०५ गूजरी

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गूजरी महला १ चउपदे घरु १ ॥

मूलम्

रागु गूजरी महला १ चउपदे घरु १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरा नामु करी चनणाठीआ जे मनु उरसा होइ ॥ करणी कुंगू जे रलै घट अंतरि पूजा होइ ॥१॥

मूलम्

तेरा नामु करी चनणाठीआ जे मनु उरसा होइ ॥ करणी कुंगू जे रलै घट अंतरि पूजा होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चनणाठीआ = (चंदन काठ) चंदन की लकड़ी। करी = मैं करूँ। उरसा = सिल, चंदन घिसाने वाला पत्थर। करणी = उच्चा आचरण। कुंगू = कुंकुम, केसर। घट = हृदय।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) अगर मैं तेरे नाम (की याद) को चंदन की लकड़ी बना लूँ, अगर मेरा मन (उस चंदन की लकड़ी को घिसाने के लिए) पत्थर बन जाए, अगर मेरा ऊँचा आचरण (इनके साथ) केसर (बन के) मिल जाए, तो तेरी पूजा मेरे हृदय के अंदर ही पड़ी होगी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजा कीचै नामु धिआईऐ बिनु नावै पूज न होइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पूजा कीचै नामु धिआईऐ बिनु नावै पूज न होइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीचै = करनी चाहिए। पूज = पूजा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, यही पूजा करनी चाहिए। परमात्मा का नाम स्मरण के बिना और कोई पूजा (ऐसी) नहीं (जो स्वीकार हो सके)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहरि देव पखालीअहि जे मनु धोवै कोइ ॥ जूठि लहै जीउ माजीऐ मोख पइआणा होइ ॥२॥

मूलम्

बाहरि देव पखालीअहि जे मनु धोवै कोइ ॥ जूठि लहै जीउ माजीऐ मोख पइआणा होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देव = देवते, मूर्तियां। पखालीअहि = धोए जाते हैं। जूठि = विकारों के मैल। माजीऐ = मांजा जाता है, साफ पवित्र हो जाता है। मोख = विकारों से आजाद, खुला। पइआणा = प्रयाण, यात्रा, सफर।2।
अर्थ: जैसे बाहर देव-मूर्तियों को स्नान करवाते हैं, वैसे ही अगर कोई मनुष्य अपने मन को (नाम स्मरण से) धोए, तो उसके मन के विकारों की मैल उतर जाती है।, उसकी जीवात्मा शुद्ध-पवित्र हो जाती है, उसकी जीवन-यात्रा विकारों से आजाद हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पसू मिलहि चंगिआईआ खड़ु खावहि अम्रितु देहि ॥ नाम विहूणे आदमी ध्रिगु जीवण करम करेहि ॥३॥

मूलम्

पसू मिलहि चंगिआईआ खड़ु खावहि अम्रितु देहि ॥ नाम विहूणे आदमी ध्रिगु जीवण करम करेहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खड़ु = घास। अंम्रितु = (दूध जैसा) उत्तम पदार्थ। विहूणे = विहीन। ध्रिगु = घृग, धिक्कारयोग्य। करेहि = करते हैं।3।
अर्थ: (इस धरती पर मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सबसे सिकदार, उत्तम माना जाता है, पर) पशुओं को सराहना मिलती है, वे घास खाते हैं और (दूध जैसा) उत्तम पदार्थ देते हैं। नाम से विहीन मनुष्यों का जीवन धिक्कारयोग्य है क्योंकि वह (नाम को बिसार के अन्य) काम ही करते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेड़ा है दूरि न जाणिअहु नित सारे सम्हाले ॥ जो देवै सो खावणा कहु नानक साचा हे ॥४॥१॥

मूलम्

नेड़ा है दूरि न जाणिअहु नित सारे सम्हाले ॥ जो देवै सो खावणा कहु नानक साचा हे ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नेड़ा = नजदीकी, नजदीकी की सांझ, गहरी सांझ। सारे = सार लेता है। संमाले = संभाल करता है। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। हे = है।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) हूमारी और प्रभु की बहुत नजदीक की सांझ है (इतना नजदीक की कि) जो कुछ वह हमें देता है वही हम खाते हैं (खा के जीवन निर्वाह करते हैं), वह (दाता) है भी सदा (हमारे सिर पर) कायम। उसको अपने से दूर ना समझें, वह सदा हमारी सार लेता है, संभाल करता है (मूर्तियों की पूजा करने की जगह हाजिर-नाजर प्रभु को ध्याओ!)।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला १ ॥ नाभि कमल ते ब्रहमा उपजे बेद पड़हि मुखि कंठि सवारि ॥ ता को अंतु न जाई लखणा आवत जात रहै गुबारि ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला १ ॥ नाभि कमल ते ब्रहमा उपजे बेद पड़हि मुखि कंठि सवारि ॥ ता को अंतु न जाई लखणा आवत जात रहै गुबारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाभि = धुनी, विष्णु की नाभि। ते = से। उपजे = पैदा हुआ। बेद = (जिस ब्रहमा के रचे हुए) वेद। पढ़हि = (पंडित लोग) पढ़ते हैं। मुखि = मुंह से। कंठि = गले से। सवारि = सवार के, मीठी सुर से। ता को = उस परमात्मा का। गुबारि = अंधेरे में।1।
अर्थ: (पुराणों में कथा आती है कि जिस ब्रहमा के रचे हुए) वेद (पण्डित लोग) मुंह से गले से मीठी सुर में नित्य पढ़ते हैं, वह ब्रहमा विष्णु की नाभि में से उगे हुए कमल की नालि से पैदा हुआ (और अपने जन्म दाते की कुदरति का अंत ढूँढने के लिए उस नालि में चल पड़ा, कई युग उस नालि के) अंधेरे में ही आता जाता रहा, पर उसका अंत ना ढूँढ सका।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतम किउ बिसरहि मेरे प्राण अधार ॥ जा की भगति करहि जन पूरे मुनि जन सेवहि गुर वीचारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रीतम किउ बिसरहि मेरे प्राण अधार ॥ जा की भगति करहि जन पूरे मुनि जन सेवहि गुर वीचारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ बिसरहि = ना बिसर। प्राण आधार = प्राणों के आसरे। जा की = जिस की। गुर वीचारि = गुरु की बताई हुई मति के आसरे। सेवहि = सेवते हैं, स्मरण करते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी जिंदगी के आसरे प्रीतम! मुझे ना भूल तू वह है जिसकी भक्ति पूरन पुरख सदा करते रहते हैं, जिसे ऋषि-मुनि गुरु की बताई हुई समझ के आसरे सदा स्मरण करते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रवि ससि दीपक जा के त्रिभवणि एका जोति मुरारि ॥ गुरमुखि होइ सु अहिनिसि निरमलु मनमुखि रैणि अंधारि ॥२॥

मूलम्

रवि ससि दीपक जा के त्रिभवणि एका जोति मुरारि ॥ गुरमुखि होइ सु अहिनिसि निरमलु मनमुखि रैणि अंधारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवि = सूरज। ससि = चंद्रमा। दीपक = दीए। जा के = जिस प्रभु के। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। एका जोति = उस की ही ज्योति। मुरारि = (मुर अरि) परमात्मा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख, जिसका मुंह गुरु की ओर हो, जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है। अहि = दिन। निसि = रात। मनमुखि = जो अपने मन के पीछे चलता है। रैणि = रात, जिंदगी। अंधारि = अंधेरे में।2।
अर्थ: वह प्रभु इतना बड़ा है कि सूरज और चंद्रमा उसके त्रिभवणीय जगत में (मानो छोटे से) दीपक (ही) हैं, सारे जगत में उसीकी ज्योति व्यापक है। जो मनुष्य गुरु के बताए राह पर चल के उस को दिन-रात मिलता है वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसकी जिंदगी की रात (अज्ञानता के) अंधेरे में बीतती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिध समाधि करहि नित झगरा दुहु लोचन किआ हेरै ॥ अंतरि जोति सबदु धुनि जागै सतिगुरु झगरु निबेरै ॥३॥

मूलम्

सिध समाधि करहि नित झगरा दुहु लोचन किआ हेरै ॥ अंतरि जोति सबदु धुनि जागै सतिगुरु झगरु निबेरै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिध = बड़े-बड़े प्रसिद्ध जोगी। झगरा = मन से झगरा, मन को जीतने के यत्न। हेरै = देखता है, देख सकता है। किआ हेरै = क्या देख सकता है? कुछ नहीं देख सकता। निबेरै = निपटा दे।3।
अर्थ: बड़े-बड़े जोगी (अपने ही उद्यम की टेक रख के) समाधियां लगाते हैं और मन को जीतने के प्रयत्न करते हैं (पर जो मनुष्य अपने उद्यम की ही टेक रखे, उसे) वह अंदर बसती ज्योति इन आँखों से नहीं दिखती। (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है) उसका मन वाला झगड़ा गुरु समाप्त कर देता है, उसके अंदर गुरु का शब्द-रूप मीठी लगन लग पड़ती है, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति जग पड़ती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरि नर नाथ बेअंत अजोनी साचै महलि अपारा ॥ नानक सहजि मिले जगजीवन नदरि करहु निसतारा ॥४॥२॥

मूलम्

सुरि नर नाथ बेअंत अजोनी साचै महलि अपारा ॥ नानक सहजि मिले जगजीवन नदरि करहु निसतारा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुरि = देवते। नर = मनुष्य। साचै महलि = सदा स्थिर रहने वाले महल में। अपारा = हे अपार! सहजि = अडोलता में। जग जीवन = हे जगत के जीवन!।4।
अर्थ: हे नानक! (अरदास कर-) हे देवताओं और मनुष्यों के पति! हे बेअंत! हे योनि-रहित! और अटल महल में टिके रहने वाले अपार प्रभु! हे जगत के जीवन! (मेहर कर मुझे) अडोलता में निवास मिले। मेहर की निगाह करके मेरा बेड़ा पार कर।4।2।

[[0490]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गूजरी महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गूजरी महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगु इवेहा जीवणा जितु हरि प्रीति न पाइ ॥ जितु कमि हरि वीसरै दूजै लगै जाइ ॥१॥

मूलम्

ध्रिगु इवेहा जीवणा जितु हरि प्रीति न पाइ ॥ जितु कमि हरि वीसरै दूजै लगै जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार योग्य। जितु = जिस (जीने) में। जितु कंमि = जिस काम में। दूजै = माया (के मोह) में।1।
अर्थ: (हे मेरे मन!) ऐसा जीवन धिक्कारयोग्य है जिस जीवन में परमात्मा का प्यार ना बने, (ऐसा भी काम धिक्कार योग्य है) जिस काम में लगने से परमात्मा भूल जाए, और मनुष्य माया के मोह में जा फसे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा सतिगुरु सेवीऐ मना जितु सेविऐ गोविद प्रीति ऊपजै अवर विसरि सभ जाइ ॥ हरि सेती चितु गहि रहै जरा का भउ न होवई जीवन पदवी पाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा सतिगुरु सेवीऐ मना जितु सेविऐ गोविद प्रीति ऊपजै अवर विसरि सभ जाइ ॥ हरि सेती चितु गहि रहै जरा का भउ न होवई जीवन पदवी पाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मना = हे मन! जितु सेविऐ = जिसकी सेवा करने से। अवर = और की (प्रीति)। सेती = साथ। गहि रहै = जुड़ा रहे। जरा = बुढ़ापा। पदवी = दर्जा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! ऐसे गुरु की शरण पड़ना चाहिए जिसकी शरण पड़ने से परमात्मा से प्यार पैदा हो जाए, और अन्य (माया आदि) का प्यार सारा भूल जाए, (जिसकी शरण पड़ने से) परमात्मा से चित्त सदा जुड़ा रहे, और ऐसे आत्मिक जीवन का दर्जा मिल जाए जिसे कभी बुढ़ापे का डर ना हो सके (जो आत्मिक दर्जा कभी कमजोर ना हो सके)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिंद प्रीति सिउ इकु सहजु उपजिआ वेखु जैसी भगति बनी ॥ आप सेती आपु खाइआ ता मनु निरमलु होआ जोती जोति समई ॥२॥

मूलम्

गोबिंद प्रीति सिउ इकु सहजु उपजिआ वेखु जैसी भगति बनी ॥ आप सेती आपु खाइआ ता मनु निरमलु होआ जोती जोति समई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। सहजु = आत्मिक अडोलता। जैसी = आश्चर्य सी। सेती = साथ। आप सेती = मन से। आपु = स्वै भाव। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = तवज्जो, ध्यान। समई = समाई, लीन हो गई।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से प्यार डालने पर (मनुष्य के अंदर) एक (आश्चर्य जनक) आत्मिक अडोलता पैदा होती है, हैरान करने वाली भक्ति (का रंग) बनता है। अंदर-अंदर ही (मनुष्य के अंदर से) स्वैभाव (अहंकार) समाप्त हो जाता है, (जब स्वैभाव खत्म होता है) तब मन पवित्र हो जाता है, तब मनुष्य की तवज्जो रूहानी नूर में लीन रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु भागा ऐसा सतिगुरु न पाईऐ जे लोचै सभु कोइ ॥ कूड़ै की पालि विचहु निकलै ता सदा सुखु होइ ॥३॥

मूलम्

बिनु भागा ऐसा सतिगुरु न पाईऐ जे लोचै सभु कोइ ॥ कूड़ै की पालि विचहु निकलै ता सदा सुखु होइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु कोइ = हरेक जीव। कूड़ = झूठ, माया का मोह। पालि = दीवार।3।
अर्थ: (पर, हे भाई!) चाहे हरेक मनुष्य चाहता रहे किस्मत के बिना ऐसा गुरु नहीं मिलता (जिसके मिलने से मनुष्य के) अंदर से माया के मोह वाली दीवार दूर हो जाए। (जब यह दीवार निकल जाती है और हरि के साथ मिलाप हो जाता है) तब मनुष्य को सदा के लिए आनंद प्राप्त हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक ऐसे सतिगुर की किआ ओहु सेवकु सेवा करे गुर आगै जीउ धरेइ ॥ सतिगुर का भाणा चिति करे सतिगुरु आपे क्रिपा करेइ ॥४॥१॥३॥

मूलम्

नानक ऐसे सतिगुर की किआ ओहु सेवकु सेवा करे गुर आगै जीउ धरेइ ॥ सतिगुर का भाणा चिति करे सतिगुरु आपे क्रिपा करेइ ॥४॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा, स्वै। धरेइ = रख देता है। चिति = चित्त में।4।
अर्थ: हे नानक! (जिस सेवक को ऐसा गुरु मिल जाता है) वह सेवक ऐसे गुरु की क्या सेवा करता है? (बस, यही सेवा करता है कि) गुरु के आगे अपनी जीवात्मा भेटा कर देता है (भाव, वह सेवक) गुरु की मर्जी को अपने चित्त में टिका लेता है (गुरु के हुक्म में चलता है। पर भाणा अर्थात जो ईश्वर कर रहा है दे रहा है; दुख या सुख, उसे मानना भी कोई आसान खेल नहीं, जिस मनुष्य पर) गुरु स्वयं कृपा करता है (वह मनुष्य गुरु के हुक्म को सदा मानता है)।4।1।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ३ ॥ हरि की तुम सेवा करहु दूजी सेवा करहु न कोइ जी ॥ हरि की सेवा ते मनहु चिंदिआ फलु पाईऐ दूजी सेवा जनमु बिरथा जाइ जी ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ३ ॥ हरि की तुम सेवा करहु दूजी सेवा करहु न कोइ जी ॥ हरि की सेवा ते मनहु चिंदिआ फलु पाईऐ दूजी सेवा जनमु बिरथा जाइ जी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जी = हे भाई! ते = से, साथ। मनहु चिंदिआ = मन से चितवा हुआ। बिरथा = व्यर्थ।1।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ परमात्मा की सेवा भक्ति करो किसी और (देवी-देवते आदि) की सेवा-पूजा ना करो। परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से मन-इच्छित फल पा लेते हैं, किसी और (देवी-देवते आदि) की पूजा से अपनी जिंदगी ही व्यर्थ चली जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मेरी प्रीति रीति है हरि मेरी हरि मेरी कथा कहानी जी ॥ गुर प्रसादि मेरा मनु भीजै एहा सेव बनी जीउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि मेरी प्रीति रीति है हरि मेरी हरि मेरी कथा कहानी जी ॥ गुर प्रसादि मेरा मनु भीजै एहा सेव बनी जीउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रीति = जीवन जुगति। कथा कहानी = मन परचावे की बातें। प्रसादि = कृपा से। भीजै = भीग गए, पसीज जाए। बनी = फबी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से प्यार मेरी जीवन-जुगति है। परमात्मा की महिमा मेरे लिए मनोरंजन है। बस! मुझे यही सेवा-भक्ति अच्छी लगती है कि गुरु की कृपा से मेरा मन परमात्मा की याद में पतीज जाए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मेरा सिम्रिति हरि मेरा सासत्र हरि मेरा बंधपु हरि मेरा भाई ॥ हरि की मै भूख लागै हरि नामि मेरा मनु त्रिपतै हरि मेरा साकु अंति होइ सखाई ॥२॥

मूलम्

हरि मेरा सिम्रिति हरि मेरा सासत्र हरि मेरा बंधपु हरि मेरा भाई ॥ हरि की मै भूख लागै हरि नामि मेरा मनु त्रिपतै हरि मेरा साकु अंति होइ सखाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंधपु = रिश्तेदार। भाई = भ्राता। नामि = नाम से। त्रिपतै = तृप्त होता है। सखाई = साथी।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही मेरे वास्ते स्मृतियों की मर्यादा है और शास्त्रों की विचार है, परमात्मा ही मेरा रिश्तेदार है, परमात्मा ही मेरा भाई है। परमात्मा के नाम-जपने की मुझे भूख लगती है (मेरी आत्मिक जिंदगी की कायमी के लिए मुझे नाम-जपने की खुराक ही आवश्यक्ता है), परमात्मा के नाम में जुड़ने से मेरा मन (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि बिनु होर रासि कूड़ी है चलदिआ नालि न जाई ॥ हरि मेरा धनु मेरै साथि चालै जहा हउ जाउ तह जाई ॥३॥

मूलम्

हरि बिनु होर रासि कूड़ी है चलदिआ नालि न जाई ॥ हरि मेरा धनु मेरै साथि चालै जहा हउ जाउ तह जाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रासि = राशि। कूड़ी = नाशवान। हउ = मैं। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ।3।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया के धन-पदार्थों का क्या गुमान? परमात्मा के नाम के बिना और संपत्ति झूठी है, (जगत से) चलने के वक्त (मनुष्य के) साथ नहीं जाता। (सो) परमात्मा का नाम ही मेरा धन है, ये धन मेरा साथ निभाता है, मैं जहाँ भी जाता हूँ ये धन मेरे साथ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो झूठा जो झूठे लागै झूठे करम कमाई ॥ कहै नानकु हरि का भाणा होआ कहणा कछू न जाई ॥४॥२॥४॥

मूलम्

सो झूठा जो झूठे लागै झूठे करम कमाई ॥ कहै नानकु हरि का भाणा होआ कहणा कछू न जाई ॥४॥२॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झूठे = नाशवान पदार्थों में। लागै = प्यार डालता है। कमाई = कमाता है। भाणा = रजा।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य साथ ना निभने वाले पदार्थों में प्रीति लगाए रखता है, उसका जीवन ही उन पदार्थों के साथ रच-मिच जाता है, वह नित्य उन नाशवान पदार्थों की खातिर ही दौड़-भाग करता रहता है।
(पर) नानक कहता है: ये परमात्मा की रजा ही है (कि कोई हरि-नाम में मस्त है और कोई झूठे पदार्थों में लिप्त है) इस रज़ा को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता।4।2।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ३ ॥ जुग माहि नामु दुल्मभु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ बिनु नावै मुकति न होवई वेखहु को विउपाइ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ३ ॥ जुग माहि नामु दुल्मभु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ बिनु नावै मुकति न होवई वेखहु को विउपाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग माहि = जगत में, जमाने में। दुलंभु = दुर्लभ, बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मुकति = विकारों से मुक्ति। होवई = होता है। को = कोई भी पक्ष। विउपाइ = निर्णय करके।1।
अर्थ: हे भाई! जगत में (और पदार्थ तो आसानी से मिल जाते हैं, पर) परमात्मा का नाम बड़ी मुश्किल से मिलता है, ये नाम गुरु की शरण पड़ने से ही मिलता है। और, जब तक हरि नाम ना मिले तब तक विकारों से खलासी नहीं होती, बेशक कोई भी कोई और अपाय करके (निर्णय कर के) देख ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिहारी गुर आपणे सद बलिहारै जाउ ॥ सतिगुर मिलिऐ हरि मनि वसै सहजे रहै समाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बलिहारी गुर आपणे सद बलिहारै जाउ ॥ सतिगुर मिलिऐ हरि मनि वसै सहजे रहै समाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा। मनि = मन में। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से सदा कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ। अगर गुरु मिल जाए तो प्रभु मनुष्य के मन में आ बसता है, और, मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जां भउ पाए आपणा बैरागु उपजै मनि आइ ॥ बैरागै ते हरि पाईऐ हरि सिउ रहै समाइ ॥२॥

मूलम्

जां भउ पाए आपणा बैरागु उपजै मनि आइ ॥ बैरागै ते हरि पाईऐ हरि सिउ रहै समाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जां = जब। भउ = भय, अदब। बैरागु = माया की तरफ से उपरामता। ते = से। सिउ = साथ।2।
अर्थ: जब परमात्मा (किसी मनुष्य के हृदय में) अपना डर-अदब डालता है उसके मन में माया की ओर से उपरामता पैदा हो जाती है। इस उपरामता की ही इनायत से परमात्मा मिल जाता है, और, मनुष्य परमात्मा (के चरणों) से तवज्जो जोड़े रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेइ मुकत जि मनु जिणहि फिरि धातु न लागै आइ ॥ दसवै दुआरि रहत करे त्रिभवण सोझी पाइ ॥३॥

मूलम्

सेइ मुकत जि मनु जिणहि फिरि धातु न लागै आइ ॥ दसवै दुआरि रहत करे त्रिभवण सोझी पाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेइ = वह लोग (बहुवचन)। मुकत = विकारोंसे आजाद। जि = जो। जिणहि = जीतते हैं। धातु = माया। लागै = चिपकती है। दुआरि = द्वार में। रहत = रिहाइश। त्रिभवण = तीनों भवनों में व्यापक प्रभु।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपना मन जीत लेते हैं, वे माया के बंधनों से आजाद हो जाते हैं, उन पर दुबारा माया अपना जोर नहीं डाल सकती। जो मनुष्य (इन्द्रियों की पकड़ से ऊपर) चित्त-आकाश में (ऊँचे आत्मिक मण्डल में) अपना निवास बना लेता है, उसे तीन भवनों में व्यापक प्रभु की समझ आ जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक गुर ते गुरु होइआ वेखहु तिस की रजाइ ॥ इहु कारणु करता करे जोती जोति समाइ ॥४॥३॥५॥

मूलम्

नानक गुर ते गुरु होइआ वेखहु तिस की रजाइ ॥ इहु कारणु करता करे जोती जोति समाइ ॥४॥३॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से। रजाइ = रजा, मर्जी। करता = कर्तार।4

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) देखो, परमात्मा की आश्चर्य मरज़ी! (जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह) गुरु की शरण पड़ने से गुरु का रूप बन जाता है। परमात्मा खुद ही ये सबब बनाता है, (गुरु की शरण पड़े मनुष्य की) आत्मा, परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।4।3।5।

[[0491]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ३ ॥ राम राम सभु को कहै कहिऐ रामु न होइ ॥ गुर परसादी रामु मनि वसै ता फलु पावै कोइ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ३ ॥ राम राम सभु को कहै कहिऐ रामु न होइ ॥ गुर परसादी रामु मनि वसै ता फलु पावै कोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कहै = (जीभ से) कहता है। न होई = (सफलता) नहीं मिलती। परसादी = कृपा से। मनि = मन में। कोइ = कोई मनुष्य।1।
अर्थ: (अगर) हरेक मनुष्य (सिर्फ जीभ के साथ ही) परमात्मा का नाम कहता रहे, (तो निरी जीभ से) परमात्मा का नाम कहने से (सफलता) नहीं मिलती। जब किसी मनुष्य के मन में गुरु की कृपा से परमात्मा आ बसे, तब उसे उस स्मरण का फल मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि गोविंद जिसु लागै प्रीति ॥ हरि तिसु कदे न वीसरै हरि हरि करहि सदा मनि चीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अंतरि गोविंद जिसु लागै प्रीति ॥ हरि तिसु कदे न वीसरै हरि हरि करहि सदा मनि चीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। जिसु अंतरि = जिस मनुष्य के अंदर। तिसु = उस मनुष्य को। करहि = (वह मनुष्य) करते हैं (बुह वचन)। मनि = मन मे। चीति = चित्त में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के लिए प्यार बनता है, परमात्मा उस मनुष्य को कभी भूलता नहीं। (जिस मनुष्यों के अंदर प्यार बनता है) वह सदा अपने मन में चित्त में परमात्मा को याद करते रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरदै जिन्ह कै कपटु वसै बाहरहु संत कहाहि ॥ त्रिसना मूलि न चुकई अंति गए पछुताहि ॥२॥

मूलम्

हिरदै जिन्ह कै कपटु वसै बाहरहु संत कहाहि ॥ त्रिसना मूलि न चुकई अंति गए पछुताहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। कपटु = धोखा। कहाहि = कहलवाते हैं। न चुकई = नही खत्म होती। अंति = अंत के समय। गए = जब चल पड़े। पछुताहि = (तब) पछताते हैं।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के हृदय में ठगी बसती है, पर बाहरी भेस से (अपने आप को वे) संत कहलवाते हैं उनके अंदर माया की तृष्णा कभी नहीं खत्म होती, आखिर जब वे जगत से चल पड़ते हैं तब हाथ मलते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेक तीरथ जे जतन करै ता अंतर की हउमै कदे न जाइ ॥ जिसु नर की दुबिधा न जाइ धरम राइ तिसु देइ सजाइ ॥३॥

मूलम्

अनेक तीरथ जे जतन करै ता अंतर की हउमै कदे न जाइ ॥ जिसु नर की दुबिधा न जाइ धरम राइ तिसु देइ सजाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतर की = अंदर की (शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतर’ में फर्क याद रखें। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। दुबिधा = दुचित्ता पन, मन का बिखराव। देइ = देता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) अगर कोई मनुष्य अनेक तीर्थों पर स्नान का यत्न करता रहे तो भी इन यत्नों से उसके अंदर की अहंकार की मैल नहीं उतरती। और, जिस मनुष्य के मन का बिखराव दूर नहीं होता (वह माया के मोह में भटकता रहता है) उसको धर्मराज सजा देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करमु होवै सोई जनु पाए गुरमुखि बूझै कोई ॥ नानक विचहु हउमै मारे तां हरि भेटै सोई ॥४॥४॥६॥

मूलम्

करमु होवै सोई जनु पाए गुरमुखि बूझै कोई ॥ नानक विचहु हउमै मारे तां हरि भेटै सोई ॥४॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। भेटै = मिल जाता है।4।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश हो वही मनुष्य परमात्मा को मिलता है। (पर वैसे) कोई विरला मनुष्य ही गुरु की शरण पड़ के (ये भेद) समझता है। हे नानक! (कह:) जब कोई मनुष्य अपने मन में से अहंकार को मार देता है तब वही मनुष्य परमात्मा को मिलता है।4।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ३ ॥ तिसु जन सांति सदा मति निहचल जिस का अभिमानु गवाए ॥ सो जनु निरमलु जि गुरमुखि बूझै हरि चरणी चितु लाए ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ३ ॥ तिसु जन सांति सदा मति निहचल जिस का अभिमानु गवाए ॥ सो जनु निरमलु जि गुरमुखि बूझै हरि चरणी चितु लाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहचल = अडोल। निरमलु = पवित्र। जि = जो। गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करके।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस का’ में से शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य का अहंकार दूर कर देता है, उस मनुष्य को आत्मिक शांति प्राप्त हो जाती है, उसकी बुद्धि (माया-मोह में) डोलने से हट जाती है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के (ये भेद) समझ लेता है, और, परमात्मा के चरणों में अपना चित्त जोड़ता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि चेति अचेत मना जो इछहि सो फलु होई ॥ गुर परसादी हरि रसु पावहि पीवत रहहि सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि चेति अचेत मना जो इछहि सो फलु होई ॥ गुर परसादी हरि रसु पावहि पीवत रहहि सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेति = याद कर, स्मरण कर। अचेत = हे गाफ़ल! इछहि = तू चाहेगा। पावहि = तू प्राप्त करेगा। पीवत रहहि = (अगर) तू पीता रहेगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे गाफिल मन!) परमात्मा को याद करता रह, तुझे वही फल मिलेगा जो तू मांगेगा। (गुरु की शरण पड़) गुरु की कृपा से तू परमात्मा के नाम का रस हासिल कर लेगा, और तू उस रस को पीता रहेगा, तो तूझे सदा आनंद मिलता रहेगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु भेटे ता पारसु होवै पारसु होइ त पूज कराए ॥ जो उसु पूजे सो फलु पाए दीखिआ देवै साचु बुझाए ॥२॥

मूलम्

सतिगुरु भेटे ता पारसु होवै पारसु होइ त पूज कराए ॥ जो उसु पूजे सो फलु पाए दीखिआ देवै साचु बुझाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटे = मिल जाए। पारसु = लोहे को सोना बना देने वाला पत्थर। पूज = आदर मान। दीखिआ = शिक्षा। साचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।2।
अर्थ: हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरु मिल जाता है तब वह पारस बन जाता है (वह और मनुष्यों को भी ऊँचे जीवन वाला बनाने के लायक हो जाता है), जब वह पारस बनता है तब लोगों से आदर-मान पाता है। जो भी मनुष्य उसका आदर करता है वह (उच्च आत्मिक जीवन-रूप) फल प्राप्त करता है। (पारस बना हुआ मनुष्य और लोगों को उच्च जीवन की) शिक्षा देता है।, और, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम-जपने की बुद्धि देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विणु पारसै पूज न होवई विणु मन परचे अवरा समझाए ॥ गुरू सदाए अगिआनी अंधा किसु ओहु मारगि पाए ॥३॥

मूलम्

विणु पारसै पूज न होवई विणु मन परचे अवरा समझाए ॥ गुरू सदाए अगिआनी अंधा किसु ओहु मारगि पाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होवई = होगी, होती है। मारगि = (सही) रास्ते पर।3।
अर्थ: (पर, हे भाई!) पारस बने बिना (दुनिया से) आदर-मान नहीं मिलता, (क्योंकि) अपना मन स्मरण में पतीजे बिना ही वह मनुष्य और लोगों को (स्मरण की) शिक्षा देता है। जो मनुष्य खुद तो ज्ञान से वंचित है, खुद तो माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, पर अपने आप को गुरु कहलवाता है वह किसी और को (सही रास्ते पर) नहीं डाल सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक विणु नदरी किछू न पाईऐ जिसु नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी दे वडिआई अपणा सबदु वरताए ॥४॥५॥७॥

मूलम्

नानक विणु नदरी किछू न पाईऐ जिसु नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी दे वडिआई अपणा सबदु वरताए ॥४॥५॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नदरी = मेहर की नजर। परसादी = कृपा से। सबदु = महिमा की वाणी। वरताए = बाँटता है, बसाता है।4।
अर्थ: हे नानक! (किसी के वश की बात नहीं) परमात्मा की मेहर की निगाह के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता (आत्मिक जीवन की दाति नहीं मिलती)। जिस मनुष्य पर मेहर की नजर करता है वह मनुष्य ये दाति हासिल कर लेता है। गुरु की कृपा की इनायत से परमात्मा (जिस मनुष्य को) बड़ाई बख्शता है उसके हृदय में अपनी महिमा की वाणी बसाता है।4।5।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ३ पंचपदे ॥ ना कासी मति ऊपजै ना कासी मति जाइ ॥ सतिगुर मिलिऐ मति ऊपजै ता इह सोझी पाइ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ३ पंचपदे ॥ ना कासी मति ऊपजै ना कासी मति जाइ ॥ सतिगुर मिलिऐ मति ऊपजै ता इह सोझी पाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊपजै = पैदा होती है। जाइ = चली जाती है। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु से मिल पड़ें। सोझी = समझ।1।
अर्थ: हे भाई! ना ही काशी (आदि तीर्थों पर) जाने से सद्-बुद्धि पैदा होती है, ना ही काशी (आदि तीर्थों पर) ना जाने से सद्-बुद्धि दूर हो जाती है गुरु को मिलने से (मनुष्य के अंदर) सबुद्धि पैदा होती है, तब मनुष्य को यह समझ आती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कथा तूं सुणि रे मन सबदु मंनि वसाइ ॥ इह मति तेरी थिरु रहै तां भरमु विचहु जाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि कथा तूं सुणि रे मन सबदु मंनि वसाइ ॥ इह मति तेरी थिरु रहै तां भरमु विचहु जाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मन में। थिरु = अडोल। भरमु = भटकना।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! तू परमात्मा की महिमा सुना कर। हे भाई! गुरु के शब्द को अपने मन में बसाए रख। जब (महिमा की इनायत से, गुरु के शब्द की इनायत से) तेरी यह बुद्धि माया के मोह में डोलने से बची रहेगी, तब तेरे अंदर से भटकना दूर हो जाएगी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि चरण रिदै वसाइ तू किलविख होवहि नासु ॥ पंच भू आतमा वसि करहि ता तीरथ करहि निवासु ॥२॥

मूलम्

हरि चरण रिदै वसाइ तू किलविख होवहि नासु ॥ पंच भू आतमा वसि करहि ता तीरथ करहि निवासु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलविख = पाप। पंचभू = (कामादिक) पाँचों के वश में आए हुए को। वसि = वश में।2।
अर्थ: हे भाई! तू परमात्मा के चरण अपने हृदय में संभाल, तेरे पाप नाश हो जाएंगे। अगर तू (प्रभु-चरणों की इनायत से) कामादिक पाँचों के वश में आए हुए मन को अपने वश में कर ले, तो (समझ ले कि) तू तीर्थों पर ही निवास कर रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि इहु मनु मुगधु है सोझी किछू न पाइ ॥ हरि का नामु न बुझई अंति गइआ पछुताइ ॥३॥

मूलम्

मनमुखि इहु मनु मुगधु है सोझी किछू न पाइ ॥ हरि का नामु न बुझई अंति गइआ पछुताइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगधु = मूर्ख। बुझई = बूझे, समझता।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का यह मन (सदा) मूर्ख (ही टिका रहता) है, उसको (उच्च आत्मिक जीवन की) थोड़ी सी भी समझ नहीं पड़ती। वह परमात्मा के नाम (की कद्र) को नहीं समझता, आखिर वह हाथ मलता ही (जगत से) चला जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु कासी सभि तीरथ सिम्रिति सतिगुर दीआ बुझाइ ॥ अठसठि तीरथ तिसु संगि रहहि जिन हरि हिरदै रहिआ समाइ ॥४॥

मूलम्

इहु मनु कासी सभि तीरथ सिम्रिति सतिगुर दीआ बुझाइ ॥ अठसठि तीरथ तिसु संगि रहहि जिन हरि हिरदै रहिआ समाइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सतिगुरि = गुरु ने। अठसठि = (आठ और साठ) अढ़सठ। संगि = साथ। जिन हिरदै = जिनके हृदय में।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को सतिगुरु ने (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श दी (उसके वास्ते) यह मन ही काशी है, ये मन ही सारे तीर्थ है, ये मन ही सारी स्मृतियां हैं, उस मनुष्य के साथ अढ़सठ ही तीर्थ बसते हैं।
हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में सदा परमात्मा बसा रहता है (उनके वास्ते ये मन ही काशी है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक सतिगुर मिलिऐ हुकमु बुझिआ एकु वसिआ मनि आइ ॥ जो तुधु भावै सभु सचु है सचे रहै समाइ ॥५॥६॥८॥

मूलम्

नानक सतिगुर मिलिऐ हुकमु बुझिआ एकु वसिआ मनि आइ ॥ जो तुधु भावै सभु सचु है सचे रहै समाइ ॥५॥६॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हुकमु = रजा। एकु = एक परमात्मा ही। मनि = मन में। सचु = अटल। सचे = सदा स्थिर हरि में।5।
अर्थ: हे नानक! अगर मनुष्य गुरु को मिल जाए तो वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है, तो एक परमात्मा उसके मन में आ बसता है। (वह मनुष्य सदा यूँ यकीन रखता है और कहता है: हे प्रभु!) जो कुछ तुझे ठीक लगता है वह सदा अटल नियम है। (हे भाई! यदि मनुष्य को गुरु मिल जाए तो वह) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।5।6।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शब्द और अगला शब्द दोनों पाँच-पाँच बंदों वाले हैं।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ३ तीजा ॥ एको नामु निधानु पंडित सुणि सिखु सचु सोई ॥ दूजै भाइ जेता पड़हि पड़त गुणत सदा दुखु होई ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ३ तीजा ॥ एको नामु निधानु पंडित सुणि सिखु सचु सोई ॥ दूजै भाइ जेता पड़हि पड़त गुणत सदा दुखु होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। पंडित = हे पंडित! सिखु = (इस नाम को) समझ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सोई = वह (परमात्मा) ही। दूजै भाइ = माया के प्यार में। पढ़हि = तू पढ़ता है।1।
अर्थ: हे पंडित! एक हरि नाम ही (सारे गुणों का, सारे पदार्थों का) खजाना है, इस हरि नाम को सुना कर, इस हरि नाम को जपने की विधि सीख। हे पंडित! वह हरि ही सदा कायम रहने वाला है। तू माया के प्यार में (फसा रह के) जितना कुछ (जितने भी धार्मिक पुस्तक) पढ़ता है, उनको पढ़ते और विचारते तुझे सदा दुख ही लगा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि चरणी तूं लागि रहु गुर सबदि सोझी होई ॥ हरि रसु रसना चाखु तूं तां मनु निरमलु होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि चरणी तूं लागि रहु गुर सबदि सोझी होई ॥ हरि रसु रसना चाखु तूं तां मनु निरमलु होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द द्वारा। रसना = जीभ (से)। निरमलु = पवित्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे पण्डित! गुरु के शब्द में जुड़ के तू परमात्मा के चरणों में टिका रह, तो तुझे (अच्छे आत्मिक जीवन की) समझ पड़ेगी। हे पंडित! परमात्मा के नाम का रस अपनी जीभ से चखता रह, तो तेरा मन पवित्र हो जाएगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर मिलिऐ मनु संतोखीऐ ता फिरि त्रिसना भूख न होइ ॥ नामु निधानु पाइआ पर घरि जाइ न कोइ ॥२॥

मूलम्

सतिगुर मिलिऐ मनु संतोखीऐ ता फिरि त्रिसना भूख न होइ ॥ नामु निधानु पाइआ पर घरि जाइ न कोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतोखीऐ = संतोष हासिल करता है। पर घरि = पराए घर में, किसी और आसरे की तलाश में।2।
अर्थ: हे पण्डित! गुरु को मिल के मन संतोख प्राप्त कर लेता है, फिर मनुष्य को माया की प्यास, माया की भूख नहीं व्यापती। (जिस मनुष्य को गुरु से) परमात्मा का नाम-खजाना मिल जाता है वह (आसरे के वास्ते) किसी और घर में नहीं जाता (वह किसी और देवी-देवते आदि का आसरा नहीं ढूँढता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथनी बदनी जे करे मनमुखि बूझ न होइ ॥ गुरमती घटि चानणा हरि नामु पावै सोइ ॥३॥

मूलम्

कथनी बदनी जे करे मनमुखि बूझ न होइ ॥ गुरमती घटि चानणा हरि नामु पावै सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बदनी = मुंह से (वदन = मुंह)। कथनी बदनी = मुंह से ही की हुई बातें। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। घटि = हृदय में।3।
अर्थ: पर अगर कोई मनुष्य निरी मुंह की बातें ही करता रहे, और वैसे अपने मन के पीछे ही चलता रहे उसको आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। हे पंडित! गुरु की मति पर चलने से ही हृदय में (सदाचारी जीवन का) प्रकाश पैदा होता है, गुरमति लेने वाला मनुष्य परमात्मा का नाम हासिल कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सासत्र तूं न बुझही ता फिरहि बारो बार ॥ सो मूरखु जो आपु न पछाणई सचि न धरे पिआरु ॥४॥

मूलम्

सुणि सासत्र तूं न बुझही ता फिरहि बारो बार ॥ सो मूरखु जो आपु न पछाणई सचि न धरे पिआरु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। न बुझई = तू नहीं समझता। बारो बार = बारं बार। आपु = अपने आप को। पछाणई = पहचानता। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।
अर्थ: हे पण्डित! शास्त्रों को सुन-सुन के भी तूं (आत्मिक जीवन को) नहीं समझता, तभी तो तू बार-बार भटकता फिरता है। हे पण्डित! जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता वह (स्मृतियां-शास्त्र पढ़ के भी) मूर्ख (ही) है। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में कभी प्यार नहीं डाल सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचै जगतु डहकाइआ कहणा कछू न जाइ ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे जिउ तिस की रजाइ ॥५॥७॥९॥

मूलम्

सचै जगतु डहकाइआ कहणा कछू न जाइ ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे जिउ तिस की रजाइ ॥५॥७॥९॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शीर्षक का अंक ‘3 तीजा’ ध्यान से देखें। ये इशारे मात्र हिदायत है कि ‘महला १,२,३,४’ आदि को पहला, दूजा, तीजा, चौथा आदि पड़ना है। (पन्ना492)

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डहकाइआ = भटकना में डाला। तिसु भावै = उस प्रभु को भाता है।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर, हे पंडित! परमात्मा की रजा के बारे में) कुछ कहा नहीं जा सकता, उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु ने खुद ही जगत को माया की भटकना में डाला हुआ है। हे नानक! जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वह वही कुछ करता है। जैसे परमात्मा की रजा है (वैसे ही जगत लगा हुआ है)।5।7।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गूजरी महला ४ चउपदे घरु १ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गूजरी महला ४ चउपदे घरु १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के जन सतिगुर सत पुरखा हउ बिनउ करउ गुर पासि ॥ हम कीरे किरम सतिगुर सरणाई करि दइआ नामु परगासि ॥१॥

मूलम्

हरि के जन सतिगुर सत पुरखा हउ बिनउ करउ गुर पासि ॥ हम कीरे किरम सतिगुर सरणाई करि दइआ नामु परगासि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि के जन = हे हरि के सेवक! सतपुरखा = हे महा पुरख! हउ = मैं। बिनउ = (विनय) बिनती। करउ = मैं करता हूँ। कीरे = कीड़े। किरम = कृमि, छोटे से कीड़े।1।
अर्थ: हे सतिगुरु! हे परमात्मा के भक्त! हे महा पुरुख गुरु! मैं तेरे पास विनती करता हूँ। हे सतिगुरु! मैं एक कीड़ा हूँ, छोटा सा कीड़ा हूँ। तेरी शरण आया हूँ। मेहर कर, मुझे परमात्मा के नाम का प्रकाश दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मीत गुरदेव मो कउ राम नामु परगासि ॥ गुरमति नामु मेरा प्रान सखाई हरि कीरति हमरी रहरासि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मीत गुरदेव मो कउ राम नामु परगासि ॥ गुरमति नामु मेरा प्रान सखाई हरि कीरति हमरी रहरासि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। प्रान सखाई = प्राणों का साथी। कीरति = महिमा। रहरासि = राह की पूंजी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र सतिगुरु! मुझे परमात्मा का नाम (-रूप) प्रकाश दे। (मेहर कर) गुरमति द्वारा मिला हरि नाम मेरी जीवात्मा का साथी बना रहे, परमात्मा की महिमा मेरे वास्ते मेरे जीवन-राह की पूंजी बनी रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन के वडभाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि ॥२॥

मूलम्

हरि जन के वडभाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन = जिस को (बहुवचन)। त्रिपतासहि = तृप्त हो जाते हैं (बहुवचन)।2।
अर्थ: हे भाई! जिस हरि-भक्तों के हृदय में परमात्मा के नाम की श्रद्धा है, नाम जपने की खींच है, वह बड़े भाग्यशाली हैं। जब उन्हें प्रभु का नाम प्राप्त होता है वह (वह माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं। साधु-संगत में मिल के उनके अंदर गुण प्रगट हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह हरि हरि हरि रसु नामु न पाइआ ते भागहीण जम पासि ॥ जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि ॥३॥

मूलम्

जिन्ह हरि हरि हरि रसु नामु न पाइआ ते भागहीण जम पासि ॥ जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जम पासि = जम के पास, जम के वश में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जीवासि = आगे का जीना।3।
अर्थ: पर, जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम-रस हासिल नहीं किया, वे बद-किस्मत हैं, वे आत्मिक मौत के काबू में आए रहते हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं आते, साधु-संगत में नहीं आते, उन का अब तक जीवन और आगे का जीवन धिक्कारयोग्य है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि ॥ धंनु धंनु सतसंगति जितु हरि रसु पाइआ मिलि नानक नामु परगासि ॥४॥१॥

मूलम्

जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि ॥ धंनु धंनु सतसंगति जितु हरि रसु पाइआ मिलि नानक नामु परगासि ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। लिखासि = लेख। जितु = जिस के द्वारा।4।
अर्थ: हे भाई! जिस हरि-भक्तों ने गुरु की संगति प्राप्त कर ली, उनके माथे पर धुर दरगाह से लिखे लेख उघड़ पड़े। हे नानक! (कह:) साधु-संगत धन्य है जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा का नाम-रस हासिल करता है, जिसमें मिलने से मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम रौशन हो जाता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ४ ॥ गोविंदु गोविंदु प्रीतमु मनि प्रीतमु मिलि सतसंगति सबदि मनु मोहै ॥ जपि गोविंदु गोविंदु धिआईऐ सभ कउ दानु देइ प्रभु ओहै ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ४ ॥ गोविंदु गोविंदु प्रीतमु मनि प्रीतमु मिलि सतसंगति सबदि मनु मोहै ॥ जपि गोविंदु गोविंदु धिआईऐ सभ कउ दानु देइ प्रभु ओहै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोविंदु = पृथ्वी का रक्षक। मनि = मन में। मिलि = मिल के। सबदि = शब्द में। मोहै = मोह रहा है। देइ = देता है। ओहै = वही।1।
अर्थ: हे मेरे भाईयो! साधु-संगत में मिल के, गुरु के शब्द में जुड़ने के कारण प्रीतम गोविंद (मेरे) मन में (आ बसा है, और, मेरे) मन को आकर्षित कर रहा है। हे भाई! गोविंद भजन करो, हे भाई! गोविंद का ध्यान धरना चाहिए। वही गोविंद सब जीवों को दातें देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे भाई जना मो कउ गोविंदु गोविंदु गोविंदु मनु मोहै ॥ गोविंद गोविंद गोविंद गुण गावा मिलि गुर साधसंगति जनु सोहै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे भाई जना मो कउ गोविंदु गोविंदु गोविंदु मनु मोहै ॥ गोविंद गोविंद गोविंद गुण गावा मिलि गुर साधसंगति जनु सोहै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावा = मैं गाता हूँ। सोहै = सुंदर जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाईयो! मुझे पृथ्वी का मालिक प्रभु मिल गया है, गोविंद मेरे मन को आकर्षित कर रहा है। मैं अब हर वक्त गोविंद के गुण गा रहा हूँ। (हे भाई!) गुरु को मिल के साधु-संगत में मिल के (और, गोविंद के गुण गा के) मनुष्य सुंदर आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख सागर हरि भगति है गुरमति कउला रिधि सिधि लागै पगि ओहै ॥ जन कउ राम नामु आधारा हरि नामु जपत हरि नामे सोहै ॥२॥

मूलम्

सुख सागर हरि भगति है गुरमति कउला रिधि सिधि लागै पगि ओहै ॥ जन कउ राम नामु आधारा हरि नामु जपत हरि नामे सोहै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागर = समुंदर। कउला = लक्षमी। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। लागै = लगती है। पगि ओहै = उस के पैर में। आधारा = आसरा। नामे = नामि, नाम में (जुड़ के)।2।
अर्थ: हे भाईयो! जिस मनुष्य को गुरु की मति की इनायत से सुखों के समुंदर परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो जाती है, लक्ष्मी उसके चरणों में आ लगती है, हरेक रिद्धी, हरेक सिद्धी उसके पैरों में आ पड़ती है। हे भाई! हरि के भक्त को हरि के नाम का सहारा बना रहता है। परमात्मा का नाम जपते, परमात्मा के नाम में जुड़ के उसका आत्मिक जीवन सुंदर बन जाता है।2।

[[0493]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरमति भागहीन मति फीके नामु सुनत आवै मनि रोहै ॥ कऊआ काग कउ अम्रित रसु पाईऐ त्रिपतै विसटा खाइ मुखि गोहै ॥३॥

मूलम्

दुरमति भागहीन मति फीके नामु सुनत आवै मनि रोहै ॥ कऊआ काग कउ अम्रित रसु पाईऐ त्रिपतै विसटा खाइ मुखि गोहै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुरमति = बुरी मति वाले। रोहै = रोह, क्रोध। काग = कौआ। त्रिपतै = तृप्त हो जाता है। खाइ = खा के। मुखि = मुंह में।3।
अर्थ: हे भाईयो! बुरी मति पर चलने वाले बद्-किस्मत होते हैं, उनकी अपनी अकल भी हल्की ही रहती है। परमात्मा का नाम सुनते ही उनके मन में (बल्कि) क्रोध आता है। कौए के आगे कोई स्वादिष्ट भोजन रखें (तो उसको खाने की जगह) वह विष्टा खा के विष्टा मुंह में डाल के खुश होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित सरु सतिगुरु सतिवादी जितु नातै कऊआ हंसु होहै ॥ नानक धनु धंनु वडे वडभागी जिन्ह गुरमति नामु रिदै मलु धोहै ॥४॥२॥

मूलम्

अम्रित सरु सतिगुरु सतिवादी जितु नातै कऊआ हंसु होहै ॥ नानक धनु धंनु वडे वडभागी जिन्ह गुरमति नामु रिदै मलु धोहै ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितसरु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल का सरोवर। सतिवादी = सदा स्थिर हरि का नाम उच्चारने वाला। जितु = जिस में। नातै = स्नान करने से। होहै = हो जाता है। धोहै = धोता है।4।
अर्थ: हे भाईयो! सदा-स्थिर हरि का नाम जपने वाला सतिगुरु आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का सरोवर है, उस गुरु-सरोवर में नहाने से (आत्मिक डुबकी लगाने से) कौआ भी (सदा विकारों के गंद में खुश रहने वाला मनुष्य भी) हंस बन जाता है (हरि-नाम-ज्योति का प्रेमी बन जाता है)। हे नानक! वो मनुष्य धन्य हैं, बड़े भाग्यशाली हैं, गुरमति से मिला हरि-नाम जिनके हृदय की मैल धोता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ४ ॥ हरि जन ऊतम ऊतम बाणी मुखि बोलहि परउपकारे ॥ जो जनु सुणै सरधा भगति सेती करि किरपा हरि निसतारे ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ४ ॥ हरि जन ऊतम ऊतम बाणी मुखि बोलहि परउपकारे ॥ जो जनु सुणै सरधा भगति सेती करि किरपा हरि निसतारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त। मुखि = मुंह से। बोलहि = बोलते हैं। पर उपकारे = दूसरों की भलाई करने के लिए। सेती = साथ। निसतारे = (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के संत जन ऊँचे जीवन वाले होते हैं; उनके वचन श्रेष्ठ होते हैं, ये श्रेष्ठ वचन वे अपने मुंह से लोगों की भलाई के लिए बोलते हैं। जो मनुष्य संत जनों के उत्तम वचन श्रद्धा से सुनता है प्यार से सुनता है, परमात्मा कृपा करके उसको (भव-सागर से) पार लंघा देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम मो कउ हरि जन मेलि पिआरे ॥ मेरे प्रीतम प्रान सतिगुरु गुरु पूरा हम पापी गुरि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम मो कउ हरि जन मेलि पिआरे ॥ मेरे प्रीतम प्रान सतिगुरु गुरु पूरा हम पापी गुरि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे राम! मेलि = मेल, मिलाप। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे राम! मुझे अपने संत जन मिला। हे भाई! पूरा सतिगुरु मुझे अपने प्राणों जितना प्यारा है। मुझ पापी को गुरु ने (संसार समुंदर से) पार लंघा लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि वडभागी वडभागे जिन हरि हरि नामु अधारे ॥ हरि हरि अम्रितु हरि रसु पावहि गुरमति भगति भंडारे ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि वडभागी वडभागे जिन हरि हरि नामु अधारे ॥ हरि हरि अम्रितु हरि रसु पावहि गुरमति भगति भंडारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। अधारे = आसरा। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। भंडारे = खजाने।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य बड़े भाग्यों वाले बन जाते हैं क्योंकि परमात्मा का नाम उनकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, वह आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस प्राप्त कर लेता है। गुरु की मति पर चलने से (उनके अंदर) प्रभु-भक्ति के खजाने भर जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन दरसनु सतिगुर सत पुरख न पाइआ ते भागहीण जमि मारे ॥ से कूकर सूकर गरधभ पवहि गरभ जोनी दयि मारे महा हतिआरे ॥३॥

मूलम्

जिन दरसनु सतिगुर सत पुरख न पाइआ ते भागहीण जमि मारे ॥ से कूकर सूकर गरधभ पवहि गरभ जोनी दयि मारे महा हतिआरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = वह लोग। जमि = जम के, आत्मिक मौत ने। से = वह लोग। कूकर = कुत्ते। सूकर = सूअर। गरधभ = खोते। पवहि = पड़ते हैं। दयि = प्यारे प्रभु ने। मारे = आत्मिक मौत मारे हुए हैं। हतिआरे = निर्दई।3।
अर्थ: पर जिस मनुष्यों ने महापुरुष सतिगुरु के दर्शन नहीं किए वे अपनी किस्मत हार बैठते हैं, आत्मिक मौत ने उन्हें मार लिया होता है। वह मनुष्य कुत्ते, सूअर, गधे आदि जूनियों में पड़े रहते हैं, उन निर्दयी मनुष्यों को परमात्मा ने आत्मिक मौत मार दिया होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन दइआल होहु जन ऊपरि करि किरपा लेहु उबारे ॥ नानक जन हरि की सरणाई हरि भावै हरि निसतारे ॥४॥३॥

मूलम्

दीन दइआल होहु जन ऊपरि करि किरपा लेहु उबारे ॥ नानक जन हरि की सरणाई हरि भावै हरि निसतारे ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लेहु उबारे = बचा ले। भावै = पसंद आता है।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! अपने दास पर मेहर कर, और, दास को (संसार समुंदर से) बचा ले। हे भाई! परमात्मा के सेवक परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, जब परमात्मा को अच्छा लगता है वह उन्हें (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ४ ॥ होहु दइआल मेरा मनु लावहु हउ अनदिनु राम नामु नित धिआई ॥ सभि सुख सभि गुण सभि निधान हरि जितु जपिऐ दुख भुख सभ लहि जाई ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ४ ॥ होहु दइआल मेरा मनु लावहु हउ अनदिनु राम नामु नित धिआई ॥ सभि सुख सभि गुण सभि निधान हरि जितु जपिऐ दुख भुख सभ लहि जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लावहु = लगाओ, जोड़ो। हउ = मैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। धिआई = मैं स्मरण करता रहूँ। सभि = सारे। निधान = खजाने। जितु जपीऐ = जिस का नाम जपने से। लहि जाई = उतर जाती है।1।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे पर दयावान होवो, मेरा मन (अपने चरणों में) जोड़े रखो, मैं हर समय सदा तेरा ही नाम स्मरण करता रहूँ। हे मेरे मन! सारे सुख सारे खजाने उस परमात्मा के ही पास हैं, जिसका नाम जपने से सारे दुख (दूर हो जाते हैं), (माया की) सारी भूख उतर जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे मेरा राम नामु सखा हरि भाई ॥ गुरमति राम नामु जसु गावा अंति बेली दरगह लए छडाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे मेरा राम नामु सखा हरि भाई ॥ गुरमति राम नामु जसु गावा अंति बेली दरगह लए छडाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सखा = मित्र। भाई = भ्राता। गावा = मैं गाता हूँ। अंति = आखिरी समय।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम मेरा मित्र है मेरा भाई है। मैं गुरु की शिक्षा की इनायत से परमात्मा के महिमा के गीत गाता हूँ। आखिरी वक्त पर परमात्मा का नाम ही मददगार बनता है, प्रभु की हजूरी में नाम ही सही स्वीकार करवाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं आपे दाता प्रभु अंतरजामी करि किरपा लोच मेरै मनि लाई ॥ मै मनि तनि लोच लगी हरि सेती प्रभि लोच पूरी सतिगुर सरणाई ॥२॥

मूलम्

तूं आपे दाता प्रभु अंतरजामी करि किरपा लोच मेरै मनि लाई ॥ मै मनि तनि लोच लगी हरि सेती प्रभि लोच पूरी सतिगुर सरणाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभू = मालिक। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। लोच = तमन्ना। मनि = मन में। मै तनि = मेरे हृदय में। सेती = साथ। प्रभि = प्रभु ने।2।
अर्थ: हे हरि! तू खुद ही सब दातें देने वाला है, तू खुद ही (सबका) मालिक है, तू सबके दिल की जानने वाला है। तूने खुद ही मेहर करके मेरे मन में अपनी भक्ति की चाहत पैदा की हुई है। हे भाई! मेरे मन में मेरे हृदय में परमात्मा के साथ मिलाप की चाहत पैदा हुई पड़ी है। परमात्मा ने मुझे सतिगुरु की शरण में ला कर मेरी चाहत पूरी कर दी है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माणस जनमु पुंनि करि पाइआ बिनु नावै ध्रिगु ध्रिगु बिरथा जाई ॥ नाम बिना रस कस दुखु खावै मुखु फीका थुक थूक मुखि पाई ॥३॥

मूलम्

माणस जनमु पुंनि करि पाइआ बिनु नावै ध्रिगु ध्रिगु बिरथा जाई ॥ नाम बिना रस कस दुखु खावै मुखु फीका थुक थूक मुखि पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुंनि = पुण्य, भले कर्म, अच्छी किस्मत। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। बिरथा = व्यर्थ। रस कस = कई किसम के पदार्थ। मुखि = मुंह पर। थुक पाई = थूकती है, फिटकार डालती है।3।
अर्थ: हे भाई! मानव जनम बड़ी किस्मत से मिलता है, पर परमात्मा के नाम स्मरण के बिना (मानव जन्म) धिक्कार-योग्य हो जाता है, नाम के बिना व्यर्थ चला जाता है। मनुष्य प्रभु का नाम भुला के दुनिया के अनेक किस्म के पदार्थ खाता रहता है, दुख ही सहेड़ता है, मुंह से फीके बोल बोलता रहता है, दुनिया इसे धिक्कारें ही डालती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जन हरि प्रभ हरि हरि सरणा तिन दरगह हरि हरि दे वडिआई ॥ धंनु धंनु साबासि कहै प्रभु जन कउ जन नानक मेलि लए गलि लाई ॥४॥४॥

मूलम्

जो जन हरि प्रभ हरि हरि सरणा तिन दरगह हरि हरि दे वडिआई ॥ धंनु धंनु साबासि कहै प्रभु जन कउ जन नानक मेलि लए गलि लाई ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिन = उनको। दे = देता है। गलि = गले से। लाई = लगा के।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, उनको परमात्मा अपनी हजूरी में आदर मान देता है। हे नानक! परमात्मा अपने सेवक को ‘धन्य धन्य’ कहता है, ‘शाबाश’ कहता है, अपने सेवक को अपने गले से लगा के अपने चरणों में जोड़ लेता है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ४ ॥ गुरमुखि सखी सहेली मेरी मो कउ देवहु दानु हरि प्रान जीवाइआ ॥ हम होवह लाले गोले गुरसिखा के जिन्हा अनदिनु हरि प्रभु पुरखु धिआइआ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ४ ॥ गुरमुखि सखी सहेली मेरी मो कउ देवहु दानु हरि प्रान जीवाइआ ॥ हम होवह लाले गोले गुरसिखा के जिन्हा अनदिनु हरि प्रभु पुरखु धिआइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। सखी सहेली मेरी = हे मेरी सखियो सहेलियो! मो कउ = मुझे। प्रान जीवाइआ = जिंदा रखने वाला, आत्मिक जीवन देने वाला! हम होवह = हम होएंगे, मैं होता हूँ। लाले = दास। गोले = गुलाम। अनदिनु = हर रोज, हर समय।1।
अर्थ: हे गुरु के सन्मुख रहने वाले सिखो! हे मेरी सखी सहेलियो! मुझे आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम की दाति दो। मैं उन सिखों का दास हूँ, गुलाम हूँ, जो हर समय सर्व-व्यापक परमात्मा को स्मरण करते रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै मनि तनि बिरहु गुरसिख पग लाइआ ॥ मेरे प्रान सखा गुर के सिख भाई मो कउ करहु उपदेसु हरि मिलै मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरै मनि तनि बिरहु गुरसिख पग लाइआ ॥ मेरे प्रान सखा गुर के सिख भाई मो कउ करहु उपदेसु हरि मिलै मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। बिरहु = प्रेम, लगन। पग = पैर। सखा = मित्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी जीवात्मा के साथी गुरसिखो! हे भाईयो! (मेरे सौभाग्य से परमात्मा ने) मेरे मन में मेरे हृदय में गुरसिखों के चरणों का प्रेम पैदा कर दिया है। तुम मुझे इस तरह का उपदेश करो, (जिसकी इनायत से) तुम्हारा मिलाया परमात्मा मुझे मिल जाए।1। रहाउ।

[[0494]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा हरि प्रभ भावै ता गुरमुखि मेले जिन्ह वचन गुरू सतिगुर मनि भाइआ ॥ वडभागी गुर के सिख पिआरे हरि निरबाणी निरबाण पदु पाइआ ॥२॥

मूलम्

जा हरि प्रभ भावै ता गुरमुखि मेले जिन्ह वचन गुरू सतिगुर मनि भाइआ ॥ वडभागी गुर के सिख पिआरे हरि निरबाणी निरबाण पदु पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वचन गुरू = गुरु के वचन। भाइआ = अच्छे लगते। निरबाणी = निर्लिप। निरबाण पदु = वासना रहित आत्मिक दर्जा।2।
अर्थ: हे भाईयो! जब परमात्मा को अच्छा लगता है तब उन गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों का मिलाप कराता है जिन्हें गुरु के वचन अपने मन में प्यारे लगते हैं। गुरु के वह प्यारे सिख बहुत भाग्यशाली हैंजो निर्लिप परमात्मा को मिल के वासना-रहित आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतसंगति गुर की हरि पिआरी जिन हरि हरि नामु मीठा मनि भाइआ ॥ जिन सतिगुर संगति संगु न पाइआ से भागहीण पापी जमि खाइआ ॥३॥

मूलम्

सतसंगति गुर की हरि पिआरी जिन हरि हरि नामु मीठा मनि भाइआ ॥ जिन सतिगुर संगति संगु न पाइआ से भागहीण पापी जमि खाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगु = मेल, साथ। जमि = जम ने, आत्मिक मौत ने।3।
अर्थ: हे भाईयो! जिस मनुष्यों को परमात्मा का मीठा नाम अपने मन में प्यारा लगता है उनको सतिगुरु की साधु-संगत भी प्यारी लगती है।
पर जिस मनुष्यों को सतिगुरु की साधु-संगत का साथ पसंद नहीं आता, वह बद्-किस्मत रह जाते हैं, उन पापियों को आत्मिक मौत ने समूचा खा लिया होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि क्रिपालु क्रिपा प्रभु धारे हरि आपे गुरमुखि मिलै मिलाइआ ॥ जनु नानकु बोले गुण बाणी गुरबाणी हरि नामि समाइआ ॥४॥५॥

मूलम्

आपि क्रिपालु क्रिपा प्रभु धारे हरि आपे गुरमुखि मिलै मिलाइआ ॥ जनु नानकु बोले गुण बाणी गुरबाणी हरि नामि समाइआ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु नानकु बोले = दास नानक बोलता है। गुण बाणी = परमात्मा के गुणों से भरी वाणी। नामि = नाम में।4।
अर्थ: हे भाईयो! जब दयावान परमात्मा खुद किसी मनुष्य पर दया करता है, तब वह खुद ही उस मनुष्य को मिलाया हुआ मिल जाता है। दास नानक भी परमात्मा की महिमा वाली वाणी गुरबाणी ही (नित्य) उचारता है। गुरबाणी की इनायत से मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ४ ॥ जिन सतिगुरु पुरखु जिनि हरि प्रभु पाइआ मो कउ करि उपदेसु हरि मीठ लगावै ॥ मनु तनु सीतलु सभ हरिआ होआ वडभागी हरि नामु धिआवै ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ४ ॥ जिन सतिगुरु पुरखु जिनि हरि प्रभु पाइआ मो कउ करि उपदेसु हरि मीठ लगावै ॥ मनु तनु सीतलु सभ हरिआ होआ वडभागी हरि नामु धिआवै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन्ह = जिस मनुष्यों ने। जिनि = जिस मनुष्य ने। मो कउ = मुझे। करि = कर के। सीतल = ठंढा, शांत। हरिआ = हरा, आत्मिक जीवन देने वाला।1।
अर्थ: (हे भाई! मेरा जी करता है कि मुझे वे सज्जन मिल जाएं) जिन्होंने गुरु महापुरुख के दर्शन कर लिए हैं। (मेरा मन लोचता है कि) जिस सज्जन ने परमात्मा की प्राप्ति कर ली है वह मुझे भी शिक्षा दे के परमात्मा के साथ मेरा प्यार बना दे। (हे भाई!) जो भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसका मन उसका हृदय ठंढा-ठार हो जाता है, वह आत्मिक जीवन से शरसार (भरपूर) हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाई रे मो कउ कोई आइ मिलै हरि नामु द्रिड़ावै ॥ मेरे प्रीतम प्रान मनु तनु सभु देवा मेरे हरि प्रभ की हरि कथा सुनावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भाई रे मो कउ कोई आइ मिलै हरि नामु द्रिड़ावै ॥ मेरे प्रीतम प्रान मनु तनु सभु देवा मेरे हरि प्रभ की हरि कथा सुनावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिढ़ावै = हृदय में पक्का कर दे। देवा = देऊँ, मैं दे दूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (मेरा मन चाहता है कि) मुझे कोई (ऐसा सज्जन) आ के मिले जो मेरे हृदय में परमात्मा का नाम पक्का कर दे, जो मुझे परमात्मा की महिमा की बात सुनाता रहे, मैं उस सज्जन को अपनी जिंद अपना मन अपना तन सब कुछ दे दूँगा। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धीरजु धरमु गुरमति हरि पाइआ नित हरि नामै हरि सिउ चितु लावै ॥ अम्रित बचन सतिगुर की बाणी जो बोलै सो मुखि अम्रितु पावै ॥२॥

