विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ बिरहड़े घरु ४ छंता की जति ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा महला ५ बिरहड़े घरु ४ छंता की जति ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहमु प्रभु सिमरीऐ पिआरे दरसन कउ बलि जाउ ॥१॥
मूलम्
पारब्रहमु प्रभु सिमरीऐ पिआरे दरसन कउ बलि जाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बल जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ।1।
अर्थ: हे प्यारे! सदा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, मैं उस परमात्मा के दर्शन से सदके जाता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु सिमरत दुख बीसरहि पिआरे सो किउ तजणा जाइ ॥२॥
मूलम्
जिसु सिमरत दुख बीसरहि पिआरे सो किउ तजणा जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीसरहि = भूल जाते हैं। सो = उस (प्रभु) को।2।
अर्थ: हे प्यारे! जिस परमात्मा का स्मरण करने से सारे दुख भूल जाते हैं, उसे त्यागना नहीं चाहिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु तनु वेची संत पहि पिआरे प्रीतमु देइ मिलाइ ॥३॥
मूलम्
इहु तनु वेची संत पहि पिआरे प्रीतमु देइ मिलाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेची = मैं बेच दूँ। संत पहि = गुरु के पास। देइ मिलाइ = मिला देता है।3।
अर्थ: हे प्यारे! मैं तो अपना ये शरीर उस गुरु के पास बेचने को तैयार हूँ जो प्रीतम-प्रभु से मिला देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख सीगार बिखिआ के फीके तजि छोडे मेरी माइ ॥४॥
मूलम्
सुख सीगार बिखिआ के फीके तजि छोडे मेरी माइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखिआ = माया। माइ = हे माँ!।4।
अर्थ: हे मेरी माँ! मैंने माया के सुख माया के सुहज सभ त्याग दिए हैं (नाम-रस के मुकाबले में ये सारे) बेस्वादे हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु लोभु तजि गए पिआरे सतिगुर चरनी पाइ ॥५॥
मूलम्
कामु क्रोधु लोभु तजि गए पिआरे सतिगुर चरनी पाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाइ = पड़ के।5।
अर्थ: हे प्यारे! जब से मैं गुरु के चरणों में जा लगा हूँ, काम, क्रोध, लोभ, मोह सारे मेरा पीछा छोड़ गए हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जन राते राम सिउ पिआरे अनत न काहू जाइ ॥६॥
मूलम्
जो जन राते राम सिउ पिआरे अनत न काहू जाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनत = अन्यत्र, किसी और जगह। जाइ = जांदा।6।
अर्थ: हे प्यारे! जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम रंग से रंगे जाते हैं (परमात्मा को छोड़ के उनमें से कोई भी) किसी और जगह नहीं जाता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रसु जिन्ही चाखिआ पिआरे त्रिपति रहे आघाइ ॥७॥
मूलम्
हरि रसु जिन्ही चाखिआ पिआरे त्रिपति रहे आघाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहे अघाइ = तृप्त रहते हैं।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम का स्वाद चख लेते हैं वह (मायावी पदार्थों से) तृप्त हो जाते हैं, अघा जाते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंचलु गहिआ साध का नानक भै सागरु पारि पराइ ॥८॥१॥३॥
मूलम्
अंचलु गहिआ साध का नानक भै सागरु पारि पराइ ॥८॥१॥३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: बिरहड़े = बिरह भरे। ये ‘बिरहड़े’ गिनती के 3 हैं, अष्टपदियों में ही गिने गए हैं। जति = चाल। इनकी चाल छंतों वाली है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंचलु = पल्ला। गहिआ = पकड़ा। साध = गुरु। भै = भयानक। पारि पराइ = पार परै।8।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु का पल्ला पकड़ लिया वह इस भयानक संसार-समुंदर से पार लंघ जाता है।8।1।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम मरण दुखु कटीऐ पिआरे जब भेटै हरि राइ ॥१॥
