[[0442]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचे मेरे साहिबा सची तेरी वडिआई ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु सुआमी तेरी कुदरति कहणु न जाई ॥ सची तेरी वडिआई जा कउ तुधु मंनि वसाई सदा तेरे गुण गावहे ॥ तेरे गुण गावहि जा तुधु भावहि सचे सिउ चितु लावहे ॥ जिस नो तूं आपे मेलहि सु गुरमुखि रहै समाई ॥ इउ कहै नानकु सचे मेरे साहिबा सची तेरी वडिआई ॥१०॥२॥७॥५॥२॥७॥
मूलम्
सचे मेरे साहिबा सची तेरी वडिआई ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु सुआमी तेरी कुदरति कहणु न जाई ॥ सची तेरी वडिआई जा कउ तुधु मंनि वसाई सदा तेरे गुण गावहे ॥ तेरे गुण गावहि जा तुधु भावहि सचे सिउ चितु लावहे ॥ जिस नो तूं आपे मेलहि सु गुरमुखि रहै समाई ॥ इउ कहै नानकु सचे मेरे साहिबा सची तेरी वडिआई ॥१०॥२॥७॥५॥२॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचे = हे सदा स्थिर रहने वाले! वडिआई = प्रतिभा, बड़प्पन। कुदरति = ताकत। जा कउ मंनि = जिस के मन में। गावहे = गाए। तुधु भावहि = तुझे अच्छे लगते हैं। सिउ = साथ। लावहे = लगाए। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटी हुई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे सदा स्थिर मालिक! तेरा बड़प्पन भी सदा कायम रहने वाला है। तू बेअंत मालिक है, तू पारब्रहम है, तेरी ताकत बयान नहीं की जा सकती। हे प्रभु! तेरी बड़ाई सदा कायम रहने वाली है, जिस मनुष्यों के मन में तूने ये बड़ाई बसा दी है, वे सदा तेरी महिमा के गीत गाते हैं। पर तभी तेरी महिमा के गीत गाते हैं जबवह तुझे अच्छे लगते हैं, फिर वे तेरे सदा स्थिर स्वरूप में अपना चिक्त जोड़े रखते हैं।
हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ता है वह गुरु की शरण पड़ के तेरी याद में लीन रहता है। (तेरा दास) नानक ऐसे कहता है: हे मेरे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरी बड़ाई भी सदा कायम रहने वाली है।10।2।7।5।2।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा छंत महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु आसा छंत महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवनो मै जीवनु पाइआ गुरमुखि भाए राम ॥ हरि नामो हरि नामु देवै मेरै प्रानि वसाए राम ॥ हरि हरि नामु मेरै प्रानि वसाए सभु संसा दूखु गवाइआ ॥ अदिसटु अगोचरु गुर बचनि धिआइआ पवित्र परम पदु पाइआ ॥ अनहद धुनि वाजहि नित वाजे गाई सतिगुर बाणी ॥ नानक दाति करी प्रभि दातै जोती जोति समाणी ॥१॥
मूलम्
जीवनो मै जीवनु पाइआ गुरमुखि भाए राम ॥ हरि नामो हरि नामु देवै मेरै प्रानि वसाए राम ॥ हरि हरि नामु मेरै प्रानि वसाए सभु संसा दूखु गवाइआ ॥ अदिसटु अगोचरु गुर बचनि धिआइआ पवित्र परम पदु पाइआ ॥ अनहद धुनि वाजहि नित वाजे गाई सतिगुर बाणी ॥ नानक दाति करी प्रभि दातै जोती जोति समाणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवनो = जीवनु, असल जिंदगी, आत्मिक जीवन। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। भाए = (प्रभु जी) प्यारे लगने लगे। नामो = नाम। मेरै प्रान = मेरे हरेक सांस में। संसा = सहम। अदिसटु = ना दिखने वाला। अगोचरु = (गो = इंद्रिय, चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। बचनि = वचन के द्वारा। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। अनहद = (अनाहत्) बिना बजाए बजने वाले, एक रस। अनहद धुनि = लगातार सुर वाले। वाजहि = बजते हैं। वाजे = संगीतक साज। प्रभि = प्रभु ने।1।
अर्थ: (हे भाई!) मुझे आत्मिक जीवन मिल गया, मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त हो गया, जब गुरु की शरण में आ के प्रभु जी प्यारे लगने लगे। अब गुरु मुझे हर समय हरि का नाम ही दिये जाता है, गुरु ने मेरे हरेक स्वास में हरि नाम बसा दिया है (जब से गुरु ने) मेरी हरेक सांस में हरि-नाम बसाया है मैं अपना हरेक सहम हरेक दुख दूर कर बैठा हूँ। गुरु के शब्द की इनायत से मैंने उस परमात्मा को स्मरण किया है (जो इन आँखों से) नहीं दिखता, जो मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (स्मरण के सदका) मैंने सबसे ऊँचा और पवित्र आत्मिक रुतबा हासिल कर लिया है, जब से मैंने सतिगुरु की वाणी गानी शुरू की है (मेरे अंदर आत्मिक आनंद की अटूट लहर चल पड़ी है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मेरे अंदर) कभी ना खत्म होने वाले सुर से संगीतक साज सदा बजते रहते हैं।
हे नानक! दातार प्रभु ने ये बख्शिश की है अब मेरी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में टिकी रहती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखा मनमुखि मुए मेरी करि माइआ राम ॥ खिनु आवै खिनु जावै दुरगंध मड़ै चितु लाइआ राम ॥ लाइआ दुरगंध मड़ै चितु लागा जिउ रंगु कसु्मभ दिखाइआ ॥ खिनु पूरबि खिनु पछमि छाए जिउ चकु कुम्हिआरि भवाइआ ॥ दुखु खावहि दुखु संचहि भोगहि दुख की बिरधि वधाई ॥ नानक बिखमु सुहेला तरीऐ जा आवै गुर सरणाई ॥२॥
मूलम्
मनमुखा मनमुखि मुए मेरी करि माइआ राम ॥ खिनु आवै खिनु जावै दुरगंध मड़ै चितु लाइआ राम ॥ लाइआ दुरगंध मड़ै चितु लागा जिउ रंगु कसु्मभ दिखाइआ ॥ खिनु पूरबि खिनु पछमि छाए जिउ चकु कुम्हिआरि भवाइआ ॥ दुखु खावहि दुखु संचहि भोगहि दुख की बिरधि वधाई ॥ नानक बिखमु सुहेला तरीऐ जा आवै गुर सरणाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखा = अपने मन के पीछे चलने वाले। मुए = आत्मिक मौत मर गए। करि = करके, कह कह के। आवै = (उनका मन) कभी हौसला पकड़ता है, कभी जी पड़ता है। जावै = कभी गिर पड़ता है, हौसला हार बैठता है। मढ़ै = मढ़ में, शरीर में। दुरगंध = बदबू। रंगु कुसंभ = कुसंभ के फूल का रंग। पूरबि = पूर्व की ओर, चढ़ाई की ओर। पछमि = पश्चिम की ओर, उतरती ओर। छाए = छाया, परछाई। कुम्हिआरि = कुम्हार ने। खावहि = सहते हैं। संचहि = इकट्ठा करते हैं। बिरधि = वृद्धि। बिखमु = विषम, मुश्किल। सुहेला = आसान तरीके से।2।
अर्थ: (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य मन मर्जी करने वाले मनुष्य ‘मेरी माया मेरी माया’ कह कह के ही आत्मिक मौत मर गए, उनका मन (माया के लाभ के समय) एक छिन में चढ़ जाता है (माया की हानि के समय) एक छिन में ही धराशाही हो जाता है, वे अपने मन को सदा इस बदबू भरे शरीर के मोह में जोड़े रखते हैं।
अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा दुर्गंध भरे शरीर के मोह में अपने चिक्त को लगाए रखते हैं। उनका ध्यान शारीरिक मोह में लगा रहता है (पर ये शारीरिक दुख-सुख यूँ है) जैसे कुसंभ के फूल का रंग देखते हैं (देखने में शौख, पर जल्द ही फीका पड़ जाने वाला), जैसे परछाई (सूरज के चढ़ने और ढलने के साथ-साथ) कभी पूरब की ओर हो जाती है और कभी पश्चिम की ओर खिसक जाती है, जैसे वह चक्कर-यंत्र है जिसे कुम्हार ने चक्कर दिया हुआ है।
अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य दुख सहते हैं, दुख संचित करते रहते हैं, उन्होंने अपने जीवन में दुखों की ही बढ़ोक्तरी की हुई होती है। पर, हे नानक! जब मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ता है, तब ये मुश्किल से पार होने वाला संसार-समुंदर आसानी से तैरा जा सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा ठाकुरो ठाकुरु नीका अगम अथाहा राम ॥ हरि पूजी हरि पूजी चाही मेरे सतिगुर साहा राम ॥ हरि पूजी चाही नामु बिसाही गुण गावै गुण भावै ॥ नीद भूख सभ परहरि तिआगी सुंने सुंनि समावै ॥ वणजारे इक भाती आवहि लाहा हरि नामु लै जाहे ॥ नानक मनु तनु अरपि गुर आगै जिसु प्रापति सो पाए ॥३॥
मूलम्
मेरा ठाकुरो ठाकुरु नीका अगम अथाहा राम ॥ हरि पूजी हरि पूजी चाही मेरे सतिगुर साहा राम ॥ हरि पूजी चाही नामु बिसाही गुण गावै गुण भावै ॥ नीद भूख सभ परहरि तिआगी सुंने सुंनि समावै ॥ वणजारे इक भाती आवहि लाहा हरि नामु लै जाहे ॥ नानक मनु तनु अरपि गुर आगै जिसु प्रापति सो पाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुरो = ठाकुर, मालिक। नीका = सोहणा, अच्छा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाह = जिसकी थाह ना लग सके, गहरा। पूजी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। चाही = मैं मांगता हूँ। साहा = हे मेरे शाह! बिसाही = खरीदी, वणज किया। भावै = अच्छा लगता है। परहरि = त्याग के। परहरि तिआगी = बिल्कुल ही त्याग दी। सुंने सुंनि = सुंन में ही। सुंन = शून्य, जहाँ माया के फुरने बिल्कुल ही नहीं उठते। इक भाती = एक किस्म के, एक ही हरि लगन वाले। जारे = जाहि, जाते हैं। नानक = हे नानक! अरपि = भेटा कर दे।3।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा मालिक सोहणा है, मेरा मालिक प्रभु सुंदर है, (पर, मेरी समझ-सियानप से परे है) पहुँच से परे है। वह एक ऐसा समुंदर है जिसका थाह नहीं पाया जा सकता। (तभी तो) हे मेरे शाह! हे मेरे सतिगूरू! मैं (तुझसे) हरि-नाम की पूंजी मांगता हूँ।
जो मनुष्य हरि-नाम-सरमाए की तलाश करता है, हरि-नाम का व्यापार करता है, वह सदा हरि के गुण गाता रहता है। गुणों के कारण वह हरि को प्यारा लगता है। वह मनुष्य माया के मोह की नींद माया की भूख बिल्कुल ही त्याग देता है, वह तो सदा उस परमात्मा में लीन रहता है जिसके अंदर कभी माया के फुरने उठते ही नहीं।
जब एक हरि-नाम का व्यापार करने वाले सत्संगी मिल बैठते हैं, तो वे परमात्मा के नाम की कमाई कमा के (जगत से) चले जाते हैं। हे नानक! तू भी अपना मन, अपना शरीर गुरु के हवाले कर दे (और हरि-नाम का सौदा गुरु से हासिल कर) पर ये हरि नाम का सौदा वही मनुष्य हासिल करता है जिसके भाग्यों में धुर से लिखा होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतना रतन पदारथ बहु सागरु भरिआ राम ॥ बाणी गुरबाणी लागे तिन्ह हथि चड़िआ राम ॥ गुरबाणी लागे तिन्ह हथि चड़िआ निरमोलकु रतनु अपारा ॥ हरि हरि नामु अतोलकु पाइआ तेरी भगति भरे भंडारा ॥ समुंदु विरोलि सरीरु हम देखिआ इक वसतु अनूप दिखाई ॥ गुर गोविंदु गुोविंदु गुरू है नानक भेदु न भाई ॥४॥१॥८॥
मूलम्
रतना रतन पदारथ बहु सागरु भरिआ राम ॥ बाणी गुरबाणी लागे तिन्ह हथि चड़िआ राम ॥ गुरबाणी लागे तिन्ह हथि चड़िआ निरमोलकु रतनु अपारा ॥ हरि हरि नामु अतोलकु पाइआ तेरी भगति भरे भंडारा ॥ समुंदु विरोलि सरीरु हम देखिआ इक वसतु अनूप दिखाई ॥ गुर गोविंदु गुोविंदु गुरू है नानक भेदु न भाई ॥४॥१॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतना रतन = अनेक रत्न, ऊँचे आत्मिक जीवन वाले श्रेष्ठ गुण। सागरु = समुंदर, शरीर समुंदर। हथि चढ़िआ = मिला हुआ, हाथ में आया हुआ। निरमोलकु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। अतोलकु = जो तोला ना जा सके। विरोलि = मथ के, नितार के। अनूप = अति सुंदर, बेमिसाल। गुोविंदु = (असल शब्द ‘गोविंदु’ है पढ़ना है ‘गुविंद’)। भेदु = फर्क। भाई = हे भाई!।4।
अर्थ: हे भाई! (ये मनुष्य का शरीर, मानो, एक) समुंदर (है जो आत्मि्क जीवन के श्रेष्ठ गुण-रूपी) अनेक रत्नों से नाको-नाक भरा हुआ है। जो मनुष्य हर समय सतिगुरु की वाणी में अपना मन जोड़े रखते हैं, उन्हें ये रत्न मिल जाते हैं।
(हे भाई!) जो लोग हर समय सतिगुरु की वाणी में जुड़े रहते हैं उनको बेअंत परमात्मा का वह नाम रत्न मिल जाता है जिसके बराबर की कीमत का और कोई पदार्थ नहीं है। हे प्रभु! उन मनुष्यों के हृदय में तेरी भक्ति के खजाने भर जाते हैं वह मनुष्य तेरा वह नाम-रत्न प्राप्त कर लेते हैं जिसके बराबर की और कोई चीज नहीं है।
हे भाई! गुरु की कृपा से जब मैंने अपने शरीर-समुंदर को खोज के देखा तो गुरु ने मुझे (शरीर के अंदर बसता हुआ परमात्मा का नाम-रूप) सुंदर कीमती पदार्थ दिखा दिया। हे नानक! (कह:) हे भाई! गुरु परमात्मा है परमात्मा गुरु है दोनों में कोई फर्क नहीं है।4।1।8।
[[0443]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ झिमि झिमे झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा राम ॥ गुरमुखे गुरमुखि नदरी रामु पिआरा राम ॥ राम नामु पिआरा जगत निसतारा राम नामि वडिआई ॥ कलिजुगि राम नामु बोहिथा गुरमुखि पारि लघाई ॥ हलति पलति राम नामि सुहेले गुरमुखि करणी सारी ॥ नानक दाति दइआ करि देवै राम नामि निसतारी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ झिमि झिमे झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा राम ॥ गुरमुखे गुरमुखि नदरी रामु पिआरा राम ॥ राम नामु पिआरा जगत निसतारा राम नामि वडिआई ॥ कलिजुगि राम नामु बोहिथा गुरमुखि पारि लघाई ॥ हलति पलति राम नामि सुहेले गुरमुखि करणी सारी ॥ नानक दाति दइआ करि देवै राम नामि निसतारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झिमि झिमे = झिम झिम, मीठी मीठी आवाज से। वरसै = बरसता है। अंम्रित धारा = आत्मिक जीवन देने वाले जल का धारा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नदरी = नजर आ जाता है। निसतारा = संसार समुंदर से पार लंघाने वाला। नामि = नाम में (जुड़ के)। वडिआई = आदर मान। कलिजुग = (‘इक घड़ी न मिलते त कलिजुगु होता’) वह आत्मिक अवस्था जब जीव परमात्मा से विछुड़ के विकारों में गर्क होता है। कलिजुगि = विकारों के कारण गिरी हुई आत्मिक हालत में। बोहिथा = जहाज। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सुहेले = सुखी। सारी = श्रेष्ठ। करणी = करणीय, करने योग्य काम। करि = कर के।1।
अर्थ: (हे भाई! जैसे वर्षा ऋतु में जब मीठी मीठी फुहार पड़ती है तो बड़ी सुहावनी ठंड महसूस होती है, वैसे ही अगर मनुष्य को गुरु मिल जाए तो उसके हृदय की धरती पर) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धार आहिस्ता-आहिस्ता बरखा करती है (और उसको आत्मिक शांति बख्शती है। इस नाम-बरखा की इनायत से) गुरु के सन्मुख रहने वाले उस (भाग्यशाली) मनुष्य को प्यारा परमातमा दिखाई दे जाता है। सारे जीवों को संसार-समुंदर से पार लंघाने वाला परमात्मा का नाम उस मनुष्य को प्यारा लगने लगता है, परमात्मा के नाम की इनायत से उसे (लोक-परलोक में) आदर-सत्कार मिल जाता है।
हे भाई! विकारों के कारण निघरी (गिरी) हुई आत्मिक हालत के समय परमात्मा का नाम जहाज (का काम देता) है, गुरु की शरण डाल के (परमात्मा जीव को संसार-समुंदर को) पार लंघा लेता है।
जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ते हैं वे इस लोक और परलोक में सुखी रहते हैं। गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम स्मरणा ही) सबसे श्रेष्ठ करने योग्य कार्य है। हे नानक! मेहर करके परमात्मा जिस मनुष्य को अपने नाम की दाति देता है उसको नाम में जोड़ के संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो राम नामु जपिआ दुख किलविख नास गवाइआ राम ॥ गुर परचै गुर परचै धिआइआ मै हिरदै रामु रवाइआ राम ॥ रविआ रामु हिरदै परम गति पाई जा गुर सरणाई आए ॥ लोभ विकार नाव डुबदी निकली जा सतिगुरि नामु दिड़ाए ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ राम नामि चितु लाए ॥ आपि क्रिपालु क्रिपा करि देवै नानक गुर सरणाए ॥२॥
मूलम्
रामो राम नामु जपिआ दुख किलविख नास गवाइआ राम ॥ गुर परचै गुर परचै धिआइआ मै हिरदै रामु रवाइआ राम ॥ रविआ रामु हिरदै परम गति पाई जा गुर सरणाई आए ॥ लोभ विकार नाव डुबदी निकली जा सतिगुरि नामु दिड़ाए ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ राम नामि चितु लाए ॥ आपि क्रिपालु क्रिपा करि देवै नानक गुर सरणाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलविख = पाप। गुर परचै = गुरु के माध्यम से (नाम जपने के) काम में लग के। रवाइआ = बसा लिया। रविआ = स्मरण किया। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। नाव = (जिंदगी की) बेड़ी। सतिगुरि = सतिगुरु ने। दिढ़ाए = हृदय में पक्का कर दिया। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुरि = गुरु ने। नामि = नाम में। करि = कर के।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों ने) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण किया, उन्होंने अपने सारे दुख व पाप नाश कर लिए।
(हे भाई!) गुरु के द्वारा हर समय जुट के मैंने हरि-नाम का स्मरण शुरू किया, मैंने अपने हृदय में परमात्मा को बसा लिया। जब से मैं गुरु की शरण आ पड़ा, और, परमातमा को अपने हृदय में बसाया, तब से मैंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली।
हे भाई! जब से (किसी भाग्यशाली के हृदय में) गुरु ने परमात्मा का नाम पक्का कर के बसा दिया, तो लोभ आदि के विकारों की बाढ़ में डूब रही उसकी (जिंदगी की) बेड़ी बाहर निकल आई। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने आत्मिक जीवन की दाति बख्शी, उसने अपना ध्यान परमात्मा के नाम में जोड़ लिया।
हे नानक! गुरु की शरण में लाकर दयालु परमात्मा स्वयं ही कृपा करके (अपने नाम की दाति) देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणी राम नाम सुणी सिधि कारज सभि सुहाए राम ॥ रोमे रोमि रोमि रोमे मै गुरमुखि रामु धिआए राम ॥ राम नामु धिआए पवितु होइ आए तिसु रूपु न रेखिआ काई ॥ रामो रामु रविआ घट अंतरि सभ त्रिसना भूख गवाई ॥ मनु तनु सीतलु सीगारु सभु होआ गुरमति रामु प्रगासा ॥ नानक आपि अनुग्रहु कीआ हम दासनि दासनि दासा ॥३॥
मूलम्
बाणी राम नाम सुणी सिधि कारज सभि सुहाए राम ॥ रोमे रोमि रोमि रोमे मै गुरमुखि रामु धिआए राम ॥ राम नामु धिआए पवितु होइ आए तिसु रूपु न रेखिआ काई ॥ रामो रामु रविआ घट अंतरि सभ त्रिसना भूख गवाई ॥ मनु तनु सीतलु सीगारु सभु होआ गुरमति रामु प्रगासा ॥ नानक आपि अनुग्रहु कीआ हम दासनि दासनि दासा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिधि = कामयाबी, सफलता। सभि = सारे। सुहाए = सोहणे। रोमे रोमि = रोमि रोमि, रोम रोम से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। रेखिआ = रेखा, चिन्ह चक्र। रविआ = स्मरण किया। घट अंतरि = हृदय में। सीगारु = सजावट। अनुग्रहु = किरपा।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु की वाणी सुनी, परमात्मा की महिमा सुनी, उसे (मानव जनम के उद्देश्य में) सफलता हासिल हो गई, उसके सारे कार्य सफल हो गए। (हे भाई!) मैं भी गुरु की शरण पड़ कर रोम-रोम से परमात्मा का नाम स्मरण कर रहा हूँ।
(हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया वह पवित्र जीवन वाला बन के उस प्रभु के दर पर जा पहुँचा जिस का कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, जिसका कोई खास चक्र-चिन्ह बयान नहीं किया जा सकता। जिस मनुष्य ने हर समय अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसने (अपने अंदर से) माया की भूख-प्यास दूर कर ली, उसका मन उसका हृदय ठंडा-ठार हो गया, उसके आत्मिक जीवन को हरेक किस्म कासहज हासिल हो गया, गुरु की शिक्षा की इनायत से उसके अंदर परमात्मा का नाम रौशन हो गया।
हे नानक! (कह:) जब से परमात्मा ने स्वयं मेरे पर मेहर की है मैं उसके दासों के दासों का दास बन गया हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी रामो राम नामु विसारिआ से मनमुख मूड़ अभागी राम ॥ तिन अंतरे मोहु विआपै खिनु खिनु माइआ लागी राम ॥ माइआ मलु लागी मूड़ भए अभागी जिन राम नामु नह भाइआ ॥ अनेक करम करहि अभिमानी हरि रामो नामु चोराइआ ॥ महा बिखमु जम पंथु दुहेला कालूखत मोह अंधिआरा ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआइआ ता पाए मोख दुआरा ॥४॥
मूलम्
जिनी रामो राम नामु विसारिआ से मनमुख मूड़ अभागी राम ॥ तिन अंतरे मोहु विआपै खिनु खिनु माइआ लागी राम ॥ माइआ मलु लागी मूड़ भए अभागी जिन राम नामु नह भाइआ ॥ अनेक करम करहि अभिमानी हरि रामो नामु चोराइआ ॥ महा बिखमु जम पंथु दुहेला कालूखत मोह अंधिआरा ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआइआ ता पाए मोख दुआरा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले वे लोग। मूढ़ = मूर्ख। अभागी = बद्किस्मत। अंतरे = अंदर, हृदय में। विआपै = जोर डाले रखता है। लागी = चिपकी रहती है। मलु = मैल। भाइआ = अच्छा लगा। करम = (निहित धार्मिक) काम, धार्मिक रस्में। बिखमु = मुश्किल। पंथु = रास्ता। दुहेला = दुखों भरा। कालूखत = कालख। अंधिआरा = अंधेरा। मोख = (मोह आदि से) निजात, छुटकारा। दुआरा = दरवाजा।4।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले जिस लोगों ने परमात्मा का नाम भुला दिया, वे मूर्ख बद्-किस्मत ही रहे। उनके अंदर मोह जोर डाले रखता है, उन्हे हर समय माया चिपकी रहती है। जिस मनुष्यों को परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगता, वे मूर्ख बद्-किस्मत ही रहते हैं, उनको सदा माया (के मोह) की मैल लगी रहती है। (नाम भुला के ज्यों-ज्यों वे और ही) धार्मिक रस्में करते हैं (और भी ज्यादा) अहंकारी होते जाते हैं (ये की हुई धार्मिक रस्मेंउनके अंदर से बल्कि) परमात्मा का नाम चुरा के ले जाती हैं। (जीवन-यात्रा में वे) यमों वाला रास्ता (पकड़ के रखते हैं जो) बड़ा मुश्किल है जो दुखों-भरा है और जहाँ माया के मोह की कालिख के कारण (आत्मिक जीवन की तरफ से) अंधकार ही अंधकार है।
हे नानक! जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण करता है तब (माया के मोह आदि से) छुटकारे का रास्ता तलाश लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो राम नामु गुरू रामु गुरमुखे जाणै राम ॥ इहु मनूआ खिनु ऊभ पइआली भरमदा इकतु घरि आणै राम ॥ मनु इकतु घरि आणै सभ गति मिति जाणै हरि रामो नामु रसाए ॥ जन की पैज रखै राम नामा प्रहिलाद उधारि तराए ॥ रामो रामु रमो रमु ऊचा गुण कहतिआ अंतु न पाइआ ॥ नानक राम नामु सुणि भीने रामै नामि समाइआ ॥५॥
मूलम्
रामो राम नामु गुरू रामु गुरमुखे जाणै राम ॥ इहु मनूआ खिनु ऊभ पइआली भरमदा इकतु घरि आणै राम ॥ मनु इकतु घरि आणै सभ गति मिति जाणै हरि रामो नामु रसाए ॥ जन की पैज रखै राम नामा प्रहिलाद उधारि तराए ॥ रामो रामु रमो रमु ऊचा गुण कहतिआ अंतु न पाइआ ॥ नानक राम नामु सुणि भीने रामै नामि समाइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरु गुरमुखे = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ के। जाणै = गहरी सांझ डालता है। ऊभ = ऊँचा (अहंकार में)। पइआली = पाताल में, गिरावट की अवस्था में। इकतु घरि = एक घर में, प्रभु चरणों में। आणै = ले आता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। रसाए = भोगता है। पैज = इज्जत। उधारि = बचा ले। रमो रमु = सुंदर ही सुंदर। भीने = भीग गए, तरो तर हो गए। नामि = नाम में।5।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ डालता है वह अपने इस मन को प्रभु चरणों में ला टिकाता है जो हर समय कभी अहंकार में और कभी गिरावट में भटकता फिरता है। वह मनुष्य अपने मन को एक परमात्मा के चरणों में टिका लेता है, वह आत्मिक जीवन की हरेक मर्यादा को समझ लेता है। वह परमात्मा के नाम का आनंद भोगता रहता है। परमात्मा का नाम ऐसे मनुष्य की इज्जत रख लेता है जिस तरह परमात्मा ने प्रहलाद आदि भगतों को (मुश्किलों से) बचा के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लिया।
(हे भाई!) परमात्मा सब से ऊँचा है, सुंदर ही सुंदर है, बयान करते-करते उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे नानक! परमात्मा का नाम सुन के (जिस के हृदय) पसीज जाते हैं वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन अंतरे राम नामु वसै तिन चिंता सभ गवाइआ राम ॥ सभि अरथा सभि धरम मिले मनि चिंदिआ सो फलु पाइआ राम ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ राम नामु धिआइआ राम नाम गुण गाए ॥ दुरमति कबुधि गई सुधि होई राम नामि मनु लाए ॥ सफलु जनमु सरीरु सभु होआ जितु राम नामु परगासिआ ॥ नानक हरि भजु सदा दिनु राती गुरमुखि निज घरि वासिआ ॥६॥
मूलम्
जिन अंतरे राम नामु वसै तिन चिंता सभ गवाइआ राम ॥ सभि अरथा सभि धरम मिले मनि चिंदिआ सो फलु पाइआ राम ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ राम नामु धिआइआ राम नाम गुण गाए ॥ दुरमति कबुधि गई सुधि होई राम नामि मनु लाए ॥ सफलु जनमु सरीरु सभु होआ जितु राम नामु परगासिआ ॥ नानक हरि भजु सदा दिनु राती गुरमुखि निज घरि वासिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिन्ह = उन्होंने। सभ = सारी। सभि = सारे। अरथा सभि धरम = धर्म अर्थ काम मोक्ष आदि ये सारे पदार्थ। मनि = मन में। चिंदिआ = चितवा हुआ। दुरमति = खोटी मति। कबुधि = बुरी मति। सुधि = सूझ। नामि = नाम में। सभु = सारा। जितु = जिस (शरीर) में। परगासिआ = रौशन हो गया, चमक गया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।6।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है वे अपनी हरेक किस्म की चिन्ता दूर कर लेते हैं, उन्हें धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, ये सारे पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, वे मनुष्य जो कुछ अपने मन में चितवते हैं वही फल उन्हें मिल जाता है। वह मन इज्जत-फल हासिल कर लेते हैं, वे परमात्मा का नाम हमेशा स्मरण करते रहते हैं, वे सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहते हैं। उनके अंदर से खोटी मति कुबुद्धि दूर हो जाती है, उन्हें आत्मिक जीवन की समझ आ जाती है, वे परमात्मा के नाम में अपना मन जोड़े रखते हैं। उनका मानव जनम कामयाब हो जाता है उनका शरीर भी सफल हो जाता है क्योंकि उनके शरीर में परमात्मा का नाम प्रकाशमान हो जाता है।
हे नानक! तू भी सदा दिन-रात हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम स्मरण करने से) परमात्मा के चरणों में जगह मिली रहती है।6।
[[0444]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन सरधा राम नामि लगी तिन्ह दूजै चितु न लाइआ राम ॥ जे धरती सभ कंचनु करि दीजै बिनु नावै अवरु न भाइआ राम ॥ राम नामु मनि भाइआ परम सुखु पाइआ अंति चलदिआ नालि सखाई ॥ राम नाम धनु पूंजी संची ना डूबै ना जाई ॥ राम नामु इसु जुग महि तुलहा जमकालु नेड़ि न आवै ॥ नानक गुरमुखि रामु पछाता करि किरपा आपि मिलावै ॥७॥
मूलम्
जिन सरधा राम नामि लगी तिन्ह दूजै चितु न लाइआ राम ॥ जे धरती सभ कंचनु करि दीजै बिनु नावै अवरु न भाइआ राम ॥ राम नामु मनि भाइआ परम सुखु पाइआ अंति चलदिआ नालि सखाई ॥ राम नाम धनु पूंजी संची ना डूबै ना जाई ॥ राम नामु इसु जुग महि तुलहा जमकालु नेड़ि न आवै ॥ नानक गुरमुखि रामु पछाता करि किरपा आपि मिलावै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। सरधा = श्रद्धा, निश्चय। दूजै = किसी और पदार्थ में। सभ = सारी। परम = सबसे ऊँचा। अंति = आखिर में। सखाई = साथी। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। संची = एकत्र की। जाई = बेकार हो गई। इसु जुग महि = मानव जनम में, जगत में। तुलहा = नदी से पार लांघने के लिए शतीरियों आदि से बनाया हुआ सहारा। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। पछाता = सांझ डाल ली।7।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम स्मरण करने में अपना निष्चय पक्का कर लिया, वह (हरि-नाम का प्यार छोड़ के) किसी और पदार्थ में अपना ध्यान नहीं जोड़ते। अगर सारी धरती सोना बना के भी उनके आगे रख दें, तो भी परमात्मा के नाम के बगैर और कोई पदार्थ उन्हें प्यारा नहीं लगता। उनके मन को परमात्मा का नाम ही भाता है (नाम की इनायत से) वे सबसे श्रेष्ठ आत्मिक आनंद भोगते हैं, आखिरी समय में दुनिया से रवानगी के वक्त भी यही हरि-नाम उनका साथी बनता है। वे सदा परमात्मा का नाम-धन नाम-पूंजी एकत्र करते रहते हैं, ये धन ये संपत्ति ना पानी में डूबती है ना ही गायब होती है।
हे भाई! (संसार-नदी से पार लांघने के लिए) परमात्मा का नाम इस जगत में (मानो) तुलहा है। (जो मनुष्य नाम स्मरण करता रहता है) आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण में आकर परमात्मा के साथ गहरी नजदीकी बना ली, परमात्मा मेहर करके स्वयं उसे अपने चरणों में जोड़ लेता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो राम नामु सते सति गुरमुखि जाणिआ राम ॥ सेवको गुर सेवा लागा जिनि मनु तनु अरपि चड़ाइआ राम ॥ मनु तनु अरपिआ बहुतु मनि सरधिआ गुर सेवक भाइ मिलाए ॥ दीना नाथु जीआ का दाता पूरे गुर ते पाए ॥ गुरू सिखु सिखु गुरू है एको गुर उपदेसु चलाए ॥ राम नाम मंतु हिरदै देवै नानक मिलणु सुभाए ॥८॥२॥९॥
मूलम्
