२५ कबीर

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ नामदेउ जीउ रविदास जीउ ॥आसा स्री कबीर जीउ ॥

मूलम्

रागु आसा बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ नामदेउ जीउ रविदास जीउ ॥आसा स्री कबीर जीउ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर चरण लागि हम बिनवता पूछत कह जीउ पाइआ ॥ कवन काजि जगु उपजै बिनसै कहहु मोहि समझाइआ ॥१॥

मूलम्

गुर चरण लागि हम बिनवता पूछत कह जीउ पाइआ ॥ कवन काजि जगु उपजै बिनसै कहहु मोहि समझाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर चरण लागि = अपने सतिगुरु के चरण पड़ के। बिनवता = विनती करता हूँ। कह = किस लिए? जी = जीव। उपाइआ = पैदा किया जाता है। कवन काजि = किस काम से? उपजै = पैदा होता। मोहि = मुझे।1।
अर्थ: मैं अपने गुरु के चरणों में लग के विनती करता हूँ और पूछता हूँ- हे गुरु! मुझे ये बात समझा के बता कि जीव किस लिए पैदा किया जाता है, और किस कारण जगत पैदा होता मरता रहता है (भाव, जीव को मानव-जनम की सूझ गुरु से ही पड़ सकती है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव करहु दइआ मोहि मारगि लावहु जितु भै बंधन तूटै ॥ जनम मरन दुख फेड़ करम सुख जीअ जनम ते छूटै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

देव करहु दइआ मोहि मारगि लावहु जितु भै बंधन तूटै ॥ जनम मरन दुख फेड़ करम सुख जीअ जनम ते छूटै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देव = हे गुरदेव! हे सतिगुरु! मारगि = (सीधे) रास्ते पर। जितु = जिस राह पर चलने से। भै = जगत का डर। बंधन = माया के बंधन। तूटै = टूट जाएं। जीअ = जीव के। फेड़ करम = किए कर्मों के अनुसार। जनम मरन दुख सुख = जनम से ले के मरने तक के सारे दुख सुख, सारी उम्र के जंजाल। जनम ते = जनम से ही, ब्लिकुल ही। छूटै = खत्म हो जाएं।1। रहाउ।
अर्थ: हे गुरदेव! मेरे पर मेहर कर, मुझे (जिंदगी के सही) रास्ते पर डाल, जिस राह पर चलने से मेरे दुनिया वाले सहम और माया वाली जंजीरें टूट जाएं, मेरे पिछले किए कर्मों के अनुसार मेरी जिंद के सारी उम्र के जंजाल बिल्कुल ही समाप्त हो जाएं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ फास बंध नही फारै अरु मन सुंनि न लूके ॥ आपा पदु निरबाणु न चीन्हिआ इन बिधि अभिउ न चूके ॥२॥

मूलम्

माइआ फास बंध नही फारै अरु मन सुंनि न लूके ॥ आपा पदु निरबाणु न चीन्हिआ इन बिधि अभिउ न चूके ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फास = फासी। बंध = बंधन। फारै = फाड़ता, खत्म करता। अरु = और। सुंनि = सुंन में, वह अवस्था जहाँ माया के फुरने पैदा ना हों। न लूके = छुपता नहीं, टिकता नहीं, आसरा नहीं लेता। आपा पदु = अपना असल। निरबाणु = वासना रहित। चीन्हिआ = पहचाना। इन बिधि = इस तरह से, इस करनी से। अभिउ = (अ+भिउ) ना भीगने वाली अवस्था, कोरापन।2।
अर्थ: हे मेरे गुरदेव! मेरा मन (अपने गले से) माया की जंजीरों के बंधन तोड़ता नहीं, ना ही यह (माया के प्रभाव से बचने के लिए) सुंन प्रभु में जुड़ता है। मेरे इस मन ने अपने वासना-रहित असल की पहचान नहीं की, और इन बातों से इसका कोरा-पन दूर नहीं हुआ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कही न उपजै उपजी जाणै भाव अभाव बिहूणा ॥ उदै असत की मन बुधि नासी तउ सदा सहजि लिव लीणा ॥३॥

मूलम्

कही न उपजै उपजी जाणै भाव अभाव बिहूणा ॥ उदै असत की मन बुधि नासी तउ सदा सहजि लिव लीणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: क्ही न = कहीं भी नहीं, कहीं ना, (प्रभु से अलग) कहीं भी नहीं। उपजी जाणै = (प्रभु से अलग) पैदा हुई समझता है, (प्रभु से अलग) हस्ती वाला समझता है। बिहूणा = विहीन। भाव अभाव बिहूणा = अच्छे बुरे विचारों की परख करने में असमर्थ। उदै = जनम। असत = डूब जाना, मौत, मन की वह मति जो उदय-अस्त में डालने वाली है, मन की वह बुद्धि जो जनम-मरण के चक्करों में डाले रखती है। नासी = (जब) नाश होती है। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में।3।
अर्थ: हे गुरदेव! मेरा मन! जो अच्छे-बुरे ख्यालों की परख करने के अस्मर्थ था, इस जगत को-जो किसी हालत में भी प्रभु से लग टिक नहीं सकता-उससे अलग हस्ती वाला समझता रहा है। (पर तेरी मेहर से जब से) मेरे मन की वह मति नाश हो गई है, जो जनम-मरण के चक्कर में डालती थी, तब से (ये मन) सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ प्रतिबि्मबु बि्मब कउ मिली है उदक कु्मभु बिगराना ॥ कहु कबीर ऐसा गुण भ्रमु भागा तउ मनु सुंनि समानां ॥४॥१॥

मूलम्

जिउ प्रतिबि्मबु बि्मब कउ मिली है उदक कु्मभु बिगराना ॥ कहु कबीर ऐसा गुण भ्रमु भागा तउ मनु सुंनि समानां ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रतिबिंबु = (संस्कृत: प्रतिबिंब = reflection, an image) अक्स। बिंब = (संस्कृत: बिन्ब, an object compared. प्रतिबिन्ब = an object to which a बिन्ब is compared) जिस में अक्स दिखता है, शीशा या पानी। उदक कुंभु = पानी का भरा हुआ घड़ा। बिगराना = टूटता है। गुण = रस्सी। गुण भ्रम = रस्सी का भुलेखा (ये भुलेखा कि ये दिखता जगत परमात्मा से कोई अलग हस्ती है)। तउ = तब। सुंनि = सुंन प्रभु में।4।
अर्थ: हे कबीर! अब कह: (हे गुरदेव!) जैसे, जब पानी से भरा हुआ घड़ा टूट जाता है तब (उस पानी में पड़ने वाला) प्रतिबिंब पानी के साथ ही मिल जाता है (अर्थात, जैसे पानी और प्रतिबिंब की हस्ती उस घड़े में से समाप्त हो जाती है), वैसे ही तेरी मेहर से रस्सी (और साँप) वाला भुलेखा मिट गया है (ये भुलेखा नहीं रहा कि ये दिखता जगत परमात्मा से कोई अलग हस्ती है), और मेरा मन सुंन प्रभु में टिक गया है।4।1।

[[0476]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ गज साढे तै तै धोतीआ तिहरे पाइनि तग ॥ गली जिन्हा जपमालीआ लोटे हथि निबग ॥ ओइ हरि के संत न आखीअहि बानारसि के ठग ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ गज साढे तै तै धोतीआ तिहरे पाइनि तग ॥ गली जिन्हा जपमालीआ लोटे हथि निबग ॥ ओइ हरि के संत न आखीअहि बानारसि के ठग ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साढै तै तै = साढ़े तीन-तीन। तग = धागे, जनेऊ। जपमालीआ = माला। हथि = हाथ में। निबग = बहुत ही सफेद, चमकाए हुए। ओइ = वह मनुष्य (बहुवचन, Plural)। आखीअहि = कहे जाते हैं।1।
अर्थ: (जो मनुष्य) साढ़े तीन-तीन गज (लंबी) धोतियां (पहनते हैं और) तिहरी तंदों वाले जनेऊ पहनते हैं, जिनके गलों में मालाएं हैं और हाथों में चमचमाते लोटे हैं (निरे इन लक्षणों को देख के) वे लोग परमात्मा के भक्त नहीं कहे जा सकते (भक्त नहीं बन जाते), वह तो (असल में) बनारसी ठग हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे संत न मो कउ भावहि ॥ डाला सिउ पेडा गटकावहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसे संत न मो कउ भावहि ॥ डाला सिउ पेडा गटकावहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। डाला = टहनियां। पेडा = पेड़, पौधा। सिउ = समेत, साथ। गटकावहि = खा जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे ऐसे संत नहीं भाते, जो मूल को ही टहनियों समेत खा जाते हैं (भाव, जो माया की खातिर मनुष्यों को जान से मार देने में भी संकोच ना करें)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बासन मांजि चरावहि ऊपरि काठी धोइ जलावहि ॥ बसुधा खोदि करहि दुइ चूल्हे सारे माणस खावहि ॥२॥

मूलम्

बासन मांजि चरावहि ऊपरि काठी धोइ जलावहि ॥ बसुधा खोदि करहि दुइ चूल्हे सारे माणस खावहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बासन = बरतन। काठी = लकड़ियां, जलाने वाली लकड़ियां। बसुधा = धरती। खोदि = खोद के।2।
अर्थ: (ये लोग) धरती खोद के दो चूल्हे बनाते हैं, बर्तन मांज के (चूल्हों) पर रखते हैं, (नीचे) लकड़ियां धो के जलाते हैं (स्वच्छता तो इस तरह की, पर करतूत ये है कि) समूचे मनुष्य को खा जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओइ पापी सदा फिरहि अपराधी मुखहु अपरस कहावहि ॥ सदा सदा फिरहि अभिमानी सगल कुट्मब डुबावहि ॥३॥

मूलम्

ओइ पापी सदा फिरहि अपराधी मुखहु अपरस कहावहि ॥ सदा सदा फिरहि अभिमानी सगल कुट्मब डुबावहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुखहु = मुंह से। अपरस = अ+परस, ना छूने वाले, वह साधु जो किसी मायावी पदार्थ को छूते नहीं हैं। कुटंब = परिवार।3।
अर्थ: इस तरह के मंद-कर्मी मनुष्य सदा विकारों में ही खचित फिरते हैं, वैसे मुंहसे कहलवाते हैं कि हम माया को छूते तक नहीं। सदा अहंकार में मतवाले हुए फिरते हैं (ये खुद तो डूबे ही थे) सारे साथियों को भी (इन बुरे कर्मों में) डुबोते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितु को लाइआ तित ही लागा तैसे करम कमावै ॥ कहु कबीर जिसु सतिगुरु भेटै पुनरपि जनमि न आवै ॥४॥२॥

मूलम्

जितु को लाइआ तित ही लागा तैसे करम कमावै ॥ कहु कबीर जिसु सतिगुरु भेटै पुनरपि जनमि न आवै ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस तरफ। को = कोई मनुष्य। तित ही = उसी तरफ। भेटै = मिले। पुनरपि = पुनह अपि, फिर भी, फिर कभी। जनमि = जनम में, जनम मरण के चक्कर में।4।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस तरफ परमात्मा ने किसी मनुष्य को लगाया है उसी ही तरफ वह लगा हुआ है, और वैसे ही वह काम कर रहा है। हे कबीर! सच तो ये है कि जिस को सतिगुरु मिल जाता है, वह फिर कभी जनम (मरण के चक्कर) में नहीं आता।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ बापि दिलासा मेरो कीन्हा ॥ सेज सुखाली मुखि अम्रितु दीन्हा ॥ तिसु बाप कउ किउ मनहु विसारी ॥ आगै गइआ न बाजी हारी ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ बापि दिलासा मेरो कीन्हा ॥ सेज सुखाली मुखि अम्रितु दीन्हा ॥ तिसु बाप कउ किउ मनहु विसारी ॥ आगै गइआ न बाजी हारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बापि = बाप ने, पिता ने, प्रभु पिता ने। दिलासा = धरवास, धीरज, ढारस, आसरा। कीन्हा = किया है। सेज = हृदय रूपी सेज। मुखि = मुंह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। मनहु = मन से। विसारी = मैं बिसारूँ। आगै = परलोक में। न हारी = मैं नहीं हारूँगा।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘कीना’ अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (मेरे अंदर टिक के) मेरे पिता-प्रभु ने मुझे सहारा दे दिया है, (जपने के लिए) मेरे मुंह में (उसने अपना) अमृत नाम दिया है, (इस वास्ते) मेरी (हृदय-रूपी) सेज सुखद हो गई। (जिस पिता ने इतना सुख दिया है) उस पिता को मैं (कभी) मन से नहीं भुलाऊँगा (जैसे यहाँ मैं सुखी हो गया हूँ, वैसे ही) आगे चल के (भी) मैं (मानव-जनम की) खेल नहीं हारूँगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुई मेरी माई हउ खरा सुखाला ॥ पहिरउ नही दगली लगै न पाला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मुई मेरी माई हउ खरा सुखाला ॥ पहिरउ नही दगली लगै न पाला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माई = माँ, माया। मुई…माई = मेरी माँ मर गई है, माया का दबाव मेरे पर हट गया है। हउ = मैं। खरा = बहुत। पहिरउ = मैं पहनता हूँ। दगली = रूईदार कुड़ती (अर्थात, शरीर) (फारसी: दगला)।1। रहाउ।
अर्थ: मेरे पर माया का प्रभाव मिट गया है, अब मैं बड़ा सुखी हो गया हूँ; ना अब मुझे माया का मोह सताता है, और ना ही मैं अब (बार-बार) शरीर-रूपी गोदड़ी (चोला) पहिनूँगा।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: सारे शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है: मेरा माया का मोह मिट गया है, और मैं बार-बार जनम में नहीं आऊँगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि तिसु बापै जिनि हउ जाइआ ॥ पंचा ते मेरा संगु चुकाइआ ॥ पंच मारि पावा तलि दीने ॥ हरि सिमरनि मेरा मनु तनु भीने ॥२॥

मूलम्

बलि तिसु बापै जिनि हउ जाइआ ॥ पंचा ते मेरा संगु चुकाइआ ॥ पंच मारि पावा तलि दीने ॥ हरि सिमरनि मेरा मनु तनु भीने ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलि = सदके, कुर्बान। जिनि = जिस पिता ने। जाइआ = (ये नया) जनम दिया है। भीने = भीग गए हैं। सिमरनि = स्मरण में।2।
अर्थ: जिस प्रभु-पिता ने मुझे (ये नया) जनम दिया है, उससे मैं सदके हूँ, उसने पाँच-कामादिकों से मेरा पीछा छुड़ा दिया है। अब वे पाँचों मार के मैंने अपने पैरों के तले दबा लिए हैं, क्योंकि (इनकी ओर से हट के) मेरा मन और तन प्रभु के स्मरण में मस्त हो गए हैं।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ साधारण मानव शरीर देने का जिक्र नहीं है, उस सुंदर तब्दीली का वर्णन है जो प्रभु की मेहर से हो गई है, और वह तब्दीली, वह नया जन्म, अगली तुक में बयान किया गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता हमारो वड गोसाई ॥ तिसु पिता पहि हउ किउ करि जाई ॥ सतिगुर मिले त मारगु दिखाइआ ॥ जगत पिता मेरै मनि भाइआ ॥३॥

मूलम्

पिता हमारो वड गोसाई ॥ तिसु पिता पहि हउ किउ करि जाई ॥ सतिगुर मिले त मारगु दिखाइआ ॥ जगत पिता मेरै मनि भाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोसाई = मालिक। पहि = पास। किउ करि = किस तरह? कौन से तरीके से? जाई = मैं जाऊँ। मनि = मन में। त = तब। भाइआ = प्यारा लगने लग पड़ा।3।
अर्थ: मेरा (वह) पिता बहुत बड़ा मालिक है (अगर कोई पूछे कि) मैं (कंगाल कबीर) उस पिता के पास कैसे पहुँच गया हूँ (तो इसका उत्तर ये है कि जब) मुझे सतिगुरु मिला तो उसने (पिता-प्रभु के देस का) राह दिखा दिया, और जगत का पिता-प्रभु मुझे मेरे मन में प्यारा लगने लगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ पूतु तेरा तूं बापु मेरा ॥ एकै ठाहर दुहा बसेरा ॥ कहु कबीर जनि एको बूझिआ ॥ गुर प्रसादि मै सभु किछु सूझिआ ॥४॥३॥

मूलम्

हउ पूतु तेरा तूं बापु मेरा ॥ एकै ठाहर दुहा बसेरा ॥ कहु कबीर जनि एको बूझिआ ॥ गुर प्रसादि मै सभु किछु सूझिआ ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। बसेरा = वासा। जनि = जन ने, दास ने। कहु = कह।4।
अर्थ: (अब मैं निसंग हो के उसे कहता हूँ, हे प्रभु!) मैं तेरा बच्चा हूँ, तू मेरा पिता है, हम दोनों का (अब) एक जगह ही (मेरे हृदय में) निवास है। हे कबीर! अब तू कह: मुझ दास ने उस एक प्रभु को पहिचान लिया है (प्रभु से सांझ डाल ली है) सतिगुरु की कृपा से मुझे (जीवन के रास्ते की) सारी सूझ पड़ गई है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ इकतु पतरि भरि उरकट कुरकट इकतु पतरि भरि पानी ॥ आसि पासि पंच जोगीआ बैठे बीचि नकट दे रानी ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ इकतु पतरि भरि उरकट कुरकट इकतु पतरि भरि पानी ॥ आसि पासि पंच जोगीआ बैठे बीचि नकट दे रानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकतु पतरि = एक बर्तन में। उरकट = (संस्कृत: अरंकृत) तैयार किया हुआ, पकाया हुआ। कुरकट = कुक्कड़ (का मास)। भरि = भर के, डाल के। पानी = (भाव) शराब। आसि पासि = (इस मास और शराब के) इर्दगिर्द, आस पास। पंच = कामादिक विकार। पंच जोगीआ = पाँच कामादिकों के साथ मेल जोल रखने वाले (जोग = मेल मिलाप, जोड़)। बीचि = (इन विषयी लोगों के) अंदर, इन विषयी लोगों के मन में। नकट = नक+कटी, निर्लज्ज। दे रानी = देवरानी, माया।1।
अर्थ: (माया के बलवान) पाँच कामादिकों का मेल-जोल रखने वाले मनुष्य एक बर्तन में मुर्गा (आदि) का पकाया हुआ मास डाल लेते हैं, और दूसरे बर्तन में शराब डाल लेते हैं।
(इस मास-शराब के) इर्द-गिर्द बैठ जाते हैं, इन (विषयी लोगों) के अंदर निर्लज्ज माया (का प्रभाव) होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकटी को ठनगनु बाडा डूं ॥ किनहि बिबेकी काटी तूं ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नकटी को ठनगनु बाडा डूं ॥ किनहि बिबेकी काटी तूं ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नकटी = निलज्ज माया। को = का। बाडा = बाजा। डूं = डूं डूं करता है, बजता है। ठनगनु = ठन ठन की आवाज करके। किनहि = किसी विरले ने। किनहि बिबेकी = किसी विरले विचारवान ने। तूं = तुझे। काटी = काटा है, दबाव दूर किया है।1। रहाउ।
अर्थ: निर्लज्ज माया का बाजा (सारे जगत में) ठन-ठन करके बज रहा है। हे माया! किसी विरले विचारवान ने ही तेरा बल नहीं चलने दिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल माहि नकटी का वासा सगल मारि अउहेरी ॥ सगलिआ की हउ बहिन भानजी जिनहि बरी तिसु चेरी ॥२॥

मूलम्

सगल माहि नकटी का वासा सगल मारि अउहेरी ॥ सगलिआ की हउ बहिन भानजी जिनहि बरी तिसु चेरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल माहि = सबजीवों में। नकटी का वासा = निलज्ज माया का प्रभाव। मारि = मार के। अउहेरी = देखती है, ध्यान लगा के देखती है (कि कोई मेरी मार से बच तो नहीं गया)। हउ = मैं। बहिन = बहन। भानजी = भान्जी। बरी = वर ली, विवाह कर लिया, बरता। चेरी = दासी।2।
अर्थ: (जिधर देखो) सब जीवों के मनों में निलज्ज माया का जोर पड़ रहा है, माया सभी के (आत्मिक जीवन) को मार के ध्यान से देखती है (कि कोई बच तो नहीं रहा)। (माया, मानो, कहती है:) मैं सब जीवों की बहन-भांजी हूँ (भाव, सारे जीव मुझे तरले ले ले के इकट्ठी करते हैं), पर जिस मनुष्य ने मुझे ब्याह लिया है (भाव, जिसने अपने ऊपर मेरा जोर नहीं पड़ने दिया) मैं उसकी दासी हो जाती हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरो भरता बडो बिबेकी आपे संतु कहावै ॥ ओहु हमारै माथै काइमु अउरु हमरै निकटि न आवै ॥३॥

मूलम्

हमरो भरता बडो बिबेकी आपे संतु कहावै ॥ ओहु हमारै माथै काइमु अउरु हमरै निकटि न आवै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमरो = मेरा। बिबेकी = विचारवान पुरख। माथै = माथे पे। कायमु = टिका हुआ। माथै काइमु = मेरे माथे पर टिका हुआ, मेरे पर काबू रखने वाला। अउरु = कोई और। निकटि = नजदीक।3।
अर्थ: कोई बड़ा ज्ञानवान मनुष्य ही, जिसको जगत संत कहता है, मेरा (माया का) पति बन सकता है। वही मुझ पर काबू रखने के समर्थ होता है। और कोई तो मेरे नजदीक भी नहीं फटक सकता (भाव, किसी और की मेरे आगे पेश नहीं जा सकती)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाकहु काटी कानहु काटी काटि कूटि कै डारी ॥ कहु कबीर संतन की बैरनि तीनि लोक की पिआरी ॥४॥४॥