मूलम्
जनम मरण दुखु कटीऐ पिआरे जब भेटै हरि राइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कटीऐ = काटा जाता है। हरि राइ = प्रभु पातशाह।1।
अर्थ: हे प्यारे! जब प्रभु-पातशाह मिल जाता है तब जनम-मरण के चक्कर का दुख काटा जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंदरु सुघरु सुजाणु प्रभु मेरा जीवनु दरसु दिखाइ ॥२॥
मूलम्
सुंदरु सुघरु सुजाणु प्रभु मेरा जीवनु दरसु दिखाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुघरु = सुघड़, सुंदर आत्मिक घाड़त वाला, कुशलता वाला। सुजाणु = सुजान। जीवनु = जिंदगी। दिखाइ = दिखाता है।2।
अर्थ: हे भाई! (मेरा) प्रभु (-पातशाह) सुंदर है कुशलता वाला है सियाना है, जब वह मुझे दीदार देता है तो मेरे अंदर जान पड़ जाती है (प्रभु का दीदार ही मेरी जिंदगी है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जीअ तुझ ते बीछुरे पिआरे जनमि मरहि बिखु खाइ ॥३॥
मूलम्
जो जीअ तुझ ते बीछुरे पिआरे जनमि मरहि बिखु खाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव। ते = से। बिखु = जहर। खाइ = खा के।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! जो जीव तुझसे विछुड़ जाते हैं वे (माया के मोह का) जहर खा के मानव जनम में आए हुए भी आत्मिक मौत मर जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु तूं मेलहि सो मिलै पिआरे तिस कै लागउ पाइ ॥४॥
मूलम्
जिसु तूं मेलहि सो मिलै पिआरे तिस कै लागउ पाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिस कै पाइ = उसके पैरों सदके। लागउ = मैं लगता हूँ।4।
अर्थ: (पर) हे प्यारे जीव! (जीवों के भी क्या वश?) जिस जीव को तू स्वयं (अपने साथ) मिलाता है वही तुझे मिलता है। मैं उस (भाग्यशाली) के चरणों में लगता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो सुखु दरसनु पेखते पिआरे मुख ते कहणु न जाइ ॥५॥
मूलम्
जो सुखु दरसनु पेखते पिआरे मुख ते कहणु न जाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखते = देखते हुए। मुख ते = मुंह से।5।
अर्थ: हे प्यारे (प्रभु)! तेरे दर्शन करके जो आनंद (अनुभव होता है) वह मुंह से बयान नहीं किया जा सकता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साची प्रीति न तुटई पिआरे जुगु जुगु रही समाइ ॥६॥
मूलम्
साची प्रीति न तुटई पिआरे जुगु जुगु रही समाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुटई = टूटती, टूटे। जुगु जुगु = हरेक युग में, सदा के लिए।6।
अर्थ: हे प्यारे! जिसने सदा-स्थिर प्रभु के साथ पक्का प्यार डाल लिया, उसका वह प्यार कभी टूट नहीं सकता, वह प्यार तो युगों-युगों तक उसके हृदय में टिका रहता है।6।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तुधु भावै सो भला पिआरे तेरी अमरु रजाइ ॥७॥
मूलम्
जो तुधु भावै सो भला पिआरे तेरी अमरु रजाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमरु = ना मरने वाली। रजाइ = रजा, हुक्म।7।
अर्थ: हे प्यारे (प्रभु)! तेरा हुक्म अमिट है, जीवों के वास्ते वही काम भलाई वाला है जो तुझे अच्छा लगता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक रंगि रते नाराइणै पिआरे माते सहजि सुभाइ ॥८॥२॥४॥
मूलम्
नानक रंगि रते नाराइणै पिआरे माते सहजि सुभाइ ॥८॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माते = मस्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। रंगि = रंग में, प्यार में।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्यारे! जो मनुष्य नारायण के प्रेम रंग में रंगे जाते हैं वे आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं वे उसके प्रेम में मस्त रहते हैं।8।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ बिधि तुम ही जानते पिआरे किसु पहि कहउ सुनाइ ॥१॥
