विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा घरु २ महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु आसा घरु २ महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि दरसनु पावै वडभागि ॥ गुर कै सबदि सचै बैरागि ॥ खटु दरसनु वरतै वरतारा ॥ गुर का दरसनु अगम अपारा ॥१॥
मूलम्
हरि दरसनु पावै वडभागि ॥ गुर कै सबदि सचै बैरागि ॥ खटु दरसनु वरतै वरतारा ॥ गुर का दरसनु अगम अपारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसनु = शास्त्र। हरि दरसनु = परमात्मा का (मिलाप कराने वाला) शास्त्र। वडभागि = बड़े भाग्यों से, बड़ी किस्मत से। सबदि = शब्द के द्वारा। सचै बैरागि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के बैराग द्वारा। खटु = छह। खटु दरसन = छह शास्त्र (सांख, न्याय, विशेषिक, मीमांसा, योग और वेदांत)। वरतारा = रिवाज। गुर का दरसनु = गुरु का शास्त्र। अगम = अगम्य। अपारा = जिसका परला छोर ना मिल सके।1।
अर्थ: (जगत में वेदांत आदि) छह शास्त्रों (की विकार) का रिवाज चल रहा है पर गुरु का (दिया हुआ) शास्त्र (इन छह शास्त्रों की) पहुँच से परे है (ये छह शास्त्र गुरु के शास्त्र का) अंत नहीं पा सकते। गुरु के शब्द में (जुड़ के) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लगन जोड़ के मनुष्य बड़ी किस्मत से परमात्मा का (मिलाप करवाने वाला गुर-) शास्त्र प्राप्त करता है।1।
[[0361]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै दरसनि मुकति गति होइ ॥ साचा आपि वसै मनि सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर कै दरसनि मुकति गति होइ ॥ साचा आपि वसै मनि सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसनि = शास्त्र के द्वारा। मुकति = विकारों से खलासी। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मनि = मन में। सोइ = वह ही।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के (दिये हुए) शास्त्र के द्वारा विकारों से मुक्ति हो जाती है, वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं मन में आ बसता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर दरसनि उधरै संसारा ॥ जे को लाए भाउ पिआरा ॥ भाउ पिआरा लाए विरला कोइ ॥ गुर कै दरसनि सदा सुखु होइ ॥२॥
मूलम्
गुर दरसनि उधरै संसारा ॥ जे को लाए भाउ पिआरा ॥ भाउ पिआरा लाए विरला कोइ ॥ गुर कै दरसनि सदा सुखु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधरै = (विकारों से) बच जाता है। को = कोई मनुष्य। भाउ = प्रेम।2।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य (गुरु के शास्त्र में) प्रेम-प्यार जोड़े तो (प्रेम जोड़ने वाला) जगत गुरु के शास्त्र की इनायत से (विकारों से) बच जाता है। पर कोई दुर्लभ (विरला) मनुष्य ही (गुरु के शास्त्र में) प्रेम-प्यार करता है। (हे भाई!) गुरु के शास्त्र में (चित्त जोड़ने से) सदा आत्मिक आनंद मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै दरसनि मोख दुआरु ॥ सतिगुरु सेवै परवार साधारु ॥ निगुरे कउ गति काई नाही ॥ अवगणि मुठे चोटा खाही ॥३॥
मूलम्
गुर कै दरसनि मोख दुआरु ॥ सतिगुरु सेवै परवार साधारु ॥ निगुरे कउ गति काई नाही ॥ अवगणि मुठे चोटा खाही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोख दुआरु = विकारों से खलासी देने वाला दरवाजा। साधारु = स+आधारु, आसरे वाला। काई गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अवगणि = अवगण में, पाप में। मुठे = लूटे जा रहे। खाही = खाहि, खाते हैं।3।
अर्थ: गुरु के शास्त्र में (तवज्जो टिकाने से) विकारों से मुक्ति पाने वाला रास्ता मिल जाता है। जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है वह अपने परिवार के वास्ते भी (विकारों से बचने के लिए) सहारा बन जाता है। जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं पड़ता, उसे कोई उच्च आत्मिक अवस्था नहीं प्राप्त होती। (हे भाई!) जो मनुष्य पाप (-कर्म) में (फंस के आत्मिक जीवन की ओर से) लूटे जा रहे हैं, वह (जीवन-सफ़र में) (विकारों की) मार खाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै सबदि सुखु सांति सरीर ॥ गुरमुखि ता कउ लगै न पीर ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै ॥ नानक गुरमुखि साचि समावै ॥४॥१॥४०॥
मूलम्
गुर कै सबदि सुखु सांति सरीर ॥ गुरमुखि ता कउ लगै न पीर ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै ॥ नानक गुरमुखि साचि समावै ॥४॥१॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। ता कउ = उस (मनुष्य) को। पीर = पीड़ा, दुख। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समावै = लीन हो जाता है।4।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के शब्द में जुड़ने से (मनुष्य के) शरीर को सुख मिलता है शांति मिलती है, गुरु की शरण पड़ने से उसे कोई दुख छू नहीं सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन हुआ रहता है।4।1।40।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 4 बताता है कि इस शब्द के चार बंद हैं। अंक 1 बताता है कि तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी का ये पहला शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ सबदि मुआ विचहु आपु गवाइ ॥ सतिगुरु सेवे तिलु न तमाइ ॥ निरभउ दाता सदा मनि होइ ॥ सची बाणी पाए भागि कोइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ सबदि मुआ विचहु आपु गवाइ ॥ सतिगुरु सेवे तिलु न तमाइ ॥ निरभउ दाता सदा मनि होइ ॥ सची बाणी पाए भागि कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। मुआ = (माया के मोह से) अछोह हो गया। आपु = स्वै भाव। तिलु = रत्ती भर भी। तमाइआ = लालच। मनि = मन में। भागि = किस्मत से।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (माया के मोह की ओर से) निर्लिप हो जाता है वह अपने अंदर से स्वै-भाव दूर कर लेता है। जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है उसे (माया की) रत्ती भर भी लालच नहीं रहती। उस मनुष्य के मन में वह दातार सदा बसा रहता है जिसे किसी का कोई डर नहीं। पर कोई विरला मनुष्य ही अच्छी किस्मत से सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा उस को मिल सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण संग्रहु विचहु अउगुण जाहि ॥ पूरे गुर कै सबदि समाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुण संग्रहु विचहु अउगुण जाहि ॥ पूरे गुर कै सबदि समाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संग्रहु = इकट्ठे करो (अपने अंदर)। जाहि = दूर हो जाएंगे। समाहि = (प्रभु में) लीन हो जाएगा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! अपने अंदर परमात्मा के) गुण इकट्ठे करो। (परमात्मा की महिमा करते रहो, महिमा की इनायत से) मन में से विकार दूर हो जाते हैं। पूरे गुरु के शब्द से (महिमा करके) तू (गुणों के मालिक प्रभु में) टिका रहेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणा का गाहकु होवै सो गुण जाणै ॥ अम्रित सबदि नामु वखाणै ॥ साची बाणी सूचा होइ ॥ गुण ते नामु परापति होइ ॥२॥
मूलम्