मूलम्

नाकहु काटी कानहु काटी काटि कूटि कै डारी ॥ कहु कबीर संतन की बैरनि तीनि लोक की पिआरी ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाकहु = नाक से। काटी = काट दी। कानहु = कान से। काटि कूट करि = अच्छी तरह काट के। डारी = एक तरफ फेंक दिया है। बैरनि = वैर करने वाली। तीनि लोक = सारे जगत।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: संत जनों ने माया को नाक से काट दिया है, अच्छी तरह काट के परे फेंक दिया है। माया हमेशा संतों से वैर करती है (क्योंकि, उनके आत्मिक जीवन पर चोट करने का यत्न करती है), पर सारे जगत के जीव इससे प्यार करते हैं।4।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: आम तौर पर इस शब्द के अर्थ करने के समय शब्द के पहले बंद में वाम मार्गियों की तरफ इशारा बताया जाता है, और शब्द ‘नकट दे रानी’ का अर्थ ‘स्त्री’ किया जाता है। पर जब इसे ध्यान से विचारें तो ये ख्याल सारे शब्द में निभता नहीं दिखता।
हरेक शब्द के ‘रहाउ’ वाली तुक में आम तौर पर शब्द का मुख्य भाव होता है। यहाँ ‘रहाउ’ की तुक में जिक्र है “नकटी को ठनगनु बाडा डूं”। अगर पहले बंद की दूसरी तुक में, शब्द ‘नकट दे रानी’ का अर्थ ‘स्त्री’ है तो तुरंत ही ‘रहाउ’ में इसका अर्थ क्यों बदला गया है? अगर ‘रहाउ’ वाले शब्द ‘नकटी’ वाले अर्थ भी ‘स्त्री’ ही करें, तो यह बिल्कुल ही गलत हो जाता है। फिर ये अर्थ बंद नंबर 2 में भी नहीं निभ सकता। असल बात ये है कि सारे शब्द में ‘माया’ के प्रभाव का जिक्र है, और ‘माया’ के लिए शब्द ‘नकटी’ व ‘नकट दे रानी’ वरता गया है; इसे ‘निलज्ज’ कहा गया है, क्योंकि ये किसी का भी साथ नहीं निभाती।
नोट: जगत आम तौर पर नाक और कान के आसरे जीता है। इसका भाव ये है कि हरेक काम जो आम तौर पर जीव करते हैं, इस ख्याल से करते हैं कि हमारा नाक रह जाए, हमारी इज्जत बनी रहे। फिर कान लगा के सुनते हैं कि हमारी वह करतूत के लिए लोग क्या कहते हैं। पर, बिबेकी पुरुष ना लोक-लज्जा की खातिर कोई काम करते हैं और ना ही इस बात की कोई परवाह करते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या कहते हैं। सो, उन्होंने माया के नाक और कान दोनों काट दिए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ जोगी जती तपी संनिआसी बहु तीरथ भ्रमना ॥ लुंजित मुंजित मोनि जटाधर अंति तऊ मरना ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ जोगी जती तपी संनिआसी बहु तीरथ भ्रमना ॥ लुंजित मुंजित मोनि जटाधर अंति तऊ मरना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जती = जिसने काम-वासना को रोक लिया है। तपी = मन को हठ से रोकने के लिए शरीर को कई तरह के कष्ट देने वाले। भ्रमना = भ्रमण करने वाले। लुंजित = सरेवड़े जो सिर के बाल मोचने से उखाड़ देते हैं। मुंजित = मूंज की तगाड़ी पहनने वाले बैरागी। जटाधार = जटाधारी साधु। अंति तऊ = आखिर को, तो भी, फिर भी। मरना = मौत, जनम मरण का चक्र।1।
अर्थ: (कई लोग) जोगी हैं, जती हैं, तपी हैं, सन्यासी हैं, बहुत से तीर्थों पे जाने वाले हैं, सरेवड़े हैं, वैरागी हैं, मौनधारी हैं, जटाधारी हैं; ये सारे साधन करते हुए भी जनम-मरण का चक्र बना रहता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जो जीव जगत में शरीर ले के जन्मा है उसने मरना तो अवश्य है। यहाँ पर इस साधारण मौत का वर्णन नहीं है; इस ‘मरण’ का निर्णय कबीर जी आखिरी तुक में करते हैं ‘जनम मरन’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता ते सेवीअले रामना ॥ रसना राम नाम हितु जा कै कहा करै जमना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ता ते सेवीअले रामना ॥ रसना राम नाम हितु जा कै कहा करै जमना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता ते = तो फिर, तो फिर अच्छी बात ये है कि। सेवीअले = स्मरण किया जाए। हितु जा कै = जिसके हृदय में प्यार है। कहा करै = क्या कर सकता है? कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जमना = यम।1। रहाउ।
अर्थ: सो, सबसे अच्छी बात ये है कि प्रभु का नाम स्मरण किया जाए। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु के नाम का प्यार है, जो मनुष्य जीभ से नाम स्मरण करता है, जम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता (क्योंकि, उसका जनम-मरण खत्म हो जाता है)।1। रहाउ।

[[0477]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगम निरगम जोतिक जानहि बहु बहु बिआकरना ॥ तंत मंत्र सभ अउखध जानहि अंति तऊ मरना ॥२॥

मूलम्

आगम निरगम जोतिक जानहि बहु बहु बिआकरना ॥ तंत मंत्र सभ अउखध जानहि अंति तऊ मरना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आगम = शास्त्र। निरगम = निगम, वेद। जानहि = (जो लोग) जानते हैं। तंत = टूणे जादू। अउखध = दवाईआं।2।
अर्थ: जो लोग शास्त्र-वेद-ज्योतिष और कई व्याकरण जानते हैं, जो मनुष्य जादू-टूणे मंत्र और दवाएं जानते हैं, उनका भी जनम-मरण का चक्कर नहीं खत्म होता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज भोग अरु छत्र सिंघासन बहु सुंदरि रमना ॥ पान कपूर सुबासक चंदन अंति तऊ मरना ॥३॥

मूलम्

राज भोग अरु छत्र सिंघासन बहु सुंदरि रमना ॥ पान कपूर सुबासक चंदन अंति तऊ मरना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भोग = मौजें। सिंघासन = सिंहासन, तख्त। सुंदरि रमना = सुंदर स्त्रीयां। सुबासक चंदन = सोहणी सुगंधि देने वाला चंदन।3।
अर्थ: कई ऐसे हैं जो राज (पाट) की मौजें लेते हैं,सिंहासन पर बैठते हैं, जिनके सिर पर छत्र झूलते हैं, (महलों में) सुंदर नारियां हैं, जो पान-कपूर-सुगंधि देने वाले चंदन का प्रयोग करते हैं; मौत का चक्र उनके सिर पर भी मौजूद है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेद पुरान सिम्रिति सभ खोजे कहू न ऊबरना ॥ कहु कबीर इउ रामहि ज्मपउ मेटि जनम मरना ॥४॥५॥

मूलम्

बेद पुरान सिम्रिति सभ खोजे कहू न ऊबरना ॥ कहु कबीर इउ रामहि ज्मपउ मेटि जनम मरना ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहु = कहीं भी। ऊबरना = (जनम मरन के चक्कर से) बचाव। इउ = इस वास्ते। जंपउ = मैं जपता हूँ, मैं स्मरण करता हूँ। मेटि = मिटाता है।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: वेद-पुराण-स्मृतियां सारे खोज के देखे हैं (प्रभु के नाम की ओट के बिना और कहीं भी जनम-मरन के चक्र से बचाव नहीं मिलता; सो मैं तो परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ, प्रभु का नाम ही जनम-मरण मिटाता है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ फीलु रबाबी बलदु पखावज कऊआ ताल बजावै ॥ पहिरि चोलना गदहा नाचै भैसा भगति करावै ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ फीलु रबाबी बलदु पखावज कऊआ ताल बजावै ॥ पहिरि चोलना गदहा नाचै भैसा भगति करावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फीलु = हाथी। पखावज = जोड़ी बजाने वाला। कऊआ = कौआ।1।
अर्थ: (मन का) हाथी (वाला स्वभाव) रबाबी (बन गया है), बैल (वाला स्वभाव) जोड़ी बजाने वाला (हो गया है) और कौए (वाला स्वभाव) ताल बजा रहा है। गधा (गधे वाला स्वभाव) (प्रेम रूपी) चोला पहन के नाच रहा है और भैंसा (अर्थात, भैंसे वाला स्वभाव) भक्ति करता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बैल का आम तौर पर ‘आलस’ का स्वभाव प्रसिद्ध है। हाथी का, गधे और भैंसे के लिए वाणी में निम्न लिखे प्रमाण हैं;
‘कऊआ काग कउ अंम्रित रसु पाईऐ, त्रिपतै विसटा खाइ मुखि गोहै॥’ ‘हरी अंगूरी गदहा चरै॥’ ‘माता भैसा अमुहा जाइ॥ कुदि कुदि चरै रसातलि पाइ॥’ ‘हरि है खांड रेतु महि बिखरिओ, हाथी चुनी न जाइ॥’
इन प्रमाणों की सहायता से उपरोक्त त्रिगद जूनियों से मन के ‘अहंकार’, ‘अति चतुराई’, ‘काम’ और ‘अमोड़पना’; ये चारों स्वभाव लेने हैं।

दर्पण-भाव

भाव: स्वभाव बदलने से पहले मन अहंकार, आलस, चतुराई, काम और कठोरता- इन विकारों के अधीनस्त रहता था। पर, जब अंदर रस आया है, तो प्रेम में भीग के मन इस नए विवाह में उद्यम करके सहायक बनता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा राम ककरीआ बरे पकाए ॥ किनै बूझनहारै खाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राजा राम ककरीआ बरे पकाए ॥ किनै बूझनहारै खाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजा राम = हे सुंदर राम! ककरीआ = धतूरे की खखड़ियां। आबरे पकाए = पके हुए आम। किनै = किसी विरले ने। बूझनहारै = ज्ञानवान ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सुंदर राम! धतूरे की खखड़ियां अब आम बन गई हैं, पर खाई किसी विरले विचारवान ने है।

दर्पण-भाव

भाव: जैसे धतूरे की खखड़ियां देखने में आमों की तरह प्रतीत होती हैं; वैसे ही मन पहले सारे काम दिखावे वाले करता था। अब विधाता की मेहर से सचमुच पके हुए आम बन गए हैं, भाव मन में स्वाद, मिठास और अस्लियत आ गई है। ये स्वाद विरले भाग्यशाली मनुष्यों को मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बैठि सिंघु घरि पान लगावै घीस गलउरे लिआवै ॥ घरि घरि मुसरी मंगलु गावहि कछूआ संखु बजावै ॥२॥

मूलम्

बैठि सिंघु घरि पान लगावै घीस गलउरे लिआवै ॥ घरि घरि मुसरी मंगलु गावहि कछूआ संखु बजावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैठि घर = अंदर टिक के। सिंघु = हिंसा वाला स्वभाव निर्दयता। पान लगावै = (बारातियों के लिए) पान तैयार करता है (अर्थात, सबकी सेवा करने का उद्यम करता है)। घीस = छछूंदर, मन की छछूंदर वाला स्वभाव, तृष्णा। गलउरे = पानों के बीड़े। ‘घीस…लिआवै’ = भाव, पहले मन इतना तृष्णा के अधीन था कि खुद ही नहीं संतुष्ट होता था, पर अब औरों की सेवा करता है। घरि घरि = हरेक घर में, हरेक गोलक स्थान में। मुसरी = चुहियां, इंद्रिय।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘मुसर’ व्याकरण के अनुसार बहुवचन है, क्योंकि इसकी क्रिया ‘गावहि’ बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कछूआ = मन का कछूए वाला स्वभाव, मनुष्यों से संकोच, कायरता, मन का सत्संग से डरना। संखु बजावै = भाव, वह मन जो पहले खुद सत्संग से डरता था, अब और लोगों को उपदेश करता है।2।
अर्थ: (मन-) सिंह अपने स्वै-स्वरूप में टिक के (अर्थात, मन का निर्दयता वाला स्वभाव हट के अब यह) सेवा के लिए तत्पर रहता है और (मन-) छछूंदर पानों के बीड़े बाँट रहा है (भाव, मन तृष्णा छोड़ के औरों की सेवा करता है)। सारी इंद्रिय अपने-अपने घरों में रह के हरि-यश रूपी मंगल गा रही हैं और (वही) मन (जो पहले) कछुआ (था, अर्थात, जो पहले सत्संग से दूर भागता था, अब) और लोगों को उपदेश कर रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंस को पूतु बीआहन चलिआ सुइने मंडप छाए ॥ रूप कंनिआ सुंदरि बेधी ससै सिंघ गुन गाए ॥३॥

मूलम्

बंस को पूतु बीआहन चलिआ सुइने मंडप छाए ॥ रूप कंनिआ सुंदरि बेधी ससै सिंघ गुन गाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंस को पूतु = बाँझ स्त्री का पुत्र, माया का पुत्र, माया ग्रसित मन।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘माया’ को बाँझ स्त्री इसलिए माना गया है कि कुदरत के नियम के अनुसार माया पुत्र नहीं पैदा करती, जुगती (युक्ति) से पैदा करती है।
पंज पूत जणे इक माइ॥ उतभुज खेलु करि जगत विआइ॥ तीनि गुणां कै संगि रचि रसे॥ इन कउ छोडि ऊपरि जन बसे॥९॥१२॥ गौंड म: ५
बीआहन चलिआ = ब्याहने चल पड़ा।
नोट: आम तौर पर गुरबाणी में जीव को स्त्री-भाव में बताया गया है। इस तुक में ‘मन’ ब्याहने चला लिखा है। प्रश्न उठता है कि किसे ब्याहने चला? कबीर जी का ही एक शब्द इस अर्थ को समझने में सहायता देता है;
पहिली करूपि कुजाति कुलखनी, साहुरै पेईऐ बुरी॥ अब की सरूपि सुजानि सुलखनी, सहजे उदरि धरी॥१॥ भली सरी, मुई मेरी पहिली बरी॥ जुगु जुगु जीवउ मेरी अब की धरी॥१॥ रहाउ॥ कहु कबीर जब लहुरी आई, बडी का सुहागु टरिओ॥ लहुरी संगि भई अब मेरै, जेठी अउरु धरिओ॥२॥२॥३२॥ (आसा कबीर जी)
अगली तुक का पहला हिस्सा ‘रूप कंनिआ सुंदरि बेधी’ इस विचार को और भी ज्यादा स्पष्ट कर देता है।

दर्पण-भाषार्थ

सुइने मंडप छाए = सोने के शामयाने ताने गए, दसवाँ द्वार में प्रकाश ही प्रकाश हो गया, अंदर खिड़ाव ही खिड़ाव हो गया। रूप कंनिआ सुंदरि = वह सुंदरी जो कन्या रूप है, जो कुआरी है, विकारों के संग से बची हुई है, भाव, विकार रहित रुचि। बेधी = बेध दी, वश में कर ली, व्याह ली। ससै = सहे ने (खरगोश ने), विकारों में पड़ के कमजोर हो गए मन ने। सिंघ गुन = हरि के गुण।3।
अर्थ: (जो पहिले) माया में ग्रसित (था, वह) मन (स्वच्छ सूझ) बयाहने चल पड़ा है, (अब) अंदर आनंद ही आनंद बन गया है। उस मन ने (हरि के साथ जुड़ी वह सूझ-रूपी) सुंदरी से विवाह कर लिया है जो विकारों से कवारी है (और अब वह मन जो पहले विकारों में पड़ने के कारण) डरा था, (भाव, सहमा हुआ था, अब) निर्भय हरि के गुण गाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर सुनहु रे संतहु कीटी परबतु खाइआ ॥ कछूआ कहै अंगार भि लोरउ लूकी सबदु सुनाइआ ॥४॥६॥

मूलम्

कहत कबीर सुनहु रे संतहु कीटी परबतु खाइआ ॥ कछूआ कहै अंगार भि लोरउ लूकी सबदु सुनाइआ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीटी = कीड़ी, नम्रता।

दर्पण-टिप्पनी

हरि है खांडु रेतु महि बिखरी हाथी चुनी न जाइ॥ कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ॥ (२३८)

दर्पण-भाषार्थ

परबत = (मन का) अहंकार। कछूआ = सर्द मेहरी, कोरापन।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कछूए के आम तौर पर दो स्वभाव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं: एक, मनुष्य से डरना, दूसरा ज्यादा समय पानी में रहना। यहाँ इसके ‘पानी के प्यार’ को ठंड, सर्द मेहरी, कोरापन के भाव में लेना है।

दर्पण-भाषार्थ

अंगारु = सेक, तपश, गर्मी, प्यार, हमदर्दी। लोरउ = चाहता हूँ। लूकी = गत्ती, जो अंधेरे में रहती है और डंक मारती है, भाव, (मन की) अज्ञानता जो जीव को अंधकार में रखती है और दुखी करती है। लूकी सबदु सुणाइआ = अज्ञानता पलट के ज्ञान बन गई है, और अब मन और लोगों को भी उपदेश देने लग पड़ा है।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो (अब मन की) विनम्रता ने अहंकार को मार दिया है। (मन का) कोरापन (हट गया है, और मन) कहता है, मुझे हमदर्दी (की तपश) चाहिए, (अब मन इमानदारी हमदर्दी के गुण का चाहवान है)। (मन की) अज्ञानता पलट के ज्ञान बन गई है और (अब मन और लोगों को) गुरु का शब्द सुना रहा है।4।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट 1. इस शब्द के अर्थ करने से पहले अर्थों को समझने के लिए एक-दो बातें बतानी जरूरी हैं। शब्द को समझने के लिए ‘रहाउ’ की पंक्ति में कबीर जी अपने प्यारे दातार के धन्यवादी अवस्था में आ के अपने मन की अवस्था को एक दृष्टांत की शकल में पेश करते हैं। ये दृष्टांत आक (धतूरे) की खखड़ियों का है।
नोट 2. ‘रहाउ’ वाली तुक में जो मुख्य भाव है उसे बाकी के शब्द में खेल के प्रकट किया गया है। इन सारे पदों में एक और दृष्टांत लिया गया है, ब्याह का।
नोट 3. ‘रहाउ’ की तुक में कबीर जी कहते हैं कि ये मन जो धतूरे के खखड़ी जैसा था, अब पका हुआ आम बन गया है। पर, ये स्वाद किसी विरले भाग्यशाली को मिलता है। शब्द के बाकी पदों में इस तबदीली के विस्तार से बयान करते हैं। मन की पहली वादियों (स्वभाव) को हाथी, बैल आदि पशुओं के प्रसिद्ध स्वभावों के द्वारा दिखाया गया है, और साथ-साथ ये भी बताया है कि पशु-वृति से उलट के मन अब क्या करने लगा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ बटूआ एकु बहतरि आधारी एको जिसहि दुआरा ॥ नवै खंड की प्रिथमी मागै सो जोगी जगि सारा ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ बटूआ एकु बहतरि आधारी एको जिसहि दुआरा ॥ नवै खंड की प्रिथमी मागै सो जोगी जगि सारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बटूआ = (संस्कृत: वर्तुल; प्राकृत बट्ठल Plural बटूआ) वह थैला जिसमें जोगी विभूत डाल के रखता है। एकु = एक प्रभु नाम। बहतरि = बहत्तर बड़ी नाड़ियों वाला शरीर। आधारी = झोली। जिसहि = जिस शरीर रूपी झोली को। एको दुआरा = (प्रभु से मिलने के लिए) एक ही (दसवाँ द्वार रूप) दरवाजा है। नवै खंड की = नौ खंडों वाली, नौ गोलकों वाली (देही)। प्रिथमी = शरीर रूप धरती। जगि = जगत में। सारा = श्रेष्ठ।1।
अर्थ: वह जोगी एक प्रभु नाम को अपना बटूआ बनाता है, बहत्तर बड़ी नाड़ियों वाले शरीर को झोली बनाता है, जिस शरीर में प्रभु को मिलने के लिए (दिमाग़ रूप) एक ही दरवाजा है। वह जोगी इस शरीर के अंदर ही टिक के (प्रभु के दर से नाम की) भिक्षा मांगता है (हमारी नजरों में तो) वह जोगी जगत में सबसे श्रेष्ठ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा जोगी नउ निधि पावै ॥ तल का ब्रहमु ले गगनि चरावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा जोगी नउ निधि पावै ॥ तल का ब्रहमु ले गगनि चरावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नउ निधि = नौ खजाने। ब्रहमु = परमात्मा। तल का ब्रहमु = परमात्मा की वह अंशजो नीचे ही टिकी रहती है, माया में फसी आत्मा। गगनि = आकाश में, ऊपर माया के प्रभाव से ऊँचा।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ब्रहम’ संस्कृत का शब्द है, इसका अर्थ ‘प्राण’ नहीं है; जोग-मत के सारे शब्द देख के हरेक शब्द के अर्थ जबरदस्ती जोग-मत से मेल खाने वाले किए जाना ठीक नहीं है। कबीर जी, तो हठ योग की जगह यहाँ नाम-जपने की महिमा बता रहे हैं। चौथे बंद में साफ बताते हैं कि नाम का स्मरण सबसे श्रेष्ठ ‘योग’ है। पहले बंद में भी यही बताते हैं कि हमारी नजरों में वह जोगी श्रेष्ठ है, जिसने ‘नाम’ को बटूआ बनाया है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य माया-ग्रसित आत्मा को उठा के माया के प्रभाव से ऊँचा ले जाता है, वह है असल जोगी, जिसे (मानो) नौ खजाने मिल जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिंथा गिआन धिआन करि सूई सबदु तागा मथि घालै ॥ पंच ततु की करि मिरगाणी गुर कै मारगि चालै ॥२॥

मूलम्

खिंथा गिआन धिआन करि सूई सबदु तागा मथि घालै ॥ पंच ततु की करि मिरगाणी गुर कै मारगि चालै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खिंथा = गोदड़ी। मथि = मथ के, मरोड़ के। घालै = पहनता है। पंच ततु = शरीर जो पाँच तत्वों का बना है। मिरगाणी = मृगछाला, आसन। पंज…मिरगाणी = शरीर को आसन बना के, शरीर के मोह को पैरों के नीचे रख के, देह अध्यास को समाप्त करके। मारगि = रास्ते पर। चालै = चलते है।2।
अर्थ: असल जोगी ज्ञान की गोदड़ी बनाता है, प्रभु चरणों में जुड़ी हुई तवज्जो की सूई तैयार करता है, गुरु का शब्द रूपी धागा मरोड़ के (भाव, बारंबार शब्द की कमाई करके) उस सूई में डालता है, शरीर के मोह को पैरों के तले दे के सतिगुरु के बताए हुए राह पर चलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दइआ फाहुरी काइआ करि धूई द्रिसटि की अगनि जलावै ॥ तिस का भाउ लए रिद अंतरि चहु जुग ताड़ी लावै ॥३॥

मूलम्

दइआ फाहुरी काइआ करि धूई द्रिसटि की अगनि जलावै ॥ तिस का भाउ लए रिद अंतरि चहु जुग ताड़ी लावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फाहुरी = धूएं की राख एकत्र करने वाली पहौड़ी। धूई = धूआँ, धूणी। दृष्टि = (हर जगह प्रभु को देखने वाली) नजर। तिस का = उस प्रभु का। भाउ = प्यार। चहु जुग = सदा ही, अटल। ताड़ी लावै = तवज्जो जोड़ी रखता है।3।
अर्थ: असल जोगी अपने शरीर की धूणी बना के उस में (प्रभु को हर जगह देखने वाली) नजर की आग जलाता है (और इस शरीर रूपी धूएं में भले गुण एकत्र करने के लिए) दया को पहौड़ी बनाता है, उस परमात्मा का प्यार अपने हृदय में बसाता है और इस तरह सदा के लिए अपनी तवज्जो प्रभु-चरणों में जोड़े रखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ जोगतण राम नामु है जिस का पिंडु पराना ॥ कहु कबीर जे किरपा धारै देइ सचा नीसाना ॥४॥७॥

