०६ गुरु राम-दास

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचिआरु = सदा कायम रहने वाला। मैडा = मेरा। सांई = पति। तउ = तुझे। थीसी = होगा। हउ = मैं। पाई = पाता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू (सारे जगत का) रचनहार है, तू सदैव कायम रहने वाला है, तू (ही) मेरा पति है। हे प्रभु! (जगत में) वही कुछ घटित हो रहा है जो तुझे अच्छा लगता है। (हे प्रभु!) मैं वही कुछ हासिल कर सकता हूँ जो कुछ तू (मुझे) देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥

मूलम्

सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ = सारी लुकाई। तूं = तुझे। तिनि = उस (मनुष्य) ने। लाधा = मिला। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। तुधु = तू।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) सारी दुनिया तेरी (रची हुई) है, सब जीवों ने (अच्छे-बुरे वक्त में) तुझे ही स्मरण किया है। जिस पर तू मेहर करता है उस मनुष्य ने तेरा नाम-रत्न ढूँढ लिया। (पर) ढूँढा उसने जो गुरु की शरण पड़ा, और गवाया उसने जो अपने मन के पीछे चला। (जीवों के भी क्या वश? मनमुख को) तूने खुद ही (अपने चरणों से) विछोड़े रखा है और (गुरमुखि को) तूने स्वयं ही (अपने चरणों में) जगह दी हुई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥

मूलम्

तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माहि = में। सभि = सारे। विजोग = (धुर के) वियोग के कारण। मिलि = मिल के (भी)। संजोगी = (धुर के) संजोग के कारण। मेलु = मिलाप।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू (जिंदगी का एक बड़ा) दरिया है, सारी सृष्टि तेरे में (जी रही) है, (तू स्वयं ही स्वयं है) तेरे बिना और कोई दूसरी हस्ती नहीं है। (जगत के ये) सारे जीव-जन्तु तेरा (रचा हुआ) तमाशा हैं (तेरी ही धुर दरगाह से मिले) वियोग के कारण मिला हुआ जीव भी विछुड़ जाता है और संजोग के कारण पुनर्मिलाप हासिल कर लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥

मूलम्

जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाणाइहि = तू समझ बख्शता है। सद ही = सदा ही। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य को तू समझ देता है वही मनुष्य (जीवन-उद्देश्य को) समझता है और वह मनुष्य हरि प्रभु के गुण सदा कह के बयान करता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा की सेवा-भक्ति की उसने आत्मिक आनंद पाया; वह मनुष्य (स्मरण-भक्ति के कारण) आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा में लीन हो गया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥१॥५३॥

मूलम्

तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥१॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेखहि = तू देखता है। जाणहि = तू जानता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू स्वयं ही (जगत को) रचने वाला है (जगत में) सब कुछ तेरा किया ही हो रहा है, तेरे बिना कोई और कुछ करने वाला नहीं है। तू खुद ही (जगत रचना) कर-करके (सबकी) संभाल करता है, तू खुद ही इस सारे भेद को जानता है।
हे दास नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को ये सारी बात समझ आ जाती है।4।1।53।

[[0366]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु २ महला ४ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु २ महला ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किस ही धड़ा कीआ मित्र सुत नालि भाई ॥ किस ही धड़ा कीआ कुड़म सके नालि जवाई ॥ किस ही धड़ा कीआ सिकदार चउधरी नालि आपणै सुआई ॥ हमारा धड़ा हरि रहिआ समाई ॥१॥

मूलम्

किस ही धड़ा कीआ मित्र सुत नालि भाई ॥ किस ही धड़ा कीआ कुड़म सके नालि जवाई ॥ किस ही धड़ा कीआ सिकदार चउधरी नालि आपणै सुआई ॥ हमारा धड़ा हरि रहिआ समाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किस ही = किसी ने। सुत = पुत्र। सिकदार = सरदार। सुआई = स्वार्थ के लिए।1।
अर्थ: किसी मनुष्य ने अपने मित्र से, पुत्र से, भाई से साथ बनाया हुआ है, किसी ने अपने सके संबंधी के साथ, जवाई के साथ धड़ा बनाया हुआ है, किसी मनुष्य ने अपनी गरज़ की खातिर (गाँव के) सरदार चौधरी के साथ धड़ा बनाया हुआ है; पर मेरा साथी वह परमात्मा है जो हर जगह मौजूद है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम हरि सिउ धड़ा कीआ मेरी हरि टेक ॥ मै हरि बिनु पखु धड़ा अवरु न कोई हउ हरि गुण गावा असंख अनेक ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हम हरि सिउ धड़ा कीआ मेरी हरि टेक ॥ मै हरि बिनु पखु धड़ा अवरु न कोई हउ हरि गुण गावा असंख अनेक ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = आसरा। असंख = अनगिनत।1। रहाउ।
अर्थ: हमने परमात्मा के साथ, साथ बनाया है, परमात्मा ही मेरा आसरा है। परमात्मा के बिना मेरा और कोई पक्ष नहीं धड़ा नहीं। मैं परमात्मा के ही अनेक और अनगिनत गुण गाता रहता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह सिउ धड़े करहि से जाहि ॥ झूठु धड़े करि पछोताहि ॥ थिरु न रहहि मनि खोटु कमाहि ॥ हम हरि सिउ धड़ा कीआ जिस का कोई समरथु नाहि ॥२॥

