रहन-सहन पवित्र रहता है, ता कि किसी भी तरह से (उनकी तेरे से) प्रीति टूट ना जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ प्रान मन धन ते पिआरा ॥ हउमै बंधु हरि देवणहारा ॥१॥
मूलम्
जीअ प्रान मन धन ते पिआरा ॥ हउमै बंधु हरि देवणहारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ ते = जिंद से। बंधु = रोक, बाँध। देवणहारा = देने योग्य।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दासों को अपनी जिंद से, प्राणों से, मन से, धन से, वह परमात्मा ज्यादा प्यारा है जो अहंकार के रास्ते में बाँध लगाने की सामर्थ्य रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल सिउ लागउ नेहु ॥ नानक की बेनंती एह ॥२॥४॥५८॥
मूलम्
चरन कमल सिउ लागउ नेहु ॥ नानक की बेनंती एह ॥२॥४॥५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। लागउ = लगी रहे। नेहु = प्यार, प्रीति।2।
अर्थ: हे भाई! नानक की (भी परमात्मा के दर पर सदा) यही अरदास है कि उसके सुंदर चरणों के साथ (नानक का) प्यार बना रहे।2।4।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धनासरी महला ९ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धनासरी महला ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे रे बन खोजन जाई ॥ सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे रे बन खोजन जाई ॥ सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे = किस लिए? रे = हे भाई! बन = जंगलों में। बनि = जंगल में। निवासी = बसने वाला। अलेपा = निर्लिप, माया के प्रभाव से स्वतंत्र। तोही संगि = तेरे संग ही, तेरे साथ ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा को) ढूँढने के लिए जंगलों में क्यों जाता है? परमात्मा सबमें बसने वाला है, (फिर भी) सदा (माया के प्रभाव से) निर्लिप रहता है। वह परमात्मा तेरे साथ बसता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई ॥ तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई ॥१॥
मूलम्
पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई ॥ तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुहप = फूल। मधि = में। बासु = सुगंधि। मुकर = शीशा। छाई = छाया, अक्स। निरंतरि = निर+अंतर, बिना दूरी के, सब जगह, सबमें। घट ही = हृदय में ही। भाई = हे भाई! 1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घट ही’ में से ‘घटि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जैसे फूल में सुगंधि बसती है, जैसे शीशे में (शीशा देखने वाले का) अक्स बसता है, वैसे ही परमात्मा एक-रस सबके अंदर बसता है। (इस वास्ते उसको) अपने हृदय में ही तलाश।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई ॥ जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ॥२॥१॥
मूलम्
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई ॥ जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीतरि = (अपने शरीर के अंदर)। गुर गिआनु = गुरु का ज्ञान। गुरि = गुरु ने। आपा = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। बिनु चीने = परखे बिना। भ्रम = भटकना। काई = हरे रंग का जाला जो उस जगह लग जाता है जहाँ पानी काफी समय तक खड़ा रहे। इस जाले के कारण पानी जमीन में रच नहीं सकता। इसी तरह भटकना के जाले के कारण पानी जमीन के अंदर असर नहीं करता।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु का (आत्मिक जीवन का) उपदेश ये बताता है कि (अपने शरीर के) अंदर (और अपने शरीर से) बाहर (हर जगह) एक परमात्मा को (बसता) समझो। हे दास नानक! अपना आत्मिक जीवन परखे बिना (मन पर पड़ा हुआ) भटकना का जाला दूर नहीं हो सकता (और, तब तक सर्व-व्यापक परमात्मा की सूझ नहीं आ सकती)।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ९ ॥ साधो इहु जगु भरम भुलाना ॥ राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ९ ॥ साधो इहु जगु भरम भुलाना ॥ राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधो = हे संतजनो! भरमि = (माया की) भटकना में (पड़ के)। भुलाना = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है। हाथि = हाथ में। बिकाना = बिका हुआ है।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! ये जगत (माया की) भटकना में (पड़ कर) गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। प्रभु के नाम का स्मरण छोड़े रहता है, और, माया के हाथ में बिका रहता है (माया के बदले आत्मिक जीवन गवा देता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मात पिता भाई सुत बनिता ता कै रसि लपटाना ॥ जोबनु धनु प्रभता कै मद मै अहिनिसि रहै दिवाना ॥१॥
मूलम्
मात पिता भाई सुत बनिता ता कै रसि लपटाना ॥ जोबनु धनु प्रभता कै मद मै अहिनिसि रहै दिवाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। ता कै रसि = उनके मोह में। लपटाना = फसा रहता है। जोबनु = जवानी। प्रभता = प्रभुता, ताकत, हकूमत। मद = नशा। मै = में। अहि = दिन। निसि = रात। दिवाना = पागल, झल्ला।1।
अर्थ: हे संत जनो! माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री- (भूला हुआ जगत) इनके मोह में फसा रहता है। जवानी, धन, ताकत के नशे में जगत दिन-रात पागल हुआ रहता है।1।
[[0685]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ मनु न लगाना ॥ जन नानक कोटन मै किनहू गुरमुखि होइ पछाना ॥२॥२॥
मूलम्
दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ मनु न लगाना ॥ जन नानक कोटन मै किनहू गुरमुखि होइ पछाना ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। सिउ = साथ। नानक = हे नानक! कोटन मै = करोड़ों में। किनहू = किसी विरले ने। गुरमुखि होइ = गुरु की शरण पड़ कर।2।
अर्थ: जो परमात्मा दीनों पर दया करने वाला है, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, जगत उससे अपना मन नहीं जोड़ता। हे दास नानक! (कह:) करोड़ों में से किसी विरले (दुर्लभ) मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के साथ सांझ डाली है।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ९ ॥ तिह जोगी कउ जुगति न जानउ ॥ लोभ मोह माइआ ममता फुनि जिह घटि माहि पछानउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ९ ॥ तिह जोगी कउ जुगति न जानउ ॥ लोभ मोह माइआ ममता फुनि जिह घटि माहि पछानउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिह जोगी कउ = उस जोगी को। जुगति = सही जीवन विधि। जानउ = मैं समझता हूँ। फुनि = फिर, और। जिह घट महि = जिस (जोगी) के हृदय में। पछानउ = पहचानूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस (जोगी) के हृदय में लोभ माया के मोह और ममता (की लहरें उठ रही) देखता हूँ, मैं समझता हूँ कि उस जोगी को (सही) जीवन-विधि (अभी) नहीं आई।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर निंदा उसतति नह जा कै कंचन लोह समानो ॥ हरख सोग ते रहै अतीता जोगी ताहि बखानो ॥१॥
मूलम्
पर निंदा उसतति नह जा कै कंचन लोह समानो ॥ हरख सोग ते रहै अतीता जोगी ताहि बखानो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिसके हृदय में। कंचनु = सोना। लोह = लोहा। समानो = एक जैसा। हरख = खुशी। सोग = ग़म। ते = से। अतीता = विरक्त, परे। ताहि = उसको ही। बखानो = कह।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में पराई निंदा नहीं है, पराई खुशामद नहीं है, जिसको सोना लोहा एक जैसे ही दिखते हैं, जो मनुष्य खुशी गमी से निर्लिप रहता है; उसको ही जोगी कह।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंचल मनु दह दिसि कउ धावत अचल जाहि ठहरानो ॥ कहु नानक इह बिधि को जो नरु मुकति ताहि तुम मानो ॥२॥३॥
मूलम्
चंचल मनु दह दिसि कउ धावत अचल जाहि ठहरानो ॥ कहु नानक इह बिधि को जो नरु मुकति ताहि तुम मानो ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंचल = भटकन वाला। दह = दस। दिसि = दिशाओं। कउ = को, की तरफ। जाहि = जिसने। अचलु = अडोल। को = का। इह बिधि को = इस किस्म का। मुकति = विकारों से खलासी। मानो = मान ले, समझ।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) ये सदा भटकता रहने वाला मन दसों दिशाओं में दौड़ता फिरता है। जिस मनुष्य ने इसे अडोल करके टिका लिया है, जो मनुष्य इस किस्म का है, समझ लें उसे विकारों से खलासी मिल गई है।2।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ९ ॥ अब मै कउनु उपाउ करउ ॥ जिह बिधि मन को संसा चूकै भउ निधि पारि परउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धनासरी महला ९ ॥ अब मै कउनु उपाउ करउ ॥ जिह बिधि मन को संसा चूकै भउ निधि पारि परउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब। कउनु = कौन सा। करउ = करूँ। जिह बिधि = जिस तरीके से। को = का। संसा = सहम। चूकै = समाप्त हो जाए। भउ निधि = संसार समुंदर। परउ = पड़ूँ, मैं पार हो जाऊँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अब मैं कौन सा प्रयत्न करूँ (जिससे मेरे) मन का सहम खत्म हो जाए, और, मैं संसार-समुंदर से पार लांघ जाऊँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमु पाइ कछु भलो न कीनो ता ते अधिक डरउ ॥ मन बच क्रम हरि गुन नही गाए यह जीअ सोच धरउ ॥१॥
मूलम्
जनमु पाइ कछु भलो न कीनो ता ते अधिक डरउ ॥ मन बच क्रम हरि गुन नही गाए यह जीअ सोच धरउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाइ = हासल करके। भलो = भलाई। ता ते = इसलिए। अधिक = बहुत। डरउ = डरूँ, मै डरता हूँ। मनि = मन से। बचि = वचन से। यह सोच = ये चिन्ता। जीअ = मन में। धरउ = मैं धरता हूं।1।
अर्थ: हे भाई! मानव जन्म प्राप्त करके मैंने कोई भलाई नहीं की, इसलिए मैं बहुत डरता रहता हूँ। मैं (अपने) अंदर (हर वक्त) यही चिन्ता करता रहता हूँ कि मैंने अपने मन से अपने वचन से, कर्म से (कभी भी) परमात्मा के गुण नहीं गाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमति सुनि कछु गिआनु न उपजिओ पसु जिउ उदरु भरउ ॥ कहु नानक प्रभ बिरदु पछानउ तब हउ पतित तरउ ॥२॥४॥९॥९॥१३॥५८॥४॥९३॥
मूलम्
गुरमति सुनि कछु गिआनु न उपजिओ पसु जिउ उदरु भरउ ॥ कहु नानक प्रभ बिरदु पछानउ तब हउ पतित तरउ ॥२॥४॥९॥९॥१३॥५८॥४॥९३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनि = सुन के। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। पसु जिउ = पशू की तरह। उदरु = पेट। भरउ = भरूँ, भरता हूँ। प्रभ = हे प्रभु! बिरदु = मूल कदीमों का (प्यार वाला) स्वभाव। हउ = मैं। पतित = विकारों में गिरा हुआ, विकारी। तरउ = तैरूँ, मैं तैर सकता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन की कुछ भी सूझ पैदा नहीं हुई, मैं पशू की तरह (रोज) अपना पेट भर लेता हूँ। हे नानक! कह: हे प्रभु! मैं विकारी तब ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ सकता हूँ अगर तू अपना मूल कदीमों वाला प्यार वाला स्वभाव याद रखे।2।4।9।9।13।58।4।93।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला १ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला १ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सागरु रतनी भरपूरे ॥ अम्रितु संत चुगहि नही दूरे ॥ हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै ॥ सरवर महि हंसु प्रानपति पावै ॥१॥
मूलम्
गुरु सागरु रतनी भरपूरे ॥ अम्रितु संत चुगहि नही दूरे ॥ हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै ॥ सरवर महि हंसु प्रानपति पावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतनी = रत्नों से, सुंदर जीवन उपदेश। भरपूरे = नाको नाक भरे हुए। संत = गुरमुखि लोग। चुगहि = चुगते हैं। चोग = खुराक, आत्मिक जीवन की खुराक। प्रानपति = परमात्मा।1।
अर्थ: गुरु (मानो) एक समुन्द्र (है जो प्रभु की महिमा से) नाको नाक भरा हुआ है। गुरमुख सिख (उस सागर में से) आत्मिक जीवन देने वाली खुराक (प्राप्त करते हैं जैसे हंस मोती) चुगते हैं, (और गुरु से) दूर नहीं रहते। प्रभु की मेहर के अनुसार संत-हंस हरि-नाम रस (की) चोग चुगते हैं। (गुरसिख) हंस (गुरु-) सरोवर में (टिका रहता है, और) जिंद के मालिक प्रभु को पा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ बगु बपुड़ा छपड़ी नाइ ॥ कीचड़ि डूबै मैलु न जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किआ बगु बपुड़ा छपड़ी नाइ ॥ कीचड़ि डूबै मैलु न जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बगु = बगुला। बपुड़ा = बिचारा। नाइ = नहाता है। कीचड़ि = कीचड़ में।1। रहाउ।
अर्थ: बिचारा बगुला छपड़ी में क्यों नहाता है? (कुछ नहीं मिलता, बल्कि छपड़ी में नहा के) कीचड़ में डूबता है, (उसकी ये) मैल दूर नहीं होती (जो मनुष्य गुरु समुन्द्र को छोड़ के देवी-देवताओं आदि अन्य के आसरे तलाशता है वह, मानो, छपड़ी में ही नहा रहा है। वहाँ से वह और भी ज्यादा माया-मोह की मैल चिपका लेता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रखि रखि चरन धरे वीचारी ॥ दुबिधा छोडि भए निरंकारी ॥ मुकति पदारथु हरि रस चाखे ॥ आवण जाण रहे गुरि राखे ॥२॥
मूलम्
रखि रखि चरन धरे वीचारी ॥ दुबिधा छोडि भए निरंकारी ॥ मुकति पदारथु हरि रस चाखे ॥ आवण जाण रहे गुरि राखे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रखि रखि = रख रख के, ध्यान से। वीचारी = विचार के आसरे। दुबिधा = किसी और आसरे की तलाश। रहे = समाप्त हो जाते हैं। गुरि = गुरु ने।2।
अर्थ: गुरसिख बड़ा सचेत हो के पूरा विचारवान हो के (जीवन-यात्रा में) पैर रखता है। परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश छोड़ के परमात्मा का ही बन जाता है। परमात्मा के नाम का रस चख के गुरसिख वह पदार्थ हासिल कर लेता है जो माया के मोह से खलासी दिलवा देता है। जिसकी गुरु ने सहायता कर दी उसके जन्म-मरण के चक्कर समाप्त हो गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरवर हंसा छोडि न जाइ ॥ प्रेम भगति करि सहजि समाइ ॥ सरवर महि हंसु हंस महि सागरु ॥ अकथ कथा गुर बचनी आदरु ॥३॥
मूलम्
सरवर हंसा छोडि न जाइ ॥ प्रेम भगति करि सहजि समाइ ॥ सरवर महि हंसु हंस महि सागरु ॥ अकथ कथा गुर बचनी आदरु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = सहज में, अडोल आत्मिक अवस्था में। आदरु = इज्जत।3।
अर्थ: (जैसे) हंस मानसरोवर को छोड़ के नहीं जाता (वैसे ही जो सिख गुरु का दर छोड़ के नहीं जाता वह) प्रेमा भक्ति की इनायत से अडोल आत्मिक अवस्था में लीन हो जाता है। जो गुरसिख-हंस गुरु-सरोवर में टिकता है, उसके अंदर गुरु-सरोवर अपना आप प्रगट करता है (उस सिख के अंदर गुरु बस जाता है) - यह कथा अकथ है (भाव, इस आत्मिक अवस्था का बयान नहीं किया जा सकता। सिर्फ ये कह सकते हैं कि) गुरु के वचन पर चल के वह (लोक-परलोक में) आदर पाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंन मंडल इकु जोगी बैसे ॥ नारि न पुरखु कहहु कोऊ कैसे ॥ त्रिभवण जोति रहे लिव लाई ॥ सुरि नर नाथ सचे सरणाई ॥४॥
मूलम्
सुंन मंडल इकु जोगी बैसे ॥ नारि न पुरखु कहहु कोऊ कैसे ॥ त्रिभवण जोति रहे लिव लाई ॥ सुरि नर नाथ सचे सरणाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंन मंडल = अफुर अवस्था, वह अवस्था जहाँ माया के फुरने शून्य हैं। जोगी = प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ। त्रिभवण जोति = वह प्रभु जिसकी ज्योति तीनों भवनों में है। सुरि = देवते।4।
अर्थ: जे कोई विरला प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ सख्श शून्य अवस्था में टिकता है, उसके अंदर स्त्री-मर्द वाला भेद नहीं रह जाता (भाव, उसके काम चेष्टा अपना प्रभाव नहीं डालती)। बताओ, कोई ये संकल्प कर भी कैसे सकता है? क्योंकि वह तो सदा उस परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है जिसकी ज्योति तीनों भवनों में व्यापक है और देवते मनुष्य नाथ आदि सभी जिस सदा-स्थिर की शरण लिए रखते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनंद मूलु अनाथ अधारी ॥ गुरमुखि भगति सहजि बीचारी ॥ भगति वछल भै काटणहारे ॥ हउमै मारि मिले पगु धारे ॥५॥
मूलम्
आनंद मूलु अनाथ अधारी ॥ गुरमुखि भगति सहजि बीचारी ॥ भगति वछल भै काटणहारे ॥ हउमै मारि मिले पगु धारे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आनंद मूलु = आनंद का श्रोत। भगति वछल = भक्ति से प्यार करने वाला। पगु धारे = (सत्संग में) पैर टिका के, जा के।5।
अर्थ: (गुरमुख-हंस गुरु-सागर में टिक के उस प्राणपति-प्रभु को मिलता है) जो आत्मिक आनंद का श्रोत है जो निआसरों का आसरा है। गुरमुख उसकी भक्ति के द्वारा और उसके गुणों के विचार के माध्यम से अडोल आत्मिक अवस्था में टिके रहते हैं। वह प्रभु (अपने सेवकों की) भक्ति से प्रेम करता है, उनके सारे डर दूर करने के समर्थ है। गुरमुखि अहंकार को मार के और (साधु-संगत में) टिक के उस आनंद-मूल प्रभु (के चरणों) में जुड़ते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जतन करि कालु संताए ॥ मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोवै ॥ आपु न चीनसि भ्रमि भ्रमि रोवै ॥६॥
मूलम्
अनिक जतन करि कालु संताए ॥ मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोवै ॥ आपु न चीनसि भ्रमि भ्रमि रोवै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के, करने से भी। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। मंडल = जगत। मरणु = मौत, आत्मिक मौत। खोवै = गवा लेता है। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को।6।
अर्थ: जो मनुष्य (बेचारे बगुले की तरह अहंकार की छपड़ी में ही नहाता है, और) अपने आत्मिक जीवन को नहीं पहचानता, वह (अहंकार में) भटक-भटक के दुखी होता है; परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश में वह अमूल्य मानव जनम गवा लेता है; अनेक अन्य ही जतन करने के कारण (सहेड़ी हुई) आत्मिक मौत (का लेख ही अपने माथे पर) लिखा के इस जगत में आया (और यहाँ भी आत्मिक मौत ही गले पड़वाता रहा)।6।
[[0686]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहतउ पड़तउ सुणतउ एक ॥ धीरज धरमु धरणीधर टेक ॥ जतु सतु संजमु रिदै समाए ॥ चउथे पद कउ जे मनु पतीआए ॥७॥
मूलम्
कहतउ पड़तउ सुणतउ एक ॥ धीरज धरमु धरणीधर टेक ॥ जतु सतु संजमु रिदै समाए ॥ चउथे पद कउ जे मनु पतीआए ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एक = एक प्रभु की (महिमा)। धरणीधर = धरती का आसरा प्रभु। चउथा पद = वह आत्मिक अवस्था जहाँ माया के तीन गुण जोर नहीं डाल सकते। पतीआइ = मना लिए।7।
अर्थ: (पर) जो मनुष्य एक परमात्मा की महिमा ही (नित्य) उचारता है, पढ़ता है और सुनता है और धरती के आसरे प्रभु की टेक पकड़ता है वह गंभीर स्वभाव ग्रहण करता है वह (मनुष्य जीवन के) फर्ज को (पहचानता है)।
अगर मनुष्य (गुरु की शरण में रह के) अपने मन को उस आत्मिक अवस्था में पहुँचा ले जहाँ माया के तीनों ही गुण जोर नहीं डाल सकते, तो (सहज ही) जत-सत और संजम उसके हृदय में लीन रहते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचे निरमल मैलु न लागै ॥ गुर कै सबदि भरम भउ भागै ॥ सूरति मूरति आदि अनूपु ॥ नानकु जाचै साचु सरूपु ॥८॥१॥
मूलम्
साचे निरमल मैलु न लागै ॥ गुर कै सबदि भरम भउ भागै ॥ सूरति मूरति आदि अनूपु ॥ नानकु जाचै साचु सरूपु ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरति = शकल। मूरति = हस्ती, वजूद, अस्तित्व। अनूपु = जो उपमा से परे है, जिस जैसा और कोई नहीं। साचु सरूपु = जिस का स्वरूप सदा कायम रहने वाला है।8।
अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु में टिक के पवित्र हुए मनुष्य के मन को विकारों की मैल नहीं चिपकती। गुरु के शब्द की इनायत से उसकी भटकना दूर हो जाती है उसका (दुनियावी) डर-सहम समाप्त हो जाता है।
नानक (भी) उस सदा-स्थिर हस्ती वाले प्रभु (के दर से नाम की दाति) मांगता है जिस जैसा और कोई नहीं है जिसकी (सुंदर) सूरत और जिसका अस्तित्व आदि से ही चला आ रहा है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला १ ॥ सहजि मिलै मिलिआ परवाणु ॥ ना तिसु मरणु न आवणु जाणु ॥ ठाकुर महि दासु दास महि सोइ ॥ जह देखा तह अवरु न कोइ ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला १ ॥ सहजि मिलै मिलिआ परवाणु ॥ ना तिसु मरणु न आवणु जाणु ॥ ठाकुर महि दासु दास महि सोइ ॥ जह देखा तह अवरु न कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = अडोल अवस्था में। मरणु = आत्मिक मौत। आवणु जाणु = जनम मरण का चक्कर। सोइ = वह (ठाकुर)।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के माध्यम से अडोल अवस्था में टिक के प्रभु-चरणों में जुड़ता है, उसका प्रभु-चरणों में जुड़ना स्वीकार हो जाता है। उस मनुष्य को ना आत्मिक मौत आती है, ना ही जनम-मरन का चक्कर। ऐसा प्रभु का दास प्रभु में लीन रहता है, प्रभु ऐसे सेवक के अंदर प्रकट हो जाता है। वह सेवक जिधर देखता है उसे परमात्मा के बिना और कोई नहीं दिखता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि भगति सहज घरु पाईऐ ॥ बिनु गुर भेटे मरि आईऐ जाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरमुखि भगति सहज घरु पाईऐ ॥ बिनु गुर भेटे मरि आईऐ जाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज घरु = अडोल आत्मिक अवस्था का घर। मरि = आत्मिक मौत मर के।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करने से वह (आत्मिक) ठिकाना मिल जाता है जहाँ मन हमेशा अडोल अवस्था में टिका रहता है। (पर) गुरु को मिले बिना (मनुष्य) आत्मिक मौत मर के जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो गुरु करउ जि साचु द्रिड़ावै ॥ अकथु कथावै सबदि मिलावै ॥ हरि के लोग अवर नही कारा ॥ साचउ ठाकुरु साचु पिआरा ॥२॥
