०९ सोरठि

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ घरु १ चउपदे ॥

मूलम्

सोरठि महला १ घरु १ चउपदे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभना मरणा आइआ वेछोड़ा सभनाह ॥ पुछहु जाइ सिआणिआ आगै मिलणु किनाह ॥ जिन मेरा साहिबु वीसरै वडड़ी वेदन तिनाह ॥१॥

मूलम्

सभना मरणा आइआ वेछोड़ा सभनाह ॥ पुछहु जाइ सिआणिआ आगै मिलणु किनाह ॥ जिन मेरा साहिबु वीसरै वडड़ी वेदन तिनाह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आइआ = आया, जो पैदा होते हैं। मरणा = मौत। मरणा आइआ = पैदा होते हैं और मरते हैं, जो जनम मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं। वेछोड़ा = प्रभु चरणों से विछोड़ा। आगै = प्रभु की हजूरी में। किनाह = कौन से लोगों को? वेदन = पीड़ा, मानसिक दुख।1।
अर्थ: (जो दुनिया के होछे सुखों की खातिर प्रभु को भुला देते हैं) उन सभी को प्रभु चरणों से विछोड़ा रहता है वे सारे पैदा होते मरते ही हैं। (हे भाई!) जा के गुरमुखों के पास से पूछो कि परमात्मा के चरणों का मिलाप किन्हें होता है (क्योंकि सुखी वही हैं जो प्रभु चरणों में जुड़ते हैं)। (ये बात साफ है कि) जिस लोगों को प्यारा मालिक प्रभु भूल जाता है उन्हें बहुत आत्मिक कष्ट बना रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भी सालाहिहु साचा सोइ ॥ जा की नदरि सदा सुखु होइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

भी सालाहिहु साचा सोइ ॥ जा की नदरि सदा सुखु होइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भी = बार बार। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। जा की = जिस (प्रभु) की। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) बार बार उस कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा करते रहो। उसी की मेहर की नजर से सदा स्थिर रहने वाला सुख मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडा करि सालाहणा है भी होसी सोइ ॥ सभना दाता एकु तू माणस दाति न होइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ रंन कि रुंनै होइ ॥२॥

मूलम्

वडा करि सालाहणा है भी होसी सोइ ॥ सभना दाता एकु तू माणस दाति न होइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ रंन कि रुंनै होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडा करि = बड़ा कर के, ये कह के कि वह सब से बड़ा है। कि होइ = क्या लाभ हो सकता है? कोई फायदा नहीं हो सकता। रुंनै = रोने से।2।
अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा (सदा स्थिर है) अब भी मौजूद है आगे भी कायम रहेगा, उसकी महिमा करो (और कहो) कि वह सबसे बड़ा दाता है। (हे भाई! कहो- हे प्रभु!) तू सब जीवों को सब दातें देने वाला है, मनुष्य (बिचारे क्या हैं कि उनके) पास कोई दातें हो सकें? (हे भाई!) जो कुछ प्रभु को ठीक लगता है वही होता है (उसकी रजा को मीठा करके मानो, कोई दुख-कष्ट आने पर) औरतों की तरह रोने से कोई लाभ नहीं होनें वाला।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरती उपरि कोट गड़ केती गई वजाइ ॥ जो असमानि न मावनी तिन नकि नथा पाइ ॥ जे मन जाणहि सूलीआ काहे मिठा खाहि ॥३॥

मूलम्

धरती उपरि कोट गड़ केती गई वजाइ ॥ जो असमानि न मावनी तिन नकि नथा पाइ ॥ जे मन जाणहि सूलीआ काहे मिठा खाहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोट = किला। गढ़ = किला। केती = बहुत सारी दुनिया। वजाइ = (नौबत) बजा के। असमानि = आकाश तक। न मावनी = नहीं आते। तिन नकि = उनके नाम में। नथा पाइ = नाथ डालता है, काबू करता है, अकड़ा तोड़ना। मन = हे मन! सूलीआ = दुख-कष्ट। काहे = क्यों? मिठा खाहि = तू मीठा खाता है, तू दुनिया के मीठे भोग भोगता है।3।
अर्थ: इस धरती पर अनेक आए जो किले आदि बना के (अपनी ताकत का) ढोल बजा के (आखिर) चले गए। जो अपनी ताकत के घमण्ड में इतनी गर्दन अकड़ाते हैं कि (जैसे) आसमान के तले भी नहीं समाते, वह परमात्मा उनकी अकड़ भी तोड़ देता है। सो, हे मन! अगर तू ये समझ ले कि दुनिया के मौज मेलों का नतीजा दुख-कष्ट ही है तो दुनियां के भोगों में ही क्यों मस्त रहें?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक अउगुण जेतड़े तेते गली जंजीर ॥ जे गुण होनि त कटीअनि से भाई से वीर ॥ अगै गए न मंनीअनि मारि कढहु वेपीर ॥४॥१॥

मूलम्

नानक अउगुण जेतड़े तेते गली जंजीर ॥ जे गुण होनि त कटीअनि से भाई से वीर ॥ अगै गए न मंनीअनि मारि कढहु वेपीर ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउगुण = विकार, पाप। तेरे = ये सारे। गली = बातों से। जंजीर = बंधन। कटीअनि = काटे जाते हैं। से = यही। अगै गए = हमारे साथ गए हुए। मंनीअनि = माने जाते हैं, आदर पाते हैं। वेपीर = बे+पीर, बिना मुरशिद के, वश में ना आने वाले।4।
अर्थ: हे नानक! (दुनिया के सुख भोगने के लिए) जितने भी पाप-विकार हम करते हैं, ये सारे पाप-विकार हमारे गलों में जंजीर बन जाते हैं (ये एक के बाद एक और ही और पापों की तरफ घसीट के ले जाते हैं), ये पाप-जंजीरें तभी काटी जा सकती हैं यदि हमारे पल्ले गुण हों। गुण ही असल भाई-मित्र हैं। (यहाँ से) हमारे साथ गए हुए पाप-विकार (आगे) आदर नहीं पाते। इन बे-मुर्शिदों को (अभी इसी वक्त) मार के अपने अंदर से निकाल दो।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ घरु १ ॥ मनु हाली किरसाणी करणी सरमु पाणी तनु खेतु ॥ नामु बीजु संतोखु सुहागा रखु गरीबी वेसु ॥ भाउ करम करि जमसी से घर भागठ देखु ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ घरु १ ॥ मनु हाली किरसाणी करणी सरमु पाणी तनु खेतु ॥ नामु बीजु संतोखु सुहागा रखु गरीबी वेसु ॥ भाउ करम करि जमसी से घर भागठ देखु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाली = हल चलाने वाला। किरसाणी = किसानी। करणी = उच्च आचरण। सरमु = श्रम, मेहनत, उद्यम। रखु = रखवाला। गरीबी वेसु = सादा लिबास, सादगी वाला जीवन। भाउ = प्रेम। करम = बख्शिश। करम करि = (परमात्मा की) मेहर से। जंमसी = उगेगा, पैदा होगा। भागठ = भाग्यों वाले, धनाढ।1।
अर्थ: (हे भाई! सदा साथ निभने वाला धन कमाने के लिए) मन को किसान (जैसा उद्यमी) बना, ऊँचे आचरण को खेती समझ, मेहनत (नाम के फसल के लिए) पानी है, (ये अपना) शरीर (ही) जमीन है। (इस जमीन में) परमात्मा का नाम बीज, (बीज बो के उसे पक्षियों से बचाने के लिए सोहागा फेरना जरूरी है, इसी तरह अगर संतोष वाला जीवन नहीं, तो माया की तृष्णा नाम-बीज को समाप्त कर देगी) संतोष (नाम-बीज को तृष्णा-पक्षियों से बचाने के लिए) सुहागा है, सादा जीवन (नाम-फसल की रक्षा करने के लिए) रखवाला है। (हे भाई! ऐसी किसानी करने से शरीर-भूमि में) परमात्मा की मेहर से प्रेम पैदा होगा। देख, (जिन्होंने ऐसी खेती की) उनके हृदय (नाम-धन से) धनाढ हो गऐ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा माइआ साथि न होइ ॥ इनि माइआ जगु मोहिआ विरला बूझै कोइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा माइआ साथि न होइ ॥ इनि माइआ जगु मोहिआ विरला बूझै कोइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! ठनि = इस ने। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (यहाँ से चलने के वक्त) माया जीव के साथ नहीं जाती (ये हरेक को पता है फिर भी) इस माया ने सारे जगत को अपने वश में किया हुआ है। कोई विरला मनुष्य समझता है (कि सदा साथ निभने वाला धन और है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाणु हटु करि आरजा सचु नामु करि वथु ॥ सुरति सोच करि भांडसाल तिसु विचि तिस नो रखु ॥ वणजारिआ सिउ वणजु करि लै लाहा मन हसु ॥२॥

मूलम्

हाणु हटु करि आरजा सचु नामु करि वथु ॥ सुरति सोच करि भांडसाल तिसु विचि तिस नो रखु ॥ वणजारिआ सिउ वणजु करि लै लाहा मन हसु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाणु = बीतना, गुजरना। आरजा = उम्र। आरजा हाणु = उम्र का बीतना, श्वासों का चलना, हरेक सांस के साथ नाम को परोना। हटु = दुकान। वथु = सौदा। सोच = विचार। भांडसाल = बर्तनों की कतार। तिसु विच = उस बर्तनों की दुकान में। तिस नो = उस नाम सौदे को। वणजारे = सत्संगी। मन हसु = मन की हँसी, मन का खिलना।2।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘जिसु, किसु, तिसु, उसु’ का आखिर ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का, के, की, दा, दे, दी, नै, नो, ते’ के कारण हट गई है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) उम्र की हरेक सांस को कमाई बना, इस दुकान में सदा-स्थिर रहने वाला हरि का नाम सौदा बना। अपनी सूझ के विचार-मण्डल को बर्तनों की कतार बना, इस बर्तनों की कतार में (बर्तनशाला में) हरि-नाम सौदे को डाल। ये नाम-वाणज्य करने वाले सत्संगियों से मिल के तू भी हरि नाम का व्यापार कर। इस व्यापार से कमाई होगी मन का खिलना।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सासत सउदागरी सतु घोड़े लै चलु ॥ खरचु बंनु चंगिआईआ मतु मन जाणहि कलु ॥ निरंकार कै देसि जाहि ता सुखि लहहि महलु ॥३॥

मूलम्

सुणि सासत सउदागरी सतु घोड़े लै चलु ॥ खरचु बंनु चंगिआईआ मतु मन जाणहि कलु ॥ निरंकार कै देसि जाहि ता सुखि लहहि महलु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासत = धर्म पुस्तक। सतु = उच्च आचरण। मन = हे मन! मतु जाणहि कलु = ऐसा ना सोचें कि कल होगा, कल तक ना छोड़ना। देसि = देश में। सुखि = सुख में, आत्मिक आनंद में। महलु = ठिकाना।3।
अर्थ: (हे भाई! सौदागरों की तरह हरि-नाम का सौदागर बन) धर्म-पुस्तकों (का उपदेश) सुना कर, ये हरि-नाम की सौदागिरी है, (सौदागरी का माल असबाब लादने के लिए) उच्च आचरण वाले घोड़े बना के चल, (जिंदगी के सफर में भी खर्च की जरूरत है) अच्छे गुणों को जीवन-यात्रा का खर्च बना। हे मन! (इस व्यापार के उद्यम को) कल पर ना डालना। इस व्यापार से अगर तू परमात्मा के देश में (परमात्मा के चरणों में) टिक जाएं, तो आत्मिक सुख में जगह तलाश लेगा।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

लाइ चितु करि चाकरी मंनि नामु करि कमु ॥ बंनु बदीआ करि धावणी ता को आखै धंनु ॥ नानक वेखै नदरि करि चड़ै चवगण वंनु ॥४॥२॥

मूलम्

लाइ चितु करि चाकरी मंनि नामु करि कमु ॥ बंनु बदीआ करि धावणी ता को आखै धंनु ॥ नानक वेखै नदरि करि चड़ै चवगण वंनु ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाकरी = नौकरी। कंमु = नौकरी का काम। बंनु = रोक के रख। धावणी = नौकरी के लिए दौड़ भाग। ता = तब ही। धंनु = धन्य। चवगण = चौगुना। वंनु = रंग।4।
अर्थ: (हे भाई! नौकर रोजी कमाने के लिए मेहनत से मालिक की सेवा करता है, तू भी) पूरे ध्यान से (प्रभु मालिक की) नौकरी कर (जैसे नौकर अपने मालिक के हुक्म को भुलाता नहीं, तू भी) परमात्मा मालिक के नाम को मन में पक्का करके रख, यही है उसकी सेवा। विकारों को (अपने नजदीक आने से) रोक दे, ये है परमात्मा की नौकरी की दौड़-भाग। (यदि ये उद्यम करेगा) तो हर कोई तुझे साबाशी देगा। हे नानक! ऐसी नौकरी करने से परमात्मा तुझे मेहर की नजर से देखेगा, तेरी जीवात्मा पर चौगुना आत्मिक-रूप चढ़ेगा।4।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: धन कमाने के लिए आम तौर पर चार तरीके हैं: किसानी, दुकान, व्यापार और नौकरी। इस शब्द में फरमाते हैं कि दुनिया का धन यहाँ से चलने के वक्त साथ छोड़ देगा, साथ निभने वाला तो नाम-धन है, उसे इकट्ठा करने के लिए वैसे ही मेहनत करनी है जैसे किसान खेती के लिए मेहनत करता है, दुकानदार दुकान में, व्यापारी व्यापार में और मुलाजिम नौकरी में।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः १ चउतुके ॥ माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई ॥ बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई ॥ हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई ॥ नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः १ चउतुके ॥ माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई ॥ बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई ॥ हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई ॥ नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीका = अच्छा, प्यारा। ससुरै = ससुर का। चतुरु = समझदार। को = को, के वास्ते। को = का। बाहरु घरु = घर बाहर, घर घाट। दानु = सेवा (दूसरों की)। इसनानु = पवित्रता, पवित्र आचरण। तितु = उस में, उससे। तनि = शरीर से। तितु तनि = उस शरीर से। धूड़ि धुमाई = धूल ही उड़ाई।1।
अर्थ: जो मनुष्य कभी माता-पिता का प्यारा पुत्र था, कभी ससुर का चतुर दामाद था, कभी पुत्र-पुत्री के लिए प्यारा पिता, कभी भाई का बड़ा (स्नेह भरा) भाई था, जब अकालपुरुख का हुक्म हुआ तो उसने घर-बार सब कुछ छोड़ दिया, पलक झपकते ही सब कुछ पराया हो गया है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे ने ना नाम जपा ना सेवा की और ना ही पवित्र आचरण बनाया। इस मानव शरीर से मिट्टी ही उड़ाता रहा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु मानिआ नामु सखाई ॥ पाइ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मनु मानिआ नामु सखाई ॥ पाइ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखाई = मित्र। परउ = मैं पड़ता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन गुरु के उपदेश में पतीजता है वह परमात्मा के नाम को असल मित्र समझता है। मैं तो गुरु के पैर लगता हूँ, गुरु से सदके जाता हूँ जिसने ये सच्ची मति दी है (कि परमात्मा असल मित्र है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई ॥ माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई ॥ गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई ॥ रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई ॥२॥

मूलम्

जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई ॥ माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई ॥ गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई ॥ रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेधिआ = भेदा। जन = प्रभु के दास, संत जन। वादु = झगड़ा। मगनु = मस्त। अहि = दिन। निसि = रात। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिखु = जहर। गंधण वैणि = गंदे बोल में। रता = मस्त। हितकारी = हितैषी, प्यार करने वाला। रंगि = (प्रभु के) रंग में। रसि = रस में। मनमुखि = जिस मनुष्य का मुंह अपने ही मन की ओर है, जो अपने मन के पीछे चलता है। पति = इज्जत।2।
अर्थ: मनमुख का मन जगत से झूठे प्यार में परोया रहता है, संत-जनों से वह झगड़ा खड़ा किए रखता है। माया (के मोह) में मस्त वह दिन रात वह माया की राह ही देखता रहता है, परमात्मा का नाम कभी नहीं स्मरण करता, इस तरह (माया के मोह का) जहर खा खा के आत्मिक मौत मर जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य गंदे गीतों (गाने-सुनने) में मस्त रहता है, गंदे गीतों से ही हित करता है, परमात्मा की महिमा वाली वाणी में उसकी तवज्जो नहीं जुड़ती। ना वह परमात्मा के प्यार में रंगा जाता है ना वह नाम-रस से आकर्षित होता है। मनमुख इसी तरह अपनी इज्जत गवा लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई ॥ मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की खबरि न पाई ॥ अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई ॥ जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना कीआ कमाई ॥३॥

मूलम्

साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई ॥ मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की खबरि न पाई ॥ अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई ॥ जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना कीआ कमाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध सभा = सत्संग। सहजु = अडोलता का आनंद, शांति का रस। राई = रक्ती भी। दर = परमात्मा का दरवाजा। मीटि = मीट के। अखी मीटि चलिआ = आँखें बंद करके ही चलता रहा। अंधिआरा = अंधा। घरु दरु = प्रभु का घर प्रभु का दर। दरि = दर पर।3।
अर्थ: साधु-संगत में जा के मनमुख आत्मिक अडोलता का आनंद कभी नहीं पाता, उसकी जीभ को नाम जपने में थोड़ा सा भी स्वाद नहीं आता। मनमुख अपने मन को तन को धन को ही अपना समझे बैठता है परमात्मा के दर की उसे कोई समझ नहीं होती। मनमुख अंधा (जीवन सफर में) आँखे बँद करके ही चलता जाता है, हे भाई! परमात्मा का घर परमात्मा का दर उसे कभी दिखता ही नहीं। आखिर अपने किए का ये लाभ कमाता है कि यमराज के दरवाजे पर बँधा हुआ (मार खाता है, इस सजा से बचने के लिए) उसे कोई सहारा नहीं मिलता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई ॥ कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अम्रितु रिदै वसाई ॥ निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई ॥ नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई ॥४॥३॥

मूलम्

नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई ॥ कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अम्रितु रिदै वसाई ॥ निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई ॥ नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अखी वेखा = मैं आँखों से देख सकता हूँ। कंनी = कानों से। सालाही = मैं महिमा करता हूँ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन वाला नाम। वसाई = मैं बसा सकता हूँ। समाई = व्यापक। सति = सत वाला। नामि = नाम में (जुड़ने से)।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के सारे बंद चौतुके हैं, हरेक बंद में चार-चार तुकें हैं पहले दो शबदों के हरेक बंद में तीन-तीन तुके हैं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर हम जीवों के भी क्या वश?) अगर प्रभु स्वयं मेहर की नजर करे तो ही मैं उसे आँखों से देख सकता हूँ, उसके गुणों का बयान नहीं किया जा सकता। (उसकी मेहर हो तो ही) कानों से उसकी महिमा सुन-सुन के गुरु के शब्द के माध्यम से मैं उसकी महिमा कर सकता हूँ, और अटल आत्मिक जीवन देने वाला उसका नाम दिल में बसा सकता हूँ।
हे नानक! प्रभु निरभय है निराकार है निर्वैर है उसकी ज्योति सारे जगत में पूर्ण रूप में व्यापक है, उसके सदा स्थिर रहने वाले नाम में टिकने से ही आदर मिलता है, पर गुरु की शरण के बिना मन की भटकन दूर नहीं होती (और भटकन दूर हुए बिना नाम में जुड़ा नहीं जा सकता)।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ दुतुके ॥ पुड़ु धरती पुड़ु पाणी आसणु चारि कुंट चउबारा ॥ सगल भवण की मूरति एका मुखि तेरै टकसाला ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ दुतुके ॥ पुड़ु धरती पुड़ु पाणी आसणु चारि कुंट चउबारा ॥ सगल भवण की मूरति एका मुखि तेरै टकसाला ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुतुके = दो-दो तुकों वाले सारे ‘बंद’। पुड़ु = चक्की का पुड़। पाणी = बादल, आकाश। कुंट = कूट, पासा। आसणु = निवास स्थान। भवण = सृष्टि। मूरति = मूर्तियां, जीव-जंतु। मुखि = मुखी, श्रेष्ठ। तेरै मुखि टकसाला = तेरी श्रेष्ठ टकसाल में घड़े गए हैं।1।
अर्थ: हे प्रभु! ये सारी सृष्टि तेरा ही चुबारा है, चारों तरफ उस चुबारे की चार दीवारें हैं, धरती उस चुबारे की (नीचे की) पुड़ (चक्की का हिस्सा) है (फर्श है), आकाश उस चुबारे का (ऊपरी) पुड़ है (छत है)। इस चुबारे में तेरा निवास है। सारी सृष्टि (के जीव-जंतुओं) की मूर्तियां तेरी ही श्रेष्ठ टकसाल में घड़ी हुई हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे साहिबा तेरे चोज विडाणा ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा आपे सरब समाणा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे साहिबा तेरे चोज विडाणा ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा आपे सरब समाणा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोज = करिश्मे, तमाशे। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। भरिपुरि = भरपूर, नाको नाक। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक! तेरे आश्चर्यजनक करिश्मे हैं। तू पानी में, धरती के अंदर, धरती के ऊपर (सारे अंतरिक्ष में) भरपूर व्यापक है। तू खुद ही सब जगह मौजूद है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह देखा तह जोति तुमारी तेरा रूपु किनेहा ॥ इकतु रूपि फिरहि परछंना कोइ न किस ही जेहा ॥२॥

मूलम्

जह जह देखा तह जोति तुमारी तेरा रूपु किनेहा ॥ इकतु रूपि फिरहि परछंना कोइ न किस ही जेहा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनेहा = कैसा? बयान से परे। इकतु रूप = एक रूप (होते हुए), एक खुद ही खुद होते हुए। परछंना = छुपा हुआ।2।
अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ तेरी ही ज्योति (प्रकाशमान) है, पर तेरा स्वरूप कैसा है (ये बयान से परे है)। तू खुद ही खुद होते हुए भी इन बेअंत जीवों में छुप के घूम रहा है (आश्चर्य ये है कि) कोई एक जीव किसी दूसरे जैसा नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंडज जेरज उतभुज सेतज तेरे कीते जंता ॥ एकु पुरबु मै तेरा देखिआ तू सभना माहि रवंता ॥३॥

मूलम्

अंडज जेरज उतभुज सेतज तेरे कीते जंता ॥ एकु पुरबु मै तेरा देखिआ तू सभना माहि रवंता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंडज = अण्डे से जन्मे हुए। जेरज = ज्योर गर्भ से जन्मे हुए। उतभुज = पानी से धरती में पैदा होए हुए। सेतज = स्वेत (पसीने) से पैदा होए हुए। पूरबु = आश्चर्यजनक खेल, बड़ाई। रवंता = रमा हुआ, व्यापक।3।
अर्थ: अण्डे में से, गर्भ में से, धरती में से, पसीने में से पैदा होए हुए ये सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं (ये सारे अनेक रंगों और किस्मों के हैं), पर मैं तेरे आश्चर्यजनक खेल को देखता हूँ कि तू इन सभी जीवों में मौजूद है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरे गुण बहुते मै एकु न जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ॥ प्रणवति नानक सुणि मेरे साहिबा डुबदा पथरु लीजै ॥४॥४॥

मूलम्

तेरे गुण बहुते मै एकु न जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ॥ प्रणवति नानक सुणि मेरे साहिबा डुबदा पथरु लीजै ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किछु = कोई अच्छी अकल। लीजै = निकाल ले।4।
अर्थ: नानक विनती करता है: हे प्रभु! तेरे अनेक गुण हैं, मुझे किसी एक की भी पूरी समझ नहीं हैं। हे मेरे मालिक! सुन! मुझ मूर्ख को सद-बुद्धि दे, मैं विकारों में डूब रहा हूँ जैसे पत्थर पानी में डूब जाता है। मुझे निकाल ले।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ हउ पापी पतितु परम पाखंडी तू निरमलु निरंकारी ॥ अम्रितु चाखि परम रसि राते ठाकुर सरणि तुमारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ हउ पापी पतितु परम पाखंडी तू निरमलु निरंकारी ॥ अम्रितु चाखि परम रसि राते ठाकुर सरणि तुमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। पतित = गिरा हुआ, विकारों में पड़ा हुआ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। रसि = रस में। ठाकुर = हे ठाकुर! 1।
अर्थ: हे मेरे ठाकुर! मैं विकारी हूँ, (सदा वकारों में ही) गिरा रहता हूँ, बड़ा ही पाखण्डी हूँ, तू पवित्र निरंकार है। (इतनी ज्यादा दूरी होते हुए मैं तेरे चरणों में कैसे पहुँचू?)। (पर तू शरण पड़े की इज्जत रखने वाला है) जो लोग तेरी शरण पड़ते हैं; वे अटल आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम-रस चख के उस सबसे उच्च रस में मस्त रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करता तू मै माणु निमाणे ॥ माणु महतु नामु धनु पलै साचै सबदि समाणे ॥ रहाउ॥

मूलम्

करता तू मै माणु निमाणे ॥ माणु महतु नामु धनु पलै साचै सबदि समाणे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करता = हे कर्तार! महतु = महत्वता, बड़ाई। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे कर्तार! (दुनिया में किसी को धन का गुमान, किसी को गुणों का फख़र। मेरे पास तो गुण नहीं हैं) मुझे निमाण के लिए तो तू ही माण है (मुझे तेरा ही माण है आसरा है) जिनके पल्ले परमात्मा का नाम धन है, जो गुरु-शब्द के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन रहते हैं उन्हें ही मान मिलता है उन्हें ही बड़प्पन मिलता है। रहाउ।

[[0597]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू पूरा हम ऊरे होछे तू गउरा हम हउरे ॥ तुझ ही मन राते अहिनिसि परभाते हरि रसना जपि मन रे ॥२॥

मूलम्

तू पूरा हम ऊरे होछे तू गउरा हम हउरे ॥ तुझ ही मन राते अहिनिसि परभाते हरि रसना जपि मन रे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊरे = ऊणे, छोटे। होछे = छोटी सीमा वाले। गउरा = भारा, गंभीर। हउरे = हल्के। मन = जिनके मन। रसना = जीभ। मन रे = हे मेरे मन!।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू गुणों से भरपूर है, हम जीव छोटे हैं, तुच्छ बुद्धि के हैं। तू गंभीर है हम हल्के हैं (हे प्रभु!) जिनके मन दिन-रात हर वक्त तेरे प्यार में रंगे रहते हैं (उन्हें तू अपने चरणों में जोड़ के संपूर्ण और गंभीर बना लेता है)। हे मेरे मन! तू भी जीभ से परमात्मा का नाम जप (तेरे अंदर भी उसकी मेहर से गुण पैदा हो जाएंगे)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम साचे हम तुम ही राचे सबदि भेदि फुनि साचे ॥ अहिनिसि नामि रते से सूचे मरि जनमे से काचे ॥३॥

मूलम्

तुम साचे हम तुम ही राचे सबदि भेदि फुनि साचे ॥ अहिनिसि नामि रते से सूचे मरि जनमे से काचे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर रहने वाले। भेदि = भेद के। फुनि = दुबारा, भी। अहि = दिन। निसि = रात। नामि = नाम में। काचे = कच्ची घाड़त वाले, अनुचित घड़त वाले।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सदा-स्थिर रहने वाला है, अगर हम जीव तेरी याद में ही टिके रहें, अगर हम महिमा के शबदों में भेदे रहें, तो हम भी (तेरी मेहर से) अडोल-चिक्त हो सकते हैं। जो मनुष्य दिन-रात तेरे नाम में रंगे रहते हैं वे पवित्र-आत्मा हैं, (पर नाम विसार के) जो जनम-मरण के चक्कर में पड़े हुए हैं उनके मन की घाड़त अभी अनुचित है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरु न दीसै किसु सालाही तिसहि सरीकु न कोई ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा गुरमति जानिआ सोई ॥४॥५॥

मूलम्

अवरु न दीसै किसु सालाही तिसहि सरीकु न कोई ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा गुरमति जानिआ सोई ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलाही = मैं महिमा करूँ। सरीकु = बराबर का।4।
अर्थ: परमात्मा के बराबर का कोई नहीं है, कोई और मुझे उस जैसा दिखता ही नहीं जिसकी मैं महिमा कर सकूँ। नानक विनती करता है मैं उनके दासों का दास हूँ जिन्होंने गुरु की मति ले के उस (जिसका कोई शरीक नहीं है) परमात्मा से गहरी सांझ डाल ली है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ अलख अपार अगम अगोचर ना तिसु कालु न करमा ॥ जाति अजाति अजोनी स्मभउ ना तिसु भाउ न भरमा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ अलख अपार अगम अगोचर ना तिसु कालु न करमा ॥ जाति अजाति अजोनी स्मभउ ना तिसु भाउ न भरमा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलख = (अलक्ष्य, invisible) अदृश्य। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। गो = ज्ञान-इंद्रिय। गोचर = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय पहुँच सकें। अगोचर = अ+गोचर, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। कालु = मौत। करमा = कर्म, काम। अजाति = जिसकी कोई जाति नहीं। संभउ = (स्वयंभू) अपने आप से उत्पन्न होने वाला। भाउ = मोह।1।
अर्थ: वह परमात्मा अदृश्य है, बेअंत है, अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय उसे समझ नहीं सकतीं, मौत उसे छू नहीं सकती, कर्मों का उस पर कोई दबाव नहीं (जैसे जीव कर्म अधीन हैं वह नहीं)। उस प्रभु की कोई जाति नहीं, वह जूनियों में नहीं पड़ता, उसका प्रकाश अपने आप से है। ना उसे कोई मोह व्याप्तता है, ना ही उसे कोई भटकना है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ॥ ना तिसु रूप वरनु नही रेखिआ साचै सबदि नीसाणु ॥ रहाउ॥

मूलम्

साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ॥ ना तिसु रूप वरनु नही रेखिआ साचै सबदि नीसाणु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचिआर = सत्यालय, सच का श्रोत। विटहु = से। वरनु = रंग। रेखिआ = चिन्ह, रेखा। नीसाणु = घर पता। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा कुर्बान हूँ उस परमात्मा से जो सदा कायम रहने वाला है और जो सच्चाई का श्रोत है। उस परमात्मा का ना कोई रूप है ना कोई रंग है ना ही कोई चक्र चिन्ह ही है। सच्चे शब्द में जुड़ने से उसके घर घाट का ठिकाना पता चलता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न नारी ॥ अकुल निरंजन अपर पर्मपरु सगली जोति तुमारी ॥२॥

मूलम्

ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न नारी ॥ अकुल निरंजन अपर पर्मपरु सगली जोति तुमारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। कामु = काम-वासना। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं। परंपरु = परे से परे, बेअंत।2।
अर्थ: उस प्रभु के ना माँ ना पिता ना उसका कोई पुत्र ना ही रिश्तेदार। ना उसे काम-वासना सताती है ना ही उसकी कोई पत्नी है। उस का कोई खास कुल नहीं, वह माया के प्रभाव से परे है, बेअंत है, परे से परे है। हे प्रभु! हर जगह तेरी ही ज्योति प्रकाशमान है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घट घट अंतरि ब्रहमु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ॥ बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ॥३॥

मूलम्

घट घट अंतरि ब्रहमु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ॥ बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। घटि घटि = हरेक घट में। सबाई = हर जगह। बजर = पत्थर जैसे कठोर। कपाट = किवाड़, भित्त। मुकते = मुक्त हो जाते हैं, खुल जाते हैं। निरभै = निडर। ताड़ी = समाधी।3।
अर्थ: हरेक शरीर के अंदर परमात्मा गुप्त हो के बैठा हुआ है, हरेक घट में हर जगह पर उसी की ही ज्योति है (पर माया के मोह के कठोर किवाड़ लगे होने के कारण जीव को ये हकीकत समझ नहीं आती)। गुरु की मति पर चल के जिस मनुष्य के ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं उसे ये समझ आ जाता है कि (वह) हरेक जीव में व्यापक होता हुआ भी प्रभु निडर अवस्था में टिका बैठा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जंत उपाइ कालु सिरि जंता वसगति जुगति सबाई ॥ सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ॥४॥

मूलम्

जंत उपाइ कालु सिरि जंता वसगति जुगति सबाई ॥ सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि जंता = सब जीवोंके सिर पर। सबाई = सारी। वसगति = वश में की हुई। पावहि = जीव प्राप्त करते हैं। कमाई = कमा के।4।
अर्थ: सब जीवों को पैदा करके सबके सिर पर परमात्मा ने मौत (भी) टिकाई हुई है, सब जीवों की जीवन-जुगति प्रभु ने अपने वश में रखी हुई है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल कर नाम-पदार्थ हासिल करते हैं, वे गुरु शब्द को कमा के (गुरु के शब्द अनुसार जीवन ढाल के माया के बंधनो से) आजाद हो जाते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ॥ तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ॥५॥६॥

मूलम्

सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ॥ तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाडे = बर्तन में। सूचाचारी = स्वच्छ आचरण वाला। तंतै कउ = जीवात्मा को। परम तंतु = परम आत्मा।5।
अर्थ: पवित्र हृदय में ही सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा टिक सकता है, पर स्वच्छ आचरण वाले (पवित्र दिल वाले) कोई विरले ही होते हैं। (गुरु अपने शब्द के द्वारा हृदय पवित्र करके) जीव को परमात्मा से मिलाता है।
हे नानक! अरदास कर- हे प्रभु! मैं तेरी शरण में हूँ (मुझे अपने चरणों में जोड़े रख)।5।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ जिउ मीना बिनु पाणीऐ तिउ साकतु मरै पिआस ॥ तिउ हरि बिनु मरीऐ रे मना जो बिरथा जावै सासु ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ जिउ मीना बिनु पाणीऐ तिउ साकतु मरै पिआस ॥ तिउ हरि बिनु मरीऐ रे मना जो बिरथा जावै सासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीना = मछली। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। मरै = आत्मिक मौत मरता है। पिआस = माया की तृष्णा। बिरथा = खाली।1।
अर्थ: जैसे पानी के बिना मछली (तड़फती) है वैसे ही माया-ग्रसित जीव तृष्णा के अधीन रह के दुखी रहता है। इसी तरह, हे मन! हरि-स्मरण के बिना जो भी स्वाश खाली जाता है (उसमें दुखी हो हो के) आत्मिक मौत मरना पड़ता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे राम नाम जसु लेइ ॥ बिनु गुर इहु रसु किउ लहउ गुरु मेलै हरि देइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे राम नाम जसु लेइ ॥ बिनु गुर इहु रसु किउ लहउ गुरु मेलै हरि देइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जसु = यश, शोभा। किउ लहउ = मैं कैसे ढूँढू? मुझे नहीं मिल सकता। देइ = देता है। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम की महिमा किया कर। (पर) गुरु की शरण पड़े बिना ये आनंद नहीं मिल सकता। प्रभु (मेहर करके) जिसे गुरु मिलवाता है उसे ही (ये रस) देता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना मिलु संगती गुरमुखि तीरथु होइ ॥ अठसठि तीरथ मजना गुर दरसु परापति होइ ॥२॥

मूलम्

संत जना मिलु संगती गुरमुखि तीरथु होइ ॥ अठसठि तीरथ मजना गुर दरसु परापति होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलु = (हे भाई!) मिल। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना। अठसठि = अढ़सठ। मजना = स्नान। गुर दरसु = गुरु का दर्शन।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘तीरथु’ एकवचन है, ‘तीरथ’ बहुवचन है।
नोट: ‘मिलु’ है हुकमी भविष्यत, मध्यम पूरुष, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे मन!) संत जनों की संगति में मिल (सत्संग में रह के) गुरु के सन्मुख रहना ही (असल) तीर्थ (स्नान) है। जिस मनुष्य को गुरु के दर्शन हो जाते हैं उसे अढ़सठ तीर्थों के स्नान प्राप्त हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ जोगी जत बाहरा तपु नाही सतु संतोखु ॥ तिउ नामै बिनु देहुरी जमु मारै अंतरि दोखु ॥३॥

मूलम्

जिउ जोगी जत बाहरा तपु नाही सतु संतोखु ॥ तिउ नामै बिनु देहुरी जमु मारै अंतरि दोखु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जत = इन्द्रियों को वश में रखना। देहुरी = शरीर। जमु = मौत, मौत का डर। दोखु = विकार।3।
अर्थ: जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया वह जोगी (निष्फल) है, अगर अंदर संतोष नहीं, उच्च जीवन नहीं, तो (किया हुआ) तप व्यर्थ है। इसी तरह अगर प्रभु का नाम नहीं स्मरण किया, तो ये मनुष्य शरीर व्यर्थ है। नाम-हीन मनुष्य के अंदर विकार ही विकार हैं, उसे जमराज सजा देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत प्रेमु न पाईऐ हरि पाईऐ सतिगुर भाइ ॥ सुख दुख दाता गुरु मिलै कहु नानक सिफति समाइ ॥४॥७॥

मूलम्

साकत प्रेमु न पाईऐ हरि पाईऐ सतिगुर भाइ ॥ सुख दुख दाता गुरु मिलै कहु नानक सिफति समाइ ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = साकतों से। भाइ = प्रेम में। समाइ = लीन रहता है।4।
अर्थ: (प्रभु के चरणों का) प्यार माया-ग्रसित लोगों से नहीं मिलता, गुरु से प्यार डालने पर ही परमात्मा मिलता है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, उसे सुख-दुख देने वाला रब मिल जाता है, वह सदा प्रभु की महिमा में लीन रहता है।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ तू प्रभ दाता दानि मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ ॥ मै किआ मागउ किछु थिरु न रहाई हरि दीजै नामु पिआरी जीउ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ तू प्रभ दाता दानि मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ ॥ मै किआ मागउ किछु थिरु न रहाई हरि दीजै नामु पिआरी जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दानि = दान (देने) में। मति पूरा = पूर्ण बुद्धिमान, कभी ना गलती करने वाला। थारे = तेरे। भेखारी = भिखारी। मागउ = मैं मांगू। थिरु = सदा टिके रहने वाला। न रहाई = न रहे, नहीं रहता। हरि = हे हरि! पिआरी = मैं प्यार करूँ।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू हमें सब पदार्थ देने वाला है, दातें देने में तू कभी चूकता नहीं, हम तेरे (दर के) भिखारी हैं। मैं तुझ से कौन सी चीज माँगू? कोई भी चीज सदा टिकी नहीं रहने वाली। (हाँ, तेरा नाम ही है जो सदा स्थिर रहने वाला है। इसलिए) हे हरि! मुझे अपना नाम दे, मैं तेरे नाम को प्यार करूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ जलि थलि महीअलि गुपतो वरतै गुर सबदी देखि निहारी जीउ ॥ रहाउ॥

मूलम्

घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ जलि थलि महीअलि गुपतो वरतै गुर सबदी देखि निहारी जीउ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवि रहिआ = व्यापक हो रहा है। बनवारी = परमात्मा। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। देखि निहारी = अच्दी तरह देख। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है। पानी में, धरती में, धरती पर, आकाश में हर जगह मौजूद है पर छुपा हुआ है। (हे मन!) गुरु के शब्द के माध्यम से उसे देख। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरत पइआल अकासु दिखाइओ गुरि सतिगुरि किरपा धारी जीउ ॥ सो ब्रहमु अजोनी है भी होनी घट भीतरि देखु मुरारी जीउ ॥२॥

मूलम्

मरत पइआल अकासु दिखाइओ गुरि सतिगुरि किरपा धारी जीउ ॥ सो ब्रहमु अजोनी है भी होनी घट भीतरि देखु मुरारी जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरत = मातृ लोक, ये धरती। पइआल = पाताल। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुर ने। है भी = अब भी मौजूद है। होनी = आगे भी मौजूद रहेगा।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर) गुरु ने सतिगुरु ने कृपा की उसको उसने धरती आकाश पाताल (सारा जगत ही परमात्मा के अस्तित्व से भरपूर) दिखा दिया। वह परमात्मा जूनियों में नहीं आता, अब भी मौजूद है, आगे भी मौजूद रहेगा, (हे भाई!) उस प्रभु को तू अपने दिल में बसता देख।2।

[[0598]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम मरन कउ इहु जगु बपुड़ो इनि दूजै भगति विसारी जीउ ॥ सतिगुरु मिलै त गुरमति पाईऐ साकत बाजी हारी जीउ ॥३॥

मूलम्

जनम मरन कउ इहु जगु बपुड़ो इनि दूजै भगति विसारी जीउ ॥ सतिगुरु मिलै त गुरमति पाईऐ साकत बाजी हारी जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बपुड़े = विचारा। इनि = इस (जगत) ने। दूजै = दूसरे (मोह) में (फंस के)। साकत = साकतों ने, माया ग्रसित लोगों ने।3।
अर्थ: ये भाग्यहीन जगत जनम-मरण का चक्कर सहेड़े बैठा है क्योंकि इसने माया के मोह में पड़ कर परमात्मा की भक्ति भुला दी है। अगर सतिगुरु मिल जाए तो गुरु के उपदेश में चलने से (प्रभु की भक्ति) प्राप्त होती है, पर माया-ग्रसित जीव (भक्ति से टूट के मानव जन्म की) बाजी हार जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर बंधन तोड़ि निरारे बहुड़ि न गरभ मझारी जीउ ॥ नानक गिआन रतनु परगासिआ हरि मनि वसिआ निरंकारी जीउ ॥४॥८॥

मूलम्

सतिगुर बंधन तोड़ि निरारे बहुड़ि न गरभ मझारी जीउ ॥ नानक गिआन रतनु परगासिआ हरि मनि वसिआ निरंकारी जीउ ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! तोड़ि = तोड़ के। निरारे = निराले, निर्लिप। बहुड़ि = दुबारा। मझारी = में। नानक = हे नानक! परगासिआ = चमका, रौशन हुआ। मनि = मन में।4।
अर्थ: हे सतिगुरु! माया के बंधन तोड़ के जिस लोगों को तू माया से निर्लिप कर देता है, वह दुबारा जनम-मरन के चक्कर में नहीं पड़ता। हे नानक! (गुरु की कृपा से जिनके अंदर परमात्मा के) ज्ञान का रतन चमक पड़ता है, उनके मन में हरि निरंकार (स्वयं) आ बसता है।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अम्रितु गुर पाही जीउ ॥ छोडहु वेसु भेख चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अम्रितु गुर पाही जीउ ॥ छोडहु वेसु भेख चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जल निधि = पानी का खजाना (जैसे आग बुझाने के लिए पानी चाहिए वैसे ही तृष्णा की आग शांत करने के लिए नाम-जल की आवश्यक्ता है), अमृत का खजाना। जगि = जगत में। पाही = पास। वेसु = पहरावा। वेसु भेख = धार्मिक भेस का पहरावा। चतुराई = चालाकी। दुबिधा = दो रुखी।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस अमृत के खजाने की खातिर तुम जगत में आए हो वह अमृत गुरु की ओर से मिलता है; पर धार्मिक भेस का पहरावा छोड़, मन की चालाकी भी छोड़ दे (बाहर की सूरति धर्मियों वाली और अंदर से दुनिया को ठगने वाली चालाकी) इस दुविधा भरी चाल में उलझे रह के ये अमृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ॥ बाहरि ढूढत बहुतु दुखु पावहि घरि अम्रितु घट माही जीउ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ॥ बाहरि ढूढत बहुतु दुखु पावहि घरि अम्रितु घट माही जीउ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कत = कहाँ बाहर। मतु जाही = ना जाना। घरि = घर में। घट माही = हृदय में। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (अंदर ही प्रभु चरणों में) टिका रह, (देखना, नाम-अमृत की तलाश में) कहीं बाहर ना भटकते फिरना। अगर तू बाहर ढूँढने निकल पड़ा, तो बहुत दुख पाएगा। अटल आत्मिक जीवन देने वाला रस तेरे घर में ही है, हृदय में ही है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगुण छोडि गुणा कउ धावहु करि अवगुण पछुताही जीउ ॥ सर अपसर की सार न जाणहि फिरि फिरि कीच बुडाही जीउ ॥२॥

मूलम्

अवगुण छोडि गुणा कउ धावहु करि अवगुण पछुताही जीउ ॥ सर अपसर की सार न जाणहि फिरि फिरि कीच बुडाही जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावहु = दौड़ो। करि = कर के। सर अपसर = अच्छा और बुरा। सार = समझ। कीच = कीचड़ में। बुडाही = तू डबता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) अवगुण छोड़ के गुण हासिल करने का प्रयत्न करो। अगर अवगुण ही करते रहोगे तो पछताना पड़ेगा। (हे मन!) तू बार-बार मोह के कीचड़ में डूब रहा है, तू अच्छे-बुरे की परख करनी नहीं जानता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि मैलु लोभ बहु झूठे बाहरि नावहु काही जीउ ॥ निरमल नामु जपहु सद गुरमुखि अंतर की गति ताही जीउ ॥३॥

मूलम्

अंतरि मैलु लोभ बहु झूठे बाहरि नावहु काही जीउ ॥ निरमल नामु जपहु सद गुरमुखि अंतर की गति ताही जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काही = किसलिए? अंतरि = तेरे अंदर। अंदर की = अंदर की। ताही = तब ही।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतर’ में फर्क समझें।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) अगर अंदर (मन में) लोभ की मैल है (और लोभ के अधीन हो के) कई ठगी के काम करते हो, तो बाहर (तीर्थ आदि पर) स्नान करने के क्या लाभ? अंदर की ऊँची अवस्था तभी बनेगी जब गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के सदा प्रभु का पवित्र नाम जपोगे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परहरि लोभु निंदा कूड़ु तिआगहु सचु गुर बचनी फलु पाही जीउ ॥ जिउ भावै तिउ राखहु हरि जीउ जन नानक सबदि सलाही जीउ ॥४॥९॥

मूलम्

परहरि लोभु निंदा कूड़ु तिआगहु सचु गुर बचनी फलु पाही जीउ ॥ जिउ भावै तिउ राखहु हरि जीउ जन नानक सबदि सलाही जीउ ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परहरि = त्याग के। सचु फलु = सदा टिके रहने वाला फल। पाही = हासिल करेगा। सालाही = मैं सलाहता रहूँ।4।
अर्थ: (हे मन!) लोभ त्याग, निंदा और झूठ त्याग। गुरु के वचन में चलने से ही सदा स्थिर रहने वाला अमृत-फल मिलेगा।
हे दास नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह:) हे हरि! जैसे तेरी रजा हो वैसे ही मुझे रख (पर ये मेहर कर कि गुरु के) शब्द में जुड़ के मैं तेरी महिमा करता रहूँ।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ पंचपदे ॥ अपना घरु मूसत राखि न साकहि की पर घरु जोहन लागा ॥ घरु दरु राखहि जे रसु चाखहि जो गुरमुखि सेवकु लागा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ पंचपदे ॥ अपना घरु मूसत राखि न साकहि की पर घरु जोहन लागा ॥ घरु दरु राखहि जे रसु चाखहि जो गुरमुखि सेवकु लागा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच पदे = पाँच-पाँच बंदों वाले शब्द। घरु = आत्मिक जीवन। मूसत = चुराया जा रहा है। की = क्यों? जोहन लागा = ताक रहा है, छेद ढूँढ रहा है।1।
अर्थ: हे मन! तेरा अपना आत्मिक जीवन लुटा जा रहा है उसे तू बचा नहीं सकता, पराए ऐब क्यों फरोलता फिरता है? अपना घर-बार (लुटे जाने से तभी) बच सकेगा अगर तू प्रभु के नाम का स्वाद चखेगा। (नाम-रस वही) सेवक (चखता है) जो गुरु के सन्मुख रहके (सेवा में) लगता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे समझु कवन मति लागा ॥ नामु विसारि अन रस लोभाने फिरि पछुताहि अभागा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे समझु कवन मति लागा ॥ नामु विसारि अन रस लोभाने फिरि पछुताहि अभागा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अन रस = और रसों में। अभागा = भाग्यहीन। रहाउ।
अर्थ: हे मन! होश कर, किस बुरी मति में लग गया है? हे अभागे! परमात्मा का नाम भुला के अन्य ही स्वादों में मस्त हो रहा है, (समय बीत जाने पर) फिर पछताएगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवत कउ हरख जात कउ रोवहि इहु दुखु सुखु नाले लागा ॥ आपे दुख सुख भोगि भोगावै गुरमुखि सो अनरागा ॥२॥

मूलम्

आवत कउ हरख जात कउ रोवहि इहु दुखु सुखु नाले लागा ॥ आपे दुख सुख भोगि भोगावै गुरमुखि सो अनरागा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरख = खुशी। नाले = साथ ही। भोगि = भोग में। अनरागा = राग रहित, निर्मोह।2।
अर्थ: हे मन! तू आते धन को देख के खुश होता है, जाते को देख के रोता है, ये दुख और सुख तेरे साथ ही चिपका चला आ रहा है (पर तेरे भी क्या वश?) प्रभु खुद ही (जीव को उसके किए कर्मों के अनुसार) दुखों और सुखों के भोग में उलझा के (दुख-सुख) भोगाता हूँ। (सिर्फ) वह मनुष्य ही निर्मोही रहता है जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि रस ऊपरि अवरु किआ कहीऐ जिनि पीआ सो त्रिपतागा ॥ माइआ मोहित जिनि इहु रसु खोइआ जा साकत दुरमति लागा ॥३॥

मूलम्

हरि रस ऊपरि अवरु किआ कहीऐ जिनि पीआ सो त्रिपतागा ॥ माइआ मोहित जिनि इहु रसु खोइआ जा साकत दुरमति लागा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊपरि = बढ़िया। जिनि = जिस ने। त्रिपतागा = तृप्त हो गया। खोइआ = गवा लिया। जा = जा के। साकत = माया ग्रसित मनुष्य।3।
अर्थ: (हे मन!) परमात्मा के नाम के रस से बढ़िया और कोई रस कहा नहीं जा सकता। जिस मनुष्य ने ये रस पिया है वह (दुनिया के और रसों की ओर से) तृप्त हो जाता है। पर जिस मनुष्य ने माया के मोह में फंस के यह (नाम-) रस गवा लिया है वह माया-ग्रसित लोगों की कुबुद्धि में जा लगता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन का जीउ पवनपति देही देही महि देउ समागा ॥ जे तू देहि त हरि रसु गाई मनु त्रिपतै हरि लिव लागा ॥४॥

मूलम्

मन का जीउ पवनपति देही देही महि देउ समागा ॥ जे तू देहि त हरि रसु गाई मनु त्रिपतै हरि लिव लागा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा, आसरा, जिंद। पवन = प्राण। देही = देह का मालिक। देही = शरीर। देउ = प्रकाश रूप प्रभु। गाई = मैं गाऊँ।4।
अर्थ: जो प्रकाश-रूपपरमात्मा हमारे मन का सहारा है, प्राणों का मालिक है, शरीर का मालिक है, वह हमारे शरीर में ही मौजूद है (पर हमें ये समझ नहीं आता, हम बाहर ही भटकते रहते हैं)। हे प्रभु! अगर तू खुद मुझे अपने नाम का रस बख्शे तो ही मैं तेरे गुण गा सकता हूँ। जिस मनुष्य की तवज्जो हरि-स्मरण में जुड़ती है उसका मन माया की ओर से तृप्त हो जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगति महि हरि रसु पाईऐ गुरि मिलिऐ जम भउ भागा ॥ नानक राम नामु जपि गुरमुखि हरि पाए मसतकि भागा ॥५॥१०॥

मूलम्

साधसंगति महि हरि रसु पाईऐ गुरि मिलिऐ जम भउ भागा ॥ नानक राम नामु जपि गुरमुखि हरि पाए मसतकि भागा ॥५॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु से। मिलिऐ = मिल के। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। मसतकि = माथे पर।5।
अर्थ: हे नानक! साधु-संगत में परमात्मा के नाम का रस प्राप्त हो सकता है (साधु-संगत में) अगर गुरु मिल जाए तो मौत का (भी) डर दूर हो जाता है। जिस मनुष्य के माथे पर अच्छे लेख उघड़ आएं, वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करके परमात्मा के साथ मिलाप हासिल कर लेता है।5।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ सरब जीआ सिरि लेखु धुराहू बिनु लेखै नही कोई जीउ ॥ आपि अलेखु कुदरति करि देखै हुकमि चलाए सोई जीउ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ सरब जीआ सिरि लेखु धुराहू बिनु लेखै नही कोई जीउ ॥ आपि अलेखु कुदरति करि देखै हुकमि चलाए सोई जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। धुराहु = धुर से ही। अलेखु = जिस पर किए कर्मों के संस्कारों का प्रभाव नहीं (अ+लेख)। करि = पैदा करके, बना के। देखै = संभाल करता है। सोई = वह प्रभु स्वयं ही।1।
अर्थ: धुर से ही (परमात्मा की रजा अनुसार) सब जीवों के माथे पर (अपने-अपने किए कर्मोंके संस्कारों का) लेख (उकरा हुआ) है। कोई जीव ऐसा नहीं है जिस पर इस लेख का प्रभाव ना हो। सिर्फ परमात्मा खुद इस (कर्म) लेख से स्वतंत्र है, जो इस कुदरत को रच के इसकी संभाल करता है, और अपने हुक्म में (जगत की कार्यवाही) चला रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे राम जपहु सुखु होई ॥ अहिनिसि गुर के चरन सरेवहु हरि दाता भुगता सोई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे राम जपहु सुखु होई ॥ अहिनिसि गुर के चरन सरेवहु हरि दाता भुगता सोई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। सरेवहु = सेवा करो। भुगता = भोगने वाला। गुर = सबसे बड़ा मालिक। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा राम का नाम जपो (नाम जपने से) आत्मिक सुख मिलेगा। दिन-रात उस सबसे बड़े मालिक के चरणों का ध्यान धरो, वह हरि (खुद ही सब जीवों को दातें) देने वाला है, (खुद ही सबमें व्यापक हो के) भोगने वाला है। रहाउ।

[[0599]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो अंतरि सो बाहरि देखहु अवरु न दूजा कोई जीउ ॥ गुरमुखि एक द्रिसटि करि देखहु घटि घटि जोति समोई जीउ ॥२॥

मूलम्

जो अंतरि सो बाहरि देखहु अवरु न दूजा कोई जीउ ॥ गुरमुखि एक द्रिसटि करि देखहु घटि घटि जोति समोई जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के। एक द्रिसटि = एक प्रभु को ही देखने वाली नजर। करि = बना के। समोई = समाई हुई, मौजूद।2।
अर्थ: हे मेरे मन! जो प्रभु तेरे अंदर बस रहा है उसको बाहर (सारी कायनात में) देख। उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। गुरु के बताए हुए राह पर चल कर उस एक को देखने वाली नजर बना (फिर तुझे दिख जाएगा कि) हरेक शरीर में एक परमात्मा की ही ज्योति मौजूद है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलतौ ठाकि रखहु घरि अपनै गुर मिलिऐ इह मति होई जीउ ॥ देखि अद्रिसटु रहउ बिसमादी दुखु बिसरै सुखु होई जीउ ॥३॥

मूलम्

चलतौ ठाकि रखहु घरि अपनै गुर मिलिऐ इह मति होई जीउ ॥ देखि अद्रिसटु रहउ बिसमादी दुखु बिसरै सुखु होई जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चलतौ = भटकते (मन) को। ठाकि = रोक के। घरि = घर में। मति = अकल। रहउ = मैं रहता हूँ।। बिसमादी = हैरान, विस्माद अवस्था में।3।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘रहउ’ बारे। इस शब्द के निम्न-लिखित शब्द ध्यान से पढ़ें-जपहु, सरेवहु, देखहु, रखहु, पीवहु। ये सारे शब्द हुकमी भविष्यत, मध्यम पुरुष, बहुवचन हैं। पर शब्द ‘रहउ’ वर्तमानकाल, उत्तम पुरुष व एकवचन है।)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) इस (बाहर) भटकते (मन) को रोक के अपने अंदर (बसते प्रभु में) टिका के रख। पर गुरु को मिल के ही ये मति आती है। मैं तो (गुरु की कृपा से) उस अदृश्य प्रभु को (सब में बसता) देख के विस्माद अवस्था में पहुँच जाता हूँ। (जो भी ये दीदार करता है, उसका) दुख मिट जाता है उसको आत्मिक आनंद मिल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीवहु अपिउ परम सुखु पाईऐ निज घरि वासा होई जीउ ॥ जनम मरण भव भंजनु गाईऐ पुनरपि जनमु न होई जीउ ॥४॥

मूलम्

पीवहु अपिउ परम सुखु पाईऐ निज घरि वासा होई जीउ ॥ जनम मरण भव भंजनु गाईऐ पुनरपि जनमु न होई जीउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपिउ = अंम्रित, अटल आत्मिक जीवन देने वाला रस। पाईऐ = पा लिया जाता है। निज घरि = अपने घर में। जनम मरन भव भंजनु = वह पेंभू जो जनम मरण नाश करने वाला है, जो संसार चक्रनाश करने वाला है। पुनरपि = (पुनः +अपि) पुनः, दुबारा। अपि = भी। (बार बार)।4।
अर्थ: (हे भाई!) अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी, (ये नाम-रस पीने से) सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद मिलता है, और अपने घर में ठिकाना हो जाता है (भाव, सुखों की खातिर मन बाहर भटकने से हट जाता है)। (हे भाई!) जनम-मरण का चक्कर नाश करने वाले प्रभु की महिमा करनी चाहिए (इस तरह) बार-बार जनम (मरण) नहीं होता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततु निरंजनु जोति सबाई सोहं भेदु न कोई जीउ ॥ अपर्मपर पारब्रहमु परमेसरु नानक गुरु मिलिआ सोई जीउ ॥५॥११॥

मूलम्

ततु निरंजनु जोति सबाई सोहं भेदु न कोई जीउ ॥ अपर्मपर पारब्रहमु परमेसरु नानक गुरु मिलिआ सोई जीउ ॥५॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततु = सारे जगत का असल। निरंजनु = माया कालिख से रहित। सबाई = सब जगह। सोहं = सोहै, शोभा दे रही है। भेदु = दूरी। अपरंपर = परे से परे। गुर मिलिआ = (जो मनुष्य) गुरु को मिल पड़ा है।5।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा सारे जगत की अस्लियत है (असल मूल तत्व है), (खुद) माया के प्रभाव से रहित है, प्रभु पारब्रहम परे से परे है और सबसे बड़ा मालिक है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु को मिल लेता है उसको (दिखाई दे जाता है कि) उस प्रभु की ज्योति हर जगह शोभायमान है (और उसकी व्यापकता में कहीं) कोई भेद-भाव नहीं है।5।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट! ये 11शबद ‘घरु १’ हैं। आगे 1शबद ‘घरु ३’ का है। तभी उसका अलग से अंक 1 दे के सारा जोड़ 12 लिखा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा तिसु भावा तद ही गावा ॥ ता गावे का फलु पावा ॥ गावे का फलु होई ॥ जा आपे देवै सोई ॥१॥

मूलम्

जा तिसु भावा तद ही गावा ॥ ता गावे का फलु पावा ॥ गावे का फलु होई ॥ जा आपे देवै सोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा = जब। तिसु = उस (प्रभु) को। भावा = अच्छा लगूँ। गावा = मैं गा सकता हूं, महिमा करूँ। ता = तब। गावे का = महिमा का। पावा = मैं पा सकता हूँ। सोई = वह प्रभु ही।1।
अर्थ: (हे मेरे मन!) जब मैं उस प्रभु को अच्छा लगता हूँ (अर्थात, जब वह मेरे पर खुश होता है) तब ही मैं उसकी महिमा कर सकता हूँ, तब ही (उसकी मेहर से ही) मैं महिमा का फल पा सकता हूँ। महिमा करने का जो फल है (कि सदा उसके चरणों में लीन रहा जा सकता है, ये भी तभी प्राप्त होता है) जब वह प्रभु खुद ही (प्रसन्न हो के) देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे गुर बचनी निधि पाई ॥ ता ते सच महि रहिआ समाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे गुर बचनी निधि पाई ॥ ता ते सच महि रहिआ समाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! बचनी = वचनों से। निधि = खजाना, महिमा का खजाना। पाई = (जिसने) पा लिया। ता ते = उस (खजाने) से, महिमा के उस खजाने की इनायत से। सच = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने गुरु के वचनों पर चल के (महिमा का) खजाना पा लिया, वह उस (खजाने) की इनायत से सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद में) सदा टिका रहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर साखी अंतरि जागी ॥ ता चंचल मति तिआगी ॥ गुर साखी का उजीआरा ॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा ॥२॥

मूलम्

गुर साखी अंतरि जागी ॥ ता चंचल मति तिआगी ॥ गुर साखी का उजीआरा ॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साखी = शिक्षा। जागी = जाग पड़ी, ज्योति जग गई। ता = तब। चंचल = एक जगह ना टिकने वाली, भटकना में डाले रखने वाली। उजीआरा = प्रकाश (आत्मिक)। अंध्यारा = (अज्ञानता का) अंधेरा।2।
अर्थ: जब जिस मनुष्य के अंदर सतिगुरु की (महिमा करनेकी शिक्षा की) ज्योति जग जाती है तब वह मनुष्य ऐसी मति त्याग देता है जो उसे माया की भटकना में डाले रखती थी। जब (मनुष्य के अंदर) गुरु के उपदेश का (आत्मिक) प्रकाश होता है, तब उसके अंदर से (अज्ञानता वाला) सारा अंधकार दूर हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर चरनी मनु लागा ॥ ता जम का मारगु भागा ॥ भै विचि निरभउ पाइआ ॥ ता सहजै कै घरि आइआ ॥३॥

मूलम्

गुर चरनी मनु लागा ॥ ता जम का मारगु भागा ॥ भै विचि निरभउ पाइआ ॥ ता सहजै कै घरि आइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। जम का मारगु = वह जीवन रास्ता जो आत्मिक मौत की ओर ले जाता है। सहज = अडोल आत्मिक अवस्था, शांति।3।
अर्थ: जब जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में जुड़ता है, तब उस मनुष्य का वह जीवन-रास्ता समाप्त हो जाता है जिस पे चलते हुए (उसकी) आत्मिक मौत हो रही थी। परमात्मा के डर अदब में रह के जब मनुष्य निर्भय प्रभु से मिलाप हासिल करता है तब वह अडोल आत्मिक अवस्था के घर में टिक जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भणति नानकु बूझै को बीचारी ॥ इसु जग महि करणी सारी ॥ करणी कीरति होई ॥ जा आपे मिलिआ सोई ॥४॥१॥१२॥

मूलम्

भणति नानकु बूझै को बीचारी ॥ इसु जग महि करणी सारी ॥ करणी कीरति होई ॥ जा आपे मिलिआ सोई ॥४॥१॥१२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: देखें इसी राग में नामदेव जी का शब्द ‘जब देखा तब गावा’। दोनों शबदों में बहुत ही समीपता है। गुरु नानक देव जी के पास भक्त नामदेव जी की वाणी मौजूद थी।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भणति = कहता है। को बीचारी = कोई विचारवान ही। करणी = करने योग्य कर्म, करणीय। सारी = श्रेष्ठ। कीरति = कीर्ति, महिमा। आपे = (प्रभु) खुद ही।4।
अर्थ: पर, नानक कहता है: कोई विरला विचारवान ही समझता है कि इस जिंदगी में (परमात्मा की महिमा ही) श्रेष्ठ करने योग्य काम है। जब प्रभु खुद (मेहर करके जीव के दिल में) प्रगट होता है तब उसको महिमा का (श्रेष्ठ) कर्म मिल जाता है।4।1।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवक सेव करहि सभि तेरी जिन सबदै सादु आइआ ॥ गुर किरपा ते निरमलु होआ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥ अनदिनु गुण गावहि नित साचे गुर कै सबदि सुहाइआ ॥१॥

मूलम्

सेवक सेव करहि सभि तेरी जिन सबदै सादु आइआ ॥ गुर किरपा ते निरमलु होआ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥ अनदिनु गुण गावहि नित साचे गुर कै सबदि सुहाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सबदै = गुरु के शब्द का। सादु = सवाद, रस। ते = से, साथ। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। आपु = स्वै भाव। अनदिनु = हर रोज। गावहि = गाते हैं। साचे = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के। सबदि = शब्द से। सुहाइआ = सुंदर जीवन वाले हो जाते हैं।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिन’ बहुवचन है ‘जिनि’ एकवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तेरे जिस सेवकों को गुरु के शब्द का रस आ जाता है वही सारे तेरी सेवा-भक्ति करते हैं। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से अपने अंदर से स्वै भाव दूर कर लिया वह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में (जुड़ के) हर वक्त सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते रहते हैं, वे सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे ठाकुर हम बारिक सरणि तुमारी ॥ एको सचा सचु तू केवलु आपि मुरारी ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे ठाकुर हम बारिक सरणि तुमारी ॥ एको सचा सचु तू केवलु आपि मुरारी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक! सचा = सदा स्थिर रहने वाला। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! हम (जीव) तेरे बच्चे हैं, तेरी शरण आए हैं। सिर्फ एक तू ही सदा कायम रहने वाला है (जीव माया में डोल जाते हैं)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जागत रहे तिनी प्रभु पाइआ सबदे हउमै मारी ॥ गिरही महि सदा हरि जन उदासी गिआन तत बीचारी ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ हरि राखिआ उर धारी ॥२॥

मूलम्

जागत रहे तिनी प्रभु पाइआ सबदे हउमै मारी ॥ गिरही महि सदा हरि जन उदासी गिआन तत बीचारी ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ हरि राखिआ उर धारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागत = (विकारों से) सचेत। गिरही महि = गृह में ही, गृहस्थ में ही। उर = दिल।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) अहंकार समाप्त कर लेते हैं, वे (माया के मोह आदि से) सचेत रहते हैं, उन्होंने ही परमात्मा का मिलाप हासिल किया है। परमात्मा के भक्त गुरु के असल ज्ञान के द्वारा विचारवान हो के गृहस्थ में रहते हुए भी माया से विरक्त रहते हैं। वह भक्त गुरु की बताई हुई सेवा करके सदा आत्मिक आनंद पाते हैं, और परमात्मा को अपने दिल में बसाए रखते हैं।2।

[[0600]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनूआ दह दिसि धावदा दूजै भाइ खुआइआ ॥ मनमुख मुगधु हरि नामु न चेतै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु भेटे ता नाउ पाए हउमै मोहु चुकाइआ ॥३॥

मूलम्

इहु मनूआ दह दिसि धावदा दूजै भाइ खुआइआ ॥ मनमुख मुगधु हरि नामु न चेतै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु भेटे ता नाउ पाए हउमै मोहु चुकाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनूआ = अल्लहड़ मन। दह दिसि = दसों दिशाओं में। दूजै भाइ = माया के मोह में। खुआइआ = राह से विछुड़ जाता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगधु = मूर्ख। भेटे = मिल जाए।3।
अर्थ: हे भाई! ये अल्लहड़ मन माया के मोह में फंस के दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है, और (जीवन के सही राह से) उखड़ा फिरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य परमात्मा का नाम याद नहीं करता, अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है। पर जब उसे गुरु मिल जाता है तब वह हरि नाम की दाति हासिल करता है, और, अपने अंदर से माया का मोह और अहंकार दूर कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन साचे साचु कमावहि गुर कै सबदि वीचारी ॥ आपे मेलि लए प्रभि साचै साचु रखिआ उर धारी ॥ नानक नावहु गति मति पाई एहा रासि हमारी ॥४॥१॥

मूलम्

हरि जन साचे साचु कमावहि गुर कै सबदि वीचारी ॥ आपे मेलि लए प्रभि साचै साचु रखिआ उर धारी ॥ नानक नावहु गति मति पाई एहा रासि हमारी ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वीचारी = विचारवान (हो के)। प्रभि = प्रभु ने। साचै = सदा स्थिर रहने वाले ने। नावहु = नाम से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। एहा = ये (नाम) ही। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द के द्वारा विचारवान हो के परमात्मा के दास सदा स्थिर परमात्मा का सदा-स्थिर नाम-जपने की कमाई करते रहते हैं। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा ने स्वयं ही उनको अपने चरणों में मिला लिया होता है। वह सदा कायम रहने वाले प्रभु को अपने दिल में बसाए रखते हैं।
हे नानक! (कह:) परमात्मा के नाम से ही ऊँची आत्मिक अवस्था और (अच्छी) बुद्धि प्राप्त होती है। परमात्मा का नाम ही हम (जीवों की) संपत्ति है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ भगति खजाना भगतन कउ दीआ नाउ हरि धनु सचु सोइ ॥ अखुटु नाम धनु कदे निखुटै नाही किनै न कीमति होइ ॥ नाम धनि मुख उजले होए हरि पाइआ सचु सोइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ भगति खजाना भगतन कउ दीआ नाउ हरि धनु सचु सोइ ॥ अखुटु नाम धनु कदे निखुटै नाही किनै न कीमति होइ ॥ नाम धनि मुख उजले होए हरि पाइआ सचु सोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। सचु = सदा कायम रहने वाला। अखुटु = ना खतम होने वाला। किनै = किसी तरफ भी। धनि = धन से।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु) भक्त जनों को परमात्मा की भक्ति का खजाना देता है, परमात्मा का नाम ऐसा धन है जो सदा कायम रहता है। हरि-नाम-धन कभी खत्म होने वाला नहीं, ये धन कभी खत्म नहीं होता, किसी से ये मूल्य भी नहीं लिया जा सकता (भाव, कोई मनुष्य इसे दुनियावी पदार्थों से खरीद भी नहीं सकता)। जिन्होंने ये सदा-स्थिर हरि-धन प्राप्त कर लिया, उन्हें इस नाम-धन की इनायत से (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे गुर सबदी हरि पाइआ जाइ ॥ बिनु सबदै जगु भुलदा फिरदा दरगह मिलै सजाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे गुर सबदी हरि पाइआ जाइ ॥ बिनु सबदै जगु भुलदा फिरदा दरगह मिलै सजाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदी = शब्द से। सजाइ = दण्ड। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु के शब्द से ही परमात्मा मिल सकता है। शब्द के बिना जगत गलत रास्ते पर भटकता फिरता है (आगे परलोक में) प्रभु की दरगाह में दण्ड सहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु देही अंदरि पंच चोर वसहि कामु क्रोधु लोभु मोहु अहंकारा ॥ अम्रितु लूटहि मनमुख नही बूझहि कोइ न सुणै पूकारा ॥ अंधा जगतु अंधु वरतारा बाझु गुरू गुबारा ॥२॥

मूलम्

इसु देही अंदरि पंच चोर वसहि कामु क्रोधु लोभु मोहु अहंकारा ॥ अम्रितु लूटहि मनमुख नही बूझहि कोइ न सुणै पूकारा ॥ अंधा जगतु अंधु वरतारा बाझु गुरू गुबारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देही = शरीर। वसहि = बसते हैं। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम धन। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। गुबारा = अंधेरा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस शरीर में काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार पाँच चोर बसते हैं (ये मनुष्य के अंदर) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-धन लूटते रहते हैं, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को ये बात समझ में नहीं आती। (जब सब कुछ लुटा के वे दुखी होते हैं तब) उनकी कोई पुकार नहीं सुनता (उनकी कोई सहायता नहीं कर सकता)। माया के मोह में अंधा हुआ जगत अंधों वाली करतूत ही करता रहता है, गुरु से बेमुख हो के (इसके आत्मिक जीवन में) अंधकार छाया रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै मेरा करि करि विगुते किहु चलै न चलदिआ नालि ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआवै सदा हरि नामु समालि ॥ सची बाणी हरि गुण गावै नदरी नदरि निहालि ॥३॥

मूलम्

हउमै मेरा करि करि विगुते किहु चलै न चलदिआ नालि ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआवै सदा हरि नामु समालि ॥ सची बाणी हरि गुण गावै नदरी नदरि निहालि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विगुते = दुखी हो रहे हैं। किहु = कुछ भी। समालि = संभाल के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। निहालि = प्रसन्न, सुखी।3।
अर्थ: ‘मैं बड़ा हूँ…ये धन-पदार्थ मेरा है’ - ये कह: कह के (माया-ग्रसित मनुष्य) दुखी होते रहते हैं। पर जगत से चलते वक्त कोई भी चीज किसी के साथ नहीं चलती। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह सदा परमात्मा के नाम को दिल में बसा के नाम स्मरण करता रहता है। वह सदा-स्थिर रहने वाली महिमा की वाणी के द्वारा परमात्मा के गुण गाता रहता है। परमात्मा की मेहर की नजर से वह सदा सुखी रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर गिआनु सदा घटि चानणु अमरु सिरि बादिसाहा ॥ अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु सचु लाहा ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदि रते हरि पाहा ॥४॥२॥

मूलम्

सतिगुर गिआनु सदा घटि चानणु अमरु सिरि बादिसाहा ॥ अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु सचु लाहा ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदि रते हरि पाहा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। घटि = दिल में। अमरु = हुक्म। सिरि = सिर पर। अनदिनु = हर रोज। सचु = सदा कायम रहने वाला। लाहा = लाभ। नामि = नाम से। पाहा = पास, नजदीक।4।
अर्थ: जिनके हृदय में परमात्मा का बख्शा हुआ ज्ञान सदा प्रकाश किए रखता है उसका हुक्म (दुनिया के) बादशाहों के सिर पर (भी) चलता है। वे हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं, वे हरि-नाम का लाभ कमाते रहते हैं जो सदा कायम रहता है। हे नानक! परमात्मा के नाम से संसार से पार-उतारा हो जाता है, जो मनुष्य गुरु के शब्द से हरि-नाम के रंग में रंगे रहते हैं, परमात्मा उनके नजदीक बसता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ३ ॥ दासनि दासु होवै ता हरि पाए विचहु आपु गवाई ॥ भगता का कारजु हरि अनंदु है अनदिनु हरि गुण गाई ॥ सबदि रते सदा इक रंगी हरि सिउ रहे समाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ३ ॥ दासनि दासु होवै ता हरि पाए विचहु आपु गवाई ॥ भगता का कारजु हरि अनंदु है अनदिनु हरि गुण गाई ॥ सबदि रते सदा इक रंगी हरि सिउ रहे समाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दासनि दासु = दासोंका दास, बहुत ही विनम्र स्वभाव वाला। आपु = स्वै भाव। गवाई = दूर कर के। हरि अनंदु = हरि (के मिलाप) का आनंद। कारजु = मुख्य काम। गाई = गा के। इक रंगी = एक रस।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके बहुत गरीबी स्वभाव वाला बनता है, वह परमात्मा को मिल जाता है। परमात्मा के भक्तों का मुख्य काम यही होता है कि वह (स्वै भाव गवा के) हर वक्त प्रभु की महिमा के गीत गा के उसके मिलाप का आनंद लेते हैं। भक्तजन गुरु के शब्द में सदा एक-रस रंगे रह के परमात्मा (की याद) में लीन रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ साची नदरि तुमारी ॥ आपणिआ दासा नो क्रिपा करि पिआरे राखहु पैज हमारी ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ साची नदरि तुमारी ॥ आपणिआ दासा नो क्रिपा करि पिआरे राखहु पैज हमारी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली। पैज = इज्जत। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरी मेहर की निगाह (अपने सेवकों पर) सदा टिकी रहती है। हे प्यारे! तू अपने दासों पर कृपा करता रहता है, मेरी भी इज्ज़त रख। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि सलाही सदा हउ जीवा गुरमती भउ भागा ॥ मेरा प्रभु साचा अति सुआलिउ गुरु सेविआ चितु लागा ॥ साचा सबदु सची सचु बाणी सो जनु अनदिनु जागा ॥२॥

मूलम्

सबदि सलाही सदा हउ जीवा गुरमती भउ भागा ॥ मेरा प्रभु साचा अति सुआलिउ गुरु सेविआ चितु लागा ॥ साचा सबदु सची सचु बाणी सो जनु अनदिनु जागा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलाही = मैं महिमा करता रहूँ। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ। सुआलिउ = सुंदर, सुंदरता का घर। अनदिनु = हर वक्त, हर रोज। जागा = सचेत।2।
अर्थ: (हे प्रभु! अगर तेरी मेहर हो तो) मैं गुरु के शब्द में (जुड़ के) तेरी महिमा करता रहूँ। जो मनुष्य गुरु की मति पर चलता है उसका डर दूर हो जाता है। (हे भाई!) मेरा प्रभु सुंदर है, और सदा कायम रहने वाला है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका चिक्त (उस सुंदर प्रभु में) मगन रहता है। (जिस मनुष्य के दिल में) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द, महिमा की वाणी (बसती है) वह मनुष्य हर वक्त (महिमा में) सचेत रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा ग्मभीरु सदा सुखदाता तिस का अंतु न पाइआ ॥ पूरे गुर की सेवा कीनी अचिंतु हरि मंनि वसाइआ ॥ मनु तनु निरमलु सदा सुखु अंतरि विचहु भरमु चुकाइआ ॥३॥

मूलम्

महा ग्मभीरु सदा सुखदाता तिस का अंतु न पाइआ ॥ पूरे गुर की सेवा कीनी अचिंतु हरि मंनि वसाइआ ॥ मनु तनु निरमलु सदा सुखु अंतरि विचहु भरमु चुकाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंभीर = बड़े जिगरे वाला। अचिंतु = जिसे कोई चिन्ता नहीं। मंनि = मन में। अंतरि = दिल में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा बड़े गहरे जिगरे वाला है, सदा ही (जीवों को) सुख देने वाला है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जो मनुष्य पूरे गुरु की बताई हुई सेवा करता है, उसके मन में वह परमात्मा आ बसता है जिसे कोई चिन्ता सता नहीं सकती। उस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है हृदय पवित्र हो जाता है, उसके हृदय में सदा सुख ही सुख है, वह अपने अंदर से सदा भटकना दूर कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का मारगु सदा पंथु विखड़ा को पाए गुर वीचारा ॥ हरि कै रंगि राता सबदे माता हउमै तजे विकारा ॥ नानक नामि रता इक रंगी सबदि सवारणहारा ॥४॥३॥

मूलम्

हरि का मारगु सदा पंथु विखड़ा को पाए गुर वीचारा ॥ हरि कै रंगि राता सबदे माता हउमै तजे विकारा ॥ नानक नामि रता इक रंगी सबदि सवारणहारा ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगु पंथु = रास्ता। को = कोई विरला। कै रंगि = के प्रेम रंग में। माता = मस्त। नामि = नाम में। सवारणहारा = सवारने योग्य।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के मिलाप का रास्ता बड़ा कठिन है, कोई वह विरला मनुष्य ही वह रास्ता पाता है जो गुरु के शब्द की विचार करता है। वह मनुष्य प्रभु के प्रेम रंग में रंगा जाता है, गुरु के शब्द में मस्त रहता है, अपने अंदर से अहंकार आदि विकार दूर कर देता है। हे नानक! वह मनुष्य प्रभु के नाम में एक-रस रमा रहता है, जो गुरु के शब्द से उसका जीवन सँवार देता है।4।3।

[[0601]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ तुधु नो सदा सालाही पिआरे जिचरु घट अंतरि है सासा ॥ इकु पलु खिनु विसरहि तू सुआमी जाणउ बरस पचासा ॥ हम मूड़ मुगध सदा से भाई गुर कै सबदि प्रगासा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ तुधु नो सदा सालाही पिआरे जिचरु घट अंतरि है सासा ॥ इकु पलु खिनु विसरहि तू सुआमी जाणउ बरस पचासा ॥ हम मूड़ मुगध सदा से भाई गुर कै सबदि प्रगासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाही = मैं सालाहता रहूँ। जिचरु = जब तक। घट अंतरि = शरीर में। सासा = सांस, जिंद। जाणउ = मैं जानता हूँ। मुगध = मूर्ख। से = था।1।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (मेहर कर) जब तक मेरे शरीर में प्राण है, मैं सदा तेरी महिमा करता रहूँ। हे मालिक प्रभु! जब तू मुझे एक पल भर एक छिन भर बिसरता है, तो मैं (मेरे लिए जैसे) पचास साल बीत गए समझता हूँ। हे भाई! हम सदा से ही मूर्ख अंजान चले आ रहे थे, गुरु के शब्द की इनायत से (हमारे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ तुम आपे देहु बुझाई ॥ हरि जीउ तुधु विटहु वारिआ सद ही तेरे नाम विटहु बलि जाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ तुम आपे देहु बुझाई ॥ हरि जीउ तुधु विटहु वारिआ सद ही तेरे नाम विटहु बलि जाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुझाई = समझ। विटहु = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू स्वयं ही (अपना नाम जपने की मुझे) समझ दे। हे प्रभु! मैं तुझसे सदके जाऊँ, मैं तेरे से कुर्बान जाऊँ। रहाउ

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम सबदि मुए सबदि मारि जीवाले भाई सबदे ही मुकति पाई ॥ सबदे मनु तनु निरमलु होआ हरि वसिआ मनि आई ॥ सबदु गुर दाता जितु मनु राता हरि सिउ रहिआ समाई ॥२॥

मूलम्

हम सबदि मुए सबदि मारि जीवाले भाई सबदे ही मुकति पाई ॥ सबदे मनु तनु निरमलु होआ हरि वसिआ मनि आई ॥ सबदु गुर दाता जितु मनु राता हरि सिउ रहिआ समाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुए = (विकारों से) मर सकते हैं। जीवाले = आत्मिक जीवन देता है। मुकति = विकारों से खलासी। आई = आ के। दाता = नाम की दाति देने वाला। जितु = जिस में।2।
अर्थ: हे भाई! हम (जीव) गुरु के शब्द के द्वारा (विकारों से) मर सकते हैं, शब्द के द्वारा ही (विकारों को) मार के (गुरु) आत्मिक जीवन देता है, गुरु के शब्द में जुड़ने से ही विकारों से मुक्ति मिलती है। गुरु के शब्द से मन पवित्र होता है, और परमात्मा मन में आ बसता है। हे भाई! गुरु का शब्द (ही नाम की दाति) देने वाला है, जब शब्द में मन रंगा जाता है तो परमात्मा में लीन हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदु न जाणहि से अंने बोले से कितु आए संसारा ॥ हरि रसु न पाइआ बिरथा जनमु गवाइआ जमहि वारो वारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा माहि समाणे मनमुख मुगध गुबारा ॥३॥

मूलम्

सबदु न जाणहि से अंने बोले से कितु आए संसारा ॥ हरि रसु न पाइआ बिरथा जनमु गवाइआ जमहि वारो वारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा माहि समाणे मनमुख मुगध गुबारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वह लोग। कितु = किसलिए? वारो वारा = बार बार। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। गुबारा = अंधेरा।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते वह (माया के मोह में आत्मिक जीवन की ओर से) अंधे-बहरे हुए रहते हैं, संसार में आ के भी वे कुछ नहीं कमाते। उन्हें प्रभु के नाम का स्वाद नहीं आता, वे अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में ही टिके रहते हैं।, वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य (अज्ञानता के) अंधकार में ही (मस्त रहते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करि वेखै मारगि लाए भाई तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जो धुरि लिखिआ सु कोइ न मेटै भाई करता करे सु होई ॥ नानक नामु वसिआ मन अंतरि भाई अवरु न दूजा कोई ॥४॥४॥

मूलम्

आपे करि वेखै मारगि लाए भाई तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जो धुरि लिखिआ सु कोइ न मेटै भाई करता करे सु होई ॥ नानक नामु वसिआ मन अंतरि भाई अवरु न दूजा कोई ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। करि = पैदा कर के। वेखै = संभालता है। धुरि = धुर दरगाह से। करता = कर्तार।4।
अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) प्रभु खुद ही (जीवों को) पैदा करके संभाल करता है, खुद ही (जीवन के सही) रास्ते पर डालता है, उस प्रभु के बिना और कोई नहीं (जो जीवों को रास्ता बता सके)। हे भाई! कर्तार जो कुछ करता है वही होता है, धुर दरगाह से (जीवों के माथे पर लेख) लिख देता है, उसे कोई और मिटा नहीं सकता। हे नानक! (कह:) हे भाई! (उस प्रभु की मेहर से ही उसका) नाम (मनुष्य के) मन में बस सकता है, कोई और ये दाति देने के काबिल नहीं है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ गुरमुखि भगति करहि प्रभ भावहि अनदिनु नामु वखाणे ॥ भगता की सार करहि आपि राखहि जो तेरै मनि भाणे ॥ तू गुणदाता सबदि पछाता गुण कहि गुणी समाणे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ गुरमुखि भगति करहि प्रभ भावहि अनदिनु नामु वखाणे ॥ भगता की सार करहि आपि राखहि जो तेरै मनि भाणे ॥ तू गुणदाता सबदि पछाता गुण कहि गुणी समाणे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। प्रभ भावहि = प्रभु को प्यारे लगते हैं। वखाणे = बखान के। सार = संभाल। करहि = तू करता है। मनि = मन में। सबदि = शब्द से। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करके भक्ति करते हैं और परमात्मा को प्यारे लगते हैं। हे प्रभु! भक्तों की संभाल तू खुद करता है, तू स्वयं उनकी रक्षा करता है, क्योंकि वे तुझे अपने मन में प्यारे लगते हैं। तू उन्हें अपने गुण देता है, गुरु के शब्द द्वारा वे तेरे साथ सांझ डालते हैं। हे भाई! परमात्मा की महिमा कर करके (भक्त) गुणों के मालिक प्रभु में लीन रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे हरि जीउ सदा समालि ॥ अंत कालि तेरा बेली होवै सदा निबहै तेरै नालि ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे हरि जीउ सदा समालि ॥ अंत कालि तेरा बेली होवै सदा निबहै तेरै नालि ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समालि = संभाल के, याद रख। बेली = मददगार। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा को सदा याद करता रह। आखिरी समय में परमात्मा ही तेरा मददगार बनेगा, परमात्मा सदा तेरे साथ साथ निबाहेगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुसट चउकड़ी सदा कूड़ु कमावहि ना बूझहि वीचारे ॥ निंदा दुसटी ते किनि फलु पाइआ हरणाखस नखहि बिदारे ॥ प्रहिलादु जनु सद हरि गुण गावै हरि जीउ लए उबारे ॥२॥

मूलम्

दुसट चउकड़ी सदा कूड़ु कमावहि ना बूझहि वीचारे ॥ निंदा दुसटी ते किनि फलु पाइआ हरणाखस नखहि बिदारे ॥ प्रहिलादु जनु सद हरि गुण गावै हरि जीउ लए उबारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुसट चउकड़ी = दुष्टों का टोला। वीचारे = विचार के। दुसटी = चंदरी। किनि = किस ने? नखहि = नाखूनों से। बिदारे = फाड़ा गया। लए उबारे = उबार लिए।2।
अर्थ: पर, हे भाई! बुरे मनुष्य सदा बुराई ही कमाते हैं, वे विचार करके (ये) नहीं समझते कि बुरी निंदा (आदि) से किसी ने कभी अच्छा फल नहीं पाया। हरणाकश्यप (ने भक्त को दुख देना शुरू किया, तो वह) नाखूनों से चीरा गया। परमात्मा का भक्त प्रहलाद सदा परमात्मा के गुण गाता था, परमात्मा ने उसको (नरसिंह रूप धारण कर के) बचा लिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपस कउ बहु भला करि जाणहि मनमुखि मति न काई ॥ साधू जन की निंदा विआपे जासनि जनमु गवाई ॥ राम नामु कदे चेतहि नाही अंति गए पछुताई ॥३॥

मूलम्

आपस कउ बहु भला करि जाणहि मनमुखि मति न काई ॥ साधू जन की निंदा विआपे जासनि जनमु गवाई ॥ राम नामु कदे चेतहि नाही अंति गए पछुताई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपस कउ = अपने आप को। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। विआपे = व्यस्त रहते हैं। जासनि = जाएंगे। गवाई = गवा के। अंति = आखिर को, अंत समय में।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की कोई अकल-शहूर नहीं होती, वे अपने आप को तो अच्छा समझते हैं पर नेक लोगों की निंदा करने में व्यस्त रहते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं। वे परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते, आखिर हाथ मलते हुए (जगत से) चले जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफलु जनमु भगता का कीता गुर सेवा आपि लाए ॥ सबदे राते सहजे माते अनदिनु हरि गुण गाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती हउ लागा तिन कै पाए ॥४॥५॥

मूलम्

सफलु जनमु भगता का कीता गुर सेवा आपि लाए ॥ सबदे राते सहजे माते अनदिनु हरि गुण गाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती हउ लागा तिन कै पाए ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदे = शब्द में। राते = रंगे रहते हैं। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। गाए = गा के। तिन कै पाइ = उनके पैरों पर।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही भक्तों की जिंदगी कामयाब बनाता है, वह स्वयं ही उनको गुरु की सेवा में जोड़ता है, (इस तरह वह) हर वक्त परमात्मा की महिमा के गीत गुरु के शब्द (के रंग) में रंगे रहते हैं और आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं। दास नानक विनती करता है: मैं उन भक्तों के चरणों में लगता हूँ।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। सखा = मित्र। बंधपु = रिश्तेदार। जि = जो। भाणै = मर्जी में, मर्जी अनुसार। विछुड़ि = विछुड़ के।1।
अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य गुरु का सिख है, गुरु का मित्र है, गुरु का रिश्तेदार है, जो गुरु की रजा में चलता है। पर, जो मनुष्य अपनी मर्जी के मुताबक चलता है, वह प्रभु से विछुड़ के दुख सहता है। गुरु की शरण पड़े बिना मनुष्य कभी सुख नहीं पा सकता, और बार बार (दुखी हो के) पछताता है।1।

[[0602]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के दास सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के दास सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहेले = सुखी। किलविख = पाप। आपे = प्रभु खुद ही। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। परमात्मा स्वयं उनके जनम मरण के दुख-पाप काट देता है, और उन्हें अपने चरणों में मिला लेता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥

मूलम्

इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार। सभु = सारा। जीअ के बंधन = जीव के लिए बंधन। भुला = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मोख = मोक्ष, मुक्ति। करम = दुनिया के काम धंधे। वारो वारा = बार बार।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की रजा में चले बिना) ये (अपना) परिवार भी जीव के लिए निरा मोह का बंधन बन जाता है, (तभी तो) जगत (गुरु से) भटक के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरु की शरण आए बिना ये बंधन टूटते नहीं। गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य (मोह के बंधनों से) निजात पाने का राह तलाश लेता है। जो लोग निरे दुनिया के काम-धंधे ही करते हैं, और गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥

मूलम्

हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं (बड़ा हूँ)। मेरा = (ये धन पदार्थ) मेरा है। पलचि रहिआ = उलझा पड़ा है। केरा = का। महलु = परमात्मा की हजूरी। पाइनि = पा लेते हैं। निज घरि = अपने घर में। ऐथै = इस जीवन में। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को।3।
अर्थ: हे भाई! ‘मैं बड़ा हूँ’, ‘ये धन आदि मेरा है’ - इसमें ही जगत उलझा हुआ है (वैसे) कोई भी किसी का (सदा साथी) नहीं बन सकता। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा की महिमा करते हैं, और परमात्मा की हजूरी प्राप्त किए रहते हैं, उनका (आत्मिक) निवास प्रभु चरणों में हुआ रहता है। जो मनुष्य इस जीवन में ही (इस भेत को) समझ लेता है, वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है (आत्म चिंतन करता है), परमात्मा उस मनुष्य का सहायक बना रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥

मूलम्

सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआलु = दया का घर। भागा = अच्छी किस्मत। करि = कर के, साथ। भाउ = भावना, नीयत। आपु = स्वै भाव।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु हर समय ही दयावान रहता है (माया-ग्रसित मनुष्य गुरु की शरण नहीं आता) किस्मत के बिना (गुरु से) क्या मिले? गुरु सबको एक प्यार की निगाह से देखता है। (पर हमारी जीवों की) जैसी भावना होती है वैसा ही फल (हमें गुरु से) मिल जाता है। हे नानक! (अगर गुरु की शरण पड़ के अपने) अंदर से स्वै भाव दूर कर लें तो परमात्मा का नाम मन में आ बसता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ चौतुके ॥ सची भगति सतिगुर ते होवै सची हिरदै बाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए हउमै सबदि समाणी ॥ बिनु गुर साचे भगति न होवी होर भूली फिरै इआणी ॥ मनमुखि फिरहि सदा दुखु पावहि डूबि मुए विणु पाणी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ चौतुके ॥ सची भगति सतिगुर ते होवै सची हिरदै बाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए हउमै सबदि समाणी ॥ बिनु गुर साचे भगति न होवी होर भूली फिरै इआणी ॥ मनमुखि फिरहि सदा दुखु पावहि डूबि मुए विणु पाणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चौतुके = वह शब्द जिनके हरेक ‘बंद’ में चार-चार तुकें होती हैं। सची भगति = सदा स्थिर प्रभु की ही भक्ति। ते = से, के द्वारा। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सबदि = शब्द में। होर इआणी = वह अंजान दुनिया जो गुरु की शरण नहीं पड़ती। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के माध्यम से सदा स्थिर प्रभु की भक्ति हो सकती है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी हृदय में टिक जाती है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह सदा सुख पाता है, उसका अहंकार गुरु के शब्द में ही समाप्त हो जाता है। सच्चे गुरु के बिना भक्ति नहीं हो सकती, जो अंजान दुनिया गुरु के दर पर नहीं आती, वह गलत राह पर पड़ी रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य भटकते फिरते हैं, सदा दुख पाते हैं; वह जैसे, पानी के बिना ही डूब मरते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाई रे सदा रहहु सरणाई ॥ आपणी नदरि करे पति राखै हरि नामो दे वडिआई ॥ रहाउ॥

मूलम्

भाई रे सदा रहहु सरणाई ॥ आपणी नदरि करे पति राखै हरि नामो दे वडिआई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहहु = टिका रह। पति = इज्जत। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा गुरु की शरण टिका रह। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा रहता है उस पर गुरु) अपनी मेहर की निगाह करता है; उसकी इज्जत रखता है, उसे प्रभु का नाम बख्शता है (जो एक बहुत बड़ा) सम्मान है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरे गुर ते आपु पछाता सबदि सचै वीचारा ॥ हिरदै जगजीवनु सद वसिआ तजि कामु क्रोधु अहंकारा ॥ सदा हजूरि रविआ सभ ठाई हिरदै नामु अपारा ॥ जुगि जुगि बाणी सबदि पछाणी नाउ मीठा मनहि पिआरा ॥२॥

मूलम्

पूरे गुर ते आपु पछाता सबदि सचै वीचारा ॥ हिरदै जगजीवनु सद वसिआ तजि कामु क्रोधु अहंकारा ॥ सदा हजूरि रविआ सभ ठाई हिरदै नामु अपारा ॥ जुगि जुगि बाणी सबदि पछाणी नाउ मीठा मनहि पिआरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। हिरदै = हृदय में। सद = सदा। तजि = त्याग के। रविआ = व्यापक। जुगि जुगि = हरेक युग में। सबदि = शब्द से। मनहि = मन में।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने पूरे गुरु के द्वारा अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना आरम्भ कर दिया, उसने सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ के प्रभु के गुणों को विचारना शुरू कर दिया। काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार) त्यागने से उसके हृदय में जगत का जीवन प्रभु सदा के लिए आ बसा। बेअंत प्रभु का नाम उसके दिल में आ बसने के कारण प्रभु उसको सदा अंग-संग बसता दिखाई दे गया, हर जगह मौजूद दिख गया। गुरु के शब्द के माध्यम से उसे ये पहचान आ गई कि (परमात्मा के मिलाप का साधन) हरेक युग में गुरु की वाणी है, परमात्मा का नाम उसको अपने मन में प्यारा लगने लग पड़ा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवि जिनि नामु पछाता सफल जनमु जगि आइआ ॥ हरि रसु चाखि सदा मनु त्रिपतिआ गुण गावै गुणी अघाइआ ॥ कमलु प्रगासि सदा रंगि राता अनहद सबदु वजाइआ ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी सचे सचि समाइआ ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु सेवि जिनि नामु पछाता सफल जनमु जगि आइआ ॥ हरि रसु चाखि सदा मनु त्रिपतिआ गुण गावै गुणी अघाइआ ॥ कमलु प्रगासि सदा रंगि राता अनहद सबदु वजाइआ ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी सचे सचि समाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। पछाता = सांझ डाली। जगि = जगत में। गुणी = गुणों से। अघाइआ = माया की ओर अघा गया। कमलु = हृदय कमल फूल सा। प्रगासि = खिल के। अनहद = एक रस।3।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम सें सांझ डाल ली, जगत में आ के उसकी जिंदगी कामयाब हो गई। परमात्मा के नाम का स्वाद चख के उसका मन सदा के लिए तृप्त हो जाता है, वह परमात्मा के गुण गाता रहता है, और गुणों के माध्यम से माया की ओर से तृप्त हो जाता है। उसका हृदय-कमल खिल के सदा प्रभु के प्रेम रंग रंगा रहता है, वह (अपने दिल में) एक-रस गुरु शब्द (का बाजा) बजाता रहता है। पवित्र वाणी की इनायत से उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम की गति कोइ न बूझै गुरमति रिदै समाई ॥ गुरमुखि होवै सु मगु पछाणै हरि रसि रसन रसाई ॥ जपु तपु संजमु सभु गुर ते होवै हिरदै नामु वसाई ॥ नानक नामु समालहि से जन सोहनि दरि साचै पति पाई ॥४॥७॥

मूलम्

राम नाम की गति कोइ न बूझै गुरमति रिदै समाई ॥ गुरमुखि होवै सु मगु पछाणै हरि रसि रसन रसाई ॥ जपु तपु संजमु सभु गुर ते होवै हिरदै नामु वसाई ॥ नानक नामु समालहि से जन सोहनि दरि साचै पति पाई ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। रिदै = हृदय में। समाई = टिक जाता है। मगु = रास्ता। रसि = रस से। रसन = जीभ। रसाई = रस जाती है। गुर ते = गुरु से। दरि = दर से।4।
अर्थ: कोई मनुष्य नहीं समझ सकता कि परमात्मा के नाम से कितनी ऊँची आत्मिक अवस्था बन जाती है (वैसे) गुरु की मति लेने से नाम (मनुष्य के) हृदय में आ बसता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो जाता है वह (परमात्मा के मिलाप का) रास्ता पहचान लेता है, उसकी जीभ नाम-रस के साथ रस जाती है। गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम दिल में आ बसता है - यही है जप, यही है तप और यही है संजम। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु का नाम हृदय में बसाए रखते हैं, वे सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं, सदा स्थिर प्रभु के दर पर उनको सम्मान मिलता है।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ३ दुतुके ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई भाई जीवत मरै ता बूझ पाइ ॥ सो गुरू सो सिखु है भाई जिसु जोती जोति मिलाइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ३ दुतुके ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई भाई जीवत मरै ता बूझ पाइ ॥ सो गुरू सो सिखु है भाई जिसु जोती जोति मिलाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। उलटी भई = (विकारों से तवज्जो) पलट जाती है, हट जाती है। जीवत मरै = जीवित ही मर जाता है, दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ भी विकारों से अछोह हो जाता है। बूझ = आत्मिक जीवन की समझ। सो गुरु सो सिखु = वह मनुष्य गुरु का (असल) सिख है। जिसु जोति = जिसकी आत्मा को। जोती मिलाइ = (गुरु) परमात्मा में मिला देता है।1।
अर्थ: हे भाई! अगर गुरु मिल जाए, तो मनुष्य आत्मिक जीवन की समझ हासिल कर लेता है, मनुष्य की तवज्जो विकारों से हट जाती है, दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी मनुष्य विकारों से अछूता हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य की आत्मा को गुरु परमात्मा में मिला देता है, वह (असल) में सिख बन जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे हरि हरि सेती लिव लाइ ॥ मन हरि जपि मीठा लागै भाई गुरमुखि पाए हरि थाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे हरि हरि सेती लिव लाइ ॥ मन हरि जपि मीठा लागै भाई गुरमुखि पाए हरि थाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेती = साथ। लिव = लगन। मन रे = हे मन! जपि = जप जप के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। थाइ = जगह में, हजूरी में। हरि थाइ = प्रभु की हजूरी में। रहाउ।
अर्थ: हे मन! सदा परमात्मा के साथ तवज्जो जोड़े रख। हे मन! बार बार जप-जप के परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य प्रभु के दरबार में स्थान पा लेते हैं। रहाउ।

[[0603]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर प्रीति न ऊपजै भाई मनमुखि दूजै भाइ ॥ तुह कुटहि मनमुख करम करहि भाई पलै किछू न पाइ ॥२॥

मूलम्

बिनु गुर प्रीति न ऊपजै भाई मनमुखि दूजै भाइ ॥ तुह कुटहि मनमुख करम करहि भाई पलै किछू न पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) किसी और प्यार में। भाइ = प्यार में। तुह = दानों के ऊपर के छिलके, फक। कुटहि = कूटते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना (मनुष्य का प्रभु में) प्यार पैदा नहीं होता, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु को छोड़ के) और ही प्यार में टिके रहते हैं। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (जो भी धार्मिक) काम करते हैं वह (जैसे) फक ही कूटते हैं, (उनको, उन कर्मों में से) कुछ हासिल नहीं होता (जैसे फोक में से कुछ नहीं निकलता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर मिलिऐ नामु मनि रविआ भाई साची प्रीति पिआरि ॥ सदा हरि के गुण रवै भाई गुर कै हेति अपारि ॥३॥

मूलम्

गुर मिलिऐ नामु मनि रविआ भाई साची प्रीति पिआरि ॥ सदा हरि के गुण रवै भाई गुर कै हेति अपारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। रविआ = हर वक्त बसा रहता है। पिआरि = प्यार में। रवै = याद करता है। हेति = हित से। अपारि हेति = अटूट प्यार से।3।
अर्थ: हे भाई! यदि गुरु मिल जाए, तो परमात्मा का नाम उसके मन में सदा बसा रहता है, मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की प्रीति में प्यार में मगन रहता है। हे भाई! गुरु के बख्शे अटूट प्यार की इनायत से वह सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइआ सो परवाणु है भाई जि गुर सेवा चितु लाइ ॥ नानक नामु हरि पाईऐ भाई गुर सबदी मेलाइ ॥४॥८॥

मूलम्

आइआ सो परवाणु है भाई जि गुर सेवा चितु लाइ ॥ नानक नामु हरि पाईऐ भाई गुर सबदी मेलाइ ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वह मनुष्य। परवाणु = स्वीकार। जि = जो। पाईऐ = पा लिया जाता है।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा में चिक्त जोड़ता है उसका जगत में आया हुआ सफल हो जाता है। हे नानक! गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है, गुरु के शब्द की इनायत से प्रभु से मिलाप हो जाता है।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ तिही गुणी त्रिभवणु विआपिआ भाई गुरमुखि बूझ बुझाइ ॥ राम नामि लगि छूटीऐ भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ तिही गुणी त्रिभवणु विआपिआ भाई गुरमुखि बूझ बुझाइ ॥ राम नामि लगि छूटीऐ भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिही गुणी = (माया के) तीनों गुणों में (रजो, सतो व तमो गुण)। त्रिभवणु = तीन भवनों वाला जगत, सारा संसार। विआपिआ = फसा हुआ है। बूझ = (आत्मिक जीवन की) समझ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। नामि = नाम में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। जाइ = जा के।1।
अर्थ: हे भाई! सारा जगत माया के तीन गुणों में ही फसा हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है (गुरु उसे) आत्मिक जीवन की समझ देता है। हे भाई! परमात्मा के नाम मेुं लीन हो के (माया के तीन गुणों की पकड़ से) बचना है, (अपनी तसल्ली के लिए) जा के पूछ लो उनको जिनको आत्मिक जीवन की समझ आ गई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे त्रै गुण छोडि चउथै चितु लाइ ॥ हरि जीउ तेरै मनि वसै भाई सदा हरि के गुण गाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे त्रै गुण छोडि चउथै चितु लाइ ॥ हरि जीउ तेरै मनि वसै भाई सदा हरि के गुण गाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। चउथै = उस अवस्था में जहाँ माया के तीनों गुण प्रभाव नहीं डाल सकते। मनि = मन में। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (माया के) तीन गुणों (के प्रभाव) को छोड़ के उस अवस्था में टिक जहाँ इन तीनों का जोर नहीं पड़ता। हे भाई! परमात्मा तेरे मन में (ही) बसता है, सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामै ते सभि ऊपजे भाई नाइ विसरिऐ मरि जाइ ॥ अगिआनी जगतु अंधु है भाई सूते गए मुहाइ ॥२॥

मूलम्

नामै ते सभि ऊपजे भाई नाइ विसरिऐ मरि जाइ ॥ अगिआनी जगतु अंधु है भाई सूते गए मुहाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामै = नाम से ही। सभि = सारे। ऊपजे = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। नाइ विसरिऐ = अगर नाम बिसर जाए। मरि जाइ = (आत्मिक मौत) मर जाता है। अगिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ से खाली। अंधु = माया के मोह में अंधा। मुहाइ = (आत्मिक जीवन की संपत्ति) लुटा के।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में जुड़ के ही सारे जीव आत्मिक जीवन जी सकते हैं। अगर नाम बिसर जाए, तो मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है। आत्मिक जीवन की समझ से वंचित जगत माया के मोह में अंधा हुआ रहता है। माया के मोह में सोए हुए मनुष्य आत्मिक जीवन की राशि पूंजी लुटा के जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जागे से उबरे भाई भवजलु पारि उतारि ॥ जग महि लाहा हरि नामु है भाई हिरदै रखिआ उर धारि ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि जागे से उबरे भाई भवजलु पारि उतारि ॥ जग महि लाहा हरि नामु है भाई हिरदै रखिआ उर धारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। उतारि = उतारे, पार लंघाता है। उर = हृदय। धारि = टिका के।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (माया के मोह की नींद में से) जाग जाते हैं वे (संसार समुंदर में) डूबने से बच जाते हैं, (गुरु उनको) संसार समुंदर में से पार लंघा देता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा का नाम संभाल के रखता है, ये हरि-नाम ही जगत में (असली) लाभ है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सरणाई उबरे भाई राम नामि लिव लाइ ॥ नानक नाउ बेड़ा नाउ तुलहड़ा भाई जितु लगि पारि जन पाइ ॥४॥९॥

मूलम्

गुर सरणाई उबरे भाई राम नामि लिव लाइ ॥ नानक नाउ बेड़ा नाउ तुलहड़ा भाई जितु लगि पारि जन पाइ ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उथरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। लाइ = लगा के। बेड़ा = जहाज। तुलहड़ा = सुंदर तुलहा (तुलहा = लकड़ी और घास आदि से बाँध के दरिया पार करने के लिए बनाया हुआ जुगाड़)। जितु = जिस में। जितु लगि = जिस में चढ़ के।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के मनुष्य (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। हे नानक! (कह:) हे भाई! परमात्मा का नाम ही जहाज है, हरि नाम ही तुलहा है जिस पर चढ़ के मनुष्य (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ सतिगुरु सुख सागरु जग अंतरि होर थै सुखु नाही ॥ हउमै जगतु दुखि रोगि विआपिआ मरि जनमै रोवै धाही ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ सतिगुरु सुख सागरु जग अंतरि होर थै सुखु नाही ॥ हउमै जगतु दुखि रोगि विआपिआ मरि जनमै रोवै धाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखु सागरु = सुखों का समुंदर। अंतरि = में। होर थै = किसी और जगह में। दुखि = दुख में। रोगि = रोग में। विआपिआ = ग्रसा हुआ। मरि = मर के। धाही = धाहें मार मार के।1।
अर्थ: हे भाई! जगत में गुरु (ही) सुख का सागर है, (गुरु के बिना) किसी और को सुख नहीं मिलता। जगत अपने अहंकार के कारण (गुरु से टूट के) दुख में रोग में ग्रसित रहता है, बार बार पैदा होता है मरता है, धाड़ें मार मार के रोता है (दुखी होता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणी सतिगुरु सेवि सुखु पाइ ॥ सतिगुरु सेवहि ता सुखु पावहि नाहि त जाहिगा जनमु गवाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

प्राणी सतिगुरु सेवि सुखु पाइ ॥ सतिगुरु सेवहि ता सुखु पावहि नाहि त जाहिगा जनमु गवाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्राणी = हे बंदे! सेवि = सेवा कर। गवाइ = गवा के। रहाउ।
अर्थ: हे बँदे! गुरु की शरण पड़, और आत्मिक आनंद ले। अगर तू गुरु की बताई हुई सेवा करेगा, तो सुख पाएगा। नहीं तो अपना जीवन व्यर्थ गुजार के (यहाँ से) चला जाएगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण धातु बहु करम कमावहि हरि रस सादु न आइआ ॥ संधिआ तरपणु करहि गाइत्री बिनु बूझे दुखु पाइआ ॥२॥

मूलम्

त्रै गुण धातु बहु करम कमावहि हरि रस सादु न आइआ ॥ संधिआ तरपणु करहि गाइत्री बिनु बूझे दुखु पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धातु = माया। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। कमावहि = करते हैं। सादु = स्वाद। संधिआ = सवेरे दोपहर और शाम की पूजा। तरपणु = पित्रों और देवताओं को जल भेट करना।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु से टूटे हुए मनुष्य माया के तीनों गुणों के प्रभाव में (निहित धार्मिक) कर्म करते हैं, पर उन्हें परमात्मा के नाम का स्वाद नहीं आता। तीनों वक्त संध्या पाठ करते हैं, पित्रों-देवताओं को जल अर्पण करते हैं, गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं, पर आत्मिक जीवन की समझ के बिना उनको दुख ही मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवे सो वडभागी जिस नो आपि मिलाए ॥ हरि रसु पी जन सदा त्रिपतासे विचहु आपु गवाए ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु सेवे सो वडभागी जिस नो आपि मिलाए ॥ हरि रसु पी जन सदा त्रिपतासे विचहु आपु गवाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिस नो = जिस को। पी = पी के। त्रिपतासे = तृप्त रहते हैं। आपु = स्वै भाव। गवाए = गवा के।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य भाग्यशाली है जो गुरु की बताई हुई सेवा करता है (पर गुरु उसी को मिलता है) जिसे परमात्मा स्वयं मिलाए। (गुरु की शरण पड़ने वाले) मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करके (गुरु से) परमात्मा के नाम का रस पी के सदा तृप्त रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु अंधा सभु अंधु कमावै बिनु गुर मगु न पाए ॥ नानक सतिगुरु मिलै त अखी वेखै घरै अंदरि सचु पाए ॥४॥१०॥

मूलम्

इहु जगु अंधा सभु अंधु कमावै बिनु गुर मगु न पाए ॥ नानक सतिगुरु मिलै त अखी वेखै घरै अंदरि सचु पाए ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधु = अंधों वाला काम। मगु = रास्ता। अखी = (अपनी) आँखों से। घरै अंदरि = घर में ही। घर अंदरि = घर में। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। पाए = ढूँढ लेता है।4।
अर्थ: हे भाई! ये जगत माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, अंधों वाले ही सदा काम करता है। गुरु की शरण पड़े बिना (जीवन का सही) रास्ता नहीं मिल सकता। हे नानक! अगर इसे गुरु मिल जाए, तो (परमात्मा को) आँखों से देख लेता है, अपने हृदय-घर में सदा कायम रहने वाले परमात्मा को पा लेता है।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे बहुता दुखु लागा जुग चारे भरमाई ॥ हम दीन तुम जुगु जुगु दाते सबदे देहि बुझाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे बहुता दुखु लागा जुग चारे भरमाई ॥ हम दीन तुम जुगु जुगु दाते सबदे देहि बुझाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में। भरमाई = भटकता है। दीन = कंगाल, भिखारी। सबदे = गुरु के शब्द द्वारा। देहि = तू देता है। बुझाई = समझ।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना मनुष्य को बहुत सारे दुख चिपके रहते हैं, मनुष्य सदा ही भटकता फिरता है। हे प्रभु! हम (जीव, तेरे दर के) भिखारी हैं, तू सदा ही (हमें) दातें देने वाला है, (मेहर कर, गुरु के) शब्द में जोड़ के आत्मिक जीवन की समझ दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ क्रिपा करहु तुम पिआरे ॥ सतिगुरु दाता मेलि मिलावहु हरि नामु देवहु आधारे ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ क्रिपा करहु तुम पिआरे ॥ सतिगुरु दाता मेलि मिलावहु हरि नामु देवहु आधारे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आधारे = आसरा। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (मेरे पर) मेहर कर, तेरे नाम की दाति देने वाला गुरु मुझे मिला, और (मेरी जिंदगी का) सहारा अपना नाम मुझे दे। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा मारि दुबिधा सहजि समाणी पाइआ नामु अपारा ॥ हरि रसु चाखि मनु निरमलु होआ किलबिख काटणहारा ॥२॥

मूलम्

मनसा मारि दुबिधा सहजि समाणी पाइआ नामु अपारा ॥ हरि रसु चाखि मनु निरमलु होआ किलबिख काटणहारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, वासना। मारि = मार के। दुबिधा = दो किस्मा पन, डाँवा डोल हालत। सहजि = आत्मिक अडोलता में। किलबिख = पाप।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य ने) बेअंत प्रभु का नाम हासिल कर लिया (नाम की इनायत से) वासना खत्म करके उसकी मानसिक डाँवा डोल हालत आत्मिक अडोलता में लीन हो जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पाप काटने के समर्थ है (जो मनुष्य नाम प्राप्त कर लेता है) हरि-नाम का स्वाद चख के उसका मन पवित्र हो जाता है।2।

[[0595]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ घरु १ चउपदे ॥

मूलम्

सोरठि महला १ घरु १ चउपदे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभना मरणा आइआ वेछोड़ा सभनाह ॥ पुछहु जाइ सिआणिआ आगै मिलणु किनाह ॥ जिन मेरा साहिबु वीसरै वडड़ी वेदन तिनाह ॥१॥

मूलम्

सभना मरणा आइआ वेछोड़ा सभनाह ॥ पुछहु जाइ सिआणिआ आगै मिलणु किनाह ॥ जिन मेरा साहिबु वीसरै वडड़ी वेदन तिनाह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आइआ = आया, जो पैदा होते हैं। मरणा = मौत। मरणा आइआ = पैदा होते हैं और मरते हैं, जो जनम मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं। वेछोड़ा = प्रभु चरणों से विछोड़ा। आगै = प्रभु की हजूरी में। किनाह = कौन से लोगों को? वेदन = पीड़ा, मानसिक दुख।1।
अर्थ: (जो दुनिया के होछे सुखों की खातिर प्रभु को भुला देते हैं) उन सभी को प्रभु चरणों से विछोड़ा रहता है वे सारे पैदा होते मरते ही हैं। (हे भाई!) जा के गुरमुखों के पास से पूछो कि परमात्मा के चरणों का मिलाप किन्हें होता है (क्योंकि सुखी वही हैं जो प्रभु चरणों में जुड़ते हैं)। (ये बात साफ है कि) जिस लोगों को प्यारा मालिक प्रभु भूल जाता है उन्हें बहुत आत्मिक कष्ट बना रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भी सालाहिहु साचा सोइ ॥ जा की नदरि सदा सुखु होइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

भी सालाहिहु साचा सोइ ॥ जा की नदरि सदा सुखु होइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भी = बार बार। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। जा की = जिस (प्रभु) की। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) बार बार उस कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा करते रहो। उसी की मेहर की नजर से सदा स्थिर रहने वाला सुख मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडा करि सालाहणा है भी होसी सोइ ॥ सभना दाता एकु तू माणस दाति न होइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ रंन कि रुंनै होइ ॥२॥

मूलम्

वडा करि सालाहणा है भी होसी सोइ ॥ सभना दाता एकु तू माणस दाति न होइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ रंन कि रुंनै होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडा करि = बड़ा कर के, ये कह के कि वह सब से बड़ा है। कि होइ = क्या लाभ हो सकता है? कोई फायदा नहीं हो सकता। रुंनै = रोने से।2।
अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा (सदा स्थिर है) अब भी मौजूद है आगे भी कायम रहेगा, उसकी महिमा करो (और कहो) कि वह सबसे बड़ा दाता है। (हे भाई! कहो- हे प्रभु!) तू सब जीवों को सब दातें देने वाला है, मनुष्य (बिचारे क्या हैं कि उनके) पास कोई दातें हो सकें? (हे भाई!) जो कुछ प्रभु को ठीक लगता है वही होता है (उसकी रजा को मीठा करके मानो, कोई दुख-कष्ट आने पर) औरतों की तरह रोने से कोई लाभ नहीं होनें वाला।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरती उपरि कोट गड़ केती गई वजाइ ॥ जो असमानि न मावनी तिन नकि नथा पाइ ॥ जे मन जाणहि सूलीआ काहे मिठा खाहि ॥३॥

मूलम्

धरती उपरि कोट गड़ केती गई वजाइ ॥ जो असमानि न मावनी तिन नकि नथा पाइ ॥ जे मन जाणहि सूलीआ काहे मिठा खाहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोट = किला। गढ़ = किला। केती = बहुत सारी दुनिया। वजाइ = (नौबत) बजा के। असमानि = आकाश तक। न मावनी = नहीं आते। तिन नकि = उनके नाम में। नथा पाइ = नाथ डालता है, काबू करता है, अकड़ा तोड़ना। मन = हे मन! सूलीआ = दुख-कष्ट। काहे = क्यों? मिठा खाहि = तू मीठा खाता है, तू दुनिया के मीठे भोग भोगता है।3।
अर्थ: इस धरती पर अनेक आए जो किले आदि बना के (अपनी ताकत का) ढोल बजा के (आखिर) चले गए। जो अपनी ताकत के घमण्ड में इतनी गर्दन अकड़ाते हैं कि (जैसे) आसमान के तले भी नहीं समाते, वह परमात्मा उनकी अकड़ भी तोड़ देता है। सो, हे मन! अगर तू ये समझ ले कि दुनिया के मौज मेलों का नतीजा दुख-कष्ट ही है तो दुनियां के भोगों में ही क्यों मस्त रहें?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक अउगुण जेतड़े तेते गली जंजीर ॥ जे गुण होनि त कटीअनि से भाई से वीर ॥ अगै गए न मंनीअनि मारि कढहु वेपीर ॥४॥१॥

मूलम्

नानक अउगुण जेतड़े तेते गली जंजीर ॥ जे गुण होनि त कटीअनि से भाई से वीर ॥ अगै गए न मंनीअनि मारि कढहु वेपीर ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउगुण = विकार, पाप। तेरे = ये सारे। गली = बातों से। जंजीर = बंधन। कटीअनि = काटे जाते हैं। से = यही। अगै गए = हमारे साथ गए हुए। मंनीअनि = माने जाते हैं, आदर पाते हैं। वेपीर = बे+पीर, बिना मुरशिद के, वश में ना आने वाले।4।
अर्थ: हे नानक! (दुनिया के सुख भोगने के लिए) जितने भी पाप-विकार हम करते हैं, ये सारे पाप-विकार हमारे गलों में जंजीर बन जाते हैं (ये एक के बाद एक और ही और पापों की तरफ घसीट के ले जाते हैं), ये पाप-जंजीरें तभी काटी जा सकती हैं यदि हमारे पल्ले गुण हों। गुण ही असल भाई-मित्र हैं। (यहाँ से) हमारे साथ गए हुए पाप-विकार (आगे) आदर नहीं पाते। इन बे-मुर्शिदों को (अभी इसी वक्त) मार के अपने अंदर से निकाल दो।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ घरु १ ॥ मनु हाली किरसाणी करणी सरमु पाणी तनु खेतु ॥ नामु बीजु संतोखु सुहागा रखु गरीबी वेसु ॥ भाउ करम करि जमसी से घर भागठ देखु ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ घरु १ ॥ मनु हाली किरसाणी करणी सरमु पाणी तनु खेतु ॥ नामु बीजु संतोखु सुहागा रखु गरीबी वेसु ॥ भाउ करम करि जमसी से घर भागठ देखु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाली = हल चलाने वाला। किरसाणी = किसानी। करणी = उच्च आचरण। सरमु = श्रम, मेहनत, उद्यम। रखु = रखवाला। गरीबी वेसु = सादा लिबास, सादगी वाला जीवन। भाउ = प्रेम। करम = बख्शिश। करम करि = (परमात्मा की) मेहर से। जंमसी = उगेगा, पैदा होगा। भागठ = भाग्यों वाले, धनाढ।1।
अर्थ: (हे भाई! सदा साथ निभने वाला धन कमाने के लिए) मन को किसान (जैसा उद्यमी) बना, ऊँचे आचरण को खेती समझ, मेहनत (नाम के फसल के लिए) पानी है, (ये अपना) शरीर (ही) जमीन है। (इस जमीन में) परमात्मा का नाम बीज, (बीज बो के उसे पक्षियों से बचाने के लिए सोहागा फेरना जरूरी है, इसी तरह अगर संतोष वाला जीवन नहीं, तो माया की तृष्णा नाम-बीज को समाप्त कर देगी) संतोष (नाम-बीज को तृष्णा-पक्षियों से बचाने के लिए) सुहागा है, सादा जीवन (नाम-फसल की रक्षा करने के लिए) रखवाला है। (हे भाई! ऐसी किसानी करने से शरीर-भूमि में) परमात्मा की मेहर से प्रेम पैदा होगा। देख, (जिन्होंने ऐसी खेती की) उनके हृदय (नाम-धन से) धनाढ हो गऐ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा माइआ साथि न होइ ॥ इनि माइआ जगु मोहिआ विरला बूझै कोइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा माइआ साथि न होइ ॥ इनि माइआ जगु मोहिआ विरला बूझै कोइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! ठनि = इस ने। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (यहाँ से चलने के वक्त) माया जीव के साथ नहीं जाती (ये हरेक को पता है फिर भी) इस माया ने सारे जगत को अपने वश में किया हुआ है। कोई विरला मनुष्य समझता है (कि सदा साथ निभने वाला धन और है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाणु हटु करि आरजा सचु नामु करि वथु ॥ सुरति सोच करि भांडसाल तिसु विचि तिस नो रखु ॥ वणजारिआ सिउ वणजु करि लै लाहा मन हसु ॥२॥

मूलम्

हाणु हटु करि आरजा सचु नामु करि वथु ॥ सुरति सोच करि भांडसाल तिसु विचि तिस नो रखु ॥ वणजारिआ सिउ वणजु करि लै लाहा मन हसु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाणु = बीतना, गुजरना। आरजा = उम्र। आरजा हाणु = उम्र का बीतना, श्वासों का चलना, हरेक सांस के साथ नाम को परोना। हटु = दुकान। वथु = सौदा। सोच = विचार। भांडसाल = बर्तनों की कतार। तिसु विच = उस बर्तनों की दुकान में। तिस नो = उस नाम सौदे को। वणजारे = सत्संगी। मन हसु = मन की हँसी, मन का खिलना।2।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘जिसु, किसु, तिसु, उसु’ का आखिर ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का, के, की, दा, दे, दी, नै, नो, ते’ के कारण हट गई है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) उम्र की हरेक सांस को कमाई बना, इस दुकान में सदा-स्थिर रहने वाला हरि का नाम सौदा बना। अपनी सूझ के विचार-मण्डल को बर्तनों की कतार बना, इस बर्तनों की कतार में (बर्तनशाला में) हरि-नाम सौदे को डाल। ये नाम-वाणज्य करने वाले सत्संगियों से मिल के तू भी हरि नाम का व्यापार कर। इस व्यापार से कमाई होगी मन का खिलना।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सासत सउदागरी सतु घोड़े लै चलु ॥ खरचु बंनु चंगिआईआ मतु मन जाणहि कलु ॥ निरंकार कै देसि जाहि ता सुखि लहहि महलु ॥३॥

मूलम्

सुणि सासत सउदागरी सतु घोड़े लै चलु ॥ खरचु बंनु चंगिआईआ मतु मन जाणहि कलु ॥ निरंकार कै देसि जाहि ता सुखि लहहि महलु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासत = धर्म पुस्तक। सतु = उच्च आचरण। मन = हे मन! मतु जाणहि कलु = ऐसा ना सोचें कि कल होगा, कल तक ना छोड़ना। देसि = देश में। सुखि = सुख में, आत्मिक आनंद में। महलु = ठिकाना।3।
अर्थ: (हे भाई! सौदागरों की तरह हरि-नाम का सौदागर बन) धर्म-पुस्तकों (का उपदेश) सुना कर, ये हरि-नाम की सौदागिरी है, (सौदागरी का माल असबाब लादने के लिए) उच्च आचरण वाले घोड़े बना के चल, (जिंदगी के सफर में भी खर्च की जरूरत है) अच्छे गुणों को जीवन-यात्रा का खर्च बना। हे मन! (इस व्यापार के उद्यम को) कल पर ना डालना। इस व्यापार से अगर तू परमात्मा के देश में (परमात्मा के चरणों में) टिक जाएं, तो आत्मिक सुख में जगह तलाश लेगा।3।

[[0596]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाइ चितु करि चाकरी मंनि नामु करि कमु ॥ बंनु बदीआ करि धावणी ता को आखै धंनु ॥ नानक वेखै नदरि करि चड़ै चवगण वंनु ॥४॥२॥

मूलम्

लाइ चितु करि चाकरी मंनि नामु करि कमु ॥ बंनु बदीआ करि धावणी ता को आखै धंनु ॥ नानक वेखै नदरि करि चड़ै चवगण वंनु ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाकरी = नौकरी। कंमु = नौकरी का काम। बंनु = रोक के रख। धावणी = नौकरी के लिए दौड़ भाग। ता = तब ही। धंनु = धन्य। चवगण = चौगुना। वंनु = रंग।4।
अर्थ: (हे भाई! नौकर रोजी कमाने के लिए मेहनत से मालिक की सेवा करता है, तू भी) पूरे ध्यान से (प्रभु मालिक की) नौकरी कर (जैसे नौकर अपने मालिक के हुक्म को भुलाता नहीं, तू भी) परमात्मा मालिक के नाम को मन में पक्का करके रख, यही है उसकी सेवा। विकारों को (अपने नजदीक आने से) रोक दे, ये है परमात्मा की नौकरी की दौड़-भाग। (यदि ये उद्यम करेगा) तो हर कोई तुझे साबाशी देगा। हे नानक! ऐसी नौकरी करने से परमात्मा तुझे मेहर की नजर से देखेगा, तेरी जीवात्मा पर चौगुना आत्मिक-रूप चढ़ेगा।4।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: धन कमाने के लिए आम तौर पर चार तरीके हैं: किसानी, दुकान, व्यापार और नौकरी। इस शब्द में फरमाते हैं कि दुनिया का धन यहाँ से चलने के वक्त साथ छोड़ देगा, साथ निभने वाला तो नाम-धन है, उसे इकट्ठा करने के लिए वैसे ही मेहनत करनी है जैसे किसान खेती के लिए मेहनत करता है, दुकानदार दुकान में, व्यापारी व्यापार में और मुलाजिम नौकरी में।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः १ चउतुके ॥ माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई ॥ बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई ॥ हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई ॥ नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः १ चउतुके ॥ माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई ॥ बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई ॥ हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई ॥ नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीका = अच्छा, प्यारा। ससुरै = ससुर का। चतुरु = समझदार। को = को, के वास्ते। को = का। बाहरु घरु = घर बाहर, घर घाट। दानु = सेवा (दूसरों की)। इसनानु = पवित्रता, पवित्र आचरण। तितु = उस में, उससे। तनि = शरीर से। तितु तनि = उस शरीर से। धूड़ि धुमाई = धूल ही उड़ाई।1।
अर्थ: जो मनुष्य कभी माता-पिता का प्यारा पुत्र था, कभी ससुर का चतुर दामाद था, कभी पुत्र-पुत्री के लिए प्यारा पिता, कभी भाई का बड़ा (स्नेह भरा) भाई था, जब अकालपुरुख का हुक्म हुआ तो उसने घर-बार सब कुछ छोड़ दिया, पलक झपकते ही सब कुछ पराया हो गया है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे ने ना नाम जपा ना सेवा की और ना ही पवित्र आचरण बनाया। इस मानव शरीर से मिट्टी ही उड़ाता रहा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु मानिआ नामु सखाई ॥ पाइ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मनु मानिआ नामु सखाई ॥ पाइ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखाई = मित्र। परउ = मैं पड़ता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन गुरु के उपदेश में पतीजता है वह परमात्मा के नाम को असल मित्र समझता है। मैं तो गुरु के पैर लगता हूँ, गुरु से सदके जाता हूँ जिसने ये सच्ची मति दी है (कि परमात्मा असल मित्र है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई ॥ माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई ॥ गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई ॥ रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई ॥२॥

मूलम्

जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई ॥ माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई ॥ गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई ॥ रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेधिआ = भेदा। जन = प्रभु के दास, संत जन। वादु = झगड़ा। मगनु = मस्त। अहि = दिन। निसि = रात। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिखु = जहर। गंधण वैणि = गंदे बोल में। रता = मस्त। हितकारी = हितैषी, प्यार करने वाला। रंगि = (प्रभु के) रंग में। रसि = रस में। मनमुखि = जिस मनुष्य का मुंह अपने ही मन की ओर है, जो अपने मन के पीछे चलता है। पति = इज्जत।2।
अर्थ: मनमुख का मन जगत से झूठे प्यार में परोया रहता है, संत-जनों से वह झगड़ा खड़ा किए रखता है। माया (के मोह) में मस्त वह दिन रात वह माया की राह ही देखता रहता है, परमात्मा का नाम कभी नहीं स्मरण करता, इस तरह (माया के मोह का) जहर खा खा के आत्मिक मौत मर जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य गंदे गीतों (गाने-सुनने) में मस्त रहता है, गंदे गीतों से ही हित करता है, परमात्मा की महिमा वाली वाणी में उसकी तवज्जो नहीं जुड़ती। ना वह परमात्मा के प्यार में रंगा जाता है ना वह नाम-रस से आकर्षित होता है। मनमुख इसी तरह अपनी इज्जत गवा लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई ॥ मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की खबरि न पाई ॥ अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई ॥ जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना कीआ कमाई ॥३॥

मूलम्

साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई ॥ मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की खबरि न पाई ॥ अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई ॥ जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना कीआ कमाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध सभा = सत्संग। सहजु = अडोलता का आनंद, शांति का रस। राई = रक्ती भी। दर = परमात्मा का दरवाजा। मीटि = मीट के। अखी मीटि चलिआ = आँखें बंद करके ही चलता रहा। अंधिआरा = अंधा। घरु दरु = प्रभु का घर प्रभु का दर। दरि = दर पर।3।
अर्थ: साधु-संगत में जा के मनमुख आत्मिक अडोलता का आनंद कभी नहीं पाता, उसकी जीभ को नाम जपने में थोड़ा सा भी स्वाद नहीं आता। मनमुख अपने मन को तन को धन को ही अपना समझे बैठता है परमात्मा के दर की उसे कोई समझ नहीं होती। मनमुख अंधा (जीवन सफर में) आँखे बँद करके ही चलता जाता है, हे भाई! परमात्मा का घर परमात्मा का दर उसे कभी दिखता ही नहीं। आखिर अपने किए का ये लाभ कमाता है कि यमराज के दरवाजे पर बँधा हुआ (मार खाता है, इस सजा से बचने के लिए) उसे कोई सहारा नहीं मिलता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई ॥ कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अम्रितु रिदै वसाई ॥ निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई ॥ नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई ॥४॥३॥

मूलम्

नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई ॥ कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अम्रितु रिदै वसाई ॥ निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई ॥ नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अखी वेखा = मैं आँखों से देख सकता हूँ। कंनी = कानों से। सालाही = मैं महिमा करता हूँ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन वाला नाम। वसाई = मैं बसा सकता हूँ। समाई = व्यापक। सति = सत वाला। नामि = नाम में (जुड़ने से)।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के सारे बंद चौतुके हैं, हरेक बंद में चार-चार तुकें हैं पहले दो शबदों के हरेक बंद में तीन-तीन तुके हैं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर हम जीवों के भी क्या वश?) अगर प्रभु स्वयं मेहर की नजर करे तो ही मैं उसे आँखों से देख सकता हूँ, उसके गुणों का बयान नहीं किया जा सकता। (उसकी मेहर हो तो ही) कानों से उसकी महिमा सुन-सुन के गुरु के शब्द के माध्यम से मैं उसकी महिमा कर सकता हूँ, और अटल आत्मिक जीवन देने वाला उसका नाम दिल में बसा सकता हूँ।
हे नानक! प्रभु निरभय है निराकार है निर्वैर है उसकी ज्योति सारे जगत में पूर्ण रूप में व्यापक है, उसके सदा स्थिर रहने वाले नाम में टिकने से ही आदर मिलता है, पर गुरु की शरण के बिना मन की भटकन दूर नहीं होती (और भटकन दूर हुए बिना नाम में जुड़ा नहीं जा सकता)।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ दुतुके ॥ पुड़ु धरती पुड़ु पाणी आसणु चारि कुंट चउबारा ॥ सगल भवण की मूरति एका मुखि तेरै टकसाला ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ दुतुके ॥ पुड़ु धरती पुड़ु पाणी आसणु चारि कुंट चउबारा ॥ सगल भवण की मूरति एका मुखि तेरै टकसाला ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुतुके = दो-दो तुकों वाले सारे ‘बंद’। पुड़ु = चक्की का पुड़। पाणी = बादल, आकाश। कुंट = कूट, पासा। आसणु = निवास स्थान। भवण = सृष्टि। मूरति = मूर्तियां, जीव-जंतु। मुखि = मुखी, श्रेष्ठ। तेरै मुखि टकसाला = तेरी श्रेष्ठ टकसाल में घड़े गए हैं।1।
अर्थ: हे प्रभु! ये सारी सृष्टि तेरा ही चुबारा है, चारों तरफ उस चुबारे की चार दीवारें हैं, धरती उस चुबारे की (नीचे की) पुड़ (चक्की का हिस्सा) है (फर्श है), आकाश उस चुबारे का (ऊपरी) पुड़ है (छत है)। इस चुबारे में तेरा निवास है। सारी सृष्टि (के जीव-जंतुओं) की मूर्तियां तेरी ही श्रेष्ठ टकसाल में घड़ी हुई हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे साहिबा तेरे चोज विडाणा ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा आपे सरब समाणा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे साहिबा तेरे चोज विडाणा ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा आपे सरब समाणा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोज = करिश्मे, तमाशे। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। भरिपुरि = भरपूर, नाको नाक। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक! तेरे आश्चर्यजनक करिश्मे हैं। तू पानी में, धरती के अंदर, धरती के ऊपर (सारे अंतरिक्ष में) भरपूर व्यापक है। तू खुद ही सब जगह मौजूद है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह देखा तह जोति तुमारी तेरा रूपु किनेहा ॥ इकतु रूपि फिरहि परछंना कोइ न किस ही जेहा ॥२॥

मूलम्

जह जह देखा तह जोति तुमारी तेरा रूपु किनेहा ॥ इकतु रूपि फिरहि परछंना कोइ न किस ही जेहा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनेहा = कैसा? बयान से परे। इकतु रूप = एक रूप (होते हुए), एक खुद ही खुद होते हुए। परछंना = छुपा हुआ।2।
अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ तेरी ही ज्योति (प्रकाशमान) है, पर तेरा स्वरूप कैसा है (ये बयान से परे है)। तू खुद ही खुद होते हुए भी इन बेअंत जीवों में छुप के घूम रहा है (आश्चर्य ये है कि) कोई एक जीव किसी दूसरे जैसा नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंडज जेरज उतभुज सेतज तेरे कीते जंता ॥ एकु पुरबु मै तेरा देखिआ तू सभना माहि रवंता ॥३॥

