विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला १ छंत घरु ३ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला १ छंत घरु ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं सुणि हरणा कालिआ की वाड़ीऐ राता राम ॥ बिखु फलु मीठा चारि दिन फिरि होवै ताता राम ॥ फिरि होइ ताता खरा माता नाम बिनु परतापए ॥ ओहु जेव साइर देइ लहरी बिजुल जिवै चमकए ॥ हरि बाझु राखा कोइ नाही सोइ तुझहि बिसारिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन मरहि हरणा कालिआ ॥१॥
मूलम्
तूं सुणि हरणा कालिआ की वाड़ीऐ राता राम ॥ बिखु फलु मीठा चारि दिन फिरि होवै ताता राम ॥ फिरि होइ ताता खरा माता नाम बिनु परतापए ॥ ओहु जेव साइर देइ लहरी बिजुल जिवै चमकए ॥ हरि बाझु राखा कोइ नाही सोइ तुझहि बिसारिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन मरहि हरणा कालिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: की = क्यूँ? वाड़ीऐ = फुलवाड़ी में। राता = मस्त। बिखु = जहर। ताता = गरम, दुखदाई। खरा = बहुत। माता = मस्त। परतापए = दुख देता है। जेव = जैसे, की तरह। साइर = समुंदर। देइ = देता है। लहरी = लहरें। सोइ = वह (हरि)। तुझहि = तू। मरहि = मर जाएगा, आत्मिक मौत सहेड़ लेगा।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘लहरी’ है ‘लहरि’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे काले हिरन! (हे काले हिरन की तरह संसार रूपी वन में बेपरवाह हो के खरमस्तियां करने वाले मन!) तू (मेरी बात) सुन! तू इस (जगत-) फुलवाड़ी में क्यों मस्त हो रहा है? (इस फुलवाड़ी का) फल जहर है, (भाव, आत्मिक मैत पैदा करता है) ये थोड़े दिन ही स्वादिष्ट लगता है, फिर ये दुखदाई बन जाता है। जिस में तू इतना मस्त है ये आखिर दुखदाई हो जाता है। परमात्मा के नाम के बिना ये बहुत दुख देता है। (वैसे है भी थोड़ा समय रहने वाला) जैसे समुंदर से लहरें निकलती है वैसे ही बिजली से चमक निकलती है।
परमात्मा (के नाम) के बिना और कोई (सदा साथ निभने वाला) रक्षक नहीं (हे हिरन की तरह खरमस्ती करने वाले मन!) उसे तू भुलाए बैठा है। नानक कहता है: हे काले हिरन! हे मन! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को स्मरण कर, वरना (इस जगत फुलवाड़ी में मस्त हो के) तू अपने लिए आत्मिक मौत सहेड़ लेगा।1।
[[0439]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवरा फूलि भवंतिआ दुखु अति भारी राम ॥ मै गुरु पूछिआ आपणा साचा बीचारी राम ॥ बीचारि सतिगुरु मुझै पूछिआ भवरु बेली रातओ ॥ सूरजु चड़िआ पिंडु पड़िआ तेलु तावणि तातओ ॥ जम मगि बाधा खाहि चोटा सबद बिनु बेतालिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन मरहि भवरा कालिआ ॥२॥
मूलम्
भवरा फूलि भवंतिआ दुखु अति भारी राम ॥ मै गुरु पूछिआ आपणा साचा बीचारी राम ॥ बीचारि सतिगुरु मुझै पूछिआ भवरु बेली रातओ ॥ सूरजु चड़िआ पिंडु पड़िआ तेलु तावणि तातओ ॥ जम मगि बाधा खाहि चोटा सबद बिनु बेतालिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन मरहि भवरा कालिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फूलि = फूल पे। बीचारी = विचार के। मुझै = मैं। बेली = बेलों (के फूलों) पर। रातओ = मस्त। पिंडु = शरीर। सूरजु चढ़िआ = उम्र की रात खत्म हो गई। पड़िआ = पड़ गया, धराशाही हो गया। तावणि = ताउणी में, ताउड़ी में। तातउ = गरम किया जाता है। मगि = रास्ते पर। बेतालिआ = भूतना।2।
अर्थ: हे (हरेक) फूल पर उड़ने वाले भौरे (मन!) (फूल-फूल की सुगंधि लेते फिरने में से) बड़ा भारी दुख निकलता है। मैंने अपने (उस) गुरु से पूछा है जो सदा-स्थिर प्रभु को सदा अपने विचार-मण्डल में टिकाए रखता है। (हे भौरे मन! तेरी ये हालत) विचार के मैंने गुरु से पूछा है कि ये मन-भंवरा तो वेलों-फूलों पे (दुनिया के सुंदर पदार्थों के रसों में) मस्त हो रहा है (इसका क्या बनेगा? मुझे गुरु ने समझा दिया है कि) जब जिंदगी की रात समाप्त हो जाती है (जब दिन चढ़ जाता है) ये शरीर धराशाही हो जाता है (विकारों में फंसे रहने के कारण जीव ऐसे दुखी होता है जैसे) तेल तौड़ी में डाल के अबाला जाता है।
हे (दुनिया के पदार्थों में मस्त हुए) भूत! स्तिगुरू के शब्द से टूट के तू यमराज के रास्ते में बँधा हुआ चोटें ही खाएगा।
नानक कहता है: हे मेरे मन! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को स्मरण कर, वरना भंवरे (की तरह फूलों में मस्त हुए मन!) आत्मिक मौत सहेड़ लेगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे जीअड़िआ परदेसीआ कितु पवहि जंजाले राम ॥ साचा साहिबु मनि वसै की फासहि जम जाले राम ॥ मछुली विछुंनी नैण रुंनी जालु बधिकि पाइआ ॥ संसारु माइआ मोहु मीठा अंति भरमु चुकाइआ ॥ भगति करि चितु लाइ हरि सिउ छोडि मनहु अंदेसिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन जीअड़िआ परदेसीआ ॥३॥
मूलम्
मेरे जीअड़िआ परदेसीआ कितु पवहि जंजाले राम ॥ साचा साहिबु मनि वसै की फासहि जम जाले राम ॥ मछुली विछुंनी नैण रुंनी जालु बधिकि पाइआ ॥ संसारु माइआ मोहु मीठा अंति भरमु चुकाइआ ॥ भगति करि चितु लाइ हरि सिउ छोडि मनहु अंदेसिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन जीअड़िआ परदेसीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितु = किस लिए? साचा = सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन में। की = क्यूँ? नैण रुंनी = आंखें (भर के) रोई। बधिकि = बधिक ने, शिकारी ने। भरमु = भुलेखा। अंति = आखिर में। सिउ = साथ।3।
अर्थ: हे मेरी परदेसी जीवात्मा! तू क्यूँ (माया के) जंजाल में फंस रही है? अगर सदा-स्थिर रहने वाला मालिक तेरे मन में बसता हो तो तू (माया के मोह रूपी) जम के पसरे हुए जाल में क्यूँ फसे?
