२९ फ़रीद

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा सेख फरीद जीउ की बाणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा सेख फरीद जीउ की बाणी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिलहु मुहबति जिंन्ह सेई सचिआ ॥ जिन्ह मनि होरु मुखि होरु सि कांढे कचिआ ॥१॥

मूलम्

दिलहु मुहबति जिंन्ह सेई सचिआ ॥ जिन्ह मनि होरु मुखि होरु सि कांढे कचिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन्ह मुहबति = जिस की मुहब्बत। सचिआ = सच्चे आशिक, सच्ची मुहबत करने वाले। सेई = वही लोग। जिन्मनि = जिस के मन में। मुखि = मुंह में। कांढे = कहे जाते हैं। कचिआ = कच्ची प्रीत वाले।1।
अर्थ: जिस मनुष्यों का रब से दिल से प्यार है, वही सच्चे आशिक हैं; पर जिनके मन में और है और मुंह में से कुछ और ही कहते हैं वह कच्चे (आशिक) कहे जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रते इसक खुदाइ रंगि दीदार के ॥ विसरिआ जिन्ह नामु ते भुइ भारु थीए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रते इसक खुदाइ रंगि दीदार के ॥ विसरिआ जिन्ह नामु ते भुइ भारु थीए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रते = रंगे हुए। इसक = प्यार, मुहबत। रंगि = रंग में। भुइ = जमीन पे। थीए = हो गए हैं।1। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य रब के प्यार में रंगे हुए हैं, जो लोग रब के दीदार में रते हुए हैं, (वही असल मनुष्य हैं); पर जिन्हें रब का नाम भूल गया है वह मनुष्य धरती पर निरे भार ही हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि लीए लड़ि लाइ दरि दरवेस से ॥ तिन धंनु जणेदी माउ आए सफलु से ॥२॥

मूलम्

आपि लीए लड़ि लाइ दरि दरवेस से ॥ तिन धंनु जणेदी माउ आए सफलु से ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। दरि = (प्रभु के) दर से। से = वही लोग। जणेदी = पैदा करने वाली। धंनु = भाग्यों वाली। माउ = माँ।2।
अर्थ: वही मनुष्य (रब के) दरवाजे पर दरवेश हैं (वही मनुष्य रब के दर से इश्क की खैर मांग सकते हैं) जिन्हें रब ने स्वयं अपने लड़ लगाया है, उनकी पैदा करने वाली माँ भाग्यों वाली है, उनका (जगत में) आना मुबारक है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परवदगार अपार अगम बेअंत तू ॥ जिना पछाता सचु चुमा पैर मूं ॥३॥

मूलम्

परवदगार अपार अगम बेअंत तू ॥ जिना पछाता सचु चुमा पैर मूं ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परवदगार = हे पालनहार! अगम = अगम्य (पहुँच से परे)! तू = तुझे। सचु = सदा सिथर रहने वाले को। मूं = मैं।3।
अर्थ: हे पालणहार! हे बेअंत! हे अगम्य (पहुँच से परे)! जिन्होंने ये समझ लिया है कि तू सदा कायम रहने वाला है, मैं उनके पैर चूमता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी पनह खुदाइ तू बखसंदगी ॥ सेख फरीदै खैरु दीजै बंदगी ॥४॥१॥

मूलम्

तेरी पनह खुदाइ तू बखसंदगी ॥ सेख फरीदै खैरु दीजै बंदगी ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पनह = ओट, पनाह। खुदाइ = हे खुदा! हे प्रभु! बखसंदगी = बख्शने वाला। फरीदै = फरीद को।4।
अर्थ: हे खुदा! मुझे तेरा ही आसरा है, तू बख्शने वाला है; मुझ शेख फरीद को अपनी बंदगी की ख़ैर डाल।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ बोलै सेख फरीदु पिआरे अलह लगे ॥ इहु तनु होसी खाक निमाणी गोर घरे ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ बोलै सेख फरीदु पिआरे अलह लगे ॥ इहु तनु होसी खाक निमाणी गोर घरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोलै = कहता है। पिआरे = हे प्यारे! अलह लगे = अल्लाह के साथ लग, रब के चरणों में जुड़। होसी = हो जाएगा। गोर = कबर।1।
अर्थ: शेख फरीद कहता है: हे प्यारे! रब (के चरणों) में जुड़; (तेरा) ये जिस्म छोटी सी कब्र में पड़ के मिट्टी हो जाएगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आजु मिलावा सेख फरीद टाकिम कूंजड़ीआ मनहु मचिंदड़ीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आजु मिलावा सेख फरीद टाकिम कूंजड़ीआ मनहु मचिंदड़ीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आजु = आज, इस मानव जनम में ही। फरीद = हे फरीद! टाकिम = रोक, काबू कर। कूंजड़ीआ = (भाव) इन्द्रियों को। मनहु मचिंदड़ीआ = मन को मचाने वाली। रहाउ।
अर्थ: हे शेख फरीद! इस मानव जन्म में ही (ईश्वर से) मेल हो सकता है (इस वास्ते इन) मन को मचाने वाली इन्द्रियों को काबू में रख।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे जाणा मरि जाईऐ घुमि न आईऐ ॥ झूठी दुनीआ लगि न आपु वञाईऐ ॥२॥

