२३ गुरु अर्जन-देव छंत

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विश्वास-प्रस्तुतिः

पिर रतिअड़े मैडे लोइण मेरे पिआरे चात्रिक बूंद जिवै ॥ मनु सीतलु होआ मेरे पिआरे हरि बूंद पीवै ॥ तनि बिरहु जगावै मेरे पिआरे नीद न पवै किवै ॥ हरि सजणु लधा मेरे पिआरे नानक गुरू लिवै ॥३॥

मूलम्

पिर रतिअड़े मैडे लोइण मेरे पिआरे चात्रिक बूंद जिवै ॥ मनु सीतलु होआ मेरे पिआरे हरि बूंद पीवै ॥ तनि बिरहु जगावै मेरे पिआरे नीद न पवै किवै ॥ हरि सजणु लधा मेरे पिआरे नानक गुरू लिवै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रतिअड़े = प्रेम रंग से रंगे हुए। मैडे = मेरे। लोइण = नेत्र, आँखें। चात्रिक = पपीहा। सीतलु = ठंडा। पीवै = पीता है। तनि = शरीर में (उपजा हुआ)। बिरहु = विछोड़े का दर्द। किवै = किसी तरह भी। लिव = तवज्जो, ध्यान।3।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! मेरी आँखें प्रभु पति के दर्शनों में मस्त हैं जैसे पपीहा (स्वाति की बरखा की) बूँद (की चाहत रखता है)। हे मेरे प्यारे! जब मेरा मन परमात्मा के नाम जल की बूँद पीता है तो ठंडा-ठार हो जाता है। हे मेरे प्यारे! मेरे शरीर में उपजा हुआ विछोड़े का दर्द मुझे जगाए रखता है, किसी तरह भी मुझे नींद नहीं आती। हे नानक! (कह:) हे मेरे प्यारे! गुरु की बख्शी लगन की इनायत से मैंने सज्जन प्रभु को (अपने अंदर ही) पा लिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चड़ि चेतु बसंतु मेरे पिआरे भलीअ रुते ॥ पिर बाझड़िअहु मेरे पिआरे आंगणि धूड़ि लुते ॥ मनि आस उडीणी मेरे पिआरे दुइ नैन जुते ॥ गुरु नानकु देखि विगसी मेरे पिआरे जिउ मात सुते ॥४॥

मूलम्

चड़ि चेतु बसंतु मेरे पिआरे भलीअ रुते ॥ पिर बाझड़िअहु मेरे पिआरे आंगणि धूड़ि लुते ॥ मनि आस उडीणी मेरे पिआरे दुइ नैन जुते ॥ गुरु नानकु देखि विगसी मेरे पिआरे जिउ मात सुते ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चढ़ि = चढ़ता है। भलीअ = सोहनी। रुते = ऋतु। बाझड़िहु = बिना। आंगणि = (हृदय में) आंगन में। धूड़ि = धूल। लुते = उड़ रही है। मनि = मन में। उडीणी = उदास। नैन = आँखे। जुड़ = जुड़े हुए, टिक टिकी लगा रहे। देखि = देख के। विगसी = खिल पड़ी। सुते = सुत, पुत्र को।4।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! चेत (का महीना) चढ़ता है, बसंत (का मौसम) आता है, (सारा संसार कहता है कि ये) सोहानी ऋतु (आ गई है पर) हे मेरे प्यारे! मेरे मन में (प्रभु मिलाप की) आस उठ रही है, (मैं दुनिया वाली सोहानी बसंत ऋतु से) उदास हूँ, मेरी दोनों आँखें (बसंत की बहार को देखने की जगह प्रभु-पति के दर्शनों के इन्तजार में) जुड़ी पड़ी हैं।
नानक (कहता है: अब) हे मेरे प्यारे! गुरु नानक को देख के (मेरी जीवात्मा ऐसे) खिल पड़ी है जैसे मां अपने पुत्र को देख के खिल पड़ती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कीआ कथा कहाणीआ मेरे पिआरे सतिगुरू सुणाईआ ॥ गुर विटड़िअहु हउ घोली मेरे पिआरे जिनि हरि मेलाईआ ॥ सभि आसा हरि पूरीआ मेरे पिआरे मनि चिंदिअड़ा फलु पाइआ ॥ हरि तुठड़ा मेरे पिआरे जनु नानकु नामि समाइआ ॥५॥

मूलम्

हरि कीआ कथा कहाणीआ मेरे पिआरे सतिगुरू सुणाईआ ॥ गुर विटड़िअहु हउ घोली मेरे पिआरे जिनि हरि मेलाईआ ॥ सभि आसा हरि पूरीआ मेरे पिआरे मनि चिंदिअड़ा फलु पाइआ ॥ हरि तुठड़ा मेरे पिआरे जनु नानकु नामि समाइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विटड़िअहु = से। हउ = मैं। घोली = सदके। जिनि = जिस (गुरु) ने। सभि = सारी। मनि चिंदिअड़ा = मन में चितवा हुआ। तुठड़ा = प्रसन्न। नामि = नाम में। नानकु = नानक (कहता है)।5।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! मुझे गुरु ने परमात्मा की महिमा की बातें सुनाई हैं, मैं उस गुरु से सदके जाती हूँ जिसने मुझे प्रभु-पति के चरणों में जोड़ दिया है। हे मेरे प्यारे! प्रभु ने मेरी सारी आशाएं पूरी कर दी हैं, प्रभु से मैंने मन-चितवा फल पा लिया है।
नानक (कहता है:) हे मेरे प्यारे! जिस (भाग्यशाली मनुष्य पे) परमात्मा दयावान होता है वह परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिआरे हरि बिनु प्रेमु न खेलसा ॥ किउ पाई गुरु जितु लगि पिआरा देखसा ॥ हरि दातड़े मेलि गुरू मुखि गुरमुखि मेलसा ॥ गुरु नानकु पाइआ मेरे पिआरे धुरि मसतकि लेखु सा ॥६॥१४॥२१॥

मूलम्

पिआरे हरि बिनु प्रेमु न खेलसा ॥ किउ पाई गुरु जितु लगि पिआरा देखसा ॥ हरि दातड़े मेलि गुरू मुखि गुरमुखि मेलसा ॥ गुरु नानकु पाइआ मेरे पिआरे धुरि मसतकि लेखु सा ॥६॥१४॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिआरे = हे प्यारे! खेलसा = मैं खेलूँगी। किउ = कैसे? पाई = मैं पाऊँ। जितु = जिस के द्वारा। लगि = (जिसके चरणों में) लग के। देखसा = मैं देखूँ। दातड़े = हे प्यारे दातार! गुरमुखि = गुरु के द्वारा। मुखि मेलसा = मैं मुंह से मिलाऊँगी, मैं दर्शन करूँगी। धुरि = दरगाह से। मसतकि = माथे पे। सा = थी।6।
अर्थ: हे प्यारे! परमात्मा के बिना (किसी और से) मैं प्रेम (की खेल) नहीं खेलूँगी। (हे प्यारे! बता) मै गुरु को कैसे ढूँढू जिससे मैं तेरे दर्शन कर सकूँ।
हे प्यारे दातार हरि! मुझे गुरु मिला, गुरु के द्वारा ही मैं तेरे दर्शन कर सकूँगी।
नानक (कहता है:) हे मेरे प्यारे! (जिस भाग्यशाली के) माथे पे धुर दरगाह से (प्रभु-मिलाप का) लेख लिखा होता है उसे गुरु मिल जाता है।6।14।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला ५ छंत घरु १ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला ५ छंत घरु १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदो अनदु घणा मै सो प्रभु डीठा राम ॥ चाखिअड़ा चाखिअड़ा मै हरि रसु मीठा राम ॥ हरि रसु मीठा मन महि वूठा सतिगुरु तूठा सहजु भइआ ॥ ग्रिहु वसि आइआ मंगलु गाइआ पंच दुसट ओइ भागि गइआ ॥ सीतल आघाणे अम्रित बाणे साजन संत बसीठा ॥ कहु नानक हरि सिउ मनु मानिआ सो प्रभु नैणी डीठा ॥१॥

मूलम्

अनदो अनदु घणा मै सो प्रभु डीठा राम ॥ चाखिअड़ा चाखिअड़ा मै हरि रसु मीठा राम ॥ हरि रसु मीठा मन महि वूठा सतिगुरु तूठा सहजु भइआ ॥ ग्रिहु वसि आइआ मंगलु गाइआ पंच दुसट ओइ भागि गइआ ॥ सीतल आघाणे अम्रित बाणे साजन संत बसीठा ॥ कहु नानक हरि सिउ मनु मानिआ सो प्रभु नैणी डीठा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदो अनदु = आनंद ही आनंद। घणा = बहुत। वूठा = आ बसा। तूठा = प्रसन्न हुआ। सहजु = आत्मिक अडोलता। ग्रिह = घर, हृदय घर। वसि आइआ = वश आ गया है। मंगलु = खुशी के गीत। ओइ = वह। भाग गइआ = भाग गए। आघाणे = तृप्त हो गए। अंम्रित बाणे = आत्मिक जीव देने वाली वाणी से। बसीठा = वकील, बिचौला। सिउ = से। नैणी = आँखो से।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! मेरे हृदय-घर में) आनंद ही आनंद बन गया है (क्योंकि) मैंने उस प्रभु के दर्शन कर लिए हैं (जो आनंद का श्रोत है), और मैंने परमात्मा के नाम का मीठा रस चख लिया है। (हे भाई!) परमात्मा के नाम का मीठा रस मेरे मन में आ बसा है (क्योंकि) सतिगुरु (मेरे पर) दयावान हो गया है (गुरु की मेहर से मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो गई है। अब मेरा (हृदय) घर बस गया है (मेरी ज्ञान-इंद्रिय) खुशी के गीत गा रही हैं (मेरे हृदय-घर में से) वह (कामादिक) पाँचों वैरी भाग गए हैं। (हे भाई! जब का) मित्र गुरु (परमात्मा से मिलाने के लिए) वकील बना है विचौला बना है, उसकी आत्मिक जीवन देने वाली वाणी की इनायत से मेरी ज्ञान-इंद्रिय ठंडी-ठार हो गई हैं (मायावी पदार्थों की ओर से) तृप्त हो गई हैं।
हे नानक! कह: मेरा मन अब परमात्मा के साथ रच-मिच गया है, मैंने उस परमात्मा को (अपनी) आँखों से देख लिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोहिअड़े सोहिअड़े मेरे बंक दुआरे राम ॥ पाहुनड़े पाहुनड़े मेरे संत पिआरे राम ॥ संत पिआरे कारज सारे नमसकार करि लगे सेवा ॥ आपे जाञी आपे माञी आपि सुआमी आपि देवा ॥ अपणा कारजु आपि सवारे आपे धारन धारे ॥ कहु नानक सहु घर महि बैठा सोहे बंक दुआरे ॥२॥

मूलम्

सोहिअड़े सोहिअड़े मेरे बंक दुआरे राम ॥ पाहुनड़े पाहुनड़े मेरे संत पिआरे राम ॥ संत पिआरे कारज सारे नमसकार करि लगे सेवा ॥ आपे जाञी आपे माञी आपि सुआमी आपि देवा ॥ अपणा कारजु आपि सवारे आपे धारन धारे ॥ कहु नानक सहु घर महि बैठा सोहे बंक दुआरे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहिअड़े = शोभनीय हो गए हैं। बंक = बाँके, सुंदर। मेरे दुआरे = मेरी ज्ञान-इंद्रिय। पाहुनड़े = मेरी जीवात्मा का पति। कारज सारे = मेरे (सारे) काम सँवारते हैं। करि = कर के। आपे = स्वयं ही। माञी = मांजी (विवाह वाले घर में आया हुआ) मेल, बाराती। सुआमी = पति, खसम। देवा = ईष्ट देव (जिसके सन्मुख विवाह समपन्न होता है)। कारजु = विवाह का काम। धारन धारे = आसरा देता है। सहु = पति प्रभु। घर = हृदय घर।2।
अर्थ: (हे सखी! मेरे हृदय घर के सारे दरवाजे) मेरे ज्ञान-इंद्रिय सुंदर हो गई हैं शोभनीय हो गई हैं (क्योंकि मेरे हृदय-घर में) मेरी जिंद के साई मेरे संत-प्रभु जी आ बिराजे हैं। मेरे प्यारे संत-प्रभु जी मेरे सारे काम सँवार रहे हैं (मेरी सारी ज्ञान-इंद्रिय उस संत-प्रभु को) नमस्कार कर के उसकी सेवा-भक्ति में लग गई हैं। वह स्वयं ही जांजी वह स्वयं ही मेल है वह स्वयं ही मालिक है स्वयं ही ईष्ट देव है। (मेरी जीवात्मा का मालिक प्रभु मेरी जीवात्मा को अपने चरणों में जोड़ने का ये) अपना काम खुद समपन्न करता है।
हे नानक! कह: मेरा पति-प्रभु मेरे हृदय-घर में आ बैठता है, मेरी सारी ज्ञान-इंद्रिय सुंदर बन गई हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नव निधे नउ निधे मेरे घर महि आई राम ॥ सभु किछु मै सभु किछु पाइआ नामु धिआई राम ॥ नामु धिआई सदा सखाई सहज सुभाई गोविंदा ॥ गणत मिटाई चूकी धाई कदे न विआपै मन चिंदा ॥ गोविंद गाजे अनहद वाजे अचरज सोभ बणाई ॥ कहु नानक पिरु मेरै संगे ता मै नव निधि पाई ॥३॥

मूलम्

नव निधे नउ निधे मेरे घर महि आई राम ॥ सभु किछु मै सभु किछु पाइआ नामु धिआई राम ॥ नामु धिआई सदा सखाई सहज सुभाई गोविंदा ॥ गणत मिटाई चूकी धाई कदे न विआपै मन चिंदा ॥ गोविंद गाजे अनहद वाजे अचरज सोभ बणाई ॥ कहु नानक पिरु मेरै संगे ता मै नव निधि पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नव = नौ। निधि = खजाने। नव निधे = सृष्टि के सारे नौ ही खजाने। धिआई = मैं स्मरण करता हूँ। सखाई = साथी। सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाई = श्रेष्ठ प्रेम का दाता। गणत = चिन्ता। चूकी = समाप्त हो गई। धाई = भटकना। न विआपै = जोर नहीं डाल सकती। चिंदा = चिन्ता। गाजे = गरज रहा है, प्रकट हो रहा है। अनहद = एक रस। अनहद वाजे = एक रस बाजे बज रहे हैं। सोभ = शोभा। मेरै संगे = मेरे साथ।3।
अर्थ: हे भाई! अब मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ, मुझे हरेक पदार्थ मिल गया है, मैंने सब कुछ पा लिया है, सृष्टि के सारे ही नौ खजाने मेरे हृदय-घर में आ टिके हैं।
मैं उस गोविंद का नाम सदा स्मरण करता हूँ जो मेरा सदा के लिए साथी बन गया है, जिसके सदका मेरे अंदर आत्मिक अडोलता और प्रेम पैदा हो गए हैं। मैंने अपने अंदर से चिन्ता-फिक्र मिटा ली है, मेरी भटकन खत्म हो गई है, कोई चिन्ता मेरे मन पर कभी जोर नहीं डाल सकती। मेरे अंदर गोविंद गरज रहा है (प्रभु के स्मरण का आनंद पूरे यौवन में है। इस तरह आनंद बना हुआ है, मानो, सारे संगीतक साज) एक-रस (मेरे अंदर) बज रहे हैं। (परमात्मा ने मेरे अंदर) हैरान कर देने वाली आत्मिक सुंदरता पैदा कर दी। हे नानक! कह: प्रभु पति मेरे अंग-संग बस रहा है, तभी तो मुझे प्रतीत हो रहा है कि मैंने सृष्टि के नौ ही खजाने पा लिए हैं।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सरसिअड़े सरसिअड़े मेरे भाई सभ मीता राम ॥ बिखमो बिखमु अखाड़ा मै गुर मिलि जीता राम ॥ गुर मिलि जीता हरि हरि कीता तूटी भीता भरम गड़ा ॥ पाइआ खजाना बहुतु निधाना साणथ मेरी आपि खड़ा ॥ सोई सुगिआना सो परधाना जो प्रभि अपना कीता ॥ कहु नानक जां वलि सुआमी ता सरसे भाई मीता ॥४॥१॥

मूलम्

सरसिअड़े सरसिअड़े मेरे भाई सभ मीता राम ॥ बिखमो बिखमु अखाड़ा मै गुर मिलि जीता राम ॥ गुर मिलि जीता हरि हरि कीता तूटी भीता भरम गड़ा ॥ पाइआ खजाना बहुतु निधाना साणथ मेरी आपि खड़ा ॥ सोई सुगिआना सो परधाना जो प्रभि अपना कीता ॥ कहु नानक जां वलि सुआमी ता सरसे भाई मीता ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरसिअड़े = स+रस हो गए हैं, आनंद पूर्ण हो गए हैं। मेरे भाई मीता = मेरे मित्र मेरे भाई, मेरी सारी ज्ञानेंद्रियां। बिखमो बिखमु = विषम ही विषम, बहुत मुश्किल। अखाड़ा = संसार अखाड़ा जहाँ कामादिक विकारों के साथ सदा कशमकश हो रही है। गुरू मिलि = गुरु को मिल के। भीता = दीवार, भीति। भरम गढ़ा = भ्रम के किले की। साणथ = सहायता ली। सुगिआना = ज्ञान वाला। परधाना = जाना माना। जो = जिसे। प्रभि = प्रभु ने। जां = जब। वलि = पक्ष से।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के मैंने ये बड़ा मुश्किल संसार-अखाड़ा जीत लिया है, अब मेरे सारे मित्र-भाई (सारी ही ज्ञान-इंद्रिय) आनंद-पूरित हो रहे हैं। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर मैंने संसार-अखाड़ा जीता है (गुरु की कृपा से) मैं सदा परमात्मा का स्मरण करता हूँ (मैं पहले माया की भटकन के किले में कैद था, अब वह) भटकना के किले की दीवार गिर गई है। मैंने हरि-नाम का खजाना पा लिया है, एक बड़ा खजाना मिल गया है। मेरी सहायता के लिए प्रभु खुद (मेरे सिर पर) आ खड़ा हुआ है।
हे भाई! वही मनुष्य ठीक समझ वाला है वही मनुष्य हर जगह जाना-माना हुआ है जिसे प्रभु ने अपना (सेवक) बना लिया है। हे नानक! जब पति-प्रभु ही अपनी तरफ़ हो तो सारे मित्र भाई भी खुश हो जाते हैं।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ अकथा हरि अकथ कथा किछु जाइ न जाणी राम ॥ सुरि नर सुरि नर मुनि जन सहजि वखाणी राम ॥ सहजे वखाणी अमिउ बाणी चरण कमल रंगु लाइआ ॥ जपि एकु अलखु प्रभु निरंजनु मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ तजि मानु मोहु विकारु दूजा जोती जोति समाणी ॥ बिनवंति नानक गुर प्रसादी सदा हरि रंगु माणी ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ अकथा हरि अकथ कथा किछु जाइ न जाणी राम ॥ सुरि नर सुरि नर मुनि जन सहजि वखाणी राम ॥ सहजे वखाणी अमिउ बाणी चरण कमल रंगु लाइआ ॥ जपि एकु अलखु प्रभु निरंजनु मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ तजि मानु मोहु विकारु दूजा जोती जोति समाणी ॥ बिनवंति नानक गुर प्रसादी सदा हरि रंगु माणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथा = जो बयान ना की जा सके। कथा = महिमा। सुरिनर = देवी गुण वाले लोग। मुनिजन = शांत चित्त रहने वाले मनुष्य। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अमिउ बाणी = अमृत वाणी, आत्मिक जीवन देने वाली गुरवाणी के द्वारा। रंगु = प्यार। जपि = जप के। अलखु = अदृष्य। निरंजन = निर्लिप। चिंदिआ = चितवा, याद किया। तजि = तज के। दूजा = माया का प्यार। गुर प्रसादी = गुरु की कृपा से। रंगु = आनंद।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महिमा (अपने अहंकार-चतुराई के आधार पर) नहीं की जा सकती, (समझदारी-चतुराई के आसरे) परमात्मा की महिमा से जान-पहिचान नहीं डाली जा सकती। देवी स्वभाव वाले शांत-चित्त रहने वाले मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के ही महिमा करते हैं। हे भाई! जिस लोगों ने आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी की इनायत से आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा की महिमा की उन्होंने परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों से प्यार बना लिया, उस एक अदृष्य और निर्लिप प्रभु को स्मरण करके उन्होंने मनचाहा फल प्राप्त कर लिया।
नानक विनती करता है: (हे भाई! जिस लोगों ने अपने अंदर से) अहंकार मोह विकार माया का प्यार दूर करके अपनी तवज्जो रूहानी नूर में जोड़ ली, वह गुरु की कृपा से सदा प्रभु मिलाप का आनंद लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि संता हरि संत सजन मेरे मीत सहाई राम ॥ वडभागी वडभागी सतसंगति पाई राम ॥ वडभागी पाए नामु धिआए लाथे दूख संतापै ॥ गुर चरणी लागे भ्रम भउ भागे आपु मिटाइआ आपै ॥ करि किरपा मेले प्रभि अपुनै विछुड़ि कतहि न जाई ॥ बिनवंति नानक दासु तेरा सदा हरि सरणाई ॥२॥

