१२ गुरु नानक - असटपदीआ

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला १ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु आसा महला १ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उतरि अवघटि सरवरि न्हावै ॥ बकै न बोलै हरि गुण गावै ॥ जलु आकासी सुंनि समावै ॥ रसु सतु झोलि महा रसु पावै ॥१॥

मूलम्

उतरि अवघटि सरवरि न्हावै ॥ बकै न बोलै हरि गुण गावै ॥ जलु आकासी सुंनि समावै ॥ रसु सतु झोलि महा रसु पावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उतरि = उतर के, नीचे आ के। अवघटि = मुश्किल घाटी से, पहाड़ी से। सरवरि = सरोवर में। बकै न बोलै = व्यर्थ ना बोले। आकासी = आकाशों में। सुंनि = शून्य में, वह अवस्था जहाँ मायावी फुरनों से सुन्न हो। रसु सतु = शांत रस। झोलि = हिला के। पावै = पाता है।1।
अर्थ: (हे भरथरी जोगी! जोगी किसी टीले से पहाड़ से उतर के किसी तीर्थ-सरोवर में स्नान करता है, तो इसे पुंन्य-कर्म समझता है, पर) जो मनुष्य अहंकार आदि की मुश्किल घाटी से उतर के (सत्संग के) सरोवर में (आत्मिक) स्नान करता है, जो बहुत व्यर्थ नहीं बोलता और परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य ऐसे उस आत्मिक अवस्था में टिका रहता है जहाँ कोई मायावी फुरना नहीं उठता जैसे (समुंदर का) जल (सूरज की मदद से ऊँचा उठ के भाप बन के) आकाशों में (बादल बन के उड़ानें भरता) है, वह मनुष्य शांति रस को हिला के (ले के) नाम-महा-रस पीता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा गिआनु सुनहु अभ मोरे ॥ भरिपुरि धारि रहिआ सभ ठउरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा गिआनु सुनहु अभ मोरे ॥ भरिपुरि धारि रहिआ सभ ठउरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ की बात। अभ मोरे = हे मेरे मन! भरि पुरि = भर के पूरा पूरा, भरपूर। धार रहिआ = आसरा दे रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाली ये बात सुन, (कि) परमात्मा हर जगह भरपूर है, और हर ज्रगह सहारा दे रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु ब्रतु नेमु न कालु संतावै ॥ सतिगुर सबदि करोधु जलावै ॥ गगनि निवासि समाधि लगावै ॥ पारसु परसि परम पदु पावै ॥२॥

मूलम्

सचु ब्रतु नेमु न कालु संतावै ॥ सतिगुर सबदि करोधु जलावै ॥ गगनि निवासि समाधि लगावै ॥ पारसु परसि परम पदु पावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालु = मौत का सहम। सबदि = शब्द के द्वारा। गगनि = गगन में,चिदाकाश में, चित्त रूप आकाश में, ऊँचे विचार मण्डल में। निवासि = निवास से। परसि = परस के, स्पर्श के, छू के।2।
अर्थ: (हे जोगी!) जिस मनुष्य ने सदा स्थिर प्रभु (के नाम) को अपना नित्य प्रण बना लिया है, नित्य की कार बना ली है, उसे मौत का सहम नहीं सताता (आत्मिक मौत का खतरा नहीं रहता), गुरु के शब्द में जुड़ के वह (अपने अंदर से) क्रोध को जला लेता है, उच्च आत्मिक मण्डल में निवास करके वह प्रभु चरणों से जुड़ा रहता है (समाधि लगाए रखता है)। (हे जोगी! गुरु) पारस (के चरणों) को छू के वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु मन कारणि ततु बिलोवै ॥ सुभर सरवरि मैलु न धोवै ॥ जै सिउ राता तैसो होवै ॥ आपे करता करे सु होवै ॥३॥

मूलम्

सचु मन कारणि ततु बिलोवै ॥ सुभर सरवरि मैलु न धोवै ॥ जै सिउ राता तैसो होवै ॥ आपे करता करे सु होवै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन कारणि = मन (को वश करने) की खातिर। सुभर = नाकोनाक भरा हुआ। जै सिउ = जिस (परमात्मा) से।3।
अर्थ: (हे जोगी! जो मनुष्य) अपने मन को वश करने के लिए सदा-स्थिर प्रभु को (याद रखता है) बार बार चेते करता है (जैसे दूध रिड़कते, बिलोते हैं) और अपने मूल, प्रभु की तलाश करता है, जो मनुष्य (नाम अमृत से) नाको नाक भरे हुए सरोवर में से (जिसमें कोई विकारों आदि की) मैल नहीं है अपने आप को धोता है, वह मनुष्य वैसा ही हो जाता है जैसे प्रभु के साथ वह प्यार डालता है। (उसे फिर ये समझ आ जाती है कि) जगत में वही कुछ होता है जो कर्तार आप ही कर रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर हिव सीतलु अगनि बुझावै ॥ सेवा सुरति बिभूत चड़ावै ॥ दरसनु आपि सहज घरि आवै ॥ निरमल बाणी नादु वजावै ॥४॥

मूलम्

गुर हिव सीतलु अगनि बुझावै ॥ सेवा सुरति बिभूत चड़ावै ॥ दरसनु आपि सहज घरि आवै ॥ निरमल बाणी नादु वजावै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिव = हिम, बरफ। सीतल = ठंडा। बिभूत = स्वाह, राख। चढ़ावै = शरीर पे मलता है। दरसनु = (छह भेषों में से कोई) वेष। सहज घरि = सहज के घर में, अडोलता के घर में। नादु = बाजा, सिंञीं।4।
अर्थ: (हे जोगी! तुम बर्फानी पहाड़ों की गुफाओं में रहते हो, शरीर पे विभूति मलते हो, सिंञीं बजाते हो, पर) बर्फ जैसें ठण्डे-ठार जिगरे वाले गुरु को मिल के जो मनुष्य (अपने अंदर की तृष्णा की) आग बुझाता है, जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा में अपनी तवज्जो रखता है, जो, मानो, ये राख विभूति शरीर पे मलता है, जो मनुष्य प्रभु की महिमा से भरपूरगुरू की पवित्र वाणी सदा अपने अंदर बसाता है, जो मानो, ये नाद बजाता है, उसने (असल) वेष धारण कर लिया है, वह सदा अडोल आत्मिक अवस्था में टिका रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि गिआनु महा रसु सारा ॥ तीरथ मजनु गुर वीचारा ॥ अंतरि पूजा थानु मुरारा ॥ जोती जोति मिलावणहारा ॥५॥

मूलम्

अंतरि गिआनु महा रसु सारा ॥ तीरथ मजनु गुर वीचारा ॥ अंतरि पूजा थानु मुरारा ॥ जोती जोति मिलावणहारा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अपने अंदर। सारा = सार, श्रेष्ठ। मजनु = स्नान। थानु मुरारा = मुरारी का स्थान, परमात्मा का निवास स्थान। जोती = परमात्मा की ज्योति में।5।
अर्थ: (हे जोगी!) जिस मनुष्य ने अपने अंदर प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल ली है, जो सदा श्रेष्ठ नाम महा रस पी रहा है, जिसने सतिगुरु की वाणी की विचार को (अठारह) तीर्थों का स्नान बना लिया है, जिसने अपने हृदय को परमात्मा के रहने के लिए मंदिर बनाया है, और अंतरात्मे उसकी पूजा करता है, वह अपनी ज्योति को परमात्मा की ज्सोति में मिला लेता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसि रसिआ मति एकै भाइ ॥ तखत निवासी पंच समाइ ॥ कार कमाई खसम रजाइ ॥ अविगत नाथु न लखिआ जाइ ॥६॥

मूलम्

रसि रसिआ मति एकै भाइ ॥ तखत निवासी पंच समाइ ॥ कार कमाई खसम रजाइ ॥ अविगत नाथु न लखिआ जाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = नाम के रस में। रसिआ = भीगा हुआ। एके भाइ = एक के ही प्रेम में। पंच = कामादिक पाँच विकारों को। अविगत = अव्यक्त, अदृष्ट प्रभु।6।
अर्थ: (हे जोगी!) जिस मनुष्य का मन नाम-रस में भीग जाता है; जिसकी मति एक प्रभु के प्रेम में पसीज जाती है, वह कामादिक पाँचों को समाप्त करके अंदरात्मे अडोल हो जाता है। पति-प्रभु की रजा में चलना उसकी नित्य की कार, नित्य की कमाई हो जाती है। वह मनुष्य उस ‘नाथ’ का रूप हो जाता है जो अदृश्य है और जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल महि उपजै जल ते दूरि ॥ जल महि जोति रहिआ भरपूरि ॥ किसु नेड़ै किसु आखा दूरि ॥ निधि गुण गावा देखि हदूरि ॥७॥

मूलम्

जल महि उपजै जल ते दूरि ॥ जल महि जोति रहिआ भरपूरि ॥ किसु नेड़ै किसु आखा दूरि ॥ निधि गुण गावा देखि हदूरि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपजै = प्रगट होता है, चमकता है। जोति = प्रकाश। निधि गुण = गुण निधि, गुणों का खजाना प्रभु। देखि = देख के।7।
अर्थ: (हे जोगी! सूर्य व चंद्रमा सरोवर आदि के) पानी में चमकता है, पर उस पानी से वह बहुत ही दूर है, पानी में उसकी ज्योति चमक मारती है, इसी तरह परमात्मा की ज्योति सब जीवों में हर जगह व्यापक है (पर वह परमात्मा निर्लिप भी है, सबके नजदीक भी है और दूर भी है)। मैं ये नहीं बता सकता कि वह किसके नजदीक है किसके दूर है। उसको हर जगह मौजूद देख के मैं उस गुणों के खजाने प्रभु के गुण गाता हूँ।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि बाहरि अवरु न कोइ ॥ जो तिसु भावै सो फुनि होइ ॥ सुणि भरथरि नानकु कहै बीचारु ॥ निरमल नामु मेरा आधारु ॥८॥१॥

मूलम्

अंतरि बाहरि अवरु न कोइ ॥ जो तिसु भावै सो फुनि होइ ॥ सुणि भरथरि नानकु कहै बीचारु ॥ निरमल नामु मेरा आधारु ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरथहि = हे भरथरी जोगी! आधारु = आसरा।8।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: किसी योगी को संबोधन करते हैं, जिसने अपना नाम अपने से पहले हो चुके भरथरी के नाम पर रखा हुआ है। सब धर्मों में ऐसा रिवाज आम तौर पर देखने को मिलता है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भरथरी जोगी! सुन, नानक तुझे विचार की बात बताता है कि हर जगह जीवों के अंदर और बाहर सारी सृष्टि में परमात्मा के बिना और कोई नहीं है, जगत में वही कुछ हो रहा है जो उसको अच्छा लगता है।
उस (सर्व-व्यापक) परमात्मा का पवित्र नाम मेरी जिंदगी का आसरा है।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ सभि जप सभि तप सभ चतुराई ॥ ऊझड़ि भरमै राहि न पाई ॥ बिनु बूझे को थाइ न पाई ॥ नाम बिहूणै माथे छाई ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ सभि जप सभि तप सभ चतुराई ॥ ऊझड़ि भरमै राहि न पाई ॥ बिनु बूझे को थाइ न पाई ॥ नाम बिहूणै माथे छाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सभ = हरेक किस्म की। उझड़ि = कुराहे, गलत रास्तेपर। भरमै = भटकता है। राहि = (ठीक) रास्ते पर। थाइ = जगह में, अपनी जगह पर। थाइ न पाई = अपनी जगह पर नहीं पड़ती, स्वीकार नहीं होती। नाम विहूणे = नाम से वंचित बंदे को (शब्द ‘बिहूणे’ और ‘बिहूणै’ के अर्थ में फर्क है)। छाई = राख। माथे = माथे पर, सिर पे।1।
अर्थ: जो मनुष्य सारे जप करता है सारे तपसाधता है (शास्त्र आदि को समझने के लिए) हरेक किस्म की समझदारी व बुद्धि का प्रदर्शन भी करता है, पर यदि वह (परमात्मा का दास बनने की युक्ति) नहीं समझता, तो उसके (जप-तप आदि का) कोई उद्यम (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार नहीं चढ़ता। वह गलत रास्ते पर भटक रहा है, वह सही रास्ते पर नहीं जा रहा। परमात्मा के नाम से वंचित मनुष्य के सिर पर राख ही पड़ती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साच धणी जगु आइ बिनासा ॥ छूटसि प्राणी गुरमुखि दासा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

साच धणी जगु आइ बिनासा ॥ छूटसि प्राणी गुरमुखि दासा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = (जगत का) मालिक। आइ बिनासा = पैदा होता मरता। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।1। रहाउ।
अर्थ: जगत पैदा होता मरता रहता है, (पर) जगत का मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है। जो प्राणी गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का दास (भक्त) बन जाता है वह (जनम-मरन के चक्कर से) बच जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु मोहि बाधा बहुती आसा ॥ गुरमती इकि भए उदासा ॥ अंतरि नामु कमलु परगासा ॥ तिन्ह कउ नाही जम की त्रासा ॥२॥

मूलम्

जगु मोहि बाधा बहुती आसा ॥ गुरमती इकि भए उदासा ॥ अंतरि नामु कमलु परगासा ॥ तिन्ह कउ नाही जम की त्रासा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह में। इकि = कई जीव (बहुवचन)। परगासा = खिला हुआ। त्रासा = डर। जम की त्रासा = मौत का डर, जनम मरण के चक्कर का डर।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जगत माया के मोह में बंधा हुआ बहुत आशाओं में बंधा हुआ (पैदा होता-मरता रहता) है। पर कई (भाग्यशाली मनुष्य) गुरु की शिक्षा पर चल के मोह से निर्लिप रहते हैं, उनके अंदर परमात्मा का नाम बसता है (जिसकी इनायत से उनका हृदय-) कमल खिला रहता है। ऐसे लोगों को जनम-मरण के चक्कार का डर नहीं रहता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु त्रिअ जितु कामणि हितकारी ॥ पुत्र कलत्र लगि नामु विसारी ॥ बिरथा जनमु गवाइआ बाजी हारी ॥ सतिगुरु सेवे करणी सारी ॥३॥

