विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु देवगंधारी महला ४ घरु १ ॥
मूलम्
रागु देवगंधारी महला ४ घरु १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक जन बने ठाकुर लिव लागे ॥ जो तुमरा जसु कहते गुरमति तिन मुख भाग सभागे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सेवक जन बने ठाकुर लिव लागे ॥ जो तुमरा जसु कहते गुरमति तिन मुख भाग सभागे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिव = लगन, प्रेम। जसु = महिमा। गुरमति = गुरु की मति पर चल के। सभागे = सौभाग्य वाले।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों की प्रीति मालिक प्रभु (के चरणों) से लग जाती है वह मालिक के (सच्चे) सेवक, (सच्चे) दास बन जाते हैं। (हे प्रभु!) जो मनुष्य गुरु की मति पर चल के तेरी महिमा करते हैं, उनके मुँह सुंदर भाग्यों वाले हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टूटे माइआ के बंधन फाहे हरि राम नाम लिव लागे ॥ हमरा मनु मोहिओ गुर मोहनि हम बिसम भई मुखि लागे ॥१॥
मूलम्
टूटे माइआ के बंधन फाहे हरि राम नाम लिव लागे ॥ हमरा मनु मोहिओ गुर मोहनि हम बिसम भई मुखि लागे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहनि = मोहन ने। बिसम = हैरान। मुखि लागे = मुखि लागि, मुंह लग के, दर्शन कर के।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम से जिस मनुष्यों की लगन लग जाती है, उन के माया (के मोह) के बंधन टूट जाते हैं, स्वतंत्र हो जाते हैं। (हे सखी! मन को) मोह लेने वाले गुरु ने मेरा मन अपने प्यार में बाँध लिया है, उस सोहाने गुरु के दर्शन करके मैं मस्त हो गई हूँ। (इस वास्ते माया के मोह के रस्से मेरे पास नहीं फटकते)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगली रैणि सोई अंधिआरी गुर किंचत किरपा जागे ॥ जन नानक के प्रभ सुंदर सुआमी मोहि तुम सरि अवरु न लागे ॥२॥१॥
मूलम्
सगली रैणि सोई अंधिआरी गुर किंचत किरपा जागे ॥ जन नानक के प्रभ सुंदर सुआमी मोहि तुम सरि अवरु न लागे ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = (जिंदगी की) रात। सोई = सोई रही। किंचत = थोड़ी सी ही। गुर किरपा = गुरु की कृपा से। मोहि = मुझे। सरि = जैसा, बराबर। अवरु = कोई और। लागे = लगता, दिखता।2।
अर्थ: (हे सखी!) मैं (जिंदगी की) सारी रात माया के मोह के अंधेरे में सोई रही (आत्मिक जीवन के बारे में बेसुध रही), अब गुरु की थोड़ी सी कृपा से मैं जाग पड़ी हूँ।
हे दास नानक के सुंदर मालिक प्रभु! मुझे (अब) तेरे जैसा कोई और नहीं दिखता।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ मेरो सुंदरु कहहु मिलै कितु गली ॥ हरि के संत बतावहु मारगु हम पीछै लागि चली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ मेरो सुंदरु कहहु मिलै कितु गली ॥ हरि के संत बतावहु मारगु हम पीछै लागि चली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहहु = बताओ। कितु = किस में? कितु गली = किस गली में? संत = हे संत जनो! मारगु = रास्ता। पीछै = (तुम्हारे) पीछे पीछे। चली = मैं चलूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि के संत जनो! मुझे बताओ, मेरा सोहाना प्रीतम किस गली में मिलेगा? मुझे (उस गली का) रास्ता बताओ (ता कि) मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे चली चलूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रिअ के बचन सुखाने हीअरै इह चाल बनी है भली ॥ लटुरी मधुरी ठाकुर भाई ओह सुंदरि हरि ढुलि मिली ॥१॥
मूलम्
प्रिअ के बचन सुखाने हीअरै इह चाल बनी है भली ॥ लटुरी मधुरी ठाकुर भाई ओह सुंदरि हरि ढुलि मिली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रिअ के = प्यारे के। सुखाने = मीठे लग रहे हैं। हीअरै = हृदय में। चालु = (जीवन) चाल, जुगति। लटुरी = लूटने वाली, बेकाबू हुई। मधुरी = मदरी, छोटी। ठाकुर भाई = ठाकुर को भा गई। ओह सुंदरि = वह सुंदर जीव-स्त्री। ढुलि = डुल के, बह के, फिसल के, झुक के, विनम्रता सहित।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘सुंदर’ पुलिंग है, ‘सुंदरि’ स्त्रीलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे जिज्ञासु जीव-स्त्री!) जिसके हृदय में प्यारे प्रभु की महिमा के वचन सुखद बन जाते हैं, जिसको जीवन की चाल अच्छी लगने लग पड़ती है, वह (पहले चाहे) लटोर (थी) मदरी (थी, वह) मालिक प्रभु को प्यारी लगने लग पड़ती है, वह सुंदर जीव-स्त्री विनिम्रता धार के प्रभु चरणों में मिल जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको प्रिउ सखीआ सभ प्रिअ की जो भावै पिर सा भली ॥ नानकु गरीबु किआ करै बिचारा हरि भावै तितु राहि चली ॥२॥२॥
मूलम्
एको प्रिउ सखीआ सभ प्रिअ की जो भावै पिर सा भली ॥ नानकु गरीबु किआ करै बिचारा हरि भावै तितु राहि चली ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भावै पिर = पिर को पसंद आ जाए। सा = वह जीव-स्त्री। तितु = उस में। तितु राहि = उस राह पर।2।
अर्थ: (हे सखी!) एक परमात्मा ही सब का पति है, सारी सखियां (जीव-स्त्रीयां) उस प्यारे की ही हैं, पर जो पति-प्रभु को पसंद आ जाती है वह अच्छी बन जाती है।
बिचारा गरीब नानक (उसके रास्ते पर चलने के लिए) क्या कर सकता है? जो जीव-स्त्री हरि-प्रभु को अच्छी लग जाए, वही उस रास्ते पर चल सकती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ मेरे मन मुखि हरि हरि हरि बोलीऐ ॥ गुरमुखि रंगि चलूलै राती हरि प्रेम भीनी चोलीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ मेरे मन मुखि हरि हरि हरि बोलीऐ ॥ गुरमुखि रंगि चलूलै राती हरि प्रेम भीनी चोलीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! मुखि = मुँह से। बोलीऐ = बोलना चाहिए। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। चलूले रंगि = गाढ़े रंग में। राती = रंगी जाती है। चोलीऐ = चोली, हृदय। भीनी = भीग जाती है, तर हो जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! मुँह से सदा परमात्मा का नाम उचारना चाहिए। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जो जीव-स्त्री (प्रभु-प्रेम के) गाढ़े रंग में रंगी जाती है उसकी हृदय-चोली प्रभु-प्रेम से तरो-तर रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ फिरउ दिवानी आवल बावल तिसु कारणि हरि ढोलीऐ ॥ कोई मेलै मेरा प्रीतमु पिआरा हम तिस की गुल गोलीऐ ॥१॥
मूलम्
हउ फिरउ दिवानी आवल बावल तिसु कारणि हरि ढोलीऐ ॥ कोई मेलै मेरा प्रीतमु पिआरा हम तिस की गुल गोलीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। फिरउ = फिरती हूँ। दिवानी = कमली। आवल बावल = बावली, झल्ली। कारणि = (मिलने के) वास्ते। ढोलीऐ = ढोला, प्यारा।गुल गोलीऐ = गोलियों की गोली। गोली = नौकरानी, दासी, सेवादारनी।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मैं उस प्यारे हरि-प्रभु को मिलने के वास्ते कमली हुई फिरती हूँ, झल्ली हुई फिरती हूँ। अगर कोई मुझे मेरा प्यारा प्रभु-प्रीतम मिला दे, तो मैं उसकी दासियों की दासी (बनने को तैयार हूँ)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु पुरखु मनावहु अपुना हरि अम्रितु पी झोलीऐ ॥ गुर प्रसादि जन नानक पाइआ हरि लाधा देह टोलीऐ ॥२॥३॥
मूलम्
सतिगुरु पुरखु मनावहु अपुना हरि अम्रितु पी झोलीऐ ॥ गुर प्रसादि जन नानक पाइआ हरि लाधा देह टोलीऐ ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। झोलीऐ = झोल के, हिला के, प्रेम से। प्रसादि = कृपा से। देहि = शरीर, हृदय। टोलीऐ = टोल के, तलाश के।2।
अर्थ: (हे जिज्ञासु जीव-स्त्री!) तू अपने गुरु सत्पुरख को प्रसन्न कर ले (गुरु के बताए हुए राह पर चलना शुरू कर, और उसका दिया हुआ) आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल प्रेम से पीती रह (यही तरीका है ढोल-हरि को मिलने का)।
हे दास नानक! गुरु की कृपा से ही परमात्मा मिलता है, और मिलता है अपने हृदय में ही तलाश करने से।2।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ अब हम चली ठाकुर पहि हारि ॥ जब हम सरणि प्रभू की आई राखु प्रभू भावै मारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ अब हम चली ठाकुर पहि हारि ॥ जब हम सरणि प्रभू की आई राखु प्रभू भावै मारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब। पहि = पास। हारि = हार के, थक के, और सारे आसरे छोड़ के। जब = अब जबकि। प्रभु की सरणि = हे प्रभु! तेरी शरण। राखु = बचा के।1। रहाउ।
अर्थ: अब मैं और सारे आसरे छोड़ के मालिक प्रभु की शरण आ गई हूँ। जब कि अब, हे प्रभु! मैं तेरी शरण आ गई हूँ, चाहे मुझे रख चाहे मार (जैसी तेरी रजा है मुझे उसी हाल रख)।1। रहाउ।
[[0528]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकन की चतुराई उपमा ते बैसंतरि जारि ॥ कोई भला कहउ भावै बुरा कहउ हम तनु दीओ है ढारि ॥१॥
मूलम्
लोकन की चतुराई उपमा ते बैसंतरि जारि ॥ कोई भला कहउ भावै बुरा कहउ हम तनु दीओ है ढारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोकन की = लोगों वाली। उपमा = बड़ाई। ते = वे सारी। बैसंतरि = आग में। जारि = जला दी हैं। कहउ = बेशक कहे। ढारि दीओ = ढाल दिया है, भेटा कर दी है, देह अध्यास दूर कर दिया है, शारीरिक मोह छोड़ दिया है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कहउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एक वचन। ये ध्यान रखना कि ये शब्द यहाँ ‘वर्तमान काल, उत्तम पुरुष एक वचन’ नहीं है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: दुनिया वाली समझदारी, और दुनियावी बड़प्पन-इन्हें मैंने आग में जला दिया है। चाहे मुझे कोई अच्छा कहे चाहे कोई बुरा कहे, मैंने तो अपना शरीर (ठाकुर के चरणों में) भेट कर दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो आवत सरणि ठाकुर प्रभु तुमरी तिसु राखहु किरपा धारि ॥ जन नानक सरणि तुमारी हरि जीउ राखहु लाज मुरारि ॥२॥४॥
मूलम्
जो आवत सरणि ठाकुर प्रभु तुमरी तिसु राखहु किरपा धारि ॥ जन नानक सरणि तुमारी हरि जीउ राखहु लाज मुरारि ॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर प्रभ = हे ठाकुर! हे प्रभु! राखहु = तू रखता है। धारि = धार के। मुरारि = हे मुरारी!।2।
अर्थ: हे मालिक! हे प्रभु! जो भी कोई (भाग्यशाली) तेरी शरण आ पड़ता है, तू मेहर करके उसकी रक्षा करता है। हे दास नानक! (कह:) हे हरि जी! हे मुरारी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी इज्जत रख।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ हरि गुण गावै हउ तिसु बलिहारी ॥ देखि देखि जीवा साध गुर दरसनु जिसु हिरदै नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ हरि गुण गावै हउ तिसु बलिहारी ॥ देखि देखि जीवा साध गुर दरसनु जिसु हिरदै नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। देखि = देख के। जीवा = मैं जीता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। जिसु हिरदै = जिस हृदय में। नामु मुरारी = मुरारी का नाम (मुर+अरि, मुर = दैत्य का वैरी, परमात्मा)।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उस (गुरु, साधु) से कुर्बान जाता हूँ जो (हर समय) परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है। उस गुरु का साधु के दर्शन कर करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है जिसके हृदय में (सदा) परमात्मा का नाम बसता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम पवित्र पावन पुरख प्रभ सुआमी हम किउ करि मिलह जूठारी ॥ हमरै जीइ होरु मुखि होरु होत है हम करमहीण कूड़िआरी ॥१॥
मूलम्
तुम पवित्र पावन पुरख प्रभ सुआमी हम किउ करि मिलह जूठारी ॥ हमरै जीइ होरु मुखि होरु होत है हम करमहीण कूड़िआरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पावन = पवित्र। पुरख = सर्व व्यापक। किउ करि = कैसे? मिलह = हम मिलें। जूठारी = मलीन। जीइ = जी में, दिल में। मुखि = मुँह में। करमहीण = बद्किस्मत। कूड़िआरी = झूठ के बंजारे।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीइ’ शब्द ‘जीउ’ से बना अधिकरण कारक, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे स्वामी! हे सर्व-व्यापक प्रभु! तू सदा ही पवित्र है, पर हम मैले जीवन वाले हैं, हम तुझे कैसे मिल सकते हैं? हमारे दिल में कुछ और होता है, हमारे मुँह पर कुछ और होता है (मुँह से हम कुछ और कहते हैं), हम बुरे भाग्यों वाले हैं, हम सदा झूठी माया के ग्राहक बने रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरी मुद्र नामु हरि सुआमी रिद अंतरि दुसट दुसटारी ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरणि तुम्हारी ॥२॥५॥
मूलम्
हमरी मुद्र नामु हरि सुआमी रिद अंतरि दुसट दुसटारी ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरणि तुम्हारी ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुद्र = मोहर, चिन्ह, निशान, भेस, दिखावा। रिद = हृदय। दुसट = बुरा, बुरे विचार।2।
अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! तेरा नाम हमारा दिखावा है (हम दिखावे के तौर पर जपते रहते हैं), पर हमारे हृदय में सदा बुरे विचार भरे रहते हैं। हे दास नानक! (कह:) हे स्वामी! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, जैसे भी हो सके मुझे (इस पाखण्ड से) बचा ले।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ हरि के नाम बिना सुंदरि है नकटी ॥ जिउ बेसुआ के घरि पूतु जमतु है तिसु नामु परिओ है ध्रकटी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ हरि के नाम बिना सुंदरि है नकटी ॥ जिउ बेसुआ के घरि पूतु जमतु है तिसु नामु परिओ है ध्रकटी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंदरि = (स्त्री-लिंग) सुंदर स्त्री। नकटी = नाक कटी, बद्शकल। बेसुआ = वेश्वा। घरि = घर में। जमतु है = पैदा हो जाता है। परिओ है = पड़ जाता है। ध्रकटी = धरकट स्त्री का पुत्र, व्यभचारिन का पुत्र, हरामी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना ये सुंदर (मानव) काया बद्शकल ही जानो। जैसे अगर किसी वैश्या के घर पुत्र पैदा हो जाए, तो उसका नाम हरामी पड़ जाता है (चाहे वह शकल से सुंदर ही क्यों ना हो)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कै हिरदै नाहि हरि सुआमी ते बिगड़ रूप बेरकटी ॥ जिउ निगुरा बहु बाता जाणै ओहु हरि दरगह है भ्रसटी ॥१॥
मूलम्
