१६ गुरु अर्जन-देव - असटपदीआ

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा महला ५ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच मनाए पंच रुसाए ॥ पंच वसाए पंच गवाए ॥१॥

मूलम्

पंच मनाए पंच रुसाए ॥ पंच वसाए पंच गवाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच = सत, संतोख, दया, धर्म, धैर्य। पंच = काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने ज्ञान की दाति दी उस मनुष्य ने अपने शरीर-नगर में सत-संतोष-दया-धर्म-धैर्य -ये) पाँचों प्रफुल्लित कर लिए, और कामादिक (विकार) पाँचों नाराज कर लिए। (सत्य-संतोष आदि) पाँचों (अपने शरीर रूपी नगर में) बसा लिए, और कामादिक पाँचों (नगर में से) निकाल बाहर किए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्ह बिधि नगरु वुठा मेरे भाई ॥ दुरतु गइआ गुरि गिआनु द्रिड़ाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इन्ह बिधि नगरु वुठा मेरे भाई ॥ दुरतु गइआ गुरि गिआनु द्रिड़ाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इन्ह बिधि = इस तरीके से। नगरु = शरीर शहर। वुठा = बसा, बस गया। दुरतु = पाप। गुरि = गुरु ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। द्रिढ़ाई = पक्की कर दी, दृढ़ कर दी।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु ने (जिस मनुष्य को) आत्मिक जीवन की सूझ पक्की तरह से दे दी (उसके अंदर से) विकार-पाप दूर हो गए। और, हे मेरे भाई! इस तरह उस मनुष्य का शरीर-नगर बस गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साच धरम की करि दीनी वारि ॥ फरहे मुहकम गुर गिआनु बीचारि ॥२॥

मूलम्

साच धरम की करि दीनी वारि ॥ फरहे मुहकम गुर गिआनु बीचारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साच धरम = सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की नित्य की कार। वारि = वाड़। फरहे = खिडकियां, ज्ञान-इंद्रिय। मुहकम = मजबूत। बीचारि = विचार के, सोच मण्डल में टिका के।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस गुरु ने ज्ञान बख्शा, उसने अपने शरीर नगरी की रक्षा के लिए) सदा-स्थिर प्रभु के नित्य की नाम जपने की वाड़ दे ली, गुरु के दिए ज्ञान को सोच-मण्डल में टिका के उसने अपनी खिडकियां (ज्ञान-इंद्रिय) पक्की कर लीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु खेती बीजहु भाई मीत ॥ सउदा करहु गुरु सेवहु नीत ॥३॥

मूलम्

नामु खेती बीजहु भाई मीत ॥ सउदा करहु गुरु सेवहु नीत ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेती = शरीर पैली में। नीत = नित्य, सदा।3।
अर्थ: हे मेरे मित्र! हे मेरे भाई! तुम भी सदा गुरु की शरण लो, शरीर-खेती में परमात्मा का नाम बीजा करो, शरीर नगर में परमात्मा के नाम का सौदा करते रहो।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांति सहज सुख के सभि हाट ॥ साह वापारी एकै थाट ॥४॥

मूलम्

सांति सहज सुख के सभि हाट ॥ साह वापारी एकै थाट ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सभि हाट = सारी दुकानें, सारी ज्ञान-इंद्रिय। थाट = बनावट। एकै थाट = एक ही रूप में।4।
अर्थ: हे भाई! जो (सिख-) वणजारे (गुरु-) शाह के साथ एक रूप हो जाते हैं उनकी सारे हाट (दुकानें, ज्ञान-इंद्रिय) शांति, आत्मिक अडोलता और आत्मिक आनंद के हाट बन जाते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेजीआ डंनु को लए न जगाति ॥ सतिगुरि करि दीनी धुर की छाप ॥५॥

मूलम्

जेजीआ डंनु को लए न जगाति ॥ सतिगुरि करि दीनी धुर की छाप ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेजीआ = वह टेक्स जो मुस्लिम हकूमत के समय गैर मुस्लिम भरते थे। जगाति = मसूल, चुंगी। सतिगुरि = गुरु ने। छाप = (टेक्स से) माफी की मोहर। धुर की = धुर दरगाह की, प्रभु दर से स्वीकार हुई।5।
अर्थ: (हे भाई! जिन्हें गुरु ने ज्ञान की दाति दी उनके शरीर-नगर के वास्ते) गुरु के प्रभु-दर से स्वीकार हुई माफी की मोहर की मोहर बख्श दी, कोई (पाप-विकार उनके हरि-नाम के सौदे पर) जजीआ दण्ड महिसूल नहीं लगा सकता (कोई विकार उनके आत्मिक जीवन में कोई खराबी पैदा नहीं कर सकता)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वखरु नामु लदि खेप चलावहु ॥ लै लाहा गुरमुखि घरि आवहु ॥६॥