गुणा का गाहकु होवै सो गुण जाणै ॥ अम्रित सबदि नामु वखाणै ॥ साची बाणी सूचा होइ ॥ गुण ते नामु परापति होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखाणै = उच्चारता है, स्मरण करता है। सूचा = पवित्र। ते = से।2।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा का सौदा करता है वह उस महिमा की कद्र समझता है; वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले गुरु शब्द के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा की वाणी की इनायत से वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है। महिमा की इनायत से उसको परमात्मा के नाम का सौदा मिल जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण अमोलक पाए न जाहि ॥ मनि निरमल साचै सबदि समाहि ॥ से वडभागी जिन्ह नामु धिआइआ ॥ सदा गुणदाता मंनि वसाइआ ॥३॥
मूलम्
गुण अमोलक पाए न जाहि ॥ मनि निरमल साचै सबदि समाहि ॥ से वडभागी जिन्ह नामु धिआइआ ॥ सदा गुणदाता मंनि वसाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि निरमल = पवित्र मन में। सबदि = शब्द के द्वारा। मंनि = मनि, मन में।3।
अर्थ: परमात्मा के गुणों का मूल्य नहीं पड़ सकता, किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकते, (हां,) सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा के शबदके द्वारा (ये गुण) पवित्र हुए मन में आ बसते हैं। (हे भाई!) जिस लोगों ने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, अपने गुणों की दाति देने वाला प्रभु अपने मन में बसाया है वे बड़े भाग्यशाली हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो गुण संग्रहै तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ दरि साचै साचे गुण गाउ ॥ आपे देवै सहजि सुभाइ ॥ नानक कीमति कहणु न जाइ ॥४॥२॥४१॥
मूलम्
जो गुण संग्रहै तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ दरि साचै साचे गुण गाउ ॥ आपे देवै सहजि सुभाइ ॥ नानक कीमति कहणु न जाइ ॥४॥२॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाउ = मैं जाता हूँ। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। गाउ = मैं गाता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो जो मनुष्य परमातमा के गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करता है, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ (उनकी संगति की इनायत से) मैं सदा स्थिर प्रभु के दर पर (टिक के) उस सदा कायम रहने वाले के गुण गाता हूँ।
हे नानक! (गुणों की दाति जिस मनुष्य को) प्रभु खुद देता है (वह मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिकता है प्रेम में जुड़ा रहता है (उसके उच्च जीवन का मूल्य नहीं बताया जा सकता)।4।2।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ सतिगुर विचि वडी वडिआई ॥ चिरी विछुंने मेलि मिलाई ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ आपणी कीमति आपे पाए ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ सतिगुर विचि वडी वडिआई ॥ चिरी विछुंने मेलि मिलाई ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ आपणी कीमति आपे पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेलि = (प्रभु के) मिलाप में। आपे = (प्रभु) स्वयं ही। कीमति = कद्र।1।
अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु में ये बहुत बड़ा गुण है कि वह अनेक जन्मों से विछुड़े हुए जीवों को परमात्मा के चरणों में जोड़ देता है। प्रभु स्वयं ही (गुरु) मिलाता है, गुरु मिला के अपने चरणों में जोड़ता है और (इसतरह जीवों के दिल में) अपने नाम की कद्र स्वयं ही पैदा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की कीमति किन बिधि होइ ॥ हरि अपर्मपरु अगम अगोचरु गुर कै सबदि मिलै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि की कीमति किन बिधि होइ ॥ हरि अपर्मपरु अगम अगोचरु गुर कै सबदि मिलै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन बिधि = किस तरीके से? अपरंपरु = परे से परे। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियो की पहुँच नहीं हो सकती। कोइ = को बिरला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) किस तरीके से (मनुष्य के मन में) परमात्मा (के नाम) की कद्र पैदा हो? परमात्मा परे से परे है, परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, परमात्मा तक ज्ञान-इंद्रिय द्वारा पहुँच नहीं हो सकती। (बस!) गुरु के शब्द से (ही) कोई विरला मनुष्य प्रभु को मिलता है (और उसके अंदर प्रभु के नाम की कद्र पैदा होती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि कीमति जाणै कोइ ॥ विरले करमि परापति होइ ॥ ऊची बाणी ऊचा होइ ॥ गुरमुखि सबदि वखाणै कोइ ॥२॥
मूलम्
गुरमुखि कीमति जाणै कोइ ॥ विरले करमि परापति होइ ॥ ऊची बाणी ऊचा होइ ॥ गुरमुखि सबदि वखाणै कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। करमि = मेहर से। ऊचा = उच्च जीवन वाला।2।
अर्थ: कोई विरला मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम की कद्र समझता है किसी विरले को परमात्मा की मेहर से (परमात्मा का नाम) मिलता है। सबसे उच्च प्रभु के महिमा की वाणी की इनायत से मनुष्य उच्च जीवन वाला बन जाता है। कोई (विरला भाग्यशाली मनुष्य) गुरु की शरण पड़ कर गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विणु नावै दुखु दरदु सरीरि ॥ सतिगुरु भेटे ता उतरै पीर ॥ बिनु गुर भेटे दुखु कमाइ ॥ मनमुखि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥
मूलम्
विणु नावै दुखु दरदु सरीरि ॥ सतिगुरु भेटे ता उतरै पीर ॥ बिनु गुर भेटे दुखु कमाइ ॥ मनमुखि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरीरि = शरीर में, हृदय में। भेटे = मिले। ता = तब। बिनु गुर भेटे = गुरु को मिले बिना। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला।3।
अर्थ: परमात्मा का नाम स्मरण के बिना मनुष्य के शरीर में (विकारों का) दुख रोग पैदा होया रहता है। जब मनुष्य को गुरु मिलता है तब उसका ये दुख दूर हो जाता है। गुरु को मिले बिना मनुष्य वही कर्म कमाता है जो दुख पैदा करें, (इस तरह) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को सदा बहुत ज्यादा सजा मिलती रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु मीठा अति रसु होइ ॥ पीवत रहै पीआए सोइ ॥ गुर किरपा ते हरि रसु पाए ॥ नानक नामि रते गति पाए ॥४॥३॥४२॥
मूलम्
हरि का नामु मीठा अति रसु होइ ॥ पीवत रहै पीआए सोइ ॥ गुर किरपा ते हरि रसु पाए ॥ नानक नामि रते गति पाए ॥४॥३॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति रसु = बहुत रस वाला। पीआए = पिलाता है। सोइ = वह (प्रभु) ही। ते = से। नामि = नाम में। रते = रंग के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम (एक ऐसा अमृत है जो) मीठा है, बड़े रस वाला है। पर वही मनुष्य ये नाम-रस पीता रहता है, जिसको वह परमात्मा खुद पिलाए।
