२० गुरु नानक - छंत

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुधु सिरि लिखिआ सो पड़ु पंडित अवरा नो न सिखालि बिखिआ ॥ पहिला फाहा पइआ पाधे पिछो दे गलि चाटड़िआ ॥५॥

मूलम्

तुधु सिरि लिखिआ सो पड़ु पंडित अवरा नो न सिखालि बिखिआ ॥ पहिला फाहा पइआ पाधे पिछो दे गलि चाटड़िआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुधु सिरि = तेरे सिर पर। सो = वह लेख। पंडित = हे पण्डित! बिखिआ = माया। गलि = गले में।5।
अर्थ: हे पण्डित! तेरे अपने माथे पे जो (माया का) लेख लिखा हुआ है, पहले तू उस लेख को पढ़ (भाव, पिछले किए कर्मों के अनुसार जो संसकार तेरे अंदर इकट्ठे हुए पड़े हैं, उनके तहत तू सिर्फ माया की खातिर उम्र गुजार रहा है, पर अपने आप को पण्डित समझता और पण्डित कहलवाता है। निरी माया की खातिर दौड़-भाग छोड़, और) औरों (चेलों) को भी सिर्फ माया का लेखा-पत्रा ना सिखा।
(सिर्फ माया का लेखा पढ़ने वाले) पण्डित ने पहले अपने गले में (माया की) फांसी डाली हुई है, फिर वही फांसी अपने विद्यार्थियों के गले में डाल देता है।5।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ससै संजमु गइओ मूड़े एकु दानु तुधु कुथाइ लइआ ॥ साई पुत्री जजमान की सा तेरी एतु धानि खाधै तेरा जनमु गइआ ॥६॥

मूलम्

ससै संजमु गइओ मूड़े एकु दानु तुधु कुथाइ लइआ ॥ साई पुत्री जजमान की सा तेरी एतु धानि खाधै तेरा जनमु गइआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संजमु = इन्द्रियों को गलत तरफ जाने से रोकना, बंधन, जीवन जुगति। कुथाइ = गलत जगह पे। जजमान = परोहित से यज्ञ करवाने वाला। पुत्री = बेटी। एतु = इसके द्वारा। धानु = अंन्न। धानि = धान के द्वारा। एतु धानि = इस अन्न से। एतु धानि खाधै = इस खाए अन्न के द्वारा।6।
अर्थ: (अपने आप को पण्डित समझने वाले) हे मूख! (निरी माया की खातिर पड़ने-पढ़ाने के कारण लालच-वश हो के) तू जीवन-जुगति भी गवा बैठा है। परोहित होने के कारण तू अपने जजमान से हर दिन-दिहाड़े के दान लेता है, (पर) एक दान तू अपने जजमान से गलत जगह पर लेता है। जजमान की बेटी तेरी ही बेटी है (बेटी के विवाह पर जजमान से दान लेना बेटी का पैसा खाना है)। ये अन्न खाने से (ये पैसा खाने से) तू अपना आत्मिक जीवन गवा लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममै मति हिरि लई तेरी मूड़े हउमै वडा रोगु पइआ ॥ अंतर आतमै ब्रहमु न चीन्हिआ माइआ का मुहताजु भइआ ॥७॥

मूलम्

ममै मति हिरि लई तेरी मूड़े हउमै वडा रोगु पइआ ॥ अंतर आतमै ब्रहमु न चीन्हिआ माइआ का मुहताजु भइआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरि लई = छीन ली, मार दी। चीन्हिआ = पहचाना। अंतर आतमै = अपनी अंरात्मा में। ब्रहमु = परमात्मा। मुहताजु = जरूरतमंद, पराधीन।7।
अर्थ: हे मूर्ख! (एक तरफ माया के लालच ने) तेरी लालच मारी हुई है (तुझे ‘कुथाय दान’-गलत जगह से दान लेने में भी संकोच नहीं है। दूसरी तरफ) तुझे ये बड़ा आत्मिक रोग चिपका हुआ है कि मैं (विद्वान) हूँ, मैं (विद्वान) हूँ। तू अपने अंदर (बसते) परमात्मा को पहचान नहीं सका, (इस वास्ते तेरा स्वै) माया (के लालच) के अधीन है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ककै कामि क्रोधि भरमिओहु मूड़े ममता लागे तुधु हरि विसरिआ ॥ पड़हि गुणहि तूं बहुतु पुकारहि विणु बूझे तूं डूबि मुआ ॥८॥

मूलम्

ककै कामि क्रोधि भरमिओहु मूड़े ममता लागे तुधु हरि विसरिआ ॥ पड़हि गुणहि तूं बहुतु पुकारहि विणु बूझे तूं डूबि मुआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कामि = काम-वासना में। क्रोधि = क्रोध में। भरमिओहु = तू भटक रहा है, तू गलत राह पर पड़ा हुआ है। ममता = (ये चीज) मेरी (बन जाए) (की प्रबल वासना), लालच। पढ़हि = तू पढ़ता है। गुणहि = तू विचारता है। पुकारहि = तू ऊँचा ऊँचा (और लोगों को) सुनाता है। डूबि = (लालच की बाढ़ में) डूब के। मुआ = आत्मिक मौत सहेड़ चुका है।8।
अर्थ: हेमूर्ख! (और लोगों को समझाता) तू स्वयं काम-वासना में, क्रोध में (फंस के) गलत राह पर पड़ा हुआ है। तू (धर्म-पुस्तकें) पढ़ता है, अर्थ विचारता है, और-और लोगों को सुनाता भी है, पर (सही जीवन-राह) समझे बिना तू (लालच की बाढ़ में) डूब के आत्मिक मौत मर चुका है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततै तामसि जलिओहु मूड़े थथै थान भरिसटु होआ ॥ घघै घरि घरि फिरहि तूं मूड़े ददै दानु न तुधु लइआ ॥९॥

मूलम्

ततै तामसि जलिओहु मूड़े थथै थान भरिसटु होआ ॥ घघै घरि घरि फिरहि तूं मूड़े ददै दानु न तुधु लइआ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तामसि = क्रोध से। जलिओहु = तू जला हुआ है। थानु = हृदय स्थान। भरिसटु = गंदा। घरि घरि = हरेक (जजमान के) घर में।9।
अर्थ: हेमूर्ख (पण्डित!) तू (अंदर से) क्रोध से जला हुआ है, तेरा हृदय-स्थल (लालच से) गंदा हुआ पड़ा है। हे मूर्ख! तू हरेक (जजमान के) घर में (मायावी दक्षिणा के लिए तो) चलता फिरता है, पर प्रभु के नाम की दक्षिणा तूने अभी तक किसी से नहीं ली।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पपै पारि न पवही मूड़े परपंचि तूं पलचि रहिआ ॥ सचै आपि खुआइओहु मूड़े इहु सिरि तेरै लेखु पइआ ॥१०॥

