०७ बिहागड़ा

[[0537]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिहागड़ा चउपदे महला ५ घरु २ ॥

मूलम्

रागु बिहागड़ा चउपदे महला ५ घरु २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूतन संगरीआ ॥ भुइअंगनि बसरीआ ॥ अनिक उपरीआ ॥१॥

मूलम्

दूतन संगरीआ ॥ भुइअंगनि बसरीआ ॥ अनिक उपरीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूतन संगरीआ = कामादिक वैरियों की संगत। भुइअंग = भुजंग, साँप। बसरीआ = वास। अनिक = अनेक को। उपरीआ = उजाड़ा, तबाह किया है।1।
अर्थ: हे भाई! कामादिक वैरियों की संगत साँपों के साथ निवास (के समान) है, (इन दूतों ने) अनेक (के जीवन) को तबाह किया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तउ मै हरि हरि करीआ ॥ तउ सुख सहजरीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तउ मै हरि हरि करीआ ॥ तउ सुख सहजरीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ = तब। सुख सहजरीआ = आत्मिक अडोलता के सुख।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) तभी तो मैं सदा परमात्मा का नाम जपता हूँ (जब से नाम जप रहा हूँ) तब (से) मुझे आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद प्राप्त हें।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथन मोहरीआ ॥ अन कउ मेरीआ ॥ विचि घूमन घिरीआ ॥२॥

मूलम्

मिथन मोहरीआ ॥ अन कउ मेरीआ ॥ विचि घूमन घिरीआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिथन मोहरीआ = मिथ्या मोह, झूठा मोह। अन कउ = और (पदार्थों) को।2।
अर्थ: हे भाई! जीव को झूठा मोह चिपका हुआ है (परमात्मा के बिना) अन्य पदार्थों को ‘मेरे मेरे’ समझता रहता है, (सारी उम्र) मोह के चक्रव्यूह में फंसा रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल बटरीआ ॥ बिरख इक तरीआ ॥ बहु बंधहि परीआ ॥३॥

मूलम्

सगल बटरीआ ॥ बिरख इक तरीआ ॥ बहु बंधहि परीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बटरीआ = (वाट = रास्ता) बटोही, राही, मुसाफिर। इकतरीआ = एकत्र होए हुए। बंधहि = बंधनों में। परीआ = पड़े हुए।3।
अर्थ: हे भाई! सारे जीव (यहाँ) राही ही हैं, (संसार-) वृक्ष के नीचे एकत्र होए हुए हैं, पर (माया के) बहुत सारे बंधनों में फंसे हुए हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थिरु साध सफरीआ ॥ जह कीरतनु हरीआ ॥ नानक सरनरीआ ॥४॥१॥

मूलम्

थिरु साध सफरीआ ॥ जह कीरतनु हरीआ ॥ नानक सरनरीआ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफरीआ = सफ़, सभा, संगत। जह = जहाँ।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शीर्षक में शब्द ‘चउपदे’ (बहुवचन) लिखा है पर है एक ही चउपदा।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सिर्फ गुरु की संगत ही सदा-स्थिर रहने वाला ठिकाना है क्योंकि वहाँ परमात्मा की महिमा होती रहती है। हे नानक! (कह: मैं साधु-संगत की) शरण आया हूँ।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बिहागड़ा महला ९ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बिहागड़ा महला ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि की गति नहि कोऊ जानै ॥ जोगी जती तपी पचि हारे अरु बहु लोग सिआने ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि की गति नहि कोऊ जानै ॥ जोगी जती तपी पचि हारे अरु बहु लोग सिआने ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मक अवस्था। कोऊ = कोई भी। पचि = दुखी हो के। हारे = थक गए हैं। अरु = और।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अनेक योगी, अनेक तपी, व अन्य बहुत सारे समझदार मनुष्य खप-खप के हार गए हैं, पर कोई भी मनुष्य यह नहीं जान सकता कि परमात्मा कैसा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन महि राउ रंक कउ करई राउ रंक करि डारे ॥ रीते भरे भरे सखनावै यह ता को बिवहारे ॥१॥

मूलम्

छिन महि राउ रंक कउ करई राउ रंक करि डारे ॥ रीते भरे भरे सखनावै यह ता को बिवहारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राउ = राजा। रंक कउ = कंगाल को। करई = करे, बना देता है। यह = ये। बिवहारे = व्यवहार, नित्य का कर्म।1।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा एक छिन में कंगाल को राजा बना देता है, और, राजे को कंगाल कर देता है, खाली बर्तनों को भर देता है और भरों को खाली कर देता है (गरीबों को अमीर और अमीरों को गरीब बना देता है) - यह उसका नित्य का काम है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपनी माइआ आपि पसारी आपहि देखनहारा ॥ नाना रूपु धरे बहु रंगी सभ ते रहै निआरा ॥२॥

मूलम्

अपनी माइआ आपि पसारी आपहि देखनहारा ॥ नाना रूपु धरे बहु रंगी सभ ते रहै निआरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पसारी = पसारी हुई। आपहि = खुद ही। देखनहारा = संभाल करने वाला। नाना = कई तरह के। धरे = बना लेता है, धार लेता है। बहु रंगी = अनेक रंगों का मालिक। ते = से। निआरा = अलग है।2।
अर्थ: (हे भाई! दिखाई देते जगत-रूप तमाशे में) परमात्मा ने अपनी माया खुद बिखेरी हुई है, वह खुद ही इसकी संभाल कर रहा है। वह अनेक रंगों का मालिक प्रभु कई तरह के रूप धार लेता है, और सारे ही रूपों से अलग भी रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगनत अपारु अलख निरंजन जिह सभ जगु भरमाइओ ॥ सगल भरम तजि नानक प्राणी चरनि ताहि चितु लाइओ ॥३॥१॥२॥

मूलम्

अगनत अपारु अलख निरंजन जिह सभ जगु भरमाइओ ॥ सगल भरम तजि नानक प्राणी चरनि ताहि चितु लाइओ ॥३॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगनत = जिसके गुण गिने ना जा सकें। अपारु = जिसका परला छोर ना मिल सके। अलख = जिसका स्वरूप समझ में ना आ सके। निरंजन = माया के प्रभाव से परे। जिह = जिस (हरि) ने। भरमाइओ = भटकना में डाल रखा है। ताहि चरनि = उसके चरणों में। लाइओ = लगाया है।3।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा के गुण गिने नहीं जा सकते, वह बेअंत है, वह अदृष्य है, वह निर्लिप है, उस परमात्मा ने ही सारे जगत को (माया की) भटकना में डाला हुआ है। हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने उसके चरणों में चिक्त जोड़ा है, इस माया की सारी भटकनें त्याग के ही जोड़ा है।3।1।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिहागड़ा छंत महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु बिहागड़ा छंत महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु धिआईऐ मेरी जिंदुड़ीए गुरमुखि नामु अमोले राम ॥ हरि रसि बीधा हरि मनु पिआरा मनु हरि रसि नामि झकोले राम ॥ गुरमति मनु ठहराईऐ मेरी जिंदुड़ीए अनत न काहू डोले राम ॥ मन चिंदिअड़ा फलु पाइआ हरि प्रभु गुण नानक बाणी बोले राम ॥१॥

मूलम्

हरि हरि नामु धिआईऐ मेरी जिंदुड़ीए गुरमुखि नामु अमोले राम ॥ हरि रसि बीधा हरि मनु पिआरा मनु हरि रसि नामि झकोले राम ॥ गुरमति मनु ठहराईऐ मेरी जिंदुड़ीए अनत न काहू डोले राम ॥ मन चिंदिअड़ा फलु पाइआ हरि प्रभु गुण नानक बाणी बोले राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआईऐ = ध्याना चाहिए। जिंदुड़ीऐ = हे सुंदर जिंदे! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। अमोले = जो किसी मुल्य से ना मिल सके। रसि = रस में, आनंद में। बीधा = बेधा हुआ। नामि = नाम में। झकोले = डुबकी लगाता है। ठहराईऐ = टिकाना चाहिए। अनत = अन्यत्र, और तरफ। काहू अनत = किसी और तरफ। चिंदिअड़ा = चितवा, याद किया।1।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! सदा परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए परमात्मा का अमोलक नाम गुरु के द्वारा ही मिलता है। जो मन परमात्मा के नाम रस में बेधा जाता है, वह मन परमात्मा को प्यारा लगता है, वह मन आनंद से प्रभु के नाम में डुबकी लगाए रखता है।
हे मेरी सोहणी जिंदे! गुरु की मति पर चल के इस मन को (प्रभु चरणों में) टिकाना चाहिए (गुरु की मति की इनायत से मन) किसी और तरफ नहीं डोलता। हे नानक! जो मनुष्य (गुरमति पर चल के) प्रभु के गुणों वाली वाणी उच्चारता रहता है, वह मन-इच्छित फल पा लेता है।1।

[[0538]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति मनि अम्रितु वुठड़ा मेरी जिंदुड़ीए मुखि अम्रित बैण अलाए राम ॥ अम्रित बाणी भगत जना की मेरी जिंदुड़ीए मनि सुणीऐ हरि लिव लाए राम ॥ चिरी विछुंना हरि प्रभु पाइआ गलि मिलिआ सहजि सुभाए राम ॥ जन नानक मनि अनदु भइआ है मेरी जिंदुड़ीए अनहत सबद वजाए राम ॥२॥

मूलम्

गुरमति मनि अम्रितु वुठड़ा मेरी जिंदुड़ीए मुखि अम्रित बैण अलाए राम ॥ अम्रित बाणी भगत जना की मेरी जिंदुड़ीए मनि सुणीऐ हरि लिव लाए राम ॥ चिरी विछुंना हरि प्रभु पाइआ गलि मिलिआ सहजि सुभाए राम ॥ जन नानक मनि अनदु भइआ है मेरी जिंदुड़ीए अनहत सबद वजाए राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मक जीवन देने वाला नाम-जल। वुठड़ा = आ बसा। मुखि = मुंह से। बैण = वचन, शब्द। अलाए = उचारता है। सुणीऐ = सुननी चाहिए। लिव लाए = ध्यान लगा के। गलि = गले से। सहजि = आत्मक अडोलता से। सुभाए = गहरे प्यार कारण। अनहत = (अनाहत = बिना साज बजाए) एक रस, लगातार।2।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! गुरु की मति की इनायत से जिस मनुष्य के मन में आत्मक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है वह मनुष्य अपने मुँह से आत्मिक जीवन देने वाली वाणी सदा उचारता रहता है। हे जिंदे! परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्यों की वाणी आत्मिक जीवन देने वाली है परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ के वह वाणी मन से (ध्यान से) सुननी चाहिए (जो मनुष्य सुनता है उसे) चिरों से विछुड़ा हुआ परमात्मा आ मिलता है, आत्मिक अडोलता और प्रेम के कारण उसके गले से आ लगता है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सुंदर जिंदे! उस मनुष्य के मन में आत्मिक आनंद बना रहता है, वह अपने अंदर एक-रस महिमा की वाणी का (मानो, बाजा) बजाता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखी सहेली मेरीआ मेरी जिंदुड़ीए कोई हरि प्रभु आणि मिलावै राम ॥ हउ मनु देवउ तिसु आपणा मेरी जिंदुड़ीए हरि प्रभ की हरि कथा सुणावै राम ॥ गुरमुखि सदा अराधि हरि मेरी जिंदुड़ीए मन चिंदिअड़ा फलु पावै राम ॥ नानक भजु हरि सरणागती मेरी जिंदुड़ीए वडभागी नामु धिआवै राम ॥३॥

मूलम्

सखी सहेली मेरीआ मेरी जिंदुड़ीए कोई हरि प्रभु आणि मिलावै राम ॥ हउ मनु देवउ तिसु आपणा मेरी जिंदुड़ीए हरि प्रभ की हरि कथा सुणावै राम ॥ गुरमुखि सदा अराधि हरि मेरी जिंदुड़ीए मन चिंदिअड़ा फलु पावै राम ॥ नानक भजु हरि सरणागती मेरी जिंदुड़ीए वडभागी नामु धिआवै राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आणि = ला के। हउ = मैं। देवउ = देऊँ, मैं दे दूँ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।3।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! (कह:) हे मेरी सखी सहेलियो! अगर कोई मेरा हरि-प्रभु को ला के मुझसे मिला दे, अगर कोई मुझे परमात्मा की महिमा की बातें सुनाया करे, तो मैं अपना मन उसके हवाले कर दूँ। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, (जो कोई स्मरण करता है वह) मन-इच्छित फल प्राप्त कर लेता है।
हे नानक! (कह:) हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा की शरण पड़ी रह। बड़े भाग्यों वाला मनुष्य ही परमात्मा का नाम स्मरण करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा प्रभ आइ मिलु मेरी जिंदुड़ीए गुरमति नामु परगासे राम ॥ हउ हरि बाझु उडीणीआ मेरी जिंदुड़ीए जिउ जल बिनु कमल उदासे राम ॥ गुरि पूरै मेलाइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि सजणु हरि प्रभु पासे राम ॥ धनु धनु गुरू हरि दसिआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक नामि बिगासे राम ॥४॥१॥

मूलम्

करि किरपा प्रभ आइ मिलु मेरी जिंदुड़ीए गुरमति नामु परगासे राम ॥ हउ हरि बाझु उडीणीआ मेरी जिंदुड़ीए जिउ जल बिनु कमल उदासे राम ॥ गुरि पूरै मेलाइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि सजणु हरि प्रभु पासे राम ॥ धनु धनु गुरू हरि दसिआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक नामि बिगासे राम ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! आइ = आ के (शब्द ‘आणि’ और ‘आइ’ आय में फर्क याद रखें)। परगासे = चमकता है, उघड़ता है। हउ = मैं। बाझ = बिना। उडीणीआ = उदास। कमल = कमल का फूल। गुरि = गुर ने। पासे = पास ही, अंग संग। धनु धनु = सलाहने योग्य। नामि = नाम से। बिगासे = खिल पड़ता है, टहक जाता है।4।
अर्थ: हे मेरी सुंदर जीवात्मा! (कह:) हे प्रभु! कृपा करके मुझे आ मिल। (हे जिंदे!) गुरु की मति पर चल के ही हरि-नाम (हृदय में) चमकता है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! (कह:) मैं परमात्मा के बगैर कुम्हलाई रहती हूँ। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिसको पूरे गुरु ने सज्जन हरि मिला दिया, उसे हरि-प्रभु अपने अंग-संग बसता दिखाई देने लग जाता है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! गुरु सलाहने योग्य है, सदा स्तुति का पात्र है। गुरु ने जिस को (परमात्मा का) पता बता दिया (उस का हृदय) नाम की इनायत से खिल उठता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिहागड़ा महला ४ ॥ अम्रितु हरि हरि नामु है मेरी जिंदुड़ीए अम्रितु गुरमति पाए राम ॥ हउमै माइआ बिखु है मेरी जिंदुड़ीए हरि अम्रिति बिखु लहि जाए राम ॥ मनु सुका हरिआ होइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि हरि नामु धिआए राम ॥ हरि भाग वडे लिखि पाइआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक नामि समाए राम ॥१॥

मूलम्

रागु बिहागड़ा महला ४ ॥ अम्रितु हरि हरि नामु है मेरी जिंदुड़ीए अम्रितु गुरमति पाए राम ॥ हउमै माइआ बिखु है मेरी जिंदुड़ीए हरि अम्रिति बिखु लहि जाए राम ॥ मनु सुका हरिआ होइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि हरि नामु धिआए राम ॥ हरि भाग वडे लिखि पाइआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक नामि समाए राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मक जीवन देने वाला जल। गुरमति = गुरु की मति पर चलने से। बिखु = जहर। अंम्रिति = अमृत (पीने) से। लिखि = लिख के, लिखे अनुसार। नामि = नाम में।1।
अर्थ: हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है, ये नाम-जल गुरु की मति पर चलने से ही मिलता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! अहंकार जहर है माया (का मोह) जहर है (जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है, ये जहर नाम-जल (पीने) से उतर जाता है। हे मेरी सुंदर जिंदे! जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है उसका सूखा हुआ (छोटा हो चुका) मन हरा हो जाता है (जैसे कोई सूखा हुआ वृक्ष पानी से हरा हो जाता है, और, कठोरपन छोड़ के नर्म हो जाता है)। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य को पूर्बले लिखे लेखों अनुसार बड़े भाग्यों से परमात्मा मिल जाता है वह सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सेती मनु बेधिआ मेरी जिंदुड़ीए जिउ बालक लगि दुध खीरे राम ॥ हरि बिनु सांति न पाईऐ मेरी जिंदुड़ीए जिउ चात्रिकु जल बिनु टेरे राम ॥ सतिगुर सरणी जाइ पउ मेरी जिंदुड़ीए गुण दसे हरि प्रभ केरे राम ॥ जन नानक हरि मेलाइआ मेरी जिंदुड़ीए घरि वाजे सबद घणेरे राम ॥२॥

मूलम्

हरि सेती मनु बेधिआ मेरी जिंदुड़ीए जिउ बालक लगि दुध खीरे राम ॥ हरि बिनु सांति न पाईऐ मेरी जिंदुड़ीए जिउ चात्रिकु जल बिनु टेरे राम ॥ सतिगुर सरणी जाइ पउ मेरी जिंदुड़ीए गुण दसे हरि प्रभ केरे राम ॥ जन नानक हरि मेलाइआ मेरी जिंदुड़ीए घरि वाजे सबद घणेरे राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेती = साथ। बेधिआ = बेधा गया, परोया गया। लगि = लगे, लगता है। खीर = दूध। चात्रिक = पपीहा। टेरे = पुकारता है। जाइ = जा के। केरे = के। घरि = हृदय घर में। घणेरे = अनेक।2।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिस मनुष्य का मन परमात्मा के साथ यूँ परोया जाता है जैसे बच्चे का मन दूध से परच जाता है, उस मनुष्य को, हे मेरी जीवात्मा! परमात्मा के मिलन के बगैर ठंड नहीं पड़ती (वह सदा व्याकुल हुआ रहता है) जैसे पपीहा (स्वाति बूँद के) पानी के बिना पुकारता रहता है।
हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जा के गुरु की शरण पड़ी रह, गुरु परमात्मा के गुणों की बात बताता है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा मिला दिया उसके हृदय-घर में (जैसे) अनेक सुंदर साज बजते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि हउमै विछुड़े मेरी जिंदुड़ीए बिखु बाधे हउमै जाले राम ॥ जिउ पंखी कपोति आपु बन्हाइआ मेरी जिंदुड़ीए तिउ मनमुख सभि वसि काले राम ॥ जो मोहि माइआ चितु लाइदे मेरी जिंदुड़ीए से मनमुख मूड़ बिताले राम ॥ जन त्राहि त्राहि सरणागती मेरी जिंदुड़ीए गुर नानक हरि रखवाले राम ॥३॥

मूलम्

मनमुखि हउमै विछुड़े मेरी जिंदुड़ीए बिखु बाधे हउमै जाले राम ॥ जिउ पंखी कपोति आपु बन्हाइआ मेरी जिंदुड़ीए तिउ मनमुख सभि वसि काले राम ॥ जो मोहि माइआ चितु लाइदे मेरी जिंदुड़ीए से मनमुख मूड़ बिताले राम ॥ जन त्राहि त्राहि सरणागती मेरी जिंदुड़ीए गुर नानक हरि रखवाले राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। बिखु = जहर। जाले = जाल में। कपोति = कपोत ने, कबूतर ने। आपु = अपने आप को। सभि = सारे। वसि काले = काल के बस में। मोहि = मोह में। मूढ़ = मूर्ख। बिताले = ताल से टूटे हुए, जीवन चाल से थिड़के हुए। त्राहि = बचा ले। सरणागती = शरण आते हैं। नानक = हे नानक!।3।
अर्थ: हे मेरी सुंदर जीवात्मा! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य अहंकार के कारण परमात्मा से विछुड़ जाते हैं, (माया के मोह का) जहर (उनके आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है, वह अहंकार के जाल में बँधे रहते हैं। हे मेरी सोहणी जिंदे! जैसे (चोगे की लालच में) कबूतर आदि पँछी अपने आप को जाल में फँसवा लेता है, वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले सारे मनुष्य आत्मिक मौत के वश में आए रहते हैं। हे मेरी सोहणी जिंदे! जो मनुष्य माया के मोह में अपना चिक्त जोड़ी रखते हैं वे मन-मानी करने वाले मनुष्य मूर्ख होते हैं, वे (सही) जीवन-चाल से टूटे रहते हैं।
हे नानक! (कह:) हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा के सेवक परमात्मा की शरण आते हैं (और, प्रार्थना करते हैं: हे प्रभु! हमें) बचा ले, बचा ले। गुरु परमात्मा उनके रक्षक बनते हैं।3।

[[0539]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन हरि लिव उबरे मेरी जिंदुड़ीए धुरि भाग वडे हरि पाइआ राम ॥ हरि हरि नामु पोतु है मेरी जिंदुड़ीए गुर खेवट सबदि तराइआ राम ॥ हरि हरि पुरखु दइआलु है मेरी जिंदुड़ीए गुर सतिगुर मीठ लगाइआ राम ॥ करि किरपा सुणि बेनती हरि हरि जन नानक नामु धिआइआ राम ॥४॥२॥

मूलम्

हरि जन हरि लिव उबरे मेरी जिंदुड़ीए धुरि भाग वडे हरि पाइआ राम ॥ हरि हरि नामु पोतु है मेरी जिंदुड़ीए गुर खेवट सबदि तराइआ राम ॥ हरि हरि पुरखु दइआलु है मेरी जिंदुड़ीए गुर सतिगुर मीठ लगाइआ राम ॥ करि किरपा सुणि बेनती हरि हरि जन नानक नामु धिआइआ राम ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त। लिव = लगन। उबरे = (संसार समुंदर में से) बच निकलते हैं। धुरि = धुर दरगाह से। पोतु = जहाज। खेवट = मल्लाह। सबदि = शब्द ने। दइआलु = दया के घर।4।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! परमात्मा के भक्त परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ के (संसार समुंदर में से) बच निकलते हैं, धुर दरगाह से लिखे लेख अनुसार बड़े भाग्यों से वह परमात्मा को मिल जाते हैं। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जहाज है, (हरि के जनों को) गुरु-मल्लाह के शब्द ने (संसार समुंदर से) पार लंघा दिया। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! सर्व-व्यापक परमात्मा सदा ही दयावान है, गुरु सतिगुरु की शरण पड़ने से (हरि-जनों को परमात्मा) प्यारा लगने लग पड़ता है।
हे दास नानक! (कह:) हे हरि! मेहर कर, मेरी विनती सुन (मैं तेरा नाम स्मरण करता रहूँ। जिस पर तूने मेहर की निगाह की, उन्होंने) तेरा नाम स्मरण किया।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ४ ॥ जगि सुक्रितु कीरति नामु है मेरी जिंदुड़ीए हरि कीरति हरि मनि धारे राम ॥ हरि हरि नामु पवितु है मेरी जिंदुड़ीए जपि हरि हरि नामु उधारे राम ॥ सभ किलविख पाप दुख कटिआ मेरी जिंदुड़ीए मलु गुरमुखि नामि उतारे राम ॥ वड पुंनी हरि धिआइआ जन नानक हम मूरख मुगध निसतारे राम ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ४ ॥ जगि सुक्रितु कीरति नामु है मेरी जिंदुड़ीए हरि कीरति हरि मनि धारे राम ॥ हरि हरि नामु पवितु है मेरी जिंदुड़ीए जपि हरि हरि नामु उधारे राम ॥ सभ किलविख पाप दुख कटिआ मेरी जिंदुड़ीए मलु गुरमुखि नामि उतारे राम ॥ वड पुंनी हरि धिआइआ जन नानक हम मूरख मुगध निसतारे राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत में। सुक्रितु = श्रेष्ठ कर्म। कीरति = कीर्ति, महिमा। मनि = मन में। धारे = टिका ले। उधारे = बचा लेता है। किलविख = पाप। मलु = मैल। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। नामि = नाम से। उतारे = दूर कर लेता है। मुगध = मूर्ख। निसतारे = पार लंघा लेता है।1।
अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा की महिमा करनी, परमात्मा का नाम जपना, जगत में सबसे श्रेष्ठ कर्म है। तू भी परमात्मा की महिमा किया कर, परमात्मा का नाम अपने मन में टिकाए रख। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा का नाम (विकारियों को) पवित्र करने वाला है, तू भी परमात्मा का नाम जपा कर, नाम (संसार समुंदर में डूबने से) बचा लेता है। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! (जिस मनुष्य ने हरि-नाम स्मरण किया, उसने अपने अंदर से) सारे विकार, सारे पाप सारे दुख दूर कर लिए, वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम की इनायत से विकारों की मैल उतार लेता है।
हे दास नानक! (कह:) बड़े भाग्यों से ही परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है। परमात्मा का नाम हम जैसे मूर्खों को, महा मूर्खों को संसार समुंदर से पार लंघा लेता हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो हरि नामु धिआइदे मेरी जिंदुड़ीए तिना पंचे वसगति आए राम ॥ अंतरि नव निधि नामु है मेरी जिंदुड़ीए गुरु सतिगुरु अलखु लखाए राम ॥ गुरि आसा मनसा पूरीआ मेरी जिंदुड़ीए हरि मिलिआ भुख सभ जाए राम ॥ धुरि मसतकि हरि प्रभि लिखिआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक हरि गुण गाए राम ॥२॥

मूलम्

जो हरि नामु धिआइदे मेरी जिंदुड़ीए तिना पंचे वसगति आए राम ॥ अंतरि नव निधि नामु है मेरी जिंदुड़ीए गुरु सतिगुरु अलखु लखाए राम ॥ गुरि आसा मनसा पूरीआ मेरी जिंदुड़ीए हरि मिलिआ भुख सभ जाए राम ॥ धुरि मसतकि हरि प्रभि लिखिआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक हरि गुण गाए राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिना वसगति = उनके वश में। पंचे = कामादिक पाँचों (वैरी)। नवनिधि = (दुनिया के) नौ खजाने। अलखु = जिस का सही स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। लखाए = समझा देता है। गुरि = गुरु ने। जाए = दूर हो जाती है। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। प्रभि = प्रभु ने।2।
अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते रहते हैं, कामादिक पाँचों वैरी उनके वश में आ जाते हैं, दुनिया के नौ खजानों की बराबरी करने वाला हरि-नाम उनके मन में आ बसता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरु उन्हें उस परमात्मा की समझ बख्श देता है जिस तक मनुष्य की अपनी समझ नहीं पहुँच सकती। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरु ने जिस मनुष्यों की आशा और मन की मनसा पूरी कर दी, उनको परमात्मा मिल गया, उनकी माया की सारी भूख उतर जाती है। हे दास नानक! (कह:) धुर दरगाह से परमात्मा ने जिस मनुष्य के माथे पर (स्मरण का लेख) लिख दिया है, वह सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम पापी बलवंचीआ मेरी जिंदुड़ीए परद्रोही ठग माइआ राम ॥ वडभागी गुरु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए गुरि पूरै गति मिति पाइआ राम ॥ गुरि अम्रितु हरि मुखि चोइआ मेरी जिंदुड़ीए फिरि मरदा बहुड़ि जीवाइआ राम ॥ जन नानक सतिगुर जो मिले मेरी जिंदुड़ीए तिन के सभ दुख गवाइआ राम ॥३॥

मूलम्

हम पापी बलवंचीआ मेरी जिंदुड़ीए परद्रोही ठग माइआ राम ॥ वडभागी गुरु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए गुरि पूरै गति मिति पाइआ राम ॥ गुरि अम्रितु हरि मुखि चोइआ मेरी जिंदुड़ीए फिरि मरदा बहुड़ि जीवाइआ राम ॥ जन नानक सतिगुर जो मिले मेरी जिंदुड़ीए तिन के सभ दुख गवाइआ राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलवंचीआ = छल कपट करने वाले। परद्रोही = दूसरों के साथ दगा करने वाले। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। गति मिति = उच्च आत्मिक जीवन की मर्यादा। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। गुरि = गुरु ने। मुखि = मुँह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मरदा = आत्मक मौत मर रहे को। बहुड़ि = दोबारा। जीवाइआ = आत्मिक जीवन दिया। सतिगुर मिले = गुरु को (जो) मिल लिए।3।
अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! हम जीव पापी हैं, छल कपट करने वाले हैं, दूसरों के साथ दग़ा-फरेब करने वाले हैं, माया की खातिर ठगी करने वाले हैं। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जिस अति भाग्यशाली ने गुरु ढूँढ लिया उसने पूरे गुरु के द्वारा उच्च आत्मिक जीवन की मर्यादा हासिल कर ली। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिस मनुष्य के मुँह में गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल टपका दिया, उस आत्मिक मौत मर रहे मनुष्य को गुरु ने दोबारा आत्मिक जीवन बख्श दिया। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! जो मनुष्य गुरु से मिल लिए, गुरु ने उनके सारे दुख दूर कर दिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति ऊतमु हरि नामु है मेरी जिंदुड़ीए जितु जपिऐ पाप गवाते राम ॥ पतित पवित्र गुरि हरि कीए मेरी जिंदुड़ीए चहु कुंडी चहु जुगि जाते राम ॥ हउमै मैलु सभ उतरी मेरी जिंदुड़ीए हरि अम्रिति हरि सरि नाते राम ॥ अपराधी पापी उधरे मेरी जिंदुड़ीए जन नानक खिनु हरि राते राम ॥४॥३॥

मूलम्

अति ऊतमु हरि नामु है मेरी जिंदुड़ीए जितु जपिऐ पाप गवाते राम ॥ पतित पवित्र गुरि हरि कीए मेरी जिंदुड़ीए चहु कुंडी चहु जुगि जाते राम ॥ हउमै मैलु सभ उतरी मेरी जिंदुड़ीए हरि अम्रिति हरि सरि नाते राम ॥ अपराधी पापी उधरे मेरी जिंदुड़ीए जन नानक खिनु हरि राते राम ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिसके द्वारा। जितु जपीऐ = जिसके जपने से। पतित = विकारों में गिरे हुए। गुरि = गुरु ने। चहु कुंडी = चहु कुंटों में, सारे संसार में। चहु जुगि = चार युगी समय में, सदा के लिए ही। जाते = प्रगट हो गए, मशहूर हो गए। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल में। हरि सरि = हरि नाम सरोवर में। उधरे = डूबने से बच गए। राते = रंगे गए।4।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! परमात्मा का नाम बड़ा ही श्रेष्ठ है, इस नाम के जपने से सारे (पिछले) पाप दूर हो जाते हैं। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! गुरु ने हरि-नाम दे के विकारों में गिरे हुओं को भी पवित्र बना दिया है, वे सारे संसार में सदा के लिए ही मशहूर हो गए। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जिस मनुष्यों ने आत्मक जीवन देने वाले हरि-नाम-जल में, हरि-नाम-सरोवर में स्नान किया, उनके अहंकार की सारी मैल उतर गई। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जो विकारी और पापी भी एक छिन के लिए हरि-नाम के रंग में रंगे गए, वे संसार समुंदर में डूबने से बच गए।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ४ ॥ हउ बलिहारी तिन्ह कउ मेरी जिंदुड़ीए जिन्ह हरि हरि नामु अधारो राम ॥ गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ मेरी जिंदुड़ीए बिखु भउजलु तारणहारो राम ॥ जिन इक मनि हरि धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए तिन संत जना जैकारो राम ॥ नानक हरि जपि सुखु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए सभि दूख निवारणहारो राम ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ४ ॥ हउ बलिहारी तिन्ह कउ मेरी जिंदुड़ीए जिन्ह हरि हरि नामु अधारो राम ॥ गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ मेरी जिंदुड़ीए बिखु भउजलु तारणहारो राम ॥ जिन इक मनि हरि धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए तिन संत जना जैकारो राम ॥ नानक हरि जपि सुखु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए सभि दूख निवारणहारो राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। बलिहारी = कुर्बान। अधारो = आसरा। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का किया। बिखु = जहर। भउ जलु = संसार समुंदर। तारणहारो = तैराने का समर्थता रखने वाला। इक मनि = एकाग्रता से, एक मन से। जैकारो = शोभा। जपि = जप के। सभि = सारे।1।
अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! (कह:) मैं उनसे कुर्बान हूँ जिन्होंने परमात्मा के नाम को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना लिया है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरु ने सतिगुरु ने उनके हृदय में परमात्मा का नाम पक्की तरह टिका दिया है। गुरु (माया के मोह के) जहर (-भरे) संसार-समुंदर से पार लंघाने की सामर्थ्य रखता है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिस संत जनों ने एक-मन हो के परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उनकी (हर जगह) शोभा-महिमा होती है। हे नानक! (कह:) हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जप के सुख मिल जाता है, हरि-नाम सारे दुख दूर करने की सामर्थ्य वाला है।1।