मूलम्
सो गुरु करउ जि साचु द्रिड़ावै ॥ अकथु कथावै सबदि मिलावै ॥ हरि के लोग अवर नही कारा ॥ साचउ ठाकुरु साचु पिआरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। जि = जो। साचु = सदा स्थिर प्रभु। कथावै = महिमा करवाता है। साचउ = सदा स्थिर रहने वाला।2।
अर्थ: मैं (भी) वही गुरु धारण करना चाहता हूँ जो सदा-स्थिर प्रभु को (मेरे हृदय में) पक्की तरह टिका दे, जो मुझसे अकथ प्रभु की महिमा करवाए, और अपने शब्द के द्वारा मुझे प्रभु चरणों में जोड़ दे।
परमात्मा के भक्त को (महिमा के बिना) कोई और कार नहीं (सूझती)। भक्त सदा-स्थिर प्रभु को ही स्मरण करता है, सदा स्थिर प्रभु उसको प्यारा लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन महि मनूआ मन महि साचा ॥ सो साचा मिलि साचे राचा ॥ सेवकु प्रभ कै लागै पाइ ॥ सतिगुरु पूरा मिलै मिलाइ ॥३॥
मूलम्
तन महि मनूआ मन महि साचा ॥ सो साचा मिलि साचे राचा ॥ सेवकु प्रभ कै लागै पाइ ॥ सतिगुरु पूरा मिलै मिलाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर प्रभु (का रूप हो के)। पाइ = चरणों में।3।
अर्थ: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है गुरु उसको प्रभु-चरणों में मिला देता है, वह सेवक प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है, उसका मन शरीर के अंदर ही रहता है (भाव, माया-मोह में ग्रसित हुआ दसों दिशाओं में भागता नहीं फिरता), उसके मन में सदा-स्थिर प्रभु प्रकट हो जाता है, वह सेवक सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करके और उसमें मिल के उस (की याद) में लीन रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि दिखावै आपे देखै ॥ हठि न पतीजै ना बहु भेखै ॥ घड़ि भाडे जिनि अम्रितु पाइआ ॥ प्रेम भगति प्रभि मनु पतीआइआ ॥४॥
मूलम्
आपि दिखावै आपे देखै ॥ हठि न पतीजै ना बहु भेखै ॥ घड़ि भाडे जिनि अम्रितु पाइआ ॥ प्रेम भगति प्रभि मनु पतीआइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिखावै = अपने दर्शन करवाता है। देखै = (जीवों के कर्म) देखता है। हठि = हठ से (किए तप आदि)। घड़ि = घड़ के, बना के। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। प्रभि = प्रभु ने।4।
अर्थ: परमात्मा अपने दर्शन आप ही (गुरु के माध्यम से) करवाता है, खुद ही (सब जीवों के) दिल की जानता है (इस वास्ते वह) हठ द्वारा किए कर्मों पर नहीं पतीजता, ना ही बहुत सारे (धार्मिक) भेषों पर प्रसन्न होता है। जिस प्रभु ने (सारे) शरीर बनाए हैं और (गुरु की शरण आए किसी भाग्यशाली के हृदय में) नाम-अमृत डाला है उसी प्रभु ने उसका मन प्रेमा-भक्ती में जोड़ा है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पड़ि पड़ि भूलहि चोटा खाहि ॥ बहुतु सिआणप आवहि जाहि ॥ नामु जपै भउ भोजनु खाइ ॥ गुरमुखि सेवक रहे समाइ ॥५॥
मूलम्
पड़ि पड़ि भूलहि चोटा खाहि ॥ बहुतु सिआणप आवहि जाहि ॥ नामु जपै भउ भोजनु खाइ ॥ गुरमुखि सेवक रहे समाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भोजनु = (आत्मिक) खुराक।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘खाइ’ और ‘खाहि’ में अंतर याद रखें।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो मनुष्य (विद्या) पढ़-पढ़ के (विद्या के घमण्ड में से ही स्मरण से) टूट जाते हैं वे (आत्मिक मौत की) चोटें सहते रहते हैं। (विद्या की) बहुत चातुरता के कारण जनम-मरन के चक्कर में पड़ते हैं। जो जो मनुष्य प्रभु का नाम जपते हैं और प्रभु के डर-अदब को अपनी आत्मा की खुराक बनाते हैं, वह सेवक गुरु की शरण पड़ कर प्रभु में लीन रहते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजि सिला तीरथ बन वासा ॥ भरमत डोलत भए उदासा ॥ मनि मैलै सूचा किउ होइ ॥ साचि मिलै पावै पति सोइ ॥६॥
मूलम्
पूजि सिला तीरथ बन वासा ॥ भरमत डोलत भए उदासा ॥ मनि मैलै सूचा किउ होइ ॥ साचि मिलै पावै पति सोइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूजि = पूज के। सिला = पत्थर (की मूर्तियां)। मनि मैलै = मैले मन से, अगर मन मैला ही रहा। सूचा = पवित्र। पति = इज्जत।6।
अर्थ: जो मनुष्य पत्थर (की मूर्तियां) पूजता रहा, तीर्थों पर स्नान करता रहा, जंगलों में निवास रखता रहा, त्यागी बन के जगह-जगह भटकता-डोलता फिरा (और इन्हीं कर्मों को धर्म समझता रहा), अगर उसका मन मैला ही रहा तो वह पवित्र कैसे हो सकता है? जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में (स्मरण कर-करके) लीन होता है (वही पवित्र होता है, और) वह (लोक-परलोक में) इज्जत पाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचारा वीचारु सरीरि ॥ आदि जुगादि सहजि मनु धीरि ॥ पल पंकज महि कोटि उधारे ॥ करि किरपा गुरु मेलि पिआरे ॥७॥
मूलम्
आचारा वीचारु सरीरि ॥ आदि जुगादि सहजि मनु धीरि ॥ पल पंकज महि कोटि उधारे ॥ करि किरपा गुरु मेलि पिआरे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आचारा = आचरण। वीचारु = उच्च विचार। सरीरि = शरर में, मनुष्य में। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। आदि जुगादि = सदा ही। धीरि = धीरे, गंभीर बना रहता है। पंकज = कमल (पंक = कीचड़। ज = जमा हुआ)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ ‘कमल’ की ‘आँख’ से उपमा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
पल पंकज महि = आँख के फड़कने जितने समय में। पिआरे = हे प्यारे प्रभु!।7।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मेहर करके मुझे वह गुरु मिला जो आँख झपकने जितने समय में करोड़ों लोगों को (विकारों से) बचा लेता है, जिसका मन सदा ही अडोल अवस्था में टिका रहता है और गंभीर रहता है जिसके अंदर ऊँचा आचरण भी है और ऊँची (आत्मिक) सूझ भी है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किसु आगै प्रभ तुधु सालाही ॥ तुधु बिनु दूजा मै को नाही ॥ जिउ तुधु भावै तिउ राखु रजाइ ॥ नानक सहजि भाइ गुण गाइ ॥८॥२॥
मूलम्
किसु आगै प्रभ तुधु सालाही ॥ तुधु बिनु दूजा मै को नाही ॥ जिउ तुधु भावै तिउ राखु रजाइ ॥ नानक सहजि भाइ गुण गाइ ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। को = कोई (जीव)। रजाइ = अपनी रजा में।8।
अर्थ: हे नानक! प्रभु दर पर यूँ अरदास कर- हे प्रभु! मैं किस आदमी के सामने तेरी महिमा करूँ? मुझे तो तेरे बिना और कोई नहीं दिखता।
जैसे तेरी मेहर हो मुझे अपनी रजा में रख, ता कि (तेरा दास) अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के तेरे गुण गाए।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ घरु ६ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ घरु ६ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो जूनी आइओ तिह तिह उरझाइओ माणस जनमु संजोगि पाइआ ॥ ताकी है ओट साध राखहु दे करि हाथ करि किरपा मेलहु हरि राइआ ॥१॥
मूलम्
जो जो जूनी आइओ तिह तिह उरझाइओ माणस जनमु संजोगि पाइआ ॥ ताकी है ओट साध राखहु दे करि हाथ करि किरपा मेलहु हरि राइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो जो = जो जो (जीव)। तिह तिह = उसी उसी (जूनी) में। उरझाइओ = (माया के मोह में) फसा हुआ है। संजोगि = अच्छी किस्मत से। ताकी है = (मैंने) देखी है। साध = हे गुरु! दे करि = दे के। हाथ = (बहुवचन) दोनों हाथ। हरि राइआ = प्रभु पातशाह।1।
अर्थ: हे गुरु! जो जो जीव (जिस किसी) जून में आया है, उस उस (जून) में ही (माया के मोह में) फंस रहा है। मानव जनम (किसी ने) किस्मत से प्राप्त किया है। हे गुरु! मैंने तो तेरा आसरा देखा है। अपना हाथ दे के (मुझे माया के मोह से) बचा ले। मेहर करके मुझे प्रभु-पातशाह से मिला दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जनम भ्रमि थिति नही पाई ॥ करउ सेवा गुर लागउ चरन गोविंद जी का मारगु देहु जी बताई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अनिक जनम भ्रमि थिति नही पाई ॥ करउ सेवा गुर लागउ चरन गोविंद जी का मारगु देहु जी बताई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। थिति = स्थिति, टिकाव। पाई = प्राप्त की। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। गुर = हे गुरु! लगूँ, मैं लगता हूँ। मारगु = रास्ता। बताई देहु = बता दो।1। रहाउ।
अर्थ: हे सतिगुरु! अनेक जूनियों में भटक-भटक के (जूनियों से बचने का और कोई) ठिकाना नहीं मिला। अब मैं तेरी शरण में आ पड़ा हुआ हूँ, मैं तेरी ही सेवा करता हूँ, मुझे परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता बता दे।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक उपाव करउ माइआ कउ बचिति धरउ मेरी मेरी करत सद ही विहावै ॥ कोई ऐसो रे भेटै संतु मेरी लाहै सगल चिंत ठाकुर सिउ मेरा रंगु लावै ॥२॥
मूलम्
अनिक उपाव करउ माइआ कउ बचिति धरउ मेरी मेरी करत सद ही विहावै ॥ कोई ऐसो रे भेटै संतु मेरी लाहै सगल चिंत ठाकुर सिउ मेरा रंगु लावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाव = कोशिशें। कउ = की खातिर। बचिति = चित में अच्छी तरह। चिति = चिक्त में। धरउ = धरता हूँ। करत = करते हुए। सद = सदा। रे = हे भाई! भेटै = मिल जाए। लाहै = दूर कर दे। सिउ = साथ। रंगु = प्यार। लावै = जोड़ ले।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मैं (नित्य) माया की खातिर (ही) अनेक तरह के उपाय करता रहता हूँ, मैं (माया को ही) विशेष तौर पर अपने मन में बसाए रखता हूँ। हमेशा ‘मेरी माया, मेरी माया’ करते हुए ही (मेरी उम्र बीतती) जा रही है। (अब मेरा जी करता है कि) मुझे कोई ऐसा संत मिल जाए, जो (मेरे अँदर से माया वाली) सारी सोच दूर कर दे, और, परमात्मा के साथ मेरा प्यार बना दे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पड़े रे सगल बेद नह चूकै मन भेद इकु खिनु न धीरहि मेरे घर के पंचा ॥ कोई ऐसो रे भगतु जु माइआ ते रहतु इकु अम्रित नामु मेरै रिदै सिंचा ॥३॥
मूलम्
पड़े रे सगल बेद नह चूकै मन भेद इकु खिनु न धीरहि मेरे घर के पंचा ॥ कोई ऐसो रे भगतु जु माइआ ते रहतु इकु अम्रित नामु मेरै रिदै सिंचा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! सगल = सारे। चूकै = समाप्त होता। भेद = दूरी। धीरहि = धीरज करते। पंचा = ज्ञान-इंद्रिय। रहतु = निर्लिप। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदै = हृदय में। सिंचा = सींच दे।3।
अर्थ: हे भाई! सारे वेद पढ़ के देखे हैं, (इनके पढ़ने से परमात्मा से बरकरार) मन की दूरी समाप्त नहीं होती, (वेद आदि को पढ़ने से) ज्ञान-इंद्रिय एक पल के लिए भी शांत नहीं होती। हे भाई! कोई ऐसा भक्त (मिल जाए) जो (स्वयं) माया से निर्लिप हो (वही भक्त) मेरे हृदय को आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल (अमृत) से सींच सकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते रे तीरथ नाए अह्मबुधि मैलु लाए घर को ठाकुरु इकु तिलु न मानै ॥ कदि पावउ साधसंगु हरि हरि सदा आनंदु गिआन अंजनि मेरा मनु इसनानै ॥४॥
मूलम्
जेते रे तीरथ नाए अह्मबुधि मैलु लाए घर को ठाकुरु इकु तिलु न मानै ॥ कदि पावउ साधसंगु हरि हरि सदा आनंदु गिआन अंजनि मेरा मनु इसनानै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने ही। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। घर को ठाकुरु = हृदय घर का मालिक प्रभु। मानै = मानता, पतीजता। पावउ = पाऊँ, मैं प्राप्त करूँ। संगु = साथ, मिलाप। अंजनि = सुरमे से।4।
अर्थ: हे भाई! जितने भी तीर्थ हैं अगर उन पर स्नान किया जाए, वह स्नान बल्कि मन में अहंकार की मैल चढ़ा देते हैं, (इन तीर्थ-स्नानों से) परमात्मा जरा सा भी प्रसन्न नहीं होता। (मेरी तो तमन्ना ये है कि) कभी मैं भी साधु-संगत प्राप्त कर सकूँ, (साधु-संगत की इनायत से मन में) सदा आत्मिक आनंद बना रहे, और, मेरा मन ज्ञान के अंजन से (अपने आप को) पवित्र कर ले।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल अस्रम कीने मनूआ नह पतीने बिबेकहीन देही धोए ॥ कोई पाईऐ रे पुरखु बिधाता पारब्रहम कै रंगि राता मेरे मन की दुरमति मलु खोए ॥५॥
मूलम्
सगल अस्रम कीने मनूआ नह पतीने बिबेकहीन देही धोए ॥ कोई पाईऐ रे पुरखु बिधाता पारब्रहम कै रंगि राता मेरे मन की दुरमति मलु खोए ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आस्रम = सारी उम्र के चार हिस्सों के अलग-अलग धर्म (ब्रहमचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वामप्रस्थ आश्रम व संयास आश्रम, ये हैं चार आश्रम)। बिबेकहीन = विचारों से वंचित। देही = शरीर। बिधाता = विधाता, कर्तार। के रंगि = के प्रेम में। राता = रंगा हुआ।5।
अर्थ: हे भाई! सारे ही आश्रमों के धर्म कमाने से भी मन नहीं पतीजता। विचार-हीन मनुष्य सिर्फ शरीर को ही साफ-सुथरा करते रहते हैं। हे भाई! (मेरी ये लालसा है कि) परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा हुआ, परमात्मा का रूप कोई महापुरुष मिल जाए, तो वह मेरे मन की बुरी मति की मैल दूर कर दे।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम धरम जुगता निमख न हेतु करता गरबि गरबि पड़ै कही न लेखै ॥ जिसु भेटीऐ सफल मूरति करै सदा कीरति गुर परसादि कोऊ नेत्रहु पेखै ॥६॥
मूलम्
करम धरम जुगता निमख न हेतु करता गरबि गरबि पड़ै कही न लेखै ॥ जिसु भेटीऐ सफल मूरति करै सदा कीरति गुर परसादि कोऊ नेत्रहु पेखै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम धरम = निहित हुए धार्मिक कर्म। करम धरम जुगता = (तीर्थ स्नान आदि निहित हुए) धार्मिक कर्मों में फंसे हुए। निमख = आँख झपकने जितना समय। हेतु = (प्रभु से) प्रेम। गरबि गरबि = बार बार अहंकार में। पड़ै = पड़ता है। जिसु = जिस मनुष्य को। भेटीऐ = मिलता है। सफल मूरति = वह गुरु जिसकी हस्ती सारे फल देती है। कीरति = महिमा। परसादि = कृपा से।6।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (तीर्थ-स्नान आदि निहित हुए) धार्मिक कर्मों में ही व्यस्त रहता है, जरा से वक्त के लिए भी परमात्मा को प्यार नहीं करता, (वह इन किए कर्मों के आसरे) बार-बार अहंकार में टिका रहता है, (इन किए धार्मिक कर्मों में कोई भी कर्म उसके) किसी के काम नहीं आता। हे भाई! जिस मनुष्य को वह गुरु मिल जाता है जो सारी मुरादें पूरी करने वाला है और जिसकी कृपा से मनुष्य सदा परमात्मा की महिमा करता है, उसकी कृपा से कोई भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा को अपनी आँखों से (हर जगह बसता) देख लेता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनहठि जो कमावै तिलु न लेखै पावै बगुल जिउ धिआनु लावै माइआ रे धारी ॥ कोई ऐसो रे सुखह दाई प्रभ की कथा सुनाई तिसु भेटे गति होइ हमारी ॥७॥
मूलम्
मनहठि जो कमावै तिलु न लेखै पावै बगुल जिउ धिआनु लावै माइआ रे धारी ॥ कोई ऐसो रे सुखह दाई प्रभ की कथा सुनाई तिसु भेटे गति होइ हमारी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हठि = हठ से। तिल = रक्ती भर भी। बगुल = बगुला। माइआ धारी = अपने मन में माया का ही मोह टिका के रखने वाला। सुखह दाई = आत्मिक आनंद देने वाला। तिसु भेटे = उसको मिलने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य मन के हठ से (तप आदि मेहनत) करता है, (परमात्मा उसकी इस मेहनत को) जरा सा भी स्वीकार नहीं करता (क्योंकि) हे भाई! वह मनुष्य तो बगुले की तरह ही समाधि लगा रहा होता है; अपने मन में वह माया का मोह ही टिकाए रखता है। हे भाई! अगर कोई ऐसा आत्मिक-आनंद का दाता मिल जाए, जो हमें परमात्मा के महिमा की बातें सुनाए, तो उसको मिल के हमारी आत्मिक अवस्था ऊँची हो सकती है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्रसंन गोपाल राइ काटै रे बंधन माइ गुर कै सबदि मेरा मनु राता ॥ सदा सदा आनंदु भेटिओ निरभै गोबिंदु सुख नानक लाधे हरि चरन पराता ॥८॥
मूलम्
सुप्रसंन गोपाल राइ काटै रे बंधन माइ गुर कै सबदि मेरा मनु राता ॥ सदा सदा आनंदु भेटिओ निरभै गोबिंदु सुख नानक लाधे हरि चरन पराता ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपाल राइ = प्रभु पातशाह। रे = हे भाई! माइ = माया (के)। कै सबदि = के शब्द में। राता = मगन। पराता = पड़ के।8।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु-पातशाह दयालु होता है, (गुरु उसके) माया के बंधन काट देता है। हे भाई! मेरा मन (भी) गुरु के शब्द में (ही) मगन रहता है। हे नानक! (गुरु की कृपा से जिस मनुष्य को) सारे डरों से रहित गोबिंद मिल जाता है, उसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, परमात्मा के चरणों में लीन रह के वह मनुष्य सारे सुख प्राप्त कर लेता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल सफल भई सफल जात्रा ॥ आवण जाण रहे मिले साधा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥
मूलम्
सफल सफल भई सफल जात्रा ॥ आवण जाण रहे मिले साधा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जात्रा = मानव जनम की यात्रा। रहे = समाप्त हो गए। मिले = मिल के। साधा = साधु, गुरु (को)।1। रहाउ दूजा।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के दर पर पड़ने से) मानव-जीवन वाली यात्रा सफल हो जाती है। गुरु को मिल के जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ दूजा।1।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: से १ अष्टपदी महला ५ की है। महला १ की दो अष्टपदियां हैं। कुल जोड़ 3 बना।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला १ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला १ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथि नावण जाउ तीरथु नामु है ॥ तीरथु सबद बीचारु अंतरि गिआनु है ॥ गुर गिआनु साचा थानु तीरथु दस पुरब सदा दसाहरा ॥ हउ नामु हरि का सदा जाचउ देहु प्रभ धरणीधरा ॥ संसारु रोगी नामु दारू मैलु लागै सच बिना ॥ गुर वाकु निरमलु सदा चानणु नित साचु तीरथु मजना ॥१॥
मूलम्
तीरथि नावण जाउ तीरथु नामु है ॥ तीरथु सबद बीचारु अंतरि गिआनु है ॥ गुर गिआनु साचा थानु तीरथु दस पुरब सदा दसाहरा ॥ हउ नामु हरि का सदा जाचउ देहु प्रभ धरणीधरा ॥ संसारु रोगी नामु दारू मैलु लागै सच बिना ॥ गुर वाकु निरमलु सदा चानणु नित साचु तीरथु मजना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। जाउ = मैं जाता हूँ। सबद बीचारु = शब्द की विचार। अंतरि = अंदर, मन में। गिआनु = परमात्मा से जान पहचान। साचा = सदा-स्थिर रहने वाला। दस पुरब = दस पवित्र दिन (मसिआ, संगरांद, पूरनमासी, प्रकाश ऐतवार, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, दो अष्टमियां, दो चौदवीं)। दसाहरा = दस पाप हरने वाला दिन, जेठ सुदी दसमी, गंगा का जनम दिन। हउ = मैं। जाचउ = माँगता हूँ। धरणीधरा = (धरणी = धरती। धर = आसरा) हे धरती के आसरे प्रभु! साचु = सदा स्थिर रहने वाला। मजना = स्नान।1।
अर्थ: मैं (भी) तीर्थों पर स्नान करने जाता हूँ (पर मेरे वास्ते परमात्मा का) नाम (ही) तीर्थ है। गुरु के शब्द को विचार-मण्डल में टिकाना (मेरे लिए) तीर्थ है (क्योंकि इसकी इनायत से) मेरे अंदर परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनती है। सतिगुरु का दिया हुआ ये ज्ञान मेरे वास्ते सदा कायम रहने वाला तीर्थ-स्थान है, मेरे लिए दसों पवित्र दिन हैं, मेरे लिए गंगा का जन्म-दिन है। मैं तो सदा प्रभु का नाम ही माँगता हूँ और (अरदास करता हूँ-) हे धरती के आसरे प्रभु! (मुझे अपना नाम) दे। जगत (विकारों में) रोगी हुआ पड़ा है, परमात्मा का नाम (इन रोगों का) इलाज है। सदा-स्थिर प्रभु के नाम के बिना (मन को विकारों की) मैल लग जाती है। गुरु का पवित्र शब्द (मनुष्य को) सदा (आत्मिक) प्रकाश (देता है, यही) नित्य सदा कायम रहने वाला तीर्थ है, यही तीर्थ स्नान है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचि न लागै मैलु किआ मलु धोईऐ ॥ गुणहि हारु परोइ किस कउ रोईऐ ॥ वीचारि मारै तरै तारै उलटि जोनि न आवए ॥ आपि पारसु परम धिआनी साचु साचे भावए ॥ आनंदु अनदिनु हरखु साचा दूख किलविख परहरे ॥ सचु नामु पाइआ गुरि दिखाइआ मैलु नाही सच मने ॥२॥
मूलम्
