११ गुरु तेघ-बहादुर

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला ९ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरथा कहउ कउन सिउ मन की ॥ लोभि ग्रसिओ दस हू दिस धावत आसा लागिओ धन की ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिरथा कहउ कउन सिउ मन की ॥ लोभि ग्रसिओ दस हू दिस धावत आसा लागिओ धन की ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरथा = पीड़ा, दुख, बुरी हालत, व्यथा। कहउ = कहूँ, मैं बताऊँ। कउन सिउ = किस को? लोभि = लोभ में। ग्रसिओ = फसा हुआ। दिस = दिशा। आसा = तमन्ना, तृष्णा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं इस (मानव) मन की बुरी हालत किसे बताऊँ? (हरेक मनुष्य का यही हाल है), लोभ में फसा हुआ ये मन दसों दिशाओं में दौड़ता है, इसे धन जोड़ने की तृष्णा लगी रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख कै हेति बहुतु दुखु पावत सेव करत जन जन की ॥ दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत नह सुध राम भजन की ॥१॥

मूलम्

सुख कै हेति बहुतु दुखु पावत सेव करत जन जन की ॥ दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत नह सुध राम भजन की ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हेति = वास्ते। सेव = सेवा, खुशामद। जन जन की = हरेक जन की, जगह-जगह की। दुआरहि दुआरि = हरेक दरवाजे पर। सुआन = कुक्ता। सुधि = सूझ।1।
अर्थ: (हे भाई!) सुख हासिल करने के लिए (ये मन) जगह-जगह की खुशामद करता फिरता है (और इस तरह सुख की जगह बल्कि) दुख सहता है। कुत्ते की तरह हरेक के दर पर भटकता फिरता है, इसे परमात्मा का भजन करने की कभी नहीं सूझती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानस जनम अकारथ खोवत लाज न लोक हसन की ॥ नानक हरि जसु किउ नही गावत कुमति बिनासै तन की ॥२॥१॥२३३॥

मूलम्

मानस जनम अकारथ खोवत लाज न लोक हसन की ॥ नानक हरि जसु किउ नही गावत कुमति बिनासै तन की ॥२॥१॥२३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकारथ = व्यर्थ। खोवत = गवाता है। लाज = शर्म। हसन की = हँसी मजाक की। नानक = हे नानक! जसु = महिमा, यश। कुमति = खोटी मति। तन की = शरीर की।2।
अर्थ: (हे भाई! लोभ में फसा हुआ जीव) अपना मानव जनम व्यर्थ ही गवा लेता है, (इसके लालच के कारण) लोगों द्वारा किए जा रहे हँसी-मजाक से भी इसे शर्म नहीं आती।
हे नानक! (कह: हे जीव!) तू परमात्मा की महिमा क्यूँ नही करता? (महिमा की इनायत से ही) तेरी ये खोटी मति दूर हो सकेगी।2।1।233।