१८ गुरु नानक - पटी

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला १ पटी लिखी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु आसा महला १ पटी लिखी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससै सोइ स्रिसटि जिनि साजी सभना साहिबु एकु भइआ ॥ सेवत रहे चितु जिन्ह का लागा आइआ तिन्ह का सफलु भइआ ॥१॥

मूलम्

ससै सोइ स्रिसटि जिनि साजी सभना साहिबु एकु भइआ ॥ सेवत रहे चितु जिन्ह का लागा आइआ तिन्ह का सफलु भइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोइ = वही प्रभु। जिनि = जिस प्रभु ने। साहिबु = मालिक।
अर्थ: वही एक प्रभु सब जीवों का मालिक है जिसने ये जगत रचना की है। जो लोग उस प्रभु को सदा स्मरण करते रहे, जिनका मन (उसके चरणों में) जुड़ा रहा, उनका जगत में आना सफल हो गया (भाव, उन्होंने जगत में जनम ले के मानव जनम का असल उद्देश्य हासिल कर लिया)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन काहे भूले मूड़ मना ॥ जब लेखा देवहि बीरा तउ पड़िआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन काहे भूले मूड़ मना ॥ जब लेखा देवहि बीरा तउ पड़िआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूढ़ = मूर्ख। काहे भूले = क्यूँ असली जीवन-राह से विछुड़ता जा रहा है? बीरा = हे भाई! तउ = तब। पढ़िआ = विद्वान।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! हे मूर्ख मन! असल जीवन-राह से क्यूँ विछुड़ता जा रहा है? हे वीर! जब तू अपने किए कर्मों का हिसाब देगा (और हिसाब में सही रास्ते पर माना जाएगा) तब ही तू पढ़ा-लिखा (विद्वान) समझा जा सकेगा।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाओ’। इस सारी वाणी का केन्द्रिय भाव इन दो तुकों में है।

दर्पण-भाव

भाव, अर्थात पढ़ के विद्वान बन जाना ही जिंदगी का असली उद्देश्य नहीं है वही मनुष्य कामयाब जीवन वाला कहा जा सकता है जिसके अमल ठीक हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईवड़ी आदि पुरखु है दाता आपे सचा सोई ॥ एना अखरा महि जो गुरमुखि बूझै तिसु सिरि लेखु न होई ॥२॥

मूलम्

ईवड़ी आदि पुरखु है दाता आपे सचा सोई ॥ एना अखरा महि जो गुरमुखि बूझै तिसु सिरि लेखु न होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = सब का आदि, आरम्भ। पुरखु = व्यापक हरि। सचा = सदा-स्थिर रहने वाला। एना अखरा महि = इन अक्षरों से पढ़ के हासिल की गई विद्या से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। तिसु सिरि = उस के सिर पर। लेखु = हिसाब, लेखा, कर्जा। सोई = वह प्रभु।2।
अर्थ: जो व्यापक प्रभु सारी रचना का मूल है जो सब जीवों को रिजक देने वाला है, वह स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है। (विद्वान वही मनुष्य है) जो गुरु की शरण पड़ कर अपनी विद्या से उस (प्रभु के असल को) समझ लेता है (और जीवन-राह से भटकता नहीं)। उस मनुष्य के सिर पर (विकारों का कोई) करजा नहीं चढ़ता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊड़ै उपमा ता की कीजै जा का अंतु न पाइआ ॥ सेवा करहि सेई फलु पावहि जिन्ही सचु कमाइआ ॥३॥

मूलम्

ऊड़ै उपमा ता की कीजै जा का अंतु न पाइआ ॥ सेवा करहि सेई फलु पावहि जिन्ही सचु कमाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपमा = बड़ाई, महिमा। सेई = वही लोग। सचु कमाइआ = वह कमाई की जो सदा साथ निभ सके।3।
अर्थ: जिस परमात्मा के गुणों का आखिरी छोर नहीं ढूँढा जा सकता, (मनुष्य जनम पा के) उसकी महिमा करनी चाहिए (ये एक कमाई है जो मनुष्य के सदा साथ निभ सकती है)। जिस लोगों ने ये सदा साथ निभने वाली कमाई की है, जो (सदा प्रभु का) स्मरण करते हैं, वही मनुष्य जीवन का उद्देश्य हासिल करते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ङंङै ङिआनु बूझै जे कोई पड़िआ पंडितु सोई ॥ सरब जीआ महि एको जाणै ता हउमै कहै न कोई ॥४॥

मूलम्

ङंङै ङिआनु बूझै जे कोई पड़िआ पंडितु सोई ॥ सरब जीआ महि एको जाणै ता हउमै कहै न कोई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ङिआनु = ज्ञान, गहरी सांझ, जान पहचान। हउमै = हउ हउ, मैं मैं।4।
अर्थ: वही मनुष्य पढ़ा हुआ वही पण्डित है, जो परमात्मा के साथ जान-पहचान (डालना) समझ ले, जो ये समझ ले कि परमात्मा ही सारे जीवों में मौजूद है। (जो आदमी ये भेद समझ लेता है, उसकी पहचान ये है कि) वह फिर कभी ये नहीं कहता कि मैं ही होऊँ (वह आदमी फिर स्वार्थी नहीं रह सकता)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ककै केस पुंडर जब हूए विणु साबूणै उजलिआ ॥ जम राजे के हेरू आए माइआ कै संगलि बंधि लइआ ॥५॥

