विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा महला ३ पटी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु आसा महला ३ पटी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: महला-शरीर। महला ३- (गुरु नानक देव जी का) तीसरा शरीर, जामा, भाव तीसरे गुरु, गुरु अमर दास जी
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयो अंङै सभु जगु आइआ काखै घंङै कालु भइआ ॥ रीरी लली पाप कमाणे पड़ि अवगण गुण वीसरिआ ॥१॥
मूलम्
अयो अंङै सभु जगु आइआ काखै घंङै कालु भइआ ॥ रीरी लली पाप कमाणे पड़ि अवगण गुण वीसरिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अयो = अ, इ, उ (यु=इ+उ)। अंङै = अं, अ:। काखै घंङै = क, ख, ग, घ, ङ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अयो अंङै काखै घंङै सिर्फ अ, इ, उ, क, ख, ग, घ, ङ अक्षर ही है। री री ल ली भी हिन्दी के ऋ, ऋ, लृ, लॄ अक्षर हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़ि = पढ़ के। अवगण = अवगुण पैदा करने वाली बातें।1।
अर्थ: (ये) सारा जगत (जो) अस्तित्व में आया हुआ है, (इसके सिर पर) मौत (भी) मौजूद है (पर जीव मौत को भुला के) अवगुण पैदा करने वाली बातें पढ़ के गुण विसार देते हैं, और पाप कमाते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन ऐसा लेखा तूं की पड़िआ ॥ लेखा देणा तेरै सिरि रहिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन ऐसा लेखा तूं की पड़िआ ॥ लेखा देणा तेरै सिरि रहिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! की पढ़िआ = पढ़ने का क्या लाभ? पढ़ने का कोई लाभ नहीं। सिरि = सिर पर।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ’ की इन तुकों के साथ गुरु नानक देव जी की ‘पट्टी’ की रहाउ की तुक मिला के पढ़ें;
मन काहे भूले मूढ़ मना॥
जब लेखा देवहि बीरा तउ पढ़िआ॥ रहाउ॥
शब्दों की और ख्यालों की सांझ साफ़ दिखाई दे रही है कि गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक देव जी की वाणी मौजूद थी।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मन! (सिर्फ) ऐसा लेखा पढ़ने का तुझे कोई लाभ नहीं हो सकता (जिसमें उलझ के तू जीवन का सही रास्ता ना सीख सका, गलत रास्ते पर ही पड़ा रहा) और अपने किए कर्मों का हिसाब तेरे सिर पे टिका ही रहा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिधंङाइऐ सिमरहि नाही नंनै ना तुधु नामु लइआ ॥ छछै छीजहि अहिनिसि मूड़े किउ छूटहि जमि पाकड़िआ ॥२॥
मूलम्
सिधंङाइऐ सिमरहि नाही नंनै ना तुधु नामु लइआ ॥ छछै छीजहि अहिनिसि मूड़े किउ छूटहि जमि पाकड़िआ ॥२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सिधंङाइअै’ पांधा अर्थात अध्यापक पहले पट्टी (तख्ती) पर ये आशीर्वाद भरे शब्द लिखता है, और फिर वह अक्षर लिखता है जो बालक ने लिखने सीखने होते हैं। इसके अर्थ हैं: “तुझे इस में सिद्धि प्राप्त हो”।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छीजहि = तू छिज रहा है, लगातार छीण हो रहा है। अहिनिसि = दिन रात। अहि = दिन। निसि = रात। जमि = जम ने।2।
अर्थ: (हे मन! सिर्फ दुनियावी लेखे सीखने की कोशिशें करने से) तू (परमात्मा को) याद नहीं करता, तू परमात्मा का नाम याद नहीं करता। हे मूर्ख! (प्रभु को भुला के) दिन रात तेरा (आत्मिक जीवन) कमजोर हो रहा है, जब जम ने (इस खुनामी के कारण) पकड़ लिया, तो उससे खलासी कैसे होगी?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बबै बूझहि नाही मूड़े भरमि भुले तेरा जनमु गइआ ॥ अणहोदा नाउ धराइओ पाधा अवरा का भारु तुधु लइआ ॥३॥
मूलम्
बबै बूझहि नाही मूड़े भरमि भुले तेरा जनमु गइआ ॥ अणहोदा नाउ धराइओ पाधा अवरा का भारु तुधु लइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = (सिर्फ दुनियावी लेखे सिखाने के) भुलेखे में। भुले = गलत रास्ते पर पड़ के। अणहोदा = (पण्डित, शिक्षक वाले गुण) ना होते हुए भी। अवरा का भारु = औरों (भाव, चेलों, विद्यार्थियों की जिंमेवारी) का भार।3।
अर्थ: हे मूर्ख! (सिर्फ दुनियावी लेखे पढ़ने-पढ़ाने में उलझ के) तू (जीवन का सही रास्ता) नहीं समझता, इसी भुलेखे में गलत रास्ते पर पड़ के तू अपना मानव जीवन व्यर्थ गवा रहा है। (आत्मिक जीवन का रास्ता बताने वाले शिक्षक के) गुण तेरे में नहीं हैं, (फिर भी) तूने अपना नाम शिक्षक, पण्डित रखाया हुआ है। तूने अपने चेलों को जीवन-राह सिखाने की जिंमेवारी का भार अपने ऊपर उठाया हुआ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जजै जोति हिरि लई तेरी मूड़े अंति गइआ पछुतावहिगा ॥ एकु सबदु तूं चीनहि नाही फिरि फिरि जूनी आवहिगा ॥४॥
मूलम्
जजै जोति हिरि लई तेरी मूड़े अंति गइआ पछुतावहिगा ॥ एकु सबदु तूं चीनहि नाही फिरि फिरि जूनी आवहिगा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोति = ऊँची सूझ, मति (देखें बंद नं: 7)। अंति = आखिरी समय। एकु सबदु = परमात्मा की महिमा की वाणी। चीन्हि नाही = पहचानता नहीं।4।
अर्थ: हेमूर्ख! (निरे मायावी लेखे वाले पत्रों ने आत्मिक जीवन सिखाने वाली) तेरी बुद्धि छीन ली है, आखिरी समय जब तू यहाँ से जाने लगेगा तब तू पछताएगा। (अब इस समय) तू प्रभु की महिमा की वाणी के साथ सांझ नहीं डालता, (नतीजा ये निकलेगा कि) बार-बार जूनियों में पड़ा रहेगा।4।