मूलम्

सभ जोगतण राम नामु है जिस का पिंडु पराना ॥ कहु कबीर जे किरपा धारै देइ सचा नीसाना ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोगतण = योग कमाने का उद्यम। पिंडु = शरीर। देइ = देता है। सचा = सदा टिका रहने वाला। नीसाना = निशान, माथे पर नूर।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: जिस प्रभु का दिया हुआ ये शरीर और जीवात्मा है, उसका नाम स्मरणा सबसे अच्छा योग का काम है। यदि प्रभु खुद मेहर करे तो वह ये सदा-स्थिर रहने वाला नूर बख्शता है।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥ दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥ दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा मे = कहाँ से? किनि = किस ने? एह राह = हिन्दू और मुसलमान की मर्यादा के ये रास्ते। कवादे = हे बुरे झगड़ालू!।1।
अर्थ: बुरे झगड़ालू (अपने मत को सच्चा साबित करने के लिए बहस करने की जगह, अस्लियत ढूँढने के लिए) अपने दिल में सोच और विचार कर कि हिन्दू और मुसलमान (एक परमात्मा के बिना और) कहाँ से पैदा हुए हैं, (प्रभु के बिना और) किस ने ये रास्ते चलाए; (जब दोनों मतों के बंदे रब ने ही पैदा किए हैं, तो वह किस तरह भेद-भाव कर सकता है? सिर्फ मुसलमान अथवा हिन्दू होने से ही) किसने बहिश्त पाया और किस ने दोजक? (भाव, सिर्फ मुसलमान कहलवाने से ही बहिश्त नहीं मिल जाता, और हिंदू रहने से दोजक नहीं मिलता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजी तै कवन कतेब बखानी ॥ पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

काजी तै कवन कतेब बखानी ॥ पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = तू। बखानी = बता रहा है। गुनत = विचारते।1। रहाउ।
अर्थ: हे काजी! तू कौन सी किताबों में से बता रहा है (कि मुसलमान को बहिश्त और हिन्दू को दोजक मिलेगा)? (हे काज़ी!) तेरे जैसे पढ़ने और विचारने वाले (भाव, जो मनुष्य तेरी तरह तअसुब की पट्टी आँखों के आगे बाँध के मज़हबी किताबें पढ़ते हैं) सब ख्वार होते हैं। किसी को अस्लियत की समझ नहीं पड़ी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥ जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥

मूलम्

सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥ जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सकति = स्त्री। सनेहु = प्यार। सुंनति = मुसलमानों की मज़हबी रस्म; छोटी उम्र में लड़के की इन्द्रीय का सिरे का मास काट देते हैं। बदउगा = मानूँगा। भाई = हे भाई! जउ = अगर। रे = हे भाई! मोहि = मुझे।2।
अर्थ: (यह) सुंन्नत (तो) औरत के प्यार की खातिर की जाती है। हे भाई! मैं नहीं मान सकता (कि इसका रब से मिलने से कोई संबंध है)। यदि रब ने मुझे मुसलमान बनाना हुआ, तो मेरी सुन्नत अपने आप ही हो जाएगी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥ अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥

मूलम्

सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥ अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीए = करने से। किआ करीऐ = क्या किया जाए? अरधसरीरी = आधे शरीर वाली, आधे शरीर की मालिक, मनुष्य के आधे की मालिक, सदा की साथी। नारि = नारी। ता ते = इस लिए।3।
अर्थ: पर, अगर सिर्फ सुन्नत करके ही मुसलमान बन सकते हैं, तो औरत की सुन्नत तो हो ही नहीं सकती। पत्नी मनुष्य के जीवन की हर वक्त की सांझीवाल है, ये तो किसी भी वक्त साथ नहीं छोड़ती। सो, (आधा इधर आधा उधर रहने से बेहतर) हिन्दू बने रहना ही ठीक है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥ कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥

मूलम्

छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥ कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बउरे = हे कमले! पचि हारी = खपते रहे, ख्वार हुए।4।
अर्थ: हे भाई! मज़हबी किताबों की बहसें छोड़ के परमात्मा का भजन कर (बंदगी छोड़ के, और बहसों में पड़ के) तू अपने आप पर बड़ा जुलम कर रहा है। कबीर ने तो एक परमात्मा (के स्मरण) का आसरा लिया है, (झगड़ालू) मुसलमान (बहिसों में ही) ख्वार हो रहे हैं।4।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कई विद्वान सज्जन इस शब्द की उथानका में कबीर जी को हिंदू लिखते हैं; पर जहाँ आरम्भ में सारे भक्तों का वेरवा लिखते हैं, वहाँ कबीर जी को मुसलमान कह रहे हैं। ये भुलेखा उन्हें रविदास जी के राग मलार में लिखे दूसरे शब्द से पड़ रहा प्रतीत हो रहा है। इस भ्रम को साफ करने के लिए पढ़ें मेरा लिखा नोट भक्त रविदास जी के उस शब्द के साथ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥ तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥ तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुखि = मुंह में। बाती = बत्ती। सूझै = नजर आता है। सभु कोई = हरेक चीज। ठहरानी = खड़ी हो गई, सूख गई, बुझ गई। सूंना = सूना, खाली। मंदरु = घर।1।
अर्थ: (जैसे) जब तक दीपक में तेल है, और दीए के मुंह में बाती है, तब तक (घर में) हरेक चीज नजर आती है। तेल जल जाए, बाती बुझ जाए, तो घर सूना हो जाता है (वैसे ही, शरीर में जब तक श्वास हैं तो जिंदगी कायम है, तब तक हरेक चीज ‘अपनी’ प्रतीत होती है, पर श्वास खत्म हो जाएं और जिंदगी की ज्योति बुझ जाए तो ये शरीर अकेला रह जाता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥ तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥ तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे बउरे = हे कमले जीव! तुहि = तुझे। सोई = सार लेने वाला, सच्चा साथी।1। रहाउ।
अर्थ: (उस वक्त) हे कमले! तुझे किसी ने एक घड़ी भी घर में रहने नहीं देना। सो, रब का नाम जप, वही साथ निभाने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥ घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥

मूलम्

का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥ घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: का की = किस की? जोई = जोरू, स्त्री, पत्नी। घट = शरीर। फूटे = टूट जाने पर।2।
अर्थ: यहाँ बताओ, किस की माँ? किस का पिता? और किस की पत्नी? जब शरीर-रूप बर्तन टूटता है, कोई (इसकी) बात नहीं पूछता, (तब) यही पड़ा होता है (भाव, हर तरफ से यही आवाज आती है) इसको जल्दी बाहर निकालो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥ लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥

मूलम्

देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥ लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देहुरी = दहलीज़। खटीआ = चारपाई। लट छिटकाए = केस खोल के, सिर के बाल बिखरा के। तिरीआ = पत्नी। हंसु = जीवात्मा।3।
अर्थ: घर की दहलीज़ पर बैठी माँ रोती है, चारपाई उठा के भाई (शमशान को) ले जाते हैं। लटें बिखरा के पत्नी पड़ी रोती है, (पर) जीवात्मा अकेले (ही) जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥ इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥

मूलम्

कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥ इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै सागरु = तौख़लों का समुंदर, भय से भरा संसार समुंदर। कै ताई = की बाबत, के बारे। गुसाई = हे संत जी!
अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनो! इस डरावने समुंदर के बारे में सुनो (भाव, आखिर नतीजा ये निकलता है) (कि जिनको ‘अपना’ समझता रहा था, उनसे साथ टूट जाने पर, अकेले) इस जीव पर (इसके किए विकर्मों के अनुसार) मुसीबत आती है, जम (का डर) सिर से टलता नहीं है।4।9।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दो-दो तुकों के ‘बंद’ वाले ये 9 शब्द हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुतुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा स्री कबीर जीउ के चउपदे इकतुके ॥

मूलम्

दुतुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा स्री कबीर जीउ के चउपदे इकतुके ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनक सनंद अंतु नही पाइआ ॥ बेद पड़े पड़ि ब्रहमे जनमु गवाइआ ॥१॥

मूलम्

सनक सनंद अंतु नही पाइआ ॥ बेद पड़े पड़ि ब्रहमे जनमु गवाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सनक सनंद = ब्रहमा के पुत्रों के नाम हैं। ब्रहमे बेद = ब्रहमा के रचे हुए वेद। पढ़े पढ़ि = पढ़ पढ़ के।1।
अर्थ: सनक सनंद (आदि ब्रहमा जी के पुत्रों) ने भी (परमात्मा के गुणों का) अंत नहीं पाया। उन्होंने ब्रहमा के रचे वेद पढ़-पढ़ के ही उम्र (व्यर्थ) गवा ली।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का बिलोवना बिलोवहु मेरे भाई ॥ सहजि बिलोवहु जैसे ततु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि का बिलोवना बिलोवहु मेरे भाई ॥ सहजि बिलोवहु जैसे ततु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिलोवना = मथना। हरि का बिलोवना = जैसे दूध को बार बार खासी देर मथते हैं, उसी तरह परमात्मा की बार बार याद। सहजि = सहज अवस्था में (टिक के); जैसे दूध को सहजे सहज मथते हैं, जल्दबाजी करने से मक्खन बीच में ही घुल जाता है, वैसे ही मन को सहज अवस्था में रख के प्रभु का स्मरण करना है। ततु = (दूध का तत्व) मक्खन। सिमरन का तत्व = प्रभु का मिलाप)।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: यहाँ शब्द ‘सहज’ को ‘दूध मथने’ और ‘स्मरण’ के साथ दो तरीकों में बरतना है; सहजे सहज मथना; सहज अवस्था में टिक के स्मरण करना)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे वीर! बार-बार परमात्मा का स्मरण करो, सहज अवस्था में टिक के स्मरण करो ता कि (इस उद्यम का) तत्व हाथों से जाता ना रहे (भाव, प्रभु से मिलाप बन सके)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु करि मटुकी मन माहि बिलोई ॥ इसु मटुकी महि सबदु संजोई ॥२॥

मूलम्

तनु करि मटुकी मन माहि बिलोई ॥ इसु मटुकी महि सबदु संजोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मटुकी = मटकी, चाटी। मन माहि = मन के अंदर ही (भाव, मन को अंदर ही रखना, मन को भटकना से बचाए रखना, ये मथानी हो)। संजोई = जाग, जो दूध को दही बनाने के लिए लगाते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! अपने शरीर को मटकी (चाटी) बनाओ (भाव, शरीर के अंदर ही ज्योति तलाशनी है); मन को भटकने से बचाए रखो- ये मथानी बनाओ; इस (शरीर रूप) चाटी में (सतिगुरु का) शब्द-रूप जाग लगाओ (जो स्मरण रूप दूध में से प्रभु-मिलाप का तत्व निकालने में सहायता करे)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का बिलोवना मन का बीचारा ॥ गुर प्रसादि पावै अम्रित धारा ॥३॥

मूलम्

हरि का बिलोवना मन का बीचारा ॥ गुर प्रसादि पावै अम्रित धारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित धारा = अमृत का श्रोत।3।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन में प्रभु की याद रूपी मथने का काम करता है, उसे सतिगुरु की कृपा से (हरि-नाम रूप) अमृत का श्रोत प्राप्त हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर नदरि करे जे मींरा ॥ राम नाम लगि उतरे तीरा ॥४॥१॥१०॥

मूलम्

कहु कबीर नदरि करे जे मींरा ॥ राम नाम लगि उतरे तीरा ॥४॥१॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मींरा = बादशाह। लगि = लग के, जुड़ के। तीरा = किनारा। कहु = कह (भाव, असल बात ये है)।4।
अर्थ: हे कबीर! दरअसल बात ये है कि जिस मनुष्य पर पातशाह (ईश्वर) मेहर करता है वह परमात्मा का नाम स्मरण करके (संसार समुंदर से) पार जा लगता है।4।1।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ बाती सूकी तेलु निखूटा ॥ मंदलु न बाजै नटु पै सूता ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ बाती सूकी तेलु निखूटा ॥ मंदलु न बाजै नटु पै सूता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नटु = नट जीव जो माया का नचाया नाच रहा था। पै = बेपरवाह हो के, माया की तरफ से बेफिक्र हो के। सूता = सो गया है, शांत चित्त हो गया है, डोलने से हट गया है। मंदलु = ढोल, माया का प्रभाव रूपी ढोल। तेलु = माया का मोह रूपी तेल। बाती = बत्ती जिसके आसरे तेल जलता है और दीया जगमगाता रहता है, मन की सूझ जो मोह में फसाई रखती है।1।
अर्थ: वह जीव-नट (जो पहले माया का नचाया हुआ नाच रहा था) अब (माया की ओर से) बेपरवाह हो गया है (इसलिए) भटकने से बच जाता है, उसकी तवज्जो (माया की ओर से) हट जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुझि गई अगनि न निकसिओ धूंआ ॥ रवि रहिआ एकु अवरु नही दूआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बुझि गई अगनि न निकसिओ धूंआ ॥ रवि रहिआ एकु अवरु नही दूआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगनि = तृष्णा की आग। न…धूँआ = उस आग का धूंआ भी खत्म हो गया, उस तृष्णा में से उठने वाली वासनाएं खत्म हो गई। रवि रहिआ एकु = हर जगह एक प्रभु ही दिख रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है और तृष्णा में से उठने वाली वासनाएंसमाप्त हो जाती हैं, उसे हर जगह एक प्रभु ही व्यापक दिखता है, प्रभु के बिना कोई और नहीं प्रतीत होता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

टूटी तंतु न बजै रबाबु ॥ भूलि बिगारिओ अपना काजु ॥२॥

मूलम्

टूटी तंतु न बजै रबाबु ॥ भूलि बिगारिओ अपना काजु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न बजै रबाबु = रबाब बजने से हट गया है, शरीर से प्यार खत्म हो गया है, देह अध्यास खत्म हो गया है। तंतु = तार जिससे रबाब बजता है, माया की लगन।2।
अर्थ: (जिस शारीरिक मोह में) फंस के पहले मनुष्य अपना (असल करने वाला) काम खराब किए जा रहा था, अब वह शरीर मोह-रूपी रबाब बजता ही नहीं क्योंकि (तृष्णा के खत्म होने पर) मोह की तार टूट जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथनी बदनी कहनु कहावनु ॥ समझि परी तउ बिसरिओ गावनु ॥३॥

मूलम्

कथनी बदनी कहनु कहावनु ॥ समझि परी तउ बिसरिओ गावनु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अब जब (जीवन की) सही समझ आ गई तो शरीर की खातिर ही वह पहली बातें, वह तरले, वह मिन्नतें, सब भूल गए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर पंच जो चूरे ॥ तिन ते नाहि परम पदु दूरे ॥४॥२॥११॥

मूलम्

कहत कबीर पंच जो चूरे ॥ तिन ते नाहि परम पदु दूरे ॥४॥२॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चूरे = नाश करे। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: कबीर कहता है: जो मनुष्य पाँचों कामादिकों को मार लेते हैं, उन मनुष्यों से ऊँची आत्मिक अवस्था दूर नहीं रह जाती।4।2।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक और आखिरी बंद को जरा ध्यान से पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि इस सारे शब्द में उस अवस्था का जिक्र है जब जीव को हर जगह प्रभु ही प्रभु व्यापक दिखता है। उस हालत में पहुँचे हुए जी पे कामादिक बलियों का जोर नहीं पड़ सकता, उस मनुष्य के अंदर से तृष्णा की अग्नि बुझ जाती है। तृष्णा की आग बुझने से पहले जीव-नट माया की रास डाल रहा था, माया का नचाया नाच रहा था। पर, जब माया के मोह की तारें टूट गई, रबाब बजनी बंद हो गई, शरीर की नित्य की वासनाओं का राग-रोना खत्म हो गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ सुतु अपराध करत है जेते ॥ जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ सुतु अपराध करत है जेते ॥ जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुतु = पुत्र। अपराध = गलतियां, भूलें। जेते = जितने भी, चाहे कितने ही। जननी = माँ। चीति = चित्त में। तेते = वह सारे ही।1।
अर्थ: पुत्र चाहे कितनी ही गलतियां क्यों ना करे, उसकी माँ वह सारी की सारी भुला देती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥ काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥ काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामईआ = हे सुंदर राम! हउ = मैं। बारिकु = बालक, अंजान बच्चा। न खंडसि = तू नहीं नाश करता।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) सुंदर राम! मैं तेरा अंजान बचा हूँ, तू (मेरे अंदर से) मेरी भूलों को क्यों दूर नहीं करता?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥ ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥

मूलम्

जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥ ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अति = बहुत। क्रोप = क्रोध, गुस्सा। करे करि = कर कर, बार बार करके। धाइआ = दौड़े। माइआ = माँ।2।
अर्थ: अगर (मूर्ख बच्चा) बड़ा क्रोध कर करके माँ को मारने भी लगे, तो भी माँ (उसके मूर्खपने को) याद नहीं रखती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥ नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥

मूलम्

चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥ नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिंत भवनि = चिन्ता के भवन में, चिन्ता के बवण्डर में।3।
अर्थ: हे मेरे राम! मेरा मन चिन्ता के कूँए में पड़ा हुआ है (मैं सदा भूलें ही करता रहा हूँ) तेरा नाम स्मरण के बिना कैसे इस चिन्ता में से पार लांघू?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥ सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥

मूलम्

देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥ सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिमल मति = निर्मल बुद्धि, सुमति। सहजि = सहज अवस्था में टिक के। रवै = याद करे।4।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे इस शरीर को (भाव, मुझे) सदा कोई सुमति दे, जिससे (तेरा बच्चा) कबीर अडोल अवस्था में रहके तेरे गुण गाता रहे।4।3।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ हज हमारी गोमती तीर ॥ जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ हज हमारी गोमती तीर ॥ जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोमती तीर = गोमती के किनारे। जहा = जहाँ। बसहि = बस रहे हैं। पीतंबर पीर = प्रभु जी।1।
अर्थ: हमारा हज और हमारी गोमती का किनारा (ये मनही है), जहाँ श्री प्रभु जी बस रहे हैं।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि कबीर जी ‘हज’ के मुकाबले में ‘गोमती तीर’ को अपना ईष्ट नहीं कह रहे।
‘पीतंबर पीर’ शब्द ‘कृष्ण जी’ के लिए भी नहीं है, क्योंकि कृष्ण जी का गोमती नदी से कोई संबंध नहीं है।
पहली तुक में किसी ऐसे ठिकाने की ओर इशारा है जिस की बाबत शब्द ‘जह’ (जहाँ) प्रयोग कर के कहा गया है कि ‘पीतांबर पीर’ वहाँ ‘बसहि’ बस रहे हैं।
अकाल पुरख के लिए शब्द ‘पीतंबर पीर’ का प्रयोग क्रिया (verb) बहुवचन (Plural Number) में केवल आदर वास्ते उपयोग की गई है, जैसे;
प्रभ जी बसहि साध की रसना॥ नानक जन का दासनि दसना॥ (सुखमनी साहिब)
‘रहाउ’ की तुक के साथ संबंध जोड़ने से पहली तुक का साधारण पाठ इस प्रकार है:
(हमारे) हज (और) हमारी गोमती तीर (यह मन ही है), जहां पीतंबर पीर बसहि।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥ हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥ हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहु वाहु = महिमा। खूबु = सुंदर। खूबु वाहु वाहु = सुंदर महिमा। मेरै मनि = मेरे मन में।1। रहाउ।
अर्थ: (मेरा मन) क्या सुन्दर महिमा कर रहा है (और) हरि का नाम मेरे मन में प्यारा लग रहा है (इसलिए ये मेरा मनही तीर्थ है और यही मेरा हज है)।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये ‘रहाउ’ की तुक सारे शब्द का, मानो, धुरा है। यहाँ प्रश्न उठता है कि कौन ‘खूबु वाहु वाहु’ गाता है? ‘रहाउ’ की तुक के दूसरे हिस्से को ध्यान से पढ़ने पर क्रिया (verb) ‘गावता है’ का करता (Subject) मिल जाता है।
अर्थ करते समय तुक का साधारण पाठ (prose Order) इस तरह बनेगा: (मेरा मन) क्या खूबु वाहु वाहु गावता है, (और) हरि का नाम मेरै मनि भावता है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नारद सारद करहि खवासी ॥ पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥

मूलम्

नारद सारद करहि खवासी ॥ पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खवासी = टहल, चौबदारी। बीबी कवला = लक्षमी। दासी = सेविका।2।
अर्थ: नारद भक्त की शारदा देवी भी उस श्री प्रभु जी की सेवा कर रही है (जो मेरे मन रूपी तीर्थ पे बस रहा है) और लक्ष्मी उसके पास सेविका बन के बैठी हुई है। मैं हजार नाम ले ले के प्रणाम करता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंठे माला जिहवा रामु ॥ सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥

मूलम्

कंठे माला जिहवा रामु ॥ सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंठे = गले में। सहंस = हजारों।3।
अर्थ: जीभ पर राम का नाम जपना ही मेरे लिए गले की माला (सिमरनी) है, उस राम को (जो मेरे मन रूपी तीर्थ और जीभ पे बस रहा है) मैं हजार नाम ले ले के प्रणाम करता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर राम गुन गावउ ॥ हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥

मूलम्

कहत कबीर राम गुन गावउ ॥ हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कबीर कहता है कि मैं हरि के गुण गाता हूँ और हिन्दू व मुसलमान दोनों को समझाता हूँ (कि मन ही तीर्थ और हज है, जहाँ ईश्वर बसता है और उसके अनेक नाम हैं)।4।4।13।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन इस शब्द के बारे में यूँ लिखते हैं: “भक्त जी अपने स्वामी गुरु रामानंद जी की उपमा करते हैं। तब आप पीर-पीतांबर वैश्नव थे। गोमती नदी के किनारे स्वामी रामानंद के तीर्थों का हज करना उत्तम बताते हैं। वहाँ रहके जोग-अभ्यास करते थे।
पर, पाठक सज्जन इस शब्द के अर्थों को देख आए हैं कि यहाँ ना कहीं रामानंद जी का वर्णन है और ना ही किसी योगाभ्यास का।
नोट: हरेक शब्द का ठीक अर्थ समझने के लिए ये जरूरी है कि पहले ‘रहाउ’ की तुक को अच्छी तरह समझा जाए। ‘रहाउ’ की तुक, मानो, शब्द का धुरा है, जिसके इर्द-गिर्द शब्द के सारे बंद घूमते हैं।
इस शब्द के ठीक अर्थ करने के लिए उपरोक्त लिखे गुर के अतिरिक्त शब्द की आखिरी तुक की ओर ध्यान देना भी जरूरी हैइस तुक से पूर्णतया स्पष्ट होता हैकि कबीर जी सिर्फ मुसलमानों के ‘हज’ का ही जिक्र नहीं कर रहे, हिंदुओं के तीर्थों की ओर भी इशारा करते हैं, क्योंकि केवल ‘हज’ का वर्णन करने से ‘हिंदू तुरक दोऊ’ को उपदेश नहीं हो सकता।
‘गोमती’ नदी हिन्दुओं का तीर्थ है। भाई गुरदास जी जहाँ ‘गुर चरण हज’ को सारे तीर्थों से श्रेष्ठ बताते हैं वहीं और तीर्थों के साथ ‘गोमती’ का भी वर्णन करते हैं। नामदेव जी भी रामकली राग में ‘गोमती’ को हिन्दू-तीर्थ बताते हैं।
गंगा जउ गोदावरी जाईऐ, कुंभि जउ केदार न्हाईऐ, गोमती सहस गऊ दान कीजै॥ कोटि जउ तीरथ करै, तनु जउ हिवाले गारै, राम राम सरि तऊ न पूजै॥२॥४॥ (रामकली नामदेउ जी)
इसलिए कबीर जी की भी इस शब्द में ‘हज’ के मुकाबले में ‘गोमती तीर’ को प्रवानगी नहीं दे रहे। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का वाणी का हरेक शब्द (चाहे किसी भक्त जी ने उचारा है, चाहे सतिगुरु जी का अपना है) एक ही गुरमति की लड़ी में है।
शब्द ‘गोमती’ को तोड़-मोड़ के इसके कोई और अर्थ गुरमति अनुसार बनाने भी बेमायने हैं, क्योंकि उपरोक्त प्रमाण में ये ‘गोमती’ स्पष्ट तौर पर हिन्दू-तीर्थ का नाम है।
शब्द का अर्थ करने से पहले खोजी-सज्जनों के लिए एक और शब्द दिया जा रहा है, जो ऊपर दिए विचार को स्पष्ट करने में बहुत सहायक साबित होगा;
वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥ एक गुसाई अलहु मेरा॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा॥१॥ रहाउ॥ हज काबै जाउ न तीरथ पूजा॥ एको सेवी अवर न दूजा॥२॥ पूजा करउ न निवाज गुजारउ॥ एक निरंकार ले रिदै नमसकारउ॥३॥ न हम हिंदू न मुसलमान॥ अलह राम के पिंड परान॥४॥ कहु कबीर इहु कीआ बखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ (भैरउ महला ५ घरु १)
जैसे जैसे इस शब्द की हरेक तुक को ध्यान से पड़ें और विचारें तो उपरोक्त शब्द के अर्थ स्पष्ट होते चले जाते हैं। हज और तीर्थ, दोनों का वर्णन करके मुसलमान और हिन्दुओं दोनों को उपदेश दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा स्री कबीर जीउ के पंचपदे ९ दुतुके ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा स्री कबीर जीउ के पंचपदे ९ दुतुके ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥ जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥

मूलम्

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥ जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाती = पत्र, पत्ती। पाती पाती = हरेक पत्र में। जीउ = जीवन। पाहन = पत्थर। निरजीउ = निर्जीव।1।
अर्थ: (मूर्ति के आगे भेटा धरने के लिए) मालिनि पत्तियां तोड़ती है, (पर ये नहीं जानती कि) हरेक पत्ती में जीव है। जिस पत्थर (की मूर्ति) की खातिर (मालनि) पत्तियां तोड़ती है, वह पत्थर (की मूर्ती) निर्जीव है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूली मालनी है एउ ॥ सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भूली मालनी है एउ ॥ सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एउ = इस तरह।1। रहाउ।
अर्थ: (ये निर्जीव मूर्ति की सेवा करके) इस तरह (ये) मालनि भूल रही है, (असली ईष्ट) सतिगुरु तो (जीता) जागता देवता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥ तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥

मूलम्

ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥ तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमु = ब्रहमा। डारी = डाली, टहनी। संकर = शिव। प्रतखि = प्रत्यक्ष, सामने। तोरहि = तोड़ रही है। सेउ = सेवा।2।
अर्थ: (हे मालिनि!) पत्तियां ब्रहमा रूप हैं, डाली विष्णु रूप और फूल शिव रूप। इन तीनों देवताओं को तो तू अपने सामने ही नाश कर रही है, (फिर) सेवा किस की करती है?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥ जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥

मूलम्

पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥ जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाखान = पत्थर। गढि कै = घड़ के। पाउ = पाँव, पैर।3।
अर्थ: (मूर्ति घड़ने वाले ने) पत्थर घड़ के, और (घड़ने के समय मूर्ति की) छाती पर पैर रख कर मूर्ति तैयार की है। अगर ये मूर्ति असल देवता है तो (इस निरादरी के कारण) बनाने वाले को ही खा जाती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥ भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥

मूलम्

भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥ भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भातु = चावल। पहिति = दाल। लापसी = पतला कड़ाह। करकरा कासारु = खस्ता पंजीरी। छारु = राख। मुखि छारु = मुंह में राख; भाव, कुछ ना मिला।4।
अर्थ: चावल, दाल, हलवा और करकरी पंजीरी तो खाने वाला (पुजारी ही) खा जाता है, इस मूर्ति के मुंह में कुछ भी नहीं पड़ता (क्योंकि ये तो निर्जीव है, खाए कैसे?)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥ कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥

मूलम्

मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥ कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: क्रिपा करि = कृपा करके। राखे = रख लिया है, भुलेखे से बचा लिया है।5।
अर्थ: हे कबीर! कह: मालिनि (मूर्ति पूजने के) भुलेखे में पड़ी हुई है, जगत भी यही गलती कर रहा है, पर हमने ये भुलेखा नहीं खाया, क्योंकि परमात्मा ने अपनी मेहर करके हमें इस गलती से बचा लिया है।5।1।14।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कुछ सज्जन आजकल यह नई रीति चला रहे हैं कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में रोटी का थाल ला के रखते हैं, और भोग लगवाते हैं। क्या इस तरह श्री गुरु ग्रंथ साहिब को मूर्ति का दर्जा दे के निरादरी नहीं की जा रही? पंथ को सुचेत रहने की आवश्यक्ता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥ तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥ तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बालपन = अज्ञानता।1।
अर्थ: (उम्र के पहले) बारह साल अंजानपने में गुजर गए, (और) बीस बरस (गुजर गए, भाव, तीस सालों को पार कर गया, तब तक भी) कोई तप ना किया; तीस साल (और बीत गए, उम्र साठ को पार कर गई, तो भी) कोई भजन-बंदगी ना की, अब हाथ मलने लगा (क्योंकि) बुड्ढा हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥ साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥ साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरी मेरी करते = इन ख्यालों में ही कि ये चीज मेरी है यह धन मेरा है, ममता में ही। साइरु = समुंदर, सागर। सोखि = सूख के, सूख जाने पर। भुजं बलइओ = भुजाओं का बल, बाहों की ताकत।1। रहाउ।
अर्थ: ‘ममता’ में ही (जवानी की) उम्र बीत गई, शरीर रूपी समुंदर सूख गया, और बाहों की ताकत (भी समाप्त हो गई)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥ आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥

मूलम्

सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥ आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरवरि = तालाब में। पालि = दीवार। लूणै खेति = कटे हुए खेत में। हथ = हाथों से। वारि = वाड़। मुगधु = मूर्ख।2।
अर्थ: (अब बुढ़ापा आने पर भी मौत से बचने के उपाय करता है, पर इसके उद्यम ऐसे हैं जैसे) सूखे हुए तालाब के किनारे बाँध रहा है (ता कि पानी तालाब में से बाहर ना निकल जाए), और कटे हुए खेत के किनारे बाड़ दे रहा है। मूर्ख मनुष्य जिस शरीर को अपना बनाए रखने के यत्न करता फिरता है, पर (पर जब जम रूप) चोर (भाव, चुप करके ही जम) आता है और (जीवन को) ले के चला जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥ जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥

मूलम्

चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥ जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कर = हाथ। कंपन = कंबणी। असार = खुद ब खुद, विना रुकने के। रे = हे भाई!।3।
अर्थ: पैर, सिर, हाथ काँपने लग जाते हैं, आँखों में से खुद-ब-खुद पानी बहता जाता है, जीभ में से कोई शब्द साफ नहीं निकलता। हे मूर्ख! (क्या) उस वक्त तू धर्म कमाने की बात करता है?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥ गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥

मूलम्

हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥ गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाहा = लाभ। परसादी = किरपा से।4।
अर्थ: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उसकी तवज्जो (अपने चरणों में) जोड़ता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रूप लाभ कमाता है। जगत से चलने के वक्त भी यही नाम-धन (मनुष्य के) साथ जाता है (पर) ये धन मिलता है सतिगुरु की कृपा से।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥ आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥

मूलम्

कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥ आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तलब = सदा। मंदर = घर। अनु धनु = कोई और धन।5।
अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनों! सुनो, (कोई भी जीव मरने के वक्त) कोई और धन-पदार्थ अपने साथ नहीं ले जाता, क्योंकि जब परमात्मा की ओर से निमंत्रण आता है तो मनुष्य दौलत के घर (सब कुछ यहीं) छोड़ के चल पड़ता है।5।2।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥ काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥ काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पटंबर = पट के अंबर, पट के कपड़े। गरी गोदरी = गली फटी हुई गोदड़ी, जुल्ली। परारा = पराली। खान = घरों में।1।
अर्थ: (परमात्मा ने) कई लोगों को रेशम के कपड़े (पहनने को) दिए हैं और निवारी पलंघ (सोने के लिए); पर, कई (बिचारों) को सड़ी-गली जुल्ली भी नहीं मिलती, और कई घरों में (बिस्तरों की जगह) पराली ही है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥ सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥ सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहिरख = हिरख, ईष्या, गिला। वादु = झगड़ा। सुक्रितु = नेक कमाई।1। रहाउ।
अर्थ: (पर) हे मन! ईष्या और झगड़ा क्यों करता है? नेक कमाई किए जा और तू भी ये सुख हासिल कर ले।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥ काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥

मूलम्

कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥ काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहु बिधि = कई किस्मों की। बानी = रंगत, वन्नी। मुकताहल = मुक्ताहल, मोतियों की माला। बिआधि = मध,शराब आदि रोग लगाने वाली चीजें।2।
अर्थ: कुम्हार ने एक ही मिट्टी गूँदी और उसे कई किस्म के रंग लगा दिए (भाव, कई तरह के बर्तन बना दिए)। किसी बर्तन में मोती और मोतियों की माला (मनुष्य ने) डाल दीं और किसी में (शराब आदि) रोग लगाने वाली चीजें।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥ जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥

मूलम्

सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥ जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूंड = सिर।3।
अर्थ: कंजूस धन जोड़ने जुटा हुआ है, (और) मूर्ख (कंजूस) कहता है: ये धन मेरा है। (पर जिस वक्त) जम का डण्डा सिर पर आ बजता है तब एक पलक में फैसला कर देता है (कि दरअसल ये धन किसी का भी नहीं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥ जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥

मूलम्

हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥ जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मान के। सति = अटल। मंनि = मन में।4।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का सेवक (बन के रहता) है, वह परमात्मा का हुक्म मान के सुख भोगता है और जगत में नेक भक्त कहलवाता है (भाव, शोभा पाता है), प्रभु की रजा मन में बसाता है, जो प्रभु को भाता है उसको ही ठीक समझता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥ चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥

मूलम्

कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥ चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिरगट = पिंजरा। चटारा = चिड़ा। तरी तागरी = कुज्जी और ठूठी। छूटी = छूट जाती है, धरी ही रह जाती है।5।
अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो, ‘ये धन-पदार्थ मेरा है’-ये ख्याल झूठा है (भाव, दुनिया के पदार्थ सदा के लिए अपने नहीं रह सकते); (जैसे, अगर) पिंजरे को फाड़ के (कोई बिल्ला) चिड़े को पकड़ के ले जाए तो (उस पिंजरें वाले पक्षी की) कुज्जी और ठूठी ही रह जाती है (वैसे ही मौत आने पर बंदे के खाने-पीने वाले पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं)।5।3।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥ अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥ अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसकीन = आजिज, निमाने। खुदाई बंदे = ईश्वर के पैदा किए हुए बंदे। राजसु = हकूमत। तुम = तुम्हें। अलह = रब। अवलि = पहला (भाव, सबसे बड़ा)। दीन = धर्म, मजहब। जोरु = धक्का।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘मसकीन, खुदाई बंदे, राजसु, तुम, अलह, अवल, दीन’ सारे इस्लामी शब्द हैं)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे काज़ी!) हम तो बेचारे लोग हैं, पर हैं (हम भी) रब के पैदा किए हुए। तुम्हें अपने मन में हकूमत अच्छी लगती है (भाव, तुम्हें हकूमत का गुमान है)। मज़हब का सबसे बड़ा मालिक तो रब है, वह (किसी पर भी) जोर-जबरदस्ती की आज्ञा नहीं देता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काजी = हे काज़ी!।1। रहाउ।
अर्थ: हे काज़ी! तेरी (ज़बानी) बातें जचती नहीं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥ सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥

मूलम्

रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥ सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रोजा धरै = रोजा रखता है। सतरि = गुप्त। काबा = रब का घर। घट ही भीतर = दिल के अंदर ही।2।
अर्थ: (सिर्फ) रोजा रखने से, नमाज अदा करने से और कलमा पढ़ने से भिस्त नहीं मिल जाता। रब का गुप्त घर तो मनुष्य के दिल में है, (पर मिलता तब ही है) अगर कोई समझ ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥ पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥

मूलम्

निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥ पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकलहि = अकल से। मुसि = ठग के, वश में कर के। पाचहु = कामादिक पाँचों को।3।
अर्थ: जो मनुष्य न्याय करता है वह (मानो) नमाज पढ़ रहा है, और जो रब को अकल से पहचानता है तो कलमा अदा कर रहा है; कामादिक पाँचों (बलवान विकारों) को अपने वश में करता है तो (मानो) मुसला बिछाता है, और मज़हब को पहचानता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥ आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥

मूलम्

खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥ आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ महि = अपने हृदय में। मणी = अहंकार। आपु = अपने आप को। जनाइ = समझा के। सरीकी = भाईवाल, सांझीवाल।4।
अर्थ: हे काज़ी! मालिक प्रभु को पहचान, अपने हृदय में प्यार बसा, मणी को फीकी जान के मार दे (अर्थात, अहंकार को बुरा जान के त्याग दे)। जब मनुष्य अपने आप को समझा के दूसरों को (अपने जैसा) समझता है, तब भिष्त उसे नसीब होता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रहमु पछाना ॥ कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥४॥१७॥

मूलम्

माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रहमु पछाना ॥ कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥४॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पछाना = पहचानता है। नाना = अनेक। ता महि = इन (वेशों) में।5।
अर्थ: मिट्टी एक ही है, (प्रभु ने इसके) अनेक वेश धारे हुए हैं। (असल मोमन ने) इन (वेशों) में रब को पहचाना है (और यही है भिष्त का रास्ता); पर, कबीर कहता है, (हे काज़ी!) तुम तो (दूसरों पर जोर-ज़बरदस्ती करके) भिष्त (का रास्ता) छोड़ के दोज़क से मन जोड़े बैठे हो।5।4।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना ॥ पारब्रहम परमेसुर माधो परम हंसु ले सिधाना ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना ॥ पारब्रहम परमेसुर माधो परम हंसु ले सिधाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गगन = आकाश, चिदाकाश; दिमाग़, दसवां द्वार। गगन नगरि = गगन रूपी नगर में, दसवें द्वार रूपी नगर में, दिमाग़ में। इक बूंद = एक रत्ती भी। नादु = आवाज, शोर, जोर, माया का शोर, लोभ का शोर। नादु जु = जो (चित्त में) लोभादिक का शोर था। कहा समाना = पता नहीं कहाँ लीन हो गया, कहाँ खत्म हो गया है। परम हंसु = सबसे ऊँचा हंस, सबसे ऊँची पवित्र आत्मा, परमात्मा। ले सिधाना = ले के चला गया है, (उस ‘नाद’ को) ले गया है (क्योंकि उस ‘नाद’ की एक बूँद भी ‘गगन नगर’ में नहीं बरसती)।1।
अर्थ: हे बाबा! शारीरिक मोह आदि का वह शोर कहाँ गया (जो हर वक्त तेरे मन में टिका रहता था)? अब तो तेरे मन में कोई एक फुरना भी नहीं उठता। (ये सब मेहर) उस पारब्रहम परमेश्वर माधो परम हंस (की है जिस) ने मन के ये सारे मायावी शोर नाश कर दिए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा बोलते ते कहा गए देही के संगि रहते ॥ सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा बोलते ते कहा गए देही के संगि रहते ॥ सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबा = हे बाबा! हे भाई! ते बोलते = (‘नाद’ के) वह बोल, लोभादिक माया के शोर के वह बोल। देही = शरीर। देही के संगि रहते = जो ‘बोलते’ देही के संग रहते, जो बोल शरीर के साथ रहते थे, जो ख्याल शरीर के संबंध में ही बने रहते थे। कहा गए = पता नहीं कहाँ चले गए, कहीं गायब ही हो गए हैं। जो = जो ‘बोलते’, जो बोल, जो विचार। निरते = नृत्य, नाच। जो निरते करते = माया के जो विचार नाच करते रहते थे। कथा बारता = बातचीत। कथा बारता करते = जो सिर्फ माया के ही बोल थे, जो सिर्फ माया की ही बातें करते थे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम-जपने की इनायत से तेरे अंदर आश्चर्यजनक तबदीली पैदा हो गई है) तेरे वह बोल कहाँ गए जो सदा शरीर संबंधी ही रहते थे? कभी (वो वक्त था जब) तेरी सारी बातें शारीरिक मोह के बारे ही थीं, तेरे मन में मायावी विचार ही नृत्य किया करते थे- वो सब कहीं अलोप ही हो गए हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीन्हा ॥ साखी सबदु सुरति नही उपजै खिंचि तेजु सभु लीन्हा ॥२॥

मूलम्

बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीन्हा ॥ साखी सबदु सुरति नही उपजै खिंचि तेजु सभु लीन्हा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मन) ने। मंदरु = मांदल, ढोल, शरीर के मोह का ढोल, देह अध्यास का ढोल। जिनि मंदरु कीना = जिस मन ने देह अध्यास का ढोल बनाया हुआ था। बजावनहारो = बजाने वाला, ढोल को बजाने वाला, जो मन शरीर का मोह रूपी ढोल बजा रहा था। साखी सबदु सुरति = (शारीरिक मोह की) कोई बात कोई बोल कोई विचार। तेजु = (उस बजावनहार मन का) तेज प्रताप। खिंचि लीना = (पारब्रहम परमेश्वर माधो परमहंस ने) खींच लिया है।2।
अर्थ: (शारीरिक मोह के वह फुरने कहाँ रह सकते हैं? अब तो वह मन ही नहीं रहा जिस मन ने शारीरिक मोह की ये ढोलकी बनाई हुई थी। मायावी मोह की ढोलकी को) बजाने वाला वह मनही कहीं अलोप हो गया है। (पारब्रहम परमेश्वर ने मन का वह पहला) तेज-प्रताप ही खींच लिया है, मन में अबवह पहली बात, पहला बोल, पहला फुरना कहीं पैदा ही नहीं होता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रवनन बिकल भए संगि तेरे इंद्री का बलु थाका ॥ चरन रहे कर ढरकि परे है मुखहु न निकसै बाता ॥३॥

मूलम्

स्रवनन बिकल भए संगि तेरे इंद्री का बलु थाका ॥ चरन रहे कर ढरकि परे है मुखहु न निकसै बाता ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = (देही के) संगि, देह अध्यास के संग, शारीरिक मोह में। बिकल = व्याकुल। तेरे स्रवनन = (श्रवण, कान) तेरे कानों का। इंद्री = (भाव) काम चेष्टा। चरन = पैर (जो पहले ‘देही के संगि रहते’)। कर = हाथ (जो पहले ‘देही के संगि रहते’)। बाता = बात (शारीरिक मोह की)।3।
अर्थ: हे भाई! तेरे वह कान कहाँ गए जो पहले शारीरिक मोह में फंसे हुए सदा व्याकुल रहते थे? तेरी काम-चेष्टा का जोर भी थम गया है। तेरे ना वह पैर हैं, ना वह हाथ हैं जो देह अध्यास की दौड़-भाग में रहते थे। तेरे मुंह से भी अब शारीरिक मोह की बातें नहीं निकलती हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थाके पंच दूत सभ तसकर आप आपणै भ्रमते ॥ थाका मनु कुंचर उरु थाका तेजु सूतु धरि रमते ॥४॥

मूलम्

थाके पंच दूत सभ तसकर आप आपणै भ्रमते ॥ थाका मनु कुंचर उरु थाका तेजु सूतु धरि रमते ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंज दूत = काम आदि पाँचों वैरी। तसकर = चोर (जो भले गुणों को चुराए जा रहे थे)। भ्रम = भटकना। ते = से। आप आपणै = अपनी अपनी। कुंचर = हाथी। उरु = हृदय, मन (जो पहले ‘देही के संगि रहते’)। तेजु सूतु धरि = (जिस ‘मन’ और ‘उरु’ का) तेज सूत धारण करके। सूतु = धागा, सूत्र, आसरा। रमते = (‘पंच दूत’) रमते, (पाँचों कामादिक) दौड़ भाग करते थे।4।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: माला के मणकों के लिए धागा, मानो, आसरा है, जिसके माध्यम से मणके माला में टिके रहते हैं)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कामादिक तेरे पाँचों वैरी हार चुके हैं, वे सारे चोर अपनी-अपनी भटकना से हट गए हैं (क्योंकि जिस मन का) तेज और आसरा ले के (ये पाँचों कामादिक) दौड़-भाग करते थे वह मन हाथी ही ना रहा, वह हृदय ही ना रहा।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिरतक भए दसै बंद छूटे मित्र भाई सभ छोरे ॥ कहत कबीरा जो हरि धिआवै जीवत बंधन तोरे ॥५॥५॥१८॥