जिन कै हिरदै नाहि हरि सुआमी ते बिगड़ रूप बेरकटी ॥ जिउ निगुरा बहु बाता जाणै ओहु हरि दरगह है भ्रसटी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। सुआमी = मालिक प्रभु। ते = वह लोग। बिगड़ रूप = बिगड़ी हुई शकल वाले, बद्शकल। बेरकटी = (रकट = रक्त, लहू) बिगड़े हुए खून वाले, कोढ़ी। भ्रसटी = भ्रष्ट, विकारों में गिरे हुए, गंदे आचरण वाला।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में मालिक प्रभु की (याद) नहीं, वे मनुष्य बद्सूरत ही हैं; वे कोढ़ी हैं। जैसे कोई गुरु से बेमुख मनुष्य (चाहे चतुराई की) बहुत सारी बातें करनी जानता हो (लोगों को अपनी बातों से रिझा ले, पर) परमात्मा की दरगाह में भ्रष्ट ही (गिना जाता) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ दइआलु होआ मेरा सुआमी तिना साध जना पग चकटी ॥ नानक पतित पवित मिलि संगति गुर सतिगुर पाछै छुकटी ॥२॥६॥ छका १
मूलम्
जिन कउ दइआलु होआ मेरा सुआमी तिना साध जना पग चकटी ॥ नानक पतित पवित मिलि संगति गुर सतिगुर पाछै छुकटी ॥२॥६॥ छका १
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पग = पैर। चकटी = चट्टे, परसे। पतित = विकारों में गिरे हुए। मिलि = मिल के। छुकटी = विकारों से बच जाते हैं।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जिस मनुष्यों पर प्यारा प्रभु मेहरवान होता है वे मनुष्य संत जनों के पैर परसते रहते हैं। गुरु की संगति में मिल के विकारी मनुष्य भी अच्छे आचरण वाले बन जाते हैं, गुरु के डाले हुए मार्ग पर चल के वे विकारों के पँजे में से बच निकलते हैं।2।9। छका १।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘छका/छक्का’ छह शब्दों का संग्रह।
नोट: शीर्षक में सिर्फ पहले शब्द के साथ ही शब्द ‘महला ४’ बरता गया है। फिर कहीं नहीं। आखिरी शब्द ‘छका १’ ने ही काम चला दिया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई गुर चरणी चितु लाईऐ ॥ प्रभु होइ क्रिपालु कमलु परगासे सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माई गुर चरणी चितु लाईऐ ॥ प्रभु होइ क्रिपालु कमलु परगासे सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! लाईऐ = जोड़ना चाहिए। कमलु = कमल फूल। परगासे = खिल उठता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ना चाहिए। (गुरु के माध्यम से जब) परमात्मा दयावान होता है, तो (हृदय का) कमल-पुष्प खिल उठता है। हे माँ! सदा (गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि एको बाहरि एको सभ महि एकु समाईऐ ॥ घटि अवघटि रविआ सभ ठाई हरि पूरन ब्रहमु दिखाईऐ ॥१॥
मूलम्
अंतरि एको बाहरि एको सभ महि एकु समाईऐ ॥ घटि अवघटि रविआ सभ ठाई हरि पूरन ब्रहमु दिखाईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = (शरीरों के) अंदर। सभ महि = सारी सृष्टि में। घटि अवघटि = हरेक शरीर में। सभ ठाई = सभ जगहों में। दिखाईऐ = दिखाई देता है।1।
अर्थ: हे माँ! शरीरों के अंदर एक परमात्मा ही बस रहा है, बाहर सारे जगत पसारे में भी एक परमात्मा ही बस रहा है, सारी सृष्टि में वही एक व्यापक है। हरेक शरीर में हर जगह सर्व-व्यापक परमात्मा ही (बसता) दिखाई दे रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उसतति करहि सेवक मुनि केते तेरा अंतु न कतहू पाईऐ ॥ सुखदाते दुख भंजन सुआमी जन नानक सद बलि जाईऐ ॥२॥१॥
मूलम्
उसतति करहि सेवक मुनि केते तेरा अंतु न कतहू पाईऐ ॥ सुखदाते दुख भंजन सुआमी जन नानक सद बलि जाईऐ ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = बड़ाई, उपमा, महिमा। मुनि केते = बेअंत मुनि जन। कतहू = किसी तरफ से भी। सुख दाते = हे सुख देने वाले! दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! सद = सदा।2।
अर्थ: हे प्रभु! बेअंत ऋषि-मुनि जन, और, बेअंत (तेरे) सेवक-जन तेरी उपमा करते आ रहे हैं, किसी से भी तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सका। हे दास नानक! (कह:) हे सुख देने वाले! हे दुखों के नाश करने वाले! तुझसे सदा सदके जाना चाहिए।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ माई होनहार सो होईऐ ॥ राचि रहिओ रचना प्रभु अपनी कहा लाभु कहा खोईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ माई होनहार सो होईऐ ॥ राचि रहिओ रचना प्रभु अपनी कहा लाभु कहा खोईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! होनहार = जो (प्रभु के हुक्म में) जरूर घटित होनी है। राचि रहिओ = खचित है, व्यस्त है। रचना = खेल। कहा = कहाँ। खोईऐ = खो रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (जगत में) वही कुछ घटित हो रहा है जो (परमात्मा की मर्जी के अनुसार, आज्ञा मुताबिक) जरूर होना है। परमात्मा खुद अपनी इस जगत खेल में व्यस्त है, कहीं लाभ हो रहा है, कहीं कुछ गवा रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कह फूलहि आनंद बिखै सोग कब हसनो कब रोईऐ ॥ कबहू मैलु भरे अभिमानी कब साधू संगि धोईऐ ॥१॥
मूलम्
कह फूलहि आनंद बिखै सोग कब हसनो कब रोईऐ ॥ कबहू मैलु भरे अभिमानी कब साधू संगि धोईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कह = कहाँ। फूलहि = बढ़ते फूलते हैं। बिखै = विषौ विकार। सोग = शोक, गम। हसनो = हसीं। कब = कब। रोईऐ = रोएं। भरे = भरे हुए, लिबड़े हुए। अभिमानी = अहंकारी। साधू संगि = गुरु की संगति में।1।
अर्थ: हे माँ! (जगत में) कहीं खुशियां बढ़-फूल रही हैं, कहीं विषय-विकारों के कारण चिन्ता-फिक्र बढ़ रहे हैं। कहीं हसीं हो रही है, कहीं रोया जा रहा है। कहीं कोई अहंकारी मनुष्य अहंकार की मैल से लिप्त हैं, कहीं गुरु की संगति में बैठ के (अहं की मैल को) धोया जा रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोइ न मेटै प्रभ का कीआ दूसर नाही अलोईऐ ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी जिह प्रसादि सुखि सोईऐ ॥२॥२॥
मूलम्
कोइ न मेटै प्रभ का कीआ दूसर नाही अलोईऐ ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी जिह प्रसादि सुखि सोईऐ ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेटै = मिटा सकता। अलोईऐ = देखते हैं। कहु = कह। जिह प्रसादि = जिसकी कृपा से। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोईऐ = लीन रह सकते हैं।2।
अर्थ: (हे माँ! जगत में परमात्मा के बिना) कोई दूसरा नहीं दिखता, कोई जीव उस परमात्मा का किया (हुक्म) मिटा नहीं सकता।
हे नानक! कह: मैं उस गुरु से कुर्बान हूँ जिसकी कृपा से (परमात्मा की रजा में रह के) आत्मिक आनंद में लीन रह सकते हैं।2।2।
[[0529]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ माई सुनत सोच भै डरत ॥ मेर तेर तजउ अभिमाना सरनि सुआमी की परत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ माई सुनत सोच भै डरत ॥ मेर तेर तजउ अभिमाना सरनि सुआमी की परत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! सोच = चिन्ता। भै = अनेक डर सहम। तजउ = त्यागूँ, मैं छोड़ दूँ। परत = पड़ी रह के।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! (पति प्रभु की शरण ना पड़ने वालियों की दशा) सुन के मुझे चिन्ता छा जाती है, मुझमें डर-सहम व्याप्तता है, मैं डरती हूँ (कि कहीं मेरा भी ऐसा हाल ना हो। इस वास्ते मेरा सदा ही ये तमन्ना रहती है कि) मालिक-प्रभु की शरण पड़ी रहके मैं (अपने अंदर से) मेर-तेर गवा दूँ, अहंकार त्याग दूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो कहै सोई भल मानउ नाहि न का बोल करत ॥ निमख न बिसरउ हीए मोरे ते बिसरत जाई हउ मरत ॥१॥
मूलम्
जो जो कहै सोई भल मानउ नाहि न का बोल करत ॥ निमख न बिसरउ हीए मोरे ते बिसरत जाई हउ मरत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भल = भला। मानउ = मानूँ, मानती हूँ। नाहिन = नहीं। काबोल = कुबोल, कटु वचन। निमख = आँख झपकने जितना समय। बिसरउ = कहीं विसर जाए। हीए मोरे ते = मेरे हृदय से। हीआ = हृदय। जाई = जाए। हउ = मैं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘बिसरउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! प्रभु-पति जो जो हुक्म करता है, मैं उसी में भला समझती हूँ, मैं (उसकी मर्जी के बारे में) कोई उल्टा बोल नहीं बोलती। (हे माँ! मेरी सदैव ये प्रार्थना है कि) पलक झपकने जितने समय के लिए भी वह प्रभु-पति मेरे हृदय से ना बिसरे, (उसको) भूलने से मुझे आत्मिक मौत आ जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखदाई पूरन प्रभु करता मेरी बहुतु इआनप जरत ॥ निरगुनि करूपि कुलहीण नानक हउ अनद रूप सुआमी भरत ॥२॥३॥
मूलम्
सुखदाई पूरन प्रभु करता मेरी बहुतु इआनप जरत ॥ निरगुनि करूपि कुलहीण नानक हउ अनद रूप सुआमी भरत ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुखदाई = सुख देने वाला। इआनप = अंजानापन। जरत = सहता। निरगुनि = (स्त्रीलिंग) गुणहीन। करूपि = बुरे रूप वाली। हउ = मैं। भरत = भरता, पति।2।
अर्थ: हे माँ! वह सर्व-व्यापक कर्ता-प्रभु (मुझे) सारे सुख देने वाला है, मेरे अंजानेपन को वह बहुत बर्दाश्त करता रहता है। हे नानक! (कह: हे माँ!) मैं गुण-हीन हूँ, मैं कुरूप हूँ, मेरी कुल भी श्रेष्ठ नहीं है; पर मेरा पति-प्रभु सदा खिले माथे (आनंदमयी) रहने वाला है।2।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ मन हरि कीरति करि सदहूं ॥ गावत सुनत जपत उधारै बरन अबरना सभहूं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ मन हरि कीरति करि सदहूं ॥ गावत सुनत जपत उधारै बरन अबरना सभहूं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! कीरति = महिमा। सद हूँ = सदा ही। उधारै = (संसार समुंदर से) बचा लेता है। बरन = सवर्ण, ऊँची जाति वालों को। अबरना = अवर्ण, नीच जाति वालों को। सभ हूँ = सब को।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा की महिमा करता रह। (महिमा के गीत) गाने वालों को, सुनने वालों को, नाम जपने वालों को, सभी को (चाहे वह) ऊँची जाति वाले (हों, चाहे) नीच जाति वाले - सबको परमात्मा संसार समुंदर से बचा लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह ते उपजिओ तही समाइओ इह बिधि जानी तबहूं ॥ जहा जहा इह देही धारी रहनु न पाइओ कबहूं ॥१॥
मूलम्
जह ते उपजिओ तही समाइओ इह बिधि जानी तबहूं ॥ जहा जहा इह देही धारी रहनु न पाइओ कबहूं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह ते = जहाँ से, जिस जगह से। तही = उसी जगह में। बिधि = तरीका। तब हूँ = तब ही। जहा जहा = जहाँ जहाँ। देही = शरीर। कब हूँ = कभी भी।1।
अर्थ: (हे मेरे मन! जब महिमा करते रहें) तब ही ये बिधि समझ में आती है कि जिस प्रभु से जीव पैदा होता है (महिमा की इनायत से) उसी में लीन हो जाता है। (हे मन!) जहाँ जहाँ भी परमात्मा ने शरीर-रचना की है, कभी भी कोई सदा यहाँ टिका नहीं रह सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखु आइओ भै भरम बिनासे क्रिपाल हूए प्रभ जबहू ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ साधसंगि तजि लबहूं ॥२॥४॥
मूलम्
सुखु आइओ भै भरम बिनासे क्रिपाल हूए प्रभ जबहू ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ साधसंगि तजि लबहूं ॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै = डर। संगि = संगति में। तजि = त्याग के। लब = लालच।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे मेरे मन! सदा महिमा करता रह) परमात्मा जब दयावान होता है (उसकी मेहर से) आनंद (हृदय में) आ बसता है, और, सारे डर भ्रम नाश हो जाते हैं। हे नानक! कह: साधु-संगत में (महिमा की इनायत से) लालच त्याग के सारे उद्देश्य पूरे हो गए हैं।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ मन जिउ अपुने प्रभ भावउ ॥ नीचहु नीचु नीचु अति नान्हा होइ गरीबु बुलावउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ मन जिउ अपुने प्रभ भावउ ॥ नीचहु नीचु नीचु अति नान्हा होइ गरीबु बुलावउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! जिउ = जैसे हो सके। प्रभ भावउ = प्रभु को अच्छा लगने लगूँ। नाना = नन्हा, छोटा सा, निमाणा। होइ = हो के। बुलावउ = मैं बुलाता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! मैं नीचों से भी नीच हो के, बहुत छोटा हो के, निमाणा हो के, गरीब बन के, अपने प्रभ के आगे अरजोई करता रहता हूँ, (ता कि) जैसे भी हो सके मैं अपने उस प्रभु को अच्छा लगने लग जाऊँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक अड्मबर माइआ के बिरथे ता सिउ प्रीति घटावउ ॥ जिउ अपुनो सुआमी सुखु मानै ता महि सोभा पावउ ॥१॥
मूलम्
अनिक अड्मबर माइआ के बिरथे ता सिउ प्रीति घटावउ ॥ जिउ अपुनो सुआमी सुखु मानै ता महि सोभा पावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अडंबर = पसारे। बिरथे = व्यर्थ। ता सिउ = उन से। घटावउ = मैं घटाता हूँ। मानै = मानता है। पावउ = मैं पाता हूँ।1।
अर्थ: हे मेरे मन! माया के ये अनेक पसारे व्यर्थ हैं (क्योंकि इनसे साथ टूट जाना है), मैं इनसे अपना प्यार घटाए जा रहा हूँ, (मैं यही समझता हूँ कि) जैसे मेरा अपना मालिक प्रभु सुख मानता है, मैं भी उसी में (सुख मान के) इज्जत प्राप्त करता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासन दास रेणु दासन की जन की टहल कमावउ ॥ सरब सूख बडिआई नानक जीवउ मुखहु बुलावउ ॥२॥५॥
मूलम्
दासन दास रेणु दासन की जन की टहल कमावउ ॥ सरब सूख बडिआई नानक जीवउ मुखहु बुलावउ ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। कमावउ = मैं कमाता हूँ। जीवउ = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मुखहु = मुँह से। बुलावउ = मैं बुलाता हूँ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं अपने दासों के दासों की चरण-धूल मांगता हूँ, मैं प्रभु के सेवकों की सेवा करता हूँ, सारे सुख सारे बड़प्पन मैं इसी में ही समझता हूँ। जब मैं अपने प्रभु को मुँह से बुलाता हूँ मैं आत्मिक जीवन हासिल कर लेता हूँ।2।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ प्रभ जी तउ प्रसादि भ्रमु डारिओ ॥ तुमरी क्रिपा ते सभु को अपना मन महि इहै बीचारिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ प्रभ जी तउ प्रसादि भ्रमु डारिओ ॥ तुमरी क्रिपा ते सभु को अपना मन महि इहै बीचारिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तउ प्रसादि = तव प्रसादि, तेरी कृपा से। भ्रमु = भटकना। डारिओ = दूर कर दी। ते = से। सभु को = हरेक जीव। इहै = यह ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरी मेहर से मैंने अपने मन की भटकना दूर कर ली है, तेरी कृपा से मैंने अपने मन में ये इरादा कर लिया है कि (तेरा पैदा किया हुआ) हरेक प्राणी मेरा अपना ही है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि पराध मिटे तेरी सेवा दरसनि दूखु उतारिओ ॥ नामु जपत महा सुखु पाइओ चिंता रोगु बिदारिओ ॥१॥