मूलम्

पपै पारि न पवही मूड़े परपंचि तूं पलचि रहिआ ॥ सचै आपि खुआइओहु मूड़े इहु सिरि तेरै लेखु पइआ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परपंचि = परपंच में, माया के पसारे में। पलचि रहिआ = तू फस रहा है, उलझ रहा है। सचै = सच्चे प्रभु ने। खुआइओहु = तुझे गलत रास्ते पर डाल दिया है। सिरि तेरै = तेरे सिर पर, तेरे माथे पे।10।
अर्थ: हे मूर्ख! तू संसार (के मोह जाल) में (इतना) उलझ रहा है कि इस में से परले पासे नहीं पहुँच सकता। हे मूर्ख! (तेरे अपने किए कर्मों के अनुसार) कर्तार ने तुझे (उसे) गलत राह पर डाल दिया है (जिधर तेरी रुची बनी हुई है, और) उनके किए कर्मों के संस्कारों के संचय का लेख तेरे माथे पे (इतना) करा पड़ा है (कि तुझे सही रास्ते की समझ नहीं रहती, पर तू और लोगों को सलाहें देता फिरता है)।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भभै भवजलि डुबोहु मूड़े माइआ विचि गलतानु भइआ ॥ गुर परसादी एको जाणै एक घड़ी महि पारि पइआ ॥११॥

मूलम्

भभै भवजलि डुबोहु मूड़े माइआ विचि गलतानु भइआ ॥ गुर परसादी एको जाणै एक घड़ी महि पारि पइआ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भवजलि = संसार समुंदर में। गलतानु = इतना मस्त कि और कुछ सूझता ही नहीं। परसादी = कृपा से। एको = एक परमात्मा को ही। जाणै = जो मनुष्य जानता है।11।
अर्थ: हे मूर्ख! तू माया (के मोह) में इतना मस्त है कि तुझे और कुछ सूझता ही नहीं, तू संसार समुंदर (की मोह की लहरों) में गोते खा रहा है (अपने बचाव के लिए तू कोई उद्यम नहीं करता)।
(गुरु की शरण पड़ कर) गुरु की कृपा से जो मनुष्य परमात्मा से सांझ डालता है, वह इस संसार समुंदर से एक पल में पार लांघ जाता है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववै वारी आईआ मूड़े वासुदेउ तुधु वीसरिआ ॥ एह वेला न लहसहि मूड़े फिरि तूं जम कै वसि पइआ ॥१२॥

मूलम्

ववै वारी आईआ मूड़े वासुदेउ तुधु वीसरिआ ॥ एह वेला न लहसहि मूड़े फिरि तूं जम कै वसि पइआ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वारी = मानव जनम की बारी जिसमें परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता था। वासदेउ = परमात्मा। न लहसहि = तू ढूँढ नहीं सकेगा। वसि = काबू में।12।
अर्थ: हेमूर्ख! (सौभाग्य से) मानव जन्म (मिलने) की बारी आई थी, पर (इस अमोलक जनम में भी) तुझे परमात्मा भूला ही रहा। हे मूर्ख! (अगर भटकता ही रहा तो) ये समय दुबारा नहीं मिलेगा (और माया के मोह में फसा रह के) तू जम के वश में पड़ जाएगा (जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाएगा)।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झझै कदे न झूरहि मूड़े सतिगुर का उपदेसु सुणि तूं विखा ॥ सतिगुर बाझहु गुरु नही कोई निगुरे का है नाउ बुरा ॥१३॥

मूलम्

झझै कदे न झूरहि मूड़े सतिगुर का उपदेसु सुणि तूं विखा ॥ सतिगुर बाझहु गुरु नही कोई निगुरे का है नाउ बुरा ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न झूरहि = नही झूरेगा, अंदर से चिन्ता में, सिसकियों में नहीं डूबेगा। विखा = देख ले। निगुरा = जिसने गुरु का आसरा नहीं लिया।13।
अर्थ: हे मूर्ख! तू पूरे गुरु का उपदेश धारण करके देख ले, (माया आदि की खातिर) तुझे कभी झुरना नहीं पड़ेगा (क्योंकि माया-मोह का जाल टूट जाएगा) पर अगर पूरे गुरु की शरण नहीं पड़ेगा तो कोई (रस्मी) गुरु (इन चिंताओं से सिसकियों से बचा) नहीं (सकता)।
जो मनुष्य पूरे गुरु के बताए रास्ते पर नहीं चलता, (गलत रास्ते पर पड़ने के कारण) वह बदनामी ही कमाता है।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धधै धावत वरजि रखु मूड़े अंतरि तेरै निधानु पइआ ॥ गुरमुखि होवहि ता हरि रसु पीवहि जुगा जुगंतरि खाहि पइआ ॥१४॥

मूलम्

धधै धावत वरजि रखु मूड़े अंतरि तेरै निधानु पइआ ॥ गुरमुखि होवहि ता हरि रसु पीवहि जुगा जुगंतरि खाहि पइआ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरजि रखु = रोक के रख। धावत = भटकते को। तेरै अंतरि = तेरे अंदर। निधानु = खजाना (सुखों का)। गुरमुखि होवहि = अगर तू गुरु के सन्मुख रहे। जुगा जुगंतरि = जुगों जुग अंतर, अनेक युगों तक, सदा के लिए। खाहि पइआ = पड़ा खाएगा, खाता रहेगा।14।
अर्थ: हेमूर्ख! आत्मिक सुख का खजाना परमात्मा तेरे अंदर बस रहा है (पर, तू सुख की तलाश में बाहर भटकता फिरता है) बाहर भटकते मन को रोक के रख। अगर तू गुरु के बताए रास्ते पर चले तो (अंदर बसते) परमात्मा के नाम का रस पीएगा, सदा के लिए ये नाम रस बरसता रहेगा (कभी खत्म नहीं होगा)।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गगै गोबिदु चिति करि मूड़े गली किनै न पाइआ ॥ गुर के चरन हिरदै वसाइ मूड़े पिछले गुनह सभ बखसि लइआ ॥१५॥

मूलम्

गगै गोबिदु चिति करि मूड़े गली किनै न पाइआ ॥ गुर के चरन हिरदै वसाइ मूड़े पिछले गुनह सभ बखसि लइआ ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुनह = पाप।15।
अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा (के नाम) को अपने चित्त में बसा ले (तभी उससे मिलाप होगा), सिर्फ बातों से किसी ने प्रभु को नहीं पाया।
हे मूर्ख! गुरु के चरण हृदय में टिकाए रख, पिछले किए हुए सारे पाप बख्शे जाएंगे।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहै हरि कथा बूझु तूं मूड़े ता सदा सुखु होई ॥ मनमुखि पड़हि तेता दुखु लागै विणु सतिगुर मुकति न होई ॥१६॥

मूलम्

हाहै हरि कथा बूझु तूं मूड़े ता सदा सुखु होई ॥ मनमुखि पड़हि तेता दुखु लागै विणु सतिगुर मुकति न होई ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूझु = समझ, विधि सीख। कथा = महिमा। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। तेता = उतना ही। मुकति = खलासी।16।
अर्थ: हे मूर्ख! अगर तू परमात्मा की महिमा करनी सीख ले तो तुझे सदा आत्मिक आनंद मिला रहे। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे जितना ही (प्रभु की महिमा से टूट के माया संबंधी और ही लेखे) पढ़ते रहते हैं, उतनी ही ज्यादा अशांति कमाते हैं, और गुरु की शरण के बिना (इस अशांति से) खलासी नहीं मिलती।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रारै रामु चिति करि मूड़े हिरदै जिन्ह कै रवि रहिआ ॥ गुर परसादी जिन्ही रामु पछाता निरगुण रामु तिन्ही बूझि लहिआ ॥१७॥