मूलम्

जगु त्रिअ जितु कामणि हितकारी ॥ पुत्र कलत्र लगि नामु विसारी ॥ बिरथा जनमु गवाइआ बाजी हारी ॥ सतिगुरु सेवे करणी सारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिअ जितु = स्त्री का जीता, कामातुर। कामणि = स्त्री। हित कारी = हित करने वाला, मोह करने वाला। कलत्र = स्त्री, पत्नी। सारी = श्रेष्ठ। करणी = नित्य की कार, आचरण।3।
अर्थ: (गुरु की शरण से टूट के) जगत कामातुर हो रहा है, स्त्री के मोह में फसा हुआ है; पुत्र-पत्नी के मोह में पड़ के परमात्मा के नाम को भुला रहा है। इस तरह अपना जीवन व्यर्थ गवाता है और मानव जन्म की खेल हार के जाता है। पर जो मनुष्य गुरु की (बताई हुई) सेवा करता है उसका नित्य कर्म श्रेष्ठ हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहरहु हउमै कहै कहाए ॥ अंदरहु मुकतु लेपु कदे न लाए ॥ माइआ मोहु गुर सबदि जलाए ॥ निरमल नामु सद हिरदै धिआए ॥४॥

मूलम्

बाहरहु हउमै कहै कहाए ॥ अंदरहु मुकतु लेपु कदे न लाए ॥ माइआ मोहु गुर सबदि जलाए ॥ निरमल नामु सद हिरदै धिआए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहाए = कहलवाता है। मुकतु = अहंकार से आजाद। लेपु = पोचा, प्रभाव। सबदि = शब्द के द्वारा। सद = सदा।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में (जुड़ के अपने अंदर से) माया का मोह जला देता है, परमात्मा के पवित्र नाम को सदा अपने हृदय में याद रखता है, वह अंतरात्मे माया के मोह से आजाद रहता है, माया का प्रभाव उसके ऊपर कभी नहीं पड़ता, वैसे दुनिया की मेहनत-कमाई करता वह स्वै को जताता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ सिख संगति करमि मिलाए ॥ गुर बिनु भूलो आवै जाए ॥ नदरि करे संजोगि मिलाए ॥५॥

मूलम्

धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ सिख संगति करमि मिलाए ॥ गुर बिनु भूलो आवै जाए ॥ नदरि करे संजोगि मिलाए ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावतु = (माया के पीछे) दौड़ते को। ठाकि = रोक के। सिख = (जिस) सिख को। करमि = मेहर से। संजोगि = संजोग में, संगति में।5।
अर्थ: (गुरु के जिस) सिख को (परमात्मा) अपनी मेहर से, संगति में मिलाता है, वह अपने भटकते मन की रक्षा करता है (माया के मोह से) रोक के रखता है। गुरु की शरण आए बिना मनुष्य (जिंदगी के सही रास्ते से) भटक जाता है, और जनम-मरन के चक्कर में पड़ जाता है। जब प्रभु मेहर की निगाह करता है, तो उसे भी संगति में मिला के अपने चरणों में जोड़ लेता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूड़ो कहउ न कहिआ जाई ॥ अकथ कथउ नह कीमति पाई ॥ सभ दुख तेरे सूख रजाई ॥ सभि दुख मेटे साचै नाई ॥६॥

मूलम्

रूड़ो कहउ न कहिआ जाई ॥ अकथ कथउ नह कीमति पाई ॥ सभ दुख तेरे सूख रजाई ॥ सभि दुख मेटे साचै नाई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर। कहउ = मैं कहता हूँ। कथउ = मैं कहता हूँ। साचै = साचे की, सदा कायम रहने वाले परमात्मा की। नाई = बड़ाई।6।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू सुंदर है, पर यदि मैं बताने का प्रयत्न करूँ कि तू कैसा सुंदर है तो बताया नहीं जा सकता। हे प्रभु! तेरे गुण बयान नहीं किए जा सकते, अगर मैं बयान करने का प्रयत्न करूँ, तो भी तेरे गुणों का मूल्य नहीं पाया जा सकता। (तुझसे विछुड़ के दुख आने है।, पर) तेरी रजा में चल के सारे दुख सुख बन जाते हैं।
सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा करने से सारे ही दुख मिट जाते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर बिनु वाजा पग बिनु ताला ॥ जे सबदु बुझै ता सचु निहाला ॥ अंतरि साचु सभे सुख नाला ॥ नदरि करे राखै रखवाला ॥७॥

मूलम्

कर बिनु वाजा पग बिनु ताला ॥ जे सबदु बुझै ता सचु निहाला ॥ अंतरि साचु सभे सुख नाला ॥ नदरि करे राखै रखवाला ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: क्र = हाथ। पग = पैर। निहाला = दीदार करता।7।
अर्थ: अगर मनुष्य (गुरु के) शब्द को समझ ले, तो वह अपने अंदर सदा-सिथर प्रभु का दीदार कर लेता है, उसके अंदर ऐसी आत्मिक अवस्था बन जाती है कि, जैसे, बिना हाथ से बजाए बाजा बजता है और पैरों से नाचे ताल पूरी होती है।
जिस मनुष्य को रखवाला प्रभु मेहर की नजर करके (माया के मोह से) बचाता है, उसके अंदरवह सदा स्थिर प्रभु प्रगट हो जाता है, उसको अपने अंतरात्मा में सुख ही सुख प्रतीत होते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिभवण सूझै आपु गवावै ॥ बाणी बूझै सचि समावै ॥ सबदु वीचारे एक लिव तारा ॥ नानक धंनु सवारणहारा ॥८॥२॥

मूलम्

त्रिभवण सूझै आपु गवावै ॥ बाणी बूझै सचि समावै ॥ सबदु वीचारे एक लिव तारा ॥ नानक धंनु सवारणहारा ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। सचि = सच में, सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का दास बन कर) स्वै भाव दूर करता है, उसको परमात्मा तीनों भवनों में बसता दिखाई पड़ता है। गुरु की वाणी के द्वारा उसको सही ज्ञान हो जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है। वह मनुष्य गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रखता है, एक-रस तवज्जो प्रभु में जोड़ता है। हे नानक! उस मनुष्य का मानव जनम मुबारक है वह औरों का जीवन भी सोहना बना देता है।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ लेख असंख लिखि लिखि मानु ॥ मनि मानिऐ सचु सुरति वखानु ॥ कथनी बदनी पड़ि पड़ि भारु ॥ लेख असंख अलेखु अपारु ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ लेख असंख लिखि लिखि मानु ॥ मनि मानिऐ सचु सुरति वखानु ॥ कथनी बदनी पड़ि पड़ि भारु ॥ लेख असंख अलेखु अपारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असंख = अनगिनत। लिखि लिखि = लिख लिख के। मानु = विद्या का अहंकार। मनि मानिऐ = अगर मन (परमात्मा की याद में) रम जाए। सचु सुरति = अगर सूझ में सदा स्थिर प्रभु (टिक जाए)। वखानु = व्याख्यान, (असल) लेख। कथनी बदनी = कहने से बोलने से। भारु = (अहंकार का) भार। अलेखु = वह प्रभु जिसके स्वरूप को कोई लेख बयान ना कर सके।1।
अर्थ: (परमात्मा के स्वरूप बारे) अनगिनत (विचार भरे) लेख लिख-लिख के (लिखने वालों के मन में अपनी विद्या और विचार-शक्ति का) गुमान ही (पैदा होता है)। बेशक अनगिनत लेख लिखे जाएं, परमात्मा का स्वरूप बयान से, लेख से परे है, उसके गुणों का परला छोर नहीं पाया जा सकता। उसके गुण कहने पर, बोलने पर, बारंबार पढ़-पढ़ के भी (मन पर अहंकार का) भार (ही बढ़ता) है। (पर हाँ) यदि मनुष्य का मन परमातमा की याद में रम जाए, यदि (मनुष्य की) सूझ में सदा स्थिर प्रभु (टिक जाए) तो बस! यही है असल लेख (जो उसको स्वीकार है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा साचा तूं एको जाणु ॥ जमणु मरणा हुकमु पछाणु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा साचा तूं एको जाणु ॥ जमणु मरणा हुकमु पछाणु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐसा = ऐसे गुणों वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। तूं = (हे भाई!) तू। एको = एक परमात्मा को ही।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) इस तरह का (अलेख) और सदा कायम रहने वाला तू सिर्फ एक प्रभु को ही जान (बाकी सारा जगत जनम मरन के ही चक्कर में है, और ये) पैदा होना-मरना भी तू उस परमात्मा का हुक्म ही समझ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहि जगु बाधा जमकालि ॥ बांधा छूटै नामु सम्हालि ॥ गुरु सुखदाता अवरु न भालि ॥ हलति पलति निबही तुधु नालि ॥२॥

मूलम्

माइआ मोहि जगु बाधा जमकालि ॥ बांधा छूटै नामु सम्हालि ॥ गुरु सुखदाता अवरु न भालि ॥ हलति पलति निबही तुधु नालि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह के कारण। जम कालि = काल ने, जनम मरण के चक्कार ने। समालि = चेते कर के। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। निबही = पक्का साथ निबाहेगा।2।
अर्थ: (हे भाई! उस सदा-स्थिर प्रभु को बिसार के) माया के मोह के कारण जगत मौत के सहम में बंधा पड़ा है, परमात्मा के नाम को ही संभाल के बंधन टूट सकते हैं। ये नाम ही (हे भाई!) इस लोक और परलोक में तेरे साथ निभ सकता है, (पर ये नाम गुरु के द्वारा ही मिल सकता है) गुरु ही (नाम की दाति दे के) आत्मिक सुख देने वाला है, (गुरु के बिना ये दाति देने वाला) कोई और ना तलाशता फिर।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि मरै तां एक लिव लाए ॥ अचरु चरै तां भरमु चुकाए ॥ जीवन मुकतु मनि नामु वसाए ॥ गुरमुखि होइ त सचि समाए ॥३॥

मूलम्

सबदि मरै तां एक लिव लाए ॥ अचरु चरै तां भरमु चुकाए ॥ जीवन मुकतु मनि नामु वसाए ॥ गुरमुखि होइ त सचि समाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में जुड़ के। अचरु = (अ+चर) जिसे खाया ना जा सके। चरै = खा ले, समाप्त कर दे। भरमु = भटकना। मनि = मन में। मुकतु = विचारों से आजाद। सचि = सच में।3।
अर्थ: (पर जगत तो माया के मोह में फसा हुआ है, नाम में जुड़े भी कैसे? जीव) तब ही एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ सकता है, जब गुरु के शब्द द्वारा (मोह की ओर से) मन जाए (मोह का प्रभाव अपने ऊपर पड़ने ही ना दे)। तब ही जीव माया की ओर मन की भटकना को दूर कर सकता है, जब (गुरु के शब्द के द्वारा कामादिक पाँचों के) ना खत्म किए जा सकने वाले टोले (के प्रभाव को) समाप्त कर दे। जो मनुष्य अपने मन में परमात्मा का नाम बसा लेता है वह इसी जिंदगी में ही (इन पाँचों के प्रभाव से) आजाद हो जाता है; पर सदा स्थिर प्रभु (के नाम) में वही मनुष्य लीन होता है जो गुरु के सन्मुख रहे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि धर साजी गगनु अकासु ॥ जिनि सभ थापी थापि उथापि ॥ सरब निरंतरि आपे आपि ॥ किसै न पूछे बखसे आपि ॥४॥

मूलम्

जिनि धर साजी गगनु अकासु ॥ जिनि सभ थापी थापि उथापि ॥ सरब निरंतरि आपे आपि ॥ किसै न पूछे बखसे आपि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभु ने। धर = धरती। गगनु = आकाश। सभ = सारी सृष्टि। थापि = रच के। उथापे = नाश करता है। निरंतरि = दूरी के बिना, लगातार, एक रस व्यापक।4।
अर्थ: (हे भाई! ऐसा सदा स्थिर सिर्फ एक परमात्मा ही है) जिसने ये धरती, आकाश आदि रचे हैं, जिसने सारी सृष्टि रची है, जो रच के नाश करने के भी समर्थ है। फिर वह स्वयं ही स्वयं सबके अंदर एक-रस मौजूद है, खुद ही (सब जीवों पर) बख्शिश करता है (इस बख्शिश के लिए) किसी और की सालाह नहीं लेता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू पुरु सागरु माणक हीरु ॥ तू निरमलु सचु गुणी गहीरु ॥ सुखु मानै भेटै गुर पीरु ॥ एको साहिबु एकु वजीरु ॥५॥

मूलम्

तू पुरु सागरु माणक हीरु ॥ तू निरमलु सचु गुणी गहीरु ॥ सुखु मानै भेटै गुर पीरु ॥ एको साहिबु एकु वजीरु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरु = भरा हुआ। गुणी गहीरु = गुणों का खजाना। एको = एक स्वयं ही।5।
अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही भरा हुआ ये (संसार-) समुंदर है तू स्वयं ही इसमें माणिक हीरा है, तू पवित्र स्वरूप है, सदा स्थिर रहने वाला है, और सारे गुणों का खजाना है। तू खुद ही खुद बादशाह है और स्वयं ही अपना (सलाहकार) मंत्री है। जिस मनुष्य को (तेरी मेहर से) गुरु-पीर मिल जाता है, वह (तेरे मिलाप का आत्मिक) आनंद पाता है।5।

[[0413]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु बंदी मुकते हउ मारी ॥ जगि गिआनी विरला आचारी ॥ जगि पंडितु विरला वीचारी ॥ बिनु सतिगुरु भेटे सभ फिरै अहंकारी ॥६॥