रामो राम नामु सते सति गुरमुखि जाणिआ राम ॥ सेवको गुर सेवा लागा जिनि मनु तनु अरपि चड़ाइआ राम ॥ मनु तनु अरपिआ बहुतु मनि सरधिआ गुर सेवक भाइ मिलाए ॥ दीना नाथु जीआ का दाता पूरे गुर ते पाए ॥ गुरू सिखु सिखु गुरू है एको गुर उपदेसु चलाए ॥ राम नाम मंतु हिरदै देवै नानक मिलणु सुभाए ॥८॥२॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सते सति = सति सति, सदा कायम रहने वाला, सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य। जिनि = जिस (सेवक) ने। अरपि = भेटा करके। चढ़ाइआ = चढ़ावा चढ़ा दिया। मनि = मन में। सरधाइआ = श्रद्धा पैदा हुई। भाइ = प्रेम के कारण। भाउ = प्रेम। दीना नाथु = गरीबों का रक्षक। जीआ का = सब जीवों का। ते = से। चलाए = चलाए जाता है। मंतु = उपदेश। मिलणु = मिलाप। सुभाए = श्रेष्ठ प्रेम के कारण।8।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सदा कायम रहने वाला है परमात्मा का नाम सदा स्थिर रहने वाला है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह उस परमात्मा के साथ गहरा अपनत्व बना लेता है। (पर) वही (मनुष्य) सेवक (बन के) गुरु की बताई हुई सेवा में लगता है जिसने अपना मन अपना तन भेटा करके चढ़ावे के तौर पे (गुरु के आगे) रख दिया है। जिस मनुष्य ने अपना मन अपना तन गुरु के हवाले कर दिया, उसके मन में गुरु के वासते अपार श्रद्धा पैदा हो जाती है (गुरु उसको) उस प्रेम की इनायत से (प्रभु चरणों में) मिला देता है (जो प्रेम) गुरु के सेवक के हृदय में होना चाहिए। (हे भाई!) परमात्मा गरीबों का पति है (मालिक है रखवाला है) सब जीवों को दातें देने वाला है, वह परमात्मा पूरे गुरु से मिलता है।
(प्रेम की इनायत से) गुरु सिख (के साथ एक-रूप हो जाता) है और सिख गुरु (में लीन हो जाता) है, सिख भी गुरु वाले उपदेश (की लड़ी) को आगे चलाता रहता है। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु परमात्मा के नाम का मंत्र हृदय में (बसाने के लिए) देता है, प्रेम के सदका उसका मिलाप (परमात्मा के साथ) हो जाता है।8।2।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा छंत महला ४ घरु २ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा छंत महला ४ घरु २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि करता दूख बिनासनु पतित पावनु हरि नामु जीउ ॥ हरि सेवा भाई परम गति पाई हरि ऊतमु हरि हरि कामु जीउ ॥ हरि ऊतमु कामु जपीऐ हरि नामु हरि जपीऐ असथिरु होवै ॥ जनम मरण दोवै दुख मेटे सहजे ही सुखि सोवै ॥ हरि हरि किरपा धारहु ठाकुर हरि जपीऐ आतम रामु जीउ ॥ हरि हरि करता दूख बिनासनु पतित पावनु हरि नामु जीउ ॥१॥
मूलम्
हरि हरि करता दूख बिनासनु पतित पावनु हरि नामु जीउ ॥ हरि सेवा भाई परम गति पाई हरि ऊतमु हरि हरि कामु जीउ ॥ हरि ऊतमु कामु जपीऐ हरि नामु हरि जपीऐ असथिरु होवै ॥ जनम मरण दोवै दुख मेटे सहजे ही सुखि सोवै ॥ हरि हरि किरपा धारहु ठाकुर हरि जपीऐ आतम रामु जीउ ॥ हरि हरि करता दूख बिनासनु पतित पावनु हरि नामु जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = कर्तार, जगत रचना करने वाला। पतित = विकारों में गिरे हुए। पावनु = पवित्र। भाई = अच्छी लगी। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। कामु = काम। ऊतमु = श्रेष्ठ, उत्तम। जपीऐ = जपना चाहिए। असथिरु = (विकारों के हमलों की तरफ से) अडोल चित्त। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोवै = लीन रहता है। ठाकुर = हे ठाकुर! आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा।1।
अर्थ: (हे भाई!) जगत का रचयता परमात्मा (जीवों के) दुखों का नाश करने वाला है, उस परमात्मा का नाम विकारों में गिरे हुए जीवों को पवित्र करने वाला है। जिस मनुष्य को परमात्मा की सेवा-भक्ति प्यारी लगती है वह सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। (हे भाई!) हरि नाम स्मरणा सबसे श्रेष्ठ काम है। परमात्मा का नाम स्मरणा सबसे उत्तम काम है, हरि-नाम स्मरणा चाहिए, हरि-नाम स्मरणा चाहिए (जो मनुष्य हरि-नाम स्मरण करता है वह विकारों के हमलों की ओर से) अडोल-चित्त हो जाता है। वह मनुष्य जनमों के चक्रों का दुख आत्मिक मौत का दुख- ये दोनों ही दुख मिटा लेता है, वह सदा आत्मिक अडोलता में आत्मिक आनंद में लीन रहता है।
हे हरि! हे मालिक! कृपा कर। (हे भाई! अगर परमात्मा कृपा करे तो) उस सर्व-व्यापक परमात्मा (का नाम) जपा जा सकता है। (हे भाई!) जगत को रचने वाला परमात्मा (जीवों के) दुख नाश करने वाला है, उस परमात्मा का नाम विकारों में गिरे हुए जीवों को पवित्र करने के योग्य है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि नामु पदारथु कलिजुगि ऊतमु हरि जपीऐ सतिगुर भाइ जीउ ॥ गुरमुखि हरि पड़ीऐ गुरमुखि हरि सुणीऐ हरि जपत सुणत दुखु जाइ जीउ ॥ हरि हरि नामु जपिआ दुखु बिनसिआ हरि नामु परम सुखु पाइआ ॥ सतिगुर गिआनु बलिआ घटि चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥ हरि हरि नामु तिनी आराधिआ जिन मसतकि धुरि लिखि पाइ जीउ ॥ हरि नामु पदारथु कलिजुगि ऊतमु हरि जपीऐ सतिगुर भाइ जीउ ॥२॥
मूलम्
हरि नामु पदारथु कलिजुगि ऊतमु हरि जपीऐ सतिगुर भाइ जीउ ॥ गुरमुखि हरि पड़ीऐ गुरमुखि हरि सुणीऐ हरि जपत सुणत दुखु जाइ जीउ ॥ हरि हरि नामु जपिआ दुखु बिनसिआ हरि नामु परम सुखु पाइआ ॥ सतिगुर गिआनु बलिआ घटि चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥ हरि हरि नामु तिनी आराधिआ जिन मसतकि धुरि लिखि पाइ जीउ ॥ हरि नामु पदारथु कलिजुगि ऊतमु हरि जपीऐ सतिगुर भाइ जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलिजुगि = कलि युग में, माया ग्रसित संसार में। सतिगुर भाइ = गुरु के प्यार में (टिक के)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। पढ़ीऐ = पढ़ा जा सकता है। सुणीऐ = सुना जा सकता है। जाइ = दूर हो जाता है। परम = सबसे ऊँचा। गिआनु = आत्मिक जीवन की ऊँची सूझ। बलिआ = प्रबल हुआ, चमका। घटि = हृदय में। अंधेरु = अंधेरा। जिन मसतकि = जिनके माथे पे। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिख के। पाइ = रख दिया है।2।
अर्थ: (हे भाई!) इस माया-ग्रसित जगत में (अन्य सभी पदार्थों के मुकाबले) परमात्मा का नाम श्रेष्ठ पदार्थ है। पर, ये हरि-नाम, गुरु के प्रेम में टिक के ही जपा जा सकता है। गुरु की शरण पड़ कर ही परमात्मा की महिमा वाली वाणी पढ़ी जा सकती है। गुरु की शरण में आ के ही महिमा की वाणी सुनी जा सकती है। परमात्मा का नाम जपते-सुनते हुए हरेक दुख दूर हो जाते हैं। जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा उसके दुख नाश हो गए, जिस ने हरि-नाम (धन प्राप्त कर लिया) उसने सबसे ऊँचा आनंद पा लिया। गुरु की दी हुई आत्मिक जीवन की समझ जिस मनुष्य के अंदर जाग पड़ी (चमक गई) उसके हृदय में (सही जीवन का) प्रकाश हो गया, उसने अपने अंदर से अज्ञानता का अंधेरा दूर कर लिया।
हे भाई! उन मनुष्यों ने ही परमात्मा का नाम स्मरण किया है जिनके माथे पर परमात्मा ने धुर से स्मरण का लेख लिख के रख दिया है। (हे भाई!) इस माया-ग्रसित संसार में (अन्य सभी पदार्थों से) उत्तम परमात्मा का नाम है, पर ये हरि-नाम गुरु के प्यार में जुड़ के ही जपा जा सकता है।2।
[[0445]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि मनि भाइआ परम सुख पाइआ हरि लाहा पदु निरबाणु जीउ ॥ हरि प्रीति लगाई हरि नामु सखाई भ्रमु चूका आवणु जाणु जीउ ॥ आवण जाणा भ्रमु भउ भागा हरि हरि हरि गुण गाइआ ॥ जनम जनम के किलविख दुख उतरे हरि हरि नामि समाइआ ॥ जिन हरि धिआइआ धुरि भाग लिखि पाइआ तिन सफलु जनमु परवाणु जीउ ॥ हरि हरि मनि भाइआ परम सुख पाइआ हरि लाहा पदु निरबाणु जीउ ॥३॥
मूलम्
हरि हरि मनि भाइआ परम सुख पाइआ हरि लाहा पदु निरबाणु जीउ ॥ हरि प्रीति लगाई हरि नामु सखाई भ्रमु चूका आवणु जाणु जीउ ॥ आवण जाणा भ्रमु भउ भागा हरि हरि हरि गुण गाइआ ॥ जनम जनम के किलविख दुख उतरे हरि हरि नामि समाइआ ॥ जिन हरि धिआइआ धुरि भाग लिखि पाइआ तिन सफलु जनमु परवाणु जीउ ॥ हरि हरि मनि भाइआ परम सुख पाइआ हरि लाहा पदु निरबाणु जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन भाइआ = मन में अच्छा लगा। लाहा = लाभ, कमाई। निरबाणु पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। निरबाणु = वासना रहित। सखाई‘ = साथी। भ्रमु = भटकना। चूका = समाप्त हो गया। किलविख = पाप। नामि = नाम में। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिख के।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा (का नाम) मन में प्यारा लगने लगा उसने सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, उसने वह आत्मिक अवस्था कमा ली जहाँ कोई वासना अपना असर नहीं डाल सकती। जिस मनुष्य ने प्रभु चरणों में प्रीति जोड़ी, हरि-नाम उसका सदा के लिए साथी बन गया, उसकी (माया वाली) भटकना समाप्त हो गई, उसके जनम-मरण का चक्र खत्म हो गया। (हे भाई!) जिस मनुष्यों ने परमात्मा की महिमा की, उनका जनम-मरण, उनकी भटकना, उनका (हरेक किस्म का) डर दूर हो गया, जनम-जनमांतरों के किए हुए उनके पाप और दुख नाश हो गए, वे सदा के लिए परमात्मा में लीन हो गए।
जिन्होंने धुर-दरगाह के लिखे भाग्यों के अनुसार नाम की दाति प्राप्त कर ली और हरि-नाम स्मरण किया उनका मानव जनम कामयाब हो गया वे प्रभु की दरगाह में स्वीकार हो गए। (हे भाई!) जिस मनुष्यों को परमात्मा (का नाम) मन में अच्छा लगने लगा उन्होंने सबसे उच्च आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, उनहोंने वह आत्मिक अवस्था कमा ली जहाँ कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह हरि मीठ लगाना ते जन परधाना ते ऊतम हरि हरि लोग जीउ ॥ हरि नामु वडाई हरि नामु सखाई गुर सबदी हरि रस भोग जीउ ॥ हरि रस भोग महा निरजोग वडभागी हरि रसु पाइआ ॥ से धंनु वडे सत पुरखा पूरे जिन गुरमति नामु धिआइआ ॥ जनु नानकु रेणु मंगै पग साधू मनि चूका सोगु विजोगु जीउ ॥ जिन्ह हरि मीठ लगाना ते जन परधाना ते ऊतम हरि हरि लोग जीउ ॥४॥३॥१०॥
मूलम्
जिन्ह हरि मीठ लगाना ते जन परधाना ते ऊतम हरि हरि लोग जीउ ॥ हरि नामु वडाई हरि नामु सखाई गुर सबदी हरि रस भोग जीउ ॥ हरि रस भोग महा निरजोग वडभागी हरि रसु पाइआ ॥ से धंनु वडे सत पुरखा पूरे जिन गुरमति नामु धिआइआ ॥ जनु नानकु रेणु मंगै पग साधू मनि चूका सोगु विजोगु जीउ ॥ जिन्ह हरि मीठ लगाना ते जन परधाना ते ऊतम हरि हरि लोग जीउ ॥४॥३॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीठा = मीठा, प्यारा। ते जन = वे लोग। परधाना = जाने माने, रहनुमा। हरि लोग = रब के प्यारे मनुष्य। वडाई = आदर मान। सखाई = साथी, मित्र। सबदी = शब्द से। भोग = आनंद। निरजोग = निर्लिप। से = वह लोग। धंनु = भाग्यशाली। सत पुरखा = ऊँचे जीवन वाले मनुष्य। रेणु = चरण धूल। पग = पैर। साधू = गुरु। मनि = मन में (टिका हुआ)। सोगु = ग़म। विजोग = विछोड़ा।4।
अर्थ: हे भाई! जिस लोगों को परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है वे मनुष्य (जगत में) आदरणीय हो जाते हैं, वे ईश्वर के प्यारे लोग (और दुनिया से) श्रेष्ठ जीवन वाले बन जाते हैं। परमात्मा का नाम (उनके वास्ते) आदर-सत्कार है, परमात्मा का नाम उनका (सदा के लिए) साथी है, गुरु के शब्द में जुड़ के वे परमात्मा के नाम-रस का आनंद लेते हैं। वे मनुष्य सदा हरि-नाम-रस भोगते हैं, जिसकी इनायत से वे बड़े निर्लिप रहते हैं, बड़ी किस्मत से उन्हे परमात्मा के नाम का आनंद मिला होता है। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति ले के प्रभु का नाम स्मरण किया, वह बहुत ही भाग्यशाली बन गए, वे ऊँचे और पूर्ण आत्मिक जीवन वाले बन गए।
दास नानक (भी) गुरु के चरणों की धूल मांगता है (जिन्हें ये चरण-धूल प्राप्त हो जाती है, उनके) मन में बसा हुआ चिन्ता-फिक्र दूर हो जाता है उनके मन में बसता प्रभु-चरणों से विछोड़ा भी दूर हो जाता है।
हे भाई! जिस मनुष्यों को परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है वे मनुष्य (जगत में) इज्जत वाले हो जाते हैं, वे ईश्वर के प्यारे लोग (और लोगों से) श्रेष्ठ जीवन वाले बन जाते हैं।4।3।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ सतजुगि सभु संतोख सरीरा पग चारे धरमु धिआनु जीउ ॥ मनि तनि हरि गावहि परम सुखु पावहि हरि हिरदै हरि गुण गिआनु जीउ ॥ गुण गिआनु पदारथु हरि हरि किरतारथु सोभा गुरमुखि होई ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको दूजा अवरु न कोई ॥ हरि हरि लिव लाई हरि नामु सखाई हरि दरगह पावै मानु जीउ ॥ सतजुगि सभु संतोख सरीरा पग चारे धरमु धिआनु जीउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ सतजुगि सभु संतोख सरीरा पग चारे धरमु धिआनु जीउ ॥ मनि तनि हरि गावहि परम सुखु पावहि हरि हिरदै हरि गुण गिआनु जीउ ॥ गुण गिआनु पदारथु हरि हरि किरतारथु सोभा गुरमुखि होई ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको दूजा अवरु न कोई ॥ हरि हरि लिव लाई हरि नामु सखाई हरि दरगह पावै मानु जीउ ॥ सतजुगि सभु संतोख सरीरा पग चारे धरमु धिआनु जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतजुगि = सतजुग में, उस आत्मिक अवस्था में जो सतियुग वाली कही जाती है। सभु = हर जगह। पग चारे धरमु = चारों पैरों वाला धर्म (-रूप धौल, बैल) (पहले अंजान लोगों का ख्याल था कि धरती को एक बैल ने अपने सींगों पर उठाया हुआ है)। मनि = मन में। तनि = तन में, हिरदै में। हरि गावहि = परमात्मा की महिमा करते हैं। परम = सबसे ऊँचा। पावहि = प्राप्त करते हैं। हरि गुण गिआनु = परमात्मा के गुणों की गहरी समझ। किरतारथु = कृतार्थ, सफल। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। लिव लाई = तवज्जो जोड़ी। सखाई = मित्र, साथी। पावै = हासिल करता है। मानु = आदर।1।
अर्थ: सतियुगी आत्मिक अवस्था में टिके हुए मनुष्य को हर जगह संतोष (आत्मिक सहारा) दिए रखता है, हर समय मुकम्मल धर्म उसके जीवन का निशाना होता है। (सत्युगी) आत्मिक अवस्था में टिके हुए (मनुष्य) अपने मन में हृदय में परमात्मा की महिमा करते रहते हैं, और सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद लेते रहते हैं, उनके हृदय में परमात्मा के गुणों से गहरा अपनत्व बना रहता है।
सतियुगी आत्मिक अवस्था में टिका हुआ मनुष्य परमात्मा के गुणों से गहरी समझ को कीमती वस्तु जानता है, हरि-नाम स्मरण में अपने जीवन को सफल समझता है, गुरु की शरण पड़ के उसे (हर जगह) शोभा मिलती है। उसे अपने अंदर और सारे जगत में एक परमात्मा ही बसता दिखता है, उसके बिना कोई और उसे नहीं दिखता।
(हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ता है, परमात्मा उसका (सदा के लिए) साथी बन जाता है, वह मनुष्य परमात्मा के दरबार में आदर पाता है। (हे भाई!) ऐसी सतियुगी आत्मिक अवस्था में टिके हुए मनुष्य को हर जगह संतोष (आत्मिक सहारा दिए रखता है) हर पक्ष से संपूर्ण धर्म उसके जीवन का निशाना बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेता जुगु आइआ अंतरि जोरु पाइआ जतु संजम करम कमाइ जीउ ॥ पगु चउथा खिसिआ त्रै पग टिकिआ मनि हिरदै क्रोधु जलाइ जीउ ॥ मनि हिरदै क्रोधु महा बिसलोधु निरप धावहि लड़ि दुखु पाइआ ॥ अंतरि ममता रोगु लगाना हउमै अहंकारु वधाइआ ॥ हरि हरि क्रिपा धारी मेरै ठाकुरि बिखु गुरमति हरि नामि लहि जाइ जीउ ॥ तेता जुगु आइआ अंतरि जोरु पाइआ जतु संजम करम कमाइ जीउ ॥२॥
