०५ गुरु अमर-दास काफी

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा घरु ८ काफी महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

आसा घरु ८ काफी महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कै भाणै सतिगुरु मिलै सचु सोझी होई ॥ गुर परसादी मनि वसै हरि बूझै सोई ॥१॥

मूलम्

हरि कै भाणै सतिगुरु मिलै सचु सोझी होई ॥ गुर परसादी मनि वसै हरि बूझै सोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाणै = रजा अनुसार। सचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। सोई = वही मनुष्य।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की रजा अनुसार गुरु मिलता है (जिसे गुरु मिल जाता है, उसे) सदा कायम रहने वाला प्रभु मिल जाता है, (और उसे सही जीवन-जुगति की) समझ आ जाती है। जिस मनुष्य के मन में गुरु की किरपा से परमातमा आ बसता है, वही मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ पाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै सहु दाता एकु है अवरु नाही कोई ॥ गुर किरपा ते मनि वसै ता सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मै सहु दाता एकु है अवरु नाही कोई ॥ गुर किरपा ते मनि वसै ता सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = मेरा। सहु = खसम, पति। दाता = दातें देने वाला। ते = से साथ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा ही मेरा पति रक्षक है और मुझे सब दातें देने वाला है, उसके बिना मेरा और कोई नहीं है। पर गुरु की मेहर से हीवह मन में बस सकता है (और जब वह प्रभु मन में आ बसता है) तबसदा के लिए आनंद बन जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु जुग महि निरभउ हरि नामु है पाईऐ गुर वीचारि ॥ बिनु नावै जम कै वसि है मनमुखि अंध गवारि ॥२॥

मूलम्

इसु जुग महि निरभउ हरि नामु है पाईऐ गुर वीचारि ॥ बिनु नावै जम कै वसि है मनमुखि अंध गवारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग महि = जगत में, जीवन में। वीचारि = विचार से। वसि = वश में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। गवारि = मूर्ख जीव-स्त्री।2।
अर्थ: (हे भाई!) इस जगत में परमात्मा का नाम ही है जो (जगत के) सारे डरों से बचाने वाला है, पर ये नाम गुरु की बताई हुई विचार की इनायत से मिलता है। परमात्मा के नाम के बिना अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री आत्मिक मौत के काबू में रहती है, माया के मोह में अंधी हुई रहती है और मूर्खता में टिकी रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कै भाणै जनु सेवा करै बूझै सचु सोई ॥ हरि कै भाणै सालाहीऐ भाणै मंनिऐ सुखु होई ॥३॥

मूलम्

हरि कै भाणै जनु सेवा करै बूझै सचु सोई ॥ हरि कै भाणै सालाहीऐ भाणै मंनिऐ सुखु होई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि कै भाणै = परमात्मा की रजा में रह के। सालाहीऐ = महिमा की जा सकती है। भाणै मंनिऐ = अगर प्रभु के हुक्म में चला जाए।3।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की रज़ा में चलता है वही मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करता है, वही उस सदा स्थिर प्रभु को समझता है। परमात्मा की रजा में चलने से ही परमात्मा की महिमा हो सकती है। अगर परमात्मा की रजा में चलें तो ही आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कै भाणै जनमु पदारथु पाइआ मति ऊतम होई ॥ नानक नामु सलाहि तूं गुरमुखि गति होई ॥४॥३९॥१३॥५२॥

मूलम्

हरि कै भाणै जनमु पदारथु पाइआ मति ऊतम होई ॥ नानक नामु सलाहि तूं गुरमुखि गति होई ॥४॥३९॥१३॥५२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शब्द– आसा राग और काफी राग– दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने की हिदायत है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मति = अकल। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। गति = उच्च आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) परमात्मा की रज़ा में चल के मानव जन्म का उद्देश्य हासिल कर लिया उसकी बुद्धि उत्तम बन गई।
हे नानक! (गुरु की शरण पड़ के) तू भी परमात्मा के नाम का गुणगान कर। गुरु की शरण पड़ने से ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है।4।39।13।52।