[[0358]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु ३ महला १ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु ३ महला १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख लसकर लख वाजे नेजे लख उठि करहि सलामु ॥ लखा उपरि फुरमाइसि तेरी लख उठि राखहि मानु ॥ जां पति लेखै ना पवै तां सभि निराफल काम ॥१॥
मूलम्
लख लसकर लख वाजे नेजे लख उठि करहि सलामु ॥ लखा उपरि फुरमाइसि तेरी लख उठि राखहि मानु ॥ जां पति लेखै ना पवै तां सभि निराफल काम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लसकर = फौजें। उठि = उठ के। फुरमाइसि = हकूमत। मानु = आदर। पति = दुनिया में मिली हुई इज्जत। लेखै न पवै = परमात्मा की हजूरी में स्वीकार ना हो। निराफल = व्यर्थ।1।
अर्थ: (हे भाई!) अगर तेरी फौजें लाखों की तादात में हों, उनमें लाखों लोग बाजे बजाने वाले हों, लाखों नेजे-भाले चलाने वाले हों, लाखों ही आदमी उठ के नित्य तुझे सलाम करते हों, (हे भाई!) अगर लाखों लोगों पर तेरी हकूमत हो, लाखों लोग उठ के तेरी इज्जत करते हों, (तो भी क्या हुआ) अगर तेरी ये इज्जत परमात्मा की हजूरी में स्वीकार ना पड़े, तो तेरे यहाँ किए सारे ही काम व्यर्थ गए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के नाम बिना जगु धंधा ॥ जे बहुता समझाईऐ भोला भी सो अंधो अंधा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के नाम बिना जगु धंधा ॥ जे बहुता समझाईऐ भोला भी सो अंधो अंधा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंधा = झंबेला, उलझन। अंधो अंधा = अंधा ही अंधा।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा के नाम स्मरण के बिना जगत का मोह (मनुष्य के वास्ते) उलझन ही उलझन बन जाता है। (इस उलझन में जीव इतना फंस जाता है कि) चाहे कितना ही समझाते रहो, मन अंधा ही अंधा रहता है (मनुष्य को समझ नहीं आती कि मैं कुराह पर पड़ा हूँ)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख खटीअहि लख संजीअहि खाजहि लख आवहि लख जाहि ॥ जां पति लेखै ना पवै तां जीअ किथै फिरि पाहि ॥२॥
मूलम्
लख खटीअहि लख संजीअहि खाजहि लख आवहि लख जाहि ॥ जां पति लेखै ना पवै तां जीअ किथै फिरि पाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खटीअहि = कमाए जाएं (बहुवचन, करमवाच)। संजीअहि = एकत्र किए जाएं। खाजहि = खाए जाएं, खर्चे जाएं। किथै पाहि = पता नहीं कहाँ पड़ते हैं, दुखी ही रहते हैं।2।
अर्थ: अगर लाखों रुपए कमाए जाएं, लाखों रुपए जोड़े जाएं, लाखों रुपए खर्चे भी जाएं, लाखों ही रुपए आएं, और लाखों ही चले जाएं, पर अगर प्रभु की नजर में ये इज्जत स्वीकार ना हो (तो इन लाखों रुपयों का मालिक भी अंदर से) दुखी ही रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख सासत समझावणी लख पंडित पड़हि पुराण ॥ जां पति लेखै ना पवै तां सभे कुपरवाण ॥३॥
मूलम्
लख सासत समझावणी लख पंडित पड़हि पुराण ॥ जां पति लेखै ना पवै तां सभे कुपरवाण ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुपरवाण = स्वीकार नहीं।3।
अर्थ: लाखों बार शास्त्रों की व्याख्या की जाए, विद्वान लोग लाखों बार पुराण पढ़ें (और दुनियां में अपनी विद्या के कारण आदर हासिल करें), तो भी अगर ये आदर प्रभु के दर पर स्वीकार ना हो तो ये सारे पढ़ने-पढ़ाने व्यर्थ गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सच नामि पति ऊपजै करमि नामु करतारु ॥ अहिनिसि हिरदै जे वसै नानक नदरी पारु ॥४॥१॥३१॥
मूलम्
सच नामि पति ऊपजै करमि नामु करतारु ॥ अहिनिसि हिरदै जे वसै नानक नदरी पारु ॥४॥१॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में जुड़ने से। करमि = (परमात्मा की) मेहर से। अहि = दिन। निसि = रात। पारु = परला छोर, संसार समुंदर का परला किनारा।4।
अर्थ: सदा स्थिर रहने वाले नाम में जुड़ने से ही (प्रभु के दर पर) आदर मिलता है, और कर्तार (का यह) नाम मिलता है उसकी अपनी मेहर से। हे नानक! अगर परमात्मा का नाम हृदय में दिन-रात बसता रहे तो परमात्मा की मेहर से मनुष्य (संसार-समुंदर का) परला किनारा पा लेता है।4।1।31।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आखिरी अंकों में अंक 1 बताता है कि ‘घरु ३’ का यह पहला शब्द है, और आसा राग में गुरु नानक देव जी के अब तक कुल 31 शब्द हो चुके हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ दीवा मेरा एकु नामु दुखु विचि पाइआ तेलु ॥ उनि चानणि ओहु सोखिआ चूका जम सिउ मेलु ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ दीवा मेरा एकु नामु दुखु विचि पाइआ तेलु ॥ उनि चानणि ओहु सोखिआ चूका जम सिउ मेलु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उनि = उस से। चानणि = रौशनी से। उनि चानणि = उस रौशनी से। ओहु = वह दुख तेल। सोखिआ = सूख जाता है, समाप्त हो जाता है।1।