[[0540]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा रसना धनु धंनु है मेरी जिंदुड़ीए गुण गावै हरि प्रभ केरे राम ॥ ते स्रवन भले सोभनीक हहि मेरी जिंदुड़ीए हरि कीरतनु सुणहि हरि तेरे राम ॥ सो सीसु भला पवित्र पावनु है मेरी जिंदुड़ीए जो जाइ लगै गुर पैरे राम ॥ गुर विटहु नानकु वारिआ मेरी जिंदुड़ीए जिनि हरि हरि नामु चितेरे राम ॥२॥

मूलम्

सा रसना धनु धंनु है मेरी जिंदुड़ीए गुण गावै हरि प्रभ केरे राम ॥ ते स्रवन भले सोभनीक हहि मेरी जिंदुड़ीए हरि कीरतनु सुणहि हरि तेरे राम ॥ सो सीसु भला पवित्र पावनु है मेरी जिंदुड़ीए जो जाइ लगै गुर पैरे राम ॥ गुर विटहु नानकु वारिआ मेरी जिंदुड़ीए जिनि हरि हरि नामु चितेरे राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा = (स्त्रीलिंग) वह। रसना = जीभ। केरे = के। ते = (बहुवचन) वह। स्रवन = कान। हहि = हैं। सुणहि = सुनते हैं। सीसु = सिर। पावनु = पवित्र। जाइ = जा के। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान जाता है। चितेरे = चेते कराया है।2।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! वह जीभ भाग्यशाली है, मुबारक है, जो (सदा) परमात्मा के गुण गाती रहती है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! वे कान सुंदर हैं अच्छे हैं जो तेरा कीर्तन सुनते रहते हैं। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! वह सिर भाग्यशाली है पवित्र है, जो गुरु के चरणों में आ लगता है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! नानक (उस) गुरु से कुर्बान जाता है जिस ने (नानक को) परमात्मा का नाम याद कराया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते नेत्र भले परवाणु हहि मेरी जिंदुड़ीए जो साधू सतिगुरु देखहि राम ॥ ते हसत पुनीत पवित्र हहि मेरी जिंदुड़ीए जो हरि जसु हरि हरि लेखहि राम ॥ तिसु जन के पग नित पूजीअहि मेरी जिंदुड़ीए जो मारगि धरम चलेसहि राम ॥ नानकु तिन विटहु वारिआ मेरी जिंदुड़ीए हरि सुणि हरि नामु मनेसहि राम ॥३॥

मूलम्

ते नेत्र भले परवाणु हहि मेरी जिंदुड़ीए जो साधू सतिगुरु देखहि राम ॥ ते हसत पुनीत पवित्र हहि मेरी जिंदुड़ीए जो हरि जसु हरि हरि लेखहि राम ॥ तिसु जन के पग नित पूजीअहि मेरी जिंदुड़ीए जो मारगि धरम चलेसहि राम ॥ नानकु तिन विटहु वारिआ मेरी जिंदुड़ीए हरि सुणि हरि नामु मनेसहि राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते नेत्र = वह आँखें। परवाणु = स्वीकार, सफल। हहि = हैं (बहुवचन)। साधू = गुरु। देखहि = देखती हैं। हसत = हस्त, हाथ। पुनीत = पवित्र। जसु = महिमा। लेखहि = लिखते हैं। पग = पैर। पूजीअहि = पूजे जाते हैं। मारगि धरम = धर्म के रास्ते पर। चलेसहि = चलेंगे, चलते हैं। सुणि = सुन के। मनेसहि = मानते हैं, मानेंगे।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘हहि’ शब्द ‘है’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! वे आँखें भली हैं सफल हैं जो गुरु के दर्शन करती रहती हैं, वे हाथ पवित्र हैं जो परमात्मा की महिमा लिखते रहते हैं। हे मेरी सोहणी जिंदे! उस मनुष्य के (वह) पैर सदा पूजे जाते हैं जो (पैर) धर्म के राह पर चलते रहते हैं। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! नानक उन (भाग्यशाली) मनुष्यों से कुर्बान जाता है जो परमात्मा का नाम सुन के नाम को मानते हैं (जीवन का आधार बना लेते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरति पातालु आकासु है मेरी जिंदुड़ीए सभ हरि हरि नामु धिआवै राम ॥ पउणु पाणी बैसंतरो मेरी जिंदुड़ीए नित हरि हरि हरि जसु गावै राम ॥ वणु त्रिणु सभु आकारु है मेरी जिंदुड़ीए मुखि हरि हरि नामु धिआवै राम ॥ नानक ते हरि दरि पैन्हाइआ मेरी जिंदुड़ीए जो गुरमुखि भगति मनु लावै राम ॥४॥४॥

मूलम्

धरति पातालु आकासु है मेरी जिंदुड़ीए सभ हरि हरि नामु धिआवै राम ॥ पउणु पाणी बैसंतरो मेरी जिंदुड़ीए नित हरि हरि हरि जसु गावै राम ॥ वणु त्रिणु सभु आकारु है मेरी जिंदुड़ीए मुखि हरि हरि नामु धिआवै राम ॥ नानक ते हरि दरि पैन्हाइआ मेरी जिंदुड़ीए जो गुरमुखि भगति मनु लावै राम ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पउणु = हवा। बैसंतरो = बैसंतरु, आग। जसु = महिमा के गीत। वणु = जंगल। त्रिणु = घास। सभु = सारा। आकारु = दिखता संसार। मुखि = मुँह से। नानक = हे नानक! ते = (बहुवचन) वह लोग। दरि = दर पे। पैनाइआ = (आदर के सिरोपे) पहनाए जाते हैं, सम्मानित किये जाते हैं। जो = जो जो लोग। भगति मनु लावै = भक्ति में मन लगाता है।4।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! धरती, पाताल, आकाश- हरेक ही परमात्मा का नाम स्मरण कर रहा है। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! हवा, पानी, आग- हरेक तत्व भी परमात्मा के महिमा के गीत गा रहा है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जंगल, घास, ये सारा दिखता संसार - अपने मुँह से हरेक ही परमात्मा का नाम जप रहा है। हे नानक! (कह:) हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जो जो जीव गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति में अपना मन जोड़ते हैं, वे सारे परमात्मा के दर पर सम्मानित किए जाते हैं।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ४ ॥ जिन हरि हरि नामु न चेतिओ मेरी जिंदुड़ीए ते मनमुख मूड़ इआणे राम ॥ जो मोहि माइआ चितु लाइदे मेरी जिंदुड़ीए से अंति गए पछुताणे राम ॥ हरि दरगह ढोई ना लहन्हि मेरी जिंदुड़ीए जो मनमुख पापि लुभाणे राम ॥ जन नानक गुर मिलि उबरे मेरी जिंदुड़ीए हरि जपि हरि नामि समाणे राम ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ४ ॥ जिन हरि हरि नामु न चेतिओ मेरी जिंदुड़ीए ते मनमुख मूड़ इआणे राम ॥ जो मोहि माइआ चितु लाइदे मेरी जिंदुड़ीए से अंति गए पछुताणे राम ॥ हरि दरगह ढोई ना लहन्हि मेरी जिंदुड़ीए जो मनमुख पापि लुभाणे राम ॥ जन नानक गुर मिलि उबरे मेरी जिंदुड़ीए हरि जपि हरि नामि समाणे राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेतिओ = स्मरण किया, याद किया। ते = (बहुवचन) वे लोग। मनमुख = अपने मन की ओर ही मुँह रखने वाले। मूढ़ = मूर्ख। मोहि = मोह में। से = (बहुवचन) वह। अंति = आखिरी वक्त। ढोई = आसरा, जगह। लहन्हि = लेते (बहुवचन)। पापि = पाप में। गुर मिलि = गुरु को मिल के। उबरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। नामि = नाम में।1।
अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जिस मनुष्यों ने (कभी) परमात्मा का नाम याद नहीं किया, वह अपने ही मन के पीछे चलने वाले मनुष्य मूर्ख व अंजान हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जो मनुष्य माया के मोह में अपना मन जोड़े रखते हैं वह आखिरी समय में (यहाँ से) हाथ मलते हुए जाते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! अपने ही मन के पीछे चलने वाले जो मनुष्य (सदा) पाप कर्म में फंसे रहते हैं वे परमात्मा की दरगाह में आसरा प्राप्त नहीं कर सकते। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जीवात्मा! गुरु को मिल के (अति भाग्यशाली मनुष्य संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं (क्योंकि वे) परमात्मा का नाम जप जप के परमात्मा के नाम में ही मगन रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि जाइ मिलहु सतिगुरू कउ मेरी जिंदुड़ीए जो हरि हरि नामु द्रिड़ावै राम ॥ हरि जपदिआ खिनु ढिल न कीजई मेरी जिंदुड़ीए मतु कि जापै साहु आवै कि न आवै राम ॥ सा वेला सो मूरतु सा घड़ी सो मुहतु सफलु है मेरी जिंदुड़ीए जितु हरि मेरा चिति आवै राम ॥ जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए जमकंकरु नेड़ि न आवै राम ॥२॥

मूलम्

सभि जाइ मिलहु सतिगुरू कउ मेरी जिंदुड़ीए जो हरि हरि नामु द्रिड़ावै राम ॥ हरि जपदिआ खिनु ढिल न कीजई मेरी जिंदुड़ीए मतु कि जापै साहु आवै कि न आवै राम ॥ सा वेला सो मूरतु सा घड़ी सो मुहतु सफलु है मेरी जिंदुड़ीए जितु हरि मेरा चिति आवै राम ॥ जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए जमकंकरु नेड़ि न आवै राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। जाइ = जा के। कउ = को। कीजई = करनी चाहिए। मतु = एसा ना हो। कि जापै = क्या पता? कि = अथवा, या। मूरतु, मुहतु = महूरत, समय। सफलु = फल देने वाला, भाग्यशाली। जितु = जिस (समय) में। चिति = चिक्त में। कुंकरु = किंकर, दास, सेवक। जम कंकरु = जम का दास, जम दूत।2।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! (कह:) हे भाई! सभी जा के गुरु को मिल लो क्योंकि वह (गुरु) परमात्मा का नाम हृदय में पक्का कर देता है। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जपते हुए रक्ती भर भी देर नहीं करनी चाहिए। क्या पता! अगला श्वास लिया जाए कि ना लिया जाए। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! वह वक्त भाग्यशाली है, वह घड़ी भाग्य भरपूर है, वह समय भाग्यशाली है, जिस समय प्यारा परमात्मा चिक्त में आ बसता है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम (हर समय) स्मरण किया है, जम दूत उसके नजदीक नहीं फटकता (मौत का डर उसको छू नहीं सकता, उसे आत्मिक मौत नहीं आती)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि वेखै सुणै नित सभु किछु मेरी जिंदुड़ीए सो डरै जिनि पाप कमते राम ॥ जिसु अंतरु हिरदा सुधु है मेरी जिंदुड़ीए तिनि जनि सभि डर सुटि घते राम ॥ हरि निरभउ नामि पतीजिआ मेरी जिंदुड़ीए सभि झख मारनु दुसट कुपते राम ॥ गुरु पूरा नानकि सेविआ मेरी जिंदुड़ीए जिनि पैरी आणि सभि घते राम ॥३॥

मूलम्

हरि वेखै सुणै नित सभु किछु मेरी जिंदुड़ीए सो डरै जिनि पाप कमते राम ॥ जिसु अंतरु हिरदा सुधु है मेरी जिंदुड़ीए तिनि जनि सभि डर सुटि घते राम ॥ हरि निरभउ नामि पतीजिआ मेरी जिंदुड़ीए सभि झख मारनु दुसट कुपते राम ॥ गुरु पूरा नानकि सेविआ मेरी जिंदुड़ीए जिनि पैरी आणि सभि घते राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेखै = देखता है। सुणै = सुनता है। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कमते = कमाए। अंतरु हिरदा = अंदरूनी हृदय। तिनि = उस ने। जनि = जन ने। तिनि जनि = उस मनुष्य ने। सभि = सारे। नामि = नाम में। पतीजिआ = पतीज गया। मारनु = बेशक मारते रहें। दुसटु = (कामादिक) वैरी। कुपते = झगड़ालू। नानकि = नानक ने। जिनि = जिस (गुरु) ने। आणि = ला के। सभि = सारे (दुष्ट)।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मारनु’ हुकमी भविष्यत, अन्यपुरुष, बहुवचन। शब्द ‘मारनि’ वर्तमान काल अन्य-पुरुष, बहुवचन है। इसका अर्थ है ‘मारते हैं’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! (जो काम हम करते हैं, जो बोल हम बोलते हैं) परमात्मा वह सब कुछ सदा देखता रहता है। जिस मनुष्य ने (सारी उम्र) पाप कमाए होते हैं, वह डरता है। (पर) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस (मनुष्य) का अंदरूनी हृदय पवित्र है, उस मनुष्य ने सारे डर उतार दिए होते हैं। जो मनुष्य निर्भय परमात्मा के नाम में पतीज जाता है, (कामादिक) सारे झगड़ालू वैरी बेशक रहें झख मारते (उस मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ सकते)। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! नानक ने उस पूरे गुरु की शरण ली है जिसने सारे (झगड़ालू दुष्ट, शरण आए मनुष्य के) पैरों में ला के रख दिए हैं।3।

[[0541]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो ऐसा हरि नित सेवीऐ मेरी जिंदुड़ीए जो सभ दू साहिबु वडा राम ॥ जिन्ही इक मनि इकु अराधिआ मेरी जिंदुड़ीए तिना नाही किसै दी किछु चडा राम ॥ गुर सेविऐ हरि महलु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए झख मारनु सभि निंदक घंडा राम ॥ जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए धुरि मसतकि हरि लिखि छडा राम ॥४॥५॥

मूलम्

सो ऐसा हरि नित सेवीऐ मेरी जिंदुड़ीए जो सभ दू साहिबु वडा राम ॥ जिन्ही इक मनि इकु अराधिआ मेरी जिंदुड़ीए तिना नाही किसै दी किछु चडा राम ॥ गुर सेविऐ हरि महलु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए झख मारनु सभि निंदक घंडा राम ॥ जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए धुरि मसतकि हरि लिखि छडा राम ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवीऐ = सेवा भक्ति करनी चाहिए। सभ दू = सब से। साहिबु = मालिक। इक मनि = एक मन से, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। चडा = अधीनता, अधीनगी। गुर सेविऐ = अगर गुरु की सेवा की जाए (शब्द ‘सेवीऐ’ और ‘सेविऐ’ का फर्क याद रखें)। हरि महलु = परमात्मा का घर, परमात्मा की हजूरी। सभि = सारे। घंडा = चालाक, झगड़ालू। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। लिखि छडा = लिख रखा है।4।
अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! सदा उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करनी चाहिए जो सबसे बड़ा मालिक है। जिस मनुष्यों ने तवज्जो जोड़ के एक परमात्मा का स्मरण किया उन्हें किसी की कोई अधीनगी नहीं रह जाती। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा का दर प्राप्त हो जाता है, (फिर) सारे ही चालाक निंदक पड़े लगाते रहें जोर (उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते)। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! (उन मनुष्यों ने ही) परमात्मा का नाम स्मरण किया है (जिनके) माथे पर परमात्मा ने धुर दरगाह से (स्मरण का) लेख लिख रखा है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ४ ॥ सभि जीअ तेरे तूं वरतदा मेरे हरि प्रभ तूं जाणहि जो जीइ कमाईऐ राम ॥ हरि अंतरि बाहरि नालि है मेरी जिंदुड़ीए सभ वेखै मनि मुकराईऐ राम ॥ मनमुखा नो हरि दूरि है मेरी जिंदुड़ीए सभ बिरथी घाल गवाईऐ राम ॥ जन नानक गुरमुखि धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि हाजरु नदरी आईऐ राम ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ४ ॥ सभि जीअ तेरे तूं वरतदा मेरे हरि प्रभ तूं जाणहि जो जीइ कमाईऐ राम ॥ हरि अंतरि बाहरि नालि है मेरी जिंदुड़ीए सभ वेखै मनि मुकराईऐ राम ॥ मनमुखा नो हरि दूरि है मेरी जिंदुड़ीए सभ बिरथी घाल गवाईऐ राम ॥ जन नानक गुरमुखि धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि हाजरु नदरी आईऐ राम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। जीअ = जीव। प्रभ = हे प्रभु! जीइ = जी में, मन में। कमाईऐ = कमाते हैं। मनि = मन में। मुकराईऐ = मुकर जाते हैं, जबान से फिर जाते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। घाल = मेहनत। गवाईऐ = गायब हो जाती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। हाजरु = प्रत्यक्ष, हर जगह बसता। आईऐ = आ जाता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे हरि! हे मेरे प्रभु! (सृष्टि के) सारे जीव तेरे (ही पैदा किए हुए) हैं, तू (सब जीवों में) मौजूद है, जो कुछ (जीवों के) जी में चित्रित होता है तू (वह सब कुछ) जानता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा हमारे अंदर बाहर (हर जगह) हमारे साथ है, जो कुछ हमारे मन में होता है वह सब देखता है, (पर फिर भी हम) मुकर जाते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों को परमात्मा कहीं दूर बसता प्रतीत होता है, उनकी की हुई मेहनत व्यर्थ चली जाती है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम स्मरण किया है उन्हें परमात्मा हर जगह बसता दिखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से भगत से सेवक मेरी जिंदुड़ीए जो प्रभ मेरे मनि भाणे राम ॥ से हरि दरगह पैनाइआ मेरी जिंदुड़ीए अहिनिसि साचि समाणे राम ॥ तिन कै संगि मलु उतरै मेरी जिंदुड़ीए रंगि राते नदरि नीसाणे राम ॥ नानक की प्रभ बेनती मेरी जिंदुड़ीए मिलि साधू संगि अघाणे राम ॥२॥

मूलम्

से भगत से सेवक मेरी जिंदुड़ीए जो प्रभ मेरे मनि भाणे राम ॥ से हरि दरगह पैनाइआ मेरी जिंदुड़ीए अहिनिसि साचि समाणे राम ॥ तिन कै संगि मलु उतरै मेरी जिंदुड़ीए रंगि राते नदरि नीसाणे राम ॥ नानक की प्रभ बेनती मेरी जिंदुड़ीए मिलि साधू संगि अघाणे राम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वे। मनि = मन में। भाणै = पसंद आ गए। पैनाइआ = सिरोपा दिया जाता है, आदर मिलता है। अहि = दिन। निसि = रात। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे जाते हैं। नीसाणे = (माथे पर) निशान। मिलि साधू = गुरु को मिल के। अघाणे = तृष्णा की ओर से तृप्त रहते हैं।2।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! वह मनुष्य (असल) सेवक हैं जो प्यारे परमात्मा के मन में अच्छे लगते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! वे मनुष्य परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं, वह दिन-रात सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! उनकी संगति में रहने से (मन से विकारों की) मैल उतर जाती है वे सदा प्रभु के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। उनके माथे पर प्रभु के मेहर की निगाह का निशान होता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! (कह:) हे प्रभु! नानक की ये आरजू है (कि नानक गुरु की संगति में टिका रहे) गुरु की संगति में रहने से (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे रसना जपि गोबिंदो मेरी जिंदुड़ीए जपि हरि हरि त्रिसना जाए राम ॥ जिसु दइआ करे मेरा पारब्रहमु मेरी जिंदुड़ीए तिसु मनि नामु वसाए राम ॥ जिसु भेटे पूरा सतिगुरू मेरी जिंदुड़ीए सो हरि धनु निधि पाए राम ॥ वडभागी संगति मिलै मेरी जिंदुड़ीए नानक हरि गुण गाए राम ॥३॥

मूलम्

हे रसना जपि गोबिंदो मेरी जिंदुड़ीए जपि हरि हरि त्रिसना जाए राम ॥ जिसु दइआ करे मेरा पारब्रहमु मेरी जिंदुड़ीए तिसु मनि नामु वसाए राम ॥ जिसु भेटे पूरा सतिगुरू मेरी जिंदुड़ीए सो हरि धनु निधि पाए राम ॥ वडभागी संगति मिलै मेरी जिंदुड़ीए नानक हरि गुण गाए राम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। गोबिंदे = गोबिंदु। त्रिसना = तृष्णा, माया की प्यास। मनि = मन में। भेटे = मिलता है। निधि = खजाना। पाए = ढूँढ लेता है।3।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! (कह:) हे मेरी जीभ! परमात्मा का नाम जपा कर, हरि नाम जप-जप के माया का लालच दूर हो जाता है। हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है, उसके मन में अपना नाम बसा देता है, जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, वह प्रभु का नाम-धन नाम-खजाना ढूँढ लेता है। हे नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य को बड़े भाग्यों से गुरु की संगति प्राप्त होती है वह (सदा) परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थान थनंतरि रवि रहिआ मेरी जिंदुड़ीए पारब्रहमु प्रभु दाता राम ॥ ता का अंतु न पाईऐ मेरी जिंदुड़ीए पूरन पुरखु बिधाता राम ॥ सरब जीआ प्रतिपालदा मेरी जिंदुड़ीए जिउ बालक पित माता राम ॥ सहस सिआणप नह मिलै मेरी जिंदुड़ीए जन नानक गुरमुखि जाता राम ॥४॥६॥ छका १ ॥

मूलम्

थान थनंतरि रवि रहिआ मेरी जिंदुड़ीए पारब्रहमु प्रभु दाता राम ॥ ता का अंतु न पाईऐ मेरी जिंदुड़ीए पूरन पुरखु बिधाता राम ॥ सरब जीआ प्रतिपालदा मेरी जिंदुड़ीए जिउ बालक पित माता राम ॥ सहस सिआणप नह मिलै मेरी जिंदुड़ीए जन नानक गुरमुखि जाता राम ॥४॥६॥ छका १ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। बिधाता = विधाता, पैदा करने वाला। सहस = हजारों। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। जाता = सांझ पड़ती है।4।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! सब जीवों को दातें देने वाला प्रभु परमात्मा हरेक जगह में बस रहा है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह विधाता प्रभु सभी घटों में व्यापक है। जैसे माता-पिता अपने बच्चों को पालते हैं, वैसे ही परमात्मा सारे जीवों को पालता है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जीवात्मा! हजारों चतुराईयों से वह परमात्मा नहीं मिल सकता, गुरु की शरण पड़ने से उसके साथ गहरी साँझ पड़ जाती है।4।6। छका1।

[[0542]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का एकु अच्मभउ देखिआ मेरे लाल जीउ जो करे सु धरम निआए राम ॥ हरि रंगु अखाड़ा पाइओनु मेरे लाल जीउ आवणु जाणु सबाए राम ॥ आवणु त जाणा तिनहि कीआ जिनि मेदनि सिरजीआ ॥ इकना मेलि सतिगुरु महलि बुलाए इकि भरमि भूले फिरदिआ ॥ अंतु तेरा तूंहै जाणहि तूं सभ महि रहिआ समाए ॥ सचु कहै नानकु सुणहु संतहु हरि वरतै धरम निआए ॥१॥

मूलम्

हरि का एकु अच्मभउ देखिआ मेरे लाल जीउ जो करे सु धरम निआए राम ॥ हरि रंगु अखाड़ा पाइओनु मेरे लाल जीउ आवणु जाणु सबाए राम ॥ आवणु त जाणा तिनहि कीआ जिनि मेदनि सिरजीआ ॥ इकना मेलि सतिगुरु महलि बुलाए इकि भरमि भूले फिरदिआ ॥ अंतु तेरा तूंहै जाणहि तूं सभ महि रहिआ समाए ॥ सचु कहै नानकु सुणहु संतहु हरि वरतै धरम निआए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचंभउ = अचंभा, आश्चर्य, तमाशा। लाल = हे प्यारे! धरम निआए = धर्म और न्याय के अनुसार। रंगु = रंग भूमि जहाँ नट अपना खेल दिखाते हैं। अखाड़ा = मैदान। पाइओनु = उसने बना दिया है। आवणु जाणु = पैदा होने और मरना। सबाए = सारे जीवों को। तिनहि = उस (परमात्मा) ने ही। जिनि = जिस ने। मेदनि = धरती, सृष्टि। सिरजीआ = पैदा की है। मेलि = मिला के। महलि = महल में, हजूरी में। इकि = कई। भरमि = भटकना में पड़ के। तूं है = तू ही। सचु = अटल नियम। वरतै = कार्य व्यवहार चलाता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे प्यारे! मैंने परमात्मा का एक आश्चर्यजनक तमाशा देखा है कि वह जो कुछ करता है धर्म के अनुसार करता है। हे मेरे प्यारे! (ये जगत) उस परमात्मा ने एक अखाड़ा बना दिया है, एक रंग-भूमि रच दी है जिस में सारे (नटों के लिए, पहलवानों के लिए) पैदा होना मरना (भी नियत कर दिया है)। (जगत में जीवों का) पैदा होना मरना उसी परमात्मा ने बनाया है जिसने ये जगत पैदा किया है। कई जीवों को गुरु मिला के प्रभु अपनी हजूरी में टिका लेता है (ठिकाना दे देता है), और, कई जीव कुर्माग पड़ कर भटकते फिरते हैं।
हे प्रभु! अपने (गुणों का) अंत तू खुद ही जानता है, तू सारी सुष्टि में व्यापक है। हे संत जनो! सुनो, नानक एक अटल नियम बताता है (कि) परमात्मा धर्म अनुसार न्याय के मुताबक दुनिया की कार चला रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवहु मिलहु सहेलीहो मेरे लाल जीउ हरि हरि नामु अराधे राम ॥ करि सेवहु पूरा सतिगुरू मेरे लाल जीउ जम का मारगु साधे राम ॥ मारगु बिखड़ा साधि गुरमुखि हरि दरगह सोभा पाईऐ ॥ जिन कउ बिधातै धुरहु लिखिआ तिन्हा रैणि दिनु लिव लाईऐ ॥ हउमै ममता मोहु छुटा जा संगि मिलिआ साधे ॥ जनु कहै नानकु मुकतु होआ हरि हरि नामु अराधे ॥२॥

मूलम्

आवहु मिलहु सहेलीहो मेरे लाल जीउ हरि हरि नामु अराधे राम ॥ करि सेवहु पूरा सतिगुरू मेरे लाल जीउ जम का मारगु साधे राम ॥ मारगु बिखड़ा साधि गुरमुखि हरि दरगह सोभा पाईऐ ॥ जिन कउ बिधातै धुरहु लिखिआ तिन्हा रैणि दिनु लिव लाईऐ ॥ हउमै ममता मोहु छुटा जा संगि मिलिआ साधे ॥ जनु कहै नानकु मुकतु होआ हरि हरि नामु अराधे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अराधे = आराधता है। करि पूरा = अमोध मान के। मारगु = रास्ता। साधे = साधता है, अच्छा बना लेता है। बिखड़ा = मुश्किल। साधि = सुधार के। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। पाईऐ = प्राप्त कर ली जाती है। बिधातै = कर्तार ने। धुरहु = अपनी हजूरी से। रैणि = रात। लिव = लगन। संगि साधे = साधु गुरु की संगत में। मुकतु = विकारों से आजाद। अराधे = आराध के।2।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! (कह:) हे संत-जन सहेलियो! आओ, मिल के संत-संग में बैठो, (जो मनुष्य सत्संगियों में मिल के बैठता है वह) परमात्मा का नाम सदा स्मरण करता है। हे मेरे प्यारे! गुरु को अचूक मान के गुरु की शरण पड़ो (जो इस तरह गुरु की शरण पड़ता है वह) जम के रास्ते को (आत्मक मौत लाने वाले जीवन-राह को) अच्छा बना लेता है। गुरु की शरण पड़ कर मुश्किल जीवन-राह को (सुंदर व) आसान बना के परमात्मा की हजूरी में शोभा कमाई जा सकती है। (पर) जिस मनुष्यों के माथे पर अपनी हजूरी से विधाता ने (भक्ति का लेख) लिख दिया है, उन मनुष्यों की तवज्जो दिन-रात (प्रभु चरणों में) लगी रहती है। जब मनुष्य गुरु की संगति में मिलता है तब उसके अंदर से अहंकार ममता (अपनत्व) दूर हो जाते हैं, मोह समाप्त हो जाता है। दास नानक कहता है कि सदा परमात्मा का नाम स्मरण करके मनुष्य (अहंकार, ममता, मोह आदि के प्रभाव से) स्वतंत्र हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर जोड़िहु संत इकत्र होइ मेरे लाल जीउ अबिनासी पुरखु पूजेहा राम ॥ बहु बिधि पूजा खोजीआ मेरे लाल जीउ इहु मनु तनु सभु अरपेहा राम ॥ मनु तनु धनु सभु प्रभू केरा किआ को पूज चड़ावए ॥ जिसु होइ क्रिपालु दइआलु सुआमी सो प्रभ अंकि समावए ॥ भागु मसतकि होइ जिस कै तिसु गुर नालि सनेहा ॥ जनु कहै नानकु मिलि साधसंगति हरि हरि नामु पूजेहा ॥३॥

मूलम्

कर जोड़िहु संत इकत्र होइ मेरे लाल जीउ अबिनासी पुरखु पूजेहा राम ॥ बहु बिधि पूजा खोजीआ मेरे लाल जीउ इहु मनु तनु सभु अरपेहा राम ॥ मनु तनु धनु सभु प्रभू केरा किआ को पूज चड़ावए ॥ जिसु होइ क्रिपालु दइआलु सुआमी सो प्रभ अंकि समावए ॥ भागु मसतकि होइ जिस कै तिसु गुर नालि सनेहा ॥ जनु कहै नानकु मिलि साधसंगति हरि हरि नामु पूजेहा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कर = हाथ (बहुवचन)। होइ = हो के। पुरखु = सर्व व्यापक। बहुबिधि = कई किसमों की। खोजीआ = मैंने तलाश के देखीं हैं। अरपेहा = भेटा करें। केरा = कां। को = कोई मनुष्य। किआ पूज = कौन सी चीज बतौर भेटा। अंकि = गोद में। समाए = लीन हो जाता है। मसतकि = माथे पर। सनेहा = प्यार। मिलि = मिल के। पूजेहा = पूजा करें।3।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! (कह:) हे संत जनों! (साधु संगत में) एकत्र हो के परमात्मा के आगे दोनों हाथ जोड़ा करो, और, उस नाश रहित सर्व व्यापक परमात्मा की भक्ति किया करो। हे मेरे प्यारे! मैंने और कई किस्मों की पूजा-भेटा तलाश के देखी है (पर, सबसे श्रेष्ठ पूजा ये है कि) अपना ये मन ये शरीर सब भेटा कर देना चाहिए। (फिर भी, गुमान किस बात का?) ये मन, ये शरीर, ये धन सब परमात्मा का दिया हुआ है, (सो,) कोई मनुष्य (अपनी मल्कियत की) कौन सी चीज भेटा कर सकता है? जिस मनुष्य पर प्रभु मालिक कृपाल होता है दयावान होता है वह उस परमात्मा के चरणों में लीन हो जाता है (बस! यही भेटा और पूजा)। जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जाग उठते हैं, उसका अपने गुरु के साथ प्यार बन जाता है। दास नानक कहता है: (हे संत जनों!) साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह दिस खोजत हम फिरे मेरे लाल जीउ हरि पाइअड़ा घरि आए राम ॥ हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ मेरे लाल जीउ हरि तिसु महि रहिआ समाए राम ॥ सरबे समाणा आपि सुआमी गुरमुखि परगटु होइआ ॥ मिटिआ अधेरा दूखु नाठा अमिउ हरि रसु चोइआ ॥ जहा देखा तहा सुआमी पारब्रहमु सभ ठाए ॥ जनु कहै नानकु सतिगुरि मिलाइआ हरि पाइअड़ा घरि आए ॥४॥१॥