मूलम्
तेता जुगु आइआ अंतरि जोरु पाइआ जतु संजम करम कमाइ जीउ ॥ पगु चउथा खिसिआ त्रै पग टिकिआ मनि हिरदै क्रोधु जलाइ जीउ ॥ मनि हिरदै क्रोधु महा बिसलोधु निरप धावहि लड़ि दुखु पाइआ ॥ अंतरि ममता रोगु लगाना हउमै अहंकारु वधाइआ ॥ हरि हरि क्रिपा धारी मेरै ठाकुरि बिखु गुरमति हरि नामि लहि जाइ जीउ ॥ तेता जुगु आइआ अंतरि जोरु पाइआ जतु संजम करम कमाइ जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = जिस मनुष्य के अंदर। जोरु = धक्का, प्रभाव। संजमु = संयम, इन्द्रियों को काबू करने के ‘जत’ आदि यत्न। पगु = पैर। मनि = मन में। जलाइ = जलाता है। बिसलोधु = (बिस = विष। लोधु = लाल अथवा सफेद फूलों वाला एक किस्म का पेड़ है) विषौला वृक्ष। निरप = नृप, राजे। धावहि = दौड़ते हैं, एक दूसरे के ऊपर हमले करते हैं। ममता = अपनत्व। मेरै ठाकुरि = मेरे ठाकुर ने। बिखु = जहर। नामि = नाम से।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के अंदर (दूसरों पे) धक्का जोर जबर (करने का स्वभाव) आ बसता है, उसके लिए तो त्रेता युग आया समझो (उसके अंदर जैसे त्रेता युग चल रहा है। वह मनुष्य परमात्मा का स्मरण भुला के) वीर्य को रोकना (ही धर्म समझ लेता है) वह मनुष्य इन्द्रियों को वश करने वाले कर्म ही करता है। उस मनुष्य के अंदर से (धर्म रूपी बैल का) चौथा पैर खिसक जाता है (उसके अंदर धर्म बैल) तीन पैरों पर ही खड़ा है, उसके मन में उसके हृदय में क्रोध पैदा होता है जो उस (के आत्मिक जीवन) को जलाता है।
(हे भाई!) उस मनुष्य के मन में हृदय में क्रोध पैदा हुआ रहता है, जो, जैसे एक बहुत बड़े विषौले वृक्ष के समान है। (जोर-जबरदस्ती के स्वभाव से पैदा हुए इस क्रोध के कारण ही) राजे एक-दूसरे पर हमले करते हैं, आपस में लड़-लड़ के दुख पाते हैं। जिस मनुष्य के अंदर ममता का रोग लग जाता है उसके अंदर अहंकार बढ़ता है, अहंम् बढ़ता ह। पर, जिस मनुष्य पर मेरे मालिक प्रभु ने मेहर की, गुरु की मति की इनायत से हरि-नाम की इनायत से उसके अंदर से ये जहर उतर जाती है। (हे भाई!) जिस मनुष्य के अंदर (दूसरों पर) धक्का (करने का स्वभाव) आ बसता है उसके अंदर, जैसे, त्रेता युग चल रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुगु दुआपुरु आइआ भरमि भरमाइआ हरि गोपी कान्हु उपाइ जीउ ॥ तपु तापन तापहि जग पुंन आर्मभहि अति किरिआ करम कमाइ जीउ ॥ किरिआ करम कमाइआ पग दुइ खिसकाइआ दुइ पग टिकै टिकाइ जीउ ॥ महा जुध जोध बहु कीन्हे विचि हउमै पचै पचाइ जीउ ॥ दीन दइआलि गुरु साधु मिलाइआ मिलि सतिगुर मलु लहि जाइ जीउ ॥ जुगु दुआपुरु आइआ भरमि भरमाइआ हरि गोपी कान्हु उपाइ जीउ ॥३॥
मूलम्
जुगु दुआपुरु आइआ भरमि भरमाइआ हरि गोपी कान्हु उपाइ जीउ ॥ तपु तापन तापहि जग पुंन आर्मभहि अति किरिआ करम कमाइ जीउ ॥ किरिआ करम कमाइआ पग दुइ खिसकाइआ दुइ पग टिकै टिकाइ जीउ ॥ महा जुध जोध बहु कीन्हे विचि हउमै पचै पचाइ जीउ ॥ दीन दइआलि गुरु साधु मिलाइआ मिलि सतिगुर मलु लहि जाइ जीउ ॥ जुगु दुआपुरु आइआ भरमि भरमाइआ हरि गोपी कान्हु उपाइ जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = (माया की) भटकना में। गोपी कान्हु = स्त्री मर्द (‘नाचंती गोपी जंना)। तापहि = तपते हैं, कष्ट सहते हैं। पुंन = (निहित) नेक कर्म। जोध = योद्धे, सूरमे। पचै = जलते हैं। दइआल = दयालु ने। साधु = गुरु। मिलि = मिल के।3।
अर्थ: जो जो स्त्री-मर्द परमात्मा ने पैदा किए हैं (ये सारे स्त्री-मर्द जो हरि ने पैदा किए हैं इनमें से जो जो माया की) भटकना में भटक रहा है (? उसके लिए मानो) द्वापर युग आया हुआ है। (ऐसे लोग भटकना में पड़ के) तप साधते हैं, धूणियां तपाने का कष्ट सहते हैं, यज्ञ आदि निहित पुंन्न कर्म करते हैं। (जो भी मनुष्य परमात्मा का स्मरण छोड़ के और ही धार्मिक निहित) क्रिया-कर्म करता है (उसके अंदर से धर्म-बैल अपने दोनों) पैर खिसका लेता है (उसके अंदर धर्म-बैल) दो-पैरों के आसरे टिका रहता है। (ये द्वापर युग का प्रभाव ही समझो कि माया की भटकना में फंस के) बड़े-बड़े सूरमे बड़े-बड़े युद्ध मचा देते हैं। (माया की भटकना के कारण ही मनुष्य स्वयं) अहंकार में जलता है व और लोगों को जलाता है।
दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिला दिया, गुरु को मिल के (उसके अंदर से माया की) मैल उतर जाती है। (हे भाई!) जो-जो स्त्री-मर्द परमात्मा ने पैदा किया है, जो-जो माया की भटकना में भटक रहा है (उसके वास्ते, जैसे) द्वापर युग आया हुआ है।3।
[[0446]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलिजुगु हरि कीआ पग त्रै खिसकीआ पगु चउथा टिकै टिकाइ जीउ ॥ गुर सबदु कमाइआ अउखधु हरि पाइआ हरि कीरति हरि सांति पाइ जीउ ॥ हरि कीरति रुति आई हरि नामु वडाई हरि हरि नामु खेतु जमाइआ ॥ कलिजुगि बीजु बीजे बिनु नावै सभु लाहा मूलु गवाइआ ॥ जन नानकि गुरु पूरा पाइआ मनि हिरदै नामु लखाइ जीउ ॥ कलजुगु हरि कीआ पग त्रै खिसकीआ पगु चउथा टिकै टिकाइ जीउ ॥४॥४॥११॥
मूलम्
कलिजुगु हरि कीआ पग त्रै खिसकीआ पगु चउथा टिकै टिकाइ जीउ ॥ गुर सबदु कमाइआ अउखधु हरि पाइआ हरि कीरति हरि सांति पाइ जीउ ॥ हरि कीरति रुति आई हरि नामु वडाई हरि हरि नामु खेतु जमाइआ ॥ कलिजुगि बीजु बीजे बिनु नावै सभु लाहा मूलु गवाइआ ॥ जन नानकि गुरु पूरा पाइआ मनि हिरदै नामु लखाइ जीउ ॥ कलजुगु हरि कीआ पग त्रै खिसकीआ पगु चउथा टिकै टिकाइ जीउ ॥४॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। कीरति = महिमा। रुति = ऋतु, समय, मानव जनम का समय। वडाई = आदर मान। खेतु = फसल। कलिजुगि = कलियुग (के प्रभाव) में। लाहा = लाभ। मूलु = संपत्ति, धन-दौलत। नानकि = नानक ने। मनि = मन में। हिरदै = हृदय में। लखाइ = प्रगट कर दिया।4।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर से धर्म-बैल के) तीन पैर फिसल गए (जिस मनुष्य के अंदर धर्म-बैल सिर्फ) चौथा पैर ही रह जाता है (जिसके अंदर सिर्फ नाम-मात्र को ही धर्म रह जाता है, उसके वास्ते) परमात्मा ने (मानो) कलियुग बना दिया। जो मनुष्य गुरु के शब्द को कमाता है (शब्द के अनुसार अपना जीवन ढालता है) वह हरि-नाम की दवा हासिल कर लेता है, वह परमात्मा की महिमा करता है, परमात्मा (उसके अंदर) शांति पैदा कर देता है। (उस मनुष्य को समझ आ जाती है कि ये मानव जनम की) ऋतु परमात्मा की महिमा के वास्ते मिली है, परमात्मा का नाम ही (लोक-परलोक में) आदर-मान देता है (वह मनुष्य अपने अंदर) परमात्मा के नाम (की) फसल बीजता है। पर जो मनुष्य परमात्मा का नाम छोड़ के (कर्मकांड आदि कोई और) बीज बीजता है वह (मानो) कलियुग (के प्रभाव) में है वह पूंजी भी गवा लेता है और लाभ भी कोई नहीं कमाता।
(हे भाई! परमात्मा की कृपा से) दास नानक ने पूरा गुरु ढूँढ लिया है, गुरु ने (नानक के) मन में हृदय में प्रभु का नाम प्रगट कर दिया है।
(हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर से धर्म-बैल के) तीन पैर फिसल गए (जिस मनुष्य के अंदर धर्म-बैल सिर्फ) चौथा पैर टिकाए रखता है (जिसके अंदर सिर्फ नाम-मात्र धर्म रह जाता है, उसके वास्ते) परमात्मा ने (जैसे) कलियुग बना दिया है।4।4।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ हरि कीरति मनि भाई परम गति पाई हरि मनि तनि मीठ लगान जीउ ॥ हरि हरि रसु पाइआ गुरमति हरि धिआइआ धुरि मसतकि भाग पुरान जीउ ॥ धुरि मसतकि भागु हरि नामि सुहागु हरि नामै हरि गुण गाइआ ॥ मसतकि मणी प्रीति बहु प्रगटी हरि नामै हरि सोहाइआ ॥ जोती जोति मिली प्रभु पाइआ मिलि सतिगुर मनूआ मान जीउ ॥ हरि कीरति मनि भाई परम गति पाई हरि मनि तनि मीठ लगान जीउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ हरि कीरति मनि भाई परम गति पाई हरि मनि तनि मीठ लगान जीउ ॥ हरि हरि रसु पाइआ गुरमति हरि धिआइआ धुरि मसतकि भाग पुरान जीउ ॥ धुरि मसतकि भागु हरि नामि सुहागु हरि नामै हरि गुण गाइआ ॥ मसतकि मणी प्रीति बहु प्रगटी हरि नामै हरि सोहाइआ ॥ जोती जोति मिली प्रभु पाइआ मिलि सतिगुर मनूआ मान जीउ ॥ हरि कीरति मनि भाई परम गति पाई हरि मनि तनि मीठ लगान जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरति = महिमा। मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। रसु = स्वाद। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। पुरान = पुराना, पहला। नामि = नाम से। सुहागु = पति प्रभु। मणी = रतन। प्रगटी = चमक पड़ी। सोहाइआ = सोहणा बना दिया। मान = मान गया।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के) मन को परमात्मा की महिमा प्यारी लग गई, उसने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली, उसके मन में हृदय में प्रभु प्यारा लगने लगा। जिस मनुष्य ने गुरु की मति ले के परमात्मा का स्मरण किया, परमात्मा के नाम का स्वाद चखा, उसके माथे पे धुर दरगाह से लिखे हुए पूर्बले भाग्य जाग उठे। उसके माथे पे धुर दरगाह से लिखे लेख अंकुरित हो गए, हरि-नाम में जुड़ के उसने पति-प्रभु को पा लिया, वह सदा हरि-नाम में जुड़ा रहता है, वह सदा ही हरि के गुण गाता रहता है। उसके माथे पे प्रभु चरणों के प्रीति की मणि चमक उठती है। उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिल जाती है, वह प्रभु को मिल पड़ता है, गुरु को मिल के उसका मन (परमात्मा की याद में) लीन हो जाता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन को परमात्मा की महिमा अच्छी लगने लग जाती है, उसने सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर ली, उसके मन में उसके हृदय में प्रभु प्यारा लगने लग जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि जसु गाइआ परम पदु पाइआ ते ऊतम जन परधान जीउ ॥ तिन्ह हम चरण सरेवह खिनु खिनु पग धोवह जिन हरि मीठ लगान जीउ ॥ हरि मीठा लाइआ परम सुख पाइआ मुखि भागा रती चारे ॥ गुरमति हरि गाइआ हरि हारु उरि पाइआ हरि नामा कंठि धारे ॥ सभ एक द्रिसटि समतु करि देखै सभु आतम रामु पछान जीउ ॥ हरि हरि जसु गाइआ परम पदु पाइआ ते ऊतम जन परधान जीउ ॥२॥
मूलम्
हरि हरि जसु गाइआ परम पदु पाइआ ते ऊतम जन परधान जीउ ॥ तिन्ह हम चरण सरेवह खिनु खिनु पग धोवह जिन हरि मीठ लगान जीउ ॥ हरि मीठा लाइआ परम सुख पाइआ मुखि भागा रती चारे ॥ गुरमति हरि गाइआ हरि हारु उरि पाइआ हरि नामा कंठि धारे ॥ सभ एक द्रिसटि समतु करि देखै सभु आतम रामु पछान जीउ ॥ हरि हरि जसु गाइआ परम पदु पाइआ ते ऊतम जन परधान जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा के गीत। परम पदु = ऊँचा आत्मिक दर्जा। ते जन = वह लोग। परधान = जाने माने। सरेवह = हम सेवा करते हैं। धोवह = हम धोते हैं। पग = पैर। मुखि = मुंह पर। रती = रतन, मणी। चारे = चार, सुंदर। उरि = हिरदै में। कंठि = गले में। सभ = सारी दुनिया। समतु = बराबर, एक जैसा। करि = कर के, समझ के। सभु = हर जगह। आतम रामु = सर्व व्यापक प्रभु।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो लोग परमात्मा के महिमा के गीत गाते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं, वे मनुष्य जगत में श्रेष्ठ गिने जाते हैं इज्जत वाले समझे जाते हैं। (हे भाई!) जिस मनुष्यों को परमात्मा प्यारा लगता है, हम उनके चरणों की सेवा करते हैं हम उनके हर वक्त पैर धोते हैं।
(हे भाई!) जिन्हें परमात्मा प्यारा लगा, उन्होंने सबसे उच्च आनंद पाया, उनके मुंह पे अच्छे भाग्यों की सुंदर मणि चमक उठी।
हे भाई! जो मनुष्य गुरु की मति ले के परमात्मा की महिमा करता है, परमात्मा के गुणों का परमात्मा के हार को अपने हृदय में संभालता है अपने गले में डालता है वह सारी दुनिया को एक (प्यार-) भरी निगाह से एक जैसा ही समझ के देखता है, वह हर जगह सर्व-व्यापक परमात्मा को ही बसता पहचानता है। (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के महिमा के गीत गाते हैं वे सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं, वे मनुष्य जगत में श्रेष्ठ गिने जाते हैं इज्जत वाले समझे जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतसंगति मनि भाई हरि रसन रसाई विचि संगति हरि रसु होइ जीउ ॥ हरि हरि आराधिआ गुर सबदि विगासिआ बीजा अवरु न कोइ जीउ ॥ अवरु न कोइ हरि अम्रितु सोइ जिनि पीआ सो बिधि जाणै ॥ धनु धंनु गुरू पूरा प्रभु पाइआ लगि संगति नामु पछाणै ॥ नामो सेवि नामो आराधै बिनु नामै अवरु न कोइ जीउ ॥ सतसंगति मनि भाई हरि रसन रसाई विचि संगति हरि रसु होइ जीउ ॥३॥
मूलम्
सतसंगति मनि भाई हरि रसन रसाई विचि संगति हरि रसु होइ जीउ ॥ हरि हरि आराधिआ गुर सबदि विगासिआ बीजा अवरु न कोइ जीउ ॥ अवरु न कोइ हरि अम्रितु सोइ जिनि पीआ सो बिधि जाणै ॥ धनु धंनु गुरू पूरा प्रभु पाइआ लगि संगति नामु पछाणै ॥ नामो सेवि नामो आराधै बिनु नामै अवरु न कोइ जीउ ॥ सतसंगति मनि भाई हरि रसन रसाई विचि संगति हरि रसु होइ जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। भाई = प्यारी लगी। हरि रसन रसाई = हरि नाम के रस से रसी (भीगी) हुई। हरि रसु = हरि नाम का स्वाद। गुर सबदि = गुरु के शब्द के द्वारा। विगसिआ = खिल पड़ता है। बीजा = बीआ, दूसरा। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। जिनि = जिस ने। बिधि = दशा। लगि = (चरणों में) लग के। पछाणै = सांझ डालता है। सेवि = सेवा करके, स्मरण करके।3।
अर्थ: (हे भाई!) हरि नाम के रस से रसी हुई साधु-संगत जिस मनुष्य को अपने मन में प्यारी लगती है उसे संगति में हरि नाम का स्वाद प्राप्त होता है। वह मनुष्य ज्यों-ज्यों परमात्मा का नाम आराधता है गुरु के शब्द की इनायत से (उसका हृदय) खिल उठता है, उसे कहीं भी एक परमात्मा के सिवा और कोई नजर नहीं आता। उसे कहीं भी प्रभु के बिना और कोई नहीं दिखता, वह सदा आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम का जल पीता रहता है। जो मनुष्य ये नाम-अमृत पीता है वही अपनी आत्मिक दशा को जानता है (बयान नहीं की जा सकती)। वह मनुष्य हर समय पूरे गुरु का धन्यवाद करता है क्योंकि गुरु के द्वारा ही वह परमात्मा को मिल सका है। गुरु की संगति की शरण पड़ के वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है। वह मनुष्य सदा हरि-नाम ही स्मरण करता है हरि-नाम ही आराधता है। परमात्मा के नाम के बिना उसे कोई और चीज प्यारी नहीं लगती।