मूलम्

जिन्ह सिउ धड़े करहि से जाहि ॥ झूठु धड़े करि पछोताहि ॥ थिरु न रहहि मनि खोटु कमाहि ॥ हम हरि सिउ धड़ा कीआ जिस का कोई समरथु नाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। खोटु = ठगी। जिस का समरथु = जिसके बराबर का।2।
अर्थ: लोग जिनके साथ धड़े बनाते हैं वह (आख़िर जगत से) कूच कर जाते हैं, (धड़े बनाने वाले ये) झूठा आडंबर करके ये धड़े बना के (उनके मरने पे) पछताते हैं। (धड़े बनाने वाले खुद भी) सदा (दुनिया में) टिके नहीं रहते, (व्यर्थ ही धड़ों की खातिर अपने) मन में ठगी-फरेब करते रहते हैं। पर, मैंने तो उस परमात्मा के साथ अपना साथ बनाया है जिसके बराबर की ताकत रखने वाला और कोई नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एह सभि धड़े माइआ मोह पसारी ॥ माइआ कउ लूझहि गावारी ॥ जनमि मरहि जूऐ बाजी हारी ॥ हमरै हरि धड़ा जि हलतु पलतु सभु सवारी ॥३॥

मूलम्

एह सभि धड़े माइआ मोह पसारी ॥ माइआ कउ लूझहि गावारी ॥ जनमि मरहि जूऐ बाजी हारी ॥ हमरै हरि धड़ा जि हलतु पलतु सभु सवारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पसारी = पसारा। लूझहि = झगड़ते हैं। जि = जो। हलतु पलतु = ये लोक और परलोक।3।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया के) ये सारे धड़े माया का पसारा हैं। (धड़े बनाने वाले) मूर्ख लोग माया की खातिर ही (आपस में) लड़ते रहते हैं। (इस कारण वह बार-बार) पैदा होते हैं मरते हैं, वह (मानो) जूए में ही (मानव जीवन की) बाजी हार के चले जाते हैं (जिस में से हासिल कुछ नहीं होता)। पर मेरे साथ तो साथी है परमात्मा, जो मेरा लोक और परलोक सब कुछ सँवारने वाला है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिजुग महि धड़े पंच चोर झगड़ाए ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु वधाए ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु सतसंगि मिलाए ॥ हमरा हरि धड़ा जिनि एह धड़े सभि गवाए ॥४॥

मूलम्

कलिजुग महि धड़े पंच चोर झगड़ाए ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु वधाए ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु सतसंगि मिलाए ॥ हमरा हरि धड़ा जिनि एह धड़े सभि गवाए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलिजुग महि = परमात्मा से विछुड़ के। जिनि = जिस ने। सभि = सारे।4।
अर्थ: परमात्मा से विछुड़ के (विवाद वाला स्वभाव में फंस के) मनुष्यों के धड़े बनते हैं, कामादिक पाँचों चोरों के कारण झगड़े पैदा होते हैं, (परमात्मा से विछोड़ा मनुष्यों के अंदर) काम-क्रोध-लोभ-मोह व अहंकार को बढ़ाता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसे साधु-संगत में मिलाता है (और वह इन पाँचों चोरों की मार से बचता है)। (हे भाई!) मेरी मदद के लिए परमात्मा स्वयं है जिसने (मेरे अंदर से) ये सारे धड़े खत्म कर दिए हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथिआ दूजा भाउ धड़े बहि पावै ॥ पराइआ छिद्रु अटकलै आपणा अहंकारु वधावै ॥ जैसा बीजै तैसा खावै ॥ जन नानक का हरि धड़ा धरमु सभ स्रिसटि जिणि आवै ॥५॥२॥५४॥

मूलम्

मिथिआ दूजा भाउ धड़े बहि पावै ॥ पराइआ छिद्रु अटकलै आपणा अहंकारु वधावै ॥ जैसा बीजै तैसा खावै ॥ जन नानक का हरि धड़ा धरमु सभ स्रिसटि जिणि आवै ॥५॥२॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिथिआ = झूठा, व्यर्थ। भाउ = प्यार। अटकलै = परखता है। छिद्रु = ऐब। जिणि = जीत के।5।
अर्थ: (परमात्मा को छोड़ के) माया का झूठा प्यार (मनुष्य के अंदर) टिक के धड़े (-बाजियां) पैदा करता है (माया के मोह के प्रभाव तले मनुष्य) औरों के ऐब जाँचता-फिरता है और (इस तरह अपने आप को अच्छा समझ के) अपना ही अहंकार बढ़ाता है। (औरों के ऐब फरोल के और अपने आप को नेक साबित कर-करके मनुष्य अपने आत्मिक जीवन के वास्ते) जैसा बीज बीजता है वैसे ही फल हासिल करता है।
दास नानक का पक्ष करने वाला साथी तो परमात्मा है (परमात्मा का आसरा ही नानक का) धरम है (जिसकी इनायत से मनुष्य) सारी सृष्टि को जीत के आ सकता है।5।2।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ हिरदै सुणि सुणि मनि अम्रितु भाइआ ॥ गुरबाणी हरि अलखु लखाइआ ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ हिरदै सुणि सुणि मनि अम्रितु भाइआ ॥ गुरबाणी हरि अलखु लखाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। सुणि सुणि = (गुरबाणी) बार बार सुन सुन के। मनि = मन में। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भाइआ = प्यारा लगा। अलखु = अदृष्ट।1।
अर्थ: (हे बहनो!) गुरु की वाणी सुन के जिस मनुष्य के हृदय में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल प्यारा लगने लग जाता है, गुरबाणी की इनायत से वह मनुष्य अदृष्ट परमात्मा के दर्शन कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि नामु सुनहु मेरी भैना ॥ एको रवि रहिआ घट अंतरि मुखि बोलहु गुर अम्रित बैना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरमुखि नामु सुनहु मेरी भैना ॥ एको रवि रहिआ घट अंतरि मुखि बोलहु गुर अम्रित बैना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। मेरी भैना = हे मेरी बहिनो! हे सत्संगियो! एको = एक प्रभु ही। घट = हृदय। मुखि = मुंह से। गुर बैना = गुरु के वचन।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी बहनो! गुरु की शरण पड़ के उस परमात्मा का नाम सुना करो जो स्वयं ही हरेक जीव के शरीर में मौजूद है। (हे मेरी बहनो!) मुंह से आत्मिक जीवन देने वाले शब्द बोला करो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै मनि तनि प्रेमु महा बैरागु ॥ सतिगुरु पुरखु पाइआ वडभागु ॥२॥