मूलम्

रारै रामु चिति करि मूड़े हिरदै जिन्ह कै रवि रहिआ ॥ गुर परसादी जिन्ही रामु पछाता निरगुण रामु तिन्ही बूझि लहिआ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति करि = चित्त में बसा ले। हिरदै = हृदय में। रवि रहिआ = सदा याद है, सदा मौजूद है। पछाता = पहचान लिया, गहरी सांझ डाल ली। बूझि = समझ के। निरगुण = माया के प्रभाव से निर्लिप। लहिआ = ढूँढ लिया। परसादी = कृपा से।17।
अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रख। जिस लोगों के दिल में परमात्मा सदा बसता रहता है (जिन्हें प्रभु सदा याद है, उनकी संगति में रह के) गुरु की कृपा से जिस (और) लोगों ने परमात्मा के साथ सांझ डाली, उन्होंने माया से निर्लिप प्रभु (की अस्लियत) समझ के उस से मिलाप प्राप्त कर लिया।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरा अंतु न जाई लखिआ अकथु न जाई हरि कथिआ ॥ नानक जिन्ह कउ सतिगुरु मिलिआ तिन्ह का लेखा निबड़िआ ॥१८॥१॥२॥

मूलम्

तेरा अंतु न जाई लखिआ अकथु न जाई हरि कथिआ ॥ नानक जिन्ह कउ सतिगुरु मिलिआ तिन्ह का लेखा निबड़िआ ॥१८॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथु = जो बयान से बाहर है। लेखा = किए बुरे कर्मों का हिसाब। निबड़िआ = खत्म हो जाता है।18।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: किसी शाहूकार से कर्जा उठा लें, ज्यों-ज्यों समय गुजरता है, उस कर्जे पर ब्याज पड़-पड़ के शाहूकार की रकम बढ़ती जाती है। किसी किए विकार के कारण मन में टिके हुए बुरे संस्कार विकारों की ओर, और ज्यादा प्रेरित करते हैं। उस प्रेरणा से और विकार किए जाते हैं इस तरह विकारों का ये सिलसिला जारी रहता है, और विकारों का लेखा बढ़ता चला जाता है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है, बयान नहीं किया जा सकता।
हे नानक! जिन्हें सतिगुरु मिल जाए (वह निरी माया के लेखे लिखने-पढ़ने की जगह परमात्मा की महिमा करने लग पड़ते हैं, इस तरह) उनके अंदर से माया के मोह के संस्कारों का हिसाब समाप्त हो जाता है।18।1।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक 1 का भाव है ये 18 बंदों वाली सारी एक ही वाणी है जिसका शीर्षक है ‘पट्टी’। अंक 2 का भाव ये है कि ‘पट्टी’ नाम की ये ‘दो’ बाणियां हैं। पहली ‘पट्टी’ महले पहले की, और दूसरी ‘पट्टी’ महले तीसरे की।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला १ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु आसा महला १ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुंध जोबनि बालड़ीए मेरा पिरु रलीआला राम ॥ धन पिर नेहु घणा रसि प्रीति दइआला राम ॥ धन पिरहि मेला होइ सुआमी आपि प्रभु किरपा करे ॥ सेजा सुहावी संगि पिर कै सात सर अम्रित भरे ॥ करि दइआ मइआ दइआल साचे सबदि मिलि गुण गावओ ॥ नानका हरि वरु देखि बिगसी मुंध मनि ओमाहओ ॥१॥

मूलम्

मुंध जोबनि बालड़ीए मेरा पिरु रलीआला राम ॥ धन पिर नेहु घणा रसि प्रीति दइआला राम ॥ धन पिरहि मेला होइ सुआमी आपि प्रभु किरपा करे ॥ सेजा सुहावी संगि पिर कै सात सर अम्रित भरे ॥ करि दइआ मइआ दइआल साचे सबदि मिलि गुण गावओ ॥ नानका हरि वरु देखि बिगसी मुंध मनि ओमाहओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुंध = मुग्धा, उत्साह भरी नवयुवती जिसे अभी अपने जोबन का ज्ञान ना हो। जोबनि = जवानी में। बालड़ी = अंजान स्त्री। रलीआला = रलीया+आलय, आनंद का श्रोत। धन = जीव-स्त्री। रसि = रस में, चाव से। पिरहि = पर का। सेजा = हृदय सेज। सात सर = सात सरोवर (पाँच ज्ञान-इंद्रिय, मन और सातवीं बुद्धि)। मइआ = मया, दया। सबदि = शब्द में। मिलि = मिल के। गावउ = मैं गाऊँ। वरु = पति। मनि = मन में।1।
अर्थ: हे जोबन में मतवाली हुई अंजान युवती! (अपने पति प्रभु को हृदय में बसा ले) प्यारा प्रभु ही आनंद का श्रोत है। जिस जीव-स्त्री से प्रभु-पति का ज्यादा प्रेम होता है वह बड़े चाव से दयालु प्रभु को प्यार करती है। प्रभु स्वामी स्वयं कृपा करते हैं तब ही जीव-स्त्री का प्रभु-पति से मिलाप होता है। पति प्रभु की संगति में उसकी हृदय-सेज सुंदर बन जाती है, उसके पाँचों ज्ञानेद्रियां, उसका मन और उसकी बुद्धि ये सारे नाम-अमृत से भरपूर हो जाते हैं।
हे सदा-स्थिर रहने वाले दयालु प्रभु! मेरे पर मेहर कर, कृपा कर, मैं गुरु के शब्द में जुड़ के तेरे गुण गाऊँ।
हे नानक! जिस जीव-स्त्री के मन में प्रभु-पति के मिलाप का चाव पैदा होता है वह हरि पति का दीदार करके (अंतरात्मा में) प्रसन्न होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुंध सहजि सलोनड़ीए इक प्रेम बिनंती राम ॥ मै मनि तनि हरि भावै प्रभ संगमि राती राम ॥ प्रभ प्रेमि राती हरि बिनंती नामि हरि कै सुखि वसै ॥ तउ गुण पछाणहि ता प्रभु जाणहि गुणह वसि अवगण नसै ॥ तुधु बाझु इकु तिलु रहि न साका कहणि सुनणि न धीजए ॥ नानका प्रिउ प्रिउ करि पुकारे रसन रसि मनु भीजए ॥२॥

मूलम्

मुंध सहजि सलोनड़ीए इक प्रेम बिनंती राम ॥ मै मनि तनि हरि भावै प्रभ संगमि राती राम ॥ प्रभ प्रेमि राती हरि बिनंती नामि हरि कै सुखि वसै ॥ तउ गुण पछाणहि ता प्रभु जाणहि गुणह वसि अवगण नसै ॥ तुधु बाझु इकु तिलु रहि न साका कहणि सुनणि न धीजए ॥ नानका प्रिउ प्रिउ करि पुकारे रसन रसि मनु भीजए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में टिकी हुई। सलोनड़ी = सुंदर नैनों (लोइण) वाली। संगमि = संगम में, मेल में। प्रेमि = प्रेम में। सुखि = सुख में। तउ = तेरे। धीजए = धैर्य पकड़ता है। प्रिउ = प्यारा। रसन = जीभ। भीजए = भीगे, भीगता है।2।
अर्थ: हे आत्मिक अडोलता में टिकी सुंदर नेंत्रों वाली जीव-स्त्री! मेरी एक प्यार भरी विनती सुन। (मुझे भी रास्ता दिखा ता कि) मुझे भक्ति में प्रभु प्यारा लगे और मैं प्रभु के साथ घुल मिल जाऊँ।
जो जीव-स्त्री प्रभु के प्यार में रंगी रहती है और उसके दर पर विनतियां करती रहती है उस प्रभु के नाम में जुड़ के आत्मिक आनंद में जीवन व्यतीत करती है।
हे प्रभु! जो जीव-स्त्रीयां जब तेरे गुण पहचानती हैं तब वे तेरे साथ गहरी जान-पहचान डाल लेती हैं, उनके हृदय में गुण आ टिकते हैं और अवगुण उनके अंदर से दूर हो जाते हैं।
हे प्रभु! मैं तेरे बिना एक तिल जितना समय भी जी नहीं सकती (मेरी जीवात्मा व्याकुल हो उठती है)। (तेरे नाम के बिना कुछ और) कहने या सुनने से मेरे मन को धीरज नहीं आता।
हे नानक! जो जीव-स्त्री प्रभु को ‘हे प्यारे! हे प्यारे!! ’ कह कह के याद करती रहती है उसकी जीभ उसका मन परमात्मा के नाम-रस में भीग जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखीहो सहेलड़ीहो मेरा पिरु वणजारा राम ॥ हरि नामुो वणंजड़िआ रसि मोलि अपारा राम ॥ मोलि अमोलो सच घरि ढोलो प्रभ भावै ता मुंध भली ॥ इकि संगि हरि कै करहि रलीआ हउ पुकारी दरि खली ॥ करण कारण समरथ स्रीधर आपि कारजु सारए ॥ नानक नदरी धन सोहागणि सबदु अभ साधारए ॥३॥