(हे मेरी जीवात्मा! देख) जब शिकारी ने (पानी में) जाल डाला होता है और मछली (चारे की लालच में फंस कर जाल में फंस जाती है और पानी से) विछुड़ जाती है तब आँखें भर के रोती है (इसी तरह जीव को) ये जगत मीठा लगता है, माया का मोह मीठा लगता है, पर (फंस के) अंत में ये भुलेखा दूर होता है (जब जीवात्मा दुखों के चुंगल में आती है तो मायावी पदार्थ साथ छोड़ जाते हैं)।
हे मेरी जीवात्मा! परमात्मा के चरणों में चित्त जोड़ के भक्ति करके इस तरह अपने मन में से फिक्र-अंदेशे दूर कर ले। नानक कहता है: हे मेरे परदेसी जीयड़े! हे मेरे मन! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को स्मरण कर।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीआ वाह विछुंनिआ मेला संजोगी राम ॥ जुगु जुगु मीठा विसु भरे को जाणै जोगी राम ॥ कोई सहजि जाणै हरि पछाणै सतिगुरू जिनि चेतिआ ॥ बिनु नाम हरि के भरमि भूले पचहि मुगध अचेतिआ ॥ हरि नामु भगति न रिदै साचा से अंति धाही रुंनिआ ॥ सचु कहै नानकु सबदि साचै मेलि चिरी विछुंनिआ ॥४॥१॥५॥
मूलम्
नदीआ वाह विछुंनिआ मेला संजोगी राम ॥ जुगु जुगु मीठा विसु भरे को जाणै जोगी राम ॥ कोई सहजि जाणै हरि पछाणै सतिगुरू जिनि चेतिआ ॥ बिनु नाम हरि के भरमि भूले पचहि मुगध अचेतिआ ॥ हरि नामु भगति न रिदै साचा से अंति धाही रुंनिआ ॥ सचु कहै नानकु सबदि साचै मेलि चिरी विछुंनिआ ॥४॥१॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाहु = बहाव। संजोगी = सौभाग्यों से। जुग जुग = सदा ही। विसु = जहर। को = कोई विरला। जोगी = विरक्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जिनि = जिस मनुष्य ने। भरमि = भटकना में। पचहि = ख्वार होते हैं। मुगध = मूर्ख लोग। अचेतिआ = गाफिल। रिदै = हृदय में। धाही = ढाहें मार के। चिरी विछुंनिआ = चिरों से बिछुड़े हुओं को।4।
अर्थ: नदियों से विछुड़ी हुई धाराओं का (नदियों से दुबारा) मेल बड़े भाग्यों से ही होता है (इसी तरह माया के मोह में फंस के प्रभु से विछुड़े हुए जीव दुबारा सौभाग्य से ही मिलते हैं)। जो कोई विरला (एक आध) मनुष्य प्रभु-चरणों में जुड़ता है वही समझ लेता है कि माया का मोह है तो मीठा पर सदा जहर से भरा रहता है (और जीव को आत्मिक मौत मार देता है)। ऐसा कोई विरला आदमी जिसने अपने गुरु को याद रखा है आत्मिक अडोलता में टिक के इसी अस्लियत को समझता है और परमात्मा से सांझ डालता है।
परमात्मा के नाम के बिना माया के मोह की भटकना में गलत रास्ते पर पड़ कर अनेक मूर्ख गाफिल जीव दुखी होते हैं। जो लोग परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, प्रभु की भक्ति नहीं करते, अपने हृदय में सदा-स्थिर प्रभु को नहीं बसाते, वे आखिर जोर-जोर से रोते हैं।
नानक कहता है: सदा-स्थिर प्रभु अपनी महिमा के शब्द में जोड़ के चिरों से विछुड़े हुए जीवों को (अपने चरणों में) मिला देता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये छंत ‘घरु 3 का है। कुल जोड़ है 5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ३ छंत घरु १ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ३ छंत घरु १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम घरे साचा सोहिला साचै सबदि सुहाइआ राम ॥ धन पिर मेलु भइआ प्रभि आपि मिलाइआ राम ॥ प्रभि आपि मिलाइआ सचु मंनि वसाइआ कामणि सहजे माती ॥ गुर सबदि सीगारी सचि सवारी सदा रावे रंगि राती ॥ आपु गवाए हरि वरु पाए ता हरि रसु मंनि वसाइआ ॥ कहु नानक गुर सबदि सवारी सफलिउ जनमु सबाइआ ॥१॥
मूलम्
हम घरे साचा सोहिला साचै सबदि सुहाइआ राम ॥ धन पिर मेलु भइआ प्रभि आपि मिलाइआ राम ॥ प्रभि आपि मिलाइआ सचु मंनि वसाइआ कामणि सहजे माती ॥ गुर सबदि सीगारी सचि सवारी सदा रावे रंगि राती ॥ आपु गवाए हरि वरु पाए ता हरि रसु मंनि वसाइआ ॥ कहु नानक गुर सबदि सवारी सफलिउ जनमु सबाइआ ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इसी राग में गुरु नानक देव जी के पहले छंत का चौथा बंद ध्यान से पढ़ें। हरेक शब्द को ध्यान से देखें। महले तीसरे का भी पहला बंद पढ़ें। शब्दों की सांझ तुकों की सांझ बताती है कि गुरु नानक देव जी की वाणी गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थी।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम घरे = मेरे (हृदय) घर में। साचा सोहिला = सदा स्थिर प्रभु की महिमा का गीत। साचै सबदि = सदा स्थिर हरि की महिमा वाले शब्द (की इनायत) से। सुहाइआ = (हृदय घर) सोहाना बन गया। धन = जीव-स्त्री। पिर = प्रभु पति। प्रभि = प्रभु ने। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। मंनि = मनि, मन में। कामणि = कामिनी, जीव-स्त्री। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त। सबदि = शब्द ने। सचि = सदा स्थिर हरि नाम ने। रावै = माणती है। रंगि = रंग में। राती = रंगी हुई। आपु = स्वै भाव। वरु = पति। सबाइआ = सारा।1।
