[[0370]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा घरु २ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु आसा घरु २ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि लाई प्रीति सोई फिरि खाइआ ॥ जिनि सुखि बैठाली तिसु भउ बहुतु दिखाइआ ॥ भाई मीत कुट्मब देखि बिबादे ॥ हम आई वसगति गुर परसादे ॥१॥
मूलम्
जिनि लाई प्रीति सोई फिरि खाइआ ॥ जिनि सुखि बैठाली तिसु भउ बहुतु दिखाइआ ॥ भाई मीत कुट्मब देखि बिबादे ॥ हम आई वसगति गुर परसादे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाइआ = खाया जाता है। सुखि = सुख से, आदर से। देखि = देख के। बिबादे = झगड़ते हैं। हम वसगति = हमारे वश में। परसादे = प्रसादि, कृपा से।1।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (इस माया के साथ) प्यार डाला, वही पलट के खाया गया (माया ने उसी को ही खा लिया)। जिसने (इसका) आदर करके इसे अपने पास बैठाया उसे ही (माया ने) बहुत डराया। भाई-मित्र-परिवार (के जीव, सारे ही इस माया को) देख के (आपस में) लड़ पड़ते हैं। गुरु की कृपा से ये हमारे वश में आ गई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा देखि बिमोहित होए ॥ साधिक सिध सुरदेव मनुखा बिनु साधू सभि ध्रोहनि ध्रोहे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा देखि बिमोहित होए ॥ साधिक सिध सुरदेव मनुखा बिनु साधू सभि ध्रोहनि ध्रोहे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिमोहित = मस्त। साधिक = साधना करने वाले। सुर = देवते। सिध = साधना में माहिर हुए जोगी। साधू = गुरु। सभि = सारे। ध्रोहनि = ठगनी (माया) ने। ध्रोहे = ठग लिए।1। रहाउ।
अर्थ: साधना करने वाले जोगी, साधना में पहुँचे हुए जोगी, देवते, मनुष्य- ये सारे (माया को) देख के बहुत मस्त हो जाते हैं। गुरु के बिना ये सारे ठगनी (माया) के हाथों ठगे जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकि फिरहि उदासी तिन्ह कामि विआपै ॥ इकि संचहि गिरही तिन्ह होइ न आपै ॥ इकि सती कहावहि तिन्ह बहुतु कलपावै ॥ हम हरि राखे लगि सतिगुर पावै ॥२॥
मूलम्
इकि फिरहि उदासी तिन्ह कामि विआपै ॥ इकि संचहि गिरही तिन्ह होइ न आपै ॥ इकि सती कहावहि तिन्ह बहुतु कलपावै ॥ हम हरि राखे लगि सतिगुर पावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = बहुत, अनेक। कामि = काम-वासना से। विआपै = काबू कर लेती है। संचहि = इकट्ठी करते हैं। आपै = अपनी। सती = दानी। कलपावै = दुखी करती है। पावै = पैरों पर।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अनेक लोग त्यागी बन के घूमते फिरते हैं (पर) उन्हें (ये माया) काम-वासना के रूप में आ दबोचती है। अनेक लोग (अपने आप को) दानी कहलवाते हैं, उनको (भी) ये बहुत दुखी करती है। सतिगुरु के चरणों में लगने के कारण हमें परमात्मा ने (इस माया के पंजे से) बचा लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपु करते तपसी भूलाए ॥ पंडित मोहे लोभि सबाए ॥ त्रै गुण मोहे मोहिआ आकासु ॥ हम सतिगुर राखे दे करि हाथु ॥३॥
मूलम्
तपु करते तपसी भूलाए ॥ पंडित मोहे लोभि सबाए ॥ त्रै गुण मोहे मोहिआ आकासु ॥ हम सतिगुर राखे दे करि हाथु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुलाए = गलत रास्ते पर डाल दिए। लोभि = लोभ में। सबाए = सारे। आकासु = (भाव) आकाश वासी, देवते।3।
अर्थ: तप कर रहे तपस्वियों को (इस माया ने) भटका दिया। सारे विद्वान पंडित लोग लोभ में फंस के (माया के हाथों) ठगे गए। सारे ही त्रै-गुणी जीव ठगे जा रहे हैं। हमें तो गुरु ने अपना हाथ दे के (इस तरफ से) बचा लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआनी की होइ वरती दासि ॥ कर जोड़े सेवा करे अरदासि ॥ जो तूं कहहि सु कार कमावा ॥ जन नानक गुरमुख नेड़ि न आवा ॥४॥१॥
मूलम्
गिआनी की होइ वरती दासि ॥ कर जोड़े सेवा करे अरदासि ॥ जो तूं कहहि सु कार कमावा ॥ जन नानक गुरमुख नेड़ि न आवा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासि = दासी। कर = हाथ। कमावा = कमाऊँ।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है (ये माया) उसकी दासी बन के कार करती है, उसके आगे (दोनों) हाथ जोड़ती है उसकी सेवा करती है, उसके आगे विनती करती है (और कहती है:) मैं वही काम करूँगी जो तू कहे, मैं उस मनुष्य के पास नहीं जाऊँगी (मैं उस मनुष्य पर अपना दबाव नहीं डालूँगी) जो गुरु की शरण पड़ता है।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक १ बताता है कि महला ५ (पाँचवां) का ये पहला शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ ससू ते पिरि कीनी वाखि ॥ देर जिठाणी मुई दूखि संतापि ॥ घर के जिठेरे की चूकी काणि ॥ पिरि रखिआ कीनी सुघड़ सुजाणि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ ससू ते पिरि कीनी वाखि ॥ देर जिठाणी मुई दूखि संतापि ॥ घर के जिठेरे की चूकी काणि ॥ पिरि रखिआ कीनी सुघड़ सुजाणि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससू ते = सास से। ससु = (भाव,) अज्ञानता। पिरि = पिर ने। वाखि = अलग। देर जिठाणी = दिवरानी जेठानी, आशा तृष्णा। जिठेरा = धर्म राज। काणि = धौंस। सुजाणि = सुजान ने।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘ससु’ के बाद में ‘ु’ की मात्रा है, पर है स्त्रीलिंग। संस्कृत शब्द है स्वश्रू। संबंधक के कारण ‘ु’ की जगह ‘ू’ हो जाता है, जैसे, ‘खाकु’ से ‘खाकू’, ‘जिंदु’ से ‘जिंदू’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (गुरु की कृपा से मुझे प्रभु पति मिला) पति ने मुझे (आज्ञानता रूपी) सास से अलग कर लिया है, मेरी दिवरानी और जिठानी (आशा और तृष्णा इस) दुख-कष्ट से मर गई हैं (कि मुझे पति मिल गया है)। (मेरे पर) जेठ (धर्मराज) की भी धौंस नहीं रही। अच्छे सयाने पति ने मुझे (इन सबसे) बचा लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु लोका मै प्रेम रसु पाइआ ॥ दुरजन मारे वैरी संघारे सतिगुरि मो कउ हरि नामु दिवाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनहु लोका मै प्रेम रसु पाइआ ॥ दुरजन मारे वैरी संघारे सतिगुरि मो कउ हरि नामु दिवाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरजन = बुरे लोग, खराब भाव। संघारे = मार लिए हैं। सतिगुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे लोगो! सुनो, (गुरु की कृपा से) मैंने परमात्मा के प्यार का आनंद पाया है।, गुरु ने मुझे परमात्मा के नाम की दाति दी है (उसकी इनायत से) मैंने बुरे भाव मार लिए हैं (कामादिक) वैरी समाप्त कर लिए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमे तिआगी हउमै प्रीति ॥ दुतीआ तिआगी लोगा रीति ॥ त्रै गुण तिआगि दुरजन मीत समाने ॥ तुरीआ गुणु मिलि साध पछाने ॥२॥
मूलम्
प्रथमे तिआगी हउमै प्रीति ॥ दुतीआ तिआगी लोगा रीति ॥ त्रै गुण तिआगि दुरजन मीत समाने ॥ तुरीआ गुणु मिलि साध पछाने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रथमै = पहले। लोगा रीति = लोक राज, जगत चाल, लोकाचारी रस्में। समाने = एक जैसे। तुरीआ = चौथा पद जहाँ माया के गुण छू नहीं सकते। साध = गुरु।2।
अर्थ: (जब गुरु की कृपा से मुझे प्रभु पति मिला, तो सब से) पहले मैं अहंकार को प्यार करना छोड़ दिया, फिर मैंने लोकाचारी रस्में छोड़ीं। फिर मैंने माया के तीनों गुण त्याग के वैरी और मित्र एक समान (मित्र ही) समझ लिए। गुरु को मिल के मैंने उस गुण से सांझडाल ली जो (माया के तीनों गुणों से ऊपर) चौथे आत्मिक दर्जे पर पहुँचाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज गुफा महि आसणु बाधिआ ॥ जोति सरूप अनाहदु वाजिआ ॥ महा अनंदु गुर सबदु वीचारि ॥ प्रिअ सिउ राती धन सोहागणि नारि ॥३॥
मूलम्
सहज गुफा महि आसणु बाधिआ ॥ जोति सरूप अनाहदु वाजिआ ॥ महा अनंदु गुर सबदु वीचारि ॥ प्रिअ सिउ राती धन सोहागणि नारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। बाधिआ = बांधा, बनाया। जोति सरूप = वह जिसकी हस्ती नूर ही नूर है। अनाहदु = अनहत, बिना बजाए, एक रस, वह राग जो साज को बजाए बिना ही पैदा हो रहा हो। वीचारि = विचार के। धन = धन्य, भाग्यों वाली। नारि = स्त्री। सोहागणि = सुहाग वाली।3।
अर्थ: (जोगी गुफा में बैठ कर आसन लगाता है। जब प्रभु की कृपा से मुझे प्रभु-पति मिला तो मैं) आत्मिक अडोलता (की) गुफा में अपना आसन जमा लिया। मेरे अंदर निरे नूर ही नूर रूपी परमात्मा के मिलाप का एक-रस बाजा बजने लगा। गुरु के शब्द विचार-विचार के मेरे अंदर बड़ा आत्मिक आनंद पैदा हो रहा है। (हे लोगो!) धन्य है वह (जीव-) स्त्री, भाग्यशाली है वह (जीव-) स्त्री जो (प्रभु) पति के प्यार-रंग से रंगी गयी है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन नानकु बोले ब्रहम बीचारु ॥ जो सुणे कमावै सु उतरै पारि ॥ जनमि न मरै न आवै न जाइ ॥ हरि सेती ओहु रहै समाइ ॥४॥२॥
मूलम्
जन नानकु बोले ब्रहम बीचारु ॥ जो सुणे कमावै सु उतरै पारि ॥ जनमि न मरै न आवै न जाइ ॥ हरि सेती ओहु रहै समाइ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहम बीचारु = परमात्मा के गुणों का विचार।4।
अर्थ: (हे भाई!) दास नानक परमात्मा के गुणों के विचार ही उचारता रहता है। जो भी मनुष्य परमात्मा की महिमा सुनता है और उसके अनुसार अपना जीवन ऊँचा उठाता है वह (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है, वह (बारंबार) ना पैदा होता है ना मरता है वह (वह जगत में बार-बार) ना आता है ना ही (यहां से बार-बार) जाता है। वह सदा परमात्मा की याद में लीन रहता है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ निज भगती सीलवंती नारि ॥ रूपि अनूप पूरी आचारि ॥ जितु ग्रिहि वसै सो ग्रिहु सोभावंता ॥ गुरमुखि पाई किनै विरलै जंता ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ निज भगती सीलवंती नारि ॥ रूपि अनूप पूरी आचारि ॥ जितु ग्रिहि वसै सो ग्रिहु सोभावंता ॥ गुरमुखि पाई किनै विरलै जंता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निज = अपनी, अपने आप की, आत्मा के काम आने वाली। सील = मीठा स्वभाव। नारि = स्त्री। रूपि = रूप में। अनूप = उपमा रहित, बेमिसाल। आचारि = आचार में, आचरण में। जितु = जिस में। ग्रिहि = हृदय घर में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।1।
अर्थ: आत्मा के काम आने वाली (परमात्मा की) भक्ती (मानो) मीठे स्वभाव वाली एक स्त्री है (जो) रूप में बेमिसाल है (जो) आचरण में मुकम्मल है। जिस (हृदय) घर में (ये स्त्री) बसती है वह घर शोभा वाला बन जाता है। पर, किसी विरले जीव ने गुरु की शरण पड़ के (ये स्त्री) प्राप्त की है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकरणी कामणि गुर मिलि हम पाई ॥ जजि काजि परथाइ सुहाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुकरणी कामणि गुर मिलि हम पाई ॥ जजि काजि परथाइ सुहाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुकरणी = श्रेष्ठ करणी। कामणि = स्त्री। मिलि = मिल के। जजि = जग में। काजि = विवाह में। परथाइ = हर जगहं1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु को मिल के मैंने श्रेष्ठ करणी- (रूप) स्त्री हासिल की है जो विवाह-शादियों में हर जगह सुंदर लगती है।1। रहाउ।
[[0371]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिचरु वसी पिता कै साथि ॥ तिचरु कंतु बहु फिरै उदासि ॥ करि सेवा सत पुरखु मनाइआ ॥ गुरि आणी घर महि ता सरब सुख पाइआ ॥२॥
मूलम्
जिचरु वसी पिता कै साथि ॥ तिचरु कंतु बहु फिरै उदासि ॥ करि सेवा सत पुरखु मनाइआ ॥ गुरि आणी घर महि ता सरब सुख पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिचरु = जितना समय। पिता = (भाव) गुरु। कंतु = जीव। फिरै उदासि = भटकता फिरता है। सतपुरखु = अकाल पुरख, परमात्मा। गुरि = गुरु ने। आणी = ला दी।2।
अर्थ: (ये भक्ति रूप स्त्री) जब तक गुरु के पास ही रहती है तब तक जीव बहुत भटकता फिरता है। जब (गुरु के द्वारा जीव ने) सेवा करके परमात्मा को प्रसन्न किया, तब गुरु ने (इसके हृदय-) घर में ला के बैठाई और इसने सुख आनंद प्राप्त कर लिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बतीह सुलखणी सचु संतति पूत ॥ आगिआकारी सुघड़ सरूप ॥ इछ पूरे मन कंत सुआमी ॥ सगल संतोखी देर जेठानी ॥३॥
मूलम्
बतीह सुलखणी सचु संतति पूत ॥ आगिआकारी सुघड़ सरूप ॥ इछ पूरे मन कंत सुआमी ॥ सगल संतोखी देर जेठानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बतीह सुलखणी = (लज्जा, निम्रता, दया, प्यार आदि) बक्तीस सुलक्षणों वाली। सचु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम। संतति = संतान। सुघड़ = निपुण। सरूप = सुंदर। इछ मन कंत = कंत के मन की इच्छा। संतोखी = संतोष देती है। देर जेठानी = देवरानी जेठानी, (आशा-तृष्णा) को।3।
अर्थ: (ये भक्ति रूपी स्त्री दया, निम्रता, लज्जा आदि) बक्तीस सुंदर लक्षणों वाली है, सदा स्थिर परमात्मा का नाम इस की संतान है, पुत्र हैं। (ये स्त्री) आज्ञा में चलने वाली है, निपुण है, सुंदर रूप वाली है। जीव-कंत पति की (हरेक) इच्छा ये पूरी करती है, देवरानी जेठानी (आशा-तृष्णा) को ये हर तरह से संतोष देती है (शांत करती है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ परवारै माहि सरेसट ॥ मती देवी देवर जेसट ॥ धंनु सु ग्रिहु जितु प्रगटी आइ ॥ जन नानक सुखे सुखि विहाइ ॥४॥३॥
मूलम्
सभ परवारै माहि सरेसट ॥ मती देवी देवर जेसट ॥ धंनु सु ग्रिहु जितु प्रगटी आइ ॥ जन नानक सुखे सुखि विहाइ ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरेसट = श्रेष्ठ, उत्तम। मती = (शब्द ‘मति’ का बहुवचन) मतें, सलाहें, मश्वरे। देवी = देने वाली। देवर जेसट = देवरों जठों, (ज्ञानेंद्रियों) को। सुखि = सुख में। विहाइ = बीतती है।4।
अर्थ: (मीठे बोल,विनम्रता, सेवा, दान, दया) सार (आत्मिक) परिवार में (भक्ति) सबसे उत्तम है, सारे देवरों-जेठों (ज्ञान-इंद्रिय) को मश्वरे देने वाली है (सही मार्ग-दर्शन करने के काबिल है)। हे दास नानक! (कह:) वह हृदय-घर भाग्यशाली है, जिस घर में (ये भक्ति रूपी स्त्री) आ के दर्शन देती है, (जिस मनुष्य के हृदय में प्रगट होती है उसकी उम्र) सुख आनंद में बीतती है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ मता करउ सो पकनि न देई ॥ सील संजम कै निकटि खलोई ॥ वेस करे बहु रूप दिखावै ॥ ग्रिहि बसनि न देई वखि वखि भरमावै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ मता करउ सो पकनि न देई ॥ सील संजम कै निकटि खलोई ॥ वेस करे बहु रूप दिखावै ॥ ग्रिहि बसनि न देई वखि वखि भरमावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मता = सलाह, फैसला। सील = शील, मीठा स्वभाव। संजम = विकारों से बचने के यत्न। निकटि = नजदीक। ग्रिहि = गृह में, हृदय घर में।1।
अर्थ: (आत्मिक अडोलता के लिए) मैं जो भी सलाह करता हूँ उसे (ये माया) सफल नहीं होने देती। मीठे स्वभाव और संजम के ये हर समय नजदीक (रखवाली बन के) खड़ी रहती है (इस वास्ते मैं ना शील हासिल कर सकता हूँ ना ही संजम)। (ये माया) अनेक वेश धारण करती है, अनेक रूप दिखाती है, हृदय घर में ये मुझे टिकने नहीं देती, कई तरीकों से मुझे भटकाती फिरती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घर की नाइकि घर वासु न देवै ॥ जतन करउ उरझाइ परेवै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
घर की नाइकि घर वासु न देवै ॥ जतन करउ उरझाइ परेवै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइकि = मालिका। करउ = मैं करता हूँ। उरझाइ परेवै = और उलझनों में डाल देती है।1। रहाउ।
अर्थ: (ये माया मेरे) हृदय घर की मलिका बन बैठी है, मुझे घर का बसेरा देती ही नहीं (मुझे आत्मिक अडोलता नहीं मिलने देती)। अगर मैं (आत्मिक अडोलता के लिए) यत्न करता हूँ, तो बल्कि ज्यादा उलझनें डाल देती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुर की भेजी आई आमरि ॥ नउ खंड जीते सभि थान थनंतर ॥ तटि तीरथि न छोडै जोग संनिआस ॥ पड़ि थाके सिम्रिति बेद अभिआस ॥२॥
मूलम्
धुर की भेजी आई आमरि ॥ नउ खंड जीते सभि थान थनंतर ॥ तटि तीरथि न छोडै जोग संनिआस ॥ पड़ि थाके सिम्रिति बेद अभिआस ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आमरि = आलिम, कारिंदी। थनंतर = स्थान अंतर, और-और जगहें। तटि = नदी के तट पर। तीरथि = तीर्थ पर।2।
अर्थ: (ये माया) धुर दरगाह से तो सेविका बना के भेजी हुई (जगत में) आई है, (पर यहाँ आ के इसने) नौ खण्डों वाली सारी धरती जीत ली है, सारी ही जगहें अपने अधीन कर ली हैं, नदियों के तट पर हरेक तीर्थों पर बैठे योग-साधना करने वाले और सन्यास धारण करने वाले भी (इस माया ने) नहीं छोड़े। स्मृतियां पढ़-पढ़ के, और वेदों के (पाठों के) अभ्यास कर-कर के पण्डित लोग भी (इसके सामने) हार गए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह बैसउ तह नाले बैसै ॥ सगल भवन महि सबल प्रवेसै ॥ होछी सरणि पइआ रहणु न पाई ॥ कहु मीता हउ कै पहि जाई ॥३॥
मूलम्
जह बैसउ तह नाले बैसै ॥ सगल भवन महि सबल प्रवेसै ॥ होछी सरणि पइआ रहणु न पाई ॥ कहु मीता हउ कै पहि जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मैं जहाँ भी (जा के) बैठता हूँ (ये माया) मेरे साथ ही आ बैठती है, ये बड़े बल वाली है, सारे ही भवनों में जा पहुँचती है, किसी कमजोर की शरण पड़ने से ये मेरे से परे नहीं हटती। सो, हे मित्र! बता, (इस माया से पीछा छुड़ाने के लिए) मैं किस के पास जाऊँ?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि उपदेसु सतिगुर पहि आइआ ॥ गुरि हरि हरि नामु मोहि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥ निज घरि वसिआ गुण गाइ अनंता ॥ प्रभु मिलिओ नानक भए अचिंता ॥४॥
मूलम्
सुणि उपदेसु सतिगुर पहि आइआ ॥ गुरि हरि हरि नामु मोहि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥ निज घरि वसिआ गुण गाइ अनंता ॥ प्रभु मिलिओ नानक भए अचिंता ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। मोहि = मुझे। द्रिढ़ाइआ = पक्का कराया। घरि = घर में। अचिंता = चिन्ता रहित।4।
अर्थ: (सत्संगी मित्र से) उपदेश सुन के मैं गुरु के पास आया, गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र मुझे (मेरे हृदय में) पक्का करके दे दिया। (उस नाम-मंत्र की इनायत से) बेअंत परमात्मा के गुण गा-गा के मैं अब अपने हृदय में आ बसा हूँ। हे नानक! (कह: अब मुझे) परमात्मा मिल गया है, और मैं (माया के हमलों की ओर से) बेफिक्र हो गया हूँ।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरु मेरा इह नाइकि हमारी ॥ इह आमरि हम गुरि कीए दरबारी ॥१॥ रहाउ दूजा ॥४॥४॥
मूलम्
घरु मेरा इह नाइकि हमारी ॥ इह आमरि हम गुरि कीए दरबारी ॥१॥ रहाउ दूजा ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरबारी = हजूरी में रहने वाला। हम = मुझे। आमरि = सेविका। रहाउ दूजा।
अर्थ: (अब ये हृदय-घर) मेरा अपना घर बन गया है (ये माया) मलिका भी मेरी (दासी) बन गई है। गुरु ने इसको मेरी सेविका बना दिया है और मुझे प्रभु की हजूरी में रहने वाला बना दिया है।1। रहाउ दूजा।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ प्रथमे मता जि पत्री चलावउ ॥ दुतीए मता दुइ मानुख पहुचावउ ॥ त्रितीए मता किछु करउ उपाइआ ॥ मै सभु किछु छोडि प्रभ तुही धिआइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ प्रथमे मता जि पत्री चलावउ ॥ दुतीए मता दुइ मानुख पहुचावउ ॥ त्रितीए मता किछु करउ उपाइआ ॥ मै सभु किछु छोडि प्रभ तुही धिआइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मता = सलाह। जि = कि। पत्री = चिट्ठी। चलावउ = मैं भेजूँ। दुइ = दो। पहुचावउ = पहुचाऊँ। करउ = मैं करूँ। उपाइआ = उपाय। प्रभ = हे प्रभु! तुही = तुझे ही।1।
अर्थ: पहले मुझे सलाह दी गई कि (वैरी बन के आ रहे को) चिट्ठी लिख के भेजूँ। फिर सलाह मिली कि मैं (उसके पास) दो मनुष्य भेजूँ, तीसरी सलाह मिली कि मैं कोई ना कोई उपाय जरूर करूँ। पर हे प्रभु! अन्य सभी यत्न छोड़ के मैंने सिर्फ तुझे ही स्मरण किया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा अनंद अचिंत सहजाइआ ॥ दुसमन दूत मुए सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
महा अनंद अचिंत सहजाइआ ॥ दुसमन दूत मुए सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचिंत = निश्चिंतता। सहजाइआ = सहज, आत्मिक अडोलता। दूत = वैरी।1। रहाउ।
अर्थ: (परमात्मा का आसरा लेने से) बड़ा आत्मिक आनंद मिलता है, निश्चिंतता हो जाती है, आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, सारे वैरी दुश्मन समाप्त हो जाते हैं (कौई वैरी नहीं प्रतीत होता), (इस तरह) अंतरात्मे सुख मिलता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि मो कउ दीआ उपदेसु ॥ जीउ पिंडु सभु हरि का देसु ॥ जो किछु करी सु तेरा ताणु ॥ तूं मेरी ओट तूंहै दीबाणु ॥२॥
मूलम्
सतिगुरि मो कउ दीआ उपदेसु ॥ जीउ पिंडु सभु हरि का देसु ॥ जो किछु करी सु तेरा ताणु ॥ तूं मेरी ओट तूंहै दीबाणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। मो कउ = मुझे। कउ = को। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। करी = मैं करता हूँ। ताणु = बल। दीबाणु = आसरा।2।
अर्थ: सतिगुरु ने मुझे शिक्षा दी है कि ये जिंद और शरीर सब कुछ परमात्मा के रहने के लिए जगह है। (इस वास्ते) मैं जो कुछ भी करता हूँ तेरा सहारा ले के करता हूँ, तू ही मेरी ओट है तू ही मेरा आसरा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधनो छोडि जाईऐ प्रभ कैं धरि ॥ आन न बीआ तेरी समसरि ॥ तेरे सेवक कउ किस की काणि ॥ साकतु भूला फिरै बेबाणि ॥३॥
मूलम्
तुधनो छोडि जाईऐ प्रभ कैं धरि ॥ आन न बीआ तेरी समसरि ॥ तेरे सेवक कउ किस की काणि ॥ साकतु भूला फिरै बेबाणि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नो = को। कैं धरि = किस तरफ? आन = और, अन्य। बीआ = दूसरा। समसरि = बराबर। काणि = अधीनता। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ। बेबाणि = बीयाबान में, जंगल में।
अर्थ: हे प्रभु! तुझे छोड़ के और जाएं भी तो कहाँ? (क्योंकि) तेरे बराबर का दूसरा कोई और है ही नहीं (जिसे निश्चय हो उस) तेरे सेवक को और किस की अधीनता हो सकती है? (पर, हे प्रभु!) तुझसे टूटा हुआ मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ के (मानो) उजाड़ में भटकता फिरता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी वडिआई कही न जाइ ॥ जह कह राखि लैहि गलि लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥ प्रभि राखी पैज वजी वाधाई ॥४॥५॥
मूलम्
तेरी वडिआई कही न जाइ ॥ जह कह राखि लैहि गलि लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥ प्रभि राखी पैज वजी वाधाई ॥४॥५॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सिख इतिहास बताता है कि दुखदाई सुलही खान वाली बला टलने पर सतिगुरु जी ने ये शब्द उचारा था।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह कह = जहाँ कहाँ, हर जगह। गलि = गले से। लाइ = लगा के। प्रभि = प्रभु ने। पैज = इज्जत। वाधाई = बढ़ाई, बढ़ी हुई अवस्था, प्रगति, आत्मिक बल। वजी = बज गई, जोर में आ गई।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू कितना बड़ा है ये बात मुझसे बयान नहीं की जा सकती, तू हर जगह (मुझे अपने) गले से लगा के बचा लेता है। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरी ही शरण पड़ा रहता हूँ।
(हे भाई!) प्रभु ने मेरी इज्जत रख ली है (मुसीबतों के वक्त भी उसकी मेहर से) मेरे अंदर चढ़दीकला (प्रगति का आत्म बल) प्रबल रहती है।4।5।
[[0372]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ परदेसु झागि सउदे कउ आइआ ॥ वसतु अनूप सुणी लाभाइआ ॥ गुण रासि बंन्हि पलै आनी ॥ देखि रतनु इहु मनु लपटानी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ परदेसु झागि सउदे कउ आइआ ॥ वसतु अनूप सुणी लाभाइआ ॥ गुण रासि बंन्हि पलै आनी ॥ देखि रतनु इहु मनु लपटानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परदेसु = (चौरासी लाख जूनियों वाला) पराया देश। झागि = मुश्किलों से गुजर के। कउ = वास्ते। अनूप = जिस जैसी और कोई ना हो, अति सुंदर। लाभाइआ = लाहेवंदी, लाभ वाला। बंन्हि = बांध के। पलै = पल्ले में। आनी = ले आई। देखि = देख के। लपटानी = लिपट गई, रीझ गई।1।
अर्थ: हे शाह! (चौरासी लाख जूनियों वाला) पराया देश बड़ी मुश्किलों से पार करके मैं (तेरे दर पे नाम का) सौदा करने आया हूँ। मैंने सुना है कि नाम-वस्तु बड़ी अनुपम है और लाभदायक है। हे गुरु! मैंने गुणों की संपत्ति पल्ले बाँध के लाया हूँ, प्रभु का नाम-रत्नदेख के मेरा ये मन (इसे खरीदने के लिए) रीझ गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साह वापारी दुआरै आए ॥ वखरु काढहु सउदा कराए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साह वापारी दुआरै आए ॥ वखरु काढहु सउदा कराए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साह = हे शाह! हे गुरु! दुआरै = द्वारे पर, दरवाजे पे। कराए = करा के।1। रहाउ।
अर्थ: हे शाह! हे सतिगुरु! तेरे दर पे (नाम का वणज करने वाले) जीव-व्यापारी आए हैं (तू अपने खजाने में से नाम का) सौदा निकाल के इन्हें सौदा करने की विधि सिखा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहि पठाइआ साहै पासि ॥ अमोल रतन अमोला रासि ॥ विसटु सुभाई पाइआ मीत ॥ सउदा मिलिआ निहचल चीत ॥२॥
मूलम्
साहि पठाइआ साहै पासि ॥ अमोल रतन अमोला रासि ॥ विसटु सुभाई पाइआ मीत ॥ सउदा मिलिआ निहचल चीत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहि = शाह ने, परमात्मा ने। पठाइआ = भेजा। साहै पासि = शाह के पास, गुरु के पास। अमोल = जिसके बदले बराबर की कोई वस्तु ना हो। विसटु = वकील, विचोला। सुभाई = प्रेम करने वाला। निहचल = अडोल।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा-शाह ने मुझे गुरु के पास भेजा (गुरु के दर पर मुझे वह) रत्न मिल गया है वह राशि प्राप्त हो गई है, दुनिया में जिसके बराबर की कीमत का कोई पदार्थ नहीं है। (परमात्मा की मेहर से मुझे) प्यार भरे हृदय वाला विचोला मित्र मिल गया है, उससे परमात्मा के नाम का सौदा मिला है और मेरा मन दुनिया के पदार्थों की ओर डोलने से हट गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ नही तसकर पउण न पानी ॥ सहजि विहाझी सहजि लै जानी ॥ सत कै खटिऐ दुखु नही पाइआ ॥ सही सलामति घरि लै आइआ ॥३॥
मूलम्
भउ नही तसकर पउण न पानी ॥ सहजि विहाझी सहजि लै जानी ॥ सत कै खटिऐ दुखु नही पाइआ ॥ सही सलामति घरि लै आइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तसकर = चोर। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सत कै खटिऐ = इमानदारी से कमाने पर। घरि = हृदय घर में।3।
अर्थ: (हे भाई! इस रत्न को इस सरमाए को) चोरों से खतरा नहीं, हवा से डर नहीं, पानी से भय नहीं (ना चोर चुरा सकते हैं ना तुफान उड़ा सकते हैं ना ही पानी डुबा सकता है)। आत्मिक अडोलता की इनायत से ये रत्न मैंने (गुरु से) खरीदा है, आत्मिक अडोलता में टिका रहके ये रत्न मैं अपने साथ ले जाऊँगा। ईमानदारी से कमाने के कारण इस रत्न को हासिल करने में मुझे कोई दुख नहीं सहना पड़ा, और ये नाम-सौदा मैं सही सलामत संभाल के अपने हृदय-घर में ले आया हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलिआ लाहा भए अनंद ॥ धंनु साह पूरे बखसिंद ॥ इहु सउदा गुरमुखि किनै विरलै पाइआ ॥ सहली खेप नानकु लै आइआ ॥४॥६॥
मूलम्
मिलिआ लाहा भए अनंद ॥ धंनु साह पूरे बखसिंद ॥ इहु सउदा गुरमुखि किनै विरलै पाइआ ॥ सहली खेप नानकु लै आइआ ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाहा = लाभ। धंनु = धन्यता योग्य, सराहनीय। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सहली = सफली। खेप = सौदा।4।
अर्थ: हे पूरी बख्शिशें करने वाले शाह प्रभु! मैं तुझे ही सलाहता हूँ (तेरी मेहर से मुझे तेरे नाम का) लाभ मिला है और मेरे अंदर आनंद पैदा हो गया है।
हे भाई! किसी विरले भाग्यवान ने ही गुरु की शरण पड़ कर (प्रभु के नाम का) सौदा प्राप्त किया है (गुरु की शरण पड़ के ही) नानक भी ये लाभदायक सौदा कमा सका है।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ गुनु अवगनु मेरो कछु न बीचारो ॥ नह देखिओ रूप रंग सींगारो ॥ चज अचार किछु बिधि नही जानी ॥ बाह पकरि प्रिअ सेजै आनी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ गुनु अवगनु मेरो कछु न बीचारो ॥ नह देखिओ रूप रंग सींगारो ॥ चज अचार किछु बिधि नही जानी ॥ बाह पकरि प्रिअ सेजै आनी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीचारो = विचारा, विचार किया। चज = निपुणता। अचार = आचार, अच्छा आचरण। बिधि = ढंग, तरीका, विधि। जानी = सीखी, जानकारी हासिल की। पकरि = पकड़ के। प्रिअ = प्यारे ने। आनी = ले के आए।1।
अर्थ: (हे सहेली! मेरे पति ने) मेरा कोई गुण नहीं विचारा मेरा कोई अवगुण नहीं ताका। उसने मेरा रूप नहीं देखा,रंग नहीं देखा, मैंने कोई हुनर नहीं था सीखा हुआ, मैं कोई उच्च आचरण का ढंग नहीं थी जानती। फिर भी, (हे सहेलियो!) मेरी बाँह पकड़ के प्यारे (प्रभु-पति) मुझे अपनी सेज पर ले आए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनिबो सखी कंति हमारो कीअलो खसमाना ॥ करु मसतकि धारि राखिओ करि अपुना किआ जानै इहु लोकु अजाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनिबो सखी कंति हमारो कीअलो खसमाना ॥ करु मसतकि धारि राखिओ करि अपुना किआ जानै इहु लोकु अजाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बो सखी = हे सखी! कंति = कंत ने। कीअलो = किया। खसमाना = पति वाला फर्ज, संभाल। करु = हाथ (एकवचन)। मसतकि = माथे पर। धारि = रख के। अजाना = अंजान, मूर्ख।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) सहेलिए! सुन मेरे पति-प्रभु ने (मेरी) संभाल की है, (मेरे) माथे पर (अपना) हाथ रख के उसने मुझे अपना समझ के रक्षा की है। पर, ये मूर्ख जगत इस (भेद) को क्या समझे?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहागु हमारो अब हुणि सोहिओ ॥ कंतु मिलिओ मेरो सभु दुखु जोहिओ ॥ आंगनि मेरै सोभा चंद ॥ निसि बासुर प्रिअ संगि अनंद ॥२॥
मूलम्
सुहागु हमारो अब हुणि सोहिओ ॥ कंतु मिलिओ मेरो सभु दुखु जोहिओ ॥ आंगनि मेरै सोभा चंद ॥ निसि बासुर प्रिअ संगि अनंद ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुहागु = अच्छे भाग्य। सोहिओ = शोभा दे रहा है, चमका है। जोहिओ = ध्यान से देखा है (जैसे कोई हकीम किसी रोगी का दुख ध्यान से देखता है)। आंगनि = (हृदय रूपी) आंगन में। निसि = रात। बासुर = दिन। संगि = साथ, संगत में।2।
अर्थ: (हे सहेलियो!) अब मेरा बढ़िया सितारा चमक उठा है, मेरा प्रभु-पति मुझे मिल गया है, उसने मेरा सारा रोग ध्यान से देख लिया है। मेरे (हृदय के) आंगन में शोभा का चाँद चढ़ आया है। मैं रात-दिन प्यारे (प्रभु-पति) के साथ आनंद ले रही हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसत्र हमारे रंगि चलूल ॥ सगल आभरण सोभा कंठि फूल ॥ प्रिअ पेखी द्रिसटि पाए सगल निधान ॥ दुसट दूत की चूकी कानि ॥३॥
मूलम्
बसत्र हमारे रंगि चलूल ॥ सगल आभरण सोभा कंठि फूल ॥ प्रिअ पेखी द्रिसटि पाए सगल निधान ॥ दुसट दूत की चूकी कानि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि चलूल = गाढ़े रंग में। सगल = सारे। आभरण = आभूषण, गहने। कंठि = गले में। पेखी = देखा। द्रिसिअ = दृष्टि, निगाह, नजर। निधान = खजाने। देत = वैरी। कानि = काणि, धौंस, दबाव।3।
अर्थ: (हे सहेली!) प्यारे (प्रभु-पति) ने मुझे (प्यार भरी) निगाह से देखा है (अब, जैसे) मैंने सारे ही खजाने प्राप्त कर लिए हैं, मेरे (सालू आदि) कपड़े, गाढ़े रंग में रंगे गए हैं, सारे गहने (मेरे शरीर पर फब रहे हैं) फूलों के हार मेरे गले में शोभायमान हैं। अब, हे सहेलिए! (कामादिक) बुरे वैरियों की धौंस (मेरे पर) नहीं चलती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद खुसीआ सदा रंग माणे ॥ नउ निधि नामु ग्रिह महि त्रिपताने ॥ कहु नानक जउ पिरहि सीगारी ॥ थिरु सोहागनि संगि भतारी ॥४॥७॥
मूलम्
सद खुसीआ सदा रंग माणे ॥ नउ निधि नामु ग्रिह महि त्रिपताने ॥ कहु नानक जउ पिरहि सीगारी ॥ थिरु सोहागनि संगि भतारी ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद = सदा। नउनिधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने। ग्रिह महि = (हृदय-) घर में। त्रिपताने = संतोष आ गया। जउ = जब। पिरहि = पिर ने, पति ने। सीगारी = सजा दी, सुंदर बना दी। संगि = साथ। थिरु = स्थिर, अडोल चित्त।4।
अर्थ: (हे सहेली! जगत के सारे) नौ-खजानों (जैसा) परमात्मा का नाम मेरे हृदय-घर में आ के बसा है, मेरी सारी तृष्णा समाप्त हो चुकी है, मुझे अब सदा खुशियां ही खुशियां हैं, मैं अब सदा आत्मिक आनंद ले रही हूँ।
हे नानक! (कह:) जब (किसी जीव-स्त्री को) प्रभु-पति ने सुंदर जीवन वाली बना दिया, वह प्रभु-पति के चरणों में जुड़ के अच्छे भाग्यों वाली बन गई, वह सदा के लिए अडोल चित्त हो गई।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ दानु देइ करि पूजा करना ॥ लैत देत उन्ह मूकरि परना ॥ जितु दरि तुम्ह है ब्राहमण जाणा ॥ तितु दरि तूंही है पछुताणा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ दानु देइ करि पूजा करना ॥ लैत देत उन्ह मूकरि परना ॥ जितु दरि तुम्ह है ब्राहमण जाणा ॥ तितु दरि तूंही है पछुताणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ करि = दे के। लैत देत = लेते देते। उन्ह = उन (ब्राहमणों) ने। मूकरि परना = मुकर जाना, जजमानों के दिए दान और जजमानों का कभी एहसान ना मानना। जितु दरि = जिस (प्रभु-) दर पे। ब्राहमण = हे ब्राहमण! तितु दरि = उस दर पे।1।
अर्थ: (हे भाई! देखो ऐसे ब्राहमणों का हाल! जजमान तो) उन्हें दान दे के उनकी पूजा-मान्यता करते हैं, पर वे ब्राहमण लेते-देते भी (सब कुछ हासिल करते हुए भी) सदा मुकरे रहते हैं (कभी अपने जजमानों का धन्यवाद तक नहीं करते। बल्कि दान ले के भी यही जाहिर करते हैं कि हम जजमानों का परलोक सवार रहे हैं)। पर, हे ब्राहमण! (ये याद रख) जिस प्रभु-दर पर (आखिर) तूने पहुँचना है उस दर पर तू ही (अपनी इन करतूतों के कारण) पछताएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे ब्राहमण डूबे भाई ॥ निरापराध चितवहि बुरिआई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसे ब्राहमण डूबे भाई ॥ निरापराध चितवहि बुरिआई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डूबे = (माया के मोह में) डूबे हुए। भाई = हे भाई! निरापराध = निर अपराध, निर्दोषों की। चितवहि बुरिआई = नुकसान करने की सोचें सोचते रहते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! ऐसे ब्राहमणों को (माया के मोह में) डूबे हुए जानो जो निर्दोष लोगों को भी नुकसान पहुँचाने की सोचें सोचते रहते हैं (ऊँची जाति का होना, अथवा वेद-शास्त्र पढ़े होना भी उनके आत्मिक जीवन को गर्क होने से नहीं बचा सकता, अगर वे दूसरों का बुरा देखते रहते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि लोभु फिरहि हलकाए ॥ निंदा करहि सिरि भारु उठाए ॥ माइआ मूठा चेतै नाही ॥ भरमे भूला बहुती राही ॥२॥
मूलम्
अंतरि लोभु फिरहि हलकाए ॥ निंदा करहि सिरि भारु उठाए ॥ माइआ मूठा चेतै नाही ॥ भरमे भूला बहुती राही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = अंदर, मन में। हलकाए = हलके हुए। सिरि = सिर पर। उठाए = उठा के। मूठा = ठगा हुआ, आत्मिक जीवन की संपत्ति लुटा चुका है। भरमे = भटकना में।2।
अर्थ: हे भाई! वैसे तो ये ब्राहमण अपने आप को वेद आदि धर्म-पुस्तकों का ज्ञाता जाहिर करते हैं, पर इनके मन में लोभ (प्रबल हिलोरे ले रहा है, ये लोभ के कारण) हलकाए हुए फिरते हैं। अपने आप को विद्वान जाहिर करते हुए भी ये (दूसरों की) निंदा करते फिरते हैं, अपने सिर पर निंदा का भार उठाए फिरते हैं।
(हे भाई!) माया (के मोह) के हाथों अपने आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटा बैठा ये ब्राहमण परमात्मा को याद नहीं करता (इस तरफ) ध्यान नहीं देता। माया की भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ा हुआ ब्राहमण कई दिशाओं से दुखी हुआ फिरता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहरि भेख करहि घनेरे ॥ अंतरि बिखिआ उतरी घेरे ॥ अवर उपदेसै आपि न बूझै ॥ ऐसा ब्राहमणु कही न सीझै ॥३॥
मूलम्
बाहरि भेख करहि घनेरे ॥ अंतरि बिखिआ उतरी घेरे ॥ अवर उपदेसै आपि न बूझै ॥ ऐसा ब्राहमणु कही न सीझै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = करते हैं। घनेरे = बहुत। बिखिआ = माया। घेरे = घेर के। उतरी = डेरा लगाए बैठी है। अवर = और लोगों को। न सीझै = कामयाब नहीं होता। कही = कहीं भी।3।
अर्थ: (हे भाई!) ऐसे ब्राहमणों के अपने अंदर तो माया घेर के डेरा डाले बैठी है पर बाहर (लोगों को पतियाने के लिए, अपने आप को लोगों का धार्मिक नेता जाहिर करने के वास्ते) कई (धार्मिक) वेष करते हैं।
(हे भाई! जो ब्राहमण) और लोगों को तो (धर्म का) उपदेश करता है, पर स्वयं (उस धर्म को) नहीं समझता, ऐसा ब्राहमण (लोक-परलोक) कहीं भी कामयाब नहीं होता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूरख बामण प्रभू समालि ॥ देखत सुनत तेरै है नालि ॥ कहु नानक जे होवी भागु ॥ मानु छोडि गुर चरणी लागु ॥४॥८॥
मूलम्
मूरख बामण प्रभू समालि ॥ देखत सुनत तेरै है नालि ॥ कहु नानक जे होवी भागु ॥ मानु छोडि गुर चरणी लागु ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बामण = हे ब्राहमण! होवी = हो। छोडि = छोड़ के।4।
अर्थ: हे नानक! (ऐसे ब्राहमण को कह:) हे मूर्ख ब्राहमण! परमात्मा को (अपने हृदय में) याद किया कर, वह परमात्मा (तेरे सारे काम) देखता (तेरी सारी बातें) सुनता (सदैव) तेरे साथ रहता है। अगर तेरे भाग्य जागें तो (अपनी उच्च जाति और विद्ववता का) गुमान त्याग के गुरु की शरण पड़।4।8।
[[0373]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ दूख रोग भए गतु तन ते मनु निरमलु हरि हरि गुण गाइ ॥ भए अनंद मिलि साधू संगि अब मेरा मनु कत ही न जाइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ दूख रोग भए गतु तन ते मनु निरमलु हरि हरि गुण गाइ ॥ भए अनंद मिलि साधू संगि अब मेरा मनु कत ही न जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भए गतु = चले गए, दूर हो गए। ते = से। गाइ = गा के। मिलि = मिल के। साधू संगि = गुरु की संगति में। कत ही = कहीं भी।1।
अर्थ: (हे माँ!) परमात्मा के महिमा के गीत गा-गा के मेरा मन पवित्र हो गया है, मेरे शरीर के सारे दुख और रोग दूर हो गए हैं। गुरु की संगति में मिल के मेरे अंदर आनंद ही आनंद बना हुआ है। अब मेरा मन किसी भी तरफ नहीं भटकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपति बुझी गुर सबदी माइ ॥ बिनसि गइओ ताप सभ सहसा गुरु सीतलु मिलिओ सहजि सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तपति बुझी गुर सबदी माइ ॥ बिनसि गइओ ताप सभ सहसा गुरु सीतलु मिलिओ सहजि सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपसि = तपश, जलन। माइ = हे माँ! सहसा = सहम। सीतल = ठंड डालने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! गुरु के शब्द की इनायत से (मेरे अंदर से विकारों की) जलन मिट गई है। मेरे सारे दुख-कष्ट व सहम नाश हो गए हैं। आत्मिक ठंड देने वाला गुरु मुझे मिल गया है। अब मैं आत्मिक अडोलता में टिका हुआ हूँ, अब मैं प्रभु प्रेम में मगन हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धावत रहे एकु इकु बूझिआ आइ बसे अब निहचलु थाइ ॥ जगतु उधारन संत तुमारे दरसनु पेखत रहे अघाइ ॥२॥
मूलम्
धावत रहे एकु इकु बूझिआ आइ बसे अब निहचलु थाइ ॥ जगतु उधारन संत तुमारे दरसनु पेखत रहे अघाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धावत = दौड़ना भागना। रहे = समाप्त हो गए। थाइ = ठिकाने पर। निहचलु = अडोल चित्त हो के। रहे अघाइ = तृप्त हो गए, तृष्णा खतम हो गई।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) सारे संसार को विकारों से बचाने वाले तेरे संत-जनों का दर्शन करके मेरी सारी तृष्णा समाप्त हो गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम दोख परे मेरे पाछै अब पकरे निहचलु साधू पाइ ॥ सहज धुनि गावै मंगल मनूआ अब ता कउ फुनि कालु न खाइ ॥३॥
मूलम्
जनम दोख परे मेरे पाछै अब पकरे निहचलु साधू पाइ ॥ सहज धुनि गावै मंगल मनूआ अब ता कउ फुनि कालु न खाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दोख = ऐब। परे पाछै = पीछे रह गए हैं, खलासी कर गए हैं। पाइ = पाय,पैर। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता के सुर से। मंगल = महिमा के गीत। ता तउ = उस (मन) को। फुनि = फिर, दुबारा। कालु = आत्मिक मौत।3।
अर्थ: (हे माँ!) अब मैंने अडोल चित्त हो के गुरु के पैर पकड़ लिए हैं, मेरे अनेक जन्मों के पाप मेरी खलासी कर गए है। मेरा मन आत्मिक अडोलता की सुर में महिमा के गीत गाता रहता है, अब इस मन को कभी आत्मिक मौत हड़प नहीं करती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन कारन समरथ हमारे सुखदाई मेरे हरि हरि राइ ॥ नामु तेरा जपि जीवै नानकु ओति पोति मेरै संगि सहाइ ॥४॥९॥
मूलम्
करन कारन समरथ हमारे सुखदाई मेरे हरि हरि राइ ॥ नामु तेरा जपि जीवै नानकु ओति पोति मेरै संगि सहाइ ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करन कारन समरथ = सब कुछ करने व कराने की ताकत रखने वाले! हरि राइ = हरि राय! प्रभु पातशाह! जीवै = जीता है, आत्मिक जीवन हासिल करता है। ओति = बुने हुए में। पोति = प्रोए हुए में। ओति पोति = जैसे ताणे पेटे में। संगि = साथ। सहाइ = सहाई, साथी।4।
अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! हे सुखों के बख्शने वाले! हे सब कुछ करने-कराने की शक्ति रखने वाले! (तेरा दास) नानक, तेरा नाम याद कर कर के आत्मिक जीवन हासिल कर रहा है, तू मेरे साथ (ऐसे हर समय का) साथी है, (जैसे) ताने-पेटे में (धागा मिला हुआ होता है)।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अरड़ावै बिललावै निंदकु ॥ पारब्रहमु परमेसरु बिसरिआ अपणा कीता पावै निंदकु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अरड़ावै बिललावै निंदकु ॥ पारब्रहमु परमेसरु बिसरिआ अपणा कीता पावै निंदकु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरड़ावै = अड़ाता है, ऊँचा ऊँचा रोता है, बहुत दुखी होता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! भक्त जनों की) निंदा करने वाला (अपने अंदर) बहुत दुखी रहता है, बड़ा विलकता है। (निंदा में फंसे हुए उसको) पारब्रहम परमात्मा भूला रहता है, (इस करके) निंदा करने वाला मनुष्य (गुरमुखों की) की हुई निंदा का (दुख-रूपी) फल भोगता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे कोई उस का संगी होवै नाले लए सिधावै ॥ अणहोदा अजगरु भारु उठाए निंदकु अगनी माहि जलावै ॥१॥
मूलम्
जे कोई उस का संगी होवै नाले लए सिधावै ॥ अणहोदा अजगरु भारु उठाए निंदकु अगनी माहि जलावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगी = साथी। नाले = अपने साथ ही। लए = ले के। सिधावै = (निंदा के नीच कर्म की ओर) चल पड़ता है। अणहोदा = जिसका अस्तित्व नहीं। अजगरु = (अज = बकरा। गरु = निगलने वाला) बड़ा साँप, बड़ा भारी नाग, बहुत। माहि = में। जलावै = जलाता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) अगर कोई मनुष्य उस निंदक का साथी बने (निंदक के साथ मेल-जोल रखना शुरू करे, तो निंदक) उसको भी अपने साथ ले चलता है (निंदा करने का स्वभाव डाल देता है)। निंदक (निंदा का) मनो-कल्पित ही बेअंत भार (अपने सिर पर) उठाए फिरता है, और अपने आप को निंदा की आग में जलाता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमेसर कै दुआरै जि होइ बितीतै सु नानकु आखि सुणावै ॥ भगत जना कउ सदा अनंदु है हरि कीरतनु गाइ बिगसावै ॥२॥१०॥
मूलम्
परमेसर कै दुआरै जि होइ बितीतै सु नानकु आखि सुणावै ॥ भगत जना कउ सदा अनंदु है हरि कीरतनु गाइ बिगसावै ॥२॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै दुआरै = के दर पर। जि = जो नियम। बितीतै = बरतता है। आखि = कह के। बिगसावै = खुश रहता है।2।
अर्थ: (हे भाई! आत्मिक जीवन के बारे में) जो नियम परमात्मा के दर पे सदा चलता है नानक वह नियम (तुमको) खेल के सुनाता है (कि भक्त) जनों का निंदक तो निंदा की आग में जलता रहता है, (पर) भक्त जनों को (भक्ति के सदका) सदा आनंद प्राप्त होता रहता है। परमात्मा का भक्त परमात्मा के महिमा के गीत गा-गा के खुश रहता है।2।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जउ मै कीओ सगल सीगारा ॥ तउ भी मेरा मनु न पतीआरा ॥ अनिक सुगंधत तन महि लावउ ॥ ओहु सुखु तिलु समानि नही पावउ ॥ मन महि चितवउ ऐसी आसाई ॥ प्रिअ देखत जीवउ मेरी माई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जउ मै कीओ सगल सीगारा ॥ तउ भी मेरा मनु न पतीआरा ॥ अनिक सुगंधत तन महि लावउ ॥ ओहु सुखु तिलु समानि नही पावउ ॥ मन महि चितवउ ऐसी आसाई ॥ प्रिअ देखत जीवउ मेरी माई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब, अगर। कीओ = किया। पतीआरा = पतीजा, संतुष्ट हुआ। सुगंधत = सुगंधियां, खुशबूएं। लावउ = मैं लगाता हूँ। समानि = बराबर। आसाई = आस। चितवउ = मैं चितवती हूँ। माई = हे माँ!।1।