मूलम्

ककै केस पुंडर जब हूए विणु साबूणै उजलिआ ॥ जम राजे के हेरू आए माइआ कै संगलि बंधि लइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुंडर = पुंडरीक, सफेद कमल फूल (भाव, सफेद कमल के फूल जैसे सफेद)। उजलिआ = उज्जवल, सफेद। हेरू = देखने वाले, ढूँढने वाले, ताक रखने वाले। संगलि = संगल ने।5॥
अर्थ: (पर ये कैसी पण्डिताई है कि) जब (उधर तो) सिर के बाल सफेद फूल जैसे हो जाएं, साबन बरते बिना ही सफेद हो जाएं, (सिर पर ये सफेद केस बाल) यमराज के भेजे हुए (मौत के समय) की ताक वाले (दूत) आ तैनात हो जाएं, और इधर अभी इसे माया के (मोह की) जंजीरों ने बाँध रखा हो? (ये पढ़े हुए विद्वान का रवईआ नहीं, ये तो मूरख का रवईआ है)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खखै खुंदकारु साह आलमु करि खरीदि जिनि खरचु दीआ ॥ बंधनि जा कै सभु जगु बाधिआ अवरी का नही हुकमु पइआ ॥६॥

मूलम्

खखै खुंदकारु साह आलमु करि खरीदि जिनि खरचु दीआ ॥ बंधनि जा कै सभु जगु बाधिआ अवरी का नही हुकमु पइआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खुंदकार = ख़ुदावंद गार, ख़ुदा, परमात्मा।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘खुंदकार’ शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दो बार आया है। नाम देव जी ने भी तिलंग राग के शब्द में प्रयोग किया है: “मैं अंधुले की टेक, तेरा नामु खुंदकारा।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साह आलमु = दुनिया का बादशाह। करि खरीदि = खरीदारी कर, वणज कर। जिनि = जिस (खुंदकार) ने। बंधनि जा कै = जिसकी मर्यादा में। नही पाइआ = नही चल सकता।6।
अर्थ: जो खुदा सारी दुनिया का बादशाह है; जिसके हुक्म में सारा जगत नाथा हुआ है और (जिसके बिना) किसी और का हुक्म नहीं चल सकता, और (सारे जगत को) रोजी दी हुई है, (हे भाई! अगर तू सचमुच पण्डित है, तो) उसकी महिमा का सौदा कर।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गगै गोइ गाइ जिनि छोडी गली गोबिदु गरबि भइआ ॥ घड़ि भांडे जिनि आवी साजी चाड़ण वाहै तई कीआ ॥७॥

मूलम्

गगै गोइ गाइ जिनि छोडी गली गोबिदु गरबि भइआ ॥ घड़ि भांडे जिनि आवी साजी चाड़ण वाहै तई कीआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोइ गाइ छोडी = गोई गाई, (मिट्टी) गोई गाई है, जैसे कुम्हार बर्तन घड़ने से पहले मिट्टी गूँदता है, वैसे ही प्रभु ने, ‘दुयी कुदरति साजीऐ”। गली = सिर्फ बातों से। गारबि = अहंकारी। गरब = अहंकार। घड़ि = घड़ के। घड़ि भांडे = बर्तन घड़ के, जीव पैदा करके। आवी = भट्ठी, संसार। चाढ़न वाहै = भट्ठी में बर्तन चढ़ाने और उतारने, जनम और मरन। तई = तैयार।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अनवै’ बारे, जिनि गोइ गाइ छोडी, जिनि घड़ि भांडे आवी साजी (उसने) चाड़ण वाहै तई कीआ (उस जीव के लिए अगर) गली गोबिदु गरबि भइआ।
नोट: ‘छोडी’, गुरु नानक देव जी ने ये शब्द किस अर्थ में बरता है ये समझने के लिए उनकी ही वाणी में से प्रमाण;
धधै धारि कला जिनि छोडी– बंद नंबर: 22
ललै लाइ धंधै जिनि छोडी– बंद नंबर 31
आइड़ै आपि करे जिनि छोडी– बंद नंबर 35
धुरि छोडी तिनै पाइ– आसा की वार पउड़ी 24
चखि छोडी सहसा नहीं कोइ– बिलसवल पंन्ना 796
धुरि तै छोडी कीमति पाइ–रामकली पंन्ना 878
दुरमति परहरि छाडी ढोलि– ओंकार पंन्ना 933
भ्राति तजि छोडि– मारू पंन्ना 991
घरि छोडी = धारी। लाइ छोडी = लगाई। करे छोडी = करी, की। पाइ छोडी = पाई। चखि छोडी = चखी। परहरि छाडी = परहरी। तजि छोडी = त्यागी।
इसी तरह;

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस (गोबिंद) ने (ये सारी) कुदरति (स्वयं ही) रची है, (कुदरति रच के) जिस (गोबिंद) ने जीव-बर्तन बना के संसार-रूपी आवी (भट्ठी) तैयार की है, उस गोबिंद को जो (अपने आप को पढ़ा हुआ पण्डित समझने वाला) मनुष्य निरी (विद्वता की) बातों से (समझ चुका फर्ज करके) अहंकारी बनता है उस (तथाकथित पण्डित) के वास्ते उस गोविंद ने जनम-मरन (का चक्कर) अहंकारी बनाता है, उस (तथाकथित पण्डित) के वास्ते उस गोबिंद ने जनम मरन (का चक्र) तैयार किया हुआ है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घघै घाल सेवकु जे घालै सबदि गुरू कै लागि रहै ॥ बुरा भला जे सम करि जाणै इन बिधि साहिबु रमतु रहै ॥८॥