मूलम्

वखरु नामु लदि खेप चलावहु ॥ लै लाहा गुरमुखि घरि आवहु ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखरु = सौदा। लदि = लाद के। खेप = काफला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहके। घरि = प्रभु के महल में।6।
अर्थ: हे मेरे मित्र! हे मेरे भाई! गुरु की शरण पड़ के तुम भी हरि-नाम स्मरण का सौदा लाद के (आत्मिक जीवन का) व्यापार करो, (ऊँचे आत्मिक जीवन का) लाभ कमाओ और प्रभु के चरणों में ठिकाना प्राप्त करो।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु साहु सिख वणजारे ॥ पूंजी नामु लेखा साचु सम्हारे ॥७॥

मूलम्

सतिगुरु साहु सिख वणजारे ॥ पूंजी नामु लेखा साचु सम्हारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साहु = शाहूकार। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। साचु = सदा स्थिर प्रभु। सम्हारे = सम्हारे, संभाले, हृदय में संभाल के रखता है।7।
अर्थ: (हे भाई! नाम की संपत्ति गुरु के पास है) गुरु (ही इस सरमाए का) शाहूकार है (जिस से आत्मिक जीवन का) व्यापार करने वाले सिखहरि-नाम की संपत्ति हासिल करते हैं (जिस सिख को गुरु ने ज्ञान की दाति दी है वह) सदा-स्थिर प्रभु को अपने हृदय में संभाल के रखता है (यही है) लेखा-हिसाब (जो वह नाम-वणज में करता रहता है)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो वसै इतु घरि जिसु गुरु पूरा सेव ॥ अबिचल नगरी नानक देव ॥८॥१॥

मूलम्

सो वसै इतु घरि जिसु गुरु पूरा सेव ॥ अबिचल नगरी नानक देव ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इतु = इस में। घरि = घर में। इतु घरि = इस घर में। जिसु = जिस को। अबिचल = अटल, कभी ना डोलने वाली। देव = देव की, परमात्मा की।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) पूरा गुरु जिस मनुष्य को प्रभु की सेवा-भक्ति की दाति बख्शता है वह इस (ऐसे हृदय-) घर में बसता रहता है जो परमात्मा के रहने के लिए (विकारों में) कभी ना डोलने वाली नगरी बन जाता है।8।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

आसावरी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसावरी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन हरि सिउ लागी प्रीति ॥ साधसंगि हरि हरि जपत निरमल साची रीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन हरि सिउ लागी प्रीति ॥ साधसंगि हरि हरि जपत निरमल साची रीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! संगि = संगति में। जपत = जपते हुए। रीति = मर्यादा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य की प्रीति परमात्मा के साथ बन जाती है, गुरु की संगति में परमात्मा का नाम जपते हुए उसकी रोजाना यही कार बन जाती है कि सदा स्थिर प्रभु का नाम जपता रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरसन की पिआस घणी चितवत अनिक प्रकार ॥ करहु अनुग्रहु पारब्रहम हरि किरपा धारि मुरारि ॥१॥

मूलम्

दरसन की पिआस घणी चितवत अनिक प्रकार ॥ करहु अनुग्रहु पारब्रहम हरि किरपा धारि मुरारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घणी = बहुत। चितवत = याद करते हुए। अनुग्रहु = कृपा। मुरारि = (मुर+अरि) हे प्रभु!।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे अनेक किस्म के गुणों को याद करते हुए (मेरे अंदर) तेरे दर्शनों की चाहत और भी प्रवीण हो गई है। हे पारब्रहम! हे मुरारी! मेहर कर, कृपा कर (दीदार बख्श)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु परदेसी आइआ मिलिओ साध कै संगि ॥ जिसु वखर कउ चाहता सो पाइओ नामहि रंगि ॥२॥

मूलम्

मनु परदेसी आइआ मिलिओ साध कै संगि ॥ जिसु वखर कउ चाहता सो पाइओ नामहि रंगि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परदेसी = कई देशों (जूनियों) में भटकना। साध = गुरु। चाहता = चाहना। नामहि = नाम के प्यार में।2।
अर्थ: अनेक जूनियों में भटकता जब कोई मन गुरु की संगति में आ मिलता है जिस (उच्च आत्मिक जीवन के) सौदे को वह सदा तरसता आ रहा था वह उस को परमात्मा के नाम के प्यार में जुड़ा मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेते माइआ रंग रस बिनसि जाहि खिन माहि ॥ भगत रते तेरे नाम सिउ सुखु भुंचहि सभ ठाइ ॥३॥