मूलम्

सखीहो सहेलड़ीहो मेरा पिरु वणजारा राम ॥ हरि नामुो वणंजड़िआ रसि मोलि अपारा राम ॥ मोलि अमोलो सच घरि ढोलो प्रभ भावै ता मुंध भली ॥ इकि संगि हरि कै करहि रलीआ हउ पुकारी दरि खली ॥ करण कारण समरथ स्रीधर आपि कारजु सारए ॥ नानक नदरी धन सोहागणि सबदु अभ साधारए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वणजारा = व्यापारी। नामुो = (असल शब्द ‘नामु’ है यहाँ ‘नामो’ पढ़ना है)। वणंजड़िआ = व्यापार किया, खरीदा। अपारा = बेअंत। मोलि = मूल्य में। ढोले = प्यारा। इकि = कई (जीव स्त्रीयां)। हउ = मैं। दरि = दर पर। स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी का आसरा प्रभु। सारए = सारै, संभालता है, संवारता है। अभ = हृदय। साधारए = सहारा देता है।3।
अर्थ: हे (सत्संगी) सहेलियो! परमात्मा प्रेम का व्यापारी है। जिसने उसका नाम विहाजा है वह उसके नाम-रस में भीग के इतने ऊँचे आत्मिक जीवन वाली हो जाती है कि वह अमूल्य हो जाती है। वह जीव-सखी बहुमूल्य हो जाती है, प्यारे प्रभु के सदा-स्थिर चरणों में वह जुड़ी रहती है। वही जीव-स्त्री ठीक समझो जो पति-प्रभु को प्यारी लगती है। अनेक ही हैं जो प्रभु की याद में जुड़ के आत्मिक आनंद पाती हैं, मैं उनके दर पे खड़े हो के विनती करती हूँ (कि मेरी सहायता करो मैं भी प्रभु को याद कर सकूँ)।
हे नानक! जिस जीव-स्त्री पे प्रभु की मेहर की निगाह होती है वह भाग्यशाली है, गुरु का शब्द उसके हृदय को सहारा दिए रखता है; वह परमात्मा जो सारे जगत का मूल है जो सब कुछ करने योग्य है जो माया का पति है उस जीव-स्त्री के मानव जनम के उद्देश्य को सफल करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम घरि साचा सोहिलड़ा प्रभ आइअड़े मीता राम ॥ रावे रंगि रातड़िआ मनु लीअड़ा दीता राम ॥ आपणा मनु दीआ हरि वरु लीआ जिउ भावै तिउ रावए ॥ तनु मनु पिर आगै सबदि सभागै घरि अम्रित फलु पावए ॥ बुधि पाठि न पाईऐ बहु चतुराईऐ भाइ मिलै मनि भाणे ॥ नानक ठाकुर मीत हमारे हम नाही लोकाणे ॥४॥१॥

मूलम्

हम घरि साचा सोहिलड़ा प्रभ आइअड़े मीता राम ॥ रावे रंगि रातड़िआ मनु लीअड़ा दीता राम ॥ आपणा मनु दीआ हरि वरु लीआ जिउ भावै तिउ रावए ॥ तनु मनु पिर आगै सबदि सभागै घरि अम्रित फलु पावए ॥ बुधि पाठि न पाईऐ बहु चतुराईऐ भाइ मिलै मनि भाणे ॥ नानक ठाकुर मीत हमारे हम नाही लोकाणे ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि = हृदय घर में। सोहिलड़ा = खुशी का गीत। आइअड़े = आ गए हैं। लीअड़ा = (प्रभु का नाम) खरीदा है। रावए = प्यार करता है। सभागै घरि = भाग्यशाली हृदय घर में। पाठि = पाठ से। भाइ = प्रेम से। लोकाणे = लोगों के।4।
अर्थ: हे सहेलियो! मेरे हृदय-घर में, जैसे, अटल खुशियों भरा गीत गाया जा रहा है, क्योंकि मित्र प्रभु मेरे अंदर आ बसा है। वह प्रभु उन जीवों को मिल जाता है जो उसके प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, वह अपना मन उसके हवाले करते हैं और वह नाम हासिल करते हैं।
जो जीव-स्त्री अपना मन प्रभु-पति के हवाले करती है वह प्रभु-पति का मिलाप हासिल कर लेती है फिर अपनी रजा के अनुसार प्रभु उस जीव-स्त्री के साथ मिला रहता है। जो जीवात्मा-वधू गुरु के शब्द में जुड़ के अपना मन अपना हृदय प्रभु-पति को भेट करती है वह अपने भाग्यों वाले हृदय-घर में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल पा लेती है।
प्रभु किसी समझदारी से किसी बुद्धिमानी से किसी (धार्मिक पुस्तकों के) पाठ से नहीं मिलता, वह तो प्रेम से ही मिलता है, उसे मिलता है जिसके मन में वह प्यारा लगता है।
हे नानक! (कह:) हे मेरे ठाकुर! हे मेरे मित्र! (मेहर कर मुझे अपना बनाए रख) मैं (तेरे बिना) किसी और का ना बनूँ।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ अनहदो अनहदु वाजै रुण झुणकारे राम ॥ मेरा मनो मेरा मनु राता लाल पिआरे राम ॥ अनदिनु राता मनु बैरागी सुंन मंडलि घरु पाइआ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु पिआरा सतिगुरि अलखु लखाइआ ॥ आसणि बैसणि थिरु नाराइणु तितु मनु राता वीचारे ॥ नानक नामि रते बैरागी अनहद रुण झुणकारे ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ अनहदो अनहदु वाजै रुण झुणकारे राम ॥ मेरा मनो मेरा मनु राता लाल पिआरे राम ॥ अनदिनु राता मनु बैरागी सुंन मंडलि घरु पाइआ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु पिआरा सतिगुरि अलखु लखाइआ ॥ आसणि बैसणि थिरु नाराइणु तितु मनु राता वीचारे ॥ नानक नामि रते बैरागी अनहद रुण झुणकारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनहदु = एकरस, मतवातर। वाजै = (बाजा) बजता है। रुण झुणकार = घुँघरूओं की झांझरों की छन छन। राता = रति हुआ, मस्त। अनदिनु = हर रोज। बैरागी = वैरागवान, प्रेमी, मतवाला। मंडलि = मंडल में। सुंन मंडलि = उस मंडल में जहाँ (मायावी फुरनों से) सुंन्न है। घरु = ठिकाना। अपरंपरु = परे से परे, जिससे परे और कोई नहीं। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अलखु = अदृश्य प्रभु। आसणि = आसन पर। बैसणि = बैठने वाली जगह पर। थिरु = सदा वास्ते कायम। तितु = उस (प्रभु) में। वीचारे = (गुरु की शब्द की) विचार से। नामि = नाम में।1।
अर्थ: मेरा मन प्यारे प्रभु (के प्रेम रंग) में रंगा गया है, अब मेरे अंदर (जैसे) घुँघरूओं-झांझरों की झनकार देने वाला (बाजा) एक रस बज रहा है। मेरा मन हर समय (प्रभु की याद में) मतवाला रहता है, मस्त रहता है, मैंने अब ऐसे ऊँचे मण्डल में ठिकाना पा लिया है जहाँ कोई मायावी फुरना नहीं उठता। सतिगुरु ने मुझे वह अदृश्य प्रभु दिखा दिया है जो सबका आदि है और सब में व्यापक है जो सब का प्यारा है और जिससे परे और कोई हस्ती नहीं। मेरा मन गुरु के शब्द के विचार की इनायत सेउस नारायण में मस्त रहता है जो अपने आसन पर अपने तख़्त पर सदा अडोल रहता है।
हे नानक! जिस लोगों के मन प्रभु के नाम में रंगे जाते हैं (प्रभु-नाम के) मतवाले हो जाते हैं, उनके अंदर, (जैसे) झांझर-घुंघरू की झनकार देने वाला (बाजा) एक-रस बजता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तितु अगम तितु अगम पुरे कहु कितु बिधि जाईऐ राम ॥ सचु संजमो सारि गुणा गुर सबदु कमाईऐ राम ॥ सचु सबदु कमाईऐ निज घरि जाईऐ पाईऐ गुणी निधाना ॥ तितु साखा मूलु पतु नही डाली सिरि सभना परधाना ॥ जपु तपु करि करि संजम थाकी हठि निग्रहि नही पाईऐ ॥ नानक सहजि मिले जगजीवन सतिगुर बूझ बुझाईऐ ॥२॥