अर्थ: (हे सखी!) मेरे (हृदय-) घर में सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का गीत चल रहा है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाले गुर-शब्द ने (मेरे हृदय-घर को) सोहाना बना दिया है।
(हे सखी! उस) जीव-स्त्री का प्रभु पति के साथ मिलाप होता है जिसे प्रभु ने स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लिया। प्रभु ने जिस जीव-स्त्री को खुद (अपने चरणों में) जोड़ा, अपना सदा-स्थिर नाम उसके मन में बसा दिया, वह जीव-स्त्री (फिर) आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है। गुरु के शब्द ने (उस जीव-स्त्री के जीवन को) श्रृंगार दिया, सदा-स्थिर हरि नाम ने (उसके जीवन को) सुंदर बना दिया, वह (फिर) प्रभु के प्रेम रंग में रंगी हुई सदा ही (प्रभु-मिलाप का आनंद) लेती है। (जब जीव-स्त्री अपने अंदर से) अहंकार दूर करती है (और अपने अंदर) प्रभु-पति को ढूँढ लेती है तब वह प्रभु के नाम का स्वाद अपने मन में (सदा के लिए) बसा लेती है।
हे नानक! कह: गुरु के शब्द की इनायत से जिस जीव-स्त्री का आत्मिक जीवन सोहाना बन जाता है उसकी सारी जिंदगी कामयाब हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूजड़ै कामणि भरमि भुली हरि वरु न पाए राम ॥ कामणि गुणु नाही बिरथा जनमु गवाए राम ॥ बिरथा जनमु गवाए मनमुखि इआणी अउगणवंती झूरे ॥ आपणा सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ता पिरु मिलिआ हदूरे ॥ देखि पिरु विगसी अंदरहु सरसी सचै सबदि सुभाए ॥ नानक विणु नावै कामणि भरमि भुलाणी मिलि प्रीतम सुखु पाए ॥२॥
मूलम्
दूजड़ै कामणि भरमि भुली हरि वरु न पाए राम ॥ कामणि गुणु नाही बिरथा जनमु गवाए राम ॥ बिरथा जनमु गवाए मनमुखि इआणी अउगणवंती झूरे ॥ आपणा सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ता पिरु मिलिआ हदूरे ॥ देखि पिरु विगसी अंदरहु सरसी सचै सबदि सुभाए ॥ नानक विणु नावै कामणि भरमि भुलाणी मिलि प्रीतम सुखु पाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजड़ै = (प्रभु के बिना) किसी और (के प्यार) में। भरमि = भटकना में (पड़ के)। भुली = गलत रास्ते पड़ जाती है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। झूरे = अंदर ही अंदर दुखी होती है। सेवि = सेवा करके। हदूरे = अंग संग बसने वाला। देखि = देख के। विगसी = खिल उठी। सरसी = रस सहित हो गई, आनंदित हो गई। सबदि = शब्द में। सुभाए = प्रेम में (मगन हो गई)। मिलि = मिल के।2।
अर्थ: (हे सखी!) जो जीव-स्त्री (प्रभु के बिना माया आदि की) और ही भटकनों में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ जाती है उसे प्रभु-पति का मिलाप नहीं होता। वह जीव-स्त्री (अपने अंदर कोई आत्मिक) गुण पैदा नहीं करती, वह अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा देती है। अपने मन के पीछे चलने वाली वह मूर्ख जीव-स्त्री जीवन व्यर्थ गवा देती है अवगुणों से भरी होने के कारण वह अपने अंदर ही अंदर दुखी होती रहती है। पर जब उसने अपने गुरु के द्वारा बताई सेवा करके सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद ढूँढा तब उसे प्रभु-पति अंग-संग बसता ही मिल गया। (अपने अंदर) प्रभु-पति को देख के वह खिल गई, वह अंतरात्मे आनंद-मगन हो गई, वह सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाले गुरु-शब्द में प्रभु-प्रेम में लीन हो गई।
हे नानक! प्रभु के नाम से विछुड़ के जीव-स्त्री भटकने के कारण गलत राह पर पड़ी रहती है प्रीतम प्रभु को मिल के आत्मिक आनंद पाती है।2।
[[0440]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिरु संगि कामणि जाणिआ गुरि मेलि मिलाई राम ॥ अंतरि सबदि मिली सहजे तपति बुझाई राम ॥ सबदि तपति बुझाई अंतरि सांति आई सहजे हरि रसु चाखिआ ॥ मिलि प्रीतम अपणे सदा रंगु माणे सचै सबदि सुभाखिआ ॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थाके भेखी मुकति न पाई ॥ नानक बिनु भगती जगु बउराना सचै सबदि मिलाई ॥३॥
मूलम्