हे नानक! गुरु की किरपा से ही मनुष्य परमात्मा के नाम-जल का आनंद लेता है, नाम-रंग में रंग के मनुष्य उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।4।3।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा गहिर ग्मभीर ॥ सेवत ही सुखु सांति सरीर ॥ सबदि तरे जन सहजि सुभाइ ॥ तिन कै हम सद लागह पाइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा गहिर ग्मभीर ॥ सेवत ही सुखु सांति सरीर ॥ सबदि तरे जन सहजि सुभाइ ॥ तिन कै हम सद लागह पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। गहिर = गहिरा, जिसके दिल का भेद ना पाया जा सके। गंभीर = गहरे जिगरे वाला, बड़े जिगरे वाला। सेवत = स्मरण करके। सबदि = गुर शब्द के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। सद = सदा। लागह = (हम) लगते हैं। पाइ = पैरों में।1।
अर्थ: (हे भाई!) प्यारा प्रभु सदा कायम रहने वाला है, गहरा है और बड़े जिगरे वाला है। उसका स्मरण करने से शरीर को सुख मिलता है, शांति मिलती है। (जो मनुष्य) गुरु के माध्यम से (स्मरण करते हैं वह संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, वे प्रभु-प्रेम में जुड़े रहते हैं। हम (मैं) सदा उनके चरणों में नत्मस्तक होते हैं (होता हूँ)।1।
[[0362]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो मनि राते हरि रंगु लाइ ॥ तिन का जनम मरण दुखु लाथा ते हरि दरगह मिले सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जो मनि राते हरि रंगु लाइ ॥ तिन का जनम मरण दुखु लाथा ते हरि दरगह मिले सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। लाइ = लगा के। दरगह = हजूरी में। सुभाइ = प्रेम से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा का प्रेम-रंग इस्तेमाल कर करके अपने मन में (प्रेम रंग से) रंगे जाते हैं, उन मनुष्यों का जनम-मरण का चक्कर का दुख दूर हो जाता है। प्रेम की इनायत से वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में टिके रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदु चाखै साचा सादु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ हरि प्रभु सदा रहिआ भरपूरि ॥ आपे नेड़ै आपे दूरि ॥२॥
मूलम्
सबदु चाखै साचा सादु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ हरि प्रभु सदा रहिआ भरपूरि ॥ आपे नेड़ै आपे दूरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु के शब्द का रस चखता है (उसे फिर प्रत्यक्ष यूँ दिखता है कि) परमात्मा सदा हर जगह व्याप रहा है, वह खुद ही (हरेक जीव के) अंग-संग है और खुद ही दूर (पहुँच से परे) भी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखणि आखै बकै सभु कोइ ॥ आपे बखसि मिलाए सोइ ॥ कहणै कथनि न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥
मूलम्
आखणि आखै बकै सभु कोइ ॥ आपे बखसि मिलाए सोइ ॥ कहणै कथनि न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखणि आखै = कहने को कहता है, रिवाज के तौर पर कहता है। बकै = बोलता है। सभु कोइ = हरेक मनुष्य। कहणै = कहने से। कथनि = कहने से। परसादि = किरपा से। मनि = मन में।3।
अर्थ: (हे भाई!) रिवाजी तौर पर (कहने को तो) हरेक मनुष्य कहता है, सुनाता है कि (परमात्मा) हरेक के नजदीक बसता है, पर जिस किसी को वह अपने चरणों में मिलाता है, वह खुद ही मेहर करके मिलाता है। ज़ुबानी कहने अथवा बातें करने से परमात्मा नहीं मिलता, गुरु की किरपा से मन में आ बसता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि विचहु आपु गवाइ ॥ हरि रंगि राते मोहु चुकाइ ॥ अति निरमलु गुर सबद वीचार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥४॥४३॥
मूलम्
गुरमुखि विचहु आपु गवाइ ॥ हरि रंगि राते मोहु चुकाइ ॥ अति निरमलु गुर सबद वीचार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥४॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। रंगि राते = रंग में रंगे जाने के कारण। अति = बहुत। नामि = नाम के द्वारा।4।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव दूर कर लेता है, और परमात्मा के प्रेम रंग में रंग के (अपने अंदर से माया का) मोह समाप्त कर लेता है।
हे नानक! गुरु के शब्द की विचार मनुष्य को बहुत पवित्र जीवन वाला बना देती है, प्रभु नाम में जुड़ के मनुष्य औरों का जीवन सँवारने के लायक भी हो जाता है।4।4।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ दूजै भाइ लगे दुखु पाइआ ॥ बिनु सबदै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु सेवै सोझी होइ ॥ दूजै भाइ न लागै कोइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ दूजै भाइ लगे दुखु पाइआ ॥ बिनु सबदै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु सेवै सोझी होइ ॥ दूजै भाइ न लागै कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाइ = प्यार में। भाउ = प्यार। दूजै भाइ = और के प्यार में। बिरथा = व्यर्थ। सेवै = शरण पड़ता है। कोइ = कोई भी मनुष्य।1।
अर्थ: (जो मनुष्य परमात्मा को छोड़ के) किसी और के प्यार में मस्त रहते हैं उन्होंने दुख ही दुख सहा, गुरु के शब्द से वंचित रहके उन्होंने अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा ली। जो कोई मनुष्य गुरु के बताए राह पर चलता है उसे (सही जीवन की) समझ आ जाती है, वह फिर माया के प्यार में नहीं लगता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलि लागे से जन परवाणु ॥ अनदिनु राम नामु जपि हिरदै गुर सबदी हरि एको जाणु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मूलि लागे से जन परवाणु ॥ अनदिनु राम नामु जपि हिरदै गुर सबदी हरि एको जाणु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूलि = (जगत के) मूल (-प्रभु) में। से जन = वह लोग। अनदिनु = अनुदिन, हर रोज, हर समय। जपि = जप के। जाणु = जानने वाला, पहचानने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) जगत के रचयता परमात्मा (की याद) में जुड़ते हैं वह मनुष्य (परमात्मा की नजरों में) स्वीकार हो जाते हैं। परमात्मा का नाम हर समय अपने हृदय में जपके गुरु के शब्द की इनायत से मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डाली लागै निहफलु जाइ ॥ अंधीं कमी अंध सजाइ ॥ मनमुखु अंधा ठउर न पाइ ॥ बिसटा का कीड़ा बिसटा माहि पचाइ ॥२॥
मूलम्
डाली लागै निहफलु जाइ ॥ अंधीं कमी अंध सजाइ ॥ मनमुखु अंधा ठउर न पाइ ॥ बिसटा का कीड़ा बिसटा माहि पचाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहफलु = निष्फल। अंध = (माया में) अंधे हुए मनुष्य को। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। पचाइ = जलता है।2।
अर्थ: (जो मनुष्य जगत के मूल-प्रभु-वृक्ष को छोड़ के उसकी रची हुई माया रूपी) टहनियों से चिपका रहता है वह निष्फल ही जाता है (जीवन-फल प्राप्त नहीं कर सकता), बे-समझी के कामों पड़ के (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य (माया की भटकनों से बचने का) ठिकाना तलाश नहीं सकता (वह मनुष्य माया के मोह में ऐसे) दुखी होता है (जैसे) गंदगी का कीड़ा गंद में।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की सेवा सदा सखु पाए ॥ संतसंगति मिलि हरि गुण गाए ॥ नामे नामि करे वीचारु ॥ आपि तरै कुल उधरणहारु ॥३॥
मूलम्