मूलम्

तितु अगम तितु अगम पुरे कहु कितु बिधि जाईऐ राम ॥ सचु संजमो सारि गुणा गुर सबदु कमाईऐ राम ॥ सचु सबदु कमाईऐ निज घरि जाईऐ पाईऐ गुणी निधाना ॥ तितु साखा मूलु पतु नही डाली सिरि सभना परधाना ॥ जपु तपु करि करि संजम थाकी हठि निग्रहि नही पाईऐ ॥ नानक सहजि मिले जगजीवन सतिगुर बूझ बुझाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु = उस में। अगमपुरे = अगम्य (पहुँच से परे) नगर में। कहु = बताओ। कितु बिधि = किस तरीके से। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम (स्मरण करके)। संजमो = इन्द्रियों को (स्मरण से) विकारों से हटा के। सारि = संभाल के। निज घरि = अपने घर में। गुणी निधाना = गुणों का खजाना परमात्मा। तितु = उस (प्रभु-वृक्ष) में टिक के, उस प्रभु-वृक्ष का आसरा ले के। सिरि = सिर पर। हठि = हठ से। निग्रहि = इन्द्रियों को रोकने से। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिकने से)। जगजीवन = जगत के आसरे प्रभु जी। बूझ = सूझ, समझ।2।
अर्थ: (हे सहेलिए!) बता, उस अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा के शहर में किस ढंग से जाते हैं? (सहेली उत्तर देती है: हे बहिन! उस शहर में पहुँचने के लिए) सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करके, (नाम जपने की इनायत से) इन्द्रियों को विकारों की ओर से रोक के, प्रभु के गुण (हृदय में) संभाल के सतिगुरु का शब्द कमाना चाहिए (भाव, गुरु के शब्द के अनुसार जीवन बनाना चाहिए)। सदा-स्थिर प्रभु से मिलाने वाला गुर-शब्द कमाने से अपने घर में (स्वै-स्वरूप में) पहुँच जाते हैं, और गुणों का खजाना परमात्मा मिल जाता है। उस प्रभु का आसरा ले के उसकी टहनियां-डालियां-जड़-पत्तियां (आदि, भाव, उसके रचे हुए जगत) का आसरा लेने की जरूरत नहीं रहती (क्योंकि) वह परमात्मा सबक सिर पर प्रधान है।
ये दुनिया जप करके तप साधु के इन्द्रियों को रोकने का यत्न करके हार गई है, (इस किस्म के) हठ से इन्द्रियों को वश में करने के प्रयत्न करने से परमात्मा नहीं मिलता। हे नानक! वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के जगत के आसरे प्रभु को मिल जाते हैं जिन्हें सतिगुरु की (दी हुई) मति ने (सही जीवन-राह) समझा दी है।2।

[[0437]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु सागरो रतनागरु तितु रतन घणेरे राम ॥ करि मजनो सपत सरे मन निरमल मेरे राम ॥ निरमल जलि न्हाए जा प्रभ भाए पंच मिले वीचारे ॥ कामु करोधु कपटु बिखिआ तजि सचु नामु उरि धारे ॥ हउमै लोभ लहरि लब थाके पाए दीन दइआला ॥ नानक गुर समानि तीरथु नही कोई साचे गुर गोपाला ॥३॥

मूलम्

गुरु सागरो रतनागरु तितु रतन घणेरे राम ॥ करि मजनो सपत सरे मन निरमल मेरे राम ॥ निरमल जलि न्हाए जा प्रभ भाए पंच मिले वीचारे ॥ कामु करोधु कपटु बिखिआ तजि सचु नामु उरि धारे ॥ हउमै लोभ लहरि लब थाके पाए दीन दइआला ॥ नानक गुर समानि तीरथु नही कोई साचे गुर गोपाला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागरो = समुंदर। रतनागरु = (रत्न+आकर) रत्नों की खान। तितु = उस (सागर) में। घणेरे = बहुत। मजनो = स्नान। सपत सरे = पाँच ज्ञान-इंद्रिय व मन और बुद्धि। जलि = जल में। नाए = स्नान करता है। जा = जब। प्रभू भाए = प्रभु को पसंद आता है। पंच = सत, संतोख, दया, धर्म, धीरज (ये पाँचों)। वीचारे = गुर शब्द की विचार से। बिखिआ = माया। तजि = त्याग के। उरि = हृदय में। समानि = जैसा, बराबर का।3।
अर्थ: गुरु (एक) समुन्द्र है, गुरु रत्नों की खान है, उसमें (सु-जीवन शिक्षा के) अनेक रत्न हैं। (हे सहेली! उसमें) पाँचों ज्ञानेंद्रियों को मन और बुद्धि समेत स्नान करा, तेरा मन पवित्र हो जाएगा।
जीव (गुरु शब्द रूप) पवित्र जल में तब ही स्नान कर सकता है जब प्रभु को अच्छा लगता है, (गुरु के शब्द की) विचार की इनायत से इसे (सत-संतोख-दया-धर्म और धैर्य) पाँचों ही प्राप्त हो जाते हैं, और काम-क्रोध खोट (माया का मोह आदि) त्याग के जीव सदा-स्थिर प्रभु नाम को अपने हृदय में बसा लेता है।
जो मनुष्य दीनों पे दया करने वाले परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, उसके अंदर से अहंकार, लोभ की लहर, और लालच (आदि) समाप्त हो जाते हैं। हे नानक! गुरु सदा-स्थिर प्रभु गोपाल का रूप है, गुरु जैसा और कोई तीर्थ नहीं है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ बनु बनो देखि रही त्रिणु देखि सबाइआ राम ॥ त्रिभवणो तुझहि कीआ सभु जगतु सबाइआ राम ॥ तेरा सभु कीआ तूं थिरु थीआ तुधु समानि को नाही ॥ तूं दाता सभ जाचिक तेरे तुधु बिनु किसु सालाही ॥ अणमंगिआ दानु दीजै दाते तेरी भगति भरे भंडारा ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई नानकु कहै वीचारा ॥४॥२॥