मूलम्

घघै घाल सेवकु जे घालै सबदि गुरू कै लागि रहै ॥ बुरा भला जे सम करि जाणै इन बिधि साहिबु रमतु रहै ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घाल घालै = कड़ी मेहनत करे। सबदि = शब्द में। लागि रहै = जुड़ा रहे, अपनी तवज्जो टिकाए रखे। बुरा भला = दुख सुख, किसी से बुरा सलूक व बुरा सलूक। सम = बराबर, एक जैसा। इन बिधि = इस तरीके से। रमतु रहै = स्मरण करता रहता है, स्मरण कर सकता है।8।
अर्थ: (हे मन! विद्या पर गुमान करने की जगह) अगर मनुष्य सेवक (-स्वभाव) बन के (सेवकों वाली) कड़ी मेहनत करे, अगर अपनी तवज्जो गुरु के शब्द में जोड़े रखे (अपनी विद्या का आसरा लेने की जगह गुरु के शब्द में भरोसा बनाए), यदि (घटित होते) दुख-सुख को एक-समान ही समझे, (बस!) यही तरीका है जिस से प्रभु को (सही मायने में) स्मरण कर सकता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चचै चारि वेद जिनि साजे चारे खाणी चारि जुगा ॥ जुगु जुगु जोगी खाणी भोगी पड़िआ पंडितु आपि थीआ ॥९॥

मूलम्

चचै चारि वेद जिनि साजे चारे खाणी चारि जुगा ॥ जुगु जुगु जोगी खाणी भोगी पड़िआ पंडितु आपि थीआ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनी = जिस प्रभु ने। चारे = चार ही। खाणी = उत्पत्ति का श्रोत: अण्डज, जेरज, सेतज, उतभुज। जोगी = निरलेप। भोगी = भोगने वाला, पदार्थों को बरतने वाला।9।
अर्थ: जिस परमात्मा ने (अंडज, जेरज, सेतज, उतभुज) चारों खाणियों के जीव स्वयं ही पैदा किए हैं, जिस प्रभु ने (जगत रचना करके, सूरज-चाँद आदि बना के, समय का वजूद करके) चारों युग खुद ही बनाएं हैं, जिस प्रभु ने (अपने पैदा किए हुए ऋषियों से) चार वेद रचे हैं, जो हरेक युग में मौजूद है, जो चारों खाणियों के जीवों में व्यापक हो के खुद ही रचे सारे पदार्थ खुद ही भोग रहा है, फिर भी निर्लिप है, वह स्वयं ही (विद्या की उत्पत्ति का मूल है, और) पढ़ा हुआ (ज्ञाता) है, खुद ही पण्डित है (हे मन! सब जीवों को पैदा करने वाला प्रभु स्वयं ही है, विद्या का गुण पैदा करने वाला भी वह स्वयं ही है, फिर अगर तू पढ़ गया है, तो इसमें भी गुमान कैसा? ये विद्या उसी की दाति है, विनम्र भाव में रहके उसी को याद रख)।9।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

छछै छाइआ वरती सभ अंतरि तेरा कीआ भरमु होआ ॥ भरमु उपाइ भुलाईअनु आपे तेरा करमु होआ तिन्ह गुरू मिलिआ ॥१०॥

मूलम्

छछै छाइआ वरती सभ अंतरि तेरा कीआ भरमु होआ ॥ भरमु उपाइ भुलाईअनु आपे तेरा करमु होआ तिन्ह गुरू मिलिआ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छाइआ = छाया, अविद्या। अंतरि = में। भरमु = भुलेखा, भटकना। भुलाइअनु = उसने भुलाई है, उसने गलत रास्ते पर डाली है। करमु = बख्शिश।10।
अर्थ: (हे प्रभु! जीव भी क्या करे? तेरी ही पैदा की हुई) अविद्या सब जीवों के अंदर प्रबल हो रही है, (जीवों के मन की) भटकना तेरी ही बनाई हुई है।
(हे मन!) प्रभु ने खुद ही भटकना पैदा करके सृष्टि को गलत राह पर डाला हुआ है (अगर तूने बचना है तो अपनी विद्या का अहंकार त्याग के कह:) हे प्रभु! जिस पर तेरी बख्शिश होती है उन्हें गुरु मिल जाता है (मेरे पर भी मेहर करके गुरु मिला)।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जजै जानु मंगत जनु जाचै लख चउरासीह भीख भविआ ॥ एको लेवै एको देवै अवरु न दूजा मै सुणिआ ॥११॥

मूलम्

जजै जानु मंगत जनु जाचै लख चउरासीह भीख भविआ ॥ एको लेवै एको देवै अवरु न दूजा मै सुणिआ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानु = पहचान, सांझ डाल। मंगत जनु = भिखारी (बन के)। जाचै = याचना करता है, मांगता है। भीख = भिक्षा, ख़ैर, दान।11।
अर्थ: (हे मन! अपने पण्डित होने का मान त्याग के) उस प्रभु के साथ सांझ डाल (जिसके दर से) हरेक जीव भिखारी बन के दान मांगता है। वह प्रभु चौरासी लाख जूनियों में खुद ही मौजूद है, (सब जीवों में व्यापक हो के) वह खुद ही भिक्षा लेने वाला है, और वह खुद ही देता है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झझै झूरि मरहु किआ प्राणी जो किछु देणा सु दे रहिआ ॥ दे दे वेखै हुकमु चलाए जिउ जीआ का रिजकु पइआ ॥१२॥