गुर की सेवा सदा सखु पाए ॥ संतसंगति मिलि हरि गुण गाए ॥ नामे नामि करे वीचारु ॥ आपि तरै कुल उधरणहारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। नामे = नामि ही, नाम में ही। उधरणहारु = बचाने के लायक।3।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा करता है वह सदा आत्मिक आनंद पाता है (क्योंकि) साधु-संगत में मिल के वह परमात्मा के गुण गाता रहता है (महिमा करता रहता है)। वह सदा परमात्मा के नाम में जुड़ के (परमात्मा के गुणों की) विचार करता है। (इस तरह) वह स्वयं (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है और अपने कुलों को भी पार लंघाने के काबिल हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की बाणी नामि वजाए ॥ नानक महलु सबदि घरु पाए ॥ गुरमति सत सरि हरि जलि नाइआ ॥ दुरमति मैलु सभु दुरतु गवाइआ ॥४॥५॥४४॥
मूलम्
गुर की बाणी नामि वजाए ॥ नानक महलु सबदि घरु पाए ॥ गुरमति सत सरि हरि जलि नाइआ ॥ दुरमति मैलु सभु दुरतु गवाइआ ॥४॥५॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वजाए = (बाजा) बजाता है। महलु = ठिकाना, प्रभु चरण। घरु = प्रभु का घरु। सतसरि = साधु-संगत रूपी सरोवर में। सरि = सरोवर में। जलि = जल से, पानी से। नाइआ = नहाया। दुरतु = पाप।4।
अर्थ: परमात्मा के नाम में जुड़ के जो मनुष्य सतिगुरु की वाणी (का बाजा) बजाता है (अपने अंदर गुरु की वाणी का पूर्ण प्रभाव डाले रखता है), हे नानक! गुरु के शब्द की इनायत से वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में घर महल हासिल कर लेता है।
गुरु की मति ले के जिस मनुष्य ने सत्संग-सरोवर में परमात्मा के नाम-जल से स्नान किया, उसने बुरी खोटी मति की मैल धो ली। उसने (अपने अंदर से) सारे पाप दूर कर लिए।4।5।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ मनमुख मरहि मरि मरणु विगाड़हि ॥ दूजै भाइ आतम संघारहि ॥ मेरा मेरा करि करि विगूता ॥ आतमु न चीन्है भरमै विचि सूता ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ मनमुख मरहि मरि मरणु विगाड़हि ॥ दूजै भाइ आतम संघारहि ॥ मेरा मेरा करि करि विगूता ॥ आतमु न चीन्है भरमै विचि सूता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। मरि = आत्मिक मौत मर के। दूजै भाइ = माया के प्यार में। आतम = आत्मिक जीवन। संघारहि = नाश कर लेते हैं। विगूता = ख़्वार होता है, दुखी होता है। आतमु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। चीने = परखता, पहचानता। सूता = गाफ़ल हुआ रहता है।1।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (आत्मिक मौत) मरते हैं (इस तरह) मर के वह अपनी मौत ख़राब करते हैं, क्योंकि माया के मोह में पड़ के वे अपना आत्मिक जीवन तबाह कर लेते हैं।
अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (ये धन) मेरा है (ये परिवार) मेरा है; नित्य यही कह: कह के दुखी होता रहता है, कभी अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता, माया की भटकना में पड़ कर (आत्मिक जीवन) की ओर से गाफ़िल हुआ रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरु मुइआ सबदे मरि जाइ ॥ उसतति निंदा गुरि सम जाणाई इसु जुग महि लाहा हरि जपि लै जाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मरु मुइआ सबदे मरि जाइ ॥ उसतति निंदा गुरि सम जाणाई इसु जुग महि लाहा हरि जपि लै जाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरु = मौत, असली मौत, माया के मोह की ओर से मर जाना। सबदे = गुरु के शब्द के द्वारा। गुरि = गुरु ने। सम = बराबर। जाणाई = समझा दी। जुग महि = जीवन में। लाहा = लाभ, कमाई।1। रहाउ।
अर्थ: कोई भला कहे या बुरा कहे, इसे एक जैसा ही सहना- गुरु ने जिस मनुष्य को ये सूझ बख्श दी है, वह मनुष्य इस जीवन में परमात्मा का नाम जप के (जगत से) कमाई कर के जाता है, वह मनुष्य (माया के मोह की और से) बेदाग़ मौत मरता है, गुरु के शब्द के द्वारा (मोह से) वह अछूता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम विहूण गरभ गलि जाइ ॥ बिरथा जनमु दूजै लोभाइ ॥ नाम बिहूणी दुखि जलै सबाई ॥ सतिगुरि पूरै बूझ बुझाई ॥२॥
मूलम्
नाम विहूण गरभ गलि जाइ ॥ बिरथा जनमु दूजै लोभाइ ॥ नाम बिहूणी दुखि जलै सबाई ॥ सतिगुरि पूरै बूझ बुझाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरभ = जनम मरन के चक्कर में। गलि जाइ = गल जाता है, आत्मिक जीवन नाश कर लेता है। लोभाइ = लोभ करता है। दुखि = दुख में। सबाई = सारी दुनिया। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझ = समझ।2।
अर्थ: नाम से वंचित रहके मनुष्य जनम-मरन के चक्करों में आत्मिक जीवन नाश कर लेता है, वह सदा माया के मोह में फसा रहता है (इस वास्ते) उसकी जिंदगी व्यर्थ चली जाती है। नाम से जुदा रह के सारी दुनिया दुख में जलती रहती है। पर ये समझ पूरे गुरु ने (किसी विरले को) बख्शी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु चंचलु बहु चोटा खाइ ॥ एथहु छुड़किआ ठउर न पाइ ॥ गरभ जोनि विसटा का वासु ॥ तितु घरि मनमुखु करे निवासु ॥३॥
मूलम्
मनु चंचलु बहु चोटा खाइ ॥ एथहु छुड़किआ ठउर न पाइ ॥ गरभ जोनि विसटा का वासु ॥ तितु घरि मनमुखु करे निवासु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एथहु छुडकिआ = इस मानव जनम की बारी से थिड़का, इस मानव जनम को गवा के। ठउर = ठिकाना, जगह। तितु घरि = उस घर में।3।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन हर समय माया के मोह में भटकता है वह मोह की चोटें खाता रहता है। इस मानव जीवन में (स्मरण से) खोया हुआ फिर आत्मिक आनंद की जगह नहीं प्राप्त कर सकता। जनम-मरण का चक्र (मानो) गंदगी का घर है, इस घर में उस मनुष्य का निवास बना रहता है जो अपने मन के पीछे चलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने सतिगुर कउ सदा बलि जाई ॥ गुरमुखि जोती जोति मिलाई ॥ निरमल बाणी निज घरि वासा ॥ नानक हउमै मारे सदा उदासा ॥४॥६॥४५॥
मूलम्
अपुने सतिगुर कउ सदा बलि जाई ॥ गुरमुखि जोती जोति मिलाई ॥ निरमल बाणी निज घरि वासा ॥ नानक हउमै मारे सदा उदासा ॥४॥६॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ। निज घरि = अपने घर में। उदासा = विरक्त।4।
अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने सतिगुरु पर से सदा सदके जाता हूँ। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य की तवज्जो को गुरु परमात्मा की ज्योति में मिला देता है।
हे नानक! गुरु की पवित्र वाणी की इनायत से अपने असल घर में (प्रभु-चरणों में) ठिकाना मिल जाता है। (गुरु की मेहर से मनुष्य) अहंकार को खत्म कर लेता है और (माया के मोह की ओर से) सदा उपराम रहता है।4।6।45।
[[0363]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ लालै आपणी जाति गवाई ॥ तनु मनु अरपे सतिगुर सरणाई ॥ हिरदै नामु वडी वडिआई ॥ सदा प्रीतमु प्रभु होइ सखाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ लालै आपणी जाति गवाई ॥ तनु मनु अरपे सतिगुर सरणाई ॥ हिरदै नामु वडी वडिआई ॥ सदा प्रीतमु प्रभु होइ सखाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाले = गुलाम ने, दास ने। जाति = हस्ती, अस्तित्व। अरपे = अरपि, अर्पित करके, हवाले करके। हिरदै = हृदय में। सखाई = मित्र।1।