अर्थ: यदि मैंने हरेक किस्म का सीगार किया तो भी मेरा मन संतुष्ट ना हुआ। अगर मैं अपने शरीर पर अनेक सुंगधियां इस्तेमाल करती हूँ तो भी मैं तिल जितना भी वह सुख नहीं हासिल कर सकती (जो सुख प्यारे पति के दर्शनोंसे मिलता है)। हे मेरी माँ! अब मैं ऐसी आशाएं ही बनाती रहती हूँ (कि कैसे प्रभु पति मिले), प्यारे प्रभु-पति का दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई कहा करउ इहु मनु न धीरै ॥ प्रिअ प्रीतम बैरागु हिरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माई कहा करउ इहु मनु न धीरै ॥ प्रिअ प्रीतम बैरागु हिरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धीरै = घैर्य पकड़ता। बैरागु = प्रेम। हिरै = खींच डाल रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे माँ! मैं क्या करूँ? (प्यारे के बिना) मेरा मन ठहरता नहीं। प्यारे प्रीतम का प्रेम खींच डाल रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बसत्र बिभूखन सुख बहुत बिसेखै ॥ ओइ भी जानउ कितै न लेखै ॥ पति सोभा अरु मानु महतु ॥ आगिआकारी सगल जगतु ॥ ग्रिहु ऐसा है सुंदर लाल ॥ प्रभ भावा ता सदा निहाल ॥२॥
मूलम्
बसत्र बिभूखन सुख बहुत बिसेखै ॥ ओइ भी जानउ कितै न लेखै ॥ पति सोभा अरु मानु महतु ॥ आगिआकारी सगल जगतु ॥ ग्रिहु ऐसा है सुंदर लाल ॥ प्रभ भावा ता सदा निहाल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिभूखन = विभूषण, गहने। बिसेखै = विशेष तौर पे। ओइ = वे। पति = इज्जत। महतु = महत्वता, बड़ाई। सुंदर = सुहाना। लाल = कीमती। प्रभ भावा = प्रभु को भाऊँ, अगर प्रभु को अच्छी लगूँ। निहाल = खुश।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सुंदर) कपड़े, गहने, खास तरह के अनेक सुख- मैं समझती हूँ कि वह सारे भी (प्रभु पति के बिना) किसी काम के नहीं। इज्जत, शोभा, आदर सत्कार, महिमा (भी मिल जाए), सारा जगत मेरी आज्ञा में चलने लगे, बड़ा सुंदर व कीमती घर (रहने के वास्ते मिला हो, तो भी) तभी मैं सदा के लिए खुश रह सकती हूँ अगर प्रभु पति को प्यारी लगूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिंजन भोजन अनिक परकार ॥ रंग तमासे बहुतु बिसथार ॥ राज मिलख अरु बहुतु फुरमाइसि ॥ मनु नही ध्रापै त्रिसना न जाइसि ॥ बिनु मिलबे इहु दिनु न बिहावै ॥ मिलै प्रभू ता सभ सुख पावै ॥३॥
मूलम्
बिंजन भोजन अनिक परकार ॥ रंग तमासे बहुतु बिसथार ॥ राज मिलख अरु बहुतु फुरमाइसि ॥ मनु नही ध्रापै त्रिसना न जाइसि ॥ बिनु मिलबे इहु दिनु न बिहावै ॥ मिलै प्रभू ता सभ सुख पावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंजन = व्यंजन, स्वादिष्ट खाने। बिसथार = विस्तार, खिलारे। मिलख = जमीन। फुरमाइसि = हकूमत। ध्रापै = अघाता, तृप्त होता। बिहावै = बीतता, लांघता।3।
अर्थ: (हे माँ!) अगर अनेक किस्म के स्वादिष्ट खाने मिल जाएं, अगर बहुत तरह के रंग तमाशे (देखने को हों), अगर राज मिल जाए, जमीन की मल्कियत हो जाए और बहुत हकूमत मिल जाए, तो भी ये मन कभी भरता नहीं, इसकी तृष्णा खत्म नहीं होती। (ये सब कुछ होते हुए भी, हे माँ! प्रभु-पति को) मिले बिना मेरा ये दिन (सुख से) नहीं गुजरता। जब (जीव-स्त्री को) प्रभु-पति मिल जाए तो वह (मानो) सारे सुख हासिल कर लेती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत सुनी इह सोइ ॥ साधसंगति बिनु तरिओ न कोइ ॥ जिसु मसतकि भागु तिनि सतिगुरु पाइआ ॥ पूरी आसा मनु त्रिपताइआ ॥ प्रभ मिलिआ ता चूकी डंझा ॥ नानक लधा मन तन मंझा ॥४॥११॥
मूलम्
खोजत खोजत सुनी इह सोइ ॥ साधसंगति बिनु तरिओ न कोइ ॥ जिसु मसतकि भागु तिनि सतिगुरु पाइआ ॥ पूरी आसा मनु त्रिपताइआ ॥ प्रभ मिलिआ ता चूकी डंझा ॥ नानक लधा मन तन मंझा ॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोइ = ख़बर। मसतकि = माथे पर। तिनि = उसने। प्रभ मिलिआ = प्रभु को मिला। डंझा = भड़की। मंझा = में।4।
अर्थ: तलाश करते-करते (हे माँ!) मैंने ये ख़बर सुन ली कि साधु-संगत के बिना (तृष्णा की बाढ़ से) कोई जीव कभी पार नहीं लांघ सका। जिसके माथे पर अच्छे भाग्य जागे उसने गुरु पा लिया, उसकी हरेक आस पूरी हो गई, उसका मन तृप्त हो गया।
हे नानक! जब जीव (गुरु की शरण पड़ कर) प्रभु को मिल पड़ा उसकी (अंदरूनी तृष्णा की) भड़की खत्म हो गई, उसने अपने मन में अपने हृदय में (बसता) प्रभु पा लिया।4।11।
[[0374]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ पंचपदे३ ॥ प्रथमे तेरी नीकी जाति ॥ दुतीआ तेरी मनीऐ पांति ॥ त्रितीआ तेरा सुंदर थानु ॥ बिगड़ रूपु मन महि अभिमानु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ पंचपदे३ ॥ प्रथमे तेरी नीकी जाति ॥ दुतीआ तेरी मनीऐ पांति ॥ त्रितीआ तेरा सुंदर थानु ॥ बिगड़ रूपु मन महि अभिमानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रथमे = पहले तो (देख)। नीकी = बढ़िया, सुंदर। मनीऐ = मान जाती है। पांति = ख़ानदानी। बिगड़ = बिगड़ा हुआ।1।
अर्थ: (हे जीव-स्त्री! देख) पहले तो तेरी (मनुष्य जन्म वाली) बढ़िया जाति है; दूसरा, तेरा खानदान भी जाना-माना है; तीसरा तेरा सुंदर शरीर है, पर तेरा रूप अनुचित ही रहा (क्योंकि) तेरे मन में अहंकार है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोहनी सरूपि सुजाणि बिचखनि ॥ अति गरबै मोहि फाकी तूं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सोहनी सरूपि सुजाणि बिचखनि ॥ अति गरबै मोहि फाकी तूं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरूपि = सुंदर रूप वाली। सुजाणि = सियानी। बिचखनि = चतुर। अति = बहुत। गरबै = अहंकार में। मोहि = मोह में। फाकी = फसी हुई।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) तू (देखने में) सुंदर है, रूपवती है, सियानी है चतुर है। पर तू बड़े अहंकार और मोह में फंसी हुई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति सूची तेरी पाकसाल ॥ करि इसनानु पूजा तिलकु लाल ॥ गली गरबहि मुखि गोवहि गिआन ॥ सभ बिधि खोई लोभि सुआन ॥२॥
मूलम्
अति सूची तेरी पाकसाल ॥ करि इसनानु पूजा तिलकु लाल ॥ गली गरबहि मुखि गोवहि गिआन ॥ सभ बिधि खोई लोभि सुआन ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूची = स्वच्छ, पवित्र। पाकसाल = रसोई। करि = करके। गली = गलीं, बातों से। गरबहि = तू अहंकार करती है। मुखि = मुंह से। गोवहि = उचारती है। खोई = गवा दी। लोभि = लोभ ने। सुआन = कुत्ता।2।
अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) तेरी बड़ी स्वच्छ (साफ) रसोई है (जिसमें तू अपना भोजन तैयार करती है। बाकी पशु-पक्षी तो बिचारे गंदी-मंदी जगहों पर ही पेट भर लेते हैं)। तू स्नान करके पूजा भी कर सकती है माथे पर तिलक भी लगा लेती है। तू बातों से अपना आप भी जता लेती है (पशु-पक्षियों को तो ये दाति नहीं मिली) मुंह से ज्ञान की बाते भी कर सकती है। पर कुत्ते लोभ ने तेरी ये हरेक किस्म की बड़ाई गवा दी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कापर पहिरहि भोगहि भोग ॥ आचार करहि सोभा महि लोग ॥ चोआ चंदन सुगंध बिसथार ॥ संगी खोटा क्रोधु चंडाल ॥३॥
मूलम्
कापर पहिरहि भोगहि भोग ॥ आचार करहि सोभा महि लोग ॥ चोआ चंदन सुगंध बिसथार ॥ संगी खोटा क्रोधु चंडाल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहिरहि = तू पहनती है। आचार = (निहित धार्मिक) कर्म। चोआ = इत्र। खोटा = बुरा, खोट करने वाला।3।
अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) तू (सुंदर) कपड़े पहनती है (दुनिया के सारे) भोग भोगती है, जगत में शोभा कमाने के लिए तू इत्र चंदन और अनेको सुगंधियां बरतती हैं। पर, चण्डाल क्रोध तेरा बुरा साथी है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर जोनि तेरी पनिहारी ॥ इसु धरती महि तेरी सिकदारी ॥ सुइना रूपा तुझ पहि दाम ॥ सीलु बिगारिओ तेरा काम ॥४॥
मूलम्
अवर जोनि तेरी पनिहारी ॥ इसु धरती महि तेरी सिकदारी ॥ सुइना रूपा तुझ पहि दाम ॥ सीलु बिगारिओ तेरा काम ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पनिहारी = पानी भरने वाली, सेवक। सिकदारी = सरदारी। रूपा = चाँदी। तुझ पहि = तेरे पास। दाम = धन। सीलु = स्वभाव। काम = काम-वासना।4।
अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) और सारी जूनियां तेरी सेवक हैं, इस धरती पर तेरी ही सरदारी है, तेरे पास सोना है, चाँदी है, धन-पदार्थ है (और जोनियों के पास यह चीजें नहीं हैं) पर काम-वासना ने तेरा स्वभाव (जो सबसे उच्च श्रेणी वालों को फबता है) बिगाड़ा हुआ है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ द्रिसटि मइआ हरि राइ ॥ सा बंदी ते लई छडाइ ॥ साधसंगि मिलि हरि रसु पाइआ ॥ कहु नानक सफल ओह काइआ ॥५॥
मूलम्
जा कउ द्रिसटि मइआ हरि राइ ॥ सा बंदी ते लई छडाइ ॥ साधसंगि मिलि हरि रसु पाइआ ॥ कहु नानक सफल ओह काइआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस पर। मइआ = दया। हरि राइ = प्रभु पातशाह। बंदी = गुलामी, कैद। काइआ = शरीर।5।
अर्थ: हे नानक! जिस जीव-स्त्री पर प्रभु-पातशाह की मेहर की नज़र पड़ती है, उसको वह (लोभ, क्रोध काम आदि की) कैद से छुड़ा लेता है। जिस शरीर ने (जीव ने मानव शरीर प्राप्त करके) साधु-संगत में मिल के परमात्मा के नाम का स्वाद पाया, वही शरीर कामयाब है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि रूप सभि सुख बने सुहागनि ॥ अति सुंदरि बिचखनि तूं ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१२॥
मूलम्
सभि रूप सभि सुख बने सुहागनि ॥ अति सुंदरि बिचखनि तूं ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। बने = फबे। सुहागनि = सुहाग वाली, पति वाली। रहाउ दूजा।
अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) अगर तू पति-प्रभु वाली बन जाए तो सारे सोहज और सारे सुख (जो तुझे मिले हुए हैं) तुझे फब जाएं; तू सचमुच बड़ी सुंदर और बड़ी सियानी बन जाए1। रहाउ। दूजा।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ इकतुके २ ॥ जीवत दीसै तिसु सरपर मरणा ॥ मुआ होवै तिसु निहचलु रहणा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ इकतुके २ ॥ जीवत दीसै तिसु सरपर मरणा ॥ मुआ होवै तिसु निहचलु रहणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवत = जीवित, तृप्त, माया के मद में मस्त। दीसै = दिखता है। सरपर = जरूर। मरणा = आत्मिक मौत। मुआ = (माया के मान से) अछोह। निहचलु रहणा = अटल आत्मिक जीवन।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (माया के मान के आसरे) जीवित दिखता है उसे जरूर आत्मिक मौत हड़प किए रखती है; पर जो मनुष्य (माया के मान से) अछूता है उसे अटल आत्मिक जीवन मिला रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवत मुए मुए से जीवे ॥ हरि हरि नामु अवखधु मुखि पाइआ गुर सबदी रसु अम्रितु पीवे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीवत मुए मुए से जीवे ॥ हरि हरि नामु अवखधु मुखि पाइआ गुर सबदी रसु अम्रितु पीवे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवखधु = दवा। मुखि = मुंह में। रसु अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य माया के मद में मस्त रहते हैं वे आत्मिक मौत मरे रहते हैं। पर, जो मनुष्य माया के मान से अछोह हैं वे आत्मिक जीवन वाले हैं। जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम-दारू अपने मुंह में रखा (आत्मिक मौत वाला रोग उनके अंदर से दूर हो गया) गुरु के शब्द की इनायत से उन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काची मटुकी बिनसि बिनासा ॥ जिसु छूटै त्रिकुटी तिसु निज घरि वासा ॥२॥
मूलम्
काची मटुकी बिनसि बिनासा ॥ जिसु छूटै त्रिकुटी तिसु निज घरि वासा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मटु = बड़ा घड़ा। मटुकी = घड़ी, छोटा घड़ा। बिनसि बिनासा = जरूर नाश होने वाला। छुटै = खत्म हो जाए। त्रिकुटी = (त्रि = तीन। कुटी = टेढ़ी लकीर) तीन टेढ़ी लकीरें, तिउड़ी (भाव) अंदरूनी खिझ। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।2।
दर्पण-टिप्पनी
(शब्द ‘निकटि’ से प्राकृत शब्द ‘निअड़ि’ और पंजाबी शब्द ‘नेड़े’ है {अंग्रेजी ‘नीअर’}। शब्द ‘कटक’ से पंजाबी शब्द ‘कड़ा’ है। ‘क’ से ‘अ’, और ‘कु’ से ‘उ’ बन गया है। ‘ट’ से ‘ड़’ हो गया है। इसी तरह ‘त्रिकुटी’ का पंजाबी रूप ‘तिउड़ी’ है। जिसके माथे पर तिउड़ी है उसके अंदर ‘खिझ’ होती है। सो, ‘त्रिकुटी’ का अर्थ है ‘अंदरूनी खिझ’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! जैसे) कच्चा घड़ा जरूर नाश होने वाला है (वैसे ही माया से भी साथ आखिर अवश्य टूटता है। माया के मान में दूसरोंके साथ खीझना मूर्खता है) जिस मनुष्य के अंदर (माया के मान के कारण पैदा हुई) खीझ नहीं रहती, उसका निवास (सदा) प्रभु-चरणों में रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचा चड़ै सु पवै पइआला ॥ धरनि पड़ै तिसु लगै न काला ॥३॥
मूलम्
ऊचा चड़ै सु पवै पइआला ॥ धरनि पड़ै तिसु लगै न काला ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पइआला = पाताल में, आत्मिक मौत के खड्ड में। धरनि = धरती। धरनि पढ़ै = जो निम्रता धारता है। काला = काल, मौत, आत्मिक मौत।3।
अर्थ: (हे भाई! माया में) जो मनुष्य सिर ऊँचा किए रखता है (अकड़ा फिरता है) वह आत्मिक मौत के गड्ढे में पड़ा रहता है। पर, जो मनुष्य सदा विनम्रता धारता है उसे आत्मिक मौत छू नहीं सकती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमत फिरे तिन किछू न पाइआ ॥ से असथिर जिन गुर सबदु कमाइआ ॥४॥
मूलम्
भ्रमत फिरे तिन किछू न पाइआ ॥ से असथिर जिन गुर सबदु कमाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किछु न = (आत्मिक जीवन का) कुछ भी ना। असथिर = अडोल चित्त।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (माया की खातिर ही सदा) भटकते फिरते हैं (आत्मिक जीवन की दाति में से) उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। पर, जिन्होंने गुरु शब्द को (अपने जीवन में) प्रयोग में लिया है वह (माया के मोह की ओर से) अडोल-चित्त रहते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ पिंडु सभु हरि का मालु ॥ नानक गुर मिलि भए निहाल ॥५॥१३॥
मूलम्
जीउ पिंडु सभु हरि का मालु ॥ नानक गुर मिलि भए निहाल ॥५॥१३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इकतुके २ = दो शब्द जिनके हरेक बंद में सिर्फ एक-एक ही तुक है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। गुर मिलि = गुरु को मिल के।5।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों ने ये जिंद ये शरीर, सब कुछ को परमात्मा की दी हुई दाति समझा है वे गुरु को मिल के सदा खिले माथे रहते हैं (उनकी त्रिकुटी खत्म हो जाती है अंदर की खिझ समाप्त हो जाती है)।5।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ पुतरी तेरी बिधि करि थाटी ॥ जानु सति करि होइगी माटी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ पुतरी तेरी बिधि करि थाटी ॥ जानु सति करि होइगी माटी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुतरी = पुतली, शरीर। बिधि करि = तरीके से, सियानप से। थाटी = बनाई। सति करि = सच कर के।1।
अर्थ: (ये ठीक है कि परमात्मा ने) तेरा ये शरीर बड़ी सियानप से बनाया है, (पर ये भी) सच जान कि (इस शरीर ने आखिर) मिट्टी हो जाना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलु समालहु अचेत गवारा ॥ इतने कउ तुम्ह किआ गरबे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मूलु समालहु अचेत गवारा ॥ इतने कउ तुम्ह किआ गरबे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूलु = आदि, जिससे पैदाइश हुई है। अचेत = हे गाफिल! गवारा = हे मूर्ख! इतने कउ = इस थोड़े से वास्ते। किआ गरबे = क्या मान करता है?।1। रहाउ।
अर्थ: हे गाफिल जीव! हे मूर्ख जीव! (जिससे तू पैदा हुआ है उस) मूल (-प्रभु) को (हृदय में सदा) संभाल के रख। इस तुच्छ आधार वाले शरीर पर तू क्या गुमान करता है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीनि सेर का दिहाड़ी मिहमानु ॥ अवर वसतु तुझ पाहि अमान ॥२॥
मूलम्
तीनि सेर का दिहाड़ी मिहमानु ॥ अवर वसतु तुझ पाहि अमान ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिहमानु = पराहुणा। अवर = और, बाकी की। पाहि = पास। अमान = अमानत।2।
अर्थ: (तू जगत में एक) मेहमान है जिसे रोजाना का तीन सेर (कच्चा आटा आदि) मिलता है। और सारी चीज तेरे पास अमानत (के तौर पर ही पड़ी) है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसटा असत रकतु परेटे चाम ॥ इसु ऊपरि ले राखिओ गुमान ॥३॥
मूलम्
बिसटा असत रकतु परेटे चाम ॥ इसु ऊपरि ले राखिओ गुमान ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसटा = विष्टा, गंद। असत = अस्थि, हड्डियां। रकतु = रक्त, लहू। परेटे = लपेटे हुए। गुमान = अहंकार।3।
अर्थ: (तेरे अंदर की) विष्टा, हड्डियां और लहू (आदि बाहरी) चमड़ी से लपेटे हुए हैं पर तू इस पर ही मान किए जा रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक वसतु बूझहि ता होवहि पाक ॥ बिनु बूझे तूं सदा नापाक ॥४॥
मूलम्
एक वसतु बूझहि ता होवहि पाक ॥ बिनु बूझे तूं सदा नापाक ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाक = पवित्र। नापाक = अपवित्र, गंदा।4।
अर्थ: अगर तू एक प्रभु के नाम-पदार्थ के साथ सांझ डाल ले तो तू पवित्र जीवन वाला हो जाए। प्रभु के नाम के साथ सांझ डाले बिना तू सदा ही अपवित्र है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुर कउ कुरबानु ॥ जिस ते पाईऐ हरि पुरखु सुजानु ॥५॥१४॥
मूलम्
कहु नानक गुर कउ कुरबानु ॥ जिस ते पाईऐ हरि पुरखु सुजानु ॥५॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को, से। जिस ते = जिस गुरु से, जिसके द्वारा। पुरखु = सर्व व्यापक।5।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे मूर्ख जीव!) उस गुरु से सदके हो जिसके द्वारा सबके दिलों की जानने वाला सर्व-व्यापक परमात्मा मिल सकता है।5।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ इकतुके चउपदे ॥ इक घड़ी दिनसु मो कउ बहुतु दिहारे ॥ मनु न रहै कैसे मिलउ पिआरे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ इकतुके चउपदे ॥ इक घड़ी दिनसु मो कउ बहुतु दिहारे ॥ मनु न रहै कैसे मिलउ पिआरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इक घड़ी दिनसु = दिन की एक घड़ी। मो कउ = मुझे। दिहारे = दिहाड़े, दिन। न रहै = नहीं टिकता, धीरज नहीं धरता। मिलउ = मैं मिलूँ।1।
अर्थ: (हे भाई!) दिन की एक घड़ी भी (प्रभु-पति के विछोड़े में) मुझे कई कई दिनों के बराबर प्रतीत होती है (प्रभु-पति के मिलाप के बिना) मेरा मन धीरज नहीं धरता (मैं हर समय सोचती रहती हूँ कि) प्यारे को कैसे मिलूँ।1।
[[0375]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकु पलु दिनसु मो कउ कबहु न बिहावै ॥ दरसन की मनि आस घनेरी कोई ऐसा संतु मो कउ पिरहि मिलावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इकु पलु दिनसु मो कउ कबहु न बिहावै ॥ दरसन की मनि आस घनेरी कोई ऐसा संतु मो कउ पिरहि मिलावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिहावै = बीतता, गुजरता। कबहु न बिहावै = बीतने में ही नहीं आता, खत्म होने पर ही नहीं आता। मनि = मन मे। घनेरी = बहुत। पिरहि = पति से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु-पति के विछोड़े में) एक पल भी एक दिन भी मुझे (ऐसा प्रतीत होता है कि) कभी खत्म ही नहीं होता। मेरे मन में बड़ी ललक लगी रहती है कि मुझे कोई ऐसा संत मिल जाए जो मुझे प्रभु पति से मिला दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पहर चहु जुगह समाने ॥ रैणि भई तब अंतु न जाने ॥२॥
मूलम्
चारि पहर चहु जुगह समाने ॥ रैणि भई तब अंतु न जाने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाने = समान, बराबर। रैणि = रात। अंतु = (रात का) आखिरी हिस्सा।2।
अर्थ: (दिन के) चार पहर (विछोड़े में मुझे) चार युगों के बराबर लगते हैं, जब रात आ पड़ती है फिर तो वह खत्म होने में ही नहीं आती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच दूत मिलि पिरहु विछोड़ी ॥ भ्रमि भ्रमि रोवै हाथ पछोड़ी ॥३॥
मूलम्
पंच दूत मिलि पिरहु विछोड़ी ॥ भ्रमि भ्रमि रोवै हाथ पछोड़ी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूत = वैरी। मिलि = मिल के। पिरहु = पिर से। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। हाथ पछोड़ी = हाथ मलती है, पछताती है।3।
अर्थ: (कामादिक) पाँचों वैरियों ने मिल के (जिस भी जीव-स्त्री को) प्रभु-पति से विछोड़ा है वह भटक-भटक के रोती है ओर पछताती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन नानक कउ हरि दरसु दिखाइआ ॥ आतमु चीन्हि परम सुखु पाइआ ॥४॥१५॥
मूलम्
जन नानक कउ हरि दरसु दिखाइआ ॥ आतमु चीन्हि परम सुखु पाइआ ॥४॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतमु = अपनेआप को, अपने आत्मिक जीवन को। चीनि = परख के, पड़ताल के।4।
अर्थ: हे दास नानक! (जिस जीव को) परमात्मा ने दर्शन दिया उसने अपने आत्मिक जीवन को पड़ताल के (आत्म-चिंतन करके) सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया।4।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हरि सेवा महि परम निधानु ॥ हरि सेवा मुखि अम्रित नामु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हरि सेवा महि परम निधानु ॥ हरि सेवा मुखि अम्रित नामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परम निधानु = सब से ऊँचा (आत्मिक) खजाना (शब्द ‘निधान’ एकवचन है)। मुखि = मुंह से। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम मुंह से उचारना- ये परमात्मा की सेवा है, और, परमात्मा की सेवा में सब से ऊँचा (आत्मिक जीवन का) खजाना (छुपा हुआ है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि मेरा साथी संगि सखाई ॥ दुखि सुखि सिमरी तह मउजूदु जमु बपुरा मो कउ कहा डराई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि मेरा साथी संगि सखाई ॥ दुखि सुखि सिमरी तह मउजूदु जमु बपुरा मो कउ कहा डराई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। सखाई = मित्र। दुखि = दुख में, दुख के समय। सुखि = सुख में, सुख के समय। सिमरी = सिमरीं, (जब) मैं स्मरण करता हूँ। तह = वहाँ। बपुरा = विचारा, निमाणा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा मेरा साथी है मित्र है। दुख के समय सुख के वक्त (जब भी) मैं उसको याद करता हूँ, वह वहाँ हाजिर होता है। सो, विचारा जम (यम) मुझे कहाँ डरा सकता है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि मेरी ओट मै हरि का ताणु ॥ हरि मेरा सखा मन माहि दीबाणु ॥२॥
मूलम्
हरि मेरी ओट मै हरि का ताणु ॥ हरि मेरा सखा मन माहि दीबाणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताणु = बल, जोर। मै = मुझे। दीबाणु = आसरा।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा ही मेरी ओट है, मुझे परमात्मा का ही सहारा है, परमात्मा मेरा मित्र है, मुझे अपने मन में परमात्मा का ही आसरा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि मेरी पूंजी मेरा हरि वेसाहु ॥ गुरमुखि धनु खटी हरि मेरा साहु ॥३॥
मूलम्
हरि मेरी पूंजी मेरा हरि वेसाहु ॥ गुरमुखि धनु खटी हरि मेरा साहु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेसाहु = एतबार, साख। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। खटी = कमाई, मैं कमाता हूँ।3।
अर्थ: परमात्मा (का नाम ही) मेरी राशि-पूंजी है, परमात्मा (का नाम ही) मेरे वास्ते (आत्मिक जीवन का व्यापार करने के लिए) साख है (ऐतबार का साधन है)। गुरु की शरण पड़ के मैंनाम-धन कमा रहा हूँ, परमात्मा ही मेरा शाह है (जो मुझे नाम-धन की संपत्ति देता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर किरपा ते इह मति आवै ॥ जन नानकु हरि कै अंकि समावै ॥४॥१६॥
मूलम्
गुर किरपा ते इह मति आवै ॥ जन नानकु हरि कै अंकि समावै ॥४॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: दास नानक (कहता है कि जिस मनुष्य को) गुरु की कृपा से इस व्यापार की समझ आ जाती है वह सदा परमात्मा की गोद में लीन रहता है।4।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ प्रभु होइ क्रिपालु त इहु मनु लाई ॥ सतिगुरु सेवि सभै फल पाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ प्रभु होइ क्रिपालु त इहु मनु लाई ॥ सतिगुरु सेवि सभै फल पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपालु = (कृपा+आलय) दयावान। लाई = मैं लगाऊँ। सेवि = सेवा करके। पाई = मैं पाऊँ।1।
अर्थ: (हे भाई!) यदि परमात्मा दयावान हो तो ही मैं ये मन (गुरु के चरणों में) जोड़ सकता हूँ, तब ही गुरु की (बताई) सेवा करके मन-इच्छित फल प्राप्त कर सकता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन किउ बैरागु करहिगा सतिगुरु मेरा पूरा ॥ मनसा का दाता सभ सुख निधानु अम्रित सरि सद ही भरपूरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन किउ बैरागु करहिगा सतिगुरु मेरा पूरा ॥ मनसा का दाता सभ सुख निधानु अम्रित सरि सद ही भरपूरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! किउ बैरागु करहिगा = क्यूँ घबराता है? मनसा = मन का फुरना, इच्छा। दाता = देनेवाला। सुख निधानु = सुखों का खजाना। अंम्रित सरि = अम्रितके सरोवर गुरु में। भरपूरा = नको नाक भरा हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! तू क्यूँ घबराता है? (यकीन रख, तेरे सिर पर वह) प्यारा सतिगुरु (रखवाला) है जो मन की जरूरतें पूरी करने वाला है जो सारे सुखों का खजाना है और जिस अमृत के सरोवर-गुरु में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल नाको-नाक भरा हुआ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण कमल रिद अंतरि धारे ॥ प्रगटी जोति मिले राम पिआरे ॥२॥
मूलम्
चरण कमल रिद अंतरि धारे ॥ प्रगटी जोति मिले राम पिआरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिद = हृदय।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने अपने हृदय में (गुरु के) सुंदर चरण टिका लिए हैं (उसके अंदर) परमात्माकी ज्योति जग पड़ी, उसे प्यारा प्रभु मिल गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच सखी मिलि मंगलु गाइआ ॥ अनहद बाणी नादु वजाइआ ॥३॥
मूलम्
पंच सखी मिलि मंगलु गाइआ ॥ अनहद बाणी नादु वजाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच सखी = पाँच सहेलियां, पाँच ज्ञानेंद्रियां। मंगलु = महिमा के गीत। अनहद = एक रस, लगातार। बाणी = महिमा की वाणी (का)। नादु = बाजा।3।
अर्थ: उसकी पाँचों ज्ञान-इंद्रिय ने मिल के परमात्मा की महिमा की वाणी का बाजा एक-रस बजाना शुरू कर दिया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु नानकु तुठा मिलिआ हरि राइ ॥ सुखि रैणि विहाणी सहजि सुभाइ ॥४॥१७॥
मूलम्
गुरु नानकु तुठा मिलिआ हरि राइ ॥ सुखि रैणि विहाणी सहजि सुभाइ ॥४॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुठा = प्रसन्न हुआ। हरि राइ = प्रभु पातशाह। सुखि = सुख में। रैणि = रात। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पे गुरु प्रसन्न हो गया उसे प्रभु पातशाह मिल गया, उसकी (जिंदगी की) रात सुख में आत्मिक अडोलता में बीतने लगी।4।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ करि किरपा हरि परगटी आइआ ॥ मिलि सतिगुर धनु पूरा पाइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ करि किरपा हरि परगटी आइआ ॥ मिलि सतिगुर धनु पूरा पाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। मिलि = मिल के। धनु पूरा = कभी ना कम होने वाला नाम घन।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने सतिगुरु को मिल के कभी ना कम होने वाला नाम-धन हासिल कर लिया, परमात्मा कृपा करके उसके अंदर स्वयं आ के प्रत्यक्ष होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा हरि धनु संचीऐ भाई ॥ भाहि न जालै जलि नही डूबै संगु छोडि करि कतहु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा हरि धनु संचीऐ भाई ॥ भाहि न जालै जलि नही डूबै संगु छोडि करि कतहु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संचीऐ = एकत्र करना चाहिए। भाई = हे भाई! भाहि = आग। जालै = जलाए। जलि = पानी में। संगु = साथ। छोडि करि = छोड़ के। कतहु = किसी और जगह।1। रहाउ।
अर्थ: हे वीर! ऐसा परमात्मा का नाम-धन एकत्र करना चाहिए जिसे आग जला नहीं सकती, जो पानी में डूबता नहीं और जो साथ छोड़ के किसी भी और जगह नहीं जाता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोटि न आवै निखुटि न जाइ ॥ खाइ खरचि मनु रहिआ अघाइ ॥२॥
मूलम्
तोटि न आवै निखुटि न जाइ ॥ खाइ खरचि मनु रहिआ अघाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तोटि = घाटा। खाइ = खा के, खुद इस्तेमाल करके, खुद जप के। खरचि = खर्च के, बाँट के। रहिआ अघाइ = तृप्त रहता है।2।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम ऐसा धन है जिस में) कभी घाटा नहीं पड़ता जो कभी नहीं खत्म होता। ये धन खुद बरत के और लोगों को बाँट के (मनुष्य का) मन (दुनिया की धन-लालसा की ओर से) संतुष्ट (तृप्त) रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो सचु साहु जिसु घरि हरि धनु संचाणा ॥ इसु धन ते सभु जगु वरसाणा ॥३॥
मूलम्
सो सचु साहु जिसु घरि हरि धनु संचाणा ॥ इसु धन ते सभु जगु वरसाणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। साहु = साहूकार। घटि = हृदय घर में। संचाणा = जमा हो गया। ते = से। वरसाणा = लाभ उठाता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय-घर में परमात्मा का नाम-धन जमा हो जाता है वही मनुष्य सदा के लिए शाहूकार बन जाता है। उसके इस धन से सारा जगत लाभ उठाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिनि हरि धनु पाइआ जिसु पुरब लिखे का लहणा ॥ जन नानक अंति वार नामु गहणा ॥४॥१८॥
मूलम्
तिनि हरि धनु पाइआ जिसु पुरब लिखे का लहणा ॥ जन नानक अंति वार नामु गहणा ॥४॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिनि = उस (मनुष्य) ने। पुरब लिखे का = पूर्बले जन्मों में किए भले कर्मों के संस्कारों के अनुसार। लहणा = प्राप्ति। अंति वार = आखिरी समय।4।
अर्थ: (पर, हे भाई!) उस मनुष्य ने ये हरि-धन हासिल किया है, जिसके भाग्यों में पूर्बले किए भले कर्मों के संस्कारों के अनुसार इसकी प्राप्ति लिखी होती है। हे दास नानक! (कह:) परमात्मा का नाम-धन (मनुष्य की जिंद के वास्ते) आखिरी वक्त का गहना है।4।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जैसे किरसाणु बोवै किरसानी ॥ काची पाकी बाढि परानी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जैसे किरसाणु बोवै किरसानी ॥ काची पाकी बाढि परानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरसाणु = किसान। किरसानी = खेती, पैली। काची = कच्ची। पाकी = पक्की। बाढि = काट लेता है। परानी = हे प्राणी!।1।
अर्थ: हे प्राणी! (जैसे) कोई किसान खेती बीजता है (और जब जी चाहे) उसे काट लेता है (चाहे वह) कच्ची (चाहे हो) पक्की (इसी प्रकार मनुष्य पर मौत किसी भी वक्त आ सकती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जनमै सो जानहु मूआ ॥ गोविंद भगतु असथिरु है थीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जो जनमै सो जानहु मूआ ॥ गोविंद भगतु असथिरु है थीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानहु = यकीन जानो। असथिरु = (मौत के सहम से) अडोल चित्त। थीआ = हो गया है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) यकीन जानो कि जो जीव पैदा होता है वह मरता भी (जरूर) है। परमात्मा का भक्त (इस अटल नियम को जानता हुआ मौत के सहम से) अडोल-चित्त हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिन ते सरपर पउसी राति ॥ रैणि गई फिरि होइ परभाति ॥२॥
मूलम्
दिन ते सरपर पउसी राति ॥ रैणि गई फिरि होइ परभाति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। सरपर = जरूर। पउसी = पड़ेगी। रैणि = रात। परभाति = सवेर।2।
अर्थ: (हे भाई!) दिन से अवश्य रात पड़ जाएगी, रात (भी) खत्म हो जाती है फिर दुबारा सवेर हो जाती है (इस तरह जगत में जनम और मरन का सिलसिला चला रहता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहि सोइ रहे अभागे ॥ गुर प्रसादि को विरला जागे ॥३॥
मूलम्
माइआ मोहि सोइ रहे अभागे ॥ गुर प्रसादि को विरला जागे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह में। अभागे = बद नसीब लोग। को = कोई।3।
अर्थ: (ये जानते हुए भी कि मौत जरूर आनी है) बद-नसीब लोग मायाके मोह में (फंस के जीवन उद्देश्य से) गाफिल हुए रहते हैं। कोई विरला मनुष्य ही गुरु की कृपा से (मोह की नींद) से जागता है।3।
[[0376]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुण गाईअहि नीत ॥ मुख ऊजल होइ निरमल चीत ॥४॥१९॥
मूलम्
कहु नानक गुण गाईअहि नीत ॥ मुख ऊजल होइ निरमल चीत ॥४॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाइअहि = गाए जाने चाहिए। नीत = सदा। चीत = चित्त, मन। निरमल = पवित्र।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) सदा परमात्मा के गुण गाए जाने चाहिए (इस उद्यम की इनायत से, एक तो, लोक-परलोक में) मुख उजला हो जाता है, दूसरा (मन) भी पवित्र हो जाता है।4।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ नउ निधि तेरै सगल निधान ॥ इछा पूरकु रखै निदान ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ नउ निधि तेरै सगल निधान ॥ इछा पूरकु रखै निदान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेरै = तेरे घर में (हे प्रभु!)। सगल = सारे। निधि = खजाना। निधान = खजाने। इछा पूरक = इच्छा पूरी करने वाला। रखै = रक्षा करता है। निदान = अंत को (जब और सारे आसरे छोड़ के जीव उसकी शरण पड़ता है)।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे घर में (जगत की) नौ ही निधियां मौजूद हैं सारे खजाने मौजूद हैं। तू ऐसा इच्छा-पूरक है (तू हरेक जीव की इच्छा पूरी करने की ऐसी ताकत रखता है) जो अंत में रक्षा करता है (जब मनुष्य और सारे कल्पित आसरे छोड़ बैठता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं मेरो पिआरो ता कैसी भूखा ॥ तूं मनि वसिआ लगै न दूखा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तूं मेरो पिआरो ता कैसी भूखा ॥ तूं मनि वसिआ लगै न दूखा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूखा = भूख, तृष्णा। मनि = मन में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) जब तू मेरे साथ प्यार करने वाला है (और मुझे सब कुछ देने वाला है) तो मुझे कोई तृष्णा नहीं रह सकती। अगर तू मेरे मन में टिका रहे तो कोई भी दुख मुझे छू नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तूं करहि सोई परवाणु ॥ साचे साहिब तेरा सचु फुरमाणु ॥२॥
मूलम्
जो तूं करहि सोई परवाणु ॥ साचे साहिब तेरा सचु फुरमाणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परवाणु = स्वीकार। साचे साहिब = हे सदा स्थिर रहने वाले मालिक! सचु = सदा कायम रहने वाला। फुरमाणु = हुक्म।2।
अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तू करता है (जीवों को) वही (सिर माथे पर) स्वीकार होता है। हे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरा हुक्म भी अटल है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा तुधु भावै ता हरि गुण गाउ ॥ तेरै घरि सदा सदा है निआउ ॥३॥
मूलम्
जा तुधु भावै ता हरि गुण गाउ ॥ तेरै घरि सदा सदा है निआउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुधु = तुझे। गाउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। घरि = घर में। निआउ = न्याय।3।
अर्थ: हे प्रभु! जब तुझे मंजूर होता है तभी मैं तेरे महिमा के गीत गा सकता हूँ। तेरे घर में सदा ही न्याय है, सदा ही इन्साफ़ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचे साहिब अलख अभेव ॥ नानक लाइआ लागा सेव ॥४॥२०॥
मूलम्
साचे साहिब अलख अभेव ॥ नानक लाइआ लागा सेव ॥४॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सदा कायम रहने वाले मालिक! हे अलख और अभेव! तेरा प्रेरित किया हुआ ही जीव तेरी सेवा-भक्ति में लग सकता है।4।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ निकटि जीअ कै सद ही संगा ॥ कुदरति वरतै रूप अरु रंगा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ निकटि जीअ कै सद ही संगा ॥ कुदरति वरतै रूप अरु रंगा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = (निअड़ि) नजदीक। जीअ कै निकटि = सभ जीवों के नजदीक। सद = सदा। कुदरति = कला, ताकत।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब जीवों के नजदीक बसता है सदा सभी के अंग-संग रहता है, उसी की ही कला सब रूपों में सब रंगों में काम कर रही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्है न झुरै ना मनु रोवनहारा ॥ अविनासी अविगतु अगोचरु सदा सलामति खसमु हमारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कर्है न झुरै ना मनु रोवनहारा ॥ अविनासी अविगतु अगोचरु सदा सलामति खसमु हमारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर्है = कढ़ै, कढ़ता है, कुढ़ता, खिझता। रोवनहारा = गिला करने वाला। अविगतु = अव्यक्त, अदृष्ट। अगोचर = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सलामति = कायम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है के अविनाशी, अदृश्य और अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा हमारे सिर पर सदा कायम रहने वाला पति कायम है उसका मन कभी कुढ़ता नहीं, कभी खिझता नहीं कभी गिले-शिकवे नहीं करता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे दासरे कउ किस की काणि ॥ जिस की मीरा राखै आणि ॥२॥
मूलम्
तेरे दासरे कउ किस की काणि ॥ जिस की मीरा राखै आणि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासरा = सेवक, गरीब सा सेवक। काणि = अधीनता। मीरा = पातिशाह। आणि = इज्जत।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे छोटे से सेवक को भी किसी की अधीनता नहीं रहती (हे भाई!) जिस सेवक की इज्जत प्रभु-पातिशाह स्वयं रखे (वह किसी की अधीनता करे भी क्यूँ?)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो लउडा प्रभि कीआ अजाति ॥ तिसु लउडे कउ किस की ताति ॥३॥
मूलम्
जो लउडा प्रभि कीआ अजाति ॥ तिसु लउडे कउ किस की ताति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लउडा = दास, सेवक। प्रभि = प्रभु ने। अजाति = ऊँची जाति आदि के अहंकार से रहित। ताति = ईरखा।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस सेवक को परमात्मा ने ऊँची जाति आदि के अहंकार से रहित कर दिया, उसे कभी किसी की ईरखा का डर नहीं रहता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेमुहताजा वेपरवाहु ॥ नानक दास कहहु गुर वाहु ॥४॥२१॥
मूलम्
वेमुहताजा वेपरवाहु ॥ नानक दास कहहु गुर वाहु ॥४॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेमुहताजा = बे मुथाज। गुर = सब से बड़ा। वाहु = धन्य धन्य।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) उस सबसे बड़े परमात्मा को ही धन्य-धन्य कहते रहो जो बे-परवाह है जिसे किसी की अधीनता नहीं।4।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हरि रसु छोडि होछै रसि माता ॥ घर महि वसतु बाहरि उठि जाता ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हरि रसु छोडि होछै रसि माता ॥ घर महि वसतु बाहरि उठि जाता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। होछै रसि = उस रस में जो जल्दी खत्म हो जाता है। होछा = जल्दी समाप्त हो जाने वाला। माता = मस्त। वसतु = चीज। घर = हृदय। उठि = उठ के।1।
अर्थ: (हे भाई! विकारों के बोझ तले दबा हुआ मनुष्य) परमात्मा का नाम-रस छोड़ के (दुनियां के पदार्थों के) रस में मस्त रहता है जो खत्म भी जल्दी हो जाता है, (सुख देने वाली) नाम-वस्तु (इसके) हृदय-गृह में मौजूद है (पर सुख की खातिर दुनिया के पदार्थों की खातिर) बाहर उठ-उठ दौड़ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनी न जाई सचु अम्रित काथा ॥ रारि करत झूठी लगि गाथा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनी न जाई सचु अम्रित काथा ॥ रारि करत झूठी लगि गाथा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनी न जाई = सुनी नहीं जा सकती, सुननी पसंद नहीं करता। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। अंम्रित काथा = प्रभु की आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की बातें। रारि = तकरार, झगड़ा। झूठी गाथा लगि = झूठी बातों में लग के।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जीव ऐसे विकारों के नीचे दबा रहता है कि ये) सदा स्थिर परमात्मा का नाम सुनना पसंद ही नहीं करता, आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की बातें सुननीं पसन्द नहीं करता, पर झूठी (किसी काम ना आने वाली) कथा कहानियों में लग के (औरों से) झगड़ा-बखेड़ा खड़े करता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वजहु साहिब का सेव बिरानी ॥ ऐसे गुनह अछादिओ प्रानी ॥२॥
मूलम्
वजहु साहिब का सेव बिरानी ॥ ऐसे गुनह अछादिओ प्रानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वजहु = वजीफ़ा, रुज़ीना, तनख़्वाह। बिगानी = बेगानी, किसी और की। अछादिओ = आच्छादित, ढका हुआ।2।
अर्थ: (हे भाई!) मनुष्य विकारों के नीचे ऐसे दबा रहता है कि खाता तो है मालिक प्रभु का दिया हुआ है, पर सेवा करता है बेगानी (मालिक प्रभु को याद करने की जगह सदा माया की सोचें सोचता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु सिउ लूक जो सद ही संगी ॥ कामि न आवै सो फिरि फिरि मंगी ॥३॥
मूलम्
तिसु सिउ लूक जो सद ही संगी ॥ कामि न आवै सो फिरि फिरि मंगी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लूक = लुकाव, परदा, छुपा के। संगी = साथी। कामि = काम में।3।
अर्थ: जो परमात्मा सदा ही (जीव के साथ) साथी है उससे पर्दा करता है, जो चीज (आखिर किसी) काम नहीं आनी, वही बार-बार मांगता रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक प्रभ दीन दइआला ॥ जिउ भावै तिउ करि प्रतिपाला ॥४॥२२॥
मूलम्
कहु नानक प्रभ दीन दइआला ॥ जिउ भावै तिउ करि प्रतिपाला ॥४॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! प्रतिपाला = रक्षा, हिफ़ाज़त।4।
अर्थ: हे नानक! कह: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! जैसे भी हो सके (विकारों और माया के मोह से दबे जीवों की) रक्षा कर।4।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जीअ प्रान धनु हरि को नामु ॥ ईहा ऊहां उन संगि कामु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जीअ प्रान धनु हरि को नामु ॥ ईहा ऊहां उन संगि कामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ दान = जिंद का धन। प्रान धनु = प्राणों के लिए धन। को = का। ईहा = इस लोक में। ऊहां = परलोक में। उन संगि = उन (जिंद और प्राणों) के साथ। कामु = काम।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिंद के वास्ते प्राणों के वास्ते परमात्मा का नाम (ही असल) धन है, (ये धन) इस लोक में भी और परलोक में भी प्राणों के साथ काम (देता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु हरि नाम अवरु सभु थोरा ॥ त्रिपति अघावै हरि दरसनि मनु मोरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बिनु हरि नाम अवरु सभु थोरा ॥ त्रिपति अघावै हरि दरसनि मनु मोरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थोरा = थोड़ा, घाटे का। त्रिपति अघावै = तृप्त हो जाता है। दरसनि = दर्शनों से। मोरा = मेरा।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा के नाम के बिना और सारा (धन पदार्थ) घाटे का सौदा ही है। (हे भाई!) मेरा मन परमात्मा के दर्शनों की इनायत से (दुनिया के धन पदार्थों की ओर से) संतुष्ट हो गया है (तृप्त हो गया है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति भंडार गुरबाणी लाल ॥ गावत सुनत कमावत निहाल ॥२॥
मूलम्
भगति भंडार गुरबाणी लाल ॥ गावत सुनत कमावत निहाल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भंडार = खजाने। निहाल = प्रसन्न।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की भक्ति सतिगुरु की वाणी (मानो) लाल (-रत्नों) के खजाने है। (गुरबाणी) गाते-सुनते और कमाते हुए मन सदा खिला रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण कमल सिउ लागो मानु ॥ सतिगुरि तूठै कीनो दानु ॥३॥
मूलम्
चरण कमल सिउ लागो मानु ॥ सतिगुरि तूठै कीनो दानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। मानु = मन। सतिगुरि तूठै = प्रसन्न हुए गुरु ने।3।
अर्थ: (हे भाई!) दयावान हुए सतिगुरु ने जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम-धन की दाति दी, उसका मन परमात्मा के सुंदर चरणों के साथ जुड़ गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक कउ गुरि दीखिआ दीन्ह ॥ प्रभ अबिनासी घटि घटि चीन्ह ॥४॥२३॥
मूलम्