मूलम्
सभ बिधि तुम ही जानते पिआरे किसु पहि कहउ सुनाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधि = ढंग। पाहि = पास। कहउ = मैं कहूँ। सुनाइ = सुनाके।1।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! (तू अपने पैदा किए हुए जीवों को दातें देने के) सारे तरीकों को स्वयं ही जानता है। मैं और किसे सुना के कहूँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं दाता जीआ सभना का तेरा दिता पहिरहि खाइ ॥२॥
मूलम्
तूं दाता जीआ सभना का तेरा दिता पहिरहि खाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहिरहि = पहनते हैं। खाइ = खाता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! सारे जीवों को दातें देने वाला तू स्वयं ही है। (सारे जीव तेरे ही दिए वस्त्र) पहनते हैं, (हरेक जीव तेरा ही दिया अन्न) खाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखु दुखु तेरी आगिआ पिआरे दूजी नाही जाइ ॥३॥
मूलम्
सुखु दुखु तेरी आगिआ पिआरे दूजी नाही जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआ = हुक्म। जाइ = जगह।3।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! तेरे हुक्म में ही (जीव को) कभी सुख मिलता है कभी दुख। (तेरे बिना जीव के वास्ते) कोई और (आसरे की) जगह नहीं है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तूं करावहि सो करी पिआरे अवरु किछु करणु न जाइ ॥४॥
मूलम्
जो तूं करावहि सो करी पिआरे अवरु किछु करणु न जाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करी = मैं करता हूँ। अवरु = अन्य।4।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मैं वही कुछ कर सकता हूँ जो तू मुझसे करवाता है (तुझसे आक़ी हो के) और कुछ भी किया नहीं जा सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनु रैणि सभ सुहावणे पिआरे जितु जपीऐ हरि नाउ ॥५॥
मूलम्
दिनु रैणि सभ सुहावणे पिआरे जितु जपीऐ हरि नाउ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रात। सुहावणे = सोहाने, सुखदाई। जितु = जिस में।5।
अर्थ: हे प्यारे हरि! वे हरेक दिन-रात सारे सुहाने लगते हैं जब तेरा नाम स्मरण किया जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साई कार कमावणी पिआरे धुरि मसतकि लेखु लिखाइ ॥६॥
मूलम्
साई कार कमावणी पिआरे धुरि मसतकि लेखु लिखाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साई = वही। धुरि = धुर से। मसतकि = माथे पर। लिखाइ = लिखा के।6।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! तेरी धुर-दरगाह से (खुद अपने) माथे पर (कर्मों का जो) लेख लिखा के (हम जीव आए हैं, उस लेख के अनुसार) वही काम (हम जीव) कर सकते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको आपि वरतदा पिआरे घटि घटि रहिआ समाइ ॥७॥
मूलम्
एको आपि वरतदा पिआरे घटि घटि रहिआ समाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एको आपि = परमात्मा एक खुद ही। घटि घटि = हरेक घट में।7।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! तू एक खुद ही (सारे जगत में) मौजूद है, हरेक शरीर में तू खुद ही टिका हुआ है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसार कूप ते उधरि लै पिआरे नानक हरि सरणाइ ॥८॥३॥२२॥१५॥२॥४२॥
मूलम्
संसार कूप ते उधरि लै पिआरे नानक हरि सरणाइ ॥८॥३॥२२॥१५॥२॥४२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक १ का भाव है ‘बिरहड़ा’ नंबर १।
अंक ३; पिछली 2 अष्टपदियां महला ५ और ये १ बिरहड़ा। जोड़ = 3।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूप = कूआँ। ते = से, में से। उधारि लै = बचा ले।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ मुझे (माया के मोह भरे) संसार कूँएं में से निकाल ले।8।3।22।15।2।42।