मूलम्

हरि संता हरि संत सजन मेरे मीत सहाई राम ॥ वडभागी वडभागी सतसंगति पाई राम ॥ वडभागी पाए नामु धिआए लाथे दूख संतापै ॥ गुर चरणी लागे भ्रम भउ भागे आपु मिटाइआ आपै ॥ करि किरपा मेले प्रभि अपुनै विछुड़ि कतहि न जाई ॥ बिनवंति नानक दासु तेरा सदा हरि सरणाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाई = साथी, सहायता करने वाले। संताप = दुख-कष्ट, मानसिक दुख। भ्रम = भटकना। भउ = डर, सहम। आपु = स्वै भाव। प्रभि = प्रभु ने। कतहि = कहीं भी।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के संत जन मेरे मित्र हैं मेरे सज्जन हैं मेरे साथी हैं। उनकी संगति मैंने बड़ भाग्यों से बड़ी ऊँची किस्मत से पाई है। जो मनुष्य संत-जनों की संगति खुश-किस्मती से हासिल कर लेता है वह (सदा) परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसके सारे दुख उसके सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! जो आदमी गुरु के चरणों में लगता है उसकी भटकना दूर हो जाती है उसका हरेक डर-सहम खत्म हो जाता है, वह अपने अंदर से स्वै भाव (अहंकार) दूर कर लेता है। जिस मनुष्य को प्यारे प्रभु ने मेहर करके अपने चरणों में जोड़ लिया, वह प्रभु से विछुड़ के कहीं भी और नहीं जाता।
नानक बेनती करता है: हे हरि! मैं तेरा दास हूँ, मुझे भी अपनी शरण में रख।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि दरे हरि दरि सोहनि तेरे भगत पिआरे राम ॥ वारी तिन वारी जावा सद बलिहारे राम ॥ सद बलिहारे करि नमसकारे जिन भेटत प्रभु जाता ॥ घटि घटि रवि रहिआ सभ थाई पूरन पुरखु बिधाता ॥ गुरु पूरा पाइआ नामु धिआइआ जूऐ जनमु न हारे ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी राखु किरपा धारे ॥३॥

मूलम्

हरि दरे हरि दरि सोहनि तेरे भगत पिआरे राम ॥ वारी तिन वारी जावा सद बलिहारे राम ॥ सद बलिहारे करि नमसकारे जिन भेटत प्रभु जाता ॥ घटि घटि रवि रहिआ सभ थाई पूरन पुरखु बिधाता ॥ गुरु पूरा पाइआ नामु धिआइआ जूऐ जनमु न हारे ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी राखु किरपा धारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरे = दर पे। वारी = कुर्बान। जावा = मैं जाता हूँ। सद = सदा। करि = कर के। भेटत = मिलने से। जाता = जान लिया, गहरी सांझ डाल ली। घटि घटि = हरेक शरीर में। बिधाता = विधाता। जूऐ = जूए में।3।
अर्थ: हे हरि! तेरे दर पे, तेरे दरवाजे पे (खड़े) तेरे प्यारे भक्त सुंदर लग रहे हैं। मैं (तेरे) उन (भक्तों) से वार जाता हूँ, सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। (हे भाई!) मैं उन भक्तों के आगे सिर झुका के सदा उनसे कुर्बान जाता हूँ जिन्हें मिल के परमात्मा से गहरी नजदीकी बन जाती है (और ये समझ आ जाती है कि) सर्व-व्यापक विधाता हरेक शरीर में हर जगह मौजूद है।
हे भाई! जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है वह परमात्मा का नाम स्मरण करता है वह (जुआरिए की तरह) जूए में (मानव) जन्म (की बाजी) नहीं गवाता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेअंता बेअंत गुण तेरे केतक गावा राम ॥ तेरे चरणा तेरे चरण धूड़ि वडभागी पावा राम ॥ हरि धूड़ी न्हाईऐ मैलु गवाईऐ जनम मरण दुख लाथे ॥ अंतरि बाहरि सदा हदूरे परमेसरु प्रभु साथे ॥ मिटे दूख कलिआण कीरतन बहुड़ि जोनि न पावा ॥ बिनवंति नानक गुर सरणि तरीऐ आपणे प्रभ भावा ॥४॥२॥

मूलम्

बेअंता बेअंत गुण तेरे केतक गावा राम ॥ तेरे चरणा तेरे चरण धूड़ि वडभागी पावा राम ॥ हरि धूड़ी न्हाईऐ मैलु गवाईऐ जनम मरण दुख लाथे ॥ अंतरि बाहरि सदा हदूरे परमेसरु प्रभु साथे ॥ मिटे दूख कलिआण कीरतन बहुड़ि जोनि न पावा ॥ बिनवंति नानक गुर सरणि तरीऐ आपणे प्रभ भावा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केतक = कितने? गावा = गाऊँ, मै गा सकता हूँ। पावा = हासिल करूँ, पाऊँ। नाईऐ = स्नान करना चाहिए। गवाईऐ = दूर कर ली जाती है। हदूरे = अंग संग। साथे = साथ। कलिआण = सुख आनंद। बहुड़ि = दुबारा, फिर। तरीऐ = तैर जाते हैं। प्रभ भावा = प्रभु को ठीक लगूँ।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे बेअंत गुण हैं, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। मैं तेरे कितने गुण गा सकता हूँ? हे प्रभु! यदि मेरे बड़े भाग्य हों तो ही तेरे चरणों की तेरे (सोहणे) चरणों की धूल मुझे मिल सकती है। हे भाई! प्रभु के चरणों की धूल में स्नान करना चाहिए (इस तरह मन में से विकारों) की मैल दूर हो जाती है, और, जनम मरण के (सारी उम्र के) दुख उतर जाते हैं (ये निश्चय भी आ जाता है कि) परमेश्वर प्रभु हमारे अंदर और बाहर सारे संसार में सदा हमारे सदा अंग-संग बसता है हमारे साथ बसता है। (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा की महिमा करता है उसके अंदर सुख साधन बन जाते हैं उसके दुख मिट जाते हैं, वह दुबारा जूनियों में नहीं पड़ता।
नानक बिनती करता है: गुरु की शरण पड़ने से (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। (अगर मुझे भी गुरु मिल जाए तो मैं भी) अपने प्रभु को प्यारा लगने लग जाऊँ।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा छंत महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा छंत महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि चरन कमल मनु बेधिआ किछु आन न मीठा राम राजे ॥ मिलि संतसंगति आराधिआ हरि घटि घटे डीठा राम राजे ॥ हरि घटि घटे डीठा अम्रितुो वूठा जनम मरन दुख नाठे ॥ गुण निधि गाइआ सभ दूख मिटाइआ हउमै बिनसी गाठे ॥ प्रिउ सहज सुभाई छोडि न जाई मनि लागा रंगु मजीठा ॥ हरि नानक बेधे चरन कमल किछु आन न मीठा ॥१॥

मूलम्

हरि चरन कमल मनु बेधिआ किछु आन न मीठा राम राजे ॥ मिलि संतसंगति आराधिआ हरि घटि घटे डीठा राम राजे ॥ हरि घटि घटे डीठा अम्रितुो वूठा जनम मरन दुख नाठे ॥ गुण निधि गाइआ सभ दूख मिटाइआ हउमै बिनसी गाठे ॥ प्रिउ सहज सुभाई छोडि न जाई मनि लागा रंगु मजीठा ॥ हरि नानक बेधे चरन कमल किछु आन न मीठा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेधिआ = बेध गया। किछु आन = और कोई भी चीज। मिलि = मिल के। घटि घटो = हरेक घट (शरीर) में। अंम्रितुो = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल (शब्द ‘अमृत’ है, यहां ‘अमृतो’ पढ़ना है)। वूठा = आ बसा। नाठो = भाग गए। निधि = खजाना। गाठे = गांठ। सहज सुभाई = आत्मिक अडोलता को प्यार करने वाला। मनि = मन में। बेधे = बेधे जाने से।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य का) मन परमात्मा के सोहाने कोमल चरणों में परोया जाता है, उसे (परमात्मा की याद के बिना) कोई और चीज मीठी नहीं लगती। साधु-संगत में मिल के वह मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करता है, उसे परमात्मा हरेक शरीर में बसता दिखाई देता है (उस मनुष्य के हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है (जिसकी इनायत से उसके) जनम-मरण के दुख (जिंदगी के सारे दुख) दूर हो जाते हैं। वह मनुष्य गुणों के खजाने प्रभु की महिमा करता है, अपने सारे दुख मिटा लेता है, (उसके अंदर से) अहंकार की (बंधी हुई) गाँठ खुल जाती है। आत्मिक अडोलता को प्यार करने वाला प्रभु उसे छोड़ नहीं जाता, उसके मन में (प्रभु प्रेम का पक्का) रंग चढ़ जाता है (जैसे) मजीठ (का पक्का रंग)।
हे नानक! जिस मनुष्य का मन प्रभु के सोहाने कोमल चरणों में बेधा गया, उसको (प्रभु की याद के बिना) और कोई चीज अच्छी नहीं लगती।1।

[[0454]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ राती जलि माछुली तिउ राम रसि माते राम राजे ॥ गुर पूरै उपदेसिआ जीवन गति भाते राम राजे ॥ जीवन गति सुआमी अंतरजामी आपि लीए लड़ि लाए ॥ हरि रतन पदारथो परगटो पूरनो छोडि न कतहू जाए ॥ प्रभु सुघरु सरूपु सुजानु सुआमी ता की मिटै न दाते ॥ जल संगि राती माछुली नानक हरि माते ॥२॥

मूलम्

जिउ राती जलि माछुली तिउ राम रसि माते राम राजे ॥ गुर पूरै उपदेसिआ जीवन गति भाते राम राजे ॥ जीवन गति सुआमी अंतरजामी आपि लीए लड़ि लाए ॥ हरि रतन पदारथो परगटो पूरनो छोडि न कतहू जाए ॥ प्रभु सुघरु सरूपु सुजानु सुआमी ता की मिटै न दाते ॥ जल संगि राती माछुली नानक हरि माते ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राती = मस्त। जलि = जल में। रसि = रस में, आनंद में। माते = मस्त। गुर पूरै = पूरे गुरु ने। जीवन गति = अच्छा आत्मिक जीवन देने वाला। भाते = भा जाते हैं, अच्छे लगते हैं। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। लड़ि = पल्ले से। कतहू = कहीं भी। सुघरू = कुशलता वाला (सुंदर आत्मिक घड़त वाला)। सरूपु = रूप वाला। सुजानु = सिआना। दाते = दाति देने वाला।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों को) पूरे गुरु ने (हरि-नाम-स्मरण का) उपदेश दे दिया, वह परमात्मा के नाम के स्वाद में ऐसे मस्त रहते हैं जैसे (गहरे) पानी में मछली खुश रहती है, वे मनुष्य आत्मिक जीवन के दाते प्रभु को प्यारे लगते हैं।
हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला मालिक प्रभु हरेक के दिल की जानने वाला है वह उन मनुष्यों को खुद ही अपने पल्ले से लगा लेता है, वह सर्व-व्यापक प्रभु उनके अंदर अपने श्रेष्ठ नाम-रत्न प्रगट कर देता है उन्हें फिर छोड़ के कहीं नहीं जाता।
हे नानक! परमात्मा सुंदर आत्मिक घाड़त वाला है, सुंदर रूप वाला है, सियाना है, (जिस मनुष्यों को पूरा गुरु उपदेश देता है उन पर हुई हुई) उस परमात्मा की बख्शिश कभी मिटती नहीं (इस वास्ते वह मनुष्य) हरि-नाम में यूँ मस्त रहते हैं जैसे मछली (गहरे) पानी की संगति में।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चात्रिकु जाचै बूंद जिउ हरि प्रान अधारा राम राजे ॥ मालु खजीना सुत भ्रात मीत सभहूं ते पिआरा राम राजे ॥ सभहूं ते पिआरा पुरखु निरारा ता की गति नही जाणीऐ ॥ हरि सासि गिरासि न बिसरै कबहूं गुर सबदी रंगु माणीऐ ॥ प्रभु पुरखु जगजीवनो संत रसु पीवनो जपि भरम मोह दुख डारा ॥ चात्रिकु जाचै बूंद जिउ नानक हरि पिआरा ॥३॥

मूलम्

चात्रिकु जाचै बूंद जिउ हरि प्रान अधारा राम राजे ॥ मालु खजीना सुत भ्रात मीत सभहूं ते पिआरा राम राजे ॥ सभहूं ते पिआरा पुरखु निरारा ता की गति नही जाणीऐ ॥ हरि सासि गिरासि न बिसरै कबहूं गुर सबदी रंगु माणीऐ ॥ प्रभु पुरखु जगजीवनो संत रसु पीवनो जपि भरम मोह दुख डारा ॥ चात्रिकु जाचै बूंद जिउ नानक हरि पिआरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चात्रिकु = पपीहा। जाचै = मांगता है। बूँद = बूँद। प्रान अधारा = जीवात्मा का सहारा। खजीना = खजाने। सुत = पुत्र। सभ हूँ ते = सब से। पुरखु = सर्व व्यापक। निरारा = निराला, मुश्किल। गति = आत्मिक अवस्था। जानीऐ = जानी जा सकती। सासि = हरेक सांस के साथ। गिरासि = हरेक ग्रास के साथ। माणीऐ = भोगा जा सकता है। जग जीवनो = जग जीवन, जगत की जिंदगी (का सहारा)। जपि = जप के। डारा = दूर कर लिए।3।
अर्थ: हे भाई! जैसे पपीहा (स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद मांगता है (वैसे ही संत-जन परमात्मा के नाम-जल की बूँद मांगते हैं, वैसे ही संत-जनों के लिए) परमात्मा का नाम-जल जिंदगी का सहारा; दुनिया का धन-पदार्थ, खजाने, पुत्र, भाई, मित्र- इन सबसे उनको परमात्मा प्यारा लगता है। हे भाई! जिस परमात्मा की ऊँची अवस्था जानी नहीं जा सकती वह (सारे संसार से) निराला और सर्व-व्यापक प्रभु उनको प्यारा लगता है; हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ- कभी भी परमात्मा उनको भूलता नहीं। (पर, हे भाई!) उस परमात्मा के मिलाप का आनंद गुरु के शब्द की इनायत से ही पाया जा सकता है।
हे भाई! जो परमात्मा सर्व-प्यापक है सारे जगत की जिंदगी (का सहारा) है, संत जन उस के नाम-जल का रस पीते हैं, उसका नाम जप-जपके वह (अपने अंदर से) भटकना और मोह के दुख दूर कर लेते हैं। हे भाई! जैसे पपीहा (बरखा की) बूँद मांगता है वैसे ही संत-जनों के लिए परमात्मा का नाम-जल जीवन का आसरा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिले नराइण आपणे मानोरथो पूरा राम राजे ॥ ढाठी भीति भरम की भेटत गुरु सूरा राम राजे ॥ पूरन गुर पाए पुरबि लिखाए सभ निधि दीन दइआला ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई सुंदर गुर गोपाला ॥ सूख सहज आनंद घनेरे पतित पावन साधू धूरा ॥ हरि मिले नराइण नानका मानोरथुो पूरा ॥४॥१॥३॥

मूलम्

मिले नराइण आपणे मानोरथो पूरा राम राजे ॥ ढाठी भीति भरम की भेटत गुरु सूरा राम राजे ॥ पूरन गुर पाए पुरबि लिखाए सभ निधि दीन दइआला ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई सुंदर गुर गोपाला ॥ सूख सहज आनंद घनेरे पतित पावन साधू धूरा ॥ हरि मिले नराइण नानका मानोरथुो पूरा ॥४॥१॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ढाठी = गिर पड़ी। भीति = दीवार। भरमि = भटकना। सूरा = शूरवीर। पूरन = सारे गुणों का मालिक। पूरबि = पहले जनम में। निधि = खजाना। दइआला = दया करने वाला। आदि = शुरू में। मधि = बीच का। अंति = आखिर में। गुर = बड़ा। गोपाल = धरती का पालणहार। सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = बहुत। पतित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। साधू = गुरु। मानोरथुो = (असल शब्द है ‘मानोरथु’, यहां पढ़ना है ‘मानोरथो’)।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अपने परमात्मा (के चरणों) में लीन हो जाते हैं उनकी जिंदगी का निशाना पूरा हो जाता है (प्रभु चरणों में लीन होना ही इन्सानी जीवन का उद्देश्य है), शूरवीर गुरु को मिल के (उनके अंदर से) भटकना की दीवार गिर जाती है (जो परमात्मा से विछोड़े रखती थी)। (पर, हे भाई!) पूर्ण गुरु भी उनको ही मिलता है जिनके माथे पर पूर्बले जीवन के मुताबिक सारे-सारे गुणों के खजाने दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने (गुरु मिलाप का लेख) लिखा हुआ है। (ऐसे भाग्यशालियों को ये निष्चय बन जाता है कि) वह सबसे बड़ा और सृष्टि का पालनहार प्रभु ही जगत के आरम्भ में (अटल) था, जगत रचना के बीच में (अटल) है, और आखिर में (अटल) रहेगा।
हे भाई! विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाले गुरु की चरण-धूल जिस मनुष्य को प्राप्त हो जाती है उसे आत्मिक अडोलता के अनेक सुख आनंद मिल जाते हैं। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य प्रभु चरणों में मिल जाता है उसका जीवन का उद्देश्य सफल हो जाता है।4।1।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ छंत घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥

मूलम्

आसा महला ५ छंत घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ भए क्रिपाल प्रभ हरि हरि सेई जपात ॥ नानक प्रीति लगी तिन्ह राम सिउ भेटत साध संगात ॥१॥

मूलम्

जा कउ भए क्रिपाल प्रभ हरि हरि सेई जपात ॥ नानक प्रीति लगी तिन्ह राम सिउ भेटत साध संगात ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिन पर। क्रिपाल = दयावान। सेई = वह लोग। जपात = जपते हैं। सिउ = साथ। साध संगति = गुरु की संगति में।1।
अर्थ: सलोकु; जिस मनुष्यों पर प्रभु जी दयावान होते हैं वही मनुष्य परमात्मा का नाम सदा जपते हैं। पर, हे नानक! गुरु की संगति में मिल के ही उनकी प्रीति परमात्मा के साथ बनती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंतु ॥ जल दुध निआई रीति अब दुध आच नही मन ऐसी प्रीति हरे ॥ अब उरझिओ अलि कमलेह बासन माहि मगन इकु खिनु भी नाहि टरै ॥ खिनु नाहि टरीऐ प्रीति हरीऐ सीगार हभि रस अरपीऐ ॥ जह दूखु सुणीऐ जम पंथु भणीऐ तह साधसंगि न डरपीऐ ॥ करि कीरति गोविंद गुणीऐ सगल प्राछत दुख हरे ॥ कहु नानक छंत गोविंद हरि के मन हरि सिउ नेहु करेहु ऐसी मन प्रीति हरे ॥१॥

मूलम्

छंतु ॥ जल दुध निआई रीति अब दुध आच नही मन ऐसी प्रीति हरे ॥ अब उरझिओ अलि कमलेह बासन माहि मगन इकु खिनु भी नाहि टरै ॥ खिनु नाहि टरीऐ प्रीति हरीऐ सीगार हभि रस अरपीऐ ॥ जह दूखु सुणीऐ जम पंथु भणीऐ तह साधसंगि न डरपीऐ ॥ करि कीरति गोविंद गुणीऐ सगल प्राछत दुख हरे ॥ कहु नानक छंत गोविंद हरि के मन हरि सिउ नेहु करेहु ऐसी मन प्रीति हरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत: निआई = तरह। रीति = मर्यादा। अब = अब, तब। आच = सेक। मन = हे मन! हरे = हरि की। उरझिओ = फस गया। अलि = भँवरा। बासन = सुगंधि। मगन = मस्त। टरै = टालता, परे हटता। टरीऐ = हटना चाहिए। हभि = सारे। रस = स्वाद। अरपीऐ = भेट कर देने चाहिए। जह = जहाँ। पंथु = रास्ता। भणीऐ = कहा जाता है। तह = वहाँ। न डरपीऐ = नहीं डरते। कीरति = महिमा। गुणीऐ = गुणों की। प्राछत = पछतावे। हरे = दूर कर देता है। छंत = महिमा के गीत। मन = हे मन! करेहु = कर। हरे = हरि की।1।
अर्थ: छंतु: हे भाई! परमात्मा और जीवात्मा के प्यार की मर्यादा पानी और दूध के प्यार जैसी है। (जब पानी दूध से एक-रूप हो जाता है) तब (पानी) दूध को सेक नहीं लगने देता। हे मन! परमात्मा का प्यार ऐसा ही है (वह जीव को विकारों का सेक नहीं लगने देता)। (जब कमल-फूल खिलता है अपनी सुगंधि बिखेरता है) तब भौरा कमल-फूल की सुगंधि में मस्त हो जाता है (कमल-फूल से) एक पल वास्ते भी परे नहीं हटता (फूल की पंखुड़ियों में) फंस जाता है। (इसी तरह हे भाई!) परमात्मा की प्रीति से एक छिन के लिए भी परे नहीं हटना चाहिए, सारे शारीरिक सुख, सारे मायावी स्वाद (उस प्रीति से) सदके कर देने चाहिए। (इसका नतीजा ये निकलता है कि) जहां जमों (के देश) का रास्ता बताया जाता है जहाँ सुनते हैं (कि जमों से) दुख (मिलता है) वहाँ गुरु की संगति करने की इनायत से कोई डर नहीं आता।
सो, हे मन! परमात्मा की महिमा करता रह, वह परमात्मा सारे पछतावे सारे दुख दूर कर देता है। हे नानक! कह: (हे मन!) गोबिंद हरि की सिफतों के गीत गाता रह। परमात्मा से प्यार बनाए रख। हे मन! परमात्मा की प्रीति ऐसी है (कि विकारों का सेक नहीं लगने देती, और जमों के वश नहीं पड़ने देती)।1।

[[0455]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसी मछुली नीर इकु खिनु भी ना धीरे मन ऐसा नेहु करेहु ॥ जैसी चात्रिक पिआस खिनु खिनु बूंद चवै बरसु सुहावे मेहु ॥ हरि प्रीति करीजै इहु मनु दीजै अति लाईऐ चितु मुरारी ॥ मानु न कीजै सरणि परीजै दरसन कउ बलिहारी ॥ गुर सुप्रसंने मिलु नाह विछुंने धन देदी साचु सनेहा ॥ कहु नानक छंत अनंत ठाकुर के हरि सिउ कीजै नेहा मन ऐसा नेहु करेहु ॥२॥

मूलम्

जैसी मछुली नीर इकु खिनु भी ना धीरे मन ऐसा नेहु करेहु ॥ जैसी चात्रिक पिआस खिनु खिनु बूंद चवै बरसु सुहावे मेहु ॥ हरि प्रीति करीजै इहु मनु दीजै अति लाईऐ चितु मुरारी ॥ मानु न कीजै सरणि परीजै दरसन कउ बलिहारी ॥ गुर सुप्रसंने मिलु नाह विछुंने धन देदी साचु सनेहा ॥ कहु नानक छंत अनंत ठाकुर के हरि सिउ कीजै नेहा मन ऐसा नेहु करेहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीर = पानी। धीरे = धीरज करती। मन = हे मन! नेहु = प्रेम। करेहु = कर। चात्रिक = पपीहा। बूँद = बरखा की बूँद। चवै = बोलता है। चवै मेहु = बादलों को कहता है। सुहावै = हे सोहाने (मेघ)! बरसु = बरखा कर। दीजै = भेट कर देने चाहिए। मुरारी = परमात्मा (से)। मानु = अहंकार। सुप्रसंने = दयावान। नाह = हे नाथ! हे प्रभु पति! विछुंने = हे विछुड़े हुए! धन = जीव-स्त्री। साचु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को। नानक = हे नानक! छंत = महिमा के गीत। नेहा = नेहु, प्रेम।2।
अर्थ: हे (मेरे) मन! तू (परमात्मा के साथ) ऐसा प्रेम बना जैसा मछली का पानी के साथ है (मछली पानी के बिना) एक छिण भी नहीं जी सकती; जैसा (पपीहे का प्रेम-बरखा बूँद से है), पपीहा प्यासा है (पर और पानी नहीं पीता, वह) बार-बार बरखा की बूँद मांगता है, और बादलों को कहता है: हे सोहाने (मेघा)! बरखा कर।
हे भाई! परमात्मा से प्यार डालना चाहिए (प्यार के बदले अपना) ये मन उसके हवाले करना चाहिए (और इस तरह) मन को परमात्मा के चरणों में जोड़ना चाहिए; अहंकार नहीं करना चाहिए, परमात्मा की शरण पड़ना चाहिए, उसके दर्शनों की खातिर अपना-आप सदके करना चाहिए।
हे भाई! जिस जीव-स्त्री पे गुरु दयावान होता है वह सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करती है और उसके दर से अरजोई करती है: हे विछुड़े हुए प्रभु-पति! मुझे (आ के) मिल। हे नानक! तू भी बेअंत मालिक प्रभु की महिमा के गीत गा। हे (मेरे) मन! परमात्मा से प्यार बना, ऐसा प्यार (जैसा मछली का पानी के साथ है जैसा पपीहे का बरखा की बूँद के साथ है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चकवी सूर सनेहु चितवै आस घणी कदि दिनीअरु देखीऐ ॥ कोकिल अ्मब परीति चवै सुहावीआ मन हरि रंगु कीजीऐ ॥ हरि प्रीति करीजै मानु न कीजै इक राती के हभि पाहुणिआ ॥ अब किआ रंगु लाइओ मोहु रचाइओ नागे आवण जावणिआ ॥ थिरु साधू सरणी पड़ीऐ चरणी अब टूटसि मोहु जु कितीऐ ॥ कहु नानक छंत दइआल पुरख के मन हरि लाइ परीति कब दिनीअरु देखीऐ ॥३॥

मूलम्

चकवी सूर सनेहु चितवै आस घणी कदि दिनीअरु देखीऐ ॥ कोकिल अ्मब परीति चवै सुहावीआ मन हरि रंगु कीजीऐ ॥ हरि प्रीति करीजै मानु न कीजै इक राती के हभि पाहुणिआ ॥ अब किआ रंगु लाइओ मोहु रचाइओ नागे आवण जावणिआ ॥ थिरु साधू सरणी पड़ीऐ चरणी अब टूटसि मोहु जु कितीऐ ॥ कहु नानक छंत दइआल पुरख के मन हरि लाइ परीति कब दिनीअरु देखीऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूर = सूर्य। सनेहु = प्यार। चितवै = याद करती है। घणी = बहुत। कदि = कब? दिनीअरु = दिनकर, दिन बनाने वाला, सूरज। कोकिल = कोयल। चवै सुहाविआ = मीठा बोलती है। रंगु = प्यार। हभि = सारे। पाहुणिआ = प्राहुणे। थिरु = अडोल चित्त। जु = जो मोह। कितिऐ = तूने बनाया हुआ है। मनि = मन में।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (तुझे) परमात्मा के साथ प्यार करना चाहिए (ऐसा प्यार जैसा चकवी सूरज से करती है और कोयल आम से करती है)। चकवी का सूर्य से प्यार है, वह (सारी रात सूर्य को ही) याद करती रहती है, बड़ी तमन्ना करती है कि कब सूरज के दीदार होंगे। कोयल का आम से प्यार है (वह आम के वृक्ष पर बैठ के) मधुर बोलती है।
हे भाई! परमात्मा से प्यार डालना चाहिए (अपने किसी धन-पदार्थ आदि का) अहंकार नहीं करना चाहिए (यहाँ हम) सभी एक रात के मेहमान ही तो हैं। फिर भी तूने क्यों (जगत से) प्यार डाला हुआ है, माया से मोह बनाया हुआ है, (यहाँ सब) नंगे (ख़ाली हाथ) आते हैं और (यहाँ से) नंगे (ख़ाली हाथ) ही चले जाते हैं।
हे भाई! गुरु का आसरा लेना चाहिए, गुरु के चरणों में पड़ना चाहिए (गुरु की शरण पड़ने से ही मन) अडोल हो सकता है, और तब ही ये मोह टूटेगा जो तूने (माया के साथ) बनाया हुआ है। हे नानक! दया के घर सर्व-व्यापक प्रभु की महिमा के गीत गाया कर, अपने मन में परमात्मा का प्यार बना (ठीक उसी तरह जैसे चकवी सारी रात चाहत करती है कि) कब सूर्य के दर्शन होंगे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसि कुरंक जैसे नाद सुणि स्रवणी हीउ डिवै मन ऐसी प्रीति कीजै ॥ जैसी तरुणि भतार उरझी पिरहि सिवै इहु मनु लाल दीजै ॥ मनु लालहि दीजै भोग करीजै हभि खुसीआ रंग माणे ॥ पिरु अपना पाइआ रंगु लालु बणाइआ अति मिलिओ मित्र चिराणे ॥ गुरु थीआ साखी ता डिठमु आखी पिर जेहा अवरु न दीसै ॥ कहु नानक छंत दइआल मोहन के मन हरि चरण गहीजै ऐसी मन प्रीति कीजै ॥४॥१॥४॥

मूलम्

निसि कुरंक जैसे नाद सुणि स्रवणी हीउ डिवै मन ऐसी प्रीति कीजै ॥ जैसी तरुणि भतार उरझी पिरहि सिवै इहु मनु लाल दीजै ॥ मनु लालहि दीजै भोग करीजै हभि खुसीआ रंग माणे ॥ पिरु अपना पाइआ रंगु लालु बणाइआ अति मिलिओ मित्र चिराणे ॥ गुरु थीआ साखी ता डिठमु आखी पिर जेहा अवरु न दीसै ॥ कहु नानक छंत दइआल मोहन के मन हरि चरण गहीजै ऐसी मन प्रीति कीजै ॥४॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निसि = रात के समय। कुरंक = हिरन। नाद = (घंडे हेड़े की) आवाज। स्रवणी = श्रवणी, कानों से। हीउ = हृदय। डिवै = देता है। मन = हे मन! तरुणि = जवान स्त्री। उरझी = फसी हुई। सिवै = सेवा करती है। लाल = सुंदर (हरि) को। लालहि = लाल को। हभि = सभी। अति चिराणे = बहुत पुराने, मूल समय के। साखी = गवाह, विचोला। डिठमु = मैंने देख लिया है। आखी = आँखों से। मोहन = मन को मोह लेने वाला हरि (ध्यान देना जी, शब्द ‘मोहन’ परमात्मा के लिए है। ‘मोहन तेरै ऊचे मंदरि’, वहाँ भी ‘मोहन’ परमात्मा ही है)। गहीजै = पकड़ लेना चाहिए।4।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार डालना चाहिए जैसा प्यार हिरन डालता है, रात के समय घंडे हेड़े की आवाज सुन के अपना हृदय (उस आवाज के) हवाले कर देता है। जैसे जवान स्त्री अपने पति के प्यार में बंधी हुई पति की सेवा करती है, (उसी तरह हे भाई!) अपना ये मन सोहाने प्रभु को देना चाहिए, और उसके मिलाप का आनंद पाना चाहिए। (जो जीव-स्त्री अपना मन प्रभु-पति के हवाले करती हैवह उस) के मिलाप की सभी खुशियां मिलाप के सारे आनंद पाती है। वह अपने प्रभु-पति को (अपने अंदर ही) ढूँढ लेती है, वह अपनी आत्मा को गाढ़ा प्रेम रंग चढ़ा लेती है (जैसे सुहागन लाल कपड़ा पहनती है) वह बहु चिराणे (आदि समय) के मित्र प्रभु-पति को मिल पड़ती है।
(हे सखी! जब से) गुरु मेरा विचोला बना है, मैंने प्रभु-पति को अपनी आँखों से देख लिया है, मुझे प्रभु-पति जैसा और कोई नजर नहीं आता। हे नानक! (कह:) हे मेरे मन! दया के घर, और मन को मोह लेने वाले परमात्मा की महिमा के गीत गाता रह। हे मन! परमात्मा से ऐसा प्रेम करना चाहिए (जैसा हिरन नाद से करता है, जैसा युवती अपने पति से करती है)।4।1।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ सलोकु ॥ बनु बनु फिरती खोजती हारी बहु अवगाहि ॥ नानक भेटे साध जब हरि पाइआ मन माहि ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ सलोकु ॥ बनु बनु फिरती खोजती हारी बहु अवगाहि ॥ नानक भेटे साध जब हरि पाइआ मन माहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बनु बनु = बन बन, हरेक जंगल। हारी = थक गई। अवगाहि = गाह के, तलाश कर करके। साध = गुरु। माहि = में।1।
अर्थ: (सारी दुनिया परमात्मा की प्राप्ति के वास्ते) जंगल-जंगल खोजती फिरी, (जंगलों में) तलाश कर करके थक गई (पर परमात्मा ना मिला)। हे नानक! (जिस भाग्यशाली को) जब गुरु मिल गया, उसने अपने मन में (परमात्मा को) पा लिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंत ॥ जा कउ खोजहि असंख मुनी अनेक तपे ॥ ब्रहमे कोटि अराधहि गिआनी जाप जपे ॥ जप ताप संजम किरिआ पूजा अनिक सोधन बंदना ॥ करि गवनु बसुधा तीरथह मजनु मिलन कउ निरंजना ॥ मानुख बनु तिनु पसू पंखी सगल तुझहि अराधते ॥ दइआल लाल गोबिंद नानक मिलु साधसंगति होइ गते ॥१॥

मूलम्

छंत ॥ जा कउ खोजहि असंख मुनी अनेक तपे ॥ ब्रहमे कोटि अराधहि गिआनी जाप जपे ॥ जप ताप संजम किरिआ पूजा अनिक सोधन बंदना ॥ करि गवनु बसुधा तीरथह मजनु मिलन कउ निरंजना ॥ मानुख बनु तिनु पसू पंखी सगल तुझहि अराधते ॥ दइआल लाल गोबिंद नानक मिलु साधसंगति होइ गते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत: जा कउ = जिसे। असंख = अनगिनत। मुनी = समाधियां लगाने वाले। तपे = धूणियां तपाने वाले। कोटि = करोड़ों। आराधहि = आराधना करते हैं। गिआनी = ज्ञानवान, धर्म पुस्तकों के विद्वान। जपे = जप के। संजम = इन्द्रियों को रोकने के यत्न। किरिआ = (निहित) धार्मिक रस्में। सोधन = शरीर को पवित्र करने के यत्न। बंदना = नमस्कार। गवनु = भटकना। बसुधा = वसुधा, धरती। मजनु = स्नान। निरंजन = निर्लिप हरि। तिनु = तृण, घास, बनस्पति। नानक मिलु = नानक को मिल। गते = गति, ऊँची आत्मिक अवस्था।1।
अर्थ: छंत। (हे भाई!) जिस परमात्मा को बेअंत समाधि लीन ऋषि और अनेक धुनी तपाने वाले तपस्वी साधु ढूँढते फिरते हैं, करोड़ों ही ब्रहमा और धर्म-पुस्तकों के विद्वान जिसका जाप जप के आराधना करते हैं। (हे भाई!) जिस निर्लिप प्रभु को मिलने के लिए लोग कई किसम के जप-तप करते हैं, इन्द्रियों को वश में करने का यत्न करते हैं, अनेक (निहित) धार्मिक रस्में और पूजा करते हैं, अपने शरीर को पवित्र करने के साधन (शोधन) और (डंडवत्) वंदना करते हैं, (त्यागी बन के) सारी धरती का चक्र लगाते हैं (सारे) तीर्थों के स्नान करते हैं (वह परमात्मा गुरु की कृपा से साधु-संगत में मिल जाता है)।
हे दया के श्रोत गोबिंद! हे मेरे प्यारे प्रभु! मनुष्य, जंगल, बनस्पति, पशु, पक्षी- ये सारे ही तेरी आराधना करते हैं। (मुझ नानक पर दया कर, मुझे) नानक को गुरु की संगति में मिला, ता कि मुझे ऊँची आत्मि्क अवस्था प्राप्त हो जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि बिसन अवतार संकर जटाधार ॥ चाहहि तुझहि दइआर मनि तनि रुच अपार ॥ अपार अगम गोबिंद ठाकुर सगल पूरक प्रभ धनी ॥ सुर सिध गण गंधरब धिआवहि जख किंनर गुण भनी ॥ कोटि इंद्र अनेक देवा जपत सुआमी जै जै कार ॥ अनाथ नाथ दइआल नानक साधसंगति मिलि उधार ॥२॥