अर्थ: अपना मन, अपना शरीर गुरु के हवाले करके और गुरु की शरण पड़ के सेवक ने अपनी (अलग) हस्ती मिटा ली होती है। जो परमात्मा सब का प्यारा है और सबका साथी मित्र है उसका नाम (प्रभु को बिका हुआ) दास अपने दिल में बसाए रखता है, यही उसके वास्ते सबसे बड़ी इज्जत है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो लाला जीवतु मरै ॥ सोगु हरखु दुइ सम करि जाणै गुर परसादी सबदि उधरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो लाला जीवतु मरै ॥ सोगु हरखु दुइ सम करि जाणै गुर परसादी सबदि उधरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो लाला = वह है (असली) दास। जीवतु मरै = जीते ही (जीवन ही वासना से) मर जाता है। सोगु = ग़मी। हरखु = खुशी। दुइ = दोनों। सम = बराबर। परसादी = किरपा से। उधरै = विकारों से बचता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) असली दास वह है (असल में बिका हुआ वह मनुष्य है) जो दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ दुनिया की वासनाओं से मरा हुआ है। (ऐसा दास) खुशी-ग़मी दोनों को एक जैसा ही समझता है, और गुरु की किरपा से वह गुरु के शब्द में जुड़ के (दुनियां की वासनाओं से) बचा रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करणी कार धुरहु फुरमाई ॥ बिनु सबदै को थाइ न पाई ॥ करणी कीरति नामु वसाई ॥ आपे देवै ढिल न पाई ॥२॥
मूलम्
करणी कार धुरहु फुरमाई ॥ बिनु सबदै को थाइ न पाई ॥ करणी कीरति नामु वसाई ॥ आपे देवै ढिल न पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणी = करणीय, करने योग्य। धुरहु = अपनी हजूरी से। को = कोई मनुष्य। थाइ न पाई = स्वीकार नहीं होता। कीरति = महिमा। वसाई = बसाता है। आपे = (प्रभु) खुद ही।2।
अर्थ: परमात्मा ने अपने दास को स्मरण का ही करने-योग्य काम अपनी हजूरी से बताया है (परमात्मा ने उसे हुक्म किया हुआ है कि) गुरु के शब्द (में जुड़े) बिना कोई मनुष्य (उसके दर पर) स्वीकार नहीं हो सकता, इस वास्ते सेवक उसकी महिमा करता है, उसका नाम (अपने मन में) बसाए रखता है; यही उसके वास्ते करने योग्य कार्य है। (पर ये दाति प्रभु) खुद ही (अपने दास को) देता है (और देते हुए) समय नहीं लगाता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखि भरमि भुलै संसारु ॥ बिनु रासी कूड़ा करे वापारु ॥ विणु रासी वखरु पलै न पाइ ॥ मनमुखि भुला जनमु गवाइ ॥३॥
मूलम्
मनमुखि भरमि भुलै संसारु ॥ बिनु रासी कूड़ा करे वापारु ॥ विणु रासी वखरु पलै न पाइ ॥ मनमुखि भुला जनमु गवाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भरमि = भटकना में। भुलै = कुमार्ग पर पड़ा रहता है। रासी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। कूड़ा = झूठा, ठगी का। वखरु = सौदा। पलै न पाइ = हासिल नहीं कर सकता।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला जगत माया की भटकना में पड़ के कुमार्ग पर पड़ा रहता है (जैसे कोई व्यापारी) पूंजी के बगैर ठगी का ही व्यापार करता है। जिसके पास राशि नहीं है उसे सौदा नहीं मिल सकता। (इसी तरह) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (सही जीवन-राह से) वंचित हुआ अपनी जिंदगी बरबाद करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु सेवे सु लाला होइ ॥ ऊतम जाती ऊतमु सोइ ॥ गुर पउड़ी सभ दू ऊचा होइ ॥ नानक नामि वडाई होइ ॥४॥७॥४६॥
मूलम्
सतिगुरु सेवे सु लाला होइ ॥ ऊतम जाती ऊतमु सोइ ॥ गुर पउड़ी सभ दू ऊचा होइ ॥ नानक नामि वडाई होइ ॥४॥७॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊतमु = श्रेष्ठ, ऊँचे जीवन वाला। सोइ = वही (लाला)। गुर पउड़ी = गुरु की (दी हुई स्मरण रूपी) सीढ़ी (पर चढ़ के)। दू = से। सभ दू = सबसे। नामि = नाम के द्वारा।4।
अर्थ: (प्रभु के दर पर बिका हुआ असली) दास वही है जो सतिगुरु की शरण पड़ता है, वही उच्च हस्ती वाला बन जाता है वही ऊँचे जीवन वाला हो जाता है। गुरु की (दी हुई नाम स्मरण की) सीढ़ी का आसरा ले के वह सबसे ऊँचा हो जाता है (महान बन जाता है)। हे नानक! परमात्मा के नाम स्मरण में ही इज्जत है।4।7।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ मनमुखि झूठो झूठु कमावै ॥ खसमै का महलु कदे न पावै ॥ दूजै लगी भरमि भुलावै ॥ ममता बाधा आवै जावै ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ मनमुखि झूठो झूठु कमावै ॥ खसमै का महलु कदे न पावै ॥ दूजै लगी भरमि भुलावै ॥ ममता बाधा आवै जावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। झूठो झूठ = झूठ ही झूठ, वही काम जो बिल्कुल उसके काम नहीं आ सकता। दूजे = माया के मोह में। भुलावै = कुराहे पड़ी रहती है। ममता बाधा = अपनत्व के बंधनों में बंधा हुआ।1।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री सदा वही कुछ करती है जो उस के (आत्मिक जीवन के) किसी काम नहीं आ सकता, (उन उद्यमों से वह जीव-स्त्री) पति-प्रभु का ठिकाना कभी भी नहीं ढूँढ सकती, माया के मोह में फंसी हुई, माया की भटकना में पड़ के वह कुमार्ग पर पड़ी रहती है। (हे मन!) अपनत्व के बंधनों में बंधा हुआ जगत जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोहागणी का मन देखु सीगारु ॥ पुत्र कलति धनि माइआ चितु लाए झूठु मोहु पाखंड विकारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दोहागणी का मन देखु सीगारु ॥ पुत्र कलति धनि माइआ चितु लाए झूठु मोहु पाखंड विकारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दोहागणी = मंद भागिनी, पति के द्वारा त्यागी हुई। मन = हे मन! कलति = स्त्री (के मोह) में। धनि = धन में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! (पति द्वारा त्यागी हुई) मंद-कर्मी स्त्री के श्रृंगार देख, निरा पाखण्ड है निरा विकार है। (इसी तरह) जो मनुष्य पुत्रों में, स्त्री में, धन में, माया में चित्त जोड़ता है, उसका ये सारा मोह व्यर्थ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सोहागणि जो प्रभ भावै ॥ गुर सबदी सीगारु बणावै ॥ सेज सुखाली अनदिनु हरि रावै ॥ मिलि प्रीतम सदा सुखु पावै ॥२॥
मूलम्
सदा सोहागणि जो प्रभ भावै ॥ गुर सबदी सीगारु बणावै ॥ सेज सुखाली अनदिनु हरि रावै ॥ मिलि प्रीतम सदा सुखु पावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ भावै = प्रभु को प्यारी लगती है। सेज = हृदय सेज। सुखाली = सुखी। अनदिनु = हर रोज, हर समय। मिलि = मिल के। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के।2।
अर्थ: जो जीव-स्त्री प्रभु-पति को प्यारी लगती है वह सदा अच्छे भाग्यों वाली है वह गुरु के शब्द के द्वारा (प्रभु-मिलाप को अपना आत्मिक) सोहज बनाती है, उसके हृदय की सेज सुखदाई हो जाती है क्योंकि वह हर समय प्रभु-पति का मिलाप का सुख पाती है, प्रभु-प्रीतम को मिल के वह सदा आत्मिक आनंद लेती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा सोहागणि साची जिसु साचि पिआरु ॥ अपणा पिरु राखै सदा उर धारि ॥ नेड़ै वेखै सदा हदूरि ॥ मेरा प्रभु सरब रहिआ भरपूरि ॥३॥
मूलम्