मूलम्

जगु बंदी मुकते हउ मारी ॥ जगि गिआनी विरला आचारी ॥ जगि पंडितु विरला वीचारी ॥ बिनु सतिगुरु भेटे सभ फिरै अहंकारी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंदी = कैद में। मुकते = (वह हैं) आजाद। जगि = जगत में। आचारी = ज्ञान अनुसार करणी वाला। वीचारी = विचारवान।6।
अर्थ: (हे भाई! उस सदा स्थिर प्रभु को विसार के) जगत (अहंकार की) कैद में है, इस कैद में से आजाद वही हैं (जिन्होंने गुरु की शरण पड़ के इस) अहंकार को मारा है। जगत में ज्ञानवान कोई विरला वही है, जिसका नित्य आचरण उस ज्ञान के अनुसार है, जगत में पण्डित भी कोई विरला ही है जो (विद्या के अनुसार ही) विचारवान भी है, (पर) ये ऊँचा आचरण और ऊँचे विचार गुरु से ही मिलते हैं। गुरु को मिले बिना सारी सृष्टि अहंकार में भटकती फिरती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु दुखीआ सुखीआ जनु कोइ ॥ जगु रोगी भोगी गुण रोइ ॥ जगु उपजै बिनसै पति खोइ ॥ गुरमुखि होवै बूझै सोइ ॥७॥

मूलम्

जगु दुखीआ सुखीआ जनु कोइ ॥ जगु रोगी भोगी गुण रोइ ॥ जगु उपजै बिनसै पति खोइ ॥ गुरमुखि होवै बूझै सोइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोइ = कोई विरला। भोगी = भोगों में फसा हुआ। गुण रोइ = गुणों को रोता है, गुणों को तरसता है। पति = इज्जत।7।
अर्थ: (हे भाई! उस सदा स्थिर प्रभु को विसार के) जगत दुखी हो रहा है, कोई विरला मनुष्य ही सुखी है। जगत (विकारों के कारण आत्मिक तौर पर) रोगी हो रहा है, भोगों में प्रर्वित है और आत्मिक गुणों के लिए तरसता है। (प्रभु को भुला के) जगत इज्जत गवा के पैदा होता है मरता है, मरता है पैदा होता है। जो मनुष्य गुरु की शरण में आता है, वह इस भेद को समझता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महघो मोलि भारि अफारु ॥ अटल अछलु गुरमती धारु ॥ भाइ मिलै भावै भइकारु ॥ नानकु नीचु कहै बीचारु ॥८॥३॥

मूलम्

महघो मोलि भारि अफारु ॥ अटल अछलु गुरमती धारु ॥ भाइ मिलै भावै भइकारु ॥ नानकु नीचु कहै बीचारु ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महघो मोलि = महंगा मूल्य, बहुत ही ज्यादा कीमत वाला। भारि = तोल में। अफारु = बेअंत। भारि अफारु = यदि उसके बराबर की कोई चीज दे के उसे प्राप्त करना हो तो कोई चीज बराबर की नहीं है। धारु = (हे भाई! हृदय में) संभाल। भावै = अच्छा लगता है। भइकारु = भय+कार, भय में टिके रहने वाला काम।8।
अर्थ: (हे भाई! गरीब नानक तुझे ये विचार की बात बताता है कि) यदि कोई मूल्य दे कर परमात्मा को प्राप्त करना हो तो वह मूल्य बहुत ही ज्यादा है (दिया नहीं जा सकता) अगर उसके बराबर की कोई चीज दे के उसे हासिल करना हो तो कोई चीज उसके बराबर की नहीं है। (हे भाई!) गुरु की मति ले के उसको (अपने हृदय में) संभाल के रख। (गुरु की मति ये है कि) वह प्रभु प्रेम से (प्रेम के मूल्य) मिलता है, जीव का उसके डर-अदब में रहना उसको अच्छा लगता है।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ एकु मरै पंचे मिलि रोवहि ॥ हउमै जाइ सबदि मलु धोवहि ॥ समझि सूझि सहज घरि होवहि ॥ बिनु बूझे सगली पति खोवहि ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ एकु मरै पंचे मिलि रोवहि ॥ हउमै जाइ सबदि मलु धोवहि ॥ समझि सूझि सहज घरि होवहि ॥ बिनु बूझे सगली पति खोवहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंचे = साक संबंधी (माँ, बाप, भाई, स्त्री, पुत्र)। सहज घरि = सहज अवस्था के घर में।1।
अर्थ: एक (प्राणी) मरता है उसके साक-संबंधी मिल के रोते हैं, ये भूल के (कि परमात्मा के बिना कोई बेगाना है ही नहीं, रोने वाले उस परमातमा की नजर में अपनी) सारी इज्जत गवा लेते हैं। पर जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के मोह की मैल अपने मन से धो लेते हैं, उनका अहंकार दूर हो जाता है, वेइस समझ में (कि सब में प्रभु की ही ज्योति है, किसी संबंधी के शरीर के नाश होने पर) अडोल अवस्था में टिके रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउणु मरै कउणु रोवै ओही ॥ करण कारण सभसै सिरि तोही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कउणु मरै कउणु रोवै ओही ॥ करण कारण सभसै सिरि तोही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओहु = ‘वह वह’ कह के। करण = जगत। कारण = मूल, करने वाला। सभसै सिरि = हरेक जीव के सिर पर। तोही = तू ही है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! हे सारे जगत के कर्तार! हरेक जीव के सिर पर तू स्वयं ही है। ना कोई मरता है और ना ही कोई (मरे को) ‘वह वह’ कह के रोता है, (जिसका शरीर बिनसता है वह भी तू स्वयं ही है और रोने वाला भी तू खुद ही है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूए कउ रोवै दुखु कोइ ॥ सो रोवै जिसु बेदन होइ ॥ जिसु बीती जाणै प्रभ सोइ ॥ आपे करता करे सु होइ ॥२॥

मूलम्

मूए कउ रोवै दुखु कोइ ॥ सो रोवै जिसु बेदन होइ ॥ जिसु बीती जाणै प्रभ सोइ ॥ आपे करता करे सु होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोइ = जो कोई। बेदन = दुख, पीड़ा। जिसु बीती = जिस मरने वाले के सिर पर बीतती है।2।
अर्थ: जो कोई मरे हुए को रोता है वह (असल में अपना) दुख-मुश्किलें फरोलता है, वह ही रोता है जिसे (किसी के मरने पर कोई) बिपता आ वापरती है। पर जिस जीव पर (मौत की घटना) वरतती है, वह प्रभु की ये रजा समझ लेता है कि वही कुछ हो रहा है जो कर्तार स्वयं करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवत मरणा तारे तरणा ॥ जै जगदीस परम गति सरणा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर चरणा ॥ गुरु बोहिथु सबदि भै तरणा ॥३॥

मूलम्

जीवत मरणा तारे तरणा ॥ जै जगदीस परम गति सरणा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर चरणा ॥ गुरु बोहिथु सबदि भै तरणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तारे तरणा = (संसार समुंदर से) तैरने के लिए बेड़ी (-तारि) है। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। बोहिथ = जहाज। भै = भव सागर से। तरणा = तैरते हैं।3।
अर्थ: (दरअसल, जीने की तमन्ना मनुष्य को संसार के मोह में फसाती है) जीने की लालसा से मन का मर जाना (मोह-सागर से) तैरने के लिए, मानो, बेड़ी है। ये ऊँची आत्मिक अवस्था जगत के मालिक प्रभु की शरण पड़ने से प्राप्त होती है। (प्रभु की शरण गुरु के द्वारा ही प्राप्त होती है) मैं गुरु के चरणों से सदके हूँ। गुरु मानो, जहाज है, गुरु के शब्द में जुड़ के भव-सागर से पार लांघ सकते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरभउ आपि निरंतरि जोति ॥ बिनु नावै सूतकु जगि छोति ॥ दुरमति बिनसै किआ कहि रोति ॥ जनमि मूए बिनु भगति सरोति ॥४॥

मूलम्

निरभउ आपि निरंतरि जोति ॥ बिनु नावै सूतकु जगि छोति ॥ दुरमति बिनसै किआ कहि रोति ॥ जनमि मूए बिनु भगति सरोति ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगि = जगत में। छोति = छूत। किआ कहि = क्या कह के?। रोति = (कोई) रोता है। सरोति = सुनना।4।
अर्थ: परमात्मा को कोई डर छू नहीं सकता। वह स्वयं एक-रस हरेक के अंदर अपनी ज्योति का प्रकाश कर रहा है, पर उसके नाम से टूटने के कारण जगत में कहीं सूतक (का भ्रम) है तो कहीं छूत है। दुर्मिर्त के कारण जगत आत्मिक मौत मर रहा है, (इस बारे) क्या कह के कोई रोए? परमात्मा की भक्ति के बिना, प्रभु की महिमा सुने बिना, जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ रहे हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूए कउ सचु रोवहि मीत ॥ त्रै गुण रोवहि नीता नीत ॥ दुखु सुखु परहरि सहजि सुचीत ॥ तनु मनु सउपउ क्रिसन परीति ॥५॥

मूलम्

मूए कउ सचु रोवहि मीत ॥ त्रै गुण रोवहि नीता नीत ॥ दुखु सुखु परहरि सहजि सुचीत ॥ तनु मनु सउपउ क्रिसन परीति ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूए कउ = (स्वै भाव से) मरे हुए को। परहरि = त्याग के। सुचीत = सुचेत। सउपउ = समर्पण (किया है)। क्रिशन = परमात्मा।5।
अर्थ: स्वै भाव से मरे हुए को सचमुच उसके (पहले) मित्र माया के तीनों गुण नित्य रोते हैं (कि हमारा साथ छोड़ गया है), क्योंकि वह दुख-सुख (का अहसास) त्याग के अडोल अवस्था में सचेत हो गया है, और उसने अपना तन और मन परमात्मा की प्रीति पर भेटा कर दिया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीतरि एकु अनेक असंख ॥ करम धरम बहु संख असंख ॥ बिनु भै भगती जनमु बिरंथ ॥ हरि गुण गावहि मिलि परमारंथ ॥६॥

मूलम्

भीतरि एकु अनेक असंख ॥ करम धरम बहु संख असंख ॥ बिनु भै भगती जनमु बिरंथ ॥ हरि गुण गावहि मिलि परमारंथ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहु संख असंख = बेअंत। बिरंथ = व्यर्थ। परमारंथ = जीवन का परम उद्देश्य।6।
अर्थ: सबके अंदर एक परमात्मा बस रहा है, वह अनेक असंखो रूपों में दिखाई दे रहा है, (पर, जीवों ने उसको बिसार के) और ही बेअंत धर्म-कर्म रच लिए हैं। परमात्मा के डर-अदब में रहने के बिना, प्रभु की भक्ति के बिना, जीवों का मानव जनम व्यर्थ जाता है। जो मिल के हरि के गुण गाते हैं, वे मानव जनम का उद्देश्य हासिल कर लेते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि मरै मारे भी आपि ॥ आपि उपाए थापि उथापि ॥ स्रिसटि उपाई जोती तू जाति ॥ सबदु वीचारि मिलणु नही भ्राति ॥७॥

मूलम्

आपि मरै मारे भी आपि ॥ आपि उपाए थापि उथापि ॥ स्रिसटि उपाई जोती तू जाति ॥ सबदु वीचारि मिलणु नही भ्राति ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उथापि = उथापे, नाश करता है। जोती = हो ज्योति स्वरूप प्रभु! भ्राति = भटकना।7।
अर्थ: (जीवों का रचनहार कर्तार सब जीवों के अंदर आप मौजूद है, सो, जब कोई जीव मरता है तो) परमात्मा (उसमें बैठा खुद ही, मानो) मरता है, उस जीव को मारता भी खुद ही है। प्रभु स्वयं ही पैदा करता है, पैदा करके स्वयं ही नाश करता है।
हे ज्योति-रूपी प्रभु! तूने स्वयं ही सृष्टि पैदा करी है, तूने खुद ही अनेक जातियां पैदा कर दी हैं।
परमात्मा की महिमा की वाणी को विचार के (मन में टिका के) जीव का उससे मिलाप हो जाता है, जीव को (सूतक-छूत आदि की कोई) भटकना नहीं रहती।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूतकु अगनि भखै जगु खाइ ॥ सूतकु जलि थलि सभ ही थाइ ॥ नानक सूतकि जनमि मरीजै ॥ गुर परसादी हरि रसु पीजै ॥८॥४॥

मूलम्

सूतकु अगनि भखै जगु खाइ ॥ सूतकु जलि थलि सभ ही थाइ ॥ नानक सूतकि जनमि मरीजै ॥ गुर परसादी हरि रसु पीजै ॥८॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूतकि = सूतक (के भ्रम) के कारण। पीजै = पीना चाहिए।8।
अर्थ: (परमात्मा स्वयं ही सब जीवों में व्यापक हो के पैदा होता है मरता है, सर्व-व्यापक प्रभु से विछुड़ों को सूतक का भ्रम दुखी करता है। सूतक का भ्रम कहाँ-कहाँ किया जाएगा?) आग में भी (फिर) सूतक है जो भड़कती है और जगत (के जीवों) को भस्म कर जाती है। सूतक पानी में है, सूतक धरती में है, सूतक हर जगह ही है (क्योंकि, हर जगह जीव पैदा होते मरते हैं)।
हे नानक! सूतक (के भ्रम) में पड़ के (परमात्मा के अस्तित्व से टूट के) जगत जनम-मरण के चक्कर में पड़ रहा है। (सही रास्ता ये है कि गुरु की शरण पड़ के) गुरु की मेहर प्राप्त करके परमात्मा के नाम का अमृत-रस पीना चाहिए।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला १ ॥ आपु वीचारै सु परखे हीरा ॥ एक द्रिसटि तारे गुर पूरा ॥ गुरु मानै मन ते मनु धीरा ॥१॥