मूलम्

झझै झूरि मरहु किआ प्राणी जो किछु देणा सु दे रहिआ ॥ दे दे वेखै हुकमु चलाए जिउ जीआ का रिजकु पइआ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्राणी = हे जीव! झूरि = झुर झुर के, चिन्ता कर-कर के। मरहु = आत्मिक मौत सहेड़ते हो। वेखै = संभाल करता है। पइआ = मुकरर है।12।
अर्थ: हे प्राणी! (रोटी की खातिर) चिन्ता कर-करके क्यूँ आत्मिक मौत सहेड़ता है? जो कुछ प्रभु ने तुझे देने का फैसला किया हुआ है, वह (तेरी चिन्ता-फिक्र के बिना भी) स्वयं ही दे रहा है। जैसे-जैसे जीवों का रिजक मुकरर (निहित) है, वह सब को दे रहा है, संभाल भी कर रहा है, और (रिजक बाँटने वाला अपना) हुक्म चला रहा है (हे मन! तेरा पण्डित होने के क्या अर्थ, अगर तुझे इतनी भी समझ नहीं?)।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ञंञै नदरि करे जा देखा दूजा कोई नाही ॥ एको रवि रहिआ सभ थाई एकु वसिआ मन माही ॥१३॥

मूलम्

ञंञै नदरि करे जा देखा दूजा कोई नाही ॥ एको रवि रहिआ सभ थाई एकु वसिआ मन माही ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नदरि करे = नजर करके, ध्यान से, नदरि करि। जा = जब। देखा = मैं देखता हूँ। रवि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है।13।
अर्थ: (हे मन! चिन्ता-फिक्र छोड़, क्योंकि) मैं जब भी ध्यान से देखता हूँ, मुझे प्रभु के बिना कोई और (कहीं भी) नहीं दिखता। प्रभु स्वयं ही हर जगह मौजूद है, हरेक के मन में प्रभु खुद ही बस रहा है।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

टटै टंचु करहु किआ प्राणी घड़ी कि मुहति कि उठि चलणा ॥ जूऐ जनमु न हारहु अपणा भाजि पड़हु तुम हरि सरणा ॥१४॥

मूलम्

टटै टंचु करहु किआ प्राणी घड़ी कि मुहति कि उठि चलणा ॥ जूऐ जनमु न हारहु अपणा भाजि पड़हु तुम हरि सरणा ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टंचु = टंटा, व्यर्थ का धंधा। किआ = किस लिए? मुहति = महूरत में, थोड़े ही समय में। उठि = उठ के। जूऐ = जूए की बाजी में। भाजि = दौड़ के, जल्दी।14।
अर्थ: (प्रभु की याद भुला के सिर्फ दुनियावी काम ही करने व्यर्थ के धंधे है, क्योंकि मौत आने से इनसे साथ समाप्त हो जाएगा) हे प्राणी! व्यर्थ के धंधे करने का कोई लाभ नहीं है, (क्योंकि इस जगत से) थोड़े ही समय में उठ के चले जाना है। हे प्राणी! (प्रभु की याद भुला के) अपना मानव जनम जूए में क्यूँ हारते हो? हे भाई! तू जल्दी ही परमात्मा की शरण पड़ जा।14।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जुआरी जूआ खेलता है और हार जाता है तो जूए-खाने में से बिल्कुल ख़ाली हाथ निकलता है। जो मनुष्य सिर्फ जगत के धंधों में ही व्यस्त रहता है, मौत आने पर धंधें यहीं पर ही रह जाते हैं, और मनुष्य यहां से जुआरिए की तरह बिल्कुल ख़ाली हाथ चल पड़ता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठठै ठाढि वरती तिन अंतरि हरि चरणी जिन्ह का चितु लागा ॥ चितु लागा सेई जन निसतरे तउ परसादी सुखु पाइआ ॥१५॥

मूलम्

ठठै ठाढि वरती तिन अंतरि हरि चरणी जिन्ह का चितु लागा ॥ चितु लागा सेई जन निसतरे तउ परसादी सुखु पाइआ ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाढि = ठंड, शांति। सेई = वही। निसतरे = अच्छी तरह पार हो जाते हैं। तउ परसादी = तेरी कृपा से।15।
अर्थ: जिस मनुष्यों का मन परमात्मा के चरणों में टिका रहता है, उनके मन में ठंढ शांति बनी रहती है। हे प्रभु! दुनियां के टंटों में शांत-चिक्त रहके वहीपार गुजरते हैं जिनका मन (तेरे चरणों में) जुड़ा रहता है। तेरी मेहर से उनको आत्मिक सुख प्राप्त हुआ रहता है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

डडै ड्मफु करहु किआ प्राणी जो किछु होआ सु सभु चलणा ॥ तिसै सरेवहु ता सुखु पावहु सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥१६॥

मूलम्

डडै ड्मफु करहु किआ प्राणी जो किछु होआ सु सभु चलणा ॥ तिसै सरेवहु ता सुखु पावहु सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डंफु = दंभ, दिखावा। निरंतरि = निर+अंतर, बिना दूरी के। अंतरु = दूरी। सरेवहु = स्मरण करो।16।
अर्थ: हे जीव! जगत में जो कुछ पैदा हुआ है सब यहाँ से चले जाने वाला है (नाशवान है)। किसी तरह का कोई दिखावा करने का कोई लाभ नहीं होगा (आत्मिक सुख विद्या आदि के दिखावे में नहीं है)। आत्मिक आनंद तभी मिलेगा अगर उस परमात्मा का स्मरण करोगे जो सब जीवों के अंदर एक-रस व्यापक है।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ढढै ढाहि उसारै आपे जिउ तिसु भावै तिवै करे ॥ करि करि वेखै हुकमु चलाए तिसु निसतारे जा कउ नदरि करे ॥१७॥