सा सोहागणि साची जिसु साचि पिआरु ॥ अपणा पिरु राखै सदा उर धारि ॥ नेड़ै वेखै सदा हदूरि ॥ मेरा प्रभु सरब रहिआ भरपूरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साची = सदा स्थिर रहने वाली, सदा के लिए। जिसु पिआरु = जिस का प्यार। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। उर = हृदय। उर धारि = हृदय में टिका के।3।
अर्थ: (हे मन!) जिस जीव-स्त्री का प्यार सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में पड़ जाता है वह सदा के लिए अच्छे भाग्यों वाली बन जाती है। वह अपने प्रभु-पति को हमेशा अपने दिल में टिकाए रखती है, वह प्रभु को सदा अपने नजदीक अपने अंग-संग देखती है, उसे प्यारा प्रभु सबमें व्यापक दिखाई देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगै जाति रूपु न जाइ ॥ तेहा होवै जेहे करम कमाइ ॥ सबदे ऊचो ऊचा होइ ॥ नानक साचि समावै सोइ ॥४॥८॥४७॥
मूलम्
आगै जाति रूपु न जाइ ॥ तेहा होवै जेहे करम कमाइ ॥ सबदे ऊचो ऊचा होइ ॥ नानक साचि समावै सोइ ॥४॥८॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै = परलोक में। न जाइ = नहीं जाता।4।
अर्थ: (हे मन! ऊँची जाति और सुंदर रूप का क्या गुमान?) परलोक में ना ये (ऊँची) जाति जाती है ना ही ये (सुंदर) रूप जाता है। (इस लोक में मनुष्य) जैसे कर्म करता है वैसा ही उसका जीवन बन जाता है (बस! यही है मनुष्य की जाति और मनुष्य का रूप)।
हे नानक! (जैसे जैसे मनुष्य) गुरु के शब्द की इनायत से (आत्मिक जीवन में) और ऊँचा और ऊँचा होता जाता है वैसे वैसे वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन होता जाता है।4।8।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ भगति रता जनु सहजि सुभाइ ॥ गुर कै भै साचै साचि समाइ ॥ बिनु गुर पूरे भगति न होइ ॥ मनमुख रुंने अपनी पति खोइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ भगति रता जनु सहजि सुभाइ ॥ गुर कै भै साचै साचि समाइ ॥ बिनु गुर पूरे भगति न होइ ॥ मनमुख रुंने अपनी पति खोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। भै = भय से। भउ = डर, अदब। गुर कै भै = गुरु के अदब से। भै साचै = सदा स्थिर प्रभु के डर से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। खोइ = गवा के। पति = इज्जत।1।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति के रंग में रंगा जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है वह प्रभु के प्रेम में मगन रहता है। गुरु के अदब में रहके सदा स्थिर परमात्मा के भय में रहके वह सदा स्थिर परमात्मा में लीन हो जाता है। (पर) पूरे गुरु की शरण पड़े बिना प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती। जो मनुष्य (गुरु की ओट-आस त्याग के) अपने मन के पीछे चलते हैं वह (अंत में) अपनी इज्जत गवा के पछताते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन हरि जपि सदा धिआइ ॥ सदा अनंदु होवै दिनु राती जो इछै सोई फलु पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन हरि जपि सदा धिआइ ॥ सदा अनंदु होवै दिनु राती जो इछै सोई फलु पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! इछै = इच्छा करता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के गुण याद कर, सदा परमात्मा का ध्यान धर। (जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है उसके अंदर) दिन-रात सदा आत्मिक चाव बना रहता है, वह जिस फल की इच्छा करता है, वही फल हासिल कर लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूरे ते पूरा पाए ॥ हिरदै सबदु सचु नामु वसाए ॥ अंतरु निरमलु अम्रित सरि नाए ॥ सदा सूचे साचि समाए ॥२॥
मूलम्
गुर पूरे ते पूरा पाए ॥ हिरदै सबदु सचु नामु वसाए ॥ अंतरु निरमलु अम्रित सरि नाए ॥ सदा सूचे साचि समाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, द्वारा। पूरा = सारे गुणों का मालिक प्रभु। हिरदै = हृदय में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। अंतरु = अंदरूनी, हृदय, मन। अंम्रितसरि = अमृत के सरोवर में, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल के सरोवर में। नाए = नहा के। सचे = पवित्र।2।
अर्थ: पूरे गुरु के द्वारा ही सारे गुणों का मालिक परमात्मा मिलता है, (पूरे गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने) हृदय में गुरु का शब्द बसाता है, प्रभु का सदा स्थिर नाम बसाता है, (ज्यों-ज्यों) वह आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के सरोवर में स्नान करता है उसका हृदय पवित्र होता जाता है। (हे भाई!) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन हो के मनुष्य सदा के लिए पवित्र हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि प्रभु वेखै सदा हजूरि ॥ गुर परसादि रहिआ भरपूरि ॥ जहा जाउ तह वेखा सोइ ॥ गुर बिनु दाता अवरु न कोइ ॥३॥
मूलम्
हरि प्रभु वेखै सदा हजूरि ॥ गुर परसादि रहिआ भरपूरि ॥ जहा जाउ तह वेखा सोइ ॥ गुर बिनु दाता अवरु न कोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हजूरि = हाजिर नाजिर, अंग संग। परसादि = किरपा से। जाउ = मैं जाता हूँ। वेखा = देखूँ, मैं देखता हूँ।3।
अर्थ: (हे मेरे मन! मेरे पर भी गुरु ने मेहर की है, और) मैं जिधर जाता हूँ उस परमात्मा को ही देखता हूँ। (पर) गुरु के बिना कोई और ये (ऊँची) दाति देने के लायक नहीं है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सागरु पूरा भंडार ॥ ऊतम रतन जवाहर अपार ॥ गुर परसादी देवणहारु ॥ नानक बखसे बखसणहारु ॥४॥९॥४८॥
मूलम्
गुरु सागरु पूरा भंडार ॥ ऊतम रतन जवाहर अपार ॥ गुर परसादी देवणहारु ॥ नानक बखसे बखसणहारु ॥४॥९॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। पूरा = भरा हुआ। भंडार = खजाने। अपार = बेअंत। परसादी = प्रसादि, कृपा से। देवणहारु = देने की सामर्थ्य वाला।4।
अर्थ: हे नानक! गुरु समुंदर है जिस में परमात्मा और महिमा के बेअंत बेश-कीमती रत्न जवाहर भरे पड़े हैं। जीवों पर बख्शिश करने वाला परमात्मा बख्शिश करता है और गुरु की किरपा से वह प्रभु-दातार महिमा के कीमती रतन-जवाहरदेता है।4।9।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ गुरु साइरु सतिगुरु सचु सोइ ॥ पूरै भागि गुर सेवा होइ ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ गुर परसादी सेव कराए ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ गुरु साइरु सतिगुरु सचु सोइ ॥ पूरै भागि गुर सेवा होइ ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ गुर परसादी सेव कराए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साइरु = सागर, समुंदर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। सोइ = वही। भागि = किस्मत से। बूझै = समझता है। परसादी = कृपा से, प्रसादि। सेव = सेवा भक्ति।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु (गुणों का) समुंदर है, गुरु उस सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का रूप है, बड़ी किस्मत से ही गुरु की (बताई हुई) सेवा होसकती है। (इस भेद को) वह मनुष्य समझता है जिसे (परमात्मा) स्वयं समझाता है, और (उससे) गुरु की किरपा से (अपनी) सेवा-भक्ति कराता है।1।