मूलम्
कोटि पराध मिटे तेरी सेवा दरसनि दूखु उतारिओ ॥ नामु जपत महा सुखु पाइओ चिंता रोगु बिदारिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। पराध = अपराध, पाप। दरसनि = दर्शन से। उतारिओ = उतार लिया है। बिदारिओ = नाश कर लिया है।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी सेवा भक्ति करने से मेरे (पहले किए हुए) करोड़ों ही पाप मिट गए हैं, तेरे दर्शनों से मैंने (अपने अंदर के हरेक) दुख दूर कर लिए हैं। तेरा नाम जपते हुए मैंने बड़ा आनंद लिया है, और, चिन्ता रोग (अपने मन में से) हटा दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिसारिओ ॥ माइआ बंध काटे किरपा निधि नानक आपि उधारिओ ॥२॥६॥
मूलम्
कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिसारिओ ॥ माइआ बंध काटे किरपा निधि नानक आपि उधारिओ ॥२॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। बिसारिओ = भुला लिया है। बंध = बंधन। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! उधारिओ = बचा लिया है।2।
अर्थ: हे प्रभु! गुरु की संगति में टिक के मैंने काम, क्रोध, लोभ, झूठ, निंदा (आदि विकारों को अपने मन में से) भुला लिया है। हे नानक! (कह:) हे कृपा के खजाने प्रभु! तूने मेरे माया के बंधन काट दिए हैं, तूने खुद ही मुझे (संसार समुंदर में से) बचा लिया है।2।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ॥ मन सगल सिआनप रही ॥ करन करावनहार सुआमी नानक ओट गही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ॥ मन सगल सिआनप रही ॥ करन करावनहार सुआमी नानक ओट गही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सिआनप = चतुराई। रही = खत्म हो जाती है। करन करावनहार = खुद ही सब कुछ करने और जीवों से करवाने की ताकत रखने वाला। ओट = आसरा। गही = पकड़ी।1। रहाउ।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे मन! जो मनुष्य सब कुछ कर सकने और सब कुछ (जीवों से) करा सकने वाले परमात्मा मालिक का आसरा लेता है उसकी (अपनी) सारी चतुराई खत्म हो जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु मेटि पए सरणाई इह मति साधू कही ॥ प्रभ की आगिआ मानि सुखु पाइआ भरमु अधेरा लही ॥१॥
मूलम्
आपु मेटि पए सरणाई इह मति साधू कही ॥ प्रभ की आगिआ मानि सुखु पाइआ भरमु अधेरा लही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। मेटि = मिटा के। साधू गही = साधु की बताई हुई। मानि = मान के। लही = दूर हो जाती है।1।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की बताई हुई यह (अपनी चतुराई-समझदारी छोड़ देने वाली) शिक्षा जिस मनुष्यों ने ग्रहण की, और, जो स्वैभाव मिटा के प्रभु की शरण आ पड़े, उन्होंने प्रभु की रजा मान के आत्मिक आनंद पाया, उनके अंदर से भ्रम (-रूपी) अंधकार दूर हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जान प्रबीन सुआमी प्रभ मेरे सरणि तुमारी अही ॥ खिन महि थापि उथापनहारे कुदरति कीम न पही ॥२॥७॥
मूलम्
जान प्रबीन सुआमी प्रभ मेरे सरणि तुमारी अही ॥ खिन महि थापि उथापनहारे कुदरति कीम न पही ॥२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जान = हे सुजान! प्रबीन = प्रवीण, हे माहिर! अही = मांगी है, आया हूँ। उथापनहारे = हे नाश करने की ताकत रखने वाले! कुदरति = ताकत। कीम = कीमत। नही = पड़ती।2।
अर्थ: हे सुजान और समझदार मालिक! हे मेरे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे एक छिन में पैदा करके नाश करने की ताकत रखने वाले प्रभु! (किसी तरफ से भी) तेरी ताकत का मूल्य नहीं पड़ सकता।1।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ हरि प्रान प्रभू सुखदाते ॥ गुर प्रसादि काहू जाते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ हरि प्रान प्रभू सुखदाते ॥ गुर प्रसादि काहू जाते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान दाते = हे जीवन देने वाले! सुखदाते = हे सुख देने वाले! प्रसादि = कृपा से। काहू = किसी विरले ने। जाते = तेरे साथ गहरी सांझ डाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीवन देने वाले हरि! हे सुख देने वाले प्रभु! किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से तेरे साथ गहरी सांझ डाल ली है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत तुमारे तुमरे प्रीतम तिन कउ काल न खाते ॥ रंगि तुमारै लाल भए है राम नाम रसि माते ॥१॥
मूलम्
संत तुमारे तुमरे प्रीतम तिन कउ काल न खाते ॥ रंगि तुमारै लाल भए है राम नाम रसि माते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! काल = आत्मिक मौत। ना खाते = नहीं खा जाती। रंगि = प्रेम रंग में। लाल = चाव भरे। रसि = रस में। माते = मस्त।1।
अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! जो तेरे संत तेरे ही बने रहते हैं, आत्मिक मौत उनके स्वच्छता भरे जीवन को समाप्त नहीं कर सकती। हे प्रभु! वह तेरे संत तेरे प्रेम रंग में लाल हुए रहते हैं, वह तेरे नाम-रस में मस्त रहते हैं।1।
[[0530]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा किलबिख कोटि दोख रोगा प्रभ द्रिसटि तुहारी हाते ॥ सोवत जागि हरि हरि हरि गाइआ नानक गुर चरन पराते ॥२॥८॥
मूलम्
महा किलबिख कोटि दोख रोगा प्रभ द्रिसटि तुहारी हाते ॥ सोवत जागि हरि हरि हरि गाइआ नानक गुर चरन पराते ॥२॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलबिख = पाप। कोटि = करोड़ों। दोख = दोष, ऐब। प्रभ = हे प्रभु! द्रिसटि = निगाह। हाते = नाश हो जाते हैं, हत्या हो जाती है। पराते = पड़ते हैं।2।
अर्थ: हे प्रभु! (जीवों के किए हुए) बड़े-बड़े पाप, करोड़ों एैब और रोग तेरी मेहर की निगाह से नाश हो जाते हैं।
हे नानक! (कह:) जो मनुष्य गुरु के चरणों में आ पड़ते हैं वे सोते जागते हर वक्त परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहते हैं।2।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ सो प्रभु जत कत पेखिओ नैणी ॥ सुखदाई जीअन को दाता अम्रितु जा की बैणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ सो प्रभु जत कत पेखिओ नैणी ॥ सुखदाई जीअन को दाता अम्रितु जा की बैणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। देखिओ = मैंने देख लिया है। नैणी = अपनी आँखों से। को = का। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। जा की बैणी = जिसकी महिमा वाले गुरु वचनों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सब जीवों को दातें देने वाला है सारे सुख देने वाला है, जिस परमात्मा की महिमा भरे गुरु-शबदों में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल है, उसको मैंने (गुरु की कृपा से) हर जगह अपनी आँखों से देख लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआनु अधेरा संती काटिआ जीअ दानु गुर दैणी ॥ करि किरपा करि लीनो अपुना जलते सीतल होणी ॥१॥
मूलम्
अगिआनु अधेरा संती काटिआ जीअ दानु गुर दैणी ॥ करि किरपा करि लीनो अपुना जलते सीतल होणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधेरा = अंधेरा। संती = संत जनों ने। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुर दैणी = देनहार गुरु ने। जलते = जल रहे। सीतल = ठंडा ठार, शांत चिक्त।1।
अर्थ: हे भाई! संत जनों ने (मेरे अंदर से) अज्ञान अंधेरा काट दिया है, देवनहार गुरु ने मुझे आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है। प्रभु ने मेहर करके मुझे अपना (सेवक) बना लिया है (तृष्णा की आग में) जल रहा मैं शांत-चिक्त हो गया हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमु धरमु किछु उपजि न आइओ नह उपजी निरमल करणी ॥ छाडि सिआनप संजम नानक लागो गुर की चरणी ॥२॥९॥
मूलम्
करमु धरमु किछु उपजि न आइओ नह उपजी निरमल करणी ॥ छाडि सिआनप संजम नानक लागो गुर की चरणी ॥२॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु धरमु = (शास्त्रों के अनुसार माना हुआ) धार्मिक काम। उपजि न आइओ = मुझसे हो नहीं सका। निरमल करणी = (तीर्थ स्नान आदि द्वारा) स्वच्छता का काम। छाडि = छोड़ के। संजम = इन्द्रियों को वश में करने के यत्न।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! शास्त्रों के अनुसार मिथा हुआ कोई) धार्मिक कर्म मुझसे हो नहीं सका, (तीर्थ-स्नान के द्वारा) शरिरिक स्वच्छता वाला कोई काम मैं कर नहीं सका, अपनी चतुराई छोड़ के मैं गुरु की चरणी आ पड़ा हूँ।2।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ हरि राम नामु जपि लाहा ॥ गति पावहि सुख सहज अनंदा काटे जम के फाहा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ हरि राम नामु जपि लाहा ॥ गति पावहि सुख सहज अनंदा काटे जम के फाहा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जप के। लाहा = लाभ। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सहज = आत्मिक अडोलता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप-जप के मानव जनम का लाभ कमा। (अगर तू नाम जपेगा तो) ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेगा, आत्मिक अडोलता के सुख आनंद पाएगा, तेरी (आत्मिक) मौत की फाँसी काटी जाएंगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत खोजि बीचारिओ हरि संत जना पहि आहा ॥ तिन्हा परापति एहु निधाना जिन्ह कै करमि लिखाहा ॥१॥
मूलम्
खोजत खोजत खोजि बीचारिओ हरि संत जना पहि आहा ॥ तिन्हा परापति एहु निधाना जिन्ह कै करमि लिखाहा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत खोजत = तलाश करते करते। पहि = पास। आहा = है। निधाना = खजाना। करमि = (परमात्मा की) कृपा से।1।
अर्थ: हे भाई! तलाश करते-करते मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि (ये लाभ) प्रभु के संत-जनों के पास है, और, ये नाम-खजाना उन मनुष्यों को मिलता है, जिनके माथे पर परमात्मा की बख्शिश से (कृपा से इसका प्राप्त होना) लिखा हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
से बडभागी से पतिवंते सेई पूरे साहा ॥ सुंदर सुघड़ सरूप ते नानक जिन्ह हरि हरि नामु विसाहा ॥२॥१०॥
मूलम्
से बडभागी से पतिवंते सेई पूरे साहा ॥ सुंदर सुघड़ सरूप ते नानक जिन्ह हरि हरि नामु विसाहा ॥२॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से पतवंते = वे हैं इज्जत वाले। साहा = शाहूकार। सुघड़ = अच्छे जीवन वाले। विसाहा = खरीदा।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) वही मनुष्य ऊँचे भाग्यों वाले हैं वही इज्जत वाले हैं, वही पूरे शाहूकार हैं, वही सुंदर हैं, सु-जीवन वाले हैं, सुंदर स्वरूप हैं, जिन्होंने परमात्मा के नाम का माल-असवाब (वखर) खरीदा है।2।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ मन कह अहंकारि अफारा ॥ दुरगंध अपवित्र अपावन भीतरि जो दीसै सो छारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ मन कह अहंकारि अफारा ॥ दुरगंध अपवित्र अपावन भीतरि जो दीसै सो छारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! कह = क्यूँ? अहंकारि = अहंकार से। अफारा = अफरा हुआ। दुरगंध = बदबू। अपावन = अपवित्र, गंदा। भीतरि = (तेरे शरीर के) अंदर। छारा = नाशवान।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! तू क्यों अहंकार से आफरा हुआ है? (तेरे शरीर के) अंदर बदबू है, गंदगी है, और, जो ये तेरा शरीर दिख रहा है ये भी नाशवान है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि कीआ तिसु सिमरि परानी जीउ प्रान जिनि धारा ॥ तिसहि तिआगि अवर लपटावहि मरि जनमहि मुगध गवारा ॥१॥
मूलम्
जिनि कीआ तिसु सिमरि परानी जीउ प्रान जिनि धारा ॥ तिसहि तिआगि अवर लपटावहि मरि जनमहि मुगध गवारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिस (कर्तार) ने। कीआ = पैदा किया है। परानी = हे प्राणी! जीउ = प्राण। धारा = सहारा दिया है। तिसहि = उस (कर्तार) को। तिआगि = छोड़ के। मरि = मर के। मुगध = हे मूर्ख! गवारा = हे गवार!।1।
अर्थ: हे प्राणी! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा किया है, जिसने तेरी जिंद तेरे प्राणों को (शरीर का) आसरा दिया हुआ है उसका स्मरण किया कर। हे मूर्ख! हे गवार! तू उस परमात्मा को भुला के और ही पदार्थों के साथ चिपका रहता है, जनम-मरण के चक्र में पड़ा रहेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध गुंग पिंगुल मति हीना प्रभ राखहु राखनहारा ॥ करन करावनहार समरथा किआ नानक जंत बिचारा ॥२॥११॥
मूलम्
अंध गुंग पिंगुल मति हीना प्रभ राखहु राखनहारा ॥ करन करावनहार समरथा किआ नानक जंत बिचारा ॥२॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध = अंधा। पिंगुल = लूला। मति हीना = मूर्ख। प्रभ = हे प्रभु!।2।
अर्थ: हे सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ प्रभु! (जीव माया के मोह में) अंधे हुए पड़े हैं, तेरे भजन से गूँगे हो रहे हैं, तेरे रास्ते पर चलने से लूले हो चुके हैं, मूर्ख हो गए हैं, उनको तू खुद (इस मोह में से) बचा ले।
हे नानक! (कह:) हे सब कुछ खुद कर सकने वाले और जीवों से करा सकने की स्मर्था रखने वाले प्रभु! इन जीवों के वश में कुछ भी नहीं (तू खुद इनकी सहायता कर)।2।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ सो प्रभु नेरै हू ते नेरै ॥ सिमरि धिआइ गाइ गुन गोबिंद दिनु रैनि साझ सवेरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ सो प्रभु नेरै हू ते नेरै ॥ सिमरि धिआइ गाइ गुन गोबिंद दिनु रैनि साझ सवेरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेरै हू ते नेरै = नजदीक से नजदीक, पास ही। रैनि = रात। साझ = शाम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! दिन-रात शाम-सवेरे (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता रह, परमात्मा का नाम स्मरण करता रह, परमात्मा का ध्यान धरता रह। वह परमात्मा तेरे साथ ही बसता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उधरु देह दुलभ साधू संगि हरि हरि नामु जपेरै ॥ घरी न मुहतु न चसा बिल्मबहु कालु नितहि नित हेरै ॥१॥
मूलम्