मूलम्

ढढै ढाहि उसारै आपे जिउ तिसु भावै तिवै करे ॥ करि करि वेखै हुकमु चलाए तिसु निसतारे जा कउ नदरि करे ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ढाहि = ढाह के, नाश करके। उसारै = उसारता है, बनाता है, पैदा करता है। तिवै = उसी तरह। वेखै = संभाल करता है। जा कउ = जिस जीव पर।17।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही जगत रचना को नाश करता है, स्वयं ही बनाता है, जैसे उसे अच्छा लगता है वैसे करता है। प्रभु जीव पैदा करके (सबकी) संभाल करता है, (हर जगह) अपना हुक्म चला रहा है। (जीव विधाता को भुला के नाशवान संसार में मगन रहता है, पर) जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है, उसे (नाशवान संसार के मोह में से) पार लंघा लेता है।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

णाणै रवतु रहै घट अंतरि हरि गुण गावै सोई ॥ आपे आपि मिलाए करता पुनरपि जनमु न होई ॥१८॥

मूलम्

णाणै रवतु रहै घट अंतरि हरि गुण गावै सोई ॥ आपे आपि मिलाए करता पुनरपि जनमु न होई ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवतु रहे = रमा रहे, साक्षात हो जाए, प्रगट हो जाए, अपना अस्तित्व प्रगट कर दे। सेई = वही मनुष्य। पुनरपि = (पुनः + अपि) फिर भी, दुबारा कभी। पुनह = पुनः , दुबारा। अप = भी।18।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा अपना आप प्रगट कर दे, वह मनुष्य उसकी महिमा करने लग पड़ता है। (उसकी प्रीति पे रीझ के) ईश्वर स्वयं ही उसे अपने साथ मिला लेता है (उसकी तवज्जो अपनी याद में जोड़े रखता है) उस मनुष्य को बार-बार जनम नहीं मिलता (वह दुबारा जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। पर हे मन! सिर्फ पढ़ लेने से, पण्डित बन जाने से ये दाति नसीब नहीं होती)।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततै तारू भवजलु होआ ता का अंतु न पाइआ ॥ ना तर ना तुलहा हम बूडसि तारि लेहि तारण राइआ ॥१९॥

मूलम्

ततै तारू भवजलु होआ ता का अंतु न पाइआ ॥ ना तर ना तुलहा हम बूडसि तारि लेहि तारण राइआ ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तारू = जिस में से तैर के ही पार हुआ जा सके, गहरा। भवजलु = संसार समुंदर। अंत = दूसरा छोर। तरि = बेड़ी। तुलहा = काही पिलछी आदि व लकड़ी के डंडों से बंधा हुआ आसरा सा, जिस पे चढ़ के दरिया आदि से पार लांघ सकते हैं। बूडसि = डूब जाएंगे। तारण राइआ = हे तैराने के समर्थ!।19।
अर्थ: ये संसार समुंदर (जिसमें विकारों की बाढ़ जोर पकड़ती जा रही है) बहुत ही गहरा है, इसका दूसरा छोर नहीं मिलता। (इस में से पार लांघने के लिए) हमारे पास ना कोई बेड़ी है ना ही कोई तुलहा। बेड़ी तुलहे के बिना हम डूब जाएंगे। हे तैराने के समर्थ प्रभु! हमें पार लंघा ले।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

थथै थानि थानंतरि सोई जा का कीआ सभु होआ ॥ किआ भरमु किआ माइआ कहीऐ जो तिसु भावै सोई भला ॥२०॥

मूलम्

थथै थानि थानंतरि सोई जा का कीआ सभु होआ ॥ किआ भरमु किआ माइआ कहीऐ जो तिसु भावै सोई भला ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थानि थनंतरि = थान थान अंतरि, जगह-जगह में, हरेक जगह। भरमु = भटकना।20।
अर्थ: जिस परमात्मा का बनाया हुआ ये सारा जगत है, वही (इस जगत के) हरेक जगह में मौजूद है। (जीवों को मोहने वाली ये) माया और (माया का बिखरा हुआ) मोह भी सर्व-व्यापक प्रभु से अलग नहीं है। जो उस प्रभु को अच्छा लगता है वही (जगत में हो रहा है, और जीवों के वास्ते) ठीक हो रहा है (सो, हे मन! विद्या का मान करने की जगह उसकी रजा को समझ)।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददै दोसु न देऊ किसै दोसु करमा आपणिआ ॥ जो मै कीआ सो मै पाइआ दोसु न दीजै अवर जना ॥२१॥

मूलम्

ददै दोसु न देऊ किसै दोसु करमा आपणिआ ॥ जो मै कीआ सो मै पाइआ दोसु न दीजै अवर जना ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देऊ = मैं दूँ। करंमा = किये कामों। अवर जना = और लोगों को। कीआ = किया, करता हूँ। पाइआ = पाया, पा लिया, पाता हूँ।21।
अर्थ: (हे मन! अगर तू पढ़ के सच-मुच पण्डित हो गया है, तो ये याद रख कि) जैसे काम मैं करता हूँ, वैसा ही फल मैं पा लेता हूँ। (अपने किये कर्मों के अनुसार अपने ऊपर आए दुख-कष्टों के बारे में) और लोगों को दोष नहीं देना चाहिए। बुराई अपने कर्मों में ही होती है; (इस वास्ते हे मन! ये याद रख कि) मैं किसी और के माथे दोष मढ़ूँ (अपनी विद्या के बल के आसरे किसी और को दोषी ठहराने की जगह, हे मन! अपनी ही करनी को सुधारने की जरूरत है)।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धधै धारि कला जिनि छोडी हरि चीजी जिनि रंग कीआ ॥ तिस दा दीआ सभनी लीआ करमी करमी हुकमु पइआ ॥२२॥