मूलम्

मै मनि तनि प्रेमु महा बैरागु ॥ सतिगुरु पुरखु पाइआ वडभागु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। मै तनि = मेरे तन में। बैरागु = लगन। वडभागु = बड़े भाग्यों वाला।2।
अर्थ: (हे बहनो!) परमात्मा का रूप व भाग्यशाली सतिगुरु तो मुझे भी मिल गया है (उसकी मेहर से) मेरे मन में हृदय में परमात्मा के लिए प्यार पैदा हो गया है परमात्मा के लिए बड़ी लगन पैदा हो गई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजै भाइ भवहि बिखु माइआ ॥ भागहीन नही सतिगुरु पाइआ ॥३॥

मूलम्

दूजै भाइ भवहि बिखु माइआ ॥ भागहीन नही सतिगुरु पाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = प्रभु के बिना और प्यार में। भवहि = भटकते हैं। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली।3।
अर्थ: (पर, हे बहनो!) बद-नसीब हैं वे मनुष्य जिन्हें गुरु नहीं मिला वे माया के मोह में फंस के माया की खातिर भटकते फिरते हैं जो उनके लिए आत्मिक मौत का कारण बनती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु हरि रसु हरि आपि पीआइआ ॥ गुरि पूरै नानक हरि पाइआ ॥४॥३॥५५॥

मूलम्

अम्रितु हरि रसु हरि आपि पीआइआ ॥ गुरि पूरै नानक हरि पाइआ ॥४॥३॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि रसु = हरि नाम का रस। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा।4।
अर्थ: हे नानक! (जीव के वश की बात नहीं) परमात्मा ने स्वयं ही जिस मनुष्य को आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हरि-नाम-रस पिला दिया उसने पूरे गुरु के द्वारा उस परमात्मा को ढूँढ लिया।4।3।55।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु नामु आधारु ॥ नामु जपी नामो सुख सारु ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु नामु आधारु ॥ नामु जपी नामो सुख सारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। अधारु = आसरा। जपी = मैं जपता हूँ। नामो = नाम ही। सुख सारु = सुखों का तत्व।1।
अर्थ: (हे मेरे सज्जनों मित्रो!) परमात्मा का प्यार और परमात्मा का नाम (ही) मेरे मन का मेरे हृदय का आसरा है। मैं (सदा प्रभु का) नाम जपता रहता हूँ, नाम ही (मेरे वास्ते सारे) सुखों का मूल है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु जपहु मेरे साजन सैना ॥ नाम बिना मै अवरु न कोई वडै भागि गुरमुखि हरि लैना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नामु जपहु मेरे साजन सैना ॥ नाम बिना मै अवरु न कोई वडै भागि गुरमुखि हरि लैना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजन सैना = सज्जनो मित्रो! मै = मुझे। भागि = किस्मत से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सज्जनों! हे मेरे मित्रो! परमात्मा का नाम जपा करो। परमात्मा के नाम के बिना मुझे (तो जिंदगी का) और कोई (आसरा) दिखाई नहीं देता। ये हरि-नाम बड़ी किस्मत से गुरु के द्वारा ही मिल सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम बिना नही जीविआ जाइ ॥ वडै भागि गुरमुखि हरि पाइ ॥२॥

मूलम्

नाम बिना नही जीविआ जाइ ॥ वडै भागि गुरमुखि हरि पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाइ = मिलता है।2।
अर्थ: (हे मेरे मित्रो!) परमात्मा का नाम जपे बिना आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता। ये हरि-नाम बड़ी ही किस्मत से गुरु के माध्यम से ही मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामहीन कालख मुखि माइआ ॥ नाम बिना ध्रिगु ध्रिगु जीवाइआ ॥३॥

मूलम्

नामहीन कालख मुखि माइआ ॥ नाम बिना ध्रिगु ध्रिगु जीवाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुखि = मुंह पर। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।3।
अर्थ: (हे मेरे मित्रो!) परमात्मा को स्मरण करे बिना जीवन धिक्कारयोग्य है। परमात्मा के नाम से वंचित रहने से माया के (मोह के) कारण मुंह पर कालिख़ लगती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडा वडा हरि भाग करि पाइआ ॥ नानक गुरमुखि नामु दिवाइआ ॥४॥४॥५६॥

मूलम्

वडा वडा हरि भाग करि पाइआ ॥ नानक गुरमुखि नामु दिवाइआ ॥४॥४॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाग करि = किस्मत से। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।4।
अर्थ: हे नानक! गुरु के द्वारा (जिस मनुष्य को परमात्मा) अपने नाम की दाति दिलाता है वह भाग्यशाली मनुष्य उस सबसे बड़े परमात्मा से मिल जाता है।4।4।56।