मूलम्

दह दिस खोजत हम फिरे मेरे लाल जीउ हरि पाइअड़ा घरि आए राम ॥ हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ मेरे लाल जीउ हरि तिसु महि रहिआ समाए राम ॥ सरबे समाणा आपि सुआमी गुरमुखि परगटु होइआ ॥ मिटिआ अधेरा दूखु नाठा अमिउ हरि रसु चोइआ ॥ जहा देखा तहा सुआमी पारब्रहमु सभ ठाए ॥ जनु कहै नानकु सतिगुरि मिलाइआ हरि पाइअड़ा घरि आए ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दहदिस = दसों दिशाओं में। पाइअड़ा = पा लिया, ढूँढ लिया। घरि = हृदय घर में। आए = आ के। हरि मंदरु = हरि ने अपने रहने के लिए घर। सरबे = सब जीवों में। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। अधेरा = अंधेरा। नाठा = भाग गया। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ठाए = जगह। सतिगुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! (परमात्मा को ढूँढने के लिए) हम दसों दिशाओं में तलाश करते फिरे, पर उस परमात्मा को अब हृदय घर में ही आ के ढूँढ लिया है। हे मेरे प्यारे! (इस मनुष्य शरीर को) परमात्मा ने अपना निवास स्थान बनाया हुआ है, परमात्मा इस (शरीर घर) में टिका रहता है। मालिक प्रभु स्वयं ही सारे जीवों में व्यापक हो रहा है, पर उसके इस अस्तित्व की समझ गुरु की शरण पड़ने से ही आती है। (गुरु जिस मनुष्य के मुँह में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल नाम-रस चोआ देता है, (उसके अंदर से माया के मोह का) अंधकार मिट जाता है, उसका सारा दुख दूर हो जाता है। (गुरु की कृपा से अब) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मुझे मालिक परमात्मा हर जगह बसता दिखाई देता है। दास नानक कहता है: गुरु ने मुझे परमात्मा मिला दिया है, मैंने परमात्मा को अपने हृदय-घर में ढूँढ लिया है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु बिहागड़ा महला ५ ॥ अति प्रीतम मन मोहना घट सोहना प्रान अधारा राम ॥ सुंदर सोभा लाल गोपाल दइआल की अपर अपारा राम ॥ गोपाल दइआल गोबिंद लालन मिलहु कंत निमाणीआ ॥ नैन तरसन दरस परसन नह नीद रैणि विहाणीआ ॥ गिआन अंजन नाम बिंजन भए सगल सीगारा ॥ नानकु पइअ्मपै संत ज्मपै मेलि कंतु हमारा ॥१॥

मूलम्

रागु बिहागड़ा महला ५ ॥ अति प्रीतम मन मोहना घट सोहना प्रान अधारा राम ॥ सुंदर सोभा लाल गोपाल दइआल की अपर अपारा राम ॥ गोपाल दइआल गोबिंद लालन मिलहु कंत निमाणीआ ॥ नैन तरसन दरस परसन नह नीद रैणि विहाणीआ ॥ गिआन अंजन नाम बिंजन भए सगल सीगारा ॥ नानकु पइअ्मपै संत ज्मपै मेलि कंतु हमारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अति प्रीतम = बहुत प्यारा लगने वाला। मोहना = मोह लेने वाला। घट सोहना = हरेक घट में सुशोभित है। प्रान अधारा = जिंद का आसरा। अपर अपारा = परे से परे, बेअंत। लालन = हे लाल! कंत = हे कंत! नैन = आँख। दरस परसन = दर्शनों की छूह प्राप्त करने के लिए। रैणि = रात। विहाणीआ = गुजर जाती है। अंजन = सुरमा। बिंजन = व्यंजन, भोजन। सीगारा = श्रृंगार। पइअंपै = चरणों में पड़ता है। जंपै = विनती करता है। कंतु = पति (शब्द ‘कंत’ और ‘कंतु’ में फर्क देखें)।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा बहुत ही प्यारा लगने वाला है, सबके मन को मोह लेने वाला है, सब शरीरों में सुशोभित है, सब के जीवन का सहारा है। उस दया के घर गोपाल प्यारे की सुंदर शोभा (पसर रही) है, बड़ी बेअंत शोभा है।
हे दयालु गोबिंद! हे गोपाल! हे प्यारे कंत! मुझ निमाणी को मिल। मेरी आँखें तेरे दर्शनों की छूह (झलक) पाने के लिए तरसती रही हैं। मेरी जिंदगी की रात गुजरती जा रही है, (पर, मुझे तेरे मिलाप से पैदा होने वाली) शांति नहीं मिल रही।
जिसको गुरु के बख्शे ज्ञान का सुरमा मिल गया, जिसको (आत्मक जीवन का) भोजन हरि-नाम मिल गया, उसके सारे (आत्मिक) श्रृंगार सफल हो गए। नानक संत जनों की चरण पड़ता है, संत-जनों के आगे अरजोई करता है, कि मुझे मेरा प्रभु-पति मिलाओ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाख उलाहने मोहि हरि जब लगु नह मिलै राम ॥ मिलन कउ करउ उपाव किछु हमारा नह चलै राम ॥ चल चित बित अनित प्रिअ बिनु कवन बिधी न धीजीऐ ॥ खान पान सीगार बिरथे हरि कंत बिनु किउ जीजीऐ ॥ आसा पिआसी रैनि दिनीअरु रहि न सकीऐ इकु तिलै ॥ नानकु पइअ्मपै संत दासी तउ प्रसादि मेरा पिरु मिलै ॥२॥

मूलम्

लाख उलाहने मोहि हरि जब लगु नह मिलै राम ॥ मिलन कउ करउ उपाव किछु हमारा नह चलै राम ॥ चल चित बित अनित प्रिअ बिनु कवन बिधी न धीजीऐ ॥ खान पान सीगार बिरथे हरि कंत बिनु किउ जीजीऐ ॥ आसा पिआसी रैनि दिनीअरु रहि न सकीऐ इकु तिलै ॥ नानकु पइअ्मपै संत दासी तउ प्रसादि मेरा पिरु मिलै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उलाहने = गिले शिकवे। करउ = करूँ। उपाव = कई तरीके (‘उपाउ’, उपाय का बहुवचन)। चल = चंचल। बित = धन। अनित = नित्य ना रहने वाला। कवन बिधि = किस तरह भी। धीरीजै = धैर्य आता। जीजीऐ = जीआ जाए। रैनि = रात। दिनीअरु = दिनकर, सूर्य। इकु तिलै = थोड़ा जितना समय भी। संत = हे संत! हे गुरु! तउ प्रसादि = तेरी कृपा से।2।
अर्थ: जब तक परमात्मा नहीं मिलता, तब तक (मेरी भूलों के) मुझे लाखों उलाहमें मिलते हैं। मैं परमात्मा को मिलने के लिए अनेक प्रयत्न करती हूँ, पर मेरी कोई पेश नहीं पड़ती। प्यारे प्रभु के मिलाप के बिना किसी तरह भी मन को धैर्य नहीं आता, चिक्त (धन की खातिर) हर वक्त भागा फिरता है, और, धन भी सदा साथ नहीं निभता। सारे खाने-पीने श्रृंगार प्रभु-पति के बिना व्यर्थ हैं, प्रभु-पति के बिना जीवन के कोई मायने नहीं। प्रभु-पति के बिना (दुनियावी) आशाएं (व्याकुल किए रखती हैं) माया की तृष्णा दिन-रात लगी रहती है। रक्ती भर समय के लिए भी जीवात्मा ठहराव में नहीं आती। नानक विनती करता है: हे गुरु! मैं (जीव-स्त्री) तेरी दासी आ बनी हूँ, तेरी कृपा से (ही) मेरा प्रभु पति (मुझे) मिल सकता है।2।

[[0543]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेज एक प्रिउ संगि दरसु न पाईऐ राम ॥ अवगन मोहि अनेक कत महलि बुलाईऐ राम ॥ निरगुनि निमाणी अनाथि बिनवै मिलहु प्रभ किरपा निधे ॥ भ्रम भीति खोईऐ सहजि सोईऐ प्रभ पलक पेखत नव निधे ॥ ग्रिहि लालु आवै महलु पावै मिलि संगि मंगलु गाईऐ ॥ नानकु पइअ्मपै संत सरणी मोहि दरसु दिखाईऐ ॥३॥

मूलम्

सेज एक प्रिउ संगि दरसु न पाईऐ राम ॥ अवगन मोहि अनेक कत महलि बुलाईऐ राम ॥ निरगुनि निमाणी अनाथि बिनवै मिलहु प्रभ किरपा निधे ॥ भ्रम भीति खोईऐ सहजि सोईऐ प्रभ पलक पेखत नव निधे ॥ ग्रिहि लालु आवै महलु पावै मिलि संगि मंगलु गाईऐ ॥ नानकु पइअ्मपै संत सरणी मोहि दरसु दिखाईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रिउ = प्रभु पति। संगि = साथ। दरसु = दर्शन। मोहि = मेरे, मेरे में। कत = कैसे? महलि = महल में, प्रभु की हजूरी में। निरगुनि = गुणहीन (स्त्रीलिंग)। अनाथि = निआसरी (स्त्रीलिंग)। बिनवै = बिनती करती है। प्रभ = हे प्रभु! किरपा निधे = हे कृपा के खजाने! भीति = दीवार। खोइऐ = दूर हो जाती है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। नव निधे = हे नौ खजानों के मालिक! ग्रिहि = हृदय घर में। लालु = प्यारा सुंदर प्रभु। महलु = प्रभु की हजूरी। मिलि = मिल के। संगि = साथ। मंगलु = खुशी का गीत। मोहि = मुझे।3।
अर्थ: (मेरी इस) एक ही हृदय-सेज पर प्रभु-पति (मेरे) साथ (बसता) है, पर मुझे दर्शन प्राप्त नहीं होता! मुझे प्रभु की हजूरी में बुलाया भी कैसे जाए? मेरे में तो अनेक अवगुण हैं।
गुण हीन, निमाणी, निआसरी (जीव-स्त्री) विनती करती है: हे कृपा के खजाने प्रभु! मुझे मिल। हे नौ खजानों के मालिक प्रभु! एक पलक मात्र तेरे दर्शन करने से (तुझसे विछुड़ने वाली) भटकना की दीवार दूर हो जाती है, आत्मक अडोलता में लीनता हो जाती है।
जब जीव-स्त्री के हृदय-घर में प्यारा प्रभु-पति आ बसता है जब जीव-स्त्री प्रभु की हजूरी प्राप्त कर लेती है, तब प्रभु के साथ मिल के खुशी के गीत गाए जा सकते हैं। हे गुरु! नानक तेरे चरणों में आ पड़ा है, तेरी शरण आ गया है (मुझे नानक को) परमात्मा पति के दर्शन करवा दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन कै परसादि हरि हरि पाइआ राम ॥ इछ पुंनी मनि सांति तपति बुझाइआ राम ॥ सफला सु दिनस रैणे सुहावी अनद मंगल रसु घना ॥ प्रगटे गुपाल गोबिंद लालन कवन रसना गुण भना ॥ भ्रम लोभ मोह बिकार थाके मिलि सखी मंगलु गाइआ ॥ नानकु पइअ्मपै संत ज्मपै जिनि हरि हरि संजोगि मिलाइआ ॥४॥२॥

मूलम्

संतन कै परसादि हरि हरि पाइआ राम ॥ इछ पुंनी मनि सांति तपति बुझाइआ राम ॥ सफला सु दिनस रैणे सुहावी अनद मंगल रसु घना ॥ प्रगटे गुपाल गोबिंद लालन कवन रसना गुण भना ॥ भ्रम लोभ मोह बिकार थाके मिलि सखी मंगलु गाइआ ॥ नानकु पइअ्मपै संत ज्मपै जिनि हरि हरि संजोगि मिलाइआ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै परसादि = की कृपा से। पुंनी = पूरी हो गई है। मनि = मन में। तपति = तपश, जलन। सफला = मुबारक। सु = वह। रैणे = रात। सुहावी = सुखदाई। घना = बहुत। रसना = जीभ। कवन गुण = कौन कौन से गुण! भना = मैं बताऊँ। थाके = खत्म हो गए हैं। मिलि = मिल के। सखी = सखियां, ज्ञानेंद्रियां। पइअंपै = चरणों में पड़ता है। संत जंपै = गुरु के आगे अरजोई करता है। संजोगि = संयोग के द्वारा, मिलाप के लेख द्वारा।4।
अर्थ: सतिगुरु की कृपा से मैंने परमात्मा ढूंढ लिया है, मेरी (चिरों की) चाहत पूरी हो गई है, मेरे मन में ठण्ड पड़ गई है, (मेरे अंदर से तृष्णा की) तपश बुझ गई है। वह दिन (मेरे वास्ते) भाग्यशाली है वह रात सुहानी है (जब मुझे परमात्मा मिला। मिलाप के कारण मेरे अंदर) बहुत सारी खुशियां-आनंद-स्वाद बन गए हैं, (मेरे हृदय में) प्यारे गोपाल गोबिंद जी प्रगट हो गए हैं, मैं अपनी जीभ से (उस मिलाप के) कौन-कौन से गुण (लाभ) बताऊँ? (मेरे अंदर से) भटकना, लोभ, मोह आदि सारे विकार दूर हो गए हैं, मेरी ज्ञान-इंद्रिय मिल के महिमा के गीत गा रही हैं। अब नानक गुरु के चरणों में गिर पड़ा है, गुरु के आगे ही अरजोई करता रहता है, क्योंकि उस गुरु ने मिलाप के लेख के द्वारा (मिलाप के लेख को उजागर करके) मुझे परमात्मा से मिला दिया है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ ॥ करि किरपा गुर पारब्रहम पूरे अनदिनु नामु वखाणा राम ॥ अम्रित बाणी उचरा हरि जसु मिठा लागै तेरा भाणा राम ॥ करि दइआ मइआ गोपाल गोबिंद कोइ नाही तुझ बिना ॥ समरथ अगथ अपार पूरन जीउ तनु धनु तुम्ह मना ॥ मूरख मुगध अनाथ चंचल बलहीन नीच अजाणा ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी रखि लेहु आवण जाणा ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ ॥ करि किरपा गुर पारब्रहम पूरे अनदिनु नामु वखाणा राम ॥ अम्रित बाणी उचरा हरि जसु मिठा लागै तेरा भाणा राम ॥ करि दइआ मइआ गोपाल गोबिंद कोइ नाही तुझ बिना ॥ समरथ अगथ अपार पूरन जीउ तनु धनु तुम्ह मना ॥ मूरख मुगध अनाथ चंचल बलहीन नीच अजाणा ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी रखि लेहु आवण जाणा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर = हे सबसे बड़े! अनदिनु = हर रोज। वखाणा = मैं उचारता रहूँ। अंम्रित = आत्मक जीवन देने वाली। उचरा = मैं उचारूँ। जसु = महिमा का गीत। मइआ = कृपा। गोपाल = हे गोपाल! अगथ = अकथ, जिसका रूप बयान ना किया जा सके। जीउ = जिंद। तुम्ह = तेरा दिया हुआ। मुगध = मूर्ख। अनाथ = निआसरा। आवण जाणा = पैदा होना मरना।1।
अर्थ: हे सबसे बड़े! हे सर्व गुण संपन्न प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मैं हर वक्त तेरा नाम स्मरण करता रहूँ, आत्मिक जीवन देने वाली तेरी वाणी उचारता रहूँ, मैं तेरी महिमा के गीत गाता रहूँ, मुझे तेरी रजा मीठी लगती रहे। हे गोपाल! हे गोबिंद! (मेरे पर) दया कर, तरस कर, तेरे बिना मेरा और कोई सहारा नहीं है। हे सब ताकतों के मालिक! हे अकथ! हे बेअंत! मेरी ये जीवात्मा, मेरा ये मन ये शरीर, ये धन- सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है।
नानक विनती करता है: हे प्रभु! मैं मूर्ख हूँ बहुत मूर्ख हूँ, निआसरा हूँ, चंचल, कमजोर, नीच और अंजान हूँ। मैं तेरी शरण आया हूँ। मुझे जनम-मरण के चक्कर से बचा ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधह सरणी पाईऐ हरि जीउ गुण गावह हरि नीता राम ॥ धूरि भगतन की मनि तनि लगउ हरि जीउ सभ पतित पुनीता राम ॥ पतिता पुनीता होहि तिन्ह संगि जिन्ह बिधाता पाइआ ॥ नाम राते जीअ दाते नित देहि चड़हि सवाइआ ॥ रिधि सिधि नव निधि हरि जपि जिनी आतमु जीता ॥ बिनवंति नानकु वडभागि पाईअहि साध साजन मीता ॥२॥

मूलम्

साधह सरणी पाईऐ हरि जीउ गुण गावह हरि नीता राम ॥ धूरि भगतन की मनि तनि लगउ हरि जीउ सभ पतित पुनीता राम ॥ पतिता पुनीता होहि तिन्ह संगि जिन्ह बिधाता पाइआ ॥ नाम राते जीअ दाते नित देहि चड़हि सवाइआ ॥ रिधि सिधि नव निधि हरि जपि जिनी आतमु जीता ॥ बिनवंति नानकु वडभागि पाईअहि साध साजन मीता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधह सरणी = गुरमुखों की शरण पड़ने से। गावह = हम गाते हैं, गा सकते हैं। नीता = नित्य। मनि = मन में। तनि = तन पे। लगउ = लगी रहे। पतित = विकारी। संगि = साथ। बिधाता = विधाता, कर्तार। राते = रंगे हुए। जीअ दाते = आत्मिक जीवन देने वाले। देहि = देते हैं। चढ़हि सवाइआ = (वह दातें) बढ़ती ही रहती हैं। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। नव निधि = नौ खजाने। जपि = जप के। जिनी = जिस (मनुष्यों) ने। आतमु = अपने आप को। पाईअहि = मिलते हैं।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘लगउ’ हुकमी भविष्यत, अन्य पुरुख, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) गुरमुखों की शरण पड़ने से परमात्मा मिल जाता है, और, हम सदा परमात्मा के गुण गा सकते हैं। हे प्रभु जी! (मेहर कर) तेरे भक्तजनों के चरणों की धूल मेरे मन में मेरे माथे पर लगती रहे (भक्तजनों के चरणों की धूल की इनायत से) विकारों में गिरे हुए मनुष्य भी पवित्र हो जाते हैं जिस मनुष्यों ने कर्तार पा लिया उनकी संगति में विकारी लोग स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं। परमात्मा के नाम-रंग से रंगे हुए लोग आत्मिक जीवन की दातें देने योग्य हो जाते हैं, वे ये दातें नित्य देते हैं और ये बढ़ती ही रहतीं हैं। जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम जप के अपने मन को वश में कर लिया, सब करामाती ताकतें व दुनियां के नौ खजाने उनको मिल जाते हैं। हे भाई! नानक विनती करता है कि गुरमुख सज्जन मित्र बड़ी किस्मत से ही मिलते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनी सचु वणंजिआ हरि जीउ से पूरे साहा राम ॥ बहुतु खजाना तिंन पहि हरि जीउ हरि कीरतनु लाहा राम ॥ कामु क्रोधु न लोभु बिआपै जो जन प्रभ सिउ रातिआ ॥ एकु जानहि एकु मानहि राम कै रंगि मातिआ ॥ लगि संत चरणी पड़े सरणी मनि तिना ओमाहा ॥ बिनवंति नानकु जिन नामु पलै सेई सचे साहा ॥३॥

मूलम्

जिनी सचु वणंजिआ हरि जीउ से पूरे साहा राम ॥ बहुतु खजाना तिंन पहि हरि जीउ हरि कीरतनु लाहा राम ॥ कामु क्रोधु न लोभु बिआपै जो जन प्रभ सिउ रातिआ ॥ एकु जानहि एकु मानहि राम कै रंगि मातिआ ॥ लगि संत चरणी पड़े सरणी मनि तिना ओमाहा ॥ बिनवंति नानकु जिन नामु पलै सेई सचे साहा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरि-नाम। वणंजिआ = व्यापार किया। पूरे = भरे खजानों वाले। पहि = पास। लाहा = लाभ, कमाई। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। सिउ = साथ। रातिआ = रंगे हुए। जानहि = सांझ पाते हैं। मानहि = मानते हैं। कै रंगि = के प्रेम रंग में। मातिआ = मस्त। लगि = लग के। मनि = मन में। ओमाहा = चाव, उत्साह। पलै = पल्ले में। सचे = सदा कायम रहने वाले।3।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने (सदा) सदा-स्थिर रहने वाले हरि-नाम का व्यापार किया है वह भरे भण्डारे वाले शाहूकार हैं, उनके पास (हरि-नाम का) बहुत खजाना है, वह (इस व्यापार में) परमात्मा की महिमा (की) कमाई करते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के साथ रंगे रहते हैं, उन पर ना काम, ना क्रोध, ना लोभ, कोई भी अपना जोर नहीं डाल सकता, वे एक परमात्मा के साथ गहरी साँझ बनाए रखते हैं, वे एक परमात्मा को ही (पक्का साथी) मानते हैं, वे परमात्मा के प्रेम-रंग में मस्त रहते हैं। वे मनुष्य गुरु के चरण लग के परमात्मा की शरण में पड़े रहते हैं, उनके मन में (परमात्मा के मिलाप की) उमंग बनी रहती है। नानक विनती करता है, जिस मनुष्यों के पास परमात्मा का नाम-धन है वही ऐसे हैं जो सदा के लिए शाहूकार बने रहते हैं।3।

[[0544]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक सोई सिमरीऐ हरि जीउ जा की कल धारी राम ॥ गुरमुखि मनहु न वीसरै हरि जीउ करता पुरखु मुरारी राम ॥ दूखु रोगु न भउ बिआपै जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥ संत प्रसादि तरे भवजलु पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ वजी वधाई मनि सांति आई मिलिआ पुरखु अपारी ॥ बिनवंति नानकु सिमरि हरि हरि इछ पुंनी हमारी ॥४॥३॥

मूलम्

नानक सोई सिमरीऐ हरि जीउ जा की कल धारी राम ॥ गुरमुखि मनहु न वीसरै हरि जीउ करता पुरखु मुरारी राम ॥ दूखु रोगु न भउ बिआपै जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥ संत प्रसादि तरे भवजलु पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ वजी वधाई मनि सांति आई मिलिआ पुरखु अपारी ॥ बिनवंति नानकु सिमरि हरि हरि इछ पुंनी हमारी ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! जा की = जिस की। कल = कला, मता। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। मनहु = मन से। पुरखु = सर्व व्यापक। मुरारी = (मुर+अरि; अरि = वैरी) परमात्मा। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। पूरबि = पूर्बले जनम में (कमाए अनुसार)। पाइआ = प्राप्त कर लिया। वधाई = बढ़ती हुई दशा, चढ़दी कला। वजी = बज पड़ी (जैसे बाजा बजते हुए और छोटी मोटी आवाजें नहीं सुनतीं)। मनि = मन में। अपारी = बेअंत। नानकु = (शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ में फर्क देखें)। सिमरि = स्मरण करके। पुंनी = पूरी हो गई।4।
अर्थ: हे नानक! (सदा) उस परमात्मा का स्मरण करना चाहिए (सारे संसार में) जिसकी सत्ता काम कर रही है। (हे नानक! गुरु की शरण पड़ना चाहिए) गुरु की शरण पड़ने से सर्व-व्यापक कर्तार प्रभु मन से नहीं भूलता। जिस मनुष्यों ने (सदा) परमात्मा का स्मरण किया है उन पर कोई रोग, कोई दुख, कोई डर अपना जोर नहीं डाल सकता। उन्होंने गुरु की कृपा से ये संसार-समुंदर तैर लिया (समझो), पूर्बले जनम की कमाई के मुताबिक (माथे पर भक्ति का) लिखा लेख उनको प्राप्त हो गया। उनके अंदर चढ़दीकला प्रबल हो गई, उनके मन शीतल हो गए, उन्हें बेअंत प्रभु मिल गया।
नानक विनती करता है, परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के मेरी भी (प्रभु-मिलाप वाली चिरों की) आस पूरी हो गई है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ घरु २ ੴ सति नामु गुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ घरु २ ੴ सति नामु गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधु सुखु रैनड़ीए प्रिअ प्रेमु लगा ॥ घटु दुख नीदड़ीए परसउ सदा पगा ॥ पग धूरि बांछउ सदा जाचउ नाम रसि बैरागनी ॥ प्रिअ रंगि राती सहज माती महा दुरमति तिआगनी ॥ गहि भुजा लीन्ही प्रेम भीनी मिलनु प्रीतम सच मगा ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा रहउ चरणह संगि लगा ॥१॥

मूलम्

वधु सुखु रैनड़ीए प्रिअ प्रेमु लगा ॥ घटु दुख नीदड़ीए परसउ सदा पगा ॥ पग धूरि बांछउ सदा जाचउ नाम रसि बैरागनी ॥ प्रिअ रंगि राती सहज माती महा दुरमति तिआगनी ॥ गहि भुजा लीन्ही प्रेम भीनी मिलनु प्रीतम सच मगा ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा रहउ चरणह संगि लगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वधु = लंबी होती जा। सुख = आत्मक आनंद। रैनड़ीए = हे सोहणी रात! प्रिअ = प्यारे का। घटु = कम होती जा। नीदड़ीए = हे अनुचित (गफलत की) नींद! परसउ = मैं छूती रहूँ। पग = पैर। बांछउ = मैं चाहती हूँ। जाचउ = मैं माँगती हूँ। रसि = रस में। रंगि = रंग में। सहज = आत्मक अडोलता। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। भीनी = भीग गई। सच = सदा स्थिर रहने वाला। मगा = रास्ता। रहउ = मैं रहूँ।1।
अर्थ: हे आत्मिक आनंद देने वाली सुंदर (जीवन की) रात्रि! तू लंबी होती जा, (ता कि मेरे हृदय में) प्यारे का प्रेम बना रहे। हे दुखदाई अनुचित (गफ़लत की) नींद! तू घटती जा, (ता कि) मैं (तुझसे बची रहूँ, और) हमेशा (जागती रहूँ और) प्रभु के चरण छूती रहूँ।
मैं (प्रभु के) चरणों की धूल की तमन्ना रखती हूँ, मैं सदा (उसके दर से यही) माँगती हूँ कि उसके नाम के स्वाद में (दुनिया से) विरक्त बनी रहूँ, प्यारे के प्रेम रंग में रंगी हुई, आत्मिक अडोलता के (आनंद में) मस्त मैं इस बड़ी (बैरनि) बुरी मति का त्याग किए रहूँ।
(प्रभु ने मेरी) बाँह पकड़ के मुझे अपनी बना लिया है, मैं उसके प्रेम रस में भीग गई हूँ, सदा कायम रहने वाले प्रीतम को मिलना ही (जिंदगी का सही) रास्ता है। नानक विनती करता है (-हे प्रभु!) कृपा कर, मैं सदा तेरे चरणों से जुड़ा रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी सखी सहेलड़ीहो प्रभ कै चरणि लगह ॥ मनि प्रिअ प्रेमु घणा हरि की भगति मंगह ॥ हरि भगति पाईऐ प्रभु धिआईऐ जाइ मिलीऐ हरि जना ॥ मानु मोहु बिकारु तजीऐ अरपि तनु धनु इहु मना ॥ बड पुरख पूरन गुण स्मपूरन भ्रम भीति हरि हरि मिलि भगह ॥ बिनवंति नानक सुणि मंत्रु सखीए हरि नामु नित नित नित जपह ॥२॥

मूलम्

मेरी सखी सहेलड़ीहो प्रभ कै चरणि लगह ॥ मनि प्रिअ प्रेमु घणा हरि की भगति मंगह ॥ हरि भगति पाईऐ प्रभु धिआईऐ जाइ मिलीऐ हरि जना ॥ मानु मोहु बिकारु तजीऐ अरपि तनु धनु इहु मना ॥ बड पुरख पूरन गुण स्मपूरन भ्रम भीति हरि हरि मिलि भगह ॥ बिनवंति नानक सुणि मंत्रु सखीए हरि नामु नित नित नित जपह ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै चरणि = के चरण में (एकवचन)। लगह = आओ, हम लगें। मनि = मन में। घणा = बहुत। मंगह = आओ, हम माँगे। पाईऐ = पा लेते हैं। जाइ = जा के। तजीऐ = छोड़ देना चाहिए। अरपि = भेटा करके। भ्रम भीति = भटकना की दीवार। मिलि = मिल के। भगह = आओ, तोड़ दें। मंत्र = सलाह। जपह = आओ, हम जपें।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘लगह’ है वर्तमान, उत्तम पुरख, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरी सखियो! हे मेरी प्यारी सहेलियो! आओ, हम प्रभु के चरणों में जुड़ें। (मेरे) मन में प्यारे का बहुत प्रेम बस रहा है, आओ हम (उससे) भक्ति का दान माँगे। हे सहेलियो! जा के हरि के संत-जनों को मिलना चाहिए (उनकी सहायता से) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, (इस तरह) परमात्मा की भक्ति प्राप्त होती है। हे सखियो! अपना ये मन ये शरीर ये धन (सब कुछ) भेटा करके (अपने अंदर से) अहंकार, माया का मोह, विकार दूर कर देना चाहिए। हे सहेलियो! जो प्रभु सबसे बड़ा है, सर्व व्यापक है, सारे गुणों से भरपूर है, उसको मिल के (उससे दूरी बनाने वाली अपने अंदर से) भटकना की दीवार गिरा दें। नानक विनती करता है: हे मेरी सहेली! मेरी सलाह सुन, आ सदा ही सदा ही परमात्मा का नाम जपते रहें।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नारि सुहागणे सभि रंग माणे ॥ रांड न बैसई प्रभ पुरख चिराणे ॥ नह दूख पावै प्रभ धिआवै धंनि ते बडभागीआ ॥ सुख सहजि सोवहि किलबिख खोवहि नाम रसि रंगि जागीआ ॥ मिलि प्रेम रहणा हरि नामु गहणा प्रिअ बचन मीठे भाणे ॥ बिनवंति नानक मन इछ पाई हरि मिले पुरख चिराणे ॥३॥

मूलम्

हरि नारि सुहागणे सभि रंग माणे ॥ रांड न बैसई प्रभ पुरख चिराणे ॥ नह दूख पावै प्रभ धिआवै धंनि ते बडभागीआ ॥ सुख सहजि सोवहि किलबिख खोवहि नाम रसि रंगि जागीआ ॥ मिलि प्रेम रहणा हरि नामु गहणा प्रिअ बचन मीठे भाणे ॥ बिनवंति नानक मन इछ पाई हरि मिले पुरख चिराणे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि नारि = प्रभु पति की स्त्री। सुहागणे = सौभाग्यवती। सभि = सारे। बैसई = बैठे। चिराणे = चिरों के, आदि के। ते = वह जीव स्त्रीयां (बहुवचन)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सोवहि = सोती हैं, लीन रहती हैं। किलबिख = पाप। जागीआ = (माया के मोह से) सचेत रहती हैं। मिलि = (साधु-संगत में) मिल के। प्रिअ बचन = प्यारे के बोल। भाणे = अच्छे लगते हैं। मन इछ = मन की कामना।3।
अर्थ: जो जीव-स्त्री अपने आप को प्रभु-पति के हवाले कर देती है वह भाग्यशाली बन जाती है, वह सारे आनंद पाती है वह कभी पति-हीन नहीं होती, (उसके सिर पर) आदि से पति-प्रभु (हाथ रखे रहता है), उस जीव-स्त्री को कोई दुख नहीं व्याप्तता वह सदा प्रभु-पति का ध्यान धरती है।
जो जीव-सि्त्रयाँ प्रभु के नाम के स्वाद में प्रभु के प्रेम में (टिक के, माया के मोह की नींद में पड़ने से) सुचेत रहती हैं वे मुबारक हैं वे अति भाग्यशाली हैं वे आत्मिक आनंद में आत्मिक अडोलता में लीन रहती हैं, वे (अपने अंदर से) सारे पाप दूर कर लेती हैं।
नानक विनती करता है: जो जीव-सि्त्रयाँ (साधु-संगत में) प्रेम से मिल के रहती हैं, प्रभु का नाम जिनकी जिंदगी का श्रृंगार बना रहता है, जिनको प्रीतम प्रभु की महिमा के बोल मीठे लगते हैं, अच्छे लगते हैं, उनकी (चिरों की) मनोकामना पूरी हो जाती है (भाव) उनको आदि का पति-प्रभु मिल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तितु ग्रिहि सोहिलड़े कोड अनंदा ॥ मनि तनि रवि रहिआ प्रभ परमानंदा ॥ हरि कंत अनंत दइआल स्रीधर गोबिंद पतित उधारणो ॥ प्रभि क्रिपा धारी हरि मुरारी भै सिंधु सागर तारणो ॥ जो सरणि आवै तिसु कंठि लावै इहु बिरदु सुआमी संदा ॥ बिनवंति नानक हरि कंतु मिलिआ सदा केल करंदा ॥४॥१॥४॥