उधरु देह दुलभ साधू संगि हरि हरि नामु जपेरै ॥ घरी न मुहतु न चसा बिल्मबहु कालु नितहि नित हेरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधरु देह = (उद्धार देह) शरीर का (संसार समुंदर से) पार उतारा कर ले। दुलभ देह = जो मानव शरीर मुश्किल से मिला है। साध संगि = गुरु की संगति में। जपेरै = जपता रह। मुहतु = आधी घड़ी। चसा = निमख मात्र। न बिलंबहु = देर ना कर। कालु = मौत। हेरै = ताक रही है।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का नाम जपा कर, और, अपने इस मानव शरीर को (विकारों के समुंदर में डूबने से) बचा ले जो बड़ी मुश्किल से तुझे मिला है। हे भाई! मौत तुझे हर वक्त सदा देख रही है, तूने (नाम स्मरण करने में) एक घड़ी भी ढील नही करनी, आधी घड़ी भी देर नहीं करनी, रक्ती भर भी विलम्ब नहीं करनी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध बिला ते काढहु करते किआ नाही घरि तेरै ॥ नामु अधारु दीजै नानक कउ आनद सूख घनेरै ॥२॥१२॥ छके २ ॥
मूलम्
अंध बिला ते काढहु करते किआ नाही घरि तेरै ॥ नामु अधारु दीजै नानक कउ आनद सूख घनेरै ॥२॥१२॥ छके २ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिला = बिल, खड। अंध = अंधी। ते = से, में से। करते = हे कर्तार! घरि तेरै = तेरे घर में। अधारु = आसरा। कउ = को। घनेरै = बहुत।2।
अर्थ: हे कर्तार! तेरे घर में किसी चीज की कमी नहीं (मेहर कर, तू खुद जीवों को माया के मोह की) घोर अंधेरी गुफा (बिल) में से निकाल ले। हे कर्तार! नानक को अपने नाम का आसरा दे, तेरे नाम में बेअंत सुख आनंद हैं।2।12। छके 2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ मन गुर मिलि नामु अराधिओ ॥ सूख सहज आनंद मंगल रस जीवन का मूलु बाधिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ मन गुर मिलि नामु अराधिओ ॥ सूख सहज आनंद मंगल रस जीवन का मूलु बाधिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। सहज = आत्मिक अडोलता। मंगल = खुशी। मूलु = आदि। बाधिओ = बाँध लिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसने आत्मिक अडोलता के सुख आनंद और खुशियों वाली जिंदगी का आरम्भ कर दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा अपुना दासु कीनो काटे माइआ फाधिओ ॥ भाउ भगति गाइ गुण गोबिद जम का मारगु साधिओ ॥१॥
मूलम्
करि किरपा अपुना दासु कीनो काटे माइआ फाधिओ ॥ भाउ भगति गाइ गुण गोबिद जम का मारगु साधिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। कीनो = बना लिया। फाधिओ = फाही। भाउ = प्यार। गाइ = गा के। मारगु = रास्ता। साधिओ = सुधार कर लिया, वश में कर लिया।1।
अर्थ: हे मन! परमात्मा ने कृपा करके जिस मनुष्य को अपना दास बना लिया, उसने उसके माया के मोह वाले बंधन काट दिए। उस मनुष्य ने (प्रभु चरणों में) प्रेम (करके, प्रभु की) भक्ति (करके) गोबिंद के गुण गा के (आत्मिक मौत) के रास्ते को अपने वश में कर लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ अनुग्रहु मिटिओ मोरचा अमोल पदारथु लाधिओ ॥ बलिहारै नानक लख बेरा मेरे ठाकुर अगम अगाधिओ ॥२॥१३॥
मूलम्
भइओ अनुग्रहु मिटिओ मोरचा अमोल पदारथु लाधिओ ॥ बलिहारै नानक लख बेरा मेरे ठाकुर अगम अगाधिओ ॥२॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। मोरचा = (लोहे को) जंग लगना, जंगाल। अमोल = कीमती। नानक = हे नानक! बेरा = बारी। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधिओ = अथाह।2।
अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर हुई, उस (के मन से माया के मोह) का जंग उतर गया, उसने परमात्मा का कीमती नाम-पदार्थ पा लिया। हे नानक! (कह:) मैं लाखों बार कुर्बान जाता हूँ अपने उस मालिक प्रभु से जो (जीवों की बुद्धि की) पहुँच से परे है, और, जो अथाह (गुणों वाला) है।2।13।
[[0531]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ माई जो प्रभ के गुन गावै ॥ सफल आइआ जीवन फलु ता को पारब्रहम लिव लावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ माई जो प्रभ के गुन गावै ॥ सफल आइआ जीवन फलु ता को पारब्रहम लिव लावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! ता को आइआ सफल = जगत में उसका आना सफल हो जाता है। लिव = लगन।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, परमात्मा के चरणों में प्रेम बनाए रखता है, उसका जगत में आना कामयाब हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंदरु सुघड़ु सूरु सो बेता जो साधू संगु पावै ॥ नामु उचारु करे हरि रसना बहुड़ि न जोनी धावै ॥१॥
मूलम्
सुंदरु सुघड़ु सूरु सो बेता जो साधू संगु पावै ॥ नामु उचारु करे हरि रसना बहुड़ि न जोनी धावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुघड़ु = सुव्यवस्थित। सूरु = शूरवीर। बेता = ज्ञानवान। साधू = गुरु। संगु = साथ। उचारु करे = उच्चारण करता है। रसना = जीभ (से)। बहुड़ि = दुबारा। धावै = भटकता।1।
अर्थ: हे माँ! जो मनुष्य गुरु का साथ प्राप्त कर लेता है, वह मनुष्य सुजीवन वाला, सुघड़, शूरवीर बन जाता है, वह अपनी जीभ से परमात्मा का नाम उच्चारता रहता है, और मुड़-मुड़ के जूनियों में नहीं भटकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन ब्रहमु रविआ मन तन महि आन न द्रिसटी आवै ॥ नरक रोग नही होवत जन संगि नानक जिसु लड़ि लावै ॥२॥१४॥
मूलम्
पूरन ब्रहमु रविआ मन तन महि आन न द्रिसटी आवै ॥ नरक रोग नही होवत जन संगि नानक जिसु लड़ि लावै ॥२॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रविआ = हर वक्त मौजूद। आन = कोई और। जन संगि = संत जनों की संगत में। जिसु लड़ि = जिस मनुष्य को संत जनों के पल्ले लग के।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य को परमात्मा संत जनों के पल्ले से लगा देता है, उसे संत जनों की संगति में नर्क व रोग नहीं व्याप्तते, सर्व-व्यापक प्रभु हर समय उसके मन में उसके हृदय में बसा रहता है, प्रभु के बिना उसको (कहीं भी) कोई और नहीं दिखता।2।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ चंचलु सुपनै ही उरझाइओ ॥ इतनी न बूझै कबहू चलना बिकल भइओ संगि माइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ चंचलु सुपनै ही उरझाइओ ॥ इतनी न बूझै कबहू चलना बिकल भइओ संगि माइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंचलु = कभी भी एक जगह न टिकने वाला। सुपनै = सपने में। उरझाइओ = फस रहा है। कबहू = कभी। बिकल = व्याकुल, बुद्धू। संगि माइओ = माइआ से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! कहीं भी कभी ना टिकने वाला मानव मन (चंचल मन) सपने (में दिखने जैसे पदार्थों) में फसा रहता है। कभी इतनी बात भी नहीं समझता कि यहाँ से आखिर चले जाना है। माया के मोह में बुद्धू बना रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुसम रंग संग रसि रचिआ बिखिआ एक उपाइओ ॥ लोभ सुनै मनि सुखु करि मानै बेगि तहा उठि धाइओ ॥१॥
मूलम्
कुसम रंग संग रसि रचिआ बिखिआ एक उपाइओ ॥ लोभ सुनै मनि सुखु करि मानै बेगि तहा उठि धाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुसम = फूल। रसि = रस में, स्वाद में। रचिआ = मस्त। बिखिआ = माया। उपाइओ = उपाय, दौड़ भाग। सुनै = सुनता है। मनि = मन में। बेगि = जल्दी। तहा = उस तरफ।1।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य फूलों (जैसे क्षण-भंगुर पदार्थों) के रंग व साथ के स्वाद में मस्त रहता है, सदा एक माया (एकत्र करने) का ही उपाय करता फिरता है। जब यह लोभ (की बात) सुनता है तो मन में खुशी मनाता है (जहाँ से कुछ प्राप्त होने की आशा होती है) उधर तुरंत उठ दौड़ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फिरत फिरत बहुतु स्रमु पाइओ संत दुआरै आइओ ॥ करी क्रिपा पारब्रहमि सुआमी नानक लीओ समाइओ ॥२॥१५॥
मूलम्
फिरत फिरत बहुतु स्रमु पाइओ संत दुआरै आइओ ॥ करी क्रिपा पारब्रहमि सुआमी नानक लीओ समाइओ ॥२॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रमु = श्रम, थकावट। दुआरै = द्वार पर, दर पे। पारब्रहमि = परमात्मा ने।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) भटकता-भटकता जब मनुष्य बहुत थक गया और गुरु के दर पर आया, तब मालिक परमात्मा ने इस पर मेहर की, और, अपने चरणों में मिला लिया।2।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ सरब सुखा गुर चरना ॥ कलिमल डारन मनहि सधारन इह आसर मोहि तरना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ सरब सुखा गुर चरना ॥ कलिमल डारन मनहि सधारन इह आसर मोहि तरना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सारे। कलिमल = पाप। डारन = दूर करने योग्य। मनहि = मन को। सधारन = आसरा देने वाले। मोहि = मैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के चरणों में पड़ने से सारे सुख मिल जाते हैं। (गुरु के चरण सारे) पाप दूर कर देते हैं, मन को सहारा देते हैं। मैं गुरु के चरणों का सहारा ले के ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ रहा हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजा अरचा सेवा बंदन इहै टहल मोहि करना ॥ बिगसै मनु होवै परगासा बहुरि न गरभै परना ॥१॥
मूलम्
पूजा अरचा सेवा बंदन इहै टहल मोहि करना ॥ बिगसै मनु होवै परगासा बहुरि न गरभै परना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरचा = देव पूजा के समय चंदन आदि की भेटा। बंदन = (देवताओं को) वंदना, नमस्कार। मोहि = मैं। बिगसै = खिल उठता है। परगासा = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। गरभै = गर्भ में, जूनि में।1।
अर्थ: हे भाई! मैं गुरु के चरणों की ही टहल सेवा करता हूँ- यही मेरे वास्ते देव-पूजा है, यही देव-मूर्ति के आगे चंदन आदि की भेट है, यही देवते की सेवा है, यही देव-मूर्ति के आगे नमस्कार है। (हे भाई! गुरु के चरणों में पड़ने से) मन खिल उठता है, आत्मिक जीवन की समझ पड़ जाती है, और, बार-बार जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल मूरति परसउ संतन की इहै धिआना धरना ॥ भइओ क्रिपालु ठाकुरु नानक कउ परिओ साध की सरना ॥२॥१६॥
मूलम्
सफल मूरति परसउ संतन की इहै धिआना धरना ॥ भइओ क्रिपालु ठाकुरु नानक कउ परिओ साध की सरना ॥२॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल = फल देने वाली। परसउ = मैं परसता हूँ। कउ = को। साध = गुरु।2।
अर्थ: हे भाई! मैं संत-जनों के चरण परसता हूँ, यही मेरे वास्ते फल देने वाली मूर्ति है, यही मेरे लिए मूर्ति का ध्यान धरना है। हे भाई! जब का मालिक प्रभु मुझ नानक पर दयावान हुआ है, मैं गुरु की शरण पड़ा हुआ हूँ।2।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ अपुने हरि पहि बिनती कहीऐ ॥ चारि पदारथ अनद मंगल निधि सूख सहज सिधि लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ अपुने हरि पहि बिनती कहीऐ ॥ चारि पदारथ अनद मंगल निधि सूख सहज सिधि लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहि = पास। कहीऐ = कहनी चाहिए। चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। निधि = खजाने। सहज = आत्मिक अडोलता। सिधि = करामाती ताकत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने परमात्मा के पास ही अरजोई करनी चाहिए। (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) ये चारों पदार्थ, आनंद खुशियों के खजाने, आत्मिक अडोलता के सुख, करामाती ताकतें- हरेक चीज परमात्मा से मिल जाती हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानु तिआगि हरि चरनी लागउ तिसु प्रभ अंचलु गहीऐ ॥ आंच न लागै अगनि सागर ते सरनि सुआमी की अहीऐ ॥१॥
मूलम्
मानु तिआगि हरि चरनी लागउ तिसु प्रभ अंचलु गहीऐ ॥ आंच न लागै अगनि सागर ते सरनि सुआमी की अहीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानु = अहंकार। तिआगि = छोड़ के। लागउ = लगूँ, लगता हूँ। अंचलु = पल्ला। गहीऐ = पकड़ना चाहिए। आँच = सेक। सागर = समुंदर। ते = से। अहीऐ = तमन्ना करनी चाहिए।1।
अर्थ: हे भाई! मैं तो अहंकार त्याग के परमात्मा के चरणों में ही पड़ा रहता हूँ। भाई! उस प्रभु का ही पल्ला पकड़ना चाहिए। (इस तरह विकारों की) आग के समुंदर से सेक नहीं लगता। मालिक प्रभु की शरण ही मांगनी चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि पराध महा अक्रितघन बहुरि बहुरि प्रभ सहीऐ ॥ करुणा मै पूरन परमेसुर नानक तिसु सरनहीऐ ॥२॥१७॥
मूलम्
कोटि पराध महा अक्रितघन बहुरि बहुरि प्रभ सहीऐ ॥ करुणा मै पूरन परमेसुर नानक तिसु सरनहीऐ ॥२॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। अक्रितघन = किए उपकार को भुला देने वाला, कृतघ्न। बहुरि = फिर, दुबारा। सहीऐ = सहता है। करुणामै = करुणामय, तरस स्वरूप। करुणा = तरस।2।
अर्थ: हे भाई! बड़े-बड़े अकृतज्ञों के करोड़ों पाप परमात्मा बार बार सह लेता है। हे नानक! परमात्मा पूर्ण तौर पर करुणामय है उसी की ही शरण पड़ना चाहिए।2।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ गुर के चरन रिदै परवेसा ॥ रोग सोग सभि दूख बिनासे उतरे सगल कलेसा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ गुर के चरन रिदै परवेसा ॥ रोग सोग सभि दूख बिनासे उतरे सगल कलेसा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। सोग = चिन्ता फिक्र। सभि = सारे। कलेसा = दुख।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के) हृदय में गुरु के चरण टिक जाते हैं, उस मनुष्य के सारे रोग, सारे गम, सारे दुख नाश हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम के किलबिख नासहि कोटि मजन इसनाना ॥ नामु निधानु गावत गुण गोबिंद लागो सहजि धिआना ॥१॥
मूलम्
जनम जनम के किलबिख नासहि कोटि मजन इसनाना ॥ नामु निधानु गावत गुण गोबिंद लागो सहजि धिआना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलविख = पाप। नासहि = नाश हो जाते हैं। कोटि = करोड़ों। मजन = डुबकी। निधानु = खजाना। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के चरणों की इनायत से) जन्मों-जन्मांतरों के (किए) पाप नाश हो जाते हैं, (गुरु के चरण हृदय में बसाना ही) करोड़ों तीर्थों का स्नान है, करोड़ों तीर्थों के जल में डुबकी है। (गुरु के चरणों की इनायत से) गोबिंद के गुण गाते-गाते नाम-खजाना मिल जाता है, आत्मिक अडोलता में तवज्जो जुड़ी रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा अपुना दासु कीनो बंधन तोरि निरारे ॥ जपि जपि नामु जीवा तेरी बाणी नानक दास बलिहारे ॥२॥१८॥ छके ३ ॥
मूलम्
करि किरपा अपुना दासु कीनो बंधन तोरि निरारे ॥ जपि जपि नामु जीवा तेरी बाणी नानक दास बलिहारे ॥२॥१८॥ छके ३ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीनो = बना लिया। तोरि = तोड़ के। निरारे = (माया के मोह से) अलग (कर लिया)। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। बलिहारे = कुर्बान।2। छके 3 = छह-छह छकों के तीन संग्रह।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेहर करके जिस मनुष्य को अपना दास बना लेता है, उसके माया के बंधन तोड़ के उसको माया के मोह से निर्लिप कर लेता है। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, तेरी महिमा की वाणी उचार के तेरानाम जप-जप के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा हूँ।2।18। छके 3।