मूलम्

हउ बनु बनो देखि रही त्रिणु देखि सबाइआ राम ॥ त्रिभवणो तुझहि कीआ सभु जगतु सबाइआ राम ॥ तेरा सभु कीआ तूं थिरु थीआ तुधु समानि को नाही ॥ तूं दाता सभ जाचिक तेरे तुधु बिनु किसु सालाही ॥ अणमंगिआ दानु दीजै दाते तेरी भगति भरे भंडारा ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई नानकु कहै वीचारा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बन बनो = हरेक जंगल। देखि रही = देख चुकी हूँ। त्रिणु = घास, बनस्पति। सबाइआ = सारी। त्रिभवणो = तीनों भवनों वाला जगत। जाचिक = भिखारी। सालाही = मैं सालाहूँ। दीजै = देता है। दाते = हे दातार! वीचारा = विचार की बात।4।
अर्थ: हे प्रभु! मैं हरेक जंगल देख चुकी हूँ, सारी बनस्पति को ताक चुकी हूँ (मुझे यकीन आ गया है कि) ये सारा जगत तूने ही पैदा किया है, ये तीनों भवन तेरे ही बनाए हुए हैं। सारा संसार तेरा ही बनाया हुआ है, (भले ही ये संसार तो नाशवान है, पर) तू सदा कायम रहने वाला है, तेरे बराबर का और कोई नहीं है। सारे जीव तेरे (दर पे) भिखारी हैं, तू सबको दातें देने वाला है (दुनियां के पदार्थों के वास्ते) मैं तेरे बिना और किस की महिमा करूँ? हे दातार! तू तो (जीवों के) माँगे बिना ही बख्शिशें किए जाता है (मुझे अपनी भक्ति की दाति दे) भक्ति की दाति से तेरे खजाने भरे पड़े हैं।
नानक ये विचार की बात बताता है कि परमात्मा के नाम के बिना (लब-लोभ-काम-क्रोध आदि विकारों से) निजात नहीं मिल सकती।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ मेरा मनो मेरा मनु राता राम पिआरे राम ॥ सचु साहिबो आदि पुरखु अपर्मपरो धारे राम ॥ अगम अगोचरु अपर अपारा पारब्रहमु परधानो ॥ आदि जुगादी है भी होसी अवरु झूठा सभु मानो ॥ करम धरम की सार न जाणै सुरति मुकति किउ पाईऐ ॥ नानक गुरमुखि सबदि पछाणै अहिनिसि नामु धिआईऐ ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ मेरा मनो मेरा मनु राता राम पिआरे राम ॥ सचु साहिबो आदि पुरखु अपर्मपरो धारे राम ॥ अगम अगोचरु अपर अपारा पारब्रहमु परधानो ॥ आदि जुगादी है भी होसी अवरु झूठा सभु मानो ॥ करम धरम की सार न जाणै सुरति मुकति किउ पाईऐ ॥ नानक गुरमुखि सबदि पछाणै अहिनिसि नामु धिआईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। साहिबो = मालिक। धारे = आसरा देता है। अगोचरु = (अगो+चर) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। होसी = सदा कायम रहेगा। झूठा = नाशवान। मानो = जानो। करम धरम = शास्त्रों द्वारा बताए गए धार्मिक कर्म। सार = समझ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। अहि = दिन। निसि = रात।1।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के शब्द में जुड़ के) मेरा मन उस प्यारे प्रभु के नाम-रंग से रंगा गया है जो सदा-स्थिर रहने वाला है जो सबका मालिक है, जो सबका आदि है, जो सब में व्यापक है जिससे परे और कोई नहीं और जो सबको आसरा देता है। वह परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य की ज्ञानेद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती, उससे परे और कोई नहीं, बेअंत है और सबसे बड़ा है। सृष्टि के आरम्भ से जुगों के आरम्भ से चला आ रहा है, अब भी मौजूद है सदा के लिए मौजूद रहेगा। (हे भाई!) और सारे संसार को नाशवान जानो।
मेरा मन शास्त्रों के बताए हुए धार्मिक कर्मों की सार नहीं जानता, मेरे मन को ये सूझ भी नहीं है कि मुक्ति कैसे मिलती है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ के गुरु के शब्द में जुड़ के मेरा मन यही पहचानता है कि दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा मनो मेरा मनु मानिआ नामु सखाई राम ॥ हउमै ममता माइआ संगि न जाई राम ॥ माता पित भाई सुत चतुराई संगि न स्मपै नारे ॥ साइर की पुत्री परहरि तिआगी चरण तलै वीचारे ॥ आदि पुरखि इकु चलतु दिखाइआ जह देखा तह सोई ॥ नानक हरि की भगति न छोडउ सहजे होइ सु होई ॥२॥

मूलम्

मेरा मनो मेरा मनु मानिआ नामु सखाई राम ॥ हउमै ममता माइआ संगि न जाई राम ॥ माता पित भाई सुत चतुराई संगि न स्मपै नारे ॥ साइर की पुत्री परहरि तिआगी चरण तलै वीचारे ॥ आदि पुरखि इकु चलतु दिखाइआ जह देखा तह सोई ॥ नानक हरि की भगति न छोडउ सहजे होइ सु होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानिआ = पतीज गया। सखाई = मित्र। पित = पिता। सुत = पुत्र। संपै = संपदा, धन। नारे = स्त्री। साइर = समुंदर। साइर की पुत्री = समंद्र की बेटी, लक्ष्मी, माया। परहरि = त्याग के। वीचारे = गुरु के शब्द की विचार से। पुरखि = पुरखु ने। चलतु = तमाशा। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ता।2।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के) मेरा मन मान चुका है कि परमात्मा का नाम ही (असल) साथी है माया की ममता और अहंकार मनुष्य के साथ नहीं जाते, माता-पिता-भाई-पुत्र-धन-स्त्री-दुनिया वाली चतुराई (सदा के लिए) साथी नहीं बन सकते। (इस वास्ते) गुरु के शब्द के विचार की इनायत से मैंने माया का मोह बिल्कुल ही त्याग दिया है, और इसे अपने पैरों के नीचे रखा हुआ है (भाव, अपने ऊपर इसका प्रभाव नहीं पड़ने देता)।
(मुझे यह यकीन हो गया है कि) आदि पुरखु ने (जगत रूप) एक तमाशा दिखा दिया है, मैं जिधर देखता हूँ उधरवह परमात्मा ही मुझे दिखता है। हे नानक! (कह:) मैं परमात्मा की भक्ति (कभी) नहीं भुलाता (मुझे विश्वास है कि) जगत में जो कुछ हो रहा है अपने आप ही प्रभु की रजा में हो रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा मनो मेरा मनु निरमलु साचु समाले राम ॥ अवगण मेटि चले गुण संगम नाले राम ॥ अवगण परहरि करणी सारी दरि सचै सचिआरो ॥ आवणु जावणु ठाकि रहाए गुरमुखि ततु वीचारो ॥ साजनु मीतु सुजाणु सखा तूं सचि मिलै वडिआई ॥ नानक नामु रतनु परगासिआ ऐसी गुरमति पाई ॥३॥