[[0367]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ गुण गावा गुण बोली बाणी ॥ गुरमुखि हरि गुण आखि वखाणी ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ गुण गावा गुण बोली बाणी ॥ गुरमुखि हरि गुण आखि वखाणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावा = मैं गाता हूँ, गाऊँ। बोली = बोलूँ, मैं उचारता हूँ। गुण बाणी = महिमा की वाणी। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के, गुरु के बताए हुए राह पर चल के। आखि = कह के, उचार के। वखाणी = मैं बयान करता हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के मैं भी परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, परमात्मा की महिमा की वाणी उचारता रहता हूँ, परमात्मा के गुण उचार-उचार के बयान करता रहता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि जपि नामु मनि भइआ अनंदा ॥ सति सति सतिगुरि नामु दिड़ाइआ रसि गाए गुण परमानंदा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि जपि नामु मनि भइआ अनंदा ॥ सति सति सतिगुरि नामु दिड़ाइआ रसि गाए गुण परमानंदा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। सति सति सति नामु = सतिनामु, सतिनामु, सतिनामु। गुरि = गुरु ने। रसि = रस से, प्रेम से। गुण परमानंदा = सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक प्रभु के गुण।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम बार-बार जप के मन में आनंद पैदा हो जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में गुरु ने सतनाम-सतनाम-सतनाम पक्का कर दिया, उसने बड़े प्रेम से परमानंद प्रभु के गुण गाने शुरू कर दिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुण गावै हरि जन लोगा ॥ वडै भागि पाए हरि निरजोगा ॥२॥

मूलम्

हरि गुण गावै हरि जन लोगा ॥ वडै भागि पाए हरि निरजोगा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरजोग = निर्लिप।2।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर ही) परमात्मा का भक्त परमात्मा के गुण गाता है, और बड़ी किस्मत से उस निर्लिप परमात्मा को मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण विहूण माइआ मलु धारी ॥ विणु गुण जनमि मुए अहंकारी ॥३॥

मूलम्

गुण विहूण माइआ मलु धारी ॥ विणु गुण जनमि मुए अहंकारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारी = धरने वाला। जनमि मुए = पैदा होते मरते रहते हैं।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा से वंचित हुए मनुष्य माया के मोह की मैल (अपने मन में) टिकाए रखते हैं। महिमा के बिना अहंकार में मस्त हुए जीव बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरीरि सरोवरि गुण परगटि कीए ॥ नानक गुरमुखि मथि ततु कढीए ॥४॥५॥५७॥

मूलम्

सरीरि सरोवरि गुण परगटि कीए ॥ नानक गुरमुखि मथि ततु कढीए ॥४॥५॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरीरि = शरीर में। सरोवरि = सरोवर में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य ने। मथि = रिड़क के, विचार के। ततु = निचोड़, अस्लियत।4।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के) इस शरीर सरोवर में (परमात्मा के गुण गुरु ने ही) प्रगट किए हैं। हे नानक! (जैसे दूध मथ के मक्खन निकालते हैं, वैसे ही) गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य (परमात्मा के गुणों को) बारम्बार विचार के (जीवन का) निचोड़ (ऊँचा और स्वच्छ जीवन) प्राप्त कर लेता है।4।5।57।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ नामु सुणी नामो मनि भावै ॥ वडै भागि गुरमुखि हरि पावै ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ नामु सुणी नामो मनि भावै ॥ वडै भागि गुरमुखि हरि पावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणी = सुनना, मैं सुनता हूँ। नामो = नाम ही। मनि = मन में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य।1।
अर्थ: (हे भाई!) मैं (सदा परमात्मा का) नाम सुनता रहता हूँ, नाम ही मेरे मन में प्यारा लग रहा है। गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य बड़ी किस्मत से ये हरि नाम प्राप्त कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु जपहु गुरमुखि परगासा ॥ नाम बिना मै धर नही काई नामु रविआ सभ सास गिरासा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नामु जपहु गुरमुखि परगासा ॥ नाम बिना मै धर नही काई नामु रविआ सभ सास गिरासा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। परगासा = प्रकाश। धर = आसरा। मै = मुझे। रविआ = स्मरण किया। सास गिरासा = सांस और ग्रास से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम जपा करो (नाम जपने की इनायत से अंदर ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाएगा। परमात्मा के नाम के बिना मुझे (तो आत्मिक जीवन के वास्ते) और कोई आत्मिक जीवन नहीं दिखता (इस वास्ते) मैं हरेक सांस से, हरेक ग्रास से प्रभु का नाम स्मरण करता रहता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामै सुरति सुनी मनि भाई ॥ जो नामु सुनावै सो मेरा मीतु सखाई ॥२॥

मूलम्

नामै सुरति सुनी मनि भाई ॥ जो नामु सुनावै सो मेरा मीतु सखाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामै सुरति = नाम की ही तवज्जो, श्रोत। भाई = भा गई, प्यारी लगी। सखाई = साथी।2।
अर्थ: (हे भाई!) जब से मैंने हरि नाम की श्रोत सुनी है (तब से ये मेरे) मन को प्यारी लग रही है। वही मनुष्य मेरा मित्र है, मेरा साथी है, जो मुझे परमातमा का नाम सुनाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामहीण गए मूड़ नंगा ॥ पचि पचि मुए बिखु देखि पतंगा ॥३॥