नानक कउ गुरि दीखिआ दीन्ह ॥ प्रभ अबिनासी घटि घटि चीन्ह ॥४॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। गुरि = गुरु ने। दीखिआ = शिक्षा। घटि घटि = हरेक घट में। चीन्ह = देख लिया।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु ने शिक्षा दी, उसने अविनाशी परमात्मा को हरेक हृदय में (बसता) देख लिया।4।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अनद बिनोद भरेपुरि धारिआ ॥ अपुना कारजु आपि सवारिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अनद बिनोद भरेपुरि धारिआ ॥ अपुना कारजु आपि सवारिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनोद = करिश्में, तमाशे। भरेपुरि = भरपूर प्रभु ने, सर्व व्यापक परमात्मा ने। धारिआ = धारे हैं, रचे हैं। कारजु = किया हुआ जगत, रचा हुआ संसार।1।
अर्थ: जगत के सारे करिश्मे उस सर्व-व्यापक परमात्मा के ही रचे हुए हैं, अपने रचे हुए संसार को उसने खुद ही (इन करिश्में-तमाशों से) सुंदर बनाया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर समग्री पूरे ठाकुर की ॥ भरिपुरि धारि रही सोभ जा की ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पूर समग्री पूरे ठाकुर की ॥ भरिपुरि धारि रही सोभ जा की ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूर समग्री = सारे जगत के पदार्थ। भरपुरि = भरपूर, हर जगह। धारि रही = बिखर रही है। सोभ = शोभा। जा की = जिस (ठाकुर) की।1। रहाउ।
अर्थ: जिस परमात्मा की शोभा-बड़ाई (सारे संसार में) हर जगह बिखर रही है, ये सारे जगत पदार्थ उस अमोध परमात्मा के ही बनाए हुए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु निधानु जा की निरमल सोइ ॥ आपे करता अवरु न कोइ ॥२॥
मूलम्
नामु निधानु जा की निरमल सोइ ॥ आपे करता अवरु न कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। सोइ = शोभा, बड़ाई। निरमल = पवित्र करने वाली। आपे = स्वयं ही।2।
अर्थ: जिस (परमात्मा) की (की हुई) महिमा (सारे जीवों को) पवित्र जीवन वाला बना देती है, जिसका नाम (सारे जीवों के वास्ते) खजाना है वह स्वयं ही सबको पैदा करने वाला है, उसके बराबर का और कोई नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत सभि ता कै हाथि ॥ रवि रहिआ प्रभु सभ कै साथि ॥३॥
मूलम्
जीअ जंत सभि ता कै हाथि ॥ रवि रहिआ प्रभु सभ कै साथि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव-जंतु। सभि = सारे। कै हाथि = के हाथ में। रवि रहिआ = मौजूद है, बस रहा है। साथि = साथ।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! जगत के) सारे जीव-जंतु उस परमात्मा के ही हाथ में हैं, वह परमात्मा सब जगह बस रहा है, हरेक जीव के अंग-संग बसता है।3।
[[0377]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरा गुरु पूरी बणत बणाई ॥ नानक भगत मिली वडिआई ॥४॥२४॥
मूलम्
पूरा गुरु पूरी बणत बणाई ॥ नानक भगत मिली वडिआई ॥४॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर = सबसे बड़ा। पूरी = जिसमें कोई कमी नहीं। भगत = भक्तों को।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा सबसे बड़ा है उसमें कोई कमी नहीं है उसकी बनाई हुई रचना भी कमी-रहित है, परमात्मा की भक्ति करने वालों को (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।4।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ गुर कै सबदि बनावहु इहु मनु ॥ गुर का दरसनु संचहु हरि धनु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ गुर कै सबदि बनावहु इहु मनु ॥ गुर का दरसनु संचहु हरि धनु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द के द्वारा। बनावहु = नए सिरे से घड़ो, सुंदर बना लो। संचहु = इकट्ठा करो।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने) इस मन को नए सिरे से घड़ो। (गुरु का शब्द ही) गुरु का दीदार है (इस शब्द की इनायत से) परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊतम मति मेरै रिदै तूं आउ ॥ धिआवउ गावउ गुण गोविंदा अति प्रीतम मोहि लागै नाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऊतम मति मेरै रिदै तूं आउ ॥ धिआवउ गावउ गुण गोविंदा अति प्रीतम मोहि लागै नाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मति = हे मति! मेरै रिदै = मेरे हृदय में, मेरे अंदर। धिआवउ = मैं ध्याऊँ। गावउ = मैं गाऊँ। अति प्रीतम = बहुत प्यारा। मोहि = मुझे।1। रहाउ।
अर्थ: हे श्रेष्ठ मति! (अगर गुरु मेहर करे तो) तू मेरे अंदर आ के बस ता कि मैं परमात्मा के गुण गाऊँ परमात्मा का ध्यान धरूँ और परमात्मा का नाम मुझे बहुत प्यारा लगने लगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिपति अघावनु साचै नाइ ॥ अठसठि मजनु संत धूराइ ॥२॥
मूलम्
त्रिपति अघावनु साचै नाइ ॥ अठसठि मजनु संत धूराइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति, संतुष्टि। अघावन = पेट भर जाना, तृप्ति। नाइ = नाम के द्वारा। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = स्नान। धूराइ = धूल।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के चरणों की धूल अढ़सठ तीर्थों का स्नान है। (गुरु के द्वारा) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से तृष्णा खत्म हो जाती है, मन की भूख मिट जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ महि जानउ करता एक ॥ साधसंगति मिलि बुधि बिबेक ॥३॥
मूलम्
सभ महि जानउ करता एक ॥ साधसंगति मिलि बुधि बिबेक ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानउ = मैं जानता हूँ, जानूँ। मिलि = मिल के। बिबेक = अच्छे बुरे की परख।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में मिल के मैंने अच्छे-बुरे की परख करने वाली बुद्धि प्राप्त कर ली है और मैं अब सभी में एक कर्तार को ही बसता पहचानता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासु सगल का छोडि अभिमानु ॥ नानक कउ गुरि दीनो दानु ॥४॥२५॥
मूलम्
दासु सगल का छोडि अभिमानु ॥ नानक कउ गुरि दीनो दानु ॥४॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: (हे भाई! मुझे) नानक को गुरु ने (बिबेक बुद्धि की ऐसी) दाति बख्शी है कि मैं अहंकार त्याग के सभी का दास बन गया हूँ।4।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ बुधि प्रगास भई मति पूरी ॥ ता ते बिनसी दुरमति दूरी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ बुधि प्रगास भई मति पूरी ॥ ता ते बिनसी दुरमति दूरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। पूरी = कमी रहित। ता ते = उससे, उसकी सहायता से। दूरी = अंतर।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से मेरी) बुद्धि में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है मेरी अक्ल कमी-रहित हो गई है, इसकी सहायता से मेरी बुरी मति का नाश हो गया है, मेरी परमात्मा से दूरी मिट गई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी गुरमति पाईअले ॥ बूडत घोर अंध कूप महि निकसिओ मेरे भाई रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी गुरमति पाईअले ॥ बूडत घोर अंध कूप महि निकसिओ मेरे भाई रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाईअले = मैंने प्राप्त की है। बूडत = डूबता। घोर अंध = घुप अंधेरा। कूप = कूआँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! मैंने गुरु से ऐसी बुद्धि प्राप्त कर ली है जिसकी मदद से मैं माया के घुप अंधेरे कूँऐ से डूबता-डूबता बच निकला हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा अगाह अगनि का सागरु ॥ गुरु बोहिथु तारे रतनागरु ॥२॥
मूलम्
महा अगाह अगनि का सागरु ॥ गुरु बोहिथु तारे रतनागरु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगाह = जिसकी गहराई ना मिल सके। सागरु = समुंदर। बोहिथु = जहाज। रतनागरु = (रत्नाकर, रत्न-आकर) रत्नों की खान।2।
अर्थ: (हे भाई! ये संसार की तृष्णा की) आग एक बड़ा अथाह समुंदर है, रत्नों की खान गुरु (मानो) जहाज है जो (इस समुंदर में से) पार लंघा लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुतर अंध बिखम इह माइआ ॥ गुरि पूरै परगटु मारगु दिखाइआ ॥३॥
मूलम्
दुतर अंध बिखम इह माइआ ॥ गुरि पूरै परगटु मारगु दिखाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुतर = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है। बिखम = मुश्किल। गुरि = गुरु ने। मारगु = रास्ता। परगटु = साफ।3।
अर्थ: (हे भाई!) यह माया (मानो, एक समुंदर है जिस में से) पार लांघना मुश्किल है जिस में घोर अंधेरा ही अंधेरा है (इस में से पार लांघने के लिए) पूरे गुरु ने मुझे साफ रास्ता दिखा दिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाप ताप कछु उकति न मोरी ॥ गुर नानक सरणागति तोरी ॥४॥२६॥
मूलम्
जाप ताप कछु उकति न मोरी ॥ गुर नानक सरणागति तोरी ॥४॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उकति = उक्ति, दलील। मोरी = मेरी, मेरे पास। गुर = हे गुरु! 4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गुरु! मेरे पास कोई जप नहीं कोई तप नहीं कोई सियानप नहीं, मैं तो तेरी ही शरण आया हूँ (मुझे इस घोर अंधकार में से निकाल ले)।4।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ तिपदे २ ॥ हरि रसु पीवत सद ही राता ॥ आन रसा खिन महि लहि जाता ॥ हरि रस के माते मनि सदा अनंद ॥ आन रसा महि विआपै चिंद ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ तिपदे २ ॥ हरि रसु पीवत सद ही राता ॥ आन रसा खिन महि लहि जाता ॥ हरि रस के माते मनि सदा अनंद ॥ आन रसा महि विआपै चिंद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पीवत = पीते हुए। सद = सदा। राता = रंगा हुआ, मस्त। आन = अन्य, और। माते = मस्त, मतवाले। मनि = मन में। विआपै = जोर डाल देती है। चिंद = चिन्ता।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम-अमृत पीने वाला मनुष्य (नाम-रंग में) सदा रंगा रहता है (क्योंकि नाम-रस का असर कभी दूर नहीं होता, इसके अलावा दुनिया के पदार्थों के) अन्य रसों का असर एक पल में उतर जाता है। परमात्मा के नाम-रस के मतवाले मनुष्य के मन में सदा आनंद टिका रहता है, पर दुनिया के पदार्थों के स्वादों में पड़े को चिन्ता आ दबाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रसु पीवै अलमसतु मतवारा ॥ आन रसा सभि होछे रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि रसु पीवै अलमसतु मतवारा ॥ आन रसा सभि होछे रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलमसतु = पूर्ण तौर पे मस्त। मतवारा = मतवाला, आशिक। सभि = सारे। होछे = फीके।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा का नाम अमृत पीता है वह उस रस में पूरी तौर से मस्त रहता है वह उस नाम रस का आशिक बन जाता है, उसे दुनिया के और सारे रस (नाम-रस के मुकाबले) फीके प्रतीत होते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रस की कीमति कही न जाइ ॥ हरि रसु साधू हाटि समाइ ॥ लाख करोरी मिलै न केह ॥ जिसहि परापति तिस ही देहि ॥२॥
मूलम्
हरि रस की कीमति कही न जाइ ॥ हरि रसु साधू हाटि समाइ ॥ लाख करोरी मिलै न केह ॥ जिसहि परापति तिस ही देहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीमति = मूल्य। साधू हाटि = गुरु के हाट में, गुरु की संगति में। समाइ = टिका रहता है। केह = किसी को। जिसहि परापति = जिसके भाग्यों में लिखी है प्राप्ति। देहि = तू देता है (हे प्रभु!)।2।
अर्थ: (हे भाई! हरि-नाम-रस दुनिया के धन-पदार्थों के बदले में नहीं मिल सकता) परमात्मा के नाम-रस का मूल्य (धन-पदार्थ के रूप में) बयान नहीं किया जा सकता। ये नाम-रस गुरु के हाट में (गुरु की संगति में) सदा टिका रहता है। लाखों-करोड़ों रुपए दे के भी ये किसी को नहीं मिल सकता। हे प्रभु! जिस मनुष्य के भाग्यों में तूने इसकी प्राप्ति लिखी है उसी को तू स्वयं देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक चाखि भए बिसमादु ॥ नानक गुर ते आइआ सादु ॥ ईत ऊत कत छोडि न जाइ ॥ नानक गीधा हरि रस माहि ॥३॥२७॥
मूलम्
नानक चाखि भए बिसमादु ॥ नानक गुर ते आइआ सादु ॥ ईत ऊत कत छोडि न जाइ ॥ नानक गीधा हरि रस माहि ॥३॥२७॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: तिपदे २ = तीन बंदों वाले 2 शब्द।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चाखि = चख के। ते = से। सादु = स्वाद, आनंद। ईत ऊत = इस लोक में परलोक में। कत = कहीं भी। गीधा = गिझा हुआ।3।
अर्थ: हे नानक! (ये नाम-रस) चख के (कोई इसका स्वाद बयान नहीं कर सकता। यदि कोई यत्न करे तो) हैरान सा होता है (क्योंकि वह अपने आप को इस रस के असर को बयान करने में अस्मर्थ पाता है)। इस हरि-नाम-रस का आनंद गुरु से ही प्राप्त होता है (जिसे एक बार इसकी प्राप्ति हो गई वह) इस लोक और परलोक में (किसी भी और पदार्थ की खातिर) इस नाम-रस को छोड़ के नहीं जाता, वह सदा हरि-नाम-रस में ही मस्त रहता है।3।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु मिटावै छुटकै दुरमति अपुनी धारी ॥ होइ निमाणी सेव कमावहि ता प्रीतम होवहि मनि पिआरी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु मिटावै छुटकै दुरमति अपुनी धारी ॥ होइ निमाणी सेव कमावहि ता प्रीतम होवहि मनि पिआरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिटावै = मिटा देता है। छुटकै = खत्म हो जाती है। दुरमति = बुरी मति। अपुनी धारी = अपनी ही पैदा की हुई। कमावहि = अगर तू करे। मनि = मन में।1।
अर्थ: हे सुंदरी! अगर तू गुमान त्याग के प्रभु की सेवा भक्ति करेगी तो प्रभु-प्रीतम के मन को प्यारी लगेगी, (गुरु का उपदेश तेरे अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-मोह को मिटा देगा, तेरी अपनी ही पैदा की हुई कुमति (तेरे अंदर से) मिट जाएगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुंदरि साधू बचन उधारी ॥ दूख भूख मिटै तेरो सहसा सुख पावहि तूं सुखमनि नारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुणि सुंदरि साधू बचन उधारी ॥ दूख भूख मिटै तेरो सहसा सुख पावहि तूं सुखमनि नारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंदरि = हे सुंदरी! हे सुंदरी जीव-स्त्री! साधू बचन = गुरु के वचन। उधारी = उद्धार, (अपने आप को संसार समुंदर में डूबने से) बचा ले। सहसा = सहम। सुखमनि = जिसके मन में ये आत्मिक आनंद बस रहा है। नारी = हे जीव-स्त्री!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सुंदरी! हे अपने मन में आत्मिक आनंद टिकाए रखने की चाहवान जीव-स्त्री! गुरु के वचन सुन के (अपने आप को संसार समुंदर में डूबने से) बचा। (गुरु की वाणी की इनायत से) तेरा दुख मिट जाएगा तेरी माया की भूख मिट जाएगी तू आत्मिक आनंद पाएगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण पखारि करउ गुर सेवा आतम सुधु बिखु तिआस निवारी ॥ दासन की होइ दासि दासरी ता पावहि सोभा हरि दुआरी ॥२॥
मूलम्
चरण पखारि करउ गुर सेवा आतम सुधु बिखु तिआस निवारी ॥ दासन की होइ दासि दासरी ता पावहि सोभा हरि दुआरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाखरि = पखालि, धो के। करहु = तू कर। सुधु = शुद्ध, पवित्र। बिखु = जहर, (माया के मोह का जहर जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देता है)। पिआस = प्यास, तृष्णा, त्रिखा। निवारी = दूर करती है। दासि = दासी। दासरी = निमाणी सी दासी। दुआरी = द्वार पर, द्वारि।2।
अर्थ: हे सुंदरी! गुरु के चरण धो के गुरु की (बताई) सेवा करा कर, तेरी आत्मा पवित्र हो जाएगी (ये सेवा तेरे अंदर से आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाले माया-मोह के) जहर को दूर कर देगी, माया की तृष्णा को मिटा दो। (हे सुंदरी!) अगर तू परमात्मा के सेवकों की दासी बन जाए, निमाणी सी दासी बन जाए, तो तू परमात्मा की हजूरी में शोभा-आदर हासिल करेगी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इही अचार इही बिउहारा आगिआ मानि भगति होइ तुम्हारी ॥ जो इहु मंत्रु कमावै नानक सो भउजलु पारि उतारी ॥३॥२८॥
मूलम्
इही अचार इही बिउहारा आगिआ मानि भगति होइ तुम्हारी ॥ जो इहु मंत्रु कमावै नानक सो भउजलु पारि उतारी ॥३॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचार = (निहित धार्मिक रस्मों का) करना, आचरण। बिउहारा = व्यवहार, नित्य की रहन-सहन। मानि = मंन। मंत्रु = उपदेश। भउजल = संसार समुंदर।3।
अर्थ: (हे सुंदरी!) यही कुछ तेरे वास्ते धार्मिक रस्मों के करने योग्य है यही तेरा नित्य का व्यवहार होना चाहिए। परमात्मा की रजा को सिर-माथे मान (इस तरह की हुई) तेरी प्रभु-भक्ति (प्रभु दर पर) स्वीकार हो जाएगी।
हे नानक! जो भी मनुष्य इस उपदेश को कमाता है (अपने जीवन में उपयोग करता है) वह संसार समुंदर से पार लांघ जाता है।3।28।
[[0378]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ दुपदे ॥ भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥ अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ दुपदे ॥ भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥ अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देहुरीआ = सुंदर देह। मानुख देहुरीआ = मानव जनम की सुंदर देह। बरीआ = वारी। अवरि = और-और।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! तुझे मनुष्य जनम के सोहणे शरीर की प्राप्ति हुई है, यही है समय परमात्मा को मिलने का। तेरे और-और काम (परमात्मा को मिलने के रास्ते में) तेरे किसी काम नहीं आएंगे। (इस वास्ते) साधु-संगत में (भी) बैठा कर (और वहाँ) सिर्फ परमात्मा के नाम का भजन किया कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरंजामि लागु भवजल तरन कै ॥ जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सरंजामि लागु भवजल तरन कै ॥ जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरंजामि = सरंजाम में, आहर में, अंजाम को सर करने की कोशिश में। अंजाम को फतह करने की। लागु = लग। भवजल = संसार समुंदर। तरन कै सरंजामि = तैरने की आहर में। ब्रिथा जात = व्यर्थ जा रहा है। रंगि = रंग में, प्यार में, मोह में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) संसार समुंदर में से (सही सलामत आत्मिक जीवन लेकर) पार लांघने के आहर में (भी) लग। माया के मोह में (फंस) के तेरा मनुष्य जनम व्यर्थ जा रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपु तपु संजमु धरमु न कमाइआ ॥ सेवा साध न जानिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक हम नीच करमा ॥ सरणि परे की राखहु सरमा ॥२॥२९॥
मूलम्
जपु तपु संजमु धरमु न कमाइआ ॥ सेवा साध न जानिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक हम नीच करमा ॥ सरणि परे की राखहु सरमा ॥२॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजमु = (इन्द्रियों को विकारों से रोकने का) यत्न। साध = संत जन। हरि राइआ = हे प्रभु पातशाह! नानक = हे नानक! नीच करंमा = नीच कर्म वाले। सरमा = शर्म, लज्जा।2।
अर्थ: हे नानक! कह: हे प्रभु पातशाह! मैंने कोई जप नहीं किया, मैंने कोई तप नहीं किया, मैंने कोई संजम नहीं साधा; मैंने ऐसा कोई धर्म भी नहीं किया (मुझे किसी जप तप संजम आदि का सहारा-गुमान नहीं है)। हे प्रभु पातशाह! मैंने तो तेरे संत जनों की सेवा करने की विधि नहीं सीखीं। मैं बड़ा नीच कर्मों वाला हूँ (पर मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ)। शरण पड़े की लज्जा रखना।2।29।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: नंबर 29 से दो बंदों वाले शब्द शुरू हुए हैं जो नंबर 34 तक गिनती में 6 हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ तुझ बिनु अवरु नाही मै दूजा तूं मेरे मन माही ॥ तूं साजनु संगी प्रभु मेरा काहे जीअ डराही ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ तुझ बिनु अवरु नाही मै दूजा तूं मेरे मन माही ॥ तूं साजनु संगी प्रभु मेरा काहे जीअ डराही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरु = और। माही = में। संगी = साथी। जीअ = हे जिंदे! काहे डराही = क्यूँ डरती है? 1।
अर्थ: हे मेरी जिंदे! तू क्यों डरती है? (हर वक्त ऐसी अरदास करा कर-) हे प्रभु! तेरे बिना मेरा और कोई सहारा नहीं, तू सदा मेरे मन में बसता रह। तू ही मेरा सज्जन है, तू ही मेरा साथी है तू ही मेरा मालिक है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरी ओट तुमारी आसा ॥ बैठत ऊठत सोवत जागत विसरु नाही तूं सास गिरासा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुमरी ओट तुमारी आसा ॥ बैठत ऊठत सोवत जागत विसरु नाही तूं सास गिरासा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओट = आसरा। सास = श्वास। गिरासा = ग्रास।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोपाल! मुझे तेरा ही सहारा है, मुझे तेरी मदद की उम्मीद रहती है। (हे प्रभु! मेहर कर) बैठते-उठते-सोते-जागते, हरेक श्वास से, हरेक ग्रास के साथ मुझे तू कभी ना भूले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखु राखु सरणि प्रभ अपनी अगनि सागर विकराला ॥ नानक के सुखदाते सतिगुर हम तुमरे बाल गुपाला ॥२॥३०॥
मूलम्
राखु राखु सरणि प्रभ अपनी अगनि सागर विकराला ॥ नानक के सुखदाते सतिगुर हम तुमरे बाल गुपाला ॥२॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! विकराला = डरावना। सागर = समुंदर। बाल = बच्चे। गुपाला = हे गोपाल!।2।
अर्थ: हे प्रभु! ये आग का समुंदर (संसार बड़ा) डरावना है (इससे बचने के लिए) मुझे अपनी शरण में सदा टिकाए रख। हे गुपाल! हे सतिगुरु! हे नानक के सुखदाते प्रभु! मैं तेरा (अंजान) बच्चा हूँ।2।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हरि जन लीने प्रभू छडाइ ॥ प्रीतम सिउ मेरो मनु मानिआ तापु मुआ बिखु खाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हरि जन लीने प्रभू छडाइ ॥ प्रीतम सिउ मेरो मनु मानिआ तापु मुआ बिखु खाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त। छडाइ लीने = बचा लिए हैं। सिउ = साथ। तापु = (माया के मोह का) ताप। बिखु = जहर। बिखु खाइ = जहर खा के।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपने भक्तों को (माया-डायन के पँजे से) स्वयं बचा लेता है। (गुरु की कृपा से) मेरा मन भी प्रीतम परमात्मा से गिझा गया है, मेरा भी (माया का) ताप (ऐसे) खत्म हो गया है (जैसे कोई प्राणी) जहर खा के मर जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाला ताऊ कछू न बिआपै राम नाम गुन गाइ ॥ डाकी को चिति कछू न लागै चरन कमल सरनाइ ॥१॥
मूलम्
पाला ताऊ कछू न बिआपै राम नाम गुन गाइ ॥ डाकी को चिति कछू न लागै चरन कमल सरनाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताऊ = ताउ, ताप।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में माया के प्रभाव को मलेरिए के बुधार (ताप) के साथ उपमा दी गई है। जैसे मलेरिेए में पहले कंपनी छिड़ती है और भारे कपडों की जरूरत पड़ती है। फिर फूक के ताप चढ़ जाता है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाला ताऊ कछू न = ना कांपना ना ताप (ना माया की लालच ना ही कोई सहम)। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। डाकी को कछू = माया डायन का कुछ भी (प्रभाव)। चिति = चिक्त पर।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरणों का आसरा लेने से (मनुष्य के) चिक्त पर (माया-) डायन को कोई जोर नहीं चलता। परमात्मा के महिमा के गीत गा-गा के ना माया की लालच जोर डाल सकती है, ना ही माया का सहम दबाव डालता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि भए किरपाला होए आपि सहाइ ॥ गुन निधान निति गावै नानकु सहसा दुखु मिटाइ ॥२॥३१॥
मूलम्
संत प्रसादि भए किरपाला होए आपि सहाइ ॥ गुन निधान निति गावै नानकु सहसा दुखु मिटाइ ॥२॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत = गुरु। प्रसादि = कृपा से। सहाइ = सहाई। निधान = खजाने। सहसा = सहम।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से (परमात्मा मेरे पर) दयावान हो गया है (माया डायन से बचने के लिए मेरा) मेरा खुद सहाई बना हुआ है। अब (गुरु की कृपा से) नानक (माया का) सहम और दुख दूर कर करके गुणों के खजाने परमात्मा के गुण सदा गाता रहता है।2।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अउखधु खाइओ हरि को नाउ ॥ सुख पाए दुख बिनसिआ थाउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अउखधु खाइओ हरि को नाउ ॥ सुख पाए दुख बिनसिआ थाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखधु = दवा। को = का। दुख थाउ = दुखों की जगह, दुखों का स्रोत (माया का मोह)।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम की दवाई खाई (उसके अंदर माया का मोह) दुखों का स्रोत सूख गया और उसने आत्मिक आनंद पा लिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तापु गइआ बचनि गुर पूरे ॥ अनदु भइआ सभि मिटे विसूरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तापु गइआ बचनि गुर पूरे ॥ अनदु भइआ सभि मिटे विसूरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बचनि = बचन के द्वारा, उपदेश से। अनद = आनंद। सभि = सारे। विसूरे = चिन्ता, फिक्र।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरु के उपदेश की इनायत से नाम-दवाई खा के माया-मोह का) ताप उतर जाता है, आत्मिक आनंद पैदा होता है, सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत सगल सुखु पाइआ ॥ पारब्रहमु नानक मनि धिआइआ ॥२॥३२॥
मूलम्
जीअ जंत सगल सुखु पाइआ ॥ पारब्रहमु नानक मनि धिआइआ ॥२॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव। सगल = सारे। मनि = मन में।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (गुरु के उपदेश द्वारा) जिस जिस मनुष्य ने परमात्मा अपने मन में स्मरण किया, उन सभी ने आतिमक आनंद प्राप्त किया।2।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ बांछत नाही सु बेला आई ॥ बिनु हुकमै किउ बुझै बुझाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ बांछत नाही सु बेला आई ॥ बिनु हुकमै किउ बुझै बुझाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बांछत नाही = पसंद नहीं करता, चाहता नहीं। सु बेला = वह वेला, मौत की वेला। किउ बूझै = कैसे समझें? नहीं समझ सकता। बुझाई = समझाने से।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिसे कोई भी पसंद नहीं करता, मौत का वह समय जरूर आ जाता है (मनुष्य फिर भी नहीं समझता कि मौत जरूर आनी है) जब परमात्मा का हुक्म ना हो जीव को कितना ही समझाओ ये नहीं समझता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठंढी ताती मिटी खाई ॥ ओहु न बाला बूढा भाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ठंढी ताती मिटी खाई ॥ ओहु न बाला बूढा भाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठंढी खाई = पानी खा जाता है, पानी में बह जाता है। ताती खाई = आग जला देती है। मिटी खाई = मिट्टी खा जाती है। ओहु = वह जीवात्मा। बाला = बालक। भाई = हे भाई!।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जीवात्मा (परमात्मा की अंश है जो) ना कभी बालक है ना कभी बुढा है (वह कभी नहीं मरता। शरीर ही कभी बालक है कभी जवान है, कभी बुढा है और फिर मर जाता है। मरे शरीर को) जल प्रवाह किया जाता है, आग जला देती है, या (दबाने से) मिट्टी खा जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक दास साध सरणाई ॥ गुर प्रसादि भउ पारि पराई ॥२॥३३॥
मूलम्
नानक दास साध सरणाई ॥ गुर प्रसादि भउ पारि पराई ॥२॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरु। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। भउ = डर। पारि पराई = पार लांघ जाता है।2।
अर्थ: हे दास नानक! गुरु की शरण पड़ते ही, गुरु की कृपा से ही मनुष्य (मौत के) डर-सहम से पार लांघ सकता है।2।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सदा सदा आतम परगासु ॥ साधसंगति हरि चरण निवासु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सदा सदा आतम परगासु ॥ साधसंगति हरि चरण निवासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतम परगासु = आत्मिक जीवन का प्रकाश, ये रौशनी कि आत्मिक जीवन कैसे जीते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में रहके जिस मनुष्य का मन परमात्मा के चरणों में टिका रहता है उसे सदा कायम रहने वाला आत्मिक जीवन का प्रकाश मिल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम निति जपि मन मेरे ॥ सीतल सांति सदा सुख पावहि किलविख जाहि सभे मन तेरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम नाम निति जपि मन मेरे ॥ सीतल सांति सदा सुख पावहि किलविख जाहि सभे मन तेरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निति = सदा। मन = हे मन! किलविख = पाप।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का नाम जपा कर। हे मन! (नाम की इनायत से) तेरे सारे पाप दूर हो जाएंगे, तेरा स्वै ठंडा-ठार हो जाएगा, तेरे अंदर शांति पैदा हो जाएगी, तू सदा आत्मिक आनंद पाता रहेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जा के पूरन करम ॥ सतिगुर भेटे पूरन पारब्रहम ॥२॥३४॥ दूजे घर के चउतीस ॥
मूलम्
कहु नानक जा के पूरन करम ॥ सतिगुर भेटे पूरन पारब्रहम ॥२॥३४॥ दूजे घर के चउतीस ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = भाग्य। भेटे = मिलता है।2।
अर्थ: (पर) हे नानक! कह, जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जागते हैं वह ही सतिगुरु को मिलता है और सब गुणों से भरपूर परमात्मा को मिलता है।2।34।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दूसरे घर के चौतीस। आरंभ में शीर्षक आया था; घरु २ महला ५। घर दूसरे के संगह में 34 शब्द हैं।
[[0379]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जा का हरि सुआमी प्रभु बेली ॥ पीड़ गई फिरि नही दुहेली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जा का हरि सुआमी प्रभु बेली ॥ पीड़ गई फिरि नही दुहेली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। बेली = मददगार, सहाई। सुआमी = स्वामी, मालिक। दुहेली = दुखी, दुख भरी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) सब जीवों का मालिक हरि प्रभु जिस मनुष्य का मददगार बन जाता है, उसका हरेक किस्म का दुख-दर्द दूर हो जाता है उसको पुनः कभी कोई दुख नहीं घेर सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा चरन संगि मेली ॥ सूख सहज आनंद सुहेली ॥१॥
मूलम्
करि किरपा चरन संगि मेली ॥ सूख सहज आनंद सुहेली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। सहज = आत्मिक अडोलता। सुहेली = सुखी, सुख भरी।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस जीव को परमात्मा कृपा करके अपने चरणों में जोड़ लेता है उसके अंदर सुख आनंद आत्मिक अडोलता आ बसते हैं उसका जीवन सुखी हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि गुण गाइ अतोली ॥ हरि सिमरत नानक भई अमोली ॥२॥३५॥
मूलम्
साधसंगि गुण गाइ अतोली ॥ हरि सिमरत नानक भई अमोली ॥२॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। गाइ = गा के। अतोली = जो तोली ना जा सके, जिसके बराबर की और कोई चीज ना मिल सके। अमोली = जिसका मूल्य ना पड़ सके।2।
अर्थ: हे नानक! साधु-संगत में परमात्मा के गुण गा के परमात्मा का स्मरण करके (मनुष्य का जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि उसके) बराबर का कोई नहीं मिल सकता, उसकी कीमत का कोई नहीं मिल सकता।2।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर ए खेलत सभि जूऐ हारे ॥ सतु संतोखु दइआ धरमु सचु इह अपुनै ग्रिह भीतरि वारे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर ए खेलत सभि जूऐ हारे ॥ सतु संतोखु दइआ धरमु सचु इह अपुनै ग्रिह भीतरि वारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मद = अहंकार। मतसर = ईरखा। ए = ये सारे (बहुवचन)। सभि = सारे। जूऐ = जूए में। भीतरि = अंदर। वारे = ले आए।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में बैठता है वह) काम-क्रोध-माया का मोह-अहंकार-ईष्या- इन सारे विकारों को (मानो) जूए की बाजी में खेल के हार देता है और सत-संतोष-दया-धर्म-सच- इन गुणों को अपने हृदय घर में ले आता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम मरन चूके सभि भारे ॥ मिलत संगि भइओ मनु निरमलु गुरि पूरै लै खिन महि तारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जनम मरन चूके सभि भारे ॥ मिलत संगि भइओ मनु निरमलु गुरि पूरै लै खिन महि तारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चूके = खत्म हो गए। भारे = जिम्मेवारियां। गुरि = गुरु ने। खिन महि = बड़ी ही जल्दी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में मिल बैठ के मन पवित्र हो जाता है (साधु-संगत में बैठने वाले को) पूरे गुरु ने एक छिन में (विकारों के समुंदर से) पार लंघा लिया, उसके जनम मरन के चक्कर समाप्त हो गए उसकी (अपने आप अपने सिर पर ली हुई) जिम्मेवारियां खत्म हो गई।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ की रेनु होइ रहै मनूआ सगले दीसहि मीत पिआरे ॥ सभ मधे रविआ मेरा ठाकुरु दानु देत सभि जीअ सम्हारे ॥२॥
मूलम्
सभ की रेनु होइ रहै मनूआ सगले दीसहि मीत पिआरे ॥ सभ मधे रविआ मेरा ठाकुरु दानु देत सभि जीअ सम्हारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेनु = चरण धूल। मनूआ = मन। दीसहि = दिखाई देते हैं। मधे = में। समारे = संभाल करता है।2।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य संगति में बैठता है उसका) मन सभी के चरणों की धूल बन जाता है उसे (सृष्टि के) सारे जीव प्यारे मित्र दिखते हैं (उसे प्रत्यक्ष दिखता है कि) प्यारा पालनहार प्रभु सब जीवों में मौजूद है और सब जीवों को दातें दे दे के सबकी संभाल कर रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको एकु आपि इकु एकै एकै है सगला पासारे ॥ जपि जपि होए सगल साध जन एकु नामु धिआइ बहुतु उधारे ॥३॥
मूलम्
एको एकु आपि इकु एकै एकै है सगला पासारे ॥ जपि जपि होए सगल साध जन एकु नामु धिआइ बहुतु उधारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै पासारे = एक प्रभु का ही पसारा। साध जन = भले मनुष्य। उधारे = (विकारों से) बचा लिए।3।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में आते हैं) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के वह सारे मनुष्य गुरमुख बन जाते हैं, एक परमात्मा के नाम का ध्यान धर के वह और अनेक को विकारों से बचा लेते हैं (उन्हें निश्चय बन जाता है कि सारे संसार में) परमात्मा स्वयं ही स्वयं बस रहा है, ये सारा जगत उस एक परमात्मा का ही पसारा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहिर ग्मभीर बिअंत गुसाई अंतु नही किछु पारावारे ॥ तुम्हरी क्रिपा ते गुन गावै नानक धिआइ धिआइ प्रभ कउ नमसकारे ॥४॥३६॥
मूलम्
गहिर ग्मभीर बिअंत गुसाई अंतु नही किछु पारावारे ॥ तुम्हरी क्रिपा ते गुन गावै नानक धिआइ धिआइ प्रभ कउ नमसकारे ॥४॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। गुसाई = सृष्टि का मालिक। पारावारे = पार अवार, परला छोर और उरला किनारा। ते = से, साथ। कउ = को।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गहरे प्रभु! हे बड़े जिगरे वाले प्रभु! हे बेअंत गोसाई! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, तेरी हस्ती का उरला और परला छोर नहीं मिल सकता। जो भी कोई जीव तेरे गुण गाता है, जो भी कोई तेरा नाम स्मरण कर-कर के तेरे आगे सिर निवाता है वह ये सब कुछ तेरी मिहर से करता है।4।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ तू बिअंतु अविगतु अगोचरु इहु सभु तेरा आकारु ॥ किआ हम जंत करह चतुराई जां सभु किछु तुझै मझारि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ तू बिअंतु अविगतु अगोचरु इहु सभु तेरा आकारु ॥ किआ हम जंत करह चतुराई जां सभु किछु तुझै मझारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अविगत = अवयक्त, अदृष्ट। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। आकारु = दिखाई देता संसार। करह = हम करें। तुझै मझारि = तेरे (हुक्म के) अंदर।1।
अर्थ: (हे ठाकुर!) तू बेअंत है, तू अदृष्ट है, तू ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, ये दिखाई देता जगत सारा तेरा ही रचा हुआ है। हम तेरे पैदा किए हुए जीवतेरे सामने अपनी लयाकत का क्या दिखावा कर सकते हैं? जो कुछ हो रहा है सब तेरे हुक्म के अंदर हो रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे सतिगुर अपने बालिक राखहु लीला धारि ॥ देहु सुमति सदा गुण गावा मेरे ठाकुर अगम अपार ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे सतिगुर अपने बालिक राखहु लीला धारि ॥ देहु सुमति सदा गुण गावा मेरे ठाकुर अगम अपार ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लीला = खेल। धारे = धारण करके, धार के। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सतिगुरु! हे मेरे अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत ठाकुर! अपने बच्चों को अपना बेअंत करिश्मा बरता के (विकारों से) बचाए रख। मुझे अच्छी मति दे कि मैं तेरे गुण गाता रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे जननि जठर महि प्रानी ओहु रहता नाम अधारि ॥ अनदु करै सासि सासि सम्हारै ना पोहै अगनारि ॥२॥
मूलम्
जैसे जननि जठर महि प्रानी ओहु रहता नाम अधारि ॥ अनदु करै सासि सासि सम्हारै ना पोहै अगनारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जननि = माँ। जठर = पेट। अधारि = आसरे। सासि सासि = हरेक सांस से। अगनारि = आग।2।
अर्थ: (हे ठाकुर! ये तेरी ही लीला है जैसे) जीव माँ के पेट में रहता हुआ तेरे नाम के आसरे जीता है (माँ के पेट में) वह हरेक सांस के साथ (तेरा नाम) याद करता है और आत्मिक आनंद लेता है उसे माँ के पेट की आग का सेका नहीं लगता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर धन पर दारा पर निंदा इन सिउ प्रीति निवारि ॥ चरन कमल सेवी रिद अंतरि गुर पूरे कै आधारि ॥३॥
मूलम्
पर धन पर दारा पर निंदा इन सिउ प्रीति निवारि ॥ चरन कमल सेवी रिद अंतरि गुर पूरे कै आधारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दारा = स्त्री। निवारि = दूर कर। कमल = कमल फूल। सेवी = सेवीं, मैं सेवा करूँ। रिद = हृदय। आधारि = आसरे से।3।
अर्थ: (हे ठाकुर! जैसे तू माँ के पेट में रक्षा करता है वैसे ही अब भी) पराया धन, पराई स्त्री, पराई निंदा- इन विकारों से मेरी प्रीति दूर कर। (मेहर कर) पूरे गुरु का आसरा ले के मैं तेरे सुंदर चरणों का ध्यान अपने हृदय में टिकाए रखूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रिहु मंदर महला जो दीसहि ना कोई संगारि ॥ जब लगु जीवहि कली काल महि जन नानक नामु सम्हारि ॥४॥३७॥
मूलम्
ग्रिहु मंदर महला जो दीसहि ना कोई संगारि ॥ जब लगु जीवहि कली काल महि जन नानक नामु सम्हारि ॥४॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगारि = संग जाने वाला, हमराही। जीवहि = तू जीता है। कली महि = जगत में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: साधारण हालत में ‘कलिजुग’ बरता है क्योंकि जिस जुग में सतिगुरु जी आए उसका नाम ‘कलिजुग’ प्रसिद्ध है। यहाँ ‘कली काल’ से भाव है ‘संसार जगत’।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समारि = संभाल, हृदय में परो रख।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) घर, मंदिर, महल, माढ़ियां जो भी तुझे दिख रहे हैं इन में से कोई भी (अंत समय) तेरे साथ नहीं जाएगा। (इस वास्ते) जब तक तू जगत में जी रहा है परमात्मा का नाम अपने हृदय में परोए रख (यही असली साथी है)।4।37।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इन तीन शब्दों के आरम्भ में नहीं बताया गया कि इनको किस ‘घर’ में गाना है। पहले 34 शब्द ‘घर 2’ के थे। आगे ‘घर 3’ शुरू हो रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा घरु ३ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा घरु ३ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज मिलक जोबन ग्रिह सोभा रूपवंतु जुोआनी ॥ बहुतु दरबु हसती अरु घोड़े लाल लाख बै आनी ॥ आगै दरगहि कामि न आवै छोडि चलै अभिमानी ॥१॥
मूलम्
राज मिलक जोबन ग्रिह सोभा रूपवंतु जुोआनी ॥ बहुतु दरबु हसती अरु घोड़े लाल लाख बै आनी ॥ आगै दरगहि कामि न आवै छोडि चलै अभिमानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलक = जीवन, जमीन। ग्रिह = घर। रूपवंतु = रूप वाला। जुोआनी = (असल शब्द ‘जुआनी है, यहां ‘जोआनी’ पढ़ना है)। दरबु = धन, द्रव्य। हसती = हाथी। बै = मूल्य खरीद के। आनी = ले आए। कामि = काम में।1।
अर्थ: (हे भाई!) हकूमत, जमीन की मल्कियत, जोबन, घर, इज्जत, सुंदरता, जवानी, बहुत सारा धन, हाथी और घोड़े (अगर ये सब कुछ किसी मनुष्य के पास हो), अगर लाखों रूपए खर्च के (कीमती) लाल मूल्य ले के आए (और इन पदार्थां का गुमान करता रहे), पर आगे परमात्मा की दरगाह में (इनमें से कोई भी चीज) काम नहीं आती। (इन पदार्थों का) गुमान करने वाला मनुष्य (इन सभी को यहीं) छोड़ के (यहां से) दूर चल पड़ता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे एक बिना चितु लाईऐ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे एक बिना चितु लाईऐ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे = क्यूँ?।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा के बिना किसी और में प्रीति नहीं जोड़नी चाहिए। उठते बैठते सोते जागते सदा ही परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखनी चाहिए।1। रहाउ।
[[0380]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा बचित्र सुंदर आखाड़े रण महि जिते पवाड़े ॥ हउ मारउ हउ बंधउ छोडउ मुख ते एव बबाड़े ॥ आइआ हुकमु पारब्रहम का छोडि चलिआ एक दिहाड़े ॥२॥
मूलम्
महा बचित्र सुंदर आखाड़े रण महि जिते पवाड़े ॥ हउ मारउ हउ बंधउ छोडउ मुख ते एव बबाड़े ॥ आइआ हुकमु पारब्रहम का छोडि चलिआ एक दिहाड़े ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बचित्र = आश्चर्य। आखाड़े = कुश्ती वगैरा के अभ्यास का मैदान। जिते = जीत लिए। पवाड़े = झगड़े। हउ = मैं। बंधउ = मैं बांधता हूँ। एव = इस तरह। ते = से। बबाड़े = बकता है, वाही तबाही बोलता है।2।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य बड़े आश्चर्यजनक रूप से सुंदर अखाड़े (भाव, कुश्तियां आदि) जीतता है अगर वह रणभूमि में जा के (बड़े-बड़े) झगड़े-लड़ाईयां जीत लेता है और अपने मुंह से ऐसे अवा-तबा भी (बड़कें मारता है) बोलता है कि मैं (अपने वैरियों को) मार सकता हूँ (उनको) बाँध सकता हूँ (और अगर जी चाहे तो उन्हें कैद से) छोड़ भी सकता हूँ (तो भी क्या हुआ?) आखिर एक दिन परमात्मा का हुक्म आता है (मौत आ जाती है, और) ये सब कुछ छोड़ के यहां से चला जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम धरम जुगति बहु करता करणैहारु न जानै ॥ उपदेसु करै आपि न कमावै ततु सबदु न पछानै ॥ नांगा आइआ नांगो जासी जिउ हसती खाकु छानै ॥३॥
मूलम्
करम धरम जुगति बहु करता करणैहारु न जानै ॥ उपदेसु करै आपि न कमावै ततु सबदु न पछानै ॥ नांगा आइआ नांगो जासी जिउ हसती खाकु छानै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगति बहु = अनेक तरीकों से। जासी = चला जाएगा। खाकु = मिट्टी।3।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य (और लोगों को दिखाने के लिए) अनेक किस्मों के (निहित) धार्मिक कर्म करता हो, पर विधाता प्रभु से सांझ ना डाले। यदि और लोगों को तो (धर्म का) उपदेश करता फिरे पर अपना धार्मिक जीवन ना बनाए, और परमात्मा की महिमा की वाणी की सार ना समझे, तो वह खाली हाथ जगत में आता है और यहां से खाली हाथ ही चला जाता है (उसके ये दिखावे के धार्मिक काम व्यर्थ ही जाते हैं) जैसे हाथी (स्नान करके फिर अपने ऊपर) मिट्टी डाल लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत सजन सुनहु सभि मीता झूठा एहु पसारा ॥ मेरी मेरी करि करि डूबे खपि खपि मुए गवारा ॥ गुर मिलि नानक नामु धिआइआ साचि नामि निसतारा ॥४॥१॥३८॥
मूलम्
संत सजन सुनहु सभि मीता झूठा एहु पसारा ॥ मेरी मेरी करि करि डूबे खपि खपि मुए गवारा ॥ गुर मिलि नानक नामु धिआइआ साचि नामि निसतारा ॥४॥१॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। झूठा = नासवंत। पसारा = खिलारा। खपि खपि = ख्वार हो हो के। मिलि = मिल के। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से।4।
अर्थ: हे संत जनो! हे सज्जनो! हे मित्रो! सारे सुन लो, ये सारा जगत पसारा नाशवान है। जो लोग नित्य ये कहते रहे कि ये मेरी धन-दौलत है ये मेरी जायदाद है वह (माया-मोह के समुंदर में) डूबे रहे और दुखी हो हो के आत्मिक मौत मरते रहे।