अर्थ: मेरे वास्ते परमात्मा का नाम ही दीया है (जो मेरी जिंदगी के रास्ते में आत्मिक रौशनी करता है) उस दीए में मैंने (दुनियां में व्यापने वाला) दुख (-रूपी) तेल डाला हुआ है। उस (आत्मिक) प्रकाश से वह दुख-रूपी तेल जलता जाता है, और जम से मेरा साथ भी समाप्त हो जाता है।।1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: संबंधक ‘विचि’ का संबंध ‘दुखु’ से नहीं है। ‘दीवे विचि दुख तेलु पाइआ’- ऐसे अर्थ करना है)
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोका मत को फकड़ि पाइ ॥ लख मड़िआ करि एकठे एक रती ले भाहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
लोका मत को फकड़ि पाइ ॥ लख मड़िआ करि एकठे एक रती ले भाहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फकड़ि = फक्कड़ी, मजाक। मड़िआ = ढेर। भाहि = आग।1। रहाउ।
अर्थ: हे लोगो! मेरी बात का मजाक बिलकुल ना उड़ाओ। लाखों मन लकड़ी के ढेर इकट्ठे करके (यदि) एक रत्ती जितनी भी आग लगा के देखें (तो वह सारे ढेर जल के राख हो जाते हैं। वैसे ही जनम-जन्मांतरों के पापों को एक ‘नाम’ खत्म कर देता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिंडु पतलि मेरी केसउ किरिआ सचु नामु करतारु ॥ ऐथै ओथै आगै पाछै एहु मेरा आधारु ॥२॥
मूलम्
पिंडु पतलि मेरी केसउ किरिआ सचु नामु करतारु ॥ ऐथै ओथै आगै पाछै एहु मेरा आधारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केसउ = (केशव = केश वाला) लम्बे केसों वाला, परमात्मा। आधारु = आसरा।2।
अर्थ: पत्तलों पर पिण्ड भरने (मणसाणे) मेरे वास्ते परमात्मा (का नाम) ही है, मेरे वास्ते किरिया भी कर्तार (का) सच्चा नाम ही है। ये नाम इस लोक में परलोक में हर जगह मेरी जिंदगी का आसरा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गंग बनारसि सिफति तुमारी नावै आतम राउ ॥ सचा नावणु तां थीऐ जां अहिनिसि लागै भाउ ॥३॥
मूलम्
गंग बनारसि सिफति तुमारी नावै आतम राउ ॥ सचा नावणु तां थीऐ जां अहिनिसि लागै भाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नावै = स्नान करता है। आतम राउ = जिंद, जीवात्मा। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्रेम।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी महिमा ही मेरे वास्ते गंगा और काशी (आदि तीर्थों) का स्नान है, तेरी महिमा में ही मेरी आत्मा स्नान करती है। सच्चा स्नान है ही तब, जब दिन-रात प्रभु के चरणों में भेद बना रहे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक लोकी होरु छमिछरी ब्राहमणु वटि पिंडु खाइ ॥ नानक पिंडु बखसीस का कबहूं निखूटसि नाहि ॥४॥२॥३२॥
मूलम्
इक लोकी होरु छमिछरी ब्राहमणु वटि पिंडु खाइ ॥ नानक पिंडु बखसीस का कबहूं निखूटसि नाहि ॥४॥२॥३२॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: हिन्दू मर्यादा के मुताबक जब कोई प्राणी मरने लगता है तो उसे चारपाई से नीचे उतार लेते हैं। उसके हाथ की तली पर आटे का दीपक रख के जला देते हैं, ता कि जिस अनदेखे अंधेरे राह में उसकी आत्मा ने जाना है, ये दीया उसके रास्ते में रौशनी करे। उसके मरने के बाद जौ अथवा चावलों के आटे के पेड़े पत्तरों की थाली में (पत्तल) रख के सजाए जाते हैं। ये मरे प्राणी के लिए रास्ते की खुराक होती है। मौत के 13 दिन बाद ‘किरिया’ की जाती है। आचार्य (किरिया कराने वाला ब्राहमण) वेद-मंत्र आदि पढ़ता है, मरे प्राणी के नमित्त एक लंबी मर्यादा की जाती है। 360 दीए और इतनी ही बत्तियां और तेल रखा जाता है। वो बत्तियां इकट्ठी ही तेल में भिगो के जला दी जाती हैं। श्रद्धा यही होती है कि मरे प्राणी ने एक साल में पित्र-लोक में पहुँचना है। ये 360 दीए (एक-एक दीया हर रोज) एक साल रास्ते में प्रकाश करेंगे। संस्कार के चौथे दिन राख फरोल के जलने से बच गई हड्डियां (फूल) चुन ली जाती हैं ये ‘फूल’ हरिद्वार, व गंगा में प्रवाहित कर दिए जाते हैं। आम तौर पर किरिया से पहले ही फूल गंगा-परवाह किए जाते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोकी = देव लोक के रहने वाले, देवते। होर = दूसरा (पिंड)। छमिछरी = (क्षमा चरी। क्षमा, धरती) धरती पर चलने वाले, पित्र। वटि = वट के, बटना। बख्शीश = किरपा, मेहर। निखूटसि = समाप्त।4।