मूलम्

अंडज जेरज उतभुज सेतज तेरे कीते जंता ॥ एकु पुरबु मै तेरा देखिआ तू सभना माहि रवंता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंडज = अण्डे से जन्मे हुए। जेरज = ज्योर गर्भ से जन्मे हुए। उतभुज = पानी से धरती में पैदा होए हुए। सेतज = स्वेत (पसीने) से पैदा होए हुए। पूरबु = आश्चर्यजनक खेल, बड़ाई। रवंता = रमा हुआ, व्यापक।3।
अर्थ: अण्डे में से, गर्भ में से, धरती में से, पसीने में से पैदा होए हुए ये सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं (ये सारे अनेक रंगों और किस्मों के हैं), पर मैं तेरे आश्चर्यजनक खेल को देखता हूँ कि तू इन सभी जीवों में मौजूद है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरे गुण बहुते मै एकु न जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ॥ प्रणवति नानक सुणि मेरे साहिबा डुबदा पथरु लीजै ॥४॥४॥

मूलम्

तेरे गुण बहुते मै एकु न जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ॥ प्रणवति नानक सुणि मेरे साहिबा डुबदा पथरु लीजै ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किछु = कोई अच्छी अकल। लीजै = निकाल ले।4।
अर्थ: नानक विनती करता है: हे प्रभु! तेरे अनेक गुण हैं, मुझे किसी एक की भी पूरी समझ नहीं हैं। हे मेरे मालिक! सुन! मुझ मूर्ख को सद-बुद्धि दे, मैं विकारों में डूब रहा हूँ जैसे पत्थर पानी में डूब जाता है। मुझे निकाल ले।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ हउ पापी पतितु परम पाखंडी तू निरमलु निरंकारी ॥ अम्रितु चाखि परम रसि राते ठाकुर सरणि तुमारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ हउ पापी पतितु परम पाखंडी तू निरमलु निरंकारी ॥ अम्रितु चाखि परम रसि राते ठाकुर सरणि तुमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। पतित = गिरा हुआ, विकारों में पड़ा हुआ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। रसि = रस में। ठाकुर = हे ठाकुर! 1।
अर्थ: हे मेरे ठाकुर! मैं विकारी हूँ, (सदा वकारों में ही) गिरा रहता हूँ, बड़ा ही पाखण्डी हूँ, तू पवित्र निरंकार है। (इतनी ज्यादा दूरी होते हुए मैं तेरे चरणों में कैसे पहुँचू?)। (पर तू शरण पड़े की इज्जत रखने वाला है) जो लोग तेरी शरण पड़ते हैं; वे अटल आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम-रस चख के उस सबसे उच्च रस में मस्त रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करता तू मै माणु निमाणे ॥ माणु महतु नामु धनु पलै साचै सबदि समाणे ॥ रहाउ॥

मूलम्

करता तू मै माणु निमाणे ॥ माणु महतु नामु धनु पलै साचै सबदि समाणे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करता = हे कर्तार! महतु = महत्वता, बड़ाई। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे कर्तार! (दुनिया में किसी को धन का गुमान, किसी को गुणों का फख़र। मेरे पास तो गुण नहीं हैं) मुझे निमाण के लिए तो तू ही माण है (मुझे तेरा ही माण है आसरा है) जिनके पल्ले परमात्मा का नाम धन है, जो गुरु-शब्द के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन रहते हैं उन्हें ही मान मिलता है उन्हें ही बड़प्पन मिलता है। रहाउ।

[[0597]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू पूरा हम ऊरे होछे तू गउरा हम हउरे ॥ तुझ ही मन राते अहिनिसि परभाते हरि रसना जपि मन रे ॥२॥

मूलम्

तू पूरा हम ऊरे होछे तू गउरा हम हउरे ॥ तुझ ही मन राते अहिनिसि परभाते हरि रसना जपि मन रे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊरे = ऊणे, छोटे। होछे = छोटी सीमा वाले। गउरा = भारा, गंभीर। हउरे = हल्के। मन = जिनके मन। रसना = जीभ। मन रे = हे मेरे मन!।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू गुणों से भरपूर है, हम जीव छोटे हैं, तुच्छ बुद्धि के हैं। तू गंभीर है हम हल्के हैं (हे प्रभु!) जिनके मन दिन-रात हर वक्त तेरे प्यार में रंगे रहते हैं (उन्हें तू अपने चरणों में जोड़ के संपूर्ण और गंभीर बना लेता है)। हे मेरे मन! तू भी जीभ से परमात्मा का नाम जप (तेरे अंदर भी उसकी मेहर से गुण पैदा हो जाएंगे)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम साचे हम तुम ही राचे सबदि भेदि फुनि साचे ॥ अहिनिसि नामि रते से सूचे मरि जनमे से काचे ॥३॥

मूलम्

तुम साचे हम तुम ही राचे सबदि भेदि फुनि साचे ॥ अहिनिसि नामि रते से सूचे मरि जनमे से काचे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर रहने वाले। भेदि = भेद के। फुनि = दुबारा, भी। अहि = दिन। निसि = रात। नामि = नाम में। काचे = कच्ची घाड़त वाले, अनुचित घड़त वाले।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सदा-स्थिर रहने वाला है, अगर हम जीव तेरी याद में ही टिके रहें, अगर हम महिमा के शबदों में भेदे रहें, तो हम भी (तेरी मेहर से) अडोल-चिक्त हो सकते हैं। जो मनुष्य दिन-रात तेरे नाम में रंगे रहते हैं वे पवित्र-आत्मा हैं, (पर नाम विसार के) जो जनम-मरण के चक्कर में पड़े हुए हैं उनके मन की घाड़त अभी अनुचित है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरु न दीसै किसु सालाही तिसहि सरीकु न कोई ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा गुरमति जानिआ सोई ॥४॥५॥

मूलम्

अवरु न दीसै किसु सालाही तिसहि सरीकु न कोई ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा गुरमति जानिआ सोई ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलाही = मैं महिमा करूँ। सरीकु = बराबर का।4।
अर्थ: परमात्मा के बराबर का कोई नहीं है, कोई और मुझे उस जैसा दिखता ही नहीं जिसकी मैं महिमा कर सकूँ। नानक विनती करता है मैं उनके दासों का दास हूँ जिन्होंने गुरु की मति ले के उस (जिसका कोई शरीक नहीं है) परमात्मा से गहरी सांझ डाल ली है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ अलख अपार अगम अगोचर ना तिसु कालु न करमा ॥ जाति अजाति अजोनी स्मभउ ना तिसु भाउ न भरमा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ अलख अपार अगम अगोचर ना तिसु कालु न करमा ॥ जाति अजाति अजोनी स्मभउ ना तिसु भाउ न भरमा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलख = (अलक्ष्य, invisible) अदृश्य। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। गो = ज्ञान-इंद्रिय। गोचर = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय पहुँच सकें। अगोचर = अ+गोचर, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। कालु = मौत। करमा = कर्म, काम। अजाति = जिसकी कोई जाति नहीं। संभउ = (स्वयंभू) अपने आप से उत्पन्न होने वाला। भाउ = मोह।1।
अर्थ: वह परमात्मा अदृश्य है, बेअंत है, अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय उसे समझ नहीं सकतीं, मौत उसे छू नहीं सकती, कर्मों का उस पर कोई दबाव नहीं (जैसे जीव कर्म अधीन हैं वह नहीं)। उस प्रभु की कोई जाति नहीं, वह जूनियों में नहीं पड़ता, उसका प्रकाश अपने आप से है। ना उसे कोई मोह व्याप्तता है, ना ही उसे कोई भटकना है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ॥ ना तिसु रूप वरनु नही रेखिआ साचै सबदि नीसाणु ॥ रहाउ॥

मूलम्

साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ॥ ना तिसु रूप वरनु नही रेखिआ साचै सबदि नीसाणु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचिआर = सत्यालय, सच का श्रोत। विटहु = से। वरनु = रंग। रेखिआ = चिन्ह, रेखा। नीसाणु = घर पता। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा कुर्बान हूँ उस परमात्मा से जो सदा कायम रहने वाला है और जो सच्चाई का श्रोत है। उस परमात्मा का ना कोई रूप है ना कोई रंग है ना ही कोई चक्र चिन्ह ही है। सच्चे शब्द में जुड़ने से उसके घर घाट का ठिकाना पता चलता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न नारी ॥ अकुल निरंजन अपर पर्मपरु सगली जोति तुमारी ॥२॥

मूलम्

ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न नारी ॥ अकुल निरंजन अपर पर्मपरु सगली जोति तुमारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। कामु = काम-वासना। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं। परंपरु = परे से परे, बेअंत।2।
अर्थ: उस प्रभु के ना माँ ना पिता ना उसका कोई पुत्र ना ही रिश्तेदार। ना उसे काम-वासना सताती है ना ही उसकी कोई पत्नी है। उस का कोई खास कुल नहीं, वह माया के प्रभाव से परे है, बेअंत है, परे से परे है। हे प्रभु! हर जगह तेरी ही ज्योति प्रकाशमान है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घट घट अंतरि ब्रहमु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ॥ बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ॥३॥

मूलम्

घट घट अंतरि ब्रहमु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ॥ बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। घटि घटि = हरेक घट में। सबाई = हर जगह। बजर = पत्थर जैसे कठोर। कपाट = किवाड़, भित्त। मुकते = मुक्त हो जाते हैं, खुल जाते हैं। निरभै = निडर। ताड़ी = समाधी।3।
अर्थ: हरेक शरीर के अंदर परमात्मा गुप्त हो के बैठा हुआ है, हरेक घट में हर जगह पर उसी की ही ज्योति है (पर माया के मोह के कठोर किवाड़ लगे होने के कारण जीव को ये हकीकत समझ नहीं आती)। गुरु की मति पर चल के जिस मनुष्य के ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं उसे ये समझ आ जाता है कि (वह) हरेक जीव में व्यापक होता हुआ भी प्रभु निडर अवस्था में टिका बैठा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जंत उपाइ कालु सिरि जंता वसगति जुगति सबाई ॥ सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ॥४॥

मूलम्

जंत उपाइ कालु सिरि जंता वसगति जुगति सबाई ॥ सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि जंता = सब जीवोंके सिर पर। सबाई = सारी। वसगति = वश में की हुई। पावहि = जीव प्राप्त करते हैं। कमाई = कमा के।4।
अर्थ: सब जीवों को पैदा करके सबके सिर पर परमात्मा ने मौत (भी) टिकाई हुई है, सब जीवों की जीवन-जुगति प्रभु ने अपने वश में रखी हुई है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल कर नाम-पदार्थ हासिल करते हैं, वे गुरु शब्द को कमा के (गुरु के शब्द अनुसार जीवन ढाल के माया के बंधनो से) आजाद हो जाते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ॥ तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ॥५॥६॥

मूलम्

सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ॥ तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाडे = बर्तन में। सूचाचारी = स्वच्छ आचरण वाला। तंतै कउ = जीवात्मा को। परम तंतु = परम आत्मा।5।
अर्थ: पवित्र हृदय में ही सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा टिक सकता है, पर स्वच्छ आचरण वाले (पवित्र दिल वाले) कोई विरले ही होते हैं। (गुरु अपने शब्द के द्वारा हृदय पवित्र करके) जीव को परमात्मा से मिलाता है।
हे नानक! अरदास कर- हे प्रभु! मैं तेरी शरण में हूँ (मुझे अपने चरणों में जोड़े रख)।5।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ जिउ मीना बिनु पाणीऐ तिउ साकतु मरै पिआस ॥ तिउ हरि बिनु मरीऐ रे मना जो बिरथा जावै सासु ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ जिउ मीना बिनु पाणीऐ तिउ साकतु मरै पिआस ॥ तिउ हरि बिनु मरीऐ रे मना जो बिरथा जावै सासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीना = मछली। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। मरै = आत्मिक मौत मरता है। पिआस = माया की तृष्णा। बिरथा = खाली।1।
अर्थ: जैसे पानी के बिना मछली (तड़फती) है वैसे ही माया-ग्रसित जीव तृष्णा के अधीन रह के दुखी रहता है। इसी तरह, हे मन! हरि-स्मरण के बिना जो भी स्वाश खाली जाता है (उसमें दुखी हो हो के) आत्मिक मौत मरना पड़ता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे राम नाम जसु लेइ ॥ बिनु गुर इहु रसु किउ लहउ गुरु मेलै हरि देइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे राम नाम जसु लेइ ॥ बिनु गुर इहु रसु किउ लहउ गुरु मेलै हरि देइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जसु = यश, शोभा। किउ लहउ = मैं कैसे ढूँढू? मुझे नहीं मिल सकता। देइ = देता है। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम की महिमा किया कर। (पर) गुरु की शरण पड़े बिना ये आनंद नहीं मिल सकता। प्रभु (मेहर करके) जिसे गुरु मिलवाता है उसे ही (ये रस) देता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत जना मिलु संगती गुरमुखि तीरथु होइ ॥ अठसठि तीरथ मजना गुर दरसु परापति होइ ॥२॥

मूलम्

संत जना मिलु संगती गुरमुखि तीरथु होइ ॥ अठसठि तीरथ मजना गुर दरसु परापति होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलु = (हे भाई!) मिल। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना। अठसठि = अढ़सठ। मजना = स्नान। गुर दरसु = गुरु का दर्शन।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘तीरथु’ एकवचन है, ‘तीरथ’ बहुवचन है।
नोट: ‘मिलु’ है हुकमी भविष्यत, मध्यम पूरुष, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे मन!) संत जनों की संगति में मिल (सत्संग में रह के) गुरु के सन्मुख रहना ही (असल) तीर्थ (स्नान) है। जिस मनुष्य को गुरु के दर्शन हो जाते हैं उसे अढ़सठ तीर्थों के स्नान प्राप्त हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ जोगी जत बाहरा तपु नाही सतु संतोखु ॥ तिउ नामै बिनु देहुरी जमु मारै अंतरि दोखु ॥३॥

मूलम्

जिउ जोगी जत बाहरा तपु नाही सतु संतोखु ॥ तिउ नामै बिनु देहुरी जमु मारै अंतरि दोखु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जत = इन्द्रियों को वश में रखना। देहुरी = शरीर। जमु = मौत, मौत का डर। दोखु = विकार।3।
अर्थ: जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया वह जोगी (निष्फल) है, अगर अंदर संतोष नहीं, उच्च जीवन नहीं, तो (किया हुआ) तप व्यर्थ है। इसी तरह अगर प्रभु का नाम नहीं स्मरण किया, तो ये मनुष्य शरीर व्यर्थ है। नाम-हीन मनुष्य के अंदर विकार ही विकार हैं, उसे जमराज सजा देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत प्रेमु न पाईऐ हरि पाईऐ सतिगुर भाइ ॥ सुख दुख दाता गुरु मिलै कहु नानक सिफति समाइ ॥४॥७॥

मूलम्

साकत प्रेमु न पाईऐ हरि पाईऐ सतिगुर भाइ ॥ सुख दुख दाता गुरु मिलै कहु नानक सिफति समाइ ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = साकतों से। भाइ = प्रेम में। समाइ = लीन रहता है।4।
अर्थ: (प्रभु के चरणों का) प्यार माया-ग्रसित लोगों से नहीं मिलता, गुरु से प्यार डालने पर ही परमात्मा मिलता है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, उसे सुख-दुख देने वाला रब मिल जाता है, वह सदा प्रभु की महिमा में लीन रहता है।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ तू प्रभ दाता दानि मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ ॥ मै किआ मागउ किछु थिरु न रहाई हरि दीजै नामु पिआरी जीउ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ तू प्रभ दाता दानि मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ ॥ मै किआ मागउ किछु थिरु न रहाई हरि दीजै नामु पिआरी जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दानि = दान (देने) में। मति पूरा = पूर्ण बुद्धिमान, कभी ना गलती करने वाला। थारे = तेरे। भेखारी = भिखारी। मागउ = मैं मांगू। थिरु = सदा टिके रहने वाला। न रहाई = न रहे, नहीं रहता। हरि = हे हरि! पिआरी = मैं प्यार करूँ।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू हमें सब पदार्थ देने वाला है, दातें देने में तू कभी चूकता नहीं, हम तेरे (दर के) भिखारी हैं। मैं तुझ से कौन सी चीज माँगू? कोई भी चीज सदा टिकी नहीं रहने वाली। (हाँ, तेरा नाम ही है जो सदा स्थिर रहने वाला है। इसलिए) हे हरि! मुझे अपना नाम दे, मैं तेरे नाम को प्यार करूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ जलि थलि महीअलि गुपतो वरतै गुर सबदी देखि निहारी जीउ ॥ रहाउ॥

मूलम्

घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ जलि थलि महीअलि गुपतो वरतै गुर सबदी देखि निहारी जीउ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवि रहिआ = व्यापक हो रहा है। बनवारी = परमात्मा। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। देखि निहारी = अच्दी तरह देख। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है। पानी में, धरती में, धरती पर, आकाश में हर जगह मौजूद है पर छुपा हुआ है। (हे मन!) गुरु के शब्द के माध्यम से उसे देख। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरत पइआल अकासु दिखाइओ गुरि सतिगुरि किरपा धारी जीउ ॥ सो ब्रहमु अजोनी है भी होनी घट भीतरि देखु मुरारी जीउ ॥२॥

मूलम्

मरत पइआल अकासु दिखाइओ गुरि सतिगुरि किरपा धारी जीउ ॥ सो ब्रहमु अजोनी है भी होनी घट भीतरि देखु मुरारी जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरत = मातृ लोक, ये धरती। पइआल = पाताल। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुर ने। है भी = अब भी मौजूद है। होनी = आगे भी मौजूद रहेगा।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर) गुरु ने सतिगुरु ने कृपा की उसको उसने धरती आकाश पाताल (सारा जगत ही परमात्मा के अस्तित्व से भरपूर) दिखा दिया। वह परमात्मा जूनियों में नहीं आता, अब भी मौजूद है, आगे भी मौजूद रहेगा, (हे भाई!) उस प्रभु को तू अपने दिल में बसता देख।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम मरन कउ इहु जगु बपुड़ो इनि दूजै भगति विसारी जीउ ॥ सतिगुरु मिलै त गुरमति पाईऐ साकत बाजी हारी जीउ ॥३॥

मूलम्

जनम मरन कउ इहु जगु बपुड़ो इनि दूजै भगति विसारी जीउ ॥ सतिगुरु मिलै त गुरमति पाईऐ साकत बाजी हारी जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बपुड़े = विचारा। इनि = इस (जगत) ने। दूजै = दूसरे (मोह) में (फंस के)। साकत = साकतों ने, माया ग्रसित लोगों ने।3।
अर्थ: ये भाग्यहीन जगत जनम-मरण का चक्कर सहेड़े बैठा है क्योंकि इसने माया के मोह में पड़ कर परमात्मा की भक्ति भुला दी है। अगर सतिगुरु मिल जाए तो गुरु के उपदेश में चलने से (प्रभु की भक्ति) प्राप्त होती है, पर माया-ग्रसित जीव (भक्ति से टूट के मानव जन्म की) बाजी हार जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर बंधन तोड़ि निरारे बहुड़ि न गरभ मझारी जीउ ॥ नानक गिआन रतनु परगासिआ हरि मनि वसिआ निरंकारी जीउ ॥४॥८॥

मूलम्

सतिगुर बंधन तोड़ि निरारे बहुड़ि न गरभ मझारी जीउ ॥ नानक गिआन रतनु परगासिआ हरि मनि वसिआ निरंकारी जीउ ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! तोड़ि = तोड़ के। निरारे = निराले, निर्लिप। बहुड़ि = दुबारा। मझारी = में। नानक = हे नानक! परगासिआ = चमका, रौशन हुआ। मनि = मन में।4।
अर्थ: हे सतिगुरु! माया के बंधन तोड़ के जिस लोगों को तू माया से निर्लिप कर देता है, वह दुबारा जनम-मरन के चक्कर में नहीं पड़ता। हे नानक! (गुरु की कृपा से जिनके अंदर परमात्मा के) ज्ञान का रतन चमक पड़ता है, उनके मन में हरि निरंकार (स्वयं) आ बसता है।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अम्रितु गुर पाही जीउ ॥ छोडहु वेसु भेख चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अम्रितु गुर पाही जीउ ॥ छोडहु वेसु भेख चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जल निधि = पानी का खजाना (जैसे आग बुझाने के लिए पानी चाहिए वैसे ही तृष्णा की आग शांत करने के लिए नाम-जल की आवश्यक्ता है), अमृत का खजाना। जगि = जगत में। पाही = पास। वेसु = पहरावा। वेसु भेख = धार्मिक भेस का पहरावा। चतुराई = चालाकी। दुबिधा = दो रुखी।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस अमृत के खजाने की खातिर तुम जगत में आए हो वह अमृत गुरु की ओर से मिलता है; पर धार्मिक भेस का पहरावा छोड़, मन की चालाकी भी छोड़ दे (बाहर की सूरति धर्मियों वाली और अंदर से दुनिया को ठगने वाली चालाकी) इस दुविधा भरी चाल में उलझे रह के ये अमृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ॥ बाहरि ढूढत बहुतु दुखु पावहि घरि अम्रितु घट माही जीउ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ॥ बाहरि ढूढत बहुतु दुखु पावहि घरि अम्रितु घट माही जीउ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कत = कहाँ बाहर। मतु जाही = ना जाना। घरि = घर में। घट माही = हृदय में। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (अंदर ही प्रभु चरणों में) टिका रह, (देखना, नाम-अमृत की तलाश में) कहीं बाहर ना भटकते फिरना। अगर तू बाहर ढूँढने निकल पड़ा, तो बहुत दुख पाएगा। अटल आत्मिक जीवन देने वाला रस तेरे घर में ही है, हृदय में ही है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगुण छोडि गुणा कउ धावहु करि अवगुण पछुताही जीउ ॥ सर अपसर की सार न जाणहि फिरि फिरि कीच बुडाही जीउ ॥२॥

मूलम्

अवगुण छोडि गुणा कउ धावहु करि अवगुण पछुताही जीउ ॥ सर अपसर की सार न जाणहि फिरि फिरि कीच बुडाही जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावहु = दौड़ो। करि = कर के। सर अपसर = अच्छा और बुरा। सार = समझ। कीच = कीचड़ में। बुडाही = तू डबता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) अवगुण छोड़ के गुण हासिल करने का प्रयत्न करो। अगर अवगुण ही करते रहोगे तो पछताना पड़ेगा। (हे मन!) तू बार-बार मोह के कीचड़ में डूब रहा है, तू अच्छे-बुरे की परख करनी नहीं जानता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि मैलु लोभ बहु झूठे बाहरि नावहु काही जीउ ॥ निरमल नामु जपहु सद गुरमुखि अंतर की गति ताही जीउ ॥३॥

मूलम्

अंतरि मैलु लोभ बहु झूठे बाहरि नावहु काही जीउ ॥ निरमल नामु जपहु सद गुरमुखि अंतर की गति ताही जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काही = किसलिए? अंतरि = तेरे अंदर। अंदर की = अंदर की। ताही = तब ही।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतर’ में फर्क समझें।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) अगर अंदर (मन में) लोभ की मैल है (और लोभ के अधीन हो के) कई ठगी के काम करते हो, तो बाहर (तीर्थ आदि पर) स्नान करने के क्या लाभ? अंदर की ऊँची अवस्था तभी बनेगी जब गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के सदा प्रभु का पवित्र नाम जपोगे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परहरि लोभु निंदा कूड़ु तिआगहु सचु गुर बचनी फलु पाही जीउ ॥ जिउ भावै तिउ राखहु हरि जीउ जन नानक सबदि सलाही जीउ ॥४॥९॥

मूलम्

परहरि लोभु निंदा कूड़ु तिआगहु सचु गुर बचनी फलु पाही जीउ ॥ जिउ भावै तिउ राखहु हरि जीउ जन नानक सबदि सलाही जीउ ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परहरि = त्याग के। सचु फलु = सदा टिके रहने वाला फल। पाही = हासिल करेगा। सालाही = मैं सलाहता रहूँ।4।
अर्थ: (हे मन!) लोभ त्याग, निंदा और झूठ त्याग। गुरु के वचन में चलने से ही सदा स्थिर रहने वाला अमृत-फल मिलेगा।
हे दास नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह:) हे हरि! जैसे तेरी रजा हो वैसे ही मुझे रख (पर ये मेहर कर कि गुरु के) शब्द में जुड़ के मैं तेरी महिमा करता रहूँ।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ पंचपदे ॥ अपना घरु मूसत राखि न साकहि की पर घरु जोहन लागा ॥ घरु दरु राखहि जे रसु चाखहि जो गुरमुखि सेवकु लागा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ पंचपदे ॥ अपना घरु मूसत राखि न साकहि की पर घरु जोहन लागा ॥ घरु दरु राखहि जे रसु चाखहि जो गुरमुखि सेवकु लागा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच पदे = पाँच-पाँच बंदों वाले शब्द। घरु = आत्मिक जीवन। मूसत = चुराया जा रहा है। की = क्यों? जोहन लागा = ताक रहा है, छेद ढूँढ रहा है।1।
अर्थ: हे मन! तेरा अपना आत्मिक जीवन लुटा जा रहा है उसे तू बचा नहीं सकता, पराए ऐब क्यों फरोलता फिरता है? अपना घर-बार (लुटे जाने से तभी) बच सकेगा अगर तू प्रभु के नाम का स्वाद चखेगा। (नाम-रस वही) सेवक (चखता है) जो गुरु के सन्मुख रहके (सेवा में) लगता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे समझु कवन मति लागा ॥ नामु विसारि अन रस लोभाने फिरि पछुताहि अभागा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे समझु कवन मति लागा ॥ नामु विसारि अन रस लोभाने फिरि पछुताहि अभागा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अन रस = और रसों में। अभागा = भाग्यहीन। रहाउ।
अर्थ: हे मन! होश कर, किस बुरी मति में लग गया है? हे अभागे! परमात्मा का नाम भुला के अन्य ही स्वादों में मस्त हो रहा है, (समय बीत जाने पर) फिर पछताएगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवत कउ हरख जात कउ रोवहि इहु दुखु सुखु नाले लागा ॥ आपे दुख सुख भोगि भोगावै गुरमुखि सो अनरागा ॥२॥

मूलम्

आवत कउ हरख जात कउ रोवहि इहु दुखु सुखु नाले लागा ॥ आपे दुख सुख भोगि भोगावै गुरमुखि सो अनरागा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरख = खुशी। नाले = साथ ही। भोगि = भोग में। अनरागा = राग रहित, निर्मोह।2।
अर्थ: हे मन! तू आते धन को देख के खुश होता है, जाते को देख के रोता है, ये दुख और सुख तेरे साथ ही चिपका चला आ रहा है (पर तेरे भी क्या वश?) प्रभु खुद ही (जीव को उसके किए कर्मों के अनुसार) दुखों और सुखों के भोग में उलझा के (दुख-सुख) भोगाता हूँ। (सिर्फ) वह मनुष्य ही निर्मोही रहता है जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि रस ऊपरि अवरु किआ कहीऐ जिनि पीआ सो त्रिपतागा ॥ माइआ मोहित जिनि इहु रसु खोइआ जा साकत दुरमति लागा ॥३॥

मूलम्

हरि रस ऊपरि अवरु किआ कहीऐ जिनि पीआ सो त्रिपतागा ॥ माइआ मोहित जिनि इहु रसु खोइआ जा साकत दुरमति लागा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊपरि = बढ़िया। जिनि = जिस ने। त्रिपतागा = तृप्त हो गया। खोइआ = गवा लिया। जा = जा के। साकत = माया ग्रसित मनुष्य।3।
अर्थ: (हे मन!) परमात्मा के नाम के रस से बढ़िया और कोई रस कहा नहीं जा सकता। जिस मनुष्य ने ये रस पिया है वह (दुनिया के और रसों की ओर से) तृप्त हो जाता है। पर जिस मनुष्य ने माया के मोह में फंस के यह (नाम-) रस गवा लिया है वह माया-ग्रसित लोगों की कुबुद्धि में जा लगता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन का जीउ पवनपति देही देही महि देउ समागा ॥ जे तू देहि त हरि रसु गाई मनु त्रिपतै हरि लिव लागा ॥४॥

मूलम्

मन का जीउ पवनपति देही देही महि देउ समागा ॥ जे तू देहि त हरि रसु गाई मनु त्रिपतै हरि लिव लागा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा, आसरा, जिंद। पवन = प्राण। देही = देह का मालिक। देही = शरीर। देउ = प्रकाश रूप प्रभु। गाई = मैं गाऊँ।4।
अर्थ: जो प्रकाश-रूपपरमात्मा हमारे मन का सहारा है, प्राणों का मालिक है, शरीर का मालिक है, वह हमारे शरीर में ही मौजूद है (पर हमें ये समझ नहीं आता, हम बाहर ही भटकते रहते हैं)। हे प्रभु! अगर तू खुद मुझे अपने नाम का रस बख्शे तो ही मैं तेरे गुण गा सकता हूँ। जिस मनुष्य की तवज्जो हरि-स्मरण में जुड़ती है उसका मन माया की ओर से तृप्त हो जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगति महि हरि रसु पाईऐ गुरि मिलिऐ जम भउ भागा ॥ नानक राम नामु जपि गुरमुखि हरि पाए मसतकि भागा ॥५॥१०॥

मूलम्

साधसंगति महि हरि रसु पाईऐ गुरि मिलिऐ जम भउ भागा ॥ नानक राम नामु जपि गुरमुखि हरि पाए मसतकि भागा ॥५॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु से। मिलिऐ = मिल के। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। मसतकि = माथे पर।5।
अर्थ: हे नानक! साधु-संगत में परमात्मा के नाम का रस प्राप्त हो सकता है (साधु-संगत में) अगर गुरु मिल जाए तो मौत का (भी) डर दूर हो जाता है। जिस मनुष्य के माथे पर अच्छे लेख उघड़ आएं, वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करके परमात्मा के साथ मिलाप हासिल कर लेता है।5।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ सरब जीआ सिरि लेखु धुराहू बिनु लेखै नही कोई जीउ ॥ आपि अलेखु कुदरति करि देखै हुकमि चलाए सोई जीउ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ सरब जीआ सिरि लेखु धुराहू बिनु लेखै नही कोई जीउ ॥ आपि अलेखु कुदरति करि देखै हुकमि चलाए सोई जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। धुराहु = धुर से ही। अलेखु = जिस पर किए कर्मों के संस्कारों का प्रभाव नहीं (अ+लेख)। करि = पैदा करके, बना के। देखै = संभाल करता है। सोई = वह प्रभु स्वयं ही।1।
अर्थ: धुर से ही (परमात्मा की रजा अनुसार) सब जीवों के माथे पर (अपने-अपने किए कर्मोंके संस्कारों का) लेख (उकरा हुआ) है। कोई जीव ऐसा नहीं है जिस पर इस लेख का प्रभाव ना हो। सिर्फ परमात्मा खुद इस (कर्म) लेख से स्वतंत्र है, जो इस कुदरत को रच के इसकी संभाल करता है, और अपने हुक्म में (जगत की कार्यवाही) चला रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे राम जपहु सुखु होई ॥ अहिनिसि गुर के चरन सरेवहु हरि दाता भुगता सोई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे राम जपहु सुखु होई ॥ अहिनिसि गुर के चरन सरेवहु हरि दाता भुगता सोई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। सरेवहु = सेवा करो। भुगता = भोगने वाला। गुर = सबसे बड़ा मालिक। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा राम का नाम जपो (नाम जपने से) आत्मिक सुख मिलेगा। दिन-रात उस सबसे बड़े मालिक के चरणों का ध्यान धरो, वह हरि (खुद ही सब जीवों को दातें) देने वाला है, (खुद ही सबमें व्यापक हो के) भोगने वाला है। रहाउ।

[[0599]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो अंतरि सो बाहरि देखहु अवरु न दूजा कोई जीउ ॥ गुरमुखि एक द्रिसटि करि देखहु घटि घटि जोति समोई जीउ ॥२॥

मूलम्

जो अंतरि सो बाहरि देखहु अवरु न दूजा कोई जीउ ॥ गुरमुखि एक द्रिसटि करि देखहु घटि घटि जोति समोई जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के। एक द्रिसटि = एक प्रभु को ही देखने वाली नजर। करि = बना के। समोई = समाई हुई, मौजूद।2।
अर्थ: हे मेरे मन! जो प्रभु तेरे अंदर बस रहा है उसको बाहर (सारी कायनात में) देख। उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। गुरु के बताए हुए राह पर चल कर उस एक को देखने वाली नजर बना (फिर तुझे दिख जाएगा कि) हरेक शरीर में एक परमात्मा की ही ज्योति मौजूद है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलतौ ठाकि रखहु घरि अपनै गुर मिलिऐ इह मति होई जीउ ॥ देखि अद्रिसटु रहउ बिसमादी दुखु बिसरै सुखु होई जीउ ॥३॥

मूलम्

चलतौ ठाकि रखहु घरि अपनै गुर मिलिऐ इह मति होई जीउ ॥ देखि अद्रिसटु रहउ बिसमादी दुखु बिसरै सुखु होई जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चलतौ = भटकते (मन) को। ठाकि = रोक के। घरि = घर में। मति = अकल। रहउ = मैं रहता हूँ।। बिसमादी = हैरान, विस्माद अवस्था में।3।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘रहउ’ बारे। इस शब्द के निम्न-लिखित शब्द ध्यान से पढ़ें-जपहु, सरेवहु, देखहु, रखहु, पीवहु। ये सारे शब्द हुकमी भविष्यत, मध्यम पुरुष, बहुवचन हैं। पर शब्द ‘रहउ’ वर्तमानकाल, उत्तम पुरुष व एकवचन है।)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) इस (बाहर) भटकते (मन) को रोक के अपने अंदर (बसते प्रभु में) टिका के रख। पर गुरु को मिल के ही ये मति आती है। मैं तो (गुरु की कृपा से) उस अदृश्य प्रभु को (सब में बसता) देख के विस्माद अवस्था में पहुँच जाता हूँ। (जो भी ये दीदार करता है, उसका) दुख मिट जाता है उसको आत्मिक आनंद मिल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीवहु अपिउ परम सुखु पाईऐ निज घरि वासा होई जीउ ॥ जनम मरण भव भंजनु गाईऐ पुनरपि जनमु न होई जीउ ॥४॥

मूलम्

पीवहु अपिउ परम सुखु पाईऐ निज घरि वासा होई जीउ ॥ जनम मरण भव भंजनु गाईऐ पुनरपि जनमु न होई जीउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपिउ = अंम्रित, अटल आत्मिक जीवन देने वाला रस। पाईऐ = पा लिया जाता है। निज घरि = अपने घर में। जनम मरन भव भंजनु = वह पेंभू जो जनम मरण नाश करने वाला है, जो संसार चक्रनाश करने वाला है। पुनरपि = (पुनः +अपि) पुनः, दुबारा। अपि = भी। (बार बार)।4।
अर्थ: (हे भाई!) अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी, (ये नाम-रस पीने से) सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद मिलता है, और अपने घर में ठिकाना हो जाता है (भाव, सुखों की खातिर मन बाहर भटकने से हट जाता है)। (हे भाई!) जनम-मरण का चक्कर नाश करने वाले प्रभु की महिमा करनी चाहिए (इस तरह) बार-बार जनम (मरण) नहीं होता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततु निरंजनु जोति सबाई सोहं भेदु न कोई जीउ ॥ अपर्मपर पारब्रहमु परमेसरु नानक गुरु मिलिआ सोई जीउ ॥५॥११॥

मूलम्

ततु निरंजनु जोति सबाई सोहं भेदु न कोई जीउ ॥ अपर्मपर पारब्रहमु परमेसरु नानक गुरु मिलिआ सोई जीउ ॥५॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततु = सारे जगत का असल। निरंजनु = माया कालिख से रहित। सबाई = सब जगह। सोहं = सोहै, शोभा दे रही है। भेदु = दूरी। अपरंपर = परे से परे। गुर मिलिआ = (जो मनुष्य) गुरु को मिल पड़ा है।5।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा सारे जगत की अस्लियत है (असल मूल तत्व है), (खुद) माया के प्रभाव से रहित है, प्रभु पारब्रहम परे से परे है और सबसे बड़ा मालिक है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु को मिल लेता है उसको (दिखाई दे जाता है कि) उस प्रभु की ज्योति हर जगह शोभायमान है (और उसकी व्यापकता में कहीं) कोई भेद-भाव नहीं है।5।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट! ये 11शबद ‘घरु १’ हैं। आगे 1शबद ‘घरु ३’ का है। तभी उसका अलग से अंक 1 दे के सारा जोड़ 12 लिखा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा तिसु भावा तद ही गावा ॥ ता गावे का फलु पावा ॥ गावे का फलु होई ॥ जा आपे देवै सोई ॥१॥

मूलम्

जा तिसु भावा तद ही गावा ॥ ता गावे का फलु पावा ॥ गावे का फलु होई ॥ जा आपे देवै सोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा = जब। तिसु = उस (प्रभु) को। भावा = अच्छा लगूँ। गावा = मैं गा सकता हूं, महिमा करूँ। ता = तब। गावे का = महिमा का। पावा = मैं पा सकता हूँ। सोई = वह प्रभु ही।1।
अर्थ: (हे मेरे मन!) जब मैं उस प्रभु को अच्छा लगता हूँ (अर्थात, जब वह मेरे पर खुश होता है) तब ही मैं उसकी महिमा कर सकता हूँ, तब ही (उसकी मेहर से ही) मैं महिमा का फल पा सकता हूँ। महिमा करने का जो फल है (कि सदा उसके चरणों में लीन रहा जा सकता है, ये भी तभी प्राप्त होता है) जब वह प्रभु खुद ही (प्रसन्न हो के) देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे गुर बचनी निधि पाई ॥ ता ते सच महि रहिआ समाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे गुर बचनी निधि पाई ॥ ता ते सच महि रहिआ समाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! बचनी = वचनों से। निधि = खजाना, महिमा का खजाना। पाई = (जिसने) पा लिया। ता ते = उस (खजाने) से, महिमा के उस खजाने की इनायत से। सच = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने गुरु के वचनों पर चल के (महिमा का) खजाना पा लिया, वह उस (खजाने) की इनायत से सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद में) सदा टिका रहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर साखी अंतरि जागी ॥ ता चंचल मति तिआगी ॥ गुर साखी का उजीआरा ॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा ॥२॥

मूलम्

गुर साखी अंतरि जागी ॥ ता चंचल मति तिआगी ॥ गुर साखी का उजीआरा ॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साखी = शिक्षा। जागी = जाग पड़ी, ज्योति जग गई। ता = तब। चंचल = एक जगह ना टिकने वाली, भटकना में डाले रखने वाली। उजीआरा = प्रकाश (आत्मिक)। अंध्यारा = (अज्ञानता का) अंधेरा।2।
अर्थ: जब जिस मनुष्य के अंदर सतिगुरु की (महिमा करनेकी शिक्षा की) ज्योति जग जाती है तब वह मनुष्य ऐसी मति त्याग देता है जो उसे माया की भटकना में डाले रखती थी। जब (मनुष्य के अंदर) गुरु के उपदेश का (आत्मिक) प्रकाश होता है, तब उसके अंदर से (अज्ञानता वाला) सारा अंधकार दूर हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर चरनी मनु लागा ॥ ता जम का मारगु भागा ॥ भै विचि निरभउ पाइआ ॥ ता सहजै कै घरि आइआ ॥३॥

मूलम्

गुर चरनी मनु लागा ॥ ता जम का मारगु भागा ॥ भै विचि निरभउ पाइआ ॥ ता सहजै कै घरि आइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। जम का मारगु = वह जीवन रास्ता जो आत्मिक मौत की ओर ले जाता है। सहज = अडोल आत्मिक अवस्था, शांति।3।
अर्थ: जब जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में जुड़ता है, तब उस मनुष्य का वह जीवन-रास्ता समाप्त हो जाता है जिस पे चलते हुए (उसकी) आत्मिक मौत हो रही थी। परमात्मा के डर अदब में रह के जब मनुष्य निर्भय प्रभु से मिलाप हासिल करता है तब वह अडोल आत्मिक अवस्था के घर में टिक जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भणति नानकु बूझै को बीचारी ॥ इसु जग महि करणी सारी ॥ करणी कीरति होई ॥ जा आपे मिलिआ सोई ॥४॥१॥१२॥

मूलम्

भणति नानकु बूझै को बीचारी ॥ इसु जग महि करणी सारी ॥ करणी कीरति होई ॥ जा आपे मिलिआ सोई ॥४॥१॥१२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: देखें इसी राग में नामदेव जी का शब्द ‘जब देखा तब गावा’। दोनों शबदों में बहुत ही समीपता है। गुरु नानक देव जी के पास भक्त नामदेव जी की वाणी मौजूद थी।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भणति = कहता है। को बीचारी = कोई विचारवान ही। करणी = करने योग्य कर्म, करणीय। सारी = श्रेष्ठ। कीरति = कीर्ति, महिमा। आपे = (प्रभु) खुद ही।4।
अर्थ: पर, नानक कहता है: कोई विरला विचारवान ही समझता है कि इस जिंदगी में (परमात्मा की महिमा ही) श्रेष्ठ करने योग्य काम है। जब प्रभु खुद (मेहर करके जीव के दिल में) प्रगट होता है तब उसको महिमा का (श्रेष्ठ) कर्म मिल जाता है।4।1।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवक सेव करहि सभि तेरी जिन सबदै सादु आइआ ॥ गुर किरपा ते निरमलु होआ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥ अनदिनु गुण गावहि नित साचे गुर कै सबदि सुहाइआ ॥१॥

मूलम्

सेवक सेव करहि सभि तेरी जिन सबदै सादु आइआ ॥ गुर किरपा ते निरमलु होआ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥ अनदिनु गुण गावहि नित साचे गुर कै सबदि सुहाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सबदै = गुरु के शब्द का। सादु = सवाद, रस। ते = से, साथ। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। आपु = स्वै भाव। अनदिनु = हर रोज। गावहि = गाते हैं। साचे = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के। सबदि = शब्द से। सुहाइआ = सुंदर जीवन वाले हो जाते हैं।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिन’ बहुवचन है ‘जिनि’ एकवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तेरे जिस सेवकों को गुरु के शब्द का रस आ जाता है वही सारे तेरी सेवा-भक्ति करते हैं। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से अपने अंदर से स्वै भाव दूर कर लिया वह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में (जुड़ के) हर वक्त सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते रहते हैं, वे सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे ठाकुर हम बारिक सरणि तुमारी ॥ एको सचा सचु तू केवलु आपि मुरारी ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे ठाकुर हम बारिक सरणि तुमारी ॥ एको सचा सचु तू केवलु आपि मुरारी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक! सचा = सदा स्थिर रहने वाला। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! हम (जीव) तेरे बच्चे हैं, तेरी शरण आए हैं। सिर्फ एक तू ही सदा कायम रहने वाला है (जीव माया में डोल जाते हैं)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जागत रहे तिनी प्रभु पाइआ सबदे हउमै मारी ॥ गिरही महि सदा हरि जन उदासी गिआन तत बीचारी ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ हरि राखिआ उर धारी ॥२॥

मूलम्

जागत रहे तिनी प्रभु पाइआ सबदे हउमै मारी ॥ गिरही महि सदा हरि जन उदासी गिआन तत बीचारी ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ हरि राखिआ उर धारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागत = (विकारों से) सचेत। गिरही महि = गृह में ही, गृहस्थ में ही। उर = दिल।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) अहंकार समाप्त कर लेते हैं, वे (माया के मोह आदि से) सचेत रहते हैं, उन्होंने ही परमात्मा का मिलाप हासिल किया है। परमात्मा के भक्त गुरु के असल ज्ञान के द्वारा विचारवान हो के गृहस्थ में रहते हुए भी माया से विरक्त रहते हैं। वह भक्त गुरु की बताई हुई सेवा करके सदा आत्मिक आनंद पाते हैं, और परमात्मा को अपने दिल में बसाए रखते हैं।2।

[[0600]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनूआ दह दिसि धावदा दूजै भाइ खुआइआ ॥ मनमुख मुगधु हरि नामु न चेतै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु भेटे ता नाउ पाए हउमै मोहु चुकाइआ ॥३॥

मूलम्

इहु मनूआ दह दिसि धावदा दूजै भाइ खुआइआ ॥ मनमुख मुगधु हरि नामु न चेतै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु भेटे ता नाउ पाए हउमै मोहु चुकाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनूआ = अल्लहड़ मन। दह दिसि = दसों दिशाओं में। दूजै भाइ = माया के मोह में। खुआइआ = राह से विछुड़ जाता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगधु = मूर्ख। भेटे = मिल जाए।3।
अर्थ: हे भाई! ये अल्लहड़ मन माया के मोह में फंस के दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है, और (जीवन के सही राह से) उखड़ा फिरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य परमात्मा का नाम याद नहीं करता, अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है। पर जब उसे गुरु मिल जाता है तब वह हरि नाम की दाति हासिल करता है, और, अपने अंदर से माया का मोह और अहंकार दूर कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन साचे साचु कमावहि गुर कै सबदि वीचारी ॥ आपे मेलि लए प्रभि साचै साचु रखिआ उर धारी ॥ नानक नावहु गति मति पाई एहा रासि हमारी ॥४॥१॥

मूलम्

हरि जन साचे साचु कमावहि गुर कै सबदि वीचारी ॥ आपे मेलि लए प्रभि साचै साचु रखिआ उर धारी ॥ नानक नावहु गति मति पाई एहा रासि हमारी ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वीचारी = विचारवान (हो के)। प्रभि = प्रभु ने। साचै = सदा स्थिर रहने वाले ने। नावहु = नाम से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। एहा = ये (नाम) ही। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द के द्वारा विचारवान हो के परमात्मा के दास सदा स्थिर परमात्मा का सदा-स्थिर नाम-जपने की कमाई करते रहते हैं। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा ने स्वयं ही उनको अपने चरणों में मिला लिया होता है। वह सदा कायम रहने वाले प्रभु को अपने दिल में बसाए रखते हैं।
हे नानक! (कह:) परमात्मा के नाम से ही ऊँची आत्मिक अवस्था और (अच्छी) बुद्धि प्राप्त होती है। परमात्मा का नाम ही हम (जीवों की) संपत्ति है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ भगति खजाना भगतन कउ दीआ नाउ हरि धनु सचु सोइ ॥ अखुटु नाम धनु कदे निखुटै नाही किनै न कीमति होइ ॥ नाम धनि मुख उजले होए हरि पाइआ सचु सोइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ भगति खजाना भगतन कउ दीआ नाउ हरि धनु सचु सोइ ॥ अखुटु नाम धनु कदे निखुटै नाही किनै न कीमति होइ ॥ नाम धनि मुख उजले होए हरि पाइआ सचु सोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। सचु = सदा कायम रहने वाला। अखुटु = ना खतम होने वाला। किनै = किसी तरफ भी। धनि = धन से।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु) भक्त जनों को परमात्मा की भक्ति का खजाना देता है, परमात्मा का नाम ऐसा धन है जो सदा कायम रहता है। हरि-नाम-धन कभी खत्म होने वाला नहीं, ये धन कभी खत्म नहीं होता, किसी से ये मूल्य भी नहीं लिया जा सकता (भाव, कोई मनुष्य इसे दुनियावी पदार्थों से खरीद भी नहीं सकता)। जिन्होंने ये सदा-स्थिर हरि-धन प्राप्त कर लिया, उन्हें इस नाम-धन की इनायत से (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे गुर सबदी हरि पाइआ जाइ ॥ बिनु सबदै जगु भुलदा फिरदा दरगह मिलै सजाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे गुर सबदी हरि पाइआ जाइ ॥ बिनु सबदै जगु भुलदा फिरदा दरगह मिलै सजाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदी = शब्द से। सजाइ = दण्ड। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु के शब्द से ही परमात्मा मिल सकता है। शब्द के बिना जगत गलत रास्ते पर भटकता फिरता है (आगे परलोक में) प्रभु की दरगाह में दण्ड सहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु देही अंदरि पंच चोर वसहि कामु क्रोधु लोभु मोहु अहंकारा ॥ अम्रितु लूटहि मनमुख नही बूझहि कोइ न सुणै पूकारा ॥ अंधा जगतु अंधु वरतारा बाझु गुरू गुबारा ॥२॥

मूलम्

इसु देही अंदरि पंच चोर वसहि कामु क्रोधु लोभु मोहु अहंकारा ॥ अम्रितु लूटहि मनमुख नही बूझहि कोइ न सुणै पूकारा ॥ अंधा जगतु अंधु वरतारा बाझु गुरू गुबारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देही = शरीर। वसहि = बसते हैं। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम धन। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। गुबारा = अंधेरा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस शरीर में काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार पाँच चोर बसते हैं (ये मनुष्य के अंदर) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-धन लूटते रहते हैं, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को ये बात समझ में नहीं आती। (जब सब कुछ लुटा के वे दुखी होते हैं तब) उनकी कोई पुकार नहीं सुनता (उनकी कोई सहायता नहीं कर सकता)। माया के मोह में अंधा हुआ जगत अंधों वाली करतूत ही करता रहता है, गुरु से बेमुख हो के (इसके आत्मिक जीवन में) अंधकार छाया रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै मेरा करि करि विगुते किहु चलै न चलदिआ नालि ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआवै सदा हरि नामु समालि ॥ सची बाणी हरि गुण गावै नदरी नदरि निहालि ॥३॥

मूलम्

हउमै मेरा करि करि विगुते किहु चलै न चलदिआ नालि ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआवै सदा हरि नामु समालि ॥ सची बाणी हरि गुण गावै नदरी नदरि निहालि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विगुते = दुखी हो रहे हैं। किहु = कुछ भी। समालि = संभाल के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। निहालि = प्रसन्न, सुखी।3।
अर्थ: ‘मैं बड़ा हूँ…ये धन-पदार्थ मेरा है’ - ये कह: कह के (माया-ग्रसित मनुष्य) दुखी होते रहते हैं। पर जगत से चलते वक्त कोई भी चीज किसी के साथ नहीं चलती। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह सदा परमात्मा के नाम को दिल में बसा के नाम स्मरण करता रहता है। वह सदा-स्थिर रहने वाली महिमा की वाणी के द्वारा परमात्मा के गुण गाता रहता है। परमात्मा की मेहर की नजर से वह सदा सुखी रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर गिआनु सदा घटि चानणु अमरु सिरि बादिसाहा ॥ अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु सचु लाहा ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदि रते हरि पाहा ॥४॥२॥

मूलम्

सतिगुर गिआनु सदा घटि चानणु अमरु सिरि बादिसाहा ॥ अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु सचु लाहा ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदि रते हरि पाहा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। घटि = दिल में। अमरु = हुक्म। सिरि = सिर पर। अनदिनु = हर रोज। सचु = सदा कायम रहने वाला। लाहा = लाभ। नामि = नाम से। पाहा = पास, नजदीक।4।
अर्थ: जिनके हृदय में परमात्मा का बख्शा हुआ ज्ञान सदा प्रकाश किए रखता है उसका हुक्म (दुनिया के) बादशाहों के सिर पर (भी) चलता है। वे हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं, वे हरि-नाम का लाभ कमाते रहते हैं जो सदा कायम रहता है। हे नानक! परमात्मा के नाम से संसार से पार-उतारा हो जाता है, जो मनुष्य गुरु के शब्द से हरि-नाम के रंग में रंगे रहते हैं, परमात्मा उनके नजदीक बसता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ३ ॥ दासनि दासु होवै ता हरि पाए विचहु आपु गवाई ॥ भगता का कारजु हरि अनंदु है अनदिनु हरि गुण गाई ॥ सबदि रते सदा इक रंगी हरि सिउ रहे समाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ३ ॥ दासनि दासु होवै ता हरि पाए विचहु आपु गवाई ॥ भगता का कारजु हरि अनंदु है अनदिनु हरि गुण गाई ॥ सबदि रते सदा इक रंगी हरि सिउ रहे समाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दासनि दासु = दासोंका दास, बहुत ही विनम्र स्वभाव वाला। आपु = स्वै भाव। गवाई = दूर कर के। हरि अनंदु = हरि (के मिलाप) का आनंद। कारजु = मुख्य काम। गाई = गा के। इक रंगी = एक रस।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके बहुत गरीबी स्वभाव वाला बनता है, वह परमात्मा को मिल जाता है। परमात्मा के भक्तों का मुख्य काम यही होता है कि वह (स्वै भाव गवा के) हर वक्त प्रभु की महिमा के गीत गा के उसके मिलाप का आनंद लेते हैं। भक्तजन गुरु के शब्द में सदा एक-रस रंगे रह के परमात्मा (की याद) में लीन रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ साची नदरि तुमारी ॥ आपणिआ दासा नो क्रिपा करि पिआरे राखहु पैज हमारी ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ साची नदरि तुमारी ॥ आपणिआ दासा नो क्रिपा करि पिआरे राखहु पैज हमारी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली। पैज = इज्जत। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरी मेहर की निगाह (अपने सेवकों पर) सदा टिकी रहती है। हे प्यारे! तू अपने दासों पर कृपा करता रहता है, मेरी भी इज्ज़त रख। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि सलाही सदा हउ जीवा गुरमती भउ भागा ॥ मेरा प्रभु साचा अति सुआलिउ गुरु सेविआ चितु लागा ॥ साचा सबदु सची सचु बाणी सो जनु अनदिनु जागा ॥२॥

मूलम्

सबदि सलाही सदा हउ जीवा गुरमती भउ भागा ॥ मेरा प्रभु साचा अति सुआलिउ गुरु सेविआ चितु लागा ॥ साचा सबदु सची सचु बाणी सो जनु अनदिनु जागा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलाही = मैं महिमा करता रहूँ। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ। सुआलिउ = सुंदर, सुंदरता का घर। अनदिनु = हर वक्त, हर रोज। जागा = सचेत।2।
अर्थ: (हे प्रभु! अगर तेरी मेहर हो तो) मैं गुरु के शब्द में (जुड़ के) तेरी महिमा करता रहूँ। जो मनुष्य गुरु की मति पर चलता है उसका डर दूर हो जाता है। (हे भाई!) मेरा प्रभु सुंदर है, और सदा कायम रहने वाला है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका चिक्त (उस सुंदर प्रभु में) मगन रहता है। (जिस मनुष्य के दिल में) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द, महिमा की वाणी (बसती है) वह मनुष्य हर वक्त (महिमा में) सचेत रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा ग्मभीरु सदा सुखदाता तिस का अंतु न पाइआ ॥ पूरे गुर की सेवा कीनी अचिंतु हरि मंनि वसाइआ ॥ मनु तनु निरमलु सदा सुखु अंतरि विचहु भरमु चुकाइआ ॥३॥

मूलम्

महा ग्मभीरु सदा सुखदाता तिस का अंतु न पाइआ ॥ पूरे गुर की सेवा कीनी अचिंतु हरि मंनि वसाइआ ॥ मनु तनु निरमलु सदा सुखु अंतरि विचहु भरमु चुकाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंभीर = बड़े जिगरे वाला। अचिंतु = जिसे कोई चिन्ता नहीं। मंनि = मन में। अंतरि = दिल में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा बड़े गहरे जिगरे वाला है, सदा ही (जीवों को) सुख देने वाला है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जो मनुष्य पूरे गुरु की बताई हुई सेवा करता है, उसके मन में वह परमात्मा आ बसता है जिसे कोई चिन्ता सता नहीं सकती। उस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है हृदय पवित्र हो जाता है, उसके हृदय में सदा सुख ही सुख है, वह अपने अंदर से सदा भटकना दूर कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का मारगु सदा पंथु विखड़ा को पाए गुर वीचारा ॥ हरि कै रंगि राता सबदे माता हउमै तजे विकारा ॥ नानक नामि रता इक रंगी सबदि सवारणहारा ॥४॥३॥

मूलम्

हरि का मारगु सदा पंथु विखड़ा को पाए गुर वीचारा ॥ हरि कै रंगि राता सबदे माता हउमै तजे विकारा ॥ नानक नामि रता इक रंगी सबदि सवारणहारा ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगु पंथु = रास्ता। को = कोई विरला। कै रंगि = के प्रेम रंग में। माता = मस्त। नामि = नाम में। सवारणहारा = सवारने योग्य।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के मिलाप का रास्ता बड़ा कठिन है, कोई वह विरला मनुष्य ही वह रास्ता पाता है जो गुरु के शब्द की विचार करता है। वह मनुष्य प्रभु के प्रेम रंग में रंगा जाता है, गुरु के शब्द में मस्त रहता है, अपने अंदर से अहंकार आदि विकार दूर कर देता है। हे नानक! वह मनुष्य प्रभु के नाम में एक-रस रमा रहता है, जो गुरु के शब्द से उसका जीवन सँवार देता है।4।3।

[[0601]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ तुधु नो सदा सालाही पिआरे जिचरु घट अंतरि है सासा ॥ इकु पलु खिनु विसरहि तू सुआमी जाणउ बरस पचासा ॥ हम मूड़ मुगध सदा से भाई गुर कै सबदि प्रगासा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ तुधु नो सदा सालाही पिआरे जिचरु घट अंतरि है सासा ॥ इकु पलु खिनु विसरहि तू सुआमी जाणउ बरस पचासा ॥ हम मूड़ मुगध सदा से भाई गुर कै सबदि प्रगासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाही = मैं सालाहता रहूँ। जिचरु = जब तक। घट अंतरि = शरीर में। सासा = सांस, जिंद। जाणउ = मैं जानता हूँ। मुगध = मूर्ख। से = था।1।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (मेहर कर) जब तक मेरे शरीर में प्राण है, मैं सदा तेरी महिमा करता रहूँ। हे मालिक प्रभु! जब तू मुझे एक पल भर एक छिन भर बिसरता है, तो मैं (मेरे लिए जैसे) पचास साल बीत गए समझता हूँ। हे भाई! हम सदा से ही मूर्ख अंजान चले आ रहे थे, गुरु के शब्द की इनायत से (हमारे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ तुम आपे देहु बुझाई ॥ हरि जीउ तुधु विटहु वारिआ सद ही तेरे नाम विटहु बलि जाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ तुम आपे देहु बुझाई ॥ हरि जीउ तुधु विटहु वारिआ सद ही तेरे नाम विटहु बलि जाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुझाई = समझ। विटहु = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू स्वयं ही (अपना नाम जपने की मुझे) समझ दे। हे प्रभु! मैं तुझसे सदके जाऊँ, मैं तेरे से कुर्बान जाऊँ। रहाउ

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम सबदि मुए सबदि मारि जीवाले भाई सबदे ही मुकति पाई ॥ सबदे मनु तनु निरमलु होआ हरि वसिआ मनि आई ॥ सबदु गुर दाता जितु मनु राता हरि सिउ रहिआ समाई ॥२॥

मूलम्

हम सबदि मुए सबदि मारि जीवाले भाई सबदे ही मुकति पाई ॥ सबदे मनु तनु निरमलु होआ हरि वसिआ मनि आई ॥ सबदु गुर दाता जितु मनु राता हरि सिउ रहिआ समाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुए = (विकारों से) मर सकते हैं। जीवाले = आत्मिक जीवन देता है। मुकति = विकारों से खलासी। आई = आ के। दाता = नाम की दाति देने वाला। जितु = जिस में।2।
अर्थ: हे भाई! हम (जीव) गुरु के शब्द के द्वारा (विकारों से) मर सकते हैं, शब्द के द्वारा ही (विकारों को) मार के (गुरु) आत्मिक जीवन देता है, गुरु के शब्द में जुड़ने से ही विकारों से मुक्ति मिलती है। गुरु के शब्द से मन पवित्र होता है, और परमात्मा मन में आ बसता है। हे भाई! गुरु का शब्द (ही नाम की दाति) देने वाला है, जब शब्द में मन रंगा जाता है तो परमात्मा में लीन हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदु न जाणहि से अंने बोले से कितु आए संसारा ॥ हरि रसु न पाइआ बिरथा जनमु गवाइआ जमहि वारो वारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा माहि समाणे मनमुख मुगध गुबारा ॥३॥

मूलम्

सबदु न जाणहि से अंने बोले से कितु आए संसारा ॥ हरि रसु न पाइआ बिरथा जनमु गवाइआ जमहि वारो वारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा माहि समाणे मनमुख मुगध गुबारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वह लोग। कितु = किसलिए? वारो वारा = बार बार। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। गुबारा = अंधेरा।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते वह (माया के मोह में आत्मिक जीवन की ओर से) अंधे-बहरे हुए रहते हैं, संसार में आ के भी वे कुछ नहीं कमाते। उन्हें प्रभु के नाम का स्वाद नहीं आता, वे अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में ही टिके रहते हैं।, वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य (अज्ञानता के) अंधकार में ही (मस्त रहते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करि वेखै मारगि लाए भाई तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जो धुरि लिखिआ सु कोइ न मेटै भाई करता करे सु होई ॥ नानक नामु वसिआ मन अंतरि भाई अवरु न दूजा कोई ॥४॥४॥

मूलम्

आपे करि वेखै मारगि लाए भाई तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जो धुरि लिखिआ सु कोइ न मेटै भाई करता करे सु होई ॥ नानक नामु वसिआ मन अंतरि भाई अवरु न दूजा कोई ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। करि = पैदा कर के। वेखै = संभालता है। धुरि = धुर दरगाह से। करता = कर्तार।4।
अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) प्रभु खुद ही (जीवों को) पैदा करके संभाल करता है, खुद ही (जीवन के सही) रास्ते पर डालता है, उस प्रभु के बिना और कोई नहीं (जो जीवों को रास्ता बता सके)। हे भाई! कर्तार जो कुछ करता है वही होता है, धुर दरगाह से (जीवों के माथे पर लेख) लिख देता है, उसे कोई और मिटा नहीं सकता। हे नानक! (कह:) हे भाई! (उस प्रभु की मेहर से ही उसका) नाम (मनुष्य के) मन में बस सकता है, कोई और ये दाति देने के काबिल नहीं है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ गुरमुखि भगति करहि प्रभ भावहि अनदिनु नामु वखाणे ॥ भगता की सार करहि आपि राखहि जो तेरै मनि भाणे ॥ तू गुणदाता सबदि पछाता गुण कहि गुणी समाणे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ गुरमुखि भगति करहि प्रभ भावहि अनदिनु नामु वखाणे ॥ भगता की सार करहि आपि राखहि जो तेरै मनि भाणे ॥ तू गुणदाता सबदि पछाता गुण कहि गुणी समाणे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। प्रभ भावहि = प्रभु को प्यारे लगते हैं। वखाणे = बखान के। सार = संभाल। करहि = तू करता है। मनि = मन में। सबदि = शब्द से। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करके भक्ति करते हैं और परमात्मा को प्यारे लगते हैं। हे प्रभु! भक्तों की संभाल तू खुद करता है, तू स्वयं उनकी रक्षा करता है, क्योंकि वे तुझे अपने मन में प्यारे लगते हैं। तू उन्हें अपने गुण देता है, गुरु के शब्द द्वारा वे तेरे साथ सांझ डालते हैं। हे भाई! परमात्मा की महिमा कर करके (भक्त) गुणों के मालिक प्रभु में लीन रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे हरि जीउ सदा समालि ॥ अंत कालि तेरा बेली होवै सदा निबहै तेरै नालि ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे हरि जीउ सदा समालि ॥ अंत कालि तेरा बेली होवै सदा निबहै तेरै नालि ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समालि = संभाल के, याद रख। बेली = मददगार। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा को सदा याद करता रह। आखिरी समय में परमात्मा ही तेरा मददगार बनेगा, परमात्मा सदा तेरे साथ साथ निबाहेगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुसट चउकड़ी सदा कूड़ु कमावहि ना बूझहि वीचारे ॥ निंदा दुसटी ते किनि फलु पाइआ हरणाखस नखहि बिदारे ॥ प्रहिलादु जनु सद हरि गुण गावै हरि जीउ लए उबारे ॥२॥

मूलम्

दुसट चउकड़ी सदा कूड़ु कमावहि ना बूझहि वीचारे ॥ निंदा दुसटी ते किनि फलु पाइआ हरणाखस नखहि बिदारे ॥ प्रहिलादु जनु सद हरि गुण गावै हरि जीउ लए उबारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुसट चउकड़ी = दुष्टों का टोला। वीचारे = विचार के। दुसटी = चंदरी। किनि = किस ने? नखहि = नाखूनों से। बिदारे = फाड़ा गया। लए उबारे = उबार लिए।2।
अर्थ: पर, हे भाई! बुरे मनुष्य सदा बुराई ही कमाते हैं, वे विचार करके (ये) नहीं समझते कि बुरी निंदा (आदि) से किसी ने कभी अच्छा फल नहीं पाया। हरणाकश्यप (ने भक्त को दुख देना शुरू किया, तो वह) नाखूनों से चीरा गया। परमात्मा का भक्त प्रहलाद सदा परमात्मा के गुण गाता था, परमात्मा ने उसको (नरसिंह रूप धारण कर के) बचा लिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपस कउ बहु भला करि जाणहि मनमुखि मति न काई ॥ साधू जन की निंदा विआपे जासनि जनमु गवाई ॥ राम नामु कदे चेतहि नाही अंति गए पछुताई ॥३॥

मूलम्

आपस कउ बहु भला करि जाणहि मनमुखि मति न काई ॥ साधू जन की निंदा विआपे जासनि जनमु गवाई ॥ राम नामु कदे चेतहि नाही अंति गए पछुताई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपस कउ = अपने आप को। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। विआपे = व्यस्त रहते हैं। जासनि = जाएंगे। गवाई = गवा के। अंति = आखिर को, अंत समय में।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की कोई अकल-शहूर नहीं होती, वे अपने आप को तो अच्छा समझते हैं पर नेक लोगों की निंदा करने में व्यस्त रहते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं। वे परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते, आखिर हाथ मलते हुए (जगत से) चले जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफलु जनमु भगता का कीता गुर सेवा आपि लाए ॥ सबदे राते सहजे माते अनदिनु हरि गुण गाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती हउ लागा तिन कै पाए ॥४॥५॥

मूलम्

सफलु जनमु भगता का कीता गुर सेवा आपि लाए ॥ सबदे राते सहजे माते अनदिनु हरि गुण गाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती हउ लागा तिन कै पाए ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदे = शब्द में। राते = रंगे रहते हैं। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। गाए = गा के। तिन कै पाइ = उनके पैरों पर।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही भक्तों की जिंदगी कामयाब बनाता है, वह स्वयं ही उनको गुरु की सेवा में जोड़ता है, (इस तरह वह) हर वक्त परमात्मा की महिमा के गीत गुरु के शब्द (के रंग) में रंगे रहते हैं और आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं। दास नानक विनती करता है: मैं उन भक्तों के चरणों में लगता हूँ।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। सखा = मित्र। बंधपु = रिश्तेदार। जि = जो। भाणै = मर्जी में, मर्जी अनुसार। विछुड़ि = विछुड़ के।1।
अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य गुरु का सिख है, गुरु का मित्र है, गुरु का रिश्तेदार है, जो गुरु की रजा में चलता है। पर, जो मनुष्य अपनी मर्जी के मुताबक चलता है, वह प्रभु से विछुड़ के दुख सहता है। गुरु की शरण पड़े बिना मनुष्य कभी सुख नहीं पा सकता, और बार बार (दुखी हो के) पछताता है।1।

[[0602]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के दास सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के दास सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहेले = सुखी। किलविख = पाप। आपे = प्रभु खुद ही। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। परमात्मा स्वयं उनके जनम मरण के दुख-पाप काट देता है, और उन्हें अपने चरणों में मिला लेता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥

मूलम्

इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार। सभु = सारा। जीअ के बंधन = जीव के लिए बंधन। भुला = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मोख = मोक्ष, मुक्ति। करम = दुनिया के काम धंधे। वारो वारा = बार बार।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की रजा में चले बिना) ये (अपना) परिवार भी जीव के लिए निरा मोह का बंधन बन जाता है, (तभी तो) जगत (गुरु से) भटक के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरु की शरण आए बिना ये बंधन टूटते नहीं। गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य (मोह के बंधनों से) निजात पाने का राह तलाश लेता है। जो लोग निरे दुनिया के काम-धंधे ही करते हैं, और गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥

मूलम्

हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं (बड़ा हूँ)। मेरा = (ये धन पदार्थ) मेरा है। पलचि रहिआ = उलझा पड़ा है। केरा = का। महलु = परमात्मा की हजूरी। पाइनि = पा लेते हैं। निज घरि = अपने घर में। ऐथै = इस जीवन में। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को।3।
अर्थ: हे भाई! ‘मैं बड़ा हूँ’, ‘ये धन आदि मेरा है’ - इसमें ही जगत उलझा हुआ है (वैसे) कोई भी किसी का (सदा साथी) नहीं बन सकता। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा की महिमा करते हैं, और परमात्मा की हजूरी प्राप्त किए रहते हैं, उनका (आत्मिक) निवास प्रभु चरणों में हुआ रहता है। जो मनुष्य इस जीवन में ही (इस भेत को) समझ लेता है, वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है (आत्म चिंतन करता है), परमात्मा उस मनुष्य का सहायक बना रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥

मूलम्

सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआलु = दया का घर। भागा = अच्छी किस्मत। करि = कर के, साथ। भाउ = भावना, नीयत। आपु = स्वै भाव।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु हर समय ही दयावान रहता है (माया-ग्रसित मनुष्य गुरु की शरण नहीं आता) किस्मत के बिना (गुरु से) क्या मिले? गुरु सबको एक प्यार की निगाह से देखता है। (पर हमारी जीवों की) जैसी भावना होती है वैसा ही फल (हमें गुरु से) मिल जाता है। हे नानक! (अगर गुरु की शरण पड़ के अपने) अंदर से स्वै भाव दूर कर लें तो परमात्मा का नाम मन में आ बसता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ चौतुके ॥ सची भगति सतिगुर ते होवै सची हिरदै बाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए हउमै सबदि समाणी ॥ बिनु गुर साचे भगति न होवी होर भूली फिरै इआणी ॥ मनमुखि फिरहि सदा दुखु पावहि डूबि मुए विणु पाणी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ चौतुके ॥ सची भगति सतिगुर ते होवै सची हिरदै बाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए हउमै सबदि समाणी ॥ बिनु गुर साचे भगति न होवी होर भूली फिरै इआणी ॥ मनमुखि फिरहि सदा दुखु पावहि डूबि मुए विणु पाणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चौतुके = वह शब्द जिनके हरेक ‘बंद’ में चार-चार तुकें होती हैं। सची भगति = सदा स्थिर प्रभु की ही भक्ति। ते = से, के द्वारा। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सबदि = शब्द में। होर इआणी = वह अंजान दुनिया जो गुरु की शरण नहीं पड़ती। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के माध्यम से सदा स्थिर प्रभु की भक्ति हो सकती है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी हृदय में टिक जाती है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह सदा सुख पाता है, उसका अहंकार गुरु के शब्द में ही समाप्त हो जाता है। सच्चे गुरु के बिना भक्ति नहीं हो सकती, जो अंजान दुनिया गुरु के दर पर नहीं आती, वह गलत राह पर पड़ी रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य भटकते फिरते हैं, सदा दुख पाते हैं; वह जैसे, पानी के बिना ही डूब मरते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाई रे सदा रहहु सरणाई ॥ आपणी नदरि करे पति राखै हरि नामो दे वडिआई ॥ रहाउ॥

मूलम्

भाई रे सदा रहहु सरणाई ॥ आपणी नदरि करे पति राखै हरि नामो दे वडिआई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहहु = टिका रह। पति = इज्जत। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा गुरु की शरण टिका रह। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा रहता है उस पर गुरु) अपनी मेहर की निगाह करता है; उसकी इज्जत रखता है, उसे प्रभु का नाम बख्शता है (जो एक बहुत बड़ा) सम्मान है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरे गुर ते आपु पछाता सबदि सचै वीचारा ॥ हिरदै जगजीवनु सद वसिआ तजि कामु क्रोधु अहंकारा ॥ सदा हजूरि रविआ सभ ठाई हिरदै नामु अपारा ॥ जुगि जुगि बाणी सबदि पछाणी नाउ मीठा मनहि पिआरा ॥२॥

मूलम्

पूरे गुर ते आपु पछाता सबदि सचै वीचारा ॥ हिरदै जगजीवनु सद वसिआ तजि कामु क्रोधु अहंकारा ॥ सदा हजूरि रविआ सभ ठाई हिरदै नामु अपारा ॥ जुगि जुगि बाणी सबदि पछाणी नाउ मीठा मनहि पिआरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। हिरदै = हृदय में। सद = सदा। तजि = त्याग के। रविआ = व्यापक। जुगि जुगि = हरेक युग में। सबदि = शब्द से। मनहि = मन में।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने पूरे गुरु के द्वारा अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना आरम्भ कर दिया, उसने सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ के प्रभु के गुणों को विचारना शुरू कर दिया। काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार) त्यागने से उसके हृदय में जगत का जीवन प्रभु सदा के लिए आ बसा। बेअंत प्रभु का नाम उसके दिल में आ बसने के कारण प्रभु उसको सदा अंग-संग बसता दिखाई दे गया, हर जगह मौजूद दिख गया। गुरु के शब्द के माध्यम से उसे ये पहचान आ गई कि (परमात्मा के मिलाप का साधन) हरेक युग में गुरु की वाणी है, परमात्मा का नाम उसको अपने मन में प्यारा लगने लग पड़ा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवि जिनि नामु पछाता सफल जनमु जगि आइआ ॥ हरि रसु चाखि सदा मनु त्रिपतिआ गुण गावै गुणी अघाइआ ॥ कमलु प्रगासि सदा रंगि राता अनहद सबदु वजाइआ ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी सचे सचि समाइआ ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु सेवि जिनि नामु पछाता सफल जनमु जगि आइआ ॥ हरि रसु चाखि सदा मनु त्रिपतिआ गुण गावै गुणी अघाइआ ॥ कमलु प्रगासि सदा रंगि राता अनहद सबदु वजाइआ ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी सचे सचि समाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। पछाता = सांझ डाली। जगि = जगत में। गुणी = गुणों से। अघाइआ = माया की ओर अघा गया। कमलु = हृदय कमल फूल सा। प्रगासि = खिल के। अनहद = एक रस।3।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम सें सांझ डाल ली, जगत में आ के उसकी जिंदगी कामयाब हो गई। परमात्मा के नाम का स्वाद चख के उसका मन सदा के लिए तृप्त हो जाता है, वह परमात्मा के गुण गाता रहता है, और गुणों के माध्यम से माया की ओर से तृप्त हो जाता है। उसका हृदय-कमल खिल के सदा प्रभु के प्रेम रंग रंगा रहता है, वह (अपने दिल में) एक-रस गुरु शब्द (का बाजा) बजाता रहता है। पवित्र वाणी की इनायत से उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम की गति कोइ न बूझै गुरमति रिदै समाई ॥ गुरमुखि होवै सु मगु पछाणै हरि रसि रसन रसाई ॥ जपु तपु संजमु सभु गुर ते होवै हिरदै नामु वसाई ॥ नानक नामु समालहि से जन सोहनि दरि साचै पति पाई ॥४॥७॥

मूलम्

राम नाम की गति कोइ न बूझै गुरमति रिदै समाई ॥ गुरमुखि होवै सु मगु पछाणै हरि रसि रसन रसाई ॥ जपु तपु संजमु सभु गुर ते होवै हिरदै नामु वसाई ॥ नानक नामु समालहि से जन सोहनि दरि साचै पति पाई ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। रिदै = हृदय में। समाई = टिक जाता है। मगु = रास्ता। रसि = रस से। रसन = जीभ। रसाई = रस जाती है। गुर ते = गुरु से। दरि = दर से।4।
अर्थ: कोई मनुष्य नहीं समझ सकता कि परमात्मा के नाम से कितनी ऊँची आत्मिक अवस्था बन जाती है (वैसे) गुरु की मति लेने से नाम (मनुष्य के) हृदय में आ बसता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो जाता है वह (परमात्मा के मिलाप का) रास्ता पहचान लेता है, उसकी जीभ नाम-रस के साथ रस जाती है। गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम दिल में आ बसता है - यही है जप, यही है तप और यही है संजम। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु का नाम हृदय में बसाए रखते हैं, वे सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं, सदा स्थिर प्रभु के दर पर उनको सम्मान मिलता है।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ३ दुतुके ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई भाई जीवत मरै ता बूझ पाइ ॥ सो गुरू सो सिखु है भाई जिसु जोती जोति मिलाइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ३ दुतुके ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई भाई जीवत मरै ता बूझ पाइ ॥ सो गुरू सो सिखु है भाई जिसु जोती जोति मिलाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। उलटी भई = (विकारों से तवज्जो) पलट जाती है, हट जाती है। जीवत मरै = जीवित ही मर जाता है, दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ भी विकारों से अछोह हो जाता है। बूझ = आत्मिक जीवन की समझ। सो गुरु सो सिखु = वह मनुष्य गुरु का (असल) सिख है। जिसु जोति = जिसकी आत्मा को। जोती मिलाइ = (गुरु) परमात्मा में मिला देता है।1।
अर्थ: हे भाई! अगर गुरु मिल जाए, तो मनुष्य आत्मिक जीवन की समझ हासिल कर लेता है, मनुष्य की तवज्जो विकारों से हट जाती है, दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी मनुष्य विकारों से अछूता हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य की आत्मा को गुरु परमात्मा में मिला देता है, वह (असल) में सिख बन जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे हरि हरि सेती लिव लाइ ॥ मन हरि जपि मीठा लागै भाई गुरमुखि पाए हरि थाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे हरि हरि सेती लिव लाइ ॥ मन हरि जपि मीठा लागै भाई गुरमुखि पाए हरि थाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेती = साथ। लिव = लगन। मन रे = हे मन! जपि = जप जप के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। थाइ = जगह में, हजूरी में। हरि थाइ = प्रभु की हजूरी में। रहाउ।
अर्थ: हे मन! सदा परमात्मा के साथ तवज्जो जोड़े रख। हे मन! बार बार जप-जप के परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य प्रभु के दरबार में स्थान पा लेते हैं। रहाउ।

[[0603]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर प्रीति न ऊपजै भाई मनमुखि दूजै भाइ ॥ तुह कुटहि मनमुख करम करहि भाई पलै किछू न पाइ ॥२॥

मूलम्

बिनु गुर प्रीति न ऊपजै भाई मनमुखि दूजै भाइ ॥ तुह कुटहि मनमुख करम करहि भाई पलै किछू न पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) किसी और प्यार में। भाइ = प्यार में। तुह = दानों के ऊपर के छिलके, फक। कुटहि = कूटते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना (मनुष्य का प्रभु में) प्यार पैदा नहीं होता, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु को छोड़ के) और ही प्यार में टिके रहते हैं। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (जो भी धार्मिक) काम करते हैं वह (जैसे) फक ही कूटते हैं, (उनको, उन कर्मों में से) कुछ हासिल नहीं होता (जैसे फोक में से कुछ नहीं निकलता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर मिलिऐ नामु मनि रविआ भाई साची प्रीति पिआरि ॥ सदा हरि के गुण रवै भाई गुर कै हेति अपारि ॥३॥

मूलम्

गुर मिलिऐ नामु मनि रविआ भाई साची प्रीति पिआरि ॥ सदा हरि के गुण रवै भाई गुर कै हेति अपारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। रविआ = हर वक्त बसा रहता है। पिआरि = प्यार में। रवै = याद करता है। हेति = हित से। अपारि हेति = अटूट प्यार से।3।
अर्थ: हे भाई! यदि गुरु मिल जाए, तो परमात्मा का नाम उसके मन में सदा बसा रहता है, मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की प्रीति में प्यार में मगन रहता है। हे भाई! गुरु के बख्शे अटूट प्यार की इनायत से वह सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइआ सो परवाणु है भाई जि गुर सेवा चितु लाइ ॥ नानक नामु हरि पाईऐ भाई गुर सबदी मेलाइ ॥४॥८॥

मूलम्

आइआ सो परवाणु है भाई जि गुर सेवा चितु लाइ ॥ नानक नामु हरि पाईऐ भाई गुर सबदी मेलाइ ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वह मनुष्य। परवाणु = स्वीकार। जि = जो। पाईऐ = पा लिया जाता है।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा में चिक्त जोड़ता है उसका जगत में आया हुआ सफल हो जाता है। हे नानक! गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है, गुरु के शब्द की इनायत से प्रभु से मिलाप हो जाता है।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ तिही गुणी त्रिभवणु विआपिआ भाई गुरमुखि बूझ बुझाइ ॥ राम नामि लगि छूटीऐ भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ तिही गुणी त्रिभवणु विआपिआ भाई गुरमुखि बूझ बुझाइ ॥ राम नामि लगि छूटीऐ भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिही गुणी = (माया के) तीनों गुणों में (रजो, सतो व तमो गुण)। त्रिभवणु = तीन भवनों वाला जगत, सारा संसार। विआपिआ = फसा हुआ है। बूझ = (आत्मिक जीवन की) समझ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। नामि = नाम में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। जाइ = जा के।1।
अर्थ: हे भाई! सारा जगत माया के तीन गुणों में ही फसा हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है (गुरु उसे) आत्मिक जीवन की समझ देता है। हे भाई! परमात्मा के नाम मेुं लीन हो के (माया के तीन गुणों की पकड़ से) बचना है, (अपनी तसल्ली के लिए) जा के पूछ लो उनको जिनको आत्मिक जीवन की समझ आ गई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे त्रै गुण छोडि चउथै चितु लाइ ॥ हरि जीउ तेरै मनि वसै भाई सदा हरि के गुण गाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे त्रै गुण छोडि चउथै चितु लाइ ॥ हरि जीउ तेरै मनि वसै भाई सदा हरि के गुण गाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। चउथै = उस अवस्था में जहाँ माया के तीनों गुण प्रभाव नहीं डाल सकते। मनि = मन में। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (माया के) तीन गुणों (के प्रभाव) को छोड़ के उस अवस्था में टिक जहाँ इन तीनों का जोर नहीं पड़ता। हे भाई! परमात्मा तेरे मन में (ही) बसता है, सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामै ते सभि ऊपजे भाई नाइ विसरिऐ मरि जाइ ॥ अगिआनी जगतु अंधु है भाई सूते गए मुहाइ ॥२॥

मूलम्

नामै ते सभि ऊपजे भाई नाइ विसरिऐ मरि जाइ ॥ अगिआनी जगतु अंधु है भाई सूते गए मुहाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामै = नाम से ही। सभि = सारे। ऊपजे = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। नाइ विसरिऐ = अगर नाम बिसर जाए। मरि जाइ = (आत्मिक मौत) मर जाता है। अगिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ से खाली। अंधु = माया के मोह में अंधा। मुहाइ = (आत्मिक जीवन की संपत्ति) लुटा के।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में जुड़ के ही सारे जीव आत्मिक जीवन जी सकते हैं। अगर नाम बिसर जाए, तो मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है। आत्मिक जीवन की समझ से वंचित जगत माया के मोह में अंधा हुआ रहता है। माया के मोह में सोए हुए मनुष्य आत्मिक जीवन की राशि पूंजी लुटा के जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जागे से उबरे भाई भवजलु पारि उतारि ॥ जग महि लाहा हरि नामु है भाई हिरदै रखिआ उर धारि ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि जागे से उबरे भाई भवजलु पारि उतारि ॥ जग महि लाहा हरि नामु है भाई हिरदै रखिआ उर धारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। उतारि = उतारे, पार लंघाता है। उर = हृदय। धारि = टिका के।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (माया के मोह की नींद में से) जाग जाते हैं वे (संसार समुंदर में) डूबने से बच जाते हैं, (गुरु उनको) संसार समुंदर में से पार लंघा देता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा का नाम संभाल के रखता है, ये हरि-नाम ही जगत में (असली) लाभ है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सरणाई उबरे भाई राम नामि लिव लाइ ॥ नानक नाउ बेड़ा नाउ तुलहड़ा भाई जितु लगि पारि जन पाइ ॥४॥९॥

मूलम्

गुर सरणाई उबरे भाई राम नामि लिव लाइ ॥ नानक नाउ बेड़ा नाउ तुलहड़ा भाई जितु लगि पारि जन पाइ ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उथरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। लाइ = लगा के। बेड़ा = जहाज। तुलहड़ा = सुंदर तुलहा (तुलहा = लकड़ी और घास आदि से बाँध के दरिया पार करने के लिए बनाया हुआ जुगाड़)। जितु = जिस में। जितु लगि = जिस में चढ़ के।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के मनुष्य (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। हे नानक! (कह:) हे भाई! परमात्मा का नाम ही जहाज है, हरि नाम ही तुलहा है जिस पर चढ़ के मनुष्य (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ सतिगुरु सुख सागरु जग अंतरि होर थै सुखु नाही ॥ हउमै जगतु दुखि रोगि विआपिआ मरि जनमै रोवै धाही ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ सतिगुरु सुख सागरु जग अंतरि होर थै सुखु नाही ॥ हउमै जगतु दुखि रोगि विआपिआ मरि जनमै रोवै धाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखु सागरु = सुखों का समुंदर। अंतरि = में। होर थै = किसी और जगह में। दुखि = दुख में। रोगि = रोग में। विआपिआ = ग्रसा हुआ। मरि = मर के। धाही = धाहें मार मार के।1।
अर्थ: हे भाई! जगत में गुरु (ही) सुख का सागर है, (गुरु के बिना) किसी और को सुख नहीं मिलता। जगत अपने अहंकार के कारण (गुरु से टूट के) दुख में रोग में ग्रसित रहता है, बार बार पैदा होता है मरता है, धाड़ें मार मार के रोता है (दुखी होता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणी सतिगुरु सेवि सुखु पाइ ॥ सतिगुरु सेवहि ता सुखु पावहि नाहि त जाहिगा जनमु गवाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

प्राणी सतिगुरु सेवि सुखु पाइ ॥ सतिगुरु सेवहि ता सुखु पावहि नाहि त जाहिगा जनमु गवाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्राणी = हे बंदे! सेवि = सेवा कर। गवाइ = गवा के। रहाउ।
अर्थ: हे बँदे! गुरु की शरण पड़, और आत्मिक आनंद ले। अगर तू गुरु की बताई हुई सेवा करेगा, तो सुख पाएगा। नहीं तो अपना जीवन व्यर्थ गुजार के (यहाँ से) चला जाएगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण धातु बहु करम कमावहि हरि रस सादु न आइआ ॥ संधिआ तरपणु करहि गाइत्री बिनु बूझे दुखु पाइआ ॥२॥

मूलम्

त्रै गुण धातु बहु करम कमावहि हरि रस सादु न आइआ ॥ संधिआ तरपणु करहि गाइत्री बिनु बूझे दुखु पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धातु = माया। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। कमावहि = करते हैं। सादु = स्वाद। संधिआ = सवेरे दोपहर और शाम की पूजा। तरपणु = पित्रों और देवताओं को जल भेट करना।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु से टूटे हुए मनुष्य माया के तीनों गुणों के प्रभाव में (निहित धार्मिक) कर्म करते हैं, पर उन्हें परमात्मा के नाम का स्वाद नहीं आता। तीनों वक्त संध्या पाठ करते हैं, पित्रों-देवताओं को जल अर्पण करते हैं, गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं, पर आत्मिक जीवन की समझ के बिना उनको दुख ही मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवे सो वडभागी जिस नो आपि मिलाए ॥ हरि रसु पी जन सदा त्रिपतासे विचहु आपु गवाए ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु सेवे सो वडभागी जिस नो आपि मिलाए ॥ हरि रसु पी जन सदा त्रिपतासे विचहु आपु गवाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिस नो = जिस को। पी = पी के। त्रिपतासे = तृप्त रहते हैं। आपु = स्वै भाव। गवाए = गवा के।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य भाग्यशाली है जो गुरु की बताई हुई सेवा करता है (पर गुरु उसी को मिलता है) जिसे परमात्मा स्वयं मिलाए। (गुरु की शरण पड़ने वाले) मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करके (गुरु से) परमात्मा के नाम का रस पी के सदा तृप्त रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु अंधा सभु अंधु कमावै बिनु गुर मगु न पाए ॥ नानक सतिगुरु मिलै त अखी वेखै घरै अंदरि सचु पाए ॥४॥१०॥

मूलम्

इहु जगु अंधा सभु अंधु कमावै बिनु गुर मगु न पाए ॥ नानक सतिगुरु मिलै त अखी वेखै घरै अंदरि सचु पाए ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधु = अंधों वाला काम। मगु = रास्ता। अखी = (अपनी) आँखों से। घरै अंदरि = घर में ही। घर अंदरि = घर में। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। पाए = ढूँढ लेता है।4।
अर्थ: हे भाई! ये जगत माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, अंधों वाले ही सदा काम करता है। गुरु की शरण पड़े बिना (जीवन का सही) रास्ता नहीं मिल सकता। हे नानक! अगर इसे गुरु मिल जाए, तो (परमात्मा को) आँखों से देख लेता है, अपने हृदय-घर में सदा कायम रहने वाले परमात्मा को पा लेता है।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे बहुता दुखु लागा जुग चारे भरमाई ॥ हम दीन तुम जुगु जुगु दाते सबदे देहि बुझाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे बहुता दुखु लागा जुग चारे भरमाई ॥ हम दीन तुम जुगु जुगु दाते सबदे देहि बुझाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में। भरमाई = भटकता है। दीन = कंगाल, भिखारी। सबदे = गुरु के शब्द द्वारा। देहि = तू देता है। बुझाई = समझ।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना मनुष्य को बहुत सारे दुख चिपके रहते हैं, मनुष्य सदा ही भटकता फिरता है। हे प्रभु! हम (जीव, तेरे दर के) भिखारी हैं, तू सदा ही (हमें) दातें देने वाला है, (मेहर कर, गुरु के) शब्द में जोड़ के आत्मिक जीवन की समझ दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ क्रिपा करहु तुम पिआरे ॥ सतिगुरु दाता मेलि मिलावहु हरि नामु देवहु आधारे ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ क्रिपा करहु तुम पिआरे ॥ सतिगुरु दाता मेलि मिलावहु हरि नामु देवहु आधारे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आधारे = आसरा। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (मेरे पर) मेहर कर, तेरे नाम की दाति देने वाला गुरु मुझे मिला, और (मेरी जिंदगी का) सहारा अपना नाम मुझे दे। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा मारि दुबिधा सहजि समाणी पाइआ नामु अपारा ॥ हरि रसु चाखि मनु निरमलु होआ किलबिख काटणहारा ॥२॥

मूलम्

मनसा मारि दुबिधा सहजि समाणी पाइआ नामु अपारा ॥ हरि रसु चाखि मनु निरमलु होआ किलबिख काटणहारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, वासना। मारि = मार के। दुबिधा = दो किस्मा पन, डाँवा डोल हालत। सहजि = आत्मिक अडोलता में। किलबिख = पाप।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य ने) बेअंत प्रभु का नाम हासिल कर लिया (नाम की इनायत से) वासना खत्म करके उसकी मानसिक डाँवा डोल हालत आत्मिक अडोलता में लीन हो जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पाप काटने के समर्थ है (जो मनुष्य नाम प्राप्त कर लेता है) हरि-नाम का स्वाद चख के उसका मन पवित्र हो जाता है।2।

[[0604]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि मरहु फिरि जीवहु सद ही ता फिरि मरणु न होई ॥ अम्रितु नामु सदा मनि मीठा सबदे पावै कोई ॥३॥

मूलम्

सबदि मरहु फिरि जीवहु सद ही ता फिरि मरणु न होई ॥ अम्रितु नामु सदा मनि मीठा सबदे पावै कोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। मरहु = (विकारों की ओर से) अछोह हो जाओ। जीवहु = आत्मिक जीवन हासिल कर लोगे। सद ही = सदा ही। मरणु = आत्मिक मौत। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। मनि = मन में।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द में जुड़ के (विकारों से) अछोह हो जाओ, फिर सदा के लिए ही आत्मिक जीवन जीते रहोगे, फिर कभी आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकेगी। जो भी मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा हरि-नाम प्राप्त कर लेता है उसको ये आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा के लिए मन में मीठा लगने लगता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दातै दाति रखी हथि अपणै जिसु भावै तिसु देई ॥ नानक नामि रते सुखु पाइआ दरगह जापहि सेई ॥४॥११॥

मूलम्

दातै दाति रखी हथि अपणै जिसु भावै तिसु देई ॥ नानक नामि रते सुखु पाइआ दरगह जापहि सेई ॥४॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दातै = दाते ने। हथि = हाथ में। देई = देता है। जापहि = आदर पाते हैं, प्रगट होते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! दातार ने (नाम की ये) दाति अपने हाथ में रखी हुई है, जिसे चाहता है उसे दे देता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, वह (यहाँ) सुख पाते हैं, परमात्मा की हजूरी में भी वही मनुष्य आदर मान पाते हैं।4।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ सतिगुर सेवे ता सहज धुनि उपजै गति मति तद ही पाए ॥ हरि का नामु सचा मनि वसिआ नामे नामि समाए ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ सतिगुर सेवे ता सहज धुनि उपजै गति मति तद ही पाए ॥ हरि का नामु सचा मनि वसिआ नामे नामि समाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर। उपजै = पैदा हो जाती है। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। तद ही = तब ही। मनि = मन में। नामे नामि = नाम में ही नाम में, सदा नाम में ही।1।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब (इसके अंदर) आत्मिक अडोलता की लहर चल पड़ती है। तब ही (गुरु की शरण पड़ के ही) मनुष्य उच्च आत्मिक अवस्था और ऊँची मति हासिल करता है। सदा कायम रहने वाला हरि-नाम मनुष्य के मन में आ बसता है, और मनुष्य सदा नाम में ही लीन रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर सभु जगु बउराना ॥ मनमुखि अंधा सबदु न जाणै झूठै भरमि भुलाना ॥ रहाउ॥

मूलम्

बिनु सतिगुर सभु जगु बउराना ॥ मनमुखि अंधा सबदु न जाणै झूठै भरमि भुलाना ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बउराना = कमला, झल्ला। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। भरमि = भटकना में। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना सारा जगत (माया के मोह में) पागल हुआ फिरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह में) अंधा हो के गुरु के शब्द के साथ गहरी सांझ नहीं डालता। झूठी दुनिया के कारण भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़ा रहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण माइआ भरमि भुलाइआ हउमै बंधन कमाए ॥ जमणु मरणु सिर ऊपरि ऊभउ गरभ जोनि दुखु पाए ॥२॥

मूलम्

त्रै गुण माइआ भरमि भुलाइआ हउमै बंधन कमाए ॥ जमणु मरणु सिर ऊपरि ऊभउ गरभ जोनि दुखु पाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुलाइआ = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। ऊभउ = खड़ा हुआ।2।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य त्रैगुणी माया में पड़ कर कुमार्ग पर पड़ा रहता है, और अहंकार के कारण मोह के बंधन बढ़ाने वाले काम ही करता है। उसके सिर पर हर वक्त जनम-मरन का चक्र हर समय टिका रहता है, और जनम-मरण में पड़ कर दुख सहता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण वरतहि सगल संसारा हउमै विचि पति खोई ॥ गुरमुखि होवै चउथा पदु चीनै राम नामि सुखु होई ॥३॥

मूलम्

त्रै गुण वरतहि सगल संसारा हउमै विचि पति खोई ॥ गुरमुखि होवै चउथा पदु चीनै राम नामि सुखु होई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरतहि = प्रभाव डाले रखते हैं। पति = इज्जत। चउथा पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ माया के तीन गुण अपना असर नहीं डाल सकते। नामि = नाम से।3।
अर्थ: हे भाई! माया के तीन गुण सारे संसार पर अपना प्रभाव डाले रखते हैं, (इनके असर तले मनुष्य) अहंम् में फंस के सम्मान गवा लेता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उस आत्मिक अवस्था को पहचान लेता है जहाँ माया के तीनों गुण असर नहीं डाल सकते, परमात्मा के नाम में टिक के वह आत्मिक आनंद लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण सभि तेरे तू आपे करता जो तू करहि सु होई ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदे हउमै खोई ॥४॥१२॥

मूलम्

त्रै गुण सभि तेरे तू आपे करता जो तू करहि सु होई ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदे हउमै खोई ॥४॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। आपे = आप ही। निसतारा = पार उतारा, पूर्ण मुक्ति।4।
अर्थ: हे प्रभु! माया के ये तीनों गुण तेरे ही बनाए हुए हैं, तू स्वयं ही (सब को) पैदा करने वाला है। (जगत में) वही होता है जो तू करता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा के नाम में जुड़ने से (माया के तीनों गुणों से) पूरी तरह से मुक्ति मिल जाती है। मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से ही (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर सकता है।4।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे आपि वरतदा पिआरा आपे आपि अपाहु ॥ वणजारा जगु आपि है पिआरा आपे साचा साहु ॥ आपे वणजु वापारीआ पिआरा आपे सचु वेसाहु ॥१॥

मूलम्

आपे आपि वरतदा पिआरा आपे आपि अपाहु ॥ वणजारा जगु आपि है पिआरा आपे साचा साहु ॥ आपे वणजु वापारीआ पिआरा आपे सचु वेसाहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। वरतदा = (हर जगह) मौजूद है। अपाहु = अ+पाहु, पाह से रहित, निर्लिप। साचा = सदा कायम रहने वाला। साहु = शाहूकार, वणजारों को राशि देने वाला। सचु = सदा स्थिर। वेसाहु = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही हर जगह मौजूद है (व्यापक होते हुए भी) प्रभु स्वयं ही निर्लिप (भी) है। जगत-बणजारा प्रभु स्वयं ही है (जगत-बणजारे को राशि-पूंजी देने वाला भी) सदा कायम रहने वाला प्रभु स्वयं ही शाहूकार है। प्रभु स्वयं ही वणज है, स्वयं ही व्यापार करने वाला है, स्वयं ही सदा-स्थिर रहने वाली राशि-पूंजी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन हरि हरि नामु सलाह ॥ गुर किरपा ते पाईऐ पिआरा अम्रितु अगम अथाह ॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन हरि हरि नामु सलाह ॥ गुर किरपा ते पाईऐ पिआरा अम्रितु अगम अथाह ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सलाह = महिमा। ते = से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाह = जिसके अस्तित्व की गहराई नहीं पाई जा सकती। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, महिमा किया कर। (हे भाई!) गुरु की मेहर से ही वह प्यारा प्रभु मिल सकता है, जो आत्मिक जीवन देने वाला है, जो अगम्य (पहुँच से परे) है, और जो बहुत गहरा है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे सुणि सभ वेखदा पिआरा मुखि बोले आपि मुहाहु ॥ आपे उझड़ि पाइदा पिआरा आपि विखाले राहु ॥ आपे ही सभु आपि है पिआरा आपे वेपरवाहु ॥२॥

मूलम्

आपे सुणि सभ वेखदा पिआरा मुखि बोले आपि मुहाहु ॥ आपे उझड़ि पाइदा पिआरा आपि विखाले राहु ॥ आपे ही सभु आपि है पिआरा आपे वेपरवाहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। वेखदा = संभाल करता है। मुखि = मुंह से। मुहाहु = मोह लेने वाले बोल, मीठे बोल। उझड़ि = गलत रास्ते पर। सभु = हर जगह।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (जीवों की अरदासें) सुन के सब की संभाल करता है, स्वयं ही मुँह से (जीवों को ढाढस देने के लिए) मीठे बोल बोलता है। प्यारा प्रभु सवयं ही (जीवों को) गलत राह पर डाल देता है, स्वयं ही (जिंदगी का सही) रास्ता दिखाता है। हे भाई! हर जगह प्रभु स्वयं ही स्वयं है (इतने कुछ का मालिक होते हुए भी) प्रभु बेपरवाह रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे आपि उपाइदा पिआरा सिरि आपे धंधड़ै लाहु ॥ आपि कराए साखती पिआरा आपि मारे मरि जाहु ॥ आपे पतणु पातणी पिआरा आपे पारि लंघाहु ॥३॥

मूलम्

आपे आपि उपाइदा पिआरा सिरि आपे धंधड़ै लाहु ॥ आपि कराए साखती पिआरा आपि मारे मरि जाहु ॥ आपे पतणु पातणी पिआरा आपे पारि लंघाहु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिरि सिरि, हरेक के सिर पर। धंधड़ै = धंधे में। लाहु = लगाता है। साखती = बनतर, रचना। मरि जाहु = मर जाता है। पातणी = पत्तन का मल्लाह।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही (सब जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही हरेक जीव को माया के चक्कर में लगाए रखता है, प्रभु खुद ही (जीवों की) बनतर बनाता है, खुद ही मारता है, (तो उसका पैदा किया हुआ जीव) मर जाता है। प्रभु खुद ही (संसार नदी पर) पत्तन है, खुद ही मल्लाह है, खुद ही (जीवों को) पार लंघाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे सागरु बोहिथा पिआरा गुरु खेवटु आपि चलाहु ॥ आपे ही चड़ि लंघदा पिआरा करि चोज वेखै पातिसाहु ॥ आपे आपि दइआलु है पिआरा जन नानक बखसि मिलाहु ॥४॥१॥

मूलम्

आपे सागरु बोहिथा पिआरा गुरु खेवटु आपि चलाहु ॥ आपे ही चड़ि लंघदा पिआरा करि चोज वेखै पातिसाहु ॥ आपे आपि दइआलु है पिआरा जन नानक बखसि मिलाहु ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। बोहिथा = जहाज़। खेवटु = मल्लाह। चढ़ि = (जहाज़ में) चढ़ के। चोज = करिश्मे, तमाशे। करि = कर के। बखसि = बख्शिश कर के, दया करके।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही (संसार-) समुंदर है, खुद ही जहाज है, खुद ही गुरु-मल्लाह हो के जहाज़ को चलाता है। प्रभु खुद ही (जहाज़ में) चढ़ के पार होता है। प्रभु-पातशाह करिश्मे-तमाशे करके खुद ही (इन तमाशों को) देख रहा है। हे नानक! (कह:) प्रभु खुद ही (सदा) दया का श्रोत है, खुद ही कृपा करके (अपने पैदा किए हुए जीवों को अपने साथ) मिला लेता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ चउथा ॥ आपे अंडज जेरज सेतज उतभुज आपे खंड आपे सभ लोइ ॥ आपे सूतु आपे बहु मणीआ करि सकती जगतु परोइ ॥ आपे ही सूतधारु है पिआरा सूतु खिंचे ढहि ढेरी होइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ४ चउथा ॥ आपे अंडज जेरज सेतज उतभुज आपे खंड आपे सभ लोइ ॥ आपे सूतु आपे बहु मणीआ करि सकती जगतु परोइ ॥ आपे ही सूतधारु है पिआरा सूतु खिंचे ढहि ढेरी होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। अंडज = अण्डे से पैदा होने वाली श्रेणी। जेरज = गर्भ/जिउर से पैदा होने वाली। सेतज = पसीने से पैदा होने वाली। उतभुज = उगने वाले (बनस्पति)। खंड = धरती के हिस्से। लोइ = लोक, भवन। सूतु = धागा। मणीआ = मणके (जीव)। करि = कर के। सकती = शक्ति। परोइ = परोता है। सूतधारु = सूत्रधार, धागे को अपने हाथ पकड़े रखने वाला। खिंचे = खीचता है। ढहि = गिरा के।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (चारों खाणियां) अण्डज, जेरज, सेतज और उत्भुज है, प्रभु खुद ही (धरती के नौ) खण्ड है, प्रभु स्वयं ही (सृष्टि के) सारे भवन है। प्रभु खुद ही (सत्य-रूप) धागा (सूत्र) है, प्रभु खुद (बेअंत जीव के रूप में) अनेक मणके है, प्रभु खुद ही अपनी ताकत बना के जगत को (धागे में) परोता है। प्रभु खुद ही धागे को अपने हाथ में पकड़ के रखने वाला (सूत्रधार) है। जब वह (जगत में से) धागे को खींच लेता है, तब (जगत) गिर के ढेरी हो जाता है (जगत-रचना समाप्त हो जाती है)।1।

[[0605]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन मै हरि बिनु अवरु न कोइ ॥ सतिगुर विचि नामु निधानु है पिआरा करि दइआ अम्रितु मुखि चोइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन मै हरि बिनु अवरु न कोइ ॥ सतिगुर विचि नामु निधानु है पिआरा करि दइआ अम्रितु मुखि चोइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाना। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। मुखि = मुंह में। चोइ = टपकाता है, चोअता है। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! मुझे परमात्मा के बिना (कहीं भी) कोई और नहीं दिखता। उस परमात्मा का नाम-खजाना गुरु में मौजूद है। गुरु मेहर करके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (सिख के) मुँह में टपकाता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे जल थलि सभतु है पिआरा प्रभु आपे करे सु होइ ॥ सभना रिजकु समाहदा पिआरा दूजा अवरु न कोइ ॥ आपे खेल खेलाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥२॥

मूलम्

आपे जल थलि सभतु है पिआरा प्रभु आपे करे सु होइ ॥ सभना रिजकु समाहदा पिआरा दूजा अवरु न कोइ ॥ आपे खेल खेलाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जल थलि = जल में थल में। सभतु = हर जगह। समाहदा = पहुँचाता है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही पानी में धरती में हर जगह मौजूद है। प्रभु खुद ही जो कुछ करता है वह (जगत में) घटित होता है। प्रभु खुद ही सब जीवों को रिजक पहुँचाता है (रिजक देने वाला) उसके बिना और कोई नहीं है। प्रभु खुद ही (जगत के सारे) खेल खेल रहा है, वह स्वयं जो कुछ करता है वही होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे ही आपि निरमला पिआरा आपे निरमल सोइ ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥ आपे अलखु न लखीऐ पिआरा आपि लखावै सोइ ॥३॥

मूलम्

आपे ही आपि निरमला पिआरा आपे निरमल सोइ ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥ आपे अलखु न लखीऐ पिआरा आपि लखावै सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! पवित्र प्रभु (हर जगह) खुद ही खुद है, वह खुद ही पवित्र शोभा का मालिक है। प्रभु खुद ही अपना मूल्य पा सकने वाला है, जो कुछ खुद ही करता है वही होता है। प्रभु का स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह अदृश्य है। अपने स्वरूप की समझ वह आप ही देने वाला है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे गहिर ग्मभीरु है पिआरा तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ सभि घट आपे भोगवै पिआरा विचि नारी पुरख सभु सोइ ॥ नानक गुपतु वरतदा पिआरा गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥२॥

मूलम्

आपे गहिर ग्मभीरु है पिआरा तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ सभि घट आपे भोगवै पिआरा विचि नारी पुरख सभु सोइ ॥ नानक गुपतु वरतदा पिआरा गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंभीरु = गहरे जिगरे वाला। तिसु जेवडु = उस जितना बड़ा। सभि = सारे। गुरमुखि = गुरु से।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ही (जैसे, एक) बेअंत गहरा (समुंदर) है। उसके बराबर का और कोई नहीं है। सारे जीवों में व्यापक हो के आप ही सारे भोग भोगता है, हरेक स्त्री-पुरुष में हर जगह वहआप ही आप है। हे नानक! वह प्रभु सारे जगत में छुपा हुआ मौजूद है। गुरु की शरण पड़ने से उसकी सर्व-व्यापकता का प्रकाश होता है।4।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक ४ को ‘चउथा’ पढ़ना है। ये हिदायत उदाहरण स्वरूप है। शब्द ‘महला’ के साथ अंक १,२,३,४,५ आदि को हर जगह पहला, दूजा, तीजा, चौथा, पंजवां आदि ही पढ़ना है। इसका भाव है: गुरु नानक पहला शरीर, दूजा शरीर, तीजा शरीर, चउथा शरीर, पंजवां शरीर आदि।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ ॥ आपे ही सभु आपि है पिआरा आपे थापि उथापै ॥ आपे वेखि विगसदा पिआरा करि चोज वेखै प्रभु आपै ॥ आपे वणि तिणि सभतु है पिआरा आपे गुरमुखि जापै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ४ ॥ आपे ही सभु आपि है पिआरा आपे थापि उथापै ॥ आपे वेखि विगसदा पिआरा करि चोज वेखै प्रभु आपै ॥ आपे वणि तिणि सभतु है पिआरा आपे गुरमुखि जापै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। थापि = पैदा करके। उथापै = नाश करता है। वेखि = देख के। विगसदा = खुश होता है। करि = कर के। चोज = तमाशे। आपै = अपने आप को। वणि = बन में। तिणि = तृण में। सभतु = हर जगह। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जापै = दिखता है।1।
अर्थ: हे भाई! हर जगह प्रभु खुद ही खुद है, खुद ही (जगत को) पैदा करके खुद ही नाश कर देता है। प्रभु खुद ही (जगत-रचना को) देख के खुश होता है, करिश्मे-तमाशे रच के खुद ही देखता है, अपने आप को ही देखता है। प्रभु आप ही (हरेक) बन में (हरेक) तीले में हर जगह मौजूद है। गुरु की शरण पड़ा वह प्रभु दिखाई दे जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन हरि हरि नाम रसि ध्रापै ॥ अम्रित नामु महा रसु मीठा गुर सबदी चखि जापै ॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन हरि हरि नाम रसि ध्रापै ॥ अम्रित नामु महा रसु मीठा गुर सबदी चखि जापै ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त हो जाता है। चखि = चख के। जापै = मालूम होता है। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा (के नाम) को जपा कर, (जो मनुष्य जपता है वह) नाम के रस से (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है। हे मन! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल बहुत स्वादिष्ट है, बहुत मीठा है। गुरु के शब्द के द्वारा चख के ही पता चलता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे तीरथु तुलहड़ा पिआरा आपि तरै प्रभु आपै ॥ आपे जालु वताइदा पिआरा सभु जगु मछुली हरि आपै ॥ आपि अभुलु न भुलई पिआरा अवरु न दूजा जापै ॥२॥

मूलम्

आपे तीरथु तुलहड़ा पिआरा आपि तरै प्रभु आपै ॥ आपे जालु वताइदा पिआरा सभु जगु मछुली हरि आपै ॥ आपि अभुलु न भुलई पिआरा अवरु न दूजा जापै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। तीरथु = दरिया का किनारा। तुलहड़ा = दरिया पार करने के लिए लकड़ी का बनाया हुआ गठा। वताइदा = बिखेरता है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु आप ही दरिया का किनारा है, आप ही (दरिया से पार लांघने के लिए) तुलहा है, आप ही (दरिया से) पार लांघता है, अपने आप को ही पार लंघाता है। प्रभु खुद ही (माया का) जाल बिछाता है (उस जाल में फसने वाली) जगत रूपी मछली भी अपने आप को ही बनाता है। (फिर भी वह) आप भूलने वाला नहीं है, वह कभी (भी माया-जाल में फसने वाली) भूल नहीं करता। उसके बराबर का और कोई नहीं दिखता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे सिंङी नादु है पिआरा धुनि आपि वजाए आपै ॥ आपे जोगी पुरखु है पिआरा आपे ही तपु तापै ॥ आपे सतिगुरु आपि है चेला उपदेसु करै प्रभु आपै ॥३॥

मूलम्

आपे सिंङी नादु है पिआरा धुनि आपि वजाए आपै ॥ आपे जोगी पुरखु है पिआरा आपे ही तपु तापै ॥ आपे सतिगुरु आपि है चेला उपदेसु करै प्रभु आपै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नादु = (सिंङी की) आवाज। धुनि = सुर। तापै = तपता है।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (जोगी के बजाने वाली) सिंगी है, स्वयं ही (उस बजती सिंगी की) आवाज है, स्वयं ही (सिंगी के) सुर बजाता है। वह सर्व-व्यापक प्रभु आप ही जोगी है, आप ही (धूणियों आदि से) तप करता है। प्रभु आप ही गुरु है, आप ही सिख है, आप ही अपने आप को उपदेश करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे नाउ जपाइदा पिआरा आपे ही जपु जापै ॥ आपे अम्रितु आपि है पिआरा आपे ही रसु आपै ॥ आपे आपि सलाहदा पिआरा जन नानक हरि रसि ध्रापै ॥४॥३॥

मूलम्

आपे नाउ जपाइदा पिआरा आपे ही जपु जापै ॥ आपे अम्रितु आपि है पिआरा आपे ही रसु आपै ॥ आपे आपि सलाहदा पिआरा जन नानक हरि रसि ध्रापै ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रसु = स्वाद। रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त होता है।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु आप ही (जीवों से अपना) नाम जपाता है (जीवों में व्याप्त हो के) आप ही अपना नाम जपता है। आप ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल है, आप ही उस नाम-रस को पीता है, अपने आप को पीता है। हे दास नानक! प्रभु आप ही अपनी महिमा करता है, आप ही अपने नाम-रस से तृप्त होता है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ ॥ आपे कंडा आपि तराजी प्रभि आपे तोलि तोलाइआ ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे वणजु कराइआ ॥ आपे धरती साजीअनु पिआरै पिछै टंकु चड़ाइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ४ ॥ आपे कंडा आपि तराजी प्रभि आपे तोलि तोलाइआ ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे वणजु कराइआ ॥ आपे धरती साजीअनु पिआरै पिछै टंकु चड़ाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंडा = तराजू की ऊपरी बीच की सूई। तराजी = तराजू। प्रभि = प्रभु ने। तोलि = तोल से, बाँट से। साहु = शाह, शाहूकार। साजीअनु = उस (प्रभु) ने सजाई है। पिआरै = प्यारे (प्रभु) ने। पिदे = तराजू के पीछे वाले छाबे में। टंकु = चार मासे का बाँट।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने खुद ही धरती पैदा की हुई है, (अपनी मर्यादा रूपी तराजू के) पीछे के छाबे में चार मासे बाँट रख के (प्रभु ने खुद ही इस सृष्टि को मर्यादा में रखा हुआ है। ये काम उस प्रभु के लिए बहुत साधारण और आसान सा है)। वह तराजू भी प्रभु खुद ही है, उस तराजू की सुई भी प्रभु खुद ही है, प्रभु ने खुद ही बाँट से (इस सृष्टि को) तोला हुआ है (अपने हुक्म में रखा हुआ है)। प्रभु खुद ही (इस धरती पर वणज करने वाला) शहूकार है, खुद ही (जीव-रूप हो के) वणज करने वाला है, खुद ही वणज कर रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन हरि हरि धिआइ सुखु पाइआ ॥ हरि हरि नामु निधानु है पिआरा गुरि पूरै मीठा लाइआ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन हरि हरि धिआइ सुखु पाइआ ॥ हरि हरि नामु निधानु है पिआरा गुरि पूरै मीठा लाइआ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! निधान = खजाना। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का स्मरण कर, (जिस किसी ने स्मरण किया है, उसने) सुख पाया है। हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे) सुखों का खजाना है (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा है) पूरे गुरु ने उसे परमात्मा का नाम मीठा अनुभव करा दिया है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे धरती आपि जलु पिआरा आपे करे कराइआ ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा जलु माटी बंधि रखाइआ ॥ आपे ही भउ पाइदा पिआरा बंनि बकरी सीहु हढाइआ ॥२॥

मूलम्

आपे धरती आपि जलु पिआरा आपे करे कराइआ ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा जलु माटी बंधि रखाइआ ॥ आपे ही भउ पाइदा पिआरा बंनि बकरी सीहु हढाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। हुकमि = हुक्म के द्वारा। वरतदा = मौजूद है। बंधि = बाँध के। भउ = डर। बंनि = बाँध के। सीहु = शेर (को)। हढाइआ = घुमा रहा है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु प्यारा खुद ही धरती पैदा करने वाला है, आप ही पानी पैदा करने वाला है, आप ही सब कुछ करता है आप ही (जीवों से सब कुछ) करवाता है। आप ही अपने हुक्म अनुसार हर जगह कार्य चला रहा है, पानी को मिट्टी से (उसने अपने हुक्म में ही) बाँध रखा है (पानी मिट्टी को बहा नहीं सकता, पानी में उसने) खुद ही अपना डर रखा है, (जैसे) बकरी शेर को बाँध के घुमा रही है।2।

[[0606]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे कासट आपि हरि पिआरा विचि कासट अगनि रखाइआ ॥ आपे ही आपि वरतदा पिआरा भै अगनि न सकै जलाइआ ॥ आपे मारि जीवाइदा पिआरा साह लैदे सभि लवाइआ ॥३॥

मूलम्

आपे कासट आपि हरि पिआरा विचि कासट अगनि रखाइआ ॥ आपे ही आपि वरतदा पिआरा भै अगनि न सकै जलाइआ ॥ आपे मारि जीवाइदा पिआरा साह लैदे सभि लवाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कासठ = काष्ठ, लकड़ी। भै = डर के कारण। अगनि = आग। मारि = मार के। सभि = सारे।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही लकड़ी (पैदा करने वाला) है, (आप ही आग बनाने वाला है) लकड़ी में उसने खुद ही आग टिका रखी है। प्रभु प्यारा खुद ही अपना हुक्म वरता रहा है (उसके हुक्म में) आग (लकड़ी को) जला नहीं सकती। प्रभु खुद ही मार के जिंदा करने वाला है। सारे जीव उसके परोए हुए ही सांस ले रहे हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे ताणु दीबाणु है पिआरा आपे कारै लाइआ ॥ जिउ आपि चलाए तिउ चलीऐ पिआरे जिउ हरि प्रभ मेरे भाइआ ॥ आपे जंती जंतु है पिआरा जन नानक वजहि वजाइआ ॥४॥४॥

मूलम्

आपे ताणु दीबाणु है पिआरा आपे कारै लाइआ ॥ जिउ आपि चलाए तिउ चलीऐ पिआरे जिउ हरि प्रभ मेरे भाइआ ॥ आपे जंती जंतु है पिआरा जन नानक वजहि वजाइआ ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ताणु = ताकत। दीबाणु = दरबार लगाने वाला, हाकिम। कारै = कार में। चलीऐ = चल सकते हैं। पिआरे = हे प्यारे (भाई!)। प्रभ भाइआ = प्रभु को अच्छा लगता है। जंती = बाजा बजाने वाला। जंतु = जंत्र, बाजा। वजहि = बजते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही ताकत है, खुद ही (शक्ति इस्तेमाल करने वाला) हाकिम है, (सारे जगत को उसने) अपने आप ही काम में लगाया हुआ है। हे प्यारे सज्जन! जैसे प्रभु खुद जीवों को चलाता है, जैसे मेरे हरि प्रभु को भाता है, वैसे ही चल सकते हैं। हे दास नानक! प्रभु खुद ही (जीव-) बाजा (बनाने वाला) है, खुद बाजा बजाने वाला है, सारे जीव-बाजे उसके बजाए बज रहे हैं।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ ॥ आपे स्रिसटि उपाइदा पिआरा करि सूरजु चंदु चानाणु ॥ आपि निताणिआ ताणु है पिआरा आपि निमाणिआ माणु ॥ आपि दइआ करि रखदा पिआरा आपे सुघड़ु सुजाणु ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ४ ॥ आपे स्रिसटि उपाइदा पिआरा करि सूरजु चंदु चानाणु ॥ आपि निताणिआ ताणु है पिआरा आपि निमाणिआ माणु ॥ आपि दइआ करि रखदा पिआरा आपे सुघड़ु सुजाणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के, बना के। चानाणु = प्रकाश। ताणु = सहारा, आसरा। सुघड़ु = निपुण आत्मिक घाड़त वाला। सुजाणु = सयाना, सबके दिल की जानने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! वह प्यारा प्रभु खुद ही सृष्टि पैदा करता है, और (सुष्टि को) रौशन करने के लिए सूर्य चंद्रमा बनाता है। प्रभु खुद ही निआसरों का आसरा है, जिन्हें कोई आदर-मान नहीं देता उनको आदर-मान देने वाला है। वह प्यारा प्रभु सुंदर आत्मिक घाड़त वाला है, सबके दिल की जानने वाला है, वह मेहर करके आप सबकी रक्षा करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपि राम नामु नीसाणु ॥ सतसंगति मिलि धिआइ तू हरि हरि बहुड़ि न आवण जाणु ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपि राम नामु नीसाणु ॥ सतसंगति मिलि धिआइ तू हरि हरि बहुड़ि न आवण जाणु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीसाणु = जीवन सफर में राहदारी। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (नाम ही जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी है। हे भाई! साधु-संगत में मिल के तू परमात्मा का ध्यान धरा कर, (ध्यान की इनायत से) दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे ही गुण वरतदा पिआरा आपे ही परवाणु ॥ आपे बखस कराइदा पिआरा आपे सचु नीसाणु ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा आपे ही फुरमाणु ॥२॥

मूलम्

आपे ही गुण वरतदा पिआरा आपे ही परवाणु ॥ आपे बखस कराइदा पिआरा आपे सचु नीसाणु ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा आपे ही फुरमाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरतदा = बाँटता। परवाणु = स्वीकार (करता है)। बखस = बख्शिश। सचु = सदा कायम रहने वाला। नीसाणु = निशान, झण्डा, प्रकाश स्तम्भ।, हुकमि = हुक्म अनुसार। फुरमाणु = हुक्म।2।
अर्थ: हे भाई! वह प्यारा प्रभु खुद ही (जीवों को अपने) गुणों की दाति देता है, खुद ही जीवों को अपनी हजूरी में स्वीकार करता है। प्रभु खुद ही सब पर बख्शिश करता है, वह खुद ही (जीवों के लिए) सदा कायम रहने वाला प्रकाश-स्तम्भ है। वह प्यारा प्रभु खुद ही (जीवों को) हुक्म में चलाता है, खुद ही हर जगह हुक्म चलाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे भगति भंडार है पिआरा आपे देवै दाणु ॥ आपे सेव कराइदा पिआरा आपि दिवावै माणु ॥ आपे ताड़ी लाइदा पिआरा आपे गुणी निधानु ॥३॥

मूलम्

आपे भगति भंडार है पिआरा आपे देवै दाणु ॥ आपे सेव कराइदा पिआरा आपि दिवावै माणु ॥ आपे ताड़ी लाइदा पिआरा आपे गुणी निधानु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भंडार = खजाने। दाणु = दान, बख्शीश। माणु = आदर। ताड़ी = समाधि। गुणी निधानु = गुणों का खजाना।3।
अर्थ: हे भाई! वह प्यारा प्रभु (अपनी) भक्ति के खजानों वाला है, खुद ही (जीवों को अपनी भक्ति की) दाति देता है। प्रभु खुद ही (जीवों से) सेवा-भक्ति करवाता है, और खुद ही (सेवा-भक्ति करने वालों को जगत से) आदर दिलवाता है। वह प्रभु खुद ही गुणों का खजाना है, और खुद ही (अपने गुणों में) समाधि लगाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे वडा आपि है पिआरा आपे ही परधाणु ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे तुलु परवाणु ॥ आपे अतुलु तुलाइदा पिआरा जन नानक सद कुरबाणु ॥४॥५॥

मूलम्

आपे वडा आपि है पिआरा आपे ही परधाणु ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे तुलु परवाणु ॥ आपे अतुलु तुलाइदा पिआरा जन नानक सद कुरबाणु ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परधाणु = जाने माने। तुलु = तराजू। परवाणु = बॉट (तौलने वाले)।4।
अर्थ: हे भाई! वह प्रभु प्यारा आप ही सबसे बड़ा है और जाना-माना है। वह खुद ही (अपना) तौल और पैमाना बरत के (अपने पैदा किए हुए जीवों का) मूल्य डालता है। वह प्रभु आप अतुल्य है (उसकी प्रतिभा की पैमाइश नहीं हो सकती) वह (जीवों के जीवन सदा) तौलता है। हे दास नानक! (कह:) मैं सदा उससे सदके जाता हूँ।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ ॥ आपे सेवा लाइदा पिआरा आपे भगति उमाहा ॥ आपे गुण गावाइदा पिआरा आपे सबदि समाहा ॥ आपे लेखणि आपि लिखारी आपे लेखु लिखाहा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ४ ॥ आपे सेवा लाइदा पिआरा आपे भगति उमाहा ॥ आपे गुण गावाइदा पिआरा आपे सबदि समाहा ॥ आपे लेखणि आपि लिखारी आपे लेखु लिखाहा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उमाहा = उत्साह। सबदि = शब्द में। समाहा = लीनता पैदा करता है। लेखणि = कलम।1।
अर्थ: हे भाई! प्यारा प्रभु खुद ही (जीवों को अपनी) सेवा-भक्ति में जोड़ता है, खुद ही भक्ति करने का उत्साह देता है। प्रभु खुद ही (जीवों को) गुण गाने के लिए प्रेरित करता है, खुद ही (जीवों को) गुरु के शब्द में जोड़ता है। प्रभु खुद ही कलम है, खुद ही कलम चलाने वाला है, और, खुद ही (जीवों के माथे पर भक्ति का) लेख लिखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपि राम नामु ओमाहा ॥ अनदिनु अनदु होवै वडभागी लै गुरि पूरै हरि लाहा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपि राम नामु ओमाहा ॥ अनदिनु अनदु होवै वडभागी लै गुरि पूरै हरि लाहा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओमाहा = उत्साह (से)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम उत्साह से जपा कर। पूरे गुरु के द्वारा हरि-नाम का लाभ कमा ले। (जो) भाग्यशाली मनुष्य (नाम जपता है, उसे) हर समय आत्मिक सुख मिला रहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे गोपी कानु है पिआरा बनि आपे गऊ चराहा ॥ आपे सावल सुंदरा पिआरा आपे वंसु वजाहा ॥ कुवलीआ पीड़ु आपि मराइदा पिआरा करि बालक रूपि पचाहा ॥२॥

मूलम्

आपे गोपी कानु है पिआरा बनि आपे गऊ चराहा ॥ आपे सावल सुंदरा पिआरा आपे वंसु वजाहा ॥ कुवलीआ पीड़ु आपि मराइदा पिआरा करि बालक रूपि पचाहा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोपी = ग्वालों की स्त्रीयां। कानु = कृष्ण। बनि = जंगल में, विंद्रावन में। सावल सुंदरा = साँवले रंग वाला सुंदर (कृष्ण)। वंसु = बाँसुरी। कुवलीआपीड़ु = कृष्ण को मारने के लिए कंस द्वारा भेजा हुआ हाथी। रूपि = रूप में। पचाहा = नाश।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ही गोपियां है, खुद ही कृष्ण है, खुद ही (विंद्रावन) जंगल में गईयां चराने वाला है। प्रभु खुद साँवले रंग का सुंदर कृष्ण है, खुद ही बाँसुरी बजाने वाला है। प्रभु खुद ही बालक-रूप (कृष्ण-रूप) में (कंस के भेजे हुए हाथी) कुवल्यापीड़ का नाश करने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि अखाड़ा पाइदा पिआरा करि वेखै आपि चोजाहा ॥ करि बालक रूप उपाइदा पिआरा चंडूरु कंसु केसु माराहा ॥ आपे ही बलु आपि है पिआरा बलु भंनै मूरख मुगधाहा ॥३॥

मूलम्

आपि अखाड़ा पाइदा पिआरा करि वेखै आपि चोजाहा ॥ करि बालक रूप उपाइदा पिआरा चंडूरु कंसु केसु माराहा ॥ आपे ही बलु आपि है पिआरा बलु भंनै मूरख मुगधाहा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अखाड़ा = (जगत) भूमि, मैदान। चोजाहा = तमाशे, खेल। चंडूरु = कंस के पहलवान का नाम। कंसु = केसी। मुगधाहा = मूर्खों का।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही (इस जगत का) अखाड़ा बनाने वाला है, (इस जगत अखाड़े में) खुद ही कौतक-तमाशे रच के देख रहा है। प्रभु खुद ही बालक रूप कृष्ण को पैदा करने वाला है, और, खुद ही उससे चंडूर, केसी और कंस को मरवाने वाला है। खुद ही ताकत (देने वाला) है, और खुद ही मूर्खों की ताकत तोड़ देता है।3।

[[0607]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु आपे जगतु उपाइदा पिआरा वसि आपे जुगति हथाहा ॥ गलि जेवड़ी आपे पाइदा पिआरा जिउ प्रभु खिंचै तिउ जाहा ॥ जो गरबै सो पचसी पिआरे जपि नानक भगति समाहा ॥४॥६॥

मूलम्

सभु आपे जगतु उपाइदा पिआरा वसि आपे जुगति हथाहा ॥ गलि जेवड़ी आपे पाइदा पिआरा जिउ प्रभु खिंचै तिउ जाहा ॥ जो गरबै सो पचसी पिआरे जपि नानक भगति समाहा ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = सारा। वसि = वश में। गलि = गले मे। जेवड़ी = रस्सी। खिंचै = खीचता है। गरबै = अहंकार करता है। पचसी = नाश हो जाएगा।4।
अर्थ: हे भाई! प्यारा प्रभु खुद ही सारे जगत को पैदा करता है, (जगत को आप ही अपने) वश में रखता है (जीवों की जीवन-) जुगति अपने हाथ में रखता है। प्रभु स्वयं ही (सब जीवों के) गले में रस्सी डाले रखता है, जैसे प्रभु (उस रस्सी को) खींचता है वैसे ही जीव (जीवन-राह पर) चलते हैं। हे नानक! (कह:) हे पयारे सज्जन! जो मनुष्य (अपने किसी बल आदि का) अहंकार करता है वह तबाह हो जाता है (आत्मिक मौत सहेड़ लेता है)। हे भाई! परमात्मा का नाम जपा कर, उसकी भक्ति में लीन रहा कर।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ४ दुतुके ॥ अनिक जनम विछुड़े दुखु पाइआ मनमुखि करम करै अहंकारी ॥ साधू परसत ही प्रभु पाइआ गोबिद सरणि तुमारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ४ दुतुके ॥ अनिक जनम विछुड़े दुखु पाइआ मनमुखि करम करै अहंकारी ॥ साधू परसत ही प्रभु पाइआ गोबिद सरणि तुमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अहंकारी = अहंकार के असर तले। साधू = गुरु। परसत = छूते हुए।1।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अनेको जन्मों से (परमात्मा से) विछुड़ा हुआ दुख सहता चला आता है, (इस जन्म में भी अपने मन का मुरीद रह के) अहंकार के आसरे ही कर्म करता रहता है। (पर) गुरु के चरण छूते ही उसे परमात्मा मिल जाता है। हे गोबिंद! (गुरु की शरण की इनायत से) वह तेरी शरण आ पड़ता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिद प्रीति लगी अति पिआरी ॥ जब सतसंग भए साधू जन हिरदै मिलिआ सांति मुरारी ॥ रहाउ॥

मूलम्

गोबिद प्रीति लगी अति पिआरी ॥ जब सतसंग भए साधू जन हिरदै मिलिआ सांति मुरारी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अति = बहुत। सत संग = साधु-संगत। हिरदै = हृदय में। मुरारी = (मुर+अरी) परमात्मा। रहाउ।
अर्थ: जब (किसी भाग्यशाली मनुष्य को) भले मनुष्यों वाली संगति प्राप्त होती है, उसे अपने हृदय में शांति देने वाला परमात्मा आ मिलता है, परमात्मा के साथ उसकी बड़ी गहरी प्रीति बन जाती है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू हिरदै गुपतु वसहि दिनु राती तेरा भाउ न बुझहि गवारी ॥ सतिगुरु पुरखु मिलिआ प्रभु प्रगटिआ गुण गावै गुण वीचारी ॥२॥

मूलम्

तू हिरदै गुपतु वसहि दिनु राती तेरा भाउ न बुझहि गवारी ॥ सतिगुरु पुरखु मिलिआ प्रभु प्रगटिआ गुण गावै गुण वीचारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। गवारी = मूर्ख लोग। न बूझहि = नहीं समझते। वीचारी = विचार के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू हर वक्त सब जीवों के हृदय में छुपा हुआ टिका रहता है, मूर्ख मनुष्य तेरे साथ प्यार (के महत्व) को नहीं समझते। (हे भाई!) जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक प्रभु का रूप गुरु मिल जाता है उसके अंदर परमात्मा प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के गुणों में तवज्जो जोड़ के गुण गाता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि प्रगासु भइआ साति आई दुरमति बुधि निवारी ॥ आतम ब्रहमु चीनि सुखु पाइआ सतसंगति पुरख तुमारी ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि प्रगासु भइआ साति आई दुरमति बुधि निवारी ॥ आतम ब्रहमु चीनि सुखु पाइआ सतसंगति पुरख तुमारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। साति = शांति, ठण्ड, आत्मिक अडोलता। दुरमति = बुरी मति। निवारी = दूर कर ली। आतम = सब जीवों में। चीनि = पहचान के।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ता है उसके अंदर (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, उसके अंदर ठंड पड़ जाती है, वह मनुष्य अपने अंदर से बुरी मति वाली मति दूर कर लेता है (ये दुर्मति ही विकारों की सड़न पैदा कर रही थी)। वह मनुष्य अपने अंदर परमात्मा को बसता पहचान के आत्मिक आनंद प्राप्त कर लेता है। हे सर्व-व्यापक प्रभु! ये तेरी साधु-संगत की ही इनायत है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरखै पुरखु मिलिआ गुरु पाइआ जिन कउ किरपा भई तुमारी ॥ नानक अतुलु सहज सुखु पाइआ अनदिनु जागतु रहै बनवारी ॥४॥७॥

मूलम्

पुरखै पुरखु मिलिआ गुरु पाइआ जिन कउ किरपा भई तुमारी ॥ नानक अतुलु सहज सुखु पाइआ अनदिनु जागतु रहै बनवारी ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखै = उस मनुष्य को। पुरखु = अकाल पुरख, सर्व व्यापक परमात्मा। सहज सुख = आत्मिक अडोलता का सुख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागतु रहै = (माया के मोह से) सचेत रहता है। बनवारी = परमात्मा (में लीन रह के)।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है उस मनुष्य को सर्व-व्यापक परमात्मा मिल जाता है। (पर, हे प्रभु! गुरु भी उनको ही मिलता है) जिस पर तेरी कृपा होती है। हे नानक! (ऐसा मनुष्य) आत्मिक अडोलता में बहुत सारा सुख पाता है, वह हर वक्त परमात्मा (की याद) में लीन रह के (विकारों से) सचेत रहता है।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ ॥ हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥ जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ४ ॥ हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥ जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। अंतरु = अंदरूनी। बेधिआ = भेद दिया। नीर = पानी।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के साथ प्यार से जिस मनुष्य का हृदय जिस मनुष्य का मन भेदा जाता है, वह परमात्मा (की याद) के बिना नहीं रह सकता। जैसे पानी के बिना मछली मर जाती है, वैसे ही वह मनुष्य प्रभु के नाम के बिना अपनी आत्मिक मौत आ गई समझता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥ हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥ हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! हरि = हे हरि! नाई = बड़ाई, महिमा। हउ = मैं। अंतरि = अंदर, दिल में (‘अतरु’ और ‘अंतरि’ में फर्क है)। मंगा = मांगू, मैं मांगता हूँ। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! (मुझे अपनी) मेहर का जल दे। हे हरि! मुझे अपनी महिमा की दाति दे। मैं अपने हृदय में दिन-रात तेरा (ही) नाम मांगता हूँ (क्योंकि तेरे) नाम में जुड़ने से आत्मिक ठण्ड प्रापत हो सकती है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥

मूलम्

जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चात्रिकु = पपीहा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। सुख जल = आत्मिक आनंद देने वाला नाम जल। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। भाइ = प्रेम से। सुभाई = श्रेष्ठ प्यार से।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे बरखा जल के बिना पपीहा बिलखता है, बरखा की बूँद के बिना उसकी प्यास नहीं बुझती, वैसे ही जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब वह प्रभु की इनायत से आत्मिक जीवन वाला बनता है जब वह आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल (गुरु से) हासिल करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख भूखे दह दिस डोलहि बिनु नावै दुखु पाई ॥ जनमि मरै फिरि जोनी आवै दरगहि मिलै सजाई ॥३॥

मूलम्

मनमुख भूखे दह दिस डोलहि बिनु नावै दुखु पाई ॥ जनमि मरै फिरि जोनी आवै दरगहि मिलै सजाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दह दिस = दसों दिशाओं में। पाई = पाता है, पाए। मरै = मरता है।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया की भूख के मारे हुए दसो-दिशाओं में डोलते फिरते हैं। मन का मुरीद मनुष्य परमात्मा के नाम से टूट के दुख पाता रहता है। वह पैदा होता है मरता है, बार-बार जूनियों में पड़ा रहता है, परमात्मा की दरगाह में उसको (ये) सजा मिलती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रिपा करहि ता हरि गुण गावह हरि रसु अंतरि पाई ॥ नानक दीन दइआल भए है त्रिसना सबदि बुझाई ॥४॥८॥