मूलम्

धधै धारि कला जिनि छोडी हरि चीजी जिनि रंग कीआ ॥ तिस दा दीआ सभनी लीआ करमी करमी हुकमु पइआ ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि हरि = जिस हरि ने। कला = सत्ता, ताकत। धारि छोडी = धार छोड़ी है, टिका रखी है। चीजी = करिश्में करने वाला। रंग = कई रंग तमाशे। करमी करमी = हरेक के अपने किए कर्मों के अनुसार। हुकमु पइआ = परमात्मा का हुक्म चल रहा है।22।
अर्थ: जिस हरि ने (सारी सृष्टि में) अपनी सत्ता टिका रखी है। जिस चमत्कारी प्रभु ने इस रंगा-रंग की रचना की हुई है, सारे जीव उसी की बख्शिशों की दातें बरत रहे हैं, पर (इन दातों के बख्शने में) हरेक जीव के अपने-अपने किए कर्मों के अनुसार ही प्रभु का हुक्म बरत रहा है (इस वास्ते हे मन! सिर्फ विद्या वाली चोंच-ज्ञान चर्चा कुछ नहीं सँवारती, अपनी करणी ठीक करने की जरूरत है)।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नंनै नाह भोग नित भोगै ना डीठा ना सम्हलिआ ॥ गली हउ सोहागणि भैणे कंतु न कबहूं मै मिलिआ ॥२३॥

मूलम्

नंनै नाह भोग नित भोगै ना डीठा ना सम्हलिआ ॥ गली हउ सोहागणि भैणे कंतु न कबहूं मै मिलिआ ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाह भोग = पति के (दिए) पदार्थ। भोगै = (हरेक जीव) बरतता है। न डीठा = मैंने उसे नहीं देखा है। हउ = मैं। सोहागणि = जीवित पति वाली, सौभाग्यशाली। भैणै = हे बहिन! हे सत्संगी सहेली! मैं = मुझे। गली = सिर्फ बातों से।23।
अर्थ: हे सत्संगी सहेलीए! (देख! सिर्फ विद्या को ही असल मनुष्यता समझ रखने का नतीजा!) जिस परमात्मा के दिए हुए पदार्थ हरेक जीव बरत रहा है, उसके अभी तक मैंने कभी दर्शन नहीं किए, उसे कभी हृदय में नहीं टिकाया। (विद्या के आसरे) मैं सिर्फ बातों से ही अपने आपको सोहागनि कहती रही, पर कंत प्रभु मुझे अभी तक कहीं नहीं मिला।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पपै पातिसाहु परमेसरु वेखण कउ परपंचु कीआ ॥ देखै बूझै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥२४॥

मूलम्

पपै पातिसाहु परमेसरु वेखण कउ परपंचु कीआ ॥ देखै बूझै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परपंच = संसार। वेखण कउ = ता कि जीव इस परपंच में परमेश्वर को देखे। देखै = संभाल करता है। बूझै = हरेक जीव की जरूरत को समझता है। रवि रहिआ = व्यापक है।24।
अर्थ: परमेश्वर (इस बारे में संसार का) बादशाह है, उसने खुद यह संसार रचा है, कि जीव इसमें उसका दीदार करें। रचनहार प्रभु हरेक जीव की संभाल करता है, हरेक दिल की समझता जानता है, वह सारे संसार में हर जगह व्यापक है। (पर हे मन! तू उस प्रभु के दर्शन करने की जगह अपनी विद्या में ही अहंकारी हुआ बैठा है।)।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फफै फाही सभु जगु फासा जम कै संगलि बंधि लइआ ॥ गुर परसादी से नर उबरे जि हरि सरणागति भजि पइआ ॥२५॥

मूलम्

फफै फाही सभु जगु फासा जम कै संगलि बंधि लइआ ॥ गुर परसादी से नर उबरे जि हरि सरणागति भजि पइआ ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जमकै संगलि = यम की जंजीरों ने। बंधि लइआ = बाँध रखा है। से नर = वह लोग। उबरे = बच गए हैं। जि = जो। भजि = दौड़ के।25।
अर्थ: (हे मन!) सारा संसार (माया की किसी ना किसी) बंधन में बँधा हुआ है, जम के रस्से ने बाँध रखा है (भाव, माया के प्रभाव में आ के संसार ऐसे कर्म करता जा रहा है कि जम के काबू में आता जाता है)। (हे मन! पण्डित होने का गुमान करके तू भी उसी जंजीर में बँधा हुआ है)। इस रस्से से गुरु की कृपा से सिर्फ वही लोग बचे हैं, जो दौड़ के परमात्मा की शरण जा पड़े हैं।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बबै बाजी खेलण लागा चउपड़ि कीते चारि जुगा ॥ जीअ जंत सभ सारी कीते पासा ढालणि आपि लगा ॥२६॥

मूलम्

बबै बाजी खेलण लागा चउपड़ि कीते चारि जुगा ॥ जीअ जंत सभ सारी कीते पासा ढालणि आपि लगा ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउपड़ि = (चउ = चार। पड़ि = पल्ले वाला) चार पल्लों वाला कपड़ा। सारी = नर्दें, गोटें, (जो चौपड़ की खेल खेलने के समय उस कपड़े में बने हुए खानों में रखी जाती हैं)। पासा = चार या छह पासों वाला हाथी दाँत का टुकड़ा जो चौड़ाई में छोटा सा होता है और उँगली के करीब लंबा होता है। इसके चारों तरफ बिंदियों के निशान होते हैं। ऐसे चार या छह पासे मिला के फेंके जाते हैं, और सामने आई बिंदियों की गिनती के अनुसार नर्दें चौपड़ के खानों में डाली जाती हैं।26।
अर्थ: हे मन! (अगर तू पढ़ा-लिखा पंडित है तो संसार को चौपड़ की खेल समझ, विद्या पर गुमान करने की जगह एक निपुण नर्द बन के प्रभु की रजा-रूपी हाथों में चल, ता कि पुग जाए सफल हो जाए, देख!) परमात्मा स्वयं (चौपड़ की) खेल खेल रहा है, चार युगों को उसने (चौपड़ के) चार पल्ले बनाया है, सारे जीव-जंतु नर्दें बनीं हुई हैं, प्रभु खुद पासे फेंकता है (कई नरदें पुगती जाती हैं, कई उन चारों खानों के चक्कर में ही पड़ी रहती हैं।)।26।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