[[0532]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ माई प्रभ के चरन निहारउ ॥ करहु अनुग्रहु सुआमी मेरे मन ते कबहु न डारउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ माई प्रभ के चरन निहारउ ॥ करहु अनुग्रहु सुआमी मेरे मन ते कबहु न डारउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! निहारउ = मैं देखता हूँ। अनुग्रहु = दया। सुआमी = हे स्वामी! ते = से। कबहु = कभी भी। डारउ = दूर करूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! मैं (सदा) परमात्मा के (सुंदर) चरणों की ओर देखता रहता हूँ (और, अरदास करता रहता हूँ कि) हे मेरे मालिक! (मेरे पर) मेहर कर, मैं (अपने) मन से (तुझे) कभी भी ना विसारूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू धूरि लाई मुखि मसतकि काम क्रोध बिखु जारउ ॥ सभ ते नीचु आतम करि मानउ मन महि इहु सुखु धारउ ॥१॥
मूलम्
साधू धूरि लाई मुखि मसतकि काम क्रोध बिखु जारउ ॥ सभ ते नीचु आतम करि मानउ मन महि इहु सुखु धारउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। लाई = मैं लगाऊँ। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। बिखु = जहर। जारउ = मैं जला दूँ। ते = से। आतम = अपने आप को। मानउ = मैं मानता हूँ। धारउ = मैं टिकाता हूँ।1।
अर्थ: (हे माँ! मैं प्रभु के आगे अरदास करता रहता हूँ कि) मैं गुरु के पैरों की खाक अपने मुँह पर अपने माथे पर लगाता रहूँ, (और, अपने अंदर से आत्मिक जीवन को मार देने वाली) काम-क्रोध का जहर जलाता रहूँ। मैं अपने आप को सबसे नीचा समझता रहूँ, और अपने मन में (गरीबी स्वभाव वाला) ये सुख (सदा) टिकाए रखूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुन गावह ठाकुर अबिनासी कलमल सगले झारउ ॥ नाम निधानु नानक दानु पावउ कंठि लाइ उरि धारउ ॥२॥१९॥
मूलम्
गुन गावह ठाकुर अबिनासी कलमल सगले झारउ ॥ नाम निधानु नानक दानु पावउ कंठि लाइ उरि धारउ ॥२॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावह = आओ, हम गाएं। कलमल = पाप। झारउ = मैं झाड़ता हूँ। पावउ = मैं प्राप्त कर लूँ। कंठि = गले से। उरि = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! आओ, मिल के ठाकुर-प्रभु के गुण गाएं, (गुण गाने की इनायत से) मैं अपने सारे (पिछले) पाप (मन से) झाड़ रहा हूँ। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मैं तेरे पास से ये) दान (माँगता हूँ कि) मैं तेरा नाम खजाना हासिल कर लूँ, और इसको अपने गले से लगा के अपने हृदय में टिकाए रखूँ।2।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ प्रभ जीउ पेखउ दरसु तुमारा ॥ सुंदर धिआनु धारु दिनु रैनी जीअ प्रान ते पिआरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ प्रभ जीउ पेखउ दरसु तुमारा ॥ सुंदर धिआनु धारु दिनु रैनी जीअ प्रान ते पिआरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पेखउ = मैं देखता रहूँ। धारु = धरण करूँ। रैनी = रात। जीअ ते = जीव से।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (मेहर कर) मैं (सदा) तेरे दर्शन करता रहूँ। दिन-रात मैं तेरे सुंदर स्वरूप का ध्यान धरता रहूँ। तेरे दर्शन मुझे अपने प्राणों से प्यारा लगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासत्र बेद पुरान अविलोके सिम्रिति ततु बीचारा ॥ दीना नाथ प्रानपति पूरन भवजल उधरनहारा ॥१॥
मूलम्
सासत्र बेद पुरान अविलोके सिम्रिति ततु बीचारा ॥ दीना नाथ प्रानपति पूरन भवजल उधरनहारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अविलोको = मैंने देख लिए हैं। दीनानाथ = हे दीनों के नाथ! प्रानपति = हे प्राणों के मालिक! भवजल = संसार समुंदर। उधरनहारा = बचाने की स्मर्था वाला।1।
अर्थ: हे दीनों के नाथ! हे मेरे प्राणों के मालिक! हे सर्व-व्यापक! मैं शास्त्र वेद पुराण देख चुका हूँ, मैं स्मृतियों के तत्व भी विचार चुका हूँ। सिर्फ तू ही संसार समुंदर से पार लंघाने की ताकत रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि जुगादि भगत जन सेवक ता की बिखै अधारा ॥ तिन जन की धूरि बाछै नित नानकु परमेसरु देवनहारा ॥२॥२०॥
मूलम्
आदि जुगादि भगत जन सेवक ता की बिखै अधारा ॥ तिन जन की धूरि बाछै नित नानकु परमेसरु देवनहारा ॥२॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगादि = जुगों के आरम्भ से। ताकी = देखी है। बिखै = विषयों में। अधारा = ओट। बाछै = मांगता है। देवनहारा = देने योग्य।2।
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे भक्तजन तेरे सेवक आदि से और युगों के आरम्भ से विषौ-विकारों से बचने के लिए तेरा ही आसरा देखते आ रहे हैं। नानक उन भक्त जनों की पैरों की ख़ाक (तुझसे) मांगता है, तू परमेश्वर (सबसे बड़ा मालिक) ही ये दाति देने की सामर्थ्य रखने वाला है।2।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ तेरा जनु राम रसाइणि माता ॥ प्रेम रसा निधि जा कउ उपजी छोडि न कतहू जाता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ तेरा जनु राम रसाइणि माता ॥ प्रेम रसा निधि जा कउ उपजी छोडि न कतहू जाता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनु = सेवक, भक्त। रसाइणि = रसायण में। रसायण = (रस+अयन = रसों का घर) वह दवा जो उम्र लंबी करे और बुढ़ापा ना आने दे। माता = मस्त। निधि = खजाना। जा कउ = जिस मनुष्य को। कत हूँ = कहीं भी।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त तेरे नाम के रसायन में मस्त रहता है। जिस मनुष्य को तेरे प्रेम रस का खजाना मिल जाए, वह उस खजाने को छोड़ के किसी और जगह नहीं जाता (भटकता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैठत हरि हरि सोवत हरि हरि हरि रसु भोजनु खाता ॥ अठसठि तीरथ मजनु कीनो साधू धूरी नाता ॥१॥
मूलम्
बैठत हरि हरि सोवत हरि हरि हरि रसु भोजनु खाता ॥ अठसठि तीरथ मजनु कीनो साधू धूरी नाता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अठसठि = अड़सठ। मजनु = स्नान। साधू धूरी = संत जनों के चरणों की धूल में। नाता = नहाया, स्नान कर लिया।1।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के नाम-रसायन में मस्त मनुष्य) बैठे ही हरि-नाम उचारता है, सोए हुए भी हरि-नाम में तवज्जो रखता है, वह मनुष्य हरि-नाम-रस (को आत्मिक जीवन की) खुराक (बना के) खाता रहता है। वह मनुष्य संत-जनों की चरण-धूल में स्नान करता है (मानो) वह अड़सठ तीर्थों का स्नान कर रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफलु जनमु हरि जन का उपजिआ जिनि कीनो सउतु बिधाता ॥ सगल समूह लै उधरे नानक पूरन ब्रहमु पछाता ॥२॥२१॥
मूलम्
सफलु जनमु हरि जन का उपजिआ जिनि कीनो सउतु बिधाता ॥ सगल समूह लै उधरे नानक पूरन ब्रहमु पछाता ॥२॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफलु = कामयाब। उपजिआ = पैदा हुआ। जिनि = जिस (हरि जन) ने। सउतु = (स+पुत्र) सउत्रा, पुत्र वाला (इसका विलोम संतान हीन, अ+पुत्र, पुत्र हीन)। सगल समूह = सारे साथियों को। लै = साथ ले के। उधरे = संसार समुंदर से पार गुजर जाता है। बिधाता = विधाता, कर्तार।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त का जीवन कामयाब हो जाता है, उस भक्तजन ने (मानो) परमात्मा को पुत्रवान बना दिया। हे नानक! वह मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभु के साथ गहरी सांझ बना लेता है, वह अपने और सारे ही साथियों को भी संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।2।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ माई गुर बिनु गिआनु न पाईऐ ॥ अनिक प्रकार फिरत बिललाते मिलत नही गोसाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ माई गुर बिनु गिआनु न पाईऐ ॥ अनिक प्रकार फिरत बिललाते मिलत नही गोसाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ, परमात्मा के साथ गहरी सांझ। अनिक प्रकार = कई तरह। बिललाते = बिलकते। गासाईऐ = (गो = धरती) सृष्टि के मालिक प्रभु को।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! गुरु (की शरण पड़ने) के बिना परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं पड़ सकती। और-और ही (बेमतलब) अनेक किस्मों के उद्यम करते हुए लोग भटकते फिरते हैं, पर (उन उद्यमों से) वे परमात्मा को नहीं मिल सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह रोग सोग तनु बाधिओ बहु जोनी भरमाईऐ ॥ टिकनु न पावै बिनु सतसंगति किसु आगै जाइ रूआईऐ ॥१॥
मूलम्
मोह रोग सोग तनु बाधिओ बहु जोनी भरमाईऐ ॥ टिकनु न पावै बिनु सतसंगति किसु आगै जाइ रूआईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाधिओ = बंधा रहता है, जकड़ा रहता है। भरमाईऐ = भटकते फिरते हैं। जाइ = जा के। रुआईऐ = पुकार की जाए।1।
अर्थ: (हे माँ! गुरु की शरण के बिना मनुष्य का) शरीर (माया के) मोह (शारीरिक) रोगों और ग़मों से जकड़ा रहता है, अनेक जूनियों में भटकता फिरता है। साधु-संगत (की शरण) के बिना (जूनियों के चक्कर से) ठहराव नहीं हासिल किया जा सकता। (गुरु के बिना) किसी और के पास (इस दुख की निर्विक्ति के लिए) फरियाद भी नहीं की जा सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करै अनुग्रहु सुआमी मेरा साध चरन चितु लाईऐ ॥ संकट घोर कटे खिन भीतरि नानक हरि दरसि समाईऐ ॥२॥२२॥
मूलम्
करै अनुग्रहु सुआमी मेरा साध चरन चितु लाईऐ ॥ संकट घोर कटे खिन भीतरि नानक हरि दरसि समाईऐ ॥२॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। साध = गुरु। संकट = दुख। घोर = भयानक। खिन भीतर = छिन में। दरसि = दर्शन में। समाईऐ = लीन हो जाते हैं।2।
अर्थ: हे माँ! जब मेरा मालिक प्रभु मेहर करता है, तब ही गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ा जा सकता है। हे नानक! (गुरु की कृपा से) भयानक दुख एक छिन में काटे जाते हैं, और, परमात्मा के दीदार में लीन हुआ जाता है।2।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ ठाकुर होए आपि दइआल ॥ भई कलिआण अनंद रूप होई है उबरे बाल गुपाल ॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ ठाकुर होए आपि दइआल ॥ भई कलिआण अनंद रूप होई है उबरे बाल गुपाल ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = मालिक प्रभु जी। दइआल = दयावान। कलिआण = कल्याण, सुख शांति। अनंद रूप = आनंद भरपूर। होई है = हो जाना है। उबरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। बाल गोपाल = सृष्टि के पालनहार पिता का पल्ला पकड़ने वाले बच्चे। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने जिस सेवक पर प्रभु जी दयावान होते हैं, उसके अंदर पूर्ण शांति पैदा हो जाती है। प्रभु की कृपा से आनंद भरपूर हो जाता है। सृष्टि के पालहार पिता का पल्ला पकड़ने वाले बच्चे (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुइ कर जोड़ि करी बेनंती पारब्रहमु मनि धिआइआ ॥ हाथु देइ राखे परमेसुरि सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥
मूलम्
दुइ कर जोड़ि करी बेनंती पारब्रहमु मनि धिआइआ ॥ हाथु देइ राखे परमेसुरि सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर = (बहु वचन) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मनि = मन में। परमेसुरि = परमेश्वर ने। दुरतु = दुरित, पाप।1।
अर्थ: हे भाई! जिस भाग्यशालियों ने अपने दोनों हाथ जोड़ के परमात्मा के आगे अरजोई की, परमात्मा को अपने मन में अराधा, परमात्मा ने अपना हाथ दे के उनको (संसार समुंदर में डूबने से) बचा लिया, (उनके किए पिछले) सारे पाप दूर कर दिए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर नारी मिलि मंगलु गाइआ ठाकुर का जैकारु ॥ कहु नानक जन कउ बलि जाईऐ जो सभना करे उधारु ॥२॥२३॥
मूलम्
वर नारी मिलि मंगलु गाइआ ठाकुर का जैकारु ॥ कहु नानक जन कउ बलि जाईऐ जो सभना करे उधारु ॥२॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वर नारी मिलि = नारियां वर को मिल के, ज्ञान-इंद्रिय प्रभु पति को मिल के। मंगलु = खुशी का गीत, महिमा के गीत। जैकारु = जै जै का सोहिला। जन कउ = प्रभु के सेवक से। उधार = पार उतारा।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस सेवक पर प्रभु जी दयावान हुए, उसकी) ज्ञान-इंद्रिय ने प्रभु-पति को मिल के प्रभु की महिमा के गीत गाने शुरू कर दिए। हे नानक! कह: प्रभु के उस भक्त से कुर्बान होना चाहिए जो और सब जीवों का भी पार उतारा कर लेता है।2।23।
[[0533]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देवगंधारी महला ५ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देवगंधारी महला ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने सतिगुर पहि बिनउ कहिआ ॥ भए क्रिपाल दइआल दुख भंजन मेरा सगल अंदेसरा गइआ ॥ रहाउ॥
मूलम्
अपुने सतिगुर पहि बिनउ कहिआ ॥ भए क्रिपाल दइआल दुख भंजन मेरा सगल अंदेसरा गइआ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहि = पास। बिनउ = विनय, विनती। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाले प्रभु जी। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब मैंने अपने गुरु के पास अरजोई करनी शुरू की, तो दुखों का नाश करने वाले प्यारे प्रभु जी मेरे पर दयावान हुए (प्रभु जी की कृपा से) मेरी सारी चिन्ता-फिक्र दूर हो गई। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम पापी पाखंडी लोभी हमरा गुनु अवगुनु सभु सहिआ ॥ करु मसतकि धारि साजि निवाजे मुए दुसट जो खइआ ॥१॥
मूलम्
हम पापी पाखंडी लोभी हमरा गुनु अवगुनु सभु सहिआ ॥ करु मसतकि धारि साजि निवाजे मुए दुसट जो खइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = सारा। सहिआ = सहन किया। करु = हाथ (एकवचन)। मसतकि = माथे पर। धारि = रख के। साजि निवाजे = पैदा करके सवारता है। जो = जो। खइआ = नाश करने वाले।1।
अर्थ: हे भाई! हम जीव पापी हैं, पाखण्डी हैं, लोभी हैं (परमात्मा इतना दयावान है कि वह) हमारा हरेक गुण अवगुण सहता है। जीवों को पैदा करके उनके माथे पर हाथ रख के उनका जीवन सँवारता है (जिसकी इनायत से कामादिक) वैरी, जो आत्मिक जीवन का नाश करने वाले हैं, समाप्त हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परउपकारी सरब सधारी सफल दरसन सहजइआ ॥ कहु नानक निरगुण कउ दाता चरण कमल उर धरिआ ॥२॥२४॥
