विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा घरु ८ काफी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा घरु ८ काफी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै बंदा बै खरीदु सचु साहिबु मेरा ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा सभु किछु है तेरा ॥१॥
मूलम्
मै बंदा बै खरीदु सचु साहिबु मेरा ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा सभु किछु है तेरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदा = गुलाम। बै खरीद = मूल्य दे के खरीदा हुआ। सचु = सदा कायम रहने वाला। साहिबु = मालिक। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘का’ संबंधक के कारण गायब है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक सदा कायम रहने वाला है, मैं उसका मूल्य खरीदा ग़ुलाम हूँ। मेरी ये जिंद, मेरा ये शरीर सब कुछ उस मालिक प्रभु का ही दिया हुआ है।
हे प्रभु! मेरे पास जो कुछ भी है सब तेरा ही बख्शा हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माणु निमाणे तूं धणी तेरा भरवासा ॥ बिनु साचे अन टेक है सो जाणहु काचा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माणु निमाणे तूं धणी तेरा भरवासा ॥ बिनु साचे अन टेक है सो जाणहु काचा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धणी = मालिक। अन = अन्य। काचा = कच्चे जीवन वाला कमजोर जीवन वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मुझ निमाणे का तू ही माण है, मुझे तेरा ही भरोसा है। (हे भाई! जिस मनुष्य को) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के बिना कोई और झाक टिकी रहे, तो समझो कि वह अभी कमजोर जीवन वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा हुकमु अपार है कोई अंतु न पाए ॥ जिसु गुरु पूरा भेटसी सो चलै रजाए ॥२॥
मूलम्
तेरा हुकमु अपार है कोई अंतु न पाए ॥ जिसु गुरु पूरा भेटसी सो चलै रजाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपार = जिसका दूसरा छोरना मिल सके, बेअंत। भेटसी = मिलेगा, मिलता है। रजाए = रजा में।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा हुक्म बेअंत है, कोई जीव तेरे हुक्म का अंत नहीं पा सकता, (तेरी मेहर से) जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह तेरे हुक्म में चलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुराई सिआणपा कितै कामि न आईऐ ॥ तुठा साहिबु जो देवै सोई सुखु पाईऐ ॥३॥
मूलम्
चतुराई सिआणपा कितै कामि न आईऐ ॥ तुठा साहिबु जो देवै सोई सुखु पाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितै कामि = किसी काम में। तुठा = प्रसन्न हुआ।3।
अर्थ: (हे भाई! सुखों की खातिर मनुष्य अनेक) चतुराईआं और समझदारियां (करता है, पर कोई समझदारी, कोई चतुराई) किसी काम नहीं आती; वही सुख प्राप्त किया जा सकता है जो सुख मालिक प्रभु खुद प्रसन्न हो के देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे लख करम कमाईअहि किछु पवै न बंधा ॥ जन नानक कीता नामु धर होरु छोडिआ धंधा ॥४॥१॥१०३॥
मूलम्
जे लख करम कमाईअहि किछु पवै न बंधा ॥ जन नानक कीता नामु धर होरु छोडिआ धंधा ॥४॥१॥१०३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कमाईअहि = कमाए जाएं। करम = निहित धार्मिक कर्म। बंधा = बंधन, रोक। धर = आसरा।4।
अर्थ: (हे भाई! दुनियां में सुख-दुखों का चक्कर चलता रहता है, दुखों की निर्वित्ती के वास्ते) अगर लाखों ही (निहित धार्मिक) कर्म किए जाएं तो भी (दुखों की राह में) कोई रोक नहीं पड़ सकती। हे दास नानक! (कह:) मैंने तो परमात्मा के नाम को ही आसरा बनाया है, और (सुखों की खातिर) और दौड़-भाग छोड़ दी है।4।1।103।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आसा घरु ८ काफी; यहाँ से उन शबदों का संग्रह आरम्भ होता है जो आठवें घर में गाए गए हैं, और, काफी एक रागिनी का नाम है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सरब सुखा मै भालिआ हरि जेवडु न कोई ॥ गुर तुठे ते पाईऐ सचु साहिबु सोई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सरब सुखा मै भालिआ हरि जेवडु न कोई ॥ गुर तुठे ते पाईऐ सचु साहिबु सोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब सुखा = सारे सुखों को। हरि जेवडु = हरि मिलाप जितना सुख। तुठा = प्रसन्न हुआ हुआ। ते = से। सचु = सदा कायम रहने वाला।1।
अर्थ: (हे भाई!) मैंने (दुनिया के) सारे सुखों को खोज के देखा है परमात्मा के मिलाप के बराबर का और कोई सुख नहीं है। और, वह सदा कायम रहने वाला मालिक-परमात्मा प्रसन्न हुए गुरु के द्वारा ही मिल सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिहारी गुर आपणे सद सद कुरबाना ॥ नामु न विसरउ इकु खिनु चसा इहु कीजै दाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बलिहारी गुर आपणे सद सद कुरबाना ॥ नामु न विसरउ इकु खिनु चसा इहु कीजै दाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारी = सदके। न विसरउ = मैं ना भुलाऊूं। चसा = पल का तीसरा हिस्सा, बहुत थोड़ा समय।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने गुरु से सदा सदके होता हूँ सदा कुर्बान जाता हूँ (मैं गुरु के पास अरजोई करता हूँ-हे गुरु!) मुझे ये दान दे कि मैं परमात्मा का नाम एक छिन वास्ते भी एक पल वास्ते भी ना भुलाऊँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भागठु सचा सोइ है जिसु हरि धनु अंतरि ॥ सो छूटै महा जाल ते जिसु गुर सबदु निरंतरि ॥२॥
मूलम्
भागठु सचा सोइ है जिसु हरि धनु अंतरि ॥ सो छूटै महा जाल ते जिसु गुर सबदु निरंतरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भागठु = भाग्यों वाले, धनाड। जिसु अंतरि = जिस के हृदय में। छुटै = बचता है। जिस निरंतरि = जिसके अंदर सदा ही।2।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम-धन बसता हो वही (असल) शाहूकार है, जिस मनुष्य के अंदर गुरु का शब्द एक-रस टिका रहे वह मनुष्य (माया के मोह के) बड़े जाल (में फंसने) से बचा रहता है।2।
[[0397]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की महिमा किआ कहा गुरु बिबेक सत सरु ॥ ओहु आदि जुगादी जुगह जुगु पूरा परमेसरु ॥३॥
मूलम्
गुर की महिमा किआ कहा गुरु बिबेक सत सरु ॥ ओहु आदि जुगादी जुगह जुगु पूरा परमेसरु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। कहा = कहूँ, मैं कहूँ। बिबेक सतसरु = बिबेकसर सतसर, विवेक का सरोवर, सत्य का सरोवर। बिबेक = अच्छे बुरे की परख। सत = उच्च आचरण। ओह = वह गुरु।3।
अर्थ: हे भाई! मैं ये बताने योग्य नहीं हूँ कि गुरु कितना बड़ा (कितना महान, कितनी उच्च आत्मा) है, गुरु विवेक का सरोवर है गुरु उच्च आचरण का सरोवर है, गुरु उस पूरन परमेश्वर (का रूप) है जो सबका आदि है जो जुगों के आदि से है जो हरेक युग में मौजूद है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु धिआवहु सद सदा हरि हरि मनु रंगे ॥ जीउ प्राण धनु गुरू है नानक कै संगे ॥४॥२॥१०४॥
मूलम्
नामु धिआवहु सद सदा हरि हरि मनु रंगे ॥ जीउ प्राण धनु गुरू है नानक कै संगे ॥४॥२॥१०४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगे = रंगि, प्रेम से। संगे = साथ, अंग संग।4।
अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण करते रहो, अपने मन को परमात्मा के प्रेम रंग से रंगे रखो (ये नाम मिलना गुरु से ही है, वह गुरु) मुझ नानक के अंग-संग बसता है, गुरु ही मेरी जिंद है गुरु ही मेरे प्राण हैं, गुरु ही मेरा धन है।4।2।104।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ साई अलखु अपारु भोरी मनि वसै ॥ दूखु दरदु रोगु माइ मैडा हभु नसै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ साई अलखु अपारु भोरी मनि वसै ॥ दूखु दरदु रोगु माइ मैडा हभु नसै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साई = साई। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अपारु = बेअंत। भोरी = थोड़ा सा समय भी। मनि = मन में। माइ = हे माँ! मेडा = मेरा। हभु = सारा।1।
अर्थ: हे माँ! जबवह बेअंत अलख पति-प्रभु थोड़े से समय के लिए भी मेरे मन में आ बसता है मेरा हरेक दुख-दर्द, मेरा हरेक रोग सब दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ वंञा कुरबाणु साई आपणे ॥ होवै अनदु घणा मनि तनि जापणे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ वंञा कुरबाणु साई आपणे ॥ होवै अनदु घणा मनि तनि जापणे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। वंञा = जाती हूँ। घणा = बहुत। मनि = मन में। तनि = तन में। जापणे = जपने से।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! मैं अपने पति-प्रभु से कुर्बान जाती हूँ, उसका नाम जपने से मेरे मन में मेरे हृदय में आनंद पैदा हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिंदक गाल्हि सुणी सचे तिसु धणी ॥ सूखी हूं सुखु पाइ माइ न कीम गणी ॥२॥
मूलम्
बिंदक गाल्हि सुणी सचे तिसु धणी ॥ सूखी हूं सुखु पाइ माइ न कीम गणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंदक = थोड़ी जितनी ही। गाल्हि = बात, महिमा। तिसु धणी = उस मालिक की। सूखी हूँ सुख = सब से श्रेष्ठ सुख। माइ = हे माँ! कीम = कीमत, मूल्य। न गणी = मैं बयान नहीं कर सकती।2।
अर्थ: हे माँ! जब उस सदा कायम रहने वाले मालिक-प्रभु की मैं थोड़ी जितनी भी महिमा सुनती हूँ तो मैं इतना ऊँचा सुख अनुभव करती हूँ कि मैं उसका मूल्य नहीं बता सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैण पसंदो सोइ पेखि मुसताक भई ॥ मै निरगुणि मेरी माइ आपि लड़ि लाइ लई ॥३॥
मूलम्
नैण पसंदो सोइ पेखि मुसताक भई ॥ मै निरगुणि मेरी माइ आपि लड़ि लाइ लई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैण पसंदो = आँखों को अच्छा लगने वाला। पेखि = देख के। मुसताक = आशिक, मोहित। मै निरगुण = मुझ गुणहीन को। माइ = हे माँ! लड़ि = पल्ले से।3।
अर्थ: हे मेरी माँ! मेरा वह साई मेरी आँखों को प्यारा लगता है उसे देख के मैं मस्त हो जाती हूँ। हे माँ! मेरे में कोई गुण नहीं, फिर भी उसने स्वयं ही अपने पल्ले से लगा रखा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद कतेब संसार हभा हूं बाहरा ॥ नानक का पातिसाहु दिसै जाहरा ॥४॥३॥१०५॥
मूलम्
बेद कतेब संसार हभा हूं बाहरा ॥ नानक का पातिसाहु दिसै जाहरा ॥४॥३॥१०५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेद कतेब = हिन्दू मुसलमान आदि सभी की धार्मिक पुस्तकें। हभा हूँ = सब से। जाहरा = प्रत्यक्ष, हर जगह बसता।4।
अर्थ: (हे माँ! वह मेरा बादशाह निरा संसार में ही नहीं बस रहा वह तो) इस दिखते संसार से बाहर भी हर जगह है, बेद-कतेब आदि कोई धर्म-पुस्तक उसका स्वरूप बयान नहीं कर सकते। (वैसे, हे माँ!) मुझ नानक का बादशाह हर जगह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है।4।3।105।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ लाख भगत आराधहि जपते पीउ पीउ ॥ कवन जुगति मेलावउ निरगुण बिखई जीउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ लाख भगत आराधहि जपते पीउ पीउ ॥ कवन जुगति मेलावउ निरगुण बिखई जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आराधहि = जपते हैं। पीउ = प्यारा। जुगति = तरीका। मेलावउ = मिलूँ। बिखई = विकारी। जीउ = जीव।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे लाखों ही भक्त तुझे ‘प्यारा प्यारा’ कह के तेरा नाम जपते हैं तेरी आरधना करते हैं (उनके सामने मैं तो) गुणहीन विकारी जीव हूँ, (हे प्रभु!) मैं तुझे किस तरीके से मिलू?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी टेक गोविंद गुपाल दइआल प्रभ ॥ तूं सभना के नाथ तेरी स्रिसटि सभ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरी टेक गोविंद गुपाल दइआल प्रभ ॥ तूं सभना के नाथ तेरी स्रिसटि सभ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोविंद = हे गोविंद! प्रभ = हे प्रभु! नाथ = पति।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोविंद! हे गोपाल! हे दयालु प्रभु! मुझे तेरा ही आसरा है। तू सब जीवों का पति है, सारी सृष्टि तेरी ही पैदा की हुई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सहाई संत पेखहि सदा हजूरि ॥ नाम बिहूनड़िआ से मरन्हि विसूरि विसूरि ॥२॥
मूलम्
सदा सहाई संत पेखहि सदा हजूरि ॥ नाम बिहूनड़िआ से मरन्हि विसूरि विसूरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहाई संत = संतों की सहायता करने वाला। पेखहि = संत देखते हैं। हजूरि = अंग-संग बसता है। बिहूनड़िआ = बगैर, के बिना। मरन्हि = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। विसूरि = झुर के।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू अपने संतों की सहायता करने वाला है तेरे संत तुझे सदा अपने अंग-संग बसता देखते हैं, पर जो (भाग्यहीन तेरे) नाम से वंचित रहते हैं वह (विकारों में ही) झुर-झुर के आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दास दासतण भाइ मिटिआ तिना गउणु ॥ विसरिआ जिन्हा नामु तिनाड़ा हालु कउणु ॥३॥
मूलम्
दास दासतण भाइ मिटिआ तिना गउणु ॥ विसरिआ जिन्हा नामु तिनाड़ा हालु कउणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाइ = भाव में (रह कर)। दासतण = दास पन। दास दासतण भाइ = परमात्मा के दासों का दास होने के भाव से। गउणु = भटकना, जनम मरन का चक्कर। तिनाड़ा = उनका। हालु कउणु = कौन सा हाल? वह हाल जो बयान नहीं किया जा सकता, बुरा हाल।3।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे दासों के दास होने के भाव में टिके रहते हैं उनका जन्म-मरण का चक्कर खत्म हो जाता है, पर जिस (दुर्भाग्यपूर्ण व्यक्तियों) को तेरा नाम भूला रहता है उनका हाल बुरा ही बना रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे पसु हर्हिआउ तैसा संसारु सभ ॥ नानक बंधन काटि मिलावहु आपि प्रभ ॥४॥४॥१०६॥
मूलम्
जैसे पसु हर्हिआउ तैसा संसारु सभ ॥ नानक बंधन काटि मिलावहु आपि प्रभ ॥४॥४॥१०६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पसु = पशू। हर्हिआउ = खुला रह के हरी खेतियां चुगने वाला। काटि = काट के।4।
अर्थ: (हे भाई!) जैसे खुला रह के हरि खेती चरने वाला कोई पशु (अवारा भटकता फिरता) है वैसे ही सारा जगत (विकारों के पीछे भटक रहा है)।
हे नानक! (कह:) हे प्रभु! (मेरे विकारों वाले) बंधन काट के मुझे तू अपने चरणों में जोड़े रख।4।4।106।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हभे थोक विसारि हिको खिआलु करि ॥ झूठा लाहि गुमानु मनु तनु अरपि धरि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हभे थोक विसारि हिको खिआलु करि ॥ झूठा लाहि गुमानु मनु तनु अरपि धरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हभे = सारे। थोक = पदार्थ। हिको खिआलु = एक परमात्मा का ध्यान। लाहि = दूर करके। गुमानु = अहंकार। अरपि = भेटा करके।1।
अर्थ: हे भाई! सारे (सांसारिक) पदार्थों (का मोह) भुला के सिर्फ एक परमात्मा का ध्यान धर (दुनिया की मल्कियतों का) झूठा गुमान (अपने मन में से) दूर कर दे, अपना मन (परमात्मा के आगे) भेटा कर दे, अपना हृदय (प्रभु चरणों में) भेट कर दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आठ पहर सालाहि सिरजनहार तूं ॥ जीवां तेरी दाति किरपा करहु मूं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आठ पहर सालाहि सिरजनहार तूं ॥ जीवां तेरी दाति किरपा करहु मूं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालाहि = महिमा करके। सिरजनहार = हे विधाता! तूं = तुझे। जीवां = मैं जी पड़ता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। मूं = मुझे, मेरे पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे विधाता प्रभु! आठों पहर तुझे सालाह के (तेरी महिमा करके) मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। मेरे पर मेहर करके मुझे (तेरी महिमा की) दाति मिल जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई कमु कमाइ जितु मुखु उजला ॥ सोई लगै सचि जिसु तूं देहि अला ॥२॥
मूलम्
सोई कमु कमाइ जितु मुखु उजला ॥ सोई लगै सचि जिसु तूं देहि अला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कमाइ = कर। जितु = जिस (काम) से। उजला = रौशन। सोई = वही मनुष्य। सचि = सदा कायम रहने वाले में। तूं देहि = तू देता है। अला = हे अल्ला! हे प्रभु!।2।
अर्थ: हे भाई! वही काम करा कर जिस काम से (लोक-परलोक में) तेरा मुंह रौशन रहे। (पर,) हे प्रभु! तेरे सदा कायम रहने वाले नाम में वही मनुष्य जुड़ता है जिसको तू स्वयं ये दाति देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो न ढहंदो मूलि सो घरु रासि करि ॥ हिको चिति वसाइ कदे न जाइ मरि ॥३॥
मूलम्
जो न ढहंदो मूलि सो घरु रासि करि ॥ हिको चिति वसाइ कदे न जाइ मरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढहंदो = नाश होता। मूलि = बिल्कुल। रासि करि = ठीक कर। हिको = एक परमात्मा को ही।3।
अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन की रचना वाले) उस (हृदय-) घर को सुंदर बना जो फिर कभी गिर नहीं सकता। हे भाई! एक परमात्मा को ही अपने चित्त में बसाए रख वह परमात्मा कभी भी नहीं मरता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन्हा पिआरा रामु जो प्रभ भाणिआ ॥ गुर परसादि अकथु नानकि वखाणिआ ॥४॥५॥१०७॥
मूलम्
तिन्हा पिआरा रामु जो प्रभ भाणिआ ॥ गुर परसादि अकथु नानकि वखाणिआ ॥४॥५॥१०७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ भाणिआ = प्रभु को प्यारे लगते हैं। परसादि = किरपा से। अकथु = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। नानकि = नानक ने।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा को अच्छे लगने लगते हैं उनको परमात्मा प्यारा लगने लग पड़ता है (पर, ये गुरु की मेहर से ही होता है), नानक ने गुरु की कृपा से ही उस बेअंत गुणों के मालिक प्रभु की महिमा करनी शुरू की हुई है।4।5।107।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जिन्हा न विसरै नामु से किनेहिआ ॥ भेदु न जाणहु मूलि सांई जेहिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जिन्हा न विसरै नामु से किनेहिआ ॥ भेदु न जाणहु मूलि सांई जेहिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = वह लोग। किनेहिआ = कैसे? भेदु = फर्क। मूलि = बिल्कुल। सांई = पति प्रभु।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों को कभी भी परमात्मा का नाम नहीं भूलता (क्या तुम्हें पता है कि) वे कैसे होते हैं? (उनमें और पति-प्रभु में) रत्ती भी फर्क ना समझो, वे पति-प्रभु जैसे हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु तनु होइ निहालु तुम्ह संगि भेटिआ ॥ सुखु पाइआ जन परसादि दुखु सभु मेटिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मनु तनु होइ निहालु तुम्ह संगि भेटिआ ॥ सुखु पाइआ जन परसादि दुखु सभु मेटिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहालु = प्रसन्न। तुम्ह संगि = तेरे साथ (हे प्रभु!)। भेटिआ = संगति करने से। जन परसादि = (तेरे) सेवक की कृपा से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्यों ने तेरे साथ संगति की उनका मन प्रसन्न रहता है, उन्होंने (तेरे) सेवक (-गुरु) की कृपा से आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है और अपना सारा दुख मिटा लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते खंड ब्रहमंड उधारे तिंन्ह खे ॥ जिन्ह मनि वुठा आपि पूरे भगत से ॥२॥
मूलम्
जेते खंड ब्रहमंड उधारे तिंन्ह खे ॥ जिन्ह मनि वुठा आपि पूरे भगत से ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने भी हैं, सारे। खंड = सृष्टि के हिस्से। उधारे = (संसार समुंदर से) बचा लिए। तिंन्ह खे = उनके। मनि = मन में। वुठा = आ बसा। से = वह लोग।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा आप आ बसता है वे पूरी तौर पर भक्त बन जाते हैं, उनके सारे खंड-ब्रहमण्डों को भी (संसार-समुंदर से) बचा लेने की सामर्थ्य प्राप्त कर ली होती है।2।
[[0398]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो मंने आपि सोई मानीऐ ॥ प्रगट पुरखु परवाणु सभ ठाई जानीऐ ॥३॥
मूलम्
जिस नो मंने आपि सोई मानीऐ ॥ प्रगट पुरखु परवाणु सभ ठाई जानीऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंने = आदर देता है। सोई = वही मनुष्य। मानीऐ = माना जाता है, (हर जगह) आदर पाता है। जानीऐ = जाना जाता है, मशहूर हो जाता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं आदर देता है वह (हर जगह) आदर पाता है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) सब जगह प्रसिद्ध हो जाता है। वह मशहूर हो चुका हर जगह जाना-माना जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनसु रैणि आराधि सम्हाले साह साह ॥ नानक की लोचा पूरि सचे पातिसाह ॥४॥६॥१०८॥
मूलम्
दिनसु रैणि आराधि सम्हाले साह साह ॥ नानक की लोचा पूरि सचे पातिसाह ॥४॥६॥१०८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रात। आराधि = आराधना करके। समाले = हृदय में बसाए रखे। लोचा = तमन्ना। पूरि = पूरी कर। सचे = हे सदा स्थिर रहने वाले!।4।
अर्थ: हे (मेरे) सदा कायम रहने वाले पातशाह! (मेरी) नानक की ये तमन्ना पूरी कर (कि नानक) दिन-रात तेरी आराधना करके तुझे स्वास-स्वास (अपने) हृदय में बसाए रखे।4।6।108।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ पूरि रहिआ स्रब ठाइ हमारा खसमु सोइ ॥ एकु साहिबु सिरि छतु दूजा नाहि कोइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ पूरि रहिआ स्रब ठाइ हमारा खसमु सोइ ॥ एकु साहिबु सिरि छतु दूजा नाहि कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। स्रब ठाइ = सब जगह में। सोइ = वह (परमात्मा)। सिरि = सिर पे। छत्रु = छत्र।1।