मूलम्

जेते माइआ रंग रस बिनसि जाहि खिन माहि ॥ भगत रते तेरे नाम सिउ सुखु भुंचहि सभ ठाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेते = जितने भी। भुंचहि = खाते हैं, माणते हैं। सभ थाइ = हर जगह। ठाइ = जगह में। ठाउ = जगह।3।
अर्थ: माया के जितने भी करिश्में व स्वादिष्ट पदार्थ दिखाई दे रहे हैं ये एक छिन में नाश हो जाते हैं (इनमें प्रर्वित्त होने वाले आखिर में पछताते हैं, पर, हे प्रभु!) तेरे भक्त तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे हर जगह आनंद का रस लेते रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु जगु चलतउ पेखीऐ निहचलु हरि को नाउ ॥ करि मित्राई साध सिउ निहचलु पावहि ठाउ ॥४॥

मूलम्

सभु जगु चलतउ पेखीऐ निहचलु हरि को नाउ ॥ करि मित्राई साध सिउ निहचलु पावहि ठाउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चलतउ = नाशवान। नाउ = नाम। को = का। पावहि = तू पा लेगा। (शब्द ‘ठाइ’ और ‘ठाउ’ में फर्क याद रखें)।4।
अर्थ: हे भाई! सारा संसार नाशवान दिख रहा है, सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक परमात्मा का नाम ही है। गुरु से प्यार डाल (उससे ये हरि-नाम मिलेगा, और) तू वह ठिकाना पा लेगा जो कभी भी नाश होने वाला नहीं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मीत साजन सुत बंधपा कोऊ होत न साथ ॥ एकु निवाहू राम नाम दीना का प्रभु नाथ ॥५॥

मूलम्

मीत साजन सुत बंधपा कोऊ होत न साथ ॥ एकु निवाहू राम नाम दीना का प्रभु नाथ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंधपा = रिश्तेदार। निवाहू = सदा निभाने वाला। दीना का = गरीबों का। नाथ = पति।5।
अर्थ: हे भाई! मित्र, सज्जन, पुत्र व रिश्तेदार - कोई भी सदा के साथी नहीं बन सकते। सदा साथ निभाने वाला सिर्फ उस परमात्मा का नाम ही है जो गरीबों का रक्षक है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल बोहिथ भए लगि सागरु तरिओ तेह ॥ भेटिओ पूरा सतिगुरू साचा प्रभ सिउ नेह ॥६॥

मूलम्

चरन कमल बोहिथ भए लगि सागरु तरिओ तेह ॥ भेटिओ पूरा सतिगुरू साचा प्रभ सिउ नेह ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। तेह लगि = उस (चरणों से) लग के। नेह = प्यार।6।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के वास्ते गुरु के सुंदर कोमल चरण जहाज बन गए वह इन चरणों में जुड़ के संसार समुंदर से पार लांघ गया। जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल गया, उसका परमात्मा से सदा के लिए पक्का प्यार बन गया।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध तेरे की जाचना विसरु न सासि गिरासि ॥ जो तुधु भावै सो भला तेरै भाणै कारज रासि ॥७॥

मूलम्

साध तेरे की जाचना विसरु न सासि गिरासि ॥ जो तुधु भावै सो भला तेरै भाणै कारज रासि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध = सेवक। जाचना = मांग। सासि गिरासि = हरे सांस से और ग्रास से। रासि = ठीक (हो जाता है)।7।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक की (तेरे से सदा यही) मांग है कि सांस लेते रोटी खाते कभी भी ना विसर। जो कुछ तुझे अच्छा लगता है तेरे सेवक को भी वही अच्छा लगता है, तेरी रजा में चलने से तेरे सेवक के सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख सागर प्रीतम मिले उपजे महा अनंद ॥ कहु नानक सभ दुख मिटे प्रभ भेटे परमानंद ॥८॥१॥२॥

मूलम्

सुख सागर प्रीतम मिले उपजे महा अनंद ॥ कहु नानक सभ दुख मिटे प्रभ भेटे परमानंद ॥८॥१॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख सागर = सुखों का समुंदर। भेटे = मिले। परमानंद = सब से श्रेष्ठ आनंद के मालिक।8।
अर्थ: हे नानक! कह: सुखों के समुंदर प्रीतम-प्रभु जी जिस मनुष्य को मिल जाते हैं उसके अंदर बड़ा आनंद पैदाहो जाता है, सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभु जी जिसे मिलते हैं उसके सारे दुख-कष्ट दूर हो जाते हैं।8।1।2।39।