भभै भालहि से फलु पावहि गुर परसादी जिन्ह कउ भउ पइआ ॥ मनमुख फिरहि न चेतहि मूड़े लख चउरासीह फेरु पइआ ॥२७॥

मूलम्

भभै भालहि से फलु पावहि गुर परसादी जिन्ह कउ भउ पइआ ॥ मनमुख फिरहि न चेतहि मूड़े लख चउरासीह फेरु पइआ ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भालहि = तलाश करते हैं, परमात्मा को मिलने का यत्न करते हैं। से = वह लोग। फलु = दीदार रूपी फल। भउ = डर, अदब, निर्मल डर। जिन कउ = जिस को। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग, जिस का रुख अपने मन की ओर है। फेरु = चक्कर।27।
अर्थ: गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा का डर टिक जाता है (भाव, जिन्हें ये समझ आ जाती है कि परमात्मा हमारे अंग-संग बसता है और हमारे हरेक काम को देखता है) वह मनुष्य उसका दर्शन करने का यत्न करते हैं। और (अपने यत्नों का) फल हासिल कर लेते हैं।
पर (पढ़ी हुई विद्या के आसरे अपने आप को समझदार समझने वाले) जो मूर्ख लोग अपने मन के पीछे चलते हैं, वे और ही तरफ भटकते हैं, परमात्मा को याद नहीं करते, उन्हें चौरासी लाख जूनियों का चक्कर नसीब होता है।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममै मोहु मरणु मधुसूदनु मरणु भइआ तब चेतविआ ॥ काइआ भीतरि अवरो पड़िआ ममा अखरु वीसरिआ ॥२८॥

मूलम्

ममै मोहु मरणु मधुसूदनु मरणु भइआ तब चेतविआ ॥ काइआ भीतरि अवरो पड़िआ ममा अखरु वीसरिआ ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरणु = आत्मिक मौत का (मूल)। मधुसूदनु = परमात्मा। मरणु भइआ = जग मौत सिर पर आ गई। तब मधूसूदनु चेतविआ = तब परमात्मा को याद करने का ख्याल आया। भीतरि = जब तक शरीर में रहा, जब तक जीवित रहा। मंमा अखरु = मरन और मधुसूदनु।27।
अर्थ: माया का मोह मनुष्य की आत्मिक मौत (का मूल होता) है (मनुष्य सारी उम्र इस मोह में फंसा रहता है) जब मौत सिर पर आती है, तब परमात्मा को याद करने का ख्याल आता है।
जब तक जीवित रहा (पढ़ी हुई विद्या के आसरे) और ही बातें पढ़ता रहा, ना मौत याद आई ना मधुसूदन (परमात्मा) याद आया।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययै जनमु न होवी कद ही जे करि सचु पछाणै ॥ गुरमुखि आखै गुरमुखि बूझै गुरमुखि एको जाणै ॥२९॥

मूलम्

ययै जनमु न होवी कद ही जे करि सचु पछाणै ॥ गुरमुखि आखै गुरमुखि बूझै गुरमुखि एको जाणै ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा सिथर रहने वाला परमात्मा। गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करके, गुरु की शरण पड़ के, गुरु के बताए रास्ते पर चल के। आखै = महिमा करे, नाम उचारे। पछाणै = हर जगह देखे।29।
अर्थ: (हे मन! अपनी विद्या का आसरा लेने की जगह) अगर मनुष्य गुरु के बताए रास्ते पर चल के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को हर जगह देखे, परमात्मा की महिमा करता रहे, परमात्मा को सर्व-व्यापक समझे, और परमात्मा के साथ गहरी जान-पहचान बनाए, तो उसे दुबारा कभी जनम-मरण का चक्कर नहीं मिलता।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रारै रवि रहिआ सभ अंतरि जेते कीए जंता ॥ जंत उपाइ धंधै सभ लाए करमु होआ तिन नामु लइआ ॥३०॥

मूलम्

रारै रवि रहिआ सभ अंतरि जेते कीए जंता ॥ जंत उपाइ धंधै सभ लाए करमु होआ तिन नामु लइआ ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेते = जितने ही। उपाइ = पैदा करके। रवि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। धंधै = धंधे में, माया की कमाई में। करमु = फ़जल, मेहर बख्शिश। तिन = उन लोगों ने।30।
अर्थ: जितने भी जीव (सृष्टि में परमात्मा ने) पैदा किए हुए हैं, उन सबके अंदर प्रभु स्वयं मौजूद है। जीव पैदा करके सबको परमात्मा ने माया की मेहनत-कमाई में लगाया हुआ है। जिस पे उसकी मेहर होती है, वही उसका नाम स्मरण करते हैं (हे मन! विद्या भी दाति है, पर प्रभु का नाम सबसे ऊँची दाति है। पढ़ा होने का गुमान ना किए जा)।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ललै लाइ धंधै जिनि छोडी मीठा माइआ मोहु कीआ ॥ खाणा पीणा सम करि सहणा भाणै ता कै हुकमु पइआ ॥३१॥