हे नानक! जिस मनुष्य ने सतिगुरु को मिल केपरमात्मा का नाम स्मरण किया, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ के (इस संसार समुंदर से) उसका पार-उतारा हो गया।4।1।38।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ३’ का ये पहला शब्द है अब तक कुल 38 शब्द महला ५ के आ चुके हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा घरु ५ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु आसा घरु ५ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रम महि सोई सगल जगत धंध अंध ॥ कोऊ जागै हरि जनु ॥१॥
मूलम्
भ्रम महि सोई सगल जगत धंध अंध ॥ कोऊ जागै हरि जनु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रम = भटकना। सोई = सोई हुई। सगल = सारी (दुनिया)। अंध = अंधी। कोऊ = कोई विरला।1।
अर्थ: (हे भाई!) जगत के धंधों में अंधी होई हुई सारी दुनिया माया की भटकना में सोई पड़ी है। कोई दुर्लभ परमात्मा का भक्त (इस मोह की नींद में से) जाग रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा मोहनी मगन प्रिअ प्रीति प्रान ॥ कोऊ तिआगै विरला ॥२॥
मूलम्
महा मोहनी मगन प्रिअ प्रीति प्रान ॥ कोऊ तिआगै विरला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहनी = मन को मोह लेने वाली माया। मगन = मस्त। प्रिअ = प्यारी। प्रान = प्राण, जिंद।2।
अर्थ: (हे भाई!) मन को मोह लेने वाली बली माया में दुनिया मस्त पड़ी है, (माया के साथ ये) प्रीति प्राणों से भी प्यारी लग रही है। कोई दुर्लभ मनुष्य ही (माया की इस प्रीति को) छोड़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल आनूप हरि संत मंत ॥ कोऊ लागै साधू ॥३॥
मूलम्
चरन कमल आनूप हरि संत मंत ॥ कोऊ लागै साधू ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आनूप = सुंदर। मंत = उपदेश। साधू = गुरमुख मनुष्य।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के सोहाने सुंदर चरणों में, संत जनों के उपदेश में, कोई विरला गुरमुख मनुष्य ही चिक्त जोड़ता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक साधू संगि जागे गिआन रंगि ॥ वडभागे किरपा ॥४॥१॥३९॥
मूलम्
नानक साधू संगि जागे गिआन रंगि ॥ वडभागे किरपा ॥४॥१॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = संगति में। साधू = गुरु। रंगि = रंग में।4।
अर्थ: हे नानक! कोई भाग्यशाली मनुष्य जिस पर प्रभु की कृपा हो जाए, गुरु की संगति में आ के (गुरु के बख्शे) ज्ञान के रंग में (रंग के, माया के मोह की नींद में से) जागता रहता है।4।1।39।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ५’ का यह पहला शब्द है। महला ५ के कुल शब्द ३९ आ चुके हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ६ महला ५ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ६ महला ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तुधु भावै सो परवाना सूखु सहजु मनि सोई ॥ करण कारण समरथ अपारा अवरु नाही रे कोई ॥१॥
मूलम्
जो तुधु भावै सो परवाना सूखु सहजु मनि सोई ॥ करण कारण समरथ अपारा अवरु नाही रे कोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परवाना = स्वीकार। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। सोई = वही (परमात्मा की रजा मानना ही)। रे = हे भाई!।1।
अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तुझे अच्छा लगता है वह तेरे सेवकों को (सिर माथे पर) स्वीकार होता है, तेरी रजा ही उनके मन में आनंद और आत्मिक अडोलता पैदा करती है। हे प्रभु! तुझे ही तेरे दास सब कुछ करने और जीवों से कराने की ताकत रखने वाला मानते हैं, तू ही उनकी निगाह में बेअंत है।
हे भाई! परमात्मा के दासों को परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं दिखाई देता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे जन रसकि रसकि गुण गावहि ॥ मसलति मता सिआणप जन की जो तूं करहि करावहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरे जन रसकि रसकि गुण गावहि ॥ मसलति मता सिआणप जन की जो तूं करहि करावहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसकि = रस ले के, स्वाद से। गावहि = गाते हैं। मसलति = सलाह मश्वरा। मता = फैसला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे दास बारंबार स्वाद से तेरे गुण गाते रहते हैं। जो कुछ तू खुद करता है जो कुछ जीवों से कराता है (उसको सिर माथे पे मानना ही) तेरे दासों के वास्ते समझदारी है (आत्मिक जीवन की अगुवाई के लिए) सलाह मश्वरा और फैसला हैं1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रितु नामु तुमारा पिआरे साधसंगि रसु पाइआ ॥ त्रिपति अघाइ सेई जन पूरे सुख निधानु हरि गाइआ ॥२॥
मूलम्
अम्रितु नामु तुमारा पिआरे साधसंगि रसु पाइआ ॥ त्रिपति अघाइ सेई जन पूरे सुख निधानु हरि गाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। त्रिपति = तृप्ति, संतोष। अघाइ = पेट भर के। निधानु = खजाना।2।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! तेरे दासों के वास्ते तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, साधु-संगत में बैठ के वह (तेरे नाम का) रस लेते हैं। (हे भाई!) जिन्होंने सुखों के खजाने हरि की महिमा की, वह मनुष्य गुणों से भरपूर हो गए वही मनुष्य (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ टेक तुम्हारी सुआमी ता कउ नाही चिंता ॥ जा कउ दइआ तुमारी होई से साह भले भगवंता ॥३॥
मूलम्
जा कउ टेक तुम्हारी सुआमी ता कउ नाही चिंता ॥ जा कउ दइआ तुमारी होई से साह भले भगवंता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। टेक = आसरा। भगवंता = भाग्यशाली।3।
अर्थ: हे प्रभु! हे सवामी! जिस मनुष्यों को तेरा आसरा है उन्हें कोई चिन्ता छू नहीं सकती। हे स्वामी! जिस पर तेरी मेहर हुई, वह (नाम-धन से) शाहूकार बन गए और भाग्यशाली हो गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरम मोह ध्रोह सभि निकसे जब का दरसनु पाइआ ॥ वरतणि नामु नानक सचु कीना हरि नामे रंगि समाइआ ॥४॥१॥४०॥
मूलम्
भरम मोह ध्रोह सभि निकसे जब का दरसनु पाइआ ॥ वरतणि नामु नानक सचु कीना हरि नामे रंगि समाइआ ॥४॥१॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरम = भटकन। ध्रोह = ठगी। सभि = सारे। निकसे = निकल गए। सचु = सदा कायम रहने वाला। नामे = नाम में ही। रंगि = प्रेम से।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जब ही कोई मनुष्य परमात्मा के दर्शन करता है (उसके अंदर से) भटकना, मोह, ठगीयां आदि सारे विकार निकल जाते हैं। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम को अपना रोज काव्यवहार बना लेता है, वह प्रभु के प्रेम रंग में (रंग के) परमात्मा के नाम में ही लीन रहता है।4।1।40।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ६’ के नए संग्रह का ये पहला शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जनम जनम की मलु धोवै पराई आपणा कीता पावै ॥ ईहा सुखु नही दरगह ढोई जम पुरि जाइ पचावै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जनम जनम की मलु धोवै पराई आपणा कीता पावै ॥ ईहा सुखु नही दरगह ढोई जम पुरि जाइ पचावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मलु = पापों की मैल। पराई = औरों की। ईहा = इस लोक में। ढोई = आसरा, ठिकाना। जमपुरि = जम के नगर में। जाइ = जा के। पचावै = ख्वार होता है, दुखी होता है।1।
अर्थ: (निंदक) दूसरों के अनेक जन्मों के किए विकारों की मैल धोता है (और वह मैल, वह अपने मन के अंदर संस्कारों के रूप में इकट्ठी कर लेता है, इस तरह वह) अपने किए कर्मों का बुरा फल स्वयं ही भोगता है। (निंदा के कारण उसको) इस लोक में सुख नहीं मिलता, परमात्मा की हजूरी में भी उसे आदर की जगह नहीं मिलती, वह नर्क में पहुँच के दुखी होता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदकि अहिला जनमु गवाइआ ॥ पहुचि न साकै काहू बातै आगै ठउर न पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
निंदकि अहिला जनमु गवाइआ ॥ पहुचि न साकै काहू बातै आगै ठउर न पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निंदकि = निंदक ने। अहिला = कीमती। काहू बातै = किसी भी बात में। आगै = परलोक में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) संत की निंदा करने वाले मनुष्य ने (निंदा के कारण अपना) कीमती मानव जनम गवा लिया। (संत की निंदा करके वह ये आशा करता है कि उन्हें दुनिया की नजरों में गिरा के मैं उनकी जगह आदर-सत्कार हासिल कर लूंगा, पर वह निंदक) किसी भी रूप में (संत जनों) की बराबरी नहीं कर सकता, (निेदा के कारण) आगे परलोक में भी उसे आदर की जगह नहीं मिलती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरतु पइआ निंदक बपुरे का किआ ओहु करै बिचारा ॥ तहा बिगूता जह कोइ न राखै ओहु किसु पहि करे पुकारा ॥२॥
मूलम्
किरतु पइआ निंदक बपुरे का किआ ओहु करै बिचारा ॥ तहा बिगूता जह कोइ न राखै ओहु किसु पहि करे पुकारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरतु = पिछले जन्मों में किए मंद कर्मों के संसकारों का समूह। पइआ = पेश किया, सामने आ गया। बपुरा = बिचारा, बद नसीब, दुर्भाग्य। तहा = उस जगह, उस निघरी आत्मिक अवस्था में। बिगूता = ख्वार होता है, दुखी होता है। पाहि = पास।2।
अर्थ: पर निंदक के भी बस की बात नहीं (वह निंदा जैसे बुरे कर्म से हट नहीं सकता, क्योंकि) पिछले जन्मों के किए कर्मों के संस्कार उस दुर्भाग्यपूर्ण निंदक के पल्ले पड़ जाते हैं (उसके अंदर जाग पड़ते हैं और उसे निंदा की तरफ प्रेरित करते हैं)। निंदक ऐसी खराब हुई (निघरी हुई) आत्मिक दशा में ख्वार होता रहता है कि वहाँ (भाव, उस गिरी हुई निघरी दशा में से निकालने के लिए) कोई उसकी मदद नहीं कर सकता। सहायता के लिए वह किसी के पास पुकार करने के काबिल भी नहीं रहता।2।
[[0381]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदक की गति कतहूं नाही खसमै एवै भाणा ॥ जो जो निंद करे संतन की तिउ संतन सुखु माना ॥३॥
मूलम्
निंदक की गति कतहूं नाही खसमै एवै भाणा ॥ जो जो निंद करे संतन की तिउ संतन सुखु माना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। कत हूं = कहीं भी। एवैं = ऐसे ही।3।
अर्थ: पति-प्रभु की रजा ऐसे ही है कि (संत-जनों की) निंदा करने वाले मनुष्य को कहीं भी उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती (क्योंकि वह ऊँची आत्मिक अवस्था वालों की तो सदा निंदा करता है। दूसरी तरफ़) ज्यों-ज्यों कोई मनुष्य संत-जनों की निंदा करता है (कमियां बयान करजा है) त्यों-त्यों संत-जन इस में सुख प्रतीत करते हैं (उनको अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल करने का मौका मिलता रहता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संता टेक तुमारी सुआमी तूं संतन का सहाई ॥ कहु नानक संत हरि राखे निंदक दीए रुड़ाई ॥४॥२॥४१॥
मूलम्
संता टेक तुमारी सुआमी तूं संतन का सहाई ॥ कहु नानक संत हरि राखे निंदक दीए रुड़ाई ॥४॥२॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहाई = मददगार।4।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! तेरे संत-जनों को (जीवन की अगुवाई के लिए) सदा तेरा ही आसरा रहता है, तू (संतों का जीवन ऊँचा करने में) मददगार भी बनता है।
हे नानक! कह: (उस निंदा की इनायत से) संतों को तो परमात्मा (बुरे कर्मों से) बचाए रखता है पर निंदा करने वालों को (उनके निंदा की बाढ़ में) बहा देता है (उनके आत्मिक जीवन को निंदा की बाढ़ में बहा के समाप्त कर देता है)।4।2।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ बाहरु धोइ अंतरु मनु मैला दुइ ठउर अपुने खोए ॥ ईहा कामि क्रोधि मोहि विआपिआ आगै मुसि मुसि रोए ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ बाहरु धोइ अंतरु मनु मैला दुइ ठउर अपुने खोए ॥ ईहा कामि क्रोधि मोहि विआपिआ आगै मुसि मुसि रोए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरु = बाहरी ओर, शरीर, देह। अंतरु = अंदरूनी। खोए = गवा लिए। ईहा = इस लोक में। कामि = काम में। विआपिआ = फसा रहा। आगै = परलोक में। मुसि मुसि = सिसक सिसक के।1।
अर्थ: जो मनुष्य (तीर्थ आदि पर सिर्फ) शरीर धो के अंदरूनी मन (विकारों से) मैला ही रखता है वह लोक-परलोक अपने दोनों स्थान गवा लेता है। इस लोक में रहते हुए काम-वासना में, क्रोध में, मोह में फसा रहता है, आगे परलोक में जा के सिसक-सिसक के रोता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोविंद भजन की मति है होरा ॥ वरमी मारी सापु न मरई नामु न सुनई डोरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोविंद भजन की मति है होरा ॥ वरमी मारी सापु न मरई नामु न सुनई डोरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मति = अक्ल। होरा = और किस्म की। वरमी = बिल। डोरा = बहरा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का भजन करने वाली अक्ल और किस्म की होती है (उसमें दिखावा नहीं होता)। अगर मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं सुनता, यदि नाम की ओर से बहरा रहता है (तो बाहरी धार्मिक कर्म ऐसे ही हैं जैसे सांप को मारने की जगह सांप के बिल को ही कूटे जाने), पर अगर बिल को ही मारते जाएं तो इस तरह साँप नहीं मरता (बाहरी कर्मों से मन वश में नहीं आता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ की किरति छोडि गवाई भगती सार न जानै ॥ बेद सासत्र कउ तरकनि लागा ततु जोगु न पछानै ॥२॥
मूलम्
माइआ की किरति छोडि गवाई भगती सार न जानै ॥ बेद सासत्र कउ तरकनि लागा ततु जोगु न पछानै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरति = मेहनत। सार = बद्र, सूझ। कउ = को। तरकन लागा = बहसने लग पड़ा। ततु = अस्लियत। जोगु = मिलाप।2।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने त्याग के भुलेखे में आजीविका की खातिर) माया कमाने का उद्यम छोड़ दिया वह भक्ति की कद्र भी नहीं जानता। जो मनुष्य वेद-शास्त्र आदि धर्म-पुस्तकों को सिर्फ बहसों में ही उपयोग करना आरम्भ कर देता है वह (आत्मिक जीवन की) अस्लियत नहीं समझता, वह परमात्मा का मिलाप नहीं समझता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उघरि गइआ जैसा खोटा ढबूआ नदरि सराफा आइआ ॥ अंतरजामी सभु किछु जानै उस ते कहा छपाइआ ॥३॥
मूलम्
उघरि गइआ जैसा खोटा ढबूआ नदरि सराफा आइआ ॥ अंतरजामी सभु किछु जानै उस ते कहा छपाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढबूआ = चांदी का रूपया। ते = से, की ओर से।3।
अर्थ: जैसे जब कोई खोटा रुपया सर्राफा की नजर पड़ता है तो उसका खोट प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है; (वैसे ही जो मनुष्य अंदर से विकारी है, पर बाहर से धार्मिक भेखी) वह परमातमा से (अपने अंदर का खोट) छुपा नहीं सकता, हरेक के दिल की जानने वाला परमात्मा उसकी हरेक करतूत को जानता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूड़ि कपटि बंचि निमुनीआदा बिनसि गइआ ततकाले ॥ सति सति सति नानकि कहिआ अपनै हिरदै देखु समाले ॥४॥३॥४२॥
मूलम्
कूड़ि कपटि बंचि निमुनीआदा बिनसि गइआ ततकाले ॥ सति सति सति नानकि कहिआ अपनै हिरदै देखु समाले ॥४॥३॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ि = झूठ में, माया के मोह में। कपटि = ठगी में। बंचि = ठगे जा के। निंमुनीआदा = बे मुनियादा, जिसकी पक्की नींव नहीं है। ततकाले = उसी क्षण, तुरंत। सति = सच। नानकि = नानक ने। समाले = संभाल के।4।
अर्थ: मनुष्य की इस जगत में चार-रोजा जिंदगी है पर ये माया के मोह में ठगी-फरेब में आत्मिक जीवन लुटा के बड़ी जल्दी आत्मिक मौत मर जाता है।
हे भाई! नानक ने ये बात यकीनन सच कही है कि परमात्मा के नाम को अपने हृदय में बसता देख (यही आत्मिक जीवन है, यही जीवन उद्देश्य है)।4।3।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ उदमु करत होवै मनु निरमलु नाचै आपु निवारे ॥ पंच जना ले वसगति राखै मन महि एकंकारे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ उदमु करत होवै मनु निरमलु नाचै आपु निवारे ॥ पंच जना ले वसगति राखै मन महि एकंकारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमलु = निर्मल, साफ, पवित्र। आपु = स्वै भाव, अहंकार। पंच जना = कामादिक पाँचों को। वसगति = काबू में।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का भक्त ज्यों-ज्यों महिमा का) उद्यम करता है उसका मन पवित्र होता जाता है, वह अपने अंदर से स्वै भाव दूर करता है (ये मानो, वह परमात्मा की हजूरी में) नाच करता है। (परमात्मा का सेवक) अपने मन में परमात्मा को बसाए रखता है (इस तरह) वह कामादिक पाँचों को काबू में रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा जनु निरति करे गुन गावै ॥ रबाबु पखावज ताल घुंघरू अनहद सबदु वजावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा जनु निरति करे गुन गावै ॥ रबाबु पखावज ताल घुंघरू अनहद सबदु वजावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरति = नाच, भक्ति का नृत्य। पखावज = तबला। ताल = छैणे। अनहद = एक रस, बिना साज बजाए पैदा होने वाला राग।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (देवी-देवताओं के भक्त अपने ईष्ट की भक्ति करने के समय उसके आगे नृत्य करते हैं, पर) तेरा भक्त तेरी महिमा के गीत गाता है (ये, मानो) वह नाच करता है। हे प्रभु! तेरा भक्त तेरी महिमा का शब्द रूप बाजा (अपने अंदर) लगातार बजाता रहता है (शब्द को हर वक्त अपने हृदय में बसाए रखता है) यही है उसके वास्ते रबाब तबला छैणे और घुंघरू (आदि साजों का बजना)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमे मनु परबोधै अपना पाछै अवर रीझावै ॥ राम नाम जपु हिरदै जापै मुख ते सगल सुनावै ॥२॥
मूलम्
प्रथमे मनु परबोधै अपना पाछै अवर रीझावै ॥ राम नाम जपु हिरदै जापै मुख ते सगल सुनावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परबोधै = जगाता है, समझाता है। अवर = और लोगों को। रीझावै = खुश करता है। ते = से।2।
अर्थ: (परमात्मा की महिमा की इनायत से परमात्मा का भक्त) पहले अपने मन को (मोह की नींद में से) जगाता है, फिर औरों के अंदर (महिमा की) रीझ पैदा करता है। पहले वह अपने हृदय में परमात्मा के नाम का जाप करता है और फिर मुंह से वह जाप और लोगों को भी सुनाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर संगि साधू चरन पखारै संत धूरि तनि लावै ॥ मनु तनु अरपि धरे गुर आगै सति पदारथु पावै ॥३॥
मूलम्
कर संगि साधू चरन पखारै संत धूरि तनि लावै ॥ मनु तनु अरपि धरे गुर आगै सति पदारथु पावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर संगि = हाथों से। साधू चरन = गुरमुखों के पैर। पखारै = पखाले, धोता है। तनि = शरीर पर। अरपि = हवाले करके। सति = सदा कायम रहने वाला।3।
अर्थ: (परमात्मा का सेवक) अपने हाथों से गुरमुखों के पैर धोता है संत जनों के चरणों की धूल अपने शरीर पर लगाता है, अपना मन गुरु के हवाले करता है अपना शरीर (हरेक ज्ञानेन्द्रिय) गुरु को सौंप देता है और गुरु से सदा कायम रहने वाला हरि नाम प्राप्त करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो सुनै पेखै लाइ सरधा ता का जनम मरन दुखु भागै ॥ ऐसी निरति नरक निवारै नानक गुरमुखि जागै ॥४॥४॥४३॥
मूलम्
जो जो सुनै पेखै लाइ सरधा ता का जनम मरन दुखु भागै ॥ ऐसी निरति नरक निवारै नानक गुरमुखि जागै ॥४॥४॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखै = देखता है। सरधा = यकीन। ता का = उसका। निवारै = दूर करती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य।4।
अर्थ: हे नानक! (परमात्मा की महिमा एक ऐसा नाच है कि) जो जो मनुष्य इसको सिदक धारण करके सुनता देखता है उसके जनम-मरण के चक्करों का दुख दूर हो जाता है। ऐसा नाच गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य को नर्कों से बचा लेता है (इस नाच की इनायत से) वह (मोह की नींद से) जाग जाता है।4।4।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अधम चंडाली भई ब्रहमणी सूदी ते स्रेसटाई रे ॥ पाताली आकासी सखनी लहबर बूझी खाई रे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अधम चंडाली भई ब्रहमणी सूदी ते स्रेसटाई रे ॥ पाताली आकासी सखनी लहबर बूझी खाई रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधम = नीच। चंडाली = चंडालन। सूदी = शूद्रनी। ते = से। स्रेसटाई = श्रेष्ट, उत्तम। रे = हे भाई! सखनी = खाली, असंतुष्ट, वंचित। लहबर = (अरबी ‘लहब’ = आग की लाट)। बूझी = बुझ गई। खाई = खाई गई, खत्म हो गई।1।
अर्थ: हे भाई! नाम अमृत की इनायत से अति नीच चण्डालण रुचि (मानो) ब्राहमणी हो गई और शूद्रनी से ऊँचे कुल वाली हो गई। जो तवज्जो पहले पाताल से लेकर आकाश तक सारी दुनिया के पदार्थ ले के भी भूखी ही रहती थी उसकी तृष्णा की आग की लाट बुझ गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घर की बिलाई अवर सिखाई मूसा देखि डराई रे ॥ अज कै वसि गुरि कीनो केहरि कूकर तिनहि लगाई रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
घर की बिलाई अवर सिखाई मूसा देखि डराई रे ॥ अज कै वसि गुरि कीनो केहरि कूकर तिनहि लगाई रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिलाई = बिल्ली। घर की बिलाई = मन की संतोष हीन रुचि। अवर सिखाई = और तरह से सिखाई गई। मूसा = चूहा। अज = बकरी, विनम्रता। गुरि = गुरु ने। केहरि = शेर, अहंकार। कूकर = कुत्ता, तमो गुण वाली इंद्रिय। तिनहि = तृण, घास।1। रहउ।
अर्थ: (जिस मनुष्य को गुरु ने नाम-अमृत पिला दिया उसकी पहले वाली) संतोष-हीन रुचि बिल्ली अब और ही किस्म की शिक्षा लेती है वह दुनिया के पदार्थ (चूहा) देख के लालच करने से शर्माती है। गुरु ने उसके अहंकार-शेर को निम्रता-बकरी के अधीन कर दिया है, उसकी तमोगुणी इन्द्रियों (कुत्तों) को सतो गुणों की तरफ (घास खाने पर) लगा दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाझु थूनीआ छपरा थाम्हिआ नीघरिआ घरु पाइआ रे ॥ बिनु जड़ीए लै जड़िओ जड़ावा थेवा अचरजु लाइआ रे ॥२॥
मूलम्
बाझु थूनीआ छपरा थाम्हिआ नीघरिआ घरु पाइआ रे ॥ बिनु जड़ीए लै जड़िओ जड़ावा थेवा अचरजु लाइआ रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थूनीआ = थमियां। नीघरिआ = नि घरा, भटकता फिरता। जड़ीआ = सोनारा। जड़ावा = जड़ाऊ गहना। थेवा = नग।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने नाम-अमृत पिला दिया उसके मन का) छप्पर (छत) दुनियावी पदार्थों की आशाओं की थंमियों के बिना ही थमा गया उसके भटकते मन ने (प्रभु चरणों में) ठिकाना ढूँढ लिया। कारीगर सुनारों कीसहायता के बिना ही (उसके मन का) जड़ाऊ गहना तैयार हो गया और उस मन-गहने में परमात्मा के नाम का सुंदर नग जड़ दिया गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दादी दादि न पहुचनहारा चूपी निरनउ पाइआ रे ॥ मालि दुलीचै बैठी ले मिरतकु नैन दिखालनु धाइआ रे ॥३॥
मूलम्
दादी दादि न पहुचनहारा चूपी निरनउ पाइआ रे ॥ मालि दुलीचै बैठी ले मिरतकु नैन दिखालनु धाइआ रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दादी = फरियादी, गिले करने वाला। दादि = इन्साफ। चूपी = शांत रहने वाला। निरनउ = इन्साफ, निर्णय। मालि = मल के। दुलीचै = दहलीज पर। मिरतकु = आम तौर पे मुर्दा। नैन दिखालनु = और लोगों को आँखें दिखाना, घूरना। धाइआ = दूर हो गया।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के चरणों से विछुड़ के नित्य) शिकवे-शिकायतें करने वाला (अपनी मन-इच्छित) इन्साफ़ कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता था (पर अब जबसे नाम-अमृत मिल गया तो) शांत-चित्त हुए को न्याय मिलने लग पड़ा। (ये विश्वास हो गया कि परमात्मा जो कुछ करता है ठीक करता है)। (नाम-अमृत की इनायत से मनुष्य का पहले वाला) और लोगों को घूरने वाला स्वभाव खत्म हो गया, दुलीचे मल के बैठने वाली (अहंकार भरी रुचि) उसे अब आत्मि्क मौत मरी हुई दिखाई देने लग पड़ी।3।
[[0382]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई अजाणु कहै मै जाना जानणहारु न छाना रे ॥ कहु नानक गुरि अमिउ पीआइआ रसकि रसकि बिगसाना रे ॥४॥५॥४४॥
मूलम्
सोई अजाणु कहै मै जाना जानणहारु न छाना रे ॥ कहु नानक गुरि अमिउ पीआइआ रसकि रसकि बिगसाना रे ॥४॥५॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजाणु = मूर्ख। जाना = जानता हूँ। जानणहारु = जिसने जान लिया है वह। छाना = छुपा हुआ। गुरि = गुरु ने। रसकि = स्वाद लगा के। बिगसाना = खिला रहता है।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (निरा ज़बानी ज़बानी) कहता है कि मैंने (आत्मिक जीवन के भेद को) समझ लिया है वह अभी मूर्ख है, जिसने (सचमुच आत्मिक जीवन को नाम-रस को) समझ लिया है वह कभी छुपा नहीं रहता है। हे नानक! कह: जिसको गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पिला दिया है वह इस नाम-जल का स्वाद ले ले के सदा खिला रहता है।4।5।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ बंधन काटि बिसारे अउगन अपना बिरदु सम्हारिआ ॥ होए क्रिपाल मात पित निआई बारिक जिउ प्रतिपारिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ बंधन काटि बिसारे अउगन अपना बिरदु सम्हारिआ ॥ होए क्रिपाल मात पित निआई बारिक जिउ प्रतिपारिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काटि = काट के। बिसारे = भुला देता है। बिरदु = मूल स्वभाव। समारिआ = संभाले, याद रखता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में प्रयोग हुए भूतकाल-शब्द का अर्थ वर्तमान काल में करना है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निआई = की तरह। प्रतिपारिआ = प्रतिपालना, रक्षा करता है।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण आए सिखों के माया के) बंधन काट के परमात्मा (उनके पिछले किए) अवगुणों को भुला देता है (और इस तरह) अपना मूल स्वभाव (बिरद) याद रखता है, माता-पिता की तरह उन पर दयावान होता है और बच्चों की तरह उन्हें पालता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरसिख राखे गुर गोपालि ॥ काढि लीए महा भवजल ते अपनी नदरि निहालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरसिख राखे गुर गोपालि ॥ काढि लीए महा भवजल ते अपनी नदरि निहालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर गोपालि = गुर गोपाल ने। गोपाल = धरती का रक्षक। भवजल = संसार समुंदर। ते = से। निहालि = देख।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने वाले (भाग्यशाली) सिखों को सबसे बड़ा जगत-पालक प्रभु (विकारों से) बचा लेता है। अपनी मेहर की नजर से देख के उन्हें बड़े संसार-समुंदर में से निकाल लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै सिमरणि जम ते छुटीऐ हलति पलति सुखु पाईऐ ॥ सासि गिरासि जपहु जपु रसना नीत नीत गुण गाईऐ ॥२॥
मूलम्
जा कै सिमरणि जम ते छुटीऐ हलति पलति सुखु पाईऐ ॥ सासि गिरासि जपहु जपु रसना नीत नीत गुण गाईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरणि = स्मरण से। छुटीऐ = निजात मिलती है। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सासि = सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। रसना = जीभ से।2।
अर्थ: जिस परमात्मा के नाम जपने की इनायत से जमों से (आत्मिक मौत से) खलासी मिलती है, इस लोक और परलोक में सुख भोगते हैं (हे भाई!) हरेक सांस से हरेक ग्रास से उसका नाम अपनी जीभ से जपा करो। आओ, सदा ही उसकी महिमा के गीत गाते रहें।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति प्रेम परम पदु पाइआ साधसंगि दुख नाठे ॥ छिजै न जाइ किछु भउ न बिआपे हरि धनु निरमलु गाठे ॥३॥
मूलम्
भगति प्रेम परम पदु पाइआ साधसंगि दुख नाठे ॥ छिजै न जाइ किछु भउ न बिआपे हरि धनु निरमलु गाठे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। संगि = संगति में। छिजै = कमजोर होता। जाइ = जाता,गायब होता। न बिआपे = नहीं व्याप्तता, जोर नहीं डाल सकता। निरमलु = पवित्र। गाठे = गांठ में, पल्ले।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण आने वाले) सिखों के पास परमात्मा के नाम का पवित्र धन इकट्ठा हो जाता है (उस धन को किसी चोर आदि का) डर नहीं व्याप्तता, वह धन कम नहीं होता, वह धन गायब भी नहीं होता, साधु-संगत में आ के (उन गुरसिखों के सारे) दुख दूर हो जाते हैं, परमात्मा के प्रेम और भक्ति की इनायत से वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंति काल प्रभ भए सहाई इत उत राखनहारे ॥ प्रान मीत हीत धनु मेरै नानक सद बलिहारे ॥४॥६॥४५॥
मूलम्
अंति काल प्रभ भए सहाई इत उत राखनहारे ॥ प्रान मीत हीत धनु मेरै नानक सद बलिहारे ॥४॥६॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इत उत = इस लोक में और परलोक में। हीतु = हितू, हितैषी। मेरे = मेरे वास्ते, मेरे पास, मेरे हृदय में।4।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु जी (गुरसिखों के) अंत समय भी मददगार बनते हैं,इस लोक और परलोक में रक्षा करते हैं।
हे नानक! (कह:) मैं परमात्मा पर से सदा कुर्बान जाता हूँ उसका नाम ही मेरे पास ऐसा धन है जो मेरे प्राणों का हितैषी और मेरा मित्र है।4।6।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जा तूं साहिबु ता भउ केहा हउ तुधु बिनु किसु सालाही ॥ एकु तूं ता सभु किछु है मै तुधु बिनु दूजा नाही ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जा तूं साहिबु ता भउ केहा हउ तुधु बिनु किसु सालाही ॥ एकु तूं ता सभु किछु है मै तुधु बिनु दूजा नाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। सालाही = मैं सराहना करूँ। सभु किछु = हरेक (जरूरत की) चीज।1।
अर्थ: हे प्रभु! अगर तू मालिक (मेरे सिर पर हाथ रखे रहे, तो मुझे माया-जहर से) कोई डर-खतरा नहीं हो सकता, मैं तुझ बिना किसी और की सराहना नहीं करता (मैं तेरे बिना किसी और को माया-जहर से बचाने के समर्थ नहीं समझता)। हे प्रभु! अगर एक तू ही मेरी ओर रहे तो हरेक जरूरत वाली चीज मेरे पास है, तेरे बिना मेरा और कोई सहायता करने वाला नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा बिखु देखिआ संसारु ॥ रखिआ करहु गुसाई मेरे मै नामु तेरा आधारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा बिखु देखिआ संसारु ॥ रखिआ करहु गुसाई मेरे मै नामु तेरा आधारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! बिखु = जहर। संसारु = जगत (का मोह)। गुसाई मेरे = हे मेरे मालिक! आधारु = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैंने देख लिया है कि संसार (का मोह) जहर है (जो आत्मिक जीवन को मार डालता है)। हे मेरे पति-प्रभु! (इस जहर से) मुझे बचाए रख, तेरा नाम मेरी जिंदगी का आसरा बना रहे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाणहि बिरथा सभा मन की होरु किसु पहि आखि सुणाईऐ ॥ विणु नावै सभु जगु बउराइआ नामु मिलै सुखु पाईऐ ॥२॥
मूलम्
जाणहि बिरथा सभा मन की होरु किसु पहि आखि सुणाईऐ ॥ विणु नावै सभु जगु बउराइआ नामु मिलै सुखु पाईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणहि = तू जानता है। बिरथा = व्यथा, पीड़ा। सभा = सारी। पहि = पास। बउराइआ = झल्ला हुआ।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही (हरेक जीव के) मन की सारी पीड़ा जानता है, तेरे बिना किसी और को अपने मन का दुख-दर्द बताना व्यर्थ है। (हे भाई!) परमात्मा के नाम से टूट के सारा जगत झल्ला हुआ फिरता है। अगर परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाए तो आत्मिक आनंद मिल जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ कहीऐ किसु आखि सुणाईऐ जि कहणा सु प्रभ जी पासि ॥ सभु किछु कीता तेरा वरतै सदा सदा तेरी आस ॥३॥
मूलम्
किआ कहीऐ किसु आखि सुणाईऐ जि कहणा सु प्रभ जी पासि ॥ सभु किछु कीता तेरा वरतै सदा सदा तेरी आस ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ कहीऐ = कुछ नहीं कहना चाहिए। जि = जो कुछ। वरतै = बरत रहा है, हो रहा है।3।
अर्थ: (हे भाई! अपने मन का दुख-दर्द) जो कुछ भी कहना हो परमात्मा के पास ही कहना चाहिए (क्योंकि परमात्मा ही हमारे दुख दूर करने के काबिल है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे देहि वडिआई ता तेरी वडिआई इत उत तुझहि धिआउ ॥ नानक के प्रभ सदा सुखदाते मै ताणु तेरा इकु नाउ ॥४॥७॥४६॥
मूलम्
जे देहि वडिआई ता तेरी वडिआई इत उत तुझहि धिआउ ॥ नानक के प्रभ सदा सुखदाते मै ताणु तेरा इकु नाउ ॥४॥७॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इत उत = लोक परलोक में। तुझहि = तुझे ही। ताणु = बल, आसरा।4।
अर्थ: हे प्रभु! अगर तू मुझे कोई मान-बड़ाई (मान-सम्मान) बख्शता है तो इससे भी तेरी ही शोभा फैलती है क्योंकि मैं तो इस लोक और परलोक में सदा तेरा ही ध्यान धरता हूँ। हे नानक के प्रभु! हे सदा सुख देने वाले प्रभु! तेरा नाम ही मेरे वास्ते सहारा है।4।7।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अम्रितु नामु तुम्हारा ठाकुर एहु महा रसु जनहि पीओ ॥ जनम जनम चूके भै भारे दुरतु बिनासिओ भरमु बीओ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अम्रितु नामु तुम्हारा ठाकुर एहु महा रसु जनहि पीओ ॥ जनम जनम चूके भै भारे दुरतु बिनासिओ भरमु बीओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। ठाकुर = हे पालणहार प्रभु! जनहि = जन ने ही, दास ने ही। भै = डर, खतरे। भारे = बोझ, जिम्मेवारियां। दुरतु = पाप। बीओ = दूसरा।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे ठाकुर! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है (गुरु की सहायता से) ये श्रेष्ठ रस तेरे किसी दास ने ही पीया है (जिसने पीया उसके) जन्मों-जन्मांतरों के डर और (किये विकारों के) भार खत्म हो गए, (उसके अंदर से) पाप नाश हो गया (उसके अंदर की) दूसरी भटकना (माया की भटकना) दूर हो गई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनु पेखत मै जीओ ॥ सुनि करि बचन तुम्हारे सतिगुर मनु तनु मेरा ठारु थीओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दरसनु पेखत मै जीओ ॥ सुनि करि बचन तुम्हारे सतिगुर मनु तनु मेरा ठारु थीओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै जीओ = मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। सतिगुर = हे सतिगुर! ठारु = शीतल, ठंडा, शांत।1। रहाउ।
अर्थ: हे सतिगुरु! तेरा दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है, तेरे वचन सुन के मेरा मन ठंडा-ठार हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरी क्रिपा ते भइओ साधसंगु एहु काजु तुम्ह आपि कीओ ॥ दिड़ु करि चरण गहे प्रभ तुम्हरे सहजे बिखिआ भई खीओ ॥२॥
मूलम्
तुम्हरी क्रिपा ते भइओ साधसंगु एहु काजु तुम्ह आपि कीओ ॥ दिड़ु करि चरण गहे प्रभ तुम्हरे सहजे बिखिआ भई खीओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। दिढ़ु करि = दृढ़ करके, पक्का करके, कस के। गहे = पकड़ लिए। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में टिक के। बिखिआ = माया (का प्रभाव)। खीओ = क्षय, नाश।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर से (मुझे) गुरु की संगति हासिल हुई, ये (सुंदर) काम तूने स्वयं ही किया, (गुरु की शिक्षा से) मैंने, हे प्रभु! तेरे चरण कस कर पकड़ लिए, मैं आत्मिक अडोलता में टिक गया और (मेरे अंदर से) माया का जोर खत्म हो गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख निधान नामु प्रभ तुमरा एहु अबिनासी मंत्रु लीओ ॥ करि किरपा मोहि सतिगुरि दीना तापु संतापु मेरा बैरु गीओ ॥३॥
मूलम्
सुख निधान नामु प्रभ तुमरा एहु अबिनासी मंत्रु लीओ ॥ करि किरपा मोहि सतिगुरि दीना तापु संतापु मेरा बैरु गीओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुख निधान = हे सुखों के खजाने! अबिनाशी = कभी नाश ना होने वाला। मोहि = मुझे। सतिगुरि = गुरु ने। गीओ = चला लिया है।3।
अर्थ: हे सुखों के खजाने प्रभु! कभी ना नाश होने वाला तेरा नाम-मंत्र मैंने जपना शुरू कर दिया, तेरा ये नाम-मंत्र मेहर करके मुझे सतिगुरु ने दिया (जिसकी इनायत से) मेरे अंदर से (हरेक किस्म का) दुख-कष्ट और वैर-विरोध दूर हो गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धंनु सु माणस देही पाई जितु प्रभि अपनै मेलि लीओ ॥ धंनु सु कलिजुगु साधसंगि कीरतनु गाईऐ नानक नामु अधारु हीओ ॥४॥८॥४७॥
मूलम्
धंनु सु माणस देही पाई जितु प्रभि अपनै मेलि लीओ ॥ धंनु सु कलिजुगु साधसंगि कीरतनु गाईऐ नानक नामु अधारु हीओ ॥४॥८॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। जितु = जिसके द्वारा। प्रभि = प्रभु ने। साध संगि = साधु-संगत में। हीओ = हृदय का। आधारु = आसरा।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) मुझे भाग्यशाली मानव शरीर मिला जिसकी इनायत से प्रभु ने मुझे अपने चरणों में जोड़ लिया (लोग कलियुग की निंदा करते हैं, पर) ये कलियुग भी मुबारक है अगर गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का कीर्तन किया जाए और अगर परमात्मा का नाम हृदय का आसरा बना रहे।4।8।47।
[[0383]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ आगै ही ते सभु किछु हूआ अवरु कि जाणै गिआना ॥ भूल चूक अपना बारिकु बखसिआ पारब्रहम भगवाना ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ आगै ही ते सभु किछु हूआ अवरु कि जाणै गिआना ॥ भूल चूक अपना बारिकु बखसिआ पारब्रहम भगवाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै हीते = धुर दरगाह से ही। कि = कौन सा? भूल चूक = गलतियां।1।
अर्थ: जो बख्शिश मेरे ऊपर हुई है धुर से ही हुई है; इसके बिना जीव और क्या ज्ञान समझ सकता है? मेरी अनेक भूलें-चूकें देख के भी पारब्रहम भगवान ने मुझे अपने बालक को बख्श लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु मेरा सदा दइआला मोहि दीन कउ राखि लीआ ॥ काटिआ रोगु महा सुखु पाइआ हरि अम्रितु मुखि नामु दीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुरु मेरा सदा दइआला मोहि दीन कउ राखि लीआ ॥ काटिआ रोगु महा सुखु पाइआ हरि अम्रितु मुखि नामु दीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। कउ = को। दीन = कंगाल। मुखि = मुंह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा सतिगुरु सदा ही दयावान रहता है उसने मुझे (आत्मिक जीवन के सरमाए से) कंगाल को (आत्मिक मौत लाने वाले रोग से) बचा लिया। (सतिगुरु ने) मेरे मुंह में परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल डाला (मेरा विकारों का) रोग काटा गया, मुझे बड़ा आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक पाप मेरे परहरिआ बंधन काटे मुकत भए ॥ अंध कूप महा घोर ते बाह पकरि गुरि काढि लीए ॥२॥
मूलम्
अनिक पाप मेरे परहरिआ बंधन काटे मुकत भए ॥ अंध कूप महा घोर ते बाह पकरि गुरि काढि लीए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परहरिआ = दूर कर दिए। मुकत = स्वतंत्र, मुक्त। कूप = कूँआं। ते = से, में से। अंध घोर = घोर अंधकार। पकरि = पकड़ के। गुरि = गुरु ने।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मेरे अनेक पाप दूर कर दिए हैं, मेरे (माया के मोह के) बंधन काट दिए हैं, मैं (मोह के बंधनों से) स्वतंत्र हो गया हूँ। गुरु ने मेरी बाँह पकड़ के मुझे (माया के मोह के) घोर अंधकार में से निकाल लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ भए सगल भउ मिटिआ राखे राखनहारे ॥ ऐसी दाति तेरी प्रभ मेरे कारज सगल सवारे ॥३॥
मूलम्
निरभउ भए सगल भउ मिटिआ राखे राखनहारे ॥ ऐसी दाति तेरी प्रभ मेरे कारज सगल सवारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखनहारे = बचाने की स्मर्था रखने वाले प्रभु ने। सगल = सारे।3।
अर्थ: (हे भाई! विकारों से) बचा सकने की ताकत रखने वाले परमात्मा ने (मुझे विकारों से) बचा लिया है, अब (माया के हमलों से) बे-फिक्र हूँ। (इस ओर से) मेरा हरेक किस्म का डर-खतरा समाप्त हो गया है। हे मेरे प्रभु! तेरी ऐसी बख्शिश मेरे ऊपर हुई है कि मेरे (आत्मिक जीवन के) सारे ही कारज सफल हो गए हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण निधान साहिब मनि मेला ॥ सरणि पइआ नानक सुोहेला ॥४॥९॥४८॥
मूलम्
गुण निधान साहिब मनि मेला ॥ सरणि पइआ नानक सुोहेला ॥४॥९॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुनि = मन में। मेला = मिलाप। सुोहेला = आसान।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अक्षर ‘स’ पर दो मात्राएं है ‘ु’ और ‘ो’ की। असल शब्द है ‘सुहेला’, पर यहां इसे ‘सोहेला’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुणों के खजाने मालिक-प्रभु का मेरे मन में मिलाप हो गया है (जब का गुरु की कृपा से) मैं (उसकी) शरण पड़ा हूँ मैं निष्चिंत हो गया हूँ।4।9।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ तूं विसरहि तां सभु को लागू चीति आवहि तां सेवा ॥ अवरु न कोऊ दूजा सूझै साचे अलख अभेवा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ तूं विसरहि तां सभु को लागू चीति आवहि तां सेवा ॥ अवरु न कोऊ दूजा सूझै साचे अलख अभेवा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। लागू = वैरी। चीति = चित्त में। आवहि = अगर तू आ बसे। सेवा = आदर। अवरु = और। साचे = हे सदा कायम रहने वाले! अलख = हे अलख! (जिसका सही रूप बयान नहीं किया जा सके)। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।1।
अर्थ: हे प्रभु! यदि तू मेरे मन में से बिसर जाए तो हरेक जीव मुझे वैरी प्रतीत होता है। पर अगर तू मेरे चित्त में आ बसे तो हर कोई मेरा आदर-सत्कार करता है। हे सदा कायम रहने वाले! हे अलख! हे अभेव प्रभु! मुझे (जगत में) तेरे बराबर का और कोई नहीं दिखता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चीति आवै तां सदा दइआला लोगन किआ वेचारे ॥ बुरा भला कहु किस नो कहीऐ सगले जीअ तुम्हारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चीति आवै तां सदा दइआला लोगन किआ वेचारे ॥ बुरा भला कहु किस नो कहीऐ सगले जीअ तुम्हारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवै चीति = यदि परमात्मा चित्त में आ बसे। वेचारे = निमाणे। कहु = बता। जीअ = जीव।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा की याद टिकी रहती है उस पर परमात्मा सदा दयावान रहता है, दुनिया के बिचारे लोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
हे प्रभु! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं। फिर बता, किसको ठीक कहा जा सकता है और किसे बुरा कहा जा सकता है? (भाव, परमातमा की याद मन में बसाने वाले मनुष्य को सब जीव परमात्मा के पैदा किए हुए दिखते हैं, वह किसी को बुरा नहीं समझता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी टेक तेरा आधारा हाथ देइ तूं राखहि ॥ जिसु जन ऊपरि तेरी किरपा तिस कउ बिपु न कोऊ भाखै ॥२॥
मूलम्
तेरी टेक तेरा आधारा हाथ देइ तूं राखहि ॥ जिसु जन ऊपरि तेरी किरपा तिस कउ बिपु न कोऊ भाखै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आधारा = आसरा। देइ = दे के। कउ = को। बिपु = विप्रेय, बुरा वचन। भाखै = बोलता, कहता।2।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे तेरी ही ओट है, तेरा ही आसरा है, तू अपना हाथ दे के स्वयं (हमारी) रक्षा करता है। जिस मनुष्य पे तेरी (मेहर की) नजर हो उसे कोई मनुष्य बुरे वचन नहीं कहता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओहो सुखु ओहा वडिआई जो प्रभ जी मनि भाणी ॥ तूं दाना तूं सद मिहरवाना नामु मिलै रंगु माणी ॥३॥
मूलम्
ओहो सुखु ओहा वडिआई जो प्रभ जी मनि भाणी ॥ तूं दाना तूं सद मिहरवाना नामु मिलै रंगु माणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओहो = वह ही। मनि = मन मे। भाणी = पसंद आती। दाना = जानने वाला। माणी = मैं माणू, मैं भोगूं। सद = सदा।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओहा’ स्त्रीलिंग शब्द है ‘ओहो’ का।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु जी! जो बात तुझे अपने मन में अच्छी लगती है वही मेरे वास्ते सुख है, वही मेरे वास्ते आदर-सत्कार है। तू सबके दिल की जानने वाला है, तू सदा सब जीवों पे दयावान रहता है। मैं तभी आनंद ले सकता हूँ जब मुझे तेरा नाम मिला रहे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुधु आगै अरदासि हमारी जीउ पिंडु सभु तेरा ॥ कहु नानक सभ तेरी वडिआई कोई नाउ न जाणै मेरा ॥४॥१०॥४९॥
मूलम्
तुधु आगै अरदासि हमारी जीउ पिंडु सभु तेरा ॥ कहु नानक सभ तेरी वडिआई कोई नाउ न जाणै मेरा ॥४॥१०॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे आगे मेरी अरदास है: मेरे ये प्राण ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। हे नानक! कह: (अगर कोई मेरा आदर-सत्कार करता है तो) ये तेरी ही बख्शी हुई बड़ाई है। (यदि मैं तुझे भुला बैठूँ तो) कोई जीव मेरा नाम पता करने की भी परवाह ना करे।4।10।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ करि किरपा प्रभ अंतरजामी साधसंगि हरि पाईऐ ॥ खोलि किवार दिखाले दरसनु पुनरपि जनमि न आईऐ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ करि किरपा प्रभ अंतरजामी साधसंगि हरि पाईऐ ॥ खोलि किवार दिखाले दरसनु पुनरपि जनमि न आईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले प्रभु! साध संगति = साधु-संगत में। किवार = किवाड़, दरवाजे। पुनरपि = पुनः अपि, फिर भी, बार बार। जनमि = जनम में।1।