अर्थ: ब्राहमण (जौ और चावलों के आटे का) पिन्न बट के एक पिन्न देवताओं को भेटा करता है और दूसरा पिन्न पित्रों को, (पिन्न बटने के बाद) वह खुद (खीर पूड़ी आदि जजमानों के घर से) खाता है। (पर) हे नानक! (ब्राहमण के द्वारा दिया हुआ ये पिन्न कब तक टिका रह सकता है? हाँ) परमात्मा की मेहर का पिन्न कभी समाप्त नहीं होता।4।2।32।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ३’ के यहाँ दो शब्द समाप्त होते हैं। आगे ‘घरु ४’ का शब्द है। मूल-मंत्र का नए सिरे से लिखे जाना भी यही बताता है कि ये संग्रह समाप्त हो के नया शुरू हो रहा है। (पन्ना 358)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा घरु ४ महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा घरु ४ महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतिआ दरसन कै ताई दूख भूख तीरथ कीए ॥ जोगी जती जुगति महि रहते करि करि भगवे भेख भए ॥१॥
मूलम्
देवतिआ दरसन कै ताई दूख भूख तीरथ कीए ॥ जोगी जती जुगति महि रहते करि करि भगवे भेख भए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै ताई = की खातिर। जुगति = मर्यादा। भगवे = गेरूऐ रंग के।1।
अर्थ: देवताओं ने भी तेरा दर्शन करने के लिए अनेक दुख सहे, भूख बर्दाश्त कीं और तीर्थ-रटन किए। अनेको जोगी व जती (अपनी-अपनी) मर्यादा में रहते हुए गेरूऐ रंग के कपड़े पहनते रहे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ कारणि साहिबा रंगि रते ॥ तेरे नाम अनेका रूप अनंता कहणु न जाही तेरे गुण केते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तउ कारणि साहिबा रंगि रते ॥ तेरे नाम अनेका रूप अनंता कहणु न जाही तेरे गुण केते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तउ कारणि = तेरे दीदार की खातिर। रंगि = (तेरे) प्रेम में। कहणु न जाही = बयान नहीं किए जा सकते।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक! तुझे मिलने के लिए अनेक ही लोग तेरे प्यार में रंगे रहते हैं। तेरे अनेक नाम हैं, तेरे बेअंत रूप हैं, तेरे बेअंत ही गुण हैं, किसी भी तरह बयान नहीं किए जा सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर घर महला हसती घोड़े छोडि विलाइति देस गए ॥ पीर पेकांबर सालिक सादिक छोडी दुनीआ थाइ पए ॥२॥
मूलम्
दर घर महला हसती घोड़े छोडि विलाइति देस गए ॥ पीर पेकांबर सालिक सादिक छोडी दुनीआ थाइ पए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महला = महल माढ़ीयां। हसती = हाथी। छोडि = छोड़ के। विलाइति = वतन। सालिक = ज्ञानवान, और लोगों को जीवन-राह बताने वाले। सादिक = सिदकी। थाइ पए = स्वीकार होने के वास्ते।2।
अर्थ: (तेरा दर्शन करने के लिए ही राज-मिलख के मालिक) अपने महल-माढ़ियों अपने घर-दरवाजे पे हाथी-घोड़े अपना देश-वतन छोड़ के (जंगलों में) चले गए। अनेक पीर-पैग़ंबरों-ज्ञानवानों और सिदकियों ने तेरे दर पे स्वीकार होने के लिए दुनिया छोड़ दी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साद सहज सुख रस कस तजीअले कापड़ छोडे चमड़ लीए ॥ दुखीए दरदवंद दरि तेरै नामि रते दरवेस भए ॥३॥
मूलम्
साद सहज सुख रस कस तजीअले कापड़ छोडे चमड़ लीए ॥ दुखीए दरदवंद दरि तेरै नामि रते दरवेस भए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आराम। रस कस = सब स्वादों के पदार्थ। तजीअले = त्याग दिए। दर तेरै = तेरे दरवाजे पे। दरवेस = फ़कीर।3।
अर्थ: अनेक लोगों ने दुनिया के स्वाद, सुख, आराम और सब रसों के पदार्थ छोड़ दिए, कपड़े छोड़ के चमड़ा पहना। अनेक लोग दुखियों की तरह, दर्दवंदों की तरह तेरे दर पर फ़रियाद करने के लिए तेरे नाम में रंगे रहने के लिए (गृहस्थ छोड़ के) फ़कीर हो गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खलड़ी खपरी लकड़ी चमड़ी सिखा सूतु धोती कीन्ही ॥ तूं साहिबु हउ सांगी तेरा प्रणवै नानकु जाति कैसी ॥४॥१॥३३॥
मूलम्
खलड़ी खपरी लकड़ी चमड़ी सिखा सूतु धोती कीन्ही ॥ तूं साहिबु हउ सांगी तेरा प्रणवै नानकु जाति कैसी ॥४॥१॥३३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ४’ का ये एक ही शब्द है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खलड़ी = भांग आदि डालने के लिए चमड़े की झोली। लकड़ी = डण्डा। सिखा = चोटी, बोदी। सूतु = जनेऊ। जाति कैसी = मुझे किसी जाति का मान नहीं।4।
अर्थ: किसी ने (भांग आदि डालने के लिए) चमड़े की झोली ले ली, किसी ने (घर-घर मांगने के लिए) खप्पर (हाथ में) पकड़ लिया, कोई डण्डाधारी सन्यासी बना, किसी ने म्गछाला ले ली, कोई चोटी-जनेऊ और धोती का धारणी हुआ। पर, नानक बिनती करता है: हे प्रभु! तू मेरा मालिक है, मैं सिर्फ तेरा सांगी हूँ (भाव, मैं सिर्फ तेरा कहलवाता हूँ, जैसे तू मुझे रखता है वैसे ही रहता हूँ) किसी खास श्रेणी में होने का मुझे कोई गुमान नहीं है।4।1।33।
दर्पण-टिप्पनी
देखें पन्ना 667 पर महला 4;
“संत जना की जाति हरि सुआमी, तुम ठाकुर हम सांगी॥ ”
दर्पण-भाव
सांगी का भाव: जैसी मति देवहु हरि सुआमी, हम तैसे बुलग बुलागी।”3।1।