अर्थ: (हे भाई!) हमारा वह खसम-सांई हरेक जगह व्यापक है, (सब जीवों का वह) एक ही मालिक है (सारी सृष्टि की बादशाहियत का) छत्र (उसके) सिर पर है, उसके बराबर और कोई नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ भावै तिउ राखु राखणहारिआ ॥ तुझ बिनु अवरु न कोइ नदरि निहारिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिउ भावै तिउ राखु राखणहारिआ ॥ तुझ बिनु अवरु न कोइ नदरि निहारिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखणहारिआ = हे रक्षा करने की सामर्थ्य रखने वाले! नदरि = निगाह। निहालिआ = देखा।1। रहाउ।
अर्थ: हे सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ प्रभु! जैसे तुझे ठीक लगे, उसी तरह मेरी रक्षा कर। मैंने तेरे बिना अभी तक कोई अपनी आँखो से नहीं देखा जो तेरे जैसा हो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिपाले प्रभु आपि घटि घटि सारीऐ ॥ जिसु मनि वुठा आपि तिसु न विसारीऐ ॥२॥
मूलम्
प्रतिपाले प्रभु आपि घटि घटि सारीऐ ॥ जिसु मनि वुठा आपि तिसु न विसारीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रतिपाले = पालना करता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। सारीऐ = सारे, सार लेता है। मनि = मन में। वुठा = आ बसा। विसारीऐ = बिसारता है, भुलाता।2।
अर्थ: (हे भाई!) हरेक शरीर में बैठा प्रभु हरेक की सार लेता है, हरेक की पालना करता है। जिस मनुष्य के मन में वह प्रभु स्वयं बसता है, उसे कभी फिर भुलाता नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करे सु आपि आपण भाणिआ ॥ भगता का सहाई जुगि जुगि जाणिआ ॥३॥
मूलम्
जो किछु करे सु आपि आपण भाणिआ ॥ भगता का सहाई जुगि जुगि जाणिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपण भाणा = अपनी रजा अनुसार। सहाई = मददगार। जुगि जुगि = हरेक युग में।3।
अर्थ: (हे भाई! जगत में) जो कुछ कर रहा है परमात्मा स्वयं ही अपनी रजा अनुसार कर रहा है, (जगत में) ये बात प्रसिद्ध है कि हरेक युग में परमात्मा अपने भक्तों की सहायता करता आ रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि जपि हरि का नामु कदे न झूरीऐ ॥ नानक दरस पिआस लोचा पूरीऐ ॥४॥७॥१०९॥
मूलम्
जपि जपि हरि का नामु कदे न झूरीऐ ॥ नानक दरस पिआस लोचा पूरीऐ ॥४॥७॥१०९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जप के। न झूरीऐ = चिन्ता फिक्र नहीं करते। लोचा = चाहत। पूरीऐ = पूरी कर।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जप-जप के फिर कभी किसी किस्म की कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती। (हे प्रभु! तेरे दास) नानक को तेरे दर्शन की प्यास है (नानक की ये) चाहत पूरी कर।4।7।109।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ किआ सोवहि नामु विसारि गाफल गहिलिआ ॥ कितीं इतु दरीआइ वंञन्हि वहदिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ किआ सोवहि नामु विसारि गाफल गहिलिआ ॥ कितीं इतु दरीआइ वंञन्हि वहदिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ सोवहि = तू क्यों सो रहा है? विसारि = भुला के। गाफल = हे गाफल! गहिलिआ = हे गहिले! हे बेपरवाह! कितीं = कितने ही, अनेक जीव। इतु = इस में। दरीआइ = (संसार) दरिया में। वंञन्हि = जा रहे हैं। वहदिया = बहते हुए।1।
अर्थ: हे गाफ़ल मन! हे बेपरवाह मन! परमात्मा का नाम भुला के क्यूँ (माया के मोह की नींद में) सो रहा है? (देख, नाम बिसार के) अनेक ही जीव इस (संसार-) नदी में बहते जा रहे हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोहिथड़ा हरि चरण मन चड़ि लंघीऐ ॥ आठ पहर गुण गाइ साधू संगीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बोहिथड़ा हरि चरण मन चड़ि लंघीऐ ॥ आठ पहर गुण गाइ साधू संगीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोहिथड़ा = सोहना जहाज। मन = हे मन! चढ़ि = चढ़ के। साधू संगीऐ = गुरु की संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के चरण एक सुंदर सा जहाज हैं; (इस जहाज में) चढ़ के (संसार समुंदर से पार) लांघ जाते हैं (इस वास्ते, हे मन!) गुरु की संगति में रहके आठों पहर प्रमात्मा के गुण गाता रहा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोगहि भोग अनेक विणु नावै सुंञिआ ॥ हरि की भगति बिना मरि मरि रुंनिआ ॥२॥
मूलम्
भोगहि भोग अनेक विणु नावै सुंञिआ ॥ हरि की भगति बिना मरि मरि रुंनिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भोगहि = (जीव) भोगते हैं। सुंञिआ = सूने, आत्मिक जीवन से खाली। मरि मरि = आत्मिक मौत सहेड़ के। रुंनिआ = दुखी होते हैं।2।
अर्थ: (हे मन! मोह की नींद में सोए हुए जीव दुनिया के) अनेक भोग भोगते रहते हैं, पर परमात्मा के नाम के बिना आत्मिक जीवन से खाली ही रह जाते हैं। परमात्मा की भक्ति के बिना (ऐसे जीव) सदा आत्मिक मौत पा पा के दुखी होते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपड़ भोग सुगंध तनि मरदन मालणा ॥ बिनु सिमरन तनु छारु सरपर चालणा ॥३॥
मूलम्
कपड़ भोग सुगंध तनि मरदन मालणा ॥ बिनु सिमरन तनु छारु सरपर चालणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनि = शरीर पर। मरदन = वटना आदि। मालणा = मलते हैं। छारु = राख, मिट्टी। सरपर = जरूर।3।
अर्थ: (हे मन!) देख, जीव (सुंदर-सुंदर) कपड़े पहनते हैं, स्वादिष्ट पदार्थ खाते हैं, शरीर पर सुगंधि वाले वटने आदि मलते हैं, पर परमात्मा के नाम-स्मरण के बिना उनका ये शरीर राख (के समान ही रहता) है, इस शरीर ने तो आखिर जरुर नाश हो जाना है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा बिखमु संसारु विरलै पेखिआ ॥ छूटनु हरि की सरणि लेखु नानक लेखिआ ॥४॥८॥११०॥
मूलम्
महा बिखमु संसारु विरलै पेखिआ ॥ छूटनु हरि की सरणि लेखु नानक लेखिआ ॥४॥८॥११०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखमु = बिखड़ा, मुश्किल। विरले = किसी विरले मनुष्य ने। छूटनु = (इस विषम संसार से) निजात।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) किसी विरले (भाग्यशाली) ने देखा है कि यह संसार- (समंद्र) बड़ा भयानक है, परमात्मा की शरण पड़ने पर ही इस में से बचाव होता है। (वही बचता है जिसके माथे पर प्रभु-नाम के स्मरण का) लेख लिखा हुआ है।4।8।110।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ कोइ न किस ही संगि काहे गरबीऐ ॥ एकु नामु आधारु भउजलु तरबीऐ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ कोइ न किस ही संगि काहे गरबीऐ ॥ एकु नामु आधारु भउजलु तरबीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किस ही संगि = किसी के भी साथ। गरबीऐ = गर्व करें। आधारु = आसरा। भउजलु = संसार समुंदर। तरबीऐ = तैर सकते हैं।1।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) कोई मनुष्य सदा किसी के साथ नहीं निभता (इस वास्ते संबंधी आदि का) का कोई गुमान नहीं करना चाहिए। सिर्फ परमात्मा का नाम ही (असल) आसरा है (नाम के आसरे ही) संसार-समुंदर से पार लांघ सकते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै गरीब सचु टेक तूं मेरे सतिगुर पूरे ॥ देखि तुम्हारा दरसनो मेरा मनु धीरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मै गरीब सचु टेक तूं मेरे सतिगुर पूरे ॥ देखि तुम्हारा दरसनो मेरा मनु धीरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। टेक = आसरा। सतिगुर = हे सतिगुरु! देखि = देख के। धीरे = धैर्य पकड़ता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे पूरे सतिगुरु (प्रभु)! तू सदा कायम रहने वाला है मुझ गरीब का तू ही सहारा है। तेरे दर्शन करके मेरा मन (इस संसार-समुंदर से पार लांघ सकने के लिए) धैर्य पकड़ता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजु मालु जंजालु काजि न कितै गनुो ॥ हरि कीरतनु आधारु निहचलु एहु धनुो ॥२॥
मूलम्
राजु मालु जंजालु काजि न कितै गनुो ॥ हरि कीरतनु आधारु निहचलु एहु धनुो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जंजालु = मोह में फंसाने वाला। काजि कितै = किसी भी काम। गनुो = (असल शब्द ‘गनु’ है, यहां पढ़ना है ‘गनो’) गिनो, पैमायश। आधारु = आसरा। धनुो = (असल शब्द है ‘धनु’, यहां पढ़ना है ‘धनो’)।2।
अर्थ: (हे जिंदे!) दुनिया की पातशाही और धन-पदार्थ मन को मोहे रखते हैं, (इस राज-माल को आखिर) किसी काम आता ना समझ। परमात्मा की महिमा ही जिंद का असल आसरा है, यही सदा कायम रहने वाला धन है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते माइआ रंग तेत पछाविआ ॥ सुख का नामु निधानु गुरमुखि गाविआ ॥३॥
मूलम्
जेते माइआ रंग तेत पछाविआ ॥ सुख का नामु निधानु गुरमुखि गाविआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंग-तमाशे। तेते = वह सारे। पछाविआ = परछावें (की तरह ढल जाने वाले)। सुख निधानु = सुखों का खजाना।3।
अर्थ: (हे जिंदे!) माया के जितने भी रंग-तमाशे हैं, वे सारे परछाई की तरह ढल जाने वाले हैं, परमात्मा का नाम ही सारे सुखों का खजाना है, ये नाम गुरु की शरण पड़ के ही सराहा जा सकता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा गुणी निधानु तूं प्रभ गहिर ग्मभीरे ॥ आस भरोसा खसम का नानक के जीअरे ॥४॥९॥१११॥
मूलम्
सचा गुणी निधानु तूं प्रभ गहिर ग्मभीरे ॥ आस भरोसा खसम का नानक के जीअरे ॥४॥९॥१११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिर = गहिरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। जीअ रे = हे जिंदे! 4।
अर्थ: हे प्रभु! तू गहरा है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू सारे गुणों का खजाना है। हे नानक की जिंदे! इस पति-प्रभु की ही (अंत तक निभने वाले साथ की) आस रख, पति-प्रभु का ही भरोसा रख।4।9।111।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जिसु सिमरत दुखु जाइ सहज सुखु पाईऐ ॥ रैणि दिनसु कर जोड़ि हरि हरि धिआईऐ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जिसु सिमरत दुखु जाइ सहज सुखु पाईऐ ॥ रैणि दिनसु कर जोड़ि हरि हरि धिआईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। रैणि = रात। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का’ में से शब्द ‘जिस’ की मात्रा ‘ु’ संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का स्मरण करने से हरेक दुख दूर हो जाता है और आत्मिक अडोलता का आनंद मिलता है उसके आगे दोनों हाथ जोड़ के सदा उसका ध्यान धरना चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक का प्रभु सोइ जिस का सभु कोइ ॥ सरब रहिआ भरपूरि सचा सचु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नानक का प्रभु सोइ जिस का सभु कोइ ॥ सरब रहिआ भरपूरि सचा सचु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु कोइ = हरेक जीव। सचा = सदा कायम रहने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) नानक का पति-प्रभु वह है जिसका पैदा किया हुआ हरेक जीव है। वह प्रभु सब जीवों में व्यापक है, वह सदा कायम रहने वाला है, सिर्फ वही सदा कायम रहने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि बाहरि संगि सहाई गिआन जोगु ॥ तिसहि अराधि मना बिनासै सगल रोगु ॥२॥
मूलम्
अंतरि बाहरि संगि सहाई गिआन जोगु ॥ तिसहि अराधि मना बिनासै सगल रोगु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। सहाई = सहायता करने वाला। गिआनि जोगु = जाननेयोग्य। आराधि = स्मरण कर। मना = हे मन! सगल = सारा।2।
अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा की आरधना किया कर जो सबके अंदर बस रहा है, जो सारे संसार में बस रहा है, जो सबके साथ रहता है, जो सबकी सहायता करता है, जिससे गहरी जान-पहिचान डालनी बहुत जरूरी है (हे मन! उसका स्मरण करने से) हरेक रोग का नाश हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखनहारु अपारु राखै अगनि माहि ॥ सीतलु हरि हरि नामु सिमरत तपति जाइ ॥३॥
मूलम्
राखनहारु अपारु राखै अगनि माहि ॥ सीतलु हरि हरि नामु सिमरत तपति जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखनहारु = रक्षा करने की सामर्थ्य वाला। माहि = में। सीतलु = ठंड देने वाला।3।
अर्थ: हे भाई! सबकी रक्षा करने की सामर्थ्य वाला बेअंत परमात्मा (माँ के पेट की) आग में (हरेक जीव की) रक्षा करता है, उस परमात्मा का नाम (मन में) ठंड डालने वाला है, उसका नाम स्मरण करने से (मन में से तृष्णा की) तपश बुझ जाती है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सूख सहज आनंद घणा नानक जन धूरा ॥ कारज सगले सिधि भए भेटिआ गुरु पूरा ॥४॥१०॥११२॥
मूलम्
सूख सहज आनंद घणा नानक जन धूरा ॥ कारज सगले सिधि भए भेटिआ गुरु पूरा ॥४॥१०॥११२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घणा = बहुत। जन धूरा = प्रभु के सेवकों की चरण धूल। सिधि = सफलता।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, जो मनुष्य संत-जनों के चरणों की धूल में टिका रहता है उसे आत्मिक अडोलता के बहुत सुख-आनंद प्राप्त हुए रहते हैं।, उसे सारे काम-काजों में सफलता मिलती है।4।10।1112।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ गोबिंदु गुणी निधानु गुरमुखि जाणीऐ ॥ होइ क्रिपालु दइआलु हरि रंगु माणीऐ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ गोबिंदु गुणी निधानु गुरमुखि जाणीऐ ॥ होइ क्रिपालु दइआलु हरि रंगु माणीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुणी निधानु = गुणों का खजाना। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जाणीऐ = जाना जाता है, गहरी सांझ पड़ती है। हरि रंगु = हरि के प्रेम।1।
अर्थ: (हे संत जनो!) परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, गुरु की शरण पड़ के ही उसके साथ गहरी सांझ डाली जा सकती है, अगर वह प्रभु दयावान हो प्रसन्न हो जाए तो उसका प्रेम (-आनंद) पाया जा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवहु संत मिलाह हरि कथा कहाणीआ ॥ अनदिनु सिमरह नामु तजि लाज लोकाणीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आवहु संत मिलाह हरि कथा कहाणीआ ॥ अनदिनु सिमरह नामु तजि लाज लोकाणीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलाह = हम मिलें। अनदिनु = हर रोज। सिमरह = हम स्मरण करें। तजि = त्याग के। लोक = जगत। लोकाई = जगत की।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! आओ, हम इकट्ठे बैठें और परमात्मा की महिमा की बातें करें, लोक-लज्जा छोड़ के हर वक्त उसका नाम स्मरण करते रहें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि जपि जीवा नामु होवै अनदु घणा ॥ मिथिआ मोहु संसारु झूठा विणसणा ॥२॥
मूलम्
जपि जपि जीवा नामु होवै अनदु घणा ॥ मिथिआ मोहु संसारु झूठा विणसणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवा = जीऊँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मेरी जिंदगी को सहारा मिलता है। घणा = बहुत। मिथिआ = झूठ, व्यर्थ। झूठा = सदा कायम रहने वाला।2।
अर्थ: (हे संत जनो!) मैं तो ज्यों-ज्यों (परमातमा का) नाम जपता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है मेरे अंदर बड़ा आनंद पैदा होता है (उस वक्त मुझे प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि) संसार (का मोह) व्यर्थ मोह है, संसार सदा कायम रहने वाला नहीं, संसार तो नाश हो जाने वाला है (इसके मोह में से सुख-आनंद कैसे मिले?)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण कमल संगि नेहु किनै विरलै लाइआ ॥ धंनु सुहावा मुखु जिनि हरि धिआइआ ॥३॥
मूलम्
चरण कमल संगि नेहु किनै विरलै लाइआ ॥ धंनु सुहावा मुखु जिनि हरि धिआइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। नेहु = प्यार। किनै विरलै = किसी विरले मनुष्य ने। सुहावा = सोहना। जिनि = जिस ने।3।
अर्थ: (पर, हे संत जनों!) किसी विरले (भाग्यशाली) मनुष्य ने परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों से प्यार डाला है जिस ने (जिसने ये प्यार डाला है) परमात्मा का नाम स्मरण किया है उसका मुखड़ा भाग्यशाली है, उसका मुंह सुहाना लगता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम मरण दुख काल सिमरत मिटि जावई ॥ नानक कै सुखु सोइ जो प्रभ भावई ॥४॥११॥११३॥
मूलम्
जनम मरण दुख काल सिमरत मिटि जावई ॥ नानक कै सुखु सोइ जो प्रभ भावई ॥४॥११॥११३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काल = मौत, आत्मिक मौत। जावई = जाता है। भावई = भाता है।4।
अर्थ: (हे संत जनो!) परमात्मा का नाम स्मरण करने से जनम-मरण (के चक्करों) का दुख मिट जाता है। (हे संत जनो!) जो कुछ प्रभु को अच्छा लगता है (वही ठीक है। ये निश्चय जो नाम जपने की इनायत से पैदा होता है) नानक के हृदय में आनंद (पैदा किए रखता है)।4।11।113।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ आवहु मीत इकत्र होइ रस कस सभि भुंचह ॥ अम्रित नामु हरि हरि जपह मिलि पापा मुंचह ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ आवहु मीत इकत्र होइ रस कस सभि भुंचह ॥ अम्रित नामु हरि हरि जपह मिलि पापा मुंचह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! इकत्र होइ = इकट्ठे हो के, मिल के। रस कस = हरेक किस्म के स्वादिष्ट पदार्थ। सभि = सारे। भुंचहु = हम खाएं (स्वाद से)। जपह = हम जपें। मिलि = मिल के। मुंचह = दूर कर लें।1।
अर्थ: हे मित्र! आओ, मिल के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जपें (और नाम की इनायत से अपने सारे) पाप नाश कर लें- यही धन, जैसे, सारे स्वादिष्ट पदार्थ, आओ, ये सारे स्वादिष्ट व्यंजन खाएं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततु वीचारहु संत जनहु ता ते बिघनु न लागै ॥ खीन भए सभि तसकरा गुरमुखि जनु जागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ततु वीचारहु संत जनहु ता ते बिघनु न लागै ॥ खीन भए सभि तसकरा गुरमुखि जनु जागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततु = अस्लियत, मानसजनम का असल उद्देश्य। ता ते = इस (उद्यम) से। खीन = कमाजोर। तसकरा = चोर। जागै = सचेत रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! ये सोचा करो कि मनुष्य जीवन का असल उद्देश्य क्या है, इस प्रयास से (जीवन-यात्रा में) कोई रुकावट नहीं पडती, कामादिक सारे चोर नाश हो जाते हैं (क्योंकि) गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य (इन चोरों के हमलों से) सुचेत रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुधि गरीबी खरचु लैहु हउमै बिखु जारहु ॥ साचा हटु पूरा सउदा वखरु नामु वापारहु ॥२॥
मूलम्
बुधि गरीबी खरचु लैहु हउमै बिखु जारहु ॥ साचा हटु पूरा सउदा वखरु नामु वापारहु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरीबी = निम्रता। लैहु = पल्ले बाँधो। बिखु = जहर (आत्मिक जीवन को समाप्त करने वाली)। जारहु = जला दो। साचा = सदा कायम रहने वाला। हटु = बड़ी दुकान। वापारहु = खरीदो।2।
अर्थ: हे संत जनो! विनम्रता वाली बुद्धि धारण करो- ये जीवन-यात्रा का खर्च पल्ले बाँधो। (नाम की इनायत से अपने अंदर से) अहंकार को जला दो (जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाला) जहर (है)। (हे संत जनो! हरि-नाम गुरु से मिलता है, गुरु का घर ही) सदा कायम रहने वाली दुकान है (गुरु-दर से ही हरि नाम का) पूरा सौदा मिलता है (गुरु दर से) नाम-सौदा खरीदो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ पिंडु धनु अरपिआ सेई पतिवंते ॥ आपनड़े प्रभ भाणिआ नित केल करंते ॥३॥
मूलम्
जीउ पिंडु धनु अरपिआ सेई पतिवंते ॥ आपनड़े प्रभ भाणिआ नित केल करंते ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। अरपिआ = भेट कर दिया। पति = इज्जत। प्रभू भाणिआ = प्रभु को अच्छे लगते हैं। केल = आनंद।3।
अर्थ: (हे संत जनो! जिस मनुष्यों ने हरि-नाम-धन खरीदने के लिए) अपनी जिंद, अपना शरीर, अपना दुनियावी धन भेटा कर दिया वह मनुष्य (लोक-परलोक में) आदरणीय हो गए, वे अपने परमात्मा को प्यारे लगने लग पड़े, वे सदा आत्मिक आनंद पाने लग गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरमति मदु जो पीवते बिखली पति कमली ॥ राम रसाइणि जो रते नानक सच अमली ॥४॥१२॥११४॥
मूलम्
दुरमति मदु जो पीवते बिखली पति कमली ॥ राम रसाइणि जो रते नानक सच अमली ॥४॥१२॥११४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरमति = खोटी अक्ल। मदु = शराब। बिखली = वृषली, व्यभचारिण, शूद्राणी। बिखली पति = दुराचारी मनुष्य। रसाइणि = रसायन में। रसाइण = रस+आयन, सारे रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। रते = मस्त। सच = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। अमली = जिसे अमल लगा हुआ हो, जो मल के बिना रह ना सके। अमल = नशा।4।
अर्थ: (हे संत जनो!) खोटी मति (जैसे) शराब है जो मनुष्य ये शराब पीने लग जाते हैं (जो गुरु का आसरा छोड़ के खोटी मति के पीछे चलने लग जाते हैं) वे दुराचारी हो जाते हैं वे (विकारों में) पागल हो जाते हैं। पर, हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के श्रेष्ठ रस में मस्त रहते हैं उनको सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम का अमल लग जाता है।4।12।114।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ उदमु कीआ कराइआ आर्मभु रचाइआ ॥ नामु जपे जपि जीवणा गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ उदमु कीआ कराइआ आर्मभु रचाइआ ॥ नामु जपे जपि जीवणा गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कराइआ = (जैसे गुरु ने उद्यम) करने की प्रेरणा की है। आरंभु = (नाम जपने के उद्यम का) आरम्भ। जपे जपि = जप जप के। जीवणा = आत्मिक जीवन मिल गया है। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = पक्का कर दिया है।1।
