२७ रविदास

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा बाणी स्री रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा बाणी स्री रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रिग मीन भ्रिंग पतंग कुंचर एक दोख बिनास ॥ पंच दोख असाध जा महि ता की केतक आस ॥१॥

मूलम्

म्रिग मीन भ्रिंग पतंग कुंचर एक दोख बिनास ॥ पंच दोख असाध जा महि ता की केतक आस ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिग = हिरन। मीन = मछली। भ्रिंग = भौरा। पतंग = पतंगा। कुंचर = हाथी। दोख = ऐब (हिरन को घंडेहेड़े का नाद सुनने का रस; मछली को जीभ का चस्का; भौरे को फूल सूंघने की चाहत; पतंगे को दीए पे जल मरना, आँखों से देखने का चस्का; हाथी को काम-वासना)। असाध = जो वश में ना आ सके। जा महि = जिस (मनुष्य) में।1।
अर्थ: हिरन, मछली, भौरा, पतंगा, हाथी- एक-एक ऐब के कारण इनका नाश हो जाता है, पर इस मनुष्य में ये पाँचों असाध रोग हैं, इसे बचने की कब तक उम्मीद की जा सकती है?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधो अबिदिआ हित कीन ॥ बिबेक दीप मलीन ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माधो अबिदिआ हित कीन ॥ बिबेक दीप मलीन ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधो = (माधव) हे माया के पति प्रभु! अबिदिआ = अज्ञानता। हित = मोह, प्यार। मलीन = मैला, धुंधला।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जीव अज्ञानता से प्यार कर रहे हैं, इस वास्ते इनके विवेक का दीपक धुंधला हो गया है (भाव, परख-हीन हो रहे हैं, भले बुरे की पहचान नहीं करते)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिगद जोनि अचेत स्मभव पुंन पाप असोच ॥ मानुखा अवतार दुलभ तिही संगति पोच ॥२॥

मूलम्

त्रिगद जोनि अचेत स्मभव पुंन पाप असोच ॥ मानुखा अवतार दुलभ तिही संगति पोच ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिगध जोनि = उन जूनियों के जीव जो टेढ़े हो के चलते हैं, प्शु आदि। अचंत = गाफल, ईश्वर की ओर से गाफिल, विचार हीन। असोच = सोच रहित, बेपरवाह। संभव = मुमकिन, कुदरती। अवतार = जनम। पोच = नीच। तिही = इस की भी।2।
अर्थ: पशु आदि टेढ़े चलने वालों की जूनों के जीव विचार-हीन हैं, उनका पाप-पुण्य की ओर से बेपरवाह रहना कुदरती है; पर मनुष्य को ये जनम मुश्किल से मिला है, इसकी संगति भी नीच विकारों के साथ ही है (इसे तो सोचना चाहिए था)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत जहा जहा लगु करम के बसि जाइ ॥ काल फास अबध लागे कछु न चलै उपाइ ॥३॥

मूलम्

जीअ जंत जहा जहा लगु करम के बसि जाइ ॥ काल फास अबध लागे कछु न चलै उपाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाइ = जनम ले के, पैदा करके। अबध = अ+बध, जो नाश ना हो सके। उपाइ = उपाय।3।
अर्थ: किए कर्मों के अधीन जनम ले के जीव जहाँ-जहाँ भी हैं, सारे जीव-जंतुओं को काल की (आत्मिक मौत की) ऐसी फाँसी पड़ी हुई है जो काटी नहीं जा सकती, इनकी कुछ पेश नहीं चलती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रविदास दास उदास तजु भ्रमु तपन तपु गुर गिआन ॥ भगत जन भै हरन परमानंद करहु निदान ॥४॥१॥

मूलम्

रविदास दास उदास तजु भ्रमु तपन तपु गुर गिआन ॥ भगत जन भै हरन परमानंद करहु निदान ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निदान = आखिर। उदास = विकारों से उपराम।4
अर्थ: हे रविदास! हे प्रभु के दास रविदास! तू तो विकारों के मोह में से निकल; ये भटकना छोड़ दे, सतिगुरु का ज्ञान कमा, यही तपों का तप है। भक्त जनों के भय दूर करने वाले हे प्रभु! आखिर मुझ रविदास को भी (अपने प्यार का) परम-आनंद बख्शो (मैं तेरी शरण आया हूँ)।4।1।