मूलम्

धीरजु धरमु गुरमति हरि पाइआ नित हरि नामै हरि सिउ चितु लावै ॥ अम्रित बचन सतिगुर की बाणी जो बोलै सो मुखि अम्रितु पावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धीरजु = हौसला। हरि नामै = हरि नाम में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। मुखि = मुंह में।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा हरि-नाम में लीन रहता है परमात्मा से चित्त जोड़े रखता है, वह धीरज हासिल कर लेता है, वह धर्म कमाने लग जाता है, वह गुरु की मति पर चल के परमात्मा को मिल जाता है। हे भाई! सतिगुरु की वाणी आत्मिक जीवन देने वाले वचन हैं, जो मनुष्य ये वाणी उचारता है, वह मनुष्य अपने मुंह में आत्मिक जीवन देने वाला जल डालता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमलु नामु जितु मैलु न लागै गुरमति नामु जपै लिव लावै ॥ नामु पदारथु जिन नर नही पाइआ से भागहीण मुए मरि जावै ॥३॥

मूलम्

निरमलु नामु जितु मैलु न लागै गुरमति नामु जपै लिव लावै ॥ नामु पदारथु जिन नर नही पाइआ से भागहीण मुए मरि जावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस के द्वारा। जिन = जिन्होंने। मुए = आत्मिक मौत मर गए। मरि जावै = आत्मिक मौत मर जाता है।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम पवित्र करने वाला है, इस नाम में जुड़ने से (मन को विकारों की) मैल नहीं लगती। जो मनुष्य गुरु की शिक्षा पर चल के हरि-नाम जपता है वह प्रभु-चरणों में प्रीति डाल लेता है। परमात्मा का नाम कीमती वस्तु है, जिस मनुष्यों ने यह नाम हासिल नहीं किया, वह भाग्यहीन हैं, वे आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। (जो भी मनुष्य नाम से वंचित रहता है वह) आत्मिक मौत मर जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनद मूलु जगजीवन दाता सभ जन कउ अनदु करहु हरि धिआवै ॥ तूं दाता जीअ सभि तेरे जन नानक गुरमुखि बखसि मिलावै ॥४॥६॥

मूलम्

आनद मूलु जगजीवन दाता सभ जन कउ अनदु करहु हरि धिआवै ॥ तूं दाता जीअ सभि तेरे जन नानक गुरमुखि बखसि मिलावै ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनद मूलु = आनंद का मूल, आनंद का श्रोत। जग जीवन = हे जगत के जीवन हरि! धिआवै = ध्यान धरता है। जीअ सभि = सारे जीव। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। बखसि = बख्श के।4।
अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभु! तू आनंद का श्रोत है, तू सब दातें देने वाला है, तू सब सेवकों को (आत्मिक) आनंद देता है। (जो भी मनुष्य तेरा) नाम स्मरण करता है (उसको तू आनंद की दाति देता है)। हे प्रभु! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, तू सभी को दातें देता है।
हे नानक! परमात्मा गुरु की शरण में डाल के (भाग्यशाली मनुष्य को) अपनी मेहर से अपने चरणों में जोड़ लेता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गूजरी महला ४ घरु ३ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गूजरी महला ४ घरु ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माई बाप पुत्र सभि हरि के कीए ॥ सभना कउ सनबंधु हरि करि दीए ॥१॥

मूलम्

माई बाप पुत्र सभि हरि के कीए ॥ सभना कउ सनबंधु हरि करि दीए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। कीए = पैदा किए हुए। कउ = वास्ते, को। सनबंधु = (आपस का) रिश्ता, जोड़।1।
अर्थ: हे भाई! माता, पिता, पुत्र -ये सारे परमात्मा के बनाए हुए हैं। इन सबके वास्ते आपस में बीच का रिश्ता परमात्मा ने खुद ही बनाया हुआ है (सो, ये सही जीवन-राह में रुकावट नहीं हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरा जोरु सभु रहिओ मेरे बीर ॥ हरि का तनु मनु सभु हरि कै वसि है सरीर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हमरा जोरु सभु रहिओ मेरे बीर ॥ हरि का तनु मनु सभु हरि कै वसि है सरीर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = सारा। रहिओ = काम नहीं करता, नहीं चलता। बीर = हे वीर! वसि = वश में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! (परमात्मा के मुकाबले में) हमारा कोई जोर नहीं चल सकता। हमारा ये शरीर हमारा ये मन सब कुछ परमात्मा का बनाया हुआ है, हमारा शरीर परमात्मा के वश में है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत जना कउ सरधा आपि हरि लाई ॥ विचे ग्रिसत उदास रहाई ॥२॥

मूलम्

भगत जना कउ सरधा आपि हरि लाई ॥ विचे ग्रिसत उदास रहाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरधा = प्रीति। विचे = में ही। उदास = निर्लिप। रहाई = रखता है।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा खुद ही अपने भक्तों को अपने चरणों की प्रीति बख्शता है, उन भक्त-जनों को गृहस्थ में ही (माता-पिता-पुत्र-स्त्री आदि संबंधियों के बीच में रहते हुए ही) माया से निर्लिप रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब अंतरि प्रीति हरि सिउ बनि आई ॥ तब जो किछु करे सु मेरे हरि प्रभ भाई ॥३॥

मूलम्

जब अंतरि प्रीति हरि सिउ बनि आई ॥ तब जो किछु करे सु मेरे हरि प्रभ भाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। भाई = भाता है, अच्छा लगता है।3।
अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य के हृदय में परमात्मा से प्यार बन जाता है, तब मनुष्य जो कुछ करता है (रजा में ही करता है, और) मेरे परमात्मा को अच्छा लगता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितु कारै कमि हम हरि लाए ॥ सो हम करह जु आपि कराए ॥४॥

मूलम्

जितु कारै कमि हम हरि लाए ॥ सो हम करह जु आपि कराए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु कारै = जिस कार में। कंमि = काम में। हम = हमें। करह = हम करते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! जिस काम में, परमात्मा हमें लगाता है, जो काम-काज परमात्मा हमसे करवाता है, हम वही काम-काज करते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन की भगति मेरे प्रभ भाई ॥ ते जन नानक राम नाम लिव लाई ॥५॥१॥७॥१६॥

मूलम्

जिन की भगति मेरे प्रभ भाई ॥ ते जन नानक राम नाम लिव लाई ॥५॥१॥७॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ भाई = प्रभु को पसंद आती है। ते जन = वह लोग। लिव = लगन।5।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्यों की भक्ति परमात्मा को पसंद आती है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम के साथ प्यार डाल लेते हैं।5।1।7।16

[[0495]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ ॥ सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ ॥१॥

मूलम्

काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ ॥ सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहे = क्यों? चितवहि = तू चितवता है। चितवहि उदमु = तू उद्यम चितवता है, तू चिंता-फिक्र करता है। जा आहरि = जिस (रिजक) के आहर में कोशिशों में। परिआ = पड़ा हुआ है। सैल = शैल, पहाड़। ता का = उनका। आगै = पहले ही। करि = बना के।1।
अर्थ: हे मेरे मन! तू (उस रिजक की खातिर) क्यों सोचें सोचता रहता है जिस (रिजक को पहुँचाने के) आहर में परमात्मा स्वयं लगा हुआ है। (देख,) पहाडों के पत्थरों में (परमात्मा के) जीव पैदा किए हुए हैं उनका रिजक उसने पहले ही तैयार करके रख दिया होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सि तरिआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सि तरिआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधउ = (मा = माया। धउ = धव, पति। माया का पति)। हे परमात्मा! सि = वह बंदे। परसादि = कृपा से। परम पदु = ऊँचा आत्मिक दर्जा। कासट = काठ। हरिआ = हरे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रभु जी! जो मनुष्य तेरी साधु-संगत में मिलते हैं वह (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। गुरु की कृपा से वे मनुष्य सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेते हैं, वह ऐसे हरे (आत्मिक जीवन वाले) हो जाते हैं जैसे कोई सूखे वृक्ष हरे हो जाएं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जननि पिता लोक सुत बनिता कोइ न किस की धरिआ ॥ सिरि सिरि रिजकु स्मबाहे ठाकुरु काहे मन भउ करिआ ॥२॥

मूलम्

जननि पिता लोक सुत बनिता कोइ न किस की धरिआ ॥ सिरि सिरि रिजकु स्मबाहे ठाकुरु काहे मन भउ करिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जननि = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी। धरिआ = आसरा। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर। संबाहे = संवहाय, पहुँचाता है। मन = हे मन!।2।
अर्थ: हे मन! माता, पिता, और लोग, पुत्र, स्त्री- इनमें से कोई भी किसी का आसरा नहीं है। परमात्मा खुद हरेक जीव के वास्ते रिजक पहुँचाता है। हे मन! तू (रिजक के लिए) क्यों सहम करता है?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊडै ऊडि आवै सै कोसा तिसु पाछै बचरे छरिआ ॥ उन कवनु खलावै कवनु चुगावै मन महि सिमरनु करिआ ॥३॥

मूलम्

ऊडै ऊडि आवै सै कोसा तिसु पाछै बचरे छरिआ ॥ उन कवनु खलावै कवनु चुगावै मन महि सिमरनु करिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊडै = उड़ती है। ऊडि = उड़ के। सै कोसा = सैकडौं कोस। छरिआ = छोड़े हुए हैं। उन = उनको। सिमरनु = याद, चेता।3।
अर्थ: (हे मन! देख, कूँज) उड़ती है, और उड़ के (अपने घोंसले से) सैकड़ों कोस (दूर) आ जाती है, उसके बच्चे उसके पीछे अकेले पड़े रहते हैं। (बता,) उन बच्चों को कौन (चोगा) खिलाता है? कौन चोगा चुगाता है? (कूँज) अपने मन में उनको याद करती रहती है (परमात्मा की कुदरति! इस याद से ही वह बच्चे पलते रहते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ निधान दस असट सिधान ठाकुर कर तल धरिआ ॥ जन नानक बलि बलि सद बलि जाईऐ तेरा अंतु न पारावरिआ ॥४॥१॥

मूलम्

सभ निधान दस असट सिधान ठाकुर कर तल धरिआ ॥ जन नानक बलि बलि सद बलि जाईऐ तेरा अंतु न पारावरिआ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाने। दस असट = दस और आठ अठारह। सिधान = सिद्धियां। कर तल = हाथों की तलियों पर। सद = सदा। बलि = सदके। जाईऐ = जाना चाहिए। पारावरिआ = पार अवार, परला और इस पार का छोर।4।
अर्थ: (हे मन! दुनिया के) सारे खजाने, अठारह सिद्धियां (करामाती ताकतें) - ये सब परमात्मा के हाथों की तलियों पर टिके रहते हैं। हे नानक! उस परमात्मा से सदके सदा कुर्बान होते रहना चाहिए (और अरदास करते रहना चाहिए कि हे प्रभु!) तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, तेरा इस पार और उस पार का अंत नहीं पाया जा सकता।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरिआचार करहि खटु करमा इतु राते संसारी ॥ अंतरि मैलु न उतरै हउमै बिनु गुर बाजी हारी ॥१॥

मूलम्

किरिआचार करहि खटु करमा इतु राते संसारी ॥ अंतरि मैलु न उतरै हउमै बिनु गुर बाजी हारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरिआचार = क्रिया आचार, धार्मिक रस्मों का करना, कर्मकांड। करहि = करते हैं। खटु = छह। खटु करमा = छह धार्मिक काम (स्नान, संध्या, जप, हवन, अतिथि पूजा, देव पूजा)। इतु = इस आहर में। संसारी = दुनियादार।1।
अर्थ: हे भाई! दुनियादार मनुष्य कर्मकांड करते हैं, (स्नान, संध्या आदि) छह (प्रसिद्ध निहित धर्मिक) कर्म कमाते हैं, इन कर्मों में ही ये लोग व्यस्त रहते हैं। पर इनके मन में टिकी हुई अहंकार की मैल (इन कामों से) नहीं उतरती। गुरु की शरण पड़े बिना वह मानव जनम की बाजी हार जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे ठाकुर रखि लेवहु किरपा धारी ॥ कोटि मधे को विरला सेवकु होरि सगले बिउहारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे ठाकुर रखि लेवहु किरपा धारी ॥ कोटि मधे को विरला सेवकु होरि सगले बिउहारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुरु = हे ठाकुर! धारी = धार के। कोटि = करोड़ों। मधे = बीच। होरि = अन्य, और। बिउहारी = व्यापारी, सौदेबाज, मतलबी।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! कृपा करके मुझे (दुर्मति) से बचाए रख। (मैं देखता हूँ कि) करोड़ों मनुष्यों में से कोई विरला मनुष्य (तेरा सच्चा) भक्त है (कुमति के कारण) और सारे मतलबी ही हैं (अपने मतलब के कारण देखने को धार्मिक काम कर रहे हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥२॥

मूलम्

सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सोधे = बिचारे। मुकति = (माया के मोह से) खलासी। कोऊ = कोई भी। करि बीचारी = विचार करके।2।
अर्थ: हे भाई! सारे शास्त्र,वेद, सारी ही स्मृतियां, ये सारे हमने पड़ताल के देख लिए हैं, ये सारे भी यही एक बात पुकार-पुकार के कह रहे हैं कि गुरु की शरण आए बिना कोई मनुष्य (माया के मोह आदि से) निजात नहीं पा सकता। हे भाई! तुम भी बेशक मन में विचार करके देख लो (यही बात ठीक है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अठसठि मजनु करि इसनाना भ्रमि आए धर सारी ॥ अनिक सोच करहि दिन राती बिनु सतिगुर अंधिआरी ॥३॥

मूलम्

अठसठि मजनु करि इसनाना भ्रमि आए धर सारी ॥ अनिक सोच करहि दिन राती बिनु सतिगुर अंधिआरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ। मजनु = स्नान, डुबकी। भ्रमि = भटक भटक के। धर = धरती। सोच = सुच, शारीरिक पवित्रता। करहि = करते हैं। अंधिआरी = अंधेरा।3।
अर्थ: हे भाई! लोग अढ़सठ तीर्थों के स्नान करके, और, सारी धरती पे घूम के आ जाते हैं, दिन-रात और अनेक पवित्रता के साधन करते रहते हैं। पर, गुरु के बिना उनके अंदर माया के मोह का अंधकार टिका रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावत धावत सभु जगु धाइओ अब आए हरि दुआरी ॥ दुरमति मेटि बुधि परगासी जन नानक गुरमुखि तारी ॥४॥१॥२॥

मूलम्

धावत धावत सभु जगु धाइओ अब आए हरि दुआरी ॥ दुरमति मेटि बुधि परगासी जन नानक गुरमुखि तारी ॥४॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावत = भटकते हुए, दौड़ते हुए। धाइओ = भटक लिया। अब = अब। हरिदुआरी = हरि के द्वार, हरि के दर पर। मेटि = मिटा के। बुधि = (सद्) बुद्धि। परगासी = रौशन कर दी। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। तारी = पार लंघा लेता है।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) भटक-भटक के सारे जगत में भटक के जो मनुष्य आखिर परमात्मा के दर पर आ गिरते हैं, परमात्मा उनके अंदर से दुर्मति मिटा के उनके मन में सद्-बुद्धि का प्रकाश कर देता है, गुरु की शरण पा के उनको (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है।4।1।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ हरि धनु जाप हरि धनु ताप हरि धनु भोजनु भाइआ ॥ निमख न बिसरउ मन ते हरि हरि साधसंगति महि पाइआ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ हरि धनु जाप हरि धनु ताप हरि धनु भोजनु भाइआ ॥ निमख न बिसरउ मन ते हरि हरि साधसंगति महि पाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाप = देव पूजा के लिए खास मंत्रों के जाप। ताप = धूणियां तपानियां। भाइआ = अच्छा लगा है। निमख = आँख झपकने जितना समय। न बिसरउ = मैं नहीं भुलाता, नहीं भूलता। ते = से।1।
अर्थ: हे माँ! परमात्मा का नाम-धन ही (मेरे वास्ते देव-पूजा के लिए खास मंत्रों का) जाप है, हरि-नाम-धन ही (मेरे लिए) धूणियों को तपाना है; परमात्मा का नाम-धन ही (मेरे आत्मिक जीवन के लिए) खुराक है, और ये खुराक मुझे अच्छी लगी है। हे माँ! आँख झपकने जितने समय के लिए भी मैं अपने मन को नहीं भुलाता, मैंने ये धन साधु-संगत में (रह के) पा लिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माई खाटि आइओ घरि पूता ॥ हरि धनु चलते हरि धनु बैसे हरि धनु जागत सूता ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माई खाटि आइओ घरि पूता ॥ हरि धनु चलते हरि धनु बैसे हरि धनु जागत सूता ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माई = हे माँ! खाटि = कमा के। चलते = चलते हुए। बैसे = बैठे हुए। सूता = सोए हुए।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! (किसी माँ का वह) पुत्र कमा के घर आया समझ, जो चलते बैठते जागते सोए हुए हर समय हरि-नाम-धन का ही व्यापार करता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि धनु इसनानु हरि धनु गिआनु हरि संगि लाइ धिआना ॥ हरि धनु तुलहा हरि धनु बेड़ी हरि हरि तारि पराना ॥२॥

मूलम्

हरि धनु इसनानु हरि धनु गिआनु हरि संगि लाइ धिआना ॥ हरि धनु तुलहा हरि धनु बेड़ी हरि हरि तारि पराना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। लाइ धिआना = तवज्जो जोड़ता है। तुलहा = लकड़ियां बाँध के नदी पार करने के लिए बनाया हुआ गट्ठा। तारि = तैरा देता है, पार लंघाता है। पराना = परले पासे, दूसरे छोर पर।2।
अर्थ: हे माँ! जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम-धन को ही तीर्थ-स्नान समझा है नाम-धन को ही शास्त्र आदि का विचार समझ लिया है, जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में ही तवज्जो जोड़ता है (इसी को समाधि लगानी समझता है), जिस मनुष्य ने संसार नदी से पार लांघने के लिए हरि-नाम-धन को तुलहा बना लिया है, बेड़ी बना ली है, परमात्मा उसे संसार समुंदर में से तैरा के परले पासे पहुँचा देता है।2।

[[0496]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि धन मेरी चिंत विसारी हरि धनि लाहिआ धोखा ॥ हरि धन ते मै नव निधि पाई हाथि चरिओ हरि थोका ॥३॥

मूलम्

हरि धन मेरी चिंत विसारी हरि धनि लाहिआ धोखा ॥ हरि धन ते मै नव निधि पाई हाथि चरिओ हरि थोका ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विसारी = भुला दी। धनि = धन ने। धोखा = फिक्र। लाहिआ = दूर कर दिया। ते = से। नवनिधि = धरती के सारे नौ खजाने। निधि = खजाना। नव = नौ। हाथि चरिओ = हाथ आ गया, मिल गया। थोक = ढेर सारे पदार्थ।3।
अर्थ: हे माँ! परमात्मा के नाम-धन ने मेरी हरेक किस्म की चिन्ता खत्म कर दी है, मेरा हरेक फिक्र दूर कर दिया है। हे माँ! परमात्मा के नाम-धन से (मैं ऐसे समझता हूँ कि) मैंने दुनिया के सारे नौ ही खजाने हासिल कर लिए हैं, (साधु-संगत की कृपा से) ये सबसे कीमती नाम-धन मुझे मिल गया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खावहु खरचहु तोटि न आवै हलत पलत कै संगे ॥ लादि खजाना गुरि नानक कउ दीआ इहु मनु हरि रंगि रंगे ॥४॥२॥३॥

मूलम्

खावहु खरचहु तोटि न आवै हलत पलत कै संगे ॥ लादि खजाना गुरि नानक कउ दीआ इहु मनु हरि रंगि रंगे ॥४॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तोटि = कमी। हलत = इस लोक। पलत = परलोक में। लादि = लाद के। गुरि = गुरु ने। रंगे = रंग लो।4।
अर्थ: हे माँ! गुरु ने (मुझे) नानक को नाम-धन का खजाना लाद के दे दिया है, (और कहा है:) ये धन स्वयं बरतो, दूसरों को बाँटो; ये धन कभी कम नहीं होता; इस लोक में परलोक में सदा साथ रहता है, अपने मन को हरि-नाम के रंग में रंग लो।4।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ जिसु सिमरत सभि किलविख नासहि पितरी होइ उधारो ॥ सो हरि हरि तुम्ह सद ही जापहु जा का अंतु न पारो ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ जिसु सिमरत सभि किलविख नासहि पितरी होइ उधारो ॥ सो हरि हरि तुम्ह सद ही जापहु जा का अंतु न पारो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। किलविख = पाप। नासहि = (नश्यन्ति) नाश हो जाते हैं। उधारो = उद्धार, संसार समुंदर से पार उतारा। सद = सदा। पारो = परला छोर।1।
अर्थ: हे पुत्र! जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से सारे पाप नाश हो जाते हैं (नाम-जपने वाले के) पित्रों का भी (संसार समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है, जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, दूसरा छोर नहीं मिल सकता, तू सदा ही उसका नाम जपता रह।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूता माता की आसीस ॥ निमख न बिसरउ तुम्ह कउ हरि हरि सदा भजहु जगदीस ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पूता माता की आसीस ॥ निमख न बिसरउ तुम्ह कउ हरि हरि सदा भजहु जगदीस ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूता = हे पुत्र! निमख = आँख झपकने जितना समय। न बिसरउ = ना बिसरो, कहीं बिसर ना जाए। जगदीस = जगत का मालिक।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘बिसरउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एकवचन। इसे ‘बिसरउं’ नहीं पढ़ना।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे पुत्र! (तुझे) माँ की ये आसीस है -तुझे परमात्मा आँख झपकने जितने समय के लिए भी ना भूले, तू सदा जगत के मालिक प्रभु का नाम जपता रह।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु तुम्ह कउ होइ दइआला संतसंगि तेरी प्रीति ॥ कापड़ु पति परमेसरु राखी भोजनु कीरतनु नीति ॥२॥

मूलम्

सतिगुरु तुम्ह कउ होइ दइआला संतसंगि तेरी प्रीति ॥ कापड़ु पति परमेसरु राखी भोजनु कीरतनु नीति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। कापड़ु = कपड़ा। पति = इज्जत। नीति = सदा, नित्य।2।
अर्थ: हे पुत्र! सतिगुरु तेरे ऊपर दयावान रहे, गुरु से तेरा प्यार बना रहे, (जैसे) कपड़ा (मनुष्य का पर्दा ढकता है, वैसे ही) परमात्मा तेरी इज्जत रखे, सदा परमात्मा की महिमा तेरी आत्मा की खुराक बनी रहे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु पीवहु सदा चिरु जीवहु हरि सिमरत अनद अनंता ॥ रंग तमासा पूरन आसा कबहि न बिआपै चिंता ॥३॥

मूलम्

अम्रितु पीवहु सदा चिरु जीवहु हरि सिमरत अनद अनंता ॥ रंग तमासा पूरन आसा कबहि न बिआपै चिंता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। जीवहु = उच्च जीवन प्राप्त किए रहो। अनंता = बेअंत। न बिआपै = जोर ना डाल सके।3।
अर्थ: हे पुत्र! आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल सदा पीता रह, सदा के लिए तेरा उच्च आत्मिक जीवन बना रहे। हे पुत्र! परमात्मा का स्मरण करने से कभी ना खत्म होने वाला आनंद बना रहता है, आत्मिक खुशियां प्राप्त रहती हैं, चिन्ता कभी अपना जोर नहीं डाल सकतीं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवरु तुम्हारा इहु मनु होवउ हरि चरणा होहु कउला ॥ नानक दासु उन संगि लपटाइओ जिउ बूंदहि चात्रिकु मउला ॥४॥३॥४॥

मूलम्

भवरु तुम्हारा इहु मनु होवउ हरि चरणा होहु कउला ॥ नानक दासु उन संगि लपटाइओ जिउ बूंदहि चात्रिकु मउला ॥४॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होवउ = (शब्द ‘बिसरउ’ की ही तरह) हो जाए। होहु = हो जाएं। चात्रिक = पपीहा। बूंदहि मउला = बरखा की बूँद से उल्लासित होता है।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘होहु’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, बहु वचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे पुत्र! तेरा ये मन भौरा बना रहे, परमात्मा के चरण (तेरे मन-भौरे के वास्ते) कमल-फूल बने रहें। हे नानक! (कह:) परमात्मा का सेवक उन चरणों से यूँ लिपटा रहता है; जैसे पपीहा बरखा की बूँद पी के खिलता है।4।3।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ मता करै पछम कै ताई पूरब ही लै जात ॥ खिन महि थापि उथापनहारा आपन हाथि मतात ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ मता करै पछम कै ताई पूरब ही लै जात ॥ खिन महि थापि उथापनहारा आपन हाथि मतात ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मता = सलाह। पछम कै ताई = पश्चिम की तरफ जाने के लिए। कै ताई = के लिए। थापि = बना के स्थापित करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। हाथि = हाथ में। मतात = मतांत, सलाहों का अंत, फैसला।1।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य पश्चिम की तरफ जाने की सलाह बनाता है, परमात्मा उसे पूर्व की ओर ले जाता है। हे भाई! परमात्मा एक छिन में पैदा करके नाश करने की ताकत रखने वाला है। हरेक फैसला उसने अपने हाथ में रखा होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिआनप काहू कामि न आत ॥ जो अनरूपिओ ठाकुरि मेरै होइ रही उह बात ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सिआनप काहू कामि न आत ॥ जो अनरूपिओ ठाकुरि मेरै होइ रही उह बात ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहू कामि = किसी काम में। अनरूपिओ = मिथ ली, ठाठ ली। ठाकुरि मेरै = मेरे ठाकुर ने। होइ रही = हो के रहती है, जरूर होती है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य की अपनी) चतुराई किसी काम नहीं आती। जो बात मेरे ठाकुर ने मिथी होती है वही हो के रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देसु कमावन धन जोरन की मनसा बीचे निकसे सास ॥ लसकर नेब खवास सभ तिआगे जम पुरि ऊठि सिधास ॥२॥

मूलम्

देसु कमावन धन जोरन की मनसा बीचे निकसे सास ॥ लसकर नेब खवास सभ तिआगे जम पुरि ऊठि सिधास ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = कामना, इच्छा। बीचे = बीच में ही। निकसे = निकल जाते हैं। सास = सांस। लसकर = फौजें। नेब = नायब, अहिलकार। खवास = चौबदार। तिआगे = त्याग के, छोड़ के। जम पुरि = परलोक में।2।
अर्थ: (देख, हे भाई!) और देशों पर कब्जा करने और धन एकत्र करने की लालसा में ही मनुष्य के प्राण निकल जाते हैं। फौजें, अहिलकार, चौबदार आदि सब को छोड़ कर वह परलोक चला जाता है। (उसकी अपनी सियानप धरी की धरी रह जाती है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होइ अनंनि मनहठ की द्रिड़ता आपस कउ जानात ॥ जो अनिंदु निंदु करि छोडिओ सोई फिरि फिरि खात ॥३॥

मूलम्

होइ अनंनि मनहठ की द्रिड़ता आपस कउ जानात ॥ जो अनिंदु निंदु करि छोडिओ सोई फिरि फिरि खात ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनंनि = (अनन्य) जिसने और जगहें छोड़ दी है। (माया त्याग के होय अनंनि)। द्रिढ़ता = मजबूती। आपस कउ = अपने आप को। जानात = (बड़ा) जनाता है। अनिंदु = ना निंदने योग्य।3।
अर्थ: (दूसरी तरफ देखो उसका हाल जो अपनी तरफ से दुनिया छोड़ चुका है) अपने मन के हठ की मजबूती के आसरे माया वाला पासा छोड़ के (गृहस्थ त्याग के, इसको बड़ा श्रेष्ठ काम समझ कर त्यागी बना हुआ वह मनुष्य) अपने आप को बड़ा जतलाता है। ये गृहस्थ निंदनीय नहीं था, पर इसे निंदनीय मान के इसे त्याग देता है। (त्याग के भी) बार-बार (गृहस्तियों से ही ले ले कर) खाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज सुभाइ भए किरपाला तिसु जन की काटी फास ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिआ परवाणु गिरसत उदास ॥४॥४॥५॥

मूलम्

सहज सुभाइ भए किरपाला तिसु जन की काटी फास ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिआ परवाणु गिरसत उदास ॥४॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = (सह जायते इति सहज) अपना निजी। सुभाइ = प्रेम अनुसार। सहज सुभाइ = अपने निजी प्रेम अनुसार, अपने स्वाभाविक प्रेम से। भेटिआ = मिला।4।
अर्थ: (सो, ना धन-पदार्थ एकत्र करने वाली चतुराई किसी काम की है और ना ही त्याग को गुमान कोई लाभ पहुँचाता है) वह परमात्मा अपने स्वाभाविक प्यार की प्रेरणा से जिस मनुष्य पर दयावान होता है उस मनुष्य की (माया के मोह की) फाँसी काट देता है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है वह गृहस्थ में रहता हुआ माया से निर्मोह हो के परमात्मा की हजूरी में स्वीकार हो जाता है।4।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ नामु निधानु जिनि जनि जपिओ तिन के बंधन काटे ॥ काम क्रोध माइआ बिखु ममता इह बिआधि ते हाटे ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ नामु निधानु जिनि जनि जपिओ तिन के बंधन काटे ॥ काम क्रोध माइआ बिखु ममता इह बिआधि ते हाटे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। जिनि = जिस ने। जनि = जन ने। जिनि जनि = जिस जन मनुष्य ने। तिन्ह के = उन मनुष्यों के। बिखु = जहर। माइआ बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया। बिआधि = रोग। मे = से।1।
अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने सारे सुखों के खजाने हरि-नाम को स्मरण किया, उन सबके माया के बंधन काटे गए। काम, क्रोध, आत्मिक मौत लाने वाली माया की ममता -इन सारे रोगों से वह बच जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जसु साधसंगि मिलि गाइओ ॥ गुर परसादि भइओ मनु निरमलु सरब सुखा सुख पाइअउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जसु साधसंगि मिलि गाइओ ॥ गुर परसादि भइओ मनु निरमलु सरब सुखा सुख पाइअउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। संगि = संगति में। परसादि = कृपा से। सरब = सारे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में मिल के परमात्मा की महिमा के गीत गाए, गुरु की कृपा से उसका मन पवित्र हो गया, उसने सारे सुख प्राप्त कर लिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो किछु कीओ सोई भल मानै ऐसी भगति कमानी ॥ मित्र सत्रु सभ एक समाने जोग जुगति नीसानी ॥२॥

मूलम्

जो किछु कीओ सोई भल मानै ऐसी भगति कमानी ॥ मित्र सत्रु सभ एक समाने जोग जुगति नीसानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीओ = (परमात्मा ने) किया। भल = भला। मानै = मानता है। कमानी = कमाता है। सत्रु = वैरी। एक समाने = एक जैसे। जोग = मिलाप। जुगति = ढंग।2।
अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य ऐसी भक्ती की कार करता है कि जो कुछ परमात्मा करता है वह उसको (सब जीवों के वास्ते) भला मानता है, उसे मित्र व वैरी सारे एक जैसे (मित्र ही) दिखाई देते हैं। हे भाई! यही है परमात्मा के मिलाप का तरीका, और यही है प्रभु के मिलाप की निशानी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरन पूरि रहिओ स्रब थाई आन न कतहूं जाता ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि रंगि रविओ रंगि राता ॥३॥

मूलम्

पूरन पूरि रहिओ स्रब थाई आन न कतहूं जाता ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि रंगि रविओ रंगि राता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरन = सर्व व्यापक। स्रब थाई = सब जगहों पर। आन = (परमात्मा के बिना) कोई और। कतहूँ = कहीं भी। जाता = पहचाना, समझा। अंतरि = अंदर। निरंतरि = बिना दूरी के (निर+अंतर)। रंगि = प्रेम में। राता = मस्त।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में मिल के परमात्मा की महिमा का गीत गाया, उस ने) पहचान लिया कि सर्व-व्यापक प्रभु सब जगहों में मौजूद है, उस मनुष्य ने परमात्मा के बिना किसी और को (सब जगहों पर बसता) नहीं समझा। उस को वह प्रभु हरेक शरीर में, एक-रस सबमें बसता दिखता है। वह मनुष्य उस परमात्मा के प्रेम-रंग में आनंद लेता है उसके प्रेम में मस्त रहता है।3।

[[0497]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भए क्रिपाल दइआल गुपाला ता निरभै कै घरि आइआ ॥ कलि कलेस मिटे खिन भीतरि नानक सहजि समाइआ ॥४॥५॥६॥

मूलम्

भए क्रिपाल दइआल गुपाला ता निरभै कै घरि आइआ ॥ कलि कलेस मिटे खिन भीतरि नानक सहजि समाइआ ॥४॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुपाला = सृष्टि का रखवाला प्रभु। घरि = घर में। निरभै कै घरि = निडर प्रभु के चरणों में। कलि कष्ट = झगड़े दुख। भीतरि = में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: जब किसी मनुष्य पर) गोपाल प्रभु कृपालु होता है, दयावान होता है, तब वह मनुष्य उस निर्भय प्रभु के चरणों में लीन हो जाता है, एक छिन में उसके अंदर से दुख-कष्ट मिट जाते हैं, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।4।5।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ जिसु मानुख पहि करउ बेनती सो अपनै दुखि भरिआ ॥ पारब्रहमु जिनि रिदै अराधिआ तिनि भउ सागरु तरिआ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ जिसु मानुख पहि करउ बेनती सो अपनै दुखि भरिआ ॥ पारब्रहमु जिनि रिदै अराधिआ तिनि भउ सागरु तरिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पहि = पास। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। दुखि = दुख से। जिनि = जिस (मनुष्य ने)। रिदै = हृदय में। तिनि = उसने। भउ = डर। सागरु = समुंदर।1।
अर्थ: हे भाई! मैं जिस भी मनुष्य के पास (अपने दुख की) बात करता हूँ, वह (पहले ही) अपने दुख से भरा हुआ दिखता है (वह मेरा दुख क्या निर्वित करे?)। हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने हृदय में परमात्मा को आराधा है, उस ने ही ये डर (-भरा संसार-) समुंदर पार किया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर हरि बिनु को न ब्रिथा दुखु काटै ॥ प्रभु तजि अवर सेवकु जे होई है तितु मानु महतु जसु घाटै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर हरि बिनु को न ब्रिथा दुखु काटै ॥ प्रभु तजि अवर सेवकु जे होई है तितु मानु महतु जसु घाटै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को न = कोई नहीं। ब्रिथा = व्यथा, पीड़ा। तजि = छोड़ के। अवर सेवकु = किसी और का सेवक। होई है = बन जाईए। तितु = उस (काम) में। महतु = महत्व, बड़ाई। जसु = शोभा। घाटै = घटती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना परमात्मा के बिना कोई और (किसी का) दुख-दर्द नहीं काट सकता। परमात्मा (का विभाग) छोड़ के अगर किसी और के सेवक बनें तो इस काम में इज्जत बड़ाई और शोभा कम हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ के सनबंध सैन साक कित ही कामि न आइआ ॥ हरि का दासु नीच कुलु ऊचा तिसु संगि मन बांछत फल पाइआ ॥२॥

मूलम्

माइआ के सनबंध सैन साक कित ही कामि न आइआ ॥ हरि का दासु नीच कुलु ऊचा तिसु संगि मन बांछत फल पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कित ही कामि = किसी भी काम में। संगि = साथ। बांछत = इच्छित।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘कित ही’ में ‘कितु’ की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! माया के कारण बने हुए ये साक-सज्जन-रिश्तेदार (दुखों की निर्वित्ती के लिए) कोई भी काम नहीं आ सकते। परमात्मा का भक्त अगर नीच कुल का भी हो, उसको श्रेष्ठ जानो, उसकी संगति में रहने से मन-इच्छित फल हासिल कर लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाख कोटि बिखिआ के बिंजन ता महि त्रिसन न बूझी ॥ सिमरत नामु कोटि उजीआरा बसतु अगोचर सूझी ॥३॥

मूलम्

लाख कोटि बिखिआ के बिंजन ता महि त्रिसन न बूझी ॥ सिमरत नामु कोटि उजीआरा बसतु अगोचर सूझी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। बिंजन = व्यंजन, स्वादिष्ट खाने। ता महि = उनमें। त्रिसन = प्यास। कोटि उजीआरा = करोड़ों (सूरजों) की रौशनी। बसतु = वस्तु। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। सूझी = दिखाई दे जाती है।3।
अर्थ: हे भाई! अगर माया के लाखों-करोड़ों स्वादिष्ट व्यंजन हों, उनमें लगने (खाने की) तृष्णा नहीं खत्म होती। परमात्मा का नाम स्मरण करने से (अंदर, जैसे) करोड़ों (सूरजों का) प्रकाश हो जाता है, और अंदर वह कीमती पदार्थ दिखाई दे जाता है जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फिरत फिरत तुम्हरै दुआरि आइआ भै भंजन हरि राइआ ॥ साध के चरन धूरि जनु बाछै सुखु नानक इहु पाइआ ॥४॥६॥७॥

मूलम्

फिरत फिरत तुम्हरै दुआरि आइआ भै भंजन हरि राइआ ॥ साध के चरन धूरि जनु बाछै सुखु नानक इहु पाइआ ॥४॥६॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुआरि = दर पे। भै भंजन = हे सारे डर दूर करने वाले! हरि राइआ = हे प्रभु पातशाह!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु पातशाह! हे जीवों के सारे डर नाश करने वाले हरि! जो मनुष्य भटकता-भटकता (आखिर) तेरे दर पर आ पहुँचता है वह (तेरे दर से) गुरु के चरणों की धूल मांगता है, (और तेरे दर से) ये सुख प्राप्त करता है।4।6।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ पंचपदा घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ पंचपदा घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथमे गरभ माता कै वासा ऊहा छोडि धरनि महि आइआ ॥ चित्र साल सुंदर बाग मंदर संगि न कछहू जाइआ ॥१॥

मूलम्

प्रथमे गरभ माता कै वासा ऊहा छोडि धरनि महि आइआ ॥ चित्र साल सुंदर बाग मंदर संगि न कछहू जाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। ऊहा = वह जगह। धरनि = धरती। चित्र = तस्वीरें। चित्रसाल = तस्वीरों से सजे हुए महल। संगि = साथ। कछहू = कुछ भी।1।
अर्थ: हे भाई! जीव पहले माँ के पेट में आ के निवास करता है, (फिर) वह जगह छोड़ के धरती पर आता है। (यहाँ) चित्रित सुंदर महल-माढ़ियां और सुंदर बाग़ (देख-देख के खुश होता है, पर इनमें से) कोई भी चीज (अंत समय में जीव के) साथ नहीं जाती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवर सभ मिथिआ लोभ लबी ॥ गुरि पूरै दीओ हरि नामा जीअ कउ एहा वसतु फबी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अवर सभ मिथिआ लोभ लबी ॥ गुरि पूरै दीओ हरि नामा जीअ कउ एहा वसतु फबी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंचपदा = पाँच बंदों वाले शब्द। मिथिआ = झूठा। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। जीअ कउ = जिंद वास्ते। फबी = सुख देने वाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! और सारे लोभ-लालच झूठे हैं। (यदि किसी मनुष्य को) पूरे गुरु ने परमात्मा का नाम दे दिया, तो ये नाम ही (उसकी) जीवात्मा के लिए सुखद वस्तु है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसट मीत बंधप सुत भाई संगि बनिता रचि हसिआ ॥ जब अंती अउसरु आइ बनिओ है उन्ह पेखत ही कालि ग्रसिआ ॥२॥

मूलम्

इसट मीत बंधप सुत भाई संगि बनिता रचि हसिआ ॥ जब अंती अउसरु आइ बनिओ है उन्ह पेखत ही कालि ग्रसिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इसट = प्यारे। बंधप = रिश्तेदार। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। रचि = रच मिच के, गूढ़ा प्यार डाल के। अंती अउसरु = आखिरी समय, मौत की घड़ी। कालि = मौत ने। ग्रसिआ = आ पकड़ा।2।
अर्थ: हे भाई! प्यारे मित्र, रिश्तेदार, पुत्र, भाई, स्त्री- इनके साथ गाढ़ा प्यार डाल के जीव हसता-खेलता रहता है, पर जिस समय अंत समय आ जाता है, उन सबके देखते-देखते मौत ने आ जकड़ना होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि करि अनरथ बिहाझी स्मपै सुइना रूपा दामा ॥ भाड़ी कउ ओहु भाड़ा मिलिआ होरु सगल भइओ बिराना ॥३॥

मूलम्

करि करि अनरथ बिहाझी स्मपै सुइना रूपा दामा ॥ भाड़ी कउ ओहु भाड़ा मिलिआ होरु सगल भइओ बिराना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनरथ = धक्के, पाप। संपै = दौलत। रूपा = चाँदी। दामा = दमड़े, पैसे। भाड़ी = मजदूर।3।
अर्थ: (हे भाई! सारी उम्र) धक्के जुल्म कर करके मनुष्य दौलत सोना चाँदी रुपए इकट्ठे करता रहता है (जैसे किसी) मजदूर को मजदूरी (मिल जाती है, वैसे ही दौलत एकत्र करने वाले को) वह (हर रोज का खाना-पीना) मजदूरी मिलती रही, बाकी सारा धन (मरने के वक्त) बेगाना हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हैवर गैवर रथ स्मबाहे गहु करि कीने मेरे ॥ जब ते होई लांमी धाई चलहि नाही इक पैरे ॥४॥

मूलम्

हैवर गैवर रथ स्मबाहे गहु करि कीने मेरे ॥ जब ते होई लांमी धाई चलहि नाही इक पैरे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हैवर = (हय+वर) सुंदर घोड़े। गैवर = (गज+वर) सुंदर हाथी। संबाहे = एकत्र किए। गहु करि = ध्यान से। कीने मेरे = अपने बनाए। लांमी धाई = लम्बी डगर, लंबा कूच।4।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य सुंदर घोड़े बढ़िया हाथी रथ (आदि) इकट्ठे करता रहता है, पूरे ध्यान से इन्हें अपनी मल्कियत बनाता रहता है, पर जब लंबे राह पड़ता है (ये घोड़े आदि) एक पैर भी (मनुष्य के साथ) नहीं चलते।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु धनु नामु सुख राजा नामु कुट्मब सहाई ॥ नामु स्मपति गुरि नानक कउ दीई ओह मरै न आवै जाई ॥५॥१॥८॥

मूलम्

नामु धनु नामु सुख राजा नामु कुट्मब सहाई ॥ नामु स्मपति गुरि नानक कउ दीई ओह मरै न आवै जाई ॥५॥१॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख राजा = सुखों का राजा, सुखदाता। कुटंब = परिवार। सहाई = साथी। संपति = दौलत। गुरि = गुरु ने। कउ = को।5।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही मनुष्य का असल धन है, नाम ही सुखदाता है, नाम ही परिवार है, नाम ही साथी है। गुरु ने (मुझे) नानक को यह हरि-नाम-दौलत ही दी है। यह दौलत कभी खत्म नहीं होती, कभी ग़ायब नहीं होती।5।1।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पंचपदा– 1 (अंक 1) महला ५ के कुल शब्द – 8 (अंक 8)

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ तिपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ तिपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुख बिनसे सुख कीआ निवासा त्रिसना जलनि बुझाई ॥ नामु निधानु सतिगुरू द्रिड़ाइआ बिनसि न आवै जाई ॥१॥

मूलम्

दुख बिनसे सुख कीआ निवासा त्रिसना जलनि बुझाई ॥ नामु निधानु सतिगुरू द्रिड़ाइआ बिनसि न आवै जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलनि = जलना। निधानु = खजाना। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। बिनसि = नाश हो के, आत्मिक मौत मर के। आवै = पैदा होता। जाई = मरता।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में (सारे सुखों का) खजाना हरि-नाम पक्का कर दिया है, वह आत्मिक मौत नहीं सहता। वह ना (बार-बार) पैदा होता है ना मरता है। उसके सारे दुख नाश हो जाते हैं, उसके अंदर सुख आ निवास करते हैं, परमात्मा का नाम उसकी तृष्णा की जलन बुझा देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जपि माइआ बंधन तूटे ॥ भए क्रिपाल दइआल प्रभ मेरे साधसंगति मिलि छूटे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जपि माइआ बंधन तूटे ॥ भए क्रिपाल दइआल प्रभ मेरे साधसंगति मिलि छूटे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपि = जप के। मिलि = मिल के। छूटे = बंधनों से मुक्त हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे प्रभु जी जिस मनुष्य पर कृपाल होते हैं, वह मनुष्य साधु-संगत में मिल के माया के बंधनों से आजाद हो जाता है, परमात्मा का नाम जप के उसके माया के बंधन टूट जाते हैं।1। रहाउ।

[[0498]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर हरि के गुन गावै भगति प्रेम रसि माता ॥ हरख सोग दुहु माहि निराला करणैहारु पछाता ॥२॥

मूलम्

आठ पहर हरि के गुन गावै भगति प्रेम रसि माता ॥ हरख सोग दुहु माहि निराला करणैहारु पछाता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावै = गाता है। रसि = स्वाद में। माता = मस्त। हरख = खुशी। सोग = ग़मी। दुहु माहि = दोनों में। निराला = (निर+आलय। आलय = घर) अलग, निर्लिप।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु जी दयावान होते हैं, वह) परमात्मा की भक्ति और प्यार के स्वाद में मस्त हो के आठों पहर परमात्मा के गुण गाता रहता है। (इस तरह) वह खुशी और ग़मी दोनों से निर्लिप रहता है, वह सदा विधाता-प्रभु के साथ सांझ डाले रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस का सा तिन ही रखि लीआ सगल जुगति बणि आई ॥ कहु नानक प्रभ पुरख दइआला कीमति कहणु न जाई ॥३॥१॥९॥

मूलम्

जिस का सा तिन ही रखि लीआ सगल जुगति बणि आई ॥ कहु नानक प्रभ पुरख दइआला कीमति कहणु न जाई ॥३॥१॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा = था। तिन ही = उसी (प्रभु) ने ही। जुगति = जीवन मर्यादा।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘ि’ क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! प्रभु की दया से) जो मनुष्य उस प्रभु का ही सेवक बन जाता है, वह प्रभु ही उसको माया के बंधनों से बचा लेता है, उस मनुष्य की सारी जीवन-मर्यादा सदाचारी बन जाती है।
हे नानक! कह: सर्व-व्यापक प्रभु जी (अपने सेवकों पर सदैव) दयावान रहते हैं। प्रभु की दयालता का मूल्य नहीं बताया जा सकता।3।1।9।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शीर्षक में लिखा है ‘तिपदे’ (तीन बंदों वाले शब्द-बहुवचन)। पर, यहाँ सिर्फ यही एक ‘तिपदा’ दर्ज है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ दुपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ दुपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित पवित्र लीए करि अपुने सगल करत नमसकारो ॥ बरनु जाति कोऊ पूछै नाही बाछहि चरन रवारो ॥१॥

मूलम्

पतित पवित्र लीए करि अपुने सगल करत नमसकारो ॥ बरनु जाति कोऊ पूछै नाही बाछहि चरन रवारो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए लोग। लीए करि = बना लिए। बरनु = (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण। कोऊ = कोई भी। बाछहि = चाहते हैं, मांगते हैं। रवारो = धूल।1।
अर्थ: हे भाई! विकारों में गिरे हुए जिस लोगों को पवित्र करके परमात्मा अपने (दास) बना लेता है, सारी दुनिया उनके आगे सिर झुकाती है। कोई नहीं पूछता उनका वर्ण कौन सा है उनकी जाति क्या है। सब लोग उनके चरणों की धूल मांगते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाकुर ऐसो नामु तुम्हारो ॥ सगल स्रिसटि को धणी कहीजै जन को अंगु निरारो ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ठाकुर ऐसो नामु तुम्हारो ॥ सगल स्रिसटि को धणी कहीजै जन को अंगु निरारो ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! ऐसो = एसी सामर्थ्य वाला। धणी = मालिक। कहीजै = कहलवाता है। जन को = दास का। अंगु = पक्ष। निरारो = निराला, अनोखा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! तू अपने येवक का अनोखा ही पक्ष करता है, तेरा नाम आश्चर्यजनक शक्ति वाला है (तेरे नाम की इनायत से तेरा सेवक) सारी दुनिया का मालिक कहलवाने लग पड़ता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि नानक बुधि पाई हरि कीरतनु आधारो ॥ नामदेउ त्रिलोचनु कबीर दासरो मुकति भइओ चमिआरो ॥२॥१॥१०॥

मूलम्

साधसंगि नानक बुधि पाई हरि कीरतनु आधारो ॥ नामदेउ त्रिलोचनु कबीर दासरो मुकति भइओ चमिआरो ॥२॥१॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुधि = सद् बुद्धि। आधारो = आसरा। दासरो = निमाणा सा सेवक। मुकति = विकारों से खलासी। चंमिआरो = रविदास चमार।2।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य साधु-संगत में आ के (सद्) बुद्धि प्राप्त कर लेता है, परमात्मा की महिमा उसकी जिंदगी का आसरा बन जाती है। (महिमा की इनायत से ही) नामदेव, त्रिलोचन, कबीर, रविदास चमार- हरेक ने (माया के बंधनों से) निजात प्राप्त कर ली।2।1।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ है नाही कोऊ बूझनहारो जानै कवनु भता ॥ सिव बिरंचि अरु सगल मोनि जन गहि न सकाहि गता ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ है नाही कोऊ बूझनहारो जानै कवनु भता ॥ सिव बिरंचि अरु सगल मोनि जन गहि न सकाहि गता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोऊ = कोई भी। बूझनहारो = समझने की सामर्थ्य वाला। कवनु = कौन? भता = भांति, किस्म। बिरंचि = ब्रहमा। अरु = और। गहि न साकहि = पकड़ नहीं सकते। गता = गति, हालत।1।
अर्थ: हे भाई! कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जो परमात्मा के सही रूप को समझने की ताकत रखता हो। कौन जान सकता है कि वह कैसा है? शिव, ब्रहमा और सारे ऋषी मुनी भी उस परमात्मा के स्वरूप को नहीं समझ सकते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ की अगम अगाधि कथा ॥ सुनीऐ अवर अवर बिधि बुझीऐ बकन कथन रहता ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ की अगम अगाधि कथा ॥ सुनीऐ अवर अवर बिधि बुझीऐ बकन कथन रहता ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = गहरी। सुनीऐ = सुना जाता है। अवर बिधि = और तरीके। बुझीऐ = समझा जाता है। रहता = परे, बगैर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा कैसा है: इस बात की समझ मनुष्य (की समझ) से परे है (मनुष्यी समझ के लिए) बहुत गहरी है। (उसके स्वरूप के बारे में लोगों से) सुनते कुछ और हैं, और समझते किसी और तरह हैं, क्योंकि (उसका स्वरूप) बताने से बयान करने से बाहर है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे भगता आपि सुआमी आपन संगि रता ॥ नानक को प्रभु पूरि रहिओ है पेखिओ जत्र कता ॥२॥२॥११॥

मूलम्

आपे भगता आपि सुआमी आपन संगि रता ॥ नानक को प्रभु पूरि रहिओ है पेखिओ जत्र कता ॥२॥२॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं। संगि = साथ। रता = मस्त। को = का। जत्र कता = जहाँ तहां, हर जगह।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपना) भक्त है, खुद ही मालिक हैं, खुद ही अपने आप में मस्त है (क्योंकि, हे भाई!) नानक का परमात्मा सारे संसार में व्यापक है, (नानक ने) उसको हर जगह देखा है।2।2।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ मता मसूरति अवर सिआनप जन कउ कछू न आइओ ॥ जह जह अउसरु आइ बनिओ है तहा तहा हरि धिआइओ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ मता मसूरति अवर सिआनप जन कउ कछू न आइओ ॥ जह जह अउसरु आइ बनिओ है तहा तहा हरि धिआइओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मता = सलाह। मसूरति = मश्वरा। अवर = और। जन = दास, सेवक। जह जह = जहाँ जहाँ। अउसरु = समय, मौका।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक को कोई सलाह मश्वरा, कोई समझदारी वाली बात- यह सब कुछ भी नहीं जरूरत। जहाँ-जहाँ (कोई मुश्किल) आ बनती है, वहाँ वहाँ (परमात्मा का सेवक) परमात्मा का ही ध्यान धरता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ को भगति वछलु बिरदाइओ ॥ करे प्रतिपाल बारिक की निआई जन कउ लाड लडाइओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ को भगति वछलु बिरदाइओ ॥ करे प्रतिपाल बारिक की निआई जन कउ लाड लडाइओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ को बिरदाइओ = प्रभु का बिरद, परमात्मा की आदि कदीमों का स्वभाव। भगति वछलु = भक्ति (करने वालों) का प्यार। प्रतिपाल = पालना, रक्षा। बारिक = बालक, बच्चा। निआई = जैसा। कउ = को।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का मूल-कदीमी स्वभाव है कि वह भक्ति (करने वालों) का प्यारा है। वह (सबकी) बच्चों की तरह पालना करता है, और अपने सेवक को लाड लडाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जप तप संजम करम धरम हरि कीरतनु जनि गाइओ ॥ सरनि परिओ नानक ठाकुर की अभै दानु सुखु पाइओ ॥२॥३॥१२॥

मूलम्

जप तप संजम करम धरम हरि कीरतनु जनि गाइओ ॥ सरनि परिओ नानक ठाकुर की अभै दानु सुखु पाइओ ॥२॥३॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को वश करने के प्रयत्न। जप = (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए खास मंत्रों के) जाप। तप = धूणियां तपाना। करम धरम = (शास्त्रों के अनुसार निहित) धार्मिक कर्म। जनि = जन ने, सेवक ने। अभै दानु = निर्भैता की दाति।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक ने (सदा) परमात्मा के महिमा का ही गीत गाया है, (सेवक के लिए ये महिमा ही) जप-तप है, संजम है, और (निहित) धार्मिक कर्म है। हे नानक! परमात्मा का सेवक परमात्मा की ही शरण पड़ा रहता है, (प्रभु के दर से ही वह) निडरता की दाति प्राप्त करता है, आत्मिक आनंद हासिल करता है।2।3।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ दिनु राती आराधहु पिआरो निमख न कीजै ढीला ॥ संत सेवा करि भावनी लाईऐ तिआगि मानु हाठीला ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ दिनु राती आराधहु पिआरो निमख न कीजै ढीला ॥ संत सेवा करि भावनी लाईऐ तिआगि मानु हाठीला ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिआरो = प्यारे (हरि) को। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ढीला = ढील। संत = गुरु। करि = कर के। भावनी = श्रद्धा। लाईऐ = बनानी चाहिए। तिआगि = त्याग के। हाठीला = हठ।1।
अर्थ: हे भाई! उस प्यारे हरि को हर समय दिन-रात स्मरण करते रहा करो, आँख झपकने जितने समय के लिए भी (इस काम में) ढील नहीं करनी चाहिए। (हे भाई! अपने मन में से) अहंकार और हठ त्याग के, गुरु की बताई हुई सेवा करके (परमात्मा के चरणों में) श्रद्धा बनानी चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहनु प्रान मान रागीला ॥ बासि रहिओ हीअरे कै संगे पेखि मोहिओ मनु लीला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मोहनु प्रान मान रागीला ॥ बासि रहिओ हीअरे कै संगे पेखि मोहिओ मनु लीला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहनु = सुंदर प्रभु। प्रान मान = प्राणों पर गर्व। रागीला = रंगीला, सदा खुश मिजाज। हीअरे कै संगे = (मेरे) हृदय के साथ। हीअरा = हृदय। पेखि = देख के। लीला = करिश्मा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सुंदर हरि सदा खुश स्वभाव वाला है, मेरे प्राणों का माण है। वह सुंदर हरि (सदा) मेरे हृदय के साथ बस रहा है, मेरा मन उसके करिश्में देख-देख के मस्त हो रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु सिमरत मनि होत अनंदा उतरै मनहु जंगीला ॥ मिलबे की महिमा बरनि न साकउ नानक परै परीला ॥२॥४॥१३॥

मूलम्

जिसु सिमरत मनि होत अनंदा उतरै मनहु जंगीला ॥ मिलबे की महिमा बरनि न साकउ नानक परै परीला ॥२॥४॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। (शब्द ‘मनु’ और ‘मनि’ में फर्क देखें)। मनहु = मन से। जंगीला = जंगाल, मैल। मिलबे की = (उस परमात्मा को) मिलने की। महिमा = बड़ाई। साकउ = सकूँ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा का स्मरण करने से मन में आनंद पैदा होता है, और मन में से (विकारों की) मैल उतर जाती है, उसके चरणों में जुड़ने की महानता मैं बयान नहीं कर सकता, महानता परे से परे है (परला छोर नहीं ढूँढ सकता)।2।4।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ मुनि जोगी सासत्रगि कहावत सभ कीन्हे बसि अपनही ॥ तीनि देव अरु कोड़ि तेतीसा तिन की हैरति कछु न रही ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ मुनि जोगी सासत्रगि कहावत सभ कीन्हे बसि अपनही ॥ तीनि देव अरु कोड़ि तेतीसा तिन की हैरति कछु न रही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुनि = समाधि लगा के चुप टिके रहने वाले। जोगी = योगाभ्यास करने वाले। सासत्रगि = शास्त्रज्ञ, शास्त्रों के जानने वाले। कहावत = कहलाते हैं। बसि = वश में। कीने = किए हैं। तीनि देव = ब्रहमा विष्णु शिव। अरु = और। कोड़ि = करोड़। हैरति = हैरानगी।1।
अर्थ: कोई अपने आप को मुनि कहलवाते हैं, कोई शास्त्र-वेत्ता कहलवाते हैं; इन सभी को प्रबल माया ने अपने वश में किया हुआ है। (ब्रहमा-विष्णु-शिव ये बड़े) तीन देवते और (बाकी के) तैंतीस करोड़ देवते- (माया का इतना बल देख के) इन सब की हैरानगी की कोई सीमा ना रह गई।1।

[[0499]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलवंति बिआपि रही सभ मही ॥ अवरु न जानसि कोऊ मरमा गुर किरपा ते लही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बलवंति बिआपि रही सभ मही ॥ अवरु न जानसि कोऊ मरमा गुर किरपा ते लही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलवंति = बलवती माया, प्रबल माया। बिआपि रही = अपना जोर डाल रही है। मही = धरती। मरमा = भेत। अवरु = और। ते = से। लही = पाया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! प्रबल माया सारी धरती पर अपना जोर डाल रही है, कोई और मनुष्य (इससे बचने का) भेद नहीं जानता। (ये भेद) गुरु की कृपा से मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीति जीति जीते सभि थाना सगल भवन लपटही ॥ कहु नानक साध ते भागी होइ चेरी चरन गही ॥२॥५॥१४॥

मूलम्

जीति जीति जीते सभि थाना सगल भवन लपटही ॥ कहु नानक साध ते भागी होइ चेरी चरन गही ॥२॥५॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीति जीति जीते = सदा से ही जीतती आ रही है (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। सभि = सारे। लपटही = चिपकी हुई है। साध ते = गुरु से। होइ चेरी = दासी बन के। गही = पकड़ती है।2।
अर्थ: हे भाई! यह प्रबल माया सदा ही हर जगह जीतती आ रही है, यह सारे भवनों (के जीवों) को चिपकी हुई है। हे नानक! कह: यह प्रबल माया गुरु से दूर भागी है, (गुरु की) दासी बन के (गुरु के) चरण पकड़ती है।2।5।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ दुइ कर जोड़ि करी बेनंती ठाकुरु अपना धिआइआ ॥ हाथ देइ राखे परमेसरि सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ दुइ कर जोड़ि करी बेनंती ठाकुरु अपना धिआइआ ॥ हाथ देइ राखे परमेसरि सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। करी = करूँ, मैं करता हूँ। देइ = दे के। परमेसरि = परमेश्वर ने। राखे = रख लिया है। दुरतु = पाप।1।
अर्थ: हे भाई! मैं (मालिक प्रभु के आगे) दोनों हाथ जोड़ के आरजू करता रहता हूँ। उस मालिक परमेश्वर प्रभु ने हमारी हाथ दे के रक्षा की है और सारे कष्ट और पाप निर्वित कर दिए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाकुर होए आपि दइआल ॥ भई कलिआण आनंद रूप हुई है उबरे बाल गुपाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ठाकुर होए आपि दइआल ॥ भई कलिआण आनंद रूप हुई है उबरे बाल गुपाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर = मालिक प्रभु जी। कलिआण = सुख। आनंद रूप = आनंद भरपूर। हुई है = हो जाता है। उबरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच गए। बाल गुपाल = गुपाल-प्रभु के (दर से आए हुए जीव-) बच्चे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस जीवों पर प्रभु जी खुद दयावान होते हैं उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है, गोपाल-प्रभु के (दर से आए हुए वह जीव-) बच्चे (संसार समुंदर में डूबने से) बच गए (प्रभु के दयाल होने से) आनंद-भरपूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि वर नारी मंगलु गाइआ ठाकुर का जैकारु ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी जिनि सभ का कीआ उधारु ॥२॥६॥१५॥

मूलम्

मिलि वर नारी मंगलु गाइआ ठाकुर का जैकारु ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी जिनि सभ का कीआ उधारु ॥२॥६॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। मिलि वर = वर (प्रभु पति) को मिल के। नारी = नारियों ने (ज्ञान-इंद्रिय ने)। जैकारु = महिमा। कहु = कह। गुर बलिहारी = गुरु से सदके। उधारु = पार उतारा।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-पति को मिल के मेरी ज्ञान-इंद्रिय ने प्रभु की महिमा के गीत गाने आरम्भ कर दिए हैं। हे नानक! कह: (ये सारी इनायत गुरु की ही है) मैं उस गुरु से कुर्बान जाता हूँ जिसने (शरण आए) सब जीवों का पार उतारा कर दिया है।2।6।15

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ मात पिता भाई सुत बंधप तिन का बलु है थोरा ॥ अनिक रंग माइआ के पेखे किछु साथि न चालै भोरा ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ मात पिता भाई सुत बंधप तिन का बलु है थोरा ॥ अनिक रंग माइआ के पेखे किछु साथि न चालै भोरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। थोरा = थोड़ा, कमजोर। पेखे = मैंने देखे हैं। भोरा = थोड़ा सा।1।
अर्थ: हे भाई! माता, पिता, भाई, पुत्र, रिश्तेदार- इनका आसरा कमजोर आसरा है। मैंने माया के भी अनेक रंग-तमाशे देख लिए हैं (इनमें से भी) कुछ भी थोड़ा सा भी (जीव के) साथ नहीं जाता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाकुर तुझ बिनु आहि न मोरा ॥ मोहि अनाथ निरगुन गुणु नाही मै आहिओ तुम्हरा धोरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ठाकुर तुझ बिनु आहि न मोरा ॥ मोहि अनाथ निरगुन गुणु नाही मै आहिओ तुम्हरा धोरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! आहि = है। मोहि = मुझे, मेरे में। निरगुन = गुणहीन। आहिओ = देखा है, चाहा है। धोरा = आसरा, समीपता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! तेरे बिना मेरा (और कोई आसरा) नहीं है। मैं निआसरे गुण-हीन में कोई गुण नहीं है। मैंने तेरा ही आसरा देखा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि बलि बलि बलि चरण तुम्हारे ईहा ऊहा तुम्हारा जोरा ॥ साधसंगि नानक दरसु पाइओ बिनसिओ सगल निहोरा ॥२॥७॥१६॥

मूलम्

बलि बलि बलि बलि चरण तुम्हारे ईहा ऊहा तुम्हारा जोरा ॥ साधसंगि नानक दरसु पाइओ बिनसिओ सगल निहोरा ॥२॥७॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलि = कुर्बान। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। जोरा = जोर, सहारा। बिनसिओ = नाश हो गया। निहोरा = अधीनता; किसी पर मजबूरन आश्रित हो जाना।2।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे चरणों से कुर्बान कुर्बान कुर्बान जाता हूँ। इस लोक में और परलोक में मुझे तेरा ही सहारा है। हे नानक! (कह: जिस मनुष्य ने) साधु-संगत में टिक के प्रभु के दर्शन कर लिए, उसकी मुथाजगी खत्म हो गई।2।7।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ आल जाल भ्रम मोह तजावै प्रभ सेती रंगु लाई ॥ मन कउ इह उपदेसु द्रिड़ावै सहजि सहजि गुण गाई ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ आल जाल भ्रम मोह तजावै प्रभ सेती रंगु लाई ॥ मन कउ इह उपदेसु द्रिड़ावै सहजि सहजि गुण गाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आल = आलय, घर। जाल = जंजाल। आल जाल = घर के जंजाल। भ्रम = भटकना। तजावै = दूर करा देता है। सेती = साथ। रंगु = प्रेम। लाई = लगाए, बना देता है। द्रिढ़ावै = पक्का कराता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गाई = गा।1।
अर्थ: हे मित्र! (गुरु शरण आए मनुष्य से) घर के जंजाल, भटकना व मोह छुड़वा देता है, और परमात्मा के साथ उसका प्यार बना देता है। (शरण आए मनुष्य के) मन को ये शिक्षा पक्की कर देता है कि सदा आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाता रह।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साजन ऐसो संतु सहाई ॥ जिसु भेटे तूटहि माइआ बंध बिसरि न कबहूं जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

साजन ऐसो संतु सहाई ॥ जिसु भेटे तूटहि माइआ बंध बिसरि न कबहूं जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजन = हे मित्र! संतु = गुरु। सहाई = मददगार। भेटे = मिलता है। बंध = बंधन। कब हूँ = कभी भी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! गुरु ऐसा मददगार है कि जिस मनुष्य को (गुरु) मिल जाता है, उसके माया के बंधन टूट जाते हैं, उसको परमात्मा कभी नहीं भूलता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करत करत अनिक बहु भाती नीकी इह ठहराई ॥ मिलि साधू हरि जसु गावै नानक भवजलु पारि पराई ॥२॥८॥१७॥