(हे भाई!) हरि-नाम के रस से रसी हुई साधु-संगत जिस मनुष्य को अपने मन में प्यारी लगती है उसे संगति में हरि-नाम का स्वाद प्राप्त होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि दइआ प्रभ धारहु पाखण हम तारहु कढि लेवहु सबदि सुभाइ जीउ ॥ मोह चीकड़ि फाथे निघरत हम जाते हरि बांह प्रभू पकराइ जीउ ॥ प्रभि बांह पकराई ऊतम मति पाई गुर चरणी जनु लागा ॥ हरि हरि नामु जपिआ आराधिआ मुखि मसतकि भागु सभागा ॥ जन नानक हरि किरपा धारी मनि हरि हरि मीठा लाइ जीउ ॥ हरि दइआ प्रभ धारहु पाखण हम तारहु कढि लेवहु सबदि सुभाइ जीउ ॥४॥५॥१२॥
मूलम्
हरि दइआ प्रभ धारहु पाखण हम तारहु कढि लेवहु सबदि सुभाइ जीउ ॥ मोह चीकड़ि फाथे निघरत हम जाते हरि बांह प्रभू पकराइ जीउ ॥ प्रभि बांह पकराई ऊतम मति पाई गुर चरणी जनु लागा ॥ हरि हरि नामु जपिआ आराधिआ मुखि मसतकि भागु सभागा ॥ जन नानक हरि किरपा धारी मनि हरि हरि मीठा लाइ जीउ ॥ हरि दइआ प्रभ धारहु पाखण हम तारहु कढि लेवहु सबदि सुभाइ जीउ ॥४॥५॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पाखण = पत्थर, कठोर दिल। सबदि = (गुरु के) शब्द में (जोड़ के)। सुभाइ = (अपने) प्रेम में (जोड़ के)। हरि = हे हरि! प्रभि = प्रभु ने। जनु = (वह) मनुष्य। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। सभागा = सौभाग्य। मनि = मन में।4।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! मेहर कर, हम पत्थर-दिलों को (संसार समुंदर से) पार लंघा ले, गुरु के शब्द में जोड़ के अपने प्रेम में जोड़ के हमें (मोह के कीचड़ में से) निकाल ले। हे हरि! हम (माया के) मोह के कीचड़ में फसे हुए हैं, हमारा आत्मिक जीवन निघरता जा रहा है। हे प्रभु! हमें अपनी बाँह पकड़ा।
(हे भाई! जिस मनुष्य को) प्रभु ने अपने बाँह पकड़ा दी उसने श्रेष्ठ मति पा ली, वह मनुष्य गुरु की शरण जा पड़ा, वह मनुष्य हर समय गुरु का नाम जपने लगा, हरि-नाम स्मरण करने लग पड़ा, उसके मुंह पे उसके माथे पे सौभाग्य जाग गए। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य पे प्रभु ने मेहर की उसके मन को परमात्मा का नाम मधुर लगने लगता है।
हे हरि! हे प्रभु! मेहर कर, हम कठोर दिलों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा ले, गुरु के शब्द में जोड़ के, अपने प्रेम में जोड़ के हमें (मोह के कीचड़ में से) निकाल ले।4।5।12।
[[0447]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ मनि नामु जपाना हरि हरि मनि भाना हरि भगत जना मनि चाउ जीउ ॥ जो जन मरि जीवे तिन्ह अम्रितु पीवे मनि लागा गुरमति भाउ जीउ ॥ मनि हरि हरि भाउ गुरु करे पसाउ जीवन मुकतु सुखु होई ॥ जीवणि मरणि हरि नामि सुहेले मनि हरि हरि हिरदै सोई ॥ मनि हरि हरि वसिआ गुरमति हरि रसिआ हरि हरि रस गटाक पीआउ जीउ ॥ मनि नामु जपाना हरि हरि मनि भाना हरि भगत जना मनि चाउ जीउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ मनि नामु जपाना हरि हरि मनि भाना हरि भगत जना मनि चाउ जीउ ॥ जो जन मरि जीवे तिन्ह अम्रितु पीवे मनि लागा गुरमति भाउ जीउ ॥ मनि हरि हरि भाउ गुरु करे पसाउ जीवन मुकतु सुखु होई ॥ जीवणि मरणि हरि नामि सुहेले मनि हरि हरि हिरदै सोई ॥ मनि हरि हरि वसिआ गुरमति हरि रसिआ हरि हरि रस गटाक पीआउ जीउ ॥ मनि नामु जपाना हरि हरि मनि भाना हरि भगत जना मनि चाउ जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। भाना = प्यारा लगता है। चाउ = उत्शाह। मरि = मर के, स्वैभाव मार के। जीवे = आत्मिक जीवन जीते हैं। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भाउ = प्रेम। पसाउ = प्रसादि, कृपा। मुकतु = माया के बंधनों से मुक्त। जीवणि = आत्मिक जीवन जीने के कारण। मरणि = स्वैभाव से मरने के कारण। नामि = नाम में। सुहेले = आसान, सुखी। रसिआ = रच जाता है। गटाक = गट गट के, बड़े बड़े घूट भर के।1।
अर्थ: हे भाई! भक्तजन अपने मन में सदा हरि-नाम जपते हैं, हरि-नाम उन्हें मन में प्यारा लगता है, नाम जपने का उनके मन में चाव बना रहता है। जो मनुष्य स्वैभाव मिटा के आत्मिक जीवन जीते हैं वे सदा आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहते हैं, गुरु के उपदेश की इनायत से उनके मन में प्रभु के वास्ते प्यार बना रहता है।
हे भाई! जिस मनुष्य पे गुरु कृपा करता है उसके मन में प्रभु चरणों के लिए प्यार पैदा होजाता है वह मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के बंधनों से छूट जाता है, वह आत्मिक आनंद भोगता है।
हे भाई! आत्मिक जीवन जीने के कारण और स्वैभाव को मारने के कारण, परमात्मा के नाम में जुड़े रहने वाले मनुष्य सदैव सुखी रहते हैं, उनके मन में उनके हृदय में सदा वह परमात्मा ही बसा रहता है। गुरु की मति के सदका उनके मन में सदा परमात्मा का नाम बसा रहता है, हरि-नाम उनके अंदर रच जाता है, वह हरि-नाम-जल, मानो, गट-गट-गट करके पीते रहते हैं।
हे भाई! भक्त जन अपने मन में सदा हरि-नाम जपते हैं, हरि-नाम उन्हें मन में प्यारा लगता है, नाम जपने का उनके मन में उत्साह बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगि मरणु न भाइआ नित आपु लुकाइआ मत जमु पकरै लै जाइ जीउ ॥ हरि अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको इहु जीअड़ा रखिआ न जाइ जीउ ॥ किउ जीउ रखीजै हरि वसतु लोड़ीजै जिस की वसतु सो लै जाइ जीउ ॥ मनमुख करण पलाव करि भरमे सभि अउखध दारू लाइ जीउ ॥ जिस की वसतु प्रभु लए सुआमी जन उबरे सबदु कमाइ जीउ ॥ जगि मरणु न भाइआ नित आपु लुकाइआ मत जमु पकरै लै जाइ जीउ ॥२॥
मूलम्
जगि मरणु न भाइआ नित आपु लुकाइआ मत जमु पकरै लै जाइ जीउ ॥ हरि अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको इहु जीअड़ा रखिआ न जाइ जीउ ॥ किउ जीउ रखीजै हरि वसतु लोड़ीजै जिस की वसतु सो लै जाइ जीउ ॥ मनमुख करण पलाव करि भरमे सभि अउखध दारू लाइ जीउ ॥ जिस की वसतु प्रभु लए सुआमी जन उबरे सबदु कमाइ जीउ ॥ जगि मरणु न भाइआ नित आपु लुकाइआ मत जमु पकरै लै जाइ जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगि = जगत में। मरणु = मौत। भाइआ = पसंद आइआ। आपु = अपने आप को, जीवात्मा को। मत लै जाइ = कहीं ले ना जाए। जीअड़ा = जिंद। जीउ = जीवात्मा। लोड़ीजै = ढूँढ लेता है। करण पलाव = करुणा प्रलाप, तरले, दुहाई, मिन्नतें। उबरे = बच गए।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस की’ में से शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जगत में (किसी को भी) मौत पसंद नहीं आती, (हर कोई) सदा अपनी जिंद का छुपाता फिरता है कि कहीं जम इसे पकड़ केही ना ले जाए। पर, परमात्मा हरेक के अंदर और बाहर सारे जगत में भी बसता है, उससे छुपा के यह जीवात्मा (मौत से) बचाई नहीं जा सकती। ये जिंद किसी तरह भी (मौत से) बचा के नहीं रखी जा सकती, हरि-प्रभु इस (जिंद-) वस्तु को ढूँढ ही लेता है। परमात्मा की ये चीजवह इसे ले ही जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे तरले कर-करके हरेक किस्म के दवा दारू बरत के भटकते फिरते हैं, पर जिस परमात्मा की दी हुई ये चीज है वह मालिक प्रभु इसे ले ही लेता है। परमात्मा के सेवक गुरु का शब्द कमा के (शब्द के अनुसार अपना आत्मिक जीवन बना के, मौत के सहम से) बच जाते हैं। (हे भाई!) जगत में (किसी को भी) मौत अच्छी नहीं लगती (हरेक जीव) सदा अपनी जीवात्मा को छुपाता है कि कहीं जम इसे पकड़ के ना ले जाए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुरि मरणु लिखाइआ गुरमुखि सोहाइआ जन उबरे हरि हरि धिआनि जीउ ॥ हरि सोभा पाई हरि नामि वडिआई हरि दरगह पैधे जानि जीउ ॥ हरि दरगह पैधे हरि नामै सीधे हरि नामै ते सुखु पाइआ ॥ जनम मरण दोवै दुख मेटे हरि रामै नामि समाइआ ॥ हरि जन प्रभु रलि एको होए हरि जन प्रभु एक समानि जीउ ॥ धुरि मरणु लिखाइआ गुरमुखि सोहाइआ जन उबरे हरि हरि धिआनि जीउ ॥३॥
मूलम्
धुरि मरणु लिखाइआ गुरमुखि सोहाइआ जन उबरे हरि हरि धिआनि जीउ ॥ हरि सोभा पाई हरि नामि वडिआई हरि दरगह पैधे जानि जीउ ॥ हरि दरगह पैधे हरि नामै सीधे हरि नामै ते सुखु पाइआ ॥ जनम मरण दोवै दुख मेटे हरि रामै नामि समाइआ ॥ हरि जन प्रभु रलि एको होए हरि जन प्रभु एक समानि जीउ ॥ धुरि मरणु लिखाइआ गुरमुखि सोहाइआ जन उबरे हरि हरि धिआनि जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। सोहाइआ = सोहाना लगता है। जन = भक्त जन। उबरे = मौत के सहम से बचे रहते हैं। धिआनि = ध्यान में (जुड़ के)। नामि = नाम से। पैधे = आदर मान प्राप्त करके। जानि = जाते हैं। सीधे = कामयाब होते हैं। रलि = मिल के। एक समानि = एक जैसे।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े रहने वाले मनुष्यों को ये धुर दरगाह से लिखी हुई मौत भी सुंदर लगती है, वे गुरसिख जन परमात्मा के चरणों के ध्यान में जुड़ के (मौत के सहम से) बचे रहते हैं। परमात्मा के नाम में जुड़ केवे गुरसिख (लोक परलोक में) शोभा और महिमा कमाते हैं, जगत से इज्जत और मान ले के वे परमात्मा की दरगाह में जाते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा की हजूरी में इज्जत हासिल करते हैं, हरि-नाम की इनायत से वे अपना जीवन कामयाब बना लेते हैं, परमात्मा के नाम से वे आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। गुरु के दर पे टिके रहने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं, और इस तरह वे जूनियों के चक्कर और मौत- इन दोनों दुखों को मिटा लेते हैं।
(हे भाई!) परमात्मा के भक्त और परमात्मा मिल के एक रूप हो जाते हैं, परमात्मा के भक्त और परमात्मा एक जैसे ही हो जाते हैं। (हे भाई!) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को ये धुर-दरगाह से मिली हुई मौत भी सुंदर लगती है, वे गुरमुख लोग परमात्मा के ध्यान में लीन हो के (मौत के सहम से) बचे रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगु उपजै बिनसै बिनसि बिनासै लगि गुरमुखि असथिरु होइ जीउ ॥ गुरु मंत्रु द्रिड़ाए हरि रसकि रसाए हरि अम्रितु हरि मुखि चोइ जीउ ॥ हरि अम्रित रसु पाइआ मुआ जीवाइआ फिरि बाहुड़ि मरणु न होई ॥ हरि हरि नामु अमर पदु पाइआ हरि नामि समावै सोई ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है बिनु नावै अवरु न कोइ जीउ ॥ जगु उपजै बिनसै बिनसि बिनासै लगि गुरमुखि असथिरु होइ जीउ ॥४॥६॥१३॥
मूलम्
जगु उपजै बिनसै बिनसि बिनासै लगि गुरमुखि असथिरु होइ जीउ ॥ गुरु मंत्रु द्रिड़ाए हरि रसकि रसाए हरि अम्रितु हरि मुखि चोइ जीउ ॥ हरि अम्रित रसु पाइआ मुआ जीवाइआ फिरि बाहुड़ि मरणु न होई ॥ हरि हरि नामु अमर पदु पाइआ हरि नामि समावै सोई ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है बिनु नावै अवरु न कोइ जीउ ॥ जगु उपजै बिनसै बिनसि बिनासै लगि गुरमुखि असथिरु होइ जीउ ॥४॥६॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपजै = पैदा होता है। बिनसे = मरता है। बिनसि बिनासै = आत्मिक मौत सहेड़ता रहता है। लगि = लग के। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। असथिरु = अडोल चित्त। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। रसकि = स्वाद से। मुखि = मुंह में। चोइ = टपकाता है। मुआ = आत्मिक मौत मरा हुआ। बाहुड़ि = दुबारा। अमर पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती। नामि = नाम में। अधारु = आसरा। टेक = सहारा।4।
अर्थ: (हे भाई! माया-ग्रसित) जगत (बार-बार) पैदा होता है मरता है, आत्मिक मौत मरता रहता है, गुरु के द्वारा (प्रभु चरणों में) लग के (माया के मोह की ओर से) अडोल-चित्त हो जाता है। गुरु जिस मनुष्य के हृदय में नाम-मंत्र पक्का करता है जिस मनुष्य के मुंह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल टपकाता है वह मनुष्य हरि-नाम-रस को स्वाद से (अपने अंदर) रचाता है। जबवह मनुष्य गुरु से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल करता है (पहले आत्मिक मौत) मरा हुआ वह मनुष्य आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है, दुबारा उसे ये मौत नहीं व्यापती। जो मनुष्य गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है वह मनुष्य वह दर्जा हासिल कर लेता है जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहता है। हे दास नानक! परमात्मा का नाम (उस मनुष्य की जिंदगी का) आसरा सहारा बन जाता है, परमात्मा के नाम के बिना कोई और पदार्थ उसके आत्मिक जीवन का सहारा नहीं बन सकता।
(हे भाई! माया-ग्रसित) जगत (बार-बार) पैदा होता है मरता है आत्मिक मौत मरता रहता है, गुरु के द्वारा (प्रभु चरणों में) लग के (माया के मोह से) अडोल-चित्त हो जाता है।4।6।13।
[[0448]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ छंत ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥ ता की गति कही न जाई अमिति वडिआई मेरा गोविंदु अलख अपार जीउ ॥ गोविंदु अलख अपारु अपर्मपरु आपु आपणा जाणै ॥ किआ इह जंत विचारे कहीअहि जो तुधु आखि वखाणै ॥ जिस नो नदरि करहि तूं अपणी सो गुरमुखि करे वीचारु जीउ ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ छंत ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥ ता की गति कही न जाई अमिति वडिआई मेरा गोविंदु अलख अपार जीउ ॥ गोविंदु अलख अपारु अपर्मपरु आपु आपणा जाणै ॥ किआ इह जंत विचारे कहीअहि जो तुधु आखि वखाणै ॥ जिस नो नदरि करहि तूं अपणी सो गुरमुखि करे वीचारु जीउ ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (गो = ज्ञान-इंद्रिय) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे। आदि = सबसे आरम्भ। निरंजनु = (निर+अंजनु) जिसे माया की कालिख नहीं लग सकती। निरंकारु = (निर+आकार) जिसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता। गति = हालत। अमिति = ना गिनी जाने वाली। अलख = जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। अपरंपरु = परे से परे बेअंत। कहीअहि = कहे जाएं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘नो’ संबधक के कारण हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती। (हे भाई!) ये नहीं बताया जा सकता कि परमात्मा कैसा है, उसका बड़प्पन भी पैमायश से परे है (हे भाई!) मेरा वह गोबिंद बयान से बाहर है बेअंत है। परे से परे है, अपने आप को वह ही जानता है। इन जीव विचारों की भी क्या बिसात (कि वे उसका रूप बता सकें)?