अर्थ: हे सबके दिल की जानने वाले प्रभु! मेहर कर (और मुझे गुरु की संगति मिला)। (हे भाई!) गुरु की संगति में रहने से परमात्मा मिल जाता है, हमारे (माया के मोह के बंद पड़े) किवाड़ खोल के अपने दर्शन करवाता है, और दुबारा (हम) जन्मों के चक्करों में नहीं पड़ते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलउ परीतम सुआमी अपुने सगले दूख हरउ रे ॥ पारब्रहमु जिन्हि रिदै अराधिआ ता कै संगि तरउ रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मिलउ परीतम सुआमी अपुने सगले दूख हरउ रे ॥ पारब्रहमु जिन्हि रिदै अराधिआ ता कै संगि तरउ रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलउ = मैं मिलूँ। हरउ = मैं दूर करूँ। हे = हे भाई! जिन्हि = जिस मनुष्य ने। रिदै = हृदय में। ता कै संगि = उसकी संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (यदि मेरे ऊपर प्रभु की कृपा हो जाए तो) मैं अपने प्यारे पति-प्रभु को मिल जाऊँ और अपने सारे दुख दूर कर लूँ। हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा प्रभु को अपने हृदय में स्मरण किया है, मैं भी उसकी संगति में रहके संसार-समुंदर से पार लांघ जाऊँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा उदिआन पावक सागर भए हरख सोग महि बसना ॥ सतिगुरु भेटि भइआ मनु निरमलु जपि अम्रितु हरि रसना ॥२॥
मूलम्
महा उदिआन पावक सागर भए हरख सोग महि बसना ॥ सतिगुरु भेटि भइआ मनु निरमलु जपि अम्रितु हरि रसना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महा = बड़ा। उदिआन = जंगल। पावक = आग। सागर = समुंदर। हरख = हर्ष, खुशी। सोग = गमी। भेटि = भेटे, मिलता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। रसना = जीभ (से)।2।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु से विछुड़ के ये जगत मनुष्य के वास्ते) एक बड़ा जंगल बन जाता है (जिसमें मनुष्य भटकता फिरता है) आग का समुंदर बन जाता है (जिसमें मनुष्य जलता रहता है) कभी खुशी में बसता है, कभी ग़मीं में। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जीभ से जप के उस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु धनु थापि कीओ सभु अपना कोमल बंधन बांधिआ ॥ गुर परसादि भए जन मुकते हरि हरि नामु अराधिआ ॥३॥
मूलम्
तनु धनु थापि कीओ सभु अपना कोमल बंधन बांधिआ ॥ गुर परसादि भए जन मुकते हरि हरि नामु अराधिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थापि = मिथ के। कोमल = नर्म, मीठे। परसादि = कृपा से। मुकते = स्वतंत्र, आजाद।3।
अर्थ: (हे भाई!) इस शरीर को अपना समझ के, इस धन को अपना मान के जीव (माया के मोह के) मीठे-मीठे बंधनों से बंधे रहते हैं, पर जिस मनुष्यों ने परमात्मा के नाम की आराधना की वे गुरु की कृपा से (इन कोमल बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखि लीए प्रभि राखनहारै जो प्रभ अपुने भाणे ॥ जीउ पिंडु सभु तुम्हरा दाते नानक सद कुरबाणे ॥४॥११॥५०॥
मूलम्
राखि लीए प्रभि राखनहारै जो प्रभ अपुने भाणे ॥ जीउ पिंडु सभु तुम्हरा दाते नानक सद कुरबाणे ॥४॥११॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। प्रभ भाणै = प्रभु को अच्छे लगे। जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। दाते = हे दातार! सद = सदा।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य, प्यारे प्रभु को अच्छे लगने लग पड़ते हैं, उन्हें (माया के कोमल बंधनों से) बचाने की शक्ति वाले प्रभु ने बचा लिया।
हे नानक! (कह:) हे दातार! ये प्राण और ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है (मेहर कर, मैं इन्हें अपना ही ना समझता रहूँ)। हे दातार! मैं तुझ पे कुर्बान जाता हूँ।4।11।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ मोह मलन नीद ते छुटकी कउनु अनुग्रहु भइओ री ॥ महा मोहनी तुधु न विआपै तेरा आलसु कहा गइओ री ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ मोह मलन नीद ते छुटकी कउनु अनुग्रहु भइओ री ॥ महा मोहनी तुधु न विआपै तेरा आलसु कहा गइओ री ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मलन = (मन को) मैला करने वाली। ते = से। छुटकी = खलासी पाई। अनुग्रहु = कृपा। री = हे सखी! मोहनी = मन को मोहने वाली (माया)। न विआपै = जोर नहीं डाल सकती। कहा गइओ = कहां चला गया?।1। रहाउ।
अर्थ: हे सहेली! तू मन को मैला करने वाली मोह की नींद से बच गई है, तेरे ऊपर कौन सी कृपा हुई है? (जीवों के मन को) मोह लेने वाली बली माया भी तेरे पर जोर नहीं डाल सकती, तेरा आलस भी सदा के लिए समाप्त हो गया है।1। रहाउ।
[[0384]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु अहंकारु गाखरो संजमि कउन छुटिओ री ॥ सुरि नर देव असुर त्रै गुनीआ सगलो भवनु लुटिओ री ॥१॥
मूलम्
कामु क्रोधु अहंकारु गाखरो संजमि कउन छुटिओ री ॥ सुरि नर देव असुर त्रै गुनीआ सगलो भवनु लुटिओ री ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाखरो = मुश्किल, तकलीफ़ देने वाला। संजमि कउन = किस युक्ति से? सुर नर = भले मनुष्य। देव = देवते। असुर = दैंत। त्रै गुनीआ = त्रिगुणी जीव। भवनु = संसार।1।
अर्थ: हे बहन! ये काम, क्रोध, ये अहंकार (ये हरेक, जीवों को) बहुत मुश्किलें देने वाले हैं, (तेरे अंदर से) किस युक्ति से इनका नाश हुआ? हे बहन! भले मनुष्य, देवते, दैत्य, सारे त्रिगुणी जीव- सारा जगत ही इन्होंने लूट लिया है (सारे जगत का आत्मिक जीवन की संपत्ति इन्होंने लूट लिया है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दावा अगनि बहुतु त्रिण जाले कोई हरिआ बूटु रहिओ री ॥ ऐसो समरथु वरनि न साकउ ता की उपमा जात न कहिओ री ॥२॥
मूलम्
दावा अगनि बहुतु त्रिण जाले कोई हरिआ बूटु रहिओ री ॥ ऐसो समरथु वरनि न साकउ ता की उपमा जात न कहिओ री ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दावा अगनि = जंगल की आग। त्रिण = घास, वनस्पति। बूट = पौधा। ऐसो समरथ = ऐसा बली जो इस आग से बचा रहा। वरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकती। उपमा = बड़ाई।2।
अर्थ: हे सहेली! जब जंगल को आग लगती है तो बहुत सारा घास-बूटा जल जाता है, कोई विरला हरा पौधा ही बचता है (इसी तरह जगत-जंगल को तृष्णा की आग जला रही है, कोई विरला आत्मिक तौर पे बली मनुष्य ही बच सकता है, जो इस तृष्णा-अग्नि की जलन से बचा है) ऐसे बली मनुष्य की आत्मिक अवस्था मैं बयान नहीं कर सकती, मैं बता नहीं सकती कि उस जैसा और कौन हो सकता है।2।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: उपरोक्त प्रश्न का उत्तर:)
विश्वास-प्रस्तुतिः
काजर कोठ महि भई न कारी निरमल बरनु बनिओ री ॥ महा मंत्रु गुर हिरदै बसिओ अचरज नामु सुनिओ री ॥३॥
मूलम्
काजर कोठ महि भई न कारी निरमल बरनु बनिओ री ॥ महा मंत्रु गुर हिरदै बसिओ अचरज नामु सुनिओ री ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काजर कोठ = काजल की कोठरी। कारी = काली। बरनु = वर्ण, रंग। निरमल = सफेद। मंत्र गुर = गुरु का मंत्र।3।
अर्थ: हे बहन! मेरे हृदय में सतिगुरु का (शब्द रूपी) बड़ा बली मंत्र बस रहा है, मैं आश्चर्य (ताकत वाले) प्रभु का नाम सुनती रहती हूँ, (इस वास्ते इस) काजल भरी कोठरी (संसार में रहते हुए भी) मैं विकारों की (कालिख़ से) काली नहीं हुई, मेरा साफ-सुथरा रंग ही टिका रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ नदरि अवलोकन अपुनै चरणि लगाई ॥ प्रेम भगति नानक सुखु पाइआ साधू संगि समाई ॥४॥१२॥५१॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ नदरि अवलोकन अपुनै चरणि लगाई ॥ प्रेम भगति नानक सुखु पाइआ साधू संगि समाई ॥४॥१२॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। नदरि = मेहर की निगाह (से)। अवलोकन = देखना (क्रिया)। चरणि = चरणों में। साधू संगि = गुरु की संगति में। समाई = मैं समा गई।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे बहिन! प्रभु ने कृपा करके अपनी (मेहर की) निगाह से मुझे देखा, मुझे अपने चरणों में जोड़े रखा, मुझे उसका प्रेम प्राप्त हुआ, मुझे उसकी भक्ति (की दाति) मिली, मैं (तृष्णा-अग्नि में जल रहे संसार में भी) आत्मिक आनंद पा रही हूँ, मैं साधु-संगत में लीन रहती हूँ।4।12।51।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ६’ के 12 शब्द यहीं सम्पन्न होते हैं। महला ५ के कुल शब्दों का जोड़ 51 है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ७ महला ५ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ७ महला ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लालु चोलना तै तनि सोहिआ ॥ सुरिजन भानी तां मनु मोहिआ ॥१॥
मूलम्
लालु चोलना तै तनि सोहिआ ॥ सुरिजन भानी तां मनु मोहिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तै तनि = तेरे शरीर पर। सोहिआ = शोभा दे रहा है, सुंदर लग रहा है। सुरिजन भानी = सज्जन हरि को प्यारी लगी। तां = तभी। मोहिआ = मोह लिया है।1।
अर्थ: (हे बहिन!) तेरे शरीर पे लाल रंग का चोला सुंदर लग रहा है (तेरे मुंह की लाली सुंदर झलक मार रही है। शायद) तू सज्जन हरि को प्यारी लग रही है, तभी तो तूने मेरा मन (भी) मोह लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन बनी री तेरी लाली ॥ कवन रंगि तूं भई गुलाली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कवन बनी री तेरी लाली ॥ कवन रंगि तूं भई गुलाली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन = कैसे? री = हे सहेली! लाली = मुँह की लाली। रंगि = रंग से। गुलाली = गाढ़े रंग वाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे बहिन! (बता,) तेरे चेहरे पे लाली कैसे आ गई है? किस रंग की इनायत से तू सुंदर गाढ़े गुलाल रंग वाली बन गई है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम ही सुंदरि तुमहि सुहागु ॥ तुम घरि लालनु तुम घरि भागु ॥२॥
मूलम्
तुम ही सुंदरि तुमहि सुहागु ॥ तुम घरि लालनु तुम घरि भागु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंदरि = (स्त्री-लिंग) सुंदरी। तुमहि सुहागु = तेरा ही सुहाग। तुम घरि = तेरे हृदय घर में। लालनु = प्रीतम प्रभु।2।
अर्थ: हे बहिन! तू बड़ी खूबसूरति दिख रही है। तेरे सुहाग-भाग्य उघड़ के सामने आ गए हैं (ऐसा प्रतीत होता है कि) तेरे हृदय घर में प्रीतम प्रभु आ बसा है, तेरे हृदय घर मेंकिस्मत जाग पड़ी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं सतवंती तूं परधानि ॥ तूं प्रीतम भानी तुही सुर गिआनि ॥३॥
मूलम्
तूं सतवंती तूं परधानि ॥ तूं प्रीतम भानी तुही सुर गिआनि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतसंगी = ऊँचे आचरण वाली। परधानि = जानी मानी। प्रीतम भानी = प्रीतम प्रभु को भाने लगी। सुर गिआनि = श्रेष्ठ ज्ञान वाली।3।
अर्थ: हे बहिन! तू स्वच्छ आचरण वाली हो गई है तू अब हर जगह आदर-मान पा रही है। (अगर) तू प्रीतम प्रभु को अच्छी लग रही है (तो) तू श्रेष्ठ ज्ञान वाली बन गई है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतम भानी तां रंगि गुलाल ॥ कहु नानक सुभ द्रिसटि निहाल ॥४॥
मूलम्
प्रीतम भानी तां रंगि गुलाल ॥ कहु नानक सुभ द्रिसटि निहाल ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि गुलाल = गाढ़े रंग में। निहाल = देखा, ताका।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे बहिन! मैं) प्रीतम प्रभु को अच्छी लग गई हूँ, तभी तो मैं गाढ़े प्रेम रंग में रंगी गई हूँ। वह प्रीतम प्रभु मुझे अच्छी (प्यार भरी) निगाह से देखता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि री सखी इह हमरी घाल ॥ प्रभ आपि सीगारि सवारनहार ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥५२॥
मूलम्
सुनि री सखी इह हमरी घाल ॥ प्रभ आपि सीगारि सवारनहार ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥५२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहां से आगे ‘घरु ७’ में गाए जाने वाले शबदों का संग्रह आरम्भ होता है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाल = मेहनत। प्रभ आपि = प्रभु ने खुद ही। सीगारि = श्रृंगार के, सजा के। रहाउ दूजा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ दूजा’ में पहले ‘रहाउ’ में किए गए प्रश्न का उत्तर है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (पर) हे सहेली! तू पूछती है (मैंने कौन सी मेहनत की, बस!) यही है मेहनत जो मैंने की कि उस सुंदरता की दाति देने वाले प्रभु ने खुद ही मुझे (अपने प्यार की दाति दे के) सुंदरी बना लिया है।1। रहाउ दूसरा।1।52।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आखिरी अंक १ बताता है कि ‘घरु’ ८ का ये पहला शब्द है। अब तक महला ५ के कुल 52 शब्द आ चुके हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ दूखु घनो जब होते दूरि ॥ अब मसलति मोहि मिली हदूरि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ दूखु घनो जब होते दूरि ॥ अब मसलति मोहि मिली हदूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घनो = बहुत। दूरि = (परमात्मा की हजूरी से) दूर। मसलति = सलाह, शिक्षा, गुरु की शिक्षा। मोहि = मुझे। हदूरि = हजूरी, परमात्मा की हजूरी।1।
अर्थ: हे सखी! हे सहेली! जब मैं प्रभु-चरणों से दूर रहती थी मुझे बहुत दुख (होता था) अब (गुरु की) शिक्षा की इनायत से मुझे (प्रभु की) हजूरी प्राप्त हो गई है (मैं प्रभु-चरणों में टिकी रहती हूँ, इस वास्ते कोई दुख-कष्ट मुझे छू नहीं सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चुका निहोरा सखी सहेरी ॥ भरमु गइआ गुरि पिर संगि मेरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चुका निहोरा सखी सहेरी ॥ भरमु गइआ गुरि पिर संगि मेरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चुका = समाप्त हो गया। निहोरा = उलाहमा, गिला शिकवा। सखी सहेरी = हे सखी! हे सहेली! गुरि = गुरु ने। मेरी = मेली, मिला दी।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! हे सहेली! मुझे गुरु ने पति-प्रभु के साथ मिला दिया है, अब मेरी भटकना दूर हो गई है (प्रभु चरणों से पहले विछोड़े के कारण पैदा हुए दुख-कष्टों का) उलाहमा देना खत्म हो गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकटि आनि प्रिअ सेज धरी ॥ काणि कढन ते छूटि परी ॥२॥
मूलम्
निकटि आनि प्रिअ सेज धरी ॥ काणि कढन ते छूटि परी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। आनि = ला के। प्रिअ सेज = प्यारे की सेज पे। धरी = बैठा दी। काणि = अधीनता। ते = से। छूटि परी = बच गई हूँ।2।
अर्थ: हे सखी! (गुरु ने) मुझे प्रभु-चरणों के नजदीक ला के प्यारे प्रभु-पति की सेज पर बैठा दिया है (प्रभु-चरणों में जोड़ दिया है)। अब (हरेक की) अधीनता करने से मैं बच गई हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंदरि मेरै सबदि उजारा ॥ अनद बिनोदी खसमु हमारा ॥३॥
मूलम्
मंदरि मेरै सबदि उजारा ॥ अनद बिनोदी खसमु हमारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंदरि = हृदय मंदिर में। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। उजारा = आत्मिक जीवन का प्रकाश। अनद बिनोदी = सारे आनंदों का खेल तमाशों का मालिक।3।
अर्थ: (हे सखी! हे सहेली!) गुरु के शब्द की इनायत से मेरे हृदय मंदिर में (सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, सारे आनंदों और खेल-तमाशों का मालिक मेरा पति-प्रभु (मुझे मिल गया है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मसतकि भागु मै पिरु घरि आइआ ॥ थिरु सोहागु नानक जन पाइआ ॥४॥२॥५३॥
मूलम्
मसतकि भागु मै पिरु घरि आइआ ॥ थिरु सोहागु नानक जन पाइआ ॥४॥२॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। घरि = हृदय घर में। थिरु = सदा कायम रहने वाला।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे सखी!) मेरे माथे (के) भाग जाग पड़े हैं (क्योंकि) मेरा पति-प्रभु मेरे (हृदय-) घर में आ गया है, मैंने अब वह सुहाग ढूँढ लिया है।4।2।53।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ साचि नामि मेरा मनु लागा ॥ लोगन सिउ मेरा ठाठा बागा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ साचि नामि मेरा मनु लागा ॥ लोगन सिउ मेरा ठाठा बागा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचि = स्थिर रहने वाले में। नामि = नाम में। सिउ = साथ। ठाठा बागा = ठाह ठीया, काम चलाने जितना उद्यम, उतना ही वरतन व्यवहार जितने की बहुत जरूरत पड़े।1।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा मन सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में (सदा) जुड़ा रहता है, दुनिया के लोगों से मेरा उतना ही वरतन-व्यवहार है जितने की अति जरूरी जरूरत पड़ती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहरि सूतु सगल सिउ मउला ॥ अलिपतु रहउ जैसे जल महि कउला ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाहरि सूतु सगल सिउ मउला ॥ अलिपतु रहउ जैसे जल महि कउला ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरि = दुनिया में, दुनिया से बरतने के समय। सूतु मउला = सूत्र मिला हुआ है, प्यार बना हुआ है, प्यार का संबंध है। अलिपतु = निर्लिप। रहउ = मैं रहता हूँ। कउला = कमल फूल।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) दुनिया से बरतने-व्यवहार के समय मैं सबसे प्यार वाला संबंध रखता हूँ, (पर दुनिया के साथ बरतता हुआ भी दुनिया से ऐसे) निर्लिप रहता हूँ जैसे पानी में (रहते हुए भी) कमल का फूल (पानी से निर्लिप रहता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुख की बात सगल सिउ करता ॥ जीअ संगि प्रभु अपुना धरता ॥२॥
मूलम्
मुख की बात सगल सिउ करता ॥ जीअ संगि प्रभु अपुना धरता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुख की बात = मुंह की बात। जीअ संगि = हृदय में, प्राणों में।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं सब लोगों से (जरूरत के मुताबिक) मुंह से बातें करता हूँ (पर, कहीं भी मोह में अपने मन को फसने नहीं देता) अपने हृदय में मैं सिर्फ परमात्मा को ही टिकाए रखता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीसि आवत है बहुतु भीहाला ॥ सगल चरन की इहु मनु राला ॥३॥
मूलम्
दीसि आवत है बहुतु भीहाला ॥ सगल चरन की इहु मनु राला ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीहाला = डरावना, रूखा, बे मेहरा, कोरा। राला = चरण धूल, ख़ाक।3।
अर्थ: (हे भाई! मेरे इस तरह के आत्मिक जीवन के अभ्यास के कारण लोगों को मेरा मन) बड़ा रूखा और कोरा दिखता है; पर (दरअसल मेरा) ये मन सबके चरणों की धूल बना रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक जनि गुरु पूरा पाइआ ॥ अंतरि बाहरि एकु दिखाइआ ॥४॥३॥५४॥
मूलम्
नानक जनि गुरु पूरा पाइआ ॥ अंतरि बाहरि एकु दिखाइआ ॥४॥३॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनि = जन ने, दास ने। अंतरि = अंदर बसता। बाहरि = सारे जगत में बसता।4।
अर्थ: हे नानक! जिस (भी) मनुष्य ने पूरा गुरु पा लिया है (गुरु ने उसको) उसके अंदर और बाहर सारे जगत में एक परमात्मा ही बसता दिखा दिया है (इस वास्ते वह दुनिया से प्यार करने वाला सलूक भी रखता है और निर्मोही रहके तवज्जो अंदर रहके तवज्जो को अंदर बसते प्रभु में भी जोड़े रखता है)।4।3।54।
[[0385]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ पावतु रलीआ जोबनि बलीआ ॥ नाम बिना माटी संगि रलीआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ पावतु रलीआ जोबनि बलीआ ॥ नाम बिना माटी संगि रलीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पावतु = पाता है। रलीआ = मौजें। जोबनि = जवानी में, जवानी के समय में। बलीआ = बलवान, ताकत वाला। माटी संगि = मिट्टी के साथ। रलीआ = मिल जाता है, घुल मिल जाता है।1।
अर्थ: (हे भाई! जब तक) जवानी में (शारीरिक) शक्ति मिली हुई है (मनुष्य बेपरवाह हो के) मौजें करता है, अंत में शरीर मिट्टी के साथ मिल जाता है, (और जीवात्मा) परमातमा के नाम के बिना (खाली हाथ) ही रह जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कान कुंडलीआ बसत्र ओढलीआ ॥ सेज सुखलीआ मनि गरबलीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कान कुंडलीआ बसत्र ओढलीआ ॥ सेज सुखलीआ मनि गरबलीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कान = कानों में। कुंडलीआ = (सोने के) कुण्डल। ओढलीआ = पहिनता। सेज सुखलीआ = सुखदाई सेज, नर्म नर्म बिस्तरे। मनि = मन में। गरबलीआ = गरब करता है, अहंकार करता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य) कानों में (सोने के) कुण्डल पहन के (सुंदर-सुंदर) कपड़े पहनता है, नर्म-नर्म बिस्तरों पर (सोता है), (और इन मिले हुए सुखों का अपने) मन में गुमान करता है (पर ये नहीं समझता कि ये शरीर आखिर मिट्टी हो जाना है, ये पदार्थ यहीं रह जाने हैं। सदा का साथ निभाने वाला सिर्फ परमात्मा का नाम ही है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तलै कुंचरीआ सिरि कनिक छतरीआ ॥ हरि भगति बिना ले धरनि गडलीआ ॥२॥
मूलम्
तलै कुंचरीआ सिरि कनिक छतरीआ ॥ हरि भगति बिना ले धरनि गडलीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तलै = नीचे। कुंचरीआ = हाथी। सिरि = सिर पर। कनिक छतरीआ = सोने के छत्र। धरनि = धरती। गडलीआ = दबा दी।2।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य को यदि सवारी करने के वास्ते अपने) नीचे हाथी (भी मिला हुआ है, और उसके) सिर पर सोने का छत्र झूल रहा है, (तो भी शरीर आखिर) धरती में ही मिलाया जाता है (इन पदार्थों के गुमान में मनुष्य) परमात्मा की भक्ति से वंचित ही रह जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूप सुंदरीआ अनिक इसतरीआ ॥ हरि रस बिनु सभि सुआद फिकरीआ ॥३॥
मूलम्
रूप सुंदरीआ अनिक इसतरीआ ॥ हरि रस बिनु सभि सुआद फिकरीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। फिकरीआ = फीके।3।
अर्थ: (हे भाई! अगर) सुंदर रूप वाली अनेक स्त्रीयां (भी मिली हुई हों तो भी क्या हुआ?) परमात्मा के नाम के स्वाद के मुकाबले में (दुनिया वाले ये) सारे स्वाद फीके हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ छलीआ बिकार बिखलीआ ॥ सरणि नानक प्रभ पुरख दइअलीआ ॥४॥४॥५५॥
मूलम्
माइआ छलीआ बिकार बिखलीआ ॥ सरणि नानक प्रभ पुरख दइअलीआ ॥४॥४॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छलीआ = छलने वाली, ठगने वाली। बिखलीआ = विषौली, जहरीले। नानक = हे नानक! प्रभ = हे प्रभु! पुरख दइअलीआ = हे दयालु पुरख!।4।
अर्थ: (हे भाई! याद रखो कि) माया ठगने वाली ही है (आत्मिक जीवन की संपत्ति लूट लेती है), (दुनिया के विषौ-) विकार जहर भरे हैं (आत्मिक मौत का कारण बनते हैं)।
हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हे दयालु पुरख! मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे इस माया से इन विकारों से बचाए रख)।4।4।55।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ एकु बगीचा पेड घन करिआ ॥ अम्रित नामु तहा महि फलिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ एकु बगीचा पेड घन करिआ ॥ अम्रित नामु तहा महि फलिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बागीचा = बाग़, संसार बगीचा। पेड = पेड़, वृक्ष, जीव। घन = बहुत, अनेक। करिआ = पैदा किए हैं। फलिआ = फल लगा।1।
अर्थ: हे भाई! ये जगत एक बग़ीचा है जिस में (विधाता माली ने) बेअंत पौधे लगाए हुए हैं (रंग-बिरंगे जीव पैदा किए हुए हैं, इनमें से इनके अंदर) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (सींचा जा रहा) है, उनमें (ऊँचे आत्मिक जीवन का) डर लग रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा करहु बीचारु गिआनी ॥ जा ते पाईऐ पदु निरबानी ॥ आसि पासि बिखूआ के कुंटा बीचि अम्रितु है भाई रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा करहु बीचारु गिआनी ॥ जा ते पाईऐ पदु निरबानी ॥ आसि पासि बिखूआ के कुंटा बीचि अम्रितु है भाई रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनी = हे ज्ञानवान मनुष्य! जा ते = जिस (विकार) की सहायता से। पदु = दर्जा। निरबानी = वासना रहित, जहाँ माया की वासनाएं छू ना सकें। आसि पासि = तेरे चार चुफेरे। बिखूआ = जहर। कुंटा = कुंड, चश्में। बीचि = (तेरे) अंदर। भाई रे = हे भाई!।1। रहाउ।
अर्थ: हे ज्ञानवान मनुष्य! कोई ऐसी विचार कर जिसकी इनायत से वह (आत्मिक) दर्जा प्राप्त हो जाए जहाँ कोई वासना ना छू सके। हे भाई! तेरे चारों तरफ (माया के मोह के) जहर के चश्मे (चल रहे हैं जो आत्मिक मौत ले आते हैं; पर तेरे) अंदर (नाम-) अमृत (का चश्मा चल रहा है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंचनहारे एकै माली ॥ खबरि करतु है पात पत डाली ॥२॥
मूलम्
सिंचनहारे एकै माली ॥ खबरि करतु है पात पत डाली ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै माली = एक माली को ही (हृदय में संभाल के रख)। खबरि करत है = सार लेता है। पात पत = हरेक पत्ते की।2।
अर्थ: (हे भाई! आत्मिक जीवन के वास्ते नाम-जल) सींचने वाले उस एक (विधाता-) माली को (अपने हृदय में संभाल के रखो) जो हरेक बूटे के पत्र पत्र डाली-डाली की संभाल करता है (जो हरेक जीव के आत्मिक जीवन के हरेक पहलू का ख्याल रखता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल बनसपति आणि जड़ाई ॥ सगली फूली निफल न काई ॥३॥
मूलम्
सगल बनसपति आणि जड़ाई ॥ सगली फूली निफल न काई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल बनसपति = सारी बनस्पति, बेअंत जीव-जंतु। आणि = ला के। जड़ाई = सजा दी है। फूली = फूल दे रही है, फूल लग रहे हैं। निफल = निष्फल।3।
अर्थ: (हे भाई! उस माली ने इस जगत-बगीचे में) सारी बनस्पति ला के सजा दी है (रंग-बिरंगे जीव पैदा करके संसार-बग़ीचे को सुंदर बना दिया है)। सारी बनस्पति फल-फूल रही है, कोई भी पौधा फल से खाली नहीं (हरेक जीव माया के मकसद से लगा हुआ है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित फलु नामु जिनि गुर ते पाइआ ॥ नानक दास तरी तिनि माइआ ॥४॥५॥५६॥
मूलम्
अम्रित फलु नामु जिनि गुर ते पाइआ ॥ नानक दास तरी तिनि माइआ ॥४॥५॥५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुर ते = गुरु से। तरी = पार कर ली, तैर ली। तिनि = उस (मनुष्य) ने।4।
अर्थ: (पर) हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने गुरु से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त कर लिया है उसने माया (की नदी) पार कर ली है।4।5।56।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ राज लीला तेरै नामि बनाई ॥ जोगु बनिआ तेरा कीरतनु गाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ राज लीला तेरै नामि बनाई ॥ जोगु बनिआ तेरा कीरतनु गाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राज लीला = राज का मौज मेला, राज से मिलने वाला सुख आनंद। तेरै नामि = तेरे नाम ने। गाई = मैं गाता हूँ।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे नाम ने मेरे वास्ते वह मौज बना दी है जो राजाओं को राज से मिलती प्रतीत होती है, जब मैं तेरी महिमा के गीत गाता हूँ तो मुझे जोगियों वाला जोग प्राप्त हो जाता है (दुनिया वाला सुख और फकीरी वाला सुख दोनों ही मुझे तेरी महिमा में से मिल रहे हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब सुखा बने तेरै ओल्है ॥ भ्रम के परदे सतिगुर खोल्हे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सरब सुखा बने तेरै ओल्है ॥ भ्रम के परदे सतिगुर खोल्हे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेरै ओल्है = तेरे आसरे (रहने से)। भ्रम = भटकना।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (जब से) सतिगुरु ने (मेरे अंदर से माया की खातिर) भटकना पैदा करने वाले परदे खोल दिए हैं (और तेरे से मेरी दूरी समाप्त हो गई है, तब से) तेरे भरोसे रहने से मेरे वास्ते सारे सुख ही सुख बन गए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु बूझि रंग रस माणे ॥ सतिगुर सेवा महा निरबाणे ॥२॥
मूलम्
हुकमु बूझि रंग रस माणे ॥ सतिगुर सेवा महा निरबाणे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूझि = समझ के। निरबाणे = वासना रहित अवस्था।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी रजा को समझ के मैं सारे आत्मिक आनंद ले रहा हूँ, सतिगुरु की (बताई) सेवा की इनायत से मुझे बड़ी ऊँची वासना-रहित अवस्था प्राप्त हो गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि तूं जाता सो गिरसत उदासी परवाणु ॥ नामि रता सोई निरबाणु ॥३॥
मूलम्
जिनि तूं जाता सो गिरसत उदासी परवाणु ॥ नामि रता सोई निरबाणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। तूं = तुझे। उदासी = त्यागी। परवाणु = स्वीकार। नामि = नाम में। निरबाणु = वासना रहित।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य ने तेरे साथ गहरी सांझ डाल ली, वह चाहे गृहस्थी है चाहे त्यागी, तेरी नजरों में स्वीकार है। जो मनुष्य, हे प्रभु! तेरे नाम (-रंग) में रंगा हुआ है वही सदा दुनिया की वासना से बचा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ मिलिओ नामु निधाना ॥ भनति नानक ता का पूर खजाना ॥४॥६॥५७॥
मूलम्
जा कउ मिलिओ नामु निधाना ॥ भनति नानक ता का पूर खजाना ॥४॥६॥५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस को। निधाना = खजाना। भनति = कहता है। पूर = भरा हुआ।4।
अर्थ: नानक कहता है: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा नाम-खजाना मिल गया है उसका (उच्च आत्मिक जीवन के गुणों का) खजाना सदा भरा रहता है।4।6।57।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ तीरथि जाउ त हउ हउ करते ॥ पंडित पूछउ त माइआ राते ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ तीरथि जाउ त हउ हउ करते ॥ पंडित पूछउ त माइआ राते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = (किसी) तीर्थ पर। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। हउ हउ = मैं (धर्मी) मैं (धर्मी)। पंडित = (बहुवचन)। पूछउ = पूछूँ, मैं पूछता हूँ। राते = मस्त, रंगे हुए।1।
अर्थ: हे मित्र! अगर मैं (किसी) तीर्थ पर जाता हूँ, तो वहां मैं लोगों को ‘मैं (धरमी) मैं (धरमी)’ कहते हुए देखता हूँ, यदि मैं (जा के) पण्डितों को पूछता हूँ तो वह भी माया के रंग में रंगे हुए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो असथानु बतावहु मीता ॥ जा कै हरि हरि कीरतनु नीता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो असथानु बतावहु मीता ॥ जा कै हरि हरि कीरतनु नीता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असथानु = स्थान। मीता = हे मित्र! जा के = जिसके पास, जिसके अंदर, जिसके द्वारा। नीता = नित्य, सदा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! मुझे वह जगह बता जहां हर वक्त परमात्मा की महिमा होती हो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासत्र बेद पाप पुंन वीचार ॥ नरकि सुरगि फिरि फिरि अउतार ॥२॥
मूलम्
सासत्र बेद पाप पुंन वीचार ॥ नरकि सुरगि फिरि फिरि अउतार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नरकि = नरक में। सुरगि = स्वर्ग में। अउतार = जनम।2।
अर्थ: (हे मित्र!) शास्त्र और वेद पुण्य और पाप के विचार ही बताते हैं (ये बताते हैं कि फलाणे काम पाप हैं फलाणे काम पुण्य हैं, जिनके करने से) बार बार (कभी) नर्क में (तो कभी) स्वर्ग में पड़ जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरसत महि चिंत उदास अहंकार ॥ करम करत जीअ कउ जंजार ॥३॥
मूलम्
गिरसत महि चिंत उदास अहंकार ॥ करम करत जीअ कउ जंजार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिंत = चिन्ता। उदास = उदास अवस्था में, त्याग में। करम = कर्मकांड, निहित धार्मिक कर्म। जीअ कउ = जिंद को। जंजार = जंजाल, बंधन।3।
अर्थ: (हे मित्र!) गृहस्थ में रहने वालों को चिन्ता दबा रही है, (गृहस्थ का) त्याग करने वाले अहंकार (से आफरे हुए हैं), (निरे) कर्मकांड करने वालों की जिंद को (माया के) जंजाल (पड़े हुए हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ किरपा ते मनु वसि आइआ ॥ नानक गुरमुखि तरी तिनि माइआ ॥४॥
मूलम्
प्रभ किरपा ते मनु वसि आइआ ॥ नानक गुरमुखि तरी तिनि माइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, साथ। वसि = वश में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। तिनि = उसने।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) परमात्मा की कृपा से जिस मनुष्य का मन वश में आ जाता है उसने गुरु की शरण पड़ के माया (की फुंकार मारती नदी) पार कर ली है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ इहु असथानु गुरू ते पाईऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥७॥५८॥
मूलम्
साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ इहु असथानु गुरू ते पाईऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥७॥५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। ते = से द्वारा। रहाउ दूजा।
अर्थ: (हे मित्र!) साधु-संगत में रह के (सदा) परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए (इसकी इनायत से अहंकार, माया का मोह, चिन्ता, अहम् के जंजाल आदि कोई भी छू नहीं सकता) पर ये जगह गुरु के द्वारा ही मिलती है।1। रहाउ दूसरा।7।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ घर महि सूख बाहरि फुनि सूखा ॥ हरि सिमरत सगल बिनासे दूखा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ घर महि सूख बाहरि फुनि सूखा ॥ हरि सिमरत सगल बिनासे दूखा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घर महि = हृदय घर में। बाहरि फुनि = बाहर दुनिया के साथ बरताव व्यवहार करने में भी। फुनि = भी। सगल = सारे।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने वाले मनुष्य को अपने) हृदय-घर में आनंद प्रतीत होता रहता है, बाहर दुनिया के साथ बरताव-व्यवहार करते हुए भी उसका आत्मिक आनंद बना रहता है (क्योंकि, हे भाई!) परमात्मा का स्मरण करने से सारे दुख नाश हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल सूख जां तूं चिति आंवैं ॥ सो नामु जपै जो जनु तुधु भावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सगल सूख जां तूं चिति आंवैं ॥ सो नामु जपै जो जनु तुधु भावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिति = चित्त में। आंवैं = आवहि, आता है। तुधु भावै = तुझे प्यारा लगता है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: साधारण तौर पर वर्तमान काल, मध्यम पुरुष एकवचन वास्ते क्रिया के साथ ‘हि’ बरता जाता है; जैसे ‘करहि’ तू करता है। ‘वेखहि = तू देखता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के चित्त में तू आ बसता है उसे सारे सुख ही सुख प्रतीत होते हैं। (पर) वही मनुष्य तेरा नाम जपता है जो तुझे प्यारा लगता है (जिस पे तेरी मेहर होती है)।1। रहाउ।
[[0386]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु मनु सीतलु जपि नामु तेरा ॥ हरि हरि जपत ढहै दुख डेरा ॥२॥
मूलम्
तनु मनु सीतलु जपि नामु तेरा ॥ हरि हरि जपत ढहै दुख डेरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतलु = ठंडा। जपि = जप के। जपत = जपते हुए। ढहै = गिर जाता है। दुख डेरा = दुखों का डेरा।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम जप के मन शांत हो जाता है। शरीर (भी, हरेक ज्ञानेन्द्रिय भी) जप के शांत हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए दुखों का डेरा ही उठ जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु बूझै सोई परवानु ॥ साचु सबदु जा का नीसानु ॥३॥
मूलम्
हुकमु बूझै सोई परवानु ॥ साचु सबदु जा का नीसानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुकमु = रजा। सोई = वही (मनुष्य)। साचु = सदा कायम रहने वाला। साचु सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। जा का = जिस का, जिसके पास। नीसानु = परवाना, राहदारी।3।
अर्थ: (हे भाई! इस जीवन-यात्रा में) जिस मनुष्य के पास सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा की वाणी की राहदारी है (और इस राहदारी की इनायत से जो परमात्मा की) रजा को समझ लेता है (रजा में खुशी से) राजी रहता है, वह मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ भनति नानकु मेरै मनि सुखु पाइआ ॥४॥८॥५९॥
मूलम्
गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ भनति नानकु मेरै मनि सुखु पाइआ ॥४॥८॥५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। भनति नानकु = नानक कहता है। मनि = मन ने।4।
अर्थ: नानक कहता है: (हे भाई! जब से) पूरे गुरु ने परमात्मा का नाम मेरे हृदय में पक्का कर दिया है (तब से) मेरे मन ने (सदा) सुख ही अनुभव किया है।4।8।59।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जहा पठावहु तह तह जाईं ॥ जो तुम देहु सोई सुखु पाईं ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जहा पठावहु तह तह जाईं ॥ जो तुम देहु सोई सुखु पाईं ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पठावहु = तू भेजता है। तह तह = वहां वहां। जाई = मैं जाता हूँ। जो = जो कुछं। पाई = मैं पाता हूँ।1।
अर्थ: (हे गोबिंद! ये तेरी ही मेहर है कि) जिधर तू मुझे भेजता हूँ, मैं उधर उधर ही (खुशी से) जाता हूँ, (सुख हो चाहे दुख हो) जो कुछ तू मुझे देता है, मैं उसको (सिर माथे पे) सुख (जान के) मानता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा चेरे गोविंद गोसाई ॥ तुम्हरी क्रिपा ते त्रिपति अघाईं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सदा चेरे गोविंद गोसाई ॥ तुम्हरी क्रिपा ते त्रिपति अघाईं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चेरे = दास। गोविंद = हे गोविंद! क्रिपा ते = कृपा से। त्रिपति अघाई = पूरी तरह से संतोष में रहता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद! हे गुसाई! (मेहर कर, मैं) सदा तेरा दास बना रहूँ (क्योंकि) तेरी कृपा से ही मैं माया की तृष्णा से सदा तृप्त रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरा दीआ पैन्हउ खाईं ॥ तउ प्रसादि प्रभ सुखी वलाईं ॥२॥
मूलम्
तुमरा दीआ पैन्हउ खाईं ॥ तउ प्रसादि प्रभ सुखी वलाईं ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पैन्उ = मैं पहनता हूँ, पहनूँ। खाई = मैं खाता हूँ। तउ प्रसादि = तेरी कृपा से। प्रभ = हे प्रभु! वलाई = मैं उम्र गुजारता हूँ।2।
अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तू मुझे (पहनने को खाने को) देता है वही मैं (संतोष से) पहनता हूँ और खाता हूँ। तेरी कृपा से मैं (अपना जीवन) सुख आनंद से व्यतीत कर रहा हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन तन अंतरि तुझै धिआईं ॥ तुम्हरै लवै न कोऊ लाईं ॥३॥
मूलम्
मन तन अंतरि तुझै धिआईं ॥ तुम्हरै लवै न कोऊ लाईं ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लवै = बराबर।3।
अर्थ: हे प्रभु! मैं अपने मन में अपने हृदय में (सदा) तुझे ही याद करता रहता हूँ, तेरे बराबर का मैं और किसी को नहीं समझता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक नित इवै धिआईं ॥ गति होवै संतह लगि पाईं ॥४॥९॥६०॥
मूलम्
कहु नानक नित इवै धिआईं ॥ गति होवै संतह लगि पाईं ॥४॥९॥६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इवै = इसी तरह। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। संतह पाई = संत जनों के चरणों में।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास करता रह और) कह: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं इसी तरह सदा तुझे स्मरण करता रहूँ। (तेरी मेहर हो तो तेरे) संत जनों के चरणों में लग के मुझे ऊँची आत्मिक अवस्था मिली रहे।4।9।60।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ ऊठत बैठत सोवत धिआईऐ ॥ मारगि चलत हरे हरि गाईऐ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ ऊठत बैठत सोवत धिआईऐ ॥ मारगि चलत हरे हरि गाईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारगि = रस्ते पर। चलत = चलते हुए। हरे हरि = हरि ही हरि।1।
अर्थ: (हे भाई!) उठते बैठते सोते (जागते हर वक्त) परमात्मा को याद करते रहना चाहिए, रास्ते में चलते हुए भी सदा परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रवन सुनीजै अम्रित कथा ॥ जासु सुनी मनि होइ अनंदा दूख रोग मन सगले लथा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
स्रवन सुनीजै अम्रित कथा ॥ जासु सुनी मनि होइ अनंदा दूख रोग मन सगले लथा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रवन = कानों से। सुनीजै = सुननी चाहिए। अंम्रित कथा = आत्मिक जीवन देने वाली महिमा। जासु सुनी = जिसको सुन के। मनि = मन में। मन = मन के। सगले = सारे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) कानों से (परमात्मा की) आत्मिक जीवन देने वाली महिमा सुनते रहना चाहिए जिसके सुनने से मन में आत्मिक आनंद पैदा होता है और मन के सारे दुख-रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारजि कामि बाट घाट जपीजै ॥ गुर प्रसादि हरि अम्रितु पीजै ॥२॥
मूलम्
कारजि कामि बाट घाट जपीजै ॥ गुर प्रसादि हरि अम्रितु पीजै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारजि = हरेक कार्य में। कामि = हरेक काम में। बाट = राह चलते हुए। घाट = पत्तन (से गुजरते हुए)।2।
अर्थ: (हे भाई!) हरेक काम काज करते हुए, रास्ते पर चलते हुए, नदी घाट पार करते हुए परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए और गुरु की कृपा की इनायत से आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीते रहना चाहिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनसु रैनि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ सो जनु जम की वाट न पाईऐ ॥३॥
मूलम्
दिनसु रैनि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ सो जनु जम की वाट न पाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिनसु = दिन। रैनि = रात। जम की वाट = जम के रास्ते, उस जीवन-राह पे जहां आत्मिक मौत आ दबाए।3।
अर्थ: (हे भाई1) दिन-रात परमात्मा के महिमा के गीत गाते रहना चाहिए (जो ये काम करता रहता है) जिंदगी के सफर में आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आठ पहर जिसु विसरहि नाही ॥ गति होवै नानक तिसु लगि पाई ॥४॥१०॥६१॥
मूलम्
आठ पहर जिसु विसरहि नाही ॥ गति होवै नानक तिसु लगि पाई ॥४॥१०॥६१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विसरहि नाही = तू नहीं बिसरता। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तिसु पाई = उसके चरणों में।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस मनुष्य को आठों पहर किसी (भी वक्त) तू नहीं बिसरता, उसके चरणों में लग के (और मनुष्यों को भी) ऊँची आत्मिक अवस्था मिल जाती है।4।10।61।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जा कै सिमरनि सूख निवासु ॥ भई कलिआण दुख होवत नासु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जा कै सिमरनि सूख निवासु ॥ भई कलिआण दुख होवत नासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै सिमरनि = जिस (परमात्मा) के स्मरण से। सूख निवासु = (मन में) आनंद का वासा। कलिअण = सुख शांत, खैरीयत।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के कहे अनुसार उस परमात्मा का स्मरण करते रहो) जिसके नाम जपने की इनायत से (मन में) सुख का वासा हो जाता है, सदा सुख-शांति बनी रहती है और दुखों का नाश हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदु करहु प्रभ के गुन गावहु ॥ सतिगुरु अपना सद सदा मनावहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अनदु करहु प्रभ के गुन गावहु ॥ सतिगुरु अपना सद सदा मनावहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहु = करोगे। मनावहु = खुश करो, प्रसंन्नता हासिल करो।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! अपने गुरु के उपदेश के अनुसार चल के) सदा ही गुरु की प्रसन्नता प्राप्त करते रहो (गुरु के हुक्म अनुसार) परमात्मा की महिमा करते रहा करो (इसका नतीजा ये होगा कि सदा) आत्मिक आनंद पाते रहोगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर का सचु सबदु कमावहु ॥ थिरु घरि बैठे प्रभु अपना पावहु ॥२॥
मूलम्
सतिगुर का सचु सबदु कमावहु ॥ थिरु घरि बैठे प्रभु अपना पावहु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु सबदु = सदा स्थिर महिमा वाला गुर शब्द। घरि = हृदय घर में।2।
अर्थ: (हे भाई!) सदा स्थिर परमात्मा की महिमा वाले गुर-शब्द को हर समय हृदय में रखो (शब्द अनुसार अपना जीवन घड़ते रहो। इस शब्द की इनायत से अपने) हृदय-घर में अडोल टिके रहोगे (भटकना खत्म हो जाएगी) और परमात्मा को अपने अंदर ही पा लोगे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर का बुरा न राखहु चीत ॥ तुम कउ दुखु नही भाई मीत ॥३॥
मूलम्
पर का बुरा न राखहु चीत ॥ तुम कउ दुखु नही भाई मीत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर का = किसी और का। न राखहु चीत = चित्त में ना रखो। भाई मीत = हे भाई! हे मित्र!।3।