मूलम्

रागु आसा महला १ ॥ आपु वीचारै सु परखे हीरा ॥ एक द्रिसटि तारे गुर पूरा ॥ गुरु मानै मन ते मनु धीरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। हीरा = परमात्मा का श्रेष्ठ नाम। परखे = कद्र पहचानता है। तारे = पार लंघाता है। गुरु मानै = गुरु को मानता है, गुरु पर श्रद्धा लाता है। मन ते = मन से, सच्चे दिल से। मनु धीरा = मन धैर्य धरता है, मन डोलता नहीं।1।
अर्थ: जिस मनुष्य को पूरा गुरु एक (मेहर की) निगाह से (मोह के समुंदर से) पार लंघाता है, जो मनुष्य सच्चे दिल से गुरु पर श्रद्धा रखता है, उसका मन (माया के मोह में) डोलता नहीं, वह अपने आप को (अपने जीवन को) विचारता और परमात्मा के श्रेष्ठ नाम की कद्र पहचानता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा साहु सराफी करै ॥ साची नदरि एक लिव तरै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा साहु सराफी करै ॥ साची नदरि एक लिव तरै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साची = सदा स्थिर रहने वाली, अटल, अमोध, गलती ना करने वाली। एक लिव = एक प्रभु में तवज्जो/ध्यान जोड़ के।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु ऐसा शाह (सर्राफ) है, और ऐसी सर्राफी करता है (कि वह जीवों को तुरंत परख लेता है, और) उसकी कभी गलती ना खाने वाली मेहर की निगाह से जीव एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ के (मोह के समुंदर से) पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूंजी नामु निरंजन सारु ॥ निरमलु साचि रता पैकारु ॥ सिफति सहज घरि गुरु करतारु ॥२॥

मूलम्

पूंजी नामु निरंजन सारु ॥ निरमलु साचि रता पैकारु ॥ सिफति सहज घरि गुरु करतारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ, उत्तम। साचि = सदा सिथर प्रभु में। पैकारु = पंकार, निआरिआ जो पुराने समय में टकसाल में से राख में से सोना चाँदी निखारता था। सहज घरि = अडोल अवस्था के घर में।2।
अर्थ: (गुरु की कृपा से) जो मनुष्य निरंजन प्रभु के श्रेष्ठ नाम को (अपने आत्मिक जीवन की) राशि-पूंजी बनाता है, जो सदा-स्थिर प्रभु (के नाम-रंग) में रंगा रहता है वह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है, वह नियारिए की तरह पारखू बन जाता है, महिमा की इनायत से वह गुरु कर्तार को अपने अडोल हृदय-घर में बसाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा मनसा सबदि जलाए ॥ राम नराइणु कहै कहाए ॥ गुर ते वाट महलु घरु पाए ॥३॥

मूलम्

आसा मनसा सबदि जलाए ॥ राम नराइणु कहै कहाए ॥ गुर ते वाट महलु घरु पाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। कहाए = और लोगों को स्मरण के लिए र्पेरता है। वाट = रास्ता।3।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु से (जिंदगी का सही) रास्ता ढूँढ लेता है, परमात्मा का महल-घर पा लेता है, वह गुरु के शब्द द्वारा (अपने अंदर से) मायावी आशाएं और मायावी फुरने जला देता है, वह स्वयं परमात्मा का भजन करता है और-और लोगों को भी इसी तरफ प्रेरित करता है।3।

[[0414]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंचन काइआ जोति अनूपु ॥ त्रिभवण देवा सगल सरूपु ॥ मै सो धनु पलै साचु अखूटु ॥४॥

मूलम्

कंचन काइआ जोति अनूपु ॥ त्रिभवण देवा सगल सरूपु ॥ मै सो धनु पलै साचु अखूटु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनूपु = बेमिसाल, जिस जैसा और कोई नहीं, उपमा रहित। मै पलै = मेरे पास है।4।
अर्थ: जो परमात्मा (शुद्ध) सोने जैसी पवित्र हस्ती वाला है, जो सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश है, जिस जैसा और कोई नहीं है, जो तीन भवनों का मालिक है, ये सारा आकार जिस का (सरगुण) स्वरूप है, उस परमात्मा का सदा-स्थिर और कभी ना समाप्त होने वाला नाम-धन मुझे (गुरु-सर्राफ से) प्राप्त हुआ है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच तीनि नव चारि समावै ॥ धरणि गगनु कल धारि रहावै ॥ बाहरि जातउ उलटि परावै ॥५॥

मूलम्

पंच तीनि नव चारि समावै ॥ धरणि गगनु कल धारि रहावै ॥ बाहरि जातउ उलटि परावै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच = पंच तत्व। तीनि = तीन गुण (माया के)। नव = नौ खण्ड (धरती के)। चारि = चार कूंट। धरणि = धरती। कल = सत्ता। परावै = परताता है, पलटता है।5।
अर्थ: जो परमात्मा पाँचों तत्वों में, माया के तीनों गुणों में, नौ खण्डों में और चारें कुंटों में व्यापक है, जो धरती और आकाश को अपनी सत्ता के आसरे (अपनी जगह पर) टिकाए रखता है। गुरु सर्राफ मनुष्य के बाहर दिखाई देते आकार की ओर दौड़ते मन को उस परमात्मा की ओर पलट के लाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूरखु होइ न आखी सूझै ॥ जिहवा रसु नही कहिआ बूझै ॥ बिखु का माता जग सिउ लूझै ॥६॥

मूलम्

मूरखु होइ न आखी सूझै ॥ जिहवा रसु नही कहिआ बूझै ॥ बिखु का माता जग सिउ लूझै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखी = आँखों से। सूझै = सूझता, दिखता। बिखु = माया रूपी जहर। माता = मस्त हुआ। लूझै = झगड़ता है।6।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ऊतम, ऊतमु; पहला शब्द स्त्रीलिंग है और शब्द ‘संगति’ का विशेषण है, दूसरा शब्द पुलिंग है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (गुरु-सर्राफ बताता है कि परमात्मा सारी सृष्टि में रमा हुआ है, पर) वह मनुष्य मूर्ख है जिसे आँखों से (प्रभु) नहीं दिखाई देता, जिसकी जीभ में (प्रभु का) नाम-रस नहीं आया, जो गुरु के बताए उपदेश को नहीं समझता। वह मनुष्य विषौली माया में मस्त हो के जगत से झगड़े मोल लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊतम संगति ऊतमु होवै ॥ गुण कउ धावै अवगण धोवै ॥ बिनु गुर सेवे सहजु न होवै ॥७॥

मूलम्

ऊतम संगति ऊतमु होवै ॥ गुण कउ धावै अवगण धोवै ॥ बिनु गुर सेवे सहजु न होवै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावै = दौड़ता है,प्रयत्न करता है। सहजु = अडोलता।7।
अर्थ: गुरु की श्रेष्ठ संगति की इनायत से मनुष्य श्रेष्ठ जीवन वाला बन जाता है, आत्मिक गुणों की प्राप्ति के लिए दौड़-भाग करता है और (अपने अंदर से नाम-अमृत की सहायता से) अवगुणों को धो देता है। (ये बात यकीनन है कि) गुरु द्वारा बताई हुई सेवा किए बिना (अवगुणों से निजात नहीं मिलती, और) अडोल आत्मिक अवस्था नहीं मिलती।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीरा नामु जवेहर लालु ॥ मनु मोती है तिस का मालु ॥ नानक परखै नदरि निहालु ॥८॥५॥

मूलम्

हीरा नामु जवेहर लालु ॥ मनु मोती है तिस का मालु ॥ नानक परखै नदरि निहालु ॥८॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मालु = राशि, पूंजी। तिस का = उस मनुष्य का।8।
अर्थ: हे नानक! गुरु-सर्राफ जिस मनुष्य को मेहर की नजर से देखता है वह निहाल हो जाता है, मोती (जैसा सुच्चा-स्वच्छ) मन परमात्मा का नाम हीरा-जवाहर और लाल उस मनुष्य की राशि-पूंजी बन जाती है।8।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु मनि मानु ॥ गुरमुखि महली महलु पछानु ॥ गुरमुखि सुरति सबदु नीसानु ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु मनि मानु ॥ गुरमुखि महली महलु पछानु ॥ गुरमुखि सुरति सबदु नीसानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करके, गुरु के सन्मुख हो के, गुरु की शरण पड़ के। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। धिआनु = परमात्मा में सूझ का टिकाव। मानु = (हे भाई!) तू माण। महली = महल का मालिक, परमात्मा। महलु = घर, ठिकाना। नीसानु = (जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी।1।
अर्थ: (हे भाई! तू) गुरु के सन्मुख हो के अपने मन में परमात्मा के साथ गहरी सांझ और परमात्मा में जुड़ी तवज्जो (का आनंद) ले, गुरु की शरण पड़ के तू अपने अंदर प्रभु का ठिकाना पहचान। गुरु के सन्मुख रहके तू गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिका, (ये तेरी जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे प्रेम भगति वीचारी ॥ गुरमुखि साचा नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसे प्रेम भगति वीचारी ॥ गुरमुखि साचा नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐसे = इस तरह। वीचारी = विचारवान। मुरारी = परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम प्राप्त हो जाता है, और इस तरह प्रभु चरणों से प्रेम और परमात्मा की भक्ति करके वह ऊँचे विचारों का मालिक बन जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहिनिसि निरमलु थानि सुथानु ॥ तीन भवन निहकेवल गिआनु ॥ साचे गुर ते हुकमु पछानु ॥२॥

मूलम्

अहिनिसि निरमलु थानि सुथानु ॥ तीन भवन निहकेवल गिआनु ॥ साचे गुर ते हुकमु पछानु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। थानि = (अपने हृदय-) स्थल में। सुथानु = (परमातमा का) श्रेष्ठ ठिकाना। निहकेवल = वासना रहित प्रभु का। ते = से। पछानु = (हे भाई!) तू पहचान।2।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह) दिन-रात अपने हृदय-स्थल में परमात्मा का पवित्र श्रेष्ठ डेरा बनाए रखता है, तीनों भवनों में व्यापक और वासना-रहित प्रभु के साथ उसकी गहरी सांझ पड़ जाती है। (हे भाई! तू भी) अचूक गुरु से (भाव, शरण पड़ के) परमात्मा की रजा को समझ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा हरखु नाही तिसु सोगु ॥ अम्रितु गिआनु महा रसु भोगु ॥ पंच समाई सुखी सभु लोगु ॥३॥

मूलम्

साचा हरखु नाही तिसु सोगु ॥ अम्रितु गिआनु महा रसु भोगु ॥ पंच समाई सुखी सभु लोगु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरखु = खुशी। सोगु = चिन्ता। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। भोगु = आत्मिक खुराक। पंच = कामादिक पाँचों विकार।3।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसके) अंदर स्थिर आनंद बनारहता है, उसे कभी कोई चिन्ता नहीं छूती। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाले श्रेष्ठ रस का नाम और परमात्मा के साथ गहरी सांझ उस मनुष्य का आत्मिक भोजन बन जाता है। (अगर गुरु की शरण पड़ के) जगत कामादिक पाँचों को खत्म कर दे तो सारा जगत ही सुखी हो जाए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगली जोति तेरा सभु कोई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े सोई ॥ आपे करता करे सु होई ॥४॥

मूलम्

सगली जोति तेरा सभु कोई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े सोई ॥ आपे करता करे सु होई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगली = सारी सृष्टि में। सभु कोई = हरेक जीव। जोड़ि = जोड़ के, संजोग बना के।4।
अर्थ: (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य इस प्रकार अरदास करता है: हे प्रभु!) सारी सृष्टि में तेरी ही ज्योति (प्रकाश कर रही है, हरेक जीव तेरा ही पैदा किया हुआ) है। (गुरमुखि को ये पक्का निश्चय होता है कि) परमात्मा स्वयं ही जीवों के संजोग बनाता है, और स्वयं ही फिर विछोड़े डाल देता है। जो कुछ कर्तार स्वयं ही करता है वही होता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ढाहि उसारे हुकमि समावै ॥ हुकमो वरतै जो तिसु भावै ॥ गुर बिनु पूरा कोइ न पावै ॥५॥

मूलम्

ढाहि उसारे हुकमि समावै ॥ हुकमो वरतै जो तिसु भावै ॥ गुर बिनु पूरा कोइ न पावै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हुकमि = प्रभु के हुक्म के अनुसार। हुकमो = हुक्म ही। तिसु = उस प्रभु को।5।
अर्थ: (गुरमुखि को यकीन हो जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही सारी सृष्टि को गिरा के स्वयं ही दुबारा उसकी सृजना करता है, उसके हुक्म के अनुसार ही जगत दुबारा उसमें लीन हो जाता है। जो उसको अच्छा लगता है उसके अनुसार उसका हुक्म चलता है। गुरु की शरण आए बिना कोई भी जीव पूरन परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालक बिरधि न सुरति परानि ॥ भरि जोबनि बूडै अभिमानि ॥ बिनु नावै किआ लहसि निदानि ॥६॥

मूलम्

बालक बिरधि न सुरति परानि ॥ भरि जोबनि बूडै अभिमानि ॥ बिनु नावै किआ लहसि निदानि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परानि = प्राणी (को)। भरि जोबनि = भरी जवानी के समय। अभिमानि = अहंकार में। निदानि = आखिर को, अंत को।6।
अर्थ: (जिस प्राणी की तवज्जो) ना बाल अवस्था में ना वृद्ध अवस्था में (और ना ही जवानी के समय) कभी भी परमात्मा में नहीं जुड़ती, (बल्कि) भरी-जवानी में वह (जवानी के) अहंकार में डूबा रहता है, वह परमात्मा के नाम से टूट के आखिर (यहाँ से) क्या कमाएगा?।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस का अनु धनु सहजि न जाना ॥ भरमि भुलाना फिरि पछुताना ॥ गलि फाही बउरा बउराना ॥७॥

मूलम्

जिस का अनु धनु सहजि न जाना ॥ भरमि भुलाना फिरि पछुताना ॥ गलि फाही बउरा बउराना ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनु = अंन। सहजि = सहज अवस्था में टिक के। गलि = गले में। बउरा = झल्ला।7।
अर्थ: जिस परमात्मा का दिया हुआ अंन्न और धन जीव इस्तेमाल करता रहता है, अगर अडोल अवस्था में टिक के उससे कभी भी सांझ भी नहीं डालता और माया की भटकना में असल जीवन-राह भटका रहता है, तो आखिर पछताता है। उसके गले में मोह की फांसी लगी रहती है, मोह में ही वह सदा झल्ला हुआ फिरता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बूडत जगु देखिआ तउ डरि भागे ॥ सतिगुरि राखे से वडभागे ॥ नानक गुर की चरणी लागे ॥८॥६॥