मूलम्

क्रिपा करहि ता हरि गुण गावह हरि रसु अंतरि पाई ॥ नानक दीन दइआल भए है त्रिसना सबदि बुझाई ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावह = (हम जीव) गाते हैं। पाई = पा के। सबदि = शब्द से।4।
अर्थ: हे हरि! अगर तू (स्वयं) मेहर करे, तो ही हम जीव तेरी महिमा के गीत गा सकते हैं। (जिस पर मेहर हो, वही मनुष्य) अपने हृदय में हरि नाम का स्वाद अनुभव करता है। हे नानक! दीनों पर दया करने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, गुरु के शब्द के द्वारा उसकी (माया की) प्यास बुझा देता है।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ४ पंचपदा ॥ अचरु चरै ता सिधि होई सिधी ते बुधि पाई ॥ प्रेम के सर लागे तन भीतरि ता भ्रमु काटिआ जाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ४ पंचपदा ॥ अचरु चरै ता सिधि होई सिधी ते बुधि पाई ॥ प्रेम के सर लागे तन भीतरि ता भ्रमु काटिआ जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचरु = (अ+चरु) ना जीता जा सकने (मन) वाला। चरै = जीत लेता है। सिधि = (जीवन संग्राम में) सफलता। ते = से। बुधि = अकल। सर = तीर। तन = शरीर, हृदय। भ्रमु = मन की भटकना।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जब) मनुष्य इस अजीत मन को जीत लेता है, तब (जीवन-संग्राम में इसको) कामयाबी हो जाती है, (इस) कामयाबी से (मनुष्य को) ये समझ आ जाती है (कि) परमात्मा के प्यार के तीर (इसके) हृदय में भेदे जाते हैं, तब (इसके मन की) भटकना (सदा के लिए) कट जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे गोबिद अपुने जन कउ देहि वडिआई ॥ गुरमति राम नामु परगासहु सदा रहहु सरणाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे गोबिद अपुने जन कउ देहि वडिआई ॥ गुरमति राम नामु परगासहु सदा रहहु सरणाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोबिद = हे गोबिंद! कउ = को। परगासहु = प्रगट करो, उजागर कर दो। रहहु = रखो। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (मुझे) अपने दास को (ये) आदर दे (कि) गुरु की मति से (मेरे अंदर) अपना नाम प्रगट कर दे, (मुझे) सदा अपनी शरण में रख। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु संसारु सभु आवण जाणा मन मूरख चेति अजाणा ॥ हरि जीउ क्रिपा करहु गुरु मेलहु ता हरि नामि समाणा ॥२॥

मूलम्

इहु संसारु सभु आवण जाणा मन मूरख चेति अजाणा ॥ हरि जीउ क्रिपा करहु गुरु मेलहु ता हरि नामि समाणा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारु = जगत (का मोह)। आवण जाणा = जनम मरन (का मूल)। मन = हे मन! नामि = नाम में।2।
अर्थ: हे मूर्ख अंजान मन! ये जगत (का मोह) जनम-मरण (का कारण बना रहता) है, (इससे बचने के लिए परमात्मा का नाम) स्मरण करता रह। हे हरि! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरु मिला, तभी तेरे नाम में लीनता हो सकती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस की वथु सोई प्रभु जाणै जिस नो देइ सु पाए ॥ वसतु अनूप अति अगम अगोचर गुरु पूरा अलखु लखाए ॥३॥

मूलम्

जिस की वथु सोई प्रभु जाणै जिस नो देइ सु पाए ॥ वसतु अनूप अति अगम अगोचर गुरु पूरा अलखु लखाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वथु = वस्तु, नाम वस्तु। सोई = वही (प्रभु)। सु = वह मनुष्य। अनूप = बेमिसाल, सुंदर (अन+ऊप = उपमा रहित)। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। अलखु = अदृश्य प्रभु। लखाए = दिखा देता है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस की’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! ये नाम-वस्तु जिस (परमात्मा) की (मल्कियत) है, वही जानता है (कि ये वस्तु किसे देनी है), जिस जीव को प्रभु ये दाति देता है वही ले सकता है। ये वस्तु ऐसी सुंदर है कि जगत में इस जैसी और कोई नहीं, (किसी चतुराई समझदारी से) इस तक पहुँच नहीं हो सकती, मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की भी इस तक पहुँच नहीं। (अगर) पूरा गुरु (मिल जाए, तो वही) अदृश्य प्रभु के दीदार करवा सकता है।3।

[[0608]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि इह चाखी सोई जाणै गूंगे की मिठिआई ॥ रतनु लुकाइआ लूकै नाही जे को रखै लुकाई ॥४॥

मूलम्

जिनि इह चाखी सोई जाणै गूंगे की मिठिआई ॥ रतनु लुकाइआ लूकै नाही जे को रखै लुकाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। इह = ये वस्तु (स्त्रीलिंग)। को = कोई मनुष्य।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने ये नाम-वस्तु चखी है (इसका स्वाद) वही जानता है, (वह बयान नहीं कर सकता, जैसे) गूँगे की (खाई) मिठाई (का स्वाद) गूँगा बता नहीं सकता। (हाँ, अगर किसी को ये नाम-रत्न हासिल हो जाए, तो) अगर वह मनुष्य (इस रत्न को अपने अंदर) छुपा के रखना चाहे, तो छुपाने से ये रत्न नहीं छुपता (उसके आत्मिक जीवन से रत्न-प्राप्ति के लक्षण दिख पड़ते हैं)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु किछु तेरा तू अंतरजामी तू सभना का प्रभु सोई ॥ जिस नो दाति करहि सो पाए जन नानक अवरु न कोई ॥५॥९॥

मूलम्

सभु किछु तेरा तू अंतरजामी तू सभना का प्रभु सोई ॥ जिस नो दाति करहि सो पाए जन नानक अवरु न कोई ॥५॥९॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पंच पद = पाँच बंदों वाला शब्द।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = दिल की जानने वाला। सोई = सार रखने वाला।5।
अर्थ: हे प्रभु! ये सारा जगत तेरा ही बनाया हुआ है, तू सब जीवों के दिल की जानने वाला है, तू सबकी सार लेने वाला मालिक है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) वही मनुष्य तेरा नाम हासिल कर सकता है जिसको तू ये दाति बख्शता है। और कोई भी ऐसा जीव नहीं (जो तेरी कृपा के बिना तेरा नाम प्राप्त कर सके)।5।9।

दर्पण-टिप्पनी

जरूरी नोट: इस राग में गुरू नानक देव जी के सारे ही शबदों में ‘रहाउ’ की तुकों के साथ सिर्फ ‘रहाउ’ आया है, ना कि “॥१॥ रहाउ॥ ”। यही समानता गुरू अमरदास जी और गुरू रामदास जी के शबदों में मिलती है। गुरू नानक देव जी की सारी बाणी इन गुरू साहिबानों के पास मौजूद थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु १ तितुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु १ तितुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किसु हउ जाची किस आराधी जा सभु को कीता होसी ॥ जो जो दीसै वडा वडेरा सो सो खाकू रलसी ॥ निरभउ निरंकारु भव खंडनु सभि सुख नव निधि देसी ॥१॥

मूलम्

किसु हउ जाची किस आराधी जा सभु को कीता होसी ॥ जो जो दीसै वडा वडेरा सो सो खाकू रलसी ॥ निरभउ निरंकारु भव खंडनु सभि सुख नव निधि देसी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ जाची = मैं जाचूँ, मैं मांगू। आराधी = मैं आराधना करूँ। सभु को = हरेक जीव। कीता = (परमात्मा का) बनाया हुआ। होसी = होगा, है। खाकू = ख़ाक में। भव खंडनु = जनम (मरण) नाश करने वाला। सभि = सारे। नव निधि = जगत के नौ ही खजाने। देसी = देगा, देता है।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! मैं तेरी (दी हुई) दातों से (ही) तृप्त हो सकता हूँ, मैं किसी विचारे मनुष्य की उपमा क्यों करता फिरूँ? जो भी कोई बड़ा अथवा धनाढ मनुष्य दिखाई देता है, हरेक ने (मर के) मिट्टी में मिल जाना है (एक परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला दाता है)। हे भाई! सारे सुख और जगत के सारे नौ खजाने वह निरंकार ही देने वाला है जिसको किसी का डर नहीं, और, जो सब जीवों का जनम-मरण व नाश करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ तेरी दाती राजा ॥ माणसु बपुड़ा किआ सालाही किआ तिस का मुहताजा ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ तेरी दाती राजा ॥ माणसु बपुड़ा किआ सालाही किआ तिस का मुहताजा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! दाती = दातों से। राजा = मैं रजता हूँ, तृप्त होता हूँ। बपुड़ा = विचारा। सालाही = मैं सालाहूँ। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभू जी! मैं तेरे (द्वारा दी हुई) दातों (कृपा, वर, उपहारों) से ही तृप्त हो सकता हूँ। मैं किसी बेचारे आदमी की प्रशंसा क्यों करता फिरूं? मुझे किसी आदमी की अधीनगी (पराधीनता) क्यूं हो? रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि हरि धिआइआ सभु किछु तिस का तिस की भूख गवाई ॥ ऐसा धनु दीआ सुखदातै निखुटि न कब ही जाई ॥ अनदु भइआ सुख सहजि समाणे सतिगुरि मेलि मिलाई ॥२॥

मूलम्

जिनि हरि धिआइआ सभु किछु तिस का तिस की भूख गवाई ॥ ऐसा धनु दीआ सुखदातै निखुटि न कब ही जाई ॥ अनदु भइआ सुख सहजि समाणे सतिगुरि मेलि मिलाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सभु किछु = हरेक चीज। सुखदातै = सुख देने वाले (प्रभु) ने। सहजि = आत्मिक अडोलता के कारण। सतिगुरि = गुरु ने। मेलि = मिलाप में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा की भक्ति शुरू कर दी, जगत की हरेक चीज ही उसकी बन जाती है, परमात्मा उसके अंदर से (माया की) भूख दूर कर देता है। सुखदाते प्रभु ने उसको ऐसा (नाम-) धन दे दिया है जो (उसके पास से) कभी खत्म नहीं होता। गुरु ने उस परमात्मा के चरणों में (जब) मिला दिया, तो आत्मिक अडोलता के कारण उसके अंदर आनंद के सारे सुख आ बसते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन नामु जपि नामु आराधि अनदिनु नामु वखाणी ॥ उपदेसु सुणि साध संतन का सभ चूकी काणि जमाणी ॥ जिन कउ क्रिपालु होआ प्रभु मेरा से लागे गुर की बाणी ॥३॥

मूलम्

मन नामु जपि नामु आराधि अनदिनु नामु वखाणी ॥ उपदेसु सुणि साध संतन का सभ चूकी काणि जमाणी ॥ जिन कउ क्रिपालु होआ प्रभु मेरा से लागे गुर की बाणी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! अनदिनु = हर रोज। वखाणी = उचारता रह। काणि = अधीनता। जमाणी = जम+आणी। आणी = की। (जमों की)। कउ = को।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! हर समय परमात्मा का नाम जपा कर, स्मरण किया कर, उचारा कर। संत जनों का उपदेश सुन के जमों की भी सारी अधीनता (गुलामी) खत्म हो जाती है। (पर, हे मन!) सतिगुरु की वाणी में वही मनुष्य तवज्जो जोड़ते हैं, जिस पर प्यारा प्रभु आप दयावान होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीमति कउणु करै प्रभ तेरी तू सरब जीआ दइआला ॥ सभु किछु कीता तेरा वरतै किआ हम बाल गुपाला ॥ राखि लेहु नानकु जनु तुमरा जिउ पिता पूत किरपाला ॥४॥१॥

मूलम्

कीमति कउणु करै प्रभ तेरी तू सरब जीआ दइआला ॥ सभु किछु कीता तेरा वरतै किआ हम बाल गुपाला ॥ राखि लेहु नानकु जनु तुमरा जिउ पिता पूत किरपाला ॥४॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: तितुके = तीन-तीन तुकों वाले बंद। इस शब्द में हरेक बंद में तीन-तीन तुके हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुपाला = हे गोपाल! किआ हम = हमारी क्या बिसात है? जन = दास।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी (मेहर की) कीमत कौन पा सकता है? तू सारे ही जीवों पर मेहर करने वाला है। हे गोपाल प्रभु! हम जीवों की क्या बिसात है? जगत में हरेक काम तेरा ही किया हुआ होता है। हे प्रभु! नानक तेरा दास है, (इस दास की) रक्षा उसी तरह करता रह, जैसे पिता अपने पुत्रों पर कृपालु हो के करता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु १ चौतुके ॥ गुरु गोविंदु सलाहीऐ भाई मनि तनि हिरदै धार ॥ साचा साहिबु मनि वसै भाई एहा करणी सार ॥ जितु तनि नामु न ऊपजै भाई से तन होए छार ॥ साधसंगति कउ वारिआ भाई जिन एकंकार अधार ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु १ चौतुके ॥ गुरु गोविंदु सलाहीऐ भाई मनि तनि हिरदै धार ॥ साचा साहिबु मनि वसै भाई एहा करणी सार ॥ जितु तनि नामु न ऊपजै भाई से तन होए छार ॥ साधसंगति कउ वारिआ भाई जिन एकंकार अधार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाहीऐ = महिमा करनी चाहिए। मनि = मन में। तनि = तन में। धार = धार के, टिका के। साचा = सदा कायम रहने वाला। सार = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य। जितु = जिस में। जितु तनि = जिस जिस तन में। से तन = वह (सारे) शरीर। छार = राख। कउ = से। वारिआ = कुर्बान। साध संगति कउ = उन गुरमुखों की संगति से। अधार = आसरा।1।
अर्थ: हे भाई! मन में, तन में, हृदय में (प्रभु को) टिका के उस सबसे बड़े गोबिंद की महिमा करनी चाहिए। मनुष्य का सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है ही ये कि सदा कायम रहने वाला मालिक प्रभु (मनुष्य के) मन में बसा रहे। हे भाई! जिस जिस शरीर में परमात्मा का नाम प्रगट नहीं होता वे सारे शरीर व्यर्थ गए समझो। हे भाई! (मैं तो) उन गुरमुखों की संगति से कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने एक परमात्मा (के नाम को जिंदगी) का आसरा (बनाया हुआ) है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई सचु अराधणा भाई जिस ते सभु किछु होइ ॥ गुरि पूरै जाणाइआ भाई तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

सोई सचु अराधणा भाई जिस ते सभु किछु होइ ॥ गुरि पूरै जाणाइआ भाई तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। जिस ते = जिससे। गुरि = गुरु ने। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस ते’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की ही आराधना करनी चाहिए, जिससे (जगत की) हरेक चीज अस्तित्व में आई है। हे भाई! पूरे गुरु ने (मुझे ये) समझ दी है कि उस (परमात्मा) के बिना और कोई (पूजने योग्य) नहीं है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम विहूणे पचि मुए भाई गणत न जाइ गणी ॥ विणु सच सोच न पाईऐ भाई साचा अगम धणी ॥ आवण जाणु न चुकई भाई झूठी दुनी मणी ॥ गुरमुखि कोटि उधारदा भाई दे नावै एक कणी ॥२॥

मूलम्

नाम विहूणे पचि मुए भाई गणत न जाइ गणी ॥ विणु सच सोच न पाईऐ भाई साचा अगम धणी ॥ आवण जाणु न चुकई भाई झूठी दुनी मणी ॥ गुरमुखि कोटि उधारदा भाई दे नावै एक कणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पचि = (माया के मोह में) दुखी हो के, उलझ के। मुए = आत्मिक मौत मर गए। गणत = गिनती। विणु सच = सदा स्थिर प्रभु (के नाम) के बिना। सोच = (आत्मिक) पवित्रता। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। धणी = मालिक। दुनी मणी = दुनिया (के पदार्थों) का गुमान। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। कोटि = करोड़ों को। नावै = नाम की।2।
अर्थ: हे भाई! उन मनुष्यों की गिनती नहीं की जा सकती, जो परमात्मा के नाम से वंचित रह के (माया के मोह में) उलझ के आत्मिक मौत मरते रहते हैं। हे भाई! सदा स्थिर प्रभु (के नाम) के बिना आत्मिक पवित्रता प्राप्त नहीं हो सकती। वह सदा स्थिर अगम्य (पहुँच से परे) मालिक ही (पवित्रता का श्रोत है)। हे भाई! (प्रभु के नाम के बिना) जनम-मरण (का चक्कर) खत्म नहीं होता। दुनिया के पदार्थों का घमण्ड झूठा है (ये गुमान तो ले डूबता है, जनम-मरण में डाले रखता है)। (दूसरी तरफ) हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह हरि नाम का एक कण-मात्र ही दे के करोड़ों को (जनम-मरण के चक्कर में से) बचा लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिम्रिति सासत सोधिआ भाई विणु सतिगुर भरमु न जाइ ॥ अनिक करम करि थाकिआ भाई फिरि फिरि बंधन पाइ ॥ चारे कुंडा सोधीआ भाई विणु सतिगुर नाही जाइ ॥ वडभागी गुरु पाइआ भाई हरि हरि नामु धिआइ ॥३॥

मूलम्

सिम्रिति सासत सोधिआ भाई विणु सतिगुर भरमु न जाइ ॥ अनिक करम करि थाकिआ भाई फिरि फिरि बंधन पाइ ॥ चारे कुंडा सोधीआ भाई विणु सतिगुर नाही जाइ ॥ वडभागी गुरु पाइआ भाई हरि हरि नामु धिआइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोधिआ = विचार देखे हैं। भरमु = भटकना। न जाइ = नही जाती। पाइ = पाता है, सहेड़ता है। जाइ = जगह। धिआइ = ध्याता है।3।
अर्थ: हे भाई! स्मृतियां-शास्त्र विचार के देखे हैं (उनसे भी कुछ प्राप्त नहीं होता), गुरु के बिना (किसी और से) भटकना दूर नहीं हो सकती। हे भाई! (शास्त्रों द्वारा बताए हुए) अनेक कर्म कर-करके मनुष्य थक जाता है, (बल्कि) बार-बार बंधन ही सहेड़ता है। हे भाई! सारा जगत तलाश के देख लिया है (भटकना दूर करने के लिए) गुरु के बिना और कोई जगह नहीं है। हे भाई! जिस भाग्यशाली मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु सदा है निरमला भाई निरमल साचे सोइ ॥ नदरि करे जिसु आपणी भाई तिसु परापति होइ ॥ कोटि मधे जनु पाईऐ भाई विरला कोई कोइ ॥ नानक रता सचि नामि भाई सुणि मनु तनु निरमलु होइ ॥४॥२॥

मूलम्

सचु सदा है निरमला भाई निरमल साचे सोइ ॥ नदरि करे जिसु आपणी भाई तिसु परापति होइ ॥ कोटि मधे जनु पाईऐ भाई विरला कोई कोइ ॥ नानक रता सचि नामि भाई सुणि मनु तनु निरमलु होइ ॥४॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: चौ-तुके = चार तुकों वाले बंद। इस शब्द के हरेक बंद में चार तुके हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। निरमला = पवित्र। साचे सोइ = सदा स्थिर प्रभु की शोभा, सदा स्थिर हरि की महिमा। मधे = बीच में। सचि = सदा स्थिर में। सचि नामि = सदा स्थिर हरि के नाम में। सुणि = सुन के।4।
अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा (ही) सदा पवित्र है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा पवित्र है। हे भाई! ये महिमा उस मनुष्य को मिलती है जिस पर प्रभु मेहर की नजर करता है, और, ऐसा कोई मनुष्य करोड़ों में एक ही मिलता है। हे नानक! जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के नाम में रंगा रहता है, (प्रभु की महिमा) सुन-सुन के उसका मन पवित्र हो जाता है, उस का शरीर पवित्र हो जाता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ दुतुके ॥ जउ लउ भाउ अभाउ इहु मानै तउ लउ मिलणु दूराई ॥ आन आपना करत बीचारा तउ लउ बीचु बिखाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ दुतुके ॥ जउ लउ भाउ अभाउ इहु मानै तउ लउ मिलणु दूराई ॥ आन आपना करत बीचारा तउ लउ बीचु बिखाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ लउ = जब तक। भाउ = प्यार। अभाउ = वैर। तउ लउ = तब तक। दूराई = दूर, मुश्किल। आन = बेगाना। बीचु = दूरी, पर्दा। बिखाई = बिखिया का, माया (के मोह) का।1।
अर्थ: हे भाई! जब तक (मनुष्य का) ये मन (किसी से) मोह (और किसी से) वैर करता है, तब तक (इसकी परमात्मा से) मिलाप की बात दूर की कौड़ी होती है, (क्योंकि जब तक ये किसी को) अपना (और किसी को) बेगाना (मानने की) विचारें करता रहता है, तब तक (इसके अंदर) माया (के मोह का) पर्दा बना रहता है (जो इसे परमात्मा से विछोड़े रखता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधवे ऐसी देहु बुझाई ॥ सेवउ साध गहउ ओट चरना नह बिसरै मुहतु चसाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

माधवे ऐसी देहु बुझाई ॥ सेवउ साध गहउ ओट चरना नह बिसरै मुहतु चसाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधवे = (मा = माया। धव = पति) हे लक्ष्मी पति! हे प्रभु! बुझाई = मति, समझ। सेवउ = मैं सेवा करता रहूँ। साध = गुरु। गहउ = मैं पकड़े रखूँ। बिसरै = भूल जाए। मुहतु = महूरत, रक्ती भर समय के लिए भी। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे ऐसी बुद्धि दे (कि) मैं गुरु की (बताई हुई) सेवा करता रहूँ, गुरु के चरणों का आसरा पकड़े रखूँ। (ये आसरा) मुझे रक्ती भर समय के लिए भी ना भूले। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे मन मुगध अचेत चंचल चित तुम ऐसी रिदै न आई ॥ प्रानपति तिआगि आन तू रचिआ उरझिओ संगि बैराई ॥२॥

मूलम्

रे मन मुगध अचेत चंचल चित तुम ऐसी रिदै न आई ॥ प्रानपति तिआगि आन तू रचिआ उरझिओ संगि बैराई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख! अचेत = गाफिल! चित = हे चिक्त! रिदै = हृदय में। रिदै न आई = ना सूझी। तिआगि = छोड़ के। आन = औरों से। संगि = साथ। बैराई = वैरी।2।
अर्थ: हे मूर्ख गाफिल मन! हे चंचल मन! तुझे कभी ये नहीं सूझा कि तू प्राणों के मालिक प्रभु को भुला के औरों (के मोह) में मस्त रहता है, (और कामादिक) वैरियों से जोड़ जोड़े रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोगु न बिआपै आपु न थापै साधसंगति बुधि पाई ॥ साकत का बकना इउ जानउ जैसे पवनु झुलाई ॥३॥

मूलम्

सोगु न बिआपै आपु न थापै साधसंगति बुधि पाई ॥ साकत का बकना इउ जानउ जैसे पवनु झुलाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न बिआपै = जोर नहीं डालता। आपु = अपनत्व, अहंकार। थापै = संभाले रखता है। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। जानउ = जानूँ, मैं जानता हूँ। पवनु झुलाई = हवा का झोका।3।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में मैंने तो यही सीखा है कि जो मनुष्य अपनत्व से नहीं चिपका रहता, उस पर चिन्ता-फिक्र अपना जोर नहीं डाल सकती (तभी तो) मैं परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की बात को ऐसे लेता हूँ जैसे ये हवा का झोका है (एक तरफ से आया दूसरी तरफ गुजर गया)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि पराध अछादिओ इहु मनु कहणा कछू न जाई ॥ जन नानक दीन सरनि आइओ प्रभ सभु लेखा रखहु उठाई ॥४॥३॥

मूलम्

कोटि पराध अछादिओ इहु मनु कहणा कछू न जाई ॥ जन नानक दीन सरनि आइओ प्रभ सभु लेखा रखहु उठाई ॥४॥३॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दोतुके = दो तुकों वाले बंद।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। अछादिओ = आच्छादित, ढका हुआ, दबाया हुआ। रख्हु उठाई = समाप्त कर दे।4।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) ये मन करोड़ों पापों के तले दबा रहता है (इस मन के दुर्भाग्यता बाबत) कुछ कहा नहीं जा सकता। हे दास नानक! (प्रभु-दर पर ही अरदास कर और कह:) हे प्रभु! मैं निमाणा तेरी शरण आया हूँ (मेरे विकारों का) सारा लेखा समाप्त कर दे।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ पुत्र कलत्र लोक ग्रिह बनिता माइआ सनबंधेही ॥ अंत की बार को खरा न होसी सभ मिथिआ असनेही ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ पुत्र कलत्र लोक ग्रिह बनिता माइआ सनबंधेही ॥ अंत की बार को खरा न होसी सभ मिथिआ असनेही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। लोक ग्रिह = घर के लोग। बनिता = पत्नी। सनबंधेही = संबंधी ही। बार = वक्त। खरा = मददगार। होसी = होगा। मिथिआ = झूठा। असनेही = प्यार करने वाले।1।
अर्थ: हे भाई! पुत्र, स्त्री, घर के और लोग और औरतें (सारे) माया के ही संबंध हैं। आखिरी वक्त (इनमें से) कोई भी तेरा मददगार नहीं बनेगा, सारे झूठा ही प्यार करने वाले हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे नर काहे पपोरहु देही ॥ ऊडि जाइगो धूमु बादरो इकु भाजहु रामु सनेही ॥ रहाउ॥

मूलम्

रे नर काहे पपोरहु देही ॥ ऊडि जाइगो धूमु बादरो इकु भाजहु रामु सनेही ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पपोरहु देही = शरीर को लाड से पालते हो। धूमु = धूआँ। बादरो = बादल। इकु = सिरफ। भाजहु = भजो, स्मरण करो। सनेही = प्यार करने वाला। रहाउ।
अर्थ: हे मनुष्य! (निरे इस) शरीर को ही क्यों लाडों से पालता रहता है? (जैसे) धूआँ, (जैसे) बादल (उड़ जाता है, वैसे ही ये शरीर) नाश हो जाएगा। सिर्फ परमात्मा का भजन किया कर, वही असल प्यार करने वाला है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीनि संङिआ करि देही कीनी जल कूकर भसमेही ॥ होइ आमरो ग्रिह महि बैठा करण कारण बिसरोही ॥२॥

मूलम्

तीनि संङिआ करि देही कीनी जल कूकर भसमेही ॥ होइ आमरो ग्रिह महि बैठा करण कारण बिसरोही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तीनि सिं ज्ञआ करि = (माया के) तीन गुणों को मिला के। देही = शरीर। कूकर = कुत्ते। भसमेही = राख मिट्टी। आमरो = अमर। करण कारण = जगत का मूल। बिसरोही = तुझे भूल गया है।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने) माया के तीन गुणों के असर तले रहने वाला तेरा शरीर बना दिया, (ये अंत को) पानी के, कुक्तों के, या मिट्टी के हवाले हो जाता है। तू इस शरीर-घर में (अपने आप को) अमर समझे बैठा रहता है, और जगत के मूल परमात्मा को भुला रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक भाति करि मणीए साजे काचै तागि परोही ॥ तूटि जाइगो सूतु बापुरे फिरि पाछै पछुतोही ॥३॥

मूलम्

अनिक भाति करि मणीए साजे काचै तागि परोही ॥ तूटि जाइगो सूतु बापुरे फिरि पाछै पछुतोही ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मणीए = (सारे अंग) मणके। साजे = बनाए। तागि = धागे में। सूतु = धागा। बापुरे = हे निमाणे (जीव)!।3।
अर्थ: हे भाई! अनेक तरीकों से (परमात्मा ने तेरे सारे अंग) मणके बनाए हैं; (पर, साँसों के) कच्चे धागे में परोए हुए हैं। हे निमाणे जीव! ये धागा (आखिर) टूट जाएगा, (अब इस शरीर के मोह में प्रभु को बिसारे बैठा है) फिर समय बीत जाने पर हाथ मलेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि तुम सिरजे सिरजि सवारे तिसु धिआवहु दिनु रैनेही ॥ जन नानक प्रभ किरपा धारी मै सतिगुर ओट गहेही ॥४॥४॥

मूलम्

जिनि तुम सिरजे सिरजि सवारे तिसु धिआवहु दिनु रैनेही ॥ जन नानक प्रभ किरपा धारी मै सतिगुर ओट गहेही ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तुम = तुझे। सिरजि = पैदा करके। सवारे = सजाए हैं, सुंदर बनाया है। रैनेरी = रात। प्रभ = हे प्रभु! धारी = धारि। गहेही = पकड़ूँ।4।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा किया है, पैदा करके तुझे सुंदर बनाया है उसे दिन-रात (हर वक्त) स्मरण करते रहा कर। हे दास नानक! (अरदास कर और कह:) हे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मैं गुरु का आसरा पकड़े रखूँ।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुरु पूरा भेटिओ वडभागी मनहि भइआ परगासा ॥ कोइ न पहुचनहारा दूजा अपुने साहिब का भरवासा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुरु पूरा भेटिओ वडभागी मनहि भइआ परगासा ॥ कोइ न पहुचनहारा दूजा अपुने साहिब का भरवासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटिओ = मिला है। वड भागी = बड़े भाग्यों से। मनहि = मन में। परगासा = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। साहिब = मालिक। भरवासा = भरोसा, सहारा।1।
अर्थ: हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे पूरा गुरु मिल गया है, मेरे मन में आत्मिक जीवन की समझ पैदा हो गई है। अब मुझे अपने मालिक का सहारा हो गया है, कोई उस मालिक की बराबरी नहीं कर सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुने सतिगुर कै बलिहारै ॥ आगै सुखु पाछै सुख सहजा घरि आनंदु हमारै ॥ रहाउ॥

मूलम्

अपुने सतिगुर कै बलिहारै ॥ आगै सुखु पाछै सुख सहजा घरि आनंदु हमारै ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै = से। बलिहारै = सदके। आगै पाछै = लोक परलोक में, हर जगह। सहजा = सहज ही, आत्मिक अडोलता। घरि = हृदय घर में। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, (गुरु की कृपा से) मेरे हृदय-घर में आनंद बना रहता है, इस लोक में भी आत्मिक अडोलता (सहज अवस्था) का सुख मुझे प्राप्त हो गया है, और, परलोक में भी ये सुख टिका रहने वाला है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरजामी करणैहारा सोई खसमु हमारा ॥ निरभउ भए गुर चरणी लागे इक राम नाम आधारा ॥२॥

मूलम्

अंतरजामी करणैहारा सोई खसमु हमारा ॥ निरभउ भए गुर चरणी लागे इक राम नाम आधारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = सब के दिल की जानने वाला। करणैहारा = पैदा करने वाला। सोई = वही। आधारा = आसरा।2।
अर्थ: हे भाई! जब से मैं गुरु के चरणों में लगा हूँ, मुझे परमात्मा के नाम का आसरा हो गया है, कोई डर मुझे (अब) छू नहीं सकता (मुझे निश्चय हो गया है कि जो) विधाता सबके दिल की जानने वाला है वही मेरे सिर पर रक्षक है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल दरसनु अकाल मूरति प्रभु है भी होवनहारा ॥ कंठि लगाइ अपुने जन राखे अपुनी प्रीति पिआरा ॥३॥

मूलम्

सफल दरसनु अकाल मूरति प्रभु है भी होवनहारा ॥ कंठि लगाइ अपुने जन राखे अपुनी प्रीति पिआरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफल दरसनु = जिस (प्रभु) के दर्शन जीवन उद्देश्य पूरा करते हैं। अकाल मूरति = जिसकी हस्ती मौत से रहित है। होवनहारा = सदा ही जीवित रहने वाला। कंठि = गले से। लगाइ = लगा के।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से मुझे विश्वास हो गया है कि) जिस परमात्मा का दर्शन मानव जनम को फल देने वाला है, जिस परमात्मा की हस्ती मौत से रहित है, वह उस वक्त भी (मेरे सर पर) मौजूद है, और, सदा कायम रहने वाला है। वह प्रभु अपनी प्रीति की अपने प्यार की दाति दे के अपने सेवकों को अपने गले से लगा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडी वडिआई अचरज सोभा कारजु आइआ रासे ॥ नानक कउ गुरु पूरा भेटिओ सगले दूख बिनासे ॥४॥५॥

मूलम्

वडी वडिआई अचरज सोभा कारजु आइआ रासे ॥ नानक कउ गुरु पूरा भेटिओ सगले दूख बिनासे ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारजु = जिंदगी का उद्देश्य। आइआ रासे = रास आ गया, सिरे चढ़ गया। सगले = सारे।4।
अर्थ: हे भाई! मुझे नानक को पूरा गुरु मिल गया है, मेरे सारे दुख दूर हो गए हैं। वह गुरु बड़ी महिमावाला है, आश्चर्य शोभा वाला है, उसकी शरण पड़ने से जिंदगी का उद्देश्य प्राप्त हो जाता है।4।5।

[[0610]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सुखीए कउ पेखै सभ सुखीआ रोगी कै भाणै सभ रोगी ॥ करण करावनहार सुआमी आपन हाथि संजोगी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सुखीए कउ पेखै सभ सुखीआ रोगी कै भाणै सभ रोगी ॥ करण करावनहार सुआमी आपन हाथि संजोगी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखीआ = (आत्मिक) सुख भोगने वाला। कउ = को। पेखै = दिखता है। कै भाणै = के ख्याल में। रोगी = (विकारों के) रोग में फसा हुआ। करावनहार = (जीवों से) करवाने की समर्थता रखने वाला। हाथि = हाथ में। संजोगी = (आत्मिक सुख और आत्मिक रोग का) मेल।1।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक सुख मानने वाले को हरेक मनुष्य आत्मिक सुख भोगता हुआ दिखाई देता है, (विकारों के) रोग में फंसे हुए के ख्याल में सारी दुनिया ही विकारी है। (अपने अंदर से मेर-तेर गवा चुके मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है कि) मालिक प्रभु ही सब कुछ करने की सामर्थ्य वाला है जीवों से करवाने की ताकत रखने वाला है, (जीवों के लिए आत्मिक सुख और आत्मिक दुख का) मेल उसने अपने हाथ में रखा हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे जिनि अपुना भरमु गवाता ॥ तिस कै भाणै कोइ न भूला जिनि सगलो ब्रहमु पछाता ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे जिनि अपुना भरमु गवाता ॥ तिस कै भाणै कोइ न भूला जिनि सगलो ब्रहमु पछाता ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। भरमु = भटकना। सगलो = सब में। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने अपने अंदर से मेर-तेर गवा ली जिसने सब जीवों में परमात्मा बसता पहचान लिया, उसके ख्याल में कोई जीव गलत राह पर नहीं जा रहा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत संगि जा का मनु सीतलु ओहु जाणै सगली ठांढी ॥ हउमै रोगि जा का मनु बिआपित ओहु जनमि मरै बिललाती ॥२॥

मूलम्

संत संगि जा का मनु सीतलु ओहु जाणै सगली ठांढी ॥ हउमै रोगि जा का मनु बिआपित ओहु जनमि मरै बिललाती ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = संगति में। सीतलु = शांत, ठंडा। सगली = सारी दुनिया। रोगि = रोग में। बिआपित = फसा हुआ। जनमि मरै = पैदा होता मरता है। बिललाती = बिलखता, दुखी होता।2।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में रहके जिस मनुष्य का मन (विकारों की ओर से) शांत हो जाता है, वह सारी दुनिया को ही शांत-चिक्त समझता है। पर जिस मनुष्य का मन अहंम्-रोग में फसा रहता है, वह सदा दुखी रहता है, वह (अहम् में) जनम ले के आत्मिक मौत सहता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआन अंजनु जा की नेत्री पड़िआ ता कउ सरब प्रगासा ॥ अगिआनि अंधेरै सूझसि नाही बहुड़ि बहुड़ि भरमाता ॥३॥

मूलम्

गिआन अंजनु जा की नेत्री पड़िआ ता कउ सरब प्रगासा ॥ अगिआनि अंधेरै सूझसि नाही बहुड़ि बहुड़ि भरमाता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा। नेत्री = आँखों में। प्रगासा = प्रकाश। अगिआनि = अज्ञान, ज्ञान हीन मनुष्य को। अंधेरै = अधेंरे में। बहुड़ि बहुड़ि = बार बार।3।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा जिस मनुष्य की आँखों में पड़ जाता है, उसको आत्मिक जीवन की सारी समझ पड़ जाती है। पर, ज्ञान-हीन मनुष्य को अज्ञानता के अंधकार में (सही जीवन के बारे में) कुछ नहीं सूझता, वह बार-बार भटकता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि बेनंती सुआमी अपुने नानकु इहु सुखु मागै ॥ जह कीरतनु तेरा साधू गावहि तह मेरा मनु लागै ॥४॥६॥

मूलम्

सुणि बेनंती सुआमी अपुने नानकु इहु सुखु मागै ॥ जह कीरतनु तेरा साधू गावहि तह मेरा मनु लागै ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी अपुने = हे मेरे स्वामी! नानकु मागै = नानक मांगता है। जह = जहाँ। गावहि = गाते हैं। लागै = लगा रहे, परचा रहे।4।
अर्थ: हे मेरे मालिक! (मेरी) विनती सुन (तेरा दास) नानक (तेरे दर से) ये सुख माँगता है (कि) जहाँ संत-जन तेरी महिमा के गीत गाते हों, वहाँ मेरा मन लगा रहे।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ तनु संतन का धनु संतन का मनु संतन का कीआ ॥ संत प्रसादि हरि नामु धिआइआ सरब कुसल तब थीआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ तनु संतन का धनु संतन का मनु संतन का कीआ ॥ संत प्रसादि हरि नामु धिआइआ सरब कुसल तब थीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: का कीआ = का बना दिया, भेटा कर दी। प्रसादि = कृपा से। सरब कुसल = सारे सुख।1।
अर्थ: हे भाई! जब कोई मनुष्य अपना शरीर अपना मन, अपना धन संत जनों के हवाले कर देता है (भाव, हरेक किस्म के अपनत्व को मिटा देता है), और संतों की कृपा से परमात्मा का नाम स्मरण करने लग जाता है, तब उसको सारे (आत्मिक) सुख मिल जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन बिनु अवरु न दाता बीआ ॥ जो जो सरणि परै साधू की सो पारगरामी कीआ ॥ रहाउ॥

मूलम्

संतन बिनु अवरु न दाता बीआ ॥ जो जो सरणि परै साधू की सो पारगरामी कीआ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाता = (नाम की) दाति देने वाला। बीआ = दूसरा। साधू = गुरु। पारगरामी = (संसार समुंदर से) पार लंघाने के काबिल। कीआ = हो जाता है। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! संत जनों के बिना परमात्मा के नाम की दाति देने वाला और कोई नहीं है। जो जो मनुष्य गुरु की (संत जनों की) शरण पड़ता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघने के काबिल हो जाता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि पराध मिटहि जन सेवा हरि कीरतनु रसि गाईऐ ॥ ईहा सुखु आगै मुख ऊजल जन का संगु वडभागी पाईऐ ॥२॥

मूलम्

कोटि पराध मिटहि जन सेवा हरि कीरतनु रसि गाईऐ ॥ ईहा सुखु आगै मुख ऊजल जन का संगु वडभागी पाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि पराध = करोड़ों पाप। जन सेवा = संत जनों की सेवा करने से। रसि = रस से, प्रेम से। ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। मुख ऊजल = उज्जव मुँह वाले, सही रास्ते पर।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक की (बताई) सेवा करने से करोड़ों पाप मिट जाते हैं, और प्रेम से परमात्मा की महिमा की जा सकती है। इस लोक में आत्मिक आनंद मिला रहता है, परलोक में भी सही स्वीकार हो जाते हैं। पर, हे भाई! प्रभु के सेवक की संगति बड़े भाग्यों से मिलती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना एक अनेक गुण पूरन जन की केतक उपमा कहीऐ ॥ अगम अगोचर सद अबिनासी सरणि संतन की लहीऐ ॥३॥

मूलम्

रसना एक अनेक गुण पूरन जन की केतक उपमा कहीऐ ॥ अगम अगोचर सद अबिनासी सरणि संतन की लहीऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। केतक = कितना? उपमा = बड़ाई, शोभा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सद = सदा। लहीऐ = ढूँढता है।3।
अर्थ: हे भाई! (मेरी) एक जीभ है (संत जन) अनेक गुणों से भरपूर होते हैं, संत जनों की बड़ाई कितनी बताई जाए? संतों की शरण पड़ने से ही वह परमात्मा मिल सकता है जो कभी नाश होने वाला नहीं, जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरगुन नीच अनाथ अपराधी ओट संतन की आही ॥ बूडत मोह ग्रिह अंध कूप महि नानक लेहु निबाही ॥४॥७॥

मूलम्

निरगुन नीच अनाथ अपराधी ओट संतन की आही ॥ बूडत मोह ग्रिह अंध कूप महि नानक लेहु निबाही ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुन = गुण हीन। अनाथ = निआसरा। ओट = आसरा, शरण। आही = मांगी है, मैं माँगता हूँ। ग्रिह = गृहस्थ। अंध कूप महि = अंधे कूएं में। लेहु निबाही = आखिर तक साथ निभाओ।4।
अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) मैं गुण-हीन हूँ, नीच हूँ, निआसरा हूँ, विकारी हूँ, मैंने संतों का पल्ला पकड़ा है (हे संत जनो!) गृहस्थ के मोह के अंधे कूएं में डूब रहे का साथ आखिर तक निभाओ।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु १ ॥ जा कै हिरदै वसिआ तू करते ता की तैं आस पुजाई ॥ दास अपुने कउ तू विसरहि नाही चरण धूरि मनि भाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु १ ॥ जा कै हिरदै वसिआ तू करते ता की तैं आस पुजाई ॥ दास अपुने कउ तू विसरहि नाही चरण धूरि मनि भाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै हिरदै = जिसके हृदय में। करते = हे कर्तार! तैं = (शब्द ‘तू’ और ‘तैं’ में फर्क है = कौन बसा? तू। किस ने पहुँचाया? तैं)। कउ = को। मनि = मन में। भाई = प्यारी लगती है।1।
अर्थ: हे कर्तार! जिस मनुष्य के हृदय में तू आ बसता है, उसकी तू हरेक आस पूरी कर देता है। अपने सेवक को तू कभी नहीं बिसारता (तेरा सेवक तुझे कभी नहीं भुलाता), उसके मन को तेरे चरणों की धूल प्यारी लगती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी अकथ कथा कथनु न जाई ॥ गुण निधान सुखदाते सुआमी सभ ते ऊच बडाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

तेरी अकथ कथा कथनु न जाई ॥ गुण निधान सुखदाते सुआमी सभ ते ऊच बडाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = अ+कथनीय, जो बयान नहीं हो सकती। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! सभ ते = सबसे। रहाउ।
अर्थ: हे सारे गुणों के खजाने! हे सुख देने वाले मालिक! तेरी बड़ाई सबसे ऊँची है (तू सबसे बड़ा है)। तू कैसा है, कितना बड़ा है; ये बयान नहीं किया जा सकता। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सो करम करत है प्राणी जैसी तुम लिखि पाई ॥ सेवक कउ तुम सेवा दीनी दरसनु देखि अघाई ॥२॥

मूलम्

सो सो करम करत है प्राणी जैसी तुम लिखि पाई ॥ सेवक कउ तुम सेवा दीनी दरसनु देखि अघाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लिखि = लिख के। देखि = देख के। अघाई = तृप्त हो जाता है।2।
अर्थ: (पर, हे प्रभु!) जीव वही वही कर्म करता है जैसी जैसी (आज्ञा) तूने (उसके माथे पर) लिख के रख दी है। अपने सेवक को तूने अपनी सेवा-भक्ति की दाति बख्शी हुई है, (वह सेवक) तेरा दर्शन करके तृप्त हुआ रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब निरंतरि तुमहि समाने जा कउ तुधु आपि बुझाई ॥ गुर परसादि मिटिओ अगिआना प्रगट भए सभ ठाई ॥३॥

मूलम्

सरब निरंतरि तुमहि समाने जा कउ तुधु आपि बुझाई ॥ गुर परसादि मिटिओ अगिआना प्रगट भए सभ ठाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंतरि = (निर+अंतर। अंतर = दूरी) दूरी के बिना, एक रस। तुमहि = तू ही। बुझाई = समझ दे दी। परसादि = कृपा से। सभ ठाई = सब जगह।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू खुद समझ देता है उसको तू सारे ही जीवों में एक-रस समाया हुआ दिखता है। गुरु की कृपा से (उस मनुष्य के अंदर से) अज्ञानता (का अंधकार) मिट जाता है, उसकी शोभा हर जगह पसर जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई गिआनी सोई धिआनी सोई पुरखु सुभाई ॥ कहु नानक जिसु भए दइआला ता कउ मन ते बिसरि न जाई ॥४॥८॥

मूलम्

सोई गिआनी सोई धिआनी सोई पुरखु सुभाई ॥ कहु नानक जिसु भए दइआला ता कउ मन ते बिसरि न जाई ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञानी, ज्ञानवान। धिआनी = तवज्जो जोड़ने वाला। सुभाई = श्रेष्ठ प्रेम वाला। मन ते = मन से।4।
अर्थ: हे नानक! कह: वही मनुष्य ज्ञानवान है, वही मनुष्य तवज्जो अभ्यासी है, वही मनुष्य प्यार भरे स्वभाव वाला है, जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद दयावान होता है। उस मनुष्य को मन से परमात्मा कभी नहीं भूलता।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सगल समग्री मोहि विआपी कब ऊचे कब नीचे ॥ सुधु न होईऐ काहू जतना ओड़कि को न पहूचे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सगल समग्री मोहि विआपी कब ऊचे कब नीचे ॥ सुधु न होईऐ काहू जतना ओड़कि को न पहूचे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समग्री = रचना, दुनिया। मोहि = मोह में। विआपी = फसी हुई। कब = कब। सुधु = पवित्र। काहू जतना = किसी भी जतन से। ओड़कि = आखिर तक, सिरे तक, प्रभु तक। को = कोई भी।1।
अर्थ: हे भाई! सारी दुनिया मोह में फंसी हुई है (इसके कारण) कभी (जीव) अहंकार में आ जाते हैं, कभी घबरा जाते हैं। अपने किसी प्रयत्न से (मोह की मैल से) पवित्र नहीं हुआ जा सकता। कोई भी मनुष्य (अपने प्रयत्नों से मोह के) उस पार नहीं पहुँच सकता।1।

[[0611]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन साध सरणि छुटकारा ॥ बिनु गुर पूरे जनम मरणु न रहई फिरि आवत बारो बारा ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन साध सरणि छुटकारा ॥ बिनु गुर पूरे जनम मरणु न रहई फिरि आवत बारो बारा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! छुटकारा = मोह से खलासी। साध = गुरु। न रहई = नहीं खत्म होता। बारो बारा = बार बार। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ने से ही (मोह से) खलासी हो सकती है। पूरे गुरु के बिना (जीवों का) जनम-मरण (का चक्र) नहीं खत्म होता। (जीव) बार बार (जगत में) आता रहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओहु जु भरमु भुलावा कहीअत तिन महि उरझिओ सगल संसारा ॥ पूरन भगतु पुरख सुआमी का सरब थोक ते निआरा ॥२॥

मूलम्

ओहु जु भरमु भुलावा कहीअत तिन महि उरझिओ सगल संसारा ॥ पूरन भगतु पुरख सुआमी का सरब थोक ते निआरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। भुलावा = भुलेखा। तिन महि = उन (भ्रम-भुलेखों) में। पुरख = सर्व व्यापक। थोक = पदार्थ। ते = से। निआरा = अलग।2।
अर्थ: जिस मानसिक हालत को ‘भ्रम-भुलावा’ कहते हैं, सारा जगत उन (भ्रम-भुलेखों में) फंसा हुआ है। परंतु सर्व-व्यापक मालिक-प्रभु का पूरन भक्त (दुनिया के) सारे पदार्थों (के मोह) से अलग रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदउ नाही काहू बातै एहु खसम का कीआ ॥ जा कउ क्रिपा करी प्रभि मेरै मिलि साधसंगति नाउ लीआ ॥३॥

मूलम्

निंदउ नाही काहू बातै एहु खसम का कीआ ॥ जा कउ क्रिपा करी प्रभि मेरै मिलि साधसंगति नाउ लीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंदउ = मैं निंदा करता हूँ। काहू बातै = किसी भी बात से। एहु = ये (संसार)। प्रभि = प्रभु ने। मिलि = मिल के।3।
अर्थ: फिर भी, हे भाई! ये सारा जगत मालिक प्रभु का पैदा किया हुआ है, मैं इसे किसी भी तरह गलत नहीं कह सकता। हाँ, जिस मनुष्य पर मेरे प्रभु ने मेहर कर दी, वह साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम जपता है, (और मोह से बच निकलता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम परमेसुर सतिगुर सभना करत उधारा ॥ कहु नानक गुर बिनु नही तरीऐ इहु पूरन ततु बीचारा ॥४॥९॥

मूलम्

पारब्रहम परमेसुर सतिगुर सभना करत उधारा ॥ कहु नानक गुर बिनु नही तरीऐ इहु पूरन ततु बीचारा ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नही तरीऐ = पार नहीं लांघ सकते। ततु = अस्लियत।4।
अर्थ: हे नानक! कह: हमने ये पूरी सच्चाई विचार ली है कि गुरु की शरण पड़े बिना (संसार-समंद्र से) पार लांघा नहीं जा सकता। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं) परमात्मा का रूप गुरु उन सभी का पार उतारा कर देता है।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ खोजत खोजत खोजि बीचारिओ राम नामु ततु सारा ॥ किलबिख काटे निमख अराधिआ गुरमुखि पारि उतारा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ खोजत खोजत खोजि बीचारिओ राम नामु ततु सारा ॥ किलबिख काटे निमख अराधिआ गुरमुखि पारि उतारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजत = खोजते हुए। खोजि = खोज के। ततु = अस्लियत। सारा = श्रेष्ठ। किलबिख = पाप। निमख = आँख झपकने जितना समय। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1।
अर्थ: हे भाई! बड़ी लंबी खोज करके हम इस विचार पर पहुँचे हैं कि परमात्मा का नाम (-स्मरणा ही मानव जन्म की) सबसे ऊँची अस्लियत है। गुरु की शरण पड़ के हरि का नाम स्मरण करने से (ये नाम) आँख झपकने जितने समय में (सारे) पाप काट देता है, और, (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि रसु पीवहु पुरख गिआनी ॥ सुणि सुणि महा त्रिपति मनु पावै साधू अम्रित बानी ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि रसु पीवहु पुरख गिआनी ॥ सुणि सुणि महा त्रिपति मनु पावै साधू अम्रित बानी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखु ज्ञानी = हे आत्मिक जीवन की सूझ वाले मनुष्य! सुणि सुणि = बार बार सुन के। त्रिपति = तृप्ति, संतोष। साधू = गुरु। अंम्रित बानी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी के द्वारा। रहाउ।
अर्थ: हे आत्मिक जीवन की समझ वाले मनुष्य! (सदा) परमात्मा का नाम-रस पीया कर। (हे भाई!) गुरु की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी के द्वारा (परमात्मा का) नाम बार-बार सुन सुन के (मनुष्य का) मन सबसे ऊँचा संतोष हासल कर लेता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकति भुगति जुगति सचु पाईऐ सरब सुखा का दाता ॥ अपुने दास कउ भगति दानु देवै पूरन पुरखु बिधाता ॥२॥

मूलम्

मुकति भुगति जुगति सचु पाईऐ सरब सुखा का दाता ॥ अपुने दास कउ भगति दानु देवै पूरन पुरखु बिधाता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति = (माया के मोह से) मुक्ति। भुगति = (आत्मा की) खुराक। जुगति = जीने का सही तरीका। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। कउ = को। पूरन = सर्व-व्यापक। बिधाता = कर्तार।2।
अर्थ: हे भाई! सारे सुखों को देने वाला, सदा कायम रहने वाला परमात्मा अगर मिल जाए, तो यही है विकारों से खलासी (का मूल), यही है (आत्मा की) खुराक, यही है जीने का सच्चा ढंग। वह सर्व-व्यापक विधाता प्रभु-भक्ति का (ये) दान अपने सेवक को (ही) बख्शता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रवणी सुणीऐ रसना गाईऐ हिरदै धिआईऐ सोई ॥ करण कारण समरथ सुआमी जा ते ब्रिथा न कोई ॥३॥

मूलम्

स्रवणी सुणीऐ रसना गाईऐ हिरदै धिआईऐ सोई ॥ करण कारण समरथ सुआमी जा ते ब्रिथा न कोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रवणी = कानों से। रसना = जीभ (से)। सोई = वह (प्रभु) ही। करण कारण = जगत का मूल। जा ते = जिससे, जिस (के दर) से। ब्रिथा = खाली।3।
अर्थ: हे भाई! जिस जगत के मूल सब ताकतों के मालिक प्रभु के दर से कोई जीव खाली हाथ नहीं जाता, उस (के) ही (नाम) को कानों से सुनना चाहिए, हृदय में आराधना चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडै भागि रतन जनमु पाइआ करहु क्रिपा किरपाला ॥ साधसंगि नानकु गुण गावै सिमरै सदा गुोपाला ॥४॥१०॥

मूलम्

वडै भागि रतन जनमु पाइआ करहु क्रिपा किरपाला ॥ साधसंगि नानकु गुण गावै सिमरै सदा गुोपाला ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। किरपाला = हे कृपालु! गावै = गाता रहे। गुोपाला = (असल शब्द ‘गोपाला’ है यहाँ ‘गुपाला’ पढ़ना है) हे गुपाल!।4।
अर्थ: हे गोपाल! हे कृपाल! बड़ी किस्मत से ये श्रेष्ठतम मानव जन्म मिला है (अब) मेहर कर, (तेरा सेवक) नानक साधु-संगत में रह के तेरे गुण गाता रहे, तेरा नाम सदा स्मरण करता रहे।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ करि इसनानु सिमरि प्रभु अपना मन तन भए अरोगा ॥ कोटि बिघन लाथे प्रभ सरणा प्रगटे भले संजोगा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ करि इसनानु सिमरि प्रभु अपना मन तन भए अरोगा ॥ कोटि बिघन लाथे प्रभ सरणा प्रगटे भले संजोगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। सिमरि = स्मरण करके। अरोगा = आरोग्य। कोटि = करोड़ों। बिघन = (जिंदगी के राह में) रुकावटें। प्रगटे = प्रकट हो जाते हैं। भले संजोगा = प्रभु मिलाप के भले अवसर।1।
अर्थ: (हे भाई! अमृत वेले, प्रभात के वक्त) स्नान करके, अपने प्रभु का नाम स्मरण करके मन और शरीर नरोए हो जाते हैं (क्योंकि) प्रभु की शरण पड़ने से (जीवन के राह में आने वाली) करोड़ों रुकावटें दूर हो जाती हैं, और, प्रभु से मिलाप के बढ़िया अवसर प्रगट हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ बाणी सबदु सुभाखिआ ॥ गावहु सुणहु पड़हु नित भाई गुर पूरै तू राखिआ ॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ बाणी सबदु सुभाखिआ ॥ गावहु सुणहु पड़हु नित भाई गुर पूरै तू राखिआ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी। सुभाखिआ = सुंदर उचारा हुआ। भाई = हे भाई! तू = तुझे। गुर पूरै = पूरे गुरु ने। राखिआ = (जीवन विघ्नों से) बचा लिया। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (गुरु ने अपना) शब्द सुंदर उचारा हुआ है, (ये शब्द) प्रभु की महिमा की वाणी है। (इस शब्द को) सदा गाते रहो, सुनते रहो, पढ़ते रहो, (अगर ये उद्यम करता रहेगा, तो यकीन रख) पूरे गुरु ने तुझे (जीवन में आने वाली रुकावटों से) बचा लिया। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा साहिबु अमिति वडाई भगति वछल दइआला ॥ संता की पैज रखदा आइआ आदि बिरदु प्रतिपाला ॥२॥

मूलम्

साचा साहिबु अमिति वडाई भगति वछल दइआला ॥ संता की पैज रखदा आइआ आदि बिरदु प्रतिपाला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। पैज = इज्जत। आदि = आरम्भ से। बिरदु = प्रकृति का मूल स्वभाव।2।
अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसकी प्रतिभा नापी नहीं जा सकती, वह भक्ति से प्यार करने वाला है, वह दया का श्रोत है, अपने संतों की इज्जत वह (सदा ही) रखता आया है, अपना ये बिरद स्वभाव वह आरम्भ से ही पालता आ रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अम्रित नामु भोजनु नित भुंचहु सरब वेला मुखि पावहु ॥ जरा मरा तापु सभु नाठा गुण गोबिंद नित गावहु ॥३॥

मूलम्

हरि अम्रित नामु भोजनु नित भुंचहु सरब वेला मुखि पावहु ॥ जरा मरा तापु सभु नाठा गुण गोबिंद नित गावहु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। भुंचहु = खाओ। मुखि = मुँह में। जरा = (आत्मिक जीवन को) बुढ़ापा। मरा = मौत। तापु = दुख-कष्ट।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, ये (आत्मिक) खुराक खाते रहो, हर वक्त अपने मुँह में डालते रहो। हे भाई! गोबिंद के गुण सदा गाते रहो (आत्मिक जीवन को) ना बुढ़ापा आएगा ना मौत आएगी, हरेक दुख-कष्ट दूर हो जाएगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणी अरदासि सुआमी मेरै सरब कला बणि आई ॥ प्रगट भई सगले जुग अंतरि गुर नानक की वडिआई ॥४॥११॥

मूलम्

सुणी अरदासि सुआमी मेरै सरब कला बणि आई ॥ प्रगट भई सगले जुग अंतरि गुर नानक की वडिआई ॥४॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी मेरै = मेरे मालिक ने। सरब कला = सारी ताकत (‘कोटि बिघन’ के मुकाबले के लिए) सारी शक्ति। बणि आई = पैदा हो जाती है। सगले जुग अंतरि = सारे युगों में, सदा ही। गुर नानक की = हे नानक! गुरु की।4।
अर्थ: हे भाई! (जिस भी मनुष्य ने गुरु के शब्द का आसरा ले के प्रभु का नाम जपा) मेरे मालिक ने उसकी अरदास सुन ली, (करोड़ों विघनों से मुकाबला करने के लिए उसके अंदर) पूरी ताकत पैदा हो जाती है। हे नानक! गुरु की ये अज़मत सारे युगों में ही प्रत्यक्ष प्रगट रहती है।4।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु पिता एकस के हम बारिक तू मेरा गुर हाई ॥ सुणि मीता जीउ हमारा बलि बलि जासी हरि दरसनु देहु दिखाई ॥१॥

मूलम्

एकु पिता एकस के हम बारिक तू मेरा गुर हाई ॥ सुणि मीता जीउ हमारा बलि बलि जासी हरि दरसनु देहु दिखाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर हाई = गुरभाई। मीता = हे मित्र! जीउ = जिंद, प्राण। बलि जासी = सदके जाएगी।1।
अर्थ: हे मित्र! (हमारा) एक ही प्रभु पिता है, हम एक ही प्रभु-पिता के बच्चे हैं, (फिर,) तू मेरा गुरभाई (भी) है। मुझे परमात्मा के दर्शन करवा दे। मेरे प्राण तुझसे बारंबार सदके जाया करेंगे।1।

[[0612]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि मीता धूरी कउ बलि जाई ॥ इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

सुणि मीता धूरी कउ बलि जाई ॥ इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। भाई = हे भाई!। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! (मेरी विनती) सुन। मैं (तेरे चरणों की) धूल से कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! (मैं अपना) ये मन तेरा (आज्ञाकारी बनाने को तैयार हूँ)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाव मलोवा मलि मलि धोवा इहु मनु तै कू देसा ॥ सुणि मीता हउ तेरी सरणाई आइआ प्रभ मिलउ देहु उपदेसा ॥२॥

मूलम्

पाव मलोवा मलि मलि धोवा इहु मनु तै कू देसा ॥ सुणि मीता हउ तेरी सरणाई आइआ प्रभ मिलउ देहु उपदेसा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाव = दोनों पाद। मलोवा = मैं मलूँगा। मलि = मल के। धोवा = धोऊँ, मैं धोऊँगा। तै कू = तुझे। देसा = दूँगा। हउ = मैं। प्रभ मिलउ = मैं प्रभु को मिल जाऊँ, मिलूँ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मित्र! मैं (तेरे दोनों) पैर मलूँगा, (इनको) मल-मल के धोऊँगा, मैं अपना ये मन तेरे हवाले कर दूँगा। हे मित्र! (मेरी विनती) सुन। मैं तेरी शरण आया हूँ। मुझे (ऐसा) उपदेश दे (कि) मैं प्रभु को मिल सकूँ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: गुरमुख मिलाप की युक्ति बताता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानु न कीजै सरणि परीजै करै सु भला मनाईऐ ॥ सुणि मीता जीउ पिंडु सभु तनु अरपीजै इउ दरसनु हरि जीउ पाईऐ ॥३॥

मूलम्

मानु न कीजै सरणि परीजै करै सु भला मनाईऐ ॥ सुणि मीता जीउ पिंडु सभु तनु अरपीजै इउ दरसनु हरि जीउ पाईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानु = अहंकार। कीजै = करना चाहिए। परीजै = पड़ना चाहिए। पिंडु = शरीर। अरपीजै = भेटा कर देना चाहिए। इउ = यूँ, इस तरह।3।
अर्थ: हे मित्र! सुन। (किसी किस्म का) अहंकार नहीं करना चाहिए। जो कुछ परमात्मा कर रहा है, उसे भला करके मानना चाहिए। ये जिंद और ये शरीर सब कुछ उसकी भेट कर देना चाहिए। इस तरह परमात्मा को पा लिया जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भइओ अनुग्रहु प्रसादि संतन कै हरि नामा है मीठा ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी सभु अकुल निरंजनु डीठा ॥४॥१॥१२॥

मूलम्

भइओ अनुग्रहु प्रसादि संतन कै हरि नामा है मीठा ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी सभु अकुल निरंजनु डीठा ॥४॥१॥१२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ से ‘घरु २’ के शब्द शुरू होते हैं। पहले शबदों का संग्रह11 है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनुग्रहु = मेहर, कृपा। प्रसादि = कृपा से। गुरि = गुरु ने। अकुल = अ+कुल, जिस की कोई खास कुल नहीं। निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = सुरमा, मायाकी कालिख़) माया के प्रभाव से रहित।4।

दर्पण-टिप्पनी

जरूरी नोट: इस शब्द में एक जिज्ञासू से सवाल करवा के, और, किसी गुरसिख से उक्तर दिलवा के परमात्मा से मिलाप की जुगति बताई गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मित्र! संत जनों की कृपा से (जिस मनुष्य पर प्रभु की) मेहर हो उसे परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग जाता है। (हे मित्र!) दास नानक पर गुरु ने कृपा की तो (नानक को) हर जगह वह प्रभु दिखाई देने लगा, जिसका कोई विशेष कुल नहीं, जो माया के प्रभाव से परे है।4।1।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमी सरब जीआ का दाता रे ॥ प्रतिपालै नित सारि समालै इकु गुनु नही मूरखि जाता रे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमी सरब जीआ का दाता रे ॥ प्रतिपालै नित सारि समालै इकु गुनु नही मूरखि जाता रे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमंड = सृष्टि। को = का। ठाकुरु = पालनहार। रे = हे भाई! सारि = सार ले के। समालै = संभाल करता है। मूरखि = मूर्ख ने।1।
अर्थ: हे भाई! मैं मूर्ख ने उस परमात्मा का एक भी उपकार नहीं समझा, जो करोड़ों ब्रहमण्डों का पालहार मालिक है, जो सारे जीवों को (रिजक आदि) देने वाला दाता है, जो (सब जीवों को) पालता है, सदा (सब की) सार ले के संभाल करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि आराधि न जाना रे ॥ हरि हरि गुरु गुरु करता रे ॥ हरि जीउ नामु परिओ रामदासु ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि आराधि न जाना रे ॥ हरि हरि गुरु गुरु करता रे ॥ हरि जीउ नामु परिओ रामदासु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आराधि न जाना = (मैंने) आराधना करनी नहीं समझी। करता = करता हूँ। रे = हे भाई! हरि जीउ = हे प्रभु जी! परिओ = पड़ गया है। राम दासु = राम का दास। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मुझे परमात्मा के स्मरण करने की विधि नहीं। मैं (ज़बानी ज़बानी ही) ‘हरि हरि’, ‘गुरु गुरु’ करता रहता हूँ। हे प्रभु जी! मेरा नाम ‘राम का दास’ पड़ गया है (अब तू ही मेरी इज्जत रख, और भक्ति की दाति दे)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन दइआल क्रिपाल सुख सागर सरब घटा भरपूरी रे ॥ पेखत सुनत सदा है संगे मै मूरख जानिआ दूरी रे ॥२॥

मूलम्

दीन दइआल क्रिपाल सुख सागर सरब घटा भरपूरी रे ॥ पेखत सुनत सदा है संगे मै मूरख जानिआ दूरी रे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख सागर = सुखों का समुंदर। भरपूरी = व्यापक। सरब घटा = सारे शरीरों में। संगे = साथ ही।2।
अर्थ: हे भाई! मैं मूर्ख उस परमात्मा को कहीं दूर बसता समझ रहा हूँ जो गरीबों पर दया करने वाला है, जो दया का घर है, जो सुखों का समुंदर है, जो सारे शरीरों में हर जगह मौजूद है, जो सब जीवों के अंग-संग रहके सबके कर्म देखता है और (सबकी आरजूएं) सुनता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि बिअंतु हउ मिति करि वरनउ किआ जाना होइ कैसो रे ॥ करउ बेनती सतिगुर अपुने मै मूरख देहु उपदेसो रे ॥३॥

मूलम्

हरि बिअंतु हउ मिति करि वरनउ किआ जाना होइ कैसो रे ॥ करउ बेनती सतिगुर अपुने मै मूरख देहु उपदेसो रे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। मिति = हद बंदी। करि = कर के। वरनउ = वर्णन करूँ। किआ जाना = मैं क्या जानता हूँ? करउ = करूँ। मै मूरख = मुझ मूर्ख को।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, पर मैं उसके गुणों को सीमा में रख के बयान करता हूँ। मैं कैसे जान सकता हूँ कि परमात्मा कैसा है? हे भाई! मैं अपने गुरु के पास विनती करता हूँ कि मुझ मूर्ख को शिक्षा दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै मूरख की केतक बात है कोटि पराधी तरिआ रे ॥ गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ से फिरि गरभासि न परिआ रे ॥४॥२॥१३॥

मूलम्

मै मूरख की केतक बात है कोटि पराधी तरिआ रे ॥ गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ से फिरि गरभासि न परिआ रे ॥४॥२॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केतक बात है = कौन सी बड़ी बात है, कोई बड़ी बात नहीं। कोटि = करोड़ों। जिन = जिन्होंने। गरभासि = गर्भ+आशय में, गर्भ जोनि में।4।
अर्थ: हे भाई! मुझ मूर्ख को पार लंघाना (गुरु के वास्ते) कोई बड़ी बात नहीं (उसके दर पर आ के तो) करोड़ो पापी (संसार समुंदर से) पार लांघ रहे हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु नानक (के उपदेश) को सुना है गुरु नानक के दर्शन किए हैं, वह दुबारा कभी जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते।4।2।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ जिना बात को बहुतु अंदेसरो ते मिटे सभि गइआ ॥ सहज सैन अरु सुखमन नारी ऊध कमल बिगसइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ जिना बात को बहुतु अंदेसरो ते मिटे सभि गइआ ॥ सहज सैन अरु सुखमन नारी ऊध कमल बिगसइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। जिना बात को = जिस बातों का। अंदेसरो = चिन्ता फिक्र। ते सभि = वह सारी बातें। सहज = आत्मिक अडोलता। सैन = लीनता। सहज सैन = आत्मिक अडोलता में लीनता। सुखमन = मन को सुख देने वाली। नारी = नारियां, इंद्रिय। ऊध = उलटा। बिगसाइआ = खिल उठा है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस बातों का मुझे बहुत चिन्ता-फिक्र लगा रहता था (गुरु की कृपा से) वह सारे चिन्ता-फिक्र मिट गए हैं। मेरा पलटा पड़ा हुआ हृदय-कमल पुष्प खिल गया है, आत्मिक अडोलता में मेरी लीनता हुई रहती है, और मेरी सारी इंद्रिय अब मेरे मन को आत्मिक सुख देने वाली हो गई हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखहु अचरजु भइआ ॥ जिह ठाकुर कउ सुनत अगाधि बोधि सो रिदै गुरि दइआ ॥ रहाउ॥

मूलम्

देखहु अचरजु भइआ ॥ जिह ठाकुर कउ सुनत अगाधि बोधि सो रिदै गुरि दइआ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचरजु = अनोखा तमाशा। जिह कउ = जिस को। अगाधि = अथाह, बहुत ही गहरा। बोधि = बुद्धि से। अगाधि बोधि = अथाह को समझ लिया। रिदै = हृदय में। गुरि = गुरु ने। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! देखो (मेरे अंदर) एक अनोखा करिश्मा हुआ है। गुरु ने (मुझे मेरे) हृदय में वह परमात्मा (दिखा) दिया है जिसके प्रथाय सुनते थे कि वह मनुष्य की समझ से बहुत परे है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोइ दूत मोहि बहुतु संतावत ते भइआनक भइआ ॥ करहि बेनती राखु ठाकुर ते हम तेरी सरनइआ ॥२॥

मूलम्

जोइ दूत मोहि बहुतु संतावत ते भइआनक भइआ ॥ करहि बेनती राखु ठाकुर ते हम तेरी सरनइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोइ दूत = जो वैरी। मोहि = मुझे। ते = (बहुवचन) वह। भइआनक = भयभीत। करहि = करते हैं। ते = से। राखु = बचा ले।2।
अर्थ: हे भाई! जो (कामादिक वैरी) मुझे बहुत सताया करते थे, वह अब (नजदीक फटकने से) डरते हैं, वह बल्कि तरले करते हैं कि हम अब तेरे अधीन हो के रहेंगे, हमें मालिक प्रभु (के क्रोप) से बचा ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह भंडारु गोबिंद का खुलिआ जिह प्रापति तिह लइआ ॥ एकु रतनु मो कउ गुरि दीना मेरा मनु तनु सीतलु थिआ ॥३॥

मूलम्

जह भंडारु गोबिंद का खुलिआ जिह प्रापति तिह लइआ ॥ एकु रतनु मो कउ गुरि दीना मेरा मनु तनु सीतलु थिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस अवस्था में। भंडारु = खजाना। जिह = जिस को। तिह = उस ने।3।
अर्थ: हे भाई! (मेरे अंदर वह करिश्मा ऐसा हुआ है) कि उस अवस्था में परमात्मा (की भक्ति) का खजाना (मेरे अंदर) खुल गया है। पर (हे भाई! ये खजाना) उस मनुष्य को ही मिलता है जिसके भाग्यों में इसकी प्राप्ति लिखी हुई है। हे भाई! गुरु ने मुझे (परमात्मा का नाम) एक ऐसा रत्न दे दिया है कि (उसकी इनायत से) मेरा मन ठंडा-ठार हो गया है, मेरा शरीर शांत हो गया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक बूंद गुरि अम्रितु दीनो ता अटलु अमरु न मुआ ॥ भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ ॥४॥३॥१४॥

मूलम्

एक बूंद गुरि अम्रितु दीनो ता अटलु अमरु न मुआ ॥ भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ ॥४॥३॥१४॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इआ’ मेल के अक्षरों को ‘अया’ पढ़ना है जैसे, ‘गइआ’ को ‘गयआ’, ‘बिगसया’ इत्यादि।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अटलु = अडोल। अमरु = आत्मिक मौत से बचा हुआ। न मुआ = नहीं मरता, आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती। भंडार = खजाने। कउ = को। लेखा = कर्मों का हिसाब। मूलि न = बिल्कुल नहीं।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की एक बूँद दी है, अब मेरी आत्मा (विकारों की ओर से) अडोल हो गई है, आत्मिक मौत से मैं बच गया हूँ, आत्मिक मौत मेरे नजदीक नहीं फटकती। हे भाई! गुरु ने नानक को भक्ति के खजाने बख्श दिए हैं, उससे पिछले किए कर्मों का हिसाब बिल्कुल ही नहीं मांगा।4।3।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ चरन कमल सिउ जा का मनु लीना से जन त्रिपति अघाई ॥ गुण अमोल जिसु रिदै न वसिआ ते नर त्रिसन त्रिखाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ चरन कमल सिउ जा का मनु लीना से जन त्रिपति अघाई ॥ गुण अमोल जिसु रिदै न वसिआ ते नर त्रिसन त्रिखाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा का मनु = जिस मनुष्यों का मन। से जन = वह लोग। त्रिपति अघाई = (माया की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं। जिसु रिदै = जिस जिस के हृदय में। ते नर = वह लोग। त्रिखाई = प्यासे।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों का मन प्रभु के कमल फूल जैसे कोमल चरणों में परच जाता है, वह मनुष्य (माया की ओर से) पूरे तौर पर संतोषी रहते हैं। पर, जिस जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के अमूल्य गुण नहीं आ के बसते, वे मनुष्य माया की तृष्णा में फंसे रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि आराधे अरोग अनदाई ॥ जिस नो विसरै मेरा राम सनेही तिसु लाख बेदन जणु आई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि आराधे अरोग अनदाई ॥ जिस नो विसरै मेरा राम सनेही तिसु लाख बेदन जणु आई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरोग = आरोग्य। अनदाई = प्रसन्न, आनंदमयी। सनेही = प्यारा। बेदन = पीड़ा, दुख। जणु = जानो, समझो, मानो। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की आराधना करने से निरोग हो जाते हैं, आत्मिक आनंद बना रहता है। पर जिस मनुष्य को मेरा प्यारा प्रभु भूल जाता है, उस पर (ऐसे) जानो (जैसे) लाखों तकलीफ़ें आ पड़ती हैं। रहाउ।

[[0613]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह जन ओट गही प्रभ तेरी से सुखीए प्रभ सरणे ॥ जिह नर बिसरिआ पुरखु बिधाता ते दुखीआ महि गनणे ॥२॥

मूलम्

जिह जन ओट गही प्रभ तेरी से सुखीए प्रभ सरणे ॥ जिह नर बिसरिआ पुरखु बिधाता ते दुखीआ महि गनणे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओट = आसरा। गही = पकड़ी। प्रभ = हे प्रभु! गनणे = गिने जाते हैं।2।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों ने तेरा आसरा लिया, वे तेरी शरण में रह के सुख पाते हैं। पर, हे भाई! जिस मनुष्यों को सर्व-व्यापक कर्तार भूल जाता है, वे मनुष्य दुखियों में गिने जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह गुर मानि प्रभू लिव लाई तिह महा अनंद रसु करिआ ॥ जिह प्रभू बिसारि गुर ते बेमुखाई ते नरक घोर महि परिआ ॥३॥

मूलम्

जिह गुर मानि प्रभू लिव लाई तिह महा अनंद रसु करिआ ॥ जिह प्रभू बिसारि गुर ते बेमुखाई ते नरक घोर महि परिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर मानि = गुरु का हुक्म मान के। लिव लाई = तवज्जो जोड़ी। गुर ते = गुरु से। ते = वह लोग। घोर = भयानक।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की आज्ञा मान के परमात्मा में तवज्जो जोड़ ली, उन्होंने बड़ा आनंद बड़ा रस पाया। पर जो मनुष्य परमात्मा को भुला के गुरु की ओर से मुँह मोड़ के रखते हैं वे भयानक नर्क में पड़े रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितु को लाइआ तित ही लागा तैसो ही वरतारा ॥ नानक सह पकरी संतन की रिदै भए मगन चरनारा ॥४॥४॥१५॥

मूलम्

जितु को लाइआ तित ही लागा तैसो ही वरतारा ॥ नानक सह पकरी संतन की रिदै भए मगन चरनारा ॥४॥४॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस (काम) में। को = कोई बंदा। तित ही = उस (काम) में ही। सह = शह, ओट। मगन = मस्त।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तित ही’ में ‘तितु’ के अंत की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (जीवों के क्या वश?) जिस काम में परमात्मा किसी जीव को लगाता है उसी काम में वह लगा रहता है, हरेक जीव वैसा ही काम करता है। जिस मनुष्यों ने (प्रभु की प्रेरणा से) संत-जनों का आसरा लिया है वे अंदर से प्रभु के चरणों में मस्त रहते हैं।4।4।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ राजन महि राजा उरझाइओ मानन महि अभिमानी ॥ लोभन महि लोभी लोभाइओ तिउ हरि रंगि रचे गिआनी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ राजन महि राजा उरझाइओ मानन महि अभिमानी ॥ लोभन महि लोभी लोभाइओ तिउ हरि रंगि रचे गिआनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजन महि = राज के काम में। उरझाइओ = मगन रहता है। मानन महि = मान बढ़ाने वाले कामों में। अभिमानी = अहंकारी, मान का भूखा। लोभन महि = लालच बढ़ाने वाले कामों में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाले बंदे।1।
अर्थ: (हे भाई! जैसे) राज के कामों में राजा मगन रहता है, जैसे मान बढ़ाने वाले कामों में आदर-मान का भूखा मनुष्य लगा रहता है, जैसे लालची मनुष्य लालच बढ़ाने वाले कामों में फसा रहता है, वैसे ही आत्मिक जीवन की समझ वाला मनुष्य प्रभु के प्रेम रंग में मस्त रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन कउ इही सुहावै ॥ पेखि निकटि करि सेवा सतिगुर हरि कीरतनि ही त्रिपतावै ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जन कउ इही सुहावै ॥ पेखि निकटि करि सेवा सतिगुर हरि कीरतनि ही त्रिपतावै ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहावै = सुहाती है। पेखि = देख के। निकटि = नजदीक, अंग संग। कीरतनि = कीर्तन मे। त्रिपतावै = प्रसन्न रहता है। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा के भक्त को यही काम अच्छा लगता है। (भक्त परमात्मा को) अंग-संग देख के और गुरु की सेवा करके परमात्मा की महिमा में ही प्रसन्न रहता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमलन सिउ अमली लपटाइओ भूमन भूमि पिआरी ॥ खीर संगि बारिकु है लीना प्रभ संत ऐसे हितकारी ॥२॥

मूलम्

अमलन सिउ अमली लपटाइओ भूमन भूमि पिआरी ॥ खीर संगि बारिकु है लीना प्रभ संत ऐसे हितकारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमलन सिउ = नशों से। अमली = नशों का प्रेमी। भूमन = जमीन के मालिक। भूमि = जमीन। खीर = दूध। बारिकु = बच्चा। हितकारी = प्यार करने वाले।2।
अर्थ: हे भाई! नशों का प्रेमी मनुष्य नशों से चिपका रहता है, जमीन के मालिक को जमीन प्यारी लगती है, बच्चा दूध में परचा रहता है। इसी तरह संत जन परमात्मा से प्यार करते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिदिआ महि बिदुअंसी रचिआ नैन देखि सुखु पावहि ॥ जैसे रसना सादि लुभानी तिउ हरि जन हरि गुण गावहि ॥३॥

मूलम्

बिदिआ महि बिदुअंसी रचिआ नैन देखि सुखु पावहि ॥ जैसे रसना सादि लुभानी तिउ हरि जन हरि गुण गावहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिदुअंसी = विद्वान। रचिआ = मस्त। नैन = आँखें। देखि = देख देख के। सादि = स्वाद में। लुभानी = मस्त रहती है।3।
अर्थ: हे भाई! विद्वान मनुष्य विद्या (पढ़ने-पढ़ाने) में खुश रहता है, आँखें (पदार्थ) देख-देख के सुख भोगती हैं। हे भाई! जैसे जीभ (स्वादिष्ट पदार्थों के) स्वाद (चखने) में खुश रहती है, वैसे ही प्रभु के भक्त प्रभु की महिमा के गीत गाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसी भूख तैसी का पूरकु सगल घटा का सुआमी ॥ नानक पिआस लगी दरसन की प्रभु मिलिआ अंतरजामी ॥४॥५॥१६॥

मूलम्

जैसी भूख तैसी का पूरकु सगल घटा का सुआमी ॥ नानक पिआस लगी दरसन की प्रभु मिलिआ अंतरजामी ॥४॥५॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूख = लालसा, जरूरत। पूरकु = मस्त। घट = शरीर। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4।
अर्थ: हे भाई! सारे शरीरों के मालिक प्रभु जैसे जैसी किसी जीव की लालसा हो वैसी वैसी ही पूरी करने वाला है। हे नानक! (जिस मनुष्य को) परमात्मा के दर्शन की प्यास लगती है, उस मनुष्य को दिल की जानने वाला परमात्मा (खुद) आ के मिलता है।4।5।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ हम मैले तुम ऊजल करते हम निरगुन तू दाता ॥ हम मूरख तुम चतुर सिआणे तू सरब कला का गिआता ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ हम मैले तुम ऊजल करते हम निरगुन तू दाता ॥ हम मूरख तुम चतुर सिआणे तू सरब कला का गिआता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैले = विकारों की मैल से भरे हुए। ऊजल = साफ सुथरे, पवित्र। करते = करने वाले। दाता = गुण देने वाला। चतुर = समझदार। कला = हुनर। गिआता = ज्ञाता, जानने वाला।1।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव विकारों की मैल से भरे रहते हैं, तू हमें पवित्र करने वाला है। हम गुण-हीन हैं, तू हमें गुण बख्शने वाला है। हम जीव मूर्ख हैं, तू दाना है, तू समझदार है तू (हमें अच्छा बना सकने वाले) सारे हुनर जानने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधो हम ऐसे तू ऐसा ॥ हम पापी तुम पाप खंडन नीको ठाकुर देसा ॥ रहाउ॥

मूलम्

माधो हम ऐसे तू ऐसा ॥ हम पापी तुम पाप खंडन नीको ठाकुर देसा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधो = (माधव = माया का पति) हे प्रभु! पाप खंडन = पापों के नाश करने वाले। नीको = अच्छा, सोहणा। ठाकुर = हे पालनहार प्रभु!। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव ऐसे (विकारी) हैं, और तू ऐसा (उपकारी) है। हम पाप कमाने वाले हैं, तू हमारे पापों का नाश करने वाला है। हे ठाकुर! तेरा देश सुंदर है (वह देश-साधु-संगत सोहणा है जहाँ तु बसता है)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम सभ साजे साजि निवाजे जीउ पिंडु दे प्राना ॥ निरगुनीआरे गुनु नही कोई तुम दानु देहु मिहरवाना ॥२॥

मूलम्

तुम सभ साजे साजि निवाजे जीउ पिंडु दे प्राना ॥ निरगुनीआरे गुनु नही कोई तुम दानु देहु मिहरवाना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजि = पैदा करके। निवाजे = आदर मान दिया। जीउ = प्राण, जिंद। पिंडु = शरीर। दे = दे कर। देहु = तू देता है। मिहरवाना = हे मेहरवान!।2।
अर्थ: हे प्रभु! तूने जिंद शरीर प्राण दे के सारे जीवों को पैदा किया है, पैदा करके सब पर बख्शिश करता है। हे मेहरवान! हम गुण-हीन हैं, हममें कोई गुण नहीं हैं। तू हमें गुणों की दाति बख्शता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम करहु भला हम भलो न जानह तुम सदा सदा दइआला ॥ तुम सुखदाई पुरख बिधाते तुम राखहु अपुने बाला ॥३॥

मूलम्

तुम करहु भला हम भलो न जानह तुम सदा सदा दइआला ॥ तुम सुखदाई पुरख बिधाते तुम राखहु अपुने बाला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न जानह = हम नहीं जानते, हम कद्र नहीं समझते। बिधाते = हे विधाता! बाला = बच्चे।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू हमारे लिए भलाई करता है, पर हम तेरी की हुई भलाई की कद्र नहीं जानते। फिर भी तू हम पर सदा दयावान रहता है। हे सर्व-व्यापक विधाता! तू हमें सुख देने वाला है, तू (हमारी) अपने बच्चों की रखवाली करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम निधान अटल सुलितान जीअ जंत सभि जाचै ॥ कहु नानक हम इहै हवाला राखु संतन कै पाछै ॥४॥६॥१७॥

मूलम्

तुम निधान अटल सुलितान जीअ जंत सभि जाचै ॥ कहु नानक हम इहै हवाला राखु संतन कै पाछै ॥४॥६॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाने। अटल = सदा कायम रहने वाला। सुलितान = बादशाह। सभि = सारे। जाचै = जाचना करते हैं, माँगते हैं। इहै = ये ही। हवाला = हाल। कै पाछै = के आसरे।4।
अर्थ: हे प्रभु जी! तुम सारे गुणों के खजाने हो। तुम सदा कायम रहने वाले बादशाह हो। सारे जीव (तेरे दर से) माँगते हैं। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) हम जीवों का तो यही हाल है। तू हमें संत-जनों के आसरे में रख।4।6।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु २ ॥ मात गरभ महि आपन सिमरनु दे तह तुम राखनहारे ॥ पावक सागर अथाह लहरि महि तारहु तारनहारे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु २ ॥ मात गरभ महि आपन सिमरनु दे तह तुम राखनहारे ॥ पावक सागर अथाह लहरि महि तारहु तारनहारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरभ महि = पेट में। आपन = अपना। दे = दे के। तह = वहाँ, माँ के पेट में। राखनहारे = बचाने की सामर्थ्य वाले। पावक = (विकारों की) आग। सागर = समुंदर। अथाह = बहुत गहरा। तारनहारे = हे पार लंघा सकने वाले!।1।
अर्थ: हे (संसार समुंदर से) पार लंघा सकने की सामर्थ्य रखने वाले! माँ के पेट में हमें अपना स्मरण दे के वहाँ हमारी रक्षा करने वाला है। (विकारों की) आग के समुंदर में गहरी लहरों में गिरे हुए को भी मुझे पार लंघा ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधौ तू ठाकुरु सिरि मोरा ॥ ईहा ऊहा तुहारो धोरा ॥ रहाउ॥

मूलम्

माधौ तू ठाकुरु सिरि मोरा ॥ ईहा ऊहा तुहारो धोरा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधो = (मा+धव, माया का पति) हे प्रभु! सिरि मोरा = मेरे सिर पर। ईहा = इस लोक में। ऊहा = उस लोक में। धोरा = आसरा। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू मेरे सिर पर रखवाला है इस लोक में, परलोक में मुझे तेरा ही आसरा है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीते कउ मेरै समानै करणहारु त्रिणु जानै ॥ तू दाता मागन कउ सगली दानु देहि प्रभ भानै ॥२॥

मूलम्

कीते कउ मेरै समानै करणहारु त्रिणु जानै ॥ तू दाता मागन कउ सगली दानु देहि प्रभ भानै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीते कउ = बनाई हुई चीजों को। मेरै संमानै = मेरे सम मानै, मेरु पर्वत के समान मानता है। त्रिणु = तृण, तीला, तुच्छ। मागन कउ = माँगने वाली। सगली = सारी दुनिया। देहि = ते देता है। प्रभ = हे प्रभु! भानै = अपनी रजा में।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे पैदा किए पदार्थों को (ये जीव) मेरु पर्वत समान समझते हैं, पर तुझे, जो तू सब को पैदा करने वाला है, को एक तीले समान समझते हैं। हे प्रभु! तू सबको दातें देने वाला है, सारी दुनिया तेरे ही दर से माँगने वाली है, तू अपनी रजा में सबको दान देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिन महि अवरु खिनै महि अवरा अचरज चलत तुमारे ॥ रूड़ो गूड़ो गहिर ग्मभीरो ऊचौ अगम अपारे ॥३॥

मूलम्

खिन महि अवरु खिनै महि अवरा अचरज चलत तुमारे ॥ रूड़ो गूड़ो गहिर ग्मभीरो ऊचौ अगम अपारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खिन = छिन, थोड़ा सा समय। अवरु = और। खिनै महि = खिन में ही। अचरज = हैरान कर देने वाले। चलत = करिश्में। रूढ़ो = सुंदर। गूढ़ो = (सारे संसार में) छुपा हुआ। गंभीरो = बड़े जिगरे वाला। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अपारे = हे अपार! हे बेअंत!।3।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे करिश्में हैरान कर देने वाले हैं, एक छिन में तू कुछ का कुछ बना देता है। हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! तू सबसे ऊँचा है, तू सुंदर है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू सारे संसार में गुप्त बस रहा है।3।

[[0614]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि जउ तुमहि मिलाइओ तउ सुनी तुमारी बाणी ॥ अनदु भइआ पेखत ही नानक प्रताप पुरख निरबाणी ॥४॥७॥१८॥

मूलम्

साधसंगि जउ तुमहि मिलाइओ तउ सुनी तुमारी बाणी ॥ अनदु भइआ पेखत ही नानक प्रताप पुरख निरबाणी ॥४॥७॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। जउ = जब। तुमहि = तू खुद ही। तउ = तब। पेखत ही = देखते ही। पुरख = सर्व व्यापक। निरबाणी = वासना रहित।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सर्व-व्यापक प्रभु! जब तू खुद ही (किसी जीव को) साधु-संगत में मिलाता है, तब वह तेरी महिमा की वाणी सुनता है। (हे भाई!) वासना-रहित सर्व-व्यापक प्रभु का प्रताप देख के तब उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है।4।7।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ हम संतन की रेनु पिआरे हम संतन की सरणा ॥ संत हमारी ओट सताणी संत हमारा गहणा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ हम संतन की रेनु पिआरे हम संतन की सरणा ॥ संत हमारी ओट सताणी संत हमारा गहणा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रेनु = चरण धूल। पिआरे = हे प्यारे प्रभु! ओट = आसरा। सताणी = (स+ताणी) ताण वाली, तगड़ी।1।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! (मेहर कर) मैं तेरे संत-जनों की चरण-धूल बना रहूँ, संत-जनों की शरण पड़ा रहूँ। संत ही मेरे तगड़े सहारा हैं, संत-जन ही मेरे जीवन को सोहना बनाने वाले हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम संतन सिउ बणि आई ॥ पूरबि लिखिआ पाई ॥ इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हम संतन सिउ बणि आई ॥ पूरबि लिखिआ पाई ॥ इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। बणि आई = प्रीति बन गई है। पूरबि लिखिआ = पूर्बले भाग्यों अनुसार लिखे लेख। भाई = प्रेमी। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे संतों से मेरी प्रीति बन गई है। पिछले लिखे लेखों के अनुसार ये प्राप्ति हुई है। अब मेरा ये मन तेरा प्रेमी बन गया है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन सिउ मेरी लेवा देवी संतन सिउ बिउहारा ॥ संतन सिउ हम लाहा खाटिआ हरि भगति भरे भंडारा ॥२॥

मूलम्

संतन सिउ मेरी लेवा देवी संतन सिउ बिउहारा ॥ संतन सिउ हम लाहा खाटिआ हरि भगति भरे भंडारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लेवा देवी = लेन देन। बिउहारा = वरतण व्यवहार। लाहा = लाभ। भंडारा = खजाने।2।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर से) संत जनों से ही मेरा लेन-देन और वरतण-व्यवहार है। संत-जनों के साथ रह के मैंने ये फायदा कमाया है कि मेरे अंदर भक्ति के खजाने भर गए हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन मो कउ पूंजी सउपी तउ उतरिआ मन का धोखा ॥ धरम राइ अब कहा करैगो जउ फाटिओ सगलो लेखा ॥३॥

मूलम्

संतन मो कउ पूंजी सउपी तउ उतरिआ मन का धोखा ॥ धरम राइ अब कहा करैगो जउ फाटिओ सगलो लेखा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। पूंजी = हरि नाम की संपत्ति। सउपी = हवाले कर दी। धोखा = फिक्र। कहा करैगो = कुछ नहीं कर सकेगा। फाटिओ = फट गया है। सगलो = सारा।3।
अर्थ: हे भाई! जब से संत-जनों ने मुझे परमात्मा की भक्ति की राशि पूंजी दी है, तब से मेरे मन का चिन्ता-फिक्र उतर गया है। (मेरे जन्मों-जन्मांतरों के किए कर्मों का) सारे ही हिसाब का कागज फट चुका है। अब धर्मराज मुझसे कोई पूछ-पड़ताल नहीं करेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा अनंद भए सुखु पाइआ संतन कै परसादे ॥ कहु नानक हरि सिउ मनु मानिआ रंगि रते बिसमादे ॥४॥८॥१९॥

मूलम्

महा अनंद भए सुखु पाइआ संतन कै परसादे ॥ कहु नानक हरि सिउ मनु मानिआ रंगि रते बिसमादे ॥४॥८॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादे = प्रसादि, कृपा से। मानिआ = मान गया, पतीज गया। रंगि = प्रेम रंग में। रते = रंगा गया। बिसमादे = आश्चर्य प्रभु के।4।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों की कृपा से मेरे अंदर बड़ा धार्मिक आनंद बना हुआ है। हे नानक! कह: मेरा मन परमात्मा के साथ पतीज गया है, आश्चर्य प्रभु के प्रेम रंग में रंगा गया है।4।8।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ५ ॥ जेती समग्री देखहु रे नर तेती ही छडि जानी ॥ राम नाम संगि करि बिउहारा पावहि पदु निरबानी ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ५ ॥ जेती समग्री देखहु रे नर तेती ही छडि जानी ॥ राम नाम संगि करि बिउहारा पावहि पदु निरबानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेती = जितनी ही। समग्री = सामान। तेती ही = ये सारी ही। संगि = साथ। पदु = आत्मिक दर्जा। निरबानी = वासना रहित।1।
अर्थ: हे मनुष्य! ये जितना भी साजो सामान तू देख रहा है, ये सारा ही (आखिर में) छोड़ के चले जाना है। परमात्मा के नाम से सांझ बना, तू वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लेगा जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिआरे तू मेरो सुखदाता ॥ गुरि पूरै दीआ उपदेसा तुम ही संगि पराता ॥ रहाउ॥

मूलम्

पिआरे तू मेरो सुखदाता ॥ गुरि पूरै दीआ उपदेसा तुम ही संगि पराता ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिआरे = हे प्यारे प्रभु! गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। पराता = परोया गया है। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! (मुझे निश्चय हो गया है कि) तू ही मेरा सुखों का दाता है। (जब से) पूरे गुरु ने मुझे उपदेश दिया है, मैं तेरे साथ ही परोया गया हूँ। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध लोभ मोह अभिमाना ता महि सुखु नही पाईऐ ॥ होहु रेन तू सगल की मेरे मन तउ अनद मंगल सुखु पाईऐ ॥२॥

मूलम्

काम क्रोध लोभ मोह अभिमाना ता महि सुखु नही पाईऐ ॥ होहु रेन तू सगल की मेरे मन तउ अनद मंगल सुखु पाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता महि = इनमें फंसे रहने से। रेन = चरण धूल। सगल की = सबकी।2।
अर्थ: हे भाई! काम क्रोध लोभ मोह अहंकार- इस में फसे रहने से सुख नहीं मिला करता। हे मेरे मन! तू सभी के चरणों की धूल बना रह। तब ही आत्मिक आनंद खुशी प्राप्त होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घाल न भानै अंतर बिधि जानै ता की करि मन सेवा ॥ करि पूजा होमि इहु मनूआ अकाल मूरति गुरदेवा ॥३॥

मूलम्

घाल न भानै अंतर बिधि जानै ता की करि मन सेवा ॥ करि पूजा होमि इहु मनूआ अकाल मूरति गुरदेवा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घाल = मेहनत। भानै = तोड़ता, नाश करता। अंतर बिधि = अंदरूनी हालत। मन = हे मन! होमि = हवन कर दे, भेटा कर दे। अकाल मूरति = जिसका अस्तित्व मौत रहित है।3।
अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा की सेवा-भक्ति किया कर, जो किसी की की हुई मेहनत को व्यर्थ नहीं जाने देता, और हरेक के दिल की जानता है। हे भाई! जो प्रकाश-रूप प्रभु सबसे बड़ा है जिसका स्वरूप मौत रहित है, उसकी पूजा-भक्ति कर, और, बतौर भेटा अपना ये मन उसके हवाले कर दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिद दामोदर दइआल माधवे पारब्रहम निरंकारा ॥ नामु वरतणि नामो वालेवा नामु नानक प्रान अधारा ॥४॥९॥२०॥

मूलम्

गोबिद दामोदर दइआल माधवे पारब्रहम निरंकारा ॥ नामु वरतणि नामो वालेवा नामु नानक प्रान अधारा ॥४॥९॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दामोदर = (दाम = रस्सी। उदर = पेट) परमात्मा। माधवे = माया का पति, प्रभु। वरतणि = हर रोज काम आने वाली चीज। वालेवा = हृदय घर का सामान। अधारा = आसरा। नामो = नाम ही।4।
अर्थ: हे नानक! गोबिंद दामोदर दया के घर, माया के पति, पारब्रहम निरंकार के नाम को हर समय काम आने वाली चीज बना, नाम को ही हृदय-घर में सामान बना, नाम ही जिंद का आसरा है।4।9।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ मिरतक कउ पाइओ तनि सासा बिछुरत आनि मिलाइआ ॥ पसू परेत मुगध भए स्रोते हरि नामा मुखि गाइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ मिरतक कउ पाइओ तनि सासा बिछुरत आनि मिलाइआ ॥ पसू परेत मुगध भए स्रोते हरि नामा मुखि गाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिरतक = (आत्मिक जीवन से) मरा हुआ। तनि = शरीर में, हृदय में। सासा = सांस, जिंद, आत्मिक जीवन देने वाला नाम। आनि = ला के। मुगध = मूर्ख। स्रोते = श्रोते, (महिमा) सुनने वाले। मुखि = मुँह से।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु आत्मिक तौर पर) मरे हुए मनुष्य के शरीर में नाम-प्राण डाल देता है, (प्रभु से) विछुड़े हुए मनुष्य को ला के (प्रभु के साथ) मिला देता है। पशु (स्वभाव लोग) मूर्ख मनुष्य (गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम) सुनने वाले बन जाते हैं, परमात्मा का नाम मुँह से गाने लग जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरे गुर की देखु वडाई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

पूरे गुर की देखु वडाई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता की = उस (बड़ाई) की। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की आत्मिक उच्चता बड़ी ही आश्चर्यजनक है, उसका मूल्य नहीं बताया जा सकता। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूख सोग का ढाहिओ डेरा अनद मंगल बिसरामा ॥ मन बांछत फल मिले अचिंता पूरन होए कामा ॥२॥

मूलम्

दूख सोग का ढाहिओ डेरा अनद मंगल बिसरामा ॥ मन बांछत फल मिले अचिंता पूरन होए कामा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोग = ग़म। बिसरामा = ठिकाना, निवास। बांछत = इच्छा मुताबिक। अचिंता = अचानक।2।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ता है, गुरु उसको नाम रूपी प्राण दे के उसके अंदर से) दुखों का ग़मों का डेरा गिरा देता है उसके अंदर आनंद खुशियों का ठिकाना बना देता है। उस मनुष्य को अचानक मन-इच्छित फल मिल जाते हैं उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईहा सुखु आगै मुख ऊजल मिटि गए आवण जाणे ॥ निरभउ भए हिरदै नामु वसिआ अपुने सतिगुर कै मनि भाणे ॥३॥

मूलम्

ईहा सुखु आगै मुख ऊजल मिटि गए आवण जाणे ॥ निरभउ भए हिरदै नामु वसिआ अपुने सतिगुर कै मनि भाणे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। हिरदै = हृदय में। मनि = मन में। भाणे = प्यारे लगे।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने गुरु के मन को भा जाते हैं, उन्हें इस लोक में सुख प्राप्त रहता है, परलोक में भी वे सही स्वीकार हो जाते हैं, उनके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, उन्हें कोई डर छू नहीं सकता (क्योंकि गुरु की कृपा से) उनके हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊठत बैठत हरि गुण गावै दूखु दरदु भ्रमु भागा ॥ कहु नानक ता के पूर करमा जा का गुर चरनी मनु लागा ॥४॥१०॥२१॥

मूलम्

ऊठत बैठत हरि गुण गावै दूखु दरदु भ्रमु भागा ॥ कहु नानक ता के पूर करमा जा का गुर चरनी मनु लागा ॥४॥१०॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरदु = पीड़ा। भ्रमु = भटकना। पूर = पूरे, सफल। करंमा = काम।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में जुड़ा रहता है, उसके सारे काम सफल हो जाते हैं, वह मनुष्य उठता-बैठता हर वक्त परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है, उसके अंदर से हरेक दुख पीड़ा भटकना खत्म हो जाती है।4।10।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ रतनु छाडि कउडी संगि लागे जा ते कछू न पाईऐ ॥ पूरन पारब्रहम परमेसुर मेरे मन सदा धिआईऐ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ रतनु छाडि कउडी संगि लागे जा ते कछू न पाईऐ ॥ पूरन पारब्रहम परमेसुर मेरे मन सदा धिआईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रतनु = हीरे जैसा कीमती प्रभु का नाम। कउडी = कौड़ी जैसी तुच्छ माया। संगि = साथ। जा ते = जिस (माया) से। मन = हे मन!।1।
अर्थ: (हे भाई! माया में ग्रसित मनुष्य) कीमती प्रभु के नाम को छोड़ के कौड़ी (के मूल्य की माया) के साथ चिपके रहते हैं, जिससे कि (नाम को छोड़ के कौड़ी) (आखिर में) कुछ भी प्राप्त नहीं होता। हे मेरे मन! सर्व-व्यापक पारब्रहम परमेश्वर का नाम सदा स्मरणा चाहिए।1।

[[0615]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरहु हरि हरि नामु परानी ॥ बिनसै काची देह अगिआनी ॥ रहाउ॥

मूलम्

सिमरहु हरि हरि नामु परानी ॥ बिनसै काची देह अगिआनी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परानी = हे बंदे! काची = सदा कायम ना रहने वाली। देह = शरीर। अगिआनी = हे मूर्ख!। रहाउ।
अर्थ: हे बंदे! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे ज्ञानहीन! ये शरीर सदा कायम रहने वाला नहीं है, ये जरूर नाश हो जाता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रिग त्रिसना अरु सुपन मनोरथ ता की कछु न वडाई ॥ राम भजन बिनु कामि न आवसि संगि न काहू जाई ॥२॥

मूलम्

म्रिग त्रिसना अरु सुपन मनोरथ ता की कछु न वडाई ॥ राम भजन बिनु कामि न आवसि संगि न काहू जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिग त्रिसना = मृग त्रृष्णा, वह रेगिस्तान जहाँ प्यारे हिरन को पानी प्रतीत होता है। सुपन मनोरथ = सपने में मिले पदार्थ। ता की = इस (माया) की। कामि = काम में। न आवसि = नहीं आएगी। काहू संगि = किसी के भी साथ।2।
अर्थ: (हे भाई! ये माया) मृग त्रिष्णा है (जो प्यासे हिरन को भगा भगा के मार देती है) सपनों में मिले पदार्थ हैं, (आत्मिक जीवन वाले देश में) इस माया को कुछ भी इज्जत नहीं मिलती। परमात्मा के भजन के बिना (कोई और चीज) काम नहीं आती, ये माया (अंत में) किसी के भी काम नहीं आती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ हउ करत बिहाइ अवरदा जीअ को कामु न कीना ॥ धावत धावत नह त्रिपतासिआ राम नामु नही चीना ॥३॥

मूलम्

हउ हउ करत बिहाइ अवरदा जीअ को कामु न कीना ॥ धावत धावत नह त्रिपतासिआ राम नामु नही चीना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ हउ करत = मैं मैं करते हुए, मान करते हुए। बिहाइ = गुजर जाती है। अवरदा = उम्र। जीअ को = जिंद का, जिंद के लाभ के लिए। धावत धावत = दौड़ता भटकता। त्रिपतासिआ = तृप्त। चीना = पहचाना, सांझ डाली।3।
अर्थ: (हे भाई! माया-ग्रसित मनुष्य की) उम्र (माया का) गुमान करते ही बीत जाती है, वह कोई ऐसा काम नहीं करता जो प्राणों के लाभ के लिए हो। (सारी उम्र माया की खातिर) दौड़ता-भटकता रहता है, तृप्त नहीं होता, परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डालता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साद बिकार बिखै रस मातो असंख खते करि फेरे ॥ नानक की प्रभ पाहि बिनंती काटहु अवगुण मेरे ॥४॥११॥२२॥

मूलम्

साद बिकार बिखै रस मातो असंख खते करि फेरे ॥ नानक की प्रभ पाहि बिनंती काटहु अवगुण मेरे ॥४॥११॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साद = चस्के। बिखै रस = पदार्थों के स्वाद। मातो = मस्त। खते = पाप। करि = कर के। फेरे = जनम मरन के चक्करों में। पाहि = पास।4।
अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित मनुष्य चस्कों में विकारों में पदार्थों के स्वादो में मस्त रहता है, बेअंत पाप कर करके जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। हे भाई! नानक की आरजू तो प्रभु के पास ही है (नानक प्रभु को ही कहता है: हे प्रभु!) मेरे अवगुण काट दे।4।11।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुण गावहु पूरन अबिनासी काम क्रोध बिखु जारे ॥ महा बिखमु अगनि को सागरु साधू संगि उधारे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुण गावहु पूरन अबिनासी काम क्रोध बिखु जारे ॥ महा बिखमु अगनि को सागरु साधू संगि उधारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखु = जहर। जारे = जला देता है। बिखमु = मुश्किल। को = का। अगनि को सागरु = आग का समुंदर। संगि = संगति में। उधारे = पार लंघा देता है।1।
अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ कर) सर्व-व्यापक नाश-रहित प्रभु के गुण गाया कर। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है गुरु उसके अंदर से आत्मिक मौत लाने वाले) काम-क्रोध (आदि की) जहर जला देता है। (ये जगत विकारों की) आग का समुंदर (है, इस में से पार लांघना) बहुत कठिन है (महिमा के गीत गाने वाले मनुष्य को गुरु) साधु-संगत में (रख के इस समुंदर में से) पार लंघा देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरै गुरि मेटिओ भरमु अंधेरा ॥ भजु प्रेम भगति प्रभु नेरा ॥ रहाउ॥

मूलम्

पूरै गुरि मेटिओ भरमु अंधेरा ॥ भजु प्रेम भगति प्रभु नेरा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। भरमु = भटकना। अंधेरा = (माया के मोह का) अंधेरा। भजु = स्मरण कर। नेरा = नजदीक, अंग संग। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ो। जो मनुष्य पूरे गुरु की शरण पड़ा) पूरे गुरु ने (उसका) भ्रम मिटा दिया, (उसका माया के मोह का) अंधेरा दूर कर दिया। (हे भाई! तू भी गुरु की शरण पड़ कर) प्रेमा भक्ति से प्रभु के भजन किया कर, (तुझे) प्रभु अंग-संग (दिख जाएगा)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु निधान रसु पीआ मन तन रहे अघाई ॥ जत कत पूरि रहिओ परमेसरु कत आवै कत जाई ॥२॥

मूलम्

हरि हरि नामु निधान रसु पीआ मन तन रहे अघाई ॥ जत कत पूरि रहिओ परमेसरु कत आवै कत जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाने। रहे अघाई = तृप्त हो गए। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे रसों का खजाना है, जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर इस) खजाने का रस पीता है, उसका मन उसका तन (माया के रसों की ओर से) तृप्त हो जाते हैं। उसे हर जगह परमात्मा व्याप्त दिख पड़ता है। वह मनुष्य फिर ना पैदा होता है ना मरता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जप तप संजम गिआन तत बेता जिसु मनि वसै गुोपाला ॥ नामु रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ता की पूरन घाला ॥३॥

मूलम्

जप तप संजम गिआन तत बेता जिसु मनि वसै गुोपाला ॥ नामु रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ता की पूरन घाला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेता = जानने वाला। तत बेता = अस्लियत को जानने वाला। जिसु मनि = जिसके मन में। जिनि = जिस मनुष्य ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। घाला = मेहनत।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोपाला’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाला’ है, यहाँ इसे ‘गुपाला’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर नाम रत्न पा लिया, उसकी (आत्मिक जीवन वाली) मेहनत कामयाब हो गई। (गुरु के द्वारा) जिस मनुष्य के मन में सृष्टि का पालनहार आ बसता है, वह मनुष्य असल जप-तप-संयम के भेद को समझने वाला हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक सूझ का ज्ञाता हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि कलेस मिटे दुख सगले काटी जम की फासा ॥ कहु नानक प्रभि किरपा धारी मन तन भए बिगासा ॥४॥१२॥२३॥

मूलम्

कलि कलेस मिटे दुख सगले काटी जम की फासा ॥ कहु नानक प्रभि किरपा धारी मन तन भए बिगासा ॥४॥१२॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = कष्ट, झगड़े। सगले = सारे। फासा = जंजाल। प्रभि = प्रभु ने। बिगासा = प्रसन्न।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर प्रभु ने मेहर की (उसको प्रभु ने गुरु मिला दिया, और) उसका मन उसका तन आत्मिक आनंद से प्रफुल्लित हो गया। उस मनुष्य की जमों वाली जंजीरें काटी गई (उसके गले से माया के मोह की फाँसी कट गई जो आत्मिक मौत ला के उसे जमों के वश में करती है), उसके सारे दुख-कष्ट-कष्ट दूर हो गए।4।12।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ करण करावणहार प्रभु दाता पारब्रहम प्रभु सुआमी ॥ सगले जीअ कीए दइआला सो प्रभु अंतरजामी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ करण करावणहार प्रभु दाता पारब्रहम प्रभु सुआमी ॥ सगले जीअ कीए दइआला सो प्रभु अंतरजामी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणहार = सब कुछ कर सकने वाला। करावणहार = (जीवों से) सब कुछ करवा सकने वाला। दाता = दातें देने वाला। सुआमी = मालिक। जीअ = जीव। कीए = पैदा किए। अंतरजामी = हरेक दिल की जानने वाला।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य का मददगार गुरु बन जाता है, उसे निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा सब कुछ कर सकने वाला है (जीवों से) सब कुछ करवा सकने वाला है, सब जीवों को दातें देने वाला है, सब का मालिक है, सारे जीव उसी दया के घर प्रभु के पैदा किए हुए हैं, वह प्रभु हरेक के दिल की जानने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा गुरु होआ आपि सहाई ॥ सूख सहज आनंद मंगल रस अचरज भई बडाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा गुरु होआ आपि सहाई ॥ सूख सहज आनंद मंगल रस अचरज भई बडाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। सहज = आत्मिक अडोलता। मंगल = खुशियां। रस = स्वाद। अचरज = हैरान कर देने वाली। बडाई = इज्जत। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु (जिस मनुष्य का) मददगार खुद बनता है, उस मनुष्य के अंदर आत्मिक अडोलता के सुख आनंद खुशियां व स्वाद उघड़ आते हैं। उस मनुष्य को (लोक-परलोक में) ऐसी इज्जत मिलती है कि हैरान हो जाते हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर की सरणि पए भै नासे साची दरगह माने ॥ गुण गावत आराधि नामु हरि आए अपुनै थाने ॥२॥

मूलम्

गुर की सरणि पए भै नासे साची दरगह माने ॥ गुण गावत आराधि नामु हरि आए अपुनै थाने ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = डर। साची = सदा कायम रहने वाली। माने = आदर पाते हैं। आराधि = स्मरण करके। अपुनै थाने = उस जगह पर जहाँ कोई विकार भटकना में नहीं डाल सकता।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ते हैं, उनके सारे डर दूर हो जाते हैं, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की हजूरी में उन्हें आदर मिलता है। परमात्मा की महिमा के गीत गा के परमात्मा का नाम स्मरण करके वह अपने (उस हृदय-) स्थल में आ टिकते हैं (जहाँ कोई विकार उन्हें निकाल के भटकना में नहीं डाल सकता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जै जै कारु करै सभ उसतति संगति साध पिआरी ॥ सद बलिहारि जाउ प्रभ अपुने जिनि पूरन पैज सवारी ॥३॥

मूलम्

जै जै कारु करै सभ उसतति संगति साध पिआरी ॥ सद बलिहारि जाउ प्रभ अपुने जिनि पूरन पैज सवारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जै जैकारु = बड़ाई, आदर मान। सभ = सारी दुनिया। उसतति = शोभा। साध = गुरु। सद = सदा। बलिहारी जाउ = मैं सदके जाता हूँ (जाऊँ)। जिनि = जिस (प्रभु) ने। पैज = इज्जत।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की संगति प्यारी लगने लग पड़ती है, सारी दुनिया उसकी सराहना करती है, शोभा करती है। हे भाई! मैं (भी) अपने प्रभु से सदा सदके जाता हूँ जिसने (मुझे गुरु की शरण डाल के) मेरी इज्जत पूरे तौर पर रख ली है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोसटि गिआनु नामु सुणि उधरे जिनि जिनि दरसनु पाइआ ॥ भइओ क्रिपालु नानक प्रभु अपुना अनद सेती घरि आइआ ॥४॥१३॥२४॥

मूलम्

गोसटि गिआनु नामु सुणि उधरे जिनि जिनि दरसनु पाइआ ॥ भइओ क्रिपालु नानक प्रभु अपुना अनद सेती घरि आइआ ॥४॥१३॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोसटि = मिलाप। गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। सुणि = सुन के। उधारे = विकारों से बच जाते हैं। जिनि जिनि = जिस मनुष्य ने। सेती = साथ। घरि = घर में, हृदय घर में।4।
अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने (गुरु के) दर्शन किए हैं, उन्हें प्रभु का मिलाप प्राप्त हो गया, उनको आत्मिक जीवन की समझ प्राप्त हो गई, प्रभु का नाम सुन-सुन के वे मनुष्य (विकारों के हमलों से) बच गए। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्यारा प्रभु दयावान हुआ वह मनुष्य आत्मिक आनंद से प्रभु चरणों में लीन हो गया।4।13।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ प्रभ की सरणि सगल भै लाथे दुख बिनसे सुखु पाइआ ॥ दइआलु होआ पारब्रहमु सुआमी पूरा सतिगुरु धिआइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ प्रभ की सरणि सगल भै लाथे दुख बिनसे सुखु पाइआ ॥ दइआलु होआ पारब्रहमु सुआमी पूरा सतिगुरु धिआइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = डर। पूरा = सारे गुणों का मालिक।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु का ध्यान धरता है, उस पर मालिक परमात्मा दयावान होता है (और, वह मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ता है) परमात्मा की शरण पड़ने से उसके सारे डर उतर जाते हैं, सारे दुख दूर हो जाते हैं, वह (सदा) आत्मिक आनंद लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ जीउ तू मेरो साहिबु दाता ॥ करि किरपा प्रभ दीन दइआला गुण गावउ रंगि राता ॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ जीउ तू मेरो साहिबु दाता ॥ करि किरपा प्रभ दीन दइआला गुण गावउ रंगि राता ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! साहिबु = मालिक। गावउ = मैं गाऊँ। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू मेरा मालिक है, तू मुझे सारी दातें देने वाला है। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरे प्रेम-रंग में रंग के तेरे गुण गाता रहूँ। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि नामु निधानु द्रिड़ाइआ चिंता सगल बिनासी ॥ करि किरपा अपुनो करि लीना मनि वसिआ अबिनासी ॥२॥

मूलम्

सतिगुरि नामु निधानु द्रिड़ाइआ चिंता सगल बिनासी ॥ करि किरपा अपुनो करि लीना मनि वसिआ अबिनासी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। निधानु = खजाना। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। करि लीना = बना लिया। मनि = मन में।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरु ने सारे सुखों का खजाना प्रभु-नाम पक्का कर दिया, उसकी सारी चिंताएं दूर हो गई। परमात्मा मेहर करके उसको अपना बना लेता है, उसके मन में नाश-रहित परमात्मा आ बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जो सतिगुरि अपुनै राखे ॥ चरन कमल बसे रिद अंतरि अम्रित हरि रसु चाखे ॥३॥

मूलम्

ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जो सतिगुरि अपुनै राखे ॥ चरन कमल बसे रिद अंतरि अम्रित हरि रसु चाखे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। बिघनु = रुकावट। रिद = हृदय। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! अपने गुरु ने जिस मनुष्य की रक्षा की उसको (आत्मिक जीवन के रास्ते में) कोई रुकावट नहीं आती। परमात्मा के कमल-फूल जैसे कोमल चरण उसके हृदय में आ बसते हैं, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस सदा चखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि सेवा सेवक प्रभ अपुने जिनि मन की इछ पुजाई ॥ नानक दास ता कै बलिहारै जिनि पूरन पैज रखाई ॥४॥१४॥२५॥

मूलम्

करि सेवा सेवक प्रभ अपुने जिनि मन की इछ पुजाई ॥ नानक दास ता कै बलिहारै जिनि पूरन पैज रखाई ॥४॥१४॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवक = सेवकों की तरह। जिनि = जिस (प्रभु) ने। इछ = कामना। पुजाई = पूरी कर दी। ता कै = उसके। पैज = इज्जत। पूरन = पूरे तौर पर।4।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (हर वक्त) तेरे मन की (हरेक) कामना पूरी की है, सेवक की तरह उसकी सेवा-भक्ति करता रह। हे दास नानक! (कह:) मैं उस प्रभु से सदके जाता हूँ, जिसने (विघनों से मुकाबले पर हर समय) पूरी तौर पर इज्जत बचा के रखी है।4।14।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ माइआ मोह मगनु अंधिआरै देवनहारु न जानै ॥ जीउ पिंडु साजि जिनि रचिआ बलु अपुनो करि मानै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ माइआ मोह मगनु अंधिआरै देवनहारु न जानै ॥ जीउ पिंडु साजि जिनि रचिआ बलु अपुनो करि मानै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मगनु = मस्त। अंधिआरै = अंधेरे में। न जानै = गहरी सांझ नहीं डालता। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साजि = बना के। रचिआ = पैदा किया। मानै = मानता है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने शरीर-जिंद बना के जीव को पैदा किया हुआ है, उस सब दातें देने वाले प्रभु के साथ जीव गहरी सांझ नहीं डालता। माया के मोह के (आत्मिक) अंधकार में मस्त रहके अपनी ताकत को बड़ा समझता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मूड़े देखि रहिओ प्रभ सुआमी ॥ जो किछु करहि सोई सोई जाणै रहै न कछूऐ छानी ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मूड़े देखि रहिओ प्रभ सुआमी ॥ जो किछु करहि सोई सोई जाणै रहै न कछूऐ छानी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! मूढ़े = हे मूर्ख। करहि = तू करता है। कछूऐ = कोई करतूत। छानी = छुपी। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख मन! मालिक प्रभु (तेरी सारी करतूतें हर वक्त) देख रहा है। तू जो कुछ करता है, (मालिक प्रभु) वही वही जान लेता है, (उससे तेरी) कोई भी करतूत छुपी नहीं रह सकती। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहवा सुआद लोभ मदि मातो उपजे अनिक बिकारा ॥ बहुतु जोनि भरमत दुखु पाइआ हउमै बंधन के भारा ॥२॥

मूलम्

जिहवा सुआद लोभ मदि मातो उपजे अनिक बिकारा ॥ बहुतु जोनि भरमत दुखु पाइआ हउमै बंधन के भारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मदि = नशे में। मातो = मस्त। उपजे = पैदा हो गए। भरमत = भटकते। बंधन = जंजीर।2।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य जीभ के स्वादों में, लोभ के नशे में मस्त रहता है (जिसके कारण इसके अंदर) अनेक विकार पैदा हो जाते हैं, मनुष्य अहंकार की जंजीरों के भार तले दब जाता है, बहुत जूनियों में भटकता फिरता है, और दुख सहता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि पर दारा संगि फाकै ॥ चित्र गुपतु जब लेखा मागहि तब कउणु पड़दा तेरा ढाकै ॥३॥

मूलम्

देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि पर दारा संगि फाकै ॥ चित्र गुपतु जब लेखा मागहि तब कउणु पड़दा तेरा ढाकै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देइ = दे के। देइ किवाड़ = दरवाजे बंद करके। दारा = स्त्री। संगि = साथ। फाकै = कुकर्म करता है। चित्र गुपतु = धर्मराज के मुंशी। मागहि = मांगते हैं, मांगेंगे।3।
अर्थ: (माया के मोह के अंधकार में फसा मनुष्य) दरवाजे बंद करके अनेक पर्दों के पीछे पराई स्त्री के साथ कुकर्म करता है। (पर, हे भाई!) जब (धर्मराज के दूत) चित्र और गुप्त (तेरी करतूतों का) हिसाब मांगेंगे, तब कोई भी तेरी करतूतों पर पर्दा नहीं डाल सकेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन दइआल पूरन दुख भंजन तुम बिनु ओट न काई ॥ काढि लेहु संसार सागर महि नानक प्रभ सरणाई ॥४॥१५॥२६॥

मूलम्

दीन दइआल पूरन दुख भंजन तुम बिनु ओट न काई ॥ काढि लेहु संसार सागर महि नानक प्रभ सरणाई ॥४॥१५॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! ओट = आसरा। सागर = समुंदर।4।
अर्थ: हे नानक! कह: दीनों पर दया करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे दुखों का नाश करने वाले! तेरे बग़ैर और कोई आसरा नहीं है। हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। संसार समुंदर में (डूबते हुए की मेरी बाँह पकड़ के) निकाल ले।4।15।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमु होआ सहाई कथा कीरतनु सुखदाई ॥ गुर पूरे की बाणी जपि अनदु करहु नित प्राणी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमु होआ सहाई कथा कीरतनु सुखदाई ॥ गुर पूरे की बाणी जपि अनदु करहु नित प्राणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। सुखदाई = सुख देने वाला, आत्मिक आनंद देने वाला। जपि = जप के, पढ़ के। अनदु करहु = आत्मिक आनंद लो। प्राणी = हे प्रणी!।1।
अर्थ: हे प्राणी! पूरे गुरु की (महिमा की) वाणी हमेशा पढ़ा कर, और, आत्मिक आनंद लिया कर। (जो मनुष्य सतिगुरु की वाणी से प्यार बनाता है) परमात्मा (उसका) मददगार बन जाता है, परमात्मा की महिमा (उसके अंदर) आत्मिक आनंद पैदा करती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि साचा सिमरहु भाई ॥ साधसंगि सदा सुखु पाईऐ हरि बिसरि न कबहू जाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि साचा सिमरहु भाई ॥ साधसंगि सदा सुखु पाईऐ हरि बिसरि न कबहू जाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। भाई = हे भाई! साध संगि = साधु-संगत में। बिसरि न जाई = भूलता नही। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा का स्मरण करते रहा करो, (नाम-जपने की इनायत से) साधु-संगत में सदा आत्मिक आनंद लेते हैं, और परमात्मा को कभी नहीं भूलते। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित नामु परमेसरु तेरा जो सिमरै सो जीवै ॥ जिस नो करमि परापति होवै सो जनु निरमलु थीवै ॥२॥

मूलम्

अम्रित नामु परमेसरु तेरा जो सिमरै सो जीवै ॥ जिस नो करमि परापति होवै सो जनु निरमलु थीवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। करमि = (तेरी) बख्शिश से। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। थीवै = हो जाता है।2।
अर्थ: हे सबसे ऊँचे मालिक! (परमेश्वर!) तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। जो मनुष्य तेरा नाम स्मरण करता है वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। जिस मनुष्य को तेरी मेहर से (हे परमेश्वर!) तेरा नाम हासिल होता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिघन बिनासन सभि दुख नासन गुर चरणी मनु लागा ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी अनदिनु हरि रंगि जागा ॥३॥

मूलम्

बिघन बिनासन सभि दुख नासन गुर चरणी मनु लागा ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी अनदिनु हरि रंगि जागा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिघन = रुकावटें। सभि = सारे। चरणी = चरणों में। अचुत = ना नाश होने वाला। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागा = (माया के हमलों से) सचेत रहता है।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के चरण आत्मिक जीवन के राह की सारी) रुकावटों का नाश करने वाले हैं, सारे दुख दूर करने वाले हैं, जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में परचता है, वह मनुष्य हर समय अविनाशी व अटल परमात्मा के गुण गाता गाता प्रभु के प्रेम-रंग में लीन हो के (माया के हमलों से) सचेत रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन इछे सेई फल पाए हरि की कथा सुहेली ॥ आदि अंति मधि नानक कउ सो प्रभु होआ बेली ॥४॥१६॥२७॥

मूलम्

मन इछे सेई फल पाए हरि की कथा सुहेली ॥ आदि अंति मधि नानक कउ सो प्रभु होआ बेली ॥४॥१६॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहेली = सुख देने वाली। आदि अंति मधि = शुरू में, आखिर में, बीच में, हर वक्त। बेली = मददगार।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महिमा आत्मिक आनंद देने वाली है (महिमा करने वाला मनुष्य) वही फल प्राप्त कर लेता है जिसकी कामना उसका मन करता है। हे भाई! (महिमा की इनायत से) परमात्मा नानक के लिए सदा मददगार बन गया है।4।16।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ पंचपदा ॥ बिनसै मोहु मेरा अरु तेरा बिनसै अपनी धारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ पंचपदा ॥ बिनसै मोहु मेरा अरु तेरा बिनसै अपनी धारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनसै = खत्म हो गए। मेरा अरु तेरा = मेर तेर वाला भेदभाव। अपनी धारी = अपनत्व, माया से पकड़।1।
अर्थ: (जिस इलाज से मेरे अंदर से) मोह का नाश हो जाए, मेर-तेर वाला भेदभाव दूर हो जाए, मेरी माया से पकड़ खत्म हो जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु इहा बतावहु कारी ॥ जितु हउमै गरबु निवारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु इहा बतावहु कारी ॥ जितु हउमै गरबु निवारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईहा = एसी। कारी = इलाज। जितु = जिस से। गरबु = अहंकार। निवारी = मैं दूर कर लूँ। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (मुझे कोई) ऐसा इलाज बताओ, जिससे मैं (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर सकूँ। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब भूत पारब्रहमु करि मानिआ होवां सगल रेनारी ॥२॥

मूलम्

सरब भूत पारब्रहमु करि मानिआ होवां सगल रेनारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूत = जीव। मानिआ = माना जा सके। रेनारी = चरण धूल।2।
अर्थ: (जिस उपचार से) परमात्मा सभी जीवों में बसा हुआ माना जा सके, और, मैं सभी के चरणों की धूल बना रहूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखिओ प्रभ जीउ अपुनै संगे चूकै भीति भ्रमारी ॥३॥

मूलम्

पेखिओ प्रभ जीउ अपुनै संगे चूकै भीति भ्रमारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखिओ = देखा जा सके। चूकै = खत्म हो जाए। भीति = दीवार। भ्रमारी = भटकना की।3।
अर्थ: (जिस इलाज से) परमात्मा अपने अंग-संग देखा जा सके, और (मेरे अंदर से) माया की खातिर भटकने वाली दीवार दूर हो जाए (जो परमात्मा से दूरियां डाले हुए है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउखधु नामु निरमल जलु अम्रितु पाईऐ गुरू दुआरी ॥४॥

मूलम्

अउखधु नामु निरमल जलु अम्रितु पाईऐ गुरू दुआरी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। दुआरी = दर पर।4।
अर्थ: (हे भाई!) वह दवा तो परमात्मा का नाम ही है, आत्मिक जीवन देने वाला पवित्र नाम-जल ही है। ये नाम गुरु के दर से मिलता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक जिसु मसतकि लिखिआ तिसु गुर मिलि रोग बिदारी ॥५॥१७॥२८॥

मूलम्

कहु नानक जिसु मसतकि लिखिआ तिसु गुर मिलि रोग बिदारी ॥५॥१७॥२८॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पंचपदा = पाँच बंदों वाले शब्द।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। तिसु रोग = उसके रोग। गुर मिलि = गुरु को मिल के। बिदारी = दूर किए जा सकते हैं।5।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पर (नाम की प्राप्ति का लेख) लिखा हो, (उसे नाम गुरु से मिलता है और), गुरु को मिल के उसके रोग काटे जाते हैं।5।17।28।

[[0617]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल बनसपति महि बैसंतरु सगल दूध महि घीआ ॥ ऊच नीच महि जोति समाणी घटि घटि माधउ जीआ ॥१॥

मूलम्

सगल बनसपति महि बैसंतरु सगल दूध महि घीआ ॥ ऊच नीच महि जोति समाणी घटि घटि माधउ जीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल बनसपति = सारी बनस्पति। बैसंतरु = आग। घीआ = घी। समाणी = समाई हुई है। घटि घटि = हरेक शरीर में। माधउ = माधव, माया का पति, परमात्मा। जीआ = सब जीवों में।1।
अर्थ: हे भाई! जैसे सब पौधों में आग (गुप्त रूप में मौजूद) है, जैसे हरेक किस्म के दूध में घी (मक्खन) गुप्त मौजूद है, वैसे अच्छे-बुरे सब जीवों में प्रभु की ज्योति समाई हुई है, परमात्मा हरेक शरीर में है, सब जीवों में है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु घटि घटि रहिआ समाहिओ ॥ पूरन पूरि रहिओ सरब महि जलि थलि रमईआ आहिओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु घटि घटि रहिआ समाहिओ ॥ पूरन पूरि रहिओ सरब महि जलि थलि रमईआ आहिओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहिआ समाइओ = समा रहा है। पूरन = पूरे तौर पर। जलि = पानी में। आहिओ = है। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है। वह पूरी तरह सारे शरीरों में व्यापक है, वह सुंदर राम पानी में है, धरती में है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण निधान नानकु जसु गावै सतिगुरि भरमु चुकाइओ ॥ सरब निवासी सदा अलेपा सभ महि रहिआ समाइओ ॥२॥१॥२९॥

मूलम्

गुण निधान नानकु जसु गावै सतिगुरि भरमु चुकाइओ ॥ सरब निवासी सदा अलेपा सभ महि रहिआ समाइओ ॥२॥१॥२९॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दुपदे = दो पदों वाले, दो बंदों वाले।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुण निधान जसु = गुणों के खजाने प्रभु का यश। सतिगुरि = गुरु ने। भरमु = भुलेखा। चुकाइओ = देर कर दिया है। अलेपा = निर्लिप।2।
अर्थ: हे भाई! नानक (उस) गुणों के खजाने परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। गुरु ने (नानक का) भुलेखा दूर कर दिया है (तभी तो नानक को यकीन है कि) परमात्मा सब जीवों में बसता है (फिर भी) सदा (माया के मोह से) निर्लिप है, सब जीवों में समा रहा है।2।1।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ जा कै सिमरणि होइ अनंदा बिनसै जनम मरण भै दुखी ॥ चारि पदारथ नव निधि पावहि बहुरि न त्रिसना भुखी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ जा कै सिमरणि होइ अनंदा बिनसै जनम मरण भै दुखी ॥ चारि पदारथ नव निधि पावहि बहुरि न त्रिसना भुखी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै सिमरणि = जिस (प्रभु) के स्मरण से। भै = डर। दुखी = दुख भी। नवनिधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। पावहि = तू प्राप्त कर सकता है। बहुरि = दुबारा। त्रिसना = प्यास। भुखी = भूख।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के स्मरण से तू खुशियों भरा जीवन जी सकता है तेरे जनम-मरण के सारे डर और दुख दूर हो सकते हैं, तू (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) चारों पदार्थ और दुनिया के नौ के नौ खजाने हासिल कर सकता है, (जिसके स्मरण से) तुझे माया की प्यास भूख फिर नहीं व्यापेगी (उसका स्मरण हरेक सांस के साथ करता रह)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा को नामु लैत तू सुखी ॥ सासि सासि धिआवहु ठाकुर कउ मन तन जीअरे मुखी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जा को नामु लैत तू सुखी ॥ सासि सासि धिआवहु ठाकुर कउ मन तन जीअरे मुखी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। सासि सासि = हरेक सांस से। कउ = को। जीअ रे = हे जीव! मुखी = मुखि, मुँह से।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीव! जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से तू सुखी हो सकता है, उस पालनहार प्रभु को अपने मन से तन से मुँह से हरेक सांस से स्मरण किया कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांति पावहि होवहि मन सीतल अगनि न अंतरि धुखी ॥ गुर नानक कउ प्रभू दिखाइआ जलि थलि त्रिभवणि रुखी ॥२॥२॥३०॥

मूलम्

सांति पावहि होवहि मन सीतल अगनि न अंतरि धुखी ॥ गुर नानक कउ प्रभू दिखाइआ जलि थलि त्रिभवणि रुखी ॥२॥२॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होवहि = तू हो जाएगा। अंतरि = (तेरे) अंदर। धुखी = धधकती। गुर = गुरु ने। जलि = जल में। थलि = धरती में। त्रिभवणि = सारे संसार में, तीन भवनों वाले जगत में। रुखी = रुखों में, वृक्षों में।2।
अर्थ: (हे भाई! नाम-जपने की इनायत से) तू शांति हासिल कर लेगा, तू अंतरात्मे शीतलता से भर जाएगा, तेरे अंदर तृष्णा की आग नहीं धधकेगी। हे भाई! गुरु ने (मुझे) नानक को वह परमात्मा पानी में धरती में वृक्षों में सारे संसार में बसता दिखा दिया है।2।2।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ काम क्रोध लोभ झूठ निंदा इन ते आपि छडावहु ॥ इह भीतर ते इन कउ डारहु आपन निकटि बुलावहु ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ काम क्रोध लोभ झूठ निंदा इन ते आपि छडावहु ॥ इह भीतर ते इन कउ डारहु आपन निकटि बुलावहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इन ते = इनसे। इह भीतर ते = इस मन के भीतर से, इस मन में से। डारहु = निकाल के। निकटि = नजदीक।1।
अर्थ: हे प्रभु! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा (आदि) इन (सारे विकारों) से तू मुझे स्वयं छुड़ा ले। मेरे इस मन में से इन (विकारों) को निकाल दे, मुझे अपने चरणों में जोड़े रख।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुनी बिधि आपि जनावहु ॥ हरि जन मंगल गावहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अपुनी बिधि आपि जनावहु ॥ हरि जन मंगल गावहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिधि = युक्ति। अपुनी बिधि = अपनी भक्ति की विधि। जनावहु = सिखा दो। गावहु = गवाओ, प्रेरणा दे कि मैं गा सकूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! अपनी भक्ति की विधि तू मुझे खुद सिखा। मुझे प्रेरणा दे कि कि मैं तेरे संत जनों के साथ मिल के तेरी महिमा के गीत गाया करूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिसरु नाही कबहू हीए ते इह बिधि मन महि पावहु ॥ गुरु पूरा भेटिओ वडभागी जन नानक कतहि न धावहु ॥२॥३॥३१॥

मूलम्

बिसरु नाही कबहू हीए ते इह बिधि मन महि पावहु ॥ गुरु पूरा भेटिओ वडभागी जन नानक कतहि न धावहु ॥२॥३॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कबहू = कभी भी। हीए ते = हृदय में से। बिधि = तरीका। पावहु = पा के। धावहु = दौड़।2।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे मन में तू ऐसी शिक्षा डाल दे कि मेरे हृदय में से तू कभी ना बिसरे। हे दास नानक! तुझे बड़े भाग्यों से पूरा गुरु मिल गया है, अब तू किसी और की तरफ ना दौड़ता फिर।2।3।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ जा कै सिमरणि सभु कछु पाईऐ बिरथी घाल न जाई ॥ तिसु प्रभ तिआगि अवर कत राचहु जो सभ महि रहिआ समाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ जा कै सिमरणि सभु कछु पाईऐ बिरथी घाल न जाई ॥ तिसु प्रभ तिआगि अवर कत राचहु जो सभ महि रहिआ समाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै सिमरणि = जिस (प्रभु) के स्मरण से। सभ कछु = हरेक चीज। बिरथी = व्यर्थ। घाल = मेहनत। तिआगि = भुला के। अवर कत = और कहाँ। राचहु = तू मस्त हो रहा है।1।
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के नाम-जपने की इनायत से हरेक पदार्थ मिल सकता है, (स्मरण की) की हुई मेहनत व्यर्थ नहीं जाती, जो प्रभु सारी सृष्टि में मौजूद है उसे छोड़ के किस तरफ मस्त हो रहे हो?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि सिमरहु संत गोपाला ॥ साधसंगि मिलि नामु धिआवहु पूरन होवै घाला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि सिमरहु संत गोपाला ॥ साधसंगि मिलि नामु धिआवहु पूरन होवै घाला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! गेपाला = सृष्टि को पालने वाला! पूरन = सफल।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! सृष्टि के पालनहार को सदा स्मरण करते रहो। साधु-संगत में मिल के प्रभु का नाम स्मरण किया करो, (स्मरण की) मेहनत जरूर सफल हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारि समालै निति प्रतिपालै प्रेम सहित गलि लावै ॥ कहु नानक प्रभ तुमरे बिसरत जगत जीवनु कैसे पावै ॥२॥४॥३२॥