पिरु संगि कामणि जाणिआ गुरि मेलि मिलाई राम ॥ अंतरि सबदि मिली सहजे तपति बुझाई राम ॥ सबदि तपति बुझाई अंतरि सांति आई सहजे हरि रसु चाखिआ ॥ मिलि प्रीतम अपणे सदा रंगु माणे सचै सबदि सुभाखिआ ॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थाके भेखी मुकति न पाई ॥ नानक बिनु भगती जगु बउराना सचै सबदि मिलाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। गुरि = गुरु ने। मेलि = प्रभु मिलाप में। अंतरि = हृदय में। सबदि = शब्द द्वारा। सहजे = आत्मिक अडोलता में। तपति = तपस, जलन। सुभाखिआ = मीठी बोली। पढ़ि = पढ़ के। मोनी = सदा चुप रहने वाले साधु। भेखी = अलग अलग भेषों वाले साधु (जोगी जंगम आदि)। मुकति = (विकारों से) मुक्ति। बउराना = झल्ला।3।
अर्थ: (हे सखी!) जिस जीव-स्त्री को गुरु ने प्रभु चरणों में जोड़ दिया उसने प्रभु-पति को अपने अंग-संग बसता पहचान लिया, वह अंतरात्मे गुरु के शब्द की इनायत से प्रभु के साथ एक-मेक हो गई। आत्मिक अडोलता में टिक के उसने (अपने अंदर से विकारों वाली) तपश बुझा ली।
(हे सखी! जिस जीव-स्त्री ने) गुरु के शब्द की सहायता से अपने अंदर से विकारों वाली तपश बुझा ली, उसके अंदर ठंड पड़ गई, आत्मिक अडोलता में टिक के उसने हरि नाम का स्वाद चख लिया। अपने प्रभु-प्रीतम को मिल के वह सदा प्रेम-रंग भोगती है, सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाले गुर-शब्द में जुड़ के उसकी बोली मीठी हो जाती है।
(हे सखी!) पण्डित (धार्मिक पुस्तकें) पढ़-पढ़ के, मौनधारी (समाधियां लगा लगा के) (जोगी जंगम आदि साधु) वेष धार-धार के थक गए (इन तरीकों से किसी ने माया के बंधनों से) निजात हासिल नहीं की।
हे नानक! परमात्मा की भक्ति के बिना जगत (माया के मोह में) झल्ला हुआ फिरता है, सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाले गुर-शब्द की इनायत से प्रभु चरणों में मिलाप हासिल कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा धन मनि अनदु भइआ हरि जीउ मेलि पिआरे राम ॥ सा धन हरि कै रसि रसी गुर कै सबदि अपारे राम ॥ सबदि अपारे मिले पिआरे सदा गुण सारे मनि वसे ॥ सेज सुहावी जा पिरि रावी मिलि प्रीतम अवगण नसे ॥ जितु घरि नामु हरि सदा धिआईऐ सोहिलड़ा जुग चारे ॥ नानक नामि रते सदा अनदु है हरि मिलिआ कारज सारे ॥४॥१॥६॥
मूलम्
सा धन मनि अनदु भइआ हरि जीउ मेलि पिआरे राम ॥ सा धन हरि कै रसि रसी गुर कै सबदि अपारे राम ॥ सबदि अपारे मिले पिआरे सदा गुण सारे मनि वसे ॥ सेज सुहावी जा पिरि रावी मिलि प्रीतम अवगण नसे ॥ जितु घरि नामु हरि सदा धिआईऐ सोहिलड़ा जुग चारे ॥ नानक नामि रते सदा अनदु है हरि मिलिआ कारज सारे ॥४॥१॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा धन मनि = जीव-स्त्री के मन में। मेलि = मिलाप में। हरि कै रसि = प्रभु के प्रेम रस में। रसी = भीग गई। सबदि = शब्द द्वारा। सारे = संभालती है (हृदय में)। मनि = मन में। सेज = हृदय सेज। सुहावी = सोहानी। पिरि = पिर ने। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के। जितु घरि = जिस (हृदय) घर में। सोहिलड़ा = खुशी के गीत। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। नामि = नाम में। कारज सारे = काम सफल होते हैं।4।
अर्थ: (हे सखी!) जिस जीव-स्त्री को प्यारे हरि प्रभु ने अपने चरणों में जोड़ लिया उसके मन में उमंग पैदा हो जाती है, वह जीव-स्त्री अपार प्रभु की महिमा वाले गुरु-शब्द के द्वारा परमात्मा के प्रेम-रस में भीगी रहती है। अपार प्रभु की महिमा वाले शब्द की इनायत से वह जीव-स्त्री प्यारे प्रभु को मिल जाती है, सदा उसके गुण अपने हृदय में संभाल के रखती है, प्रभु के गुण उसके मन में टिके रहते हैं, जब से प्रभु-पति ने उसे अपने चरणों से जोड़ लिया उस (के हृदय) की सेज सुंदर बन गई। प्रीतम प्रभु को मिल के उसके सारे अवगुण दूर हो गए।
(हे सखी!) जिस (हृदय-) घर में परमात्मा का नाम सदा स्मरण किया जाता है वहाँ सदा ही (जैसे) खुशियों के गीत गाए जा रहे होते हैं। हे नानक! जो जीव परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है, प्रभु-चरणों में मिल के वह अपने सारे काम संवार लेते हैं।4।1।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ३ छंत घरु ३ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ३ छंत घरु ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजन मेरे प्रीतमहु तुम सह की भगति करेहो ॥ गुरु सेवहु सदा आपणा नामु पदारथु लेहो ॥ भगति करहु तुम सहै केरी जो सह पिआरे भावए ॥ आपणा भाणा तुम करहु ता फिरि सह खुसी न आवए ॥ भगति भाव इहु मारगु बिखड़ा गुर दुआरै को पावए ॥ कहै नानकु जिसु करे किरपा सो हरि भगती चितु लावए ॥१॥
मूलम्