मूलम्

मिरतक भए दसै बंद छूटे मित्र भाई सभ छोरे ॥ कहत कबीरा जो हरि धिआवै जीवत बंधन तोरे ॥५॥५॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिरतक = मृतक, मरे हुए, देह अध्यास की तरफ से मरे हुए, शारीरिक मोह से मरे हुए। दसै बंद = दस इंद्रिय। छूटे = ढीले पड़ गए, ‘देही के संग’ से छूट गए, शारीरिक मोह से आजाद हो गए। मित्र भाई = इन्द्रियों के मित्र भाई (आशा-तृष्णा आदि विकार)। जीवत = जीते ही, इसी शरीर में। बंधन = देह अध्यास वाले बंधन, शारीरिक मोह के जंजाल।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जिस अवस्था का वर्णन सारे शब्द में किया गया है, उसको समूचे तौर पर आखिरी तुक में इस प्रकार बयान किया गया है “जीवत बंधन तोरे”।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! हरि नाम-जपने की इनायत से) तेरी दसों ही इंद्रिय शारीरिक मोह की ओर से मर चुकी हैं (निर्लिप हो चुकीं हैं), शारीरिक मोह से आजाद हो चुकी हैं, इन्होंने आशा तृष्णा आदि जैसे सारे सज्जन-मित्रों को भी त्याग दिया है।
कबीर कहता है: जो जो मनुष्य परमात्मा को स्मरण करता है वह जीते-जी ही (दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही, इस तरह) शारीरिक मोह के बंधन तोड़ लेता है।5।5।18।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द का अर्थ करते वक्त कई टीकाकार सज्जन लिखते हैं कि कबीर जी अपने एक मित्र परम हंस जोगी को मिलने गए। आगे उसे काल-वश हुआ देख के ये शब्द उचारा। पीछे गउड़ी राग में भी हम कबीर जी का शब्द नं: 52 देख आए हैं। उस संबंधी भी कई टीकाकारों ने ऐसा ही लिखा है कि अपने अक्सर मिलने वाले एक घनिष्ठ मित्र जोगी के कुछ अधिक समय तक ना मिल सकने के बाद स्वयं भक्त जी उसके आश्रम पर गए। पर वहाँ पहुँच के अचानक ही आपको पता चला कि जोगी जी तो कूच कर गए हैं। तो उस समय प्यारे मित्र के विछोड़ें में द्रवित हो के आपने ये शब्द उचारा था।
पर गउड़ी रागों के शबदों के अर्थ करते वक्त हम देख आए हैं कि उस शब्द नं: 52 के साथ किसी जोगी के मरने की कहानी जोड़ने की आवश्क्ता नहीं पड़ती। ना ही ऐसी कोई कहानी शब्द के साथ फिट ही बैठती है। अगर गउड़ी राग वाला शब्द किसी जोगी के मरने पर उचारा होता, और उस समय कबीर जी को ये ख्याल पैदा हुआ होता कि उस शरीर में बोलने वाली जीवात्मा कहाँ चली गई, तो ये नहीं हो सकता था कि ये ‘संशय’ कबीर जी को रोज ही लगी रहती। जिनके अपने परम-स्नेही सगे-संबंधी मर जाते हैं, वह भी समय के साथ भूल जाते हैं, पर इतने महान ब्रहम-ज्ञानी कबीर जी को उस जोगी के मरने पे हर रोज क्यों ‘संशय’ रहना था? उस शब्द के ‘रहाउ’ में कबीर जी लिखते हैं;
तागा तूटा, गगनु बिनसि गइआ, तेरा बोलत कहा समाई॥ एह संसा मो कउ अनदिनु बिआपै, मो कउ को न कहै समझाई॥
उस शब्द में हम लिख आए हैं कि वहाँ मन की उस तब्दीली का जिक्र किया गया है जो ‘लिव लागि रही है’ की इनायत से पैदा होती है।
अब उस ‘रहाउ’ की तुकों को इस आसा राग वाले शब्द के ‘रहाउ’ के मुकाबलें में देखें;
बाबा बोलते ते कहा गए॥ देही के संगि रहते॥ सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते॥ रहाउ॥
‘तेरा बोलत कहा समाई’ और ‘बोलते ते कहा गए॥ देही के संगि रहते॥’ दोनों में एक ही ख्याल साफ दिखाई दे रहा है। पहले में कहते हैं कि ‘मेर तेर’ बोलने वाला मन मर गया है। दूसरे में कहते हैं कि जो सदा शरीर की ही बातें करता था वह कहीं चला गया है।
अब लेते हैं इस शब्द का बंद नं: 2:
‘बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीना॥’
जिस टीकाकारों ने शब्द के साथ किसी जोगी के मरने की कहानी जोड़ दी है, उन्होंने ‘मंदरु’ का अर्थ सहजे ही ‘शरीर’ कर दिया है कि जिस आत्मा ने ये शरीर बना रखा था वह उसमें से चला गया है। पर इसी आसा राग में कबीर जी का शब्द नं: 28 पढ़ के देखें;
जउ मै रूप कीए बहुतेरे, अब फुनि रूपु न होई॥ तागा तंतु साजु सभ थाका, राम नाम बसि होई॥१॥ अब मोहि नाचनो न आवै॥ मेरा मनु, मंदरीआ न बजावै॥१॥ रहाउ॥ काम क्रोध माइआ लै जारी, त्रिसना गागरि फूटी॥ काम चोलना भइआ है पुराना, गइआ भरमु, सभ छूटी॥२॥ सरब भूत एकै करि जानिआ, चूकै बाद बिबादा॥ कहि कबीर मै पूरा पाइआ, भए राम परसादा॥३॥६॥२८॥
इस शब्द नं: 28 की ‘रहाउ’ वाली तुक को ध्यान से पढ़ें;
‘मेरा मनु, मंदरीआ न बजावै॥ ”
यहाँ ‘मंदरीआ’ वही चीज़ है जिस को शब्द नं: 18 के बंद 2 में ‘मंदरु’ कहा गया है। शब्द ‘मंदरीआ’ के साथ ये भी साफ कहा है कि “अब मोहि नाचनो न आवै”। नाचने के साथ किसी ढोलकी का वर्णन है। माया के हाथों पर नाचना समाप्त हो गया है, मोह की ढोलकी बजनी बंद हो गई। शब्द ‘मांदल’ए ‘मंदर’, ‘मंदरीआ’; ये सारे एक ही शब्द के अलग-अलग स्वरूप हैं। ‘मांदल’ का अर्थ है ‘ढोल’।
बंद 2 में भी ‘बजावनहारो’ और ‘मंदरु’ का वर्णन है। दोनों शबदों में सांझा ख्याल है कि मन ने माया के हाथों नाचना छोड़ के मोह की ढोलकी बजानी बंद कर दी है।
इस सारी विचार से यही नतीजा निकलता है इस शब्द में जोगी के मरने पर कोई अफसोस आदि नहीं किया गया। गौड़ी राग के शब्द नं: 52 और आसा राग के शब्द नं: 28 की तरह, यहाँ भी मन की सुधरी हुई हालत का जिक्र है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा इकतुके ४ ॥ सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥ जिनि ब्रहमा बिसनु महादेउ छलीआ ॥१॥

मूलम्

आसा इकतुके ४ ॥ सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥ जिनि ब्रहमा बिसनु महादेउ छलीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरपनी = सपनी, मोह का डंग मारने वाली माया। ते ऊपरि = उससे ऊपर। जिनि = जिस सपनी ने। महादेउ = शिव।1।
अर्थ: जिस माया ने ब्रहमा, विष्णु और शिव (जैसे बड़े-बड़े देवते) छल लिए हैं, उस (माया) से ज्यादा बलवान (जगत में और कोई) नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी ॥ जिनि त्रिभवणु डसीअले गुर प्रसादि डीठी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी ॥ जिनि त्रिभवणु डसीअले गुर प्रसादि डीठी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारु मारु = मारा मार करती, बड़े जोरों से आई हुई। जलि = जल में। निरमल जलि = पवित्र जल में, शांत सर में, सत्संग में। पैठी = आ टिकती है, शांत हो जाती है। त्रिभवणु = सारा संसार। डीठी = दिखाई दी है।1। रहाउ।
अर्थ: पर, ये बड़े जोरों से आई (मारो मार करती) माया सत्संग में आकर शांत हो जाती है, (भाव, इस मारो मार करती माया का प्रभाव सत्संग में आकर ठंडा पड़ जाता है), क्योंकि जिस माया ने सारे जगत को (मोह का) डंग मारा है (संगति में) गुरु की कृपा से (उसकी हकीकत) दिखाई देने लगती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रपनी स्रपनी किआ कहहु भाई ॥ जिनि साचु पछानिआ तिनि स्रपनी खाई ॥२॥

मूलम्

स्रपनी स्रपनी किआ कहहु भाई ॥ जिनि साचु पछानिआ तिनि स्रपनी खाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रपनी….भाई = हे भाई! सपनी से इतना क्यों डरते हो? तिनि = उस मनुष्य ने। खाई = खा ली, वश में कर ली।2।
अर्थ: सो, हे भाई! इस माया से इतना डरने की जरूरत नहीं। जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के साथ जान-पहचान बना ली है, उसने इस माया को अपने वश में कर लिया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥ स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥३॥

मूलम्

स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥ स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आन अवरा = कोई और, सच पहचानने वाले के बिना कोई और। छूछ = खाली, बचा हुआ। स्रपनी ते छूछ = सपनी के असर से बचा हुआ। जमरा = विचारा जम। कहा करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकता।3।
अर्थ: (प्रभु के साथ जान-पहिचान बनाने वाले के बिना) और कोई जीव इस सपनी के असर से नहीं बचा हुआ। जिस ने (गुरु की कृपा से) इस सपनी माया को जीत लिया है, जम बिचारा भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।3।

[[0481]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह स्रपनी ता की कीती होई ॥ बलु अबलु किआ इस ते होई ॥४॥

मूलम्

इह स्रपनी ता की कीती होई ॥ बलु अबलु किआ इस ते होई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता की = उस (परमात्मा) की। बलु = जोर, जीत। अबलु = कमजोरी, हार।4।
अर्थ: यह माया उस परमात्मा की बनाई हुई है (जिसने सारा जगत रचा है; सो प्रभु के हुक्म के बिना) इस के अपने वश की बात नहीं कि किसी पर जोर डाल सके अथवा किसी से मात खा जाए।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह बसती ता बसत सरीरा ॥ गुर प्रसादि सहजि तरे कबीरा ॥५॥६॥१९॥

मूलम्

इह बसती ता बसत सरीरा ॥ गुर प्रसादि सहजि तरे कबीरा ॥५॥६॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इह बसती = (जब तक) ये (सपनी मनुष्य के मन में) बसती है। सरीरा = शरीरों में। सहजि = सहज में, सपनी के प्रभाव से अडोल रह के।5।
अर्थ: जब तक ये माया मनुष्य के मन में बसती है, तब तक जीव शरीरों में (भाव, जनम-मरण के चक्कर में) पड़ा रहता है। कबीर अपने गुरु की कृपा से अडोल रहके (जनम-मरण के चक्र-व्यूह में से) पार लांघ गया है।5।6।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए ॥ कहा साकत पहि हरि गुन गाए ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए ॥ कहा साकत पहि हरि गुन गाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा = क्या लाभ? कोई फायदा नहीं। सुआन = कुक्ता। साकत = ईश्वर से टूटा हुआ जीव। पहि = पास।1।
अर्थ: (जैसे) कुत्ते को स्मृतियां सुनाने का कोई लाभ नहीं होता, वैसे ही साकत के पास परमात्मा के गुण गाने से साकत पर असर नहीं पड़ता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम राम रमे रमि रहीऐ ॥ साकत सिउ भूलि नही कहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम राम राम रमे रमि रहीऐ ॥ साकत सिउ भूलि नही कहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमे रमि रहीऐ = सदा स्मरण करते रहें। भूलि = भूल के, कभी भी। कहीऐ = स्मरण का उपदेश करें। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! आप ही) सदा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, कभी भी किसी साकत को स्मरण करने की शिक्षा नहीं देनी चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कऊआ कहा कपूर चराए ॥ कह बिसीअर कउ दूधु पीआए ॥२॥

मूलम्

कऊआ कहा कपूर चराए ॥ कह बिसीअर कउ दूधु पीआए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कपूर = मुश्क कपूर। चराए = खिलाने से। कह = क्या लाभ? बिसीअर = सांप।2।
अर्थ: कौए को मुश्क कपूर खिलाने से कोई गुण नहीं निकलता (क्योंकि कौए की गंद खाने की आदत नहीं जा सकती, इसी तरह) सांप को दूध पिलाने से भी कोई फायदा नहीं हो सकता (वह डंग मारने से फिर भी नहीं टलेगा)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतसंगति मिलि बिबेक बुधि होई ॥ पारसु परसि लोहा कंचनु सोई ॥३॥

मूलम्

सतसंगति मिलि बिबेक बुधि होई ॥ पारसु परसि लोहा कंचनु सोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिबेक बुधि = अच्छा बुरा परखने की बुद्धि। परसि = छूह के। कंचनु = सोना। सोई = वही लोहा।3।
अर्थ: यह अच्छे-बुरे काम की परख करने वाली अक्ल साधु-संगत में बैठ के ही आती है, जैसे पारस को छू के वह लोहा भी सोना हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकतु सुआनु सभु करे कराइआ ॥ जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥४॥

मूलम्

साकतु सुआनु सभु करे कराइआ ॥ जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुरि = धुर से, आदि से, जीव के किए कर्मों के अनुसार।4।
अर्थ: कुक्ता और साकत जो कुछ करते हैं, प्रेरित हुए ही करते हैं, पिछले किए कर्मों के अनुसार जो कुछ आदि से इनके माथे पर लिखा है (भाव, जो संस्कार इसके मन में बन चुके हैं) उसी तरह अब किए जाते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु लै लै नीमु सिंचाई ॥ कहत कबीर उआ को सहजु न जाई ॥५॥७॥२०॥

मूलम्

अम्रितु लै लै नीमु सिंचाई ॥ कहत कबीर उआ को सहजु न जाई ॥५॥७॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीमु = नीम का पौधा। सिंचाई = पानी देना। उआ को = उस नीम के पौधे का। सहजु = पैदायशी स्वभाव।5।
अर्थ: कबीर कहता है: अगर अमृत (भाव, मिठास वाला जल) ले के नीम के पौधे को बारंबार सींचते रहें, तो भी उस पौधे का मूल स्वभाव (कड़वापन) दूर नहीं हो सकता।5।7।20।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: हरेक मनुष्य अपने पिछले किए कर्मों के संस्कारों का प्रेरित हुआ पुरानी लीहों पे चलता जा रहा है। सो, किसी को दी हुई शिक्षा कोई काट नहीं करती। पर, अगर विकारी मनुष्य किसी सबब से साधु-संगत में आ जाए, सहजे सहज नई सोच से (नए कर्मों से) पुराने बुरे संस्कार मिटने शुरू हो जाते हैं, और आखिर मनुष्य शुद्ध सोना बन जाता है।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ लंका सा कोटु समुंद सी खाई ॥ तिह रावन घर खबरि न पाई ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ लंका सा कोटु समुंद सी खाई ॥ तिह रावन घर खबरि न पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा = जैसा। सी = जैसी। कोटु = किला। खाई = चौड़ी और गहरी खाली खोद के किलों के चौगिर्दे बनाई जाती है और इसे किले की हिफाजत के लिए पानी से भर के रखते हैं। घर खबरि = घर की खबर, घर का नाम निशान। न पाई = नहीं मिलता।1।
अर्थ: जिस रावण का लंका जैसा किला था, और समुंदर जैसी (उस किले की रक्षा के लिए बनी हुई) खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ मागउ किछु थिरु न रहाई ॥ देखत नैन चलिओ जगु जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ मागउ किछु थिरु न रहाई ॥ देखत नैन चलिओ जगु जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मागउ = मैं मांगूँ। देखत नैन = आँखों सें देखते, हमारे सामने। जाई = जा रहा है, नाश हो रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: मैं (परमात्मा से दुनिया की) कौन सी चीज माँगू? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत चलता जा रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु लखु पूत सवा लखु नाती ॥ तिह रावन घर दीआ न बाती ॥२॥

मूलम्

इकु लखु पूत सवा लखु नाती ॥ तिह रावन घर दीआ न बाती ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाती = पौत्र। दीया = दीपक। बाती = बक्ती।2।
अर्थ: जिस रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र (बताए जाते हैं), उसके महलों में कहीं दीया-बाती जलता ना रहा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चंदु सूरजु जा के तपत रसोई ॥ बैसंतरु जा के कपरे धोई ॥३॥

मूलम्

चंदु सूरजु जा के तपत रसोई ॥ बैसंतरु जा के कपरे धोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा के = जिस के घर। तपत रसोई = रसोई तपाते हैं, रोटी तैयार करते हैं। बैसंतर = आग। धोई = धोता है।3।
अर्थ: (ये उस रावण का वर्णन है) जिसकी रसोई चंद्रमा और सूरज तैयार करते थे, जिसके कपड़े बैसंतर देवता धोता था (भाव, जिस रावण के पुत्र-पौत्रों की रोटी पकाने के लिए दिन-रात रसोई तपती रहती थी और उनके कपड़े साफ करने के लिए हर वक्त आग की भट्ठियां जलती रहती थीं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति रामै नामि बसाई ॥ असथिरु रहै न कतहूं जाई ॥४॥

मूलम्

गुरमति रामै नामि बसाई ॥ असथिरु रहै न कतहूं जाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम में। न कत हूँ = किसी और जगह नहीं।4।
अर्थ: (सो) जो मनुष्य (इस नाशवान जगत की ओर से हटा के अपने मन को) सतिगुरु की मति ले के प्रभु के नाम में टिकाता है, वह सदा अडोल रहता है, (इस जगत माया की खातिर) भटकता नहीं है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर सुनहु रे लोई ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई ॥५॥८॥२१॥

मूलम्

कहत कबीर सुनहु रे लोई ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई ॥५॥८॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे लोई = हे लोगो! हे जगत! मुकति = जगत की माया के मोह से मुक्ति।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘रे’ पुलिंग है, इस वास्ते शब्द ‘लोई’ भी पुलिंग ही है। देखें इसी राम कबीर जी का शब्द नं: 35।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: क्बीर कहता है: सुनो, हे जगत के लोगो! प्रभु का नाम स्मरण के बिना (जगत के इस मोह से खलासी नहीं हो सकती)।5।8।21।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: लोगों की जो राय रावण के बड़प्पन बाबत आम तौर पर बनी हुई थीं, उसका हवाला देते हुए कबीर जी कहते हैं कि जो रावण तुम्हारे ख्याल से इतना बली, धनी और परिवार वाला था, उसका भी कहीं अब नामो-निशान नहीं रह गया। रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र वास्तव में थे या नहीं, कबीर जी का इससे कोई मतलब नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ पहिला पूतु पिछैरी माई ॥ गुरु लागो चेले की पाई ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ पहिला पूतु पिछैरी माई ॥ गुरु लागो चेले की पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पहिला = पहला। पूतु = पवित्र (प्रभु की अंश) थी। माई = माया की, माया के असर वाला। गुरु = जीव (जो बड़े असले वाला था)। चेले की पाई = मन रूपी चेले के पैरों में।1।
अर्थ: ये जीवात्मा तो पवित्र (परमात्मा का अंश) थी, पर इस पर माया का प्रभाव पड़ गया, और बड़े असले वाला जीव (अपने ही बनाए हुए) मन चेले के पैरों में लगने लग पड़ा (अर्थात, मन के पीछे चलने लगा)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु अच्मभउ सुनहु तुम्ह भाई ॥ देखत सिंघु चरावत गाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

एकु अच्मभउ सुनहु तुम्ह भाई ॥ देखत सिंघु चरावत गाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिंघु = शेर, निडर,निर्भीक जीव। गाई = गाएं, इंद्रिय। चरावत = चरा रहा है, संतुष्ट कर रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सुनो एक आश्चर्यजनक खेल (जो जगत में बरत रही है) हमारे देखते ही ये निडर असले वाला जीव इन्द्रियों को प्रसन्न करता फिरता है, जैसे, शेर गाएं चराता फिरता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल की मछुली तरवरि बिआई ॥ देखत कुतरा लै गई बिलाई ॥२॥

मूलम्

जल की मछुली तरवरि बिआई ॥ देखत कुतरा लै गई बिलाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जल की मछुली = पानी के आसरे जीने वाली मछली, सत्संग के आसरे जीने वाली जीवात्मा। तरवरि = वृक्ष पर, इस संसार जहाँ बसेरा इस तरह है जैसे पक्षियों का वृक्ष पे। बिआई = सू पाई, व्यस्त हो गई। कुतरा = कतूरे को, संतोख को। बिलाई = बिल्ली, तृष्णा।2।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: कुत्ते का संतोष वाला स्वभाव प्रसिद्ध है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सत्संग के आसरे जीने वाली जिंद सांसारिक कामों में व्यस्त हो गई है, तृष्णा रूपी बिल्ली इसके संतोष को हमारे देखते ही पकड़ के ले गई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तलै रे बैसा ऊपरि सूला ॥ तिस कै पेडि लगे फल फूला ॥३॥

मूलम्

तलै रे बैसा ऊपरि सूला ॥ तिस कै पेडि लगे फल फूला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे = हे भाई! तलै = निचली तरफ। बैसा = टहनियां, शाखाएं (राजपुरे-अंबाले वाली बोली)। बैसा तलै = टहनियां (अपने पैरों के) नीचे कर लीं, सांसारिक पसारे को आसरा बना लिया। सूला = शूल, आदि, असली मूल प्रभु। ऊपरि = ऊपर, बाहर निकाल दिया। पेडि = तन पर।3।
अर्थ: हे भाई! जिस जीव ने सांसारिक पसारे को अपना आसरा बना लिया है और असली मूल प्रभु को अपने अंदर से बाहर निकाल दियार है। अब ऐसे (जीव) वृक्ष को फल फूल भी ऐसी ही वासना के ही लग रहे हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोरै चरि भैस चरावन जाई ॥ बाहरि बैलु गोनि घरि आई ॥४॥

मूलम्

घोरै चरि भैस चरावन जाई ॥ बाहरि बैलु गोनि घरि आई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरि = चढ़ के। घोरै = मन घोड़े पर। भैस = भैंस, वासना। बैलु = बैल (का धैर्य वाला स्वभाव)। गोनि = (तृष्णा की) थैली। घरि = हृदय घर में।4।
अर्थ: (जीवात्मा के कमजोर पड़ने के कारण) वासना भैंस मन-घोड़े पर सवार हो के इसे विषौ भोगने के लिए भगाए फिरती है। (अब हालत ये बन गई है कि) धैर्य-रूपी बैल बाहर निकल गया है (भाव, धीरज नहीं रह गया), और तृष्णा की थैली जीव पर आ पड़ी है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर जु इस पद बूझै ॥ राम रमत तिसु सभु किछु सूझै ॥५॥९॥२२॥ बाईस चउपदे तथा पंचपदे

मूलम्

कहत कबीर जु इस पद बूझै ॥ राम रमत तिसु सभु किछु सूझै ॥५॥९॥२२॥ बाईस चउपदे तथा पंचपदे

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पद = अवस्था। बूझै = समझ ले।5।
अर्थ: कबीर कहते हैं - जो मनुष्य इस (घटने वाली घटना की) हालत को समझ लेता है, परमात्मा का स्मरण करके उसको जीवन के सही रास्ते की सारी सूझ आ जाती है (और, वह इस तृष्णा-जाल में नहीं फंस जाता)।5।9।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा स्री कबीर जीउ के तिपदे ८ दुतुके ७ इकतुका १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा स्री कबीर जीउ के तिपदे ८ दुतुके ७ इकतुका १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिंदु ते जिनि पिंडु कीआ अगनि कुंड रहाइआ ॥ दस मास माता उदरि राखिआ बहुरि लागी माइआ ॥१॥

मूलम्

बिंदु ते जिनि पिंडु कीआ अगनि कुंड रहाइआ ॥ दस मास माता उदरि राखिआ बहुरि लागी माइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिंदु ते = बिंदु से, एक बूँद से। जिनि = जिस (प्रभु) ने। पिंडु = शरीर। अगनि कुंड = आग के कुंड में। रहाइआ = रखा, बचाए रखा। मास = महीने। माता उदरि = माँ के पेट में। बहुरि = दुबारा, उससे पीछे (भाव, जनम लेने से)। लागी = आ दबाया।1।
अर्थ: जिस प्रभु ने (पिता की) एक बूँद से (तेरा) शरीर बना दिया, और (माँ के पेट की) आग के कुंड में तुझे बचाए रखा, दस महीने माँ के पेट में तेरी रक्षा की, (उसे बिसारने के कारण) जगत में जनम लेने पर तुझे माया ने आ दबाया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रानी काहे कउ लोभि लागे रतन जनमु खोइआ ॥ पूरब जनमि करम भूमि बीजु नाही बोइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रानी काहे कउ लोभि लागे रतन जनमु खोइआ ॥ पूरब जनमि करम भूमि बीजु नाही बोइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहे कउ = किस वास्ते, क्यों? लोभि = लोभ में। खोइआ = गवा लिया। पूरब = पिछला। भूमि = धरती (शरीर रूपी)। जनमि = जनम में।1। रहाउ।
अर्थ: हे बंदे! क्यों लोभ में फंस रहा है और हीरे जैसा जनम गवा रहा है? पिछले जनम में (किए) कर्मों के अनुसार (मिले इस मानव-) शरीर में क्यों तू प्रभु के नाम का बीज नहीं बीजता?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारिक ते बिरधि भइआ होना सो होइआ ॥ जा जमु आइ झोट पकरै तबहि काहे रोइआ ॥२॥