अर्थ: (हे भाई!) जैसे गुरु ने उद्यम करने की प्रेरणा की है वैसे ही मैंने उद्यम किया है और परमात्मा का नाम जपने के उद्यम का आरम्भ मैंने कर दिया है। गुरु ने मेरे हृदय में नाम-मंत्र पक्का करके टिका दिया है, अब नाम जप-जपके मुझे आत्मिक जीवन मिल गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइ परह सतिगुरू कै जिनि भरमु बिदारिआ ॥ करि किरपा प्रभि आपणी सचु साजि सवारिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पाइ परह सतिगुरू कै जिनि भरमु बिदारिआ ॥ करि किरपा प्रभि आपणी सचु साजि सवारिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाइ = पैरो पर। परह = पड़ें। कै पाइ = के पैरों पे। जिनि = जिस (गुरु) ने। बिदारिआ = नाश कर दिया है। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। सचु साजि = सदा स्थिर नाम (जपने का रास्ता) चला के। सवारिआ = सवार दिया है, जीवन सोहणा बना दिया है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! आओ) उस गुरु के चरणों में ढह पड़ें जिसने हमारे मन की भटकना नाश कर दी है। (गुरु की इनायत के साथ ही) परमात्मा ने अपनी कृपा करके (अपना) सदा-स्थिर नाम (जपने का रास्ता) चला के हमारा जीवन सुंदर बना दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करु गहि लीने आपणे सचु हुकमि रजाई ॥ जो प्रभि दिती दाति सा पूरन वडिआई ॥२॥
मूलम्
करु गहि लीने आपणे सचु हुकमि रजाई ॥ जो प्रभि दिती दाति सा पूरन वडिआई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। सचं = सदा स्थिर रहने वाला। हुकमि = हुक्म अनुसार। रजाई = रजा का मालिक। प्रभि = प्रभु ने।2।
अर्थ: (हे भाई!) वह रजा का मालिक परमात्मा सदा कायम रहने वाला है उसने अपने हुक्म में मेरा हाथ पकड़ के मुझे अपने चरणों में लीन कर लिया है। (अपने नाम की) जो दाति मुझे दी है वही मेरे वास्ते सबसे बड़ा आदर-मान है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा गुण गाईअहि जपि नामु मुरारी ॥ नेमु निबाहिओ सतिगुरू प्रभि किरपा धारी ॥३॥
मूलम्
सदा सदा गुण गाईअहि जपि नामु मुरारी ॥ नेमु निबाहिओ सतिगुरू प्रभि किरपा धारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाईअहि = गाए जा रहे हैं। मुरारी = (मुरा+अरि, मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। नेम = रोज की मर्यादा। जपि = जपूँ, मैं जपता हूं।3।
अर्थ: (हे भाई! अब मेरे दिल में) सदा ही परमात्मा के गुण गाए जा रहे हैं, मैं सदा परमात्मा का नाम जपता रहता हूँ। प्रभु ने मेहर की है। गुरु मेरा (नाम जपने का) नियम सफल कर रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु धनु गुण गाउ लाभु पूरै गुरि दिता ॥ वणजारे संत नानका प्रभु साहु अमिता ॥४॥१३॥११५॥
मूलम्
नामु धनु गुण गाउ लाभु पूरै गुरि दिता ॥ वणजारे संत नानका प्रभु साहु अमिता ॥४॥१३॥११५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाउ = मैं गाता हूँ। गुरि = गुरु ने। वणजारे = वणज करने वाले। अमिता = बेअंत, जिसे नापा ना जा सके, जिसकी हस्ती का नाप ना लिया जा सके।4।
अर्थ: (हे भाई! अब) परमात्मा का नाम ही (मेरा) धन है, मैं सदा परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ पूरे गुरु ने मुझे (मानव जनम में किए जाने वाले वणज का ये) लाभ दिया है।
हे नानक! (कह: हे भाई! नाम-रस का) शाहूकार परमात्मा बेअंत ताकत का मालिक है उसके संत-जन (उसकी मेहर से ही उसके नाम के) बंजारे हैं (मानव जनम का लाभ हासिल करने के लिए संत-जनों की शरण पड़ना चाहिए)।4।13।115।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जा का ठाकुरु तुही प्रभ ता के वडभागा ॥ ओहु सुहेला सद सुखी सभु भ्रमु भउ भागा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जा का ठाकुरु तुही प्रभ ता के वडभागा ॥ ओहु सुहेला सद सुखी सभु भ्रमु भउ भागा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस मनुष्य का। ठाकुरु = मालिक। प्रभ = हे प्रभु! सुहेला = आसान। सद = सदा। भ्रम = भटकना।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही जिस मनुष्य के सिर पर मालिक है उसके बड़े भाग्य (समझने चाहिए), वह सदा आसान (जीवन व्यतीत करता) है वह सदा सुखी (रहता) है उसका हरेक किस्म का डर और भ्रम दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम चाकर गोबिंद के ठाकुरु मेरा भारा ॥ करन करावन सगल बिधि सो सतिगुरू हमारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हम चाकर गोबिंद के ठाकुरु मेरा भारा ॥ करन करावन सगल बिधि सो सतिगुरू हमारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चाकर = सेवक, नौकर। भारा = बड़े जिगरे वाला। सगल बिधि = सारे तरीकों से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उस गोबिंद का सेवक हूँ मेरा वह मालिक है जो सबसे बड़ा है जो (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सारे तरीकों से (सब कुछ) करने वाला है। और (जीवों से) कराने वाला है, वही मेरा गुरु है (मेरे जीवन-राह में रौशनी देने वाला है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूजा नाही अउरु को ता का भउ करीऐ ॥ गुर सेवा महलु पाईऐ जगु दुतरु तरीऐ ॥२॥
मूलम्
दूजा नाही अउरु को ता का भउ करीऐ ॥ गुर सेवा महलु पाईऐ जगु दुतरु तरीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई। अउरु = और। ता का = उस का। महलु = प्रभु का ठिकाना। दुतरु = जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। तरीऐ = तैरा जा सकता है।2।
अर्थ: (हे भाई! जगत में) परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं है जिसका डर माना जाए। (हे भाई!) गुरु की बताई सेवा करने से (परमात्मा के चरणों में) ठिकाना मिल जाता है, और इस संसार (-समुंदर) से पार लांघ जाते हैं जिससे (वैसे) पार लांघना बहुत ही मुश्किल है।2।
[[0400]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रिसटि तेरी सुखु पाईऐ मन माहि निधाना ॥ जा कउ तुम किरपाल भए सेवक से परवाना ॥३॥
मूलम्
द्रिसटि तेरी सुखु पाईऐ मन माहि निधाना ॥ जा कउ तुम किरपाल भए सेवक से परवाना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिसटि = नजर, निगाह। निधाना = खजाना। जा कउ = जिस पर। परवाना = स्वीकार।3।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर की नजर से सुख मिलता है (जिनपे तेरी मेहर हो उनके) मन में (तेरा नाम-) खजाना आ बसता है। हे प्रभु! जिस पे तू दयावान होता है वह तेरे सेवक तेरे दर पर स्वीकार होते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित रसु हरि कीरतनो को विरला पीवै ॥ वजहु नानक मिलै एकु नामु रिद जपि जपि जीवै ॥४॥१४॥११६॥
मूलम्
अम्रित रसु हरि कीरतनो को विरला पीवै ॥ वजहु नानक मिलै एकु नामु रिद जपि जपि जीवै ॥४॥१४॥११६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीरतनो = कीर्तन, महिमा। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। वजहु = वजीफा, तनख्वाह।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्माकी महिमा आत्मिक जीवन देने वाला रस है, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य ये (अमृत रस) पीता है।
हे नानक! (कह: जिस नौकर को) परमात्मा का नाम-वजीफा मिल जाता है वह अपने हृदय में ये नाम सदा जप के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।4।14।116।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जा प्रभ की हउ चेरुली सो सभ ते ऊचा ॥ सभु किछु ता का कांढीऐ थोरा अरु मूचा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जा प्रभ की हउ चेरुली सो सभ ते ऊचा ॥ सभु किछु ता का कांढीऐ थोरा अरु मूचा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। चेरी = दासी। चेरुली = बेचारी दासी। ते = से। ता का = उस (प्रभु) का। कांढीऐ = कहा जाता है। मूचा = बहुत। थोरा अरु मूचा = थोड़ा और ज्यादा, छोटी बड़ी हरेक चीज।1।
अर्थ: हे सहेलियो! मैं जिस प्रभु की निमाणी सी दासी हूँ मेरा वह मालिक प्रभु सबसे ऊँचा है, मेरे पास जो कुछ भी छोटी-बड़ी चीज है उस मालिक की ही कहलाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ प्रान मेरा धनो साहिब की मनीआ ॥ नामि जिसै कै ऊजली तिसु दासी गनीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीअ प्रान मेरा धनो साहिब की मनीआ ॥ नामि जिसै कै ऊजली तिसु दासी गनीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनो = धन। जीअ = जिंद। मनीआ = मानती हूँ। नामि = नाम से। ऊजली = सही रास्ते पर, इज्जत वाली। तिसु = उस (प्रभु) की। गनीआ = गिनती हूं।1। रहाउ।
अर्थ: हे सहेलियो! मेरी जिंद, मेरे प्राण, मेरा धन-पदार्थ - ये सब कुछ मैं अपने मालिक प्रभु की दी हुई दाति मानती हूँ। जिस मालिक-प्रभु के नाम की इनायत से मैं इज्जत वाली हो गई हूँ मैं अपने आप को उसकी दासी गिनती हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेपरवाहु अनंद मै नाउ माणक हीरा ॥ रजी धाई सदा सुखु जा का तूं मीरा ॥२॥
मूलम्
वेपरवाहु अनंद मै नाउ माणक हीरा ॥ रजी धाई सदा सुखु जा का तूं मीरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेपरवाहु = बेमुहताज। अनंद मै = आनंदमय, आनंद स्वरूप। माणक = मोती। धाई = ध्रापी, तृप्त। मीरा = पातशाह।2।
अर्थ: (हे मेरे मालिक प्रभु!) तूझे किसी की मुहताजी नहीं, तू सदा आनंद-स्वरूप है, तेरा नाम मेरे वास्ते मोती है हीरा है। हे प्रभु! जिस जीव-स्त्री का (जिस जीव-स्त्री के सिर पर) तू पातशाह (बनता) है वह (माया की ओर से) तृप्त रहती है, संतुष्ट रहती है वह सदा आनंद पाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी सहेरी संग की सुमति द्रिड़ावउ ॥ सेवहु साधू भाउ करि तउ निधि हरि पावउ ॥३॥
मूलम्
सखी सहेरी संग की सुमति द्रिड़ावउ ॥ सेवहु साधू भाउ करि तउ निधि हरि पावउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संग की = साथ की। सहेरी = हे सहेलियो! सुमति = अच्छी मति। द्रिढ़ावउ = दृढ़ाऊँ, मैं निश्चय कराती हूँ। साधू = गुरु। भाउ = प्रेम। करि = कर के। निधि = खजाना। पावउ = मैं हासिल करती हूँ, पाऊँ।3।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘सवहु’ और ‘पावउ’ की व्याकरणात्मक शक्ल खास ध्यान से देखने योग्य है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे साथ की सहेलियो! मैं तुम्हें ये भली सलाह बारंबार याद करवाती हूँ (जो मुझे गुरु से मिली हुई है), तुम श्रद्धा व प्रेम धारण करके गुरु की शरण पड़ो। (मैं जब से गुरु की शरण में आई हूँ) तब से मैं परमात्मा का नाम-खजाना हासिल कर रही हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगली दासी ठाकुरै सभ कहती मेरा ॥ जिसहि सीगारे नानका तिसु सुखहि बसेरा ॥४॥१५॥११७॥
मूलम्
सगली दासी ठाकुरै सभ कहती मेरा ॥ जिसहि सीगारे नानका तिसु सुखहि बसेरा ॥४॥१५॥११७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगली = सारी, हरेक जीव-स्त्री। ठाकुरै = ठाकुर की। जिसहि = जिसे। सीगारे = सुंदर बनाता है। सुखहि = सुख में। बसेरा = वास।4।
अर्थ: हे मेरी सहेलियो! हरेक जीव-स्त्री ही मालिक प्रभु की दासी है, हरेक जीव-स्त्री कहती है कि परमात्मा मेरा मालिक है। पर, हे नानक! (कह: हे सहेलियो!) जिस जीव-स्त्री (के जीवन) को (मालिक प्रभु स्वयं) सुंदर बनाता है उसका निवास सुख आनंद में बना रहता है।4।15।117।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ संता की होइ दासरी एहु अचारा सिखु री ॥ सगल गुणा गुण ऊतमो भरता दूरि न पिखु री ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ संता की होइ दासरी एहु अचारा सिखु री ॥ सगल गुणा गुण ऊतमो भरता दूरि न पिखु री ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संता की = सत्संगियों की। होइ = बन जा। दासरी = निमाणी सी दासी। आचारा = कर्तव्य। री = हे जिंदे! ऊतमो = उत्तम, श्रेष्ठ। भरता = पति प्रभु। न पिख = ना देख, ना समझ।1।
अर्थ: हे मेरी सोहनी जिंदे! तू सत्संगियों की निमाणी दासी बनी रह- बस! ये कर्तव्य सीख, और, हे जिंदे! उस पति-प्रभु को कहीं दूर बसता ना समझ जो सारे गुणों का मालिक है जो अपने गुणों के कारण सबसे श्रेष्ठ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु सुंदरि आपणा हरि नामि मजीठै रंगि री ॥ तिआगि सिआणप चातुरी तूं जाणु गुपालहि संगि री ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इहु मनु सुंदरि आपणा हरि नामि मजीठै रंगि री ॥ तिआगि सिआणप चातुरी तूं जाणु गुपालहि संगि री ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंदरि = हे सुंदरी! हे सुंदर जिंदे! नामि = नाम में। मजीठै = मजीठ से, मजीठ जैसे पक्के रंग से। चातुरी = चतुराई। गुपालहि = गोपाल को। संगि = अपने साथ बसता।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) सोहणी जिंदे! तू अपने इस मन को मजीठ (जैसे पक्के) परमात्मा के नाम रंग से रंग ले, अपने अंदर की सियानप और चतुराई छोड के (ये गुमान छोड़ कि तू बड़ी सियानी है और चतुर है), हे जिंदे! सृष्टि के मालिक प्रभु को अपने साथ बसता समझती रह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरता कहै सु मानीऐ एहु सीगारु बणाइ री ॥ दूजा भाउ विसारीऐ एहु त्मबोला खाइ री ॥२॥
मूलम्
भरता कहै सु मानीऐ एहु सीगारु बणाइ री ॥ दूजा भाउ विसारीऐ एहु त्मबोला खाइ री ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानीऐ = मानना चाहिए। सीगारु = श्रृंगार। दूजा भाउ = प्रभु पति को छोड़ के किसी और का प्यार। तंबोला = पान का बीड़ा।2।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! पति-प्रभु जो हुक्म करता है वह (मीठा करके) मानना चाहिए- बस! इस बात को (अपने जीवन का) श्रृंगार बनाए रख। परमात्मा के बिना और (माया आदि का) प्यार भुला देना चाहिए- (ये नियम आत्मिक जीवन वास्ते, जैसे, पान का बीड़ा है) हे जिंदे! ये पान खाया कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु करि दीपको इह सत की सेज बिछाइ री ॥ आठ पहर कर जोड़ि रहु तउ भेटै हरि राइ री ॥३॥
मूलम्
गुर का सबदु करि दीपको इह सत की सेज बिछाइ री ॥ आठ पहर कर जोड़ि रहु तउ भेटै हरि राइ री ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = बना। दीपको = दीपक। सत = ऊँचा आचरण। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। तउ = तब ही। भेटै = मिलता है। हरि राइ = प्रभु पातशाह।3।
अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! सतिगुरु के शब्द को दीपक बना (जो तेरे अंदर आत्मिक जीवन का प्रकाश पैदा करे) और उस आत्मिक जीवन की (अपने हृदय में) सेज बिछा। हे सोहणी जिंदे! (अपने अंतरात्मे) आठों पहर (दोनों) हाथ जोड़ के (प्रभु चरणों में) टिकी रह, तब ही प्रभु-पातशाह (आ के) मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस ही चजु सीगारु सभु साई रूपि अपारि री ॥ साई सुोहागणि नानका जो भाणी करतारि री ॥४॥१६॥११८॥
मूलम्
तिस ही चजु सीगारु सभु साई रूपि अपारि री ॥ साई सुोहागणि नानका जो भाणी करतारि री ॥४॥१६॥११८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिस ही = उसी का ही। चजु = सलीका। सभु = सारा। साई = वही (जीव-स्त्री)। रूपि = सुंदर रूप वाली। अपारि = अपार प्रभु में। भाई = पसंद आई है। करतारि = कर्तार में (लीन)।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘सुोहागणि’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं हैं ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द ‘सोहागणि’ है; यहाँ ‘सुहागणि’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! उसी जीव-स्त्री को सलीके वाली (निपुण) माना जाता है उसी जीव-स्त्री का (आत्मिक) श्रृंगार स्वीकार होता है, वह जीव-स्त्री सुंदर रूप वाली समझी जाती है जो बेअंत परमात्मा (के चरणों) में लीन रहती है। हे जिंदे! वही जीव-स्त्री सुहाग-भाग वाली है जो (कर्तार को) प्यारी लगती है जो कर्तार (की याद) में लीन रहती है।4।16।118।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ डीगन डोला तऊ लउ जउ मन के भरमा ॥ भ्रम काटे गुरि आपणै पाए बिसरामा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ डीगन डोला तऊ लउ जउ मन के भरमा ॥ भ्रम काटे गुरि आपणै पाए बिसरामा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डीगन = (विकारों में) गिरना। डोला = (माया के मोह में) डोल जाना, मोह में फस जाना। तऊ लउ = उतने समय तक ही। भरमा = दौड़ भाग। गुरि = गुरु ने। बिसरामा = टिकाव।1।
अर्थ: हे भाई! विकारों में गिरने और मोह में फंसने का सबब तब तक बना रहता है जब तक मनुष्य के मन की (माया की खातिर) दौड़-भाग टिकी रहती हैं। पर प्यारे गुरु ने जिस मनुष्य की भटकनें दूर कर दीं उसने मानसिक टिकाव प्राप्त कर लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओइ बिखादी दोखीआ ते गुर ते हूटे ॥ हम छूटे अब उन्हा ते ओइ हम ते छूटे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ओइ बिखादी दोखीआ ते गुर ते हूटे ॥ हम छूटे अब उन्हा ते ओइ हम ते छूटे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ = वह। बिखादी = झगड़ालू। दोखीआ = वैरी। ते = वह सारे। गुर ते = गुरु से। हूटे = थक गए। उना ते = उनसे। हम ते = हम से।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) ये जितने भी कामादिक झगड़ालू वैरी हैं गुरु की शरण पड़ने से ये सारे ही थक गए है (हमें दुखी करने से बाज आ गए)। अब उनसे हमें निजात मिल गई है, उन सभी ने हमारा पीछा छोड़ दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा तेरा जानता तब ही ते बंधा ॥ गुरि काटी अगिआनता तब छुटके फंधा ॥२॥
मूलम्
मेरा तेरा जानता तब ही ते बंधा ॥ गुरि काटी अगिआनता तब छुटके फंधा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरा तेरा = मेर तेर, वितकरा। तब ही ते = तभी से। बंधा = मोह के बंधन। छुटके = खुल गए, टूट गए। फंधा = फाहियां।2।
अर्थ: जब से मनुष्य मेर-तेर (वितकरे) करता चला आ रहा है तब से ही इसे माया के मोह के बंधन पड़े हुए हैं। पर, जब गुरु ने अज्ञानता दूर कर दी तब मोह के फंदों से खलासी मिल गई।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब लगु हुकमु न बूझता तब ही लउ दुखीआ ॥ गुर मिलि हुकमु पछाणिआ तब ही ते सुखीआ ॥३॥
मूलम्
जब लगु हुकमु न बूझता तब ही लउ दुखीआ ॥ गुर मिलि हुकमु पछाणिआ तब ही ते सुखीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तब लउ ही = तब तक ही। गुर मिलि = गुरु को मिल के। तब हीते = तब से ही।3।
अर्थ: हे भाई! जब तक मनुष्य परमात्मा की रजा को नहीं समझता उतने समय तक ही दुखी रहता है। पर जिसने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा की रजा को समझ लिया वह उसी समय से सुखी हो गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना को दुसमनु दोखीआ नाही को मंदा ॥ गुर की सेवा सेवको नानक खसमै बंदा ॥४॥१७॥११९॥
मूलम्
ना को दुसमनु दोखीआ नाही को मंदा ॥ गुर की सेवा सेवको नानक खसमै बंदा ॥४॥१७॥११९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। दोखीआ = वैरी। खसम = पति का।4।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु की सेवा करके परमात्मा का सेवक बन जाता है पति-प्रभु का गुलाम बन जाता है, उसे कोई मनुष्य अपना दुश्मन नहीं दिखता, कोई वैरी नहीं प्रतीत होता, कोई उसे बुरा नहीं लगता।4।17।119।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सूख सहज आनदु घणा हरि कीरतनु गाउ ॥ गरह निवारे सतिगुरू दे अपणा नाउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सूख सहज आनदु घणा हरि कीरतनु गाउ ॥ गरह निवारे सतिगुरू दे अपणा नाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घणा = बहुत। गाउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। गरह = 9ग्रह। निवारे = दूर कर दिए। दे = दे कर। अपणा नाउ = परमात्मा का प्यारा नाम जिस को गुरु स्वयं भी जपता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मुझे वह हरि-नाम दे के जो नाम वह स्वयं जपता है, ने मेरे पर से (जैसे) नौवों (9) ग्रहों की मुसीबतें दूर कर दी हों। मैं परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता हूँ, और (मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता का बड़ा सुख-आनंद बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिहारी गुर आपणे सद सद बलि जाउ ॥ गुरू विटहु हउ वारिआ जिसु मिलि सचु सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बलिहारी गुर आपणे सद सद बलि जाउ ॥ गुरू विटहु हउ वारिआ जिसु मिलि सचु सुआउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद सद = सदा ही, सदा सदा। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = सदके। विटहु = सं। हउ = मैं। मिलि = मिल के। सचु = सदा स्थिर नाम। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य, जीवन का निशाना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, सदा ही सदके जाता हूँ, मैं गुरु से वारने जाता हूँ, क्योंकि उस (गुरु) को मिल के ही मैंने सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरणा (अपनी जिंदगी का) उद्देश्य बनाया है।1। रहाउ।
[[0401]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगुन अपसगुन तिस कउ लगहि जिसु चीति न आवै ॥ तिसु जमु नेड़ि न आवई जो हरि प्रभि भावै ॥२॥
मूलम्