साचि न लागै मैलु किआ मलु धोईऐ ॥ गुणहि हारु परोइ किस कउ रोईऐ ॥ वीचारि मारै तरै तारै उलटि जोनि न आवए ॥ आपि पारसु परम धिआनी साचु साचे भावए ॥ आनंदु अनदिनु हरखु साचा दूख किलविख परहरे ॥ सचु नामु पाइआ गुरि दिखाइआ मैलु नाही सच मने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचि = सदा-स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ने से)। किआ धोईऐ = (तीर्थों आदि पर जा के) धोने की जरूरत नहीं रहती। गुणहि हारु = गुणों का हार। परोइ = परो के। किस कउ रोईऐ = किस के आगे रोएं? किसी के आगे पुकार करने की जरूरत नहीं रहती। वीचारि = गुरु के शब्द के विचार से। उलटि = दोबारा। आवए = आता। पारसु = धातुओं को सोना बना देने वाली पथरी। परम धिआनी = बहुत ऊँची सूझ का मालिक। साचु = सदा स्थिर प्रभु का रूप। भावए = पसंद आ जाता है। अनदिनु = हर रोज। हरखु = खुशी। किलविख = पाप। परहरे = दूर कर लेता है। गुरि = गुरु ने। सच मने = सदा स्थिर नाम को जपने वाले मन को।2।
अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से मन को (विकारों की) मैल नहीं लगती, (फिर तीर्थ आदि पर जा के) कोई मैल धोने की आवश्यक्ता नहीं रहती। परमात्मा के गुणों का हार (हृदय में) परो के किसी के आगे पुकार करने की भी जरूरत नहीं रहती।
जो मनुष्य गुरु के शब्द के विचार द्वारा (अपने मन को विकारों की ओर से) मार लेता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, (और लोगों को भी) पार लंघा लेता है, वह दोबारा (के चक्कर) में नहीं आता। वह मनुष्य आप पारस बन जाता है, बड़ी ही ऊँची सूझ का मालिक हो जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभु का रूप बन जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभु को प्यारा लगने लग पड़ता है। उसके अंदर हर वक्त आनंद बना रहता है, सदा-स्थिर रहने वाली खुशी पैदा हो जाती है, वह मनुष्य अपने (सारे) दुख-पाप दूर कर लेता है।
जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर प्रभु का नाम प्राप्त कर लिया, जिसको गुरु ने (प्रभु) दिखा दिया, उसके सदा-स्थिर नाम जपते मन को कभी विकारों की मैल नहीं लगती।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
संगति मीत मिलापु पूरा नावणो ॥ गावै गावणहारु सबदि सुहावणो ॥ सालाहि साचे मंनि सतिगुरु पुंन दान दइआ मते ॥ पिर संगि भावै सहजि नावै बेणी त संगमु सत सते ॥ आराधि एकंकारु साचा नित देइ चड़ै सवाइआ ॥ गति संगि मीता संतसंगति करि नदरि मेलि मिलाइआ ॥३॥
मूलम्
संगति मीत मिलापु पूरा नावणो ॥ गावै गावणहारु सबदि सुहावणो ॥ सालाहि साचे मंनि सतिगुरु पुंन दान दइआ मते ॥ पिर संगि भावै सहजि नावै बेणी त संगमु सत सते ॥ आराधि एकंकारु साचा नित देइ चड़ै सवाइआ ॥ गति संगि मीता संतसंगति करि नदरि मेलि मिलाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत मिलापु = मित्र प्रभु का मिलाप। नावणो = नहाना, स्नान। गावणहारु = गाने योग्य प्रभु। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। सुहावणो = सुंदर जीवन वाला। सालाहि = महिमा करके। मंनि = मान के, श्रद्धा रख के। मते = मति। पिर संगि = पति प्रभु की संगति में। भावै = (प्रभु को) प्यारा लगता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बेणी संगमु = त्रिवेणी जंगम, तीन नदियों (गंगा-यमुना-सरस्वती) के मिलाप की जगह, प्रयाग (इलाहावबाद के नजदीक)। सत सते = स्वच्छ से स्वच्छ। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। देइ = देता है (जो प्रभु)। चढ़ै सवाइआ = (उसका दिया हुआ) दिनो दिन बढ़ता है। करि = कर के। मेलि = संगति में।3।
अर्थ: साधु-संगत में मित्र-प्रभु का मिलाप हो जाना - यही वह तीर्थ-स्नान है जिसमें कोई कमी नहीं रह जाती। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के गाने-योग्य प्रभु (के गुण) गाता है उसका जीवन सुंदर बन जाता है। सतिगुरु को (जीवन-दाता) मान के सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करके मनुष्य की मति दूसरों की सेवा करने वाली सब पर दया करने वाली बन जाती है। (महिमा की इनायत से मनुष्य) पति-प्रभु की संगति में रह के उसको प्यारा लगने लग जाता है आत्मिक अडोलता में (मानो आत्मिक) स्नान करता है; यही उसके लिए स्वच्छ से स्वच्छ त्रिवेणी संगम (का स्नान) है।
(हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले एक अकालपुरुख को स्मरण कर, जो सदा (सब जीवों को दातें) देता है और (जिसकी दी हुई दातें दिनो दिन) बढ़ती ही जाती हैं। मित्र-प्रभु की संगति में, गुरु-संत की संगति में आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है, प्रभु मेहर की नजर करके अपनी संगति में मिला लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहणु कहै सभु कोइ केवडु आखीऐ ॥ हउ मूरखु नीचु अजाणु समझा साखीऐ ॥ सचु गुर की साखी अम्रित भाखी तितु मनु मानिआ मेरा ॥ कूचु करहि आवहि बिखु लादे सबदि सचै गुरु मेरा ॥ आखणि तोटि न भगति भंडारी भरिपुरि रहिआ सोई ॥ नानक साचु कहै बेनंती मनु मांजै सचु सोई ॥४॥१॥
मूलम्
कहणु कहै सभु कोइ केवडु आखीऐ ॥ हउ मूरखु नीचु अजाणु समझा साखीऐ ॥ सचु गुर की साखी अम्रित भाखी तितु मनु मानिआ मेरा ॥ कूचु करहि आवहि बिखु लादे सबदि सचै गुरु मेरा ॥ आखणि तोटि न भगति भंडारी भरिपुरि रहिआ सोई ॥ नानक साचु कहै बेनंती मनु मांजै सचु सोई ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहणु = कथन। कहणु कहै = कथन कथे। सभु कोइ = हरेक जीव। केवडु = कितना बड़ा। केवडु आखीऐ = कितना बड़ा कहा जा सकता है कि परमात्मा कितना बड़ा है। हउ = मैं। समझा = मैं समझ सकता हूँ। साखीऐ = गुरु के उपदेश से। साखी = शिक्षा, उपदेश, शब्द। अंम्रित साखी = आत्मिक जीवन देने वाला उपदेश। गुरु की भाखी साखी = गुरु का उचारा हुआ शब्द। सचु साखी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द। तितु = उस शब्द में। बिखु = (माया मोह का) जहर। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। आखणि = कहने से, बयान करने से। तोटि = खात्मा, कमी। भंडारी = भंडारों में। भरिपुरि रहिआ = हर जगह मौजूद है। सोई = वह (प्रभु) ही। साचु कहै = सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करता है। कहै बेनंती = अरदासें करता है। मांजै = साफ करता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचु सोई = सदा स्थिर प्रभु ही (हर जगह दिखाई देता है)।4।
अर्थ: हरेक जीव (परमात्मा के बारे में) कथन करता है (और कहता है कि परमात्मा बहुत बड़ा है, पर) कोई नहीं बता सकता कि वह कितना बड़ा है। (मैं इतने लायक नहीं कि परमात्मा का स्वरूप बयान कर सकूँ) मैं (तो) मूर्ख हूँ, जीव स्वभाव का हूँ, अंजान हूँ, मैं तो गुरु के उपदेश से ही (कुछ) समझ सकता हूँ (अर्थात, मैं तो उतना कुछ ही मुश्किल से समझ सकता हूँ जितना गुरु अपने शब्द से समझाए)। मेरा मन तो उस गुरु-शब्द में ही पतीज गया है जो सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता है और जो आत्मिक जीवन देने वाला है।
जो जीव (माया-मोह के) जहर से लदे हुए जगत में आते हैं (गुरु के शब्द को विसार के और तीर्थ-स्नान आदि की टेक रख के, उसी जहर से लदे हुए ही जगत से) कूच कर जाते हैं, पर जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ते हैं, उनको मेरा गुरु उस जहर के भार से बचा लेता है।
(परमात्मा के गुण बेअंत हैं, गुण) बयान करने से खत्म नहीं होते, (परमात्मा की भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं, जीवों को भक्ति की दाति बाँटने से) भक्ती के खजानों में कोई कमी नहीं आती, (पर भक्ति करने से प्रभु की महिमा करने से मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि) परमात्मा ही हर जगह व्यापक है। हे नानक! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करता है, जो प्रभु-दर पर अरदासें करता है (और इस तरह) अपने मन को विकारों की मैल से साफ कर लेता है उसे हर जगह वह सदा-स्थिर प्रभु ही दिखता है (तीर्थ-स्नानों से यह आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं होती)।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला १ ॥ जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥
मूलम्
धनासरी महला १ ॥ जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। तेरे नाइ = तेरे नाम में (जुड़ के)। मनि = मन में। जीउ = हे प्रभु जी! सचो साचा = सदा ही स्थिर रहने वाला। गुर गिआनु = गुरु का दिया हुआ ज्ञान (बताता है कि)। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरजी = पैदा की है। तिनि = उसी (प्रभु) ने। गोई = नाश की है। परवाणा = सदा। हुकमि = हुक्म अनुसार। पठाइआ = भेजा हुआ। फेरि न सकै = वापस नहीं कर सकता। करि = पैदा कर के। वेखै = संभाल करता है। सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर। लेखै = लेख लिखता है। बुझाई = समझाता है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = इंद्रिय)। जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सची नाई = सदा स्थिर रहने वाली महिमा बड़ाई (करके)। नाई = बड़ाई, महिमा, उपमा, नाम की मशहूरी।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे नाम में (जुड़ के) मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में खुशी पैदा होती है।
हे भाई! परमात्मा का नाम सदा स्थिर रहने वाला है, प्रभु गुणों (का खजाना) है और धरती के जीवों के दिलोंकी जानने वाला है। गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान बताता है कि विधाता प्रभु बेअंत है, जिसने ये सृष्टि पैदा की है, वही इसका नाश करता है। जब उसके हुक्म में भेजा हुआ आमंत्रण आता है तो कोई भी जीव (उसके बुलावे को) रोक नहीं सकता। परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके आप ही संभाल करता है, आप ही हरेक जीव के सिर पर (उसके किए कर्मों के अनुसार) लेख लिखता है, खुद ही (जीव को सही जीवन-राह की) सूझ बख्शता है। मालिक-प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, जीवों की ज्ञान-इंद्रिय की उस तक पहुँच नहीं हो सकती।
हे नानक! (उसके दर पर अरदास कर, और कह: हे प्रभु!) तेरी सदा कायम रहने वाली महिमा करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है (मुझे अपनी महिमा बख्श)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥
मूलम्
तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरि = बराबर। जाइसी = चला जाएगा। निबेड़ु = फैसला, खात्मा (जनम-मरन के चक्कर का)। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर करता है। कहाए = महिमा करवाता है। अकथु = वह प्रभु जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते। सच महि = सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। हुकमी हुकमु = हुक्म के मालिक का हुक्म। साची = सदा स्थिर रहने वाली। ते = से। मनि = मन में। अंति = आखिरी समय में। सखाई = साथी। वडिआई = आदर।2
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे बराबर का और कोई नहीं है, (और जो भी जगत में) आया है, (वह यहाँ से आखिर) चला जाएगा (तू ही सदा कायम रहने वाला है)।
जिस मनुष्य की भटकना (गुरु) दूर करता है, प्रभु के हुक्म अनुसार उसके जनम-मरण के चक्कर का खात्मा हो जाता है। गुरु जिसकी भटकना दूर करता है, उससे उस परमात्मा की महिमा करवाता है जिसके गुण बयान से परे हैं।
वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में रहता है, सदा स्थिर प्रभु (उसके हृदय में) प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रजा के मालिक प्रभु का हुक्म पहचान लेता है (और समझ लेता है कि) प्रभु खुद ही पैदा करता है और खुद ही (अपने में) लीन कर लेता है।
हे प्रभु! जिस मनुष्य ने तेरी महिमा (की दाति) गुरु से प्राप्त कर ली है, तू उसके मन में आ बसता है और अंत के समय भी उसका साथी बनता है।
हे नानक! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा कोई और नहीं। (उसके दर पर अरदास कर और कह:) हे प्रभु! तेरे नाम में जुड़ने से (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥
मूलम्
तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलख = हे अदृष्ट! सिरंदिआ = हे सिरंदे! हे पैदा करने वाले! वाद = झगड़े। दुइ राह = दो रास्ते (भक्ति और माया)। हुकमि = हुक्म में। सबाए = सारे जीव। सिरि = सिर पर। सिञापै = पहचाना जाता है।3।
अर्थ: हे अदृष्य रचनहार! तू सदा स्थिर रहने वाला है और सब जीवों को पैदा करने वाला है।
एक ही विधाता (सारे जगत का) मालिक है, उसने (पैदा होना और मरना) दो रास्ते चलाए हैं। (उसीकी रजा के अनुसार जगत में) झगड़े बढ़ते हैं। दोनों रास्ते प्रभु ने ही चलाए हैं, सारे जीव उसी के हुक्म में हैं, (उसी के हुक्म अनुसार) जगत पैदा होता व मरता रहता है। (जीव नाम को भुला के माया के मोह का) जहर-रूपी भार अपने सिर पर इकट्ठा किए जाता है, (और ये नहीं समझता कि) परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी साथी मित्र नहीं बन सकता। जीव (परमात्मा के) हुक्म अनुसार (जगत में) आता है, (पर माया के मोह में फंस के उस) हुक्म को नहीं समझता। प्रभु आप ही जीवों को अपने हुक्म अनुसार (सीधे रास्ते पर डाल के) सँवारने में समर्थ है।
हे नानक! गुरु के शब्द में जुड़ने से ये पहचान हो जाती है कि जगत का मालिक सदा-स्थिर रहने वाला है और सबको पैदा करने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥
मूलम्
भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहहि = शोभते हैं। दरवारि = दरबार में, प्रभु की हजूरी में। सबदि = गुरु के शब्द से। रसाइआ = एक सुर। रसाए = एक सुर कर लेते हैं। नामि = नाम से। तिसाए = प्यासे। सबदि = शब्द से। विकाणे = प्रभु के नाम से सदके होते हैं। परसि परसिऐ = गुरु पारस को छूने से। पारसु = एक पत्थर जो सब धातुओं को सोना बना देती है ऐसा माना गया है। मनि = मन में। अमरा पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ आत्मिक मौत नहीं फटकती। आपु = स्वै भाव। वापारी = वणजारे।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा की हजूरी में शोभते हैं, क्योंकि गुरु के शब्द की इनायत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह लोग आत्मिक जीवन देने वाली वाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस वाणी के साथ एकरस कर लेते हैं। भक्त जन प्रभु के नाम के साथ जीभ को रसित कर लेते हैं, नाम में जुड़ के (नाम के वास्ते उनकी) प्यास बढ़ती है, गुरु के शब्द से वह प्रभु-नाम से कुर्बान होते हैं, (नाम की खातिर और सब शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं)।
हे प्रभु! जब (भक्तजन) तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तो वह गुरु पारस से छू के स्वयं भी पारस बन जाते हैं (और लोगों को पवित्र जीवन देने के लायक बन जाते हैं)।
जो लोग स्वैभाव दूर करते हैं उन्हें वह आत्मिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आत्मिक मौत असर नहीं कर सकती। पर ऐसा कोई विरला ही गुरु के दिए ज्ञान की विचार करने वाला सख्श होता है।
हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे सदा-स्थिर प्रभु के दर पर शोभा पाते हैं, वह (अपने सारे जीवन में) सदा-स्थिर प्रभु के नाम का ही व्यापार करते हैं।4।
[[0689]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥
मूलम्
भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूख पिआसो = भूखा प्यासा। आथि = माया। किउ जाइसा = मैं कैसे जा सकता हूँ? पूछउ = मैं पूछूंगा। जाइ = जा के। धिआसा = ध्याय सां, मैं सिमरूँगा। धिआई = मैं ध्याऊँगा। चवाई = मैं उचारूँगा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। अनदिनु = हर रोज। वखाणा = मैं उचारूँगा। करणी कार = करने योग्य काम। धुरहु = परमात्मा ने अपने हजूरी से। आपि = वह बँदा खुद। मुआ = माया के मोह से मर जाता है। मनु मारी = मन मार के। महा रसु = सबसे श्रेष्ठ स्वाद वाला। नामि = नाम से।5।
अर्थ: जब तक मैं माया के वास्ते भूखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभु के दर पर पहुँच नहीं सकता। (माया की तृष्णा दूर करने का इलाज) मैं जा के अपने गुरु से पूछता हूँ (और उसकी शिक्षा के अनुसार) मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ (नाम ही तृष्णा दूर करता है)।
गुरु की शरण पड़ कर मैं सदा-स्थिर नाम स्मरण करता हूँ सदा-स्थिर प्रभु (की महिमा) उचारता हूँ, और सदा स्थिर प्रभु से सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज उस प्रभु का नाम मुँह से बोलता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का श्रोत है और जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता।
परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हजूरी से ही नाम-स्मरण का करणीय कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को (माया की ओर से) मार के तृष्णा के प्रभाव से बच जाता है। हे नानक! उस मनुष्य को प्रभु का नाम ही मीठा व सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उसने नाम-जपने की इनायत से माया की तृष्णा (अपने अंदर से) दूर कर ली होती है।5।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी छंत महला १ ॥ पिर संगि मूठड़ीए खबरि न पाईआ जीउ ॥ मसतकि लिखिअड़ा लेखु पुरबि कमाइआ जीउ ॥ लेखु न मिटई पुरबि कमाइआ किआ जाणा किआ होसी ॥ गुणी अचारि नही रंगि राती अवगुण बहि बहि रोसी ॥ धनु जोबनु आक की छाइआ बिरधि भए दिन पुंनिआ ॥ नानक नाम बिना दोहागणि छूटी झूठि विछुंनिआ ॥१॥
मूलम्
धनासरी छंत महला १ ॥ पिर संगि मूठड़ीए खबरि न पाईआ जीउ ॥ मसतकि लिखिअड़ा लेखु पुरबि कमाइआ जीउ ॥ लेखु न मिटई पुरबि कमाइआ किआ जाणा किआ होसी ॥ गुणी अचारि नही रंगि राती अवगुण बहि बहि रोसी ॥ धनु जोबनु आक की छाइआ बिरधि भए दिन पुंनिआ ॥ नानक नाम बिना दोहागणि छूटी झूठि विछुंनिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरु = पति प्रभु। संगि = (तेरे) साथ। मूठड़ीए = हे ठगी हुई जीव-स्त्री! मसतकि = माथे पर। पुरबि = पूर्बले समय में, पहले जन्मों में। किआ जाणा = मैं क्या जानूँ? मुझे नहीं पता। गुणी = गुणों वाली। अचारि = ऊँचे आचरण वाली। रंगि = प्रभु के प्रेम रंग में। बहि बहि = बैठ के बैठ के, बार बार। रोसी = रोएगी। जोबनु = जवानी। पुंनिआ = पुग गए, समाप्त हो गए। दोहागणि = दुर्भागिनी, बुरी किस्मत वाली। छूटी = अकेली रह गई, त्यागी हुई बन गई। झूठि = झूठ में फसने के कारण, झूठे मोह में फस के।1।
अर्थ: हे (माया के मोह में) ठगी हुई जीव सि्त्रए! (तेरा) पति-प्रभु तेरे साथ है, पर तुझे इस बात की समझ नहीं आई। (तेरे भी क्या वश?) जो कुछ तूने पहले जन्मों में कर्म कमाए, उनके अनुसार तेरे माथे पर (प्रभु की रजा में) लेख ही ऐसा लिखा गया (कि तू साथ में रहते पति-प्रभु को पहचान नहीं सकती)।
पहले जन्मों में किए कर्मों के अनुसार (माथे पर लिखा) लेख (किसी से भी) मिट नहीं सकता। किसी को ये समझ नहीं आ सकती कि (उसी लेख के अनुसार हमारे आने वाले जीवन में) क्या घटित होगा। (पूर्बली कमाई के मुताबिक) जो जीव-स्त्री गुण वाली नहीं, ऊँचे आचरण वाली नहीं, प्रभु के प्रेम-रंग में रंगी हुई नहीं, वह (किए) अवगुणों के कारण बार-बार दुखी (ही) होगी।
(जीव धन-जोबन आदि के गुमान में प्रभु को भुला बैठा है, पर यह) धन और जवानी धतूरे (के पौधे) की छाया (जैसे ही) हैं, जब बुढा हो जाता है, तो उम्र के दिन आखिर समाप्त हो जाते हैं (तो ये धन और जवानी साथ तोड़ जाते हैं)।
हे नानक! परमात्मा के नाम से टूट के अभागिन जीव-स्त्री त्याग हो जाती है, झूठे मोह में फंस के प्रभु-पति से विछुड़ जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बूडी घरु घालिओ गुर कै भाइ चलो ॥ साचा नामु धिआइ पावहि सुखि महलो ॥ हरि नामु धिआए ता सुखु पाए पेईअड़ै दिन चारे ॥ निज घरि जाइ बहै सचु पाए अनदिनु नालि पिआरे ॥ विणु भगती घरि वासु न होवी सुणिअहु लोक सबाए ॥ नानक सरसी ता पिरु पाए राती साचै नाए ॥२॥
मूलम्
बूडी घरु घालिओ गुर कै भाइ चलो ॥ साचा नामु धिआइ पावहि सुखि महलो ॥ हरि नामु धिआए ता सुखु पाए पेईअड़ै दिन चारे ॥ निज घरि जाइ बहै सचु पाए अनदिनु नालि पिआरे ॥ विणु भगती घरि वासु न होवी सुणिअहु लोक सबाए ॥ नानक सरसी ता पिरु पाए राती साचै नाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूडी = हे डूबी हुई! घालिओ = बरबाद कर लिया है। भाइ = प्रेम में। चलो = चल। सुखि = आत्मिक आनंद में टिक के। महलो = महलु, परमात्मा का ठिकाना। पेईअड़ै = माईके घर में, जगत में। चारे = चार ही। जाइ = जा के। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। अनदिनु = हर रोज। लोक सबाए = हे सारे लोगो! स्रसी = स+रसी, आत्मिक रस का आनंद लेने वाली। ता = तब। नाए = नाम में। साचे नाए = सदा स्थिर नाम में।2।
अर्थ: हे (माया के मोह में) डूबी हुई! तूने अपना घर बरबाद कर लिया है, (अब तो जीवन-यात्रा में) गुरु के प्रेम में रहके चल। सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करके तू आत्मिक आनंद में टिक के परमात्मा का दर पा लेगी।