[[0359]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा घरु ५ महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
आसा घरु ५ महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीतरि पंच गुपत मनि वासे ॥ थिरु न रहहि जैसे भवहि उदासे ॥१॥
मूलम्
भीतरि पंच गुपत मनि वासे ॥ थिरु न रहहि जैसे भवहि उदासे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीतरि = मन के अंदर। पंच = पाँच कामादिक। गुपत = छुपे हुए। मनि = मन में। थिरु न रहहि = टिकते नहीं। उदासे = ठठंबरे हुए, बेचैन हुए। जैसे = जिस प्रकार।1।
अर्थ: मेरे मन में धुर अंदर पाँच (विकार) कामादिक छुपे पड़े हैं, वे बेचैन डरे हुए भागे फिरते हैं, ना वे खुद टिकते हैं (ना ही मेरे मन को टिकने देते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु मेरा दइआल सेती थिरु न रहै ॥ लोभी कपटी पापी पाखंडी माइआ अधिक लगै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मनु मेरा दइआल सेती थिरु न रहै ॥ लोभी कपटी पापी पाखंडी माइआ अधिक लगै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेती = साथ। थिरु न रहै = टिकता नहीं, जुड़ता नहीं। अधिक = बहुत।1। रहाउ।
अर्थ: मेरा मन दयालु परमात्मा की याद में जुड़ता नहीं है। इस पर माया ने बहुत दबाव डाला हुआ है। ये लोभी-कपटी-पापी-पाखण्डी बना हुआ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फूल माला गलि पहिरउगी हारो ॥ मिलैगा प्रीतमु तब करउगी सीगारो ॥२॥
मूलम्
फूल माला गलि पहिरउगी हारो ॥ मिलैगा प्रीतमु तब करउगी सीगारो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहिरउगी = मैं पहनूँगी। करउगी = मैं करूँगी।2।
अर्थ: (मेरा शरीर उस नारी की तरह अपने श्रृंगार की उमंग में ही रहता है जो अपने पति की राह ताक रही है और कहती है:) मैं अपने गले में फूलों की माला डालूँगी, फूलों का हार डालूँगी, मेरा पति मिलेगा तो मैं श्रृंगार करूँगी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच सखी हम एकु भतारो ॥ पेडि लगी है जीअड़ा चालणहारो ॥३॥
मूलम्
पंच सखी हम एकु भतारो ॥ पेडि लगी है जीअड़ा चालणहारो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच सखी = पाँच सहेलियां, ज्ञान-इंद्रिय। हम = हमारी, मेरी। भतारो = पति, जीवात्मा। पेडि = पेड में, शरीर में, शरीर के भोग में।3।
अर्थ: मेरी पाँचों सहेलियां भी (ज्ञानेंद्रियो भी) जिनकी जीवात्मा ही पति है (भाव, जिनका सुख-दुख जीवात्मा के सुख-दुख के साथ सांझा है) (जीवात्मा की मदद करने की बजाए) शरीर के भोग में ही लगी हुई हैं (उन्हें तो याद ही नहीं कि इस शरीर से जीवात्मा का विछोड़ा हो जाना है) जीवात्मा ने चले जाना है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच सखी मिलि रुदनु करेहा ॥ साहु पजूता प्रणवति नानक लेखा देहा ॥४॥१॥३४॥
मूलम्
पंच सखी मिलि रुदनु करेहा ॥ साहु पजूता प्रणवति नानक लेखा देहा ॥४॥१॥३४॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: येशबद ‘घरु ५’ का है। नया संग्रह है। मूल-मंत्र फिर नए सिरे से दर्ज है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। रुदनु करेहा = रुदन करती हैं, रोती हैं, साथ छोड़ देती हैं। साहु = जीवात्मा। पजूता = पकड़ा जाता है।4।
अर्थ: (आखिर, विछोड़े का समय आ जाता है) पाँचों सहेलियां मिल के सिर्फ रोती ही हैं (भाव, पाँचों ज्ञान-इंद्रिय जीवात्मा का साथ छोड़ देती हैं, और) नानक कहता है कि जीवात्मा (अकेली ही) लेखा देने के लिए पकड़ी जाती है।4।1।34।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घर ५’ यहां समाप्त होता है। फिर मूल मंत्र है, नया संग्रह ‘घरु ६’ आरम्भ होता है। ‘घरु ६’ के पाँच शब्द हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु ६ महला १ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु ६ महला १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु मोती जे गहणा होवै पउणु होवै सूत धारी ॥ खिमा सीगारु कामणि तनि पहिरै रावै लाल पिआरी ॥१॥
मूलम्
मनु मोती जे गहणा होवै पउणु होवै सूत धारी ॥ खिमा सीगारु कामणि तनि पहिरै रावै लाल पिआरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउणु = हवा, श्वास। सूत = धागा। कामणि = स्त्री। तनि = तन पर। रावे = मिलती है, भोगती है।1।
अर्थ: अगर जीव-स्त्री अपने मन को सुच्चे मोती जैसा गहना बना ले (मातियों की माला बनाने के लिए धागे की जरूरत पड़ती है) अगर श्वास-श्वास (का स्मरण मोती परोने के लिए) धागा बने, अगर दुनिया की ज्यादतियों को सह लेने के स्वभाव को जीव-स्त्री श्रृंगार बना के अपने शरीर पर पहन ले, तो पति-प्रभु की प्यारी हो के उसे मिल जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाल बहु गुणि कामणि मोही ॥ तेरे गुण होहि न अवरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