मूलम्

सारि समालै निति प्रतिपालै प्रेम सहित गलि लावै ॥ कहु नानक प्रभ तुमरे बिसरत जगत जीवनु कैसे पावै ॥२॥४॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सारि = सार ले के। समालै = संभाल करता है। सहित = साथ। गलि = गले से। प्रभ = हे प्रभु! जगत जीवनु = जगत का जीवन, सारे जीवों की जिंदगी का सहारा।2।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा (सब जीवों की) सार ले के संभाल करता है, सदैव पालना करता है (स्मरण करने वालों को) प्रेम से अपने गले से लगा लेता है।
हे नानक! कह: हे प्रभु! तुझे विसार के जीव तुझे कैसे मिल सकता है? और, तू ही सारे जीवों की जिंदगी का सहारा है।2।4।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ अबिनासी जीअन को दाता सिमरत सभ मलु खोई ॥ गुण निधान भगतन कउ बरतनि बिरला पावै कोई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ अबिनासी जीअन को दाता सिमरत सभ मलु खोई ॥ गुण निधान भगतन कउ बरतनि बिरला पावै कोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअन को = सब जीवों का। सभ मलु = सारी मैल। निधान = खजाना। कउ = वास्ते। बरतनि = हर वक्त काम आने वाली चीज।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘मलु’ शक्ल से पुलिंग लगता है पर है नहीं। ये स्त्रीलिंग है। देखें गुरबाणी व्याकरण।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का स्मरण करने से (मन से विकारों की) सारी मैल उतर जाती है जो नाश-रहित है, और, जो सारे जीवों को दातें देने वाला है। वह प्रभु सारे गुणों का खजाना है, भक्तों के वास्ते हर वक्त का सहारा है। पर, कोई विरला मनुष्य ही उसका मिलाप हासिल करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपि गुर गोपाल प्रभु सोई ॥ जा की सरणि पइआं सुखु पाईऐ बाहुड़ि दूखु न होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपि गुर गोपाल प्रभु सोई ॥ जा की सरणि पइआं सुखु पाईऐ बाहुड़ि दूखु न होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाहुड़ि = फिर, दुबारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! उस प्रभु को जपा करो जो सबसे बड़ा है, जो सृष्टि को पालने वाला है, और, जिसका आसरा लेने से सुख प्राप्त कर लिया जाता है, फिर कभी दुख नहीं व्याप्ता।1। रहाउ।

[[0618]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागी साधसंगु परापति तिन भेटत दुरमति खोई ॥ तिन की धूरि नानकु दासु बाछै जिन हरि नामु रिदै परोई ॥२॥५॥३३॥

मूलम्

वडभागी साधसंगु परापति तिन भेटत दुरमति खोई ॥ तिन की धूरि नानकु दासु बाछै जिन हरि नामु रिदै परोई ॥२॥५॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगु = भले लोगों की संगति में। तिन भेटत = उनको मिलने से। दुरमति = खोटी मति। बांछै = मांगता है, चाहता है। जिन = जिन्होंने। रिदै = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! बड़ी किस्मत से भले मनुष्यों की संगति हासिल होती है, उनको मिलने से खोटी बुद्धि नाश हो जाती है। दास नानक (भी) उनके चरणों की धूल माँगता है, जिन्होंने परमात्मा का नाम अपने हृदय में परो रखा है।2।5।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ जनम जनम के दूख निवारै सूका मनु साधारै ॥ दरसनु भेटत होत निहाला हरि का नामु बीचारै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ जनम जनम के दूख निवारै सूका मनु साधारै ॥ दरसनु भेटत होत निहाला हरि का नामु बीचारै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवारै = दूर कर देता है। सूका = सूखा हुआ, परमात्मा के प्रेम की हरियाली से वंचित। साधारै = साहारा देता है। भेटत = मिलके, प्राप्त हो के। निहाला = प्रसन्न चिक्त। बीचारै = विचार करता है, सोच मण्डल में बसा लेता है।1।
अर्थ: हे भाई! वैद्य-गुरु (शरण आए मनुष्य के) अनेक जन्मों के दुख दूर कर देता है, आत्मिक जीवन की हरियाली से वंचित उसके मन को (नाम रूपी दवा का) सहारा देता है। गुरु के दर्शन करते ही (मनुष्य) खिल जाता है, और, परमात्मा के नाम को अपने सोच-मण्डल में बसा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा बैदु गुरू गोविंदा ॥ हरि हरि नामु अउखधु मुखि देवै काटै जम की फंधा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा बैदु गुरू गोविंदा ॥ हरि हरि नामु अउखधु मुखि देवै काटै जम की फंधा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैदु = हकीम। अउखधु = दवाई। मुखि = मुँह में। फंधा = फंदा, फांसी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद का रूप मेरा गुरु (पूरा) हकीम है। (ये हकीम जिस मनुष्य के) मुँह में हरि-नाम की दवाई डालता है, (उसका) जम का फंदा काट देता है (आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के फंदे उसके अंदर से काट देता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

समरथ पुरख पूरन बिधाते आपे करणैहारा ॥ अपुना दासु हरि आपि उबारिआ नानक नाम अधारा ॥२॥६॥३४॥

मूलम्

समरथ पुरख पूरन बिधाते आपे करणैहारा ॥ अपुना दासु हरि आपि उबारिआ नानक नाम अधारा ॥२॥६॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! पुरख = हे सर्व व्यापक! पूरन = हे भरपूर! बिधाते = हे विधाता! आपे = (तू) खुद ही। करणैहारा = (गुरु को) बनाने वाला। उबारिआ = (जम के फंदे से) उबार लिया, बचा लिया। अधारा = आसरा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सब ताकतों के मालिक! हे सर्व-व्यापक! हे भरपूर! हे सब जीवों के पैदा करने वाले! तू खुद ही (गुरु को पूरा वैद्य) बनाने वाला है। अपने सेवक को (वैद्य-गुरु से) नाम का आसरा दिलवा के तू खुद ही (जम के फंदे से) बचा लेता है।2।6।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ अंतर की गति तुम ही जानी तुझ ही पाहि निबेरो ॥ बखसि लैहु साहिब प्रभ अपने लाख खते करि फेरो ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ अंतर की गति तुम ही जानी तुझ ही पाहि निबेरो ॥ बखसि लैहु साहिब प्रभ अपने लाख खते करि फेरो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = आत्मिक अवस्था। पाहि = पास। निबेरो = निबेड़ा, फैसला। साहिब = हे मालिक! खते = पाप। करि फेरो = करता फिरता हूँ।1।
अर्थ: हे मेरे अपने मालिक प्रभु! मेरे दिल की हालत तू ही जानता है, तेरी शरण पड़ कर ही (मेरी अंदरूनी खराब हालत का) खात्मा हो सकता है। मैं लाखों पाप करता फिरता हूँ। हे मेरे मालिक! मुझे बख्श ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ जी तू मेरो ठाकुरु नेरो ॥ हरि चरण सरण मोहि चेरो ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ जी तू मेरो ठाकुरु नेरो ॥ हरि चरण सरण मोहि चेरो ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुरु = पालनहार। नेरो = नजदीक, अंग संग। मोहि = मुझे। चेरो = चेरा, दास।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू मेरा पालनहारा मालिक है, मेरे अंग-संग बसता है। हे हरि! मुझे अपने चरणों की शरण में रख, मुझे अपना दास बनाए रख।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेसुमार बेअंत सुआमी ऊचो गुनी गहेरो ॥ काटि सिलक कीनो अपुनो दासरो तउ नानक कहा निहोरो ॥२॥७॥३५॥

मूलम्

बेसुमार बेअंत सुआमी ऊचो गुनी गहेरो ॥ काटि सिलक कीनो अपुनो दासरो तउ नानक कहा निहोरो ॥२॥७॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी = हे मालिक! गुनी = गुणों का मालिक! गहेरा = गहरा। सिलक = फंदा। दासरो = तुच्छ सा दास। तउ = तब। निहोरो = अधीनता।2।
अर्थ: हे बेशुमार प्रभु! हे बेअंत! हे मेरे मालिक! तू ऊँची आत्मिक अवस्था वाला है, तू सारे गुणों का मालिक है, तू गहरा है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! जब तू किसी मनुष्य के विकारों के) फंदे काट के उसको अपना दास बना लेता है, तब उसे किसी की अधीनता नहीं रहती।2।7।35।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ५ ॥ भए क्रिपाल गुरू गोविंदा सगल मनोरथ पाए ॥ असथिर भए लागि हरि चरणी गोविंद के गुण गाए ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ५ ॥ भए क्रिपाल गुरू गोविंदा सगल मनोरथ पाए ॥ असथिर भए लागि हरि चरणी गोविंद के गुण गाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: क्रिपाल = दयावान। गोविंदा = परमात्मा। सगल = सारे। मनोरथ = मन की मुरादें। असथिर = अडोल। गाए = गा के।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा का रूप गुरु दयावान होता है, उसके मन की सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं (क्योंकि) परमात्मा के महिमा के गीत गा गा के प्रभु चरणों में लगन लगा के वह मनुष्य (माया के हमलों के आगे) नहीं डोलता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलो समूरतु पूरा ॥ सांति सहज आनंद नामु जपि वाजे अनहद तूरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भलो समूरतु पूरा ॥ सांति सहज आनंद नामु जपि वाजे अनहद तूरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भलो = अच्छा। पूरा = शुभ। स मूरतु = वह समय। सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। वाजे = बज पड़े। अनहद = बिना बजाए, एक रस। तूरा = बाजा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के जीवन में) वह समय सुहाना होता है, जब परमात्मा का नाम जप के उसके अंदर शांति, आत्मिक अडोलता, आनंद के एक-रस बाजे बजते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिले सुआमी प्रीतम अपुने घर मंदर सुखदाई ॥ हरि नामु निधानु नानक जन पाइआ सगली इछ पुजाई ॥२॥८॥३६॥

मूलम्

मिले सुआमी प्रीतम अपुने घर मंदर सुखदाई ॥ हरि नामु निधानु नानक जन पाइआ सगली इछ पुजाई ॥२॥८॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। पुजाई = पूरी हो गई।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को अपने मालिक प्रीतम प्रभु जी मिल जाते हैं, उसे ये घर-घाट सुख देने वाले प्रतीत होते हैं। हे दास नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम खजाना पा लिया, उसकी हरेक मनोकामना पूरी हो जाती है।2।8।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुर के चरन बसे रिद भीतरि सुभ लखण प्रभि कीने ॥ भए क्रिपाल पूरन परमेसर नाम निधान मनि चीने ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुर के चरन बसे रिद भीतरि सुभ लखण प्रभि कीने ॥ भए क्रिपाल पूरन परमेसर नाम निधान मनि चीने ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिद भीतरि = हृदय में। सुभ लखण = सफलता देने वाले लक्षण। प्रभि = प्रभु ने। मनि = मन में। चीने = पहचान लिए।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरु के चरण बस गए, प्रभु ने (उसकी जिंदगी में) सफलता पैदा करने वाले लक्षण पैदा कर दिए। सर्व-व्यापक प्रभु जी जिस मनुष्य पर दयावान हो गए, उस मनुष्य ने परमात्मा के नाम के खजाने अपने मन में (टिके हुए) पहचान लिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरो गुरु रखवारो मीत ॥ दूण चऊणी दे वडिआई सोभा नीता नीत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरो गुरु रखवारो मीत ॥ दूण चऊणी दे वडिआई सोभा नीता नीत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरो = मेरा। रखवारो = रखवाला। चऊणी = चौगुनी। दे = देता है। नीता नीत = रोजाना, सदा ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु मेरा रखवाला है मेरा मित्र है, (प्रभु का नाम दे के, मुझे) वह बड़ाई बख्शता है जो दुगनी-चौगुनी हो जाती है (सदैव बढ़ती जाती है), मुझे सदा शोभा दिलवाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत प्रभि सगल उधारे दरसनु देखणहारे ॥ गुर पूरे की अचरज वडिआई नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥३७॥

मूलम्

जीअ जंत प्रभि सगल उधारे दरसनु देखणहारे ॥ गुर पूरे की अचरज वडिआई नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ जंत सगले = सारे ही जीव। प्रभि = प्रभु ने। देखणहारे = देखने वाले। अचरज = हैरान कर देने वाली। वडिआई = बड़ा दर्जा। सद = सदा। बलिहारे = कुर्बान।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के दर्शन करने वाले सारे मनुष्यों को प्रभु ने (विकारों से) बचा लिया। पूरे गुरु का इतना बड़ा दर्जा है कि (देख के) हैरान हो जाते हैं। हे नानक! (कह: मैं गुरु से) सदा कुर्बान जाता हूँ।2।9।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ संचनि करउ नाम धनु निरमल थाती अगम अपार ॥ बिलछि बिनोद आनंद सुख माणहु खाइ जीवहु सिख परवार ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ संचनि करउ नाम धनु निरमल थाती अगम अपार ॥ बिलछि बिनोद आनंद सुख माणहु खाइ जीवहु सिख परवार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संचनि करउ = (करूँ) मैं इकट्ठा करता हूँ। नाम धनु निरमल = निर्मल नाम धन, प्रभु के पवित्र नाम का धन। थाती = (स्थिति) टिकाव। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। बिलछि = (विलस्य) प्रसन्न हो के। बिनोद = (आत्मिक) चोज तमाशे। जीवहु = आत्मिक जीवन प्राप्त करो। सिख परवार = हे (गुरु के) सिख परिवार!।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से) मैं परमात्मा के पवित्र नाम का धन इकट्ठा कर रहा हूँ (जहाँ ये धन एकत्र किया जाए, वहाँ) अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु का निवास हो जाता है। हे (गुरु के) सिख परिवार! (हे गुरसिखो!) तुम भी (आत्मिक जीवन वास्ते ये नाम-भोजन) खा के आत्मिक जीवन हासिल करो, खुश हो के आत्मिक चोज आनंद लिया करो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के चरन कमल आधार ॥ संत प्रसादि पाइओ सच बोहिथु चड़ि लंघउ बिखु संसार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के चरन कमल आधार ॥ संत प्रसादि पाइओ सच बोहिथु चड़ि लंघउ बिखु संसार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आधार = आसरा। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। सच = सदा कायम रहने वाला। बोहिथु = जहाज़। चढ़ि = चढ़ के। लंघउ = पार होऊँ। बिखु = जहर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के कोमल चरणों को (मैंने अपनी जिंदगी का) आसरा (बना लिया है)। गुरु की कृपा से मैं सदा-स्थिर प्रभु का नाम-जहाज़ पा लिया है, (उसमें) चढ़ के मैं (आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के) ज़हर भरे संसार समुंदर से पार लांघ रहा हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भए क्रिपाल पूरन अबिनासी आपहि कीनी सार ॥ पेखि पेखि नानक बिगसानो नानक नाही सुमार ॥२॥१०॥३८॥

मूलम्

भए क्रिपाल पूरन अबिनासी आपहि कीनी सार ॥ पेखि पेखि नानक बिगसानो नानक नाही सुमार ॥२॥१०॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपहि = खुद ही। सार = संभाल। पेखि = देख के। नानकु बिगसानो = नानक खुश हो रहा है। नानक = हे नानक! सुमार = शुमारी, गिनती, लेखा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर सर्व-व्यापक अविनाशी प्रभु जी दयावान होते हैं, उसकी संभाल आप ही करते हैं। नानक (उसका ये करिश्मा) देख देख के खुश हो रहा है। हे नानक! (सेवक की संभाल करने की प्रभु की दया का) अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2।10।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै अपनी कल धारी सभ घट उपजी दइआ ॥ आपे मेलि वडाई कीनी कुसल खेम सभ भइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै अपनी कल धारी सभ घट उपजी दइआ ॥ आपे मेलि वडाई कीनी कुसल खेम सभ भइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। कल = कला, सत्ता, ताकत। सभ घट = सारे शरीरों के लिए। उपजी = पैदा हो गई है। आपे = आप ही। मेलि = (प्रभु के चरणों में) मिला के। वडाई = ऊँचा आत्मिक दर्जा। कुसल खेम = खुशी प्रसन्नता।1।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु ने (मेरे अंदर) अपनी (ऐसी) ताकत भर दी है (कि मेरे अंदर) सब जीवों के लिए प्यार पैदा हो गया है। (गुरु ने) खुद ही (मुझे प्रभु चरणों में) जोड़ के (मुझको) आत्मिक उच्चता बख्शी है, (अब मेरे अंदर) आनंद ही आनंद बना रहता है।1।

[[0619]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु पूरा मेरै नालि ॥ पारब्रहमु जपि सदा निहाल ॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुरु पूरा मेरै नालि ॥ पारब्रहमु जपि सदा निहाल ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपि = जप के। निहाल = प्रसन्न चिक्त। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु (हर वक्त) मेरे साथ (मेरी सहायता करने वाला) है। (उसकी मेहर से) परमात्मा का नाम जप के मैं सदा प्रसन्न-चित्त रहता हूँ। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि बाहरि थान थनंतरि जत कत पेखउ सोई ॥ नानक गुरु पाइओ वडभागी तिसु जेवडु अवरु न कोई ॥२॥११॥३९॥

मूलम्

अंतरि बाहरि थान थनंतरि जत कत पेखउ सोई ॥ नानक गुरु पाइओ वडभागी तिसु जेवडु अवरु न कोई ॥२॥११॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हर जगह में। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = मैं देखूँ। सोई = वह (परमात्मा) ही। जेवडु = जितना, बराबर का। अवरु = और।2।
अर्थ: हे भाई! अब अपने अंदर और बाहर (सारे जगत में), हर जगह में, मैं जहाँ भी देखता हूँ उस परमात्मा को ही (बसता देखता हूँ)। हे नानक! (मुझे) बड़े भाग्यों से गुरु मिला है (ऐसी दाति बख्शिश कर सकने वाला) गुरु के बराबर का और कोई नहीं है।2।11।39।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सूख मंगल कलिआण सहज धुनि प्रभ के चरण निहारिआ ॥ राखनहारै राखिओ बारिकु सतिगुरि तापु उतारिआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सूख मंगल कलिआण सहज धुनि प्रभ के चरण निहारिआ ॥ राखनहारै राखिओ बारिकु सतिगुरि तापु उतारिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंगल = खुशियां। कलिआण = सुख। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर। निहारिआ = देखे। राखनहारै = रक्षा करने की सामर्थ्य वाले ने। सतिगुरु ने।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ा) गुरु ने उसका ताप (दुख-कष्ट) उतार दिया, रक्षा करने की सामर्थ्य वाले गुरु ने उस बालक को (विघनों से) बचा लिया (उसे यूँ बचाया जैसे पिता अपने पुत्र की रक्षा करता है)। (गुरु की शरण पड़ के जिस मनुष्य ने) परमात्मा के चरणों के दर्शन कर लिए, उसके अंदर सुख-खुशी-आनंद और आत्मिक अडोलता की लहर चल पड़ी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उबरे सतिगुर की सरणाई ॥ जा की सेव न बिरथी जाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

उबरे सतिगुर की सरणाई ॥ जा की सेव न बिरथी जाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उबरे = बच गए। जा की = जिस (गुरु) की। बिरथी = व्यर्थ, ख़ाली। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु की की हुई सेवा ख़ाली नहीं जाती, उस गुरु की शरण जो मनुष्य पड़ते हैं वह (आत्मिक जीवन के रास्ते में आने वाली रुकावटों से) बच जाते हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर महि सूख बाहरि फुनि सूखा प्रभ अपुने भए दइआला ॥ नानक बिघनु न लागै कोऊ मेरा प्रभु होआ किरपाला ॥२॥१२॥४०॥

मूलम्

घर महि सूख बाहरि फुनि सूखा प्रभ अपुने भए दइआला ॥ नानक बिघनु न लागै कोऊ मेरा प्रभु होआ किरपाला ॥२॥१२॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घर महि = हृदय में। फुनि = भी। बिघनु = रुकावट।2।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसके) हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है, बाहर (दुनिया से बर्ताव-व्यवहार करते हुए) भी उसे आत्मिक सुख मिला रहता है, उस पर प्रभु सदा दयावान रहता है। हे नानक! उस मनुष्य की जिंदगी के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आती, उस पर परमात्मा कृपालु हुआ रहता है।2।12।40।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ साधू संगि भइआ मनि उदमु नामु रतनु जसु गाई ॥ मिटि गई चिंता सिमरि अनंता सागरु तरिआ भाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ साधू संगि भइआ मनि उदमु नामु रतनु जसु गाई ॥ मिटि गई चिंता सिमरि अनंता सागरु तरिआ भाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। मनि = मन में। जसु = महिमा के गीत। गाई = गाए, गाने लग पड़ता है। सिमरि = स्मरण करके। अनंता = बेअंत प्रभु। सागरु = समुंदर। भाई = हे भाई!।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में रहने से मन में उद्यम पैदा होता है, (मनुष्य) श्रेष्ठ नाम जपने लग जाता है, परमात्मा की महिमा के गीत गाने लग पड़ता है। बेअंत प्रभु का स्मरण करके मनुष्य की चिन्ता मिट जाती है, मनुष्य संसार समुंदर से पार लांघ जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरदै हरि के चरण वसाई ॥ सुखु पाइआ सहज धुनि उपजी रोगा घाणि मिटाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हिरदै हरि के चरण वसाई ॥ सुखु पाइआ सहज धुनि उपजी रोगा घाणि मिटाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। वसाई = बसा के टिका के। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर। घाणि = घाणी, ढेर। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने हृदय में परमात्मा के चरण टिकाए रख (विनम्रता में रह के परमात्मा का स्मरण किया कर)। (जिसने भी ये उद्यम किया है, उसने) आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हो गई, (उसने अपने अंदर से) रोगों के ढेर मिटा लिए। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ गुण तेरे आखि वखाणा कीमति कहणु न जाई ॥ नानक भगत भए अबिनासी अपुना प्रभु भइआ सहाई ॥२॥१३॥४१॥

मूलम्

किआ गुण तेरे आखि वखाणा कीमति कहणु न जाई ॥ नानक भगत भए अबिनासी अपुना प्रभु भइआ सहाई ॥२॥१३॥४१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इया’ का उच्चारण ‘या’ व ‘यआ’ करना है जैसे ‘भइआ’ को ‘भया’।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखि = कह के। वखाणा = कहूँ। अबिनासी = नाश रहित, आत्मिक मौत से रहित।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करके बताऊँ? तेरा मूल्य बताया नहीं जा सकता (तू किसी दुनियावी पर्दाथ के बदले में नहीं मिल सकता)। हे नानक! प्यारा प्रभु जिस मनुष्यों का मददगार बनता है, वह भक्त-जन आत्मिक मौत से रहित हो जाते हैं।2।13।41।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ५ ॥ गए कलेस रोग सभि नासे प्रभि अपुनै किरपा धारी ॥ आठ पहर आराधहु सुआमी पूरन घाल हमारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ५ ॥ गए कलेस रोग सभि नासे प्रभि अपुनै किरपा धारी ॥ आठ पहर आराधहु सुआमी पूरन घाल हमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलेस = मानसिक दुख। सभि = सारे। प्रभि = प्रभु ने। आठ पहर = सदा, हर वक्त। घाल = मेहनत। हमारी = हम जीवों की।1।
अर्थ: हे भाई! जिस भी मनुष्य पर प्यारे प्रभु ने मेहर की उसके सारे कष्ट और रोग दूर हो गए। (हे भाई!) मालिक प्रभु को आठों पहर याद करते रहा करो, हम जीवों की (ये) मेहनत (अवश्य) सफल होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ तू सुख स्मपति रासि ॥ राखि लैहु भाई मेरे कउ प्रभ आगै अरदासि ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ तू सुख स्मपति रासि ॥ राखि लैहु भाई मेरे कउ प्रभ आगै अरदासि ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संपति = धन। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। भाई = हे भाई! हे प्रभु। मेरे कउ = मुझे। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू ही मुझे आत्मिक आनंद की धन-संपत्ति देने वाला है। हे प्रभु! मुझे (कष्टों-अंदेशों से) बचा ले। हे प्रभु! मेरी तेरे आगे यही आरजू है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो मागउ सोई सोई पावउ अपने खसम भरोसा ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिओ मिटिओ सगल अंदेसा ॥२॥१४॥४२॥

मूलम्

जो मागउ सोई सोई पावउ अपने खसम भरोसा ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिओ मिटिओ सगल अंदेसा ॥२॥१४॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मागउ = मागूँ। पावउ = प्राप्त कर लेता हूँ। भरोसा = सहारा।2।
अर्थ: हे भाई! मैं तो जो कुछ (प्रभु से) माँगता हूँ, वही कुछ प्राप्त कर लेता हूँ। मुझे अपने मालिक प्रभु पर (पूरा) ऐतबार (बन चुका) है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, उसकी सारी चिन्ता-फिक्र दूर हो जाती हैं।2।14।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि गुरु सतिगुरु अपना सगला दूखु मिटाइआ ॥ ताप रोग गए गुर बचनी मन इछे फल पाइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि गुरु सतिगुरु अपना सगला दूखु मिटाइआ ॥ ताप रोग गए गुर बचनी मन इछे फल पाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि सिमरि = बार बार याद करके। सगला = सारा। गुर बचनी = गुरु के वचन पर चल के।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह) बार बार गुरु सतिगुरु (की वाणी) को याद करके अपना हरेक किस्म का दुख दूर कर लेता है। गुरु के वचन पर चल के उसके सारे कष्ट, सारे रोग दूर हो जाते हैं, वह मन-मांगे फल प्राप्त कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा गुरु पूरा सुखदाता ॥ करण कारण समरथ सुआमी पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा गुरु पूरा सुखदाता ॥ करण कारण समरथ सुआमी पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण कारण = जगत का मूल। समरथ = सारी ताकतों का मालिक। बिधाता = विधाता। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु सब गुणों से भरपूर है, सारे सुख बख्शने वाला है। गुरु उस सर्व-व्यापक विधाता का रूप है जो सारे जगत का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनंद बिनोद मंगल गुण गावहु गुर नानक भए दइआला ॥ जै जै कार भए जग भीतरि होआ पारब्रहमु रखवाला ॥२॥१५॥४३॥

मूलम्

अनंद बिनोद मंगल गुण गावहु गुर नानक भए दइआला ॥ जै जै कार भए जग भीतरि होआ पारब्रहमु रखवाला ॥२॥१५॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनोद = कौतक, तमाशे, खुशियां। जै जै कार = शोभा। भीतरि = में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! अगर तेरे पर) सतिगुरु जी दयावान हुए हैं, तो तू प्रभु की महिमा के गीत गाता रहा कर, (महिमा की इनायत से तेरे अंदर) आनंद-खुशियां व सुख बने रहेंगे। (महिमा के सदके) जगत में शोभा मिलती है। (ये निष्चय बना रहता है कि) परमात्मा (सदा सिर पर) रखवाला है।2।15।43।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ हमरी गणत न गणीआ काई अपणा बिरदु पछाणि ॥ हाथ देइ राखे करि अपुने सदा सदा रंगु माणि ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ हमरी गणत न गणीआ काई अपणा बिरदु पछाणि ॥ हाथ देइ राखे करि अपुने सदा सदा रंगु माणि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमरी = हम जीवों की। गणत = किए कर्मों का हिसाब-किताब। न गणीआ = नहीं गिनता। काई गणत = कोई भी लेखा। बिरदु = प्राकृतिक (प्यार वाला) स्वभाव। पछाणि = पहचानता है, याद रखता है। देइ = दे के। राखे = (कुकर्मों से) बचाए रखता है। माणि = माणता है, भोगता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा हम जीवों के किए बुरे कर्मों का कोई ख्याल नहीं करता। वह अपने मूल (प्यार भरे) स्वभाव (बिरद) को याद रखता है (वह बल्कि, हमें गुरु से मिलवा के, हमें) अपने बना के (अपना) हाथ दे के (हमें विकारों से) बचाता है। (जिस भाग्यशाली को गुरु मिल जाता है, वह) सदा ही आत्मिक आनंद लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा साहिबु सद मिहरवाण ॥ बंधु पाइआ मेरै सतिगुरि पूरै होई सरब कलिआण ॥ रहाउ॥

मूलम्

साचा साहिबु सद मिहरवाण ॥ बंधु पाइआ मेरै सतिगुरि पूरै होई सरब कलिआण ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। बंधु = रोक, बंधन, (कुकर्मों के राह में) रुकावट। सतिगुरि = गुरु ने। कलिआण = (आत्मिक) सुख। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला मालिक प्रभु सदा दयावान रहता है, (कुकर्मों की ओर जा रहे लोगों को बचा के वह गुरु से मिलाता है। जिसे पूरा गुरु मिल गया, उसके विकारों के रास्ते में) मेरे पूरे गुरु ने रुकावट खड़ी कर दी (और, इस तरह उसके अंदर) सारे आत्मिक आनंद पैदा हो गए। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीउ पाइ पिंडु जिनि साजिआ दिता पैनणु खाणु ॥ अपणे दास की आपि पैज राखी नानक सद कुरबाणु ॥२॥१६॥४४॥

मूलम्

जीउ पाइ पिंडु जिनि साजिआ दिता पैनणु खाणु ॥ अपणे दास की आपि पैज राखी नानक सद कुरबाणु ॥२॥१६॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पाइ = पा के। पिंडु = शरीर। जिन = जिस (प्रभु) ने। सजाइआ = पैदा किया। पैज = इज्जत। सद = सदा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने प्राण डाल के (हमारा) शरीर पैदा किया है, जो (हर वक्त) हमें खुराक और पोशाक दे रहा है, वह परमात्मा (संसार समुंदर की विकार-लहरों से) अपने सेवक की इज्जत (गुरु को मिला के) बचाता है। हे नानक! (कह: मैं उस परमात्मा से) सदा सदके जाता हूँ।2।16।44।

[[0620]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ दुरतु गवाइआ हरि प्रभि आपे सभु संसारु उबारिआ ॥ पारब्रहमि प्रभि किरपा धारी अपणा बिरदु समारिआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ दुरतु गवाइआ हरि प्रभि आपे सभु संसारु उबारिआ ॥ पारब्रहमि प्रभि किरपा धारी अपणा बिरदु समारिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुरतु = (दुरित) पाप। प्रभि = प्रभु ने। आपे = खुद ही। सभु = सारा। उबारिआ = (पापों से) बचा लिया। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यारा वाला स्वभाव। समारिआ = याद रखा है।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर पारब्रहम प्रभु ने मेहर (की निगाह) की, (उसको गुरु मिला के) प्रभु ने (उसके पीछे किए) पाप (उसके अंदर से) दूर कर दिए। (इस तरह) प्रभु खुद ही सारे संसार को (विकारों से) बचाता है। अपना मूल प्यार भरा स्वभाव (बिरद) याद रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होई राजे राम की रखवाली ॥ सूख सहज आनद गुण गावहु मनु तनु देह सुखाली ॥ रहाउ॥

मूलम्

होई राजे राम की रखवाली ॥ सूख सहज आनद गुण गावहु मनु तनु देह सुखाली ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजे राम की = राम राजे की, प्रभु पातशाह की। रखवाली = रक्षा, सहायता। सहज = आत्मिक अडोलता। सुखाली = सुखी। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-पातशाह (जिस मनुष्य की पापों से) रक्षा करता है, उसका मन सुखी हो जाता है, उसका शरीर सुखी हो जाता है। (हे भाई! तुम भी) परमात्मा के महिमा के गीत गाया करो, (तुम्हें भी) सुख मिलेंगे, आत्मिक अडोलता के आनंद मिलेंगे। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित उधारणु सतिगुरु मेरा मोहि तिस का भरवासा ॥ बखसि लए सभि सचै साहिबि सुणि नानक की अरदासा ॥२॥१७॥४५॥

मूलम्

पतित उधारणु सतिगुरु मेरा मोहि तिस का भरवासा ॥ बखसि लए सभि सचै साहिबि सुणि नानक की अरदासा ॥२॥१७॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित उधारणु = विकारों में गिरे हुओं को (विकारों से) बचाने वाला। मोहि = मुझे। भरवासा = आसरा। सभि = सारे। सुणि = सने, सुनता है।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु विकारियों को (विकारों से) बचाने वाला है। मुझे भी उस का (ही) सहारा है। जिस सदा रहने वाले मालिक ने सारे जीव (गुरु की शरण में डाल के) बख्श लिए हैं (जो सदा स्थिर प्रभु विकारियों को भी गुरु की शरण में डाल कर बख्शता आ रहा है), वह प्रभु नानक की आरजू भी सुनने वाला है।2।17।45।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ बखसिआ पारब्रहम परमेसरि सगले रोग बिदारे ॥ गुर पूरे की सरणी उबरे कारज सगल सवारे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ बखसिआ पारब्रहम परमेसरि सगले रोग बिदारे ॥ गुर पूरे की सरणी उबरे कारज सगल सवारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। बिदारे = दूर कर दिए। सगल = सारे।1।
अर्थ: हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर ने (जिस सेवक पर) बख्शिश की, उसके सारे रोग उसने दूर कर दिए। जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे दुख-कष्टों से बच जाते हैं। गुरु उनके सारे काम सवार देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जनि सिमरिआ नाम अधारि ॥ तापु उतारिआ सतिगुरि पूरै अपणी किरपा धारि ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जनि सिमरिआ नाम अधारि ॥ तापु उतारिआ सतिगुरि पूरै अपणी किरपा धारि ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनि = जन ने। अधारि = आसरे पर। सतिगुरि = गुरु ने। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के जिस सेवक ने परमात्मा का नाम स्मरण किया, नाम के आसरे में (अपने आप को चलाया), पूरे गुरु ने अपनी कृपा करके (उसका) ताप उतार दिया। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा अनंद करह मेरे पिआरे हरि गोविदु गुरि राखिआ ॥ वडी वडिआई नानक करते की साचु सबदु सति भाखिआ ॥२॥१८॥४६॥

मूलम्

सदा अनंद करह मेरे पिआरे हरि गोविदु गुरि राखिआ ॥ वडी वडिआई नानक करते की साचु सबदु सति भाखिआ ॥२॥१८॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करह = हम करते हैं। पिआरे = हे प्यारे! गुरि = गुरु ने। करते की = कर्तार की। साचु = सदा कायम रहने वाला। सति = ठीक, सच। भाखिआ = उचारा।2।
अर्थ: हे मेरे प्यारे (भाई!) (गुरु की शरण पड़ कर) हम (भी) सदा आनंद पाते हैं। हरि गोबिंद को गुरु ने (ही ताप से) बचाया है। हे नानक! विधाता कर्तार बड़ी ताकतों का मालिक है। उस सदा स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द (ही) उचारना चाहिए। (गुरु ने यह) सही वचन उचारा है (ठीक उपदेश दिया है)।2।18।46।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ भए क्रिपाल सुआमी मेरे तितु साचै दरबारि ॥ सतिगुरि तापु गवाइआ भाई ठांढि पई संसारि ॥ अपणे जीअ जंत आपे राखे जमहि कीओ हटतारि ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ भए क्रिपाल सुआमी मेरे तितु साचै दरबारि ॥ सतिगुरि तापु गवाइआ भाई ठांढि पई संसारि ॥ अपणे जीअ जंत आपे राखे जमहि कीओ हटतारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु = उस में। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु साचै दरबारि = उस सदा कायम रहने वाले दरबार में। सतिगुरि = गुरु ने। ठांढि = ठंड। संसारि = संसार में। जमहि = जम ने। हटतारि = हड़ताल, हाट का ताला, दुकान बंदी।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर मेरे मालिक प्रभु जी दयावान होते हैं, वह सदा कायम रहने वाले दरबार में (उसकी पहुँच हो जाती है। उसकी तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ने लग जाती है। प्रभु की कृपा से जब) गुरु ने (उसका दुखों व पापों का) ताप दूर कर दिया (तो उसके वास्ते सारे) संसार में शांति बरत जाती है (जगत का कोई दुख-पाप उसे छू नहीं सकता)। हे भाई! प्रभु आप ही अपने सेवकों की (दुख-पाप से) रक्षा करता है, आत्मिक मौत उन्हें छू नहीं सकती (जम उन पर अपना प्रभाव डालने का प्रयत्न त्याग देता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के चरण रिदै उरि धारि ॥ सदा सदा प्रभु सिमरीऐ भाई दुख किलबिख काटणहारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के चरण रिदै उरि धारि ॥ सदा सदा प्रभु सिमरीऐ भाई दुख किलबिख काटणहारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। उरि धारि = हृदय में टिकाए रख। सिमरिऐ = स्मरणा चाहिए। भाई = हे भाई! किलबिख = पाप। काटणहारु = काटने की ताकत रखने वाला।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण अपने हृदय में टिकाए रख। हे भाई! परमात्मा को सदा सदा ही स्मरणा चाहिए। वह परमात्मा ही सारे दुखों पापों को नाश करने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस की सरणी ऊबरै भाई जिनि रचिआ सभु कोइ ॥ करण कारण समरथु सो भाई सचै सची सोइ ॥ नानक प्रभू धिआईऐ भाई मनु तनु सीतलु होइ ॥२॥१९॥४७॥

मूलम्

तिस की सरणी ऊबरै भाई जिनि रचिआ सभु कोइ ॥ करण कारण समरथु सो भाई सचै सची सोइ ॥ नानक प्रभू धिआईऐ भाई मनु तनु सीतलु होइ ॥२॥१९॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊबरै = बच जाता है। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सभु कोइ = हरेक जीव। करण कारण = जगत का मूल। सचै = सदा कायम रहने वाले की। सची = सदा कायम रहने वाली। सोइ = शोभा। सीतलु = शांत।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने हरेक जीव को पैदा किया है (जो मनुष्य) उसकी शरण पड़ता है वह (दुखों-पापों से) बच जाता है। हे भाई! वह परमात्मा सारे जगत का मूल है, सब ताकतों का मालिक है, उस सदा कायम रहने वाले प्रभु की शोभा भी सदा कायम रहने वाली है। हे नानक! (कह:) हे भाई! उस प्रभु का स्मरण करना चाहिए, (नाम-जपने की इनायत से) मन शांत हो जाता है, तन शांत हो जाता है।2।19।47।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ संतहु हरि हरि नामु धिआई ॥ सुख सागर प्रभु विसरउ नाही मन चिंदिअड़ा फलु पाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ संतहु हरि हरि नामु धिआई ॥ सुख सागर प्रभु विसरउ नाही मन चिंदिअड़ा फलु पाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! धिआई = मैं ध्याता रहूँ। सागर = समुंदर। विसरउ नाही = भूल ना जाए। चिंदड़िआ = चितवा, याद किया। पाई = मैं प्राप्त करूँ।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘विसरउ नाही’ है हुकमी भविष्यत्, अन्य-पुरुष, एकवचन। (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे संत जनो! पूरे गुरु ने (बालक हरि गोबिंद का) ताप (बुखार) उतार दिया, गुरु ने अपनी कृपा की है। परमात्मा दयावान हुआ है, सारे परिवार का दुख मिट गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि पूरै तापु गवाइआ अपणी किरपा धारी ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला दुखु मिटिआ सभ परवारी ॥१॥

मूलम्

सतिगुरि पूरै तापु गवाइआ अपणी किरपा धारी ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला दुखु मिटिआ सभ परवारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। परवारी = परवार का।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (अरदास करो कि) मैं सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहूँ। सुखों का समुंदर परमात्मा मुझे कभी ना भूले, मैं (उसके दर से) मन-इच्छित फल प्राप्त करता रहूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब निधान मंगल रस रूपा हरि का नामु अधारो ॥ नानक पति राखी परमेसरि उधरिआ सभु संसारो ॥२॥२०॥४८॥

मूलम्

सरब निधान मंगल रस रूपा हरि का नामु अधारो ॥ नानक पति राखी परमेसरि उधरिआ सभु संसारो ॥२॥२०॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाने। अधारो = आसरा। पति = इज्जत। परमेसरि = परमेश्वर ने। सभु = सारा। उधरिआ = बचा लिया।2।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम ही (हमारा) आसरा है, नाम ही सारी खुशियों-रसों-रूपों का खजाना है। हे नानक! (कह:) परमेश्वर ने (हमारी) इज्जत रख ली है परमेश्वर ही सारे संसार की रक्षा करने वाला है।2।20।48।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ मेरा सतिगुरु रखवाला होआ ॥ धारि क्रिपा प्रभ हाथ दे राखिआ हरि गोविदु नवा निरोआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ मेरा सतिगुरु रखवाला होआ ॥ धारि क्रिपा प्रभ हाथ दे राखिआ हरि गोविदु नवा निरोआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारि = धार के। प्रभि = प्रभु ने। नवा निरोआ = बिल्कुल आरोग्य।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु (मेरा) सहायक बना है, (गुरु की शरण की इनायत से) प्रभु ने कृपा करके (अपना) हाथ दे के (बाल हरि गोबिंद को) बचा लिया है, (अब बालक) हरि गोबिंद बिल्कुल ठीक-ठाक हो गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तापु गइआ प्रभि आपि मिटाइआ जन की लाज रखाई ॥ साधसंगति ते सभ फल पाए सतिगुर कै बलि जांई ॥१॥

मूलम्

तापु गइआ प्रभि आपि मिटाइआ जन की लाज रखाई ॥ साधसंगति ते सभ फल पाए सतिगुर कै बलि जांई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। लाज = इज्जत। ते = से। बलि जांई = मैं कुर्बान जाता हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई! बालक हरि गोबिंद का) ताप उतर गया है, प्रभु ने खुद उतारा है, प्रभु ने अपने सेवक की इज्जत रख ली है। हे भाई! गुरु की संगति से (मैंने) सारे फल प्राप्त किए हैं, मैं (सदा) गुरु से (ही) कुर्बान जाता हूँ।1।

[[0621]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हलतु पलतु प्रभ दोवै सवारे हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ अटल बचनु नानक गुर तेरा सफल करु मसतकि धारिआ ॥२॥२१॥४९॥

मूलम्

हलतु पलतु प्रभ दोवै सवारे हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ अटल बचनु नानक गुर तेरा सफल करु मसतकि धारिआ ॥२॥२१॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हलतु = (अत्र) ये लोक। पलतु = (परत्र) परलोक। हमरा = हम जीवों का। अटल = कभी ना टलने वाला। नानक = हे नानक! गुर = हे गुरु! सफल = फल देने वाला, बरकत वाला। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर।2।
अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य प्रभु का पल्लू पकड़ के रखता है, उसका) ये लोक और परलोक दोनों ही परमात्मा सवार देता है, हम जीवों का कोई गुण अथवा अवगुण परमात्मा चिक्त में नहीं रखता। हे नानक! (कह:) हे गुरु! तेरा (ये) वचन कभी टलने वाला नहीं (कि परमात्मा ही जीव का लोक-परलोक में रक्षक है)। हे गुरु! तू अपना बरकत भरा हाथ (हम जीवों के) माथे पर रखता है।2।21।49।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत्र सभि तिस के कीए सोई संत सहाई ॥ अपुने सेवक की आपे राखै पूरन भई बडाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत्र सभि तिस के कीए सोई संत सहाई ॥ अपुने सेवक की आपे राखै पूरन भई बडाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सोई = वह (प्रभु) ही। सहाई = मददगार। आपो = खुद ही। बडाई = इज्जत।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सारे जीव उस (परमात्मा) के ही पैदा किए हुए हैं; वह परमात्मा ही संत जनों का मददगार रहता है। अपने सेवक की (इज्जत) परमात्मा खुद ही रखता है (उसकी कृपा से ही सेवक की) इज्जत पूरे तौर पर बनी रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमु पूरा मेरै नालि ॥ गुरि पूरै पूरी सभ राखी होए सरब दइआल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पारब्रहमु पूरा मेरै नालि ॥ गुरि पूरै पूरी सभ राखी होए सरब दइआल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। सरब = सब पर। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूर्ण-परमात्मा (सदा) मेरे अंग-संग (मददगार) है। पूरे गुरु ने अच्छी तरह मेरी (इज्जत) रख ली है। गुरु सारे जीवों पर ही दयावान रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदिनु नानकु नामु धिआए जीअ प्रान का दाता ॥ अपुने दास कउ कंठि लाइ राखै जिउ बारिक पित माता ॥२॥२२॥५०॥

मूलम्

अनदिनु नानकु नामु धिआए जीअ प्रान का दाता ॥ अपुने दास कउ कंठि लाइ राखै जिउ बारिक पित माता ॥२॥२२॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नानकु धिआए = नानक ध्याता है। जीअ का दाता = जीवन देने वाला। कउ = को। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। पित = पिता।2।
अर्थ: हे भाई! नानक (तो उस परमात्मा का) नाम हर वक्त स्मरण करता रहता है जो जीवन देने वाला है जो सांसें देने वाला है। हे भाई! जैसे माता-पिता अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं, वैसे ही परमात्मा अपने सेवक को (अपने) गले से लगा के रखता है।2।22।50।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि पंचहु नही सहसा चुकाइआ ॥ सिकदारहु नह पतीआइआ ॥ उमरावहु आगै झेरा ॥ मिलि राजन राम निबेरा ॥१॥

मूलम्

मिलि पंचहु नही सहसा चुकाइआ ॥ सिकदारहु नह पतीआइआ ॥ उमरावहु आगै झेरा ॥ मिलि राजन राम निबेरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलि’ और आखिरी तुक के शब्द ‘मिलु’ का फर्क ध्यान से देखें)। मिलि पंचहु = (नगर के) पँचों को मिल के। सहसा = (कामादिक वैरियों में पड़ रहा) सहम। चुकाइआ = खत्म किया। सिकदारहु = सरदारों से। पतीआइआ = पतीज सका। उमरावहु आगै = सरकारी हाकिमों के सामने। झेरा = झगड़ा। राजन राम = प्रभु पातशाह। निबेरा = निबेड़ा, फैसला।1।
अर्थ: हे भाई! नगर के पँचों को मिल के (कामादिक वैरियों पर पड़ रहा) सहम दूर नहीं किया जा सकता। सिकदारों (आगुओं), लोगों से भी तसल्ली नहीं मिल सकती (कि ये वैरी तंग नहीं करेंगे) सरकारी हाकिमों के आगे भी ये झगड़ा (पेश करने से कुछ नहीं बनता) प्रभु पातशह को मिल के फैसला हो जाता है (और, कामादिक वैरियों का डर खत्म हो जाता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब ढूढन कतहु न जाई ॥ गोबिद भेटे गुर गोसाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

अब ढूढन कतहु न जाई ॥ गोबिद भेटे गुर गोसाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कतहु = कहीं भी। भेटे = मिल गए। गोसाई = धरती का मालिक। रहाउ।
अर्थ: जब गोबिंद को, गुरु को सृष्टि के पति को मिल पड़ें, तो अब (कामादिक वैरियों को पड़ रहे सहम से बचने के लिए) किसी और जगह (आसरा) तलाशने की जरूरत नहीं रह गई। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइआ प्रभ दरबारा ॥ ता सगली मिटी पूकारा ॥ लबधि आपणी पाई ॥ ता कत आवै कत जाई ॥२॥

मूलम्

आइआ प्रभ दरबारा ॥ ता सगली मिटी पूकारा ॥ लबधि आपणी पाई ॥ ता कत आवै कत जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूकारा = (कामादिक वैरियों के बिरुद्ध) शिकायत। लबधि = जिस चीज की प्राप्ति करने की जरूरत थी। कत = कहाँ? ता = तब।2।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य प्रभु की हजूरी में पहुँचता है (चिक्त जोड़ता है), तब इसकी (कामादिक वैरियों के विरुद्ध) सारी शिकायत समाप्त हो जाती है। तब मनुष्य वह वस्तु हासिल कर लेता है जो सदा इसकी अपनी ही बनी रहती है, तब विकारों के चक्कर में पड़ के भटकने से बच जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तह साच निआइ निबेरा ॥ ऊहा सम ठाकुरु सम चेरा ॥ अंतरजामी जानै ॥ बिनु बोलत आपि पछानै ॥३॥

मूलम्

तह साच निआइ निबेरा ॥ ऊहा सम ठाकुरु सम चेरा ॥ अंतरजामी जानै ॥ बिनु बोलत आपि पछानै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तह = वहाँ, प्रभु के दरबार में। साच निआइ = सदा कायम रहने वाले न्याय के अनुसार। सम = बराबर। ठाकुरु = मालिक। चेरा = नौकर। अंतरजामी = हरेक दिल की जानने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु की हजूरी में सदा कायम रहने वाले न्याय के अनुसार (कामादिक आदि के साथ हो रही टक्कर का) फैसला हो जाता है। उस दरगाह में (जुल्म करने वालों का कोई लिहाज नहीं किया जाता) मालिक और नौकर को एक समान ही समझा जाता है। हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु (हजूरी में पहुँचे हुए सवालिए के दिल की) जानता है, (उसके) बोले बिना वह प्रभु स्वयं (उसके दिल की पीड़ा को) समझ लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब थान को राजा ॥ तह अनहद सबद अगाजा ॥ तिसु पहि किआ चतुराई ॥ मिलु नानक आपु गवाई ॥४॥१॥५१॥

मूलम्

सरब थान को राजा ॥ तह अनहद सबद अगाजा ॥ तिसु पहि किआ चतुराई ॥ मिलु नानक आपु गवाई ॥४॥१॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। तह = वहाँ, ‘सरब थान को राजा’ से मेल अवस्था में। अनहद = एक रस, बिना बजाए, लगातार। सबद = महिमा की वाणी। अगाजा = गज गई, पूरा प्रभाव डालती है। पहि = पास। आपु = स्वै भाव। गवाई = गवा के।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु सब जगहों का मालिक है, उससे मिलाप-अवस्था में मनुष्य के अंदर प्रभु की महिमा की वाणी एक-रस पूरा प्रभाव डाल लेती है (और, मनुष्य पर कामादिक वैरी अपना जोर नहीं डाल सकते)। (पर, हे भाई! उससे मिलने के लिए) उसके साथ कोई चालाकी नहीं की जा सकती। हे नानक! (कह: हे भाई! अगर उससे मिलना है तो) स्वै भाव गवा के (उसको) मिल।4।1।51।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ से ‘घरु ३’ के शब्द शुरू हुए है। आखिर का अंक १ यही बताता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ हिरदै नामु वसाइहु ॥ घरि बैठे गुरू धिआइहु ॥ गुरि पूरै सचु कहिआ ॥ सो सुखु साचा लहिआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ हिरदै नामु वसाइहु ॥ घरि बैठे गुरू धिआइहु ॥ गुरि पूरै सचु कहिआ ॥ सो सुखु साचा लहिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। घरि = घर में, हृदय में, अंतरात्मे। बैठे = टिक के। गुरि = गुरु ने। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। लहिआ = पाया। साचा = सदा कायम रहने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! अपने दिल में परमात्मा का नाम बसाए रखो। अंतरात्मे टिक के गुरु का ध्यान धरा करो। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने सदा-स्थिर हरि-नाम (के स्मरण) का उपदेश दिया, उसने वह आत्मिक आनंद पा लिया जो सदा कायम रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुना होइओ गुरु मिहरवाना ॥ अनद सूख कलिआण मंगल सिउ घरि आए करि इसनाना ॥ रहाउ॥

मूलम्

अपुना होइओ गुरु मिहरवाना ॥ अनद सूख कलिआण मंगल सिउ घरि आए करि इसनाना ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलिआण = ख़ैरियत। सिउ = साथ। घरि = घर में, दिल में, अंतरात्मे। करि इसनान = स्नान कर के, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल में चुभी लगा के, नाम जल से मन को पवित्र करके। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों पर प्यारा गुरु दयावान होता है, वह मनुष्य नाम-जल से मन को पवित्र करके आत्मिक आनंद सुख खुशियों से भरपूर हो के अंतरात्मे टिक जाते हैं (विकार आदि से भटकना हट जाती है)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साची गुर वडिआई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ सिरि साहा पातिसाहा ॥ गुर भेटत मनि ओमाहा ॥२॥

मूलम्

साची गुर वडिआई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ सिरि साहा पातिसाहा ॥ गुर भेटत मनि ओमाहा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडिआई = आत्मिक उच्चता। साची = सदा स्थिर रहने वाली। सिरि = सिर पर। गुर भेटत = गुरु को मिलते हुए। मनि = मन में। ओमाहा = उत्साह।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की आत्मिक उच्चता सदा स्थिर रहने वाली है, उसकी कद्र-कीमत बताई नहीं जा सकती। गुरु (दुनिया के) शाहों के सिर पर पातशाह है। गुरु को मिल के मन में (हरि नाम स्मरण का) चाव पैदा हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल पराछत लाथे ॥ मिलि साधसंगति कै साथे ॥ गुण निधान हरि नामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥३॥

मूलम्

सगल पराछत लाथे ॥ मिलि साधसंगति कै साथे ॥ गुण निधान हरि नामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारे। पराछत = पाप। मिलि = मिल के। साथे = साथ में। निधान = खजाने।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में मिल के सारे पाप उतर जाते हैं, (गुरु की संगति की इनायत से) सारे गुणों के खजाने हरि नाम को जप जप के (जिंदगी के) सारे उद्देश्य सफल हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि कीनो मुकति दुआरा ॥ सभ स्रिसटि करै जैकारा ॥ नानक प्रभु मेरै साथे ॥ जनम मरण भै लाथे ॥४॥२॥५२॥

मूलम्

गुरि कीनो मुकति दुआरा ॥ सभ स्रिसटि करै जैकारा ॥ नानक प्रभु मेरै साथे ॥ जनम मरण भै लाथे ॥४॥२॥५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कीनो = बना दिया। मुकति दुआरा = पापों से खलासी करने का दरवाजा। जैकारा = शोभा। भै = डर।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु ने (हरि-नाम स्मरण का एक ऐसा) दरवाजा तैयार कर दिया है (जो विकारों से) खलासी (करा देता है)। (गुरु की इस दाति के कारण) सारी सृष्टि (गुरु की) शोभा करती है। हे नानक! (कह: गुरु की कृपा से हरि का नाम हृदय में बसाने से) परमात्मा मेरे अंग-संग (बसता प्रतीत हो रहा है) मेरे जनम-मरण के सारे डर उतर गए हैं।4।2।52।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै किरपा धारी ॥ प्रभि पूरी लोच हमारी ॥ करि इसनानु ग्रिहि आए ॥ अनद मंगल सुख पाए ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै किरपा धारी ॥ प्रभि पूरी लोच हमारी ॥ करि इसनानु ग्रिहि आए ॥ अनद मंगल सुख पाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। प्रभि = प्रभु ने। लोच = तमन्ना। करि इसनानु = मन को नाम जल के साथ पवित्र कर के। ग्रिहि आए = अंरात्मे टिक गए हैं, माया की खातिर भटकना से बच गए हैं।1।
अर्थ: (हे संत जनो! जब से) पूरे गुरु ने मेहर की है, प्रभु ने हमारी (नाम स्मरण की) तमन्ना पूरी कर दी है। (नाम जपने की इनायत से) आत्मिक स्नान करके हम अंतरात्मे टिके रहते हैं। आत्मिक आनंद आत्मिक खुशियां आत्मिक सुख भोग रहे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु राम नामि निसतरीऐ ॥ ऊठत बैठत हरि हरि धिआईऐ अनदिनु सुक्रितु करीऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु राम नामि निसतरीऐ ॥ ऊठत बैठत हरि हरि धिआईऐ अनदिनु सुक्रितु करीऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम में (जुड़ के ही)। निसतरीऐ = पार लांघा जा सकता है। धिआईऐ = ध्यान धरना चाहिए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सुक्रितु = नेक कर्म। करीऐ = करना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा के नाम में (जुड़ने से ही संसार समुंदर से) पार लांघा जा सकता है। (इस वास्ते) उठते-बैठते हर वक्त नाम स्मरण करना चाहिए, (हरि-नाम जपने की ये) नेक कमाई हर समय करनी चाहिए।1। रहाउ।

[[0622]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत का मारगु धरम की पउड़ी को वडभागी पाए ॥ कोटि जनम के किलबिख नासे हरि चरणी चितु लाए ॥२॥

मूलम्

संत का मारगु धरम की पउड़ी को वडभागी पाए ॥ कोटि जनम के किलबिख नासे हरि चरणी चितु लाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगु = (जीवन का) रास्ता। को = कोई विरला। कोटि = करोड़ों। किलबिख = पाप।2।
अर्थ: (हे संत जनो! स्मरण करना ही मनुष्य के लिए) गुरु का (बताया हुआ सही) रास्ता है, (स्मरण ही) धर्म की सीढ़ी है (जिसके द्वारा मनुष्य प्रभु-चरणों में पहुँच सकता है, पर) कोई दुर्लभ भाग्यशाली ही (ये सीढ़ी) पाता है। जो मनुष्य (स्मरण के द्वारा) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़ता है, उसके करोड़ों जन्मों के पाप नाश हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उसतति करहु सदा प्रभ अपने जिनि पूरी कल राखी ॥ जीअ जंत सभि भए पवित्रा सतिगुर की सचु साखी ॥३॥

मूलम्

उसतति करहु सदा प्रभ अपने जिनि पूरी कल राखी ॥ जीअ जंत सभि भए पवित्रा सतिगुर की सचु साखी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसतति = महिमा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। कल = कला, ताकत। सभि = सारे। साखी = शिक्षा। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)।3।
अर्थ: हे संत जनो! जिस परमात्मा ने (सारे संसार में अपनी) पूरी सत्ता टिका रखी है, उसकी महिमा सदा करते रहा करो। हे भाई! वह सारे ही प्राणी स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं, जो सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण वाली गुरु की शिक्षा को ग्रहण करते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिघन बिनासन सभि दुख नासन सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ खोए पाप भए सभि पावन जन नानक सुखि घरि आइआ ॥४॥३॥५३॥

मूलम्

बिघन बिनासन सभि दुख नासन सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ खोए पाप भए सभि पावन जन नानक सुखि घरि आइआ ॥४॥३॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। द्रिड़ाइआ = दिल में पक्का कर दिया। सभि = सारे। पावन = पवित्र। सुखि = आनंद से। घरि = घर में, दिल में, अंतरात्मे।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: जीवन के राह में से सारी) रुकावटें दूर करने वाला, सारे दुख नाश करने वाला हरि-नाम गुरु ने जिस लोगों के दिल में दृढ़ कर दिया, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं, वह सारे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, वह आत्मिक आनंद से अंतरात्मे टिके रहते हैं।4।3।53।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ साहिबु गुनी गहेरा ॥ घरु लसकरु सभु तेरा ॥ रखवाले गुर गोपाला ॥ सभि जीअ भए दइआला ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ साहिबु गुनी गहेरा ॥ घरु लसकरु सभु तेरा ॥ रखवाले गुर गोपाला ॥ सभि जीअ भए दइआला ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुनी = गुणों का मालिक। गहेरा = गहरा। घरु लसकरु = घर और परिवार आदि। गुर = हे गुरु! गेपाला = हे गोपाला! रखवाला = हे रक्षक! स्भि जीअ = सारे जीवों पर।1।
अर्थ: हे सबसे बड़े! हे सृष्टि के पालनहार! हे सब जीवों के रखवाले! तू सारे जीवों पर दयावान रहता है। तू सबका मालिक है, तू गुणों का मालिक है, तू गहरे जिगरे वाला है। (जीवों को) दिया हुआ सारा घर-घाट तेरा ही है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि अनदि रहउ गुर चरणा ॥ भउ कतहि नही प्रभ सरणा ॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि अनदि रहउ गुर चरणा ॥ भउ कतहि नही प्रभ सरणा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदि = आत्मिक आनंद में। रहउ = रहूँ, मैं रहता हूँ। कतहि = कहीं भी। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के चरणों को दिल में बसा के मैं आत्मिक आनंद में टिका रहता हूँ। हे भाई! प्रभु की शरण पड़ने से कहीं भी कोई डर छू नहीं सकता। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरिआ दासा रिदै मुरारी ॥ प्रभि अबिचल नीव उसारी ॥ बलु धनु तकीआ तेरा ॥ तू भारो ठाकुरु मेरा ॥२॥

मूलम्

तेरिआ दासा रिदै मुरारी ॥ प्रभि अबिचल नीव उसारी ॥ बलु धनु तकीआ तेरा ॥ तू भारो ठाकुरु मेरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा। रिदै = दिल में। प्रभि = प्रभु ने। अबिचल नीव = (भक्ति की) कभी ना हिलने वाली नींव। तकीआ = आसरा। भारो = बड़ा। ठाकुरु = मालिक।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवकों दिल में ही नाम बसता है। हे प्रभु! तूने (अपने दासों के हृदय में भक्ति की) कभी ना हिलने वाली नींव रख दी है। हे प्रभु! तू ही मेरा बल है, तू ही मेरा धन है, तेरा ही मुझे आसरा है। तू मेरा सबसे बड़ा मालिक है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि जिनि साधसंगु पाइआ ॥ सो प्रभि आपि तराइआ ॥ करि किरपा नाम रसु दीआ ॥ कुसल खेम सभ थीआ ॥३॥

मूलम्

जिनि जिनि साधसंगु पाइआ ॥ सो प्रभि आपि तराइआ ॥ करि किरपा नाम रसु दीआ ॥ कुसल खेम सभ थीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। प्रभि = प्रभु ने। तराइआ = पार लंघा लिया। रसु = स्वाद। कुसल खेम = सुख आनंद।3।
अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने गुरु की संगति प्राप्त की है, उस उस को प्रभु ने स्वयं (संसार समुंदर से) पार लंघा दिया है। जिस मनुष्य को प्रभु ने मेहर करके अपने नाम का स्वाद बख्शा है, उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद बना रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होए प्रभू सहाई ॥ सभ उठि लागी पाई ॥ सासि सासि प्रभु धिआईऐ ॥ हरि मंगलु नानक गाईऐ ॥४॥४॥५४॥

मूलम्

होए प्रभू सहाई ॥ सभ उठि लागी पाई ॥ सासि सासि प्रभु धिआईऐ ॥ हरि मंगलु नानक गाईऐ ॥४॥४॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। पाई = पैरों पर। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। मंगलु = महिमा का गीत।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य का मददगार बनता है, सारी दुनिया उठ के उसके पैरों में आ लगती है। हे नानक! हरेक सांस के साथ परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहना चाहिए।4।4।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सूख सहज आनंदा ॥ प्रभु मिलिओ मनि भावंदा ॥ पूरै गुरि किरपा धारी ॥ ता गति भई हमारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सूख सहज आनंदा ॥ प्रभु मिलिओ मनि भावंदा ॥ पूरै गुरि किरपा धारी ॥ ता गति भई हमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। भावंदा = प्यारा लगने वाला। गुरि = गुरु ने। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1।
अर्थ: (हे भाई! जब से) पूरे गुरु ने (मेरे पर) मेहर की है तब से मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई है, (मुझे) मन में प्यारा लगने वाला परमात्मा मिल गया है, मेरे अंदर आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि की प्रेम भगति मनु लीना ॥ नित बाजे अनहत बीना ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि की प्रेम भगति मनु लीना ॥ नित बाजे अनहत बीना ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति। बाजे = बजती है। अनहद = एक रस, लगातार। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन परमात्मा की प्यार भरी भक्ति में टिका रहता है, उसके अंदर सदा एक रस (आत्मिक आनंद की, मानो) वीणा बजती रहती है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि चरण की ओट सताणी ॥ सभ चूकी काणि लोकाणी ॥ जगजीवनु दाता पाइआ ॥ हरि रसकि रसकि गुण गाइआ ॥२॥

मूलम्

हरि चरण की ओट सताणी ॥ सभ चूकी काणि लोकाणी ॥ जगजीवनु दाता पाइआ ॥ हरि रसकि रसकि गुण गाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओट = आसरा। सताणी = स+ताणी, तगड़ी। काणि = अधीनता। लोकाणी = लोगों की। जगजीवनु = जगत का जीवन, जगत का जीवन दाता। रसकि = प्रेम से, रस ले ले के।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु-चरणों का बलवान आसरा ले लिया, दुनिया के लोगों वाली उसकी सारी अधीनता खत्म हो गई। उसे जगत का सहारा दातार प्रभु मिल जाता है। वह सदा बड़े प्रेम से परमात्मा के गीत गाता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ काटिआ जम का फासा ॥ मन पूरन होई आसा ॥ जह पेखा तह सोई ॥ हरि प्रभ बिनु अवरु न कोई ॥३॥

मूलम्

प्रभ काटिआ जम का फासा ॥ मन पूरन होई आसा ॥ जह पेखा तह सोई ॥ हरि प्रभ बिनु अवरु न कोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फाहा = फंदा। जह = जहाँ। पेखा = मैं देखता हूँ। तह = वहाँ।3।
अर्थ: हे भाई! मेरी भी प्रभु ने जम की फांसी काट दी है, मेरे मन की (ये चिरों की) आशा पूरीहो गई है। अब मैं जिधर देखता हूँ, मुझे उस परमात्मा के बिना कोई और दिखाई नहीं देता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा प्रभि राखे ॥ सभि जनम जनम दुख लाथे ॥ निरभउ नामु धिआइआ ॥ अटल सुखु नानक पाइआ ॥४॥५॥५५॥

मूलम्

करि किरपा प्रभि राखे ॥ सभि जनम जनम दुख लाथे ॥ निरभउ नामु धिआइआ ॥ अटल सुखु नानक पाइआ ॥४॥५॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। सभि = सारे। अटल = कभी ना खत्म होने वाला।4।
अर्थ: हे नानक! प्रभु ने कृपा करके जिनकी रक्षा की, उनके अनेक जन्मों के सारे दुख दूर हो गए। जिन्होंने निर्भय प्रभु का नाम स्मरण किया, उन्होंने वह आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया जो कभी दूर नहीं होता।4।5।55।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ ठाढि पाई करतारे ॥ तापु छोडि गइआ परवारे ॥ गुरि पूरै है राखी ॥ सरणि सचे की ताकी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ ठाढि पाई करतारे ॥ तापु छोडि गइआ परवारे ॥ गुरि पूरै है राखी ॥ सरणि सचे की ताकी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाढि = ठंड, शांति। करतारे = कर्तार ने। परवारे = परवार को, जीव के सारी ज्ञानेंन्द्रियों को। गुरि = गुरु ने। सचे की = सदा कायम रहने वाले प्रभु की। ताकी = देखी।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर कर्तार ने ठंड बरता दी, उसके परिवार को (उसकी ज्ञान-इंद्रिय को विकारों का) ताप छोड़ जाता है। हे भाई! पूरे गुरु ने जिस मनुष्य की मदद की, उसने सदा कायम रहने वाले परमात्मा का आसरा देख लिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमेसरु आपि होआ रखवाला ॥ सांति सहज सुख खिन महि उपजे मनु होआ सदा सुखाला ॥ रहाउ॥

मूलम्

परमेसरु आपि होआ रखवाला ॥ सांति सहज सुख खिन महि उपजे मनु होआ सदा सुखाला ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रखवाला = रक्षक। सहज सुख = आत्मिक अडोलता से सुख। उपजे = पैदा हो गए। सुखाला = सुखी। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का रखवाला परमात्मा खुद बन जाता है, उसका मन सदा के लिए सुखी हो जाता है (क्योंकि उसके अंदर) एक छिन में आत्मिक अडोलता के सुख और शांति पैदा हो जाते हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु दीओ दारू ॥ तिनि सगला रोगु बिदारू ॥ अपणी किरपा धारी ॥ तिनि सगली बात सवारी ॥२॥

मूलम्

हरि हरि नामु दीओ दारू ॥ तिनि सगला रोगु बिदारू ॥ अपणी किरपा धारी ॥ तिनि सगली बात सवारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दारू = दवा। तिनि = उस (दारू) ने। बिदारू = नाश कर दिया। बात = (जीवन की) कहानी।2।
अर्थ: हे भाई! (विकार रोगों का इलाज करने के लिए गुरु ने मनुष्य को) परमात्मा का नाम-दवा दी, उस नाम-दवाई ने उस मनुष्य के सारे ही (विकार-) रोग काट दिए। जब प्रभु ने उस मनुष्य पर मेहर की, तो उसने अपनी सारी जीवन कहानी ही सुंदर बना ली (अपना सारा जीवन ही सँवार लिया)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभि अपना बिरदु समारिआ ॥ हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ गुर का सबदु भइओ साखी ॥ तिनि सगली लाज राखी ॥३॥

मूलम्

प्रभि अपना बिरदु समारिआ ॥ हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ गुर का सबदु भइओ साखी ॥ तिनि सगली लाज राखी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यार वाला स्वभाव। समारिआ = याद रखा। हमरा = हम जीवों का। साखी = साक्षात। तिनि = उस (शब्द) ने। लाज = इज्जत।3।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ने (सदा ही) अपने प्यार करने वाले मूल प्राकृतिक स्वभाव (बिरद) को याद रखा है। वह हम जीवों के कोई भी गुण-अवगुण दिल से लगा के नहीं रखता। (प्रभु की कृपा से जिस मनुष्य के अंदर) गुरु के शब्द ने अपना प्रभाव डाला, शब्द ने उसकी सारी इज्जत रख ली (उसको विकारों के जाल में फंसने से बचा लिया)।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलाइआ बोली तेरा ॥ तू साहिबु गुणी गहेरा ॥ जपि नानक नामु सचु साखी ॥ अपुने दास की पैज राखी ॥४॥६॥५६॥

मूलम्

बोलाइआ बोली तेरा ॥ तू साहिबु गुणी गहेरा ॥ जपि नानक नामु सचु साखी ॥ अपुने दास की पैज राखी ॥४॥६॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोली = मैं बोलता हूँ, मैंतेरी महिमा करता हूँ। गुणी = गुणों का मालिक। गहेरा = गहरा। सचु साखी = सदा साथ निभने वाला मददगार। साखी = साख भरने वाला, साथ निभाने वाला। पैज = इज्जत।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू हमारा मालिक है, तू गुणों का खजाना है, तू गहरे जिगरे वाला है। जब तू प्रेरणा देता है तब ही मैं तेरी महिमा कर सकता हूं। हे नानक! सदा स्थिर प्रभु का नाम जपा कर, यही सदा हामी भरने वाला है। प्रभु अपने सेवक की (सदा) इज्जत रखता आया है।4।6।56।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ विचि करता पुरखु खलोआ ॥ वालु न विंगा होआ ॥ मजनु गुर आंदा रासे ॥ जपि हरि हरि किलविख नासे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ विचि करता पुरखु खलोआ ॥ वालु न विंगा होआ ॥ मजनु गुर आंदा रासे ॥ जपि हरि हरि किलविख नासे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करता = कर्तार। पुरखु = सर्व व्यापक। विचि खलोआ = खुद सहायता करता है। वालु न विंगा होआ = रक्ती भर भी नुकसान नहीं होता। मजनु = स्नान, राम के दासों के सरोवर में स्नान, नाम-जल से आत्मिक स्नान। गुरि = गुरु ने। आंदा रासे = रास कर लिया, सफल कर दिया। जपि = जप के। किलविख = पाप।1।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत में जिस मनुष्य का) आत्मिक स्नान गुरु ने सफल कर दिया, वह मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जप-जप के (अपने सारे) पाप नाश कर लेता है। सर्व-व्यापक कर्तार खुद उसकी सहायता करता है, (उसकी आत्मिक राशि-पूंजी का) रक्ती भर भी नुकसान नहीं होता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु रामदास सरोवरु नीका ॥ जो नावै सो कुलु तरावै उधारु होआ है जी का ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु रामदास सरोवरु नीका ॥ जो नावै सो कुलु तरावै उधारु होआ है जी का ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम दास सरोवरु = राम के दासों का सरोवर, साधु-संगत। नीका = अच्छा, सोहणा। नावै = नहाता है। उधारु = पार उतारा। जी का = प्राण का।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! साधु-संगत (एक) सुंदर (स्थान) है। जो मनुष्य (साधु-संगत में) आत्मिक स्नान करता है (मन को नाम-जल से पवित्र करता है), उसके जीवन का (विकारों से) पार-उतारा हो जाता है, वह अपनी सारी कुल को भी (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जै जै कारु जगु गावै ॥ मन चिंदिअड़े फल पावै ॥ सही सलामति नाइ आए ॥ अपणा प्रभू धिआए ॥२॥

मूलम्

जै जै कारु जगु गावै ॥ मन चिंदिअड़े फल पावै ॥ सही सलामति नाइ आए ॥ अपणा प्रभू धिआए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जै जै कारु = शोभा। जगु = जगत। मनि = मन में। चिंदिअड़े = चितवे हुए। सही सलामति = आत्मिक जीवन को पूरी तौर पर बचा के। नाइ = नहा के।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य राम के दासों के सरोवर में टिक के) अपने परमात्मा की आराधना करता है, (वह मनुष्य इस सत्संग-सरोवर में आत्मिक) स्नान कर के अपनी आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को पूर्ण-तौर पर बचा लेता है। सारा जगत उसकी शोभा के गीत गाता है, वह मनुष्य मन-वांछित फल हासिल कर लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत सरोवर नावै ॥ सो जनु परम गति पावै ॥ मरै न आवै जाई ॥ हरि हरि नामु धिआई ॥३॥

मूलम्

संत सरोवर नावै ॥ सो जनु परम गति पावै ॥ मरै न आवै जाई ॥ हरि हरि नामु धिआई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत सरोवरि = संतों के सरोवर में, साधु-संगत में। नावै = नहाता है। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। न आवै जाई = न आवै न जाई, पैदा होता मरता नहीं है।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य संतो के सरोवर में (साधु-संगत में) आत्मिक स्नान करता है, वह मनुष्य सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु ब्रहम बिचारु सु जानै ॥ जिसु दइआलु होइ भगवानै ॥ बाबा नानक प्रभ सरणाई ॥ सभ चिंता गणत मिटाई ॥४॥७॥५७॥

मूलम्

इहु ब्रहम बिचारु सु जानै ॥ जिसु दइआलु होइ भगवानै ॥ बाबा नानक प्रभ सरणाई ॥ सभ चिंता गणत मिटाई ॥४॥७॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमु बिचारु = परमात्मा से सांझ की सोच। सु = वह मनुष्य। बाबा = हे भाई! नानक! गणत = गिनती, फिक्र।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के मिलाप की इस विचार को वही मनुष्य समझता है जिस पर परमात्मा खुद दयावान होता है। हे नानक! (कह:) हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ा रहता है, वह अपनी हरेक किस्म की चिन्ता-फिक्र दूर कर लेता है।4।7।57।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि निबाही पूरी ॥ काई बात न रहीआ ऊरी ॥ गुरि चरन लाइ निसतारे ॥ हरि हरि नामु सम्हारे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि निबाही पूरी ॥ काई बात न रहीआ ऊरी ॥ गुरि चरन लाइ निसतारे ॥ हरि हरि नामु सम्हारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। ऊरी = ऊणी, कम। गुरि = गुरु ने। निसतारे = (संसार सागर से) पार लंघा दिए। समारे = संभालता है, दिल में बसाए रखता है।1।
अर्थ: (हे भाई! सदा से ही) परमात्मा ने अपने सेवक से प्रीति आखिर तक निभाई है। सेवक को किसी बात की कोई कमी नहीं रहती। सेवक सदा परमात्मा का नाम अपने दिल में संभाल के रखता है। गुरु ने (सेवकों को सदा ही) चरणों से लगा के (संसार-समुंदर से) पार लंघाया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने दास का सदा रखवाला ॥ करि किरपा अपुने करि राखे मात पिता जिउ पाला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अपने दास का सदा रखवाला ॥ करि किरपा अपुने करि राखे मात पिता जिउ पाला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = बना के। जिउ = जैसे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक का सदा रक्षक बना रहता है। जैसे माँ-बाप (बच्चों को) पालते हैं, वैसे ही प्रभु कृपा करके अपने सेवकों को अपने बनाए रखता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागी सतिगुरु पाइआ ॥ जिनि जम का पंथु मिटाइआ ॥ हरि भगति भाइ चितु लागा ॥ जपि जीवहि से वडभागा ॥२॥

मूलम्

वडभागी सतिगुरु पाइआ ॥ जिनि जम का पंथु मिटाइआ ॥ हरि भगति भाइ चितु लागा ॥ जपि जीवहि से वडभागा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। जिनि = जिस (गुरु) ने। पंथु = रास्ता। भाइ = प्यार में। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! बड़े भाग्यों वाले मनुष्यों ने (वह) गुरु पा लिया, जिस (गुरु) ने (उनके वास्ते) जम के देश को ले जाने वाला रास्ता मिटा दिया (क्योंकि गुरु की कृपा से) उनका मन परमात्मा की भक्ति में प्रभु के प्रेम में मगन रहता है। वे भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा का नाम जप जप के आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अम्रित बाणी गावै ॥ साधा की धूरी नावै ॥ अपुना नामु आपे दीआ ॥ प्रभ करणहार रखि लीआ ॥३॥

मूलम्

हरि अम्रित बाणी गावै ॥ साधा की धूरी नावै ॥ अपुना नामु आपे दीआ ॥ प्रभ करणहार रखि लीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। नावै = नहाए। आपे = खुद ही।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का सेवक) परमात्मा की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी गाता रहता है सेवक गुरमुखों के चरणों की धूल में स्नान करता रहता है (सवै भाव मिटा के संत जनों की शरण पड़ा रहता है)। परमात्मा ने खुद ही (अपने सेवक को) अपना नाम बख्शा है, विधाता प्रभु ने खुद ही (सदा से अपने सेवक को विकारों से) बचाया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि दरसन प्रान अधारा ॥ इहु पूरन बिमल बीचारा ॥ करि किरपा अंतरजामी ॥ दास नानक सरणि सुआमी ॥४॥८॥५८॥

मूलम्

हरि दरसन प्रान अधारा ॥ इहु पूरन बिमल बीचारा ॥ करि किरपा अंतरजामी ॥ दास नानक सरणि सुआमी ॥४॥८॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधारा = आसरा। बिमल = शुद्ध, पवित्र। अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले!।4।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु के सेवक का) ये पवित्र और पूर्ण विचार बना रहता है कि परमात्मा के दर्शन ही (सेवक की) जिंदगी का आसरा हैं। हे दास नानक! (तू भी प्रभु दर पर अरदास कर, और कह:) हे सबके दिलों की जानने वाले! हे स्वामी! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरी शरण आया हूँ।4।8।58।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै चरनी लाइआ ॥ हरि संगि सहाई पाइआ ॥ जह जाईऐ तहा सुहेले ॥ करि किरपा प्रभि मेले ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै चरनी लाइआ ॥ हरि संगि सहाई पाइआ ॥ जह जाईऐ तहा सुहेले ॥ करि किरपा प्रभि मेले ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। संगि = (अपने) साथ। सहाई = साथी, मददगार। जह = जहाँ। सुहेले = सुखी। प्रभि = प्रभु ने।1।
अर्थ: (हे भाई जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने (परमात्मा के) चरणों में जोड़ दिया, उसने वह परमात्मा पा लिया जो हर वक्त अंग-संग बसता है, और (जीवन का) मददगार है। (अगर प्रभु चरणों में जुड़े रहें तो) जहाँ भी जाएं, वहीं सुखी रह सकते हैं (पर जिन्हें चरणों में मिलाया है) प्रभु ने (खुद ही) कृपा करके मिलाया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण गावहु सदा सुभाई ॥ मन चिंदे सगले फल पावहु जीअ कै संगि सहाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि गुण गावहु सदा सुभाई ॥ मन चिंदे सगले फल पावहु जीअ कै संगि सहाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभाई = प्यार से। मनचिंदे = मन चाहे। सगले = सारे। जीअ कै संगि = जिंद के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा प्यार से परमात्मा के महिमा के गीत गाते रहा करो। (महिमा की इनायत से) मन मांगे फल (प्रभु के दर से) प्राप्त करते रहोगे, परमात्मा जीवन के साथ (बसता) साथी (प्रतीत होता रहेगा)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराइण प्राण अधारा ॥ हम संत जनां रेनारा ॥ पतित पुनीत करि लीने ॥ करि किरपा हरि जसु दीने ॥२॥

मूलम्

नाराइण प्राण अधारा ॥ हम संत जनां रेनारा ॥ पतित पुनीत करि लीने ॥ करि किरपा हरि जसु दीने ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = मैं। रेनारा = रेणु, चरण धूल। अधारा = आसरा। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। जसु = महिमा।2।
अर्थ: हे भाई! मैं तो संत जनों की धूल बना रहता हूँ, (संत जनों की कृपा से) परमात्मा जीवन का आसरा (प्रतीत होता रहता है)। संत जन कृपा करके परमात्मा की महिमा की दाति देते हैं, (और इस तरह) विकारों में गिरे हुओं को (भी) पवित्र जीवन वाला बना लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमु करे प्रतिपाला ॥ सद जीअ संगि रखवाला ॥ हरि दिनु रैनि कीरतनु गाईऐ ॥ बहुड़ि न जोनी पाईऐ ॥३॥

मूलम्

पारब्रहमु करे प्रतिपाला ॥ सद जीअ संगि रखवाला ॥ हरि दिनु रैनि कीरतनु गाईऐ ॥ बहुड़ि न जोनी पाईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा। रैनि = रात। बहुड़ि = दुबारा।3।
अर्थ: हे भाई! दिन-रात (हर समय) परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहना चाहिए, (महिमा की इनायत से) दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं पड़ता। परमात्मा खुद (महिमा करने वालों की) रक्षा करता है, सदा उनके प्राणों के साथ रक्षक बना रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु देवै पुरखु बिधाता ॥ हरि रसु तिन ही जाता ॥ जमकंकरु नेड़ि न आइआ ॥ सुखु नानक सरणी पाइआ ॥४॥९॥५९॥

मूलम्

जिसु देवै पुरखु बिधाता ॥ हरि रसु तिन ही जाता ॥ जमकंकरु नेड़ि न आइआ ॥ सुखु नानक सरणी पाइआ ॥४॥९॥५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिधाता = कर्तार, रचनहार। रसु = स्वाद। तिन ही = उस मनुष्य ने ही। जम कंकरु = (किंकर) जम का सेवक, जम दूत।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन ही’ के बारे में। यहां ‘तिनि ही’ में से ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर) हे नानक! उस मनुष्य ने ही परमात्मा के नाम का स्वाद समझा है (कद्र जानी है), जिसे विधाता सर्व-व्यापक प्रभु खुद (ये दाति) देता है। परमात्मा की शरण पड़ा रह के वह आत्मिक आनंद लेता रहता है। जम दूत भी उसके नजदीक नहीं फटकते।4।9।49।

[[0624]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै कीती पूरी ॥ प्रभु रवि रहिआ भरपूरी ॥ खेम कुसल भइआ इसनाना ॥ पारब्रहम विटहु कुरबाना ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै कीती पूरी ॥ प्रभु रवि रहिआ भरपूरी ॥ खेम कुसल भइआ इसनाना ॥ पारब्रहम विटहु कुरबाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। पूरी = सफलता। भरपूरी = हर जगह मौजूद। खेम कुसल = आत्मिक सुख आनंद। विटहु = से।1।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (आत्मिक जीवन में) सफलता दी है, (मुझे) परमात्मा हर जगह व्यापक दिखाई दे रहा है। मेरे अंदर आत्मिक सुख-आनंद बन गया है; ये है स्नान (जो मैंने गुरु सरोवर में किया है)। मैं परमात्मा से सदके जाता हूँ (जिसने मुझे गुरु मिला दिया है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर के चरन कवल रिद धारे ॥ बिघनु न लागै तिल का कोई कारज सगल सवारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर के चरन कवल रिद धारे ॥ बिघनु न लागै तिल का कोई कारज सगल सवारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिद = रिदै, हृदय में। तिल का = तिल जितना भी, रक्ती भर भी। सगल = सारे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु के कमल फूल जैसे कोमल चरण अपने हृदय में बसा लिए, (उसकी जिंदगी के रास्ते में) रक्ती भर भी कोई रुकावट नहीं आती। गुरु उसके सारे काम सँवार देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि साधू दुरमति खोए ॥ पतित पुनीत सभ होए ॥ रामदासि सरोवर नाते ॥ सभ लाथे पाप कमाते ॥२॥

मूलम्

मिलि साधू दुरमति खोए ॥ पतित पुनीत सभ होए ॥ रामदासि सरोवर नाते ॥ सभ लाथे पाप कमाते ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि साधू = गुरु को मिल के। दुरमति = खोटी अकल। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। रामदासि सरोवर = राम के दासों के सरोवर में, साधु-संगत में। नाते = स्नान किया।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के मनुष्य खोटी मति दूर कर लेता है। विकारी मनुष्य भी गुरु को मिल के पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। जो भी मनुष्य राम के दासों के सरोवर में (गुरु की संगति में आत्मिक) स्नान करते हैं (मन को आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से स्नान करवाते हैं) उनके सारे (पिछले) कमाए हुए पाप उतर जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुन गोबिंद नित गाईऐ ॥ साधसंगि मिलि धिआईऐ ॥ मन बांछत फल पाए ॥ गुरु पूरा रिदै धिआए ॥३॥

मूलम्

गुन गोबिंद नित गाईऐ ॥ साधसंगि मिलि धिआईऐ ॥ मन बांछत फल पाए ॥ गुरु पूरा रिदै धिआए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। मन बांछत = मन इच्छित। रिदै = हृदय में।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में मिल के परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, सदा प्रभु की महिमा के गीत गाने चाहिए। जो मनुष्य पूरे गुरु को अपने हृदय में बसाता है, वह (प्रभु-दर से) मन माँगी मुरादें पा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर गोपाल आनंदा ॥ जपि जपि जीवै परमानंदा ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ प्रभ अपना बिरदु रखाइआ ॥४॥१०॥६०॥

मूलम्

गुर गोपाल आनंदा ॥ जपि जपि जीवै परमानंदा ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ प्रभ अपना बिरदु रखाइआ ॥४॥१०॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमानंदा = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु। बिरदु = प्यार करने वाला ईश्वरीय मूल स्वभाव।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) परमात्मा अपना बिरद सदा कायम रखता है। वह परमात्मा सबसे बड़ा है, सृष्टि को पालने वाला है, आनंद स्वरूप है। जो मनुष्य उसका नाम स्मरण करता है, उस सबसे ऊँचे आनंद के मालिक को जप जप के वह मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।4।10।60।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु सोरठि महला ५ ॥ दह दिस छत्र मेघ घटा घट दामनि चमकि डराइओ ॥ सेज इकेली नीद नहु नैनह पिरु परदेसि सिधाइओ ॥१॥

मूलम्

रागु सोरठि महला ५ ॥ दह दिस छत्र मेघ घटा घट दामनि चमकि डराइओ ॥ सेज इकेली नीद नहु नैनह पिरु परदेसि सिधाइओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दहदिस = दसों दिशाओं में। दह = दस। दिस = दिशा। मेघ = बादल। छत्र = छतरी। घटा घट = घटाएं ही घटाएं। दामनि = बिजली। चमकि = चमक के। नहु = नहीं। नैनह = आँखों में। पिरु = पति। परदेसि = बेगाने देश में।1।
अर्थ: (जब) बादलों की घन घोर घटाएं दसों दिशाओं में (पसरी होती हैं), बिजली चमक-चमक के डराती है, (जिस स्त्री का) पति परदेस गया होता है, (उसकी) सेज (पति के बिना) सूनी होती है, (उसकी) आँखों में नींद नहीं आती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुणि नही संदेसरो माइओ ॥ एक कोसरो सिधि करत लालु तब चतुर पातरो आइओ ॥ रहाउ॥

मूलम्

हुणि नही संदेसरो माइओ ॥ एक कोसरो सिधि करत लालु तब चतुर पातरो आइओ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संदेसरो = संदेश। माइआ = हे माँ! कोसरो = कोस। सिधि करत = तय करता था। चतुर पातरो = चार पक्तियां, चार चिठियां। रहाउ।
अर्थ: (पति से विछुड़ के घबराई हुई वह कहती है:) हे माँ! अब तो (पति की ओर से) कोई संदेशा भी नहीं आता। (पहले जब कभी घर से जा के पति) एक कोस रास्ता ही तय करता था तब (उसकी) चार चिठियां आ जाती थीं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किउ बिसरै इहु लालु पिआरो सरब गुणा सुखदाइओ ॥ मंदरि चरि कै पंथु निहारउ नैन नीरि भरि आइओ ॥२॥

मूलम्

किउ बिसरै इहु लालु पिआरो सरब गुणा सुखदाइओ ॥ मंदरि चरि कै पंथु निहारउ नैन नीरि भरि आइओ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसरै = भूल जाए। सुख दाइओ = सुख देने वाला। मंदरि = मंदिर पर, कोठे पर। चरि कै = चढ़ के। पंथु = रास्ता। निहारउ = मैं देखती हूँ। नीरि = नीर से, (वैराग) जल से।2।
अर्थ: हे माँ! मुझे भी ये सुंदर प्यारा लाल (प्रभु) कैसे भूल सकता है? ये तो सारे गुणों का मालिक है, सारे सुख देने वाला है। मैं भी (विछुड़ी नारी की तरह) कोठे के ऊपर चढ़ के (पति का) राह देखती हूँ, (मेरी भी) आँखें (वैराग-) नीर से भर आती हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ हउ भीति भइओ है बीचो सुनत देसि निकटाइओ ॥ भांभीरी के पात परदो बिनु पेखे दूराइओ ॥३॥

मूलम्

हउ हउ भीति भइओ है बीचो सुनत देसि निकटाइओ ॥ भांभीरी के पात परदो बिनु पेखे दूराइओ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भीति = दीवार। हउ हउ भीति = अहंकार की दीवार। बीचो = बीच में। देसि = देश में हृदय में। निकटाइओ = नजदीक ही। के = के। पात = पंख। परदो = परदा।3।
अर्थ: हे माँ! मैं सुनती तो ये हूँ, कि (वह पति प्रभु) मेरे हृदय देस में मेरे नजदीक ही बसता है, पर (मेरे और उसके) बीच में मेरी अहंकार की दीवार खड़ी हो गई है, (कहते हैं) भंभीरी के पंखों की तरह (बड़ा बारीक) पर्दा (मेरे और उस पति के बीच में), पर उसके दर्शन किए बिना वह कहीं दूर प्रतीत होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भइओ किरपालु सरब को ठाकुरु सगरो दूखु मिटाइओ ॥ कहु नानक हउमै भीति गुरि खोई तउ दइआरु बीठलो पाइओ ॥४॥

मूलम्

भइओ किरपालु सरब को ठाकुरु सगरो दूखु मिटाइओ ॥ कहु नानक हउमै भीति गुरि खोई तउ दइआरु बीठलो पाइओ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: के = का। सगरो = सारा। गुरि = गुरु ने। तउ = तब। दइआरु = दयालु। बीठलो = (विष्ठल, वि = परे, माया के प्रभाव से परे। स्थल = खड़ा हुआ) माया के प्रभाव से परे रहने वाला परमात्मा।4।
अर्थ: हे माँ! जिस सौभाग्यवती पर सब जीवों का मालिक दयावान होता है, उसका वह सारा (विछोड़े का) दुख दूर कर देता है। हे नानक! कह: जब गुरु ने (जीव-स्त्री के अंदर से) अहंकार की दीवार गिरा दी, तब उसने माया-रहित दयालु (प्रभु-पति) को (अपने अंदर ही) पा लिया।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु रहिओ अंदेसरो माइओ ॥ जो चाहत सो गुरू मिलाइओ ॥ सरब गुना निधि राइओ ॥ रहाउ दूजा ॥११॥६१॥

मूलम्

सभु रहिओ अंदेसरो माइओ ॥ जो चाहत सो गुरू मिलाइओ ॥ सरब गुना निधि राइओ ॥ रहाउ दूजा ॥११॥६१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहिण = समाप्त हो गया। अंदेसरो = फिक्र। गुना निधि = गुणों का खजाना। राइओ = प्रभु पातशाह, राजा। रहाउ दूजा।
अर्थ: हे माँ! प्रभु-पातशाह सारे गुणों का खजाना है। जिस जीव-स्त्री को गुरु ने वह मिला दिया, जिसकी उसे चाहत थी, उसकी सारी चिन्ता-फिक्र खत्म हो जाती है। रहाउ दूजा।11।61।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गई बहोड़ु बंदी छोड़ु निरंकारु दुखदारी ॥ करमु न जाणा धरमु न जाणा लोभी माइआधारी ॥ नामु परिओ भगतु गोविंद का इह राखहु पैज तुमारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गई बहोड़ु बंदी छोड़ु निरंकारु दुखदारी ॥ करमु न जाणा धरमु न जाणा लोभी माइआधारी ॥ नामु परिओ भगतु गोविंद का इह राखहु पैज तुमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गई बहोड़ु = (आत्मिक जीवन की) गायब हुई (राशि पूंजी) को वापस दिलाने वाला। बंदी छोड़ु = (विकारों की) कैद में से छुड़ाने वाला। दुख दारी = दुखों में दारी करने वाला, दुखों में धीरज देने वाला। पैज = इज्जत, आदर।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (आत्मिक जीवन की) खोई हुई (राशि पूंजी) को वापिस दिलवाने वाला है, तू (विकारों की) कैद में से छुड़वाने वाला है, तेरा कोई खास रूप नहीं बताया जा सकता, तू (जीवों को) दुखों में ढाढस देने वाला है। हे प्रभु! मैं कोई अच्छा कर्म अच्छा धर्म करना नहीं जानता, मैं लोभ में फंसा रहता हूँ, मैं माया के मोह में ग्रसित रहता हूँ। पर, हे प्रभु! मेरा नाम ‘गोबिंद का भक्त’ पड़ गया है। सो, अब तू ही अपने नाम की खुद ही इज्जत रख।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ निमाणिआ तू माणु ॥ निचीजिआ चीज करे मेरा गोविंदु तेरी कुदरति कउ कुरबाणु ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ निमाणिआ तू माणु ॥ निचीजिआ चीज करे मेरा गोविंदु तेरी कुदरति कउ कुरबाणु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निचीजिआ = नकारों को। चीज करे = आदरणीय बना देता है। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू उन लोगों को सम्मान देता है, जिनका और कोई मान नहीं करता। मैं तेरी ताकत से सदके जाता हूँ। हे भाई! मेरा गोबिंद नकारों को भी आदरणीय बना देता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसा बालकु भाइ सुभाई लख अपराध कमावै ॥ करि उपदेसु झिड़के बहु भाती बहुड़ि पिता गलि लावै ॥ पिछले अउगुण बखसि लए प्रभु आगै मारगि पावै ॥२॥

मूलम्

जैसा बालकु भाइ सुभाई लख अपराध कमावै ॥ करि उपदेसु झिड़के बहु भाती बहुड़ि पिता गलि लावै ॥ पिछले अउगुण बखसि लए प्रभु आगै मारगि पावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाइ = प्रेम से, अपनी लगन से। सुभाई = अपने स्वभाव अनुसार। करि = कर के। बहु भाती = कई तरीकों से। बहुड़ि = दुबारा, फिर। गलि = गले से। मारगि = (सीधे) रास्ते पर।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे कोई बच्चा अपनी लगन के अनुसार स्वभाव के मुताबिक लाखों ग़लतियां करता है, उसका पिता उसको समझा समझा के कई कई तरीकों से झिड़कता भी है, पर फिर भी अपने गले से (उसको) लगा लेता है, इसी तरह प्रभु पिता भी जीवों के पिछले गुनाह बख्श लेता है, और आगे के लिए (जीवन के) ठीक रास्ते पर डाल देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अंतरजामी सभ बिधि जाणै ता किसु पहि आखि सुणाईऐ ॥ कहणै कथनि न भीजै गोबिंदु हरि भावै पैज रखाईऐ ॥ अवर ओट मै सगली देखी इक तेरी ओट रहाईऐ ॥३॥

मूलम्

हरि अंतरजामी सभ बिधि जाणै ता किसु पहि आखि सुणाईऐ ॥ कहणै कथनि न भीजै गोबिंदु हरि भावै पैज रखाईऐ ॥ अवर ओट मै सगली देखी इक तेरी ओट रहाईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = दिल की जानने वाला। सभ बिधि = हरेक (आत्मिक) हालत। पहि = पास। कथनि = कहने से, ज़बानी कह देने से। भीजै = खुश होता। भावै = अच्छा लगता। पैज = इज्जत। ओट = आसरा। रहाईऐ = रखी हुई है।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा हरेक दिल की जानने वाला है, (जीवों की) हरेक (आत्मिक) हालत को जानता है। (उसे छोड़ के) और किस के पास (अपनी व्यथा) कह के सुनाई जा सकती है? हे भाई! परमात्मा निरी ज़बानी बातों से खुश नहीं होता। (कर्मों के कारण जो मनुष्य) परमात्मा को अच्छा लगने लगता है, उसका वह सम्मान रख लेता है।
हे प्रभु! मैंने और सारे आसरे देख लिए हैं, मैंने एक तेरा आसरा ही रखा हुआ है।3।

[[0625]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

होइ दइआलु किरपालु प्रभु ठाकुरु आपे सुणै बेनंती ॥ पूरा सतगुरु मेलि मिलावै सभ चूकै मन की चिंती ॥ हरि हरि नामु अवखदु मुखि पाइआ जन नानक सुखि वसंती ॥४॥१२॥६२॥

मूलम्

होइ दइआलु किरपालु प्रभु ठाकुरु आपे सुणै बेनंती ॥ पूरा सतगुरु मेलि मिलावै सभ चूकै मन की चिंती ॥ हरि हरि नामु अवखदु मुखि पाइआ जन नानक सुखि वसंती ॥४॥१२॥६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होइ = हो के। आपे = आप ही। मेलि = मेलता है। चूके = खत्म हो जाती है। चिंती = चिन्ता। अवखदु = दवाई। मुखि = मुँह में। सुखि = आत्मिक आनंद में। वसंती = बसता है।4।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु दयावान हो के कृपालु हो के खुद ही (जिस मनुष्य की) विनती सुन लेता है, उसे पूरा गुरु मिला देता है (इस तरह, उस मनुष्य के) मन की हरेक चिन्ता समाप्त हो जाती है।
हे दास नानक! (कह: जिस मनुष्य के) मुँह में परमात्मा नाम-दवा डाल देता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद में जीवन व्यतीत करता है।4।12।62।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभ भए अनंदा दुख कलेस सभि नाठे ॥ गुन गावत धिआवत प्रभु अपना कारज सगले सांठे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभ भए अनंदा दुख कलेस सभि नाठे ॥ गुन गावत धिआवत प्रभु अपना कारज सगले सांठे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि सिमरि = बार बार याद कर कर के। कलेस = झगड़े। सभि = सारे। सांठे = साध लिए। सगले = सारे।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम स्मरण कर-कर के (स्मरण करने वाले मनुष्य) प्रसन्नचिक्त हो जाते हैं, (उनके अंदर से) सारे दुख-कष्ट दूर हो जाते हैं। (हे भाई! भाग्यशाली मनुष्य) अपने प्रभु के गुण गाते हुए और उसका ध्यान धरते हुए अपने सारे काम सँवार लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगजीवन नामु तुमारा ॥ गुर पूरे दीओ उपदेसा जपि भउजलु पारि उतारा ॥ रहाउ॥

मूलम्

जगजीवन नामु तुमारा ॥ गुर पूरे दीओ उपदेसा जपि भउजलु पारि उतारा ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग जीवन = जगत (के जीवों) को आत्मिक जीवन देने वाला। जपि = जप के। भउजलु = संसार समुंदर। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम जगत (के जीवों) को आत्मिक जीवन देने वाला है। पूरे सतिगुरु ने (जिस मनुष्य को तेरा नाम स्मरण करने का) उपदेश दिया, (वह मनुष्य) नाम ज पके संसार समुंदर से पार लांघ गया। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूहै मंत्री सुनहि प्रभ तूहै सभु किछु करणैहारा ॥ तू आपे दाता आपे भुगता किआ इहु जंतु विचारा ॥२॥

मूलम्

तूहै मंत्री सुनहि प्रभ तूहै सभु किछु करणैहारा ॥ तू आपे दाता आपे भुगता किआ इहु जंतु विचारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंत्री = सलाहकार। सुनहि = तू सुनता है। करणैहार = कर सकने की सामर्थ्य वाला। आपे = खुद ही। भुगता = भोगने वाला। किआ विचारा = कोई पाइयां नहीं।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही अपना सलाहकार है, तू खुद ही (हरेक जीव को) दातें देने वाला है, तू खुद ही (हरेक जीव में बैठ के पदार्थों को) भोगने वाला है। इस जीव की कोई बिसात नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ गुण तेरे आखि वखाणी कीमति कहणु न जाई ॥ पेखि पेखि जीवै प्रभु अपना अचरजु तुमहि वडाई ॥३॥

मूलम्

किआ गुण तेरे आखि वखाणी कीमति कहणु न जाई ॥ पेखि पेखि जीवै प्रभु अपना अचरजु तुमहि वडाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखाणी = मैं बयान करूँ। पेखि = देख के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। तुमहि = तेरी। वडाई = बड़प्पन।3।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे गुण कह के बयान के लायक नहीं हूँ तेरी कद्र-कीमति बताई नहीं जा सकती। तेरा बड़प्पन हैरान कर देने वाला है। (हे भाई! मनुष्य) अपने प्रभु के दर्शन कर करके आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारि अनुग्रहु आपि प्रभ स्वामी पति मति कीनी पूरी ॥ सदा सदा नानक बलिहारी बाछउ संता धूरी ॥४॥१३॥६३॥

मूलम्

धारि अनुग्रहु आपि प्रभ स्वामी पति मति कीनी पूरी ॥ सदा सदा नानक बलिहारी बाछउ संता धूरी ॥४॥१३॥६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। धारि = कर के। प्रभ = हे प्रभु! पति = इज्जत। मति = बुद्धि। बलिहारी = सदके। बाछहु = मैं चाहता हूँ। धूरी = चरण धूल।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे स्वामी! तू स्वयं ही (जीव पर) कृपा करके उसको (लोक-परलोक में) आदर देता है, उसे पूर्ण बुद्धि दे देता है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं सदा ही तुझसे कुर्बान जाता हूँ। मैं (तेरे दर से) संत जनों की चरण-धूल माँगता हूँ।4।13।63।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि मः ५ ॥ गुरु पूरा नमसकारे ॥ प्रभि सभे काज सवारे ॥ हरि अपणी किरपा धारी ॥ प्रभ पूरन पैज सवारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि मः ५ ॥ गुरु पूरा नमसकारे ॥ प्रभि सभे काज सवारे ॥ हरि अपणी किरपा धारी ॥ प्रभ पूरन पैज सवारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नमसकारे = सिर निवाता है, शरण पड़ता है। प्रभि = प्रभु ने। पैज = इज्जत।1।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ता है, (यकीन जानिए कि) परमात्मा ने उसके सारे काम सवार दिए हैं। प्रभु ने उस मनुष्य पर मेहर (की निगाह) की, और (लोक-परलोक में) उसकी इज्जत अच्छी तरह रख ली।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने दास को भइओ सहाई ॥ सगल मनोरथ कीने करतै ऊणी बात न काई ॥ रहाउ॥

मूलम्

अपने दास को भइओ सहाई ॥ सगल मनोरथ कीने करतै ऊणी बात न काई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। सहाई = मददगार। करतै = कर्तार ने। ऊणी बात = कमी। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवकों का मददगार बनता है। कर्तार ने (सदा से ही अपने भक्तों की) सारी मनोकामनाएं पूरी की हैं, सेवक को (किसी किस्म की) कोई कमी नहीं रहती। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करतै पुरखि तालु दिवाइआ ॥ पिछै लगि चली माइआ ॥ तोटि न कतहू आवै ॥ मेरे पूरे सतगुर भावै ॥२॥

मूलम्

करतै पुरखि तालु दिवाइआ ॥ पिछै लगि चली माइआ ॥ तोटि न कतहू आवै ॥ मेरे पूरे सतगुर भावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखि = पुरख ने, सर्वव्यापक प्रभु ने। तालु = ताला, गुप्त नाम खजाना। दिवाइआ = दिला दिया (गुरु के द्वारा)। तोटि = कमी। कतहू = कहीं भी। सतगुर भावै = गुरु को अच्छी लगती है।2।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है) सर्वव्यापक कर्तार ने (उसको गुरु के द्वारा) गुप्त नाम-खजाना दिलवा दिया, (उसकी माया की लालसा नहीं रह जाती) माया उसके पीछे-पीछे चलती फिरती है। (माया की ओर से उसे) कहीं भी कमी महसूस नहीं होती। मेरे पूरे सतिगुरु को (उस भाग्यशाली मनुष्य के लिए यही बात) अच्छी लगती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि सिमरि दइआला ॥ सभि जीअ भए किरपाला ॥ जै जै कारु गुसाई ॥ जिनि पूरी बणत बणाई ॥३॥

मूलम्

सिमरि सिमरि दइआला ॥ सभि जीअ भए किरपाला ॥ जै जै कारु गुसाई ॥ जिनि पूरी बणत बणाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआला = दया का घर प्रभु। सभि = सारे। जीअ = जीव। किरपाला = कृपा के घर प्रभु का रूप। जै जै कारु = शोभा, महिमा। गुसाई = सृष्टि का मालिक। जिनि = जिस (गुसाई) ने। बणत = योजना, युक्ति।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! दया के घर परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (स्मरण करने वाले) सारे ही जीव उस दया-स्वरूप प्रभु का रूप बन जाते हैं। (इस वास्ते हे भाई!) उस सृष्टि के मालिक प्रभु की महिमा करते रहा करो, जिस ने (जीवों को अपने साथ मिलाने की) ये सुंदर योजना बना दी है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू भारो सुआमी मोरा ॥ इहु पुंनु पदारथु तेरा ॥ जन नानक एकु धिआइआ ॥ सरब फला पुंनु पाइआ ॥४॥१४॥६४॥

मूलम्

तू भारो सुआमी मोरा ॥ इहु पुंनु पदारथु तेरा ॥ जन नानक एकु धिआइआ ॥ सरब फला पुंनु पाइआ ॥४॥१४॥६४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोरा = मेरा। पुंनु = बख्शीश। पदारथु = नाम वस्तु। सरब फला = सारे फल देने वाला।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू मेरा बड़ा मालिक है। तेरा नाम-पदार्थ (जो मुझे गुरु के माध्यम से मिला है) तेरी ही बख्शिश है। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा को स्मरणा शुरू कर दिया, उसने सारे फल देने वाली (ईश्वरीय) कृपा पा ली।4।14।64।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु ३ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु ३ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामदास सरोवरि नाते ॥ सभि उतरे पाप कमाते ॥ निरमल होए करि इसनाना ॥ गुरि पूरै कीने दाना ॥१॥

मूलम्

रामदास सरोवरि नाते ॥ सभि उतरे पाप कमाते ॥ निरमल होए करि इसनाना ॥ गुरि पूरै कीने दाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामदास सरोवरि = राम के दासों के सरोवर में, साधु-संगत में जहाँ नाम जल का प्रवाह चलता है। नाते = नहाए। सभि = सारे। कमाते = कमाए हुए, किए हुए। करि = कर के। गुरि = गुरु ने। दाना = बख्शिश।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य राम के दासों के सरोवर में (साधु-संगत में नाम-अमृत से) स्नान करते हैं, उनके (पिछले) किए हुए पाप उतर जाते हैं। (हरि नाम जल से) स्नान करके वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। पर ये कृपा पूरे गुरु ने ही की हुई होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि कुसल खेम प्रभि धारे ॥ सही सलामति सभि थोक उबारे गुर का सबदु वीचारे ॥ रहाउ॥

मूलम्

सभि कुसल खेम प्रभि धारे ॥ सही सलामति सभि थोक उबारे गुर का सबदु वीचारे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। कुसल खेम = सुख आनंद। प्रभि = प्रभु ने। सभि थोक = सारी चीजें, आत्मिक जीवन के सारे गुण। उबारे = बचा लिए। बीचारे = विचार के, सोच मंडल में टिका के। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द को अपनी सोच मंडल में टिका के आत्मिक जीवन के सारे गुण (विकारों के जाल में फसने से) ठीक ठाक बचा लिए, प्रभु ने (उसके हृउय में) सारे आत्मिक सुख आनंद पैदा कर दिए। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि मलु लाथी ॥ पारब्रहमु भइओ साथी ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ आदि पुरख प्रभु पाइआ ॥२॥१॥६५॥

मूलम्

साधसंगि मलु लाथी ॥ पारब्रहमु भइओ साथी ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ आदि पुरख प्रभु पाइआ ॥२॥१॥६५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। मलु = विकारों की मैल। साथी = सहायक, मददगार। पुरख = सर्वव्यापक।2।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (टिकने से) विकारों की मैल दूर हो जाती है, (साधु-संगत की इनायत से) परमात्मा मददगार बन जाता है। हे नानक! (जिस मनुष्य ने रामदास सरोवर में आ के) परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसने उस प्रभु को पा लिया जो सबका आदि है और सर्व-व्यापक है।2।1।65।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ से ‘घर ३’ के शब्द दो बंदों वाले शुरू होते हैं। दुपदे = दो बंदों वाले।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ जितु पारब्रहमु चिति आइआ ॥ सो घरु दयि वसाइआ ॥ सुख सागरु गुरु पाइआ ॥ ता सहसा सगल मिटाइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ जितु पारब्रहमु चिति आइआ ॥ सो घरु दयि वसाइआ ॥ सुख सागरु गुरु पाइआ ॥ ता सहसा सगल मिटाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस में। चिति = चिक्त में, हृदय में। जितु चिति = जिस हृदय घर में। सो घरु = वह हृदय घर। दयि = प्यार वाले प्रभु ने। सुख सागरु = सुखों के समुंदर। ता = तब। सहसा = सहम।1।
अर्थ: हे भाई! जिस हृदय-घर में परमात्मा आ बसा है, प्रीतम प्रभु ने वह हृदय-घर (आत्मिक गुणों से) भरपूर कर दिया। हे भाई! (जब किसी भाग्यशाली को) सुखों का समुंदर गुरु मिल गया, तब उसने अपना सारा सहम दूर कर लिया।1।

[[0626]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के नाम की वडिआई ॥ आठ पहर गुण गाई ॥ गुर पूरे ते पाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के नाम की वडिआई ॥ आठ पहर गुण गाई ॥ गुर पूरे ते पाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडिआई = शोभा, महिमा। आठ पहिर = हर वक्त। ते = से। पाई = प्राप्त की। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम की महिमा करनी, आठों पहर परमात्मा की महिमा के गीत गाने- (ये दाति) पूरे गुरु से ही मिलती है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ की अकथ कहाणी ॥ जन बोलहि अम्रित बाणी ॥ नानक दास वखाणी ॥ गुर पूरे ते जाणी ॥२॥२॥६६॥

मूलम्

प्रभ की अकथ कहाणी ॥ जन बोलहि अम्रित बाणी ॥ नानक दास वखाणी ॥ गुर पूरे ते जाणी ॥२॥२॥६६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = बयान ना हो सकने वाली। कहाणी = स्वरूप का वर्णन। बोलहि = बोलते हैं। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। वखाणी = उचारी। ते = से।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के स्वरूप की बातचीत बताई नहीं जा सकती। प्रभु के सेवक आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी उचारते रहते हैं। हे नानक! वही सेवक ये वाणी उचारते हैं, जिन्होंने पूरे गुरु से ये समझ हासिल की है।2।2।66।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ आगै सुखु गुरि दीआ ॥ पाछै कुसल खेम गुरि कीआ ॥ सरब निधान सुख पाइआ ॥ गुरु अपुना रिदै धिआइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ आगै सुखु गुरि दीआ ॥ पाछै कुसल खेम गुरि कीआ ॥ सरब निधान सुख पाइआ ॥ गुरु अपुना रिदै धिआइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले जीवन काल में, परलोक में। गुरि = गुरु ने। पाछै = बीते समय में, इस लोक में। कुसल खेम = सुख आनंद। निधान = खजाने। रिदै = हृदय में।1।
अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्य ने अपने गुरु को (अपने) हृदय में बसा लिया, उसने सारे (आत्मिक) खजाने सारे आनंद प्राप्त कर लिए। गुरु ने उस मनुष्य को आगे आने वाले जीवन-राह में सुख बख्श दिया, बीते समय में भी उसे गुरु ने सुख आनंद दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने सतिगुर की वडिआई ॥ मन इछे फल पाई ॥ संतहु दिनु दिनु चड़ै सवाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

अपने सतिगुर की वडिआई ॥ मन इछे फल पाई ॥ संतहु दिनु दिनु चड़ै सवाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडिआई = बड़प्पन, उच्च आत्मिक अवस्था। दिनु दिनु = हर रोज, दिनो दिन। सवाई = ज्यादा। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (देखो) अपने गुरु की ऊँची आत्मिक अवस्था। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह) मन-मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है। गुरु की ये उदारता दिनो दिन बढ़ती चली जाती है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत सभि भए दइआला प्रभि अपने करि दीने ॥ सहज सुभाइ मिले गोपाला नानक साचि पतीने ॥२॥३॥६७॥

मूलम्

जीअ जंत सभि भए दइआला प्रभि अपने करि दीने ॥ सहज सुभाइ मिले गोपाला नानक साचि पतीने ॥२॥३॥६७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। दइआला = दया का घर, दया भरपूर। प्रभि = प्रभु ने। सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाइ = प्रेम से। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। पतीने = पतीजे, मस्त हो गए।2।
अर्थ: हे संत जनो! (जो भी जीव गुरु की शरण पड़ते हैं वह) सारे ही जीव दया-भरपूर (हृदय वाले) हो जाते हैं, प्रभु उन्हें अपने बना लेता है। हे नानक! (अंदर पैदा हो चुकी) आत्मिक अडोलता और प्रीति के कारण उन्हें सृष्टि का पालक-प्रभु मिल जाता है, वह सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में मगन रहते हैं।2।3।67।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुर का सबदु रखवारे ॥ चउकी चउगिरद हमारे ॥ राम नामि मनु लागा ॥ जमु लजाइ करि भागा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुर का सबदु रखवारे ॥ चउकी चउगिरद हमारे ॥ राम नामि मनु लागा ॥ जमु लजाइ करि भागा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रखवारे = रखवाला। चउकी = पहरा। चउगिरद = चारों तरफ। नामि = नाम में। लजाइ करि = शर्मिंदा हो के।1।
अर्थ: (हे भाई! विकारों के मुकाबले में) गुरु का शब्द ही हम जीवों का रखवाला है, शब्द ही (हमें विकारों से बचाने के लिए) हमारे चारों तरफ पहरा है। (गुरु के शब्द की इनायत से जिस मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में जुड़ता है, उससे (विकार तो एक तरफ रहे,) जम (भी) शर्मिंदा हो के भाग जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ जी तू मेरो सुखदाता ॥ बंधन काटि करे मनु निरमलु पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ जी तू मेरो सुखदाता ॥ बंधन काटि करे मनु निरमलु पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! बंधन = (माया के मोह आदि की) जंजीरें। काटि = काट के। निरमलु = पवित्र। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = विधाता प्रभु। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! मेरे लिए तो तू ही सुखों का दाता है। (हे भाई! जो मनुष्य प्रभु के नाम में मन जोड़ता है) सर्व-व्यापक विधाता प्रभु (उसके माया के मोह आदि के सारे) बंधन काट के उसके मन को पवित्र कर देता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक प्रभु अबिनासी ॥ ता की सेव न बिरथी जासी ॥ अनद करहि तेरे दासा ॥ जपि पूरन होई आसा ॥२॥४॥६८॥

मूलम्

नानक प्रभु अबिनासी ॥ ता की सेव न बिरथी जासी ॥ अनद करहि तेरे दासा ॥ जपि पूरन होई आसा ॥२॥४॥६८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता की = उस (प्रभु) की। सेव = सेवा भक्ति। बिरथी = व्यर्थ। जासी = जाएगी। करहि = करते हैं। जपि = जप के। आसा = मनो कामना।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) अविनाशी प्रभु (ऐसा उदार-चिक्त है कि) उसकी की हुई सेवा-भक्ति व्यर्थ नहीं जाती। हे प्रभु! तेरे सेवक (सदा) आत्मिक आनंद भोगते हैं, तेरा नाम जप के उनकी हरेक मनोकामना पूरी हो जाती है।2।4।68।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुर अपुने बलिहारी ॥ जिनि पूरन पैज सवारी ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ प्रभु अपुना सदा धिआइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुर अपुने बलिहारी ॥ जिनि पूरन पैज सवारी ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ प्रभु अपुना सदा धिआइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर बलिहारी = गुरु से सदके। जिनि = जिस (गुरु) ने। पूरन = पूरी तरह। पैज = आदर, इज्जत। चिंदिआ = चितवा हुआ।1।
अर्थ: हे संत जनो! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, जिसने (प्रभु के नाम की दाति दे के) पूरी तरह से (मेरी) इज्जत रख ली है। हे भाई! जो भी मनुष्य सदा अपने प्रभु का ध्यान धरता है वह मन-मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ करण कारण प्रभु सोई ॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ करण कारण प्रभु सोई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु बिनु = उस परमात्मा के बिना। करण = जगत। कारण = मूल। सोई = वही। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा के बिना (जीवों का) कोई और (रक्षक) नहीं है। वही परमात्मा जगत का मूल है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभि अपनै वर दीने ॥ सगल जीअ वसि कीने ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ ता सगले दूख मिटाइआ ॥२॥५॥६९॥

मूलम्

प्रभि अपनै वर दीने ॥ सगल जीअ वसि कीने ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ ता सगले दूख मिटाइआ ॥२॥५॥६९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। वर = बख्शिशें। जीअ = जीव। वसि = अपने वश।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे संत जनो! प्यारे प्रभु ने (जीवों को) सब वर दिए हुए हैं, सारे जीवों को उसने अपने वश में किया हुआ है। हे दास नानक! (कह: जब भी किसी ने) परमात्मा का नाम स्मरण किया, तब उसने अपने सारे दुख दूर कर लिए।2।5।69।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ तापु गवाइआ गुरि पूरे ॥ वाजे अनहद तूरे ॥ सरब कलिआण प्रभि कीने ॥ करि किरपा आपि दीने ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ तापु गवाइआ गुरि पूरे ॥ वाजे अनहद तूरे ॥ सरब कलिआण प्रभि कीने ॥ करि किरपा आपि दीने ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। तापु = दुख-कष्ट। वाजे = बज गए। अनहद = एक रस, बिना बजाए। तूरे = बाजे। कलिआण = सुख। प्रभि = प्रभु ने। करि = कर के।1।
अर्थ: पूरे गुरु ने (हरि नाम की दवा दे के जिस मनुष्य के अंदर से) ताप दूर कर दिया, (उसके अंदर आत्मिक आनंद के, मानो) एक-रस बाजे बजने लग पड़े। प्रभु ने कृपा करके खुद ही वह सारे सुख आनंद बख्श दिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेदन सतिगुरि आपि गवाई ॥ सिख संत सभि सरसे होए हरि हरि नामु धिआई ॥ रहाउ॥

मूलम्

बेदन सतिगुरि आपि गवाई ॥ सिख संत सभि सरसे होए हरि हरि नामु धिआई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेदन = पीड़ा। सतिगुरि = सतिगुरु ने। सभि = सारे। सरसे = स+रस, रस सहित, आनंद भरपूर। धिआई = स्मरण करके। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सारे सिख संत परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के आनंद भरपूर हुए रहते हैं। (जिसने भी परमात्मा का नाम स्मरण किया) गुरु ने खुद (उसकी हरेक) पीड़ा दूर कर दी। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो मंगहि सो लेवहि ॥ प्रभ अपणिआ संता देवहि ॥ हरि गोविदु प्रभि राखिआ ॥ जन नानक साचु सुभाखिआ ॥२॥६॥७०॥

मूलम्

जो मंगहि सो लेवहि ॥ प्रभ अपणिआ संता देवहि ॥ हरि गोविदु प्रभि राखिआ ॥ जन नानक साचु सुभाखिआ ॥२॥६॥७०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंगहि = मांगते हैं। लेवहि = हासिल करते हैं। प्रभ = हे प्रभु! देवहि = तू देता है। प्रभि = प्रभु ने। सुभाखिआ = उचारा है।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दर से तेरे संत जन) जो कुछ माँगते हैं, वह हासिल कर लेते हैं। तू अपने संतों को (खुद सब कुछ) देता है। (हे भाई! बालक) हरि गोबिंद को (भी) प्रभु ने (खुद) बचाया है (किसी देवी आदि ने नहीं)। हे दास नानक! (कह:) मैं तो सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम ही उचारता हूँ।2।6।70।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सोई कराइ जो तुधु भावै ॥ मोहि सिआणप कछू न आवै ॥ हम बारिक तउ सरणाई ॥ प्रभि आपे पैज रखाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सोई कराइ जो तुधु भावै ॥ मोहि सिआणप कछू न आवै ॥ हम बारिक तउ सरणाई ॥ प्रभि आपे पैज रखाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वही काम। कराइ = तू कराना। भावै = अच्छा लगता है। मोहि = मुझे। तउ = तेरी। प्रभि = प्रभु ने। आपे = आप ही। पैज = इज्जत।
अर्थ: हे प्रभु पातशाह! तू मुझसे वही काम करवाया कर जो तूझे अच्छा लगता है, मुझे कोई समझदारी वाली बात करनी नहीं आती। हे प्रभु! हम (तेरे) बच्चे तेरी शरण आए हैं।
हे भाई! (शरण पड़े जीव की) प्रभु ने खुद ही इज्जत (हमेशा) रखवाई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा मात पिता हरि राइआ ॥ करि किरपा प्रतिपालण लागा करीं तेरा कराइआ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा मात पिता हरि राइआ ॥ करि किरपा प्रतिपालण लागा करीं तेरा कराइआ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि राइआ = हे प्रभु पातशाह! करी = मैं करता हूँ। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु पातशाह! तू ही मेरी माँ है, तू ही मेरा पिता है। मेहर करके तू खुद ही मेरी पालना कर रहा है। हे प्रभु! मैं वही कुछ करता हूँ, जो तू मुझसे करवाता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत तेरे धारे ॥ प्रभ डोरी हाथि तुमारे ॥ जि करावै सो करणा ॥ नानक दास तेरी सरणा ॥२॥७॥७१॥

मूलम्

जीअ जंत तेरे धारे ॥ प्रभ डोरी हाथि तुमारे ॥ जि करावै सो करणा ॥ नानक दास तेरी सरणा ॥२॥७॥७१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारे = सहारे लिए हुए। हाथि = हाथ में। करावै = कराता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! (हम जीवों की जिंदगी की) डोर तेरे हाथ में है, सारे जीव तेरे ही आसरे हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे दास तेरी ही शरण पड़े रहते हैं।
हे भाई! हम जीव वही कुछ कर सकते हैं जो कुछ परमात्मा हमसे करवाता है।2।7।71।

[[0627]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ हरि नामु रिदै परोइआ ॥ सभु काजु हमारा होइआ ॥ प्रभ चरणी मनु लागा ॥ पूरन जा के भागा ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ हरि नामु रिदै परोइआ ॥ सभु काजु हमारा होइआ ॥ प्रभ चरणी मनु लागा ॥ पूरन जा के भागा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। परोइआ = अच्छी तरह बसा लिया। सभु = सारा। काजु = जीवन उद्देश्य। जा के = जिस मनुष्य के।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के भाग्य अच्छी तरह जाग पड़ते हैं, उसका मन परमात्मा के चरणों में लीन रहता है। हे भाई! जब परमात्मा का नाम अच्छी तरह दिल में बसा लिया जाता है, तब हम जीवों का सारा जीवन का उद्देश्य सफल हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि साधसंगि हरि धिआइआ ॥ आठ पहर अराधिओ हरि हरि मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मिलि साधसंगि हरि धिआइआ ॥ आठ पहर अराधिओ हरि हरि मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। साध संगि = साधु-संगत में। अराधिओ = स्मरण किया। मन चिंदिआ = मन इच्छित। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस भी मनुष्य ने) साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम स्मरण किया, आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा का नाम याद किया, उसने हरेक मन-मांगी मुरादें पा लीं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परा पूरबला अंकुरु जागिआ ॥ राम नामि मनु लागिआ ॥ मनि तनि हरि दरसि समावै ॥ नानक दास सचे गुण गावै ॥२॥८॥७२॥

मूलम्

परा पूरबला अंकुरु जागिआ ॥ राम नामि मनु लागिआ ॥ मनि तनि हरि दरसि समावै ॥ नानक दास सचे गुण गावै ॥२॥८॥७२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परा पूरबला = अनेक पहले जन्मों का। अंकुरु = अंगूर। जागिआ = फूट पड़ा। नामि = नाम में। मनि तनि = मन से तन से, पूरी तरह से। दरसि = दर्शन मे। सचे = सदा स्थिर हरि के।2।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: साधु-संगत में मिल के जब किसी मनुष्य के) अनेक पूर्बले जन्मों के संस्कारों के बीज अंकुरित हो जाते हैं (पूर्बले संस्कार जाग जाते हैं, तब उसका) मन परमात्मा के नाम में लगने लग जाता है, वह मनुष्य मन से तन से परमात्मा के दीदार में मस्त रहता है, वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाता रहता है।2।8।72।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुर मिलि प्रभू चितारिआ ॥ कारज सभि सवारिआ ॥ मंदा को न अलाए ॥ सभ जै जै कारु सुणाए ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुर मिलि प्रभू चितारिआ ॥ कारज सभि सवारिआ ॥ मंदा को न अलाए ॥ सभ जै जै कारु सुणाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। सभि = सारे। मंदा को = कोई बुरा बोल। अलाए = बोलता। सभ = सारी (दुनिया) को। जै जै कारु = परमात्मा की महिमा। सुणाए = सुनाता है।1।
अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य ने) गुरु को मिल के परमात्मा को याद करना शुरू कर दिया, उसने अपने सारे काम सवार लिए। वह मनुष्य (किसी को) कोई बुरे बोल नहीं बोलता, वह सारी दुनिया को प्रभु की महिमा ही सुनाता रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु साची सरणि सुआमी ॥ जीअ जंत सभि हाथि तिसै कै सो प्रभु अंतरजामी ॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु साची सरणि सुआमी ॥ जीअ जंत सभि हाथि तिसै कै सो प्रभु अंतरजामी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली। सभि = सारे। हाथि = हाथ में। तिसै कै हाथि = उसी के हाथ में। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! मालिक प्रभु का आसरा पक्का आसरा है (क्योंकि) सारे जीव उस प्रभु के हाथ में हैं, और वह प्रभु हरेक जीव के दिल की जानने वाला है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करतब सभि सवारे ॥ प्रभि अपुना बिरदु समारे ॥ पतित पावन प्रभ नामा ॥ जन नानक सद कुरबाना ॥२॥९॥७३॥

मूलम्

करतब सभि सवारे ॥ प्रभि अपुना बिरदु समारे ॥ पतित पावन प्रभ नामा ॥ जन नानक सद कुरबाना ॥२॥९॥७३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यार वाला स्वभाव। समारे = याद रखा हुआ है। पतित पावन = विकारों में गिरे हुए लोगों को पवित्र करने वाला।2।
अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य ने प्रभु का पक्का आसरा लिया, प्रभु ने उसके) सारे काम सवार दिए। प्रभु ने अपना ये बिरद (प्यार करने वाला स्वभाव) हमेशा ही याद रखा हुआ है। (हे संत जनो!) परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है। हे दास नानक! (कह: मैं उससे) सदा सदके जाता हूँ।2।9।73।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि साजि सवारिआ ॥ इहु लहुड़ा गुरू उबारिआ ॥ अनद करहु पित माता ॥ परमेसरु जीअ का दाता ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि साजि सवारिआ ॥ इहु लहुड़ा गुरू उबारिआ ॥ अनद करहु पित माता ॥ परमेसरु जीअ का दाता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहमि = परमात्मा ने। साजि = साज के, पैदा करके। सवारिआ = सुंदर बना दिया। लहुड़ा = छोटा बच्चा। उबारिआ = बचा लिया है। करहु = बेशक करो। पित माता = माता पिता। जीअ का दाता = जीवन देने वाला।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘करहु’ है हुकमी भविष्यत्, अन्न पुरख, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने इस छोटे बच्चे (हरगोबिंद) को सजाया और सँवारा। परमात्मा ही जीवन का दाता है (रक्षक है)। (साधु-संगत की अरदास सुन के) गुरूने इसको बचा लिया है। (गुरु परमात्मा की मेहर के सदका इस के) माता-पिता बेशक खुशी मनाएं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभ चितवनि दास तुमारे ॥ राखहि पैज दास अपुने की कारज आपि सवारे ॥ रहाउ॥

मूलम्

सुभ चितवनि दास तुमारे ॥ राखहि पैज दास अपुने की कारज आपि सवारे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभ = भलाई। चितवनि = चितवते हैं। राखहि = तू रखता है। पैज = इज्जत। सवारे = सवार के, सफल करे। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक सब का भला मांगते हैं। (अपने सेवकों की मांग के मुताबिक) तू काम सवार के सेवकों की इज्जत रख लेता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा प्रभु परउपकारी ॥ पूरन कल जिनि धारी ॥ नानक सरणी आइआ ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥२॥१०॥७४॥

मूलम्

मेरा प्रभु परउपकारी ॥ पूरन कल जिनि धारी ॥ नानक सरणी आइआ ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥२॥१०॥७४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परउपकारी = दूसरों की भलाई करने वाला। कल = सत्ता, शक्ति। जिनि = जिस (प्रभु) ने। मन चिंदिआ = मनचाहा। चिंदिआ = सोचा हुआ।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मेरे प्रभु ने सारे जगत में अपनी शक्ति टिकाई हुई है, वही सबकी भलाई करने वाला है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जो भी मनुष्य (उस प्रभु की) शरण आ पड़ता है, वह मन-मांगी मुरादें पा लेता है।2।10।74।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सदा सदा हरि जापे ॥ प्रभ बालक राखे आपे ॥ सीतला ठाकि रहाई ॥ बिघन गए हरि नाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सदा सदा हरि जापे ॥ प्रभ बालक राखे आपे ॥ सीतला ठाकि रहाई ॥ बिघन गए हरि नाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जापे = जापि, जपा कर। आपे = आप ही। ठाकि = रोक के। नाई = महिमा (स्ना = नाई, महिमा)।1।
अर्थ: हे भाई! सदा ही (सिर्फ) परमात्मा का नाम जपा करो। प्रभु जी खुद ही बालकों के रखवाले हैं। (बालक हरगोबिंद से प्रभु ने स्वयं ही) सीतला (चेचक) रोक ली है। परमात्मा की महिमा की इनायत से खतरे दूर हो गए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा प्रभु होआ सदा दइआला ॥ अरदासि सुणी भगत अपुने की सभ जीअ भइआ किरपाला ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा प्रभु होआ सदा दइआला ॥ अरदासि सुणी भगत अपुने की सभ जीअ भइआ किरपाला ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ जीअ = सारे जीवों पर। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सदा ही दयावान रहता है। सारे ही जीवों पर वह दयालु रहता है। वह अपने भक्त की आरजू (हमेशा) सुनता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ करण कारण समराथा ॥ हरि सिमरत सभु दुखु लाथा ॥ अपणे दास की सुणी बेनंती ॥ सभ नानक सुखि सवंती ॥२॥११॥७५॥

मूलम्

प्रभ करण कारण समराथा ॥ हरि सिमरत सभु दुखु लाथा ॥ अपणे दास की सुणी बेनंती ॥ सभ नानक सुखि सवंती ॥२॥११॥७५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण कारण = जगत का मूल। करण = जगत। समराथा = सब ताकतों का मालिक। सुखि = सुख में, सुख से।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जगत का मूल है, और, सब ताकतों का मालिक है। प्रभु का नाम स्मरण करने से हरेक दुख दूर हो जाता है। हे नानक! प्रभु ने (हमेशा ही) अपने सेवकों की विनती सुनी है (प्रभु जी की मेहर से ही) सारी दुनिया सुखी बसती है।2।11।75।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ अपना गुरू धिआए ॥ मिलि कुसल सेती घरि आए ॥ नामै की वडिआई ॥ तिसु कीमति कहणु न जाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ अपना गुरू धिआए ॥ मिलि कुसल सेती घरि आए ॥ नामै की वडिआई ॥ तिसु कीमति कहणु न जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआए = ध्यान धरता है। मिलि = मिल के, (गुरु चरणों में) जुड़ के। कुसल सेती = आत्मिक आनंद से। घरि = घर में, हृदय घर में, अंतरात्मे। वडिआई = इनायत।1।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य अपने गुरु का ध्यान धरता है, वह (गुरु चरणों में) जुड़ के आत्मिक आनंद से अपने हृदय-घर में टिक जाता है (बाहर भटकने से बच जाता है)। ये नाम की ही इनायत है (कि मनुष्य अन्य आसरों की तलाश छोड़ देता है)। (पर) इस (हरि-नाम) का मूल्य नहीं आँका जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिलता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु हरि हरि हरि आराधहु ॥ हरि आराधि सभो किछु पाईऐ कारज सगले साधहु ॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु हरि हरि हरि आराधहु ॥ हरि आराधि सभो किछु पाईऐ कारज सगले साधहु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! आराधि = आराधना करके, स्मरण करके। सभो किछु = हरेक चीज। साधहु = सफल करो। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। परमात्मा का नाम स्मरण करके हरेक चीज प्राप्त की जाती है। (तुम भी परमात्मा का नाम स्मरण करके अपने) सारे काम सवारो। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम भगति प्रभ लागी ॥ सो पाए जिसु वडभागी ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ तिनि सरब सुखा फल पाइआ ॥२॥१२॥७६॥

मूलम्

प्रेम भगति प्रभ लागी ॥ सो पाए जिसु वडभागी ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ तिनि सरब सुखा फल पाइआ ॥२॥१२॥७६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति। तिनि = उस (मनुष्य) ने। सरब सुखा = सारे सुख देने वाले।2।
अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु का ध्यान धरता है) प्रभु की प्यार भरी भक्ति में उसका मन लग जाता है। पर ये दाति वही मनुष्य हासिल करता है जिसके बड़े भाग्य हों। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसने सारे सुख देने वाले (फल) प्राप्त कर लिए हैं।2।12।76।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ परमेसरि दिता बंना ॥ दुख रोग का डेरा भंना ॥ अनद करहि नर नारी ॥ हरि हरि प्रभि किरपा धारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ परमेसरि दिता बंना ॥ दुख रोग का डेरा भंना ॥ अनद करहि नर नारी ॥ हरि हरि प्रभि किरपा धारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। बंना = रुकावट खड़ी करनी, बाँध लगाना। भंना = तोड़ दिया। करहि = करने हैं। नर नारी = (वह सारे) जीव। प्रभि = प्रभु ने।1।
अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य के आत्मिक जीवन के लिए) परमेश्वर ने (विकारों के रास्ते पर) रुकावट खड़ी कर दी, (उस मनुष्य के अंदर से) परमेश्वर ने दुखों और रोगों का डेरा ही खत्म कर दिया।
जिस जीवों पर प्रभु ने (ये) कृपा कर दी वे सारे जीव आत्मिक आनंद पाते हैं।1।