मूलम्

करत करत अनिक बहु भाती नीकी इह ठहराई ॥ मिलि साधू हरि जसु गावै नानक भवजलु पारि पराई ॥२॥८॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करत करत = करते करते। नीकी = अच्छी (सलाह)। मिलि = मिल के। साधू = गुरु। भवजलु = संसार समुंदर। पराई = पड़े, पड़ जाता है।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) अनेक, और कई किस्म की सोचें-विचारें करते-करते आखिर मैंने दिल में ये निश्चय टिका लिया है कि जो मनुष्य गुरु को मिल के परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है वह संसार समुंदर से पार लांघ जाता है।2।8।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ खिन महि थापि उथापनहारा कीमति जाइ न करी ॥ राजा रंकु करै खिन भीतरि नीचह जोति धरी ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ खिन महि थापि उथापनहारा कीमति जाइ न करी ॥ राजा रंकु करै खिन भीतरि नीचह जोति धरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। कीमति = बराबर की कद्र। रंकु = कंगाल। जोति धरी = अपनी ज्योति का प्रकाश कर देता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (संसारिक पदार्थों को) छिन में पैदा करके छिन में विनाश कर देने की सामर्थ्य रखने वाला है, उस परमात्मा के बराबर की कद्र वाला और कोई कहा नहीं जा सकता। परमात्मा राजे को एक छिन में कंगाल बना देता है और नीच कहलवाने वाले के अंदर अपनी ज्योति का प्रकाश कर देता है (जिस करके वह राजाओं वाला आदर-मान प्राप्त कर लेता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिआईऐ अपनो सदा हरी ॥ सोच अंदेसा ता का कहा करीऐ जा महि एक घरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

धिआईऐ अपनो सदा हरी ॥ सोच अंदेसा ता का कहा करीऐ जा महि एक घरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोच अंदेसा = चिन्ता फिक्र। ता का = उसचीज का। जा महि एक घरी = जिसके टिके रहने में एक घड़ी ही लगती है, जो छिन भंगुर है, जो जल्दी नाश होने वाली है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने सदा कायम रहने वाले परमात्मा का ही ध्यान धरे रखना चाहिए। (संसार की) उस चीज का क्या चिन्ता-फिक्र करना हुआ, जो जल्दी ही नाश हो जाने वाली है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्हरी टेक पूरे मेरे सतिगुर मन सरनि तुम्हारै परी ॥ अचेत इआने बारिक नानक हम तुम राखहु धारि करी ॥२॥९॥१८॥

मूलम्

तुम्हरी टेक पूरे मेरे सतिगुर मन सरनि तुम्हारै परी ॥ अचेत इआने बारिक नानक हम तुम राखहु धारि करी ॥२॥९॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरे सतिगुर = हे मेरे गुरु परमात्मा! अचेत = गाफ़ल, बेसमझ। करी = कर, हाथ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे सतिगुरु-प्रभु! मुझे तेरा ही आसरा है, मेरा मन तेरी शरण आ पड़ा है। हे प्रभु! हम तेरे बेसमझ अंजान बच्चे हैं, तू अपना हाथ (हमारे सिर पर) रख के (हमें संसारिक पदार्थों के मोह से) बचा ले।2।9।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ तूं दाता जीआ सभना का बसहु मेरे मन माही ॥ चरण कमल रिद माहि समाए तह भरमु अंधेरा नाही ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ तूं दाता जीआ सभना का बसहु मेरे मन माही ॥ चरण कमल रिद माहि समाए तह भरमु अंधेरा नाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माही = में। रिद = हृदय। तह = उस हृदय में। भरमु = भटकना। अंधेरा = अंधेरा।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जीवों को दातें देने वाला है (मेहर कर) मेरे मन में (सदा) बसा रह। (हे प्रभु!) तेरे सुंदर कोमल चरण जिस हृदय में टिके रहते हैं, उसमें भटकना नहीं रहती, उसमें माया के मोह का अंधकार नहीं रहता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाकुर जा सिमरा तूं ताही ॥ करि किरपा सरब प्रतिपालक प्रभ कउ सदा सलाही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ठाकुर जा सिमरा तूं ताही ॥ करि किरपा सरब प्रतिपालक प्रभ कउ सदा सलाही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा = जब। सिमरा = मैं याद करता हूँ। ताही = वहीं। प्रतिपालक = हे पालनहार! सलाही = मैं महिमा करता रहूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं जब (जहाँ) तुझे याद करता हूँ वहीं तू (आ पहुँचता है)। हे सब जीवों की पालना करने वाले! (मेरे पर) मेहर कर, मैं सदा तेरी ही महिमा करता रहूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासि सासि तेरा नामु समारउ तुम ही कउ प्रभ आही ॥ नानक टेक भई करते की होर आस बिडाणी लाही ॥२॥१०॥१९॥

मूलम्

सासि सासि तेरा नामु समारउ तुम ही कउ प्रभ आही ॥ नानक टेक भई करते की होर आस बिडाणी लाही ॥२॥१०॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। समारउ = मैं सम्भालता रहूँ। प्रभ = हे प्रभु! आही = मैं लोचता रहूँ। टेक = सहारा। बिडाणी = बेगानी।2।
अर्थ: हे प्रभु! (मेहर कर) मैं हरेक सांस से तेरा नाम (अपने हृदय में) संभाल के रखूँ, मैं सदा तेरे ही मिलाप की तमन्ना करता रहूँ। हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में) कर्तार का सहारा बन गया, उसने और बेगानी आस दूर कर दी।2।10।19।

[[0500]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ करि किरपा अपना दरसु दीजै जसु गावउ निसि अरु भोर ॥ केस संगि दास पग झारउ इहै मनोरथ मोर ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ करि किरपा अपना दरसु दीजै जसु गावउ निसि अरु भोर ॥ केस संगि दास पग झारउ इहै मनोरथ मोर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीजै = देह। जसु = महिमा का गीत। गावउ = मैं गाऊँ। निसि = रात। अरु = और। भोर = सवेरे। संगि = साथ। पग = पैर। झारउ = मैं झाड़ूँ। इहै = यह ही। मोर = मेरा।1।
अर्थ: हे मेरे मालिक! मेहर कर, मुझे अपना दर्शन दे, मैं दिन-रात तेरी महिमा के गीत गाता रहूँ, अपने केशों से तेरे सेवकों के पैर झाड़ता रहूँ- बस! यही है मेरे मन की तमन्ना।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाकुर तुझ बिनु बीआ न होर ॥ चिति चितवउ हरि रसन अराधउ निरखउ तुमरी ओर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ठाकुर तुझ बिनु बीआ न होर ॥ चिति चितवउ हरि रसन अराधउ निरखउ तुमरी ओर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! बीआ = दूसरा। चिति = चित्त में। चितवउ = मैं याद करता हूँ। रसन = जीभ से। निरखउ = मैं देखता हूँ। ओर = तरफ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक! तेरे बिना मेरा और कोई आसरा नहीं है। हे हरि! मैं अपने चित्त में तुझे ही याद करता हूँ, जीभ से तेरी ही आराधना करता हूँ, (और सदा सहायता के लिए) तेरी ओर ही देखता रहता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दइआल पुरख सरब के ठाकुर बिनउ करउ कर जोरि ॥ नामु जपै नानकु दासु तुमरो उधरसि आखी फोर ॥२॥११॥२०॥

मूलम्

दइआल पुरख सरब के ठाकुर बिनउ करउ कर जोरि ॥ नामु जपै नानकु दासु तुमरो उधरसि आखी फोर ॥२॥११॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनउ = विनती। करउ = करूँ। कर जोरि = (दोनों) हाथ जोड़ के। उधरसि = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाएगा। फोर = आँख झपकने जितने समय।2।
अर्थ: हे दया के घर! हे सर्व-व्यापक! हे सबके मालिक! मैं दोनों हाथ जोड़ के तेरे आगे विनती करता हूँ (मेहर कर) तेरा दास नानक (सदा तेरा) नाम जपता रहे। (जो) मनुष्य तेरा नाम जपता रहेगा वह (संसार समुंदर में से) आँख झपकने जितने समय में बच निकलेगा।2।11।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ ब्रहम लोक अरु रुद्र लोक आई इंद्र लोक ते धाइ ॥ साधसंगति कउ जोहि न साकै मलि मलि धोवै पाइ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ ब्रहम लोक अरु रुद्र लोक आई इंद्र लोक ते धाइ ॥ साधसंगति कउ जोहि न साकै मलि मलि धोवै पाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहम लोक = ब्रहमा की पुरी। अरु = और। रुद्र = शिव। ते = से। धाइ = धाय, दौड़ के, हमला बोल के। कउ = को। जोहि न साकै = देख नहीं सकती। मलि = मल के। पाइ = पैर।1।
अर्थ: (हे भाई!) माया ब्रहमा, शिव, इन्द्र आदि देवताओं पर भी अपना (प्रभाव डाल के) ब्रहमपुरी, शिवपुरी और इन्द्रपुरी पर हमला करती हुई (सांसारिक जीवों की तरफ) आई है। (पर) साधु-संगत की ओर (तो ये माया) ताक भी नहीं सकती, (ये माया सत्संगियों के) पैर मल-मल के धोती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मोहि आइ परिओ सरनाइ ॥ गुहज पावको बहुतु प्रजारै मो कउ सतिगुरि दीओ है बताइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब मोहि आइ परिओ सरनाइ ॥ गुहज पावको बहुतु प्रजारै मो कउ सतिगुरि दीओ है बताइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मैं। सरनाइ = (गुरु की) शरण में। गुहज = छुपी हुई, लुकी हुई। पावको = पावक, आग। प्रजारै = अच्छी तरह जलाती है। मो कउ = मुझे। सतिगुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! संसार को माया की तृष्णा की आग में जलता देख के) अब मैं (अपने सतिगुरु की) शरण आ पड़ा हूँ। (तृष्णा की) गुझी आग (संसार को) बहुत बुरी तरह जला रही है (इससे बचने के लिए) गुरु ने मुझे (तरीका) बता दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिध साधिक अरु जख्य किंनर नर रही कंठि उरझाइ ॥ जन नानक अंगु कीआ प्रभि करतै जा कै कोटि ऐसी दासाइ ॥२॥१२॥२१॥

मूलम्

सिध साधिक अरु जख्य किंनर नर रही कंठि उरझाइ ॥ जन नानक अंगु कीआ प्रभि करतै जा कै कोटि ऐसी दासाइ ॥२॥१२॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिध = योग साधना में महारत जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। जख्य = देवताओं की एक किस्म। नर = मनुष्य। कंठि = गले से। उरझाइ = चिपकी हुई। अंगु = हिस्सा। प्रभि = प्रभु ने। करतै = कर्तार ने। कोटि = करोड़ों। दासाइ = दासियां।2।
अर्थ: योग-साधना में पहुँचे हुए जोगी, योग-साधन करने वाले साधु, जख, किन्नर, मनुष्य - इन सबके गले में माया चिपकी हुई है। पर, हे नानक! अपने दासों का पक्ष उस प्रभु ने उस कर्तार ने किया हुआ है जिसके दर पर इस तरह की (इस माया जैसी) करोड़ों ही दासियां हैं।2।12।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ अपजसु मिटै होवै जगि कीरति दरगह बैसणु पाईऐ ॥ जम की त्रास नास होइ खिन महि सुख अनद सेती घरि जाईऐ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ अपजसु मिटै होवै जगि कीरति दरगह बैसणु पाईऐ ॥ जम की त्रास नास होइ खिन महि सुख अनद सेती घरि जाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपजसु = बदनामी। जगि = जगत में। कीरति = शोभा। बैसणु = बैठने के लिए जगह। त्रास = सहम। सेती = साथ। घरि = प्रभु चरणों में।1।
अर्थ: (हे भाई! नाम-जपने की इनायत से मनुष्य की पहली) बदनामी मिट जाती है, जगत में शोभा होने लगती है, और परमात्मा की दरगाह में बैठने के लिए जगह मिल जाती है। (हे भाई! नाम-जपने की सहायता से) मौत का सहम एक पल में खत्म हो जाता है, सुख आनंद से प्रभु-चरणों में पहुँच जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा ते घाल न बिरथी जाईऐ ॥ आठ पहर सिमरहु प्रभु अपना मनि तनि सदा धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जा ते घाल न बिरथी जाईऐ ॥ आठ पहर सिमरहु प्रभु अपना मनि तनि सदा धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा ते = जिसकी इनायत से। घाल = मेहनत। बिरथी = व्यर्थ। मनि = मन में। तनि = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! आठों पहर अपने प्रभु का स्मरण करते रहो। हे भाई! मन में हृदय में सदा प्रभु का ध्यान करना चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि सरनि दीन दुख भंजन तूं देहि सोई प्रभ पाईऐ ॥ चरण कमल नानक रंगि राते हरि दासह पैज रखाईऐ ॥२॥१३॥२२॥

मूलम्

मोहि सरनि दीन दुख भंजन तूं देहि सोई प्रभ पाईऐ ॥ चरण कमल नानक रंगि राते हरि दासह पैज रखाईऐ ॥२॥१३॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मैं। प्रभ = हे प्रभु! रंगि = प्रेम रंग में। दासह = दासों की। पैज = इज्जत।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे दीनों के दुख नाश करने वाले प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। जो कुछ तू खुद देता है जीवों को वही कुछ मिल सकता है। तेरे दास तेरे सुंदर कोमल चरणों के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, तू अपने दासों की इज्जत स्वयं रखता है।2।13।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ बिस्व्मभर जीअन को दाता भगति भरे भंडार ॥ जा की सेवा निफल न होवत खिन महि करे उधार ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ बिस्व्मभर जीअन को दाता भगति भरे भंडार ॥ जा की सेवा निफल न होवत खिन महि करे उधार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिस्वंभर = (विश्व = संसार। भर = पालने वाला), सारे संसार को पालने वाला। को = का। भंडार = खजाने। जा की = जिस (परमात्मा) की। निफल = व्यर्थ। उधार = उद्धार, पार उतारा।
अर्थ: हे मन! वह परमात्मा सारे जगत को पालने वाला है, वह सारे जीवों को दातें देने वाला है, उसके खजाने भक्ति (के धन) से भरे पड़े हैं। उस परमात्मा की की हुई सेवा भक्ति व्यर्थ नहीं जाती। (सेवा-भक्ति करने वाले का) वह एक छिन में (संसार-समुंदर से) पार-उतारा कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे चरन कमल संगि राचु ॥ सगल जीअ जा कउ आराधहि ताहू कउ तूं जाचु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे चरन कमल संगि राचु ॥ सगल जीअ जा कउ आराधहि ताहू कउ तूं जाचु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! संगि = साथ। राचु = मस्त रह। जा कउ = जिस (परमात्मा) को। ताहू कउ = उस को ही। जाचु = मांग।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस को (संसार के) सारे जीव जपते हैं, तू उस सुंदर कोमल चरणों से प्यार किया कर, तू उसके ही दर से मांगा कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक सरणि तुम्हारी करते तूं प्रभ प्रान अधार ॥ होइ सहाई जिसु तूं राखहि तिसु कहा करे संसारु ॥२॥१४॥२३॥

मूलम्

नानक सरणि तुम्हारी करते तूं प्रभ प्रान अधार ॥ होइ सहाई जिसु तूं राखहि तिसु कहा करे संसारु ॥२॥१४॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! प्रान अधार = जीवात्मा का आसरा। सहाई = मददगार। कहा करे = क्या बिगाड़ सकता है?।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे कर्तार! हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, तू ही मेरी जिंद का आसरा है। मददगार बन के जिस मनुष्य की तू रक्षा करता है, सारा जगत (भी अगर उसका वैरी बन जाए तो) उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता।2।14।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ जन की पैज सवारी आप ॥ हरि हरि नामु दीओ गुरि अवखधु उतरि गइओ सभु ताप ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ जन की पैज सवारी आप ॥ हरि हरि नामु दीओ गुरि अवखधु उतरि गइओ सभु ताप ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पैज = इज्जत। सवारी = कायम रखी, सँवार दी। गुरि = गुरु ने। अवखधु = दवा। सभु = सारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक की इज्जत स्वयं बढ़ाता है। (परमात्मा का नाम दवा है) गुरु ने जिस मनुष्य को हरि-नाम की दवाई दे दी, उसका हरेक किस्म का ताप (दुख-कष्ट) दूर हो गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिगोबिंदु रखिओ परमेसरि अपुनी किरपा धारि ॥ मिटी बिआधि सरब सुख होए हरि गुण सदा बीचारि ॥१॥

मूलम्

हरिगोबिंदु रखिओ परमेसरि अपुनी किरपा धारि ॥ मिटी बिआधि सरब सुख होए हरि गुण सदा बीचारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। धारि = धर के। बिआधि = रोग, बिमारी। बीचारी = विचारे, सोच मण्डल में टिकाए।1।
अर्थ: (कमजोर-दिल लोग देवी की पूजा को चल पड़ते हैं) पर देखो! (परमात्मा ने) मेहर करके हरि गोबिंद (जी) को स्वयं (चेचक के ताप से) बचा लिया। परमात्मा के गुणों को मन में टिका के हरेक रोग दूर हो जाता है, सारे सुख ही सुख प्राप्त हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंगीकारु कीओ मेरै करतै गुर पूरे की वडिआई ॥ अबिचल नीव धरी गुर नानक नित नित चड़ै सवाई ॥२॥१५॥२४॥

मूलम्

अंगीकारु कीओ मेरै करतै गुर पूरे की वडिआई ॥ अबिचल नीव धरी गुर नानक नित नित चड़ै सवाई ॥२॥१५॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंगीकार कीओ = अपने साथ मिलाया, अपने चरणों में जोड़ा। करतै = कर्तार ने। अबिचल = कभी ना हिलने वाली। नीव = नींव। गुर धरी नीव = गुरु की रखी हुई नींव। चढ़ै सवाई = बढ़ती है।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मेरे कर्तार ने (डोलने से बचा के मुझे) अपने चरणों में जोड़े रखा- यह सारी पूरे गुरु की महानता (के सदका) था। गुरु की रखी हुई हरि-नाम जपने की नींव कभी डोलने वाली नहीं है। (ये नींव जिस हृदय-धरा पर रखी जाती है, वहाँ) सदा ही बढ़ती जाती है।2।15।24।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द का केन्द्रिया भाव ‘रहाउ’ वाली तुक में है कि प्रभु का नाम सारे रोगों को दूर करने वाला है। इस असूल की प्रौढ़ता करने के लिए उदाहरण के तौर पर गुरु हरि गोबिंद साहिब के अरोग हो जाने का वर्णन किया है। चेचक (माता की बिमारी) से बचने के लिए आस-पड़ोस से देवी पूजन की प्रेरणा हो रही थी, जो अरजन साहिब को कमजोर ना कर सकी। यह शब्द ऐसी बिपता के समय रहबरी के रूप में है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ कबहू हरि सिउ चीतु न लाइओ ॥ धंधा करत बिहानी अउधहि गुण निधि नामु न गाइओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ कबहू हरि सिउ चीतु न लाइओ ॥ धंधा करत बिहानी अउधहि गुण निधि नामु न गाइओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कब हू = कभी भी। सिउ = साथ। न लाइओ = नहीं जोड़ा। बिहानी = बीत गई। अउधहि = उम्र। गुणि निधि नामु = सारे गुणों का खजाना हरि का नाम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फंसा जीव) कभी अपना मन परमात्मा (के चरणों) से नहीं जोड़ता। (माया की खातिर) दौड़-भाग करते हुए (इसकी) उम्र गुजर जाती है सारे गुणों के खजाने परमात्मा का नाम नहीं जपता।1। रहाउ।

[[0501]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउडी कउडी जोरत कपटे अनिक जुगति करि धाइओ ॥ बिसरत प्रभ केते दुख गनीअहि महा मोहनी खाइओ ॥१॥

मूलम्

कउडी कउडी जोरत कपटे अनिक जुगति करि धाइओ ॥ बिसरत प्रभ केते दुख गनीअहि महा मोहनी खाइओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोरत = जोड़ते हुए, इकट्ठे करते हुए। कपटे = धोखे से। जुगति = ढंग। धाइओ = भटकता फिरा। केते = कितने? गनीअहि = गिने जा सकते हैं। महा मोहनी = मन को ठगने वाली सबसे बड़ी (माया)। खाइओ = आत्मिक जीवन को खा गई।1।
अर्थ: ठगी से एक-एक कौड़ी करके माया एकत्र करता रहता है अनेक ढंग-तरीके बरत के माया की खातिर दौड़ता फिरता है। परमात्मा का नाम भुलाने के कारण इसे अनेक ही दुख आ घेरते हैं। मन को मोह लेने वाली प्रबल माया इसके आत्मिक जीवन को खा जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करहु अनुग्रहु सुआमी मेरे गनहु न मोहि कमाइओ ॥ गोबिंद दइआल क्रिपाल सुख सागर नानक हरि सरणाइओ ॥२॥१६॥२५॥

मूलम्

करहु अनुग्रहु सुआमी मेरे गनहु न मोहि कमाइओ ॥ गोबिंद दइआल क्रिपाल सुख सागर नानक हरि सरणाइओ ॥२॥१६॥२५॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘लाइओ, गाइओ’ आदि भूतकाल को वर्तमान काल में समझना है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। सुआमी = हे स्वामी! गनहु न = ना गिनो, ना विचारो। मोहि कमाइओ = मेरे किए कर्मों को।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गोबिंद! हे दयालु! हे कृपालु! हे सुखों के समुंदर! हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे मेरे मालिक! मेरे पर मेहर कर, मेरे किए कर्मों की तरफ ध्यान ना करना।2।16।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ रसना राम राम रवंत ॥ छोडि आन बिउहार मिथिआ भजु सदा भगवंत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ रसना राम राम रवंत ॥ छोडि आन बिउहार मिथिआ भजु सदा भगवंत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। रवंत = जपता रह। छोडि = छोड़ के। मिथिआ = झूठे, नाशवान। आन = और। भगवंत = भगवान।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपनी जीभ से सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। और झूठे व्यवहारों (के मोह) को छोड़ के सदा भगवान का भजन करा कर।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु एकु अधारु भगता ईत आगै टेक ॥ करि क्रिपा गोबिंद दीआ गुर गिआनु बुधि बिबेक ॥१॥

मूलम्

नामु एकु अधारु भगता ईत आगै टेक ॥ करि क्रिपा गोबिंद दीआ गुर गिआनु बुधि बिबेक ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आधारु = आसरा। ईत = इस लोक में। आगै = परलोक में। टेक = सहारा। गोबिंद = हे गोबिंद! गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बिबेक बुधि = अच्छे बुरे कर्म परख करने वाली बुद्धि।1।
अर्थ: हे गोबिंद! जिस अपने भक्तों को तूने कृपा करके गुरु का ज्ञान बख्शा है, और अच्छे-बुरे की परख कर सकने वाली बुद्धि दी है, तेरा नाम ही उनकी जिंदगी का आसरा बन गया है, इसलोक और परलोक में उनको तेरा ही सहारा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण कारण सम्रथ स्रीधर सरणि ता की गही ॥ मुकति जुगति रवाल साधू नानक हरि निधि लही ॥२॥१७॥२६॥

मूलम्

करण कारण सम्रथ स्रीधर सरणि ता की गही ॥ मुकति जुगति रवाल साधू नानक हरि निधि लही ॥२॥१७॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण = जगत। कारणु = मूल। सम्रथ = सारी ही ताकतों वाला। स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी पति। ता की = उस (हरि) की। गही = पकड़ी। मुकति जुगति = माया के मोह से खलासी का साधन, मुक्ति की जुगती। रवाल साधू = गुरु की चरण धूल। निधि = खजाना। लही = मिल गई।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मायावी बंधनों से निजात पाने का तरीका (सिर्फ) गुरु की चरण-धूल है, गुरु की शरण पड़ने वाले ने ही परमात्मा का नाम-खजाना हासिल किया है, और, उस परमात्मा की शरण ली है जो सारे जगत का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक है, जो लक्ष्मी का पति है।2।17।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ घरु ४ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ घरु ४ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छाडि सगल सिआणपा साध सरणी आउ ॥ पारब्रहम परमेसरो प्रभू के गुण गाउ ॥१॥

मूलम्

छाडि सगल सिआणपा साध सरणी आउ ॥ पारब्रहम परमेसरो प्रभू के गुण गाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउपदे = चार बंदों वाले शब्द। सगल = सारी ही। साध = गुरु।1।
अर्थ: (हे मन! जीवन-जुगति प्राप्त करने के लिए अपनी) सारी ही समझदारियां छोड़ दे, गुरु का आसरा ले (गुरु की शिक्षा पर चल के) परमेश्वर पारब्रहम प्रभु के गुण गाता रहा कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे चित चरण कमल अराधि ॥ सरब सूख कलिआण पावहि मिटै सगल उपाधि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रे चित चरण कमल अराधि ॥ सरब सूख कलिआण पावहि मिटै सगल उपाधि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरण कमल = सुंदर कोमल चरण (कमल फूल के जैसे)। उपाधि = रोग।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों की आराधना किया कर, सारे सुख आनंद हासिल कर लेगा, (नाम-जपने की इनायत से) हरेक रोग मिट जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात पिता सुत मीत भाई तिसु बिना नही कोइ ॥ ईत ऊत जीअ नालि संगी सरब रविआ सोइ ॥२॥

मूलम्

मात पिता सुत मीत भाई तिसु बिना नही कोइ ॥ ईत ऊत जीअ नालि संगी सरब रविआ सोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। ईत ऊत = इस लोक में और परलोक में। जीअ नालि = जीअ के साथ जिंद के साथ। रविआ = व्यापक।2।
अर्थ: हे मन! माता-पिता-पुत्र-मित्र-भाई, परमात्मा के बिना कोई भी (साथ निभने वाला साथी) नहीं है। जो परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है वही इस लोक और परलोक में जीव के साथ रहने वाला साथी है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि जतन उपाव मिथिआ कछु न आवै कामि ॥ सरणि साधू निरमला गति होइ प्रभ कै नामि ॥३॥

मूलम्

कोटि जतन उपाव मिथिआ कछु न आवै कामि ॥ सरणि साधू निरमला गति होइ प्रभ कै नामि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मिथिआ = व्यर्थ। कामि = काम में। निरमला = पवित्र। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। नामि = नाम में जुड़ने से।3।
अर्थ: (हे मन! आत्मिक पवित्रता के वास्ते गुरु की शरण के बिना और) करोड़ों ही प्रयत्न और उपाय व्यर्थ हैं, (पवित्रता के लिए इनमें से) कोई भी काम नहीं आ सकता। गुरु की शरण पड़ने से ही मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो सकता है, परमात्मा के नाम में जुड़ने से ही उच्च आत्मिक अवस्था बन सकती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम दइआल प्रभू ऊचा सरणि साधू जोगु ॥ तिसु परापति नानका जिसु लिखिआ धुरि संजोगु ॥४॥१॥२७॥

मूलम्

अगम दइआल प्रभू ऊचा सरणि साधू जोगु ॥ तिसु परापति नानका जिसु लिखिआ धुरि संजोगु ॥४॥१॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सरणि साधू जोगु = गुरमुखों को अपनी शरण में रखने की सामर्थ्य वाला। जिसु लिखिआ = जिसके माथे पर लिखा। धुरि = धुर दरगाह से। संजोगु = मिलाप।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) अगम्य (पहुँच से परे) दयावान परमात्मा सब (व्यक्तियों) से ऊँचा है, गुरमुखों को अपनी शरण में रखने (व उपाधियों-व्याधियों से बचाने) की सामर्थ्य वाला है। पर वह परमात्मा उसी मनुष्य को मिल सकता है जिसके माथे पर धुर-दरगाह से मिलाप का संजोग लिखा होता है।4।1।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ आपना गुरु सेवि सद ही रमहु गुण गोबिंद ॥ सासि सासि अराधि हरि हरि लहि जाइ मन की चिंद ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ आपना गुरु सेवि सद ही रमहु गुण गोबिंद ॥ सासि सासि अराधि हरि हरि लहि जाइ मन की चिंद ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरु सेवि = गुरु की शरण पड़ के। सद = सदा। रमहु = याद करता रह। सासि सासि = हरेक सांस से। चिंद = चिन्ता।1।
अर्थ: हे भाई! अपने गुरु की शरण पड़ के सदा ही गोविंद के गुण गाता रह, अपनी हरेक सांस के साथ परमात्मा की आराधना करता रह, तेरे मन की हरेक चिन्ता दूर हो जाएगी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन जापि प्रभ का नाउ ॥ सूख सहज अनंद पावहि मिली निरमल थाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन जापि प्रभ का नाउ ॥ सूख सहज अनंद पावहि मिली निरमल थाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। मिली = मिला रहेगा। निरमल = पवित्र रखने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपता रह (नाम-जपने की इनायत से) सुख, आत्मिक अडोलता, आनंद प्राप्त करेगा, तुझे वह जगह मिली रहेगी जो तुझे हमेशा स्वच्छ रख सके।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि उधारि इहु मनु आठ पहर आराधि ॥ कामु क्रोधु अहंकारु बिनसै मिटै सगल उपाधि ॥२॥

मूलम्

साधसंगि उधारि इहु मनु आठ पहर आराधि ॥ कामु क्रोधु अहंकारु बिनसै मिटै सगल उपाधि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = संगत में। उधारि = (विकारों से) बचा ले। उपाधि = रोग।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के अपने इस मन को (विकारों से) बचाए रख, आठों पहर परमात्मा की आराधना करता रह, (तेरे अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार नाश हो जाएगा, तेरा हरेक रोग दूर हो जाएगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अटल अछेद अभेद सुआमी सरणि ता की आउ ॥ चरण कमल अराधि हिरदै एक सिउ लिव लाउ ॥३॥

मूलम्

अटल अछेद अभेद सुआमी सरणि ता की आउ ॥ चरण कमल अराधि हिरदै एक सिउ लिव लाउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अछेद = अविनाशी। अभेद = गहरा, जिसका भेद ना पाया जा सके। लिव = लगन।3।
अर्थ: हे भाई! उस मालिक प्रभु की शरण में टिका रह जो सदा कायम रहने वाला है जो नाश-रहित है जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। हे भाई! अपने हृदय में प्रभु के सुंदर कोमल चरणों की आराधना किया कर, परमात्मा के चरणों में प्यार डाले रख।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमि प्रभि दइआ धारी बखसि लीन्हे आपि ॥ सरब सुख हरि नामु दीआ नानक सो प्रभु जापि ॥४॥२॥२८॥

मूलम्

पारब्रहमि प्रभि दइआ धारी बखसि लीन्हे आपि ॥ सरब सुख हरि नामु दीआ नानक सो प्रभु जापि ॥४॥२॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभु ने। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे भाई! पारब्रहम प्रभु ने जिस मनुष्यों पर मेहर की उनको उसने स्वयं बख्श लिया (उनके पिछले पाप क्षमा कर दिए) उनको उसने सारे सुखों का खजाना अपना हरि-नाम दे दिया। हे नानक! (कह: हे भाई!) तू भी उस प्रभु का नाम जपा कर।4।2।28।

[[0502]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ गुर प्रसादी प्रभु धिआइआ गई संका तूटि ॥ दुख अनेरा भै बिनासे पाप गए निखूटि ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ गुर प्रसादी प्रभु धिआइआ गई संका तूटि ॥ दुख अनेरा भै बिनासे पाप गए निखूटि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रसादी = कृपा से। संका = शंका, शक, भटकना। निखूटि गए = खत्म हो गए।1
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से अपने हृदय में परमात्मा का ध्यान धरा (उसके अंदर से) डावाँडोल स्थिति खतम हो गई। उसके सारे दुख, उसका माया के मोह का अंधकार, उसके सारे डर दूर हो गए, उसके सारे पाप समाप्त हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नाम की मनि प्रीति ॥ मिलि साध बचन गोबिंद धिआए महा निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नाम की मनि प्रीति ॥ मिलि साध बचन गोबिंद धिआए महा निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। साध = गुरु। रीति = जीवन जुगत। निरमल = पवित्र।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा के नाम का प्यार पैदा हो जाता है, जो मनुष्य गुरु को मिल के गुरु की वाणी के द्वारा गोबिंद का ध्यान करता है, उसकी जीवन-जुगति बहुत पवित्र हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाप ताप अनेक करणी सफल सिमरत नाम ॥ करि अनुग्रहु आपि राखे भए पूरन काम ॥२॥

मूलम्

जाप ताप अनेक करणी सफल सिमरत नाम ॥ करि अनुग्रहु आपि राखे भए पूरन काम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनुग्रहु = दइआ। करि = करके।2।
अर्थ: (हे भाई! जीवन में सफलता देने वाला हरि-नाम ही है) जीवन-सफलता देने वाला प्रभु का नाम स्मरण करने से सारे जप-तप और अनेक ही निहित धार्मिक कर्म अपने आप हुए समझो (इनकी आवश्यक्ता ही नहीं पड़ती। सबसे श्रेष्ठ नाम-जपना ही है)। हे भाई! परमात्मा मेहर करके जिस मनुष्यों को (अपने चरणों में टिकाए) रखता है उनके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासि सासि न बिसरु कबहूं ब्रहम प्रभ समरथ ॥ गुण अनिक रसना किआ बखानै अगनत सदा अकथ ॥३॥

मूलम्

सासि सासि न बिसरु कबहूं ब्रहम प्रभ समरथ ॥ गुण अनिक रसना किआ बखानै अगनत सदा अकथ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस के साथ। रसना = जीभ। बखानै = बताए।3।
अर्थ: हे भाई! अपनी हरेक सांस के साथ समर्थ ब्रहम परमात्मा को याद करता रह, उसे कभी ना बिसार। उस परमात्मा के बेअंत गुण हैं, गिने नहीं जा सकते, मनुष्य की जीभ उनको बयान नहीं कर सकती। उस परमात्मा का स्वरूप सदा ही बयान से परे है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन दरद निवारि तारण दइआल किरपा करण ॥ अटल पदवी नाम सिमरण द्रिड़ु नानक हरि हरि सरण ॥४॥३॥२९॥

मूलम्

दीन दरद निवारि तारण दइआल किरपा करण ॥ अटल पदवी नाम सिमरण द्रिड़ु नानक हरि हरि सरण ॥४॥३॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवारि = दूर करके, निर्वित्त करके। पदवी = दर्जा।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा गरीबों के दुख दूर करके उनको संसार-समुंदर से पार लंघाने के समर्थ है, दया का घर है, वह हरेक पर कृपा करने वाला है उसका नाम स्मरण करते ही अटल आत्मिक जीवन का दर्जा मिल जाता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) हरि-नाम को अपने दिल में पक्का टिकाए रख, परमात्मा की शरण पड़ा रह।4।3।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ अह्मबुधि बहु सघन माइआ महा दीरघ रोगु ॥ हरि नामु अउखधु गुरि नामु दीनो करण कारण जोगु ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ अह्मबुधि बहु सघन माइआ महा दीरघ रोगु ॥ हरि नामु अउखधु गुरि नामु दीनो करण कारण जोगु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंबुद्धि, अहंकार, मैं मैं करने वाली अक्ल। सघन = घनी। दीरघ = दीर्घ, लंबी। अउखधु = दवाई। गुरि = गुरु ने। करण कारण जोगु = जगत के मूल प्रभु से मिला सकने वाला।1।
अर्थ: हे भाई! अहंकार एक बड़ा लंबा रोग है, माया से गहरा प्यार बड़ा पुराना रोग है (इस रोग से उस भाग्यशाली मनुष्य की खलासी होती है जिसे) गुरु ने परमात्मा का नाम-दारू दे दिया।
(हे भाई!) प्रभु का नाम जगत के मूल-प्रभु से मिलाने की स्मर्था रखता हैं1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि तनि बाछीऐ जन धूरि ॥ कोटि जनम के लहहि पातिक गोबिंद लोचा पूरि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मनि तनि बाछीऐ जन धूरि ॥ कोटि जनम के लहहि पातिक गोबिंद लोचा पूरि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = हृदय में। बाछीऐ = तमन्ना करनी चाहिए। लहहि = उतर जाते हैं। पातिक = पाप। गोबिंद = हे गोबिंद! लोचा = तमन्ना। पूरि = पूरी करी।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने मन में अपने हृदय में परमात्मा के सेवकों की चरण-धूल (की प्राप्ति की) चाहत करते रहना चाहिए (और, प्रभु-चरणों में अरदास करनी चाहिए-) हे गोबिंद! (मेरी यह) तमन्ना पूरी कर (क्योंकि ‘जन धूरि’ की इनायत से) करोड़ों जन्मों के पाप उतर जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदि अंते मधि आसा कूकरी बिकराल ॥ गुर गिआन कीरतन गोबिंद रमणं काटीऐ जम जाल ॥२॥

मूलम्

आदि अंते मधि आसा कूकरी बिकराल ॥ गुर गिआन कीरतन गोबिंद रमणं काटीऐ जम जाल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि अंते मधि = सदा ही, हर वक्त। कूकरी = कुत्ती। बिकराल = डरावनी। काटीऐ = काट लेते हैं। जम काल = मौत का जाल, आत्मिक मौत का जाल।2।
अर्थ: हे भाई! (मायावी पदार्थों की) आसा (एक) डरावनी कुत्ती (जैसी) है जो हर समय (जीवों के मन में और-और पदार्थों के लिए भौकती रहती है, और, जीवों के वास्ते आत्मिक मौत का जाल बिखेरे रखती है)। आत्मिक मौत का (ये) जाल गुरु के दिए ज्ञान (आत्मिक जीवन के बारे में सही सूझ) और परमात्मा की महिमा के गीत गाने से काटा जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध लोभ मोह मूठे सदा आवा गवण ॥ प्रभ प्रेम भगति गुपाल सिमरण मिटत जोनी भवण ॥३॥

मूलम्

काम क्रोध लोभ मोह मूठे सदा आवा गवण ॥ प्रभ प्रेम भगति गुपाल सिमरण मिटत जोनी भवण ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूठे = ठगे हुए, लूटे हुए। आवागवण = जनम मरन का चक्कर। भवण = भटकना।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य काम-क्रोध-लोभ (आदि चोरों) से (अपना आत्मिक जीवन) लुटवाते रहते हैं, उनके वास्ते जनम-मरन का चक्कर सदा बना रहता है। हे भाई! परमात्मा से प्यार डालने पर, गोपाल की भक्ति करने से, हरि-नाम का स्मरण करने से अनेक जूनियों में भटकन समाप्त हो जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्र पुत्र कलत्र सुर रिद तीनि ताप जलंत ॥ जपि राम रामा दुख निवारे मिलै हरि जन संत ॥४॥

मूलम्

मित्र पुत्र कलत्र सुर रिद तीनि ताप जलंत ॥ जपि राम रामा दुख निवारे मिलै हरि जन संत ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। सुररिद = सुहृद, मित्र, हार्दिक सांझ वाले। तीनि ताप = (आदि, व्याधि, उपाधि, ये) तीन ताप।4।
अर्थ: हे भाई! मित्र, पुत्र, स्त्री, रिश्तेदार (आदि के मोह में फसने से आधि, व्याधि, उपाधि) तीनों ताप मनुष्य (के आत्मिक जीवन) को जलाते रहते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के सेवकों को संत जनों को मिल लेता है वह परमात्मा का नाम सदा जप के (अपने सारे) दुख दूर कर लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब बिधि भ्रमते पुकारहि कतहि नाही छोटि ॥ हरि चरण सरण अपार प्रभ के द्रिड़ु गही नानक ओट ॥५॥४॥३०॥

मूलम्

सरब बिधि भ्रमते पुकारहि कतहि नाही छोटि ॥ हरि चरण सरण अपार प्रभ के द्रिड़ु गही नानक ओट ॥५॥४॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब बिधि = अनेक तरीकों से। कतहि = कहीं भी। छोटि = खलासी। द्रिढ़ = पक्की तरह। गही = पकड़ी।5।
अर्थ: (हे भाई! ‘विकराल आसा कूकरी’ के पँजे में फंस के जीव) अनेक तरीकों से भटकते फिरते हैं (और, दुखी हो के) पुकारते हें, किसी भी तरीके से उनकी (इस ‘बिकराल आसा कूकरी’ से) खलासी नहीं होती।
हे नानक! (कह: मैंने इससे बचने के लिए) बेअंत प्रभु के चरणों की शरण चरणों की ओट पक्की तरह पकड़ ली है।5।4।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आराधि स्रीधर सफल मूरति करण कारण जोगु ॥ गुण रमण स्रवण अपार महिमा फिरि न होत बिओगु ॥१॥

मूलम्

आराधि स्रीधर सफल मूरति करण कारण जोगु ॥ गुण रमण स्रवण अपार महिमा फिरि न होत बिओगु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी का सहारा, परमात्मा। सफल मूरति = जिसके स्वरूप का दर्शन जीवन को कामयाब करता है। करण = सृष्टि। कारण = सबब, मूल। जोगु = समर्थ। करण कारण जोगु = जगत का समर्थ मूल। बिओगु = विछोड़ा।1।
अर्थ: हे मन! उस लक्ष्मी-पति प्रभु की आराधना किया कर, जिसके स्वरूप का दर्शन जीवन को कामयाब कर देता है, और, जो जगत का समर्थ मूल है। उस बेअंत परमात्मा की महानता के गुण गाने से सुनने से दुबारा कभी उसके चरणों से विछोड़ा नहीं होता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन चरणारबिंद उपास ॥ कलि कलेस मिटंत सिमरणि काटि जमदूत फास ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन चरणारबिंद उपास ॥ कलि कलेस मिटंत सिमरणि काटि जमदूत फास ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! चरणारबिंद = चरण+अरविंद (अरविंद = कमल), चरण कमल। उपास = उपासना कर। कलि = झगड़े। सिमरणि = स्मरण से। फास = फांसी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों की उपासना करता रहा कर। (हरि नाम-) नाम-जपने की इनायत से सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं (स्मरण से) तू जमदूतों की मोह की संगलियां काट दे (क्योंकि वही आत्मिक मौत लाती हैं)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्रु दहन हरि नाम कहन अवर कछु न उपाउ ॥ करि अनुग्रहु प्रभू मेरे नानक नाम सुआउ ॥२॥१॥३१॥

मूलम्

सत्रु दहन हरि नाम कहन अवर कछु न उपाउ ॥ करि अनुग्रहु प्रभू मेरे नानक नाम सुआउ ॥२॥१॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सत्रु = शत्रु। उपाउ = उपाय। अनुग्रहु = दया। सुआउ = स्वार्थ, जीवन उद्देश्य।2।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम स्मरणा ही कामादिक वैरियों को जलाने का साधन है (इसके बिना इनसे बचने का) और कोई तरीका नहीं है।
हे नानक! (कह:) हे मेरे प्रभु! मेहर कर, तेरा नाम स्मरणा ही मेरे जीवन का उद्देश्य बना रहे।2।1।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ ॥ तूं समरथु सरनि को दाता दुख भंजनु सुख राइ ॥ जाहि कलेस मिटे भै भरमा निरमल गुण प्रभ गाइ ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला ५ ॥ तूं समरथु सरनि को दाता दुख भंजनु सुख राइ ॥ जाहि कलेस मिटे भै भरमा निरमल गुण प्रभ गाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। सरनि को दाता = आसरा देने वाला। सुखराइ = सुखों का राजा, सुख देने वाला। जाहि = दूर हो जाते हैं। भै = डर। प्रभ = हे प्रभु! गाइ = गा के।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तू सारी ही ताकतों का मालिक है, तू शरण आए को सहारा देने वाला है, तू (जीवों के) दुख दूर करने वाला है, और सुख देने वाला है। तेरे पवित्र गुण गा-गा के जीवों के दुख दूर हो जाते हैं, सारे डर-भ्रम मिट जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोविंद तुझ बिनु अवरु न ठाउ ॥ करि किरपा पारब्रहम सुआमी जपी तुमारा नाउ ॥ रहाउ॥

मूलम्

गोविंद तुझ बिनु अवरु न ठाउ ॥ करि किरपा पारब्रहम सुआमी जपी तुमारा नाउ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोविंद = हे गोविंद! ठाउ = जगह, आसरा। पारब्रहम = हे पारब्रहम! जपी = जपूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे गोविंद! तेरे बिना मेरा और कोई आसरा नहीं। हे पारब्रहम! हे स्वामी! (मेरे पर) मेहर कर, मैं (सदा) तेरा नाम जपता रहूँ।1। रहाउ।

[[0503]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर सेवि लगे हरि चरनी वडै भागि लिव लागी ॥ कवल प्रगास भए साधसंगे दुरमति बुधि तिआगी ॥२॥

मूलम्

सतिगुर सेवि लगे हरि चरनी वडै भागि लिव लागी ॥ कवल प्रगास भए साधसंगे दुरमति बुधि तिआगी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। भागि = किस्मत से। लिव = लगन। कवल = हृदय कमल। संगे = संगति में। दुरमति = खोटी मति वाली।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य बड़ी किस्मत से गुरु की शरण पड़ कर प्रभु चरणों में जुड़ते हैं, उनकी लगन (परमात्मा के साथ) लग जाती है, गुरु की संगति में रहके उनके हृदय कमल-फूल की तरह खिल जाते हैं, वह खोटी मति वाली बुद्धि त्याग देते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर हरि के गुण गावै सिमरै दीन दैआला ॥ आपि तरै संगति सभ उधरै बिनसे सगल जंजाला ॥३॥

मूलम्

आठ पहर हरि के गुण गावै सिमरै दीन दैआला ॥ आपि तरै संगति सभ उधरै बिनसे सगल जंजाला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावै = गाता है। दैआला = दया का घर। उधरै = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाती है। जंजाला = बंधन।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य आठों पहर परमात्मा के गुण गाता है, दीनों पर दया करने वाले का नाम स्मरण करता है, वह खुद (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है, उसके सारे मायावी बंधन नाश हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरण अधारु तेरा प्रभ सुआमी ओति पोति प्रभु साथि ॥ सरनि परिओ नानक प्रभ तुमरी दे राखिओ हरि हाथ ॥४॥२॥३२॥

मूलम्

चरण अधारु तेरा प्रभ सुआमी ओति पोति प्रभु साथि ॥ सरनि परिओ नानक प्रभ तुमरी दे राखिओ हरि हाथ ॥४॥२॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधारु = आसरा। ओति = उने (बुने) हुए में। पोति = परोए हुए में। ओति पोति = जैसे ताने पेटे के धागे आपस में मिले होते हैं। प्रभू = मालिक। दे = दे के। हरि = हे हरि!।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे स्वामी! जिस मनुष्य ने तेरे चरणों को अपनी जिंदगी का सहारा बना लिया, तू मालिक! ताणे-पेटे की तरह सदा उसके साथ रहता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ा, हे हरि! तू उसको अपना हाथ दे के (संसार-समुंदर से) बचाता है।4।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक नगरी पंच चोर बसीअले बरजत चोरी धावै ॥ त्रिहदस माल रखै जो नानक मोख मुकति सो पावै ॥१॥

मूलम्

एक नगरी पंच चोर बसीअले बरजत चोरी धावै ॥ त्रिहदस माल रखै जो नानक मोख मुकति सो पावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक नगरी = एक ही (शरीर) शहर में। पंच = पाँच। बसीअले = बसे हुए हैं। बरजत = रोकते रोकते, वर्जते हुए भी। धावै = (हरेक चोर चोरी करने के लिए) दौड़ पड़ता है। त्रिह = माया के तीन गुण। दस = इंद्रिय। माल = संपत्ति, धन-दौलत। नानक = हे नानक! सो = वह मनुष्य।1।
अर्थ: इस एक ही (शरीर-) नगर में (कामादिक) पाँच चोर बसे हुए हैं, मना करते-करते भी (इनमें से हरेक इस नगर के आत्मिक गुणों को) चुराने के लिए उठ दौड़ता है। (परमात्मा को अपने हृदय में बसा के) जो मनुष्य (इन पाँचों से) माया के तीन गुणों से और दस इन्द्रियों से (अपने आत्मिक गुणों की) पूंजी बचा के रखता है, हे नानक! वह (इनसे) सदा के लिए निजात प्राप्त कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेतहु बासुदेउ बनवाली ॥ रामु रिदै जपमाली ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

चेतहु बासुदेउ बनवाली ॥ रामु रिदै जपमाली ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बासुदेउ = सर्व व्यापक प्रभु! बनमाली = सारी बनस्पती जिसकी माला है, परमात्मा। रिदै = हृदय में। जप माली = माला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक जगत के मालिक परमात्मा को सदा याद रखो। प्रभु को अपने हृदय में टिकाओ- (इसको अपनी) माला (बनाओ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उरध मूल जिसु साख तलाहा चारि बेद जितु लागे ॥ सहज भाइ जाइ ते नानक पारब्रहम लिव जागे ॥२॥

मूलम्

उरध मूल जिसु साख तलाहा चारि बेद जितु लागे ॥ सहज भाइ जाइ ते नानक पारब्रहम लिव जागे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उरध मूल = (जो) ऊँची जड़ वाली (है) वह माया जिसका मूल-प्रभु माया के प्रभाव से ऊपर है। जिसु = जिस माया की। साख = टहनियां, पसारा। तलाहा = नीचे की ओर, माया के असर तहत। जितु = जिस (माया) में, जिस (माया के बल के जिक्र) में। सहज भाइ = सहजे ही। जाइ = चली जाती है, परे हट जाती है। ते = (क्योंकि) वह लोग। जागे = जागते रहते हैं, सुचेत रहते हैं।2।
अर्थ: जिस माया का मूल प्रभु, माया के प्रभाव से ऊपर है, जगत पसारा जिस माया के प्रभाव से नीचे है, चारों वेद जिस (माया के बल के वर्णन) में लगे रहे हैं, वह माया सहजे ही (उन लोगों से) परे हट जाती है (जो परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं, क्योंकि) वह लोग, हे नानक! परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ के (माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारजातु घरि आगनि मेरै पुहप पत्र ततु डाला ॥ सरब जोति निरंजन स्मभू छोडहु बहुतु जंजाला ॥३॥

मूलम्

पारजातु घरि आगनि मेरै पुहप पत्र ततु डाला ॥ सरब जोति निरंजन स्मभू छोडहु बहुतु जंजाला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारजातु = स्वर्ग का एक वृक्ष जो सारी ही कामनाएं पूरी करने के समर्थ माना गया है, सर्व इच्छा पूरक प्रभु। घरि = घर में, हृदय में। आगनि = आँगन में। पुहप = फूल। ततु = सारे जगत का मूल। संभू = स्वयं भु, अपने आप से जन्मा हुआ।3।
अर्थ: (ये सारा जगत जिस पारजात-प्रभु) फूल-पत्तियां-डालियां आदि पसारा है, जो प्रभु सारे जगत का मूल है, जिसकी ज्योति सब जीवों में पसर रही है, जो माया के प्रभाव से परे है, जिसका प्रकाश अपने आप से है, वह (सर्व-इच्छा-पूरक) पारजात (-प्रभु) मेरे हृदय आँगन में प्रगट हो गया है (और मेरे अंदर से माया वाले जंजाल समाप्त हो गए हैं)। (हे भाई! तुम भी परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ, इस तरह) माया के बहुते जंजाल छोड़ सकोगे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सिखवंते नानकु बिनवै छोडहु माइआ जाला ॥ मनि बीचारि एक लिव लागी पुनरपि जनमु न काला ॥४॥

मूलम्

सुणि सिखवंते नानकु बिनवै छोडहु माइआ जाला ॥ मनि बीचारि एक लिव लागी पुनरपि जनमु न काला ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिखवंते = हे शिक्षा लेने वाले! मनि = मन में। बीचारि = विचार में। पुनरपि = (पुनः अपि) बार बार। काला = काल, मौत।4।
अर्थ: हे (मेरी) शिक्षा सुनने वाले भाई! जो विनती नानक करता है वह सुन- (अपने हृदय में परमात्मा का नाम धारण कर, इस तरह तू) माया के बंधन त्याग सकेगा। जिस मनुष्य के मन में सोच-मण्डल में परमात्मा की लगन लग जाती है वह बार-बार जनम-मरण (के चक्कर) में नहीं आता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो गुरू सो सिखु कथीअले सो वैदु जि जाणै रोगी ॥ तिसु कारणि कमु न धंधा नाही धंधै गिरही जोगी ॥५॥

मूलम्

सो गुरू सो सिखु कथीअले सो वैदु जि जाणै रोगी ॥ तिसु कारणि कमु न धंधा नाही धंधै गिरही जोगी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथीअले = कहा जाता है। वैदु = हाकम। तिसु कारणि = उस (प्रभु के स्मरण) की इनायत से। धंधै = धंधे में, जंजाल में। गिरही = गृहस्थी।5।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने परमात्मा को हृदय में बसा लिया है) वह गुरु कहा जा सकता है, वह (असल) सिख कहा जा सकता है, वह (असल) वैद्य कहा जा सकता है क्योंकि वह अन्य (आत्मिक) रोगियों का रोग समझ लेता है। परमात्मा के नाम-जपने की इनायत से दुनिया का काम-धंधा उसको व्याप नहीं सकता। (प्रभु के स्मरण के सदका) वह माया के बंधनों में नहीं (फंसता), वह गृहस्थी (होते हुए भी) जोगी है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामु क्रोधु अहंकारु तजीअले लोभु मोहु तिस माइआ ॥ मनि ततु अविगतु धिआइआ गुर परसादी पाइआ ॥६॥

मूलम्

कामु क्रोधु अहंकारु तजीअले लोभु मोहु तिस माइआ ॥ मनि ततु अविगतु धिआइआ गुर परसादी पाइआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजीअले = त्यागा। तिस = तृष्णा। अविगतु = अव्यक्त, अदृश्य प्रभु।6।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की मेहर से अपने मन में जगत मूल अदृश्य प्रभु को स्मरण किया है और उससे मिलाप हासिल कर लिया है उसने काम-क्रोध और अहंकार त्याग दिया है, उसने लोभ-मोह और माया की तृष्णा त्याग दी है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआनु धिआनु सभ दाति कथीअले सेत बरन सभि दूता ॥ ब्रहम कमल मधु तासु रसादं जागत नाही सूता ॥७॥

मूलम्

गिआनु धिआनु सभ दाति कथीअले सेत बरन सभि दूता ॥ ब्रहम कमल मधु तासु रसादं जागत नाही सूता ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथीअले = कही जाती है। सेत = सफेद, फीका। बरन = रंग। सेत बरन = जिनके रंग फीके हो जाते हैं। दूता = कामादिक वैरी। मधु = शहद। तासु = तस्य, उस (शहद) का। रसादं = (अद् = खाना, चखना) रस चखने वाला।7।
अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ बननी, प्रभु-चरणों में तवज्जो जुड़नी -ये सब प्रभु की दाति ही कही जा सकती है, (जिसको ये दाति मिलती है उसको देख के) कामादिक वैरियों के रंग उड़ जाते हैं, (क्योंकि नाम-जपने की इनायत से उसके हृदय में, मानो) ब्रहम-रूपी कमल का शहद (टपकने लग जाता है) उस (नाम-अमृत शहद का) रस वह मनुष्य चखता है (इस करके वह माया के हमलों से) सुचेत रहता है, (माया के मोह की नींद में) गाफिल नहीं होता।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा ग्मभीर पत्र पाताला नानक सरब जुआइआ ॥ उपदेस गुरू मम पुनहि न गरभं बिखु तजि अम्रितु पीआइआ ॥८॥१॥

मूलम्

महा ग्मभीर पत्र पाताला नानक सरब जुआइआ ॥ उपदेस गुरू मम पुनहि न गरभं बिखु तजि अम्रितु पीआइआ ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुआइआ = जुड़ा हुआ, व्यापक। मम = मेरा। पुनहि = पुनः , दुबारा फिर। गरभं = गर्भवास, जनम। बिखु = (माया-) जहर। तजि = छोड़ के।8।
अर्थ: हे नानक! जो प्रभु बड़े जिगरे वाला है, सारे पाताल (सारा संसार जिस पारजात प्रभु) की पत्तियां (पसारा) हैं, जो सब जीवों में व्यापक है, गुरु के उपदेश की इनायत से मैंने उसका नाम अमृत पीया है और माया का जहर त्यागा है, अब मेरा बार-बार गर्भवास (जनम-मरण) नहीं होगा।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला १ ॥ कवन कवन जाचहि प्रभ दाते ता के अंत न परहि सुमार ॥ जैसी भूख होइ अभ अंतरि तूं समरथु सचु देवणहार ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला १ ॥ कवन कवन जाचहि प्रभ दाते ता के अंत न परहि सुमार ॥ जैसी भूख होइ अभ अंतरि तूं समरथु सचु देवणहार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवन कवन = कौन कौन से? जाचहि = मांगते हैं। प्रभ दाते = हे दातार प्रभु! ता के = उन जीवों के। सुमार = गिनती, लेखे। अभ अंतरि = अभ्यन्तर, धुर अंदर, मन में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।1।
अर्थ: हे दातार प्रभु! बेअंत जीव (तेरे दर से दातें) मांगते हैं उनकी गिनती के अंत नहीं पड़ सकते। जैसी (किसी के) धुर अंदर (मांगने की) भूख होती है, हे देवनहार प्रभु! तू (पूरी करता है), तू सदा स्थिर है और दातें देने योग्य है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी जपु तपु संजमु सचु अधार ॥ हरि हरि नामु देहि सुखु पाईऐ तेरी भगति भरे भंडार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐ जी जपु तपु संजमु सचु अधार ॥ हरि हरि नामु देहि सुखु पाईऐ तेरी भगति भरे भंडार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐ जी = हे प्रभु जी! सचु अधारु = सदा स्थिर रहने वाला आसरा। भंडार = खजाने।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (हम जीवों को) अपना नाम दे (तेरे नाम की इनायत से ही) आत्मिक आनंद मिलता है (इस पदार्थ की तेरे घर में कोई कमी नहीं है) तेरी भक्ति के (तेरे पास) खजाने भरे पड़े हैं। तेरा नाम ही (हमारे लिए) जप है तप है संजम है, तेरा नाम ही (हमारे वास्ते) सदा स्थिर रहने वाला आसरा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुंन समाधि रहहि लिव लागे एका एकी सबदु बीचार ॥ जलु थलु धरणि गगनु तह नाही आपे आपु कीआ करतार ॥२॥

मूलम्

सुंन समाधि रहहि लिव लागे एका एकी सबदु बीचार ॥ जलु थलु धरणि गगनु तह नाही आपे आपु कीआ करतार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुंन = शून्य, वह अवस्था जहाँ कोई फुरना ना उठे। रहहि = तू रहता है। एका एकी = तू अकेला ही। सबदु = वचन, हुक्म, इरादा। धरणि = धरती। गगनु = आकाश। तह = तब। आपु = अपने आप को। करतार = हे कर्तार!।2।
अर्थ: हे कर्तार! जब तूने अपने आप को खुद ही प्रगट किया था, तब ना पानी था, ना सूखा था, ना धरती थी, ना आकाश था, तब तू खुद ही अफूर अवस्था में (अपने अंदर) तवज्जो जोड़ के समाधि लगाए बैठा था, तू अकेला खुद ही अपने इरादे को समझता था।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना तदि माइआ मगनु न छाइआ ना सूरज चंद न जोति अपार ॥ सरब द्रिसटि लोचन अभ अंतरि एका नदरि सु त्रिभवण सार ॥३॥

मूलम्

ना तदि माइआ मगनु न छाइआ ना सूरज चंद न जोति अपार ॥ सरब द्रिसटि लोचन अभ अंतरि एका नदरि सु त्रिभवण सार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तदि = तब। मगनु = मस्त (जीव)। छाइआ = माया के प्रभाव (में)। अपार = अपर, कोई और, अन्य। सरब द्रिसटि लोचन = सारे जीवों को देखने वाली आँख। अभ अंतरि = अभ्यन्तर (तेरे अपने अंदर ही) धुर अंदर। सार = संभाल।3।
अर्थ: तब ना ये माया थी, ना इस माया के प्रभाव में मस्त कोई जीव था, ना तब सुरज था, ना चंद्रमा था, ना ही कोई और ज्योति थी। हे प्रभु! सारे जीवों को देख सकने वाली तेरी आँख, तीनों भवनों की सार ले सकने वाली तेरी अपनी ही नजर तेरे अपने ही अंदर टिकी हुई थी।3।

[[0504]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवणु पाणी अगनि तिनि कीआ ब्रहमा बिसनु महेस अकार ॥ सरबे जाचिक तूं प्रभु दाता दाति करे अपुनै बीचार ॥४॥

मूलम्

पवणु पाणी अगनि तिनि कीआ ब्रहमा बिसनु महेस अकार ॥ सरबे जाचिक तूं प्रभु दाता दाति करे अपुनै बीचार ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उस (परमात्मा) ने। कीआ = (जब) पैदा किया। महेस = शिव। अकार = स्वरूप, वजूद, हस्ती। जाचिक = भिखारी। करे = करता है। अपुनै बीचार = अपने विचारों के अनुसार।4।
अर्थ: जब उस परमात्मा ने हवा-पानी-आग (आदि तत्व) रचे, तो ब्रहमा-विष्णु-शिव आदि के वजूद रचे। हे प्रभु! हे प्रभु! (ये ब्रहमा-विष्णु-शिव आदि) सारे ही (तेरे पैदा किए हुए जीव तेरे दर के) भिखारी हैं तू सबको दातें देने वाला है। (समर्थ प्रभु) अपनी विचार अनुसार (सबको) दातें देता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि तेतीस जाचहि प्रभ नाइक देदे तोटि नाही भंडार ॥ ऊंधै भांडै कछु न समावै सीधै अम्रितु परै निहार ॥५॥

मूलम्

कोटि तेतीस जाचहि प्रभ नाइक देदे तोटि नाही भंडार ॥ ऊंधै भांडै कछु न समावै सीधै अम्रितु परै निहार ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि तेतीस = तैंतीस करोड़ (देवते)। नाइक = (सबकी) अगुवाई करने वाला, नायक। तोटि = कमी। ऊँधै भांडै = उल्टे पड़े बर्तन में। सीधै = सीधे बर्तन में। निहार = (उस प्रभु के) देखने से, मेहर की निगाह से।5।
अर्थ: हे सबकी अगुवाई करने वाले नायक प्रभु! तैंतीस करोड़ देवते (भी तेरे दर के) भिखारी हैं। (उनको दातें) दे दे के तेरे खजानों में घाटा नहीं पड़ता। (मायावी पदार्थ तो सबको मिलते हैं, पर) श्रद्धाहीन हृदय में (तेरे नाम-अमृत की दाति में से) कुछ भी नहीं टिकता, और श्रद्धा-भरपूर हृदय में तेरी मेहर की निगाह से आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम टिकता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिध समाधी अंतरि जाचहि रिधि सिधि जाचि करहि जैकार ॥ जैसी पिआस होइ मन अंतरि तैसो जलु देवहि परकार ॥६॥

मूलम्

सिध समाधी अंतरि जाचहि रिधि सिधि जाचि करहि जैकार ॥ जैसी पिआस होइ मन अंतरि तैसो जलु देवहि परकार ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिध = पहुँचे हुए जोगी। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। जाचि = मांग के। तैसो परकार = उसी किस्म का। देवहि = तू देता है।6।
अर्थ: योग-साधना में पहुँचे हुए जोगी भी समाधि में टिक के तुझसे ही माँगते हैं, करामाती ताकतें मांग-मांग के तेरी जै-जैकार करते हैं। (यही कहते हैं: तेरी जय हो, तेरी जय हो) जैसी किसी के मन में (मांगने की) प्यास होती है, तू, हे प्रभु! उसी किस्म का जल दे देता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बडे भाग गुरु सेवहि अपुना भेदु नाही गुरदेव मुरार ॥ ता कउ कालु नाही जमु जोहै बूझहि अंतरि सबदु बीचार ॥७॥

मूलम्

बडे भाग गुरु सेवहि अपुना भेदु नाही गुरदेव मुरार ॥ ता कउ कालु नाही जमु जोहै बूझहि अंतरि सबदु बीचार ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहि = जो सेवा करते हैं। भेदु = फर्क। मुरार = परमात्मा। ता कउ = उन (लोगों) को। नाही जोहै = नहीं देखता। कालु जमु = मौत, मौत का सहम, आत्मिक मौत। अंतरि बीचार = सोच मंडल में। बूझहि = (जो लोग) समझते हैं।7।
अर्थ: पर असली बड़े भाग्य उन लोगों के हैं जो अपने गुरु की बताई हुई सेवा करते हैं। गुरु और परमातमा में कोई फर्क नहीं होता। जो लोग अपने विचार-मण्डल में (मायावी पदार्थों की मांग की जगह) गुरु के शब्द को समझते हैं, आत्मिक मौत उनके नजदीक भी नहीं फटक सकती।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब तब अवरु न मागउ हरि पहि नामु निरंजन दीजै पिआरि ॥ नानक चात्रिकु अम्रित जलु मागै हरि जसु दीजै किरपा धारि ॥८॥२॥

मूलम्

अब तब अवरु न मागउ हरि पहि नामु निरंजन दीजै पिआरि ॥ नानक चात्रिकु अम्रित जलु मागै हरि जसु दीजै किरपा धारि ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अब तब = कभी भी। न मागउ = मैं नहीं मांगता। पहि = से। पिआरि = प्यार से, प्यार की निगाह से। चात्रिक = पपीहा। जसु = महिमा।8।
अर्थ: (इस वास्ते) मैं कभी भी परमात्मा से और कुछ नहीं मांगता। (मैं यही अरदास करता हूँ-) हे निरंजन प्रभु! प्यार की निगाह से मुझे अपना नाम बख्श। नानक पपीहा आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-जल मांगता है। हे हरि! कृपा करके अपनी महिमा दे।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला १ ॥ ऐ जी जनमि मरै आवै फुनि जावै बिनु गुर गति नही काई ॥ गुरमुखि प्राणी नामे राते नामे गति पति पाई ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला १ ॥ ऐ जी जनमि मरै आवै फुनि जावै बिनु गुर गति नही काई ॥ गुरमुखि प्राणी नामे राते नामे गति पति पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐ जी = हे भाई! जनमि = जनम के। जनमि मरै = (बार बार) जन्मता मरता है। फुनि = पुनः , दुबारा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। काई = कोई भी। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। नामे = नाम ही, नाम में ही। पति = इज्जत।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं पड़ता, वह) पैदा होता है मरता है फिर पैदा होता है मरता है। उस का ये चक्कर बना रहता है, (क्योंकि) गुरु (की शरण) के बिना ऊँची आत्मिक अवस्था नहीं बनती। जो प्राणी गुरु की शरण पड़ते हैं वह (परमात्मा के) नाम में ही रंगे रहते हैं, और नाम में ही रंगे रहने के कारण वे उच्च आत्मिक अवस्था और इज्जत प्राप्त कर लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाई रे राम नामि चितु लाई ॥ गुर परसादी हरि प्रभ जाचे ऐसी नाम बडाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भाई रे राम नामि चितु लाई ॥ गुर परसादी हरि प्रभ जाचे ऐसी नाम बडाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम में। लाई = लगा के, जोड़ के। जाचे = याचना, मांगी। बडाई = वडियाई, महानता।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का नाम जपने की ऐसी इनायत होती है (कि जनम-मरन का चक्कर समाप्त हो जाता है)। हे भाई! तू भी परमात्मा के नाम में चित जोड़, (गुरु की शरण पड़ के) गुरु की मेहर से (भाव, गुरु की मेहर का पात्र बन के) तू हरि प्रभु से (नाम की दाति ही) मांग।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी बहुते भेख करहि भिखिआ कउ केते उदरु भरन कै ताई ॥ बिनु हरि भगति नाही सुखु प्रानी बिनु गुर गरबु न जाई ॥२॥