मूलम्

बूडत जगु देखिआ तउ डरि भागे ॥ सतिगुरि राखे से वडभागे ॥ नानक गुर की चरणी लागे ॥८॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डरि = डर के। सतिगुरि = सतिगुरु ने। से = वह लोग।8।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु के चरणों में लगते हैं, वह जगत को (मोह में) डूबता देख के (मोह से) डर के भाग जाते हैं। वह बड़े भाग्यशाली हैं, सतिगुरु ने उन्हें (मोह की कैद से) बचा लिया है।8।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ गावहि गीते चीति अनीते ॥ राग सुणाइ कहावहि बीते ॥ बिनु नावै मनि झूठु अनीते ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ गावहि गीते चीति अनीते ॥ राग सुणाइ कहावहि बीते ॥ बिनु नावै मनि झूठु अनीते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। चीति = चित्त में। अनीते = कुकर्म। राग = राग द्वैष की बातें। सुणाइ = सुना के। कहावहि = लोगों से कहलवाते हैं। बीते = राग द्वैष से परे। मनि = मन में।1।
अर्थ: जो मनुष्य (दूसरों को सुनाने के लिए ही भक्ति के) गीत गाते हैं, पर उनके चित्त में बुरे ख्याल (मौजूद) हैं; जो (और लोगों को) राग (द्वैष से बचने की बातें) सुना के कहलवाते हैं कि हम राग-द्वैष से बचे हुए हैं, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना उनके मन में झूठ (बसता) है, उनके मन में कुकर्म (टिके हुए) हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहा चलहु मन रहहु घरे ॥ गुरमुखि राम नामि त्रिपतासे खोजत पावहु सहजि हरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कहा चलहु मन रहहु घरे ॥ गुरमुखि राम नामि त्रिपतासे खोजत पावहु सहजि हरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! घरे = घर में ही, अंदर ही। त्रिपतासे = (माया की ओर से) तृप्त। पावहु = (हे मन!) तू ढूँढ लेगा। सहजि = अडोल अवस्था में टिक के।1। रहाउ।
अर्थ: (और लोगों को समझ देने वाले) हे मन! तू (कुकर्मों में) क्यूँ भटक रहा है? अपने अंदर ही टिका रह। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होते हैं वे परमात्मा के नाम में जुड़ के (विकारों की ओर से) हट जाते हैं। हे मन! तू भी गुरु के द्वारा तलाश करके सहज अवस्था में टिक के परमात्मा को पा लेगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामु क्रोधु मनि मोहु सरीरा ॥ लबु लोभु अहंकारु सु पीरा ॥ राम नाम बिनु किउ मनु धीरा ॥२॥

मूलम्

कामु क्रोधु मनि मोहु सरीरा ॥ लबु लोभु अहंकारु सु पीरा ॥ राम नाम बिनु किउ मनु धीरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। सरीरा = शरीर में। पीरा = पीड़ा। धीरा = धीरज वाला, हौसले वाला।2।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में शरीर में काम है, क्रोध है मोह है, जिसके अंदर लब (लालच) है, लोभ है अहंकार है (जिसके अंदर इन विकारों का) कष्ट है, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना उसका मन (इनका मुकाबला करने का) कैसे हौसला कर सकता है?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि नावणु साचु पछाणै ॥ अंतर की गति गुरमुखि जाणै ॥ साच सबद बिनु महलु न पछाणै ॥३॥

मूलम्

अंतरि नावणु साचु पछाणै ॥ अंतर की गति गुरमुखि जाणै ॥ साच सबद बिनु महलु न पछाणै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नावणु = स्नान। गति = आत्मिक अवस्था। महलु = परमात्मा का ठिकाना।3।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के अपनी अंदरूनी आत्मिक अवस्था को समझ लेता है, जो मनुष्य अपने अंदर सदा स्थिर प्रभु के साथ सांझ पा लेता है, वह अपनी आत्मा में (तीर्थ-) स्नान कर रहा है। (पर गुरु के) सच्चे शब्द के बिना परमात्मा का ठिकाना कोई मनुष्य नहीं पहचान सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरंकार महि आकारु समावै ॥ अकल कला सचु साचि टिकावै ॥ सो नरु गरभ जोनि नही आवै ॥४॥

मूलम्

निरंकार महि आकारु समावै ॥ अकल कला सचु साचि टिकावै ॥ सो नरु गरभ जोनि नही आवै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आकारु = बाहर दिखता जगत। समावै = लीन करे। अकल कला = जिसकी कला गिनती से परे है। साचि = सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के।4।
अर्थ: जो मनुष्य दिखाई देते संसार को अदृश्य प्रभु में लीन कर लेता है (भाव, अपनी तवज्जो को बाहर से रोक के अंदर ले आता है;) जिस प्रभु की सत्ता गिनती-मिनती से परे है वह सदा स्थिर प्रभु को जो मनुष्य स्मरण द्वारा अपने हृदय में टिकाता है, वह मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में नहीं आता।4।

[[0415]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहां नामु मिलै तह जाउ ॥ गुर परसादी करम कमाउ ॥ नामे राता हरि गुण गाउ ॥५॥

मूलम्

जहां नामु मिलै तह जाउ ॥ गुर परसादी करम कमाउ ॥ नामे राता हरि गुण गाउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाउ = मैं जाऊँ। परसादी = प्रसादि, कृपा से। कमाउ = मैं कमाऊँ। गाउ = मैं गाऊँ।5।
अर्थ: (इस वास्ते मेरी ये अरदास है कि) जहाँ (गुरु की संगति में से) मुझे परमातमा का नाम मिल जाए, मैं वहीं जाऊँ, गुरु की कृपा से मैं वही काम करूँ (जिनसे मुझे परमात्मा का नाम प्राप्त हो), और परमात्मा के नाम रंग में रंगा हुआ मैं परमात्मा के गुण गाता रहूँ।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा ते आपु पछाता ॥ अम्रित नामु वसिआ सुखदाता ॥ अनदिनु बाणी नामे राता ॥६॥

मूलम्

गुर सेवा ते आपु पछाता ॥ अम्रित नामु वसिआ सुखदाता ॥ अनदिनु बाणी नामे राता ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने असल को, अपने आत्मिक जीवन को। अनदिनु = हर रोज। नामे = नाम में ही।6।
अर्थ: गुरु की बताई हुई सेवा के द्वारा जिस मनुष्य ने अपना आंतरिक आत्मिक जीवन पहचान लिया, उसके मन में आत्मिक जीवन देने वाला आत्मिक आनंद देने वाला हरि-नाम बस गया (समझो)। वह मनुष्य प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा हर रोज हरि के नाम-रंग में रंगा रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा प्रभु लाए ता को लागै ॥ हउमै मारे सबदे जागै ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु आगै ॥७॥

मूलम्

मेरा प्रभु लाए ता को लागै ॥ हउमै मारे सबदे जागै ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु आगै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता = तब। को = कोई जीव। सबदे = शब्द के द्वारा। आगै = सामने।7।
अर्थ: (पर ये खेल जीव के बस की नहीं) जब प्यारा प्रभु किसी जीव को अपने नाम में लगाता है तब ही कोई लगता है, तब ही गुरु शब्द के द्वारा वह अहंकार को मार के (इस और से सदा) सचेत रहता है। फिर लोक-परलोक में सदा आत्मिक आनंद उसके सामने मौजूद रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु चंचलु बिधि नाही जाणै ॥ मनमुखि मैला सबदु न पछाणै ॥ गुरमुखि निरमलु नामु वखाणै ॥८॥

मूलम्

मनु चंचलु बिधि नाही जाणै ॥ मनमुखि मैला सबदु न पछाणै ॥ गुरमुखि निरमलु नामु वखाणै ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिधि = (अहंकार को मारने की) बिधि।8।
अर्थ: पर चंचल मन (अहंकार को मारने का) तरीका नहीं जान सकता, क्योंकि मनमुख का मन (विकारों से सदा) मैला रहता है, वह गुरु के शब्द से सांझ नहीं डाल सकता। गुरु के बताए राह पर चलने वाला मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है और पवित्र जीवन वाला होता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ आगै करी अरदासि ॥ साधू जन संगति होइ निवासु ॥ किलविख दुख काटे हरि नामु प्रगासु ॥९॥

मूलम्

हरि जीउ आगै करी अरदासि ॥ साधू जन संगति होइ निवासु ॥ किलविख दुख काटे हरि नामु प्रगासु ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करी = करता हूँ। किलविख = पाप। प्रगासु = प्रकाश।9।
अर्थ: मैं प्रभु जी के आगे ये अरदास करता हूँ कि गुरमुखों की संगति में मेरा निवास बना रहे, मेरे अंदर परमात्मा का नाम चमक पड़े, और वह नाम मेरे पाप-कष्टों को काट दे।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि बीचारु आचारु पराता ॥ सतिगुर बचनी एको जाता ॥ नानक राम नामि मनु राता ॥१०॥७॥

मूलम्

करि बीचारु आचारु पराता ॥ सतिगुर बचनी एको जाता ॥ नानक राम नामि मनु राता ॥१०॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। आचारु = शुभ आचरण। पराता = पहचाना। बचनी = वचनों पर चल के। नामि = नाम में। राता = रंगा हुआ।10।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु के वचन पर चल के एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है, वह गुरु की वाणी को विचार केअच्छा आचरण बनाना समझ लेता है। उसका मन परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है।10।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ मनु मैगलु साकतु देवाना ॥ बन खंडि माइआ मोहि हैराना ॥ इत उत जाहि काल के चापे ॥ गुरमुखि खोजि लहै घरु आपे ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ मनु मैगलु साकतु देवाना ॥ बन खंडि माइआ मोहि हैराना ॥ इत उत जाहि काल के चापे ॥ गुरमुखि खोजि लहै घरु आपे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैगलु = हाथी। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ, माया ग्रसित। देवाना = पागल। बन खंड = जंगल के एक खण्ड में, संसार जंगल में। मोहि = मोह के कारण। हैराना = घबराया हुआ। इत उत = इधर उधर, हर तरफ। जाहि = जाते हैं, भटकते हैं। काल = मौत का डर, आत्मिक मौत। चापे = दबाए हुए। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है। लहै = पा लेता है। आपे = अपने अंदर ही।1।
अर्थ: (गुरु-शब्द से टूट के) माया-ग्रसित मन पागल हाथी (की तरह) है, माया के मोह के कारण (संसार-) जंगल में भटकता फिरता है। (माया के मोह के कारण) जिन्हें आत्मिक मौत दबा लेती है वे इधर-उधर भटकते फिरते हैं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह ढूँढ के अपने अंदर परमात्मा का ठिकाना पा लेता है (और भटकनों में नहीं पड़ता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर सबदै मनु नही ठउरा ॥ सिमरहु राम नामु अति निरमलु अवर तिआगहु हउमै कउरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिनु गुर सबदै मनु नही ठउरा ॥ सिमरहु राम नामु अति निरमलु अवर तिआगहु हउमै कउरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठउरा = एक जगह (टिकने वाला)। अवर = और रस। कउरा = कड़वा।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के शब्द (में जुड़े) बिना मन एक जगह टिका नहीं रह सकता। (हे भाई! इसे टिकाने के वास्ते गुरु-शब्द के द्वारा) परमात्मा का नाम स्मरण करो जो बहुत ही पवित्र है, और अन्य रसों को छोड़ दो, जो कड़वे भी हैं और अहंकार को बढ़ाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु मुगधु कहहु किउ रहसी ॥ बिनु समझे जम का दुखु सहसी ॥ आपे बखसे सतिगुरु मेलै ॥ कालु कंटकु मारे सचु पेलै ॥२॥

मूलम्

इहु मनु मुगधु कहहु किउ रहसी ॥ बिनु समझे जम का दुखु सहसी ॥ आपे बखसे सतिगुरु मेलै ॥ कालु कंटकु मारे सचु पेलै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुगधु = मूर्ख। कहहु = बताओ। रहसी = (अडोल) रहेगा। जम का दुख = आत्मिक मौत का दुख। कुंटकु = काँटा, काँटे की तरह चुभने वाला, दुखदाई। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। पेलै = प्रेरता है, धकेलता है।2।
अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन अपनी सूझ गवा लेता है, फिर बताएं, ये भटकने से कैसे बच सकता है? अपने असल की समझ के बिना ये मन आत्मिक मौत का दुख सहेगा ही। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं बख्शिश करता है, उसे गुरु मिल जाता है, वह दुखदाई आत्मिक मौत रूपी काँटे काल-कंटक को मार के निडर हो जाता है, सदा स्थिर प्रभु (उसे आत्मिक जीवन की ओर) प्रेरित करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु करमा इहु मनु धरमा ॥ इहु मनु पंच ततु ते जनमा ॥ साकतु लोभी इहु मनु मूड़ा ॥ गुरमुखि नामु जपै मनु रूड़ा ॥३॥

मूलम्

इहु मनु करमा इहु मनु धरमा ॥ इहु मनु पंच ततु ते जनमा ॥ साकतु लोभी इहु मनु मूड़ा ॥ गुरमुखि नामु जपै मनु रूड़ा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमा धरमा = धार्मिक रस्में। पंच ततु ते जनमा = पाँचों तत्वों से जन्मा हुआ, जनम मरण में ले जाने वाला। मूढ़ा = मूर्ख। रूढ़ा = सुंदर।3।
अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन और ही धार्मिक रस्में करता फिरता है, और जनम-मरण के चक्कर मेंलिए फिरता है। माया-ग्रसित ये मन लालची बन जाता है, मूर्ख हो जाता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम जपता है उसका मन सुंदर (संरचना वाला बन जाता) है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि मनु असथाने सोई ॥ गुरमुखि त्रिभवणि सोझी होई ॥ इहु मनु जोगी भोगी तपु तापै ॥ गुरमुखि चीन्है हरि प्रभु आपै ॥४॥