मूलम्

नामहीण गए मूड़ नंगा ॥ पचि पचि मुए बिखु देखि पतंगा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूढ़ = मूर्ख। नंगा = नंगे, कंगाल। पचि पचि = जल जल के, ख्वार हो हो के। मुए = आत्मिक मौत मरे। बिख = जहर। देखि = देख के।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम से वंचित हुए मूर्ख मनुष्य (यहां से) ख़ाली हाथ चले जाते हैं, (जैसे) पतंगा (जलते दीपक को) देख के (जल मरता है, वैसे ही नाम-हीन मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाली माया के) ज़हर में दुखी हो-हो के आत्मिक मौत मरते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे थापे थापि उथापे ॥ नानक नामु देवै हरि आपे ॥४॥६॥५८॥

मूलम्

आपे थापे थापि उथापे ॥ नानक नामु देवै हरि आपे ॥४॥६॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापे = बनाता है। थापि = बना के। उथापे = नाश करता है। आपे = स्वयं ही।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) जो परमात्मा खुद ही जगत की रचना रचता है, जो स्वयं ही रच के नाश भी करता है, वह परमात्मा खुद ही हरि-नाम की दाति देता है।4।6।58।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ गुरमुखि हरि हरि वेलि वधाई ॥ फल लागे हरि रसक रसाई ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ गुरमुखि हरि हरि वेलि वधाई ॥ फल लागे हरि रसक रसाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। वधाई = पाल के बड़ी की। हरि रसक = हरि नाम के रसिए। रसाई = रस देने वाले, स्वादिष्ट।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम, जैसे, बेल है) गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्यों ने इस हरि-नाम बेल को (स्मरण के जल से सींच-सींच के अपने अंदर) बड़ा कर लिया है, (उनके अंदर उनके आत्मिक जीवन में इस बेल को) रस देने वाले स्वादिष्ट (आत्मिक गुणों के) फल लगते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपि अनत तरंगा ॥ जपि जपि नामु गुरमति सालाही मारिआ कालु जमकंकर भुइअंगा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपि अनत तरंगा ॥ जपि जपि नामु गुरमति सालाही मारिआ कालु जमकंकर भुइअंगा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि अनत तरंगा = बेअंत लहरों के मालिक हरि। अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहरे। सालाही = महिमा कर। कालु = मौत, आत्मिक मौत, मौत का डर। जम कंकर = (किंकर = नौकर) जमदूत। भुइअंगा = सांप।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जगत के अनेक जीव-जंतु रूप) बेअंत लहरों के मालिक परमात्मा का नाम जप स्मरण कर। गुरु की मति ले के बार-बार हरि नाम स्मरण कर और महिमा करता रह। (जिस मनुष्य ने नाम जपा, जिसने महिमा की उसने मन-) सर्प को मार लिया, उसने मौत के डर को खत्म कर लिया, उसने जमदूतों को मार लिया। जमदूत उसके नजदीक नहीं फटकते।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि गुर महि भगति रखाई ॥ गुरु तुठा सिख देवै मेरे भाई ॥२॥

मूलम्

हरि हरि गुर महि भगति रखाई ॥ गुरु तुठा सिख देवै मेरे भाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महि = में। तुठा = प्रसन्न। सिख = सिख को, सिखों को। भाई = हे भाई!।2।
अर्थ: हे मेरे भाई! परमात्मा ने (अपनी) भक्ति गुरु में टिका रखी है, और गुरु प्रसन्न हो के (भक्ति की ये दाति) सिख को देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै करम किछु बिधि नही जाणै ॥ जिउ कुंचरु नाइ खाकु सिरि छाणै ॥३॥

मूलम्

हउमै करम किछु बिधि नही जाणै ॥ जिउ कुंचरु नाइ खाकु सिरि छाणै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिधि = तरीका। कुंचरु = हाथी। नाई = नहा के। सिरि = सिर पर।3।
अर्थ: (पर, जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं पड़ता और अपने) अहंकार में ही (अपनी ओर से धार्मिक) काम (भी करता है, वह परमात्मा की) भक्ती की रत्ती मात्र भी सार नहीं जानता (अहंकार के आसरे किए हुए उसके धार्मिक काम ऐसे हैं) जैसे हाथी नहा के अपने सिर पर मिट्टी डाल लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे वड भाग होवहि वड ऊचे ॥ नानक नामु जपहि सचि सूचे ॥४॥७॥५९॥

मूलम्

जे वड भाग होवहि वड ऊचे ॥ नानक नामु जपहि सचि सूचे ॥४॥७॥५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होवहि = हो जाएं। जपहि = जपते हैं। सचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ के)। सुचे = पवित्र।4।
अर्थ: हे नानक! अगर बड़े भाग्य हों, यदि बहुत उच्च भाग्य हों तो मनुष्य (गुरु की शरण में पड़ के परमात्मा का) नाम जपते हैं। (इस तरह) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में जुड़ के वह पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं।4।7।59।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ हरि हरि नाम की मनि भूख लगाई ॥ नामि सुनिऐ मनु त्रिपतै मेरे भाई ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ हरि हरि नाम की मनि भूख लगाई ॥ नामि सुनिऐ मनु त्रिपतै मेरे भाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। नामि सुनिऐ = अगर हरि नाम सुनते रहे। त्रिपतै = तृप्त हो जाता है। भाई = हे भाई!।1।
अर्थ: हे मेरे भाई! (मेरे) मन में सदा परमात्मा की भूख लगी रहती है (इस भूख की इनायत से माया की भूख नहीं लगती, क्योंकि) अगर परमात्मा का नाम सुनते रहें तो मन (माया की ओर से) संतुष्ट रहता है (तृप्त रहता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु जपहु मेरे गुरसिख मीता ॥ नामु जपहु नामे सुखु पावहु नामु रखहु गुरमति मनि चीता ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नामु जपहु मेरे गुरसिख मीता ॥ नामु जपहु नामे सुखु पावहु नामु रखहु गुरमति मनि चीता ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामे = नाम में ही। मनि = मन मे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे गुरु के सिखो! हे मेरे मित्रो!! (सदा परमात्मा का) नाम जपते रहो, नाम जपते रहो। नाम में जुड़ के आत्मिक आनंद लो। गुरु की मति के द्वारा परमात्मा के नाम को अपने मन में, अपने चित्त में टिकाए रखो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामो नामु सुणी मनु सरसा ॥ नामु लाहा लै गुरमति बिगसा ॥२॥