जीव-स्त्री तब ही आत्मिक आनंद पा सकती है जब परमात्मा का नाम सिमरती है (इस जगत का क्या गुमान?) जगत में तो चार दिनों का ही बसेरा है। (नाम-जपने की इनायत से जीव-स्त्री) अपने असल घर में पहुँच कर टिकी रहती है, सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को मिल जाती है, और हर रोज (भाव, सदा ही) उस प्यारे के साथ मिली रहती है।
हे सारे लोगो! सुन लो, भक्ति के बिना (मन भटकता ही रहता है) अंतरात्मे ठहराव नहीं आ सकता। हे नानक! जब जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभु के नाम-रंग में रंगी जाती है तब वह आत्मिक रस भोगने वाला प्रभु-पति का मिलाप हासिल कर लेती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिरु धन भावै ता पिर भावै नारी जीउ ॥ रंगि प्रीतम राती गुर कै सबदि वीचारी जीउ ॥ गुर सबदि वीचारी नाह पिआरी निवि निवि भगति करेई ॥ माइआ मोहु जलाए प्रीतमु रस महि रंगु करेई ॥ प्रभ साचे सेती रंगि रंगेती लाल भई मनु मारी ॥ नानक साचि वसी सोहागणि पिर सिउ प्रीति पिआरी ॥३॥
मूलम्
पिरु धन भावै ता पिर भावै नारी जीउ ॥ रंगि प्रीतम राती गुर कै सबदि वीचारी जीउ ॥ गुर सबदि वीचारी नाह पिआरी निवि निवि भगति करेई ॥ माइआ मोहु जलाए प्रीतमु रस महि रंगु करेई ॥ प्रभ साचे सेती रंगि रंगेती लाल भई मनु मारी ॥ नानक साचि वसी सोहागणि पिर सिउ प्रीति पिआरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरु धन भावै = पति स्त्री को प्यारा लगे। धन पिर भावै = स्त्री पति को प्यारी लगे।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘पिरु भावै’ और ‘पिर भावै’ में फर्क खास ध्यान रखने योग्य है)।
दर्पण-भाषार्थ
रंगि = रंग में। नाह पिआरी = पति की प्यारी। करेई = करती है। रस = चाव। रंगु = प्रेम, प्यार। सेती = साथ। लाल = सुंदर। मारि = मार के। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।
अर्थ: जब जीव-स्त्री को प्रभु-पति प्यारा लगने लग जाता है तब वह जीव-स्त्री प्रभु-पति को प्यारी लगने लग जाती है। प्रभु-प्रीतम के प्रेम-रंग में रंगी हुई वह गुरु के शब्द में जुड़ के विचारवान हो जाती है। गुरु के शब्द का विचार करने वाली वह जीव-स्त्री पति-प्रभु की प्यारी हो जाती है और झुक-झुक के (भाव, पूर्ण विनम्रता-श्रद्धा से) प्रभु की भक्ति करती है। प्रभु-प्रीतम (उसके अंदर से) माया का मोह जला देता है, और वह उसके नाम-रस में (भीग के) उसके मिलाप का आनंद लेती है।
सदा-स्थिर प्रभु के साथ (जुड़ के) उसके नाम-रंग में रंगीज के जीव-स्त्री अपने मन को मार के सुंदर जीवन वाली बन जाती है। हे नानक! सदा-स्थिर प्रभु की याद में टिकी हुई सौभाग्यवती जीव-स्त्री प्रभु-पति के साथ प्रीति करती है, पति की प्यारी हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिर घरि सोहै नारि जे पिर भावए जीउ ॥ झूठे वैण चवे कामि न आवए जीउ ॥ झूठु अलावै कामि न आवै ना पिरु देखै नैणी ॥ अवगुणिआरी कंति विसारी छूटी विधण रैणी ॥ गुर सबदु न मानै फाही फाथी सा धन महलु न पाए ॥ नानक आपे आपु पछाणै गुरमुखि सहजि समाए ॥४॥
मूलम्
पिर घरि सोहै नारि जे पिर भावए जीउ ॥ झूठे वैण चवे कामि न आवए जीउ ॥ झूठु अलावै कामि न आवै ना पिरु देखै नैणी ॥ अवगुणिआरी कंति विसारी छूटी विधण रैणी ॥ गुर सबदु न मानै फाही फाथी सा धन महलु न पाए ॥ नानक आपे आपु पछाणै गुरमुखि सहजि समाए ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिर घरि = पिर के घर में, प्रभु पति के दर पर। सोहै = शोभा पाती है। पिर भावए = पति को भाए, प्रभु पति को अच्छी लगे। वैण = वचन, बोल। चवै = बोले। कामि न आवए = काम नहीं आता। अलावै = बोलती है। नैणी = आँखों से। अवगुणिआरी = अवगुणों से भरी हुई। केति = कंत ने। विसारी = त्यागी हुई। छूटी = त्याग हो जाती है। विधण = (धणी के बिना, पति के बिना) दुखी। रैणी = जिंदगी की रात। सा धन = जीव-स्त्री। महलु = प्रभु का दर घर। आपे आपु = अपने आप को, अपने असल को। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।
अर्थ: जीव-स्त्री प्रभु-पति के दर पर तब ही शोभा पाती है जब वह प्रभु-पति को पसंद आ जाती है। (पर जो जीव-स्त्री अंदर से प्यार से वंचित हो और बाहर से प्रेम दर्शाने के लिए) झूठे बोल बोले, (उसका कोई भी बोल प्रभु-पति का प्यार जीतने के लिए) काम नहीं आ सकता। (जो जीव-स्त्री) झूठा बोल ही बोलती है (वह बोल) उसके काम नहीं आता, प्रभु-पति उसकी ओर देखता तक नहीं। उस अवगुण-भरी को पति-प्रभु ने त्याग दिया होता है, वह त्याग हो जाती है, उसकी जिंदगी की रात दुखों में गुजरती है।
जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द को हृदय में नहीं बसाती, वही माया-मोह के फंदे में फसी रहती है, वह प्रभु-पति का दर-घर नहीं पा सकती। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जो जीव-स्त्री अपने असले को पहचानती है, वह आत्मिक अडोलता में लीन रहती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन सोहागणि नारि जिनि पिरु जाणिआ जीउ ॥ नाम बिना कूड़िआरि कूड़ु कमाणिआ जीउ ॥ हरि भगति सुहावी साचे भावी भाइ भगति प्रभ राती ॥ पिरु रलीआला जोबनि बाला तिसु रावे रंगि राती ॥ गुर सबदि विगासी सहु रावासी फलु पाइआ गुणकारी ॥ नानक साचु मिलै वडिआई पिर घरि सोहै नारी ॥५॥३॥
मूलम्
धन सोहागणि नारि जिनि पिरु जाणिआ जीउ ॥ नाम बिना कूड़िआरि कूड़ु कमाणिआ जीउ ॥ हरि भगति सुहावी साचे भावी भाइ भगति प्रभ राती ॥ पिरु रलीआला जोबनि बाला तिसु रावे रंगि राती ॥ गुर सबदि विगासी सहु रावासी फलु पाइआ गुणकारी ॥ नानक साचु मिलै वडिआई पिर घरि सोहै नारी ॥५॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनु = धन्य, मुबारक, किस्मत वाली। सोहागणि = सौभाग्यनी, अच्छे भाग्यों वाली। नारि = स्त्री। जिनि = जिस (नारि) ने। कूड़िआरि = झूठ की बंजारनि। सुहावी = सुंदर। भावी = प्यारी लगी। भाइ = प्रेम में। भाइ भगति प्रभ = प्रभु के प्रेम में, प्रभु की भक्ति में। रलीआला = रलियों का घर, आनंद का श्रोत। जोबनि बाला = जवानी में जवान, चढ़ती जवानी वाला। तिसु = उस (पति) को। रंगि = रंग में, प्रेम में। विगासी = खिले हुए हृदय वाली। सहु = पति को। रावासी = मिलाप प्राप्त करती है। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला। साचु = सदा स्थिर प्रभु।5।
अर्थ: वह जीव-स्त्री मुबारक है सौभाग्यवती है जिसने प्रभु-पति से अच्छी सांझ पा ली है। पर जिसने उसकी याद भुला दी है, वह झूठ की बंजारिन है वह झूठ ही कमाती है (भाव, वह नाशवान पदार्थों की दौड़-भाग ही करती रहती है)। जो जीव-स्त्री प्रभु की भक्ति से अपना जीवन सुंदर बना लेती है, वह सदा-स्थिर प्रभु को प्यारी लगती है, वह प्रभु के प्रेम में प्रभु की भक्ति में मस्त रहती है। आनंद का श्रोत और सदा जवान रहने वाला प्रभु-पति उस प्रेम-रंग में रंगी हुई जीव-स्त्री को अपने साथ मिला लेता है।
गुरु के शब्द की इनायत से खिले हुए हृदय वाली जीव-स्त्री प्रभु-पति के मिलाप का आनंद पाती है, गुरु के शब्द में जुड़ने का (ये) फल उसको मिलता है कि उसके अंदर आत्मिक गुण पैदा हो जाते हैं।
हे नानक! उसको सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है, उसको (प्रभु दर से) आदर मिलता है, वह प्रभु-पति के दर पर शोभा पाती है।5।3।
[[0690]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी छंत महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी छंत महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ क्रिपा करे ता नामु धिआईऐ जीउ ॥ सतिगुरु मिलै सुभाइ सहजि गुण गाईऐ जीउ ॥ गुण गाइ विगसै सदा अनदिनु जा आपि साचे भावए ॥ अहंकारु हउमै तजै माइआ सहजि नामि समावए ॥ आपि करता करे सोई आपि देइ त पाईऐ ॥ हरि जीउ क्रिपा करे ता नामु धिआईऐ जीउ ॥१॥
मूलम्
हरि जीउ क्रिपा करे ता नामु धिआईऐ जीउ ॥ सतिगुरु मिलै सुभाइ सहजि गुण गाईऐ जीउ ॥ गुण गाइ विगसै सदा अनदिनु जा आपि साचे भावए ॥ अहंकारु हउमै तजै माइआ सहजि नामि समावए ॥ आपि करता करे सोई आपि देइ त पाईऐ ॥ हरि जीउ क्रिपा करे ता नामु धिआईऐ जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। सुभाइ = प्रेम में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गाईऐ = गा सकते हैं। विगसै = पुल्कित रहता है, खिला रहता है। गाइ = गा के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचे भावए = सदा कायम रहने वाले परमात्मा को अच्छा लगे। भावए = अच्छा लगे। नामि = नाम में। समावए = समा जाता है। देइ = देता है। त = तब, तो।1।
अर्थ: हे भाई! अगर परमात्मा खुद कृपा करे, तो उसका नाम स्मरण किया जा सकता है। अगर गुरु मिल जाए, तो (प्रभु के) प्रेम में (लीन हो के) आत्मिक अडोलता में (टिक के) परमात्मा के गुण गा सकते हैं। (परमात्मा के) गुण गा के (मनुष्य) सदा हर वक्त खिला रहता है, (पर ये तब ही हो सकता है) जब सदा कायम रहने वाले परमात्मा को स्वयं (ये मेहर करनी) पसंद आए। (गुणगान की इनायत से मनुष्य) अहंकार, अहम्, माया (का मोह) त्याग देता है, और आत्मिक अडोलता में हरि-नाम में लीन हो जाता है। (नाम-जपने की दाति) वह परमात्मा खुद ही देता है, जब वह (ये दाति) देता है तब ही मिलती है। हे भाई! परमात्मा कृपा करे, तो उसका नाम स्मरण किया जा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंदरि साचा नेहु पूरे सतिगुरै जीउ ॥ हउ तिसु सेवी दिनु राति मै कदे न वीसरै जीउ ॥ कदे न विसारी अनदिनु सम्हारी जा नामु लई ता जीवा ॥ स्रवणी सुणी त इहु मनु त्रिपतै गुरमुखि अम्रितु पीवा ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मेले अनदिनु बिबेक बुधि बिचरै ॥ अंदरि साचा नेहु पूरे सतिगुरै ॥२॥
मूलम्
अंदरि साचा नेहु पूरे सतिगुरै जीउ ॥ हउ तिसु सेवी दिनु राति मै कदे न वीसरै जीउ ॥ कदे न विसारी अनदिनु सम्हारी जा नामु लई ता जीवा ॥ स्रवणी सुणी त इहु मनु त्रिपतै गुरमुखि अम्रितु पीवा ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मेले अनदिनु बिबेक बुधि बिचरै ॥ अंदरि साचा नेहु पूरे सतिगुरै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। नेहु = प्रेम। पूरे सतिगुरै = पूरे सतिगुरु के माध्यम से। हउ = मैं। तिसु = उस (प्रभु) को। सेवी = मैं सेवता हूँ। वीसरै = भूलता। मैं = मुझे। विसारी = मैं भूलाता। समारी = मैं संभालता। लई = लूँ। जीवा = जीऊँ। स्रवणी = श्रवणी, कानों से। सुणी = सुनी। त्रिपतै = तृप्त हो जाता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। पीवा = पीऊँ। बिबेक = (अच्छे बुरे की) परख। बिचरै = विचरती है।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु के द्वारा (मेरे) मन में (परमात्मा से) सदा-स्थिर रहने वाला प्यार बन गया है। (गुरु की कृपा से) मैं उस (प्रभु) को दिन-रात स्मरण करता रहता हूँ, मुझे वह कभी नहीं भूलता। मैं उसे कभी भी भुलाता नहीं, मैं हर वक्त (उस प्रभु को) हृदय में बसाए रखता हूँ। जब मैं उसका नाम जपता हूँ, तब मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है। जब मैं अपने कानों से (हरि नाम) सुनता हूँ तब (मेरा) ये मन (माया की ओर से) अघा जाता है। हे भाई! मैं गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता रहता हूँ (जब प्रभु मनुष्य पर मेहर की) निगाह करता है, तब (उसको) गुरु मिलाता है (तब हर समय उस मनुष्य के अंदर) अच्छे-बुरे की परख कर सकने वाली अक्ल काम करती है। हे भाई! पूरे गुरु की कृपा से मेरे अंदर (प्रभु से) सदा कायम रहने वाला प्यार बन गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतसंगति मिलै वडभागि ता हरि रसु आवए जीउ ॥ अनदिनु रहै लिव लाइ त सहजि समावए जीउ ॥ सहजि समावै ता हरि मनि भावै सदा अतीतु बैरागी ॥ हलति पलति सोभा जग अंतरि राम नामि लिव लागी ॥ हरख सोग दुहा ते मुकता जो प्रभु करे सु भावए ॥ सतसंगति मिलै वडभागि ता हरि रसु आवए जीउ ॥३॥
मूलम्
सतसंगति मिलै वडभागि ता हरि रसु आवए जीउ ॥ अनदिनु रहै लिव लाइ त सहजि समावए जीउ ॥ सहजि समावै ता हरि मनि भावै सदा अतीतु बैरागी ॥ हलति पलति सोभा जग अंतरि राम नामि लिव लागी ॥ हरख सोग दुहा ते मुकता जो प्रभु करे सु भावए ॥ सतसंगति मिलै वडभागि ता हरि रसु आवए जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। रसु = स्वाद। आवए = आता है। अनदिनु = हर रोज, हर समय। लिव = लगन। समावए = समावै। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है। अतीतु = विरक्त, माया के मोह से पार लंघा हुआ। बैरागी = निर्मोह। हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। अंतरि = में। नामि = नाम में। हरख = खुशी। सोग = ग़म। ते = से। मुकता = स्वतंत्र। भावए = भाए।3।
अर्थ: (जिस मनुष्य को) बड़ी किस्मत से साधु-संगत प्राप्त हो जाती है, तो उसको परमात्मा के नाम का स्वाद आने लग जाता है, वह हर वक्त (प्रभु की याद में) तवज्जो जोड़े रखता है, आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। जब मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन हो जाता है, तब परमात्मा को प्यारा लगने लग जाता है, तब माया के मोह से परे लांघ जाता है, निर्लिप हो जाता है। इस लोक में, परलोक में, सारे संसार में उसकी शोभा होने लग जाती है, परमात्मा के नाम में उसकी लगन लगी रहती है। वह मनुष्य खुशी-ग़मी दोनों से स्वतंत्र हो जाता है, जो कुछ परमात्मा करता है वह उसको अच्छा लगने लगता है। हे भाई! जब बड़ी किस्मत से किसी मनुष्य को साधु-संगत प्राप्त होती है तब उसको परमात्मा के नाम का रस आने लग पड़ता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूजै भाइ दुखु होइ मनमुख जमि जोहिआ जीउ ॥ हाइ हाइ करे दिनु राति माइआ दुखि मोहिआ जीउ ॥ माइआ दुखि मोहिआ हउमै रोहिआ मेरी मेरी करत विहावए ॥ जो प्रभु देइ तिसु चेतै नाही अंति गइआ पछुतावए ॥ बिनु नावै को साथि न चालै पुत्र कलत्र माइआ धोहिआ ॥ दूजै भाइ दुखु होइ मनमुखि जमि जोहिआ जीउ ॥४॥
मूलम्
दूजै भाइ दुखु होइ मनमुख जमि जोहिआ जीउ ॥ हाइ हाइ करे दिनु राति माइआ दुखि मोहिआ जीउ ॥ माइआ दुखि मोहिआ हउमै रोहिआ मेरी मेरी करत विहावए ॥ जो प्रभु देइ तिसु चेतै नाही अंति गइआ पछुतावए ॥ बिनु नावै को साथि न चालै पुत्र कलत्र माइआ धोहिआ ॥ दूजै भाइ दुखु होइ मनमुखि जमि जोहिआ जीउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) और ही प्यार में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। जमि = जम ने, मौत ने, आत्मिक मौत ने। जोहिआ = ताक में रखा, निगाह में रखा। दुखि = दुख में। मोहिआ = फसा हुआ। रोहिआ = रोह में रहता है, क्रोध वान। करत = करते हुए। विहावए = बीत जाती है। देइ = देता है। तिसु = उस (प्रभु) को। कलत्र = स्त्री। धोहिआ = छल, ध्रोह, ठगी।4।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को आत्मिक मौत ने सदा अपनी निगाह तले रखा हुआ है, माया के मोह के कारण उसे सदा दुख व्यापता है। वह दिन रात ‘हाय हाय’ करता रहता है, माया के दुख में फंसा रहता है। वह सदा माया के दुख में ग्रसा हुआ अहंम् के कारण क्रोधातुर भी रहता है। उसकी सारी उम्र ‘मेरी माया मेरी माया’ करते हुए बीत जाती है। जो परमात्मा (उसे सब कुछ) दे रहा है उस परमात्मा को वह कभी याद नहीं करता, आखिर में जब यहाँ से चलता है तो पछताता है। पुत्र, स्त्री (आदि) हरि-नाम के बिना कोई (मनुष्य के) साथ नहीं जाता, दुनिया की माया उसे छल लेती है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को आत्मिक मौत ग्रसे रखती है, माया के कारण उस को सदा दुख व्यापता है।4
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा लेहु मिलाइ महलु हरि पाइआ जीउ ॥ सदा रहै कर जोड़ि प्रभु मनि भाइआ जीउ ॥ प्रभु मनि भावै ता हुकमि समावै हुकमु मंनि सुखु पाइआ ॥ अनदिनु जपत रहै दिनु राती सहजे नामु धिआइआ ॥ नामो नामु मिली वडिआई नानक नामु मनि भावए ॥ करि किरपा लेहु मिलाइ महलु हरि पावए जीउ ॥५॥१॥
मूलम्
करि किरपा लेहु मिलाइ महलु हरि पाइआ जीउ ॥ सदा रहै कर जोड़ि प्रभु मनि भाइआ जीउ ॥ प्रभु मनि भावै ता हुकमि समावै हुकमु मंनि सुखु पाइआ ॥ अनदिनु जपत रहै दिनु राती सहजे नामु धिआइआ ॥ नामो नामु मिली वडिआई नानक नामु मनि भावए ॥ करि किरपा लेहु मिलाइ महलु हरि पावए जीउ ॥५॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। लेहु मिलाइ = (तू) मिला लेता है। महलु = हजूरी, (चरणों में) जगह। हरि = हे हरि! कर = (बहुवचन) दोनों हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मनि = (उसके) मन में। भाइआ = भाया, प्यारा लगा। भावै = प्यारा लगता है। ता = तब। हुकमि = हुक्म में। मंनि = मान के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। नामो नामु = नाम ही नाम।5।
अर्थ: हे हरि! जिस मनुष्य को तू (अपनी) कृपा करके (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, उसको तेरी हजूरी प्राप्त हो जाती है। (हे भाई! वह मनुष्य प्रभु की हजूरी में) सदा हाथ जोड़ के टिका रहता है, उसको (अपने) मन में प्रभु प्यारा लगता है। जब मनुष्य को अपने मन में प्रभु प्यारा लगने लगता है, तब वह प्रभु की रजा में टिक जाता है, और हुक्म मान के आत्मिक आनंद लेता है। वह मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा का नाम जपता रहता है, आत्मिक अडोलता में टिक के वह हरि-नाम स्मरण करता रहता है। हे नानक! परमात्मा का (हर वक्त) नाम-स्मरण करने से (ही) उसको बड़ाई मिली रहती है, प्रभु का नाम (उसको अपने) मन में प्यारा लगता है। हे हरि! (अपनी) कृपा करके (जिस मनुष्य को तू अपने चरणों में) जोड़ लेता है, उसको तेरी हजूरी प्राप्त हो जाती है।5।1।
[[0691]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर दीन दइआल जिसु संगि हरि गावीऐ जीउ ॥ अम्रितु हरि का नामु साधसंगि रावीऐ जीउ ॥ भजु संगि साधू इकु अराधू जनम मरन दुख नासए ॥ धुरि करमु लिखिआ साचु सिखिआ कटी जम की फासए ॥ भै भरम नाठे छुटी गाठे जम पंथि मूलि न आवीऐ ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा सदा हरि गुण गावीऐ ॥१॥
मूलम्
सतिगुर दीन दइआल जिसु संगि हरि गावीऐ जीउ ॥ अम्रितु हरि का नामु साधसंगि रावीऐ जीउ ॥ भजु संगि साधू इकु अराधू जनम मरन दुख नासए ॥ धुरि करमु लिखिआ साचु सिखिआ कटी जम की फासए ॥ भै भरम नाठे छुटी गाठे जम पंथि मूलि न आवीऐ ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा सदा हरि गुण गावीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दइआल = दीनों पर दया करने वाला। जिसु संगि = जिस (गुरु) की संगति में। गावीऐ = गाया जा सकता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। साध संगि = गुरु की संगति में। रावीऐ = स्मरण किया जा सकता है। भजु = जा, भाग। अराधू = आराध, स्मरण कर। नासए = नाश हो जाता है। धुरि = धुर दरगाह से। करमु = बख्शिश। साचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। सिखिआ = शिक्षा ले ली। फासए = फाही, फंदा। भै = डर। गाठे = गाँठ। पंथि = रास्ते पर। मूलि = बिल्कुल। बिनवंति = विनती करता है। धारि = कर।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! वह गुरु दीनों पर दया करने वाला है जिसकी संगति में (रह कर) परमात्मा की महिमा की जा सकती है। गुरु की संगति में आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम स्मरण किया जा सकता है। हे भाई! गुरु की संगति में जा, (वहाँ) एक प्रभु का स्मरण कर, (नाम-जपने की इनायत से) जनम-मरण के दुख दूर हो जाते हैं। (जिस मनुष्य के माथे पर) धुर-दरगाह से (स्मरण करने के लिए) बख्शिश (का लेख) लिखा होता है, वही सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की शिक्षा ग्रहण करता है, उसका आत्मिक मौत का फंदा काटा जाता है। हे भाई! नाम-जपने की इनायत से सारे डर सारे भ्रम नाश हो जाते, (मन मे बँधी हुई) गाँठ खुल जाती है, (फिर वह) आत्मिक मौत सहेड़ने वाले रास्ते पर बिल्कुल नहीं चलता। नानक विनती करता है: हे प्रभु! मेहर कर कि हम जीव सदा तेरी महिमा करते रहें।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निधरिआ धर एकु नामु निरंजनो जीउ ॥ तू दाता दातारु सरब दुख भंजनो जीउ ॥ दुख हरत करता सुखह सुआमी सरणि साधू आइआ ॥ संसारु सागरु महा बिखड़ा पल एक माहि तराइआ ॥ पूरि रहिआ सरब थाई गुर गिआनु नेत्री अंजनो ॥ बिनवंति नानक सदा सिमरी सरब दुख भै भंजनो ॥२॥
मूलम्