मूलम्

तितु ग्रिहि सोहिलड़े कोड अनंदा ॥ मनि तनि रवि रहिआ प्रभ परमानंदा ॥ हरि कंत अनंत दइआल स्रीधर गोबिंद पतित उधारणो ॥ प्रभि क्रिपा धारी हरि मुरारी भै सिंधु सागर तारणो ॥ जो सरणि आवै तिसु कंठि लावै इहु बिरदु सुआमी संदा ॥ बिनवंति नानक हरि कंतु मिलिआ सदा केल करंदा ॥४॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु = उस में। ग्रिहि = घर में। तितु ग्रिहि = उस हृदय घर में। सोहिलड़े = खुशी के गीत। कोड = कौतक, तमाशे। मनि = मन में। तनि = शरीर में, हृदय में। रवि रहिआ = आ बसा। परमानंदा = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक। अनंत = बेअंत। दइआल = दया का घर। स्रीधर = श्रीधर (श्री = लक्ष्मी) लक्ष्मी का पति। पतित उधारणो = विकारियों को विकारों से बचाने वाला। प्रभि = प्रभु ने। भै = डर। सिंधु = समुंदर। सागर = समंद्र। कंठि = गले से। बिरदु = आदि कुदरती स्वभाव। संदा = का। केल = चोज तमाशे, अटखेलियां। करंदा = करने वाला।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सबसे श्रेष्ठ आनंद का मालिक प्रभु जिस मन में जिस हृदय में आ बसता है, उस हृदय-घर में (मानो) खुशी के गीत (गाए जा रहे हैं) रंग-तमाशे (हो रहे हैं), आनंद (हो रहा है)। प्रभु-पति बेअंत है, सदा दया का घर है, लक्ष्मी का आसरा है, सृष्टि की सार लेने वाला है, विकारियों को विकार से बचाने वाला है। उस मुरारी प्रभु ने जिस जीव पर मेहर की निगाह कर दी, उस जीव को अनेक सहम भरे संसार से पार लंघा लिया।
नानक विनती करता है: मालिक प्रभु का ये आदि कुदरती स्वभाव (बिरद) है कि जो जीव उसकी शरण आता है उसको वह अपने गले से लगा लेता है, और वह सदा चोज-तमाशे करने वाला प्रभु (उस शरण आए को) मिल लेता है।4।1।4।

[[0545]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ ॥ हरि चरण सरोवर तह करहु निवासु मना ॥ करि मजनु हरि सरे सभि किलबिख नासु मना ॥ करि सदा मजनु गोबिंद सजनु दुख अंधेरा नासे ॥ जनम मरणु न होइ तिस कउ कटै जम के फासे ॥ मिलु साधसंगे नाम रंगे तहा पूरन आसो ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा हरि चरण कमल निवासो ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ ॥ हरि चरण सरोवर तह करहु निवासु मना ॥ करि मजनु हरि सरे सभि किलबिख नासु मना ॥ करि सदा मजनु गोबिंद सजनु दुख अंधेरा नासे ॥ जनम मरणु न होइ तिस कउ कटै जम के फासे ॥ मिलु साधसंगे नाम रंगे तहा पूरन आसो ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा हरि चरण कमल निवासो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सर = तालाब। सरोवर = श्रेष्ठ तालाब। तह = वहाँ। मना = हे मन! मजनु = स्नान। सरे = सरोवर में। हरि सरे = परमात्मा (की महिमा) के सरोवर में। सभि = सारे। किलबिख = पाप। सजनु = मित्र। नासे = नाश कर देता है। कउ = को। कटै = काट देता है। फासे = फांसियां। रंगे = रंगि, प्रेम में। तहा = उस (साधु-संगत) में। हरि = हे हरि!।1।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के चरण (जैसे) सुंदर सा तालाब है, उसमें तू (सदा) टिका रह। हे मन! परमात्मा (की महिमा) के तालाब में स्नान किया कर, तेरे सारे पापों का नाश हो जाएगा। हे मन! सदा (हरि-सर में) स्नान करता रहा कर। (जो मनुष्य ये स्नान करता है) मित्र प्रभु उसके सारे दुख नाश कर देता है उसके मोह का अंधकार दूर कर देता है। उस मनुष्य को जनम-मरण का चक्कर नहीं भुगतना पड़ता, मित्र-प्रभु उसकी जम की फांसियां (आत्मक मौत लाने वाली फाँसियां) काट देता है। हे मन! साधु-संगत में मिल, परमात्मा के नाम-रंग में जुड़ा कर, साधु-संगत में ही तेरी हरेक आस पूरी होगी।
नानक विनती करता है: हे हरि! कृपा कर, तेरे सुंदर कोमल चरणों में मेरा मन सदा टिका रहे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तह अनद बिनोद सदा अनहद झुणकारो राम ॥ मिलि गावहि संत जना प्रभ का जैकारो राम ॥ मिलि संत गावहि खसम भावहि हरि प्रेम रस रंगि भिंनीआ ॥ हरि लाभु पाइआ आपु मिटाइआ मिले चिरी विछुंनिआ ॥ गहि भुजा लीने दइआ कीन्हे प्रभ एक अगम अपारो ॥ बिनवंति नानक सदा निरमल सचु सबदु रुण झुणकारो ॥२॥

मूलम्

तह अनद बिनोद सदा अनहद झुणकारो राम ॥ मिलि गावहि संत जना प्रभ का जैकारो राम ॥ मिलि संत गावहि खसम भावहि हरि प्रेम रस रंगि भिंनीआ ॥ हरि लाभु पाइआ आपु मिटाइआ मिले चिरी विछुंनिआ ॥ गहि भुजा लीने दइआ कीन्हे प्रभ एक अगम अपारो ॥ बिनवंति नानक सदा निरमल सचु सबदु रुण झुणकारो ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तह = वहाँ, साधु-संगत में। बिनोद = खुशियां। अनहद = एक रस, लगातार। झुणकारो = (बज रहे साजों की) मध्यम मध्यम मीठी आवाज। मिलि = मिल के। जैकारो = महिमा। खसम भावहि = पति को प्यारे लगते हैं। रंगि = रंग में। भिंनीआ = भीगी रहती है। आपु = स्वै भाव, अहंकार। चिरी विछुंनीआ = चिरों से बिछुड़े हुए। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारो = बेअंत। सचु सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। रुणझुणकारो = मीठी सुरीली मध्यम आवाज।2।
अर्थ: साधु-संगत में सदा आत्मिक आनंद और खुशियों की (मानो) एक अनहद झनकार चलती रहती है। साधु-संगत में संत-जन मिल के परमात्मा के महिमा के गीत गाते रहते हैं। संत-जन महिमा के गीत गाते हैं, वे पति-प्रभु को प्यारे लगते हैं, उनकी तवज्जो परमात्मा के प्रेम-रस के रंग में भीगी रहती है। वे (इस मानव जनम में) परमात्मा के नाम की कमाई कमाते हैं, (अपने अंदर से) स्वै भाव (अहंकार) मिटा लेते हैं, चिरों से विछुड़े हुए (पुनः परमात्मा को) मिल जाते हैं। अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा उन पर दया करता है, (उनकी) बाँह पकड़ के (उनको) अपने बना लेता है। नानक विनती करता है: वे संत जन सदा के लिए पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, परमात्मा की महिमा की वाणी उनके अंदर मीठी-मीठी मध्यम सुरीली सुर चलाए रखती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि वडभागीआ हरि अम्रित बाणी राम ॥ जिन कउ करमि लिखी तिसु रिदै समाणी राम ॥ अकथ कहाणी तिनी जाणी जिसु आपि प्रभु किरपा करे ॥ अमरु थीआ फिरि न मूआ कलि कलेसा दुख हरे ॥ हरि सरणि पाई तजि न जाई प्रभ प्रीति मनि तनि भाणी ॥ बिनवंति नानक सदा गाईऐ पवित्र अम्रित बाणी ॥३॥

मूलम्

सुणि वडभागीआ हरि अम्रित बाणी राम ॥ जिन कउ करमि लिखी तिसु रिदै समाणी राम ॥ अकथ कहाणी तिनी जाणी जिसु आपि प्रभु किरपा करे ॥ अमरु थीआ फिरि न मूआ कलि कलेसा दुख हरे ॥ हरि सरणि पाई तजि न जाई प्रभ प्रीति मनि तनि भाणी ॥ बिनवंति नानक सदा गाईऐ पवित्र अम्रित बाणी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाली। जिन्ह कउ = जिनके माथे पर। करमि = (परमात्मा की) बख्शिश से। तिस रिदै = उस उस मनुष्य के हृदय में।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘जिन्’ बहुवचन है, ‘तिसु’ एकवचन है। दोनों का मेल ठीक करने के लिए ‘तिसु’ का अर्थ ‘तिसु तिसु’ करना है)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। जिसु = जिस जिस पर। अमरु = अटल आत्मिक जीवन वाला। ना मूआ = आत्मिक मौत के काबू नहीं आता। कलि = झगड़े। हरे = दूर कर लेता है। तजि = छोड़ के। मनि = मन में। तनि = हृदय में। भाणी = प्यारी लगी। गाईऐ = गानी चाहिए।3।
अर्थ: हे भाग्यशाली! आत्मिक जीवन देने वाली प्रभु की महिमा की वाणी सदा सुना कर। ये वाणी उस उस (भाग्यशाली) के हृदय में बसती है जिनके माथे पर परमात्मा की बख्शिश से इसकी प्राप्ति का लेख लिखा होता है। जिस जिस मनुष्य पर प्रभु स्वयं कृपा करता है वह लोग अकथनीय प्रभु की महिमा से सांझ पाते हैं।
(जो मनुष्य परमात्मा की महिमा से सांझ डालता है) वह अटल आत्मिक जीवन वाले हो जाता है, वह फिर कभी आत्मिक मौत नहीं मरता, वह (अपने अंदर से) सारे दुख-कष्ट झगड़े दूर कर लेता है, वह मनुष्य उस परमात्मा की शरण प्राप्त कर लेता है जो कभी छोड़ के नहीं जाता, उस मनुष्य के मन में, हृदय में प्रभु की प्रीति प्यारी लगने लगती है। नानक विनती करता है: (हे भाई!) आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की पवित्र वाणी सदा गायन करनी चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन तन गलतु भए किछु कहणु न जाई राम ॥ जिस ते उपजिअड़ा तिनि लीआ समाई राम ॥ मिलि ब्रहम जोती ओति पोती उदकु उदकि समाइआ ॥ जलि थलि महीअलि एकु रविआ नह दूजा द्रिसटाइआ ॥ बणि त्रिणि त्रिभवणि पूरि पूरन कीमति कहणु न जाई ॥ बिनवंति नानक आपि जाणै जिनि एह बणत बणाई ॥४॥२॥५॥

मूलम्

मन तन गलतु भए किछु कहणु न जाई राम ॥ जिस ते उपजिअड़ा तिनि लीआ समाई राम ॥ मिलि ब्रहम जोती ओति पोती उदकु उदकि समाइआ ॥ जलि थलि महीअलि एकु रविआ नह दूजा द्रिसटाइआ ॥ बणि त्रिणि त्रिभवणि पूरि पूरन कीमति कहणु न जाई ॥ बिनवंति नानक आपि जाणै जिनि एह बणत बणाई ॥४॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गलतु = ग़लतान, मस्त। कहणु न जाई = बयान नहीं की जा सकती। तिनि = उस (परमात्मा) ने। लीआ समाई = अपने में मिला लिया। मिलि = मिल के। ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में। ओत पोती = (कपड़े के) ताने बाने की तरह। उदकु = पानी। उदकि = पानी में। जल = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। जिनि = जिस (परमात्मा) ने।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस ते’ में से जिस परमात्मा से (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (‘अमृत वाणी’ की इनायत से मनुष्य का) मन और हृदय (परमात्मा की याद में इस तरह) मस्त हो जाता है कि (इस प्रथाय) कुछ बताया नहीं जा सकता, (बस! ये ही कहा जा सकता है कि) जिस परमात्मा से वह पैदा हुआ था उसने (उसको) अपने में मिला लिया। ताने-बाने की तरह परमात्मा की ज्योति में समा के (वह यूँ हो गया जैसे) पानी में पानी मिल जाता है। (फिर उस मनुष्य को) पानी में, धरती पर, आकाश में, एक परमात्मा ही मौजूद दिखाई देता है (उसके बिना) कोई और नहीं दिखता। उस मनुष्य को परमात्मा जंगल में, घास (के हरेक तृण) में, सारे संसार में व्यापक प्रतीत होता है (उस मनुष्य की आत्मक अवस्था का) मूल्य बयान नहीं किया जा सकता। नानक विनती करता है: जिस परमात्मा ने (उस मनुष्य की आत्मिक अवस्था की) ये खेल बना दी वह खुद ही उसको समझता है।4।2।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ ॥ खोजत संत फिरहि प्रभ प्राण अधारे राम ॥ ताणु तनु खीन भइआ बिनु मिलत पिआरे राम ॥ प्रभ मिलहु पिआरे मइआ धारे करि दइआ लड़ि लाइ लीजीऐ ॥ देहि नामु अपना जपउ सुआमी हरि दरस पेखे जीजीऐ ॥ समरथ पूरन सदा निहचल ऊच अगम अपारे ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा मिलहु प्रान पिआरे ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ ॥ खोजत संत फिरहि प्रभ प्राण अधारे राम ॥ ताणु तनु खीन भइआ बिनु मिलत पिआरे राम ॥ प्रभ मिलहु पिआरे मइआ धारे करि दइआ लड़ि लाइ लीजीऐ ॥ देहि नामु अपना जपउ सुआमी हरि दरस पेखे जीजीऐ ॥ समरथ पूरन सदा निहचल ऊच अगम अपारे ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा मिलहु प्रान पिआरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजत फिरहि = ढूँढते फिरते हैं। प्राण अधारे राम = प्राणों के आसरे प्रभु को। ताणु = ताकत, बल। तनु = शरीर। खीन = क्षीण, कमजोर। प्रभ = हे प्रभु! मइआ = दया। धारे = धार के। लड़ि = पल्ले से। जपउ = मैं जपूँ। सुआमी = हे स्वामी! पेखे = देख के। जीजीऐ = जीते हैं। निहचल = सदा कायम रहने वाले! प्रान पिआरे = प्राण के प्यारे।1।
अर्थ: (हे भाई!) संत जन प्राणों के आसरे परमात्मा को (सदा) तलाशते फिरते हैं, प्यारे प्रभु को मिले बिना उनका शरीर कमजोर हो जाता है, उनका शारीरिक बल घट जाता है।
हे प्यारे प्रभु! मेहर करके मुझे मिल, दया करके मुझे अपने साथ लगा ले। हे मेरे स्वामी! मुझे अपना नाम दे, मैं (तेरे नाम को सदा) जपता रहूँ, तेरे दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। नानक विनती करता है: हे सब ताकतों के मालिक! हे सर्व-व्यापक! हे सदा अटल रहने वाले! हे सबसे ऊँचे! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! हे प्राणों से प्यारे! मेहर करके मुझे आ मिल।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जप तप बरत कीने पेखन कउ चरणा राम ॥ तपति न कतहि बुझै बिनु सुआमी सरणा राम ॥ प्रभ सरणि तेरी काटि बेरी संसारु सागरु तारीऐ ॥ अनाथ निरगुनि कछु न जाना मेरा गुणु अउगणु न बीचारीऐ ॥ दीन दइआल गोपाल प्रीतम समरथ कारण करणा ॥ नानक चात्रिक हरि बूंद मागै जपि जीवा हरि हरि चरणा ॥२॥

मूलम्

जप तप बरत कीने पेखन कउ चरणा राम ॥ तपति न कतहि बुझै बिनु सुआमी सरणा राम ॥ प्रभ सरणि तेरी काटि बेरी संसारु सागरु तारीऐ ॥ अनाथ निरगुनि कछु न जाना मेरा गुणु अउगणु न बीचारीऐ ॥ दीन दइआल गोपाल प्रीतम समरथ कारण करणा ॥ नानक चात्रिक हरि बूंद मागै जपि जीवा हरि हरि चरणा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखन कउ = देखने के लिए। तपति = जलन। कतहि = कहीं भी। प्रभ = हे प्रभु! बेरी = बेड़ी। तारीऐ = पार लंघा ले। अनाथ = निआसरा। न जाना = मैं नहीं जानता। न बीचारीऐ = ख्याल में ना लाना। चात्रिक = पपीहा। मागै = गाँगता है। जीवा = मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।2।
अर्थ: परमात्मा के दर्शन करने केलिए अनेक जप किए, धूणियां तपाई, व्रत रखे, पर मालिक प्रभु की शरण के बिना कहीं भी मन की तपष नहीं बुझती। हे प्रभु! (जपों-तपों के आसरे छोड़ के) मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी माया के मोह की बेड़ी काट दे, मुझे संसार-सागर से पार लंघा ले। हे प्रभु! मेरा और कोई आसरा नहीं, मैं गुण-हीन हूँ, (संसार-समुंदर से पार लांघने का) मैं कोई तरीका नहीं जानता, मेरा ना कोई गुण ना ही अवगुण अपने ख्यालों में लाना।
हे नानक! (कह:) हे दीनों पर दया करने वाले! हे सृष्टि के रखवाले! हे प्रीतम! हे सारी ही ताकतों के मालिक! हे जगत के मूल! (जैसे) पपीहा (बरखा की) बूँद माँगता है (वैसे ही मैं तेरे नाम अमृत की बूँद माँगता हूँ) तेरे चरणों का ध्यान धर-धर के मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है।2।

[[0546]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमिअ सरोवरो पीउ हरि हरि नामा राम ॥ संतह संगि मिलै जपि पूरन कामा राम ॥ सभ काम पूरन दुख बिदीरन हरि निमख मनहु न बीसरै ॥ आनंद अनदिनु सदा साचा सरब गुण जगदीसरै ॥ अगणत ऊच अपार ठाकुर अगम जा को धामा ॥ बिनवंति नानक मेरी इछ पूरन मिले स्रीरंग रामा ॥३॥

मूलम्

अमिअ सरोवरो पीउ हरि हरि नामा राम ॥ संतह संगि मिलै जपि पूरन कामा राम ॥ सभ काम पूरन दुख बिदीरन हरि निमख मनहु न बीसरै ॥ आनंद अनदिनु सदा साचा सरब गुण जगदीसरै ॥ अगणत ऊच अपार ठाकुर अगम जा को धामा ॥ बिनवंति नानक मेरी इछ पूरन मिले स्रीरंग रामा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमिअ = (‘अमृत’ से अमिउ’ प्राकृत रूप है) आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल का। सरोवरो = सुंदर सर, पवित्र तालाब। पीउ = पीते रहा करो। संगि = संगति में। मिलै = मिलता है। जपि = जप के। बिदीरन = नाश करने वाला। निमख = आँख झपकने जितना समय। मनहु = मन से। बीसरै = भूलता। अनदिनु = हर रोज। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। जगदीसरै = जगत के मालिक में। अगणत = अनगिनत। अपार = बेअंत। ठाकुर = मालिक। बगम = अगम्य (पहुँच से परे)। जा को = जिस का। धामा = ठिकाना, घर। स्रीरंग = लक्ष्मी पति, परमात्मा।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाले जल का पवित्र तालाब है, (इस में से) पीते रहा करो। (पर ये नाम जल) संत-जनों की संगति में रहने से मिलता है। ये हरि-नाम जप के सारे कार्य सफल हो जाते हैं। हे भाई! जगत के मालिक परमात्मा में सारे ही गुण मौजूद हैं। वह सब जीवों के सारे कारज पूरे करने वाला है, सबके दुख नाश करने वाला है, वह सदा ही कायम रहने वाला है। जिस मनुष्य के मन से वह परमात्मा आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं बिसरता, वह मनुष्य सदा हर वक्त आत्मिक आनंत भोगता है। हे भाई! परमात्मा अनगिनत गुणों वाला है, सबसे ऊँचा और, बेअंत है, सबका मालिक है, उसका ठिकाना (सिर्फ अक्ल-समझदारी के सहारे) अगम्य (पहुँच से परे) है। नानक विनती करता है: (हे भाई!) मुझे लक्ष्मी-पति परमात्मा मिल गया है, मेरी (चिरों की) तमन्ना पूरी हो गई है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कई कोटिक जग फला सुणि गावनहारे राम ॥ हरि हरि नामु जपत कुल सगले तारे राम ॥ हरि नामु जपत सोहंत प्राणी ता की महिमा कित गना ॥ हरि बिसरु नाही प्रान पिआरे चितवंति दरसनु सद मना ॥ सुभ दिवस आए गहि कंठि लाए प्रभ ऊच अगम अपारे ॥ बिनवंति नानक सफलु सभु किछु प्रभ मिले अति पिआरे ॥४॥३॥६॥

मूलम्

कई कोटिक जग फला सुणि गावनहारे राम ॥ हरि हरि नामु जपत कुल सगले तारे राम ॥ हरि नामु जपत सोहंत प्राणी ता की महिमा कित गना ॥ हरि बिसरु नाही प्रान पिआरे चितवंति दरसनु सद मना ॥ सुभ दिवस आए गहि कंठि लाए प्रभ ऊच अगम अपारे ॥ बिनवंति नानक सफलु सभु किछु प्रभ मिले अति पिआरे ॥४॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटिक = करोड़ों। सुणि = सन के। जपत = जपते हुए। सगले = सारे। सोहंत = सुहाने जीवन वाले बन जाते हैं। ता की = उनकी। महिमा = उपमा, बड़ाई। कित = कितनी? गना = मैं गिनूँ? सद = सदा। सुभ = भले, भाग्यशाली। दिवस = दिन। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से।4।
अर्थ: परमात्मा की महिमा के गीत गाने वाले मनुष्य परमात्मा का नाम सुन-सुन के कई करोड़ यज्ञों का फल प्राप्त कर लेते हैं, (भाव, करोड़ों किए हुए यज्ञ भी हरि-नाम के मुकाबले में तुच्छ हैं)। परमात्मा का नाम जपते हुए (जपने वाले मनुष्य) अपनी सारी कुलें भी पार लंघा लेते हैं। परमात्मा का नाम जपते-जपते मनुष्य सोहणे जीवन वाले बन जाते हैं, उन (के आत्मिक जीवन) की महिमा कितनी मैं बताऊँ? वे सदा अपने मनों में परमात्मा के दर्शन की तमन्ना रखते हैं (और, अरदासें करते रहते हैं:) हे प्राण प्यारे! (हमारे मन से कभी) ना बिसर! सबसे ऊँचा अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु (जिस भाग्यशालियों को) पकड़ के अपने गले से लगा लेता है उन (की जिंदगी के) भाग्यशाली दिन आ जाते हैं। नानक विनती करता है: (हे भाई!) जिस मनुष्यों को बहुत प्यारा परमात्मा मिल जाता है उन (के जीवन) का हरेक कारज सफल हो जाता है।4।3।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ अन काए रातड़िआ वाट दुहेली राम ॥ पाप कमावदिआ तेरा कोइ न बेली राम ॥ कोए न बेली होइ तेरा सदा पछोतावहे ॥ गुन गुपाल न जपहि रसना फिरि कदहु से दिह आवहे ॥ तरवर विछुंने नह पात जुड़ते जम मगि गउनु इकेली ॥ बिनवंत नानक बिनु नाम हरि के सदा फिरत दुहेली ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ अन काए रातड़िआ वाट दुहेली राम ॥ पाप कमावदिआ तेरा कोइ न बेली राम ॥ कोए न बेली होइ तेरा सदा पछोतावहे ॥ गुन गुपाल न जपहि रसना फिरि कदहु से दिह आवहे ॥ तरवर विछुंने नह पात जुड़ते जम मगि गउनु इकेली ॥ बिनवंत नानक बिनु नाम हरि के सदा फिरत दुहेली ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनक = अणक, तुच्छ, बहुत छोटी। अनकाए = तुच्छ पदार्थों में। रातड़िआ = हे रते हुए! मस्त होए हुए। वाट = (जीवन का) रास्ता। दुहेली = दुखों भरी। कमावदिआ = हे कमाने वाले! बेली = साथी। पछोतावहे = तू पछताता रहेगा। न जपहि = तू नहीं जपता। रसना = जीभ (से)। से दिह = ये दिन (बहुवचन)। आवहे = आएंगे। पात = पत्र। तरवर = वृक्ष। मगि = रास्ते पर। गउनु = गमन, चाल।1।
अर्थ: हे तुच्छ पदार्थों (के मोह) में रते हुए मनुष्य! (इस मोह के कारण) तेरा जीवन-पथ दुखों से भरता जा रहा है। हे पाप कमाने वाले! तेरा कोई भी (सदा के लिए) साथी नहीं। (किए पापों की सजा में भागीदारी के लिए) तेरा कोई भी साथी नहीं बनेगा, तू सदा हाथ मलता रह जाएगा। तू अपनी जीभ से सुष्टि के मालिक प्रभु के गुण नहीं जपता, जिंदगी के ये दिन फिर कभी वापिस नहीं आएंगे (जैसे) वृक्षों से बिछुड़े हुए पत्ते (दुबारा पेड़ों से) नहीं जुड़ सकते। (किए पापों के कारण मनुष्य के प्राण) आत्मिक मौत के रास्ते पर अकेले ही चलते जाते हैं। नानक विनती करता है: परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना मनुष्य के प्राण हमेशा दुखों से घिरे हुए भटकते रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं वलवंच लूकि करहि सभ जाणै जाणी राम ॥ लेखा धरम भइआ तिल पीड़े घाणी राम ॥ किरत कमाणे दुख सहु पराणी अनिक जोनि भ्रमाइआ ॥ महा मोहनी संगि राता रतन जनमु गवाइआ ॥ इकसु हरि के नाम बाझहु आन काज सिआणी ॥ बिनवंत नानक लेखु लिखिआ भरमि मोहि लुभाणी ॥२॥

मूलम्

तूं वलवंच लूकि करहि सभ जाणै जाणी राम ॥ लेखा धरम भइआ तिल पीड़े घाणी राम ॥ किरत कमाणे दुख सहु पराणी अनिक जोनि भ्रमाइआ ॥ महा मोहनी संगि राता रतन जनमु गवाइआ ॥ इकसु हरि के नाम बाझहु आन काज सिआणी ॥ बिनवंत नानक लेखु लिखिआ भरमि मोहि लुभाणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वलवंच = बल छल, छल कपट। लूकि = छुप के। जाणी = अंतजामी प्रभु। तिल घाणी = तिलों की घाणी (की तरह)। पीढ़े = कोल्हू में पीढ़े जाते हैं। किरत = किए हुए। कमाणे = कमाए हुए। पराणी = हे प्राणी! संगि = साथ। राता = मस्त। आन रस = और कामों में। भरमि = भटकना में। मोहि = मोह में। लुभाणी = फसी हुई।2।
अर्थ: (हे प्राणी!) तू (लोगों से) छुप-छुप के छल-कपट करता रहता है, पर अंतजामी परमात्मा तेरी हरेक करतूत को जानता है। जब धर्मराज का हिसाब होता है तो (बुरे कर्म करने वाले इस तरह) पीढ़े जाते हैं जैसे तिल (घाणी में) पीढ़ा जाता है। हे प्राणी! अपने किए कमाए कर्मों के अनुसार तू भी दुख बर्दाश्त कर। (मंद-कर्मी जीव) को अनेक जूनियों में घुमाया जाता है। जो मनुष्य सदा इस बड़ी मोह लेने वाली माया के साथ ही मस्त रहता है वह श्रेष्ठ मानव जनम गवा लेता है। नानक विनती करता है: (हे जीवात्मा!) एक परमात्मा के नाम के बगैर तू अन्य सारे कामों में समझदार (बनी फिरती है। तेरे माथे पर माया के मोह का ही) लेख लिखा जा रहा है (तभी तो तू) माया की भटकना में माया के मोह में फसी रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीचु न कोइ करे अक्रितघणु विछुड़ि पइआ ॥ आए खरे कठिन जमकंकरि पकड़ि लइआ ॥ पकड़े चलाइआ अपणा कमाइआ महा मोहनी रातिआ ॥ गुन गोविंद गुरमुखि न जपिआ तपत थम्ह गलि लातिआ ॥ काम क्रोधि अहंकारि मूठा खोइ गिआनु पछुतापिआ ॥ बिनवंत नानक संजोगि भूला हरि जापु रसन न जापिआ ॥३॥

मूलम्

बीचु न कोइ करे अक्रितघणु विछुड़ि पइआ ॥ आए खरे कठिन जमकंकरि पकड़ि लइआ ॥ पकड़े चलाइआ अपणा कमाइआ महा मोहनी रातिआ ॥ गुन गोविंद गुरमुखि न जपिआ तपत थम्ह गलि लातिआ ॥ काम क्रोधि अहंकारि मूठा खोइ गिआनु पछुतापिआ ॥ बिनवंत नानक संजोगि भूला हरि जापु रसन न जापिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बीचु = बिचोलापन। अक्रितघणु = (कृतघ्न) की हुई भलाई को ना जानने वाला, अकृतज्ञ। खरे = बहुत। कठिन = निर्दयी। जम कंकरि = जम कंकर ने, जम दूत ने (एकवचन)। चलाइआ = आगे लगा लिया। रातिआ = रता हुआ, मस्त। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। गलि = गले से। काम क्रोध = काम में क्रोध में। अहंकारि = अहंकार में। मूठा = ठगा हुआ। संजोगि = (कामादिक विकारों के) संयोग के कारण। भूला = कुमार्ग पर पड़ा रहा। रसन = जीभ (से)।3।
अर्थ: परमात्मा के किए हुए उपकारों को ना जानने वाला मनुष्य परमात्मा के चरणों से विछुड़ा रहता है (प्रभु से दुबारा मिलने के लिए) कोई (उसका) विचोला नहीं बनता। (उसकी सारी उम्र इसी तमन्ना में निकल जाती है, आखिर) बड़ा निर्दयी जम-दूत उसे आकर पकड़ लेता है। (जम-दूत उसे) पकड़ के आगे लगा लेता है, सारी उम्र खासी तगड़ी (ताकतवर) माया में मस्त रहने के कारण वह अपना किया पाता है। गुरु की शरण पड़ के वह परमात्मा के गुण कभी याद नहीं करता (उसकी सारी उम्र विकारों की तपश में यूँ बीतती है, जैसे) जलते-तपते स्तम्भों के गले से उसे लगाया गया है। काम में, क्रोध में, अहंकार में (फंसे रह के वह) अपना आत्मि्क जीवन लुटा बैठता है, आत्मिक जीवन की सूझ गवा के (आखिर) हाथ मलता है नानक विनती करता है:कामादिक विकारों के संजोग के कारण (सारी उम्र मनुष्य) गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, कभी अपनी जीभ से परमात्मा का नाम नहीं जपता।3।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: भूत काल को वर्तमान काल में बर्थाया गया है)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझ बिनु को नाही प्रभ राखनहारा राम ॥ पतित उधारण हरि बिरदु तुमारा राम ॥ पतित उधारन सरनि सुआमी क्रिपा निधि दइआला ॥ अंध कूप ते उधरु करते सगल घट प्रतिपाला ॥ सरनि तेरी कटि महा बेड़ी इकु नामु देहि अधारा ॥ बिनवंत नानक कर देइ राखहु गोबिंद दीन दइआरा ॥४॥

मूलम्

तुझ बिनु को नाही प्रभ राखनहारा राम ॥ पतित उधारण हरि बिरदु तुमारा राम ॥ पतित उधारन सरनि सुआमी क्रिपा निधि दइआला ॥ अंध कूप ते उधरु करते सगल घट प्रतिपाला ॥ सरनि तेरी कटि महा बेड़ी इकु नामु देहि अधारा ॥ बिनवंत नानक कर देइ राखहु गोबिंद दीन दइआरा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। बिरदु = आदि कुदरती स्वभाव। उधारण = (विकारों में) डूबे हुओं को बचाना। क्रिपानिधि = हे कृपा के खजाने! दइआला = हे दया के घर! अंध कूप = अंधा कूँआं। ते = से। उधरु = (बाहर) निकाल ले, उद्धार। करते = हे कर्तार! अधारा = आसरा। कर = हाथ (बहुवचन)। देइ = दे कर। दीन दइआरा = दीनों पर दया करने वाले!।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे बिना (विकारों की तपश से) बचा सकने वाला और कोई नहीं है, विकारों में गिरे हुओं को (विकारों में डूबने से) बचाना तेरा बिरद है। हे विकारों में गिरे हुओं को (डूबने से) बचाने वाले! हे स्वामी! हे कृपा के खजाने! हे दया के घर! हे कर्तार! हे सारे शरीरों की पालना करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझे (माया के मोह के) अंधे कूएं (में डूबने) से बचा ले। नानक विनती करता है: हे गोविंद! हे दीनों पर दया करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ; मेरी (माया के मोह की) करड़ी बेड़ी काट दे, मुझे अपना नाम-आसरा बख्श, अपना हाथ दे के मुझे (माया में डूबने से) बचा ले।4।

[[0547]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो दिनु सफलु गणिआ हरि प्रभू मिलाइआ राम ॥ सभि सुख परगटिआ दुख दूरि पराइआ राम ॥ सुख सहज अनद बिनोद सद ही गुन गुपाल नित गाईऐ ॥ भजु साधसंगे मिले रंगे बहुड़ि जोनि न धाईऐ ॥ गहि कंठि लाए सहजि सुभाए आदि अंकुरु आइआ ॥ बिनवंत नानक आपि मिलिआ बहुड़ि कतहू न जाइआ ॥५॥४॥७॥