मूलम्

कोटि बिसन अवतार संकर जटाधार ॥ चाहहि तुझहि दइआर मनि तनि रुच अपार ॥ अपार अगम गोबिंद ठाकुर सगल पूरक प्रभ धनी ॥ सुर सिध गण गंधरब धिआवहि जख किंनर गुण भनी ॥ कोटि इंद्र अनेक देवा जपत सुआमी जै जै कार ॥ अनाथ नाथ दइआल नानक साधसंगति मिलि उधार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संकर = शंकर, शिव। जटाधार = जटाधारी। दइआर = हे दयालु! मनि = मन में। तनि = हृदय में। रुच = रुचि, चाहत। अपार = बेअंत। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! पूरक = (कामना) पूरी करने वाले! धनी = हे मालिक! सुर = देवते। सिध = समाधियों में पहुँचे हुए जोगी। गण = शिव के सेवक। गंधरब = देवताओं के रागी। जख = देवताओं की एक श्रेणी। किन्नर = देवताओं के एक हल्के मेल की जमात जिनका ऊपर का आधा धड़ मनुष्य का और नीचे का घोड़े का माना किया गया है। भनी = उच्चारते हैं। जै जैकार = सदा जीत हो सदा जीत हो का एक रस उच्चारण। अनाथ नाथ = जिनका कोई मालिक नहीं उनका मालिक। मिलि = मिल के। उधार = उद्धार, विकारों से बचाव।2।
अर्थ: हे दयालु हरि! विष्णु के करोड़ों अवतार और करोड़ों जटाधारी शिव तुझे (मिलना) चाहते हैं, उनके मन में उनके हृदय में (तेरे मिलने की) चाहत रहती है।
हे बेअंत प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे गोबिंद! हे ठाकुर! हे सबकी कामना पूरी करने वाले प्रभु! हे सबके मालिक! देवते, जोग-साधाना में सिद्ध जोगी, शिव के गण, देवताओं के रागी, जख, किन्नर (आदि सारे) तेरा स्मरण करते हैं, और गुण उच्चारते हैं।
हे भाई! करोड़ों इन्द्र, अनेक देवते, मालिक प्रभु की जै-जैकार जपते रहते हैं।
हे नानक! उस जिनका कोई मालिक नहीं, के मालिक प्रभु को, दया के श्रोत प्रभु को साधु-संगत के द्वारा (ही) मिल के (संसार समुंदर से) बेड़ा पार होता है।2।

[[0456]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि देवी जा कउ सेवहि लखिमी अनिक भाति ॥ गुपत प्रगट जा कउ अराधहि पउण पाणी दिनसु राति ॥ नखिअत्र ससीअर सूर धिआवहि बसुध गगना गावए ॥ सगल खाणी सगल बाणी सदा सदा धिआवए ॥ सिम्रिति पुराण चतुर बेदह खटु सासत्र जा कउ जपाति ॥ पतित पावन भगति वछल नानक मिलीऐ संगि साति ॥३॥

मूलम्

कोटि देवी जा कउ सेवहि लखिमी अनिक भाति ॥ गुपत प्रगट जा कउ अराधहि पउण पाणी दिनसु राति ॥ नखिअत्र ससीअर सूर धिआवहि बसुध गगना गावए ॥ सगल खाणी सगल बाणी सदा सदा धिआवए ॥ सिम्रिति पुराण चतुर बेदह खटु सासत्र जा कउ जपाति ॥ पतित पावन भगति वछल नानक मिलीऐ संगि साति ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लखमी = धन की देवी। अनिक भाति = अनेक तरीकों से। गुपत = गुप्त। नखिअत्र = नक्षत्र, तारे। ससीअर = शशधर, चन्द्रमा। सूर = सूर्य। बसुध = धरती। गगन = आकाश। गावए = गाए, गाता है। खाणी = (अण्डज, जेरज, सेतज, उत्भुज, इन चार) खाणियों (का हरेक जीव)। धिआवए = ध्याता है। चतुर = चार। खटु = छह। जपाति = जपत। पतित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। भगति वछल = भक्ति को प्यार करने वाला। संगि साति = सदा स्थिर सत्संग में। साति = सति, सदा स्थिर।3।
अर्थ: (हे भाई!) करोड़ो देवियां जिस परमात्मा की सेवा भक्ति करती हैं, धन की देवी लक्ष्मी अनेक ढंगों से जिसकी सेवा करती है, दृश्य-अदृश्य सारे जीव-जंतु जिस परमात्मा की आराधना करते हैं, हवा पानी दिन-रात जिसे ध्याते हैं; (बेअंत) तारे चंद्रमा और सूरज जिस परमात्मा का ध्यान धरते हैं, धरती जिसकी महिमा करती है, सारी खाणियों और सारी बोलियों (का हरेक जीव) जिस परमात्मा का सदा ही ध्यान धर रहा है, सत्ताइस स्मृतियां, अठारह पुराण, चार वेद, छह शास्त्र जिस परमात्मा को जपते रहते हैं, उस पतित-पावन प्रभु को उस भक्त-वछल हरि को, हे नानक! सदा कायम रहने वाली साधु-संगत के द्वारा ही मिल सकते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेती प्रभू जनाई रसना तेत भनी ॥ अनजानत जो सेवै तेती नह जाइ गनी ॥ अविगत अगनत अथाह ठाकुर सगल मंझे बाहरा ॥ सरब जाचिक एकु दाता नह दूरि संगी जाहरा ॥ वसि भगत थीआ मिले जीआ ता की उपमा कित गनी ॥ इहु दानु मानु नानकु पाए सीसु साधह धरि चरनी ॥४॥२॥५॥

मूलम्

जेती प्रभू जनाई रसना तेत भनी ॥ अनजानत जो सेवै तेती नह जाइ गनी ॥ अविगत अगनत अथाह ठाकुर सगल मंझे बाहरा ॥ सरब जाचिक एकु दाता नह दूरि संगी जाहरा ॥ वसि भगत थीआ मिले जीआ ता की उपमा कित गनी ॥ इहु दानु मानु नानकु पाए सीसु साधह धरि चरनी ॥४॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेती = जितनी सृष्टि। जनाई = बताई, समझ दी। रसना = जीभ। तेत = उतनी। भनी = कह दी है। अन जानत = (जितनी और सृष्टि का) मुझे पता नहीं। तेती = वह सारी। अविगत = अदृश्य। मंझे = में, अंदर। जाचिक = भिखारी। वसि = वश में। जीअ = (जो) जीव। ता की = उनकी। उपमा = महिमा। कित = कितनी? गनी = मैं बताऊँ। मानु = आदर। सीसु = सिर। साधह चरनी = गुरमुखों के पैरो पे। धरि = धरी रखे।4।
अर्थ: हे भाई! जितनी सृष्टि की सूझ प्रभु ने मुझे दी है उनती मेरी जीभ ने बयान कर दी है (कि इतनी सुष्टि परमात्मा की सेवा-भक्ति कर रही है)। पर और जितनी दुनिया का मुझे पता नहीं जो वह दुनिया प्रभु की सेवा-भक्ति करती है वह मुझसे गिनी नहीं जा सकती। वह परमात्मा अदृश्य है, उसके गुण गिने नहीं जा सकते, वह (जैसे) बेअंत गहरा समुंदर है, वह सबका मालिक है, सब जीवों के अंदर भी है और सबसे अलग भी है, सारे जीव-जंतु उस (के दर) के भिखारी हैं, वह एक सबको दातें देने वाला है, वह किसी भी जीव से दूर नहीं है वह सबके साथ बसता है और प्रत्यक्ष है।
हे भाई! वह परमात्मा अपने भक्तों के वश में है, जो जीव उसे मिल जाते हैं उनकी मैं कितनी महिमा बयान करूँ? (बयान नहीं की जा सकती)। (अगर उसकी मेहर हो तो) नानक (उसके भक्त-जनों के) चरणों पर अपना सिर रखी रखे।4।2।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ सलोक ॥ उदमु करहु वडभागीहो सिमरहु हरि हरि राइ ॥ नानक जिसु सिमरत सभ सुख होवहि दूखु दरदु भ्रमु जाइ ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ सलोक ॥ उदमु करहु वडभागीहो सिमरहु हरि हरि राइ ॥ नानक जिसु सिमरत सभ सुख होवहि दूखु दरदु भ्रमु जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि राइ = प्रभु पातशाह। होवहि = होते हैं, मिलते हैं। जाइ = दूर हो जाता है। भ्रमु = भटकना।1।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे बड़े भाग्यों वालो! जिस परमात्मा का स्मरण करने से सारे सुख मिल जाते हैं, और हरेक किस्म के दुख-दर्द व भटकना दूर हो जाती है, उस प्रभु-पातशाह का स्मरण करते रहो। (उसके स्मरण का सदा) उद्यम करते रहो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंतु ॥ नामु जपत गोबिंद नह अलसाईऐ ॥ भेटत साधू संग जम पुरि नह जाईऐ ॥ दूख दरद न भउ बिआपै नामु सिमरत सद सुखी ॥ सासि सासि अराधि हरि हरि धिआइ सो प्रभु मनि मुखी ॥ क्रिपाल दइआल रसाल गुण निधि करि दइआ सेवा लाईऐ ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै नामु जपत गोबिंद नह अलसाईऐ ॥१॥

मूलम्

छंतु ॥ नामु जपत गोबिंद नह अलसाईऐ ॥ भेटत साधू संग जम पुरि नह जाईऐ ॥ दूख दरद न भउ बिआपै नामु सिमरत सद सुखी ॥ सासि सासि अराधि हरि हरि धिआइ सो प्रभु मनि मुखी ॥ क्रिपाल दइआल रसाल गुण निधि करि दइआ सेवा लाईऐ ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै नामु जपत गोबिंद नह अलसाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत: नह अलसाईऐ = आलस नहीं करना चाहिए। भेटत = मिलने से। साधू = गुरु। संगि = साथ। जमपुरि = जम की पुरी में। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। सद = सदा। सासि सासि = हरेक सांस से। मनि = मन में। मुखी = मुंह से। रसाल = हे सारे रसों के घर! गुण निधि = हे गुणों के खजाने! लाईऐ = लगा ले। पइअंपै = (पइ = पाय, पादि। अंपै = अरपै) पैरों में भेटा धरता है, बेनती पेश करता है। जंपै = जपता है।1।
अर्थ: छंत: हे भाग्यशालियो! गोबिंद का नाम जपते हुए (कभी) आलस नहीं करना चाहिए, गुरु की संगति में मिलने से (और हरि-नाम जपने से) जम पुरी में नहीं जाना पड़ता। परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए कोई दुख कोई दर्द कोई डर अपना जोर नहीं डाल सकता, सदा सुखी रहते हैं। हे भाई! हरेक सांस के साथ परमात्मा की आराधना करता रह, उस प्रभु को अपने मन में स्मरण कर, अपने मुंह से (उसका नाम) उचार।
हे कृपा के श्रोत! हे दया के घर! हे गुणों के खजाने प्रभु! (मेरे पर) दया कर (मुझे नानक को अपनी) सेवा-भक्ति में जोड़। नानक (तेरे दर पर) बिनती करता है, तेरे चरणों में ध्यान धरता है। हे भाई! गोबिंद का नाम जपते हुए कभी आलस नहीं करनी चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावन पतित पुनीत नाम निरंजना ॥ भरम अंधेर बिनास गिआन गुर अंजना ॥ गुर गिआन अंजन प्रभ निरंजन जलि थलि महीअलि पूरिआ ॥ इक निमख जा कै रिदै वसिआ मिटे तिसहि विसूरिआ ॥ अगाधि बोध समरथ सुआमी सरब का भउ भंजना ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै पावन पतित पुनीत नाम निरंजना ॥२॥

मूलम्

पावन पतित पुनीत नाम निरंजना ॥ भरम अंधेर बिनास गिआन गुर अंजना ॥ गुर गिआन अंजन प्रभ निरंजन जलि थलि महीअलि पूरिआ ॥ इक निमख जा कै रिदै वसिआ मिटे तिसहि विसूरिआ ॥ अगाधि बोध समरथ सुआमी सरब का भउ भंजना ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै पावन पतित पुनीत नाम निरंजना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पावन = पवित्र। पतित पुनीत = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। निरंजन = जिस पर माया की कालख असर नहीं कर सकती, निर+अंजन। भरम = भटकना। अंधेर = अंधेरा। अंजना = सुर्मा। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती की सतह पर, आकाश में, पाताल में। निमख = आँख झपकने जितना समय। रिदै = हृदय में। तिसहि = तिस ही, उसके ही। विसूरिआ = विसूरे, चिन्ता फिक्र। अगाधि बोध = अथाह ज्ञान का मालिक। भउ = डर।2।
अर्थ: हे भाई! निर्लिप परमात्मा का नाम पवित्र है, विकारों में गिरे हुए जीवों को पवित्र करने वाला है। हे भाई! गुरु की बख्शी हुई आत्मिक जीवन की सूझ (एक ऐसा) सुर्मा है (जो मन की) भटकना के अंधकार का नाश कर देता है। गुरु के दिए ज्ञान का अंजन (सुर्मा) (ये समझ पैदा कर देता है कि) परमात्मा निर्लिप (होते हुए भी) पानी में धरती में आकाश में हर जगह व्यापक है, जिसके हृदय में वह प्रभु आँख के फरकने जितने समय के लिए भी बसता है उसके सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं।
हे भाई! परमात्मा अथाह ज्ञान का मालिक है, सब कुछ करने योग्य है, सबका मालिक है, सबका डर नाश करने वाला है। नानक विनती करता है उसके चरणों में ध्यान धरता है (और कहता है कि) निर्लिप परमात्मा का नाम पवित्र है, विकारों में डूबे हुए जीवों को पवित्र करने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओट गही गोपाल दइआल क्रिपा निधे ॥ मोहि आसर तुअ चरन तुमारी सरनि सिधे ॥ हरि चरन कारन करन सुआमी पतित उधरन हरि हरे ॥ सागर संसार भव उतार नामु सिमरत बहु तरे ॥ आदि अंति बेअंत खोजहि सुनी उधरन संतसंग बिधे ॥ नानकु पइअ्मपै चरन ज्मपै ओट गही गोपाल दइआल क्रिपा निधे ॥३॥

मूलम्

ओट गही गोपाल दइआल क्रिपा निधे ॥ मोहि आसर तुअ चरन तुमारी सरनि सिधे ॥ हरि चरन कारन करन सुआमी पतित उधरन हरि हरे ॥ सागर संसार भव उतार नामु सिमरत बहु तरे ॥ आदि अंति बेअंत खोजहि सुनी उधरन संतसंग बिधे ॥ नानकु पइअ्मपै चरन ज्मपै ओट गही गोपाल दइआल क्रिपा निधे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गही = पकड़ी। गोपाल = हे गोपाल! क्रिपा निधे = हे कृपा के खजाने! मोहि = मुझे। तुअ = तेरे। सिधे = सिद्धि, जीवन सफलता। कारन करन = सुष्टि का मूल। करन = सृष्टि। भव = जनम। खोजहि = खोजते हैं। सुनी = मैंने सुनी है। उधरन बिधे = समुंदर से पार लांघने की विधि।3।
अर्थ: हे सृष्टि के पालणहार! हे दया के श्रोत! हे कृपा के खजाने! मैंने तेरी ओट ली है। मुझे तेरे ही चरणों का सहारा है। तेरी शरण में रहना ही मेरे जीवन की कामयाबी है। हे हरि! हे स्वामी! हे जगत के मूल! तेरे चरणों का आसरा विकारों में गिरे हुए लोगों को बचाने-योग्य है, संसार-समंद्र के जनम-मरण के चक्कर में से पार लंघाने योग्य है। तेरा नाम स्मरण करके अनेक लोग (संसार समुंदर में) पार लांघ रहे हैं।
हे प्रभु! जगत-रचना के आरम्भ में भी तू ही है, अंत में भी तू ही (स्थिर) है। बेअंत जीव तेरी तलाश कर रहे हैं। तेरे संत-जनों की संगति ही एक ऐसा तरीका है जिससे संसार-समंद्र के विकारों से बच सकते हैं। नानक तेरे दर पर विनती करता है, तेरे चरणों का ध्यान धरता है। हे गोपाल! हे दयाल! हे कृपा के खजाने! मैंने तेरा पल्ला पकड़ा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति वछलु हरि बिरदु आपि बनाइआ ॥ जह जह संत अराधहि तह तह प्रगटाइआ ॥ प्रभि आपि लीए समाइ सहजि सुभाइ भगत कारज सारिआ ॥ आनंद हरि जस महा मंगल सरब दूख विसारिआ ॥ चमतकार प्रगासु दह दिस एकु तह द्रिसटाइआ ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै भगति वछलु हरि बिरदु आपि बनाइआ ॥४॥३॥६॥