[[0628]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु सुखु होआ सभ थाई ॥ पारब्रहमु पूरन परमेसरु रवि रहिआ सभनी जाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु सुखु होआ सभ थाई ॥ पारब्रहमु पूरन परमेसरु रवि रहिआ सभनी जाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवि रहिआ = मौजूद है। सभनी जाई = सब जगहों पर। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि) पारब्रहम पूरन परमेश्वर हर जगह पर मौजूद है (उस मनुष्य को) सब जगहों में सुख ही प्रतीत होता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धुर की बाणी आई ॥ तिनि सगली चिंत मिटाई ॥ दइआल पुरख मिहरवाना ॥ हरि नानक साचु वखाना ॥२॥१३॥७७॥

मूलम्

धुर की बाणी आई ॥ तिनि सगली चिंत मिटाई ॥ दइआल पुरख मिहरवाना ॥ हरि नानक साचु वखाना ॥२॥१३॥७७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुर की वाणी = परमात्मा की महिमा की वाणी। आई = आ बसी। तिनि = उस (मनुष्य) ने। साचु = सदा-स्थिर प्रभु का नाम। वखाना = उचारा।2।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की महिमा की वाणी जिस मनुष्य के अंदर आ बसी, उसने अपनी सारी चिन्ता दूर कर ली। हे नानक! दया का श्रोत प्रभु उस मनुष्य पर मेहरवान हुआ रहता है, वह मनुष्य उस सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम (हमेशा) उचारता है।2।13।77।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ ऐथै ओथै रखवाला ॥ प्रभ सतिगुर दीन दइआला ॥ दास अपने आपि राखे ॥ घटि घटि सबदु सुभाखे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ ऐथै ओथै रखवाला ॥ प्रभ सतिगुर दीन दइआला ॥ दास अपने आपि राखे ॥ घटि घटि सबदु सुभाखे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। दइआला = दया करने वाला। घटि घटि = हरेक शरीर में। सबदु = वचन, बोल। सुभाखे = अच्छी तरह बोल रहा है।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु प्रभु गरीबों पर दया करने वाला है, (शरण आए की) इस लोक और परलोक में रक्षा करने वाला है। (हे भाई! प्रभु) अपने सेवकों की स्वयं रक्षा करता है (सेवकों को ये भरोसा रहता है कि) प्रभु हरेक शरीर में (स्वयं ही) वचन बिलास कर रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर के चरण ऊपरि बलि जाई ॥ दिनसु रैनि सासि सासि समाली पूरनु सभनी थाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर के चरण ऊपरि बलि जाई ॥ दिनसु रैनि सासि सासि समाली पूरनु सभनी थाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। रैनि = रात। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समाली = मैं याद करता हूँ। सभनी थाई = सब जगहों में। पूरन = व्यापक। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं (अपने) गुरु के चरणों से सदके जाता हूँ, (गुरु की कृपा से ही) मैं (अपने) हरेक सांस के साथ दिन रात (उस परमात्मा को) याद करता रहता हूँ जो सब जगहों में भरपूर है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि सहाई होआ ॥ सचे दा सचा ढोआ ॥ तेरी भगति वडिआई ॥ पाई नानक प्रभ सरणाई ॥२॥१४॥७८॥

मूलम्

आपि सहाई होआ ॥ सचे दा सचा ढोआ ॥ तेरी भगति वडिआई ॥ पाई नानक प्रभ सरणाई ॥२॥१४॥७८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। सचे दा = सदा कायम रहने वाले परमात्मा का। सचा = सदा कायम रहने वाला। ढोआ = तोहफा, बख्शिश। वडिआई = शोभा, महिमा। प्रभ = हे प्रभु!।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से) परमात्मा स्वयं मददगार बनता है (गुरु की मेहर से) सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की सदा स्थिर रहने वाली महिमा की दाति मिलती है।
हे नानक! (कह:) हे प्रभु! (गुरु की कृपा से) तेरी शरण में आने से, तेरी भक्ति, तेरी महिमा प्राप्त होती है।2।14।78।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सतिगुर पूरे भाणा ॥ ता जपिआ नामु रमाणा ॥ गोबिंद किरपा धारी ॥ प्रभि राखी पैज हमारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सतिगुर पूरे भाणा ॥ ता जपिआ नामु रमाणा ॥ गोबिंद किरपा धारी ॥ प्रभि राखी पैज हमारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर भाणा = गुरु को अच्छा लगा। ता = तब। रमाणा = राम का। प्रभि = प्रभु ने। पैज = इज्जत।1।
अर्थ: (पर, हे भाई!) जब गुरु को अच्छा लगता है (जब गुरु प्रसन्न होता है) तब ही परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। परमात्मा ने मेहर की (गुरु मिलाया! गुरु की कृपा से हमने नाम जपा, तो) परमात्मा ने हमारी इज्जत रख ली (विष ठग-बूटी से बचा लिया)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के चरन सदा सुखदाई ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि बिरथी आस न जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के चरन सदा सुखदाई ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि बिरथी आस न जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखदाई = सुख देने वाले। इछहि = इच्छा करते हैं। बिरथी = खाली, व्यर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण सदा सुख देने वाले हैं। (जो मनुष्य हरि के चरणों का आसरा लेते हैं, वह) जो कुछ (परमात्मा से) मांगते हैं वही फल प्राप्त कर लेते हैं। (परमात्मा की सहायत पर रखी हुई कोई भी) आस ख़ाली नहीं जाती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रिपा करे जिसु प्रानपति दाता सोई संतु गुण गावै ॥ प्रेम भगति ता का मनु लीणा पारब्रहम मनि भावै ॥२॥

मूलम्

क्रिपा करे जिसु प्रानपति दाता सोई संतु गुण गावै ॥ प्रेम भगति ता का मनु लीणा पारब्रहम मनि भावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रानपति = प्राण का मालिक। ता की = उस (मनुष्य) की। लीणा = मस्त। पारब्रहम मनि = पारब्रहम के मन में। भावै = प्यारा लगने लग जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! जीवन का मालिक दातार प्रभु जिस मनुष्य पर मेहर करता है वह संत (स्वभाव बन जाता है, और) परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। उस मनुष्य का मन परमात्मा की प्यार भरी भक्ति में मस्त हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा को (भी) प्यारा लगने लगता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर हरि का जसु रवणा बिखै ठगउरी लाथी ॥ संगि मिलाइ लीआ मेरै करतै संत साध भए साथी ॥३॥

मूलम्

आठ पहर हरि का जसु रवणा बिखै ठगउरी लाथी ॥ संगि मिलाइ लीआ मेरै करतै संत साध भए साथी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवणा = स्मरण करना। जसु रवणा = महिमा करनी। बिखै ठगउरी = विषय विकारों की ठग-बूटी। संगि = साथ। करतै = कर्तार ने। साथी = मददगार, संगी।3।
अर्थ: हे भाई! आठों पहर (हर समय) परमात्मा की महिमा करने से विकारों की ठग-बूटी का असर खत्म हो जाता है (जिस मनुष्य ने महिमा में मन जोड़ा) ईश्वर ने (उसको) अपने साथ मिला लिया, संत जन उसके संगी-साथी बन गए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करु गहि लीने सरबसु दीने आपहि आपु मिलाइआ ॥ कहु नानक सरब थोक पूरन पूरा सतिगुरु पाइआ ॥४॥१५॥७९॥

मूलम्

करु गहि लीने सरबसु दीने आपहि आपु मिलाइआ ॥ कहु नानक सरब थोक पूरन पूरा सतिगुरु पाइआ ॥४॥१५॥७९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। सरबसु = (सर्वस्व) सब कुछ। आपहि = खुद ही। आपु = अपना आप। थोक = पदार्थ, काम।4।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस भी मनुष्य ने प्रभु-चरणों की आराधना की) प्रभु ने उसका हाथ पकड़ के उसको सब कुछ बख्श दिया, प्रभु ने उसको अपना आप ही मिला दिया। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल गया, उसके सारे काम सफल हो गए।4।15।79।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गरीबी गदा हमारी ॥ खंना सगल रेनु छारी ॥ इसु आगै को न टिकै वेकारी ॥ गुर पूरे एह गल सारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गरीबी गदा हमारी ॥ खंना सगल रेनु छारी ॥ इसु आगै को न टिकै वेकारी ॥ गुर पूरे एह गल सारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरीबी = विनम्र स्वभाव। गदा = गुरज। खंना = खंडा। रेनु = चरण धूल। छारी = छार, मिट्टी। न टिकै = खड़ा नहीं हो सकता। वेकारी = कुकर्मी। सारी = समझाई।1।
अर्थ: हे भाई! विनम्रता भरा स्वभाव हमारी गदा है, सबकी चरण-धूल बने रहना हमारे पास खंडा हैं इस (गदा) के आगे इस (खंडे) के आगे कोई भी कुकर्मी टिक नहीं सकता। (हमें) पूरे गुरु ने ये बात समझा दी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु संतन की ओटा ॥ जो सिमरै तिस की गति होवै उधरहि सगले कोटा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु संतन की ओटा ॥ जो सिमरै तिस की गति होवै उधरहि सगले कोटा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओटा = आसरा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। उधरहि = (विकारों से) बच जाते हैं। कोटा = करोड़ो ही।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम संत जनों का आसरा है। जो भी मनुष्य (परमात्मा का नाम) स्मरण करता है, उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है। (नाम की इनायत से) सारे करोड़ों ही जीव (विकारों से) बच जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत संगि जसु गाइआ ॥ इहु पूरन हरि धनु पाइआ ॥ कहु नानक आपु मिटाइआ ॥ सभु पारब्रहमु नदरी आइआ ॥२॥१६॥८०॥

मूलम्

संत संगि जसु गाइआ ॥ इहु पूरन हरि धनु पाइआ ॥ कहु नानक आपु मिटाइआ ॥ सभु पारब्रहमु नदरी आइआ ॥२॥१६॥८०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = संगति में। जसु = महिमा के गीत। आपु = स्वैभाव। सभु = हर जगह। नदरी आइआ = दिखा।2।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने संत जनों की संगति में (बैठ के) परमात्मा की महिमा के गीत गाए हैं, उसने ये हरि-नाम धन प्राप्त कर लिया है जो कभी खत्म नहीं होता। उस मनुष्य ने (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लिया है उसे हर जगह परमात्मा ही (बसता) दिख गया है।2।16।80।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै पूरी कीनी ॥ बखस अपुनी करि दीनी ॥ नित अनंद सुख पाइआ ॥ थाव सगले सुखी वसाइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै पूरी कीनी ॥ बखस अपुनी करि दीनी ॥ नित अनंद सुख पाइआ ॥ थाव सगले सुखी वसाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। पूरी कीनी = पूरी कृपा की। बखस = दाति, बख्शिश, भक्ति की दाति। नित = सदा। थाव = स्थान। सगले = सारे। थाव सगले = सारी जगहें, सारी इंद्रिय।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘थाव’ है ‘थाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर पूरे गुरु ने पूरी कृपा की, उसको गुरु ने अपने दर से प्रभु की भक्ति की दाति दे दी। वह मनुष्य सदा आत्मिक आनंद लेने लग पड़ा। गुरु ने उसकी सारी ज्ञान-इंद्रिय को (विकारों से बचा के) शांति में टिका दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि की भगति फल दाती ॥ गुरि पूरै किरपा करि दीनी विरलै किन ही जाती ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि की भगति फल दाती ॥ गुरि पूरै किरपा करि दीनी विरलै किन ही जाती ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फल दाती = फल देने वाली। किन ही = किनि ही, किसी ने ही। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘किन ही’ के बारे में। यहां ‘किनि’ में ‘नि’ की ‘ि’ की मात्रा क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति सारे फल देने वाली है। पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य पर) मेहर कर दी (उसने प्रभु की भक्ति करनी आरम्भ कर दी। पर, हे भाई!) किसी दुर्लभ मनुष्य ने ही परमात्मा की भक्ति की कद्र समझी है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरबाणी गावह भाई ॥ ओह सफल सदा सुखदाई ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ ॥२॥१७॥८१॥

मूलम्

गुरबाणी गावह भाई ॥ ओह सफल सदा सुखदाई ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ ॥२॥१७॥८१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गवह = आओ हम गाएं। ओह = वह गुरवाणी। पूरबि = पूर्बले जनम में।2।
अर्थ: हे भाई! आओ हम भी गुरु की वाणी गाया करें। गुरु की वाणी सदा ही सारे फल देने वाली सुख देने वाली है। हे नानक! (कह:) (उसी मनुष्य ने गुरबाणी के द्वारा परमात्मा का) नाम स्मरण किया है जिसने पूर्बले जनम में लिखा भक्ति का लेख प्राप्त किया है।2।17।81।

[[0629]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ गुरु पूरा आराधे ॥ कारज सगले साधे ॥ सगल मनोरथ पूरे ॥ बाजे अनहद तूरे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ गुरु पूरा आराधे ॥ कारज सगले साधे ॥ सगल मनोरथ पूरे ॥ बाजे अनहद तूरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधे = साध लेता, सफल कर लेता है। मनोरथ = मनो काना। बाजे = बज पड़ते हैं। अनहद = एक रस, बिना बजाए। तूरे = बाजे।1।
अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्यों ने पूरे गुरु का ध्यान धरा, उन्होंने अपने सारे काम सवार लिए। उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो गई, उनके अंदर प्रभु की महिमा के बाजे एक-रस बजते रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु रामु जपत सुखु पाइआ ॥ संत असथानि बसे सुख सहजे सगले दूख मिटाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु रामु जपत सुखु पाइआ ॥ संत असथानि बसे सुख सहजे सगले दूख मिटाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! संत असथानि = संतों के स्थान में, साधु-संगत में। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य साधु-संगत में आ टिकते हैं, वे आत्मिक अडोलता में लीन रह के आत्मिक आनंद हासिल करते हैं। वे अपने सारे दुख दूर कर लेते हैं, परमात्मा का नाम जप के वे आत्मिक सुख लेते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर पूरे की बाणी ॥ पारब्रहम मनि भाणी ॥ नानक दासि वखाणी ॥ निरमल अकथ कहाणी ॥२॥१८॥८२॥

मूलम्

गुर पूरे की बाणी ॥ पारब्रहम मनि भाणी ॥ नानक दासि वखाणी ॥ निरमल अकथ कहाणी ॥२॥१८॥८२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहम मनि = पारब्रहम के मन में। भाणी = अच्छी लगती है। दासि = दास ने। निरमल = पवित्र (करने वाली)। अकथ कहाणी = उस प्रभु की महिमा जिसका स्वरूप बयान से परे है।2।
अर्थ: (पर) हे नानक! पूरे गुरु की वाणी (किसी विरले) दास ने ही (आत्मिक अडोलता में टिक के) उचारी है। ये वाणी परमात्मा के मन को (भी) प्यारी लगती है (क्योंकि) ये (पढ़ने वाले का जीवन) पवित्र करने वाली है, ये वाणी उस प्रभु की महिमा है जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।2।18।82।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ भूखे खावत लाज न आवै ॥ तिउ हरि जनु हरि गुण गावै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ भूखे खावत लाज न आवै ॥ तिउ हरि जनु हरि गुण गावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाज = शर्म। गावै = गाता है।1।
अर्थ: हे भाई! जैसे (किसी मनुष्य को कुछ खाने को मिल जाए, तो वह) भूखा मनुष्य खाते हुए शर्म महसूस नहीं करता, इसी तरह परमात्मा का सेवक (अपनी आत्मिक भूख मिटाने के लिए बड़े चाव से) परमात्मा की महिमा के गीत गाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने काज कउ किउ अलकाईऐ ॥ जितु सिमरनि दरगह मुखु ऊजल सदा सदा सुखु पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अपने काज कउ किउ अलकाईऐ ॥ जितु सिमरनि दरगह मुखु ऊजल सदा सदा सुखु पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = वास्ते। अलकाईऐ = आलस किया जाए। जितु = जिससे। सिमरनि = स्मरण से। जितु सिमरनि = जिसके स्मरण से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस नाम-जपने की इनायत से परमात्मा की हजूरी में सही स्वीकार होते हैं, और, सदा ही आत्मिक आनंद लेते हैं (वह नाम जपना ही हमारा असल काम है, इस) अपने (असल) काम की खातिर कभी भी आलस नहीं करना चाहिएं1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ कामी कामि लुभावै ॥ तिउ हरि दास हरि जसु भावै ॥२॥

मूलम्

जिउ कामी कामि लुभावै ॥ तिउ हरि दास हरि जसु भावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कामी = विषयी मनुष्य। कामि = काम-वासना में। लुभावै = मगन रहता है। भावै = पसंद आता है।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे कोई कामी मनुष्य काम-वासना में मगन रहता है, वैसे ही परमात्मा के सेवक को परमात्मा की महिमा ही अच्छी लगती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ माता बालि लपटावै ॥ तिउ गिआनी नामु कमावै ॥३॥

मूलम्

जिउ माता बालि लपटावै ॥ तिउ गिआनी नामु कमावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बालि = बालक (के मोह) में। लपटावै = चिपकी रहती है। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला।3।
अर्थ: हे भाई! जैसे माँ अपने बच्चे (के मोह) से चिपकी रहती है, वैसे ही आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य नाम (-स्मरण की) कमाई करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर पूरे ते पावै ॥ जन नानक नामु धिआवै ॥४॥१९॥८३॥

मूलम्

गुर पूरे ते पावै ॥ जन नानक नामु धिआवै ॥४॥१९॥८३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मे = से। जन नानक = हे दास नानक!।4।
अर्थ: पर, हे दास नानक! (वही मनुष्य परमात्मा का) नाम स्मरण करता है जो (ये दाति) पूरे गुरु से हासिल करता है।4।19।83।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सुख सांदि घरि आइआ ॥ निंदक कै मुखि छाइआ ॥ पूरै गुरि पहिराइआ ॥ बिनसे दुख सबाइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सुख सांदि घरि आइआ ॥ निंदक कै मुखि छाइआ ॥ पूरै गुरि पहिराइआ ॥ बिनसे दुख सबाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख सांदि = ख़ैरीयत से, आत्मिक अरोगता से। घरि = हृदय घर में। कै मुखि = के मुंह में। छाइआ = राख। गुरि = गुरु ने। पहिराइआ = सिरोपा दिया, आदर मान बख्शा। सबाइआ = सारे।1।
अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा की कृपा से जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने आदर-मान बख्शा, उसके सारे ही दुख दूर हो गए, वही पूरी आत्मिक अरोगता से अपने हृदय-घर में (सदा के लिए) टिक गया। उस की निंदा करने वाले के मुँह पर राख ही पड़ी (प्रभु के दास के निंदक ने सदा बदनामी का टिका ही कमाया)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु साचे की वडिआई ॥ जिनि अचरज सोभ बणाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु साचे की वडिआई ॥ जिनि अचरज सोभ बणाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचे की = सदा कायम रहने वाले परमात्मा की। वडिआई = बड़ी शान, बड़ी ताकत। जिनि = जिस (साचे) ने। अचरज = हैरान कर देने वाली। सोभ = (अपने दास की) शोभा।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (देखो) बड़ी शान उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की, जिस ने (अपने दास की सदा ही) हैरान कर देने वाली शोभा बना दी है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोले साहिब कै भाणै ॥ दासु बाणी ब्रहमु वखाणै ॥ नानक प्रभ सुखदाई ॥ जिनि पूरी बणत बणाई ॥२॥२०॥८४॥

मूलम्

बोले साहिब कै भाणै ॥ दासु बाणी ब्रहमु वखाणै ॥ नानक प्रभ सुखदाई ॥ जिनि पूरी बणत बणाई ॥२॥२०॥८४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोले = बोलता है। कै भाणै = की रजा में। वखाणै = उचारता है। ब्रहमु = परमात्मा (का नाम)। नानक = हे नानक! जिनि = जिस (प्रभु) ने। पूरी बणत = ऐसी योजना जिसमें कोई खामी नहीं है।2।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु के जिस सेवक को गुरु ने इज्जत दी, वह सेवक सदा) परमात्मा की रजा में ही वचन बोलता है, वह सेवक (परमात्मा की महिमा की) वाणी सदा उचारता है, परमात्मा का नाम उचारता है। हे भाई! जिस परमात्मा ने (गुरु की शरण पड़ के नाम-जपने की ये) कभी गलत ना साबित होने वाली योजना (विधि) बना दी है, वह सदा (अपने सेवक को) सुख देने वाला है।2।20।84।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ प्रभु अपुना रिदै धिआए ॥ घरि सही सलामति आए ॥ संतोखु भइआ संसारे ॥ गुरि पूरै लै तारे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ प्रभु अपुना रिदै धिआए ॥ घरि सही सलामति आए ॥ संतोखु भइआ संसारे ॥ गुरि पूरै लै तारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। घरि = घर में, प्रभु चरणों में। सही सलामति = आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को विकारों से पूरी तरह बचा के। संसारे = संसार में (विचरते हुए), दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए। गुरि = गुरु ने। लै = ले के, (उसकी) बाँह पकड़ के।1।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखता है, वह मनुष्य अपनी आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को विकारों से पूरी तरह बचा के हृदय-घर में टिका रहता है। दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी (उसके मन में माया के प्रति) संतोष बना रहता है। पूरे गुरु ने उसकी बाँह पकड़ के उसको (संसार-समुंदर से) पार लंघा लिया होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु प्रभु मेरा सदा दइआला ॥ अपने भगत की गणत न गणई राखै बाल गुपाला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु प्रभु मेरा सदा दइआला ॥ अपने भगत की गणत न गणई राखै बाल गुपाला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गणत = लेखा। न गणई = नहीं गिनता। गुपाला = सृष्टि का पालक प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! मेरा प्रभु (अपने सेवकों पर) सदा ही दयावान रहता है। प्रभु अपने भक्तों के कर्मों का लेखा नहीं विचारता, (क्योंकि) सृष्टि का पालक प्रभु बच्चों की तरह (सेवकों को विकारों से) बचाए रखता है (इसलिए उनके विकारों का कोई लेखा नहीं रह जाता)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नामु रिदै उरि धारे ॥ तिनि सभे थोक सवारे ॥ गुरि पूरै तुसि दीआ ॥ फिरि नानक दूखु न थीआ ॥२॥२१॥८५॥

मूलम्

हरि नामु रिदै उरि धारे ॥ तिनि सभे थोक सवारे ॥ गुरि पूरै तुसि दीआ ॥ फिरि नानक दूखु न थीआ ॥२॥२१॥८५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = दिल में। उरि = दिल में। तिनि = उस मनुष्य ने। सभे थोक = सारी चीजें, सारे आत्मिक गुण। तुसि = प्रसन्न हो के। न थीआ = ना हुआ।2।
अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है (यकीन जानिए) उसने अपने सारे आत्मिक गुण सुंदर बना लिए हैं। हे नानक! पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य को) प्रसन्न हो के नाम की दाति बख्शी, उसे दुबारा कभी कोई दुख नहीं व्याप सका।2।21।85।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ हरि मनि तनि वसिआ सोई ॥ जै जै कारु करे सभु कोई ॥ गुर पूरे की वडिआई ॥ ता की कीमति कही न जाई ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ हरि मनि तनि वसिआ सोई ॥ जै जै कारु करे सभु कोई ॥ गुर पूरे की वडिआई ॥ ता की कीमति कही न जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। सोई = वह (परमात्मा) ही। जै जै कारु = शोभा। सभु कोई = हरेक जीव। वडिआई = इनायत, बख्शिश। ता की = उस (पूरे गुरु की बख्शिश) की।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में तन में वह परमात्मा ही बसा रहता है, हरेक जीव उसकी शोभा करता है। (पर ये) पूरे गुरु की ही बख्शिश है (जिसकी मेहर से परमात्मा की याद किसी भाग्यशाली के मन तन में बसती है) गुरु की कृपा का मूल्य नहीं पड़ सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ कुरबानु जाई तेरे नावै ॥ जिस नो बखसि लैहि मेरे पिआरे सो जसु तेरा गावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ कुरबानु जाई तेरे नावै ॥ जिस नो बखसि लैहि मेरे पिआरे सो जसु तेरा गावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ जाई = मैं जाता हूँ। नावै = नाम से। पिआरे = हे प्यारे! जसु = महिमा का गीत।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभु! मैं तेरे नाम से सदके जाता हूँ। तू जिस मनुष्य पर कृपा करता है, वह सदा तेरी महिमा के गीत गाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं भारो सुआमी मेरा ॥ संतां भरवासा तेरा ॥ नानक प्रभ सरणाई ॥ मुखि निंदक कै छाई ॥२॥२२॥८६॥

मूलम्

तूं भारो सुआमी मेरा ॥ संतां भरवासा तेरा ॥ नानक प्रभ सरणाई ॥ मुखि निंदक कै छाई ॥२॥२२॥८६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भारो = बड़ा। सुआमी = मालिक। भरवासा = भरोसा, सहारा। कै मुखि = के मुँह पर। छाई = राख। निंदक = निंदा करने वाला, दुखदाई।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू मेरा बड़ा मालिक है। तेरे संतों को (भी) तेरा ही सहारा रहता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु की शरण पड़ा रहता है (उसका दुख दूर करने वाले) निंदक के मुँह पर राख ही पड़ती है (प्रभु की शरण पड़े मनुष्य का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता)।2।22।86।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ आगै सुखु मेरे मीता ॥ पाछे आनदु प्रभि कीता ॥ परमेसुरि बणत बणाई ॥ फिरि डोलत कतहू नाही ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ आगै सुखु मेरे मीता ॥ पाछे आनदु प्रभि कीता ॥ परमेसुरि बणत बणाई ॥ फिरि डोलत कतहू नाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले जीवन में। मीता = हे मित्र! पाछे = पीछे बीत चुके समय में। प्रभि = प्रभु ने। परमेसुरि = परमेश्वर ने। बणत = विउंत, संयोग, योजना। कत हू = कहीं भी।1।
अर्थ: हे मेरे मित्र! जिस मनुष्य के आगे आने वाले जीवन में प्रभु ने सुख बना दिया, जिसके बीत चुके जीवन में भी प्रभु ने आनंद बनाए रखा, जिस मनुष्य के लिए परमेश्वर ने ऐसी योजना बना रखी, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) कहीं भी डोलता नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचे साहिब सिउ मनु मानिआ ॥ हरि सरब निरंतरि जानिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

साचे साहिब सिउ मनु मानिआ ॥ हरि सरब निरंतरि जानिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचे सिउ = सदा कायम रहने वाले। सिउ = साथ। मानिआ = पतीज गया। निरंतरि = निर+अंतरि। अंतरि = दूरी, एक रस, बिना दूरी के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन सदा कायम रहने वाले मालिक (के नाम) से पतीज जाता है, वह मनुष्य उस मालिक प्रभु को सब में एक-रस बसता पहचान लेता है।1। रहाउ।

[[0630]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ जीअ तेरे दइआला ॥ अपने भगत करहि प्रतिपाला ॥ अचरजु तेरी वडिआई ॥ नित नानक नामु धिआई ॥२॥२३॥८७॥

मूलम्

सभ जीअ तेरे दइआला ॥ अपने भगत करहि प्रतिपाला ॥ अचरजु तेरी वडिआई ॥ नित नानक नामु धिआई ॥२॥२३॥८७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जीव। दइआला = हे दया के घर! करहि = तू करता है। अचरजु = हैरान कर देने वाला। वडिआई = बख्शिश। धिआई = ध्याता है।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे दया के घर प्रभु! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, तू अपने भक्तों की रखवाली स्वयं ही करता है। हे प्रभु! तू आश्चर्य स्वरूप है। तेरी बख्शिश भी हैरान कर देने वाली है। हे नानक! (कह: जिस मनुष्य पर प्रभु बख्शिश करता है, वह) सदा उसका नाम स्मरण करता रहता है।2।23।87।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ नालि नराइणु मेरै ॥ जमदूतु न आवै नेरै ॥ कंठि लाइ प्रभ राखै ॥ सतिगुर की सचु साखै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ नालि नराइणु मेरै ॥ जमदूतु न आवै नेरै ॥ कंठि लाइ प्रभ राखै ॥ सतिगुर की सचु साखै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाराइणु = (नार+आयन) परमात्मा। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। साखै = साखी, शिक्षा। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेरे साथ (मेरे हृदय में बस रहा) है। (उसकी इनायत से) जमदूत मेरे नजदीक नहीं फटकता (मुझे मौत का आत्मिक मौत का खतरा नहीं रहा)। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की सदा-स्थिर हरि-नाम-जपने की शिक्षा मिल जाती है, प्रभु उस मनुष्य को अपने गले से लगाए रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि पूरै पूरी कीती ॥ दुसमन मारि विडारे सगले दास कउ सुमति दीती ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरि पूरै पूरी कीती ॥ दुसमन मारि विडारे सगले दास कउ सुमति दीती ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। पूरी = सफलता। दुसमन = (कामादिक) वैरी। मारि = मार के। विडारे = नाश कर दिए। कउ = को।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने (जीवन में) सफलता बख्शी, प्रभु ने (कामादिक उसके) सारे ही वैरी समाप्त कर दिए, और, उस सेवक को (नाम स्मरण की) श्रेष्ठ बुद्धि दे दी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभि सगले थान वसाए ॥ सुखि सांदि फिरि आए ॥ नानक प्रभ सरणाए ॥ जिनि सगले रोग मिटाए ॥२॥२४॥८८॥

मूलम्

प्रभि सगले थान वसाए ॥ सुखि सांदि फिरि आए ॥ नानक प्रभ सरणाए ॥ जिनि सगले रोग मिटाए ॥२॥२४॥८८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। सगले थान = सारे स्थान, सारी ज्ञान-इंद्रिय। वसाए = आत्मिक गुणों से बसा दिए। सुख सांदि = आत्मिक आनंद में, शांत अवस्था में। आए = आ टिके। जिनि = जिस प्रभु ने।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु ने जीवन सफलता बख्शी) प्रभु ने उनके सारी ज्ञान-इंद्रिय को आत्मिक गुणों से भरपूर कर दिया, वह मनुष्य (कामादिक विकारों से) पलट के आत्मिक आनंद में आ टिके। हे नानक! उस प्रभु की शरण पड़ा रह, जिसने (शरण पड़ों के) सारे रोग दूर कर दिए।2।28।88।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सरब सुखा का दाता सतिगुरु ता की सरनी पाईऐ ॥ दरसनु भेटत होत अनंदा दूखु गइआ हरि गाईऐ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सरब सुखा का दाता सतिगुरु ता की सरनी पाईऐ ॥ दरसनु भेटत होत अनंदा दूखु गइआ हरि गाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाता = देने वाला। ता की = उस (गुरु) की। भेटत = मिलते ही। गाईऐ = गाना चाहिए।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु सारे सुखों को देने वाला है, उस (गुरु) की शरण पड़ना चाहिए। गुरु के दर्शन करने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, हरेक दुख दूर हो जाता है, (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की महिमा करनी चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि रसु पीवहु भाई ॥ नामु जपहु नामो आराधहु गुर पूरे की सरनाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि रसु पीवहु भाई ॥ नामु जपहु नामो आराधहु गुर पूरे की सरनाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! नामो = नाम ही। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपा करो, हर वक्त नाम ही स्मरण किया करो, परमात्मा का नाम-अमुत पीते रहा करो। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसहि परापति जिसु धुरि लिखिआ सोई पूरनु भाई ॥ नानक की बेनंती प्रभ जी नामि रहा लिव लाई ॥२॥२५॥८९॥

मूलम्

तिसहि परापति जिसु धुरि लिखिआ सोई पूरनु भाई ॥ नानक की बेनंती प्रभ जी नामि रहा लिव लाई ॥२॥२५॥८९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसहि = तिसु ही, उसी को ही। धुरि = प्रभु की दरगाह से। प्रभ = हे प्रभु! नामि = नाम में। रहा = रहूँ। लिव = लगन।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिसहि’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्री क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर, हे भाई! (ये नाम की दाति गुरु के दर से) उस मनुष्य को ही मिलती है जिसकी किस्मत में परमात्मा की हजूरी से इसकी प्राप्ती लिखी होती है। वह मनुष्य सर्वगुण संपन्न हो जाता है। हे प्रभु जी! (तेरे दास) नानक की (भी तेरे दर पर ये) विनती है: मैं तेरे नाम में तवज्जो जोड़े रखूँ।2।25।89।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ करन करावन हरि अंतरजामी जन अपुने की राखै ॥ जै जै कारु होतु जग भीतरि सबदु गुरू रसु चाखै ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ करन करावन हरि अंतरजामी जन अपुने की राखै ॥ जै जै कारु होतु जग भीतरि सबदु गुरू रसु चाखै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करन करावन = सब कुछ कर सकने वाला और जीवों से करवा सकने वाला। अंतजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। जै जै कारु = शोभा। भीतरि = (अभ्यंतर) अंदर, में।1।
अर्थ: हे भाई! सब कुछ कर सकने वाला और जीवों से करा सकने वाला, हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु अपने सेवक की (सदा इज्जत) रखता है। जो सेवक गुरु के शब्द को (हृदय में बसाता है, परमात्मा के नाम का) स्वाद चखता है उसकी शोभा (सारे) संसार में होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ जी तेरी ओट गुसाई ॥ तू समरथु सरनि का दाता आठ पहर तुम्ह धिआई ॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ जी तेरी ओट गुसाई ॥ तू समरथु सरनि का दाता आठ पहर तुम्ह धिआई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ओट = आसरा। गुसाई = धरती के पति! सरनि = (शरन्य) आसरा। धिआई = मैं ध्याऊँ। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) प्रभु जी! हे धरती के पति! (मुझे) तेरा (ही) आसरा है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू (सब जीवों को) सहारा देने वाला है, (मेरे पर मेहर कर) मैं आठों पहर तुझे याद करता रहूँ। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जनु भजनु करे प्रभ तेरा तिसै अंदेसा नाही ॥ सतिगुर चरन लगे भउ मिटिआ हरि गुन गाए मन माही ॥२॥

मूलम्

जो जनु भजनु करे प्रभ तेरा तिसै अंदेसा नाही ॥ सतिगुर चरन लगे भउ मिटिआ हरि गुन गाए मन माही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! अंदेसा = चिन्ता फिक्र। माही = में।2।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी भक्ति करता है, उसे कोई चिन्ता-फिक्र नहीं सता सकता, (जिसके माथे को) गुरु के चरण छूते हैं, उसका हरेक डर मिट जाता है, वह मनुष्य अपने मन में परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूख सहज आनंद घनेरे सतिगुर दीआ दिलासा ॥ जिणि घरि आए सोभा सेती पूरन होई आसा ॥३॥

मूलम्

सूख सहज आनंद घनेरे सतिगुर दीआ दिलासा ॥ जिणि घरि आए सोभा सेती पूरन होई आसा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = बहुत। दिलासा = हौसला। जिणि = जीत के। सेती = साथ।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘जिणि’ और ‘जिनि’ का अंतर याद रखें॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे सतिगुरु! जिस मनुष्य को तूने (विकारों से टकराने के लिए) हौसला दिया, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के बहुत सुख-आनंद पैदा हो जाते हैं। वह मनुष्य (जीवन खेल) जीत के (जगत में से) शोभा कमा के हृदय-गृह में टिका रहता है, उसकी (हरेक) आशा पूरी हो जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरा गुरु पूरी मति जा की पूरन प्रभ के कामा ॥ गुर चरनी लागि तरिओ भव सागरु जपि नानक हरि हरि नामा ॥४॥२६॥९०॥

मूलम्

पूरा गुरु पूरी मति जा की पूरन प्रभ के कामा ॥ गुर चरनी लागि तरिओ भव सागरु जपि नानक हरि हरि नामा ॥४॥२६॥९०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मति = बुद्धि, शिक्षा। पूरी = त्रुटि हीन। जा की = जिस (गुरु) की। लागि = लग के। भव सागरु = संसार समुंदर। जपि = जप के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जो गुरु किसी भी तरह की कमी वाला नहीं है (त्रुटिहीन है), जिस की गुरु की शिक्षा में कमी नहीं है, जो गुरु अपना सारा समय पूर्ण प्रभु (के नाम स्मरण के) उद्यमों में लगाता है, उस गुरु के चरणों में लग के, और, परमात्मा का नाम सदा जप के (मैं) संसार समुंदर से (सही सलामति) पार लांघ रहा हूँ।4।26।90।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ भइओ किरपालु दीन दुख भंजनु आपे सभ बिधि थाटी ॥ खिन महि राखि लीओ जनु अपुना गुर पूरै बेड़ी काटी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ भइओ किरपालु दीन दुख भंजनु आपे सभ बिधि थाटी ॥ खिन महि राखि लीओ जनु अपुना गुर पूरै बेड़ी काटी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरपालु = दयावान। दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला। आपे = आप ही। सभ बिधि = सारे तरीके। थाटी = बनाई। राखि लीओ = बचा लिया। जनु = दास। गुर पूरे = पूरे गुरु ने। बेड़ी = पैरों की जंज़ीर।1।
अर्थ: हे भाई! गरीबों के दुख नाश करने वाला परमात्मा (अपने सेवक पर सदा) दयावान होता आया है; उसने स्वयं ही (अपने सेवकों की रक्षा करने की) सारी विधि बनाई है। उसने एक पलक में अपने सेवक को (सदा) बचा लिया, (उसकी मेहर से) पूरे गुरु ने (सेवक के दुखों-कष्टों की) बेड़ी काट दी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन गुर गोविंदु सद धिआईऐ ॥ सगल कलेस मिटहि इसु तन ते मन चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन गुर गोविंदु सद धिआईऐ ॥ सगल कलेस मिटहि इसु तन ते मन चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोविंदु = धरती का मालिक हरि। सद = सदा। कलेस = दुख झगड़े। मिटहि = मिट जाते हैं। ते = से। मन चिंदिआ = मन इच्छित। चिंदिआ = चितवा हुआ। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा गुरु का ध्यान धरना चाहिए, सदा परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए (इस उद्यम से) इस शरीर में से सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं, और मन मांगी मुरादें हासिल कर ली जाती हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत जा के सभि कीने प्रभु ऊचा अगम अपारा ॥ साधसंगि नानक नामु धिआइआ मुख ऊजल भए दरबारा ॥२॥२७॥९१॥

मूलम्

जीअ जंत जा के सभि कीने प्रभु ऊचा अगम अपारा ॥ साधसंगि नानक नामु धिआइआ मुख ऊजल भए दरबारा ॥२॥२७॥९१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा के = जिस (परमात्मा) के। सभि = सारे। कीने = पैदा किए हुए हैं। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। साध संगि = साधु-संगत में। मुख ऊजल = उज्वल मुँह वाले। दरबारा = प्रभु की हजूरी में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) सारे जीव-जंतु जिस परमात्मा के पैदा किए हुए हैं वह प्रभु सबसे ऊँचा है, अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत है। जिस मनुष्यों ने (गुरु की शरण पड़ कर उस परमात्मा का) नाम स्मरण किया, वे परमात्मा की हजूरी में सही स्वीकार हो गए।2।27।91।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सिमरउ अपुना सांई ॥ दिनसु रैनि सद धिआई ॥ हाथ देइ जिनि राखे ॥ हरि नाम महा रस चाखे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सिमरउ अपुना सांई ॥ दिनसु रैनि सद धिआई ॥ हाथ देइ जिनि राखे ॥ हरि नाम महा रस चाखे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरउ = स्मरण करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। सांई = पति प्रभु। रैनि = रात। सद = सदा। धिआई = मैं ध्यान धरता हूं। देइ = दे के। जिनि = जिस (पति-प्रभु) ने।1।
अर्थ: हे भाई! मैं (उस) पति-प्रभु (का नाम) स्मरण करता हूँ, दिन-रात सदा (उसका) ध्यान धरता हूं, जिसने अपना हाथ दे के (उन मनुष्यों को दुखों-विकारों से) बचा लिया जिन्होंने परमात्मा के नाम का श्रेष्ठ रस चखा।1।

[[0631]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने गुर ऊपरि कुरबानु ॥ भए किरपाल पूरन प्रभ दाते जीअ होए मिहरवान ॥ रहाउ॥

मूलम्

अपने गुर ऊपरि कुरबानु ॥ भए किरपाल पूरन प्रभ दाते जीअ होए मिहरवान ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर ऊपरि = गुरु से। कुरबानु = सदके। जीअ = सारे जीवों पर। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ, (जिसकी मेहर से) सर्व-व्यापक दातार प्रभु जी (सेवकों पर) कृपाल होते हैं, सारें जीवों पर मेहरवान होते हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक जन सरनाई ॥ जिनि पूरन पैज रखाई ॥ सगले दूख मिटाई ॥ सुखु भुंचहु मेरे भाई ॥२॥२८॥९२॥

मूलम्

नानक जन सरनाई ॥ जिनि पूरन पैज रखाई ॥ सगले दूख मिटाई ॥ सुखु भुंचहु मेरे भाई ॥२॥२८॥९२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक जन = हे दास नानक! जिनि = जिस (परमात्मा) ने। पूरन = अच्छी तरह। पैज = इज्जत। सगले = सारे। भुंचहु = खाओ। भाई = हे भाई!।2।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे मेरे भाईयो! उस परमात्मा की शरण पड़े रहो, जिस ने (शरण आए मनुष्यों की) इज्जत (दुखों-विकारों के मुकाबले पर) अच्छी तरह रख ली, जिसने उनके सारे दुख दूर कर दिए। हे भाईओ! (तुम भी उसकी शरण पड़ कर) आत्मिक आनंद लो।2।28।92।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ सुनहु बिनंती ठाकुर मेरे जीअ जंत तेरे धारे ॥ राखु पैज नाम अपुने की करन करावनहारे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ सुनहु बिनंती ठाकुर मेरे जीअ जंत तेरे धारे ॥ राखु पैज नाम अपुने की करन करावनहारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर मेरे = हे मेरे पालनहार प्रभु! जीअ जंत = छोटे बड़े सारे जीव। धारे = आसरे। पैज = सत्कार, इज्जत। करन करावनहारे = हे सब कुछ कर सकने वाले, और, जीवों से करा सकने वाले!।1।
अर्थ: हे मेरे ठाकुर! हे सब कुछ कर सकने और करा सकने वाले प्रभु! (मेरी) विनती सुन। सारे छोटे बड़े जीव तेरे ही आसरे हैं (तेरा नाम है ‘शरण योग’। हम जीव तेरे ही आसरे हैं) तू अपने (इस) नाम की इज्जत रख (और, हमारे माया के बंधन काट)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ जीउ खसमाना करि पिआरे ॥ बुरे भले हम थारे ॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ जीउ खसमाना करि पिआरे ॥ बुरे भले हम थारे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खसमाना = पति वाला फर्ज। थारे = तेरे। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (तू हमारा पति है) पति वाले फर्ज पूरे कर। (चाहे हम) बुरे हैं (चाहे हम) अच्छे हैं, हम तेरे ही हैं (हमारे विकारों के बंधन काट)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणी पुकार समरथ सुआमी बंधन काटि सवारे ॥ पहिरि सिरपाउ सेवक जन मेले नानक प्रगट पहारे ॥२॥२९॥९३॥

मूलम्

सुणी पुकार समरथ सुआमी बंधन काटि सवारे ॥ पहिरि सिरपाउ सेवक जन मेले नानक प्रगट पहारे ॥२॥२९॥९३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समरथ = सारी ताकतों के मालिक। काटि = काट के। सवारे = सुंदर जीवन वाले बना दिए। पहिरि = पहना के। सिरपाउ = सिरोपा, आदर मान वाला पोशाका। प्रगट = मशहूर। पहारे = जगत में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस सेवकों की) पुकार सब ताकतों के मालिक प्रभु ने सुन ली, उनके (माया के) बंधन काट के प्रभु ने उनके जीवन सुंदर बना दिए। उन सेवकों को दासों को आदर-मान दे के अपने चरणों में मिला लिया, और, संसार में प्रमुख कर दिया।2।29।93।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत सभि वसि करि दीने सेवक सभि दरबारे ॥ अंगीकारु कीओ प्रभ अपुने भव निधि पारि उतारे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत सभि वसि करि दीने सेवक सभि दरबारे ॥ अंगीकारु कीओ प्रभ अपुने भव निधि पारि उतारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ जंत सभि = जीव-जंतु सब, सारे जीव और सारे जंतु। वसि = वश में। दरबारे = दरबार में (जगह देता है)। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। भव निधि = संसार समुंदर। पारि उतारे = पार लंघा लिए।1।
अर्थ: हे भाई! हमारा पति दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का घर है, कृपा का खजाना है, सब ताकतों का मालिक है। (हमारा पति-प्रभु) संत जनों के सारे काम सँवार देता है (दुनिया के) सारे जीवों को उनके आज्ञाकार बना देता है। सेवकों का सदा पक्ष करता है, और, उनको संसार समुंदर से पार लंघा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन के कारज सगल सवारे ॥ दीन दइआल क्रिपाल क्रिपा निधि पूरन खसम हमारे ॥ रहाउ॥

मूलम्

संतन के कारज सगल सवारे ॥ दीन दइआल क्रिपाल क्रिपा निधि पूरन खसम हमारे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारे। सवारे = सवार देता है। क्रिपाल = कृपा का घर। क्रिपा निधि = कृपा का खजाना। पूरन = सब ताकतों वाले। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (हमारा पति-प्रभु) सँत-जनों के सारे काम सँवार देता है।
हमारा पति दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का घर है, कृपा का खजाना है, सब ताकतों का मालिक है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आउ बैठु आदरु सभ थाई ऊन न कतहूं बाता ॥ भगति सिरपाउ दीओ जन अपुने प्रतापु नानक प्रभ जाता ॥२॥३०॥९४॥

मूलम्

आउ बैठु आदरु सभ थाई ऊन न कतहूं बाता ॥ भगति सिरपाउ दीओ जन अपुने प्रतापु नानक प्रभ जाता ॥२॥३०॥९४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ थाई = सब जगहों पर। ऊन = कमी। कतहूँ बाता = किसी भी बात की। प्रताप = तेज। जाता = जाना जाता है, उघड़ पड़ता है।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: परमात्मा के सेवकों को संत जनों को) हर जगह आदर मिलता है (हर जगह लोग) स्वागत करते हैं। (संतजनों को) किसी बात की कोई कमी नहीं रहती। परमात्मा अपने सेवकों को भक्ति (का) सिरोपा बख्शता है (इस तरह) परमात्मा का तेज-प्रताप (सारे संसार में) रौशन हो जाता है।2।30।94।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे मन राम सिउ करि प्रीति ॥ स्रवन गोबिंद गुनु सुनउ अरु गाउ रसना गीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रे मन राम सिउ करि प्रीति ॥ स्रवन गोबिंद गुनु सुनउ अरु गाउ रसना गीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = से। प्रीति = प्यार। स्रवन = कानों से। गोबिंद गुन = गोबिंद के गुण, परमात्मा की महिमा के गीत। अरु = और। (शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क है)। रसना = जीभ से।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा से प्यार बना। (हे भाई!) कानों से परमात्मा की स्तुति सुना कर, और, जीभ से परमात्मा (की महिमा) के गीत गाया कर। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि साधसंगति सिमरु माधो होहि पतित पुनीत ॥ कालु बिआलु जिउ परिओ डोलै मुखु पसारे मीत ॥१॥

मूलम्

करि साधसंगति सिमरु माधो होहि पतित पुनीत ॥ कालु बिआलु जिउ परिओ डोलै मुखु पसारे मीत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधो = माधव, माया का पति, प्रभु। होहि = हो जाते हैं। पतित = विकारों में गिरे हुए, विकारी लोग। पुनीत = पवित्र। बिआल = व्याल, साँप। जिउ = जैसे। परिओ डोलै = फिर रहा है। पसारे = पसार के, बिखेर के, खोल के। मीत = हे मित्र!।1।
अर्थ: हे भाई! गुरमुखों की संगत किया कर, परमात्मा का स्मरण करता रह। (नाम-जपने की इनायत से) विकारी भी पवित्र बन जाते हैं। हे मित्र! (इस काम में आलस ना कर, देख) मौत साँप की तरह मुँह खोल के घूम रही है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आजु कालि फुनि तोहि ग्रसि है समझि राखउ चीति ॥ कहै नानकु रामु भजि लै जातु अउसरु बीत ॥२॥१॥

मूलम्

आजु कालि फुनि तोहि ग्रसि है समझि राखउ चीति ॥ कहै नानकु रामु भजि लै जातु अउसरु बीत ॥२॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आजु कालि = आज कल, जल्दी ही। फुनि तोहि = तुझे भी। ग्रसि है = ग्रस लेगा, हड़प जाएगा। चीति = चिक्त में। कहै नानकु = नानक कहता है। जातु बीत = बीतता जा रहा है। अउसरु = जिंदगी का समय।2।
अर्थ: हे भाई! अपने चिक्त में ये बात समझ ले कि (ये मौत) तुझे भी जल्दी ही हड़प कर लेगी। नानक (तुझे) कहता है: (अब अभी वक्त है) परमात्मा का भजन कर ले, ये वक्त गुजरता जा रहा है।2।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ मन की मन ही माहि रही ॥ ना हरि भजे न तीरथ सेवे चोटी कालि गही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ मन की मन ही माहि रही ॥ ना हरि भजे न तीरथ सेवे चोटी कालि गही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माहि = में। रही = रह गई। भजे = भजन किया। तीरथ = (तीर्थ = a holy person) संत जन। सेवे = सेवा की। चोटी = बोदी। कालि = काल ने। गही = पकड़ ली।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: देखें;

  1. “नामि रते तीरथ से निरमल, दुखु हउमै मैलु चुकाइआ॥ ….नानकु तिन के चरन पखालै, जिना गुरमुखि साचा भाइआ॥ ” (प्रभाती महला १, पंन्ना 1345)
  2. सोरठि महला ९ “ना हरि भजिओ ना गुरजनु सेविओ” पंना 632 (शब्द तीजा)
दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! देखो, माया धारी के दुर्भाग्य! उस के) मन की आस मन में ही रह गई। ना उसने परमात्मा का भजन किया, ना ही उसने संतजनों की सेवा की, और, मौत ने चोटी आ पकड़ी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारा मीत पूत रथ स्मपति धन पूरन सभ मही ॥ अवर सगल मिथिआ ए जानउ भजनु रामु को सही ॥१॥

मूलम्

दारा मीत पूत रथ स्मपति धन पूरन सभ मही ॥ अवर सगल मिथिआ ए जानउ भजनु रामु को सही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। पूत = पुत्र। रथ = गाड़ियां। संपति = माल असबाब। सभ मही = सारी धरती। अवर = और। सगल = सारा। मिथिआ = नाशवान। जानहु = समझो। को = का। सही = ठीक, साथ निभाने वाला, असल साथी।1।
अर्थ: हे भाई! स्त्री, मित्र, पुत्र, गाड़ियां, माल असबाब, धन पदार्थ, सारी ही धरती - ये सब कुछ नाशवान समझो। परमात्मा का भजन (ही) असल (साथी) है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फिरत फिरत बहुते जुग हारिओ मानस देह लही ॥ नानक कहत मिलन की बरीआ सिमरत कहा नही ॥२॥२॥

मूलम्

फिरत फिरत बहुते जुग हारिओ मानस देह लही ॥ नानक कहत मिलन की बरीआ सिमरत कहा नही ॥२॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग = जुगों में। हारिओ = थक गया। मानस देह = मानव शरीर। लही = मिला। बरीआ = बारी। कहा नही = क्यों नही?।2।
अर्थ: हे भाई! कई युग (जोनियों में) भटक-भटक के तू थक गया था। (अब) तुझे मनुष्य का शरीर मिला है। नानक कहता है: (हे भाई! परमात्मा को) मिलने की यही बारी है, अब तू स्मरण क्यों नहीं करता?।2।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ मन रे कउनु कुमति तै लीनी ॥ पर दारा निंदिआ रस रचिओ राम भगति नहि कीनी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ मन रे कउनु कुमति तै लीनी ॥ पर दारा निंदिआ रस रचिओ राम भगति नहि कीनी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुमति = बुरी मति। दारा = स्त्री। रासि = रस में। रचिओ = मस्त है। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तूने कैसी कुबुद्धि ले ली है? तू पराई स्त्री, पराई निंदा के रस में मस्त रहता है। परमात्मा की भक्ति तूने (कभी) नहीं की।1। रहाउ।

[[0632]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकति पंथु जानिओ तै नाहनि धन जोरन कउ धाइआ ॥ अंति संग काहू नही दीना बिरथा आपु बंधाइआ ॥१॥

मूलम्

मुकति पंथु जानिओ तै नाहनि धन जोरन कउ धाइआ ॥ अंति संग काहू नही दीना बिरथा आपु बंधाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति पंथु = (इन) विकारों से खलासी का रास्ता। नाहनि = नहीं। धाइआ = दौड़ा फिरता है। संग = साथ। काहू = किसी ने भी। बिरथा = व्यर्थ ही। आपु = अपने आप को।1।
अर्थ: हे भाई! तूने विकारों से खलासी पाने का रास्ता (अभी तक) नहीं समझा, धन एकत्र करने के लिए तू सदा दौड़-भाग करता रहा है। (दुनिया के पदार्थों में से) किसी ने भी आखिर में किसी का साथ नहीं दिया। तूने व्यर्थ ही अपने आप को (माया के मोह में) जकड़ रखा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना हरि भजिओ न गुर जनु सेविओ नह उपजिओ कछु गिआना ॥ घट ही माहि निरंजनु तेरै तै खोजत उदिआना ॥२॥

मूलम्

ना हरि भजिओ न गुर जनु सेविओ नह उपजिओ कछु गिआना ॥ घट ही माहि निरंजनु तेरै तै खोजत उदिआना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआना = आत्मिक जीवन की सूझ। घट = हृदय। तेरै घट ही माहि = तेरे हृदय में ही। उदिआना = जंगल।2।
अर्थ: हे भाई! (अभी तक) ना तूने परमात्मा की भक्ति की है, ना गुरु की शरण पड़ा है, ना ही तेरे अंदर आत्मिक जीवन की सूझ आई है। माया से निर्लिप प्रभु तेरे हृदय में बस रहा है, पर तू (बाहर) जंगलों में उसे तलाश रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुतु जनम भरमत तै हारिओ असथिर मति नही पाई ॥ मानस देह पाइ पद हरि भजु नानक बात बताई ॥३॥३॥

मूलम्

बहुतु जनम भरमत तै हारिओ असथिर मति नही पाई ॥ मानस देह पाइ पद हरि भजु नानक बात बताई ॥३॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै हारिओ = तूने (मानव जनम की बाजी) हार ली है। असथिर = अडोलता में रखने वाली। मानस देह पद = मानव शरीर का दर्जा। पाइ = पा के। नानक = हे नानक!।3।
अर्थ: हे भाई! अनेक जन्मों में भटक-भटक के तूने (मनुष्य जन्म की बाजी) हार ली है, तूने ऐसी अक्ल नहीं सीखी जिसकी इनायत से (जन्मों के चक्करों में से) तुझे अडोलता हासिल हो सके। हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु ने तो ये) बात समझाई है कि मानव जन्म का (ऊँचा) दर्जा हासिल करके परमात्मा का भजन कर।3।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ मन रे प्रभ की सरनि बिचारो ॥ जिह सिमरत गनका सी उधरी ता को जसु उर धारो ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ मन रे प्रभ की सरनि बिचारो ॥ जिह सिमरत गनका सी उधरी ता को जसु उर धारो ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिचारो = (परमात्मा के नाम का) ध्यान धर। जिह सिमरत = जिसको स्मरण करते हुए। गनका = वेश्वा (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) किसी संत ने इसे एक तोता दिया था, जो ‘राम राम’ उचारता था। उससे ‘राम राम’ नाम-जपने की लगन इस वेश्वा को भी लग गई थी। उर = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा की शरण पड़ कर उसके नाम का ध्यान धरा कर। जिस परमात्मा का स्मरण करके गनिका (विकारों में डूबने से) बच गई थी तू भी, (हे भाई!) उसकी महिमा अपने दिल में बसाए रख। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अटल भइओ ध्रूअ जा कै सिमरनि अरु निरभै पदु पाइआ ॥ दुख हरता इह बिधि को सुआमी तै काहे बिसराइआ ॥१॥

मूलम्

अटल भइओ ध्रूअ जा कै सिमरनि अरु निरभै पदु पाइआ ॥ दुख हरता इह बिधि को सुआमी तै काहे बिसराइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रूअ = ध्रुव (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) राजा उक्तानपाद का पुत्र। सौतेली माँ द्वारा अपमान से उपराम हो के जंगल में भक्ति करने लगा, और सदा के लिए अटल शोभा कमा ली। सिमरन = स्मरण से। निरभै पदु = निर्भयता का आत्मिक दर्जा। इह बिधि को = इस तरह की। हरता = दूर करने वाला। काहे = क्यों?।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के स्मरण से ध्रूव सदा के लिए अटल हो गया है और उसने निर्भयता का आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया था, तूने उस परमात्मा को क्यों भुलाया हुआ है, वह तो इस तरह के दुखों का नाश करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब ही सरनि गही किरपा निधि गज गराह ते छूटा ॥ महमा नाम कहा लउ बरनउ राम कहत बंधन तिह तूटा ॥२॥

मूलम्

जब ही सरनि गही किरपा निधि गज गराह ते छूटा ॥ महमा नाम कहा लउ बरनउ राम कहत बंधन तिह तूटा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गही = पकड़ी। गज = हाथी (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) एक गंधर्व श्राप के कारण हाथी की जूनि में जा पड़ा था। जब ये वरुण के तालाब में घुसा, तो एक तेंदुए ने उसे पकड़ लिया। राम-नाम की इनायत से तेंदुए के पंजे से बचा।2।
अर्थ: हे भाई! जिस वक्त ही (हाथी ने) कृपा के समुंदर परमात्मा का आसरा लिया वह हाथी (गज) तेंदुए की पकड़ से निकल गया। मैं कहाँ तक परमात्मा के नाम की बड़ाई बताऊँ? परमात्मा का नाम उचार के उस (हाथी) के बंधन टूट गए थे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजामलु पापी जगु जाने निमख माहि निसतारा ॥ नानक कहत चेत चिंतामनि तै भी उतरहि पारा ॥३॥४॥

मूलम्

अजामलु पापी जगु जाने निमख माहि निसतारा ॥ नानक कहत चेत चिंतामनि तै भी उतरहि पारा ॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजामलु = कनौज का एक वैश्वागामी ब्राहमण। किसी महात्मा के कहने पर इसने अपने एक पुत्र का नाम ‘नारायण’ रखा। वहीं से ‘नारायण’ का स्मरण करने की लगन लग गई, और, विकारों से बच निकला। चेत = स्मरण कर। चिंतामन = परमात्मा, वह मणि जो हरेक चितवनी पूरी करती है।3।
अर्थ: हे भाई! सारा जगत जानता है कि अजामल विकारी था (परमात्मा के नामका स्मरण करके) पलक झपकने जितने समय में ही उसका पार-उतारा हो गया था। नानक कहता है: (हे भाई! तू) सारी चितवनियां पूरी करने वाले परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। तू भी (संसार समुंदर से) पार लांघ जाएगा।3।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ प्रानी कउनु उपाउ करै ॥ जा ते भगति राम की पावै जम को त्रासु हरै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ प्रानी कउनु उपाउ करै ॥ जा ते भगति राम की पावै जम को त्रासु हरै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउनु उपाउ = कौन सा उपाय? जा ते = जिससे। को = का। त्रासु = डर। हरै = दूर कर लिए।1।
अर्थ: (हे भाई! बता) मनुष्य वह कौन से उपाय करे जिससे परमात्मा की भक्ति प्राप्त कर सके, और जम का डर दूर कर सके।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउनु करम बिदिआ कहु कैसी धरमु कउनु फुनि करई ॥ कउनु नामु गुर जा कै सिमरै भव सागर कउ तरई ॥१॥

मूलम्

कउनु करम बिदिआ कहु कैसी धरमु कउनु फुनि करई ॥ कउनु नामु गुर जा कै सिमरै भव सागर कउ तरई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउनु करम = कौन सा कर्म? कहु = बताओ। करई = करे। कउनु नाम गुर = गुरु का कौन सा नाम? जा कै सिमरै = जिसके स्मरण से। कउ = को। तरई = पार लांघ जाए।1।
अर्थ: (हे भाई!) बता, वह कौन से (धार्मिक) कर्म हैं, वह कैसी विद्या है, वह कौन सा धर्म है (जो मनुष्य) करे; वह कौन सा गुरु का (बताया) नाम है जिसका स्मरण करने से मनुष्य संसार समुंदर से पार लांघ सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल मै एकु नामु किरपा निधि जाहि जपै गति पावै ॥ अउर धरम ता कै सम नाहनि इह बिधि बेदु बतावै ॥२॥

मूलम्

कल मै एकु नामु किरपा निधि जाहि जपै गति पावै ॥ अउर धरम ता कै सम नाहनि इह बिधि बेदु बतावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कल मह = कलियुग में, जगत में। किरपा निधि नामु = कृपा के खजाने प्रभु का नाम। जाहि = जिसे। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सम = बराबर। नाहिन = नही। बिधि = युक्ति।2।
अर्थ: (हे भाई!) कृपा के खजाने परमात्मा का नाम ही जगत में है जिसको (जो मनुष्य) जपता है (वह) उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। और किसी तरह के भी कोई कर्म उस (नाम) के बराबर नहीं हें- वेद (भी) यह युक्ति बताता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखु दुखु रहत सदा निरलेपी जा कउ कहत गुसाई ॥ सो तुम ही महि बसै निरंतरि नानक दरपनि निआई ॥३॥५॥

मूलम्

सुखु दुखु रहत सदा निरलेपी जा कउ कहत गुसाई ॥ सो तुम ही महि बसै निरंतरि नानक दरपनि निआई ॥३॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख दुख रहत = सुखों दुखो से अलग। जा कउ = जिस को। गुसाई = धरती का पति। निरंतरि = एक रस, बिना दूरी के। दरपन निआई = शीशे की तरह।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिसे (जगत) धरती का पति (गोसाई) कहता है वह सुखों दुखों से अलग रहता है, वह सदा (माया से) निर्लिप रहता है। वह तेरे अंदर भी एक रस बस रहा है, जैसे शीशे (में अक्स बसता हैं उसका सदा स्मरण करना चाहिए)।3।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ माई मै किहि बिधि लखउ गुसाई ॥ महा मोह अगिआनि तिमरि मो मनु रहिओ उरझाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ माई मै किहि बिधि लखउ गुसाई ॥ महा मोह अगिआनि तिमरि मो मनु रहिओ उरझाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माई = हे माँ! किहि बिधि = किस तरह? लखउ = मैं पहचानूँ। अगिआनी = अज्ञान में। तिमरि = अंधेरे में। मो मनु = मेरा मन।1।
अर्थ: हे माँ! धरती के प्रभु-पति को मैं किस तरह पहचानूँ? मेरा मन (तो) बड़े मोह भरी अग्यानता में, मोह के अँधेरे में (सदा) फसा रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल जनम भरम ही भरम खोइओ नह असथिरु मति पाई ॥ बिखिआसकत रहिओ निस बासुर नह छूटी अधमाई ॥१॥

मूलम्

सगल जनम भरम ही भरम खोइओ नह असथिरु मति पाई ॥ बिखिआसकत रहिओ निस बासुर नह छूटी अधमाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरम ही = भ्रम ही, भटकन ही। खोइओ = गवा लिया है। असथिरु = अडोल रहने वाली। बिखिआसकत = (बिखिया+आस्तक) माया में लंपट। निस = रात। बासुर = दिन। अधमाई = नीचता।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भरम ही’ के बारे में। यहां शब्द ‘भ्रमि’ की ‘ि’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे माँ! धरती के पति प्रभु को मैं किस तरह पहचानूँ? मेरा मन (तो) बड़े मोह की अज्ञानता में, मोह के अंधेरे में (सदा) फसा रहा (अभी तक ऐसी) मति नहीं हासिल की (जो मुझे) अडोल रख सके। दिन-रात मैं माया में ही लिपटा रहता हूँ। मेरी ये नीचता खत्म होने को नहीं आती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगु कबहू नही कीना नह कीरति प्रभ गाई ॥ जन नानक मै नाहि कोऊ गुनु राखि लेहु सरनाई ॥२॥६॥

मूलम्

साधसंगु कबहू नही कीना नह कीरति प्रभ गाई ॥ जन नानक मै नाहि कोऊ गुनु राखि लेहु सरनाई ॥२॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगु = साथ, मेल मिलाप, संगति। कीरति = महिमा। प्रभ = प्रभु की।2।
अर्थ: हे माँ! मैंने कभी गुरमुखों की संगति नहीं की, मैंने कभी परमात्मा के महिमा का गीत नहीं गाया। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मेरे अंदर कोई गुण नहीं है। मुझे अपनी शरण में रख।2।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ माई मनु मेरो बसि नाहि ॥ निस बासुर बिखिअन कउ धावत किहि बिधि रोकउ ताहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ माई मनु मेरो बसि नाहि ॥ निस बासुर बिखिअन कउ धावत किहि बिधि रोकउ ताहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माई = हे माँ! मेरो = मेरा। बसि = वश में। निस = रात। बासुर = दिन। बिखिअन कउ = विषियों की खातिर। धावत = दौड़ता है। किहि बिधि = किस तरीके से? रोकउ = रोकूँ। ताहि = उसको।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! मेरा मन मेरे काबू में नहीं। रात-दिन पदार्थों की खातिर दौड़ता फिरता है। मैं इसे कैसे रोकूँ?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेद पुरान सिम्रिति के मत सुनि निमख न हीए बसावै ॥ पर धन पर दारा सिउ रचिओ बिरथा जनमु सिरावै ॥१॥

मूलम्

बेद पुरान सिम्रिति के मत सुनि निमख न हीए बसावै ॥ पर धन पर दारा सिउ रचिओ बिरथा जनमु सिरावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: के = का। मत = उपदेश, ख्याल। निमख = आँख झपकने जितना समय। हीए = हृदय में। दारा = स्त्री। सिउ = साथ। सिरावै = गुजारता है।1।
अर्थ: ये जीव वेदों-पुराणों-स्मृतियों का उपदेश सुन के (भी) रक्ती भर समय के लिए भी (उस उपदेश को अपने) हृदय में नहीं बसाता। पराए धन, पराई स्त्री के मोह में मस्त रहता है, (इस तरह अपना) जनम व्यर्थ गुजारता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मदि माइआ कै भइओ बावरो सूझत नह कछु गिआना ॥ घट ही भीतरि बसत निरंजनु ता को मरमु न जाना ॥२॥

मूलम्

मदि माइआ कै भइओ बावरो सूझत नह कछु गिआना ॥ घट ही भीतरि बसत निरंजनु ता को मरमु न जाना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मदि = नशे में। बावरो = कमला, झल्ला। गिआना = आत्मिक जीवन की समझ। भीतरि = में। मरमु = भेद। को = का।2।
अर्थ: जीव माया के नशे में पागल हो रहा है, आत्मिक जीवन के बारे में इसे कोई सूझ नहीं आती। माया से निर्लिप प्रभु इसके दिल में ही बसता है पर ये भेद ये जीव नहीं समझता।2।

[[0633]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब ही सरनि साध की आइओ दुरमति सगल बिनासी ॥ तब नानक चेतिओ चिंतामनि काटी जम की फासी ॥३॥७॥

मूलम्

जब ही सरनि साध की आइओ दुरमति सगल बिनासी ॥ तब नानक चेतिओ चिंतामनि काटी जम की फासी ॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध = गुरु। दुरमति = बुरी मति। सगल = सारी। चिंतामनि = चितवा हुआ पूरी करने वाली मणि, परमात्मा। फासी = फंदा।3।
अर्थ: जब जीव गुरु की शरण पड़ता है, तब इसकी सारी अनुचित मति नाश हो जाती है। तब, हे नानक! ये सारी मनोकामनाएं पूरी करने वाले परमात्मा को स्मरण करता है, और, इसकी जम की फाँसी (भी) काटी जाती है।3।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ रे नर इह साची जीअ धारि ॥ सगल जगतु है जैसे सुपना बिनसत लगत न बार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ रे नर इह साची जीअ धारि ॥ सगल जगतु है जैसे सुपना बिनसत लगत न बार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साची = अटल, सदा कायम रहने वाली। जीअ = दिल में। धारि = टिका ले। सगल = सारा। बिनसत = नाश होते। बार = देर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मनुष्य! अपने दिल में ये बात पक्की तरह टिका ले, (कि) सारा संसार सपने जैसा है, (इसके) नाश होने में देर नहीं लगती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारू भीति बनाई रचि पचि रहत नही दिन चारि ॥ तैसे ही इह सुख माइआ के उरझिओ कहा गवार ॥१॥

मूलम्

बारू भीति बनाई रचि पचि रहत नही दिन चारि ॥ तैसे ही इह सुख माइआ के उरझिओ कहा गवार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारू = रेत। भीति = दीवार। रचि = रच के, उसार के। पचि = पोच के। उरझिओ = मस्त होया। कहा = क्यों? गवार = हे मूर्ख!।1।
अर्थ: हे भाई! (जैसे किसी ने) रेत की दीवार खड़ी करके पोच के तैयार की हो, पर वह दीवार चार दिन भी (टिकी) नहीं रहती। इस माया के सुख भी उस (रेत की दीवार) जैसे ही हैं। हे मूर्ख! तू इन सुखों में क्यों मस्त हो रहा है?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजहू समझि कछु बिगरिओ नाहिनि भजि ले नामु मुरारि ॥ कहु नानक निज मतु साधन कउ भाखिओ तोहि पुकारि ॥२॥८॥

मूलम्

अजहू समझि कछु बिगरिओ नाहिनि भजि ले नामु मुरारि ॥ कहु नानक निज मतु साधन कउ भाखिओ तोहि पुकारि ॥२॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजहू = अब भी। नाहिनि = नहीं। मुरारि = (मुर+अरि) परमात्मा। कहु = कह। निज = अपना। मतु = ख्याल। को = का। तोहि = तुझे। पुकारि = पुकार के।2।
अर्थ: हे भाई! अभी भी समझ जा (अभी) कुछ नहीं बिगड़ा; और परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे नानक! कह: (हे भाई!) मैं तुझे गुरमुखों का यह निजी ख्याल पुकार के सुना रहा हूँ।2।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ इह जगि मीतु न देखिओ कोई ॥ सगल जगतु अपनै सुखि लागिओ दुख मै संगि न होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ इह जगि मीतु न देखिओ कोई ॥ सगल जगतु अपनै सुखि लागिओ दुख मै संगि न होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत में। सुखि = सुख में। संगि = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! इस जगत में कोई (आखिर तक साथ निभाने वाला) मित्र (मैंने) नहीं देखा। सारा संसार अपने सुख में ही जुटा हुआ है। दुख में (कोई किसी के) साथ (साथी) नहीं बनता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारा मीत पूत सनबंधी सगरे धन सिउ लागे ॥ जब ही निरधन देखिओ नर कउ संगु छाडि सभ भागे ॥१॥

मूलम्

दारा मीत पूत सनबंधी सगरे धन सिउ लागे ॥ जब ही निरधन देखिओ नर कउ संगु छाडि सभ भागे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। सनबंधी = रिश्तेदार। सगरे = सारे। सिउ = साथ। निरधन = कंगाल। कउ = को। संगु = साथ। छाडि = छोड़ के। सभि = सारे।1।
अर्थ: हे भाई! स्त्री-मित्र-पुत्र-रिश्तेदार- ये सारे धन से (ही) प्यार करते हैं। जब ही इन्होंने मनुष्य को कंगाल देखा, (तभी) साथ छोड़ के भाग जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहंउ कहा यिआ मन बउरे कउ इन सिउ नेहु लगाइओ ॥ दीना नाथ सकल भै भंजन जसु ता को बिसराइओ ॥२॥

मूलम्

कहंउ कहा यिआ मन बउरे कउ इन सिउ नेहु लगाइओ ॥ दीना नाथ सकल भै भंजन जसु ता को बिसराइओ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहंउ कहा = मैं क्या कहूँ? यिआ मन कउ = इस मन को। दीना नाथ = गरीबों का पति। सकल = सारे। भै = डर। भै भंजन = डरों का नाश करने वाला। ता को = उसका।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मैं इस पागल मन को क्या समझाऊँ? (इसने) इन (कच्चे साथियों) के साथ प्यार डाला हुआ है। (जो परमात्मा) गरीबों का रखवाला और सारे डर नाश करने वाला है उसकी महिमा (इसने) भुलाई हुई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुआन पूछ जिउ भइओ न सूधउ बहुतु जतनु मै कीनउ ॥ नानक लाज बिरद की राखहु नामु तुहारउ लीनउ ॥३॥९॥

मूलम्

सुआन पूछ जिउ भइओ न सूधउ बहुतु जतनु मै कीनउ ॥ नानक लाज बिरद की राखहु नामु तुहारउ लीनउ ॥३॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआन पूछ = कुत्ते की पूँछ। सूधउ = सीधी। मै कीनउ = मैंने की। बिरद = ईश्वरीय मूल प्यार वाला स्वभाव। लीनउ = मैं ले सकता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! जैसे कुत्ते की पूँछ सीधी नहीं होती (इसी तरह इस मन की परमात्मा की याद के प्रति लापरवाही हटती नहीं) मैंने बहुत यत्न किया है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! अपने) बिरदु भरे प्यार वाले स्वभाव की इज्जत रख (मेरी मदद कर, तो ही) मैं तेरा नाम जप सकता हूँ।3।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ मन रे गहिओ न गुर उपदेसु ॥ कहा भइओ जउ मूडु मुडाइओ भगवउ कीनो भेसु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ मन रे गहिओ न गुर उपदेसु ॥ कहा भइओ जउ मूडु मुडाइओ भगवउ कीनो भेसु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहिओ = पकड़ा, ग्रहण किया। कहा भइओ = क्या हुआ? मूडु = सिर। भेसु = भेस।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तू गुरु की शिक्षा ग्रहण नहीं करता। (हे भाई! गुरु का उपदेश भुला के) अगर सिर भी मुनवा लिया, और, भगवे रंग के कपड़े पहन लिए, तो भी क्या बना? (आत्मिक जीवन का कुछ भी ना हो सँवरा)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साच छाडि कै झूठह लागिओ जनमु अकारथु खोइओ ॥ करि परपंच उदर निज पोखिओ पसु की निआई सोइओ ॥१॥

मूलम्

साच छाडि कै झूठह लागिओ जनमु अकारथु खोइओ ॥ करि परपंच उदर निज पोखिओ पसु की निआई सोइओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साच = सदा स्थिर हरि नाम। झूठह = नाशवान (पदार्थों) में। अकारथु = व्यर्थ। परपंच = पाखण्ड, छल। उदर निज = अपना पेट। पोखिओ = पाला। पसु की निआई = पशुओं की तरह।1।
अर्थ: (हे भाई! भगवा भेस तो धार लिया, पर) सदा-स्थिर प्रभु का नाम छोड़ के नाशवान पदार्थों में ही तवज्जो जोड़े रखी, (लोगों से) छल करके अपना पेट पालता रहा, और, पशुओं की तरह सोया रहा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भजन की गति नही जानी माइआ हाथि बिकाना ॥ उरझि रहिओ बिखिअन संगि बउरा नामु रतनु बिसराना ॥२॥

मूलम्

राम भजन की गति नही जानी माइआ हाथि बिकाना ॥ उरझि रहिओ बिखिअन संगि बउरा नामु रतनु बिसराना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = जुगति। हाथि = हाथ में। उरझि रहिओ = मगन रहा। बिखिअन संगि = मायावी पदार्थों के साथ।2।
अर्थ: हे भाई! (गाफिल मनुष्य) परमात्मा के भजन की जुगति नहीं समझता, माया के हाथ में बिका रहता है। पागल मनुष्य मायावी पदार्थों (के मोह) में मगन रहता है, और, प्रभु के (श्रेष्ठ) रत्न-नाम को भुलाए रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहिओ अचेतु न चेतिओ गोबिंद बिरथा अउध सिरानी ॥ कहु नानक हरि बिरदु पछानउ भूले सदा परानी ॥३॥१०॥

मूलम्

रहिओ अचेतु न चेतिओ गोबिंद बिरथा अउध सिरानी ॥ कहु नानक हरि बिरदु पछानउ भूले सदा परानी ॥३॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचेतु = गाफिल। अउध = अवधि, उम्र। सिरानी = गुजार दी। हरि = हे हरि! बिरदु = मूल प्यार भरा स्वभाव। परानी = प्राणी, जीव।3।
अर्थ: (मनुष्य माया में फंस के) बेसुध हुआ रहता है, परमात्मा को याद नहीं करता, सारी उम्र व्यर्थ गुजार लेता है। हे नानक! कह: हे हरि! तू अपने बिरद भरे प्यार वाले मूल स्वभाव को याद रख। ये जीव तो सदा भूले ही रहते हैं।3।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ जो नरु दुख मै दुखु नही मानै ॥ सुख सनेहु अरु भै नही जा कै कंचन माटी मानै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ जो नरु दुख मै दुखु नही मानै ॥ सुख सनेहु अरु भै नही जा कै कंचन माटी मानै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुख मै = दुखों में (घिरे हुए भी)। नही मानै = नहीं घबराता। सुख सनेहु = सुखों का मोह। भै = डर। जा कै = जिस के मन में। कंचन = सोना।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य दुखों में घबराता नहीं, जिस मनुष्य के हृदय में सुखों से मोह नहीं, और (किसी किस्म का) डर नहीं, जो मनुष्य सोने को मिट्टी (के समान) समझता है (उसके अंदर परमात्मा का निवास हो जाता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नह निंदिआ नह उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना ॥ हरख सोग ते रहै निआरउ नाहि मान अपमाना ॥१॥

मूलम्

नह निंदिआ नह उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना ॥ हरख सोग ते रहै निआरउ नाहि मान अपमाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंदिआ = चुगली, बुराई। उसतति = खुशामद। हरख सोग ते = खुशी ग़मी से। मान = आदर। अपमाना = निरादरी।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर किसी की चुगली-बुराई नहीं, किसी की खुशामद नहीं, जिसके अंदर ना लोभ है, ना मोह है, ना अहंकार है; जो मनुष्य खुशी और ग़मी से निर्लिप रहता है, जिस पर ना आदर असर कर सकता है ना निरादरी (ऐसे मनुष्य के दिल में परमात्मा का निवास हो जाता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा ॥ कामु क्रोधु जिह परसै नाहनि तिह घटि ब्रहमु निवासा ॥२॥

मूलम्

आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा ॥ कामु क्रोधु जिह परसै नाहनि तिह घटि ब्रहमु निवासा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, मनोकामना। ते = से। परसै = छूता। तिह घटि = उसके हृदय में। ब्रहमु निवासा = परमात्मा का निवास।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य आशाएं-उम्मीदें सब त्याग देता है, जगत से निर्मोह रहता है, जिस मनुष्य को ना काम-वासना छू सकती है ना ही क्रोध छू सकता है, उस मनुष्य के दिल में परमात्मा का निवास हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर किरपा जिह नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी ॥ नानक लीन भइओ गोबिंद सिउ जिउ पानी संगि पानी ॥३॥११॥

मूलम्

गुर किरपा जिह नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी ॥ नानक लीन भइओ गोबिंद सिउ जिउ पानी संगि पानी ॥३॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर = गुरु ने। जिह नर कउ = जिस मनुष्य पर। तिह = उसने। सिउ = से, में। संगि = साथ।3।
अर्थ: (पर) हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर गुरु ने मेहर की उसने (ही जीवन की) ये विधि समझी है। वह मनुष्य परमात्मा के साथ ऐसे एक-मेक हो जाता है, जैसे पानी के साथ पानी मिल जाता है।3।11।

[[0634]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ९ ॥ प्रीतम जानि लेहु मन माही ॥ अपने सुख सिउ ही जगु फांधिओ को काहू को नाही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सोरठि महला ९ ॥ प्रीतम जानि लेहु मन माही ॥ अपने सुख सिउ ही जगु फांधिओ को काहू को नाही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रीतम = हे सज्जन! माही = में। सिउ = साथ। फांधिओ = बंधा हुआ है। को = कोई मनुष्य। काहू को = किसी का।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! (अपने) मन में (ये बात) पक्के तोर पर समझ लें कि सारा संसार अपने सुख के साथ ही बँधा हुआ है। कोई भी किसी का (आखिर तक निभाने वाला साथी) नहीं (बनता)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख मै आनि बहुतु मिलि बैठत रहत चहू दिसि घेरै ॥ बिपति परी सभ ही संगु छाडित कोऊ न आवत नेरै ॥१॥

मूलम्

सुख मै आनि बहुतु मिलि बैठत रहत चहू दिसि घेरै ॥ बिपति परी सभ ही संगु छाडित कोऊ न आवत नेरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आनि = आ के। मिलि = मिल के। चहु दिसि = चारों तरफ। रहत घरै = घेरे रहते हैं। संगु = साथ। कोऊ = कोई भी।1।
अर्थ: हे मित्र! (जब मनुष्य) सुख में (होता है, तब) कई यार दोस्त मिल के (उसके पास) बैठते हैं, और, (उसे) चारों और से घेरे रखते हैं। (पर जब उसे कोई) मुसीबत आती है, सारे ही साथ छोड़ जाते हैं, (फिर) कोई भी (उसके) नजदीक नहीं फटकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर की नारि बहुतु हितु जा सिउ सदा रहत संग लागी ॥ जब ही हंस तजी इह कांइआ प्रेत प्रेत करि भागी ॥२॥

मूलम्

घर की नारि बहुतु हितु जा सिउ सदा रहत संग लागी ॥ जब ही हंस तजी इह कांइआ प्रेत प्रेत करि भागी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नारि = स्त्री। हितु = प्यार। जा सिउ = जिस से। संगि = साथ (‘संगु’ और ‘संगि’ में फर्क है)। हंस = जीवात्मा। कांइआ = शरीर। प्रेत = गुजर चुका, मर चुका। करि = कह के।2।
अर्थ: हे मित्र! घर की स्त्री (भी) जिससे बड़ा प्यार होता है, जो सदा (पति के) साथ लगी रहती है, जिस वक्त (पति की) जीवात्मा इस शरीर को छोड़ देती है, (स्त्री उससे ये कह के) परे हट जाती है कि ये मर चुका है मर चुका है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह बिधि को बिउहारु बनिओ है जा सिउ नेहु लगाइओ ॥ अंत बार नानक बिनु हरि जी कोऊ कामि न आइओ ॥३॥१२॥१३९॥

मूलम्

इह बिधि को बिउहारु बनिओ है जा सिउ नेहु लगाइओ ॥ अंत बार नानक बिनु हरि जी कोऊ कामि न आइओ ॥३॥१२॥१३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इह बिधि को = इस तरह का। बिउहारु = व्यवहार। अंत बार = आखिरी समय में। कामि = काम में।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे मित्र! दुनिया का) इस तरह का व्यवहार बना हुआ है जिससे (मनुष्य ने) प्यार डाला हुआ है। (पर, हे मित्र! आखिरी समय में परमात्मा के बिना और कोई भी (मनुष्य की) मदद नहीं कर सकता।3।12।139।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ घरु १ असटपदीआ चउतुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला १ घरु १ असटपदीआ चउतुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मड़ै मसाणि न जाई ॥ त्रिसना राचि न पर घरि जावा त्रिसना नामि बुझाई ॥ घर भीतरि घरु गुरू दिखाइआ सहजि रते मन भाई ॥ तू आपे दाना आपे बीना तू देवहि मति साई ॥१॥

मूलम्

दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मड़ै मसाणि न जाई ॥ त्रिसना राचि न पर घरि जावा त्रिसना नामि बुझाई ॥ घर भीतरि घरु गुरू दिखाइआ सहजि रते मन भाई ॥ तू आपे दाना आपे बीना तू देवहि मति साई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुबिधा = दु तरफा मन, परमात्मा के बिना और आसरे की तलाश। न पड़उ = मैं नहीं पड़ता। न पूजउ = मैं नहीं पूजता। मढ़ै = मढ़ियां, समाधि, कब्र। मसाणि = शमशान, जहाँ मुर्दे जलाए जाते हैं। न जाई = मैं नहीं जाता। राचि = फस के। पर घरि = पराए घर में, परमात्मा के बिना किसी और घर में। मन = मन को। भाई = पसंद आ गई है। दाना = जानने वाला। बीना = पहचानने वाला। साई = हे सांई!।1।
अर्थ: मैं परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश में नहीं पड़ता, मैं प्रभु के बिना किसी और को नहीं पूजता, मैं कहीं समाधियों, शमशानों में भी नहीं जाता। माया की तृष्णा में फंस के मैं (परमात्मा के दर के बिना) किसी और घर में नहीं जाता, मेरी मायावी तृष्णा परमात्मा के नाम ने मिटा दी है। गुरु ने मुझे मेरे हृदय में ही परमात्मा का निवास-स्थान दिखा दिया है, और अडोल अवस्था में रंगे हुए मेरे मन को वह सहज-अवस्था अच्छी लग रही है।
हे मेरे सांई! (ये सब तेरी ही मेहर है) तू खुद ही (मेरे दिल की) जानने वाला है; खुद ही पहचानने वाला है, तू खुद ही मुझे (अच्छी) मति देता है (जिस कारण तेरा दर छोड़ के किसी और तरफ नहीं भटकता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु बैरागि रतउ बैरागी सबदि मनु बेधिआ मेरी माई ॥ अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिउ लिव लाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

मनु बैरागि रतउ बैरागी सबदि मनु बेधिआ मेरी माई ॥ अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिउ लिव लाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैरागि = वैराग में, वियोग के अहसास में, विरह में। रतउ = रंगा हुआ। बैरागी = त्यागी। बेधिआ = भेदा हुआ। निरंतरि = दूरी के बिना, एक रस। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! मेरा मन गुरु के शब्द में भेदा गया है (परोया गया है। शब्द की इनायत से मेरे अंदर परमात्मा से विछुड़ने का अहिसास पैदा हो गया है)। वही मनुष्य (दरअसल में) त्यागी है जिसका मन परमात्मा के बिरह-रंग में रंगा गया है। उस (वैरागी) के अंदर प्रभु की ज्योति जग पड़ती है, वह एक-रस महिमा की वाणी में (मस्त) रहता है, सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु (के चरणों में) उसकी तवज्जो जुड़ी रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंख बैरागी कहहि बैराग सो बैरागी जि खसमै भावै ॥ हिरदै सबदि सदा भै रचिआ गुर की कार कमावै ॥ एको चेतै मनूआ न डोलै धावतु वरजि रहावै ॥ सहजे माता सदा रंगि राता साचे के गुण गावै ॥२॥

मूलम्

असंख बैरागी कहहि बैराग सो बैरागी जि खसमै भावै ॥ हिरदै सबदि सदा भै रचिआ गुर की कार कमावै ॥ एको चेतै मनूआ न डोलै धावतु वरजि रहावै ॥ सहजे माता सदा रंगि राता साचे के गुण गावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असंख = बेअंत। बैराग = वैराग की बातें। भै = परमात्मा के डर अदब में। धावतु = माया की ओर दौड़ते को। रहावै = काबू रखता है। सहजे = सहज में।2।
अर्थ: अनेक ही वैरागी वैराग की बातें करते हैं, पर असल वैरागी वह है जो (परमात्मा के विरह-रंग में इतना रंगा हुआ है कि वह) पति-प्रभु को प्यारा लगने लगता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा अपने दिल में (परमात्मा की याद को बसाता है और) सदा परमात्मा के भय-अदब में मस्त (रह के) गुरु के द्वारा बताए हुए कार्य करता है। वह बैरागी सिर्फ परमात्मा को याद करता है (जिस कारण उसका) मन (माया की ओर) डोलता नहीं, वह बैरागी (माया की तरफ) भागते मन को रोक के (प्रभु चरणों में) रोके रखता है। अडोल अवस्था में मस्त वह वैरागी सदा (प्रभु के नाम-) रंग में रंगा रहता है, और सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनूआ पउणु बिंदु सुखवासी नामि वसै सुख भाई ॥ जिहबा नेत्र सोत्र सचि राते जलि बूझी तुझहि बुझाई ॥ आस निरास रहै बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥ भिखिआ नामि रजे संतोखी अम्रितु सहजि पीआई ॥३॥

मूलम्

मनूआ पउणु बिंदु सुखवासी नामि वसै सुख भाई ॥ जिहबा नेत्र सोत्र सचि राते जलि बूझी तुझहि बुझाई ॥ आस निरास रहै बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥ भिखिआ नामि रजे संतोखी अम्रितु सहजि पीआई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पउणु = पवन, हवा (की तरह चंचल)। बिंदु = रक्ती भर भी। स्रोत = इंद्रिय। जलि = जलन, तृष्णा अग्नि। भाई = हे भाई!।3।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) चंचल मन रक्ती भर भी आत्मिक आनंद में निवास देने वाले नाम में बसता है (वह मनुष्य असल बैरागी है, और वह बैरागी) आत्मिक आनंद लेता है। हे प्रभु! तूने स्वयं (उस वैरागी को जीवन के सही रास्ते की) समझ दी है, (जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा-) अग्नि बुझ गई है, और उसकी जीभ उसकी आँखें (आदि) इंद्रिय सदा-स्थिर (हरि-नाम) में रंगे रहते हैं। वह बैरागी दुनिया की आशाओं से निर्मोह हो के जीवन व्यतीत करता है, वह (दुनियावी घर-धाट के अपनत्व को त्याग के) उस घर में तवज्जो जोड़े रखता है जो सच-मुच उसका अपना ही रहेगा। ऐसे बैरागी (गुरु-दर से मिली) नाम-भिक्षा से अघाए रहते हैं, तृप्त रहते हैं, संतुष्ट रहते हैं (क्योंकि उनको गुरु ने) अडोल आत्मिक अवस्था में टिका के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला दिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुबिधा विचि बैरागु न होवी जब लगु दूजी राई ॥ सभु जगु तेरा तू एको दाता अवरु न दूजा भाई ॥ मनमुखि जंत दुखि सदा निवासी गुरमुखि दे वडिआई ॥ अपर अपार अगम अगोचर कहणै कीम न पाई ॥४॥

मूलम्

दुबिधा विचि बैरागु न होवी जब लगु दूजी राई ॥ सभु जगु तेरा तू एको दाता अवरु न दूजा भाई ॥ मनमुखि जंत दुखि सदा निवासी गुरमुखि दे वडिआई ॥ अपर अपार अगम अगोचर कहणै कीम न पाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजी = कोई और झाक। राई = रक्ती भी। दुखि = दुख में। दे = देता है। अगोचर = अ+गोचर, जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं। कीम = कीमत। कहणै = कहने से।4।
अर्थ: जब तक (मन में) रक्ती भर भी कोई और झाक है किसी और आसरे की तलाश है तब तक विरह अवस्था पैदा नहीं हो सकती। (पर हे प्रभु! ये विरह की) दाति देने वाला एक तू खुद ही है, तेरे बिना कोई और (ये दाति) देने वाला नहीं है, और ये सारा जगत तेरा अपना ही (रचा हुआ) है।
अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा दुख में टिके रहते हैं, जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं उनको प्रभु (नाम की दाति दे के) आदर-सम्मान बख्शता है। उस बेअंत अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर प्रभु की कीमत (जीवों के) बयान करने से नहीं बताई जा सकती (उसके बराबर का और कोई कहा नहीं जा सकता)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुंन समाधि महा परमारथु तीनि भवण पति नामं ॥ मसतकि लेखु जीआ जगि जोनी सिरि सिरि लेखु सहामं ॥ करम सुकरम कराए आपे आपे भगति द्रिड़ामं ॥ मनि मुखि जूठि लहै भै मानं आपे गिआनु अगामं ॥५॥

मूलम्

सुंन समाधि महा परमारथु तीनि भवण पति नामं ॥ मसतकि लेखु जीआ जगि जोनी सिरि सिरि लेखु सहामं ॥ करम सुकरम कराए आपे आपे भगति द्रिड़ामं ॥ मनि मुखि जूठि लहै भै मानं आपे गिआनु अगामं ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुंन = शून्य अवस्था, अफुर अवस्था, निर्विचार अवस्था। सुंन समाधि = वह जो निर्विचार अवस्था में टिका रहता है, जिस पर माया वाले फुरने अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। परमारथु = परम अर्थ, सबसे ऊँचा श्रेष्ठ धन। पति = मालिक। मसतकि = माथे पर। जगि = जगत में। सिरि सिरि = हरेक सिर पर, हरेक जीव अपने-अपने सिर पर। सहामं = सहता है। करम = काम। सुकरम = अच्छे काम। द्रिड़ामं = (हृदय में) दृढ़ करता है। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। जूठि = मैल। भै = डर में। अगामं = अगम प्रभु।5।
अर्थ: परमात्मा एक ऐसी आत्मिक अवस्था का मालिक है कि उस पर माया के फुरने असर नहीं डाल सकते, वह तीनों ही भवनों का मालिक है, उसका नाम जीवों के लिए महान ऊँचा श्रेष्ठ धन है। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं उनके माथे पर (उनके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार परमात्मा की रज़ा में ही) लेख (लिखा जाता है, हरेक जीव को) अपने-अपने सिर पर लिखा लेख सहना पड़ता है। परमात्मा स्वयं ही (साधारण) काम और अच्छे काम (जीवों से) करवाता है, खुद ही (जीवों के हृदय में अपनी) भक्ति दृढ़ करता है। अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु खुद ही (जीवों को अपनी) गहरी सांझ बख्शता है। (सच्चा वैरागी) परमात्मा के डर-अदब में रच जाता है, उसके मन में और मुँह में (पहले जो भी विकारों की निंदा आदि की) मैल (होती है वह) दूर हो जाती है।5।

[[0635]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन चाखिआ सेई सादु जाणनि जिउ गुंगे मिठिआई ॥ अकथै का किआ कथीऐ भाई चालउ सदा रजाई ॥ गुरु दाता मेले ता मति होवै निगुरे मति न काई ॥ जिउ चलाए तिउ चालह भाई होर किआ को करे चतुराई ॥६॥

मूलम्

जिन चाखिआ सेई सादु जाणनि जिउ गुंगे मिठिआई ॥ अकथै का किआ कथीऐ भाई चालउ सदा रजाई ॥ गुरु दाता मेले ता मति होवै निगुरे मति न काई ॥ जिउ चलाए तिउ चालह भाई होर किआ को करे चतुराई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। भाई = हे भाई! चालउ = मैं चलता हूं। दाता = दातार प्रभु। दाता = दातार प्रभु। चालह = हम (जीव) चलते हैं।6।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने (परमात्मा के नाम का रस) चखा है, (उसका) स्वाद वही जानते हैं (बता नहीं सकते), जैसे गूंगे मनुष्य की खाई हुई मिठाई (का स्वाद गूंगा खुद ही जानता हे, किसी को बता नहीं सकता)। हे भाई! नाम-रस है ही अकथ, बयान किया नहीं जा सकता। (मैं तो सदा यही तमन्ना रखता हूँ कि) मैं उस मालिक प्रभु की रजा में चलूँ। (पर रजा में चलने की) सूझ भी तब ही आती है जब गुरु उस दातार प्रभु से मिला दे। जो आदमी गुरु की शरण नहीं पड़ा, उसे ये समझ बिल्कुल भी नहीं आती। हे भाई! कोई आदमी अपनी समझदारी पर गुमान नहीं कर सकता, जैसे-जैसे परमात्मा हम जीवों को (जीवन-राह पर) चलाता है वैसे वैसे ही हम चलते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि भरमि भुलाए इकि भगती राते तेरा खेलु अपारा ॥ जितु तुधु लाए तेहा फलु पाइआ तू हुकमि चलावणहारा ॥ सेवा करी जे किछु होवै अपणा जीउ पिंडु तुमारा ॥ सतिगुरि मिलिऐ किरपा कीनी अम्रित नामु अधारा ॥७॥

मूलम्

इकि भरमि भुलाए इकि भगती राते तेरा खेलु अपारा ॥ जितु तुधु लाए तेहा फलु पाइआ तू हुकमि चलावणहारा ॥ सेवा करी जे किछु होवै अपणा जीउ पिंडु तुमारा ॥ सतिगुरि मिलिऐ किरपा कीनी अम्रित नामु अधारा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = अनेक जीव। भरमि = भटकना में। राते = रंगे हुए। जितु = जिस में, जिस तरफ, जिस काम में। हुकमि = हुक्म में। करी = मैं करूं। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सतिगुरि मिलिऐ = अगर सतिगुर मिल जाए।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे अपार प्रभु! अनेक जीव भटकना में (डाल के तूने) कुमार्ग पर डाले हुए हैं, अनेक जीव तेरी भक्ति (के रंग) में रंगे हुए हैं: ये (सब) खेल तेरा (रचा हुआ) है। जिस तरफ तूने जीवों को लगाया हुआ है वैसा ही फल जीव भोग रहे हैं। तू (सब जीवों को) अपने हुक्म में चलाने के समर्थ है। (मेरे पास) अगर कोई चीज मेरी अपनी हो तो (मैं ये कहने का फख़र कर सकूँ कि) मैं तेरी सेवा कर रहा हूँ, पर मेरा ये जीवन भी तो तेरा ही दिया हुआ है और मेरा शरीर भी तेरी ही दाति है। अगर गुरु मिल जाए तो वह कृपा करता है और आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम मुझे (जिंदगी का) आसरा देता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गगनंतरि वासिआ गुण परगासिआ गुण महि गिआन धिआनं ॥ नामु मनि भावै कहै कहावै ततो ततु वखानं ॥ सबदु गुर पीरा गहिर ग्मभीरा बिनु सबदै जगु बउरानं ॥ पूरा बैरागी सहजि सुभागी सचु नानक मनु मानं ॥८॥१॥

मूलम्

गगनंतरि वासिआ गुण परगासिआ गुण महि गिआन धिआनं ॥ नामु मनि भावै कहै कहावै ततो ततु वखानं ॥ सबदु गुर पीरा गहिर ग्मभीरा बिनु सबदै जगु बउरानं ॥ पूरा बैरागी सहजि सुभागी सचु नानक मनु मानं ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गगन = आकाश, चिक्त आकाश, दसवाँ द्वार, दिमाग़, आत्मिक मण्डल। गगनंतरि = गगन अंतरि, आत्मिक मण्डल में, ऊँचे आत्मिक ठिकाने में। महि = में। गिआन = गहरी सांझ। धिआनं = तवज्जो का ठहराव। गहिर गंभीरा = गहरे जिगरे वाला। ततो ततु = तत्व ही तत्व, जगत के मूल प्रभु को ही। बउरानं = कमला, पागल। सहजि = सहज अवस्था में, आत्मिक अडोल अवस्था में। सचु = सदा स्थिर प्रभु।8।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य सदा ऊँचे आत्मिक मण्डल में बसता है (तवज्जो टिकाए रखता है) उसके अंदर आत्मिक गुण प्रकट होते हैं, आत्मिक गुणों से वह गहरी सांझ डाले रखता है, आत्मिक गुणों में उसकी तवज्जो जुड़ी रहती है (वही मनुष्य पूरन त्यागी है)। उसके मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है, वह (खुद नाम) स्मरण करता है (और लोगों को स्मरण करने के लिए) प्रेरित करता है। वह सदा जगत-मूल प्रभु की ही महिमा करता है। गुरु पीर के शब्द को (हृदय में टिका के) वह गहरे जिगरे वाला बन जाता है। पर गुरु शब्द से टूट के जगत (माया के मोह में) कमला (हुआ फिरता) है। वह पूर्ण त्यागी मनुष्य अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के अच्छे भाग्य वाला बन जाता है, उसका मन सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु (की याद को अपना जीवन-निशाना) मानता है।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ तितुकी ॥ आसा मनसा बंधनी भाई करम धरम बंधकारी ॥ पापि पुंनि जगु जाइआ भाई बिनसै नामु विसारी ॥ इह माइआ जगि मोहणी भाई करम सभे वेकारी ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ तितुकी ॥ आसा मनसा बंधनी भाई करम धरम बंधकारी ॥ पापि पुंनि जगु जाइआ भाई बिनसै नामु विसारी ॥ इह माइआ जगि मोहणी भाई करम सभे वेकारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आसा मनसा = मायावी आशाओं के फुरने। बंधनी = (माया के मोह में) बंधने वाले। भाई = हे भाई! हे पंडित! करम धरम = वह कर्म जो धार्मिक कहे गए हैं, रस्मी धार्मिक कर्म। बंधकारी = माया के बंधन पैदा करने वाले। पाप पुंनि = (रस्मी तौर पर माने गए) पाप और पुण्य के कारण। बिनसै = आत्मिक मौत मरता है। विसारी = बिसार के। जगि = जगत में। वेकारी = व्यर्थ।1।
अर्थ: हे भाई! (तीर्थ-व्रत आदि धर्म के नाम कर्म करते हुए भी मायावी आशाएं और फुरने बरकरार रहते हैं, ये) आशाएं और फुरने माया के मोह में बांधने वाले हैं, (ये रस्मी) धार्मिक कर्म (बल्कि) माया के बंधन पैदा करने वाले हैं। हे भाई! (रस्मी तौर पर माने हुए) पाप और पुण्य के कारण जगत पैदा होता है (जनम मरण के चक्कर में आता है), परमात्मा का नाम भुला के आत्मिक मौत मरता है। हे भाई! ये माया जगत में (जीवों को) मोहने का काम किए जा रही है, ये सारे (धार्मिक निहित) कर्म व्यर्थ ही जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि पंडित करमा कारी ॥ जितु करमि सुखु ऊपजै भाई सु आतम ततु बीचारी ॥ रहाउ॥

मूलम्

सुणि पंडित करमा कारी ॥ जितु करमि सुखु ऊपजै भाई सु आतम ततु बीचारी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंडित = हे पंण्डत! करमा कारी = कर्म काण्डी, तीर्थ व्रत आदि निहित कर्मों में विश्वास करने वाला। जितु = जिस के द्वारा। जितु करमि = जिस कर्म से। आतम ततु = आत्मा का मूल।1। रहाउ।
अर्थ: (तीर्थ व्रत आदि धार्मिक निहित हुए) कर्मों में विश्वास रखने वाले हे पण्डित! सुन (ये कर्म-धर्म आत्मिक आनंद नहीं पैदा कर सकते)। हे भाई! जिस काम के द्वारा आत्मिक आनंद पैदा होता है वह (ये) है कि आत्मिक जीवन देने वाले जगत मूल (के गुणों) को अपने विचार-मण्डल में (लाया जाए)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासतु बेदु बकै खड़ो भाई करम करहु संसारी ॥ पाखंडि मैलु न चूकई भाई अंतरि मैलु विकारी ॥ इन बिधि डूबी माकुरी भाई ऊंडी सिर कै भारी ॥२॥

मूलम्

सासतु बेदु बकै खड़ो भाई करम करहु संसारी ॥ पाखंडि मैलु न चूकई भाई अंतरि मैलु विकारी ॥ इन बिधि डूबी माकुरी भाई ऊंडी सिर कै भारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बकै खड़ो = खड़ा उचारता है। करहु = तुम करते हो। संसारी = दुनियावी, माया में प्रवृत करने वाले। पाखंडि = पाखण्ड से। विकारी = विकारों से। माकुरी = मकड़ी, जाला तानने वाला कीड़ा। ऊंडी = उल्टी।2।
अर्थ: हे पण्डित जी! तुम (लोगों को सुनाने के लिए) वेद-शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकें) खोल के उचारते रहते हो, पर खुद वही कर्म करते हो जो माया के मोह में फसाए रखें। हे पंडित! (इस) पाखण्ड से (मन की) मैल दूर नहीं हो सकती, विकारों की मैल मन के अंदर ही टिकी रहती है। इस तरह तो मकड़ी भी (अपना जाला आप बुन के फिर उसी जाले में) उल्टी सिर भार हो के मरती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरमति घणी विगूती भाई दूजै भाइ खुआई ॥ बिनु सतिगुर नामु न पाईऐ भाई बिनु नामै भरमु न जाई ॥ सतिगुरु सेवे ता सुखु पाए भाई आवणु जाणु रहाई ॥३॥

मूलम्

दुरमति घणी विगूती भाई दूजै भाइ खुआई ॥ बिनु सतिगुर नामु न पाईऐ भाई बिनु नामै भरमु न जाई ॥ सतिगुरु सेवे ता सुखु पाए भाई आवणु जाणु रहाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घणी = बहुत (दुनिया)। भाइ = प्यार में, मोह में। खुआई = गवा गई। रहाई = रह जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! दुर्मति के कारण बेअँत दुनियाँ दुखी हो रही है, परमात्मा को बिसार के और ही मोह में डूबी हुई है। परमात्मा का नाम गुरु के बिना नहीं मिल सकता, और प्रभु के नाम के बिना मन की भटकना दूर नहीं होती। जब मनुष्य गुरु की (बताई हुई) सेवा करता है, तब आत्मिक आनँद प्राप्त करता है, और जनम-मरण के चक्कर को समाप्त कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचु सहजु गुर ते ऊपजै भाई मनु निरमलु साचि समाई ॥ गुरु सेवे सो बूझै भाई गुर बिनु मगु न पाई ॥ जिसु अंतरि लोभु कि करम कमावै भाई कूड़ु बोलि बिखु खाई ॥४॥

मूलम्

साचु सहजु गुर ते ऊपजै भाई मनु निरमलु साचि समाई ॥ गुरु सेवे सो बूझै भाई गुर बिनु मगु न पाई ॥ जिसु अंतरि लोभु कि करम कमावै भाई कूड़ु बोलि बिखु खाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु सहजु = सदा कायम रहने वाली अडोल आत्मिक अवस्था। ते = से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। मगु = मार्ग। अंतरि = अंदर। बोलि = बोल के। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली चीज। खाई = खाता है।4।
अर्थ: हे भाई! बुरी मति के कारण बेअंत दुनिया दुखी हो रही है, परमात्मा को बिसार के और के मोह में भटकी हुई है। परमात्मा का नाम गुरु के बिना नहीं मिल सकता, और प्रभु के नाम के बिना मन की भटकन दूर नहीं होती। जब मनुष्य गुरु की (बताई हुई) सेवा करता है, गुरु के बिना (ये) रास्ता नहीं मिलता। जिस मनुष्य के मन में लोभ (की लहर) जोर डाल रही हो, ये रस्मी धार्मिक कर्म करने का उसको कोई (आत्मिक) लाभ नहीं हो सकता। (माया की खातिर) झूठ बोल-बोल के वह मनुष्य (आत्मिक मौत लाने वाला ये झूठ-रूपी) जहर खाता रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंडित दही विलोईऐ भाई विचहु निकलै तथु ॥ जलु मथीऐ जलु देखीऐ भाई इहु जगु एहा वथु ॥ गुर बिनु भरमि विगूचीऐ भाई घटि घटि देउ अलखु ॥५॥

मूलम्

पंडित दही विलोईऐ भाई विचहु निकलै तथु ॥ जलु मथीऐ जलु देखीऐ भाई इहु जगु एहा वथु ॥ गुर बिनु भरमि विगूचीऐ भाई घटि घटि देउ अलखु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंडित = हे पंण्डत! विलोईऐ = (अगर) मथें। तथु = तत्व, असल चीज, मक्खन। एहा वथु = यही चीज (पानी ही प्राप्त करता है)। विगूचीऐ = दुखी होते हैं। देउ = देव, प्रकाश रूप प्रभु। अलखु = जिसका स्वरूप समझा नहीं जा सकता।5।
अर्थ: हे पंडित! अगर दही मथें तो उसमें से मक्खन निकलता है, पर अगर पानी मथें, तो पानी ही देखने में आता है। ये (माया-मोह में फसा) जगत (पानी मथ-मथ के) ये पानी ही हासिल करता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना (माया की) भटकना में ही दुखी होते रहते हैं, घट-घट व्यापक अलख परमात्मा से टूटे रहते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु तागो सूत को भाई दह दिस बाधो माइ ॥ बिनु गुर गाठि न छूटई भाई थाके करम कमाइ ॥ इहु जगु भरमि भुलाइआ भाई कहणा किछू न जाइ ॥६॥

मूलम्

इहु जगु तागो सूत को भाई दह दिस बाधो माइ ॥ बिनु गुर गाठि न छूटई भाई थाके करम कमाइ ॥ इहु जगु भरमि भुलाइआ भाई कहणा किछू न जाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तगो = धागा। को = का। दह दिस = दसों दिशाओं में। माइ = माया (से)। गाठि = गाँठ। छूटई = खुलती। करम = रस्मी धार्मिक कर्म।6।
अर्थ: हे भाई! ये जगत सूत्र का धागा (समझ लें, जैसे धागे में गाँठें पड़ी हुई हों, सांसारिक जीवों को) माया के मोह की दसों दिशाओं से गाँठें पड़ी हुई हैं (भाव, मोह में फसे हुए जीव दसों-दिशाओं में खिचे जा रहे हैं)। (अनेक जीव ये रस्मी धार्मिक) कर्म कर-कर के हार गए, पर गुरु की शरण पड़े बिना मोह की गाँठ नहीं खुलती। हे भाई! ये जगत (रस्मी धार्मिक कर्म करता हुआ भी मोह की) भटकना में इतना उलझा हुआ है कि बयान नहीं किया जा सकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर मिलिऐ भउ मनि वसै भाई भै मरणा सचु लेखु ॥ मजनु दानु चंगिआईआ भाई दरगह नामु विसेखु ॥ गुरु अंकसु जिनि नामु द्रिड़ाइआ भाई मनि वसिआ चूका भेखु ॥७॥

मूलम्

गुर मिलिऐ भउ मनि वसै भाई भै मरणा सचु लेखु ॥ मजनु दानु चंगिआईआ भाई दरगह नामु विसेखु ॥ गुरु अंकसु जिनि नामु द्रिड़ाइआ भाई मनि वसिआ चूका भेखु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। भै = (परमात्मा के) डर अदब में। सचु = अटल (आत्मिक जीवन देने वाला)। मजनु = तीर्थ स्नान। विसेखु = विशेषता के हकदार। अंकसु = कुंडा जो हाथी को चलाने के लिए बर्तते हैं। जिनि = जिस (गुरु) ने। मनि = मन में। भेखु = (दिखावे का) लिबास।7।
अर्थ: हे पंडित! अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा का डर-अदब मन में बस जाता है। उस डर-अदब में रह के (माया के मोह से) मरना (जीव के माथे पे किए हुए कर्मों का ऐसा) लेख (है जो इसको अटल) (जीवन देता) है। हे भाई! तीर्थ-स्नान दान-पुण्य व और अच्छाईयां परमात्मा का नाम ही हैं, परमात्मा के नाम को ही उसकी हजूरी में प्राथमिकता मिलती है। (माया में मस्त मन-हाथी को सीधे रास्ते पर चलाने के लिए) गुरु (का शब्द) कुंडा है, गुरु ने ही परमात्मा का नाम मनुष्य को दृढ़ करवाया है। (गुरु की मेहर से जब नाम) मन में बसता है, तब धार्मिक दिखावा समाप्त हो जाता है।7।

[[0636]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु तनु हाटु सराफ को भाई वखरु नामु अपारु ॥ इहु वखरु वापारी सो द्रिड़ै भाई गुर सबदि करे वीचारु ॥ धनु वापारी नानका भाई मेलि करे वापारु ॥८॥२॥

मूलम्

इहु तनु हाटु सराफ को भाई वखरु नामु अपारु ॥ इहु वखरु वापारी सो द्रिड़ै भाई गुर सबदि करे वीचारु ॥ धनु वापारी नानका भाई मेलि करे वापारु ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाटु = दुकान। सराफ़ = शाह। को = का। द्रिढ़ै = दृढ़ कर लेता है, पक्की तरह याद रखता है। धनु = भाग्यशाली। मेलि = मेल में, सत्संग में।8।
अर्थ: हे भाई! ये मानव शरीर परमात्मा-सर्राफ़ की दी हुई एक हाट है जिसमें कभी ना खत्म होने वाला नाम-सौदा है। वही जीव-व्यापारी इस सौदे का (अपने शरीर हाट में) दृढ़ता से वणज करता है जो गुरु के शब्द में विचार करता है। हे नानक! वह जीव-व्यापारी भाग्यशाली है जो साधु-संगत में (रह के) ये व्यापार करता है।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ पिआरे तिन्ह के साथ तरे ॥ तिन्हा ठाक न पाईऐ पिआरे अम्रित रसन हरे ॥ बूडे भारे भै बिना पिआरे तारे नदरि करे ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ पिआरे तिन्ह के साथ तरे ॥ तिन्हा ठाक न पाईऐ पिआरे अम्रित रसन हरे ॥ बूडे भारे भै बिना पिआरे तारे नदरि करे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साथ = सार्थ, काफ़ले, संगी साथी। ठाक = रोक। रसन = जीभ (से)। अंम्रित हरे = हरि का नाम अमृत। भारे = पापों के भार से लदे हुए।1।
अर्थ: जिस लोगों ने सतिगुरु का पल्ला पकड़ा है, हे सज्जन! उनके संगी-साथी भी पार लांघ जाते हैं। जिनकी जीभ परमात्मा का नाम-अमृत चखती है उनके (जीवन-यात्रा में विकार आदि की) रुकावटें नहीं पड़ती। हे सज्जन! जो लोग परमात्मा के डर-अदब से वंचित रहते हैं वे विकारों के भार से लादे जाते हैं और संसार समुंदर में डूब जाते हैं। पर जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है तो उनको भी पार लंघा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भी तूहै सालाहणा पिआरे भी तेरी सालाह ॥ विणु बोहिथ भै डुबीऐ पिआरे कंधी पाइ कहाह ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भी तूहै सालाहणा पिआरे भी तेरी सालाह ॥ विणु बोहिथ भै डुबीऐ पिआरे कंधी पाइ कहाह ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भी = सदा ही। तूहै = तुझे ही। पिआरे = हे सज्जन प्रभु! सालाह = महिमा। बोहिथ = जहाज (नाम का)। भै = भय (सागर) में। कंधी = किनारा। कहाह = कहाँ?। रहाउ।
अर्थ: हे सज्जन प्रभु! सदा तुझे ही सलाहना चाहिए, हमेशा तेरी ही महिमा करनी चाहिए। (इस संसार-समुंदर में से पार लांघने के लिए तेरी महिमा ही जीवों के लिए जहाज है, इस) जहाज के बिना भव-सागर में डूब जाते हैं। (कोई भी जीव समुंदर का) दूसरा छोर ढूँढ नहीं सकता। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सालाही सालाहणा पिआरे दूजा अवरु न कोइ ॥ मेरे प्रभ सालाहनि से भले पिआरे सबदि रते रंगु होइ ॥ तिस की संगति जे मिलै पिआरे रसु लै ततु विलोइ ॥२॥

मूलम्

सालाही सालाहणा पिआरे दूजा अवरु न कोइ ॥ मेरे प्रभ सालाहनि से भले पिआरे सबदि रते रंगु होइ ॥ तिस की संगति जे मिलै पिआरे रसु लै ततु विलोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलाही = साराहनीय हरि। सालाहनि = (जो लोग) साराहते हैं। सबदि = गुरु के शब्द में। रसु लै = नाम अमृत चखता है। विलोइ = (नाम दूध को) मथ के। ततु = जगत का मूल प्रभु।2।
अर्थ: हे सज्जन! सलाहने योग्य परमात्मा की महिमा करनी चाहिए, उस जैसा और कोई नहीं है। जो लोग प्यारे प्रभु की महिमा करते हैं वे भाग्यशाली हैं। गुरु के शब्द में गहरी लगन रखने वाले व्यक्ति को परमात्मा का प्रेम रंग चढ़ता है। ऐसे आदमी की संगति अगर (किसी को) प्राप्त हो जाए तो वह हरि नाम का रस लेता है। और (नाम-दूध को) मथ के वह जगत के मूल प्रभु में मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पति परवाना साच का पिआरे नामु सचा नीसाणु ॥ आइआ लिखि लै जावणा पिआरे हुकमी हुकमु पछाणु ॥ गुर बिनु हुकमु न बूझीऐ पिआरे साचे साचा ताणु ॥३॥

मूलम्

पति परवाना साच का पिआरे नामु सचा नीसाणु ॥ आइआ लिखि लै जावणा पिआरे हुकमी हुकमु पछाणु ॥ गुर बिनु हुकमु न बूझीऐ पिआरे साचे साचा ताणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = पति प्रभु। परवाना = राहदारी। साच का = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु नाम का। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। नीसाणु = मोहर। हुकमी हुकमु = परमात्मा के हुक्म को। ताणु = बल, ताकत।3।
अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम प्रभु-पति को मिलने के लिए (इस जीवन-सफर में) राहदारी है, ये नाम सदा-स्थिर रहने वाली मेहर है। (प्रभु का यही हुक्म है कि) जगत में जो भी आया है उसने (प्रभु को मिलने के लिए, ये नाम-रूपी राहदारी) लिख के अपने साथ ले जानी है। हे भाई! प्रभु की इस आज्ञा को समझ (पर इस हुक्म को समझने के लिए गुरु की शरण पड़ना पड़ेगा) गुरु के बिना प्रभु का हुक्म समझा नहीं जा सकता। हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के समझ लेता है, विकारों का मुकाबला करने के लिए उसको) सदा-स्थिर प्रभु का बल हासिल हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुकमै अंदरि निमिआ पिआरे हुकमै उदर मझारि ॥ हुकमै अंदरि जमिआ पिआरे ऊधउ सिर कै भारि ॥ गुरमुखि दरगह जाणीऐ पिआरे चलै कारज सारि ॥४॥

मूलम्

हुकमै अंदरि निमिआ पिआरे हुकमै उदर मझारि ॥ हुकमै अंदरि जमिआ पिआरे ऊधउ सिर कै भारि ॥ गुरमुखि दरगह जाणीऐ पिआरे चलै कारज सारि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निंमिआ = माँ के पेट में टिका। उदरि मझारि = पेट में। ऊधउ = उल्टा। कारज = जनम उद्देश्य, वह काम जो करने के लिए जगत में आया। सारि = संभाल के, संवार के।4।
अर्थ: हे भाई! जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार (पहले) माता के गर्भ में ठहरता है, और माँ के पेट में (दस महीने निवास रखता है)। उल्टे सिर भार रह के प्रभु के हुक्म अनुसार ही (फिर) जनम लेता है। (किसी खास जीवन उद्देश्य के लिए ही जीव जगत में आता है) जो जीव गुरु की शरण पड़ कर जीवन-उद्देश्य को सँवार के यहाँ से जाता है वही परमात्मा की हजूरी में आदर पाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुकमै अंदरि आइआ पिआरे हुकमे जादो जाइ ॥ हुकमे बंन्हि चलाईऐ पिआरे मनमुखि लहै सजाइ ॥ हुकमे सबदि पछाणीऐ पिआरे दरगह पैधा जाइ ॥५॥

मूलम्

हुकमै अंदरि आइआ पिआरे हुकमे जादो जाइ ॥ हुकमे बंन्हि चलाईऐ पिआरे मनमुखि लहै सजाइ ॥ हुकमे सबदि पछाणीऐ पिआरे दरगह पैधा जाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जादो जाइ = चला जाता है। बंन्हि = बाँध के। सबदि = शब्द से।5।
अर्थ: हे सज्जन! परमात्मा की रजा के अनुसार ही जीव जगत में आता है, रजा के अनुसार ही यहाँ से चला जाता है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है (और माया के मोह में फंस जाता है) उसे प्रभु की रजा के अनुसार ही बाँध के (भाव, जबरदस्ती) यहाँ से रवाना किया जाता है (क्योंकि मोह के कारण वह इस माया को छोड़ना नहीं चाहता)। परमात्मा की रजा के अनुसार ही जिसने गुरु के शब्द के द्वारा (जीवन-उद्देश्य को) पहचान लिया है वह परमात्मा की हजूरी में आदर सहित जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुकमे गणत गणाईऐ पिआरे हुकमे हउमै दोइ ॥ हुकमे भवै भवाईऐ पिआरे अवगणि मुठी रोइ ॥ हुकमु सिञापै साह का पिआरे सचु मिलै वडिआई होइ ॥६॥

मूलम्

हुकमे गणत गणाईऐ पिआरे हुकमे हउमै दोइ ॥ हुकमे भवै भवाईऐ पिआरे अवगणि मुठी रोइ ॥ हुकमु सिञापै साह का पिआरे सचु मिलै वडिआई होइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गणत गणाईऐ = गिनतियां गिनता है। दोइ = द्वैत, मेर तेर। भवै = भटकता है। भवाईऐ = भटकना में पाया जाता है। अवगणि = अवगुणों से। मुठी = लूटी हुई, ठगी हुई। रोइ = रोती है (दुनिया)।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की रजा के अनुसार ही (कहीं) माया की सोच सोची जा रही है, प्रभु की रजा में ही कहीं अहंकार व कहीं द्वैत है। प्रभु की रजा के अनुसार ही (कहीं कोई माया की खातिर) भटक रहा है, (कहीं कोई) जनम-मरन के चक्कर में डाला जा रहा है, कहीं पाप की ठगी हुई दुनिया (अपने दुख) रो रही है।
जिस मनुष्य को शाह-प्रभु की रजा की समझ आ जाती है, उसे सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मिल जाता है, उसकी (लोक-परलोक में) उपमा होती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आखणि अउखा आखीऐ पिआरे किउ सुणीऐ सचु नाउ ॥ जिन्ही सो सालाहिआ पिआरे हउ तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ नाउ मिलै संतोखीआं पिआरे नदरी मेलि मिलाउ ॥७॥

मूलम्

आखणि अउखा आखीऐ पिआरे किउ सुणीऐ सचु नाउ ॥ जिन्ही सो सालाहिआ पिआरे हउ तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ नाउ मिलै संतोखीआं पिआरे नदरी मेलि मिलाउ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखणि = कहने में। संताखीआं = मुझे संतोष आ जाए। मिलाउ = मिलूँ, मैं मिल जाऊँ।7।
अर्थ: हे भाई! (जगत में माया का प्रभाव इतना है कि) परमात्मा का सदा-स्थिर रहने वाला नाम स्मरणा बड़ा कठिन हो रहा है, ना ही प्रभु-नाम सुना जा रहा है (माया के प्रभाव तले जीव नाम नहीं स्मरण करते, नाम नहीं सुनते)। हे भाई! मैं उन लोगों से कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने प्रभु की महिमा की है। (मेरी यही प्रार्थना है कि उन की संगति में) मुझे भी नाम मिले और मेरा जीवन संतोषी हो जाए, मेहर की नज़र वाले प्रभु के चरणों में मैं जुड़ा रहूँ।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ कागदु जे थीऐ पिआरे मनु मसवाणी धारि ॥ ललता लेखणि सच की पिआरे हरि गुण लिखहु वीचारि ॥ धनु लेखारी नानका पिआरे साचु लिखै उरि धारि ॥८॥३॥

मूलम्

काइआ कागदु जे थीऐ पिआरे मनु मसवाणी धारि ॥ ललता लेखणि सच की पिआरे हरि गुण लिखहु वीचारि ॥ धनु लेखारी नानका पिआरे साचु लिखै उरि धारि ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। मसवाणी = स्याही की दवात। ललता = जीभ। लेखणि = कलम। धनु = धन्य, भाग्यशाली। उरि = हृदय में। धारि = धारण करके।8।
अर्थ: हे भाई! हमारा शरीर कागज बन जाए, यदि मन को स्याही की दवात बना लें, यदि हमारी जीभ प्रभु की महिमा बनने के लिए कलम बन जाए, तो हे भाई! (सौभाग्य इसी बात में है कि) परमात्मा के गुणों को अपने विचार-मण्डल में ला के (अपने अंदर) उकरते चलो। हे नानक! वह लिखारी धन्य है जो सदा-स्थिर प्रभु के नाम को हृदय में टिका के (अपने अंदर) उकर लेता है।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला १ पहिला दुतुकी ॥ तू गुणदातौ निरमलो भाई निरमलु ना मनु होइ ॥ हम अपराधी निरगुणे भाई तुझ ही ते गुणु सोइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला १ पहिला दुतुकी ॥ तू गुणदातौ निरमलो भाई निरमलु ना मनु होइ ॥ हम अपराधी निरगुणे भाई तुझ ही ते गुणु सोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुणदातौ = (जीवों को) गुणों की दाति देने वाला। निरगुणे = गुण हीन। ते = से। सोइ गुणु = वह (निर्मलता का) गुण।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (जीवों को अपने) गुणों की दाति देने वाला है, तू पवित्र स्वरूप है। (पर विकारों के कारण) हम जीवों का मन पवित्र नहीं है। हम पापी हैं, गुण हीन हैं। हे प्रभु! (पवित्रता का) वह गुण तेरी ओर से ही मिल सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे प्रीतमा तू करता करि वेखु ॥ हउ पापी पाखंडीआ भाई मनि तनि नाम विसेखु ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे प्रीतमा तू करता करि वेखु ॥ हउ पापी पाखंडीआ भाई मनि तनि नाम विसेखु ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेखु = संभाल कर (मेरी)। हउ = मैं। भाई = हे प्रभु! नाम विसेखु = नाम की विशेषता, नाम की महत्वता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! तू मेरा कर्तार है, मुझे पैदा करके (अब तू ही) मेरी संभाल कर (और मुझे विकारों से बचा)। मैं पापी हूँ, पाखण्डी हूँ। हे प्यारे! मेरे मन में मेरे तन में अपने नाम की महत्वता (पैदा कर)।1। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बिखु माइआ चितु मोहिआ भाई चतुराई पति खोइ ॥ चित महि ठाकुरु सचि वसै भाई जे गुर गिआनु समोइ ॥२॥

मूलम्

बिखु माइआ चितु मोहिआ भाई चतुराई पति खोइ ॥ चित महि ठाकुरु सचि वसै भाई जे गुर गिआनु समोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखु = जहर, आत्मिक मौत का मूल। पति = इज्जत। खोइ = गवा लेता है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। समोइ = (मन में) टिके।2।
अर्थ: हे प्रभु! (जीव का) चिक्त आत्मिक मौत लाने वाली माया में ही मोहा रहता है (माया से प्रेरित) समझदारी के कारण अपनी इज्जत गवा लेता है। पर, अगर गुरु का (दिया हुआ) ज्ञान जीव (के मन में) ठहर जाए तो इसकी स्मृति में ठाकुर का निवास हो जाता है, तो जीव सदा-स्थिर प्रभु में जुड़ा रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूड़ौ रूड़ौ आखीऐ भाई रूड़ौ लाल चलूलु ॥ जे मनु हरि सिउ बैरागीऐ भाई दरि घरि साचु अभूलु ॥३॥

मूलम्

रूड़ौ रूड़ौ आखीऐ भाई रूड़ौ लाल चलूलु ॥ जे मनु हरि सिउ बैरागीऐ भाई दरि घरि साचु अभूलु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रूढ़ौ = सुंदर। आखीऐ = स्मरणा चाहिए। बैरागीऐ = प्यार करे। दरि = मन के अंदर। घरि = हृदय में। अभूलु = अमोध प्रभु (दिखाई दे जाता है)।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सुंदर स्वरूप है, उसको (जैसे, प्यार का) गाढ़ा लाल रंग चढ़ा रहता है, उस सुंदर प्रभु को सदा स्मरणा चाहिए। यदि जीव का मन उस परमात्मा से प्रेम करे, तो, हे भाई! उसके अंदर उसके दिल में वह सदा-स्थिर व अटल प्रभु (प्रकट हो जाता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाताली आकासि तू भाई घरि घरि तू गुण गिआनु ॥ गुर मिलिऐ सुखु पाइआ भाई चूका मनहु गुमानु ॥४॥

मूलम्

पाताली आकासि तू भाई घरि घरि तू गुण गिआनु ॥ गुर मिलिऐ सुखु पाइआ भाई चूका मनहु गुमानु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आकासि = आकाश में। घरि घरि = हरेक हृदय में। गुण गिआनु = गुणों की जान पहचान। मनहु = मन से।4।
अर्थ: हे प्रभु! पातालों में आकाशों में हर जगह (पर) हरेक के दिल में तू मौजूद है, अपने गुणों की जान-पहचान (गुणों के द्वारा) तू (जीवों को) खुद ही देता है। अगर (जीवों को) गुरु मिल जाए, तो (प्रभु के गुणों की इनायत से) उन्हें आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलि मलि काइआ माजीऐ भाई भी मैला तनु होइ ॥ गिआनि महा रसि नाईऐ भाई मनु तनु निरमलु होइ ॥५॥

मूलम्

जलि मलि काइआ माजीऐ भाई भी मैला तनु होइ ॥ गिआनि महा रसि नाईऐ भाई मनु तनु निरमलु होइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलि = जल से। मलि = मल के। काइआ = शरीर। गिआनि = ज्ञान में।5।
अर्थ: हे भाई! अगर पानी से मल-मल के शरीर को मांजें तो भी शरीर मैला ही रहता है। पर अगर परमात्मा के ज्ञान (-रूपी जल में) परमात्मा के नाम (-अमृत) में स्नान करें, तो मन भी पवित्र और शरीर भी पवित्र हो जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवी देवा पूजीऐ भाई किआ मागउ किआ देहि ॥ पाहणु नीरि पखालीऐ भाई जल महि बूडहि तेहि ॥६॥

मूलम्

देवी देवा पूजीऐ भाई किआ मागउ किआ देहि ॥ पाहणु नीरि पखालीऐ भाई जल महि बूडहि तेहि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मागउ = मैं मांगूँ। देहि = (देवी देवते) दे सकते हैं। पाहणु = पत्थर। नीरि = पानी में। पखालीऐ = धोएं। बूडहि = डूबते हैं। तेहि = वह (पत्थर के बनाए हुए देवी-देवते)।6।
अर्थ: हे भाई! अगर देवी-देवताओं आदि की पत्थर आदि मूर्तियों की पूजा करें, तो ये कुछ भी नहीं दे सकते, मैं इनसे कुछ भी नहीं माँगता। पत्थर को पानी से धोते रहें, तो भी वह (पत्थर के बनाए हुए देवी-देवते) पानी में डूब जाते हैं (अपने पूजने वालों को) वे कैसे संसार समुंदर से पार लंघा सकते हैं?।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर बिनु अलखु न लखीऐ भाई जगु बूडै पति खोइ ॥ मेरे ठाकुर हाथि वडाईआ भाई जै भावै तै देइ ॥७॥

मूलम्

गुर बिनु अलखु न लखीऐ भाई जगु बूडै पति खोइ ॥ मेरे ठाकुर हाथि वडाईआ भाई जै भावै तै देइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलखु = वह प्रभु जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सके। बूडै = डूबता है।7।
अर्थ: परमात्मा की हस्ती बयान से परे है बयान नहीं की जा सकती। हे भाई! गुरु के बिना जगत (विकारों में) डूबाता है और अपना सम्मान गवाता है। (पर, जीवों के भी क्या वश?) आदर-मान परमात्मा के अपने हाथ में हैं। जो उसको अच्छा लगता है उसे देता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बईअरि बोलै मीठुली भाई साचु कहै पिर भाइ ॥ बिरहै बेधी सचि वसी भाई अधिक रही हरि नाइ ॥८॥

मूलम्

बईअरि बोलै मीठुली भाई साचु कहै पिर भाइ ॥ बिरहै बेधी सचि वसी भाई अधिक रही हरि नाइ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बईअरि = स्त्री (बांगर की बोली), जीव-स्त्री। पिर भाइ = पति के प्रेम में। बिरहै = तीव्र विछोड़े से। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। नाइ = नाम में।8।
अर्थ: जो जीव-स्त्री, हे भाई! (परमात्मा की महिमा के) मीठे बोल बोलती है सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करती है पति-प्रभु के प्रेम में (मगन) रहती है, वह प्रभु-प्रेम में बेधी हुई जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभु में टिकी रहती है, वह बहुत प्रेम कर के प्रभु के नाम में जुड़ी रहती है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु को आखै आपणा भाई गुर ते बुझै सुजानु ॥ जो बीधे से ऊबरे भाई सबदु सचा नीसानु ॥९॥

मूलम्

सभु को आखै आपणा भाई गुर ते बुझै सुजानु ॥ जो बीधे से ऊबरे भाई सबदु सचा नीसानु ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। ते = से। बीधे = बेधे गए।9।
अर्थ: हे भाई! हरेक जीव माया के अपनत्व की बातें ही करता है, पर जो मनुष्य गुरु से (जीवों का सही रास्ता) समझता है वह समझदार हो जाता है (वह माया-मोह की जगह परमात्मा की याद में जुड़ता है)। जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम से भेदे जाते हैं वह (वे माया के मोह में डूबने से, विकारों में फसने से) बच जाते हैं। गुरु का शब्द उनके पास सदा टिका रहने वाला परवाना है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईधनु अधिक सकेलीऐ भाई पावकु रंचक पाइ ॥ खिनु पलु नामु रिदै वसै भाई नानक मिलणु सुभाइ ॥१०॥४॥

मूलम्

ईधनु अधिक सकेलीऐ भाई पावकु रंचक पाइ ॥ खिनु पलु नामु रिदै वसै भाई नानक मिलणु सुभाइ ॥१०॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईधनु = ईधन। अधिक = बहुत। सकेलीऐ = इकट्ठा करें। पावकु = आग। मिलणु = मिलाप। सुभाइ = सहजे ही।10।
अर्थ: हे भाई! अगर बहुत सारा ईधन इकट्ठा कर लें, और उसमें थोड़ी चिंगारी (आग) डाल दें (तो वह सारा ईधन जल के राख हो जाता है)। इसी तरह, हे नानक! अगर परमात्मा का नाम घड़ी-पल के लिए भी मनुष्य के हृदय में बस जाए (तो उसके सारे पाप नाश हो जाते हैं, और) सहज ही उसका मिलाप (परमात्मा के चरणों में) हो जाता है।10।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ घरु १ तितुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ३ घरु १ तितुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगता दी सदा तू रखदा हरि जीउ धुरि तू रखदा आइआ ॥ प्रहिलाद जन तुधु राखि लए हरि जीउ हरणाखसु मारि पचाइआ ॥ गुरमुखा नो परतीति है हरि जीउ मनमुख भरमि भुलाइआ ॥१॥

मूलम्

भगता दी सदा तू रखदा हरि जीउ धुरि तू रखदा आइआ ॥ प्रहिलाद जन तुधु राखि लए हरि जीउ हरणाखसु मारि पचाइआ ॥ गुरमुखा नो परतीति है हरि जीउ मनमुख भरमि भुलाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! धुरि = धुर से, शुरू से, जब का संसार बना है तब से। प्रहिलाद = प्रहलाद और ऐसे और सेवक। मारि = मार के। पचाइआ = दुखी किया, तबाह कर दिया। परतीति = श्रद्धा। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भरमि = भटकना में।1।
अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! भक्त तेरी शरण पड़े रहते हैं, तू अपने भक्तों की इज्जत रख। हे हरि! तू अपने भक्तों की इज्जत सदा रखता है, जब से जगत बना है तब से (तू भक्तों की इज्जत) रखता आ रहा है। हे हरि! प्रहिलाद भक्त जैसे अनेक सेवकों की तूने इज्जत रखी है, तूने हर्णाकश्यप को मार के खत्म कर दिया। हे हरि! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहते हैं उन्हें निष्चत यकीन होता है (कि तू भक्तों इज्जत बचाता है, पर) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य भटकन में पड़ के गलत राह पर पड़े रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जी एह तेरी वडिआई ॥ भगता की पैज रखु तू सुआमी भगत तेरी सरणाई ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जी एह तेरी वडिआई ॥ भगता की पैज रखु तू सुआमी भगत तेरी सरणाई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडिआई = उपमा। पैज = इज्जत। सुआमी = हे स्वामी!। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! (भक्तों का सम्मान) तेरा ही सम्मान है।
हे स्वामी! भक्त तेरी शरण पड़े रहते हैं, तू अपने भक्तों की इज्जत रख। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगता नो जमु जोहि न साकै कालु न नेड़ै जाई ॥ केवल राम नामु मनि वसिआ नामे ही मुकति पाई ॥ रिधि सिधि सभ भगता चरणी लागी गुर कै सहजि सुभाई ॥२॥