मूलम्

गुरमुखि मनु असथाने सोई ॥ गुरमुखि त्रिभवणि सोझी होई ॥ इहु मनु जोगी भोगी तपु तापै ॥ गुरमुखि चीन्है हरि प्रभु आपै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असथाने = टिकाता है, जगह देता है। सोई = उस प्रभु को। त्रिभवण = त्रिभवणी प्रभु की, उस प्रभु की जो तीनों भवनों में व्यापक है। चीनै = खोजता है, तलाशता है। आपै = अपने अंदर।4।
अर्थ: गुरु के सन्मुख हुए मनुष्य का मन परमात्मा को (अपने अंदर) जगह देता है, उसे उस प्रभु की सूझ हो जाती है जो तीनों भवनों में व्यापक है। (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी योग-साधना करता है कभी माया के भोग भोगता है कभी तपों से शरीर को कष्ट देता है (पर आत्मिक आनंद उसको कभी नहीं मिलता)। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह हरि परमात्मा को अपने अंदर खोज लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु बैरागी हउमै तिआगी ॥ घटि घटि मनसा दुबिधा लागी ॥ राम रसाइणु गुरमुखि चाखै ॥ दरि घरि महली हरि पति राखै ॥५॥

मूलम्

मनु बैरागी हउमै तिआगी ॥ घटि घटि मनसा दुबिधा लागी ॥ राम रसाइणु गुरमुखि चाखै ॥ दरि घरि महली हरि पति राखै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घट में। मनसा = मायावी फुरना। दुबिधा = दुचित्तापन, भटकना। रसाइणु = रसों का घर। दरि = दर पे। घरि = घर में। महली = महल का मालिक प्रभु।5।
अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी (अपनी ओर से) अहंकार को त्याग के (दुनिया त्याग के) वैरागवान बन जाता है, कभी हरेक शारीर में (माया-ग्रसित मन को) मायावी फुरने व दुबिधा भरे विचार आ चिपकते हैं।
जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के रसों का घर नाम-रस चखता है, उसे अंदर-बाहर महल का मालिक प्रभु (दिखता है) जो (माया के मोह से बचा के) उसकी इज्जत रखता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु राजा सूर संग्रामि ॥ इहु मनु निरभउ गुरमुखि नामि ॥ मारे पंच अपुनै वसि कीए ॥ हउमै ग्रासि इकतु थाइ कीए ॥६॥

मूलम्

इहु मनु राजा सूर संग्रामि ॥ इहु मनु निरभउ गुरमुखि नामि ॥ मारे पंच अपुनै वसि कीए ॥ हउमै ग्रासि इकतु थाइ कीए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूर = सूरमा। संग्रामि = रण भूमि में। नामि = नाम में। अपुनै वसि = अपने वश में। ग्रासि = ग्रस के, खा के। इकतु थाइ = एक ही जगह में।6।
अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी रणभूमि में राजा और शूरवीर बना हुआ है। पर जब ये मन गुरु की शरण पड़ के प्रभु नाम में जुड़ता है तो (माया के हमलों से) निडर हो जाता है, कामादिक पाँचों (वैरियों) को मार देता है, अपने बस में कर लेता है, अहंकार को खत्म कर के इन सभी को एक ही जगह पर (काबू) कर लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि राग सुआद अन तिआगे ॥ गुरमुखि इहु मनु भगती जागे ॥ अनहद सुणि मानिआ सबदु वीचारी ॥ आतमु चीन्हि भए निरंकारी ॥७॥

मूलम्

गुरमुखि राग सुआद अन तिआगे ॥ गुरमुखि इहु मनु भगती जागे ॥ अनहद सुणि मानिआ सबदु वीचारी ॥ आतमु चीन्हि भए निरंकारी ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अन = अन्य। जागे = जाग पड़ता है, सचेत हो जाता है। अनहद = एक रस। सुणि = सुन के। मानिआ = मान गया, गिझ गया। विचारी = विचार के। चीन्हि = खोज के।7।
अर्थ: गुरु के सन्मुख हुआ ये मन राग (द्वैष) व अन्य स्वाद त्याग देता है, गुरु की शरण पड़ के ये मन परमात्मा की भक्ति में जुड़ के (माया के हमलों की ओर से) सुचेत हो जाता है।
जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है, वह (अंदरूनी आत्मिक खेड़े के) एक रस (हो रहे गीत) को सुन-सुन के (उस में) समा जाता है, अपने आपे को खोज के परमात्मा का रूप हो जाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु निरमलु दरि घरि सोई ॥ गुरमुखि भगति भाउ धुनि होई ॥ अहिनिसि हरि जसु गुर परसादि ॥ घटि घटि सो प्रभु आदि जुगादि ॥८॥

मूलम्

इहु मनु निरमलु दरि घरि सोई ॥ गुरमुखि भगति भाउ धुनि होई ॥ अहिनिसि हरि जसु गुर परसादि ॥ घटि घटि सो प्रभु आदि जुगादि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरि घर = अंदर बाहर (हर जगह)। सोई = उसी प्रभु को। धुनि = लगन। भाउ = प्रेम। अहि = दिन। निसि = रात। परसादि = किरपा से। आदि = सारी सृष्टि का आरम्भ। जुगादि = जुगों के आदि से।8।
अर्थ: (जब) ये मन (गुरु के सन्मुख होता है तब) पवित्र हो जाता है, उसको अंदर-बाहर वह परमात्मा ही दिखता है। गुरु के सन्मुख हो के (इस मन के अंदर) भक्ति की लगन लग पड़ती है, (इसके अंदर प्रभु का) प्यार (जाग पड़ता है) गुरु की कृपा से ये मन दिन-रात परमात्मा की महिमा करता है। जो परमात्मा सारी सृष्टि का आदि है जो परमात्मा जुगों के आरम्भ से मौजूद है वह इस मन को हरेक शरीर में बसता दिखाई दे जाता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम रसाइणि इहु मनु माता ॥ सरब रसाइणु गुरमुखि जाता ॥ भगति हेतु गुर चरण निवासा ॥ नानक हरि जन के दासनि दासा ॥९॥८॥

मूलम्

राम रसाइणि इहु मनु माता ॥ सरब रसाइणु गुरमुखि जाता ॥ भगति हेतु गुर चरण निवासा ॥ नानक हरि जन के दासनि दासा ॥९॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसाइणि = रसायन में, रसों के घर में। हेतु = प्रेम।9।
अर्थ: गुरु के सन्मुख हो के ये मन रसों के घर नाम-रस में मस्त हो जाता है, गुरु के सन्मुख होने से ये मन सब रसों के श्रोत प्रभु को पहचान लेता है। जब गुरु के चरणों में (इस मन का) निवास होता है तो (इसके अंदर परमात्मा की) भक्ति का प्रेम (जाग पड़ता है)। हे नानक! तब ये मन गुरमुखों के दासों का दास बन जाता है।9।8।

[[0416]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ तनु बिनसै धनु का को कहीऐ ॥ बिनु गुर राम नामु कत लहीऐ ॥ राम नाम धनु संगि सखाई ॥ अहिनिसि निरमलु हरि लिव लाई ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ तनु बिनसै धनु का को कहीऐ ॥ बिनु गुर राम नामु कत लहीऐ ॥ राम नाम धनु संगि सखाई ॥ अहिनिसि निरमलु हरि लिव लाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: का को = किस का? कत = कहाँ? संगि = (जीव के) साथ। सखाई = साथी, मित्र। अहि = दिन। निसि = रात।1।
अर्थ: जब मनुष्य का शरीर बिनस जाता है तब (उसका कमाया हुआ) धन उसका नहीं कहा जा सकता (परमात्मा का नाम ही असल धन है जो मनुष्य शरीर के नाश होने के बाद भी अपने साथ ले जा सकता है, पर) परमात्मा का नाम-धन गुरु के बिना किसी और से नहीं मिल सकता। परमात्मा का नाम-धन ही मनुष्य का असल साथी है। जो मनुष्य दिन-रात अपनी तवज्जो प्रभु (-चरणों) में जोड़ता है उसका जीवन पवित्र हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम बिनु कवनु हमारा ॥ सुख दुख सम करि नामु न छोडउ आपे बखसि मिलावणहारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम नाम बिनु कवनु हमारा ॥ सुख दुख सम करि नामु न छोडउ आपे बखसि मिलावणहारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमारा = हम जीवों का। सम = बराबर, एक जैसा। करि = कर के, समझ के। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ता। बखसि = बख्श के, मेहर करके।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा के नाम के बिना हम (जीवों का) और कौन सदीवी (हमेशा के लिए मित्र) हो सकता है? (सुख और दुख उसी प्रभु की रजा में आते हैं, इस वास्ते) सुख और दुख को एक समान (उसी की रजा समझ के) मैं (कभी) उसका नाम नहीं छोड़ूँगा। (मुझे पक्का यकीन है कि) परमात्मा खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) जोड़ने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनिक कामनी हेतु गवारा ॥ दुबिधा लागे नामु विसारा ॥ जिसु तूं बखसहि नामु जपाइ ॥ दूतु न लागि सकै गुन गाइ ॥२॥

मूलम्

कनिक कामनी हेतु गवारा ॥ दुबिधा लागे नामु विसारा ॥ जिसु तूं बखसहि नामु जपाइ ॥ दूतु न लागि सकै गुन गाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कनिक = सोना। कामनी = स्त्री। हेतु = हित, मोह। दुबिधा = भटकना, दुचित्तापन। जपाइ = जपा के। गाइ = गाए, गाता है।2।
अर्थ: वह मूर्ख हैं जिन्होंने परमात्मा का नाम भुला दिया है जो सोने व स्त्री के साथ ही मोह बढ़ा रहे हैं और भटकना में पड़े हुए हैं (पर जीव के भी क्या वश? हे प्रभु!) जिस जीव को तू अपना नाम जपा के (नाम की दाति) बख्शता है, वह तेरे गुण गाता है, जमदूत उसके पास नहीं फटक सकते (आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं आती। ‘कनिक कामिनी हेतु’ उसके आत्मिक जीवन को मार नहीं सकता)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुरु दाता राम गुपाला ॥ जिउ भावै तिउ राखु दइआला ॥ गुरमुखि रामु मेरै मनि भाइआ ॥ रोग मिटे दुखु ठाकि रहाइआ ॥३॥

मूलम्

हरि गुरु दाता राम गुपाला ॥ जिउ भावै तिउ राखु दइआला ॥ गुरमुखि रामु मेरै मनि भाइआ ॥ रोग मिटे दुखु ठाकि रहाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। मनि = मन में।3।
अर्थ: हे राम! हे हरि! हे गुपाल! तू ही सब से बड़ा दाता है। जैसे तुझे ठीक लगे वैसे, हे दयालु! मुझे (‘कनिक कामिनी हेत’ से) बचा ले।
गुरु की शरण पड़ के परमात्मा (का नाम) मेरे मन को प्यारा लगता है, मेरे (आत्मिक) रोग मिट गए हैं (आत्मिक मौत वाला) दुख मैंने रोक लिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरु न अउखधु तंत न मंता ॥ हरि हरि सिमरणु किलविख हंता ॥ तूं आपि भुलावहि नामु विसारि ॥ तूं आपे राखहि किरपा धारि ॥४॥

मूलम्

अवरु न अउखधु तंत न मंता ॥ हरि हरि सिमरणु किलविख हंता ॥ तूं आपि भुलावहि नामु विसारि ॥ तूं आपे राखहि किरपा धारि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवरु = कोई और। अउखधु = दवा। किलविख = पाप। हंता = नाश करने वाला।4।
अर्थ: (हे भाई! ‘कनिक कामिनी हेत’ के रोग से बचाने वाले प्रभु-नाम के बिना) और कोई दवा नहीं है, कोई मंत्र नहीं है। परमात्मा के नाम का जपना ही सारे पापों का नाश करने वाला है।
पर, हे प्रभु! हम जीव क्या कर सकते हैं? हमारे मनों से (अपना) नाम भुला के तू खुद ही हमें गलत रास्ते पर डालता है, और तू स्वयं ही मेहर करके हमें विकारों से बचाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोगु भरमु भेदु मनि दूजा ॥ गुर बिनु भरमि जपहि जपु दूजा ॥ आदि पुरख गुर दरस न देखहि ॥ विणु गुर सबदै जनमु कि लेखहि ॥५॥

मूलम्

रोगु भरमु भेदु मनि दूजा ॥ गुर बिनु भरमि जपहि जपु दूजा ॥ आदि पुरख गुर दरस न देखहि ॥ विणु गुर सबदै जनमु कि लेखहि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भटक के। जपहि = जपते हैं। गुर दरस = गुरु के दीदार। कि लेखहि = किस लेख में? किसी लेखे नहीं।5।
अर्थ: गुरु की शरण के बिना जो मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ के दूसरा जप जपते हैं (कनिक कामिनी आदि के मोह में सदा तवज्जो जोड़ के रखते हैं, उनके मन में विकारों का) रोग है, भटकना है, प्रभु से दूरी है, मेर-तेर है। जो मनुष्य कभी गुरु के दर्शन नहीं करते, सबसे आदि सर्व-व्यापक का दर्शन नहीं करते, गुरु के शब्द में जुड़े बिना उनका जनम किसी भी काम का नहीं रह जाता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि अचरजु रहे बिसमादि ॥ घटि घटि सुर नर सहज समाधि ॥ भरिपुरि धारि रहे मन माही ॥ तुम समसरि अवरु को नाही ॥६॥