(हे प्रभु! कोई भी ऐसा जीव नहीं है) जो तेरी हस्ती को बयान करके समझा सके। हे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू अपनी मेहर की निगाह करता है, वह गुरु की शरण पड़ कर (तेरे गुणों की) विचार करता है।
(हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥ घट अंतरि पारब्रहमु परमेसरु ता का अंतु न पाइआ ॥ तिसु रूपु न रेख अदिसटु अगोचरु गुरमुखि अलखु लखाइआ ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती सहजे नामि समाइ जीउ ॥ तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥२॥
मूलम्
तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥ घट अंतरि पारब्रहमु परमेसरु ता का अंतु न पाइआ ॥ तिसु रूपु न रेख अदिसटु अगोचरु गुरमुखि अलखु लखाइआ ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती सहजे नामि समाइ जीउ ॥ तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। करता = विधाता। पारु = परला छोर। घट = शरीर। निरंतरि = बिना दूरी के। (अंतर = दूरी, असमीपता)। अंतरि = अंदर में। रेख = चिन्ह चक्र (रेखा, लकीर)। अदिसटु = ना दिखने वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। अनंदि = आनंद में। सहजे = आत्मिक अडोलता में, सहजि ही।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता। तू हरेक शरीर में मौजूद है, तू एक-रस सब में समा रहा है।
हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर हरेक शरीर के अंदर मौजूद है उसके गुणों का अंत (कोई जीव) नहीं पा सकता। उस प्रभु का कोई खास रूप, कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं बयान किया जा सकता। वह प्रभु (इन आँखों से) दिखता नहीं वह ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, गुरु के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि उस परमात्मा का स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह) दिन-रात हर समय आत्मिक आनंद में मगन रहता है, परमात्मा के नाम में लीन रहता है।
हे प्रभु! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥ हरि हरि प्रभु एको अवरु न कोई तूं आपे पुरखु सुजानु जीउ ॥ पुरखु सुजानु तूं परधानु तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तेरा सबदु सभु तूंहै वरतहि तूं आपे करहि सु होई ॥ हरि सभ महि रविआ एको सोई गुरमुखि लखिआ हरि नामु जीउ ॥ तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥३॥
मूलम्
तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥ हरि हरि प्रभु एको अवरु न कोई तूं आपे पुरखु सुजानु जीउ ॥ पुरखु सुजानु तूं परधानु तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तेरा सबदु सभु तूंहै वरतहि तूं आपे करहि सु होई ॥ हरि सभ महि रविआ एको सोई गुरमुखि लखिआ हरि नामु जीउ ॥ तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। परमेसरु = परम+ईश्वर, सबसे बड़ा हाकिम। अबिनासी = कभी ना नाश होने वाला। गुण निधानु = (सारे) गुणों का खजाना। पुरखु = सर्व व्यापक। सुजानु = सयाना। परधानु = जाना माना। सबदु = हुक्म। सभु = हर जगह। तूं है = तू ही। वरतहि = मौजूद है। रविआ = व्यापक है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। लखिआ = समझा जाता है।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है। हे हरि! तू ही ऐकमेव मालिक है, तेरे बराबर का और कोई नहीं है तू स्वयं ही सबके अंदर मौजूद है, तू स्वयं ही सबके दिल की जानने वाला है। हे हरि! तू सब में व्यापक है, तू घट-घट की जानने वाला है, तू सबसे शिरोमणी है, तेरे जितना और कोई नहीं है। हर जगह तेरा ही हुक्म चल रहा है, हर जगह तू ही तू मौजूद है, जगत में वही होता है जो तू स्वयं ही करता है।
हे भाई! सारी सृष्टि में एक वह परमात्मा ही रम रहा है, गुरु की शरण पड़ के उस परमात्मा के नाम की समझ पड़ती है।
हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावहि सभ तेरै सबदि समाइ जीउ ॥ सभ सबदि समावै जां तुधु भावै तेरै सबदि वडिआई ॥ गुरमुखि बुधि पाईऐ आपु गवाईऐ सबदे रहिआ समाई ॥ तेरा सबदु अगोचरु गुरमुखि पाईऐ नानक नामि समाइ जीउ ॥ सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥४॥७॥१४॥
मूलम्
सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावहि सभ तेरै सबदि समाइ जीउ ॥ सभ सबदि समावै जां तुधु भावै तेरै सबदि वडिआई ॥ गुरमुखि बुधि पाईऐ आपु गवाईऐ सबदे रहिआ समाई ॥ तेरा सबदु अगोचरु गुरमुखि पाईऐ नानक नामि समाइ जीउ ॥ सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥४॥७॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु = हर जगह। करता = हे कर्तार! वडिआई = प्रतिभा, बड़प्पन, तेज प्रताप। भावै = अच्छा लगे। चलाइ = चाल। सभ = सारी दुनिया। सबदि = हुक्म में। समाइ = लीन रहती है, अनुसार हो के चलती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। आपु = स्वै भाव। सबदे = गुरु के शब्द द्वारा। अगोचरु = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। नामि = नाम में।4।
अर्थ: हे कर्तार! हर जगह तू ही तू है, सारी सृष्टि तेरे ही तेज प्रताप का प्रकाश है। हे कर्तार! जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे, (अपनी इस रचना को अपने हुक्म में) चला। हे कर्तार! जैसे तूझे खुद को अच्छा लगता है वैसे तू सृष्टि को काम में लगाए हुए है, सारी दुनिया तेरे ही हुक्म के अनुसार हो के चलती है। सारी दुनिया तेरे ही हुक्म में ही टिकी रहती है, जब तुझे ठीक लगता है, तो तेरे हुक्म मुताबिक ही (जीवों को) आदर-माण मिलता है।
हे भाई! अगर गुरु की शरण पड़ के सद्-बुद्धि हासिल कर लें, अगर (अपने अंदर से) अहंम्-अहंकार दूर कर लें, तो गुरु शब्द की इनायत से वह कर्तार हर जगह व्यापक दिखाई देता है।
हे नानक! (कह: हे कर्तार!) तूरा हुक्म जीवों की ज्ञानेंन्द्रियों की पहुँच से परे है (तेरे हुक्म की समझ) गुरु की शरण पड़ने से प्राप्त होती है। (जिस मनुष्य को प्राप्त होती है वह तेरे) नाम में लीन हो जाता है। हे कर्तार! हर जगह तू ही तू है, सारी सृष्टि तेरे ही तेज प्रताप का प्रकाश है। हे कर्तार! जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे, (अपनी इस सृष्टि को अपने हुक्म में) चला।4।7।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ४ छंत घरु ४ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ४ छंत घरु ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि अम्रित भिंने लोइणा मनु प्रेमि रतंना राम राजे ॥ मनु रामि कसवटी लाइआ कंचनु सोविंना ॥ गुरमुखि रंगि चलूलिआ मेरा मनु तनो भिंना ॥ जनु नानकु मुसकि झकोलिआ सभु जनमु धनु धंना ॥१॥
मूलम्
हरि अम्रित भिंने लोइणा मनु प्रेमि रतंना राम राजे ॥ मनु रामि कसवटी लाइआ कंचनु सोविंना ॥ गुरमुखि रंगि चलूलिआ मेरा मनु तनो भिंना ॥ जनु नानकु मुसकि झकोलिआ सभु जनमु धनु धंना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भिंने = भीगे हुए हैं, तर हो गए हैं, सरूर में आ गए हैं। लोइण = आँखे। प्रेमि = प्रेम रंग में। रतंना = रंगा गया है। रामि = राम ने। कंचनु = सोना। सोविंना = सुंदर रंग वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। चलूलिआ = गाढ़े लाल रंग से रंगा गया है। तनो = तन, शरीर, हृदय। मुसकि = कस्तूरी से। झकोलिआ = अच्छी तरह सुगंधित हो गया है। धनु धंना = भाग्यों वाला, सफल।1।
अर्थ: हे भाई! मेरी आँखें आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम-जल से सरूर में आ गई हैं, मेरा मन प्रभु के प्रेम रंग में रंगा गया है। परमात्मा ने मेरे मन को (अपने नाम की) कसवटी पर घिसाया है, और ये शुद्ध सोना बन गया है। गुरु की शरण पड़ने से मेरा मन प्रभु के प्रेम रंग में गाढ़ा लाल हो गया है, मेरा मन तरो-तर हो गया है। (गुरु की कृपा से) दास नानक (प्रभु के नाम की) कस्तूरी से पूरी तरह सुगंधित हो गया है, (दास नानक का) सारा जीवन ही भाग्यशाली बन गया है।1।
[[0449]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि प्रेम बाणी मनु मारिआ अणीआले अणीआ राम राजे ॥ जिसु लागी पीर पिरम की सो जाणै जरीआ ॥ जीवन मुकति सो आखीऐ मरि जीवै मरीआ ॥ जन नानक सतिगुरु मेलि हरि जगु दुतरु तरीआ ॥२॥
मूलम्
हरि प्रेम बाणी मनु मारिआ अणीआले अणीआ राम राजे ॥ जिसु लागी पीर पिरम की सो जाणै जरीआ ॥ जीवन मुकति सो आखीऐ मरि जीवै मरीआ ॥ जन नानक सतिगुरु मेलि हरि जगु दुतरु तरीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अणीआले = अणी वाले, तीखी नोक वाले (तीर)। पीर = पीड़ा, दर्द। पिरंम = प्रेम। जरीआ = जरी जाती है। जीवन मुकति = दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के बंधनो से आजाद। मरि = मर के, माया से अछोह हो के। दुतरु = जिससे पार लांघना मुश्किल है।2।
अर्थ: प्रभु चरणों में प्रेम पैदा करने वाली गुरबाणी ने मेरा मन भेद दिया है जैसे तीखी नोक वाले तीर (किसी चीज को) भेद देते हैं। (हे भाई!) जिस मनुष्य के अंदर प्रभु प्रेम की पीड़ा उठती है वही जानता है कि उस को कैसे सहा जा सकता है। जो मनुष्य माया के मोह की ओर से अछोह हो के आत्मिक जीवन जीता है वह दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के बंधनों से आजाद रहता है। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! मुझे गुरु मिला, ता कि मैं मुश्किल से तैरे जाने वाले इस संसार (समुंदर) से पार लांघ सकूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम मूरख मुगध सरणागती मिलु गोविंद रंगा राम राजे ॥ गुरि पूरै हरि पाइआ हरि भगति इक मंगा ॥ मेरा मनु तनु सबदि विगासिआ जपि अनत तरंगा ॥ मिलि संत जना हरि पाइआ नानक सतसंगा ॥३॥
मूलम्
हम मूरख मुगध सरणागती मिलु गोविंद रंगा राम राजे ॥ गुरि पूरै हरि पाइआ हरि भगति इक मंगा ॥ मेरा मनु तनु सबदि विगासिआ जपि अनत तरंगा ॥ मिलि संत जना हरि पाइआ नानक सतसंगा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख, बेसमझ। गोविंद = हे गोविंद! रंगा = कई रंग-तमाशे करने वाला। गुरि = गुरु के द्वारा। मंगा = मागें, मैं मांगता हूँ। सबदि = गुरु के शब्द से। विगासिआ = खिल पड़ा है। जपि = जप के। अनत तरंगा = अनंत तरंगों वाला, जिस में बेअंत लहरें उठ रही हैं। मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलु’ और ‘मिलि’ में फर्क स्मरणीय है)।3।
अर्थ: हे बेअंत करिश्मों के मालिक गोविंद! (हमें) मिल, हममूर्ख बेसमझ तेरी शरण में आए हैं। (हे भाई!) मैं (गुरु से) परमात्मा की भक्ति (की दाति) मांगता हूँ (क्योंकि) पूरे गुरु के माध्यम से परमात्मा मिल सकता है। (हे भाई!) गुरु के शब्द से बेअंत लहरों वाले (समुंदर-प्रभु) को स्मरण करके मेरा मन खिल गया है, मेरा हृदय प्रफुल्लित हो गया है। हे नानक! (कह:) संत जनों को मिल के संतों की संगति में मैंने परमात्मा को पा लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल सुणि बेनती हरि प्रभ हरि राइआ राम राजे ॥ हउ मागउ सरणि हरि नाम की हरि हरि मुखि पाइआ ॥ भगति वछलु हरि बिरदु है हरि लाज रखाइआ ॥ जनु नानकु सरणागती हरि नामि तराइआ ॥४॥८॥१५॥
मूलम्
दीन दइआल सुणि बेनती हरि प्रभ हरि राइआ राम राजे ॥ हउ मागउ सरणि हरि नाम की हरि हरि मुखि पाइआ ॥ भगति वछलु हरि बिरदु है हरि लाज रखाइआ ॥ जनु नानकु सरणागती हरि नामि तराइआ ॥४॥८॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = हे दया के घर! प्रभ = हे प्रभु! हरि राइआ = हे प्रभु पातशाह! हउ = मैं। मागउ = मांगूँ, माँगता हूँ। सरणि = आसरा, ओट। मुखि = मुख में। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। बिरदु = (ईश्वर का) मूल स्वभाव। लाज = इज्जत। नामि = नाम से।4।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले! हे हरि! हे प्रभु! हे प्रभु पातशाह! मेरी विनती सुन। हे हरि! मैं तेरे नाम का आसरा मांगता हूँ। हे हरि! (तेरी मेहर हो तो मैं तेरा नाम) अपने मुंह में ले सकता हूँ (मुंह से जप सकता हूँ)।
(हे भाई!) परमात्मा का ये मूल कदीमी स्वभाव है, बिरद है कि वह भक्ति से प्यार करता है (जो उसकी शरण पड़े, उसकी) इज्जत रख लेता है। (हे भाई!) दास नानक (भी) उस हरि की शरण आ पड़ा है (शरण आए मनुष्य को) हरि अपने नाम में जोड़ के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।4।8।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ गुरमुखि ढूंढि ढूढेदिआ हरि सजणु लधा राम राजे ॥ कंचन काइआ कोट गड़ विचि हरि हरि सिधा ॥ हरि हरि हीरा रतनु है मेरा मनु तनु विधा ॥ धुरि भाग वडे हरि पाइआ नानक रसि गुधा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ गुरमुखि ढूंढि ढूढेदिआ हरि सजणु लधा राम राजे ॥ कंचन काइआ कोट गड़ विचि हरि हरि सिधा ॥ हरि हरि हीरा रतनु है मेरा मनु तनु विधा ॥ धुरि भाग वडे हरि पाइआ नानक रसि गुधा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। लधा = मिल गया है। कंचन कोट गढ़ = सोने का किला। काइआ = शरीर। सिधा = प्रगट। विधा = भेद किया हुआ। धुरि = धुर दरगाह से। रसि = रस में, आनंद में। गुधा = एक रस मिल गया हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के तलाश करते-करते मैंने मित्र प्रभु को (अपने अंदर ही) पा लिया है। मेरा ये शरीर किला (जैसे) सोने का बन गया है (क्योंकि गुरु की कृपा से) इसमें परमात्मा प्रगट हो गया है। (हे भाई! मुझे अपने अंदर ही) परमात्मा का नाम-रत्न, परमात्मा का नाम-हीरा (मिल गया) है (जिससे मेरा कठोर) मन (मेरा कठोर) हृदय भेदित हो गया है (नर्म पड़ गया है)। हे नानक! (कह: हे भाई!) धुर प्रभु की हजूरी से बड़े भाग्यों से मुझे परमात्मा मिल गया है, मेरा स्वै उसकेप्रेम-रस में भीग गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंथु दसावा नित खड़ी मुंध जोबनि बाली राम राजे ॥ हरि हरि नामु चेताइ गुर हरि मारगि चाली ॥ मेरै मनि तनि नामु आधारु है हउमै बिखु जाली ॥ जन नानक सतिगुरु मेलि हरि हरि मिलिआ बनवाली ॥२॥
मूलम्
पंथु दसावा नित खड़ी मुंध जोबनि बाली राम राजे ॥ हरि हरि नामु चेताइ गुर हरि मारगि चाली ॥ मेरै मनि तनि नामु आधारु है हउमै बिखु जाली ॥ जन नानक सतिगुरु मेलि हरि हरि मिलिआ बनवाली ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंथ = रास्ता। दसावा = मैं पूछती हूँ। मुंध = जीव-स्त्री। जोबनि = जवानी में (मतवाली हुई)। बाली = अंजान। गुर = हे गुरु! चेताइ = याद करा। मारगि = रास्ते पर। चाली = चलूँ। मनि = मन में। तनि = हृदय में। अधारु = आसरा। बिखु = जहर। जाली = जला दूँ, जलाऊँ। मेलि = मिलूँ। बनवाली = परमात्मा।2।
अर्थ: हे सतिगुरु! मैं जोबन वंती अंजान जीव-स्त्री (तेरे दर से) सदा खड़ी हुई (तुझसे पति-प्रभु के देश का) राह पूछती हूँ।