मूलम्
परउपकारी सरब सधारी सफल दरसन सहजइआ ॥ कहु नानक निरगुण कउ दाता चरण कमल उर धरिआ ॥२॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब सधारी = सब जीवों का सहारा देने वाला। सहजइआ = आत्मिक अडोलता देने वाला। उर = हृदय।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी परोपकारी हैं, सारे जीवों को आसरा देने वाले हैं, प्रभु का दीदार मानव जीवन के लिए फल-दायक है, आत्मिक अडोलता की दाति बख्शने वाला है।
हे नानक! कह: प्रभु गुण-हीन जीवों को भी दातें देने वाला है। मैंने उसके सुंदर कोमल चरण (गुरु की कृपा से अपने) हृदय में बसा लिए हैं।2।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ अनाथ नाथ प्रभ हमारे ॥ सरनि आइओ राखनहारे ॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ अनाथ नाथ प्रभ हमारे ॥ सरनि आइओ राखनहारे ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनाथ नाथ = हे निआसरों का आसरा! हे निखसमों का खसम! राखनहारे = हे सहायता करने में समर्थ प्रभु!। रहाउ।
अर्थ: हे अनाथों के नाथ! हे मेरे राखनहार प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब पाख राखु मुरारे ॥ आगै पाछै अंती वारे ॥१॥
मूलम्
सरब पाख राखु मुरारे ॥ आगै पाछै अंती वारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब पाख = सारे पक्ष। मुरारे = हे मुरारी! आगै = परलोक में। पाछै = इस लोक में।1।
अर्थ: हे मुरारी! परलोक में, इस लोक में, आखिरी समय में- हर जगह मेरी सहायता कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब चितवउ तब तुहारे ॥ उन सम्हारि मेरा मनु सधारे ॥२॥
मूलम्
जब चितवउ तब तुहारे ॥ उन सम्हारि मेरा मनु सधारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चितवउ = मैं चेते करता हूँ। उन समारि = (तेरे) उन (गुणों) को याद करके। सधारे = सहारा पकड़ता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! मैं जब भी याद करता हूँ तेरे गुण ही याद करता हूँ। (तेरे) उन (गुणों) को याद करके मेरे मन को धैर्य मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि गावउ गुर बचनारे ॥ बलि बलि जाउ साध दरसारे ॥३॥
मूलम्
सुनि गावउ गुर बचनारे ॥ बलि बलि जाउ साध दरसारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनि = सुन के। गावउ = मैं गाता हूँ। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = कुर्बान। साध = गुरु।3।
अर्थ: हे प्रभु! मैं गुरु के दीदार से कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ। गुरु के वचन सुन के ही (हे प्रभु!) मैं (तेरी महिमा के गीत) गाता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन महि राखउ एक असारे ॥ नानक प्रभ मेरे करनैहारे ॥४॥२५॥
मूलम्
मन महि राखउ एक असारे ॥ नानक प्रभ मेरे करनैहारे ॥४॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखउ = रखूँ, मैं रखता हूँ। असारे = आस। करनैहारे = हे कर्तार!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हे मेरे कर्तार! मैं अपने मन में सिर्फ तेरी ही सहायता की आस रखता हूँ।4।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ प्रभ इहै मनोरथु मेरा ॥ क्रिपा निधान दइआल मोहि दीजै करि संतन का चेरा ॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ प्रभ इहै मनोरथु मेरा ॥ क्रिपा निधान दइआल मोहि दीजै करि संतन का चेरा ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनोरथु = मन की तमन्ना। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! मोहि = मुझे। दीजै = दे। चेरा = दास। रहाउ।
अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभु! हे दयालु प्रभु! मेरे मन की यही तमन्ना है कि मुझे ये दान दे कि मुझे अपने संतों का सेवक बनाए रख। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातहकाल लागउ जन चरनी निस बासुर दरसु पावउ ॥ तनु मनु अरपि करउ जन सेवा रसना हरि गुन गावउ ॥१॥
मूलम्
प्रातहकाल लागउ जन चरनी निस बासुर दरसु पावउ ॥ तनु मनु अरपि करउ जन सेवा रसना हरि गुन गावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रातहकाल = सुबह, सवेर। लागउ = लगूँ, मैं लगूँ। निस = रात। बासुर = दिन। पावउ = पाऊँ। अरपि = भेटा करके। करउ = करूँ। रसना = जीभ (से)। गावउ = गाऊँ।1।
अर्थ: हे प्रभु! सवेरे (उठ के) मैं तेरे संतजनों के चरण लगूँ, दिन-रात मैं तेरे संत-जनों के दर्शन करता रहूँ। अपना शरीर अपना मन भेटा करके मैं (सदा) संत-जनों की सेवा करता रहूँ, और अपनी जीभ से मैं हरि गुण गाता रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासि सासि सिमरउ प्रभु अपुना संतसंगि नित रहीऐ ॥ एकु अधारु नामु धनु मोरा अनदु नानक इहु लहीऐ ॥२॥२६॥
मूलम्
सासि सासि सिमरउ प्रभु अपुना संतसंगि नित रहीऐ ॥ एकु अधारु नामु धनु मोरा अनदु नानक इहु लहीऐ ॥२॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। सिमरउ = स्मरण करूँ। संगि = संगत में। रहीऐ = रहना चाहिए। अधारु = आसरा। मोरा = मेरा। लहीऐ = लेना चाहिए।2।
अर्थ: (हे भाई! मेरी तमन्ना है कि) मैं हरेक श्वास के साथ अपने प्रभु का स्मरण करता रहूँ। हे भाई! (कह: मेरी चाहत है कि) सिर्फ परमात्मा का नाम-धन ही मेरा जीवन-आसरा बना रहे। (हे भाई! नाम-स्मरण का) ये आनंद (सदा) लेते रहना चाहिए।2।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीता ऐसे हरि जीउ पाए ॥ छोडि न जाई सद ही संगे अनदिनु गुर मिलि गाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मीता ऐसे हरि जीउ पाए ॥ छोडि न जाई सद ही संगे अनदिनु गुर मिलि गाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसे मीता = ऐसे मित्र। पाए = पा लिए हैं। छोडि = छोड़ के। सद = सदा। संगे = साथ। अनदिनु = हर रोज। गुर मिलि = गुरु को मिल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैंने ऐसे मित्र प्रभु जी पा लिए हैं, जो मुझे छोड़ के नहीं जाते, सदा मेरे साथ रहते हैं, गुरु को मिल के हर वक्त उनके गुण गाता रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलिओ मनोहरु सरब सुखैना तिआगि न कतहू जाए ॥ अनिक अनिक भाति बहु पेखे प्रिअ रोम न समसरि लाए ॥१॥
मूलम्
मिलिओ मनोहरु सरब सुखैना तिआगि न कतहू जाए ॥ अनिक अनिक भाति बहु पेखे प्रिअ रोम न समसरि लाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनोहरु = मन को मोह लेने वाला हरि। सुखैना = (सुख+अयन। अयन = घर) सुखों का घर, सुखदाता। कतहू = कहीं भी। पेखे = देखे हैं। प्रिअ रोम समसरि = प्यारे के एक बाल के बराबर।1।
अर्थ: हे भाई! मेरे मन को मोह लेने वाला, मुझे सारे सुख देने वाला प्रभु मिल गया है, मुझे छोड़ के वह और कहीं भी नहीं जाता, (सुखों के इकरार करने वाले) और बहुत सारे अन्य किस्मों के (व्यक्ति) देख लिए हैं, पर कोई भी प्यारे प्रभु के एक बाल जितनी भी बराबरी नहीं कर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंदरि भागु सोभ दुआरै अनहत रुणु झुणु लाए ॥ कहु नानक सदा रंगु माणे ग्रिह प्रिअ थीते सद थाए ॥२॥१॥२७॥
मूलम्
मंदरि भागु सोभ दुआरै अनहत रुणु झुणु लाए ॥ कहु नानक सदा रंगु माणे ग्रिह प्रिअ थीते सद थाए ॥२॥१॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंदरि = हृदय मंदिर में। सोभ = शोभा। दुआरै = (प्रभु के) दर पर। अनहत = एक रस, लगातार। रुण झुण = मद्यम मद्यम हो रहा खुशी का गीत। ग्रिह थाए = गृह स्थान, जिसके हृदय घर में। सद = सदा। प्रिअ थीते = प्रभु जी टिक गए।2।1।27।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस जीव के हृदय-घर में प्रभु जी सदा के लिए आ टिकते हैं, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है, उसके हृदय-घर में भाग्य जाग पड़ते हैं, उसके हृदय में एक धीमा धीमा खुशी का गीत चलता रहता है, उसको प्रभु के दर से शोभा मिलती है।2।1।27।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ३’ के संग्रह का ये पहला शब्द है। देखें अंक १। कुल जोड़ 27 है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ दरसन नाम कउ मनु आछै ॥ भ्रमि आइओ है सगल थान रे आहि परिओ संत पाछै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ दरसन नाम कउ मनु आछै ॥ भ्रमि आइओ है सगल थान रे आहि परिओ संत पाछै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = के लिए। आछै = तमन्ना करता है। भ्रमि = भटक भटक के। सगल थान = सब जगह। रे = हे भाई! आहि = चाह के। संत पाछे = संतों के पीछे, संतों की शरण।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन करने के लिए, परमात्मा का नाम जपने के लिए, मेरे मन में चाह है। मेरा ये मन भटक-भटक के सब जगह हो आया है, अब (इसी) चाहत (के कारण) संतों की चरणीं आ पड़ा हूँ।1। रहाउ।
[[0534]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
किसु हउ सेवी किसु आराधी जो दिसटै सो गाछै ॥ साधसंगति की सरनी परीऐ चरण रेनु मनु बाछै ॥१॥
मूलम्
किसु हउ सेवी किसु आराधी जो दिसटै सो गाछै ॥ साधसंगति की सरनी परीऐ चरण रेनु मनु बाछै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। सेवी = सेवा करूँ। आराधी = आराधना करूँ। दिसटै = दिखता है। गाछै = नाशवान है। परीऐ = पड़ना चाहिए। रेनु = धूल। बाछै = मांगता है।1।
अर्थ: (हे भाई! संसार में) जो कुछ दिख रहा है वह नाशवान है, (इस वास्ते) मैं किस की सेवा करुँ? मैं किस की आराधना करूँ? हे भाई! साधु-संगत की शरण पड़ना चाहिए। मेरा मन साधु जनों के चरणों की धूल ही मांगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुगति न जाना गुनु नही कोई महा दुतरु माइ आछै ॥ आइ पइओ नानक गुर चरनी तउ उतरी सगल दुराछै ॥२॥२॥२८॥
मूलम्
जुगति न जाना गुनु नही कोई महा दुतरु माइ आछै ॥ आइ पइओ नानक गुर चरनी तउ उतरी सगल दुराछै ॥२॥२॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाना = मैंने जाना। दुतरु = दुश्वार, जिसको तैरना मुश्किल है। माइ = माया। आछै = (अस्ति) है। तउ = तब। दुराछै = दूर आछै, बुरी वासना।2।
अर्थ: हे भाई! यह माया (एक ऐसा समुंदर है जिससे) पार लांघना बहुत ही मुश्किल है, मुझे (इससे पार लांघने का) कोई तरीका नहीं आता, मुझ में कोई (ऐसा) गुण (भी) नहीं है (जिसकी सहायता से मैं इस माया-समुंदर से पार लांघ सकूँ)। हे नानक! जब मनुष्य गुरु के चरणों में आ पड़ता है तब (इसके अंदर से) सारी बुरी वासना दूर हो जाती है (और, हरि-नाम जप के संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है)।2।2।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ अम्रिता प्रिअ बचन तुहारे ॥ अति सुंदर मनमोहन पिआरे सभहू मधि निरारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ अम्रिता प्रिअ बचन तुहारे ॥ अति सुंदर मनमोहन पिआरे सभहू मधि निरारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रिता = आत्मिक जीवन देने वाले। प्रिअ = हे प्यारे! मनमोहन = हे मन को मोहने वाले! मधि = में। निरारे = हे निराले! , हे अलग रहने वाले!।1।
अर्थ: हे प्यारे! हे बेअंत सुंदर! हे प्यारे मनमोहन! हे सब जीवों में और सबसे न्यारे प्रभु! तेरी महिमा के वचन आत्मिक जीवन देने वाले हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजु न चाहउ मुकति न चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा मोहि ठाकुर ही दरसारे ॥१॥
मूलम्
राजु न चाहउ मुकति न चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा मोहि ठाकुर ही दरसारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चाहउ = चाहूँ, चाहता हूँ। मनि = मन में। चरन कमल = कमल फूल जैसे चरण। महेस = शिव। सिध = योग साधना में माहिर योगी, करामाती योगी। मोहि = मुझे।1।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मैं राज नहीं मांगता, मैं मुक्ति नहीं मांगता, (मेहर कर, सिर्फ तेरे) सुंदर कोमल चरणों का प्यार मेरे मन में टिका रहे। (हे भाई! लोग तो) ब्रहमा, शिव करामाती योगी, ऋषि, मुनि, इन्द्र (आदि के दर्शन चाहते हैं, पर) मुझे मालिक प्रभु के दर्शन ही चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीनु दुआरै आइओ ठाकुर सरनि परिओ संत हारे ॥ कहु नानक प्रभ मिले मनोहर मनु सीतल बिगसारे ॥२॥३॥२९॥
मूलम्
दीनु दुआरै आइओ ठाकुर सरनि परिओ संत हारे ॥ कहु नानक प्रभ मिले मनोहर मनु सीतल बिगसारे ॥२॥३॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआरै = दर पर। हारे = हार के। मनोहर = मन को हरने वाले, मन मोहने वाले। बिगसारे = खिल जाते हैं।2।
अर्थ: हे ठाकुर! मैं गरीब तेरे दर पर आया हूँ, मैं हार के तेरे संतों की शरण पड़ा हूँ। हे नानक! (कह: जिस मनुष्य को) मन मोहने वाले प्रभु जी मिल जाते हैं उसका मन शांत हो जाता है, खिल उठता है।2।3।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ हरि जपि सेवकु पारि उतारिओ ॥ दीन दइआल भए प्रभ अपने बहुड़ि जनमि नही मारिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ हरि जपि सेवकु पारि उतारिओ ॥ दीन दइआल भए प्रभ अपने बहुड़ि जनमि नही मारिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जप के। पारि उतारिओ = पार लंघा लिया जाता है। बहुड़ि = दुबारा। जनमि = जनम में। नही मारिओ = नहीं मारा जाता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप के परमात्मा का सेवक (संसार समुंदर से) पार लंघा लिया जाता है। दीनों पर दया करने वाले प्रभु उस सेवक के अपने बन जाते हैं, प्रभु उसको बार बार जनम-मरण में नहीं डालता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगमि गुण गावह हरि के रतन जनमु नही हारिओ ॥ प्रभ गुन गाइ बिखै बनु तरिआ कुलह समूह उधारिओ ॥१॥
मूलम्
साधसंगमि गुण गावह हरि के रतन जनमु नही हारिओ ॥ प्रभ गुन गाइ बिखै बनु तरिआ कुलह समूह उधारिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगमि = मिलाप में। गावह = आओ हम गाएं (वर्तमान काल, उत्तम पुरुष, बहुवचन)। गाइ = गा के। बिखै बनु = विषयों के जहर वाला जल (वनं कानने जले)। कुलह समूह = सारी कुलें।1।
अर्थ: हे भाई! आओ हम गुरु की संगति में बैठ के परमात्मा के गुण गाएं। हे भाई! प्रभु का सेवक (गुण गा के) अपना श्रेष्ठ मानव जनम व्यर्थ नहीं गवाता। प्रभु के गुण गा के सेवक विषयों (विषौ-विकारों) के जल से भरे संसार-समुंदर से खुद पार लांघ जाता है, अपनी सारी कुलों को भी (उसमें डूबने से) बचा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल बसिआ रिद भीतरि सासि गिरासि उचारिओ ॥ नानक ओट गही जगदीसुर पुनह पुनह बलिहारिओ ॥२॥४॥३०॥
मूलम्