दर्पण-भाव

भाव: विकार तो एक ही इतना खतरनाक है, मनुष्य को तो पाँचों ही चिपके हुए हैं। अपने उद्यम से मनुष्य अपनी समझ का दीपक साफ नहीं रख सकता। प्रभु की शरण पड़ कर ही विकारों से बच सकता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ संत तुझी तनु संगति प्रान ॥ सतिगुर गिआन जानै संत देवा देव ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ संत तुझी तनु संगति प्रान ॥ सतिगुर गिआन जानै संत देवा देव ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुझी = तेरा ही। तनु = शरीर, स्वरूप। प्रान = जिंद जीन। जानै = पहचान लेता है। देवादेव = हे देवताओं के देवते!।1।
अर्थ: हे देवों के देव प्रभु! सतिगुरु की मति ले के संतों (की उपमा) को (मनुष्य) समझ लेता है कि संत तेरा ही रूप हैं, संतों की संगति तेरी जिंद-जान है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत ची संगति संत कथा रसु ॥ संत प्रेम माझै दीजै देवा देव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

संत ची संगति संत कथा रसु ॥ संत प्रेम माझै दीजै देवा देव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ची = की। रसु = आनंद। माझै = मुझे। दीजै = देह।1। रहाउ।
अर्थ: हे देवताओं के देवते प्रभु! मुझे संतों की संगति बख्श, मेहर कर, मैं संतों की प्रभु-कथा का रस ले सकूँ; मुझे संतों का (भाव, संतों से) प्रेम (करने की दाति) दे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत आचरण संत चो मारगु संत च ओल्हग ओल्हगणी ॥२॥

मूलम्

संत आचरण संत चो मारगु संत च ओल्हग ओल्हगणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आचरण = करणी, करतब। चो = का। मारगु = रास्ता। च = के। ओल्हग ओल्हगणी = दासों की सेवा। ओल्ग = दास। ओल्गणी = सेवा।2।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे संतों वाली करणी, संतों का रास्ता, संतों के दासों की सेवा बख्श।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउर इक मागउ भगति चिंतामणि ॥ जणी लखावहु असंत पापी सणि ॥३॥

मूलम्

अउर इक मागउ भगति चिंतामणि ॥ जणी लखावहु असंत पापी सणि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं तुझसे एक और (दाति भी) मांगता हूँ, मुझे अपनी भक्ति दे, जो मन-चिंदे फल देने वाली मणि है; मुझे विकारियों और पापियों के दर्शन ना कराना।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रविदासु भणै जो जाणै सो जाणु ॥ संत अनंतहि अंतरु नाही ॥४॥२॥

मूलम्

रविदासु भणै जो जाणै सो जाणु ॥ संत अनंतहि अंतरु नाही ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भणै = कहता है। जाणु = सियाना। अंतरु = दूरी।4।
अर्थ: रविदास कहता है: असल में समझदार वह मनुष्य है जो यह जानता है कि संतों और बेअंत प्रभु में कोई अंतर नहीं है।4।2।

दर्पण-भाव

भाव: प्रभु दर से अरदास- हे प्रभु! साधु-संगत का मिलाप बख्शो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ तुम चंदन हम इरंड बापुरे संगि तुमारे बासा ॥ नीच रूख ते ऊच भए है गंध सुगंध निवासा ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ तुम चंदन हम इरंड बापुरे संगि तुमारे बासा ॥ नीच रूख ते ऊच भए है गंध सुगंध निवासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बापुरे = बिचारे, निमाणे। संगि तुमारे = तेरे साथ। बासा = वास। रूख = पौधा। सुगंध = सुगंधि। निवासा = वश पड़ी है।1।
अर्थ: हे माधो! तू चंदन का पौधा है, मैं निमाणा सा हरिण्ड हूँ (पर तेरी मेहर से) मुझे तेरे (चरणों) में रहने के लिए जगह मिल गई है, तेरी सुंदर मीठी वासना मेरे अंदर बस गई है, अब मैं नीचे पौधे से ऊँचा बन गया हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधउ सतसंगति सरनि तुम्हारी ॥ हम अउगन तुम्ह उपकारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माधउ सतसंगति सरनि तुम्हारी ॥ हम अउगन तुम्ह उपकारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधउ = (सं: माधव माया लक्ष्म्याधव:)। मा = माया, लक्षमी। धव = पति। लक्ष्मी का पति, कृष्ण जी का नाम, हे माधो! हे प्रभु! अउगन = अवगुण, बुरे कर्मों वाला। उपकारी = भलाई करने वाला, मेहर करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे माधो! मैंने तेरी साधु-संगत की ओट पकड़ी है (मुझे यहाँ से विछुड़ने ना देना), मैं बुरे कामों वाला हूँ (तेरा सत्संग छोड़ के दुबारा बुरी तरफ चल पड़ता हूँ, पर) तू मेहर करने वाला है (और फिर जोड़ लेता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम मखतूल सुपेद सपीअल हम बपुरे जस कीरा ॥ सतसंगति मिलि रहीऐ माधउ जैसे मधुप मखीरा ॥२॥