मूलम्

भगता नो जमु जोहि न साकै कालु न नेड़ै जाई ॥ केवल राम नामु मनि वसिआ नामे ही मुकति पाई ॥ रिधि सिधि सभ भगता चरणी लागी गुर कै सहजि सुभाई ॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ति+तुकी = तीन तुकों वाली, वह अष्टपदी जिसके हरेक बंद में तीन तुकें हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जमु = मौत, मौत का डर। जोहि न साकै = देख नहीं सकता। कालु = मौत का डर। मनि = मन में। नामे ही = नाम में जुड़ के ही। मुकति = मौत के डर से मुक्ति। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। गुर कै = गुरु से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाई = सु भाव से, प्रेम में।2।
अर्थ: हे भाई! भक्तों को मौत डरा नहीं सकता, मौत का डर भक्तों पास नहीं फटकता (क्योंकि मौत के डर की जगह) सिर्फ परमात्मा का नाम (उनके) मन में बसता है, नाम की इनायत से ही वे (मौत के डर से) खलासी पा लेते हैं। भक्त गुरु के द्वारा (गुरु की शरण पड़ कर) आत्मिक अडोलता में प्रभु प्यार में (टिके रहते हैं, इस वास्ते) सब करामाती ताकतें भक्तों के चरणों में लगी रहती हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखा नो परतीति न आवी अंतरि लोभ सुआउ ॥ गुरमुखि हिरदै सबदु न भेदिओ हरि नामि न लागा भाउ ॥ कूड़ कपट पाजु लहि जासी मनमुख फीका अलाउ ॥३॥

मूलम्

मनमुखा नो परतीति न आवी अंतरि लोभ सुआउ ॥ गुरमुखि हिरदै सबदु न भेदिओ हरि नामि न लागा भाउ ॥ कूड़ कपट पाजु लहि जासी मनमुख फीका अलाउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नो = को। आवी = आए, आती। लोभ सुआउ = लोभ का स्वार्थ, लोभ भरी गरज। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। हिरदै = हृदय में। भेदिओ = भेदा। नामि = नाम में। भाउ = प्यार। पाजु = मुलंमा। लहि जासी = उतर जाएगा। अलाउ = अलाप, बोल।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछै चलने वाले मनुष्यों को (परमात्मा पर) यकीन नहीं रहता, उनके अंदर लोभ-भरी गर्ज टिकी रहती है। गुरु की शरण पड़ कर भी उन (मनमुखों) के हृदय में गुरु का शब्द नहीं बसता, परमात्मा के नाम से उनका प्यार नहीं बनता। मनमुखों के बोल भी रूखे-रूखे होते हैं। पर उनके झूठ और ठगी के पाज उघड़ ही जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगता विचि आपि वरतदा प्रभ जी भगती हू तू जाता ॥ माइआ मोह सभ लोक है तेरी तू एको पुरखु बिधाता ॥ हउमै मारि मनसा मनहि समाणी गुर कै सबदि पछाता ॥४॥

मूलम्

भगता विचि आपि वरतदा प्रभ जी भगती हू तू जाता ॥ माइआ मोह सभ लोक है तेरी तू एको पुरखु बिधाता ॥ हउमै मारि मनसा मनहि समाणी गुर कै सबदि पछाता ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरतदा = काम करता। भगती = भक्तों ने। तू = तुझे। लोक = सृष्टि। बिधाता = रचनहार। मनसा = मनीषा, मनोकामना। मनहि = मनि ही, मन में ही। सबदि = शब्द से।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मनहि’ में से ‘मनि’ की ‘ि’ की मात्रा क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण हट गई है और शब्द बना है ‘मनहि’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! अपने भक्तों में तू स्वयं काम करता है, तेरे भक्तों ने ही तेरे साथ गहरी सांझ डाली हुई है। पर, हे प्रभु! माया का मोह भी तेरी ही रचना है, तू खुद ही सर्व-व्यापक है, और रचनहार है, जिस मनुष्यों ने गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके मन का फुरना मन में ही लीन कर दिया है, उन्होंने (हे प्रभु! तेरे साथ) सांझ डाल ली।4।

[[0638]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिंत कम करहि प्रभ तिन के जिन हरि का नामु पिआरा ॥ गुर परसादि सदा मनि वसिआ सभि काज सवारणहारा ॥ ओना की रीस करे सु विगुचै जिन हरि प्रभु है रखवारा ॥५॥

मूलम्

अचिंत कम करहि प्रभ तिन के जिन हरि का नामु पिआरा ॥ गुर परसादि सदा मनि वसिआ सभि काज सवारणहारा ॥ ओना की रीस करे सु विगुचै जिन हरि प्रभु है रखवारा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचिंत = चिन्ता के बिना ही। प्रभ = हे प्रभु! परसादि = कृपा से। मनि = मन में। सभि = सारे। सु = वह (मनुष्य)। विगुचै = दुखी होते हैं, ख्वार होते हैं।5।
अर्थ: हे प्रभु! जिन्हें तेरा हरि-नाम प्यारा लगता है तू उनके काम कर देता है, उन्हें कोई चिन्ता-फिक्र नहीं होता। हे भाई! गुरु की कृपा से जिनके मन में परमात्मा सदा बसता रहता है, परमात्मा उनके सारे काम सँवार देता है। जिस मनुष्यों का रखवाला परमात्मा खुद बनता है, उनकी बराबरी जो भी मनुष्य करता है वह ख्वार होता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर सेवे किनै न पाइआ मनमुखि भउकि मुए बिललाई ॥ आवहि जावहि ठउर न पावहि दुख महि दुखि समाई ॥ गुरमुखि होवै सु अम्रितु पीवै सहजे साचि समाई ॥६॥

मूलम्

बिनु सतिगुर सेवे किनै न पाइआ मनमुखि भउकि मुए बिललाई ॥ आवहि जावहि ठउर न पावहि दुख महि दुखि समाई ॥ गुरमुखि होवै सु अम्रितु पीवै सहजे साचि समाई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भउकि = फजूल बोल के। मुए = आत्मिक मौत ले बैठे। बिललाई = विलक के। आवहि जावहि = पैदा होते मरते हैं। ठउर = ठिकाना, वह जगह जो जनम मरन से ऊपर है। दुखि = दुख में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सहजे = आत्मिक अडोलता में। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। समाई = लीनता।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बगैर किसी भी मनुष्य ने (परमात्मा से मिलाप का सुख) हासिल नहीं किया। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य फालतू बोल-बोल के बिलक-बिलक के आत्मिक मौत गले डाल लेते हैं। वे सदा जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं (इस चक्कर से बचने के लिए कोई) जगह वे पा नहीं सकते, (और) दुख में (जीवन व्यतीत करते हुए आखिर) दुख में ही ग़र्क हो जाते हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, (और, इस तरह) आत्मिक अडोलता में सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर सेवे जनमु न छोडै जे अनेक करम करै अधिकाई ॥ वेद पड़हि तै वाद वखाणहि बिनु हरि पति गवाई ॥ सचा सतिगुरु साची जिसु बाणी भजि छूटहि गुर सरणाई ॥७॥

मूलम्

बिनु सतिगुर सेवे जनमु न छोडै जे अनेक करम करै अधिकाई ॥ वेद पड़हि तै वाद वखाणहि बिनु हरि पति गवाई ॥ सचा सतिगुरु साची जिसु बाणी भजि छूटहि गुर सरणाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनमु = जन्मों के चक्कर। अधिकाई = बहुत। पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। तै = और। वाद = चर्चा, बहसें। पति = इज्जत। सचा = सदा स्थिर (प्रभु का उपदेश करने वाला)। साची = सदा स्थिर प्रभु के महिमा वाली। भजि = भाग के, दौड़ के। छूटहि = (आत्मिक मौत से) बचते हैं।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना (मनुष्य को) जन्मों का चक्कर नहीं छोड़ता, वह चाहे अनेक ही (बनाए हुए धार्मिक) कर्म करता रहे। (पंडित लोग) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ते हैं, और (उनके बाबत निरी) बहसें ही करते हैं। (यकीन जानिए कि) परमात्मा के नाम के बिना उन्होंने प्रभु दर पर अपना सम्मान गवा लिया है।
हे भाई! गुरु सदा स्थिर प्रभु के नाम का उपदेश करने वाला है, उसकी वाणी भी परमात्मा की महिमा वाली है। जो मनुष्य दौड़ के गुरु की शरण जा पड़ते हैं, वे (आत्मिक मौत से) बच जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि मनि वसिआ से दरि साचे दरि साचै सचिआरा ॥ ओना दी सोभा जुगि जुगि होई कोइ न मेटणहारा ॥ नानक तिन कै सद बलिहारै जिन हरि राखिआ उरि धारा ॥८॥१॥

मूलम्

जिन हरि मनि वसिआ से दरि साचे दरि साचै सचिआरा ॥ ओना दी सोभा जुगि जुगि होई कोइ न मेटणहारा ॥ नानक तिन कै सद बलिहारै जिन हरि राखिआ उरि धारा ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। दरि = प्रभु के दर पे। साचे = सुर्ख रू। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पे। सचिआरा = सही रास्ते पर, इज्जत वाले। जुगि जुगि = हरेक युग में। तिन कै = उन से। सद = सदा। उरि = हृदय में।8।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा आ बसता है, वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पे सही स्वीकार हो जाते हैं। उन मनुष्यों की उपमा हरेक युग में ही होती है, कोई (निंदक आदि उनकी इस हो रही उपमा को) मिटा नहीं सकता। हे नानक! (कह:) मैं उन मनुष्यों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने परमात्मा (के नाम) को अपने दिल में बसा के रखा है।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ दुतुकी ॥ निगुणिआ नो आपे बखसि लए भाई सतिगुर की सेवा लाइ ॥ सतिगुर की सेवा ऊतम है भाई राम नामि चितु लाइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ दुतुकी ॥ निगुणिआ नो आपे बखसि लए भाई सतिगुर की सेवा लाइ ॥ सतिगुर की सेवा ऊतम है भाई राम नामि चितु लाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निगुणिआ नो = गुण हीन मनुष्यों को। आपे = खुद ही। भाई = हे भाई! लाइ = लगा के। नामि = नाम में।1।
अर्थ: हे भाई! गुणों से वंचित जीवों को सतिगुरु की सेवा में लगा के परमात्मा खुद ही बख्श लेता है। हे भाई! गुरु की शरण-सेवा बड़ी श्रेष्ठ है, गुरु (शरण आए मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में जोड़ देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ आपे बखसि मिलाइ ॥ गुणहीण हम अपराधी भाई पूरै सतिगुरि लए रलाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ आपे बखसि मिलाइ ॥ गुणहीण हम अपराधी भाई पूरै सतिगुरि लए रलाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बखसि = मेहर कर के। मिलाइ = मिला लेता है। अपराधी = पापी। सतिगुरि = गुरु ने। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हम जीव गुणों से वंचित हैं, विकारी हैं। पूरे गुरु ने (जिन्हें अपनी संगति में) मिला लिया है, उनको परमात्मा खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) जोड़ लेता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउण कउण अपराधी बखसिअनु पिआरे साचै सबदि वीचारि ॥ भउजलु पारि उतारिअनु भाई सतिगुर बेड़ै चाड़ि ॥२॥

मूलम्

कउण कउण अपराधी बखसिअनु पिआरे साचै सबदि वीचारि ॥ भउजलु पारि उतारिअनु भाई सतिगुर बेड़ै चाड़ि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बखसिअनु = उसने बख्श लिए हैं। कउण कउण = कौन कौन से? बेअंत। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाले शब्द से। वीचारि = विचार में (जोड़ के)। उतारिअनु = उसने पार लंघा दिए हैं। बेड़ै = बेड़े में। चाढ़ि = चढ़ा के।2।
अर्थ: हे प्यारे! परमात्मा ने अनेक ही अपराधियों को गुरु के सच्चे शब्द के द्वारा (आत्मिक जीवन की) विचार में (जोड़ के) माफ कर दिया है। हे भाई! गुरु के (शब्द-) जहाज में चढ़ा के उस परमात्मा ने (अनेक जीवों को) संसार समुंदर से पार लंघाया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनूरै ते कंचन भए भाई गुरु पारसु मेलि मिलाइ ॥ आपु छोडि नाउ मनि वसिआ भाई जोती जोति मिलाइ ॥३॥

मूलम्

मनूरै ते कंचन भए भाई गुरु पारसु मेलि मिलाइ ॥ आपु छोडि नाउ मनि वसिआ भाई जोती जोति मिलाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनूरै ते = जंग लगे लोहे से। कंचन = सोना। मेलि = मिला के। आपु = स्वै भाव। मनि = मन में।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को पारस गुरु (अपनी संगति में) मिला के (प्रभु चरणों में) जोड़ देता है, वे मनुष्य सड़े हुए लोहे से सोना बन जाते हैं। हे भाई! सवै भाव त्याग के उनके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है। गुरु उनकी तवज्जो को प्रभु की ज्योति में मिला देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी हउ वारणै भाई सतिगुर कउ सद बलिहारै जाउ ॥ नामु निधानु जिनि दिता भाई गुरमति सहजि समाउ ॥४॥

मूलम्

हउ वारी हउ वारणै भाई सतिगुर कउ सद बलिहारै जाउ ॥ नामु निधानु जिनि दिता भाई गुरमति सहजि समाउ ॥४॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: देखिए गुरु नानक देव जी की अष्टपदी नंबर 4, वह भी दुतुकी है। उसमें भी शब्द ‘भाई’ का प्रयोग वैसे ही हुआ है जैसे इसमें। उसमें भी ‘निगुणिआं’ का ही वर्णन आरम्भ होता है। मतलब, गुरु अमरदासजी के पास गुरु नानक देव जी की सारी वाणी मौजूद थी।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। वारणै = सदके। कउ = को, से। सद = सदा। बलिहारै = कुर्बान। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। निधानु = खजाना। जिनी = जिस (गुरु) ने। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाउ = समाऊँ, मैं लीन रहता हूँ।4।
अर्थ: हे भाई! मैं कुर्बान जाता हूँ, मैं बलिहार जाता हूँ, मैं गुरु से सदा ही सदके जाता हूँ। हे भाई! जिस गुरु ने (मुझे) परमात्मा का नाम खजाना दिया है, उस गुरु की मति ले के मैं आत्मिक अडोलता (सहज अवस्था) में टिका रहता हूँ।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर बिनु सहजु न ऊपजै भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥ सतिगुर की सेवा सदा करि भाई विचहु आपु गवाइ ॥५॥

मूलम्

गुर बिनु सहजु न ऊपजै भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥ सतिगुर की सेवा सदा करि भाई विचहु आपु गवाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। गिआनी = आत्मिक जीवन की समझ वाला मनुष्य। आपु = स्वै भाव। गावहि = दूर करके।5।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाले मनुष्यों को जा के पूछ लो, (यही उक्तर मिलेगा कि) गुरु की शरण पड़े बिना (मनुष्य के अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा नहीं हो सकती। (इस वास्ते,) हे भाई! तू भी (अपने) अंदर से स्वै भाव (वाला अहंकार) दूर करके सदैव गुरु की सेवा किया कर।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमती भउ ऊपजै भाई भउ करणी सचु सारु ॥ प्रेम पदारथु पाईऐ भाई सचु नामु आधारु ॥६॥

मूलम्

गुरमती भउ ऊपजै भाई भउ करणी सचु सारु ॥ प्रेम पदारथु पाईऐ भाई सचु नामु आधारु ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भउ = डर, अदब। करणी = करणीय, करने योग्य काम। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सारु = श्रेष्ठ। आधारु = आसरा।6।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति पर चलने से (मनुष्य के अंदर परमात्मा के लिए) डर-अदब पैदा होता है। (अपने अंदर) डर-अदब (पैदा करना ही) करने योग्य काम है। ये काम सदा-स्थिर रहने वाला है, यही काम (सबसे) श्रेष्ठ है। हे भाई! (इस डर-अदब की इनायत से) परमात्मा के प्यार का कीमती धन प्राप्त हो जाता है, परमात्मा का सदा-स्थिर नाम (जिंदगी का) आसरा बन जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सतिगुरु सेवहि आपणा भाई तिन कै हउ लागउ पाइ ॥ जनमु सवारी आपणा भाई कुलु भी लई बखसाइ ॥७॥

मूलम्

जो सतिगुरु सेवहि आपणा भाई तिन कै हउ लागउ पाइ ॥ जनमु सवारी आपणा भाई कुलु भी लई बखसाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिन कै पाइ = उन के पैरों पर। लागउ = लगूँ। सवारी = सवारूँ। लई = लेता हूँ।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने गुरु का आसरा लेते हैं, मैं उनके चरणों में लगता हूँ। (इस तरह) मैं अपना जीवन सुंदर बना रहा हूँ, मैं अपने सारे खानदान के लिए भी परमात्मा की कृपा प्राप्त कर रहा हूँ।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु बाणी सचु सबदु है भाई गुर किरपा ते होइ ॥ नानक नामु हरि मनि वसै भाई तिसु बिघनु न लागै कोइ ॥८॥२॥

मूलम्

सचु बाणी सचु सबदु है भाई गुर किरपा ते होइ ॥ नानक नामु हरि मनि वसै भाई तिसु बिघनु न लागै कोइ ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से, साथ। मनि = मन में। बिघनु = रुकावट।8।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से सदा-स्थिर हरि-नाम (हृदय में आ बसता) है, महिमा की वाणी (हृदय में आ बसती) है, महिमा का शब्द प्राप्त हो जाता है। हे नानक! (कह:) हे भाई! (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसको (जीवन-यात्रा में) कोई मुश्किल नहीं होती।8।2।

[[0639]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ सबदे जापदा भाई पूरै भागि मिलाइ ॥ सदा सुखु सोहागणी भाई अनदिनु रतीआ रंगु लाइ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ सबदे जापदा भाई पूरै भागि मिलाइ ॥ सदा सुखु सोहागणी भाई अनदिनु रतीआ रंगु लाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदे = गुरु के शब्द से ही। जापदा = जान पहचान बनती है। पूरै भागि = पूरी किस्मत से। सोहागणी = अच्छे भाग्यों वाली, पति वाली। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रंगु = प्रेम।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से ही परमात्मा से जान-पहचान बनती है, पूरी किस्मत से (गुरु जीव को परमात्मा से) मिला देता है। हे भाई! पति-प्रभु से प्यार करने वाली जीव-स्त्रीयां सदा आत्मिक सुख पाती हैं, प्रभु से प्यार डाल के वो हर समय उसके प्रेम-रंग में रंगी रहती हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जी तू आपे रंगु चड़ाइ ॥ गावहु गावहु रंगि रातिहो भाई हरि सेती रंगु लाइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जी तू आपे रंगु चड़ाइ ॥ गावहु गावहु रंगि रातिहो भाई हरि सेती रंगु लाइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। चढ़ाइ = चढ़ाता है। रंगि = प्रेम रंग में। रातिहो = हे रंगे हुए सज्जनों! सेती = साथ। लाइ = लगा के। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तू आप ही (शरण आए जीवों के दिलों पर अपने प्यार का) रंग चढ़ाता है। प्रभु के प्यारे के रंग में रंगे हुए हे भाईयो! परमात्मा से प्यार डाल के उसकी महिमा के गीत गाते रहा करो। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर की कार कमावणी भाई आपु छोडि चितु लाइ ॥ सदा सहजु फिरि दुखु न लगई भाई हरि आपि वसै मनि आइ ॥२॥

मूलम्

गुर की कार कमावणी भाई आपु छोडि चितु लाइ ॥ सदा सहजु फिरि दुखु न लगई भाई हरि आपि वसै मनि आइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। छोडि = छोड़ के। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। आइ = आ के।2।
अर्थ: हे भाई! जो जीव-स्त्री स्वै भाव छोड़ के, और मन लगा के गुरु की बताए हुए कार्य करती है, (उसके अंदर) सदा आत्मिक अडोलता बनी रहती है, उसे कभी दुख छू नहीं सकता, उसके मन में परमात्मा खुद आ बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिर का हुकमु न जाणई भाई सा कुलखणी कुनारि ॥ मनहठि कार कमावणी भाई विणु नावै कूड़िआरि ॥३॥

मूलम्

पिर का हुकमु न जाणई भाई सा कुलखणी कुनारि ॥ मनहठि कार कमावणी भाई विणु नावै कूड़िआरि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिर का = पति का। जाण्ई = जाने, जानती। सा = वह (स्त्रीलिंग)। कुलखणी = बुरे लक्षणों वाली। कुनारि = बुरी स्त्री। हठि = हठ से। विणु नावै = नाम के बिना। कूड़िआरि = झूठ की बंजारनि।3।
अर्थ: हे भाई! जो जीव-स्त्री प्रभु-पति की रजा को नहीं समझती, वह बुरे लक्षणों वाली है, चंदरी है। (अगर वह दिखावे मात्र) मन के हठ से (गुरु की बताए) कार्य करती है तो भी, हे भाई! वह नाम से वंचित ही रहती है, वह झूठ की ही बंजारन बनी रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से गावहि जिन मसतकि भागु है भाई भाइ सचै बैरागु ॥ अनदिनु राते गुण रवहि भाई निरभउ गुर लिव लागु ॥४॥

मूलम्

से गावहि जिन मसतकि भागु है भाई भाइ सचै बैरागु ॥ अनदिनु राते गुण रवहि भाई निरभउ गुर लिव लागु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। मसतकि = माथे पर। भाइ = प्यार के कारण। भाइ सचै = सदा स्थिर प्रभु से प्यार के कारण। बैरागु = निर्मोहता। रवहि = याद करते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के माथे के भाग्य जाग उठते हैं वे परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं, सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम की इनायत से (उनके अंदर दुनिया के मोह से) उपरामता पैदा हो जाती है। हे भाई! वह (प्रभु-प्रेम के रंग में) रंगे हुए हर वक्त परमात्मा के गुण गाते हैं, वे निडर रहते हैं, उनके अंदर गुरु की बख्शी हुई प्रभु-चरणों की लगन बनी रहती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभना मारि जीवालदा भाई सो सेवहु दिनु राति ॥ सो किउ मनहु विसारीऐ भाई जिस दी वडी है दाति ॥५॥

मूलम्

सभना मारि जीवालदा भाई सो सेवहु दिनु राति ॥ सो किउ मनहु विसारीऐ भाई जिस दी वडी है दाति ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहु = सेवा भक्ति करो। मनहु = मन से। दाति = बख्शिश।5।
अर्थ: हे भाई! दिन रात उस परमात्मा की सेवा भक्ति किया करो, जो सब जीवों को मारता है और जिंदा रखता है। हे भाई! जिस परमात्मा की (जीवों पर की हुई) बख्शिश बहुत बड़ी है, उसे मन से भुलाना नहीं चाहिए।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि मैली डुमणी भाई दरगह नाही थाउ ॥ गुरमुखि होवै त गुण रवै भाई मिलि प्रीतम साचि समाउ ॥६॥

मूलम्

मनमुखि मैली डुमणी भाई दरगह नाही थाउ ॥ गुरमुखि होवै त गुण रवै भाई मिलि प्रीतम साचि समाउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। मैली = विकारों की मैल से भरी हुई। डुंमणी = दो मनों वाली, दुचिक्ती। रवै = सिमरती है। मिलि = मिल के। साचि = सदा स्थिर हरि में।6।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री विकारों की मैल से भरी रहती है, उसका मन सदा डोलता रहता है (इस वास्ते) उसे परमात्मा की हजूरी में जगह नहीं मिलती। पर, हे भाई! जब वह गुरु की शरण आ पड़ती है, तब परमात्मा के गुण याद करने लग जाती है। प्रीतम प्रभु को मिल कर वह उस सदा-स्थिर में लीन हो जाती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतु जनमि हरि न चेतिओ भाई किआ मुहु देसी जाइ ॥ किड़ी पवंदी मुहाइओनु भाई बिखिआ नो लोभाइ ॥७॥

मूलम्

एतु जनमि हरि न चेतिओ भाई किआ मुहु देसी जाइ ॥ किड़ी पवंदी मुहाइओनु भाई बिखिआ नो लोभाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एतु = इस में। एतु जनमि = इस जनम में। देसी = देगा। किड़ = आवाज। किड़ी पवंदी = आवाज़ें पड़ते हुए भी, उपदेश मिलते हुए भी। मुहाइओनु = उसने (अपने आप को) लुटवा लिया। बिखिआ नो = माया की खातिर। लोभाइ = लोभ में फस के।7।
अर्थ: हे भाई! जिस ने इस मानव जन्म में परमात्मा को याद ना किया वह (परलोक में) जा के क्या मुँह दिखाएगा? (शर्मसार होगा)। हे भाई! माया की खातिर लोभ में फंस के, (सचेत रहने की) आवाजें पड़ते हुए भी उसने अपना आत्मिक जीवन लुटा लिया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु समालहि सुखि वसहि भाई सदा सुखु सांति सरीर ॥ नानक नामु समालि तू भाई अपर्मपर गुणी गहीर ॥८॥३॥

मूलम्

नामु समालहि सुखि वसहि भाई सदा सुखु सांति सरीर ॥ नानक नामु समालि तू भाई अपर्मपर गुणी गहीर ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समालहि = याद करते हैं, हृदय में बसाते हैं। सुखि = सुख में। अपरंपर = परे से परे। गुणी = गुणों का खजाना। गहीर = गहरा, बड़े जिगरे वाला।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाते हैं, वे आनंद में बसते हैं उनके शरीर को सुख-शांति प्राप्त रहती है। हे नानक! (कह:) हे भाई! तू उस परमात्मा का नाम हृदय में बसाए रख, जो बहुत बेअंत है जो गुणों का मालिक है, जो बड़े जिगरे वाला है।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु १ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु १ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु जगु जिनहि उपाइआ भाई करण कारण समरथु ॥ जीउ पिंडु जिनि साजिआ भाई दे करि अपणी वथु ॥ किनि कहीऐ किउ देखीऐ भाई करता एकु अकथु ॥ गुरु गोविंदु सलाहीऐ भाई जिस ते जापै तथु ॥१॥

मूलम्

सभु जगु जिनहि उपाइआ भाई करण कारण समरथु ॥ जीउ पिंडु जिनि साजिआ भाई दे करि अपणी वथु ॥ किनि कहीऐ किउ देखीऐ भाई करता एकु अकथु ॥ गुरु गोविंदु सलाहीऐ भाई जिस ते जापै तथु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = सारा। जिनहि = जिनि ही, जिसने ही। भाई = हे भाई! करण = जगत। करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सब ताकतों का मालिक। जीउ = जीवात्मा। पिंडु = शरीर। दे करि = दे कर। वथु = वस्तु, क्षमता। किनि = किससे? किसके द्वारा? कहीऐ = कहा जा सकता है, बयान किया जा सकता है। किउ = कैसे? अकथु = वह जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सके। गुरु गोबिंदु = गोबिंद का रूप गुरु। जिस ते = जिससे। जापै = समझते हैं। तथु = असलियत।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनहि’ में से ‘जिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।
नोट: ‘जिस ते’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने आप ही सारा जगत पैदा किया है, जो सारे जगत का मूल है, जो सारी शक्तियों का मालिक है, जिसने अपनी वस्तु (क्षमता) दे के (मनुष्य की) जीवात्मा और शरीर पैदा किए हैं, वह कर्तार (तो) किसी भी पक्ष से बयान नहीं किया जा सकता। हे भाई उस कर्तार का रूप बताया नहीं जा सकता। उसे कैसे देखा जाए? हे भाई! गोबिंद के रूप गुरु की कीर्ति करनी चाहिए, क्योंकि गुरु से ही सारे जगत के मूल परमात्मा की सूझ पड़ सकती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जपीऐ हरि भगवंता ॥ नाम दानु देइ जन अपने दूख दरद का हंता ॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जपीऐ हरि भगवंता ॥ नाम दानु देइ जन अपने दूख दरद का हंता ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देइ = देता है। हंता = नाश करने वाला। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (हमेशा) हरि भगवान का नाम जपना चाहिए। वह भगवान अपने सेवक को अपने नाम की दाति देता है। वह सारी दुख-पीड़ाओं को नाश करने वाला है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै घरि सभु किछु है भाई नउ निधि भरे भंडार ॥ तिस की कीमति ना पवै भाई ऊचा अगम अपार ॥ जीअ जंत प्रतिपालदा भाई नित नित करदा सार ॥ सतिगुरु पूरा भेटीऐ भाई सबदि मिलावणहार ॥२॥

मूलम्

जा कै घरि सभु किछु है भाई नउ निधि भरे भंडार ॥ तिस की कीमति ना पवै भाई ऊचा अगम अपार ॥ जीअ जंत प्रतिपालदा भाई नित नित करदा सार ॥ सतिगुरु पूरा भेटीऐ भाई सबदि मिलावणहार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै घरि = जिस (प्रभु) के घर में। नउ निधि = जगत के सारे ही नौ खजाने। भंडार = खजाने। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत, जिसका परला छोर नहीं दिखता। सार = संभाल। भेटीऐ = ढूँढें। सबदि = शब्द में (जोड़ के)। मिलावणहार = मिला सकने वाला।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के घर में हरेक चीज मौजूद है, जिस के घर में जगत के सारे नौ ही खजाने विद्यमान हैं, जिसके घर में भंडारे भरे पड़े हैं, उसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। वह सबसे ऊँचा है, वह अगम्य (पहुँच से परे) है, वह बेअंत है। हे भाई! वह प्रभु सारे जीवों की पालना करता है, वह सदा ही (सब जीवों की) संभाल करता है। (उसका दर्शन करने के लिए) हे भाई! पूरे गुरु को मिलना चाहिए, (गुरु ही अपने) शब्द में जोड़ के परमात्मा के साथ मिला सकने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचे चरण सरेवीअहि भाई भ्रमु भउ होवै नासु ॥ मिलि संत सभा मनु मांजीऐ भाई हरि कै नामि निवासु ॥ मिटै अंधेरा अगिआनता भाई कमल होवै परगासु ॥ गुर बचनी सुखु ऊपजै भाई सभि फल सतिगुर पासि ॥३॥

मूलम्

सचे चरण सरेवीअहि भाई भ्रमु भउ होवै नासु ॥ मिलि संत सभा मनु मांजीऐ भाई हरि कै नामि निवासु ॥ मिटै अंधेरा अगिआनता भाई कमल होवै परगासु ॥ गुर बचनी सुखु ऊपजै भाई सभि फल सतिगुर पासि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के। सरेवीअहि = सेवे जाने चाहिए। भ्रमु = भटकना। मिलि = मिल के। मांजीऐ = मांजना चाहिए। कै नामि = के नाम में। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अगिआनता = आत्मिक जीवन का अज्ञान। कमल परगासु = (हृदय के) कमल फूल का खिलना। सभि = सारे।3।
अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के चरण हृदय में बसा के रखने चाहिए, (इस तरह मन के) भ्रम का (भटकना का) (हरेक किस्म के) डर का नाश हो जाता है। हे भाई! साधु-संगत में मिल के मन को साफ करना चाहिए (इस तरह) परमात्मा के नाम में (मन का) निवास हो जाता है। (साधु-संगत की इनायत से) हे भाई! आत्मिक जीवन के पक्ष से अज्ञानता का अंधकार (मनुष्य के अंदर से) मिट जाता है (हृदय का) कमल पुष्प खिल उठता है। हे भाई! गुरु के वचन पर चलने से आत्मिक आनंद पैदा होता है। सारे फल गुरु के पास हैं।3।

[[0640]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा तेरा छोडीऐ भाई होईऐ सभ की धूरि ॥ घटि घटि ब्रहमु पसारिआ भाई पेखै सुणै हजूरि ॥ जितु दिनि विसरै पारब्रहमु भाई तितु दिनि मरीऐ झूरि ॥ करन करावन समरथो भाई सरब कला भरपूरि ॥४॥

मूलम्

मेरा तेरा छोडीऐ भाई होईऐ सभ की धूरि ॥ घटि घटि ब्रहमु पसारिआ भाई पेखै सुणै हजूरि ॥ जितु दिनि विसरै पारब्रहमु भाई तितु दिनि मरीऐ झूरि ॥ करन करावन समरथो भाई सरब कला भरपूरि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरा तेरा = मेर तेर, भेद भाव। होईऐ = बन जाना चाहिए। धूरि = राख। घटि घटि = हरेक घट में। हजूरि = अंग संग हो के। जितु = जिस में। दिनि = दिन में। जितु दिनि = जिस दिन में। तितु दिनि = उस दिन में। मरीऐ = मरते हैं। झूरि = पछता के। करन करावन समरथो = सब कुछ कर सकने वाला और (जीवों से) करवा सकने वाला। कला = शक्ति।4।
अर्थ: हे भाई! भेद भाव त्याग देने चाहिए, सबके चरणों की धूल बन जाना चाहिए। हे भाई! परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है, वह सबके अंग-संग हो के (सबके कामों को) देखता है (सबकी बातें) सुनता है। हे भाई! जिस दिन परमात्मा भूल जाए, उस दिन दुखी हो के (हम) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। हे भाई! (ये याद रखो कि) परमात्मा सब कुछ कर सकने वाला है और (जीवों से) करवा सकने वाला है। परमात्मा में सारी ताकतें मौजूद हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम पदारथु नामु है भाई माइआ मोह बिनासु ॥ तिसु भावै ता मेलि लए भाई हिरदै नाम निवासु ॥ गुरमुखि कमलु प्रगासीऐ भाई रिदै होवै परगासु ॥ प्रगटु भइआ परतापु प्रभ भाई मउलिआ धरति अकासु ॥५॥

मूलम्

प्रेम पदारथु नामु है भाई माइआ मोह बिनासु ॥ तिसु भावै ता मेलि लए भाई हिरदै नाम निवासु ॥ गुरमुखि कमलु प्रगासीऐ भाई रिदै होवै परगासु ॥ प्रगटु भइआ परतापु प्रभ भाई मउलिआ धरति अकासु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पदारथु = कीमती धन। मोह बिनासु = मोह का नाश। तिसु भावै = उस (परमात्मा) को अच्छा लगे। हिरदै = हृदय में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। रिदै = दिल में। परगासु = प्रकाश। प्रगट भइआ = उघड़ आया, सामने आ गया। परतापु = ताकत। मउलिआ = खिला हुआ।5।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के) प्यार का कीमती धन मौजूद है, हरि-नाम मौजूद है (उसके अंदर से) माया के मोह का नाश हो जाता है। हे भाई! उस परमात्मा को (जब) अच्छा लगे तब वह (जिसको अपने चरणों में) मिला लेता है (उसके) हृदय में उस प्रभु के नाम का निवास हो जाता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख होने से (हृदय का) कमल फूल खिल उठता है, दिल में (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है। हे भाई! (गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य के अंदर) परमात्मा की ताकत प्रकट हो जाती है (मनुष्य को समझ आ जाता है कि परमात्मा बेअंत शक्तियों का मालिक है, और प्रभु की ताकत से ही) धरती खिली हुई है, आकाश खिला हुआ है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि पूरै संतोखिआ भाई अहिनिसि लागा भाउ ॥ रसना रामु रवै सदा भाई साचा सादु सुआउ ॥ करनी सुणि सुणि जीविआ भाई निहचलु पाइआ थाउ ॥ जिसु परतीति न आवई भाई सो जीअड़ा जलि जाउ ॥६॥

मूलम्

गुरि पूरै संतोखिआ भाई अहिनिसि लागा भाउ ॥ रसना रामु रवै सदा भाई साचा सादु सुआउ ॥ करनी सुणि सुणि जीविआ भाई निहचलु पाइआ थाउ ॥ जिसु परतीति न आवई भाई सो जीअड़ा जलि जाउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। संतोखिआ = संतोष दिया। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्रेम। रसना = जीभ (से)। रवै = स्मरण करता है। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य, लक्ष्य। करनी = कर्णों से, कानों से। जीअड़ा = (दुर्भाग्य भरी) जीवात्मा। जलि जाउ = जल जाए, (विकारों में) जल जाती है।6।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने संतोख की दाति दे दी, (उसके अंदर) दिन रात (प्रभु चरणों का) प्यार बना रहता है, वह मनुष्य सदा (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम जपता रहता है। (नाम जपने का ये) स्वाद (ये) निशाना (उसके अंदर) सदा कायम रहता है। हे भाई! वह मनुष्य अपने कानों से (परमात्मा की महिमा) सुन-सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता रहता है, (वह प्रभु-चरणों में) अटल स्थान की प्राप्ति बनाए रहता है।
पर, हे भाई! जिस मनुष्य को (गुरु पर) ऐतबार नहीं होता उसकी (दुर्भाग्यपूर्ण) जीवात्मा (विकारों में) जल जाती है (और आत्मिक मौत सहेड़ लेती है)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु गुण मेरे साहिबै भाई हउ तिस कै बलि जाउ ॥ ओहु निरगुणीआरे पालदा भाई देइ निथावे थाउ ॥ रिजकु स्मबाहे सासि सासि भाई गूड़ा जा का नाउ ॥ जिसु गुरु साचा भेटीऐ भाई पूरा तिसु करमाउ ॥७॥

मूलम्

बहु गुण मेरे साहिबै भाई हउ तिस कै बलि जाउ ॥ ओहु निरगुणीआरे पालदा भाई देइ निथावे थाउ ॥ रिजकु स्मबाहे सासि सासि भाई गूड़ा जा का नाउ ॥ जिसु गुरु साचा भेटीऐ भाई पूरा तिसु करमाउ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साहिबै = साहिब में। हउ = मैं। तिस कै = उससे। बलि = सदके। जाउ = जाऊँ। देइ = देता है। संबाहे = पहुँचाता है। सासि सासि = हरेक सांस में। गूढ़ा = गाढ़ा प्रेम रंग देने वाला। भेटीऐ = मिल जाते हैं। करमाउ = किस्मत से।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कै’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक प्रभु में बेअंत गुण हैं, मैं उससे सदके-कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! वह मालिक गुणहीन को (भी) पालता है, वह निआसरे मनुष्य को सहारा देता है। वह मालिक हरेक सांस के साथ रिजक पहुँचाता है, उसका नाम (स्मरण करने वाले के मन पर प्रेम का) गाढ़ा रंग चढ़ा देता है। हे भाई! जिस मनुष्य को सच्चा गुरु मिल जाता है (उसको प्रभु मिल जाता है) उसकी किस्मत जाग जाती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु बिनु घड़ी न जीवीऐ भाई सरब कला भरपूरि ॥ सासि गिरासि न विसरै भाई पेखउ सदा हजूरि ॥ साधू संगि मिलाइआ भाई सरब रहिआ भरपूरि ॥ जिना प्रीति न लगीआ भाई से नित नित मरदे झूरि ॥८॥

मूलम्

तिसु बिनु घड़ी न जीवीऐ भाई सरब कला भरपूरि ॥ सासि गिरासि न विसरै भाई पेखउ सदा हजूरि ॥ साधू संगि मिलाइआ भाई सरब रहिआ भरपूरि ॥ जिना प्रीति न लगीआ भाई से नित नित मरदे झूरि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न जीवीऐ = जी नहीं सकते, आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता। कला = ताकतें। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। सासि गिरासि = सांस लेते हुए और खाते हुए। पेखउ = मैं देखता हूँ। हजूरि = अंग संग। साधू संगि = गुरु की संगति में। मरदे = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। झूरि = चिंतातुर हो के।8।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा सारी ही ताकतों से भरपूर है, उस (की याद) के बिना एक घड़ी भी (मनुष्य का) आत्मिक जीवन कायम नहीं रह सकता। हे भाई! मैं तो उस परमात्मा को अपने अंग-संग बसता देखता हूँ, मुझे वह खाते हुए सांस लेते हुए कभी भी नहीं भूलता। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा ने गुरु की संगति में मिला दिया, उसे वह परमात्मा हर जगह मौजूद दिखाई देने लग जाता है। पर, हे भाई! जिनके अंदर परमात्मा का प्यार पैदा नहीं होता, वह सदा चिंतातुर हो-हो के आत्मिक मौत मरता रहता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंचलि लाइ तराइआ भाई भउजलु दुखु संसारु ॥ करि किरपा नदरि निहालिआ भाई कीतोनु अंगु अपारु ॥ मनु तनु सीतलु होइआ भाई भोजनु नाम अधारु ॥ नानक तिसु सरणागती भाई जि किलबिख काटणहारु ॥९॥१॥

मूलम्

अंचलि लाइ तराइआ भाई भउजलु दुखु संसारु ॥ करि किरपा नदरि निहालिआ भाई कीतोनु अंगु अपारु ॥ मनु तनु सीतलु होइआ भाई भोजनु नाम अधारु ॥ नानक तिसु सरणागती भाई जि किलबिख काटणहारु ॥९॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंचलि = पल्ले से। भउजलु = संसार समुंदर। करि = कर के। नदरि = मेहर की निगाह। निहालिआ = देखा। कीतोनु = उस ने किया। अंगु = पक्ष। अपारु = बेअंत। सीतल = ठंडा। अधारु = आसरा। किलबिख = पाप। काटणहारु = काट सकने वाला। जि = जो।9।
अर्थ: हे भाई! (शरण में आए मनुष्य को) अपने पल्लू से लगा के परमात्मा खुद इस दुख-रूपी संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है। प्रभु (उस पर) कृपा करके (उसको) मेहर की निगाह से देखता है, उसका बेअंत पक्ष करता है। हे भाई! मनुष्य का मन ठंडा हो जाता है, शरीर शांत हो जाता है, वह (अपने आत्मिक जीवन के लिए) नाम की खुराक़ (खाता है), नाम का सहारा लेता है। हे नानक! (कह:) हे भाई! उस परमात्मा की शरण पड़ो, जो सारे पाप काट सकता है।9।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ ॥ मात गरभ दुख सागरो पिआरे तह अपणा नामु जपाइआ ॥ बाहरि काढि बिखु पसरीआ पिआरे माइआ मोहु वधाइआ ॥ जिस नो कीतो करमु आपि पिआरे तिसु पूरा गुरू मिलाइआ ॥ सो आराधे सासि सासि पिआरे राम नाम लिव लाइआ ॥१॥

मूलम्

सोरठि महला ५ ॥ मात गरभ दुख सागरो पिआरे तह अपणा नामु जपाइआ ॥ बाहरि काढि बिखु पसरीआ पिआरे माइआ मोहु वधाइआ ॥ जिस नो कीतो करमु आपि पिआरे तिसु पूरा गुरू मिलाइआ ॥ सो आराधे सासि सासि पिआरे राम नाम लिव लाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मात गरभ = माता का पेट। सागरो = समुंदर। तह = वहाँ, उस पेट में। काढि = निकाल के। बिखु = जहर, आत्मिक जीवन को खत्म करने वाले मोह का जहर। पसरीआ = बिखेर दी। करमु = बख्शिश। तिसु = उस मनुष्य को। आराधे = स्मरण करता है। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। लिव = लगन, प्रीति।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्यारे (भाई)! माँ का पेट दुखों का समुंदर है, वहाँ (प्रभु ने जीव से) अपने नाम का स्मरण करवाया (और, इसे दुखों से बचाए रखा)। माँ के पेट में से निकाल के (जन्म दे के, प्रभु ने जीव के लिए, आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाली माया के मोह का) जहर बिखेर दिया (और, इस तरह जीव के हृदय में) माया का मोह बढ़ा दिया। हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु स्वयं मेहर करता है, उसको पूरे गुरु से मिलवाता है। वह मनुष्य हरेक सांस के साथ परमात्मा का स्मरण करता है, और, परमात्मा के नाम की लगन (अपने अंदर) बनाए रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि तनि तेरी टेक है पिआरे मनि तनि तेरी टेक ॥ तुधु बिनु अवरु न करनहारु पिआरे अंतरजामी एक ॥ रहाउ॥

मूलम्

मनि तनि तेरी टेक है पिआरे मनि तनि तेरी टेक ॥ तुधु बिनु अवरु न करनहारु पिआरे अंतरजामी एक ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। टेक = आसरा। अवरु = कोई और। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! (मेरे) मन में (मेरे) हृदय में सदा तेरा ही आसरा है (तू ही माया के मोह से बचाने वाला है)। हे प्यारे प्रभु! तू ही सबके दिलों की जानने वाला है। तेरे बिना और कोई नहीं जो सब कुछ करने की सामर्थ्य वाला हो। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि जनम भ्रमि आइआ पिआरे अनिक जोनि दुखु पाइ ॥ साचा साहिबु विसरिआ पिआरे बहुती मिलै सजाइ ॥ जिन भेटै पूरा सतिगुरू पिआरे से लागे साचै नाइ ॥ तिना पिछै छुटीऐ पिआरे जो साची सरणाइ ॥२॥

मूलम्

कोटि जनम भ्रमि आइआ पिआरे अनिक जोनि दुखु पाइ ॥ साचा साहिबु विसरिआ पिआरे बहुती मिलै सजाइ ॥ जिन भेटै पूरा सतिगुरू पिआरे से लागे साचै नाइ ॥ तिना पिछै छुटीऐ पिआरे जो साची सरणाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमि = भटक के। पाइ = पा के, सह के। साचा = सदा कायम रहने वाला। जिन = जिन्हें। भेटै = मिलता है। नाइ = नाम में। साचै नाइ = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम में। तिना पिछे = उन की शरण पड़ कर। छुटीऐ = (माया के मोह से) बच जाते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! अनेक जूनियों के दुख सह के करोड़ों जन्मों में भटक के (जीव मनुष्य के जन्म में) आता है, (पर, यहाँ इसे) सदा कायम रहने वाला मालिक भूल जाता है, और इसे बड़ी सजा मिलती है। हे भाई! जिस मनुष्यों को पूरा गुरु मिल जाता है, वे सदा-स्थिर प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ते हैं। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की शरण में पड़े रहते हैं, उनके पद्-चिन्हों पर चल के (माया के मोह के जहर से) बचा जाता है।2।

[[0641]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिठा करि कै खाइआ पिआरे तिनि तनि कीता रोगु ॥ कउड़ा होइ पतिसटिआ पिआरे तिस ते उपजिआ सोगु ॥ भोग भुंचाइ भुलाइअनु पिआरे उतरै नही विजोगु ॥ जो गुर मेलि उधारिआ पिआरे तिन धुरे पइआ संजोगु ॥३॥

मूलम्

मिठा करि कै खाइआ पिआरे तिनि तनि कीता रोगु ॥ कउड़ा होइ पतिसटिआ पिआरे तिस ते उपजिआ सोगु ॥ भोग भुंचाइ भुलाइअनु पिआरे उतरै नही विजोगु ॥ जो गुर मेलि उधारिआ पिआरे तिन धुरे पइआ संजोगु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उस (मीठे) ने। तनि = शरीर में। कउड़ा = दुखदाई। पतिसटिआ = प्रस्थापित हुआ, टिक गया (प्रस्था = to stand firmly)। सोगु = ग़म, चिन्ता। भोग = दुनिया के स्वादिष्ट पदार्थ। भुंचाइ = खिला के। भुलाइअनु = उस (प्रभु) ने भुलवा दिए, गलत राह पर डाल दिया। विजोगु = विछोड़ा। गुर मेलि = गुरु को मिला के। उधारिआ = विकारों से बचा लिया। तिन संजोगु = उनका (प्रभु से) मिलाप। धुरे = धुर से ही, प्रभु की हजूरी से ही। पइआ = लिखा पड़ा था।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! मनुष्य ने (सारी उम्र दुनिया के पदार्थों को) मीठा समझ के खाया, उस मीठे ने (उसके) शरीर में रोग पैदा कर दिए। वह रोग दुखदाई हो के शरीर में पक्का टिक जाता है उस (रोग) से चिन्ता-ग़म पैदा होती है। दुनियावी पदार्थ खिला-खिला के उस परमात्मा ने (खुद ही जीव को) गलत रास्ते पर डाल रखा है। (परमात्मा से जीव का) विछोड़ा खत्म होने को नहीं आता। जिस जीवों को गुरु से मिला के प्रभु ने (पदार्थों के भोगों से) बचा लिया, धुर से लिखे अनुसार उनका (परमात्मा से) मिलाप हो गया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ लालचि अटिआ पिआरे चिति न आवहि मूलि ॥ जिन तू विसरहि पारब्रहम सुआमी से तन होए धूड़ि ॥ बिललाट करहि बहुतेरिआ पिआरे उतरै नाही सूलु ॥ जो गुर मेलि सवारिआ पिआरे तिन का रहिआ मूलु ॥४॥

मूलम्

माइआ लालचि अटिआ पिआरे चिति न आवहि मूलि ॥ जिन तू विसरहि पारब्रहम सुआमी से तन होए धूड़ि ॥ बिललाट करहि बहुतेरिआ पिआरे उतरै नाही सूलु ॥ जो गुर मेलि सवारिआ पिआरे तिन का रहिआ मूलु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लालचि = लालच में। अटिआ = लिबड़ा हुआ। चिति = चिक्त में। मूलि = बिल्कुल ही। पारब्रहम = हे परमात्मा! से तन = (बहुवचन) वह शरीर। धूड़ि = मिट्टी, ख़ाक। बिललाट = विरलाप। करहि = करते हैं। सूलु = पीड़ा। तिन का मूलु = उनका आत्मिक जीवन की संपत्ति। रहिआ = बचा रहता है।4।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! जो मनुष्य (सदा) माया के लालच में फसे रहते हैं, उनके चिक्त में तू बिल्कुल ही नहीं बसता। हे मालिक प्रभु! जिनको तेरी याद भूल जाती है वह शरीर (आत्मिक जीवन की पूंजी बनाए बग़ैर ही) मिट्टी हो जाते हैं। (माया के मोह के कारण दुखी हो हो के) वे बहुत बिलकते हैं, पर उनके अंदर का वह दुख दूर नहीं होता।
हे भाई! गुरु से मिल के जिनका जीवन परमात्मा सुंदर बना देता है, उनके आत्मिक जीवन की पूंजी बची रहती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत संगु न कीजई पिआरे जे का पारि वसाइ ॥ जिसु मिलिऐ हरि विसरै पिआरे सुो मुहि कालै उठि जाइ ॥ मनमुखि ढोई नह मिलै पिआरे दरगह मिलै सजाइ ॥ जो गुर मेलि सवारिआ पिआरे तिना पूरी पाइ ॥५॥

मूलम्

साकत संगु न कीजई पिआरे जे का पारि वसाइ ॥ जिसु मिलिऐ हरि विसरै पिआरे सुो मुहि कालै उठि जाइ ॥ मनमुखि ढोई नह मिलै पिआरे दरगह मिलै सजाइ ॥ जो गुर मेलि सवारिआ पिआरे तिना पूरी पाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत संगु = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का साथ। कीजई = करना चाहिए। जे का = जितना। पारि वसाइ = बस चल सके। जिसु मिलिऐ = जिस (साकत) को मिलने से। सुो = (असल शब्द ‘सो’ है यहाँ ‘सु’ पढ़ना है)। मुहि कालै = काले मुँह से, बदनामी कमा के। उठि = उठ के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। ढोई = जगह, आसरा। गुर मेलि = गुरु को मिला के। पूरी पाइ = सफलता प्रज्ञपत होती है।5।
अर्थ: हे भाई! जहाँ तक बस चले, परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का संग नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस मनुष्य को मिलने से परमात्मा बिसर जाता है। (जो मनुष्य साकत का संग करता है) वह बदनामी कमा के दुनिया से चला जाता है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को परमात्मा की दरगाह में जगह नहीं मिलती, (उसे बल्कि वहाँ) सजा मिलती है। पर, हे भाई! गुरु से मिला के जिस मनुष्यों का जीवन परमात्मा ने सुंदर बना दिया है, उनको सफलता प्राप्त होती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजम सहस सिआणपा पिआरे इक न चली नालि ॥ जो बेमुख गोबिंद ते पिआरे तिन कुलि लागै गालि ॥ होदी वसतु न जातीआ पिआरे कूड़ु न चली नालि ॥ सतिगुरु जिना मिलाइओनु पिआरे साचा नामु समालि ॥६॥

मूलम्

संजम सहस सिआणपा पिआरे इक न चली नालि ॥ जो बेमुख गोबिंद ते पिआरे तिन कुलि लागै गालि ॥ होदी वसतु न जातीआ पिआरे कूड़ु न चली नालि ॥ सतिगुरु जिना मिलाइओनु पिआरे साचा नामु समालि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संजम = जुगति। सहस = हजारों। नालि न चली = मदद नहीं करती। ते = से। कुलि = कुल में, खानदान में। गालि = कलंक। कूड़ु = झूठ। मिलाइओनु = उस (परमात्मा) ने मिला दिया। साचा = सदा स्थिर। समालि = समाले, संभालते हैं, हृदय में बसाते हैं।6।
अर्थ: हे भाई! (व्रत नियम आदि) हजारों संयम और हजारों समझदारियां (अगर मनुष्य करता रहे, तो इनमें से) एक भी (परलोक में) मदद नहीं करते। जो लोग परमात्मा से मुँह फेरे रहते हैं, उनके (तो) खानदान को (भी) कलंक का टीका लग जाता है। (साकत मनुष्य हृदय में) बसते (कीमती हरि-नाम) पदार्थ से सांझ नहीं डालता (दुनिया के नाशवान पदार्थों से ही मोह डाले रखता है, पर कोई भी) नाशवान पदार्थ (परलोक में) साथ नहीं जाता। हे भाई! जिस मनुष्यों को उस परमात्मा ने गुरु मिला दिया है वह मनुष्य सदा कायम रहने वाला हरि नाम (अपने दिल में) बसाए रखते हें।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतु संतोखु गिआनु धिआनु पिआरे जिस नो नदरि करे ॥ अनदिनु कीरतनु गुण रवै पिआरे अम्रिति पूर भरे ॥ दुख सागरु तिन लंघिआ पिआरे भवजलु पारि परे ॥ जिसु भावै तिसु मेलि लैहि पिआरे सेई सदा खरे ॥७॥

मूलम्

सतु संतोखु गिआनु धिआनु पिआरे जिस नो नदरि करे ॥ अनदिनु कीरतनु गुण रवै पिआरे अम्रिति पूर भरे ॥ दुख सागरु तिन लंघिआ पिआरे भवजलु पारि परे ॥ जिसु भावै तिसु मेलि लैहि पिआरे सेई सदा खरे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = प्रभु चरणों में तवज्जो को जोड़े रखना। जिस नो = जिस पर। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रवै = याद करता है। अंम्रिति = अमृत से, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। पूर भरे = भरपूर। सागरु = समंद्र। भवजलु = संसार समुंदर। परे = पहुँच गए। जिसु भावै = जो तुझे अच्छा लगता है। मेलि लैहि = तू मिला लेता है। खरे = अच्छे, अच्छे जीवन वाले।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, उसके अंदर सेवा-संतोख, ज्ञान-ध्यान (आदि गुण पैदा हो जाते हैं)। वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा की महिमा करता रहता है, परमात्मा के गुण याद करता रहता है, (उसका हृदय) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से नाको-नाक भरा रहता है। (हे भाई! जिस मनुष्यों पर प्रभु की मेहर की निगाह होती है) वे मनुष्य दुखों के समुंदर से पार लांघ जाते हैं वे संसार-समुंदर को पार हो जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्रथ पुरखु दइआल देउ पिआरे भगता तिस का ताणु ॥ तिसु सरणाई ढहि पए पिआरे जि अंतरजामी जाणु ॥ हलतु पलतु सवारिआ पिआरे मसतकि सचु नीसाणु ॥ सो प्रभु कदे न वीसरै पिआरे नानक सद कुरबाणु ॥८॥२॥

मूलम्

सम्रथ पुरखु दइआल देउ पिआरे भगता तिस का ताणु ॥ तिसु सरणाई ढहि पए पिआरे जि अंतरजामी जाणु ॥ हलतु पलतु सवारिआ पिआरे मसतकि सचु नीसाणु ॥ सो प्रभु कदे न वीसरै पिआरे नानक सद कुरबाणु ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संम्रथ = समर्थ, सारी ताकतों का मालिक। पुरखु = सर्व व्यापक। देउ = प्रकाश रूप। ताणु = आसरा। जि = जो। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। जाणु = सुजान, समझदार। हलतु = ये लोक। पलतु = परलोक। मसतकि = माथे पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नीसानु = निशान, मोहर। सद = सदा।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारी ताकतों का मालिक है, सर्व-व्यापक है, दया का घर है, प्रकाश-स्वरूप है। भक्तों को (हमेशा) उसका आसरा रहता है। हे भाई! भक्त उस परमात्मा की शरण में पड़े रहते हैं, जो सबके दिलों की जानने वाला है, और समझदार है। हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभु) सदा कायम रहने वाली मोहर लगा देता है, उसका ये लोक और परलोक सँवर जाता है।
हे नानक! कह: हे भाई! (मेरी तो सदा यही तमन्ना है) कि वह परमात्मा मुझे कभी ना भूले। मैं (उससे) सदा सदके जाता हूँ।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि महला ५ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि महला ५ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाठु पड़िओ अरु बेदु बीचारिओ निवलि भुअंगम साधे ॥ पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ अधिक अह्मबुधि बाधे ॥१॥

मूलम्

पाठु पड़िओ अरु बेदु बीचारिओ निवलि भुअंगम साधे ॥ पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ अधिक अह्मबुधि बाधे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पढ़िओ = पढ़ा (कईयों ने)। अरु = और। निवलि = खड़े हो के, घुटनों पे हाथ रख के, सांस बाहर की ओर खींच के, आंतों को घुमाना = इससे पेट की आंतें साफ रहती हैं, कब्ज़ नहीं रहती। निउली कर्म सुबह ख़ाली पेट किया जाता है। भुअंगम = भुयंगम्, पीठ की रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ कुण्डलनी नाड़ी जिसकी शकल सर्पणी जैसी है। इस रास्ते से सांस चढ़ाते हैं। साधे = साध लिए (कईयों ने)। सिउ = से। संगु = साथ। छुटकिओ = छूट सका, खत्म हो सका। अधिक = बहुत ज्यादा। अहंबुधि = अहंकार भरी बुद्धि। बाधे = बंध गए।1।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य वेद (आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़ता है और विचारता है। कोई मनुष्य निवली कर्म करता है, कोई कुण्डलनी नाड़ी के रास्ते प्राण चढ़ाता है। (पर इन साधनों से कामादिक) पाँचों से साथ खतम नहीं हो सकता। (बल्कि) ज्यादा अहंकार में (मनुष्य) बंध जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई मै कीए करम अनेका ॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै दीजै बुधि बिबेका ॥ रहाउ॥

मूलम्

पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई मै कीए करम अनेका ॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै दीजै बुधि बिबेका ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिआरे = हे सज्जन! इन बिधि = इन तरीकों से। मै = मेरे देखते हुए। हारि = हार के, इन कर्मों से जब कुछ ना बना तो इनका आसरा त्याग के। परिओ = पड़ा हूँ। कै दुआरै = के दर पे। बिबेका = परख। रहाउ।
अर्थ: हे भाई1 मेरे देखते हुए ही लोग अनेक ही (निहित हुए धार्मिक) कर्म करते हैं, पर इन तरीकों से परमात्मा के चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता। हे भाई! मैं तो इन कर्मों का आसरा छोड़ के मालिक प्रभु के दर पर आ गिरा हूँ (और प्रार्थना करता रहता हूँ - हे प्रभु! मुझे भलाई बुराई की) परख कर सकने वाली अक्ल दे। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोनि भइओ करपाती रहिओ नगन फिरिओ बन माही ॥ तट तीरथ सभ धरती भ्रमिओ दुबिधा छुटकै नाही ॥२॥

मूलम्

मोनि भइओ करपाती रहिओ नगन फिरिओ बन माही ॥ तट तीरथ सभ धरती भ्रमिओ दुबिधा छुटकै नाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोनि भइओ = कोई चुप्पी साधे बैठा है। करपाती = (कर = हाथ। पात्र = बर्तन) हाथों को ही बर्तन बना के रखने वाला। माही = में। तट = दरिया का किनारा। सभ = सारी। भ्रमिओ = भटकता फिरा। दुबिधा = दु चिक्ता पन, मेर तेर, डाँवा डोल मानसिक दशा। छुटकै नाही = समाप्त नहीं होती।2।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य चुप साधे बैठा है, कोई कर पाती बन गया है (बर्तनों की जगह अपना हाथ ही बरतता है), कोई जंगलों में नंगा घूमता फिरता है। कोई मनुष्य सारे तीर्थों का रटन कर रहा है, कोई सारी धरती का भ्रमण कर रहा है, (पर इस तरह भी) मन की डांवा-डोल स्थिति समाप्त नहीं होती।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

मन कामना तीरथ जाइ बसिओ सिरि करवत धराए ॥ मन की मैलु न उतरै इह बिधि जे लख जतन कराए ॥३॥

मूलम्

मन कामना तीरथ जाइ बसिओ सिरि करवत धराए ॥ मन की मैलु न उतरै इह बिधि जे लख जतन कराए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कामना = इच्छा, फुरना। सिरि = सिर पर। करवत = आरा, शिव जी वाला आरा जो बानारस के शिव मंदिर में है। शिव लोक पहुँचने की चाहत वाले कई भटके हुए लोग अपने आप को इस आरे से चिरवा लेते हैं। इह बिधि = इस तरीके से।3।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य अपनी मनोकामना के अनुसार तीर्थों पे जा बसा है, (मुक्ति का चाहवान अपने) सिर पर (शिव जी वाला) आरा रखवाता है (और, अपने आप को चिरवा लेता है)। पर अगर कोई मनुष्य (ऐसे) लाखों ही प्रयत्न करे, इस तरह भी मन की (विकारों की) मैल नहीं उतरती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनिक कामिनी हैवर गैवर बहु बिधि दानु दातारा ॥ अंन बसत्र भूमि बहु अरपे नह मिलीऐ हरि दुआरा ॥४॥

मूलम्

कनिक कामिनी हैवर गैवर बहु बिधि दानु दातारा ॥ अंन बसत्र भूमि बहु अरपे नह मिलीऐ हरि दुआरा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कनिक = सोना। कामिनी = स्त्री। हैवर = (हयवर) बढ़िया घोड़े। गैवर = (गजवर) बढ़िया हाथी। दातारा = देने वाला। अरपे = दान करता। हरि दुआरा = हरि के दर पे।4।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य सोना, स्त्री, बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी (और ऐसे ही) कई किसमों के दान करने वाला है। कोई मनुष्य अन्न दान करता है, कपड़े दान करता है, जमीन दान करता है। (इस तरह भी) परमात्मा के दर पर पहुँचा नहीं जा सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजा अरचा बंदन डंडउत खटु करमा रतु रहता ॥ हउ हउ करत बंधन महि परिआ नह मिलीऐ इह जुगता ॥५॥

मूलम्

पूजा अरचा बंदन डंडउत खटु करमा रतु रहता ॥ हउ हउ करत बंधन महि परिआ नह मिलीऐ इह जुगता ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरचा = मूर्ति पूजा। बंधन = नमस्कार। डंडउत = डंडे की तरह सीधे लंबे लेट के नमस्कार करनी। खटु = छह। खटु करमा = ब्राहमण के लिए छह जरूरी धार्मिक कर्म: विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और करवाना, दान लेना और देना। रतु रहता = मगन रहता है। हउ हउ = मैं मैं। इह जुगता = इस तरीके से।5।
अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य देव-पूजा में, देवताओं को नमस्कार दंडवत करने में, खट् कर्म करने में मस्त रहता है। पर वह भी (इन निहित हुए धार्मिक कर्मों को करने के कारण अपने आप को धार्मिक समझ के) अहंकार करता-करता (माया के मोह के) बंधनो में जकड़ा रहता है। इस ढंग से भी परमात्मा को नहीं मिला जा सकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोग सिध आसण चउरासीह ए भी करि करि रहिआ ॥ वडी आरजा फिरि फिरि जनमै हरि सिउ संगु न गहिआ ॥६॥

मूलम्

जोग सिध आसण चउरासीह ए भी करि करि रहिआ ॥ वडी आरजा फिरि फिरि जनमै हरि सिउ संगु न गहिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिध = योगासनों में सिद्ध हुए योगी। रहिआ = थक गया। आरजा = उम्र। संगु = साथ। गहिआ = मिला।6।
अर्थ: जोग-मत में सिद्धों के प्रसिद्ध चौरासी आसन हैं। ये आसन कर करके भी मनुष्य थक जाता है। उम्र तो लंबी कर लेता है, पर इस तरह परमात्मा से मिलाप का संजोग नहीं बनता, बार बार जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज लीला राजन की रचना करिआ हुकमु अफारा ॥ सेज सोहनी चंदनु चोआ नरक घोर का दुआरा ॥७॥

मूलम्

राज लीला राजन की रचना करिआ हुकमु अफारा ॥ सेज सोहनी चंदनु चोआ नरक घोर का दुआरा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लीला = रंग तमाशे। रचना = ठाठ बाठ। अफारा = जिसे कोई मोड़ न सके। चोआ = इत्र। घोर = भयानक।7।
अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो राज हकूमत के रंग तमाशे भोगते हैं, राजाओं वाले ठाठ-बाठ बनाते हैं, लोगों पर हुक्म चलाते हैं, कोई उनका हुक्म मोड़ नहीं सकता। सुंदर स्त्री की सेज भोगते हैं, (अपने शरीर पर) चंदन व इत्र लगाते हैं। पर ये सब कुछ तो भयानक नर्क की ओर ले जाने वाले हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कीरति साधसंगति है सिरि करमन कै करमा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जिसु पुरब लिखे का लहना ॥८॥

मूलम्

हरि कीरति साधसंगति है सिरि करमन कै करमा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जिसु पुरब लिखे का लहना ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरति = महिमा। करमन कै सिरि = सब (धार्मिक) कामों के सिर पर, सब कर्मों से श्रेष्ठ। पुरब लिखे का = पहले जन्म में किए कर्म के अनुसार।8।
अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में बैठ के परमात्मा की महिमा करनी- ये कर्म और सारे कर्मों से श्रेष्ठ है। पर, हे नानक! कह: ये अवसर उस मनुष्य को ही मिलता है जिसके माथे पर पूर्बले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार लेख लिखा होता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरो सेवकु इह रंगि माता ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु हरि हरि कीरतनि इहु मनु राता ॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥

मूलम्

तेरो सेवकु इह रंगि माता ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु हरि हरि कीरतनि इहु मनु राता ॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = रंग में। माता = मस्त। कीरतनि = कीर्तन मे। राता = रंगा हुआ। रहाउ दूजा।
अर्थ: हे भाई! तेरा सेवक तेरी महिमा के रंग में मस्त रहता है। हे भाई! दीनों के दुख दूर करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान होता है, उसका ये मन परमात्मा की महिमा के रंग में रंगा रहता है। रहाउ दूजा।1।3।

दर्पण-भाव

वार का भाव:
पौड़ी वार भाव:
परमात्मा ने इस जगत की खेल खुद बनाई है, और हर जगह उसकी अपनी ही लहर रुमक रही है; पर, ये समझ गुरु के द्वारा ही आती है और गुरु के द्वारा मार्ग पर चल के ही प्रभु की ये महिमा कही जा सकती है।
यद्यपि माया-रहित प्रभु की ही जीवन लहर हर जगह है, पर जीव माया के कारण मूर्खपने में लगा रहता है; जिस पर प्रभु की मेहर की नजर होती है वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की महिमा की कार करता है।
इस जगत रचना में त्रिगुणी माया भी ईश्वर ने स्वयं ही बनाई है, इसके मोह में फस के अहंकार के कारण जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है; पर, जिस पे प्रभु की मेहर हो उसको सतिगुरु ये भुलेखा समझा देता है।
परमात्मा का कोई ऐसा खास रूप नहीं, कोई रेखा नहीं जिसकी जीव को समझ पड़ सके, इसलिए जीव अपने आप उसकी महिमा कर ही नहीं सकता; पूरे गुरु के बताए हुए राह पर चल के ही प्रभु के दीदार हो सकते हैं।
इस जगत को बनाने वाला परमात्मा हलांकि हरेक के अंदर आप मौजूद है, पर जीव माया के धंधों में लग के उसको भुलाए रखते हैं और गलत राह पर पड़े रहते हैं; जिस मनुष्य पर वह मेहर करता है वह माया के मोह में से निकल के गुरु चरणों से प्यार डालता है और भक्ति करता है।
जिस माया की मौजों में उलझ के मनुष्य प्रभु को बिसारता है और पाप कमाता है उसका साथ कुसंभ के रंग की तरह थोड़े ही दिन रहता है। जगत से चलने के वक्त किए विकारों के कारण घबराता है और पछताता है।
पर, जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करता है, वह विकारों से बचा रहता है, उसको मौत से कभी घबराहट नहीं होती, वह प्रभु की हजूरी में इज्जत कमा के जाता है। कोई डर, कोई भटकना उसे नहीं रहती। पर, इस राह पर वही चलता है जो प्रभु की मेहर से गुरु के दर पर आता है।
जो भाग्यशाली लोग गुरु की शरण आते हैं, वे मिल के सतसंग में प्रभु की महिमा करते हैं और सुनते हैं, विकारों में पड़ने की जगह उनका मन प्रभु के नाम में पतीजा रहता है। ऐसे सत्संगियों के दर्शन मुबारक हैं, वे और लोगों को भी परमात्मा की ओर जोड़ते हैं।
जो मनुष्य परमात्मा के नाम में मस्त रहते हैं, उन्हें नाम जपने की इनायत से प्रभु हर जगह बसता प्रतीत होता है, इस वास्ते उन्हें कोई डर नहीं व्याप्तता। पर, ये दाति प्रभु की अपनी मेहर से गुरु के सन्मुख होने से ही मिलती है।
माया का प्यार और नाम की लगन- दोनों का मेल नहीं हो सकता। जिस मनुष्य का मन दुनियावी मौज-मेलों में भेदा हुआ है, उसकी तवज्जो उधर ही रहती है। पर जिस पर मेहर हो, वह गुरु की शरण पड़ कर ‘नाम’ से प्यार करता है और माया का मोह उसे आकर्षित नहीं कर सकता।
ये मानव शरीर, मानो, चोली है जो परमात्मा ने अपने पहनने के लिए बनाई है, ये चोली उसे तभी अच्छी लग सकती है अगर इसे भक्ति के रंग से सँवारा जाए, जैसे औरतें कढ़ाई करके फुलकारी को संभाल के बर्तती हैं। पर, ये भक्ति गुरु की शरण पड़ने से ही हो सकती है।
परमात्मा को मिलने का रास्ता गुरमुखों का संग करने से ही मिलता है, ज्यों-ज्यों उनके साथ मिल के गुण ग्रहण करते जाएं और नाम स्मरण करें त्यों-त्यों जीवन सुखी होता है। गुरु के बताए राह की समझ सत्संगियों से ही पड़ती है।
महिमा करने वाला मनुष्य लोक परलोक दोनों ही जगह शोभा कमाता है; जिसे नाम-अमृत का रस आया है उसकी तृष्णा मिट जाती है; पर इस राह पर वही चलता है जिस पर मेहर हो और जो गुरु की शरण पड़े।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के नाम जपता है, वह परमात्मा के रचे सब लोगों से उसी तरह प्यार करने लग जाता है जैसे वह अपने मित्रों-पुत्रों व भाईयों से करता है; ये नया आत्मिक जीवन उसे मिलता है।
दुनिया के धन-पदार्थ, महल-माढ़ियां, घोड़े आदि- इनमें से किसी से भी आखिर तक साथ नहीं निभता, अंत समय साथ टूटते हुए मन बहुत दुखी होता है। एक हरि का नाम ही है जो आखिरी वक्त साथी बनता है और सुखदाई होता है; ये नाम सतिगुरु के सन्मुख होने से ही मिलता है।
धन-पदार्थ, महल-माढ़ियां, घोड़े आदि व और कार्य-व्यवहार वर्जित नहीं हैं, बल्कि इनके द्वारा भले लोगों की सेवा करो और प्रभु का नाम भी स्मरण करो। जो मनुष्य सतिगुरु के द्वारा ऐसी रहने की शैली सीखता है वह भाग्यशाली है।
असल शोभा-उपमा वे लोग कमाते हैं जो पूरे गुरु के द्वारा स्वै भाव मिटा के परमात्मा के नाम में इतना लीन हो जाते हैं कि उन्हें हर जगह परमात्मा ही दिखता है।
वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जो गुरु की शरण पड़ कर अपनी मर्जी की जगह गुरु की मर्जी पर चलते हैं; यही एक तरीका है जिससे नाम स्मरण किया जा सकता है, महिमा हो जाती है और मन बस में आ सकता है।
जिस मनुष्यों के हृदय में गुरु का निवास है वे मुबारक हैं; उनके दर्शन करके और लोग भी प्रभु के नाम में जुड़ते हैं और अपने अंदर से पाप काट लेते हैं।
उन लोगों को असल धनवान समझो, जो गुरु के सन्मुख हो के उस प्रभु का स्मरण करते हैं जो पत्थरों के अंदर बसते कीड़ों से ले के मनुष्यों तक सारे जीव-जंतुओं को रोजी देने वाला है।
जिस मनुष्य पर मालिक की मेहर की नजर हो वे गुरु के सन्मुख हो के मानव जन्म की बाजी जीत जाता है क्योंकि वह भक्ति क्षमा और प्रेम का श्रृंगार बनाता है जो प्रभु को प्यारा लगता है।
असल संपूर्ण इन्सान वो हैं जो गुरु के सन्मुख हो के सांस-सांस में नाम स्मरण करते हैं; नाम-रूपी दवा बरतने से उनके सारे आत्मिक रोग व दुख दूर हो जाते हैं; ना उन्हें जगत की मुथाजगी रहती है ना ही जमों की।
जो मनुष्य सतिगुरु की निंदा करता है उसकी तवज्जो विकारों की ओर ही रहती है, उसकी निंदा करने की आदत इतनी बढ़ जाती है कि घर-घर किसी ना किसी की निंदा करता-फिरता है; पर भाग्यशाली है वह बंदा जो सतिगुरु के सँवारे हुए गुरसिखों की संगति में आता है।
सतिगुरु के बताए हुए राह पर चलने वाले गुरमुखों का दर्शन करने से परमात्मा का स्मरण करने का मन में चाव पैदा होता है, क्योंकि वह गुरमुख गुरु की शरण आ के दिन-रात प्रभु के स्मरण में उम्र गुजारते हैं; गुरु की कृपा से वे प्रभु के चरणों में सदा जुड़े रहते हैं।
जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करते हैं उनकी संगति करने से पाप-विकार दूर हो जाते हैं और उस प्रभु के हर वक्त स्मरण का उत्साह पैदा होता है जो सब जीवों को रिज़क दे रहा है और जिसके दर से सब जीव माँगते हैं।
जो मनुष्य भक्ति करने वाले लोगों की चरण-धूल माथे पर लगाते हैं वे भी प्रभु का स्मरण करने लग जाते हैं, हरि-नाम को जिंदगी का आसरा बना लेते हैं जैसे रोटी शरीर का आसरा है, हरि-नाम तीर्थ व स्नान करके पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, और प्रभु दर पर स्वीकार हो जाते हैं।
साधु-संगत, जैसे, एक नगर है जो गुरु ने बसाया है; इस नगर में सत्संगी, जैसे, रखवाले हैं। जो मनुष्य इस नगर में आ के बसता है, सत्संगी रक्षकों की इनायत से माया की तृष्णा व अन्य अवगुण कोई भी उस मनुष्य के पास नहीं आते।
सारे जगत को पैदा करके परमात्मा सब जीवों की पालना भी खुद ही करता है; पर, खुशी भरा जीवन केवल उन लोगों का ही होता है जो प्रभु की भक्ति करते हैं, क्योंकि प्रभु स्मरण करने वालों पर प्रसन्न होता है, उनके मन में से प्रभु खुद माया का मोह जला के राख कर देता है।
सारे जगत में परमात्मा का ही हुक्म वरत रहा है; उसकी रजा यूँ है कि जो मनुष्य सतिगुरु की मर्जी में चलता है उसे प्रभु दर से बड़ाई मिलती है, वह प्रभु को प्राप्त हो जाता है। सो, सतिगुरु की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।
समूचा भाव:
(1 से 6 तक) इस सारी जगत खेल में ईश्वर की अपनी ही जीवन-लहर रुमक रही है, त्रिगुणी माया भी उसने खुद ही बनाई है, पर जीव को इस बात की परतीति गुरु की शरण के बिना नहीं आ सकती, क्योंकि एक तो जीव माया के मोह में फस के मूर्खता में लग जाता है, दूसरा परमातमा की ऐसी कोई खास रूप-रेखा नहीं है जिसकी जीव को समझ पड़ सके, और जिस माया के मोह में फस के विकारों में उलझता है, उसका साथ भी नहीं निभता।
(7 से 14 तक) गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम स्मरण करने से मनुष्य का मन एक तो विकारों में पड़ने की जगह ‘नाम’ में पतीजा रहता है, माया का मोह उसे कोई कशिश नहीं डाल सकता; दूसरा, स्मरण से प्रभु की सर्व-व्यापकता की अनुभूति से किसी तरह का कोई डर उसे नहीं व्यापता। ऐसा भाग्यशाली जीव परमात्मा को प्यारा लगने लगता है (और उसका) जीवन सुखी हो जाता है, नाम-अमृत का रस आने से तृष्णा मिट जाती है, और प्रभु के रचे हुए बंदों से ऐसे प्यार करने लग पड़ता है जैसे अपने मित्रों-पुत्रों व भाईयों से करना होता है।
(15 से 23 तक) धन-पदार्थ आदि एकत्र करना जिंदगी का असल उद्देश्य नहीं, इनका साथ आखिर तक नहीं निभता; पर ये वर्जित भी नहीं, इनके द्वारा से दुनिया की सेवा करें; इनका गुमान करने की जगह स्वै भाव मिटा के अपने सतिगुरु की रजा में मनुष्य चले और प्रभु का नाम स्मरण करके अंदर से विकार दूर करे - ऐसा मनुष्य असल धनवान है, ऐसा मनुष्य ही इस जगत-चौपड़ से बाज़ी जीत के जाता है, यही है संपूर्ण इन्सान, क्योंकि नाम स्मरण करने से सारे आत्मिक रोग-दुख दूर हो जाते हैं। पर, धन-पदार्थ आदि की टेक के कारण मनुष्य को सतिगुरु के चरणों में लगने से घृणा होती है, उसका लोगों से भी रिश्ता प्रेम भरा नहीं होता, उसकी तवज्जो पर विकार ही हावी रहते हैं।
(24 से 27 तक) सतिगुरु के बताए राह पर चल कर प्रभु का नाम स्मरण करने वाले मनुष्यों की संगति करने वालों के मन में भी स्मरण का इतना चाव और उत्साह पैदा हो जाता है कि विकारों की ओर उनका मन भटकने से हट जाता है। वे हरि-नाम को जिंदगी का आसरा बना लेते हैं, जैसे रोटी शरीर का आसरा है। बंदगी वालों की संगति एक ऐसा नगर समझें जहाँ बसने से किसी विकार-रूपी चोर डाकू का डर नहीं रहता।
(28 व 29) कर्तार ने जगत-रचना में नियम ही ये रखा है कि मनुष्य सतिगुरु की रजा में चल के भक्ति करे, उसी मनुष्य का जीवन सुख-भरा हो सकता है; सतिगुरु की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।
मुख्य भाव:
कर्तार की रची हुई त्रिगुणी माया जीवों पर प्रभाव डाल के इन्हें कुमार्ग पर डाल देती है; पर जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की भक्ति करते हैं, उन्हें विकार छू नहीं सकते। सतिगुरु की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।

दर्पण-टिप्पनी

ये ‘वार’ गुरु रामदास जी की है, पर 58 शलोकों में से उनके अपने सिर्फ 7 ही हैं। अगर शलोकों समेत ‘वार’ उचारी हुई होती, तो शलोक तकरीबन सारे ही गुरु अमरदास जी के होने के कारण, इसका शीर्षक ‘सोरठि की वार महले ४ की’ ना फबता, क्योंकि गुरु रामदास जी की 29 पौड़ियों के मुकाबले गुरु अमरदास जी के 48 शलोक आ गए हैं, दोनों गुरु-व्यक्तियों की वाणी में से गिनती के लिहाज से गुरु अमरदास जी की वाणी ज्यादा हो गई। दरअसल, सच्चाई ये है कि सिर्फ पउड़ियों के ही संग्रह का नाम ‘वार’ है।\

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु सोरठि वार महले ४ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु सोरठि वार महले ४ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ सोरठि सदा सुहावणी जे सचा मनि होइ ॥ दंदी मैलु न कतु मनि जीभै सचा सोइ ॥ ससुरै पेईऐ भै वसी सतिगुरु सेवि निसंग ॥ परहरि कपड़ु जे पिर मिलै खुसी रावै पिरु संगि ॥ सदा सीगारी नाउ मनि कदे न मैलु पतंगु ॥ देवर जेठ मुए दुखि ससू का डरु किसु ॥ जे पिर भावै नानका करम मणी सभु सचु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ सोरठि सदा सुहावणी जे सचा मनि होइ ॥ दंदी मैलु न कतु मनि जीभै सचा सोइ ॥ ससुरै पेईऐ भै वसी सतिगुरु सेवि निसंग ॥ परहरि कपड़ु जे पिर मिलै खुसी रावै पिरु संगि ॥ सदा सीगारी नाउ मनि कदे न मैलु पतंगु ॥ देवर जेठ मुए दुखि ससू का डरु किसु ॥ जे पिर भावै नानका करम मणी सभु सचु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। दंदी मैलु = दातों में मैल, दंतकथा, निंदा। कतु = चीर, दूरी, वैर विरोध। ससुरै = ससुराल वाले घर, परलोक में। पेईऐ = पेके घर, इस लोक में। निसंग = बेझिझक। परहरि = छोड़ के। कपड़ु = दिखावा। पिर मिलै = पति को मिले। पिरु रावै = पति भोगता है, खुशी संग, प्रसन्नता से। पतंगु = रक्ती भा भी। ससू = माइआ। देवर जेठ = (सास) माया के पुत्र, कामादिक विकार। पिर भावै = पति को अच्छी लगे। करम मणी = भाग्यों की मणि।
अर्थ: सोरठि रागिनी हमेशा मधुर लगे अगर (इसके द्वारा प्रभु के गुण गाने से) सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मन में बस जाए, निंदा करने वाली आदत ना रहे, मन में किसी से वैर-विरोध ना हो, और जीभ पर सदा सच्चा मालिक हो। (इस तरह जीव-स्त्री) लोक-परलोक में (परमात्मा के) डर में जीवन गुजारती है और गुरु की सेवा करके बेझिझक हो जाती है (भाव, कोई सहम दबा नहीं पाता)। दिखावा छोड़ के अगर पति-प्रभु को मिल जाए तो पति भी प्रसन्न हो के इसको अपने साथ मिलाता है; जिस जीव-स्त्री के मन में प्रभु का नाम टिक जाए वह (इस नाम-श्रृंगार से) सदा सजी रहती है और कभी (विकारों की उसे) रक्ती भर मैल नहीं लगती। उस जीव-स्त्री के कामादिक विकार समाप्त हो जाते हैं, माया का भी कोई दबाव उस पर नहीं रह जाता।
हे नानक! (प्रभु पति को मन में बसा के) अगर जीव-स्त्री पति-प्रभु को अच्छी लगे तो उसके माथे के भाग्यों की टीका (समझें) उसे हर जगह सच्चा प्रभु ही (दिखता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ४ ॥ सोरठि तामि सुहावणी जा हरि नामु ढंढोले ॥ गुर पुरखु मनावै आपणा गुरमती हरि हरि बोले ॥ हरि प्रेमि कसाई दिनसु राति हरि रती हरि रंगि चोले ॥

मूलम्

मः ४ ॥ सोरठि तामि सुहावणी जा हरि नामु ढंढोले ॥ गुर पुरखु मनावै आपणा गुरमती हरि हरि बोले ॥ हरि प्रेमि कसाई दिनसु राति हरि रती हरि रंगि चोले ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तामि = तब। प्रेमि = प्रेम से। कसाई = कसी हुई, खिंची हुई। चोला = शरीर।
अर्थ: सोरठि रागिनी तभी सुंदर है, जब (इसके द्वारा जीव-स्त्री) हरि के नाम की खोज करे, अपने बड़े पति हरि को प्रसन्न करे और सतिगुरु की शिक्षा ले के प्रभु का स्मरण करे; दिन रात हरि के प्रेम में खिंची हुई अपने (शरीर रूपी) चोले को हरि के रंग में रंगे रखे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जैसा पुरखु न लभई सभु देखिआ जगतु मै टोले ॥

मूलम्

हरि जैसा पुरखु न लभई सभु देखिआ जगतु मै टोले ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैंने सारा संसार तलाश के देख लिया है परमात्मा जैसा कोई पुरुष नहीं मिला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ मनु अनत न काहू डोले ॥ जनु नानकु हरि का दासु है गुर सतिगुर के गोल गोले ॥२॥

मूलम्

गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ मनु अनत न काहू डोले ॥ जनु नानकु हरि का दासु है गुर सतिगुर के गोल गोले ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनत = किसी और तरफ़ से। गोल गोले = गोलों का गोला, दासों का दास।
अर्थ: गुरु सतिगुरु ने हरि का नाम (मेरे हृदय में) दृढ़ किया है, (इसलिए अब) मेरा मन कहीं डोलता नहीं, दास नानक प्रभु का दास है और गुरु सतिगुरु के दासों का दास है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तू आपे सिसटि करता सिरजणहारिआ ॥ तुधु आपे खेलु रचाइ तुधु आपि सवारिआ ॥ दाता करता आपि आपि भोगणहारिआ ॥ सभु तेरा सबदु वरतै उपावणहारिआ ॥ हउ गुरमुखि सदा सलाही गुर कउ वारिआ ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तू आपे सिसटि करता सिरजणहारिआ ॥ तुधु आपे खेलु रचाइ तुधु आपि सवारिआ ॥ दाता करता आपि आपि भोगणहारिआ ॥ सभु तेरा सबदु वरतै उपावणहारिआ ॥ हउ गुरमुखि सदा सलाही गुर कउ वारिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदु = हुक्म, जीवन लहर। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।
अर्थ: हे विधाता! तू खुद ही संसार को रचने वाला है; (संसार रूप) खेल बना के तूने खुद ही इसे सुंदर बनाया है; संसार रचने वाला तू खुद ही है। इसे दातें बख्शने वाला भी तू स्वयं ही है, उन दातों को भोगने वाला भी तू खुद ही है; हे पैदा करने वाले! सब जगह तेरी जीवन लहर बरत रही है। (पर) मैं अपने सतिगुरु से सदके हूँ जिसके सन्मुख हो के तेरी महिमा सदा कर सकता हूँ।1।

[[0643]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ हउमै जलते जलि मुए भ्रमि आए दूजै भाइ ॥ पूरै सतिगुरि राखि लीए आपणै पंनै पाइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ हउमै जलते जलि मुए भ्रमि आए दूजै भाइ ॥ पूरै सतिगुरि राखि लीए आपणै पंनै पाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंनै पाइ = लेखे में लिख के, अपने बना के। आए = गुरु के दर पर आए।
अर्थ: (संसारी जीव) अहंकार में जलते हुए जल मरे थे और माया के मोह में भटक-भटक के जब गुरु के दर पर आए तो पूरे सतिगुरु ने अपने साथ लगा के बचा लिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु जलता नदरी आइआ गुर कै सबदि सुभाइ ॥ सबदि रते से सीतल भए नानक सचु कमाइ ॥१॥

मूलम्

इहु जगु जलता नदरी आइआ गुर कै सबदि सुभाइ ॥ सबदि रते से सीतल भए नानक सचु कमाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: उनको सतिगुरु के शब्द के द्वारा स्वभाविक ही ये संसार जलता दिखा, तो हे नानक! वे गुरु के शब्द में रंग के और नाम-जपने की कमाई करके ठंडे-ठार हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सफलिओ सतिगुरु सेविआ धंनु जनमु परवाणु ॥ जिना सतिगुरु जीवदिआ मुइआ न विसरै सेई पुरख सुजाण ॥ कुलु उधारे आपणा सो जनु होवै परवाणु ॥

मूलम्

मः ३ ॥ सफलिओ सतिगुरु सेविआ धंनु जनमु परवाणु ॥ जिना सतिगुरु जीवदिआ मुइआ न विसरै सेई पुरख सुजाण ॥ कुलु उधारे आपणा सो जनु होवै परवाणु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवदिआ मुइआ = जनम से मरने तक, सारी उम्र।
अर्थ: उन मनुष्यों द्वारा की गई सतिगुरु की सेवा सफल है (भाव, सतिगुरु की सेवा उनके लिए सफल है) और उनका जनम भी सराहनीय व स्वीकार होने लायक होता है, वही मनुष्य समझदार (गिने जाते) हैं, जिनको सारी उम्र कभी भी प्रभु नहीं भूलता। (जो मनुष्य ऐसी कार करता है) वह खुद स्वीकार हो जाता है और अपनी कुल को भी पार लंघा लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि मुए जीवदे परवाणु हहि मनमुख जनमि मराहि ॥ नानक मुए न आखीअहि जि गुर कै सबदि समाहि ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि मुए जीवदे परवाणु हहि मनमुख जनमि मराहि ॥ नानक मुए न आखीअहि जि गुर कै सबदि समाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख मनुष्य स्वीकार हैं, पर, मन के अधीन रहने वाले मनुष्य पैदा होते मरते रहते हैं; हे नानक! जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द में लीन हो जाते हैं, उनको मरे हुए नहीं कहा जाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि पुरखु निरंजनु सेवि हरि नामु धिआईऐ ॥ सतसंगति साधू लगि हरि नामि समाईऐ ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि पुरखु निरंजनु सेवि हरि नामु धिआईऐ ॥ सतसंगति साधू लगि हरि नामि समाईऐ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंजनु = अंजन रहित, माया से रहित।
अर्थ: माया से रहित अकाल-पुरख की सेवा करके उसका नाम स्मरणा चाहिए; (पर) गुरु की संगति में ही जुड़ के हरि के नाम में लीन हो सकते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि तेरी वडी कार मै मूरख लाईऐ ॥ हउ गोला लाला तुधु मै हुकमु फुरमाईऐ ॥ हउ गुरमुखि कार कमावा जि गुरि समझाईऐ ॥२॥

मूलम्

हरि तेरी वडी कार मै मूरख लाईऐ ॥ हउ गोला लाला तुधु मै हुकमु फुरमाईऐ ॥ हउ गुरमुखि कार कमावा जि गुरि समझाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = मुझे। गुरि = गुरु ने।
अर्थ: हे हरि! मुझ मूर्ख को अपने बड़े काम (भाव, भक्ति) में जोड़ ले; मुझे हुक्म कर, मैं तेरे दासों का दास हूँ; (मेहर कर कि) सतिगुरु ने जो कार समझाई है वह मैं सतिगुरु के सन्मुख हो के करूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ पूरबि लिखिआ कमावणा जि करतै आपि लिखिआसु ॥ मोह ठगउली पाईअनु विसरिआ गुणतासु ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ पूरबि लिखिआ कमावणा जि करतै आपि लिखिआसु ॥ मोह ठगउली पाईअनु विसरिआ गुणतासु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाईअनु = उस (हरि) ने डाल दी है, दे दी है। गुणतासु = गुणों का खजाना प्रभु।
अर्थ: (पिछले किए कर्मों के अनुसार) आरम्भ से जो (संस्कार रूप लेख) लिखे (भाव, उकरे) हुए हैं और जो कर्तार ने खुद लिख दिए हैं वे (अवश्य) कमाने पड़ते हैं; (उस लेख के अनुसार ही) मोह की ठग-बूटी (जिसे) मिल गई है उसे गुणों का खजाना हरि बिसर गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतु जाणहु जगु जीवदा दूजै भाइ मुइआसु ॥ जिनी गुरमुखि नामु न चेतिओ से बहणि न मिलनी पासि ॥

मूलम्

मतु जाणहु जगु जीवदा दूजै भाइ मुइआसु ॥ जिनी गुरमुखि नामु न चेतिओ से बहणि न मिलनी पासि ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (उस) संसार को जीवित ना समझो (जो) माया के मोह में मरा पड़ा है; जिन्होंने सतिगुरु के सन्मुख हो के नाम नहीं स्मरण किया, उन्हें प्रभु के पास बैठने को नहीं मिलता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुखु लागा बहु अति घणा पुतु कलतु न साथि कोई जासि ॥ लोका विचि मुहु काला होआ अंदरि उभे सास ॥ मनमुखा नो को न विसही चुकि गइआ वेसासु ॥

मूलम्

दुखु लागा बहु अति घणा पुतु कलतु न साथि कोई जासि ॥ लोका विचि मुहु काला होआ अंदरि उभे सास ॥ मनमुखा नो को न विसही चुकि गइआ वेसासु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: वे मनमुख बहुत ही दुखी होते हैं, (क्योंकि जिनकी खातिर माया के मोह में मरे पड़े हैं, वह) पुत्र-स्त्री तो कोई साथ नहीं जाएगा; संसार के लोगों में भी उनका मुँह काला हुआ (भाव, शर्मिंदे हुए) और सिसकियां लेते हैं; मनमुखों का कोई विश्वास नहीं करता, उनका ऐतबार खत्म हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक गुरमुखा नो सुखु अगला जिना अंतरि नाम निवासु ॥१॥

मूलम्

नानक गुरमुखा नो सुखु अगला जिना अंतरि नाम निवासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! गुरमुखों को बहुत सुख होता है क्योंकि उनके हृदय में नाम का निवास होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ से सैण से सजणा जि गुरमुखि मिलहि सुभाइ ॥ सतिगुर का भाणा अनदिनु करहि से सचि रहे समाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ से सैण से सजणा जि गुरमुखि मिलहि सुभाइ ॥ सतिगुर का भाणा अनदिनु करहि से सचि रहे समाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सैण सजण = भले मनुष्य। अनदिनु = हर रोज।
अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख हुए जो मनुष्य (स्वै वार के प्रभु में स्वभाविक तौर पर) लीन हो जाते हैं वे भले लोग हैं और (हमारे) साथी हैं; जो सदा सतिगुरु की रज़ा को मानते हैं, वे सच्चे हरि में समाए रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजै भाइ लगे सजण न आखीअहि जि अभिमानु करहि वेकार ॥

मूलम्

दूजै भाइ लगे सजण न आखीअहि जि अभिमानु करहि वेकार ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेकार = बुरे काम।
अर्थ: उन्हें संत-जन नहीं कहा जाता जो माया के मोह में लगे हुए अहंकार और विकार करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख आप सुआरथी कारजु न सकहि सवारि ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥

मूलम्

मनमुख आप सुआरथी कारजु न सकहि सवारि ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआरथी = ख़ुद गर्ज, स्वार्थी।
अर्थ: मनमुख अपने मतलब के प्यारे (होने के कारण) किसी का काम नहीं सँवार सकते; (पर) हे नानक! (उनके सिर भी क्या दोष?) (पिछले कर्मों के अनुसार) पहले से ही उकरा हुआ (संस्कार-रूपी लेख) कमाना पड़ता है, कोई मिटाने के लायक नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै आपि खेलु रचाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिआ माइआ मोहु वधाइआ ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै आपि खेलु रचाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिआ माइआ मोहु वधाइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! तूने खुद ही संसार रच के खुद ही खेल बनाई है; तूने खुद ही (माया के) तीन गुण बनाए हैं और खुद ही माया का मोह (जगत में) बढ़ा दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचि हउमै लेखा मंगीऐ फिरि आवै जाइआ ॥ जिना हरि आपि क्रिपा करे से गुरि समझाइआ ॥

मूलम्

विचि हउमै लेखा मंगीऐ फिरि आवै जाइआ ॥ जिना हरि आपि क्रिपा करे से गुरि समझाइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (इस मोह से उपजे) अहंकार में (लगने से) (दरगाह में) लेखा मांगा जाता हैं और फिर बार-बार पैदा होना व मरना पड़ता है; जिस पर हरि खुद मेहर करता है उन्हें सतिगुरु ने (ये) समझ दे दी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिहारी गुर आपणे सदा सदा घुमाइआ ॥३॥

मूलम्

बलिहारी गुर आपणे सदा सदा घुमाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (इसलिए) मैं अपने सतिगुरु से सदके हूँ और सदा वारी जाता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ माइआ ममता मोहणी जिनि विणु दंता जगु खाइआ ॥ मनमुख खाधे गुरमुखि उबरे जिनी सचि नामि चितु लाइआ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ माइआ ममता मोहणी जिनि विणु दंता जगु खाइआ ॥ मनमुख खाधे गुरमुखि उबरे जिनी सचि नामि चितु लाइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (माया की पकड़) ने।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘माया’ और ‘ममता’ दोनों अलग-अलग नहीं लेने; शब्द ‘जिनि’ (जिस ने) ‘एकवचन’ है।)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: माया की पकड़ (भाव, ये ख्याल कि ये मेरी चीज है, ये मेरा धन है) मन को मोहने वाली है, इसने संसार को बिना दाँतों के ही खा लिया है (भाव, समूचा ही निगल लिया है), मनमुख (इस ‘ममता’ में) ग्रसे गए हैं, और जिस गुरमुखों ने सच्चे नाम में चिक्त जोड़ा है वे बच गए हैं।

[[0644]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु नावै जगु कमला फिरै गुरमुखि नदरी आइआ ॥ धंधा करतिआ निहफलु जनमु गवाइआ सुखदाता मनि न वसाइआ ॥

मूलम्

बिनु नावै जगु कमला फिरै गुरमुखि नदरी आइआ ॥ धंधा करतिआ निहफलु जनमु गवाइआ सुखदाता मनि न वसाइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख हो के ये दिखाई दे जाता है कि संसार नाम के बिना पागल हुआ भटकता है, माया के पीछे भागता मनुष्य जन्म को निष्फल गवा लेता है और सुखदाता नाम मन में नहीं बसाता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक नामु तिना कउ मिलिआ जिन कउ धुरि लिखि पाइआ ॥१॥

मूलम्

नानक नामु तिना कउ मिलिआ जिन कउ धुरि लिखि पाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर) हे नानक! नाम उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनके दिल में आरम्भ से ही (किए कर्मों के अनुसार) (सांस्कारिक रूप लेख) प्रभु ने उकर के रख दिए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ घर ही महि अम्रितु भरपूरु है मनमुखा सादु न पाइआ ॥ जिउ कसतूरी मिरगु न जाणै भ्रमदा भरमि भुलाइआ ॥ अम्रितु तजि बिखु संग्रहै करतै आपि खुआइआ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ घर ही महि अम्रितु भरपूरु है मनमुखा सादु न पाइआ ॥ जिउ कसतूरी मिरगु न जाणै भ्रमदा भरमि भुलाइआ ॥ अम्रितु तजि बिखु संग्रहै करतै आपि खुआइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (नाम-रूप) अमृत (हरेक जीव के हृदय रूप) घर में ही भरा हुआ है, (पर) मनमुखों को (उसका) स्वाद नहीं आता। जैसे हिरन (अपनी नाभि में पड़ी हुई) कस्तूरी को नहीं समझता ओर भ्रम में भूला हुआ भटकता है, वैसे ही मनुष्य नाम-अमृत को छोड़ के विष को इकट्ठा करता है, (पर उसके भी क्या वश?) कर्तार ने (उसके पिछले किए अनुसार) उसे खुद भटकाया हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि विरले सोझी पई तिना अंदरि ब्रहमु दिखाइआ ॥ तनु मनु सीतलु होइआ रसना हरि सादु आइआ ॥

मूलम्

गुरमुखि विरले सोझी पई तिना अंदरि ब्रहमु दिखाइआ ॥ तनु मनु सीतलु होइआ रसना हरि सादु आइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: विरले गुरमुखों को समझ आ जाती है, उन्हें हृदय में ही (परमात्मा दिखाई दे जाता है) उनका मन और शरीर शीतल हो जाते हैं और जीभ से (जप के) उनको नाम का स्वाद आ जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदे ही नाउ ऊपजै सबदे मेलि मिलाइआ ॥ बिनु सबदै सभु जगु बउराना बिरथा जनमु गवाइआ ॥

मूलम्

सबदे ही नाउ ऊपजै सबदे मेलि मिलाइआ ॥ बिनु सबदै सभु जगु बउराना बिरथा जनमु गवाइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु के शब्द से ही नाम (का अंगूर हृदय में) उगता है और शब्द से ही हरि से मेल होता है; शब्द के बिना सारा संसार पागल हुआ पड़ा है और मानव जन्म व्यर्थ गवाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु एको सबदु है नानक गुरमुखि पाइआ ॥२॥

मूलम्

अम्रितु एको सबदु है नानक गुरमुखि पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! गुरु का एक शब्द ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल है जो सतिगुरु के सन्मुख मनुष्य को मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सो हरि पुरखु अगमु है कहु कितु बिधि पाईऐ ॥ तिसु रूपु न रेख अद्रिसटु कहु जन किउ धिआईऐ ॥ निरंकारु निरंजनु हरि अगमु किआ कहि गुण गाईऐ ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सो हरि पुरखु अगमु है कहु कितु बिधि पाईऐ ॥ तिसु रूपु न रेख अद्रिसटु कहु जन किउ धिआईऐ ॥ निरंकारु निरंजनु हरि अगमु किआ कहि गुण गाईऐ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! बता, वह हरि, जो अगंम पुरख है, कैसे मिल सकता है? उसका कोई रूप नहीं कोई रेख नहीं, दिखता भी नहीं, उसको कैसे स्मरण करें? आकार के बिना है, माया से रहित है, पहुँच से परे हैं, सो, क्या कह के उसकी महिमा करें?

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु आपि बुझाए आपि सु हरि मारगि पाईऐ ॥ गुरि पूरै वेखालिआ गुर सेवा पाईऐ ॥४॥

मूलम्

जिसु आपि बुझाए आपि सु हरि मारगि पाईऐ ॥ गुरि पूरै वेखालिआ गुर सेवा पाईऐ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगि = रास्ते पर। गुर सेवा = गुरु की बताई हुई कार।
अर्थ: जिस मनुष्य को खुद प्रभु समझ देता है वह प्रभु की राह पर चलता है; पूरे गुरु ने ही उसका दीदार करवाया है, गुरु की बताई हुई कार करने से ही वह मिलता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ जिउ तनु कोलू पीड़ीऐ रतु न भोरी डेहि ॥ जीउ वंञै चउ खंनीऐ सचे संदड़ै नेहि ॥ नानक मेलु न चुकई राती अतै डेह ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ जिउ तनु कोलू पीड़ीऐ रतु न भोरी डेहि ॥ जीउ वंञै चउ खंनीऐ सचे संदड़ै नेहि ॥ नानक मेलु न चुकई राती अतै डेह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भोरी = रक्ती भर भी। डेहि = दे। जीउ = प्राण। चउखंनीऐ = चार खंड। चउखांनीऐ वंञै = चार टुकड़े हो जाए। नेहि = प्यार की खातिर। संदड़ै = दे। डेह = दिन। अतै = और।
अर्थ: हे नानक! अगर मेरा शरीर रक्ती भर भी लहू ना दे चाहे तिलों की तरह ये कोहलू में पीढ़ा जाए, (भाव, जो अनेक कड़े कष्ट आने पर भी मेरे अंदर शरीर के बचे रहने की लालसा रक्ती भर भी ना हो) अगर मेरी जीवात्मा सच्चे प्रभु के प्यार में वारी सदके जा रही हो, तो ही प्रभु से मिलाप ना दिन ना रात कभी नहीं टूटता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सजणु मैडा रंगुला रंगु लाए मनु लेइ ॥ जिउ माजीठै कपड़े रंगे भी पाहेहि ॥ नानक रंगु न उतरै बिआ न लगै केह ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सजणु मैडा रंगुला रंगु लाए मनु लेइ ॥ जिउ माजीठै कपड़े रंगे भी पाहेहि ॥ नानक रंगु न उतरै बिआ न लगै केह ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मेरा सज्जन रंगीला है, मन ले कर (प्रेम का) रंग लगा देता है। जैसे कपड़े भी पाह दे के मजीठ में रंगे जाते हैं (वैसे स्वै दे के ही प्रेम-रंग मिलता है); हे नानक! (इस तरह का) रंग फिर नहीं उतरता और ना ही कोई और चढ़ सकता है (भाव, कोई और चीज प्यारी नहीं लग सकती)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि आपि वरतै आपि हरि आपि बुलाइदा ॥ हरि आपे स्रिसटि सवारि सिरि धंधै लाइदा ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि आपि वरतै आपि हरि आपि बुलाइदा ॥ हरि आपे स्रिसटि सवारि सिरि धंधै लाइदा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरतै = मौजूद है। सिरि = हरेक सिर पर, हरेक जीव को।
अर्थ: हरि खुद ही सब में व्याप रहा है और खुद ही सबको बुलाता है (भाव, खुद ही हरेक में बोलता है); संसार को खुद ही रच के हरेक जीव को माया के चक्कर में डाल देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकना भगती लाइ इकि आपि खुआइदा ॥ इकना मारगि पाइ इकि उझड़ि पाइदा ॥

मूलम्

इकना भगती लाइ इकि आपि खुआइदा ॥ इकना मारगि पाइ इकि उझड़ि पाइदा ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: एक को अपनी भक्ति में लगाता है और कई जीवों को खुद भरमों में डाल देता है; एक को सीधे राह चलाता है और एक को गलत रास्ते पर डाल देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनु नानकु नामु धिआए गुरमुखि गुण गाइदा ॥५॥

मूलम्

जनु नानकु नामु धिआए गुरमुखि गुण गाइदा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: दास नानक भी (उसकी भक्ति की खातिर) नाम स्मरण करता है और सतिगुरु के सन्मुख हो के (उसकी) महिमा करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा सफलु है जे को करे चितु लाइ ॥ मनि चिंदिआ फलु पावणा हउमै विचहु जाइ ॥ बंधन तोड़ै मुकति होइ सचे रहै समाइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा सफलु है जे को करे चितु लाइ ॥ मनि चिंदिआ फलु पावणा हउमै विचहु जाइ ॥ बंधन तोड़ै मुकति होइ सचे रहै समाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो कोई मनुष्य चिक्त लगा के सेवा करे, तो सतिगुरु की (बताई) सेवा जरूर फल लाती है; मन-इच्छित फल मिलता है, अहंकार मन में से दूर होता है; (गुरु की बताई हुई कार माया के) बंधनो को तोड़ती है (बंधनो से) खलासी हो जाती है और सच्चे हरि में मनुष्य समाया रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु जग महि नामु अलभु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ नानक जो गुरु सेवहि आपणा हउ तिन बलिहारै जाउ ॥१॥

मूलम्

इसु जग महि नामु अलभु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ नानक जो गुरु सेवहि आपणा हउ तिन बलिहारै जाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: इस संसार में हरि का नाम दुर्लभ है, सतिगुरु के सन्मुख मनुष्य के मन में आ के बसता है; हे नानक! (कह:) मैं सदके हूँ उनसे जो अपने सतिगुरु की बताई हुई कार करते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ मनमुख मंनु अजितु है दूजै लगै जाइ ॥ तिस नो सुखु सुपनै नही दुखे दुखि विहाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ मनमुख मंनु अजितु है दूजै लगै जाइ ॥ तिस नो सुखु सुपनै नही दुखे दुखि विहाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मनमुख का मन उसके काबू से बाहर है, क्योंकि वह माया में जा लगा है; (नतीजा ये कि) उसे सपने में भी सुख नहीं मिलता, (उसकी उम्र) सदा दुख में ही गुजरती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरि घरि पड़ि पड़ि पंडित थके सिध समाधि लगाइ ॥ इहु मनु वसि न आवई थके करम कमाइ ॥

मूलम्

घरि घरि पड़ि पड़ि पंडित थके सिध समाधि लगाइ ॥ इहु मनु वसि न आवई थके करम कमाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि घरि = घर घर में। घरि घरि पंडित = घर घर में पंडित, (भाव,) अनेक पंडित।
अर्थ: अनेक पंडित लोग पढ़-पढ़ के और सिद्ध समाधियां लगा-लगा के थक गए है, कई कर्म करके थक गए हैं; (पढ़ने से और समाधियों से) ये मन काबू नहीं आता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेखधारी भेख करि थके अठिसठि तीरथ नाइ ॥ मन की सार न जाणनी हउमै भरमि भुलाइ ॥

मूलम्

भेखधारी भेख करि थके अठिसठि तीरथ नाइ ॥ मन की सार न जाणनी हउमै भरमि भुलाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: भेख करने वाले मनुष्य (भाव, साधु लोग) कई भेस करके और अढ़सठ तीर्थों पर नहा के थक गए हैं; अहंकार व भ्रम में भूले हुओं को मन की सार नहीं आई।

[[0645]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी भउ पइआ वडभागि वसिआ मनि आइ ॥ भै पइऐ मनु वसि होआ हउमै सबदि जलाइ ॥

मूलम्

गुर परसादी भउ पइआ वडभागि वसिआ मनि आइ ॥ भै पइऐ मनु वसि होआ हउमै सबदि जलाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: बड़े भाग्यों से सतिगुरु की कृपा से भउ उपजता है और मन में आ के बसता है; (हरि का) भय उपजते ही, और अहंकार सतिगुरु के शब्द से जला के मन वश में आता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचि रते से निरमले जोती जोति मिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नाउ पाइआ नानक सुखि समाइ ॥२॥

मूलम्

सचि रते से निरमले जोती जोति मिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नाउ पाइआ नानक सुखि समाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य ज्योति रूपी प्रभु में अपनी तवज्जो मिला के सच्चे में रंगे गए हैं, वे निर्मल हो गए हैं; (पर) हे नानक! सतिगुरु के मिलने से ही नाम मिलता है और सुख में समाई होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ एह भूपति राणे रंग दिन चारि सुहावणा ॥ एहु माइआ रंगु कसु्मभ खिन महि लहि जावणा ॥ चलदिआ नालि न चलै सिरि पाप लै जावणा ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ एह भूपति राणे रंग दिन चारि सुहावणा ॥ एहु माइआ रंगु कसु्मभ खिन महि लहि जावणा ॥ चलदिआ नालि न चलै सिरि पाप लै जावणा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूपति = राजा। सिरि = सिर पर।
अर्थ: राजाओं और रानियों के ये रंग चार दिनों (अर्थात, थोड़े समय) तक ही शोभायमान रहते हैं; माया का ये रंग कुसंभ का रंग है (भाव, कुसंभ की तरह छण-भंगुर है), छिन-मात्र में उतर जाएगा, (संसार से) चलने के वक्त माया साथ नहीं जाती, (पर इसके कारण किए) पाप अपने सिर ले लिए जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जां पकड़ि चलाइआ कालि तां खरा डरावणा ॥ ओह वेला हथि न आवै फिरि पछुतावणा ॥६॥

मूलम्

जां पकड़ि चलाइआ कालि तां खरा डरावणा ॥ ओह वेला हथि न आवै फिरि पछुतावणा ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जब जम-काल ने पकड़ के आगे लगा लिया, तो (जीव) बहुत भय-भीत होता है; (मनुष्य-जन्म वाला) वह समय फिर नहीं मिलता, इसलिए पछताता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर ते जो मुह फिरे से बधे दुख सहाहि ॥ फिरि फिरि मिलणु न पाइनी जमहि तै मरि जाहि ॥ सहसा रोगु न छोडई दुख ही महि दुख पाहि ॥ नानक नदरी बखसि लेहि सबदे मेलि मिलाहि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर ते जो मुह फिरे से बधे दुख सहाहि ॥ फिरि फिरि मिलणु न पाइनी जमहि तै मरि जाहि ॥ सहसा रोगु न छोडई दुख ही महि दुख पाहि ॥ नानक नदरी बखसि लेहि सबदे मेलि मिलाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुह फिरे = (मुहफिरा = वह मनुष्य जिसने मुँह मोड़ा हुआ हो) मनमुख।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की ओर से मनमुख हैं, वह (अंत में) बँधे दुख सहते हैं, प्रभु को मिल नहीं सकते, बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं; उन्हें चिन्ता का रोग कभी नहीं छोड़ता, सदा दुखी ही रहते है। हे नानक! कृपा-दृष्टि वाला प्रभु अगर उन्हें बख्श ले तो सतिगुरु के शब्द के द्वारा उस में मिल जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ जो सतिगुर ते मुह फिरे तिना ठउर न ठाउ ॥ जिउ छुटड़ि घरि घरि फिरै दुहचारणि बदनाउ ॥ नानक गुरमुखि बखसीअहि से सतिगुर मेलि मिलाउ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ जो सतिगुर ते मुह फिरे तिना ठउर न ठाउ ॥ जिउ छुटड़ि घरि घरि फिरै दुहचारणि बदनाउ ॥ नानक गुरमुखि बखसीअहि से सतिगुर मेलि मिलाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बखसीअहि = बख्शे जाते हैं।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु से मनमुख हैं उनका ना ठौर ना ठिकाना; वे व्यभचारिन त्याग हुई स्त्री की भांति हैं, जो घर-घर में बदनाम होती फिरती है। हे नानक! जो गुरु के सन्मुख हो के बख्शे जाते हैं, वे सतिगुरु की संगति में मिल जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जो सेवहि सति मुरारि से भवजल तरि गइआ ॥ जो बोलहि हरि हरि नाउ तिन जमु छडि गइआ ॥ से दरगह पैधे जाहि जिना हरि जपि लइआ ॥ हरि सेवहि सेई पुरख जिना हरि तुधु मइआ ॥ गुण गावा पिआरे नित गुरमुखि भ्रम भउ गइआ ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जो सेवहि सति मुरारि से भवजल तरि गइआ ॥ जो बोलहि हरि हरि नाउ तिन जमु छडि गइआ ॥ से दरगह पैधे जाहि जिना हरि जपि लइआ ॥ हरि सेवहि सेई पुरख जिना हरि तुधु मइआ ॥ गुण गावा पिआरे नित गुरमुखि भ्रम भउ गइआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य सच्चे हरि को सेवते हैं, वे संसार समुंदर को पार कर लेते हैं; जो मनुष्य हरि का नाम स्मरण करते हैं, उन्हें जम छोड़ जाता है; जिन्होंने हरि का नाम जपा है, उन्हें दरगाह में आदर मिलता है; (पर) हे हरि! जिस पर तेरी मेहर होती है, वही मनुष्य तेरी भक्ति करते हैं। सतिगुरु के सन्मुख हो के भ्रम और डर दूर हो जाते हैं, (मेहर कर) हे प्यारे! मैं भी सदा तेरे गुण गाऊँ।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ थालै विचि तै वसतू पईओ हरि भोजनु अम्रितु सारु ॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ पाईऐ मोख दुआरु ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ थालै विचि तै वसतू पईओ हरि भोजनु अम्रितु सारु ॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ पाईऐ मोख दुआरु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस हृदय-रूपी थाल में (सत्य-संतोष और विचार) तीन चीजें पड़ी हैं, उस हृदय-थाल में श्रेष्ठ अमृत भोजन हरि का नाम (परोसा जाता) है, जिस के खाने से मन अघा जाता है और विकारों से खलासी का दर प्राप्त होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु भोजनु अलभु है संतहु लभै गुर वीचारि ॥

मूलम्

इहु भोजनु अलभु है संतहु लभै गुर वीचारि ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे संत जनो! ये भोजन दुर्लभ है, सतिगुरु की (बताई हुई) विचार से मिलता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एह मुदावणी किउ विचहु कढीऐ सदा रखीऐ उरि धारि ॥ एह मुदावणी सतिगुरू पाई गुरसिखा लधी भालि ॥

मूलम्

एह मुदावणी किउ विचहु कढीऐ सदा रखीऐ उरि धारि ॥ एह मुदावणी सतिगुरू पाई गुरसिखा लधी भालि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुदावणी = आत्मिक प्रसन्नता देने वाली वस्तु (नाम)।
अर्थ: आत्मिक आनंद देने वाली इस (महिमा की आत्मिक खुराक की बात) गुरु ने बताई है, गुरु के सिखों ने खोज के पा ली है। इसको सदैव अपने दिल में संभाल के रखना चाहिए; ये भूलनी नहीं चाहिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक जिसु बुझाए सु बुझसी हरि पाइआ गुरमुखि घालि ॥१॥

मूलम्

नानक जिसु बुझाए सु बुझसी हरि पाइआ गुरमुखि घालि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को (इसकी) समझ देता है वह समझता है, और वह सतिगुरु के सन्मुख हो के मेहनत से हरि को मिलता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक की व्याख्या गुरु अर्जुन देव जी ने मुदावणी महला ५ में की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ जो धुरि मेले से मिलि रहे सतिगुर सिउ चितु लाइ ॥ आपि विछोड़ेनु से विछुड़े दूजै भाइ खुआइ ॥ नानक विणु करमा किआ पाईऐ पूरबि लिखिआ कमाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ जो धुरि मेले से मिलि रहे सतिगुर सिउ चितु लाइ ॥ आपि विछोड़ेनु से विछुड़े दूजै भाइ खुआइ ॥ नानक विणु करमा किआ पाईऐ पूरबि लिखिआ कमाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विछोड़ेनु = विछोड़े उस (हरि) ने।
अर्थ: हरि ने जो धुर से मिलाए हैं, वही मनुष्य सतिगुरु से चिक्त जोड़ के (हरि में) लीन हुए हैं; (पर) जो उस हरि ने खुद विछोड़े हैं, वे माया के मोह में (फंस के) विछुड़ चुके हरि से विछड़े हुए हैं। हे नानक! की हुई कमाई के बिना कुछ नहीं मिलता, आरम्भ से (किए कर्मों के अनुसार) उकरे हुए (संस्कार-रूपी लेखों की कमाई) कमानी पड़ती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ बहि सखीआ जसु गावहि गावणहारीआ ॥ हरि नामु सलाहिहु नित हरि कउ बलिहारीआ ॥ जिनी सुणि मंनिआ हरि नाउ तिना हउ वारीआ ॥ गुरमुखीआ हरि मेलु मिलावणहारीआ ॥ हउ बलि जावा दिनु राति गुर देखणहारीआ ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ बहि सखीआ जसु गावहि गावणहारीआ ॥ हरि नामु सलाहिहु नित हरि कउ बलिहारीआ ॥ जिनी सुणि मंनिआ हरि नाउ तिना हउ वारीआ ॥ गुरमुखीआ हरि मेलु मिलावणहारीआ ॥ हउ बलि जावा दिनु राति गुर देखणहारीआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हरि की महिमा करने वाली (संत-जन रूप) सहेलियां इकट्ठी बैठ के स्वयं हरि का यश गाती हैं, हरि से सदके जाती हैं (और लोगों को शिक्षा देती हैं कि) ‘सदा हरि के नाम की उपमा करो’ मैं सदके हूँ जिन्होंने सुन के हरि का नाम माना है, उन हरि को मिलाने वाली गुरमुख सहेलियों से मैं सदके हूँ; सतिगुरु के दर्शन करने वालियों से मैं दिन-रात बलिहारे जाता हूँ।8।

[[0646]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ विणु नावै सभि भरमदे नित जगि तोटा सैसारि ॥ मनमुखि करम कमावणे हउमै अंधु गुबारु ॥ गुरमुखि अम्रितु पीवणा नानक सबदु वीचारि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ विणु नावै सभि भरमदे नित जगि तोटा सैसारि ॥ मनमुखि करम कमावणे हउमै अंधु गुबारु ॥ गुरमुखि अम्रितु पीवणा नानक सबदु वीचारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत में। तोटा = घाटा। संसारि = संसार में। सभि = सारे जीव।
अर्थ: नाम के बिना सारे लोग भटकते फिरते हैं; उनको संसार में सदा घाटा ही घाटा है; हे नानक! मनमुख तो अहंकार के आसरे ऐसे कर्म कमाते हैं जो घोर अंधकार पैदा करते हैं। पर सतिगुरु के सन्मुख जीव शब्द को विचार के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सहजे जागै सहजे सोवै ॥ गुरमुखि अनदिनु उसतति होवै ॥

मूलम्

मः ३ ॥ सहजे जागै सहजे सोवै ॥ गुरमुखि अनदिनु उसतति होवै ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख होता है वह आत्मिक अडोलता में ही जागता है और आत्मिक अडोलता में ही सोता है (भाव, जागते हुए हरि में लीन और सोते हुए भी हरि में लीन रहता है) उसे हर रोज (भाव, हर वक्त) हरि की स्तुति (का ही आहर होता) है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख भरमै सहसा होवै ॥ अंतरि चिंता नीद न सोवै ॥

मूलम्

मनमुख भरमै सहसा होवै ॥ अंतरि चिंता नीद न सोवै ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मनमुख भटकता है, क्योंकि उसे सदा तौखला रहता है; मन में चिन्ता होने के कारण वह (सुख की) नींद नहीं सोता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआनी जागहि सवहि सुभाइ ॥ नानक नामि रतिआ बलि जाउ ॥२॥

मूलम्

गिआनी जागहि सवहि सुभाइ ॥ नानक नामि रतिआ बलि जाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: प्रभु के साथ गहरी सांझ रखने वाले बँदे प्रभु के प्यार में ही जागते सोते हैं (भाव, जागते-सोते हुए एक-रस रहते हैं)। हे नानक! मैं नाम में रंगे हुओं से सदके हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ से हरि नामु धिआवहि जो हरि रतिआ ॥ हरि इकु धिआवहि इकु इको हरि सतिआ ॥ हरि इको वरतै इकु इको उतपतिआ ॥ जो हरि नामु धिआवहि तिन डरु सटि घतिआ ॥ गुरमती देवै आपि गुरमुखि हरि जपिआ ॥९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ से हरि नामु धिआवहि जो हरि रतिआ ॥ हरि इकु धिआवहि इकु इको हरि सतिआ ॥ हरि इको वरतै इकु इको उतपतिआ ॥ जो हरि नामु धिआवहि तिन डरु सटि घतिआ ॥ गुरमती देवै आपि गुरमुखि हरि जपिआ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिआ = सत्य, सदा स्थिर रहने वाला।
अर्थ: जो मनुष्य हरि में रंगे हुए हैं, वे उसका नाम स्मरण करते हैं; उस एक हरि को ध्याते हैं, जो सदा कायम रहने वाला है जो एक खुद हर जगह में व्यापक है और जिस एक ने ही (सारी सृष्टि) पैदा की है। जो मनुष्य नाम स्मरण करते हैं, उन्होंने सारा डर दूर कर दिया है। पर, वही गुरमुख नाम स्मरण करता है जिसे प्रभु खुद गुरु की मति के द्वारा ये दाति देता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ अंतरि गिआनु न आइओ जितु किछु सोझी पाइ ॥ विणु डिठा किआ सालाहीऐ अंधा अंधु कमाइ ॥ नानक सबदु पछाणीऐ नामु वसै मनि आइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ अंतरि गिआनु न आइओ जितु किछु सोझी पाइ ॥ विणु डिठा किआ सालाहीऐ अंधा अंधु कमाइ ॥ नानक सबदु पछाणीऐ नामु वसै मनि आइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस (ज्ञानी) से।
अर्थ: जिस ज्ञान से कुछ समझ पड़नी थी वह ज्ञान तो अंदर प्रकट नहीं हुआ, फिर जिस (हरि) को देखा नहीं उसकी स्तुति कैसे हो? ज्ञान-हीन मनुष्य अज्ञानता की कमाई ही करता है। हे नानक! अगर सतिगुरु के शब्द को पहचाने तो हरि का नाम मन में आ बसता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ इका बाणी इकु गुरु इको सबदु वीचारि ॥ सचा सउदा हटु सचु रतनी भरे भंडार ॥ गुर किरपा ते पाईअनि जे देवै देवणहारु ॥

मूलम्

मः ३ ॥ इका बाणी इकु गुरु इको सबदु वीचारि ॥ सचा सउदा हटु सचु रतनी भरे भंडार ॥ गुर किरपा ते पाईअनि जे देवै देवणहारु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इका, इकु इको = केवल, सिर्फ।
अर्थ: केवल वाणी ही प्रामाणिक गुरु है, गुरु के शब्द को ही विचारो- यही सदा-स्थिर रहने वाला सौदा है, यही सच्ची हाट है जिसमें रत्नों के भण्डार भरे पड़े हैं, अगर देने वाला (हरि) दे तो (ये खजाने) सतिगुरु की कृपा से मिलते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचा सउदा लाभु सदा खटिआ नामु अपारु ॥ विखु विचि अम्रितु प्रगटिआ करमि पीआवणहारु ॥ नानक सचु सलाहीऐ धंनु सवारणहारु ॥२॥

मूलम्

सचा सउदा लाभु सदा खटिआ नामु अपारु ॥ विखु विचि अम्रितु प्रगटिआ करमि पीआवणहारु ॥ नानक सचु सलाहीऐ धंनु सवारणहारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विखु = विष, जहर। करमि = मेहर से। धंनु = धन्य, साराहनीय।
अर्थ: जिस मनुष्य ने यह सच्चा सौदा (कर के) बेअंत प्रभु का नाम लाभ कमाया है, उसको (माया) जहर में व्यवहार करते हुए ही नाम-अमृत मिल जाता है, पर ये अमृत पिलाने वाला प्रभु अपनी मेहर से ही पिलाता है। हे नानक! उस सराहने-योग्य परमात्मा को स्मरण करें जो (जीवों को नाम की दाति दे के) सँवारता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिना अंदरि कूड़ु वरतै सचु न भावई ॥ जे को बोलै सचु कूड़ा जलि जावई ॥ कूड़िआरी रजै कूड़ि जिउ विसटा कागु खावई ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिना अंदरि कूड़ु वरतै सचु न भावई ॥ जे को बोलै सचु कूड़ा जलि जावई ॥ कूड़िआरी रजै कूड़ि जिउ विसटा कागु खावई ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिनके हृदय में झूठ व्यापक है उन्हें सत्य अच्छा नहीं लगता; अगर कोई मनुष्य सच बोले, तो झूठा (सुन के) जल-बल जाता है; झूठ का व्यापारी झूठ में ही प्रसन्न होता है, जैसे कौआ विष्टा खाता है (और खुश होता है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु हरि होइ क्रिपालु सो नामु धिआवई ॥ हरि गुरमुखि नामु अराधि कूड़ु पापु लहि जावई ॥१०॥

मूलम्

जिसु हरि होइ क्रिपालु सो नामु धिआवई ॥ हरि गुरमुखि नामु अराधि कूड़ु पापु लहि जावई ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अराधि = आराधना करके, स्मरण करके।
अर्थ: जिस मनुष्य पर हरि दयालु हो, वह नाम जपता है, अगर सतिगुरु के सन्मुख हो के हरि का नाम आराधें तो झूठ का पाप उतर जाता है।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ सेखा चउचकिआ चउवाइआ एहु मनु इकतु घरि आणि ॥ एहड़ तेहड़ छडि तू गुर का सबदु पछाणु ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ सेखा चउचकिआ चउवाइआ एहु मनु इकतु घरि आणि ॥ एहड़ तेहड़ छडि तू गुर का सबदु पछाणु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे (बातों में) आए हुए शेख! इस मन को ठिकाने पर ला, टेढ़ी-मेढ़ी बातें छोड़ और सतिगुरु के शब्द को समझ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर अगै ढहि पउ सभु किछु जाणै जाणु ॥ आसा मनसा जलाइ तू होइ रहु मिहमाणु ॥ सतिगुर कै भाणै भी चलहि ता दरगह पावहि माणु ॥

मूलम्

सतिगुर अगै ढहि पउ सभु किछु जाणै जाणु ॥ आसा मनसा जलाइ तू होइ रहु मिहमाणु ॥ सतिगुर कै भाणै भी चलहि ता दरगह पावहि माणु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे शेख! जो (सबका) जानकार सतिगुरु सब कुछ समझता है उसके चरणों में लग; आशाएं और मन की दौड़ मिटा के अपने आप को जगत में मेहमान समझ; अगर तू सतिगुरु की रजा में चलेगा तो ईश्वर की दरगाह में आदर पाएगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक जि नामु न चेतनी तिन धिगु पैनणु धिगु खाणु ॥१॥

मूलम्

नानक जि नामु न चेतनी तिन धिगु पैनणु धिगु खाणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य नाम नहीं स्मरण करते, उनका (अच्छा) खाना और (अच्छा) पहनना सब धिक्कार है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ हरि गुण तोटि न आवई कीमति कहणु न जाइ ॥ नानक गुरमुखि हरि गुण रवहि गुण महि रहै समाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ हरि गुण तोटि न आवई कीमति कहणु न जाइ ॥ नानक गुरमुखि हरि गुण रवहि गुण महि रहै समाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हरि के गुण बयान करते हुए वे गुण समाप्त नहीं होते, और ना ही ये बताया जा सकता है कि इन गुणों की कीमत क्या है; (पर) हे नानक! गुरमुख हरि के गुण गाते हैं। (जो मनुष्य प्रभु के गुण गाता है वह) गुणों में लीन हुआ रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि चोली देह सवारी कढि पैधी भगति करि ॥ हरि पाटु लगा अधिकाई बहु बहु बिधि भाति करि ॥ कोई बूझै बूझणहारा अंतरि बिबेकु करि ॥ सो बूझै एहु बिबेकु जिसु बुझाए आपि हरि ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि चोली देह सवारी कढि पैधी भगति करि ॥ हरि पाटु लगा अधिकाई बहु बहु बिधि भाति करि ॥ कोई बूझै बूझणहारा अंतरि बिबेकु करि ॥ सो बूझै एहु बिबेकु जिसु बुझाए आपि हरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (ये मानव) शरीर, जैसे, चोली है जो प्रभु ने बनाई है और भक्ति (-रूप का कसीदा) काढ़ के ये चोली पहनने योग्य बनती है। (इस चोली को) बहुत तरह के कई प्रकार के हरि-नाम के गोटे लगे हुए हैं; (इस भेद को) मन में विचार के कोई विरला ही समझने वाला समझता है। इस विचार को वही समझता है जिसे हरि खुद समझाए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनु नानकु कहै विचारा गुरमुखि हरि सति हरि ॥११॥

मूलम्

जनु नानकु कहै विचारा गुरमुखि हरि सति हरि ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति = सत्य, सदा स्थिर रहने वाला।
अर्थ: नानक दास ये विचार बताता है कि सदा स्थिर रहने वाला हरि गुरु के द्वारा (स्मरण किया जा सकता है)।11।

[[0647]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ परथाइ साखी महा पुरख बोलदे साझी सगल जहानै ॥ गुरमुखि होइ सु भउ करे आपणा आपु पछाणै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ता मन ही ते मनु मानै ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ परथाइ साखी महा पुरख बोलदे साझी सगल जहानै ॥ गुरमुखि होइ सु भउ करे आपणा आपु पछाणै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ता मन ही ते मनु मानै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साखी = शिक्षा का वचन।
अर्थ: महापुरुष किसी के संबंध में शिक्षा के वचन बोलते हैं (पर वह शिक्षा) सारे संसार के लिए सांझे होते हैं, जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख होते हैं, वह (सुन के) प्रभु का डर (हृदय में धारण) करते हैं, और अपने आप की खोज करते हैं (आत्म-विश्लेषण करते हैं)। सतिगुरु की कृपा से वे संसार में कार्य-व्यवहार करते हुए भी माया से उदास रहते हैं, और उनका मन अपने आप में पतीजा रहता है (बाहर भटकने से हट जाता है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ मन की परतीति नाही नानक से किआ कथहि गिआनै ॥१॥

मूलम्

जिन कउ मन की परतीति नाही नानक से किआ कथहि गिआनै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जिस का मन पतीजा नहीं, उनको ज्ञान की बातें करने का कोई लाभ नहीं होता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ गुरमुखि चितु न लाइओ अंति दुखु पहुता आइ ॥ अंदरहु बाहरहु अंधिआं सुधि न काई पाइ ॥ पंडित तिन की बरकती सभु जगतु खाइ जो रते हरि नाइ ॥ जिन गुर कै सबदि सलाहिआ हरि सिउ रहे समाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ गुरमुखि चितु न लाइओ अंति दुखु पहुता आइ ॥ अंदरहु बाहरहु अंधिआं सुधि न काई पाइ ॥ पंडित तिन की बरकती सभु जगतु खाइ जो रते हरि नाइ ॥ जिन गुर कै सबदि सलाहिआ हरि सिउ रहे समाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे पंडित! जिस मनुष्यों ने सतिगुरु के सन्मुख हो के (हरि में) मन नहीं जोड़ा, उन्हें आखिर दुख ही होता है। उन अंदर व बाहर के अंधों को कोई समझ नहीं आती। (पर) हे पंडित! जो मनुष्य हरि के नाम में रंगे हुए हैं, जिन्होंने सतिगुरु के शब्द के द्वारा महिमा की है और हरि में लीन हैं, उनकी कमाई की इनायत सारा संसार खाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंडित दूजै भाइ बरकति न होवई ना धनु पलै पाइ ॥ पड़ि थके संतोखु न आइओ अनदिनु जलत विहाइ ॥ कूक पूकार न चुकई ना संसा विचहु जाइ ॥ नानक नाम विहूणिआ मुहि कालै उठि जाइ ॥२॥

मूलम्

पंडित दूजै भाइ बरकति न होवई ना धनु पलै पाइ ॥ पड़ि थके संतोखु न आइओ अनदिनु जलत विहाइ ॥ कूक पूकार न चुकई ना संसा विचहु जाइ ॥ नानक नाम विहूणिआ मुहि कालै उठि जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूक पूकार = रोना चिल्लाना, गिले गुजारिश। संसा = संशय, तौख़ला। मुहि कालै = काले मुँह से, बदनामी कमा के।
अर्थ: हे पण्डित! माया के मोह में (फसे रहने से) इनायत नहीं हो सकती (आत्मिक जीवन फलता-फूलता नहीं) और ना ही नाम-धन मिलता है; पढ़-पढ़ के थक जाते हैं, पर संतोष नहीं आता और हर वक्त (उम्र) जलते हुए गुजरती है; उनकी गिला-गुजारिश खत्म नहीं होती और मन में से चिन्ता नहीं जाती। हे नानक! नाम से वंचित रहने के कारण मनुष्य काला मुँह ले के ही (संसार से) उठ जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि सजण मेलि पिआरे मिलि पंथु दसाई ॥ जो हरि दसे मितु तिसु हउ बलि जाई ॥ गुण साझी तिन सिउ करी हरि नामु धिआई ॥ हरि सेवी पिआरा नित सेवि हरि सुखु पाई ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि सजण मेलि पिआरे मिलि पंथु दसाई ॥ जो हरि दसे मितु तिसु हउ बलि जाई ॥ गुण साझी तिन सिउ करी हरि नामु धिआई ॥ हरि सेवी पिआरा नित सेवि हरि सुखु पाई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सजण = गुरमुख। मिलि = मिल के। पंथु = राह। दसाई = मैं पूछूँ। करी = मैं करूँ। धिआई = मैं स्मरण करूँ।
अर्थ: हे प्यारे हरि! मुझे गुरमुख मिला, जिनको मिल के मैं तेरा राह पूछूँ। जो मनुष्य मुझे हरि मित्र (की खबर) बताए, मैं उससे सदके हूँ। उनके साथ मैं गुणों की सांझ डालूँ और हरि का नाम स्मरण करूँ। मैं सदा प्यारे हरि को स्मरण करूँ और स्मरण करके सुख लूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिहारी सतिगुर तिसु जिनि सोझी पाई ॥१२॥