मूलम्

भगति वछलु हरि बिरदु आपि बनाइआ ॥ जह जह संत अराधहि तह तह प्रगटाइआ ॥ प्रभि आपि लीए समाइ सहजि सुभाइ भगत कारज सारिआ ॥ आनंद हरि जस महा मंगल सरब दूख विसारिआ ॥ चमतकार प्रगासु दह दिस एकु तह द्रिसटाइआ ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै भगति वछलु हरि बिरदु आपि बनाइआ ॥४॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगत वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। बिरदु = आदि मूल स्वभाव। जह जह = जहां जहां। अराधहि = अराधना करते हैं। प्रगटाइआ = (अपने आप को) प्रकट कर देता है। प्रभि = प्रभु ने। लीए समाइ = (अपने चरणों में) लीन किए हुए हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। भगत कारज = भक्तों के काम। सारिआ = सवारे हैं। हरि जस = परमात्मा की महिमा। चमतकार = झलक। प्रगासु = प्रकाश। दह = दस। दिस = दिशाएं। दह दिस = दसों दिशाएं (पूर्व पष्चिम आदि चार, चारों कोने, ऊपर नीचे)। तह = वहाँ, भगतों के दिल में।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपनी भक्ति (के कारण अपने भक्तों) से प्यार करने वाला है, अपना ये बिरद (मूल आदि स्वभाव) उसने खुद ही बनाया हुआ है, सो, जहां-जहां (उसके) संत (उसकी) आराधना करते हैं वहाँ-वहाँ वह जा के दर्शन देता है। हे भाई! परमात्मा ने खुद ही (अपने भक्त अपने चरणों मेंलीन किए हुए हैं, आत्मिक अडोलता में और प्रेम में टिकाए हुए हैं, अपने भक्तों के सारे काम प्रभु आप ही सँवारता है। भक्त परमात्मा की महिमा करते हैं, हरि-मिलाप की खुशी के गीत गाते हैं, आत्मिक आनंद पाते हैं, और अपने सारे दुख भुला लेते हैं। हे भाई! जिस परमात्मा के नूर की झलक ज्योति का प्रकाश दसों दिशाओं में (सारे ही संसार में) हो रहा है वही परमात्मा भक्त-जनों के हृदय में प्रकट हो जाता है। नानक विनती करता है, प्रभु-चरणों का ध्यान धरता है, (और कहता है कि) परमात्मा अपनी भक्ति (के कारण अपने भक्तों) से प्यार करने वाला है, अपना ये आदि मूल स्वभाव (बिरद) उसने स्वयं ही बनाया हुआ है।4।3।6।

[[0457]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ थिरु संतन सोहागु मरै न जावए ॥ जा कै ग्रिहि हरि नाहु सु सद ही रावए ॥ अविनासी अविगतु सो प्रभु सदा नवतनु निरमला ॥ नह दूरि सदा हदूरि ठाकुरु दह दिस पूरनु सद सदा ॥ प्रानपति गति मति जा ते प्रिअ प्रीति प्रीतमु भावए ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै थिरु संतन सोहागु मरै न जावए ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ थिरु संतन सोहागु मरै न जावए ॥ जा कै ग्रिहि हरि नाहु सु सद ही रावए ॥ अविनासी अविगतु सो प्रभु सदा नवतनु निरमला ॥ नह दूरि सदा हदूरि ठाकुरु दह दिस पूरनु सद सदा ॥ प्रानपति गति मति जा ते प्रिअ प्रीति प्रीतमु भावए ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै थिरु संतन सोहागु मरै न जावए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थिरु = सदा कायम रहने वाला। सोहागु = अच्छे भाग्य, पति। जावए = जाए, जाता है। ग्रिहि = हृदय घर में। नाहु = पति। सद = सदा। रावए = मिलाप का आनंद लेती है। अविगतु = अदृश्य। नवतनु = नया, नए प्यार वाला। हदूरि = अंग संग। दह दिस = दसों दिशाओं में, हर जगह। पूरनु = व्यापक। पति = खसम। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। जा ते = जिस तरफ से। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति (जैसे जैसे बढ़ती है)। भावए = अच्छा लगता है, प्यारा लगता है।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘प्रीतम भावऐ’ = प्रीतम को अच्छा लगता है)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखाणै = कहता है। बचनि = वचन से।1।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) संत-जनों के सौभाग्य सदा कायम रहते हैं (क्योंकि उनके) सिर का साई ना (कभी) मरता है ना (कभी उनको छोड़ के कहीं) जाता है। (हे भाई!) जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में प्रभु-पति आ बसे, वह सदा उसके मिलाप के आनंद को पाती है।
वह परमात्मा नाश-रहित है, अदृश्य है, सदा नए प्यार वाला है, पवित्र स्वरूप है। वह मालिक किसी से भी दूर नहीं है, सदा हरेक के अंग-संग बसता है, दसों ही दिशाओं में वह सदा ही सदा ही व्यापक रहता है। सब जीवों की जीवात्मा का मालिक वह परमात्मा ऐसा है जिससे जीवों को उच्च आत्मिक अवस्था मिलती है, अच्छी बुद्धि प्राप्त होती है। ज्यों-ज्यों उस प्यारे के साथ प्रीति बढ़ाएं, त्यों-त्यों वह प्रीतम प्रभु प्यारा लगता है।
नानक कहता है:गुरु के शब्द की इनायत से (उस प्रभु-प्रीतम के साथ) गहरी सांझ पड़ती है। (परमात्मा के) संत-जनों के अच्छे भाग्य सदा कायम रहते हैं (क्योंकि) उनका पति-प्रभु ना (कभी) मरता है ना (कभी उनको छोड़ के कहीं) जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ राम भतारु ता कै अनदु घणा ॥ सुखवंती सा नारि सोभा पूरि बणा ॥ माणु महतु कलिआणु हरि जसु संगि सुरजनु सो प्रभू ॥ सरब सिधि नव निधि तितु ग्रिहि नही ऊना सभु कछू ॥ मधुर बानी पिरहि मानी थिरु सोहागु ता का बणा ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै जा को रामु भतारु ता कै अनदु घणा ॥२॥

मूलम्

जा कउ राम भतारु ता कै अनदु घणा ॥ सुखवंती सा नारि सोभा पूरि बणा ॥ माणु महतु कलिआणु हरि जसु संगि सुरजनु सो प्रभू ॥ सरब सिधि नव निधि तितु ग्रिहि नही ऊना सभु कछू ॥ मधुर बानी पिरहि मानी थिरु सोहागु ता का बणा ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै जा को रामु भतारु ता कै अनदु घणा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (जीव-स्त्री) को। भतारु = पति। ता कै = उस (जीव-स्त्री के हृदय घर) में। सुखवंती = सुखी। पूरि = पूरी। माणु = आदर। महतु = महिमा। कलिनआणु = सुख। जसु = महिमा। संगि = साथ। सुरजनु = दैवी गुणों के मालिक प्रभु! सिधि = करामाती ताकतें। निधि = खजाना। तितु = उस में। ग्रिहि = घर में। तितु ग्रिहि = उस हृदय घर में (‘तिसु ग्रिहि’ = उसके हृदय घर में)। ऊना = कम। मधुर = मीठी। पिरहि = पति ने। मानी = आदर दिया। ता का = उस (स्त्री) का। जा को = जिस (जीव-स्त्री) का।2।
अर्थ: हे भाई! जिस (जीव-स्त्री) को प्रभु-पति (मिल जाता है) उसके हृदय-घर में बहुत आनंद बना रहता है, वह सुखी जीवन बिताती है, हर जगह उसकी शोभा-उपमा बनी रहती है। उस जीव-स्त्री को हर जगह आदर मिलता है बड़ाई मिलती है सुख मिलता है (क्योंकि उसको) परमात्मा की महिमा प्राप्त हुई रहती है। दैवी गुणों का मालिक-प्रभु उस के अंग-संग बसता है। उस (जीव-स्त्री के) हृदय घर में सारी करामाती ताकतें सारे ही नौ खजाने आ बसते हैं, उसे कोई कमी नहीं रहती, उसे सब कुछ प्राप्त रहता है। उस जीव-स्त्री के बोल मीठे हो जाते हैं, प्रभु-पति ने उसे आदर-मान दे के रखा होता है। उसके सौभाग्य सदा के लिए बने रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आउ सखी संत पासि सेवा लागीऐ ॥ पीसउ चरण पखारि आपु तिआगीऐ ॥ तजि आपु मिटै संतापु आपु नह जाणाईऐ ॥ सरणि गहीजै मानि लीजै करे सो सुखु पाईऐ ॥ करि दास दासी तजि उदासी कर जोड़ि दिनु रैणि जागीऐ ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै आउ सखी संत पासि सेवा लागीऐ ॥३॥

मूलम्

आउ सखी संत पासि सेवा लागीऐ ॥ पीसउ चरण पखारि आपु तिआगीऐ ॥ तजि आपु मिटै संतापु आपु नह जाणाईऐ ॥ सरणि गहीजै मानि लीजै करे सो सुखु पाईऐ ॥ करि दास दासी तजि उदासी कर जोड़ि दिनु रैणि जागीऐ ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै आउ सखी संत पासि सेवा लागीऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सखी! संत = गुरु। पीसउ = मैं पीसूँ। पखारि = मैं धोऊँ। आपु = स्वै भाव, अहंकार। तजि = त्याग के। संतापु = दुख-कष्ट। आपु = अपने आप को। गहीजै = पकड़नी चाहिए। मानि लीजै = (गुरु का हुक्म) मान लेना चाहिए। करि = (अपने आप को) बना के। कर = (दोनों) हाथ (बहुवचन)। रैणि = रात।3।
अर्थ: हे सहेली! आ, गुरु के पास चलें। (गुरु की बताई हुई) सेवा में लगना चाहिए। हे सखी! (मेरा जी करता है) मैं (गुरु के लंगरों के लिए चक्की) पीसूँ, मैं (गुरु के) चरण धोऊँ। हे सखी! गुरु के दर पे जाकर अहंकार त्याग देना चाहिए। हे सखी! कभी भी अपना आप जताना नहीं चाहिए। गुरु का पल्ला पकड़ लेना चाहिए (जो गुरु हुक्म करे वह) मान लेना चाहिए। जो कुछ गुरु करे उसे सुख (जान के) ले लेना चाहिए। हे सखी! अपने आप को उस गुरु के दासों की दासी बना के, (मन में से) उपरामता त्याग के दोनों हाथ जोड़ के दिन-रात (सेवा में) सुचेत रहना चाहिए।
नानक कहता है: (हे सखी! जीव) गुरु के शब्द द्वारा ही (परमात्मा से) गहरी सांझ बना सकता है। (सो,) हे सखी! आ, गुरु के पास चलें। (गुरु की बताई) सेवा में लगना चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै मसतकि भाग सि सेवा लाइआ ॥ ता की पूरन आस जिन्ह साधसंगु पाइआ ॥ साधसंगि हरि कै रंगि गोबिंद सिमरण लागिआ ॥ भरमु मोहु विकारु दूजा सगल तिनहि तिआगिआ ॥ मनि सांति सहजु सुभाउ वूठा अनद मंगल गुण गाइआ ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै जा कै मसतकि भाग सि सेवा लाइआ ॥४॥४॥७॥

मूलम्

जा कै मसतकि भाग सि सेवा लाइआ ॥ ता की पूरन आस जिन्ह साधसंगु पाइआ ॥ साधसंगि हरि कै रंगि गोबिंद सिमरण लागिआ ॥ भरमु मोहु विकारु दूजा सगल तिनहि तिआगिआ ॥ मनि सांति सहजु सुभाउ वूठा अनद मंगल गुण गाइआ ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै जा कै मसतकि भाग सि सेवा लाइआ ॥४॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै मसतकि = जिनके माथे पे। सि = वह लोग। ता की = उनकी। हरि कै रंगि = हरि के प्रेम में। तिनहि = उन्होंने। मनि = मन में। सहजु = आत्मिक अडोलता। सुभाउ = ऊँचा प्रेम। वूठा = आ बसा।4।
अर्थ: हे भाई! जिनके माथे पर भाग्य जागते हैं उन्हें (गुरु, परमात्मा की) सेवा-भक्ति में जोड़ता है। जिनको गुरु की संगति प्राप्त होती है उनकी हरेक आस पूरी हो जाती है। साधु-संगत की इनायत से परमात्मा के प्रेम में जुड़ के वे परमात्मा का स्मरण करने लग पड़ते हैं। माया की खातिर भटकना, दुनिया का मोह, विकार, मेर-तेर ये सारे अवगुण वे त्याग देते हैं। उनके मन में शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक अडोलता आ जाती है, प्रेम पैदा हो जाता है, वे परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं, और, आत्मिक आनंद पाते हैं।
नानक कहता है: मनुष्य, गुरु के शब्द की इनायत से ही परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल सकता है। जिस लोगों के माथे पर भाग्य जाग जाते हैं, गुरु उन्हें परमात्मा की सेवा-भक्ति में जोड़ता है।4।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ सलोकु ॥ हरि हरि नामु जपंतिआ कछु न कहै जमकालु ॥ नानक मनु तनु सुखी होइ अंते मिलै गोपालु ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ सलोकु ॥ हरि हरि नामु जपंतिआ कछु न कहै जमकालु ॥ नानक मनु तनु सुखी होइ अंते मिलै गोपालु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कछु न कहे = कुछ नहीं कहता, पास नहीं फटकता। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। अंते = आखिर को।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए मौत का डर छू नहीं सकता (आत्मिक मौत नजदीक नहीं आ सकती)। हे नानक! (नाम जपने की इनायत से) मन सुखी रहता है हृदय सुखी हो जाता है, और, आखिर परमात्मा भी मिल जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंत ॥ मिलउ संतन कै संगि मोहि उधारि लेहु ॥ बिनउ करउ कर जोड़ि हरि हरि नामु देहु ॥ हरि नामु मागउ चरण लागउ मानु तिआगउ तुम्ह दइआ ॥ कतहूं न धावउ सरणि पावउ करुणा मै प्रभ करि मइआ ॥ समरथ अगथ अपार निरमल सुणहु सुआमी बिनउ एहु ॥ कर जोड़ि नानक दानु मागै जनम मरण निवारि लेहु ॥१॥

मूलम्

छंत ॥ मिलउ संतन कै संगि मोहि उधारि लेहु ॥ बिनउ करउ कर जोड़ि हरि हरि नामु देहु ॥ हरि नामु मागउ चरण लागउ मानु तिआगउ तुम्ह दइआ ॥ कतहूं न धावउ सरणि पावउ करुणा मै प्रभ करि मइआ ॥ समरथ अगथ अपार निरमल सुणहु सुआमी बिनउ एहु ॥ कर जोड़ि नानक दानु मागै जनम मरण निवारि लेहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत: मिलउ = मैं मिलूँ। संगि = संगति में। मोहि = मुझे। बिनउ = विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। कर = हाथ (बहुवचन)। मागउ = मांगूँ, मैं मांगता हूँ। लागउ = लगूँ, मैं लगा रहूँ। तुम्ह दइआ = अगर तू दया करे। धावउ = मैं दौड़ूँ। करुणा मै = करुणामय! दयालु! मइआ = दया। अगथ = हे अकथ! निवारि लेहु = दूर कर।1।
अर्थ: छंत: हे हरि! मैं दोनों हाथ जोड़ के (तेरे दर पे) अरदास करता हूँ, मुझे अपने नाम की दाति बख्श। मुझे (विकारों से) बचाए रख (मेहर कर) मैं तेरे संत-जनों की संगति में टिका रहूँ।
हे हरि! मैं तुझसे तेरा नाम मांगता हूँ। अगर तू मेहर करे तो मैं तेरे चरणों में लगा रहूँ, (और अपने अंदर से) अहंकार त्याग दूँ। हे करुणामय प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरी शरण पड़ा रहूँ, और (तेरा आसरा छोड़ के) किसी और तरफ ना भागूँ।
हे सब ताकतों के मालिक! हे अकथ! हे बेअंत! हे पवित्र-स्वरूप स्वामी! मेरी ये अरदास सुन। तेरा दास नानक तुझसे ये दान मांगता है कि मेरा जनम-मरण का चक्कर खत्म कर दे।1।

[[0458]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपराधी मतिहीनु निरगुनु अनाथु नीचु ॥ सठ कठोरु कुलहीनु बिआपत मोह कीचु ॥ मल भरम करम अहं ममता मरणु चीति न आवए ॥ बनिता बिनोद अनंद माइआ अगिआनता लपटावए ॥ खिसै जोबनु बधै जरूआ दिन निहारे संगि मीचु ॥ बिनवंति नानक आस तेरी सरणि साधू राखु नीचु ॥२॥

मूलम्

अपराधी मतिहीनु निरगुनु अनाथु नीचु ॥ सठ कठोरु कुलहीनु बिआपत मोह कीचु ॥ मल भरम करम अहं ममता मरणु चीति न आवए ॥ बनिता बिनोद अनंद माइआ अगिआनता लपटावए ॥ खिसै जोबनु बधै जरूआ दिन निहारे संगि मीचु ॥ बिनवंति नानक आस तेरी सरणि साधू राखु नीचु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मति हीनु = अकल से खाली। अनाथु = निआसरा। सठ = विकारी। कठोरु = काठ+उर, कठोर दिल वाला। कीचु = कीचड़। मल = मैल। अहं = अहंकार। ममता = मोह, अपनत्व। चीति = याद में। आवए = आए, आती। बनिता = स्त्री। बिनोद = रंग तमाशे। लपटावए = लिपटाए, लिपट रही है, चिपकी हुई है। खिसै = खिसक रहा है। जोबनु = यौवन, जवानी। बधै = बढ़ रहा है। जरूआ = बुढ़ापा। निहारे = देख रहा है, इंतजार कर रही है। संगि = (मेरे) साथ। मीचु = मौत। साधू = गुरु।2।
अर्थ: हे प्रभु! मैं गुनहगार हूँ, बुद्धिहीन हूँ, गुणहीन हूँ, निआसरा हूँ, बुरे स्वभाव वाला हूँ। हे प्रभु! मैं विकारी हूँ, कठोर हूँ, नीच कुल वाला हूँ, मोह का कीचड़ मेरे पर हावी है।
हे प्रभु! भटकना में पड़ने वाले कर्मों की मैल मुझे लगी हुई है, मेरे अंदर अहंकार है, ममता है (इस वास्ते) मौत मुझे याद नहीं आती। मैं स्त्री के रंग-तमाशों में माया के मौज-मेलों में (ग़र्क हूँ), मुझे अज्ञानता चिपकी हुई है।
हे प्रभु! मेरी जवानी ढल रही है, बुढ़ापा बढ़ रहा है, मौत (मेरे) साथ (मेरी जिंदगी के) दिन देख रही है। तेरा दास नानक (तेरे दर पर) विनती करता है, मुझे तेरी ही आस है, मुझ नीच को गुरु की शरण रख।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमे जनम अनेक संकट महा जोन ॥ लपटि रहिओ तिह संगि मीठे भोग सोन ॥ भ्रमत भार अगनत आइओ बहु प्रदेसह धाइओ ॥ अब ओट धारी प्रभ मुरारी सरब सुख हरि नाइओ ॥ राखनहारे प्रभ पिआरे मुझ ते कछू न होआ होन ॥ सूख सहज आनंद नानक क्रिपा तेरी तरै भउन ॥३॥