मूलम्

तुम मखतूल सुपेद सपीअल हम बपुरे जस कीरा ॥ सतसंगति मिलि रहीऐ माधउ जैसे मधुप मखीरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मखतूल = रेशम। सुपेद = सफेद। सपीअल = पीला। जस = जैसे। कीरा = कीड़े। मिलि = मिल के। रहीऐ = टिके रहें, टिके रहने का चाहत है। मधुप = शहिद की मक्खी। मखीरा = शहद का छत्ता।2।
अर्थ: हे माधो! तू सफेद पीला (सुंदर सा) रेशम है, मैं निमाणा (उस) कीड़े की तरह हूँ (जो रेशम को छोड़ के बाहर निकल जाता है और मर जाता है), माधो! (मेहर कर) मैं तेरी साधु-संगत में जुड़ा रहूँ, जैसे शहिद की मक्खियां शहद के छत्ते में (टिकी रहती हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाती ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा ॥ राजा राम की सेव न कीनी कहि रविदास चमारा ॥३॥३॥

मूलम्

जाती ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा ॥ राजा राम की सेव न कीनी कहि रविदास चमारा ॥३॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओछा = नीच, हलका। पाती = पात, कुल। राजा = मालिक, खसम। कीनी = कीन्ही, मैंने की। कहि = कहे, कहता है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘कीनी्’ शब्द ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है। ??

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: रविदास चमार कहता है: (लोगों की नजरों में) मेरी जाति नीच, मेरा कुल नीच, मेरा जनम नीच (पर, हे माधव! मेरी जाति, जनम और कुल सचमुच नीच ही रह जाएंगे) अगर मैंने, हे मेरे मालिक प्रभु! तेरी भक्ति ना की।3।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द में इस्तेमाल हुए शब्द ‘राजा राम’ से ये अंदाजा लगाना गलत है कि रविदास जी श्री राम अवतार के पुजारी थे। जिस सर्व-व्यापक मालिक को वे आखीरी तुक में ‘राजा राम’ कहते हैं उसे ही वे ‘रहाउ’ की तुक में ‘माधव’ कहते हैं। अगर अवतार-पूजा की तंग-दिली की तरफ जाएं तो ‘माधव’ कृष्ण जी का नाम है। श्री राम चंद्र जी का पुजारी अपने पूज्य अवतार को श्री कृष्ण जी के किसी नाम के साथ नहीं बुला सकता। रविदास जी की नजरों में ‘राम’ और ‘माधव’ उस प्रभु के ही नाम हैं, जो माया में व्यापक (‘राम’) है और माया का पति (माधव’) है।

दर्पण-भाव

भाव: प्रभु-दर पे अरदास- हे प्रभु! साधु-संगत की शरण में रख।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ कहा भइओ जउ तनु भइओ छिनु छिनु ॥ प्रेमु जाइ तउ डरपै तेरो जनु ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ कहा भइओ जउ तनु भइओ छिनु छिनु ॥ प्रेमु जाइ तउ डरपै तेरो जनु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा भइओ = क्या हुआ? कोई परवाह नहीं। जउ = अगर। तनु = शरीर। छिनु छिनु = पल पल, टुकड़े टुकड़े। तउ = तब, तब ही। डरपै = डरता है। जनु = दास।1।
अर्थ: (ये नाम-धन ढूँढ के अब) अगर मेरा शरीर नाश भी हो जाए तो भी मुझे कोई परवाह नहीं। हे राम! तेरा सेवक तभी घबराएगा अगर (इसके मन में से तेरे चरणों का) प्यार दूर होगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझहि चरन अरबिंद भवन मनु ॥ पान करत पाइओ पाइओ रामईआ धनु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुझहि चरन अरबिंद भवन मनु ॥ पान करत पाइओ पाइओ रामईआ धनु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुझहि = तेरे। अरबिंद = (सं: अर्विन्द) कमल का फूल। चरन अरबिंद = चरण कमल, कमल फूल जैसे सुंदर चरण। भवन = ठिकाना। पान करत = पीते हुए। पाइओ पाइओ = मैं पा लिया मैंने पा लिया। रामईआ धनु = सुंदर राम का (नाम रूपी) धन।1। रहाउ।
अर्थ: (हे सुंदर राम!) मेरा मन कमल फूल जैसे सुंदर तेरे चरणों को अपने रहने की जगह बना चुका है; (तेरे चरण-कमलों में नाम-रस) पीते-पीते मैंने पा लिया है मैंने पा लिया है तेरा नाम-धन।1। रहाउ।