मूलम्

सो दिनु सफलु गणिआ हरि प्रभू मिलाइआ राम ॥ सभि सुख परगटिआ दुख दूरि पराइआ राम ॥ सुख सहज अनद बिनोद सद ही गुन गुपाल नित गाईऐ ॥ भजु साधसंगे मिले रंगे बहुड़ि जोनि न धाईऐ ॥ गहि कंठि लाए सहजि सुभाए आदि अंकुरु आइआ ॥ बिनवंत नानक आपि मिलिआ बहुड़ि कतहू न जाइआ ॥५॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफलु = कामयाब, भाग्यशाली। गणिआ = समझना चाहिए। सभि = सारे। दूरि पराइआ = दूर जा पड़ते हैं। सहज = आत्मिक अडोलता। बिनोद = खुशियां। गाईऐ = मिल जुल के गाएं। भजु = भजन कर, याद कर। साध संगे = साधु-संगत में। मिले = मिल के। रंगे = रंगि, प्रेम से। बहुड़ि = दुबारा। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्रेम में। आदि = आरम्भ का। अंकुरु = अंगूर। कतहू = कहीं भी।5।
अर्थ: हे भाई! वह दिन भाग्यशाली समझना चाहिए जब हरि-प्रभु (गुरु के) मिलाने से (मिल जाता है)। (हृदय में) सारे सुख प्रगट हो जाते हैं, और, सारे दुख दूर जा पड़ते हैं। हे भाई! आओ, जगत-पाल प्रभु के गुण नित्य गाते रहें (महिमा की इनायत से हृदय में) सदा ही आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं, खुशियां बनी रहती हैं। हे भाई! गुरु की संगति में प्रेम से मिल के परमात्मा का भजन किया कर (भजन की इनायत से) दोबारा जोनियों में पड़ना पड़ता, परमात्मा (बाँह से) पकड़ के अपने गले से लगा लेता है, आत्मिक अडोलता में प्रेम में (लीन कर देता है। हृदय में भक्ति का) आदि अंकुर फूट पड़ता है। नानक विनती करता है: (हे भाई! साधु-संगत में मिलने से) प्रभु स्वयं आ मिलता है, फिर (उसका दर छोड़ के) कहीं और भटकने की जरूरत नहीं रह जाती।5।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ सुनहु बेनंतीआ सुआमी मेरे राम ॥ कोटि अप्राध भरे भी तेरे चेरे राम ॥ दुख हरन किरपा करन मोहन कलि कलेसह भंजना ॥ सरनि तेरी रखि लेहु मेरी सरब मै निरंजना ॥ सुनत पेखत संगि सभ कै प्रभ नेरहू ते नेरे ॥ अरदासि नानक सुनि सुआमी रखि लेहु घर के चेरे ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ सुनहु बेनंतीआ सुआमी मेरे राम ॥ कोटि अप्राध भरे भी तेरे चेरे राम ॥ दुख हरन किरपा करन मोहन कलि कलेसह भंजना ॥ सरनि तेरी रखि लेहु मेरी सरब मै निरंजना ॥ सुनत पेखत संगि सभ कै प्रभ नेरहू ते नेरे ॥ अरदासि नानक सुनि सुआमी रखि लेहु घर के चेरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। चेरे = सेवक। मोहन = हे मन को आकर्षित करने वाले! कलि = झगड़े। भजना = नाश करने वाले। सरब मै = हे सर्व व्यापक! निरंजना = हे निर्लिप! प्रभ = हे प्रभु!।1।
अर्थ: हे मेरे मालिक! मेरी विनती सुन। (हम जीव) करोड़ों पापों से लिबड़े हुए हैं, पर फिर भी तेरे (दर के) दास हैं। हे दुखों का नाश करने वाले! हे कृपा करने वाले! हे मोहन! हे हमारे दुख-कष्ट दूर करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे निर्लिप प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी लज्जा रख ले। हे प्रभु! तू हमारे अति नजदीक बसता है, तू सब जीवों के अंग-संग रहता है, तू सब जीवों की अरदासें सुनता है, तू सब जीवों के किए काम देखता है। हे मेरे स्वामी! नानक की विनती सुन। मैं तेरे घर का गुलाम हूँ, मेरी इज्जत रख ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू समरथु सदा हम दीन भेखारी राम ॥ माइआ मोहि मगनु कढि लेहु मुरारी राम ॥ लोभि मोहि बिकारि बाधिओ अनिक दोख कमावने ॥ अलिपत बंधन रहत करता कीआ अपना पावने ॥ करि अनुग्रहु पतित पावन बहु जोनि भ्रमते हारी ॥ बिनवंति नानक दासु हरि का प्रभ जीअ प्रान अधारी ॥२॥

मूलम्

तू समरथु सदा हम दीन भेखारी राम ॥ माइआ मोहि मगनु कढि लेहु मुरारी राम ॥ लोभि मोहि बिकारि बाधिओ अनिक दोख कमावने ॥ अलिपत बंधन रहत करता कीआ अपना पावने ॥ करि अनुग्रहु पतित पावन बहु जोनि भ्रमते हारी ॥ बिनवंति नानक दासु हरि का प्रभ जीअ प्रान अधारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समरथु = सब ताकतों का मालिक। दीन = कंगाल। भेखारी = भिखारी। मोहि = मोह में। मगनु = डूबा हुआ, मस्त। मुरारी = हे मुरारी! हे प्रभु! लोभि = लोभ में। बाधिओ = बँधा हुआ। दोख = पाप। अलिपत = निर्लिप। करता = कर्तार। अनुग्रहु = दया। पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! भ्रमते = भटकते। हारी = थक गई। जीअ अधारी = जीवात्मा का आसरा।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब ताकतों का मालिक है, हम (तेरे दर पर) निमाणे से भिखारी हैं। हे मुरारी! मैं माया के मोह में डूबा रहता हूँ, मुझे (मोह में से) निकाल ले। मैं लोभ में, मोह में, विकार में बँधा रहता हूँ। हे प्रभु! हम जीव अनेक पाप कमाते रहते हैं। (हे भाई!) एक कर्तार ही निर्लिप रहता है, और बंधनो से आजाद है, हम जीव तो अपने किए कर्मों का फल भुगतते रहते हैं। हे विकारियों को पवित्र करने वाले प्रभु! मेहर कर, अनेक जूनियों में भटक-भटक के (मेरी आत्मा) थक गई है। (हे भाई!) नानक विनती करता है: नानक उस हरि का उस प्रभु का दास है जो (सब जीवों की) जिंद का प्राणों का आसरा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू समरथु वडा मेरी मति थोरी राम ॥ पालहि अकिरतघना पूरन द्रिसटि तेरी राम ॥ अगाधि बोधि अपार करते मोहि नीचु कछू न जाना ॥ रतनु तिआगि संग्रहन कउडी पसू नीचु इआना ॥ तिआगि चलती महा चंचलि दोख करि करि जोरी ॥ नानक सरनि समरथ सुआमी पैज राखहु मोरी ॥३॥

मूलम्

तू समरथु वडा मेरी मति थोरी राम ॥ पालहि अकिरतघना पूरन द्रिसटि तेरी राम ॥ अगाधि बोधि अपार करते मोहि नीचु कछू न जाना ॥ रतनु तिआगि संग्रहन कउडी पसू नीचु इआना ॥ तिआगि चलती महा चंचलि दोख करि करि जोरी ॥ नानक सरनि समरथ सुआमी पैज राखहु मोरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पालहि = तू पालता है। अकिरतघन = की हुई भलाई को भुला देने वाले, ना शुकरे। पूरन = सदा एकसार। द्रिसटि = निगाह, नजर। अगाधि बोधि = मानवी समझ से परे अथाह। करते = हे कर्तार! मोहि = मैं। तिआगि = त्याग के। संग्रहन = एकत्र करना। चंचलि = चुलबुले मन वाली। दोख = पाप। जोरी = जोड़ीए इकट्ठी की। पैज = आदर, इज्जत। मोरी = मेरी। समरथ = हे समर्थ!।3।
अर्थ: हे राम! तू बड़ी ताकत वाला है, मेरी मति तो छोटी सी है (तेरे बड़प्पन को समझ नहीं सकती)। हे प्रभु! तेरी निगाह सदा एकसार है तू अकृतघनों ना-शुक्रों को भी पालता रहता है। हे कर्तार! हे बेअंत प्रभु! तू जीवों की समझ से परे व अथाह है, मैं नीच जीवन वाला (तेरे बारे में) कुछ भी नहीं जान सकता। हे प्रभु! तेरा कीमती नाम छोड़ के मैं कौड़ियां इकट्ठी करता रहता हूँ, मैं पशु-स्वभाव वाला हूँ, नीच हूँ, अंजान हूँ। मैं पाप कर-कर के (उस माया को ही) जोड़ता रहा जो कभी टिक के नहीं बैठती, जो जीवों का साथ छोड़ जाती है। हे नानक! (कह:) हे सब ताकतों के मालिक मेरे स्वामी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी इज्जत रख ले।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा ते वीछुड़िआ तिनि आपि मिलाइआ राम ॥ साधू संगमे हरि गुण गाइआ राम ॥ गुण गाइ गोविद सदा नीके कलिआण मै परगट भए ॥ सेजा सुहावी संगि प्रभ कै आपणे प्रभ करि लए ॥ छोडि चिंत अचिंत होए बहुड़ि दूखु न पाइआ ॥ नानक दरसनु पेखि जीवे गोविंद गुण निधि गाइआ ॥४॥५॥८॥

मूलम्

जा ते वीछुड़िआ तिनि आपि मिलाइआ राम ॥ साधू संगमे हरि गुण गाइआ राम ॥ गुण गाइ गोविद सदा नीके कलिआण मै परगट भए ॥ सेजा सुहावी संगि प्रभ कै आपणे प्रभ करि लए ॥ छोडि चिंत अचिंत होए बहुड़ि दूखु न पाइआ ॥ नानक दरसनु पेखि जीवे गोविंद गुण निधि गाइआ ॥४॥५॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा ते = जिस (परमात्मा) से। तिनि = उस (परमात्मा) ने। संगमे = संगम, मिलाप में, संगत में। नीके = अच्छे, सुंदर। कलिआणमै = आनंद स्वरूप परमात्मा। सेजा = हृदय सेज। सुहावी = सोहणी, सुहानी। कै संगि = के साथ। अचिंत = बेफिक्र। पेखि = देख के। गुणनिधि = गुणों का खजाना।4।
अर्थ: गुणों की संगति में आ के (जिस मनुष्य ने) परमात्मा के महिमा के गीत गाने आरम्भ कर दिए (उस मनुष्य को) उस परमात्मा ने खुद अपने चरणों में जोड़ लिया जिससे (वह चिरों से) विछुड़ा चला आ रहा था। परमात्मा की महिमा के गीत सदा गाने की इनायत से आनंदमयी परमात्मा (हृदय में) प्रकट हो जाता है। (जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु प्रकट होता है) प्रभु की संगति से उसकी हृदय-सेज आनंद-भरपूर हो जाती है, प्रभु उसको अपना (सेवक) बना लेता है।
हे नानक! (कह:) जो मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं वह (अपने अंदर) परमात्मा का दर्शन करके आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं, वह दुनियावी चिन्ता-फिक्र त्याग के शांत-चिक्त हो जाते हैं, उनको दोबारा कोई दुख छू नहीं सकता।4।5।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ बोलि सुधरमीड़िआ मोनि कत धारी राम ॥ तू नेत्री देखि चलिआ माइआ बिउहारी राम ॥ संगि तेरै कछु न चालै बिना गोबिंद नामा ॥ देस वेस सुवरन रूपा सगल ऊणे कामा ॥ पुत्र कलत्र न संगि सोभा हसत घोरि विकारी ॥ बिनवंत नानक बिनु साधसंगम सभ मिथिआ संसारी ॥१॥

मूलम्

बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ बोलि सुधरमीड़िआ मोनि कत धारी राम ॥ तू नेत्री देखि चलिआ माइआ बिउहारी राम ॥ संगि तेरै कछु न चालै बिना गोबिंद नामा ॥ देस वेस सुवरन रूपा सगल ऊणे कामा ॥ पुत्र कलत्र न संगि सोभा हसत घोरि विकारी ॥ बिनवंत नानक बिनु साधसंगम सभ मिथिआ संसारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुधरमीड़िआ = हे सुधर्मी! हे श्रेष्ठ धर्म वाले! हे (सारी जूनियों में से) उत्तम फर्ज वाले! कत = क्यूँ? नेत्री देखि = आँखों से देख। बिउहारी = व्यवहार करने वाला। संगि = साथ। वेस = कपड़े। सुवरन = सोना। रूपा = चांदी। ऊणे = खाली, व्यर्थ। कलत्र = स्त्री। हसत घोरि = हाथी घोड़े। विकारी = विकारों की तरफ ले जाने वाले। मिथिआ = नाशवान। संसारी = संसार के उद्यम।1।
अर्थ: हे (सारी) जूनियों में से (उत्तम फर्ज वाले, धर्म वाले!) परमात्मा के महिमा के बोल बोला कर। (महिमा से) तूने क्यूँ चुप धारण की हुई है? अपनी आँखों से (ध्यान से) देख; (निरी) माया का व्यवहार करने वाला (यहाँ से खाली हाथ) चला जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना और कोई चीज तेरे साथ नहीं जा सकती। देशों (की हकूमतें), कपड़े सोना, चाँदी (-इनकी खातिर किए हुए) सारे उद्यम व्यर्थ हो जाते हैं। हे भाई! पुत्र, स्त्री, दुनियावी मान-सम्मान- कुछ भी मनुष्य के साथ नहीं जाता। हाथी घोड़े आदि की लालसाएं भी विकारों की ओर ले जाती हैं। नानक विनती करता है: साधु-संगत के बिना दुनिया के सारे उद्यम नाशवान हैं।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन किउ सोइआ तू नीद भरे जागत कत नाही राम ॥ माइआ झूठु रुदनु केते बिललाही राम ॥ बिललाहि केते महा मोहन बिनु नाम हरि के सुखु नही ॥ सहस सिआणप उपाव थाके जह भावत तह जाही ॥ आदि अंते मधि पूरन सरबत्र घटि घटि आही ॥ बिनवंत नानक जिन साधसंगमु से पति सेती घरि जाही ॥२॥

मूलम्

राजन किउ सोइआ तू नीद भरे जागत कत नाही राम ॥ माइआ झूठु रुदनु केते बिललाही राम ॥ बिललाहि केते महा मोहन बिनु नाम हरि के सुखु नही ॥ सहस सिआणप उपाव थाके जह भावत तह जाही ॥ आदि अंते मधि पूरन सरबत्र घटि घटि आही ॥ बिनवंत नानक जिन साधसंगमु से पति सेती घरि जाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजन = हे धरती के सरदार! भरे = भर के। नीद भरे = गाढ़ी नींद में। कत = क्यूँ? रुदनु = विलाप, तरला। केते = कितने ही, बेअंत जीव। बिललाही = विलकते हैं। महा मोहन = बहुत ही मन मोहनी माया की खातिर। सहस = हजारों। उपाव = उपाय; प्रयत्न। भावत = (प्रभु को) अच्छा लगता है। जाही = जाते हैं। आदि अंते मधि = आरम्भ में आखिरी समय में और बीच में, सदा ही। पूरन = व्यापक। सरबत्र = हर जगह। घटि घटि = हरेक शरीर में। आही = है। संगमु = मिलाप। साध संगमु = गुरु का मिलाप। पति = इज्जत। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु चरणों में।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे धरती के सरदार, मनुष्य! तू क्यूँ माया के मोह की गाढ़ी नींद में सो रहा है? तू क्यों सचेत नहीं होता? इस माया की खातिर अनेक ही मनुष्य झूठा रोना-धोना करते आ रहे हैं, विलकते आ रहे हैं। बेअंत प्राणी इस खासी मन-मोहनी माया की खातिर तरले लेते आ रहे हैं (कि माया मिले और माया से सुख मिले, पर) परमात्मा के नाम के बिना सुख (किसी को) नहीं मिला। जीव हजारों चतुराईयाँ हजारों वसीले करते थक जाते हैं (माया के मोह में से खलासी भी नहीं होती। हो भी कैसे?) जिधर परमात्मा की मर्जी होती है उधर ही जीव जा सकते हैं। वह परमात्मा सदा के लिए ही सर्व-व्यापक है, हर जगह मौजूद है, हरेक शरीर में है। नानक विनती करता है: जिस मनुष्यों को गुरु का मिलाप प्राप्त होता है वह (यहाँ से) इज्जत से परमात्मा की हजूरी में जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरपति जाणि ग्रहिओ सेवक सिआणे राम ॥ सरपर वीछुड़णा मोहे पछुताणे राम ॥ हरिचंदउरी देखि भूला कहा असथिति पाईऐ ॥ बिनु नाम हरि के आन रचना अहिला जनमु गवाईऐ ॥ हउ हउ करत न त्रिसन बूझै नह कांम पूरन गिआने ॥ बिनवंति नानक बिनु नाम हरि के केतिआ पछुताने ॥३॥

मूलम्

नरपति जाणि ग्रहिओ सेवक सिआणे राम ॥ सरपर वीछुड़णा मोहे पछुताणे राम ॥ हरिचंदउरी देखि भूला कहा असथिति पाईऐ ॥ बिनु नाम हरि के आन रचना अहिला जनमु गवाईऐ ॥ हउ हउ करत न त्रिसन बूझै नह कांम पूरन गिआने ॥ बिनवंति नानक बिनु नाम हरि के केतिआ पछुताने ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नरपति = राजा। जाणि = जान के, समझ के। ग्रहिओ = (मोह में) फस जाता है। सरपर = जरूर। मोहे = (जो) मोह में फंसते हैं। हरिचंदउरी = हरीचंद की नगरी, गंधर्व नगरी, आकाश में काल्पनिक नगरी। देखि = देख के। असथिति = स्थित, पक्का ठिकाना। कहा = कहाँ? कहीं भी नहीं। आन = अन्य, और। अहिला = बेहतर, उत्तम। गवाईऐ = गवा लेते हैं। हउ हउ = मैं (बड़ा बन जाऊँ), मैं (बड़ा बन जाऊँ)। कांम = मानव जनम का उद्देश्य। गिआन = ज्ञान, आत्मिक जीवन की समझ। केतिआ = अनेक ही।3।
अर्थ: (अगर कोई मनुष्य) राजा (बन जाता है, तो वह) अपने सेवकों को (अपने) जान के (राज के मोह में) फंस जाता है। (पर दुनिया के सारे पदार्थों से) जरूर विछुड़ जाना है, (जो मनुष्य दुनियावी मोह में) फंसते हैं, वह आखिर हाथ मलते रह जाते हैं। मनुष्य आकाश के काल्पनिक शहर हरीचंदौरी जैसे जगत को देख के गलत राह पर पड़ जाता है, पर यहाँ कहीं भी सदा का ठिकाना नहीं मिल सकता। परमात्मा के नाम से टूट के, जगत-रचना के और ही पदार्थों में फंस के श्रेष्ठ मानव जन्म को गवा लेता है।
“मैं (बड़ा बन जाऊँ), मैं (बड़ा बन जाऊँ)” - ये करते करते माया की तृष्णा खत्म नहीं होती, मानव जन्म का उद्देश्य हासिल नहीं हो सकता, आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। नानक विनती करता है: परमात्मा के नाम से टूट के अनेक जीव हाथ मलते जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारि अनुग्रहो अपना करि लीना राम ॥ भुजा गहि काढि लीओ साधू संगु दीना राम ॥ साधसंगमि हरि अराधे सगल कलमल दुख जले ॥ महा धरम सुदान किरिआ संगि तेरै से चले ॥ रसना अराधै एकु सुआमी हरि नामि मनु तनु भीना ॥ नानक जिस नो हरि मिलाए सो सरब गुण परबीना ॥४॥६॥९॥

मूलम्

धारि अनुग्रहो अपना करि लीना राम ॥ भुजा गहि काढि लीओ साधू संगु दीना राम ॥ साधसंगमि हरि अराधे सगल कलमल दुख जले ॥ महा धरम सुदान किरिआ संगि तेरै से चले ॥ रसना अराधै एकु सुआमी हरि नामि मनु तनु भीना ॥ नानक जिस नो हरि मिलाए सो सरब गुण परबीना ॥४॥६॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनुग्रहो = अनुग्रह, दया। भुजा = बाँह। गहि = पकड़ के। साध संगु = गुरु का मिलाप। संगमि = संगत में। कलमल = पाप। महा धरम = नाम धर्म। दान किरिआ = नाम दान की क्रिया। से = यही (बहुवचन)। रसना = जीभ (से)। भीना = भीग जाता है। नामि = नाम से। परबीना = प्रवीण।4।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) परमात्मा दया करके अपना बना लेता है उसको गुरु का मिलाप बख्शता है, उसे बाँह से पकड़ के (मोह के कूँए में से) निकाल लेता है। जो मनुष्य गुरु की संगत में टिक के परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है उसके सारे पाप सारे दुख जल जाते हैं।
हे भाई! सबसे बड़ा धर्म नाम जपने का धर्म, और सबसे बड़ा दान- नाम दान - यही काम (जगत से) तेरे साथ जा सकते हैं। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य अपनी जीभ से एक मालिक प्रभु की आराधना करता रहता है उसका मन उसका हृदय परमात्मा के नाम-जल में तरो-तर हुआ रहता है। जिस मनुष्य को परमात्मा अपने चरणों में जोड़ लेता है वह सारे गुणों में प्रवीण हो जाता है।4।6।9।

दर्पण-भाव

वार का भाव
पौड़ी वार
जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है, उसको अपनी महिमा में जोड़ता है और विकारों में ख्वार होने से बचाता है।
जिस मनुष्य को प्रभु के महिमा की दाति मिलती है, उसे कोई भी दुनियावी भूख नहीं रह जाती, इस वास्ते उसे हर जगह शोभा मिलती है।
जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है, उसका मन सदा पुल्कित व आनंदमयी रहता है। कोई और उसकी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि जिस प्रभु की वह बंदगी करता है उसका कोई शरीका नहीं है और बंदगी करने वाला प्रभु का ही रूप हो जाता है।
स्मरण करने वाले मनुष्य को कोई चिन्ता नहीं सताती क्योंकि सत्संगियों के साथ मिल के प्रभु के गुणों की विचार करने से मन खिला रहता है, सब दुनियावी तृष्णाएं उतर जाती हैं और बंधन टूट जाते हैं।
जगत के सारे चोज-तमाशे परमात्मा स्वयं ही कर रहा है, जिस तरफ चाहता है जीवों को लगाता है; ये भी उसी का एक खेल है कि उसकी महिमा वही मनुष्य करता है जिस पर सतिगुरु की कृपा हो।
ये भी परमात्मा का ही तमाशा है कि कई जीव सारा ही समय रोटी की दौड़-भाग में ही खर्च कर देते हैं; पर जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको उस प्रभु की ‘रजा’ प्यारी लगती है।
जिस सर्व-कला समर्थ प्रभु ने ये जगत रचा है और रचने के वक्त उसे किसी की सलाह की भी जरूरत नहीं पड़ी, उसी ने ही जीवों के वास्ते ये जुगति बनाई है कि जीव गुरु की शरण पड़ के उसकी बंदगी में लगें।
कई मनुष्य धर्म-पुस्तकों पर चर्चा व पाप-पुण्य के विचारों में ही उलझे रहते हैं पर जिस पर प्रभु खास मेहर करता है वे ऐसी चर्चा से निराले रह के अकथ प्रभु की महिमा में लगते हैं।
ये जगत, जैसे, एक समुंदर है (जिसमें माया-जल की प्रबल लहरें चल रही हैं), जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है, उसको सतिगुरु मिलाता है, जिसके बताए राह पर चल के मनुष्य प्रभु की महिमा के रत्न ढूँढ के, इस समुंदर से सही सलामत पार होता है।
जैसे पारस को छूने से हरेक धातु सोना बन जाती है, वैसे ही जो मनुष्य गुरु के चरणों से जुड़ता है, परमात्मा की महिमा की इनायत से उसके सारे पाप नाश हो के वह शुद्ध-स्वरूप हो जाता है।
गुरु, मानो, शिक्षक है और उसकी संगति पाठशाला। जैसे पाठशाला में पढ़ने आए अंजान बालकों को शिक्षक प्यार से पढ़ा के समझदार बना देता है, वैसे ही सतिगुरु भी माता-पिता की तरह प्यार से शरण आए सिखों को इतना समझदार बना देता है कि वे प्रभु के चरणों में जुड़ के माया की मार से बच जाते हैं।
कई मनुष्य प्रभु के बनाए हुए शिव आदि देवताओं को पूज रहे हैं, कोई शास्त्रों को पढ़ के चर्चा शास्त्रार्थ में समय गवा रहे हैं, कोई जोगी सन्यासी बन के बाहर जंगलों में परमात्मा को ढूँढ रहे हैं, पर परिपक्व व समझदार वे हैं जो सतिगुरु की शरण में आ के अंदर बसते प्रभु की याद में जुड़ते हैं।
प्रभु की दरगाह का न्याय अचूक है, उसके दर पर भेद-भाव नहीं है, वहाँ ‘वर्णों’ का बटवारा नहीं है, किसी भी कुल में पैदा हुआ हो, जो भी मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के स्मरण करता है, उसके अंदर से ऊँची-नीची जाति व मेर-तेर वाले भेद-भाव दूर हो जाते हैं।
कई लोग अढ़सठ तीर्थों पर जाकर स्नान करते हैं, कई अनेक जुगतियाँ इस्तेमाल करते हैं और दान-पुण्य करते हैं, पर, प्रभु की हजूरी में आदर उस मनुष्य को मिलता है जो गुरु के सन्मुख रह के नाम जपता है, नाम की इनायत से विकारों से बच के उस मनुष्य की इज्जत बनी रहती है।
जगत, मानो, एक बाग़ है जिसमें सारे जीव एक बाग़ के पौधे हैं, परमात्मा स्वयं इन पौधों को लगाने वाला है, वह स्वयं ही इनकी रक्षा करने वाला है, पर उस माली की बड़ाई ये है कि उसे रक्ती भर भी कोई तमा नहीं है।
परमात्मा को कोई तमा अथवा किसी जीव की कोई अधीनता होए भी कैसे? ये सारे जीव उसीके अपने ही बनाए हुए हैं और उसी का दिया खाते हैं। परमात्मा की महिमा करने से जीव को ही लाभ मिलता है कि एक तो ये जगह-जगह की अधीनता करने से हट जाते हैं, दूसरे, इसके मन में से मेर-तेर मिट जाती है।
प्रसन्न हो के प्रभु, जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है, उसको स्मरण में जोड़ता है, जिसकी इनायत से वह विकारों से बच के इज्जत से जीवन जीता है और जनम-मरन के चक्कर में नहीं आता।
प्रभु, मानो, एक गहरा समुंदर है, वह कितना बड़ा है; ये बात वह खुद ही जानता है। माया की रचना रच के प्रभु इस माया से अलग निर्लिप भी है। इस रचना से पहले वह किस स्वरूप में था- ये बात भी वह खुद ही जानता है।
परमात्मा की महिमा बयान नहीं की जा सकती, उसने रंग-विरंगी ये ऐसी रचना रची है कि अहंकार के सहारे हरेक जीव यहाँ अपने आप को समझदार व चतुर समझता है। अपनी-अपनी धुनि में मस्त कोई तो मोहधारी बना बैठा है और कोई और लोगों को उपदेश कर रहा है, हरेक को अपनी-अपनी समझ प्यारी लगती है।
पर, जगत में असल कमाई तो वही मनुष्य करते हैं जो ‘नाम’ स्मरण करते हैं। ‘नाम’ उन्हें ऐसी आत्मिक खुराक मिल गई है कि दुनियावी अन्य सभी पदार्थों की ओर से वह तृप्त रहते हैं, वही संत हैं और प्रभु को प्यारे लगते हैं।
ये दिखाई देता जगत प्रभु ने अपने ही निर्गुण स्वरूप से रचा है, रंग-विरंगे जीव रचे हैं, यहाँ कोई त्यागी कहलवाता है, कोई गृहस्थी, सबका सहारा प्रभु स्वयं ही है, उसके दर से गरीबी व संतों की संगति की ख़ैर ही माँगनी चाहिए।
संपूर्ण भाव:
जिस मनुष्य पर प्रभु की सीधी नजर होती है, उसको महिमा की दाति मिलती है, जिसकी इनायत से वह विकारों से बचता है और जग में शोभा कमाता है, उसकी दुनियावी कोई भूख नहीं रह जाती, उसका मन सदा खिला रहता है और कोई तौखला उसे सता नहीं सकता, क्योंकि उसके मायावी सारे बंधन टूट जाते हैं (पउड़ी १ से ४)।
पर, महिमा की यह दाति सतिगुरु के द्वारा ही मिलती है, ये जुगति परमात्मा ने खुद ही जीवों के भले के लिए बनाई है, और जो मनुष्य इस जुगती का इस्तेमाल करता है, उसको दुनियावी दौड़-भाग की जगह प्रभु की रजा प्यारी लगने लग जाती है।
जगत, मानो, एक समुंदर है जिसमें मायावी विकारों की भयंकर लहरों के थपेड़े पड़ रहे हैं, धार्मिक चर्चा अथवा पाप-पुण्य की कोरी विचारें इन लहरों में बह जाने से नहीं बचा सकती, यहाँ तो गुरु की शरण पड़ कर महिमा के रत्न तलाशने हैं। जैसे पारस हरेक धातु को सोना बना देता है; जैसे शिक्षक अंजान बच्चों को विद्या पढ़ा के समझदार बना देता है, वैसे सतिगुरु भी सिख के मन को, मानो, शुद्ध सोना बना देता है, इतनी ऊूंची समझ बख्शता है कि सिख माया की मार से बच जाता है।
फिर भी, लोग गलतियाँ किए जा रहे हैं, कोई देवी-देवताओं की पूजा में लगा पड़ा है, कोई शास्त्रार्थ में मस्त है, कोई जंगलों में ईश्वर को खोज रहा है, कोई जाति और वर्ण बना बना के भेद-भाव बढ़ा रहा है, कोई तीर्थों पर स्नान-दान-पुण्य करता फिरता है। पर, सुघड़ समझदार वे हैं जो काम-काज करते हुए ही गुरु के राह पर चल के प्रभु की महिमा करते हैं, ये महिमा ही विकारों से बचा सकती है (पउड़ी नं: ५ से १४)।
(यहाँ ये भी ध्यान रखना आवश्यक है कि) इस बँदगी और महिमा की परमात्मा को कोई आवश्यक्ता नहीं, उसे ना कोई तमा है ना ही कोई अधीनता, मजबूरी। ये जुगति मनुष्य के अपने भले के वास्ते है, बँदगी की इनायत से ये हर किसी की अधीनता से हट जाता है, ‘मेर तेर’ मिट जाती है, और विकारों से बच के इज्जत वाला जीवन गुजारता है (पउड़ी नं: १५ से १७)।
परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है; ऐसी सयानप और चतुराई की विचारें भी व्यर्थ हैं, ये बातें मनुष्य की समझ से परे की हैं। असल लाभ कमाई ‘स्मरण’ ही है, जो विनम्र स्वभाव में सतसंग की इनायत से मिलता है (पउड़ी नं: १८ से २१)।
मुख्य भाव:
जगत की विकारों की लहरों से मनुष्य को केवल महिमा ही बचा सकती है, अन्य देव-पूजा, शास्त्रार्थ, जंगलवास, तीर्थस्नान आदि कोई कर्म-धर्म इसका मददगार नहीं हो सकता। महिमा की इनायत से मनुष्य के अंदर अधीनता और मेर-तेर मिट जाती है, इसकी असल कमाई है ही स्मरण और महिमा।

दर्पण-टिप्पनी

‘वार’ का शीर्षक है ‘बिहागड़े की वार महला ४’ ‘वार की’ पौड़ियों के साथ बरते गए 43 श्लोकों में से सिर्फ 2 श्लोक गुरु रामदास जी के अपने हैं। सारे के सारे ही श्लोक दूसरे गुरु साहिबानों के हैं, ‘वार’ सिर्फ ‘पौड़ियों’ के समूह को कहा जा रहा है।
अगर ये बात साबित हो सकती कि गुरु रामदास जी ने ये ‘वार’ उचारने और लिखने के समय गुरु नानक देव जी और गुरु अमरदास जी के उचारे हुए श्लोक इन पौड़ियों के साथ खुद ही लिखे थे, तो इससे ये मजेदार बात अपने आप साबित हो आती है कि गुरु राम दास जी के पास अपने से पहले के गुरु साहिबानों की ‘वाणी’ मौजूद थी। पर, गुरु रामदास जी ने खुद ये श्लोक दर्ज नहीं किए; वरना वे पउड़ी नंबर १४ को खाली ना रहने देते, इस पौड़ी के साथ के दोनों श्लोक गुरु अरजन देव जी के हैं जो गुरु अरजन साहिब ही दर्ज कर सकते थे।
सो, पहले स्वरूप में असल ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियां’ ही थीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहागड़े की वार महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ३ ॥