सगुन अपसगुन तिस कउ लगहि जिसु चीति न आवै ॥ तिसु जमु नेड़ि न आवई जो हरि प्रभि भावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपशगुन = बद्शगनी। जिसु चीति = जिसके चित्त में। आवई = आये। प्रभि = प्रभु में (जुड़ के)। भावै = प्यारा लगता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस कउ’ में से शब्द ‘तिस = की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! मेरे अंदर अच्छे-बुरे शगुनों का सहिम भी नहींरह गया) अच्छे-बुरे शगुनों के सहम उस मनुष्य को चिपकते हैं जिसके चित्त में परमात्मा नहीं बसता। पर, जो मनुष्य प्रभु (की याद) में (जुड़ के) हरि-प्रभु को प्यारा लगने लग पड़ता है जमदूत भी उसके नजदीक नहीं फटकते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंन दान जप तप जेते सभ ऊपरि नामु ॥ हरि हरि रसना जो जपै तिसु पूरन कामु ॥३॥
मूलम्
पुंन दान जप तप जेते सभ ऊपरि नामु ॥ हरि हरि रसना जो जपै तिसु पूरन कामु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने भी हैं। ऊपरि = ऊँचा, श्रेष्ठ। रसना = जीभ (से)। पूरन = सफल।3।
अर्थ: (हे भाई! निहित) नेक कर्म, दान, जप व तप- ये जितने भी हैं परमात्मा का नाम जपना इन सभी में से श्रेष्ठ कर्म है। जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जपता है उसका जीवन उद्देश्य सफल हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै बिनसे भ्रम मोह गए को दिसै न बीआ ॥ नानक राखे पारब्रहमि फिरि दूखु न थीआ ॥४॥१८॥१२०॥
मूलम्
भै बिनसे भ्रम मोह गए को दिसै न बीआ ॥ नानक राखे पारब्रहमि फिरि दूखु न थीआ ॥४॥१८॥१२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै = डर। बीआ = दूसरा, पराया। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। थीआ = हुआ, घटित हुआ।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों की रक्षा परमात्मा ने स्वयं की है उन्हें दुबारा कोई दुख नहीं व्याप्ता, उनके सारे डर नाश हो जाते हैं उनके मोह के भ्रम समाप्त हो जाते हैं, उन्हें कोई मनुष्य बेगाना नहीं दिखाई देता।4।18।120।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा घरु ९ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा घरु ९ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितवउ चितवि सरब सुख पावउ आगै भावउ कि न भावउ ॥ एकु दातारु सगल है जाचिक दूसर कै पहि जावउ ॥१॥
मूलम्
चितवउ चितवि सरब सुख पावउ आगै भावउ कि न भावउ ॥ एकु दातारु सगल है जाचिक दूसर कै पहि जावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चितवउ = मैं चाहता हूँ, मैं चितवता हूँ। चितवि = स्मरण करके। पावउ = पाऊँ, हासिल कर लूँ। आगै = प्रभु की हजूरी में। भावउ = मैं पसंद हूँ। सगल = सारी सृष्टि। जाचिक = मांगने वाली। कै पहि = किस के पास?।1।
अर्थ: (हे भाई!) मैं (सदा) चाहता (तो ये) हूँ कि परमात्मा का स्मरण करके (उससे) मैं सारे सुख हासिल करूँ (पर मुझे ये पता नहीं कि ये तमन्ना करके) मैं प्रभु की हजूरी में ठीक लग रहा हूँ कि नहीं। (कोई सुख आदि मांगने के लिए) मैं किसी और के पास जा भी नहीं सकता, क्योंकि दातें देने वाला तो सिर्फ एक परमात्मा ही है और सृष्टि (उसके दर से) मांगने वाली है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ मागउ आन लजावउ ॥ सगल छत्रपति एको ठाकुरु कउनु समसरि लावउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ मागउ आन लजावउ ॥ सगल छत्रपति एको ठाकुरु कउनु समसरि लावउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। मांगू, मैं मांगता हूँ। आन = अन्य, कोई और। लजावउ = लजाऊँ, मैं शर्माता हूँ। छत्रपति = राजा। ठाकुरु = मालिक प्रभु। समसरि = बराबर। लावउ = लाऊँ, मैं गिनूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जब) मैं (परमात्मा के बिना) किसी और से मांगता हूँ तो शर्माता हूँ (क्योंकि) एक मालिक प्रभु ही सब जीवों का राजा है, मैं किसी और को उसके बराबर का सोच ही नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊठउ बैसउ रहि भि न साकउ दरसनु खोजि खोजावउ ॥ ब्रहमादिक सनकादिक सनक सनंदन सनातन सनतकुमार तिन्ह कउ महलु दुलभावउ ॥२॥
मूलम्
ऊठउ बैसउ रहि भि न साकउ दरसनु खोजि खोजावउ ॥ ब्रहमादिक सनकादिक सनक सनंदन सनातन सनतकुमार तिन्ह कउ महलु दुलभावउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसउ = बैठूँ, मैं बैठ जाता हूँ। खोजि = खोज के। सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार = ये चारों ब्रहमा के पुत्र हैं। महलु = परमात्मा का ठिकाना। दुलभावउ = दुर्लभ।2।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का दर्शन करने के लिए) मैं उठता हूँ (कोशिश करता हूँ, फिर) बैठ जाता हूँ, (पर दर्शन किए बिना) रह भी नहीं सकता, दुबारा खोज-खोज के दर्शन तलाशता हूँ। (मैं बेचारा क्या चीज हूँ?) परमात्मा के ठिकाने तो उनके वास्ते भी दुर्लभ ही रहे जो ब्रहमा जैसे (बड़े-बड़े देवता माने गए) जो सनक जैसे-सनक, सनंदन, सनातन व सनत कुमार (ब्रहमा के पुत्र कहलवाए)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगम आगाधि बोध कीमति परै न पावउ ॥ ताकी सरणि सति पुरख की सतिगुरु पुरखु धिआवउ ॥३॥
मूलम्
अगम अगम आगाधि बोध कीमति परै न पावउ ॥ ताकी सरणि सति पुरख की सतिगुरु पुरखु धिआवउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = अथाह। बोध = सूझ। परै न = नहीं पड़ सकती। न पावउ = मैं पा नहीं सकता। ताकी = देखी। धिआवउ = मैं ध्यान धरता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, जीवों की पहुँच से परे है, वह एक अथाह समुंदर है जिसकी गहराई की सूझ नहीं पड़ सकती, उसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, मैं उसका मूल्य नहीं निश्चित कर सकता। (हे भाई! उसके दर्शन की खातिर) मैंने गुरु महापुरख की शरण देखी है, मैं सतिगुरु की आराधना करता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ क्रिपालु दइआलु प्रभु ठाकुरु काटिओ बंधु गरावउ ॥ कहु नानक जउ साधसंगु पाइओ तउ फिरि जनमि न आवउ ॥४॥१॥१२१॥
मूलम्
भइओ क्रिपालु दइआलु प्रभु ठाकुरु काटिओ बंधु गरावउ ॥ कहु नानक जउ साधसंगु पाइओ तउ फिरि जनमि न आवउ ॥४॥१॥१२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरावउ = गले से। जउ = जब। न आवउ = मैं नहीं आता, ना आऊँ।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर ठाकुर प्रभु दयावान होता है उसके गले की (माया के मोह की) फाँसी काट देता है। हे नानक! कह: अगर मुझे साधसंगति प्राप्त हो जाए, तो ही मैं बार-बार जन्मों में नहीं आऊँगा (जन्मों के चक्करों से बच सकूँगा)।4।1।121।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द से घरु ९ का नया संग्रह आरम्भ हुआ है। तभी छोटा अंक १ नया चला है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अंतरि गावउ बाहरि गावउ गावउ जागि सवारी ॥ संगि चलन कउ तोसा दीन्हा गोबिंद नाम के बिउहारी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अंतरि गावउ बाहरि गावउ गावउ जागि सवारी ॥ संगि चलन कउ तोसा दीन्हा गोबिंद नाम के बिउहारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। जागि = जाग के। सवारी = सोने के वक्त। संगि = साथ। कउ = वास्ते। तोसा = राह का खर्च। बिउहारी = वणजारे।1।
अवर = और (ओट)। बिसारी = मैंने भुला दी है। गुरि = गुरु ने। आधारी = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम के वणजारे सत्संगियों ने मेरे से साथ करने के लिए मुझे (परमात्मा का नाम) यात्रा-खर्च (के तौर पर) दे दिया है। अब मैं अपने हृदय में परमात्मा के गुण गाता हूँ, बाहर दुनिया से कार्य-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की महिमा याद रखता हूँ, सोने के समय भी और जाग के भी मैं परमात्मा की महिमा करता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर बिसारी बिसारी ॥ नाम दानु गुरि पूरै दीओ मै एहो आधारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अवर बिसारी बिसारी ॥ नाम दानु गुरि पूरै दीओ मै एहो आधारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूखनि = दुखों में। सुखि = सुख में। मारगि = रास्ते पर। पंथि = राह में। समारी = मैं (हृदय में) संभालता हूँ। द्रिढ़ = पक्का। मोरी = मेरी। तिसा = तृष्णा।2।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के बिना) कोई अन्य ओट मैंने बिल्कुल ही भुला दी है। पूरे गुरु ने मुझे परमात्मा के नाम (की) दाति दी है, मैंने इसी को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना लिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूखनि गावउ सुखि भी गावउ मारगि पंथि सम्हारी ॥ नाम द्रिड़ु गुरि मन महि दीआ मोरी तिसा बुझारी ॥२॥
मूलम्
दूखनि गावउ सुखि भी गावउ मारगि पंथि सम्हारी ॥ नाम द्रिड़ु गुरि मन महि दीआ मोरी तिसा बुझारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैनी = रात के समय। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। रसना = जीभ। बिगासु = श्रद्धा, निश्चय। संगारी = संगी, साथी।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मेरे मन में प्रभु-नाम दृढ़ कर दिया है (उस नाम ने) मेरी तृष्णा मिटा दी है। अब मैं दुखों में परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, सुख में भी गाता हूँ, रास्ते पर चलते हुए भी (परमात्मा की याद को अपने दिल में) संभाले रखता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनु भी गावउ रैनी गावउ गावउ सासि सासि रसनारी ॥ सतसंगति महि बिसासु होइ हरि जीवत मरत संगारी ॥३॥
मूलम्
दिनु भी गावउ रैनी गावउ गावउ सासि सासि रसनारी ॥ सतसंगति महि बिसासु होइ हरि जीवत मरत संगारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) अब मैं दिन में भी और रात को भी, और हरेक सांस के साथ भी अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, (हे भाई! ये सारी इनायत साधु-संगत की है) साधु-संगत में टिकने से ये निश्चय बन जाता है कि परमात्मा जीते-मरते हर वक्त हमारे साथ रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन नानक कउ इहु दानु देहु प्रभ पावउ संत रेन उरि धारी ॥ स्रवनी कथा नैन दरसु पेखउ मसतकु गुर चरनारी ॥४॥२॥१२२॥
मूलम्
जन नानक कउ इहु दानु देहु प्रभ पावउ संत रेन उरि धारी ॥ स्रवनी कथा नैन दरसु पेखउ मसतकु गुर चरनारी ॥४॥२॥१२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। प्रभ = हे प्रभु! पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। रेन = चरण धूल। उरि = हृदय में। स्रवनी = कानों से। नैन = आँखों से। पेखउ = मैं देखूँ। मसतकु = माथा।4।
अर्थ: हे प्रभु! अपने दास नानक को ये दान दे कि मैं तेरे संत-जनों की चरण-धूल प्राप्त करूँ। तेरी याद को अपने हृदय में टिकाए रखूँ, तेरी महिमा अपने कानों से सुनता रहूँ, तेरे दर्शन अपनी आँखों से करता रहूँ, और अपना माथा गुरु के चरणों में रखे रखूँ।4।2।122।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु १० महला ५ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु १० महला ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो तूं असथिरु करि मानहि ते पाहुन दो दाहा ॥ पुत्र कलत्र ग्रिह सगल समग्री सभ मिथिआ असनाहा ॥१॥
मूलम्
जिस नो तूं असथिरु करि मानहि ते पाहुन दो दाहा ॥ पुत्र कलत्र ग्रिह सगल समग्री सभ मिथिआ असनाहा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। मानहि = तू मानता है। ते = वह सारे। पाहुन = प्राहुणे, मेहमान। दाहा = दिन। कलत्र = स्त्री। सगल समग्री = सारा सामान। मिथिआ = झूठा। असनाहा = स्नेह, प्यार।1।
अर्थ: हे मन! जिस पुत्र को जिस स्त्री को जिस घर के सामान को तू सदा कायम रहने वाला माने बैठा है, ये सारे तो दो दिनों के मेहमान हैं। पुत्र, स्त्री, घर का सारा सामान- इनसे मोह सारा झूठा है।1।
[[0402]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन किआ करहि है हा हा ॥ द्रिसटि देखु जैसे हरिचंदउरी इकु राम भजनु लै लाहा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मन किआ करहि है हा हा ॥ द्रिसटि देखु जैसे हरिचंदउरी इकु राम भजनु लै लाहा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: है हा हा = आहा आहा। द्रिसटि = ध्यान से। हरि चंदउरी = हरी चंद पुरी, हरिश्चंद्र की नगरी, गंर्धब नगरी, ठग-नगरी, धूँएं का पहाड़। लाहा = लाभ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (माया का पसारा देख के क्या खुशियां मना रहा है तू) क्या आहा आहा करता फिरता है? ध्यान से देख! ये सारा पसारा धूँएं के पहाड़ जैसा है। परमात्मा का भजन किया कर, सिर्फ इसी से (मनुष्य जीवन में) लाभ (कमाया जा सकता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे बसतर देह ओढाने दिन दोइ चारि भोराहा ॥ भीति ऊपरे केतकु धाईऐ अंति ओरको आहा ॥२॥
मूलम्
जैसे बसतर देह ओढाने दिन दोइ चारि भोराहा ॥ भीति ऊपरे केतकु धाईऐ अंति ओरको आहा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसतर = कपड़े। ओढाने = पहने हुए। भोराहा = भुर जाते हैं। भीति = दीवार। ऊपरे = ऊपर। केतकु = कितने। धाईऐ = दौड़ सकते हैं। अंति = आखिर। ओरको = ओड़क, आखिरी सिरा। आहा = आ जाता है।2।
अर्थ: हे मन! (ये जगत पसारा यूँ ही है) जैसे शरीर पर पहने हुए कपड़े, दो चार दिनों में ही पुराने हो जाते हैं। हे मन! दीवार पर कहाँ तक दौड़ सकते हैं? आखिर उसका आखिरी सिरा आ ही जाता है (जिंदगी के गिने-चुने स्वाश अवश्य ही समाप्त होने हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे अ्मभ कुंड करि राखिओ परत सिंधु गलि जाहा ॥ आवगि आगिआ पारब्रहम की उठि जासी मुहत चसाहा ॥३॥
मूलम्
जैसे अ्मभ कुंड करि राखिओ परत सिंधु गलि जाहा ॥ आवगि आगिआ पारब्रहम की उठि जासी मुहत चसाहा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंभ = अम्भस्, पानी। कुंड = हौज। परत = पड़ता है। सिंधु = नमक। आवगि = आएगी। जासी = चला जाएगा। मुहत = महूरत, दो घड़ियां। चसा = पल का तीसरा हिस्सा।3।
अर्थ: हे मन! (ये उम्र ऐसे ही है) जैसे पानी का कुण्ड बना के रखा हो, और उसमें नमक पड़ते सार ही वह गल जाता है। हे मन! जब (जिसे) परमात्मा का हुक्म (बुलावा) आएगा, वह उसी वक्त उठ के चल पड़ेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन लेखै चालहि लेखै बैसहि लेखै लैदा साहा ॥ सदा कीरति करि नानक हरि की उबरे सतिगुर चरण ओटाहा ॥४॥१॥१२३॥
मूलम्
रे मन लेखै चालहि लेखै बैसहि लेखै लैदा साहा ॥ सदा कीरति करि नानक हरि की उबरे सतिगुर चरण ओटाहा ॥४॥१॥१२३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधन ‘नो’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लेखे = लेखे में, गिनती ने सांसों में ही। चालहि = तू चलता है। कीरति = महिमा। उबरे = बच गए। ओटाहा = आसरा।4।
अर्थ: हे मेरे मन! तू अपने गिने-चुने स्वासों के अंदर ही जगत में चलता फिरता है और बैठता है (गिने-चुने) लेख के मुताबिक ही तू सांस लेता है, (ये आखिर समाप्त हो जाने हैं)।
हे नानक! सदा परमात्मा की महिमा करता रह। जो मनुष्य गुरु के चरणों का आसरा लेते हैं (और प्रभु की महिमा करते हैं) वह (माया के मोह में फंसने से) बच जाते हैं।4।1।123।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अपुसट बात ते भई सीधरी दूत दुसट सजनई ॥ अंधकार महि रतनु प्रगासिओ मलीन बुधि हछनई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अपुसट बात ते भई सीधरी दूत दुसट सजनई ॥ अंधकार महि रतनु प्रगासिओ मलीन बुधि हछनई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपुसट = अपुष्ट, कच्ची, उलटी। बात ते = बात से। सीधरी = अच्छी सीधी। दूत = वैरी। प्रगासिओ = चमक पड़ा। मलीन = मैली। हछनई = साफ सुथरी।1।
अर्थ: (हे भाई! जब गुरु से मिलाप हुआ तो मेरी हरेक) उलट बात भी सीधी हो गई (मेरे पहले) बुरे वैरी (अब) सज्जन-मित्र बन गए, (मेरे मन के) घुप अंधेरे में (गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान-) रतन चमक पड़ा है, (विकारों से) मैली हो चुकी मेरी अकल साफ-सुथरी हो गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ किरपा गोबिंद भई ॥ सुख स्मपति हरि नाम फल पाए सतिगुर मिलई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जउ किरपा गोबिंद भई ॥ सुख स्मपति हरि नाम फल पाए सतिगुर मिलई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब। सुख संपति = आतिमक आनंद की दौलत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब मेरे पर गोबिंद की कृपा हुई, मैं सतिगुरु को मिला (और सतिगुरु के मिलाप की इनायत से) फल (के तौर पर) मुझे आत्मिक आनंद की दौलत और परमात्मा के नाम की प्राप्ति हो गई।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि किरपन कउ कोइ न जानत सगल भवन प्रगटई ॥ संगि बैठनो कही न पावत हुणि सगल चरण सेवई ॥२॥
मूलम्
मोहि किरपन कउ कोइ न जानत सगल भवन प्रगटई ॥ संगि बैठनो कही न पावत हुणि सगल चरण सेवई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। किरपन = कंजूस, नकारा। संगि = साथ। सेवई = सेवा करती है।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु से मिलाप के पहले) मुझ नकारे को कोई नहीं था जानता। अब मैं सारे भवनों में श्रेष्ठ हो गया हूँ। (पहले) मैं किसी के पास बैठने के काबिल नहीं था, अब सारी लुकाई मेरे चरणों की सेवा करने लग पड़ी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आढ आढ कउ फिरत ढूंढते मन सगल त्रिसन बुझि गई ॥ एकु बोलु भी खवतो नाही साधसंगति सीतलई ॥३॥
मूलम्
आढ आढ कउ फिरत ढूंढते मन सगल त्रिसन बुझि गई ॥ एकु बोलु भी खवतो नाही साधसंगति सीतलई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आढ = आधी दमड़ी। कउ = वास्ते। मन त्रिसन = मन की तृष्णा। खवतो = सहता। सीतलई = ठंडे स्वभाव वाला।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु-मिलाप से पहले तृष्णा अधीन हो के) मैं आधी-आधी दमड़ी को ढूँढता-फिरता था (गुरु की इनायत से) मेरे मन की सारी तृष्णा बुझ गई है। पहले मैं (किसी का) एक भी (कड़वा) बोल सह नहीं सकता था, साधु-संगत के सदका अब मेरा दिल ठंडा-ठार हो गया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक जीह गुण कवन वखानै अगम अगम अगमई ॥ दासु दास दास को करीअहु जन नानक हरि सरणई ॥४॥२॥१२४॥
मूलम्
एक जीह गुण कवन वखानै अगम अगम अगमई ॥ दासु दास दास को करीअहु जन नानक हरि सरणई ॥४॥२॥१२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीह = जीभ। कवन = कौन कौन से? अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। करीअहु = बना ले।4।
अर्थ: (हे भाई! गोबिंद की अपार कृपा से मुझे सतिगुरु मिला, उस गोबिंद के) कौन-कौन से गुण (उपकार) मेरी ये एक जीभ बयान करे? वह अगम्य (पहुँच से परे) है अगम्य (पहुँच से परे) है अगम्य (पहुँच से परे) है (उसके सारे गुण-उपकार बताए नहीं जा सकते)। हे नानक! (सिर्फ यही कहता रह -) हे हरि! मैं दास तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपने दासों के दासों का दास बनाए रख।4।2।124।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ रे मूड़े लाहे कउ तूं ढीला ढीला तोटे कउ बेगि धाइआ ॥ ससत वखरु तूं घिंनहि नाही पापी बाधा रेनाइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ रे मूड़े लाहे कउ तूं ढीला ढीला तोटे कउ बेगि धाइआ ॥ ससत वखरु तूं घिंनहि नाही पापी बाधा रेनाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! ढीला = ढीला, आलसी। तोटा = घटा। बेगि = जल्दी। धइआ = दौड़ता है। ससत = सस्ता। वखरु = सौदा। घिंनहि नाही = तू नहीं लेता। पापी = हे पापी! रेनाइआ = ऋण से, करजे से।1।
अर्थ: हे (मेरे) मूर्ख (मन)! (आत्मिक जीवन के) लाभ (वाले काम) के लिए तू बहुत आलसी है पर (आत्मिक जीवन की राशि के) घाटे वास्ते तू जल्दी उठ दौड़ता है! हे पापी! तू सस्ता सौदा लेता नहीं, (विकारों के) करजे के बोझमें बंधा हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर तेरी आसाइआ ॥ पतित पावनु तेरो नामु पारब्रहम मै एहा ओटाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुर तेरी आसाइआ ॥ पतित पावनु तेरो नामु पारब्रहम मै एहा ओटाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरु! आसाइआ = आस। पतित पावनु = विकारों में गिरे हुए को पवित्र करने वाला। पारब्रहम = हे पारब्रहम! एहा = यही।1। रहाउ।
अर्थ: हे गुरु! मुझे तेरी (सहायता) की उम्मीद है। हे परमात्मा! (मैं विकारी तो बहुत हूँ, पर) मुझे यही सहारा है कि तेरा नाम विकारों में गिरे हुए को पवित्र करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गंधण वैण सुणहि उरझावहि नामु लैत अलकाइआ ॥ निंद चिंद कउ बहुतु उमाहिओ बूझी उलटाइआ ॥२॥
मूलम्
गंधण वैण सुणहि उरझावहि नामु लैत अलकाइआ ॥ निंद चिंद कउ बहुतु उमाहिओ बूझी उलटाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गंधण = गंध भरे, गंदे। वैण = बैन, बोल, गीत। सुणहि = तू सुनता है। उरझावहि = तू मस्त होता है। अलकाइआ = आलस करता है। निंद चिंद = निंदा का ख्याल। उमाहिओ = तुझे चाव चढ़ता है। उलटाइआ = उल्टी ही।2।
अर्थ: हे मूर्ख! तू गंदे गीत सुनता है और (सुन के) मस्त होता है। परमात्मा का नाम लेते हुए तू आलस करता है किसी की निंदा की सोच से भी तुझे बहुत चाव चढ़ता है। हे मूर्ख! तूने हरेक बात उलटी ही समझी हुई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर धन पर तन पर ती निंदा अखाधि खाहि हरकाइआ ॥ साच धरम सिउ रुचि नही आवै सति सुनत छोहाइआ ॥३॥
मूलम्
पर धन पर तन पर ती निंदा अखाधि खाहि हरकाइआ ॥ साच धरम सिउ रुचि नही आवै सति सुनत छोहाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर तन = पराया शरीर। परती = पराई। अखाधि = वह चीजें जो नहीं खानी चाहिए। हरकाइआ = हलकाया, हलका हुआ। सचा = सदा साथ निभने वाला। रुचि = प्यार। सति = सदा स्थिर नाम। छोहाइआ = क्षोभ, छूह लगती है, गुस्सा आता है।3।