मूलम्

नामो नामु सुणी मनु सरसा ॥ नामु लाहा लै गुरमति बिगसा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामो नामु = नाम ही नाम। सुणी = सुन-सुन के। सरसा = स+रस, हरा, जीवन रस वाला। लाहा = लाभ। बिगसा = खिल जाता है।2।
अर्थ: (हे मेरे भाई!) सदा परमात्मा का नाम ही नाम सुन के मन (प्रेम-दया आदि गुणों के साथ) हरा हुआ रहता है। गुरु की मति की इनायत से परमात्मा का नाम कमा-कमा के मन प्रसन्न टिका रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम बिना कुसटी मोह अंधा ॥ सभ निहफल करम कीए दुखु धंधा ॥३॥

मूलम्

नाम बिना कुसटी मोह अंधा ॥ सभ निहफल करम कीए दुखु धंधा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुसटी = कोढ़ी। निहफल = व्यर्थ। धंधा = माया का जंजाल।3।
अर्थ: (जैसे कोई कोढ़ी, कोढ़ के दर्द से बिलकता रहता है, वैसे ही) परमात्मा के नाम से विछुड़ा हुआ मनुष्य आत्मिक रोगों से ग्रसित हुआ दुखी रहता है। माया के मोह उसे (सही जीवन-जुगति की ओर से) अंधा किए रहते हैं। और जितने भी काम वह करता है, सब व्यर्थ जाते हैं, वह काम उसको (आत्मिक) दुख ही देते हैं, उसके लिए माया का जाल ही बने रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि हरि जसु जपै वडभागी ॥ नानक गुरमति नामि लिव लागी ॥४॥८॥६०॥

मूलम्

हरि हरि हरि जसु जपै वडभागी ॥ नानक गुरमति नामि लिव लागी ॥४॥८॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जसु = महिमा। नामि = नाम में। लिव = लगन।4।
अर्थ: हे नानक! बहुत भाग्यशाली है वह मनुष्य जो (गुरु की मति ले के) सदा परमात्मा की महिमा करता है। गुरु की मति की इनायत से परमात्मा के नाम में लगन बनी रहती है।4।8।60।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ महला ४ रागु आसा घरु ६ के ३ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ महला ४ रागु आसा घरु ६ के ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हथि करि तंतु वजावै जोगी थोथर वाजै बेन ॥ गुरमति हरि गुण बोलहु जोगी इहु मनूआ हरि रंगि भेन ॥१॥

मूलम्

हथि करि तंतु वजावै जोगी थोथर वाजै बेन ॥ गुरमति हरि गुण बोलहु जोगी इहु मनूआ हरि रंगि भेन ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हथि = हाथ में। करि = कर के, (किंगुरी) पकड़ के। तंतु = तार। थोथर = खाली, व्यर्थ, बेअसर। बेन = वीणा, किंगुरी। जोगी = हे जोगी! रंगि = रंग में। भेन = भीग जाए।1।
अर्थ: जोगी (किंगुरी) हाथ में पकड़ के तार बजाता है, पर उसकी किंगुरी बेअसर ही बजती है (क्योंकि, मन हरि-नाम से सूना टिका रहता है)। हे जोगी! गुरु की शिक्षा ले के परमात्मा के गुणों का उच्चारण करता रहा कर (इस तरह) ये (बेकाबू) मन परमात्मा के प्रेम-रंग में भीगा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोगी हरि देहु मती उपदेसु ॥ जुगु जुगु हरि हरि एको वरतै तिसु आगै हम आदेसु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जोगी हरि देहु मती उपदेसु ॥ जुगु जुगु हरि हरि एको वरतै तिसु आगै हम आदेसु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मती = मति, बुद्धि। एको = एक ही, स्वयं ही। वरतै = मौजूद रहता है। हम = हमारी। आदेसु = नमस्कार।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! तुम (अपने मन को) हरि-नाम जपने की बुद्धि शिक्षा दिया करो। वह परमात्मा हरेक युग में खुद ही खुद सब कुछ करता रहता है। मैं तो उस परमात्मा के आगे ही सदा सिर निवाता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावहि राग भाति बहु बोलहि इहु मनूआ खेलै खेल ॥ जोवहि कूप सिंचन कउ बसुधा उठि बैल गए चरि बेल ॥२॥

मूलम्

गावहि राग भाति बहु बोलहि इहु मनूआ खेलै खेल ॥ जोवहि कूप सिंचन कउ बसुधा उठि बैल गए चरि बेल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। भाति बहु = कई तरीकों से। खेल = खेलें। जोवहि = जोतते हैं। कूप = कूआँ। सिंचन कउ = सींचने के लिए। बसुधा = धरती। उठि = उठ के।2।
अर्थ: जोगी लोग राग गाते हैं, और भी कई किस्म के बोल बोलते हैं, पर उनका ये बे-काबू मन और ही खेलें खेलता रहता है (किंगुरी आदि का मन पर असर नहीं पड़ता, उनकी हालत ऐसे ही होती है, जैसे किसान) फसल की सिंचाई के लिए रहट (कूएं पर लगे पानी निकालने वाले यंत्र को चलाने के लिए) बैल जोहते हैं, पर उनके (अपने) बैल (ही) उठ के बेल आदि (फसल) को खा जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ नगर महि करम हरि बोवहु हरि जामै हरिआ खेतु ॥ मनूआ असथिरु बैलु मनु जोवहु हरि सिंचहु गुरमति जेतु ॥३॥