मूलम्

ऐ जी बहुते भेख करहि भिखिआ कउ केते उदरु भरन कै ताई ॥ बिनु हरि भगति नाही सुखु प्रानी बिनु गुर गरबु न जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहि = तू करता है। भिखिआ कउ = भिक्षा वास्ते। केते = अनेक। उदरु = पेट। कै ताई = की खातिर। प्रानी = हे प्राणी! गरबु = अहंकार। न जाई = नहीं जाता।2।
अर्थ: हे भाई! (तू प्रभु को विसर के) पेट भरने की खातिर (दर-दर से) भिक्षा लेने के लिए कई तरह के (धार्मिक) वेष बना रहा है। पर, हे प्राणी! परमात्मा की भक्ति के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिलता, गुरु की शरण के बिना अहंकार दूर नहीं होता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी कालु सदा सिर ऊपरि ठाढे जनमि जनमि वैराई ॥ साचै सबदि रते से बाचे सतिगुर बूझ बुझाई ॥३॥

मूलम्

ऐ जी कालु सदा सिर ऊपरि ठाढे जनमि जनमि वैराई ॥ साचै सबदि रते से बाचे सतिगुर बूझ बुझाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालु = मौत, मौत का सहम, आत्मिक मौत। ठाढे = खड़ा हुआ। जनमि जनमि = हरेक जनम में। वैराई = वैरी। साचै = सदा स्थिर रहने वाले में। से = वह लोग। बाचे = बचे हैं। बूझ = समझ।3।
अर्थ: हे भाई! (स्मरण के बिना) आत्मिक मौत सदा तेरे सिर पर खड़ी हुई है। यही हरेक जनम में तेरी वैरी चली आ रही है। जो मनुष्य गुरु के सच्चे शब्द में रंगे रहते हैं वह (इस आत्मिक मौत से) बच जाते हैं, (क्योंकि) गुरु (उनको) (आत्मिक जीवन की) समझ दे देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सरणाई जोहि न साकै दूतु न सकै संताई ॥ अविगत नाथ निरंजनि राते निरभउ सिउ लिव लाई ॥४॥

मूलम्

गुर सरणाई जोहि न साकै दूतु न सकै संताई ॥ अविगत नाथ निरंजनि राते निरभउ सिउ लिव लाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोहि न साकै = देख नहीं सकता। दूत = वैरी। अविगत = अव्यक्त, अदृष्ट-निरंजन (के प्यार रंग) में। राते = रंगे हुए। सिउ = साथ।4।
अर्थ: गुरु की शरण पड़े लोगों को आत्मिक मौत देख भी नहीं सकती, उनको सता नहीं सकती (क्योंकि गुरु की कृपा से) वह अदृष्य जगत नाथ निरंजन प्रभु में रमे रहते हैं, वे निर्भय परमात्मा (के चरणों) से अपनी तवज्जो जोड़े रखते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जीउ नामु दिड़हु नामे लिव लावहु सतिगुर टेक टिकाई ॥ जो तिसु भावै सोई करसी किरतु न मेटिआ जाई ॥५॥

मूलम्

ऐ जीउ नामु दिड़हु नामे लिव लावहु सतिगुर टेक टिकाई ॥ जो तिसु भावै सोई करसी किरतु न मेटिआ जाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे (मेरी) जिंदे! (ये याद रख) परमात्मा को यही अच्छा लगता है कि (जीवों के) किए कर्मों के संस्कारों का समूह (मन में से स्मरण के बिना) मिटाया नहीं जा सकता; (इस वास्ते) गुरु का आसरा ले के तू परमात्मा के नाम को अपने अंदर पक्की तरह टिका, परमात्मा के नाम में ही अपनी तवज्जो जोड़े रख।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी भागि परे गुर सरणि तुम्हारी मै अवर न दूजी भाई ॥ अब तब एको एकु पुकारउ आदि जुगादि सखाई ॥६॥

मूलम्

ऐ जी भागि परे गुर सरणि तुम्हारी मै अवर न दूजी भाई ॥ अब तब एको एकु पुकारउ आदि जुगादि सखाई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐ जीउ = (मेरी) जिंदे! टेक टिकाई = आसरा ले के। अब तब = अब भी और तब भी, सदा। पुकारउ = मैं पुकारता हूँ।6।
अर्थ: हे सतिगुरु! मैं भाग के तेरी शरण आया हूँ, मुझे कोई और आसरा अच्छा नहीं लगता। मैं सदा एक ही परमात्मा का नाम पुकारता हूँ। वह आदि से युगों के आरम्भ से (जीवों का) साथी मित्र चला आ रहा है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी राखहु पैज नाम अपुने की तुझ ही सिउ बनि आई ॥ करि किरपा गुर दरसु दिखावहु हउमै सबदि जलाई ॥७॥

मूलम्

ऐ जी राखहु पैज नाम अपुने की तुझ ही सिउ बनि आई ॥ करि किरपा गुर दरसु दिखावहु हउमै सबदि जलाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐ जी = हे प्रभु जी! पैज = लज्जा। गुर दरसु = गुरु के दर्शन। जलाई = जलाए, जलाता है।7।
अर्थ: हे प्रभु जी! (तुझे लोग शरण-पाल कहते हैं, मैं तेरी शरण आया हूँ) अपने (शरण-पाल) नाम की लज्जा पाल, मेरी प्रीति सदा तेरे साथ बनी रहे। मेहर कर मुझे गुरु के दर्शन करा ता कि गुरु अपने शब्द के द्वारा (मेरे अंदर से) अहंकार को जला दे।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी किआ मागउ किछु रहै न दीसै इसु जग महि आइआ जाई ॥ नानक नामु पदारथु दीजै हिरदै कंठि बणाई ॥८॥३॥

मूलम्

ऐ जी किआ मागउ किछु रहै न दीसै इसु जग महि आइआ जाई ॥ नानक नामु पदारथु दीजै हिरदै कंठि बणाई ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मागउ = मैं मांगूँ। रहै न दीसै = सदा रहने वाला नहीं दिखता। कंठि = कंठी, माला। बणाई = मैं बना लूँ।8।
अर्थ: हे प्रभु जी! (तेरे नाम के बिना) मैं (तुझसे) और क्या मांगूँ? मुझे कोई चीज ऐसी नहीं दिखाई देती जो सदा टिकी रह सके। इस जगत में जो भी आया है, वह नाशवान ही है। मुझे नानक को अपना नाम-पदार्थ ही दे, मैं (इस नाम को) अपने हृदय की माला बना लूँ।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला १ ॥ ऐ जी ना हम उतम नीच न मधिम हरि सरणागति हरि के लोग ॥ नाम रते केवल बैरागी सोग बिजोग बिसरजित रोग ॥१॥

मूलम्

गूजरी महला १ ॥ ऐ जी ना हम उतम नीच न मधिम हरि सरणागति हरि के लोग ॥ नाम रते केवल बैरागी सोग बिजोग बिसरजित रोग ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐ जी = हे भाई! उतम = ऊँची जाति के। नीच = नीच जाति के। मधिम = बीच की जाति के। हरि सरणागति = हरि की शरण आए हुए। हरि के लोग = परमात्मा के भक्त। रते = रंगे हुए। बैरागी = निरमोह। सोग = चिन्ता। बिजोग = विछोड़ा। बिसरजित = बिसारे हुए।1।
अर्थ: हे भाई! जो लोग परमात्मा की भक्ति करते हैं जो परमात्मा की शरण आते हैं उन्हें ना ये गुमान होता है कि हम सबसे ऊँची या बीच की जाति के हैं, ना ये सहम होता है कि हम नीच जाति के हैं। सिर्फ प्रभु नाम में रंगे रहने के कारण वह (इस ऊँच नीच आदि से) निर्मोह रहते हैं। चिन्ता, विछोड़ा रोग आदि वह सब भुला चुके होते हैं।1।

[[0505]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाई रे गुर किरपा ते भगति ठाकुर की ॥ सतिगुर वाकि हिरदै हरि निरमलु ना जम काणि न जम की बाकी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भाई रे गुर किरपा ते भगति ठाकुर की ॥ सतिगुर वाकि हिरदै हरि निरमलु ना जम काणि न जम की बाकी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। वाकि = वाक द्वारा, शब्द से। काणि = अधीनता। जम की बाकी = ऐसा बाकी लेखा जिस के कारण जमराज का जोर पड़ सके।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति गुरु की मेहर से ही हो सकती है। जिस मनुष्य ने सतिगुरु के शब्द के द्वारा अपने हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसा लिया है, उसको जम की अधीनता नहीं रहती, उसके जिम्मे पिछले किए कर्मों का कोई ऐसा बाकी लेखा नहीं रह जाता जिसके कारण जमराज उस पर कोई जोर डाल सके।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण रसन रवहि प्रभ संगे जो तिसु भावै सहजि हरी ॥ बिनु हरि नाम ब्रिथा जगि जीवनु हरि बिनु निहफल मेक घरी ॥२॥

मूलम्

हरि गुण रसन रवहि प्रभ संगे जो तिसु भावै सहजि हरी ॥ बिनु हरि नाम ब्रिथा जगि जीवनु हरि बिनु निहफल मेक घरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसन = जीभ (से)। रवहि = जपते हैं। प्रभ संगे = प्रभु की संगति में। सहजि = सहज ही। जगि = जगत में। मेक = एक भी।2।
अर्थ: (परमात्मा के भक्त) परमात्मा की संगति में टिक के अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाते हैं (वे यही समझते हैं कि) सहज ही (जगत में वही घटित होता है) जो उस परमात्मा का भाता है। परमात्मा के नाम के बिना जगत में जीना उन्हें व्यर्थ दिखाई देता है, परमात्मा की भक्ति के बिना उन्हें एक भी घड़ी निष्फल प्रतीत होती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी खोटे ठउर नाही घरि बाहरि निंदक गति नही काई ॥ रोसु करै प्रभु बखस न मेटै नित नित चड़ै सवाई ॥३॥

मूलम्

ऐ जी खोटे ठउर नाही घरि बाहरि निंदक गति नही काई ॥ रोसु करै प्रभु बखस न मेटै नित नित चड़ै सवाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि = घर में। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। रोसु = गुस्सा। बखस = बख्शिश। सवाई = और ज्यादा।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के भक्तों के वास्ते अपने मन में खोट रखता है और उनकी निंदा करता है उसे ना घर में ना ही बाहर कहीं भी आत्मिक शांति की जगह नहीं मिलती क्योंकि उसकी अपनी आत्मक अवस्था ठीक नहीं है। (परमात्मा अपने भक्तों पर सदा बख्शिशें करता है) अगर निंदक (ये बख्शिशें देख के) खिझे, तो भी परमात्मा अपनी बख्शिशें बंद नहीं करता, वह बल्कि सदा ही बढ़ती जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी गुर की दाति न मेटै कोई मेरै ठाकुरि आपि दिवाई ॥ निंदक नर काले मुख निंदा जिन्ह गुर की दाति न भाई ॥४॥

मूलम्

ऐ जी गुर की दाति न मेटै कोई मेरै ठाकुरि आपि दिवाई ॥ निंदक नर काले मुख निंदा जिन्ह गुर की दाति न भाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुरि = ठाकुर ने। काले मुख = काले मुंह वाले। न भाई = अच्छी ना लगी।4।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु की महिमा) गुरु की दी हुई दाति है, इसको कोई मिटा नहीं सकता; ठाकुर प्रभु ने खुद ही ये (नाम की) दाति दिलवाई होती है। जिस निंदकों को (भक्त-जनों को दी हुई) गुरु की दाति पसंद नहीं आती (और वह भक्तों की निंदा करते हैं) निंदा के कारण उन निंदकों के मुंह काले (दिखते हैं)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी सरणि परे प्रभु बखसि मिलावै बिलम न अधूआ राई ॥ आनद मूलु नाथु सिरि नाथा सतिगुरु मेलि मिलाई ॥५॥

मूलम्

ऐ जी सरणि परे प्रभु बखसि मिलावै बिलम न अधूआ राई ॥ आनद मूलु नाथु सिरि नाथा सतिगुरु मेलि मिलाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बखसि = बख्श के, मेहर करके। बिलम = देर, ढील। अधूआ राई = आधी राई, रती भर भी। आनद मूलु = सुखों का श्रोत। सिरि नाथा = नाथों के सिर पर। मेलि = मेल में।5।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (प्रभु की) शरण पड़ते हैं, प्रभु मेहर करके उन्हें अपने चरणों में जोड़ लेता है, रत्ती भर भी ढील नहीं करता। वह प्रभु आत्मिक आनंद का श्रोत है, सबसे बड़ा नाथ है, गुरु (की शरण पड़े मनुष्य को) परमात्मा के मेल में मिला देता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐ जी सदा दइआलु दइआ करि रविआ गुरमति भ्रमनि चुकाई ॥ पारसु भेटि कंचनु धातु होई सतसंगति की वडिआई ॥६॥

मूलम्

ऐ जी सदा दइआलु दइआ करि रविआ गुरमति भ्रमनि चुकाई ॥ पारसु भेटि कंचनु धातु होई सतसंगति की वडिआई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रविआ = स्मरण किया। भ्रमनि = भटकना। चुकाई = खत्म कर दी। भेटि = छू के, मिल के। वडिआई = इनायत, अज़मत।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा दया का श्रोत है (सब जीवों पे) सदा दया करता है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के उसको स्मरण करता है, प्रभु उसकी भटकना मिटा देता है। जैसे (लोहा आदि) धात पारस को छू के सोना बन जाती है वैसे ही साधु-संगत में भी यही इनायत है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जलु निरमलु मनु इसनानी मजनु सतिगुरु भाई ॥ पुनरपि जनमु नाही जन संगति जोती जोति मिलाई ॥७॥

मूलम्

हरि जलु निरमलु मनु इसनानी मजनु सतिगुरु भाई ॥ पुनरपि जनमु नाही जन संगति जोती जोति मिलाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मजनु = चुभी, स्नान। भाई = अच्छा लगा। पुनरपि = पुनः अपि, बार बार।7।
अर्थ: परमात्मा (मानो) पवित्र जल है (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका) मन (इस पवित्र जल में) स्नान करने के लायक बन जाता है। जिस मनुष्य को अपने मन में सतिगुरु प्यारा लगता है उसका मन (इस पवित्र जल में) डुबकी लगाता है। साधु-संगत में रह के उसका बार-बार जन्म नहीं होता, (क्योंकि गुरु) उसकी ज्योति प्रभु की ज्योति में मिला देता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं वड पुरखु अगम तरोवरु हम पंखी तुझ माही ॥ नानक नामु निरंजन दीजै जुगि जुगि सबदि सलाही ॥८॥४॥

मूलम्

तूं वड पुरखु अगम तरोवरु हम पंखी तुझ माही ॥ नानक नामु निरंजन दीजै जुगि जुगि सबदि सलाही ॥८॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। तरावरु = तरुवरु, श्रेष्ठ वृक्ष। जुगि जुगि = सदा ही। सलाही = मैं महिमा करूँ।8।
अर्थ: हे प्रभु! तू सबसे बड़ा है, तू सर्व-व्यापक है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है। तू (मानो) एक श्रेष्ठ वृक्ष है जिसके आसरे रहने वाले हम सभी जीव पक्षी हैं। हे निरंजन प्रभु! मुझ नानक को अपना नाम बख्श, ता कि मैं सदा ही गुरु के शब्द में (जुड़ के) तेरी महिमा करता रहूँ।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला १ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला १ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति प्रेम आराधितं सचु पिआस परम हितं ॥ बिललाप बिलल बिनंतीआ सुख भाइ चित हितं ॥१॥

मूलम्

भगति प्रेम आराधितं सचु पिआस परम हितं ॥ बिललाप बिलल बिनंतीआ सुख भाइ चित हितं ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आराधितं = आराधा (जिन्होंने)। सचु = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को। पिआस = चाहत। परम = सबसे ऊँची, बहुत ऊँची। हितं = प्रेम। भाइ हितं = प्रेम भाव में।1।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करते हैं, सदा स्थिर प्रभु को प्रेम से जपते हैं, उनके अंदर प्रेमा-भक्ति की तीव्र कसक बनी रहती है, वह (प्रभु के दर पर ही) मिन्नत-तरले करते हैं विनतियां करते हैं, उनके चित्त प्रभु के प्रेम-प्यार में (मगन रहते हैं) और वह आत्मिक आनंद पाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन नामु हरि सरणी ॥ संसार सागर तारि तारण रम नाम करि करणी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन नामु हरि सरणी ॥ संसार सागर तारि तारण रम नाम करि करणी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! तारि = बेड़ी, जहाज। रम नाम = राम का नाम। करणी = करणीय, कर्तव्य, जीवन का निशाना।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम जप, परमात्मा की ओट पकड़। परमात्मा के नाम को जीवन का उद्देश्य बना। यह नाम संसार-समुंदर से पार लंघाने के लिए जहाज है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए मन मिरत सुभ चिंतं गुर सबदि हरि रमणं ॥ मति ततु गिआनं कलिआण निधानं हरि नाम मनि रमणं ॥२॥

मूलम्

ए मन मिरत सुभ चिंतं गुर सबदि हरि रमणं ॥ मति ततु गिआनं कलिआण निधानं हरि नाम मनि रमणं ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ए = हे! मिरत = मौत, विकारों की ओर से उपरामता। सुभ चिंतं = शुभ चिंतक, सुखदाई। रमणं = स्मरण। ततु = जगत का मूल प्रभु। गिआनं = जान पहिचान, गहरी सांझ। कलिआण = सुख आनंद।2।
अर्थ: हे मन! गुरु के शब्द में (टिक के) परमात्मा का स्मरण कर, और (विकारों की ओर से उपराम हो), विकारों की ओर से मौत (जीवन के लिए) सुखद है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम मन में स्मरण करते हैं उनकी मति जगत-मूल प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेती है, उनको सुखों का खजाना प्रभु मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चल चित वित भ्रमा भ्रमं जगु मोह मगन हितं ॥ थिरु नामु भगति दिड़ं मती गुर वाकि सबद रतं ॥३॥

मूलम्

चल चित वित भ्रमा भ्रमं जगु मोह मगन हितं ॥ थिरु नामु भगति दिड़ं मती गुर वाकि सबद रतं ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चल चित = चित्त को चंचल करने वाला। वित = धन। भ्रमाभ्रमं = भटकना। मगन = मस्त। गुर वाकि = गुरु के शब्द के द्वारा। दिढ़ं = पक्की (कर ली है)। मती = अकल, समझ।3।
अर्थ: (दुनिया का) धन (मनुष्य के) मन को चंचल बनाता है और भटकना पैदा करता है, (पर) जगत (इस धन के) मोह में प्रेम में मस्त रहता है। परमात्मा के भक्त (अपनी) समझ में (यह निश्चय) पक्का कर लेते हैं कि परमात्मा का नाम (ही) सदा कायम रहने वाला है। वह गुरु के शब्द में टिक के महिमा में रंगे रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमाति भरमु न चूकई जगु जनमि बिआधि खपं ॥ असथानु हरि निहकेवलं सति मती नाम तपं ॥४॥

मूलम्

भरमाति भरमु न चूकई जगु जनमि बिआधि खपं ॥ असथानु हरि निहकेवलं सति मती नाम तपं ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमाति = भटकाति। भरमु = भटकन। जनमि = जनम (-मरण) में। बिआधि = रोग। खपं = ख्वार होता है। निहकेवलं = वासना रहित। सति = सदा स्थिर।4।
अर्थ: जगत (माया के मोह के कारण) जनम-मरण के रोग में ख्वार होता रहता है, भटकता रहता है, (इस की माया वाली) भटकना खत्म नहीं होती। हे मन! परमात्मा की शरण ही ऐसी जगह है जो माया के मोह से उपराम करता है, परमात्मा के नाम का जप ही सही समझ है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु मोह हेत बिआपितं दुखु अधिक जनम मरणं ॥ भजु सरणि सतिगुर ऊबरहि हरि नामु रिद रमणं ॥५॥

मूलम्

इहु जगु मोह हेत बिआपितं दुखु अधिक जनम मरणं ॥ भजु सरणि सतिगुर ऊबरहि हरि नामु रिद रमणं ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिआपितं = दबाया हुआ, दबाव तहत। अधिक = बहुत। ऊबरहि = तू बचेगा।5।
अर्थ: यह जगत माया के मोह में फंसा हुआ है, इस वास्ते इसे जनम-मरण का बहुत दुख लगा रहता है। (हे भाई!) तू परमात्मा का नाम हृदय में स्मरण कर, सतिगुरु की शरण पड़, (तब ही) तू (जनम-मरन के चक्कर से) बच सकेगा।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति निहचल मनि मनु मनं सहज बीचारं ॥ सो मनु निरमलु जितु साचु अंतरि गिआन रतनु सारं ॥६॥

मूलम्

गुरमति निहचल मनि मनु मनं सहज बीचारं ॥ सो मनु निरमलु जितु साचु अंतरि गिआन रतनु सारं ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहचल = अटल। मनि = मन में (धारण कर)। मनं = मान जाएगा। सहज = अडोल आत्मिक अवस्था। जितु = जिस में। सारं = श्रेष्ठ।6।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन में गुरु की शिक्षा पक्के तौर पर धारण कर लेता है, उसका मन अडोल आत्मिक अवस्था की विचार में रम जाता है (भाव, वह सदा ये ख्याल रखता है कि मन माया की भटकना की ओर से हट के प्रभु के नाम की एकाग्रता में टिका रहे)। जिस मन में सदा-स्थिर प्रभु टिक जाए वह मन पवित्र हो जाता है, उसके अंदर प्रभु-ज्ञान का श्रेष्ठ रतन मौजूद रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै भाइ भगति तरु भवजलु मना चितु लाइ हरि चरणी ॥ हरि नामु हिरदै पवित्रु पावनु इहु सरीरु तउ सरणी ॥७॥

मूलम्

भै भाइ भगति तरु भवजलु मना चितु लाइ हरि चरणी ॥ हरि नामु हिरदै पवित्रु पावनु इहु सरीरु तउ सरणी ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = (परमात्मा के) भय में। भाइ = (परमात्मा के) प्रेम में। तरु = पार लांघ। भवजलु = संसार समुंदर। लाइ = जोड़। पावनु = पवित्र। तउ = तेरी।7।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के डर-अदब में रह, प्रभु के प्यार में रह, प्रभु की भक्ति कर, प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़, इस तरह संसार-समुंदर से पार लांघ। (हे भाई!) परमात्मा का पवित्र नाम अपने हृदय में (रख और प्रभु के आगे यूँ अरदास कर- हे प्रभु!) मेरा ये शरीर तेरी शरण है (भाव, मैं तेरी शरण आया हूँ)।7।

[[0506]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब लोभ लहरि निवारणं हरि नाम रासि मनं ॥ मनु मारि तुही निरंजना कहु नानका सरनं ॥८॥१॥५॥

मूलम्

लब लोभ लहरि निवारणं हरि नाम रासि मनं ॥ मनु मारि तुही निरंजना कहु नानका सरनं ॥८॥१॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवारणं = दूर करने के समर्थ। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। मनं = मन में। निरंजना = हे निरंजन! हे माया रहित प्रभु!।8।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन की राशि है, इस) सरमाए को अपने मन में संभाल के रख, ये लब और लोभ की लहरों को दूर करने के समर्थ है। अपने मन को (लोभ-लालच की ओर से) काबू कर के रख, और कह: हे निरंजन! मैं तेरी शरण आया हूँ।8।1।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पहली 4 अष्टपदीयां ‘घरु १’ की थीं। ये अष्टपदी ‘घरु ४’ की है। आखिरी अंक १ का यही भाव है। अंक ५ बताता है कि गुरु नानक साहिब की कुल पाँच अष्टपदियां हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरति करी इहु मनु नचाई ॥ गुर परसादी आपु गवाई ॥ चितु थिरु राखै सो मुकति होवै जो इछी सोई फलु पाई ॥१॥

मूलम्

निरति करी इहु मनु नचाई ॥ गुर परसादी आपु गवाई ॥ चितु थिरु राखै सो मुकति होवै जो इछी सोई फलु पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरति = नाच। करी = मैं करूँ। नचाई = मैं नचाता हूँ। परसादी = कृपा से। आपु = स्वैभाव। गवाई = मैं गवाता हूँ। थिर = अडोल। राखै = रखता है। मुकति = (माया के बंधनों से) खलासी (की उम्मीद लिए हुए)। इछी = मैं इच्छा करता हूँ। पाई = मैं पाता हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई! रास-धारिए रास डाल-डाल के नाचते हैं और भक्त कहलवाते हैं) मैं भी नाचता हूँ (पर शरीर को नचाने की जगह) मैं (अपने) इस मन को नचाता हूँ (भाव,) गुरु की कृपा से (अपने अंदर से) मैं स्वैभाव दूर करता हूँ, (और इस तरह) मैं जो भी इच्छा करता हूँ (परमात्मा के दर से) वही फल पा लेता हूँ। (हे भाई! रासों में नाचने कूदने से मुक्ति नहीं मिलती, ना ही कोई भक्त बन सकता है) जो मनुष्य चित्त को (प्रभु-चरणों में) अडोल रखता है वह माया के बंधनों से खलासी (का आशावान) हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाचु रे मन गुर कै आगै ॥ गुर कै भाणै नाचहि ता सुखु पावहि अंते जम भउ भागै ॥ रहाउ॥

मूलम्

नाचु रे मन गुर कै आगै ॥ गुर कै भाणै नाचहि ता सुखु पावहि अंते जम भउ भागै ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर कै आगै = गुरु के सामने, गुरु के सन्मुख रह के। भाणै नाचहि = अगर तू हुक्म में नाचे, हुक्म में चले, जैसे नचाए वैसे नाचे। अंते = आखिरी वक्त। जम भउ = मौत का डर। रहाउ।
अर्थ: हे मन! गुरु की हजूरी में नाच (गुरु के हुक्म में चल)। हे मन! अगर तू वैसे नाचेगा जैसे गुरु नचाएगा (अगर तू गुरु के हुक्म में चलेगा) तो आनंद पाएगा, आखिरी वक्त पर मौत का डर (भी तुझसे दूर) भाग जाएगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि नचाए सो भगतु कहीऐ आपणा पिआरु आपि लाए ॥ आपे गावै आपि सुणावै इसु मन अंधे कउ मारगि पाए ॥२॥

मूलम्

आपि नचाए सो भगतु कहीऐ आपणा पिआरु आपि लाए ॥ आपे गावै आपि सुणावै इसु मन अंधे कउ मारगि पाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नचाए = मर्जी में चलाए, इशारों पर चलाए। कहीऐ = कहा जाता है। आपे = खुद ही। मारगि = (सही) रास्ते पर।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने इशारों पर चलाता है जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्यार बख्शता है वह मनुष्य (दरअसल) भक्त कहा जा सकता है। परमात्मा खुद ही (उस मनुष्य के वास्ते, रजा में चलने का गीत) गाता है। खुद ही (यह गीत उस मनुष्य को) सुनाता है, और, माया के मोह में अंधे हुए इस मन को सही जीवन-राह पर लाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदिनु नाचै सकति निवारै सिव घरि नीद न होई ॥ सकती घरि जगतु सूता नाचै टापै अवरो गावै मनमुखि भगति न होई ॥३॥

मूलम्

अनदिनु नाचै सकति निवारै सिव घरि नीद न होई ॥ सकती घरि जगतु सूता नाचै टापै अवरो गावै मनमुखि भगति न होई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर समय। नाचै = नाचता है, (परमात्मा के इशारों पर) नाचता है, प्रभु की रजा में चलता है। सकति = माया (का प्रभाव)। निवारै = दूर करता है। सिव = कल्याण स्वरूप परमात्मा। सिव घरि = प्रभु के चरणों में। नीद = गफ़लत की नींद। अवरो = माया का ही गीत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा की रजा में चलता है वह (अपने अंदर से) माया (का प्रभाव) दूर कर लेता है। (हे भाई!) कल्याण-स्वरूप प्रभु के चरणों में जुड़ने से माया के मोह की नींद हावी नहीं हो सकती। जगत माया के मोह में सोया हुआ (माया के हाथों पे) नाचता-कूदता है (दुनियावी दौड़-भाग करता रहता है)। (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य से परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरि नर विरति पखि करमी नाचे मुनि जन गिआन बीचारी ॥ सिध साधिक लिव लागी नाचे जिन गुरमुखि बुधि वीचारी ॥४॥

मूलम्

सुरि नर विरति पखि करमी नाचे मुनि जन गिआन बीचारी ॥ सिध साधिक लिव लागी नाचे जिन गुरमुखि बुधि वीचारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुरनरि = देवता स्वभाव मनुष्य। विरती = प्रवृति। विरति पखि = प्रवृति के पक्ष में, दुनिया के काम काज करते हुए भी। करमी = (परमात्मा की) कृपा से। नाचे = (प्रभु के इशारों पे) नाचते आ रहे हैं, रजा में चलते हैं। मुनिजन = ऋषि मुनि लोग। बीचारी = विचारवान। गुरमुखि = गुरु की शरण में पड़ के।4।
अर्थ: हे भाई! दैवी स्वभाव वाले मनुष्य दुनियावी काम-कार करते हुए भी, ऋषि मुनि लोग आत्मिक जीवन की सूझ से विचारवान हो के, परमात्मा की कृपा से (परमात्मा की रजा में चलने वाला) नाच नाचते हैं। आत्मिक जीवन की तलाश के वास्ते साधन करने के समय जो मनुष्य गुरु के द्वारा श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त करके विचारवान हो जाते हैं उनकी तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है, वह (भी रजा में चलने वाला) नाच नाचते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खंड ब्रहमंड त्रै गुण नाचे जिन लागी हरि लिव तुमारी ॥ जीअ जंत सभे ही नाचे नाचहि खाणी चारी ॥५॥

मूलम्

खंड ब्रहमंड त्रै गुण नाचे जिन लागी हरि लिव तुमारी ॥ जीअ जंत सभे ही नाचे नाचहि खाणी चारी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रैगुण = माया के तीन गुण। खाणी चारी = चार खाणियों के जीव (अण्डज, जेरज, सेतज, उत्भुज)।5।
अर्थ: हे प्रभु! सारे जीव-जंतु (माया के हाथों पर) नाच रहे हैं, चारों खाणियों के जीव नाच रहे हैं, खण्डों-ब्रहमण्डों के सारे जीव त्रिगुणी माया के प्रभाव में नाच रहे हैं; पर, हे प्रभु! जिन्हें तेरे चरणों की लगन लगी है वह तेरी रजा में चलने का नाच नाचते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तुधु भावहि सेई नाचहि जिन गुरमुखि सबदि लिव लाए ॥ से भगत से ततु गिआनी जिन कउ हुकमु मनाए ॥६॥

मूलम्

जो तुधु भावहि सेई नाचहि जिन गुरमुखि सबदि लिव लाए ॥ से भगत से ततु गिआनी जिन कउ हुकमु मनाए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुधु भावहि = तुझे अच्छे लगते हैं। सेई = वही लोग। सबदि = शब्द के द्वारा। ततु = जगत का मूल प्रभु। गिआनी = गहरी सांझ डालने वाले। कउ = को।6।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे प्यारे लगते हैं वही तेरे इशारे पर चलते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु के सन्मुख करके, गुरु के शब्द में जोड़ के अपने चरणों की प्रीति बख्शता है, जिन्हें अपना भाणा मीठा करके मनाता है वही मनुष्य असल भक्त हैं (रासों में नाचने वाले भक्त नहीं हैं), वही मनुष्य सारे जगत के मूल परमात्मा के साथ गहरी समीपता बनाए रखते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहा भगति सचे सिउ लिव लागै बिनु सेवा भगति न होई ॥ जीवतु मरै ता सबदु बीचारै ता सचु पावै कोई ॥७॥

मूलम्

एहा भगति सचे सिउ लिव लागै बिनु सेवा भगति न होई ॥ जीवतु मरै ता सबदु बीचारै ता सचु पावै कोई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे सिउ = सदा कायम रहने वाले हरि के साथ। लिव = लगन। जीवतु मरै = जीवित मरता है, दुनिया के मेहनत-कमाई करता हुआ माया के मोह से अछोह हो जाता है।7।
अर्थ: हे भाई! वही उत्तम भक्ति कहलवा सकती है जिसके द्वारा सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा सें प्यार बना रहे। ऐसी भक्ति (गुरु की बताई) सेवा करे बिना नहीं हो सकती। जब मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह की ओर से अछोह हो जाता है तब वह गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रखता है, तब ही मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का मिलाप हासल करता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ कै अरथि बहुतु लोक नाचे को विरला ततु बीचारी ॥ गुर परसादी सोई जनु पाए जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥८॥

मूलम्

माइआ कै अरथि बहुतु लोक नाचे को विरला ततु बीचारी ॥ गुर परसादी सोई जनु पाए जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै अरथि = के वास्ते।8।
अर्थ: हे भाई! माया कमाने की खातिर तो बहुत सी दुनिया (माया के हाथों पर) नाच रही है, कोई विरला मनुष्य है जो असल आत्मिक जीवन को पहचानता है।
हे प्रभु! वही वही मनुष्य गुरु की कृपा से तेरा मिलाप हासिल करता है जिस पर तेरी मेहर होती है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु दमु साचा वीसरै सा वेला बिरथा जाइ ॥ साहि साहि सदा समालीऐ आपे बखसे करे रजाइ ॥९॥

मूलम्

इकु दमु साचा वीसरै सा वेला बिरथा जाइ ॥ साहि साहि सदा समालीऐ आपे बखसे करे रजाइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दमु = सांस। बिरथा = व्यर्थ। साहि साहि = हरेक सांस के साथ। रजाइ = हुक्म।9।
अर्थ: हे भाई! जो भी एक सांस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को भूला रहे वह समय व्यर्थ चला जाता है। हरेक सांस के साथ परमात्मा को अपने दिल में बसा के रखना चाहिए। (पर ये उद्यम वही मनुष्य कर सकता है जिस पर) परमात्मा खुद ही मेहर करके बख्शिश करे।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेई नाचहि जो तुधु भावहि जि गुरमुखि सबदु वीचारी ॥ कहु नानक से सहज सुखु पावहि जिन कउ नदरि तुमारी ॥१०॥१॥६॥

मूलम्

सेई नाचहि जो तुधु भावहि जि गुरमुखि सबदु वीचारी ॥ कहु नानक से सहज सुखु पावहि जिन कउ नदरि तुमारी ॥१०॥१॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता।10।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे अच्छे लगते हैं वही तेरी रजा में चलते हैं क्योंकि वे गुरु की शरण पड़ कर गुरु के शब्द को अपनी सोच-मण्डल में टिका लेते हैं। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) जिस पर तेरी मेहर की नजर पड़ती है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता का आनंद पाते हैं।10।1।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि बिनु जीअरा रहि न सकै जिउ बालकु खीर अधारी ॥ अगम अगोचर प्रभु गुरमुखि पाईऐ अपुने सतिगुर कै बलिहारी ॥१॥

मूलम्

हरि बिनु जीअरा रहि न सकै जिउ बालकु खीर अधारी ॥ अगम अगोचर प्रभु गुरमुखि पाईऐ अपुने सतिगुर कै बलिहारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअरा = कमजोर जीवात्मा। खीर = दूध। अधार = आसरा। खीर अधारी = खीर अधारि, दूध के सहारे पर। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = अ+गो+च+र, जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करने से, गुरु की शरण पड़ने से। कै = से।1।
अर्थ: हे भाई! मेरी कमजोर जिंद परमात्मा (के मिलाप) के बिना धैर्य नहीं धर सकती, जैसा छोटा बच्चा दूध के सहारे ही जीता है। हे भाई! वह प्रभु! जो अगम्य (पहुँच से परे) है (जिस तक जीव अपनी समझदारी के बल पर नहीं पहुँच सकता), जिस तक मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती, गुरु की शरण पड़ने से ही मिलता है, (इस वास्ते) मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन रे हरि कीरति तरु तारी ॥ गुरमुखि नामु अम्रित जलु पाईऐ जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥ रहाउ॥

मूलम्

मन रे हरि कीरति तरु तारी ॥ गुरमुखि नामु अम्रित जलु पाईऐ जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरति = महिमा। तरु तारी = तारी तैर, पार लांघने का उद्यम कर। अंम्रित जलु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा की महिमा के द्वारा (संसार समुंदर से) पार लांघने का यत्न किया कर। हे मन! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल गुरु की शरण पड़ने से मिलता है। (पर, हे प्रभु! तेरा नाम-जल उनको ही मिलता है) जिनपे तेरी कृपा हो। रहाउ।

[[0507]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनक सनंदन नारद मुनि सेवहि अनदिनु जपत रहहि बनवारी ॥ सरणागति प्रहलाद जन आए तिन की पैज सवारी ॥२॥

मूलम्

सनक सनंदन नारद मुनि सेवहि अनदिनु जपत रहहि बनवारी ॥ सरणागति प्रहलाद जन आए तिन की पैज सवारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। अनदिनु = हर रोज। बनवारी = जगत का मालिक प्रभु। पैज = इज्जत। सवारी = बनाए रखी।2।
अर्थ: (हे भाई! इस संसार समुंदर से पार लंघाने के लिए) सनक सनंदन (आदि ऋषि) नारद (आदि) मुनी जगत के मालिक प्रभु की ही सेवा करते (रहे) हैं, हर समय (प्रभु का नाम ही) जपते (रहे) हैं। प्रहलाद (आदि जो जो) भक्त परमात्मा की शरण आए, परमात्मा उनकी इज्जत बचाता रहा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलख निरंजनु एको वरतै एका जोति मुरारी ॥ सभि जाचिक तू एको दाता मागहि हाथ पसारी ॥३॥

मूलम्

अलख निरंजनु एको वरतै एका जोति मुरारी ॥ सभि जाचिक तू एको दाता मागहि हाथ पसारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलख = अदृश्य। निरंजन = (निर+अंजन) माया कालिख से रहित, निर्लिप। जाचिक = भिखारी। पसारि = पसार के, फैला के।3।
अर्थ: हे भाई! सारे जगत में एक अदृश्य और निर्लिप परमात्मा ही बस रहा है, सारे संसार में परमात्मा का नूर ही प्रकाश कर रहा है।
हे प्रभु! एक तू ही (सब जीवों को) दातें देने वाला है, सारे जीव (तेरे दर पे) भिखारी हैं (तेरे आगे) हाथ पसार के मांग रहे हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत जना की ऊतम बाणी गावहि अकथ कथा नित निआरी ॥ सफल जनमु भइआ तिन केरा आपि तरे कुल तारी ॥४॥

मूलम्

भगत जना की ऊतम बाणी गावहि अकथ कथा नित निआरी ॥ सफल जनमु भइआ तिन केरा आपि तरे कुल तारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। निआरी = अनोखी। केहा = का। तारी = तैरा ली।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों के वचन अमोलक हो जाते हैं, वह सदा उस परमात्मा की अनोखी महिमा के गीत गाते रहते हैं जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, (महिमा की इनायत से) उनका मानव जनम कामयाब हो जाता है, वह खुद (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, अपनी कुलों को भी लंघा लेते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख दुबिधा दुरमति बिआपे जिन अंतरि मोह गुबारी ॥ संत जना की कथा न भावै ओइ डूबे सणु परवारी ॥५॥

मूलम्

मनमुख दुबिधा दुरमति बिआपे जिन अंतरि मोह गुबारी ॥ संत जना की कथा न भावै ओइ डूबे सणु परवारी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। दुबिधा = डांवाडोल हालत। बिआपे = फसे रहते हैं। गुबारी = अंधेरा। न भावै = अच्छी नहीं लगती। ओइ = वह। सणु = समेत।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य दुचित्ता-पन में और बुरी मति (के प्रभाव) में फंसे रहते हैं, क्योंकि उनके हृदय में (माया के) मोह का अंधेरा पड़ा रहता है। (अपने मन के पीछे चलने वाले लोगों को) संत जनों की (की हुई परमात्मा की महिमा की) बात नहीं भाती (इस वास्ते) वह अपने परिवार समेत (विकार भरे संसार समुंदर में) डूब जाते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निंदकु निंदा करि मलु धोवै ओहु मलभखु माइआधारी ॥ संत जना की निंदा विआपे ना उरवारि न पारी ॥६॥

मूलम्

निंदकु निंदा करि मलु धोवै ओहु मलभखु माइआधारी ॥ संत जना की निंदा विआपे ना उरवारि न पारी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। धोवै = धोता है। मलभखु = मैल खाने वाला।6।
अर्थ: हे भाई! निंदा करने वाला मनुष्य (दूसरों की) निंदा कर करके (उनके किए बुरे कर्मों की) मैल तो धो देता है, पर वह खुद माया-ग्रसित मनुष्य पराई मैल खाने का आदी बन जाता है। हे भाई! जो मनुष्य संत जनों की निंदा करने में फंसे रहते हैं वह (इस निंदा के समुंदर में से) ना इस पार आ सकते हैं ना परली तरफ जा सकते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहु परपंचु खेलु कीआ सभु करतै हरि करतै सभ कल धारी ॥ हरि एको सूतु वरतै जुग अंतरि सूतु खिंचै एकंकारी ॥७॥

मूलम्

एहु परपंचु खेलु कीआ सभु करतै हरि करतै सभ कल धारी ॥ हरि एको सूतु वरतै जुग अंतरि सूतु खिंचै एकंकारी ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परपंच = जगत पसारा। करतै = कर्तार ने। कल = सत्ता, ताकत। जुग अंतरि = जगतमें। खिंचै = खींच लेता है।7।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: पाठक ध्यान रखें: शब्द ‘जुग’ कलियुग आदि किसी ‘युग’ के लिए नहीं फब सकता)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर, हे भाई! जीव के भी क्या वश?) ये सारा जगत-तमाशा कर्तार ने खुद बनाया है, कर्तार ने ही इसमें अपनी सत्ता टिकाई हुई है। सारे जगत में सिर्फ परमात्मा की सत्ता का धागा पसरा हुआ है, जब वह इस धागे को खींच लेता है (तो जगत-तमाशा अलोप हो जाता है, और) परमात्मा खुद ही खुद रह जाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसनि रसनि रसि गावहि हरि गुण रसना हरि रसु धारी ॥ नानक हरि बिनु अवरु न मागउ हरि रस प्रीति पिआरी ॥८॥१॥७॥

मूलम्

रसनि रसनि रसि गावहि हरि गुण रसना हरि रसु धारी ॥ नानक हरि बिनु अवरु न मागउ हरि रस प्रीति पिआरी ॥८॥१॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसनि रसनि रसि = प्रेम से, प्रेम से, प्रेम से। रसना = जीभ। मागउ = मैं माँगता हूँ।8।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य इस संसार समुंदर से सही सलामत पार लांघना चाहते हैं वह) सदा ही प्रेम प्यार से परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनकी जीभ परमात्मा के नाम-रस को चखती रहती है।
हे नानक! (कह:) मैं परमातमा के नाम के बिना और कुछ नहीं मांगता (मैं यही चाहता हूँ कि) परमात्मा के नाम-रस की प्रीति प्यारी लगती रहे।8।1।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन महि तूं राजा कहीअहि भूमन महि भूमा ॥ ठाकुर महि ठकुराई तेरी कोमन सिरि कोमा ॥१॥

मूलम्

राजन महि तूं राजा कहीअहि भूमन महि भूमा ॥ ठाकुर महि ठकुराई तेरी कोमन सिरि कोमा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहीअहि = तू कहा जाता है। भूमा = मूमि का मालिक। ठाकुर = मालिक, सरदार। ठकुराई = सरदारी। कोमा = (ऊँची) कुल वाला। सिरि = सिर पर, श्रेष्ठ। कोमन सिरि = ऊँची कुल वालों के सिर पर।1।
अर्थ: हे कर्तार! (दुनिया के) राजाओं में तू (शिरोमणि) राजा कहलवाता है, जमीन के मालिकों में (सबसे बड़ा) भूपति है। हे कर्तार! (दुनिया के) सरदारों में तेरी सरदारी (सबसे बड़ी) है, ऊँची कुल वालों में तू शिरोमणी कुल वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता मेरो बडो धनी अगमा ॥ उसतति कवन करीजै करते पेखि रहे बिसमा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पिता मेरो बडो धनी अगमा ॥ उसतति कवन करीजै करते पेखि रहे बिसमा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धनी = मालिक। अगमा = अगम्य (पहुँच से परे)। उसतति = महिमा। करते = हे कर्तार! पेखि = देख के। बिसमा = हैरान।1। रहाउ।
अर्थ: हे कर्तार! तू मेरा पिता है, तू हमारी समझदारी की पहुँच से परे है। हे कर्तार! तेरी कौन-कौन सी उपमा हम करें? (तेरी लीला) देख-देख के हम हैरान हो रहे हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखीअन महि सुखीआ तूं कहीअहि दातन सिरि दाता ॥ तेजन महि तेजवंसी कहीअहि रसीअन महि राता ॥२॥

मूलम्

सुखीअन महि सुखीआ तूं कहीअहि दातन सिरि दाता ॥ तेजन महि तेजवंसी कहीअहि रसीअन महि राता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दातन सिरि = दाताओं में शिरोमणी। तेजन महि = तेज प्रताप वालों में। राता = रता हुआ, रस में मस्त।2।
अर्थ: हे कर्तार! (दुनिया के) सुखी लोगों में तूं (शिरोमणि) सुखी कहा जा सकता है, दुनिया में तू ही (शिरोमणि) तेजस्वी कहा जा सकता है (दुनिया के) रस भोगने वालों में तू शिरोमणि रसिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूरन महि सूरा तूं कहीअहि भोगन महि भोगी ॥ ग्रसतन महि तूं बडो ग्रिहसती जोगन महि जोगी ॥३॥

मूलम्

सूरन महि सूरा तूं कहीअहि भोगन महि भोगी ॥ ग्रसतन महि तूं बडो ग्रिहसती जोगन महि जोगी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूरा = शूरवीर। भोगन महि = भोगने वालों में। जोगन महि = विरक्तों में।3।
अर्थ: हे कर्तार! सूरमों में तू शिरोमणि शूरवीर कहलवाने का हकदार है, (दुनिया के सब जीवों में व्यापक होने के कारण) भोगियों में तू ही भोगी है। गृहस्थियों में तू सबसे बड़ा गृहस्थी है (जिसका इतना बड़ा संसार-परिवार है), जोगियों में तू शिरोमणि जोगी है (इतने बड़े परिवार के होते हुए भी निर्लिप है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करतन महि तूं करता कहीअहि आचारन महि आचारी ॥ साहन महि तूं साचा साहा वापारन महि वापारी ॥४॥

मूलम्

करतन महि तूं करता कहीअहि आचारन महि आचारी ॥ साहन महि तूं साचा साहा वापारन महि वापारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करतन महि = नए काम करने वालों में। आचारन महि = धार्मिक रस्में करने वालों में।4।
अर्थ: हे कर्तार! नए काम करने वाले समझदारों में तू शिरोमणि रचनहार है; धार्मिक रस्में करने वालों में भी तू ही शिरोमणि है। हे कर्तार! (दुनिया के) शाहूकारों में तू सदा कायम रहने वाला (शिरोमणि) शाहूकार है, और व्यापारियों में तू बड़ा व्यापारी है (जिसने इतना बड़ा जगत-पसारा पसारा हुआ है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरबारन महि तेरो दरबारा सरन पालन टीका ॥ लखिमी केतक गनी न जाईऐ गनि न सकउ सीका ॥५॥

मूलम्

दरबारन महि तेरो दरबारा सरन पालन टीका ॥ लखिमी केतक गनी न जाईऐ गनि न सकउ सीका ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरन पालन टीका = शरन पड़ने वालों की लज्जा रखने वालों का तू टिक्का/रतन (शिरोमणि) है। केतक = कितनी? बेअंत। गनि न सकउ = मैं गिन नहीं सकता। सीका = सिक्के, रुपए, खजाने।5।
अर्थ: हे कर्तार! (दुनिया के) दरबार लगाने वालों में तेरा दरबार शिरोमणि है, शरण पड़ों की लज्जा रखने वालों का तू शिरोमणि टिक्का/रतन है। हे कर्तार! तेरे घर में कितना धन है; इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। मैं तेरे खजाने गिन नहीं सकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामन महि तेरो प्रभ नामा गिआनन महि गिआनी ॥ जुगतन महि तेरी प्रभ जुगता इसनानन महि इसनानी ॥६॥

मूलम्

नामन महि तेरो प्रभ नामा गिआनन महि गिआनी ॥ जुगतन महि तेरी प्रभ जुगता इसनानन महि इसनानी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामन मनि = नामवरों में। नामा = प्रसिद्ध। जुगतन महि = अच्छी जीवन जुगति वालों में।6।
अर्थ: हे प्रभु! (दुनिया के) महा महिमों-नामवरों में तेरी प्रसिद्धि शिरोमणि है, और ज्ञानवानों में तू ही शिरोमणि ज्ञानी है। हे प्रभु! अच्छी जीवन-जुगति वालों में तेरी श्रेष्ठ है, (दुनिया के तीर्थ-) स्नानियों में तू शिरोमणि स्नानी है (क्योंकि सारे जलों में तू सदा खुद ही बस रहा है)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिधन महि तेरी प्रभ सिधा करमन सिरि करमा ॥ आगिआ महि तेरी प्रभ आगिआ हुकमन सिरि हुकमा ॥७॥

मूलम्

सिधन महि तेरी प्रभ सिधा करमन सिरि करमा ॥ आगिआ महि तेरी प्रभ आगिआ हुकमन सिरि हुकमा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिधन महि = करामाती ताकत वालों में। सिधा = करामाती ताकत। करमन सिरि = कर्म करने वालों में शिरोमणि। आगिआ = हुक्म। हुकमन सिरि = हुक्म करने वालों में शिरोमणि।7।
अर्थ: हे प्रभु! करामाती ताकतें रखने वालों में तेरी करामातें शिरोमणि हैं, काम करने वालों में तू ही शिरोमणि उद्यमी है। हे प्रभु! (दुनिया के) हासिल कर्ताओं में तेरा इख्तियार सबसे बड़ा है, (दुनिया के) हुक्म चलाने वालों में तू सबसे बड़ा हाकिम है।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ बोलावहि तिउ बोलह सुआमी कुदरति कवन हमारी ॥ साधसंगि नानक जसु गाइओ जो प्रभ की अति पिआरी ॥८॥१॥८॥

मूलम्

जिउ बोलावहि तिउ बोलह सुआमी कुदरति कवन हमारी ॥ साधसंगि नानक जसु गाइओ जो प्रभ की अति पिआरी ॥८॥१॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोलावहि = तू बोलाता है। बोलह = हम बोलते हैं। सुआमी = हे स्वामी! कुदरति = ताकत। साध संगि = गुरु की संगति में। गाइओ = गाया।8।
अर्थ: हे कर्तार! हे स्वामी! हमारी (तेरे पैदा किए हुए जीवों की) क्या बिसात है? जैसे तू हमें बोलाता है वैसे ही हम बोलते हैं।
हे नानक! (कह: कर्तार की प्रेरणा से ही मनुष्य ने) साधु-संगत में टिक के प्रभु की महिमा की है, ये महिमा प्रभु को बड़ी प्यारी लगती है।8।1।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ नरहर दीन बंधव पतित पावन देव ॥ भै त्रास नास क्रिपाल गुण निधि सफल सुआमी सेव ॥१॥

मूलम्

नाथ नरहर दीन बंधव पतित पावन देव ॥ भै त्रास नास क्रिपाल गुण निधि सफल सुआमी सेव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाथ = हे जगत के मालिक! नरहर = (नर हरि, नर सिंह) हे परमात्मा! देव = हे प्रकाश रूप! त्रास = डर, सहम। भै = डर। गुण निधि = हे गुणों के खजाने। सफल सेव = जिसकी सेवा भक्ति फलदायक है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे जगत के मालिक! हे नरहर! हे दीनों के सहायक! हे विकारियों को पवित्र करने वाले! हे प्रकाश-स्वरूप! हे सारे डरों-सहमों के नाश करने वाले! हे कृपालु! हे गुणों के खजाने! हे स्वामी! तेरी सेवा-भक्ति जीवन को कामयाब बना देती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गोपाल गुर गोबिंद ॥ चरण सरण दइआल केसव तारि जग भव सिंध ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि गोपाल गुर गोबिंद ॥ चरण सरण दइआल केसव तारि जग भव सिंध ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर = हे (सबसे) बड़े! केसव = हे सुंदर लंबे केसों वाले परमात्मा! भव सिंध = संसार समुंदर। तारि = पार लंघा।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! हे गोपाल! हे गुर गोबिंद! हे दयालु! हे केशव! अपने चरणों की शरण में रख के मुझे इस संसार समुंदर में से पार लंघा ले।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध हरन मद मोह दहन मुरारि मन मकरंद ॥ जनम मरण निवारि धरणीधर पति राखु परमानंद ॥२॥

मूलम्

काम क्रोध हरन मद मोह दहन मुरारि मन मकरंद ॥ जनम मरण निवारि धरणीधर पति राखु परमानंद ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरन = दूर करने वाला। मद मोह दहन = हे मोह की मस्ती जलाने वाले! मन मकरंद = हे मन को सुगंधि देने वाले! धरणी धर = हे धरती के सहारे! पति = इज्जत। परमानंद = हे सबसे ऊँचे आनंद के मालिक!।2।
अर्थ: हे काम-क्रोध को दूर करने वाले! हे मोह के नशे को जलाने वाले! हे मन को (जीवन-) सुगंधि देने वाले मुरारी प्रभु! हे धरती के आसरे! हे सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक! (जगत के विकारों में, मेरी) लज्जा रख, मेरे जनम-मरण का चक्कर खत्म कर।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलत अनिक तरंग माइआ गुर गिआन हरि रिद मंत ॥ छेदि अह्मबुधि करुणा मै चिंत मेटि पुरख अनंत ॥३॥

मूलम्

जलत अनिक तरंग माइआ गुर गिआन हरि रिद मंत ॥ छेदि अह्मबुधि करुणा मै चिंत मेटि पुरख अनंत ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलत = जल रहों को। तरंग = लहरें। हरि = हे हरि! रिद = हृदय में। छेदि = नाश कर। अहंबुद्धि = अहंकार। करुणा = तरस! करुणा मै = करुणामय, हे तरस स्वरूप प्रभु! पुरख अनंत = हे सर्व-व्यापक बेअंत प्रभु!।3।
अर्थ: हे हरि! माया-अग्नि की बेअंत लहरों में जल रहे जीवों के हृदय में गुरु के ज्ञान का मंत्र टिका। हे तरस-स्वरूप हरि! हे सर्व व्यापक बेअंत प्रभु! (हमारा) अहंकार दूर कर (हमारे दिलों में से) चिन्ता मिटा दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि समरथ पल महूरत प्रभ धिआनु सहज समाधि ॥ दीन दइआल प्रसंन पूरन जाचीऐ रज साध ॥४॥

मूलम्

सिमरि समरथ पल महूरत प्रभ धिआनु सहज समाधि ॥ दीन दइआल प्रसंन पूरन जाचीऐ रज साध ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पल महूरत = हर पल हर घड़ी। सहज = आत्मिक अडोलता। जाचीऐ = मांगनी चाहिए। रज = चरण धूल। साध = संत जन।4।
अर्थ: हे समर्थ प्रभु! हर पल हर घड़ी (तेरा नाम) स्मरण करके मैं अपनी तवज्जो आत्मिक अडोलता की समाधि में जोड़े रखूँ। हे दीनों पर दया करने वाले! हे सदा खिले रहने वाले! सर्व-व्यापक! (तेरे दर से तेरे) संत-जनों की चरण-धूल (ही सदा) मांगनी चाहिए।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोह मिथन दुरंत आसा बासना बिकार ॥ रखु धरम भरम बिदारि मन ते उधरु हरि निरंकार ॥५॥

मूलम्

मोह मिथन दुरंत आसा बासना बिकार ॥ रखु धरम भरम बिदारि मन ते उधरु हरि निरंकार ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिथन = झूठा। दुरंत = बुरे अंत वाली। बिदारि = नाश कर। ते = से। निरंकार = हे निरंकार!।5।
अर्थ: हे हरि! हे निरंकार! मुझे (संसार समुंदर से) बचा ले, मेरे मन से भटकना दूर कर दे। हे हरि! झूठे मोह से, बुरे अंत वाली आशा से, विकारों की वासनाओं से, मेरी लज्जा रख।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनाढि आढि भंडार हरि निधि होत जिना न चीर ॥ खल मुगध मूड़ कटाख्य स्रीधर भए गुण मति धीर ॥६॥

मूलम्

धनाढि आढि भंडार हरि निधि होत जिना न चीर ॥ खल मुगध मूड़ कटाख्य स्रीधर भए गुण मति धीर ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आढि = आढय, धनाढ, धनी। निधि = खजाना। चीर = कपड़ा। खल = मूर्ख। मुगध = मूर्ख। कटाख् = निगाह। स्रीधर = लक्ष्मी पति।6।
अर्थ: हे हरि! जिनके पास (तन ढकने के लिए) कपड़े का टुकड़ा भी नहीं होता, वह तेरे गुणों के खजाने प्राप्त करके (मानो) धनाढों के धनाढ बन जाते हैं। हे लक्ष्मी-पति! महा-मूर्ख और दुष्ट तेरी मेहर की निगाह से गुणवान, बुद्धिमान, धैर्यवान बन जाते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवन मुकत जगदीस जपि मन धारि रिद परतीति ॥ जीअ दइआ मइआ सरबत्र रमणं परम हंसह रीति ॥७॥

मूलम्

जीवन मुकत जगदीस जपि मन धारि रिद परतीति ॥ जीअ दइआ मइआ सरबत्र रमणं परम हंसह रीति ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवन मुकत = दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही माया के मोह से स्वतंत्र। मन = हे मन! परतीति = श्रद्धा। मइआ = तरस। सरबत्र रमणं = सर्व व्यापक। परम हंसहि रीति = सबसे ऊँचे हंसों की जीवन जुगति। हंस = अच्छे बुरे कामों का निर्णय कर सकने वाला (जैसे हंस दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है)।7।
अर्थ: हे मन! जीवन-मुक्त करने वाले जगदीश का नाम जप। हे भाई! दिल में उसके वास्ते श्रद्धा टिका, सब जीवों से दया-प्यार वाला सलूक रख, परमात्मा को सर्व-व्यापक जान- उच्च जीवन वाले हंस (मनुष्यों) की ये जीवन-जुगति है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देत दरसनु स्रवन हरि जसु रसन नाम उचार ॥ अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥२॥५७॥

मूलम्

देत दरसनु स्रवन हरि जसु रसन नाम उचार ॥ अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥२॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देत = देता है। स्रवन = श्रवण, कान। जसु = यश, महिमा। रसन = जीभ। परसन = छूह।8।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा खुद ही अपने दर्शन बख्शता है, कानों में अपनी महिमा देता है, जीवों को अपने नाम का उच्चारण देता है, सदा अंग-संग बसता है।
हे नानक! (कह:) हे हरि! हे भगवान! तेरी छूह विकारियों का भी पार-उतारा करने योग्य है।8।1।2।5।1।1।2।57।

दर्पण-भाव

भाव
पउड़ी वार:
एक वह भी वक्त था जब प्रभु खुद ही खुद था, सृष्टि का वजूद नहीं था।
पैदा होने और मरने के नियम बना के प्रभु ने अपने हुक्म मेुं सृष्टि रची, अपनी ज्योति इसमें टिका दी, त्रिगुणी माया रच के जीवों को धंधे में लगा दिया।
इस त्रिगुणी माया का मोह बहुत विशाल है और पापों का मूल है। जो मनुष्य गुर-शब्द के द्वारा भक्ति करता है वह निर्मल रहता है।
इस मोह से चतुराई से नहीं बचा जा सकता। जो गुर-शब्द के द्वारा ‘अहंकार’ को गवाता है वह प्रभु में मिल जाता है।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के महिमा करता है, वह प्रभु-चरणों में पहुँचता है।
ढंग-तरीकों से रब नहीं मिलता। गुर-शब्द के द्वारा जो मनुष्य प्रभु के ‘नाम’ रूप ‘अमृतसर’ में नहाता है उसकी तृष्णा बुझ जाती है।
जिस पर मेहर करे उसको गुरु मिलता है, गुरु की कृपा से ‘निहचल नाम धनु’ मिलता है।
प्रभु की कृपा से अगर गुरु मिल जाए तो ‘अहंकार’ दूर होता है, तृष्णा मिट के मन सुखी होता है।
गुरु के सन्मुख होने से कपट विकार अगिआन’ दूर हो जाते हैं; महिमा की इनायत से अंदर ज्योति प्रकाश हो के ‘अनंद’ प्राप्त होता है।
गुरु के सन्मुख होने से ‘अहंकार’ मिट जाता है, रजा में चलता है; इस तरह ‘नाम’ जपने से ‘हरि का महलु’ मिल जाता है।
जो मनुष्य गुरु का हो रहता है; उसके अंदर परमात्मा का प्यार पैदा होता है; वह सदा रूहानी प्यार की मौज में और याद में मस्त रहता है।
दूसरी तरफ, अपने मन के पीछे चल के मनुष्य कामादिक विकारों में फंसते हैं। ये विकार मानो, यमो का मार्ग है, इस राह पड़ के दुखी होते हैं।
परमात्मा मनुष्य के शरीर में ही बसता है, पर जीव रसों के भोगने में ही लगा रहता है और परमात्मा भोगों से निर्लिप है; इस लिए एक ही जगह बसते हुए भी जीव और प्रभु का विछोड़ा बना रहता है।
झूठ, कुसत्य, अभिमान आदि, जैसे, काया-रूप किले को कठिन किवाड़ लगे हुए हैं, मन के पीछे चलने वाले को ये किवाड़ दिखाई नहीं देते; इन्होंने ही जीव की प्रभु से दूरी बना रखी है।
लोभी मन लोभ में फंसा हुआ माया के लिए भटकता फिरता है। दुनिया वाली इज्जत अथवा ऊँची जाति तो परलोक में सहायता नहीं करती; सो मनमुख दोनों जहानों में दुखी रहता है।
जिस पर प्रभु की कृपा हो उनको गुरु मिलता है, वह बंदगी करते हैं, प्रभु उनके मन में प्रगट होता है उन्हें सुख रूपी ‘फायदा’ मिलता है।
जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं वे गफ़लत की नींद में नहीं सोते, परमात्मा के नाम का रस चखते हैं और ‘सहज’ अवस्था में टिके रहते हैं।
गुरु शब्द के द्वारा जो मनुष्य माया की ओर से सुचेत रहके प्रभु की महिमा करता है वह प्रभु की हजूरी में टिका रहता है।
‘दूजा भाव’ माया का मोह भी प्रभु ने खुद ही पैदा किया है; बड़े-बड़े कहने-कहाने वाले इस ‘दूजे भाव’ में ही फंसे रहे। गुरमुख को सूझ पड़ती है और उसे ‘सोग विजोग’ नहीं व्यापता।
जिसने माया का मोह पैदा किया है अगर उसीके दर पर अरदास करते रहें तो इस मोह का जोर नहीं पड़ता और इससे उपजा दुख मिट जाता है।
माया के मोह से रक्षा करने वाला प्रभु खुद ही है, जो मनुष्य उसे ध्याते हैं वे माया वाली चिन्ता छोड़ के ‘अचिंत’ रहते हैं।
संसार-समुंदर भी प्रभु है, इसमें से तैराने वाला जहाज और मल्लाह भी खुद प्रभु ही है, खुद ही राह बताने वाला है। उसका ‘नाम’ स्मरण करने से सारे पाप काटे जाते हैं।
समूचा भाव:
ये जगत-रचना प्रभु ने स्वयं की है, इसमें अपनी ज्योति टिका रखी है। त्रिगुणी माया भी खुद ही बनाने वाला है; इसके प्रभाव तले जीवों को उसने धंधे में जोड़ा हुआ है। किसी तरह की चतुराई मनुष्य को इस मोह से नहीं बचा सकती। (पउड़ी 1 से 4)
जिस पर मेहर हो उसे गुरु मिलता है। गुरु के सन्मुख हो के महिमा करें, नाम ‘अमृतसर’ में नहाएं तो तृष्णा-अग्नि बुझ जाती है, अहंकार मिटता है, कपट-विकार दूर होते हैं, रजा में चलने की विधि आती है और हृदय में प्रभु का प्यार पैदा होता है। (पउड़ी 5 से 11)
प्रभु काया-किले के अंदर ही बसता है; पर मनमुख कामादिक किले के अंदर ही फंसे रहते हैं और प्रभु से विछुड़े रहते हैं। झूठ-कुसत्य के कठोर किवाड़ प्रभु से उनकी दूरी बनाए रखते हैं। लोभ का ग्रसा हुआ मनुष्य सारी उम्र नाक-नमूज की खातिर भटकता है, ये नाक-नमूज यहीं रह जाने हैं, सो, दोनों जहानों में दुख पाता है। (पउड़ी 12 से 15)
जिस पर मेहर हो वे गुरु की शरण पड़ के बंदगी करते हैं; गफ़लत की नींद में नहीं सोते। माया की तरफ से सुचेत रहके महिमा करते हैं और प्रभु की हजूरी में रहते हैं। (पउड़ी 16 से 18)
माया का मोह प्रभु ने खुद ही पैदा किया है; बड़े-बड़े कारण वाले भी इस में फंस जाते हैं। संसार-समुंदर भी खुद है और जहाज और मल्लाह भी खुद ही है, खुद ही राह बताने वाला है। अगर उसके दर पर अरदास करते रहें तो इससे बचा लेता है। (पउड़ी 19 से 22)
मुख्य भाव:
प्रभु की रची हुई इस जगत माया के मोह से सिर्फ वही मनुष्य बचता है जिसको प्रभु की अपनी मेहर से गुरु मिले, और गुरु के बताए हुए राह पर चल के वह मनुष्य प्रभु की महिमा करता रहे।