साजन मेरे प्रीतमहु तुम सह की भगति करेहो ॥ गुरु सेवहु सदा आपणा नामु पदारथु लेहो ॥ भगति करहु तुम सहै केरी जो सह पिआरे भावए ॥ आपणा भाणा तुम करहु ता फिरि सह खुसी न आवए ॥ भगति भाव इहु मारगु बिखड़ा गुर दुआरै को पावए ॥ कहै नानकु जिसु करे किरपा सो हरि भगती चितु लावए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजन मेरे = हे मेरे सज्जनो! प्रीतमहु = हे मेरे प्यारो! सह की = पति प्रभु की। करेहो = करते रहो। लेहो = प्राप्त करो। सहै केरी = पति प्रभु की। सह भावए = सह भावे, पति प्रभु को पसंद आती है। जो = वह भक्ति। भाणा = मर्जी। सह खुसी = प्रभु पति की प्रसन्नता। न आवए = ना आए, नहीं आती, नहीं मिलती। भाव मारगु = प्यार का रास्ता। बिखड़ा = कठिन, मुश्किलों भरा। दुआरै = दर पे। को = कोई (विरला)। लावए = लगाता है।1।
अर्थ: हे मेरे (सत्संगी) सज्जनो प्यारो! तुम प्रभु पति की भक्ति सदा करते रहा करो, सदा अपने गुरु की शरण पड़े रहो (और गुरु से) सबसे कीमती चीज हरि नाम हासिल करो। (हे सज्जनो!) तुम प्रभु-पति की ही भक्ति करते रहो, ये भक्ति प्यारे प्रभु-पति को पसंद आती है। अगर (इस जीवन सफर में) तुम अपनी ही मर्जी करते रहोगे तो प्रभु-पति की प्रसन्नता तुम्हें नहीं मिलेगी।
(पर, हे प्यारो!) भक्ति का और प्रेम का ये रास्ता बहुत मुश्किलों भरा है, कोई विरला मनुष्य ही ये रास्ता ढूँढता है जो गुरु के दर पर आ गिरता है। नानक कहता है:जिस मनुष्य पर प्रभु (खुद) कृपा करता है वह मनुष्य अपना मन प्रभु की भक्ति में जोड़ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन बैरागीआ तूं बैरागु करि किसु दिखावहि ॥ हरि सोहिला तिन्ह सद सदा जो हरि गुण गावहि ॥ करि बैरागु तूं छोडि पाखंडु सो सहु सभु किछु जाणए ॥ जलि थलि महीअलि एको सोई गुरमुखि हुकमु पछाणए ॥ जिनि हुकमु पछाता हरी केरा सोई सरब सुख पावए ॥ इव कहै नानकु सो बैरागी अनदिनु हरि लिव लावए ॥२॥
मूलम्
मेरे मन बैरागीआ तूं बैरागु करि किसु दिखावहि ॥ हरि सोहिला तिन्ह सद सदा जो हरि गुण गावहि ॥ करि बैरागु तूं छोडि पाखंडु सो सहु सभु किछु जाणए ॥ जलि थलि महीअलि एको सोई गुरमुखि हुकमु पछाणए ॥ जिनि हुकमु पछाता हरी केरा सोई सरब सुख पावए ॥ इव कहै नानकु सो बैरागी अनदिनु हरि लिव लावए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागीआ = वैराग में आया हुआ। करि = कर के। किसु = किसे? सोहिला = खुशी के गीत। सद = सदा। जो = जो मनुष्य। छोडि = छोड़ कै। जाणए = जानता है। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। सोई = वह ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य। पछाणए = पहचाने, पहचानता है। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। केरा = का। पावए = पाता है। इव = इस तरह। अनदिनु = हर रोज।2।
अर्थ: हे वैराग में आए हुए मेरे मन! तू वैराग करके किसे दिखाता है? (इस ऊपर-ऊपर से दिखाए वैराग से तेरे अंदर आत्मिक आनंद नहीं बन सकेगा)। हे मन! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनके अंदर सदा ही उमंग व चाव बना रहता है।
हे मेरे मन! (बाहरी दिखावे वाले वैराग का) पाखण्ड छोड़ के (और, अपने अंदर) मिलने की चाहत पैदा कर (क्योंकि) वह पति प्रभु (अंदर की) हरेक बात जानता है, वह प्रभु खुद ही जल में धरती में आकाश में (हर जगह समाया हुआ है) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह उस प्रभु की रजा को समझता है।
हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने परमात्मा की रजा समझ ली वही सारे आनंद प्राप्त करता है, नानक (तुझे) ऐसे बताता है कि इस तरह के मिलाप की चाहत रखने वाला मनुष्य हर समय प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह जह मन तूं धावदा तह तह हरि तेरै नाले ॥ मन सिआणप छोडीऐ गुर का सबदु समाले ॥ साथि तेरै सो सहु सदा है इकु खिनु हरि नामु समालहे ॥ जनम जनम के तेरे पाप कटे अंति परम पदु पावहे ॥ साचे नालि तेरा गंढु लागै गुरमुखि सदा समाले ॥ इउ कहै नानकु जह मन तूं धावदा तह हरि तेरै सदा नाले ॥३॥
मूलम्
जह जह मन तूं धावदा तह तह हरि तेरै नाले ॥ मन सिआणप छोडीऐ गुर का सबदु समाले ॥ साथि तेरै सो सहु सदा है इकु खिनु हरि नामु समालहे ॥ जनम जनम के तेरे पाप कटे अंति परम पदु पावहे ॥ साचे नालि तेरा गंढु लागै गुरमुखि सदा समाले ॥ इउ कहै नानकु जह मन तूं धावदा तह हरि तेरै सदा नाले ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। मन = हे मन! धावदा = दौड़ता। तह = वहाँ। नाले = साथ ही। सिआणप = चतुराई। समाले = अपने अंदर संभाल के रख। समालहे = समालहि, अगर तू याद करे। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पावहे = तू प्राप्त कर ले। गंढु = जोड़, पक्का संबंध। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। समाले = समालि।3।