मूलम्

मेरा मनो मेरा मनु निरमलु साचु समाले राम ॥ अवगण मेटि चले गुण संगम नाले राम ॥ अवगण परहरि करणी सारी दरि सचै सचिआरो ॥ आवणु जावणु ठाकि रहाए गुरमुखि ततु वीचारो ॥ साजनु मीतु सुजाणु सखा तूं सचि मिलै वडिआई ॥ नानक नामु रतनु परगासिआ ऐसी गुरमति पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु। मेटि = मिटा के। संगम = साथ। सारी = श्रेष्ठ। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पे। ततु = अस्लियत। सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से।3।
अर्थ: सदा-स्थिर परमात्मा का नाम (हृदय में) संभाल के मेरा मन पवित्र हो गया है। (जीवन-राह में) मैं अवगुण (अपने अंदर से) मिटा केचल रहा हूँ, मेरे साथ गुणों का साथ बन गया है।
जो मनुष्य गुरु के द्वारा अवगुण त्याग के (नाम स्मरण की) श्रेष्ठ करणी करता है वह सदा-स्थिर प्रभु के दर पर सच्चा माना जाता है। वह मनुष्य अपने जनम-मरण का चक्कर मिटा लेता है, वह जगत के मूल को अपने सोच मण्डल में टिकाए रखता है।
हे प्रभु! तू ही मेरा सज्जन है तू ही मेरा मित्र है तू ही मेरे दिल की जानने वाला साथी है। तेरे सदा-स्थिर नाम में जुड़ने से (तेरे दर पे) आदर मिलता है।
हे नानक! (कह:) मुझे गुरु की ऐसी मति प्राप्त हुई है कि मेरे हृदय में परमात्मा का श्रेष्ठ नाम प्रगट हो गया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु अंजनो अंजनु सारि निरंजनि राता राम ॥ मनि तनि रवि रहिआ जगजीवनो दाता राम ॥ जगजीवनु दाता हरि मनि राता सहजि मिलै मेलाइआ ॥ साध सभा संता की संगति नदरि प्रभू सुखु पाइआ ॥ हरि की भगति रते बैरागी चूके मोह पिआसा ॥ नानक हउमै मारि पतीणे विरले दास उदासा ॥४॥३॥

मूलम्

सचु अंजनो अंजनु सारि निरंजनि राता राम ॥ मनि तनि रवि रहिआ जगजीवनो दाता राम ॥ जगजीवनु दाता हरि मनि राता सहजि मिलै मेलाइआ ॥ साध सभा संता की संगति नदरि प्रभू सुखु पाइआ ॥ हरि की भगति रते बैरागी चूके मोह पिआसा ॥ नानक हउमै मारि पतीणे विरले दास उदासा ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। सारि = (आँखों में) डाल के। निरंजनि = निरंजन (प्रभु) में (ष्निर+अंजन। अंजनु = माया की कालिख, माया रहित प्रभु में। जग जीवनो = जगत का सहारा। बैरागी = वैरागवान, विरक्त। पतीणे = पतीज गए। उदासा = विरक्त।4।
अर्थ: (प्रभु के ज्ञान का) सुरमा डाल के मेरा मन माया-रहित परमात्मा के नाम में रंगा गया है। जगत का जीवन व सभी दातें देने वाला प्रभु मेरे मन में मेरे हृदय में हर वक्त मौजूद रहता है।
(गुरु के द्वारा) जगत का जीवन और सबको दातें देने वाला परमात्मा मन में बस जाता है, मन उसके नाम-रंग में रंगा जाता है और मन आत्मिक अडोलता में टिक जाता है। गुरमुखों की संगति में रहने से परमात्मा की मेहर की निगाह से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।
हे नानक! जगत में ऐसे विरले लोग हैं जो परमात्मा की भक्ति के रंग में रंग के माया के मोह से निर्लिप रहते हैं, जिनके अंदर से मोह और तृष्णा खत्म हो जाते हैं, जो अहंकार को मार के परमात्मा के नाम में सदा ही लिप्त रहते हैं।4।3।

[[0438]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला १ छंत घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु आसा महला १ छंत घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं सभनी थाई जिथै हउ जाई साचा सिरजणहारु जीउ ॥ सभना का दाता करम बिधाता दूख बिसारणहारु जीउ ॥ दूख बिसारणहारु सुआमी कीता जा का होवै ॥ कोट कोटंतर पापा केरे एक घड़ी महि खोवै ॥ हंस सि हंसा बग सि बगा घट घट करे बीचारु जीउ ॥ तूं सभनी थाई जिथै हउ जाई साचा सिरजणहारु जीउ ॥१॥

मूलम्

तूं सभनी थाई जिथै हउ जाई साचा सिरजणहारु जीउ ॥ सभना का दाता करम बिधाता दूख बिसारणहारु जीउ ॥ दूख बिसारणहारु सुआमी कीता जा का होवै ॥ कोट कोटंतर पापा केरे एक घड़ी महि खोवै ॥ हंस सि हंसा बग सि बगा घट घट करे बीचारु जीउ ॥ तूं सभनी थाई जिथै हउ जाई साचा सिरजणहारु जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ जाई = मैं जाता हूँ। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। करम बिधाता = जीवों के कर्मों अनंसार पैदा करने वाला। बिसारणहारु = नाश करने में समर्थ। जा का = जिस प्रभु का। कोट = किले। कोट…केरे = पापों के किलों के किले, पापों के ढेरों के ढेर। खोवै = नाश करता है। हंस कि हंसा = श्रेष्ठ से श्रेष्ठ। बग सि बगा = बेकार से बेकार। घट घट = हरेक शरीर का।1।
अर्थ: हे प्रभु मैं जहाँ भी जाता हूँ तू सब जगह मौजूद है, तू सदा-स्थिर रहने वाला है, तू सारे जगत को पैदा करने वाला है। तू जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला है और सब दुखों का नाश करने वाला है।
जिस प्रभु का किया हुआ ही सब कुछ होता है वह सबका मालिक है वह सबके दुख नाश करने के समर्थ है। जीवों के पापों के ढेरों के ढेर एक पलक में नाश कर देता है। जीव चाहे श्रेष्ठ से श्रेष्ठ हों चाहे निखिध से निखिध, प्रभु हरेक की संभाल करता है।
हे प्रभु! मैं जहाँ भी जाता हूँ, तू हर जगह मौजूद है तू सदा-स्थिर रहने वाला है, तू सबको पैदा करने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह इक मनि धिआइआ तिन्ह सुखु पाइआ ते विरले संसारि जीउ ॥ तिन जमु नेड़ि न आवै गुर सबदु कमावै कबहु न आवहि हारि जीउ ॥ ते कबहु न हारहि हरि हरि गुण सारहि तिन्ह जमु नेड़ि न आवै ॥ जमणु मरणु तिन्हा का चूका जो हरि लागे पावै ॥ गुरमति हरि रसु हरि फलु पाइआ हरि हरि नामु उर धारि जीउ ॥ जिन्ह इक मनि धिआइआ तिन्ह सुखु पाइआ ते विरले संसारि जीउ ॥२॥