हे सतिगुरु! मुझे प्रभु-पति का नाम याद कराता रह (मेहर कर) मैं परमात्मा के (देस पहुँचने वाले) रास्ते पर चलूँ। मेरे मन में हृदय में प्रभु का नाम ही सहारा है (अगर तेरी कृपा हो तो इस नाम की इनायत से अपने अंदर से) मैं अहंकार के जहर को जला दूँ। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! मुझे) गुरु मिला। जो भी कोई परमातमा को मिला है गुरु के द्वारा ही मिला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि पिआरे आइ मिलु मै चिरी विछुंने राम राजे ॥ मेरा मनु तनु बहुतु बैरागिआ हरि नैण रसि भिंने ॥ मै हरि प्रभु पिआरा दसि गुरु मिलि हरि मनु मंने ॥ हउ मूरखु कारै लाईआ नानक हरि कमे ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि पिआरे आइ मिलु मै चिरी विछुंने राम राजे ॥ मेरा मनु तनु बहुतु बैरागिआ हरि नैण रसि भिंने ॥ मै हरि प्रभु पिआरा दसि गुरु मिलि हरि मनु मंने ॥ हउ मूरखु कारै लाईआ नानक हरि कमे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा। पिआरे = हे प्यारे हरि! मै = मुझे। बैरागिआ = विरक्त हुआ। रसि = (प्रेम) जल से। भिंने = भीगे हुए। मिलि = मिल के। मंने = पतीज जाए, धरवास मिले। हउ = मैं।3।
अर्थ: हे प्यारे हरि! मुझे चिरों से विछुड़े हुए को गुरु के द्वारा आ मिल। हे हरि! मेरा मन मेरा हृदय बहुत ही विरक्त हुआ है (वैराग में आ गया है), मेरी आँखें (विछोड़े के कारण तेरे) प्रेम जाल में भीगी हुई हैं। हे हरि! मुझे प्यारे गुरु का पता बता, गुरु को मिल के मेरा मन तेरी याद में लीन हो जाए। हे नानक! (कह:) हे हरि! मैं मूर्ख हूँ, मुझे अपने (नाम स्मरण के) काम में जोड़।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर अम्रित भिंनी देहुरी अम्रितु बुरके राम राजे ॥ जिना गुरबाणी मनि भाईआ अम्रिति छकि छके ॥ गुर तुठै हरि पाइआ चूके धक धके ॥ हरि जनु हरि हरि होइआ नानकु हरि इके ॥४॥९॥१६॥
मूलम्
गुर अम्रित भिंनी देहुरी अम्रितु बुरके राम राजे ॥ जिना गुरबाणी मनि भाईआ अम्रिति छकि छके ॥ गुर तुठै हरि पाइआ चूके धक धके ॥ हरि जनु हरि हरि होइआ नानकु हरि इके ॥४॥९॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर देहुरी = गुरु का सुंदर शरीर। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। बुरके = (औरों के हृदय शरीर में) छिड़कता है। मनि = मन में। भाईआ = भाई, प्यारी लगी। अंम्रिति = अमृत से, आत्मिक जीवन देने वाले जल से। छकि छके = पी पी के। तुठै = दयावान होने से। चूके = समाप्त हो गए। धक धके = नित्य के धक्के, रोज की ठोकरें। नानक = नानक (कहता है)।4।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु का सुंदर हृदय सदा आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से भीगा रहता है, वह (गुरु औरों के हिरदै में भी यह) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल छिड़कता रहता है। जिस मनुष्यों को अपने मन में सतिगुरु की वाणी प्यारी लगने लग जाती है, वाणी का रस ले ले के उनके हृदय भी आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल में भीग जाते हैं। नानक (कहता है गुरु की कृपा से) परमात्मा और परमात्मा का सेवक एक-रूप हो जाते हैं, सेवक परमात्मा में लीन हो जाता है।4।9।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ हरि अम्रित भगति भंडार है गुर सतिगुर पासे राम राजे ॥ गुरु सतिगुरु सचा साहु है सिख देइ हरि रासे ॥ धनु धंनु वणजारा वणजु है गुरु साहु साबासे ॥ जनु नानकु गुरु तिन्ही पाइआ जिन धुरि लिखतु लिलाटि लिखासे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ हरि अम्रित भगति भंडार है गुर सतिगुर पासे राम राजे ॥ गुरु सतिगुरु सचा साहु है सिख देइ हरि रासे ॥ धनु धंनु वणजारा वणजु है गुरु साहु साबासे ॥ जनु नानकु गुरु तिन्ही पाइआ जिन धुरि लिखतु लिलाटि लिखासे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पासे = पास, नजदीक। साचा साहु = सदा स्थिर नाम खजाने का शाहूकार। सिख = सिखों को। देइ = देता है। रासे = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। धनु धनु = भाग्यशाली। साबासे = शाबाश। जिन लिलाट = जिस के माथे पे। धुरि = धुर दरगाह से। लिखासे = लिखा हुआ है।1।
अर्थ: (हे भाई!) आत्मिक जीवन देने वाली प्रभु भक्ति के खजाने गुरु सतिगुरु के पास ही हैं। इस सदा-स्थिर हरि-भक्ति के खजाने का शाहूकार गुरु-सतिगुरु ही है, वह अपने सिखों को ये भक्ति की संपत्ति देता है। (हे भाई!) (प्रभु-भक्ति का व्यापार) श्रेष्ठ व्यापार है, भाग्यशाली है वह मनुष्य जो ये व्यापार करता है, नाम-धन का शाह गुरु उस मनुष्य को शाबाश देता है। दास नानक (कहता है: हे भाई!) जिस मनुष्यों के माथे पर धुर से ही प्रभु की हजूरी से (इस सरमाए की प्राप्ति का) लेख लिखा है उनको ही मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु साहु हमारा तूं धणी सभु जगतु वणजारा राम राजे ॥ सभ भांडे तुधै साजिआ विचि वसतु हरि थारा ॥ जो पावहि भांडे विचि वसतु सा निकलै किआ कोई करे वेचारा ॥ जन नानक कउ हरि बखसिआ हरि भगति भंडारा ॥२॥
मूलम्
सचु साहु हमारा तूं धणी सभु जगतु वणजारा राम राजे ॥ सभ भांडे तुधै साजिआ विचि वसतु हरि थारा ॥ जो पावहि भांडे विचि वसतु सा निकलै किआ कोई करे वेचारा ॥ जन नानक कउ हरि बखसिआ हरि भगति भंडारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक। सभु = सारा। भांडे = शरीर। तुधे = तू ही। हरि = हे हरि! थारा = तेरी ही। पावहि = तू पाता है। सा = वही। कउ = को।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू हमारा मालिक है तू हमारा सदा कायम रहने वाला शाह है (तेरा पैदा किया हुआ यह) सारा जगत यहाँ तेरे दिए नाम-पूंजी से नाम का व्यापार करने आया हुआ है। हे प्रभु! ये सारे जीव-जंतु तूने ही पैदा किए हैं, इनके अंदर भी तेरी ही दी हुई जीवात्मा मौजूद है। कोई बिचारा जीव (अपने प्रयासों से) कुछ भी नहीं कर सकता, जो कोई (गुण-अवगुण) पदार्थ तू इन शरीरों में डालता है वही उघड़ के सामने आता है। हे हरि! अपने दास नानक को भी तूने ही (मेहर कर के) अपनी भक्ति का खजाना बख्शा है।2।
[[0450]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम किआ गुण तेरे विथरह सुआमी तूं अपर अपारो राम राजे ॥ हरि नामु सालाहह दिनु राति एहा आस आधारो ॥ हम मूरख किछूअ न जाणहा किव पावह पारो ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि दास पनिहारो ॥३॥
मूलम्
हम किआ गुण तेरे विथरह सुआमी तूं अपर अपारो राम राजे ॥ हरि नामु सालाहह दिनु राति एहा आस आधारो ॥ हम मूरख किछूअ न जाणहा किव पावह पारो ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि दास पनिहारो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। विथरह = विस्तार से बता सकते हैं। किआ गुण = कौन कौन से गुण? सुआमी = हे स्वामी! अपर = जिससे परे और कोई नहीं। अपार = जिसका परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता। सालाहह = हम सराहना करते हैं। आधारो = आसरा। किछूअ = कुछ भी। न जाणहा = हम नहीं जानते। किव = कैसे? पावह = हम पाएं। पारो = पार, अंत। पनिहारो = पानी भरने वाला, सेवक।3।
अर्थ: हे मेरे मालिक! (तू बेअंत गुणों का मालिक है) हम तेरे कौन-कौन से गुण गिन-गिन के बता सकते हैं? तू बेअंत है, तू बेअंत है। हे स्वामी! हम तो दिन-रात तेरे नाम की ही बड़ाई करते हैं, हमारे जीवन का यही सहारा है यही आसरा है। हे प्रभु! हम मूर्ख हैं, हमें कोई समझ नहीं है, हम तेरा अंत कैसे पा सकते हैं? (हे भाई!) दास नानक तो परमात्मा का दास है, परमात्मा के दासों का दास है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ भावै तिउ राखि लै हम सरणि प्रभ आए राम राजे ॥ हम भूलि विगाड़ह दिनसु राति हरि लाज रखाए ॥ हम बारिक तूं गुरु पिता है दे मति समझाए ॥ जनु नानकु दासु हरि कांढिआ हरि पैज रखाए ॥४॥१०॥१७॥
मूलम्
जिउ भावै तिउ राखि लै हम सरणि प्रभ आए राम राजे ॥ हम भूलि विगाड़ह दिनसु राति हरि लाज रखाए ॥ हम बारिक तूं गुरु पिता है दे मति समझाए ॥ जनु नानकु दासु हरि कांढिआ हरि पैज रखाए ॥४॥१०॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भावै = (तुझे) अच्छा लगे। प्रभ = हे प्रभु! भूलि = भूल के, गलत रास्ते पर पड़ के। विगाड़ह = हम अपने जीवन को खराब कर रहे हैं। लाज = इज्जत। हरि = हे हरि! रखाए = रक्षा की। दे = दे कर। समझाए = समझ बख्श। कांढिआ = कहा जाता है, कहलवाता है। पैज = लज्जा। रखाए = रख, रक्षा।4।
अर्थ: हे प्रभु! हम तेरी शरण आए हैं, अब जैसे तेरी मर्जी हो वैसे हमें (बुरे कामों से) बचा ले। हम दिन-रात (जीवन-राह से) टूट के (अपने आत्मिक जीवन को) खराब करते रहते हैं। हे हरि! हमारी इज्जत रख। हे प्रभु! हम तेरे बच्चे हैं, तू हमारा गुरु है तू हमारा पिता है, हमें मति दे के उत्तम सोच बख्श।
हे हरि! दास नानक तेरा दास कहलवाता है, (मेहर कर, अपने दास की) इज्जत रख।4।10।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ जिन मसतकि धुरि हरि लिखिआ तिना सतिगुरु मिलिआ राम राजे ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ गुर गिआनु घटि बलिआ ॥ हरि लधा रतनु पदारथो फिरि बहुड़ि न चलिआ ॥ जन नानक नामु आराधिआ आराधि हरि मिलिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ जिन मसतकि धुरि हरि लिखिआ तिना सतिगुरु मिलिआ राम राजे ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ गुर गिआनु घटि बलिआ ॥ हरि लधा रतनु पदारथो फिरि बहुड़ि न चलिआ ॥ जन नानक नामु आराधिआ आराधि हरि मिलिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरा = अंधकार। घटि = हृदय में। बलिआ = चमक पड़ा। लधा = मिल गया। पदारथो = कीमती चीज। बहुड़ि = दुबारा। चलिआ = गायब हो गया। आराधि = स्मरण करके।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से परमात्मा (गुरु-मिलाप का लेख) लिख देता है उन्हें गुरु मिल जाता है (उनके मन में से, गुरु की मेहर से) आत्मिक जीवन से अज्ञानता का अंधकार दूर हो जाता है, और, उनके हृदय में गुरु के बख्शे हुए आत्मिक जीवन के ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। उन्हें परमात्मा के नाम का कीमती रत्न मिल जाता है जो दुबारा (उनसे कभी) गायब नहीं होता। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, नाम स्मरण करके वह परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी ऐसा हरि नामु न चेतिओ से काहे जगि आए राम राजे ॥ इहु माणस जनमु दुल्मभु है नाम बिना बिरथा सभु जाए ॥ हुणि वतै हरि नामु न बीजिओ अगै भुखा किआ खाए ॥ मनमुखा नो फिरि जनमु है नानक हरि भाए ॥२॥
मूलम्
जिनी ऐसा हरि नामु न चेतिओ से काहे जगि आए राम राजे ॥ इहु माणस जनमु दुल्मभु है नाम बिना बिरथा सभु जाए ॥ हुणि वतै हरि नामु न बीजिओ अगै भुखा किआ खाए ॥ मनमुखा नो फिरि जनमु है नानक हरि भाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसा = ऐसा कीमती। से = वे लोग। काहे = किस वास्ते? जगि = जगत में। दुलंभ = दुर्लभ, बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। बिरथा = व्यर्थ। सभु = सारा। हुणि = इस मानव जनम में। वतै = बीज बीजने के समय, बोवाई का समय। अगै = परलोक में, समय गुजर जाने के बाद। किआ खाए = क्या खाएगा? मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। हरि भाइ = हरि को (यही) ठीक लगता है।2।
अर्थ: (हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ देने वाला) ऐसा कीमती नाम जिस मनुष्यों ने नहीं स्मरण किया, वे जगत में पैदा ही क्यूँ हुए? (उनका मानव जनम किसी काम ना आया)। ये मानव जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, नाम स्मरण के बिना सारे का सारा व्यर्थ चला जाता है। (हे भाई! जो किसान ठीक वक्त पर बोवाई के समय खेत को नहीं बीजता वह समय बीत जाने पर भूखा मरता है, वैसे ही) जो मानव जनम में ठीक समय में (अपने हृदय की खेती में) परमात्मा का नाम नहीं बीजता, वह परलोक में तब कौन सी खुराक बरतेगा जब आत्मिक जीवन के फलने-फूलने के लिए नाम-भोजन की जरूरत पड़ेगी? हे नानक! (कह:) अपने मन के पीछे चलने वालों को बारंबार जन्मों का चक्कर मिलता है (उनके वास्ते) परमात्मा को यही ठीक लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं हरि तेरा सभु को सभि तुधु उपाए राम राजे ॥ किछु हाथि किसै दै किछु नाही सभि चलहि चलाए ॥ जिन्ह तूं मेलहि पिआरे से तुधु मिलहि जो हरि मनि भाए ॥ जन नानक सतिगुरु भेटिआ हरि नामि तराए ॥३॥
मूलम्
तूं हरि तेरा सभु को सभि तुधु उपाए राम राजे ॥ किछु हाथि किसै दै किछु नाही सभि चलहि चलाए ॥ जिन्ह तूं मेलहि पिआरे से तुधु मिलहि जो हरि मनि भाए ॥ जन नानक सतिगुरु भेटिआ हरि नामि तराए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। सभि = सारे। हाथि = हाथ में। चलहि = चलते हैं। पिआरे = हे प्यारे! तुधु = तुझे। मनि = मन में। भाए = अच्छे लगते हैं। नामि = नाम से। तराए = पार लंघाता है।3।
अर्थ: हे हरि! तू सब जीवों का मालिक है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ है), सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं। किसी जीव के अपने वश में कुछ भी नहीं, जैसे तू चलाता है वैसे ही सारे जीव चलते हैं। हे प्यारे! जिस जीवों को तू अपने साथ मिलाता है, जो तेरे अपने मन को भाते हैं वही तेरे चरणों में जुड़े रहते हैं।
हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्यों को गुरु मिल जाता है, गुरु उनको परमात्मा के नाम में जोड़ के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई गावै रागी नादी बेदी बहु भाति करि नही हरि हरि भीजै राम राजे ॥ जिना अंतरि कपटु विकारु है तिना रोइ किआ कीजै ॥ हरि करता सभु किछु जाणदा सिरि रोग हथु दीजै ॥ जिना नानक गुरमुखि हिरदा सुधु है हरि भगति हरि लीजै ॥४॥११॥१८॥
मूलम्
कोई गावै रागी नादी बेदी बहु भाति करि नही हरि हरि भीजै राम राजे ॥ जिना अंतरि कपटु विकारु है तिना रोइ किआ कीजै ॥ हरि करता सभु किछु जाणदा सिरि रोग हथु दीजै ॥ जिना नानक गुरमुखि हिरदा सुधु है हरि भगति हरि लीजै ॥४॥११॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावै = गुण गाता है। रागी = रागों में गा के। नादी = नाद, शंख आदि बजा के। बेदी = वेदों, धर्म पुस्तकों से। बहु भांति करि = कई तरीकों से। भीजै = प्रसन्न होता है। अंतरि = अंदर। कपटु = फरेब। रोइ = रो के। सिरि रोग = रोगों के सिर पर। हथु दीजै = हाथ दिया जाए। सुधु = पवित्र। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।4।