मूलम्

भरमे जनम अनेक संकट महा जोन ॥ लपटि रहिओ तिह संगि मीठे भोग सोन ॥ भ्रमत भार अगनत आइओ बहु प्रदेसह धाइओ ॥ अब ओट धारी प्रभ मुरारी सरब सुख हरि नाइओ ॥ राखनहारे प्रभ पिआरे मुझ ते कछू न होआ होन ॥ सूख सहज आनंद नानक क्रिपा तेरी तरै भउन ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमे = भटकते रहे। संकट महा = बड़े दुख। जोन = जूनियों के (जोनि)। लपटि रहिओ = चिपके। तिह संगि = उनसे। सोन = सोना, धन पदार्थ। भार अगनत = अनगिनत (पापों का) भार। प्रदेसह = प्रदेसों में, कई जन्मों में। धाइओ = दौड़ता रहा। ओट = आसरा। मुरारी = हे मुरारी! (मुर+अरि) हे परमात्मा! नाइओ = नाम में। ते = से। न होआ = नहीं हो सकेगा। भउन = भवन, भवसागर, संसार समंद्र।3।
अर्थ: हे प्रभु! हे मुरारी! मैं अनेक जन्मों में भटका हूँ, मैंने कई जूनियों के बड़े दुख सहे हैं। धन और पदार्थों के भोग मुझे मीठे लग रहे हैं, मैं इनके साथ ही चिपका रहता हूँ। अनेक पापों का भार उठा के मैं भटकता आ रहा हूँ, अनेको परदेसों में (जूनियों में) दौड़ चुका हूँ (दुख ही दुख देखे हैं)। अब मैंने तेरा पल्लू पकड़ा है, और, हे हरि! तेरे नाम में मुझे सारे सुख मिल गए हैं।
हे रक्षा करने के समर्थ प्यारे प्रभु! (संसार समुंदर से पार लांघने के लिए) मुझसे अब तक कुछ नहीं हो सका, आगे भी कुछ नहीं हो सकेगा। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस मनुष्य पर तेरी कृपा हो जाती है, उसे आत्मिक अडोलता और सुख आनंद प्राप्त हो जाते हैं, वह संसार समुंदर से पार लांघ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम धारीक उधारे भगतह संसा कउन ॥ जेन केन परकारे हरि हरि जसु सुनहु स्रवन ॥ सुनि स्रवन बानी पुरख गिआनी मनि निधाना पावहे ॥ हरि रंगि राते प्रभ बिधाते राम के गुण गावहे ॥ बसुध कागद बनराज कलमा लिखण कउ जे होइ पवन ॥ बेअंत अंतु न जाइ पाइआ गही नानक चरण सरन ॥४॥५॥८॥

मूलम्

नाम धारीक उधारे भगतह संसा कउन ॥ जेन केन परकारे हरि हरि जसु सुनहु स्रवन ॥ सुनि स्रवन बानी पुरख गिआनी मनि निधाना पावहे ॥ हरि रंगि राते प्रभ बिधाते राम के गुण गावहे ॥ बसुध कागद बनराज कलमा लिखण कउ जे होइ पवन ॥ बेअंत अंतु न जाइ पाइआ गही नानक चरण सरन ॥४॥५॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाम धरीक = (सिर्फ भक्त-) नाम धरने वाले। संसा = संशय, सहम। कउन = कौन सा। जेन केन परकारे = येन केन प्रकारेण, जिस किसी तरीके से (भी हो सके)। जसु = महिमा। स्रवन = कानो से। सुनि = सुन। बानी = महिमा की वाणी। पुरख गिआनी = हे ज्ञानवान बंदे! मनि = मन में। निधाना = खजाना। पावहे = पा लेगा। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए, मस्त। बिधाते = विधाता। गावहे = गाते हैं। बसुध = बसुधा, धरती। बनराज = बनस्पती। कउ = वास्ते। पवन = हवा। बेअंत अंतु = बेअंत (प्रभु) का अंत। गही = (मैंने) पकड़ी है।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने तो वह लोग भी (विकारों से) बचा लिए जिन्होंने सिर्फ अपना नाम ही भक्त रखाया हुआ था। (सच्चे) भक्तों को (तो संसार-समुंदर का) कोई सहम रह ही नहीं सकता। (सो, हे भाई!) जिस तरह भी हो सके अपने कानों से परमात्मा की महिमा सुनते रहा करो।
हे ज्ञानवान बंदे! अपने कानों से तू प्रभु की महिमा की वाणी सुन (इस तरह तू) मन में नाम-खजाना ढूँढलेगा। (हे भाई! भाग्यशाली हैं वह मनुष्य जो) विधाता हरि प्रभु के प्रेम रंग में मस्त हो के उस के गुण गाते हैं।
(हे भाई!) अगर सारी धरती कागज बन जाए, और सारी बनस्पति कलम बन जाए, और हवा लिखने के लिए (लिखारी) बन जाए, तो भी बेअंत परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे नानक! (कह: मैंने उस परमात्मा के) चरणों का आसरा लिया है।4।5।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ पुरख पते भगवान ता की सरणि गही ॥ निरभउ भए परान चिंता सगल लही ॥ मात पिता सुत मीत सुरिजन इसट बंधप जाणिआ ॥ गहि कंठि लाइआ गुरि मिलाइआ जसु बिमल संत वखाणिआ ॥ बेअंत गुण अनेक महिमा कीमति कछू न जाइ कही ॥ प्रभ एक अनिक अलख ठाकुर ओट नानक तिसु गही ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ पुरख पते भगवान ता की सरणि गही ॥ निरभउ भए परान चिंता सगल लही ॥ मात पिता सुत मीत सुरिजन इसट बंधप जाणिआ ॥ गहि कंठि लाइआ गुरि मिलाइआ जसु बिमल संत वखाणिआ ॥ बेअंत गुण अनेक महिमा कीमति कछू न जाइ कही ॥ प्रभ एक अनिक अलख ठाकुर ओट नानक तिसु गही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरख पते = सब जीवों का पति। ता की = उस (भगवान) की। गही = पकड़ी। परान = जिंद। लही = उतर गई। सुत = पुत्र। सुरिजन = गुरमुख। इसट = प्यारे। बंधप = रिश्तेदार। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। गुरि = गुरु ने। बिमल = पवित्र (करने वाला)। संत = संतों ने। महिमा = उपमा, बड़ाई। कछू = कुछ भी। एक अनेक = एक से अनेक रूप धारण करने वाला। अलख = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। तिसु ओट = उस (परमात्मा का) आसरा।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो भगवान सब जीवों का पति है मालिक है जिस संत जनों ने उसका आसरा लिया हुआ है (उस आसरे की इनायत से) उनकी जीवात्मा (दुनिया के) डरों से रहित हो गई है, उनकी हरेक किस्म की चिन्ता दूर हो गई है। उन्होंने भगवान को अपना माता-पिता-पुत्र-मित्र-सज्जन-रिश्तेदार समझ रखा है। गुरु ने उन्हें भगवान के चरणों में जोड़ दिया है, (भगवान ने उनकी बाँह) पकड़ के उनको अपने गले से लगा लिया है। वह संत-जन परमात्मा की कीर्ति उचारते रहते हैं।
हे भाई! उस परमात्मा के बेअंत गुण हैं, अनेक वडिआईआं हैं, उस (की बुर्जुगियत) का रत्ती भर भी मूल्य नहीं आँका जा सकता। वह प्रभु अपने एक स्वरूप से अनेक रूप बना हुआ है, उसके सही स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता, वह सबका मालिक है। हे नानक! (कह: संत-जनों ने) उस परमातमा का आसरा लिया हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित बनु संसारु सहाई आपि भए ॥ राम नामु उर हारु बिखु के दिवस गए ॥ गतु भरम मोह बिकार बिनसे जोनि आवण सभ रहे ॥ अगनि सागर भए सीतल साध अंचल गहि रहे ॥ गोविंद गुपाल दइआल सम्रिथ बोलि साधू हरि जै जए ॥ नानक नामु धिआइ पूरन साधसंगि पाई परम गते ॥२॥

मूलम्

अम्रित बनु संसारु सहाई आपि भए ॥ राम नामु उर हारु बिखु के दिवस गए ॥ गतु भरम मोह बिकार बिनसे जोनि आवण सभ रहे ॥ अगनि सागर भए सीतल साध अंचल गहि रहे ॥ गोविंद गुपाल दइआल सम्रिथ बोलि साधू हरि जै जए ॥ नानक नामु धिआइ पूरन साधसंगि पाई परम गते ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बनु = जल (वनं जले कानने)। सहाई = मददगार। उर हारु = हृदय का हार। बिखु = जहर। दिवस = दिन। गतु = चला गया। रहे = खत्म हो गए। साध अंचल = गुरु का पल्ला। गहि रहे = पकड़ रखा। संम्रिथ = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं जिस मनुष्य का मददगार बनता है, उसके वास्ते संसार-समुंदर आत्मिक जीवन देने वाला जल बन जाता है। जो मनुष्य परमात्मा के नाम को अपने हृदय का हार बना लेता है, उसके वास्ते (आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के) जहर खाने वाले दिन बीत जाते हैं। उसकी भटकना समाप्त हो जाती है, उसके अंदर मोह और विकार नाश हो जाते हैं, उसके जन्मों के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।
जो मनुष्य गुरु का पल्ला पकड़े रखता है, विकारों की आग से भरा हुआ संसार-समुंदर उसके वास्ते ठंडा-ठार हो जाता है।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर गोविंद गोपाल दयालु समर्थ परमात्मा की जै-जैकार करता रहा कर। गुरु की संगति में रहके पूर्ण परमात्मा का नाम स्मरण करके सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह देखउ तह संगि एको रवि रहिआ ॥ घट घट वासी आपि विरलै किनै लहिआ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि पूरन कीट हसति समानिआ ॥ आदि अंते मधि सोई गुर प्रसादी जानिआ ॥ ब्रहमु पसरिआ ब्रहम लीला गोविंद गुण निधि जनि कहिआ ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी हरि एकु नानक रवि रहिआ ॥३॥

मूलम्

जह देखउ तह संगि एको रवि रहिआ ॥ घट घट वासी आपि विरलै किनै लहिआ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि पूरन कीट हसति समानिआ ॥ आदि अंते मधि सोई गुर प्रसादी जानिआ ॥ ब्रहमु पसरिआ ब्रहम लीला गोविंद गुण निधि जनि कहिआ ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी हरि एकु नानक रवि रहिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहां। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। तह = वहाँ। संगि = साथ। रवि रहिआ = बस रहा है। घट = शरीर। विरलै किनै = किसी विरले मनुष्य ने। लहिआ = ढूँढा, पाया, समझा। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में। कीट = कीड़ा। हसति = हाथी। समानिआ = एक जैसा। आदि = जगत रचना के आरम्भ में। अंते = आखिर में। मधि = बीच में, अब। प्रसादी = प्रसादि, कृपा से। लीला = खेल। निधि = खजाना। जनि = जन ने, किसी विरले सेवक ने। कहिआ = स्मरण किया। अंतजामी = दिल की जानने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही मेरे साथ मुझे एक परमात्मा ही मौजूद दिखता है, वह स्वयं ही एक शरीर में निवास रखता है, पर किसी विरले ने ये बात समझी है। वह व्यापक प्रभु पानी में धरती में अंतरिक्ष में हर जगह बस रहा है, कीड़ी में हाथी में एक सा ही। जगत-रचना के आरम्भ में वह स्वयं ही था, रचना के अंत में भी वह स्वयं ही होगा, अब भी वह स्वयं ही स्वयं है। गुरु की किरपा से ही इस बात की समझ आती है।
हे भाई! हर तरफ परमात्मा का ही पसारा है, परमात्मा की ही रची हुई खेल चल रही है, वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है। किसी विरले सेवक ने उसको जपा है। हे नानक! हरेक के दिल की जानने वाले उस मालिक को स्मरण करता रह, वह हरि खुद ही हर जगह मौजूद है।3।

[[0459]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिनु रैणि सुहावड़ी आई सिमरत नामु हरे ॥ चरण कमल संगि प्रीति कलमल पाप टरे ॥ दूख भूख दारिद्र नाठे प्रगटु मगु दिखाइआ ॥ मिलि साधसंगे नाम रंगे मनि लोड़ीदा पाइआ ॥ हरि देखि दरसनु इछ पुंनी कुल स्मबूहा सभि तरे ॥ दिनसु रैणि अनंद अनदिनु सिमरंत नानक हरि हरे ॥४॥६॥९॥

मूलम्

दिनु रैणि सुहावड़ी आई सिमरत नामु हरे ॥ चरण कमल संगि प्रीति कलमल पाप टरे ॥ दूख भूख दारिद्र नाठे प्रगटु मगु दिखाइआ ॥ मिलि साधसंगे नाम रंगे मनि लोड़ीदा पाइआ ॥ हरि देखि दरसनु इछ पुंनी कुल स्मबूहा सभि तरे ॥ दिनसु रैणि अनंद अनदिनु सिमरंत नानक हरि हरे ॥४॥६॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैणि = रात। सुहावड़ी = सोहानी, सुंदर, स्वादिष्ट। कलमल = पाप। टरे = टल गए, दूर हो गए। दारिद्र = गरीबी। नाठे = भाग गए। प्रगटु = खुला। मगु = रास्ता। मिलि = मिल के। संगे = संगति में। रंगे = प्रेम में। मनि = मन में। लोड़ीदा = चितवा हुआ, माँगा हुआ। देखि = देख के। पुंनी = पूरी हो गई। सभि = सारे। अनदिनु = हर रोज।4।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य के लिए वह दिन सोहाना आता है वह रात सुहावनी आती है जब वह परमात्मा का नाम स्मरण करता है। परमात्मा के सोहणे चरण कमलों से जिस मनुष्य की प्रीति बन जाती है उसके सारे पाप विकार दूर हो जाते हैं। जिस मनुष्य को (गुरु ने जीवन का) सीधा राह दिखा दिया, उसके दुख, उसकी भूख उसकी गरीबी सब दूर हो गए। जो मनुष्य गुरु की संगति में मिल के परमात्मा के नाम के प्रेम में मगन होता है वह अपने मन में सोचा हुआ फल पा लेता है।
परमात्मा के दर्शन करके मनुष्य की हरेक इच्छा पूरी हो जाती है, उसकी सारी कुलों का भी उद्धार हो जाता है। हे नानक! जो मनुष्य सदा हरि-नाम स्मरण करते रहते हैं, उनकी हरेक रात उनका हरेक दिन हर समय आनंद में गुजरता है।4।6।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ छंत घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥

मूलम्

आसा महला ५ छंत घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभ चिंतन गोबिंद रमण निरमल साधू संग ॥ नानक नामु न विसरउ इक घड़ी करि किरपा भगवंत ॥१॥

मूलम्

सुभ चिंतन गोबिंद रमण निरमल साधू संग ॥ नानक नामु न विसरउ इक घड़ी करि किरपा भगवंत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभ = भली। चिंतन = सोचें। रमण = स्मरण। निरमल = पवित्र। साधू = गुरु। न विसरउ = मैं ना भूलूँ। भगवंत = हे भगवान!।1।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भगवान! (मेरे पर) मेहर कर, मैं एक घड़ी के वास्ते भी तेरा नाम ना भूलूँ, मैं सदा अच्छी सोचें ही सोचता रहूँ, मैं गोबिंद का नाम जपता रहूँ, मैं गुरु की पवित्र संगति करता रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छंत ॥ भिंनी रैनड़ीऐ चामकनि तारे ॥ जागहि संत जना मेरे राम पिआरे ॥ राम पिआरे सदा जागहि नामु सिमरहि अनदिनो ॥ चरण कमल धिआनु हिरदै प्रभ बिसरु नाही इकु खिनो ॥ तजि मानु मोहु बिकारु मन का कलमला दुख जारे ॥ बिनवंति नानक सदा जागहि हरि दास संत पिआरे ॥१॥

मूलम्

छंत ॥ भिंनी रैनड़ीऐ चामकनि तारे ॥ जागहि संत जना मेरे राम पिआरे ॥ राम पिआरे सदा जागहि नामु सिमरहि अनदिनो ॥ चरण कमल धिआनु हिरदै प्रभ बिसरु नाही इकु खिनो ॥ तजि मानु मोहु बिकारु मन का कलमला दुख जारे ॥ बिनवंति नानक सदा जागहि हरि दास संत पिआरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंत: भिंनी = ओस से भीगी। रैनड़ीऐ = सोहानी रात में। चामकनि = चमकते हैं। जागहि = जागते हैं, सुचेत रहते हैं। अनदिनो = अनदिन, हर रोज। प्रभ = हे प्रभु! खिनो = छिन, पल भर भी। तजि = त्याग के। कलमला = पाप। जारे = जला लिए।1।
अर्थ: (हे भाई!) ओस से भीगी रात में (आकाश में) तारे चम-चमाते हुए दिखते हैं (वैसे ही, परमात्मा के प्रेम में भीगे हुए हृदय वाले मनुष्यों के चित्त-आकाश में सुंदर आत्मिक गुण झिलमिलाते हैं)। मेरे राम के प्यारे संत-जन (नाम जपने की इनायत से माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं। परमात्मा के प्यारे संत-जन सदा ही सुचेत रहते हैं, हर समय परमात्मा का नाम स्मरण करते रहते हैं। संत-जन अपने दिल में परमातमा के सोहाने चरण-कमलों का ध्यान धरते हैं (और, उसके दर पे अरदास करते हैं:) हे प्रभु! पल भर के लिए भी हमारे दिल से दूर ना होना। संत-जन अपने मन का मान छोड़ के, मोह और विकार दूर करके अपने सारे दुख और पाप जला लेते हैं। नानक बिनती करता है: (हे भाई!) परमात्मा के प्यारे संत परमात्मा के दास सदा (माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी सेजड़ीऐ आड्मबरु बणिआ ॥ मनि अनदु भइआ प्रभु आवत सुणिआ ॥ प्रभ मिले सुआमी सुखह गामी चाव मंगल रस भरे ॥ अंग संगि लागे दूख भागे प्राण मन तन सभि हरे ॥ मन इछ पाई प्रभ धिआई संजोगु साहा सुभ गणिआ ॥ बिनवंति नानक मिले स्रीधर सगल आनंद रसु बणिआ ॥२॥