अर्थ: हे मूर्ख! तू पराया धन (चुराता है), पराया रूप (बुरी निगाह से देखता है), पराई निंदा (करता है, तू लोभ से) हलकाया हुआ है। वही चीजें खाता है जो तुझे नहीं खानी चाहिए। हे मूर्ख! सदा साथ निभने वाले धर्म के साथ तेरा प्यार नहीं पड़ता, सच-उपदेश सुनने में तुझे खिझ लगती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल क्रिपाल प्रभ ठाकुर भगत टेक हरि नाइआ ॥ नानक आहि सरण प्रभ आइओ राखु लाज अपनाइआ ॥४॥३॥१२५॥
मूलम्
दीन दइआल क्रिपाल प्रभ ठाकुर भगत टेक हरि नाइआ ॥ नानक आहि सरण प्रभ आइओ राखु लाज अपनाइआ ॥४॥३॥१२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगत = भक्तों को। आहि = चाह से, तमन्ना करके। प्रभ = हे प्रभु! अपनाइआ = अपना (सेवक) बना के। लज्जा = इज्जत।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) रे दीनों पर दया करने वाले ठाकुर! हे कृपा के घर प्रभु! तेरे भक्तों को तेरे नाम का सहारा है। हे प्रभु! मैं चाहत करके तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपना दास बना के मेरी लज्जा रख (मुझे मंद-कर्मों से बचाए रख)।4।3।125।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ मिथिआ संगि संगि लपटाए मोह माइआ करि बाधे ॥ जह जानो सो चीति न आवै अह्मबुधि भए आंधे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ मिथिआ संगि संगि लपटाए मोह माइआ करि बाधे ॥ जह जानो सो चीति न आवै अह्मबुधि भए आंधे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = झूठा, नाशवान। संगि = संगी, साथी। संगि = साथ, संगति में। लपटाए = चिपके हुए, मोह में फंसे हुए। करि = के कारण। बाधे = बंधे हुए। जह = जहां। जानो = जाना। चीति = चिक्त में। अहंबुधि = (अहं = मैं। बुधि = अकल) मैं मैं कहने वाली अक्ल, अहंकार। आंधे = अंधे।1।
अर्थ: (दुर्भाग्यशाली मनुष्य) झूठे साथियों की संगति में मस्त रहता है माया के मोह में बंधा रहता है, (ये जगत छोड़ के) जहाँ (आखिर) जाना है वह जगह (इसके) ख्याल में कभी नहीं आती, अहंम् में अंधा हुआ रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन बैरागी किउ न अराधे ॥ काच कोठरी माहि तूं बसता संगि सगल बिखै की बिआधे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन बैरागी किउ न अराधे ॥ काच कोठरी माहि तूं बसता संगि सगल बिखै की बिआधे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! बैरागी = माया के मोह से उपराम। काच = कच्ची। माहि = में। बिखै = विषौ विकार। बिआधे = रोग।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! तू माया के मोह से उपराम हो के परमात्मा की आराधना क्यूँ नहीं करता? (तेरा ये शरीर) कच्ची कोठरी (है जिसमें तू बस रहा है,) तेरे साथ सारे विषौ-विकारों के रोग चिपके हुए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी मेरी करत दिनु रैनि बिहावै पलु खिनु छीजै अरजाधे ॥ जैसे मीठै सादि लोभाए झूठ धंधि दुरगाधे ॥२॥
मूलम्
मेरी मेरी करत दिनु रैनि बिहावै पलु खिनु छीजै अरजाधे ॥ जैसे मीठै सादि लोभाए झूठ धंधि दुरगाधे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैनि = रात। बिहावै = गुजरती है। छीजै = कम हो रही है। अरजाधे = आरजा, उम्र। सादि = स्वाद में। धंधि = धंधे में। दुरगाधै = दुरगंध में।2।
अर्थ: ‘ये मेरी मल्कियत है ये मेरी जयदाद है’ -ये कहते हुए ही (दुर्भाग्यशाली मनुष्य का) दिन गुजर जाता है (इसी तरह फिर) रात गुजर जाती है, पल-पल छिन-छिन कर कर के इसकी उम्र घटती जाती है। जैसे मीठे के स्वाद में (मक्खी) फंस जाती है वैसे ही (दुर्भाग्यशाली मनुष्य) झूठे धंधे की दुर्गन्ध में फसा रहता है।2।
[[0403]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध अरु लोभ मोह इह इंद्री रसि लपटाधे ॥ दीई भवारी पुरखि बिधातै बहुरि बहुरि जनमाधे ॥३॥
मूलम्
काम क्रोध अरु लोभ मोह इह इंद्री रसि लपटाधे ॥ दीई भवारी पुरखि बिधातै बहुरि बहुरि जनमाधे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इंद्री रसि = इन्द्रियों के रस में। दीई = दी। भवारी = भरवटे। पुरखि = पुरख ने। बिधातै = विधाता ने।3।
अर्थ: काम, क्रोध, लोभ, मोह (आदि विकारों में) इन्द्रियों के रस में (मनुष्य) गलतान रहता है। (इन कुकर्मों के कारण जब) विधाता अकाल-पुरख ने (इस चौरासी लाख जूनियों वाली) भुवाटड़ी (चक्कर) दे दी तो ये बार बार जूनियों में भटकता फिरता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु तउ गुर मिलि सभ सुख लाधे ॥ कहु नानक दिनु रैनि धिआवउ मारि काढी सगल उपाधे ॥४॥
मूलम्
जउ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु तउ गुर मिलि सभ सुख लाधे ॥ कहु नानक दिनु रैनि धिआवउ मारि काढी सगल उपाधे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला। तउ = तब। गुर मिलि = गुरु को मिल के। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ। उपाधे = उपाधियां, विकार।4।
अर्थ: जब गरीबों के दुख नाश करने वाला परमात्मा (इस पर) दयावान होता है तब गुरु को मिल के ये सारे सुख हासिल कर लेता है।
हे नानक! कह: (परमात्मा की कृपा से गुरु को मिल के) मैं दिन-रात (हर समय परमात्मा का) ध्यान धरता हूँ, उसी ने मेरे अंदर से सारे विकार खत्म कर दिए हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इउ जपिओ भाई पुरखु बिधाते ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु जनम मरण दुख लाथे ॥१॥ रहाउ दूजा ॥४॥४॥१२६॥
मूलम्
इउ जपिओ भाई पुरखु बिधाते ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु जनम मरण दुख लाथे ॥१॥ रहाउ दूजा ॥४॥४॥१२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इउ = इस तरह (भाव, गुरु को मिल के)। जपिओ = जिस ने जपा।1। रहाउ दूजा।
अर्थ: (हे भाई!) इसी तरह ही (परमात्मा की मेहर से गुरु को मिल के ही, मनुष्य) विधाता प्रभु का नाम जप सकता है। जिस मनुष्य पर गरीबों के दुख दूर करने वाला परमात्मा दयावान होता है उसके जनम-मरण (के चक्कर) के दुख उतर जाते हैं।1। रहाउ दूजा।4।4।126।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ निमख काम सुआद कारणि कोटि दिनस दुखु पावहि ॥ घरी मुहत रंग माणहि फिरि बहुरि बहुरि पछुतावहि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ निमख काम सुआद कारणि कोटि दिनस दुखु पावहि ॥ घरी मुहत रंग माणहि फिरि बहुरि बहुरि पछुतावहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। कारणि = की खातिर। कोटि = करोड़ों। घरी = घड़ी। मुहत = महूरत, दो घड़ियां, पल मात्र। माणहि = तू भोगता है।1।
अर्थ: हे अंधे जीव! थोड़े जितने समय के काम-वासना के स्वाद की खातिर (फिर) तू करोड़ों ही दिन दुख ही सहता है। तू घड़ी दो घड़ी मौजें लेता है, उसके बाद मुड़-मुड़ पछताता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंधे चेति हरि हरि राइआ ॥ तेरा सो दिनु नेड़ै आइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अंधे चेति हरि हरि राइआ ॥ तेरा सो दिनु नेड़ै आइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधे = हे काम-वासना में अंधे हुए जीव! हरि राइआ = प्रभु पातशाह!।1। रहाउ।
अर्थ: हे काम-वासना में अंधे हुए जीव! (ये विकारों वाला राह छोड़, और) प्रभु-पातशाह का स्मरण कर। तेरा वह दिन नजदीक आ रहा है (जब तूने यहाँ से कूच कर जाना है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पलक द्रिसटि देखि भूलो आक नीम को तूमरु ॥ जैसा संगु बिसीअर सिउ है रे तैसो ही इहु पर ग्रिहु ॥२॥
मूलम्
पलक द्रिसटि देखि भूलो आक नीम को तूमरु ॥ जैसा संगु बिसीअर सिउ है रे तैसो ही इहु पर ग्रिहु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पलक द्रिसटि = आँख झपकने जितना समय। आक नीम को तूंमरु = आक नीम जैसा कड़वा तूंबा। संगु = साथ। बिसीअर = सांप। पर ग्रिह = पराइआ घर, पराई स्त्री का संग।2।
अर्थ: हे अंधे मूर्ख! आक-नीम जैसे कड़वे तूंबे को (जो देखने में सुंदर होता है) थोड़े से समय के लिए देख के ही तू भूल जाता है। हे अंधे! पराई स्त्री का संग ऐसे ही है जैसे विषौले साँप का साथ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैरी कारणि पाप करता बसतु रही अमाना ॥ छोडि जाहि तिन ही सिउ संगी साजन सिउ बैराना ॥३॥
मूलम्
बैरी कारणि पाप करता बसतु रही अमाना ॥ छोडि जाहि तिन ही सिउ संगी साजन सिउ बैराना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरी = वैरन, माया। बसतु = (असल) चीज। अमाना = अमन अमान, अलग ही। बैराना = वैर।3।
अर्थ: हे अंधे! (अंत) वैरी (माया) की खातिर तू (अनेक) पाप करता रहता है, असल चीज (जो तेरे साथ निभनी है) अलग ही पड़ी रह जाती है। तूने उन चीजों से साथ बनाया हुआ है जिन्हें तू आखिर छोड़ जाएगा, (इस तरह तूने) हे मित्र! (प्रभु) से वैर किया हुआ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल संसारु इहै बिधि बिआपिओ सो उबरिओ जिसु गुरु पूरा ॥ कहु नानक भव सागरु तरिओ भए पुनीत सरीरा ॥४॥५॥१२७॥
मूलम्
सगल संसारु इहै बिधि बिआपिओ सो उबरिओ जिसु गुरु पूरा ॥ कहु नानक भव सागरु तरिओ भए पुनीत सरीरा ॥४॥५॥१२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इहै बिधि = इसी तरह। बिआपिओ = फसा हुआ है। उबरिओ = बचा। भव सागरु = संसार समुंदर।4।
अर्थ: हे नानक! कह: सारा संसार इसी तरह माया के जाल में फसा हुआ है, इसमें से वही बच के निकलता है जिसका राखा पूरा गुरु बनता है, वह मनुष्य संसार समुंदर से पार लांघ जाता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है। (विकारों की मार से बच जाता है)।4।5।127।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ दुपदे ॥ लूकि कमानो सोई तुम्ह पेखिओ मूड़ मुगध मुकरानी ॥ आप कमाने कउ ले बांधे फिरि पाछै पछुतानी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ दुपदे ॥ लूकि कमानो सोई तुम्ह पेखिओ मूड़ मुगध मुकरानी ॥ आप कमाने कउ ले बांधे फिरि पाछै पछुतानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लूकि = लोगों से छिपा के। पेखिओ = देख लिया, देख लेता है। मूढ़ मुगध = मूर्ख बंदे! मुकरानी = मुकरते हैं। बांधे = बंध जाते हैं।1।
अर्थ: हे प्रभु! जो जो (बुरा) काम मनुष्य छुप के (भी) करते हैं तू देख लेता है, पर मूर्ख बेसमझ मनुष्य (फिर भी) मुकरते हैं। अपने किए बुरे कर्मों के कारण पकड़े जाते हें (तेरी हजूरी में वे विकार सामने आने पर) फिर पीछे से पछताते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ मेरे सभ बिधि आगै जानी ॥ भ्रम के मूसे तूं राखत परदा पाछै जीअ की मानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ मेरे सभ बिधि आगै जानी ॥ भ्रम के मूसे तूं राखत परदा पाछै जीअ की मानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै = पहले ही। मूसे = ठगे हुए। पाछै = पीछे से, छुप के। जीअ की मानी = मन मानी (करता है)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे मूर्ख मनुष्य! तू इस भुलेखे में रहता है कि तेरी काली करतूतों को परमात्मा नहीं जानता, पर) मेरा मालिक प्रभु तो तेरी हरेक करतूत को सबसे पहले जान लेता है। हे भुलेखे में आत्मिक जीवन लुटा रहे जीव! तू परमात्मा से परदा करता है, और छुप के मन-मानियां करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु जितु लाए तितु तितु लागे किआ को करै परानी ॥ बखसि लैहु पारब्रहम सुआमी नानक सद कुरबानी ॥२॥६॥१२८॥
मूलम्
जितु जितु लाए तितु तितु लागे किआ को करै परानी ॥ बखसि लैहु पारब्रहम सुआमी नानक सद कुरबानी ॥२॥६॥१२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को परानी = कोई जीव।2।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस जिस तरफ़ जीवों को परमात्मा लगाता है, उधर-उधर वह बिचारे लग पड़ते हैं। कोई जीव (परमात्मा की प्रेरणा के आगे) कोई हील-हुज्जत नहीं कर सकता।
हे नानक! कह: हे परमात्मा! हे जीवों के खसम! तू खुद जीवों पे बख्शिश कर, मैं तुझ पर से सदा कुर्बान जाता हूँ।2।6।128।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अपुने सेवक की आपे राखै आपे नामु जपावै ॥ जह जह काज किरति सेवक की तहा तहा उठि धावै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अपुने सेवक की आपे राखै आपे नामु जपावै ॥ जह जह काज किरति सेवक की तहा तहा उठि धावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखै = रख लेता है, रक्षा करता है, इज्जत रखता है। आपे = स्वयं ही। जह जह = जहाँ जहाँ। काज किरति = काम कार। उठि धावै = उठ के दौड़ पड़ता है, जल्दी पहुँच जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक की स्वयं ही (हर जगह) इज्जत रखता है, खुद ही उस से अपने नाम का स्मरण करवाता है। सेवक को जहाँ-जहाँ कोई काम-काज पड़े, वहाँ-वहाँ परमात्मा (उसका काम सँवारने के लिए) उसी वक्त जा पहुँचता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक कउ निकटी होइ दिखावै ॥ जो जो कहै ठाकुर पहि सेवकु ततकाल होइ आवै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सेवक कउ निकटी होइ दिखावै ॥ जो जो कहै ठाकुर पहि सेवकु ततकाल होइ आवै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। दिखावै = अपना आप दिखाता है। निकटी = निकटवर्ती, अंग संग रहने वाला। ठाकुर पहि = मालिक प्रभु के पास। कहै = कहता है। ततकाल = तुरंत, उसी वक्त।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक को (उसका) निकटवर्ती हो के दिखा देता है (परमात्मा अपने सेवक को दिखा देता है कि मैं हर समय तेरे अंग-संग रहता हूँ, क्योंकि) जो कुछ सेवक परमात्मा से मांगता है वह मांग उसी समय पूरी हो जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु सेवक कै हउ बलिहारी जो अपने प्रभ भावै ॥ तिस की सोइ सुणी मनु हरिआ तिसु नानक परसणि आवै ॥२॥७॥१२९॥
मूलम्
तिसु सेवक कै हउ बलिहारी जो अपने प्रभ भावै ॥ तिस की सोइ सुणी मनु हरिआ तिसु नानक परसणि आवै ॥२॥७॥१२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। बलिहारी = सदके। प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिस’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणी = सुना। परसणि = छूने के लिए।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जो सेवक अपने परमात्मा को प्यारा लगता है मैं उससे कुर्बान जाता हूँ। उस (सेवक) की शोभा सुन के (सुनने वाले का) मन खिल उठता है (आत्मिक जीवन से भरपूर हो जाता है और वह) उस सेवक के चरण छूने के लिए आता है।2।7।129।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा घरु ११ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा घरु ११ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नटूआ भेख दिखावै बहु बिधि जैसा है ओहु तैसा रे ॥ अनिक जोनि भ्रमिओ भ्रम भीतरि सुखहि नाही परवेसा रे ॥१॥
मूलम्
नटूआ भेख दिखावै बहु बिधि जैसा है ओहु तैसा रे ॥ अनिक जोनि भ्रमिओ भ्रम भीतरि सुखहि नाही परवेसा रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नटूआ = बहुरूपीआ। भेख = स्वांग। बहु बिध = कई तरह के। रे = हे भाई! भ्रम भीतरि = भटकना में पड़ के। सुखहि = सुख में।1।
अर्थ: हे भाई! बहुरूपीया कई किस्म के स्वांग (बना के लोगों को) दिखाता है (पर अपने अंदर से) वह जैसा है वैसा ही रहता है (अगर वह राजे-रानियों जैसा स्वांग भी करके दिखाए तो भी वह कंगाल का कंगाल ही रहता है। इस तरह) जीव (माया की) भटकना में फंस के अनेक जूनियों में भटकते फिरते हैं (अंतरात्मे हमेशा दुखी ही रहता है) सुख में उसका प्रवेश नहीं होता।1।
[[0404]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजन संत हमारे मीता बिनु हरि हरि आनीता रे ॥ साधसंगि मिलि हरि गुण गाए इहु जनमु पदारथु जीता रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साजन संत हमारे मीता बिनु हरि हरि आनीता रे ॥ साधसंगि मिलि हरि गुण गाए इहु जनमु पदारथु जीता रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमारे मीता = हे मेरे मित्रो! आनीता = अनित्त, नाशवान। मिलि = मिल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! हे सज्जनों! हे मेरे मित्रो! (जगत में जो कुछ भी दिख रहा है परमात्मा के बिना और सब कुछ नाशवान है (दिखते पसारे से मोह डाल के दुख ही प्राप्त होगा)। जिस मनुष्य ने साधु-संगत में मिल के परमात्मा के गुण गाने शुरू कर दिए, उसने ये कीमती मानव जन्म जीत लिया (सफल कर लिया)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रै गुण माइआ ब्रहम की कीन्ही कहहु कवन बिधि तरीऐ रे ॥ घूमन घेर अगाह गाखरी गुर सबदी पारि उतरीऐ रे ॥२॥
मूलम्
त्रै गुण माइआ ब्रहम की कीन्ही कहहु कवन बिधि तरीऐ रे ॥ घूमन घेर अगाह गाखरी गुर सबदी पारि उतरीऐ रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: की = की। कीनी = बनाई हुई। कवन बिधि = किस तरीके से? अगाह = अथाह, बहुत गहरी। गाखरी = मुश्किल।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की पैदा की हुई ये त्रिगुणी माया (मानो, एक समुंदर है, इस में से) बताओ, कैसे पार लांघ सकें? (इसमें अनेक विकारों की) घुम्मण-घेरियां चल रही हैं, ये अथाह है, इसमें से पार होना बहुत मुश्किल है। (हां हे भाई!) गुरु के शब्द के द्वारा ही इसमें से पार लांघ सकते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत खोजि बीचारिओ ततु नानक इहु जाना रे ॥ सिमरत नामु निधानु निरमोलकु मनु माणकु पतीआना रे ॥३॥१॥१३०॥
मूलम्
खोजत खोजत खोजि बीचारिओ ततु नानक इहु जाना रे ॥ सिमरत नामु निधानु निरमोलकु मनु माणकु पतीआना रे ॥३॥१॥१३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत = तलाश करते हुए। खोजि = तलाश करके। ततु = अस्लियत। निधानु = खजाना। निरमोलकु = जिसके बराबर के मूल्य की और कोई चीज नहीं। माणकु = मोती। पतीआना = परच जाना, आदत पड़ जानी।3।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने (साधु-संगत में मिल के) खोज करते हुए विचार की और उसने ये अस्लियत समझली कि परमात्मा का नाम जो सारे गुणों का खजाना है जिसके बराबर का और कोई नहीं, ऐसे नाम को स्मरण करके मन मोती (जैसा कीमती) बन जाता है (और परमात्मा के स्मरण में) पतीज जाता है।3।1।130।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ दुपदे ॥ गुर परसादि मेरै मनि वसिआ जो मागउ सो पावउ रे ॥ नाम रंगि इहु मनु त्रिपताना बहुरि न कतहूं धावउ रे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ दुपदे ॥ गुर परसादि मेरै मनि वसिआ जो मागउ सो पावउ रे ॥ नाम रंगि इहु मनु त्रिपताना बहुरि न कतहूं धावउ रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। मनि = मन में। मागउ = मैं मांगता हूँ, मांगू। पावउ = पाऊँ, मैं पाता हूँ, मैं हासिल कर लेता हूँ। रे = हे भाई! रंगि = रंग से। त्रिपताना = तृप्त हो गया। बहुरि = दुबारा।1।
अर्थ: हे भाई! जब से गुरु की किरपा से मेरा वह मालिक-प्रभु मेरे मन में आ बसा है तब से मैं (उससे) जो कुछ मांगता हूँ वही कुछ पा लेता हूँ। (मेरे मालिक-प्रभु के) नाम के प्रेम-रंग से मेरा ये मन (माया की तृष्णा से) भर चुका है (तब से) मैं दुबारा किसी और तरफ भटकता नहीं फिरता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरा ठाकुरु सभ ते ऊचा रैणि दिनसु तिसु गावउ रे ॥ खिन महि थापि उथापनहारा तिस ते तुझहि डरावउ रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हमरा ठाकुरु सभ ते ऊचा रैणि दिनसु तिसु गावउ रे ॥ खिन महि थापि उथापनहारा तिस ते तुझहि डरावउ रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमरा ठाकुरु = मेरा मालिक प्रभु! ते = से। रैणि = रात। दिनसु = दिन। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। तुझहि = तुझे। डरावउ = डराता हूँ, उसे डर में रखता हूँ।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ते’ में से शब्द ‘तिस’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन! मेरा मालिक प्रभु सबसे ऊँचा है, मैं रात दिन उसकी (ही) महिमा करता रहता हूँ। मेरा वह मालिक एक छिन में पैदा करके नाश करने की सामर्थ्य रखने वाला है। मैं, (हे मन!) तुझे उसके भय-अदब में रखना चाहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब देखउ प्रभु अपुना सुआमी तउ अवरहि चीति न पावउ रे ॥ नानकु दासु प्रभि आपि पहिराइआ भ्रमु भउ मेटि लिखावउ रे ॥२॥२॥१३१॥
मूलम्
जब देखउ प्रभु अपुना सुआमी तउ अवरहि चीति न पावउ रे ॥ नानकु दासु प्रभि आपि पहिराइआ भ्रमु भउ मेटि लिखावउ रे ॥२॥२॥१३१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दुपदे = दो बंदों वाले शब्द।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरहि = किसी और को। चीति = चित्त में। न पावउ = नहीं पाता, नहीं टिकाता। प्रभि = प्रभु ने। पहिराइआ = आदर मान दिया, सिरोपा दिया, निवाजा। लिखावउ = मैं उकरवाता हूँ, परोता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! जब मैं अपने पति-प्रभु को (अपने अंदर बसता) देख लेता हूँ मैं किसी और (ओट आसरे) को चित्त में जगह नहीं देता। हे भाई! जब से प्रभु ने अपने दास नानक को खुद निवाजा है तब से मैंने अन्य सारी किस्म की भटकनें दूर करके (अपने चित्त में सिर्फ परमात्मा के नाम को) लिखता रहता हूँ।2।2।131।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ चारि बरन चउहा के मरदन खटु दरसन कर तली रे ॥ सुंदर सुघर सरूप सिआने पंचहु ही मोहि छली रे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ चारि बरन चउहा के मरदन खटु दरसन कर तली रे ॥ सुंदर सुघर सरूप सिआने पंचहु ही मोहि छली रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि बरन = ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र (शब्द ‘चारि’ गिनती वाचक है, जबकि ‘चार’ विशेषण है जिसका अर्थ है ‘सुंदर’)। मरदन = मलने वाले। खटु दरसन = छह भेख। कर तली = हाथ की तली पर। रे = हे भाई! सुघर = सुघड़, सुनख्खे, सोहने। पंचहु = पाँचों ने। मोहि = मोह के। छली = छल लिया है।1।