[[0487]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मपति बिपति पटल माइआ धनु ॥ ता महि मगन होत न तेरो जनु ॥२॥

मूलम्

स्मपति बिपति पटल माइआ धनु ॥ ता महि मगन होत न तेरो जनु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संपति = (सं: संपत्ति, prosperity, increase of wealth) धन की बहुलता। बिपति = (सं: विपत्ति = a calamity, misforune) बिपता, मुसीबत। पटल = पर्दे। ता महि = इन में।2।
अर्थ: सुख, बिपता, धन- ये माया के पर्दे हैं (जो मनुष्य की बुद्धि पर पड़े रहते हैं); हे प्रभु! तेरा सेवक! (माया के) इन पर्दों में (अब) नहीं फंस जाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम की जेवरी बाधिओ तेरो जन ॥ कहि रविदास छूटिबो कवन गुन ॥३॥४॥

मूलम्

प्रेम की जेवरी बाधिओ तेरो जन ॥ कहि रविदास छूटिबो कवन गुन ॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेवरी = रस्सी (से)। कहि = कहे, कहता है। छूटिबो = छूटने का। कवन गुन = क्या लाभ? क्या जरूरत, मुझे जरूरत नहीं, मेरा जी नहीं करता।3।
अर्थ: रविदास कहता है: हे प्रभु! (मैं) तेरा दास तेरे प्यार की रस्सी से बंधा हुआ हूँ। इसमें से निकलने को मेरा जी नहीं करता।3।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जिस मनुष्य को प्रभु चरणों का प्यार प्राप्त हो जाए, उसको दुनिया के हर्ष-सोग नहीं सताते।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे ॥ हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आसा ॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे ॥ हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि…हरे हरि सिमरत = बार बार स्वास स्वास हरि नाम स्मरण करते हुए। जन = (हरि के) दास। गए तरे = तैर गए, संसार समुंदर से पार लांघ गए। निसतरि = अच्छी तरह तैर के।1। रहाउ।
अर्थ: स्वास-स्वास हरि नाम स्मरण से हरि के दास (संसार समुंदर से) पूर्ण तौर पर पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के नाम कबीर उजागर ॥ जनम जनम के काटे कागर ॥१॥

मूलम्

हरि के नाम कबीर उजागर ॥ जनम जनम के काटे कागर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि के नाम = हरि नाम की इनायत से। उजागर = मशहूर। कागर = कागज। जनम के कागर = कई जन्मों के किए कर्मों के लेखे।1।
अर्थ: हरि-नाम जपने की इनायत से कबीर (भक्त जगत में) मशहूर हुआ, और उसके जन्मों-जन्मों के किए कर्मों के लेखे समाप्त हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमत नामदेउ दूधु पीआइआ ॥ तउ जग जनम संकट नही आइआ ॥२॥

मूलम्

निमत नामदेउ दूधु पीआइआ ॥ तउ जग जनम संकट नही आइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निमत = (सं: निमित्त, the instrumental or efficient cause. ये शब्द किसी ‘समास’ के आखिर में बरता जाता है और इसका अर्थ होता है ‘इस कारण करके’; जैसे किन्निमित्तोयमातंक: भाव, इस रोग के क्या कारण हैं) के कारण, की इनायत से। (हरि को नाम) निमत = हरि नाम की इनायत से। तउ = तब, हरि नाम स्मरण से। संकट = कष्ट।
अर्थ: हरि नाम स्मरण के कारण ही नामदेव ने (‘गोबिंद राय’) को दूध पिलाया था, और, नाम जपने से ही वह जगत के जन्मों के कष्टों में नहीं पड़ा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन रविदास राम रंगि राता ॥ इउ गुर परसादि नरक नही जाता ॥३॥५॥