मूलम्

देखि अचरजु रहे बिसमादि ॥ घटि घटि सुर नर सहज समाधि ॥ भरिपुरि धारि रहे मन माही ॥ तुम समसरि अवरु को नाही ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि = देख के। बिसमादि = हैरान। घटि घटि = हरेक घट में। मन माही = हरेक हृदय में। समसरि = बराबर।6।
अर्थ: (हे प्रभु!) तुझे आश्चर्य-रूप में देख के हम हैरान होते हैं। तू हरेक शरीर में मौजूद है, देवताओं में, मनुष्यों में हरेक में सोए हुए ही अडोल टिका हुआ है। तू हरेक जीव के मन में भरपूर है, तू हरेक को सहारा दे रहा है। तेरे जैसा (रक्षक) और कोई नहीं है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा की भगति हेतु मुखि नामु ॥ संत भगत की संगति रामु ॥ बंधन तोरे सहजि धिआनु ॥ छूटै गुरमुखि हरि गुर गिआनु ॥७॥

मूलम्

जा की भगति हेतु मुखि नामु ॥ संत भगत की संगति रामु ॥ बंधन तोरे सहजि धिआनु ॥ छूटै गुरमुखि हरि गुर गिआनु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा की = जिस परमात्मा की। हेतु = हित, प्रेम। सहजि = अडोल अवस्था में।7।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा उन संतों-भक्तों की संगति में मिलता है जिनके मुँह में (सदा उस का) नाम टिका रहता है। उन संत जनों के हृदय में उस प्रभु की भक्ति के वास्ते प्रेम है कसक है। अडोल अवस्था में (टिक के, प्रभु का) ध्यान (धर के संत जन ‘कनिक कामिनी’ वाले) बंधन तोड़ लेते हैं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है जिसके अंदर गुरु का दिया हुआ रब्बी ज्ञान प्रगट होता है वह भी इन बंधनों से मुक्त हो जाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना जमदूत दूखु तिसु लागै ॥ जो जनु राम नामि लिव जागै ॥ भगति वछलु भगता हरि संगि ॥ नानक मुकति भए हरि रंगि ॥८॥९॥

मूलम्

ना जमदूत दूखु तिसु लागै ॥ जो जनु राम नामि लिव जागै ॥ भगति वछलु भगता हरि संगि ॥ नानक मुकति भए हरि रंगि ॥८॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। हरि रंगि = हरि के प्यार में।8।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा के नाम में लगन लगा के, ‘कनिक कामिनी हेत’ की ओर से सुचेत हो जाता है उसे जम दूतों का दुख छू नहीं सकता (मौत का डर, आत्मिक मौत उसके पास नहीं फटकती)।
भक्ति से प्यार करने वाला परमात्मा अपने भक्तों के अंग-संग रहता है। हे नानक! प्रभु के भक्त प्रभु के प्यार-रंग में (रंग के, बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।8।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ इकतुकी ॥ गुरु सेवे सो ठाकुर जानै ॥ दूखु मिटै सचु सबदि पछानै ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ इकतुकी ॥ गुरु सेवे सो ठाकुर जानै ॥ दूखु मिटै सचु सबदि पछानै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए अनुसार परमात्मा का स्मरण करता है, वह परमात्मा को (हर जगह व्यापक) जान लेता है, वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभु को गुरु के शब्द के द्वारा (हर जगह) पहचान लेता है, और (इसतरह उसके मोह का) दुख मिट जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामु जपहु मेरी सखी सखैनी ॥ सतिगुरु सेवि देखहु प्रभु नैनी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रामु जपहु मेरी सखी सखैनी ॥ सतिगुरु सेवि देखहु प्रभु नैनी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी सखैनी = हे सहेलिओ! नैनी = आँखों से।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी सहेलियो! (हे मेरे सत्संगियो!) परमात्मा का नाम जपो, गुरु की बताई हुई (ये) सेवा करके (भाव, गुरु की शिक्षा के अनुसार प्रभु का भजन करके) तुम (हर जगह) परमात्मा के दर्शन करोगे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधन मात पिता संसारि ॥ बंधन सुत कंनिआ अरु नारि ॥२॥

मूलम्

बंधन मात पिता संसारि ॥ बंधन सुत कंनिआ अरु नारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारि = संसार में। सुत = पुत्र। अरु = और। नारि = पत्नी।2।
अर्थ: (परमात्मा का स्मरण करने के बिना) संसार में माँ, पिता, पुत्र, बेटी और पत्नी (मोह के) बंधनों के कारण बन जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधन करम धरम हउ कीआ ॥ बंधन पुतु कलतु मनि बीआ ॥३॥

मूलम्

बंधन करम धरम हउ कीआ ॥ बंधन पुतु कलतु मनि बीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करम धरम = धार्मिक रस्में। हउ = अहंकार। कलत्र = स्त्री, पत्नी। मनि = मन में। बीआ = दूसरा, प्रभु के बिना और का प्यार।3।
अर्थ: (स्मरण के बिना) धार्मिक रस्मेंबंधन बन जाती हैं, (मनुष्य गर्व करता है कि ये सब कुछ) ‘मैंने किया है, मैंने किया है’। यदि मन में (परमात्मा के बिना कोई और) दूसरा प्रेम है, तो पुत्र-स्त्री (का रिश्ता भी) बंधनों (का मूल हो जाता) है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधन किरखी करहि किरसान ॥ हउमै डंनु सहै राजा मंगै दान ॥४॥

मूलम्

बंधन किरखी करहि किरसान ॥ हउमै डंनु सहै राजा मंगै दान ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरखी = खेती, कृषि। करहि = करते हैं। डंनु = दण्ड, सजा। दान = मामला।4।
अर्थ: किसान (आजीविका के लिए) खेती-बाड़ी करते हैं (करनी भी चाहिए, पर स्मरण के बिना ये खेती-बाड़ी) बंधन बन जाती है। राजा (किसानों से) मामला लेता है। (पर, परमात्मा के स्मरण के बिना राजा ही) अहंकार की सजा भुगतता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधन सउदा अणवीचारी ॥ तिपति नाही माइआ मोह पसारी ॥५॥

मूलम्

बंधन सउदा अणवीचारी ॥ तिपति नाही माइआ मोह पसारी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अणवीचारी = (परमात्मा का नाम) विचारे बिना।5।
अर्थ: (व्यापारी) व्यापार करता है, प्रभु का नाम स्मरण के बिना ये व्यापार बंधनों का मूल है, (क्योंकि स्मरण के बिना मनुष्य) माया के मोह के पसारे में (इतना फंस जाता है कि माया से उसका) पेट नहीं भरता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधन साह संचहि धनु जाइ ॥ बिनु हरि भगति न पवई थाइ ॥६॥

मूलम्

बंधन साह संचहि धनु जाइ ॥ बिनु हरि भगति न पवई थाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: शाह-सौदागर (सौदागरी करके) धन एकत्र करते हैं, धन (आखिर) साथ छोड़ जाता है (पर नाम स्मरण के बिना धन) बंधन बन जाता है। परमात्मा की भक्ति के बिना (उनका कोई उद्यम परमात्मा की नजरों में) स्वीकार नहीं होता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधन बेदु बादु अहंकार ॥ बंधनि बिनसै मोह विकार ॥७॥

मूलम्

बंधन बेदु बादु अहंकार ॥ बंधनि बिनसै मोह विकार ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संचहि = इकट्ठा करते हैं, जोड़ते हैं। जाइ = चला जाता है। थाइ = जगह में। न पवई थाइ = जगह पर नहीं पड़ता, स्वीकार नहीं होता। बेदु = वेदों का पाठ। बादु = झगड़ा, चर्चा। बंधन = बंधनों में। बिनसै = नाश हो जाता है, आत्मिक मौत मर जाता है।7।
अर्थ: (स्मरण के बिना) वेद पाठ और वेद रचना भी अहंकार का मूल है। बंधनों का मूल है। मोह के बंधन में, विकारों के बंधन में (फंस के) मनुष्य की आत्मिक मौत हो जाती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक राम नाम सरणाई ॥ सतिगुरि राखे बंधु न पाई ॥८॥१०॥

मूलम्

नानक राम नाम सरणाई ॥ सतिगुरि राखे बंधु न पाई ॥८॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। बंधु = मोह का बंधन।8।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य (दुनिया की हरेक किस्म की मेहनत-कमाई में) परमात्मा के नाम का आसरा लेते हैं, जान लो कि सतिगुरु ने उनको मोह के बंधनों से बचा लिया, उन्हे कोई बंधन नहीं पड़ता।8।10।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला १ असटपदीआ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु आसा महला १ असटपदीआ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन सिरि सोहनि पटीआ मांगी पाइ संधूरु ॥ से सिर काती मुंनीअन्हि गल विचि आवै धूड़ि ॥ महला अंदरि होदीआ हुणि बहणि न मिलन्हि हदूरि ॥१॥

मूलम्

जिन सिरि सोहनि पटीआ मांगी पाइ संधूरु ॥ से सिर काती मुंनीअन्हि गल विचि आवै धूड़ि ॥ महला अंदरि होदीआ हुणि बहणि न मिलन्हि हदूरि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। सोहनि = (अब तक) शोभती आ रही हैं। मांगी = मांग में, केसों के बीच वाले चीर में। पाइ = पा के। काती = कैंची (से)। मुंनीअनि = मुंने जा रहे हैं। गल विचि = मुंह में। धूड़ि = मिट्टी। हदूरि = (महलों के) नजदीक भी।1।
अर्थ: जिस (सुंदरियों) के सिर पर केसों के बीच के चीर में सिंधूर डाल के (काले केसों की) पट्टियां (अब तक) शोभती आ रही हैं, (उनके) मुंह में मिट्टी पड़ रही है। जो पहले अपने महलों में बसती थीं, अब उन्हें उन महलों के नजदीक कहीं फटकने भी नहीं दिया जाता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदेसु बाबा आदेसु ॥ आदि पुरख तेरा अंतु न पाइआ करि करि देखहि वेस ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आदेसु बाबा आदेसु ॥ आदि पुरख तेरा अंतु न पाइआ करि करि देखहि वेस ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदेसु = नमस्कार। बाबा = हे प्रभु! वेस = (कई तरह के) भाणे।1। रहाउ।
अर्थ: हे अकाल पुरख! (बिपता के समय हम जीवों की तुझे ही) नमस्कार है (और कौन सा आसरा हो सकता है?) हे आदि पुरख! (तेरी रजाओं का हमें) भेद नहीं मिलता। तू ये रजा स्वयं ही कर के स्वयं ही देख रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदहु सीआ वीआहीआ लाड़े सोहनि पासि ॥ हीडोली चड़ि आईआ दंद खंड कीते रासि ॥ उपरहु पाणी वारीऐ झले झिमकनि पासि ॥२॥

मूलम्

जदहु सीआ वीआहीआ लाड़े सोहनि पासि ॥ हीडोली चड़ि आईआ दंद खंड कीते रासि ॥ उपरहु पाणी वारीऐ झले झिमकनि पासि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीआ वीआहीआ = ब्याही गई थीं। सोहनि = शोभते थे। हीडोल = पालकी। दंदखंड = हाथी दात (के चूड़े)। कीते रासि = सजाए हुए। झले = पंखे (शीशों जड़े)। झिमकनि = झिलमिलाते हैं (थे)।2।
अर्थ: जब वे सुंदरियां बयाह के आई थीं, उनके पास उनके दूल्हे सुन्दर लग रहे थे, वे पालकी में चढ़ के आई थीं, (उनकी बाँहों पे) हाथी दांत के चूड़े (शगनों के) सजे हुए थे। (ससुराल-घर में आने पर) ऊपर से (शगनों का) पानी वारा जाता था, (शीशे जड़े हुए) पंखे उनके पास (उनके हाथों में) झिलमिला रहे थे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु लखु लहन्हि बहिठीआ लखु लहन्हि खड़ीआ ॥ गरी छुहारे खांदीआ माणन्हि सेजड़ीआ ॥ तिन्ह गलि सिलका पाईआ तुटन्हि मोतसरीआ ॥३॥

मूलम्

इकु लखु लहन्हि बहिठीआ लखु लहन्हि खड़ीआ ॥ गरी छुहारे खांदीआ माणन्हि सेजड़ीआ ॥ तिन्ह गलि सिलका पाईआ तुटन्हि मोतसरीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लहन्हि = लेती हैं (थीं)। माणनि = भोगती हैं (थीं)। गलि = गले में। सिलका = फाही, रस्सी। मोतसरीआ = मोतियों की माला।3।
अर्थ: (ससुराल घर आ के) बैठी वे एक-एक लाख रुपए (शगनों का) लेती थीं, खड़ी भी लेती थीं। गरी-छुहारे खाती थीं, और सुंदर सेजों का आनंद लेती थीं। (आज) उनके गलों में (जालिमों ने) रस्सियां डाली हुई हैं, उनके (गले में पड़े हुए) मोतियों के हार टूट रहे हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु जोबनु दुइ वैरी होए जिन्ही रखे रंगु लाइ ॥ दूता नो फुरमाइआ लै चले पति गवाइ ॥ जे तिसु भावै दे वडिआई जे भावै देइ सजाइ ॥४॥

मूलम्

धनु जोबनु दुइ वैरी होए जिन्ही रखे रंगु लाइ ॥ दूता नो फुरमाइआ लै चले पति गवाइ ॥ जे तिसु भावै दे वडिआई जे भावै देइ सजाइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोबनु = जवानी। दूत = जालिम सिपाही। पति = इज्जत। तिसु = उस प्रभु को।4।
अर्थ: (उनका) धन-जोबन, जिसके नशे में कभी ये सुंदरियां मग़रूर थीं, आज यही दोनों धन-जोबन उन के वैरी बने हुए हैं। (बाबर ने) जालिम सिपाहियों को हुक्म दे रखा है, वह उनकी इज्जत गवा के उनको साथ ले के जा रहे हैं।
(जीवों के कुछ भी वश में नहीं) अगर उस परमात्मा को अच्छा लगे तो (अपने पैदा किए जीवों को) आदर-सत्कार देता है, अगर उसकी मर्जी हो तो सजा देता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगो दे जे चेतीऐ तां काइतु मिलै सजाइ ॥ साहां सुरति गवाईआ रंगि तमासै चाइ ॥ बाबरवाणी फिरि गई कुइरु न रोटी खाइ ॥५॥