मूलम्

बारिक ते बिरधि भइआ होना सो होइआ ॥ जा जमु आइ झोट पकरै तबहि काहे रोइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरधि = बुढा। होना सो होइआ = बीता समय दुबारा हाथ नहीं आता। झोट = जूड़ा, केस। तबहि = तभी।2।
अर्थ: अब तू बालक से बूढ़ा हो गया है, पिछला बीता समय हाथ नहीं आना। जिस समय जम सिर से आ पकड़ेगा, तब रोने का क्या लाभ होगा?।2।

[[0482]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवनै की आस करहि जमु निहारै सासा ॥ बाजीगरी संसारु कबीरा चेति ढालि पासा ॥३॥१॥२३॥

मूलम्

जीवनै की आस करहि जमु निहारै सासा ॥ बाजीगरी संसारु कबीरा चेति ढालि पासा ॥३॥१॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहारै = देखता है। सासा = सांस। बाजीगरी = नट की खेल। चेति = याद कर, प्रभु की बंदगी कर। ढालि पासा = पासा फेंक।3।
अर्थ: (बूढ़ा हो के तू अभी भी) तू (और) जीने की आशाएं बना रहा है, (और उधर) यम तेरे श्वासों पे निगाह गाड़े बैठा है (तेरी सांसें गिन रहा है) कि कब खत्म हों। हे कबीर! जगत नट की खेल ही है, (इस खेल में जीतने के लिए) प्रभु की याद का पासा फेंक (प्रभु की याद की खेल खेलो)।3।1।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ तनु रैनी मनु पुन रपि करि हउ पाचउ तत बराती ॥ राम राइ सिउ भावरि लैहउ आतम तिह रंगि राती ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ तनु रैनी मनु पुन रपि करि हउ पाचउ तत बराती ॥ राम राइ सिउ भावरि लैहउ आतम तिह रंगि राती ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैनी = कपड़े रंगने वाली मिट्टी। पुन = पुण्य से, भले गुणों से। अपि = भी। रपि करि हउ = मैं रंग लूँगी। पाचउ तत = पाँचों तत्वों के दैवीगुण (‘जितु कारजि सतु संतोख दइआ धरमु है’ – आसा महला १), दया, धर्म आदि गुण। बराती = मेली। सिउ = साथ। भावरि = फेरे, लावां। लै हउ = मैं लूँगी। तिह रंगि राती = उस पति के प्यार में रंगी हुई।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पुनरपि’ इकट्ठा एक शब्द की शकल में कई बार आया है, ये संस्कृत के दो शब्दों का जोड़ है: ‘पुनः +अपि’। पुनः (पुनह) = भले गुणों से दुबारा, फिर। पर यहाँ इस शब्द में ये एक शब्द नहीं है। यहाँ मन को रंगने का जिक्र है, और रंगने के लिए शब्द है ‘रपि’। ‘पुन’ के अर्थ ‘फिर’ अथवा ‘दुबारा’ नहीं हो सकता। इस अर्थ में शब्द का जोड़ ‘पुनि’ ही सदा आएगा, देखें ‘रागमाला’। गुरवाणी मैं शब्द ‘पुनह’ है या ‘फुनि’। सो, शब्द ‘पुन’ इनसे अलग शब्द है = ‘करि साधु अंजुली पुनु वडा है’; यहाँ शब्द ‘पुनु’ एकवचन है, इसका बहुवचन है ‘पुन’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैंने अपने शरीर को (अपना मन रंगने के लिए) रंगने वाला बर्तन बनाया है, (भाव, मैं अपने मन को बाहर भटकने से रोकने के लिए शरीर के अंदर ही रख रही हूँ)। मन को मैंने भले गुणों (के रंग) से रंगा है, (इस काम में सहायता करने के लिए) दया-धर्म आदि दैवी गुणों को मैंने मेली (बाराती) बनाया है। अब मैं जगत पति परमात्मा के साथ लावें ले रही हूँ, और मेरी आत्मा उस पति के प्यार में रंगी गई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा ॥ मेरे ग्रिह आए राजा राम भतारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा ॥ मेरे ग्रिह आए राजा राम भतारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुलहनी = हे नई नवेली दुल्हन! मंगलचारा = शगुनों के गीत, सुहाग। री = हे! शब्द ‘दुलहनी’ स्त्रीलिंग है, इस लिए ‘री’ का प्रयोग हुआ है, देखें शब्द ‘करवतु भला…’ में ‘रे लोई! ’।1। रहाउ।
अर्थ: हे नई नवेली दुल्हनियो! (प्रभु-प्रीति में रंगी हुई ज्ञानेन्द्रियो!) तुम बारंबार सुहाग के गीत गाओ, (क्योंकि) मेरे (हृदय-) घर में मेरा पति (जगत का) मालिक परमात्मा आया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभि कमल महि बेदी रचि ले ब्रहम गिआन उचारा ॥ राम राइ सो दूलहु पाइओ अस बडभाग हमारा ॥२॥

मूलम्

नाभि कमल महि बेदी रचि ले ब्रहम गिआन उचारा ॥ राम राइ सो दूलहु पाइओ अस बडभाग हमारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाभि = धुनी, जहाँ तक सांस लेते वक्त प्राण (हवा) पहुँचते माने गए हैं। बेदी = वेदी, चार डंडे चौरस जगह के कोने में गाड़ के इस में दो टोकरे (खारे) उल्टे रख के उन पर विवाह वाले लड़की = लड़के को बैठाते हैं। नाभि…ले = मैं अपनी नाभि रूपी कमल फूल में बेदी गाड़ के, मैंने श्वास श्वास से अपनी तवज्जो प्रभु चरणों में जोड़ ली है, ये मेरे विवाह की वेदी बनी है। ब्रहम गिआन = परमात्मा की जान पहिचान गुरु का शब्द जो परमात्मा की जान-पहिचान करवाता है। उचारा = (ये विवाह का मंत्र) उचारा जा रहा है। सो = जैसा। दूलहु = दूल्हा। अस वड = ऐसे बड़े। भाग = किस्मत।2।
अर्थ: सांस-सांस उसकी याद में गुजारने के लिए मैंने (विवाह के लिए) वेदी बना ली है, सतिगुरु का शब्द जो प्रभु-पति के साथ जान-पहिचान करवाता है (विवाह का मंत्र) उचारा जा रहा है। मेरे ऐसे भाग्य जागे हैं कि मुझे जगत के मालिक परमात्मा जैसा दूल्हा मिल गया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरि नर मुनि जन कउतक आए कोटि तेतीस उजानां ॥ कहि कबीर मोहि बिआहि चले है पुरख एक भगवाना ॥३॥२॥२४॥

मूलम्

सुरि नर मुनि जन कउतक आए कोटि तेतीस उजानां ॥ कहि कबीर मोहि बिआहि चले है पुरख एक भगवाना ॥३॥२॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटि तेतीस = तेतीस करोड़। उजानां = (संस्कृत: उद+यान) विमान। सुरि नर = दैवी गुणों वाले लोग। आए उजाना = विबाणों में चढ़ के आए हैं, ऊँची उड़ान भरने वाले आए हैं, प्रभु चरणों में जुड़ने वाले आए हैं। सुरि नर, मुनि जन, कोटि तेतीस = सत्संगी। पुरख = पति। कउतक = कार्य, विवाह की रस्म।3।
अर्थ: प्रभु-चरणों में उड़ाने भरने वाले मेरे सत्संगी मेरे विवाह की मर्यादा करने आए हैं। कबीर कहता है: मुझे अब एक परमात्मा पति ब्याह के ले चला है।3।2।24।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द में कबीर जी ने कई बातें इशारे-मात्र कहीं हैं; जैसे, प्रभु पति की मेहर, और सतिगुरु के शब्द की इनायत। सतिगुरु नानक देव जी ने इन गूढ़ विचारों को स्पष्ट शब्दों में बता दिया है। “पाचउ तत बराती” में भी सिर्फ रमज़ ही दी है। गुरु नानक साहिब जी ने साफ कह दिया है: ‘जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है’ इस विवाह कार्य के लिए सत, संतोख, दया, धर्म की जरूरत पड़ती है। वह शब्द इसी ही राग में यूँ है;
आसा महला १॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ता मिलि सखीआ काजु रचाइआ॥ खेलु देखि मनि अनदु भइआ, सहु वीआहण आइआ॥१॥ गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु॥ हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु॥१॥ रहाउ॥ गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ, जां सहु मिलिआ तां जानिआ॥ तिहु लोका महि सबदु रविआ है, आपु गइआ मनु मानिआ॥२॥ आपणा कारजु आपि सवारे, होरनि कारजु न होई॥ जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है, गुरमुखि बूझै कोई॥३॥ भनति नानकु, सभना का पिरु एको सोइ॥ जिस नो नदरि करे, सा सोहागणि होइ॥४॥१०॥
दोनों शबदों की ‘रहाउ’ की पंक्तियां पढ़ के देखें। साफ प्रतीत होता है कि ये शब्द उचारने से पहले गुरु नानक देव जी के पास कबीर जी का ये शब्द मौजूद है। और, जो जो ईश्वरीय मार्ग की बातें उन्होंने इशारे से कहीं हैं, गुरु नानक देव जी ने विस्तार से स्पष्ट कर दी हैं।
दोनों ही शब्द एक ही राग में हैं। ये बात यकीनन कहीं जा सकती है कि सतिगुरु जी कबीर जी के इस शब्द को अपनी वाणी के साथ संभाल के रखना चाहते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ सासु की दुखी ससुर की पिआरी जेठ के नामि डरउ रे ॥ सखी सहेली ननद गहेली देवर कै बिरहि जरउ रे ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ सासु की दुखी ससुर की पिआरी जेठ के नामि डरउ रे ॥ सखी सहेली ननद गहेली देवर कै बिरहि जरउ रे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासु = सास, अविद्या, माया। ससुर = ससुर, देह अध्यास, शरीर का मोह। जेठ = (भाव) मौत। जेठ के नामि = मौत के नाम से, मौत का नाम सुनते ही। रे = हे भाई! डरउ = मैं डरती हूँ। ननद = ननदों ने, इन्द्रियों ने। गहेली = गह ली हूँ, मुझे पकड़ लिया है। बिरहि = विछोड़े में। जरउ = जलूँ, मैं जल रही हूँ।1।
अर्थ: हे वीर! मैं माया के हाथों दुखी हूँ, फिर भी शरीर से प्यार (देह-अध्यास) होने के कारण, मुझे जेठ के नाम से ही डर लगता है (भाव, मेरा मरने को चित्त नहीं करता)। हे सखी सहेलियो! मुझे इन्द्रियों ने अपने वश में कर रखा है, मैं देवर के विछोड़े में (भाव, विचार से वंचित होने के कारण अंदर ही अंदर से) जल रही हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी मति बउरी मै रामु बिसारिओ किन बिधि रहनि रहउ रे ॥ सेजै रमतु नैन नही पेखउ इहु दुखु का सउ कहउ रे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरी मति बउरी मै रामु बिसारिओ किन बिधि रहनि रहउ रे ॥ सेजै रमतु नैन नही पेखउ इहु दुखु का सउ कहउ रे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बउरी = कमली। रहनि रहउ = जिंदगी गुजारूँ। रमतु = खेलता है, बसता है। नैन = आँखों से। नही पेखउ = मैं नहीं देख सकती। का सिउ = किसको?।1। रहाउ।
अर्थ: मेरी अकल मारी गई है, मैंने परमात्मा को भुला दिया है। हे वीर! अब (इस हालत में) कैसे उमर गुजारूँ? हे वीर! ये दुख मैं किसको सुनाऊँ कि वह प्रभु मेरी हृदय-सेज पर बसता है, पर मुझे आँखों से नहीं दिखता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बापु सावका करै लराई माइआ सद मतवारी ॥ बडे भाई कै जब संगि होती तब हउ नाह पिआरी ॥२॥

मूलम्

बापु सावका करै लराई माइआ सद मतवारी ॥ बडे भाई कै जब संगि होती तब हउ नाह पिआरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बापु = (संस्कृत: वपुस् body) शरीर। सावका = (संस्कृत: स, to be born) साथ पैदा हुआ। मतवारी = मतवाली, झल्ली। सद = सदा। संगि = साथ। बडे भाई कै संगि = बड़े भाई (ज्ञान) के साथ। जब होती = जब मैं होती थी, माँ के पेट में जब बड़े भाई के साथ थी। तब = तब। हउ = मैं। नाह = पति।2।
अर्थ: मेरे साथ पैदा हुआ ये शरीर सदा मेरे साथ लड़ता रहता है (भाव, सदा खाने को मांगता है), माया ने मुझे झल्ली कर रखा है। जब (माँ के पेट में) मैं बड़े वीर (ज्ञान) के साथ थी तब (स्मरण करती थी और) पति को प्यारी थी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर पंच को झगरा झगरत जनमु गवाइआ ॥ झूठी माइआ सभु जगु बाधिआ मै राम रमत सुखु पाइआ ॥३॥३॥२५॥

मूलम्

कहत कबीर पंच को झगरा झगरत जनमु गवाइआ ॥ झूठी माइआ सभु जगु बाधिआ मै राम रमत सुखु पाइआ ॥३॥३॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंज को = पाँच कामादिकों का। बाधिआ = बंधा हुआ।3।
अर्थ: कबीर कहता है: (बस इसी तरह) सब जीवों को पाँच कामादिकों से वास्ता पड़ा हुआ है। सारा जगत इन से जूझता हुआ ही जिंदगी व्यर्थ गवाए जा रहा है; ठगनी माया के साथ बंधा पड़ा है। पर मैंने प्रभु को स्मरण करके सुख पा लिया है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कविता के दृष्टिकोण से, ये शब्द पढ़ने वाले के दिल का गहरा ध्रुवी करण करता है। माया-ग्रसित जीव की ये बड़ी दर्दनाक दास्तान है। दर्दों के महिरम सतिगुरु नानक देव जी की आँखों से ये शब्द भला कैसे छूट सकता था? सारी दर्दनाक कहानी के आखिर में पहुँच कर ही आधी तुक में ही ‘सुख’ का सांस आता है। इतनी बड़ी दर्दनाक कहानी का इलाज कबीर जी ने एक रम्ज़ सी ही बता के (‘राम रमत’ कहके) बस कर दी; पर सतिगुरु नानक देव जी के उस इलाज को परहेज समेत विस्तार से यूँ बयान किया गया है;
आसा महला १॥ काची गागरि देह दुहेली, उपजै बिनसै दुखु पाई॥ इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीऐ, बिनु हरि गुर पारि न पाई॥१॥ तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे पिआरे, तुझ बिनु अवरु न कोइ हरे॥ सरबी रंगी रूपी तूंहै, तिसु बखसे जिसु नदरि करे॥१॥ रहाउ॥ सासु बुरी घरि वासु न देवै, पिर सिउ मिलण न देइ बुरी॥ सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ, हरि गुर किरपा ते नदरि धरी॥२॥ आपु बीचारि मारि मनु देखिआ, तुम सामीतु न अवरु कोई॥ जिउ तूं राखहि तिव ही रहणा, दुख सुखु देवहि करहि सोई॥३॥ आसा मनसा दोऊ बिनासत, त्रिहु गुण आस निरास भई॥ तुरीआवसथा गुरमुखि पाईऐ, संत सभा की ओट लही॥४॥ गिआन धिआन सगले सभि जप तप, जिसु हरि हिरदै अलख अभेदा॥ नानक राम नामि मनु राता, गुरमति पाए सहज सेवा॥५॥२२॥
कबीर जी के शब्द में ‘सखी सहेली’ किसे कहा गया है? इस का हल गुरु नानक साहिब के शब्द के दूसरे बंद में हैं; ‘सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ’ (भाव, सत्संगी)।
कबीर जी ने ‘सास’ के सारे ही परवार का हाल बयान करके दुखों की लंबी कहानी कही है, पर सतिगुरु जी ने उस ‘सासु बुरी’ का अल्पमात्र वर्णन करके उसके और उसके परिवार के पाँचों में से निकलने का रास्ता दिखाने पर जोर दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥ तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥ तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम घरि = हमारे घर में। तनहि = हम तानते हैं। कंठि = गले में। तउ = तो। पढ़हु = (जीभ से ही) उचारते हो। रिदै = हृदय में।1।
अर्थ: (हे झल्ले ब्राहमण! अगर तुझे इस करके अपनी ऊँची जाति का गर्व है कि) तेरे गले में जनेऊ है (जो हमारे गले में नहीं है,तो देख, वैसा ही) हमारे घर (बहुत सारा) सूतर है (जिससे) हम नित्य ताना तनते हैं। (तेरा वेद आदि पढ़ने का गुमान भी झूठा, क्योंकि) तुम वेद व गायत्री मंत्र निरे जीभ से ही उचारते हो, पर परमात्मा मेरे हृदय में बसता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥ जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥ जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसनु नाराइन, गोबिंदा = परमात्मा। बसहि = बस रहे हैं। जम दुआर = जमों के दर पर, धर्मराज के दरवाजे पर, प्रभु की हजूरी में। मुकंदा पूछसि = जब मुकंद पूछेगा, जब प्रभु पूछेगा। बवरे = हे कमले! कहसि = कहाँ से उत्तर देगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे कमले ब्राहमण! प्रभु जी मेरी तो जीभ पर, मेरी आँखों में और मेरे दिल में बसते हैं। पर तुझे जब धर्मराज की हजूरी में प्रभु से पूछा जाएगा तो क्या उत्तर देगा (क्या करता रहा यहाँ सारी उम्र)?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥ कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥

मूलम्

हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥ कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोरू = गाएं। गुआर = गोपाल, ग्वाले, गायों के रखवाले। जनम जनम = कई जनमों से। पारि उतारि = पार लंघा के। चराइहु = तुमने हमें चराया, तुमने हमें (आत्मिक) खुराक दी। कैसे = किस तरह के? , नकारे ही।2।
अर्थ: कई जन्मों से तुम लोग हमारे रखवाले बने चले आ रहे हो, हम तुम्हारी गऊएं बने रहे, तुम हमारे मालिक ग्वाले बने रहे। पर तुम अब तक नकारे ही साबित हुए, तुमने कभी भी हमें (नदी से) पार लंघा के नहीं चराया (भाव, इस संसार समंदर से पार लांघने की कोई मति ना दी)।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अगर कबीर जी मुसलमान होते, तो ब्राहमणों को ये ना कहते कि तुम हमारे रखवाले बने चले आ रहे हो। मुसलमान का किसी ब्राहमण के साथ धार्मिक संबंध नहीं हो सकता था। दावे से कहा जा सकता है कि कबीर जी हिन्दू जुलाहे के घर जन्मे-पले थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥ तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥

मूलम्

तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥ तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कासीक = काशी का। जुलहा = जुलाहा। मोर = मेरी। गिआना = विचार की बात। जाचे = मांगते हो। भूपति = राजे।3।
अर्थ: (ये ठीक है कि) तू काशी का ब्राहमण है (भाव, तुझे गुमान है अपनी विद्या का, जो तूने काशी में हासिल की), और मैं (जाति का) जुलाहा हूँ (जिसको तुम्हारी विद्या पढ़ने का अधिकार नहीं है)। पर, मेरी विचार की एक बात सोच (कि विद्या पढ़ के आखिर तुम करते क्या हो), तुम तो राजे-रानियों के दर पर मांगते फिरते हो, और मेरी तवज्जो प्रभु के साथ जुड़ी हुई है।3।4।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ जगि जीवनु ऐसा सुपने जैसा जीवनु सुपन समानं ॥ साचु करि हम गाठि दीनी छोडि परम निधानं ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ जगि जीवनु ऐसा सुपने जैसा जीवनु सुपन समानं ॥ साचु करि हम गाठि दीनी छोडि परम निधानं ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत में। जीवनु = जिंदगी, उम्र। समानं = जैसा, बराबर का। साचु = सदा स्थिर रहने वाला। गाठि = गाँठ। निधानं = खजाना।1।
अर्थ: जगत में (मनुष्य की) जिंदगी ऐसी ही है जैसे सपना, जिंदगी सपने जैसी ही है। पर हम सबसे ऊँचे सुखों के खजाने प्रभु को छोड़ के, (इस स्वप्न समान जीवन को) सदा कायम रहने वाला जान के इसे गाँठ दे रखी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा माइआ मोह हितु कीन्ह ॥ जिनि गिआनु रतनु हिरि लीन्ह ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा माइआ मोह हितु कीन्ह ॥ जिनि गिआनु रतनु हिरि लीन्ह ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हितु = प्यार। जिनि = जिस (मोह प्यार) ने। हिरि लीन्ह = चुरा लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे बाबा! हमने माया के साथ मोह-प्यार डाला हुआ है, जिसने हमारा ज्ञान रूपी हीरा चुरा लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैन देखि पतंगु उरझै पसु न देखै आगि ॥ काल फास न मुगधु चेतै कनिक कामिनि लागि ॥२॥

मूलम्

नैन देखि पतंगु उरझै पसु न देखै आगि ॥ काल फास न मुगधु चेतै कनिक कामिनि लागि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैन = आँखों से। उरझै = फसता है। पसु = मूर्ख। काल फास = मौत की फाही। न चेतै = याद नहीं रखता। कनिक = सोना। कामिनि = कामिनी, स्त्री।2।
अर्थ: पतंगा आँखों से (दीपक की लाट का रूप) देख के भूल जाता है, मूर्ख आग को नहीं देखता। (वैसे ही) मूर्ख जीव सोने और स्त्री (के मोह) में फंस के मौत की फाँसी को याद नहीं रखता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि बिचारु बिकार परहरि तरन तारन सोइ ॥ कहि कबीर जगजीवनु ऐसा दुतीअ नाही कोइ ॥३॥५॥२७॥