लाल बहु गुणि कामणि मोही ॥ तेरे गुण होहि न अवरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाल = हे लाल! बहु गुणि = बहुत गुणों वाले। होहि न = नहीं हैं। अवरी = किसी और में।1। रहाउ।
अर्थ: हे बहुगुणी लाल प्रभु! जो जीव-स्त्री तेरे गुणों में तवज्जो जोड़ती है, उसे तेरे वाले गुण किसी और में नहीं दिखाई देते (वह तुझे विसार के किसी और तरफ़ प्रीति नहीं जोड़ती)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि हारु कंठि ले पहिरै दामोदरु दंतु लेई ॥ कर करि करता कंगन पहिरै इन बिधि चितु धरेई ॥२॥
मूलम्
हरि हरि हारु कंठि ले पहिरै दामोदरु दंतु लेई ॥ कर करि करता कंगन पहिरै इन बिधि चितु धरेई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंठि = गले में। दामोदरु = (दाम उदर = जिसकी कमर पे तगाड़ी है) परमात्मा। दंतु = दाँत। कर = हाथों में। करि = कर के। चित धरेई = मन को टिकाए।2।
अर्थ: अगर जीव-स्त्री परमात्मा की हर समय याद को हार बना के अपने गले में डाल ले, अगर प्रभु स्मरण को (दांतों का) दंदासा की तरह प्रयोग करे, अगर कर्तार की भक्ति-सेवा को कंगन बना के हाथों में पहन ले, तो इस तरह उसका चित्त प्रभु-चरणों में टिका रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुसूदनु कर मुंदरी पहिरै परमेसरु पटु लेई ॥ धीरजु धड़ी बंधावै कामणि स्रीरंगु सुरमा देई ॥३॥
मूलम्
मधुसूदनु कर मुंदरी पहिरै परमेसरु पटु लेई ॥ धीरजु धड़ी बंधावै कामणि स्रीरंगु सुरमा देई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मधुसूदनु = परमात्मा। कर = हाथों (की उंगलियों) पर। पटु = रेशमी कपड़ा। धड़ी = मांग, पट्टी। स्रीरंगु = श्री रंग, लक्ष्मी का पति, परमात्मा।3।
अर्थ: अगर जीव-स्त्री हरि-भजन की मुंद्री (अंगूठी) बना के हाथ की अंगुली में पहन ले, प्रभु नाम की ओट को अपनी इज्जत का रक्षक रेशमी कपड़ा बनाए, (नाम जपने की इनायत से प्राप्त की) गंभीरता को पट्टियां सजाने के लिए बरते, लक्ष्मी-पति प्रभु के नाम का (आँखों में) सुरमा डाले।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मंदरि जे दीपकु जाले काइआ सेज करेई ॥ गिआन राउ जब सेजै आवै त नानक भोगु करेई ॥४॥१॥३५॥
मूलम्
मन मंदरि जे दीपकु जाले काइआ सेज करेई ॥ गिआन राउ जब सेजै आवै त नानक भोगु करेई ॥४॥१॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंदरि = मन्दिर मे। दीपकु = दीया। काइआ = शरीर, हृदय। गिआन राउ = ज्ञान का राजा।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: स्त्री अपने पति को मिलने की आस में अपना शरीर श्रृंगारती है ता कि पति को उसका शरीर अच्छा लगे। जीव-स्त्री और परमात्मा-पति का आत्मिक मेल ही हो सकता है, इस मेल की संभावना तभी हो सकती है, अगर जीव-स्त्री अपनी आत्मा को सुंदर बनाए। आत्मा की खूबसूरती के लिए इस शब्द में निम्न-लिखित आत्मिक गहने बताए गए हैं: पवित्र आचरण, श्वास-श्वास नाम का जाप, क्षमा, धैर्य, ज्ञान आदि।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अगर जीव-स्त्री अपने मन के महल में ज्ञान का दीपक जगाए, हृदय को (प्रभु-मिलाप के लिए) सेज बनाए, हे नानक! (उसके इस सारे आत्मिक श्रृंगार पर रीझ के) जब ज्ञान-दाता प्रभु उसकी हृदय-सेज पर प्रकट होता है, तो उसको अपने साथ मिला लेता है।4।1।35।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ६’ के शबदों के संग्रह में से ये पहला शब्द है। इस संग्रह में 5 शब्द हैं बड़े अंक से पहला छोटा अंक इस संग्रह का ही है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ कीता होवै करे कराइआ तिसु किआ कहीऐ भाई ॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ कीते किआ चतुराई ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ कीता होवै करे कराइआ तिसु किआ कहीऐ भाई ॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ कीते किआ चतुराई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीता होवै = जो प्रभु का किया हुआ है, जीव। किआ कहीऐ = क्या गिला? भाई = हे भाई! कीते = जीव की। किआ = कुछ सवार नहीं सकती।1।