निधरिआ धर एकु नामु निरंजनो जीउ ॥ तू दाता दातारु सरब दुख भंजनो जीउ ॥ दुख हरत करता सुखह सुआमी सरणि साधू आइआ ॥ संसारु सागरु महा बिखड़ा पल एक माहि तराइआ ॥ पूरि रहिआ सरब थाई गुर गिआनु नेत्री अंजनो ॥ बिनवंति नानक सदा सिमरी सरब दुख भै भंजनो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धर = आसरा। निधरिआ धर = निआसरों का आसरा। एकु नामु = सिर्फ हरि नाम ही। निरंजनो = निरंजन, माया की कालिख से रहित (अंजन = कालख)। भंजनो = नाश करने वाला। हरत = दूर करने वाला। करता = कर्तार, पैदा करने वाला। सुखहु सुआमी = हे सुखों के स्वामी! साधू = गुरु। सागरु = समुंदर। बिखड़ा = मुश्किलों से भरा हुआ। गिआनु = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। नेत्री = आँखों में। अंजनो = सुरमा। सिमरी = स्मरण करूँ।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू माया की कालिख से रहित है, तेरा नाम ही निआसरों का आसरा है। तू सब जीवों को दातें देने वाला है, तू सबके दुख नाश करने वाला है। हे (सब जीवों के) दुख नाश करने वाले! सबको पैदा करने वाले! , सारे सुखों के मालिक प्रभु! जो मनुष्य गुरु की शरण आता है, उसको तू इस बड़े मुश्किल संसार-समुंदर से एक छिन में पार लंघा देता है। हे प्रभु! गुरु का दिया हुआ ज्ञान-अंजन जिस मनुष्य की आँखों में पड़ता है, उसको तू सब जगहों में दिखता है। नानक विनती करता है: हे सारे दुखों का नाश करने वाले! (मेहर कर) मैं सदा तेरा नाम स्मरण करता रहूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि लीए लड़ि लाइ किरपा धारीआ जीउ ॥ मोहि निरगुणु नीचु अनाथु प्रभ अगम अपारीआ जीउ ॥ दइआल सदा क्रिपाल सुआमी नीच थापणहारिआ ॥ जीअ जंत सभि वसि तेरै सगल तेरी सारिआ ॥ आपि करता आपि भुगता आपि सगल बीचारीआ ॥ बिनवंत नानक गुण गाइ जीवा हरि जपु जपउ बनवारीआ ॥३॥
मूलम्
आपि लीए लड़ि लाइ किरपा धारीआ जीउ ॥ मोहि निरगुणु नीचु अनाथु प्रभ अगम अपारीआ जीउ ॥ दइआल सदा क्रिपाल सुआमी नीच थापणहारिआ ॥ जीअ जंत सभि वसि तेरै सगल तेरी सारिआ ॥ आपि करता आपि भुगता आपि सगल बीचारीआ ॥ बिनवंत नानक गुण गाइ जीवा हरि जपु जपउ बनवारीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। मोहि = मैं। नीचु = नीच जीवन वाला। अनाथु = निआसरा। प्रभ = हे प्रभु! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अपारीआ = हे बेअंत! सुआमी = हे स्वामी! थापणहारिआ = हे (ऊँची जगह पर) स्थापित करने वाले! जीअ = जीव। सभि = सारे। वसि = वश में। सारिआ = संभाल में। भुगता = (पदार्थों को) भोगने वाला। बीचारीआ = विचार करने वाला। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करूँ। जपउ = जपूँ। बनवारीआ = हे प्रभु!।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! जिस पर तू मेहर (की निगाह) करता है, उनको अपने लड़ लगा लेता है। मैं गुणहीन, नीच और अनाथ (भी तेरी शरण आया हूँ, मेरे पर भी मेहर कर)। हे दया के घर! हे कृपा के घर मालिक! हे नीचों को ऊँचे बनाने वाले प्रभु! सारे जीव तेरे वश में हैं, सारे तेरी संभाल में हैं। तू स्वयं (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, (सब में व्यापक हो के) तू खुद (सारे पदार्थ) भोगने वाला है, तू आप सारे जीवों के लिए विचारें करने वाला है। नानक (तेरे दर पर) विनती करता है: हे प्रभु! (मेहर कर) मैं तेरे गुण गा के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा दरसु अपारु नामु अमोलई जीउ ॥ निति जपहि तेरे दास पुरख अतोलई जीउ ॥ संत रसन वूठा आपि तूठा हरि रसहि सेई मातिआ ॥ गुर चरन लागे महा भागे सदा अनदिनु जागिआ ॥ सद सदा सिम्रतब्य सुआमी सासि सासि गुण बोलई ॥ बिनवंति नानक धूरि साधू नामु प्रभू अमोलई ॥४॥१॥
मूलम्
तेरा दरसु अपारु नामु अमोलई जीउ ॥ निति जपहि तेरे दास पुरख अतोलई जीउ ॥ संत रसन वूठा आपि तूठा हरि रसहि सेई मातिआ ॥ गुर चरन लागे महा भागे सदा अनदिनु जागिआ ॥ सद सदा सिम्रतब्य सुआमी सासि सासि गुण बोलई ॥ बिनवंति नानक धूरि साधू नामु प्रभू अमोलई ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपारु = बेअंत। अमोलई = अमूल्य, जो किसी दुनियावी मूल्य से ना मिल सके। निति = सदा। जपहि = जपते हैं। पुरख = हे सर्व व्यापक! अतोलई = जो तोला ना जा सके। रसन = जीभ। वूठा = आ बसा। तूठा = प्रसन्न हुआ। रसहि = रस में। सेई = वही संत जन। मातिआ = मस्त। महा भागे = बड़े भाग्यों वाले। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागिआ = सचेत रहते हैं। सिंम्रतब्य = स्मृतव्य, जिसका स्मरण करना चाहिए। सिंम्रतब्य स्वामी = हे स्मरण योग्य मालिक! सासि सासि = हरेक सांस के साथ। बोलई = बोलता है। साधू = गुरु। प्रभू = हे प्रभु!।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू बेअंत है! तेरा नाम किसी (दुनियावी) कीमत से नहीं मिल सकता। हे ना तोले जा सकने वाले सर्व-व्यापक प्रभु! तेरे दास सदा तेरा नाम जपते रहते हैं। हे प्रभु! संतों पर तू प्रसन्न होता है, और उनकी जीभ पर आ बसता है, वे तेरे नाम के रस में मस्त रहते हैं। जो मनुष्य गुरु के चरणों में आ लगते हैं, वे भाग्यशाली हो जाते हैं, वे सदा हर वक्त (नाम-जपने की इनायत से माया के हमलों से) सचेत रहते हैं।
नानक विनती करता है: हे स्मरणयोग्य मालिक! हे प्रभु! मुझे उस गुरु की चरण-धूल दे, जो तेरा अमूल्य नाम (सदा जपता है), जो सदा ही हरेक सांस के साथ तेरे गुण उचारता रहता है।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु धनासरी बाणी भगत कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु धनासरी बाणी भगत कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनक सनंद महेस समानां ॥ सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥
मूलम्
सनक सनंद महेस समानां ॥ सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सनक सनंद = ब्रहमा के पुत्र (सनक, सनंद, सनातन, सनत कुमार)। महेस = शिव। समानां = जैसों ने। सेख नागि = शेश नाग ने (शेश नाग, सांपों का राजा, इसके एक हजार फन माने गए हैं; इनसे ये अपने ईष्ट विष्णु भगवान पर छाया करता है, हरेक जीभ से नित्य नया नाम भगवान के उचारता है)। मरमु = भेद।1।
अर्थ: हे प्रभु! (ब्रहमा के पुत्रों) सनक, सनंद और शिव जी जैसों ने तेरा भेद नहीं पाया; (विष्णु के भक्त) शेशनाग ने तेरे (दिल का) राज़ नहीं समझा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। बसाई = मैं बसाता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: मैं संतों की संगति में रह के परमात्मा को अपने हृदय में बसाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥ सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥
मूलम्
हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥ सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरि = जैसे ने। गरुड़ = विष्णु भगवान की सवारी, सारे पक्षियों का राजा। सुर पति = देवताओं का राजा इन्द्र। नरपति = मनुष्यों का राजा।2।
अर्थ: (श्री राम चंद्र जी के सेवक) हनूमान जैसों ने, (विष्णु के सेवक और पक्षियों के राजे) गरुड़ जैसों ने, देवताओं के राजे इन्द्र ने, बड़े-बड़े राजाओं ने भी तेरे गुणों का अंत नहीं पाया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥ कमलापति कवला नही जानां ॥३॥
मूलम्
चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥ कमलापति कवला नही जानां ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कमलापति = लक्ष्मी का पति, विष्णु। कवला = लक्ष्मी।3।
अर्थ: चार वेद, (अठारह) स्मृतियों, (अठारह) पुराणों- (इनके कर्ता ब्रहमा, मनू और ऋषियों) ने तुझे नहीं समझा, विष्णु और लक्ष्मी ने भी तेरा अंत नहीं पाया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर सो भरमै नाही ॥ पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥
मूलम्
कहि कबीर सो भरमै नाही ॥ पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। भरमै नाही = भटकता नहीं। पग लगि = चरणों में लग के। सरनांही = शरण में।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (बाकी सारी सृष्टि के लोग प्रभु को छोड़ के और ही तरफ भटकते रहे) एक वह मनुष्य नहीं भटकता, जो (संतों की) चरणों में लग के परमात्मा की शरण में टिका रहता है।4।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: अन्य-पूजा छोड़ के एक परमात्मा का भजन करो। ब्रहमा, शिव, विष्णु, इन्द्र आदि और उनके सेवक परमात्मा का अंत नहीं पा सके।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥ कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥
मूलम्
दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥ कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिन ते = दिनों से। आव = आयु। छीजै = कमजोर होता जा रहा है। अजेही = शिकारी। बधिक = शिकारी। कहहु = बताओ। कवन बिधि कीजै = कौन सी विधी इस्तेमाल की जाए? कौन सा तरीका बरता जाए? कोई ढंग कामयाब नहीं हो सकता।1।
अर्थ: दिनों से पहर, पहर से घड़ियां (गिन लो, इस तरह थोड़ा-थोड़ा समय करके) उम्र कम होती जाती है, और शरीर कमजोर होता जाता है, (सब जीवों के सिर पर) काल-रूप शिकारी ऐसे फिरता है जैसे (हिरन आदि का शिकार करने वाले) शिकारी। बताओ, इस शिकारी से बचने के लिए कौन सा यत्न किया जा सकता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो दिनु आवन लागा ॥ मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो दिनु आवन लागा ॥ मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो दिनु = वह दिन (जब काल अहेरी ने हमें भी आ पकड़ना है)। सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी। का का = किस का? कोऊ है का का = कोई किस का है? कोई किसी का नहीं बन सकता।1। रहाउ।
अर्थ: (हरेक जीव के सर पर) वह दिन आता जाता है (जब काल-शिकारी आ पकड़ता है); माता, पिता, पुत्र, पत्नी -इनमें से कोई (उस काल के आगे) किसी की सहायता नहीं कर सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥ लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥
मूलम्
जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥ लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोति = आत्मा, जिंद। बरतै = मौजूद है। आपा = अपना असल। जीवन पद कारन = और-और जीने के लिए, लंबी उम्र के लिए। लोचन = आँखें।2।
अर्थ: जब तक शरीर में आत्मा मौजूद रहती है, पशु- (मनुष्य) अपनी अस्लियत को नहीं समझता, और-और ही जीने की लालच करता रहता है, इसे आँखों से ये नहीं दिखता (कि काल-अहेरी से छुटकारा नहीं हो सकेगा)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥
मूलम्
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! सुनो, मन के (ये) भुलेखे दूर कर दो (कि सदा यहीं बैठे रहना है)। हे जीव! (और लालसाएं छोड़ के) सिर्फ प्रभु का नाम स्मरण करो, और उस एक की शरण आओ।3।2।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: मौत नजदीक आ रही है, उम्र धीरे-धीरे घटती जा रही है। भजन करो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥ जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥
मूलम्
जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥ जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानै = सांझ रखता है। ता कउ = उस वास्ते। काहो अचरजु = कौन सा अनोखा काम? कोई बड़ी अनोखी बात नहीं। पैसि = पड़ के। ढुरि = ढल के, नर्म हो के, स्वै भाव गवा के।1।
अर्थ: जैसे पानी, पानी में मिल के (दोबारा) अलग नहीं हो सकता, वैसे (कबीर) जुलाहा (भी) स्वै भाव मिटा के परमात्मा में मिल गया है। इस में कोई अनोखी बात नहीं है, जो भी मनुष्य प्रभु-प्रेम और प्रभु-भक्ति से सांझ बनाता है (उसका प्रभु के साथ एक हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥ जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥ जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भोरा = भोला। तउ = तो। तजहि = त्याग दे। कबीरा = हे कबीर! निहोरा = अहसान, उपकार।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (लोगों के लिए तो) मैं दिमाग का पागल ही सही (भाव, लोग मुझे भले ही मूर्ख कहें कि मैं काशी छोड़ के मगहर आ गया हूँ)। (पर,) हे कबीर! अगर तू काशी में (रहते हुए) शरीर त्यागे (और मुक्ति मिल जाए) तो इसमें परमात्मा का क्या उपकार समझा जाएगा? क्योंकि काशी में तो वैसे ही इन लोगों के ख्याल के मुताबिक मरने पर मुक्ति मिल जाती है, तो फिर स्मरण करने से क्या लाभ?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥ किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥
मूलम्
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥ किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे लोई = हे लोगो! हे जगत! ऊखरु = बंजर। मगहरु = एक जगह का नाम, ये गाँव उक्तर प्रदेश में जिला बस्ती में है। हिंदू लोगों का ख्याल है कि इस जगह को शिव जी ने श्राप दिया था, इसलिए यहाँ मरने से मुक्ति नहीं मिल सकती।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘रे’ पुलिंग है, इसका स्त्रीलिंग ‘री’ है। सो कबीर जी यहाँ अपनी पत्नी ‘लोई’ के लिए नहीं कह रहे।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (पर) कबीर कहता है: हे लोगो! सुनो, कोई मनुष्य किसी भुलेखे में ना पड़ जाए (कि काशी में मुक्ति मिलती है, और मगहर में नहीं मिलती), अगर परमात्मा (का नाम) हृदय में हो, तो काशी क्या और कलराठा मगहर क्या? (दोनों तरफ प्रभु में लीन हुआ जा सकता है)।2।3।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु से मिलाप का तरीका प्रभु का नाम जपना ही है, किसी खास तीर्थ-यात्रा से इसका संबंध नहीं है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥ ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥
मूलम्
इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥ ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इंद्र लोक = स्वर्ग। सिव लोकहि = शिव पुरी में। जैबो = (अगर मनुष्य पहुँच) जाएगा। ओछे = हल्के किस्म के (काम)। करि = कर के। बाहुरि = दोबारा, फिर (शब्द ‘बाहुरि’ और ‘बाहरि’ में फर्क है इसे समझें)। ऐबो = आइबो, आ जाएगा।1।
अर्थ: अगर मनुष्य तप आदि के हल्के किस्म के काम करके इन्द्र-पुरी व शिव-पुरी आदि में भी पहुँच जाएगा तो भी वहीं दोबारा वापस आएगा (भाव, शास्त्रों के अपने ही लिखे अनुसार इन जगहों पर भी सदा के लिए टिका नहीं रहा जा सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥ राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥ राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागउ = मैं मांगूँ। थिरु = सदा कायम रहने वाली, स्थिर। माही = में।1। रहाउ।
अर्थ: (मैं अपने प्रभु से ‘नाम’ के बिना और) क्या माँगू? कोई चीज सदा कायम रहने वाली नहीं (दिखाई देती)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोभा राज बिभै बडिआई ॥ अंति न काहू संग सहाई ॥२॥
मूलम्
सोभा राज बिभै बडिआई ॥ अंति न काहू संग सहाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिभै = (संस्कृत: विभय) ऐश्वर्य, वैभव। अंति = आखिरी समय। सहाई = साथी।2।
अर्थ: जगत में नाम-शोहरत, राज, ऐश्वर्य, बड़ाई - इनमें से भी कोई आखिरी समय में संगी-साथी नहीं बन सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥ इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥
मूलम्
पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥ इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। कहु = बताओ। कवनै = किस ने? ते = से।3।
अर्थ: पुत्र, पत्नी, धन-पदार्थ - बताओ, (हे भाई!) इनसे कभी किसी ने सुख पाया है?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत कबीर अवर नही कामा ॥ हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥
मूलम्
कहत कबीर अवर नही कामा ॥ हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवर = और (काम)। नही कामा = किसी मतलब के नहीं, कोई लाभ नहीं। हमरै मन = मेरे मन को।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (प्रभु के नाम से टूट के) और कोई काम किसी अर्थ के नहीं। मेरे मन को तो परमात्मा का नाम ही (सदा कायम रहने वाला) धन प्रतीत होता है।4।4।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा का भजन ही ऐक ऐसा धन है जो सदा साथ निभता है। स्वर्ग, शिव पुरा, राज, बड़ाई, संबन्धी- इनमें से कोई भी सदा का साथी नहीं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥ राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥ राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई = हे भाई! बूडते = (संसार समुंदर की विकारों की लहरों में) डूबते हैं। अधिकाई = बहुत जीव।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रभु का स्मरण कर, प्रभु का स्मरण कर। सदा राम का स्मरण कर। प्रभु का स्मरण किए बिना बहुत सारे जीव (विकारों में) डूब जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥ इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥
मूलम्
बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥ इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनिता = पत्नी। सुत = पुत्र। ग्रेह = गृह, घर। संपति = दौलत। सुखदाई = सुख देने वाले। काल = मौत। अवध = अवधि, आखिरी समय, आखिरी सीमा।1।
अर्थ: पत्नी, पुत्र, शरीर, घर, दौलत - ये सारे सुख देने वाले प्रतीत होते हैं, पर जब मौत रूपी तेरा आखिरी समय आया, तो इनमें से कोई भी तेरा अपना नहीं रह जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥ तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥
मूलम्
अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥ तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजामल = भागवत की कथा है कि एक ब्राहमण अजामल का कन्नौज की रहने वाली एक वेश्या के साथ प्रेम हो गया, सारी उम्र विकारों में गुजारता रहा। पर अपने एक पुत्र का नाम ‘नारायण’ रखने के कारण धीरे-धीरे उसकी लगन नारायण-प्रभु के साथ बनती गई, और इस तरह विकारों की ओर उपराम हो के भक्ती की ओर लग गया। गज = हाथी; भागवत की एक कथा है कि श्राप के कारण एक गंधर्व हाथी की जूनि आ पड़ा। सरोवर में पीने गए को एक तंदूए ने पकड़ लिया। परमात्मा की आराधना ने उसे इस बिपता से बचाया। गनिका = एक वेश्या, इसको एक महात्मा विकारी जीवन से बचाने के लिए ‘राम, राम’ कहने वाला एक तोता दे गए। उस तोते की संगति में इसको राम स्मरण करने की लगन लग गई, और इस तरह ये वेश्या विकारों से हट गई। पतित करम = विकार। तेऊ = ये भी।2।
अर्थ: अजामल, गज, गनिका -ये विकार करते रहे, पर जब परमात्मा का नाम इन्होंने स्मरण किया, तो ये भी (इन विकारों में से) पार लांघ गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥ राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥
मूलम्
सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥ राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूकर = सूअर। कूकर = कुत्ते। भ्रमे = भटकते रहे। तऊ = तो भी। बिखु = जहर।3।
अर्थ: (हे सज्जन!) तू सूअर, कुत्ते आदि की जूनियों में भटकता रहा, फिर भी तुझे (अब) शर्म नहीं आई (कि तू अभी भी नाम नहीं स्मरण करता)। परमात्मा का अमृत-नाम विसार के क्यों (विकारों का) जहर खा रहा है?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥ गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥
मूलम्
तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥ गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = छोड़ दे। बिधि करम = वह कर्म जो विधि अनुसार हो, वह कर्म जिनके करने की आज्ञा शास्त्रों में मिली हो। बिधि = आज्ञा। निखेध = मनाही। सनेही = प्यारा, साथी।4।
अर्थ: (हे भाई!) शास्त्रों के अनुसार किए जाने वाले कौन से काम है, और शास्त्रों में कौन से कामों के करने की मनाही है; इस वहिम को छोड़ दे, और परमात्मा का नाम स्मरण कर। हे दास कबीर! तू अपने गुरु की कृपा से अपने परमात्मा को ही अपना प्यारा (साथी) बना।4।5।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा का नाम स्मरण करो- यही है सदा का साथी, और इस की इनायत से बड़े-बड़े विकारी भी तैर जाते हैं। कर्मकांड के भुलेखों में ना पड़ो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहरी करि कै नीव खुदाई ऊपरि मंडप छाए ॥ मारकंडे ते को अधिकाई जिनि त्रिण धरि मूंड बलाए ॥१॥
मूलम्
गहरी करि कै नीव खुदाई ऊपरि मंडप छाए ॥ मारकंडे ते को अधिकाई जिनि त्रिण धरि मूंड बलाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहरी = गहरी। नीव = नींव। मंडप = शामियाने, महल माढ़ियां। छाए = बनवाए। मारकंडे = मारकण्डेय, एक ऋषि का नाम है, बहुत लंबी उम्र वाला था, पर सारी उम्र उसने झोपड़ी में ही गुजारी। अधिकाई = बड़ी लंबी उम्र वाला। जिनि = जिस ने। त्रिण = तीले। धारि = धारण करके, रख के। मूंड = सिर। त्रिण धरि मूंड = सिर पर तिनके रखके, तिनकों की कुल्ली बना के। बलाए = समय गुजारा।1।
अर्थ: जिन्होंने गहरी नीवें खुदवा के ऊपर महल-माढ़ियां उसरवाई (उनके भी यहीं रह गए; तभी समझदार लोक इन महल-माढ़ियों का मान नहीं करते; देखो) मारकण्डे ऋषि से ज्यादा उम्र किसी की होनी है? उसने तीलों की कुल्ली में ही समय बिताया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरो करता रामु सनेही ॥ काहे रे नर गरबु करत हहु बिनसि जाइ झूठी देही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हमरो करता रामु सनेही ॥ काहे रे नर गरबु करत हहु बिनसि जाइ झूठी देही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = कर्तार। सनेही = प्यारा, सदा साथ निभाने वाला। हे नर = हे लोगो! गरबु = अहंकार। झूठी देही = नाशवान शरीर।1। रहाउ।