अर्थ: हे मेरे मन! जहाँ-जहाँ तू दौड़ता-फिरता है वहाँ-वहाँ ही परमात्मा तेरे साथ ही रहता है (अगर तू उसे अपने साथ बसा हुआ देखना चाहता है तो) हे मन! अपनी चतुराई (का आसरा) छोड़ देना चाहिए। हे मन! गुरु का शब्द अपने अंदर संभाल के रख (फिर तुझे दिख जाएगा कि) वह पति-प्रभु सदा तेरे साथ रहता है। (हे मन!) अगर तू एक छिन के वास्ते भी परमात्मा का नाम अपने अंदर बसाए, तो तेरे अनेक जन्मों के पाप काटे जाएं, और अंत में तू सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर ले।
(हे मन!) गुरु की शरण पड़ के तू सदा परमात्मा को अपने अंदर बसाए रख, (इस तरह उस) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ तेरा पक्का प्यार बन जाएगा। नानक तुझे ये बताता है कि हे मन! जहाँ-जहाँ तू भटकता फिरता है वहाँ-वहाँ परमात्मा सदा तेरे साथ ही रहता है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर मिलिऐ धावतु थम्हिआ निज घरि वसिआ आए ॥ नामु विहाझे नामु लए नामि रहे समाए ॥ धावतु थम्हिआ सतिगुरि मिलिऐ दसवा दुआरु पाइआ ॥ तिथै अम्रित भोजनु सहज धुनि उपजै जितु सबदि जगतु थम्हि रहाइआ ॥ तह अनेक वाजे सदा अनदु है सचे रहिआ समाए ॥ इउ कहै नानकु सतिगुरि मिलिऐ धावतु थम्हिआ निज घरि वसिआ आए ॥४॥
मूलम्
सतिगुर मिलिऐ धावतु थम्हिआ निज घरि वसिआ आए ॥ नामु विहाझे नामु लए नामि रहे समाए ॥ धावतु थम्हिआ सतिगुरि मिलिऐ दसवा दुआरु पाइआ ॥ तिथै अम्रित भोजनु सहज धुनि उपजै जितु सबदि जगतु थम्हि रहाइआ ॥ तह अनेक वाजे सदा अनदु है सचे रहिआ समाए ॥ इउ कहै नानकु सतिगुरि मिलिऐ धावतु थम्हिआ निज घरि वसिआ आए ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धावतु = भटकता (मन)। थंम्हिआ = (भटकने से) थामा, रोक लिया जाता है। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में। आए = आ के। विहाझे = खरीदता है। लए = लेता है, स्मरण करता है। नामि = नाम में। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। दसवा दुआरु = नौ गोलकों के प्रभाव में से निकल के वह दसवां दरवाजा जहाँ भटकना समाप्त हो जाती है। तिथै = उस आत्मिक अवस्था में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर। जितु = जिस आत्मिक अवस्था में। सबदि = शब्द में (जुड़ के)। जगतु = जगत का मोह। थंम्हि = रोक के। सचे = सदा स्थिर प्रभु में ही।4।
अर्थ: (हे भाई!) अगर गुरु मिल जाए तो ये भटकता मन (भटकने से) रुक जाता है, ये प्रभु-चरणों में आ टिकता है। (फिर ये) परमात्मा के नाम का सौदा करता है (भाव) परमात्मा का नाम जपता रहता है, नाम में लीन रहता है। (हे भाई! यदि गुरु मिल जाए तो) भटकता मन (भटकने से) रुक जाता है (यही आत्मिक अवस्था है वह) दसवाँ दरवाजा जो इसे मिल जाता है (जो ज्ञानेंद्रियों और कर्म इन्द्रियों से ऊँचा रहता है)। उस आत्मिक अवस्था में (पहुँच के ये मन) आत्मिक जीवन देने वाले नाम की खुराक खाता है; (इसके अंदर) आत्मिक अडोलता की रौंअचल पड़ती है, उस आत्मिक अवस्था में (ये मन) गुरु शब्द की इनायत से दुनिया के मोह को रोक के रखता है। (जैसे अनेक किसम के साज बजने से बड़ा सुंदर राग पैदा होता है, वैसे ही) उस आत्मिक अवस्था में (मन के अंदर, मानो) अनेको संगीतमयी साज बनजे लग पड़ते हैं, इसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, मन सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहता है।
(हे भाई! तुझे) नानक ऐसे बताता है कि गुरु मिल जाए तो ये भटकता मन (भटकने से) रुक जाता है, और प्रभु-चरणों में आ टिकता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु ॥ मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु ॥ मूलु पछाणहि तां सहु जाणहि मरण जीवण की सोझी होई ॥ गुर परसादी एको जाणहि तां दूजा भाउ न होई ॥ मनि सांति आई वजी वधाई ता होआ परवाणु ॥ इउ कहै नानकु मन तूं जोति सरूपु है अपणा मूलु पछाणु ॥५॥
मूलम्
मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु ॥ मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु ॥ मूलु पछाणहि तां सहु जाणहि मरण जीवण की सोझी होई ॥ गुर परसादी एको जाणहि तां दूजा भाउ न होई ॥ मनि सांति आई वजी वधाई ता होआ परवाणु ॥ इउ कहै नानकु मन तूं जोति सरूपु है अपणा मूलु पछाणु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! जोति = नूर, प्रकाश। मूलु = असलियत। पछाणु = सांझ बनाए रख। गुरमती = गुरु की मति ले के। रंगु = आत्मिक आनंद। सहु = पति प्रभु। सोझी = समझ। परसादी = प्रसाद से, कृपा से। जाणहि = अगर तू सांझ डाल ले। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना माया आदि का) और प्यार। मनि = मन में। वजी वधाई = चढ़दी कला प्रबल हो जाए (जैसे बाजे बजने से बाकी छोटे-मोटे शोर सुनाई नहीं देते)। ता = तब, तो।5।