अर्थ: हे भाई! (हमारे देश में ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये) चार वर्ण (प्रसिद्ध) हैं, (कामादिक विकार इन) चारों वर्णों (के लोगों) को मसल देने वाले हैं। छह भेषों (के साधुओं) को भी ये हाथों की तलियों पर (नचाते हैं)। सुंदर, सुरूप, बाँके, सयाने (कोई भी हों, कामादिक) पाँचों ने सभी को मोह कर छल लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि मिलि मारे पंच सूरबीर ऐसो कउनु बली रे ॥ जिनि पंच मारि बिदारि गुदारे सो पूरा इह कली रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिनि मिलि मारे पंच सूरबीर ऐसो कउनु बली रे ॥ जिनि पंच मारि बिदारि गुदारे सो पूरा इह कली रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। मिलि = (गुरु को) मिल के। सूरबीर = बहादुर सूरमे। कउनु बली = कोई विरला बलवान। मारि = मार के। बिदारि = फाड़ के। गुदारे = खत्म कर दिए। इह कली = इस जगत में (शब्द ‘कली’ यहाँ ‘जुग’ का ख्याल नहीं दे रहा)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला ही ऐसा बलवान मनुष्य है जिसने (गुरु को) मिल के कामादिक पाँचों शूरवीरों को मार लिया है (पर विजय पा ली हो)। हे भाई! जगत में वही मनुष्य पूर्ण है जिसने इन पाँचों को मार के टुकड़े-टुकड़े कर दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडी कोम वसि भागहि नाही मुहकम फउज हठली रे ॥ कहु नानक तिनि जनि निरदलिआ साधसंगति कै झली रे ॥२॥३॥१३२॥
मूलम्
वडी कोम वसि भागहि नाही मुहकम फउज हठली रे ॥ कहु नानक तिनि जनि निरदलिआ साधसंगति कै झली रे ॥२॥३॥१३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोम = कोड़मा, खानदान। वसि = वश में। भागहि = भागते। मुहकम = मजबूत। हठली = हठ वाली। तिनि जनि = उस मनुष्य ने। निरदलिआ = अच्छी तरह लिताड़ा। झली = आसरे।2।
अर्थ: हे भाई! (इन कामादिकों का बहुत बडा) बलशाली कुनबा है, ना ये किसी के काबू में आते हैं ना ये किसी से डर के भागते हैं। इनकी फौज बड़ी मजबूत और हठ वाली है।
हे भाई! कह: हे भाई! सिर्फ उस मनुष्य ने इनको अच्छी तरह लिताड़ा है जो साधु-संगत के आसरे में (ओट में) रहता है।2।3।132।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ नीकी जीअ की हरि कथा ऊतम आन सगल रस फीकी रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ नीकी जीअ की हरि कथा ऊतम आन सगल रस फीकी रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीकी = अच्छी (चीज)। जीअ की = जिंद की, जिंद के वास्ते। ऊतम = श्रेष्ठ। आन = अन्य। सगल = सारे। फीकी = फीके, बेस्वादे।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महिमा की बात जिंद के वास्ते श्रेष्ठ और सुंदर है। (दुनिया के) और सारे पदार्थों के स्वाद (इसके मुकाबले पर) फीके हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु गुनि धुनि मुनि जन खटु बेते अवरु न किछु लाईकी रे ॥१॥
मूलम्
बहु गुनि धुनि मुनि जन खटु बेते अवरु न किछु लाईकी रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहुगुनि = बहुत गुणों वाली। धुनि = मिठास वाली। खट = छह (शास्त्र)। बेते = जानने वाले। लाइकी = लायक, योग्य, लाभदायक। रे = हे भाई!।1।
अर्थ: हे भाई! ये हरि कथा बहुत गुणों वाली है (जीव के अंदर गुण पैदा करने वाली है) मिठास भरी है, छह शस्त्रों को जानने वाले ऋषि लोग (ही हरि-कथा के बिना) किसी और उद्यम को (जीवात्मा के लिए) लाभदायक नहीं मानते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखारी निरारी अपारी सहजारी साधसंगि नानक पीकी रे ॥२॥४॥१३३॥
मूलम्
बिखारी निरारी अपारी सहजारी साधसंगि नानक पीकी रे ॥२॥४॥१३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखारी = (बिख+अरि) विषियों की वैरन, विषयों का दबाव हटाने वाली। निरानी = निराली, अनोखी। अपारी = बेअंत, अकथ। सहजारी = आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली। पीकी = पीयी जाती है।2।
अर्थ: हे भाई! ये हरि-कथा (जैसे, अमृत की धार है जो) विषियों के जहर के असर का नाश करती है। हे नानक! (ये हरि-कथा, ये अमृत-धारा) साधु-संगत में (टिक के ही) पीयी जा सकती है।2।4।133।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हमारी पिआरी अम्रित धारी गुरि निमख न मन ते टारी रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हमारी पिआरी अम्रित धारी गुरि निमख न मन ते टारी रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितधारी = आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धार वाली। गुरि = गुरु ने। निमख = आँख झपकने जितना समय। ते = से। टारी = टाली, हटाई, दूर की। रे = हे भाई!।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (कृपा करके प्रभु की महिमा वाली अपनी वाणी) आँख झपकने जितने समय के लिए भी मेरे मन से कभी भूलने नहीं दी, ये वाणी मुझे मधुर लगती है, ये वाणी आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धारा मेरे अंदर जारी रखती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसन परसन सरसन हरसन रंगि रंगी करतारी रे ॥१॥
मूलम्
दरसन परसन सरसन हरसन रंगि रंगी करतारी रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसन = (कर्तार का) दीदार। परसन = (कर्तार के चरणों की) छोह। सरसन = आत्मिक खिलाउ। हरसन = हर्ष, आनंद, खुशी। रंगि = प्रेम रंग में। रंगी = रंगने वाली।1।
अर्थ: हे भाई! ये वाणी कर्तार के प्रेम रंग में रंगने वाली है, इसकी इनायत से कर्तार के दर्शन होते हैं कर्तार के चरणों की छूह मिलती है मन में आनंद और खिलाउ पैदा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिनु रम गुर गम हरि दम नह जम हरि कंठि नानक उरि हारी रे ॥२॥५॥१३४॥
मूलम्
खिनु रम गुर गम हरि दम नह जम हरि कंठि नानक उरि हारी रे ॥२॥५॥१३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रम = स्मरण। गम = पहुँच। हर दम = स्वास स्वास। कंठि = गले में। उरि = हृदय में।2।
अर्थ: हे भाई! इस वाणी को एक छिन वास्ते भी हृदय में बसाने से गुरु के चरणों तक पहुँच बन जाती है, इसे स्वास-स्वास हृदय में बसाने से जमों का डर नहीं व्याप सकता। हे नानक! इस हरि-कथा को अपने गले में परो के रख, अपने हृदय का हार (बना के) रख।2।5।134।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ नीकी साध संगानी ॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ नीकी साध संगानी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीकी = अच्छी। संगानी = संगति। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत (मनुष्य के लिए एक) खूबसूरत बरकत है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पहर मूरत पल गावत गावत गोविंद गोविंद वखानी ॥१॥
मूलम्
पहर मूरत पल गावत गावत गोविंद गोविंद वखानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहर = (आठों) पहर, हर वक्त। मूरत = मुहूरत, हर घड़ी। वखानी = वर्णन होता है।1।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत में) आठों पहर, पल पल, घड़ी-घड़ी परमात्मा की महिमा के गीत गाए जाते हैं, परमात्मा के महिमा की बातें होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चालत बैसत सोवत हरि जसु मनि तनि चरन खटानी ॥२॥
मूलम्
चालत बैसत सोवत हरि जसु मनि तनि चरन खटानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चालत = चलते फिरते। बैसत = बैठते हुए। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। चरन खटानी = चरणों का मिलाप।2।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से) चलते-बैठते-सोए हुए (हर वक्त) परमातमा की महिमा (करने का स्वभाव बन जाता है) मन में परमात्मा, हृदय में परमात्मा आ बसता है, परमात्मा के चरणों में हर वक्त मेल बना रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंउ हउरो तू ठाकुरु गउरो नानक सरनि पछानी ॥३॥६॥१३५॥
मूलम्
हंउ हउरो तू ठाकुरु गउरो नानक सरनि पछानी ॥३॥६॥१३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। हउरो = हलका, गुण हीन। गउरो = भारा, गुणों से भरपूर। सरनि = शरण, ओट।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं गुण-हीन हूँ, तू मेरा मालिक गुणों से भरपूर है (साधु-संगत के सदका) मुझे तेरी शरण पड़ने की समझ आई है।3।6।135।
[[0405]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा महला ५ घरु १२ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु आसा महला ५ घरु १२ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिआगि सगल सिआनपा भजु पारब्रहम निरंकारु ॥ एक साचे नाम बाझहु सगल दीसै छारु ॥१॥
मूलम्
तिआगि सगल सिआनपा भजु पारब्रहम निरंकारु ॥ एक साचे नाम बाझहु सगल दीसै छारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भजु = स्मरण कर। साचे = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के। बाझहु = बिना। छारु = राख, निकम्मी।1।
अर्थ: (हे भाई! संसार-समुंदर में से पार लांघने के लिए इस संबंधी अपनी) सारी सियानपें छोड़ दे, परमात्मा निरंकार का स्मरण किया कर। सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (संसार-समुंदर से पार लांघने संबंधी और) हरेक चतुराई निकम्मी (मूर्खता साबित होती) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो प्रभु जाणीऐ सद संगि ॥ गुर प्रसादी बूझीऐ एक हरि कै रंगि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो प्रभु जाणीऐ सद संगि ॥ गुर प्रसादी बूझीऐ एक हरि कै रंगि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणीऐ = समझना चाहिए। सद = सदा। संगि = अंग संग बसता। प्रसादी = प्रसाद, कृपा से। बूझीऐ = समझ आती है। रंगि = प्रेम में (जुड़ने से)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! अगर संसार-समुंदर में से अपनी जीवन-बेड़ी सही-सलामत पार लंघानी है, तो) उस परमात्मा को हमेशा अपने अंग-संग बसता समझना चाहिए। ये समझ तभी पड़ सकती है अगर गुरु की कृपा से एक परमात्मा के प्यार में टिके रहें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरणि समरथ एक केरी दूजा नाही ठाउ ॥ महा भउजलु लंघीऐ सदा हरि गुण गाउ ॥२॥
मूलम्
सरणि समरथ एक केरी दूजा नाही ठाउ ॥ महा भउजलु लंघीऐ सदा हरि गुण गाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = ताकत वाली। सरणि = ओट, आसरा। केरी = की। भउजलु = संसार समुंदर।2।
अर्थ: (हे भाई! संसार-समुंदर से पार लंघा सकने की) ताकत रखने वाली सिर्फ एक परमात्मा की ओट है, इसके बिना और कोई सहारा नहीं (इस वास्ते, हे भाई!) सदा परमात्मा के गुण गाता रह तो ही इस बिखड़े संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकेगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम मरणु निवारीऐ दुखु न जम पुरि होइ ॥ नामु निधानु सोई पाए क्रिपा करे प्रभु सोइ ॥३॥
मूलम्
जनम मरणु निवारीऐ दुखु न जम पुरि होइ ॥ नामु निधानु सोई पाए क्रिपा करे प्रभु सोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवारीऐ = दूर किया जा सकता है। जमपुरि = जम की पुरी में। निधान = खजाना।3।
अर्थ: (हे भाई! यदि परमात्मा को सदा अंग-संग बसता पहचान लें तो) जनम-मरन का चक्कर समाप्त हो जाता है, जमों के शहर में निवास नहीं होता (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती) कोई दुख छू नहीं सकता। (पर सारे गुणों का) खजाना ये हरि-नाम वही मनुष्य प्राप्त करता है जिस पर प्रभु स्वयं कृपा करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक टेक अधारु एको एक का मनि जोरु ॥ नानक जपीऐ मिलि साधसंगति हरि बिनु अवरु न होरु ॥४॥१॥१३६॥
मूलम्
एक टेक अधारु एको एक का मनि जोरु ॥ नानक जपीऐ मिलि साधसंगति हरि बिनु अवरु न होरु ॥४॥१॥१३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधारु = आसरा। मनि = मन में। जोरु = बल, ताण, सहारा।4।
अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा की ही ओट, एक परमात्मा का ही आसरा, एक परमात्मा का ही मन में तकिया (जम-पुरी से बचा सकता) है। (इस वास्ते) हे नानक! साधु-संगत में मिल के परमात्मा का ही नाम स्मरणा चाहिए, परमात्मा के बिना और कोई नहीं (जो जमपुरी से बचा सके जो संसार समुंदर से पार लंघा सके)।4।1।136।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ से घर 12 के शबदों का संग्रह आरम्भ हुआ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जीउ मनु तनु प्रान प्रभ के दीए सभि रस भोग ॥ दीन बंधप जीअ दाता सरणि राखण जोगु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जीउ मनु तनु प्रान प्रभ के दीए सभि रस भोग ॥ दीन बंधप जीअ दाता सरणि राखण जोगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। तनु = शरीर। के दीए = के दिए हुए। सभि = सारे। रस भोग = स्वादिष्ट पदार्थ। दीन बंधप = गरीबों का रिश्तेदार। जीअ दाता = आत्मिक जीवन देने वाला। जोगु = समर्थ।1।
अर्थ: (हे भाई!) ये जिंद, ये मन, ये शरीर, ये प्राण, सारे स्वादिष्ट पदार्थ -ये सब परमात्मा के दिए हुए हैं। परमात्मा ही गरीबों का (असल) संबंधी है, परमात्मा ही आत्मिक जीवन देने वाला है, परमात्मा ही शरण पड़े की रक्षा करने में समर्थ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन धिआइ हरि हरि नाउ ॥ हलति पलति सहाइ संगे एक सिउ लिव लाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन धिआइ हरि हरि नाउ ॥ हलति पलति सहाइ संगे एक सिउ लिव लाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। सहाइ = सहाई। संगे = साथ रहने वाला। लिव लाउ = तवज्जो/ध्यान जोड़।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। परमात्मा ही इस लोक में और परलोक में तेरी सहायता करने वाला है तेरे साथ रहने वाला है। एक परमात्मा के साथ ही तवज्जो जोड़े रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद सासत्र जन धिआवहि तरण कउ संसारु ॥ करम धरम अनेक किरिआ सभ ऊपरि नामु अचारु ॥२॥
मूलम्
बेद सासत्र जन धिआवहि तरण कउ संसारु ॥ करम धरम अनेक किरिआ सभ ऊपरि नामु अचारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन = लोक। धिआवहि = विचारते हैं। कउ = वास्ते। करम धरम = (वेदों-शास्त्रों के अनुसार निहित हुई) धार्मिक मर्यादा।2।
अर्थ: हे भाई! संसार-समुंदर से पार लांघने के वास्ते लोग वेदों-शास्त्रों को विचारते हैं (और उनके बताए मुताबिक निहित) अनेक धार्मिक कर्म व अन्य साधन करते हैं। पर परमात्मा का नाम-स्मरण एक ऐसा धार्मिक उद्यम है जो उन निहित सब धार्मिक कर्मों से ऊँचा है श्रेष्ठ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु अहंकारु बिनसै मिलै सतिगुर देव ॥ नामु द्रिड़ु करि भगति हरि की भली प्रभ की सेव ॥३॥
मूलम्
कामु क्रोधु अहंकारु बिनसै मिलै सतिगुर देव ॥ नामु द्रिड़ु करि भगति हरि की भली प्रभ की सेव ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनसै = नाश हो जाता है। सतिगुर मिलै = (जो मनुष्य) गुरु को मिलता है।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु-देव को मिल जाता है (और उसकी शिक्षा के अनुसार परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसके मन में से) काम-वासना दूर हो जाती है क्रोध मिट जाता है, अहंकार खत्म हो जाता है। (हे भाई! तू भी अपने हृदय में) परमात्मा का नाम पक्की तरह टिकाए रख, परमात्मा की भक्ति कर। परमात्मा की सेवा-भक्ति ही बढ़िया काम है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण सरण दइआल तेरी तूं निमाणे माणु ॥ जीअ प्राण अधारु तेरा नानक का प्रभु ताणु ॥४॥२॥१३७॥
मूलम्
चरण सरण दइआल तेरी तूं निमाणे माणु ॥ जीअ प्राण अधारु तेरा नानक का प्रभु ताणु ॥४॥२॥१३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = हे दयालु! जीअ अधारु = जीवात्मा का आसरा। ताणु = सहारा।4।
अर्थ: हे दया के घर प्रभु! मैंने तेरे चरणों की ओट ली है, तू ही मुझ निमाणे को आदर देने वाला है। हे प्रभु! मुझे अपनी जिंद वास्ते, प्राणों के वास्ते तेरा ही सहारा है।
हे भाई! (दास) नानक का आसरा परमात्मा ही है।4।2।137।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ डोलि डोलि महा दुखु पाइआ बिना साधू संग ॥ खाटि लाभु गोबिंद हरि रसु पारब्रहम इक रंग ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ डोलि डोलि महा दुखु पाइआ बिना साधू संग ॥ खाटि लाभु गोबिंद हरि रसु पारब्रहम इक रंग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डोलि डोलि = (असल संगी परमात्मा से) श्रद्धा हीन हो के कभी इधर कभी उधर। साधू = गुरु। खाटि = कमा के। हरि रसु = हरि नाम का स्वाद। पारब्रहम इक रंग = एक परमात्मा (के मिलाप) का आनंद।1।
अर्थ: (हे मन!) गुरु की संगति से वंचित रह के (असल सहाई परमात्मा से) सिदक-हीन हो हो के तू बड़ा दुख सहता रहा। अब तो हरि-नाम का स्वाद चख, एक परमात्मा के मिलाप का आनंद ले (यही है जीवन का) लाभ (ये) कमा ले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि को नामु जपीऐ नीति ॥ सासि सासि धिआइ सो प्रभु तिआगि अवर परीति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि को नामु जपीऐ नीति ॥ सासि सासि धिआइ सो प्रभु तिआगि अवर परीति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। नीति = नित्य, सदा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। अवर = और दूसरी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सदा जपते रहना चाहिए। (हे भाई!) हरेक सांस के साथ उस परमात्मा को स्मरण करता रह, औरों की प्रीति त्याग दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करण कारण समरथ सो प्रभु जीअ दाता आपि ॥ तिआगि सगल सिआणपा आठ पहर प्रभु जापि ॥२॥
मूलम्
करण कारण समरथ सो प्रभु जीअ दाता आपि ॥ तिआगि सगल सिआणपा आठ पहर प्रभु जापि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करण कारण = सारे जगत का मूल। जीअ दाता = आत्मिक जीवन देने वाला।2।
अर्थ: (हे भाई! दुखों से छुटकारा पाने के लिए) और सारी चतुराईयां छोड़ दे, आठों पहर प्रभु को याद करता रह। वह प्रभु ही सारे जगत का मूल है, (दुख दूर करने के) समर्थ है, वह खुद ही आत्मिक जीवन देने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीतु सखा सहाइ संगी ऊच अगम अपारु ॥ चरण कमल बसाइ हिरदै जीअ को आधारु ॥३॥
मूलम्
मीतु सखा सहाइ संगी ऊच अगम अपारु ॥ चरण कमल बसाइ हिरदै जीअ को आधारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखा = दोस्त। सहाइ = सहाई। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। हिरदै = हृदय में। जीअ को = जिंद को।3।
अर्थ: हे भाई! वह सबसे ऊँचा, अगम्य (पहुँच से परे) व बेअंत परमात्मा ही तेरा असल मित्र है दोस्त है सहायक है साथी है, उसके सोहाने कोमल चरण अपने दिल में बसाए रख, वही जिंद का (असली) सहारा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ पारब्रहम गुण तेरा जसु गाउ ॥ सरब सूख वडी वडिआई जपि जीवै नानकु नाउ ॥४॥३॥१३८॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ पारब्रहम गुण तेरा जसु गाउ ॥ सरब सूख वडी वडिआई जपि जीवै नानकु नाउ ॥४॥३॥१३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! गाउ = गाऊँ। जपि = जप के। जीवै नानकु = नानक जीता है।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे पारब्रहम! मेहर कर मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ तेरी महिमा करता रहूँ। (तेरी महिमा में ही) सारे सुख हैं और बड़ी इज्जत है। (तेरा दास) नानक तेरा नाम स्मरण करके आत्मिक जीवन प्राप्त करता है।4।3।138।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ उदमु करउ करावहु ठाकुर पेखत साधू संगि ॥ हरि हरि नामु चरावहु रंगनि आपे ही प्रभ रंगि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ उदमु करउ करावहु ठाकुर पेखत साधू संगि ॥ हरि हरि नामु चरावहु रंगनि आपे ही प्रभ रंगि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करूँ। करावहु = तू कराता रह। ठाकुर = हे ठाकुर! साधू संगि = गुरु की संगति में। चरावहु = चढ़ाऔ। रंगनि = रंगने। प्रभ = हे प्रभु! रंगि = (अपने नाम रंग में) रंग।1।
अर्थ: हे मेरे मालिक! (मुझसे ये उद्यम) करवाता रह, गुरु की संगति में तेरे दर्शन करते हुए मैं तेरा नाम जपने का आहर करता रहूँ। हे प्रभु! मेरे मन पर तू अपने नाम की रंगत चढ़ा दे, तू खुद ही (मेरे मन को अपने प्रेम के रंग में) रंग दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन महि राम नामा जापि ॥ करि किरपा वसहु मेरै हिरदै होइ सहाई आपि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन महि राम नामा जापि ॥ करि किरपा वसहु मेरै हिरदै होइ सहाई आपि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापि = जपूँ, मैं जपता रहूँ। हिरदै = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (मेरे पर) किरपा कर, मेरे दिल में आ बस। यदि तू मेरा मददगार बने तो मैं अपने मन में तेरा राम-नाम जपता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि नामु तुमारा प्रीतम प्रभु पेखन का चाउ ॥ दइआ करहु किरम अपुने कउ इहै मनोरथु सुआउ ॥२॥
मूलम्
सुणि सुणि नामु तुमारा प्रीतम प्रभु पेखन का चाउ ॥ दइआ करहु किरम अपुने कउ इहै मनोरथु सुआउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! पेखन का = देखने का। किरम = कीड़ा, नाचीज। सुआउ = गर्ज।2