अर्थ: हे लोगो! (अपने शरीर का) क्यों गुमान करते हो? ये शरीर नाशवान है, नाश हो जाएगा; हमारा असल प्यारा (जिसने साथ निभाना है) तो कर्तार है, परमात्मा है।1। रहाउ।
[[0693]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी मेरी कैरउ करते दुरजोधन से भाई ॥ बारह जोजन छत्रु चलै था देही गिरझन खाई ॥२॥
मूलम्
मेरी मेरी कैरउ करते दुरजोधन से भाई ॥ बारह जोजन छत्रु चलै था देही गिरझन खाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुरू = दिल्ली के पास के इलाके का नाम पुराने समय में ‘कुरू’ था। कैरउ = कौरव, ‘कुरू देश में राज करने वाले राजाओं की संतान। से = जैसे। भाई = भ्राता। जोजन = चार कोस। बारह जोजन = अढ़तालीस कोस। छत्र चलै था = छत्र का प्रभाव था, फौजों का फैलाव था।2।
अर्थ: जिस कौरवों के दुर्योधन जैसे (बली) भाई थे, वे भी (ये गुमान करते रहे कि) हमारी (बादशाही) हमारी (बादशाही), (पांडव क्या लगते हैं इस धरती के?); (कुरूक्षेत्र के युद्ध के वक्त) अढ़तालिस कोस तक उनकी सेना का फैलाव था (पर किधर गई बादशाहियत और कहां गया छत्र? कुरूक्षेत्र के युद्ध में) गिद्धों ने उनकी लाशें खाई।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब सुोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥३॥
मूलम्
सरब सुोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुोइन = सोने की। अधिकाई = बड़े बली। कहा भइओ = आखिर क्या बना? आखिर में कुछ भी नहीं बना। दरि = दर पर, दरवाजे पर।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सुोइन’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ व ‘ु’ हैं; असल शब्द है ‘सोइन’, यहाँ पढ़ना है ‘सुइन’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: रावण जैसे बड़े बली राजे की लंका सारी सोने की थी, (उसके महलों के) दरवाजे पर हाथी-घोड़े खड़े होते थे, पर आखिर में क्या बना? एक पल में सब कुछ पराया हो गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरबासा सिउ करत ठगउरी जादव ए फल पाए ॥ क्रिपा करी जन अपुने ऊपर नामदेउ हरि गुन गाए ॥४॥१॥
मूलम्
दुरबासा सिउ करत ठगउरी जादव ए फल पाए ॥ क्रिपा करी जन अपुने ऊपर नामदेउ हरि गुन गाए ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरबासा = दुर्वासा ऋषि एक तपस्वी था, बहुत जल्दबाज स्वभाव वाला, जल्दी ही गुस्से में आ के श्राप दे देता था। ठगउरी = ठगी, मजाक।4।
अर्थ: (सो, अहंकार किसी भी चीज का हो बुरा होता है; अहंकार में आ के ही) यादवों ने दुर्वासा के साथ मसखरी की और फल ये मिला कि (सारी कुल ही समाप्त हो गई)। (पर शुक्र है) अपने दास नामदेव पर परमात्मा ने कृपा की है और नामदेव (मान त्याग के) परमात्मा के गुण गाता है।4।1।
दर्पण-भाव
भाव: अहंकार, चाहे किसी भी चीज का हो, बुरा है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कृष्ण जी के कुल ‘यादव’ के कुछ लड़के एक बार समुंदर के किनारे द्वारिका के पास एक मेल के वक्त पर एकत्र हुए। वहीं दुर्वासा ऋषि तप करता था, इन लड़कों को मजाक सूझा। एक बग़ैर दाढ़ी वाले लड़के के पेट पर लोहे का तसला उलटा के बाँध के उसे औरतों वाले कपड़े पहना के उसके पास ले गए। पूछा, ऋषि जी! इसके घर क्या पैदा होगा? दुर्वासा समझ गया कि मसखरी कर रहे हैं, गुस्से में आ के उसने श्राप दे डाला कि जो पैदा होगा वह तुम्हारी सारी कुल का नाश कर देगा। श्राप से घबरा के कृष्ण जी की सलाह से वे उस तसले को पत्थर से रगड़ते रहे कि इस लोह का निशान ही मिट जाए। छोटा सा टुकड़ा ही रह गया, वह समुंदर में फेंक दिया। ये टुकड़ा एक मछली हड़प कर गई। ये मछली एक शिकारी ने पकड़ी। चीरने पर निकला ये लोहा उसने अपने तीर के आगे लगा लिया। जहाँ तसला पत्थर पर रगड़ा था, वहाँ सरकण्डा उग आया। एक दिन एक मेले के वक्त यादवों के जवान लड़के शराब पी के उस सरकण्डे वाली जगह पर आ इकट्ठे हुए। शराब की मस्ती में कुछ बोल-कुबोल हो गया, बात बढ़ गई, लड़ाई हो गई, वह सरकण्डे भी उखाड़-उखाड़ के लड़ाई में इस्तेमाल किया और सारे ही आपस में लड़ते हुए मर गए। कुल का नाश हुआ देख के एक दिन कृष्ण जी वन में लेटे विश्राम कर रहे थे, एक घुटने पर दूसरा पैर टिका रखा था। वह मछली वाला शिकारी शिकार की तलाश में आ निकला; दूर से देख के उसने हिरन समझा, और श्रापे हुए लोहे में से बचे हुए लोहे के टुकड़े वाला तीर कस के दे मारा और इस तरह यादव-कुल का आखिरी दीया भी बुझ गया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दस बैरागनि मोहि बसि कीन्ही पंचहु का मिट नावउ ॥ सतरि दोइ भरे अम्रित सरि बिखु कउ मारि कढावउ ॥१॥
मूलम्
दस बैरागनि मोहि बसि कीन्ही पंचहु का मिट नावउ ॥ सतरि दोइ भरे अम्रित सरि बिखु कउ मारि कढावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागनि = संस्कृत: वैरागिनी = a female ascetic who has subdued all her passions and desires, शांत हुई इंद्रिय। मोहि = मैंने (देखें बंद नं: 2 में शब्द ‘मोहि’)। पंचहु का = पाँचों कामादिकों का। नावउ = नाम ही, निशान ही। सतरि दोइ = बहत्तर हजार नाड़ियां (देखें, ‘बहतरि घर इक पुरखु समाइआ’ – सूही कबीर जी)। अंम्रित सरि = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जलके सरोवर से। बिखु = जहर, माया का प्रभाव।1।
अर्थ: (प्रभु के नाम का वैरागी बन के) मैंने अपनी दसों वैरागिन इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, (मेरे अंदर से अब) पाँच कामादिकों का खुरा-खोज ही मिट गया है (भाव, मेरे पर ये अपना जोर नहीं डाल सकते); मैंने अपने रग-रग को नाम-अमृत के सरोवर से भर लिया है और (माया के) जहर का पूर्ण तौर पर नाश कर दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाछै बहुरि न आवनु पावउ ॥ अम्रित बाणी घट ते उचरउ आतम कउ समझावउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पाछै बहुरि न आवनु पावउ ॥ अम्रित बाणी घट ते उचरउ आतम कउ समझावउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाछै = दोबारा। बहुरि = फिर। घट ते = हृदय से, दिल से, चिक्त जोड़ के। उचरउ = मैं उचारता हूँ। आतम कउ = अपने आप को। रहाउ।
अर्थ: अब मैं बार-बार जनम-मरन में नहीं आऊँगा, (क्योंकि) मैं चिक्त जोड़ के प्रभु की महिमा की वाणी उचारता हूँ और अपनी आत्मा को (सही जीवन की) शिक्षा देता रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बजर कुठारु मोहि है छीनां करि मिंनति लगि पावउ ॥ संतन के हम उलटे सेवक भगतन ते डरपावउ ॥२॥
मूलम्
बजर कुठारु मोहि है छीनां करि मिंनति लगि पावउ ॥ संतन के हम उलटे सेवक भगतन ते डरपावउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बजर = वज्र, कड़ा। कुठारु = कुहाड़ा। मोहि = मैं (देखें बंद नं: 1 में शब्द ‘मोहि’)। लगि = लग के। पावउ = चरणों में (यहाँ रामायण की उस साखी की तरफ इशारा है जब सीता के स्वयंवर के वक्त श्री राम चंद्र जी ने शिव जी का धनुष तोड़ा था; परषुराम ये सुन के अपना भयानक शस्त्र कुहाड़ा ले के श्री रामचंद्र जी को मारने के लिए आया। पर श्री रामचंद्र जी ने क्रोध में आए परुषुराम के चरण छू लिए, इस तरह उसका क्रोध-बल खींच लिया और कुहाड़ा उसके हाथों से गिर पड़ा)। डरवापउ = डरता हूँ।2।
अर्थ: अपने सतिगुरु के चरणों में लग के, गुरु के आगे अरजोई करके (काल के हाथों से) मैंने (उसका) भयानक कुहाड़ा छीन लिया है। (काल से डरने की जगह) मैं उल्टा भक्तजनों से डरता हूँ (भाव, अदब करता हूँ) और उनका ही सेवक बन गया हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह संसार ते तब ही छूटउ जउ माइआ नह लपटावउ ॥ माइआ नामु गरभ जोनि का तिह तजि दरसनु पावउ ॥३॥
मूलम्
इह संसार ते तब ही छूटउ जउ माइआ नह लपटावउ ॥ माइआ नामु गरभ जोनि का तिह तजि दरसनु पावउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छूटउ = बचता हूँ। तिह = इस माया को। तजि = त्याग के।3।
अर्थ: इस संसार के बंधनो से मेरी तब ही खलासी हो सकती है अगर मैं माया के मोह में ना फंसा; माया (का मोह) ही जनम-मरन के चक्कर में पड़ने का मूल है, इसको त्याग के ही प्रभु का दीदार हो सकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतु करि भगति करहि जो जन तिन भउ सगल चुकाईऐ ॥ कहत नामदेउ बाहरि किआ भरमहु इह संजम हरि पाईऐ ॥४॥२॥
मूलम्
इतु करि भगति करहि जो जन तिन भउ सगल चुकाईऐ ॥ कहत नामदेउ बाहरि किआ भरमहु इह संजम हरि पाईऐ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इतु करि = इस तरह। करहि = करते हैं। चुकाईऐ = दूर हो जाता है। बाहरि = (बैरागी बन के वन आदि में) बाहर। इह संजम = (इन्द्रियों को काबू में रख के, कामादिकों से बच के, अपने गुरु की शरण पड़ कर, माया का मोह त्याग के) इन जुगतियों से।4।
अर्थ: इस तरीके से जो मनुष्य प्रभु की भक्ति करते हैं; उनका हरेक किस्म का सहम दूर हो जाता है। नामदेव कहता है: (हे भाई! भेखी वैरागी बन के) बाहर भटकने से कोई लाभ नहीं; (जो संयम हमने बताए हैं) इस संयमों से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।4।2।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: नाम-जपने की महिमा से इंद्रिय वश में आ जाती हैं और जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारवाड़ि जैसे नीरु बालहा बेलि बालहा करहला ॥ जिउ कुरंक निसि नादु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥१॥
मूलम्
मारवाड़ि जैसे नीरु बालहा बेलि बालहा करहला ॥ जिउ कुरंक निसि नादु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारवाड़ि = मारवाड़ (जैसे रेतीले देश) में। नीरु = पानी। बालहा = (संस्कृत: वल्लभ) प्यारा। करहला = ऊँठ को। कुरंक = हिरन। निसि = रात को। नादु = (घंडेहेड़े की) आवाज। मनि = मन में। रमईआ = सुंदर राम।1।
अर्थ: जैसे मारवाड़ (रेगिस्तानी देश) में पानी प्यारा लगता है, जैसे ऊँठ को बेल प्यारी लगती है, जैसे हिरन को रात के वक्त (घंडेहेड़े की) आवाज प्यारी लगती है, वैसे ही मेरे मन को राम अच्छा लगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा नामु रूड़ो रूपु रूड़ो अति रंग रूड़ो मेरो रामईआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा नामु रूड़ो रूपु रूड़ो अति रंग रूड़ो मेरो रामईआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सुंदर राम! तेरा नाम सोहणा है, तेरा रूप सोहणा है और तेरा रंग बहुत ही सोहणा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ धरणी कउ इंद्रु बालहा कुसम बासु जैसे भवरला ॥ जिउ कोकिल कउ अ्मबु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥२॥
मूलम्
जिउ धरणी कउ इंद्रु बालहा कुसम बासु जैसे भवरला ॥ जिउ कोकिल कउ अ्मबु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरणी = धरती। इंद्रु = (भाव) बरसात। कुसम बासु = फूल की सुगंधि। भवरला = भौरे को।2।
अर्थ: जैसे धरती को वर्षा प्यारी लगती है, जैसे भौरे को फूल की सुगंधि प्यारी लगती है, जैसे कोयल को आम प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को राम अच्छा लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चकवी कउ जैसे सूरु बालहा मान सरोवर हंसुला ॥ जिउ तरुणी कउ कंतु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥३॥
मूलम्
चकवी कउ जैसे सूरु बालहा मान सरोवर हंसुला ॥ जिउ तरुणी कउ कंतु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरु = सूरज। हंसुला = हंस को। तरुणी = जवान स्त्री। कंतु = खसम।3।
अर्थ: जैसे चकवी को सूरज प्यारा लगता है, जैसे हंस को मान सरोवर प्यारा लगता है, जैसे जवान स्त्री को (अपना) पति प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को सुंदर राम प्यारा लगता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बारिक कउ जैसे खीरु बालहा चात्रिक मुख जैसे जलधरा ॥ मछुली कउ जैसे नीरु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥४॥
मूलम्
बारिक कउ जैसे खीरु बालहा चात्रिक मुख जैसे जलधरा ॥ मछुली कउ जैसे नीरु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खीरु = दूध। चात्रिक = पपीहा। जलधरा = बादल।4।
अर्थ: जैसे बालक को दूध प्यारा लगता है, जैसे पपीहे के मुँह को बादल प्यारा लगता है, मछली को जैसे पानी प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को सुंदर राम अच्छा लगता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधिक सिध सगल मुनि चाहहि बिरले काहू डीठुला ॥ सगल भवण तेरो नामु बालहा तिउ नामे मनि बीठुला ॥५॥३॥
मूलम्
साधिक सिध सगल मुनि चाहहि बिरले काहू डीठुला ॥ सगल भवण तेरो नामु बालहा तिउ नामे मनि बीठुला ॥५॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधिक = साधना करने वाले। सिध = पहुँचे हुए योगी। बीठुला = (संस्कृत: विष्ठल, one situated at a distance. वि+स्थल = जिसका स्थान दूर परे है, जो माया के प्रभाव से परे है) परमात्मा।5।
अर्थ: (योग) साधना करने वाले, (योग-साधना में सिद्ध) सिद्ध योगी और सारे मुनि वर (सुंदर राम के दर्शन करना) चाहते हैं, पर किसी विरले को दीदार होता है। (हे मेरे सुंदर राम! जैसे) सारे भवनों (के जीवों) को तेरा नाम प्यारा है, वैसे ही मुझ नामे (नामदेव) के मन को भी बीठल प्यारा है।5।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ ‘बीठुल’ अर्थ किसी कृष्ण मूर्ति से नहीं है, क्योंकि ‘रहाउ’ की तुक में उसे ‘रामईआ’ कह के संबोधन करते हैं; हरेक बंद के आखिर में भी जिसको ‘रामईआ’ कहते हैं, उसको आखिरी बंद में ‘बीठुल’ कहा गया है। नामदेव जी का ‘रामईआ’ और ‘बीठुल’ एक ही है। अगर नामदेव जी कृष्ण-उपासक होते तो उसको ‘रामईआ’ नहीं कहते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पहिल पुरीए पुंडरक वना ॥ ता चे हंसा सगले जनां ॥ क्रिस्ना ते जानऊ हरि हरि नाचंती नाचना ॥१॥
मूलम्
पहिल पुरीए पुंडरक वना ॥ ता चे हंसा सगले जनां ॥ क्रिस्ना ते जानऊ हरि हरि नाचंती नाचना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहिल पुरीए = पहले पहल। (पुरा, संस्कृत पद है, इसका अर्थ है ‘पहले’)। पुंडरक वना = पुंडरकों का वन, कमल के फूलों का खेत। पुंडरक = पुंडरीक, सफेद कमल फूल। ता चे = उस (पुंडरक वन) के। सगले जनां = सारे जीव-जंतु। क्रिस्ना = माया। ते = से। जानऊ = जानो, समझो। हरि क्रिस्ना = प्रभु की माया। हरि नाचना = प्रभु की नाच करने वाली (सृष्टि)। नाचंती = नाच रही है।1।
अर्थ: पहले पहल (जो जगत बना वह, मानो) कमल फूलों का खेत है, सारे जीव-जंतु उस (कमल के फूलों के खेत) के हंस हैं। परमात्मा की ये रचना नाच कर रही है। ये प्रभु की माया (की प्रेरणा) से समझो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पहिल पुरसाबिरा ॥ अथोन पुरसादमरा ॥ असगा अस उसगा ॥ हरि का बागरा नाचै पिंधी महि सागरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पहिल पुरसाबिरा ॥ अथोन पुरसादमरा ॥ असगा अस उसगा ॥ हरि का बागरा नाचै पिंधी महि सागरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरसाबिरा = पुरस+आबिरा। पुरस = परमात्मा। आबिरा = प्रगट (हुआ)। आबिर भू = आविर भू, प्रगट होना। अथोन = उससे पीछे, फिर। पुरसादमरा = पुरुषात्+अमरा, पुरुष से माया। अमरा = माया, कुदरत। अस गा = इस का। अस = और। उस गा = उस का। बागरा = सुंदर सा बाग़। पिंधी = टिंडां, रहट के डब्बे जिसमें पानी कूएं से निकलता है। सागरा = समुंदर, पानी।1। रहाउ।
अर्थ: पहले पुरुष (अकाल पुरख) प्रगट हुआ (“आपीनै् आपु साजिओ, आपीनै रचिओ नाउ”)। फिर अकाल-पुरख से माया (बनी) (“दुयी कुदरति साजीअै”)। इस माया का और उस अकाल-पुरख का (मेल हुआ) (“करि आसणु डिठो चाउ”)। (इस तरह ये संसार) परमात्मा का एक सुंदर सा बाग़ (बन गया है, जो) ऐसे नाच रहा है जैसे (कूएं की) टिंडों में पानी नाचता है (भाव, संसार के जीव माया में मोहित हो के दौड़-भाग कर रहे हैं, माया के हाथों में नाच रहे हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाचंती गोपी जंना ॥ नईआ ते बैरे कंना ॥ तरकु न चा ॥ भ्रमीआ चा ॥ केसवा बचउनी अईए मईए एक आन जीउ ॥२॥
मूलम्
नाचंती गोपी जंना ॥ नईआ ते बैरे कंना ॥ तरकु न चा ॥ भ्रमीआ चा ॥ केसवा बचउनी अईए मईए एक आन जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपी जंना = स्त्रीयां और मर्द। नईआ = नायक, परमात्मा। ते = से। बैरे = अलग। कंना = कोई नहीं। केसवा बचउनी = केशव के वचन ही। अईए मईए = स्त्री मर्द में। अईआ = स्त्री, औरत, महिला, नारी। मईआ = मर्य, मनुष्य। एक आन = एकायन, एक अयन। अयन = रास्ता, एक ही रास्ते से, एक रस।2।
अर्थ: स्त्रीयां-मर्द सब नाच रहे हैं, (पर इन सबमें) परमात्मा के बिना और कोई नहीं है। (हे भाई! इस में) शक ना कर, (इस संबंध में) भ्रम दूर कर दे। हरेक स्त्री-मर्द में परमात्मा के वचन ही एक-रस हो रहे हैं (भाव, हरेक जीव में परमात्मा खुद ही बोल रहा है)।2।
[[0694]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिंधी उभकले संसारा ॥ भ्रमि भ्रमि आए तुम चे दुआरा ॥ तू कुनु रे ॥ मै जी ॥ नामा ॥ हो जी ॥ आला ते निवारणा जम कारणा ॥३॥४॥
मूलम्
पिंधी उभकले संसारा ॥ भ्रमि भ्रमि आए तुम चे दुआरा ॥ तू कुनु रे ॥ मै जी ॥ नामा ॥ हो जी ॥ आला ते निवारणा जम कारणा ॥३॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उभकले = डुबकियां। संसारा = संसार (समुंदर) में। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। तुम चे = तेरे। चे = के। रे = रे भाई! कुनु = कौन? जी = हे (प्रभु) जी! आला = आलय, घर, जगत के जंजाल। ते = से। निवारणा = बचा ले। जम कारणा = जमों (के डर) के कारण।3।
अर्थ: (हे भाई! जीव-) टिंडें (जैसे रहट के डिब्बे पानी में डुबकियां लेते हैं) संसार-समुंदर में डुबकियां ले रही हैं। हे प्रभु! भटक-भटक के मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ। हे (प्रभु) जी! (अगर तू मुझसे पूछे) तू कौन है? (तो) हे जी! मैं नामा हूँ। मुझे जगत के जंजाल से, जो कि जमों (के डरों) का कारण है, बचा ले।3।4।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: माया का प्रभाव और इसका इलाज।
ये सारी मायावी रचना प्रभु से ही उत्पन्न हुई है, प्रभु सब में व्यापक है। पर जीव प्रभु को बिसार के माया के हाथ में नाच रहे हैं। प्रभु की शरण पड़ कर ही इससे बचा जा सकता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘आला’ का अर्थ कई सज्जन ‘आया’ करते हैं। इस शब्द ‘आला’ को वे धातु ‘आ’ का ‘भूतकाल’ मानते हैं। मराठी बोली में किसी धातु से ‘भूतकाल’ बनाने के लिए पिछेत्तर ‘ला’ का प्रयोग किया जाता है। पर धातु ‘आ’ से मराठी में ‘आला’ भूतकाल नहीं बनता। ‘आ’ और ‘ला’ के बीच ‘इ’ भी प्रयोग में लाई जाती है। ‘आ’ का भूतकाल बनेगा ‘आइला’; जैसे;
“गरुड़ चढ़े गोबिंदु आइला” (नामदेव जी)
शब्द ‘ते’ के लिए वे सज्जन ‘और’ अर्थ करते हैं। ये भी गलत है। ‘ते’ के अर्थ हैं ‘से’। ‘अते’ (और) के लिए पुरानी पंजाबी में शब्द ‘तै’ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पावन माधउ बिरदु तेरा ॥ धंनि ते वै मुनि जन जिन धिआइओ हरि प्रभु मेरा ॥१॥
मूलम्
पतित पावन माधउ बिरदु तेरा ॥ धंनि ते वै मुनि जन जिन धिआइओ हरि प्रभु मेरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पावन = पवित्र। माधउ = हे माधो! बिरदु = मूल कदीमों का प्यार वाला स्वभाव। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। ते वै = वह। मुनि जन = मुनी लोक, ऋषि लोग। (शब्द ‘जन’ का अर्थ अलग नहीं करना, ‘जन’ यहाँ मुनियों’ के समूह को प्रगट करता है, भाव, बेअंत मुनी, बहुत मुनि, इसी तरह शब्द ‘संत जन’)। मेरा = प्यारा।1।
अर्थ: हे माधो! (विकारों में) गिरे हुए बंदों को (दोबारा) पवित्र करना तेरा मूल कदीमों का (प्यार वाला) स्वभाव है। (हे भाई!) वह मुनि लोग भाग्यशाली है, जिन्होंने प्यारे हरि प्रभु को स्मरण किया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै माथै लागी ले धूरि गोबिंद चरनन की ॥ सुरि नर मुनि जन तिनहू ते दूरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरै माथै लागी ले धूरि गोबिंद चरनन की ॥ सुरि नर मुनि जन तिनहू ते दूरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माथै = माथे पर। लागीले = लगी है। धूरि = धूल। सुरि नर = देवते। दूरि = परे (भाग, उनके भाग्यों में नहीं)। ते = से।1। रहाउ।
अर्थ: (उस गोबिंद की मेहर से) मेरे माथे पर (भी) उसके चरणों की धूल लगी है (भाव, मुझे भी गोबिंद के चरणों की धूल माथे पर लगानी नसीब हुई है); वह धूल देवते और मुनि जनों के भी भाग्यों में नहीं हो सकी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन का दइआलु माधौ गरब परहारी ॥ चरन सरन नामा बलि तिहारी ॥२॥५॥
मूलम्
दीन का दइआलु माधौ गरब परहारी ॥ चरन सरन नामा बलि तिहारी ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरब = अहंकार। परहारी = दूर करने वाला। बलि = सदके।2।