चरन कमल बसिआ रिद भीतरि सासि गिरासि उचारिओ ॥ नानक ओट गही जगदीसुर पुनह पुनह बलिहारिओ ॥२॥४॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिद = हृदय। सासि गिरासि = हरेक श्वास से और ग्रास से। ओट = आसरा। गही = पकड़ी। जगदीसुर = जगत के ईश्वर का। पुनह पुनह = बारंबार।2।
अर्थ: हे भाई! सेवक के हृदय में परमात्मा के सुंदर चरण हमेशा बसते रहते हैं, सेवक हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ परमात्मा का नाम जपता रहता है। हे नानक! सेवक ने जगत के मालिक परमात्मा का आसरा लिया होता है, मैं उस सेवक से बार बार बलिहार जाता हूँ।2।4।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करत फिरे बन भेख मोहन रहत निरार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करत फिरे बन भेख मोहन रहत निरार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बन = जंगल। भेख = साधुओं वाले पहरावे। मोहन = सुंदर प्रभु। निरार = अलग।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य त्यागी साधुओं वाले) भेस करके जंगलों में भटकते फिरते हैं, सुंदर प्रभु उनसे दूर रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथन सुनावन गीत नीके गावन मन महि धरते गार ॥१॥
मूलम्
कथन सुनावन गीत नीके गावन मन महि धरते गार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथन सुनावन = (और लोगों को उपदेश) कहने सुनाने वाले। नीके = सुंदर। गार = गर्व, अहंकार।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य और लोगों को उपदेश कहने सुनाने वाले हैं, जो सुंदर-सुंदर गीत भी गाने वाले हैं वह (अपने इस गुण का) मन में अहंकार बनाए रखते हैं (मोहन प्रभु उनसे भी दूर ही रहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति सुंदर बहु चतुर सिआने बिदिआ रसना चार ॥२॥
मूलम्
अति सुंदर बहु चतुर सिआने बिदिआ रसना चार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। चार = चारु, सुंदर।2।
अर्थ: हे भाई! विद्या की बल पर जिनकी जीभ सुंदर (बोलने वाली बन जाती) है, जो देखने में बड़े सुंदर हैं, चतुर हैं, समझदार हैं (मोहन प्रभु उनसे भी अलग ही रहता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान मोह मेर तेर बिबरजित एहु मारगु खंडे धार ॥३॥
मूलम्
मान मोह मेर तेर बिबरजित एहु मारगु खंडे धार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिबरजित = बचे रहना। मारगु = रास्ता। खंडे धार = तलवार की धार जैसा बारीक।3।
अर्थ: (हे भाई! मोहन प्रभु उनके ही हृदय में बसता है जो अहंकार से, मोह से, मेर-तेर से बचे रहते हैं, पर) अहंकार से, मोह से, मेर-तेर से बचे रहना - ये रास्ता तलवार की धार जैसा बारीक है (इस पर चलना कोई आसान खेल नहीं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक तिनि भवजलु तरीअले प्रभ किरपा संत संगार ॥४॥१॥३१॥
मूलम्
कहु नानक तिनि भवजलु तरीअले प्रभ किरपा संत संगार ॥४॥१॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! तिनि = उस (मनुष्य) ने। भवजलु = संसार समुंदर। संगार = संगति।4।
अर्थ: हे नानक! उस मनुष्य ने संसार समुंदर पार कर लिया है जो प्रभु की कृपा से साधु-संगत में निवास रखता है।4।1।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै पेखिओ री ऊचा मोहनु सभ ते ऊचा ॥ आन न समसरि कोऊ लागै ढूढि रहे हम मूचा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मै पेखिओ री ऊचा मोहनु सभ ते ऊचा ॥ आन न समसरि कोऊ लागै ढूढि रहे हम मूचा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: री = हे सखी! पेखिओ = देखा है। ते = से। आन = अन्य, कोई और। समसरि = बराबर। मूचा = बहुत। ढूढि रहे = ढूँढ के रह गया हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे बहिन! मैंने देख लिया है कि वह सुंदर प्रभु बहुत ऊँचा है सबसे ऊँचा है। मैं बहुत तलाश कर करके थक चुका हूँ। कोई और उसकी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु बेअंतु अति बडो गाहरो थाह नही अगहूचा ॥ तोलि न तुलीऐ मोलि न मुलीऐ कत पाईऐ मन रूचा ॥१॥
मूलम्
बहु बेअंतु अति बडो गाहरो थाह नही अगहूचा ॥ तोलि न तुलीऐ मोलि न मुलीऐ कत पाईऐ मन रूचा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाहरो = गहरा। अगहूचा = अगह+ऊचा, इतना ऊँचा कि उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। तोलि = किसी तोल से। मोलि = किसी कीमत से। मुलीऐ = खरीदा जा सकता। कत = कहाँ? मन रूचा = मन को प्यारा लगने वाला।1।
अर्थ: वह परमात्मा बहुत बेअंत है, वह प्रभु बहुत ही गंभीर है उसकी गहराई नहीं नापी जा सकती, वह इतना ऊँचा है कि उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। किसी पत्थर से उसे तौला नहीं जा सकता, किसी कीमत से उसे खरीदा नहीं जा सकता, पता नहीं चलता कि कहाँ उस सुंदर प्रभु को तलाशें।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोज असंखा अनिक तपंथा बिनु गुर नही पहूचा ॥ कहु नानक किरपा करी ठाकुर मिलि साधू रस भूंचा ॥२॥१॥३२॥
मूलम्
खोज असंखा अनिक तपंथा बिनु गुर नही पहूचा ॥ कहु नानक किरपा करी ठाकुर मिलि साधू रस भूंचा ॥२॥१॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोज = तलाश। अनिकत = अनेक। पंथा = रास्ते। मिलि साधू = गुरु को मिल के। भूंचा = भोगा, खाया।2।
अर्थ: अनेक तलाश करें, अनेक रास्ते देखें (कुछ नहीं बन सकता), गुरु की शरण पड़े बिना उस प्रभु के चरणों में नहीं पड़ सकते। हे नानक! कह: प्रभु ने जिस मनुष्य पर कृपा की, वह गुरु को मिल के उसके नाम का रस भोगता है।2।1।32।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ५’ का पहला शब्द है। अंक १।
[[0535]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ मै बहु बिधि पेखिओ दूजा नाही री कोऊ ॥ खंड दीप सभ भीतरि रविआ पूरि रहिओ सभ लोऊ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ मै बहु बिधि पेखिओ दूजा नाही री कोऊ ॥ खंड दीप सभ भीतरि रविआ पूरि रहिओ सभ लोऊ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु बिधि = बहुत से तरीकों से। री = हे बहन! खंड = धरती के हिस्से। दीप = सात द्वीप, सारे देश। रविआ = मौजूद। लोऊ = लोक, भवन।1। रहाउ।
अर्थ: हे बहन! मैंने इस अनेक रंगों वाले जगत को (ध्यान से) देखा है, मुझे इसमें परमात्मा के बिना और कोई नहीं दिखता। हे बहन! धरती के सारे खण्डों में, देशों में सभी में परमात्मा ही मौजूद है, सब भवनों में परमात्मा ही व्यापक है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगमा कवन महिमा मनु जीवै सुनि सोऊ ॥ चारि आसरम चारि बरंना मुकति भए सेवतोऊ ॥१॥
मूलम्
अगम अगमा कवन महिमा मनु जीवै सुनि सोऊ ॥ चारि आसरम चारि बरंना मुकति भए सेवतोऊ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगंमा = अगम्य (पहुँच से परे)। महिंमा = महिमा। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। सुनि = सुन के। सोऊ = शोभा। चारि आसरम = (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्त, सन्यास)। चारि वरंना = (ब्राह्मण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। सेवतोऊ = सेवत ही, सेवा भक्ति करने से।1।
अर्थ: हे बहन! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, हम जीवों की बुद्धि उस तक नहीं पहुँच सकती। उसकी महिमा कोई भी बयान नहीं कर सकता। हे बहन! उसकी शोभा सुन-सुन के मेरे मन को आत्मिक जीवन मिल रहा है। चारों आश्रमों, चारों वर्णों के जीव उसकी सेवा-भक्ति कर के (माया के बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि सबदु द्रिड़ाइआ परम पदु पाइआ दुतीअ गए सुख होऊ ॥ कहु नानक भव सागरु तरिआ हरि निधि पाई सहजोऊ ॥२॥२॥३३॥
मूलम्
गुरि सबदु द्रिड़ाइआ परम पदु पाइआ दुतीअ गए सुख होऊ ॥ कहु नानक भव सागरु तरिआ हरि निधि पाई सहजोऊ ॥२॥२॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। दुतीअ = मेरे तेर, परमात्मा के बिना किसी और के अस्तित्व का ख्याल। भव सागरु = संसार समुंदर। निधि = खजाना। सहजोऊ = आत्मिक अडोलता।2।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के हृदय में गुरु ने अपना शब्द पक्का करके टिका दिया उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, उसके अंदर से मेर-तेर दूर हो गई, उसको आत्मिक आनंद मिल गया, उसने संसार-समुंदर पार कर लिया, उसको परमात्मा का नाम-खजाना मिल गया, उसको आत्मिक अडोलता हासिल हो गई।2।2।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकै रे हरि एकै जान ॥ एकै रे गुरमुखि जान ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एकै रे हरि एकै जान ॥ एकै रे गुरमुखि जान ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै = एक (परमात्मा) ही। रे = हे भाई! जान = समझ, निश्चय कर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हर जगह एक परमात्मा को ही बसता समझ। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर एक परमात्मा को ही (हर जगह बसता) समझ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे भ्रमत हउ तुम भ्रमहु न भाई रविआ रे रविआ स्रब थान ॥१॥
मूलम्
काहे भ्रमत हउ तुम भ्रमहु न भाई रविआ रे रविआ स्रब थान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे = क्यों? भ्रमत हउ = तू भटकता है। भाई = हे भाई! स्रब थान = सब जगह।1।
अर्थ: हे भाई! तुम क्यों भटकते हो? भटकना त्याग दो। हे भाई! परमात्मा सब जगह में व्याप रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ बैसंतरु कासट मझारि बिनु संजम नही कारज सारि ॥ बिनु गुर न पावैगो हरि जी को दुआर ॥ मिलि संगति तजि अभिमान कहु नानक पाए है परम निधान ॥२॥१॥३४॥
मूलम्
जिउ बैसंतरु कासट मझारि बिनु संजम नही कारज सारि ॥ बिनु गुर न पावैगो हरि जी को दुआर ॥ मिलि संगति तजि अभिमान कहु नानक पाए है परम निधान ॥२॥१॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसंतरु = आग। कासट मझारि = लकड़ी में (काष्ट, काठ)। संजम = जुगति, मर्यादा। सारि = सारे, सिरे चढ़ता। को = का। दुआर = दरवाजा। मिलि = मिल के। तजि = त्याग के। परम निधान = सबसे श्रेष्ठ (नाम-) खजाना।2।
अर्थ: हे भाई! जैसे (हरेक) लकड़ी में आग (बसती है, पर) जुगति के बिना (वह आग हासिल नहीं की जा सकती, और, आग से किए जाने वाले) काम सिरे नहीं चढ़ सकते। (इसी तरह, चाहे परमात्मा हर जगह बस रहा है, पर) गुरु को मिले बिना कोई मनुष्य परमात्मा का दर नहीं पा सकेगा। हे नानक! कह: साधु-संगत में मिल के अपना अहंकार त्याग के सबसे श्रेष्ठ (नाम-) खजाना मिल जाता है।2।1।34।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी ५ ॥ जानी न जाई ता की गाति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी ५ ॥ जानी न जाई ता की गाति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता की = उस (परमात्मा) की। गाति = गति, अवस्था, आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा की आत्मक अवस्था समझी नहीं जा सकती (कि परमात्मा कैसा है; ये बात जानी नहीं जा सकती)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कह पेखारउ हउ करि चतुराई बिसमन बिसमे कहन कहाति ॥१॥
मूलम्
कह पेखारउ हउ करि चतुराई बिसमन बिसमे कहन कहाति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कह = कहाँ? पेखारउ = मैं दिखाऊँ। हउ = मैं। करि = कर के। बिसमन बिसमे = हैरान से हैरान, बहुत ही हैरान। कहन = कथन, बयान। कहाति = कहते, जो कहते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! अपनी अकल का जोर लगा के मैं वह परमात्मा कहाँ से दिखाऊँ? (नहीं दिखा सकता)। जो मनुष्य उसे बयान करने का प्रयत्न करते हैं वे भी हैरान ही रह जाते हैं (उसका स्वरूप कहा नहीं जा सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गण गंधरब सिध अरु साधिक ॥ सुरि नर देव ब्रहम ब्रहमादिक ॥ चतुर बेद उचरत दिनु राति ॥ अगम अगम ठाकुरु आगाधि ॥ गुन बेअंत बेअंत भनु नानक कहनु न जाई परै पराति ॥२॥२॥३५॥
मूलम्
गण गंधरब सिध अरु साधिक ॥ सुरि नर देव ब्रहम ब्रहमादिक ॥ चतुर बेद उचरत दिनु राति ॥ अगम अगम ठाकुरु आगाधि ॥ गुन बेअंत बेअंत भनु नानक कहनु न जाई परै पराति ॥२॥२॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गण = शिव जी के सेवक। गंधरब = देवताओं के रागी। सिध = करामाती योगी। अरु = और। साधिक = योग साधना करने वाले। सुरिनर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। ब्रहम = परमात्मा को जानने वाले। ब्रहमादिक = ब्रह्मा जैसे देवते। चतुर = चार। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। आगाधि = अथाह। भनु = कह, कहिए। नानक = हे नानक! परै पराति = परे से परे।2।
अर्थ: हे भाई! शिव जी के गुण, देवताओं के रागी, करामाती योगी, योग-साधना करने वाले, दैवी गुणों वाले मनुष्य, देवते, ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मा आदि बड़े देवतागण, चारों वेद (उस परमात्मा के गुणों को) दिन-रात उच्चारण करते हैं। फिर भी उस परमात्मा तक (अपनी अकल के जोर से) पहुँच नहीं सकते, वह अगम्य (पहुँच से परे) है वह अथाह है।
हे नानक! कह: परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह बेअंत है, उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह परे से परे है।2।2।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ धिआए गाए करनैहार ॥ भउ नाही सुख सहज अनंदा अनिक ओही रे एक समार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ धिआए गाए करनैहार ॥ भउ नाही सुख सहज अनंदा अनिक ओही रे एक समार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआए = ध्यान करता है। गाए = गाता है। करनैहार = विधाता कर्तार को। सहज = आत्मक अडोलता। अनिक = अनेक रूपों वाला। उही = वही, वह (परमात्मा) ही। रे = हे भाई! समार = संभाल, हृदय में संभाल के रख।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य विधाता परमात्मा का ध्यान धरता है कर्तार के गुण गाता है, उसे कोई डर छू नहीं सकता, उसे आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद मिले रहते हैं। हे भाई! तू उस कर्तार को अपने हृदय में संभाल के रख, वही एक है और वही अनेक रूपों वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल मूरति गुरु मेरै माथै ॥ जत कत पेखउ तत तत साथै ॥ चरन कमल मेरे प्रान अधार ॥१॥
मूलम्