[[0364]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआन रतनि सभ सोझी होइ ॥ गुर परसादि अगिआनु बिनासै अनदिनु जागै वेखै सचु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गिआन रतनि सभ सोझी होइ ॥ गुर परसादि अगिआनु बिनासै अनदिनु जागै वेखै सचु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतनि = रत्न से। गिआनि रतनि = ज्ञान के रतन से। बिनासै = दूर हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर समय।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के बख्शे हुए ज्ञान-रत्न की इनायत से (मनुष्य को सही जीवन-जुगति के बारे में) हरेक किस्म की समझ आ जाती है। गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य का) अज्ञान दूर हो जाता है वह हर समय (माया के हमलों से) सुचेत रहता है, वह (हर जगह) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को (ही) देखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहु गुमानु गुर सबदि जलाए ॥ पूरे गुर ते सोझी पाए ॥ अंतरि महलु गुर सबदि पछाणै ॥ आवण जाणु रहै थिरु नामि समाणे ॥२॥
मूलम्
मोहु गुमानु गुर सबदि जलाए ॥ पूरे गुर ते सोझी पाए ॥ अंतरि महलु गुर सबदि पछाणै ॥ आवण जाणु रहै थिरु नामि समाणे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द द्वारा। ते = से। अंतरि = अंदर। महलु = ठिकाना। रहै = खत्म हो जाता है। नामि = नाम में।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) मोह और अहंकार जला देता है, जो मनुष्य पूरे गुरु से (सही जीवन-जुगति) समझ लेता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा अपने अंदर (बसते परमात्मा का) ठिकाना पहचान लेता है; उसके जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है, वह परमात्मा के नाम में टिका रहता है और अडोल-चित्त हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जमणु मरणा है संसारु ॥ मनमुखु अचेतु माइआ मोहु गुबारु ॥ पर निंदा बहु कूड़ु कमावै ॥ विसटा का कीड़ा विसटा माहि समावै ॥३॥
मूलम्
जमणु मरणा है संसारु ॥ मनमुखु अचेतु माइआ मोहु गुबारु ॥ पर निंदा बहु कूड़ु कमावै ॥ विसटा का कीड़ा विसटा माहि समावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अचेतु = गाफिल। गुबारु = अंधेरा।3।
अर्थ: (हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के वास्ते) जगत जनम-मरण (का चक्र ही) है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (परमात्मा की याद की ओर से) गाफिल रहता है, माया का मोह-रूपी घोर अंधेरा (उसे कुछ सूझने नहीं देता), वह सदा पराई निंदा करता रहता है, वह सदा झूठ-फरेब ही कमाता रहता है (पराई निंदा, झूठ, ठगी में ऐसे मस्त रहता है जैसे) गंदगी का कीड़ा गंदगी में ही टिका रहता है (और उसमें से बाहर निकलना पसंद नहीं करता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतसंगति मिलि सभ सोझी पाए ॥ गुर का सबदु हरि भगति द्रिड़ाए ॥ भाणा मंने सदा सुखु होइ ॥ नानक सचि समावै सोइ ॥४॥१०॥४९॥
मूलम्
सतसंगति मिलि सभ सोझी पाए ॥ गुर का सबदु हरि भगति द्रिड़ाए ॥ भाणा मंने सदा सुखु होइ ॥ नानक सचि समावै सोइ ॥४॥१०॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। द्रिढ़ाए = (दिल में) पक्की कर देता है। सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में।4।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य साधु-संगत में मिल के (सही जीवन की) सारी सूझ हासिल करता है, जो गुरु के शब्द को (दिल में बसा के) परमात्मा की भक्ति को (अपने अंदर) द्ढ़ करके टिकाता है, जो परमात्मा की रजा को (मीठा करके) मानता है, उसे सदा आत्मिक आनंन्द मिला रहता है, वह सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।4।10।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ पंचपदे२ ॥ सबदि मरै तिसु सदा अनंद ॥ सतिगुर भेटे गुर गोबिंद ॥ ना फिरि मरै न आवै जाइ ॥ पूरे गुर ते साचि समाइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ पंचपदे२ ॥ सबदि मरै तिसु सदा अनंद ॥ सतिगुर भेटे गुर गोबिंद ॥ ना फिरि मरै न आवै जाइ ॥ पूरे गुर ते साचि समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर भेटे = गुरु को मिलता है। ते = से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (माया के मोह से) मरता है उसे सदा आत्मिक आनंद मिलता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है परमात्मा का आसरा लेता है वह दुबारा आत्मिक मौत नहीं मरता, वह बार-बार पैदा होता मरता नहीं। पूरे गुरु की कृपा से वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह कउ नामु लिखिआ धुरि लेखु ॥ ते अनदिनु नामु सदा धिआवहि गुर पूरे ते भगति विसेखु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिन्ह कउ नामु लिखिआ धुरि लेखु ॥ ते अनदिनु नामु सदा धिआवहि गुर पूरे ते भगति विसेखु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = प्रभु की हजूरी से। ते = वह लोग। विसेखु = माथे पर केसर आदि का टीका।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! पिछले किए कर्मों के अनुसार परमात्मा ने) जिनके माथे पर नाम-स्मरण का लेख लिख दिया, वह मनुष्य हर समय, सदा ही नाम स्मरण करते हैं, पूरे गुरु से उनको प्रभु-भक्ति का टीका (तिलक) (माथे पे) मिलता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह कउ हरि प्रभु लए मिलाइ ॥ तिन्ह की गहण गति कही न जाइ ॥ पूरै सतिगुर दिती वडिआई ॥ ऊतम पदवी हरि नामि समाई ॥२॥
मूलम्
जिन्ह कउ हरि प्रभु लए मिलाइ ॥ तिन्ह की गहण गति कही न जाइ ॥ पूरै सतिगुर दिती वडिआई ॥ ऊतम पदवी हरि नामि समाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहण = गहरी। गति = आत्मिक अवस्था। पूरै सतिगुर = गुर पूरे ने। नामि = नाम में।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों को परमात्मा अपने चरणों में जोड़ लेता है उनकी गहरी आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती। जिनको पूरे गुरु ने (प्रभु-चरणों में जुड़ने का ये) आदर बख्शा, उन्हे उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो गई, परमात्मा के नाम में उनकी हर समय लीनता हो गई।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करे सु आपे आपि ॥ एक घड़ी महि थापि उथापि ॥ कहि कहि कहणा आखि सुणाए ॥ जे सउ घाले थाइ न पाए ॥३॥
मूलम्
जो किछु करे सु आपे आपि ॥ एक घड़ी महि थापि उथापि ॥ कहि कहि कहणा आखि सुणाए ॥ जे सउ घाले थाइ न पाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थापि = स्थापना करके, बना के। उथापि = नाश करता है। कहि कहि कहणा = बार बार कहना।3।
अर्थ: ‘जो कुछ करता है परमात्मा स्वयं ही करता है। परमात्मा एक घड़ी में पैदा करके तुरंत नाश भी कर सकता है’- जो मनुष्य बार-बार यही कह के लोगों को सुना देता है (गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का स्मरण कभी नहीं करता, ऐसा मनुष्य) अगर ऐसी (निरी और को कहने की) सौ कोशिशें भी करे तो भी उसकी ऐसी कोई भी मेहनत (परमात्मा के दर पर) स्वीकार नहीं पड़ती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह कै पोतै पुंनु तिन्हा गुरू मिलाए ॥ सचु बाणी गुरु सबदु सुणाए ॥ जहां सबदु वसै तहां दुखु जाए ॥ गिआनि रतनि साचै सहजि समाए ॥४॥
मूलम्