अर्थ: हे माधो! तू दीनों पर दया करने वाला है। तू (अहंकारियों का) अहंकार दूर करने वाला है। मैं नामदेव तेरे चरणों की शरण आया हूँ और तुझसे सदके हूँ।2।5।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु के नाम-जपने की दाति भाग्यशालियों को मिलती है। जो स्मरण करते हैं उनके सब पाप दूर हो जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम सरि दीनु दइआलु न तुम सरि अब पतीआरु किआ कीजै ॥ बचनी तोर मोर मनु मानै जन कउ पूरनु दीजै ॥१॥
मूलम्
हम सरि दीनु दइआलु न तुम सरि अब पतीआरु किआ कीजै ॥ बचनी तोर मोर मनु मानै जन कउ पूरनु दीजै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम सरि = मेरे जैसा। सरि = जैसा, बराबर का। दीनु = निमाणा, कंगाल। अब = अब। पतीआरु = (और) परतावा। किआ कीजै = क्या करना? करने की जरूरत नहीं। बचनी तोर = तेरी बातें करके। मोर = मेरा। मानै = मान जाए, पतीज जाए। पूरन = पूर्ण भरोसा।1।
अर्थ: (हे माधो!) मेरे जैसा और कोई निमाणा नहीं, और तेरे जैसा और कोई दया करने वाला नहीं, (मेरी कंगालता का) अब और परतावा करने की जरूरत नहीं। (हे सुंदर राम!) मुझ दास को ये पूर्ण सिदक बख्श कि मेरा मन तेरी महिमा की बातों में पसीज जाया करे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ बलि बलि जाउ रमईआ कारने ॥ कारन कवन अबोल ॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ बलि बलि जाउ रमईआ कारने ॥ कारन कवन अबोल ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमईआ कारने = सुंदर राम से। कवन = किस कारण? अबोल = नहीं बोलता। रहाउ।
अर्थ: हे सुंदर राम! मैं तुझसे सदा सदके हूँ, क्या बात है कि तू मेरे से बात नहीं करता?। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुत जनम बिछुरे थे माधउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे ॥ कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भइओ दरसनु देखे ॥२॥१॥
मूलम्
बहुत जनम बिछुरे थे माधउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे ॥ कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भइओ दरसनु देखे ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माधउ = हे माधो! तुमारे लेखे = (भाव) तेरी याद में बीते। कहि = कहे, कहता है।2।
अर्थ: रविदास कहता है: हे माधो! कई जन्मों से मैं तुझसे विछुड़ता आ रहा हूँ (मेहर कर, मेरा) ये जन्म तेरी याद में बीते; तेरा दीदार किए काफी समय हो गया है, (दर्शन की) आस में ही मैं जीता हूँ।2।1।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु-दर पर उसके दशनों की अरदास।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित सिमरनु करउ नैन अविलोकनो स्रवन बानी सुजसु पूरि राखउ ॥ मनु सु मधुकरु करउ चरन हिरदे धरउ रसन अम्रित राम नाम भाखउ ॥१॥
मूलम्
चित सिमरनु करउ नैन अविलोकनो स्रवन बानी सुजसु पूरि राखउ ॥ मनु सु मधुकरु करउ चरन हिरदे धरउ रसन अम्रित राम नाम भाखउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = करूँ। नैन = आँखों से। अविलोकनो = मैं देखूँ। स्रवन = कानों में। सुजसु = सुंदर यश। पूरि राखउ = मैं भर रखूँ। मधुकरु = भौंरा। करउ = मैं बनाऊँ। रसन = जीभ से। भाखउ = मैं उचारण करूँ।1।
अर्थ: (तभी मेरी आरजू है कि) मैं चिक्त लगा के प्रभु के नाम का स्मरण करता रहूँ, आँखों से उसका दीदार करता रहूँ, कानों में उसकी वाणी व उसका सु-यश भरे रखूँ, अपने मन को भौरा बनाए रखूँ, उसके (चरण-कमल) हृदय में टिकाए रखूँ, और जीभ से उस प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम उचारता रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी प्रीति गोबिंद सिउ जिनि घटै ॥ मै तउ मोलि महगी लई जीअ सटै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरी प्रीति गोबिंद सिउ जिनि घटै ॥ मै तउ मोलि महगी लई जीअ सटै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = कहीं ऐसा ना हो। जिनि घटै = कहीं कम ना हो जाए। जीअ सटै = जिंद के बदले।1। रहाउ।
अर्थ: (मुझे डर रहता है कि) कि कहीं गोबिंद से मेरी प्रीति कम ना हो जाए, मैंने तो बड़े महंगे मूल्यों में (ये प्रीति) ली है, जिंद दे के (इस प्रीति का) सौदा किया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगति बिना भाउ नही ऊपजै भाव बिनु भगति नही होइ तेरी ॥ कहै रविदासु इक बेनती हरि सिउ पैज राखहु राजा राम मेरी ॥२॥२॥
मूलम्
साधसंगति बिना भाउ नही ऊपजै भाव बिनु भगति नही होइ तेरी ॥ कहै रविदासु इक बेनती हरि सिउ पैज राखहु राजा राम मेरी ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। राजा राम = हे राजन! हे राम! पैज = इज्जत।2।
अर्थ: (पर ये) प्रीत साधु-संगत के बिना पैदा नहीं हो सकती, और हे प्रभु! प्रीति के बिना तेरी भक्ति नहीं हो सकती। रविदास प्रभु के आगे अरदास करता है: हे राजन! हे मेरे राम! (मैं तेरी शरण आया हूँ) मेरी इज्जत रखना।2।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पिछले शब्द और इस शब्द में रविदास जी परमात्मा के लिए शब्द ‘रमईआ’, ‘माधउ’, ‘राम’, ‘गोबिंद’, ‘राजा राम’ इस्तेमाल करते हैं। शब्द ‘माधउ’ और ‘गोबिंद’, श्री कृष्ण जी के नाम हैं। अगर रविदास जी श्री रामचंद्र अवतार के पुजारी होते तो कृष्ण जी के नाम के प्र्याय ना प्रयोग में लाते। ये सांझे शब्द परमात्मा के लिए ही हो सकते हैं।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु के साथ प्रीति कैसे कायम रह सकती है? -स्मरण और साधु-संगत के सदके।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु तेरो आरती मजनु मुरारे ॥ हरि के नाम बिनु झूठे सगल पासारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नामु तेरो आरती मजनु मुरारे ॥ हरि के नाम बिनु झूठे सगल पासारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आरती = (संस्कृति: आरति = having lights before an image) थाल में फूल रख के जलता हुआ दीपक रख के चंदन आदि सुगंधियां ले के किसी मूर्ति के आगे वह थाल हिलाए जाना और उसकी स्तुति में भजन गाने; यह उस मूर्ति की आरती कही जाती है। मुरारे = हे मुरारि! (मुर+अरि। अरि = वैरी, मुर दैत्य का वैरी। कृष्ण जी का नाम है) हे परमात्मा! पासारे = खिलारे आडंबर।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: उन आडंबरों का वर्णन बाकी के शब्द में है; चंदन चढ़ाना, दीया, माला, नैवेद का भोग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! (अंजान लोग मूर्तियों की आरती करते हैं, पर मेरे लिए तो) तेरा नाम (ही तेरी) आरती है, और तीर्थों का स्नान है। (हे भाई!) परमात्मा के नाम से टूट के अन्य सभी आडंबर झूठे हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु तेरो आसनो नामु तेरो उरसा नामु तेरा केसरो ले छिटकारे ॥ नामु तेरा अ्मभुला नामु तेरो चंदनो घसि जपे नामु ले तुझहि कउ चारे ॥१॥
मूलम्
नामु तेरो आसनो नामु तेरो उरसा नामु तेरा केसरो ले छिटकारे ॥ नामु तेरा अ्मभुला नामु तेरो चंदनो घसि जपे नामु ले तुझहि कउ चारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसनो = ऊन आदि का कपड़ा जिस पर बैठ कर मूर्ति की पूजा की जाती है। उरसा = चंदन रगड़ने वाली शिला। ले = लेकर। छिटकारे = छिड़काते हैं। अंभुला = (सं: अंभस् = water) पानी। जपे = जप के। तुझहि = तुझे ही। चारे = चढ़ाते हैं।1।
अर्थ: तेरा नाम (मेरे लिए पण्डित वाला) आसन है (जिस पर बैठ के वह मूर्ति की पूजा करता है), तेरा नाम ही (चंदन घिसाने के लिए) शिला है, (मूर्ति पूजने वाला मनुष्य सिर पर केसर घोल के मूर्ति पर) केसर छिड़कता है, पवर मेरे लिए तेरा नाम ही केसर है। हे मुरारी! तेरा नाम ही पानी है, नाम ही चंदन है, (इस नाम-चंदन को नाम-पानी के साथ) घिसा के, तेरे नाम का स्मरण-रूपी चंदन ही मैं तेरे ऊपर लगाता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु तेरा दीवा नामु तेरो बाती नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे ॥ नाम तेरे की जोति लगाई भइओ उजिआरो भवन सगलारे ॥२॥
मूलम्
नामु तेरा दीवा नामु तेरो बाती नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे ॥ नाम तेरे की जोति लगाई भइओ उजिआरो भवन सगलारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाती = बक्ती (दीए की)। माहि = दीए में। पसारे = डालते हैं। उजिआरो = प्रकाश। सगलारे = सारे। भवन = भवनों में, मंडलों में।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम दीया है, नाम ही (दीए की) बाती है, नाम ही तेल है, जो ले के मैंने (नाम-दीए में) डाला है; मैंने तेरे नाम की ही ज्योति जलाई है (जिसकी इनायत से) सारे भवनों में रौशनी हो गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु तेरो तागा नामु फूल माला भार अठारह सगल जूठारे ॥ तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ नामु तेरा तुही चवर ढोलारे ॥३॥
मूलम्
नामु तेरो तागा नामु फूल माला भार अठारह सगल जूठारे ॥ तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ नामु तेरा तुही चवर ढोलारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तागा = (माला परोने के लिए) धागा। भार अठारह = सारी बनस्पति, जगत की सारी बनस्पती के हरेक किस्म के पौधे का एक-एक पत्ता ले के इकट्ठा करने से 18 भार बनता है; एक भार का मतलब 5 मन कच्चे का हुआ; ये पुरातन विचार चला आ रहा है। जूठारे = झूठे, क्योंकि भौंरे आदि ने सूंघे हुए हैं। अरपउ = मैं अर्पित करूँ। तूही = तुझे ही। ढोलारे = झुलाते हैं।3।
अर्थ: तेरा नाम मैंने धागा बनाया है, नाम को मैंने फूल और फूलों की माला बनाया है, और सारी बनस्पति (जिससे लोग फूल ले के मूर्तियों के आगे भेट करते हैं, तेरे नाम के सामने वे) झूठी है। (ये सारी कुदरति तो तेरी बनाई हुई है) तेरी पैदा की हुई में से मैं तेरे आगे क्या रखूँ? (सो,) मैं तेरा नाम-रूपी चवर ही तेरे पर झुलाता रहूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दस अठा अठसठे चारे खाणी इहै वरतणि है सगल संसारे ॥ कहै रविदासु नामु तेरो आरती सति नामु है हरि भोग तुहारे ॥४॥३॥
मूलम्
दस अठा अठसठे चारे खाणी इहै वरतणि है सगल संसारे ॥ कहै रविदासु नामु तेरो आरती सति नामु है हरि भोग तुहारे ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दस अठा = 18 पुराण। अठसठे = 68 तीर्थ। वरतणि = नित्य की कार, परचा। भोग = नैवेद, दूध खीर आदि की भेट।4।
अर्थ: सारे जगत की नित्य की कार तो ये है कि (तेरा नाम भुला के) अठारह पुराणों की कथाओं में फसे हुए हैं, अढ़सठ तीर्थों के स्नान को ही पुण्य कर्म समझ बैठे हैं, और, इस तरह चारों खाणियों की जूनियों में भटक रहे हैं। रविदास कहता है: हे प्रभु! तेरा नाम ही (मेरे लिए) तेरी आरती है तेरे सदा कायम रहने वाले नाम का ही भोग मैं तुझे लगाता हूँ।4।3।
दर्पण-भाव
भाव: आरती आदि के आडंबर झूठे हैं, नाम जपना ही जिंदगी का सही रास्ता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जगत की उत्पक्ति के चार वसीले माने गए है, चार खाणियां अथवा चार खानें मानी गई हैं: अण्डा, जिओर, स्वैत, उदक। अंडज = अण्डे से पैदा होने वाले जीव। जेरज = ज्योर से पैदा होने वाले जीव। सेतज = पसीने से पैदा हुए जीव। उतभुज = पानी से धरती में से पैदा हुए जीव।
नोट: इस आरती से साफ प्रगट है कि रविदास जी एक परमात्मा के उपासक थे। शब्द ‘मुरारि’ (जो कृष्ण जी का नाम है) बरतने से ये तो स्पष्ट हो जाता है कि वे श्री राम चंद्र के उपासक नहीं थे, जैसे कि कई सज्जन उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द ‘राजा राम चंद’ के प्रयोग के कारण समझ बैठे हैं। हरि, मुरारि, राम आदि शब्द उन्होंने उस परमात्मा के लिए बरते हैं जिस बाबत वे कहते हैं ‘तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ’।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
धनासरी बाणी भगतां की त्रिलोचन ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
धनासरी बाणी भगतां की त्रिलोचन ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी ॥ दुक्रितु सुक्रितु थारो करमु री ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी ॥ दुक्रितु सुक्रितु थारो करमु री ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निंदस काइ = तू क्यों निंदा करती है? भूली गवारी = हे भूली हुई मूर्ख जीव-स्त्री! दुक्रितु = पाप। सुक्रितु = किया हुआ भला काम। थारो = तेरा (अपना)। री = हे (जीव-स्त्री!)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भूली हुई मूर्ख जिंदे! तू परमात्मा को क्यों दोष देती है? पाप-पुण्य तेरा अपना किया हुआ कर्म है (जिसके कारण दुख-सुख सहना पड़ता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकरा मसतकि बसता सुरसरी इसनान रे ॥ कुल जन मधे मिल्यिो सारग पान रे ॥ करम करि कलंकु मफीटसि री ॥१॥
मूलम्
संकरा मसतकि बसता सुरसरी इसनान रे ॥ कुल जन मधे मिल्यिो सारग पान रे ॥ करम करि कलंकु मफीटसि री ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संकरा मसतकि = शिव के माथे पर। सुरसरी = गंगा। रे = हे भाई! मधे = में। मिल्यो = मिलियो, आ के मिला, पैदा हुआ। सारगपान = विष्णू। करम करि = किए कर्मों के कारण। मफीटसि = ना हटा।1।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) अपने किए कर्मों के कारण (चंद्रमा का) दाग़ ना हट सका; भले ही वह शिव जी के माथे पर बसता है, नित्य गंगा में स्नान करता है, और उसी की कुल में विष्णु जी ने (कृष्ण रूप धार के) जन्म लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिस्व का दीपकु स्वामी ता चे रे सुआरथी पंखी राइ गरुड़ ता चे बाधवा ॥ करम करि अरुण पिंगुला री ॥२॥
मूलम्
बिस्व का दीपकु स्वामी ता चे रे सुआरथी पंखी राइ गरुड़ ता चे बाधवा ॥ करम करि अरुण पिंगुला री ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिस्व = विश्व, सारा जगत। दीपकु = दीया, प्रकाश देने वाला। रे = हे भाई! सुआरथी = सारथी, रथवाही, रथ चलाने वाला। पंखी राइ = पक्षियों का राजा। चे = दे। बाधवा = रिश्तेदार। अरुण = प्रभात, सुबह की लालिमा। पौराणिक कथा अनुसार ‘अरुण’ गरुड़ का बड़ा भाई था, सूरज का सारथी मिथा गया है। ये पैदायशी ही पिंगला था।2।
अर्थ: (हे घर की गृहणी!) अपने कर्मों के कारण अरुण पिंगला ही रहा, चाहे सारे जगत को प्रकाश देने वाला सूरज उसका स्वामी है, उस सूरज का वह सारथी है, और पक्षियों का राजा गरुड़ उसका रिश्तेदार है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक पातिक हरता त्रिभवण नाथु री तीरथि तीरथि भ्रमता लहै न पारु री ॥ करम करि कपालु मफीटसि री ॥३॥
मूलम्
अनिक पातिक हरता त्रिभवण नाथु री तीरथि तीरथि भ्रमता लहै न पारु री ॥ करम करि कपालु मफीटसि री ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पातिक = पाप। हरता = नाश करने वाला। नाथु = पति। तीरथि तीरथि = हरेक तीर्थ पर। पारु = परला छोर, खलासी। कपालु = खोपरी।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौराणिक कथा के अनुसार ब्रहमा अपनी बेटी सरस्वती पर मोहित हो गया, शिव ने उसका पाँचवां सिर काट डाला; शिव से ये ब्रहम-हत्या हो गई; वह खोपरी हाथ के साथ चिपक गई, कई तीर्थों पर गया, आखिर कपाल मोचन पर जा के छूटी।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (ब्रहम-हत्या के) किए कर्म के अनुसार (शिव जी के हाथों से) खोपरी नहीं उतर सकी थी, चाहे (शिव जी) सारे जगत का नाथ (समझा जाता) है, (और जीवों के) अनेक पाप नाश करने वाला है, पर वह हरेक तीर्थ पर भटकता फिरा, तो भी (उस खोपरी से) उसकी खलासी नहीं हो रही थी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित ससीअ धेन लछिमी कलपतर सिखरि सुनागर नदी चे नाथं ॥ करम करि खारु मफीटसि री ॥४॥
मूलम्
अम्रित ससीअ धेन लछिमी कलपतर सिखरि सुनागर नदी चे नाथं ॥ करम करि खारु मफीटसि री ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससीअ = चंद्रमा। धेन = गाय। कलप तर = मनोकामना पूरी करने वाला वृक्ष कल्पतरु। सिखरि = (शिखरिन् भाव लंबे कानों वाले उच्चै श्रवस् Long eared) लंबे कानों वाला सत् मुँहा घोड़ा, जो समुंदर मंथन में से निकला। सुनागर = बड़ा समझदार वैद्य धनवंतरी। नदी चे = नदियों के। खारु = खारा पन।4।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) अपने किए (मंद कर्म) अनुसार (समुंदर का) खारा पन नहीं हट सका, चाहे वह सारी नदियों का नाथ है और उसमें से अमृत, चंद्रमा, कामधेनु, लक्ष्मी, कल्पतरु, सतमुँही घोड़ा, धनवंतरी वैद्य (आदि) नौ रत्न निकले थे।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाधीले लंका गड़ु उपाड़ीले रावण बणु सलि बिसलि आणि तोखीले हरी ॥ करम करि कछउटी मफीटसि री ॥५॥
मूलम्
दाधीले लंका गड़ु उपाड़ीले रावण बणु सलि बिसलि आणि तोखीले हरी ॥ करम करि कछउटी मफीटसि री ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाधीले = जला दिया। उपाड़ीअले = उखाड़ दिया। बणु = बाग़। सलि बिसलि = संस्कृत: शल्य विशल्या। शल्य = पीड़ा। विशल्या = दूर करने वाली। आणि = ला के। तोखीले = खुश किया।5।
अर्थ: (हे घर गेहणि!) अपने किए कर्मों के अधीन (हनुमान के भाग्यों से) उसकी छोटी सी कच्छी ना हट सकी, चाहे उसने (श्री रामचंद्र जी के खातिर) लंका का किला जलाया, रावण का बाग़ उजाड़ दिया, सल दूर करने वाली बूटी ला के रामचंद्र जी को प्रसन्न ही किया।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरबलो क्रित करमु न मिटै री घर गेहणि ता चे मोहि जापीअले राम चे नामं ॥ बदति त्रिलोचन राम जी ॥६॥१॥
मूलम्
पूरबलो क्रित करमु न मिटै री घर गेहणि ता चे मोहि जापीअले राम चे नामं ॥ बदति त्रिलोचन राम जी ॥६॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रित = किया हुआ। पूरबले = पहले जन्म का। घर गेहणि = हे (शरीर-) घर की मालकिन! हे मेरी जिंदे! ता चे = इसलिए। मोहि = मैं।6।
अर्थ: हे मेरी जिंदे! पिछला किया हुआ कोई भी कर्म (अवतार पूजा, तीर्थ स्नान आदि से) नहीं मिटता, इसीलिए मैं तो परमात्मा का ही नाम स्मरण करता हूँ। त्रिलोचन कहता है कि मैं तो ‘राम राम’ ही जपता हूँ (भाव, परमात्मा की ओट लेता हूँ और अपने किए कर्म करके आए दुख से प्रभु को दोष नहीं देता)।6।1।
दर्पण-टिप्पनी
जरूरी नोट: भक्त त्रिलोचन जी जाति के ब्राहमण थे। ब्राहमण-आगुओं की चलाई हुई परिपाटी के अनुसार लोग अवतार पूजा को ही श्रेष्ठ भक्ति मान रहे थे; और दान-पुण्य, तीर्थ स्नान आदि कामों को पापों की निर्विती व स्वर्ग आदि के सुखों की प्राप्ति का साधन समझते थे।
पर इस शब्द के द्वारा भक्त जी ने इन दोनों कामों का खण्डन किया है। जिस देवताओं व अवतारों की पूजा खास प्रचलित है, उनका वर्णन शब्द के चारों बंदों में करते हुए कहते हैं;
तुम विष्णु की (कृष्ण की मूर्ति की) पूजा करते हो और गंगा में स्नान करने को पुण्य-कर्म समझते हो पर तुम ये भी बताते हो कि अपनी स्त्री अहिल्या के संबंध में गौतम ने चंद्रमा को दाग़ लगा दिया था, ये दाग़ चंद्रमा के माथे पर उसके कुकर्म का कलंक है। नित्य का गंगा-स्नान और विष्णु जी का (कृष्ण रूप धार के) चंद्रमा की कुल में पैदा होना भी चंद्रमा के उस कलंक को दूर नहीं कर सके। बताओ; गंगा का स्नान करके और कृष्ण की मूर्ति की पूजा करके तुम्हारे पाप व कुकर्म कैसे धुल जाएंगे?
तुम गरुड़ को पंछियों का राजा मानते हो, और, दशहरे वाले दिन उसकें दर्शन करने के लिए दौड़ते फिरते हो; सूरज को देवता जान के हर संक्रांति को उसकी पूजा करते हो। देखो, तुम पिंगुले अरुण को सूरज का सारथी मानते हो, और गरुड़ का रिश्तेदार समझते हो। अगर गरुड़ अपने रिश्तेदार का, और सूरज अपने सारथी की अभी तक पिंगुलापन दूर नहीं कर सके, तो ये दोनों तुम्हारा क्या सँवारेंगे?
तुम एक टिटहरी के बच्चों की कहानी सुना के बताते हो कि टिटहरी के बच्चों को बहा के ले जाने के अपराध में समुंदर आज तक खारा चला आ रहा है। पर साथ ही तुम ये भी कहते हो कि समुंदर में से चौदह रत्न निकले थे जिनमें कामधेनु व कल्पतरु भी थे, और समुंदर में ही तुम विष्णु जी का निवास भी बताते हो। पर यदि ये विष्णु जी, कामधेनु और कल्पतरु अभी तक समुंदर के अपराध का असर नहीं मिटा सके, समुंदर का खारापन दूर नहीं कर सके, तो तुम इस विष्णू पूजा से किस लाभ की आशा रखते हो? तुम पुण्य-दान के आसरे स्वर्ग में पहुँचके इसी कामधेनु व कल्पतरु से मन की मुरादें कैसे पूरी कर लोगे?
तुम श्री रामचंद्र जी की मूर्ति पूजते हो, और खुद ही कहते हो कि हनुमान को इनकी अटुट सेवा करने पर भी एक छोटी सी कच्छी ही मिली। क्या तुम श्री रामचंद्र जी को हनूमान से ज्यादा प्रसन्न कर लोगे?
जिस शिव को बलि देव समझ के मंदिरों में टिका के पूजा करते हो, उसकी बाबत ये भी कहते हो कि जब ब्रहमा अपनी ही पुत्री पर मोहित हो गया, तब शिव ने उसका सिर काट डाला, और ये सिर शिव के हाथ से जुड़ गया। कई तीर्थों पर भटकते फिरे, फिर भी सिर शिव के हाथ से नहीं उतरा। बताओ, जो शिव खुद इतने आतुर व दुखी हुए वे तुम्हारा क्या सवारेंगे?