मूलम्

काइआ नगर महि करम हरि बोवहु हरि जामै हरिआ खेतु ॥ मनूआ असथिरु बैलु मनु जोवहु हरि सिंचहु गुरमति जेतु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। करम हरि = हरि नाम स्मरण के काम। बोवहु = बीजो। जामै = पैदा होता है, उगता है। असथिरु = स्थिर, अडोल, टिका हुआ। जेतु = जिस, जिस मन रूपी बैल के द्वारा।3।
अर्थ: (हे जोगी!) इस शरीर नगर में हरि-नाम-स्मरण का कर्म बीजो; (जो मनुष्य अपने हृदय-खेत में हरि-नाम का बीज बीजता है, उसके अंदर) हरि-नाम का सुंदर खेत उग पड़ता है। (हे जोगी! नाम जपने की इनायत से) इस मन को डोलने से रोको, इस टिके हुए मन बैल को जोहो, जिससे गुरु की मति से (अपने अंदर) हरि-नाम जल को सींचो।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोगी जंगम स्रिसटि सभ तुमरी जो देहु मती तितु चेल ॥ जन नानक के प्रभ अंतरजामी हरि लावहु मनूआ पेल ॥४॥९॥६१॥

मूलम्

जोगी जंगम स्रिसटि सभ तुमरी जो देहु मती तितु चेल ॥ जन नानक के प्रभ अंतरजामी हरि लावहु मनूआ पेल ॥४॥९॥६१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: घरु 6 के 3 = घर छेवें के तीन शब्द (नं: 1, 10 और 11)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंगम = जोगियों का एक फिरका। ये कानों में पीतल के फूल पहनते हैं। सिर पर मोर के पंख परोते हैं और सांप के शकल की काली रस्सी लपेट के रखते हैं। तितु = उस तरफ। चेल = चलती है। पेल = प्रेर के।4।
अर्थ: (पर हे प्रभु! जीवों के भी क्या वश?) जोगी, जंगम आदि ये सारी सृष्टि तेरी ही रची हुई है, स्वयं जो मति इस सृष्टि को देता है उधर ही चलती है।
दास नानक के हे अंतरजामी प्रभु! हमारे मन को प्रेरित करके तू खुद ही अपने चरणों में जोड़।4।9।61।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ कब को भालै घुंघरू ताला कब को बजावै रबाबु ॥ आवत जात बार खिनु लागै हउ तब लगु समारउ नामु ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ कब को भालै घुंघरू ताला कब को बजावै रबाबु ॥ आवत जात बार खिनु लागै हउ तब लगु समारउ नामु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कब = कब, क्यूँ? को = कोई। भालै = ढूँढे। आवत जात = आते जाते। बार = देर। खिनु = घड़ी पल। हउ = मैं। तब लगु = उतनी देर। समारउ = मैं संभालता हूँ, मैं याद करता हूँ।1।
अर्थ: क्यूँ कोई ताल देने के लिए घुंघरू तलाशता फिरे? (भाव, मुझे घुंघरूओंकी जरूरत नहीं), क्यूँ कोई रबाब (आदि साज) बजाता फिरे? (ये घुंघरू रबाब आदि लाने के लिए) आते-जाते कुछ ना कुछ समय तो लगता ही है। पर मैं तो उतना समय भी परमात्मा का नाम ही याद करूँगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै मनि ऐसी भगति बनि आई ॥ हउ हरि बिनु खिनु पलु रहि न सकउ जैसे जल बिनु मीनु मरि जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरै मनि ऐसी भगति बनि आई ॥ हउ हरि बिनु खिनु पलु रहि न सकउ जैसे जल बिनु मीनु मरि जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। मीनु = मछी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मेरे मन में परमात्मा की भक्ति ऐसी बनी हुई है कि मैं परमात्मा की याद के बिना एक घड़ी पल भी नहीं रह सकता (मुझे याद के बिना आत्मिक मौत सी प्रतीत होने लग जाती है) जैसे पानी से बिछुड़ के मछली मर जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कब कोऊ मेलै पंच सत गाइण कब को राग धुनि उठावै ॥ मेलत चुनत खिनु पलु चसा लागै तब लगु मेरा मनु राम गुन गावै ॥२॥

मूलम्

कब कोऊ मेलै पंच सत गाइण कब को राग धुनि उठावै ॥ मेलत चुनत खिनु पलु चसा लागै तब लगु मेरा मनु राम गुन गावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच = पाँच तारें। सत = सात सुरें। चसा = थोड़ा सा समय।2।
अर्थ: (हे भाई!) गाने के लिए क्यूँ कोई पंचतारा और सात सुरें मिलाता फिरे? क्यूँ कोई राग की सुर उठाता फिरे? ये तारें, सुरें मिलाते और सुर उठाते हुए कुछ ना कुछ समय तो जरूर लगता है। मेरा मन तो उतना समय भी परमात्मा के गुण गाता रहेगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कब को नाचै पाव पसारै कब को हाथ पसारै ॥ हाथ पाव पसारत बिलमु तिलु लागै तब लगु मेरा मनु राम सम्हारै ॥३॥