अर्थ: (पर) हे भाई! जीव के क्या वश? जीव वही कुछ करता है जो परमात्मा उससे कराता है। जीव की कोई सियानप काम नहीं आती, जो कुछ अकाल-पुरख करना चाहता है, वही कर रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा हुकमु भला तुधु भावै ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई साचे नामि समावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा हुकमु भला तुधु भावै ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई साचे नामि समावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुधु भावै = जो जीव तुझे अच्छा लगता है। भला = प्यारा। नामि = नाम में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) जो जीव तुझे अच्छा लगता है, उसे तेरी रज़ा मीठी लगने लग जाती है। (सो) हे नानक! (प्रभु के दर से) उस जीव को आदर मिलता है जो (उसकी रजा में रह के) उस सदा-स्थिर मालिक के नाम में लीन रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरतु पइआ परवाणा लिखिआ बाहुड़ि हुकमु न होई ॥ जैसा लिखिआ तैसा पड़िआ मेटि न सकै कोई ॥२॥
मूलम्
किरतु पइआ परवाणा लिखिआ बाहुड़ि हुकमु न होई ॥ जैसा लिखिआ तैसा पड़िआ मेटि न सकै कोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरतु = किया हुआ काम, जन्म-जन्मांतरों के किए कामों के संस्कारों का समूह। पइआ = पड़ा हुआ, उकरा हुआ। परवाणा = लेख, परवाना। बाहुड़ि = दुबारा, उसके उलट। पढ़िआ = प्रगट होता है, घटित होता है।2।
अर्थ: हमारे जन्म-जन्मांतरों के किए कामों के संस्कारों के समूह जो हमारे मन में उकर चुके होते हैं, उसके अनुसार हमारी जीवन-राहदारी लिखी जा चुकी होती है, उसके उलट जोर नहीं चल सकता। फिर जिस तरह का वह जीवन-लेख लिखा हुआ है, उसके अनुसार (जीवन-यात्रा) बनती चली आती है, कोई (उन लकीरों को अपनी कोशिशों से) मिटा नहीं सकता (उसे मिटाने का एक मात्र तरीका है: रजा में चल के महिमा करते रहना)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को दरगह बहुता बोलै नाउ पवै बाजारी ॥ सतरंज बाजी पकै नाही कची आवै सारी ॥३॥
मूलम्
जे को दरगह बहुता बोलै नाउ पवै बाजारी ॥ सतरंज बाजी पकै नाही कची आवै सारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरगह = हजूरी में, सामने। बाजारी = आवारा बुरा बोलने वाला, बड़बोला। पकै नाही = नहीं पुगती, जीती नहीं जाती। सारी = नरद।3।
अर्थ: अगर कोई जीव इस धुर से लिखे हुक्म के उलट बड़े एतराज किए जाए (हुक्म अनुसार चलने की विधि ना सीखे, उसका सँवरता कुछ नहीं, बल्कि) उसका नाम बड़बोला ही पड़ सकता है। (जीवन की बाजी) शतरंज (चौपड़) की बाजी (जैसी ही) है, (रजा के उलट चलने से और गिले-शिकवे करने से ये बाजी) जीती नहीं जा सकेगी, नरदें कच्ची ही रहती है (पुगती सिर्फ वही हैं जो) पुगने वाले घर में जा (पहुँचती हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना को पड़िआ पंडितु बीना ना को मूरखु मंदा ॥ बंदी अंदरि सिफति कराए ता कउ कहीऐ बंदा ॥४॥२॥३६॥
मूलम्
ना को पड़िआ पंडितु बीना ना को मूरखु मंदा ॥ बंदी अंदरि सिफति कराए ता कउ कहीऐ बंदा ॥४॥२॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीना = सयाना। मंदा = बुरा। बंदी = रजा।4।
अर्थ: इस रास्ते में ना कोई विद्वान पण्डित सयाना कहा जा सकता है, ना कोई (अनपढ़) मूर्ख बुरा माना जा सकता है (जीवन के सही रास्ते में ना निरी विद्वता सफलता का तरीका है, ना ही अनपढ़ता के लिए असफलता जरूरी है)। वह जीव बंदा कहलवा सकता है जिसको प्रभु अपनी रजा में रख के उससे अपनी महिमा करवाता है।4।2।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ गुर का सबदु मनै महि मुंद्रा खिंथा खिमा हढावउ ॥ जो किछु करै भला करि मानउ सहज जोग निधि पावउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ गुर का सबदु मनै महि मुंद्रा खिंथा खिमा हढावउ ॥ जो किछु करै भला करि मानउ सहज जोग निधि पावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनै महि = मन में। मुंद्रा = वाले (काँच आदि के) जो जोगी लोग कानों में पहनते हैं। खिंथा = गोदड़ी, पोटली। हडावउ = मैं हंडाता हूँ, पहनता हूँ। मानउ = मैं मानता हूँ। सहज = मन की अडोलता, शांति। जोग निधि = योग (की कमाई) का खजाना। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ।1।
अर्थ: (हे जोगी!) गुरु का शब्द मैंने अपने मन में टिकाया हुआ है; ये हैं मुंद्रें (कुण्डल) (जो मैंने कानों में नही मन में डाली हुई हैं)। मैं क्षमा का स्वाभाव (पक्का कर रहा हूँ, ये मैं) गोदड़ी पहनता हूँ। जो कुछ परमात्मा करता है उसे मैं जीवों की भलाई के लिए ही मानता हूँ, इस तरह मेरा मन डोलने से बचा रहता है; ये है योग-साधना का खजाना, जो मैं इकट्ठा कर रहा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा जुगता जीउ जुगह जुग जोगी परम तंत महि जोगं ॥ अम्रितु नामु निरंजन पाइआ गिआन काइआ रस भोगं ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा जुगता जीउ जुगह जुग जोगी परम तंत महि जोगं ॥ अम्रितु नामु निरंजन पाइआ गिआन काइआ रस भोगं ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगता = जुड़ा हुआ। जुगह जुग = हरेक युग तक, सदा के लिए। परम तंत = परमात्मा। जोगं = मिलाप। अंम्रितु = अमृत, अटल आत्मिक जीवन देने वाला। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = कालिख, माया की कालिख, माया का प्रभाव) जिस पे माया का प्रभाव नहीं होता उसका। निरंजन नामु = निरंजन का नाम। गिआन रस = परमात्मा के साथ गहरी सांझ के आत्मिक आनंद। काइआ = शरीर में, हृदय में। भोगं = भोगता है, माणता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का परमेश्वर के चरणों में जोड़ (योग) हो गया वही जुड़ा हुआ है, वही असल जोगी है, जिसकी समाधि सदा लगी रहती है। जिस मनुष्य ने माया-रहित परमात्मा का अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा के साथ गहरी जान-पहचान के आत्मिक आनंद अपने हृदय में (सदा) भोगता है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव नगरी महि आसणि बैसउ कलप तिआगी बादं ॥ सिंङी सबदु सदा धुनि सोहै अहिनिसि पूरै नादं ॥२॥
मूलम्
सिव नगरी महि आसणि बैसउ कलप तिआगी बादं ॥ सिंङी सबदु सदा धुनि सोहै अहिनिसि पूरै नादं ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिव = परमात्मा, कल्याण स्वरूप। आसणि = आसन पर। बैसउ = मैं बैठता हूँ। कलप = कल्पना। बादं = वाद विवाद, झगडे, धंधे। धुनि = आवाज, सुरीली सुर। अहि = दिन। निसि = रात। पूरै = पूरा करता है, बजाता है।2।
अर्थ: (हे जोगी!) मैं भी आसन पर बैठता हूँ, मैं मन की कल्पनाएं और दुनिया वाले झगड़े-झमेले छोड़ के कल्याण-स्वरूप प्रभु के देश में (प्रभु के चरणों में) टिक के बैठता हूँ (ये है मेरा आसन पर बैठना)। हे जोगी! तू सिंगी (बजाता है) मेरे अंदर गुरु का शब्द (गूँज रहा) है; ये ही सिंगी के मीठे और सुहाने सुर, जो मेरे अंदर चल रहे हैं। दिन-रात मेरा मन गुरु-शब्द का नाद बजा रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतु वीचारु गिआन मति डंडा वरतमान बिभूतं ॥ हरि कीरति रहरासि हमारी गुरमुखि पंथु अतीतं ॥३॥
मूलम्
पतु वीचारु गिआन मति डंडा वरतमान बिभूतं ॥ हरि कीरति रहरासि हमारी गुरमुखि पंथु अतीतं ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतु = पात्र, प्याला, चिप्पी। वरतमान = हर जगह मौजूद। बिभूत = राख। रहरासि = मर्यादा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना। अतीत पंथु = विरक्त पंथ।3।
अर्थ: (हे जोगी! तू हाथ में खप्पर ले के घर-घर से भिक्षा मांगता है, पर मैं प्रभु के दर से उसके गुणों की) विचार (मांगता हूँ, ये) है मेरा खप्पर (कासा)। परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखने वाली मति (मेरे हाथ में) डण्डा है (जो किसी विकार को नजदीक नहीं फटकने देता)। प्रभु को हर जगह मौजूद देखना मेरे वास्ते शरीर पर मलने वाली राख है। अकाल पुरख की महिमा (मेरे वास्ते) जोग की (प्रभु से मिलाप की) मर्यादा है। गुरु के सन्मुख टिके रहना ही हमारा धर्म-रास्ता है जो हमें माया से विरक्त रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगली जोति हमारी समिआ नाना वरन अनेकं ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी पारब्रहम लिव एकं ॥४॥३॥३७॥
मूलम्
सगली जोति हमारी समिआ नाना वरन अनेकं ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी पारब्रहम लिव एकं ॥४॥३॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संमिआ = बैरागण, लकड़ी आदि की टिक टिकी जिस पर बाँहें टिका के जोगी समाधि में बैठता है। नाना = कई प्रकार के। भरथरि जोगी = हे भरथरी जोगी!।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गोरख भरथरी आदि प्रसिद्ध योगी गुरु नानक देव जी से पहले हो चुके थे। श्रद्धालु लोग अपने ईष्ट गुरु” रहबर के नाम पर अपने घरों में नाम रखते रहते हैं। मुसलमान मुहम्मद अली आदि नाम इस्तेमाल करते आ रहे हैं। हिन्दू राम कृष्ण आदि प्रयोग कर रहे हैं; सिख भी नानक, राम आदि नाम रख लेते हैं। इसी तरह जोगी भी अपने प्रसिद्ध जोगियों के नाम बरतते रहे हैं। भरथरी नाम वाला जोगी भी किसी ऐसी ही श्रेणी में से था।