मूलम्

बिहागड़े की वार महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा ते सुखु पाईऐ होर थै सुखु न भालि ॥ गुर कै सबदि मनु भेदीऐ सदा वसै हरि नालि ॥ नानक नामु तिना कउ मिलै जिन हरि वेखै नदरि निहालि ॥१॥

मूलम्

गुर सेवा ते सुखु पाईऐ होर थै सुखु न भालि ॥ गुर कै सबदि मनु भेदीऐ सदा वसै हरि नालि ॥ नानक नामु तिना कउ मिलै जिन हरि वेखै नदरि निहालि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेदीऐ = भेद दें, परो दें।1।
अर्थ: (हे जीव!) सुख सतिगुरु की सेवा से (ही) मिलता है किसी और जगह सुख ना ढूँढ, (क्योंकि) सतिगुरु के शब्द में (जब) मन को परो दें (तब ये समझ आ जाता है कि सुख-दाता) हरि सदा अंग-संग बसता है।
हे नानक! (हरि का सुखदाई) नाम उन्हें मिलता है, जिनको मेहर की नजर से देखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सिफति खजाना बखस है जिसु बखसै सो खरचै खाइ ॥ सतिगुर बिनु हथि न आवई सभ थके करम कमाइ ॥ नानक मनमुखु जगतु धनहीणु है अगै भुखा कि खाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सिफति खजाना बखस है जिसु बखसै सो खरचै खाइ ॥ सतिगुर बिनु हथि न आवई सभ थके करम कमाइ ॥ नानक मनमुखु जगतु धनहीणु है अगै भुखा कि खाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हरि की महिमा (रूपी) खजाना (हरि की) कृपा है (भाव, बख्शिश से ही मिलता है), जिसको बख्शता है वह स्वयं खाता है (भाव, महिमा का आनंद लेता है) और खर्चता है (अर्थात, और लोगों को भी कीर्ति करनी सिखाता है), (पर, ये कृपा) सतिगुरु के बिना मिलती नहीं, (सतिगुरु की ओट छोड़ के और) कर्म बहुत सारे लोक करके थक गए हैं (पर ये दाति नहीं मिली)।
हे नानक! मन के अधीन (और सतिगुरु को भूला) हुआ संसार (यहाँ इस कीर्ति-रूप) धन से वंचित है, भूखा आगे क्या खाएगा? (भाव, जो मनुष्य अब मानव जन्म में नाम नहीं जपते, वे इस जन्म को गवा के क्या जपेंगे?)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सभ तेरी तू सभस दा सभ तुधु उपाइआ ॥ सभना विचि तू वरतदा तू सभनी धिआइआ ॥ तिस दी तू भगति थाइ पाइहि जो तुधु मनि भाइआ ॥ जो हरि प्रभ भावै सो थीऐ सभि करनि तेरा कराइआ ॥ सलाहिहु हरि सभना ते वडा जो संत जनां की पैज रखदा आइआ ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सभ तेरी तू सभस दा सभ तुधु उपाइआ ॥ सभना विचि तू वरतदा तू सभनी धिआइआ ॥ तिस दी तू भगति थाइ पाइहि जो तुधु मनि भाइआ ॥ जो हरि प्रभ भावै सो थीऐ सभि करनि तेरा कराइआ ॥ सलाहिहु हरि सभना ते वडा जो संत जनां की पैज रखदा आइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तू (सभनी धिआइआ) = तूझे।1।
अर्थ: हे प्रभु! सारी सृष्टि तेरी है, तू सबका मालिक है, सबको तूने ही पैदा किया है, सारे (जीवों) में तू ही व्यापक है, और सब तेरा स्मरण करते हैं, जो मनुष्य तुझे प्यारा लगता है, तू उसकी भक्ति स्वीकार करता है। हे हरि प्रभु! जो तुझे ठीक लगता है सो (संसार में) होता है, सारे जीव तेरा किया करते हैं। (हे भाई!) जो हरि (आदि से) भक्तों की इज्जत रखता आया है और सबसे बड़ा है, उसकी महिमा करो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ नानक गिआनी जगु जीता जगि जीता सभु कोइ ॥ नामे कारज सिधि है सहजे होइ सु होइ ॥ गुरमति मति अचलु है चलाइ न सकै कोइ ॥ भगता का हरि अंगीकारु करे कारजु सुहावा होइ ॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ नानक गिआनी जगु जीता जगि जीता सभु कोइ ॥ नामे कारज सिधि है सहजे होइ सु होइ ॥ गुरमति मति अचलु है चलाइ न सकै कोइ ॥ भगता का हरि अंगीकारु करे कारजु सुहावा होइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत ने। सभु कोइ = हरेक जीव को। सिधि = सफलता। कारज सिधि = कार्य सिद्धि। अंगीकारु = पक्ष, सहायता।
अर्थ: हे नानक! ज्ञानवान मनुष्य ने संसार को (भाव, माया के मोह को) जीत लिया है, (और ज्ञानी के बिना) हरेक मनुष्य को संसार ने जीता है, (ज्ञानी के) करने वाले काम (भाव, मानव जन्म को सवाँरने) में कामयाबी नाम जपने से होती है उसे ऐसा प्रतीत होता है कि जो कुछ हो रहा है, प्रभु की रजा में हो रहा है। सतिगुरु की मति पर चलने से (ज्ञानी मनुष्य की) मति पक्की हो जाती है, कोई (मायावी व्यावहार) उसको थिड़का नहीं सकता (उसका निष्चय बन जाता है कि) प्रभु, भक्तों का साथ निभाता है (और उनके हरेक) काम रास आ जाते हैं।

[[0549]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख मूलहु भुलाइअनु विचि लबु लोभु अहंकारु ॥ झगड़ा करदिआ अनदिनु गुदरै सबदि न करै वीचारु ॥ सुधि मति करतै हिरि लई बोलनि सभु विकारु ॥ दितै कितै न संतोखीअनि अंतरि त्रिसना बहुतु अग्यानु अंधारु ॥ नानक मनमुखा नालहु तुटीआ भली जिना माइआ मोहि पिआरु ॥१॥

मूलम्

मनमुख मूलहु भुलाइअनु विचि लबु लोभु अहंकारु ॥ झगड़ा करदिआ अनदिनु गुदरै सबदि न करै वीचारु ॥ सुधि मति करतै हिरि लई बोलनि सभु विकारु ॥ दितै कितै न संतोखीअनि अंतरि त्रिसना बहुतु अग्यानु अंधारु ॥ नानक मनमुखा नालहु तुटीआ भली जिना माइआ मोहि पिआरु ॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: गउड़ी की वार ४ की पौड़ी नं: 31 का पहला श्लोक भी यही है। पर वहाँ ये श्लोक महले चौथे का करके लिखा है, लग-मात्राओं का इससे थोड़ा सा फर्क है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मन के पीछे चलने वाले मनुष्य प्रभु को बिसरे हुए हैं, क्योंकि उनके अंदर लब-लोभ और अहंकार है। उनका हरेक दिन (लब-लोभ आदि संबंधी) झगड़ा करते गुजरता है, वे गुरु के शब्द में विचार नहीं करते। कर्तार ने उन मनमुखों की होश और अक्ल खो ली है वे निरे विकार भरे वचन ही बोलते हैं, वे किसी भी दाति के मिलने पर तृप्त नहीं होते क्योंकि उनके मन में बहुत तृष्णा अज्ञान व अंधेरा है।
हे नानक! (ऐसे) मनुष्यों से संबंध टूटा हुआ ही भला है (कोई नाता ना ही रहे तो ठीक है), क्योंकि उनका प्यार तो माया के मोह में है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ तिन्ह भउ संसा किआ करे जिन सतिगुरु सिरि करतारु ॥ धुरि तिन की पैज रखदा आपे रखणहारु ॥

मूलम्

मः ३ ॥ तिन्ह भउ संसा किआ करे जिन सतिगुरु सिरि करतारु ॥ धुरि तिन की पैज रखदा आपे रखणहारु ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिनके सिर पर प्रभु और गुरु है (अर्थात, जो प्रभु और गुरु को अपना रखवाला समझते हैं), डर और चिन्ता उनका क्या बिगाड़ सकती है? रक्षा करने वाला प्रभु स्वयं हमेशा से उनकी इज्जत रखता आया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सचै सबदि वीचारि ॥ नानक सुखदाता सेविआ आपे परखणहारु ॥२॥

मूलम्

मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सचै सबदि वीचारि ॥ नानक सुखदाता सेविआ आपे परखणहारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! जो सुखदाता प्रभु खुद ही (सबकी) परख करने वाला है उसकी वह सेवा करते हैं, और (इस तरह) सच्चे शब्द के द्वारा विचार करके और हरि प्रीतम को मिल के सुख पाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जीअ जंत सभि तेरिआ तू सभना रासि ॥ जिस नो तू देहि तिसु सभु किछु मिलै कोई होरु सरीकु नाही तुधु पासि ॥ तू इको दाता सभस दा हरि पहि अरदासि ॥ जिस दी तुधु भावै तिस दी तू मंनि लैहि सो जनु साबासि ॥ सभु तेरा चोजु वरतदा दुखु सुखु तुधु पासि ॥२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जीअ जंत सभि तेरिआ तू सभना रासि ॥ जिस नो तू देहि तिसु सभु किछु मिलै कोई होरु सरीकु नाही तुधु पासि ॥ तू इको दाता सभस दा हरि पहि अरदासि ॥ जिस दी तुधु भावै तिस दी तू मंनि लैहि सो जनु साबासि ॥ सभु तेरा चोजु वरतदा दुखु सुखु तुधु पासि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! सारे जीव-जन्तु तेरे हैं, तू सबका खजाना है, जिस मनुष्य को तू (अपने नाम की) दाति बख्शता है, उसे (जैसे) हरेक वस्तु मिल जाती है (क्योंकि रोकने वाला) और कोई तेरा शरीक तेरे पास नहीं है, तू एक ही सबका दाता है (इसलिए,) हे हरि! (सब जीवों की) तेरे ही आगे विनती होती है; जिसकी विनती तुझे ठीक लगे, तू उसकी स्वीकार कर लेता है और उस मनुष्य को शाबाश मिलती है। ये सारा तेरा ही करिश्मा बरत रहा है, (सबका) दुख व सुख (का तरला) तेरे पास ही होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि सचै भावदे दरि सचै सचिआर ॥ साजन मनि आनंदु है गुर का सबदु वीचार ॥ अंतरि सबदु वसाइआ दुखु कटिआ चानणु कीआ करतारि ॥ नानक रखणहारा रखसी आपणी किरपा धारि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि सचै भावदे दरि सचै सचिआर ॥ साजन मनि आनंदु है गुर का सबदु वीचार ॥ अंतरि सबदु वसाइआ दुखु कटिआ चानणु कीआ करतारि ॥ नानक रखणहारा रखसी आपणी किरपा धारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करतारि = कर्तार ने।1।
अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सच्चे प्रभु को प्यारे लगते हैं और सच्चे दर पर वह व्यापारी (समझे जाते हैं); सतिगुरु के शब्द को विचारने वाले उन सज्जनों के मन (सदा) पुल्कित रहते हैं; सतिगुरु का शब्द उनके हृदय में बसा है (इसलिए) विधाता ने उनका दुख काट दिया है और उनका हृदय प्रकाशित कर दिया है। हे नानक! रक्षा करने वाला प्रभु अपनी मेहर से उनकी सदा रक्षा करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ गुर की सेवा चाकरी भै रचि कार कमाइ ॥ जेहा सेवै तेहो होवै जे चलै तिसै रजाइ ॥ नानक सभु किछु आपि है अवरु न दूजी जाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ गुर की सेवा चाकरी भै रचि कार कमाइ ॥ जेहा सेवै तेहो होवै जे चलै तिसै रजाइ ॥ नानक सभु किछु आपि है अवरु न दूजी जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = डर में। चाकरी = नौकरी। कमाइ = करे। तिसै = उस प्रभु की। अवरु = कोई और। जाइ = जगह।2।
अर्थ: अगर मनुष्य (प्रभु के) डर में रह के गुरु की बताई हुई सेवा चाकरी करे और उसी प्रभु की रजा में चले तो उस प्रभु जैसा ही हो जाता है जिसे वह स्मरण करता है। फिर, हे नानक! (ऐसे मनुष्यों को) सब जगह प्रभु ही प्रभु दिखता है, (उसके बिना) कोई और नहीं दिखता, और ना ही किसी और (आसरे की) जगह दिखती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तेरी वडिआई तूहै जाणदा तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तुधु जेवडु होरु सरीकु होवै ता आखीऐ तुधु जेवडु तूहै होई ॥ जिनि तू सेविआ तिनि सुखु पाइआ होरु तिस दी रीस करे किआ कोई ॥ तू भंनण घड़ण समरथु दातारु हहि तुधु अगै मंगण नो हथ जोड़ि खली सभ होई ॥ तुधु जेवडु दातारु मै कोई नदरि न आवई तुधु सभसै नो दानु दिता खंडी वरभंडी पाताली पुरई सभ लोई ॥३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तेरी वडिआई तूहै जाणदा तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तुधु जेवडु होरु सरीकु होवै ता आखीऐ तुधु जेवडु तूहै होई ॥ जिनि तू सेविआ तिनि सुखु पाइआ होरु तिस दी रीस करे किआ कोई ॥ तू भंनण घड़ण समरथु दातारु हहि तुधु अगै मंगण नो हथ जोड़ि खली सभ होई ॥ तुधु जेवडु दातारु मै कोई नदरि न आवई तुधु सभसै नो दानु दिता खंडी वरभंडी पाताली पुरई सभ लोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तू = तुझे। तिनि = उस मनुष्य ने। पुरई = पुरियों में। लोई = (14) लोकों में।3।
अर्थ: तू कितना बड़ा है; ये तू खुद ही जानता है, क्योंकि तेरे जितना और कोई नहीं है, अगर तेरे जितना और कोई शरीक हो (उसे देख के) तब ही बता सकते हैं (कि तू कितना बड़ा है) (पर) तेरे जितना तू खुद ही है।
जिस मनुष्य ने तुझे स्मरण किया है उस ने सुख पाया है, कोई अन्य मनुष्य उसकी क्या बराबरी कर सकता है? शरीरों को नाश भी तू स्वयं ही कर सकता है और बना भी तू स्वयं ही सकता है। सब दातें भी बख्शने वाला है सारी सृष्टि तेरे आगे दातें मांगने के लिए हाथ जोड़ के खड़ी हुई है।
मुझे तेरे जितना और कोई दानी नजर नहीं आता, खण्डों, ब्रहमण्डों, पातालों, पुरियों, सारे (चौदह ही) लोकों में तूने ही सब जीवों पर कृपा की हुई है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ मनि परतीति न आईआ सहजि न लगो भाउ ॥ सबदै सादु न पाइओ मनहठि किआ गुण गाइ ॥ नानक आइआ सो परवाणु है जि गुरमुखि सचि समाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ मनि परतीति न आईआ सहजि न लगो भाउ ॥ सबदै सादु न पाइओ मनहठि किआ गुण गाइ ॥ नानक आइआ सो परवाणु है जि गुरमुखि सचि समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर मन में (हरि के अस्तित्व की) प्रीति ना आई, और सहज अडोलता में प्यार ना बना (ठहराव ना आया), अगर शब्द का रस ना मिला, तो मन के हठ से महिमा करने का भी क्या लाभ? हे नानक! (संसार में) पैदा हुआ वह जीव मुबारक है जो सतिगुरु के सन्मुख रहके सच में लीन हो जाए।1।

[[0550]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ आपणा आपु न पछाणै मूड़ा अवरा आखि दुखाए ॥ मुंढै दी खसलति न गईआ अंधे विछुड़ि चोटा खाए ॥ सतिगुर कै भै भंनि न घड़िओ रहै अंकि समाए ॥ अनदिनु सहसा कदे न चूकै बिनु सबदै दुखु पाए ॥ कामु क्रोधु लोभु अंतरि सबला नित धंधा करत विहाए ॥ चरण कर देखत सुणि थके दिह मुके नेड़ै आए ॥ सचा नामु न लगो मीठा जितु नामि नव निधि पाए ॥ जीवतु मरै मरै फुनि जीवै तां मोखंतरु पाए ॥ धुरि करमु न पाइओ पराणी विणु करमा किआ पाए ॥ गुर का सबदु समालि तू मूड़े गति मति सबदे पाए ॥ नानक सतिगुरु तद ही पाए जां विचहु आपु गवाए ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ आपणा आपु न पछाणै मूड़ा अवरा आखि दुखाए ॥ मुंढै दी खसलति न गईआ अंधे विछुड़ि चोटा खाए ॥ सतिगुर कै भै भंनि न घड़िओ रहै अंकि समाए ॥ अनदिनु सहसा कदे न चूकै बिनु सबदै दुखु पाए ॥ कामु क्रोधु लोभु अंतरि सबला नित धंधा करत विहाए ॥ चरण कर देखत सुणि थके दिह मुके नेड़ै आए ॥ सचा नामु न लगो मीठा जितु नामि नव निधि पाए ॥ जीवतु मरै मरै फुनि जीवै तां मोखंतरु पाए ॥ धुरि करमु न पाइओ पराणी विणु करमा किआ पाए ॥ गुर का सबदु समालि तू मूड़े गति मति सबदे पाए ॥ नानक सतिगुरु तद ही पाए जां विचहु आपु गवाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = डर में। अंकि = गोद में। सहसा = तौख़ला, शंका। अनदिनु = हर रोज। सबला = बलवान। जितु = जिसके द्वारा। नव निधि = नौ खजाने, सारे पदार्थ। फुनि = दुबारा। मोखंतरु = मोख का अंतरा, मोक्ष का रहस्य।2।
अर्थ: मूर्ख मनुष्य अपने आप की पहिचान नहीं करता और-और लोगों को कह: कह के दुखी करता रहता है, (सतिगुरु के दर पर पहुँच के भी) अंधे की मूलभूत (दूसरों को दुखी करने वाली) आदत नहीं जाती, और (वह हरि से) विछुड़ के दुख सहता है।
मूर्ख मनुष्य सतिगुरु के भय में रह के मन (के पिछले बुरे संस्कारों) को तोड़ के (नए हरि नाम-जपने वाले संस्कार) नहीं घड़ता, (ऐसे कर्म नहीं करता कि वह) (प्रभु की) गोद में समाया रहे, (जिस कारण) हर रोज किसी भी वक्त उसकी चिन्ता दूर नहीं होती, (और वह) शब्द (का आसरा लिए) बिना दुख पाता है।
मूर्ख के हृदय में काम, क्रोध और लोभ प्रबल है, और सदा धंधे करते हुए उम्र गुजरती है। पैर, हाथ, (आँखें) देख-देख के और (कान) सुन-सुन के थक गए हैं, (उम्र के) दिन गुजर गए हैं, (मरने के दिन नजदीक आ गए हैं)। जिस नाम के माध्यम से नौ निधियाँ प्राप्त हो जाएं वह सच्चा नाम (मूर्ख को) अच्छा नहीं लगता, (लगे भी कैसे?) (संसार में) कार-व्यवहार करता हुआ (जो, संसार से) मुर्दा हो जाए (इस तरह) मर के फिर (हरि की याद में) पुनर्जीवित (चैतन्य) हो, तो ही मुक्ति का भेद मिलता है।
पर जिस मनुष्य को धुर से ही परमात्मा की कृपा नसीब ना हुई हो, वह (पिछले अच्छे संस्कारों वाले) कामों के बिना (अब बंदगी वाले संस्कार) कैसे पाए? हे मूर्ख! सतिगुरु के शब्द को (हृदय में) सम्भाल (क्योंकि) ऊँची आत्मिक अवस्था और भली मति शब्द से ही मिलती है। (पर) हे नानक! सतिगुरु भी तभी मिलता है जब मनुष्य हृदय में से अहंकार दूर करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिस दै चिति वसिआ मेरा सुआमी तिस नो किउ अंदेसा किसै गलै दा लोड़ीऐ ॥ हरि सुखदाता सभना गला का तिस नो धिआइदिआ किव निमख घड़ी मुहु मोड़ीऐ ॥ जिनि हरि धिआइआ तिस नो सरब कलिआण होए नित संत जना की संगति जाइ बहीऐ मुहु जोड़ीऐ ॥ सभि दुख भुख रोग गए हरि सेवक के सभि जन के बंधन तोड़ीऐ ॥ हरि किरपा ते होआ हरि भगतु हरि भगत जना कै मुहि डिठै जगतु तरिआ सभु लोड़ीऐ ॥४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिस दै चिति वसिआ मेरा सुआमी तिस नो किउ अंदेसा किसै गलै दा लोड़ीऐ ॥ हरि सुखदाता सभना गला का तिस नो धिआइदिआ किव निमख घड़ी मुहु मोड़ीऐ ॥ जिनि हरि धिआइआ तिस नो सरब कलिआण होए नित संत जना की संगति जाइ बहीऐ मुहु जोड़ीऐ ॥ सभि दुख भुख रोग गए हरि सेवक के सभि जन के बंधन तोड़ीऐ ॥ हरि किरपा ते होआ हरि भगतु हरि भगत जना कै मुहि डिठै जगतु तरिआ सभु लोड़ीऐ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किव = क्यूँ? निमख = आँख झपकने जितने समय भर के लिए। कलिआण = सुख। मुहि डिठै = अगर मुँह देखें, दर्शन करने से।4।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में प्यारा प्रभु निवास करे, उसे किसी बात की चिन्ता नहीं रह जातीं प्रभु हर किस्म के सुख देने वाला है, उसका स्मरण किए बिना एक छिन भर भी नहीं रहना चाहिए।
जिस मनुष्य ने हरि को स्मरण किया है, उसे सारे सुख प्राप्त होते हैं, (इस वास्ते) सदा साधु-संगत में ही बैठना चाहिए और (प्रभु के गुणों के बारे में) विचार करनी चाहिए।
हरि के भक्त के सारे कष्ट, भूख व रोग दूर हो जाते हैं, और सारे बंधन टूट जाते हैं, (क्योंकि) हरि का भक्त हरि की अपनी कृपा से बनता है। चाहिए तो ये कि हरि के भक्तों के दर्शन करके (भाव, उनकी संगति में रह के) सारा संसार ही तैर जाए (पर, अफसोस, संसार इस राह पर चलता ही नहीं)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का सुआउ न पाइआ ॥ नानक रसना सबदि रसाइ जिनि हरि हरि मंनि वसाइआ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का सुआउ न पाइआ ॥ नानक रसना सबदि रसाइ जिनि हरि हरि मंनि वसाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। सुआउ = स्वाद। रसाइ = रस जाती है, भीग जाती है। जिनि = जिस जीभ ने।1।
अर्थ: जिस जीभ ने हरि (के नाम) का स्वाद नहीं चखा, वह जीभ जल जाए (भाव, वह जीभ किसी काम की नहीं); हे नानक! वह जीभ गुरु के शब्द में रस जाती है जिस (जीभ) ने परमात्मा मन में बसाया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का नाउ विसारिआ ॥ नानक गुरमुखि रसना हरि जपै हरि कै नाइ पिआरिआ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का नाउ विसारिआ ॥ नानक गुरमुखि रसना हरि जपै हरि कै नाइ पिआरिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस जीभ ने हरि का नाम विसारा है, वह जीभ जल जाए। हे नानक! (दरअसल) सतिगुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य की जीभ (ही) हरि का नाम जपती है हरि के नाम से प्यार करती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि आपे ठाकुरु सेवकु भगतु हरि आपे करे कराए ॥ हरि आपे वेखै विगसै आपे जितु भावै तितु लाए ॥ हरि इकना मारगि पाए आपे हरि इकना उझड़ि पाए ॥ हरि सचा साहिबु सचु तपावसु करि वेखै चलत सबाए ॥ गुर परसादि कहै जनु नानकु हरि सचे के गुण गाए ॥५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि आपे ठाकुरु सेवकु भगतु हरि आपे करे कराए ॥ हरि आपे वेखै विगसै आपे जितु भावै तितु लाए ॥ हरि इकना मारगि पाए आपे हरि इकना उझड़ि पाए ॥ हरि सचा साहिबु सचु तपावसु करि वेखै चलत सबाए ॥ गुर परसादि कहै जनु नानकु हरि सचे के गुण गाए ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विगसै = खुश होता है। जितु = जिधर। मारगि = (सीधे) राह पर। उझड़ि = कुमार्ग।5।
अर्थ: प्रभु खुद ही ठाकुर, खुद ही सेवक और भक्त है, स्वयं ही करता है और स्वयं (जीवों से) करवाता है, खुद ही देखता है, खुद ही प्रसन्न होता है, जिधर चाहता है उधर (जीवों को) लगाता है, इन्हें खुद ही सीधे रास्ते पर डालता है, और इनको खुद ही गलत राह पर चला देता है।
हरि सच्चा मालिक है, उसका न्याय भी अचूक है, वह स्वयं ही सारे तमाशे करके देख रहा है। दास नानक कहता है कि सतिगुरु की मेहर से (ही मनुष्य ऐसे) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के गुण गाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ दरवेसी को जाणसी विरला को दरवेसु ॥ जे घरि घरि हंढै मंगदा धिगु जीवणु धिगु वेसु ॥ जे आसा अंदेसा तजि रहै गुरमुखि भिखिआ नाउ ॥ तिस के चरन पखालीअहि नानक हउ बलिहारै जाउ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ दरवेसी को जाणसी विरला को दरवेसु ॥ जे घरि घरि हंढै मंगदा धिगु जीवणु धिगु वेसु ॥ जे आसा अंदेसा तजि रहै गुरमुखि भिखिआ नाउ ॥ तिस के चरन पखालीअहि नानक हउ बलिहारै जाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई। हंढै = घूमता फिरे। धिगु = धिक्कार। वेसु = भेस, (फकीर वाला) पहिरावा।1।
अर्थ: कोई विरला फ़कीर ही फकीरी (के आदर्श) को समझता है, (फ़कीर हो के) अगर घर घर माँगता फिरे, तो उसके जीने को धिक्कार है और उसके (फकीरी) भेस को भी धिक्कार है।
अगर (दरवेश हो के) आशा और चिन्ता को त्याग दे तो सतिगुरु के सन्मुख रह के नाम की भिक्षा मांगे, तो, हे नानक! मैं उससे सदके हूँ, उसके चरण धोने चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ नानक तरवरु एकु फलु दुइ पंखेरू आहि ॥ आवत जात न दीसही ना पर पंखी ताहि ॥ बहु रंगी रस भोगिआ सबदि रहै निरबाणु ॥ हरि रसि फलि राते नानका करमि सचा नीसाणु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ नानक तरवरु एकु फलु दुइ पंखेरू आहि ॥ आवत जात न दीसही ना पर पंखी ताहि ॥ बहु रंगी रस भोगिआ सबदि रहै निरबाणु ॥ हरि रसि फलि राते नानका करमि सचा नीसाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। पंखेरू = पक्षी। पर = पंख। निरबाणु = वासना रहित, चाहत रहित। रसि = रस में। नीसाणु = निशान, टिक्का। करमि = बख्शिश से, कृपा द्वारा।2।
अर्थ: हे नानक! (संसार एक) वृक्ष (के समान है, इस वृक्ष) पर (माया के मोह रूपी) एक फल (लगा हुआ है), (इस पेड़ पर ही) दो (किस्म के, गुरमुख और मनमुख) पक्षी (बैठे) हैं। इन पक्षियों के पंख नहीं हैं और वे आते-जाते दिखते भी नहीं (भाव, ये पता नहीं चलता कि ये जीव पक्षी कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं)। बहुत सारे तो रंग (-तमाशें में स्वाद लेने) वाले हैं (जो) रसों के भोग में (गलतान) हैं और निर्वाण (पक्षी) शब्द में (लीन) रहते हैं।
हे नानक! हरि की कृपा से (जिनके माथे पर) सच्चा निशान है, वे नाम के रस (रूपी) फल (के स्वाद) में मस्त हैं।2।

[[0551]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे धरती आपे है राहकु आपि जमाइ पीसावै ॥ आपि पकावै आपि भांडे देइ परोसै आपे ही बहि खावै ॥ आपे जलु आपे दे छिंगा आपे चुली भरावै ॥ आपे संगति सदि बहालै आपे विदा करावै ॥ जिस नो किरपालु होवै हरि आपे तिस नो हुकमु मनावै ॥६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे धरती आपे है राहकु आपि जमाइ पीसावै ॥ आपि पकावै आपि भांडे देइ परोसै आपे ही बहि खावै ॥ आपे जलु आपे दे छिंगा आपे चुली भरावै ॥ आपे संगति सदि बहालै आपे विदा करावै ॥ जिस नो किरपालु होवै हरि आपे तिस नो हुकमु मनावै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छिंगा = दाँतों में फँसा हुआ अन्न निकालने वाली सुई। विदा करावै = भेज देता है, विदा करता है।6।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही जमीन है स्वयं ही उसे जोतने वाला है, स्वयं ही (अन्न) उगाता है और स्वयं ही पिसवाता है, खुद पकाता है और खुद ही बर्तन दे के परोसता है और खुद ही बैठ के खाता है। खुद ही जल देता है और छिंगा भी खुद देता है और खुद ही चुल्ली करवाता है।
हरि खुद ही संगति को बुला के बैठाता है और खुद ही विदा करता है। जिस पर प्रभु स्वयं दयालु होता है उसको अपनी रजा (मीठी करके) मनवाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ करम धरम सभि बंधना पाप पुंन सनबंधु ॥ ममता मोहु सु बंधना पुत्र कलत्र सु धंधु ॥ जह देखा तह जेवरी माइआ का सनबंधु ॥ नानक सचे नाम बिनु वरतणि वरतै अंधु ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ करम धरम सभि बंधना पाप पुंन सनबंधु ॥ ममता मोहु सु बंधना पुत्र कलत्र सु धंधु ॥ जह देखा तह जेवरी माइआ का सनबंधु ॥ नानक सचे नाम बिनु वरतणि वरतै अंधु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। धंधु = काम धंधा। अंधु = अंधा मनुष्य।1।
अर्थ: (कर्मकांड के) कर्म-धर्म सारे बंधन (का रूप ही) हैं और अच्छे-बुरे काम भी (संसार से) जोड़ के रखने का साधन हैं (अर्थात, कर्मकांड व पाप-पुण्य करने से जनम-मरन से गति नहीं हो सकती)। ममता और मोह भी बंधन ही है, पुत्र और स्त्री- (इनका प्यार भी) कष्ट का कारण है, जिधर देखता हूँ उधर ही माया के मोह (रूपी) जंजीर है। हे नानक! सच्चे नाम के बिना अंधा मनुष्य (माया के) व्यवहार को ही बरतता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ४ ॥ अंधे चानणु ता थीऐ जा सतिगुरु मिलै रजाइ ॥ बंधन तोड़ै सचि वसै अगिआनु अधेरा जाइ ॥ सभु किछु देखै तिसै का जिनि कीआ तनु साजि ॥ नानक सरणि करतार की करता राखै लाज ॥२॥