मूलम्

कब को नाचै पाव पसारै कब को हाथ पसारै ॥ हाथ पाव पसारत बिलमु तिलु लागै तब लगु मेरा मनु राम सम्हारै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाव = पैर। पसारै = खिलारे। बिलमु = देर, विलम्ब। समारै = सम्भालता है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) क्यूँ कोई नाचता फिरे? (नाचने के लिए) क्यूँ को पैर फैलाए? क्यूँ कोई हाथ फैलाए? इन हाथों-पैरों को पसारने में भी थोड़ा बहुत समय तो लगता ही है। मेरा मन तो उतना समय भी परमात्मा को हृदय में बसाता रहेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कब कोऊ लोगन कउ पतीआवै लोकि पतीणै ना पति होइ ॥ जन नानक हरि हिरदै सद धिआवहु ता जै जै करे सभु कोइ ॥४॥१०॥६२॥

मूलम्

कब कोऊ लोगन कउ पतीआवै लोकि पतीणै ना पति होइ ॥ जन नानक हरि हिरदै सद धिआवहु ता जै जै करे सभु कोइ ॥४॥१०॥६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। पतीआवै = यकीन दिलाए। लोकि पतीणै = अगर जगत पतीज भी जाए। पति = इज्जत। जै जै = आदर सत्कार। सभ कोइ = हरेक जीव।4।
अर्थ: (हे भाई! अपने आप को भक्त जाहिर करने के लिए) क्यूँ कोई यकीन दिलाता फिरे? अगर लोगों की तसल्ली हो भी जाए तो भी (प्रभु-दर से) आदर नहीं मिलेगा। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) सदा अपने हृदय में परमात्मा को स्मरण करते रहो, इस तरह हरेक जीव आदर-सत्कार करता है।4।10।62।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ सतसंगति मिलीऐ हरि साधू मिलि संगति हरि गुण गाइ ॥ गिआन रतनु बलिआ घटि चानणु अगिआनु अंधेरा जाइ ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ सतसंगति मिलीऐ हरि साधू मिलि संगति हरि गुण गाइ ॥ गिआन रतनु बलिआ घटि चानणु अगिआनु अंधेरा जाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू = गुरु। मिलि = मिल के। बलिआ = चमक पड़ा। घटि = घट में, हृदय में।1।
अर्थ: (हे मेरे वीर!) प्रभु की गुरु की साधु-संगत में मिलना चाहिए। (हे वीर!) संगति में मिल के परमात्मा के गुण गाता रह। (जो मनुष्य प्रभु के गुण गाता है उसके अंदर गुरु के बख्शे) ज्ञान का रतन चमक उठता है, उसके हृदय में (आत्मिक) प्रकाश हो जाता है, (उसके अंदर से) अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन नाचहु हरि हरि धिआइ ॥ ऐसे संत मिलहि मेरे भाई हम जन के धोवह पाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जन नाचहु हरि हरि धिआइ ॥ ऐसे संत मिलहि मेरे भाई हम जन के धोवह पाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि जनो! पाइ = पैर।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि के सेवको! परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के नाचो (नाम स्मरण करो-यही नाच नाचो। स्मरण करो, मन नाच उठेगा, मन चाउ भरपूर हो जाएगा)। हे मेरे वीर! अगर मुझे ऐसे संत-जन मिल जाएं, तो मैं उनके पैर धोऊँ (हम उनके पैर धोएं-लफ़जी)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपहु मन मेरे अनदिनु हरि लिव लाइ ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु फिरि भूख न लागै आइ ॥२॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपहु मन मेरे अनदिनु हरि लिव लाइ ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु फिरि भूख न लागै आइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! अनदिनु = हर रोज। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।2।
अर्थ: हे मेरे मन! हर रोज परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ के परमात्मा का नाम जपा कर, जिस फल की इच्छा करेगा वही फल हासिल होगा, और दुबारा तुझे माया की भूख नहीं लगेगी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे हरि अपर्मपरु करता हरि आपे बोलि बुलाइ ॥ सेई संत भले तुधु भावहि जिन्ह की पति पावहि थाइ ॥३॥

मूलम्

आपे हरि अपर्मपरु करता हरि आपे बोलि बुलाइ ॥ सेई संत भले तुधु भावहि जिन्ह की पति पावहि थाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपरंपरु = परे से परे। बोलि = बोले, बोलता है। पावहि थाइ = तू स्वीकार करता है।3।
अर्थ: (पर स्मरण करना जीव के अपने वश की बात नहीं) विधाता बेअंत परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के) बोलता है और खुद ही जीवों को बोलने के लिये प्रेरता है। हे प्रभु! वही मनुष्य अच्छे संत जन हैं जो तुझे प्यारे लगते हैं, जिनकी इज्जत तेरे दर पर स्वीकार होती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानकु आखि न राजै हरि गुण जिउ आखै तिउ सुखु पाइ ॥ भगति भंडार दीए हरि अपुने गुण गाहकु वणजि लै जाइ ॥४॥११॥६३॥

मूलम्

नानकु आखि न राजै हरि गुण जिउ आखै तिउ सुखु पाइ ॥ भगति भंडार दीए हरि अपुने गुण गाहकु वणजि लै जाइ ॥४॥११॥६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भंउार = खजाने। वणजि = खरीद के।4।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु का दास) नानक परमात्मा के गुण बयान कर कर के थकता नहीं है ज्यों-ज्यों नानक उसकी महिमा करता है त्यों-त्यों आत्मिक आनंद पाता है।
(हे भाई!) परमात्मा ने (जीवों को) अपनी भक्ति के खजाने दिए हुए हैं, पर इन गुणों का गाहक ही खरीद के (इस जगत से अपने साथ) ले जाता है।4।11।63।