मूलम्

बलिहारी सतिगुर तिसु जिनि सोझी पाई ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं सदके हूँ उस सतिगुरु से जिसने (परमात्मा की) समझ बख्शी है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ पंडित मैलु न चुकई जे वेद पड़ै जुग चारि ॥ त्रै गुण माइआ मूलु है विचि हउमै नामु विसारि ॥ पंडित भूले दूजै लागे माइआ कै वापारि ॥ अंतरि त्रिसना भुख है मूरख भुखिआ मुए गवार ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ पंडित मैलु न चुकई जे वेद पड़ै जुग चारि ॥ त्रै गुण माइआ मूलु है विचि हउमै नामु विसारि ॥ पंडित भूले दूजै लागे माइआ कै वापारि ॥ अंतरि त्रिसना भुख है मूरख भुखिआ मुए गवार ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पण्डित की भी मैल दूर नहीं होती, चाहे चारों युगों तक वेद पढ़ता रहे (क्योंकि) तीन गुणों वाली माया (इस मैल का) कारण है, (जिसके कारण पंडित) अहंकार में नाम भुला देता है; भूले हुए पंडित माया के व्यापार में और माया के मोह में लगे हुए हैं, उनके अंदर तृष्णा है, भूख है, गवार मूर्ख भूले हुए ही मर गए है (चाहे धर्म-पुस्तकें पढ़ते हैं) (भाव, माया के लालच में रह के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि सेविऐ सुखु पाइआ सचै सबदि वीचारि ॥ अंदरहु त्रिसना भुख गई सचै नाइ पिआरि ॥ नानक नामि रते सहजे रजे जिना हरि रखिआ उरि धारि ॥१॥

मूलम्

सतिगुरि सेविऐ सुखु पाइआ सचै सबदि वीचारि ॥ अंदरहु त्रिसना भुख गई सचै नाइ पिआरि ॥ नानक नामि रते सहजे रजे जिना हरि रखिआ उरि धारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु के बताए हुए राह पर चलने से और सच्चे शब्द में विचार करने से सुख मिलता है; सच्चे नाम में प्यार करने से अंदर से तृष्णा और भूख दूर हो जाती है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में रंगे हुए हैं जिन्होंने हरि को हृदय में परोया हुआ है वे आत्मिक अडोलता में टिक के संतोषी हो गए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ मनमुख हरि नामु न सेविआ दुखु लगा बहुता आइ ॥ अंतरि अगिआनु अंधेरु है सुधि न काई पाइ ॥ मनहठि सहजि न बीजिओ भुखा कि अगै खाइ ॥ नामु निधानु विसारिआ दूजै लगा जाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ मनमुख हरि नामु न सेविआ दुखु लगा बहुता आइ ॥ अंतरि अगिआनु अंधेरु है सुधि न काई पाइ ॥ मनहठि सहजि न बीजिओ भुखा कि अगै खाइ ॥ नामु निधानु विसारिआ दूजै लगा जाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मनमुख ने हरि का नाम नहीं स्मरण किया, इसलिए बहुत दुखी होता है। उसके हृदय में अज्ञान (रूपी) अंधेरा होता है (इसलिए) उसे कुछ समझ नहीं आता। मन के हठ के कारण वह अडोल अवस्था में कुछ नहीं बीजता (नाम नहीं जपता), (इस आत्मिक खुराक से वंचित) भूखा आगे क्या खाएगा? (मनमुख) नाम-खजाना बिसार के माया में लगा हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक गुरमुखि मिलहि वडिआईआ जे आपे मेलि मिलाइ ॥२॥

मूलम्

नानक गुरमुखि मिलहि वडिआईआ जे आपे मेलि मिलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! सतिगुरु के सन्मुख हुए मनुष्यों को महिमा मिलती है अगर हरि खुद ही संगति में मिला ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि रसना हरि जसु गावै खरी सुहावणी ॥ जो मनि तनि मुखि हरि बोलै सा हरि भावणी ॥ जो गुरमुखि चखै सादु सा त्रिपतावणी ॥ गुण गावै पिआरे नित गुण गाइ गुणी समझावणी ॥ जिसु होवै आपि दइआलु सा सतिगुरू गुरू बुलावणी ॥१३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि रसना हरि जसु गावै खरी सुहावणी ॥ जो मनि तनि मुखि हरि बोलै सा हरि भावणी ॥ जो गुरमुखि चखै सादु सा त्रिपतावणी ॥ गुण गावै पिआरे नित गुण गाइ गुणी समझावणी ॥ जिसु होवै आपि दइआलु सा सतिगुरू गुरू बुलावणी ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो जीभ हरि का यश गाती है, वह बड़ी सुंदर लगती है। जो मन से तन से और मुँह से हरि का नाम बोलती है वह हरि को प्यारी लगती है, जो सतिगुरु के सन्मुख हो के स्वाद चखती है, वह तृप्त हो जाती है (भाव, वह जीभ और रसों की तरफ नहीं दौड़ती), प्यारे हरि के गुण सदा गाती है, और गुण गा के गुणवान (हरि) की (और लोगों को) शिक्षा देती है। जिस (जीभ) पे हरि खुद दयालु होता है, वह ‘गुरु गुरु’ जपती है।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ हसती सिरि जिउ अंकसु है अहरणि जिउ सिरु देइ ॥ मनु तनु आगै राखि कै ऊभी सेव करेइ ॥ इउ गुरमुखि आपु निवारीऐ सभु राजु स्रिसटि का लेइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ हसती सिरि जिउ अंकसु है अहरणि जिउ सिरु देइ ॥ मनु तनु आगै राखि कै ऊभी सेव करेइ ॥ इउ गुरमुखि आपु निवारीऐ सभु राजु स्रिसटि का लेइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। अंकसु = महावत का कुँडा। ऊभी = खड़े हो के, सचेत हो के। आपु = स्वै भाव, अपनत्व। निवारीऐ = दूर की जाती है।
अर्थ: जैसे हाथी के सिर कुंडा है और जैसे अहरण (वदान के नीचे) सिर देती है, वैसे ही शरीर और मन (सतिगुरु को) अर्पण करके सावधान हो के सेवा करो; सतिगुरु के सन्मुख होने से मनुष्य इस तरह स्वैभाव गवाता है और, मानो, सारी सृष्टि का राज ले लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक गुरमुखि बुझीऐ जा आपे नदरि करेइ ॥१॥

मूलम्

नानक गुरमुखि बुझीऐ जा आपे नदरि करेइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जब हरि खुद कृपा भरी नजर करता है तब सतिगुरु के सन्मुख हो के ये समझ आती है।1।

[[0648]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ जिन गुरमुखि नामु धिआइआ आए ते परवाणु ॥ नानक कुल उधारहि आपणा दरगह पावहि माणु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ जिन गुरमुखि नामु धिआइआ आए ते परवाणु ॥ नानक कुल उधारहि आपणा दरगह पावहि माणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (संसार में) आए वह मनुष्य स्वीकार हैं जिन्होंने सतिगुरु के बताए राह पर चल कर नाम स्मरण किया है; हे नानक! वह मनुष्य अपना कुल तार लेते हैं और खुद दरगाह में आदर पाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ गुरमुखि सखीआ सिख गुरू मेलाईआ ॥ इकि सेवक गुर पासि इकि गुरि कारै लाईआ ॥ जिना गुरु पिआरा मनि चिति तिना भाउ गुरू देवाईआ ॥ गुर सिखा इको पिआरु गुर मिता पुता भाईआ ॥ गुरु सतिगुरु बोलहु सभि गुरु आखि गुरू जीवाईआ ॥१४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ गुरमुखि सखीआ सिख गुरू मेलाईआ ॥ इकि सेवक गुर पासि इकि गुरि कारै लाईआ ॥ जिना गुरु पिआरा मनि चिति तिना भाउ गुरू देवाईआ ॥ गुर सिखा इको पिआरु गुर मिता पुता भाईआ ॥ गुरु सतिगुरु बोलहु सभि गुरु आखि गुरू जीवाईआ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु ने गुरमुख सिख (रूप) सहेलियां (आपस में) मिलाई हैं; उनमें से कई सतिगुरु के पास सेवा करती हैं, कईयों को सतिगुरु ने (और) कामों में लगाया हुआ है; जिनके मन में प्यारा गुरु बसता है, सतिगुरु उनको अपना प्यार बख्शता है, सतिगुरु का अपने सिखों मित्रों पुत्रों और भाईयों से एक जैसा ही प्यार होता है। (हे सिख सहेलियो!) सारे ही ‘गुरु गुरु’ कहो, ‘गुरु गुरु’ कहने से गुरु आत्मिक जीवन दे देता है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ नानक नामु न चेतनी अगिआनी अंधुले अवरे करम कमाहि ॥ जम दरि बधे मारीअहि फिरि विसटा माहि पचाहि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ नानक नामु न चेतनी अगिआनी अंधुले अवरे करम कमाहि ॥ जम दरि बधे मारीअहि फिरि विसटा माहि पचाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! अंधे अज्ञानी नाम नहीं स्मरण करते और-और ही काम करते रहते हैं, (नतीजा ये निकलता है कि) जम के दर पर बंधे हुए मार खाते हैं और फिर (विकार-रूपी) विष्टा में सड़ते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ नानक सतिगुरु सेवहि आपणा से जन सचे परवाणु ॥ हरि कै नाइ समाइ रहे चूका आवणु जाणु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ नानक सतिगुरु सेवहि आपणा से जन सचे परवाणु ॥ हरि कै नाइ समाइ रहे चूका आवणु जाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाइ = नाम में।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपने सतिगुरु की बताई हुई कार करते हैं वे मनुष्य सच्चे और स्वीकार हैं; वे हरि के नाम में लीन रहते हैं और उनका पैदा होना-मरना समाप्त हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ धनु स्मपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई ॥ घर मंदर महल सवारीअहि किछु साथि न जाई ॥ हर रंगी तुरे नित पालीअहि कितै कामि न आई ॥ जन लावहु चितु हरि नाम सिउ अंति होइ सखाई ॥ जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि सुखु पाई ॥१५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ धनु स्मपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई ॥ घर मंदर महल सवारीअहि किछु साथि न जाई ॥ हर रंगी तुरे नित पालीअहि कितै कामि न आई ॥ जन लावहु चितु हरि नाम सिउ अंति होइ सखाई ॥ जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि सुखु पाई ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संपै = दौलत। संचीऐ = इकट्ठा करते हैं। सवारीअहि = बनाते हैं। हर रंगी = हरेक किस्म के।
अर्थ: धन, दौलत और माया इकट्ठी की जाती है, पर आखिर को दुखदाई होती है; घर, मंदिर और महल बनाए जाते हैं, पर कुछ भी साथ नहीं जाता। कई रंगों के घोड़े सदा पाले जाते हैं, पर किसी काम नहीं आते। हे भाई सज्जनो! हरि के नाम से चिक्त जोड़ो, जो आखिर को साथी बने। हे दास नानक! जो मनुष्य नाम स्मरण करता है, वह सतिगुरु के सन्मुख रह के सुख पाता है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ बिनु करमै नाउ न पाईऐ पूरै करमि पाइआ जाइ ॥ नानक नदरि करे जे आपणी ता गुरमति मेलि मिलाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ बिनु करमै नाउ न पाईऐ पूरै करमि पाइआ जाइ ॥ नानक नदरि करे जे आपणी ता गुरमति मेलि मिलाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पूरी मेहर से ही हरि का नाम पाया जा सकता है, मेहर (कृपा) के बिना नाम नहीं मिलता; हे नानक! अगर हरि अपनी कृपा-दृष्टि करे, तो सतिगुरु की शिक्षा में लीन करके मिला लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ इक दझहि इक दबीअहि इकना कुते खाहि ॥ इकि पाणी विचि उसटीअहि इकि भी फिरि हसणि पाहि ॥ नानक एव न जापई किथै जाइ समाहि ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ इक दझहि इक दबीअहि इकना कुते खाहि ॥ इकि पाणी विचि उसटीअहि इकि भी फिरि हसणि पाहि ॥ नानक एव न जापई किथै जाइ समाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दझहि = जलाए जाते हैं। उसटीअहि = फेंके जाते हैं। हसणि = हसन में। हसण = वह सूखा कूँआं जिसमें पारसी अपने मुर्दों को रख के गिद्धों को खिला देते हैं। एव = इस तरह (भाव, जलाने, दबाने आदि से)। न जापई = पता नहीं लगता।
अर्थ: (मरने पर) कोई जलाए जाते हैं, कोई दबाए जाते हैं, एक को कुत्ते खाते हैं, कोई जल प्रवाह कर दिए जाते हैं और कोई सूखे कूँएं में रख दिए जाते हैं। पर, हे नानक! (शरीर के) जलाने-दबाने आदि से ये पता नहीं लग सकता कि रूहें कहाँ जा बसती हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तिन का खाधा पैधा माइआ सभु पवितु है जो नामि हरि राते ॥ तिन के घर मंदर महल सराई सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सेवक सिख अभिआगत जाइ वरसाते ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तिन का खाधा पैधा माइआ सभु पवितु है जो नामि हरि राते ॥ तिन के घर मंदर महल सराई सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सेवक सिख अभिआगत जाइ वरसाते ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य हरि के नाम रंग में रंगे हुए हैं, उनका माया का उपयोग, खाना-पहनना सब कुछ पवित्र है; उनके घर, मन्दिर, महल और सराएं सब पवित्र हैं, जिनमें गुरमुख सेवक सिख व अतिथि जा के सुख लेते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन के तुरे जीन खुरगीर सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सिख साध संत चड़ि जाते ॥ तिन के करम धरम कारज सभि पवितु हहि जो बोलहि हरि हरि राम नामु हरि साते ॥

मूलम्

तिन के तुरे जीन खुरगीर सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सिख साध संत चड़ि जाते ॥ तिन के करम धरम कारज सभि पवितु हहि जो बोलहि हरि हरि राम नामु हरि साते ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खुरगीर = (फारसी: ख़ू = गीर) पसीना जज़ब करने वाला, तारहू जो ज़ीन के नीचे पहना जाता है। तुरे = घोड़े। साते = सत्य, सदा स्थिर रहने वाला हरि।
अर्थ: उनके घोड़े, ज़ीनें, ताहरू सब पवित्र हैं, जिस पर गुरसिख साधु संत चढ़ते हैं; उनके काम-काज सब पवित्र हैं जो हर वक्त हरि का नाम उचारते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कै पोतै पुंनु है से गुरमुखि सिख गुरू पहि जाते ॥१६॥

मूलम्

जिन कै पोतै पुंनु है से गुरमुखि सिख गुरू पहि जाते ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पहले किए कर्मों के अनुसार) जिस के पल्ले (भले संस्कार रूप) पुण्य हैं, वे गुरसिख सिख सतिगुरु की शरण आते हैं।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ नानक नावहु घुथिआ हलतु पलतु सभु जाइ ॥ जपु तपु संजमु सभु हिरि लइआ मुठी दूजै भाइ ॥ जम दरि बधे मारीअहि बहुती मिलै सजाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ नानक नावहु घुथिआ हलतु पलतु सभु जाइ ॥ जपु तपु संजमु सभु हिरि लइआ मुठी दूजै भाइ ॥ जम दरि बधे मारीअहि बहुती मिलै सजाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरि लइआ = चुराया जाता है।
अर्थ: हे नानक! नाम से टूटे हुए का लोक-परलोक सब व्यर्थ जाता है; उनका जप तप और संजम सब छिन जाता है, और माया के मोह में (उनकी मति) ठगी जाती है; जम के द्वार पर बँधे हुए मार खाते हैं और (उनको) बहुत सज़ा मिलती है।

[[0649]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ संता नालि वैरु कमावदे दुसटा नालि मोहु पिआरु ॥ अगै पिछै सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ त्रिसना कदे न बुझई दुबिधा होइ खुआरु ॥ मुह काले तिना निंदका तितु सचै दरबारि ॥ नानक नाम विहूणिआ ना उरवारि न पारि ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ संता नालि वैरु कमावदे दुसटा नालि मोहु पिआरु ॥ अगै पिछै सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ त्रिसना कदे न बुझई दुबिधा होइ खुआरु ॥ मुह काले तिना निंदका तितु सचै दरबारि ॥ नानक नाम विहूणिआ ना उरवारि न पारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उरवारि = उरला पासा, इस लोक में।
अर्थ: निंदक मनुष्य संत-जनों से वैर करते हैं और दुर्जनों से मोह-प्यार रखते हैं; उन्हें लोक-परलोक में कहीं सुख नहीं मिलता, बार-बार दुविधा में ख्वार हो हो के, पैदा होते मरते हैं; उनकी तृष्णा कभी नहीं उतरती, हरि के सच्चे दरबार में उन निंदकों के मुँह काले होते हैं। हे नानक! नाम से टूटे हुए लोगों को ना इस लोक में ना ही परलोक में (आसरा मिलता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जो हरि नामु धिआइदे से हरि हरि नामि रते मन माही ॥ जिना मनि चिति इकु अराधिआ तिना इकस बिनु दूजा को नाही ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जो हरि नामु धिआइदे से हरि हरि नामि रते मन माही ॥ जिना मनि चिति इकु अराधिआ तिना इकस बिनु दूजा को नाही ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि चिति = मन से चिक्त से। मन चिक्त से पूरी लगन से।
अर्थ: जो मनुष्य हरि का नाम स्मरण करते हैं, वे अंदर से हरि-नाम में रंगे जाते हैं; जिन्होंने ऐकाग्रचिक्त हो के एक हरि को आराधा है, वे उसके बिना किसी और को नहीं जानते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेई पुरख हरि सेवदे जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाही ॥ हरि के गुण नित गावदे हरि गुण गाइ गुणी समझाही ॥ वडिआई वडी गुरमुखा गुर पूरै हरि नामि समाही ॥१७॥

मूलम्

सेई पुरख हरि सेवदे जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाही ॥ हरि के गुण नित गावदे हरि गुण गाइ गुणी समझाही ॥ वडिआई वडी गुरमुखा गुर पूरै हरि नामि समाही ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। गुणी = गुणों वाला प्रभु। नामि = नाम में।
अर्थ: (पिछले किए कर्मों के अनुसार) शुरू से ही जिनके माथे पर (संस्कार-रूप) लेख उकरे हुए हैं, वह मनुष्य हरि को जपते हैं; वे सदा हरि के गुण गाते हैं, गुण गा गा के गुणों के मालिक हरि की (और लोगों को) शिक्षा देते हैं। गुरमुखों में ये बड़ा गुण है कि पूरे सतिगुरु के द्वारा हरि के नाम में लीन होते हैं।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा गाखड़ी सिरु दीजै आपु गवाइ ॥ सबदि मरहि फिरि ना मरहि ता सेवा पवै सभ थाइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा गाखड़ी सिरु दीजै आपु गवाइ ॥ सबदि मरहि फिरि ना मरहि ता सेवा पवै सभ थाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु के हुक्म में चलना बड़ा मुश्किल काम है, सिर देना पड़ता है, और अहंकार गवा के (सेवा होती है); जो मनुष्य सतिगुरु की शिक्षा के द्वारा (संसार की ओर से) मरते हैं, वह फिर जनम मनण में नहीं रहते, उनकी सारी सेवा स्वीकार हो जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारस परसिऐ पारसु होवै सचि रहै लिव लाइ ॥ जिसु पूरबि होवै लिखिआ तिसु सतिगुरु मिलै प्रभु आइ ॥

मूलम्

पारस परसिऐ पारसु होवै सचि रहै लिव लाइ ॥ जिसु पूरबि होवै लिखिआ तिसु सतिगुरु मिलै प्रभु आइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य सच्चे नाम में तवज्जो जोड़े रखता है वह (मानो) पारस को छू के पारस ही हो जाता है। जिसके हृदय में आरम्भ से ही (संस्कार-रूप) लेख उकरा हो, उसको सतिगुरु और प्रभु मिलता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक गणतै सेवकु ना मिलै जिसु बखसे सो पवै थाइ ॥१॥

मूलम्

नानक गणतै सेवकु ना मिलै जिसु बखसे सो पवै थाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गणतै = अच्छे किए कर्मों का लेखा करने से।
अर्थ: हे नानक! लेखा करके सेवक (हरि को) नहीं मिल सकता, जिसको हरि बख्शता है, वही स्वीकार होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ महलु कुमहलु न जाणनी मूरख अपणै सुआइ ॥ सबदु चीनहि ता महलु लहहि जोती जोति समाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ महलु कुमहलु न जाणनी मूरख अपणै सुआइ ॥ सबदु चीनहि ता महलु लहहि जोती जोति समाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआइ = स्वार्थ के कारण। सुआउ = स्वार्थ।
अर्थ: मूर्ख अपनी गरज़ के कारण (सही) ठौर-ठिकाने को नहीं समझ पाते, (कि असल में गरज़ कहाँ पूरी हो सकेगी) अगर सतिगुरु के शब्द को खोजें तो हरि की ज्योति में तवज्जो जोड़ के (हरि की हजूरी-रूपी असली) ठिकाना तलाश लें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा सचे का भउ मनि वसै ता सभा सोझी पाइ ॥ सतिगुरु अपणै घरि वरतदा आपे लए मिलाइ ॥

मूलम्

सदा सचे का भउ मनि वसै ता सभा सोझी पाइ ॥ सतिगुरु अपणै घरि वरतदा आपे लए मिलाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपणै घरि = अपने स्वरूप में, प्रभु चरणों में।
अर्थ: अगर सच्चे हरि का डर (भाव, अदब) सदा मन में टिका रहे, तो ये सारी समझ आ जाती है कि सतिगुरु जो सदा अपने स्वरूप में टिका रहता है, खुद ही सेवक को मिला लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक सतिगुरि मिलिऐ सभ पूरी पई जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥

मूलम्

नानक सतिगुरि मिलिऐ सभ पूरी पई जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु अपनी रजा में मेहर करे, उसको सतिगुरु को मिल कर पूर्ण सफलता मिलती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ धंनु धनु भाग तिना भगत जना जो हरि नामा हरि मुखि कहतिआ ॥ धनु धनु भाग तिना संत जना जो हरि जसु स्रवणी सुणतिआ ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ धंनु धनु भाग तिना भगत जना जो हरि नामा हरि मुखि कहतिआ ॥ धनु धनु भाग तिना संत जना जो हरि जसु स्रवणी सुणतिआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: वे भक्त भाग्यशाली हैं जो मुँह से हरि का नाम उचारते हैं; उन संतो के बडैं भाग्य हैं जो हरि का यश कानों से सुनते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु धनु भाग तिना साध जना हरि कीरतनु गाइ गुणी जन बणतिआ ॥ धनु धनु भाग तिना गुरमुखा जो गुरसिख लै मनु जिणतिआ ॥

मूलम्

धनु धनु भाग तिना साध जना हरि कीरतनु गाइ गुणी जन बणतिआ ॥ धनु धनु भाग तिना गुरमुखा जो गुरसिख लै मनु जिणतिआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: उन साधु जनों के धन्य भाग हैं, जो हरि का कीर्तन करके खुद गुणवान बनते हैं; उन गुरमुखों के बड़े भाग्य हैं जो सतिगुरु की शिक्षा ले के अपने मन पर विजय पाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ दू वडे भाग गुरसिखा के जो गुर चरणी सिख पड़तिआ ॥१८॥

मूलम्

सभ दू वडे भाग गुरसिखा के जो गुर चरणी सिख पड़तिआ ॥१८॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस पउड़ी में बताया गया है असल भाग्यशाली वे मनुष्य हैं जो अपनी सियानप चतुराई छोड़ के गुरु के बताए हुए राह पर चलते हैं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सबसे बड़े भाग्य उन गुरसिखों के हैं, जो सतिगुरु के चरणों में पड़ते हैं (भाव, जो अहंम मिटा के गुरु की ओट लेते हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदै तिस दा ब्रहमतु रहै एक सबदि लिव लाइ ॥ नव निधी अठारह सिधी पिछै लगीआ फिरहि जो हरि हिरदै सदा वसाइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदै तिस दा ब्रहमतु रहै एक सबदि लिव लाइ ॥ नव निधी अठारह सिधी पिछै लगीआ फिरहि जो हरि हिरदै सदा वसाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिंदै = जानता है। ब्रहमु = परमात्मा। ब्रहमतु = ब्राहमण वाले लक्षण। एक सबदि = केवल शब्द में।
अर्थ: जो मनुष्य केवल गुरु शब्द में तवज्जो जोड़ के ब्रहम को पहचाने, उसका ब्राहमणपन बरकरार रहता है; जो मनुष्य हरि को दिल में बसाए, नौ-निधियां और अठारह सिद्धियां उसके पीछे लगी फिरती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ बुझहु करि वीचारु ॥ नानक पूरै भागि सतिगुरु मिलै सुखु पाए जुग चारि ॥१॥

मूलम्

बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ बुझहु करि वीचारु ॥ नानक पूरै भागि सतिगुरु मिलै सुखु पाए जुग चारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = करके।
अर्थ: विचार के समझो, सतिगुरु के बिना नाम नहीं मिलता, हे नानक! पूरे भाग्यों से जिसको सतिगुरु मिले वह चारों युगों में (अर्थात, हमेशा) सुख पाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ किआ गभरू किआ बिरधि है मनमुख त्रिसना भुख न जाइ ॥ गुरमुखि सबदे रतिआ सीतलु होए आपु गवाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ किआ गभरू किआ बिरधि है मनमुख त्रिसना भुख न जाइ ॥ गुरमुखि सबदे रतिआ सीतलु होए आपु गवाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीतलु = ठंडे, शांत, संतोखी। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। गुरमुखि = गुरु के हुक्म में चलने वाला मनुष्य।
अर्थ: जवान हो या वृद्ध- मनमुख की तृष्णा भूख दूर नहीं होती, सतिगुरु के सनमुख हुए मनुष्य शब्द में रंगे होने के कारण और अहंकार गवा के अंदर से संतोषी होते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंदरु त्रिपति संतोखिआ फिरि भुख न लगै आइ ॥ नानक जि गुरमुखि करहि सो परवाणु है जो नामि रहे लिव लाइ ॥२॥

मूलम्

अंदरु त्रिपति संतोखिआ फिरि भुख न लगै आइ ॥ नानक जि गुरमुखि करहि सो परवाणु है जो नामि रहे लिव लाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिपति = अघाना। जि = जो कुछ।
अर्थ: (उनका) हृदय तृप्ति के कारण संतोषी होता है, और फिर (उनको माया की) भूख नहीं लगती। हे नानक! गुरमुख मनुष्य जो कुछ करते हैं, वह स्वीकार होता है, क्योंकि वह नाम में तवज्जो जोड़े रखते हैं।2।

[[0650]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हउ बलिहारी तिंन कंउ जो गुरमुखि सिखा ॥ जो हरि नामु धिआइदे तिन दरसनु पिखा ॥ सुणि कीरतनु हरि गुण रवा हरि जसु मनि लिखा ॥ हरि नामु सलाही रंग सिउ सभि किलविख क्रिखा ॥ धनु धंनु सुहावा सो सरीरु थानु है जिथै मेरा गुरु धरे विखा ॥१९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हउ बलिहारी तिंन कंउ जो गुरमुखि सिखा ॥ जो हरि नामु धिआइदे तिन दरसनु पिखा ॥ सुणि कीरतनु हरि गुण रवा हरि जसु मनि लिखा ॥ हरि नामु सलाही रंग सिउ सभि किलविख क्रिखा ॥ धनु धंनु सुहावा सो सरीरु थानु है जिथै मेरा गुरु धरे विखा ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवा = उचारूँ। किलविख = पाप। क्रिखा = नाश कर दिया। विखा = कदम, पैर।
अर्थ: जो सिख सतिगुरु के सन्मुख हैं, मैं उनसे सदके हूँ। जो हरि-नाम स्मरण करते हैं (जी चाहता है) मैं उनके दर्शन करूँ, (उनसे) कीर्तन सुन के हरि के गुण गाऊँ और हरि-यश मन में उकर लूँ, प्रेम से हरि नाम की कीर्ति करूँ और (अपने) सारे पाप काट दूँ। वह शरीर-स्थल धन्य है, सुंदर है जहाँ प्यारा सतिगुरु पैर रखता है (भाव, आ के बसता है)।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ गुर बिनु गिआनु न होवई ना सुखु वसै मनि आइ ॥ नानक नाम विहूणे मनमुखी जासनि जनमु गवाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ गुर बिनु गिआनु न होवई ना सुखु वसै मनि आइ ॥ नानक नाम विहूणे मनमुखी जासनि जनमु गवाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।
अर्थ: सतिगुरु के बिना ना आत्मिक जीवन की समझ पड़ती है और ना ही सुख मन में बसता है; (गुरु के बिना) हे नानक! नाम से वंचित (रह के) मनमुख मानव-जन्म को व्यर्थ गवा जाएंगे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सिध साधिक नावै नो सभि खोजदे थकि रहे लिव लाइ ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइओ गुरमुखि मिलै मिलाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ सिध साधिक नावै नो सभि खोजदे थकि रहे लिव लाइ ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइओ गुरमुखि मिलै मिलाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिध = साधना में सिद्ध योगी। साधिक = अभ्यासी।
अर्थ: सभी सिद्ध और साधक नाम को ही खोजते तवज्जो जोड़-जोड़ के थक गए है; सतिगुरु के बिना किसी को नहीं मिला। सतिगुरु के सन्मुख होने से ही मनुष्य (प्रभु को) मिल सकता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु नावै पैनणु खाणु सभु बादि है धिगु सिधी धिगु करमाति ॥ सा सिधि सा करमाति है अचिंतु करे जिसु दाति ॥ नानक गुरमुखि हरि नामु मनि वसै एहा सिधि एहा करमाति ॥२॥

मूलम्

बिनु नावै पैनणु खाणु सभु बादि है धिगु सिधी धिगु करमाति ॥ सा सिधि सा करमाति है अचिंतु करे जिसु दाति ॥ नानक गुरमुखि हरि नामु मनि वसै एहा सिधि एहा करमाति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बादि = व्यर्थ। अचिंतु = चिन्ता रहित परमात्मा। गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके, गुरु की शरण पड़ के।
अर्थ: नाम के बिना खाना और पहनना सब व्यर्थ है, (अगर नाम नहीं तो) वह सिद्धि और करामात धिक्कार है; यही (उसकी) सिद्धि है और यही करामात है कि चिन्ता से रहित हरि उसको (नाम की) दाति बख्शे; हे नानक! ‘गुरु के सन्मुख हो के हरि का नाम मन में बसता है’ - यही सिद्धी और करामात होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हम ढाढी हरि प्रभ खसम के नित गावह हरि गुण छंता ॥ हरि कीरतनु करह हरि जसु सुणह तिसु कवला कंता ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हम ढाढी हरि प्रभ खसम के नित गावह हरि गुण छंता ॥ हरि कीरतनु करह हरि जसु सुणह तिसु कवला कंता ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवला = माया, लक्ष्मी। कंत = पति। कवलाकंत = माया का पति।
अर्थ: हम प्रभु-पति के ढाढी सदा प्रभु के गुणों के गीत गाते हैं; उस कमलापति प्रभु का ही कीर्तन करते हैं और यश सुनते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि दाता सभु जगतु भिखारीआ मंगत जन जंता ॥ हरि देवहु दानु दइआल होइ विचि पाथर क्रिम जंता ॥

मूलम्

हरि दाता सभु जगतु भिखारीआ मंगत जन जंता ॥ हरि देवहु दानु दइआल होइ विचि पाथर क्रिम जंता ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: प्रभु दाता है, सारा संसार भिखारी है, जीव-जंतु भिखारी हैं। पत्थरों के बीच में रहते कीड़ों पर दयाल हो के, हे हरि! तू दान देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि धनवंता ॥२०॥

मूलम्

जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि धनवंता ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे दास नानक! जिन्होंने सतिगुरु के सन्मुख हो के नाम स्मरण किया है, वह (असल) धनवान होते हैं।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ पड़णा गुड़णा संसार की कार है अंदरि त्रिसना विकारु ॥ हउमै विचि सभि पड़ि थके दूजै भाइ खुआरु ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ पड़णा गुड़णा संसार की कार है अंदरि त्रिसना विकारु ॥ हउमै विचि सभि पड़ि थके दूजै भाइ खुआरु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पढ़ना और विचारना संसार के काम (ही हो गए) है (भाव, और व्यावहारों की तरह ये भी एक व्यवहार ही बन गया है, पर) हृदय में तृष्णा और विकार (टिके ही रहते) हैं; अहंकार में सारे (पंडित) पढ़ पढ़ के थक गए है, माया के मोह में दुखी ही होते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो पड़िआ सो पंडितु बीना गुर सबदि करे वीचारु ॥ अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु ॥ गुण निधानु हरि पाइआ सहजि करे वीचारु ॥ धंनु वापारी नानका जिसु गुरमुखि नामु अधारु ॥१॥

मूलम्

सो पड़िआ सो पंडितु बीना गुर सबदि करे वीचारु ॥ अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु ॥ गुण निधानु हरि पाइआ सहजि करे वीचारु ॥ धंनु वापारी नानका जिसु गुरमुखि नामु अधारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बीना = समझदार। अंदरु = मन (शब्द ‘अंदरु’ और ‘अंदरि’ में र्फक याद रखें)। ततु = अस्लियत। मोख दुआरु = मुक्ति का दरवाजा। अधारु = आसरा। मोख = मोक्ष, (अहंकार, तृष्णा आदि विकारों से) मुक्ति। सहजि = आत्मिक अडोलता में। वीचारु = परमात्मा के गुणों की विचार। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य।
अर्थ: वह मनुष्य पढ़ा हुआ और समझदार पंण्डित है (भाव, उस मनुष्य को पण्डित समझो), जो अपने मन को खोजता है (अंदर से) हरि को पा लेता है और (तृष्णा से) बचने का रास्ता ढूँढ लेता है, जो गुणों के खजाने हरि को प्राप्त करता है और आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुणों में तवज्जो जोड़े रखता है। हे नानक! इस तरह सतिगुरु के सन्मुख हुए जिस मनुष्य का आसरा ‘नाम’ है, वह नाम का व्यापारी मुबारिक है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ विणु मनु मारे कोइ न सिझई वेखहु को लिव लाइ ॥ भेखधारी तीरथी भवि थके ना एहु मनु मारिआ जाइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ विणु मनु मारे कोइ न सिझई वेखहु को लिव लाइ ॥ भेखधारी तीरथी भवि थके ना एहु मनु मारिआ जाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कोई भी मनुष्य तवज्जो जोड़ के देख ले, मन को काबू किए बिना कोई सफल नहीं हुआ (भाव, किसी की मेहनत सफल नहीं हुई); भेस करने वाले (साधु भी) तीर्थों की यात्राएं करते थक गए हैं, (इस तरह भी) ये मन मारा नहीं जाता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि एहु मनु जीवतु मरै सचि रहै लिव लाइ ॥ नानक इसु मन की मलु इउ उतरै हउमै सबदि जलाइ ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि एहु मनु जीवतु मरै सचि रहै लिव लाइ ॥ नानक इसु मन की मलु इउ उतरै हउमै सबदि जलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु जी के सन्मुख होने से मनुष्य सच्चे हरि में तवज्जो जोड़े रखता है (इस लिए) उसका मन जीवित ही मरा हुआ है (भाव माया के व्यवहार करते हुए भी माया से उदास है)। हे नानक! इस मन की मैल इस तरह उतरती है कि (मन का) अहंकार (सतिगुरु के) शब्द में जलाया जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि हरि संत मिलहु मेरे भाई हरि नामु द्रिड़ावहु इक किनका ॥ हरि हरि सीगारु बनावहु हरि जन हरि कापड़ु पहिरहु खिम का ॥ ऐसा सीगारु मेरे प्रभ भावै हरि लागै पिआरा प्रिम का ॥ हरि हरि नामु बोलहु दिनु राती सभि किलबिख काटै इक पलका ॥ हरि हरि दइआलु होवै जिसु उपरि सो गुरमुखि हरि जपि जिणका ॥२१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि हरि संत मिलहु मेरे भाई हरि नामु द्रिड़ावहु इक किनका ॥ हरि हरि सीगारु बनावहु हरि जन हरि कापड़ु पहिरहु खिम का ॥ ऐसा सीगारु मेरे प्रभ भावै हरि लागै पिआरा प्रिम का ॥ हरि हरि नामु बोलहु दिनु राती सभि किलबिख काटै इक पलका ॥ हरि हरि दइआलु होवै जिसु उपरि सो गुरमुखि हरि जपि जिणका ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनका = किनका मात्र, थोड़ा सा। कापड़ु = कपड़ा, पोशक। खिम = खिमा। प्रिम का = प्रेम का (श्रृंगार)। किलबिख = पाप। जिणका = जीत जाता है।
अर्थ: हे मेरे भाई संत जनो! एक किनका मात्र (मुझे भी) हरि का नाम जपाओ। हे हरि जनो! हरि के नाम का श्रृंगार बनाओ, और क्षमा की पोशक पहनो। ऐसा श्रृंगार प्यारे हरि को अच्छा लगता है, हरि के प्रेम का श्रृंगार प्यारा लगता है। दिन-रात हरि का नाम स्मरण करो, एक पलक में सारे पाप कट जाएंगे। जिस गुरमुख पर हरि दयाल होता है वह हरि का स्मरण करके (संसार से) जीत के जाता है।21।

[[0651]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ जनम जनम की इसु मन कउ मलु लागी काला होआ सिआहु ॥ खंनली धोती उजली न होवई जे सउ धोवणि पाहु ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ जनम जनम की इसु मन कउ मलु लागी काला होआ सिआहु ॥ खंनली धोती उजली न होवई जे सउ धोवणि पाहु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खनंली = तेली के कोल्हू में फेरने वाला कपड़ा। धोवणि पाहु = धोने का प्रयत्न करो।
अर्थ: कई जन्मों की इस मन को मैल लगी हुई है इसलिए ये बहुत ही काला हुआ पड़ा है (सफेद नहीं हो सकता), जैसे तेली का कपड़ा धोने से सफेद नहीं होता चाहे सौ बार धोने का प्रयत्न करो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी जीवतु मरै उलटी होवै मति बदलाहु ॥ नानक मैलु न लगई ना फिरि जोनी पाहु ॥१॥

मूलम्

गुर परसादी जीवतु मरै उलटी होवै मति बदलाहु ॥ नानक मैलु न लगई ना फिरि जोनी पाहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! अगर गुरु की कृपा से मन जीवित ही मर जाए और मति (माया से) उलट जाए, तो भी मैल नहीं लगती और (मनुष्य) फिर जूनियों में भी नहीं पड़ता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ चहु जुगी कलि काली कांढी इक उतम पदवी इसु जुग माहि ॥

मूलम्

मः ३ ॥ चहु जुगी कलि काली कांढी इक उतम पदवी इसु जुग माहि ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: चारों युगों में कलियुग ही काला कहलाता है, पर इस युग में भी एक उत्तम पदवी (मिल सकती) है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि हरि कीरति फलु पाईऐ जिन कउ हरि लिखि पाहि ॥ नानक गुर परसादी अनदिनु भगति हरि उचरहि हरि भगती माहि समाहि ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि हरि कीरति फलु पाईऐ जिन कउ हरि लिखि पाहि ॥ नानक गुर परसादी अनदिनु भगति हरि उचरहि हरि भगती माहि समाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरति = महिमा। लिखि = लिख के। अनदिनु = हर रोज।
अर्थ: (वह पदवी ये है कि) जिनके हृदय में हरि (भक्ति रूपी लेख पिछली की कमाई के अनुसार) लिख देता है वह गुरमुख हरि की कीर्ति (रूपी) फल (इस युग में ही) प्राप्त करते हैं, और हे नानक! वे मनुष्य गुरु की कृपा से हर रोज हरि की भक्ति करते हैं और भक्ति में ही लीन हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि हरि मेलि साध जन संगति मुखि बोली हरि हरि भली बाणि ॥ हरि गुण गावा हरि नित चवा गुरमती हरि रंगु सदा माणि ॥ हरि जपि जपि अउखध खाधिआ सभि रोग गवाते दुखा घाणि ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि हरि मेलि साध जन संगति मुखि बोली हरि हरि भली बाणि ॥ हरि गुण गावा हरि नित चवा गुरमती हरि रंगु सदा माणि ॥ हरि जपि जपि अउखध खाधिआ सभि रोग गवाते दुखा घाणि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुखि = मुँह से। चवा = उचारूँ।
अर्थ: हे हरि! मुझे साधु जनों की संगति मिला, मैं मुँह से तेरे नाम की सुंदर बोली बोलूँ। हरि गुण गाऊँ और नित्य हरि का नाम उचारूँ और गुरु से मति ले के सदा हरि-रंग में रहूँ। हरि का भजन करके और (भजन-रूप) दवा खाने से सारे दुख दूर हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना सासि गिरासि न विसरै से हरि जन पूरे सही जाणि ॥ जो गुरमुखि हरि आराधदे तिन चूकी जम की जगत काणि ॥२२॥

मूलम्

जिना सासि गिरासि न विसरै से हरि जन पूरे सही जाणि ॥ जो गुरमुखि हरि आराधदे तिन चूकी जम की जगत काणि ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: उन हरि-जनों को सचमुच संपूर्ण समझो, जिन्हे सांस लेते हुए और खाते हुए (कभी भी) परमात्मा नहीं बिसरता; जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख हो के हरि को स्मरण करते हैं, उनके लिए जम की और जगत की अधीनता खत्म हो जाती है।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ रे जन उथारै दबिओहु सुतिआ गई विहाइ ॥ सतिगुर का सबदु सुणि न जागिओ अंतरि न उपजिओ चाउ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ रे जन उथारै दबिओहु सुतिआ गई विहाइ ॥ सतिगुर का सबदु सुणि न जागिओ अंतरि न उपजिओ चाउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उथारै = (सिंधी: उथाड़ो) कई बार सोते हुए हाथ छाती पर रखे जाने से जो दिल पर दबाव पड़ जाता है उसे सिंधी भाषा में उथाड़ो कहते हैं।
अर्थ: (मोह रूपी) उथारे से दबे हुए हे भाई! (तेरी उम्र) सोते ही गुजर गई है; सतिगुरु का शब्द सुन के तुझे जागृति नहीं आई और ना ही हृदय में (नाम जपने का) चाव पैदा हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरीरु जलउ गुण बाहरा जो गुर कार न कमाइ ॥ जगतु जलंदा डिठु मै हउमै दूजै भाइ ॥ नानक गुर सरणाई उबरे सचु मनि सबदि धिआइ ॥१॥

मूलम्

सरीरु जलउ गुण बाहरा जो गुर कार न कमाइ ॥ जगतु जलंदा डिठु मै हउमै दूजै भाइ ॥ नानक गुर सरणाई उबरे सचु मनि सबदि धिआइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलउ = जल जाए। उबरे = (अहंकार में जलने से) बच गए।
अर्थ: गुणों से वंचित शरीर जल जाए जो सतिगुरु के (बताए हुए) काम नहीं करता; (इस तरह का) संसार अहंकार में और माया के मोह में जलता देखा है। हे नानक! गुरु के शब्द के द्वारा हरि को मन में स्मरण करके (जीव) सतिगुरु की शरण पड़ कर (इस अहंकार में जलने से) बचते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सबदि रते हउमै गई सोभावंती नारि ॥ पिर कै भाणै सदा चलै ता बनिआ सीगारु ॥

मूलम्

मः ३ ॥ सबदि रते हउमै गई सोभावंती नारि ॥ पिर कै भाणै सदा चलै ता बनिआ सीगारु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिसका अहंकार सतिगुरु के शब्द में रंगे जाने से दुर हो जाता है वह (जीव रूपी) नारी शोभावंती है; वह नारी अपने प्रभु-पति के हुक्म में सदा चलती है, इसलिए उसका श्रृंगार सफल समझो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेज सुहावी सदा पिरु रावै हरि वरु पाइआ नारि ॥ ना हरि मरै न कदे दुखु लागै सदा सुहागणि नारि ॥ नानक हरि प्रभ मेलि लई गुर कै हेति पिआरि ॥२॥

मूलम्

सेज सुहावी सदा पिरु रावै हरि वरु पाइआ नारि ॥ ना हरि मरै न कदे दुखु लागै सदा सुहागणि नारि ॥ नानक हरि प्रभ मेलि लई गुर कै हेति पिआरि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति पा लिया है, उसकी (हृदय रूप) सेज सुंदर है, क्योंकि उसे सदा पति मिला हुआ है, वह स्त्री सदा सुहाग वाली है क्योंकि उसका पति प्रभु कभी मरता नहीं, (इसलिए) वह कभी दुखी नहीं होती। हे नानक! गुरु के प्यार में उसकी तवज्जो होने के कारण प्रभु ने अपने साथ मिलाया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिना गुरु गोपिआ आपणा ते नर बुरिआरी ॥ हरि जीउ तिन का दरसनु ना करहु पापिसट हतिआरी ॥ ओहि घरि घरि फिरहि कुसुध मनि जिउ धरकट नारी ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिना गुरु गोपिआ आपणा ते नर बुरिआरी ॥ हरि जीउ तिन का दरसनु ना करहु पापिसट हतिआरी ॥ ओहि घरि घरि फिरहि कुसुध मनि जिउ धरकट नारी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोपिआ = निंदा की है। आपणा = प्यारा। हरि जीउ = बल्ले, रब मेहर करे। पापिसट = बहुत पापी। कुसुध = खोटे। धरकट = व्यभचारन।
अर्थ: जो मनुष्य प्यारे सतिगुरु की निंदा करते हैं, वे बहुत बुरे हैं, रब मेहर ही करे! हे भाई! उनके दर्शन ना करो, वे बड़े पापी और हत्यारे हैं, मन से खोटे वे लोग व्यभचारी स्त्री की तरह घर-घर फिरते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागी संगति मिले गुरमुखि सवारी ॥ हरि मेलहु सतिगुर दइआ करि गुर कउ बलिहारी ॥२३॥

मूलम्

वडभागी संगति मिले गुरमुखि सवारी ॥ हरि मेलहु सतिगुर दइआ करि गुर कउ बलिहारी ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: भाग्यशाली मनुष्य सतिगुरु द्वारा निवाजी हुई गुरमुखों की संगति में मिलते हैं। हे हरि! मैं सदके हूँ सतिगुरु से, मेहर कर और सतिगुरु को मिला।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ गुर सेवा ते सुखु ऊपजै फिरि दुखु न लगै आइ ॥ जमणु मरणा मिटि गइआ कालै का किछु न बसाइ ॥ हरि सेती मनु रवि रहिआ सचे रहिआ समाइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ गुर सेवा ते सुखु ऊपजै फिरि दुखु न लगै आइ ॥ जमणु मरणा मिटि गइआ कालै का किछु न बसाइ ॥ हरि सेती मनु रवि रहिआ सचे रहिआ समाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु की सेवा से मनुष्य को सुख प्राप्त होता है, फिर कभी कष्ट नहीं होता, उसका जनम-मरण समाप्त हो जाता है और जमकाल का कुछ जोर (वश) नहीं चलता; हरि से उसका मन मिला रहता है और वह सच्चे में समाया रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक हउ बलिहारी तिंन कउ जो चलनि सतिगुर भाइ ॥१॥

मूलम्

नानक हउ बलिहारी तिंन कउ जो चलनि सतिगुर भाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! मैं उनसे सदके जाता हूँ, जो सतिगुरु के प्यार में चलते हैं।1।

[[0652]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ बिनु सबदै सुधु न होवई जे अनेक करै सीगार ॥ पिर की सार न जाणई दूजै भाइ पिआरु ॥ सा कुसुध सा कुलखणी नानक नारी विचि कुनारि ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ बिनु सबदै सुधु न होवई जे अनेक करै सीगार ॥ पिर की सार न जाणई दूजै भाइ पिआरु ॥ सा कुसुध सा कुलखणी नानक नारी विचि कुनारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सार = कद्र। दूजै भाइ = माया के प्यार में।
अर्थ: सतिगुरु के शब्द के बिना (जीव-स्त्री) चाहे बेअंत श्रृंगार करे शुद्ध नहीं हो सकती, (क्योंकि) वह पति की कद्र नहीं जानती और उसकी माया में तवज्जो होती है। हे नानक! ऐसी जीव-स्त्री मन की खोटी और बुरे लक्षणों वाली होती है और नारियों में वह बुरी नारि (कहलाती) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि हरि अपणी दइआ करि हरि बोली बैणी ॥ हरि नामु धिआई हरि उचरा हरि लाहा लैणी ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि हरि अपणी दइआ करि हरि बोली बैणी ॥ हरि नामु धिआई हरि उचरा हरि लाहा लैणी ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! अपनी मेहर कर, मैं तेरी वाणी (भाव, तेरा यश) उचारूँ, हरि का नाम स्मरण करूँ, हरि का नाम उच्चारण करूँ और यही लाभ कमाऊँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन हउ कुरबैणी ॥ जिना सतिगुरु मेरा पिआरा अराधिआ तिन जन देखा नैणी ॥

मूलम्

जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन हउ कुरबैणी ॥ जिना सतिगुरु मेरा पिआरा अराधिआ तिन जन देखा नैणी ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ, जो दिन रात हरि का नाम जपते हैं, उनको मैं अपनी आँखों से देखूँ जो प्यारे सतिगुरु की सेवा करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारिआ अपणे गुरू कउ जिनि मेरा हरि सजणु मेलिआ सैणी ॥२४॥

मूलम्

हउ वारिआ अपणे गुरू कउ जिनि मेरा हरि सजणु मेलिआ सैणी ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सैणी = रिश्तेदार।
अर्थ: मैं अपने सतिगुरु से सदके हूँ, जिसने मुझे प्यारा सज्जन प्रभु साथी मिला दिया है।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ४ ॥ हरि दासन सिउ प्रीति है हरि दासन को मितु ॥ हरि दासन कै वसि है जिउ जंती कै वसि जंतु ॥

मूलम्

सलोकु मः ४ ॥ हरि दासन सिउ प्रीति है हरि दासन को मितु ॥ हरि दासन कै वसि है जिउ जंती कै वसि जंतु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंतु = यंत्र, बाजा। जंती = बजाने वाला।
अर्थ: प्रभु की अपने सेवकों के साथ प्रीति होती है, प्रभु अपने सेवकों का मित्र है, जैसे बाजा बजाने वाले (वैजंत्री) के वश में होता है (जैसे चाहे बजाए) वैसे ही प्रभु अपने सेवकों के अधीन होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के दास हरि धिआइदे करि प्रीतम सिउ नेहु ॥ किरपा करि कै सुनहु प्रभ सभ जग महि वरसै मेहु ॥

मूलम्

हरि के दास हरि धिआइदे करि प्रीतम सिउ नेहु ॥ किरपा करि कै सुनहु प्रभ सभ जग महि वरसै मेहु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: प्रभु के सेवक अपने प्रीतम प्रभु से प्रेम जोड़ के प्रभु को स्मरण करते हैं, (और विनती करते हैं कि) हे प्रभु मेहर करके सुन, सारे संसार में (नाम की) बरखा हो (इस प्यार के कारण ही प्रभु अपने सेवकों को प्यार करता है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो हरि दासन की उसतति है सा हरि की वडिआई ॥ हरि आपणी वडिआई भावदी जन का जैकारु कराई ॥

मूलम्

जो हरि दासन की उसतति है सा हरि की वडिआई ॥ हरि आपणी वडिआई भावदी जन का जैकारु कराई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसतति = उपमा, बड़ाई। जैकारु = शोभा।
अर्थ: हरि के सेवकों की शोभा हरि की ही महिमा (स्तुति) है; हरि को अपनी ये बड़ाई (जो उसके सेवकों की होती है) अच्छी लगती है। (सो) वह अपने सेवक की जै-जैकार करवा देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो हरि जनु नामु धिआइदा हरि हरि जनु इक समानि ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि पैज रखहु भगवान ॥१॥

मूलम्

सो हरि जनु नामु धिआइदा हरि हरि जनु इक समानि ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि पैज रखहु भगवान ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक समानि = एक जैसे। पैज = इज्जत।
अर्थ: हरि का दास वह है जो हरि का नाम स्मरण करता है, हरि और हरि का सेवक एक-रूप हैं। हे हरि! हे भगवान! दास नानक तेरा सेवक है, (इस सेवक की भी) इज्जत रख (अपने नाम की दाति दे)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ४ ॥ नानक प्रीति लाई तिनि साचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥

मूलम्

मः ४ ॥ नानक प्रीति लाई तिनि साचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = रस में, स्वाद में। रसन = जीभ।
अर्थ: उस सच्चे हरि ने नानक के (हृदय में) प्रेम पैदा किया है, (अब) उस के बिना जीया नहीं जाता; (कैसे मिले?) सतिगुरु मिल जाए तो पूरा हरि प्राप्त हो जाता है और जीभ हरि के नाम के स्वाद में रस जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ रैणि दिनसु परभाति तूहै ही गावणा ॥ जीअ जंत सरबत नाउ तेरा धिआवणा ॥ तू दाता दातारु तेरा दिता खावणा ॥ भगत जना कै संगि पाप गवावणा ॥ जन नानक सद बलिहारै बलि बलि जावणा ॥२५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ रैणि दिनसु परभाति तूहै ही गावणा ॥ जीअ जंत सरबत नाउ तेरा धिआवणा ॥ तू दाता दातारु तेरा दिता खावणा ॥ भगत जना कै संगि पाप गवावणा ॥ जन नानक सद बलिहारै बलि बलि जावणा ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! रात दिन, अमृत के वक्त (सुबह) (भाव हर वक्त) तू ही गाने के योग्य है, सारे जीव-जंतु तेरा नाम स्मरण करते हैं, तू दातें देने वाला दातार है तेरा ही दिया हुआ खाते हैं, और भक्तों की संगति में अपने पाप दूर करते हैं। हे दास नानक! (उन भक्तजनों से) सदा सदके हो, कुर्बान हो।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ४ ॥ अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥ अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥ सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥ किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ४ ॥ अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥ अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥ सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥ किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधिम = हल्का, मध्यम, बुरी। कपटु = धोखा। सुआइ = स्वार्थ के लिए।
अर्थ: (मनमुख के) हृदय में अज्ञान है, (उसकी) अक्ल होछी होती है और सतिगुरु पर उसे सिदक नहीं होता; मन में धोखा (होने के कारण संसार में भी) वह सारा धोखा ही धोखा बरतता समझता है। (मनमुख बंदे खुद) दुखी होते हैं (तथा और लोगों को) दुखी करते रहते हैं; सतिगुरु का हुक्म उनके चिक्त में नहीं आता (भाव, भाणा नहीं मानते) और अपनी गरज़ के पीछे भटकते फिरते हैं; हे नानक! अगर हरि अपनी मेहर करे, तो ही वह गुरु के शब्द में लीन होते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ४ ॥ मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥ ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥ नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥

मूलम्

मः ४ ॥ मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥ ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥ नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विआपे = ग्रसे हुए। गुबारा = अंधेरा। निकटि = नजदीक।
अर्थ: माया के मोह में ग्रसित मनमुखों का मन माया के प्यार में एक जगह नहीं टिकता; हर वक्त दिन रात (माया में) जलते रहते हैं, अहंकार में आप दुखी होते हैं, और लोगों को दुखी करते हैं, उनके अंदर लोभ-रूपी बड़ा अंधेरा होता है, कोई मनुष्य उनके नजदीक नहीं फटकता, वह अपने आप ही दुखी रहते हैं, कभी सुखी नहीं होते, सदा पैदा होने मरने के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे नानक! अगर वे गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ें, तो सच्चा हरि उनको बख्श ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य प्रभु को प्यारे हैं, वे संत जन हैं, भक्त हैं, वही स्वीकार हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥ अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥ संत जना की धूरि मसतकि लाइआ ॥ नानक भए पुनीत हरि तीरथि नाइआ ॥२६॥

मूलम्

सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥ अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥ संत जना की धूरि मसतकि लाइआ ॥ नानक भए पुनीत हरि तीरथि नाइआ ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिचखण = विलक्ष्ण, विशिष्ट, समझदार। धिआइआ = स्मरण किया है। भोजन खाया = भाव, आत्मा का आसरा बनाया है (जैसे भोजन शरीर का आसरा है)। मसतकि = माथे पर। भए पुनीत = पवित्र हो गए है। नाइआ = नहाए हैं।
अर्थ: वही मनुष्य विलक्ष्ण हैं जो हरि का नाम स्मरण करते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम खाजाना रूपी भोजन करते हैं, और संतों की चरण-धूल अपने माथे पर लगाते हैं। हे नानक! (ऐसे मनुष्य) हरि (के भजन रूप) तीर्थ में नहाते हैं और पवित्र हो जाते हैं।26।

[[0653]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ४ ॥ गुरमुखि अंतरि सांति है मनि तनि नामि समाइ ॥ नामो चितवै नामु पड़ै नामि रहै लिव लाइ ॥ नामु पदारथु पाइआ चिंता गई बिलाइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ४ ॥ गुरमुखि अंतरि सांति है मनि तनि नामि समाइ ॥ नामो चितवै नामु पड़ै नामि रहै लिव लाइ ॥ नामु पदारथु पाइआ चिंता गई बिलाइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि तनि = मन से शरीर से। नामि = नाम में। नामो = नाम ही। बिलाइ गई = दूर हो गई।
अर्थ: अगर मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख है उसके अंदर ठंढ है और वह मन से तन से नाम में लीन रहता है, वह नाम ही चितवता है, नाम ही पढ़ता है और नाम में ही तवज्जो जोड़े रखता है, नाम (रूपी) सुंदर वस्तु पा के उसकी चिंताएं दूर हो जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै तिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामे रतिआ नामो पलै पाइ ॥१॥

मूलम्

सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै तिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामे रतिआ नामो पलै पाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पलै पाइ = मिलता है।
अर्थ: यदि गुरु मिल जाए तो नाम (हृदय में) अंकुरित होता है, तृष्णा दूर हो जाती है (माया की) सारी भूख दूर हो जाती है। हे नानक! नाम में रंगे जाने के कारण नाम ही (हृदय रूप) पल्ले में उकर जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ४ ॥ सतिगुर पुरखि जि मारिआ भ्रमि भ्रमिआ घरु छोडि गइआ ॥ ओसु पिछै वजै फकड़ी मुहु काला आगै भइआ ॥

मूलम्

मः ४ ॥ सतिगुर पुरखि जि मारिआ भ्रमि भ्रमिआ घरु छोडि गइआ ॥ ओसु पिछै वजै फकड़ी मुहु काला आगै भइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु परमेश्वर ने मारा है (भाव, जिसे रब के राह से बिल्कुल ही नफ़रत है) वह भ्रम में भटकता हुआ अपने ठिकाने से हिल जाता है। उसके पीछे लोग डुग्गी बजाते हैं और आगे (जहाँ भी जाता है) मुँह कालिख कमाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओसु अरलु बरलु मुहहु निकलै नित झगू सुटदा मुआ ॥ किआ होवै किसै ही दै कीतै जां धुरि किरतु ओस दा एहो जेहा पइआ ॥

मूलम्

ओसु अरलु बरलु मुहहु निकलै नित झगू सुटदा मुआ ॥ किआ होवै किसै ही दै कीतै जां धुरि किरतु ओस दा एहो जेहा पइआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरलु बरलु = अनाब शनाब, बकवास। झगू सुटदा = झाग गिराता (भाव, निंदा करता)। किरतु = पिछली की हुई कमाई।
अर्थ: उसके मुँह से निरी बकवास ही निकलती है और वह सदा निंदा करके दुखी होता रहता है। किसी के करने से कुछ होने वाला नहीं है (भाव, कोई उसे सद्बुद्धि नहीं दे सकता), क्योंकि धुर से ही (किए बुरे कर्मों के संस्कारों के तहत अब भी) ऐसी ही (भाव, निंदनीय) कमाई करनी पड़ रही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिथै ओहु जाइ तिथै ओहु झूठा कूड़ु बोले किसै न भावै ॥ वेखहु भाई वडिआई हरि संतहु सुआमी अपुने की जैसा कोई करै तैसा कोई पावै ॥ एहु ब्रहम बीचारु होवै दरि साचै अगो दे जनु नानकु आखि सुणावै ॥२॥

मूलम्

जिथै ओहु जाइ तिथै ओहु झूठा कूड़ु बोले किसै न भावै ॥ वेखहु भाई वडिआई हरि संतहु सुआमी अपुने की जैसा कोई करै तैसा कोई पावै ॥ एहु ब्रहम बीचारु होवै दरि साचै अगो दे जनु नानकु आखि सुणावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: वह (मनमुख) जहाँ भी जाता है वहीं झूठा होता है, झूठ बोलता है और किसी को अच्छा नहीं लगता। हे संत जनो! प्यारे मालिक प्रभु की महिमा देखो, कि जैसी कोई कमाई करता है, वैसा ही उसे फल मिलता है। ये सच्ची विचार सच्ची दरगाह में होती है, दास नानक पहले ही तुम्हें ये कह के सुना रहा है (ताकि भले बीज बीज के भले फल की आशा की जा सके)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ गुरि सचै बधा थेहु रखवाले गुरि दिते ॥ पूरन होई आस गुर चरणी मन रते ॥ गुरि क्रिपालि बेअंति अवगुण सभि हते ॥ गुरि अपणी किरपा धारि अपणे करि लिते ॥ नानक सद बलिहार जिसु गुर के गुण इते ॥२७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ गुरि सचै बधा थेहु रखवाले गुरि दिते ॥ पूरन होई आस गुर चरणी मन रते ॥ गुरि क्रिपालि बेअंति अवगुण सभि हते ॥ गुरि अपणी किरपा धारि अपणे करि लिते ॥ नानक सद बलिहार जिसु गुर के गुण इते ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थेहु = सत्संग रूप गाँव। गुरि = गुरु ने। हते = नाश कर दिए। इते = इतने।
अर्थ: सच्चे सतिगुरु ने (सत्संग रूप) गाँव बसाया है, (उस गाँव के लिए सत्संगी) रखवाले भी सतिगुरु ने ही दिए हैं, जिनके मन गुरु के चरणों में जुड़े हैं, उनकी आस पूरी हो गई है (भाव, तृष्णा मिट गई है); दयालु और बेअंत गुरु ने उनके सारे पाप नाश कर दिए हैं; अपनी मेहर करके सतिगुरु ने उनको अपना बना लिया है। हे नानक! मैं सदा उस सतिगुरु से सदके हूँ, जिसमें इतने गुण हैं।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः १ ॥ ता की रजाइ लेखिआ पाइ अब किआ कीजै पांडे ॥ हुकमु होआ हासलु तदे होइ निबड़िआ हंढहि जीअ कमांदे ॥१॥

मूलम्

सलोक मः १ ॥ ता की रजाइ लेखिआ पाइ अब किआ कीजै पांडे ॥ हुकमु होआ हासलु तदे होइ निबड़िआ हंढहि जीअ कमांदे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रजाइ = रजा में। पाइ = पा के। पांडे = हे पण्डित! हंढहि = फिरते हैं। जीअ = जीव।
अर्थ: हे पण्डित! इस वक्त (झुरने से) कुछ नहीं बनता; प्रभु की रजा में (अपने ही पिछले किए के अनुसार) लिखे (लेख) मिलते हैं; जब प्रभु का हुक्म हुआ तब ये फैसला हुआ और (उस लेख के अनुसार) जीव (करम) कमाते फिरते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः २ ॥ नकि नथ खसम हथ किरतु धके दे ॥ जहा दाणे तहां खाणे नानका सचु हे ॥२॥

मूलम्

मः २ ॥ नकि नथ खसम हथ किरतु धके दे ॥ जहा दाणे तहां खाणे नानका सचु हे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नकि = नाक में। हथि = हाथ में। दे = देता है।
अर्थ: हे नानक! जीव के नाक में (रजा की) नाथ (नकेल) है जो खसम प्रभु के (अपने) हाथ में है, पिछले किए हुए कर्मों के अनुसार बना हुआ स्वभाव (निहित कर्म) धक्के दे के चला रहे हैं। सच ये है कि जहाँ जीव का दाना-पानी होता है वहाँ खाना पड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सभे गला आपि थाटि बहालीओनु ॥ आपे रचनु रचाइ आपे ही घालिओनु ॥ आपे जंत उपाइ आपि प्रतिपालिओनु ॥ दास रखे कंठि लाइ नदरि निहालिओनु ॥ नानक भगता सदा अनंदु भाउ दूजा जालिओनु ॥२८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सभे गला आपि थाटि बहालीओनु ॥ आपे रचनु रचाइ आपे ही घालिओनु ॥ आपे जंत उपाइ आपि प्रतिपालिओनु ॥ दास रखे कंठि लाइ नदरि निहालिओनु ॥ नानक भगता सदा अनंदु भाउ दूजा जालिओनु ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहालीओनु = उस प्रभु ने खुद कायम की हैं। घलिओनु = उस (हरि) ने नाश किया है। प्रतिपालिओनु = उस ने (हरेक जीव को) पाला है। निहालिओनु = उसने देखा है। जालिओनु = उसने जलाया है।
अर्थ: प्रभु ने खुद ही सारे (जगत की) विउंते बना के कायम की हैं; खुद ही संसार की रचना करके खुद ही नाश करता है; खुद ही जीवों को पैदा करता है और खुद ही पालता है; खुद ही अपने सेवकों को गले से लगा के रखता है, खुद ही मेहर की नजर से देखता है। हे नानक! भक्तों को सदा प्रसन्नता रहती है, (क्योंकि) उनका माया का प्यार उस प्रभु ने खुद जला दिया है।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ ए मन हरि जी धिआइ तू इक मनि इक चिति भाइ ॥ हरि कीआ सदा सदा वडिआईआ देइ न पछोताइ ॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ ए मन हरि जी धिआइ तू इक मनि इक चिति भाइ ॥ हरि कीआ सदा सदा वडिआईआ देइ न पछोताइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से। इक चिति = एक चिक्त से। भाइ = प्रेम से। देइ = देता है।
अर्थ: हे मन! प्यार से एकाग्रचिक्त हो के हरि का स्मरण कर; हरि में ये हमेशा के लिए गुण हैं कि दातें दे के पछताता नहीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ हरि कै सद बलिहारणै जितु सेविऐ सुखु पाइ ॥ नानक गुरमुखि मिलि रहै हउमै सबदि जलाइ ॥१॥

मूलम्

हउ हरि कै सद बलिहारणै जितु सेविऐ सुखु पाइ ॥ नानक गुरमुखि मिलि रहै हउमै सबदि जलाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं हरि से सदा कुर्बान हूँ, जिसकी सेवा करने से सुख मिलता है; हे नानक! गुरमुख जन अहंकार को सतिगुरु के शब्द के द्वारा जला के हरि में मिले रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ आपे सेवा लाइअनु आपे बखस करेइ ॥ सभना का मा पिउ आपि है आपे सार करेइ ॥

मूलम्

मः ३ ॥ आपे सेवा लाइअनु आपे बखस करेइ ॥ सभना का मा पिउ आपि है आपे सार करेइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाइअन = लगाए है उस (हरि) ने। सार = संभाल।
अर्थ: हरि ने खुद ही मनुष्यों को सेवा में लगाया है, खुद ही बख्शिश करता है, खुद ही सबका माँ-बाप है और खुद ही सबकी संभाल करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक नामु धिआइनि तिन निज घरि वासु है जुगु जुगु सोभा होइ ॥२॥

मूलम्

नानक नामु धिआइनि तिन निज घरि वासु है जुगु जुगु सोभा होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे अपने ठिकाने पर टिके हुए हैं, हरेक युग में उनकी शोभा होती है।2।

[[0654]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तू करण कारण समरथु हहि करते मै तुझ बिनु अवरु न कोई ॥ तुधु आपे सिसटि सिरजीआ आपे फुनि गोई ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तू करण कारण समरथु हहि करते मै तुझ बिनु अवरु न कोई ॥ तुधु आपे सिसटि सिरजीआ आपे फुनि गोई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोई = नाश की है।
अर्थ: हे कर्तार! तू सारी कुदरत का रचयता है; तेरे बिना तेरे जितना कोई और मुझे नहीं दिखता; तू खुद ही सृष्टि को पैदा करता है और खुद ही फिर नाश करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु इको सबदु वरतदा जो करे सु होई ॥ वडिआई गुरमुखि देइ प्रभु हरि पावै सोई ॥

मूलम्

सभु इको सबदु वरतदा जो करे सु होई ॥ वडिआई गुरमुखि देइ प्रभु हरि पावै सोई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदु = हुक्म। सभु = हर जगह।
अर्थ: हर जगह (हरि का) ही हुक्म बरत रहा है; जो वह करता है वही होता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है उसे प्रभु महिमा बख्शता है, वह उस हरि को मिल लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि नानक आराधिआ सभि आखहु धंनु धंनु धंनु गुरु सोई ॥२९॥१॥ सुधु

मूलम्

गुरमुखि नानक आराधिआ सभि आखहु धंनु धंनु धंनु गुरु सोई ॥२९॥१॥ सुधु

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे।
अर्थ: हे नानक! गुरु के सन्मुख (होने वाले) मनुष्य हरि को स्मरण करते हैं, (हे भाई!) सभी कहो, कि वह सतिगुरु धन्य है, धन्य है, धन्य है।29।1। सुधु।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु सोरठि बाणी भगत कबीर जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु सोरठि बाणी भगत कबीर जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥ ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥

मूलम्

बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥ ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूए = मर गए, खप गए, जीवन व्यर्थ गवा गए। नाई = निव निव के, झुक झुक के, पश्चिम की ओर सजदे कर करके, रब को काबे में ही समझ के। ओइ = उन (हिन्दुओं) ने। ले = ले के, (अपने मुर्दे) ले के। जारे = जलाए। गाडे = दबा दिए। गति = (संस्कृत का शब्द है) 1.condition, state 2. knowledge, wisdom हालत, ऊँची आत्मिक अवस्था। दुहू = दोनों ने, ना हिन्दुओं और ना मुसलमानों ने।1।
अर्थ: हिन्दू लोग मूर्तियों की पूजा कर करके दुखी हो रहे हैं, मुसलमान (ख़ुदा को मक्के में समझ के उधर) सजदे किए जा रहे हैं, हिन्दुओं ने अपने मुर्दे जला दिए और मुसलमानों ने दबा दिए (इसी बात पर झगड़ते रहे कि सच्चा कौन है)। (हे प्रभु!) तू कैसा है? - ये बात दोनों पक्षों के समझ में ना आई।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे संसारु अंध गहेरा ॥ चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे संसारु अंध गहेरा ॥ चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहेरा = गहरा (खाता)। अंध = अंधा। दिस = दिशा, तरफ। जेवरा = जेवरी, रस्सी, फाही।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (अज्ञानता के कारण) स्मरण से टूट के जगत एक गहरा अंधकार बना हुआ है, और चारों तरफ जमों की जंजीरें बिखरी हुई हैं (भाव, लोग बार बार वही काम कर रहे हैं जिनसे और ज्यादा अज्ञानता में फसते जाएं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥ जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥

मूलम्

कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥ जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कबित = कविता। कबिता = कवि लोक। कपड़ = कापड़ी फिरके के लोग, फटे कपड़ों की गुदड़ी पहनने वाले। केदारा = केदार नाथ नामक हिमालय पर्वत में एक हिन्दू तीर्थ जो रियासत गढ़वाल (उक्तर प्रदेश) में रुद्र हिमालय की बर्फानी धारा में महा पंथ की चोटी के नीचे एक टीले पर स्थित है। यहाँ सदा-शिव का मंदिर है, जिसमें भैंसे की शकल का महादेव है। पांडवों से हार खा के शिव जी यहाँ भैंसे की शकल में आए। इनहि = इन लोगों ने भी।2।
अर्थ: (विद्वान) कवि जन अपनी-अपनी कविता रचना पढ़ने (अर्थात, विद्या के गुमान) में ही मस्त हैं, कापड़ी (आदि) साधु केदार नाथ (आदि) तीर्थों पर जा जा के जीवन व्यर्थ गवाते हैं; योगी जटा रख रख के यही समझते रहे कि यही रास्ता ठीक है। पर, (हे प्रभु!) तेरे बारे में इन लोगों को भी कोई समझ नहीं पड़ी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥ बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥

मूलम्

दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥ बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरबु = द्रव्य, धन। संचि = इकट्ठी करके। गडि ले = दबाए रखे। कंचन भारी = सोने के भार, सोने के ढेर। नारी = नारियां।3।
अर्थ: राजे धन संचित कर कर के उम्र गवा गए, उन्होंने सोने (आदि) के ढेर (भाव, खजाने) धरती में दबा दिए, पण्डित लोग वेद-पाठी होने के अहंकार में खपते हैं, और स्त्रीयां (शीशें में) अपना रूप देखने में ही जिंदगी व्यर्थ गवा रही हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥ हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥

मूलम्

राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥ हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिगूते = दुखी हुए, ख्वार हुए। निरख = (संस्कृत में निरीक्ष्य) ध्यान से देख के, निर्णय करके। सरीरा = शरीर में, अपने अंदर। गति = उच्च आत्मिक अवस्था, ज्ञान, समझ।4।
अर्थ: अपने-अपने अंदर झाँक के देख लो, परमात्मा के नाम का स्मरण किए बिना सब जीव दुखी हो रहे हैं। कबीर शिक्षाप्रद बात कहता है कि परमात्मा के नाम के बिना किसी को (जीवन की) सही समझ नहीं पड़ती।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: स्मरण के बिना जीवन व्यर्थ है। स्मरण-हीन लोगों के लिए ये जगत एक अंधा खाता है, उनके कर्म ही उनके लिए और जंजाल का काम करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥ काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥

मूलम्

जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥ काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जरीऐ = जलाते हैं। भसम = राख। तनु = शरीर। रहै = (अगर कब्र में) टिका रहे। किरम = कीड़े। खाई = खा जाता है। गागरि = घड़े में। नीरु = पानी। परतु है = पड़ता है (और निकल जाता है)। इहै = ये ही। बडाई = महत्वतता, मान, फखर।1।
अर्थ: (मरने के बाद) अगर शरीर (चिखा में) जला दिया जाए तो ये राख हो जाता है, अगर (कब्र में) टिका रहे तो कीड़ियों का दल इसे खा जाता है। (जैसे) कच्चे घड़े में पानी डाला जाता है (तो घड़ा गल जाता है और पानी बाहर निकल जाता है वैसे ही सांसें समाप्त हो जाने पर शरीर में से जीवात्मा निकल जाती है, सो,) इस शरीर का इतना सा ही माण है (जितना कि कच्चे घड़े का)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥ जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥ जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फूलिआ फूलिआ = अहंकार में मस्त हुआ। मास = महीने। उरध मुख = उल्टे मुँह। सो दिन = वह समय।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! तू किस बात पे अहंकार में अफरा फिरता है? तूझे वह समय क्यों भूल गया जब तू (माँ के पेट में) दस महीने उल्टा लटका हुआ था?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥ मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥

मूलम्

जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥ मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधु = शहद। सठोरि = सठोर ने (संस्कृत: शठ = a rogue, a fool) मूर्ख ने, ठग ने। जिउ…जीआ = जिउ माखी रसु जोरि जोरि मधु कीआ, तिउ सठोरि जोरि जोरि धनु कीआ, जैसे मक्खी ने फूलों का रस जोड़ जोड़ के शहद एकत्र किया (और ले गए और लोग), वैसे ही मूर्ख कंजूसी से धन जोड़ा। लेहु लेहु = लो, ले चलो। भूतु = गुजर चुका प्राणी, मुर्दा।2।
अर्थ: जैसे मक्खी (फूलों का) रस जोड़ जोड़ के शहद इकट्ठा करती है, वैसे ही मूर्ख बँदे ने कंजूसी कर करके धन जोड़ा (पर, आखिर वह बेगाना ही हो गया)। मौत आई, तो सब यही कहते हैं: ले चलो, ले चलो, अब ये बीत चुका है, ज्यादा समय घर रखने का कोई लाभ नहीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥ मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥

मूलम्

देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥ मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देहुरी = घर की बाहरी दहलीज। लउ = तक। बरी नारि = बहू। संगि भई = साथ हुई, साथ गई। मरघट = मसाण। कुटंबु = परिवार। हंसु = आत्मा।3।
अर्थ: घर की (बाहरी) दहलीज तक पत्नी (उस मुर्दे के) साथ जाती है, आगे सज्जन-मित्र उठा लेते हैं, मसाणों तक परिवार के व अन्य लोग जाते हैं, पर परलोक में तो जीवात्मा अकेली ही जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥ झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥

मूलम्

कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥ झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूआ = कूँआं। काल ग्रस कूआ = वह कूआँ जिसे मौत ने घेरा हुआ है। आपु = अपने आप को। नलनी = तोते को पकड़ने के लिए बनाई गई नलकी। भ्रमि = भ्रम में, डर में, डूबने के डर में। सूआ = तोता।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे बँदे! सुन, तू उस कूएं में गिरा पड़ा है जिसे मौत ने घेरा डाल रखा है (भाव, मौत अवश्य आती है)। पर, तूने अपने आप को इस माया से बाँध रखा है जिसने साथ नहीं निभाना, जैसे तोता मौत के डर से अपने आप को नलिनी से चिपकाए रखता है।4।2।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: नलिनी से चिपकना ही तोते के लिए जंजीर का कारण बनता है, माया से चिपके रहना मनुष्य की आत्मक मौत का कारण बनता है)

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: माया का गुमान झूठा है। किसी भी चीज से साथ नहीं निभता। माया का मोह बल्कि मनुष्य की आत्मिक मौत का कारण बनता है, जैसे नलिनी के साथ चिपकने से तोता बेगानी कैद में फसता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥ काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥

मूलम्

बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥ काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करी = (जिस समझदार लोगों ने) की। करम = कर्मकांड। ग्रसत = ग्रसित। काल ग्रसत = मौत के डर में ग्रसे हुए। पै = भी। निरासा = आशा पूरी हुए बिना भी।1।
अर्थ: जिस समझदार लोगों ने वेद-पुराण आदि के सारे मत सुन-सुन के कर्मकांड की आस रखी, (ये आशा रखी कि कर्मकांड से जीवन सँवरेगा), वे सारे (आत्मिक) मौत में ग्रसे ही रहे। पंडित लोग भी आशा पूरी हुए बिना ही उठ के चले गए (जगत त्याग गए)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे सरिओ न एकै काजा ॥ भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे सरिओ न एकै काजा ॥ भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरिओ न = सिरे नहीं चढ़ा। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तूने प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का भजन नहीं किया, तुझसे ये एक काम भी (जो करने वाला था) नहीं हो सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥ नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥

मूलम्

बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥ नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बन खंड = जंगलों में। जाइ = जा के। कंद मूलु = गाजर मूली आदि। नादी = जोगी। बेदी = कर्म काण्डी। सबदी = ‘अलख’ कहने वाले दक्त मत के जोगी। मोनी = चुप्पी साधने वाले, समाधि में टिकने वाले। पटै = लेखे में।2।
अर्थ: कई लोगों ने जंगलों में जा के योग साधना की, तप किए, गाजर-मूली आदि चुन-खा के गुजारा किया; जोगी, कर्म काण्डी, ‘अलख’ कहने वाले जोगी, मोनधारी- ये सारे जम के लेखे में ही लिखे गए (भाव, इनके साधन मौत के डर से बचा नहीं सकते)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥ राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥

मूलम्

भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥ राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति नारदी = प्रेमा भक्ति। तनु काछि कूछि दीना = शरीर को श्रृंगार लिया, शरीर पर चक्र आदि बना लिए। डिंभ = पाखण्ड। उनि = उस ऐसे मनुष्य ने।3।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने शरीर पर तो (धार्मिक चिन्ह) चक्र आदि लगा लिए हैं, पर प्रेमा-भक्ति उसके हृदय में पैदा नहीं हुई, राग-रागनियां तो गाता है पर निरी पाखण्ड की मूर्ति ही बना बैठा है, ऐसे मनुष्य को परमात्मा से कुछ नहीं मिलता।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥ कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥

मूलम्

परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥ कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महि = बीच में ही। भ्रम गिआनी = भरमी ज्ञानी। खालसे = आजाद। जिह = जिन्होंने।4।
अर्थ: सारे जगत पर काल का सहम पड़ा हुआ है, भरमी-ज्ञानी भी उसी ही लेखे में लिखे गए हैं (वे भी मौत के सहम में ही हैं)। हे कबीर! कह: जिस मनुष्यों ने प्रेमा-भक्ति करनी समझ ली है वह (मौत के सहम से) आजाद हो गए हैं।4।3।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: परमात्मा का भजन ही मनुष्य के करने के योग्य काम है। यही मौत के सहम से बचाता है। कर्मकांड, जोग, तप आदि स्मरण के मुकाबले में तुच्छ हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरु २ ॥ दुइ दुइ लोचन पेखा ॥ हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥ नैन रहे रंगु लाई ॥ अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥

मूलम्

घरु २ ॥ दुइ दुइ लोचन पेखा ॥ हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥ नैन रहे रंगु लाई ॥ अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुइ दुइ लोचन = दोनों आँखों से (भाव, अच्छी तरह, आँखें खोल के)। पेखा = देखूँ। हउ = मैं। अउरु = कोई और, किसी और को। न देखा = न देखूँ, मैं नहीं देखता। नैन = आँखें। रंगु = प्यार। रहे लाई = लगा रहे हैं। बे गल = कोई और बात।1।
अर्थ: (अब तो) मैं (जिधर) आँखें खेल के देखता हूँ, मुझे परमात्मा के बिना कोई और (पराया) दिखता ही नहीं, मेरी आँखें (प्रभु से) प्यार लगाए बैठी हैं (मुझे हर तरफ प्रभु ही दिखता है), अब मुझसे कोई और बात नहीं होती (भाव, मैं अब ये कहने के लायक नहीं रहा कि प्रभु के बिना कोई और भी कहीं है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥ जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥ जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमु = भुलेखा। रहाउ।
अर्थ: जब से मेरा चिक्त परमात्मा के नाम में लग गया है, मेरा भुलेखा दूर हो गया है (कि प्रभु के बिना कोई और हस्ती भी जगत में है; इस भुलेखे के दूर होने से) अब कोई डर नहीं रह गया (क्योंकि डर तो किसी ऊपर वाले से ही हो सकता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाजीगर डंक बजाई ॥ सभ खलक तमासे आई ॥ बाजीगर स्वांगु सकेला ॥ अपने रंग रवै अकेला ॥२॥

मूलम्

बाजीगर डंक बजाई ॥ सभ खलक तमासे आई ॥ बाजीगर स्वांगु सकेला ॥ अपने रंग रवै अकेला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाजीगर = तमाशा करने वाले (प्रभु) ने। डंक = डुग डुगी। खलक = लोग। तमासे = तमाशा देखने। स्वांग = सांग, तमाशा। सकेला = समेटा, संभालता है। रंग रवै = मौज में रहता है।2।
अर्थ: (मुझे अब यूँ दिखता है कि) जब प्रभु बाजीगर डुगडुगी बजाता है, तो सारे लोग (जगत-) तमाशा देखने आ जाती है, और जब वह बाजीगर खेल समेटता है, तो अकेला खुद ही खुद अपनी मौज में रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथनी कहि भरमु न जाई ॥ सभ कथि कथि रही लुकाई ॥ जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥ ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥

मूलम्

कथनी कहि भरमु न जाई ॥ सभ कथि कथि रही लुकाई ॥ जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥ ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथनी कहि = सिर्फ बातें करके। सभ लुकाई = सारी दुनिया, सारी सृष्टि। रही = थक गई। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। आपि = प्रभु ने खुद। बुझाई = समझ दे दी।3।
अर्थ: (पर ये द्वैत का) भुलेखा निरी बातें करने से दूर नहीं होता, सिर्फ बातें कर करके तो सारी दुनिया थक चुकी है (किसी के अंदर से द्वैत-भाव नहीं जाता)। जिस मनुष्य को परमात्मा खुद गुरु के द्वारा सुमति देता है, उसके दिल में वह सदा टिका रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर किंचत किरपा कीनी ॥ सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥ कहि कबीर रंगि राता ॥ मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥

मूलम्

गुर किंचत किरपा कीनी ॥ सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥ कहि कबीर रंगि राता ॥ मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किंचत = थोड़ी सी। हरि लीनी = हरि में लीन हो जाता है। रंगि = प्यार में। राता = रंगा जाता है।4।
अर्थ: कबीर कहता है: जिस मनुष्य पर गुरु ने थोड़ी जितनी भी मेहर कर दी है, उसका तन और मन सब हरि में लीन हो जाता है, वह प्रभु के प्यार में रंगा जाता है, उसे वह प्रभु मिल जाता है जो सारे जगत को जीवन देने वाला है।4।4।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रभु से मिलाप-अवस्था में हर जगह प्रभु ही दिखता है, ये जगत उसी की ही बनाई हुई खेल प्रतीत होती है। पर ये अवस्था गुरु की मेहर से स्वै-भाव दूर करने से प्राप्त होती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा के निगम दूध के ठाटा ॥ समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥ ता की होहु बिलोवनहारी ॥ किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥

मूलम्

जा के निगम दूध के ठाटा ॥ समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥ ता की होहु बिलोवनहारी ॥ किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निगम = वेद आदि धर्म पुस्तकें। ठाटा = थन (संस्कृत: स्तन)। दूध के ठाटा = दूध के थन, अमृत के श्रोत। समुंदु = (भाव,) सत्संग। बिलोवन कउ = मथने के लिए। माटा = मटकी, चाटी।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जैसे मटकी में दूध मथते हैं वैसे ही सत्संग में धर्म-पुस्तकें विचारी जाती हैं।

दर्पण-भाषार्थ

होहु = बन। ता की = (जा के…जिस प्रभु के….) उस प्रभु की। छाछि = लस्सी (भाव, साधारण आनंद जो वाणी के विचार से मिल सकता है)।1।
अर्थ: (हे जिंदे!) तू उस प्रभु के नाम को मथने वाली बन (भाव, तू उस प्रभु के नाम में चिक्त जोड़), वेद आदि धर्म पुस्तकें जिसके (नाम-अमृत) दूध के श्रोत हैं और सत्संर्ग उस दूध के मथने के लिए चाटी है। (हे जिंदे! यदि तुझे हरि का मिलाप नसीब ना हुआ, तो भी) वह प्रभु (सत्संग में बैठ के धर्म-पुस्तकों के विचारने का) तेरा साधारण आनंद नहीं मिटाएगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥ जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥ जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेरी = हे दासी! हे जीव-स्त्री! हे जीवात्मा! न करसि = तू (क्यों) नहीं करती? अधारा = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीवात्मा! तू उस परमात्मा को क्यों अपना पति नहीं बनाती जो जगत का जीवन है और सबके प्राणों का आसरा है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥ तू घर घर रमईऐ फेरी ॥ तू अजहु न चेतसि चेरी ॥ तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥

मूलम्

तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥ तू घर घर रमईऐ फेरी ॥ तू अजहु न चेतसि चेरी ॥ तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजहु = अभी तक। गलहि = बात में। तउकु = लोहे का कड़ा जो गुलाम के गले में डाला जाता था, मोह का पट्टा। पग = पैरों में। बेरी = आशाओं की बेड़ी। तू बपुरी = तुझ निमाणी को। जमि = जम ने। हेरी = ढूँढ ली, निगाह में रखी हुई है।2।
अर्थ: हे जिंदे! तेरे गले में मोह का पट्टा और तेरे पैरों में आशाओं की बेड़ियां होने के कारण तुझे परमात्मा ने घर-घर (कई जूनियों में) घुमाया है, (अब सौभाग्य से कहीं मानव जनम मिला था) अब भी तू उस प्रभु को याद नहीं करती। हे भाग्यहीन! तुझे जम ने अपनी निगाह में रखा हुआ है (भाव, मौत आने से फिर पता नहीं किस लंबे चक्कर में पड़ जाएगी)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ करन करावनहारी ॥ किआ चेरी हाथ बिचारी ॥ सोई सोई जागी ॥ जितु लाई तितु लागी ॥३॥

मूलम्

प्रभ करन करावनहारी ॥ किआ चेरी हाथ बिचारी ॥ सोई सोई जागी ॥ जितु लाई तितु लागी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई सोई = कई जन्मों से सोई हुई। जितु = जिधर।3।
अर्थ: पर इस बिचारी जीवात्मा के भी क्या वश? सब कुछ करने कराने वाला प्रभु खुद ही है। ये कई जन्मों से सोई हुई जीवात्मा (तब ही) जागती है (जब वह खुद जगाता है, क्योंकि) जिधर वह इसे लगाता है उधर ही ये लगती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥ जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥ सु रसु कबीरै जानिआ ॥ मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥

मूलम्

चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥ जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥ सु रसु कबीरै जानिआ ॥ मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुमति = सद् बुद्धि। जा ते = जिसकी इनायत से। भ्रम की लीक = भ्रम भटकना की लकीर, वह संस्कार जो भटकना में डाले रखते हैं। रसु = आत्मिक आनंद।4।
अर्थ: (उसकी मेहर से जागी हुई जीवात्मा को जिज्ञासु जीवात्मा पूछती है) हे (भाग्यशाली) जिंदे! तुझे कहाँ से ये सद्-बुद्धि मिली है, जिसकी इनायत से तेरे वह संस्कार मिट गए हैं, जो तुझे भटकना में डाले रखते थे। (आगे से जागी हुई जीवात्मा उक्तर देती है) हे कबीर! सतिगुरु की कृपा से मेरी उस आत्मिक आनंद से जान-पहचान हो गई है, और मेरा मन उसमें परच गया है।4।5।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: स्मरण के बिना जीव माया के मोह के बंधनो में जकड़ा रहता है। जिस पर प्रभु की मेहर हो, वह गुरु की शरण पड़ कर नाम-रस का आनंद लेता है और जनम-मरण के चक्कर से बच जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह बाझु न जीआ जाई ॥ जउ मिलै त घाल अघाई ॥ सद जीवनु भलो कहांही ॥ मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥

मूलम्

जिह बाझु न जीआ जाई ॥ जउ मिलै त घाल अघाई ॥ सद जीवनु भलो कहांही ॥ मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह बाझु = (वह ‘जीवनु मूए बिनु नाही’) जिस आत्मिक जीवन के बिना। जउ = अगर (वह ईश्वरीय जीवन)। घाल अघाई = मेहनत तृप्त हो जाती है, मेहनत सफल हो जाती है। कहांही = (लोग) कहते हैं। भलो = भला, अच्छा, सोहणा। सद जीवन = (इस) अटल जीवन (को)। मूए बिनु = (चस्कों से) मरे बिना, स्वै भाव छोड़े बिना।1।
अर्थ: जिस (सदा-स्थिर रहने वाले आत्मिक जीवन) के बिना जीआ नहीं जा सकता, और अगर वह जीवन मिल जाए तो मेहनत सफल हो जाती है, जो जीवन सदा कायम रहने वाला है, और जिसे लोग बढ़िया जीवन कहते हैं, वह जीवन स्वै-भाव त्यागे बिना नहीं मिल सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥ निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥ निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अब = अब जब (‘गिआन बिचारा’)। गिआनु बीचारा = (जब उस सद जीवन) के ज्ञान को विचार लिया है, जब उस अटल जीवन की समझ पड़ गई है। निज निरखत = मेरे देखते हुए। गत बिउहारा = बदलने वाला व्यवहार, बदलने वाली चाल।1। रहाउ।
अर्थ: जब उस ‘सद् जीवन’ की समझ पड़ जाती है तब उसके बयान करने की जरूरत नहीं रहती। (वैसे उसका नतीजा ये निकलता है कि) अपने देखते हुए ही (जगत की सदा) बदलते रहने की चाल देख ली जाती है (भाव, ये देख लिया जाता है कि जगत सदा बदल रहा है, पर स्वै को मिटा के मिला हुआ जीवन अटल रहता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥ बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥ पूति पिता इकु जाइआ ॥ बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥

मूलम्

घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥ बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥ पूति पिता इकु जाइआ ॥ बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घसि = रगड़ के (भाव, स्वै भाव मिटाने की मेहनत करके)। कुंकम = केसर। गारिआ = गला लिया है, मिला के एक कर दिया है। कुंकम चंदनु = (जीवन सुगंधि देने वाले) आत्मा और परमात्मा। बिनु नैनहु = आँखो के बिना, इन आँखों को रूप आदि देखने की ललक से हटा के। निहारिआ = देख लिया है। पूति = पुत्र ने, जीवात्मा ने। इकु पिता = एक प्रभु पिता को। जाइआ = पैदा कर लिया है, (अपने अंदर) प्रगट कर लिया है। बिनु ठाहर = जिसकी कोई जगह नहीं थी, जो कहीं एक जगह टिकता नहीं था, जो सदा भटकता रहता था।2।
अर्थ: जिस पुत्र (जीवात्मा) ने मेहनत करके अपने प्राणों को प्रभु में मिला दिया है, उसने अपनी आँखों को जगत-तमाशे से हटा के जगत (की सच्चाई) को देख लिया है। उसने अपने अंदर अपने प्रभु-पिता को प्रकट कर लिया है, पहले वह सदा बाहर भटकता था, अब (उसने अपने अंदर, जैसे) शहर बसा लिया है (भाव, उसके अंदर वह गुण पैदा हो गए हैं कि वह अब बाहर नहीं भटकता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाचक जन दाता पाइआ ॥ सो दीआ न जाई खाइआ ॥ छोडिआ जाइ न मूका ॥ अउरन पहि जाना चूका ॥३॥

मूलम्

जाचक जन दाता पाइआ ॥ सो दीआ न जाई खाइआ ॥ छोडिआ जाइ न मूका ॥ अउरन पहि जाना चूका ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाचक = भिखारी। न जाई खाइआ = खाते हुए खत्म नहीं होता। सो = वह कुछ, इतनी आत्मिक दाति। न मूका = नहीं खत्म होता। पहि = पास। चूका = खत्म हो गया है।3।
अर्थ: जो मनुष्य भिखारी (बन के प्रभु के दर से मांगता) है उसे दाता प्रभु खुद-ब-खुद मिल जाता है, उसको वह इतनी आत्मिक जीवन की दाति बख्शता है जो खर्चने से खत्म नहीं होती। उस दाति को ना छोड़ने को जी करता है, ना वह खत्म होती है, (और उसकी इनायत से) औरों के दर की भटकना समाप्त हो जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जीवन मरना जानै ॥ सो पंच सैल सुख मानै ॥ कबीरै सो धनु पाइआ ॥ हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥

मूलम्

जो जीवन मरना जानै ॥ सो पंच सैल सुख मानै ॥ कबीरै सो धनु पाइआ ॥ हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जो = जो मनुष्य। जीवन मरना = (इस सद-) जीवन के लिए स्वै-भाव मिटानां। सैल = शैल सा, पहाड़ जैसा अटल। मानै = मानता है। पंच = संत। कबीरै = कबीर ने। आपु = स्वै भाव।4।
अर्थ: जो मनुष्य इस आत्मिक अटल जीवन की खातिर स्वै-भाव मिटाने की विधि सीख लेता है, वह संतों वाले अटल आत्मिक सुख भोगता है। मैं कबीर ने (भी) वह (आत्मिक जीवन-रूप) धन प्राप्त कर लिया है, और प्रभु के चरणों में जुड़ के स्वै-भाव मिटा लिया है।4।6।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: ऊँचा आत्मिक जीवन स्वै भाव मिटा के ही मिलता है। जिस मनुष्य ने स्वै भाव मिटा लिया है, उसका मन जगत के रंग-तमाशों में नहीं फसता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥ किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥ पड़े सुने किआ होई ॥ जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥

मूलम्

किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥ किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥ पड़े सुने किआ होई ॥ जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ = क्या लाभ? गुनीऐ = (संस्कृत: गण्) विचारें। किआ होई = कोई लाभ नहीं होगा। जउ = अगर। सहज = (सं: सहज = as natural result of) कुदरती नतीजे के तौर पर स्वाभाविक ही। सोई = वह प्रभु।1।
अर्थ: (हे गवार!) वेद-पुराण पुस्तकें निरी पढ़ने-सुनने का कोई फायदा नहीं, अगर इस पढ़ने-सुनने के कुदरती नतीजे के तौर पर उस प्रभु का मिलाप ना हो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का नामु न जपसि गवारा ॥ किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि का नामु न जपसि गवारा ॥ किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न जपसि = तू जपता नहीं। गवारा = हे गवार! हे मूर्ख! बारं बारा = बार बार।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! तू परमात्मा का नाम (तो) स्मरण करता नहीं (नाम को विसार के) बार बार और सोचें सोचने का तुझे क्या फायदा होगा?।1। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥ बसतु अगोचर पाई ॥ घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥

मूलम्

अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥ बसतु अगोचर पाई ॥ घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधिआरे = अंधेरे में। चहीऐ = चाहिए, जरूरत होती हैं। अगोचर = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके (अ+गो+चर)। लहीऐ = मिल गए। पाई = (जिसने) पा ली। घटि = (उसके) हृदय में। समाई रहिआ = अडोल जलता रहता है।2।
अर्थ: अंधेरे में (तो) दीए की जरूरत होती है (ता कि अंदर से) वह हरि-नाम पदार्थ मिल जाए, जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, (इस तरह धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से उस ज्ञान का दीपक मन में जलना चाहिए जिससे अंदर बसता ईश्वर मिल जाए)। जिस मनुष्य को वह अगम्य (पहुँच से परे) हरि-नाम पदार्थ मिल जाता है, उस के अंदर वह दीया फिर सदा टिका रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर अब जानिआ ॥ जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥ मन माने लोगु न पतीजै ॥ न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥

मूलम्

कहि कबीर अब जानिआ ॥ जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥ मन माने लोगु न पतीजै ॥ न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। अब = अब (जब ‘अगोचर वस्तु’ मिल गई है)। जानिआ = जान लिया है, समझ पड़ गई है, जान पहिचान हो गई है। मानिआ = मान गया, पतीज गया है, संतुष्ट हो गया है। तउ = तो। किआ कीजै = क्या किया जाए? कोई अधीनता नहीं होती।3।
अर्थ: कबीर कहता है: उस अगम्य (पहुँच से परे) हरि-नाम पदार्थ से मेरी भी जान-पहचान हो गई है। जब से ये जान-पहचान हुई है, मेरा मन उसी में ही परच गया है। (पर जगत चाहता है धर्म-पुस्तकों के रिवायती पाठ करने करवाने और तीर्थ आदि के स्नान; सो) परमात्मा में मन जोड़ने से (कर्मकांडी) जगत की तसल्ली नहीं होती; (दूसरी तरफ) नाम-जपने वाले को भी ये अधीनता नहीं होती कि जरूर ही लोगों की तसल्ली भी कराए, (तभी तो, आम तौर पर इनका मेल नहीं हो पाता)।3।7।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: अगर मनुष्य की लगन प्रभु के नाम में नहीं बनती तो धर्म-पुस्तकों के पाठ कराने का भी कोई लाभ नहीं होता। ये पाठ करवाने सिर्फ लोकाचारी ही रह जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रिदै कपटु मुख गिआनी ॥ झूठे कहा बिलोवसि पानी ॥१॥

मूलम्

ह्रिदै कपटु मुख गिआनी ॥ झूठे कहा बिलोवसि पानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञान की बातें करने वाला। कहा = क्या लाभ है? बिलोवसि = तू मथता है।1।
अर्थ: हे पाखण्डी मनुष्य! तेरे मन में तो ठगी है, पर तू मुँह से (ब्रहम) ज्ञान की बातें कर रहा है। तुझे इस तरह पानी मथने से कुछ हासिल होने वाला नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कांइआ मांजसि कउन गुनां ॥ जउ घट भीतरि है मलनां ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कांइआ मांजसि कउन गुनां ॥ जउ घट भीतरि है मलनां ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कांइआ = शरीर। मांजसि = तू मांजता है। कउन गुनां = किस गुण का? इसका क्या लाभ? जउ = अगर। घट = हृदय। मलनां = मैल, विकार, खोट।1। रहाउ।
अर्थ: (हे झूठे!) अगर तेरे हृदय में (कपट की) मैल है तो इस बात का कोई फायदा नहीं कि तू अपना शरीर मांजता फिरता है (भाव, बाहर स्वच्छ व पवित्र रखता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लउकी अठसठि तीरथ न्हाई ॥ कउरापनु तऊ न जाई ॥२॥

मूलम्

लउकी अठसठि तीरथ न्हाई ॥ कउरापनु तऊ न जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लउकी = तूंबी, लौकी। अठसठि = अढ़सठ। तऊ = तो भी।2।
अर्थ: (देख) अगर तूंबी अढ़सठ तीर्थों पर भी स्नान कर ले, तो भी उसकी अंदरूनी कड़वाहट दूर नहीं होती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर बीचारी ॥ भव सागरु तारि मुरारी ॥३॥८॥

मूलम्

कहि कबीर बीचारी ॥ भव सागरु तारि मुरारी ॥३॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। बीचारी = विचार के, सोच के। भव सागरु = संसार समुंदर। मुरारी = हे मुरारी! हे प्रभु!।3।
अर्थ: (इस अंदरूनी मैल को दूर करने के लिए) कबीर तो सोच-विचार के (प्रभु के आगे यूँ) अरदास करता है: हे प्रभु! तू मुझे इस संसार समुंदर से पार लंघा ले।3।8।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: मन की मैल तीर्थ-स्नान या ज्ञान चर्चा से दूर नहीं होती। इसका एक ही इलाज है: प्रभु के दर पर गिर जाना।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सोरठि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु परपंच करि पर धनु लिआवै ॥ सुत दारा पहि आनि लुटावै ॥१॥

मूलम्

बहु परपंच करि पर धनु लिआवै ॥ सुत दारा पहि आनि लुटावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहु परपंच = कई प्रकार की ठगीयां। करि = कर के। पर = पराया। सुत = पुत्र। दार = दारा, पत्नी। पहि = पास। आनि = ला के। लुटावै = हवाले कर देता है।1।
अर्थ: कई तरह की ठगीयां करके तू पराया माल लाता है, और ला के तू पुत्र व पत्नी पर आ लुटाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे भूले कपटु न कीजै ॥ अंति निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे भूले कपटु न कीजै ॥ अंति निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कपटु = धोखा, ठगी। अंति = आखिर को। निबेरा = फैसला, हिसाब, लेखा। तेरे जीअ पहि = तेरी जीवात्मा से।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भूले हुए मन! (रोजी आदि के खातिर किसी के साथ) धोखा-फरेब ना किया कर। आखिर को (इन बुरे कर्मों का) लेखा तेरे अपने प्राणों से ही लिया जाना है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिनु छिनु तनु छीजै जरा जनावै ॥ तब तेरी ओक कोई पानीओ न पावै ॥२॥

मूलम्

छिनु छिनु तनु छीजै जरा जनावै ॥ तब तेरी ओक कोई पानीओ न पावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छिनु छिनु = पल पल में। छीजै = कमजोर हो रहा है। जरा = बुढ़ापा। जणावै = अपना आप दिखा रहा है। ओक = चुल्ली। पानीओ = पानी भी।2।
अर्थ: (देख, इन ठगीयां में ही) धीरे-धीरे तेरा अपना शरीर कमजोर होता जा रहा है, बुढ़ापे की निशानियां आ रही हैं (जब तू बुढ़ा हो गया, और हिलने के काबिल भी ना रहा) तब (इन में से, जिनकी खातिर तू ठगीयां करता है) किसी ने तेरी चुल्ली में पानी भी नहीं डालना।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु कबीरु कोई नही तेरा ॥ हिरदै रामु की न जपहि सवेरा ॥३॥९॥

मूलम्

कहतु कबीरु कोई नही तेरा ॥ हिरदै रामु की न जपहि सवेरा ॥३॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। की न = क्यूँ नहीं? सवेरा = समय रहते।3।
अर्थ: (तुझे) कबीर कहता है: (हे जिंदे!) किसी ने भी तेरा (साथी) नहीं बनना। (एक प्रभु ही असल साथी है) तू समय रहते (अभी-अभी) उस प्रभु को क्यों नहीं सिमरती?।3।9।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: कार्य-व्यवहार में ठगी आदि करना बहुत बड़ी मूर्खता है। जिस पुत्र-स्त्री आदि के लिए मनुष्य ठगी-चोरी करता है, अंत में साथ निभाना तो कहाँ रहा, बुढ़ापा आने पर वे खुश हो के पानी का घूट भी नहीं देते।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥ किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ॥

मूलम्

संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥ किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! मन पवनै = मन पवन को, पवन जैसे चंचल मन को, इस मन को जो पहले पवन जैसा चंचल था, इस मन को जो पहले कभी एक जगह टिकता ही नहीं था। जोगु परापति = परापति जोगु, हासिल करने योग्य। किछु = कुछ थोड़ा बहुत। जोगु परापति गनिआ = ये मन हासिल करने के लायक गिना जा सकता है, ये मन अब प्रभु का मिलाप हासिल करने के लायक माना जा सकता है। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कई सज्जनों ने इसका अर्थ ये किया है: ‘जोग की प्राप्ति हो गई है’। पर शब्द ‘जोगु’ के अंत में ‘ु’ की मात्रा है इसका अर्थ ‘जोग की’ नहीं हो सकता। जैसे ‘गुर परसादु करै’, यहाँ शब्द ‘गुरु’ का अर्थ ‘गुरु का’ नहीं हो सकता, बल्कि ‘गुर प्रसादि’ में शब्द है ‘गुर’ जिसका स्पष्टत: अर्थ होगा ‘गुरु की’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे संत जनो! (मेरे) पवन (जैसे चंचल) मन को (अब) सुख मिल गया है, (अब ये मन प्रभु का मिलाप) हासिल करने के लायक थोड़ा बहुत समझा जा सकता है। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अपने किसी बनाए हुए विचार के अनुसार कबीर जी की वाणी में बरते गए शब्द ‘जोग’ को ‘जोग साधन’ में बरता हुआ समझ लेना ठीक नहीं है। शब्द में जो शब्द जिस सूरत में प्रयोग किए गए हैं, उन्हें निष्पक्ष हो के समझने का प्रयत्न करें। भक्त कबीर जी आदि सिर्फ बँदगी वाले महापुरुष नहीं थे, वे एक उच्च दर्जे के कवि भी थे। उनकी ‘ईश्वरीय कविता’ को सही तरीके से समझने के लिए इनके हरेक शब्द को ध्यान से देख के समझने की आवश्यक्ता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि दिखलाई मोरी ॥ जितु मिरग पड़त है चोरी ॥ मूंदि लीए दरवाजे ॥ बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥

मूलम्

गुरि दिखलाई मोरी ॥ जितु मिरग पड़त है चोरी ॥ मूंदि लीए दरवाजे ॥ बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। मोरी = कमजोरी। जितु = जिस कमजोरी से। मिरग = कामादिक पशु। चोरी = चुप करके, अडोल ही, पता दिए बिना ही। मूँद लीए = बँद कर दिए हैं। दरवाजे = शरीररिक इंद्रिय, जिनके द्वारा कामादिक विकार शरीर पर हमला करते हैं। अनहद = एक रस। बाजीअले = बजने लग पड़े हैं।1।
अर्थ: (क्योंकि) सतिगुरु ने (मुझे मेरी वह) कमजोरी दिखा दी है जिसके कारण (कामादिक) पशू अडोल ही (मुझे) आ दबाते थे; (सो, मैंने गुरु की मेहर से शरीर के) दरवाजे (ज्ञान-इंद्रिय को: पर निंदा, पर तन, पर धन आदि से) बँद कर लिया है और (मेरे अंदर प्रभु की महिमा के) बाजे एक-रस बजने लग पड़े हैं।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: गुरु की हिदायत करने से पहले, एक तो ज्ञान-इंद्रिय खुली रहती थीं और कामादिक विकार इनके अंदर लांघ आते थे; दूसरा अंदर मन भी बाहरी उकसाने वाली चीजों के लिए तैयार रहता था। अब, गुरु की सहायता से ज्ञानेंद्रियां पराया रूप निंदा आदि को स्वीकार करने से रोक लिए गए हैं; दूसरे, प्रभु की महिमा रूपी बाजे इतने जोर से बज रहे हैं कि अंदर बैठे मन को बाहर से हो रहे कामादिक विकारों के शोर सुनाई ही नहीं देते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥ जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥ कहु कबीर जन जानिआ ॥ जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥

मूलम्

कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥ जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥ कहु कबीर जन जानिआ ॥ जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुंभ = हृदय रूपी घड़ा। जलि = विकार रूप पानी से। मेटिआ = डोल दिया है। ऊभा = ऊँचा, सीधा। जानिआ = जान लिया है, प्रभु से जान पहचान कर ली है। मानिआ = पतीज गया है।2।
अर्थ: (मेरा) हृदय-कमल रूपी घड़ा (पहले विकारों से) पानी से भरा हुआ था, (अब गुरु की इनायत से मैंने वह) पानी डोल दिया है और (हृदय को) ऊँचा उठा लिया है। हे दास कबीर! (अब) कह: मैंने (प्रभु से) जान-पहचान कर ली है, और जब से ये सांझ डाली है, मेरा मन (उस प्रभु में) गिझ गया है।2।10।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जब गुरु मनुष्य को समझा देता है कि विकार कैसे आ हमला करते हैं, और जब नाम-जपने की सहायता से मनुष्य उन हमलों से बचाव कर लेता है, तो मन चंचलता से हट के आत्मिक सुख में टिक जाता है।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु सोरठि ॥ भूखे भगति न कीजै ॥ यह माला अपनी लीजै ॥ हउ मांगउ संतन रेना ॥ मै नाही किसी का देना ॥१॥

मूलम्

रागु सोरठि ॥ भूखे भगति न कीजै ॥ यह माला अपनी लीजै ॥ हउ मांगउ संतन रेना ॥ मै नाही किसी का देना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूख = रोजी माया आदि की चाहत। भूखा = रोजी माया आदि की तृष्णा के अधीन। भूखे = रोजी माया आदि की तृष्णा के अधीन रहने से। न कीजै = नहीं की जा सकती। यह = ये। लीजै = कृपा करके ले लो। यह…लीजै = हे प्रभु! ये अपनी माला मुझसे ले लो। हउ = मैं। रेना = चरण धूल। किसी का देना = किसी की अधीनता, किसी के दबाव के नीचे।1।
अर्थ: अगर मनुष्य रोटी की ओर से ही अतृप्त रहा, तो वह प्रभु की भक्ति नहीं कर सकता। फिर वह भक्ति दिखावे की ही रह जाती है। (प्रभु! एक तो मुझे रोटी की ओर से बेफिक्र कर, दूसरा) मैं संतों की चरण-धूल माँगता हूँ, ता कि मैं किसी का मुथाज ना होऊँ।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: क्या भक्त कबीर जी माला के साथ भक्ति किया करते थे? बिलावल राग के एक शब्द में भी कबीर जी की माला का जिक्र आता है जब उनकी माँ गिला करती है कि;
‘हमारै कुल कउनै रामु कहिओ॥ जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ॥ रहाउ॥’
पर माला के बारे में कबीर जी के अपने विचार इस प्रकार हैं;

  1. ‘कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि राम॥’ (सलोक)
  2. ‘माथे तिलकु हथ माला बाना॥ लोगन राम खिलउना जाना॥’ (भैरउ)
    इन प्रमाणों से ऐसा जाहिर होता है कि कबीर जी माला को दिखावा मात्र समझते थे। जीभ पर हर वक्त राम का नाम टिके रहना ही– ये उनकी माला थी।
    पर, उपरोक्त शब्द में वह खुद प्रभु को कहते हैं कि अपनी माला ले लो, और बिलावल राग वाले शब्द में उनकी माँ शिकायत करती है कि ‘जब की माला लई निपूते”।
    मजेदार बात ये है कि दोनों जगह शिकवा के संबंध में ही ‘माला’ का जिक्र आया है। कभी प्रभु-प्यार में आ के भक्त जी ने कहीं ‘माला’ की बात नहीं की। ऐसा प्रतीत होता है इन दोनों ही जगह शब्द ‘माला’ के द्वारा किसी ऐसे काम का जिक्र किया जा रहा है, जो शब्द ‘माला’ बरतने वाले को पसंद नहीं है। जगत में कई शब्द तो प्यार का ‘चिन्ह’ बन जाते हैं और कई नफरत के। कृष्ण जी के उपासक के लिए शब्द ‘बाँसुरी वाला’ और ‘कंबली वाला’ तो प्यार के खींच डालते हैं; पर, ‘ब्राहमण’ सब से ऊँची जाति का होते हुए भी, अगर गाँव में सवेरे उठते ही किसी के माथे लग जाए तो भरमी लोग इसे अशुभ मानते हैं।
    (मेरा एक गरीब हिन्दू घर में जन्म हुआ था। नौवी कक्षा में पहुँचने से चार-पाँच महीने पहले मैं सिख बना था। हमारे स्कूल का हैड मास्टर एक वहिमी सा आदमी था; उसे मेरी ये तब्दीली बिल्कुल अच्छी ना लगी। पर, सारी कक्षा में क्योंकि मैं अकेला ही वजीफ़ा लेने वाला लड़का था, इसलिए वह मेरा लिहाज करता था। हम सिख लड़के मिल के हफ़ते में एक बार शहर के गुरद्वारे में जा के शब्द पढ़ा करते थे, ये बात हैड मास्टर को अच्छी नहीं लगती थी। एक बार रोका भी, पर उसका असर उनकी मर्जी के उलट हुआ। इसलिए रोकने से तो हट गए, पर, अगर किसी दिन मैं कक्षा में बाकी विद्यार्थियों के पीछे जा बैठता तो वे झट मुझे आगे बुला के बैठा देते और कहते– बस! तुझे और काम क्या है? तू धरमशाला में जा के ढोलकी बजा और माला फेर। हलांकि सच ये है कि मुझे ढोलकी बजानी नहीं आती, ना ही उन्होंने मुझे बजाते हुए देखा था, ना ही मेरे पास कोई माला थी। दरअसल, ये शब्द माला और ढोलकी उनके दिल की नफ़रत का बाहरी विकास था।
    ये आप बीती मैने यहाँ बात बताने के लिए लिखी है कि जब किसी का देखने में दिखाई देता धार्मिक कर्म पसंद ना आए तो मुहावरे के तौर पर शब्द ‘माला’ आदि बरता जाता है)।
    से, ‘यह माला अपनी लीजै’ का अर्थ है कि मुझे ये ऊपर से दिखता धार्मिक कर्म पसंद नहीं है। ‘भूखे…लीजै’– अगर मनुष्य की रोटी की तरफ से ही तृष्णा समाप्त नहीं हुई तो वह प्रभु की भक्ति नहीं कर सकता, ये भक्ति दिखावे की ही रह जाती है, और ये मुझे पसंद नहीं।
विश्वास-प्रस्तुतिः

माधो कैसी बनै तुम संगे ॥ आपि न देहु त लेवउ मंगे ॥ रहाउ॥

मूलम्

माधो कैसी बनै तुम संगे ॥ आपि न देहु त लेवउ मंगे ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कैसी बनै = कैसे निभ सकती है? तुम संगे = तेरे से शर्म करके। लेवउ मंगे = मैं माँग के ले लूँगा। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तुझ से शर्म करने से नहीं निभनी; सो, जो तू खुद नहीं देगा, तो मैं ही माँग के ले लूँगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुइ सेर मांगउ चूना ॥ पाउ घीउ संगि लूना ॥ अध सेरु मांगउ दाले ॥ मो कउ दोनउ वखत जिवाले ॥२॥

मूलम्

दुइ सेर मांगउ चूना ॥ पाउ घीउ संगि लूना ॥ अध सेरु मांगउ दाले ॥ मो कउ दोनउ वखत जिवाले ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चूना = आटा। जिवाले = जीवित रखे।2।
अर्थ: मुझे दो सेर आटे की आवश्यक्ता है, एक पाव घी और कुछ नमक चाहिए, मैं तुझसे आधा सेर दाल माँगता हूँ- ये चीजें मेरे दोनों वक्त के गुजारे के लिए काफ़ी हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खाट मांगउ चउपाई ॥ सिरहाना अवर तुलाई ॥ ऊपर कउ मांगउ खींधा ॥ तेरी भगति करै जनु थींधा ॥३॥

मूलम्

खाट मांगउ चउपाई ॥ सिरहाना अवर तुलाई ॥ ऊपर कउ मांगउ खींधा ॥ तेरी भगति करै जनु थींधा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाट = चारपाई। चउपाई = चार पाँवों वाली, साबत। खींधा = रजाई। थींधा = चिकनाई, प्रेम में रस के।3।
अर्थ: साबत मंजा मांगता हूँ, सिरहाना और तौलाई भी। ऊपर लेने के लिए रजाई की जरूरत है; बस! फिर तेरा भक्त (शरीरिक जरूरतों से बेफिक्र हो के) तेरे प्रेम में भीग के तेरी भक्ति करेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै नाही कीता लबो ॥ इकु नाउ तेरा मै फबो ॥ कहि कबीर मनु मानिआ ॥ मनु मानिआ तउ हरि जानिआ ॥४॥११॥

मूलम्

मै नाही कीता लबो ॥ इकु नाउ तेरा मै फबो ॥ कहि कबीर मनु मानिआ ॥ मनु मानिआ तउ हरि जानिआ ॥४॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लबे = लालच। मै फबो = मुझे पसंद है। जानिआ = समझ पा ली है।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे प्रभु! मैंने (माँगने में) कोई लालच नहीं किया, क्योंकि (ये चीजें तो शारीरिक निर्वाह मात्र के लिए है) असल में तो मुझे तेरा नाम ही प्यारा है। मेरा मन (तेरे नाम में) परचा हुआ है, और जब का परचा है तब से तेरे साथ मेरी गहरी जान-पहचान हो गई है।4।11।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जब तक मनुष्य का मन तृष्णा के अघीन है, परमात्मा की भक्ति नहीं की जा सकती। तृष्णा और भक्ति का कभी भी मेल नहीं हो सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु सोरठि बाणी भगत नामदे जी की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु सोरठि बाणी भगत नामदे जी की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब देखा तब गावा ॥ तउ जन धीरजु पावा ॥१॥

मूलम्

जब देखा तब गावा ॥ तउ जन धीरजु पावा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखा = देखूँ, देखता हूँ; प्रभु का दीदार करता हूं। गावा = गाऊँ, मैं (उसके गुण) गाता हूँ। तउ = तब। जन = हे भाई! पावा = मैं हासिल करता हूँ। धीरज = शांति, अडोलता, टिकाव।1।
अर्थ: (अब शब्द की इनायत के सदका) ज्यों-ज्यों मैं परमात्मा का (हर जगह) दीदार करता हूँ मैं (आप आगे हो के) उसकी महिमा करता हूँ और हे भाई! मेरे अंदर ठंड पड़ती जा रही है।1।

[[0657]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नादि समाइलो रे सतिगुरु भेटिले देवा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नादि समाइलो रे सतिगुरु भेटिले देवा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नादि = नाद में, (गुरु के) शब्द में। समाइलो = समा गया है, लीन हो गया है। रे = हे भाई! भेटिले = मिला दिया है। देवा = हरि ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मुझे प्रभु-देव ने सतिगुरु मिला दिया है, (उसकी इनायत से, मेरा मन) उसके शब्द में लीन हो गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह झिलि मिलि कारु दिसंता ॥ तह अनहद सबद बजंता ॥ जोती जोति समानी ॥ मै गुर परसादी जानी ॥२॥

मूलम्

जह झिलि मिलि कारु दिसंता ॥ तह अनहद सबद बजंता ॥ जोती जोति समानी ॥ मै गुर परसादी जानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस (मन) में। झिलिमिलिकारु = एक रस चंचलता, सदा चंचलता चंचलता। दिसंता = दिखाई देती है। तह = वहाँ, उस (मन) में। अनहद = एक रस। सबद बजंता = शब्द बज रहा है, सतिगुरु के शब्द का पूरा प्रभाव है। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = मेरी जिंद, मेरी आत्मा। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। जानी = जानी है, सांझ डाली है।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: समानी् अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) जिस मन में पहले चंचलता दिखाई दे रही थी वहाँ अब सहज (एक रस) गुरु-शब्द का प्रभाव पड़ रहा है, अब मेरी आत्मा परमात्मा में मिल गई है, सतिगुरु की कृपा से मैंने उस ज्योति को पहचान लिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रतन कमल कोठरी ॥ चमकार बीजुल तही ॥ नेरै नाही दूरि ॥ निज आतमै रहिआ भरपूरि ॥३॥

मूलम्

रतन कमल कोठरी ॥ चमकार बीजुल तही ॥ नेरै नाही दूरि ॥ निज आतमै रहिआ भरपूरि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कमल कोठरी = (हृदय-) कमल कोठरी में। रतन = (ईश्वरीय गुणों के) रत्न (पड़े हुए थे, पर मुझे पता नहीं था)। तही = उसी (हृदय) में। चमकार = चमक, लिश्कारा, प्रकाश। निज आतमै = मेरे अपने अंदर।3।
अर्थ: मेरे हृदय-कमल की कोठरी में रत्न थे (पर छुपे हुए थे); अब वहाँ (गुरु की मेहर सदका, जैसे) बिजली की चमक (जैसा प्रकाश) है (और वे रत्न दिखने लगे हैं); अब प्रभु कहीं दूर प्रतीत नहीं होता, नजदीक ही दिखता है, मुझे अपने अंदर ही भरपूर दिखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह अनहत सूर उज्यारा ॥ तह दीपक जलै छंछारा ॥ गुर परसादी जानिआ ॥ जनु नामा सहज समानिआ ॥४॥१॥

मूलम्

जह अनहत सूर उज्यारा ॥ तह दीपक जलै छंछारा ॥ गुर परसादी जानिआ ॥ जनु नामा सहज समानिआ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंछारा = मध्यम। दीपक = दीया। तह = उस (मन) में (पहले)। जह = जहाँ (अब)। अनहत = लगातार, एक रस।4।
अर्थ: जिस मन में अब एक-रस सूर्य के निरंतर प्रकाश जैसी रौशनी है, यहाँ पहले (जैसे) मद्यम सा दीया जल रहा था; अब गुरु की कृपा से मेरी उस प्रभु के साथ जान-पहचान हो गई है और मैं दास नामदेव अडोल अवस्था में टिक गया हूँ।4।1।

दर्पण-टिप्पनी

जरूरी नोट: इस शब्द का सही अर्थ समझने के लिए सतिगुरु नानक देव जी का शब्द, जो सोरठि राग में ही है और इस शब्द के साथ हर तरह से मेल खाता है, इस शब्द के साथ पढ़ना जरूरी है;
सोरठि महला १ घरु ३ (पन्ना ५९९) जा तिसु भावा तद ही गावा॥ ता गावे का फलु पावा॥ गावे का फलु होई॥ जा आपे देवै सोई॥१॥ मन मेरे गुर बचनी निधि पाई॥ ता ते सच महि रहिआ समाई॥ रहाउ॥ गुर साखी अंतरि जागी॥ ता चंचल मति तिआगी॥ गुर साखी का उजीआरा॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा॥२॥ गुर चरनी मनु लागा॥ ता जम का मारगु भागा॥ भै विचि निरभउ पाइआ॥ ता सहजै कै घरि आइआ॥३॥ भणति नानकु बूझै को बीचारी॥ इसु जग महि करणी सारी॥ करणी कीरति होई॥ जा आपे मिलिआ सोई॥४॥१॥१२॥
दोनों शबदों को मिला के ध्यान से पढ़ें, इनमें कई मजेदार सांझी बातें मिलती हैं। दोनों शबदों की चाल एक सी ही है; बहुत सारे शब्द सांझे हैं; ख्याल भी दोनों शबदों के एक ही हैं। हाँ जिस ख्यालों को भक्त नामदेव जी ने गहरे गूढ़ शब्दों में बयान किया था, उन्हें सतिगुरु नानक देव जी ने सादे व सरल शब्दों में प्रगट कर दिया है। जैसे, झिमिलकारु–चंचल मति; अनहत सबद-गुर साखी का उजिआरा आदि।
इन शबदों में एक अंदर भी दिखाई देता है। जैसे, फरीद जी ने कहा;
पहिलै पहरे फुलड़ा फलु भी पछा राति॥ जो जागंनि लहंनि से साई कंनहु दाति॥११२॥
इसमें फरीद जी ने ज्यादा जोर इस बात पर दिया था कि मनुष्य अमृत वेले जरूर उठ के बँदगी करे, तभी सांई के दर से दाति मिलती है; फरीद जी ‘नाम’ की प्राप्ति को प्रभु की बख्शश मानते हैं, पर यहाँ ज्यादा जोर अमृत वेले उठने को है। गलती से कोई सिख फरीद जी के इस इशारे को समझे ही ना और अपने अमृत वेले उठने के उद्यम पर गुमान करने लग जाए, सतिगुरु नानक देव जी ने शब्द ‘दाति’ के द्वारा इस इशारे मात्र बताए ख्याल को अच्छी तरह प्रकट कर दिया है अपना एक श्लोक इस श्लोक के साथ लिख के:
दाती साहिब संदीआ, किआ चलै तिसु नालि॥ इकि जागंदे न लहंनि, इकना सुतिआ देइ उठालि॥११३॥ महला १॥
इसी तरह, इस शब्द में नामदेव जी ने ये बताया है कि सतिगुरु के मिलने से मेरे दिल में एक सुंदर तब्दीली पैदा हो गई है। ज्यादा जोर गुरु की मेहर पर है और फिर मन की तब्दीली पर। गुरु कैसे मिला? ये बात उन्होंने इशारे मात्र ही ‘रहाउ’ की तुक में बताई है। सतिगुरु नानक देव जी ने उस इशारे को अच्छी तरह खुले शब्दों में बयान कर दिया है कि ये सारी मेहर परमात्मा की होती है, तो ही गुरु मिलता है।
पाठक सज्जन फिर इन दोनों शबदों को आमने-सामने रख कर ध्यान से पढ़ें। क्या बात यकीन से नहीं कही जा सकती कि सतिगुरु नानक देव जी ने ये शब्द भक्त नामदेव जी के शब्द को अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिए लिखा है? गुरु नानक देव जी ने सारे भारत का चक्कर लगाया था जिसे हम उनकी ‘पहली उदासी’ कहते हैं; दक्षिण में भी गए। नामदेव जी सूबा बम्बई के जिला सतारा के नगर पंडरपुर में ही बहुत समय तक रहे, वहीं पर उनका देहांत हुआ। सारा भारत मूर्ति-पूजा में मस्त था, कहीं को विरला ही ईश्वर का प्यारा था, जो एक अकाल की बँदगी का मध्यम सा दीपक जगा रहे थे। क्या ये बात कुदरती नहीं थी कि दक्षिण में जा के एक अपने ही हम-ख्याल ईश्वरी-आशिक का इलाका देखने की चाहत गुरु नानक देव जी के मन में पैदा हो? क्या ये बात प्राकृतिक नहीं थी कि उस नगर में जा के सतिगुरु जी ने वहाँ भक्त नामदेव जी की वाणी भी लिख के संभाल ली? इस बात के प्रत्यक्ष सबूत ये दोनों शब्द हैं, जो ऊपर लिखे गए हैं। ये दोनों शब्द सबब से ही सोरठि राग में दर्ज नहीं हो गए, सबब से ही दोनों के शब्द और ख़्याल आपस में नहीं मिल गए। ये सब कुछ सतिगुरु नानक देव जी ने खुद ही किया। भक्त नामदेव जी की वाणी जो गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, सतिगुरु नानक देव जी खुद ही उनके वतन से ले कर आए और सिख कौम के लिए अपनी वाणी के साथ संभाल के रख ली। सारा भारत मूर्ति पूजकों से भरा पड़ा था, अगर भक्त नामदेव जी मूर्ति-पूजक होते, तो इनके लिए भी सतिगुरु नानक देव जी में कोई खास कसक नहीं थी होनी।
नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन इस शब्द के शब्द ‘अनहद शब्द’ का हवाला दे के कहते हैं कि भक्त नामदेव जी योगाभ्यास अंदर भी विचरते थे क्योंकि आप जी की रचना में योगाभ्यास की झलक पड़ती है। पर सिर्फ शब्द ‘अनहद सबद’ से ये बात साबित नहीं हो जाती। गुरु नानक देव जी का आरती वाला शब्द पढ़ के देखें, “अनहता सबद वाजंत भेरी”। क्या सतिगुरु नानक देव जी को भी योगाभ्यासी कह दोगे?
भक्त जी ने तीन बार साफ शब्दों में कहा है कि मैंने ये लीनता सतिगुरु की मेहर से पाई है। ‘रहाउ’ में ही कहते हैं कि मुझे प्रभु ने गुरु मिलाया है। फिर दो बार और कहते हैं;
जेती जोत समानी॥ मैं गुर परसादी जानी॥
और
गुर परसादी जानिआ॥ जन नामा सहजि समानिआ॥
ये सच्चाई छुपाई नहीं जा सकती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरु ४ सोरठि ॥ पाड़ पड़ोसणि पूछि ले नामा का पहि छानि छवाई हो ॥ तो पहि दुगणी मजूरी दैहउ मो कउ बेढी देहु बताई हो ॥१॥

मूलम्

घरु ४ सोरठि ॥ पाड़ पड़ोसणि पूछि ले नामा का पहि छानि छवाई हो ॥ तो पहि दुगणी मजूरी दैहउ मो कउ बेढी देहु बताई हो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाड़ = पार की, साथ की। पड़ोसणि = पड़ोसन ने। पूछि ले = पूछा। नामा = हे नामदेव! का पहि = किस से? छानि = छुत, छपरी, कुल्ली। छवाई = बनवाई है। तो पहि = तेरे से। दै हउ = मैं दे दूँगी। बेढी = बढ़ई, तरखान, लकड़ी की वस्तुएं बनाने वाला मिस्तरी। देहु बताई = बता दे।1।
अर्थ: साथ की पड़ोसन ने पूछा - हे नामे! तूने अपनी छपरी किस से डलवाई है? मुझे बढ़ई के बारे में बता, मैं तेरे से दोगुनी मजदूरी दे दूँगी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

री बाई बेढी देनु न जाई ॥ देखु बेढी रहिओ समाई ॥ हमारै बेढी प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

री बाई बेढी देनु न जाई ॥ देखु बेढी रहिओ समाई ॥ हमारै बेढी प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे बाई = हे बहन! देनु न जाई = दिया नहीं जा सकता। प्राण आधरा = प्राणों का आसरा। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘री’ स्त्री-लिंग है और ‘रे’ पुलिंग; जहाँ ‘रे लोई’ आया है, वह ‘लोई’ शब्द पुलिंग है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे बहन! उस बढ़ई के बारे में (इस तरह) नहीं बताया जा सकता; देख, वह बढ़ई हर जगह मौजूद है और वह मेरे प्राणों का आसरा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेढी प्रीति मजूरी मांगै जउ कोऊ छानि छवावै हो ॥ लोग कुट्मब सभहु ते तोरै तउ आपन बेढी आवै हो ॥२॥

मूलम्

बेढी प्रीति मजूरी मांगै जउ कोऊ छानि छवावै हो ॥ लोग कुट्मब सभहु ते तोरै तउ आपन बेढी आवै हो ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभहु ते = सबसे। तोरै = तोड़ दे। तउ = तो। आपन = अपने आप।2।
अर्थ: (हे बहन!) अगर कोई मनुष्य (उस तरखान से) कुल्ली बनवाए तो वह बढ़ई प्रीति की मजदूरी मांगता है; (प्रीति भी ऐसी हो कि लोगों से, परिवार से, सबसे, मोह तोड़ ले; तो वह बढ़ई अपने आप आ जाता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो बेढी बरनि न साकउ सभ अंतर सभ ठांई हो ॥ गूंगै महा अम्रित रसु चाखिआ पूछे कहनु न जाई हो ॥३॥

मूलम्

ऐसो बेढी बरनि न साकउ सभ अंतर सभ ठांई हो ॥ गूंगै महा अम्रित रसु चाखिआ पूछे कहनु न जाई हो ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। अंतर = अंदर। ठांई = जगह। गूंगै = गूंगे ने। पूछे = पूछा।3।
अर्थ: (जैसे) अगर कोई गूँगा बड़े स्वादिष्ट पदार्थ खाए तो पूछने पर (उससे उसका स्वाद) बताया नहीं जा सकता; वैसे ही मैं (उस) ऐसे तरखाण का स्वरूप बयान नहीं कर सकता, (वैसे) वह सबमें है, वह सब जगह है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेढी के गुण सुनि री बाई जलधि बांधि ध्रू थापिओ हो ॥ नामे के सुआमी सीअ बहोरी लंक भभीखण आपिओ हो ॥४॥२॥

मूलम्

बेढी के गुण सुनि री बाई जलधि बांधि ध्रू थापिओ हो ॥ नामे के सुआमी सीअ बहोरी लंक भभीखण आपिओ हो ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलधि = समुंदर। बांधि = (पुल) बाँध के। थापिओ = अटल कर दिया। सीअ = सीया। बहोरी = (रावण से) वापस ले आए। आपिओ = अपना दिया, मालिक बना दिया।4।
अर्थ: हे बहन! उस तरखाण के (कुछ थोड़े से) गुण सुन ले- उसने ध्रुव को अटल पदवी दी, उसने समंद्र (पर पुल) बाँधा, नामदेव के (उस तरखाण) ने (लंका से) सीता वापस ला दी और विभीषण को लंका का मालिक बना दिया।4।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये बात जगत में आम देखने को मिलती है कि सिर्फ पैसे के लिए काम करने वालों के मुकाबले वह मनुष्य ज्यादा तेजी से और शौक से काम करते हैं जो प्यार की लगन से करते हैं। सन 1922-23 में श्री दरबार साहिब के सरोवर की जो कार-सेवा प्रेम-आसरे सोने के चूड़े वाली बीबियों ने दिनों में कर डाली थी, वह मजदूरी ले के काम करने वाले मोटे-तगड़े मनुष्य महीनों में भी नहीं पूरा करते।
नामदेव जी माया के पक्ष से तो गरीब थे, पर प्रभु-प्यार में रंगे हुए थे। एक बार उनका घर गिर गया, भक्त जी के साथ रूहानी प्यार की सांझ रखने वाले किसी प्यारे हृदय वाले ने आ के बड़ी रीझ से वह घर दुबारा बनवा दिया। जहाँ प्रेम है वहाँ रब खुद है। सत्संगी जो एक-दूसरे का काम करते हैं, प्रेम में खिंचे हुए करते हैं, प्रेम के श्रोत प्रभु के परोए हुए करते हैं, उन प्रेमी जीवों में प्रभु स्वयं मौजूद हो के वह काम करता है। सो, ये कुदरती बात है कि वह काम और लोगों के काम की तुलना में बढ़िया व सुंदर होगा। नामदेव जी की पड़ोसन के मन में भी रीझ आई उस मिस्तरी का पता लेने की, जिसने नामदेव जी का कोठा बनवाया था।
नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्ज्न ने इस शब्द की आखिरी तुक का हवाला दे के लिखा है कि भक्त नामदेव जी किसी समय श्री राम चंद्र जी के उपासक थे। पर इससे पहले वाली तुक इन विरोधी सज्जन ने नहीं पढ़ी ऐसा लगता है, जिसमें ‘धू थापिओ हो’ लिखा हुआ है। धूव भक्त श्री राम चंद्र जी से पहले युग में हो चुका था। जिस ‘बेढी’ के गुण नामदेव जी पड़ोसन को ‘रहाउ की तुकों में बता रहे हैं, उस बारे में कहते हैं ‘बेढी रहिओ समाई’। सो नामदेव जी सर्व-व्यापक के उपासक थे ना कि किसी व्यक्ति के।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि घरु ३ ॥ अणमड़िआ मंदलु बाजै ॥ बिनु सावण घनहरु गाजै ॥ बादल बिनु बरखा होई ॥ जउ ततु बिचारै कोई ॥१॥