मूलम्

जन रविदास राम रंगि राता ॥ इउ गुर परसादि नरक नही जाता ॥३॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम रंगि = प्रभु के प्यार में। राता = रंगा हुआ। इउ = इस तरह, प्रभु के रंग में रंगे जाने से। परसादि = कृपा से।3।
अर्थ: हरि का दास रविदास (भी) प्रभु के प्यार में रंगा गया है। इस रंग की इनायत से सतिगुरु की मेहर सदका, रविदास नर्कों में नहीं जाएगा।3।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: हरेक शब्द का केन्द्रिय भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। यहाँ हरि नाम-जपने की उपमा बताई गई है कि जिस लोगों ने स्वास-स्वास प्रभु को याद रखा, उन्हें जगत की माया नहीं व्याप सकी। ये असूल बताते हुए दो भक्तों की मिसाल देते हैं। कबीर ने भक्ति की, वह जगत में प्रसिद्ध हुआ; नामदेव ने भक्ति की, और उसने प्रभु को वश में कर लिया।
इस विचार में दो बातें बिल्कुल साफ हैं, कि नामदेव ने किसी ठाकुर-मूर्ति को दूध नहीं पिलाया; दूसरी, दूध पिलाने के बाद नामदेव को भक्ति की लाग नहीं लगी, पहले ही वह स्वीकार भक्त था। किसी मूर्ति को दूध पिला के, किसी मूर्ति की पूजा करके, नामदेव भक्त नहीं बना, बल्कि ये स्वास-स्वास हरि-नाम-जपने की ही इनायत थी, कि प्रभु ने कई कौतक दिखा के नामदेव के कई काम सवारे और उसे जगत में मशहूर किया।

दर्पण-भाव

भाव: नाम-जपने की इनायत से नीची जाति वाले लोग भी संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माटी को पुतरा कैसे नचतु है ॥ देखै देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरतु है ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माटी को पुतरा कैसे नचतु है ॥ देखै देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरतु है ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। पुतरा = पुतला। कैसे = कैसे, आश्चर्यजनक रूप से, हास्यास्पद रूप से।1। रहाउ।
अर्थ: (माया के मोह में फंस के) ये मिट्टी का पुतला कैसे हास्यापद हो के नाच रहा है (भटक रहा है); (माया को ही) चारों ओर ढूँढता है; (माया की ही बातें) सुनता है (भाव, माया की ही बातें सुननी इसे अच्छी लगती हैं), (माया कमाने ही की) बातें करता है, (हर वक्त माया की ही खातिर) दौड़ा फिरता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब कछु पावै तब गरबु करतु है ॥ माइआ गई तब रोवनु लगतु है ॥१॥

मूलम्

जब कछु पावै तब गरबु करतु है ॥ माइआ गई तब रोवनु लगतु है ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कछु = कुछ माया। पावै = हासिल करता है। गरबु = अहंकार। गई = गायब हो जाने पर। रोवनु लगतु = रोने लगता है, दुखी होता है।1।
अर्थ: जब (इसको) कुछ धन मिल जाता है, तो ये (अहंकार करने लग जाता है), पर अगर गायब हो जाए तो रोता है, दुखी होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन बच क्रम रस कसहि लुभाना ॥ बिनसि गइआ जाइ कहूं समाना ॥२॥

मूलम्

मन बच क्रम रस कसहि लुभाना ॥ बिनसि गइआ जाइ कहूं समाना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बच = वचन, बातें। क्रम = करम, करतूत। रस कसहि = रसों कसों में, स्वादों में, चस्कों में। लुभाना = मस्त। बिनसि गइआ = जब ये पुतला नाश हो गया। जाइ = जीव यहाँ से जा के। कहूँ = (प्रभु चरणों के अलावा) किसी और जगह।2।
अर्थ: अपने मन से, वचन से, करतूतों से, चस्कों में फसा हुआ है, (आखिर मौत आने पर) जब ये शरीर गिर जाता है तो जीव (शरीर में से) जा के (प्रभु चरणों में पहुँचने की जगह) कहीं और ही गलत जगह जा टिकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि रविदास बाजी जगु भाई ॥ बाजीगर सउ मुोहि प्रीति बनि आई ॥३॥६॥

मूलम्

कहि रविदास बाजी जगु भाई ॥ बाजीगर सउ मुोहि प्रीति बनि आई ॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। भाई = हे भाई! सउ = से, साथ। मुोहि = मुझे। 3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मुोहि’ में अक्षर ‘म’ में दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘मोहि’, पर यहाँ पढ़ना है ‘मुहि’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: रविदास कहता है: हे भाई! ये जगत एक खेल ही है, मेरी प्रीत तो (जगत की माया की जगह) इस खेल के बनाने वाले से लग गई है (सो, इस मजाकिए नाच से बच गया हूँ)।3।6।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: माया में फंसा हुआ जीव भटकता है और मजाक बन के रह जाता है, इस जलालत से सिर्फ वही बचता है जो माया के रचनहार परमात्मा से प्यार पाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा बाणी भगत धंने जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा बाणी भगत धंने जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