अर्थ: हे भाई! हे मित्र! कभी किसी का बुरा ना चितवा करो (कभी मन में ये इच्छा ना पैदा होने दो कि किसी का नुकसान हो। इसका नतीजा ये होगा कि) तुम्हें भी कोई दुख नहीं व्यापेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि तंतु मंतु गुरि दीन्हा ॥ इहु सुखु नानक अनदिनु चीन्हा ॥४॥११॥६२॥
मूलम्
हरि हरि तंतु मंतु गुरि दीन्हा ॥ इहु सुखु नानक अनदिनु चीन्हा ॥४॥११॥६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तंतु = टूणा। मंतु = मंत्र। गुरि = गुरु ने। नानक = हे नानक! अनदिनु = हर रोज। चीना = (बसता) पहचान लिया।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा के नाम का ही टूणा दिया है, परमात्मा के नाम का ही मंत्र दिया है (वह मंत्र-टूणों द्वारा दूसरों का बुरा चितवने की जगह, अपने अंदर) हर समय (परमात्मा के नाम से पैदा हुआ) आत्मिक आनंद बसा पहचान लेता है।4।11।62।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जिसु नीच कउ कोई न जानै ॥ नामु जपत उहु चहु कुंट मानै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जिसु नीच कउ कोई न जानै ॥ नामु जपत उहु चहु कुंट मानै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीच कउ = छोटी जाति वाले मनुष्य को। न जानै = नहीं जानता पहचानता, किसी गिनती में नहीं गिनता। चहु कुंट = चारों तरफ, सारे संसार में। मानै = माना जाता है, आदर पाता है।1।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को नीच जाति का समझ के कोई जानता-पहचानता भी नहीं, तेरा नाम जपने की इनायत से सारे जगत में उसका आदर-मान होने लगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनु मागउ देहि पिआरे ॥ तुमरी सेवा कउन कउन न तारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दरसनु मागउ देहि पिआरे ॥ तुमरी सेवा कउन कउन न तारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मागउ = मांगूँ, मैं मांगता हूँ। पिआरे = हे प्यारे! क्उन कउन = किस किस को, हरेक को।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मैं तेरा दर्शन मांगता हूँ (मुझे अपने दर्शनों की दाति) दे। जिसने तेरी सेवा-भक्ति की उस उस को (तूने अपने दर्शन दे के) संसार-समुंदर से पार लंघा दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै निकटि न आवै कोई ॥ सगल स्रिसटि उआ के चरन मलि धोई ॥२॥
मूलम्
जा कै निकटि न आवै कोई ॥ सगल स्रिसटि उआ के चरन मलि धोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। सगल = सारी। उआ के = उसके। मलि = मलमल के। धोई = धोती है।2।
अर्थ: हे प्रभु! (कंगाल जान के) जिस मनुष्य के पास भी कोई नहीं फटकता (तेरा नाम जपने की इनायत से फिर) सारी लुकाई उसके पैर मल-मल के धोने लग पड़ती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो प्रानी काहू न आवत काम ॥ संत प्रसादि ता को जपीऐ नाम ॥३॥
मूलम्
जो प्रानी काहू न आवत काम ॥ संत प्रसादि ता को जपीऐ नाम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। ता को नाम जपीऐ = उसे याद किया जाता है।3।
अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य (पहले) किसी का कोई काम सँवारने के काबिल नहीं था (अब) गुरु की कृपा से (तेरा नाम जपने के कारण) उसे हर जगह याद किया जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि मन सोवत जागे ॥ तब प्रभ नानक मीठे लागे ॥४॥१२॥६३॥
मूलम्
साधसंगि मन सोवत जागे ॥ तब प्रभ नानक मीठे लागे ॥४॥१२॥६३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मन! साधु-संगत में आ के (माया के मोह की नींद में) सोए हुए लोग जाग पड़ते हैं (आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त कर लेते हैं, और) तब उन्हें प्रभु जी प्यारे लगने लग पड़ते हैं।4।12।63।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ एको एकी नैन निहारउ ॥ सदा सदा हरि नामु सम्हारउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ एको एकी नैन निहारउ ॥ सदा सदा हरि नामु सम्हारउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एको एकी = एक परमात्मा ही। निहारउ = निहारूँ, मैं देखता हूँ। समारउ = मैं हृदय में टिकाए रखता हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के प्रताप के सदके ही) मैं परमातमा को हर जगह ही बसता अपनी आँखों से देखता हूँ, और सदा ही परमात्मा का नाम अपने दिल में टिकाए रखता हूँ।1।
[[0387]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम रामा रामा गुन गावउ ॥ संत प्रतापि साध कै संगे हरि हरि नामु धिआवउ रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम रामा रामा गुन गावउ ॥ संत प्रतापि साध कै संगे हरि हरि नामु धिआवउ रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रामा = रमा, सुंदर। गावउ = मैं गाता हूँ। संत प्रतापि = गुरु के बख्शे प्रताप से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बख्शे प्रताप की इनायत से गुरु की संगति में रहके मैं सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता हूँ मैं परमातमा के सुंदर गुण गाता रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल समग्री जा कै सूति परोई ॥ घट घट अंतरि रविआ सोई ॥२॥
मूलम्
सगल समग्री जा कै सूति परोई ॥ घट घट अंतरि रविआ सोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समग्री = चीजें, पदार्थ। सूति = सूत्र में, मर्यादा में। सोई = वह परमात्मा ही।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के बख्शे प्रताप की इनायत से मुझे यह निश्चय है कि) वह परमात्मा ही हरेक शरीर के अंदर बस रहा है जिस (की रजा) के धागे में सारे पदार्थ परोए हुए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओपति परलउ खिन महि करता ॥ आपि अलेपा निरगुनु रहता ॥३॥
मूलम्
ओपति परलउ खिन महि करता ॥ आपि अलेपा निरगुनु रहता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओपति = उत्पत्ति। परलउ = सारे जगत का नाश। अलेपा = निर्लिप, अलग। निरगुनु = माया के तीनों गुणों से निर्लिप।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की संगति में टिके रहने के सदका अब मैं जानता हूँ कि) परमात्मा एक पल में सारे जगत की उत्पत्ति और नाश कर सकता है। (सारे जगत में व्यापक होता हुआ भी) प्रभु स्वयं सबसे अलग रहता है और माया के तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावन अंतरजामी ॥ अनंद करै नानक का सुआमी ॥४॥१३॥६४॥
मूलम्
करन करावन अंतरजामी ॥ अनंद करै नानक का सुआमी ॥४॥१३॥६४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनंद करै = हर समय प्रसन्न रहता है।4।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के प्रताप की इनायत से मुझे ये यकीन बन गया है कि) हरेक के दिल की जानने वाला परमात्मा (सब में व्यापक हो के) सब कुछ करने व जीवों से करवाने की स्मर्था रखता है (इतनाव्यस्त होते हुए भी) मुझ नानक का पति-प्रभु सदा प्रसन्न रहता है।4।13।64।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ कोटि जनम के रहे भवारे ॥ दुलभ देह जीती नही हारे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ कोटि जनम के रहे भवारे ॥ दुलभ देह जीती नही हारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। रहे = रह गए, समाप्त हो गए। भवारे = भटकना में, चक्कर में। दुलभ = जो बड़ी मुश्किल से मिली है।1।
अर्थ: (हे भाई! जिनको संत जनों की चरण-धूल प्राप्त हुई, उनके) करोड़ों जन्मों के चक्कर खत्म हो गए, उन्होंने मुश्किल से मिले इस मानव जनम की बाजी जीत ली, (उन्होंने माया के हाथों) हार नहीं खाई।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किलबिख बिनासे दुख दरद दूरि ॥ भए पुनीत संतन की धूरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किलबिख बिनासे दुख दरद दूरि ॥ भए पुनीत संतन की धूरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलबिख = पाप। पुनीत = पवित्र। धूरि = चरण धूल।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस अति भाग्यशाली मनुष्यों को) संत जनों की चरण धूल (मिल गई वह) पवित्र जीवन वाले हो गए, (उनके सारे) दुख-कष्ट दूर हो गए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ के संत उधारन जोग ॥ तिसु भेटे जिसु धुरि संजोग ॥२॥
मूलम्
प्रभ के संत उधारन जोग ॥ तिसु भेटे जिसु धुरि संजोग ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधारन जोग = बचाने की ताकत रखने वाला। तिसु = उस मनुष्य को। धुरि = प्रभु की हजूरी से।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की भक्ति करने वाले संत-जन और लोगों को भी विकारों से बचाने की स्मर्था रखते हैं, पर संत-जन मिलते सिर्फ उस मनुष्य को ही हैं जिसके भाग्यों में धुर-दरगाह से मिलाप के लेख लिखे होते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि आनंदु मंत्रु गुरि दीआ ॥ त्रिसन बुझी मनु निहचलु थीआ ॥३॥
मूलम्
मनि आनंदु मंत्रु गुरि दीआ ॥ त्रिसन बुझी मनु निहचलु थीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = मन में। गुरि = गुरु ने। त्रिसन = तृष्णा। निहचलु = अडोल।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) गुरु ने उपदेश दे दिया उसके मन में (सदा) आनंद बना रहता है, (उसके अंदर से माया की) तृष्णा (की आग) बुझ जाती है, उसका मन (माया के हमलों के मुकाबले में) डोलने से हट जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु पदारथु नउ निधि सिधि ॥ नानक गुर ते पाई बुधि ॥४॥१४॥६५॥
मूलम्
नामु पदारथु नउ निधि सिधि ॥ नानक गुर ते पाई बुधि ॥४॥१४॥६५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउ निधि = जगत के सारे ही नौ खजाने। सिधि = मानसिक ताकतें, करामाती ताकतें। बुधि = अक्ल, बुद्धि, सूझ। ते = से।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु से (सही आत्मिक जीवन की) सूझ प्राप्त कर ली उसे सबसे कीमती पदार्थ परमात्मा का नाम मिल जाता है। उसे, मानो, दुनिया के सारे नौ खजाने मिल जाते हैं उसे करामाती ताकतें प्राप्त हो जाती हैं (भाव, उसे दुनिया के धन-पदार्थ और रिद्धियों-सिद्धियों की लालसा नहीं रह जाती)।4।14।65।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ मिटी तिआस अगिआन अंधेरे ॥ साध सेवा अघ कटे घनेरे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ मिटी तिआस अगिआन अंधेरे ॥ साध सेवा अघ कटे घनेरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआस = प्यास, तृष्णा। अगिआन = अज्ञानता, ज्ञान का ना होना, परमात्मा से गहरी जान पहचान का ना होना। साध = गुरु। अघ = पाप। घनेरे = बहुत।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य हरि नाम सुनते हैं उनके अंदर से पहले) अज्ञानता के अंधेरे के कारण पैदा हुई माया की तृष्णा मिट जाती है, गुरु की (बताई) सेवा के कारण उनके अनेक ही पाप कट जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूख सहज आनंदु घना ॥ गुर सेवा ते भए मन निरमल हरि हरि हरि हरि नामु सुना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सूख सहज आनंदु घना ॥ गुर सेवा ते भए मन निरमल हरि हरि हरि हरि नामु सुना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घना = बहुत। निरमल = पवित्र।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) सदा परमात्मा का नाम सुनते रहते हैं (महिमा करते सुनते रहते हैं) गुरु द्वारा बताई (इस) सेवा की इनायत से उनके मन पवित्र हो जाते हैं, उन्हें बड़ा सुख आनंद प्राप्त होता है (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता बनी रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनसिओ मन का मूरखु ढीठा ॥ प्रभ का भाणा लागा मीठा ॥२॥
मूलम्
बिनसिओ मन का मूरखु ढीठा ॥ प्रभ का भाणा लागा मीठा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरखु = मूर्खपन। ढीठा = ढीठपन, ढीठता। भाणा = रजा।2।
अर्थ: (हे भाई! हरि नाम सुनने वालों के) मन की मूर्खता और ढीठता नाश हो जाती है, उन्हें परमात्मा की रजा प्यारी लगने लग पड़ती है (फिर वे उस रजा के आगे अड़ते नहीं, जैसे पहले मूर्खता के कारण अड़ते थे)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूरे के चरण गहे ॥ कोटि जनम के पाप लहे ॥३॥
मूलम्
गुर पूरे के चरण गहे ॥ कोटि जनम के पाप लहे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहे = पकड़े। कोटि = करोड़ों।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस लोगों ने पूरे गुरु के चरण पकड़ लिए हैं उनके (पिछले) करोड़ों जन्मों के किए पाप उतर जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतन जनमु इहु सफल भइआ ॥ कहु नानक प्रभ करी मइआ ॥४॥१५॥६६॥
मूलम्
रतन जनमु इहु सफल भइआ ॥ कहु नानक प्रभ करी मइआ ॥४॥१५॥६६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल = कामयाब। मइआ = दया।4।
अर्थ: (हे नानक!) कह: (जिस मनुष्यों पर) परमात्मा ने (अपने नाम के दाति की) मेहर की उनका ये कीमती मानव जनम कामयाब हो जाता है।4।15।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सतिगुरु अपना सद सदा सम्हारे ॥ गुर के चरन केस संगि झारे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सतिगुरु अपना सद सदा सम्हारे ॥ गुर के चरन केस संगि झारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सद सदा = सदा सदा, सदा ही। समारे = संभाल, हृदय में संभाल के रख। झारे = झाड़ना।1।
अर्थ: हे मन! अपने सतिगुरु को सदा ही (अपने अंदर) संभाल के रख। (हे भाई!) गुरु के चरणों को अपने केसों से झाड़ा कर (गुरु-दर पर विनम्रता से पड़ा रह)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागु रे मन जागनहारे ॥ बिनु हरि अवरु न आवसि कामा झूठा मोहु मिथिआ पसारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जागु रे मन जागनहारे ॥ बिनु हरि अवरु न आवसि कामा झूठा मोहु मिथिआ पसारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे! जागनहारे = हे जागने योग्य! आवसि = आएगा। कामा = काम। मिथिआ = नाशवान।1। रहाउ।
अर्थ: हे जागने योग्य मन! (माया के मोह की नींद में से) सुचेत हो। परमात्मा के नाम के बिना और कोई (पदार्थ) तेरे काम नहीं आएगा। (परिवार का) मोह और (माया का) पसारा ये कोई भी साथ निभाने वाले नहीं हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की बाणी सिउ रंगु लाइ ॥ गुरु किरपालु होइ दुखु जाइ ॥२॥
मूलम्
गुर की बाणी सिउ रंगु लाइ ॥ गुरु किरपालु होइ दुखु जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। रंगु = प्यार। लाइ = जोड़।2।
अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु की वाणी से प्यार जोड़। जिस मनुष्य पर गुरु दयावान होता है उसका हरेक दुख दूर हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बिनु दूजा नाही थाउ ॥ गुरु दाता गुरु देवै नाउ ॥३॥
मूलम्
गुर बिनु दूजा नाही थाउ ॥ गुरु दाता गुरु देवै नाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थाउ = आसरा, सहारा। देवै = देता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के बिना और कोई जगह नहीं (जहाँ माया के मोह की नींद में सोए मन को जगाया जा सके)। गुरु (परमात्मा का) नाम बख्शता है, गुरु नाम की दाति देने के समर्थ है (नाम की दाति दे के सोए हुए मन को जगा देता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु पारब्रहमु परमेसरु आपि ॥ आठ पहर नानक गुर जापि ॥४॥१६॥६७॥
मूलम्
गुरु पारब्रहमु परमेसरु आपि ॥ आठ पहर नानक गुर जापि ॥४॥१६॥६७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर जापि = गुरु का जाप जप, गुरु को याद रख।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) आठों पहर (हर वक्त) गुरु को याद रख, गुरु पारब्रहम (का रूप) है गुरु परमेश्वर (का रूप) है।4।16।67।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ आपे पेडु बिसथारी साख ॥ अपनी खेती आपे राख ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ आपे पेडु बिसथारी साख ॥ अपनी खेती आपे राख ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेडु = पेड़, बड़ा तना जो वृक्ष के सारे फैलाव का सहारा होता है। बिसथारी = बिखरी हुई हैं। साख = शाखा, टहनियां, सारा जगत पसारा। राख = रक्षक।1।
अर्थ: (हे भाई! ये जगत, मानो, एक बड़े फैलाव वाला वृक्ष है) परमात्मा खुद ही (इस जगत-वृक्ष को सहारा देने वाला) बड़ा तना है (जगत-पसारा उस वृक्ष की) शाखाओं का फैलाव फैला हुआ है। (हे भाई! ये जगत) परमात्मा की (बीजी हुई) फसल है, स्वयं ही वह इस फसल का रखवाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जत कत पेखउ एकै ओही ॥ घट घट अंतरि आपे सोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जत कत पेखउ एकै ओही ॥ घट घट अंतरि आपे सोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जत कत = जिधर किधर। पेखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। ओही = वह (परमातमा) ही। रहाउ।
गुपतु = छुपा हुआ, अदृष्ट। आकारु = दिखाई देता जगत।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं जिधर-किधर देखता हूँ मुझे एक परमात्मा ही दिखता है, वह परमात्मा स्वयं ही हरेक शरीर में बस रहा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे सूरु किरणि बिसथारु ॥ सोई गुपतु सोई आकारु ॥२॥
मूलम्
आपे सूरु किरणि बिसथारु ॥ सोई गुपतु सोई आकारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरगुण = माया के तीनों गुणों वाला पसारा। निरगुण = माया के तीनों गुणों से निर्लिप। थापै = बनाता है। नाउ = नाम। मिलि = मिल के। एकै ठाउ = एक ही जगह।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही सूर्य है (और ये जगत, मानो, उसकी) किरणों का बिखराव है, वह स्वयं ही अदृश्य (रूप में) है और स्वयं ही ये दिखाई देता पसारा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरगुण निरगुण थापै नाउ ॥ दुह मिलि एकै कीनो ठाउ ॥३॥
मूलम्
सरगुण निरगुण थापै नाउ ॥ दुह मिलि एकै कीनो ठाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! अपने अदृश्य और दृष्टमान रूपों का) निर्गुण और सर्गुण नाम वह प्रभु स्वयं ही स्थापित करता है (दोनों में फर्क नाम-मात्र को ही है, कहने को ही है), इन दोनों (रूपों) ने मिल के एक परमात्मा में ही ठिकाना बनाया हुआ है (इन दोनों का ठिकाना परमात्मा स्वयं ही है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुरि भ्रमु भउ खोइआ ॥ अनद रूपु सभु नैन अलोइआ ॥४॥१७॥६८॥
मूलम्
कहु नानक गुरि भ्रमु भउ खोइआ ॥ अनद रूपु सभु नैन अलोइआ ॥४॥१७॥६८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। भ्रमु = भटकना। अनद रूपु = वह परमातमा सदा ही आनंद में रहता है। नैन = आखों के साथ। अलोइआ = देख लिया।4।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने (जिस मनुष्य के अंदर से माया वाली) भटकना और डर दूर कर दी उसने हर जगह उस परमात्मा को ही अपनी आँखों से देख लिया जो सदा ही आनंद में रहता है।4।17।68।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ उकति सिआनप किछू न जाना ॥ दिनु रैणि तेरा नामु वखाना ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ उकति सिआनप किछू न जाना ॥ दिनु रैणि तेरा नामु वखाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उकति = युक्ति, दलील। किछू = कुछ भी। रैणी = रात। वखाना = मैं उचारता हूँ।1।
अर्थ: हे प्रभु! मैं कोई दलील (देनी) नहीं जानता, मैं कोई समझदारी (की बात करनी) नहीं जानता (जिससे मैं तुझे खुश कर सकूँ, पर तेरी ही मेहर से) मैं दिन-रात तेरा (ही) नाम उचारता हूँ।1।
[[0388]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै निरगुन गुणु नाही कोइ ॥ करन करावनहार प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मै निरगुन गुणु नाही कोइ ॥ करन करावनहार प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुन = गुण हीन। करनहार = (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) करने की ताकत रखने वाला। करावनहार = (सब जीवों को प्रेरित करके उनसे) करवाने की सामर्थ्य वाला। प्रभ = हे प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मैं गुणहीन हूँ, मेरे में कोई गुण नहीं (जिसके आसरे मैं तुझे प्रसन्न करने की आस कर सकूँ, पर) हे प्रभु! वह तू ही है जो (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सब कुछ करने की ताकत रखता है और (सब जीवों को प्रेरित करके उनसे) करवाने की सामर्थ्य वाला है (मुझे भी खुद ही अपने चरणों में जोड़े रख)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूरख मुगध अगिआन अवीचारी ॥ नाम तेरे की आस मनि धारी ॥२॥
मूलम्
मूरख मुगध अगिआन अवीचारी ॥ नाम तेरे की आस मनि धारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुगध = बेवकूफ़। अगिआन = ज्ञानहीन। अवीचारी = बेसमझ, विचार की बात ना कर सकने वाला। मनि = मन में।2।
अर्थ: हे प्रभु! मैं मूर्ख हूँ, मैं मति हीन हूँ, मैं ज्ञानहीन हूँ, मैं बेसमझ हूँ (पर तू अपने बिरद की लज्जा रखने वाला है), मैंने तेरे (बिरद-पाल) नाम की आस मन में रखी हुई है (कि तू शरण आए की लज्जा रखेगा)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपु तपु संजमु करम न साधा ॥ नामु प्रभू का मनहि अराधा ॥३॥
मूलम्
जपु तपु संजमु करम न साधा ॥ नामु प्रभू का मनहि अराधा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधा = अभ्यास किया। मनहि = मन में। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का प्रयत्न।3।
अर्थ: हे भाई! मैंने कोई जप नहीं किया, मैंने कोई तप नहीं किया, मैंने कोई संजम नहीं साधा (मुझे किसी जप तपसंजम का सहारा नहीं, का गुमान नहीं) मैं तो परमातमा का नाम ही अपने मन में याद करता रहता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किछू न जाना मति मेरी थोरी ॥ बिनवति नानक ओट प्रभ तोरी ॥४॥१८॥६९॥
मूलम्
किछू न जाना मति मेरी थोरी ॥ बिनवति नानक ओट प्रभ तोरी ॥४॥१८॥६९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थोरी = थोड़ी। बिनवति = विनती करता है। तोरी = तेरी।4।
अर्थ: नानक बिनती करता है: हे प्रभु! (कोई उक्ति, कोई समझदारी, कोई जप, कोई तप, कोई संजम) कुछ भी करना नहीं जानता, मेरी अक्ल बहुत थोड़ी सी है, मैंने सिर्फ तेरा ही आसरा लिया है।4।18।69।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ हरि हरि अखर दुइ इह माला ॥ जपत जपत भए दीन दइआला ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ हरि हरि अखर दुइ इह माला ॥ जपत जपत भए दीन दइआला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखर दुइ = दोनों अक्षर (हरि हरि)। जपत = जपते हुए। दीन = दीनों पर, कंगालों पे।1।
अर्थ: (हे भाई! मेरे पास तो) ‘हरि हरि’ - इन दो शब्दों की माला है, इस हरि-नाम-माला को जपते-जपते कंगालों पर भी परमात्मा दयावान हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउ बेनती सतिगुर अपुनी ॥ करि किरपा राखहु सरणाई मो कउ देहु हरे हरि जपनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करउ बेनती सतिगुर अपुनी ॥ करि किरपा राखहु सरणाई मो कउ देहु हरे हरि जपनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = करूँ, मैं करता हूँ। सतिगुर = हे सतिगुरु! मो कउ = मुझे। जपनी = माला।1। रहाउ।
अर्थ: हे सतिगुरु! मैं तेरे आगे अपनी ये अर्ज करता हूँ कि कृपा करके मुझे अपनी शरण में रख और मुझे ‘हरि हरि’ नाम की माला दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि माला उर अंतरि धारै ॥ जनम मरण का दूखु निवारै ॥२॥
मूलम्
हरि माला उर अंतरि धारै ॥ जनम मरण का दूखु निवारै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उर = हृदय। अंतरि = अंदर। धारै = टिकाए रखता है। निवारै = दूर कर लेता है।2।
अर्थ: जो मनुष्य हरि-नाम की माला अपने हृदय में टिका के रखता है, वह अपने जनम-मरण के चक्कर का दुख दूर कर लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै समालै मुखि हरि हरि बोलै ॥ सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥३॥
मूलम्
हिरदै समालै मुखि हरि हरि बोलै ॥ सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाले = संभाल के रखता है। मुखि = मुंह से। इत उत = लोक परलोक में। कतहि = कहीं भी।3।
अर्थ: जो मनुष्य हरि नाम को अपने हृदय में संभाल के रखता है और मुंह से हरि हरि नाम उचारता रहता है वह ना इस लोक में ना ही परलोक में कही भी (किसी बात पर भी) नहीं डोलता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जो राचै नाइ ॥ हरि माला ता कै संगि जाइ ॥४॥१९॥७०॥
मूलम्
कहु नानक जो राचै नाइ ॥ हरि माला ता कै संगि जाइ ॥४॥१९॥७०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइ = नाम में। संगि = साथ।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है, हरि-नाम की माला उस के साथ (परलोक में भी) जाती है।4।19।70।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जिस का सभु किछु तिस का होइ ॥ तिसु जन लेपु न बिआपै कोइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जिस का सभु किछु तिस का होइ ॥ तिसु जन लेपु न बिआपै कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस का = जिस (परमात्मा) का। लेपु = माया का प्रभाव। बिआपै = जोर डाल सकता।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का’ में से शब्द ‘जिसु’ की मात्रा ‘ु’ संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) उस परमात्मा का (सेवक) बना रहता है जिसका ये सारा जगत रचा हुआ है उस मनुष्य पर माया का किसी तरह का भी प्रभाव नहीं पड़ सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का सेवकु सद ही मुकता ॥ जो किछु करै सोई भल जन कै अति निरमल दास की जुगता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि का सेवकु सद ही मुकता ॥ जो किछु करै सोई भल जन कै अति निरमल दास की जुगता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकता = माया के बंधनों से आजाद। भल = भला। जन कै = सेवक के हृदय में। जुगता = जीवन की जुगति, जिंदगी गुजारने का तरीका।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का भक्त सदा ही (माया के मोह के बंधनों से) आजाद रहता है, परमात्मा जो कुछ करता है सेवक को वह सदा भलाई ही भलाई प्रतीत होती है, सेवक की जीवन-शैली बहुत ही पवित्र होती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल तिआगि हरि सरणी आइआ ॥ तिसु जन कहा बिआपै माइआ ॥२॥
मूलम्
सगल तिआगि हरि सरणी आइआ ॥ तिसु जन कहा बिआपै माइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = कहां? बिल्कुल नहीं।2।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य और) सारे (आसरे) छोड़ के परमात्मा की शरण आ पड़ता है, माया उस मनुष्य पर कभी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु निधानु जा के मन माहि ॥ तिस कउ चिंता सुपनै नाहि ॥३॥
मूलम्
नामु निधानु जा के मन माहि ॥ तिस कउ चिंता सुपनै नाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। महि = में। सुपनै = सुपने में भी, कभी भी।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम-खजाना टिका रहता है उसे कभी भी कोई चिन्ता छू नहीं सकती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ भरमु मोहु सगल बिनसाइआ ॥४॥२०॥७१॥
मूलम्
कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ भरमु मोहु सगल बिनसाइआ ॥४॥२०॥७१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! भरमु = माया की भटकना। सगल = सारा।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य पूरा गुरु ढूँढ लेता है उसके अंदर से (माया की खातिर) भटकना दूर हो जाती है (उसके मन में से माया का) सारा मोह दूर हो जाता है।4।20।71।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जउ सुप्रसंन होइओ प्रभु मेरा ॥ तां दूखु भरमु कहु कैसे नेरा ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जउ सुप्रसंन होइओ प्रभु मेरा ॥ तां दूखु भरमु कहु कैसे नेरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब। सुप्रसंन = बहुत खुश। तां = तब। कहु = बताओ। कैसे = कैसे? नेरा = नजदीक।1।
अर्थ: (हे भाई!) जब मेरा प्रभु (किसी मनुष्य पर) बहुत प्रसन्न होता है तब बताओ, कोई दुख-भ्रम उस मनुष्य के नजदीक कैसे आ सकता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि सुनि जीवा सोइ तुम्हारी ॥ मोहि निरगुन कउ लेहु उधारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनि सुनि जीवा सोइ तुम्हारी ॥ मोहि निरगुन कउ लेहु उधारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनि = सुन के। जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ। सोइ = खबर,शोभा। मोहि = मुझे। कउ = को।1। रहाउ।
अर्थ: (हे मेरे प्रभु!) तेरी शोभा (महिमा) सुन-सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (हे मेरे प्रभु! मेहर कर) मुझ गुण-हीन को (दुखों-भ्रमों से) बचाए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिटि गइआ दूखु बिसारी चिंता ॥ फलु पाइआ जपि सतिगुर मंता ॥२॥
मूलम्
मिटि गइआ दूखु बिसारी चिंता ॥ फलु पाइआ जपि सतिगुर मंता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जप के। मंता = उपदेश, शब्द।2।
अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु की वाणी जपके मैंने ये फल प्राप्त कर लिया है कि (मेरे) अंदर से हरेक किस्म का दुख दूर हो गया है, मैंने (हरेक किस्म की) चिन्ता भुला दी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई सति सति है सोइ ॥ सिमरि सिमरि रखु कंठि परोइ ॥३॥
मूलम्
सोई सति सति है सोइ ॥ सिमरि सिमरि रखु कंठि परोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा) ही। सति = सदा कायम रहने वाला। कंठि = गले में। परोइ = परो के।3।
अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है वह परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, उसे सदा स्मरण करता रह, उस (के नाम) को अपने गले में परो के रख (जैसे फूलों का हार गले में डालते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक कउन उह करमा ॥ जा कै मनि वसिआ हरि नामा ॥४॥२१॥७२॥
मूलम्
कहु नानक कउन उह करमा ॥ जा कै मनि वसिआ हरि नामा ॥४॥२१॥७२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमा = (मिथा हुआ धार्मिक) काम। जा कै मनि = जिस मनुष्य के मन में।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसे, और वह कौन सा (निहित धार्मिक) कर्म (रह जाता है जो उसे करना चाहिए?)।4।21।72।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विगूते ॥ हरि सिमरनु करि हरि जन छूटे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विगूते ॥ हरि सिमरनु करि हरि जन छूटे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। अहंकारि = अहंकार में। विगूते = दुखी होते हैं। छूटे = बच जाते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई! माया-ग्रसित जीव) काम में, क्रोध में, अहंकार में (फंस के) दुखी होते रहते हैं। परमातमा के सेवक परमात्मा के नाम का स्मरण करके (काम-क्रोध-अहंकार आदि से) बचे रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोइ रहे माइआ मद माते ॥ जागत भगत सिमरत हरि राते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सोइ रहे माइआ मद माते ॥ जागत भगत सिमरत हरि राते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माते = मस्त हुए। मद = नशा। राते = रंगे हुए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! माया में ग्रसित जीव) माया के नशे में मस्त हो के (आत्मिक जीवन के पक्ष से) सोए रहते हैं (बेपरवाह टिके रहते हैं)। पर परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य प्रभु नाम का स्मरण करते हुए (हरि-नाम-रंग में) रंग के (माया के हमलों की तरफ़ से) सचेत रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह भरमि बहु जोनि भवाइआ ॥ असथिरु भगत हरि चरण धिआइआ ॥२॥
मूलम्
मोह भरमि बहु जोनि भवाइआ ॥ असथिरु भगत हरि चरण धिआइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। असथिरु = टिका हुआ, जनम मरण के चक्कर से बचा हुआ।2।
अर्थ: (हे भाई! माया के) मोह की भटकना में पड़ के मनुष्य अनेक जूनियों में भटकते रहते हैं पर भक्त जन परमात्मा के चरणों का ध्यान धरते हैं वह (जनम-मरण के चक्कर से) अडोल रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंधन अंध कूप ग्रिह मेरा ॥ मुकते संत बुझहि हरि नेरा ॥३॥
मूलम्
बंधन अंध कूप ग्रिह मेरा ॥ मुकते संत बुझहि हरि नेरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध कूप = अंधा कूआँ। मुकते = स्वतंत्र, आजाद। नेरा = नजदीक।3।
अर्थ: (हे भाई!) ये घर मेरा है, ये घर मेरा है; इस मोह के अंधे कूएं के बंधनों से वे संत-जन आजाद रहते हैं जो परमात्मा को (हर वक्त) अपने नजदीक बसता समझते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जो प्रभ सरणाई ॥ ईहा सुखु आगै गति पाई ॥४॥२२॥७३॥
मूलम्
कहु नानक जो प्रभ सरणाई ॥ ईहा सुखु आगै गति पाई ॥४॥२२॥७३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! ईहा = इस लोक में। गति = उच्च आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ा रहता है वह इस लोक में आत्मिक आनंद भोगता है, परलोक में भी वह उच्च आत्मिक अवस्था हासिल किए रहता है।4।22।73।
[[0389]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ तू मेरा तरंगु हम मीन तुमारे ॥ तू मेरा ठाकुरु हम तेरै दुआरे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ तू मेरा तरंगु हम मीन तुमारे ॥ तू मेरा ठाकुरु हम तेरै दुआरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरंगु = पानी की लहर, पानी, दरिया। मीन = मछली। ठाकुरु = मालिक। तेरै दुआरे = तेरे दर पे।1।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! तू मेरा दरिया है, मैं तेरी मछली हूँ (मछली की तरह मैं जब तक तेरे में टिका रहता हूँ तब तक मुझे आत्मिक जीवन मिला रहता है)। हे प्रभु! तू मेरा मालिक है, मैं तेरे दर पे आ गिरा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं मेरा करता हउ सेवकु तेरा ॥ सरणि गही प्रभ गुनी गहेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तूं मेरा करता हउ सेवकु तेरा ॥ सरणि गही प्रभ गुनी गहेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = पैदा करने वाला। हउ = मैं। गही = पकड़ी। प्रभू = हे प्रभु! गुनी गहेरा = गुणों का गहरा समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू मेरा पैदा करने वाला है, मैं तेरा दास हूँ। हे सारे गुणों के गहरे समुंदर प्रभु! मैंने तेरी शरण पकड़ी है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू मेरा जीवनु तू आधारु ॥ तुझहि पेखि बिगसै कउलारु ॥२॥
मूलम्
तू मेरा जीवनु तू आधारु ॥ तुझहि पेखि बिगसै कउलारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आधारु = आसरा। पेखि = देख के। कउलारु = कमल फूल। बिगसै = खिलता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरी जिंदगी (का मूल) है तू ही मेरा आसरा है, तुझे देख के (मेरा हृदय ऐसे) खिलता है (जैसे) कमल फूल (सूरज को देख के खिलता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू मेरी गति पति तू परवानु ॥ तू समरथु मै तेरा ताणु ॥३॥
मूलम्
तू मेरी गति पति तू परवानु ॥ तू समरथु मै तेरा ताणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। परवानु = स्वीकार। समरथु = ताकतों का मालिक।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था और (लोक-परलोक की) इज्जत (का रखवाला) है, (जो कुछ) तू (करता है वह) मैं खुशी से मानता हूँ। तू हरेक ताकत का मालिक है, मुझे तेरा ही सहारा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु जपउ नाम गुणतासि ॥ नानक की प्रभ पहि अरदासि ॥४॥२३॥७४॥
मूलम्
अनदिनु जपउ नाम गुणतासि ॥ नानक की प्रभ पहि अरदासि ॥४॥२३॥७४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। जपउ = मैं जपूँ, जपूँ। गुणतासि = हे गुणों के खजाने! पहि = पास।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे गुणों के खजाने! नानक की तेरे पास ये विनती है (-मेहर कर) मैं सदा हर समय तेरा ही नाम जपता रहूँ।4।23।74।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ रोवनहारै झूठु कमाना ॥ हसि हसि सोगु करत बेगाना ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ रोवनहारै झूठु कमाना ॥ हसि हसि सोगु करत बेगाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रोवनहारै = रोने वाले ने। झूठु कमाना = झूठ मूठ ही रोने का काम किया है, झूठा रोता है, अपने स्वार्थ की खातिर रोता है। हसि = हस के। सोगु = (किसी की मौत पर) अफसोस। बेगाना = पराया।1।
अर्थ: (हे भाई! जहाँ कोई मरता है तो उसे कोई संबंधी रोता है वह) रोने वाला भी (अपने दुखों को रोता है और इस तरह) झूठा रोना ही रोता है। अगर कोई बेगाना मनुष्य (उसके मरने पे अफ़सोस करने आता है वह) हँस-हँस के अफ़सोस करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
को मूआ का कै घरि गावनु ॥ को रोवै को हसि हसि पावनु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
को मूआ का कै घरि गावनु ॥ को रोवै को हसि हसि पावनु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। मूआ = मरा, मरता है। का कै घरि = किसी का घर में। गावनु = गाना, खुशी आदि के कारण गाना। हसि हसि पावनु = हस हस के पड़ता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जगत में सुख-दुख का चक्कर चलता ही रहता है, जहाँ कोई मरता है (वहाँ रोना-धोना हो रहा है), और किसी के घर में (किसी खुशी आदि के कारण) गाना-बजाना हो रहा है। कोई रोता है कोई हँस-हँस के पड़ता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाल बिवसथा ते बिरधाना ॥ पहुचि न मूका फिरि पछुताना ॥२॥
मूलम्
बाल बिवसथा ते बिरधाना ॥ पहुचि न मूका फिरि पछुताना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से (शुरू करके)। पहुचि न मूका = अभी पहुँचा भी नहीं, अभी मुश्किल से पहुँचा ही है।2।
अर्थ: बाल उम्र से ले के बुढे होने तक (मनुष्य आगे-आगे वाली उम्र में सुख की आस धारता है, पर अगली अवस्था पर) मुश्किल से पहुँचता ही है (कि वहाँ भी दुख देख के सुख की आस त्याग देता है, और) फिर पछताता है (कि ऐसे ही आशाएं बनाता रहा)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिहु गुण महि वरतै संसारा ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अउतारा ॥३॥
मूलम्
त्रिहु गुण महि वरतै संसारा ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अउतारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतै = दौड़ भाग कर रहा है। फिरि फिरि = बार बार। अउतारा = जनम।3।
अर्थ: (हे भाई!) जगत माया के तीन गुणों के प्रभाव में ही दौड़-भाग कर रहा है और बार-बार (कभी) नर्कों (दुखों) में (कभी) स्वर्गों (सुखों) में पड़ता है (कभी सुख पाता है कभी दुख भोगता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जो लाइआ नाम ॥ सफल जनमु ता का परवान ॥४॥२४॥७५॥
मूलम्
कहु नानक जो लाइआ नाम ॥ सफल जनमु ता का परवान ॥४॥२४॥७५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जिस मनुष्य को। सफल = कामयाब। परवान = स्वीकार।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम में जोड़ता है उसका मानव जनम कामयाब हो जाता है, (वह परमात्मा की नजरों में) स्वीकार हो जाता है।4।24।75।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सोइ रही प्रभ खबरि न जानी ॥ भोरु भइआ बहुरि पछुतानी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सोइ रही प्रभ खबरि न जानी ॥ भोरु भइआ बहुरि पछुतानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोइ रही = (उम्र की सारी रात) सोई रही, सारी उम्र आत्मिक जीवन की ओर से बेपरवाही टिकी रही। भोरु = दिन, उम्र रात का अंत, मौत का समय। बहुरि = दुबारा, फिर, तब।1।
अर्थ: हे सखी! (जो जीव-स्त्री माया के मोह की नींद में) सोई रहती है (आत्मिक जीवन की ओर से बेपरवाह टिकी रहती है) वह प्रभु (के मिलाप) की किसी शिक्षा को नहीं समझती। पर जब दिन चढ़ आता है (जिंदगी की रात समाप्त हो के मौत का समय आ जाता है) तबवह पछताती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रिअ प्रेम सहजि मनि अनदु धरउ री ॥ प्रभ मिलबे की लालसा ता ते आलसु कहा करउ री ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रिअ प्रेम सहजि मनि अनदु धरउ री ॥ प्रभ मिलबे की लालसा ता ते आलसु कहा करउ री ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। प्रिअ प्रेम = प्यारे के प्रेम (की इनायत से)। मनि = मन में। अनदु = आनंद। धरउ = धरूँ, मैं टिकाए रखती हूँ। री = हे सखी! मिलबे की = मिलने की। लालसा = तमन्ना। ता ते = इस करके। कहा करउ = मैं कहाँ कर सकती हूँ?।1। रहाउ।
अर्थ: हे सखी! प्यारे (प्रभु) के प्रेम की इनायत से आत्मिक अडोलता में टिक के मैं अपने मन में (उसके दर्शनों की चाहत का) आनंद टिकाए रखती हूँ। हे सखी! (मेरे अंदर हर वक्त) प्रभु के मिलाप की तमन्ना बनी रहती है, इस वास्ते (उसे याद रखने में) मैं कभी भी आलस नहीं कर सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर महि अम्रितु आणि निसारिओ ॥ खिसरि गइओ भूम परि डारिओ ॥२॥
मूलम्
कर महि अम्रितु आणि निसारिओ ॥ खिसरि गइओ भूम परि डारिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर महि = हाथों में। आणि = ला के। निसारिओ = डाल दिया, बहा दिया। खिसरि गइओ = डुल गया। भूमि परि = धरती पर, मिट्टी में।2।
अर्थ: हे सखी! (मानव जनम दे के परमात्मा ने) हमारे हाथों में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल ला के डाला था (हमें नाम-अंमृत पीने का मौका दिया था। पर, जो जीव-स्त्री सारी उम्र मोह की नींद में सोई रहती है, उसके हाथों में से वह अमृत) बह जाता है और मिट्टी में जा मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सादि मोहि लादी अहंकारे ॥ दोसु नाही प्रभ करणैहारे ॥३॥
मूलम्
सादि मोहि लादी अहंकारे ॥ दोसु नाही प्रभ करणैहारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सादि = स्वाद में। मोहि = मोह में, मोह के भार तले। लादी = लदी रही, दबी रही। अहंकारे = अहंकार तले, अहंकार के भार के नीचे।3।
अर्थ: हे सखी! (जीव-स्त्री के इस दुर्भाग्य के बारे में) विधाता प्रभु को कोई दोष नहीं दिया जा सकता, (जीव-स्त्री स्वयं ही) पदार्थों के स्वाद में, माया के मोह में, अहंकार में दबी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि मिटे भरम अंधारे ॥ नानक मेली सिरजणहारे ॥४॥२५॥७६॥
मूलम्
साधसंगि मिटे भरम अंधारे ॥ नानक मेली सिरजणहारे ॥४॥२५॥७६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। अंधारे = अंधेरे। सिरजनहारे = विधाता ने।4।
अर्थ: हे नानक! साधु-संगत में आ के (जिस जीव-स्त्री के अंदर से) माया की भटकना के अंधेरे मिट जाते हैं, विधाता प्रभु (उसे अपने चरणों में) जोड़ लेता है।4।25।76।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ चरन कमल की आस पिआरे ॥ जमकंकर नसि गए विचारे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ चरन कमल की आस पिआरे ॥ जमकंकर नसि गए विचारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। पिआरे = हे प्यारे! क्ंकर = किंकर, सेवक। जम कंकर = जम दूत। विचारे = निमाणे, बेवस से, अपना जोर ना पड़ता देख के।1।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! जिस मनुष्य के हृदय में तेरे सुंदर चरणों से जुड़ने की आस पैदा हो जाती है, जम-दूत भी उस पर अपना जोर ना पड़ता देख के उससे दूर भाग जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू चिति आवहि तेरी मइआ ॥ सिमरत नाम सगल रोग खइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तू चिति आवहि तेरी मइआ ॥ सिमरत नाम सगल रोग खइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिति = चित्त में। मइआ = दया। सगल रोग = सारे रोग। खइआ = खय (क्षय) हो जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य पे तेरी मेहर होती है उसके चित्त में तू आ बसता है, तेरा नाम स्मरण करने से उसके सारे रोग नाश हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक दूख देवहि अवरा कउ ॥ पहुचि न साकहि जन तेरे कउ ॥२॥
मूलम्
अनिक दूख देवहि अवरा कउ ॥ पहुचि न साकहि जन तेरे कउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरा कउ = और लोगों को।2।
अर्थ: हे प्रभु! और लोगों को तो (ये जम-दूत) अनेक किस्म के दुख देते हैं, पर सेवक कें ये नजदीक भी नहीं फटक सकते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरस तेरे की पिआस मनि लागी ॥ सहज अनंद बसै बैरागी ॥३॥
मूलम्