अर्थ: हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की अंश है जो निरा नूर ही नूर है (हे मन!) अपनी उस अस्लियत से सांझ बना। हे मन! वह परमात्मा सदा तेरे अंग-संग बसता है, गुरु की मति ले के उसके मिलाप का स्वाद ले। हे मन! अगर तू अपनी अस्लियत समझ ले तो उस पति-प्रभु से तेरी गहरी जान-पहचान बन जाएगी, तब तुझे ये समझ भी आ जाएगा कि आत्मिक मौत क्या चीज है और आत्मिक जिंदगी क्या है।
हे मन! अगर गुरु की कृपा से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ले, तो तेरे अंदर (परमात्मा के बिना) कोई और मोह प्रबल नहीं हो सकेगा।
जब मनुष्य के मन में शांति पैदा हो जाती है जब इसके अंदर चढ़दीकला प्रबल हो जाती तब ये प्रभु की हजूरी में स्वीकार हो जाता है।
नानक ऐसे बताता है:हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की अंश है जो निरा प्रकाश ही प्रकाश है (हे मन! अपने उस असल से सांझ बना, असल को पहचान)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन तूं गारबि अटिआ गारबि लदिआ जाहि ॥ माइआ मोहणी मोहिआ फिरि फिरि जूनी भवाहि ॥ गारबि लागा जाहि मुगध मन अंति गइआ पछुतावहे ॥ अहंकारु तिसना रोगु लगा बिरथा जनमु गवावहे ॥ मनमुख मुगध चेतहि नाही अगै गइआ पछुतावहे ॥ इउ कहै नानकु मन तूं गारबि अटिआ गारबि लदिआ जावहे ॥६॥
मूलम्
मन तूं गारबि अटिआ गारबि लदिआ जाहि ॥ माइआ मोहणी मोहिआ फिरि फिरि जूनी भवाहि ॥ गारबि लागा जाहि मुगध मन अंति गइआ पछुतावहे ॥ अहंकारु तिसना रोगु लगा बिरथा जनमु गवावहे ॥ मनमुख मुगध चेतहि नाही अगै गइआ पछुतावहे ॥ इउ कहै नानकु मन तूं गारबि अटिआ गारबि लदिआ जावहे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! गारबि = अहंकार से। अटिआ = लिबड़ा हुआ। जाहि = जाएगा। भवाहि = चक्कर खाएगा। मुगध = मूर्ख। पछुतावहे = पछताएगा। तिसना = लालच। गवावहे = गवाए। मनमुख = हे मन मरजी वाले मन! चेतहि नाही = तू चेतता नहीं। जावहो = जाएगा।6।
अर्थ: हे मन! तू (अब) अहंकार से लिबड़ा पड़ा है, अहंकार से लादा हुआ ही (जगत से) चला जाएगा, (देखने को) सुंदर माया ने तुझे (अपने) मोह में फसाया हुआ है (इसका नतीजा ये निकलेगा कि) तुझे बार-बार अनेक जूनियों में डाला जाएगा। हे मूर्ख मन! जब तू अहंकार में फंसा हुआ ही (यहाँ से) चलेगा तो चलने के वक्त हाथ मलेगा, तूझे अहंकार चिपका हुआ है, तुझे तृष्णा का रोग लगा हुआ है तू (ये मानव) जन्म व्यर्थ गवा रहा है।
हे मन-मर्जियां करने वाले मूर्ख मन! तू परमात्मा को नहीं स्मरण करता, परलोक पहुँच के अफसोस करेगा। (तुझे) नानक इस तरह बताता है कि तू यहाँ अहंकार से भरा हुआ है (जगत से चलने के वक्त भी) अहंकार से लदा हुआ ही जाएगा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन तूं मत माणु करहि जि हउ किछु जाणदा गुरमुखि निमाणा होहु ॥ अंतरि अगिआनु हउ बुधि है सचि सबदि मलु खोहु ॥ होहु निमाणा सतिगुरू अगै मत किछु आपु लखावहे ॥ आपणै अहंकारि जगतु जलिआ मत तूं आपणा आपु गवावहे ॥ सतिगुर कै भाणै करहि कार सतिगुर कै भाणै लागि रहु ॥ इउ कहै नानकु आपु छडि सुख पावहि मन निमाणा होइ रहु ॥७॥
मूलम्
मन तूं मत माणु करहि जि हउ किछु जाणदा गुरमुखि निमाणा होहु ॥ अंतरि अगिआनु हउ बुधि है सचि सबदि मलु खोहु ॥ होहु निमाणा सतिगुरू अगै मत किछु आपु लखावहे ॥ आपणै अहंकारि जगतु जलिआ मत तूं आपणा आपु गवावहे ॥ सतिगुर कै भाणै करहि कार सतिगुर कै भाणै लागि रहु ॥ इउ कहै नानकु आपु छडि सुख पावहि मन निमाणा होइ रहु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि = कि। हउ = मैं। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। निमाणा = आजिज, माण रहित। अंतरि = (तेरे) अंदर। हउ बुधि = अहंकार भरी बुद्धि। सचि = सदा स्थिर हरि में। सबदि = शब्द में। आपु = अपना आप। लखावहे = दिखाए। अहंकारि = अहंकार में। भाणै = रजा में। छडि = छोड़ के। मन = हे मन!।7।
अर्थ: हे मन! देखना, कहीं ये गुमान ना कर बैठना कि मैं (बहुत) समझदार हूँ, गुरु की शरण पड़ के माण त्याग के रख। (हे मन!) तेरे अंदर परमात्मा से दूरी है, तेरे अंदर ‘मैं मैं’ करने वाली बुद्धि है, इस मैल को सदा-स्थिर हरि नाम में जुड़ के गुरु के शब्द में टिक के दूर कर। हे मन! विनम्र हो के गुरु के चरणों में गिर पड़ो। देखना, कहीं अपना आप जताने ना लग पड़ना। जगत अपने ही अहंकार में जल रहा है, देखना, कहीं तू भी (अहंकार में पड़ कर) अपने आपका नाश ना कर लेना। (इस खतरे से तभी बचेगा, अगर) तू गुरु के हुक्म में चल के काम करेगा। (सो, हे मन!) गुरु के हुक्म मे टिका रह। (हे मन! तुझे) नानक इस प्रकार समझाता है: हे मन अहंकार त्याग दे, अहंकार छोड़ के ही सुख पाएगा।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ सो सहु चिति आइआ ॥ महा अनंदु सहजु भइआ मनि तनि सुखु पाइआ ॥ सो सहु चिति आइआ मंनि वसाइआ अवगण सभि विसारे ॥ जा तिसु भाणा गुण परगट होए सतिगुर आपि सवारे ॥ से जन परवाणु होए जिन्ही इकु नामु दिड़िआ दुतीआ भाउ चुकाइआ ॥ इउ कहै नानकु धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ सो सहु चिति आइआ ॥८॥