मूलम्

मेरी सेजड़ीऐ आड्मबरु बणिआ ॥ मनि अनदु भइआ प्रभु आवत सुणिआ ॥ प्रभ मिले सुआमी सुखह गामी चाव मंगल रस भरे ॥ अंग संगि लागे दूख भागे प्राण मन तन सभि हरे ॥ मन इछ पाई प्रभ धिआई संजोगु साहा सुभ गणिआ ॥ बिनवंति नानक मिले स्रीधर सगल आनंद रसु बणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेजड़ीऐ = (हृदय की) सोहणी सेज पर। आडंबरु = सजावट। मनि = मन मे। आवत = आता। सुखहगामी = सुख पहुँचाने वाले। चाव = उत्साह। मंगल = खुशियां। संगि = साथ। सभि = सारे। हरे = हरियाली भरे, आत्मिक जीवन वाले। संजोगु = मिलाप। साहा = विवाह का महूरत। सुभ = शुभ, भला। गणिआ = गिना। स्रीध = श्रीधर (श्री = लक्ष्मी, लक्ष्मी का सहारा) परमात्मा।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘चाव’ शब्द ‘चाउ’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे सखी! जब मैंने प्रभु को (अपनी तरफ) आता सुना, तो मेरे मन में आनंद पैदा हो गया, मेरे हृदय की सोहानी सेज पर सजावट बन गई।
हे सखी! जिस भाग्शालियों को सुख देने वाले मालिक प्रभु जी मिल जाते हैं, उनके हृदय चावों से, खुशियों से आनंद से भर जाते हैं। वे प्रभु के अंक से, चरणों से जुड़े रहते हैं, उनके दुख दूर हो जाते हैं, उनकी जीवात्मा उनका मन उनका शरीर- सारे ही (आत्मिक जीवन से) हरे हो जाते हैं। (गुरु की शरण पड़ के) जो मनुष्य प्रभु का ध्यान धरते हैं, उनके मन की इच्छा पूरी हो जाती है (गुरु परमात्मा के साथ उनका मिलाप करवाने के लिए) शुभ संजोग बना देता है, शुभ महूरत निकाल देता है।
नानक विनती करता है: जिस सौभाग्य-शालियों को प्रभु जी मिल जाते हैं, उनके हृदय में सारे आनंद बन जाते हैं, उल्लास बना रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि सखीआ पुछहि कहु कंत नीसाणी ॥ रसि प्रेम भरी कछु बोलि न जाणी ॥ गुण गूड़ गुपत अपार करते निगम अंतु न पावहे ॥ भगति भाइ धिआइ सुआमी सदा हरि गुण गावहे ॥ सगल गुण सुगिआन पूरन आपणे प्रभ भाणी ॥ बिनवंति नानक रंगि राती प्रेम सहजि समाणी ॥३॥

मूलम्

मिलि सखीआ पुछहि कहु कंत नीसाणी ॥ रसि प्रेम भरी कछु बोलि न जाणी ॥ गुण गूड़ गुपत अपार करते निगम अंतु न पावहे ॥ भगति भाइ धिआइ सुआमी सदा हरि गुण गावहे ॥ सगल गुण सुगिआन पूरन आपणे प्रभ भाणी ॥ बिनवंति नानक रंगि राती प्रेम सहजि समाणी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। सखीआ = सहेलियां, सत्संगी। रसि = आनंद में (मगन)। बोलि न जाणी = मैं बताना नहीं जानती। गूढ़ = गहरे। गुपत = गुप्त। करते = कर्तार ने। निगम = वेद। पावहे = पाते, पा सकते। भाइ = प्रेम में। धिआइ = ध्यान करके। गावहे = गाते हैं। सुगिआन = श्रेष्ठ ज्ञान का मालिक। पूरन = सर्व व्यापक। प्रभ भाणी = प्रभु को प्यारी लगी। रंगि = रंग में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।3।
अर्थ: सहेलियां मिल के (मुझे) पूछती हैं कि पति-प्रभु की कोई निशानी बता। मैं उसके मिलाप के आनंद में मगन तो हूँ, उसके प्रेम से मेरा हृदय भरा हुआ भी है, पर मैं उसकी कोई निशानी बताना नहीं जानती। (मेरे उस) कर्तार के गुण गहरे हैं गुप्त हैं बेअंत हैं, वेद भी उसके गुणों का अंत नहीं पा सकते, (उसके सेवक) उसकी भक्ति के रंग में उसके प्रेम में जुड़ के उसका ध्यान धर के सदा उस मालिक के गुण गाते रहते हैं।
नानक विनती करता है: जो जीव-स्त्री उस पति-प्रभु के प्रेम-रंग में रंगी जाती है वह आत्मिक अडोलता में लीन रहती है, वह अपने उस प्रभु को प्यारी लगने लगती है जो सारे गुणों का मालिक है जो श्रेष्ठ ज्ञान वाला है जो सब में व्यापक है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख सोहिलड़े हरि गावण लागे ॥ साजन सरसिअड़े दुख दुसमन भागे ॥ सुख सहज सरसे हरि नामि रहसे प्रभि आपि किरपा धारीआ ॥ हरि चरण लागे सदा जागे मिले प्रभ बनवारीआ ॥ सुभ दिवस आए सहजि पाए सगल निधि प्रभ पागे ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी सदा हरि जन तागे ॥४॥१॥१०॥

मूलम्

सुख सोहिलड़े हरि गावण लागे ॥ साजन सरसिअड़े दुख दुसमन भागे ॥ सुख सहज सरसे हरि नामि रहसे प्रभि आपि किरपा धारीआ ॥ हरि चरण लागे सदा जागे मिले प्रभ बनवारीआ ॥ सुभ दिवस आए सहजि पाए सगल निधि प्रभ पागे ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी सदा हरि जन तागे ॥४॥१॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहिलड़े = महिमा के सोहाने गीत। साजन = मित्र (शुभ गुण)। सरसिअड़े = प्रफुल्लित हुए, बढ़ने-फूलने लगे। दुसमन = (कामादिक) वैरी। सुख सहज = आत्मिक अडोलता के सुख। सरसे = मौल पड़े। नामि = नाम में। रहसे = प्रसन्न हुए। प्रभि = प्रभु ने। जागे = सुचेत रहे। बनवारी = जगत का मालिक। सहजि = आत्मिक अडोलता में। निधि = खजाना। पागे = पग, चरण। तागे = तोड़ निभाए, प्रीति सिरे तक निभाई।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त (हरि-जन) जब परमात्मा के सुखद महिमा के सोहाने गीत गाने लग जाते हैं तो (उनके अंदर शुभ गुण) मित्र बढ़ते-फूलते हैं, उनके दुख (और कामादिक) वैरी भाग जाते हैं। आत्मिक अडोलता के सुख उनके अंदर प्रफुल्लित होते हैं, परमात्मा के नाम की इनायत से वे प्रसन्न-चित्त रहते हैं, पर ये सारी मेहर प्रभु ने खुद ही की होती है। (अपने सेवकों पर प्रभु मेहर करता है) वह सेवक परमात्मा के चरणों में जुड़े रहते हैं (विकारों के हमलों से) सदा सुचेत रहते हैं, और जगत के मालिक प्रभु को मिल जाते हैं। हे भाई! संत जनों के वास्ते (जीवन के यह) भले दिन आए होते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिक के सारे गुणों के खजाने प्रभु के चरण परसते रहते हैं।
नानक विनती करता है - परमात्मा के सेवक मालिक प्रभु की शरण में आ के सदा के लिए उसके साथ प्रीति निबाहते हैं।4।1।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ उठि वंञु वटाऊड़िआ तै किआ चिरु लाइआ ॥ मुहलति पुंनड़ीआ कितु कूड़ि लोभाइआ ॥ कूड़े लुभाइआ धोहु माइआ करहि पाप अमितिआ ॥ तनु भसम ढेरी जमहि हेरी कालि बपुड़ै जितिआ ॥ मालु जोबनु छोडि वैसी रहिओ पैनणु खाइआ ॥ नानक कमाणा संगि जुलिआ नह जाइ किरतु मिटाइआ ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ उठि वंञु वटाऊड़िआ तै किआ चिरु लाइआ ॥ मुहलति पुंनड़ीआ कितु कूड़ि लोभाइआ ॥ कूड़े लुभाइआ धोहु माइआ करहि पाप अमितिआ ॥ तनु भसम ढेरी जमहि हेरी कालि बपुड़ै जितिआ ॥ मालु जोबनु छोडि वैसी रहिओ पैनणु खाइआ ॥ नानक कमाणा संगि जुलिआ नह जाइ किरतु मिटाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उठि = उठ के। वंञ = वंज, चल पड़। वटाऊड़िआ = हे भाले बटाऊ! हे भोले राही! हे बटोहिआ! वाट = रास्ता। तै = तू (शब्द ‘तै’ और ‘तूं’ के फर्क समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। मुहलति = मिला हुआ जिंदगी का समय। कितु = किस में? कूड़ि = ठगी में। कितु कूड़ि = किस ठगी में। धोहु = धोखा। करहि = तू करता है। अमितिआ = अनगिनत। भसम = राख। जमहि = जम ने। हेरी = देखी, निगाह में रखी हुई। कालि = काल ने, आत्मिक मौत ने। बपुड़ै = बिचारे को। वेसी = चला जाएगा। रहिओ = खत्म हो गया। संगि = साथ। जुलिआ = चला। किरतु = कृत, किए कर्मों का संचय, किए कर्मों के संस्कारों का इकट्ठ।1।
अर्थ: हे भोले राही (जीव)! उठ, चल (तैयार हो)। तू क्यों देर कर रहा है? तुझे मिला उम्र का वक्त पूरा हो रहा है। तू किस ठगी में फसा हुआ है? (ध्यान कर, ये) माया (निरी) धोखा है (तू इस की) ठगी में फसा हुआ है, और बेअंत पाप किए जा रहा है। ये शरीर (आखिर) मिट्टी की ढेरी (हो जाएगा), जम ने इसे अपनी निगाह में रखा हुआ है।
(पर जीव बिचारा करे भी तो क्या? इस) बिचारे को आत्मिक मौतने अपने काबू में किया हुआ है (ये नहीं समझता कि ये) धन-जवानी सब कुछ छोड़ के चला जाएगा, तब ये खाना-पहनना खत्म हो जाएगा।
हे नानक! (जब जीव यहाँ से चलता है, तो) कमाये हुए अच्छे-बुरे कर्म इसके साथ चले जाते हैं, किए कर्मों के संस्कारों के संचय को मिटाया नहीं जा सकता।1।

[[0460]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

फाथोहु मिरग जिवै पेखि रैणि चंद्राइणु ॥ सूखहु दूख भए नित पाप कमाइणु ॥ पापा कमाणे छडहि नाही लै चले घति गलाविआ ॥ हरिचंदउरी देखि मूठा कूड़ु सेजा राविआ ॥ लबि लोभि अहंकारि माता गरबि भइआ समाइणु ॥ नानक म्रिग अगिआनि बिनसे नह मिटै आवणु जाइणु ॥२॥

मूलम्

फाथोहु मिरग जिवै पेखि रैणि चंद्राइणु ॥ सूखहु दूख भए नित पाप कमाइणु ॥ पापा कमाणे छडहि नाही लै चले घति गलाविआ ॥ हरिचंदउरी देखि मूठा कूड़ु सेजा राविआ ॥ लबि लोभि अहंकारि माता गरबि भइआ समाइणु ॥ नानक म्रिग अगिआनि बिनसे नह मिटै आवणु जाइणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फाथोहु = तू फस रहा है। पेखि = देख के। रैणि = रात (के समय)। चंद्राइणु = चाँद जैसी चाँदनी (रात के अंधेरे में शिकारी हिरन को पकड़ने के लिए सफेद प्रकाश करता है)। सूखहु = सुखों से। छडहि = तू छोड़ता। घति = डाल के। हरिचंदउरी = हरिचंद की नगरी, गंधर्ब नगरी। लबि = लोभ में, जीभ के चस्के में। माता = मस्त। गरबि = अहंकार में। समाइणु = लीन। अगिआनि = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी में।2।
अर्थ: हे जीव! जैसे हिरन रात के समय (श्किारी का किया हुआ) चाँद जैसी रौशनी देख के (शिकारी के जाल में) फंस जाता है (वैसे ही तू मायावी पदार्थों की चमक देख के माया के जाल में) फंस रहा है, (जिस सुखों की खातिर तू फंस जाता है उन) सुखों में दुख पैदा हो रहे हैं, (फिर भी) तू सदा पाप कमा रहा है। हे जीव! तू पाप करने छोड़ता नहीं है (तुझे ये भी याद नहीं रहा कि जमदूत तेरे गले में) फंदा डाल के (जल्द ही) ले जाने वाले हैं। तू तो आकाश की ख्याली नगरी (हरीचंदउरी) को देख के ठगा जा रहा है, तू इस ठगी-रूप सेज को (आनंद से) भोग रहा है। हे जीव! तू जीभ के चस्के में, माया के लोभ में, अहंकार में मस्त है, तू सदा अहम् में लीन टिका रहता है।
हे नानक! (कह:) ये जीव-हिरन आत्मिक जीवन की अज्ञानता के कारण आत्मिक मौत मर रहे हैं इनका जनम-मरण का चक्र नहीं खत्म हो सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिठै मखु मुआ किउ लए ओडारी ॥ हसती गरति पइआ किउ तरीऐ तारी ॥ तरणु दुहेला भइआ खिन महि खसमु चिति न आइओ ॥ दूखा सजाई गणत नाही कीआ अपणा पाइओ ॥ गुझा कमाणा प्रगटु होआ ईत उतहि खुआरी ॥ नानक सतिगुर बाझु मूठा मनमुखो अहंकारी ॥३॥

मूलम्

मिठै मखु मुआ किउ लए ओडारी ॥ हसती गरति पइआ किउ तरीऐ तारी ॥ तरणु दुहेला भइआ खिन महि खसमु चिति न आइओ ॥ दूखा सजाई गणत नाही कीआ अपणा पाइओ ॥ गुझा कमाणा प्रगटु होआ ईत उतहि खुआरी ॥ नानक सतिगुर बाझु मूठा मनमुखो अहंकारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरति = टोए में, गड्ढे में। हसती = हाथी। दुहेला = मुश्किल। चिति = चित्त में। सजाई गणत = सजाओं की गिनती। गुझा = छुपा के। ईत = इस लोक में। उतहि = परलोक में। मूठा = ठगा जाता है। मनमुखो = मनमुखु, अपने मन के पीछे चलने वाला।3।
अर्थ: (जैसे, गुड़ आदि) मीठे पर (बैठ के) मक्खी (गुड़ से चिपक जाती है) उड़ नहीं सकती, (और वहीं ही) मर जाती है (वैसे ही, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य मायावी पदार्थों के मोह में फंस जाता है, आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, और जीवन ऊँचा नहीं कर सकता)। (काम-वश हुआ) हाथी (उस) गड्ढे में गिर जाता है (जो हाथी को पकड़ने के लिए खोदा जाता है और उसमें कागज की हथिनी खड़ी की हुई होती है)। इसी तरह अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य विकारों के गड्ढे में गिर पड़ता है। (हे भाई! विकारों में गिरे रह के) संसार-समुंदर से पार नहीं हो सकते (विकारों के कारण) संसार-समुंदर से पार होना मुश्किल हो जाता है, कभी मालिक प्रभु चित्त में नहीं बस सकता। इतने दुख बरपा होते हैं, इतनी सजा मिलती है कि लेखा नहीं किया जा सकता, मनमुख अपना किया भुगतता है। जो-जो पाप-कर्म छुप के करता है वह आखिर सामने आ जाते हैं, मनमुख इस लोक में भी और परलोक में भी बेइज्जती करवाता है। हे नानक! (कह:) अपने मन के पीछे चलने वाला अहंकारा हुआ मनुष्य गुरु की शरण पड़े बिना (विकारों के हाथों आत्मिक जीवन) लुटा बैठता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के दास जीवे लगि प्रभ की चरणी ॥ कंठि लगाइ लीए तिसु ठाकुर सरणी ॥ बल बुधि गिआनु धिआनु अपणा आपि नामु जपाइआ ॥ साधसंगति आपि होआ आपि जगतु तराइआ ॥ राखि लीए रखणहारै सदा निरमल करणी ॥ नानक नरकि न जाहि कबहूं हरि संत हरि की सरणी ॥४॥२॥११॥

मूलम्

हरि के दास जीवे लगि प्रभ की चरणी ॥ कंठि लगाइ लीए तिसु ठाकुर सरणी ॥ बल बुधि गिआनु धिआनु अपणा आपि नामु जपाइआ ॥ साधसंगति आपि होआ आपि जगतु तराइआ ॥ राखि लीए रखणहारै सदा निरमल करणी ॥ नानक नरकि न जाहि कबहूं हरि संत हरि की सरणी ॥४॥२॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवे = आत्मिक जीवन के मालिक बन गए। लगि = लग के। कंठि = गले से। रखणहारै = सहायता करने की सामर्थ्य वाले हरि ने। निरमल = पवित्र। करणी = आचरण। नरकि = नर्क में। कबहूँ = कहीं भी।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दास परमात्मा के चरणों में पड़ के ऊँचे आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं, उस मालिक-प्रभु की शरण पड़ते हैं, और वह प्रभु उनको अपने गले से लगा लेता है। परमात्मा उन्हें अपना आत्मिक बल देता है, श्रेष्ठ बुद्धि देता है, अपने साथ गहरी सांझ बख्शता है, अपने में उनकी तवज्जो जोड़े रखता है, और, उनसे अपना नाम जपाता है, साधु-संगत में स्वयं उनके हृदय के अंदर प्रगट होता है और उनको खुद ही संसार-समुंदर से पार लंघाता है।
हे नानक! रखनेवाला परमात्मा अपने संतों को (विकारों से) खुद ही बचाता है, (तभी तो संत-जनो का) आचरण सदा पवित्र रहता है, परमात्मा की शरण पड़े रहने के कारण नर्क में नहीं पड़ते।4।2।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ वंञु मेरे आलसा हरि पासि बेनंती ॥ रावउ सहु आपनड़ा प्रभ संगि सोहंती ॥ संगे सोहंती कंत सुआमी दिनसु रैणी रावीऐ ॥ सासि सासि चितारि जीवा प्रभु पेखि हरि गुण गावीऐ ॥ बिरहा लजाइआ दरसु पाइआ अमिउ द्रिसटि सिंचंती ॥ बिनवंति नानकु मेरी इछ पुंनी मिले जिसु खोजंती ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ वंञु मेरे आलसा हरि पासि बेनंती ॥ रावउ सहु आपनड़ा प्रभ संगि सोहंती ॥ संगे सोहंती कंत सुआमी दिनसु रैणी रावीऐ ॥ सासि सासि चितारि जीवा प्रभु पेखि हरि गुण गावीऐ ॥ बिरहा लजाइआ दरसु पाइआ अमिउ द्रिसटि सिंचंती ॥ बिनवंति नानकु मेरी इछ पुंनी मिले जिसु खोजंती ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वंञ = वंज, चला जा। आलसा = हे आलस! रावउ = हृदय में सिमरती हूँ, स्मरण का आनंद लेती हूँ। संगि = साथ। सोहंती = शोभ रही हूँ, मेरा जीवन सोहाना बनता जाता है। दिनसु = दिन। रैणी = रात। रावीऐ = स्मरणा चाहिए। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। चितारि = याद करके, स्मरण करके। गावीऐ = गाने चाहिए। बिरहा = विछोड़ा। लजाइआ = शर्म खा गया, दूर हो गया। अमिउ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। द्रिसटि = निगाह से। सिंचंती = सींचा।1।
अर्थ: हे मेरे आलस! चला जा (मेरी जान छोड़, मैं प्रभु-पति का स्मरण करूँ)। (हे सखी!) मैं परमात्मा के पास विनती करती हूँ (कि मेरा आलस दूर हो जाए)। (हे सखी! ज्यों-ज्यों) मैं अपने प्यारे प्रभु-पति को अपने हृदय में बसाती हूँ (त्यों-त्यों) प्रभु के चरणों में जुड़ के मेरा जीवन सोहाना बनता जा रहा है। हे सखी! उस पति-प्रभु को दिन-रात हर वक्त हृदय में बसाना चाहिए। जो जीव-स्त्री स्वामी-कंत के चरणों में जुड़ती है उसका जीवन सोहाना बन जाता है। हे सखी! हरेक सांस के साथ प्रभु को स्मरण करके और प्रभु के दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो रहा है। हे सखी! उस हरि के गुण सदा गाते रहने चाहिए।
(जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु ने अपनी) निगाह से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल सींचा उसने प्रभु-पति के दर्शन कर लिए उसके अंदर से (प्रभु-चरणों से) विछोड़ा दूर हो गया।
नानक विनती करता है (और कहता है: हे सखी!) मेरे मन की मुराद पूरी हो गई है, मुझे वह प्रभु मिल गया है जिसे मैं तलाश रही थी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नसि वंञहु किलविखहु करता घरि आइआ ॥ दूतह दहनु भइआ गोविंदु प्रगटाइआ ॥ प्रगटे गुपाल गोबिंद लालन साधसंगि वखाणिआ ॥ आचरजु डीठा अमिउ वूठा गुर प्रसादी जाणिआ ॥ मनि सांति आई वजी वधाई नह अंतु जाई पाइआ ॥ बिनवंति नानक सुख सहजि मेला प्रभू आपि बणाइआ ॥२॥