मूलम्

सोरठि घरु ३ ॥ अणमड़िआ मंदलु बाजै ॥ बिनु सावण घनहरु गाजै ॥ बादल बिनु बरखा होई ॥ जउ ततु बिचारै कोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदलु = ढोल। बाजै = बजता है। बिनु सावण = सावन का महीना आए बिना ही, हर वक्त। घनहरु = बादल। गाजै = गरजता है। जउ = जब। कोई = कोई मनुष्य।1।
अर्थ: जो भी कोई मनुष्य इस सच्चाई को विचारता है (अर्थात, जिसके भी अंदर ये मेल-अवस्था घटित होती है, उसके अंदर) ढोल बजने लग जाते हैं। (पर वह ढोल खाल से) मढ़े हुए नहीं होते, (उसके मन में) बादल गरजने लग जाते हैं, पर वह बादल सावन महीने का इन्तजार नहीं करते (भाव, हर वक्त गरजते हैं), उसके अंदर बगैर बादलों के ही बरसात होने लग जाती है (बादल तो कभी आए और कभी चले गए, वहाँ हर वक्त ही नाम की बरखा होती रहती है।)।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जैसे कहीं ढोल बजने से छोटी-मोटी और आवाजें सुनाई नहीं देती, वैसे ही जिस मनुष्य के अंदर राम-नाम का ढोल बजता है नाम का प्रभाव पड़ता है, वहाँ मायावी विकारों का शोर सुनाई नहीं देता, वहाँ हर वक्त नाम के बादल गरजते हैं, और मन-मोर नृत्य करता है; वहाँ हर वक्त नाम की बरखा से ठंढ पड़ी रहती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मो कउ मिलिओ रामु सनेही ॥ जिह मिलिऐ देह सुदेही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मो कउ मिलिओ रामु सनेही ॥ जिह मिलिऐ देह सुदेही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। सनेही = प्यारा। जिह मिलिऐ = जिस (राम) के मिलने से। देह = शरीर। सुदेही = संदर देही।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे प्यारा राम मिल गया है, जिससे मिलने की इनायत से मेरा शरीर भी चमक पड़ा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि पारस कंचनु होइआ ॥ मुख मनसा रतनु परोइआ ॥ निज भाउ भइआ भ्रमु भागा ॥ गुर पूछे मनु पतीआगा ॥२॥

मूलम्

मिलि पारस कंचनु होइआ ॥ मुख मनसा रतनु परोइआ ॥ निज भाउ भइआ भ्रमु भागा ॥ गुर पूछे मनु पतीआगा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के, छू के। कंचनु = सोना। मनसा = मुँह में और ख्यालों में (भाव, वचनों में और विचारों में)। निज भाउ = अपनों वाला प्यार। भ्रमु = भुलेखा (के कहीं कोई बेगाना भी है)। गुर पूछे = गुरु की शिक्षा ले के। पतीआगा = पतीज गया, तसल्ली हो गई।2।
अर्थ: सतिगुरु की शिक्षा ले कर मेरा मन इस तरह पतीज गया है (और स्वच्छ हो गया है) जैसे पारस को छू के (लोहा) सोना बन जाता है, अब मेरे वचन में और ख़्यालों में नाम-रत्न ही परोया गया है, (प्रभु से अब) मेरा अपनों जैसा प्यार बन गया है, (ये) भ्रम रह ही नहीं गया (कि कहीं कोई बेगाना भी है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल भीतरि कु्मभ समानिआ ॥ सभ रामु एकु करि जानिआ ॥ गुर चेले है मनु मानिआ ॥ जन नामै ततु पछानिआ ॥३॥३॥

मूलम्

जल भीतरि कु्मभ समानिआ ॥ सभ रामु एकु करि जानिआ ॥ गुर चेले है मनु मानिआ ॥ जन नामै ततु पछानिआ ॥३॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भीतरि = अंदर, में। कुंभ = पानी का घड़ा, जीवात्मा। सभ = हर जगह। गुर मेले मनु = गुरु का और चेले का मन। नामै = नामदेव ने।3।
अर्थ: (जैसे समुंदर के) पानी में घड़े का पानी मिल जाता है (और अपनी अलग हस्ती को मिटा देता है), मुझे भी अब हर जगह राम ही राम दिखता है (मेरा अपना वजूद रहा ही नहीं); अपने सतिगुरु के साथ मेरा मन एक-मेक हो गया है और मैंने दास नामे ने (जगत की) असलियत परमात्मा से (पक्की) सांझ डाल ली है।3।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु सोरठि बाणी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु सोरठि बाणी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब हम होते तब तू नाही अब तूही मै नाही ॥ अनल अगम जैसे लहरि मइ ओदधि जल केवल जल मांही ॥१॥

मूलम्

जब हम होते तब तू नाही अब तूही मै नाही ॥ अनल अगम जैसे लहरि मइ ओदधि जल केवल जल मांही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जब = जब तक। हम = हम, अहंकार, स्वै भाव। मै = मेरी, अपनत्व, अहंकार। अनल = (सं: अनिल) हवा। अनल अगम = भारी अंधेरी (के कारण)। लहरि मइ = लहरमय, लहरों से भरपूर।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: संस्कृत: “मय”; जिस शब्द के आखिर में ‘मय’ बरता जाए उसके अर्थ में ‘बहुलता’ का ख्याल बढ़ाया जाता है, जैसे दया मय = दया से भरपूर।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओदधि = (सं: उदधि) समुंदर।1।
अर्थ: (हे माधो!) जब तक हम जीवों में अहंकार रहता है, तब तक तू (हमारे अंदर) प्रकट नहीं होता, पर जब तू प्रत्यक्ष होता है तब हमारी ‘मैं’ दूर हो जाती है; (इस ‘मैं’ के हटने से ही हमें ये समझ आ जाती है कि) जैसे बड़ा तूफ़ान आने से समुंदर लहरों से नाको-नाक भर जाता है, पर असल में वह (लहरें समुंदर के) पानी में पानी ही हैं (वैसे ही ये सारे जीव-जंतु तेरा अपना ही विकास हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा ॥ जैसा मानीऐ होइ न तैसा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा ॥ जैसा मानीऐ होइ न तैसा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधवे = हे माधो!
किआ कहीऐ = क्या कहें? कहा नहीं जा सकता। भ्रमु = भुलेखा। मानीऐ = माना जा रहा है, विचार बनाया हुआ है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माधो! हम जीवों को कुछ ऐसा भुलेखा पड़ा हुआ है कि ये बयान नहीं किया जा सकता। हम जो मानें बैठे हैं (कि जगत तेरे से कोई अलग हस्ती है), वह ठीक नहीं है।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘माधो’ भक्त रविदास जी का विशेष प्यारा शब्द है, बहुत बार परमात्मा के लिए वे इसी शब्द को बरतते हैं, संस्कृत धार्मिक पुस्तकों में ये नाम कृष्ण जी का है। अगर रविदास जी श्री रामचंद्र के उपासक होते, तो ये शब्द ना प्रयोग करते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरपति एकु सिंघासनि सोइआ सुपने भइआ भिखारी ॥ अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ सो गति भई हमारी ॥२॥

मूलम्

नरपति एकु सिंघासनि सोइआ सुपने भइआ भिखारी ॥ अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ सो गति भई हमारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नरपति = राजा। सिंघासनि = तख़्त पर। भिखारी = भिखारी। अछत = होते हुए। गति = हालत।2।
अर्थ: (जैसे) कोई राजा अपने तख़्त पर बैठा सो जाए, और सपने में भिखारी बन जाए, राज होते हुए भी वह (सपने में राज से) विछुड़ के दुखी होता है, वैसे ही (हे माधो! तुझसे विछुड़ के) हम जीवों का हाल हो रहा है।2।

[[0658]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरमु जनाइआ ॥ अनिक कटक जैसे भूलि परे अब कहते कहनु न आइआ ॥३॥

मूलम्

राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरमु जनाइआ ॥ अनिक कटक जैसे भूलि परे अब कहते कहनु न आइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राज = रज्जु, रस्सी। भुइअंग = सांप। प्रसंग = वार्ता, बात। मरमु = भेद, राज। कटक = कड़े। कहते = कहते हुए।3।
अर्थ: जैसे रस्सी और साँप का दृष्टांत है, जैसे (सोने से बने हुए) अनेक कड़े देख के भुलेखा पड़ जाए (कि सोना ही कई किस्म का होता है, वैसे ही हमें भुलेखा पड़ा हुआ है कि ये जगत तुझसे अलग है), पर तूने अब मुझे कुछ-कुछ भेद जता दिया है। अब वह पुरानी भेद-भाव वाली बात मुझसे कहीं नहीं जाती (भाव, अब मैं ये नहीं कहता कि जगत तुझसे अलग हस्ती है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भुोगवै सोई ॥ कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होइ सु होई ॥४॥१॥

मूलम्

सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भुोगवै सोई ॥ कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होइ सु होई ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरबे = सभी में। अनेकै = अनेक रूप हो के। भुोगवै = भोग रहा है, मौजूद है। पै = से। सहजे = सोते ही, उसकी रजा में।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भुोगवै’ अक्षर ‘भ’ के साथ दो मात्राएं है ‘ु’ की और ‘ो’। असल शब्द है भोगवे पर यहाँ पढ़ना है ‘भुगवै’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (अब तो) रविदास कहता है कि वह प्रभु-पति अनेक रूप बना के सभी में एक स्वयं ही है, सभी घटों में खुद ही बैठा जगत के रंग माण रहा है। (दूर नहीं) मेरे हाथ से भी नजदीक है, जो कुछ (जगत में) हो रहा है, उसी की रजा में हो रहा है।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: परमात्मा सर्व-व्यापक है। पर जीव अपनी ‘हउ’ (मैं) के घेरे में रह के जगत को उससे अलग हस्ती समझता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक भेदभाव है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥ अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥१॥

मूलम्

जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥ अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बांधे = बँधे हुए हैं। फास = फाही। बधनि = रस्सी से। तुम = तुझे। को = का।1।
अर्थ: (सो, हे माधो!) अगर हम मोह के बंधनो में बँधे हुए थे, तो हमने अब तुझे अपने प्यार की रस्सी से बाँध लिया है। हम तो (उस मोह के बंधनो से) तुझे स्मरण करके निकल आए हैं, तुम हमारे प्यार की जकड़ में से अब कैसे निकलोगे?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधवे जानत हहु जैसी तैसी ॥ अब कहा करहुगे ऐसी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माधवे जानत हहु जैसी तैसी ॥ अब कहा करहुगे ऐसी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानत हउ = तुम जानते हो। जैसी = जैसी (भक्तों की प्रीति है तेरे साथ)। ऐसी = ऐसी प्रीति के होते हुए। कहा करहुगे = क्या करोगे? इस के बिना और क्या करेगा? (भाव, तू जरूर अपने भक्तों को मोह से बचाए रखेगा)।1। रहाउ।
अर्थ: हे माधो! तेरे भक्त जैसा प्यार तेरे साथ करते हैं वह तुझसे छुपा नहीं रह सकता (तू अच्छी तरह जानता है), ऐसी प्रीति के होते हुए तूम जरूर उन्हें मोह से बचाए रखते हो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मीनु पकरि फांकिओ अरु काटिओ रांधि कीओ बहु बानी ॥ खंड खंड करि भोजनु कीनो तऊ न बिसरिओ पानी ॥२॥

मूलम्

मीनु पकरि फांकिओ अरु काटिओ रांधि कीओ बहु बानी ॥ खंड खंड करि भोजनु कीनो तऊ न बिसरिओ पानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीनु = मछली। पकरि = पकड़ के। फांकिओ = टुकड़े-टुकड़े कर दी। रांधि कीओ = पकाई। बहु बानी = कई तरीकों से। खंड = टुकड़ा। तऊ = तो भी।2।
अर्थ: (हमारा तेरे साथ प्यार भी वह है जो मछली को पानी के साथ होता है, हमने तो मर के भी तेरी याद नहीं छोड़नी) मछली (पानी में से) पकड़ के टुकड़े-टुकड़े कर दें, हिस्से कर दें और कई प्रकार से पका लें, फिर रक्ती रक्ती करके खा लें, फिर भी उस मछली को पानी नहीं भूलता (जिस खाने वाले के पेट में जाती है उसको भी पानी की प्यास लगा देती है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपन बापै नाही किसी को भावन को हरि राजा ॥ मोह पटल सभु जगतु बिआपिओ भगत नही संतापा ॥३॥

मूलम्

आपन बापै नाही किसी को भावन को हरि राजा ॥ मोह पटल सभु जगतु बिआपिओ भगत नही संतापा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बापै = पिता की (मल्कियत)। भावन को = प्रेम का (बँधा हुआ)। राजा = जगत का मालिक। पटल = पर्दा। बिआपिओ = छाया हुआ है। संताप = (मोह का) कष्ट।3।
अर्थ: जगत का मालिक हरि किसी के पिता की (जद्दी मल्कियत) नहीं है, वह तो प्रेम का बँधा हुआ है। (इस प्रेम से वंचित सारा जगत) मोह के पर्दे में फंसा पड़ा है, पर (प्रभु के साथ प्रेम करने वाले) भक्तों को (इस मोह का) कोई कष्ट नहीं होता।3।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: भक्त रविदास जी अपनी वाणी में परमात्मा के लिए शब्द ‘राजा’ भी बहुत बार बरतते हैं; हरेक कवि का अपना-अपना स्वभाव होता है कि कोई खास शब्द उसे बार-बार प्रयोग में लाना उसे प्यारा लगता है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि रविदास भगति इक बाढी अब इह का सिउ कहीऐ ॥ जा कारनि हम तुम आराधे सो दुखु अजहू सहीऐ ॥४॥२॥

मूलम्

कहि रविदास भगति इक बाढी अब इह का सिउ कहीऐ ॥ जा कारनि हम तुम आराधे सो दुखु अजहू सहीऐ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति इक = एक प्रभु की भक्ति। बाढी = बढ़ाई है, दृढ़ की है। अब…कहीऐ = अब किसी के साथ ये बात करने की जरूरत ही ना रही। जा कारनि = जिस (मोह से बचने) की खातिर। अजहू = अब तक।4।
अर्थ: रविदास कहता है: (हे माधो!) मैं एक तेरी भक्ति (अपने हृदय में) इतनी दृढ़ की है कि मुझे अब किसी के साथ ये गिला करने की जरूरत नहीं रह गई कि जिस मोह से बचने के लिए मैं तेरा स्मरण कर रहा था, उस मोह का दुख मुझे अब तक सहना पड़ रहा है (भाव, उस मोह का तो अब मेरे अंद रनाम-निशान भी नहीं रह गया)।4।2।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: माया के मोह की फाही को तोड़ने का एक-मात्र तरीका है: प्रभु के चरणों में प्यार।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेकै ॥ राजे इंद्र समसरि ग्रिह आसन बिनु हरि भगति कहहु किह लेखै ॥१॥

मूलम्

दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेकै ॥ राजे इंद्र समसरि ग्रिह आसन बिनु हरि भगति कहहु किह लेखै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुलभ = जिसका मिलना बहुत मुश्किल है। पुंन = भले काम। जात = जा रहा है। अबिबेकै = विचार हीनता के कारण, अंजानपने में। समसरि = जैसे, के बराबर। किह लेखै = किस काम आए? किसी अर्थ नहीं।1।
अर्थ: ये मानव जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, (पिछले किए) भले कामों के फल के कारण हमें मिल गया, पर हमारे अंजानपने में ये व्यर्थ ही जा रहा है; (हमने कभी सोचा ही नहीं कि) अगर प्रभु की बँदगी से वंचित रहे तो (देवताओं के) राजा इन्द्र के स्वर्ग जैसे महल-माढ़ियां भी किसी काम के नहीं हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बीचारिओ राजा राम को रसु ॥ जिह रस अन रस बीसरि जाही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

न बीचारिओ राजा राम को रसु ॥ जिह रस अन रस बीसरि जाही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजा = जगत का मालिक। रसु = (मिलाप का) आनंद। जिह रस = जिस रस की इनायत से। अन रस = और चस्के।1। रहाउ।
अर्थ: (हम मायाधरी जीवों ने) जगत-प्रभु परमात्मा के नाम के उस आनंद को कभी नहीं विचारा, जिस आनंद की इनायत से (माया के) और सारे चस्के दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानि अजान भए हम बावर सोच असोच दिवस जाही ॥ इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नही ॥२॥

मूलम्

जानि अजान भए हम बावर सोच असोच दिवस जाही ॥ इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानि = जान बूझ के। अजान = अंजान। बावर = पागल। सोच असोच = अच्छी बुरी सोचें। दिवस = उमर के दिन। जाही = गुजर रहे हैं। इन्द्री = काम-वासना। सबल = बलवान। निबल = कमजोर। बिबेक बुधि = परखने की बुद्धि। परमारथ = परम+अर्थ,सबसे बड़ी जरूरत। परवेस = दख़ल।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) जानते-बूझते हुए भी हम कमले और मूर्ख बने हुए हैं, हमारी उम्र के दिन (माया की ही) अच्छी-बुरी विचारों में गुजर रहे हैं, हमारी काम-वासना बढ़ रही है, विचार-शक्ति कम हो रही है, इस बात की हमें कभी सोच ही नहीं आई कि हमारी सबसे बड़ी जरूरत क्या है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहीअत आन अचरीअत अन कछु समझ न परै अपर माइआ ॥ कहि रविदास उदास दास मति परहरि कोपु करहु जीअ दइआ ॥३॥३॥

मूलम्

कहीअत आन अचरीअत अन कछु समझ न परै अपर माइआ ॥ कहि रविदास उदास दास मति परहरि कोपु करहु जीअ दइआ ॥३॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आन = कुछ और। अचरीअत = कमाते हैं। अन कछु = कुछ और। अपर = अपार, बली। उदास = उपराम, आशाओं से बचा हुआ। परहरि = छोड़ के, दूर करके। कोपु = गुस्सा। जीअ = जीवात्मा पर।3।
अर्थ: हम कहते और हैं और करते कुछ और हैं, माया इतनी बलवान हो रही है कि हमें (अपनी मूर्खता की) समझ ही नहीं पड़ती। (हे प्रभु!) तेरा दास रविदास कहता है: मैं अब इस (मूर्खपने से) उपराम हो गया हूँ, (मेरे अंजानपने पर) गुस्सा ना करना और मेरी आत्मा पर मेहर करनी।3।3।

दर्पण-भाव

भाव: माया का मोह मनुष्य को असल निशाने से गिरा देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख सागरु सुरतर चिंतामनि कामधेनु बसि जा के ॥ चारि पदारथ असट दसा सिधि नव निधि कर तल ता के ॥१॥

मूलम्

सुख सागरु सुरतर चिंतामनि कामधेनु बसि जा के ॥ चारि पदारथ असट दसा सिधि नव निधि कर तल ता के ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुरतर = स्वर्ग के वृक्ष, ये गिनती में पाँच हैं: मंदार, पारिजाति, संतान, कल्पवृक्ष, हरिचंदन (पंचैते देवतरवो मंदार: पारिजातक: संतान: कल्पवृक्षश्य पुंसि वा हरिचंदनम्॥)। चिंतामनि = वह मणि जिससे मन की हरेक चितवनी पूरी हो जाती मानी जाती है। कामधेनु = (काम = वासना, धेनु = गाय) हरेक वासना पूरी करने वाली गाय (स्वर्ग में रहती मानी जाती है)। बसि = वश में। जा के = जिस परमात्मा के। चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। असट दसा = (8+10) अठारह। नव निधि = कुबेर देवते के नौ खजाने। कर तल = हाथ की तलियों पर।1।
अर्थ: (हे पण्डित!) जो प्रभु सुखों का समुंदर है, जिस प्रभु के वश में स्वर्ग के पाँचों वृक्ष, चिंतामणि और कामधेनु हैं, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पदार्थ, अठारहों सिद्धियां और नौ निधियां ये सब उसी के हाथों की तलियों पर हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि हरि न जपहि रसना ॥ अवर सभ तिआगि बचन रचना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि हरि न जपहि रसना ॥ अवर सभ तिआगि बचन रचना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ से। बचन रचना = फोकी बातें। तिआगि = त्याग के।1। रहाउ।
अर्थ: (हे पण्डित!) तू और सारी फोकियां बातें छोड़ के (अपनी) जीभ से सदा एक परमात्मा का नाम क्यों नहीं स्मरण करता?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही ॥ बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥

मूलम्

नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही ॥ बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाना = कई किस्म के। खिआन = प्रसंग (स: आरब्यान)। बेद बिधि = वेदों में बताई गई धार्मिक विधियां। चउतीस अखर = (अ इ उ स=4, पांच वर्ग, क = वर्ग आदि=25, य र ल व ह=5, कुल जोड़=34)। परमारथु = परम+अर्थ, सबसे ऊँची बात। सरि = बराबर।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: असल ‘हृस्व’ सिर्फ 3 हैं, ‘उ अ इ’, बाकी के इनसे ही बने हैं लग-मात्राएं लगा के)। चउतीस अखर माही 34 अक्षरों में ही, निरी वाक्य रचना, सिर्फ बातें जो आत्मिक जीवन से नीचे हैं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे पण्डित!) पुराणों के अनेक किस्म के प्रसंग, वेदों की बताई हुई विधियां, ये सब वाक्य-रचना ही हैं (अनुभवी ज्ञान नहीं जो प्रभु की रचना में जुड़ने से हृदय में पैदा होता है)। (हे पण्डित! वेदों के खोजी) व्यास ऋषि ने सोच-विचार के यही धर्म-तत्व बताया है कि (इन पुस्तकों के पाठ आदि) परमात्मा के नाम का स्मरण करने के की बराबरी नहीं कर सकते। (फिर तू क्यों नाम नहीं स्मरण करता?)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी ॥३॥४॥

मूलम्

सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी ॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज समाधि = मन का पूर्ण टिकाव। सहज = आत्मिक अडोलता। उपाधि = कष्ट। फुनि = फिर, दुबारा। बडै भागि = बड़ी किस्मत से। कहि = कहे, कहता है। रिदै = हृदय में। भागी = दूर हो जाते हैं।3।
अर्थ: रविदास कहता है: बड़ी किस्मत से जिस मनुष्य की तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ती है उसका मन आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। कोई विकार उसमें नहीं उठता, वह मनुष्य अपने हृदय में रोशनी प्राप्त करता है, और, जनम-मरण (भाव, सारी उम्र) के उसके डर नाश हो जाते हैं।3।4।

दर्पण-भाव

भाव: सब पदार्थों का दाता प्रभु खुद है। उसका स्मरण करो, कोई भूख नहीं रह जाएगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा ॥ जउ तुम चंद तउ हम भए है चकोरा ॥१॥

मूलम्

जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा ॥ जउ तुम चंद तउ हम भए है चकोरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = अगर। गिरि = पहाड़। गिरिवर = सुंदर पहाड़। तउ = तो। भए हैं = बनाऊँगा।1।
अर्थ: हे मेरे माधो! अगर तू सुदर सा पहाड़ बने, तो मैं (तेरा) मोर बनूँगा (तुझे देख-देख के मैं नृत्य करूँगा)। अगर तू चाँद बने तो मैं तेरा चकोर बनूँगा (और तुझे देख-देख के खुश हो-हो के बोलूँगी)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधवे तुम न तोरहु तउ हम नही तोरहि ॥ तुम सिउ तोरि कवन सिउ जोरहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माधवे तुम न तोरहु तउ हम नही तोरहि ॥ तुम सिउ तोरि कवन सिउ जोरहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न तोरहु = ना तोड़। हम नही तोरहि = हम नहीं तोड़ेंगे, मैं नहीं तोड़ूँगा। तोरि = तोड़ के। सिउ = से।1। रहाउ।
अर्थ: हे माधो! अगर तू (मेरे से) प्यार ना तोड़े, तो मैं भी नहीं तोड़ूंगा; क्योंकि तेरे से तोड़ के मैं और किसके साथ जोड़ सकता हूँ? (और कोई, हे माधो! तेरे जैसा है ही नहीं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ तुम दीवरा तउ हम बाती ॥ जउ तुम तीरथ तउ हम जाती ॥२॥

मूलम्

जउ तुम दीवरा तउ हम बाती ॥ जउ तुम तीरथ तउ हम जाती ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीवरा = सुंदर सा दीया। बाती = बक्ती। जाती = यात्री।2।
अर्थ: हे माधो! अगर तू सुंदर सा दीया बने, मैं (तेरी) बाती बन जाऊँ। अगर तू तीर्थ बन जाए तो मैं (तेरा दीदार करने के लिए) यात्री बन जाऊँगा।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी ॥ तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी ॥३॥

मूलम्

साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी ॥ तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवर संगि = औरों से।3।
अर्थ: हे प्रभु! मैंने तेरे साथ पक्का प्यार डाल लिया है। तेरे साथ प्रीति जोड़ के मैंने और सभी से तोड़ ली है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह जाउ तहा तेरी सेवा ॥ तुम सो ठाकुरु अउरु न देवा ॥४॥

मूलम्

जह जह जाउ तहा तेरी सेवा ॥ तुम सो ठाकुरु अउरु न देवा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। तुम सो = तेरे जैसा। ठाकुरु = मालिक। देवा = हे देव!।4।
अर्थ: हे माधो! मैं जहाँ जहाँ (भी) जाता हूँ (मुझे हर जगह तू ही दिखता है, मैं हर जगह) तेरी ही सेवा करता हूँ। हे देव! तेरे जैसा कोई और मालिक मुझे नहीं दिखां4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरे भजन कटहि जम फांसा ॥ भगति हेत गावै रविदासा ॥५॥५॥

मूलम्

तुमरे भजन कटहि जम फांसा ॥ भगति हेत गावै रविदासा ॥५॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कटहि = काटे जाते हैं। फांसा = फंदे। भगति हेति = भक्ति हासिल करने के लिए।5।
अर्थ: तेरी बँदगी करने से जमों के बंधन कट जाते हैं, (तभी तो) रविदास तेरी भक्ति का चाव हासिल करने के लिए तेरे गुण गाता है।5।5।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रभु की मेहर से ही उसके चरणों में प्रीति जुड़ी रह सकती है। वही प्रीति ऊँचे दर्जे की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल की भीति पवन का थ्मभा रकत बुंद का गारा ॥ हाड मास नाड़ीं को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ॥१॥

मूलम्

जल की भीति पवन का थ्मभा रकत बुंद का गारा ॥ हाड मास नाड़ीं को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भीति = दीवार। पवन = हवा। थंभा = स्तम्भ, खंभा। रकत = माँ के खून। बूँद = पिता के वीर्य की बूँद। पंखी = पक्षी।1।
अर्थ: जीव-पक्षी बेचारा उस शरीर में बस रहा है जिसकी दीवार (जैसे) पानी की है, जिसकी खंभा हवा (सांसों) का है; माता का रक्त और पिता के वीर्य का जिसे गारा लगा हुआ है, और हाड़-मास-नाड़ियों का पिंजर बना हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रानी किआ मेरा किआ तेरा ॥ जैसे तरवर पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रानी किआ मेरा किआ तेरा ॥ जैसे तरवर पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रानी = हे बंदे! तरवर = वृक्षों (पर)। पंखि = पक्षी।1। रहाउ।
अर्थ: जैसे वृक्षों पर पक्षियों का (सिर्फ रात के लिए) डेरा होता है (वैसे ही जीवों का बसेरा जगत में है)। हे भाई! फिर, इन भेदभाव व बँटवारों का क्या लाभ?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखहु कंध उसारहु नीवां ॥ साढे तीनि हाथ तेरी सीवां ॥२॥

मूलम्

राखहु कंध उसारहु नीवां ॥ साढे तीनि हाथ तेरी सीवां ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीवां = नीवें। सीवां = सीमा, हद, ज्यादा से ज्यादा जगह।2।
अर्थ: हे भाई! (गहरी) नीवें खोद-खोद के तू उन पर दीवारें बनवाता है, पर तुझे खुद को (हर रोज तो) ज्यादा से ज्यादा साढ़े तीन हाथ जगह ही चाहिए (सोने के लिए इतनी ही जगह तो घेरता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंके बाल पाग सिरि डेरी ॥ इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ॥३॥

मूलम्

बंके बाल पाग सिरि डेरी ॥ इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंके = सोहणे, बाँके। डेरी = टेढ़ी।3।
अर्थ: तू सिर पर बाँके बाल (सँवार-सँवार के) टेढ़ी सी पगड़ी बाँधता है (पर शायद तुझे कभी चेता नहीं आया कि) ये शरीर (ही किसी दिन) राख की ढेरी हो जाएगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचे मंदर सुंदर नारी ॥ राम नाम बिनु बाजी हारी ॥४॥

मूलम्

ऊचे मंदर सुंदर नारी ॥ राम नाम बिनु बाजी हारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाजी = जिंदगी की खेल।4।
अर्थ: हे भाई! तू ऊँचे-ऊँचे महल-माढ़ियों व सुंदर स्त्रीयों (का मान करता है), प्रभु का नाम विसार के तू मानव जन्म की खेल हार रहा है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा ॥ तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा ॥५॥६॥

मूलम्

मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा ॥ तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा ॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पांति = कुल गोत्र। ओछा = नीचे दर्जे का। सरनागति = शरण आया हूँ। राजा = हे राजन! कहि = कहे। चंद = हे चाँद! हे सुंदर!।5।
अर्थ: रविदास चमार कहता है: हे मेरे राजन! हे मेरे सुंदर राम! मेरी तो जाति, कुल और जनम सब कुछ नीच ही नीच था, (यहाँ तो ऊँची कुलों वाले डूबते जा रहे हैं, मेरा क्या बनना था? पर) मैं तेरी शरण आया हूँ।5।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द का असल जोर इस बात पर है कि यहाँ जगत में पक्षियों की तरह जीवों का बसेरा है, पर जीव बड़े-बड़े किले गाड़ के गुमान कर रहे हैं और रब को भुला के जीवन को कमीना बना रहे हैं, व्यर्थ गवा रहे हैं। आखिर की तुकों के शब्द ‘राजा’ और ‘चंद’ श्री राम चंद्र जी के लिए नहीं है, अपना कमीनापन और ओछापन ज्यादा स्पष्ट करने के लिए परमात्मा के लिए शब्द ‘राजा’ व ‘चंद’ प्रयोग किए हैं, भाव, एक तरफ, प्रकाश स्वरूप सुंदर प्रभु, दूसरी तरफ, मैं होछा और कमीना जीव। अगर रविदास जी श्री रामचंद्र जी की मूर्ति के उपासक होते तो अपने शबदों में शब्द ‘माधो’ ना बरतते। क्योंकि ‘माधो’ कृष्ण जी का नाम है, और एक अवतार का पुजारी दूसरे अवतार का नाम अपने अवतार के लिए नहीं बरत सकता।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: यहाँ रैन-बसेरा है। ‘मैं मेरी’ क्यों?

विश्वास-प्रस्तुतिः

चमरटा गांठि न जनई ॥ लोगु गठावै पनही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

चमरटा गांठि न जनई ॥ लोगु गठावै पनही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चमरटा = गरीब चमार। गंठि न जनई = गाँठना नहीं जानता। गठावै = गाँठ लगवाता है। पनही = जूती।1। रहाउ।
अर्थ: मैं गरीब चमार (शरीर जूती को) सीना नहीं जानता, पर जगत के जीव अपनी अपनी (शरीर-रूपी) जूती सिलवा रहे हैं (मरम्मत करवा रहे हैं, अर्थात, लोग दिन रात निरे शरीर की पालना के आहर में लगे हुए हैं)।1।
रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर नही जिह तोपउ ॥ नही रांबी ठाउ रोपउ ॥१॥

मूलम्

आर नही जिह तोपउ ॥ नही रांबी ठाउ रोपउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिससे। तोपउ = तोपना, सिलना। ठाउ = जगह, जूती की टूटी हुई जगह। रोपउ = टाकी लगाऊँ।1।
अर्थ: मेरे पास आर नहीं है कि मैं (जूती को) तरोपे लगाऊँ (भाव, मेरे अंदर मोह की पकड़ नहीं है कि मेरी तवज्जो सदा शरीर में ही टिकी रहे)। मेरे पास रंगी नहीं है कि (जूती को) टाकियां लगाऊँ (भाव, मेरे अंदर लोभ नहीं कि अच्छे-अच्छे खाने ला के नित्य शरीर को पालता रहूँ)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोगु गंठि गंठि खरा बिगूचा ॥ हउ बिनु गांठे जाइ पहूचा ॥२॥

मूलम्

लोगु गंठि गंठि खरा बिगूचा ॥ हउ बिनु गांठे जाइ पहूचा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंठि गंठि = गाँठ गाँठ के। खरा = बहुत। बिगूचा = ख्वार हो रहा है। हउ = मैं। बिनु गांठे = गाँठने का काम छोड़ के।2।
अर्थ: जगत सिल सिल के बहुत ख्वार हो रहा है (भाव, जगत के जीव अपने-अपने शरीर को दिन रात पालने-पोसने के आहरे लगा के दुखी हो रहे हैं); मैं गाँठने का काम छोड़ के (भाव, अपने शरीर के नित्य आहरे लगे रहने को छोड़ के) प्रभु चरणों में जा पहुँचा हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रविदासु जपै राम नामा ॥ मोहि जम सिउ नाही कामा ॥३॥७॥

मूलम्

रविदासु जपै राम नामा ॥ मोहि जम सिउ नाही कामा ॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। सिउ = साथ। कामा = वास्ता।3।
अर्थ: रविदास अब परमात्मा का नाम स्मरण करता है, (और, शरीर का मोह छोड़ बैठा है; इस वास्ते) मुझ रविदास को जमों से कोई वास्ता नहीं रह गया।3।7।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: शरीरिक मोह दुखी करता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: रविदास जी बनारस के वासी थे और ये शहर विद्वान ब्राहमणों का भारी केन्द्र चला आ रहा है। ब्राहमणों की अगुवाई में यहाँ मूर्ति पूजा का जोर होना भी कुदरती बात थी। एक तरफ उच्च कुल के विद्वान लोग मन्दिरों में जा जा के मूर्तियाँ पूजें; दूसरी तरफ, एक बहुत निम्न जाति का कंगाल और गरीब रविदास एक परमात्मा के स्मरण का होका दे; ये एक अजीब सी खेल बनारस में हो रही थी। ब्राहमण का चमार रविदास को उसकी नीच जाति का चेता करवा करवा के उसकी मजाक उड़ाना भी स्वाभाविक सी बात थी। ऐसी दशा हर जगह जीवन में देखी जा रही है।
इस शब्द में रविदास जी लोगों के इस मजाक का उक्तर दे रहे हैं, और, कहते हैं कि मैं तो भला जाति का ही चमार हूँ, लोग उच्च जाति के हो के भी चमार ही बने पड़े हैं। ये जिस्म, जैसे, एक जूती है। गरीब मनुष्य बार-बार अपनी जूती सिलवाता है (मरम्मत करवाता है) कि ज्यादा समय काम आ जाए। इसी तरह माया के मोह में फंसे हुए लोग (चाहे वे उच्च कुल के भी हैं) इस शरीर की मरम्मत में दिन-रात इसी की पालना में जुटे रहते हैं, और प्रभु को बिसार के ख्वार होते हैं। जैसे चमार जूती सिलता है, वैसे ही माया-ग्रसित जीव शरीर को हमेशा अच्छी खुराकें, पोशाकें और दवा आदि के गाँठ-तरोपे लगाता रहता है। सो, सारा जगत ही चमार बना हुआ है। पर, रविदास जी कहते हैं, मैंने मोह त्याग कर शरीर को गाँढे-तरोपे लगाने छोड़ दिए हैं, मैं लोगों की तरह दिन-रात शरीर के आहर में नहीं रहता, मैंने प्रभु का नाम स्मरणा अपना मुख्य धर्म बनाया है, तभी मुझे किसी जम आदि का डर नहीं रहा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु सोरठि बाणी भगत भीखन की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु सोरठि बाणी भगत भीखन की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैनहु नीरु बहै तनु खीना भए केस दुध वानी ॥ रूधा कंठु सबदु नही उचरै अब किआ करहि परानी ॥१॥

मूलम्

नैनहु नीरु बहै तनु खीना भए केस दुध वानी ॥ रूधा कंठु सबदु नही उचरै अब किआ करहि परानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैनहु = आँखों में से। नीरु = पानी। खीना = कमजोर, क्षीण। दुधवानी = दूध जैसा सफेद। रूधा = रुका हुआ। कंठु = गला। परानी = हे जीव!।1।
अर्थ: हे जीव! (वृद्ध अवस्था में कमजोर होने के कारण) तेरी आँखों में पानी बह रहा है, तेरा शरीर क्षीण हो रहा है, तेरे केश दूध जैसे सफेद हो गए हैं, तेरा गला (कफ़ से) रुकने के कारण बोल नहीं सकता; अभी (भी) तू क्या कर रहा है? (भाव, अब भी तू परमात्मा को याद क्यों नहीं करता? तू क्यों शरीर के मोह में फंसा हुआ है? तू क्यों देह-अध्यास नहीं छोड़ता?)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राइ होहि बैद बनवारी ॥ अपने संतह लेहु उबारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम राइ होहि बैद बनवारी ॥ अपने संतह लेहु उबारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होहि = अगर तू हो, अगर तू बने। बनवारी = (सं: वनमालिन् adorned with a chaplet of wood flowers. जंगली फूलों की माला पहनने वाला। An epithet of ज्ञrishna) परमात्मा। लेहु उबारी = बचा लेते हो। रहाउ।
अर्थ: हे सुंदर राम! हे प्रभु! अगर तू हकीम बने तो तू अपने संतों को (देह अध्यास से) बचा लेता है (भाव, तू आप ही हकीम बन के संतों को देह-अध्यास से बचा लेता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माथे पीर सरीरि जलनि है करक करेजे माही ॥ ऐसी बेदन उपजि खरी भई वा का अउखधु नाही ॥२॥

मूलम्

माथे पीर सरीरि जलनि है करक करेजे माही ॥ ऐसी बेदन उपजि खरी भई वा का अउखधु नाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरीरि = शरीर में। जलनि = जलन। करक = दर्द। बेदन = रोग। खरी बेदन = बड़ा रोग। वा का = उस का। अउखधु = दारू, दवाई।2।
अर्थ: हे प्राणी! (वृद्ध होने के कारण) तेरे सिर में पीड़ा टिकी रहती है, शरीर में जलन रहती है, कलेजे में दर्द उठती है (किस-किस अंग का फिक्र करें? सारे ही जिस्म में बुढ़ापे का) एक ऐसा बड़ा रोग उठ खड़ा हुआ है कि इसका कोई इलाज नहीं है (फिर भी इस शरीर से तेरा मोह नहीं मिटता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का नामु अम्रित जलु निरमलु इहु अउखधु जगि सारा ॥ गुर परसादि कहै जनु भीखनु पावउ मोख दुआरा ॥३॥१॥

मूलम्

हरि का नामु अम्रित जलु निरमलु इहु अउखधु जगि सारा ॥ गुर परसादि कहै जनु भीखनु पावउ मोख दुआरा ॥३॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत में। सारा = श्रेष्ठ। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। पावउ = मैं हासिल करता हूँ, मैं पा लिया है। मोख = मुक्ति, शारीरिक मोह से खलासी, देह अध्यास से आजादी। मोख दुआरा = मुक्ति का रास्ता, वह तरीका जिससे शारीरिक मोह से मुक्ति हो जाए।3।
अर्थ: (इस शारीरिक रोग को मिटाने का) एक ही श्रेष्ठ इलाज जगत में है, वह है प्रभु का नाम-रूपी निर्मल जल। दास भीखण कहता है: (अपने) गुरु की कृपा से मैंने इस नाम को जपने का रास्ता ढूँढ लिया है, जिसके कारण मैंने शारीरिक मोह से खलासी पा ली है।3।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा नामु रतनु निरमोलकु पुंनि पदारथु पाइआ ॥ अनिक जतन करि हिरदै राखिआ रतनु न छपै छपाइआ ॥१॥

मूलम्

ऐसा नामु रतनु निरमोलकु पुंनि पदारथु पाइआ ॥ अनिक जतन करि हिरदै राखिआ रतनु न छपै छपाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमोलकु = जिस का मूल्य नहीं पड़ सकता, जो किसी मोल नहीं मिल सकता। पुंनि = पुण्य से, भाग्यों से। पाइआ = मिलता है, पाया जाता है।1।
अर्थ: परमात्मा का नाम एक ऐसा अमूल्य पदार्थ है जो भाग्यों से मिलता है। इस रत्न को अनेक यत्न करके भी हृदय में (गुप्त) रखें, तो भी छुपाए नहीं छुपता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुन कहते कहनु न जाई ॥ जैसे गूंगे की मिठिआई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि गुन कहते कहनु न जाई ॥ जैसे गूंगे की मिठिआई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहनु न जाई = (स्वाद) बताया नहीं जा सकता। रहाउ।
अर्थ: (वैसे वह स्वाद) बताया नहीं जा सकता (जो) परमात्मा के गुण गाने से (आता है), जैसे गूँगे मनुष्य द्वारा खाई हुई मिठाई (का स्वाद किसी और को नहीं पता लग सकता, गूँगा बता नहीं सकता)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना रमत सुनत सुखु स्रवना चित चेते सुखु होई ॥ कहु भीखन दुइ नैन संतोखे जह देखां तह सोई ॥२॥२॥

मूलम्

रसना रमत सुनत सुखु स्रवना चित चेते सुखु होई ॥ कहु भीखन दुइ नैन संतोखे जह देखां तह सोई ॥२॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। रमत = जपते हुए। स्रवना = कानों को। चेते = याद करते हुए। होई = होता है। कहु = कह। भीखन = हे भीखन! संतोखे = शांत हो गए हैं, ठंड पड़ गई है। देखां = मैं देखता हूं। तह = उधर ही।2।
अर्थ: (ये नाम-रत्न) जपते हुए जीभ को सुख मिलता है, सुनते हुए कानों को सुख मिलता है, और याद करते हुए चिक्त को सुख मिलता है। हे भीखन! (तू भी) कह: (ये नाम स्मरण करते हुए) मेरी दोनों आँखों में (ऐसी) ठंढ पड़ गई है कि मैं जिधर देखता हूँ उस परमात्मा को ही देखता हूँ।2।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन भक्त भीखन जी के बारे में यूँ लिखते हैं ‘बताया गया है कि भक्त भीखन जी इब्राहिम के शिष्य थे, पर ये खोज सच्ची सिद्ध नहीं होती। आम तौर पर इनका देहांत संवत् 1625 के इर्दगिर्द माना गया है। वास्तव में भीखण जी कोई बे-पहचान वाले भक्त प्रतीत होते हैं। भक्त-मण्डली में इनकी कोई खास प्रसिद्धि सिद्ध नहीं होती। इनसे ज्यादा तो जलण, काहना, छजू आदि प्रसिद्ध थे। दरअसल आप सूफी मुसलमान फकीरों में से थे। आप जी को शेख फरीद जी के साथ मिला देते हैं, पर ये पुष्टि इनकी वाणी से नहीं होती। वैसे इनकी रचना हिन्दू वैरागी साधुओं से मिलती है, इस्लामी शरह का एक शब्द भी नहीं मिलता प्रतीत होता। इस्लाम मत छोड़ के जीव-अहिंसक साधुओं के साथ विचरते रहे। आप जी के दो शब्द भक्त-वाणी संग्रह में आए हैं, जैसा कि;
‘नैनहु….मोख दुआरा।’ –सोरठि।
‘इस शब्द से सिद्ध होता है कि भक्त जी बुढ़ापे की अथवा मौत को नजदीक देख के काफी घबरा गए थे। उस वक्त बनवारी (कृष्ण) जी को याद करते हुए वास्ते निकालते हैं। पर गुरमति के अंदर मौत को एक खेल समझा गया है और जनम-मरण को संसारक खेल समझ के कोई वुअकत नहीं दी जाती।….खालसे के सामने मौत खेल और एक बाजी है।”
विरोधी सज्जन ने भीखन जी के बारे में निम्न-लिखित खोज की है:
♥ भीखन जी सूफी मुसलमान फकीरों में थे। इस्लाम छोड़ के जीव-अहिंसक साधुओं के साथ विचरते रहे।
♥ इनकी रचना हिन्दू बैरागी साधुओं के साथ मिलती है।
♥ बुढ़ापे और मौत से घबरा के इस शब्द के द्वारा कृष्ण जी के आगे गिड़-गिड़ाते हैं।
♥ आईए, इस खोज को विचारें;
♥ खोज नंबर1 की विरोधी सज्जन ने खुद तरदीद कर दी है और लिखा है कि इनकी रचना में ‘इस्लामी शरह का एक शब्द भी नहीं मिलता लगता।’ पर ये तरदीद भी खुल के नहीं करते, अभी भी शब्द ‘मिलता लगता’ ही लिखते हैं। सारा शब्द सामने मौजूद है। कहाँ है कोई शब्द इस्लामी शरह का? फिर अभी भी ‘मिलता प्रतीत होता’ क्यों कहा जा रहा है? सिर्फ सच्चाई को छुपाने के लिए, और भक्त के बारे में अपने घड़े हुए शक को पाठक के मन में बैठाने के लिए।
♥ सारे ही शब्द में कहीं भी एक भी शब्द ऐसा नहीं है, जहाँ ये कहा जा सके कि भीखन जी किसी मुसलमान घर में जन्मे-पले थे।
♥ कोई शब्द ऐसे नहीं हैं जहाँ ये साबित हो सके कि भीखन जी की रचना हिन्दू बैरागियों के साथ मिलती है। सारे शब्द ध्यान से देखिए: नैन, नीरु, तनु, खीन, केस, दुधवानी, रूधा, कंठु, सबदु, उचरै, परानी, रामराइ, बैदु बनवारी, संतह, उबारी, माथे, पीर, जलनि, करक, करेजे, बेदन, अउखधु, हरि का नाम, अंम्रित जलु, निरमल, जगि, परसादि, पावउ, मोख दुआरा।
♥ इन शब्दों को देख के ये तो कहा जा सकता है कि भीखन जी मुसलमान नहीं हैं; पर ये कैसे मिल गया कि वे बैरागी साधु थे? गुरु साहिब की अपनी मुख-वाक वाणी में ये शब्द अनेक बार आए हैुं। पर कोई सिख ये नहीं कह सकता कि सतिगुरु जी की वाणी हिन्दू बैरागी साधुओं के साथ मिलती है।
♥ शब्द ‘बनवारी’ का अर्थ विरोधी सज्जन ने कृष्ण किया है। पर बाकी के सारे शब्द से भी तो आँखें नहीं बंद की जा सकतीं। शब्द ‘रामराइ’ का अर्थ किसी भी खींच-घसीट के ‘कृष्ण’ नहीं किया जा सकता। उस बनवारी के लिए आखिर में शब्द ‘हरि’ भी बरता गया है।
♥ ये कहना कि भीखन जी ने बुढ़ापा और मौत से घबरा के वास्ते निकाले हैं, ये तो महापुरुष भीखन जी की निरादरी की गई है, और किसी भी गुरसिख को ये बात शोभा नहीं देती, फिर ये तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हुए शब्द पर मजाक उड़ा के श्रद्धालु सिखों के हृदय जख़्मी किए जा रहे हैं।
♥ भीखन जी शब्द के आखिर में कहते हैं, ‘गुर परसादि कहै जनु भीखनु, पावउ मोख दुआरा’, भाव, सतिगुरु की कृपा से मैंने मोक्ष का द्वार ढूँढ लिया है। वह कौन सा राह है? ये भी भीखन जी खुद ही कहते हैं ‘हरि का नामु’। और कहते हैं कि जगत में एक मात्र इलाज है उसका, जिससे निजात पाने का रास्ता मैंने गुरु की कृपा से पा लिया है।
♥ क्या अभी भी ये बात साफ नहीं हुई कि भीखन जी ने किस रोग से निजात पाने का रास्ता गुरु से पाया है? और मौत तो हरेक को अपनी बारी सिर आई है। सो, यहाँ मौत और बुढ़ापे से किसी तरह की घबराहट का जिक्र नहीं है। इसकी बाबत तो वे खुद ही कहते हैं कि ‘वा का अउखधु नाही’।
♥ भीखन जी शारीरिक मोह में फंसे जीव को समझाते हैं कि हे भाई! बुढ़ापे के कारण हरेक अंग में रोग आ निकला है; तू शरीर के मोह में फस के कब तक जूती मुरम्मत करवाने की तरह जगह-जगह टाकियां लगवाने में उलझा रहेगा?
♥ आखिर में कहते हैं: शारीरिक मोह के रोग से बचने के लिए एक ही इलाज है; वह ये कि गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण करो।
♥ विरोधी सज्जन जी ने भीखन जी के दूसरे शब्द को शायद पढ़ा ही नहीं। अगर वे उसे ध्यान से पढ़ते तो शब्द ‘बनवारी’ का अर्थ ‘कृष्ण’ करने की जरूरत ही ना पड़ती। उनका ‘बनवारी’ वह है जिसे वह ‘जह देखा तह सोई’ कहते हैं।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ घरु १ चउपदे

मूलम्

धनासरी महला १ घरु १ चउपदे

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीउ डरतु है आपणा कै सिउ करी पुकार ॥ दूख विसारणु सेविआ सदा सदा दातारु ॥१॥

मूलम्

जीउ डरतु है आपणा कै सिउ करी पुकार ॥ दूख विसारणु सेविआ सदा सदा दातारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा। कै सिउ = किस के पास? करी = मैं करूँ? दूख विसारण = दुख दूर करने वाला प्रभु। सेविआ = मैंने स्मरण किया है।1।
अर्थ: (जगत दुखों का समुंदर है, इन दुखों को देख के) मेरी जीवात्मा काँपती है (परमात्मा के बिना और कोई बचाने वाला दिखाई नहीं देता) जिसके पास मैं मिन्नतें करूँ। (सो, अन्य आसरे छोड़ के) मैं दुखों के नाश करने वाले प्रभु को ही स्मरण करता हूँ, वह सदा ही बख्शिशें करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहिबु मेरा नीत नवा सदा सदा दातारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

साहिबु मेरा नीत नवा सदा सदा दातारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीत = नित्य। नवा = (भाव, दातें दे के आँकने वाला नहीं)। दातारु = दातें देने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (फिर वह) मेरा मालिक सदा बख्शिशें करता रहता है (पर वह मेरी रोज के तरले सुन के उकताता नहीं, बख्शिशों में) नित्य यूँ है जैसे पहली बार ही बख्शिशें करने लगा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ ॥ सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ ॥२॥

मूलम्

अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ ॥ सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, सदा। अंति = आखिर को। मेरी कामणी = हे मेरी जिंदे!।2।
अर्थ: हे मेरी जिंदे! हर रोज उस मालिक को ही याद करना चाहिए (दुखों में से) आखिर वह ही बचाता है। हे जिंदे! ध्यान से सुन (उस मालिक का आसरा लेने से ही दुख के समुंदर में से) पार लांघा जा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दइआल तेरै नामि तरा ॥ सद कुरबाणै जाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दइआल तेरै नामि तरा ॥ सद कुरबाणै जाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआल = हे दया के घर! नामि = नाम से। तरा = तैर सकता हूँ, पार लांघ सकता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे दयालु प्रभु! मैं तुझसे सदा सदके जाता हूँ (मेहर कर, अपना नाम दे, ता कि) तेरे नाम के द्वारा मैं (दुखों के इस समुंदर में से) पार लांघ सकूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरबं साचा एकु है दूजा नाही कोइ ॥ ता की सेवा सो करे जा कउ नदरि करे ॥३॥

मूलम्

सरबं साचा एकु है दूजा नाही कोइ ॥ ता की सेवा सो करे जा कउ नदरि करे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरबं = हर जगह। साचा = सदा कायम रहने वाला। कउ = को। नदरि = मेहर की नजर। करेइ = करता है।3।
अर्थ: सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही सब जगह मौजूद है, उसके बिना और कोई नहीं। जिस जीव पर वह मेहर की निगाह करता है, वह उसका स्मरण करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुधु बाझु पिआरे केव रहा ॥ सा वडिआई देहि जितु नामि तेरे लागि रहां ॥ दूजा नाही कोइ जिसु आगै पिआरे जाइ कहा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुधु बाझु पिआरे केव रहा ॥ सा वडिआई देहि जितु नामि तेरे लागि रहां ॥ दूजा नाही कोइ जिसु आगै पिआरे जाइ कहा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केव रहा = कैसे रह सकता हूँ? मैं व्याकुल हो जाता हूँ। जितु = जिससे। जाइ = जा के।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे (प्रभु!) तेरी याद के बिना मैं व्याकुल हो जाता हूँ। मुझे वह कोई बड़ी दाति दे, जिस सदका मैं तेरे नाम में जुड़ा रहूँ। हे प्यारे! तेरे बिना और कोई ऐसा नहीं हैं, जिसके पास जा के मैं ये आरजू कर सकूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवी साहिबु आपणा अवरु न जाचंउ कोइ ॥ नानकु ता का दासु है बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥४॥

मूलम्

सेवी साहिबु आपणा अवरु न जाचंउ कोइ ॥ नानकु ता का दासु है बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवी = मैं सेवता हूँ। जाचंउ = मैं माँगता हूँ। बिंद बिंद = छिन छिन। चुख चुख = टोटे टुकड़े टुकड़े, कुर्बान।4।
अर्थ: (दुखों के इस सागर में से तैरने के लिए) मैं अपने मालिक प्रभु को ही याद करता हूँ, किसी और से मैं यह माँग नहीं माँगता। नानक (अपने) उस (मालिक) का ही सेवक है, उस मालिक से ही खिन खिन सदके होता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहिब तेरे नाम विटहु बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥१॥ रहाउ॥४॥१॥

मूलम्

साहिब तेरे नाम विटहु बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥१॥ रहाउ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विटहु = से। साहिब = हे साहिब!
अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं तेरे नाम से छिन-छिन कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ ॥ हम आदमी हां इक दमी मुहलति मुहतु न जाणा ॥ नानकु बिनवै तिसै सरेवहु जा के जीअ पराणा ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला १ ॥ हम आदमी हां इक दमी मुहलति मुहतु न जाणा ॥ नानकु बिनवै तिसै सरेवहु जा के जीअ पराणा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम। इक दमी = एक दम वाले। दम = सांस। मुहलति = (जिंदगी की) मियाद। मुहतु = (मौत का) समय। न जाणा = हम नहीं जानते। सरेवहु = स्मरण करो। जीअ पराणा = जिंद और प्राण।1।
अर्थ: नानक विनती करता है: (हे भाई!) हम आदमी एक दम के ही मालिक हैं (क्या पता कि दम कब खत्म हो जाए? हमें अपनी जिंदगी की) मियाद का पता नहीं है, हमें ये पता नहीं कि मौत का वक्त कब आ जाना है। (इस वास्ते) उस परमात्मा का स्मरण करो जिसने ये जिंद और श्वास दिए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंधे जीवना वीचारि देखि केते के दिना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अंधे जीवना वीचारि देखि केते के दिना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधे = हे अंधे जीव! हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! जीवना केते के दिना = कितने दिन का जीवन? थोड़े ही दिनों का जीवन।1। रहाउ।
अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! (आँखें खोल के) देख, सोच समझ, यहाँ जगत में थोड़े ही दिनों की जिंदगी है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासु मासु सभु जीउ तुमारा तू मै खरा पिआरा ॥ नानकु साइरु एव कहतु है सचे परवदगारा ॥२॥

मूलम्

सासु मासु सभु जीउ तुमारा तू मै खरा पिआरा ॥ नानकु साइरु एव कहतु है सचे परवदगारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासु = सांस। मासु = शरीर। जीउ = जिंद। मैं = मुझे। तू मै खरा पिआरा = तू मुझे बहुत प्यारा लग। हे प्रभु! तू मुझे अपना प्यार दे। साइरु = कवि, ढाढी। एव = ये ही।2।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश है? हे प्रभु!) तेरा ढाढी नानक (तेरे दर पर) यह ही विनती करता है: हे सदा अटल रहने वाले और जीवों को पालने वाले प्रभु! (जैसे) ये श्वास ये शरीर ये जिंद सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है (वैसे ही) अपना प्यार भी तू आप ही दे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे तू किसै न देही मेरे साहिबा किआ को कढै गहणा ॥ नानकु बिनवै सो किछु पाईऐ पुरबि लिखे का लहणा ॥३॥

मूलम्

जे तू किसै न देही मेरे साहिबा किआ को कढै गहणा ॥ नानकु बिनवै सो किछु पाईऐ पुरबि लिखे का लहणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ = क्या? को = कोई जीव। कढै = पेश करे, दे। गहणा = बदले में देने वाली कोई चीज। सो किछु = वही कुछ। पुरबि = पहले समय में। लहणा = मिलने योग्य चीज।3।
अर्थ: हे मेरे मालिक! अगर तू अपने प्यार की दाति आप ही किसी जीव को ना दे; तो जीव के पास कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि बदले में दे के तेरा प्यार ले ले। नानक विनती करता है कि जीव को तो वही कुछ मिल सकता है जो उसके पूर्बले कर्मों के अनुसार संस्कार-रूप लेख (उसके माथे पर लिखे हुए) हैं (अपने नाम के प्यार की दाति तो तूने आप ही देनी है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु खसम का चिति न कीआ कपटी कपटु कमाणा ॥ जम दुआरि जा पकड़ि चलाइआ ता चलदा पछुताणा ॥४॥

मूलम्

नामु खसम का चिति न कीआ कपटी कपटु कमाणा ॥ जम दुआरि जा पकड़ि चलाइआ ता चलदा पछुताणा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। कपटु = फल के काम। जम दुआरि = जम के दर पे। जा = जब। पकड़ि = पकड़ के। चलाइआ = चलाया गया। ता = तब।4।

दर्पण-टिप्पनी

हे नानक! (शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ का फर्क देखें। ‘नानकु’ = कर्ता कारक, एक वचन। ‘नानक’ = संबोधन)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पिछले कर्मों के संस्कारों के असर तहत) छली मनुष्य तो छल ही कमाता रहता है, और पति-प्रभु का नाम अपने मन में नहीं बसाता। (सारी उम्र यूँ ही गुजार के आखिरी वक्त) जब पकड़ के जमराज के दरवाजे की ओर धकेला जाता है, तो (यहाँ से) चलने के वक्त हाथ मलता है।4।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक किछु सुणीऐ किछु कहीऐ ॥ भालि रहे हम रहणु न पाइआ जीवतिआ मरि रहीऐ ॥५॥२॥

मूलम्

जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक किछु सुणीऐ किछु कहीऐ ॥ भालि रहे हम रहणु न पाइआ जीवतिआ मरि रहीऐ ॥५॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किछु = (प्रभु की) कुछ (महिमा)। रहणु = सदा का ठिकाना। भालि रहे = ढूँढ के थक गए हैं। मरि = (दुनियां की वासनाओं की ओर से) मर के। रहीऐ = यहाँ जिंदगी के दिन गुजारें।5।
अर्थ: हे नानक! जब तक दुनियाँ में जीना है परमात्मा की महिमा सुननी-कहनी चाहिए (यही मनुष्य जन्म का लाभ है, और यहाँ सदा नहीं बैठे रहना)। हम तलाश चुके हैं, किसी को भी सदा का ठिकाना यहाँ नहीं मिला, इसलिए जब तक जीवन-अवसर मिला है दुनियाँ की वासनाओं से मुक्त हो के जिंदगी के दिन गुजारें।5।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ घरु दूजा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

धनासरी महला १ घरु दूजा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किउ सिमरी सिवरिआ नही जाइ ॥ तपै हिआउ जीअड़ा बिललाइ ॥ सिरजि सवारे साचा सोइ ॥ तिसु विसरिऐ चंगा किउ होइ ॥१॥

मूलम्

किउ सिमरी सिवरिआ नही जाइ ॥ तपै हिआउ जीअड़ा बिललाइ ॥ सिरजि सवारे साचा सोइ ॥ तिसु विसरिऐ चंगा किउ होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरी = मैं स्मरण करूँ। हिआउ = हृदय। जीअड़ा = जिंद। बिललाइ = बिलकता है। सिरजि = पैदा करके। सवारे = सवारता है, अच्छे जीवन वाला बनाता है। साचा = सदा कायम रहने वाला अकाल-पुरख। तिसु विसरिऐ = अगर उस (प्रभु को) भुला दें। किउ होइ = नहीं हो सकता।1।
अर्थ: (चालाकी या जोर से) परमात्मा का स्मरण नहीं किया जा सकता। फिर मैं कैसे उसका स्मरण करूँ? और, अगर उस प्रभु को भुला दें, तो भी जीवन कभी अच्छा नहीं बन सकता, दिल जलता रहता है, जीवात्मा दुखी रहती है। (क्या किया जाए?) (दरअसल बात ये है कि) सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु जीवों को पैदा करके खुद ही (नाम-जपने की दाति दे के) अच्छे जीवन वाला बनाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिकमति हुकमि न पाइआ जाइ ॥ किउ करि साचि मिलउ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हिकमति हुकमि न पाइआ जाइ ॥ किउ करि साचि मिलउ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिकमति = चालाकी। हुकमि = हुक्म से, जोर से, किसी हक के जताने से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। मिलउ = मैं मिलूँ। माइ = हे माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! किसी चालाकी से अथवा कोई हक जताने से परमात्मा नहीं मिलता। और कौन सा तरीका है जिससे मैं उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में मिल सकता हूँ?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वखरु नामु देखण कोई जाइ ॥ ना को चाखै ना को खाइ ॥ लोकि पतीणै ना पति होइ ॥ ता पति रहै राखै जा सोइ ॥२॥

मूलम्

वखरु नामु देखण कोई जाइ ॥ ना को चाखै ना को खाइ ॥ लोकि पतीणै ना पति होइ ॥ ता पति रहै राखै जा सोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखरु = सौदा। कोई = कोई एक आध। लोकि पतीणै = अगर जगत की तसल्ली करवा दी जाए। पति = इज्जत। सोइ = वह परमात्मा ही।2।
अर्थ: (अगर उसकी मेहर ना हो तो) इस नाम-व्यापार को ना कोई परखने के लिए जाता है, ना ही कोई इसको खा के देखता है। (चालाकियों से जगत की तसल्ली करा दी जाती है कि हम नाम-व्यापार कर रहे हैं) पर निरा जगत की तसल्ली कराने से प्रभु की हजूरी में आदर नहीं मिलता (लोक-दिखावे वाली भक्ति स्वीकार नहीं होती)। इज्जत तब ही मिलती है अगर प्रभु (स्वयं मेहर करके नाम की दाति दे और) इज्जत रखे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह देखा तह रहिआ समाइ ॥ तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥ जे को करे कीतै किआ होइ ॥ जिस नो बखसे साचा सोइ ॥३॥

मूलम्

जह देखा तह रहिआ समाइ ॥ तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥ जे को करे कीतै किआ होइ ॥ जिस नो बखसे साचा सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। जाइ = जगह। कीतै = (हिकमत आदि वाला प्रयत्न) करने से।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिधर मैं देखता हूँ उधर ही तू मौजूद है, (तुझे मिलने के लिए) तेरे बिना और कोई आसरा नहीं है।
जो कोई जीव (प्रभु को मिलने के लिए हिकमत आदि जैसे प्रयत्न) करे, तो ऐसे प्रयत्नों का कोई लाभ नहीं होता। (सिर्फ वही जीव प्रभु को मिल सकता है) जिस पर वह सदा-स्थिर प्रभु खुद (स्मरण की) बख्शिश करे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुणि उठि चलणा मुहति कि तालि ॥ किआ मुहु देसा गुण नही नालि ॥ जैसी नदरि करे तैसा होइ ॥ विणु नदरी नानक नही कोइ ॥४॥१॥३॥

मूलम्

हुणि उठि चलणा मुहति कि तालि ॥ किआ मुहु देसा गुण नही नालि ॥ जैसी नदरि करे तैसा होइ ॥ विणु नदरी नानक नही कोइ ॥४॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हुणि = अभी। मुहति = पल में। तालि = ताल (देने के जितने समय) में। देसा = मैं दूँगा। विणु नदरी = मेहर की नजर के बिना।4।
अर्थ: (यहाँ सदा नहीं बैठे रहना, यहाँ से) जल्दी ही (हरेक जीव ने अपनी-अपनी वारी) चले जाना है, एक पल में अथवा एक ताल में (कह लो। यहाँ पक्के डेरे नहीं हैं)। (फिर, इस समय में अगर मैं लोक-विखावा ही करता रहा, तो) मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? मेरे पल्ले गुण नहीं होंगे।
(जीव के भी क्या वश?) परमात्मा जैसी निगाह करता है जीव वैसे ही जीवन वाला बन जाता है। हे नानक! प्रभु की मेहर की नजर के बिना कोई जीव प्रभु के चरणों में जुड़ नहीं सकता।4।1।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक १ बताता है कि ‘घरु दूजा’ के नए संग्रह का ये पहला शब्द है

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ ॥ नदरि करे ता सिमरिआ जाइ ॥ आतमा द्रवै रहै लिव लाइ ॥ आतमा परातमा एको करै ॥ अंतर की दुबिधा अंतरि मरै ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला १ ॥ नदरि करे ता सिमरिआ जाइ ॥ आतमा द्रवै रहै लिव लाइ ॥ आतमा परातमा एको करै ॥ अंतर की दुबिधा अंतरि मरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नदरि = कृपा दृष्टि। द्रवै = नर्म हो जाता है, पिघलता है। परातमा = पर आत्मा, दूसरों की आत्मा, दूसरों का स्वै। दुबिधा = मेर तेर। अंतर की = अंदरूनी। अंतरि = अंदर ही (‘अंदर’ संज्ञा है, ‘अंतरि’ क्रिया विशेषण)।1।
अर्थ: प्रभु खुद ही मेहर करे तो (गुरु के द्वारा) उसका स्मरण किया जा सकता है। (जो मनुष्य स्मरण करता है उसकी) आत्मा (दूसरों का दुख देख के) पिघलती है (कठोरता खत्म हो जाने के कारण) वह प्रभु में तवज्जो जोड़े रहता है। वह मनुष्य अपनी स्वै और दूसरों के स्वै को एक सा ही समझता है, उसके अंदर की मेर-तेर अंदर ही मिट जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी पाइआ जाइ ॥ हरि सिउ चितु लागै फिरि कालु न खाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर परसादी पाइआ जाइ ॥ हरि सिउ चितु लागै फिरि कालु न खाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। कालु = मौत, मौत का डर।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का स्मरण गुरु की कृपा से हासिल होता है, जिस मनुष्य का चिक्त परमात्मा से लग जाता है उसे दुबारा मौत का डर नहीं लगता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचि सिमरिऐ होवै परगासु ॥ ता ते बिखिआ महि रहै उदासु ॥ सतिगुर की ऐसी वडिआई ॥ पुत्र कलत्र विचे गति पाई ॥२॥

मूलम्

सचि सिमरिऐ होवै परगासु ॥ ता ते बिखिआ महि रहै उदासु ॥ सतिगुर की ऐसी वडिआई ॥ पुत्र कलत्र विचे गति पाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचि सिमरिऐ = अगर सदा स्थिर प्रभु को स्मरण किया जाए। परगासु = प्रकाश, असल जीवन की सूझ। ता ते = उस (प्रकाश) से। बिखिआ = माया। उदासु = निर्लिप। कलत्र = स्त्री। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।2।
अर्थ: अगर सदा स्थिर प्रभु को स्मरण किया जाए तो सही जीवन की समझ पड़ जाती है, उस ‘प्रकाश’ से (वह) माया में विचरते हुए भी निर्लिप रहता है। गुरु की शरण पड़ने में ऐसी ख़ूबी है कि पुत्र-स्त्री (आदि परिवार) में ही रहते हुए उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी सेवकु सेवा करै ॥ जिस का जीउ तिसु आगै धरै ॥ साहिब भावै सो परवाणु ॥ सो सेवकु दरगह पावै माणु ॥३॥

मूलम्

ऐसी सेवकु सेवा करै ॥ जिस का जीउ तिसु आगै धरै ॥ साहिब भावै सो परवाणु ॥ सो सेवकु दरगह पावै माणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। जिस का = जिस प्रभु का दिया हुआ।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस का’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सेवक वह है जो (मालिक की) इस तरह की सेवा करे कि जिस मालिक की दी हुई जिंद है उसी के आगे इसको भेट कर दे। ऐसा सेवक मालिक को पसंद आ जाता है, (मालिक के घर में) स्वीकार पड़ जाता है, उसकी हजूरी में आदर-सम्मान पाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर की मूरति हिरदै वसाए ॥ जो इछै सोई फलु पाए ॥ साचा साहिबु किरपा करै ॥ सो सेवकु जम ते कैसा डरै ॥४॥

मूलम्

सतिगुर की मूरति हिरदै वसाए ॥ जो इछै सोई फलु पाए ॥ साचा साहिबु किरपा करै ॥ सो सेवकु जम ते कैसा डरै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर की मूरति = गुरु का स्वरूप, गुरु का आत्मिक स्वरूप, गुरु की वाणी। साचा = सदा स्थिर रहने वाला।4।
अर्थ: जो सेवक अपने सतिगुरु के आत्मिक स्वरूप (शब्द) को अपने हृदय में बसाता है, वह गुरु के दर से मन-इच्छित फल हासिल करता है, सदा स्थिर रहने वाला मालिक प्रभु उस पर (इतनी) मेहर करता है कि उसे मौत का भी डर नहीं रह जाता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनति नानकु करे वीचारु ॥ साची बाणी सिउ धरे पिआरु ॥ ता को पावै मोख दुआरु ॥ जपु तपु सभु इहु सबदु है सारु ॥५॥२॥४॥

मूलम्

भनति नानकु करे वीचारु ॥ साची बाणी सिउ धरे पिआरु ॥ ता को पावै मोख दुआरु ॥ जपु तपु सभु इहु सबदु है सारु ॥५॥२॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भनति = कहता है। ता = तब ही। को = कोई (मनुष्य)। मोह = मोह से खलासी। दुआरु = दरवाजा, रास्ता। सारु = श्रेष्ठ।5।
अर्थ: नानक कहता है: जो मनुष्य (गुरु के शब्द की) विचार करता है, सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा वाली इस गुरबाणी से प्यार पाता है, तब वह (माया के मोह से) निजात का रास्ता तलाश लेता है। (महिमा वाला ये) श्रेष्ठ गुर-शब्द ही असल जप है असल तप है।5।2।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ ॥ जीउ तपतु है बारो बार ॥ तपि तपि खपै बहुतु बेकार ॥ जै तनि बाणी विसरि जाइ ॥ जिउ पका रोगी विललाइ ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला १ ॥ जीउ तपतु है बारो बार ॥ तपि तपि खपै बहुतु बेकार ॥ जै तनि बाणी विसरि जाइ ॥ जिउ पका रोगी विललाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तपतु है = दुखी होता है। बारो बार = बार-बार। तपि तपि = तप तप के, दुखी हो हो के। बेकार = विकारों में। जै तनि = जिस शरीर में। विसरि जाइ = भूल जाती है। पका रोगी = कोढ़ के रोग वाला।1।
अर्थ: (महिमा की वाणी को विसार के) जिंद बार बार दुखी होती है, दुखी हो हो के (फिर भी) और ही विकारों में दुखी होती है। जिस शरीर में (भाव, जिस मनुष्य को) प्रभु की महिमा की वाणी भूल जाती है, वह सदा यूँ विलकता है जैसे कोढ़ के रोग वाला आदमी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुता बोलणु झखणु होइ ॥ विणु बोले जाणै सभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बहुता बोलणु झखणु होइ ॥ विणु बोले जाणै सभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहुता बोलणु = (सहेड़े हुए दुखों के बारे में) बहुते गिले। झखणु = व्यर्थ बकवास। सोइ = वह प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: (स्मरण से खाली रहने के कारण सहेड़े हुए दुखों की बाबत ही) बहुते गिले करते रहना व्यर्थ का बोल-बुलारा है क्योंकि वह परमात्मा हमारे गिले किए बिना ही (हमारे रोगों की) सार जानता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि कन कीते अखी नाकु ॥ जिनि जिहवा दिती बोले तातु ॥ जिनि मनु राखिआ अगनी पाइ ॥ वाजै पवणु आखै सभ जाइ ॥२॥

मूलम्

जिनि कन कीते अखी नाकु ॥ जिनि जिहवा दिती बोले तातु ॥ जिनि मनु राखिआ अगनी पाइ ॥ वाजै पवणु आखै सभ जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तातु = तुरंत। अगनी पाइ = (शरीर में) आग (गरमी) पा के। मनु = जिंद। पवणु = श्वास। वाजै = बजता है, चलता है। आखै = (जीव) बोलता है। सभ जाइ = और जगह।2।
अर्थ: (दुखों से बचने के लिए उस प्रभु का स्मरण करना चाहिए) जिसने कान दिए, आँखें दीं, नाक दिया, जिसने जीभ दी जो फटाफट बोलती है, जिसने हमारे शरीर को गरमी दे के जीवात्मा (शरीर में) टिका दी; (जिसकी कला से शरीर में) श्वास चलता है और मनुष्य हर जगह (चल-फिर के) बोल-चाल कर सकता है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जेता मोहु परीति सुआद ॥ सभा कालख दागा दाग ॥ दाग दोस मुहि चलिआ लाइ ॥ दरगह बैसण नाही जाइ ॥३॥

मूलम्

जेता मोहु परीति सुआद ॥ सभा कालख दागा दाग ॥ दाग दोस मुहि चलिआ लाइ ॥ दरगह बैसण नाही जाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाग दोस = दोशों का दाग़। मुहि = मुँह पर। लाइ = लगा के। जाइ = जगह।3।
अर्थ: जितना भी माया का मोह है दुनिया की प्रीति है, रसों के स्वाद हैं, ये सारे मन में विकारों की कालिख ही पैदा करते हैं, विकारों के दाग़ ही लगाते जाते हैं। (स्मरण से सूने रह के विकारों में फंस के) मनुष्य विकारों के दाग़ अपने माथे पर लगा के (यहाँ से) चल पड़ता है, और परमात्मा की हजूरी में इसे बैठने के लिए जगह नहीं मिलती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करमि मिलै आखणु तेरा नाउ ॥ जितु लगि तरणा होरु नही थाउ ॥ जे को डूबै फिरि होवै सार ॥ नानक साचा सरब दातार ॥४॥३॥५॥

मूलम्

करमि मिलै आखणु तेरा नाउ ॥ जितु लगि तरणा होरु नही थाउ ॥ जे को डूबै फिरि होवै सार ॥ नानक साचा सरब दातार ॥४॥३॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमि = मेहर से। जितु लगि = जिसमें लग के। को = कोई जीव। सार = संभाल।4।
अर्थ: (पर, हे प्रभु! जीव के भी क्या वश?) तेरा नाम स्मरण (का गुण) तेरी मेहर से ही मिल सकता है, तेरे नाम में लग के (मोह और विकारों के समुंदर में से) पार लांघा जा सकता है, (इनसे बचने के लिए) और कोई जगह नहीं है।
हे नानक! (निराश होने की आवश्यक्ता नहीं) अगर कोई मनुष्य (प्रभु को भुला के विकारों में) डूबता भी है (वह प्रभु इतना दयालु है कि) फिर भी उसकी संभाल होती है। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु सब जीवों को दातें देने वाला है (किसी से भेद-भाव नहीं रखता)।4।3।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ ॥ चोरु सलाहे चीतु न भीजै ॥ जे बदी करे ता तसू न छीजै ॥ चोर की हामा भरे न कोइ ॥ चोरु कीआ चंगा किउ होइ ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला १ ॥ चोरु सलाहे चीतु न भीजै ॥ जे बदी करे ता तसू न छीजै ॥ चोर की हामा भरे न कोइ ॥ चोरु कीआ चंगा किउ होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलाहे = कीर्ति करे, उपमा करे। भीजै = भीगता, पतीजता। बदी = बुराई, निंदा। तसू = थोड़ा सा भी। छीजै = छिजता, कमजोर होता, घबराता। हामा = हिमायत, जामनी (हामा भरनी = ज़ामन बनना, किसी के अच्छे होने के बाबत तसल्ली भरे वचन कहने)। कीआ = किया गया, बनाया गया। किउ होइ = नहीं हो सकता।1।
अर्थ: अगर कोई चोर (उस हाकिम की जिसके सामने उसका मुकदमा पेश है) खुशामद करे तो उसे (ये) यकीन नहीं बन सकता (कि ये सच्चा है), अगर वह चोर (हाकिम की) बुराई करे तो भी थोड़ा सा भी नहीं घबराता। कोई भी मनुष्य किसी चोर के अच्छे होने की गवाही नहीं दे सकता। जो मनुष्य (लोगों की नजरों में) चोर माना गया, वह (खुशमदों व बद्खोईयों से औरों के सामने) अच्छा नहीं बन सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि मन अंधे कुते कूड़िआर ॥ बिनु बोले बूझीऐ सचिआर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सुणि मन अंधे कुते कूड़िआर ॥ बिनु बोले बूझीऐ सचिआर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! कुते = कुत्ते की तरह लालची। कूड़िआर = हे झूठे! बूझीऐ = पहचाना जाता है। सचिआर = सच्चा मनुष्य।1। रहाउ।
अर्थ: हे अँधे लालची व झूठे मन! (ध्यान से) सुन। सच्चा मनुष्य बिना बोले ही पहचाना जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोरु सुआलिउ चोरु सिआणा ॥ खोटे का मुलु एकु दुगाणा ॥ जे साथि रखीऐ दीजै रलाइ ॥ जा परखीऐ खोटा होइ जाइ ॥२॥

मूलम्

चोरु सुआलिउ चोरु सिआणा ॥ खोटे का मुलु एकु दुगाणा ॥ जे साथि रखीऐ दीजै रलाइ ॥ जा परखीऐ खोटा होइ जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआलिउ = सुंदर। दुगाणा = दो कौड़ियों के टुकड़े।2।
अर्थ: चोर भले ही समझदार बने चतुर बने (पर आखिर है वह चोर ही, उसकी कद्र-कीमत नहीं पड़ती, जैसे) खोटे रुपए का मूल्य दो कौड़ी बराबर ही है। अगर खोटे रुपए को (खरों में) रख दें, (खरों में) मिला दें, तो भी जब उसकी परख होती है तब वह खोटा ही कहा जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसा करे सु तैसा पावै ॥ आपि बीजि आपे ही खावै ॥ जे वडिआईआ आपे खाइ ॥ जेही सुरति तेहै राहि जाइ ॥३॥

मूलम्

जैसा करे सु तैसा पावै ॥ आपि बीजि आपे ही खावै ॥ जे वडिआईआ आपे खाइ ॥ जेही सुरति तेहै राहि जाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बीजि = बीज के। आपे = खुद ही। खाइ = कसमें खाए। वडिआईआ = गुण। तेहै राहि = वैसे ही राह पर। जाइ = जाता है। सुरति = भावना, मन की वासना।3।
अर्थ: मनुष्य जैसा काम करता है वैसा ही वह उसका फल पाता है। हर कोई खुद (कर्मों के बीज) बीज के खुद ही फल खाता है। अगर कोई मनुष्य (हो तो खोटा, पर) अपनी महानताओं (अच्छाईयां बखान किए जाए) की कस्में उठाए जा (उसका ऐतबार नहीं बन सकता, क्योंकि) मनुष्य की जैसी मनो-कामना है वैसे ही रास्ते पर वह चलता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे सउ कूड़ीआ कूड़ु कबाड़ु ॥ भावै सभु आखउ संसारु ॥ तुधु भावै अधी परवाणु ॥ नानक जाणै जाणु सुजाणु ॥४॥४॥६॥

मूलम्

जे सउ कूड़ीआ कूड़ु कबाड़ु ॥ भावै सभु आखउ संसारु ॥ तुधु भावै अधी परवाणु ॥ नानक जाणै जाणु सुजाणु ॥४॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूड़ीआ = झूठी बातें। कूड़ु = झूठ। कबाड़ु = कूड़ा करकट, व्यर्थ काम। भावै आखउ = बेशक कहता रहे। तुधु भावै = हे प्रभु तुझे पसंद आ जाए। अधी = (धी = अक्ल) अकल हीन मनुष्य, सिद्धड़, सीधा। जाणु = जाननेवाला प्रभु। सुजाणु = सयाना।4।
अर्थ: (अपना ऐतबार जमाने के लिए चालाक बन के) चाहे सारे संसार को झूठी बातें और गप्पें मारता रहे (पर, हे प्रभु! कोई मनुष्य तुझे धोखा नहीं दे सकता)। (हे प्रभु! जो दिल का खरा हो तो) एक सीधा मनुष्य भी तुझे पसंद आ जाता है, तेरे दर पर स्वीकार हो जाता है।
हे नानक! घट घट की जानने वाला सुजान प्रभु (सब कुछ) जानता है।4।3।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ ॥ काइआ कागदु मनु परवाणा ॥ सिर के लेख न पड़ै इआणा ॥ दरगह घड़ीअहि तीने लेख ॥ खोटा कामि न आवै वेखु ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला १ ॥ काइआ कागदु मनु परवाणा ॥ सिर के लेख न पड़ै इआणा ॥ दरगह घड़ीअहि तीने लेख ॥ खोटा कामि न आवै वेखु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कागदु = कागज़। परवाणा = परवाना, लिखा हुआ हुक्म। इआणा = अंजान जीव। दरगह = दरगाही नियम अनुसार। घड़ीअहि = घड़े जाते हैं। तीने लेख = (रजो, तमो, सतो) त्रिगुणी किए कामों के संस्कार-रूपी लेख। कामि = काम में। खोटा = खोटा संस्कार। कामि न आवै = लाभदायक नहीं होता।1।
अर्थ: ये मनुष्य का शरीर (जैसे) एक काग़ज़ है, मनुष्य का मन (शरीर रूपी काग़ज़ पर लिखा हुआ) दरगाही परवाना है। पर मूर्ख मनुष्य अपने माथे के लेख नहीं पढ़ता (भाव, ये समझने का प्रयत्न नहीं करता कि उसके पिछले किए कर्मों के अनुसार किस तरह के संस्कार-लेख उसके मन में मौजूद हैं जो उसे अब और प्रेरणा कर रहे हैं)। माया के तीनों गुणों के असर में रह के किए हुए कर्मों के संस्कार ईश्वरीय नियमों के अनुसार हरेक मनुष्य के मन में उकर जाते हैं। पर हे भाई! देख (जैसे कोई खोटा सिक्का काम नहीं आता, वैसे ही खोटे किए हुए काम का) खोटा-संस्कार वाला लेख भी काम नहीं आता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक जे विचि रुपा होइ ॥ खरा खरा आखै सभु कोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नानक जे विचि रुपा होइ ॥ खरा खरा आखै सभु कोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! विचि = आत्मिक जीवन में। रुपा = चाँदी, शुद्ध धातु, पवित्रता। सभु कोइ = हरेक जीव।1। रहाउ।
अर्थ: हे नानक! अगर रुपए आदि सिक्के में चाँदी हो तो हरेक उसे खरा सिक्का कहता है (इसी तरह जिस मन में पवित्रता हो, उसे खरा कहा जाता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कादी कूड़ु बोलि मलु खाइ ॥ ब्राहमणु नावै जीआ घाइ ॥ जोगी जुगति न जाणै अंधु ॥ तीने ओजाड़े का बंधु ॥२॥

मूलम्

कादी कूड़ु बोलि मलु खाइ ॥ ब्राहमणु नावै जीआ घाइ ॥ जोगी जुगति न जाणै अंधु ॥ तीने ओजाड़े का बंधु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कादी = काजी।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अरबी शब्द ‘काजी’ के दो उच्चारण हैं: काज़ी और कादी।

दर्पण-भाषार्थ

कूड़ु = झूठ। मलु = मैल, हराम का माल। नावै = नहाता है, तीर्थ स्नान करता है। जीआ घाइ = जीवों को मार के, अनेक लोगों को शूद्र कह के पैरों नीचे लिताड़ के। जुगति = जीवन की विधि। अंधु = अंधा। बंधु = बाँध। ओजाड़े का बंधु = उजाड़े का बाँध, आत्मिक जीवन की ओर से उजाड़ ही उजाड़।2।
अर्थ: काज़ी (जो एक तरफ तो इस्लाम धर्म का नेता है और दूसरी तरफ हाकिम भी है, रिश्वत की खातिर शरई कानून के बारे में) झूठ बोल के हराम का माल (रिश्वत) खाता है। ब्राहमण (करोड़ों शूद्र कहलाते) लोगों को दुखी कर-कर के तीर्थ-स्नान भी करता है। जोगी भी अंधा है और जीवन की विधि नहीं जानता। (ये तीनों अपनी ओर से धार्मिक नेता हैं, पर) इन तीनों के ही अंदर आत्मिक जीवन के पक्ष से सुन्नम-सूना है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जोगी जो जुगति पछाणै ॥ गुर परसादी एको जाणै ॥ काजी सो जो उलटी करै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ॥ सो ब्राहमणु जो ब्रहमु बीचारै ॥ आपि तरै सगले कुल तारै ॥३॥

मूलम्

सो जोगी जो जुगति पछाणै ॥ गुर परसादी एको जाणै ॥ काजी सो जो उलटी करै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ॥ सो ब्राहमणु जो ब्रहमु बीचारै ॥ आपि तरै सगले कुल तारै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की किरपा से। उलटी करै = तवज्जो को हराम के माल रिश्वत से पलटाता है। जीवतु मरै = दुनिया में रहते हुए भी दुनियावी ख्वाइशों से हटता है। ब्रहमु = परमात्मा।3।
अर्थ: असल जोगी वह है जो जीवन की विधि समझता है और गुरु की कृपा से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है। काजी वह है जो तवज्जो को हराम के माल से मोड़ता है जो गुरु की किरपा से दुनिया में रहते हुए दुनियावी ख्वाइशों से पलटता है। ब्राहमण वह है जो सर्व-व्यापक प्रभु में तवज्जो जोड़ता है, इस तरह खुद भी संसार-समुंदर में से पार लांघता है और अपनी सारी कुलों को भी लंघा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानसबंदु सोई दिलि धोवै ॥ मुसलमाणु सोई मलु खोवै ॥ पड़िआ बूझै सो परवाणु ॥ जिसु सिरि दरगह का नीसाणु ॥४॥५॥७॥

मूलम्

दानसबंदु सोई दिलि धोवै ॥ मुसलमाणु सोई मलु खोवै ॥ पड़िआ बूझै सो परवाणु ॥ जिसु सिरि दरगह का नीसाणु ॥४॥५॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दानस = अकल, दानिश। दानसमंदु = अकलमंद। दिलि = दिल में (टिकी हुई बुराई)। मलु = विवकारों की मैल। खोवै = नाश करता है। पढ़िआ = विद्वान। बूझै = समझता है। जिसु सिरि = जिसके सिर पर, जिसके माथे पर। नीसाणु = निशान, टीका।4।
अर्थ: वही मनुष्य बुद्धिमान है जो अपने दिल में टिकी हुई बुराईयों को दूर करता है। वही मुसलमान है जो मन में से विकारों की मैल का नाश करता है। वही विद्वान है जो जीवन का सही रास्ता समझता है, उसके माथे पर दरगाह का टीका लगता है वही प्रभु की हजूरी में स्वीकार होता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

धनासरी महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालु नाही जोगु नाही नाही सत का ढबु ॥ थानसट जग भरिसट होए डूबता इव जगु ॥१॥

मूलम्

कालु नाही जोगु नाही नाही सत का ढबु ॥ थानसट जग भरिसट होए डूबता इव जगु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालु = समय, मानव जनम का समय। जोगु = मिलाप, परमात्मा का मिलाप। सत = उच्च आचरण। ढबु = तरीका। थानसट = श्रेष्ठ जगह, पवित्र हृदय। जग = जगत के। भरिसट = गंदे। इव = इस तरह, इन दिखावे की समाधियों से।1।
अर्थ: ये (मानव जनम का) समय (आँखें बंद करने व नाक पकड़ने के लिए) नहीं है, (इन सजावटों से) परमात्मा से मेल नहीं होता, ना ही ये उच्च आचरण का तरीका है। (इन ढंग-तरीकों से) जगत के (अनेक) पवित्र हृदय भी गंदे हो जाते हैं, इस तरह जगत (विकारों में) डूबने लग जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल महि राम नामु सारु ॥ अखी त मीटहि नाक पकड़हि ठगण कउ संसारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कल महि राम नामु सारु ॥ अखी त मीटहि नाक पकड़हि ठगण कउ संसारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कल महि = संसार में।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: गुरमति के अनुसार किसी खास युग की कोई प्रतिभा, महिमा नहीं है।

दर्पण-भाषार्थ

सारु = श्रेष्ठ। त = तो। मीटहि = बँद करते हैं। कउ = के लिए।1। रहाउ।
अर्थ: जगत में परमात्मा का नाम (और सारे कामों से) श्रेष्ठ है। (जो ये लोग) आँखें तो बँद करते हैं, नाक भी पकड़ते हैं (ये) जगत को ठगने के लिए (करते हैं, ये भक्ति नहीं, ये उत्तम धार्मिक कर्म नहीं)।1। रहाउ।

[[0663]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आंट सेती नाकु पकड़हि सूझते तिनि लोअ ॥ मगर पाछै कछु न सूझै एहु पदमु अलोअ ॥२॥

मूलम्

आंट सेती नाकु पकड़हि सूझते तिनि लोअ ॥ मगर पाछै कछु न सूझै एहु पदमु अलोअ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आंट = अंगूठे के साथ की दो उंगलियाँ। सेती = से। तिनि = तीन। लोअ = लोक। मगर = पीठ। पदमु = पदम आसन (चौकड़ी मार के बायाँ पैर दाहिनी जाँघ पर और दाहिना पैर बाई जाँघ पर रख के बैठना)। अलोअ = (अ+लोअ) जो कभी देखा ना हो, आश्चर्य।2।
अर्थ: हाथ के अंगूठे के पास की दो उंगलियों से ये (अपना) नाक पकड़ते हैं (समाधि के रूप में बैठ के मुँह से कहते हैं कि उन्हें) तीनों ही लोक दिखाई दे रहे हैं, पर अपनी पीठ के पीछे पड़ी कोई चीज़ इन्हें दिखाई नहीं देती। ये अजीब पद्मासन है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खत्रीआ त धरमु छोडिआ मलेछ भाखिआ गही ॥ स्रिसटि सभ इक वरन होई धरम की गति रही ॥३॥

मूलम्

खत्रीआ त धरमु छोडिआ मलेछ भाखिआ गही ॥ स्रिसटि सभ इक वरन होई धरम की गति रही ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाखिआ = बोली। मलेछ भाखिआ = उनकी बोली जिन्हें वे खुद मलेछ कहते हैं। गही = ग्रहण कर ली। इक वरन = एक ही वर्ण की, अधर्मी ही अधर्मी। गति = मर्यादा।3।
अर्थ: (अपने आप को हिन्दू धर्म के रखवाले समझने वाले) खत्रियों ने (अपना ये) धर्म छोड़ दिया है, जिनको ये अपने मुँह से मलेछ कह रहे हैं (रोजी की खातिर) उनकी बोली ग्रहण कर चुके हैं, (इनके) धर्म की मर्यादा मर चुकी है, सारी सृष्टि एक-वर्ण की हो गई है (एक अधर्म ही अधर्म प्रधान हो गया है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असट साज साजि पुराण सोधहि करहि बेद अभिआसु ॥ बिनु नाम हरि के मुकति नाही कहै नानकु दासु ॥४॥१॥६॥८॥

मूलम्

असट साज साजि पुराण सोधहि करहि बेद अभिआसु ॥ बिनु नाम हरि के मुकति नाही कहै नानकु दासु ॥४॥१॥६॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असट = आठ। असट साज = आष्टाध्याई आदि व्याकर्णिक ग्रंथ। साजि = रच के। सोधहि = विचारते हैं। मुकति = विकारों से आजादी।4।
अर्थ: (ब्राहमण लोग) आष्टाध्याई आदि ग्रंथ रच के (उनके अनुसार) पुराणों को विचारते हैं और वेदों का अभ्यास करते हैं। (बस! इसी को श्रेष्ठ धर्म-कर्म माने बैठे हैं)। पर, दास नानक कहता है कि परमात्मा का नाम जपे बिना (विकारों से) खलासी नहीं हो सकती (इसलिए नाम जपना ही सबसे श्रेष्ठ धर्म-कर्म है)।4।1।6।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: आखिरी अंकों को ध्यान से देखें। अंक 4 बताता है कि शब्द के 4 बंद हैं। अगला अंक1 बताता है कि ‘घर 3’ का ये पहला शब्द है। ‘घर 2’ के 5 शब्द हैं। ‘घर 3’ का एक शब्द है। अंक 6 बताता है है कि ‘घर 2’ और ‘घर 3’ के शबदों का जोड़ 6 है। धनासरी राग में गुरु नानक देव जी के अब तक 8 शब्द आ चुके हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला १ आरती ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

धनासरी महला १ आरती ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘आरती’ (आरति: , आराक्तिका) देवते की मूर्ति या किसी पूज्य के आगे दीए घुमा के पूजन करना। हिन्दू मत के अनुसार चार बार चरणों के आगे, दो बार नाभि पर, एक बार मुँह पर और सात बार सारे शरीर पर दीए घुमाने चाहिए। दीए एक से ले कर सौ तक हो सकते हैं। गुरु नानक देव जी ने इस आरती का खण्डन करके ईश्वर की प्राकृतिक रूप से हो रही आरती की महिमा की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥

मूलम्

गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूर्य। दीपक = दीए। जनक = जानोक, जैसा, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा (अनल = हवा)। मलय पर्वत पर चंदन आदि के पौधे होने के कारण उधर से आने वाली हवा सुगंधित होती है। मलय पर्वत भारत के दक्षिण में है। बनराइ = वनस्पति। फुलंत = फूल दे रही है। जोती = ज्योति रूप प्रभु।1।
अर्थ: सारा आकाश (जैसे) थाल है, सूर्य और चंद्रमा (इस थाल में) दीए बने हुए हैं, तारा मण्डल, (थाल में) मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली (सुगंधित) हवा मानो, धूप (धुख) रही है, हवा चवर कर रही है, सारी बनस्पति ज्योति-रूपी (प्रभु की आरती) के लिए फूल दे रही है (पुष्पार्पण कर रही है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भवखंडना = हे जनम मरण काटने वाले! अनहता = (अन+हत) जो बिना बजाए बजे, एक रस। सबद = आवाज़, जीवन लहर। भेरी = नगारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीवों के जनम-मरण नाश करने वाले! (प्रकृति में) तेरी कैसी सुंदर आरती हो रही है! (सब जीवों में रुमक रही) एक-रस लहर, जैसे, तेरी आरती के लिए नगारे बज रहे हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥ सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥

मूलम्

सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥ सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहस = हजारों। तव = तेरे। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे वास्ते, तेरे, तुझे। मूरति = शकल। नना = कोई नहीं। तोही = तेरी। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। इव = इस तरह। चलत = चरित्र, करिश्में, आश्चर्यजनक खेल।2।
अर्थ: (सब जीवों में व्यापक होने के कारण) तेरी हजारों आँखें हैं (पर, निराकार होने के कारण, हे प्रभु!) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों ही तेरी सूरतें हैं, पर तेरी कोई सूरति नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं, पर (निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू बिना नाक के ही है। तेरे ऐसे अजीब करिश्मों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥

मूलम्

सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोति = प्रकाश, रोशनी। सोइ = वह प्रभु। तिस कै चानणि = उस प्रभु के प्रकाश से। साखी = शिक्षा से।3।
अर्थ: सारे जीवों में एक उसी परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में रौशनी (सूझ-बूझ) है। पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरु की शिक्षा से ही होता है (गुरु के माध्यम से ये समझ पड़ती है कि हरेक अंदर परमात्मा की ज्योति है)। (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ उसकी रजा में हो रहा है वह जीव को अच्छा लगे (प्रभु की रजा में चलना ही प्रभु की आरती करनी है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ॥ क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नामि वासा ॥४॥१॥७॥९॥

मूलम्

हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ॥ क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नामि वासा ॥४॥१॥७॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen dust), फूलों का रस। मनो = मन। अनदिनो = हर रोज। मोहि = मुझे। आही = है, रहती है। सारंगि = पपीहा। जा ते = जिससे। तेरै नामि = तेरे नाम में।4।
अर्थ: हे हरि! तेरे चरण-रूप कमल-पुष्प के रस के लिए मेरा मन ललचाता है, हर रोज मुझे इसी रस की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे, जिस (की इनायत) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।1।7।9।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक१– ‘आरती’ का विशेष एक शब्द। अंक ७– ‘घरु २’ ‘घरु ३’ के 7 शब्द।
अंक ९– धनासरी में गुरु नानक देव जी के कुल शबदों की गिनती 9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

धनासरी महला ३ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु धनु अखुटु न निखुटै न जाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अपुने सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ गुर किरपा ते हरि मंनि वसाई ॥१॥

मूलम्

इहु धनु अखुटु न निखुटै न जाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अपुने सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ गुर किरपा ते हरि मंनि वसाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। न निखुटै = खत्म नहीं होता। न जाइ = ना नाश होता है। सतिगुरि को = गुरु ने। कउ = को, से। सद = सदा। बलि जाई = बलि जाऊँ, सदके जाता हूँ। ते = साथ। मंनि = मन में। वसाई = मैं बसाता हूँ।1।
अर्थ: हे भाई! ये नाम-खजाना कभी खत्म होने वाला नहीं, ना ही ये (खर्चने से) समाप्त होता है, ना ये गायब होता है। (इस धन की ये महानता मुझे) पूरे गुरु ने दिखा दी है। (हे भाई!) मैं अपने गुरु से सदके जाता हूं, गुरु की कृपा से परमात्मा (का नाम-धन अपने) मन में बसाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से धनवंत हरि नामि लिव लाइ ॥ गुरि पूरै हरि धनु परगासिआ हरि किरपा ते वसै मनि आइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

से धनवंत हरि नामि लिव लाइ ॥ गुरि पूरै हरि धनु परगासिआ हरि किरपा ते वसै मनि आइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। नामि = नाम में। लिव = लगन। लाइ = लगा के। गुरि = गुरु ने। परगासिआ = दिखा दिया। किरपा ते = कृपा से। मनि = मन में। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में) पूरे गुरु ने परमात्मा के नाम का धन प्रगट कर दिया, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के (आत्मिक जीवन के) शाह बन गए। हे भाई! ये नाम-धन परमात्मा की कृपा से मन में आ के बसता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगुण काटि गुण रिदै समाइ ॥ पूरे गुर कै सहजि सुभाइ ॥ पूरे गुर की साची बाणी ॥ सुख मन अंतरि सहजि समाणी ॥२॥

मूलम्

अवगुण काटि गुण रिदै समाइ ॥ पूरे गुर कै सहजि सुभाइ ॥ पूरे गुर की साची बाणी ॥ सुख मन अंतरि सहजि समाणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काटि = काट के, दूर करके। रिदै = हृदय में। समाइ = टिका देता है। गुर कै = गुरु के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। साची = सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली। सुख = आत्मिक आनंद (बहुवचन)। मन अंतरि = मन में।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण आए मनुष्य के) अवगुण दूर करके परमात्मा की महिमा (उसके) हृदय में बसा देता है। (हे भाई!) पूरे गुरु की (उचारी हुई) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाली वाणी (मनुष्य के) मन में आत्मिक हुलारे पैदा करती है। (इस वाणी की इनायत से) आत्मिक अडोलता में समाई हुई रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु अचरजु जन देखहु भाई ॥ दुबिधा मारि हरि मंनि वसाई ॥ नामु अमोलकु न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥

मूलम्

एकु अचरजु जन देखहु भाई ॥ दुबिधा मारि हरि मंनि वसाई ॥ नामु अमोलकु न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचरजु = हैरान करने वाला तमाशा। जन = हे जनो! भाई = हे भाई! दुबिधा = मन की डाँवां = डोल हालत, मेर तेर। मंनि = मन में। अमोलक = किसी भी कीमत में नहीं मिल सकता। परसादि = कृपा से। आइ = आ के।3।
अर्थ: हे भाई जनो! एक हैरान करने वाला तमाशा देखो। (गुरु मनुष्य के अंदर से) तेर-मेर हटा के परमात्मा (का नाम उसके) मन में बसा देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम अमोहक है, (किसी भी दुनियावी कीमत से) नहीं मिल सकता। (हाँ,) गुरु की कृपा से मन में आ बसता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ महि वसै प्रभु एको सोइ ॥ गुरमती घटि परगटु होइ ॥ सहजे जिनि प्रभु जाणि पछाणिआ ॥ नानक नामु मिलै मनु मानिआ ॥४॥१॥

मूलम्

सभ महि वसै प्रभु एको सोइ ॥ गुरमती घटि परगटु होइ ॥ सहजे जिनि प्रभु जाणि पछाणिआ ॥ नानक नामु मिलै मनु मानिआ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ महि = सब जीवों में। सोइ = वही। गुरमति = गुरु की मति पर चलने से। घटि = हृदय में। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जाणि = सांझ डाल के। मानिआ = पतीज जाता है।4।
अर्थ: (हे भाई! चाहे) परमात्मा खुद ही सबमें बसता है, (पर) गुरु की मति पर चलने से ही (मनुष्य के) हृदय में प्रकट होता है। हे नानक! आत्मिक अडोलता में टिक के जिस मनुष्य ने प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल के (उसको अपने अंदर बसता) पहचान लिया है, उसे परमात्मा का नाम (सदा के लिए) प्राप्त हो जाता है, उसका मन (परमात्मा की याद में) पतीजा रहता है।4।

[[0664]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ ॥ हरि नामु धनु निरमलु अति अपारा ॥ गुर कै सबदि भरे भंडारा ॥ नाम धन बिनु होर सभ बिखु जाणु ॥ माइआ मोहि जलै अभिमानु ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला ३ ॥ हरि नामु धनु निरमलु अति अपारा ॥ गुर कै सबदि भरे भंडारा ॥ नाम धन बिनु होर सभ बिखु जाणु ॥ माइआ मोहि जलै अभिमानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र। अपारा = बेअंत, कभी ना खत्म होने वाला। कै सबदि = के शब्द द्वारा। भंडारा = खजाने। बिखु = जहर (जो आत्मिक मौत ले आता है)। जाणु = समझ। मोहि = मोह में। अभिमानु = अहंकार।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम पवित्र धन है, कभी ना खत्म होने वाला धन है। गुरु के शब्द में (जुड़ने से मनुष्य के अंदर इस धन के) खजाने भरे जाते हैं। हे भाई! हरि-नाम धन के बिना और (दुनियावी धन) अहंकार पैदा करता है (दुनियावी धन को एकत्र करने वाला मनुष्य) माया के मोह में जलता रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि हरि रसु चाखै कोइ ॥ तिसु सदा अनंदु होवै दिनु राती पूरै भागि परापति होइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरमुखि हरि रसु चाखै कोइ ॥ तिसु सदा अनंदु होवै दिनु राती पूरै भागि परापति होइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। कोइ = जो कोई। भागि = किस्मत से। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम का स्वाद चखता है, उसे दिन रात हर वक्त आत्मिक आनंद मिला रहता है। (पर ये हरि नाम रस) पूरी किस्मत से ही मिलता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदु दीपकु वरतै तिहु लोइ ॥ जो चाखै सो निरमलु होइ ॥ निरमल नामि हउमै मलु धोइ ॥ साची भगति सदा सुखु होइ ॥२॥

मूलम्

सबदु दीपकु वरतै तिहु लोइ ॥ जो चाखै सो निरमलु होइ ॥ निरमल नामि हउमै मलु धोइ ॥ साची भगति सदा सुखु होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीपकु = दीया। वरतै = काम करता है, प्रकाश देता है। तिहु लोइ = तीनों लोकों में। नामि = नाम से। मलु = मैल। धोइ = धो लेता है। साची = सदा कायम रहने वाली।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द (मानो) दीया है, जो सारे संसार में प्रकाश करता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द को चखता है, वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। (गुरु के शब्द द्वारा) पवित्र हरि-नाम में (जुड़ के मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार की मैल धो लेता है। सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति की इनायत से (मनुष्य के अंदर) सदा आत्मिक आनंद बना रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि हरि रसु चाखिआ सो हरि जनु लोगु ॥ तिसु सदा हरखु नाही कदे सोगु ॥ आपि मुकतु अवरा मुकतु करावै ॥ हरि नामु जपै हरि ते सुखु पावै ॥३॥

मूलम्

जिनि हरि रसु चाखिआ सो हरि जनु लोगु ॥ तिसु सदा हरखु नाही कदे सोगु ॥ आपि मुकतु अवरा मुकतु करावै ॥ हरि नामु जपै हरि ते सुखु पावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। हरि जनु = हरि का सेवक। हरखु = खुशी। सोगु = ग़म। मुकतु = (दुखों व विकारों से) आजाद। अवरा = और लोगों को। ते = से।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम-रस चख लिया, वह परमात्मा का दास बन गया। उसे सदा आनंद प्राप्त रहता है, उसे कोई ग़म नहीं व्यापता। वह मनुष्य खुद (दुखों से विकारों से) बचा रहता है, और लोगों को भी बचा लेता है। वह (भाग्यशाली) मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जपता रहता है, परमात्मा से सुख हासिल करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर सभ मुई बिललाइ ॥ अनदिनु दाझहि साति न पाइ ॥ सतिगुरु मिलै सभु त्रिसन बुझाए ॥ नानक नामि सांति सुखु पाए ॥४॥२॥

मूलम्

बिनु सतिगुर सभ मुई बिललाइ ॥ अनदिनु दाझहि साति न पाइ ॥ सतिगुरु मिलै सभु त्रिसन बुझाए ॥ नानक नामि सांति सुखु पाए ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ = सारी दुनिया। मुई = आत्मिक मौत मर गई। बिललाइ = बिलक के, दुखी हो के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। दाझहि = जलाते हैं। साति = शांति। न पाइ = नही मिलती। सभ = सारी। नामि = नाम में (जुड़ के)।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना सारी लुकाई दुखी हो हो के आत्मिक मौत सहेड़ लेती है। (गुरु से विछुड़ के मनुष्य) हर वक्त (माया के मोह में) जलते रहते हैं। (गुरु की शरण पड़े बिना मनुष्य) शांति हासिल नहीं कर सकता। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, गुरु उसकी सारी (माया की) प्यास मिटा देता है। हे नानक! वह मनुष्य हरि-नाम में टिक के शांति और आनंद हासिल कर लेता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ ॥ सदा धनु अंतरि नामु समाले ॥ जीअ जंत जिनहि प्रतिपाले ॥ मुकति पदारथु तिन कउ पाए ॥ हरि कै नामि रते लिव लाए ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला ३ ॥ सदा धनु अंतरि नामु समाले ॥ जीअ जंत जिनहि प्रतिपाले ॥ मुकति पदारथु तिन कउ पाए ॥ हरि कै नामि रते लिव लाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सदा धनु = सदा साथ निभाने वाला धन। अंतरि = अंदर। समाले = संभाले, संभाल के रख। जिनहि = जिस ने ही। मुकति पदारथु = विकारों से मुक्ति दिलाने वाली कीमती चीज। पाए = प्राप्त होती है। लाए = ला के।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनहि’ में से ‘जिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने सारे जीवों की पालना (करने की जिंमेवारी) ली हुई है, उस परमात्मा का नाम (ऐसा) धन (है जो) सदा साथ निभाता है, इसको अपने अंदर संभाल के रख। हे भाई! विकारों से खलासी कराने वाला नाम-धन उन मनुष्यों को मिलता है, जो तवज्जो जोड़ के परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा ते हरि नामु धनु पावै ॥ अंतरि परगासु हरि नामु धिआवै ॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर सेवा ते हरि नामु धनु पावै ॥ अंतरि परगासु हरि नामु धिआवै ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। प्रगासु = प्रकाश, रोशनी, सूझ। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की (बताई) सेवा करने से (मनुष्य) परमात्मा का नाम-धन हासिल कर लेता है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसके अंदर (आत्मिक जीवन की) सूझ पैदा हो जाती है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु हरि रंगु गूड़ा धन पिर होइ ॥ सांति सीगारु रावे प्रभु सोइ ॥ हउमै विचि प्रभु कोइ न पाए ॥ मूलहु भुला जनमु गवाए ॥२॥

मूलम्

इहु हरि रंगु गूड़ा धन पिर होइ ॥ सांति सीगारु रावे प्रभु सोइ ॥ हउमै विचि प्रभु कोइ न पाए ॥ मूलहु भुला जनमु गवाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि पिर रंगु = प्रभु पति का प्रेम रंग। धन = (उस जीव-) स्त्री (को)। सीगारु = गहना। मूलहु = मूल से, अपने जीवन दाते से। रावे = माणती है, हृदय में हर वक्त बसाती है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-पति (के प्रेम) का ये गाढ़ा रंग उस जीव-स्त्री को चढ़ता है, जो (आत्मिक) शांति को (अपने जीवन का) गहना बनाती है, वह जीव-स्त्री उस प्रभु को हर वक्त हृदयस में बसाए रखती है। पर अहंकार में (रह के) कोई भी जीव परमात्मा से नहीं मिल सकता। अपने जीवन दाते को भूला हुआ मनुष्य अपना मानव जन्म व्यर्थ गवा जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर ते साति सहज सुखु बाणी ॥ सेवा साची नामि समाणी ॥ सबदि मिलै प्रीतमु सदा धिआए ॥ साच नामि वडिआई पाए ॥३॥

मूलम्

गुर ते साति सहज सुखु बाणी ॥ सेवा साची नामि समाणी ॥ सबदि मिलै प्रीतमु सदा धिआए ॥ साच नामि वडिआई पाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। साची = सदा कायम रहने वाली। नामि = नाम में। सबदि = शब्द में। नामि = नाम से।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु से (मिली) वाणी की इनायत से आत्मिक शांति प्राप्त होती है, आत्मिक अडोलता का आनंद मिलता है। (गुरु की बताई हुई) सेवा सदा साथ निभने वाली चीज है (इसकी इनायत से परमात्मा के) नाम में लीनता हो जाती है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ा रहता है, वह प्रीतम प्रभु को सदा स्मरण करता रहता है, सदा-स्थिर प्रभु के नाम में लीन हो के (परलोक में) इज्जत कमाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता जुगि जुगि सोइ ॥ नदरि करे मेलावा होइ ॥ गुरबाणी ते हरि मंनि वसाए ॥ नानक साचि रते प्रभि आपि मिलाए ॥४॥३॥

मूलम्

आपे करता जुगि जुगि सोइ ॥ नदरि करे मेलावा होइ ॥ गुरबाणी ते हरि मंनि वसाए ॥ नानक साचि रते प्रभि आपि मिलाए ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। जुगि जुगि = हरेक युग में। मेलावा = मिलाप। मंनि = मन में। ते = से, के द्वारा। साचि = सदा स्थिर रहने वाले हरि नाम में। प्रभि = प्रभु ने।4।
अर्थ: जो कर्तार हरेक युग में खुद ही (मौजूद चला आ रहा) है, वह (जिस मनुष्य पर मेहर की) निगाह करता है (उस मनुष्य का उससे) मिलाप हो जाता है। वह मनुष्य गुरु की वाणी की इनायत से परमात्मा को अपने मन में बसा लेता है। हे नानक! जिस मनुष्यों को प्रभु ने खुद (अपने चरणों में) मिलाया है, वह उस सदा-स्थिर (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ तीजा ॥ जगु मैला मैलो होइ जाइ ॥ आवै जाइ दूजै लोभाइ ॥ दूजै भाइ सभ परज विगोई ॥ मनमुखि चोटा खाइ अपुनी पति खोई ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला ३ तीजा ॥ जगु मैला मैलो होइ जाइ ॥ आवै जाइ दूजै लोभाइ ॥ दूजै भाइ सभ परज विगोई ॥ मनमुखि चोटा खाइ अपुनी पति खोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैलो = मैला ही। होइ जाइ = होता जाता है। आवै जाइ = पैदा होता है मरता है। दूजै = परमात्मा के बिनिा और में। लोभाइ = लोभ करके, फस के। दूजै भाइ = माया के मोह में। परज = प्रजा। विगोई = खुआर हो रही है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह में फंस के जगत मैले जीवन वाला हो जाता है, और ज्यादा मैले जीवन वाला बनता जाता है, और जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। हे भाई! माया के मोह में फंस के सारी लुकाई ख्वार होती है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह की) चोटें खाता है, और अपनी इज्जत गवाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा ते जनु निरमलु होइ ॥ अंतरि नामु वसै पति ऊतम होइ ॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर सेवा ते जनु निरमलु होइ ॥ अंतरि नामु वसै पति ऊतम होइ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। जनु = सेवक। पति = इज्जत। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की (बताई हुई) सेवा से मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है, उसके अंदर परमात्मा का नाम आ बसता है, और उसको ऊँची इज्जत मिलती है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि उबरे हरि सरणाई ॥ राम नामि राते भगति द्रिड़ाई ॥ भगति करे जनु वडिआई पाए ॥ साचि रते सुख सहजि समाए ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि उबरे हरि सरणाई ॥ राम नामि राते भगति द्रिड़ाई ॥ भगति करे जनु वडिआई पाए ॥ साचि रते सुख सहजि समाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। उबरे = बच गए। नामि = नाम में। राते = मगन। द्रिड़ाई = हृदय में पक्की टिका ली। साची = सदा स्थिर प्रभु में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ कर (माया के मोह से) बच निकलते हैं, वे परमात्मा के नाम में मगन रहते हैं, परमात्मा की भक्ति अपने हृदय में पक्की तरह टिकाए रखते हैं। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है वह (लोक-परलोक में) इज्जत कमाता है। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु (के प्रेम-रंग) में रंगे रहते हैं वे आत्मिक हिलोरों में आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचे का गाहकु विरला को जाणु ॥ गुर कै सबदि आपु पछाणु ॥ साची रासि साचा वापारु ॥ सो धंनु पुरखु जिसु नामि पिआरु ॥३॥

मूलम्

साचे का गाहकु विरला को जाणु ॥ गुर कै सबदि आपु पछाणु ॥ साची रासि साचा वापारु ॥ सो धंनु पुरखु जिसु नामि पिआरु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाहकु = मिलने का चाहवान। जाणु = समझो। सबदि = शब्द से। आपु = अपने आत्मिक जीवन को। पछाणु = पहचानने वाला। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। धंनु = भाग्यशाली। जिसु पिआरु = जिसका प्यार।3।
अर्थ: (हे भाई! फिर भी) सदा-स्थिर प्रभु के साथ मिलाप का चाहवान किसी विरले मनुष्य को ही समझो। (जो कोई मिलाप का चाहवान होता है, वह) गुरु के शब्द में जुड़ के अपने आत्मिक जीवन को परखने वाला बन जाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम की पूंजी (अपने अंदर संभाल के रखता है), वह मनुष्य सदा साथ निभाने वाला (हरि के नाम के स्मरण का) व्यापार करता है। हे भाई! वह मनुष्य भाग्यशाली है जिसका प्यार परमात्मा के नाम में पड़ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिनि प्रभि साचै इकि सचि लाए ॥ ऊतम बाणी सबदु सुणाए ॥ प्रभ साचे की साची कार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥४॥

मूलम्

तिनि प्रभि साचै इकि सचि लाए ॥ ऊतम बाणी सबदु सुणाए ॥ प्रभ साचे की साची कार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥४॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘महला’ के साथ प्रयोग हुए अंक १,२,३,४,५,९ को पहला, दूजा, तीजा, चौथा, पंजवा और नावां पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। साचै = सदा कायम रहने वाले ने। इकि = कईयों को। सचि = सदा स्थिर नाम में। ऊतम = श्रेष्ठ (जीवन वाले)। साची कार = अटल मर्यादा। सवारणहार = जीवन सवारने वाला।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! उस सदा-स्थिर प्रभु ने कई (मनुष्यों) को (अपने) सदा-स्थिर नाम में जोड़ा हुआ है उनको गुरु की वाणी गुरु का शब्द सुनाता है, और पवित्र जीवन वाला बना देता है। हे नानक! सदा कायम रहने वाले प्रभु की ये अटल मर्यादा है कि वह अपने नाम में जोड़ के जीवों के जीवन सुंदर बना देने वाला है।4।4।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ ॥ जो हरि सेवहि तिन बलि जाउ ॥ तिन हिरदै साचु सचा मुखि नाउ ॥ साचो साचु समालिहु दुखु जाइ ॥ साचै सबदि वसै मनि आइ ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला ३ ॥ जो हरि सेवहि तिन बलि जाउ ॥ तिन हिरदै साचु सचा मुखि नाउ ॥ साचो साचु समालिहु दुखु जाइ ॥ साचै सबदि वसै मनि आइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा करते हैं, स्मरण करते हैं। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = कुर्बान। हिरदै = हृदय में। साचु = सदा कायम रहने वाला हरि। मुखि = मुँह में। सचा = सदा स्थिर। साचो साचु = सदा स्थिर प्रभु ही। समालिहु = (हे भाई!) संभाल के रखा करो। सबदि = शब्द के द्वारा।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरबाणी का आसरा ले के) जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करते हैं, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ। उनके हृदय में सदा-स्थिर प्रभु बसा रहता है, उनके मुँह में सदा-स्थिर हरि-नाम टिका रहता है। हे भाई! सदा स्थिर प्रभु को ही (दिल में) संभाल के रखा करो (इसकी इनायत से हरेक) दुख दूर हो जाते हैं। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाले शब्द में जुड़ने से (हरि-नाम) मन में आ बसता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरबाणी सुणि मैलु गवाए ॥ सहजे हरि नामु मंनि वसाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरबाणी सुणि मैलु गवाए ॥ सहजे हरि नामु मंनि वसाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = (हे भाई!) सुना कर। सहजे = आत्मिक अडोलता में। मंनि = मन में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु की वाणी सुना कर, (ये वाणी मन में से विकारों की) मैल दूर कर देती है। (ये वाणी) आत्मिक अडोलता में (टिका के) परमात्मा का नाम मन में बसा देती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूड़ु कुसतु त्रिसना अगनि बुझाए ॥ अंतरि सांति सहजि सुखु पाए ॥ गुर कै भाणै चलै ता आपु जाइ ॥ साचु महलु पाए हरि गुण गाइ ॥२॥

मूलम्

कूड़ु कुसतु त्रिसना अगनि बुझाए ॥ अंतरि सांति सहजि सुखु पाए ॥ गुर कै भाणै चलै ता आपु जाइ ॥ साचु महलु पाए हरि गुण गाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूड़ु कुसतु = झूठ फरेब। अगनि = आग। भाणै = रजा में। आपु = स्वै भाव। महलु = ठिकाना।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की वाणी मन में से) झूठ-फरेब खत्म कर देती है, तृष्णा की आग बुझा देती है। (गुरबाणी की इनायत से) मन में शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक अडोलता में टिका जाते हैं, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। (जब मनुष्य गुरबाणी के अनुसार) गुरु की रजा में चलता है, तब (उसके अंदर से) स्वै भाव दूर हो जाता है, तब वह प्रभु की महिमा के गीत गा गा के सदा स्थिर रहने वाला ठिकाना प्राप्त कर लेता है (प्रभु चरणों में लीन रहता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सबदु बूझै न जाणै बाणी ॥ मनमुखि अंधे दुखि विहाणी ॥ सतिगुरु भेटे ता सुखु पाए ॥ हउमै विचहु ठाकि रहाए ॥३॥

मूलम्

न सबदु बूझै न जाणै बाणी ॥ मनमुखि अंधे दुखि विहाणी ॥ सतिगुरु भेटे ता सुखु पाए ॥ हउमै विचहु ठाकि रहाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूझै = समझता। जाणै = सांझ पाता। दुखि = दुख में। विहाणी = बीतती है। भेटे = मिलता है। तां = तब। विचहु = मन में। ठाकि = रोक के।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य ना गुरु के शब्द को समझता है, ना गुरु की वाणी से गहरी सांझ डालता है, माया के मोह में अंधे हो चुके, और अपने मन के पीछे चलने वाले (उस मनुष्य की उम्र) दुख में ही गुजरती है। जब उसको गुरु मिल जाता है, तब वह आत्मिक आनंद हासिल करता है, गुरु उसके मन में से अहंकार को मार खत्म कर देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किस नो कहीऐ दाता इकु सोइ ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होइ ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा ॥ नानक साचे साचा भावा ॥४॥५॥

मूलम्

किस नो कहीऐ दाता इकु सोइ ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होइ ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा ॥ नानक साचे साचा भावा ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। मिलि = मिल के। साचे भावा = सदा स्थिर प्रभु को अच्छी लगूँ। गावा = गाऊँ।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘किस नो’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर, हे भाई! (परमात्मा के बिना) और किसी के आगे अरजोई की नहीं जा सकती। सिर्फ परमात्मा ही (गुरु के मिलाप की दाति) देने वाला है। जब परमात्मा (ये) कृपा करता है, तब गुरु के शब्द में जुड़ने से (प्रभु से) मिलाप हो जाता है। हे नानक! (कह: अगर प्रभु की मेहर हो तो) मैं प्रीतम गुरु को मिल के सदा-स्थिर प्रभु के गीत गा सकता हूँ, सदा स्थिर प्रभु का नाम जप-जप के सदा-स्थिर प्रभु को प्यारा लग सकता हूँ।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ ॥ मनु मरै धातु मरि जाइ ॥ बिनु मन मूए कैसे हरि पाइ ॥ इहु मनु मरै दारू जाणै कोइ ॥ मनु सबदि मरै बूझै जनु सोइ ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला ३ ॥ मनु मरै धातु मरि जाइ ॥ बिनु मन मूए कैसे हरि पाइ ॥ इहु मनु मरै दारू जाणै कोइ ॥ मनु सबदि मरै बूझै जनु सोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरै = (विकारों की ओर से) मर जाता है (उस पर विकारों का असर नहीं होता)। धातु = दौड़ भाग, तृष्णा। कैसे पाइ = कैसे पाए? नहीं पा सकता। कोइ = कोई एक आध। सबदि = गुरु के शब्द से। सोइ जनु = वही मनुष्य।1।
अर्थ: (हे भाई! उस हरि-नाम की इनायत से मनुष्य का) मन विकारों का असर नहीं कबूलता, मन की तृष्णा समाप्त हो जाती है। जब तक मन विकारों से अछूता नहीं होता, मनुष्य परमात्मा का मिलाप प्राप्त नहीं कर सकता। हे भाई! कोई विरला मनुष्य ही वह दवाई जानता है, जिसके इस्तेमाल से इस मन पर विकारों का असर ना हो सके। (जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है) वह मनुष्य समझ लेता है कि गुरु के शब्द में जुड़ने से मन विकारों से अछूता हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो बखसे हरि दे वडिआई ॥ गुर परसादि वसै मनि आई ॥ रहाउ॥

मूलम्

जिस नो बखसे हरि दे वडिआई ॥ गुर परसादि वसै मनि आई ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दे = देता है। वडिआई = इज्जत। परसादि = कृपा से। मनि = मन में। आइ = आ के। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिसनो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा बख्शिश करता है, जिसको इज्जत देता है, उस मनुष्य के मन में गुरु की कृपा से (परमात्मा का नाम) आ बसता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि करणी कार कमावै ॥ ता इसु मन की सोझी पावै ॥ मनु मै मतु मैगल मिकदारा ॥ गुरु अंकसु मारि जीवालणहारा ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि करणी कार कमावै ॥ ता इसु मन की सोझी पावै ॥ मनु मै मतु मैगल मिकदारा ॥ गुरु अंकसु मारि जीवालणहारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहके। करणी = करने योग्य। ता = तब। मै मतु = नशे में मस्त। मै = शराब, अहंकार की शराब। मैगल = हाथी। मिकदारा = बराबर, जितना। अंकसु = लोहे की शलाका जिससे महावत हाथी को चलाता है। जीवालणहारा = जिंदगी देने की सामर्थ्य वाला।2।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (गुरु की ओर से मिले) करने योग्य काम करने आरम्भ कर देता है, तब उसको इस मन (को वश में रखने) की समझ आ जाती है। (जब मनुष्य ये समझ लेता है कि) मन (अहंकार के) नशे में मस्त हो के (मस्त) हाथी जैसा हुआ रहता है, गुरु ही (अपने शब्द का) अंकुश बरत के (विकारों में आत्मिक मौत मरे हुए मन को) आत्मिक जीवन देने की सामर्थ्य रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु असाधु साधै जनु कोई ॥ अचरु चरै ता निरमलु होई ॥ गुरमुखि इहु मनु लइआ सवारि ॥ हउमै विचहु तजै विकार ॥३॥

मूलम्

मनु असाधु साधै जनु कोई ॥ अचरु चरै ता निरमलु होई ॥ गुरमुखि इहु मनु लइआ सवारि ॥ हउमै विचहु तजै विकार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असाधु = वश में ना आ सकने वाला, जिसे साधा ना जा सके। साधै = वश में लाता है। कोई = कोई विरला। चरै = खा लेता है, मार मुकाता है। अचरु = जो खाया ना जा सके।3।
अर्थ: हे भाई! ये मन बड़ी मुश्किल से वश में आता है, कोई विरला मनुष्य इसे बस में लाता है। जब मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर मन के) असाध रोग (कामादिक) को खत्म कर लेता है, तब (इसका मन) पवित्र हो जाता है। गुरु की शरण पड़े रहने वाला मनुष्य इस मन को सुंदर बना लेता है, और अपने अंदर से अहंकार आदि विकारों को निकाल देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो धुरि रखिअनु मेलि मिलाइ ॥ कदे न विछुड़हि सबदि समाइ ॥ आपणी कला आपे प्रभु जाणै ॥ नानक गुरमुखि नामु पछाणै ॥४॥६॥

मूलम्

जो धुरि रखिअनु मेलि मिलाइ ॥ कदे न विछुड़हि सबदि समाइ ॥ आपणी कला आपे प्रभु जाणै ॥ नानक गुरमुखि नामु पछाणै ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखिअनु = उस (परमात्मा) ने रखे हैं। मिलाइ रखिअनु = उसने मिला के रखे हैं। जो = जिस (मनुष्य) ने। विछुड़हि = बिछुड़ते हैं। सबदि = शब्द में। समाइ = लीन हो के। कला = शक्ति, ताकत। आपे = खुद ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को उस (परमात्मा) ने धुर से ही अपने चरणों में जोड़े रखा है, वह गुरु के शब्द में लीन रहके कभी भी (प्रभु से) नहीं विछुड़ते।
हे भाई! प्रभु खुद ही अपनी छुपी हुई शक्ति को जानता है (कि किस को वह अपने साथ जोड़े रखता है)। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के नाम से सांझ बनाए रखता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ ॥ काचा धनु संचहि मूरख गावार ॥ मनमुख भूले अंध गावार ॥ बिखिआ कै धनि सदा दुखु होइ ॥ ना साथि जाइ न परापति होइ ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला ३ ॥ काचा धनु संचहि मूरख गावार ॥ मनमुख भूले अंध गावार ॥ बिखिआ कै धनि सदा दुखु होइ ॥ ना साथि जाइ न परापति होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काचा = कच्चा, टूट जाने वाला, नाशवान। संचहि = इकट्ठा करते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भूले = गलत रास्ते पर पड़े हुए। अंध = (माया के मोह में) अंधे। बिखिआ = माया। कै धनि = के धन से। परापति = तसल्ली, संतोष, तृप्ति।1।
अर्थ: हे भाई! मूर्ख अंजान लोग (सिर्फ दुनियावी) नाशवान धन (ही) जोड़ते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले, माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। हे भाई! माया के धन से सदा दुख (ही) मिलता है। ये धन ना ही मनुष्य के साथ जाता है और ना ही (इसे इकट्ठा कर-करके) संतोष ही मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा धनु गुरमती पाए ॥ काचा धनु फुनि आवै जाए ॥ रहाउ॥

मूलम्

साचा धनु गुरमती पाए ॥ काचा धनु फुनि आवै जाए ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। गुरमती = गुरु की मति पर चल के। फुनि = बार बार। आवै = मिलता है। जाए = हाथ से चला जाता है। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की मति पर चलते हैं, वे सदा कायम रहने वाले हरि-नाम-धन को हासिल कर लेते हैं। (पर दुनिया वाला) नाशवान धन कभी मनुष्य को मिल जाता है कभी हाथ से निकल जाता है। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि भूले सभि मरहि गवार ॥ भवजलि डूबे न उरवारि न पारि ॥ सतिगुरु भेटे पूरै भागि ॥ साचि रते अहिनिसि बैरागि ॥२॥

मूलम्

मनमुखि भूले सभि मरहि गवार ॥ भवजलि डूबे न उरवारि न पारि ॥ सतिगुरु भेटे पूरै भागि ॥ साचि रते अहिनिसि बैरागि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। मरहि = आत्मिक जीवन गवा लेते हैं। भवजलि = संसार समुंदर में। उरवारि = इस पार। पारि = उस पार। भेटे = मिलता है। भागि = किस्मत से। साचि = सदा स्थिर हरि नाम। रते = मस्त। अहि = दिन। निसि = रात। बैरागि = वैराग में।2।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (माया के मोह के कारण) गलत राह पड़ कर आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, संसार समुंदर में डूब जाते हैं, ना इस पार रहते हैं, ना उस पार (ना ये माया आखिर तक साथ निभाती है, ना नाम-धन जोड़ा होता है)। जिस मनुष्यों को पूरी किस्मत से गुरु मिल जाता है वह दिन रात (हर वक्त) सदा-स्थिर हरि-नाम में मगन रहते हैं (नाम की इनायत से माया की ओर से) उपरामता में टिके रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चहु जुग महि अम्रितु साची बाणी ॥ पूरै भागि हरि नामि समाणी ॥ सिध साधिक तरसहि सभि लोइ ॥ पूरै भागि परापति होइ ॥३॥

मूलम्

चहु जुग महि अम्रितु साची बाणी ॥ पूरै भागि हरि नामि समाणी ॥ सिध साधिक तरसहि सभि लोइ ॥ पूरै भागि परापति होइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चहु जुग महि = चारों युगों में, सदा ही। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। नामि = नाम में। सिध = करामाती योगी। साधिक = साधना करने वाले। सभि = सारे। लोइ = लोक में, जगत में।3।
अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाली गुरबाणी सदा ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (बाँटती है), पूरी किस्मत से (मनुष्य इस वाणी की इनायत से) परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है। हे भाई! करामाती योगी और साधना करने वाले योगी सारे ही जगत में (इस वाणी की खातिर) तरले लेते हैं, पर पूरी किस्मत से मिलती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु किछु साचा साचा है सोइ ॥ ऊतम ब्रहमु पछाणै कोइ ॥ सचु साचा सचु आपि द्रिड़ाए ॥ नानक आपे वेखै आपे सचि लाए ॥४॥७॥

मूलम्

सभु किछु साचा साचा है सोइ ॥ ऊतम ब्रहमु पछाणै कोइ ॥ सचु साचा सचु आपि द्रिड़ाए ॥ नानक आपे वेखै आपे सचि लाए ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज। साचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। सोइ = वह (प्रभु) ही। कोइ = कोई विरला मनुष्य। पछाणै = पहचानता है, सांझ डालता है। सचु साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सचु = सदा स्थिर हरि-नाम। द्रिढ़ाए = (दिल में) पक्का करता है। आपे = खुद ही। वेखै = संभाल करता है। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में।4।
अर्थ: हे भाई! जो कोई विरला मनुष्य पवित्र-स्वरूप परमात्मा के साथ सांझ डालता है उसे हरेक चीज़ सदा-स्थिर प्रभु का रूप दिखाई देती है, उसे हर जगह वह सदा-स्थिर प्रभु ही बसता दिखता है। हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा अपना सदा-स्थिर नाम खुद ही (मनुष्य के दिल में) पक्का करता है। वह खुद ही (सबकी) संभाल करता है, और खुद ही (जीवों को) अपने सदा स्थिर नाम में जोड़ता है।4।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी महला ३ ॥ नावै की कीमति मिति कही न जाइ ॥ से जन धंनु जिन इक नामि लिव लाइ ॥ गुरमति साची साचा वीचारु ॥ आपे बखसे दे वीचारु ॥१॥

मूलम्

धनासरी महला ३ ॥ नावै की कीमति मिति कही न जाइ ॥ से जन धंनु जिन इक नामि लिव लाइ ॥ गुरमति साची साचा वीचारु ॥ आपे बखसे दे वीचारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नावै की = (परमात्मा के) नाम की। मिति = माप, मर्यादा। से = वह (बहुवचन)। धंनु = भाग्यशाली। नामि = नाम में। लिव = लगन। साची = अटल, कभी गलती ना करने वाली। साचा वीचारु = सदा स्थिर प्रभु के गुणों के विचार। दे = देता है।1।
अर्थ: हे भाई! ये नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा का नाम किस मोल मिल सकता है और इस नाम की ताकत कितनी है। जिस मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ी हुई है वे भाग्यशाली हैं। जो मनुष्य कभी गलती ना करने वाली गुरु की मति ग्रहण करता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के गुणों की विचार (अपने अंदर) बसाता है। पर ये विचार प्रभु उसे ही देता है जिस पर खुद मेहर करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नामु अचरजु प्रभु आपि सुणाए ॥ कली काल विचि गुरमुखि पाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि नामु अचरजु प्रभु आपि सुणाए ॥ कली काल विचि गुरमुखि पाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचरजु = हैरान करने वाला। कली काल विचि = झगड़े भरे जीवन समय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम हैरान करने वाली ताकत वाला है। (पर यह नाम) प्रभु स्वयं ही (किसी भाग्यशाली को) सुनाता है। इन झगड़ों-भरे जीवन समय में वही मनुष्य हरि-नाम प्राप्त करता है जो गुरु के सन्मुख रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम मूरख मूरख मन माहि ॥ हउमै विचि सभ कार कमाहि ॥ गुर परसादी हंउमै जाइ ॥ आपे बखसे लए मिलाइ ॥२॥

मूलम्

हम मूरख मूरख मन माहि ॥ हउमै विचि सभ कार कमाहि ॥ गुर परसादी हंउमै जाइ ॥ आपे बखसे लए मिलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम जीव। मन माहि = (अगर) मन में (विचार करके देखें)। कमाहि = (हम) करते हैं। गुर परसादी = गुरु की कृपा से ही। आपे = (प्रभु) स्वयं ही।2।
अर्थ: हे भाई! हम जीव (अपना) हरेक काम अहंकार के आसरे ही करते हैं, (सो जो हम अपने) मन में (ध्यान से विचारें तो इस अहंकार के कारण) हम केवल मूर्ख हैं। ये अहंकार (हमारे अंदर से) गुरु की कृपा से दूर हो सकता है। (गुरु भी उसी को) मिलाता है जिस पर प्रभु खुद ही मेहर करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिखिआ का धनु बहुतु अभिमानु ॥ अहंकारि डूबै न पावै मानु ॥ आपु छोडि सदा सुखु होई ॥ गुरमति सालाही सचु सोई ॥३॥

मूलम्

बिखिआ का धनु बहुतु अभिमानु ॥ अहंकारि डूबै न पावै मानु ॥ आपु छोडि सदा सुखु होई ॥ गुरमति सालाही सचु सोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। अभिमानु = अहंकार। अहंकारि = अहंकार में। मानु = आदर। आपु = स्वै भाव। सालाही = मैं सलाहूँ। सचु = सदा स्थिर प्रभु।3।
अर्थ: (हे भाई! ये दुनियावी) माया का धन (मनुष्य के मन में) बड़ा अहंकार (पैदा करता है)। और, जो मनुष्य अहंकार में डूबा रहता है वह (प्रभु की हजूरी में) आदर नहीं पाता। हे भाई! स्वैभाव त्याग के सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे भाई! मैं तो गुरु की मति ले के उस सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता रहता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे साजे करता सोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ जिसु सचि लाए सोई लागै ॥ नानक नामि सदा सुखु आगै ॥४॥८॥

मूलम्

आपे साजे करता सोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ जिसु सचि लाए सोई लागै ॥ नानक नामि सदा सुखु आगै ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजे = पैदा करता है। सचि = सदा स्थिर नाम में। नामि = नाम में (जुड़के)। आगै = परलोक में (भी)।4।
अर्थ: हे भाई! वह कर्तार स्वयं ही (सारी सृष्टि को) पैदा करता है, उसके बिना कोई और (ऐसी अवस्था वाला) नहीं है। वह कर्तार जिस मनुष्य को (अपने) सदा-स्थिर नाम में जोड़ता है, वही मनुष्य (नाम-स्मरण में) लगता है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में लगता है उसको ही आत्मिक आनंद बना रहता है (इस लोक में भी, और) परलोक में भी।4।8।