मूलम्

करि बिचारु बिकार परहरि तरन तारन सोइ ॥ कहि कबीर जगजीवनु ऐसा दुतीअ नाही कोइ ॥३॥५॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परहरि = छत। तरन = (संस्कृत: तरणि) बेड़ी, जहाज। सोइ = वह प्रभु। जगजीवनु = जगत का जीवन, जगत का आसरा, प्रभु। दुतीअ = दूसरा, बराबर का।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पहली तुक के शब्द ‘जगि जीवनु’ और आखिरी तुक के ‘जगजीवनु’ का फर्क ध्यान से देखने की जरूरत है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कबीर कहता है: (हे भाई! तू विकार छोड़ दे और प्रभु को याद कर) वही (इस संसार समुंदर में से) तैराने वाला जहाज है, और वह (हमारे) जीवन का आसरा-प्रभु ऐसा है कि कोई और उस जैसा नहीं है।3।5।27।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ जउ मै रूप कीए बहुतेरे अब फुनि रूपु न होई ॥ तागा तंतु साजु सभु थाका राम नाम बसि होई ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ जउ मै रूप कीए बहुतेरे अब फुनि रूपु न होई ॥ तागा तंतु साजु सभु थाका राम नाम बसि होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहुतेरे रूप = कई जूनियां। तागा = (मोह का) धागा। तंतु = (मोह की) तार। साजु = (मोह का सारा) आडंबर। बसि = वश में।1।
अर्थ: (माया के मोह में फंस के) मैं जिस कई जन्मों में फिरता रहा, अब वह जनम-मरन का चक्कर समाप्त हो गया है, मेरे मन का मोह का धागा, मोह की तार और मोह के सारे आडंबर सभ समाप्त हो गए हैं, अब मेरा मन परमात्मा के नाम के वश में हो गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मोहि नाचनो न आवै ॥ मेरा मनु मंदरीआ न बजावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब मोहि नाचनो न आवै ॥ मेरा मनु मंदरीआ न बजावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। नाचनो = माया के हाथों में नाचना। मंदरीआ = ढोलकी।1। रहाउ।
अर्थ: (परमात्मा की कृपा से) अब मैं (माया के हाथों पर) नाचना हट गया हूँ, अब मेरा मन ये (माया के मोह की) ढोलकी नहीं बजाता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामु क्रोधु माइआ लै जारी त्रिसना गागरि फूटी ॥ काम चोलना भइआ है पुराना गइआ भरमु सभु छूटी ॥२॥

मूलम्

कामु क्रोधु माइआ लै जारी त्रिसना गागरि फूटी ॥ काम चोलना भइआ है पुराना गइआ भरमु सभु छूटी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फूटी = टूट गई है।2।
अर्थ: (प्रभु की कृपा से) मैंने काम-क्रोध और माया के प्रभाव को जला दिया है, (मेरे अंदर से) तृष्णा की मटकी टूट गई है, मेरा काम का अनुचित चोला अब पुराना हो गया है, भटकना खत्म हो गई है। (रही बात) सारी (माया की खेल ही) खत्म हो गई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब भूत एकै करि जानिआ चूके बाद बिबादा ॥ कहि कबीर मै पूरा पाइआ भए राम परसादा ॥३॥६॥२८॥

मूलम्

सरब भूत एकै करि जानिआ चूके बाद बिबादा ॥ कहि कबीर मै पूरा पाइआ भए राम परसादा ॥३॥६॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब भूत = सारे जीवों में। बाद बिबादा = झगड़े, वैर विरोध। परसादा = कृपा, दया।3।
अर्थ: कबीर कहता है: मेरे पर परमात्मा की कृपा हो गई है, मुझे पूरा प्रभु मिल गया है, मैंने सारे जीवों में अब एक परमात्मा को बसता समझ लिया है, इस वास्ते मेरे सारे वैर-विरोध खत्म हो गए हैं।3।6।28।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द को कबीर जी के इसी राग में दिए शब्द नं: 18 के साथ जोड़ के पढ़ें। शब्द नंबर 18 को समझने में काफी सहायता मिलेगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥ आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥ आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धरै = रखता है। मनावै = मन्नत मानता है। मनावै अलहु = अल्लाह के नाम पे कुर्बानी देता है। सुआदति = स्वाद की खातिर। संघारै = मारता है। आपा देखि = अपने स्वार्थ को आँखों के आगे रख के। अवर नही देखै = औरों के स्वार्थ को नहीं देखता।1।
अर्थ: (हे भाई! काजी) रोजा रखता है (रोजों के आखिर में ईद वाले दिन) अल्लाह के नाम पे कुर्बानी देता है, पर अपने स्वाद की खातिर (ये) जीव मारता है। अपने ही स्वार्थ को आँखों के आगे रख कर औरों की परवाह नहीं करता, इसलिए, ये सब उद्यम व्यर्थ में झख मारने वाली बात ही है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥ खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥ खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काजी = हे काजी! तोही महि = तेरे में भी। तेरा = तेरा साहिब। खबरि न करहि = तू समझता नहीं। दीन के बउरे = मजहब (की शरह) में पागल हुए, हे काजी! अलेखे = अ+लेखे, किसी लेखे में ना आया, कोई लाभ नहीं हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: हे काजी! (सारे जगत का) मालिक एक रब है, वह तेरा भी रब है और तेरे अंदर भी मौजूद है, पर तू सोच-विचार के देखता नहीं। हे शरह में पागल हुए काजी! तू (इस भेद को) नहीं समझता, इस वास्ते तेरी उम्र तेरा जीवन व्यर्थ जा रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचु कतेब बखानै अलहु नारि पुरखु नही कोई ॥ पढे गुने नाही कछु बउरे जउ दिल महि खबरि न होई ॥२॥

मूलम्

साचु कतेब बखानै अलहु नारि पुरखु नही कोई ॥ पढे गुने नाही कछु बउरे जउ दिल महि खबरि न होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचु = सदा कायम रहने वाला। कतेब = पश्चिमी मतों की किताबें (कुरान, तौरेत, अंजील, जंबूर)। नही कोई = (उस प्रभु की ज्योति के बिना) कोई नहीं जी सकता। नाही कछु = कोई (आत्मिक) लाभ नहीं। खबरि = सूझ, ज्ञान।2।
अर्थ: हे काज़ी! तुम्हारी अपनी मज़हबी किताबें भी यही कहती हैं कि अल्लाह सदा कायम रहने वाला है (सारी दुनिया अल्लाह की पैदा की हुई है, उस अल्लाह के नूर के बिना) कौई औरत-मर्द जीवित नहीं रह सकता, पर हे कमले काज़ी! अगर तेरे दिल में ये समझ नहीं पड़ी तो (मज़हबी किताबों को निरा) पढ़ने और विचारने का कोई लाभ नहीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलहु गैबु सगल घट भीतरि हिरदै लेहु बिचारी ॥ हिंदू तुरक दुहूं महि एकै कहै कबीर पुकारी ॥३॥७॥२९॥

मूलम्

अलहु गैबु सगल घट भीतरि हिरदै लेहु बिचारी ॥ हिंदू तुरक दुहूं महि एकै कहै कबीर पुकारी ॥३॥७॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गैबु = छुपा हुआ। पुकारी = पुकारि, ऊँचा चिल्ला के।3।
अर्थ: हे काजी! कबीर ऊँचा पुकार के कहता है (भाव, पूरे यकीन के साथ कहता है), तू भी अपने दिल में विचार के देख ले, रब सारे शरीरों में छुपा बैठा है, हिन्दू और मुसलमान में भी वही बसता है।3।7।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ तिपदा ॥ इकतुका ॥ कीओ सिंगारु मिलन के ताई ॥ हरि न मिले जगजीवन गुसाई ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ तिपदा ॥ इकतुका ॥ कीओ सिंगारु मिलन के ताई ॥ हरि न मिले जगजीवन गुसाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: के ताई = की खातिर। गुसाई = धरती का पति।1।
अर्थ: मैंने पति-प्रभु को मिलने के लिए हार-श्रृंगार लगाया, पर जगत की जिंद, जगत के मालिक प्रभु पति जी मुझे मिले नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मेरो पिरु हउ हरि की बहुरीआ ॥ राम बडे मै तनक लहुरीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि मेरो पिरु हउ हरि की बहुरीआ ॥ राम बडे मै तनक लहुरीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरो = मेरा। पिरु = पति। हउ = मैं। बहुरीआ = संस्कृत = बधू, wife, a bride, a daughter in law, बधुटी, a young woman, a daughter in law. इससे पंजाबी शब्द है ‘वहुटी’। (शब्द ‘बहू’ संस्कृत के ‘वधू’ से है इसके अर्थ हैं: वहुटी, नूंह। पर इस शब्द में इसका साफ अर्थ ‘वहुटी’ ही है)। बहुरीआ = अंजान सी वहुटी, अंजान स्त्री। तनक = छोटी सी। लहुरीआ = अंजान बालिका।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा मेरा पति है, मैं उसकी अंजान सी पत्नी हूँ (मेरा उससे मेल नहीं होता, क्योंकि) मेरा पति-प्रभु बहुत बड़ा है और मैं छोटी सी बालिका हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन पिर एकै संगि बसेरा ॥ सेज एक पै मिलनु दुहेरा ॥२॥

मूलम्

धन पिर एकै संगि बसेरा ॥ सेज एक पै मिलनु दुहेरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धन = स्त्री। पिर = पति का। बसेरा = वसेवा। सेज = हृदय रूपी सेज। दुहेरा = मुश्किल। पै = परन्तु।2।
अर्थ: (मुझ जीव-) बहूरीआ और पति (-प्रभु) का बसेरा एक ही जगह है, हम दोनों की सेज भी एक ही है, पर (फिर भी) उसको मिलना बहुत मुश्किल है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धंनि सुहागनि जो पीअ भावै ॥ कहि कबीर फिरि जनमि न आवै ॥३॥८॥३०॥

मूलम्

धंनि सुहागनि जो पीअ भावै ॥ कहि कबीर फिरि जनमि न आवै ॥३॥८॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनि = भाग्यशाली। सुहागनि = सुहाग वाली, अच्छे भाग्यों वाली। पीअ = पति को। कहि = कहे, कहता है।3।
अर्थ: कबीर कहता है: मुबारिक है वह भाग्यों वाली स्त्री जो पति-प्रभु को प्यारी लगती है, वह (जीव-) स्त्री फिर जनम (मरण) में नहीं आती।3।8।30।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी के इस शब्द में कई बातें इशारे मात्र ही की गई हैं: 1. ‘मै तनक लहुरीआ’ में सिर्फ इशारा ही किया गया है; पर वह अज्ञानता कौन सा है, वह विस्तार से नहीं बताया गया। 2. ‘मिलन दुहेरा’ क्यों है; इस बात को भी ‘तनिक लहुरीआ’ में गुप्त रखा गया है। 3. ‘पीअ भावै’, पर कैसे पति को भाए, इसे भी स्पष्ट नहीं किया गया है। इन सारी गूढ़ बातों को समझने के लिए गुरु नानक देव जी के आसा राग में ही दिए हुए निम्न-लिखित दोनों शबदों को ध्यान से पढ़ें;
आसा महला १॥
एक न भरीआ, गुण करि धोवा॥ मेरा सहु जागै, हउ निसि भरि सोवा॥१॥ इउ किउ कंत पिआरी होवा॥ सहु जागै, हउ निसि भरि सोवा॥१॥ रहाउ॥ आस पिआसी सेजै आवा॥ आगै सह भावा, कि न भावा॥२॥ किआ जाना, किआ होइगा री माई॥ हरि दरसन बिनु, रहनु न जाई॥१॥ रहाउ॥ प्रेम न चाखिआ, मेरी तिस न बुझानी॥ गइआ सु जोबनु, धन पछुतानी॥३॥ अजै सु जागउ आस पिआसी॥ भईले उदासी, रहउ निरासी॥१॥ रहाउ॥ हउमै खोइ करे सीगारु॥ तउ कामणि सेजै रवै भतारु॥४॥ तउ नानक कंतै मनि भावै॥ छोडि वडाई आपणे खसमि समावै॥१॥ रहाउ॥२६॥
आसा महला १॥
पेवकड़ै धन खरी इआणी॥ तिसु सह की मै सार न जाणी॥१॥ सहु मेरा एकु, दूजा नही कोई॥ नदरि करे मेलावा होई॥१॥ रहाउ॥ साहुरड़ै धन साचु पछाणिआ॥ सहजि सुभाइ अपणा पिरु जाणिआ॥२॥ गुर परसादी ऐसी मति आवै॥ तां कामणि कंतै मनि भावै॥३॥ कहतु नानकु, भै भाव का करे सीगारु॥ सद ही सेजै रवै भतारु॥४॥२७॥
इन तीनों शबदों को साथ-साथ तीन-चार बार ध्यान से पढ़ें। कितने ही सांझे शब्द हैं, क्या सुंदर मिलते-जुलते ख्याल हैं। जो बातें कबीर जी ने एक शब्द ‘लहुरीआ’ में गुप्त रख दीं, वह गुरु नानक देव जी ने इन दो शबदों में समझा दी हैं। इस तरह प्रतीत होता है कि जैसे दोनों रब का आशिक प्यार और बिरह के भावों को एक-दूसरे के आगे अपना-अपना दिल खोल के रख रहे हैं।
दूसरे शब्दों में कह लें कि भक्त कबीर जी की वाणी गुरु नानक देव जी ने स्वयं ही एकत्र की थी और अपने शब्दों के साथ अपने सिखों के लिए संभाल के रखी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा स्री कबीर जीउ के दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा स्री कबीर जीउ के दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीरै हीरा बेधि पवन मनु सहजे रहिआ समाई ॥ सगल जोति इनि हीरै बेधी सतिगुर बचनी मै पाई ॥१॥

मूलम्

हीरै हीरा बेधि पवन मनु सहजे रहिआ समाई ॥ सगल जोति इनि हीरै बेधी सतिगुर बचनी मै पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीरै = (जीव आत्मा रूपी) हीरे ने। हीरा = परमात्मा हीरा। बेधि = भेद के। पवन मनु = पवन जैसा चंचल मन (देखें कबीर जी का शब्द नं: 10 राग सोरठि में: ‘संतहु मन पवनै सुखु बनिआ। किछु जोगु परापति गनिआ)। सहजे = सहज अवस्था में जहाँ मन डोलता नहीं। सगल जोति = सारी जोतें, सारे जीव-जंतु। इनि हीरै = इस प्रभु लाल ने। मै पाई = ये बात मैंने पाई है। बेधी = भेद ली हैं।1।
अर्थ: जब (जीव-) हीरा (प्रभु-) हीरे को भेद लेता है (भाव, जब जीव परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ लेता है) तो इसका चंचल मन अडोल अवस्था में सदा टिका रहता है। यह प्रभु-हीरा ऐसा है जो सारे जीव-जंतुओं में मौजूद है; ये बात मैंने सतिगुरु के उपदेश की इनायत से समझी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि की कथा अनाहद बानी ॥ हंसु हुइ हीरा लेइ पछानी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि की कथा अनाहद बानी ॥ हंसु हुइ हीरा लेइ पछानी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हंसु हुइ = जो जीव हंस बन जाता है। लेइ पछानी = पहचान लेता है। अनाहद = एक रस, सदा। रहाउ।
अर्थ: प्रभु की महिमा से और एक रस गुरु की वाणी में जुड़ के जो जीव हंस बन जाता है वह (प्रभु-) हीरे को पहचान लेता है (जैसे हंस मोती पहचान लेता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर हीरा अस देखिओ जग मह रहा समाई ॥ गुपता हीरा प्रगट भइओ जब गुर गम दीआ दिखाई ॥२॥१॥३१॥

मूलम्

कहि कबीर हीरा अस देखिओ जग मह रहा समाई ॥ गुपता हीरा प्रगट भइओ जब गुर गम दीआ दिखाई ॥२॥१॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अस = ऐसा, वह। गुर गम = पहुँच वाले गुरु ने।2।
अर्थ: कबीर कहता है; जो प्रभु-हीरा सारे जगत में व्यापक है, जब उस तक पहुँच वाले सतिगुरु ने मुझे उसका दीदार कराया, तो मैंने वह हीरा (अपने अंदर ही) देख लिया, वह छुपा हुआ हीरा (मेरे अंदर ही) प्रत्यक्ष हो गया।2।1।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ पहिली करूपि कुजाति कुलखनी साहुरै पेईऐ बुरी ॥ अब की सरूपि सुजानि सुलखनी सहजे उदरि धरी ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ पहिली करूपि कुजाति कुलखनी साहुरै पेईऐ बुरी ॥ अब की सरूपि सुजानि सुलखनी सहजे उदरि धरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पहिली = मेरे मन की पहली रुचि। कुरूपि = खराब रूप वाली। कुजाति = खराब असल वाली, बुरे घर में पैदा हुई। कुलखनी = बुरे लक्षणों वाली। पेईऐ = पेके घर में, इस लोक में। बुरी = बुरे स्वभाव वाली। अब की = अब वाली रुचि। सरूपि = सुंदर रूप वाली। सुलानि = सयानी, सुंदर अकल वाली। सुलखनी = सुंदर लक्षणों वाली। उदरि = उदर में, पेट में, अपने अंदर। धरी = मैंने टिका ली है।1।
अर्थ: मेरे मन की पहली रुचि बुरे रूप वाली, बुरे कुल में पैदा हुई और चंदरे लक्षणों वाली थी। उस ने मेरे इस जीवन में भी चंदरी ही रहना था मेरे परलोक जाने पर भी बुरे ही रहना था। जो रुचि मैंने अब आत्मिक अडोलता द्वारा अपने अंदर बसाई है वह सुंदर स्वरूप वाली, निपुण व अच्छे लक्षणों वाली है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भली सरी मुई मेरी पहिली बरी ॥ जुगु जुगु जीवउ मेरी अब की धरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

भली सरी मुई मेरी पहिली बरी ॥ जुगु जुगु जीवउ मेरी अब की धरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भली सरी = भला हुआ, अच्छी बात हुई। बरी = वरी हुई, ब्याही हुई, स्वीकार की हुई, चुनी हुई, पसंद की हुई। जुगु जुगु = सदा ही। जीवउ = जीती रहे, रब करके जीती रहे। धरी = संभाली हुई।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: व्याकरण के अनुसार शब्द ‘जीवउ’ हुकमी भविष्यत, अन पुरख है, एक वचन है, जैसे: ‘भिजउ सिजउ कंमली अलह वरसउ मेहु’ में शब्द ‘भिजउ, सिजउ’ और ‘वरसउ’ हैं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अच्छा ही हुआ कि मेरी वह मनोवृति खत्म हो गई है जो मुझे पहले अच्छी लगा करती थी। जो मुझे अब मिली है, रब करे वह सदा जीती रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर जब लहुरी आई बडी का सुहागु टरिओ ॥ लहुरी संगि भई अब मेरै जेठी अउरु धरिओ ॥२॥२॥३२॥

मूलम्

कहु कबीर जब लहुरी आई बडी का सुहागु टरिओ ॥ लहुरी संगि भई अब मेरै जेठी अउरु धरिओ ॥२॥२॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहु = कह। लहुरी = छोटी, गरीबनी, गरीब स्वभाव वाली रुचि। बडी = अहंकार वाली रुचि। सुहागु = अच्छी किस्मत, जोर, दबाव, जबा। टरिओ = टल गया है, खत्म हो गया है। जेठी = बड़ी, अहंकार वाली रुचि। अउरु धरिओ = कोई और ढूँढ लिया है।2।
अर्थ: हे कबीर! कह: जब से ये गरीबड़े स्वाभाव वाली रुचि मुझे मिली है,अहंकारी रुचि का जोर मेरे ऊपर से टल गया है। ये विनम्रता वाली मति अब सदा मेरे साथ रहती है, और उस अहंकार-बुद्धि ने कहीं कोई और जगह ढूँढ ली होगी।2।2।32।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ मेरी बहुरीआ को धनीआ नाउ ॥ ले राखिओ राम जनीआ नाउ ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ मेरी बहुरीआ को धनीआ नाउ ॥ ले राखिओ राम जनीआ नाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहुरीआ = अंजान दुल्हन, मेरी अंजान जिंद-रूप पत्नी। को = का। धनीया = धन वाली, धन से प्यार करने वाली, माया से मोह करने वाली। ले = ले के, अपने असर तले ला के। राम जनीआ = राम की दासी, परमात्मा की भक्तिन।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इन्’ शब्द में ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मेरी जिंदड़ी-रूपी पत्नी पहले धन की प्यारी कहलवाती थी, (भाव, मेरी जिंद पहले माया से प्यार किया करती थी)। (मेरे सत्संगियों ने इस जिंद को) अपने असर तले ला के इस काम रामदासी रख दिया (भाव, इस जिंद को परमात्मा की दासी कहलवाने योग्य बना दिया)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्ह मुंडीअन मेरा घरु धुंधरावा ॥ बिटवहि राम रमऊआ लावा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इन्ह मुंडीअन मेरा घरु धुंधरावा ॥ बिटवहि राम रमऊआ लावा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुंडीअन = साधूओं ने, सत्संगियों ने। मेरा घरु = वह घर जिसमें मेरी धनीया रहती थी, वह हृदय रूपी घर जिसमें माया के साथ मोह करने वाली जिंद रहती थी। धुंधरावा = धुंध वाला कर दिया है, उजाड़ कर दिया है, मिट्टी में मिला दिया है, नाश कर दिया है। (बिटवहि = मेरे अंजान बेटे को, मेरे अंजान बालक को, मेरे अंजाने मन को)। बालकु = मन बालक। रमऊआ = राम नाम-जपने की बाण। लावा = लगाया, लगा दिया।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘बिटवा’ और ‘बेटा’ में फर्क है। ‘बिटवा’ का अर्थ ‘अंजान बेटा’। गुरु नानक साहिब ने भी ‘मन’ को ‘बालक’ कहा है; जैसे;
‘राजा बालकु, नगरी काची, दुसटा नालि पिआरो।’ (बसंत म: १)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: इन सत्संगियों ने मेरा (वह) घर उजाड़ दिया है (जिसमें माया के साथ मोह करने वाली जिंद रहती थी), (क्योंकि अब इन्होंने) मेरे अंजान मन को परमात्मा के नाम-जपने की चिंगारी लगा दी है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु कबीर सुनहु मेरी माई ॥ इन्ह मुंडीअन मेरी जाति गवाई ॥२॥३॥३३॥