मूलम्

जिन्ह इक मनि धिआइआ तिन्ह सुखु पाइआ ते विरले संसारि जीउ ॥ तिन जमु नेड़ि न आवै गुर सबदु कमावै कबहु न आवहि हारि जीउ ॥ ते कबहु न हारहि हरि हरि गुण सारहि तिन्ह जमु नेड़ि न आवै ॥ जमणु मरणु तिन्हा का चूका जो हरि लागे पावै ॥ गुरमति हरि रसु हरि फलु पाइआ हरि हरि नामु उर धारि जीउ ॥ जिन्ह इक मनि धिआइआ तिन्ह सुखु पाइआ ते विरले संसारि जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से, एकाग्र हो के। संसारि = संसार में।
हारि = हार के। सारहि = संभालते हैं। चूका = समाप्त हो जाता है। पावै = चरणों में। उरधारि = हृदय में टिका के।2।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने एकाग्र हो के प्रभु को स्मरण किया है उन्होंने आत्मिक आनंद पाया है, पर ऐसे लोग संसार में बहुत-बहुत कम हैं। जो जो लोग गुरु का शब्द कमाते हैं (भाव, गुरु के शब्द अनुसार जीवन बनाते हैं) जम उनके नजदीक नहीं फटकता (उन्हें मौत का डर नहीं सता सकता) वे कभी भी मानव जनम की बाजी हार के नहीं आते। जो मनुष्य परमात्मा का गुण हृदय में बसाते हैं, वे (विकारों से मुकाबले में) कभी नहीं हारते, आत्मिक मौत तो उनके नजदीक नहीं फटकती। जो लोग परमात्मा के चरणों में लगते हैं उनके जनम-मरन का चक्कर खत्म हो जाता है।
गुरु की मति ले के जिन्होंने प्रभु के नाम का रस चखा है, नाम फल प्राप्त किया है, प्रभु का नाम हृदय में टिकाया है, एकाग्र हो के प्रभु को स्मरण किया है उन्होंने आत्मिक आनंद पाया है, पर ऐसे लोग जगत में विरले ही हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि जगतु उपाइआ धंधै लाइआ तिसै विटहु कुरबाणु जीउ ॥ ता की सेव करीजै लाहा लीजै हरि दरगह पाईऐ माणु जीउ ॥ हरि दरगह मानु सोई जनु पावै जो नरु एकु पछाणै ॥ ओहु नव निधि पावै गुरमति हरि धिआवै नित हरि गुण आखि वखाणै ॥ अहिनिसि नामु तिसै का लीजै हरि ऊतमु पुरखु परधानु जीउ ॥ जिनि जगतु उपाइआ धंधै लाइआ हउ तिसै विटहु कुरबानु जीउ ॥३॥

मूलम्

जिनि जगतु उपाइआ धंधै लाइआ तिसै विटहु कुरबाणु जीउ ॥ ता की सेव करीजै लाहा लीजै हरि दरगह पाईऐ माणु जीउ ॥ हरि दरगह मानु सोई जनु पावै जो नरु एकु पछाणै ॥ ओहु नव निधि पावै गुरमति हरि धिआवै नित हरि गुण आखि वखाणै ॥ अहिनिसि नामु तिसै का लीजै हरि ऊतमु पुरखु परधानु जीउ ॥ जिनि जगतु उपाइआ धंधै लाइआ हउ तिसै विटहु कुरबानु जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। विटहु = से। ता की = उसकी। लाहा = लाभ। माणु = आदर। नवनिधि = नौ खजाने। आखि = कह के। अहि = दिन। निसि = रात।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं उस प्रभु से सदके हूँ जिसने जगत पैदा किया है ओर इसे माया की दौड़-भाग में लगा दिया है। (हे भाई!) उस प्रभु की सेवा-भक्ति करनी चाहिए, यही लाभ जगत में कमाना चाहिए, (इस तरह) प्रभु की दरगाह में आदर मिलता है।
वही मनुष्य परमात्मा की हजूरी में आदर पाता है जो एक परमात्मा को (अपने अंग-संग) पहचानता है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के प्रभु का स्मरण करता है परमात्मा की महिमा करता है वह (मानो) जगत के नौ खजाने हासिल करलेता है।
(हे भाई!) दिन-रात उस परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए जो सबसे श्रेष्ठ है जो सबमें व्यापक है जो सबसे बड़ा है।
मैं उस परमात्मा से सदके जाता हूँ जिसने जगत पैदा किया है और इसे माया की दौड़-भाग में लगा रखा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु लैनि सि सोहहि तिन सुख फल होवहि मानहि से जिणि जाहि जीउ ॥ तिन फल तोटि न आवै जा तिसु भावै जे जुग केते जाहि जीउ ॥ जे जुग केते जाहि सुआमी तिन फल तोटि न आवै ॥ तिन्ह जरा न मरणा नरकि न परणा जो हरि नामु धिआवै ॥ हरि हरि करहि सि सूकहि नाही नानक पीड़ न खाहि जीउ ॥ नामु लैन्हि सि सोहहि तिन्ह सुख फल होवहि मानहि से जिणि जाहि जीउ ॥४॥१॥४॥

मूलम्

नामु लैनि सि सोहहि तिन सुख फल होवहि मानहि से जिणि जाहि जीउ ॥ तिन फल तोटि न आवै जा तिसु भावै जे जुग केते जाहि जीउ ॥ जे जुग केते जाहि सुआमी तिन फल तोटि न आवै ॥ तिन्ह जरा न मरणा नरकि न परणा जो हरि नामु धिआवै ॥ हरि हरि करहि सि सूकहि नाही नानक पीड़ न खाहि जीउ ॥ नामु लैन्हि सि सोहहि तिन्ह सुख फल होवहि मानहि से जिणि जाहि जीउ ॥४॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लेनि = लेते हैं। सि = वह लोग। मानहि = वह माने जाते हैं, आदर पाते हैं। जिणि = जीत के। केते = कितने ही, अनेक ही। जाहि = गुजर जाएं। जरा = बुढ़ापा। मरणा = मौत, आत्मिक मौत। सूकहि = सूखते हैं।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनि’ और ‘जिणि’ का फर्क स्मरणीय है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं वह (लोक-परलोक में) शोभा पाते हैं, उनको आत्मिक आनंद रूपी फल मिलता है, वे (हर जगह) आदर पाते हैं, वे (मनुष्य जन्म की बाजी) जीत के (यहाँ से) जाते हैं। उनको (आत्मिक सुख का) फल इतना मिलता है कि परमात्मा की रजा के अनुसार वह कभी भी घटता नहीं चाहे अनेक युग बीत जाएं। हे प्रभु स्वामी! भले ही अनेक ही युग बीत जाएं स्मरण करने वालों को आत्मिक आनन्द का मिला फल कभी नहीं कम होता। जो जो आदमी हरि का नाम स्मरण करता है उन्हें प्राप्त हुई उच्च आत्मिक अवस्था को ना बुढ़ापा आता है ना मौत सताती है। वह कभी नर्क में भी नहीं पड़ते।
हे नानक! जो लोग परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं वे कभी सूखते नहीं हैं (भाव, उनका अंतरात्मक खिलाव कभी सूखता नहीं है, आनंद कभी खत्म नहीं होता) वे कभी दुखी नहीं होते। जो मनुष्य नाम स्मरण करते हैं वे (लोक-परलोक में) शोभा पाते हैं।, उन्हें आत्मिक आनंद रूपी फल मिलता है, वे (हर जगह) आदर पाते हैं, वे (मनुष्य जनम की बाजी) जीत के (यहाँ से) जाते हैं।4।1।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये छंत ‘घरु २’ का है। कुल जोड़ 4 है।