मूलम्

अगो दे जे चेतीऐ तां काइतु मिलै सजाइ ॥ साहां सुरति गवाईआ रंगि तमासै चाइ ॥ बाबरवाणी फिरि गई कुइरु न रोटी खाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगो दे = पहले ही। काइतु = क्यों? साहां = शाहों ने, हाकिमों ने। रंगि = रंग में। चाइ = चाव में। बाबरवाणी = बाबर की (दुहाई)। कुइरु = कंवर, राजकुमार, पठान शहज़ादा।5।
अर्थ: यदि पहले ही (अपने-अपने फर्ज को) याद करते रहें (चेते रखें) तो (ऐसी) सजा कयूँ मिले? (यहाँ के) हाकिमों ने ऐश में, तमाशों के चाव में अपने फर्ज भुला दिए थे। (अब जब) बाबर की (दुहाई) फिरी है तो (और परजा कह तो बिसात ही क्या, कोई) पठान-शहिजादा भी (कहीं से मांग-मूंग के) रोटी नहीं खा सकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकना वखत खुआईअहि इकन्हा पूजा जाइ ॥ चउके विणु हिंदवाणीआ किउ टिके कढहि नाइ ॥ रामु न कबहू चेतिओ हुणि कहणि न मिलै खुदाइ ॥६॥

मूलम्

इकना वखत खुआईअहि इकन्हा पूजा जाइ ॥ चउके विणु हिंदवाणीआ किउ टिके कढहि नाइ ॥ रामु न कबहू चेतिओ हुणि कहणि न मिलै खुदाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखत = निमाज के वख़्त। खुआईअहि = गवाए जा रहे है। नाइ = नहा के।6।
अर्थ: (सैदपुर की स्त्रीयों का ये हाल हो रहा है कि जालिमों के पँजों में आ के) मुसलमानियों के निमाज के वक्त टूटते जा रहे हैं, हिन्दवाणियों की पूजा का समय जा रहा है, (जो पहले नहा के, टीके लगा के स्वच्छ चौकों में बैठती थीं, अब) ना वे स्नान कर के तिलक लगा सकती हैं, ना ही उन के स्वच्छ चौके रह गए हैं। (जिन्होंने पहले धन-जोबन के नशे में) कभी राम को याद तक नहीं किया, अब (जालिम बाबर के सिपाहियों को खुश करने के लिए) उन्हें खुदा-खुदा कहना भी नसीब नहीं है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि घरि आवहि आपणै इकि मिलि मिलि पुछहि सुख ॥ इकन्हा एहो लिखिआ बहि बहि रोवहि दुख ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ नानक किआ मानुख ॥७॥११॥

मूलम्

इकि घरि आवहि आपणै इकि मिलि मिलि पुछहि सुख ॥ इकन्हा एहो लिखिआ बहि बहि रोवहि दुख ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ नानक किआ मानुख ॥७॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = कई (बचे हुए) आदमी। एहो लिखिआ = यही है किस्मत में लिखा हुआ। रोवहि दुख = दुख रोते हैं, रोने रोते हैं।7।
अर्थ: (बाबर की कत्लेआम की कैद में से) जो कोई एक-आध लोग (बच के) अपने-अपने घर में आते हें, वे एक-दूसरे को मिल-मिल के एक-दूसरे की सुख-शांति (हालचाल) पूछते हैं। (अनेक साक-संबंधी मार दिए गये या कैद किए जा चुके हैं) उनकी किस्मत में यही बिपता लिखी हुई थी, वे एक-दूसरे के पास बैठ-बैठ के अपने-अपने दुख रोते हैं (रो-रो के अपने दुख बताते हैं)।
(पर) हे नानक! मनुष्य बिचारे क्या करने के लायक हैं? वही कुछ घटित होता है जो उस (विधाता कर्तार) को भाता है।7।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ कहा सु खेल तबेला घोड़े कहा भेरी सहनाई ॥ कहा सु तेगबंद गाडेरड़ि कहा सु लाल कवाई ॥ कहा सु आरसीआ मुह बंके ऐथै दिसहि नाही ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ कहा सु खेल तबेला घोड़े कहा भेरी सहनाई ॥ कहा सु तेगबंद गाडेरड़ि कहा सु लाल कवाई ॥ कहा सु आरसीआ मुह बंके ऐथै दिसहि नाही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेल = खेल तमाशे। भेरी = नगारे। सहनाई = शहनाई। तेगबंद = गात्रे, शरीर से तलवार लगा के रखने वाला पट्टा। गाडेरड़ि = (गाडर = भेड़) भेड़ की पश्म से बने हुए, पशमीने की। कवाई = पुशाकें। बंके = बाँके, सोहणे।1।
अर्थ: (अभी कल की बात है कि सैदपुर में रौनक ही रौनक थी, पर अब) कहाँ हैं (सैनिकों के) खेल तमाशे? कहाँ हैं घोड़े और (घोड़ों के) तबेले? कहाँ गए वो नगारे और शहनाईयां? कहाँ गए पश्मीने के गातरे? और कहाँ हैं वह (सैनिकों की) लाल वर्दियां? कहाँ है शीशे? और (शीशों में देखे जाने वाले) सुंदर मुखड़े? (आज) यहाँ (सैदपुर में कहीं) नहीं दिखते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु तेरा तू गोसाई ॥ एक घड़ी महि थापि उथापे जरु वंडि देवै भांई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इहु जगु तेरा तू गोसाई ॥ एक घड़ी महि थापि उथापे जरु वंडि देवै भांई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोसाई = धरती का पति। थापि = रच के, पैदा करके। उथापे = नाश कर देता है। जरु = धन। वंडि = बाँट के। भांई = और लोगों को।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! ये जगत तेरा (बनाया हुआ) है, तू इस जगत का मालिक है। (उस मालिक की आश्चर्यजनक खेल है) जगत रच के एक घड़ी में ही तबाह भी कर देता है, और धन दौलत बाँट के और लोगों को दे देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहां सु घर दर मंडप महला कहा सु बंक सराई ॥ कहां सु सेज सुखाली कामणि जिसु वेखि नीद न पाई ॥ कहा सु पान त्मबोली हरमा होईआ छाई माई ॥२॥

मूलम्

कहां सु घर दर मंडप महला कहा सु बंक सराई ॥ कहां सु सेज सुखाली कामणि जिसु वेखि नीद न पाई ॥ कहा सु पान त्मबोली हरमा होईआ छाई माई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंडप = शामियाने। सराई = सरावां। कामणि = स्त्री। वेखि = देख के। तंबोली = पान बेचने वालियां। हरमा = पहरेदार स्त्रीयां। छाई माई = छाऊ माऊ, गुम, अलोप।2।
अर्थ: कहाँ हैं वह सुंदर घर-महल-माढ़ियां और सुंदर सराएं? कहाँ है वह सुख देने वाली स्त्री और उसकी सेज, जिसे देख के (आँखों में से) नींद समाप्त हो जाती थी? कहाँ हैं वे पान और पान बेचने वालियां, और कहाँ हैं वो पहरेदार औरतें? सब गुम हो चुकी हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु जर कारणि घणी विगुती इनि जर घणी खुआई ॥ पापा बाझहु होवै नाही मुइआ साथि न जाई ॥ जिस नो आपि खुआए करता खुसि लए चंगिआई ॥३॥

मूलम्

इसु जर कारणि घणी विगुती इनि जर घणी खुआई ॥ पापा बाझहु होवै नाही मुइआ साथि न जाई ॥ जिस नो आपि खुआए करता खुसि लए चंगिआई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जर कारणि = धन की खातिर। घणी = बहुत सारी लुकाई। विगुती = ख्वार हुई। इनि = इस ने। इनि जर = इस धन ने। खुआई = ख्वार की। खुआए = कुराहे डालता है। खुसि लए = छीन लेता है। चंगिआई = गुण।3।
अर्थ: इस धन की खातिर बहुत दुनिया ख्वार हुई है इस धन ने बहुत दुनिया को ख्वार किया है। पाप जुल्म किए बिना, ये दौलत इकट्ठी नहीं हो सकती, और मरने के वक्त ये (इकट्ठी करने वाले के) साथ नहीं जाती। (पर, जीव के भी क्या वश?) परमात्मा जिसे स्वयं गलत रास्ते पर डालता है (पहले उससे उसके) शुभ गुण छीन लेता है।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटी हू पीर वरजि रहाए जा मीरु सुणिआ धाइआ ॥ थान मुकाम जले बिज मंदर मुछि मुछि कुइर रुलाइआ ॥ कोई मुगलु न होआ अंधा किनै न परचा लाइआ ॥४॥

मूलम्

कोटी हू पीर वरजि रहाए जा मीरु सुणिआ धाइआ ॥ थान मुकाम जले बिज मंदर मुछि मुछि कुइर रुलाइआ ॥ कोई मुगलु न होआ अंधा किनै न परचा लाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटी हू = करोड़ों ही, अनेक। वरजि = रोक के। मीरु = मीर बाबर। धाइआ = हल्ला करके आ रहा है। बिज = पक्के। मुछि मुछि = टुकड़े कर कर के। कुइर = कुमार, शहजादे। परचा लाइआ = करामात दिखाई।4।
अर्थ: जब पठान हाकिमों ने सुना कि मीर बाबर हमला करके (धावा बोल के) आ रहा है, तो उन्होंने अनेक पीरों को (जादू-टूणे करने के लिए) रोक के रखा। (पर उनकी तसब्बियां फिरने पर भी, उनके जादू-टूणे की शक्ति प्रदर्शन के बावजूद भी कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि मुगलों द्वारा लगाई जा रही आग से) पक्के जगह-मुकाम, पक्के महल तक जल कर राख हो गए। उन्होंने (मुगलों ने) पठानों के शहजादों को टुकड़े-टुकड़े कर कर के (मिट्टी में) मिला दिया। (पीरों के जादू-टूणों से) कोई एक भी मुग़ल अंधा नहीं हुआ, किसी भी पीर से कोई करामात ना हो सकी।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुगल पठाणा भई लड़ाई रण महि तेग वगाई ॥ ओन्ही तुपक ताणि चलाई ओन्ही हसति चिड़ाई ॥ जिन्ह की चीरी दरगह पाटी तिन्हा मरणा भाई ॥५॥

मूलम्

मुगल पठाणा भई लड़ाई रण महि तेग वगाई ॥ ओन्ही तुपक ताणि चलाई ओन्ही हसति चिड़ाई ॥ जिन्ह की चीरी दरगह पाटी तिन्हा मरणा भाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रण = जंग। वगाई = चलाई। ओनी = मुगलों ने। तुपक = बंदूकें। ताणि = देख देख के, निशाना बाँध-बाँध के। हसति = हाथों में (ही)। चिड़ाई = चिड़ चिड़ कर गईं। चीरी = खत, चिट्ठी (मौत की खबर भेजने के वक्त खत का एक कोना थोड़ा सा फाड़ दिया करते हैं)। भाई = हे भाई!।5।
अर्थ: जब मुग़लों और पठानों की लड़ाई हुई, लड़ाई के मैदान में (दोनों पक्षों ने) तलवार चलाई। उन मुग़लों ने बंदूकों के निशाने साधु-साधु के गोलियां चलाई, पर पठानों के हाथों में ही चिड़ चिड़ कर गई। पर हे भाई! धुर से ही जिनकी उम्र की चिट्ठी फट जाती है, उन्होंने तो मरना ही हुआ।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इक हिंदवाणी अवर तुरकाणी भटिआणी ठकुराणी ॥ इकन्हा पेरण सिर खुर पाटे इकन्हा वासु मसाणी ॥ जिन्ह के बंके घरी न आइआ तिन्ह किउ रैणि विहाणी ॥६॥

मूलम्

इक हिंदवाणी अवर तुरकाणी भटिआणी ठकुराणी ॥ इकन्हा पेरण सिर खुर पाटे इकन्हा वासु मसाणी ॥ जिन्ह के बंके घरी न आइआ तिन्ह किउ रैणि विहाणी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवर = और। भटिआणी ठकुराणी = भट्टों व ठाकुरों की औरतें (भट्ट और ठाकुर राजपूत बिरादरियां हैं)। पेरण = बुरके। सिर खुर = सिर से पैरों तक। मसाणी = मसाणों में। बंके = बाँके (पति)। रैणि = रात।6।
अर्थ: क्या हिन्दू-स्त्रीयां, क्या मुसलमान औरतें और क्या भट्टों व ठाकुरों की औरतें- कईयों के बुरके सिर से ले के पैरों तक लीरो-लीर हो गए, और कईयों का (मर के) मसाणों में जा वासा हुआ। (जो बच रहीं, वो भी बेचारी क्या बचीं?) जिनके सोहणे पति घर वापस ही ना आए, उन्होंने (वह बिपता भरी) रात कैसे काटी होगी?।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करे कराए करता किस नो आखि सुणाईऐ ॥ दुखु सुखु तेरै भाणै होवै किस थै जाइ रूआईऐ ॥ हुकमी हुकमि चलाए विगसै नानक लिखिआ पाईऐ ॥७॥१२॥

मूलम्

आपे करे कराए करता किस नो आखि सुणाईऐ ॥ दुखु सुखु तेरै भाणै होवै किस थै जाइ रूआईऐ ॥ हुकमी हुकमि चलाए विगसै नानक लिखिआ पाईऐ ॥७॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखि = कह के। भाणै = रजा में। किस थै = किस के पास। जाइ = जा के। रूआइ = शिकायत की जाए, रोया जाए। हुकमि = अपने हुक्म में। बिगसै = खुश होता है।7।
अर्थ: पर, ये दर्द भरी कहानी किसे कह के सुनाई जाए? ईश्वर स्वयं ही सब कुछ करता है और जीवों से कराता है।
हे कर्तार! दुख हो चाहे सुख हो तेरी रजा में ही घटित होता है। तेरे बिना और किस के पास जा के दुख फरोलें? हे नानक! रजा का मालिक प्रभु अपनी रजा में ही जगत की कार चला रहा है और (देख देख के) संतुष्ट हो रहा है। (अपने-अपने किए कर्मों के मुताबिक) लिखे लेख भोगते हैं।7।12।