दरस तेरे की पिआस मनि लागी ॥ सहज अनंद बसै बैरागी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। सहज = आत्मिक अडोलता। बैरागी = वैरागणि हो के, माया के मोह से उपराम हो के।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के मन में तेरे दर्शन की तमन्ना पैदा होती है वह माया की ओर से वैरागवान हो के आत्मिक अडोलता के आनंद में टिका रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक की अरदासि सुणीजै ॥ केवल नामु रिदे महि दीजै ॥४॥२६॥७७॥
मूलम्
नानक की अरदासि सुणीजै ॥ केवल नामु रिदे महि दीजै ॥४॥२६॥७७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदे महि = हृदय में। दीजै = दे।4।
अर्थ: हे प्रभु! (अपने सेवक) नानक की भी आरजू सुन, (नानक को अपना) सिर्फ नाम हृदय में (बसाने के लिए) दे।4।26।77।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ मनु त्रिपतानो मिटे जंजाल ॥ प्रभु अपुना होइआ किरपाल ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ मनु त्रिपतानो मिटे जंजाल ॥ प्रभु अपुना होइआ किरपाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपतानो = तृप्त हो गया। जंजाल = माया के मोह के बंधन। किरपाल = कृपालु, दयावान।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर) प्यारा प्रभु दयावान हो जाता है उसका मन माया की तृष्णा की ओर से तृप्त हो जाता है उसके माया के मोह के सारे बंधन टूट जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि भली बनी ॥ जा कै ग्रिहि सभु किछु है पूरनु सो भेटिआ निरभै धनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संत प्रसादि भली बनी ॥ जा कै ग्रिहि सभु किछु है पूरनु सो भेटिआ निरभै धनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। पूरन = पूर्ण। भेटिआ = मिला। धनी = मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से मेरे भाग्य जाग पड़े हैं मुझे वह मालिक मिल गया है जिसे किसी से कोई डर नहीं और जिसके घर में हरेक चीज ना समाप्त होने वाली है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु द्रिड़ाइआ साध क्रिपाल ॥ मिटि गई भूख महा बिकराल ॥२॥
मूलम्
नामु द्रिड़ाइआ साध क्रिपाल ॥ मिटि गई भूख महा बिकराल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरु। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। बिकराल = डरावनी, भयानक।2।
अर्थ: (हे भाई!) दया-स्वरूप गुरु ने (जिस मनुष्य के हृदय में) नाम पक्का कर दिया (उसके अंदर से) बड़ी डरावनी (माया की) भूख दूर हो गई।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठाकुरि अपुनै कीनी दाति ॥ जलनि बुझी मनि होई सांति ॥३॥
मूलम्
ठाकुरि अपुनै कीनी दाति ॥ जलनि बुझी मनि होई सांति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुरि = ठाकुर ने। जलनि = जलन। मनि = मन में।3।
अर्थ: (हे भाई!) ठाकुर प्रभु ने जिसको अपने नाम की दाति बख्शी (उसके मन में से तृष्णा की) जलन बुझ गई उसके मन में ठंड पड़ गई।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिटि गई भाल मनु सहजि समाना ॥ नानक पाइआ नाम खजाना ॥४॥२७॥७८॥
मूलम्
मिटि गई भाल मनु सहजि समाना ॥ नानक पाइआ नाम खजाना ॥४॥२७॥७८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाल = (दुनिया के धन पदार्थ की) तलाश। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।
अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से) परमात्मा के नाम का खजाना पा लिया (दुनिया के खजानों के वास्ते उस की) तलाश दूर हो गई, उसका मन आत्मिक अडोलता में टिक गया।4।27।78।
[[0390]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ ठाकुर सिउ जा की बनि आई ॥ भोजन पूरन रहे अघाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ ठाकुर सिउ जा की बनि आई ॥ भोजन पूरन रहे अघाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। भोजन पूरन = ना खत्म होने वाले नाम-भोजन की इनायत से। अघाई रहे = पेट भरा रहता है, तृप्त रहता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य की प्रीति मालिक प्रभु के साथ पक्की बन जाती है ना-समाप्त होने वाले नाम-भोजन की इनायत से वह (माया की तृष्णा की ओर से सदा) तृप्त रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कछू न थोरा हरि भगतन कउ ॥ खात खरचत बिलछत देवन कउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कछू न थोरा हरि भगतन कउ ॥ खात खरचत बिलछत देवन कउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थोरा = थोड़ा। कउ = को। बिलछत = आनंद पाते हैं। देवन कउ = (और लोगों को) देने के लिए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! हरि के भक्तों के पास इतना ना खत्म होने वाला नाम-खजाना होता है कि) भक्त जनों को किसी चीज की कमी नहीं होती, वे उस खजाने को स्वयं भी बरतते हैं और लोगों को भी बाँटते हैं, स्वयं आनंद लेते हैं, और-और लोगों को भी आनंद देने के समर्थ होते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा का धनी अगम गुसाई ॥ मानुख की कहु केत चलाई ॥२॥
मूलम्
जा का धनी अगम गुसाई ॥ मानुख की कहु केत चलाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनी = मालिक। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गुसाई = पति। केत चलाई = कितनी पेश जा सकती है?।2।
अर्थ: जगत का पति अगम्य (पहुँच से परे) मालिक जिस मनुष्य का (रखवाला) बन जाता है (हे भाई!) बता, किसी मनुष्य का उस पर क्या जोर चल सकता है?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा की सेवा दस असट सिधाई ॥ पलक दिसटि ता की लागहु पाई ॥३॥
मूलम्
जा की सेवा दस असट सिधाई ॥ पलक दिसटि ता की लागहु पाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छस असट = दस और आठ, अठारह। सिधाई = सिद्धियां। दिसटि = दृष्टि, निगाह। पाई = पैरों पर।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिसकी सेवा-भक्ति करने से और जिसकी मेहर की निगाह से अठारहों (ही) करामाती ताकतें मिल जाती हैं सदा उसके चरणों में लगे रहो।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ दइआ करहु मेरे सुआमी ॥ कहु नानक नाही तिन कामी ॥४॥२८॥७९॥
मूलम्
जा कउ दइआ करहु मेरे सुआमी ॥ कहु नानक नाही तिन कामी ॥४॥२८॥७९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! कामी = कमी।4।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मेरे सवामी! जिस मनुष्यों पे तू मेहर करता है उन्हे किसी भी बात की कोई कमी नहीं रहती।4।28।79।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ जउ मै अपुना सतिगुरु धिआइआ ॥ तब मेरै मनि महा सुखु पाइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ जउ मै अपुना सतिगुरु धिआइआ ॥ तब मेरै मनि महा सुखु पाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब। धिआइआ = याद किया, दिल में बसाया। मनि = मन ने।1।
अर्थ: (हे भाई!) जब से मैंने अपने गुरु को अपने मन में बसा लिया है तब से मेरे मन ने बड़ा आनंद प्राप्त किया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिटि गई गणत बिनासिउ संसा ॥ नामि रते जन भए भगवंता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मिटि गई गणत बिनासिउ संसा ॥ नामि रते जन भए भगवंता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गणत = चिन्ता। संसा = सहम। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। भगवंता = भाग्यों वाले।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के नाम रंग में रंगे जाते हैं वह भाग्यशाली हो जाते हें, उनकी हरेक चिन्ता मिट जाती है उनका हरेक सहम दूर हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ मै अपुना साहिबु चीति ॥ तउ भउ मिटिओ मेरे मीत ॥२॥
मूलम्
जउ मै अपुना साहिबु चीति ॥ तउ भउ मिटिओ मेरे मीत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चीति = चित्त में। मीत = हे मीत!।2।
अर्थ: हे मेरे मित्र! जब से मैंने अपने मालिक को अपने चित्त में (बसाया है) तब से मेरा हरेक किस्म का डर दूर हो गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ मै ओट गही प्रभ तेरी ॥ तां पूरन होई मनसा मेरी ॥३॥
मूलम्
जउ मै ओट गही प्रभ तेरी ॥ तां पूरन होई मनसा मेरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओट = आसरा। गही = पकड़ी। प्रभ = हे प्रभु! मनसा = मनीषा, मन की इच्छा।3।
अर्थ: हे प्रभु! जब से मैंने तेरी ओट पकड़ी है तब से मेरी हरेक मनोकामना पूरी हो रही है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि चलित मनि भए दिलासा ॥ नानक दास तेरा भरवासा ॥४॥२९॥८०॥
मूलम्
देखि चलित मनि भए दिलासा ॥ नानक दास तेरा भरवासा ॥४॥२९॥८०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = देख के। चलित = चरित्र, करिश्में, चोज तमाशे। मनि = मन में। दिलासा = सहारा, धीरज।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! मुझे तेरे) दास को तेरा ही भरोसा है तेरे चरित्र देख-देख के मेरे मन में सहारा बनता जाता है (कि शरण पड़ों की तू सहायता करता है)।4।29।80।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अनदिनु मूसा लाजु टुकाई ॥ गिरत कूप महि खाहि मिठाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अनदिनु मूसा लाजु टुकाई ॥ गिरत कूप महि खाहि मिठाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। मूसा = चूहा। लाजु = लज, रस्सी। कूप = कूआँ। खाहि = तू खाता है।1।
अर्थ: (हे भाई! तू माया के मोह के कूएं में लटका हुआ है, जिस रस्सी के आसरे तू लटका हुआ है उस) लज (रस्सी) को हर रोज चूहा कुतर रहा है (उम्र की रस्सी को जम-चूहा कुतरता जा रहा है, पर) तू कूएं में गिरा हुआ भी मिठाई खाए जा रहा है (दुनिया के पदार्थ खाने में मगन है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोचत साचत रैनि बिहानी ॥ अनिक रंग माइआ के चितवत कबहू न सिमरै सारिंगपानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सोचत साचत रैनि बिहानी ॥ अनिक रंग माइआ के चितवत कबहू न सिमरै सारिंगपानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोचत साचत = चिन्ता फिक्र करते हुए। रैनि = (जिंदगी की) रात। सारिंगपानी = (सारंग = धनुष। पानी = पाणि, हाथ। जिसके हाथ में धनुष है) परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: माया की सोचें सोचते हुए ही मनुष्य की (जिंदगी की सारी) रात बीत जाती है, मनुष्य माया के ही अनेक रंग-तमाशे सोचता रहता है और परमात्मा को कभी भी नहीं स्मरण करता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रुम की छाइआ निहचल ग्रिहु बांधिआ ॥ काल कै फांसि सकत सरु सांधिआ ॥२॥
मूलम्
द्रुम की छाइआ निहचल ग्रिहु बांधिआ ॥ काल कै फांसि सकत सरु सांधिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रुम = वृक्ष। छाइआ = छाया। निहचल = ना हिलने वाला, पक्का। ग्रिह = घर। कै फांसि = की फासी में। सकत = तगड़ा। सरु = तीर। सांधिआ = कसा हुआ।2।
अर्थ: (माया के मोह में फंस के मनुष्य इतना मूर्ख हो जाता है कि) वृक्ष की छाया को पक्का घर मान बैठता है, मनुष्य काल (आत्मिक मौत) की फासी में (जाल में) फंसा हुआ है, ऊपर से माया ने (उस पर) तृष्णा (मोह का) तीर कसा हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालू कनारा तरंग मुखि आइआ ॥ सो थानु मूड़ि निहचलु करि पाइआ ॥३॥
मूलम्
बालू कनारा तरंग मुखि आइआ ॥ सो थानु मूड़ि निहचलु करि पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बालू = रेत। तरंग = लहरें। मुखि = मुंह में। मूढ़ि = मूर्ख ने।3।
अर्थ: (ये जगत-वासा, मानो,) रेतीला किनारा (जो दरिया की) लहरों के मुंह में आया हुआ है (पर माया के मोह में फसे हुए) मूर्ख ने इस जगह को पक्का समझा हुआ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि जपिओ हरि राइ ॥ नानक जीवै हरि गुण गाइ ॥४॥३०॥८१॥
मूलम्
साधसंगि जपिओ हरि राइ ॥ नानक जीवै हरि गुण गाइ ॥४॥३०॥८१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। गाइ = गा के।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में टिक के प्रभु-पातशाह का नाम जपा है वह परमातमा के गुण गा गा के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।4।30।81।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ दुतुके ९ ॥ उन कै संगि तू करती केल ॥ उन कै संगि हम तुम संगि मेल ॥ उन्ह कै संगि तुम सभु कोऊ लोरै ॥ ओसु बिना कोऊ मुखु नही जोरै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ दुतुके ९ ॥ उन कै संगि तू करती केल ॥ उन कै संगि हम तुम संगि मेल ॥ उन्ह कै संगि तुम सभु कोऊ लोरै ॥ ओसु बिना कोऊ मुखु नही जोरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उन कै संगि = उस जीवात्मा की संगत में। केल = खेल, चोज तमाशे। हम तुम संगि = सभी के साथ। लोरै = लोचता है, मिलना चाहता है। सभ कोऊ = हर कोई। जोरै = जोड़ता।1।
अर्थ: हे काया! जीवात्मा की संगति में रह के तू (कई तरह के) खेल-तमाशे करती रहती है, सभी से तेरा मेल मिलाप बना रहता है, हर कोई तुझे मिलना चाहता है, पर उस जीवात्मा के मिलाप के बिना तुझे कोई मुंह नहीं लगाता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते बैरागी कहा समाए ॥ तिसु बिनु तुही दुहेरी री ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ते बैरागी कहा समाए ॥ तिसु बिनु तुही दुहेरी री ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते बैरागी = वह जीवात्मा पक्षी। दुहेरी = दुखी। री = हे काया!।1। रहाउ।
अर्थ: हे काया! उस (जीवात्मा) के बिना तू दुखी हो जाती है। पता नहीं लगता वह जीवात्मा तुझसे उपराम हो के कहां चली जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्ह कै संगि तू ग्रिह महि माहरि ॥ उन्ह कै संगि तू होई है जाहरि ॥ उन्ह कै संगि तू रखी पपोलि ॥ ओसु बिना तूं छुटकी रोलि ॥२॥
मूलम्
उन्ह कै संगि तू ग्रिह महि माहरि ॥ उन्ह कै संगि तू होई है जाहरि ॥ उन्ह कै संगि तू रखी पपोलि ॥ ओसु बिना तूं छुटकी रोलि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहरि = माहिर, समझदार। पपोलि = पाल के। तूं = तुझे। रोलि = रुल गई, किसी काम ना आ सकी, बेकार हो गई। छुटकी = त्यागी हुई।2।
अर्थ: हे काया! जब तक तू जीवात्मा के साथ थी तू समझदार (समझी जाती है, हर जगह) तू उजागर होती है, तुझे पाल-पोस के रखते हैं। पर जब वह जीवात्मा (तुझसे दूर) चली जाती है तो तू त्याग हो जाती है किसी काम की नहीं रह जाती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्ह कै संगि तेरा मानु महतु ॥ उन्ह कै संगि तुम साकु जगतु ॥ उन्ह कै संगि तेरी सभ बिधि थाटी ॥ ओसु बिना तूं होई है माटी ॥३॥
मूलम्
उन्ह कै संगि तेरा मानु महतु ॥ उन्ह कै संगि तुम साकु जगतु ॥ उन्ह कै संगि तेरी सभ बिधि थाटी ॥ ओसु बिना तूं होई है माटी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महतु = महत्वता, महिमा। सभ बिधि = हरेक तरीके से। तेरी थाटी = तेरी संरचना कायम रखी जाती है, तेरी हर तरह पालना की जाती है।3।
अर्थ: हे काया! जीवात्मा के साथ होते हुए तेरा आदर-मान होता है तुझे महिमा मिलती है, सारा जगत तेरा साक-संबंधी प्रतीत होता है, तेरी हर जगह पालणा की जाती है। पर जब उस जीवात्मा से तू विछुड़ जाती है तो तू मिट्टी में मिल जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओहु बैरागी मरै न जाइ ॥ हुकमे बाधा कार कमाइ ॥ जोड़ि विछोड़े नानक थापि ॥ अपनी कुदरति जाणै आपि ॥४॥३१॥८२॥
मूलम्
ओहु बैरागी मरै न जाइ ॥ हुकमे बाधा कार कमाइ ॥ जोड़ि विछोड़े नानक थापि ॥ अपनी कुदरति जाणै आपि ॥४॥३१॥८२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागी = चले जाने वाली जीवात्मा। जोड़ि = जोड़ के। थापि = स्थापना करके, बना के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: जीवात्मा के भी क्या वश? परमात्मा) मनुष्य का शरीर बना के (जीवात्मा और काया का जोड़ जोड़ता है) जोड़ के फिर विछोड़ देता है। काया में से उपराम हो के चले जाने वाली जीवात्मा (अपने आप) ना मरती है ना पैदा होती है (वह तो परमात्मा के) हुक्म में बंधी हुई (काया में आने और फिर इस में से चले जाने की) कार करती है। (जीवात्मा और काया को जोड़ने-विछोड़ने की) अपनी अजब खेल को परमात्मा खुद ही जानता है।4।31।82।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दुतुके ९। इस शब्द से ले के शब्द नं: 90 तक 9 शब्द ऐसे शब्द हैं जिनके हरेक बंद में दो-दो तुकें हैं।
[[0391]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ ना ओहु मरता ना हम डरिआ ॥ ना ओहु बिनसै ना हम कड़िआ ॥ ना ओहु निरधनु ना हम भूखे ॥ ना ओसु दूखु न हम कउ दूखे ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ ना ओहु मरता ना हम डरिआ ॥ ना ओहु बिनसै ना हम कड़िआ ॥ ना ओहु निरधनु ना हम भूखे ॥ ना ओसु दूखु न हम कउ दूखे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओहु = वह परमात्मा। हम = हम (उसी की ही अंश) जीव। कढ़िआ = चिन्ता फिक्र करते हुए। निरधनु = कंगाल।1।
अर्थ: (हे भाई! हम जीवोंकी परमात्मा से अलग कोई हस्ती नहीं। वह स्वयं ही जीवात्मा-रूप में शरीरों के अंदर बरत रहा है) वह परमात्मा कभी मरता नहीं (हमारे अंदर भी वह स्वयं ही है) हमें भी मौत से डर नहीं होना चाहिए। वह परमात्मा कभी नाश नहीं होता, हमें भी (विनाश की) कोई चिन्ता नहीं होनी। वह प्रभु कंगाल नहीं है, हम भी अपने आप को भूखे-गरीब ना समझें। उसे कोई दुख नहीं छूता, हमें भी कोई दुख नहीं छूना चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवरु न कोऊ मारनवारा ॥ जीअउ हमारा जीउ देनहारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अवरु न कोऊ मारनवारा ॥ जीअउ हमारा जीउ देनहारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारनवारा = मारने की सामर्थ्य वाला। जीअउ = जीतारहे। जीउ देनहारा = जिंद देने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जीता रहे हमें जिंद देने वाला परमात्मा (परमात्मा स्वयं सदा कायम रहने वाला है, वही हम जीवों को जिंद देने वाला है, और) उसके बिना और कोई हमें मारने कीताकत नहीं रखता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना उसु बंधन ना हम बाधे ॥ ना उसु धंधा ना हम धाधे ॥ ना उसु मैलु न हम कउ मैला ॥ ओसु अनंदु त हम सद केला ॥२॥
मूलम्
ना उसु बंधन ना हम बाधे ॥ ना उसु धंधा ना हम धाधे ॥ ना उसु मैलु न हम कउ मैला ॥ ओसु अनंदु त हम सद केला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धाधे = धंधों में ग्रसे हुए। केला = खुशियां।2।
अर्थ: उस परमात्मा को माया के बंधन जकड़ नहीं सकते (इस वास्ते असल में) हम भी माया के मोह में बंधे हुए नहीं हैं। उसे कोई मायावी दौड़-भाग ग्रस नहीं सकती, हम भी धंधों में ग्रसे हुए नहीं हैं। (हमारे असल) उस परमात्मा को विकारों की मैल नहीं लग सकती, हमें भी मैल नहीं लगनी चाहिए। उसे सदा आनंद ही आनंद है, हम भी सदा (आनंद में) खिले ही रहें।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना उसु सोचु न हम कउ सोचा ॥ ना उसु लेपु न हम कउ पोचा ॥ ना उसु भूख न हम कउ त्रिसना ॥ जा उहु निरमलु तां हम जचना ॥३॥
मूलम्
ना उसु सोचु न हम कउ सोचा ॥ ना उसु लेपु न हम कउ पोचा ॥ ना उसु भूख न हम कउ त्रिसना ॥ जा उहु निरमलु तां हम जचना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोचु = चिन्ता-फिक्र। पोचा = माया का प्रभाव। जचना = पूजने योग्य,पवित्र।3।
अर्थ: (हे भाई!) उस परमात्मा को चिन्ता-फिक्र नहीं व्याप्तता (हमारे अंदरवह स्वयं ही है) हमें भी कोई फिक्र नहीं होना चाहिए। उस पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, फिर हमारे ऊपर क्यों पड़े? उस परमात्मा को माया का मालिक नहीं दबा सकता, हमें भी माया की तृष्णा नहीं व्यापनी चाहिए। जब वह परमात्मा पवित्र-स्वरूप है (वही हमारे अंदर मौजूद है) तो हम भी शुद्ध स्वरूप ही होने चाहिए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम किछु नाही एकै ओही ॥ आगै पाछै एको सोई ॥ नानक गुरि खोए भ्रम भंगा ॥ हम ओइ मिलि होए इक रंगा ॥४॥३२॥८३॥
मूलम्
हम किछु नाही एकै ओही ॥ आगै पाछै एको सोई ॥ नानक गुरि खोए भ्रम भंगा ॥ हम ओइ मिलि होए इक रंगा ॥४॥३२॥८३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै पाछै = लोक परलोक में। गुरि = गुरु ने। भंगा = विघन। ओइ = उस में।4।
अर्थ: (हे भाई!) हमारा कोई अलग अस्तित्व नहीं है (सब में) वह परमात्मा स्वयं ही स्वयं है। इस लोक में और परलोक में हर जगह वह परमात्मा खुद ही खुद है। हे नानक! जब गुरु ने (हमारे अंदर से हमारी निहित अलग हस्ती के) भ्रम दूर कर दिए जो (हमारे उससे एक-रूप होने के राह में) विघन (डाल रहे हैं), तब हम उस (परमात्मा से) मिल के उस से एक-मेक हो जाते हैं।4।32।83।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ अनिक भांति करि सेवा करीऐ ॥ जीउ प्रान धनु आगै धरीऐ ॥ पानी पखा करउ तजि अभिमानु ॥ अनिक बार जाईऐ कुरबानु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ अनिक भांति करि सेवा करीऐ ॥ जीउ प्रान धनु आगै धरीऐ ॥ पानी पखा करउ तजि अभिमानु ॥ अनिक बार जाईऐ कुरबानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भांति = तरीका। करीऐ = करनी चाहिए। जीउ = जिंद! करउ = मैं करूँ। तजि = त्याग के।1।
अर्थ: हे माँ! (प्रभु को प्यारी हो चुकी सत्संगी जीव-स्त्री की) सेवा अनेक प्रकार से करनी चाहिए। ये जिंद ये प्राण और (अपना) धन (सब कुछ) उसके आगे रख देना चाहिए (उस जीव-स्त्री से) अनेक बार सदके होना चाहिए। (हे माँ! अगर मेरे पर कृपा हो तो) मैं भी अहंकार त्याग के उसका पानी ढोने और उसको पंखा करने की सेवा करूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साई सुहागणि जो प्रभ भाई ॥ तिस कै संगि मिलउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साई सुहागणि जो प्रभ भाई ॥ तिस कै संगि मिलउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साई = वही (जीव-स्त्री)। सुहागणि = सुहागनि, पति प्रभु वाली। भाई = अच्छी लगी। माई = हे माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! जो जीव-स्त्री प्रभु-पति को प्यारी लग जाती है वही सुहागन बन जाती है। (अगर मेरे पर मेहर हो, अगर मेरे भाग्य जागें तो) मैं भी उस सुहागनि की संगति में मिल के बैठूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासनि दासी की पनिहारि ॥ उन्ह की रेणु बसै जीअ नालि ॥ माथै भागु त पावउ संगु ॥ मिलै सुआमी अपुनै रंगि ॥२॥
मूलम्
दासनि दासी की पनिहारि ॥ उन्ह की रेणु बसै जीअ नालि ॥ माथै भागु त पावउ संगु ॥ मिलै सुआमी अपुनै रंगि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासनि दासी = दासियों की दासी। पनिहारि = पानी भरने वाली। उन्ह की = उस सुहागिनों की, उन सत्संगियों की। रेणु = चरण धूल। जीअ नालि = जिंद के साथ। माथै = माथे पर। संगु = साध, संगत। रंगि = प्रेम रंग में।2।
अर्थ: हे माँ! मेरे माथे पर (पूर्बले कर्मों के) भाग्य जाग पड़ें तो मैं उन सुहागिनों की संगति हासिल करूँ, उनकी दासियों की पानी ढोने वाली बनूँ, उन सुहागनों की चरण-धूल मेरी जिंद के साथ टिकी रहे। (हे माँ! सुहागनों की संगत के सदके ही) पति-प्रभु अपने प्रेम रंग में आ के मिल पड़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाप ताप देवउ सभ नेमा ॥ करम धरम अरपउ सभ होमा ॥ गरबु मोहु तजि होवउ रेन ॥ उन्ह कै संगि देखउ प्रभु नैन ॥३॥
मूलम्
जाप ताप देवउ सभ नेमा ॥ करम धरम अरपउ सभ होमा ॥ गरबु मोहु तजि होवउ रेन ॥ उन्ह कै संगि देखउ प्रभु नैन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देवउ = मैं दे दूँ, देऊँ। अरपउ = मैं भेट कर दूँ। गरबु = अहंकार। रेन = चरण धूल। नैन = आँखों से। होमा = हवनकुण्ड।3।
अर्थ: (लोग देवताओं आदि को वश में करने के लिए कई मंत्रों आदि के जाप करते हैं। कई जंगलों में जा के धूड़ियां तपाते हैं, एवं अनेक किस्म के साधन करते हैं। कई लोग तीर्थ-स्नान आदि निहित धार्मिक कर्म करते हैं, यज्ञ-हवन आदि करते हैं। पर, हे माँ! उन सुहागिनों की संगत के बदले में) मैं सारे जाप, सारे ताप व अन्य सारे साधन देने को तैयार हूँ, सारे (निहित) धार्मिक कर्म, सारे यज्ञ-हवन भेट करने को तैयार हूँ। (मेरी ये तमन्ना है कि) अहंकार छोड़ के, मोह त्याग के मैं उन सुहागिनों की चरण-धूल बन जाऊँ (क्योंकि, हे माँ!) उन सुहागिनों की संगति में रह के ही मैं प्रभु-पति को इन आँखों से देख सकूँगी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमख निमख एही आराधउ ॥ दिनसु रैणि एह सेवा साधउ ॥ भए क्रिपाल गुपाल गोबिंद ॥ साधसंगि नानक बखसिंद ॥४॥३३॥८४॥
मूलम्
निमख निमख एही आराधउ ॥ दिनसु रैणि एह सेवा साधउ ॥ भए क्रिपाल गुपाल गोबिंद ॥ साधसंगि नानक बखसिंद ॥४॥३३॥८४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितना समय। रैणि = रात। साधउ = मै सुधार लूँ। गुपाल = धरती का पालनहार। साध संगि = साधु-संगत में। बखसिंद = मेहर करने वाला।4।
अर्थ: (हे माँ!) मैं पल-पल यही मन्नत माँगती हूँ (कि मुझे उन सुहागिनों की संगति मिले और) मैं दिन-रात उनकी सेवा का साधन करती रहूँ।
हे नानक! जो जीव-स्त्री साधु-संगत में जा पहुँचती है बख्शनहार गोपाल गोबिंद-प्रभु जी उस पर दयाल हो जाते हैं।4।33।84।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ प्रभ की प्रीति सदा सुखु होइ ॥ प्रभ की प्रीति दुखु लगै न कोइ ॥ प्रभ की प्रीति हउमै मलु खोइ ॥ प्रभ की प्रीति सद निरमल होइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ प्रभ की प्रीति सदा सुखु होइ ॥ प्रभ की प्रीति दुखु लगै न कोइ ॥ प्रभ की प्रीति हउमै मलु खोइ ॥ प्रभ की प्रीति सद निरमल होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लगै न = नहीं लग सकता। खोइ = नाश कर लेता है। सद = सदा। निरमल = पवित्र करने वाली।1।
अर्थ: हे मित्र! (जो मनुष्य) परमात्मा की प्रीति (अपने दिल में बसाता है उसे) सदा आत्मिक आनंद मिला रहता है, (उसको) कोई दुख नहीं व्याप सकता, (वह मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर कर लेता है, (ये प्रीति उसे) सदा पवित्र जीवन वाला बनाए रखती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु मीत ऐसा प्रेम पिआरु ॥ जीअ प्रान घट घट आधारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुनहु मीत ऐसा प्रेम पिआरु ॥ जीअ प्रान घट घट आधारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! जीअ आधारु = जिंद का आसरा। घट घट = हरेक जीव का।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! सुनो, (परमात्मा के साथ डाला हुआ) प्रेम-प्यार ऐसी दाति है कि ये हरेक जीव की जिंद की, हरेक जीव के प्राणों का आसरा बन जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की प्रीति भए सगल निधान ॥ प्रभ की प्रीति रिदै निरमल नाम ॥ प्रभ की प्रीति सद सोभावंत ॥ प्रभ की प्रीति सभ मिटी है चिंत ॥२॥
मूलम्
प्रभ की प्रीति भए सगल निधान ॥ प्रभ की प्रीति रिदै निरमल नाम ॥ प्रभ की प्रीति सद सोभावंत ॥ प्रभ की प्रीति सभ मिटी है चिंत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधान = खजाने। रिदै = हृदय में। चिंत = चिन्ता।2।
अर्थ: हे मित्र! (जिस मनुष्य के दिल में) परमात्मा की प्रीति (आ बसी उसको, मानो) सारे खजाने (प्राप्त) हो गए, उसके हृदय में (जीवन को) पवित्र करने वाला हरि-नाम (आ बसता है), (वह लोक परलोक में) सदा शोभा-महिमा वाला बना रहता है, उसकी हरेक किस्म की चिन्ता मिट जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की प्रीति इहु भवजलु तरै ॥ प्रभ की प्रीति जम ते नही डरै ॥ प्रभ की प्रीति सगल उधारै ॥ प्रभ की प्रीति चलै संगारै ॥३॥
मूलम्
प्रभ की प्रीति इहु भवजलु तरै ॥ प्रभ की प्रीति जम ते नही डरै ॥ प्रभ की प्रीति सगल उधारै ॥ प्रभ की प्रीति चलै संगारै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। उधारै = बचा लेता है। संगारै = साथ, संग।3।
अर्थ: हे मित्र! (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की प्रीति (आ बसती है) वह इस संसार समुंदर से पार लांघ जाता है, वह जम-दूतों से भय नहीं खाता (उसको आत्मिक मौत नहीं छू सकती। वह खुद विकारों से बचा रहता है और) अन्य सभी को (विकारों से) बचा लेता है। (हे मित्र!) परमात्मा की प्रीति (ही एक ऐसी राशि-पूंजी है जो) सदा मनुष्य का साथ देती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपहु कोई मिलै न भूलै ॥ जिसु क्रिपालु तिसु साधसंगि घूलै ॥ कहु नानक तेरै कुरबाणु ॥ संत ओट प्रभ तेरा ताणु ॥४॥३४॥८५॥
मूलम्
आपहु कोई मिलै न भूलै ॥ जिसु क्रिपालु तिसु साधसंगि घूलै ॥ कहु नानक तेरै कुरबाणु ॥ संत ओट प्रभ तेरा ताणु ॥४॥३४॥८५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपहु = अपने उद्यम से। भूले = भूलता है, कुराह पड़ता है। घूलै = मिलाता है। संत = संतों को।4।
अर्थ: (पर, हे मित्र! परमात्मा के साथ प्रीति जोड़नी किसी मनुष्य के अपने बस की बात नहीं) अपने उद्यम से ना कोई मनुष्य (परमात्मा के चरणों में) जुड़ा रह सकता है और ना ही कोई (विछुड़ के) कुमार्ग पर पड़ता है जिस मनुष्य पर प्रभु दयावान होता है उसे साधु-संगत में मिलाता है (और, साधु-संगत में टिक के वह परमात्मा के साथ प्यार डालना सीख लेता है)।
हे नानक! कह: हे प्रभु! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, तू ही संतों की ओट है, तू ही संतों का तान-बल है।4।34।85।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ भूपति होइ कै राजु कमाइआ ॥ करि करि अनरथ विहाझी माइआ ॥ संचत संचत थैली कीन्ही ॥ प्रभि उस ते डारि अवर कउ दीन्ही ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ भूपति होइ कै राजु कमाइआ ॥ करि करि अनरथ विहाझी माइआ ॥ संचत संचत थैली कीन्ही ॥ प्रभि उस ते डारि अवर कउ दीन्ही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूपति = (भू = धरती। पति = मालिक) राजा। अनरथ = अर्नथ, धक्के, पाप। विहाझी = इकट्ठी कर ली। संचत = एकत्र करते हुए। कीनी = बना ली। प्रभि = प्रभु ने। थैली = (भाव) खजाना। डारि = सुटा के।1।
अर्थ: (हे भाई! अगर किसी ने) राजा बन के राज (का आनंद भी) भोग लिया (लोगों पे) ज्यादतियां कर-कर के माल-धन भी जोड़ लिया, जोड़-जोड़ के (अगर उसने) खजाना (भी) बना लिया (तो भी क्या हुआ?) परमात्मा ने (आखिर) उससे छीन के किसी और को दे दिया (मौत के समय वह अपने साथ तो ना ले जा सका)।1।
[[0392]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
काच गगरीआ अ्मभ मझरीआ ॥ गरबि गरबि उआहू महि परीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काच गगरीआ अ्मभ मझरीआ ॥ गरबि गरबि उआहू महि परीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काच गगरीआ = कच्ची मिट्टी की गागरि। अंभ = अम्भस्, पानी। मझरीआ = बीच। गरबि = अहंकार करके। ऊआ हू महि = उसी (संसार समुंदर) में ही। परीआ = पड़ जाती है, डूब जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! ये मानव शरीर पानी में पड़ी हुई) कच्ची मिट्टी की गागर (जैसा है जो हवा से उछल-उछल के) पानी में ही (गलती जाती है। इस तरह मनुष्य भी) अहंकार कर-करके उसी (संसार-समुंदर) में ही डूब जाता है (अपना आत्मिक जीवन गर्क कर लेता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ होइओ भइआ निहंगा ॥ चीति न आइओ करता संगा ॥ लसकर जोड़े कीआ स्मबाहा ॥ निकसिआ फूक त होइ गइओ सुआहा ॥२॥
मूलम्
निरभउ होइओ भइआ निहंगा ॥ चीति न आइओ करता संगा ॥ लसकर जोड़े कीआ स्मबाहा ॥ निकसिआ फूक त होइ गइओ सुआहा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरभउ = निडर, निधड़क। निहंगा = निसंग, ढीठ। चीति = चिक्त में। करता = कर्तार। जोड़े = जमा किए। संबाहा = इकट्ठे।2।
अर्थ: (हे भाई! राज के गुमान में यदि वह मौत से) निडर हो गया निधड़क हो गया (यदि उसने) फौजें जमां कर कर के बड़ा सारा लश्कर बना लिया (तो भी क्या हुआ?) जब (आखिरी समय) उसके श्वास निकल गए तो (उसका) शरीर मिट्टी हो गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचे मंदर महल अरु रानी ॥ हसति घोड़े जोड़े मनि भानी ॥ वड परवारु पूत अरु धीआ ॥ मोहि पचे पचि अंधा मूआ ॥३॥
मूलम्
ऊचे मंदर महल अरु रानी ॥ हसति घोड़े जोड़े मनि भानी ॥ वड परवारु पूत अरु धीआ ॥ मोहि पचे पचि अंधा मूआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरु = और। हसति = हाथी। जोड़े = कपड़े। मनि भानी = मन भाते। मोहि = मोह में। पचे पचि = पच पच, जल जल के, ख्वार हो हो के। मूआ = आत्मिक मौत मर गया।3।
अर्थ: (हे भाई! यदि उसको) ऊँचे महल-माढ़ियां (रहने के लिए मिल गए) और (सुंदर) रानी (मिल गई। अगर उसने) हाथी घोड़े (बढ़िया) मन-भाते कपड़े (इकट्ठे कर लिए। यदि वह) पुत्रो-बेटियों वाला बड़े परिवार वाला बन गया, तो भी तो (माया के) मोह में ख्वार हो हो के (वह) माया के मोह में (अंधा हो के) आत्मिक मौत ही सहेड़ बैठा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनहि उपाहा तिनहि बिनाहा ॥ रंग रसा जैसे सुपनाहा ॥ सोई मुकता तिसु राजु मालु ॥ नानक दास जिसु खसमु दइआलु ॥४॥३५॥८६॥
मूलम्
जिनहि उपाहा तिनहि बिनाहा ॥ रंग रसा जैसे सुपनाहा ॥ सोई मुकता तिसु राजु मालु ॥ नानक दास जिसु खसमु दइआलु ॥४॥३५॥८६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनहि = जिस (परमात्मा) ने। उपाहा = पैदा किया। बिनाहा = नाश कर दिया।4।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा ने (उसे) पैदा किया था उसी ने उसको नाश भी कर दिया। उसके भोगे हुए रंग-तमाशे और मौज-मेले सपने की ही तरह हो गए।
हे दास नानक! (कह:) वही मनुष्य (माया के मोह से) बचा रहता है उसके पास (सदा कायम रहने वाला) राज और धन है जिस पर पति प्रभु दयावान होता है (और जिसे अपने नाम का खजाना बख्शता है)।4।35।86।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ इन्ह सिउ प्रीति करी घनेरी ॥ जउ मिलीऐ तउ वधै वधेरी ॥ गलि चमड़ी जउ छोडै नाही ॥ लागि छुटो सतिगुर की पाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ इन्ह सिउ प्रीति करी घनेरी ॥ जउ मिलीऐ तउ वधै वधेरी ॥ गलि चमड़ी जउ छोडै नाही ॥ लागि छुटो सतिगुर की पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इन्ह सिउ = इस (माया) से। घनेरी = बहुत। जउ मिलिऐ = जब इससे साथ बनाएं। गलि = गले से। लागि = लग के। छुटो = छूटा, बचता है। पाई = पैरों पर।1।
अर्थ: (हे भाई!) अगर इस (माया) से ज्यादा प्रीति करें तो ज्यों-ज्यों इससे साथ बनाते जाते हैं, त्यों-त्यों इससे मोह बढ़ता जाता है। (आखिर) जब ये गले से चिपकी हुई छोड़ती ही नहीं, तब सतिगुरु के चरणों में लग के इससे निजात पाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग मोहनी हम तिआगि गवाई ॥ निरगुनु मिलिओ वजी वधाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जग मोहनी हम तिआगि गवाई ॥ निरगुनु मिलिओ वजी वधाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जग मोहनी = जगत को मोहने वाली। निरगुन = माया के तीन गुणों से ऊपर रहने वाला प्रभु। वधाई = मन की चढ़ती कला, उत्शाह भरी अवस्था। वजी = बज गई (जैसे बाजा बजता है), प्रबल हो गई।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जब से) मुझे माया के तीन गुणों के प्रभाच से ऊपर रहने वाला परमात्मा मिला है मेरे अंदर उत्साह भरी अवस्था प्रबल हो गई है, तब से ही मैंने सारे जगत को मोहने वाली माया (के मोह) को त्याग के परे फेंक दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी सुंदरि मन कउ मोहै ॥ बाटि घाटि ग्रिहि बनि बनि जोहै ॥ मनि तनि लागै होइ कै मीठी ॥ गुर प्रसादि मै खोटी डीठी ॥२॥
मूलम्
ऐसी सुंदरि मन कउ मोहै ॥ बाटि घाटि ग्रिहि बनि बनि जोहै ॥ मनि तनि लागै होइ कै मीठी ॥ गुर प्रसादि मै खोटी डीठी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुंदरि = सुंदरी, मोहनी। बाटि = रास्ते में। घटि = घाट पे, पत्तन पे। ग्रिहि = घर मे। बनि = बन में। जोहै = देखती है। मनि = मन में। तनि = तन में, दिल में। प्रसादि = कृपा से।2।
अर्थ: (हे भाई! ये माया) ऐसी सुन्दर है कि (मनुष्य के) मन को (तुरन्त) मोह लेती है। रास्ते में (चलते हुए) पत्तन से (गुजरते हुए) घर में (बैठे हुए) जंगल-जंगल में (भटकते हुए भी ये मन को मोहने के लिए) ताक लगाए रखती है। मीठी बन के ये मन में तन में आ चिपकती है। पर मैंने गुरु की कृपा से देख लिया है कि ये बड़ी खोटी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगरक उस के वडे ठगाऊ ॥ छोडहि नाही बाप न माऊ ॥ मेली अपने उनि ले बांधे ॥ गुर किरपा ते मै सगले साधे ॥३॥
मूलम्
अगरक उस के वडे ठगाऊ ॥ छोडहि नाही बाप न माऊ ॥ मेली अपने उनि ले बांधे ॥ गुर किरपा ते मै सगले साधे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगरक = आगे आगे चलने वाले, चौधरी, मुसाहब। ठगाऊ = ठग। उनि = उन (चौधरियों) ने। साधे = काबू कर लिए।3।
अर्थ: (हे भाई! कामादिक) उस माया के मुहासब (भी) बड़े ठग हैं, माँ हो पिता हो किसी को भी ठगने से नहीं बख्शते। जिस-जिस ने इनके साथ मेल-मुलाकात रखी, उनको इन चौधरियों ने अच्छी तरह बांध लिया, पर मैंने गुरु की कृपा से इन सभी को काबू कर लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मोरै मनि भइआ अनंद ॥ भउ चूका टूटे सभि फंद ॥ कहु नानक जा सतिगुरु पाइआ ॥ घरु सगला मै सुखी बसाइआ ॥४॥३६॥८७॥
मूलम्
अब मोरै मनि भइआ अनंद ॥ भउ चूका टूटे सभि फंद ॥ कहु नानक जा सतिगुरु पाइआ ॥ घरु सगला मै सुखी बसाइआ ॥४॥३६॥८७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोरै मनि = मेरे मन में। सभि = सारे। फंद = फाहे, जाल।4।
अर्थ: हे नानक! जब से मुझे सतिगुरु मिल गए हैं तब से अब मेरे मन में आनंद बना रहता है (मेरे अंदर से इन कामादिक चौधरियों का) डर-भय उतर गया है इनके डाले हुए सारे जाल टूट गए हैं। मैंने अब अपना सारा घर सुखी बसा लिया है (मेरी सारी ज्ञान-इंद्रिय वाला परिवार इनकी मार से बच के आत्मिक आनंद ले रहा है)।4।36।87।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ आठ पहर निकटि करि जानै ॥ प्रभ का कीआ मीठा मानै ॥ एकु नामु संतन आधारु ॥ होइ रहे सभ की पग छारु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ आठ पहर निकटि करि जानै ॥ प्रभ का कीआ मीठा मानै ॥ एकु नामु संतन आधारु ॥ होइ रहे सभ की पग छारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। मानो = मानता है। संतन = संतों का। आधारु = आसरा। पग = पैर। छारु = स्वाह, धूल।1।
अर्थ: परमात्मा का भक्त परमात्मा को आठों पहर अपने नजदीक बसता समझता है, जो कुछ परमात्मा करता है उसको मीठा करके मानता है। (हे भाई!) परमात्मा का नाम ही संत-जनों (की जिंदगी) का आसरा (बना रहता) है। संत-जन सबके पैरों की धूल बने रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत रहत सुनहु मेरे भाई ॥ उआ की महिमा कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संत रहत सुनहु मेरे भाई ॥ उआ की महिमा कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहत = जीवन जुगति, रहिणी। उआ की = उस (रहनी) की। महिमा = उपमा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! (परमात्मा के) संत की जीवन-जुगति सुन (उसका जीवन इतना ऊँचा है कि) उसका बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरतणि जा कै केवल नाम ॥ अनद रूप कीरतनु बिस्राम ॥ मित्र सत्रु जा कै एक समानै ॥ प्रभ अपुने बिनु अवरु न जानै ॥२॥
मूलम्
वरतणि जा कै केवल नाम ॥ अनद रूप कीरतनु बिस्राम ॥ मित्र सत्रु जा कै एक समानै ॥ प्रभ अपुने बिनु अवरु न जानै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतणि = रोज का आहर। जा कै = जिसके हृदय में। अनद रूप कीरतनु = आनंद स्वरूप प्रभु की महिमा। बिस्राम = टेक, सहारा। सत्र = शत्रु। समान = बराबर।2।
अर्थ: (हे भाई! संत वह है) जिसके हृदय में सिर्फ हरि स्मरण का ही आहर टिका रहता है, सदा आनंद में रहने वाले परमात्मा की महिमा ही (संत की जिंदगी का) सहारा है। (हे भाई! संत वह है) जिसे मित्र और शत्रु एक ही जैसे (मित्र ही) लगते हैं (क्योंकि संत सब जीवों में) अपने प्रभु के बिना किसी और को (बसता) नहीं समझता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि कोटि अघ काटनहारा ॥ दुख दूरि करन जीअ के दातारा ॥ सूरबीर बचन के बली ॥ कउला बपुरी संती छली ॥३॥
मूलम्
कोटि कोटि अघ काटनहारा ॥ दुख दूरि करन जीअ के दातारा ॥ सूरबीर बचन के बली ॥ कउला बपुरी संती छली ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अघ = पाप। काटनहार = काटने की ताकत वाला। जीअ के दातार = आत्मिक जीवन देने वाले। सूरबीर = सूरमे। बली = बलवान, बहादुर। कउला = माया। बपुरी = बिचारी। संती = संतों ने। छली = वश में कर ली।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का संत औरों के) करोड़ों ही पाप दूर करने की ताकत रखता है। (हे भाई!) परमात्मा के संत (दूसरों के) दुख दूर करने के योग्य हो जाते हैं वह (लोगों को) आत्मिक जीवन देने की सामर्थ्य रखते हैं। (प्रभु के संत विकारों के मुकाबले में) शूरवीर होते हैं, किए वचनों की पालना करते हैं। (संतों की निगाह में ये माया भी बेचारी से प्रतीत होती है) इस बेचारी माया को संतों ने अपने वश में कर लिया होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता का संगु बाछहि सुरदेव ॥ अमोघ दरसु सफल जा की सेव ॥ कर जोड़ि नानकु करे अरदासि ॥ मोहि संतह टहल दीजै गुणतासि ॥४॥३७॥८८॥
मूलम्
ता का संगु बाछहि सुरदेव ॥ अमोघ दरसु सफल जा की सेव ॥ कर जोड़ि नानकु करे अरदासि ॥ मोहि संतह टहल दीजै गुणतासि ॥४॥३७॥८८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता का = उस (संत) का। बाछहि = चाहते हैं। सुरदेव = आकाशीय देवते। अमोघ = व्यर्थ ना जाने वाला। सफल = फल देने वाली। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मोहि = मुझे। गुणतासि = हे गुणों के खजाने हरि!।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के संत का मिलाप आकाशी देवते भी तलाश्ते रहते हैं। संत का दर्शन व्यर्थ नहीं जाता, संत की सेवा जरूर फल देती है।
(हे भाई!) नानक (दोनों) हाथ जोड़ के अरजोई करता है: हे गुणों के खजाने प्रभु! मुझे संत जनों की सेवा की दाति बख्श।4।37।88।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सगल सूख जपि एकै नाम ॥ सगल धरम हरि के गुण गाम ॥ महा पवित्र साध का संगु ॥ जिसु भेटत लागै प्रभ रंगु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सगल सूख जपि एकै नाम ॥ सगल धरम हरि के गुण गाम ॥ महा पवित्र साध का संगु ॥ जिसु भेटत लागै प्रभ रंगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। जपि = जप के। एकै = एक (परमात्मा) का। गाम = गाना। साध का संगु = गुरमुखि की संगति। जिसु = जिस (गुरमुख) को। भेटत = मिल के। रंगु = प्रेम।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति बहुत पवित्र करने वाली है, गुरु को मिलने से परमात्मा का प्रेम (दिल में) पैदा हो जाता है, (गुरु की संगति में रह के) परमात्मा का नाम जपके सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं। (हे भाई!) परमात्मा की महिमा करने में ही और सारे धर्म आ जाते हैं।1।
[[0393]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर प्रसादि ओइ आनंद पावै ॥ जिसु सिमरत मनि होइ प्रगासा ता की गति मिति कहनु न जावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर प्रसादि ओइ आनंद पावै ॥ जिसु सिमरत मनि होइ प्रगासा ता की गति मिति कहनु न जावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। ओइ = वह। जिसु मनि = जिस मनुष्य के मन में। प्रगासा = रोशनी। ता की = उस मनुष्य की। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, माप, आत्मिक बड़ेपन का माप।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से जिस मनुष्य के मन में प्रभु-नाम स्मरण करने से (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती, उसका आत्मिक बड़प्पन बताया नहीं जा सकता, वह मनुष्य अनेक किस्म के आत्मिक आनंद भोगता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरत नेम मजन तिसु पूजा ॥ बेद पुरान तिनि सिम्रिति सुनीजा ॥ महा पुनीत जा का निरमल थानु ॥ साधसंगति जा कै हरि हरि नामु ॥२॥
मूलम्
वरत नेम मजन तिसु पूजा ॥ बेद पुरान तिनि सिम्रिति सुनीजा ॥ महा पुनीत जा का निरमल थानु ॥ साधसंगति जा कै हरि हरि नामु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मजन = स्नान (बहुवचन)। तिसु = उस (मनुष्य) के। तिनि = उस (मनुष्य) ने। पुनीत = पवित्र। जा का = जिस मनुष्य का। थानु = हृदय स्थान। जा के = जिसके हृदय में।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति की इनायत से जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है (नाम की इनायत से) जिस मनुष्य का हृदय-स्थल बहुत पवित्र-निर्मल हो जाता है उसने तो जैसे सारे बर्त-नेम, सारे तीर्थ-स्नान और सारी ही पूजा आदि कर लिए, उसने जैसे वेद-पुराण-स्मृतियां आदि सारे ही धर्म-पुस्तकें सुन लीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगटिओ सो जनु सगले भवन ॥ पतित पुनीत ता की पग रेन ॥ जा कउ भेटिओ हरि हरि राइ ॥ ता की गति मिति कथनु न जाइ ॥३॥
मूलम्