दर्पण-टिप्पनी

सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी॥ (508)
सिकंदर और इब्राहिम एक ही कुल के थे और तुरने-सिर थे। इब्राहिम कुचरित्र था। इसने एक बार एक नवयुवक ब्राहमण नव-ब्याहुता से जबरन छेड़खानी की, ब्राहमण ने सिकंदर के पास फरियाद की। सिकंदर और इब्राहिम दोनों में टकराव हुआ, इब्राहिम पकड़ा गया। पर, जब वह अपने किए पर पछताया तो सिकंदर ने उसे छोड़ दिया। इस घटना को ढाढियों ने ‘वारों’ में गाया। उसी ही सुर पर गुरु अमरदास जी की ये वार गाने की आज्ञा है।
उस वार का नमूना:
पापी खान बिराहम पर चढ़िआ सेकंदर। भेड़ दुहां दा मचिआ बड रण दे अंदर।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी की वार महला ३ सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु मः ३ ॥

मूलम्

गूजरी की वार महला ३ सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु मः ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगतु ममता मुआ जीवण की बिधि नाहि ॥ गुर कै भाणै जो चलै तां जीवण पदवी पाहि ॥ ओइ सदा सदा जन जीवते जो हरि चरणी चितु लाहि ॥ नानक नदरी मनि वसै गुरमुखि सहजि समाहि ॥१॥

मूलम्

इहु जगतु ममता मुआ जीवण की बिधि नाहि ॥ गुर कै भाणै जो चलै तां जीवण पदवी पाहि ॥ ओइ सदा सदा जन जीवते जो हरि चरणी चितु लाहि ॥ नानक नदरी मनि वसै गुरमुखि सहजि समाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मम = मेरा। ममता = (हरेक चीज को) ‘मेरी’ बनाने का ख्याल। बिधि = तरीका। पदवी = दर्जा। सहजि = सहज अवस्था में, अडोलता में, वह अवस्था जहाँ दुनिया के लालच में हरेक पदार्थ को अपना बनाने की चाह ना कूदे। नदरी = मेहर करने वाला प्रभु!।1।
अर्थ: ये जगत (भाव, हरेक जीव) (ये चीज ‘मेरी’ बन जाए, ये चीज ‘मेरी’ हो जाए- इस) अपनत्व में इतना फसा पड़ा है कि इसे जीने की विधि नहीं रही। जो जो मनुष्य सतिगुरु के कहने पर चलता है वह जीवन-जुगति सीख लेता है। जो मनुष्य प्रभु के चरणों में चित्त जोड़ता है, वह समझो सदा ही जीते हैं, (क्योंकि) हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने से मेहर का मालिक प्रभु मन में आ बसता है और गुरमुखि उस अवस्था में आ पहुँचते हैं जहाँ पदार्थों की ओर मन नहीं डोलता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ अंदरि सहसा दुखु है आपै सिरि धंधै मार ॥ दूजै भाइ सुते कबहि न जागहि माइआ मोह पिआर ॥ नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का आचारु ॥ हरि नामु न पाइआ जनमु बिरथा गवाइआ नानक जमु मारि करे खुआर ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ अंदरि सहसा दुखु है आपै सिरि धंधै मार ॥ दूजै भाइ सुते कबहि न जागहि माइआ मोह पिआर ॥ नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का आचारु ॥ हरि नामु न पाइआ जनमु बिरथा गवाइआ नानक जमु मारि करे खुआर ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहसा = संशय, तौखला। आपै = खुद ही। धंधै मार = धंधों की मार। आचारु = रहन-सहन।2।
अर्थ: जिस मनुष्यों का माया से मोह-प्यार है जो माया के प्यार में मस्त हो रहे हैं (इस गफ़लत में से) कभी जागते नहीं, उनके मन में संशय और कष्ट टिका रहता है, उन्होंने दुनिया के झमेलों का ये खपाना अपने सिर पर लिया हुआ है।
अपने मन के पीछे चलने वाले लोगों की रहन-सहन ये है कि वे कभी गुर-शब्द नहीं विचारते। हे नानक! उन्हें परमात्मा का नाम नसीब नहीं हुआ, वह जनम व्यर्थ गवाते हैं और जम उन्हें मार के ख्वार करता है (भाव, वे मौत से सदा सहमे रहते हैं)।2।

[[0509]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपणा आपु उपाइओनु तदहु होरु न कोई ॥ मता मसूरति आपि करे जो करे सु होई ॥ तदहु आकासु न पातालु है ना त्रै लोई ॥ तदहु आपे आपि निरंकारु है ना ओपति होई ॥ जिउ तिसु भावै तिवै करे तिसु बिनु अवरु न कोई ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपणा आपु उपाइओनु तदहु होरु न कोई ॥ मता मसूरति आपि करे जो करे सु होई ॥ तदहु आकासु न पातालु है ना त्रै लोई ॥ तदहु आपे आपि निरंकारु है ना ओपति होई ॥ जिउ तिसु भावै तिवै करे तिसु बिनु अवरु न कोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाइओनु = उपाया+उनि, उसने पैदा किया। मता मसूरति = सलाह मश्वरा। त्रै लोई = तीन लोक। ओपति = उत्पत्ति, सृष्टि।1।
अर्थ: जब प्रभु ने अपना आप (ही) पैदा किया हुआ था तब कोई और दूसरा नहीं था, सलाह-मश्वरा भी खुद ही करता था, जो करता था वह होता था। उस वक्त ना आकाश ना पाताल और ना ही ये तीनों लोक थे, कोई उत्पत्ति अभी नहीं हुई थी, आकार-रहित परमात्मा अभी खुद ही खुद था।
जो प्रभु को भाता है वही करता है उसके बिना और कोई नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ साहिबु मेरा सदा है दिसै सबदु कमाइ ॥ ओहु अउहाणी कदे नाहि ना आवै ना जाइ ॥ सदा सदा सो सेवीऐ जो सभ महि रहै समाइ ॥ अवरु दूजा किउ सेवीऐ जमै तै मरि जाइ ॥ निहफलु तिन का जीविआ जि खसमु न जाणहि आपणा अवरी कउ चितु लाइ ॥ नानक एव न जापई करता केती देइ सजाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ साहिबु मेरा सदा है दिसै सबदु कमाइ ॥ ओहु अउहाणी कदे नाहि ना आवै ना जाइ ॥ सदा सदा सो सेवीऐ जो सभ महि रहै समाइ ॥ अवरु दूजा किउ सेवीऐ जमै तै मरि जाइ ॥ निहफलु तिन का जीविआ जि खसमु न जाणहि आपणा अवरी कउ चितु लाइ ॥ नानक एव न जापई करता केती देइ सजाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउहाणी = नाश होने वाला। निहफलु = व्यर्थ। चितु लाइ = चित्त लगा के। एव = इस तरह (अंदाजे लगाने से)। केती = कितनी।1।
अर्थ: मेरा प्रभु सदा मौजूद है, पर ‘शब्द’ कमाने से (आँखों से) दिखता है, वह कभी नाश होने वाला नहीं, ना पैदा होता है, ना मरता है। वह प्रभु सब (जीवों) में मौजूद है उसको सदा स्मरणा चाहिए।
(भला) उस किसी दूसरे की भक्ति क्यों करें जो पैदा होता है और मर जाता है, उन लोगों का जीना व्यर्थ है जो (प्रभु को छोड़ के) किसी और में चित्त लगा के अपने पति-प्रभु को नहीं पहचानते। ऐसे लोगों को, हे नानक! कर्तार कितनी सजा देता है, ये बात ऐसे (अंदाजे लगाने से) नहीं पता चलती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सचा नामु धिआईऐ सभो वरतै सचु ॥ नानक हुकमु बुझि परवाणु होइ ता फलु पावै सचु ॥ कथनी बदनी करता फिरै हुकमै मूलि न बुझई अंधा कचु निकचु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सचा नामु धिआईऐ सभो वरतै सचु ॥ नानक हुकमु बुझि परवाणु होइ ता फलु पावै सचु ॥ कथनी बदनी करता फिरै हुकमै मूलि न बुझई अंधा कचु निकचु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभो = हर जगह। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। कथनी = बातें। बदनी = बदन (मुंह) से। कथनी बदनी = मुंह की बातें। कचु निकचु = केवल कच्चा, केवल कच्ची बातें करने वाले।2।
अर्थ: जो सदा स्थिर प्रभु हर जगह बसता है उसका नाम स्मरण करना चाहिए। हे नानक! अगर मनुष्य प्रभु की रजा को समझे तो उसकी हजूरी में स्वीकार होता है और (ये प्रभु-दर से प्रवानगी-रूप) सदा टिके रहने वाला फल प्राप्त करता है।
पर जो मनुष्य सिर्फ मुंह की बातें करता फिरता है, प्रभु की रजा को बिल्कुल नहीं समझता, वह अंधा है और निरी कच्ची बातें करने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ संजोगु विजोगु उपाइओनु स्रिसटी का मूलु रचाइआ ॥ हुकमी स्रिसटि साजीअनु जोती जोति मिलाइआ ॥ जोती हूं सभु चानणा सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै गुण सिरि धंधै लाइआ ॥ माइआ का मूलु रचाइओनु तुरीआ सुखु पाइआ ॥२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ संजोगु विजोगु उपाइओनु स्रिसटी का मूलु रचाइआ ॥ हुकमी स्रिसटि साजीअनु जोती जोति मिलाइआ ॥ जोती हूं सभु चानणा सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै गुण सिरि धंधै लाइआ ॥ माइआ का मूलु रचाइओनु तुरीआ सुखु पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संजोगु = मेल। विजोगु = विछोड़ा। उपाइओनु = उसने पैदा किया। मूलु = आदि। साजीअनु = सजाई उसने, उसने पैदा की। जोती जोति = जीवों की आत्मा में अपनी आत्मा। जोती हूँ = ज्योति से ही। चानणा = प्रकाश। सिरि = सृजना करके, पैदा करके। रचाइओनु = रचाया उसने। तुरीआ = चौथे पद में।2।
अर्थ: परमात्मा ने संजोग और विजोग रूपी नियम बनाया और जगत (रचना) का मूल बाँध दिया। उसने अपने हुक्म में सृष्टि की सृजना की और (जीवों की) आत्मा में (अपनी) ज्योति मलाई। ये सारा प्रकाश प्रभु की ज्योति से ही हुआ है; ये वचन सतिगुरु ने सुनाया है। ब्रहमा, विष्णु और शिव पैदा करके उनको तीन गुणों के धंधे में उसने डाल दिया।
परमात्मा ने (संजोग-वियोग रूप) माया का आदि रच दिया, (इस माया में रह के) सुख उसने ढूँढा जो तुरिया अवस्था में पहुँचा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ सो जपु सो तपु जि सतिगुर भावै ॥ सतिगुर कै भाणै वडिआई पावै ॥ नानक आपु छोडि गुर माहि समावै ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ सो जपु सो तपु जि सतिगुर भावै ॥ सतिगुर कै भाणै वडिआई पावै ॥ नानक आपु छोडि गुर माहि समावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव, अहम्। जि सतिगुर भावै = अगर गुरु को अच्छा लगे।1।
अर्थ: सतिगुरु को भा जाना (अच्छा लगना) - यही जप है, यही तप है। मनुष्य सतिगुरु की रजा में रहके ही आदर-मान हासिल करता है। हे नानक! स्वैभाव त्याग के ही (मनुष्य) सतिगुरु में लीन हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ गुर की सिख को विरला लेवै ॥ नानक जिसु आपि वडिआई देवै ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ गुर की सिख को विरला लेवै ॥ नानक जिसु आपि वडिआई देवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कोई विरला आदमी ही सतिगुरु की शिक्षा लेता है (भाव, शिक्षा पर चलता है) हे नानक! (गुरु की शिक्षा पर चलने की) महिमा उसी को मिलती है जिसको प्रभु खुद देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ माइआ मोहु अगिआनु है बिखमु अति भारी ॥ पथर पाप बहु लदिआ किउ तरीऐ तारी ॥ अनदिनु भगती रतिआ हरि पारि उतारी ॥ गुर सबदी मनु निरमला हउमै छडि विकारी ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ हरि हरि निसतारी ॥३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ माइआ मोहु अगिआनु है बिखमु अति भारी ॥ पथर पाप बहु लदिआ किउ तरीऐ तारी ॥ अनदिनु भगती रतिआ हरि पारि उतारी ॥ गुर सबदी मनु निरमला हउमै छडि विकारी ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ हरि हरि निसतारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखम = मुश्किल। तरीऐ तारी = तैरा जाए, पार लांघा जाए। अनदिनु = हर रोज। रतिआ = अगर रंगे जाएं।3।
अर्थ: (प्रभु की रची हुई) माया का मोह और ज्ञान (रूप समुंदर) बहुत मुश्किल है; अगर बड़े-बड़े पापों (रूपी) पत्थरों से लदे हों (तो इस समुंदर में से) कैसे तैर के लांघ सकते हैं? (भाव, इस मोह-समुंदर में से सूखे बच के नहीं निकल सकते)।
प्रभु उन मनुष्यों को पार लंघाता है जो हर रोज (भाव, हर वक्त) उसकी भक्ति में रंगे हुए हैं, जिनका मन सतिगुरु के शब्द के द्वारा अहंकार-विकार को त्याग के पवित्र हो जाता है। (सो) प्रभु का नाम ही स्मरणा चाहिए, प्रभु ही (इस ‘माया-मोह रूपी समुंदर से) पार लंघाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ कबीर मुकति दुआरा संकुड़ा राई दसवै भाइ ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहा निकसिआ किउ करि जाइ ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै तुठा करे पसाउ ॥ मुकति दुआरा मोकला सहजे आवउ जाउ ॥१॥

मूलम्

सलोकु ॥ कबीर मुकति दुआरा संकुड़ा राई दसवै भाइ ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहा निकसिआ किउ करि जाइ ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै तुठा करे पसाउ ॥ मुकति दुआरा मोकला सहजे आवउ जाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति = (माया के मोह से) निजात। संकुड़ा = सिकुड़ा हुआ। दसवै भाइ = दसवाँ हिस्सा। मैगलु = (संस्कृत: मदकल) मस्त हाथी। किउकरि = कैसे। तुठा = प्रसन्न। पसाउ = प्रसादि, कृपा। सहजे = सहज अवस्था में, आराम से ही। तउ = तब।1।
अर्थ: हे कबीर! (माया के मोह से) खलासी (पाने) का दरवाजा इतना संकरा हुआ पड़ा है कि राई के दाने से भी दसवें हिस्से का हो गया है; पर (हमारा) मन (अहंकार में) मस्त हाथी बना हुआ है (इस में से) कैसे लांघा जा सके? अगर कोई ऐसा गुरु मिल जाए जो प्रसन्न हो के (हम पर) कृपा करे, तो मुक्ति का राह बहुत खुला हो जाता है, उसमें से आसानी से ही आ-जा सकते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ नानक मुकति दुआरा अति नीका नान्हा होइ सु जाइ ॥ हउमै मनु असथूलु है किउ करि विचु दे जाइ ॥ सतिगुर मिलिऐ हउमै गई जोति रही सभ आइ ॥ इहु जीउ सदा मुकतु है सहजे रहिआ समाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ नानक मुकति दुआरा अति नीका नान्हा होइ सु जाइ ॥ हउमै मनु असथूलु है किउ करि विचु दे जाइ ॥ सतिगुर मिलिऐ हउमै गई जोति रही सभ आइ ॥ इहु जीउ सदा मुकतु है सहजे रहिआ समाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीका = छोटा सा। नाना = नन्हा, बहुत छोटा। सु = वह मनुष्य। असथूलु = मोटा। विचु दे = बीच में से। जोति = प्रकाश, रौशनी। मुकतु = आजाद।2।
अर्थ: हे नानक! माया के मोह से बच के निकलने का रास्ता बहुत छोटा है, वही उसमें से पार लांघ सकता है जो बहुत छोटा हो जाए। पर अगर मन अहंकार से मोटा हो गया, तो इस (छोटे से दरवाजे) में से कैसे लांघा जा सकता है?
जब गुरु मिलने से अहंकार दूर हो जाए तो अंदर प्रकाश हो जाता है, फिर ये आत्मा सदा (माया-मोह से) आजाद रहती है और अडोल अवस्था में टिकी रहती है।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी ने लिखा ‘मन का मैगलु होइ रहा’। गुरु अमरदास जी ने इस की व्याख्या की है कि ‘हउमै मनु असथूलु है’; ‘मैगलु’ बनने का कारण है ‘अहंकार’।

[[0510]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ प्रभि संसारु उपाइ कै वसि आपणै कीता ॥ गणतै प्रभू न पाईऐ दूजै भरमीता ॥ सतिगुर मिलिऐ जीवतु मरै बुझि सचि समीता ॥ सबदे हउमै खोईऐ हरि मेलि मिलीता ॥ सभ किछु जाणै करे आपि आपे विगसीता ॥४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ प्रभि संसारु उपाइ कै वसि आपणै कीता ॥ गणतै प्रभू न पाईऐ दूजै भरमीता ॥ सतिगुर मिलिऐ जीवतु मरै बुझि सचि समीता ॥ सबदे हउमै खोईऐ हरि मेलि मिलीता ॥ सभ किछु जाणै करे आपि आपे विगसीता ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। गणतै = गिनती से, विचारों से। जीवतु मरै = जीवित मरे, विकारों से निर्वित हो जाए। विगसीता = विगसता, खिलता है।4।
अर्थ: प्रभु ने जगत पैदा करके अपने वश में रखा हुआ है (पर ये बात भुला के कि जगत प्रभु के वश में है, और माया की ही) विचारें करने से प्रभु नहीं मिलता, माया में ही भटकते हैं।
गुरु मिलने से अगर मनुष्य जीवित (माया की ओर से) मर जाए तो (ये अस्लियत है कि संसार प्रभु के वश में है) समझो कि सच्चे प्रभु के मेल में मिल जाता है। (ये समझ आ जाती है कि) प्रभु खुद ही सब कुछ जानता है, खुद ही करता है, और खुद ही (देख के) खुश होता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर सिउ चितु न लाइओ नामु न वसिओ मनि आइ ॥ ध्रिगु इवेहा जीविआ किआ जुग महि पाइआ आइ ॥ माइआ खोटी रासि है एक चसे महि पाजु लहि जाइ ॥ हथहु छुड़की तनु सिआहु होइ बदनु जाइ कुमलाइ ॥ जिन सतिगुर सिउ चितु लाइआ तिन्ह सुखु वसिआ मनि आइ ॥ हरि नामु धिआवहि रंग सिउ हरि नामि रहे लिव लाइ ॥ नानक सतिगुर सो धनु सउपिआ जि जीअ महि रहिआ समाइ ॥ रंगु तिसै कउ अगला वंनी चड़ै चड़ाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर सिउ चितु न लाइओ नामु न वसिओ मनि आइ ॥ ध्रिगु इवेहा जीविआ किआ जुग महि पाइआ आइ ॥ माइआ खोटी रासि है एक चसे महि पाजु लहि जाइ ॥ हथहु छुड़की तनु सिआहु होइ बदनु जाइ कुमलाइ ॥ जिन सतिगुर सिउ चितु लाइआ तिन्ह सुखु वसिआ मनि आइ ॥ हरि नामु धिआवहि रंग सिउ हरि नामि रहे लिव लाइ ॥ नानक सतिगुर सो धनु सउपिआ जि जीअ महि रहिआ समाइ ॥ रंगु तिसै कउ अगला वंनी चड़ै चड़ाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जुग = जनम, मानव जनम। रासि = राशि, पूंजी। चसा = पहर का बीसवाँ हिस्सा। पाजु = दिखावा। हथहु छुड़की = हाथ से छूटी हुई, अगर गायब हो जाए। बदनु = (संस्कृत: वदन) मुंह। रंग = प्यार। सतिगुर सउपिआ = गुरु को सौंपा। जीअ महि = जिंद में। अगला = ज्यादा। वंनी = रंग।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘हथहु छुड़की’ में ‘माइआ खोटी रासि’ का जिक्र है। सो, ‘अगर मर जाए’, ये अर्थ गलत है।
(देखें, संप्रदान कारक, ‘गुरबाणी व्याकरण’ पृष्ठ 77 और 395)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर गुरु के साथ चित्त ना लगाया और प्रभु का नाम मन में ना बसा, तो धिक्कार है ऐसा जीना! मानव जनम में आ के क्या कमाया? माया तो खोटी पूंजी है, इसका दिखावा तो एक पल में उतर जाता है, अगर ये गायब हो जाए (तो इसके गम से) शरीर काला हो जाता है और मुंह कुम्हला जाता है।
जिस मनुष्यों ने गुरु के साथ चित्त जोड़ा उनके मन में शांति आ बसती है, वे प्यार से प्रभु का नाम स्मरण करते हैं, प्रभु नाम में तवज्जो जोड़े रखते हैं।
हे नानक! ये नाम-धन प्रभु ने सतिगुरु को सौंपा है, ये धन गुरु की आत्मा में रचा हुआ है; (जो मनुष्य गुरु से नाम-धन लेता है) उसी को नाम-रंग बहुत चढ़ता है, और ये रंग नित्य चमकता है (दूना-चौगुना होता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ माइआ होई नागनी जगति रही लपटाइ ॥ इस की सेवा जो करे तिस ही कउ फिरि खाइ ॥ गुरमुखि कोई गारड़ू तिनि मलि दलि लाई पाइ ॥ नानक सेई उबरे जि सचि रहे लिव लाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ माइआ होई नागनी जगति रही लपटाइ ॥ इस की सेवा जो करे तिस ही कउ फिरि खाइ ॥ गुरमुखि कोई गारड़ू तिनि मलि दलि लाई पाइ ॥ नानक सेई उबरे जि सचि रहे लिव लाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नागनी = सँपनी। लपटाइ रही = चिपक रही है। गारड़ू = गरुड़ मंत्र जानने वाला, साँप का जहर हटाने वाला मंत्र जानने वाला। मलि = मल के। दलि = दल के। मलि दलि = अच्छी तरह मल के। तिनि = तिस ने, उस ने।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इस, तिस’ सर्वनामों की ‘ु’ मात्रा क्यों गायब है, इस बात को समझने के लिए देखें‘गुरबाणी व्याकरण’ पेज 441।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: माया नागिन बनी हुई है जगत में (हरेक जीव को) चिपकी हुई है, जो इसका गुलाम बनता है उसी को मार डालती है।
कोई विरला मनुष्य होता है जो इस माया सँपनी के जहर का मंत्र जानता है, उसने इसको अच्छी तरह मल के पैरों के नीचे फेंक लिया है। हे नानक! इस माया सँपनी से वही बचे हैं जो सच्चे प्रभु में तवज्जो जोड़ते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ ढाढी करे पुकार प्रभू सुणाइसी ॥ अंदरि धीरक होइ पूरा पाइसी ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु से करम कमाइसी ॥ जा होवै खसमु दइआलु ता महलु घरु पाइसी ॥ सो प्रभु मेरा अति वडा गुरमुखि मेलाइसी ॥५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ ढाढी करे पुकार प्रभू सुणाइसी ॥ अंदरि धीरक होइ पूरा पाइसी ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु से करम कमाइसी ॥ जा होवै खसमु दइआलु ता महलु घरु पाइसी ॥ सो प्रभु मेरा अति वडा गुरमुखि मेलाइसी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ढाढी = महिमा करने वाला। धीरक = धैर्य। पाइसी = पा लेगा। धुरि = धुर से ही प्रभु के हुक्म अनुसार।5।
अर्थ: जब मनुष्य ढाढी बन के अरदास करता है और प्रभु को सुनाता है तो इसके अंदर धैर्य आता है (माया-मोह और अहंकार दूर होते हैं) और पूरा प्रभु इसको मिलता है। धुर से (पिछली की हुई महिमा के अनुसार) जो (भक्ति का) लेख माथे पर उघड़ता है और वैसे (भाव, महिमा वाले) काम करता है। (इस तरह) जब खसम दयाल होता है तो इसे प्रभु का महल-रूप असल घर मिल जाता है।
पर, मेरा वह प्रभु है बहुत बड़ा, गुरु के माध्यम से ही मिलता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ सभना का सहु एकु है सद ही रहै हजूरि ॥ नानक हुकमु न मंनई ता घर ही अंदरि दूरि ॥ हुकमु भी तिन्हा मनाइसी जिन्ह कउ नदरि करेइ ॥ हुकमु मंनि सुखु पाइआ प्रेम सुहागणि होइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ सभना का सहु एकु है सद ही रहै हजूरि ॥ नानक हुकमु न मंनई ता घर ही अंदरि दूरि ॥ हुकमु भी तिन्हा मनाइसी जिन्ह कउ नदरि करेइ ॥ हुकमु मंनि सुखु पाइआ प्रेम सुहागणि होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हजूरि = अंग संग। नदरि = मेहर की नजर। सुहागणि = सु+भागनि, अच्छे भाग्यों वाली।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: अरबी में ‘ज़’ को ‘द’ भी पढ़ा जाता है, इसी तरह ‘काज़ी’ और ‘कादी’, ‘कागज़’ और ‘कागद’)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सब (जीव-स्त्रीयों) का पति एक परमात्मा है जो सदा ही इनके अंग-संग रहता है। पर, हे नानक! जो (जीव-स्त्री) उसका हुक्म नहीं मानती (उसकी रजा में नहीं चलती) उसको वह पति हृदय-घर में बसता हुआ भी कहीं दूर बसता लगता है।
हुक्म भी उन्हीं (जीव स्त्रीयों) से मनाता है जिस पर मेहर की नजर करता है; जिसने हुक्म मान के सुख हासिल किया है, वह प्रेम वाली अच्छे भाग्यों वाली हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ रैणि सबाई जलि मुई कंत न लाइओ भाउ ॥ नानक सुखि वसनि सुोहागणी जिन्ह पिआरा पुरखु हरि राउ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ रैणि सबाई जलि मुई कंत न लाइओ भाउ ॥ नानक सुखि वसनि सुोहागणी जिन्ह पिआरा पुरखु हरि राउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैणि सबाई = (जिंदगी रूपी) सारी रात। भाउ = प्यार। सुखि = सुख से।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सुोहागणी’ में अक्षर ‘स’ पर दो मसत्राएं (ु) और (ो) हैं: यहाँ (ु) पढ़नी है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने कंत प्रभु से प्यार नहीं किया, वह (जिंदगी रूपी) सारी रात जल मरी (उसकी सारी उम्र दुखों में गुजरी)। पर, हे नानक! जिनका प्यारा अकाल पुरख (खसम) है वह भाग्यशाली सुख की नींद सोती हैं (जिंदगी की रात सुख से गुजारती हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सभु जगु फिरि मै देखिआ हरि इको दाता ॥ उपाइ कितै न पाईऐ हरि करम बिधाता ॥ गुर सबदी हरि मनि वसै हरि सहजे जाता ॥ अंदरहु त्रिसना अगनि बुझी हरि अम्रित सरि नाता ॥ वडी वडिआई वडे की गुरमुखि बोलाता ॥६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सभु जगु फिरि मै देखिआ हरि इको दाता ॥ उपाइ कितै न पाईऐ हरि करम बिधाता ॥ गुर सबदी हरि मनि वसै हरि सहजे जाता ॥ अंदरहु त्रिसना अगनि बुझी हरि अम्रित सरि नाता ॥ वडी वडिआई वडे की गुरमुखि बोलाता ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फिरि = दुबारा। उपाइ कितै = किसी ढंग से। करम विधाता = कर्मों की विधि बनाने वाला, जीवों के किए कर्मों के अनुसार जीवों को पैदा करने वाला। मनि = मन में। अंम्रितसरि = अमृत के सरोवर में। हरि अंम्रितसरि = हरि के नाम अमृत के सरोवर में। बोलाता = बुलाता है, अपनी कीर्ति करवाता है।6।
अर्थ: मैंने सारा संसार टोल के देख लिया है, एक परमात्मा ही सारे जीवों को दातें देने वाला है; जीवों के कर्मों की बिधि बनाने वाला वह प्रभु किसी चतुराई-सियानप से नहीं मिलता; सिर्फ गुरु के शब्द द्वारा हृदय में बसता है और आसानी से ही पहचाना जा सकता है।
जो मनुष्य प्रभु के नाम-अमृत सरोवर में नहाता है उसके अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है; यह उसी महानतम् की महानता है कि (जीव से) गुरु के माध्यम से अपनी महिमा करवाता है।6।

[[0511]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ काइआ हंस किआ प्रीति है जि पइआ ही छडि जाइ ॥ एस नो कूड़ु बोलि कि खवालीऐ जि चलदिआ नालि न जाइ ॥ काइआ मिटी अंधु है पउणै पुछहु जाइ ॥ हउ ता माइआ मोहिआ फिरि फिरि आवा जाइ ॥ नानक हुकमु न जातो खसम का जि रहा सचि समाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ काइआ हंस किआ प्रीति है जि पइआ ही छडि जाइ ॥ एस नो कूड़ु बोलि कि खवालीऐ जि चलदिआ नालि न जाइ ॥ काइआ मिटी अंधु है पउणै पुछहु जाइ ॥ हउ ता माइआ मोहिआ फिरि फिरि आवा जाइ ॥ नानक हुकमु न जातो खसम का जि रहा सचि समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हंस = जीवात्मा। किआ प्रीति = कैसी प्रीति (कच्ची प्रीत)। पइआ ही = पड़े को ही। कि = क्या। अंधु = ज्ञानहीन। पउणै = पवन को, जीवात्मा को। फिरि फिरि = बार बार। आवा जाइ = आता जाता हूँ। जि = जिस के कारण। रहा = मैं रहूँ।1।
अर्थ: शरीर और आत्मा का कच्चा सा प्यार है, (अंत के समय, ये आत्मा शरीर को) गिरे हुए को छोड़ के चली जाती है; जब (आखिर) चलने के वक्त ये शरीर के साथ नहीं जाती तो इसे झूठ बोल-बोल के पालने का क्या लाभ? (शरीर तो मिट्टी समझो) ज्ञानहीन है (झूठ बोल-बोल के इसको पालने का क्या लाभ आखिर लेखा तो जीवात्मा से ही माँगा जाता है)। जीवात्मा को अगर पूछो (कि ये शरीर पालने में ही क्यों लगी रही, तो इसका उत्तर ये है कि) मैं माया के मोह में फंसा बार-बार जनम-मरन में पड़ा रहा। हे नानक! मैंने खसम का हुक्म ना पहचाना जिसकी इनायत से मैं सच्चे प्रभु में टिका रहता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ एको निहचल नाम धनु होरु धनु आवै जाइ ॥ इसु धन कउ तसकरु जोहि न सकई ना ओचका लै जाइ ॥ इहु हरि धनु जीऐ सेती रवि रहिआ जीऐ नाले जाइ ॥ पूरे गुर ते पाईऐ मनमुखि पलै न पाइ ॥ धनु वापारी नानका जिन्हा नाम धनु खटिआ आइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ एको निहचल नाम धनु होरु धनु आवै जाइ ॥ इसु धन कउ तसकरु जोहि न सकई ना ओचका लै जाइ ॥ इहु हरि धनु जीऐ सेती रवि रहिआ जीऐ नाले जाइ ॥ पूरे गुर ते पाईऐ मनमुखि पलै न पाइ ॥ धनु वापारी नानका जिन्हा नाम धनु खटिआ आइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तसकरु = चोर। जोहि न सकई = देख नहीं सकता। ओचका = छीना झपटी करने वाला, जेब कतरा। जीऐ सेती = जीवात्मा के साथ ही। पले न पाइ = नहीं मिलता। धनु = धन्य, मुबारक, भाग्यों वाले। आइ = यहाँ आ के, जगत में आ के।2।
अर्थ: परमात्मा का नाम ही एक ऐसा धन है जो सदा ही कायम रहता है, और धन कभी मिला और कभी नाश हो गया; इस धन की ओर कोई चोर आँख उठा के नहीं देख सकता, कोई उचक्का इसे छीन नहीं सकता। परमात्मा का नाम-रूप ये धन जीवात्मा के साथ ही रहता है जीवात्मा के साथ ही जाता है, ये धन पूरे गुरु से मिलता है, पर जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसे नहीं मिलता।
हे नानक! भाग्यशाली हैं वे बन्जारे, जिन्होंने जगत में आकर नाम-रूपी धन कमाया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ मेरा साहिबु अति वडा सचु गहिर ग्मभीरा ॥ सभु जगु तिस कै वसि है सभु तिस का चीरा ॥ गुर परसादी पाईऐ निहचलु धनु धीरा ॥ किरपा ते हरि मनि वसै भेटै गुरु सूरा ॥ गुणवंती सालाहिआ सदा थिरु निहचलु हरि पूरा ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ मेरा साहिबु अति वडा सचु गहिर ग्मभीरा ॥ सभु जगु तिस कै वसि है सभु तिस का चीरा ॥ गुर परसादी पाईऐ निहचलु धनु धीरा ॥ किरपा ते हरि मनि वसै भेटै गुरु सूरा ॥ गुणवंती सालाहिआ सदा थिरु निहचलु हरि पूरा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीर = धैर्य वाला। चीरा = पल्ला, आसरा। धनु धीरा = सदा स्थिर रहने वाला धन। भेटै = मिलता है।7।

दर्पण-टिप्पनी

(भेटै गुरु = गुरु मिलता है। भेटै गुरु = गुरु को मिलता है। व्याकरण के अनुसार इस शब्द ‘भेटै’ का प्रयोग ध्यान से समझने की जरूरत है। सो, यहाँ ‘जो सूरमे गुरु को मिलना है’ अर्थ करना गलत है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मेरा मालिक प्रभु बहुत ही बड़ा है, सदा कायम रहने वाला है, गहरा है और धैर्यवान है। सारा संसार उसके वश में है, सारा जगत उसके आसरे है। उस प्रभु का नाम-धन सदा कायम रहने वाला है, अटल है, और गुरु की कृपा से मिलता है। प्रभु की मेहर से सूरमा गुरु मिलता है और हरि-नाम मन में बसता है, वह सदा-स्थिर अडोल और पूरे प्रभु को गुणवानों ने सलाहा है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ ध्रिगु तिन्हा दा जीविआ जो हरि सुखु परहरि तिआगदे दुखु हउमै पाप कमाइ ॥ मनमुख अगिआनी माइआ मोहि विआपे तिन्ह बूझ न काई पाइ ॥ हलति पलति ओइ सुखु न पावहि अंति गए पछुताइ ॥ गुर परसादी को नामु धिआए तिसु हउमै विचहु जाइ ॥ नानक जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो गुर चरणी आइ पाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ ध्रिगु तिन्हा दा जीविआ जो हरि सुखु परहरि तिआगदे दुखु हउमै पाप कमाइ ॥ मनमुख अगिआनी माइआ मोहि विआपे तिन्ह बूझ न काई पाइ ॥ हलति पलति ओइ सुखु न पावहि अंति गए पछुताइ ॥ गुर परसादी को नामु धिआए तिसु हउमै विचहु जाइ ॥ नानक जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो गुर चरणी आइ पाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परहरि = छोड़ के। विआपे = फसे हुए। बूझ = समझ, मति। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। पूरबि = शुरू से।1।
अर्थ: धिक्कार है उनका जीना, जो परमात्मा के नाम का आनंद बिल्कुल ही त्याग देते हैं और अहंकार में पाप करके दुख सहते हैं, ऐसे जाहिल मन के पीछे चलते हैं, और माया के मोह में जकड़े रहते हैं, उन्हें कोई अक्ल नहीं होती। उन्हें ना इस लोक में ना ही परलोक में कोई सुख मिलता है, मरने के वक्त भी हाथ मलते ही जाते हैं।
जो मनुष्य गुरु की कृपा से प्रभु का नाम स्मरण करता है उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। हे नानक! जिसके माथे पर धुर से भाग्य हों वह मनुष्य सतिगुरु के चरणों में आ पड़ता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ मनमुखु ऊधा कउलु है ना तिसु भगति न नाउ ॥ सकती अंदरि वरतदा कूड़ु तिस का है उपाउ ॥ तिस का अंदरु चितु न भिजई मुखि फीका आलाउ ॥ ओइ धरमि रलाए ना रलन्हि ओना अंदरि कूड़ु सुआउ ॥ नानक करतै बणत बणाई मनमुख कूड़ु बोलि बोलि डुबे गुरमुखि तरे जपि हरि नाउ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ मनमुखु ऊधा कउलु है ना तिसु भगति न नाउ ॥ सकती अंदरि वरतदा कूड़ु तिस का है उपाउ ॥ तिस का अंदरु चितु न भिजई मुखि फीका आलाउ ॥ ओइ धरमि रलाए ना रलन्हि ओना अंदरि कूड़ु सुआउ ॥ नानक करतै बणत बणाई मनमुख कूड़ु बोलि बोलि डुबे गुरमुखि तरे जपि हरि नाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊधा = उल्टा। सकती = शक्ति, माया। उपाउ = उपाय, उद्यम। मुखि = मुंह से। आलाउ = आलाप, बोल। धरमि = धर्म में। रलाए = मिले हुए। सुआउ = स्वार्थ, खुद गरजी।2।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘अंदरु’ और ‘अंदरि’ का फर्क याद रखने योग्य है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जैसे) उल्टा कमल का फूल है, इसमें ना भक्ति है ना स्मरण, ये माया के असर तहत ही कार-विहार करता है, झूठ (माया) ही इस का प्रयोजन (जिंदगी का निशाना) है, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का अंदर भीगता नहीं, सुतुष्टि नहीं होती, मुंह से भी फीके बोल ही बोलता है।
ऐसे लोग धरम में जोड़े नहीं जुड़ते क्योंकि उनके अंदर झूठ की खुदगर्जी है। हे नानक! कर्तार ने ऐसी खेल रची है कि मन के पीछे चलने वाले लोग तो झूठ बोल-बोल के ग़र्क होते हैं और गुरु के सन्मुख रहने वाले नाम जपके (माया की बाढ़ में से) तैर जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ बिनु बूझे वडा फेरु पइआ फिरि आवै जाई ॥ सतिगुर की सेवा न कीतीआ अंति गइआ पछुताई ॥ आपणी किरपा करे गुरु पाईऐ विचहु आपु गवाई ॥ त्रिसना भुख विचहु उतरै सुखु वसै मनि आई ॥ सदा सदा सालाहीऐ हिरदै लिव लाई ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ बिनु बूझे वडा फेरु पइआ फिरि आवै जाई ॥ सतिगुर की सेवा न कीतीआ अंति गइआ पछुताई ॥ आपणी किरपा करे गुरु पाईऐ विचहु आपु गवाई ॥ त्रिसना भुख विचहु उतरै सुखु वसै मनि आई ॥ सदा सदा सालाहीऐ हिरदै लिव लाई ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनु बूझे = (ये बात) समझे बिना (कि ‘गुर परसादी पाईऐ’, देखें पौड़ी नं: 7)। फेरु = चक्कर, फेरा, जनम मरन का लंबा चक्कर।8।
अर्थ: (ये बात) समझे बिना (कि ‘गुर परसादी पाईअै’, मनुष्य को) जनम मरण का लंबा चक्कर लगाना पड़ता है, मनुष्य बार-बार पैदा होता है मरता है, गुरु की सेवा (सारी उम्र ही) नहीं करता (भाव, सारी उम्र गुरु के कहे पर नहीं चलता) आखिर (मरने के वक्त) हाथ मलता जाता है।
जब प्रभु अपनी मेहर करता है तो गुरु मिलता है, अंदर से स्वैभाव दूर होता है, माया की तृष्णा-भूख खत्म होती है, मन में सुख आ बसता है, और तवज्जो जोड़ के सदा हृदय में प्रभु स्मरण किया जा सकता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ जि सतिगुरु सेवे आपणा तिस नो पूजे सभु कोइ ॥ सभना उपावा सिरि उपाउ है हरि नामु परापति होइ ॥ अंतरि सीतल साति वसै जपि हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा अम्रितु पैनणा नानक नामु वडाई होइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ जि सतिगुरु सेवे आपणा तिस नो पूजे सभु कोइ ॥ सभना उपावा सिरि उपाउ है हरि नामु परापति होइ ॥ अंतरि सीतल साति वसै जपि हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा अम्रितु पैनणा नानक नामु वडाई होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। सभु कोइ = हरेक प्राणी। सीतल = शीतलता, ठंड। साति = शांति। अंम्रितु = ‘नाम’।1।
अर्थ: जो मनुष्य अपने गुरु के कहे पर चलता है, हरेक बंदा उसका आदर करता है, सो (जगत में भी सम्मान हासिल करने के लिए) सभी उपायों में बड़ा उपाय यही है कि प्रभु का नाम मिल जाए, ‘नाम’ जपने से हृदय में सुख होता है, मन में ठंड और शांति बसती है। (गुरु की आज्ञा में चल के ‘नाम’ जपने वाले बंदे की) खुराक और खुराक अमृत ही हो जाती है (भाव, प्रभु का नाम ही उसकी जिंदगी का आसरा हो जाता है) हे नानक! नाम ही उसके लिए आदर-मान है।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: अगले श्लोक और पउड़ी में ‘अनदिनु लागै धिआनु’ ‘अनदिनु हरि के गुण रवै’ तुकों के साथ यही भाव निकलता है कि ‘नाम’ उस मनुष्य का जीवन-आधार बन जाता है। सो यहाँ शब्द ‘अमृत’ के अर्थ ‘पवित्र’ करना मुनासिब नहीं है।)

[[0512]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ ए मन गुर की सिख सुणि हरि पावहि गुणी निधानु ॥ हरि सुखदाता मनि वसै हउमै जाइ गुमानु ॥ नानक नदरी पाईऐ ता अनदिनु लागै धिआनु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ ए मन गुर की सिख सुणि हरि पावहि गुणी निधानु ॥ हरि सुखदाता मनि वसै हउमै जाइ गुमानु ॥ नानक नदरी पाईऐ ता अनदिनु लागै धिआनु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे मन! सतिगुरु की शिक्षा सुन (भाव, शिक्षा पर चल) तुझे गुणों का खजाना प्रभु मिल जाएगा; सुखों का दाता परमात्मा मन में आ बसेगा, अहम्-अहंकार नाश हो जाएगा।
हे नानक! जब प्रभु अपनी मेहर की नजर से मिलता है तो हर वक्त तवज्जो उसमें जुड़ी रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सतु संतोखु सभु सचु है गुरमुखि पविता ॥ अंदरहु कपटु विकारु गइआ मनु सहजे जिता ॥ तह जोति प्रगासु अनंद रसु अगिआनु गविता ॥ अनदिनु हरि के गुण रवै गुण परगटु किता ॥ सभना दाता एकु है इको हरि मिता ॥९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सतु संतोखु सभु सचु है गुरमुखि पविता ॥ अंदरहु कपटु विकारु गइआ मनु सहजे जिता ॥ तह जोति प्रगासु अनंद रसु अगिआनु गविता ॥ अनदिनु हरि के गुण रवै गुण परगटु किता ॥ सभना दाता एकु है इको हरि मिता ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है। सहजे = आसानी से ही। तह = वहीं, उस अवस्था में। अनंद रसु = आत्मिक आनंद की चाट।9।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु का हो के रहता है वह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है, उसको सत-संतोष प्राप्त होता है, उसे हर जगह प्रभु दिखता है, उसके मन में से खोट विकार दूर हो जाते हैं, वह आसानी से ही मन को वश में कर लेता है; इस अवस्था में (पहुँच के उसके अंदर परमात्मा की) ज्योति का प्रकाश हो जाता है, आत्मिक आनंद की उसको चाट लग जाती है और अज्ञान दूर हो जाता है, (फिर) वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाता है, (रूहानी) गुण उसके अंदर प्रकट हो जाते हैं; (उसे ये यकीन बन जाता है कि) एक प्रभु सारे जीवों का दाता है और मित्र है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु कहीऐ जि अनदिनु हरि लिव लाए ॥ सतिगुर पुछै सचु संजमु कमावै हउमै रोगु तिसु जाए ॥ हरि गुण गावै गुण संग्रहै जोती जोति मिलाए ॥ इसु जुग महि को विरला ब्रहम गिआनी जि हउमै मेटि समाए ॥ नानक तिस नो मिलिआ सदा सुखु पाईऐ जि अनदिनु हरि नामु धिआए ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु कहीऐ जि अनदिनु हरि लिव लाए ॥ सतिगुर पुछै सचु संजमु कमावै हउमै रोगु तिसु जाए ॥ हरि गुण गावै गुण संग्रहै जोती जोति मिलाए ॥ इसु जुग महि को विरला ब्रहम गिआनी जि हउमै मेटि समाए ॥ नानक तिस नो मिलिआ सदा सुखु पाईऐ जि अनदिनु हरि नामु धिआए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमु = परमात्मा। बिंदे = जाने। जि = जो। सतिगुर पुछै = सतिगुरु को पूछे। संजमु = बंदिश, पाबंदी, मर्यादा। संग्रहै = इकट्ठा करे। जुग = भाव, मनुष्य जनम।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: किसी खास ‘जुग’ का वर्णन नहीं चल रहा)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य ब्रहम का पहचानता है हर वक्त परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है उसको ब्राहमण कहना चाहिए, (वह ब्राहमण) सतिगुरु के कहे पर चलता है, ‘सच’ रूपी संयम रखता है, (और इस तरह) उसका अहंकार-रोग देर होता है; वह हरि के गुण गाता है, (रूहानी) गुण एकत्र करता है और परम-ज्योति में अपनी आत्मा मिलाए रखता है।
मानव जनम में कोई विरला ही है जो परमात्मा (ब्रहम) को जानता है जो अहंकार दूर करके ब्रहम में जुड़ा रहता है। हे नानक! जो (ब्रहमज्ञानी ब्राहमण) हर वक्त नाम स्मरण करता है उसे मिलने पर सदा सुख मिलता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ अंतरि कपटु मनमुख अगिआनी रसना झूठु बोलाइ ॥ कपटि कीतै हरि पुरखु न भीजै नित वेखै सुणै सुभाइ ॥ दूजै भाइ जाइ जगु परबोधै बिखु माइआ मोह सुआइ ॥ इतु कमाणै सदा दुखु पावै जमै मरै फिरि आवै जाइ ॥ सहसा मूलि न चुकई विचि विसटा पचै पचाइ ॥ जिस नो क्रिपा करे मेरा सुआमी तिसु गुर की सिख सुणाइ ॥ हरि नामु धिआवै हरि नामो गावै हरि नामो अंति छडाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ अंतरि कपटु मनमुख अगिआनी रसना झूठु बोलाइ ॥ कपटि कीतै हरि पुरखु न भीजै नित वेखै सुणै सुभाइ ॥ दूजै भाइ जाइ जगु परबोधै बिखु माइआ मोह सुआइ ॥ इतु कमाणै सदा दुखु पावै जमै मरै फिरि आवै जाइ ॥ सहसा मूलि न चुकई विचि विसटा पचै पचाइ ॥ जिस नो क्रिपा करे मेरा सुआमी तिसु गुर की सिख सुणाइ ॥ हरि नामु धिआवै हरि नामो गावै हरि नामो अंति छडाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ से। कपटि कीतै = कपट करने से।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘कपटि’ व्याकरण के अनुसार ‘अधिकरण कारक’ है, शब्द ‘कीतै’ भी इसी ‘कारक’ में है। अंग्रेजी में इस बनावट को locative absolute कहते हैं, संस्कृत में ऐसी बनावट बहुत मिलती है, वहीं से ये पुरानी पंजाबी में आई। सो, यहाँ ‘कपटि’ के अर्थ ‘कपट से’ करना गलत है)।

दर्पण-भाषार्थ

सुभाइ = सोए हुए ही। परबोधै = जगाता है, उपदेश करता है। सुआइ = स्वर्थ से। इतु कमाणै = ये कमाने से।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘इतु’ सर्वनाम ‘इसु’ से अधिकरण कारक, एक वचन, जैसे ऊपर शब्द ‘कपटि’ है। ‘कमाणै’ भी इसी कारक में है)।

दर्पण-भाषार्थ

सहसा = तौखला। नामो = नाम ही।2।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य जाहल है, उसके अंदर खोट है और जीभ से झूठ (भाव, अंदरूनी खोट के उलट) बोलता है (भाव, अंदर से और-और बाहर से और); (इस तरह) ठगी करने से प्रसन्न नहीं होता, (क्योंकि वह सहज ही (हमारा हरेक छुपा हुआ काम भी) देखता है और (छुपे हुए बोल व विचार भी) सुनता है। मनमुख (खुद) माया के मोह में है पर जा के लोगों को उपदेश करता है, ये करतूत करने से वह सदा ही दुख पाता हे।, पैदा होता है मरता है, बार बार पैदा होता है मरता है, उसके अंदर का तौखला कभी मिटता नहीं, वह मानो, गंदगी में पड़ा जलता रहता है।
पर, जिस मनुष्य पर मेरा मालिक मेहर करता है उसको गुरु का उपदेश सुनाता है; वह मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करता है, नाम ही गाता है, नाम ही उसको आखिर (इस संशय से) छुड़वाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिना हुकमु मनाइओनु ते पूरे संसारि ॥ साहिबु सेवन्हि आपणा पूरै सबदि वीचारि ॥ हरि की सेवा चाकरी सचै सबदि पिआरि ॥ हरि का महलु तिन्ही पाइआ जिन्ह हउमै विचहु मारि ॥ नानक गुरमुखि मिलि रहे जपि हरि नामा उर धारि ॥१०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिना हुकमु मनाइओनु ते पूरे संसारि ॥ साहिबु सेवन्हि आपणा पूरै सबदि वीचारि ॥ हरि की सेवा चाकरी सचै सबदि पिआरि ॥ हरि का महलु तिन्ही पाइआ जिन्ह हउमै विचहु मारि ॥ नानक गुरमुखि मिलि रहे जपि हरि नामा उर धारि ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनाइओनु = मनाया उसने। पूरे = सर्व गुण संपन्न। सबदि = शब्द में। वीचारि = विचार करने वाला। चाकर = सेवा। महलु = घर, हजूरी। उर = हृदय।10।
अर्थ: वह मनुष्य जगत में सर्व-गुण-संपूर्ण बर्तन है जिनसे परमात्मा (अपना) हुक्म मनाता है, वह बंदे गुरु के शब्द में चित्त जोड़ के अपने मालिक की बंदगी करते हैं, प्रभु की बंदगी हो ही तब सकती है अगर सच्चे शब्द से प्यार करें (शाब्दिक-सच्चे शब्द में प्यार के द्वारा)। जो मनुष्य अंदर से अहंकार को मारते हैं उनको परमात्मा की हजूरी प्राप्त होती है।
हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले लोग परमात्मा का नाम हृदय में परो के नाम जप के परमात्मा में जुड़े रहते हैं।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ गुरमुखि धिआन सहज धुनि उपजै सचि नामि चितु लाइआ ॥ गुरमुखि अनदिनु रहै रंगि राता हरि का नामु मनि भाइआ ॥ गुरमुखि हरि वेखहि गुरमुखि हरि बोलहि गुरमुखि हरि सहजि रंगु लाइआ ॥ नानक गुरमुखि गिआनु परापति होवै तिमर अगिआनु अधेरु चुकाइआ ॥ जिस नो करमु होवै धुरि पूरा तिनि गुरमुखि हरि नामु धिआइआ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ गुरमुखि धिआन सहज धुनि उपजै सचि नामि चितु लाइआ ॥ गुरमुखि अनदिनु रहै रंगि राता हरि का नामु मनि भाइआ ॥ गुरमुखि हरि वेखहि गुरमुखि हरि बोलहि गुरमुखि हरि सहजि रंगु लाइआ ॥ नानक गुरमुखि गिआनु परापति होवै तिमर अगिआनु अधेरु चुकाइआ ॥ जिस नो करमु होवै धुरि पूरा तिनि गुरमुखि हरि नामु धिआइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुनि = सुर, लहर। धिआनु = जुड़ी हुई तवज्जो, ध्यान। सहज धुनि = सहज की धुनि, अउोलता की तुकांत। धिआन धुनि = जुड़ी हुई तवज्जो की तुकांत। सहजि = सहज में, अडोलता में। रंगु = प्यार। तिमरु = अंधेरा। करमु = बख्शश। धुरि = धुर से, ईश्वर की ओर से। तिनि = उस ने। तिनि गुरमुखि = उस गुरमुख ने।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है उसके अंदर जुड़ी तवज्जो और अडोलता की तुकांत चल पड़ती है, वह सच्चे नाम में चित्त जोड़े रखता है, हर वक्त प्रभु का नाम उसे मन में मीठा लगता है।
गुरमुख बंदे रब को ही (हर जगह) देखते हैं, रब की कीर्ति ही (हर समय) उचारते हैं, और रूहानी मेल वाली अडोलता में प्यार डालते हैं।
हे नानक! गुरमुख को उच्च ज्ञान (ऊँची समझ) की प्राप्ति होती है, उसका अज्ञान-रूपी घोर अंधेरा दूर हो जाता है, उसी गुरमुख ने नाम जपा है जिस पर धुर से (कर्तार द्वारा) पूरी मेहर हुई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सतिगुरु जिना न सेविओ सबदि न लगो पिआरु ॥ सहजे नामु न धिआइआ कितु आइआ संसारि ॥ फिरि फिरि जूनी पाईऐ विसटा सदा खुआरु ॥ कूड़ै लालचि लगिआ ना उरवारु न पारु ॥ नानक गुरमुखि उबरे जि आपि मेले करतारि ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सतिगुरु जिना न सेविओ सबदि न लगो पिआरु ॥ सहजे नामु न धिआइआ कितु आइआ संसारि ॥ फिरि फिरि जूनी पाईऐ विसटा सदा खुआरु ॥ कूड़ै लालचि लगिआ ना उरवारु न पारु ॥ नानक गुरमुखि उबरे जि आपि मेले करतारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कितु = किसलिए।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: व्याकरण के अनुसार शब्द ‘किसु’ का कर्णकारक है, ‘अधिकरण’ में भी यही रूप होता है, जैसे, ‘इसु’ से ‘इतु’)।

दर्पण-भाषार्थ

उरवारु = इस पार। पारु = उस पार। जि = जो। करतारि = कर्तार ने।2।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने गुरु का हुक्म नहीं माना, जिनका गुरु-शब्द से प्यार नहीं बना, जिन्होंने शांत-चित्त हो के नाम नहीं स्मरण किया, वे जगत में किसलिए आए? ऐसा आदमी बारंबार जूनियों में पड़ता है, वह जैसे, गंदगी में पड़ के दुखी होता है।
(गुरु और परमात्मा को विसार के) झूठे लालच में फंसने से (फंसे ही रहते हैं, क्योंकि इस लालच का) ना इस पार का पता चलता है ना उस पार का। हे नानक! जिस गुरमुखों को कर्तार ने खुद (अपने साथ) जोड़ा है वही इस (लालच रूपी समुंदर) में से बच निकलते हैं।2।

[[0513]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ भगत सचै दरि सोहदे सचै सबदि रहाए ॥ हरि की प्रीति तिन ऊपजी हरि प्रेम कसाए ॥ हरि रंगि रहहि सदा रंगि राते रसना हरि रसु पिआए ॥ सफलु जनमु जिन्ही गुरमुखि जाता हरि जीउ रिदै वसाए ॥ बाझु गुरू फिरै बिललादी दूजै भाइ खुआए ॥११॥

मूलम्

पउड़ी ॥ भगत सचै दरि सोहदे सचै सबदि रहाए ॥ हरि की प्रीति तिन ऊपजी हरि प्रेम कसाए ॥ हरि रंगि रहहि सदा रंगि राते रसना हरि रसु पिआए ॥ सफलु जनमु जिन्ही गुरमुखि जाता हरि जीउ रिदै वसाए ॥ बाझु गुरू फिरै बिललादी दूजै भाइ खुआए ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहाए = टिकाए हुए। प्रेम कसाए = प्रेम के खीचे हुए। दूजै भाइ = (ईश्वर के बिना) और के प्यार में। खुआए = खोए हुए, वंचित हुई। दरि = दर पर।11।
अर्थ: बंदगी करने वाले सच्चे प्रभु की हजूरी में शोभा पाते हैं, (प्रभु की हजूरी में वह) सच्चे शब्द के द्वारा टिके रहते हैं, उनके अंदर प्रभु का प्यार पैदा होता है, (वह) प्रभु के प्यार के खिंचे हुए हैं, वह सदा प्रभु के प्यार में रहते हैं, प्रभु के रंग में रंगे रहते हैं और जीभ से प्रभु का नाम-रस पीते हैं। जिन्होंने गुरु के सन्मुख हो के रब को पहचाना है और दिल में बसाया है उनका पैदा होना मुबारक है।
गुरु के बिना सृष्टि और-और प्यार में गलतान है बिलकती फिरती है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ कलिजुग महि नामु निधानु भगती खटिआ हरि उतम पदु पाइआ ॥ सतिगुर सेवि हरि नामु मनि वसाइआ अनदिनु नामु धिआइआ ॥ विचे ग्रिह गुर बचनि उदासी हउमै मोहु जलाइआ ॥ आपि तरिआ कुल जगतु तराइआ धंनु जणेदी माइआ ॥ ऐसा सतिगुरु सोई पाए जिसु धुरि मसतकि हरि लिखि पाइआ ॥ जन नानक बलिहारी गुर आपणे विटहु जिनि भ्रमि भुला मारगि पाइआ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ कलिजुग महि नामु निधानु भगती खटिआ हरि उतम पदु पाइआ ॥ सतिगुर सेवि हरि नामु मनि वसाइआ अनदिनु नामु धिआइआ ॥ विचे ग्रिह गुर बचनि उदासी हउमै मोहु जलाइआ ॥ आपि तरिआ कुल जगतु तराइआ धंनु जणेदी माइआ ॥ ऐसा सतिगुरु सोई पाए जिसु धुरि मसतकि हरि लिखि पाइआ ॥ जन नानक बलिहारी गुर आपणे विटहु जिनि भ्रमि भुला मारगि पाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = झगड़े, कष्ट। जुग = संसार, जीवन (देखें शलोक 1 पौड़ी 10 ‘इस जुग महि’)। भगती = भक्ति के द्वारा।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘भगतों ने’, अर्थ फबता नहीं, पहली चार तुकों में किसी एक आदमी का जिकर है, ज्यादा का नहीं)।

दर्पण-भाषार्थ

कुल = सारा। जणेदी = पैदा होने वाली। मसतकि = माथे पर। विटहु = से। भ्रमि = भुलेखे में। मारगि = रस्ते पर।1।
अर्थ: इस झमेलों भरे जगत में परमात्मा का नाम (ही) खजाना है, जिसने बंदगी करके (ये खजाना) कमा लिया है उसने प्रभु (का मेल रूप) उच्च दर्जा पा लिया है, गुरु के हुक्म में चल के उसने प्रभु का नाम अपने मन में बसाया है और हर वक्त नाम स्मरण किया है, सतिगुरु के वचन में (चल के) वह गृहस्थ में ही उदासी है (क्योंकि) उसने अहंकार से मोह जला लिया है, वह (इस झमेलों भरे संसार-समुंदर से) खुद लांघ गया है, सारे जगत को भी लंघाता है, धंन है उसकी पैदा करने वाली माँ!
ऐसा गुरु (जिसको मिल के मनुष्य ‘आपि तरिआ कुल जगतु तराइआ’) उसी आदमी को मिलता है जिसके माथे पर धुर से कर्तार ने (बंदगी करने के लेख) लिख के रख दिए हैं। हे दास नानक! (कह:) मैं अपने गुरु से सदके हूँ जिसने मुझे भटके हुए को सद्-मार्ग पर डाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ त्रै गुण माइआ वेखि भुले जिउ देखि दीपकि पतंग पचाइआ ॥ पंडित भुलि भुलि माइआ वेखहि दिखा किनै किहु आणि चड़ाइआ ॥ दूजै भाइ पड़हि नित बिखिआ नावहु दयि खुआइआ ॥ जोगी जंगम संनिआसी भुले ओन्हा अहंकारु बहु गरबु वधाइआ ॥ छादनु भोजनु न लैही सत भिखिआ मनहठि जनमु गवाइआ ॥ एतड़िआ विचहु सो जनु समधा जिनि गुरमुखि नामु धिआइआ ॥ जन नानक किस नो आखि सुणाईऐ जा करदे सभि कराइआ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ त्रै गुण माइआ वेखि भुले जिउ देखि दीपकि पतंग पचाइआ ॥ पंडित भुलि भुलि माइआ वेखहि दिखा किनै किहु आणि चड़ाइआ ॥ दूजै भाइ पड़हि नित बिखिआ नावहु दयि खुआइआ ॥ जोगी जंगम संनिआसी भुले ओन्हा अहंकारु बहु गरबु वधाइआ ॥ छादनु भोजनु न लैही सत भिखिआ मनहठि जनमु गवाइआ ॥ एतड़िआ विचहु सो जनु समधा जिनि गुरमुखि नामु धिआइआ ॥ जन नानक किस नो आखि सुणाईऐ जा करदे सभि कराइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीपक = दीए पर। पतंग = पतंगा। दिखा = देखें। किहु = कुछ। आणि = ला के। दूजै भाइ = माया के प्यार में। बिखिआ = माया। दयि = परमात्मा ने (‘दय’ ने)। जंगम = शिव के उपासक जो सिर पर मोर के पंख रखते हैं और घंटियां बजा के माँगते फिरते हैं। गरबु = अहंकार। छादनु = कपड़ा। सत भिखिआ = श्रद्धा से दी हुई भिक्षा। न लैही = नहीं लेते। समधा = समाधि वाला, टिके हुए मन वाला, पूर्ण अवस्था वाला।2।
अर्थ: (सारे जीव, क्या विद्वान और क्या त्यागी) त्रैगुणी माया को देख के (जीवन के सही राह से) भटक रहे हैं (और दुखी हो रहे हें) जैसे पतंगा (दीपक को) देख के दीपक पर ही जलता है; पण्डित (वैसे तो और लोगों को कथा सुनाते हैं, पर) बार-बार भटक के माया की ओर ही देखते हैं कि देखें किसी ने कुछ ला के भेटा रखी है (अथवा नहीं), सो माया के प्यार में वह (असल में) सदा माया (की संथ्या ही) पढ़ते हैं, परमात्मा ने उनको (अपने) नाम से वंचित कर दिया है।
जोगी-जंगम और सन्यासी (अपनी तरफ से संयासी बने हुए हैं, पर ये भी जीवन के राह से) भटके हुए हैं (क्योंकि एक तो अपने ‘त्याग’ का ही) इनके गुमान ने अहंकार को बढ़ाया हुआ है, (दूसरा, गृहस्थियों से आदर-मान से मिला कपड़ा व भोजन-रूप भिक्षा नहीं लेते) (भाव, थोड़ी चीज मिलने पर उन्हें घूरते हैं; सो, इन्होंने भी) मन के हठ से (इस धारण किए हुए ‘त्याग’ के कारण) अपनी जिंदगी व्यर्थ गवाई है।
इन सभी में से वही मनुष्य पूर्ण-अवस्था वाला है जिसने सनमुख हो के नाम स्मरण किया है। पर, हे दास! (इस त्रैगुणी माया के हाथ से) और किस के आगे पुकार करें? सभी तो प्रभु के प्रेरे हुए ही काम कर रहे हैं, (सो, इस माया से बचने के लिए प्रभु के आगे की हुई अरदास ही सहायता करती है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ माइआ मोहु परेतु है कामु क्रोधु अहंकारा ॥ एह जम की सिरकार है एन्हा उपरि जम का डंडु करारा ॥ मनमुख जम मगि पाईअन्हि जिन्ह दूजा भाउ पिआरा ॥ जम पुरि बधे मारीअनि को सुणै न पूकारा ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु गुरु मिलै गुरमुखि निसतारा ॥१२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ माइआ मोहु परेतु है कामु क्रोधु अहंकारा ॥ एह जम की सिरकार है एन्हा उपरि जम का डंडु करारा ॥ मनमुख जम मगि पाईअन्हि जिन्ह दूजा भाउ पिआरा ॥ जम पुरि बधे मारीअनि को सुणै न पूकारा ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु गुरु मिलै गुरमुखि निसतारा ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परेतु = भूत। एह = ये मोह काम क्रोध आदि सारे। डंडु = डंडा। करारा = करड़ा। मगि = रास्ते पर। सिरकार = रईअत, प्रजा। पाईअन्हि = पाए जाते हैं। जमपुरि = जम के शहर में। मारीअनि = मारते हैं।12।
अर्थ: माया का मोह, काम, क्रोध व अहंकार (ये, जैसे) भूत हैं; ये सारे जमराज की प्रजा हैं, इन पर यमराज का डंडा (तगड़ा शासन) चलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे जिन्हें माया का प्यार मीठा लगता है जमराज के राह पर पाए जाते हैं (भाव, वह यम की रईअत कामादिकों के वश पड़ जाते हैं), वह मनमुख जम-पुरी में बंधे हुए (भाव, जम की प्रजा कामादिकों के वश में पड़े हुए) मारे जाते हैं (दुखी होते हैं), कोई उनकी पुकार नहीं सुनता (भाव, इन कामादिकों के पँजों से उन्हें कोई छुड़ा नहीं सकता)।
जिस मनुष्य पर प्रभु स्वयं मेहर करे उसको गुरु मिलता है, गुरु के द्वारा (इन भूतों से) छुटकारा होता है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ हउमै ममता मोहणी मनमुखा नो गई खाइ ॥ जो मोहि दूजै चितु लाइदे तिना विआपि रही लपटाइ ॥ गुर कै सबदि परजालीऐ ता एह विचहु जाइ ॥ तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥ नानक माइआ का मारणु हरि नामु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ हउमै ममता मोहणी मनमुखा नो गई खाइ ॥ जो मोहि दूजै चितु लाइदे तिना विआपि रही लपटाइ ॥ गुर कै सबदि परजालीऐ ता एह विचहु जाइ ॥ तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥ नानक माइआ का मारणु हरि नामु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ममता = (मम = मेरी। ममता = ये विचार कि वह चीज मेरी बन जाए या मेरी है) अपनत्व। मोहणी = मोह लेने वाली, ठगनी, चुड़ैल। लपटाइ = चिपक के। परजालीऐ = अच्छी तरह जलाई जाती है। मारणु = (संख्या आदि जहर को) कुश्ता करने वाली बूटी।1।
अर्थ: अहंकार और ममता (स्वरूप वाली माया, जैसे) चुड़ैल है जो मन-मर्जी करने वालों को हड़प कर जाती है, जो मनुष्य (ईश्वर को छोड़ के किसी) और के मोह में चित्त जोड़ते हैं उनको चिपक के अपने वश में कर लेती है। अगर गुरु के शब्द से इसे अच्छी तरह जलाएं (जैसे, चिपके हुए भूतों-चुड़ैलों को मांदरी लोग आग से जलाने का डरावा देते सुने जाते हैं) तो ये अंदर से निकलती है; शरीर और मन स्वच्छ हो जाता है; प्रभु का नाम मन में आ बसता है।
हे नानक! इस माया (संख्या को कुश्ता करने, बेअसर करने) की बूटी एक हरि-नाम ही है जो गुरु से ही मिल सकती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ इहु मनु केतड़िआ जुग भरमिआ थिरु रहै न आवै जाइ ॥ हरि भाणा ता भरमाइअनु करि परपंचु खेलु उपाइ ॥ जा हरि बखसे ता गुर मिलै असथिरु रहै समाइ ॥ नानक मन ही ते मनु मानिआ ना किछु मरै न जाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ इहु मनु केतड़िआ जुग भरमिआ थिरु रहै न आवै जाइ ॥ हरि भाणा ता भरमाइअनु करि परपंचु खेलु उपाइ ॥ जा हरि बखसे ता गुर मिलै असथिरु रहै समाइ ॥ नानक मन ही ते मनु मानिआ ना किछु मरै न जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केतड़िआ जुग = कई जुग, बहुत लंबा अरसा। हरि भाणा = प्रभु की रजा में। भरमाइअनु = भरमाया उस (प्रभु) ने। परपंचु = ठगने वाला (संस्कृत: प्रपंच, ये दिखाई देता जगत जो कई रंगों वाला है और छलावे में डालता है)। जाइ = पैदा होता है।2।
अर्थ: (मनुष्य का) ये मन कई जुग भटकता रहता है (परमात्मा में) टिकता नहीं और पैदा होता मरता रहता है; पर ये बात प्रभु को (इसी तरह) भाती है कि उसने ये ठगने वाली (जगत खेल बना के) (जीवों को इसमें) भरमाया हुआ है।
जब प्रभु (स्वयं) मेहर करता है तो (जीव को) गुरु मिलता है, (फिर) यह (प्रभु में) जुड़ के टिका रहता है; (इस तरह) हे नानक! मन अंदर से ही (प्रभु के नाम में) पतीज जाता है, फिर इसका ना कुछ मरता है ना पैदा होता है।2।