अर्थ: (हे भाई!) कोई मनुष्य राग गा-गा के, कोई शंख आदि बजा के, कोई धर्म-पुस्तकें पढ़ के कई ढंगों-तरीकों से परमात्मा के गुण गाता है, पर, परमात्मा इस तरह प्रसन्न नहीं होता (क्योंकि) कर्तार (हरेक मनुष्य के दिल की) हरेक बात जानता है अंदरूनी रोगों पर बेशक हाथ दिया जाए (अर्थात, अंदरूनी विकारों को छिपाने का चाहे जितना भी प्रयत्न किया जाए, तो भी परमात्मा से छुपा नहीं रह सकता)। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्यों का हृदय पवित्र हो जाता है, वही परमात्मा की भक्ति करते हैं, वही हरि का नाम लेते हैं।4।11।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ जिन अंतरि हरि हरि प्रीति है ते जन सुघड़ सिआणे राम राजे ॥ जे बाहरहु भुलि चुकि बोलदे भी खरे हरि भाणे ॥ हरि संता नो होरु थाउ नाही हरि माणु निमाणे ॥ जन नानक नामु दीबाणु है हरि ताणु सताणे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ जिन अंतरि हरि हरि प्रीति है ते जन सुघड़ सिआणे राम राजे ॥ जे बाहरहु भुलि चुकि बोलदे भी खरे हरि भाणे ॥ हरि संता नो होरु थाउ नाही हरि माणु निमाणे ॥ जन नानक नामु दीबाणु है हरि ताणु सताणे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। ते जन = वे लोग। सुघड़ = अच्छी मानसिक स्थिति वाले। भुलि = भूल के। चुकि = गलती खा के। भी = फिर भी। खरे = अच्छे। भाणे = प्यारे लगते हैं। थाउ = जगह, आसरा। दीबाणु = सहारा, फरियाद की जगह। ताणु = ताकत, बाहुबल। सताणे = तगड़े, ताकत वाले।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस लोगों के हृदय में परमात्मा का प्यार मौजूद है (परमात्मा की नजरों में) वह लोग सुघड़ हैं, सयाने हैं। अगर वे कभी गलती से भी बाहर लोगों में (कच्चे बोल) बोल बैठते हैं तो भी परमात्मा को वे प्यारे लगते हैं। (हे भाई!) परमात्मा के संतों को (परमात्मा के बिना) और कोई आसरा नहीं होता (वे जानते हैं कि) परमातमा ही निमाणों का माण है। हे नानक! (कह:) परमात्मा के सेवकों के वास्ते परमात्मा का नाम ही सहारा है, परमात्मा ही उनका बाहुबल है (जिसके आसरे वे विकारों के मुकाबले में) बलवान रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरू सो थानु सुहावा राम राजे ॥ गुरसिखीं सो थानु भालिआ लै धूरि मुखि लावा ॥ गुरसिखा की घाल थाइ पई जिन हरि नामु धिआवा ॥ जिन्ह नानकु सतिगुरु पूजिआ तिन हरि पूज करावा ॥२॥
मूलम्
जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरू सो थानु सुहावा राम राजे ॥ गुरसिखीं सो थानु भालिआ लै धूरि मुखि लावा ॥ गुरसिखा की घाल थाइ पई जिन हरि नामु धिआवा ॥ जिन्ह नानकु सतिगुरु पूजिआ तिन हरि पूज करावा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिथे = जहाँ, जिस जगह पर। जाइ = जा के। सुहावा = सुहाना। गुरसिखीं = गुरु के सिखों ने। भालिआ = ढूँढ लिया। धूरि = धूल। मुखि = मुंह पर। घाल = मेहनत। थाइ पई = (प्रभु दर पर) स्वीकार हो गई। पूज करावा = पूजा करवाता है। करावा = करवाई। लावा = लगाई। धिआवा = ध्यान लगाया।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह पर प्यारा गुरु जा बैठता है (गुरु के सिखों के वास्ते) वह स्थान सोहाना बन जाता है। गुरसिख उस स्थान को पा लेते हैं, और उसकी धूल ले के अपने माथे पर लगा लेते हैं। जो गुरसिख परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं उनकी (गुरु-स्थान तलाशने की) मेहनत परमात्मा के दर पर स्वीकार हो जाती है। नानक (कहता है:) जो मनुष्य (अपने हृदय में) गुरु का आदर-सत्कार बैठाते हैं, परमात्मा (जगत में उनका) आदर करवाता है।2।
[[0451]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरसिखा मनि हरि प्रीति है हरि नाम हरि तेरी राम राजे ॥ करि सेवहि पूरा सतिगुरू भुख जाइ लहि मेरी ॥ गुरसिखा की भुख सभ गई तिन पिछै होर खाइ घनेरी ॥ जन नानक हरि पुंनु बीजिआ फिरि तोटि न आवै हरि पुंन केरी ॥३॥
मूलम्
गुरसिखा मनि हरि प्रीति है हरि नाम हरि तेरी राम राजे ॥ करि सेवहि पूरा सतिगुरू भुख जाइ लहि मेरी ॥ गुरसिखा की भुख सभ गई तिन पिछै होर खाइ घनेरी ॥ जन नानक हरि पुंनु बीजिआ फिरि तोटि न आवै हरि पुंन केरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। हरि = हे हरि! करि पूरा = पूर्ण जान के, अचूक समझ के। भुख = माया की भूख। मेरी = माया की ममता। जाइ लहि = उतर जाती है। सभ = सारी। खाइ = (आत्मिक खुराक) खाती है। घनेरी = बहुत सारी दुनिया। हरि पुंनु = नाम स्मरण का भला बीज। तोटि = कमी। केरी = की। पुंन केरी = भले काम की।
अर्थ: हे हरि! गुरु के सिखों के मन में तेरी प्रीति बनी रहती है तेरे नाम का प्यार टिका रहता है, वे अपने गुरु को अचूक समझ के उसकी बताई हुई सेवा करते रहते हैं (जिसकी इनायत से उनके मन में से) माया की भूख दूर हो जाती है, उनकी संगति करके और बहुत सारी दुनिया (नाम-नाम जपने की आत्मिक खुराक) खाती है। हे दास नानक! जो मनुष्य (अपने हृदय-खेत में) हरि-नाम का भला बीज बीजते हैं, उनके अंदर इस भले कर्म की कभी भी कमी नहीं होती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरसिखा मनि वाधाईआ जिन मेरा सतिगुरू डिठा राम राजे ॥ कोई करि गल सुणावै हरि नाम की सो लगै गुरसिखा मनि मिठा ॥ हरि दरगह गुरसिख पैनाईअहि जिन्हा मेरा सतिगुरु तुठा ॥ जन नानकु हरि हरि होइआ हरि हरि मनि वुठा ॥४॥१२॥१९॥
मूलम्
गुरसिखा मनि वाधाईआ जिन मेरा सतिगुरू डिठा राम राजे ॥ कोई करि गल सुणावै हरि नाम की सो लगै गुरसिखा मनि मिठा ॥ हरि दरगह गुरसिख पैनाईअहि जिन्हा मेरा सतिगुरु तुठा ॥ जन नानकु हरि हरि होइआ हरि हरि मनि वुठा ॥४॥१२॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। वाधाईआं = खुशियां, आत्मिक उत्साह, चढ़दीकला। जिन्ह = जिन्होंने। गल = बात, जिक्र। सो = वह मनुष्य। मिठा = प्यारा। पैनाईअहि = सरोपे दिए जाते हैं, सन्माने जाते हैं। तुठा = मेहरबान हुआ। नानकु = नानक (कहता है)। वुठा = आ बसा।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘पैनाईअहि’ है वर्तमानकाल कर्मवाच, अंन पुरख, बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरसिखों ने प्यारे गुरु के दर्शन कर लिए, उनके मन में सदा चढ़दीकला बनी रहती है। यदि कोई मनुष्य परमात्मा की महिमा की बात आ के सुनाए तो वह मनुष्य गुरसिखों को प्यारा लगने लग जाता है। (हे भाई!) जिस गुरसिखों पे प्यारा सतिगुरु मेहरबान होता है उन्हें परमात्मा की दरगाह में आदर-मान मिलता है। नानक कहता है कि गुरसिख परमात्मा का रूप हो जाते हैं परमात्मा उनके मन में सदा बसारहता है।4।12।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ ॥ जिन्हा भेटिआ मेरा पूरा सतिगुरू तिन हरि नामु द्रिड़ावै राम राजे ॥ तिस की त्रिसना भुख सभ उतरै जो हरि नामु धिआवै ॥ जो हरि हरि नामु धिआइदे तिन्ह जमु नेड़ि न आवै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि नित जपै हरि नामु हरि नामि तरावै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ४ ॥ जिन्हा भेटिआ मेरा पूरा सतिगुरू तिन हरि नामु द्रिड़ावै राम राजे ॥ तिस की त्रिसना भुख सभ उतरै जो हरि नामु धिआवै ॥ जो हरि हरि नामु धिआइदे तिन्ह जमु नेड़ि न आवै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि नित जपै हरि नामु हरि नामि तरावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिना भेटिआ = जिन्होंने शरण ली। द्रिढ़ावै = दृढ़ाए, हृदय में पक्का कर देता है। जिस की = उस (मनुष्य) की। त्रिसना = प्यास। जो = जो मनुष्य। जो धिआइदे = जो मनुष्य स्मरण करते हैं। तिन्ह नेड़ि = उनके नजदीक। करि = करे, करता है। नामि = नाम में (जोड़ के)। तरावै = पार लंघा देता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों ने प्यारे गुरु का पल्ला पकड़ लिया, गुरु उनके हृदय में परमात्मा का नाम पक्का कर देता है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है उस मनुष्य की माया वाली भूख-प्याससारी दूर हो जाती है। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करते रहते हैं, जम उनके नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत उनके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)। हे दास नानक! (कह जिस मनुष्य पे) परमात्मा कृपा करता है, वह सदा उसका नाम जपता है, और, परमात्मा उसको अपने नाम में जोड़ के (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ तिना फिरि बिघनु न होई राम राजे ॥ जिनी सतिगुरु पुरखु मनाइआ तिन पूजे सभु कोई ॥ जिन्ही सतिगुरु पिआरा सेविआ तिन्हा सुखु सद होई ॥ जिन्हा नानकु सतिगुरु भेटिआ तिन्हा मिलिआ हरि सोई ॥२॥
मूलम्
जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ तिना फिरि बिघनु न होई राम राजे ॥ जिनी सतिगुरु पुरखु मनाइआ तिन पूजे सभु कोई ॥ जिन्ही सतिगुरु पिआरा सेविआ तिन्हा सुखु सद होई ॥ जिन्हा नानकु सतिगुरु भेटिआ तिन्हा मिलिआ हरि सोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा। बिघनु = रुकावट। सद = सदा। पुरखु = महा पुरुष, स्मर्था वाला। पूजे = आदर करता है। सभु कोई = हरेक जीव। नानकु = नानक (कहता है)। भेटिआ = शरण लई, पल्ला पकड़ा। सोई = स्वयं ही।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनके जीवन सफर में दुबारा (विकारों आदि की) कोई रुकावट नहीं पड़ती। जो मनुष्य (अपना जीवन स्वच्छ बना के) समर्थ गुरु को प्रसन्न कर लेते हैं, हरेक जीव उनका आदर-सत्कार करता है। जो मनुष्य प्यारे गुरु की बताई सेवा करते हैं (गुरु का आसरा लेते हैं) उनको सदा ही आत्मिक आनन्द प्राप्त रहता है। नानक (कहता है) जो मनुष्य गुरु का पल्ला पकड़ते हैं उन्हे परमात्मा खुद आ के मिलता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ध्याया, मनाया, (सेविआ) सेवा की, (भेटिआ) भेटा की, (मिलिआ) मिले; ये सारे शब्द ‘भूतकाल’ में हैं। पर इनके अर्थ ‘वर्तमान काल’ में किए गए हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्हा अंतरि गुरमुखि प्रीति है तिन्ह हरि रखणहारा राम राजे ॥ तिन्ह की निंदा कोई किआ करे जिन्ह हरि नामु पिआरा ॥ जिन हरि सेती मनु मानिआ सभ दुसट झख मारा ॥ जन नानक नामु धिआइआ हरि रखणहारा ॥३॥
मूलम्
जिन्हा अंतरि गुरमुखि प्रीति है तिन्ह हरि रखणहारा राम राजे ॥ तिन्ह की निंदा कोई किआ करे जिन्ह हरि नामु पिआरा ॥ जिन हरि सेती मनु मानिआ सभ दुसट झख मारा ॥ जन नानक नामु धिआइआ हरि रखणहारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने से। रखणहारा = बचाने की सामर्थ्य वाला। किआ करे = क्या कर सकता है? नहीं कर सकता (क्योंकि उनमें कोई विकार ही नहीं रह जाता जिसको भंडा जा सके)। सेती = साथ। मानिआ = पतीज गया। दुसट = दुरजन, बुरे मनुष्य। झख = व्यर्थ यत्न।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के बताए रास्ते पर चल के जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा की प्रीति पैदा हो जाती है, बचाने की सामर्थ्य वाला परमात्मा (उन्हें विकारों से बचा लेता है), जिस मनुष्यों को परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग पड़ता है, कोई मनुष्य उनकी निंदा नहीं कर सकता क्योंकि कोई निंदनेयोग्य बुराई उनके जीवन में रह ही नहीं जाती। सो, जिस मनुष्यों का मन परमात्मा के साथ रम जाता है, बुरे मनुष्य (उन्हें बदनाम करने के लिए ऐसे ही) व्यर्थ की टक्करें मारते रहते हैं। हे दास नानक! (कह:) जो मनुष्य हरि-नाम स्मरण करते हैं, बचाने की सामर्थ्य वाला हरि (उनको विकारों से बचा लेता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जुगु जुगु भगत उपाइआ पैज रखदा आइआ राम राजे ॥ हरणाखसु दुसटु हरि मारिआ प्रहलादु तराइआ ॥ अहंकारीआ निंदका पिठि देइ नामदेउ मुखि लाइआ ॥ जन नानक ऐसा हरि सेविआ अंति लए छडाइआ ॥४॥१३॥२०॥
मूलम्
हरि जुगु जुगु भगत उपाइआ पैज रखदा आइआ राम राजे ॥ हरणाखसु दुसटु हरि मारिआ प्रहलादु तराइआ ॥ अहंकारीआ निंदका पिठि देइ नामदेउ मुखि लाइआ ॥ जन नानक ऐसा हरि सेविआ अंति लए छडाइआ ॥४॥१३॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगु जुगु = हरेक युग में (देखें – गुरबाणी व्याकरण)। उपाइआ = पैदा करता आ रहा है। पैज = इज्जत। देइ = दे के। मुखि लाइआ = अपने मुंह लगाया, आदर सम्मान दिया। ऐसा = एसी सामर्थ्य वाला। अंति = आखिर को।4।
अर्थ: परमात्मा हरेक युग में ही भक्त पैदा करता है, और, (बुरे समय में) उनकी इज्जत रखता आ रहा है (जैसे कि, प्रहलाद के जालिम पिता) चंदरे हरणाक्षस को परमात्मा ने (आखिर जान से) मार दिया (और अपने भक्त) प्रहलाद को (पिता के दिए कष्टों से) सही सलामत बचा लिया (जैसे कि मंदिर में धक्के देने वाले) निंदकों और (जाति-) अभिमानियों को (परमात्मा ने) पीठ दे के (मात दे के) (अपने भक्त) नामदेव को दर्शन दिए। हे दास नानक! जो भी मनुष्य ऐसे सामर्थ्य वाले परमात्मा की सेवा भक्ति करता है परमात्मा उसे (दोखियों द्वारा दिए जा रहे सब कष्टों से) आखिर बचा लेता है।4।13।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ४ छंत घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा महला ४ छंत घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन परदेसी वे पिआरे आउ घरे ॥ हरि गुरू मिलावहु मेरे पिआरे घरि वसै हरे ॥ रंगि रलीआ माणहु मेरे पिआरे हरि किरपा करे ॥ गुरु नानकु तुठा मेरे पिआरे मेले हरे ॥१॥
मूलम्
मेरे मन परदेसी वे पिआरे आउ घरे ॥ हरि गुरू मिलावहु मेरे पिआरे घरि वसै हरे ॥ रंगि रलीआ माणहु मेरे पिआरे हरि किरपा करे ॥ गुरु नानकु तुठा मेरे पिआरे मेले हरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वे मन! = हे मन! परदेसी = पराए देशों में रहने वाले, जगह-जगह भटकने वाले। घरे = घर में, प्रभु चरणों में। मिलावहु = मिल। वसै = बसता है। हरे = हरी। रंगि = प्रेम में (टिक के)। रलीआं = मौजें। तुठा = दयावान, प्रसन्न।1।
अर्थ: हे जगह-जगह भटकने वाले मन! हे प्यारे मन! कभी तो प्रभु चरणों में जुड़। हे मेरे प्यारे मन! हरि-रूप गुरु को मिल (तुझे समझ आ जाएगी कि सब सुखों का दाता) परमात्मा तेरे अंदर ही बस रहा है। हेमेरे प्यारे मन! प्रभु के प्रेम में टिक के आत्मिक आनंद ले (अरदास करता रह कि तेरे पर) प्रभु ये मेहर (की दाति) करे। नानक (कहता है:) हे मेरे प्यारे मन! जिस मनुष्य पे गुरु दयावान होता है उसे परमात्मा से मिला देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै प्रेमु न चाखिआ मेरे पिआरे भाउ करे ॥ मनि त्रिसना न बुझी मेरे पिआरे नित आस करे ॥ नित जोबनु जावै मेरे पिआरे जमु सास हिरे ॥ भाग मणी सोहागणि मेरे पिआरे नानक हरि उरि धारे ॥२॥
मूलम्
मै प्रेमु न चाखिआ मेरे पिआरे भाउ करे ॥ मनि त्रिसना न बुझी मेरे पिआरे नित आस करे ॥ नित जोबनु जावै मेरे पिआरे जमु सास हिरे ॥ भाग मणी सोहागणि मेरे पिआरे नानक हरि उरि धारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ करे = प्यार करके। मनि = मन में (बस रही)। आस = (माया की) आशाएं। जोबनु = जवानी। जावै = बीतता जा रहा है। हिरे = हेरे, ताक रहा है। भागमणी = भाग्य की मणी। उरि = हृदय में।2।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! मैंने (प्रभु चरणों में) प्रेम जोड़ के उसके प्यार का स्वाद (कभी भी) नहीं चखा, (क्योंकि) हे मेरे प्यारे! मेरे मन में (बस रही माया की) तृष्णा कभी खत्म ही नहीं हुई, (मेरा मन) सदा (माया की ही) आशाएं बनाता रहता है। हे मेरे प्यारे! सदा (इसी हालत में ही) मेरी जवानी गुजरती जा रही है, और मौत का देवता मेरी सांसों को (ध्यान से) ताक रहा है (कि सांसें पूरी हों और इसे आ पकड़ूँ)।
हे नानक! (कह:) हे मेरे प्यारे! वही जीव-स्त्री भाग्यशाली बनती है उसी के माथे पे भाग्यों की मणि चमकती है जो परमात्मा (की याद) अपने हृदय में टिकाए रखती है।2।