मूलम्

कहतु कबीर सुनहु मेरी माई ॥ इन्ह मुंडीअन मेरी जाति गवाई ॥२॥३॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाति = नीची जाति। गवाई = खत्म कर दी है।2।
अर्थ: कबीर कहता है: हे मेरी माँ! सुन, इन सत्संगियों ने मेरी (नीच) जाति (भी) खत्म कर दी है (अब लोग मुझे शूद्र जान के वह शूद्रों वाला सलूक नहीं करते)।2।3।33।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के अर्थ करने के संबंध में कई विद्वान सज्जन यूँ समझते हैं;
इस शब्द की पहली चार तुकें कबीर जी की माँ के तरफ से हैं, पिछली दो कबीर जी की। उत्तर है: पूर्व में ठाकरों से ब्याही हुई मंदिरों में रहती स्त्रीयों को राम जनियां कहते हैं; ये स्त्रीयां वेश्वा का ही काम करती हैं। साधु तो कबीर जी की पत्नी को ‘राम जनिया’ अर्थात भगतनी कह के बुलाते थे, पर कबीर जी की माँ ‘राम जनियां’ का दूसरा अर्थ समझ के दुखी होती थी।
जो तब्दीली घर में आ गई, वह कबीर जी की माता को पसंद नहीं।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी मुर्दा रूहों को पुनर्जीवित करने के समर्थ है। जीवित लोग ही और लोगों को जिंदा कर सकते हैं और ‘जीवते कउ जीवता मिलै’ के हुक्म अनुसार जीवितों वाणी में जीवितों की ही वाणी मिल सकती है। कबीर जी की माँ की उचारी हुई किसी कविता को इन हंस-उड़ानों में कहीं जगह नहीं थी मिल सकती। भला कच्ची बातों का यहाँ क्या काम? सो, इस शब्द में कबीर जी के बिना किसी और के बोल नहीं हो सकते।
ये बात और भी सोचने वाली है। कबीर जी की पत्नी का नाम ‘लोई’ था। पर यह ‘धनिया’ कौन आ गई? क्या कबीर जी की दो पत्नियां थीं? जब इस धुर से आई वाणी को साखियों के आसरे समझने पर आ टिकेंगे तो फिर कई कहानियां बनने लग पड़ती हैं। सन 1924 की बात है। मैं तब शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी का उप-सचिव था। अमृतसर शहर में बसते एक पुराने गुरसिख प्रचारक के साथ मेरी सांझ बन गई। वे अच्छे विद्वान सज्जन थे। एक दिन मुझे कहने लगे कि कबीर जी ने दो विवाह किए थे, पहिली बद्शकल और कुलक्षणी थी, उसे उन्होंने तलाक दे दिया था। मैं इस विद्वान सज्जन के मुंह की ओर देखने लग पड़ा; उन्होंने फट यह शब्द सुनाया;
पहिली करूपि कुजाति कुलखनी साहुरै पेईऐ बुरी॥ …. लहुरी संगि भई अब मेरै जेठी अउरु धरिओ॥३२॥
इसशबद नं: 33 में इस्तेमाल हुए शब्द ‘माई, बिटवहि, बहुरीआ’ को पढ़ के ख्याल बन गया कि कबीर जी का माँ शब्द ‘राम जनियां’ पर गुस्सा हो रही है। पर शब्द ‘माई’ तो गुरु ग्रंथ साहिब के कई शब्दों में आया है और प्यार व बिरह के जज़बातों की टोह देता है। अभी ही शब्द न: 31 में हमने कबीर जी का अपने वास्ते बरता हुआ शब्द ‘बहुरीआ’ पढ़ आए हैं।
‘हरि मेरो पिरु, हउ हरि की बहुरीआ।’
कबीर जी की इस अपने मुंह से उचारी गई गवाही के होते हुए किसी और कहानी की जरूरत नहीं पड़ती। कबीर जी की माँ के ये बोल उचारे फर्ज करके शब्द ‘बहुरीआ’ का अर्थ ‘बहू’ कहने की भी जरूरत नहीं, क्योंकि उसका नाम लोई था, धनिया नहीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ रहु रहु री बहुरीआ घूंघटु जिनि काढै ॥ अंत की बार लहैगी न आढै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आसा ॥ रहु रहु री बहुरीआ घूंघटु जिनि काढै ॥ अंत की बार लहैगी न आढै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहु = बस कर, ठहर। री बहुरीआ = हे मेरी जिंद रूपी पत्नी! जिनि = शायद, ना। जिनि काढै = शायद निकाले, ना निकाल। घूंघटु = घूंघट, पति प्रभु से पर्दा। अंत की बार = आखिर में, ये जीवन खत्म होने पर। लहैगी न आढै = आधी दमड़ी भी तुझे नहीं मिलनी, तेरा मूल्य आधी दमड़ी भी नहीं पड़ना, तेरा सारा जीवन व्यर्थ चला जाएगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी अंजान जिंदे! अब बस कर, प्रभु पति से घूंघट करना छोड़ दे, (अगर सारी उम्र प्रभु से तेरी दूरी ही रही, तो) तेरा सारा जीवन व्यर्थ चला जाएगा (इस जीवन का आखिर आधी दमड़ी भी मूलय नहीं पड़ना)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घूंघटु काढि गई तेरी आगै ॥ उन की गैलि तोहि जिनि लागै ॥१॥

मूलम्

घूंघटु काढि गई तेरी आगै ॥ उन की गैलि तोहि जिनि लागै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उन की = उनकी। गैलि = वादी, आदत। तोहि = तुझे। जिनि लागै = कहीं लग ना जाए। आगै = तुमसे पहले। तेरी = तेरी बुद्धि वाली कई जिंदें। घूंघट काढि = प्रभु से घूंघट कर के, पति प्रभु को विसार विसार के।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘उन’ बताता है कि इससे पहली तुक में किसी एक का वर्णन नहीं है, बहुतों का जिक्र है। इस तुक में से कबीर जी के पुत्र की किसी दूसरी पत्नी का ख्याल बनाना बिल्कुल ही गलत है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: तुझसे पहले (इस जगत में कई जिंद-पत्नियां प्रभु से) घूंघट किए हुए चली गई, (देखना) कहीं उनका वाला स्वभाव तुम्हे भी ना पड़ जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घूंघट काढे की इहै बडाई ॥ दिन दस पांच बहू भले आई ॥२॥

मूलम्

घूंघट काढे की इहै बडाई ॥ दिन दस पांच बहू भले आई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (प्रभु-पति से) घूंघट करके (और माया से प्रीत जोड़ के, इस जगत में लोगों द्वारा) पाँच-दस दिन के लिए इतनी शोहरत ही मिलती है कि ये जिंद-पत्नी अच्छी आई (भाव, लोग इतना ही कहते हैं कि फलाणा बंदा बढ़िया कमाऊ पैदा हुआ, बस! मर गया तो बात भूल गई)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घूंघटु तेरो तउ परि साचै ॥ हरि गुन गाइ कूदहि अरु नाचै ॥३॥

मूलम्

घूंघटु तेरो तउ परि साचै ॥ हरि गुन गाइ कूदहि अरु नाचै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ परि = तब ही। कूदहि नाचै = (हे जिंदे) अगर तू कूदे और नाचे, अगर तेरे अंदर उत्साह पैदा हो, यदि तेरे अंदर खिड़ाव पैदा हो।3।
अर्थ: (पर, हे जिंदे! ये तो था झूठा घूंघट जो तूने प्रभु-पति से निकाले रखा, और चार दिन जगत में माया कमाने की शोहरत कमाई), तेरा सच्चा घूंघट तभी हो सकता है अगर (माया के मोह से मुंह छुपा के) प्रभु के गुण गाए, प्रभु की महिमा का उल्लास तेरे अंदर उठे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर बहू तब जीतै ॥ हरि गुन गावत जनमु बितीतै ॥४॥१॥३४॥

मूलम्

कहत कबीर बहू तब जीतै ॥ हरि गुन गावत जनमु बितीतै ॥४॥१॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहू = जिंद पत्नी।4।
अर्थ: कबीर कहता है: जिंद पत्नी तभी मानव जनम की बाजी जीतती है अगर इसकी सारी उम्र प्रभु की महिमा करते हुए गुजरे।4।1।34।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जैसे पिछले शब्द में हमारे कई विद्वान कबीर जी की माँ को अपनी बहू के लिए दुखी बता रहे हें, वैसे ही यहाँ कबीर जी खुद अपनी बहू के घूंघट करने से नाराज होते बताए जा रहे हैं। हम शब्द ‘बहुरीआ’ का अर्थ करने के लिए कबीर जी के ही शब्द नं: 31 का आसरा लेंगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ करवतु भला न करवट तेरी ॥ लागु गले सुनु बिनती मेरी ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ करवतु भला न करवट तेरी ॥ लागु गले सुनु बिनती मेरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करवतु = (संस्कृत: कर्वत्र) आरा। करवट = पीठ।1।
अर्थ: दाता! तेरे पीठ देने से मुझे (तेरे मुख मोड़ने से) (शरीर पर) आरा सह लेना बेहतर है (भाव, आरे से शरीर चिरवा लेने में इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी तेरी मेहर की निगाह से वंचित रहने में है); (हे सज्जन प्रभु!) मेरी आरजू सुन और मेरे गले लग (भाव, तेरी याद मेरे गले का हार बनी रहे)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी मुखु फेरि पिआरे ॥ करवटु दे मो कउ काहे कउ मारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी मुखु फेरि पिआरे ॥ करवटु दे मो कउ काहे कउ मारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ वारी = मैं तुझसे सदके। पिआरे = हे प्यारे प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मैं तुझसे कुर्बान! मेरी ओर देख; मुझे पीठ दे के क्यों मार रहा है? (भाव, अगर तू मेरे पर मेहर की नजर ना करे, तो मैं जी नहीं सकता)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ तनु चीरहि अंगु न मोरउ ॥ पिंडु परै तउ प्रीति न तोरउ ॥२॥

मूलम्

जउ तनु चीरहि अंगु न मोरउ ॥ पिंडु परै तउ प्रीति न तोरउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंगु = शरीर। न मोरउ = मैं नीछे नहीं हटाउंगा, मैं नहीं मोड़ूंगा। पिंडु परै = अगर मेरा शरीर गिर भी पड़ेगा, अगर शरीर नाश भी हो जाएगा।2।
अर्थ: हे प्रभु! अगर मेरा शरीर चीर दे तो भी मैं (इसे बचाने की खातिर) पीछे नहीं हटूँगा; इस शरीर के नाश हो जाने पर भी मेरा तेरे से प्यार खत्म नहीं होगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम तुम बीचु भइओ नही कोई ॥ तुमहि सु कंत नारि हम सोई ॥३॥

मूलम्

हम तुम बीचु भइओ नही कोई ॥ तुमहि सु कंत नारि हम सोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बीचु = दूरी। तुमहि = तू ही। सोई = वही।3।
अर्थ: हे प्यारे! मेरे तेरे में कोई दूरी नहीं है, तू वही पति-प्रभु है और मैं जीव-स्त्री तेरी नारी हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु कबीरु सुनहु रे लोई ॥ अब तुमरी परतीति न होई ॥४॥२॥३५॥

मूलम्

कहतु कबीरु सुनहु रे लोई ॥ अब तुमरी परतीति न होई ॥४॥२॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे लोई = हे लोक! हे जगत! हे दुनिया के मोह!।4।
अर्थ: (ये दूरी डलवाने वाला चंदरा जगत का मोह था, सो) कबीर कहता है: सुन, हे जगत! (हे जगत के मोह!) अब कभी मैं तेरा ऐतबार नहीं करूँगा (हे मोह! अब मैं तेरे जाल में नहीं फसूँगा, तू ही मुझे मेरे पति से विछोड़ता है)।4।2।35।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जगत का मोह जीव को प्रभु से विछोड़ता है, इससे बचने के लिए सदा प्रभु के दर पे अरदास करनी जरूरी है।35।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द का अर्थ करते समय विद्वान सज्जन एक अजीब सी कहानी यूँ लिखते हैं:
कबीर जी की घरवाली माई लोई पहले तो इन तब्दीलियों के विरुद्ध अड़ी रही, फिर खिमा मांगती है, पर कबीर जी नाराज ही रहते हैं और कहते हैं कि अब तेरे पर ऐतबार नहीं रहा।
लोई के किसी संत की प्रसाद से सेवा ना करने पर कबीर जी रंज करके बैठ गए। लोई ने ये विनती की; पिछली दो तुकें कबीर जी की हैं, बाकी लोई जी की।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी सिख के जीवन का स्तम्भ है। ये ऐसे आत्मिक जज़बात हैं, जो हरेक सिख के अंदर उठने जरूरी हैं। यहाँ किसी ऐसी घटित बातों का वर्णन नहीं, जो अब हमारे जीवन में नहीं घटित हो सकतीं अथवा नहीं घटित होनी चाहिए। वाणी में जीवन के वह तरंग और वह नियम दिए हैं, जो, जब तक जगत बना रहेगा इन्सानी जीवन पर फिट बैठते रहेंगे, और अंधकार में चलते जीवों को सही राह बताते रहेंगे। अगर कोई शब्द इस वक्त मानव जीवन में ठीक फबता नहीं प्रतीत होता, तो इसका मतलब ये नहीं कि उसका अर्थ करने के लिए कोई बीती कहानी जोड़ के घर पूरा किया जाए। पूर्ण श्रद्धावान सिख के अंदर ये ख्याल उठना कुदरती है कि इस वक्त ये शब्द मुझे क्या रौशनी दे रहा है।
इस ऊपर दी कहानी में से एक ही बात स्पष्ट होती है कि लोई पर उनके पति कबीर जी नाराज हो गए, माई लोई मनाने के लिए बड़ी मिन्नतें कीं, पर कबीर जी ना माने। घरों में, कहते हैं बर्तन भी खड़क जाते हैं, कोई विरला ही घर होगा जहाँ पति-पत्नी कभी आपस में नाराज ना होते हों। तो, क्या इस शब्द ने यही हमारी अगवाई करनी है, कि अगर एक बार पत्नी पर गुस्से हो गए, और वह बिचारी रहे करती मिन्नतें हमने उस पर दुबारा एतबार करना ही नहीं? तो फिर, ऐसे घरों का बसेरा कैसा बन जाएगा?
सिख धर्म के इतिहास में अभी तक कहीं भी ये बात लिखी नहीं मिलती कि सतिगुरु जी ने माई लोई को भक्तों की श्रेणी में शामिल कर लिया था। तो फिर, माई लोई की कोई कविता वाणी का दर्जा नहीं रख सकती थी। जिस स्त्री पर उसका अपना ही पति अविश्वास जाहिर कर रहा बताया जाता है, उसके शब्द रूहानी-ज्योति के खजाने श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज नहीं हो सकते।
किसी भी शब्द को समझने के लिए साखियों का सहारा लेना कई बार गलत रास्ते पर डाल सकता है, जैसे कि इस शब्द के बारे में स्पष्ट दिख रहा है। दरअसल, यहाँ कोई भी झगड़ा कबीर जी का माई लोई के साथ नहीं हो रहा। कबीर जी ने शब्द ‘लोई’ और भी कई शबदों में बरता है, पर हर जगह उसको ‘माई लोई’ समझना भारी भूल है। इस शब्द में बरता शब्द ‘लोई’ किसी औरत के लिए है या ‘पुलिंग पदार्थ’ के लिए, ये निर्णय शब्द ‘रे’ से हो रहा है। ‘रे’ सदा ही पुलिंग के लिए इस्तेमाल होता है, और ‘री’ स्त्रीलिंग के लिए। जैसे;
‘रे’ पुलिंग के लिए:
‘रे नर गरभ कुंडल जब आछत….।’
‘काहे रे नर गरबु करतु हहु…..।
‘रे नर काहे पपोरहु देही…..।
‘कहत कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई। किआ कांसी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई।’ (धनासरी कबीर जी)
‘लंका सा कोटु समंदु सी खाई…। कहत कबीर सुनहु रे लोई। राम नाम बिनु मुकति न होई।5।8। (आसा)
‘री’ स्त्री के लिए:
रहु रहु री बहुरीआ घूंघटु जिनि काढै…..।34। (आसा कबीर जी)
गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा…….।2।4। (आसा कबीर जी)
अरी बाई गोबिंद नामु मति बीसरै….।2। (गुजरी त्रिलोचन जी)
री बाई बेढी देणु ना जाई…….। (सोरठि नामदेव जी)
सतिगुरु नानक देव जी ने भी शब्द ‘लोई’ अपनी वाणी में बरता है, और इसका अर्थ है ‘जगत’;
जो दीसै सो आपे आपि॥ आपि उपाइ आपे घट थापि॥ आपि अगोचरु धंधै ‘लोई’॥ जोग जुगति जगजीवनु सोई॥१५
लोई-जगत (रामकली महला १ दखणी, ओअंकार)

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ कोरी को काहू मरमु न जानां ॥ सभु जगु आनि तनाइओ तानां ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आसा ॥ कोरी को काहू मरमु न जानां ॥ सभु जगु आनि तनाइओ तानां ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोरी = जुलाहा। को = का। मरमु = भेद। काहू = किसी ने। आनि = ला के, पैदा करके।1। रहाउ।
अर्थ: (तुम सभी मुझे ‘जुलाहा-जुलाहा’ कह के छुटिआने का प्रयत्न करते हो, पर तुम्हें पता नहीं कि परमात्मा भी जुलाहा ही है) तुममें से किसी ने उस जुलाहा का भेद नहीं पाया, जिसने ये सारा जगत पैदा करके (मानो) ताना तान दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब तुम सुनि ले बेद पुरानां ॥ तब हम इतनकु पसरिओ तानां ॥१॥

मूलम्

जब तुम सुनि ले बेद पुरानां ॥ तब हम इतनकु पसरिओ तानां ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जब = जब तक। सुनि ले = सुन ले। तब = तब तक। पसरिओ = तान लिया।1।
अर्थ: (हे पण्डित जी!) जब तक आप वेद-पुरान सुनते रहे, मैंने तब तक थोड़ा सा ताना तान लिया (भाव, तुम वेद-पुराणों के पाठी होने का माण करते हो, पर तुमने इस विद्या को उसी तरह रोजी के लिए बरता है जैसे मैंने ताना तानने और काम को बरतता हूँ, दोनों में कोई फर्क ना पड़ा। पर, फिर विद्वान होने का और ब्राहमण होने का गुमान झूठा ही है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरनि अकास की करगह बनाई ॥ चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई ॥२॥

मूलम्

धरनि अकास की करगह बनाई ॥ चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धरनि = धरती। करगह = कंघी, कपड़ा बुनने के वक्त जो आगे-पीछे करती है, इसे जुलाहा बारी बारी हरेक हाथ में रखता है। साथ = जुलाहे की नालें।2।
अर्थ: (उस प्रभु-जुलाहे ने) धरती और आकाश की कंघी बना दी है, चाँद और सूरज को वह (उस कंघी के साथ) नालां बना के बरत रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां ॥ जोलाहे घरु अपना चीन्हां घट ही रामु पछानां ॥३॥

मूलम्

पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां ॥ जोलाहे घरु अपना चीन्हां घट ही रामु पछानां ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाई जोरि = पायदान की जोड़ी, जिनपे दोनों पैर रख के जुलाहा बारी बारी हरेक पैर को दबा के कपड़ा उनता है। बात इक = ये जगत खेल। तह = उस जुलाहे में। तांती मनु = (मैं) जुलाहे का मन। घरु = सरूप। चीना = पहचान लिया है। घट ही = हृदय में ही।3।
अर्थ: जुलाहे पायदान की जोड़ी उस जुलाहे-प्रभु ने (जगत की जनम-मरण की) खेल रच दी है, मुझ जुलाहे का मन उस प्रभु-जुलाहे में टिक गया है, जिसने ये खेल रची है। मुझ जुलाहे ने (उस जुलाहे-प्रभु के चरणों में जुड़ के) अपना घर ढूँढ लिया है, और मैंने अपने हृदय में ही उस परमात्मा को बैठा पहचान लिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु कबीरु कारगह तोरी ॥ सूतै सूत मिलाए कोरी ॥४॥३॥३६॥

मूलम्

कहतु कबीरु कारगह तोरी ॥ सूतै सूत मिलाए कोरी ॥४॥३॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारगह = (जगत रूपी) कंघी। तोरी = तोड़ दी, तोड़ देता है। सूतै = सूत्र में।4।
अर्थ: कबीर कहता है: जब वह जुलाहा (इस जगत-) कंघी को तोड़ देता है तो सूत्र में सूत्र मिला देता है (भाव, सारे जगत को अपने में मिला लेता है)।4।3।36।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी बनारस के रहने वाले थे, जाति के जुलाहे। ब्राहमण की नजर में वे एक शूद्र थे, जिसे शास्त्र भजन की आज्ञा नहीं देते। फिर, वे लोग तो डूबे हुए हैं मूर्ति-पूजा में, और कबीर जी हरि-नाम-जपने की मौज में मगन। उन्हें ये बात कैसे भाए? उनके लिए ये कुदरती था कि कबीर जी को ‘जुलाहा जुलाहा’ कह: कह के अपने दिल की भड़ास निकालें। कबीर इनकी इस नफरत की मजाक उड़ाते हैं कि अकेला मैं ही जुलाहा नहीं, परमात्मा भी जुलाहा ही है। देखें रविदास जी के शब्द सोरठि राग में: ‘चमरटा गाठि न जनई’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा ॥ अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां ॥ लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥

मूलम्

आसा ॥ अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां ॥ लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = मन में। मैलु = विकारों की मैल। पतीणे = पतीजने से।1।
अर्थ: अगर मन में विकारों की मैल (भी टिकी रहे, और) कोई मनुष्य तीर्थों पर नहाता फिरे, तो इस तरह उसने स्वर्ग में नहीं जा पहुँचना; (तीर्थों पर नहाने से लोग तो कहने लग पड़ेंगे कि ये भक्त है, पर) लोगों के पतीजने से कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि परमात्मा (जो हरेक के दिल की जानता है) अंजान नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजहु रामु एकु ही देवा ॥ साचा नावणु गुर की सेवा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पूजहु रामु एकु ही देवा ॥ साचा नावणु गुर की सेवा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देवा = प्रकाश रूप। नावणु = स्नान।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के बताए मार्ग पर चलना ही असल (तीर्थ) स्नान है। सो, एक परमात्मा देव का भजन करो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल कै मजनि जे गति होवै नित नित मेंडुक नावहि ॥ जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥

मूलम्

जल कै मजनि जे गति होवै नित नित मेंडुक नावहि ॥ जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मजनि = स्नान से, चुभी से। गति = मुक्ति। नावहि = नहाते हैं।2।
अर्थ: पानी में डुबकियां लगाने से अगर मुक्ति मिल सकती होती तो मेंडक सदा ही नहाते हैं। जैसे वह मेंढक हैं वैसे वे मनुष्य समझो; (पर, नाम के बिना वो) सदा जूनियों में पड़े रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बांचिआ जाई ॥ हरि का संतु मरै हाड़्मबै त सगली सैन तराई ॥३॥

मूलम्

मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बांचिआ जाई ॥ हरि का संतु मरै हाड़्मबै त सगली सैन तराई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कठोरु = कड़ा, कोरा। न बांचिआ जाई = बचा नहीं जा सकता। हाड़ंबै = मगहर की कलराठी धरती में। सैन = सेना, प्रजा, लुकाई।3।
अर्थ: अगर मनुष्य काशी में शरीर त्यागे, पर मन में कठोर हो, तो इस तरह उसका नर्क (में जाना) छूट नहीं सकता। (दूसरी तरफ) परमात्मा का भक्त मगहर की श्रापित धरती में भी अगर जा मरे, तो वह बल्कि और सारे लोगों को भी पार लंघा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिनसु न रैनि बेदु नही सासत्र तहा बसै निरंकारा ॥ कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ संसारा ॥४॥४॥३७॥

मूलम्

दिनसु न रैनि बेदु नही सासत्र तहा बसै निरंकारा ॥ कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ संसारा ॥४॥४॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैनि = रात। तहा = उस आत्मिक अवस्था में। बसै = बसता है, जीव को मिलता है। कहि = कहे, कहता है। नर = हे मनुष्य!।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे मनुष्यो! हे कमले लोगो! उस परमात्मा को ही स्मरण करो। वह वहाँ बसता है जहाँ दिन और रात नहीं, जहाँ वेद नहीं, जहाँ शास्त्र नहीं (भाव, वह प्रभु उस आत्मिक अवस्था में पहुँच के मिलता है, जो आत्मिक अवस्था किसी खास समय की मुहताज नहीं, किसी खास धर्म-पुस्तक की मुहताज नहीं)।4।4।37।