[[0514]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ काइआ कोटु अपारु है मिलणा संजोगी ॥ काइआ अंदरि आपि वसि रहिआ आपे रस भोगी ॥ आपि अतीतु अलिपतु है निरजोगु हरि जोगी ॥ जो तिसु भावै सो करे हरि करे सु होगी ॥ हरि गुरमुखि नामु धिआईऐ लहि जाहि विजोगी ॥१३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ काइआ कोटु अपारु है मिलणा संजोगी ॥ काइआ अंदरि आपि वसि रहिआ आपे रस भोगी ॥ आपि अतीतु अलिपतु है निरजोगु हरि जोगी ॥ जो तिसु भावै सो करे हरि करे सु होगी ॥ हरि गुरमुखि नामु धिआईऐ लहि जाहि विजोगी ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = मानव शरीर। अतीतु = विरक्त। अलिपतु = जिस पर (माया का) असर ना हो सके। निरजोगु = निरबंध, मुक्त। विजोगी = विछोड़े, विजोग।13।
अर्थ: मनुष्य का शरीर (मानो) एक बड़ा किला है जो मनुष्य को भाग्यों से मिलता है, इस शरीर में प्रभु स्वयं बस रहा है और (कहीं तो) रस भोग रहा है, (कहीं) खुद जोगी प्रभु विरक्त है, माया के असर से परे है और निरबंध है। जो उसको अच्छा लगता है वह वही करता है, जो कुछ प्रभु करता है वही होता है (जीवों का ‘रस भोगी’ बनाने वाला भी वह स्वयं ही है और ‘अतीतु अलिपत’ विरक्त बनाने वाला भी खुद)।
अगर, गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम स्मरण करें तो (मायावी रस-रूप) सारे विछोड़े (भाव, प्रभु से विछोड़े का मूल) दूर हो जाते हैं।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु आपि अखाइदा गुर सबदी सचु सोइ ॥ वाहु वाहु सिफति सलाह है गुरमुखि बूझै कोइ ॥ वाहु वाहु बाणी सचु है सचि मिलावा होइ ॥ नानक वाहु वाहु करतिआ प्रभु पाइआ करमि परापति होइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु आपि अखाइदा गुर सबदी सचु सोइ ॥ वाहु वाहु सिफति सलाह है गुरमुखि बूझै कोइ ॥ वाहु वाहु बाणी सचु है सचि मिलावा होइ ॥ नानक वाहु वाहु करतिआ प्रभु पाइआ करमि परापति होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहु वाहु = (जब हम कोई आश्चर्यजनक नजारा देखते हैं, कोई बहुत ही सुंदर ख्याल सुनते हैं तो मस्त हो के ‘वाह वाह’ कहते हैं, जैसे, हम उस नजारे या ख्याल की ‘तारीफ’ करते हैं। सो, ‘वाह वाह’ कहना एक तरह से महिमा है, पर साथ ही ये भाव भी होता है कि इसकी कीर्ति के लिए हमारे पास सटीक शब्द नहीं हैं। शब्द ‘वाह’ को शब्द ‘वाहुगुरू’ का संखेप कहना गलत है, ये ख्याल शब्द ‘वाहिगुरू’ की जगह ‘वाहुगुर’ बनाने के लिए टपला लगाने के लिए सहायक होता है। शब्द ‘गुरू’ और ‘वाहि’ दोनों ही अलग-अलग अर्थ हैं) महिमा। वाहु वाहु बाणी = महिमा की वाणी। सचु है = प्रभु का रूप है।1।
अर्थ: कोई (विरला) मनुष्य समझता है कि ‘वाह वाह’ कहना परमात्मा की महिमा करनी है, वह सच्चा प्रभु खुद ही सतिगुरु के शब्द के माध्यम से (मनुष्य से) ‘वाहु वाहु’ कहलवाता है (भाव, महिमा कराता है) परमात्मा की महिमा की वाणी परमात्मा का रूप है, (इससे) परमात्मा में मेल होता है।
हे नानक! (प्रभु की) महिमा करते हुए प्रभु मिल पड़ता है; (पर, ये महिमा) प्रभु की मेहर से मिलती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ वाहु वाहु करती रसना सबदि सुहाई ॥ पूरै सबदि प्रभु मिलिआ आई ॥ वडभागीआ वाहु वाहु मुहहु कढाई ॥ वाहु वाहु करहि सेई जन सोहणे तिन्ह कउ परजा पूजण आई ॥ वाहु वाहु करमि परापति होवै नानक दरि सचै सोभा पाई ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ वाहु वाहु करती रसना सबदि सुहाई ॥ पूरै सबदि प्रभु मिलिआ आई ॥ वडभागीआ वाहु वाहु मुहहु कढाई ॥ वाहु वाहु करहि सेई जन सोहणे तिन्ह कउ परजा पूजण आई ॥ वाहु वाहु करमि परापति होवै नानक दरि सचै सोभा पाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु के शब्द द्वारा ‘वाहु वाहु’ कहती जीभ सुंदर लगती है, प्रभु मिलता ही गुरु के पूरन शब्द द्वारा है। बड़े भाग्यों वालों के मुंह में से प्रभु ‘वाहु वाहु’ कहलवाता है, जो मनुष्य ‘वाहु वाहु’ करते हैं, वह सुंदर लगते हैं और सारी दुनिया उनके चरण परसने आती है।
हे नानक! प्रभु की मेहर से प्रभु की महिमा होती है और सच्चे दर पर शोभा मिलती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ बजर कपाट काइआ गड़्ह भीतरि कूड़ु कुसतु अभिमानी ॥ भरमि भूले नदरि न आवनी मनमुख अंध अगिआनी ॥ उपाइ कितै न लभनी करि भेख थके भेखवानी ॥ गुर सबदी खोलाईअन्हि हरि नामु जपानी ॥ हरि जीउ अम्रित बिरखु है जिन पीआ ते त्रिपतानी ॥१४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ बजर कपाट काइआ गड़्ह भीतरि कूड़ु कुसतु अभिमानी ॥ भरमि भूले नदरि न आवनी मनमुख अंध अगिआनी ॥ उपाइ कितै न लभनी करि भेख थके भेखवानी ॥ गुर सबदी खोलाईअन्हि हरि नामु जपानी ॥ हरि जीउ अम्रित बिरखु है जिन पीआ ते त्रिपतानी ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अहंकारी मनुष्यों के शरीर-रूपी किले में झूठ और फरेब रूपी कड़े फाटक लगे हुए हैं, पर अंधे और अज्ञानी मनुष्यों के भ्रम में भूले होने के कारण उन्हें दिखते नहीं। भेख करने वाले मनुष्य भेख कर करके थक गए हैं, पर उन्हें भी किसी उपाय करने से (ये फाटक) नहीं दिखे, (हां) जो मनुष्य हरि का नाम जपते हैं, उनके कपाट सतिगुरु के शब्द की इनायत से खुलते हैं। प्रभु (का नाम) अमृत का वृक्ष है, जिन्होंने (इसका) रस पीया है वे तृप्त हो गए हैं।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु करतिआ रैणि सुखि विहाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ सदा अनंदु होवै मेरी माइ ॥ वाहु वाहु करतिआ हरि सिउ लिव लाइ ॥ वाहु वाहु करमी बोलै बोलाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ सोभा पाइ ॥ नानक वाहु वाहु सति रजाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु करतिआ रैणि सुखि विहाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ सदा अनंदु होवै मेरी माइ ॥ वाहु वाहु करतिआ हरि सिउ लिव लाइ ॥ वाहु वाहु करमी बोलै बोलाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ सोभा पाइ ॥ नानक वाहु वाहु सति रजाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरी माँ! प्रभु की महिमा करते हुए (मनुष्य जनम रूपी) रात सुखी गुजरती है और सदा मौज बनी रहती है। प्रभु की महिमा करते हुए प्रभु के साथ तवज्जो जुड़ती है, पर, कोई विरला मनुष्य प्रभु की मेहर से प्रभु का प्रेरा हुआ ‘वाहु वाहु’ की वाणी उचारता है। प्रभु की महिमा करते हुए शोभा मिलती है, और हे नानक! ये महिमा (मनुष्य को) प्रभु की रजा में जोड़े रखती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ वाहु वाहु बाणी सचु है गुरमुखि लधी भालि ॥ वाहु वाहु सबदे उचरै वाहु वाहु हिरदै नालि ॥ वाहु वाहु करतिआ हरि पाइआ सहजे गुरमुखि भालि ॥ से वडभागी नानका हरि हरि रिदै समालि ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ वाहु वाहु बाणी सचु है गुरमुखि लधी भालि ॥ वाहु वाहु सबदे उचरै वाहु वाहु हिरदै नालि ॥ वाहु वाहु करतिआ हरि पाइआ सहजे गुरमुखि भालि ॥ से वडभागी नानका हरि हरि रिदै समालि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: प्रभु की महिमा की वाणी प्रभु (का रूप ही) है, जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख है उसने तलाश के ढूँढ ली है, गुरु के शब्द द्वारा वह ‘वाहु वाहु’ कहता है और हृदय से (परो के रखता है)। गुरमुखों ने सहज ही तलाश करके प्रभु की महिमा करते हुए प्रभु को पा लिया है। हे नानक! वह मनुष्य बड़े भाग्यों वाले हैं जो प्रभु के नाम को अपने हृदय में संभालते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ ए मना अति लोभीआ नित लोभे राता ॥ माइआ मनसा मोहणी दह दिस फिराता ॥ अगै नाउ जाति न जाइसी मनमुखि दुखु खाता ॥ रसना हरि रसु न चखिओ फीका बोलाता ॥ जिना गुरमुखि अम्रितु चाखिआ से जन त्रिपताता ॥१५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ ए मना अति लोभीआ नित लोभे राता ॥ माइआ मनसा मोहणी दह दिस फिराता ॥ अगै नाउ जाति न जाइसी मनमुखि दुखु खाता ॥ रसना हरि रसु न चखिओ फीका बोलाता ॥ जिना गुरमुखि अम्रितु चाखिआ से जन त्रिपताता ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मनमुख (मन!) दरगाह में बड़ा नाम और ऊँची जाति, साथ नहीं जाएंगे, (इनमें भूला हुआ) दुख भोगेगा, जीभ से तूने प्रभु के नाम का स्वाद नहीं चखा और फीका (माया संबंधी वचन ही) बोलता है।
हे सदा लोभ में रते हुए लोभी मन! मोहनी माया की चाह के कारण तू दसों दिशाओं में भटकता फिरता है। जिस मनुष्यों ने गुरु के सन्मुख हो के (नाम-रूप) अमृत चखा है वे तृप्त हो गए हैं।15।

[[0515]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि सचा गहिर ग्मभीरु ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि गुणदाता मति धीरु ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि सभ महि रहिआ समाइ ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि देदा रिजकु सबाहि ॥ नानक वाहु वाहु इको करि सालाहीऐ जि सतिगुर दीआ दिखाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि सचा गहिर ग्मभीरु ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि गुणदाता मति धीरु ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि सभ महि रहिआ समाइ ॥ वाहु वाहु तिस नो आखीऐ जि देदा रिजकु सबाहि ॥ नानक वाहु वाहु इको करि सालाहीऐ जि सतिगुर दीआ दिखाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धीरु = धैर्य वाले स्वभाव वाला। सबाहि = एकत्र करके। जि = अगर। इको करि = ये जान के उस जैसा वह खुद ही है।1।
अर्थ: जो प्रभु सदा कायम रहने वाला है और बड़े जिगरे वाला है, (जो अपने भक्तों को) गुण बख्शने वाला है और अडोल ज्ञान वाला है, जो सारे जीवों में व्यापक है और सबको रिजक पहुँचाता है, उसकी महिमा करनी चाहिए। हे नानक! उसको ला-शरीक जान के उसकी उपमा करें, उसके दर्शन सतिगुरु ही करवाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ वाहु वाहु गुरमुख सदा करहि मनमुख मरहि बिखु खाइ ॥ ओना वाहु वाहु न भावई दुखे दुखि विहाइ ॥ गुरमुखि अम्रितु पीवणा वाहु वाहु करहि लिव लाइ ॥ नानक वाहु वाहु करहि से जन निरमले त्रिभवण सोझी पाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ वाहु वाहु गुरमुख सदा करहि मनमुख मरहि बिखु खाइ ॥ ओना वाहु वाहु न भावई दुखे दुखि विहाइ ॥ गुरमुखि अम्रितु पीवणा वाहु वाहु करहि लिव लाइ ॥ नानक वाहु वाहु करहि से जन निरमले त्रिभवण सोझी पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखु = माया रूपी जहर। दुखे दुखि = केवल दुख में ही, सारी उम्र दुख में ही। पीवणा = जल पान, जीवन आधार (जैसे पानी सब जीवों की जिंदगी का सहारा है)।2।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख हैं, वह सदा प्रभु की महिमा करते हैं; पर, मनमर्जी करने वाले मनुष्य माया-रूपी जहर खा के मरते हैं। उन्हें महिमा अच्छी नहीं लगती, इस लिए उनकी सारी उम्र दुख में ही व्यतीत होती है। गुरमुखों का जलपान ही नाम-अमृत है (भाव, गुरमुखों के लिए नाम-अमृत जीवन का आसरा है), वे तवज्जो जोड़ के कीर्ति करते हैं। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु की महिमा करते हैं वह पवित्र हो जाते हैं, उन्हें तीनों भवनों (में व्यापक प्रभु की) सूझ पड़ जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि कै भाणै गुरु मिलै सेवा भगति बनीजै ॥ हरि कै भाणै हरि मनि वसै सहजे रसु पीजै ॥ हरि कै भाणै सुखु पाईऐ हरि लाहा नित लीजै ॥ हरि कै तखति बहालीऐ निज घरि सदा वसीजै ॥ हरि का भाणा तिनी मंनिआ जिना गुरू मिलीजै ॥१६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि कै भाणै गुरु मिलै सेवा भगति बनीजै ॥ हरि कै भाणै हरि मनि वसै सहजे रसु पीजै ॥ हरि कै भाणै सुखु पाईऐ हरि लाहा नित लीजै ॥ हरि कै तखति बहालीऐ निज घरि सदा वसीजै ॥ हरि का भाणा तिनी मंनिआ जिना गुरू मिलीजै ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर प्रभु की रजा हो तो (मनुष्य को) गुरु मिलता है और (उसके वास्ते) प्रभु के स्मरण व भक्ति (की युक्ति) बनती है, प्रभु मन में आ बसता है और अडोल अवस्था में (टिका हुआ) नाम-रस पीता है, (आत्मा को) सुख मिलता है और (जीव-व्यापारी को) सदा नाम-रूप नफा मिलता है। जिस मनुष्यों को सतिगुरु मिल जाता है, वे मनुष्य परमात्मा की रजा को (मीठा करके) मानते हैं।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु से जन सदा करहि जिन्ह कउ आपे देइ बुझाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ मनु निरमलु होवै हउमै विचहु जाइ ॥ वाहु वाहु गुरसिखु जो नित करे सो मन चिंदिआ फलु पाइ ॥ वाहु वाहु करहि से जन सोहणे हरि तिन्ह कै संगि मिलाइ ॥ वाहु वाहु हिरदै उचरा मुखहु भी वाहु वाहु करेउ ॥ नानक वाहु वाहु जो करहि हउ तनु मनु तिन्ह कउ देउ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु से जन सदा करहि जिन्ह कउ आपे देइ बुझाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ मनु निरमलु होवै हउमै विचहु जाइ ॥ वाहु वाहु गुरसिखु जो नित करे सो मन चिंदिआ फलु पाइ ॥ वाहु वाहु करहि से जन सोहणे हरि तिन्ह कै संगि मिलाइ ॥ वाहु वाहु हिरदै उचरा मुखहु भी वाहु वाहु करेउ ॥ नानक वाहु वाहु जो करहि हउ तनु मनु तिन्ह कउ देउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्यों को प्रभु स्वयं ही सुमति बख्शता है वे सदा प्रभु की महिमा करते हैं। प्रभु की महिमा करने से मन पवित्र होता है और मन में से अहंकार दूर होता है। जो भी मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के प्रभु की महिमा करता है, उसे मन-इच्छित फल मिलता है। जो मनुष्य महिमा करते हैं वह (देखने में भी) सुंदर लगते हैं। हे प्रभु! मुझे उनकी संगति में रख, ता कि मैं अपने हृदय में तेरी कीर्ति करूँ और मुंह से भी तेरे गुण गाऊँ। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु की महिमा करते हैं, मैं अपना तन-मन उनके आगे भेट कर दूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ वाहु वाहु साहिबु सचु है अम्रितु जा का नाउ ॥ जिनि सेविआ तिनि फलु पाइआ हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ वाहु वाहु गुणी निधानु है जिस नो देइ सु खाइ ॥ वाहु वाहु जलि थलि भरपूरु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ वाहु वाहु गुरसिख नित सभ करहु गुर पूरे वाहु वाहु भावै ॥ नानक वाहु वाहु जो मनि चिति करे तिसु जमकंकरु नेड़ि न आवै ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ वाहु वाहु साहिबु सचु है अम्रितु जा का नाउ ॥ जिनि सेविआ तिनि फलु पाइआ हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ वाहु वाहु गुणी निधानु है जिस नो देइ सु खाइ ॥ वाहु वाहु जलि थलि भरपूरु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ वाहु वाहु गुरसिख नित सभ करहु गुर पूरे वाहु वाहु भावै ॥ नानक वाहु वाहु जो मनि चिति करे तिसु जमकंकरु नेड़ि न आवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मालिक प्रभु का नाम (जीवों को) आत्मिक बल देने वाला है उसकी महिमा उसी सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु का स्वरूप है। जिस जिस मनुष्य ने प्रभु को स्मरण किया है उस उस ने (नाम अमृत) फल प्राप्त कर लिया है, मैं ऐसे गुरमुखों से सदके हूँ। गुणों के खजाने प्रभु की कीर्ति उसका ही रूप है। प्रभु जिसको ये खजाना बख्शता है वही इसको बरतता है। कीर्ति का मालिक प्रभु पानी में धरती पर हर जगह व्यापक है, गुरु के राह पर चलते हुए वह प्रभु मिलता है। हे गुर-सिखो! सारे सदा प्रभु के गुण गाओ, पूरे गुरु को प्रभु की महिमा मीठी लगती है। हे नानक! जो मनुष्य एक मन हो के महिमा करता है उसको मौत का डर नहीं हो सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हरि जीउ सचा सचु है सची गुरबाणी ॥ सतिगुर ते सचु पछाणीऐ सचि सहजि समाणी ॥ अनदिनु जागहि ना सवहि जागत रैणि विहाणी ॥ गुरमती हरि रसु चाखिआ से पुंन पराणी ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ पचि मुए अजाणी ॥१७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हरि जीउ सचा सचु है सची गुरबाणी ॥ सतिगुर ते सचु पछाणीऐ सचि सहजि समाणी ॥ अनदिनु जागहि ना सवहि जागत रैणि विहाणी ॥ गुरमती हरि रसु चाखिआ से पुंन पराणी ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ पचि मुए अजाणी ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: प्रभु सदा-स्थिर रहने वाला है, गुरु की वाणी उस सदा-स्थिर प्रभु की महिमा में है, गुरु के द्वारा उस प्रभु से जान-पहिचान बनती है और सदा-स्थिर अडोल अवस्था में टिक सकते हैं। वह मनुष्य भाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरु के राह पर चल कर प्रभु के नाम का रस चखा है, वे हर समय सुचेत रहते हैं, (माया के मोह में) नहीं सोते, उनकी जिंदगी-रूपी सारी रात सुचेत रह के गुजरती है। पर, गुरु की शरण आए बिना किसी को प्रभु नहीं मिला, अंजान लोग (माया के मोह में) खप-खप के दुखी होते हैं।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु बाणी निरंकार है तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ वाहु वाहु अगम अथाहु है वाहु वाहु सचा सोइ ॥ वाहु वाहु वेपरवाहु है वाहु वाहु करे सु होइ ॥ वाहु वाहु अम्रित नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥ वाहु वाहु करमी पाईऐ आपि दइआ करि देइ ॥ नानक वाहु वाहु गुरमुखि पाईऐ अनदिनु नामु लएइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु बाणी निरंकार है तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ वाहु वाहु अगम अथाहु है वाहु वाहु सचा सोइ ॥ वाहु वाहु वेपरवाहु है वाहु वाहु करे सु होइ ॥ वाहु वाहु अम्रित नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥ वाहु वाहु करमी पाईऐ आपि दइआ करि देइ ॥ नानक वाहु वाहु गुरमुखि पाईऐ अनदिनु नामु लएइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो प्रभु आकार रहित है; जिसके बराबर का और कोई नहीं है; जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिसकी थाह नहीं पाई जा सकती, जिसको किसी की अधीनता नहीं है, जिसका किया हुआ ही सब कुछ हो रहा है, उसकी महिमा उसी का रूप है। उसका नाम जीवों को आत्मि्क जीवन देने वाला है, पर उसकी प्राप्ति किसी गुरमुख को ही होती है। महिमा की दाति सौभाग्य से ही मिलती है, जिसको मेहर करके प्रभु स्वयं देता है, हे नानक! जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है, उसको महिमा की दाति मिलती है, वह हर समय प्रभु का नाम जपता है।1।

[[0516]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे साति न आवई दूजी नाही जाइ ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ विणु करमै न पाइआ जाइ ॥ जिन्हा अंतरि लोभ विकारु है दूजै भाइ खुआइ ॥ जमणु मरणु न चुकई हउमै विचि दुखु पाइ ॥ जिन्हा सतिगुर सिउ चितु लाइआ सु खाली कोई नाहि ॥ तिन जम की तलब न होवई ना ओइ दुख सहाहि ॥ नानक गुरमुखि उबरे सचै सबदि समाहि ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे साति न आवई दूजी नाही जाइ ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ विणु करमै न पाइआ जाइ ॥ जिन्हा अंतरि लोभ विकारु है दूजै भाइ खुआइ ॥ जमणु मरणु न चुकई हउमै विचि दुखु पाइ ॥ जिन्हा सतिगुर सिउ चितु लाइआ सु खाली कोई नाहि ॥ तिन जम की तलब न होवई ना ओइ दुख सहाहि ॥ नानक गुरमुखि उबरे सचै सबदि समाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु की बताई सेवा किए बिना शांति नहीं आती और (सतिगुरु के बिना) और कोई जगह नहीं (जहाँ ये मिल सके) चाहे कितनी ही चाहत करें, मेहर के बिना प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती। जिस मनुष्यों के हृदय में लोभ का अवगुण है, वे माया के प्यार में भूले हुए है, उनका पैदा होना मरना खत्म नहीं होता और वे अहंकार में कष्ट उठाते हैं। जिस मनुष्यों ने अपने सतिगुरु से चिक्त जोड़ा है उनमें से (प्रभु के मिलाप से) वंचित कोई नहीं रहा, ना तो उन्हें जम का बुलावा आता है ना ही वे दुख सहते हैं (भाव, उन्हें मौत का सहम नहीं छू सकता)।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हुए हैं, वे (दुखों से) बच गए हैं और सच्चे शब्द में लीन रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ ढाढी तिस नो आखीऐ जि खसमै धरे पिआरु ॥ दरि खड़ा सेवा करे गुर सबदी वीचारु ॥ ढाढी दरु घरु पाइसी सचु रखै उर धारि ॥ ढाढी का महलु अगला हरि कै नाइ पिआरि ॥ ढाढी की सेवा चाकरी हरि जपि हरि निसतारि ॥१८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ ढाढी तिस नो आखीऐ जि खसमै धरे पिआरु ॥ दरि खड़ा सेवा करे गुर सबदी वीचारु ॥ ढाढी दरु घरु पाइसी सचु रखै उर धारि ॥ ढाढी का महलु अगला हरि कै नाइ पिआरि ॥ ढाढी की सेवा चाकरी हरि जपि हरि निसतारि ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महलु = निवास स्थान, आत्मिक अवस्था। अगला = ऊँचा।18।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मालिक प्रभु के साथ प्यार डालता है, वही प्रभु का ढाढी कहलवा सकता है (भाव, प्रभु की महिमा वही बंदा कर सकता है), वह मनुष्य प्रभु की हजूरी में टिक के उसका स्मरण करता है और गुरु के शब्द के द्वारा उसके गुणों की विचार करता है। ज्यों-ज्यों वह प्रभु को अपने हृदय में बसाता है, वह प्रभु के चरणों में जुड़ता है (उसे प्रभु की हजूरी प्राप्त होती है), प्रभु के नाम में प्यार करने से उसके मन की अवस्था बहुत ऊँची हो जाती है, बस, वह ढाढी यही सेवा करता है, यही चाकरी करता है कि वह प्रभु का नाम जपता है, और प्रभु उस को (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ गूजरी जाति गवारि जा सहु पाए आपणा ॥ गुर कै सबदि वीचारि अनदिनु हरि जपु जापणा ॥ जिसु सतिगुरु मिलै तिसु भउ पवै सा कुलवंती नारि ॥ सा हुकमु पछाणै कंत का जिस नो क्रिपा कीती करतारि ॥ ओह कुचजी कुलखणी परहरि छोडी भतारि ॥ भै पइऐ मलु कटीऐ निरमल होवै सरीरु ॥ अंतरि परगासु मति ऊतम होवै हरि जपि गुणी गहीरु ॥ भै विचि बैसै भै रहै भै विचि कमावै कार ॥ ऐथै सुखु वडिआईआ दरगह मोख दुआर ॥ भै ते निरभउ पाईऐ मिलि जोती जोति अपार ॥ नानक खसमै भावै सा भली जिस नो आपे बखसे करतारु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ गूजरी जाति गवारि जा सहु पाए आपणा ॥ गुर कै सबदि वीचारि अनदिनु हरि जपु जापणा ॥ जिसु सतिगुरु मिलै तिसु भउ पवै सा कुलवंती नारि ॥ सा हुकमु पछाणै कंत का जिस नो क्रिपा कीती करतारि ॥ ओह कुचजी कुलखणी परहरि छोडी भतारि ॥ भै पइऐ मलु कटीऐ निरमल होवै सरीरु ॥ अंतरि परगासु मति ऊतम होवै हरि जपि गुणी गहीरु ॥ भै विचि बैसै भै रहै भै विचि कमावै कार ॥ ऐथै सुखु वडिआईआ दरगह मोख दुआर ॥ भै ते निरभउ पाईऐ मिलि जोती जोति अपार ॥ नानक खसमै भावै सा भली जिस नो आपे बखसे करतारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गूजरी जाति गवारि = गवार जाति वाली गूजरी, मोटी जाति वाली गूजरी (यहाँ इशारा श्री कृष्ण जी और चँद्रावलि है)।

दर्पण-टिप्पनी

(गूजरी जाति गवारि: कई टीकाकार अर्थ करते हैं: हे गवार! उम्रें गुजर जाती हैं। ये अर्थ गलत है, शब्द ‘जाति’ का अर्थ ‘जाती’ नहीं हो सकता, वह शब्द ‘जात’ है, जैसे ‘बहती जात कदे द्रिसटि ना धारत’॥1॥26॥33॥ (सूही म: ५)।

दर्पण-भाषार्थ

अनदिनु = हर रोज। भउ = ईश्वर का डर। कुलवंती = अच्छे कुल वाली। करतारि = कर्तार ने। कुलखणी = बुरे लक्षणों वाली। परहरि छोडी = त्याग दी। भतारि = भतार ने। भै = डर। गुणी गहीरु = गुणों का खजाना। बैसै = बैठता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘करतारि’ और ‘करतारु’ का व्याकर्णक अंतर स्मर्णीय है।
नोट: ‘भै पइअै’, ये दोनों शब्द व्याकरण के अनुसार ‘अधिकरण कारक, एकवचन’ में हैं। इस वाक्यांश (Phrase) को अंग्रेजी में Locative Absolute कहते हैं और पंजाबी में ‘पूरब पूरण कारदंतक’ (हृदय में) ईश्वर का डर पड़ने से।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मोटी जाति की गूजरी कुलवंती स्त्री बन गई (ऊँची जाति वाली हो गई) जब उसने अपना पति ढूँढ लिया; (वैसे ही) वह (जीव-) स्त्री कुलवंती हो जाती है जो सतिगुरु के शब्द द्वारा विचार करके हर रोज प्रभु का स्मरण करती है (क्योंकि) जिसको गुरु मिल जाता है उसके अंदर परमात्मा का डर पैदा होता है, वह पति-प्रभु का हुक्म समझ लेती है (पर यह वही जीव-स्त्री करती है) जिस पर कर्तार ने स्वयं मेहर की हो।
(दूसरी तरफ) जिसे पति ने त्याग कर दिया हो, वह स्त्री दुष्ट और खोटे लक्षणों वाली होती है।
यदि हृदय में प्रभु का डर आ बसे, तो मन की मैल काटी जाती है, शरीर भी पवित्र हो जाता है; गुणों के खजाने परमात्मा का स्मरण करके अंदर प्रकाश हो जाता है, मति उज्जवल हो जाती है। (ऐसी जीव-स्त्री) परमात्मा के डर में बैठती है, डर में रहती है, डर में कार-व्यवहार करती है, (फिर) उसको इस जीवन में आदर और सुख मिलता है और प्रभु की हजूरी का दरवाजा उसके लिए खुल जाता है। बेअंत प्रभु की ज्योति में आत्मा जोड़ने से और उसके डर में रहने से वह निर्भय प्रभु मिल जाता है। पर, हे नानक! जिसको कर्तार स्वयं बख्शिश करे वही जीव-स्त्री पति-प्रभु को प्यारी लगती है, वही अच्छी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ सदा सदा सालाहीऐ सचे कउ बलि जाउ ॥ नानक एकु छोडि दूजै लगै सा जिहवा जलि जाउ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ सदा सदा सालाहीऐ सचे कउ बलि जाउ ॥ नानक एकु छोडि दूजै लगै सा जिहवा जलि जाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की ही सदा महिमा करनी चाहिए, मैं प्रभु से सदके हूँ। पर, हे नानक! वह जीभ जल जाए जो एक प्रभु को छोड़ के किसी और (की याद) में लगे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ अंसा अउतारु उपाइओनु भाउ दूजा कीआ ॥ जिउ राजे राजु कमावदे दुख सुख भिड़ीआ ॥ ईसरु ब्रहमा सेवदे अंतु तिन्ही न लहीआ ॥ निरभउ निरंकारु अलखु है गुरमुखि प्रगटीआ ॥ तिथै सोगु विजोगु न विआपई असथिरु जगि थीआ ॥१९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ अंसा अउतारु उपाइओनु भाउ दूजा कीआ ॥ जिउ राजे राजु कमावदे दुख सुख भिड़ीआ ॥ ईसरु ब्रहमा सेवदे अंतु तिन्ही न लहीआ ॥ निरभउ निरंकारु अलखु है गुरमुखि प्रगटीआ ॥ तिथै सोगु विजोगु न विआपई असथिरु जगि थीआ ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंस = (संस्कृत: अंश) हिस्सा। अंसा अउतार = (परमात्मा के) अंशों का (जगत में) आना, देवताओं आदि का जनम। उपाइओनु = उस (प्रभु) ने पैदा किया (उपाना = उपजाना, पैदा करना)। दूजा भाउ = माया का मोह। जिउ राजे = राजाओं की तरह। ईसर = शिव। तिनी = उन्होंने भी। तिथै = (गुरमुख वाली) अवस्था में। सोगु = चिन्ता। विजोगु = विछोड़ा। जगि = जगत में।19।
अर्थ: देवताओं आदि की भी उत्पक्ति प्रभु ने स्वयं ही की और माया का मोह भी स्वयं ही बनाया। (वह देवते भी) राजाओं की तरह राज करते रहे और दुखों-सुखों की खातिर लड़ते रहे। ब्रहमा और शिव (जैसे बड़े देवते प्रभु को) स्मरण करते रहे पर उन्हें भी (उस अजब खेल का) भेद नहीं मिला।
परमात्मा निडर है, आकार-रहित है और जिसे लक्षित नहीं किया जा सकता। गुरमुख के अंदर प्रगट होता है। गुरमुख अवस्था में (मनुष्य को) चिन्ता और (प्रभु से) विछोड़ा नहीं सताता, गुरमुख जगत में (माया के मोह से स्थिर) अडोल रहता है।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ एहु सभु किछु आवण जाणु है जेता है आकारु ॥ जिनि एहु लेखा लिखिआ सो होआ परवाणु ॥ नानक जे को आपु गणाइदा सो मूरखु गावारु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ एहु सभु किछु आवण जाणु है जेता है आकारु ॥ जिनि एहु लेखा लिखिआ सो होआ परवाणु ॥ नानक जे को आपु गणाइदा सो मूरखु गावारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस मनुष्य ने। एहु लेखा लिखिआ = यह बात समझ ली। आपु = अपने आप को। गणाइदा = बड़ा कहलवाता।1।
अर्थ: जितना ये जगत दिखाई दे रहा है ये सारा आने-जाने वाला है (भाव, कभी भी एक हालत में नहीं रहता, सो किसी राज-धन मल्कियत आदि पर मान करना मूर्खता है) जिस मनुष्य ने ये बात समझ ली वह (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होता है; पर, हे नानक! जो (इस ‘आकार’ के आसरे) अपने आप को बड़ा कहलवाता है (भाव, अहंकार करता है) वह मूर्ख है वह गावार है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ मनु कुंचरु पीलकु गुरू गिआनु कुंडा जह खिंचे तह जाइ ॥ नानक हसती कुंडे बाहरा फिरि फिरि उझड़ि पाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ मनु कुंचरु पीलकु गुरू गिआनु कुंडा जह खिंचे तह जाइ ॥ नानक हसती कुंडे बाहरा फिरि फिरि उझड़ि पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुंचरु = हाथी। पीलकु = हाथी को चलाने वाला, महावत। गिआन = ज्ञान, गुरु की दी हुई मति। कुंडा = अंकुश। जह = जिधर। हसती = हाथी। उझड़ि = गलत रास्ते पर। पाइ = पड़ता है।2।
अर्थ: मन (जैसे) हाथी है; (अगर) सतिगुरु (इसका) महावत (बने और) गुरु की दी हुई मति (इसके सिर पर) अंकुश हो, तो यह मन उधर जाता है जिधर गुरु ले जाता है। पर, हे नानक! अंकुश के बिना हाथी बार-बार कुमार्ग पर चला जाता है।2।

[[0517]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तिसु आगै अरदासि जिनि उपाइआ ॥ सतिगुरु अपणा सेवि सभ फल पाइआ ॥ अम्रित हरि का नाउ सदा धिआइआ ॥ संत जना कै संगि दुखु मिटाइआ ॥ नानक भए अचिंतु हरि धनु निहचलाइआ ॥२०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तिसु आगै अरदासि जिनि उपाइआ ॥ सतिगुरु अपणा सेवि सभ फल पाइआ ॥ अम्रित हरि का नाउ सदा धिआइआ ॥ संत जना कै संगि दुखु मिटाइआ ॥ नानक भए अचिंतु हरि धनु निहचलाइआ ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभु ने। सेवि = सेवा करके, हुक्म कर के। अचिंतु = बेफिक्र।20।
अर्थ: जिस प्रभु ने ‘भाव दूजा’ (द्वैत भाव) पैदा किया है, अगर उसकी हजूरी में अरदास करें, अगर सतिगुरु के हुक्म में चलें तो (जैसे) सारे फल मिल जाते हैं, प्रभु का अमृत-नाम सदा स्मरण कर सकते हैं, गुरमुखों की संगति में रहके (द्वैत भाव का) दुख मिटा सकते हैं, और, हे नानक! कभी ना नाश होने वाला नाम-धन कमा के बेफिक्र हो जाते हैं।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ खेति मिआला उचीआ घरु उचा निरणउ ॥ महल भगती घरि सरै सजण पाहुणिअउ ॥ बरसना त बरसु घना बहुड़ि बरसहि काहि ॥ नानक तिन्ह बलिहारणै जिन्ह गुरमुखि पाइआ मन माहि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ खेति मिआला उचीआ घरु उचा निरणउ ॥ महल भगती घरि सरै सजण पाहुणिअउ ॥ बरसना त बरसु घना बहुड़ि बरसहि काहि ॥ नानक तिन्ह बलिहारणै जिन्ह गुरमुखि पाइआ मन माहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेति = पैली में, खेत में। मिआला = किनारा, खेतों के किनारे की हदबंदी। घरु उचा = बादल। निरणउ = देख के। महल घरि = (जिस जीव-) स्त्री के घर में। सरै = बनी हुई है, फबी है। सजण = प्रभु जी। घना = हे घन! हे बादल! हे सतिगुरु! बहुड़ि = दुबारा। काहि = किस लिए?।1।
अर्थ: बादल देख के (किसान) खेत के बंद (किनारे की हदबंदियां) ऊँची कर देता है (और वर्षा का पानी उस खेत में ठहर जाता है), (वैसे ही, जिस जीव-) स्त्री के हृदय में भक्ति (का उछाल) आता है वहाँ प्रभु मेहमान बन के (भाव, रहने के लिए) आ जाता है।
हे मेघ! (हे सतिगुरु!) अगर (नाम की) बरखा करनी है तो वर्षा (अब) कर, (मेरी उम्र बीत जाने पर) फिर किस लिए बरसेगा?
हे नानक! मैं सदके हूँ उनसे जिन्होंने गुरु के माध्यम से प्रभु को हृदय में पा लिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ मिठा सो जो भावदा सजणु सो जि रासि ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ जा कउ आपि करे परगासु ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ मिठा सो जो भावदा सजणु सो जि रासि ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ जा कउ आपि करे परगासु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिठा = प्यारा। भावदा = सदा अच्छा लगता है। जि = जो। रासि = मुआफिक। जि रासि = जो सदा मुआफिक आए, जिससे सदा बनी रहे।2।
अर्थ: (असल) प्यारा वह है जो सदा अच्छा लगता रहे, (असल) मित्र वह है जिससे सदा बनी रहे (पर ‘द्वैत भाव’ वह है जिससे ना सदा बनी रहती है ना ही सदा साथ निभता है), हे नानक! जिसके अंदर प्रभु खुद प्रकाश करे उसको गुरु के द्वारा ही ये समझ आती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ प्रभ पासि जन की अरदासि तू सचा सांई ॥ तू रखवाला सदा सदा हउ तुधु धिआई ॥ जीअ जंत सभि तेरिआ तू रहिआ समाई ॥ जो दास तेरे की निंदा करे तिसु मारि पचाई ॥ चिंता छडि अचिंतु रहु नानक लगि पाई ॥२१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ प्रभ पासि जन की अरदासि तू सचा सांई ॥ तू रखवाला सदा सदा हउ तुधु धिआई ॥ जीअ जंत सभि तेरिआ तू रहिआ समाई ॥ जो दास तेरे की निंदा करे तिसु मारि पचाई ॥ चिंता छडि अचिंतु रहु नानक लगि पाई ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन = प्रभु का सेवक। हउ = मैं। पाई = पैरों में।21।
अर्थ: प्रभु के सेवक की अरदास प्रभु की हजूरी में (यूँ होती) है: (हे प्रभु!) तू सदा रहने वाला मालिक है, तू सदा ही रखवाला है, मैं तुझे स्मरण करता हूँ, सारे जीव-जंतु तेरे ही हैं, तू इनमें मौजूद है। जो मनुष्य तेरी बंदगी करने वाले की निंदा करता है तू उसको (आत्मिक मौत) मार के ख्वार करता है।
हे नानक! तू भी प्रभु के चरणों में लग और (दुनियावी) चिंताएं त्याग के बेफिक्र रह।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ३ ॥ आसा करता जगु मुआ आसा मरै न जाइ ॥ नानक आसा पूरीआ सचे सिउ चितु लाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ३ ॥ आसा करता जगु मुआ आसा मरै न जाइ ॥ नानक आसा पूरीआ सचे सिउ चितु लाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जगत (दुनियावी) आशाएं बना-बना के मर जाता है, पर ये आशा कभी नहीं मरती; कभी खत्म नहीं होती (भाव, कभी तृष्णा खत्म नहीं होती, कभी संतोष नहीं होता)। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले प्रभु से चिक्त जोड़ने से मनुष्य की आशाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, तृष्णा समाप्त हो जाती है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ आसा मनसा मरि जाइसी जिनि कीती सो लै जाइ ॥ नानक निहचलु को नही बाझहु हरि कै नाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ आसा मनसा मरि जाइसी जिनि कीती सो लै जाइ ॥ नानक निहचलु को नही बाझहु हरि कै नाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना। जिनि = जिस प्रभु ने। कीती = (आसा मनसा) पैदा की। सो = वही प्रभु। लै जाइ = ले जाए, नाश करे।2।
अर्थ: ये दुनियावी आशा, ये माया के फुरने तब ही खत्म होंगे जब वह प्रभु खुद खत्म करेगा जिसने ये (आसा मनसा) पैदा की, (क्योंकि) हे नानक! (तब ही यकीन बनेगा कि) परमात्मा के नाम के बिना कोई और सदा-स्थिर रहने वाला नहीं (फिर किस की आस करें?)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे जगतु उपाइओनु करि पूरा थाटु ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे ही हरि हाटु ॥ आपे सागरु आपे बोहिथा आपे ही खेवाटु ॥ आपे गुरु चेला है आपे आपे दसे घाटु ॥ जन नानक नामु धिआइ तू सभि किलविख काटु ॥२२॥१॥ सुधु

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे जगतु उपाइओनु करि पूरा थाटु ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे ही हरि हाटु ॥ आपे सागरु आपे बोहिथा आपे ही खेवाटु ॥ आपे गुरु चेला है आपे आपे दसे घाटु ॥ जन नानक नामु धिआइ तू सभि किलविख काटु ॥२२॥१॥ सुधु

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाइओनु = उपाया उस (प्रभु) ने। थाटु = बनावट, संरचना। पूरा = संपूर्ण, जिसमें कोई कमी ना हो। वणजारा = व्यापारी। हाटु = हाट, जहाँ सौदा हो रहा है। बोहिथा = जहाज। खेवाटु = मल्लाह। घाटु = पत्तन। किलविख = पाप।22।
अर्थ: मुकम्मल बनतर (सम्पूर्ण संरचना) बना के प्रभु ने स्वयं ही जगत पैदा किया, यहाँ प्रभु खुद ही समुंदर है, खुद ही जहाज है और खुद ही मल्लाह है, यहाँ खुद ही गुरु है, खुद ही सिख है, और खुद ही (उस पार का) पत्तन दिखाता है।
हे दास नानक! तू उस प्रभु का नाम स्मरण कर और अपने सारे पाप दूर कर ले।22।1। सुधु।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: श्री करतारपुर वाली ‘बीड़’ में इस ‘वार’ की ‘वाणी’ के लेखन से ‘सलोक महला ३’ आदि सारे शीर्षक बारीक लेखन में है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि शीर्षक के लिए पहले जगह छोड़ दी गई थी। फिर अच्छी तरह सुधार के (कि शलोक ठीक उसी ही गुरु साहिबान के हैं) ‘शीर्षक’ बारीक कलम से दर्ज किए हैं। तभी ‘वार’ की समाप्ति पर हाशिए से बाहर शब्द ‘सुधु’ लिखा है। भाव ये है कि, शलोक ठीक शीर्षक वाले गुरु-व्यक्ति के ही हैं; ये बात साबित कर ली गई है।

दर्पण-भाव

वार का भाव
पउड़ी वार:
सृष्टि की रचना करके इसमें हर जगह प्रभु खुद मौजूद है, सबकी पालना स्वयं ही करता है, सब जीव उसने, मानो, एक धागे में परोए हुए हैं, उसकी रजा के अनुसार ही कई जीव जगत के विकारों में ख्वार हो रहे हैं और जिनपे वह मेहर करता है वह उसका स्मरण करके संसार समुंदर के विकारों की लहरों में से बच निकलते हैं।
बड़े-बड़े देवताओं से ले के सारे जीव-जंतु प्रभु की महिमा करते हैं, ताने-पेटे की तरह परमात्मा सब जीवों में मिला हुआ है, जिधर-जिधर लगाता है उधर-उधर जीव लगते हैं, जिनपे प्रभु स्वयं मेहरवान होता है वही उसकी बंदगी करते हैं।
मनुष्य की अपनी चतुराई सियानप काम नहीं देती, मनुष्य खुद तो बल्कि भले कार्य करने में आलस ही करता है, जिसपे प्रभु की मेहर की नजर हो उसको गुरमुखों की संगत मिलाता है, जहाँ वह सेवा करता है और महिमा सुनता है।
जो प्रभु एक छिन में कुदरति के अनेक करिश्में रच देता है, जो सब जीवों के दिल की हर वक्त जानता है, वह जिस मनुष्य पर रहम करता है उसको अपनी याद में जोड़ता है और विकारों से बचाता है वह मनुष्य इन विकारों के आगे मानव-जन्म की बाजी हार के नहीं जाता।
जगत में कामादिक और कई विकार और बलाएं हैं जो मनुष्य को हर समय चिपके रहते हैं, कई किस्म के फिक्र-आशंकाएं इसे लगी रहती हैं। पर, जिसको सतिगुरु उपदेश देता है वह मनुष्य नाम स्मरण करके इन विकारों और अंदेशों से बच जाता है, क्योंकि वह संतोषी जीवन वाला हो जाता है, पर ऐसे भाग्यशाली होते कुछ विरले ही हैं।
जो मनुष्य अपनी समझदारियां छोड़ के अपना मन गुरु के हवाले कर देता है, उसकी दुमर्ति नाश हो जाती है, वह जगत के विकारों में नहीं फँसता, कोई बुरा काम नहीं करता, जिसके कारण उसको परलोक में कोई डर-खतरा हो। ‘नाम’ की इनायत से उसके मन को संतोष प्राप्त होता है, पर गुरु की शरण वही मनुष्य आता है जिस पर धुर से मेहर हो।
गुरु के पास प्रभु की महिमा का खजाना है जो प्रभु की मेहर से मिलता है, सतिगुरु जिस मनुष्य पर मेहर की नजर करता है उसकी भटकना समाप्त हो जाती है क्योंकि प्रभु चरणों का प्यार उसको जगत के सारे खजानों से ज्यादा कीमती दिखता है, कोई मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।
जो मनुष्य सतिगुरु की मति लेता है उसको प्रभु का ज्ञान प्राप्त होता है, ज्यों-ज्यों वह नाम स्मरण करता है उसके सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं, उसके मन में ठंड पड़ जाती है; अहंकार दूर करने के कारण कोई रुकावट उसके राह में नहीं आती।
जो मनुष्य साधु-संगत में पहुँचता है, गुरमुखों का दर्शन करता है उसके मन की मैल काटी जाती है, उसके मन में प्रभु-स्मरण का उत्साह पैदा होता है, वह विकारों की ओर नहीं पलटता, क्योंकि वह स्वाश-स्वाश नाम स्मरण करता है, पर, साधु-संगत भी प्रभु की मेहर से ही मिलती है।
जिस मनुष्य को गुरु मिल जाए, वह दुखों की मार से बच जाता है, जूनियों में नहीं पड़ता, हर जगह उसको परमात्मा ही दिखता है, विकारों की तरफ से वह अपनी रुचि समेट लेता है। एक बार प्रभु की हजूरी में स्वीकार हो के वह पुनः खोट नहीं करता (कुमार्ग पर नहीं जाता)।
जगत की सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है। उसके ‘नाम’ का खजाना भी उसके ही अपने ही वश में है, वह जिसपे प्रसन्न होता है और नाम की दाति देता है, वही नाम स्मरण करता है।
प्रभु की ये अपनी रजा है कि कोई जीव विकारों में प्रवृति हैं और कोई स्मरण में। मनुष्य की अपनी कोई चतुराई अथवा प्रयास कारगर नहीं हो सकते। जो मनुष्य परमात्मा का आसरा देखता है, प्रभु की शरण पड़ता है उस पर दयाल हो के प्रभु नाम की दाति देता है।
दयाल हो के प्रभु जिसके हृदय में नाम-जपने की दाति दे के ठंड पहुँचाता है, उसके सारे रोने समाप्त हो जाते हैं, गुरु के प्रताप से उसके सारे रोग दूर हो जाते हैं, माया वाले बंधन काटे जाते हैं और उसका जीवन संतोष वाला हो जाता है।
प्रभु की मेहर से जो जो मनुष्य ‘नाम’ स्मरण करते हैं, ‘नाम’ उनकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, दिन रात ‘नाम’ अमृत से ही वह माया की ओर से तृप्त रहते हैं, इस वास्ते कोई दुख दर्द रोग उन्हें छू नहीं सकता।
कामादिक विकार बड़े सूरमें बली योद्धे हैं, साधारण त्रैगुणी जीव तो कहीं रहे, ये बड़े-बड़े त्यागियों को भी धराशाही कर देते हैं, सब को जीत-जीत के अपनी प्रजा बना लेते हैं; माया की खातिर भटकना और माया का मोह इन शूरवीरों (विकारों) का, मानो, किला और किले के चौगिर्दे की गहरी खाई है। इनसे बचने का एक ही तरीका है: सतिगुरु की ओट।
‘भरमगढ़’ में कैद हुए जीव को कामादिकों से सतिगुरु ही छुड़वाता है, गुरु मनुष्य को प्रभु के नाम का खजाना देता है; ‘नाम’ ऐसी दवाई है जिससे बड़े से बड़ा भयानक रोग नाश हो जाता है।
जिस मनुष्य के मन में परमात्मा बस जाता है उसका मन हर समय खिला रहता है, उसे किसी विकार आदि से डर-खतरा नहीं रहता क्योंकि उसे यकीन आ जाता है कि जो कुछ हो रहा है परमात्मा की रजा में हो रहा है और परमात्मा बंदगी करने वाले को स्वयं हाथ दे के बचाता है।
जिस मनुष्यों को प्रभु अपने ‘नाम’ की दाति देता है, उनकी दुमर्ति, भ्रम और भय दूर हो जाते हैं। ना ही वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ते हैं, ना ही कोई ऐसा काम करते हैं जिसके कारण पछताना पड़े; वे हर वक्त प्रभु के नाम को हृदय में परोए रखते हैं।
सरब-निवासी प्रभु जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, उससे नाम-जपने की कमाई स्वयं ही करवाता है, जिसके हृदय में बसता है उसका जीवन सुखी हो जाता है। पर, वही मनुष्य स्मरण करता है, जो सतिगुरु का आसरा लेता है।
जो मनुष्य परमात्मा के हो के रहते हैं उन्हें प्रभु विकारों दुखों से इस तरह बचा लेता है, मानो, उन्हें गले से लगा लेता है, कोई विकार दुख उनपे दबाव नहीं डाल सकते। पर, जो लोग गुरमुखों की निंदा करते हैं, उनके अंदर शांति नहीं होती, वह, मानो, घोर नर्क में जल रहे हैं।
परमात्मा का स्मरण करने से दुनियावी झोरे (चिन्ता-फिक्र) खत्म हो जाते हैं, मनुष्य की आत्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है, उसके हृदय में सुख, अडोलता और खुशी आ बसती है, प्रभु और भक्त एक रूप हो जाते हैं।
समूचा भाव:
(1 से 4 तक) बड़े-बड़े लोगों से ले के सारे जीव इस रंगा-रंग जगत के रचनहार कर्तार ने अपने हुक्म रूपी धागे में परोए हुए हैं, ताने-पेटे की तरह वह सब में मिला हुआ है। सबके दिलों की वह हर वक्त जानता है, ये उसकी अपनी रजा ही है कि कई जीव विकारों में ख्वार हो रहे हैं, मनुष्य की कोई चतुराई-समझदारी इसको बचा नहीं सकती, जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको अपनी याद और महिमा में जोड़ता है।
(5 से 10 तक) जिस मनुष्य पर परमात्मा की कृपा-दृष्टि होती है उस भाग्यशाली को सतिगुरु की संगति नसीब होती है, गुरु के पास प्रभु की महिमा का, मानो, खजाना है, ज्यों-ज्यों मनुष्य अपना मन गुरु के हवाले करता है, उसकी दुमर्ति नाश होती है, प्रभु-चरणों का प्यार उसको जगत के सारे खजानों से ज्यादा प्यारा लगता है, नाम स्मरण से उसके मन में ठंड पड़ती है, संतोष आता है, विकारों की तरफ से वह अपनी रुचि समेट लेता है, इस तरह एक बार प्रभु की हजूरी में स्वीकार हो के वह दुबारा बुराई की ओर नहीं जाता।
(11 से 16 तक) जगत की सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है, जीवों का विकारों में प्रवृति होना भी प्रभु की ही अपनी रजा है, जीव की चतुराई कारगर नहीं हो सकती, ये कामादिक विकार इतने बली है कि बड़े-बड़े त्यागी भी इनके आगे धराशाही होजाते हैं। एक ही बचाव है: प्रभु की मेहर से सतिगुरु की ओट। गुरु, मनुष्य को ‘नाम’ का खजाना देता है; ‘नाम’ ऐसी दवाई है जिससे बड़े से बड़े असाध आत्मिक रोग नाश हो जाते हैं।
(17 से 21 तक) ‘नाम’ की इनायत से मनुष्य का मन प्रफुल्लित रहता है, जीवन सुखी हो जाता है, कोई विकार दुख आदि उस पर दबाव नहीं डाल सकता, ‘नाम’ में मन हर समय परोया रहने के कारण बंदगी वाला मनुष्य और परमात्मा एक-रूप हो जाते हैं।
मुख्य भाव:
ये सारा बहुरंगी जगत ईश्वर ने खुद रचा है, विकारों का अस्तित्व भी उसी की रजा के मुताबिक है। पर, ये विकार इतने बली है कि मनुष्य अपनी चतुराई से इनसे बच नहीं सकता। जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है वह गुरु की शरण पड़ कर ‘नाम’ स्मरण करता है, ‘नाम’ की इनायत से कोई विकार दबाव नहीं डाल सकता, जीवन सुखी हो जाता है और मनुष्य प्रभु का रूप हो जाता है।

दर्पण-टिप्पनी

वार की संरचना
ये ‘वार’ गुरु अर्जुन साहिब जी की रची हुई है, इसमें ‘21’ पउड़ियां हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो-दो शलोक हैं, सारे शलोकों की गिनती 42 है, और ये सारे शलोक भी गुरु अर्जुन साहिब जी के ही हैं।
हरेक ‘पौड़ी’ में आठ-आठ तुकें हैं सिर्फ पौड़ी नंबर 20 में पाँच तुकें हैं। पहली और बीसवीं पौड़ी छोड़ के बाकी सारी पौड़ियों के साथ बरते गए शलाक दो-दो तुकों के हैं (दूसरी पौड़ी का पहला शलोक भी चार तुकों का है), इन 37 शलोकों में पश्चिमी पंजाब की बोली (लहंदी बोली, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) के शब्द ज्यादा मिलते हैं। शलोकों की बाँट, एक जैसी दो तुकी संरचना, एक जैसा विषय-वस्तु, सारे ही शलोकों और पौड़ियों का एक ही गुरु साहिबान का होना; इन बातों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये ‘वार’ और इसके साथ बरते गए ‘शलोक’ एक ही वक्त पे उचारे गए हैं। ‘आसा की वार’ में ये बात नहीं है, एक तो वहाँ शलोकों के विषय-वस्तु अलग-अलग हैं, दूसरे, पौड़ियों के बरते गए शलोकों की बाँट भी एक जैसी नहीं है, तीसरे, कई पौड़ियों के साथ गुरु नानक देव जी का अपना उचारा हुआ शलोक भी नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गूजरी वार महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गूजरी वार महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ५ ॥ अंतरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ ॥ नेत्री सतिगुरु पेखणा स्रवणी सुनणा गुर नाउ ॥ सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाईऐ ठाउ ॥ कहु नानक किरपा करे जिस नो एह वथु देइ ॥ जग महि उतम काढीअहि विरले केई केइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ५ ॥ अंतरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ ॥ नेत्री सतिगुरु पेखणा स्रवणी सुनणा गुर नाउ ॥ सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाईऐ ठाउ ॥ कहु नानक किरपा करे जिस नो एह वथु देइ ॥ जग महि उतम काढीअहि विरले केई केइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = मन में। आराधणा = याद करना। गुर नाउ = गुरु का नाम। स्रवणी = कानों से। सेती = से। रतिआ = रंग के, प्यार करने से। वथु = चीज। काढीअहि = कहलवाते हैं।1।
अर्थ: अगर अपने गुरु (के प्यार) में रंगे जाएं तो (प्रभु की) हजूरी में जगह मिलती है। मन में गुरु को याद करना, जीभ से गुरु का नाम जपना, आँखों से गुरु को देखना, कानों से गुरु का नाम सुनना- ये दाति, कह, हे नानक! उस मनुष्य को प्रभु देता है जिस पर मेहर करता है, ऐसे बंदे जगत में श्रेष्ठ कहलवाते हैं, (पर ऐसे होते) कोई विरले-विरले हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ रखे रखणहारि आपि उबारिअनु ॥ गुर की पैरी पाइ काज सवारिअनु ॥ होआ आपि दइआलु मनहु न विसारिअनु ॥ साध जना कै संगि भवजलु तारिअनु ॥ साकत निंदक दुसट खिन माहि बिदारिअनु ॥ तिसु साहिब की टेक नानक मनै माहि ॥ जिसु सिमरत सुखु होइ सगले दूख जाहि ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ रखे रखणहारि आपि उबारिअनु ॥ गुर की पैरी पाइ काज सवारिअनु ॥ होआ आपि दइआलु मनहु न विसारिअनु ॥ साध जना कै संगि भवजलु तारिअनु ॥ साकत निंदक दुसट खिन माहि बिदारिअनु ॥ तिसु साहिब की टेक नानक मनै माहि ॥ जिसु सिमरत सुखु होइ सगले दूख जाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रखणहारि = रक्षा करने वाले (प्रभु) ने। उबारिअनु = बचा लिए उस (प्रभु) ने। सवारिअनु = सवार दिए उस ने। मनहु = मन से। विसारिअनु = विसार दिए उस ने। भवजलु = संसार समुंदर। तारिअनु = तारे उस ने। साकतु = टूटे हुए, विछुड़े हुए। बिदारिअनु = नाश कर दिए उस ने।2।
अर्थ: रक्षा करने वाले परमात्मा ने जिस लोगों की मदद की, उनको उसने खुद (विकारों से) बचा लिया है। उनको गुरु के पैरों पे डाल के उनके सारे काम उसने सवार दिए हैं। जिस पर प्रभु स्वयं दयालु हुआ है, उनको उसने (अपने) मन से विसारा नहीं, उनको गुरमुखों की संगति में (रख के) संसार-समुंदर पार करवा दिया।
जो उसके चरणों से टूटे हुए हैं, जो निंदा करते रहते हैं, जो गंदे आचरण वाले हैं, उनको एक पल में उसने मार दिया है।
नानक के मन में भी उस मालिक का आसरा है जिसको स्मरण करने से सुख मिलता है और सारे दुख दूर हो जाते हैं।2।