मूलम्

जे जाणा मरि जाईऐ घुमि न आईऐ ॥ झूठी दुनीआ लगि न आपु वञाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जे जाणा = जब ये पता है। घुमि = मुड़ के, फिर। लगि = लग के। आपु = अपने आप को। न वञाईऐ = ख्वार नहीं करना चाहिए, परेशान नहीं करना चाहिए।2।
अर्थ: (हे प्यारे मन!) जब तुझे पता है कि आखिर मरना है और दुबारा (यहाँ) नहीं आना, तो इस नाशवान दुनिया के साथ प्रीति लगा के अपना आप गवाना नहीं चाहिए;।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलीऐ सचु धरमु झूठु न बोलीऐ ॥ जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलीऐ ॥३॥

मूलम्

बोलीऐ सचु धरमु झूठु न बोलीऐ ॥ जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलीऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाट = रास्ता। मुरीदा = मुरीद बन के, सिख बन के। जोलीऐ = चलना चाहिए।3।
अर्थ: सच और धर्म ही बोलना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, जो रास्ता गुरु बताए उस रास्ते पे मुरीदों की तरह चलना चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छैल लंघंदे पारि गोरी मनु धीरिआ ॥ कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ ॥४॥

मूलम्

छैल लंघंदे पारि गोरी मनु धीरिआ ॥ कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छैल = बाँके जवान, संत जन। गोरी मनु = (कमजोर) स्त्री का मन। धीरिआ = हौसला पकड़ता है। कंचन वंने पासे = जो धन पदाथ्र की तरफ लग गए। कलवति = कलवत्र से, आरे से।4।
अर्थ: (किसी दरिया से) जवानों को पार होते देख के (कमजोर) स्त्री का मन भी (हौसला पकड़ लेता है) (और पार होने की कोशिश करती है; इसी तरह संत-जनों को संसार-समुंदर में से पार लांघता देख के कमजोर दिल मनुष्य में भी हिम्मत आ जाती है, इसलिए हे मन! तू संत-जनों की संगति कर! देख) जो मनुष्य निरे सोने-चाँदी की ओर (भाव, माया जोड़ने की तरफ लग) जाते हैं वे आरे से चीरे जाते हैं (भाव, बहुत दुखी जीवन व्यतीत करते हैं)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ ॥ जिसु आसणि हम बैठे केते बैसि गइआ ॥५॥

मूलम्

सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ ॥ जिसु आसणि हम बैठे केते बैसि गइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेख = हे शेख फरीद! हैयाती = उम्र। जगि = जगत में। थिरु = सदा कायम। आसणि = जगह पे। केते = कई। बैसि गइआ = बैठ के चले गए हैं।5।
अर्थ: हे शेख फरीद! जगत में कोई सदा के लिए उम्र नहीं भोग सका (देख) जिस (धरती की इस) जगह पर हम (अब) बैठे हैं (इस धरती पर) कई बैठ के चले गए।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कतिक कूंजां चेति डउ सावणि बिजुलीआं ॥ सीआले सोहंदीआं पिर गलि बाहड़ीआं ॥६॥

मूलम्

कतिक कूंजां चेति डउ सावणि बिजुलीआं ॥ सीआले सोहंदीआं पिर गलि बाहड़ीआं ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेति = चेत्र (के महीने) में। डउ = जंगल की आग। सावणि = सावन के महीने में। सोहंदीआं = सोहणी लगती हैं। पिर गलि = पति के गले में। बाहड़ीआ = सुंदर बाँहें।6।
अर्थ: कार्तिक के महीने कूँजें (आती हैं); चेत्र में जंगलों को आग (लग पड़ती है), सावन में बिजलियां (चमकती हैं), ठंड में (स्त्रीयों की) सुहानी बाँहें (अपने) पतियों के गले में शोभती हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चले चलणहार विचारा लेइ मनो ॥ गंढेदिआं छिअ माह तुड़ंदिआ हिकु खिनो ॥७॥

मूलम्

चले चलणहार विचारा लेइ मनो ॥ गंढेदिआं छिअ माह तुड़ंदिआ हिकु खिनो ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चले = चले जा रहे हैं। चलणहार = नाशवान जीव। छिअ माह = छह महीने। हिकु खिनो = एक पल।7।
अर्थ: (इसी तरह जगत की सारी कार अपने-अपने समय सिर हो के चलती जा रही है; जगत से) चले जाने वाले जीव (अपना-अपना समय गुजार के) चले जा रहे हैं; हे मन! विचार के देख, जिस शरीर के बनने में छह महीने लगते हैं उसके नाश होने में एक पल ही लगता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किंनि गए ॥ जालण गोरां नालि उलामे जीअ सहे ॥८॥२॥

मूलम्

जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किंनि गए ॥ जालण गोरां नालि उलामे जीअ सहे ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेवट = मल्लाह, बड़े बड़े नेता। किंनि = कितने ही। गए = गुजर गए हैं। जालण = दुख सहने। गोरां नालि = कब्रों से। जीअ = जिंद, जीव।8।
अर्थ: हे फरीद! इस बात के जमीन व आसमान गवाह हैं कि वो बेअंत बंदे यहाँ से चले गए जो अपने आप को बड़े नेता कहलवाते थे। शरीर तो कब्रों में गल जाते हैं, (पर किए कर्मों के) दुख-सुख जिंद सहती है।8।2।