सफल मूरति गुरु मेरै माथै ॥ जत कत पेखउ तत तत साथै ॥ चरन कमल मेरे प्रान अधार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल मूरति = जिसके स्वरूप का दर्शन फल देता है। मेरै माथै = मेरे माथे पर। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = मैं देखता हूँ। तत तत = वहीं वहीं ही। प्रान अधार = प्राणों का आसरा।1।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु के दर्शन जीवन के फल देने वाले हैं वह मेरे माथे पर (अपना हाथ रखे हुए है, उसकी इनायत से) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही परमात्मा मुझे अपने साथ बसता प्रतीत होता है, उस परमात्मा के सुंदर चरण मेरे प्राणों का आसरा बन गए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समरथ अथाह बडा प्रभु मेरा ॥ घट घट अंतरि साहिबु नेरा ॥ ता की सरनि आसर प्रभ नानक जा का अंतु न पारावार ॥२॥३॥३६॥
मूलम्
समरथ अथाह बडा प्रभु मेरा ॥ घट घट अंतरि साहिबु नेरा ॥ ता की सरनि आसर प्रभ नानक जा का अंतु न पारावार ॥२॥३॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = हरेक ताकत का मालिक। घट = शरीर। साहिबु = मालिक। ताकी = देखी है। आसर = आसरा। जा का = जिस (परमात्मा) का। परावार = पार अवार, इस पार उस पार का छोर।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैंने उस परमात्मा की शरण देखी है उस प्रभु का आसरा चाहा है जिस (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस (के स्वरूप) का इस पार उस पार की थाह नहीं लगाई जा सकती।2।3।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ५ ॥ उलटी रे मन उलटी रे ॥ साकत सिउ करि उलटी रे ॥ झूठै की रे झूठु परीति छुटकी रे मन छुटकी रे साकत संगि न छुटकी रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ५ ॥ उलटी रे मन उलटी रे ॥ साकत सिउ करि उलटी रे ॥ झूठै की रे झूठु परीति छुटकी रे मन छुटकी रे साकत संगि न छुटकी रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलटी = उलट ले, पलट ले। सिउ = से। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। रे = हे मन! छुटकी छुटकी = जरूर टूट जाती है। साकत संगि = साकत की संगति में। न छुटकी = विकारों की ओर से खलासी नहीं होती।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा के साथ सदा टूटे रहते हैं, उनसे अपने आप को सदा परे रख, दूर रख। हे मन! साकत झूठे मनुष्य की प्रीति को भी झूठ ही समझ, ये कभी तोड़ नहीं निभती, ये जरूर टूट जाती है। फिर, साकत की संगति में रहने से विकारों से कभी भी निजात नहीं मिल सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ काजर भरि मंदरु राखिओ जो पैसै कालूखी रे ॥ दूरहु ही ते भागि गइओ है जिसु गुर मिलि छुटकी त्रिकुटी रे ॥१॥
मूलम्
जिउ काजर भरि मंदरु राखिओ जो पैसै कालूखी रे ॥ दूरहु ही ते भागि गइओ है जिसु गुर मिलि छुटकी त्रिकुटी रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काजर = काजल, कालख। भरि = भर के। मंदरु = घर। जो पैसै = जो मनुष्य (उसमें) पड़ेगा। कालूखी = कालख से भरा हुआ। गुर मिलि = गुरु को मिल के। जिसु त्रिकुटी = जिस मनुष्य की त्रिकुटी। त्रिकुटी = (त्रि = तीन, कुटी = टेड़ी लकीर) माथे की तीन टेड़ी लकीरें, त्रिकुटी, अंदरूनी गुस्सा जो माथे पर प्रकट होता है।1।
अर्थ: हे मन! जैसे कोई घर काजल से भर लिया जाए, उसमें जो भी मनुष्य प्रवेश करेगा वह कालिख से भर जाएगा (वैसे ही परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य से मुंह जोड़ने से विकारों की कालिख ही मिलेगी)। गुरु को मिल के जिस मनुष्य के माथे की त्रिकुटी मिट जाती है (जिसके अंदर से विकारों की कशिश दूर हो जाती है) वह दूर से ही साकत मनुष्य से परे परे रहता है।1।
[[0536]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागउ दानु क्रिपाल क्रिपा निधि मेरा मुखु साकत संगि न जुटसी रे ॥ जन नानक दास दास को करीअहु मेरा मूंडु साध पगा हेठि रुलसी रे ॥२॥४॥३७॥
मूलम्
मागउ दानु क्रिपाल क्रिपा निधि मेरा मुखु साकत संगि न जुटसी रे ॥ जन नानक दास दास को करीअहु मेरा मूंडु साध पगा हेठि रुलसी रे ॥२॥४॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागउ = माँगू। क्रिपाल = हे कृपा के घर! क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! न जुटसी = ना जुड़े। को = का। मूंडु = सिर। पग = पैर।2।
अर्थ: हे कृपा के घर प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! मैं तेरे पास एक दान माँगता हूँ (मेहर कर) मुझे किसी साकत का साथ ना मिले। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मुझे अपने दासों का दास बना ले, मेरा सिर तेरे संत-जनों के पैरों तले पड़ा रहे।2।4।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु देवगंधारी महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ दिन के समरथ पंथ बिठुले हउ बलि बलि जाउ ॥ गावन भावन संतन तोरै चरन उवा कै पाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सभ दिन के समरथ पंथ बिठुले हउ बलि बलि जाउ ॥ गावन भावन संतन तोरै चरन उवा कै पाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ दिन के = सदा ही। समरथ पंथ = जीवन-राह बताने की सामर्थ्य वाले। बिठुले = हे बीठल! हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले प्रभु! (बिठुल = विष्ठल, वि+स्थल, माया के प्रभाव से परे खड़ा हुआ)। हउ जाउ = मैं जाता हूँ, जाऊँ। बलि बलि = कुर्बान। उवा के चरन पाउ = उनके चरणों में पड़ा रहूँ। पाउ = मैं पड़ा रहूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले प्रभु! (मेहर कर) मैं तेरे उन संतों के चरणों में पड़ा रहूँ, और उन संतों पर से सदके जाता रहूँ, जो तेरी महिमा के गीत गाते रहते हैं, जो तुझे अच्छे लगते हैं, और, जो सदा ही जीवन-राह बताने के समर्थ हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासन बासन सहज केल करुणा मै एक अनंत अनूपै ठाउ ॥१॥
मूलम्
जासन बासन सहज केल करुणा मै एक अनंत अनूपै ठाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जास = जिस को। बासन = वासना। सहज केल = आतमक अडोलता के आनंद। करुणा मै = हे तरस स्वरूप! करुणा = तरस। मै = मय, भरपूर। अनूपै = अनूप में। ठाउ = जगह।1।
अर्थ: हे तरस स्वरूप प्रभु! (मेहर कर, मैं उन संतों के चरणों में पड़ा रहूँ) जिन्हें और कोई वासना नहीं, जो सदा आत्मिक अडोलता के रंग में रंगे रहते हैं, जो सदा तेरे बेअंत और सुंदर स्वरूप में टिके रहते हैं1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिधि सिधि निधि कर तल जगजीवन स्रब नाथ अनेकै नाउ ॥ दइआ मइआ किरपा नानक कउ सुनि सुनि जसु जीवाउ ॥२॥१॥३८॥६॥४४॥
मूलम्
रिधि सिधि निधि कर तल जगजीवन स्रब नाथ अनेकै नाउ ॥ दइआ मइआ किरपा नानक कउ सुनि सुनि जसु जीवाउ ॥२॥१॥३८॥६॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिधि सिधि = करामाती ताकतें। निधि = खजाने। कर तल = हाथों की तलियों पर। जग जीवन = हे जगत के जीवन प्रभु! स्रब नाथ = हे सभी के नाथ प्रभु! मइआ = कृपा। सुनि = सुन के। जीवाउ = जीऊँ।2।
अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभु! हे सबके नाथ प्रभु! हे अनेक नामों वाले प्रभु! रिद्धियां-सिद्धियां और निधियां तेरे हाथों की तलियों पर (सदा टिकी रहती हैं)। हे प्रभु! (अपने) दास नानक पर दया कर, मेहर कर, कृपा कर कि (तेरे संत-जनों से तेरी) महिमा सुन सुन के मैं नानक आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।2।1।38।6।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु देवगंधारी महला ९ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु देवगंधारी महला ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह मनु नैक न कहिओ करै ॥ सीख सिखाइ रहिओ अपनी सी दुरमति ते न टरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
यह मनु नैक न कहिओ करै ॥ सीख सिखाइ रहिओ अपनी सी दुरमति ते न टरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: यह मनु = ये मन। नैक = रक्ती भर भी। कहिओ = कहा हुआ उपदेश, दी हुई शिक्षा। सीख = शिक्षा। रहिओ = मैं थक गया हूँ। अपनी सी = अपनी ओर से। ते = से। टरै = टलता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! ये मन रक्ती भर भी मेरा कहा नहीं मानता। मैं अपनी ओर से इसे शिक्षा दे दे के थक गया हूँ, फिर भी यह खोटी मति से नहीं हटता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदि माइआ कै भइओ बावरो हरि जसु नहि उचरै ॥ करि परपंचु जगत कउ डहकै अपनो उदरु भरै ॥१॥
मूलम्
मदि माइआ कै भइओ बावरो हरि जसु नहि उचरै ॥ करि परपंचु जगत कउ डहकै अपनो उदरु भरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मदि = नशे में। बावरे = पागल। जसु = महिमा। उचरै = उचारता। परपंचु = दिखावा, ठगी। कउ = को। डहकै = ठगता है, छल रहा है। उदरु = पेट।1।
अर्थ: हे भाई! माया के नशे में ये मन झल्ला हुआ पड़ा है, ये कभी महिमा की वाणी नहीं उचारता, दिखावा करके दुनिया को ठगता रहता है, और, (ठगी से एकत्र किए हुए धन द्वारा) अपना पेट भरता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुआन पूछ जिउ होइ न सूधो कहिओ न कान धरै ॥ कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते काजु सरै ॥२॥१॥
मूलम्
सुआन पूछ जिउ होइ न सूधो कहिओ न कान धरै ॥ कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते काजु सरै ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआन = कुक्ता। जिउ = जैसा। सूधो = सीधा, स्वच्छ जीवन वाला। न कान धरै = ध्यान से नहीं सुनता। भजु = भजन कर। जा ते = जिससे। काजु = (मानव जीवन का जरूरी) काम। सरै = सिरे चढ़ जाए।2।
अर्थ: हे भाई! कुत्ते की पूँछ की तरह ये मन कभी सीधा नहीं होता, (किसी की भी) दी हुई शिक्षा को ध्यान से नहीं सुनता। हे नानक! (दुबारा इसे) कह: (हे मन!) परमात्मा के नाम का भजन किया कर जिसकी इनायत से तेरा जनम-उद्देश्य हल हो जाए।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ९ ॥ सभ किछु जीवत को बिवहार ॥ मात पिता भाई सुत बंधप अरु फुनि ग्रिह की नारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ९ ॥ सभ किछु जीवत को बिवहार ॥ मात पिता भाई सुत बंधप अरु फुनि ग्रिह की नारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिवहार = व्यवहार। सभ किछु = सारा, सब कुछ। को = का। जीवत को = जीवित का। मात = माँ। भाई = भ्राता। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। अरु = और। फुनि = दुबारा। ग्रिह की नारि = घर की स्त्री।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! माता, पिता, भाई, पुत्र, रिश्तेदार और घर की पत्नी भी - ये सब कुछ जीवन का ही मेल-जोल है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन ते प्रान होत जब निआरे टेरत प्रेति पुकारि ॥ आध घरी कोऊ नहि राखै घर ते देत निकारि ॥१॥
मूलम्
तन ते प्रान होत जब निआरे टेरत प्रेति पुकारि ॥ आध घरी कोऊ नहि राखै घर ते देत निकारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। प्रान = प्राण। निआरे = अलग। टेरत = कहते हैं। प्रेत = गुजर चुका, मर चुका। पुकारि = पुकार के। कोऊ = कोई भी संबंधी। घर ते = घर से। निकारि = निकाल।1।
अर्थ: हे भाई! (मौत आने पर) जब प्राण शरीर से अलग हो जाते हैं, तब (ये सारे संबंधी) ऊँचा ऊँचा कहते हैं कि ये गुजर चुका है गुजर चुका है। कोई भी संबंधी आधी घड़ी के लिए भी (उसको) घर में नहीं रखता, घर से निकाल देते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
म्रिग त्रिसना जिउ जग रचना यह देखहु रिदै बिचारि ॥ कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते होत उधार ॥२॥२॥
मूलम्
म्रिग त्रिसना जिउ जग रचना यह देखहु रिदै बिचारि ॥ कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते होत उधार ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: म्रिगत्रिसना = मृग तृष्णा, चमकती रेत प्यासे हिरन को पानी सी लगती है, वह पानी पीने के लिए दौड़ता है, चमकती रेत आगे आगे पानी ही प्रतीत होती है। दौड़ दौड़ के हिरन प्राण गवा बैठता है। रचना = खेल, संरचना। यह = ये। रिदै = हृदय में। बिचारि = विचार के। जा ते = जिससे। उधारु = पार उतारा।2।
अर्थ: हे भाई! अपने हृदय में विचार करके देख लो, ये जगत-खेल मृग-तृष्णा (ठग-नीरे) की तरह है (प्यासे हिरन के पानी के पीछे दौड़ने की तरह मनुष्य माया के पीछे दौड़-दौड़ के आत्मिक मौत मर जाता है)। हे नानक! कह: (हे भाई!) सदा परमात्मा के नाम का भजन किया कर जिसकी इनायत से (संसार के मोह से) पार-उतारा होता है।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगंधारी महला ९ ॥ जगत मै झूठी देखी प्रीति ॥ अपने ही सुख सिउ सभ लागे किआ दारा किआ मीत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवगंधारी महला ९ ॥ जगत मै झूठी देखी प्रीति ॥ अपने ही सुख सिउ सभ लागे किआ दारा किआ मीत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महि = में। प्रीति = प्यार। सिउ = से, की खातिर। सभि = सारे (संबंधी)। किआ = क्या, चाहे, यद्यपि। दारा = स्त्री।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! दुनियां में (संबन्धियों का) प्यार मैंने झूठा ही देखा है। चाहे स्त्री है चाहे मित्र हैं; सारे ही अपने-अपने सुख के खातिर ही (मनुष्य के) साथ चलते फिरते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरउ मेरउ सभै कहत है हित सिउ बाधिओ चीत ॥ अंति कालि संगी नह कोऊ इह अचरज है रीति ॥१॥
मूलम्
मेरउ मेरउ सभै कहत है हित सिउ बाधिओ चीत ॥ अंति कालि संगी नह कोऊ इह अचरज है रीति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरउ = मेरा। हित = मोह। सिउ = साथ। बाधिओ = बँधा हुआ। अंति कालि = आखिरी समय। संगी = साथी। कोऊ = कोई भी। रीति = मर्यादा, जगत चाल।1।
अर्थ: हे भाई! (सबका) चिक्त मोह से बँधा होता है (उस मोह के कारण) हर कोई यही कहता है ‘ये मेरा है ये मेरा है’। पर, आखिरी वक्त पर कोई भी साथी नहीं बनता। (जगत की) ये आश्चर्यजनक रीति चली आ रही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मूरख अजहू नह समझत सिख दै हारिओ नीत ॥ नानक भउजलु पारि परै जउ गावै प्रभ के गीत ॥२॥३॥६॥३८॥४७॥
मूलम्
मन मूरख अजहू नह समझत सिख दै हारिओ नीत ॥ नानक भउजलु पारि परै जउ गावै प्रभ के गीत ॥२॥३॥६॥३८॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! अजहू = अभी भी। सिख = शिक्षा। दै = दे के। नीत = रोजाना, सदा। भउजलु = संसार समुंदर। जउ = जब।2।
अर्थ: हे मूर्ख मन! तुझे मैं सदा शिक्षा दे दे के थक गया हूँ, तू अभी भी नहीं समझता। हे नानक! (कह: हे भाई!) जब मनुष्य परमात्मा की महिमा के गीत गाता है, तब संसार समुंदर से पार लांघ जाता है।2।3।6।38।47।