[[0518]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ अकुल निरंजन पुरखु अगमु अपारीऐ ॥ सचो सचा सचु सचु निहारीऐ ॥ कूड़ु न जापै किछु तेरी धारीऐ ॥ सभसै दे दातारु जेत उपारीऐ ॥ इकतु सूति परोइ जोति संजारीऐ ॥ हुकमे भवजल मंझि हुकमे तारीऐ ॥ प्रभ जीउ तुधु धिआए सोइ जिसु भागु मथारीऐ ॥ तेरी गति मिति लखी न जाइ हउ तुधु बलिहारीऐ ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ अकुल निरंजन पुरखु अगमु अपारीऐ ॥ सचो सचा सचु सचु निहारीऐ ॥ कूड़ु न जापै किछु तेरी धारीऐ ॥ सभसै दे दातारु जेत उपारीऐ ॥ इकतु सूति परोइ जोति संजारीऐ ॥ हुकमे भवजल मंझि हुकमे तारीऐ ॥ प्रभ जीउ तुधु धिआए सोइ जिसु भागु मथारीऐ ॥ तेरी गति मिति लखी न जाइ हउ तुधु बलिहारीऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकुल = अ+कुल, जिस का कोई खास कुल नहीं। निरंजन = निर+अंजन, जिसे माया की कालिख नहीं लग सकती। पुरखु = जो सब में मौजूद है। अगमु = जिस तक पहुँच ना हो सके, अगम्य (पहुँच से परे)। अपारीऐ = अ+पार, जिसका परला छोर ना मिल सके। सचा = सदा-स्थिर रहने वाला। निहारीऐ = देखता है। न जापै = नहीं प्रतीत होती, मालूम नहीं होती। धारीऐ = बनाई हुई है। दे = देता है। जेत = जितनी (सृष्टि)। इकतु सूति = एक ही धागे में। संजारीऐ = मिला दी है। मथारीऐ = माथे पर। गति = हालत। मिति = मिनती, अंदाजा।1।
अर्थ: हे परमात्मा! तेरी कोई खास कुल नहीं, माया की कालिख तुझे लग नहीं सकती, (तू) सब में मौजूद है, अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत है, तू सदा ही कायम रहने वाला और सच-मुच हस्ती वाला देखने में आता है, सारी सृष्टि तेरी ही रची हुई है (इसमें भी) कोई चीज फर्जी (भाव, मनघड़ंत) नहीं प्रतीत होती।
(जितनी भी) सृष्टि प्रभु ने पैदा की है (इस में) सब जीवों को दातार प्रभु (दातें) देता है; सब को एक ही (हुक्म रूपी) धागे में परो के (सब में उसने अपनी) ज्योति मिलाई हुई है; अपने हुक्म के अंदर ही (उसने जीवों को) संसार समुंदर में (फसाया हुआ है और) हुक्म के अंदर ही (इस में से) पार लंघाता है।
हे प्रभु जी! तुझे वही मनुष्य स्मरण करता है, जिसके माथे पर भाग्य हों; ये बात बयान नहीं की जा सकती कि तू कैसा है और कितना बड़ा है, मैं तुझसे सदके हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ५ ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान अचिंतु वसहि मन माहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान नउ निधि घर महि पाहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान ता गुर का मंत्रु कमाहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान ता नानक सचि समाहि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ५ ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान अचिंतु वसहि मन माहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान नउ निधि घर महि पाहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान ता गुर का मंत्रु कमाहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान ता नानक सचि समाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुसहि = प्रसन्न होता है। अचिंतु = अचानक ही, सोच के प्रयत्न के बिना ही। वसहि = तू आ बसता है। निधि = खजाने। मंत्रु = उपदेश। सचि = सच में।1।
अर्थ: हे मेहरवान प्रभु! अगर तू प्रसन्न हो जाए तो तू सहज सुभाय ही (जीवों के) मन में आ बसता है, जीव, मानो, नौ खजाने (हृदय) घर में ही पा लेते हैं; सतिगुरु का शब्द कमाने लग पड़ते हैं, और, हे नानक! जीव सत्य में लीन हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ किती बैहन्हि बैहणे मुचु वजाइनि वज ॥ नानक सचे नाम विणु किसै न रहीआ लज ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ किती बैहन्हि बैहणे मुचु वजाइनि वज ॥ नानक सचे नाम विणु किसै न रहीआ लज ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किती = कई जीव। बैहन्हि = बैठते हैं। बैहण = बैठने की जगह। बैहणे = जगह पर। मुचु = बहुत। वज = बाजे। लज = लज्जा, इज्ज्त।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बैहनि् अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (इस जगत में) बेअंत जीव इन जगहों पर बैठ गए हैं और बहुत बाजे बजा गए हैं, पर सच्चे नाम से वंचित रह के किसी की भी इज्जत नहीं रही।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तुधु धिआइन्हि बेद कतेबा सणु खड़े ॥ गणती गणी न जाइ तेरै दरि पड़े ॥ ब्रहमे तुधु धिआइन्हि इंद्र इंद्रासणा ॥ संकर बिसन अवतार हरि जसु मुखि भणा ॥ पीर पिकाबर सेख मसाइक अउलीए ॥ ओति पोति निरंकार घटि घटि मउलीए ॥ कूड़हु करे विणासु धरमे तगीऐ ॥ जितु जितु लाइहि आपि तितु तितु लगीऐ ॥२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तुधु धिआइन्हि बेद कतेबा सणु खड़े ॥ गणती गणी न जाइ तेरै दरि पड़े ॥ ब्रहमे तुधु धिआइन्हि इंद्र इंद्रासणा ॥ संकर बिसन अवतार हरि जसु मुखि भणा ॥ पीर पिकाबर सेख मसाइक अउलीए ॥ ओति पोति निरंकार घटि घटि मउलीए ॥ कूड़हु करे विणासु धरमे तगीऐ ॥ जितु जितु लाइहि आपि तितु तितु लगीऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कतेबा = तौरेत, जबूर, अंजील, कुरान। सणु = समेत। इंद्रासणा = इंद्र के आसन वाले। शंकर = शिव। मुखि = मुँह से। भणा = उचारते हैं। पिकाबर = पैगंबर। मसाइक = कई शेख। अउलीए = वली। ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ। ओति पोति = जैसे ताना और पेटा आपस में मिले हुए हैं। मउलीए = मौल रहा है, प्रफुल्लि्त है। तगीऐ = आखिर तक निभाते हैं।2।
अर्थ: हे प्रभु! (तौरेत, जंबूर, अंजील, कुरान) कतेबों समेत वेद (भाव, हिंदू मुसलमान आदि सारे मतों के धर्म-पुस्तक) तुझे खड़े स्मरण कर रहे हैं, इतने जीव तेरे दर पर गिरे हुए हैं कि उनकी गिनती नहीं गिनी जा सकती। कई ब्रहमा और सिहांसनों वाले कई इंद्र तुझे ध्याते हैं। हे हरि! कई शिव और विष्णु के अवतार तेरा यश मुँह से उचार रहे हैं, कई पीर, पैग़ंबर, बेअंत शेख और वली (तेरे गुण गा रहे हैं)। हे निरंकार! ताने-पेटे की तरह हरेक शरीर में तू मौल रहा है।
(हे प्रभु!) झूठ के कारण (जीव अपने आप का) नाश कर लेता है, धर्म के द्वारा (तेरे साथ जीवों की) आखिर तक निभ जाती है। पर, जिधर जिधर तू स्वयं लगाता है, उधर उधर ही लग सकते हैं (जीवों के वश की बात नहीं है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ५ ॥ चंगिआईं आलकु करे बुरिआईं होइ सेरु ॥ नानक अजु कलि आवसी गाफल फाही पेरु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ५ ॥ चंगिआईं आलकु करे बुरिआईं होइ सेरु ॥ नानक अजु कलि आवसी गाफल फाही पेरु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आलकु = आलस। सेरु = भाव, दलेर। अजु कलि = जल्दी ही। आवसी = आ जाएगा। गाफल पेरु = गाफल मनुष्य का पैर। फाही = फाही, मौत की फाही में।1।
अर्थ: (गाफल मनुष्य) अच्छे कामों में आलस करता है और बुरे कामों में शेर होता है; पर, हे नानक! गाफल का पैर जल्दी ही मौत की फाँसी में आ जाता है (भाव, मौत आ दबोचती है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ कितीआ कुढंग गुझा थीऐ न हितु ॥ नानक तै सहि ढकिआ मन महि सचा मितु ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ कितीआ कुढंग गुझा थीऐ न हितु ॥ नानक तै सहि ढकिआ मन महि सचा मितु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कितिआ = कई, कितने ही। कुढंग = बुरे ढंग, खोटे कर्म। गुझा = छुपा हुआ। तै सहि = तुझ पति ने। सहि = सहु ने।2।
अर्थ: हे नानक के प्रभु! हमारे कई खोटे कर्म और खोटे कर्मों का लेख तुझसे छुपा नहीं हुआ; तू ही हमारे मन में सच्चा मित्र है (भाव, तू ही हमें सच्चा मित्र दिखता है), तूने हमारे उन खोटे कर्मों पर पर्दा डाल रखा है (भाव, हमें जगत में बदनाम नहीं होने देता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हउ मागउ तुझै दइआल करि दासा गोलिआ ॥ नउ निधि पाई राजु जीवा बोलिआ ॥ अम्रित नामु निधानु दासा घरि घणा ॥ तिन कै संगि निहालु स्रवणी जसु सुणा ॥ कमावा तिन की कार सरीरु पवितु होइ ॥ पखा पाणी पीसि बिगसा पैर धोइ ॥ आपहु कछू न होइ प्रभ नदरि निहालीऐ ॥ मोहि निरगुण दिचै थाउ संत धरम सालीऐ ॥३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ हउ मागउ तुझै दइआल करि दासा गोलिआ ॥ नउ निधि पाई राजु जीवा बोलिआ ॥ अम्रित नामु निधानु दासा घरि घणा ॥ तिन कै संगि निहालु स्रवणी जसु सुणा ॥ कमावा तिन की कार सरीरु पवितु होइ ॥ पखा पाणी पीसि बिगसा पैर धोइ ॥ आपहु कछू न होइ प्रभ नदरि निहालीऐ ॥ मोहि निरगुण दिचै थाउ संत धरम सालीऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधि = खजाना। बोलिआ = (तेरा नाम) उचारने से। घणा = बहुत। स्रवणी = कानों से। पीसि = (चक्की) पीस के। बिगसा = मैं खुश होता हूँ। आपहु = मेरे अपने पास से। निहालीऐ = देख। मोहि = मुझे। धरमसालीऐ = धर्म स्थान में, सत्संग में।3।
अर्थ: हे दया के घर प्रभु! मैं तुझसे (ये) माँगता हूँ (कि मुझे अपने) दासों का दास बना ले; तेरा नाम उचारने से ही मैं जीता हूँ, (और, जैसे,) नौ खजाने और (धरती का) राज पा लेता हूँ। ये अमृत-नाम रूपी खजाना तेरे सेवकों के घर में बहुत है; जब मैं उनकी संगति में (बैठ के, अपने) कानों से (तेरा) जस सुनता हूँ, मैं निहाल हो जाता हूँ। (ज्यों ज्यों) मैं उनकी सेवा करता हूँ, (मेरा) शरीर पवित्र हो जाता है, (उन्हें) पंखा करके (उनके लिए) पानी ढो के, (चक्की) पीस के, (और उनके) पैर धो के मैं खुश होता हूँ।
पर, हे प्रभु! मुझसे अपने आप से कुछ नहीं हो सकता, तू ही मेरी तरफ मेहर की नजर से देख, और मुझ गुण-हीन को संतों की संगति में जगह दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धूरि = धूल, ख़ाक। पेखउ = देखूँ। हजूरि = अंग संग, अपने साथ।1।
अर्थ: हे नानक! (ऐसे कह, कि) हे सज्जन! मैं सदा तेरे पैरों की ख़ाक होया रहूँ, मैं तेरी शरण पड़ा रहूँ और तुझे अपने अंग संग देखूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ पतित पुनीत असंख होहि हरि चरणी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ जिसु नानक मसतकि भाग ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ पतित पुनीत असंख होहि हरि चरणी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ जिसु नानक मसतकि भाग ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। असंख = बेअंत (जीव)। अठसठि = अढ़सठ। मसतकि = माथे पर।2।
अर्थ: (विकारों में) गिरे हुए भी बेअंत जीव पवित्र हो जाते हैं अगर उनका मन प्रभु के चरणों में लग जाए, प्रभु का नाम ही अढ़सठ तीर्थ है। पर, हे नानक! (ये नाम उस मनुष्य को मिलता है) जिसके माथे पर भाग्य (लिखे) हैं।2।

[[0519]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ नित जपीऐ सासि गिरासि नाउ परवदिगार दा ॥ जिस नो करे रहम तिसु न विसारदा ॥ आपि उपावणहार आपे ही मारदा ॥ सभु किछु जाणै जाणु बुझि वीचारदा ॥ अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा ॥ जिस नो लाइ सचि तिसहि उधारदा ॥ जिस दै होवै वलि सु कदे न हारदा ॥ सदा अभगु दीबाणु है हउ तिसु नमसकारदा ॥४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ नित जपीऐ सासि गिरासि नाउ परवदिगार दा ॥ जिस नो करे रहम तिसु न विसारदा ॥ आपि उपावणहार आपे ही मारदा ॥ सभु किछु जाणै जाणु बुझि वीचारदा ॥ अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा ॥ जिस नो लाइ सचि तिसहि उधारदा ॥ जिस दै होवै वलि सु कदे न हारदा ॥ सदा अभगु दीबाणु है हउ तिसु नमसकारदा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि = सांस से। गिरासि = ग्रास से। सासि गिरासि = साँस लेते हुए और खाते हुए। परवदिगार = पालने वाला। रहंम = रहम, तरस। जाणु = अंतरयामी। बुझि = समझ के। सचि = सच में। अभगु = अ+भगु, ना नाश होने वाला। दीबाणु = दरबार।4।
अर्थ: (हे भाई!) पालनहार प्रभु का नाम साँस लेते हुए खाते हुए हर वक्त जपना चाहिए। वह प्रभु जिस बंदे पर मेहर करता है उसको (अपने मन में से) नहीं भुलाना, वह स्वयं जीवों को पैदा करने वाला है और स्वयं ही मारता है, वह अंतरजामी (जीवों के दिल की) हरेक बात जानता है और उसको समझ के (उस पर) विचार भी करता है, एक पलक में कुदरत के अनेक रूप बना देता है, जिस मनुष्य को वह सच में जोड़ता है उसको (विकारों से) बचा लेता है।
प्रभु जिस जीव के पक्ष में हो जाता है वह जीव (विकारों के मुकाबले और मानव जनम की बाजी) कभी नहीं हारता, उस प्रभु का दरबार सदा अटल है, मैं उसको नमस्कार करता हूँ।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु छोडीऐ दीजै अगनि जलाइ ॥ जीवदिआ नित जापीऐ नानक साचा नाउ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु छोडीऐ दीजै अगनि जलाइ ॥ जीवदिआ नित जापीऐ नानक साचा नाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! काम क्रोध और लोभ (आदि विकार) छोड़ देने चाहिए, (इन्हें) आग में जला दें, जब तक जीवित हैं (प्रभु का) सच्चा नाम सदा स्मरण करते रहें।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ सिमरत सिमरत प्रभु आपणा सभ फल पाए आहि ॥ नानक नामु अराधिआ गुर पूरै दीआ मिलाइ ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ सिमरत सिमरत प्रभु आपणा सभ फल पाए आहि ॥ नानक नामु अराधिआ गुर पूरै दीआ मिलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आहि = हैं। गुरि = गुरु ने।2।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने पूरे गुरु के द्वारा प्रभु का नाम स्मरण किया है, गुरु ने उसको प्रभु के साथ मिला दिया है, और प्यारा प्रभु स्मरण करके उसने सारे फल हासिल कर लिए हैं (भाव, दुनियावी सारी ही वासनाएं उसकी समाप्त हो गई हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सो मुकता संसारि जि गुरि उपदेसिआ ॥ तिस की गई बलाइ मिटे अंदेसिआ ॥ तिस का दरसनु देखि जगतु निहालु होइ ॥ जन कै संगि निहालु पापा मैलु धोइ ॥ अम्रितु साचा नाउ ओथै जापीऐ ॥ मन कउ होइ संतोखु भुखा ध्रापीऐ ॥ जिसु घटि वसिआ नाउ तिसु बंधन काटीऐ ॥ गुर परसादि किनै विरलै हरि धनु खाटीऐ ॥५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सो मुकता संसारि जि गुरि उपदेसिआ ॥ तिस की गई बलाइ मिटे अंदेसिआ ॥ तिस का दरसनु देखि जगतु निहालु होइ ॥ जन कै संगि निहालु पापा मैलु धोइ ॥ अम्रितु साचा नाउ ओथै जापीऐ ॥ मन कउ होइ संतोखु भुखा ध्रापीऐ ॥ जिसु घटि वसिआ नाउ तिसु बंधन काटीऐ ॥ गुर परसादि किनै विरलै हरि धनु खाटीऐ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारि = संसार में। जि = जिस को। गुरि = गुरु ने। बलाइ = बिपता। ओथै = ‘जन’ की संगत में। ध्रापीऐ = त्प्त हो जाता है। जिसु घटि = जिसके हृदय में। भुखा = तृष्णा का मारा हुआ।5।
अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु ने उपदेश दिया है वह जगत में (रहता हुआ ही माया के बंधनों से) आजाद है; उसकी बिपता दूर हो जाती है, उसके फिक्र मिट जाते हैं, उसका दर्शन करके (सारा) जगत निहाल हो जाता है, उस जन की संगत में जीव पापों की मैल धो के निहाल होता है; उसकी संगति में अमर करने वाला सच्चा नाम स्मरण करते हैं, तृष्णा का मारा हुआ बंदा भी वहाँ तृप्त हो जाता है, उसके मन को संतोष आ जाता है।
जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु का नाम आ बसता है उसके (माया वाले) बंधन काटे जाते हैं, पर, किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से नाम-धन कमाया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ मन महि चितवउ चितवनी उदमु करउ उठि नीत ॥ हरि कीरतन का आहरो हरि देहु नानक के मीत ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ मन महि चितवउ चितवनी उदमु करउ उठि नीत ॥ हरि कीरतन का आहरो हरि देहु नानक के मीत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितवउ = मैं सोचता हूँ। चितवनी = सोच। करउ = करूँ। उठि = उठ के।1।
अर्थ: मैं अपने मन में (ये) सोचता हूँ कि नित्य (सवेरे) उठ के उद्यम करूँ। हे नानक के मित्र! मुझे अपनी महिमा का आहर बख्श।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ द्रिसटि धारि प्रभि राखिआ मनु तनु रता मूलि ॥ नानक जो प्रभ भाणीआ मरउ विचारी सूलि ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ द्रिसटि धारि प्रभि राखिआ मनु तनु रता मूलि ॥ नानक जो प्रभ भाणीआ मरउ विचारी सूलि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिसटि = (मेहर की) नजर। प्रभि = प्रभु ने। मूलि = मूल में, कर्तार में। प्रभ भाणीआ = प्रभु को अच्छी लगती हैं। मरउ = मैं कर रही हूँ। सूलि = दुख में।2।
अर्थ: हे नानक! जो (जीव-स्त्रीयां) प्रभु को भा गई हैं, जिनको प्रभु ने मेहर की नजर करके रख लिया है उनका मन और तन प्रभु में रंगा रहता है, पर मैं अभागिन दुख में मर रही हूँ (हे प्रभु! मेरे पर कृपा कर)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जीअ की बिरथा होइ सु गुर पहि अरदासि करि ॥ छोडि सिआणप सगल मनु तनु अरपि धरि ॥ पूजहु गुर के पैर दुरमति जाइ जरि ॥ साध जना कै संगि भवजलु बिखमु तरि ॥ सेवहु सतिगुर देव अगै न मरहु डरि ॥ खिन महि करे निहालु ऊणे सुभर भरि ॥ मन कउ होइ संतोखु धिआईऐ सदा हरि ॥ सो लगा सतिगुर सेव जा कउ करमु धुरि ॥६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जीअ की बिरथा होइ सु गुर पहि अरदासि करि ॥ छोडि सिआणप सगल मनु तनु अरपि धरि ॥ पूजहु गुर के पैर दुरमति जाइ जरि ॥ साध जना कै संगि भवजलु बिखमु तरि ॥ सेवहु सतिगुर देव अगै न मरहु डरि ॥ खिन महि करे निहालु ऊणे सुभर भरि ॥ मन कउ होइ संतोखु धिआईऐ सदा हरि ॥ सो लगा सतिगुर सेव जा कउ करमु धुरि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरथा = (संस्कृत: व्यथा) पीड़ा, दुख। अरपि धरि = हवाले कर दे। दुरमति = बुरी मति। जरि जाइ = जल जाती है। बिखमु = मुश्किल। अगै = परलोक में। ऊणे = कमी, खाली। सुभर = नाको नाक। करमु = बख्शिश। धुरि = धुर से, प्रभु की दरगाह में से।6।
अर्थ: (हे भाई!) दिल का जो दुख हो वह अपने सतिगुरु के आगे विनती कर, अपनी सारी चतुराई छोड़ दे और मन तन गुरु के हवाले कर दे। सतिगुरु के पैर पूज (भाव, गुरु का आसरा ले, इस तरह) बुरी मति (रूपी ‘व्यथा) जल जाती है, गुरमुखों की संगति में ये मुश्किल संसार समुंदर तैर जाते हैं।
(हे भाई!) गुरु के बताए हुए राह पर चलो, परलोक में डर-डर के नहीं मरोगे, गुरु (गुणों से) विहीन बंदों को (गुणों से) नाको-नाक भर के एक पल में निहाल कर देता है, (गुरु के द्वारा अगर) सदा प्रभु को स्मरण करें तो मन को संतोष आता है। पर, गुरु की बताई सेवा में वही मनुष्य लगता है जिस पर धुर से बख्शिश हो।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ लगड़ी सुथानि जोड़णहारै जोड़ीआ ॥ नानक लहरी लख सै आन डुबण देइ न मा पिरी ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ लगड़ी सुथानि जोड़णहारै जोड़ीआ ॥ नानक लहरी लख सै आन डुबण देइ न मा पिरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुथानि = अच्छे ठिकाने पर। लहरी = लहरें। सै = सैकड़ों। आन = और-और, भाव, विकारों। मा पिरी = मेरा प्यारा।1।
अर्थ: (मेरी प्रीत) अच्छे ठिकाने पर (भाव, प्यारे प्रभु के चरणों में) अच्छी तरह लग गई है जोड़नहार प्रभु ने खुद जोड़ी है, (जगत में) सैकड़ों और लाखों और-और ही (विकारों की) लहरें चल रही हैं। पर, हे नानक! मेरा प्यारा (मुझे इन लहरों में) डूबने नहीं देता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ बनि भीहावलै हिकु साथी लधमु दुख हरता हरि नामा ॥ बलि बलि जाई संत पिआरे नानक पूरन कामां ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ बनि भीहावलै हिकु साथी लधमु दुख हरता हरि नामा ॥ बलि बलि जाई संत पिआरे नानक पूरन कामां ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भीहावले बनि = डरावने जंगल में। हिकु = एक। लधमु = मैंने ढूँढा है। हरता = नाश करने वाला। पूरन कामा = काम पूरा हो गया।2।
अर्थ: (संसार रूपी इस) डरावने जंगल में मुझे हरि नाम रूप एक ही साथी मिला है जो दुखों का नाश करने वाला है। हे नानक! मैं प्यारे गुरु से सदके हूँ (जिसकी मेहर से मेरा ये) काम सिरे चढ़ा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ पाईअनि सभि निधान तेरै रंगि रतिआ ॥ न होवी पछोताउ तुध नो जपतिआ ॥ पहुचि न सकै कोइ तेरी टेक जन ॥ गुर पूरे वाहु वाहु सुख लहा चितारि मन ॥ गुर पहि सिफति भंडारु करमी पाईऐ ॥ सतिगुर नदरि निहाल बहुड़ि न धाईऐ ॥ रखै आपि दइआलु करि दासा आपणे ॥ हरि हरि हरि हरि नामु जीवा सुणि सुणे ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ पाईअनि सभि निधान तेरै रंगि रतिआ ॥ न होवी पछोताउ तुध नो जपतिआ ॥ पहुचि न सकै कोइ तेरी टेक जन ॥ गुर पूरे वाहु वाहु सुख लहा चितारि मन ॥ गुर पहि सिफति भंडारु करमी पाईऐ ॥ सतिगुर नदरि निहाल बहुड़ि न धाईऐ ॥ रखै आपि दइआलु करि दासा आपणे ॥ हरि हरि हरि हरि नामु जीवा सुणि सुणे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाईअनि = पाए जाते हैं (व्याकरण के अनुसार ‘पाइनि’ से ‘कर्मवाच’ Passive Voice है)। वाहु वाहु = शाबाश। पहि = पास। करमी = (प्रभु की) मेहर से। बहुड़ि = फिर, दुबारा। धाईऐ = भटकते हैं। सुण सुणे = सुन सुन के।7।
अर्थ: (हे प्रभु!) अगर तेरे (प्यार के) रंग में रंगे जाएं तो, मानो, सारे खजाने मिल जाते हैं; तुझे स्मरण करते हुए (किसी बात से) पछताना नहीं पड़ता (भाव, कोई ऐसा बुरा काम नहीं कर सकते जिस कारण पछताना पड़े) जिस सेवकों को तेरा आसरा होता है उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। पर, हे मन! पूरे गुरु को शाबाश (कह, जिसके द्वारा ‘नाम’) स्मरण करके सुख मिलता है। महिमा का खजाना सतिगुरु के पास ही है, मिलता है परमात्मा की कृपा से। अगर सतिगुरु मेहर की नजर से देखे तो बारंबार नहीं भटकते।
दया का घर प्रभु खुद अपने सेवक बना के (इस भटकना से) बचाता है, मैं भी उस प्रभु का नाम सुन सुन के जी रहा हूँ।7।

[[0520]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ प्रेम पटोला तै सहि दिता ढकण कू पति मेरी ॥ दाना बीना साई मैडा नानक सार न जाणा तेरी ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ प्रेम पटोला तै सहि दिता ढकण कू पति मेरी ॥ दाना बीना साई मैडा नानक सार न जाणा तेरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पटोला = पाट/रेशम का कपड़ा, रेशमी कपड़ा। प्रेम पटोला = ‘प्रेम’ का रेशमी कपड़ा। तै सहि = तुझ पति ने। मैडा = मेरा। सार = कद्र।1।
अर्थ: मेरी नानक की इज्जत ढक के रखने के लिए (हे प्रभु!) तुमने ने मुझे अपना ‘प्यार’-रूप रेशमी कपड़ा दिया है, तू मेरा पति (मेरे दिल की) जानने वाला है, मैंने तेरी कद्र नहीं समझी।1। (पन्ना ५१९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ तैडै सिमरणि हभु किछु लधमु बिखमु न डिठमु कोई ॥ जिसु पति रखै सचा साहिबु नानक मेटि न सकै कोई ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ तैडै सिमरणि हभु किछु लधमु बिखमु न डिठमु कोई ॥ जिसु पति रखै सचा साहिबु नानक मेटि न सकै कोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तैडै सिमरणि = तेरे स्मरण से। हभु किछु = हरेक चीज। कोई बिखमु = कोई मुश्किल। जिसु = जिस की।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे स्मरण (की इनायत) से मैनें (मानो) हरेक पदार्थ ढूँढ लिया है (और जिंदगी में) कोई मुश्किल नहीं देखी। हे नानक! जिस मनुष्य की इज्जत मालिक खुद रखे, (उसकी इज्जत को और) कोई नहीं मिटा सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ होवै सुखु घणा दयि धिआइऐ ॥ वंञै रोगा घाणि हरि गुण गाइऐ ॥ अंदरि वरतै ठाढि प्रभि चिति आइऐ ॥ पूरन होवै आस नाइ मंनि वसाइऐ ॥ कोइ न लगै बिघनु आपु गवाइऐ ॥ गिआन पदारथु मति गुर ते पाइऐ ॥ तिनि पाए सभे थोक जिसु आपि दिवाइऐ ॥ तूं सभना का खसमु सभ तेरी छाइऐ ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ होवै सुखु घणा दयि धिआइऐ ॥ वंञै रोगा घाणि हरि गुण गाइऐ ॥ अंदरि वरतै ठाढि प्रभि चिति आइऐ ॥ पूरन होवै आस नाइ मंनि वसाइऐ ॥ कोइ न लगै बिघनु आपु गवाइऐ ॥ गिआन पदारथु मति गुर ते पाइऐ ॥ तिनि पाए सभे थोक जिसु आपि दिवाइऐ ॥ तूं सभना का खसमु सभ तेरी छाइऐ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दयि = प्यारा (प्रभु)। दयि धिआइऐ = अगर प्यारा प्रभु स्मरण किया जाए।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस पउड़ी में नीचे लिखे सारे ‘वाक्यांश’ ‘पूरब पूरन कारदंतक’ में ही हैं – गुण गाइअै, प्रभि आइअै नाइ वसाइअै; आपु गवाइअै, गुर ते पाइअै। निम्न-लिखित शब्दों का परस्पर अंतर याद रखा जाना चाहिए: धिआइअै, धिआईअै; गाइअै, गाईअै; आइअै, आईअै; वसाइअै, वसाईअै; गवाइअै, गवाईअै; पाइअै, पाईअै। धिआइअै = अगर स्मरण करें। धिआईअै = स्मरणा चाहिए। गाइअै = अगर गाएं। गाईअै = गाना चाहिए)। वंञै = नाश हो जाता है। ठाढि = ठंड, शांति। चिति = चिक्त में। मंनि = मन में। आपु = स्वै भाव। तिनि = उस मनुष्य ने। छाइअै = छाया के नीचे, साए में।
नोट: ‘नाइ’ शब्द ‘नाम’ से ‘अधिकरण कारक, एक वचन’ हैं।
नोट: ‘दयि धिआइअै’; व्याकरण अनुसार ये दोनों शब्द ‘अधिकरण कारक’ एकवचन हैं, वाक्यांश (Phrase) को अंग्रेजी में Locative Absolute कहते हैं और पंजाबी में ‘पूरब पूरन कारदंतक’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: यदि प्यारे प्रभु को स्मरण करें तो बहुत ही सुख होता है, अगर हरि के गुण गाएं तो रोगों के घाण (भाव, सारे ही रोग) नाश हो जाते हैं, अगर प्रभु चिक्त में आ बसे तो चिक्त में ठंड पड़ जाती है, अगर प्रभु का नाम मन में बस जाए तो आस पूरी हो जाती है (भाव, आशा-तृष्णा आदि मिट जाती है), अगर स्वैभाव गवा दें तो (जिंदगी की राह में) कोई मुश्किल नहीं आती; अगर सतिगुरु की मति हासिल करें तो (प्रभु के) ज्ञान का खजाना (मिल जाता है), पर ये सारे पदार्थ उस मनुष्य ने प्राप्त किए जिसको प्रभु ने खुद (गुरु के माध्यम से) दिलवाए हैं।
(हे प्रभु!) तू सब जीवों का पति है, सारी सृष्टि तेरे साए तले है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ नदी तरंदड़ी मैडा खोजु न खु्मभै मंझि मुहबति तेरी ॥ तउ सह चरणी मैडा हीअड़ा सीतमु हरि नानक तुलहा बेड़ी ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ नदी तरंदड़ी मैडा खोजु न खु्मभै मंझि मुहबति तेरी ॥ तउ सह चरणी मैडा हीअड़ा सीतमु हरि नानक तुलहा बेड़ी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजु = पैर। खुंभै = गड़ा हुआ, फँसना। मंझि = मेरे अंदरं। सह = हे पति (प्रभु)! तउ चरणी = तेरे चरणों में। हीअड़ा = निमाणा सा दिल। सीतमु = मैंने सी लिया है। तुलहा = तुलहा, लकड़ियों का बँधा हुआ गट्ठा जो दरिया के किनारे पर बसने वाले लोग दरिआ पार करने के लिए बरतते हैं।1।
अर्थ: (संसार-) नदी में तैरते हुआ मेरा पैर (मोह के कीचड़ में) नहीं फँसता, क्योंकि मेरे हृदय में तेरी प्रीति है। हे पति (प्रभु)! मैंने अपना ये निमाणा सा दिल तेरे चरणों में परो लिया है, हे हरि! (संसार समुंदर में से तैरने के लिए, तू ही) नानक का तुलहा है और बेड़ी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ जिन्हा दिसंदड़िआ दुरमति वंञै मित्र असाडड़े सेई ॥ हउ ढूढेदी जगु सबाइआ जन नानक विरले केई ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ जिन्हा दिसंदड़िआ दुरमति वंञै मित्र असाडड़े सेई ॥ हउ ढूढेदी जगु सबाइआ जन नानक विरले केई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हमारे (असल) मित्र वही मनुष्य हैं जिनका दीदार होने से बुरी मति दूर हो जाती है। पर, हे दास नानक! मैंने सारा जगत तलाश के देख लिया है, कोई विरले (ऐसे मनुष्य मिलते हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आवै साहिबु चिति तेरिआ भगता डिठिआ ॥ मन की कटीऐ मैलु साधसंगि वुठिआ ॥ जनम मरण भउ कटीऐ जन का सबदु जपि ॥ बंधन खोलन्हि संत दूत सभि जाहि छपि ॥ तिसु सिउ लाइन्हि रंगु जिस दी सभ धारीआ ॥ ऊची हूं ऊचा थानु अगम अपारीआ ॥ रैणि दिनसु कर जोड़ि सासि सासि धिआईऐ ॥ जा आपे होइ दइआलु तां भगत संगु पाईऐ ॥९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आवै साहिबु चिति तेरिआ भगता डिठिआ ॥ मन की कटीऐ मैलु साधसंगि वुठिआ ॥ जनम मरण भउ कटीऐ जन का सबदु जपि ॥ बंधन खोलन्हि संत दूत सभि जाहि छपि ॥ तिसु सिउ लाइन्हि रंगु जिस दी सभ धारीआ ॥ ऊची हूं ऊचा थानु अगम अपारीआ ॥ रैणि दिनसु कर जोड़ि सासि सासि धिआईऐ ॥ जा आपे होइ दइआलु तां भगत संगु पाईऐ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। वुठिआ = पहुँचा। सबदु = महिमा की वाणी। सभ = सारी सृष्टि। धारीआ = टिका के रखी हुई है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। रैणि = रात। कर = हाथ। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए।9।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘खोलनि्, लाइनि्’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है, इस लिये वह शब्द हैं: खोलन्हि, लाइन्हि।
नोट: पिछली पउड़ी की पहली तुक में देखें शब्द ‘धिआइअै’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे भक्तों का दर्शन करने से तू मालिक हमारे मन में आ बसता है, साधु-संगत में पहुँचने से मन की मैल काटी जाती है, (साधु-संगत में रह के) महिमा की वाणी पढ़ने से सेवक का जनम-मरण का (भाव, सारी उम्र का) डर काटा जाता है, क्योंकि संत (जिस मनुष्य के माया वाले) बंधन खोलते हैं (उसके विकार रूप) सारे जिंन-भूत भाग जाते हैं।
ये सारी सृष्टि जिस प्रभु की टिकाई हुई है, जिसका स्थान सबसे ऊँचा है, जो अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत है, संत उस परमात्मा के साथ (हमारा) प्यार जोड़ देते हैं।
(हे भाई!) दिन-रात स्वास-स्वास हाथ जोड़ के प्रभु का स्मरण करना चाहिए, जब प्रभु स्वयं ही दयालु होता है तो उसके भक्तों की संगति प्राप्त होती है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ बारि विडानड़ै हुमस धुमस कूका पईआ राही ॥ तउ सह सेती लगड़ी डोरी नानक अनद सेती बनु गाही ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ बारि विडानड़ै हुमस धुमस कूका पईआ राही ॥ तउ सह सेती लगड़ी डोरी नानक अनद सेती बनु गाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारि विडानड़ै = बेगाने दरवाजे पर, संसार रूपी बेगानी जूह में जहाँ हरेक जीव थोड़े से समय के लिए मुसाफिर बन के आया है। हुंमस = (संस्कृत: ‘हुत वह’ = आग, प्राकृत = ‘हुअ वह’, ‘हुवह’; पंजाबी = हुंम्) आग का सेक। कूका = आवाजें, दुहाई। सह = हे सहु! तउ सेती = तेरे साथ। बनु गाही = मैं (संसार) जंगल गाह रहा हूँ।1।
अर्थ: (जगत-रूपी इस) बेगानी जूह में (फंस जाने के कारण, अगर तृष्णा की) आग के बड़े सेक के कारण राहों में आवाजें (चीख-पुकार) पड़ रही हैं (भाव, जीव घबराए हुए हैं) पर, हे पति (प्रभु)! मैं नानक (के चिक्त) की डोर तेरे (चरणों) से लगी हुई है, (इस वास्ते) मैं आनंद से (इस संसार) जंगल में से गुजर रहा हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ सची बैसक तिन्हा संगि जिन संगि जपीऐ नाउ ॥ तिन्ह संगि संगु न कीचई नानक जिना आपणा सुआउ ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ सची बैसक तिन्हा संगि जिन संगि जपीऐ नाउ ॥ तिन्ह संगि संगु न कीचई नानक जिना आपणा सुआउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सची = सदा कायम रहने वाली, आखिर तक निभने वाली। बैसक = बैठक। संगि = साथ। संगु = साथ। सुआउ = स्वार्थ, गरज।2।
अर्थ: उन मनुष्यों के साथ आखिर तक निभने वाली मुहब्बत (करनी चाहिए) जिनके साथ (बैठने से परमात्मा का) नाम स्मरण किया जा सके; हे नानक! जिस को (हर समय) अपनी ही गरज हो, उनके साथ साथ नहीं करना चाहिए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सा वेला परवाणु जितु सतिगुरु भेटिआ ॥ होआ साधू संगु फिरि दूख न तेटिआ ॥ पाइआ निहचलु थानु फिरि गरभि न लेटिआ ॥ नदरी आइआ इकु सगल ब्रहमेटिआ ॥ ततु गिआनु लाइ धिआनु द्रिसटि समेटिआ ॥ सभो जपीऐ जापु जि मुखहु बोलेटिआ ॥ हुकमे बुझि निहालु सुखि सुखेटिआ ॥ परखि खजानै पाए से बहुड़ि न खोटिआ ॥१०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सा वेला परवाणु जितु सतिगुरु भेटिआ ॥ होआ साधू संगु फिरि दूख न तेटिआ ॥ पाइआ निहचलु थानु फिरि गरभि न लेटिआ ॥ नदरी आइआ इकु सगल ब्रहमेटिआ ॥ ततु गिआनु लाइ धिआनु द्रिसटि समेटिआ ॥ सभो जपीऐ जापु जि मुखहु बोलेटिआ ॥ हुकमे बुझि निहालु सुखि सुखेटिआ ॥ परखि खजानै पाए से बहुड़ि न खोटिआ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परवाणु = स्वीकार, मंजूर होती है। जितु = जिस वक्त। भेटिआ = मिला। तेटिआ = तेट में, गिरफत में। गरभि = गर्भ में, जून में। सगल = हर जगह। ततु = निचोड़। जि = जो कुछ। सुखि सुखेटिआ = सुखी ही सुखी।10।
अर्थ: वह घड़ी मंजूर हो गई समझें, जिस घड़ी मनुष्य को सतिगुरु मिल गया; जिस मनुष्य को गुरु की मेहर हो गई, वह दुबारा दुखों की गिरफत में नहीं आता, (गुरु मिलने से) जिस को पक्का टिकाना मिल गया, वह फिर (और-और) जूनियों में नहीं पड़ता, उसे हर जगह एक ब्रहम ही दिखता है; (बाहर से अपनी) नजर को समेट के, (प्रभु में) ध्यान लगा के वह असल ऊँची समझ हासल कर लेता है; वह जो कुछ मुंह से बोलता है (प्रभु की महिमा का) जाप ही बोलता है, प्रभु की रजा को समझ के वह प्रसनन रहता है और सुखी ही सुखी रहता है।
(गुरु की शरण आए जिस मनुष्यों को) परख के (प्रभु ने अपने) खजाने में डाला है वह दुबारा खोटे नहीं होते।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ५ ॥ विछोहे ज्मबूर खवे न वंञनि गाखड़े ॥ जे सो धणी मिलंनि नानक सुख स्मबूह सचु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ५ ॥ विछोहे ज्मबूर खवे न वंञनि गाखड़े ॥ जे सो धणी मिलंनि नानक सुख स्मबूह सचु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विछोहे = बिछोड़े (के दुख)। जंबूर = चिमटे जैसा एक हथियार जिससे अपने वश में आए वैरियों को लोग मारते हैं, जंबूर से बोटी बोटी करके शरीर का माँस उधेड़ा जाता था। खवे न वंञनि = सहे नहीं जा सकते, असहनीय। गाखड़े = मुश्किल। संबूह = सारे।1।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु के चरणों से) विछोड़े (का दुख) जंबूर (की पीड़ा) के जैसे मुश्किल है, बर्दाश्त नहीं किए जा सकते। अगर वह प्रभु मालिक जी मिल जाएं तो यकीनन सारे सुख ही सुख हो जाते हैं।1।

[[0521]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ जिमी वसंदी पाणीऐ ईधणु रखै भाहि ॥ नानक सो सहु आहि जा कै आढलि हभु को ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ जिमी वसंदी पाणीऐ ईधणु रखै भाहि ॥ नानक सो सहु आहि जा कै आढलि हभु को ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाणीऐ = पानी में। ईधणु = ईधन, लकड़ियां। भाहि = आग। आहि = है। आढलि = आसरे में। हभु को = हरेक जीव।2।
अर्थ: हे नानक! (जैसे) धरती पानी में (अडोल) बसती है और पानी को आसरा भी देती है, (जैसे) लकड़ी (अपने अंदर) आग (छुपा के) रखती है, (वैसे) वह पति (प्रभु) जिस के आसरे हरेक जीव है, (इस सारे जगत में अडोल छुपा हुआ) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तेरे कीते कम तुधै ही गोचरे ॥ सोई वरतै जगि जि कीआ तुधु धुरे ॥ बिसमु भए बिसमाद देखि कुदरति तेरीआ ॥ सरणि परे तेरी दास करि गति होइ मेरीआ ॥ तेरै हथि निधानु भावै तिसु देहि ॥ जिस नो होइ दइआलु हरि नामु सेइ लेहि ॥ अगम अगोचर बेअंत अंतु न पाईऐ ॥ जिस नो होहि क्रिपालु सु नामु धिआईऐ ॥११॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तेरे कीते कम तुधै ही गोचरे ॥ सोई वरतै जगि जि कीआ तुधु धुरे ॥ बिसमु भए बिसमाद देखि कुदरति तेरीआ ॥ सरणि परे तेरी दास करि गति होइ मेरीआ ॥ तेरै हथि निधानु भावै तिसु देहि ॥ जिस नो होइ दइआलु हरि नामु सेइ लेहि ॥ अगम अगोचर बेअंत अंतु न पाईऐ ॥ जिस नो होहि क्रिपालु सु नामु धिआईऐ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोचरे = पहुँच में, अधीन। जगि = जगत में। जि = जो। कीआ = कर दिया, हुक्म दे दिया। धुरे = धुर से। बिसमु = हैरान, आश्चर्य। देखि = देख के। गति = हालत, ऊँची आत्मिक अवस्था, मुक्ति। हथि = हाथ में। निधानु = (नाम का) खजाना। देहि = तू देता है। होइ = हो के। सोइ = सेई, वही मनुष्य। होहि = तू होता है।11।
अर्थ: (हे प्रभु!) जो जो काम तूने किए हैं यह तू ही कर सकता है, जगत में वही कुछ हो रहा है जो करने के वास्ते तूने धुर से हुक्म कर दिया है, तेरी कुदरति देख-देख के हम हैरान हो रहे हैं।
(तेरे) दास आसरा लेते हैं (मैं भी तेरी शरण आया हूँ, हे प्रभु! मेहर) कर, मेरी भी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाए, (तेरे नाम का) खजाना तेरे (अपने) हाथ में है, अगर तुझे अच्छा लगे उसे तू (ये खजाना) देता है, जिस जिस को दयाल हो के हरि-नाम (देता है) वही जीव तेरा नाम-खजाना प्राप्त करते हैं।
हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे अगोचर! हे बेअंत प्रभु! तेरा अंत नहीं पाया जा सकता, तू जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है वह तेरा नाम स्मरण करता है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ कड़छीआ फिरंन्हि सुआउ न जाणन्हि सुञीआ ॥ सेई मुख दिसंन्हि नानक रते प्रेम रसि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ कड़छीआ फिरंन्हि सुआउ न जाणन्हि सुञीआ ॥ सेई मुख दिसंन्हि नानक रते प्रेम रसि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआउ = स्वाद। सुञीआ = खाली। सेई = वही। दिसंन्हि = दिखते हैं। सेई मुख दिसंन्हि = वही मुख सुंदर दिखते हैं, वही मुंह सुंदर जानो। प्रेम रसि = प्रभु के प्यार के रस में।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘फिरंनि्, दिसंनि्’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! कड़छीआं (दाल-भाजी के बर्तनों में) फिरती हैं (पर वह उस दाल-भाजी) का स्वाद नहीं जानतीं (क्योंकि वे) खाली (ही रहती) हें, (इस तरह) वह मुंह (सुंदर) दिखते हैं जो प्रेम के स्वाद में रंगे गए हैं (सिर्फ बातें करने वाले मुँह कड़छियों की तरह ही हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ खोजी लधमु खोजु छडीआ उजाड़ि ॥ तै सहि दिती वाड़ि नानक खेतु न छिजई ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ खोजी लधमु खोजु छडीआ उजाड़ि ॥ तै सहि दिती वाड़ि नानक खेतु न छिजई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजी = खोज ढूँढने वाले (गुरु) के द्वारा। सहि = पति ने। न छिजई = नाश नहीं होता, नहीं उजड़ता।2।
अर्थ: (जिस कामादिकों ने मेरी खेती) उजाड़ दी थी उनका खोज मैंने खोज निकालने वाले (गुरु) के द्वारा ढूँढ लिया है। तुझ पति ने मेरी खेती को (गुरु की सहायता की) वाड़ दे दी है, अब नानक की खेती नहीं उजड़ती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आराधिहु सचा सोइ सभु किछु जिसु पासि ॥ दुहा सिरिआ खसमु आपि खिन महि करे रासि ॥ तिआगहु सगल उपाव तिस की ओट गहु ॥ पउ सरणाई भजि सुखी हूं सुख लहु ॥ करम धरम ततु गिआनु संता संगु होइ ॥ जपीऐ अम्रित नामु बिघनु न लगै कोइ ॥ जिस नो आपि दइआलु तिसु मनि वुठिआ ॥ पाईअन्हि सभि निधान साहिबि तुठिआ ॥१२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आराधिहु सचा सोइ सभु किछु जिसु पासि ॥ दुहा सिरिआ खसमु आपि खिन महि करे रासि ॥ तिआगहु सगल उपाव तिस की ओट गहु ॥ पउ सरणाई भजि सुखी हूं सुख लहु ॥ करम धरम ततु गिआनु संता संगु होइ ॥ जपीऐ अम्रित नामु बिघनु न लगै कोइ ॥ जिस नो आपि दइआलु तिसु मनि वुठिआ ॥ पाईअन्हि सभि निधान साहिबि तुठिआ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुहा सिरिआ = (कामादिक विकारों का चस्का और प्रेम रस इन) दोनों तरफ का। रासि करे = सिरे लग जाता है, ठीक कर देता है, सफल हो जाता है। उपाव = कोशिश। गहु = पकड़। लहु = ले। साहिबि तुठिआ = (पूर्व पूरण कारदंतक) अगर साहिब प्रसन्न हो जाए।12।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘साहिबि’ है अधिकर्ण कारक, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को स्मरण करो, जिसके वश में हरेक पदार्थ है जो (माया की कशिश और नाम-रस) दोनों पक्ष का मालिक है (भाव, जो माया के मोह में फंसाने वाला भी है और नाम-रस की दाति देने वाला भी है), जो (जीवों के काम) एक पलक में पूरे कर देता है। (हे भाई!) अन्य सारे तरीकों को छोड़ो और उस परमात्मा का आसरा लो, दौड़ के उस प्रभु की शरण पड़ो और सबसे अच्छा सुख हासिल करो।
अगर संतों की संगति मिले तो वह ऊँची समझ (प्राप्त) होती है जो (मानो) सब कर्मों-धर्मों का निचोड़ है। अगर प्रभु का अमृत नाम स्मरण करें तो (जीवन की राह में) कोई रुकावट नहीं पड़ती। जिस मनुष्य पर प्रभु स्वयं मेहरवान हो उसके मन में स्वयं आ बसता है। प्रभु मालिक के प्रसन्न होने पर (मानो) सारे खजाने पा लेते हैं।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ लधमु लभणहारु करमु करंदो मा पिरी ॥ इको सिरजणहारु नानक बिआ न पसीऐ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ लधमु लभणहारु करमु करंदो मा पिरी ॥ इको सिरजणहारु नानक बिआ न पसीऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लभणहारु = ढूँढनेयोग्य प्रभु। करमु = बख्शिश। मा पिरी = मेरे पिर ने। पसीऐ = देखते हैं। बिआ = कोई और।1।
अर्थ: जब मेरे प्यारे पति ने (मेरे पर) बख्शिश की तो मैंने ढूँढने योग्य प्रभु को ढूँढ लिया, (अब) हे नानक! एक कर्तार ही (हर जगह) दिखाई दे रहा है, कोई और नहीं दिखता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ पापड़िआ पछाड़ि बाणु सचावा संन्हि कै ॥ गुर मंत्रड़ा चितारि नानक दुखु न थीवई ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ पापड़िआ पछाड़ि बाणु सचावा संन्हि कै ॥ गुर मंत्रड़ा चितारि नानक दुखु न थीवई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पापड़िआ = चंदरे पापों को। पछाड़ि = भगा के, दूर करके। सचावा = सच का। संन्हि कै = तान के। मंत्रड़ा = सुहाना मंत्र। चितार = चेते कर।2।
अर्थ: हे नानक! सच (भाव, स्मरण) का तीर तान के चंदरे पापों को भगा के, सतिगुरु का सोहाना मंत्र चेते कर, (इस तरह) दुख नहीं व्याप्ता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ वाहु वाहु सिरजणहार पाईअनु ठाढि आपि ॥ जीअ जंत मिहरवानु तिस नो सदा जापि ॥ दइआ धारी समरथि चुके बिल बिलाप ॥ नठे ताप दुख रोग पूरे गुर प्रतापि ॥ कीतीअनु आपणी रख गरीब निवाजि थापि ॥ आपे लइअनु छडाइ बंधन सगल कापि ॥ तिसन बुझी आस पुंनी मन संतोखि ध्रापि ॥ वडी हूं वडा अपार खसमु जिसु लेपु न पुंनि पापि ॥१३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ वाहु वाहु सिरजणहार पाईअनु ठाढि आपि ॥ जीअ जंत मिहरवानु तिस नो सदा जापि ॥ दइआ धारी समरथि चुके बिल बिलाप ॥ नठे ताप दुख रोग पूरे गुर प्रतापि ॥ कीतीअनु आपणी रख गरीब निवाजि थापि ॥ आपे लइअनु छडाइ बंधन सगल कापि ॥ तिसन बुझी आस पुंनी मन संतोखि ध्रापि ॥ वडी हूं वडा अपार खसमु जिसु लेपु न पुंनि पापि ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहु वाहु = शाबाश। वाहु वाहु सिरजणहार = विधाता को शाबाश (कह)। पाइअनु = पाई है उसने। ठाढि = ठंड, शांति। तिसु नो = उस प्रभु को। समरथि = समरथ ने। बिल बिलाप = तरले, विरलाप। प्रतापि = प्रताप से। कीतीअनु = की है उस ने। रख = रक्षा। निवाजि = निवाज के। थापि = थाप के, पीठ ठोक के। कापि = काट के। तिसन = तृष्णा। पुंनी = पूरी हो गई। मन आस = मन की आशा। संतोखि = संतोष से। ध्रापि = तृप्त हो के। लेपु = लाग, असर। पुंनि = पुण्य से। पापि = पाप से।13।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पउड़ी नं: 12 के शब्द ‘पाइअनि’ और इस ‘पाईअनु’ में फर्क स्मरणीय है; ‘पाइअनु’ = पाई है उसने; ‘पाइअनि’ = पाते हैं, वर्तमानकाल, करम वाचक, बहुवचन, अन्य-पुरुष।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) उस कर्तार को ‘धन्य धन्य’ कह जिस ने (तेरे अंदर) स्वयं ठंड डाली है, उस प्रभु को याद कर जो सब जीवों पर मेहरवान है।
समर्थ प्रभु ने (जिस मनुष्य पर) मेहर की है उसके सारे प्रलाप समाप्त हो गए हैं, पूरे गुरु के प्रताप से उसके (सारे) कष्ट, दुख और रोग दूर हो गए।
(जिस) गरीबों (भाव, जो दर पे आ गिरे हैं) को निवाज के पीठ ठोक के (उनकी) रक्षा उस (प्रभु) ने खुद की है, उनके सारे बंधन कट के उनको (विकारों से) उसने खुद छुड़ा लिया है, संतोष से तृप्त हो जाने के कारण उनके मन की आस पूरी हो गई है उनकी तृष्णा मिट गई है।
(पर) बेअंत (प्रभु) पति सबसे बड़ा है उसको (जीवों के किए) पुण्य अथवा पाप से (जाती तौर पर) कोई लाग-लबेड़ नहीं होता।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ जा कउ भए क्रिपाल प्रभ हरि हरि सेई जपात ॥ नानक प्रीति लगी तिन राम सिउ भेटत साध संगात ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ जा कउ भए क्रिपाल प्रभ हरि हरि सेई जपात ॥ नानक प्रीति लगी तिन राम सिउ भेटत साध संगात ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटत = मिलने से। तिन = उनकी।1।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों पर प्रभु जी कृपा करते हैं वही हरि-नाम जपते हैं, साधु-संगत में मिलने के कारण परमात्मा के साथ उनकी प्रीति बन जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ रामु रमहु बडभागीहो जलि थलि महीअलि सोइ ॥ नानक नामि अराधिऐ बिघनु न लागै कोइ ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ रामु रमहु बडभागीहो जलि थलि महीअलि सोइ ॥ नानक नामि अराधिऐ बिघनु न लागै कोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलि = पानी में। थलि = धरती के अंदर। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, धरती पर, भाव आकाश में। नामि आराधिऐ = अगर नाम स्मरण करें।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नामि’ है अधिकरण कारक, एकवचन।
नोट: ‘आराधिअै’ है पूरब पूरन कारदंतक, Locatice Absolute.

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे बड़े भाग्य वालो! उस परमात्मा को स्मरण करो जो पानी में धरती के अंदर धरती के ऊपर (हर जगह) मौजूद है। हे नानक! यदि प्रभु का नाम स्मरण करें तो (जीवन-राह में) कोई रुकावट नहीं होती।2।

[[0522]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ भगता का बोलिआ परवाणु है दरगह पवै थाइ ॥ भगता तेरी टेक रते सचि नाइ ॥ जिस नो होइ क्रिपालु तिस का दूखु जाइ ॥ भगत तेरे दइआल ओन्हा मिहर पाइ ॥ दूखु दरदु वड रोगु न पोहे तिसु माइ ॥ भगता एहु अधारु गुण गोविंद गाइ ॥ सदा सदा दिनु रैणि इको इकु धिआइ ॥ पीवति अम्रित नामु जन नामे रहे अघाइ ॥१४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ भगता का बोलिआ परवाणु है दरगह पवै थाइ ॥ भगता तेरी टेक रते सचि नाइ ॥ जिस नो होइ क्रिपालु तिस का दूखु जाइ ॥ भगत तेरे दइआल ओन्हा मिहर पाइ ॥ दूखु दरदु वड रोगु न पोहे तिसु माइ ॥ भगता एहु अधारु गुण गोविंद गाइ ॥ सदा सदा दिनु रैणि इको इकु धिआइ ॥ पीवति अम्रित नामु जन नामे रहे अघाइ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पवै थाइ = स्वीकार होता है। टेक = आसरा। सचि = सच में। नाइ = नाम में। अधारु = आसरा। रैणि = रात। अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं। परवाणु = स्वीकार, मानने लायक। माइ = माया।14।
अर्थ: बंदगी करने वाले मनुष्यों का वचन मानने के लायक होता है, प्रभु की दरगाह में (भी) स्वीकार होता है। हे प्रभु! भक्तों को तेरा आसरा होता है, वे सच्चे नाम में रंगे रहते हैं। प्रभु जिस मनुष्य पर मेहरवान होता है उसका दुख दूर हो जाता है। हे दयालु प्रभु! बंदगी करने वाले बंदे तेरे हो के रहते हैं, तू उनपे कृपा करता है; (जिस मनुष्य पर तू मेहर करता है) उसको माया तंग नहीं कर सकती, कोई दुख-दर्द कोई बड़े से बड़ा रोग उसे सता नहीं सकता। गोविंद के गुण गा गा के यह (महिमा) भक्तों (की जिंदगी) का आसरा बन जाती है; दिन रात सदा ही एक प्रभु को स्मरण कर-कर के, नाम-रूपी अमृत पी पी के सेवक नाम में ही तृप्त रहते हैं।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ कोटि बिघन तिसु लागते जिस नो विसरै नाउ ॥ नानक अनदिनु बिलपते जिउ सुंञै घरि काउ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ कोटि बिघन तिसु लागते जिस नो विसरै नाउ ॥ नानक अनदिनु बिलपते जिउ सुंञै घरि काउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। अनदिनु = हर रोज। घरि = घर में।1।
अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम विसर जाता है उसको करोड़ो विघन आ घेरते हैं; हे नानक! (ऐसे लोग) हर रोज यूँ बिलकते हैं जैसे सूने घरों में कौए शोर डालते हैं (पर वहाँ उन्हें मिलता कुछ नहीं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ पिरी मिलावा जा थीऐ साई सुहावी रुति ॥ घड़ी मुहतु नह वीसरै नानक रवीऐ नित ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ पिरी मिलावा जा थीऐ साई सुहावी रुति ॥ घड़ी मुहतु नह वीसरै नानक रवीऐ नित ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिरी मिलावा = प्यारे पति का मेल। जा = जब। सुहावी = सोहणी। मुहतु = महूरत, दो घड़ी। रवीऐ = स्मरण करें।2।
अर्थ: वही ऋतु सुंदर है जब प्यारे प्रभु-पति का मेल होता है। सो, हे नानक! उसे हर वक्त याद करें, कभी घड़ी दो घड़ी भी उस प्रभु को ना भूलें।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सूरबीर वरीआम किनै न होड़ीऐ ॥ फउज सताणी हाठ पंचा जोड़ीऐ ॥ दस नारी अउधूत देनि चमोड़ीऐ ॥ जिणि जिणि लैन्हि रलाइ एहो एना लोड़ीऐ ॥ त्रै गुण इन कै वसि किनै न मोड़ीऐ ॥ भरमु कोटु माइआ खाई कहु कितु बिधि तोड़ीऐ ॥ गुरु पूरा आराधि बिखम दलु फोड़ीऐ ॥ हउ तिसु अगै दिनु राति रहा कर जोड़ीऐ ॥१५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सूरबीर वरीआम किनै न होड़ीऐ ॥ फउज सताणी हाठ पंचा जोड़ीऐ ॥ दस नारी अउधूत देनि चमोड़ीऐ ॥ जिणि जिणि लैन्हि रलाइ एहो एना लोड़ीऐ ॥ त्रै गुण इन कै वसि किनै न मोड़ीऐ ॥ भरमु कोटु माइआ खाई कहु कितु बिधि तोड़ीऐ ॥ गुरु पूरा आराधि बिखम दलु फोड़ीऐ ॥ हउ तिसु अगै दिनु राति रहा कर जोड़ीऐ ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरीआम = शूरवीर। होड़ीऐ = रोकें। सताणी = ताण वाली, ताकतवर। हठ = हठीली। पंचा = पाँच कामादिकों ने। नारी = इंद्रिय। अउधूत = त्यागी। जिणि = जीत के। त्रै गुण = तीन गुणों के सारे जीव। भरमु = भटकना। कोटु = किला। खाई = खाली। कितु बिधि = किस विधी से। दलु = फौज। कर = हाथ।15।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस पउड़ी के पहले शलोक में के शब्द ‘कोटि’ और इस शब्द ‘कोटु’ में फर्क याद रखने योग्य है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (कामादिक विकार) बड़े शूरवीर और बहादर (सिपाही) हैं, किसी ने इन्हें रोका नहीं, इन पाँचों ने बड़ी बलशाली और हठीली फौज एकत्र की हुई है, (दुनियादार तो कहाँ रहे) त्यागियों को (भी) ये दस इंद्रिय चिपका देते हैं, सबको जीत जीत के अपने मुताबिक ढाले जाते हैं। बस! यही बात ये चाहते हैं, सारे ही त्रैगुणी जीव इनके दबाव तले हैं। कोई इन्हें मोड़ नहीं सका, (माया की खातिर जीवों की) भटकना (ये, मानो, इन पाँचों का) किला है और माया (का मोह, उस किले के इर्द-गिर्द गहरी) खाई (खुदी हुई) है, (ये किला) कैसे तोड़ा जाए?
पूरे सतिगुरु को याद करने से ये ताकतवर फौज सर की जा सकती है, (यदि प्रभु की मेहर हो तो) मैं दिन-रात हाथ जोड़ के उस गुरु के सामने खड़ा रहूँ।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ किलविख सभे उतरनि नीत नीत गुण गाउ ॥ कोटि कलेसा ऊपजहि नानक बिसरै नाउ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ किलविख सभे उतरनि नीत नीत गुण गाउ ॥ कोटि कलेसा ऊपजहि नानक बिसरै नाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलविख = पाप। नीत नीत = हर रोज, सदा ही।1।
अर्थ: हे नानक! सदा ही प्रभु की महिमा करो, (महिमा की इनायत से) सारे पाप उतर जाते हैं, अगर प्रभु का नाम भूल जाए तो करोड़ों दुख लग जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी होवै जुगति ॥ हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे होवै मुकति ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी होवै जुगति ॥ हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे होवै मुकति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि भेटिऐ = यदि गुरु मिल जाए। जुगति = जीने की विधि, जिंदगी गुजारने का तरीका। पूरी = मुकंमल, जिस में कोई कमी ना रहे। विचे = माया में वरतते हुए ही। मुकति = माया के बंधनों से आजादी।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सतिगुरि’ है अधिकरण कारक, एकवचन। और ‘भेटिअै’ है पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute.