अर्थ: हे मेरे प्यारे! तू मेरा मालिक है, अपने इस नाचीज सेवक पर मेहर कर कि तेरा नाम सुन-सुन के मेरे अंदर तेरे दर्शनों का चाव बना रहे- मेरा ये उद्देश्य पूरा कर, मेरी ये अभिलाषा पूरी कर।2।
[[0406]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु धनु तेरा तूं प्रभु मेरा हमरै वसि किछु नाहि ॥ जिउ जिउ राखहि तिउ तिउ रहणा तेरा दीआ खाहि ॥३॥
मूलम्
तनु धनु तेरा तूं प्रभु मेरा हमरै वसि किछु नाहि ॥ जिउ जिउ राखहि तिउ तिउ रहणा तेरा दीआ खाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसि = वश में। खाहि = खाते हैं।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) मेरा ये शरीर, मेरा ये धन सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है, तू ही मेरा मालिक है। (हम जीव अपने उद्यम से तेरे नाम जपने के योग्य भी नहीं हैं) हमारे बस में कुछ भी नहीं है। तू हम जीवों को जिस-जिस हाल में रखता है उसी तरह ही हम जीवन बिताते हैं, हम तेरा ही दिया हुआ हरेक पदार्थ खाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम जनम के किलविख काटै मजनु हरि जन धूरि ॥ भाइ भगति भरम भउ नासै हरि नानक सदा हजूरि ॥४॥४॥१३९॥
मूलम्
जनम जनम के किलविख काटै मजनु हरि जन धूरि ॥ भाइ भगति भरम भउ नासै हरि नानक सदा हजूरि ॥४॥४॥१३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलविख = पाप। मजनु = स्नान। धूरि = चरणों की धूल। भाइ = प्रेम से।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) परमात्मा के सेवकों (के चरणों) की धूल में (किया हुआ) स्नान (मनुष्य के) जन्मों-जन्मांतरों के (किए हुए) पाप दूर कर देता है, प्रभु-प्रेम से भक्ति की इनायत से (मनुष्य का) हरेक किस्म का डर वहम नाश हो जाता है, और परमात्मा सदा अंग-संग प्रतीत होने लग पड़ता है।4।4।139।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अगम अगोचरु दरसु तेरा सो पाए जिसु मसतकि भागु ॥ आपि क्रिपालि क्रिपा प्रभि धारी सतिगुरि बखसिआ हरि नामु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अगम अगोचरु दरसु तेरा सो पाए जिसु मसतकि भागु ॥ आपि क्रिपालि क्रिपा प्रभि धारी सतिगुरि बखसिआ हरि नामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलख = हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। मसतकि = माथे पर। क्रिपालि = कृपालु ने। प्रभि = प्रभु ने। सतिगुरि = सतिगुर ने।1।
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! तू मनुष्यों की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, तेरे दर्शन वही मनुष्य करता है, जिसके मस्तक के भाग्य जाग पड़ते हैं। (हे भाई! जिस मनुष्य पर) कृपा के घर परमात्मा ने कृपा की निगाह की सतिगुरु ने उसे परमात्मा के नाम (-जपने की दाति) बख्श दी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलिजुगु उधारिआ गुरदेव ॥ मल मूत मूड़ जि मुघद होते सभि लगे तेरी सेव ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कलिजुगु उधारिआ गुरदेव ॥ मल मूत मूड़ जि मुघद होते सभि लगे तेरी सेव ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलिजुगु = (भाव) कलजुगी जीवों को, विकारी जीवों को। गुरदेव = हे गुरदेव! मल मूत = गंदे। जि = जो। मुघद = मूर्ख। सभि = सारे।1। रहाउं
अर्थ: हे सतिगुरु! तूने (तो) कलियुग को भी बचा लिया है (जिसे और युगों से बुरा समझा जाता है, भाव जो भी पहले) गंदे व मूर्ख (थे वह) सारे तेरी सेवा में आ के लगे हैं (तेरी बताई प्रभु की सेवा-भक्ति करने लग पड़े हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू आपि करता सभ स्रिसटि धरता सभ महि रहिआ समाइ ॥ धरम राजा बिसमादु होआ सभ पई पैरी आइ ॥२॥
मूलम्
तू आपि करता सभ स्रिसटि धरता सभ महि रहिआ समाइ ॥ धरम राजा बिसमादु होआ सभ पई पैरी आइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसमादु = हैरान। धरता = सहारा देने वाला।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है तू स्वयं (ही) सारी सृष्टि को आसरा देने वाला है, तू स्वयं ही सारी सृष्टि में व्यापक है (फिर कोई युग अच्छा कैसे? और कोई जुग बुरा कैसे? चाहे इस कलियुग को चारों युगों से बुरा कहा जाता है, फिर भी) धर्मराज हैरान हो रहा है (कि गुरु की कृपा से विकारों से हट के) सारी लुकाई तेरे चरणों में जुड़ रही है। (सो, अगर पुराने विचारों की तरफ भी जाएं तो भी ये कलियुग बुरा युग नहीं, और ये जुग जीवों को बुरे-कर्मों की ओर नहीं प्रेरता)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतजुगु त्रेता दुआपरु भणीऐ कलिजुगु ऊतमो जुगा माहि ॥ अहि करु करे सु अहि करु पाए कोई न पकड़ीऐ किसै थाइ ॥३॥
मूलम्
सतजुगु त्रेता दुआपरु भणीऐ कलिजुगु ऊतमो जुगा माहि ॥ अहि करु करे सु अहि करु पाए कोई न पकड़ीऐ किसै थाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भणीऐ = कहा जाता है। अहि करु = इस हाथ। किसै थाइ = किसी दूसरी जगह।3।
अर्थ: हे भाई! सतियुग को, त्रेते को, द्वापर को (अच्छा) युग कहा जाता है (पर, प्रत्यक्ष दिख रहा है कि बल्कि) कलियुग सारे युगों में श्रेष्ठ है (क्योंकि इस जुग में) जो हाथ कोई कर्म करता है, वही हाथ उसका फल भुगतता है। कोई मनुष्य किसी और मनुष्य की जगह (विकारों के कारण) पकड़ा नहीं जाता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ सोई करहि जि भगत तेरे जाचहि एहु तेरा बिरदु ॥ कर जोड़ि नानक दानु मागै अपणिआ संता देहि हरि दरसु ॥४॥५॥१४०॥
मूलम्
हरि जीउ सोई करहि जि भगत तेरे जाचहि एहु तेरा बिरदु ॥ कर जोड़ि नानक दानु मागै अपणिआ संता देहि हरि दरसु ॥४॥५॥१४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = तू करता है। जाचहि = मांगते हैं। बिरदु = मूल प्राकृतिक स्वभाव। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। हरि = हे हरि! 4।
अर्थ: हे भाई! (कोई भी युग हो, तू अपने भक्तों की लज्जा सदा रखता आया है) तू वही कुछ करता है जो तेरे भक्त तुझसे मांगते हैं, ये तेरा बिरद है (मूल स्वभाव है)। हे हरि! (तेरा दास नानक भी अपने) दोनों हाथ जोड़ के (तेरे दर से) दान मांगता है कि नानक को अपने संत-जनों का दर्शन दे।4।5।140।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा महला ५ घरु १३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु आसा महला ५ घरु १३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर बचन तुम्हारे ॥ निरगुण निसतारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुर बचन तुम्हारे ॥ निरगुण निसतारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! निरगुण = गुण हीन लोग।1। रहाउ।
अर्थ: हे सतिगुरु! तेरे वचन ने (तेरी शरण पड़े अनेक) गुण-हीन लोगों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा बिखादी दुसट अपवादी ते पुनीत संगारे ॥१॥
मूलम्
महा बिखादी दुसट अपवादी ते पुनीत संगारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखादी = झगड़ालू। अपवादी = बुरे वचन बोलने वाले। ते = वह लोग। संगारे = (तेरी) संगत में।1।
अर्थ: हे सतिगुरु! तेरी संगति में रह के वे लोग भी पवित्र आचरण वाले बन गए, जो पहले बड़े कटु स्वभाव वाले थे, बुरे आचरण वाले थे और गलत बोल बोलने वाले थे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम भवंते नरकि पड़ंते तिन्ह के कुल उधारे ॥२॥
मूलम्
जनम भवंते नरकि पड़ंते तिन्ह के कुल उधारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नरकि = नर्क में।2।
अर्थ: हे सतिगुरु! तूने उन लोगों के कुलों के कुल (विकारों में गिरने से) बचा लिए, जो अनेक जूनियों में भटकते आ रहे थे और (जनम-मरण के चक्कर के) नर्क में पड़े हुए थे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोइ न जानै कोइ न मानै से परगटु हरि दुआरे ॥३॥
मूलम्
कोइ न जानै कोइ न मानै से परगटु हरि दुआरे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानै = आदर देता। दुआरे = दर पर।3।
अर्थ: हे सतिगुरु! तेरी मेहर से वे मनुष्य भी प्रभु के दर पर आदर-मान पाने के लायक हो गए, जिन्हें पहले कोई जानता-पहचानता ही नहीं था जिन्हें (जगत में) कोई आदर नहीं था देता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन उपमा देउ कवन वडाई नानक खिनु खिनु वारे ॥४॥१॥१४१॥
मूलम्
कवन उपमा देउ कवन वडाई नानक खिनु खिनु वारे ॥४॥१॥१४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देउ = में दूँ। वारे = कुर्बान।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे सतिगुरु!) मैं तेरे जैसा और किसे कहूँ? मैं तेरी क्या तारीफ करूँ? मैं तुझसे हरेक पल कुर्बान जाता हूँ।4।1।141।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ से घरु 13 के शबदों का संग्रह आरम्भ होता है। देखें अंक1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ बावर सोइ रहे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ बावर सोइ रहे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बावर = कमले, झल्ले, पागल।1। रहाउ।
अर्थ: (माया के मोह में) बावरे हुए मनुष्य (गलफ़त की नींद में) सोए रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह कुट्मब बिखै रस माते मिथिआ गहन गहे ॥१॥
मूलम्
मोह कुट्मब बिखै रस माते मिथिआ गहन गहे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखै रस = विषियों के रस में। मिथिआ गहन गहे = झूठे मैदान फतह करते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई! ऐसे लोग) परिवार के मोह और विषियों के स्वादों में मस्त हो के झूठे मैदान मारते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथन मनोरथ सुपन आनंद उलास मनि मुखि सति कहे ॥२॥
मूलम्
मिथन मनोरथ सुपन आनंद उलास मनि मुखि सति कहे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथन मनोरथ = झूठी मनो कामनाएं। उलास = चाव, खुशियां। मनि = मन में। मुखि = मुंह से। सति = सदा कायम रहने वाले।2।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में पागल हुए मन) उन पदार्थों की लालसा करते रहते हैं जिनसे साथ नहीं निभना जो सुपने में प्रतीत हो रहे मौज-मेलों की भांति हैं, (ऐसे लोग) इन पदार्थों को अपने मन में सदा कायम रहने वाला समझते हैं, मुंह से भी उन्हें ही पक्के साथी कहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रितु नामु पदारथु संगे तिलु मरमु न लहे ॥३॥
मूलम्
अम्रितु नामु पदारथु संगे तिलु मरमु न लहे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। मरमु = भेद।3।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम ही सदा साथ देने वाला पदार्थ है, पर माया के मोह में झल्ले हुए मनुष्य इस हरि-नाम का भेद तिल भर भी नहीं समझते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा राखे सतसंगे नानक सरणि आहे ॥४॥२॥१४२॥
मूलम्
करि किरपा राखे सतसंगे नानक सरणि आहे ॥४॥२॥१४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आहे = आए हैं।4।
अर्थ: (जीवों के भी क्या वश?) हे नानक! प्रभु मेहर करके जिस मनुष्यों को साधु-संगत में रखता है वही उस प्रभु की शरण में आए रहते हैं।4।2।142।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ तिपदे ॥ ओहा प्रेम पिरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ तिपदे ॥ ओहा प्रेम पिरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रेम पिरी = प्यारे का प्रेम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मुझे तो) प्यारे (प्रभु) का वह प्रेम ही (चाहिए)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनिक माणिक गज मोतीअन लालन नह नाह नही ॥१॥
मूलम्
कनिक माणिक गज मोतीअन लालन नह नाह नही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कनिक = सोना। माणिक = मोती। गज मातीअन = बड़े बड़े मोती।1।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के प्यार के बदले में) सोना, मोती, बड़े बड़े मोती, हीरे लाल- मुझे इनमें से कुछ भी नहीं चाहिए, नहीं चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज न भाग न हुकम न सादन ॥ किछु किछु न चाही ॥२॥
मूलम्
राज न भाग न हुकम न सादन ॥ किछु किछु न चाही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साद = स्वादिष्ट खाने। चाही = मैं चाहता हूँ।2।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु के प्यार की जगह) ना राज, ना धन-पदार्थ, ना हकूमत ना ही स्वादिष्ट खाने- मुझे किसी भी चीज की जरूरत नहीं।2।
[[0407]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरनन सरनन संतन बंदन ॥ सुखो सुखु पाही ॥ नानक तपति हरी ॥ मिले प्रेम पिरी ॥३॥३॥१४३॥
मूलम्
चरनन सरनन संतन बंदन ॥ सुखो सुखु पाही ॥ नानक तपति हरी ॥ मिले प्रेम पिरी ॥३॥३॥१४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदन = नमस्कार। सुखो सुखु = सुख ही सुख। पाही = मैं पाता हूँ। हरी = हर ली, दूर की।3।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों के चरणों की शरण, संत-जनों के चरणों पे नमस्कार- मैं इसी में सुख ही सुख अनुभव करता हूँ।
हे नानक! अगर प्यारे प्रभु का प्रेम मिल जाए तो वह मन में से तृष्णा की जलन दूर कर देता है।3।3।143।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ गुरहि दिखाइओ लोइना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ गुरहि दिखाइओ लोइना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरहि = गुरु ने। लोइना = (इन) आँखों से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे मोहन प्रभु!) गुरु ने मुझे इन आँखो से तेरे दर्शन करा दिए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईतहि ऊतहि घटि घटि घटि घटि तूंही तूंही मोहिना ॥१॥
मूलम्
ईतहि ऊतहि घटि घटि घटि घटि तूंही तूंही मोहिना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईतहि = इस लोक में। ऊतहि = उस लोक में। घटि घटि = हरेक शरीर में। मोहिना = हे मोहन प्रभु!।1।
अर्थ: (अब) हे मोहन! इस लोक में, परलोक में, हरेक शरीर में, हरेक हृदय में (मुझे) तू ही दिख रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारन करना धारन धरना एकै एकै सोहिना ॥२॥
मूलम्
कारन करना धारन धरना एकै एकै सोहिना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारन करना = जगत का मूल रचने वाला। धरना = सृष्टि। सोहिना = हे सोहणे प्रभु!।2।
अर्थ: (अब) हे सोहाने प्रभु! (मुझे यकीन हो गया है कि) एक तू ही सारे जगत का मूल रचने वाला है, एक तू ही सारी सृष्टि को सहारा देने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतन परसन बलिहारी दरसन नानक सुखि सुखि सोइना ॥३॥४॥१४४॥
मूलम्
संतन परसन बलिहारी दरसन नानक सुखि सुखि सोइना ॥३॥४॥१४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसन = छूने। सुखि = सुख में। सोइना = लीनता।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे मोहन प्रभु!) मैं तेरे संतों के चरण छूता हूँ उनके दर्शनों से सदके जाता हूँ। (संतों की कृपा से ही तेरा मिलाप होता है, और) सदा के लिए आत्मिक आनंद में लीनता प्राप्त होती है।3।4।144।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हरि हरि नामु अमोला ॥ ओहु सहजि सुहेला ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हरि हरि नामु अमोला ॥ ओहु सहजि सुहेला ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमोला = जो किसी भी मूल्य से ना मिल सके। ओहु = वह (मनुष्य)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुहेला = आसान।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा का अमोलक नाम प्राप्त हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है वह मनुष्य आसान जीवन व्यतीत करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगि सहाई छोडि न जाई ओहु अगह अतोला ॥१॥
मूलम्
संगि सहाई छोडि न जाई ओहु अगह अतोला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। सहाई = साथी। ओहु = वह (परमात्मा)। अगाह = जो पकड़ा ना जा सके।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही सदा साथ रहने वाला साथी है, वह कभी छोड़ के नहीं जाता, पर वह (किसी चतुराई-समझदारी से) वश में नहीं आता उसके बराबर और कोई नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतमु भाई बापु मोरो माई भगतन का ओल्हा ॥२॥
मूलम्
प्रीतमु भाई बापु मोरो माई भगतन का ओल्हा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोरो = मेरा। ओला = सहारा।2।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा ही मेरा प्रीतम है मेरा भाई है मेरा पिता है और मेरी माँ है, वह परमात्मा ही अपने भक्तों (की जिंदगी) का सहारा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलखु लखाइआ गुर ते पाइआ नानक इहु हरि का चोल्हा ॥३॥५॥१४५॥
मूलम्
अलखु लखाइआ गुर ते पाइआ नानक इहु हरि का चोल्हा ॥३॥५॥१४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलखु = जिस का सही स्वरूप समझ में ना आ सके। गुर ते = गुरु से। चोला = चोहल, अजब करिश्में।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) उस परमात्मा का सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, गुरु ने मुझे उसकी समझ बख्श दी है, गुरु से मैंने उसका मिलाप हासिल किया है। ये उस परमात्मा का एक अजब तमाशा है (कि वह गुरु के द्वारा मिल जाता है)।3।4।145।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ आपुनी भगति निबाहि ॥ ठाकुर आइओ आहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ आपुनी भगति निबाहि ॥ ठाकुर आइओ आहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निबाहि = सदा वास्ते दिए रख। ठाकुर = हे ठाकुर! आहि = तमन्ना करके।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं तमन्ना करके (तेरी शरण) आया हूँ, मुझे अपनी भक्ति सदा दिए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु पदारथु होइ सकारथु हिरदै चरन बसाहि ॥१॥
मूलम्
नामु पदारथु होइ सकारथु हिरदै चरन बसाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पदारथु = कीमती चीज। सकारथु = सफल कामयाब। बसाहि = बसाए रख।1।
अर्थ: हे मेरे मालिक! अपने चरण मेरे दिल में बसाए रख, मुझे अपना कीमती नाम दिये रख, ता कि मेरा जीवन सफल हो जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एह मुकता एह जुगता राखहु संत संगाहि ॥२॥
मूलम्
एह मुकता एह जुगता राखहु संत संगाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकता = मुक्ति। जुगता = युक्ति। संगाहि = संगति में।2।
अर्थ: हे मेरे मालिक! मुझे अपने संतों की संगति में रखे रख, यही मेरे वास्ते मुक्ति है, और यही मेरे वास्ते जीवन-युक्ति है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु धिआवउ सहजि समावउ नानक हरि गुन गाहि ॥३॥६॥१४६॥
मूलम्
नामु धिआवउ सहजि समावउ नानक हरि गुन गाहि ॥३॥६॥१४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआवउ = मैं स्मरण करता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गाहि = गाह के, डुबकी लगा के।3।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! (मेहर कर) तेरे गुणों में डुबकी लगा के मैं तेरा नाम स्मरण करता रहूँ और आत्मिक अडोलता में टिका रहूँ।3।6।146।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ ठाकुर चरण सुहावे ॥ हरि संतन पावे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ ठाकुर चरण सुहावे ॥ हरि संतन पावे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुहावे = सुख देने वाले, सोहने। पावे = प्राप्त किए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मालिक प्रभु के चरण सोहणे हैं, पर प्रभु के संतों को (इनका मिलाप) प्राप्त होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु गवाइआ सेव कमाइआ गुन रसि रसि गावे ॥१॥
मूलम्
आपु गवाइआ सेव कमाइआ गुन रसि रसि गावे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। रसि = रस से, आनंद से। गावे = गाए हैं।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के संत) स्वैभाव दूर करके परमातमा की सेवा-भक्ति करते हैं और उसके गुण बड़े आनंद से गाते रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकहि आसा दरस पिआसा आन न भावे ॥२॥
मूलम्
एकहि आसा दरस पिआसा आन न भावे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकहि = एक (परमात्मा) की ही। पिआसा = चाहत। आन = कुछ और।2।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के संतों को) एक परमात्मा की (सहायता की) ही आशा टिकी रहती है, उन्हें परमात्मा के दर्शनों की चाहत लगी रहती है (इसके बिना) कोई और (दुनियावी आशाएं) अच्छी नहीं लगती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दइआ तुहारी किआ जंत विचारी नानक बलि बलि जावे ॥३॥७॥१४७॥
मूलम्
दइआ तुहारी किआ जंत विचारी नानक बलि बलि जावे ॥३॥७॥१४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक!।3।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! तेरे संतों के हृदय में तेरे चरणों का प्रेम होना-ये) तेरी ही मेहर है (नहीं तो) बिचारे जीवों का क्या जोर है। हे प्रभु! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ।3।7।147।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ एकु सिमरि मन माही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ एकु सिमरि मन माही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन माही = मन में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! अपने) मन में एक परमात्मा को स्मरण करता रह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु धिआवहु रिदै बसावहु तिसु बिनु को नाही ॥१॥
मूलम्