मूलम्
धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ सो सहु चिति आइआ ॥ महा अनंदु सहजु भइआ मनि तनि सुखु पाइआ ॥ सो सहु चिति आइआ मंनि वसाइआ अवगण सभि विसारे ॥ जा तिसु भाणा गुण परगट होए सतिगुर आपि सवारे ॥ से जन परवाणु होए जिन्ही इकु नामु दिड़िआ दुतीआ भाउ चुकाइआ ॥ इउ कहै नानकु धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ सो सहु चिति आइआ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंनु = भाग्यशाली। जितु = जिस में जब। मैं = तुझे। सहु = पति। चिति = चित्त में। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन ने। तनि = तन ने, हृदय ने। मंनि = मनि, मन में। सभि = सारे। तिसु = उस (प्रभु) को। सवारे = (जीवन) सुंदर बना देता है। दिढ़िआ = दृढ़ कर लिया, हृदय में पक्का कर लिया। दुतीआ = दूसरा। भाउ = प्यार।8।
अर्थ: वह वक्त सौभाग्यपूर्ण था जब मुझे गुरु मिल गया था (और, गुरु की किरपा से) वह पति-प्रभु मेरे चित्त में आ बसा। मेरेअंदर बहुत आनंद पैदा हुआ, मेरे अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो गई, मेरे मन ने मेरे दिल ने सुख अनुभव किया। (गुरु की कृपा से) वह पति-प्रभु मेरे चित्त में आ बसा, (गुरु ने प्रभु को) मेरे मन में बसा दिया, और मेरे ही अवगुण भुला दिए। (हे भाई!) जब उस मालिक को ठीक लगता है उसके गुण मनुष्य के अंदर रौशन हो जाते हैं, गुरु स्वयं उस मनुष्य के जीवन को सुंदर बना देता है।
जो मनुष्य सिर्फ हरि-नाम को अपने दिल में पक्का कर लेते हैं, और माया का मोह अंदर से दूर कर लेते हैं, वे परमात्मा की दरगाह में स्वीकार हो जाते हैं।
नानक इस प्रकार कहता है: भाग्यशाली था वह समय जब मुझे गुरु मिला था और (गुरु की कृपा से) वह पति-प्रभु मेरे चित्त में आ बसा था।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि जंत भरमि भुले तिनि सहि आपि भुलाए ॥ दूजै भाइ फिरहि हउमै करम कमाए ॥ तिनि सहि आपि भुलाए कुमारगि पाए तिन का किछु न वसाई ॥ तिन की गति अवगति तूंहै जाणहि जिनि इह रचन रचाई ॥ हुकमु तेरा खरा भारा गुरमुखि किसै बुझाए ॥ इउ कहै नानकु किआ जंत विचारे जा तुधु भरमि भुलाए ॥९॥
मूलम्
इकि जंत भरमि भुले तिनि सहि आपि भुलाए ॥ दूजै भाइ फिरहि हउमै करम कमाए ॥ तिनि सहि आपि भुलाए कुमारगि पाए तिन का किछु न वसाई ॥ तिन की गति अवगति तूंहै जाणहि जिनि इह रचन रचाई ॥ हुकमु तेरा खरा भारा गुरमुखि किसै बुझाए ॥ इउ कहै नानकु किआ जंत विचारे जा तुधु भरमि भुलाए ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई, बहुत। भरमि = भटकना में। भुले = गलत राह पर पड़े हुए। तिनि = उस ने। सहि = शहु ने। तिनि सहि = उस पति प्रभु ने। दूजै भाइ = माया के प्यार में। कमाए = कमा के, कर करके। कुमार्ग = बुरे राह पर। वसाई = वश, जोर। अविगत = बुरी हालत। जिनी = जिस (तुझ) ने। खरा = बहुत। गुरमुखि = गुरु की शरण डाल के। बुझाए = समझाता है। तुधु = तू ही।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) अनेक जीव माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं, (उस पैदा करने वाले) पति प्रभु ने खुद ही उन्हें गलत राह पर डाला हुआ है। ऐसे जीव अहंकार के आसरे काम कर कर के माया के मोह में भटकते हैं। उस पति प्रभु ने स्वयं (उन्हें) सही रास्ते से तोड़ा हुआ है और गलत राह पर डाला हुआ है, उन जीवों का कोई जोर नहीं चलता (कि अपने उद्यम से गलत रास्ता छोड़ दें)।
हे प्रभु! जिस तुझ ने ये जगत रचना रची हुई है तू स्वयं ही (गलत राह पर पड़े हुए) उन जीवों की अच्छी-बुरी आत्मिक हालत जानता है (जिसके मुताबिक तूने उन्हें गलत रास्ते पर डाला है)। तेरा हुक्म बहुत दमदार है (जिसके कारण जीव गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं)।
(हे भाई!) किसी विरले भाग्यशाली को पति प्रभु गुरु की शरण डाल के अपना हुक्म समझाता है। नानक ऐसे कहता है: हे प्रभु! अगर तूने खुद ही जीवों का माया की भटकना में डाल के जिंदगी के बुरे रास्ते डाला हुआ है, तो ये बिचारे जीव क्या कर सकते हैं?।9।