मूलम्

नसि वंञहु किलविखहु करता घरि आइआ ॥ दूतह दहनु भइआ गोविंदु प्रगटाइआ ॥ प्रगटे गुपाल गोबिंद लालन साधसंगि वखाणिआ ॥ आचरजु डीठा अमिउ वूठा गुर प्रसादी जाणिआ ॥ मनि सांति आई वजी वधाई नह अंतु जाई पाइआ ॥ बिनवंति नानक सुख सहजि मेला प्रभू आपि बणाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वंञहु = वंजहु, चले जाओ। किलविखहु = हे पापो! घरि = हृदय घर में। दूतह दहनु = दुश्मनों का जलना। साधसंगि = गुरु की संगति में। वखाणिआ = महिमा की। आचरजु = हैरान करने वाला करिश्मा। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। वूठा = आ बसा। प्रसादी = प्रसादि, कृपा से। जाणिआ = गहरी सांझ डाली। मनि = मन में। वजी वधाई = बढ़ने फूलने का प्रभाव बढ़ गया, चढ़दी कला प्रगट हो गई। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मेला = मिलाप।2।
अर्थ: हे पापो! (मेरे हृदय-) घर में (मेरा) कर्तार आ बसा है (अब तुम मेरे हिरदै में से) चले जाओ। हे भाई! जिस हृदय में गोविंद प्रगट हो जाए, उस में से विकार-वैरियों का नाश हो जाता है, और प्यारे गोपाल गोविंद जी (उस मनुष्य के हृदय में) प्रगट होते हैं जो मनुष्य साधु-संगत में गोविंद की महिमा करता है। जो मनुष्य गुरु की किरपा द्वारा गोविंद से गहरी सांझ डाल लेता है वह (अपने अंदर एक) हैरान कर देने वाला तमाशा देखता है (कि उसके हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है, उसके मन में बेअंत ठंड पड़ जाती है उसके अंदर बेअंत चढ़दीकला बन जाती है।
नानक विनती करता है (-हे भाई! जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको) प्रभु खुद ही आनंदमयी आत्मिक अडोलता में टिकाता है, प्रभु स्वयं ही उसका अपने साथ मिलाप बनाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरक न डीठड़िआ सिमरत नाराइण ॥ जै जै धरमु करे दूत भए पलाइण ॥ धरम धीरज सहज सुखीए साधसंगति हरि भजे ॥ करि अनुग्रहु राखि लीने मोह ममता सभ तजे ॥ गहि कंठि लाए गुरि मिलाए गोविंद जपत अघाइण ॥ बिनवंति नानक सिमरि सुआमी सगल आस पुजाइण ॥३॥

मूलम्

नरक न डीठड़िआ सिमरत नाराइण ॥ जै जै धरमु करे दूत भए पलाइण ॥ धरम धीरज सहज सुखीए साधसंगति हरि भजे ॥ करि अनुग्रहु राखि लीने मोह ममता सभ तजे ॥ गहि कंठि लाए गुरि मिलाए गोविंद जपत अघाइण ॥ बिनवंति नानक सिमरि सुआमी सगल आस पुजाइण ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डीठड़िआ = देखा। नाराइणु = परमात्मा। जै जै = महिमा, नमस्कार। धरमु = धर्मराज। दूत = जमदूत। भए पलाइण = भाग गए। सहज = आत्मिक अडोलता। अनुग्रहु = दया। तजे = त्याग दिए। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। गुरि = गुरु के द्वारा। अघाइण = तृप्ति, संतुष्टि।3।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करते हैं उन्हें नर्क नहीं देखने पड़ते। धर्म राज (भी) उनको नमस्कार करता है, जमदूत उनसे परे दौड़ जाते हैं। साधु-संगत में परमात्मा का भजन करके वे मनुष्य सुखी हो जाते हैं उन्हें धर्म प्राप्त हो जाता है, धैर्य प्राप्त हो जाता है, आत्मिक अडोलता मिल जाती है। परमात्मा मेहर करके उनको (मोह ममता आदि विकारों से) बचा लेता है, वे मनुष्य मोह-ममता आदि सब त्याग देते हैं। जिनको परमात्मा गुरु के द्वारा अपने साथ मिलाता है उनको (बाँहों) से पकड़ कर अपने गले के साथ लगा लेता है। परमात्मा का नाम जपके वह (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं।
नानक बेनती करता है: वह मनुष्य मालिक-प्रभु का स्मरण करके अपनी सारी मुरादें पूरी कर लेते हैं।3।

[[0461]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

निधि सिधि चरण गहे ता केहा काड़ा ॥ सभु किछु वसि जिसै सो प्रभू असाड़ा ॥ गहि भुजा लीने नाम दीने करु धारि मसतकि राखिआ ॥ संसार सागरु नह विआपै अमिउ हरि रसु चाखिआ ॥ साधसंगे नाम रंगे रणु जीति वडा अखाड़ा ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी बहुड़ि जमि न उपाड़ा ॥४॥३॥१२॥

मूलम्

निधि सिधि चरण गहे ता केहा काड़ा ॥ सभु किछु वसि जिसै सो प्रभू असाड़ा ॥ गहि भुजा लीने नाम दीने करु धारि मसतकि राखिआ ॥ संसार सागरु नह विआपै अमिउ हरि रसु चाखिआ ॥ साधसंगे नाम रंगे रणु जीति वडा अखाड़ा ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी बहुड़ि जमि न उपाड़ा ॥४॥३॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधि = खजाना। सिधि = करामाती ताकतें। गहे = पकड़ लिए। ता = तब। काढ़ा = चिन्ता फिक्र। वसि = वश में। असाड़ा = हमारा। गहि भुजा = बाँह पकड़ के। करु = हाथ (एकवचन)। मसतकि = माथे पर। राखिआ = बचा लिया। नह विआपै = जोर नहीं डाल सकता। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। संगे = संगति में। रंगे = रंग में, प्रेम में। रणु = जंग का मैदान। अखाड़ा = वह स्थल जहाँ पहलवान कुश्ती करते हैं। जमि = जम ने। उपाड़ा = उखाड़ा, (उत्पाटन, उप्पाडिअ), पैरों से निकाला, गिरा लिया। बहुड़ि = दुबारा, फिर।4।
अर्थ: हे भाई! जब किसी मनुष्य ने उस परमात्मा के चरण पकड़ लिए जो सारी निधियों का सारी सिद्धियों का मालिक है उसे तब कोई चिन्ता-फिक्र नहीं रह जाता (क्योंकि, हे भाई!) हमारे सिर पर वह परमात्मा रखवाला है जिसके वश में हरेक चीज है।
(हे भाई! जिस मनुष्य को) बाँह से पकड़ कर (परमात्मा अपने में) लीन कर लेता है, जिस को अपने नाम की दाति देता है, उसके माथे पर हाथ रख के उसको (विकारों से) बचा लेता है। (हे भाई! परमात्मा की कृपा से जिस मनुष्य ने) आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस का स्वाद चख लिया, उस पर संसार-समुंदर अपना जोर नहीं डाल सकता। उसने साधु-संगत में टिक के, हरि-नाम के प्रेम में लीन हो के ये रण जीत लिया ये बड़ा अखाड़ा फतह कर लिया (जहाँ कामादिक पहलवानों से सदा युद्ध चलता रहता है)।
नानक विनती करता है: जो मनुष्य मालिक प्रभु की शरण पड़ा रहता है उसको (इस जीवन-युद्ध में) दुबारा कभी जम पैरों से उखाड़ नहीं सकता।4।3।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ दिनु राति कमाइअड़ो सो आइओ माथै ॥ जिसु पासि लुकाइदड़ो सो वेखी साथै ॥ संगि देखै करणहारा काइ पापु कमाईऐ ॥ सुक्रितु कीजै नामु लीजै नरकि मूलि न जाईऐ ॥ आठ पहर हरि नामु सिमरहु चलै तेरै साथे ॥ भजु साधसंगति सदा नानक मिटहि दोख कमाते ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ दिनु राति कमाइअड़ो सो आइओ माथै ॥ जिसु पासि लुकाइदड़ो सो वेखी साथै ॥ संगि देखै करणहारा काइ पापु कमाईऐ ॥ सुक्रितु कीजै नामु लीजै नरकि मूलि न जाईऐ ॥ आठ पहर हरि नामु सिमरहु चलै तेरै साथे ॥ भजु साधसंगति सदा नानक मिटहि दोख कमाते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कमाइअड़ो = तूने कमाया है। सो = वह कमाया हुआ अच्छा-बुरा कर्म। माथै = माथे पर। आइओ माथै = माथे पे आ गया है, भाग्यों में लिखा गया है। पासि = पास से। साथै = (तेरे) साथ ही (बैठा)। करणहारा = विधाता। काइ = क्यूँ? सुक्रितु = भला कर्म। कीजै = करना चाहिए। मूलि = बिल्कुल। कमाते = कमाते हुए।1।
अर्थ: हे भाई! जो कुछ दिन-रात हर वक्त अच्छे-बुरे काम तूने किए हैं वे संस्कार-रूप बन के तेरे मन में उकरे गए हैं। हे भाई! जिससे तू (अपने किए कर्म) छुपाता रहा है वह तो तेरे साथ ही बैठा देखता जा रहा है।
हे भाई! विधाता (हरेक जीव के) साथ (बैठा हरेक किए काम) देखता रहता है। सो, कोई बुरा काम नहीं करना चाहिए, (बल्कि) भले कर्म करने चाहिए, परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए (नाम की इनायत से) नर्क में कभी नहीं जाते।
हे भाई! आठों पहर परमात्मा का नाम स्मरण करता रह, परमात्मा का नाम तेरा साथ देगा। हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-संगत में टिक के परमात्मा का भजन किया कर (भजन की इनायत से पिछले) किए हुए विकार मिट जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वलवंच करि उदरु भरहि मूरख गावारा ॥ सभु किछु दे रहिआ हरि देवणहारा ॥ दातारु सदा दइआलु सुआमी काइ मनहु विसारीऐ ॥ मिलु साधसंगे भजु निसंगे कुल समूहा तारीऐ ॥ सिध साधिक देव मुनि जन भगत नामु अधारा ॥ बिनवंति नानक सदा भजीऐ प्रभु एकु करणैहारा ॥२॥

मूलम्

वलवंच करि उदरु भरहि मूरख गावारा ॥ सभु किछु दे रहिआ हरि देवणहारा ॥ दातारु सदा दइआलु सुआमी काइ मनहु विसारीऐ ॥ मिलु साधसंगे भजु निसंगे कुल समूहा तारीऐ ॥ सिध साधिक देव मुनि जन भगत नामु अधारा ॥ बिनवंति नानक सदा भजीऐ प्रभु एकु करणैहारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वंच = (वंच् = टेढ़ी चालें चलना, वंचय = ठग लेना)। वल = टेढ़ मेढ़। वच वंच = ठगी फरेब, वलछल। उदरु = पेट। भरहि = ते भरता है। काइ = क्यूँ? मनहु = मन से। संगे = संगीत मे। निसंगे = संग उतार के, शर्म उतार के। समूह = ढेर। कुल समूह = सारी कुलें। सिध = जोग साधना में पहुँचे हुए जोगी। साधिक = साधना करने वाले। अधारा = आसरा। करणैहारा = पैदा करने वाला।2।
अर्थ: हे मूर्ख! हे गवार! तू (औरों से) छल-कपट करके (अपना) पेट भरता है। (रोजी कमाता है। तुझे ये बात भूल चुकी हुई है कि) हरि दातार (सब जीवों को) हरेक चीज दे रहा है। हे भाई! सब दातें देने वालामालिक सदा दयावान रहता है, उसको कभी भी अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। हे भाई! साधु-संगत में मिल (-बैठ), शर्म उतार के उसका भजन किया कर (भजन की इनायत से अपनी) सारी कुलों का उद्धार कर लेनी हैं। जोग-साधना में पहुँचे हुए जोगी, योग-साधना करने वाले, भक्त-देवते, समाधियां लगाने वाले- सभी की जिंदगी का हरि-नाम ही सहारा बना चला आ रहा है।
नानक विनती करता है: हे भाई! सदा उस परमात्मा का भजन करना चाहिए जो खुद ही सारे संसार को पैदा करने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोटु न कीचई प्रभु परखणहारा ॥ कूड़ु कपटु कमावदड़े जनमहि संसारा ॥ संसारु सागरु तिन्ही तरिआ जिन्ही एकु धिआइआ ॥ तजि कामु क्रोधु अनिंद निंदा प्रभ सरणाई आइआ ॥ जलि थलि महीअलि रविआ सुआमी ऊच अगम अपारा ॥ बिनवंति नानक टेक जन की चरण कमल अधारा ॥३॥

मूलम्

खोटु न कीचई प्रभु परखणहारा ॥ कूड़ु कपटु कमावदड़े जनमहि संसारा ॥ संसारु सागरु तिन्ही तरिआ जिन्ही एकु धिआइआ ॥ तजि कामु क्रोधु अनिंद निंदा प्रभ सरणाई आइआ ॥ जलि थलि महीअलि रविआ सुआमी ऊच अगम अपारा ॥ बिनवंति नानक टेक जन की चरण कमल अधारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोटु = धोखा। न कीचई = नहीं करना चाहिए। परखणहारा = (खोटे खरे की) परख पहचान करने वाला। कूड़ु = कूड़, झूठ। कपटु = फरेब। जनमहि = (बार बार) जनम लेते हैं। सागरु = समुंदर। तिनी = उन मनुष्यों ने। तजि = त्याग के। अनिंद = ना निंदने योग्य, भले। अनिंद निंदा = भलों की निंदा। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पे, अंतरिक्ष में, आकाश में। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। टेक = आसरा।3।
अर्थ: (हे भाई! कभी किसी के साथ) धोखा नहीं करना चाहिए (परमात्मा खोटे-खरे की) पहचान करने के समर्थ है। जो मनुष्य (को ठगने के लिए) झूठ बोलते हैं, वह संसार में बारंबार जन्मते (मरते) रहते हैं।
हे भाई! जिस मनुष्यों ने एक परमात्मा का स्मरण किया है, जो काम-क्रोध त्याग के भले लोगों की निंदा छोड़ के प्रभु की शरण आ गए हैं, वे संसार समुंदर से पार हो गए।
नानक विनती करता है (-हे भाई!) जो परमात्मा पानी में, धरती में, आकाश में हर जगह मौजूद है, जो सबसे ऊँचा है, जो अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है, वह अपने सेवकों (की जिंदगी) का सहारा है, उसके सोहाने कोमल चरण उसके सेवकों के लिए आसरा हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखु हरिचंदउरड़ी असथिरु किछु नाही ॥ माइआ रंग जेते से संगि न जाही ॥ हरि संगि साथी सदा तेरै दिनसु रैणि समालीऐ ॥ हरि एक बिनु कछु अवरु नाही भाउ दुतीआ जालीऐ ॥ मीतु जोबनु मालु सरबसु प्रभु एकु करि मन माही ॥ बिनवंति नानकु वडभागि पाईऐ सूखि सहजि समाही ॥४॥४॥१३॥

मूलम्

पेखु हरिचंदउरड़ी असथिरु किछु नाही ॥ माइआ रंग जेते से संगि न जाही ॥ हरि संगि साथी सदा तेरै दिनसु रैणि समालीऐ ॥ हरि एक बिनु कछु अवरु नाही भाउ दुतीआ जालीऐ ॥ मीतु जोबनु मालु सरबसु प्रभु एकु करि मन माही ॥ बिनवंति नानकु वडभागि पाईऐ सूखि सहजि समाही ॥४॥४॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखु = देख। हरिचंदउरी = हरीचंद की नगरी, गंधर्ब नगरी, आकाश में ख्याली नगरी, धूएं का पहाड़। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। जेते = जितने भी। संगि = साथ। से = वह (बहुवचन)। न जाही = न जाहि, नहीं जाते। रैणि = रात। समालीऐ = हृदय में संभाल के रखना चाहिए। अवरु = और। भाउ = प्यार। दुतीआ = दूसरा। जालीऐ = जला देना चाहिए। मीतु = मित्र। सरबसु = (सर्व = स्व। स्व = धन। सर्व = सारा) अपना सब कुछ। करि = बना, निहित कर। माही = माहि, में। वडभागि = बड़ी किस्मत से। सूखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाही = समाहि, लीन रहते हैं।4।
अर्थ: (हे भाई! ये सारा संसार जो दिख रहा है इसे) धूँए का पहाड़ (करके) देख (इस में) कोई भी चीज सदा कायम रहने वाली नहीं। माया के जितने भी मौज-मेले हैं वह सारे (किसी के) साथ नहीं जाते। हे भाई! परमात्मा ही तेरे साथ निभने वाला साथी है, दिन-रात हर समय उसको अपने हृदय में संभाल के रखना चाहिए। एक परमात्मा के बिना और कुछ भी (सदा टिके रहना वाला) नहीं (इस वास्ते परमात्मा के बिना) कोई और प्यार (मन में से) जला देना चाहिए।
हे भाई! मित्र, जवानी, धन, अपना और सब कुछ- ये सब कुछ (के होते हुए भी) एक परमात्मा को ही अपने मन में समझ। नानक विनती करता है (-हे भाई!) परमात्मा बड़ी किस्मत से मिलता है (जिन्हें मिलता है वे सदा) आनंद में आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।4।4।13।