मूलम्

मः ४ ॥ अंधे चानणु ता थीऐ जा सतिगुरु मिलै रजाइ ॥ बंधन तोड़ै सचि वसै अगिआनु अधेरा जाइ ॥ सभु किछु देखै तिसै का जिनि कीआ तनु साजि ॥ नानक सरणि करतार की करता राखै लाज ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थीऐ = होता है। रजाइ = प्रभु की रजा के अनुसार। सचि = सत्य में।2।
अर्थ: अंधे मनुष्य को प्रकाश तब ही होता है जब (प्रभु की) रजा में उस को सतिगुरु मिल जाए (क्योंकि सतिगुरु के मिलने से) वह (माया के) बंधन तोड़ लेता है, सच्चे हरि में लीन हो जाता है और उसका अज्ञान (रूपी) अंधकार दूर हो जाता है।
जिसने शरीर बना के पैदा किया है, (सतिगुरु के मिलने से) मनुष्य सब कुछ उसी का ही समझता है, और, हे नानक! वह मनुष्य विधाता की शरण पड़ता है और विधाता उसकी इज्जत रखता है (भाव, उसे विकारों से बचा लेता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जदहु आपे थाटु कीआ बहि करतै तदहु पुछि न सेवकु बीआ ॥ तदहु किआ को लेवै किआ को देवै जां अवरु न दूजा कीआ ॥ फिरि आपे जगतु उपाइआ करतै दानु सभना कउ दीआ ॥ आपे सेव बणाईअनु गुरमुखि आपे अम्रितु पीआ ॥ आपि निरंकार आकारु है आपे आपे करै सु थीआ ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जदहु आपे थाटु कीआ बहि करतै तदहु पुछि न सेवकु बीआ ॥ तदहु किआ को लेवै किआ को देवै जां अवरु न दूजा कीआ ॥ फिरि आपे जगतु उपाइआ करतै दानु सभना कउ दीआ ॥ आपे सेव बणाईअनु गुरमुखि आपे अम्रितु पीआ ॥ आपि निरंकार आकारु है आपे आपे करै सु थीआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थाटु = रचना। बीआ = दूसरा, कोई अन्य। करतै = कर्तार ने। दानु = बख्शिश, रोज़ी। बणाईअनु = बनाई उस प्रभु ने। निरंकार = निर+आकार, जिसका कोई खास रूप ना हो।7।
अर्थ: जब प्रभु ने खुद बैठ के रचना रची तब उसने किसी दूसरे सेवक से सलाह नहीं ली थी, जब कोई और दूसरा पैदा ही नहीं किया, तो किसी ने किसी के पास से लेना ही क्या था और देना क्या था? (भाव, कोई ऐसा था ही नहीं जो परमात्मा को सलाह दे सकता)।
फिर हरि ने खुद संसार को पैदा किया और सब जीवों को रोज़ी दी। गुरु के माध्यम से नाम-जपने की जुगति प्रभु ने खुद ही बनाई है और खुद ही उसने (नाम-रूपी) अमृत पीया, प्रभु खुद ही आकार से रहित है और खुद ही आकार वाला (साकार) है, जो वह खुद करता है वही होता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि प्रभु सेवहि सद साचा अनदिनु सहजि पिआरि ॥ सदा अनंदि गावहि गुण साचे अरधि उरधि उरि धारि ॥ अंतरि प्रीतमु वसिआ धुरि करमु लिखिआ करतारि ॥ नानक आपि मिलाइअनु आपे किरपा धारि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि प्रभु सेवहि सद साचा अनदिनु सहजि पिआरि ॥ सदा अनंदि गावहि गुण साचे अरधि उरधि उरि धारि ॥ अंतरि प्रीतमु वसिआ धुरि करमु लिखिआ करतारि ॥ नानक आपि मिलाइअनु आपे किरपा धारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। पिआरि = प्यार से। अरधि उरधि = नीचे ऊपर हर जगह मौजूद हरि। उरि = हृदय में। करमु = बख्शिश (का लेख)। धुरि = शुरू से ही। करतारि = कर्तार ने। मिलाइअनु = मिलाए हैं उस प्रभु ने।1।
अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य हर समय सहज अवस्था में लगन जोड़ के (भाव, सदा एकाग्रचिक्त रहके) सदा सच्चे प्रभु को स्मरण करते हैं, और ऊपर-नीचे हर जगह व्यापक हरि को हृदय में परो के चढ़दीकला में (रह के) सदा सच्चे की महिमा करते हैं।
धुर से ही कर्तार ने (उनके लिए) बख्शिशों (का फुरमान) लिख दिया है (इसलिए) उनके हृदय में प्यारा प्रभु बसता है। हे नानक! उस प्रभु ने स्वयं ही कृपा करके उन्हें अपने में मिला लिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ कहिऐ कथिऐ न पाईऐ अनदिनु रहै सदा गुण गाइ ॥ विणु करमै किनै न पाइओ भउकि मुए बिललाइ ॥ गुर कै सबदि मनु तनु भिजै आपि वसै मनि आइ ॥ नानक नदरी पाईऐ आपे लए मिलाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ कहिऐ कथिऐ न पाईऐ अनदिनु रहै सदा गुण गाइ ॥ विणु करमै किनै न पाइओ भउकि मुए बिललाइ ॥ गुर कै सबदि मनु तनु भिजै आपि वसै मनि आइ ॥ नानक नदरी पाईऐ आपे लए मिलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (जब तक सतिगुरु के शब्द द्वारा हृदय ना भीगे और प्रभु की बख्शिश का भागी ना बने, तब तक) (चाहे) हर वक्त सदा गुण गाता रहे, (इस तरह) कहते हुए हाथ नहीं आता, मेहर के बिना किसी को नहीं मिला, कई रोते-कुरलाते मर-खप गए हैं। सतिगुरु के शब्द से ही मन और तन भीगता है और प्रभु हृदय में बसता है। हे नानक! प्रभु अपनी कृपा-दृष्टि से ही मिलता है, वह स्वयं ही (जीव को) अपने साथ मिलाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे वेद पुराण सभि सासत आपि कथै आपि भीजै ॥ आपे ही बहि पूजे करता आपि परपंचु करीजै ॥ आपि परविरति आपि निरविरती आपे अकथु कथीजै ॥ आपे पुंनु सभु आपि कराए आपि अलिपतु वरतीजै ॥ आपे सुखु दुखु देवै करता आपे बखस करीजै ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे वेद पुराण सभि सासत आपि कथै आपि भीजै ॥ आपे ही बहि पूजे करता आपि परपंचु करीजै ॥ आपि परविरति आपि निरविरती आपे अकथु कथीजै ॥ आपे पुंनु सभु आपि कराए आपि अलिपतु वरतीजै ॥ आपे सुखु दुखु देवै करता आपे बखस करीजै ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथै = कहता है। भीजै = भीगता है। परपंचु = जगत का पसारा। परविरति = जगत पसारे में व्यस्त रहने वाला। निरविरती = निर्वृत अवस्था में, अलग रहने वाला। अलिपतु वरतीजै = अलग रहता है। बखश = कृपा, बख्शिश।8।
अर्थ: सारे वेद-पुराण व शास्त्र प्रभु स्वयं ही रचने वाला है, खुद ही इनकी कथा करता है और खुद ही (सुन के) प्रसन्न होता है, हरि स्वयं ही बैठ के (पुराण आदिक मतानुसार) पूजा करता है और स्वयं ही (अन्य) पसारा पसारता है। खुद ही संसार में खचित हो रहा है और खुद ही इससे किनारा किए बैठा है और कथन से परे अपना आप खुद ही बयान करता है। पुण्य भी आप ही करवाता है, फिर (पाप) पुण्य से निर्लिप भी आप ही वरतता है, आप ही प्रभु सुख-दुख देता है और आप ही मेहर करता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ सेखा अंदरहु जोरु छडि तू भउ करि झलु गवाइ ॥ गुर कै भै केते निसतरे भै विचि निरभउ पाइ ॥ मनु कठोरु सबदि भेदि तूं सांति वसै मनि आइ ॥ सांती विचि कार कमावणी सा खसमु पाए थाइ ॥ नानक कामि क्रोधि किनै न पाइओ पुछहु गिआनी जाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ सेखा अंदरहु जोरु छडि तू भउ करि झलु गवाइ ॥ गुर कै भै केते निसतरे भै विचि निरभउ पाइ ॥ मनु कठोरु सबदि भेदि तूं सांति वसै मनि आइ ॥ सांती विचि कार कमावणी सा खसमु पाए थाइ ॥ नानक कामि क्रोधि किनै न पाइओ पुछहु गिआनी जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेदि = छेद कर दे, भेद दे। थाइ पाए = स्वीकार करता है। कामि = काम में (फसे रहने से)।1।
अर्थ: हे शेख! हृदय में से हठ त्याग दे, ये पागलपन दूर कर और सतिगुरु का डर हृदय में बसा (भाव, अदब में आ) सतिगुरु के अदब में रहके कितने ही पार हो गए, (कितनों ने ही) भय में रह के निर्भय प्रभु को पा लिया।
(हे शेख!) अपने कठोर मन को (मन, जो हठ के कारण कठोर है) सतिगुरु के शब्द से भेद दे ता कि तेरे मन में शांति और ठंड आ के बसे। फिर इस में (भजन बंदगी वाली) जो कार करेगा, मालिक उसे स्वीकार करेगा। हे नानक! किसी ज्ञान वाले को जा के पूछ ले, काम और क्रोध (आदि विकारों) के अधीन होने से किसी को भी ईश्वर नहीं मिलता।1।

[[0552]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ मनमुख माइआ मोहु है नामि न लगो पिआरु ॥ कूड़ु कमावै कूड़ु संग्रहै कूड़ु करे आहारु ॥ बिखु माइआ धनु संचि मरहि अंते होइ सभु छारु ॥ करम धरम सुच संजम करहि अंतरि लोभु विकारु ॥ नानक जि मनमुखु कमावै सु थाइ ना पवै दरगहि होइ खुआरु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ मनमुख माइआ मोहु है नामि न लगो पिआरु ॥ कूड़ु कमावै कूड़ु संग्रहै कूड़ु करे आहारु ॥ बिखु माइआ धनु संचि मरहि अंते होइ सभु छारु ॥ करम धरम सुच संजम करहि अंतरि लोभु विकारु ॥ नानक जि मनमुखु कमावै सु थाइ ना पवै दरगहि होइ खुआरु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = मन का मुरीद। संग्रहै = एकत्र करता है। आहारु = खुराक। बिखु = जहर। संचि = इकट्ठी करके। छारु = राख। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के साधन।2।
अर्थ: मनमुख का माया में मोह है (इस करके) नाम में उसका प्यार नहीं बनता, वह (माया रूपी) झूठ कमाता, झूठ एकत्र करता है और झूठ को ही अपनी खुराक बनाता है (भाव, जिंदगी का आसरा समझता है)। (मन के अधीन हुए मनुष्य) विष रूपी माया धन को इकट्ठा कर करके खपते मरते हैं, जबकि आखिर में वह सारा धन राख हो जाता है (भाव, राख की तरह व्यर्थ हो जाता है) वे अपनी और से (आत्मिक काम भी करते हैं) कर्म-धर्म-पवित्रता के साधन व और संयम (भी) करते हैं (पर) उनके हृदय में लोभ व विकार (ही) रहता है।
हे नानक! मन के अधीन हुआ मनुष्य जो कुछ (भी) करता है वह स्वीकार नहीं होता और प्रभु की हजूरी में वह ख्वार होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे खाणी आपे बाणी आपे खंड वरभंड करे ॥ आपि समुंदु आपि है सागरु आपे ही विचि रतन धरे ॥ आपि लहाए करे जिसु किरपा जिस नो गुरमुखि करे हरे ॥ आपे भउजलु आपि है बोहिथा आपे खेवटु आपि तरे ॥ आपे करे कराए करता अवरु न दूजा तुझै सरे ॥९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे खाणी आपे बाणी आपे खंड वरभंड करे ॥ आपि समुंदु आपि है सागरु आपे ही विचि रतन धरे ॥ आपि लहाए करे जिसु किरपा जिस नो गुरमुखि करे हरे ॥ आपे भउजलु आपि है बोहिथा आपे खेवटु आपि तरे ॥ आपे करे कराए करता अवरु न दूजा तुझै सरे ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाणी = जगत की उत्पक्ति के तरीके (अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज)। बाणी = बोलियां। खंड = जगत के हिस्से। ब्रहमंड = जगत। बोहिथ = जहाज। खेवटु = मल्लाह। सरे = बराबर।9।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही खाणियां, बोलियां, खण्ड व ब्रहमण्ड बनाता है, स्वयं ही समुंदर व सागर है और उसने स्वयं ही इस में (महिमा रूपी) रत्न छुपा के रखे हैं; जिस पर कृपा करता है और जिसको सतिगुरु के सन्मुख करता है, उसे स्वयं ही वह रत्न प्राप्त करवा देता है। प्रभु खुद ही (संसार) समुंदर है, खुद ही जहाज है, स्वयं ही मल्लाह है और स्वयं ही तैरता है, स्वयं ही सब कुछ करता कराता है। हे प्रभु! तेरे जैसा दूसरा कोई नहीं।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा सफल है जे को करे चितु लाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ अचिंतु वसै मनि आइ ॥ जनम मरन दुखु कटीऐ हउमै ममता जाइ ॥ उतम पदवी पाईऐ सचे रहै समाइ ॥ नानक पूरबि जिन कउ लिखिआ तिना सतिगुरु मिलिआ आइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा सफल है जे को करे चितु लाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ अचिंतु वसै मनि आइ ॥ जनम मरन दुखु कटीऐ हउमै ममता जाइ ॥ उतम पदवी पाईऐ सचे रहै समाइ ॥ नानक पूरबि जिन कउ लिखिआ तिना सतिगुरु मिलिआ आइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पदारथु = धन। अचिंतु = चिन्ता से रहित प्रभु। जनम मरन दुखु = सारी उम्र का दुख, ये अहंकार ममता जो सारी उम्र का दुख है। उतम पदवी = प्रभु में समाए रहने का रुतबा। पूरबि = आदि से।1।
अर्थ: अगर मनुष्य मन टिका के सतिगुरु की (बताए हुए) कर्म करे, तो वह सेवा जरूर फल देती है; नाम धन मिल जाता है और चिन्ता मुक्त (प्रभु) हृदय में आ बसता है, अहंकार ममता दूर हो जाती है। और ये सारी उम्र का दुख काटा जाता है। (हजूरी में) बड़ा रुतबा मिलता है, मनुष्य सच्चे हरि में समाया रहता है।
(पर, सतिगुरु का मिलना कोई आसान बात नहीं); हे नानक! शुरू से ही (किए हुए अच्छे कर्मों के अनुसार) जिनके हृदय में (अच्छे संस्कार) उकरे हुए हैं, उन्हें ही सतिगुरु आ मिलता है (भाव, वही सतिगुरु को पहचान लेते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ नामि रता सतिगुरू है कलिजुग बोहिथु होइ ॥ गुरमुखि होवै सु पारि पवै जिना अंदरि सचा सोइ ॥ नामु सम्हाले नामु संग्रहै नामे ही पति होइ ॥ नानक सतिगुरु पाइआ करमि परापति होइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ नामि रता सतिगुरू है कलिजुग बोहिथु होइ ॥ गुरमुखि होवै सु पारि पवै जिना अंदरि सचा सोइ ॥ नामु सम्हाले नामु संग्रहै नामे ही पति होइ ॥ नानक सतिगुरु पाइआ करमि परापति होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग = समय, जीवन। कलि = झगड़े, कष्ट। कलिजुग = वह जीवन काल जो झगड़ों से भरा पड़ा है, परमात्मा से विछोड़े का समय (“इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता”)। पति = इज्जत।2।
अर्थ: सतिगुरु (प्रभु के) नाम में भीगा हुआ होता है और कलियुग (के जीवों के उद्धार) के लिए जहाज बनता है; (क्योंकि) वह नाम को संभालता है और नाम-धन इकट्ठा करता है (हरि की दरगाह में) आदर भी नाम से ही मिलता है।
हे नानक! सतिगुरु को मिल के प्रभु की मेहर से ही (भाव, बख्शिश के पात्र बनने से ही) नाम की प्राप्ति होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे पारसु आपि धातु है आपि कीतोनु कंचनु ॥ आपे ठाकुरु सेवकु आपे आपे ही पाप खंडनु ॥ आपे सभि घट भोगवै सुआमी आपे ही सभु अंजनु ॥ आपि बिबेकु आपि सभु बेता आपे गुरमुखि भंजनु ॥ जनु नानकु सालाहि न रजै तुधु करते तू हरि सुखदाता वडनु ॥१०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे पारसु आपि धातु है आपि कीतोनु कंचनु ॥ आपे ठाकुरु सेवकु आपे आपे ही पाप खंडनु ॥ आपे सभि घट भोगवै सुआमी आपे ही सभु अंजनु ॥ आपि बिबेकु आपि सभु बेता आपे गुरमुखि भंजनु ॥ जनु नानकु सालाहि न रजै तुधु करते तू हरि सुखदाता वडनु ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारसु = वह पत्थर जिसके साथ छूने से धातुएं सोना बन जाती हैं। कंचनु = सोना। खंडनु = नाश करने वाला। घट = शरीर। अंजनु = कालिख, सुरमा, माया। बिबेकु = परख, पहचान, ज्ञान। बेता = जानने वाला। भंजनु = नाश करने वाला।10।
अर्थ: प्रभु स्वामी स्वयं ही पारस है, स्वयं ही लोहा है और उसने स्वयं ही (उससे) सोना बनाया है। खुद ही ठाकुर है, खुद ही सेवक है और खुद ही पाप दूर करने वाला है, सारे शरीरों में खुद ही व्यापक हो के मायावी पदार्थ भोगता है और सारी माया भी खुद ही है। खुद ही बिबेक (भाव, ज्ञान) है, खुद ही सारे (विवेक) को जानने वाला है और खुद ही सतिगुरु के सन्मुख हो के (माया के बंधन) तोड़ने वाला है।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ४ ॥ बिनु सतिगुर सेवे जीअ के बंधना जेते करम कमाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे ठवर न पावही मरि जमहि आवहि जाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे फिका बोलणा नामु न वसै मनि आइ ॥ नानक बिनु सतिगुर सेवे जम पुरि बधे मारीअहि मुहि कालै उठि जाहि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ४ ॥ बिनु सतिगुर सेवे जीअ के बंधना जेते करम कमाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे ठवर न पावही मरि जमहि आवहि जाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे फिका बोलणा नामु न वसै मनि आइ ॥ नानक बिनु सतिगुर सेवे जम पुरि बधे मारीअहि मुहि कालै उठि जाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेते = जितने भी। ठवर = आसरा। ना पावही = नहीं पा सकते।1।
अर्थ: सतिगुरु की बताई हुई कार किए बिना जितने भी कर्म जीव करते हैं वे उनके लिए बंधन बनते हैं (भाव, वह कर्म और भी ज्यादा माया के मोह में फंसाते हैं) सतिगुरु की सेवा के बिना और कोई आसरा जीवों को नहीं मिलता (और इसलिए) पैदा होते मरते रहते हैं।
गुरु के बताए हुए स्मरण से टूट के मनुष्य और ही फीके बोल बोलता है, इसके हृदय में नाम नहीं बसता; (इसका नतीजा ये निकलता है कि) हे नानक! सतिगुरु की सेवा के बिना जीव (को जैसे) जमपुरी में (बधे की) मार पड़ती है और (चलने के वक्त) संसार से मुकालिख़ कमा के जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ इकि सतिगुर की सेवा करहि चाकरी हरि नामे लगै पिआरु ॥ नानक जनमु सवारनि आपणा कुल का करनि उधारु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ इकि सतिगुर की सेवा करहि चाकरी हरि नामे लगै पिआरु ॥ नानक जनमु सवारनि आपणा कुल का करनि उधारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = कई मनुष्य। चाकरी = नौकरी। कुल = परिवार।2।
अर्थ: कई मनुष्य सतिगुरु की बताई हुई नाम-जपने की कार करते हैं और उनका प्रभु के नाम में प्यार बन जाता है। हे नानक! वे अपना मानव जनम सवार लेते हैं और अपनी कुल का भी उद्धार कर लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे चाटसाल आपि है पाधा आपे चाटड़े पड़ण कउ आणे ॥ आपे पिता माता है आपे आपे बालक करे सिआणे ॥ इक थै पड़ि बुझै सभु आपे इक थै आपे करे इआणे ॥ इकना अंदरि महलि बुलाए जा आपि तेरै मनि सचे भाणे ॥ जिना आपे गुरमुखि दे वडिआई से जन सची दरगहि जाणे ॥११॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे चाटसाल आपि है पाधा आपे चाटड़े पड़ण कउ आणे ॥ आपे पिता माता है आपे आपे बालक करे सिआणे ॥ इक थै पड़ि बुझै सभु आपे इक थै आपे करे इआणे ॥ इकना अंदरि महलि बुलाए जा आपि तेरै मनि सचे भाणे ॥ जिना आपे गुरमुखि दे वडिआई से जन सची दरगहि जाणे ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाटसाल = पाठशाला। पाधा = पढ़ाने वाला, शिक्षक। आणे = लाता है। इक थै = कहीं तो, एक जगह तो।11।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही पाठशाला है, स्वयं ही अध्यापक है, और स्वयं ही छात्र पढ़ने के लिए लाता है, खुद ही माँ-बाप है और खुद ही बालकों को समझदार करता है; एक जगह सब कुछ पढ़ के खुद ही समझता है, और एक जगह खुद ही बालकों को अंजान बना देता है। हे सच्चे हरि! जब खुद तेरे मन को अच्छा लगता है तो तू (इनमें से) किसी एक को अपने महल में धुर अंदर बुला लेता है। जिस गुरमुखों को तू खुद आदर देता है, वह सच्ची दरगाह में प्रगट हो जाते हैं।11।

[[0553]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मरदाना १ ॥ कलि कलवाली कामु मदु मनूआ पीवणहारु ॥ क्रोध कटोरी मोहि भरी पीलावा अहंकारु ॥ मजलस कूड़े लब की पी पी होइ खुआरु ॥ करणी लाहणि सतु गुड़ु सचु सरा करि सारु ॥ गुण मंडे करि सीलु घिउ सरमु मासु आहारु ॥ गुरमुखि पाईऐ नानका खाधै जाहि बिकार ॥१॥

मूलम्

सलोकु मरदाना १ ॥ कलि कलवाली कामु मदु मनूआ पीवणहारु ॥ क्रोध कटोरी मोहि भरी पीलावा अहंकारु ॥ मजलस कूड़े लब की पी पी होइ खुआरु ॥ करणी लाहणि सतु गुड़ु सचु सरा करि सारु ॥ गुण मंडे करि सीलु घिउ सरमु मासु आहारु ॥ गुरमुखि पाईऐ नानका खाधै जाहि बिकार ॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भाई मरदाना जी अपनी किसी रचना में शब्द ‘नानक’ नहीं लगा सकते थे। दरअसल, ये शलोक महला १ है और मर्दाना को संबोधित है। तीनों ही सलोक महले १ के हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = विवाद वाला स्वभाव, प्रभु से विछोड़े की हालत। कलवाली = शराब निकालने वाली मट्टी। मदु = शराब। माहि = मोह से। मजलस = महिफिल। लाहणि = गुड़ पानी आदि जो मिला के मिट्टी में डाल के रूढ़ी में दबा के ferment कर लेते हैं। सतु = सच। सरा = शराब। सारु = श्रेष्ठ। मंडे = रोटियां। सील = अच्छा स्वभाव। सरमु = हया। आहारु = खुराक।1।
अर्थ: विवाद वाला स्वभाव (जैसे) (शराब निकालने वाली) मट्टी है; काम (मानो) शराब है और इसको पीने वाला (मनुष्य का) मन है, मोह से भरी हुई क्रोध की (जैसे) कटोरी है और अहंकार (जैसे) पिलाने वाला है। झूठ और लालच की (मानो) मजलिस है (जिसमें बैठ के) मन (काम की शराब को) पी पी के ख्वार होता है।
(पर इसके उलट, हे मनुष्य! तू) सद् कर्मों को (शराब निकालने वाली) लाहण, सच के बोलों को गुड़ बना और सच्चे नाम को शराब बना। गुणों को रोटी, शील स्वभाव को घी और शर्म को मास– (ये सारी) खुराक बना। हे नानक! ये ख़ुराक सतिगुरु के सन्मुख होने से मिलती है और इसके खाने से सारे विकार दूर हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरदाना १ ॥ काइआ लाहणि आपु मदु मजलस त्रिसना धातु ॥ मनसा कटोरी कूड़ि भरी पीलाए जमकालु ॥ इतु मदि पीतै नानका बहुते खटीअहि बिकार ॥ गिआनु गुड़ु सालाह मंडे भउ मासु आहारु ॥ नानक इहु भोजनु सचु है सचु नामु आधारु ॥२॥

मूलम्

मरदाना १ ॥ काइआ लाहणि आपु मदु मजलस त्रिसना धातु ॥ मनसा कटोरी कूड़ि भरी पीलाए जमकालु ॥ इतु मदि पीतै नानका बहुते खटीअहि बिकार ॥ गिआनु गुड़ु सालाह मंडे भउ मासु आहारु ॥ नानक इहु भोजनु सचु है सचु नामु आधारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वै, अहंकार। धातु = दौड़ भाग, भटकना। मनसा = वासना।2।
अर्थ: शरीर जैसे (शराब निकालने वाली सामग्री समेत) मट्टी है, अहंकार शराब, और तृष्णा में भटकना (जैसे) महफिल है, झूठ से भरी हुई वासना (मानो) कटोरी है और जम काल (जैसे) पिलाता है। हे नानक! इस शराब के पीने से बहुत सारे विकार कमाए जाते हैं (भाव, अहंकार, तृष्णा झूठ आदि के कारण विकार ही विकार पैदा हो रहे हैं)।
प्रभु का ज्ञान (जैसे) गुड़ हो, महिमा रोटियां, (प्रभु का) भय माँस - ये खुराक हो, हे नानक! ये भोजन सच्चा है, क्योंकि सच्चा नाम ही (जिंदगी का) आसरा हो सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कांयां लाहणि आपु मदु अम्रित तिस की धार ॥ सतसंगति सिउ मेलापु होइ लिव कटोरी अम्रित भरी पी पी कटहि बिकार ॥३॥

मूलम्

कांयां लाहणि आपु मदु अम्रित तिस की धार ॥ सतसंगति सिउ मेलापु होइ लिव कटोरी अम्रित भरी पी पी कटहि बिकार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (अगर) शरीर मट्टी हो, स्वै का पहचान शराब और उसकी धार (भाव, जिसकी धार) अमर करने वाली हो, सत्संगति से मेल हो (भाव, मजलिस सत्संगति की हो), अमृत (नाम) की भरी हुई चिंतन (रूपी) कटोरी हो, (तो ही मनुष्य) (इस शराब को) पी-पी के सारे विकार-पाप दूर करते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे सुरि नर गण गंधरबा आपे खट दरसन की बाणी ॥ आपे सिव संकर महेसा आपे गुरमुखि अकथ कहाणी ॥ आपे जोगी आपे भोगी आपे संनिआसी फिरै बिबाणी ॥ आपै नालि गोसटि आपि उपदेसै आपे सुघड़ु सरूपु सिआणी ॥ आपणा चोजु करि वेखै आपे आपे सभना जीआ का है जाणी ॥१२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे सुरि नर गण गंधरबा आपे खट दरसन की बाणी ॥ आपे सिव संकर महेसा आपे गुरमुखि अकथ कहाणी ॥ आपे जोगी आपे भोगी आपे संनिआसी फिरै बिबाणी ॥ आपै नालि गोसटि आपि उपदेसै आपे सुघड़ु सरूपु सिआणी ॥ आपणा चोजु करि वेखै आपे आपे सभना जीआ का है जाणी ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंधरब = देवताओं के रागी। खट दरसन = छह शास्त्र। संकर, महेस = शिव जी के नाम। अकथ = जो बयान ना हो सके। बिबाणी = उजाड़। गोसटि = चरचा। सुघड़ु = सुचज्जा। चोजु = तमाशा। जाणी = जानने वाला।12।
अर्थ: प्रभु खुद ही देवता, मनुष्य, (शिव जी के) गण, गंधर्व (देवताओं के रागी), और खुद ही छह दर्शनों की बोली (बनाने वाला) है, खुद ही शिव, शंकर और महेश (का कर्ता) है, खुद ही गुरु के सन्मुख हो के अपने अकथ स्वरूप की महिमाएं (करता है), खुद ही योग साधना करने वाला है, खुद ही भोगों में प्रवृक्त है और खुद ही जोगी बन के उजाड़ों में फिरता है, खुद ही अपने साथ चर्चा करता है, खुद ही उपदेश करता है, खुद ही सद्-बुद्धि वाला सुंदर स्वरूप वाला है। अपने करिश्में करके खुद ही देखता है और खुद ही सारे जीवों के दिलों की जानने वाला है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ एहा संधिआ परवाणु है जितु हरि प्रभु मेरा चिति आवै ॥ हरि सिउ प्रीति ऊपजै माइआ मोहु जलावै ॥ गुर परसादी दुबिधा मरै मनूआ असथिरु संधिआ करे वीचारु ॥ नानक संधिआ करै मनमुखी जीउ न टिकै मरि जमै होइ खुआरु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ एहा संधिआ परवाणु है जितु हरि प्रभु मेरा चिति आवै ॥ हरि सिउ प्रीति ऊपजै माइआ मोहु जलावै ॥ गुर परसादी दुबिधा मरै मनूआ असथिरु संधिआ करे वीचारु ॥ नानक संधिआ करै मनमुखी जीउ न टिकै मरि जमै होइ खुआरु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुबिधा = दुचिक्तापन, द्वैत भाव। असथिरु = टिका हुआ। संधिआ = पाठ पूजा।1।
अर्थ: वही संध्या स्वीकार है जिस से प्यारा प्रभु हृदय में बस जाए, प्रभु से प्यार पैदा हो जाए और माया का मोह जल जाए।
सतिगुरु की कृपा से जिस मनुष्य की दुविधा दूर हो, मन ठहर जाए, वह संध्या की (सच्ची) विचार करता है। हे नानक! मनमुख संध्या करता है, (पर) उसका मन नहीं टिकता (इस वास्ते) वह पैदा होता व मरता है और ख्वार होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ प्रिउ प्रिउ करती सभु जगु फिरी मेरी पिआस न जाइ ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ मेरी पिआस गई पिरु पाइआ घरि आइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ प्रिउ प्रिउ करती सभु जगु फिरी मेरी पिआस न जाइ ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ मेरी पिआस गई पिरु पाइआ घरि आइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: ‘प्यारा प्यारा’ कूकती मैं सारा संसार फिरती रही, पर मेरी प्यास दूर नहीं हुई। हे नानक! सतिगुरु को मिल के मेरी प्यास बुझ गई है, घर में आ के प्यारा पति मिल गया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे तंतु परम तंतु सभु आपे आपे ठाकुरु दासु भइआ ॥ आपे दस अठ वरन उपाइअनु आपि ब्रहमु आपि राजु लइआ ॥ आपे मारे आपे छोडै आपे बखसे करे दइआ ॥ आपि अभुलु न भुलै कब ही सभु सचु तपावसु सचु थिआ ॥ आपे जिना बुझाए गुरमुखि तिन अंदरहु दूजा भरमु गइआ ॥१३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे तंतु परम तंतु सभु आपे आपे ठाकुरु दासु भइआ ॥ आपे दस अठ वरन उपाइअनु आपि ब्रहमु आपि राजु लइआ ॥ आपे मारे आपे छोडै आपे बखसे करे दइआ ॥ आपि अभुलु न भुलै कब ही सभु सचु तपावसु सचु थिआ ॥ आपे जिना बुझाए गुरमुखि तिन अंदरहु दूजा भरमु गइआ ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दस अठ = अठारह। उपाइअनु = पैदा किए है उसने। तपावसु = न्याय। दूजा भरमु = माया वाली भटकना।13।
अर्थ: छोटी तार (भाव, जीव) बड़ी तार (भाव, परमेश्वर) - सब कुछ प्रभु खुद ही है, खुद ही ठाकुर और खुद ही दास है। प्रभु ने खुद ही अठारह वर्ण बनाए, खुद ही ब्रहम है और खुद ही (सृष्टि का) राज उसने लिया है। (जीवों को) वह खुद ही मारता है खुद ही छोड़ता है, खुद ही बख्शता है और खुद ही मेहर करता है। प्रभु स्वयं अचूक है, कभी भूलता नहीं, उसका इन्साफ भी बिलकुल सच है, सतिगुरु के द्वारा जिनको स्वयं समझा देता है उनके हृदय में से माया की भटकना दूर हो जाती है।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ५ ॥ हरि नामु न सिमरहि साधसंगि तै तनि उडै खेह ॥ जिनि कीती तिसै न जाणई नानक फिटु अलूणी देह ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ५ ॥ हरि नामु न सिमरहि साधसंगि तै तनि उडै खेह ॥ जिनि कीती तिसै न जाणई नानक फिटु अलूणी देह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै तनि = उनके शरीर पर। खेह = राख। जिनि = जिस प्रभु ने। अलूणी = प्रेम विहीन। देह = शरीर।1।
अर्थ: जो मनुष्य साधु-संगत में हरि का नाम नहीं स्मरण करते, उनके शरीर पर राख पड़ती है (भाव, उनके शरीर धिक्कारे जाते हैं)। हे नानक! प्रेम से विहीन उस शरीर को धिक्कार है, जो उस प्रभु को नहीं पहचानता जिसने उसको बनाया है।1।