मूलम्

ललै लाइ धंधै जिनि छोडी मीठा माइआ मोहु कीआ ॥ खाणा पीणा सम करि सहणा भाणै ता कै हुकमु पइआ ॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाइ छडि = लगा दी है, लगाई हुई है। धंधै = धंधे में, माया की कमाई में। जिनि = जिस परमात्मा ने। सम करि = एक सा ही जान के। सहणा = सहना। ता कै भाणै = उस परमात्मा की रजा में।31।
अर्थ: जिस परमात्मा ने (अपनी रची सृष्टि) माया की मेहनत-कमाई में लगाई हुई है, जिस ने (जीवों के वास्ते) माया का मोह मीठा बना दिया है, उसी की ही रजा में उसका हुक्म चलता है, और जीवों को खाने-पीने के पदार्थ (भाव, सुख) और उसी तरह दुख भी सहने को मिलते हैं (मालिक की रजा को समझना सबसे ऊँची विद्या है)।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववै वासुदेउ परमेसरु वेखण कउ जिनि वेसु कीआ ॥ वेखै चाखै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥३२॥

मूलम्

ववै वासुदेउ परमेसरु वेखण कउ जिनि वेसु कीआ ॥ वेखै चाखै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥३२॥

दर्पण-टिप्पनी

देखें शलोक नंबर: 24।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वासदेउ = परमात्मा। जिनि = जिस परमात्मा ने। वेसु = आकार, जगत। वेखे चाखै = संभाल करता है।32।
अर्थ: परमात्मा परमेश्वर खुद ही है जिसने तमाशा देखने के लिए ये जगत रचा है, हरेक जीव की अच्छी संभाल करता है (हरेक के दिल की) सब बातें जानता है, और अंदर-बाहर हर जगह व्यापक है (हे मन! अगर तू पढ़ा हुआ है, तो भेद समझ)।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ड़ाड़ै राड़ि करहि किआ प्राणी तिसहि धिआवहु जि अमरु होआ ॥ तिसहि धिआवहु सचि समावहु ओसु विटहु कुरबाणु कीआ ॥३३॥

मूलम्

ड़ाड़ै राड़ि करहि किआ प्राणी तिसहि धिआवहु जि अमरु होआ ॥ तिसहि धिआवहु सचि समावहु ओसु विटहु कुरबाणु कीआ ॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राड़ि = झगड़ा, बहस। प्राणी = हे प्राणी! जि = जो। अमरु = अम+र, मौत रहित, अटल। सचि = सदा स्थिर रहने वाले हरि में। ओसु विटहु = उस परमात्मा से।33।
अर्थ: हे प्राणी! (अगर तू पढ़-लिख गया है तो इस विद्या के आसरे) झगड़े आदि करने से कोई (आत्मिक) लाभ नहीं होगा। उस परमात्मा को स्मरण करो जो सदा कायम रहने वाला है, उसे स्मरण करो, उस सदा स्थिर प्रभु में लीन हुए रहो। (वही मनुष्य असली पढ़ा पण्डित है जिसने) उस परमात्मा (की याद) से (अपने अहंकार को) वार दिया है।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहै होरु न कोई दाता जीअ उपाइ जिनि रिजकु दीआ ॥ हरि नामु धिआवहु हरि नामि समावहु अनदिनु लाहा हरि नामु लीआ ॥३४॥

मूलम्

हाहै होरु न कोई दाता जीअ उपाइ जिनि रिजकु दीआ ॥ हरि नामु धिआवहु हरि नामि समावहु अनदिनु लाहा हरि नामु लीआ ॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = अनेक जीव। जिनि = जिस प्रभु ने। अनदिनु = हर रोज। लाहा = लाभ।34।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस परमात्मा ने (सृष्टि के) जीव पैदा करके सबको रिजक पहुँचाया हुआ है, (उसके बिना) कोई और दातें देने वाला नहीं है। (हे मन!) उसी हरि का नाम स्मरण करते रहो, उस हरि के नाम में सदा टिके रहो। (वही है पढ़ा पण्डित जिस ने) हर समय हरि-नाम स्मरण का लाभ कमाया है।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइड़ै आपि करे जिनि छोडी जो किछु करणा सु करि रहिआ ॥ करे कराए सभ किछु जाणै नानक साइर इव कहिआ ॥३५॥१॥

मूलम्

आइड़ै आपि करे जिनि छोडी जो किछु करणा सु करि रहिआ ॥ करे कराए सभ किछु जाणै नानक साइर इव कहिआ ॥३५॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। करे छोडी = कर छोड़ी, बना दी, पैदा कर दी। करणा = करण्य, करने योग्य, जो करना चाहिए। सु = वह कुछ। कराए = जीवों से करवाता है। जाणै = (हरेक के दिल की) जानता है। साइर = हे कवि!।35।
अर्थ: जिस परमात्मा ने (ये सारी सृष्टि) खुद पैदा की हुई है, वह जो कुछ करना ठीक समझता है वही कुछ किए जा रहा है। परमात्मा खुद सब कुछ करता है, खुद ही सब कुछ जीवों से करवाता है, (हरेक के दिल की भावना) खुद ही जानता है।
हे कवि नानक! (कह: जो मनुष्य सच-मुच पढ़ा हुआ है जो सच-मुच पण्डित है, उसने परमात्मा के बारे में यूँ ही समझा है और) यूँ ही कहा है (वह अपनी विद्या का अहंकार करने की जगह इसको परमात्मा द्वारा मिली दाति समझता है)।35।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक1 का भाव है कि ये 35 बंदों वाली एक ही वाणी है जिसका शीर्षक है ‘पटी’।