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! अगर सतिगुरु मिल जाए तो जीने का सही सलीका आ जाता, और हँसते खेलते खाते पहनते (भाव, दुनिया के सारे काम करते हुए) माया में बरतते हुए भी कामादिक विकारों से बचे रह सकते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सो सतिगुरु धनु धंनु जिनि भरम गड़ु तोड़िआ ॥ सो सतिगुरु वाहु वाहु जिनि हरि सिउ जोड़िआ ॥ नामु निधानु अखुटु गुरु देइ दारूओ ॥ महा रोगु बिकराल तिनै बिदारूओ ॥ पाइआ नामु निधानु बहुतु खजानिआ ॥ जिता जनमु अपारु आपु पछानिआ ॥ महिमा कही न जाइ गुर समरथ देव ॥ गुर पारब्रहम परमेसुर अपर्मपर अलख अभेव ॥१६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सो सतिगुरु धनु धंनु जिनि भरम गड़ु तोड़िआ ॥ सो सतिगुरु वाहु वाहु जिनि हरि सिउ जोड़िआ ॥ नामु निधानु अखुटु गुरु देइ दारूओ ॥ महा रोगु बिकराल तिनै बिदारूओ ॥ पाइआ नामु निधानु बहुतु खजानिआ ॥ जिता जनमु अपारु आपु पछानिआ ॥ महिमा कही न जाइ गुर समरथ देव ॥ गुर पारब्रहम परमेसुर अपर्मपर अलख अभेव ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरम गढ़ु = भ्रम का किला। जिनि = जिस (गुरु) ने। वाहु वाहु = सोहणा। देइ = देता है। तिनै = उस (गुरु) ने ही। जिता = जीत लिया। आपु = अपने आप को। महिमा = बड़ाई। समरथ = ताकत वाला, समर्थ। अपरंपर = जिसका परला छोर ना दिखे। अलख = जो समझ में ना आ सके। अभेद = जिसका भेद ना पाया जा सके।16।
अर्थ: धन्य है वह सतिगुरु जिसने (हमारा) भ्रम का किला तोड़ दिया है, अत्भुद महिमा वाला है वह गुरु जिसने (हमें) ईश्वर से जोड़ दिया है; गुरु अमु नाम-खजाना रूपी दवाई देता है, (इस दवाई से) उस गुरु ने ही (हमारा ये) बड़ा भयानक रोग नाश कर दिया है।
(जिस मनुष्य ने गुरु से) प्रभु-नाम रूपी बड़ा खजाना हासिल किया है उसने अपने आप को पहचान लिया है और मानव-जन्म (की) अपार (बाजी) जीत ली है।
समर्थ गुरदेव की महिमा बयान नहीं की जा सकती। सतिगुरु उस परमेश्वर पारब्रहम का रूप है और बेअंत है अलख है और अभेव है।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ५ ॥ उदमु करेदिआ जीउ तूं कमावदिआ सुख भुंचु ॥ धिआइदिआ तूं प्रभू मिलु नानक उतरी चिंत ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ५ ॥ उदमु करेदिआ जीउ तूं कमावदिआ सुख भुंचु ॥ धिआइदिआ तूं प्रभू मिलु नानक उतरी चिंत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (प्रभु की भक्ति का) उद्यम करते हुए आत्मिक जीवन मिलता है, (इस नाम की) कमाई करने से सुख की प्राप्ति होती है; नाम स्मरण करने से परमात्मा को मिल लेते है और चिन्ता मिट जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ सुभ चिंतन गोबिंद रमण निरमल साधू संग ॥ नानक नामु न विसरउ इक घड़ी करि किरपा भगवंत ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ सुभ चिंतन गोबिंद रमण निरमल साधू संग ॥ नानक नामु न विसरउ इक घड़ी करि किरपा भगवंत ॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यही शलोक राग आसा महला ५ छंत घरु ७ के शीर्षक के तले भी आया है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभ = भली। चिंतन = सोच। रमण = स्मरण। निरमलु = पवित्र। न विसरउ = ना भुलाऊँ।2।
अर्थ: हे भगवान! मुझ नानक पर कृपा कर कि मैं एक घड़ी भी तेरा नाम ना भुलाऊँ। पवित्र संत-संग करूँ, गोबिंद का स्मरण करूँ और भली सोचें सोचूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तेरा कीता होइ त काहे डरपीऐ ॥ जिसु मिलि जपीऐ नाउ तिसु जीउ अरपीऐ ॥ आइऐ चिति निहालु साहिब बेसुमार ॥ तिस नो पोहे कवणु जिसु वलि निरंकार ॥ सभु किछु तिस कै वसि न कोई बाहरा ॥ सो भगता मनि वुठा सचि समाहरा ॥ तेरे दास धिआइनि तुधु तूं रखण वालिआ ॥ सिरि सभना समरथु नदरि निहालिआ ॥१७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तेरा कीता होइ त काहे डरपीऐ ॥ जिसु मिलि जपीऐ नाउ तिसु जीउ अरपीऐ ॥ आइऐ चिति निहालु साहिब बेसुमार ॥ तिस नो पोहे कवणु जिसु वलि निरंकार ॥ सभु किछु तिस कै वसि न कोई बाहरा ॥ सो भगता मनि वुठा सचि समाहरा ॥ तेरे दास धिआइनि तुधु तूं रखण वालिआ ॥ सिरि सभना समरथु नदरि निहालिआ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होइ = होता है, घटित होता है। काहे = क्यूँ? तिसु = उसको। अरपीऐ = भेट कर दें। आइऐ चिति = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) अगर चिक्त में आ जाए। बेसुमार = बेअंत। पोहे = दबाव डाले। बाहरा = आकी। वुठा = बसा। सचि = सत्य के द्वारा, सच से, (भक्तों के) स्मरण से। समाहरा = समाया हुआ। निहालिआ = निहाल करने वाला।17।
अर्थ: अगर (हे प्रभु!) जो कुछ घटित होता है तेरा ही किया हुआ होता है तो (हम) क्यूँ (किसी से) डरें? जिस को मिल के प्रभु का नाम जपा जाए, उसके आगे अपना आप भेट कर देना चाहिए, क्योंकि अगर बेअंत साहिब चिक्त में आ बसे तो निहाल हो जाते हैं, जिसके पक्ष में निरंकार हो जाए, उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकता, क्योंकि हरेक चीज उस परमात्मा के वश में है, उसके हुक्म से परे नहीं जा सकता, (भक्तों के) स्मरण के कारण वह प्रभु भक्तों के मन में आ बसता है (उनके अंदर) समा जाता है।
हे प्रभु! तेरे दास तुझे याद करते हैं, तू उनकी रक्षा करता है, तू सब जीवों के सिर पर हाकिम है, मेहर की नजर करके (जीवों को) सुख देने वाला है।1।

[[0523]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ काम क्रोध मद लोभ मोह दुसट बासना निवारि ॥ राखि लेहु प्रभ आपणे नानक सद बलिहारि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ काम क्रोध मद लोभ मोह दुसट बासना निवारि ॥ राखि लेहु प्रभ आपणे नानक सद बलिहारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मद = अहंकार की मस्ती। दुसट = बुरी। निवारि = दूर कर।1।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु से) सदा सदके हो (और इस तरह विनती कर-) हे मेरे प्रभु! रक्षा कर और (मेरे अंदर से) काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार की मस्ती और बुरी वासनाएं दूर कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ खांदिआ खांदिआ मुहु घठा पैनंदिआ सभु अंगु ॥ नानक ध्रिगु तिना दा जीविआ जिन सचि न लगो रंगु ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ खांदिआ खांदिआ मुहु घठा पैनंदिआ सभु अंगु ॥ नानक ध्रिगु तिना दा जीविआ जिन सचि न लगो रंगु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घठा = घिस गया। सभु अंगु = सारा शरीर। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। सचि = सच में, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। रंगु = प्यार।2।
अर्थ: (मीठे पदार्थ) खा खा के मुँह भी घिस गया (और सुंदर कपड़े) पहनते हुए सारा शरीर ही कमजोर हो गया (भाव, अगर खाने और पहनने के चक्करों में ही जवानी गुजर के बुढ़ापा आ गया, और फिर भी), हे नानक! जिस मनुष्यों का प्यार परमात्मा में ना बना, उनका जीना धिक्कार योग्य है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जिउ जिउ तेरा हुकमु तिवै तिउ होवणा ॥ जह जह रखहि आपि तह जाइ खड़ोवणा ॥ नाम तेरै कै रंगि दुरमति धोवणा ॥ जपि जपि तुधु निरंकार भरमु भउ खोवणा ॥ जो तेरै रंगि रते से जोनि न जोवणा ॥ अंतरि बाहरि इकु नैण अलोवणा ॥ जिन्ही पछाता हुकमु तिन्ह कदे न रोवणा ॥ नाउ नानक बखसीस मन माहि परोवणा ॥१८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जिउ जिउ तेरा हुकमु तिवै तिउ होवणा ॥ जह जह रखहि आपि तह जाइ खड़ोवणा ॥ नाम तेरै कै रंगि दुरमति धोवणा ॥ जपि जपि तुधु निरंकार भरमु भउ खोवणा ॥ जो तेरै रंगि रते से जोनि न जोवणा ॥ अंतरि बाहरि इकु नैण अलोवणा ॥ जिन्ही पछाता हुकमु तिन्ह कदे न रोवणा ॥ नाउ नानक बखसीस मन माहि परोवणा ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिवै = उसी तरह। रंगि = प्यार में। दुरमति = बुरी मति। निरंकार = हे निरंकार! न्ह जोवणा = जोए नहीं जाते, पाए नहीं जाते। नैण = आँखों से। अलोवणा = देखते हैं। न रोवणा = पछताते नहीं।18।
अर्थ: (हे प्रभु! जगत में) वैसा ही होता है जैसा तेरा हुक्म होता है, जहाँ जहाँ तू खुद (जीवों को) रखता है, वहीं (जीव) जा खड़े होते हैं; जो जीव तेरे नाम के प्यार में (रहते) हैं वह बुरी मति धो देते हैं। हे निरंकार! तुझे स्मरण कर-कर के भटकना और डर दूर कर लेते हैं। जो मनुष्य तेरे प्यार में रंगे जाते हैं वे जूनियों में नहीं पाए जाते, अंदर-बाहर (हर जगह) वह एक (तुझे ही) आँखों से देखते हैं।
हे नानक! जिन्होंने प्रभु का हुक्म पहचान लिया है वह कभी भी पछताते नहीं (क्योंकि वह किसी विकार में फसते नहीं, बल्कि) प्रभु के नाम रूपी बख्शिश (सदा अपने) मन में परोए रखते हैं।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ जीवदिआ न चेतिओ मुआ रलंदड़ो खाक ॥ नानक दुनीआ संगि गुदारिआ साकत मूड़ नपाक ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ जीवदिआ न चेतिओ मुआ रलंदड़ो खाक ॥ नानक दुनीआ संगि गुदारिआ साकत मूड़ नपाक ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = रब से टूटा हुआ मनुष्य। मूढ़ = मूर्ख। नापाक = गंदा।1।
अर्थ: जब तक जीता रहा रब को याद ना किया, मर गया तो मिट्टी में मिल गया। हे नानक! ईश्वर से टूटे हुए ऐसे मूर्ख गंदे मनुष्य ने दुनिया के साथ ही (जीवन व्यर्थ) गुजार दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ जीवंदिआ हरि चेतिआ मरंदिआ हरि रंगि ॥ जनमु पदारथु तारिआ नानक साधू संगि ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ जीवंदिआ हरि चेतिआ मरंदिआ हरि रंगि ॥ जनमु पदारथु तारिआ नानक साधू संगि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = प्यार में। पदारथु = कीमती चीज, अमोलक वस्तु।2।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने सत्संग में (रह के) जीते जी (सारी उम्र) परमात्मा को याद रखा, और मरने के समय भी प्रभु के प्यार में रहा, उसने ये मानव जीवन-रूपी अमोलक वस्तु (संसार समुंदर में बह जाने से) बचा ली है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आदि जुगादी आपि रखण वालिआ ॥ सचु नामु करतारु सचु पसारिआ ॥ ऊणा कही न होइ घटे घटि सारिआ ॥ मिहरवान समरथ आपे ही घालिआ ॥ जिन्ह मनि वुठा आपि से सदा सुखालिआ ॥ आपे रचनु रचाइ आपे ही पालिआ ॥ सभु किछु आपे आपि बेअंत अपारिआ ॥ गुर पूरे की टेक नानक सम्हालिआ ॥१९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आदि जुगादी आपि रखण वालिआ ॥ सचु नामु करतारु सचु पसारिआ ॥ ऊणा कही न होइ घटे घटि सारिआ ॥ मिहरवान समरथ आपे ही घालिआ ॥ जिन्ह मनि वुठा आपि से सदा सुखालिआ ॥ आपे रचनु रचाइ आपे ही पालिआ ॥ सभु किछु आपे आपि बेअंत अपारिआ ॥ गुर पूरे की टेक नानक सम्हालिआ ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = जगत रचना के आरम्भ से। जुगादी = युगों के आरम्भ से। आदि जुगादी = भाव, सदा से ही। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। पसारिआ = पसर रहा है, मौजूद है। ऊणा = कम, खाली। सारिआ = संभाल रहा है। घालिआ = (स्मरण की) घाल कमाई करवाता है। वुठा = आ बसा। संमालिआ = याद किया है।19।
अर्थ: परमात्मा सदा से ही स्वयं (सबकी) रक्षा करता आया है; उस कर्तार का नाम सदा स्थिर रहने वाला है, वह हर जगह मौजूद है; कोई जगह उससे खाली नहीं, हरेक घट में (व्यापक हो के, हरेक की) संभाल करता है, सब जीवों पर मेहर करता है, सब कुछ करने योग्य है, वह स्वयं ही (जीवों से स्मरण की) कमाई करवाता है।
जिस लोगों के मन में आ बसता है वे सदा सुखी रहते हैं, प्रभु स्वयं ही जगत पैदा करके स्वयं ही इसकी पालना कर रहा है, वह बेअंत है, अपार है, सब कुछ आप ही आप है।
हे नानक! (जिस मनुष्य ने) पूरे गुरु का आसरा लिया है, वह उस प्रभु को याद करता है।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ आदि मधि अरु अंति परमेसरि रखिआ ॥ सतिगुरि दिता हरि नामु अम्रितु चखिआ ॥ साधा संगु अपारु अनदिनु हरि गुण रवै ॥ पाए मनोरथ सभि जोनी नह भवै ॥ सभु किछु करते हथि कारणु जो करै ॥ नानकु मंगै दानु संता धूरि तरै ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ आदि मधि अरु अंति परमेसरि रखिआ ॥ सतिगुरि दिता हरि नामु अम्रितु चखिआ ॥ साधा संगु अपारु अनदिनु हरि गुण रवै ॥ पाए मनोरथ सभि जोनी नह भवै ॥ सभु किछु करते हथि कारणु जो करै ॥ नानकु मंगै दानु संता धूरि तरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = शुरू से। मधि = बीच के समय। अंति = आखिर में। आदि मधि अरु अंति = भाव, सदा ही। परमेसरि = परमेश्वर ने। सतिगुरि = सतिगुर ने। रवै = याद करता है। सभि = सारे। कारणु = सबब, साधन। तरै = तैर जाए।1।
अर्थ: (विघनों विकारों से) परमेश्वर ने खुद (अपने सेवक को) सदा ही बचाया है, (जिस सेवक की प्रभु ने रक्षा की है, उसे) सतिगुरु ने प्रभु का नाम दिया है, (उस सेवक ने) नाम-अमृत चखा है, (उसको) अमोलक सत्संग (मिला है, जहाँ) हर समय (वह सेवक) हरि के गुण याद करता है, उसके सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं (भाव, सारी ही वासनाएं मिट जाती हैं, और) वह जूनियों में नहीं भटकता। पर ये सारी मेहर कर्तार के हाथ में है, जो वही आप (अपने लिए स्मरण का) साधन पैदा करता है।
नानक (भी, उसी के दर से) दान मांगता है कि (नानक भी) संतों की चरण-धूल ले के (भाव, साधु-संगत में रहके, इस संसार समुंदर से) पार लांघ जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ तिस नो मंनि वसाइ जिनि उपाइआ ॥ जिनि जनि धिआइआ खसमु तिनि सुखु पाइआ ॥ सफलु जनमु परवानु गुरमुखि आइआ ॥ हुकमै बुझि निहालु खसमि फुरमाइआ ॥ जिसु होआ आपि क्रिपालु सु नह भरमाइआ ॥ जो जो दिता खसमि सोई सुखु पाइआ ॥ नानक जिसहि दइआलु बुझाए हुकमु मित ॥ जिसहि भुलाए आपि मरि मरि जमहि नित ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ तिस नो मंनि वसाइ जिनि उपाइआ ॥ जिनि जनि धिआइआ खसमु तिनि सुखु पाइआ ॥ सफलु जनमु परवानु गुरमुखि आइआ ॥ हुकमै बुझि निहालु खसमि फुरमाइआ ॥ जिसु होआ आपि क्रिपालु सु नह भरमाइआ ॥ जो जो दिता खसमि सोई सुखु पाइआ ॥ नानक जिसहि दइआलु बुझाए हुकमु मित ॥ जिसहि भुलाए आपि मरि मरि जमहि नित ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मन में। जिनि = जिस (प्रभु) ने। जनि = जन ने। जिनि जनि = जिस मनुष्य ने। तिनि = उस मनुष्य ने। सफलु = फल सहित, कामयाब। खसमि = पति ने। जिसहि = जिस जिस को। जमहि = पैदा होते हैं।2।
अर्थ: (हे भाई!) उस (प्रभु) को (अपने) मन में बसा जिस ने तुझे पैदा किया है, जिस मनुष्य ने पति (-प्रभु) को स्मरण किया है उसने सुख पाया है, उस गुरमुखि का (जगत में) आना मुबारक है, उसकी जिंदगी सफल हो गई है, पति (प्रभु ने) जो हुक्म दिया, उस हुक्म को समझ के वह (गुरमुख) सदा प्रसन्न रहता है।
जिस मनुष्य पर प्रभु खुद मेहरवान हुआ है वह भटकना में नहीं पड़ता, पति (-प्रभु) ने जो कुछ उसको दिया, वह उसको सुख ही प्रतीत हुआ है।
हे नानक! जिस मनुष्य पर मित्र (प्रभु) मेहरवान होता है उसे अपने हुक्म की सूझ बख्शता है। पर, जिस जिस जीव को भूल में डालता है वह नित्य नित्य बार बार मरते पैदा होते रहते हैं।2।

[[0524]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ निंदक मारे ततकालि खिनु टिकण न दिते ॥ प्रभ दास का दुखु न खवि सकहि फड़ि जोनी जुते ॥ मथे वालि पछाड़िअनु जम मारगि मुते ॥ दुखि लगै बिललाणिआ नरकि घोरि सुते ॥ कंठि लाइ दास रखिअनु नानक हरि सते ॥२०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ निंदक मारे ततकालि खिनु टिकण न दिते ॥ प्रभ दास का दुखु न खवि सकहि फड़ि जोनी जुते ॥ मथे वालि पछाड़िअनु जम मारगि मुते ॥ दुखि लगै बिललाणिआ नरकि घोरि सुते ॥ कंठि लाइ दास रखिअनु नानक हरि सते ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततकालि = उसी वक्त। न खवि सकहि = सह नहीं सकते। जुते = जो दिए, पहन दिए। मथे वालि = माथे के बालों से (पकड़ के)। पछाड़िअनु = पछाड़े हैं उस प्रभु ने, जमीन पर पटका के मारे हैं उसने। जम मारगि = जम के राह पर। मुते = छोड़ दिए हैं। दुखि लगै = दुख लगने के कारण। नरकि घोरि = घोर नर्क में, डरावने नर्क में। सुते = जा पड़े। रखिअनु = रख लिए हैं उस (प्रभु) ने। सते = सति, सच्चा।20।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘दुखि’ है अधिकरण कारक, एकवचन)। ‘लगै’ है पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute.

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य (गुरमुखों की) निंदा करते हैं उनको तो प्रभु ने (मानो) उसी वक्त मार दिए, (क्योंकि निंदा के कारण प्रभु ने उनके मन को) एक पलक भर भी शांति नहीं करने दी, प्रभु जी अपने दासों का दुख सह नहीं सकते (भाव) प्रभु की भक्ति करने वालों को कोई दुख-विकार नहीं सताता। पर, निंदकों को प्रभु ने जूनियों में डाल दिया है, (निंदकों को, मानो) उसने केसों से पकड़ के जमीन पे पटका के मारा है और जम के राह पर निरआसरा ही छोड़ दिया है; इस तरह दुख लगने के कारण वह बिलकते हैं, और मानो, घोर नर्क में पड़ते हैं।
पर हे नानक! सच्चे प्रभु ने अपने सेवकों को (विकारों दुखों से, मानो) गले से लगा के बचा लिया है।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः ५ ॥ रामु जपहु वडभागीहो जलि थलि पूरनु सोइ ॥ नानक नामि धिआइऐ बिघनु न लागै कोइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः ५ ॥ रामु जपहु वडभागीहो जलि थलि पूरनु सोइ ॥ नानक नामि धिआइऐ बिघनु न लागै कोइ ॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इसी वार की 14वीं पौड़ी के दूसरे शलोक और इस शलोक में बहुत ही थोड़ा सा फर्क है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरनु = व्यापक। नामि धिआइऐ = अगर नाम स्मरण किया जाए।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नामि’ है अधिकरण कारक, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे बड़े भाग्य वालो! उस प्रभु को जपो जो पानी में, धरती पर (हर जगह) मौजूद है; हे नानक! अगर प्रभु का नाम स्मरण करें तो (जीवन के राह में) कोई रुकावट नहीं पड़ती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ कोटि बिघन तिसु लागते जिस नो विसरै नाउ ॥ नानक अनदिनु बिलपते जिउ सुंञै घरि काउ ॥२॥

मूलम्

मः ५ ॥ कोटि बिघन तिसु लागते जिस नो विसरै नाउ ॥ नानक अनदिनु बिलपते जिउ सुंञै घरि काउ ॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इसी ‘वार’ की पउड़ी नं: 15 के साथ पहला शलोक यही है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम बिसर जाता है उसको करोड़ों बिघन आ घेरते हैं; हे नानक! (ऐसे लोग) हर रोज यूँ बिलकते हैं जैसे सूने घर में कौआ पुकारता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सिमरि सिमरि दातारु मनोरथ पूरिआ ॥ इछ पुंनी मनि आस गए विसूरिआ ॥ पाइआ नामु निधानु जिस नो भालदा ॥ जोति मिली संगि जोति रहिआ घालदा ॥ सूख सहज आनंद वुठे तितु घरि ॥ आवण जाण रहे जनमु न तहा मरि ॥ साहिबु सेवकु इकु इकु द्रिसटाइआ ॥ गुर प्रसादि नानक सचि समाइआ ॥२१॥१॥२॥ सुधु

मूलम्

पउड़ी ॥ सिमरि सिमरि दातारु मनोरथ पूरिआ ॥ इछ पुंनी मनि आस गए विसूरिआ ॥ पाइआ नामु निधानु जिस नो भालदा ॥ जोति मिली संगि जोति रहिआ घालदा ॥ सूख सहज आनंद वुठे तितु घरि ॥ आवण जाण रहे जनमु न तहा मरि ॥ साहिबु सेवकु इकु इकु द्रिसटाइआ ॥ गुर प्रसादि नानक सचि समाइआ ॥२१॥१॥२॥ सुधु

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुंनी = पूरी हो गई। मनि = मन में। विसूरिआ = विसूरे, झोरे। रहिआ = रह गया, हट गया। रहिआ घालदा = मेहनत की जरूरत ना रही। तितु घरि = उस (हृदय रूपी) घर में। मरि = मरी, मौत। द्रिसटाइआ = नजर आया। सचि = सच्चे हरि में।21।
अर्थ: सब दातें देने वाले परमात्मा को स्मरण कर-कर के (मन के) उद्देश्य पूरे हो जाते हैं मन में उठतीं आशाएं और इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, और (दुनियावी) दुख-चिंताएं झोरे मिट जाते हैं (क्योंकि नाम-जपने की इनायत से ‘माया’ की तलाश मिट जाती है, आशा-तृष्णा समाप्त हो जाती है, इसकी जगह) जिस ‘नाम’-खजाने की तलाश में लगता है वह इसे प्राप्त हो जाता है, मनुष्य की आत्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है और (माया की खातिर) दौड़-भाग भटकना रह जाती है।
(जो मनुष्य नाम-जपने की कमाई करता है) उस (के) हृदय-घर में सुख, अडोलता, खुशी आ बसते हैं, उसके जनम-मरण समाप्त हो जाते हैं, वहाँ जनम और मौत नहीं रह जाते, क्योंकि (इस अवस्था में पहुँचते हुए) सेवक और मालिक प्रभु एक-रूप नजर आते हैं। हे नानक! (ऐसा सेवक) सतिगुरु की कृपा से सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन हो जाता है।21।1।2। सुधु।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक नं: 21 का भाव ये है कि इस ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं। अंक नं: 1 इस सारी समूची ‘वार’ की संख्या है। अंक नं: 2 इस ‘राग’ की दोनों ‘वारों’ का जोड़ दिया गया है। पहली ‘वार’ गुरु अमरदास जी की और ये दूसरी वार गुरु अरजन देव जी की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गूजरी भगता की बाणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गूजरी भगता की बाणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्री कबीर जीउ का चउपदा घरु २ दूजा ॥ चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै ॥ ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकईहै ॥१॥

मूलम्

स्री कबीर जीउ का चउपदा घरु २ दूजा ॥ चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै ॥ ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकईहै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाव = चरण, पाद। दुइ = दो। गईहै = गाएगा। गुन = प्रभु के गुण। ठेगा = डंडा। परिहै = पड़ेगा। कत = कहाँ? मूड = सिर। लुकई है = छुपाएगा।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई किसी पशु जूनि में पड़ के जब तेरे) चार पैर और दो सींग होंगे, और मुँह से गूँगा होगा, तब तू किस तरह प्रभु के गुण गा सकेगा? उठते बैठते (तेरे सिर पर) डंडा पड़ेगा, तब तू कहाँ सिर छुपाएगा?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि बिनु बैल बिराने हुईहै ॥ फाटे नाकन टूटे काधन कोदउ को भुसु खईहै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि बिनु बैल बिराने हुईहै ॥ फाटे नाकन टूटे काधन कोदउ को भुसु खईहै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिराने = बिगाने, पराधीन। हुई है = होगा। फाटे = फटे हुए। काधन = कान, कंधे। भुसु = भूसा। खई है = खाएगा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु का स्मरण किए बिना) बैल (आदि पशु बन के) पराधीन हो जाएगा, (नथ से) नाक छेद दिया जाएगा, कान (जूले से) फिसे हुए होंगे और कोदरे की भूसी खाएगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारो दिनु डोलत बन महीआ अजहु न पेट अघईहै ॥ जन भगतन को कहो न मानो कीओ अपनो पईहै ॥२॥

मूलम्

सारो दिनु डोलत बन महीआ अजहु न पेट अघईहै ॥ जन भगतन को कहो न मानो कीओ अपनो पईहै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महीआ = में। अघई है = तृप्त होगा, पेट भर लेगा। अजहु = फिर भी। कहो = कहा, सीखा। पई है = पड़ेगा।2।
अर्थ: जंगल (जूह) में सारा दिन भटकते हुए भी पेट नहीं भरेगा। अब इस वक्त तू भक्त जनों का वचन नहीं मानता, (उम्र बीत जाने पर) अपना किया पाएगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुख सुख करत महा भ्रमि बूडो अनिक जोनि भरमईहै ॥ रतन जनमु खोइओ प्रभु बिसरिओ इहु अउसरु कत पईहै ॥३॥

मूलम्

दुख सुख करत महा भ्रमि बूडो अनिक जोनि भरमईहै ॥ रतन जनमु खोइओ प्रभु बिसरिओ इहु अउसरु कत पईहै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुख सुख करत = दुख सुख करते हुए, बुरे हाल में दिन गुजार के। भ्रमि = भ्रम में। भरमई है = भटकेगा। अउसरु = मौका, समय। कत पई है = कहाँ मिलेगा? फिर नहीं मिलेगा।3।
अर्थ: अब बुरे हाल में दिन गुजार के गलत रास्ते पर गर्क हुआ पड़ा है, (आखिर) अनेक जूनियों में भटकेगा। तूने प्रभु को विसार दिया है, और श्रेष्ठ मनुखा जनम गवा लिया है, ये समय फिर कहीं नहीं मिलेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रमत फिरत तेलक के कपि जिउ गति बिनु रैनि बिहईहै ॥ कहत कबीर राम नाम बिनु मूंड धुने पछुतईहै ॥४॥१॥

मूलम्

भ्रमत फिरत तेलक के कपि जिउ गति बिनु रैनि बिहईहै ॥ कहत कबीर राम नाम बिनु मूंड धुने पछुतईहै ॥४॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: घरु २ दूजा– यहाँ अंक 2 को पढ़ना है ‘दूजा’। इसी तरह और भी जहाँ जहाँ कहीं शब्द ‘घरु’ के कोई गिनती 3,4, 5 आदि आती है, वहाँ तीजा, चौथा, पँजवां पढ़ना है। चउपदा = (चउ = चार। पद = बंद) चार बंदों वाले शब्द।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तेलक = तेली। कपि = बंदर। तेलक के कपि सिउ = तेलक के (बैल और) कपि जिउं, तेली के बैल की तरह और बंदर की तरह। तेली का बैल सारी रात कोल्हू के इर्द-गिर्द ही घूमता है, और उसका रास्ता खत्म नहीं होता। बंदर चनों की भरी मुठ के लालच में पकड़ा जा के सारी उम्र दर-दर पर नाचता है। गति बिनु = मुक्ति के बिना। रैनि = रात, जिंदगी रूपी रात। बिहई है = बीत जाएगी, समाप्त हो जाएगी। मूंड धुने = मूंड धुनि धुनि, सिर मार मार के। पछुतई है = पछताएगा।4।
अर्थ: तेरी जिंदगी रूपी सारी रात तेली के बैल और बंदर की तरह भटकती विकारों से मुक्ति के बिना ही गुजर जाएगी। कबीर कहता है कि प्रभु का नाम भुला के आखिर सिर मार मार के पछताएगा।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: मानव जनम ही स्मरण का समय है, गवा चुकने पर जनम-मरन के चक्र में पड़ना पड़ता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी घरु ३ ॥ मुसि मुसि रोवै कबीर की माई ॥ ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई ॥१॥

मूलम्

गूजरी घरु ३ ॥ मुसि मुसि रोवै कबीर की माई ॥ ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुसि मुसि = ढुसक ढुसक के। माई = माँ। बारिक = अंजान बच्चे। रघुराई = हे प्रभु!।1।
अर्थ: कबीर की माँ (कबीर कहता है कि मेरी माँ) ढुसक-ढुसक के रोती है (और कहती है:) हे परमात्मा! (कबीर के) अंजान बच्चे कैसे जीएंगे?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर ॥ हरि का नामु लिखि लीओ सरीर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर ॥ हरि का नामु लिखि लीओ सरीर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजिओ है = छोड़ दिया है। लिखि लीओ सरीर = शरीर पर लिख लिया है, जीभ पर परो लिया है, हर वक्त उचारता रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: (क्योंकि मेरे) कबीर ने (ताणा) तनना और (कपड़ा) बुनना सब कुछ छोड़ दिया है, हर वक्त हरि का नाम जपता रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु तागा बाहउ बेही ॥ तब लगु बिसरै रामु सनेही ॥२॥

मूलम्

जब लगु तागा बाहउ बेही ॥ तब लगु बिसरै रामु सनेही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेही = (संस्कृत: वेध, प्राकृत: बेह) छेद, साथ का छेद। बहाउ = बहाता है। सनेही = प्यारा।2।
अर्थ: जितने समय में मैं नाल के छेद में धागा बहाता हूँ, उतने वक्त में मुझे मेरा प्यारा प्रभु विसर जाता है (भाव, मुझे इतने समय के लिए भी प्रभु का विसरना अच्छा नहीं लगता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओछी मति मेरी जाति जुलाहा ॥ हरि का नामु लहिओ मै लाहा ॥३॥

मूलम्

ओछी मति मेरी जाति जुलाहा ॥ हरि का नामु लहिओ मै लाहा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओछी = होछी, हल्की। लाहा = लाभ।3।
अर्थ: (क्या हुआ अगर लोगों के मुताबिक) मेरी तुच्छ अक्ल है और मैं जाति का (नीच गरीब) जुलाहा हूँ, पर मैं परमात्मा का नाम-रूपी लाभ (इस मानव जनम के व्यापार में) कमा लिया है (सो, मैं मूर्ख और नीच जाति का नहीं रह गया)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर सुनहु मेरी माई ॥ हमरा इन का दाता एकु रघुराई ॥४॥२॥

मूलम्

कहत कबीर सुनहु मेरी माई ॥ हमरा इन का दाता एकु रघुराई ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रघुराई = परमात्मा।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे मेरी माँ! सुन, हमारा और हमारे इन बच्चों का रिजक देने वाला एक ही परमात्मा है (भाव, अगर उसने मुझे पाला है, तो इनको भी जरूर पालेगा)।4।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी की इस स्वै-घटित घटना से भाव ये निकलता है कि ‘भगता तै सैसारीआ जोड़ु कदे न आइआ’। दुनियादार तो हर वक्त माया कमाने में लगे रहना चाहता है; दूसरे, कमाई हुई को सिर्फ अपने ही लिए खर्चना चाहता है। भक्त अपनी गुजरान के लिए कमाता तो है, पर माया जोड़नी ही उसके जीवन का निशाना नहीं होता, उसका असल निशाना है ‘प्रभु की याद’ फिर, वह अपनी कमाई में से दूसरों की सेवा भी करता है। भक्त का ये रवईया उसके माता-पिता-पत्नी व और संबंधियों को नहीं भाता। इस कारण कमाते हुए भी वह उनको बेकाम का प्रतीत होता है, परमात्मा के राह की ओर की उसकी हरेक हरकत उनको चुभती है।
बिलावल व गौंड राग में भी कबीर जी के दो शब्द हैं, जिनसे जाहर होता है कि कबीर जी की पत्नी भी इसी बात के गिले-शिकवे करती थी।
नोट: अपनी माँ के गिले-शिकवे कबीर जी ने इस शब्द में बयान किए हैं, और फिर उनका उक्तर भी दिया है। ये ख्याल गलत है कि इस शब्द में कोई तुक कबीर जी की माँ की उचारी हुई हैं। महापुरखों की इस वाणी में दुनियादारों के कच्चे शब्द शामिल नहीं हो सकते।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: भक्त और दुनियादार की जिंदगी का निशाना अलग-अलग है। भक्त का असल निशाना है स्मरण; कमाता है गुजरान के लिए। दुनियादार का निशाना है हर वक्त माया कमानी और जोड़ते जाना।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी स्री नामदेव जी के पदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी स्री नामदेव जी के पदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौ राजु देहि त कवन बडाई ॥ जौ भीख मंगावहि त किआ घटि जाई ॥१॥

मूलम्

जौ राजु देहि त कवन बडाई ॥ जौ भीख मंगावहि त किआ घटि जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जौ = यदि। भीख मंगावहि = मुझसे भीख मंगाए, मुझे भिखारी बना दे, मुझे कंगाल कर दे।1।
अर्थ: (हे मन! एक प्रभु के दर पर यूँ कह: हे प्रभु!) अगर तू मुझे राज (भी) दे दे, तो किसी तरह बड़ा नहीं हो जाऊँगा और अगर तू मुझे कंगाल कर दे, तो मेरा कुछ घट नहीं जाना।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं हरि भजु मन मेरे पदु निरबानु ॥ बहुरि न होइ तेरा आवन जानु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तूं हरि भजु मन मेरे पदु निरबानु ॥ बहुरि न होइ तेरा आवन जानु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पदु = दर्जा, मुकाम। निरबानु = निरवाण, वासना रहित, जहाँ दुनिया की कोई वासना ना रहे। बहुरि = फिर, दुबारा।1। रहाउ।
अर्थ: (सुख मांगने के लिए और दुखों से बचने के लिए, अंजान लोग अपने ही हाथों पत्थरों से घड़े हुए देवताओं के आगे नाक रगड़ते हैं; पर) हे मेरे मन! तू एक प्रभु को स्मरण कर; वही वासना-रहित अवस्था (देने वाला) है, (उसका स्मरण करने से) फिर तेरा (जगत में) जगत में पैदा होना-मरना मिट जाएगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ तै उपाई भरम भुलाई ॥ जिस तूं देवहि तिसहि बुझाई ॥२॥

मूलम्

सभ तै उपाई भरम भुलाई ॥ जिस तूं देवहि तिसहि बुझाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = (हे प्रभु!) तू। उपाई = पैदा की। बुझाई = समझ दी, सूझ।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) सारी सृष्टि तूने स्वयं ही पैदा की है और भरमों में गलत रास्ते पर डाली हुई है, जिस जीव को तू खुद मति देता है उसे ही सद्-बुद्धि आती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मिलै त सहसा जाई ॥ किसु हउ पूजउ दूजा नदरि न आई ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु मिलै त सहसा जाई ॥ किसु हउ पूजउ दूजा नदरि न आई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहसा = दिल की घबराहट। जाई = दूर हो जाती है।3।
अर्थ: (जिस भाग्यशालियों को) सतिगुरु मिल जाए (दुखों-सुखों के बारे में) उसके दिल की घबराहट दूर हो जाती है (और वह अपने ही घड़े हुए देवताओं के आगे नाक नहीं रगड़ता फिरता)। (मुझे गुरु ने समझ बख्शी है) प्रभु के बिना कोई और (दुख-सुख देने वाला) मुझे नहीं दिखता, (इस वास्ते) मैं किसी और की पूजा नहीं करता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकै पाथर कीजै भाउ ॥ दूजै पाथर धरीऐ पाउ ॥ जे ओहु देउ त ओहु भी देवा ॥ कहि नामदेउ हम हरि की सेवा ॥४॥१॥

मूलम्

एकै पाथर कीजै भाउ ॥ दूजै पाथर धरीऐ पाउ ॥ जे ओहु देउ त ओहु भी देवा ॥ कहि नामदेउ हम हरि की सेवा ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। पाउ = पैर। देउ = देवता।4।
अर्थ: (क्या अजीब बात है कि) एक पत्थर (को देवता बना के उसके) साथ प्यार किया जाता है और दूसरों पत्थरों पर पैर रखा जाता है। अगर वह पत्थर (जिसकी पूजा की जाती है) देवता है तो दूसरा पत्थर भी देवता है (उसे क्यूँ पैरों के तले लिताड़ते हैं? पर) नामदेव कहता है (हम किसी पत्थर को देवता स्थापित करके उसकी पूजा करने के लिए तैयार नहीं), हम तो परमात्मा की बंदगी करते हैं।4।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: हमने नामदेव जी के इन शब्दों पर ऐतबार करना है, अथवा स्वार्थी लोगों की मन-घड़ंत कहानियों पर?

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी घरु १ ॥ मलै न लाछै पार मलो परमलीओ बैठो री आई ॥ आवत किनै न पेखिओ कवनै जाणै री बाई ॥१॥

मूलम्

गूजरी घरु १ ॥ मलै न लाछै पार मलो परमलीओ बैठो री आई ॥ आवत किनै न पेखिओ कवनै जाणै री बाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मलै = मल का, मैल का। लाछै = लांछन, दाग, निशान। पारमलो = पार मल, मल रहित। परमलिओ = (संस्कृत: परिमल) सुगंधि। री = हे बहन! कवनै = कौन? री बाई = हे बहन!।1।
अर्थ: हे बहन! उस सुंदर राम को मैल का दाग़ तक नहीं है, वह मैल से परे है, वह राम तो सुगंधि (की तरह) सब जीवों में आ के बसता है, (भाव, जैसे सुगंधि फूलों में है)। हे बहन! उस सोहने राम को कभी किसी ने पैदा होता नहीं देखा, कोई नहीं जानता कि वह कैसा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउणु कहै किणि बूझीऐ रमईआ आकुलु री बाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कउणु कहै किणि बूझीऐ रमईआ आकुलु री बाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहै = बयान कर सकता है। किणि = किस ने? रमईआ = सोहाना राम। आकुलु = (संस्कृत: अ: समन्नात् कुलं यस्य; जिसकी कुल चार चुफेरे है) जो हर जगह मौजूद है, सर्व व्यापक।1। रहाउ।
अर्थ: हे बहन! मेरा सुंदर राम हर जगह व्यापक है, पर कोई जीव भी (उसका मुकम्मल स्वरूप) बयान नहीं कर सकता, किसी ने भी (उसके मुकम्मल स्वरूप को) नहीं समझा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ आकासै पंखीअलो खोजु निरखिओ न जाई ॥ जिउ जल माझै माछलो मारगु पेखणो न जाई ॥२॥

मूलम्

जिउ आकासै पंखीअलो खोजु निरखिओ न जाई ॥ जिउ जल माझै माछलो मारगु पेखणो न जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरखिओ न जाई = देखा नहीं जा सकता। माझै = में। मारगु = रास्ता।2।
अर्थ: जैसे आकाश में पंछी उड़ता है, पर उसके उड़ने वाले रास्ते का खुरा-खोज देखा नहीं जा सकता, जैसे मछली पानी में तैरती है पर जिस रास्ते पर तैरती है वह राह देखी नहीं जा सकती (भाव, आँखों के आगे कायम नहीं किया जा सकता, वैसे ही उस प्रभु का मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं हो सकता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ आकासै घड़ूअलो म्रिग त्रिसना भरिआ ॥ नामे चे सुआमी बीठलो जिनि तीनै जरिआ ॥३॥२॥

मूलम्

जिउ आकासै घड़ूअलो म्रिग त्रिसना भरिआ ॥ नामे चे सुआमी बीठलो जिनि तीनै जरिआ ॥३॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आकासै = आकाश में (सं: आकाश, Free Space, place in general) खुली जगह, मैदान में। घड़ूअलो = पानी का घड़ा (भाव, पानी)। म्रिग त्रिसना = मृगतृष्णा, वह पानी जो प्यासे हिरन को रेतीली जगह पर प्रतीत होता है (म्रिग = मृग, हिरन। त्रिसना = प्यास)। म्रिग त्रिसना घड़ूअलो = प्यासे हिरन का पानी, मृग तृष्णा का जल। चे = दे। बीठलो = (सं: वि+स्थल, परे खड़ा हुआ) माया से निराला, निर्लिप प्रभु। जिनि = जिस (बीठल) ने। तीनै = तीनों ताप। जरिआ = जला दिए हैं।3।
अर्थ: जैसे खुली जगह मृग तृष्णा को जल दिखता है (आगे आगे बढ़ते जाएं पर उसका ठिकाना नहीं मिलता,इसी तरह प्रभु का खास ठिकाना नहीं मिलता। वैसे ही) नामदेव के पति बीठल जी ऐसे हैं जिसने मेरे तीनों ताप जला डाले हैं।3।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: नामदेव जी की वाणी में सिर्फ ‘बीठल’ शब्द देख के ये मान लेना भारी भूल है कि भक्त जी किसी मूर्ति के उपासक थे। उन्होंने अपने ‘बीठल’ का जो स्वरूप यहाँ बयान किया है, क्या वह किसी मूर्ति का है या सर्व-व्यापक परमात्मा का? फिर, लोगों की घड़ी हुई कहानी क्यों इस वाणी से ज्यादा एतबार-योग्य है?

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: परमात्मा सर्व-व्यापक है, अकथ है। उसका खास ठिकाना मिल नहीं सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी स्री रविदास जी के पदे घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी स्री रविदास जी के पदे घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ ॥ फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ ॥१॥

मूलम्

दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ ॥ फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बछरै = बछरे ने। थनहु = थनों से (ही)। बिटारिओ = जूठा कर दिया। भवरि = भवर ने। मीनि = मीन ने, मछली ने।1।
अर्थ: दूध तो थनों से ही बछड़े ने झूठा कर दिया; फूल भौरे ने (सूँघ के) और पानी को मछली ने खराब कर दिया (सो, दूध, फूल और पानी ये तीनों ही झूठे हो जाने के कारण प्रभु के आगे भेटा के योग्य नहीं रह गए)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ ॥ अवरु न फूलु अनूपु न पावउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ ॥ अवरु न फूलु अनूपु न पावउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माई = हे माँ! कहा = कहाँ? लै = ले कर। चरावउ = मैं भेट करूँ। अनूपु = (अन+ऊपु) जिस जैसा और कोई नहीं, सुंदर। न पावउ = मैं हासिल नहीं कर सकूँगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! गोबिंद की पूजा करने के लिए मैं कहाँ से कौन सी चीज ले के भेट करूँ? कोई और (स्वच्छ) फूल (आदि मिल) नहीं (सकता)। क्या मैं (इस कमी के कारण) उस सोहाने प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकूँगा।?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैलागर बेर्हे है भुइअंगा ॥ बिखु अम्रितु बसहि इक संगा ॥२॥

मूलम्

मैलागर बेर्हे है भुइअंगा ॥ बिखु अम्रितु बसहि इक संगा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैलागर = (मलय+अगर) मलय पर्वत पर उगे हुए चंदन के पौधे। बेर्हे = लपेटे हुए। भुइअंगा = साँप। बिखु = जहर। इक संगा = इकट्ठे।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘बेरे’ ‘र’ के नीचे आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: चंदन के पौधों को साँप चिपके हुए हैं (और उन्होंने चंदन को झूठा कर दिया है), जहर और अमृत (भी समुंदर में) इकट्ठे ही बसते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूप दीप नईबेदहि बासा ॥ कैसे पूज करहि तेरी दासा ॥३॥

मूलम्

धूप दीप नईबेदहि बासा ॥ कैसे पूज करहि तेरी दासा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीप = दीया। नइबेद = (संस्कृत: नैवेद्य An offering of eatables presented to deity or idol) किसी बुत या देवी देवते के आगे खाने वाली चीजों की भेटें। बासा = वासना, सुगंधि।3।
अर्थ: सुगंधि आ जाने के कारण धूप दीप और नैवेद्य भी (झूठे हो जाते हैं), (फिर हे प्रभु! अगर तेरी पूजा इन चीजों के साथ ही हो सकती हो, तो यह झूठी चीजें तेरे आगे रख के) तेरे भक्त किस तरह तेरी पूजा करें?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु मनु अरपउ पूज चरावउ ॥ गुर परसादि निरंजनु पावउ ॥४॥

मूलम्

तनु मनु अरपउ पूज चरावउ ॥ गुर परसादि निरंजनु पावउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरपउ = मैं अरप दूँ, मैं भेटा कर दूँ। चरावउ = चढ़ाऊँ, भेटा।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) मैं अपना तन और मन अर्पित करता हूँ, तेरी पूजा के तौर पर भेट करता हूँ; (इसी भेटा से ही) सतिगुरु की मेहर की इनायत से तुझ माया-रहित को ढूँढ सकता हूँ।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजा अरचा आहि न तोरी ॥ कहि रविदास कवन गति मोरी ॥५॥१॥

मूलम्

पूजा अरचा आहि न तोरी ॥ कहि रविदास कवन गति मोरी ॥५॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरचा = मूर्ति आदि की पूजा, मूर्ति आदि के आगे सिर झुकाना, मूर्ति को श्रृंगारना। आहि न = नहीं हो सकी। कहि = कहै, कहता है। कवन गति = क्या हाल?।5।
अर्थ: रविदास कहता है: (हे प्रभु! अगर सुच्चे दूध, फूल, धूप, चंदन और नैवेद आदि की भेटा से ही तेरी पूजा हो सकती तो कहीं भी ये वस्तुएं स्वच्छ ना मिलने के कारण) मुझसे तेरी पूजा व भक्ति हो ही नहीं सकती, तो फिर (हे प्रभु!) मेरा क्या हाल होता?।5।1।

दर्पण-भाव

भाव: लोग देवी-देवताओं की मूर्तियों को अपनी और स्वच्छ जल, फूल और दूध आदि प्रसन्न करने के यत्न करते हैं; पर ये चीजें तो पहले ही झूठी हो जाती हैं। परमात्मा ऐसी चीजों की भेटा से खुश नहीं होता। वह तो तन मन की भेट माँगता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी स्री त्रिलोचन जीउ के पदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी स्री त्रिलोचन जीउ के पदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरु मलि निरमलु नही कीना बाहरि भेख उदासी ॥ हिरदै कमलु घटि ब्रहमु न चीन्हा काहे भइआ संनिआसी ॥१॥

मूलम्

अंतरु मलि निरमलु नही कीना बाहरि भेख उदासी ॥ हिरदै कमलु घटि ब्रहमु न चीन्हा काहे भइआ संनिआसी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरु = अंदरूनी (मन) (शब्द ‘अंतरु’ और ‘अंतरि’ का फर्क समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। मलि = मल वाला, मलीन।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘मलु’ व्याकरण अनुसार ‘संज्ञा’ है इससे बना शब्द ‘मलि’ विषोशण है।

दर्पण-भाषार्थ

कीना = किया। भेख = धार्मिक लिबास। उदासी = विरक्त, जगत की ओर से उपराम। हिरदै कमलु न चीना = हृदय का कमल पुष्प नहीं पहचाना। घटि = घट में, हृदय में।1।
अर्थ: अगर (किसी मनुष्य ने) अंदरूनी मलीन (मन) साफ नहीं किया, पर बाहर से (शरीर पर) साधूओं वाला भेस बनाया हुआ है, अगर उसने अपने हृदय रूपी कमल को नहीं परखा, अगर उसने अपने अंदर परमात्मा को नहीं देखा, तो सन्यास धारण करने का कोई लाभ नहीं।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमे भूली रे जै चंदा ॥ नही नही चीन्हिआ परमानंदा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भरमे भूली रे जै चंदा ॥ नही नही चीन्हिआ परमानंदा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे = हे भाई! नही नही = बिल्कुल नहीं। चीन्हिआ = पहचाना। परमानंद = सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभु को।1। रहाउ।
अर्थ: हे जै चंद! सारी दुनिया (इसी भुलेखे में) भूली पड़ी है (कि निरा फकीरी भेस धारण करने से परमात्मा मिल जाता है, पर ये गलत है, इस तरह परमानंद प्रभु की समझ कभी भी नहीं पड़ती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरि घरि खाइआ पिंडु बधाइआ खिंथा मुंदा माइआ ॥ भूमि मसाण की भसम लगाई गुर बिनु ततु न पाइआ ॥२॥

मूलम्

घरि घरि खाइआ पिंडु बधाइआ खिंथा मुंदा माइआ ॥ भूमि मसाण की भसम लगाई गुर बिनु ततु न पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक घर में, हरेक घर से, घर घर से। पिंडु = शरीर। बधाइआ = मोटा कर लिया। खिंथा = गोदड़ी। मसाण भूमि = वह धरती जहाँ मुर्दे जलाए जाते हैं। भसम = राख। ततु = असलियत।2।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने) घर घर से (माँग के टुकड़े) खा लिए, (अपने) शरीर को अच्छा पाल लिया, गोदड़ी पहन ली, मुंद्रें भी पहन लीं, (पर सब कुछ) माया की खातिर ही (किया), मसाणों की धरती की राख भी (शरीर पे) मल ली, पर अगर वह गुरु के राह पर नहीं चला तो इस तरह तत्व की प्राप्ति नहीं होती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइ जपहु रे काइ तपहु रे काइ बिलोवहु पाणी ॥ लख चउरासीह जिन्हि उपाई सो सिमरहु निरबाणी ॥३॥

मूलम्

काइ जपहु रे काइ तपहु रे काइ बिलोवहु पाणी ॥ लख चउरासीह जिन्हि उपाई सो सिमरहु निरबाणी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइ = किस लिए? जपहु = जप करते हो। रे = हे भाई! बिलोवहु = मथते हो। जिनि = जिस (प्रभु) ने। निरबाणी = वासना रहित प्रभु।3।
अर्थ: (हे भाई!) क्यों (गिन मिथ के) जाप करते हो? क्यों तप साधते हो? किसलिए पानी में मथानी चला रहे हो? (हठ के साथ किए हुए ये साधन तो पानी में मथानी चलाने के समान हैं); उस वासना-रहित प्रभु को (हर वक्त) याद करो, जिसने चौरासी लाख (जोनि वाली सृष्टि) पैदा की है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइ कमंडलु कापड़ीआ रे अठसठि काइ फिराही ॥ बदति त्रिलोचनु सुनु रे प्राणी कण बिनु गाहु कि पाही ॥४॥१॥

मूलम्

काइ कमंडलु कापड़ीआ रे अठसठि काइ फिराही ॥ बदति त्रिलोचनु सुनु रे प्राणी कण बिनु गाहु कि पाही ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कमंडलु = (संस्कृत: कमण्डल) मिट्टी व लकड़ी का प्याला आदि साधु लोग पानी पीने के लिए पास रखते हैं, पत्थर। कापड़ीआ = टाकियों की बनी हुई गोदड़ी पहनने वाला। कण = अन्न के दाने। रे = हे भाई! हे जै चंद! अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। बदति = कहता है। कण = दाने। कि = किसलिए?।4।
अर्थ: हे टाकियाँ लगे कपड़े पहनने वाले! (हाथ में) खप्पर पकड़ने का कोई लाभ नहीं। अढ़सठ तीर्थों पर भटकने का भी कोई लाभ नहीं। त्रिलोचन कहता है: हे बंदे! सुन; अगर (अनाज रखने वाली भरियों में) अनाज के दाने नहीं, तो उसकी गहराई नापने का भी कोई लाभ नहीं।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी ॥ अंति कालि जो लछमी सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ सरप जोनि वलि वलि अउतरै ॥१॥

मूलम्

गूजरी ॥ अंति कालि जो लछमी सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ सरप जोनि वलि वलि अउतरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंति कालि = अंत के समय, मरने के वक्त। लछमी = माया, धन। सिमरै = याद रखता है। वलि वलि = बार बार। अउतरै = पैदा होता है।1।
अर्थ: अगर मनुष्य मरने के वक्त धन-पदार्थ याद करता है और इस सोच में ही मर जाता है तो वह मुड़ मुड़ के साँप की जोनि में पड़ता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरी बाई गोबिद नामु मति बीसरै ॥ रहाउ॥

मूलम्

अरी बाई गोबिद नामु मति बीसरै ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरी बाई = हे बहन! मति = मत कहीं, ना। रहाउ।
अर्थ: हे बहन! (मेरे लिए अरदास कर) मुझे कभी परमात्मा का नाम ना भूले (ता कि अंत समय भी वही परमात्मा याद आए)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंति कालि जो इसत्री सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ बेसवा जोनि वलि वलि अउतरै ॥२॥

मूलम्

अंति कालि जो इसत्री सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ बेसवा जोनि वलि वलि अउतरै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य मरने के समय (अपनी) स्त्री को ही याद करता है और इसी याद में प्राण त्याग देता है, वह मुड़ मुड़ के वेश्वा का जनम लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंति कालि जो लड़िके सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ सूकर जोनि वलि वलि अउतरै ॥३॥

मूलम्

अंति कालि जो लड़िके सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ सूकर जोनि वलि वलि अउतरै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूकर = सूअर।3।
अर्थ: जो मनुष्य अंत के समय (अपने) पुत्रों को ही याद करता है और पुत्रों को याद करता-करता ही मर जाता है, वह बार बार सूअर की जोनि में पैदा होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंति कालि जो मंदर सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ प्रेत जोनि वलि वलि अउतरै ॥४॥

मूलम्

अंति कालि जो मंदर सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ प्रेत जोनि वलि वलि अउतरै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य आखिरी समय में (अपने) घर महल-माढ़ियों के हाहुके भरता है और इसी चिन्ता में अपने प्राण त्याग देता है, वह बार-बार प्रेत बनता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंति कालि नाराइणु सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ बदति तिलोचनु ते नर मुकता पीत्मबरु वा के रिदै बसै ॥५॥२॥

मूलम्

अंति कालि नाराइणु सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ बदति तिलोचनु ते नर मुकता पीत्मबरु वा के रिदै बसै ॥५॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बदति = कहता है। मुकता = माया के बंधनों से आजाद। पीतंबरु = (पीत+अंबर) पीले कपड़ों वाला कृष्ण, परमात्मा। वा के = उस के।5।
अर्थ: त्रिलोचन कहता है: जो मनुष्य अंत के समय परमात्मा को याद करता है और इस याद में टिका हुआ ही शरीर त्यागता है, वह मनुष्य (धन, स्त्री, पुत्र और घर आदि के मोह से) आजाद हो जाता है, उसके हृदय में परमात्मा खुद आ के बसता है।5।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन त्रिलोचन जी के इन दोनों शबदों के बारे में यूँ लिखते हैं: “गूजरी राग वाला शब्द किसी जैचंद नाम के उदासी के साथ चर्चा का है। राग गूजरी के दोनों शब्द पौराणिक मत के लेखों के अनुसार कर्मों पर विचार है; जैसे कि ‘अंत कालि जो लक्ष्मी सिमरै’। भक्त जी ने पता नहीं कैसे अंदाजा लगाया कि इस तरह करने वाला इस जूनि में जाएगा। करते की बातें करता ही जान सकता है। इसी राग का दूसरा शब्द ‘नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी’ वाला है।”
ऐसा प्रतीत होता है कि विरोधी भाई साहब ने भक्तों की वाणी के विरोध में कुछ ना कुछ लिखने की कसम खाई हुई है। कई जगह तो साफ-साफ दिखता है कि विरोध करने वाले ने शबदों को ध्यान से पढ़ने की जरूरत भी नहीं समझी। यहीं देख लें। गूजरी राग में त्रिलोचन जी का ‘नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी’ वाला शब्द नहीं है। और, पहले लिखते हैं कि गूजरी राग के दोनों शब्द कर्मां पर विचार हैं। त्रिलोचन जी का पहला शब्द ‘अंतर मलि, निरमलु नही कीना’ ध्यान से पढ़ के देखें। यहाँ कर्मों के बारे में कोई जिक्र नहीं है। सारे शब्द में भेस का खण्डन किया गया है, और परमात्मा के साथ जान-पहचान का जोर दिया गया है। यही आशय है गुरमति का। पर, ये महोदय लिखते हैं, “भक्त जी के पाँचों शब्द गुरमति के किसी आशय का प्रचार नहीं करते।”
अब रहा गूजरी राग में भक्त जी का दूसरा शब्द। इस बारे में विरोधी महोदय ऐतराज करते हुए लिखते हैं;
यहाँ पौराणिक मत के अनुसार कर्मों पर विचार की गई है। भक्त जी ने कैसे अंदाजा लगाया कि इस तरह करने वाला इस जूनि में जाएगा।
ये बात बड़ी सीधी सी है। शायद महोदय ध्यान देने में चूक कर गए। भक्त त्रिलोचन जी खुद ब्राहमण जाति से थे। और, इस शब्द के माध्यम से हिन्दू भाईयों को शिक्षा दे रहे हैं। हिंदुओं में हिंदू धर्म के पुराण-शास्त्रों वाले विचार कुदरती तौर पर प्रचलित थे। जूनियों में पड़ने के बारे में जो ख्याल आम हिंदू जनता में चले हुए थे उनका ही हवाला दे के त्रिलोचन जी समझा रहे हैं कि सारी उम्र धन, स्त्री पुत्र व महल माढ़ियों के धंधों में ही इतना खचित ना रहो कि मरने के वक्त भी तवज्जो इनमें ही टिकी रहे। गृहस्थ जीवन की जिम्मेवारियां इस तरीके से निभाओ कि काम-काज करते हुए भी ‘अरी बाई, गोबिंद नामु मति बीसरै’; ता कि अंत समय धन, स्त्री, पुत्र, महल-माढ़ियों में तवज्जो भटकने की बजाए मन प्रभु के चरणों में जुड़े। सो, भक्त जी ने कोई अंदाजा नहीं लगाया, हिन्दू जनता में ही प्रचलित ख्यालों को उन्होंने सामने रख के उनको ही सही जीवन का रास्ता बता रहे हैं।
हमारे महोदय ने बड़ी जल्दबाजी में ये टोक कर दी है। वरना ये बात वैसी ही है, जैसे मुसलमानों को समझाने के लिए सतिगुरु नानक देव जी ने नीचे लिखे शलोक के द्वारा उनमें चले आ रहे ख्याल का हवाला दे के ईश्वर की ‘बही’ (हिसाब-किताब लिखने वाली पुस्तक) का जिक्र किया है;
“नानक आखै रे मना, सुणीअै सिख सही। लेखा रबु मंगेसीआ, बैठा कढि वही।”।2।13। (सलोक म: १, रामकली की वार म: ३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

गूजरी स्री जैदेव जीउ का पदा घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गूजरी स्री जैदेव जीउ का पदा घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमादि पुरखमनोपिमं सति आदि भाव रतं ॥ परमदभुतं परक्रिति परं जदिचिंति सरब गतं ॥१॥

मूलम्

परमादि पुरखमनोपिमं सति आदि भाव रतं ॥ परमदभुतं परक्रिति परं जदिचिंति सरब गतं ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमादि = परम+आदि। परम = सबसे ऊँचा। आदि = (सब का) आरम्भ। पुरखमनोपिमं = पुरखं+अनोपिमं (पुरुषं+अनुपिमं)। पुरख = सर्व व्यापक। अनोपिम = अन+उपम, जिस जैसा कोई नहीं। सति = सदा स्थिर रहने वाला। आदि = आदिक। भाव = गुण। रतं = संयुक्त, रति हुआ। सति आदि भाव रतं = जिसमें स्थिरता आदि गुण मौजूद हैं। परमदभुतं = परं+अदभुतं। परं = बहुत ही। अदभुत = आश्चर्य। परक्रिति = प्रकृति, माया। परक्रिति परं = माया से पार। जदिचिंति = जद+अचिंति (यत्+अचिंत्य)। जद = जो। अचिंति = (अचिन्त्य incomprehensible) जिसका मुकम्मल स्वरूप सोच मण्डल में नहीं आ सकता। सरब गतं = जो और जगह पहुँचा हुआ है।1।
अर्थ: वह परमात्मा सबसे ऊँची हस्ती है, सबका मूल है, सब में व्यापक है, उस जैसा और कोई नहीं, उसमें स्थिरता आदि (सारे) गुण मौजूद हैं, वह प्रभु बहुत ही आश्चर्यजनक है, माया से परे है, उसका मुकम्मल स्वरूप सोच-मण्डल में नहीं आ सकता, और वह हर जगह पहुँचा हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

केवल राम नाम मनोरमं ॥ बदि अम्रित तत मइअं ॥ न दनोति जसमरणेन जनम जराधि मरण भइअं ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

केवल राम नाम मनोरमं ॥ बदि अम्रित तत मइअं ॥ न दनोति जसमरणेन जनम जराधि मरण भइअं ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनोरमं = मन को मोहने वाला, सुंदर। बदि = (वद् to utter) बोल, उचार। अंम्रित मइअं = अमृत से भरपूर, अमृत रूप। दनोति = (दु = to afflict, दुख देना) दुख देता है। जसमरणेन = (यस्य+स्मरणेन, जस = यस्य, जिस का। स्मरणेन = स्मरण करने से) जिस का स्मरण करने से। जराधि = जरा+आधि। जरा = बुढ़ापा। आधि = रोग। भइअं = भय, डर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) केवल परमात्मा का सुंदर नाम स्मरण कर, जो अमृत भरपूर है, जो अस्लियत रूप है, और जिसके स्मरण से जनम-मरण, बुढ़ापा, चिन्ता, फिक्र और मौत का डर दुख नहीं देता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इछसि जमादि पराभयं जसु स्वसति सुक्रित क्रितं ॥ भव भूत भाव समब्यिअं परमं प्रसंनमिदं ॥२॥ लोभादि द्रिसटि पर ग्रिहं जदिबिधि आचरणं ॥ तजि सकल दुहक्रित दुरमती भजु चक्रधर सरणं ॥३॥

मूलम्

इछसि जमादि पराभयं जसु स्वसति सुक्रित क्रितं ॥ भव भूत भाव समब्यिअं परमं प्रसंनमिदं ॥२॥ लोभादि द्रिसटि पर ग्रिहं जदिबिधि आचरणं ॥ तजि सकल दुहक्रित दुरमती भजु चक्रधर सरणं ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इछसि = इच्छसि, जो तू चाहता है। जमादि = जम+आदि, यम आदि। पराभयं = (पराभवं। भ = to become. पराभु = to defeat) (किसी को) जीतना, (किसी को) मात देनी। जसु = यश, शोभा, बड़ाई। स्वसति = कल्याण, सुख। सुक्रित = भलाई, नेक काम। सुक्रित क्रितं = नेक काम करना। भव = अब वाला समय, वर्तमान। भूत = गुजर चुका समय। भाव = (भाव्य) आने वाला समय। समब्यिअं = सं+मब्यिअं {(संस्कृत: सं+अव्यवं) वय्यं = नाश। अव्यय = नाश रहित। सं-संपूर्ण} पूर्ण तौर पर नास-रहित। प्रसंनमिदं = प्रसंनं+इदं। इदं = ये (परमात्मा)।2।
लोभादि = लोभ+आदि। द्रिसटि = नजर। ग्रिह = घर। पर = पराया। जदिबिधि = जद+अबिधि (यत्+अविधि)। जद = (यत्) जो। अबिधि = अ+बिधि, विधि के उलट, मर्यादा के विरुद्ध, बुरा। अबिधि आचरन = बुरा आचरण। तजि = छोड़ दे। सकल = सारे। दुहक्रित = दुह+क्रित, बुरे काम। दुरमती = बुरी मति। भजु = जाओ। चक्रधर = चक्रधारी, सुदर्शन चक्रधारी, वह प्रभु जिसके हाथ में सुदर्शन चक्र है, वह प्रभु जो सबको नाश भी कर सकता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) अगर तू यम आदि को जीतना चाहता है, अगर तू शोभा और सुख चाहता है तो लोभ आदि (विकार) छोड़ दे, पराए घर की ओर देखना छोड़ दे, वह आचरण त्याग दे जो मर्यादा के उलट है सारे बुरे काम छोड़ दे, दुर्मति त्याग दे, और उस प्रभु की शरण पड़ जो सबको नाश करने के समर्थ है, जो अब पिछले समय और आगे के लिए सदा ही पूर्ण तौर पर नाश-रहित है जो सबसे ऊँची हस्ती है, और जो सदा खिला रहता है।2,3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि भगत निज निहकेवला रिद करमणा बचसा ॥ जोगेन किं जगेन किं दानेन किं तपसा ॥४॥

मूलम्

हरि भगत निज निहकेवला रिद करमणा बचसा ॥ जोगेन किं जगेन किं दानेन किं तपसा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि भगत निज = हरि के निज भक्त, प्रभु के अपने भक्त, प्रभु के प्यारे भक्त। निहकेवल = (निस्+केवल्य) पूर्ण तौर पर पवित्र। करमणा = कर्मणा, in action। बचसा = वचन से (in word)। किं = क्या लाभ है?।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: संस्कृत शब्द ‘कर्मन्’ से कर्मणा, कर्ण कारक instrumental case एकवचन है, कर्म से, करतूत से।
नोट: ‘बचसा’ बारे में। संस्कृत के शब्द ‘वचस्’ से ‘वचसा’ कर्ण कारक एकवचन।
नोट: जब संस्कृत शब्द ‘किं’ का अर्थ हो ‘इसका क्या लाभ है? कोई लाभ नहीं’ तो जिस शब्द के साथ ये इस्तेमाल होता है उसको कर्ण कारक instrumental case में लिखते हैं। तभी जोगेन, जगेन, दानेन और ‘तपसा’ कर्ण कारक में प्रयोग किए गए हैं।

दर्पण-भाषार्थ

तपसा = तप से। तपसा किं = तप से क्या लाभ? तप करने से कोई लाभ नहीं।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘वचसा’ की तरह ‘तपसा’ भी कर्ण कारक एकवचन है, असल शब्द है ‘तपस्’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: परमात्मा के प्यारे भक्त मन, वचन और कर्म से पवित्र होते हैं। (भाव, भगतों का मन पवित्र, बोल पवित्र और कर्म भी पवित्र होते हैं); उन्हें योग से क्या वास्ता? उनका यज्ञ से क्या प्रयोजन? उन्हें दान व तप से क्या? (भाव, भक्त जानते हैं कि योग-साधना, यज्ञ, दान और तप करने से कोई आत्मिक लाभ नहीं हो सकता, प्रभु की भक्ति ही असल करणी है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिंद गोबिंदेति जपि नर सकल सिधि पदं ॥ जैदेव आइउ तस सफुटं भव भूत सरब गतं ॥५॥१॥

मूलम्

गोबिंद गोबिंदेति जपि नर सकल सिधि पदं ॥ जैदेव आइउ तस सफुटं भव भूत सरब गतं ॥५॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोबिंदेति = गोबिंद+इति। इति = ये, यूँ। नर = हे नर! सकल सिधि पदं = सारी सिद्धियों का ठिकाना। तस = तस्य, उसकी (शरण)। सफुटं = प्रत्यक्ष तौर पर, खुल्लम खुल्ला।5।1।
अर्थ: हे भाई! गोबिंद का भजन कर, गोबिंद को जप, वही सारी सिद्धियों का खजाना है। जैदेव भी और आसरे त्याग के उसकी शरण आया है, वह अब भी, पिछले समय में भी (आगे को भी) हर वक्त हर जगह मौजूद है।5।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भक्त जैदेव जी का ये शब्द गूजरी राग में है। इसी राग के आरंभ में गुरु नानक देव जी का एक शब्द है। दोनों को आमने-सामने रख के पढ़ें तो प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि शब्द उच्चारण के समय गुरु नानक साहिब जी के सामने जैदेव जी का ये शब्द मौजूद था। गुरु नानक देव जी वह शब्द नीचे दिया जा रहा है;
गूजरी महला १ घरु ४॥
भगति प्रेम अराधितं, सचु पिआस परम हितं॥ बिललाप बिलल बिनंतीआ, सुख भाइ चित हितं॥१॥ जपि मन नामु हरि सरणी॥ संसार सागर तारि तारण, रम नाम करि करणी॥१॥ रहाउ॥ ए मन मिरत सुभ चिंतं, गुर सबदि हरि रमणं॥ मति ततु गिआनं, कलिआण निधानं, हरि नाम मनि रमणं॥२॥ चल चित वित भ्रमा भ्रमं जगु मोह मगन हितं॥ थिरु नामु भगत दिढ़ं मती, गुर वाकि सबद रतं॥३॥ भरमाति भरमु न चूकई, जगु जनमि बिआधि खपं॥ असथानु हरि निहकेवलं, सति मती नाम तपं॥४॥ इहु जगु मोह हेत बिआपितं, दुखु अधिक जनम मरणं॥ भजु सरणि सतिगुर ऊबरहि, हरि नामु रिद रमणं॥५॥ गुरमति निहचल मनि मनु मनं सहज बीचारं॥ सो मनु निरमलु, जितु साचु अंतरि, गिआन रतनु सारं॥६॥ भै भाइ भगति तरु भवजलु मना, चितु लाइ हरि चरणी॥ हरि नामु हिरदै पवित्रु पावनु, इहु सरीरु तउ सरणी॥७॥ लब लोभ लहरि निवारं, हरि नाम रासि मनं॥ मनु मारि तुही निरंजना, कहु नानक सरनं॥८॥१॥५॥
कई बातों में ये शब्द आपस में मिलते-जुलते हैं;

  1. दोनों शब्द ‘घरु ४’ में हैं।
  2. सुर में दोनों को पढ़ के देखें दोनों की चाल एक जैसी ही है।
  3. दोनों की बोली भी तकरीबन एक जैसी ही है।
  4. कई शब्द दोनों शबदों में सांझे हैं।
    दोनों शबदों की इस गहरी समानता से अंदाजा यही लगता है कि जब गुरु नानक देव जी अपनी पहली उदासी में (सन् 1508 से सन् 1515 तक) सारे हिन्दू तीर्थों पर गए तो भक्त जैदेव जी की जनम-नगरी भी पहुँचे। वहाँ भक्त जी का ये शब्द मिला; इसे अपने आशय अनुसार देख के इसकी प्रति अपने पास रख ली और इसी रंग-ढंग का शब्द अपनी तरफ से उचार के इस शब्द के साथ पक्की गहरी सांझ बना ली।
    कई सज्जनों का ख्याल है कि भक्तों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी। पर जहाँ तक इस शब्द का संबंध है, ये शब्द हर हालत में गुरु नानक देव जी खुद भक्त जैदेव जी की जन्म-भूमि से ले के आए थे; यही कारण है कि इन दोनों शबदों में इतनी नजदीकी सांझ है।
    नोट: भक्त वाणी का विरोधी-सज्जन इस शब्द के बारे में लिखता है कि इस शब्द के अंदर विष्णु-भक्ति का उपदेश है। ये अंदाजा उसने शब्द ‘चक्रधर’ से लगाया प्रतीत होता है। पर बाकी के शब्द पढ़ के देखें। ‘रहाउ’ वाली तुक में ही भक्त जी कहते हैं ‘केवल राम नाम मनोरमं। बदि अंम्रित तत मइअं’। और, ‘रहाउ’ की तुकों में दिए हुए विचार की ही व्याख्या सारे शब्द में हुआ करती है। इसी ‘राम नाम’ वास्ते जैदेव जी शब्द के बाकी बंदों में निम्न-लिखित शब्दों का प्रयोग करते हैं: परमादि पुरख, अनोपिम, परम-अदभुत, परक्रिति-पर, चक्रधर, हरि, गोबिंद, सरब-गत। स्पष्ट है कि सर्व-व्यापक अकाल पुरख की भक्ति का उपदेश कर रहे हैं।
    इसी शब्द के साथ गुरु अरजन साहिब का नीचे लिखा शब्द भी मिल के पढ़ें, कैसी मजेदार सांझ सामने आती है, और भक्त जी के शब्द से डरने वाली कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।
    गूजरी महला ५ घरु ४
    नाथ नरहर दीन बंधव, पति पावन देव। भैत्रासनास क्रिपाल गुणनिधि, सफल सुआमी सेव॥१॥ हरि गोपाल गुर गोबिंद। चरण सरण दइआल केसव, मुरारि मन मकरंद। जनम मरन निवारि धरणीधर, पति राखु परमानंद।2। जलत अनत तरंग माइआ, गुर गिआन हरि रिद मंत। छेदि अहंबुधि करुणामै, चिंत मेटि पुरख अनंत।3।…..
    धनाढि आढि भंडार हरि निधि, होत जिना न चीर। मुगध मूढ़ कटाख् श्रीधर, भऐ गुण मति धीर।6।….
    देत दरसनु स्रवन हरि जसु, रसन नाम उचार। अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार।8।1।2।5।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