जिन्ह कै पोतै पुंनु तिन्हा गुरू मिलाए ॥ सचु बाणी गुरु सबदु सुणाए ॥ जहां सबदु वसै तहां दुखु जाए ॥ गिआनि रतनि साचै सहजि समाए ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पोतै = खजाने में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। गिआनि = ज्ञान से। रतनि = रतन से।4।
अर्थ: (पिछले किए कर्मों के अनुसार) जिस के पल्ले (स्मरण के) उत्तम संस्कार हैं, उन्हें परमात्मा गुरु मिलाता है। गुरु उन्हें महिमा की वाणी सुनाता है, सदा स्थिर प्रभु का नाम सुनाता है, महिमा के शब्द सुनाता है। (हे भाई!) जिस हृदय में गुरु का शब्द बसता है, वहाँ से हरेक किस्म के दुख दूर हो जाते हैं। गुरु के बख्शे ज्ञान-रतन की इनायत से मनुष्य सदा स्थिर परमात्मा में जुड़ा रहता है और आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावै जेवडु होरु धनु नाही कोइ ॥ जिस नो बखसे साचा सोइ ॥ पूरै सबदि मंनि वसाए ॥ नानक नामि रते सुखु पाए ॥५॥११॥५०॥
मूलम्
नावै जेवडु होरु धनु नाही कोइ ॥ जिस नो बखसे साचा सोइ ॥ पूरै सबदि मंनि वसाए ॥ नानक नामि रते सुखु पाए ॥५॥११॥५०॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पंच पदा = वह शब्द जिसमें पाँच बंद हों। पंचपदे– (बहुवचन)। शब्द ‘पंचपदे’ के नीचे लिखे अंक ‘2’ का भाव है कि नं: 11 और 12 दो शब्द पंच पदे के हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नावै जेवडु = नाम के बराबर। साचा = सदा स्थिर प्रभु। मंनि = मनि, मन में।5।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम के बराबर का कोई धन नहीं है (पर ये धन सिर्फ उस मनुष्य को मिलता है) जिसे सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा खुद बख्शता है। पूरे गुरु के शब्द की सहायता से वह मनुष्य परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में रंग के मनुष्य (सदा) आत्मिक आनंद पाता है।5।11।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला ३ ॥ निरति करे बहु वाजे वजाए ॥ इहु मनु अंधा बोला है किसु आखि सुणाए ॥ अंतरि लोभु भरमु अनल वाउ ॥ दीवा बलै न सोझी पाइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला ३ ॥ निरति करे बहु वाजे वजाए ॥ इहु मनु अंधा बोला है किसु आखि सुणाए ॥ अंतरि लोभु भरमु अनल वाउ ॥ दीवा बलै न सोझी पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरति = नाच। किसु = किसे? आखि = कह के। अनल = आग। वाउ = हवा, आंधी।1।
अर्थ: (पर जब तलक मनुष्य का) ये अपना मन (माया के मोह में) अंधा-बहरा हुआ पड़ा है (वह अगर भक्ति के नाम पर) नाचता है और कई साज भी बजाता है तो भी वह किसी को भी कह के नहीं सुना रहा (क्योंकि वह खुद ही नहीं सुन रहा)। उसके अपने अंदर तृष्णा की आग जल रही है, भटकना (की) आंधी चल रही है (ऐसी अवस्था में उसके अंदर ज्ञान का दीपक) नहीं जल सकता, वह (सही जीवन की) समझ नहीं हासिल कर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि भगति घटि चानणु होइ ॥ आपु पछाणि मिलै प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरमुखि भगति घटि चानणु होइ ॥ आपु पछाणि मिलै प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। घटि = हृदय में। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणि = पहचाने, पहचान लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के सन्मुख रह के की हुई भक्ति की इनायत से हृदय में (आत्मिक ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है। (इस भक्ति से मनुष्य) अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है (और मनुष्य को) वह प्रभु मिल जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि निरति हरि लागै भाउ ॥ पूरे ताल विचहु आपु गवाइ ॥ मेरा प्रभु साचा आपे जाणु ॥ गुर कै सबदि अंतरि ब्रहमु पछाणु ॥२॥
मूलम्
गुरमुखि निरति हरि लागै भाउ ॥ पूरे ताल विचहु आपु गवाइ ॥ मेरा प्रभु साचा आपे जाणु ॥ गुर कै सबदि अंतरि ब्रहमु पछाणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। आपु = स्वै भाव, अहंकार। जाणु = जानकार। सबदि = शब्द से। पछाणु = पहचानने वाला।2।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहना ही नृत्य है (इस तरह) परमात्मा से प्यार बनता है (इस तरह मनुष्य अपने) अंदर से अहंकार दूर करता है यही है ताल में नाचना। (जो मनुष्य ये नाच नाचता है) सदा स्थिर प्रभु स्वयं ही उसका मित्र बन जाता है, गुरु के शब्द से उसके अंदर बसता प्रभु उसकी जान-पहिचान वाला बन जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि भगति अंतरि प्रीति पिआरु ॥ गुर का सबदु सहजि वीचारु ॥ गुरमुखि भगति जुगति सचु सोइ ॥ पाखंडि भगति निरति दुखु होइ ॥३॥
मूलम्
गुरमुखि भगति अंतरि प्रीति पिआरु ॥ गुर का सबदु सहजि वीचारु ॥ गुरमुखि भगति जुगति सचु सोइ ॥ पाखंडि भगति निरति दुखु होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। पाखंडि = पाखण्ड से।3।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहके की गई भक्ति से मनुष्य के अंदर प्रीति पैदा होती है प्यार पैदा होता है। गुरु का शब्द मनुष्य को आत्मिक अडोलता में ले जाता है (प्रभु के गुणों का) विचार बख्शता है। गुरु के सन्मुख रहके की हुई भक्ति ही (सही) तरीका है (जिससे) वह परमात्मा मिलता है। दिखावे की भक्ति के नाच से तो दुख होता है।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
एहा भगति जनु जीवत मरै ॥ गुर परसादी भवजलु तरै ॥ गुर कै बचनि भगति थाइ पाइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥४॥
मूलम्
एहा भगति जनु जीवत मरै ॥ गुर परसादी भवजलु तरै ॥ गुर कै बचनि भगति थाइ पाइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। भवजलु = संसार समुंदर। थाइ पाइ = स्वीकार हो जाती है। थाइ = जगह में, लेखे मे। मनि = मन में।4।
अर्थ: असल भक्ति यही है कि (जिसकी इनायत से) मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह से अछोह हो जाता है, और गुरु की कृपा से संसार-समुंदर (के विकारों की लहरों) से पार लांघ जाता है। गुरु के उपदेश अनुसार की हुई भक्ति (प्रभु के दर पर) स्वीकार होती है, प्रभु स्वयं ही मनुष्य के मन में आ बसता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ निहचल भगति हरि सिउ चितु लाए ॥ भगति रते तिन्ह सची सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥५॥१२॥५१॥
मूलम्
हरि क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ निहचल भगति हरि सिउ चितु लाए ॥ भगति रते तिन्ह सची सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥५॥१२॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहचल = ना डोलने वाली। सिउ = साथ। सोइ = शोभा। सची = सदा स्थिर। नामि = नाम में।5।
अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश? जिस मनुष्य पर) परमात्मा मेहर करता है उसे गुरु मिलाता है (गुरु की सहायता से) वह ना डोलने वाली भक्ति करता है और परमात्मा से अपना चित्त जोड़े रखता है।
हे नानक! जो मनुष्य (परमात्मा की) भक्ति (के रंग) में रंगे जाते हैं उन्हें सदा कायम रहने वाली शोभा मिलती है। परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुओं को आत्मिक आनंद मिलता है।5।12।51।