अपनी घर-गृहिणी को, जिंद को संबोधन करके अवतार-पूजा के बारे में समझाते हुए त्रिलोचन जी आखिर में कहते हैं कि एक परमात्मा की भक्ति ही पिछले कुकर्मों के संस्कारों को मिटाने में समर्थ है॥
त्रिलोजन जी के इस शब्द को गुरमति से अजुड़वां समझ के भक्त वाणी के विरोधी सज्जन इस बारे में यूँ लिखते हैं: ‘इस शब्द में पौराणिक बातें लिख के कर्मों को प्रबल माना है, परंतु शिव जी की जटाओं में से गंगा का आना और चंद्रमा का माथे पर होना और गरुड़ पर विष्णु की सवारी होनी आदि बताया गया है। ये सब ख्याल सृष्टि-नियम के बिल्कुल उलट हैं।
और
“ये झगड़ा भक्त जी और उनकी स्त्री का है जो नारायण की निंदा करती है। इस शब्द से लोगों ने ईश्वर को इनके घर रसोईआ बन के रहने की साखी घड़ी है।”
और
“इनके नाम के साथ बहुत सारी कथाएं भी लगाई हुई हैं। कहते हैं कि इनके घर ईश्वर रसोईया बन के रोटियां पकाता रहा। पर ये पुराने मन-घड़ंत मसले हैं।”
उपरोक्त दी गई लिखत में तीन ऐतराज मिलते हैं: 1. भक्त जी ने कर्मों को प्रबल माना है। 2. शब्द में दी गई बातों का ख्याल सृष्टि नियमों के बिल्कुल उलट है। 3. ईश्वर के रसोईऐ बन के भक्त जी के घर रोटियां पकाने वाली कहानी एक मन घड़ंत मसला है।
इन ऐतराजों पर विचार करने पर स्पष्ट होता है: पहला ये कि ईश्वर के रसोईए बनने वाली कहानी मन-घड़ंत है और ना ही उक्त शब्द से इसका कोई संबंध है। शब्द में इस संबंधी कोई भी जिकर ही नहीं है, पता नहीं ये कहानी क्यूँ घड़ी गई। ये बात मानी ही नहीं जा सकती। बस! इस कहानी को ना माने। शब्द से नाराज होने का कोई कारण ही नहीं बनता। शब्द के अर्थ के नीचे दिए गए ‘जरूरी नोट’ को दोबारा ध्यान से पढ़ें। धार्मिक नेता ब्राहमणों द्वारा चलाई हुई पौराणिक कहानियों का हवाला दे के भक्त जी (जो खुद भी जाति के ब्राहमण ही हैं) उन कहानियों को मानने वालों को समझा रहे हैं कि ये अवतार-पूजा, मूर्ति-पूजा और गंगा-स्नान ने पिछले किए कर्मों के संस्कारों को नहीं मिटा सकते। अगर पिछले बंधनो से निजात चाहिए तो एक परमात्मा का नाम जपो।
ये विचार पूरी तरह से गुरमति से मिलता है। पौराणिक कहानियों को मानने वालों को उनकी ही कहानियों का हवाला दे के समझाना कोई बुरी बात नहीं है। सतिगुरु जी ने स्वयं भी सैकड़ों ही जगह पर ऐसे हवाले दिए हैं। मिसाल के तौर पर देखें, रामकली की वार महला ३ पउड़ी नं 14 पंना 953; सलोकु महला १:
सहंसर दान देइ इंद्रु रोआइआ॥ परस रामु रोवै घरि आइआ॥
अजै सु रोवै भीखिआ खाइ॥ ऐसी दरगह मिलै सजाइ॥
….. … …
रोवै जनमेजा खुइ गइआ॥ एकी कारणि पापी भइआ॥
… … …
…. …. … नानक दुखीआ सभु संसारु॥
मंने नाउ सोई जिणि जाइ॥ अउरी करम न लेखै लाइ॥१॥१४॥
यहाँ कई पौराणिक कहानियाँ दी गई हैं। इन कहानियों के मानने वालों को इन कहानियों के माध्यम से ही समझाते हैं कि ‘मंने नाउ सोई जिणि जाइ’। हू-ब-हू यही तरीका भक्त त्रिलोचन जी ने इस्तेमाल किया है।
बाकी रहा ऐतराज कर्म की प्रबलता की। इस बारे एक नहीं सैकड़ों प्रमाण गुरबाणी में मिलते हैं कि किए कर्मों के संस्कार मिटाने के लिए एक मात्र साधन है, और वह है परमात्मा का नाम स्मरणा। मिसाल के तौर पर देखें:
नानक पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहारु॥2।17। (सलोक म: १, सूही की वार महला ३)
नानक पइऐ किरति कमावदे मनमुखि दुखु पाइआ॥ (पउड़ी 17, सारंग की वार)
पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहार॥ (सूही म: ३ घर १०)
पइअै किरति कमावणा कहणा कछू न जाइ।1।4। (सलोक म: ३ वडहंस की वार)
पइअै किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंनि्।1।12। (सलोक म: ३, बिलावल की वार)
घड़ी हुई कहानी के कारण हमने सच्चाई से नहीं रूठना। भक्त त्रिलोचन जी ब्राहमण के बनाए धर्म-जाल का पाज खोल रहे हैं। उनकी आवाज को कमजोर करने के लिए उनके जीवन से जोड़ के व्यर्थ की कहानियां घड़ी जा सकती हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्री सैणु ॥ धूप दीप घ्रित साजि आरती ॥ वारने जाउ कमला पती ॥१॥
मूलम्
स्री सैणु ॥ धूप दीप घ्रित साजि आरती ॥ वारने जाउ कमला पती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घ्रित = घी। साजि = बना के, इकट्ठे करके। वारने जाउ = मैं सदके जाता हूँ। कमलापती = लक्ष्मी का पति परमात्मा।1।
अर्थ: हे माया के मालिक प्रभु! मैं तुझसे सदके जाता हूँ (तुझसे सदके जाना ही) धूप, दीप और घी (आदि) सामग्री इकट्ठी करके तेरी आरती करनी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंगला हरि मंगला ॥ नित मंगलु राजा राम राइ को ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मंगला हरि मंगला ॥ नित मंगलु राजा राम राइ को ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगलु = आनंद। राजा = मालिक। को = का (का बख्शा हुआ)।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! हे राजन! हे राम! तेरी मेहर से (मेरे अंदर) सदा (तेरे नाम-स्मरण का) आनंद-मंगल हो रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतमु दीअरा निरमल बाती ॥ तुहीं निरंजनु कमला पाती ॥२॥
मूलम्
ऊतमु दीअरा निरमल बाती ॥ तुहीं निरंजनु कमला पाती ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीअरा = सोहणा सा दीया। निरमल = साफ। निरंजनु = माया से रहित।2।
अर्थ: हे कमलापति! तू निरंजन ही मेरे लिए (आरती करने के लिए) सुंदर अच्छा दीपक और साफ-सुथरी बाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामा भगति रामानंदु जानै ॥ पूरन परमानंदु बखानै ॥३॥
मूलम्
रामा भगति रामानंदु जानै ॥ पूरन परमानंदु बखानै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रामा भगति = परमात्मा की भक्ति से। रामा नंदु = (राम+आनंद) परमात्मा (के मेल) का आनंद। पूरन = सर्व व्यापक। बखानै = उचारता है।3।
अर्थ: जो मनुष्य सर्व-व्यापक परम आनंद स्वरूप प्रभु के गुण गाता है, वह प्रभु की भक्ति की इनायत से उसके मिलाप का आनंद लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदन मूरति भै तारि गोबिंदे ॥ सैनु भणै भजु परमानंदे ॥४॥२॥
मूलम्
मदन मूरति भै तारि गोबिंदे ॥ सैनु भणै भजु परमानंदे ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मदन मूरति = वह मूर्ति जिसे देख के मस्ती आ जाए, सुंदर रूप वाला। भै तारि = डरों से पार लंघाने वाला। गोबिंद = (गो = सृष्टि। बिंद = जानना, सार लेनी) सृष्टि की सार लेने वाला। भणै = कहता है। भजु = स्मरण कर। परमानंदे = परमानंद लेने वाले को।4।
अर्थ: सैण कहता है: (हे मेरे मन!) उस परम-आनंद परमात्मा का स्मरण कर, जो सुंदर स्वरूप वाला है, जो (संसार के) डरों से पार लंघाने वाला है और जो सृष्टि की सार लेने वाला है।4।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द को भी गुरमति के उलट समझ के भुलेखा खाने वाले विरोधी सज्जन ने इस बारे में यूँ लिखा है:
“उक्त शब्द द्वारा भक्त जी ने अपने गुरु गोसाई रामानंद जी के आगे आरती उतारी है। (‘मदन मूरति’ विष्णू जी हैं, भक्त जी पक्के वैश्नव थे) परंतु गुरमति के अंदर ‘गगन मै थालु’ वाले शब्द में भक्त वाली आरती का खण्डन है। दीए जला के आरती करने वाले महा अज्ञानी बताए गए हैं। साथ ही ये भी हुक्म है ‘किसन बिसन कबहूँ न धिआऊ’। इस करके साबत होता है कि भक्त सैण जी की रचना गुरु-आशै के बिल्कुल ही विरुद्ध है।”
इस तरह शब्द को गुरमति के विरुद्ध समझने वाले सज्जन जी ने भक्त जी के बारे में तीन बातें बताई हैं: 1. इस शब्द के द्वारा सैण जी ने अपने गुरु रामानंद जी की आरती उतारी है। 2. भक्त जी पक्के वैश्णव थे। 3. दीए को जला के आरती करने वाला महा अज्ञानी है।
पर आश्चर्य इस बात का है कि इस शब्द में इन तीनों ही दूषणों में से एक भी नहीं मिलता। आईए, विचार के देखें:
जिसकी स्तुति यहाँ कर रहे हैं, उसके लिए सैण जी जो शब्द बरते हैं वे ये हैं: कमलापती, हरि, राजा राम, निरंजन, पूरन, परमानंद, मदन मूरति, भै तारि, गोबिंद। इन शब्दों में सैण जी के गुरु का कोई वर्णन नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि शक करने वाले सज्जन ने शब्द के तीसरे बंद में बरते गए शब्द ‘रामानंद’ से गलती की है। इस तुक का अर्थ यूँ है: जो मनुष्य सर्व-व्यापक परम आनंद स्वरूप प्रभु के गुण गाता है, वह प्रभु की भक्ति की इनायत से उस राम के मिलाप का आनंद पाता है (देखें शब्द के दिए गए पदअर्थों को)।
शब्द ‘मदन मूरति’ के बरतने से, भक्त जी को वैश्णव समझ लेना एक भूल है। शब्द ‘मदन’ का अर्थ है ‘खेड़ा, खुशी, हिलोरे देने वाला’ (देखें पदार्थ)।
शब्द के बंद 1 और 2 से सैण जी को दीए जला के आरती करने वाला समझा गया है, पर वे तो कहते हैं: हे कमलापती! मैं तुझसे सदके जाता हूँ, यही धूप, दीप और घी (आदि) सामग्री इकट्ठी करके तेरी आरती करनी है।1। हे कमलापति! तू निरंजन ही मेरे वास्ते (आरती करने के लिए) सुंदर बढ़िया दीपक और साफ-सुथरी बाती है।2।
सो, कम से कम इस शब्द से तो साबित नहीं होता कि भक्त सैण जी की रचना गुरु आशय से कहीं भी विरुद्ध है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीपा ॥ कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ॥ काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजउ पाती ॥१॥
मूलम्
पीपा ॥ कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ॥ काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजउ पाती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कायउ = काया ही, शरीर। काइअउ = कायउ, काया ही। देवल = (सं: देव+आलय) देवाला, मंदिर। जंगम = शिव उपासक रमते जोगी, जिनके सिर पर मोरों के पंख बंधे होते हैं। जाती = यात्री। नईबेदा = दूध की खीर आदि स्वादिष्ट भोजन, जो मूर्ति को भेट किए जाएं। पूजउ = मैं पूजता हूँ। पती = पत्र (आदि भेट धर के)।1।
अर्थ: (सो) काया (की खोज) ही मेरा देवता है (जिसकी मैंने आरती करनी है), शरीर (की खोज) ही मेरा मंदिर है (जहॉ। मैं शरीर के अंदर बसते प्रभु की आरती करता हूँ), काया (की खोज) ही (मेरे वास्ते मेरे अंदर बसते देवते के लिए) धूप-दीप और नैदेव है, काया की खोज (करके) ही मैं मानो, पत्र भेट रख के (अपने अंदर बसते ईष्ट देव की) पूजा कर रहा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई ॥ ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई ॥ ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु खंड = देश देशांतर। नव निधि = (नाम रूप) नौ खजाने। आइबो = आएगा, पैदा होगा। जाइबो = जाएगा, मरेगा। दुहाई = तेज प्रताप।1। रहाउ।
अर्थ: देश-देशांतरों को खोज के (आखिर अपने) शरीर के अंदर ही मैंने प्रभु के नाम रूप नौ-निधियां पा ली हैं, (अब मेरी काया में) परमात्मा (की याद) का ही तेज प्रताप है (उसकी इनायत से मेरे लिए) ना कुछ पैदा होता है ना कुछ मरता है (भाव, मेरा जनम-मरण मिट गया है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ॥ पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होइ लखावै ॥२॥३॥
मूलम्
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ॥ पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होइ लखावै ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिंडे = शरीर में। पावै = पा लेता है। प्रणवै = विनती करता है। परम ततु = परम आत्मा, परमात्मा, सबसे बड़ी अस्लियत, परले से परला तत्व, सृष्टि का असल श्रोत। लखावै = जनाता है।2।1।
अर्थ: पीपा विनती करता है: जो सृष्टि का रचनहार परमात्मा सारे ब्रहमण्ड में (व्यापक) है वही (मनुष्य के) शरीर में है, जो मनुष्य खोज करता है वह उसको ढूँढ लेता है, अगर सतिगुरु मिल जाए तो (अंदर ही) दर्शन करा देता है।2।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: मूर्ति-पूजा के घोर अंधेरे में कहीं-कहीं विरली जगह प्रभु-नाम-जपने की ये लौअ जग रही थी। सतिगुरु नानक देव जी ने भारत के सारे वह स्थान जो धर्म-प्रचार का केन्द्र कहलवाते थे, घूम के देखे। ये भक्त अपने-अपने वतन में बैठे गलत राह पर जा रहे लोगों को प्रभु-भक्ति का प्रकाश देने की कोशिश करते रहे। ये हो नहीं था सकता कि रूहानी-नूर के आशिक सतिगुरु जी की नजरों से वह प्रकाश, जिसे वे स्वयं प्यार करने वाले थे, से परे रह जाता। जबकि वे खुद सारे भारत में यही प्रकाश फैलाने के लिए पूरे आठ साल कई मुश्किलें सहते हुए घूमते रहे।
नोट: इस शब्द में भक्त पीपा जी मूर्ति-पूजा का खण्डन करते हैं और कहते हैं कि मन्द्रिर में स्थापित किए देवते को धूप, दीप और नईवेद पत्र आदि की भेट रख के पूजने की जगह शरीर-मन्द्रिर में बसते राम को स्मरण करो।
हरेक शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। सो, ‘रहाउ’ की तुक से शुरू करने से भक्त पीपा जी के शब्द का भाव यूँ बनता है: जिस मनुष्य के शरीर में राम की याद की दोहाई मच जाती है, वह देश-देशोतरों के तीर्थों व मन्दिरों में भटकने की जगह राम को अपने शरीर में ही पा लेता है। सो, उस राम को अपने शरीर के अंदर ही तलाशो, यही असल देवते की तलाश है, यही असल मन्दिर है, यही असल पूजा है। पर उस परम-तत्व (परमात्मा) को निरा अपने शरीर में ही ना समझ रखना, सारे ब्रहमण्ड में भी वही बसता देखो। ये सूझ सतिगुरु जी से मिलती है।
भक्त जी ने इस शब्द में निम्न-लिखित चार बातों पर जोर दिया है: 1. परमात्मा की याद, साधारण याद नहीं बल्कि परमात्मा की दुहाई परमात्मा की तीव्र याद; 2. परमात्मा की याद ही असल देव पूजा है; 3. वह परमात्मा हरेक मनुष्य के अंदर बसता है, सारी सृष्टि में भी बसता है, और सारी सृष्टि का रचनहार है; 4. सतिगुरु ही परमात्मा से मिलाप करवा सकता है।
पर, विरोधी सज्जन ने इस शब्द को भी गुरमति के उलट समझते हुए इस बारे में यूँ लिखते हैं:
“ये शब्द वेदांत मत का है और गोसाई रामानंद जी की रचना से मिलता-जुलता है, मानो, दोनों शब्द एक की रचना हों। भक्त जी काया में ईश्वर को मानते है। मैं ब्रहम हूँ (अहं ब्रहमास्मि) का सिद्धांत है। इस शब्द के अंदर प्रेमा भक्ति का लेस बिल्कुल नहीं, केवल ज्ञान-विचार चर्चा है। वेदांती मुँह-जबानी लेखा-पत्र निबेड़ के अपने आप को ही ईश्वर कल्पित करते हैं, पर गुरमति के अंदर इस आशय का पूरन तौर पर खण्डन है। वेदांत मत अहंकार की गठड़ी है। गुरमति और वेदांत मत में दिन रात का फर्क है।”
इस तरह शब्द के विरुद्ध उस सज्जन ने दो ऐतराज उठाए हैं: 1. ये शब्द वेदांत मत का है, भक्त जी काया में रब मानते है, ‘मैं ब्रहम हूं’ का सिद्धांत है। 2. इस शब्द में प्रेमा भक्ति का लेस बिल्कुल नहीं है।
एतराज करने वाले सज्जन जी ने ऐतराज करने में कुछ जल्दबाजी कर दिखाई है। इनको तो ‘प्रेम-भक्ति का लेस’ मात्र भी नहीं मिला, पर भक्त जी ने तो ‘रहाउ’ की तुक में शब्द के मुख्य भाव में ही ये कहा है मन्दिर में जा के मूर्ति-पूजा करने की जगह अपने शरीर के अंदर ही ‘राम की दोहाई’ मचा दो, इतनी तीव्रता से याद में जुड़ो कि किसी और तरह की पूजा का फुरना उठे ही ना, अंदर राम ही राम की लगन बन जाए।
ऐतराज करने वाले सज्जन को यहाँ वेदांत मत दिखाई दिखा है, पर भक्त जी ने अपने रब के बारे में तीन बातें साफ कही हैं: वह ईश्वर मानव शरीर में बसता है, वह प्रभु सारे ब्रहमण्ड में बसता है, और वह परमात्मा ‘परम तत्व’ है, भाव सारी रचना का मूल कारण है, बहमण्ड में निरा बसता ही नहीं है, ब्रहमण्ड को बनाने वाला भी है।
बेहतर हो कि किसी पक्षपात में आ के जल्दबाजी में ऐसे ही मुँह ना मोड़ते जाएं। समय दे के धीरे-धीरे सांझ डालें, समझने की कोशिश करें, इस शब्द और गुरमति में कोई फर्क नहीं दिखेगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंना ॥ गोपाल तेरा आरता ॥ जो जन तुमरी भगति करंते तिन के काज सवारता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
धंना ॥ गोपाल तेरा आरता ॥ जो जन तुमरी भगति करंते तिन के काज सवारता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आरता = जरूरतमंद, दुखिया, भिखारी (सं: आर्तं)।1। रहाउ।
अर्थ: हे पृथ्वी को पालने वाले प्रभु! मैं तेरे दर का भिखारी हूँ (मेरी जरूरतें पूरी कर); जो जो मनुष्य तेरी भक्ति करते हैं तू उनके काम सिरे चढ़ाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दालि सीधा मागउ घीउ ॥ हमरा खुसी करै नित जीउ ॥ पन्हीआ छादनु नीका ॥ अनाजु मगउ सत सी का ॥१॥
मूलम्
दालि सीधा मागउ घीउ ॥ हमरा खुसी करै नित जीउ ॥ पन्हीआ छादनु नीका ॥ अनाजु मगउ सत सी का ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीधा = आटा। मागउ = मांगता हूँ। जीउ = जिंद, मन। पनीआ = जूती (सं: उपानहृ)। छादनु = कपड़ा। नीका = बढ़िया, सुंदर। सत सी का अनाज = वह अन्न जो खेत को सात बार जोत के पैदा किया हुआ हो।1।
अर्थ: मैं (तेरे दर से) दाल, आटा और घी माँगता हूँ, जो मेरी जिंद को नित्य सुखी रखे, जूती व बढ़िया कपड़ा भी माँगता हूँ, और सात जोताई वाला अन्न भी (तुझी से) माँगता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गऊ भैस मगउ लावेरी ॥ इक ताजनि तुरी चंगेरी ॥ घर की गीहनि चंगी ॥ जनु धंना लेवै मंगी ॥२॥४॥
मूलम्
गऊ भैस मगउ लावेरी ॥ इक ताजनि तुरी चंगेरी ॥ घर की गीहनि चंगी ॥ जनु धंना लेवै मंगी ॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लावेरी = दूध देने वाली। ताजनि तुरी = अरबी घोड़ी। गीहनि = (सं: गृहिनी) स्त्री। मंगी = मांग के।2।
अर्थ: हे गोपाल! मैं गाय भैंस लावेरी भी माँगता हूँ, और एक बढ़िया अरबी घोड़ी भी चाहिए। मैं तेरा दास धंना तुझसे माँग के घर की अच्छी स्त्री भी लेता हूँ।2।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: संस्कृत शब्द ‘आरत’ (आर्तं) का अर्थ है दुखिया, जरूरतमंद। ‘रहाउ’ की तुक और बाकी के सारे शब्द को ध्यान से पढ़ने से भी यही बात साबित होती है कि प्रभु के दर से रोजमर्रा के जीवन की जरूरतें ही माँग रहे हैं। शब्द ‘गोपाल’ – में भी यही इशारा मिलता है (भाव, धरती को पालने वाला)।
पर, चुँकि शब्द ‘आरती’ के साथ शब्द ‘आरता’ मिलता-जुलता है, इस वास्ते इस शब्द को भी ‘आरती’ वाले शबदों के साथ ही धनासरी राग में दर्ज किया गया है, वैसे ‘आरती’ के बारे में इसमें कोई जिक्र नहीं है, क्योंकि ‘आरती’ में फूल दीए आदि होना लाजमी है।
नोट: भक्त वाणी को गुरमति के विरुद्ध समझने वाला सज्जन भक्त धंन्ना जी के बारे में यूँ लिखते हैं: “भक्त धंन्ना जी के पिता का नाम माही थां इनका वतन इलाका मारवाड़ था। आप मामूली से जिंमीदार थे। किसी ब्राहमण से सालिगराम ले के पूजा करने लगे। जब कुछ फल प्राप्त ना हुआ तो आखिर में उसी ब्राहमण को जा के सालिगराम वापिस कर दिया। कहने लगे कि सालिगराम मेरे से रूठे हुए हैं, मेरी रोटी नहीं खाते। ब्राहमण ने असलियत बताई कि भाई! ये तो पत्थर है, ये खाता-पीता कुछ नहीं, ईश्वर तो और है।”…. इस बात का असर धंन्ना जी के दिल पर काफी हुआ। आखिर आप रामानंद जी की मण्डली के साथ मिल गए। इनके सम्बंध में कई अनबन सी कथाएं हैं कि आप ईश्वर से बातें किया करते थे, और उससे पशु चरवाते।”
इस शब्द के बारे में विरोधी सज्जन लिखते हैं: उक्त शब्द के अंदर भक्त जी ने अपने गुरु से गऊ, स्त्री, घोड़ी आदि की मांगें मांगी है। इस किस्म का एक शब्द कबीर जी ने भी लिखा है। ये शब्द उसी का अनुवाद रूप है, पर ये सिद्धांत गुरमत-सिद्धांत की विरोधता करता है। सतिगुरु साहिबान का सिद्धांत ये है:
सिरि सिरि रिजकु संबाहे ठाकुरु, काहे मन भउ करिआ॥
काहे रे मन चितवहि उदमु, जा आहरि हरि जीउ परिआ॥
सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ॥ (गुजरी महला ५)
अकाल पुरख बिन मांगे ही रोजी देने वाला है। परंतु उद्यम के साधन करने मनुष्य का परम धर्म है।
पर, जिस शब्द का हवाला विरोधी सज्जन जी ने दिया है, उसमें तो रोजी के लिए तौखले कराने से रोका गया है। ये तो कहीं भी नहीं कहा गया कि परमात्मा के दर से कुछ भी नहीं माँगना। ये तो ठीक है कि वह बिन मांगे दान देता है। पर, फिर भी उसके दर से दुनियावी चीजें माँगने की मनाही कहीं भी नहीं की गई। बल्कि अनेक शब्द मिलते है, जिनसे परमात्मा के दर से दुनियावी माँगें भी माँगी गई हैं। हाँ, ये हुक्म किया गया है कि दातार प्रभु के बिना किसी और के दर से ना माँगो।
“मांगउ राम ते सभि थोक॥
मनुखर कउ जाचत स्रमु पाईऐ, प्रभ कै सिमरनि मोख॥१॥ रहाउ॥५०॥ ” (धनासरी म: ५)
“मै ताणु दीबाणु तू है मेरे सुआमी, मै तुधु आगै अरदासि॥ मै होरु थाउ नाही जिसु पहि करउ बेनंती, मेरा दुखु सुखु तुधु ही पासि॥२॥१॥१२॥ ” (सूही म: ४)
सिख की श्रद्धा ये है कि दुनिया के हरेक कार्य-व्यवहार शुरू करने के समय उसकी सफलता वास्ते प्रभु दर पर अरदास करनी है। सिख विद्यार्थी परिक्षा देने जा रहा है, चलने के वक्त अरदास करे। सिख सफर में चला है, अरदास करके चले। सिख अपना रिहायशी मकान बनाने लगा है, नींव रखने के समय पहले अरदास करे। हरेक दुख-सुख के समय सिख अरदास करे। जब कोई रोग आदि बिपता प्रभु की मेहर से दूर होती है, तब भी सिख शुकराने के तौर पर अरदास करे। क्या ये सारा कुछ गुरमति के विरुद्ध है? वाणी में हुक्म तो यही है:
कीता लोड़ीऐ कंमु, सु हरि पहि आखीऐ॥
कारजु देइ सवारि, सतिगुर सचु साखीऐ॥२०॥ (सिरी राग की वार)