प्रगटिओ सो जनु सगले भवन ॥ पतित पुनीत ता की पग रेन ॥ जा कउ भेटिओ हरि हरि राइ ॥ ता की गति मिति कथनु न जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित पुनीत = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाली। पग रेन = चरणों की धूल। जा कउ = जिस मनुष्य को।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य को प्रभु-पातशाह मिल जाता है उस मनुष्य की ऊँची आत्मिक अवस्था, उस मनुष्य का आत्मिक बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता, उस मनुष्य के चरणों की धूल विकारों में गिरे हुए अनेक लोगों को पवित्र करने की सामर्थ्य रखती है, वह मनुष्य सारे भवनों में शिरोमणी हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आठ पहर कर जोड़ि धिआवउ ॥ उन साधा का दरसनु पावउ ॥ मोहि गरीब कउ लेहु रलाइ ॥ नानक आइ पए सरणाइ ॥४॥३८॥८९॥
मूलम्
आठ पहर कर जोड़ि धिआवउ ॥ उन साधा का दरसनु पावउ ॥ मोहि गरीब कउ लेहु रलाइ ॥ नानक आइ पए सरणाइ ॥४॥३८॥८९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। धिआवउ = ध्याऊँ। मोहि = मुझे।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! जो गुरसिख, गुरु की कृपा से) तेरी शरण आ पड़े हैं, मुझ गरीब को उनकी संगति में मिला दे (ता कि) मैं उनके दर्शन करता रहूँ और आठों पहर दोनों हाथ जोड़ के तेरा ध्यान धरता रहूँ।4।38।89।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ आठ पहर उदक इसनानी ॥ सद ही भोगु लगाइ सुगिआनी ॥ बिरथा काहू छोडै नाही ॥ बहुरि बहुरि तिसु लागह पाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ आठ पहर उदक इसनानी ॥ सद ही भोगु लगाइ सुगिआनी ॥ बिरथा काहू छोडै नाही ॥ बहुरि बहुरि तिसु लागह पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इसनानी = स्नान करने वाला। उदक = पानी। सद = सदा। सुगिआनी = (हरेक के दिल की) अच्छी तरह जानने वाला, हरि, सालिग राम। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख। काहू = किसी की। बहुरि बहुरि = बार बार। लागह = हम लगते हैं। पाई = पैरो पर। तिसु पाई = उस (सालिगराम) के पैरों पर।1।
अर्थ: (हे पण्डित!) हम उस (हरि-सालिगराम) के पैरों में बारंबार पड़ते हैं जो किसी की भी दर्द-पीड़ा नहीं रहने देता। वह (जलों-थलों में हर जगह बसने वाला हरि सालिगराम) आठों पहर ही पानियों का स्नान करने वाला है, हरेक के दिल की अच्छी तरह जानने वाला वह हरि-सालिगराम (सब जीवों के अंदर बैठ के) सदा ही भोग लगाता रहता है (पदार्थ छकता रहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सालगिरामु हमारै सेवा ॥ पूजा अरचा बंदन देवा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सालगिरामु हमारै सेवा ॥ पूजा अरचा बंदन देवा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालिगराम = नैपाल के दक्षण में बहती नदी गण्डका में गाँव सालग्राम के नजदीक धारीदार और गोल छोटे-छोटे पत्थर निकलते हैं। उन्हें विष्णु की मूर्ति माना जा रहा है। उस गाँव के नाम पे उस का नाम भी सालिग्राम रखा गया है। हमारै = हमारे घर में, हमारे वास्ते। सेवा = प्रभु की सेव भक्ति। अरचा = चंदन आदि सुगंधि की भेटा। बंदन = नमस्कार।1। रहाउ।
अर्थ: (हे पण्डित!) परमात्मा-देव की सेवा-भक्ति हमारे घर में सलिगराम (की पूजा) है। (हरि-नाम-जपना ही हमारे वास्ते सालिगराम की) पूजा, सुगंधि भेट व नमस्कार है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घंटा जा का सुनीऐ चहु कुंट ॥ आसनु जा का सदा बैकुंठ ॥ जा का चवरु सभ ऊपरि झूलै ॥ ता का धूपु सदा परफुलै ॥२॥
मूलम्
घंटा जा का सुनीऐ चहु कुंट ॥ आसनु जा का सदा बैकुंठ ॥ जा का चवरु सभ ऊपरि झूलै ॥ ता का धूपु सदा परफुलै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (हरि = सालिगराम) का। चहुकुंट = चारों तरफ, सारे जगत में। परफुलै = फूल देती है।2।
अर्थ: (हे पण्डित!) उस (हरि-सालिग्राम की रजा) का घण्टा (सिर्फ मन्दिर में सुने जाने की जगह) सारे जगत में ही सुना जाता है। (साधु-संगत रूप) बैकुंठ में उसका निवास सदा ही टिका रहता है, सब जीवों पर उसका (पवन) -चक्र झूल रहा है, (सारी बनस्पति) सदैव फूल दे रही है यही है उसके वास्ते धूप।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि स्मपटु है रे जा का ॥ अभग सभा संगि है साधा ॥ आरती कीरतनु सदा अनंद ॥ महिमा सुंदर सदा बेअंत ॥३॥
मूलम्
घटि घटि स्मपटु है रे जा का ॥ अभग सभा संगि है साधा ॥ आरती कीरतनु सदा अनंद ॥ महिमा सुंदर सदा बेअंत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। संपटु = वह डब्बा जिसमें ठाकुर रखे जाते हैं। रे = हे भाई! अभग = ना नाश होने वाली। संगि = साथ। महिमा = बड़ाई।3।
अर्थ: (हे पण्डित!) हरेक शरीर में वह बस रहा है, हरेक का हृदय ही उसका (ठाकुरों वाला) डब्बा है, उसकी संत-सभा कभी खत्म होने वाली नहीं है, साधु-संगत में वह हर वक्त बसता है, जहाँ उसकी सदा आनन्द देने वाली महिमा हो रही है, ये महिमा उसकी ही आरती है, उस बेअंत और सुंदर (हरि-सालिगराम) की सदा महिमा हो रही है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसहि परापति तिस ही लहना ॥ संत चरन ओहु आइओ सरना ॥ हाथि चड़िओ हरि सालगिरामु ॥ कहु नानक गुरि कीनो दानु ॥४॥३९॥९०॥
मूलम्
जिसहि परापति तिस ही लहना ॥ संत चरन ओहु आइओ सरना ॥ हाथि चड़िओ हरि सालगिरामु ॥ कहु नानक गुरि कीनो दानु ॥४॥३९॥९०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसहि परापति = जिसके भाग्यों में उसकी प्राप्ति लिखी हुई है। तिस ही = उसे ही। हाथ चढ़ियो = मिल गया। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: (पर, हे पण्डित!) जिस मनुष्य के भाग्यों में उस (हरि-सालिगराम) की प्राप्ति लिखी है उसी को वह मिलता है, वह मनुष्य संतों क चरणों में लगता है वह संतों के शरण पड़ा रहता है।
हे नानक! कह: जिस मनुष्य को गुरु ने (नाम की) दाति बख्शी, उसे हरि-सालिगराम मिल जाता है।4।39।90।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ पंचपदा१ ॥ जिह पैडै लूटी पनिहारी ॥ सो मारगु संतन दूरारी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ पंचपदा१ ॥ जिह पैडै लूटी पनिहारी ॥ सो मारगु संतन दूरारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह पैडै = जिस रास्ते में। पनिहारी = पानी भरने वाली, कामादिक विकारों का पानी भरने वाली, विकारों में फसी हुई जीव-स्त्री। मारगु = रास्ता।1।
अर्थ: (हे भाई!) विकारों में फंसी हुई जीव-स्त्री जिस जीवन-रास्ते में (आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी) लुटा बैठती है, वह रास्ता संत-जनों से दूर रह जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर पूरै साचु कहिआ ॥ नाम तेरे की मुकते बीथी जम का मारगु दूरि रहिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुर पूरै साचु कहिआ ॥ नाम तेरे की मुकते बीथी जम का मारगु दूरि रहिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम। मुकते = खुली। बीथी = वीथी, गली।1।
अर्थ: हे प्रभु! पूरे गुरु ने जिस मनुष्य को तेरा सदा स्थिर रहने वाला उपदेश दे दिया, जम दूतों (आत्मिक मौत) वाला रास्ता उस मनुष्य से दूर किनारे रह जाता है उसको तेरे नाम की इनायत से जीवन-सफर में खुला रास्ता मिल जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह लालच जागाती घाट ॥ दूरि रही उह जन ते बाट ॥२॥
मूलम्
जह लालच जागाती घाट ॥ दूरि रही उह जन ते बाट ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ। जागाती = मसूलिया। घाट = पत्तन। बाट = वाट, रास्ता।2।
अर्थ: (हे भाई!) जहाँ लालची महसूलिए का पत्तन है (जहाँ जम-महसूलिये किए कर्मों के बारे में फटकार लगाते हैं) वह रास्ता संत-जनों से परे रह जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह आवटे बहुत घन साथ ॥ पारब्रहम के संगी साध ॥३॥
मूलम्
जह आवटे बहुत घन साथ ॥ पारब्रहम के संगी साध ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवटे = आवर्क्तए, दुखी होते हैं। घन = बहुत। साथ = काफले। संगी = साथी।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस जीवन-यात्रा में (माया में ग्रसित जीवों के) अनेक ही काफले (किए मंद-कर्मों के कारण) दुखी होते रहते हैं, गुरमुखि मनुष्य (उस सफर में) परमात्मा के सत्संगी बने रहते हैं (इस करके गुरमुखों को कोई दुख नहीं व्याप्ता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्र गुपतु सभ लिखते लेखा ॥ भगत जना कउ द्रिसटि न पेखा ॥४॥
मूलम्
चित्र गुपतु सभ लिखते लेखा ॥ भगत जना कउ द्रिसटि न पेखा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चित्र गुपतु = जीवों के कर्मों के गुप्त चित्र लिखने वाले। कउ = को। द्रिसटि न पेखा = निगाह मार के भी नहीं देख सकते।4।
अर्थ: (हे भाई! माया ग्रसित जीवों के किए कर्मों का लेखा लिखने वाले) चित्र-गुप्त सब जीवों के किए कर्मों का हिसाब लिखते रहते हैं, पर परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों की तरफ वे आँख उठा के भी नहीं देख सकते।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिसु सतिगुरु पूरा ॥ वाजे ता कै अनहद तूरा ॥५॥४०॥९१॥
मूलम्
कहु नानक जिसु सतिगुरु पूरा ॥ वाजे ता कै अनहद तूरा ॥५॥४०॥९१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पंचपदा = पाँच बंदों वाला एक शब्द।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता कै = उसके हृदय में। अनहद = एक रस। तूरा = बाजे।5।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है उसके हृदय में सदा प्रभु की महिमा के एक-रस बाजे बजते रहते हैं (इस वास्ते) उसे विकारों की प्रेरना नहीं सुनती।5।40।91।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ दुपदा १ ॥ साधू संगि सिखाइओ नामु ॥ सरब मनोरथ पूरन काम ॥ बुझि गई त्रिसना हरि जसहि अघाने ॥ जपि जपि जीवा सारिगपाने ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ दुपदा १ ॥ साधू संगि सिखाइओ नामु ॥ सरब मनोरथ पूरन काम ॥ बुझि गई त्रिसना हरि जसहि अघाने ॥ जपि जपि जीवा सारिगपाने ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। संगि = संगति में। सरब = सारे। काम = काम। पूरन = पूरे हो जाते हैं। जसहि = यश में, महिमा में। अघाने = तृप्त रहते हैं। जीवा = मैं जीता हूँ। सारिगपाने = (सारंग = धनुष। पानि, पाणि, हाथ। जिसके हाथ में धनुष है, जो सब का नाश करने वाला भी है) परमात्मा।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों को) गुरु अपनी संगति में रख के परमात्मा का नाम स्मरण सिखाता है, उनके सारे उद्देश्य, सारे काम सफल हो जाते हैं (उनके अंदर से तृष्णा की आग) बुझ जाती है, वह परमात्मा की महिमा में टिक के (माया की ओर से) तृप्त रहते हैं।
(हे भाई!) मैं ज्यों-ज्यों परमात्मा का नाम जपता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावन सरनि परिआ ॥ गुर परसादि सहज घरु पाइआ मिटिआ अंधेरा चंदु चड़िआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करन करावन सरनि परिआ ॥ गुर परसादि सहज घरु पाइआ मिटिआ अंधेरा चंदु चड़िआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादि = प्रसादि, कृपा से। सहज = आत्मिक अडोलता।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य) गुरु की किरपा से उस परमात्मा की शरण पड़ जाता है (जो सब कुछ करने व सब कुछ कराने की ताकत रखने वाला है) वह मनुष्य वह आत्मिक ठिकाना तलाश लेता है, जहाँ उसे आत्मिक अडोलता मिली रहती है। (उसके अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर हो जाता है (उसके अंदर, मानो) चंद्रमा चढ़ जाता है (आत्मिक जीवन की रौशनी हो जाती है)।1। रहाउ।
[[0394]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाल जवेहर भरे भंडार ॥ तोटि न आवै जपि निरंकार ॥ अम्रित सबदु पीवै जनु कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥२॥४१॥९२॥
मूलम्
लाल जवेहर भरे भंडार ॥ तोटि न आवै जपि निरंकार ॥ अम्रित सबदु पीवै जनु कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥२॥४१॥९२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाल = हीरे। भंडार = खजाने। जपि = जप के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला जल। जनु कोइ = जो भी मनुष्य। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक आवस्था।2।
अर्थ: हे नानक! (उच्च आत्मिक जीवन वाले गुण, मानो) हीरे जवाहरात हैं, परमात्मा का नाम जप-जप के मनुष्य के अंदर इनके खजाने भर जाते हैं और कभी इनकी कमी नहीं रहती। गुरु का शब्द आत्मिक जीवन देने वाला जल (अमृत) है, जो भी मनुष्य ये नाम-जल पीता है उसकी सबसे उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।2।41।92।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा घरु ७ महला ५ ॥ हरि का नामु रिदै नित धिआई ॥ संगी साथी सगल तरांई ॥१॥
मूलम्
आसा घरु ७ महला ५ ॥ हरि का नामु रिदै नित धिआई ॥ संगी साथी सगल तरांई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। धिआई = मैं ध्याऊँ। सगल = सारे। तरांई = मैं पार लांघ जाऊँ।1।
अर्थ: (हे भाई! अंग-संग बसते गुरु की ही कृपा से) मैं परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में ध्याता हूँ (इस तरह मैं संसार-समुंदर से पार लांघने के योग्य हो रहा हूँ) अपने संगियों-साथियों (ज्ञान-इंद्रिय) को पार लंघाने के काबिल बन रहा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु मेरै संगि सदा है नाले ॥ सिमरि सिमरि तिसु सदा सम्हाले ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरु मेरै संगि सदा है नाले ॥ सिमरि सिमरि तिसु सदा सम्हाले ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। तिसु = उस (परमात्मा) को। समाले = संभालूँ, मैं हृदय में टिका के रखूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मेरा) गुरु सदा मेरे साथ बसता है मेरे अंग-संग रहता है (प्रभु की कृपा से) मैं उस (परमात्मा) को सदा स्मरण करके सदा अपने दिल में बसाए रखता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा कीआ मीठा लागै ॥ हरि नामु पदारथु नानकु मांगै ॥२॥४२॥९३॥
मूलम्
तेरा कीआ मीठा लागै ॥ हरि नामु पदारथु नानकु मांगै ॥२॥४२॥९३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानकु मांगै = नानक माँगता है।2।
अर्थ: (हे प्रभु! ये तेरे मिलाए हुए गुरु की मेहर ही है कि) मुझे तेरा किया हुआ हरेक काम अच्छा लग रहा है और (तेरा दास) नानक तेरे से (तेरी) सबसे कीमती वस्तु तेरा नाम मांग रहा है।2।42।93।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ साधू संगति तरिआ संसारु ॥ हरि का नामु मनहि आधारु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ साधू संगति तरिआ संसारु ॥ हरि का नामु मनहि आधारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। मनहि = मन का। आधारु = आसरा।1।
अर्थ: हे भाई! (जो भी मनुष्य निम्रता धार के गुरु की संगति करता है) गुरु की संगति की इनायत से वह संसार समुंदर से पार लांघ जाता है (क्योंकि) परमात्मा का नाम उसके मन का आसरा बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल गुरदेव पिआरे ॥ पूजहि संत हरि प्रीति पिआरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चरन कमल गुरदेव पिआरे ॥ पूजहि संत हरि प्रीति पिआरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर कोमल चरण। पूजहि = पूजते हैं। पिआरे = प्यार से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) हरि के संत जन, प्रीति से प्यार से गुरदेव के सुंदर कोमल चरण पूजते रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै मसतकि लिखिआ भागु ॥ कहु नानक ता का थिरु सोहागु ॥२॥४३॥९४॥
मूलम्
जा कै मसतकि लिखिआ भागु ॥ कहु नानक ता का थिरु सोहागु ॥२॥४३॥९४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। सोहागु = अच्छे भाग्य। थिरु = सदा कायम रहने वाला।2।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पे (पूर्बले जन्मों के कर्मों के) लिखे लेख जाग पड़ते हैं उसको मिली ये सौभाग्य (गुरु की संगति की इनायत से) सदैव कायम रहती है।2।43।94।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: नं: 92, 93 और 94 ये तीन शब्द दो-दो बंदों वाले हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ मीठी आगिआ पिर की लागी ॥ सउकनि घर की कंति तिआगी ॥ प्रिअ सोहागनि सीगारि करी ॥ मन मेरे की तपति हरी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ मीठी आगिआ पिर की लागी ॥ सउकनि घर की कंति तिआगी ॥ प्रिअ सोहागनि सीगारि करी ॥ मन मेरे की तपति हरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिर की = प्रभु पति की। आगिआ = रजा। सउकनि घर की = मेरे हृदय घर में बसती सौकन। सउकनि = पति के मिलाप में रोक डालने वाली माया। कंति = कंत ने। तिआगी = खलासी कर दी है। सीगारि करी = मुझे सोहणी बना दिया है। तपसि = तपश। हरी = हर ली, दूर कर दी है।1।
अर्थ: (हे सखी! गुरु की कृपा से जब से) मुझे प्रभु पति की रजा मीठी लग रही है (तब से) प्रभु-पति ने मेरा हृदय-घर कब्जा करके बैठी मेरी सौतन (माया) से मेरी खलासी करा दी है। प्यारे ने सोहागनि बना के मुझे (मेरे आत्मिक जीवन को) सुंदर बना दिया है, और मेरे मन की (तृष्णा की) तपस दूर कर दी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भलो भइओ प्रिअ कहिआ मानिआ ॥ सूखु सहजु इसु घर का जानिआ ॥ रहाउ॥
मूलम्
भलो भइओ प्रिअ कहिआ मानिआ ॥ सूखु सहजु इसु घर का जानिआ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भलो भइओ = अच्छा हुआ, मेरे भाग्य जाग पड़े। प्रिअ कहिआ = प्यारे का हुक्म। सहजु = आत्मिक अडोलता। इसु घर का = इस हृदय घर का।1। रहाउ।
अर्थ: (हे सखी!) मेरे भाग्य जाग गए हैं (कि गुरु की कृपा से) मैंने प्यारे (प्रभु पति) की रजा (मीठी कर के) माननी आरम्भ कर दी है, अब मेरे इस हृदय घर में बसते सुख और आत्मिक अडोलता से मेरी गहरी सांझ बन गई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ बंदी प्रिअ खिजमतदार ॥ ओहु अबिनासी अगम अपार ॥ ले पखा प्रिअ झलउ पाए ॥ भागि गए पंच दूत लावे ॥२॥
मूलम्
हउ बंदी प्रिअ खिजमतदार ॥ ओहु अबिनासी अगम अपार ॥ ले पखा प्रिअ झलउ पाए ॥ भागि गए पंच दूत लावे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। बंदी = दासी। खिजमतदार = सेवा करने वाली। ओहु = वह प्रभु पति। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। ले = लेकर। झलउ = मैं झलती हूँ। पाए = पैरों में (खड़े हो के)। दूत = वैरी। लावै = काटे, (आत्मिक जीवन को) काटने वाले।2।
अर्थ: (हे सखी! अब) मैं प्यारे प्रभु-पति की दासी बन गई हूँ सेवादारनी बन गई हूँ। (हे सखी! मेरा) वह (पति) कभी मरने वाला नहीं, अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत है। (हे सखी! गुरु की कृपा से जब से) पंखा (हाथ में) पकड़ के उसके पैरों में खड़े हो के मैं उस प्यारे को झलती रहती हूँ (तब से मेरे आत्मिक जीवन की जड़ें) काटने वाले कामादिक पाँचों विकार भाग गए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना मै कुलु ना सोभावंत ॥ किआ जाना किउ भानी कंत ॥ मोहि अनाथ गरीब निमानी ॥ कंत पकरि हम कीनी रानी ॥३॥
मूलम्
ना मै कुलु ना सोभावंत ॥ किआ जाना किउ भानी कंत ॥ मोहि अनाथ गरीब निमानी ॥ कंत पकरि हम कीनी रानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुलु = ऊँचा खानदान। किआ जाना = मैं क्या जानूँ? किउ = किस तरह? भानी = पसंद आई। मोहि = मुझे। कंत = कंत ने। कीनी = बना ली।3।
अर्थ: (हे सखी!) मेरा ना कोई ऊँचा खानदान है, ना (किसी गुण की इनायत से) मैं शोभा की मालिक हूँ, मुझे पता नहीं कि मैं कैसे प्रभु-पति को अच्छी लग रही हूँ। (हे सखी! ये गुरु पातशह ही की मेहर है कि) मुझ अनाथ को, गरीबनी को, निमाणी को, कंत प्रभु ने (बाँह से) पकड़ के अपनी रानी बना लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब मुखि प्रीतमु साजनु लागा ॥ सूख सहज मेरा धनु सोहागा ॥ कहु नानक मोरी पूरन आसा ॥ सतिगुर मेली प्रभ गुणतासा ॥४॥१॥९५॥
मूलम्
जब मुखि प्रीतमु साजनु लागा ॥ सूख सहज मेरा धनु सोहागा ॥ कहु नानक मोरी पूरन आसा ॥ सतिगुर मेली प्रभ गुणतासा ॥४॥१॥९५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि लागा = मुंह पर लगा, दिखा, दर्शन हुए। धनु = धन्य, भाग्यशाली। मोरी = मेरी। सतिगुर = सतिगुर ने। गुणतासा = गुणों का खजाना।4।
अर्थ: (हे सहेलिए! जब से) मुझे मेरा सज्जन प्रीतम मिला है, मेरे अंदर आनंद बन रहा है आत्मिक अडोलता पैदा हो गई है, मेरे भाग्य जाग पड़े हैं।
हे नानक! कह: (हे सखिए! प्रभु-पति के मिलाप की) मेरी आस पूरी हो गई है, सतिगुरु ने ही मुझे गुणों के खजाने उस प्रभु से मिलाया है।4।1।95।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द नं: 94 से फिर चार बंदों वाले शब्द शुरू हो गए हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ माथै त्रिकुटी द्रिसटि करूरि ॥ बोलै कउड़ा जिहबा की फूड़ि ॥ सदा भूखी पिरु जानै दूरि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ माथै त्रिकुटी द्रिसटि करूरि ॥ बोलै कउड़ा जिहबा की फूड़ि ॥ सदा भूखी पिरु जानै दूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माथै = माथे पे। त्रिकुटी = तिउड़ी। करूरि = गुस्से भरी। फूड़ि = खरवीं।1।
अर्थ: (हे भाई! उस माया-स्त्री के) माथे पे त्रिकुटी (पड़ी रहती) है उसकी निगाह गुस्से से भरी रहती है वह (सदा) कड़वा बोलती है, जीभ भी कटु है (सारे जगत के आत्मिक जीवन को हड़प करके भी) वह भूखी की भूखी रहती है (जगत में आ रहे सब जीवों को हड़पने को तैयार रहती है) वह (माया-स्त्री) प्रभु-पति को कहीं दूर बसता समझती है (प्रभु-पति की परवाह ही नहीं करती)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी इसत्री इक रामि उपाई ॥ उनि सभु जगु खाइआ हम गुरि राखे मेरे भाई ॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी इसत्री इक रामि उपाई ॥ उनि सभु जगु खाइआ हम गुरि राखे मेरे भाई ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रामि = राम ने, परमात्मा ने। उपाई = पैदा की। उनि = उस (स्त्री) ने। हम = मुझे। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! परमात्मा ने (माया) एक ऐसा स्त्री पैदा की हुई है कि उसने सारे जगत को खा लिया है (अपने काबू में किया हुआ है), मुझे तो गुरु ने (उस माया स्त्री से) बचा के रखा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइ ठगउली सभु जगु जोहिआ ॥ ब्रहमा बिसनु महादेउ मोहिआ ॥ गुरमुखि नामि लगे से सोहिआ ॥२॥
मूलम्
पाइ ठगउली सभु जगु जोहिआ ॥ ब्रहमा बिसनु महादेउ मोहिआ ॥ गुरमुखि नामि लगे से सोहिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठगउरी = ठग-बूटी, वह नशीली बूटी जो खिला के ठग भोले राहगीरों को ठग लिया करते हैं। जोहिआ = ताक में दृष्टि में रखा हुआ है। मोहिआ = मोह में फसा लिया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। नामि = नाम में। से = वह लोग। सोहिआ = सोहने बन गए।2।
अर्थ: (हे भाई! माया-स्त्री ने) ठग-बूटी खिला के सारे जगत को अपनी ताक में रखा हुआ है। (जीव की भी क्या बिसात? उसने तो) ब्रहमा को, विष्णु को, शिव को अपने मोह में फंसाया हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में जुड़े रहते हैं (उससे बच के) सोहने आत्मिक जीवन वाले बने रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरत नेम करि थाके पुनहचरना ॥ तट तीरथ भवे सभ धरना ॥ से उबरे जि सतिगुर की सरना ॥३॥
मूलम्
वरत नेम करि थाके पुनहचरना ॥ तट तीरथ भवे सभ धरना ॥ से उबरे जि सतिगुर की सरना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रि = कर के। पुनह चरना = पुनह आचरण, प्रायश्चित, पछतावे के तौर पर किए हुए धार्मिक कर्म। तट = नदी का किनारा। धरना = धरती। उबरे = (माया के पंजे से) बचे। जि = जो।3।
अर्थ: (हे भाई! अनेक लोग) व्रत रख-रख के धार्मिक नियम निबाह-निबाह के और (किए पापों के प्रभाव मिटाने के लिए) पछतावे के तौर पर धार्मिक रस्में कर-कर के थक गए, अनेक तीर्थों पर सारी धरती पर भटक चुके (पर इस माया-स्त्री से ना बच सके)। (हे भाई!) सिर्फ वही लोग बचते हैं जो गुरु की शरण पड़ते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहि सभो जगु बाधा ॥ हउमै पचै मनमुख मूराखा ॥ गुर नानक बाह पकरि हम राखा ॥४॥२॥९६॥
मूलम्
माइआ मोहि सभो जगु बाधा ॥ हउमै पचै मनमुख मूराखा ॥ गुर नानक बाह पकरि हम राखा ॥४॥२॥९६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेहि = मोह में। पचै = ख्वार होता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। गुर = हे गुरु! 4।
अर्थ: (हे भाई!) सारा जगत माया के मोह में बंधा पड़ा है। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य अहंकार में दुखी होता रहता है। हे नानक! (कह:) हे गुरु! मुझे तूने ही मेरी बाँह पकड़ के (इसके पँजे से) बचाया है।4।2।96।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सरब दूख जब बिसरहि सुआमी ॥ ईहा ऊहा कामि न प्रानी ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सरब दूख जब बिसरहि सुआमी ॥ ईहा ऊहा कामि न प्रानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सारे। बिसरहि = तू बिसरता है। सुआमी = हे स्वामी! ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। कामि न = किसी काम नहीं आता।1।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! जब (किसी जीव के मन में से) तू बिसर जाता है तो उसे सारे दुख आ घेरते हैं, वह जीव लोक-परलोक में किसी काम नहीं आता (उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है)।1।
[[0395]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत त्रिपतासे हरि हरि ध्याइ ॥ करि किरपा अपुनै नाइ लाए सरब सूख प्रभ तुमरी रजाइ ॥ रहाउ॥
मूलम्
संत त्रिपतासे हरि हरि ध्याइ ॥ करि किरपा अपुनै नाइ लाए सरब सूख प्रभ तुमरी रजाइ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपतासे = तृप्त रहते हैं। ध्याइ = ध्याय (‘ध’ के नीचे आधा ‘य्’ है), स्मरण करके। नाइ = नाम में। रजाइ = रजा मानने से, हुक्म में चलने से। प्रभ = हे प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी रजा में चलने से सारे सुख प्राप्त होते हैं। हे प्रभु! जिस मनुष्यों को मेहर करके तू अपने नाम के साथ जोड़े रखता है वह (तेरे) संत-जन तेरा हरि-नाम स्मरण कर-कर के (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगि होवत कउ जानत दूरि ॥ सो जनु मरता नित नित झूरि ॥२॥
मूलम्
संगि होवत कउ जानत दूरि ॥ सो जनु मरता नित नित झूरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। कउ = को। मरता = आत्मिक मौत लेता है। झूरि = झुर झुर के, खिझ खिझ के।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अपने अंग-संग बसते परमात्मा को कहीं दूर बसता समझता है वह सदा (माया की तृष्णा के अधीन) खिझ-खिझ के आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि सभु किछु दीआ तिसु चितवत नाहि ॥ महा बिखिआ महि दिनु रैनि जाहि ॥३॥
मूलम्
जिनि सभु किछु दीआ तिसु चितवत नाहि ॥ महा बिखिआ महि दिनु रैनि जाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। बिखिआ = माया। रैनि = रात। जाहि = बीतते हैं।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा ने हरेक चीज दी है जो मनुष्य उसको याद नहीं करता उस के (जिंदगी के) सारे रात-दिन खासी माया (के मोह) में (फसे हुए ही) गुजरते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक प्रभु सिमरहु एक ॥ गति पाईऐ गुर पूरे टेक ॥४॥३॥९७॥
मूलम्
कहु नानक प्रभु सिमरहु एक ॥ गति पाईऐ गुर पूरे टेक ॥४॥३॥९७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! गति = उच्च आत्मिक अवस्था। टेक = आसरा, शरण।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) पूरे गुरु की शरण पड़ के एक परमात्मा को याद करते रहा करो (इस तरह) ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है (और माया की तृष्णा में नहीं फंसते)।4।3।97।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ नामु जपत मनु तनु सभु हरिआ ॥ कलमल दोख सगल परहरिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ नामु जपत मनु तनु सभु हरिआ ॥ कलमल दोख सगल परहरिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। हरिआ = हरा (जिस वृक्ष में जान हो वह हरा होता है। जीन हीन वृक्ष सूख जाता है) आत्मिक जीवन वाला। कलमल = पाप। दोख = ऐब। परहरिआ = दूर हो गए।1।
अर्थ: (हे भाई! जैसे पानी मिलने से वृक्ष हरा-भरा हो जाता है, वृक्ष में मानो जान वापस आ जाती है वैसे ही) परमात्मा का नाम जपने से (नाम-जल से) मनुष्य का मन, मनुष्य का हृदय आत्मिक जीवन वाला हो जाता है (उसके अंदर से) सारे पाप-एैब दूर हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई दिवसु भला मेरे भाई ॥ हरि गुन गाइ परम गति पाई ॥ रहाउ॥
मूलम्
सोई दिवसु भला मेरे भाई ॥ हरि गुन गाइ परम गति पाई ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे भाई! सिर्फ वही दिन (मनुष्य के लिए) बढ़िया होता है जबवह परमात्मा के गुण गा के सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध जना के पूजे पैर ॥ मिटे उपद्रह मन ते बैर ॥२॥
मूलम्
साध जना के पूजे पैर ॥ मिटे उपद्रह मन ते बैर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरमुखि। उपद्रह = उपद्रव, छेड़खानियां। ते = से, में से।2।
अर्थ: जो मनुष्य गुरमुखों के पैर पूजता है उसके मन में से सारी छेड़खानियां-उपद्रव, सारे वैर-विरोध मिट जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूरे मिलि झगरु चुकाइआ ॥ पंच दूत सभि वसगति आइआ ॥३॥
मूलम्
गुर पूरे मिलि झगरु चुकाइआ ॥ पंच दूत सभि वसगति आइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। झगरु = झगड़ा। पंच दूत = कामादिक पाँचवैरी। सभि = सारे।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के (अपने अंदर से विकारों का) झगड़ा खत्म कर लिया, कामादिक पाँच वैरी सारे उसके काबू में आ जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु मनि वसिआ हरि का नामु ॥ नानक तिसु ऊपरि कुरबान ॥४॥४॥९८॥
मूलम्
जिसु मनि वसिआ हरि का नामु ॥ नानक तिसु ऊपरि कुरबान ॥४॥४॥९८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। ऊपरि = ऊपर से।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है उससे सदा सदके होना चाहिए।4।4।98।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ गावि लेहि तू गावनहारे ॥ जीअ पिंड के प्रान अधारे ॥ जा की सेवा सरब सुख पावहि ॥ अवर काहू पहि बहुड़ि न जावहि ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ गावि लेहि तू गावनहारे ॥ जीअ पिंड के प्रान अधारे ॥ जा की सेवा सरब सुख पावहि ॥ अवर काहू पहि बहुड़ि न जावहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावि लेहि = गा ले, गाया कर। गावनहारे = हे गाने वाले! जीअ अधार = जिंद का आसरा। पिंड अधार = शरीर का आसरा। पावहि = तू प्राप्त करता है। काहू पहि = किसी के पास। बहुड़ि = दुबारा, फिर।1।
अर्थ: हे भाई! जब तक गाने की स्मर्था है उसे गाते रहो जो तेरी जिंद का आसरा है जो तेरे शरीर का आसरा है जो तेरे प्राणों का आसरा है, जिसकी सेवा-भक्ति करके तू सारे सुख हासिल कर लेगा (और सुखों की तलाश में) किसी और के पास पुनः जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा अनंद अनंदी साहिबु गुन निधान नित नित जापीऐ ॥ बलिहारी तिसु संत पिआरे जिसु प्रसादि प्रभु मनि वासीऐ ॥ रहाउ॥
मूलम्
सदा अनंद अनंदी साहिबु गुन निधान नित नित जापीऐ ॥ बलिहारी तिसु संत पिआरे जिसु प्रसादि प्रभु मनि वासीऐ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनंदी = आनंद का स्रोत। गुन निधान = गुणों का खजाना। जापीऐ = जपना चाहिए। संत = गुरु। प्रसादि = कृपा से। मनि = मन में। वासीऐ = बसा सकते हैं। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) उस मालिक प्रभु (के नाम) को सदा ही जपना चाहिए जो सारे गुणों का खजाना है जो सदा आनंद का स्रोत है। (हे भाई!) उस प्यारे गुरु को सदके जाना चाहिए जिसकी कृपा से परमात्मा को मन में बसा सकते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा का दानु निखूटै नाही ॥ भली भाति सभ सहजि समाही ॥ जा की बखस न मेटै कोई ॥ मनि वासाईऐ साचा सोई ॥२॥
मूलम्
जा का दानु निखूटै नाही ॥ भली भाति सभ सहजि समाही ॥ जा की बखस न मेटै कोई ॥ मनि वासाईऐ साचा सोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानु = बख्शिश। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: हे भाई! उस सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को ही सदा अपने मन में बसाना चाहिए जिसकी दी हुई दाति कभी खत्म नहीं होती जिसकी की हुई बख्शिश की राह में कोई रुकावट नहीं डाल सकता (और जो-जो उसे मन में बसाते हैं वे) सारे अच्छी तरह आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल समग्री ग्रिह जा कै पूरन ॥ प्रभ के सेवक दूख न झूरन ॥ ओटि गही निरभउ पदु पाईऐ ॥ सासि सासि सो गुन निधि गाईऐ ॥३॥
मूलम्
सगल समग्री ग्रिह जा कै पूरन ॥ प्रभ के सेवक दूख न झूरन ॥ ओटि गही निरभउ पदु पाईऐ ॥ सासि सासि सो गुन निधि गाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल समग्री = सारे पदार्थ। पूरन = भरे हुए। गही = पकड़ा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। गुन निधि = गुणों का खजाना।3।
अर्थ: हे भाई! हरेक सांस के साथ गुणों के खजाने उस प्रभु के गुण गाते रहना चाहिए जिसके घर में (जीवों के वास्ते) सारे पदार्थ भरे पड़े रहते हैं जिसके सेवकों को कोई दुख कोई झोरे छू नहीं सकते और जिसका आसरा लेने से वह आत्मिक दर्जा मिल जाता है जहाँ कोई डर दबा नहीं सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूरि न होई कतहू जाईऐ ॥ नदरि करे ता हरि हरि पाईऐ ॥ अरदासि करी पूरे गुर पासि ॥ नानकु मंगै हरि धनु रासि ॥४॥५॥९९॥
मूलम्
दूरि न होई कतहू जाईऐ ॥ नदरि करे ता हरि हरि पाईऐ ॥ अरदासि करी पूरे गुर पासि ॥ नानकु मंगै हरि धनु रासि ॥४॥५॥९९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कत हू = कहाँ? करी = करूँ, मैं करता हूँ। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा हमसे दूर नहीं बसता, कहीं (दूर) तलाशने जाने की जरूरत नहीं, उसकी प्राप्ति तभी हो सकती है जबवह खुद मेहर की नज़र करे।
हे भाई! मैं तो पूरे गुरु के पास अरदास करता हूँ (और कहता हूँ- हे गुरु! तेरे से) नानक हरि-नाम-धन मांगता है हरि-नाम की पूंजी मांगता है।4।5।99।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ प्रथमे मिटिआ तन का दूख ॥ मन सगल कउ होआ सूखु ॥ करि किरपा गुर दीनो नाउ ॥ बलि बलि तिसु सतिगुर कउ जाउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ प्रथमे मिटिआ तन का दूख ॥ मन सगल कउ होआ सूखु ॥ करि किरपा गुर दीनो नाउ ॥ बलि बलि तिसु सतिगुर कउ जाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। कउ = को। करि = कर के। गुरि = गुरु ने। बलि बलि = कुरबान। जाउ = मैं जाता हूँ, जाऊँ।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु को मिल के सबसे) पहले मेरे शरीर के हरेक दुख मिट गए, फिर मेरे मन को पूर्ण आनंद प्राप्त हुआ। गुरु ने कृपा करके मुझे परमात्मा का नाम दिया। (हे भाई!) मैं उस गुरु से सदा कुर्बान जाता हूँ सदके जाता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु पूरा पाइओ मेरे भाई ॥ रोग सोग सभ दूख बिनासे सतिगुर की सरणाई ॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरु पूरा पाइओ मेरे भाई ॥ रोग सोग सभ दूख बिनासे सतिगुर की सरणाई ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई = हे भाई!। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! जब से मुझे पूरा गुरु मिला है गुरु की शरण पड़ के मेरे सारे रोग सारी चिन्ता-फिक्र सारे दुख नाश हो गए हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर के चरन हिरदै वसाए ॥ मन चिंतत सगले फल पाए ॥ अगनि बुझी सभ होई सांति ॥ करि किरपा गुरि कीनी दाति ॥२॥
मूलम्
गुर के चरन हिरदै वसाए ॥ मन चिंतत सगले फल पाए ॥ अगनि बुझी सभ होई सांति ॥ करि किरपा गुरि कीनी दाति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। मन चिंतत = मन इच्छित। सांति = ठंड।2।
अर्थ: (हे भाई! जब से) मैंने गुरु के चरण अपने हृदय में बसाए हैं मुझे सारे मन-इच्छित फल मिल रहे हैं (मेरे अंदर से तृष्णा की) आग बुझ गर्ह है (मेरे अंदर) पूरी ठंड पड़ गई है। ये सारी दाति गुरु ने ही मेहर करके दी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निथावे कउ गुरि दीनो थानु ॥ निमाने कउ गुरि कीनो मानु ॥ बंधन काटि सेवक करि राखे ॥ अम्रित बानी रसना चाखे ॥३॥
मूलम्
निथावे कउ गुरि दीनो थानु ॥ निमाने कउ गुरि कीनो मानु ॥ बंधन काटि सेवक करि राखे ॥ अम्रित बानी रसना चाखे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निथावा = जिसे कोई आसरा सहारा ना मिले। काटि = काट के। करि = बना के। रसना = जीभ।3।
अर्थ: मुझे पहले कोई आसरा नहीं था मिलता। गुरु ने मुझे (अपने चरणों में) जगह दी, मुझ निमाणे को गुरु ने आदर दिया है, मेरे (माया के मोह के) बंधन काट के मुझे गुरु ने अपना सेवक बना के अपने चरणों में टिका लिया, अब मेरी जीभ आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी (का रस) चखती रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडै भागि पूज गुर चरना ॥ सगल तिआगि पाई प्रभ सरना ॥ गुरु नानक जा कउ भइआ दइआला ॥ सो जनु होआ सदा निहाला ॥४॥६॥१००॥
मूलम्
वडै भागि पूज गुर चरना ॥ सगल तिआगि पाई प्रभ सरना ॥ गुरु नानक जा कउ भइआ दइआला ॥ सो जनु होआ सदा निहाला ॥४॥६॥१००॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वडै भागि = बड़ी किस्मत से। पूज = पूजा। तिआगि = त्याग के। नानक = हे नानक! जा कउ = जिस मनुष्य पर। निहाला = प्रसन्न, खुश।4।
अर्थ: (हे भाई!) बड़ी किस्मत से मुझे गुरु के चरणों की पूजा (का अवसर मिला जिसकी इनायत से) मैं और सारे आसरे छोड़ के प्रभु की शरण में आ पड़ा हूँ।
हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर गुरु दयावान हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक आनंद पाता है।4।6।100।
[[0396]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ सतिगुर साचै दीआ भेजि ॥ चिरु जीवनु उपजिआ संजोगि ॥ उदरै माहि आइ कीआ निवासु ॥ माता कै मनि बहुतु बिगासु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ सतिगुर साचै दीआ भेजि ॥ चिरु जीवनु उपजिआ संजोगि ॥ उदरै माहि आइ कीआ निवासु ॥ माता कै मनि बहुतु बिगासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने। चिरुजीवनु = अटल आत्मिक जीवन। संजोगि = (गुरु की) संगत से। उदरै माहि = (माँ के) पेट में। कै मनि = के मन में। बिगासु = खुशी।1।
अर्थ: (हे भाई!) सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने गुरु (नानक) को (जगत में) भेजा है उसकी संगति (की इनायत) से (सिखों के दिल में) अटल आत्मिक जीवन पैदा हो रहा है। (हे भाई! जैसे जब माँ के) पेट में (बच्चा) आ निवास करता है तो माँ के मन में बहुत खुशी पैदा होती है (वैसे ही सिख के अंदर अटल आत्मिक जीवन आनंद पैदा करता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जमिआ पूतु भगतु गोविंद का ॥ प्रगटिआ सभ महि लिखिआ धुर का ॥ रहाउ॥
मूलम्
जमिआ पूतु भगतु गोविंद का ॥ प्रगटिआ सभ महि लिखिआ धुर का ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूतु = (परमात्मा का) पुत्र। सभ महि = सब जीवों के अंदर। प्रगटिआ = प्रगट हो पड़ा, जाग गया। लिखिआ धुर का = (जीवों के किए कर्मों अनुसार) धुर दरगाह का लिखा (संस्कार रूपी) लेख। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! गुरु नानक) परमात्मा का भक्त पैदा हुआ (परमात्मा का) पुत्र पैदा हुआ (उसकी इनायत से उसकी शरण आने वाले) सारे जीवों के अंदर धुर-दरगाह के (सेवा-भक्ति के) लेख अंकुरित हो रहे हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसी मासी हुकमि बालक जनमु लीआ ॥ मिटिआ सोगु महा अनंदु थीआ ॥ गुरबाणी सखी अनंदु गावै ॥ साचे साहिब कै मनि भावै ॥२॥
मूलम्
दसी मासी हुकमि बालक जनमु लीआ ॥ मिटिआ सोगु महा अनंदु थीआ ॥ गुरबाणी सखी अनंदु गावै ॥ साचे साहिब कै मनि भावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दसी मासी = दस महीनों में। हुकमि = (परमात्मा के) हुक्म अनुसार। सोगु = चिन्ता फिक्र। सखी = जो सखी, जो सत्संगी। भावै = प्यारा लगता है।2।
अर्थ: (हे भाई! जैसे जिस घर में) परमात्मा के हुक्म अनुसार दसवें महीने पुत्र पैदा होता है (तो उस घर में से) ग़म मिट जाता है और बड़ा उत्साह होता है; (वैसे ही जो सत्संगी) सहेली गुरु की महिमा की वाणी गाती है वह आत्मिक आनंद पाती है और वह सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के मन को प्यारी लगती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधी वेलि बहु पीड़ी चाली ॥ धरम कला हरि बंधि बहाली ॥ मन चिंदिआ सतिगुरू दिवाइआ ॥ भए अचिंत एक लिव लाइआ ॥३॥
मूलम्
वधी वेलि बहु पीड़ी चाली ॥ धरम कला हरि बंधि बहाली ॥ मन चिंदिआ सतिगुरू दिवाइआ ॥ भए अचिंत एक लिव लाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेलि = गुरसिखी वाली बेल। पीढ़ी = वंश, कुल। कला = ताकत, सत्ता। बंधि = बांध के, पक्की करके। बहाली = टिका दी। मन चिंदिआ = मन इच्छित (फल)। अचिंत = बेफिक्र।3।
अर्थ: (हे भाई! जो भाग्यशाली मनुष्य गुरु की संगति की इनायत से) एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ते हैं वे चिन्ता से रहित हो जाते हैं सतिगुरु उन्हें मन-इच्छित फल देता है, गुरु उन गुरसिखों में परमात्मा की धर्म-सत्ता पक्की करके टिका देता है, ये गुरसिख ही (गुरु की परमात्मा की) बढ़ रही बेल हैं, चल रही पीढ़ी हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ बालकु पिता ऊपरि करे बहु माणु ॥ बुलाइआ बोलै गुर कै भाणि ॥ गुझी छंनी नाही बात ॥ गुरु नानकु तुठा कीनी दाति ॥४॥७॥१०१॥
मूलम्
जिउ बालकु पिता ऊपरि करे बहु माणु ॥ बुलाइआ बोलै गुर कै भाणि ॥ गुझी छंनी नाही बात ॥ गुरु नानकु तुठा कीनी दाति ॥४॥७॥१०१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोलै = बोलता है। कै भाणि = के भाणे में (चल के)। गुझी छंनी = छुपी हुई।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पुत्र के जन्म का दृष्टांत दे के गुरु की शरण से प्राप्त हुए सुख का वर्णन किया गया है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) अब ये कोई लुकी-छिपी बात नहीं है (हर कोई जानता है कि जिस मनुष्य पर) गुरु नानक दयावान होता है (जिसे नाम की) दाति देता है वह जो कुछ बोलता है गुरु का प्रेरित हुआ गुरु की रजा में ही बोलता है (वह अपने गुरु पर यूँ गर्व करता है) जैसे कोई पुत्र अपने पिता पर माण करता है (वह सिख गुरु से सहायता की उम्मीद भी वैसे ही रखता है जैसे पुत्र पिता से)।4।7।101।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ५ ॥ गुर पूरे राखिआ दे हाथ ॥ प्रगटु भइआ जन का परतापु ॥१॥
मूलम्
आसा महला ५ ॥ गुर पूरे राखिआ दे हाथ ॥ प्रगटु भइआ जन का परतापु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरा = सब गुणों से भरपूर। दे = दे के। जन = सेवक।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस सेवक को पूरा गुरु अपना हाथ दे के (विकार आदि से बचा के) रखता है उसकी शोभा-उपमा (सारे जगत में) प्रगट हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु गुरु जपी गुरू गुरु धिआई ॥ जीअ की अरदासि गुरू पहि पाई ॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरु गुरु जपी गुरू गुरु धिआई ॥ जीअ की अरदासि गुरू पहि पाई ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपी = मैं जपता हूँ। धिआई = मैं ध्याता हूँ। जीअ की = जिंद की। पहि = पास, से। पाई = मैं पाता हूँ। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा गुरु को ही याद करता हूँ; सदा गुरु का ही ध्यान धरता हूं। गुरु से ही मैं अपने मन की मांगी हुई जरूरतें हासिल करता हूँ। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनि परे साचे गुरदेव ॥ पूरन होई सेवक सेव ॥२॥
मूलम्
सरनि परे साचे गुरदेव ॥ पूरन होई सेवक सेव ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचे गुरदेव सरन = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के रूप सतिगुरु की शरण। पूरन = सफल।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो सेवक सदा स्थिर प्रभु के रूप सतिगुरु का आसरा लेते हैं उनकी सेवा (की मेहनत) सफल हो जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ पिंडु जोबनु राखै प्रान ॥ कहु नानक गुर कउ कुरबान ॥३॥८॥१०२॥
मूलम्
जीउ पिंडु जोबनु राखै प्रान ॥ कहु नानक गुर कउ कुरबान ॥३॥८॥१०२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। नानक = हे नानक! कउ = को।3।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) अपना आप गुरु के हवाले कर देना चाहिए (गुरु, शरण पड़े सेवक की) जिंद को, शरीर को, जोबन को, प्राणों को (विकार आदि से) बचा के रखता है।3।8।102।