[[0554]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ घटि वसहि चरणारबिंद रसना जपै गुपाल ॥ नानक सो प्रभु सिमरीऐ तिसु देही कउ पालि ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ घटि वसहि चरणारबिंद रसना जपै गुपाल ॥ नानक सो प्रभु सिमरीऐ तिसु देही कउ पालि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि = हृदय में। चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल का फूल) कमल पुष्प समान पैर। रसना = जीभ। देही = शरीर।2।
अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य के) हृदय में प्रभु के चरण-कमल बसते हैं और जिहवा हरि को जपती है, और प्रभु (जिस शरीर के होने से) स्मरण किया जाता है उस शरीर की पालना करो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे अठसठि तीरथ करता आपि करे इसनानु ॥ आपे संजमि वरतै स्वामी आपि जपाइहि नामु ॥ आपि दइआलु होइ भउ खंडनु आपि करै सभु दानु ॥ जिस नो गुरमुखि आपि बुझाए सो सद ही दरगहि पाए मानु ॥ जिस दी पैज रखै हरि सुआमी सो सचा हरि जानु ॥१४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे अठसठि तीरथ करता आपि करे इसनानु ॥ आपे संजमि वरतै स्वामी आपि जपाइहि नामु ॥ आपि दइआलु होइ भउ खंडनु आपि करै सभु दानु ॥ जिस नो गुरमुखि आपि बुझाए सो सद ही दरगहि पाए मानु ॥ जिस दी पैज रखै हरि सुआमी सो सचा हरि जानु ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ। संजमि = जुगति से। मानु = आदर। हरि जानु = हरि जन, प्रभु का सेवक भक्त। सचा = प्रभु (का रूप)।14।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही अढ़सठ तीर्थों को करने वाला है, खुद ही (उन तीर्थों पर) स्नान करता है, मालिक स्वयं ही जुगति में बरतता है और खुद ही नाम जपाता है, भय दूर करने वाला प्रभु खुद ही दयालु होता है और खुद ही सब तरह के दान करता है, जिस मनुष्य को सतिगुरु के माध्यम से समझ बख्शता है, वह सदा ही दरगाह में आदर पाता है। जिसकी इज्जत खुद रखता है वह ईश्वर का प्यारा सेवक ईश्वर का ही रूप है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ नानक बिनु सतिगुर भेटे जगु अंधु है अंधे करम कमाइ ॥ सबदै सिउ चितु न लावई जितु सुखु वसै मनि आइ ॥ तामसि लगा सदा फिरै अहिनिसि जलतु बिहाइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ कहणा किछू न जाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ नानक बिनु सतिगुर भेटे जगु अंधु है अंधे करम कमाइ ॥ सबदै सिउ चितु न लावई जितु सुखु वसै मनि आइ ॥ तामसि लगा सदा फिरै अहिनिसि जलतु बिहाइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ कहणा किछू न जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनु भेटे = मिले बिना। तामसि = तमोगुणी भाव में। अहि = दिन। निसि = रात।1।
अर्थ: हे नानक! गुरु के मिले बिना संसार अंधा है और अंधे ही काम करता है, वह सतिगुरु के शब्द से मन नहीं जोड़ता जिस (शब्द में मन जोड़ने) से हृदय में सुख आ बसे। तमो गुण में मस्त हुआ सदा भटकता है और दिन-रात (तमोगुण में) जलते हुए (उसकी उम्र) गुजरती है।
(इस बारे में) कुछ नहीं कहा जा सकता, जो प्रभु को अच्छा लगता है, वही होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सतिगुरू फुरमाइआ कारी एह करेहु ॥ गुरू दुआरै होइ कै साहिबु समालेहु ॥ साहिबु सदा हजूरि है भरमै के छउड़ कटि कै अंतरि जोति धरेहु ॥ हरि का नामु अम्रितु है दारू एहु लाएहु ॥ सतिगुर का भाणा चिति रखहु संजमु सचा नेहु ॥ नानक ऐथै सुखै अंदरि रखसी अगै हरि सिउ केल करेहु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सतिगुरू फुरमाइआ कारी एह करेहु ॥ गुरू दुआरै होइ कै साहिबु समालेहु ॥ साहिबु सदा हजूरि है भरमै के छउड़ कटि कै अंतरि जोति धरेहु ॥ हरि का नामु अम्रितु है दारू एहु लाएहु ॥ सतिगुर का भाणा चिति रखहु संजमु सचा नेहु ॥ नानक ऐथै सुखै अंदरि रखसी अगै हरि सिउ केल करेहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारी = काम। संमालेहु = याद करो। हजूरि = अंग संग। छउड़ = पर्दा, वह जाला जो आँखों के आगे आ के नजर बंद कर देता है। चिति = चिक्त में। संजमु = रहिणी। केल = आनंद, लाड।2।
अर्थ: सतिगुरु ने हुक्म दिया है (भ्रम का छउड़ पर्दा काटने के लिए) ये काम (भाव, इलाज) करो- गुरु के दर पर जा के (भाव, गुरु की चरणी लग के) मालिक को याद करो, मालिक सदा अंग-संग है (आँखों के आगे से) भ्रम के जाले उतार के हृदय में उसकी ज्योति को टिकाओ।
हरि का नाम अमर करने वाला है; ये दारू बरतो, सतिगुरु का भाणा (मानना) चिक्त में रखो और सच्चा प्यार (रूपी) रहन-सहन (जीवन-शैली) (धारण करो)। हे नानक! (यही दवा) यहाँ (संसार में) सुखी रखेगा और आगे (परलोक में भी) हरि के साथ मजे करोगे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे भार अठारह बणसपति आपे ही फल लाए ॥ आपे माली आपि सभु सिंचै आपे ही मुहि पाए ॥ आपे करता आपे भुगता आपे देइ दिवाए ॥ आपे साहिबु आपे है राखा आपे रहिआ समाए ॥ जनु नानक वडिआई आखै हरि करते की जिस नो तिलु न तमाए ॥१५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे भार अठारह बणसपति आपे ही फल लाए ॥ आपे माली आपि सभु सिंचै आपे ही मुहि पाए ॥ आपे करता आपे भुगता आपे देइ दिवाए ॥ आपे साहिबु आपे है राखा आपे रहिआ समाए ॥ जनु नानक वडिआई आखै हरि करते की जिस नो तिलु न तमाए ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठारह भार = (पुरातन विचार है कि हरेक किस्म के पौधे का एक-एक पक्ता तोड़ के इकट्ठा करें तो सारा तोल 18 भार बनता है। एक भार का मतलब पाँच मन कच्चा) सारी बनस्पति। सिंचे = पानी देता है। मुहि = मुह में। तमाए = तमा, लालच।15।
अर्थ: प्रभु खुद बनस्पति के अठारह भार है (भाव, सारी सृष्टि की बनस्पति खुद ही है), खुद ही उसे फल लगाता है, खुद ही माली है, खुद ही सिंचाई करता है और खुद ही (फल) खाता है, खुद ही करने वाला है, खुद ही भोगने वाला है, खुद ही देता है और खुद ही दिलवाता है, मालिक भी खुद है और रखवाला भी खुद है, खुद सब जगह व्यापक है।
हे नानक! (कोई विरला) सेवक उस प्रभु की महिमा करता है जिसको सारी सृष्टि का कर्ता-धर्ता (होते हुए भी) रक्ती मात्र भी कोई तमा नहीं है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ माणसु भरिआ आणिआ माणसु भरिआ आइ ॥ जितु पीतै मति दूरि होइ बरलु पवै विचि आइ ॥ आपणा पराइआ न पछाणई खसमहु धके खाइ ॥ जितु पीतै खसमु विसरै दरगह मिलै सजाइ ॥ झूठा मदु मूलि न पीचई जे का पारि वसाइ ॥ नानक नदरी सचु मदु पाईऐ सतिगुरु मिलै जिसु आइ ॥ सदा साहिब कै रंगि रहै महली पावै थाउ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ माणसु भरिआ आणिआ माणसु भरिआ आइ ॥ जितु पीतै मति दूरि होइ बरलु पवै विचि आइ ॥ आपणा पराइआ न पछाणई खसमहु धके खाइ ॥ जितु पीतै खसमु विसरै दरगह मिलै सजाइ ॥ झूठा मदु मूलि न पीचई जे का पारि वसाइ ॥ नानक नदरी सचु मदु पाईऐ सतिगुरु मिलै जिसु आइ ॥ सदा साहिब कै रंगि रहै महली पावै थाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माणसु = मनुष्य। आणिआ = लाया गया (भाव, पैदा हुआ)। आइ = आ के (भाव, जनम ले के)। भरिआ = लिबड़ा हुआ (शराब आदि बुरी लत में) फसा हुआ। वरलु = झलपना, होश गवा चुका। पीचई = पीना चाहिए। जे का = जहाँ तक। पारि वसाइ = बस चले।1।
अर्थ: जो मनुष्य (विकारों में) लिबड़ा हुआ (यहाँ संसार में) लाया गया, वह यहाँ आ के (और विकारों में ही) फंस जाता है (और शराब आदि कुकर्मों में पड़ता है), पर जिसके पीने से बुद्धि मारी जाती है (अनाब-शनाब) बकने का जोश आ चढ़ता है, अपने व पराए की पहचान नहीं रहती, मालिक की ओर से धक्के पड़ते हैं, जिसके पीने से (प्रभु) पति बिसर जाता है और दरगाह में सजा मिलती है, ऐसी चंदरी शराब जहाँ तक बस चले कभी नहीं पीनी चाहिए।
हे नानक! प्रभु की मेहर की नजर से ‘नाम’ रूपी नशा (उस मनुष्य को) मिलता है, जिसे गुरु आ के मिल जाए, वह मनुष्य सदा मालिक के (नाम के) रंग में रहता है और दरगाह में उसको जगह (भाव, इज्जत) मिलती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ इहु जगतु जीवतु मरै जा इस नो सोझी होइ ॥ जा तिन्हि सवालिआ तां सवि रहिआ जगाए तां सुधि होइ ॥ नानक नदरि करे जे आपणी सतिगुरु मेलै सोइ ॥ गुर प्रसादि जीवतु मरै ता फिरि मरणु न होइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ इहु जगतु जीवतु मरै जा इस नो सोझी होइ ॥ जा तिन्हि सवालिआ तां सवि रहिआ जगाए तां सुधि होइ ॥ नानक नदरि करे जे आपणी सतिगुरु मेलै सोइ ॥ गुर प्रसादि जीवतु मरै ता फिरि मरणु न होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिन्हि = उस प्रभु ने। सवि रहिआ = सोया रहता है। सुधि = सूझ, समझ।2।
अर्थ: जब इस संसार को (भाव, संसारी जीवों को) समझ आती है तब ये जीवित ही मरता है (भाव, माया में विचरते हुए भी माया से उपराम रहता है;) (पर) सूझ तभी आती है जब प्रभु खुद जगाता है, जब तक उसने (माया में) सुला रखा है, तब तक सोया रहता है।
हे नानक! यदि प्रभु अपनी मेहर की नजर करे, तो वह खुद (संसार को) सतिगुरु मिलाता है, और सतिगुरु की कृपा से (संसार) जीवित रहते हुए ही मर जाता है, फिर दुबारा मरना नहीं होता (भाव, जनम-मरण से बच जाता है)।2।

[[0555]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिस दा कीता सभु किछु होवै तिस नो परवाह नाही किसै केरी ॥ हरि जीउ तेरा दिता सभु को खावै सभ मुहताजी कढै तेरी ॥ जि तुध नो सालाहे सु सभु किछु पावै जिस नो किरपा निरंजन केरी ॥ सोई साहु सचा वणजारा जिनि वखरु लदिआ हरि नामु धनु तेरी ॥ सभि तिसै नो सालाहिहु संतहु जिनि दूजे भाव की मारि विडारी ढेरी ॥१६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिस दा कीता सभु किछु होवै तिस नो परवाह नाही किसै केरी ॥ हरि जीउ तेरा दिता सभु को खावै सभ मुहताजी कढै तेरी ॥ जि तुध नो सालाहे सु सभु किछु पावै जिस नो किरपा निरंजन केरी ॥ सोई साहु सचा वणजारा जिनि वखरु लदिआ हरि नामु धनु तेरी ॥ सभि तिसै नो सालाहिहु संतहु जिनि दूजे भाव की मारि विडारी ढेरी ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: उस प्रभु को किसी की काण (डर) नहीं क्योकि सब कुछ होता ही उसका किया हुआ है; (बल्कि), हे हरि! सारी सृष्टि तेरी मुथाज है (क्योंकि) हरेक जीव तेरा ही दिया खाता है।
हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी महिमा करता है, उसको सब कुछ प्राप्त होता है, क्योंकि उस पर माया-रहित प्रभु की कृपा होती है। हे हरि! जिसने तेरे नाम (रूपी) धन असबाब लादा है वही शाहूकार है और सही मायने में वणजारा व्यापारी है।
हे संत जनो! जिस प्रभु ने माया के मोह का टीला (मन में से) गिरा के निकाल दिया है, तुम सभी उसी की महिमा करो।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक ॥ कबीरा मरता मरता जगु मुआ मरि भि न जानै कोइ ॥ ऐसी मरनी जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥१॥

मूलम्

सलोक ॥ कबीरा मरता मरता जगु मुआ मरि भि न जानै कोइ ॥ ऐसी मरनी जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी के सलोकों में देखें सलोक नंबर 29।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! मरता मरता (वैसे तो) सारा संसार ही मर रहा है, पर किसी ने भी (सच्चे) मरने की विधि नहीं सीखी। जो मनुष्य इस तरह की सच्ची मौत मरता है, उसे फिर मरना नहीं पड़ता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ किआ जाणा किव मरहगे कैसा मरणा होइ ॥ जे करि साहिबु मनहु न वीसरै ता सहिला मरणा होइ ॥ मरणै ते जगतु डरै जीविआ लोड़ै सभु कोइ ॥ गुर परसादी जीवतु मरै हुकमै बूझै सोइ ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरै ता सद जीवणु होइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ किआ जाणा किव मरहगे कैसा मरणा होइ ॥ जे करि साहिबु मनहु न वीसरै ता सहिला मरणा होइ ॥ मरणै ते जगतु डरै जीविआ लोड़ै सभु कोइ ॥ गुर परसादी जीवतु मरै हुकमै बूझै सोइ ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरै ता सद जीवणु होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मुझे तो ये पता नहीं कि (सच्चा) मरना क्या होता है और हमें कैसे मरना चाहिए। अगर मालिक मन से ना विसरे, तो मरना आसान हो जाता है (भाव, मनुष्य आराम से ही माया के प्रभाव से बच जाता है)।
मरने से सारा संसार डरता है, हर कोई जीना चाहता है। गुरु की कृपा से जो मनुष्य जीवित ही मरता है, वह हरि की रजा को समझता है। हे नानक! इस तरह की मौत जो मरता है, (भाव, जो मनुष्य प्रभु की रजा में चलता है) उसे अटल जीवन मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जा आपि क्रिपालु होवै हरि सुआमी ता आपणां नाउ हरि आपि जपावै ॥ आपे सतिगुरु मेलि सुखु देवै आपणां सेवकु आपि हरि भावै ॥ आपणिआ सेवका की आपि पैज रखै आपणिआ भगता की पैरी पावै ॥ धरम राइ है हरि का कीआ हरि जन सेवक नेड़ि न आवै ॥ जो हरि का पिआरा सो सभना का पिआरा होर केती झखि झखि आवै जावै ॥१७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जा आपि क्रिपालु होवै हरि सुआमी ता आपणां नाउ हरि आपि जपावै ॥ आपे सतिगुरु मेलि सुखु देवै आपणां सेवकु आपि हरि भावै ॥ आपणिआ सेवका की आपि पैज रखै आपणिआ भगता की पैरी पावै ॥ धरम राइ है हरि का कीआ हरि जन सेवक नेड़ि न आवै ॥ जो हरि का पिआरा सो सभना का पिआरा होर केती झखि झखि आवै जावै ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जब हरि स्वामी खुद मेहरबान होता है तो अपना नाम (जीवों से) आप जपाता है। अपना सेवक हरि को प्यारा लगता है, उसको खुद ही सतिगुरु मिल के सुख देता है। प्रभु अपने सेवकों की आप इज्जत रखता है, (संसार को) अपने भक्तों के चरणों में ला डालता है, (और तो और) धर्म राज जो प्रभु का ही बनाया हुआ है, प्रभु के सेवक के नजदीक नहीं आता।
(बात यहाँ पे खत्म होती है कि) जो मनुष्य प्रभु का प्यारा है (भाव, उसे सब लोग प्यार करते हैं); (और बाकी) और बहुत सारी सृष्टि खप-खप के पैदा होती है मरती है।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ रामु रामु करता सभु जगु फिरै रामु न पाइआ जाइ ॥ अगमु अगोचरु अति वडा अतुलु न तुलिआ जाइ ॥ कीमति किनै न पाईआ कितै न लइआ जाइ ॥ गुर कै सबदि भेदिआ इन बिधि वसिआ मनि आइ ॥ नानक आपि अमेउ है गुर किरपा ते रहिआ समाइ ॥ आपे मिलिआ मिलि रहिआ आपे मिलिआ आइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ रामु रामु करता सभु जगु फिरै रामु न पाइआ जाइ ॥ अगमु अगोचरु अति वडा अतुलु न तुलिआ जाइ ॥ कीमति किनै न पाईआ कितै न लइआ जाइ ॥ गुर कै सबदि भेदिआ इन बिधि वसिआ मनि आइ ॥ नानक आपि अमेउ है गुर किरपा ते रहिआ समाइ ॥ आपे मिलिआ मिलि रहिआ आपे मिलिआ आइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगोचरु = अरुगो+चर; इन्द्रियों की पहुँच से परे। अतुल = अंदाजे से बाहर। कितै = किसी जगह से। भेदिआ = भेदा हुआ। इनबिधि = इस तरह। अमेउ = जो गिना ना जा सके। आपे = खुद ही।1।
अर्थ: सारा संसार (मुँह से) ‘राम राम’ कहता फिरता है पर इस तरह ‘राम’ पाया नहीं जाता; क्योंकि वह अगम्य (पहुँच से परे) है इन्द्रियों की पहुँच से परे है, बहुत बड़ा है अतुल है और तोला नहीं जा सकता, कोई भी उसकी कीमत नहीं लगा सका (भाव, उसकी प्राप्ति का मूल्य किसी को नहीं पता) और किसी जगह से (मूल्य दे के) खरीदा भी नहीं जाता।
(पर हाँ, एक तरीका है) अगर गुरु के शब्द से (मन) भेदित हो जाए तो इस तरह प्रभु मन में आ बसता है। हे नानक! प्रभु खुद तो गिनती से परे है, पर सतिगुरु की कृपा से (ये पता मिल जाता है कि वह सारी सृष्टि में) व्यापक है; प्रभु खुद ही हर जगह मिला हुआ है और (जीव के हृदय में) खुद ही आ के प्रगट होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ ए मन इहु धनु नामु है जितु सदा सदा सुखु होइ ॥ तोटा मूलि न आवई लाहा सद ही होइ ॥ खाधै खरचिऐ तोटि न आवई सदा सदा ओहु देइ ॥ सहसा मूलि न होवई हाणत कदे न होइ ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ ए मन इहु धनु नामु है जितु सदा सदा सुखु होइ ॥ तोटा मूलि न आवई लाहा सद ही होइ ॥ खाधै खरचिऐ तोटि न आवई सदा सदा ओहु देइ ॥ सहसा मूलि न होवई हाणत कदे न होइ ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस से। तोटि = घटा। सहसा = संशय। हाणत = शर्मिंदगी।2।
अर्थ: हे मन! जिस धन से सदा ही सुख होता है वह धन ‘नाम’ है, इस धन को बिल्कुल घाटा नहीं, सदा लाभ ही लाभ है, खाने से और खर्चने से भी घाटा नहीं पड़ता, (क्योंकि) वह प्रभु सदा ही (ये धन) दिए जाता है। (यहाँ) कभी (इस धन संबंधी) कोई चिन्ता नहीं होती और (आगे दरगाह में) शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती।
(पर) हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है, उसे सतिगुरु के सन्मुख होने से (ये धन) मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे सभ घट अंदरे आपे ही बाहरि ॥ आपे गुपतु वरतदा आपे ही जाहरि ॥ जुग छतीह गुबारु करि वरतिआ सुंनाहरि ॥ ओथै वेद पुरान न सासता आपे हरि नरहरि ॥ बैठा ताड़ी लाइ आपि सभ दू ही बाहरि ॥ आपणी मिति आपि जाणदा आपे ही गउहरु ॥१८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे सभ घट अंदरे आपे ही बाहरि ॥ आपे गुपतु वरतदा आपे ही जाहरि ॥ जुग छतीह गुबारु करि वरतिआ सुंनाहरि ॥ ओथै वेद पुरान न सासता आपे हरि नरहरि ॥ बैठा ताड़ी लाइ आपि सभ दू ही बाहरि ॥ आपणी मिति आपि जाणदा आपे ही गउहरु ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घट = शरीर। गुपतु = छुपा हुआ। वरतदा = मौजूद है। जाहरि = प्रत्यक्ष, सामने। जुग छतीह = 36 युग, बेअंत समय। सुंनाहरि = शून्य अवस्था में। नरहरि = मनुष्यों का मालिक। मिति = माप, अंदाजा। आपणी मिति = अपने आप की पैमायश। गउहरु = गहरा समुंदर।18।
अर्थ: प्रभु खुद ही सारे शरीरों में है और खुद ही सबसे अलग है, खुद ही (सब में) छुपा हुआ है और प्रत्यक्ष (दिखाई दे रहा है)।
प्रभु खुद ही कई युग अंधेरा करके शून्य (अफुर) अवस्था में बरतता है; उस शून्य अवस्था के समय जीवों का मालिक प्रभु खुद ही खुद होता है; वेद पुरान शास्त्र आदि कोई भी धर्म पुस्तक तब नहीं होती। (जीवों को रच के) सब से अलग भी समाधि लगा के बैठा हुआ है (भाव, माया की रचना रच के भी इस माया के प्रभाव से स्वयं अलग व निर्लिप है)।
प्रभु स्वयं ही (जैसे) गहरा समुंदर है, वह कितना बड़ा है; ये बात वह स्वयं ही जानता है।18।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ हउमै विचि जगतु मुआ मरदो मरदा जाइ ॥ जिचरु विचि दमु है तिचरु न चेतई कि करेगु अगै जाइ ॥ गिआनी होइ सु चेतंनु होइ अगिआनी अंधु कमाइ ॥ नानक एथै कमावै सो मिलै अगै पाए जाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ हउमै विचि जगतु मुआ मरदो मरदा जाइ ॥ जिचरु विचि दमु है तिचरु न चेतई कि करेगु अगै जाइ ॥ गिआनी होइ सु चेतंनु होइ अगिआनी अंधु कमाइ ॥ नानक एथै कमावै सो मिलै अगै पाए जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करेगु = करेगा। गिआनी = समझदार। अगिआनी = मूर्ख। अंधु = अंधोंवाला काम।1।
अर्थ: संसार अहंकार में मरा पड़ा है, नित्य (नीचे ही नीचे) गरकता ही है। जब तक शरीर में दम है, प्रभु को याद नहीं करता; (संसारी जीव अहंकार में रह के कभी नहीं सोचता कि) आगे दरगाह में जा के क्या हाल होगा।
जो मनुष्य दयावान होता है, वह सचेत रहता है और अज्ञानी मनुष्य अज्ञानता का ही काम करता है। हे नानक! मानव जनम में जो कुछ मनुष्य कमाई करता है, वही मिलती है, परलोक में जा के भी वही मिलती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ धुरि खसमै का हुकमु पइआ विणु सतिगुर चेतिआ न जाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ अंतरि रवि रहिआ सदा रहिआ लिव लाइ ॥ दमि दमि सदा समालदा दमु न बिरथा जाइ ॥ जनम मरन का भउ गइआ जीवन पदवी पाइ ॥ नानक इहु मरतबा तिस नो देइ जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ धुरि खसमै का हुकमु पइआ विणु सतिगुर चेतिआ न जाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ अंतरि रवि रहिआ सदा रहिआ लिव लाइ ॥ दमि दमि सदा समालदा दमु न बिरथा जाइ ॥ जनम मरन का भउ गइआ जीवन पदवी पाइ ॥ नानक इहु मरतबा तिस नो देइ जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दंमु = स्वास। बिरथा = व्यर्थ, खाली। पदवी = दर्जा, दर्जा।2।
अर्थ: धुर से ही प्रभु का हुक्म चला आ रहा है कि सतिगुरु के बिना प्रभु का स्मरण नहीं किया जा सकता; सतिगुरु के मिलने पर प्रभु मनुष्य के हृदय में बस जाता है और मनुष्य सदा उसमें तवज्जो जोड़े रखता है; श्वास-श्वास उसको चेता करता है, एक भी श्वास व्यर्थ नहीं जाता; (इस तरह उसका) पैदा होने मरने का डर खत्म हो जाता है और उसको (असल मानव) जीवन का दर्जा मिल जाता है।
हे नानक! प्रभु ये मर्तबा (भाव, जीवन पदवी) उस मनुष्य को देता है जिस पर अपनी रजा में मेहर करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे दानां बीनिआ आपे परधानां ॥ आपे रूप दिखालदा आपे लाइ धिआनां ॥ आपे मोनी वरतदा आपे कथै गिआनां ॥ कउड़ा किसै न लगई सभना ही भाना ॥ उसतति बरनि न सकीऐ सद सद कुरबाना ॥१९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे दानां बीनिआ आपे परधानां ॥ आपे रूप दिखालदा आपे लाइ धिआनां ॥ आपे मोनी वरतदा आपे कथै गिआनां ॥ कउड़ा किसै न लगई सभना ही भाना ॥ उसतति बरनि न सकीऐ सद सद कुरबाना ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: प्रभु खुद ही समझदार है, खुद ही चतुर है और खुद ही नायक है, खुद ही (अपने) रूप दिखलाता है और खुद ही तवज्जो जोड़ता है, खुद ही मौनधारी है और खुद ही ज्ञान की बातें करने वाला है, किसी को कड़वा नहीं लगता (किसी को किसी रंग में, किसी को किसी रंग में) सभी को प्यारा लगता है। ऐसे प्रभु से मैं सदके हूँ, उसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः १ ॥ कली अंदरि नानका जिंनां दा अउतारु ॥ पुतु जिनूरा धीअ जिंनूरी जोरू जिंना दा सिकदारु ॥१॥

मूलम्

सलोक मः १ ॥ कली अंदरि नानका जिंनां दा अउतारु ॥ पुतु जिनूरा धीअ जिंनूरी जोरू जिंना दा सिकदारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिंन = भूत। अउतारु = जनम। जिनूरा = छोटा जिंन, भूतना। जिंनूरी = भूतनी।1।
अर्थ: हे नानक! कलियुग में (विकारी जीवन में) रहने वाले (मनुष्य नहीं) भूतने पैदा हुए है, पुत्र भूतना, बेटी भूतनी और स्त्री (सारे) भूतनियों की सिरदार है (भाव, नाम से वंचित सब जीव भूतने हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ हिंदू मूले भूले अखुटी जांही ॥ नारदि कहिआ सि पूज करांही ॥ अंधे गुंगे अंध अंधारु ॥ पाथरु ले पूजहि मुगध गवार ॥ ओहि जा आपि डुबे तुम कहा तरणहारु ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ हिंदू मूले भूले अखुटी जांही ॥ नारदि कहिआ सि पूज करांही ॥ अंधे गुंगे अंध अंधारु ॥ पाथरु ले पूजहि मुगध गवार ॥ ओहि जा आपि डुबे तुम कहा तरणहारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूले = बिल्कुल ही। अखुटी जांही = बिछुड़ते जा रहे हैं। नारदि = नारद ने। गवार = उजड्ड। ओहि = वह पत्थर। कहा = कैसे।2।
अर्थ: हिन्दू बिल्कुल ही भटके हुए टूटते जा रहे हैं, जो नारद ने कहा वही पूजा करते हैं, इन अंधे-गूंगों के लिए घुप-अंधेरा छाया हुआ है (भाव, ना ये सही रास्ता देख रहे हें ना ही मुँह से प्रभु के गुण गाते हैं), ये मूर्ख गवार पत्थर ले के पूज रहे हैं।
(हे भाई! जिस पत्थरों को पूजते हो) जब वे खुद (पानी में) डूब जाते हैं (तो उनको पूज के) तुम (संसार-समुंदर से) कैसे तैर सकते हो?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सभु किहु तेरै वसि है तू सचा साहु ॥ भगत रते रंगि एक कै पूरा वेसाहु ॥ अम्रितु भोजनु नामु हरि रजि रजि जन खाहु ॥ सभि पदारथ पाईअनि सिमरणु सचु लाहु ॥ संत पिआरे पारब्रहम नानक हरि अगम अगाहु ॥२०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सभु किहु तेरै वसि है तू सचा साहु ॥ भगत रते रंगि एक कै पूरा वेसाहु ॥ अम्रितु भोजनु नामु हरि रजि रजि जन खाहु ॥ सभि पदारथ पाईअनि सिमरणु सचु लाहु ॥ संत पिआरे पारब्रहम नानक हरि अगम अगाहु ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु किहु = सब कुछ। सचा = सदा रहने वाला। रंगि = रंग में। वेसाहु = भरोसा। पाईअनि = मिलते हैं। लाहु = लाभ।20।
अर्थ: हे प्रभु! तू सच्चा शाहु है और सब कुछ तेरे अख्तियार में है। भजन करने वाले दास एक हरि के (नाम के) रंग में रंगे हुए हैं और उस पर उन्हें पूरा भरोसा है, वह दास प्रभु का नाम (रूपी) अमर करने वाला भोजन जी भर के खाते हैं, सारे पदार्थ उनको मिलते हैं, वह नाम स्मरण (रूपी) सच्चा लाभ कमाते हैं।
हे नानक! (बात इस तरह खत्म होती है कि) जो पारब्रहम पहुँच से परे है और अगाध है, भजन करने वाले दास उसके प्यारे हैं।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ सभु किछु हुकमे आवदा सभु किछु हुकमे जाइ ॥ जे को मूरखु आपहु जाणै अंधा अंधु कमाइ ॥ नानक हुकमु को गुरमुखि बुझै जिस नो किरपा करे रजाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ सभु किछु हुकमे आवदा सभु किछु हुकमे जाइ ॥ जे को मूरखु आपहु जाणै अंधा अंधु कमाइ ॥ नानक हुकमु को गुरमुखि बुझै जिस नो किरपा करे रजाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हरेक चीज हुक्म में ही आती है और हुक्म में ही चली जाती है। जो कोई मूर्ख अपने आप को (कुछ बड़ा) समझ लेता है, वह अंधा अंधों वाला काम करता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर अपनी रजा में प्रभु कृपा करता है, वह कोई विरला गुरमुख हुक्म की पहचान करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सो जोगी जुगति सो पाए जिस नो गुरमुखि नामु परापति होइ ॥ तिसु जोगी की नगरी सभु को वसै भेखी जोगु न होइ ॥ नानक ऐसा विरला को जोगी जिसु घटि परगटु होइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सो जोगी जुगति सो पाए जिस नो गुरमुखि नामु परापति होइ ॥ तिसु जोगी की नगरी सभु को वसै भेखी जोगु न होइ ॥ नानक ऐसा विरला को जोगी जिसु घटि परगटु होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु के सन्मुख हो के नाम की प्राप्ति होती है, वह सच्चा योगी है, और (जोग की) विधि उसको आई है, उस जोगी के शरीर (रूप) नगर में हरेक (गुण) बसता है, (निरे) भेस से (ईश्वर से) मेल नहीं होता। हे नानक! जिसके हृदय में प्रभु प्रत्यक्ष हो जाता है, इस तरह का कोई दुर्लभ जोगी होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे जंत उपाइअनु आपे आधारु ॥ आपे सूखमु भालीऐ आपे पासारु ॥ आपि इकाती होइ रहै आपे वड परवारु ॥ नानकु मंगै दानु हरि संता रेनारु ॥ होरु दातारु न सुझई तू देवणहारु ॥२१॥१॥ सुधु ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे जंत उपाइअनु आपे आधारु ॥ आपे सूखमु भालीऐ आपे पासारु ॥ आपि इकाती होइ रहै आपे वड परवारु ॥ नानकु मंगै दानु हरि संता रेनारु ॥ होरु दातारु न सुझई तू देवणहारु ॥२१॥१॥ सुधु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंतु = सारे जीव। उपाइअनु = उसने पैदा किए हैं। आधारु = आसरा। सूखमु = सूक्षम, ना दिखने वाला। रैनारु = (चरणों की) धूल।21।
अर्थ: उसने स्वयं ही जीवों को पैदा किया है और खुद ही (उनका) आसरा (बनता) है, खुद ही हरि सूक्षम रूप में है और खुद ही (संसार का) परपंच (रूप) है। खुद ही अकेला हो रहता है और खुद ही बड़े परिवार वाला है।
हे हरि! नानक तेरे संत-जनों की धूल (रूपी) दान माँगता है, तू ही देने वाला है, कोई और दाता मुझे नजर नहीं आता।21।1। सुधु।

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