नामु धिआवहु रिदै बसावहु तिसु बिनु को नाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। को = कोई (और)।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण किया करो, हरि-नाम अपने दिल में बसाए रखो। परमात्मा के बिना और कोई (सहायता करने वाला) नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ सरनी आईऐ सरब फल पाईऐ सगले दुख जाही ॥२॥
मूलम्
प्रभ सरनी आईऐ सरब फल पाईऐ सगले दुख जाही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आईऐ = आना चाहिए। सगले = सारे। जाही = जाते हैं, दूर हो जाते हैं।2।
अर्थ: (हे भाई!) आओ, परमात्मा की शरण पड़े रहें (और परमात्मा से) सारे फल हासिल करें। (परमात्मा की शरण पड़ने से) सारे दुख दूर हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअन को दाता पुरखु बिधाता नानक घटि घटि आही ॥३॥८॥१४८॥
मूलम्
जीअन को दाता पुरखु बिधाता नानक घटि घटि आही ॥३॥८॥१४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। बिधाता = विधाता। घटि घटि = हरेक घट में। आही = है।3।
अर्थ: हे नानक! (कह:) विधाता अकाल-पुरख सब जीवों को दातें देने वाला है, वह हरेक शरीर में मौजूद है।3।8।148।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हरि बिसरत सो मूआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हरि बिसरत सो मूआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। मूआ = आत्मिक मौत मर गया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा की याद भूल गई वह आत्मिक मौत मर गया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु धिआवै सरब फल पावै सो जनु सुखीआ हूआ ॥१॥
मूलम्
नामु धिआवै सरब फल पावै सो जनु सुखीआ हूआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुखीआ = सुखी। पावै = प्राप्त कर लेता है।1।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है, वह सारे (मन-इच्छित) फल हासिल कर लेता है और आसान जीवन गुजारता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजु कहावै हउ करम कमावै बाधिओ नलिनी भ्रमि सूआ ॥२॥
मूलम्
राजु कहावै हउ करम कमावै बाधिओ नलिनी भ्रमि सूआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजु = राजा। हउ करम = अहंकार के कर्म। भ्रमि = भ्रम में, वहम में। सूआ = तोता। नलिनी = (वह नलकी जिससे तोते को पकड़ते हैं। एक खाली नलकी किसी सीख आदि में परो के दोनों सिरों पर डंडों आदि का सहारा दे के चरखी सी बना ली जाती है। उसके ऊपर चोगा रखने का प्रबंध किया जाता है। नीचे पानी भरा खुला बरतन रखा जाता है। तोता चोगे की लालच में चरखी के ऊपर बैठता है, वह उस तोते के भार से उलट जाती है। नीचे पानी देख के तोता पानी में गिरने से बचने के लिए नलकी को कस के पकड़े रखता है और पकड़ा जाता है)।2।
अर्थ: (पर, हे भाई! परमात्मा का नाम बिसार के जो मनुष्य अपने आप को) राजा (भी) कहलवाता है वह अहंकार पैदा करने वाले काम (ही) करता है वह (राज के गुरूर में ऐसे) बंधा रहता है जैसे (डूबने से बचे रहने के) वहम में तोता नलकी से चिपका रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिसु सतिगुरु भेटिआ सो जनु निहचलु थीआ ॥३॥९॥१४९॥
मूलम्
कहु नानक जिसु सतिगुरु भेटिआ सो जनु निहचलु थीआ ॥३॥९॥१४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटिआ = मिल गया। निहचलु = अटल आत्मिक जीवन वाला। थीआ = हो गया।3।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य को सतिगुरु मिल जाता है वह मनुष्य अटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।3।9।149।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ घरु १४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा महला ५ घरु १४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओहु नेहु नवेला ॥ अपुने प्रीतम सिउ लागि रहै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ओहु नेहु नवेला ॥ अपुने प्रीतम सिउ लागि रहै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेहु = प्यार। नवेला = नया, सजरा। सिउ = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो प्यार प्यारे प्रीतम प्रभु से बना रहता है वह प्यार सदा नया बना रहता है (दुनिया वाले प्यार जल्दी ही फीके पड़ जाते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो प्रभ भावै जनमि न आवै ॥ हरि प्रेम भगति हरि प्रीति रचै ॥१॥
मूलम्
जो प्रभ भावै जनमि न आवै ॥ हरि प्रेम भगति हरि प्रीति रचै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है। जनमि = (बार बार) जनम में। रचै = मस्त रहता है।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य प्रभु को प्यारा लगने लग जाता है (वह उस प्यार की इनायत से बार-बार) जनम में नहीं आता। जिस मनुष्य को हरि का प्रेम प्राप्त हो जाता है हरि की भक्ति प्राप्त हो जाती है वह (सदा) हरि की प्रीति में मस्त रहता है।1।
[[0408]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ संगि मिलीजै इहु मनु दीजै ॥ नानक नामु मिलै अपनी दइआ करहु ॥२॥१॥१५०॥
मूलम्
प्रभ संगि मिलीजै इहु मनु दीजै ॥ नानक नामु मिलै अपनी दइआ करहु ॥२॥१॥१५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। मिलीजै = मिल सकते हैं। दीजै = अगर दिया जाए। नानक = नानक को।2।
अर्थ: (पर, हे भाई! इस प्यार का मूल्य भी देना पड़ता है) प्रभु (के चरणों) में (तभी) मिल सकते हैं अगर (अपना) ये मन उसके हवाले कर दें, (ये बात परमात्मा की मेहर से ही हो सकती है, इस वास्ते) हे नानक! (अरदास कर और कह: हे प्रभु!) अपनी मेहर कर (ता कि तेरे दास) नानक को तेरा नाम (तेरे नाम का प्यार) प्राप्त हो जाए।2।1।150।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: घरु 14 के शबदों का संग्रह आरम्भ हुआ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ मिलु राम पिआरे तुम बिनु धीरजु को न करै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ मिलु राम पिआरे तुम बिनु धीरजु को न करै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे राम! धीरजु = शांति। को = और कोई भी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्यारे राम! (मुझे) मिल। तेरे मिलाप के बिना और कोई भी (उद्यम) मेरे मन में शांति पैदा नहीं कर सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिम्रिति सासत्र बहु करम कमाए प्रभ तुमरे दरस बिनु सुखु नाही ॥१॥
मूलम्
सिम्रिति सासत्र बहु करम कमाए प्रभ तुमरे दरस बिनु सुखु नाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु!।1।
अर्थ: हे प्यारे राम! अनेक लोगों ने शास्त्रों-स्मृतियों के लिखे अनुसार (निहित धार्मिक) कर्म किए, पर, हे प्रभु! (इन कर्मों से तेरे दर्शन नसीब ना हुए, और) तेरे दर्शन के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिलता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरत नेम संजम करि थाके नानक साध सरनि प्रभ संगि वसै ॥२॥२॥१५१॥
मूलम्
वरत नेम संजम करि थाके नानक साध सरनि प्रभ संगि वसै ॥२॥२॥१५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को काबू करने के साधन। करि = कर के। साध = गुरु। संगि = साथ।2।
अर्थ: हे प्रभु! (शास्त्रों के कहे अनुसार) अनेक लोग व्रत रखते रहे, कई नेम निभाते रहे, इन्द्रियों को वश करने के यत्न करते रहे, पर ये सब कुछ करके वे थक गए (तेरे दर्शन प्राप्त ना हुए)।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से (मनुष्य का मन) परमात्मा (के चरणों) में लीन हो जाता है (और मन को शांति प्राप्त हो जाती है)।2।2।151।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ घरु १५ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा महला ५ घरु १५ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिकार माइआ मादि सोइओ सूझ बूझ न आवै ॥ पकरि केस जमि उठारिओ तद ही घरि जावै ॥१॥
मूलम्
बिकार माइआ मादि सोइओ सूझ बूझ न आवै ॥ पकरि केस जमि उठारिओ तद ही घरि जावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मादि = मद में, नशे में। सूझ बूझ = (सही जीवन की) समझ। पकरि = पकड़ के। जमि = जम ने। घरि जावै = अपने घर में जाता है, होश में आता है (कि सारी उम्र गलती करता रहा)।1।
अर्थ: (हे भाई!) विकारों में माया के नशे में मनुष्य सोया रहता है, इसे (सही जीवन-राह की) समझ नहीं आती। (जब अंत समय में) यम ने इसे केसों से पकड़ के उठाया (जब मौत सिर पर आ पहुँची) तब ही इसे होश आती है (कि सारी उम्र गलत रास्ते पर ही पड़ा रहा)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभ बिखिआ बिखै लागे हिरि वित चित दुखाही ॥ खिन भंगुना कै मानि माते असुर जाणहि नाही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
लोभ बिखिआ बिखै लागे हिरि वित चित दुखाही ॥ खिन भंगुना कै मानि माते असुर जाणहि नाही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखिआ = माया। बिखै = विषो। हिरि = चुरा के। वित = धन। दुखाही = दुखते हैं। खिन भंगुन = छिण भंगुर, हछन में नाश हो जाने वाला। कै मानि = के माण में। असुर = दैत्य, निर्दयी लोग।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) माया के लोभ और विषियों में खचित (पराया) धन चुरा के (दूसरों के) दिल दुखाते हैं, पल में साथ छोड़ जाने वाली माया के गुमान में मस्त निर्दयी मनुष्य समझते नहीं (कि ये गलत जीवन-रास्ता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद सासत्र जन पुकारहि सुनै नाही डोरा ॥ निपटि बाजी हारि मूका पछुताइओ मनि भोरा ॥२॥
मूलम्
बेद सासत्र जन पुकारहि सुनै नाही डोरा ॥ निपटि बाजी हारि मूका पछुताइओ मनि भोरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुकारहि = पुकारते हैं। डोरा = बहरा। निपटि = बिल्कुल ही। हारि = हार के। मूका = अंत समय में आ के पहुँचता है। मनि = मन में। भोरा = मूर्ख।2।
अर्थ: (हे भाई!) वेद-शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकें उपदेश करती हैं) संत-जन भी पुकार-पुकार के कहते हैं पर (माया के नशे के कारण) बहरा हो चुका मनुष्य (उनके उपदेश को) सुनता नहीं। जब बिल्कुल ही जीवन बाजी हार के आखिर समय पर आ पहुँचता है तब ये मूर्ख अपने मन में पछताता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डानु सगल गैर वजहि भरिआ दीवान लेखै न परिआ ॥ जेंह कारजि रहै ओल्हा सोइ कामु न करिआ ॥३॥
मूलम्
डानु सगल गैर वजहि भरिआ दीवान लेखै न परिआ ॥ जेंह कारजि रहै ओल्हा सोइ कामु न करिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डानु = दण्ड। गैर वजहि = अकारण, कारण के बिना ही। दीवान लेखै = परमात्मा के लेखे में। जेंह कारजि = जिस काम (के करने) से। ओला = इज्जत।3।
अर्थ: (हे भाई! माया के नशे में मस्त मनुष्य विकारों में लगा हुआ) व्यर्थ ही दण्ड भोगता है (आत्मिक सजा भुगतता रहता है, ऐसे काम ही करता है जिनके कारण) परमात्मा की हजूरी में स्वीकार नहीं होता। जिस काम के करने से परमात्मा के दर पर इज्जत बने वह काम ये कभी भी नहीं करता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसो जगु मोहि गुरि दिखाइओ तउ एक कीरति गाइआ ॥ मानु तानु तजि सिआनप सरणि नानकु आइआ ॥४॥१॥१५२॥
मूलम्
ऐसो जगु मोहि गुरि दिखाइओ तउ एक कीरति गाइआ ॥ मानु तानु तजि सिआनप सरणि नानकु आइआ ॥४॥१॥१५२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पड़ताल = जहाँ ताल बार बार पलटता रहे, बदलता रहे।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेहि = मुझे। गुरि = गुरु ने। तउ = तब। एक = एक (परमात्मा) की। कीरति = महिमा। तजि = छोड़ के।4।
अर्थ: (हे भाई! जब) गुरु ने मुझे ऐसा (माया से ग्रसित) जगत दिखा दिया तब मैंने एक परमात्मा की महिमा करनी आरम्भ कर दी, तब गुमान त्याग के (और) आसरे छोड़ के, चतुराईयां छोड़ के (मैं दास) नानक परमात्मा की शरण आ पड़ा।4।1।152।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ से घरु 15 के शब्द शुरू होते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ बापारि गोविंद नाए ॥ साध संत मनाए प्रिअ पाए गुन गाए पंच नाद तूर बजाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ बापारि गोविंद नाए ॥ साध संत मनाए प्रिअ पाए गुन गाए पंच नाद तूर बजाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बापारि = व्यापार में, वणज से। नाए = परमात्मा के नाम के। मनाए = प्रसन्न किए। प्रिअ पाए = प्यारे (के दर्शन) पाए। पंच नाद तूर = पाँच किस्म की आवाजें देने वाले बाजे (तंती साज, धात के, फूक से बजाए जाने वाले, तबला आदि, घड़ा आदि)।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के व्यापार में लग जाता है, परमात्मा के गुण गाता है, संत-जनों की प्रसन्नता हासिल कर लेता है, उसे प्यारे प्रभु का मिलाप प्राप्त हो जाता है। उसके अंदर जैसे, पाँचों किस्मों के साज बजने लग जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरपा पाए सहजाए दरसाए अब रातिआ गोविंद सिउ ॥ संत सेवि प्रीति नाथ रंगु लालन लाए ॥१॥
मूलम्
किरपा पाए सहजाए दरसाए अब रातिआ गोविंद सिउ ॥ संत सेवि प्रीति नाथ रंगु लालन लाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजाए = सहज अवस्था, आत्मिक अडोलता। रातिआ = रंगे हुए। सिउ = साथ। सेवि = सेवा करके। रंगु लालन = प्यारे प्रभु का प्रेम।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की किरपा से जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता हासिल हो जाती है, परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं वह सदा के लिए परमात्मा के प्यार रंग में रंगा जाता है। गुरु की बताई सेवा की इनायत से उसको पति-प्रभु की प्रीति प्राप्त हो जाती है; लाल प्यारे का प्यार रंग चढ़ जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर गिआनु मनि द्रिड़ाए रहसाए नही आए सहजाए मनि निधानु पाए ॥ सभ तजी मनै की काम करा ॥ चिरु चिरु चिरु चिरु भइआ मनि बहुतु पिआस लागी ॥ हरि दरसनो दिखावहु मोहि तुम बतावहु ॥ नानक दीन सरणि आए गलि लाए ॥२॥२॥१५३॥
मूलम्
गुर गिआनु मनि द्रिड़ाए रहसाए नही आए सहजाए मनि निधानु पाए ॥ सभ तजी मनै की काम करा ॥ चिरु चिरु चिरु चिरु भइआ मनि बहुतु पिआस लागी ॥ हरि दरसनो दिखावहु मोहि तुम बतावहु ॥ नानक दीन सरणि आए गलि लाए ॥२॥२॥१५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। रहसाए = रहस, खिलाव। नही आए = जनम मरन के चक्कर में नहीं पड़े। निधानु = खजाना। मनै की = मन की। काम करा = वासना। मोहि = मुझे। गलि = गले से।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने मन में गुरु के दिए ज्ञान को पक्का कर लेता है, उसके अंदर खिलाव पैदा हो जाता है वह जनम-मरन के चक्कर में भी नहीं पड़ता। उसके अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, वह अपने मन में नाम-खजाना पा लेता है। वह अपने मन की सारी वासनाएं त्याग देता है।
हे नानक! (तू भी अर्ज कर, और कह: हे प्रभु!) मैं दीन तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपने गले से लगा ले। (तेरा दर्शन करके मुझे) बहुत चिर हो चुका है, मेरे मन में तेरे दर्शनों की तड़प पैदा हो रही है। हे हरि! मुझे अपने दर्शन दे, तू स्वयं ही मुझे बता (कि मैं कैसे तेरे दर्शन करूँ)।2।2।153।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ कोऊ बिखम गार तोरै ॥ आस पिआस धोह मोह भरम ही ते होरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ कोऊ बिखम गार तोरै ॥ आस पिआस धोह मोह भरम ही ते होरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोऊ = कोई विरला, कोई दुर्लभ। बिखम = मुश्किल। गार = गढ़, किला। तोरै = तोड़ता है, सर करता है। पिआस = माया की तृष्णा। धोह = ठगी। भरम = भटकना। ते = से। होरै = (अपने मन को) रोकता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जगत में) कोई विरला मनुष्य ही है, जो सख्त किले को तोड़ता है (जिसमें जिंद कैद की हुई है, कोई विरला है, जो अपने मन को) दुनिया की आशाओं, माया की तृष्णा, ठगी-फरेब, मोह और भटकना से रोकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध लोभ मान इह बिआधि छोरै ॥१॥
मूलम्
काम क्रोध लोभ मान इह बिआधि छोरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिआधि = बीमारियां, रोग। छोरै = छोड़ता है।1।
अर्थ: (हे भाई! जगत में कोई दुर्लभ मनुष्य है जो) काम-क्रोध-लोभ-अहंकार आदि बिमारियों को (अपने अंदर से) दूर करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगि नाम रंगि गुन गोविंद गावउ ॥ अनदिनो प्रभ धिआवउ ॥ भ्रम भीति जीति मिटावउ ॥ निधि नामु नानक मोरै ॥२॥३॥१५४॥
मूलम्
संतसंगि नाम रंगि गुन गोविंद गावउ ॥ अनदिनो प्रभ धिआवउ ॥ भ्रम भीति जीति मिटावउ ॥ निधि नामु नानक मोरै ॥२॥३॥१५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = संगत में। रंगि = प्यार में। गावउ = मैं गाता हूँ, गाऊँ। अनदिनो = हर रोज। धिवउ = मैं स्मरण करता हूँ। भ्रम = भटकना। भीति = दीवार। जीति = जीत के। निधि = खजाना। मोरै = मेरे पास, मेरे हृदय में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! इन रोगों से बचने के लिए) मैं तो संत-जनों की संगति में रह के परमात्मा के नाम-रंग में लीन हो के परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, मैं तो हर वक्त परमात्मा का ध्यान धरता हूँ, और इस तरह भटकना की दीवार को जीत के (परमात्मा से बनी हुई दूरी) मिटाता हूँ। (हे भाई!) मेरे पास परमात्मा का नाम-खजाना ही है (जो मुझे विकारों से बचाए रखता है)।2।3।154।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु तिआगु ॥ मनि सिमरि गोबिंद नाम ॥ हरि भजन सफल काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु तिआगु ॥ मनि सिमरि गोबिंद नाम ॥ हरि भजन सफल काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगु = छोड़ के। मनि = मन में। काम = (सारे) काम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! अपने) मन में परमात्मा का नाम स्मरण करता रह (और नाम की इनायत से अपने अंदर से) काम-क्रोध और लोभ दूर कर ले। परमात्मा के स्मरण से सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।
[[0409]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि मान मोह विकार मिथिआ जपि राम राम राम ॥ मन संतना कै चरनि लागु ॥१॥
मूलम्
तजि मान मोह विकार मिथिआ जपि राम राम राम ॥ मन संतना कै चरनि लागु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। मिथिआ = झूठ। मन = हे मन! कै चरनि = के चरण में।1।
अर्थ: हे मन! अहंकार-मोह-विकार-झूठ त्याग दे, सदा परमात्मा का स्मरण किया कर, और संत-जनों की शरण पड़ा रह।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ गोपाल दीन दइआल पतित पावन पारब्रहम हरि चरण सिमरि जागु ॥ करि भगति नानक पूरन भागु ॥२॥४॥१५५॥
मूलम्
प्रभ गोपाल दीन दइआल पतित पावन पारब्रहम हरि चरण सिमरि जागु ॥ करि भगति नानक पूरन भागु ॥२॥४॥१५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोपाल = सृष्टि के पालक। पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। जागु = (विकारों से) सुचेत रह। भागु = भाग्य।2।
अर्थ: हे भाई! उस हरि-प्रभु के चरणों का ध्यान धर के (माया के हमलों से) सचेत रह, जो धरती का रखवाला है जो दीनों पे दया करने वाला है और जो विकारों में गिरे हुए लोगों को पवित्र करने वाला है।
हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा की भक्ति कर, तेरे भाग्य जाग जाएंगे।2।4।155।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हरख सोग बैराग अनंदी खेलु री दिखाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हरख सोग बैराग अनंदी खेलु री दिखाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरख = खुशी। सोग = गम। बैराग = उपरामता। अनंदी = आनंद स्व्रूप् परमात्मा ने। खेल = जगत तमाशा। री = हे सखी!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सहेली! (हे सत्संगी!) आनंद-रूप परमात्मा ने मुझे ये जगत-तमाशा दिखा दिया है (इस जगत-तमाशे की अस्लियत दिखा दी है)। (इसमें कहीं) खुशी है (कहीं) ग़म है (कहीं) वैराग है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिनहूं भै निरभै खिनहूं खिनहूं उठि धाइओ ॥ खिनहूं रस भोगन खिनहूं खिनहू तजि जाइओ ॥१॥
मूलम्
खिनहूं भै निरभै खिनहूं खिनहूं उठि धाइओ ॥ खिनहूं रस भोगन खिनहूं खिनहू तजि जाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खिन हूं = एक छिन में। भै = डर। निरभै = निर्भैता। उठि धाइओ = उठ के दौड़ता है। रस = स्वादिष्ट पदार्थ। तजि जाइओ = छोड़ जाता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे सत्संगी! इस जगत-तमाशे में कहीं) एक पल में अनेक डर (आ घेरते हैं, कहीं) निडरता है (कहीं कोई दुनियावी पदार्थों की ओर) उठ के भागता है, कहीं एक पल में स्वादिष्ट पदार्थ भोगे जा रहे हैं कहीं कोई एक पल में इन भोगों को त्याग जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिनहूं जोग ताप बहु पूजा खिनहूं भरमाइओ ॥ खिनहूं किरपा साधू संग नानक हरि रंगु लाइओ ॥२॥५॥१५६॥
मूलम्
खिनहूं जोग ताप बहु पूजा खिनहूं भरमाइओ ॥ खिनहूं किरपा साधू संग नानक हरि रंगु लाइओ ॥२॥५॥१५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताप = धूणिआं आदि तपानी। साधू = गुरु। रंगु = प्रेम।2।
अर्थ: (हे सखी! इस जगत-तमाशे में कहीं) जोग-साधना की जा रही है, कहीं धूणियां तपाई जा रही हैं, कहीं अनेक देव-पूजा हो रहीं हैं, कहीं और की ओर भटकनें भटकी जा रही हैं। हे नानक! (कह: हे सखी!) कहीं साधु-संगत में रख के एक पल में परमात्मा की मेहर हो रही है, और परमात्मा का प्रेम रंग बख्शा जा रहा है।2।4।156।