नोट: जोगी लोग अपने वेष के चिन्ह धारण करते हैं। मुंद्रा खिंथा, बिभूत, सिंगी, डण्डा, बैरागण (संमिआ) जोग-वेष की प्रसिद्ध चीजें हैं। शब्द जोग का अर्थ है ‘मिलाप’, ‘जोगी’ का अर्थ है वह जीव जो परमात्मा से मिला हुआ हो। गुरु नानक देव जी जोग-वेष के चिन्हों की तुलना प्रभु-चरणों में मनुष्य के आत्मक जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं से करते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भरथरी योगी! सुन, सब जीवों में अनेक रूपों-रंगों में प्रभु की ज्योति को देखना- ये है हमारी बैरागण (संमिया) जो हमें प्रभु-चरणों में जुड़ने के लिए सहारा देती है।4।3।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि धावै करि करणी कसु पाईऐ ॥ भाठी भवनु प्रेम का पोचा इतु रसि अमिउ चुआईऐ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि धावै करि करणी कसु पाईऐ ॥ भाठी भवनु प्रेम का पोचा इतु रसि अमिउ चुआईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनु = अकाल-पुरख के साथ गहरी सांझ। धिआनु = प्रभु की याद में तवज्जो जुड़ी रहनी। धावै = महूए के फूल। करणी = उच्च आचरण। कसु = बबूल कीछाल। भवनु = शरीर, देह अध्यास। भाठी = शराब निकालने वाली भट्ठी (उतारने वाला बरतन, बरतन के ऊपर नाली, बरतन के नीचे आग, इस सारे का समूह)। पोचा = ठण्डे पानी का पोचा उस नाली पर जिसमें से अर्क की भाप निकलती है, ताकि भाप ठण्डी हो के अर्क बनती जाए। इतु = इस के द्वारा। इतु रसि = इस (तैयार हुए) रस के द्वारा। अमिउ = अमृत।1।
अर्थ: (हे जोगी!) परमात्मा के साथ गहरी सांझ को गुड़ बना, प्रभु चरणों में जुड़ी तवज्जो को महूए के फूल बना, उच्च आचरण को बबूल की छाल बना के (इनमें) मिला दे। शारीरिक मोह को जला- ऐसी शराब निकालने की भट्ठी तैयार कर, प्रभु चरणों में प्यार जोड़- ये है वह ठण्डा पोचा जो अर्क वाली नाली पर फेरना है। इस सारे मिलवें रस में से (अटल आत्मिक जीवन दाता) अमृत निकलेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा मनु मतवारो नाम रसु पीवै सहज रंग रचि रहिआ ॥ अहिनिसि बनी प्रेम लिव लागी सबदु अनाहद गहिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा मनु मतवारो नाम रसु पीवै सहज रंग रचि रहिआ ॥ अहिनिसि बनी प्रेम लिव लागी सबदु अनाहद गहिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे जोगी! मतवारो = मस्त। सहज = अडोलता। अहि = दिन। निसि = रात। अनाहद = एक रस, लगातार। गहिआ = पकड़ा, ग्रहण किया।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! (तुम तवज्जो को टिकाने के लिए शराब पीते हो, ये नशा उतर जाता है; और तवज्जो दुबारा उखड़ जाती है) असल मस्ताना वह मन है जो परमात्मा के स्मरण का रस पीता है (स्मरण का आनंद लेता है) जो (नाम जपने की इनायत से) अडोलता के हुलारों में टिका रहता है, जिसे प्रभु-चरणों के प्रेम की इतनी लगन लगती है कि दिन-रात बनी रहती है, जो अपने गुरु के शब्द को सदा एक-रस अपने अंदर टिकाए रखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरा साचु पिआला सहजे तिसहि पीआए जा कउ नदरि करे ॥ अम्रित का वापारी होवै किआ मदि छूछै भाउ धरे ॥२॥
मूलम्
पूरा साचु पिआला सहजे तिसहि पीआए जा कउ नदरि करे ॥ अम्रित का वापारी होवै किआ मदि छूछै भाउ धरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरा = सब गुणों का मालिक प्रभु। साचु = सदा टिके रहने वाला। सहजे = अडोल अवस्था में (रख के)। मदि = शराब में। छूछै = फोक में। भाउ = प्यार।2।
अर्थ: (हे जोगी!) ये है वह प्याला जिसकी मस्ती सदा टिकी रहती है, सब गुणों का मालिक प्रभु अडोलता में रख के उस मनुष्य को (ये प्याला) पिलाता है जिस पर खुद मेहर की नजर करता है। जो मनुष्य अटल आत्मिक जीवन देने वाले इस रस का व्यापारी बन जाए वह (तुम्हारी वाली इस) होछी शराब से प्यार नहीं करता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की साखी अम्रित बाणी पीवत ही परवाणु भइआ ॥ दर दरसन का प्रीतमु होवै मुकति बैकुंठै करै किआ ॥३॥
मूलम्
गुर की साखी अम्रित बाणी पीवत ही परवाणु भइआ ॥ दर दरसन का प्रीतमु होवै मुकति बैकुंठै करै किआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साखी = शिक्षा, उपदेश। अंम्रित = अटल आत्मिक जीवन देने वाली। परवाणु = स्वीकार।3।
अर्थ: जिस मनुष्य ने अटल आत्मिक जीवन देने वाली गुरु की शिक्षा भरी वाणी का रस पीया है, वह पीते ही प्रभु की नजरों में स्वीकार हो जाता है, वह परमात्मा के दर के दीदार का प्रेमी बन जाता है, उसे फिर ना मुक्ति की जरूरत रहती है ना बैकुण्ठ की।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिफती रता सद बैरागी जूऐ जनमु न हारै ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी खीवा अम्रित धारै ॥४॥४॥३८॥
मूलम्
सिफती रता सद बैरागी जूऐ जनमु न हारै ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी खीवा अम्रित धारै ॥४॥४॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। जूऐ = जूए में। खीवा = मस्त। धार = ध्यान, तवज्जो।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: योगी समाधी के समय तवज्जो की एकाग्रता के लिए शराब पीते थे। सतिगुरु जी उस शराब का विरोध करते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भरथरी जोगी! जो मनुष्य प्रभु की महिमा में रंगा गया है वह सदा (माया के मोह से) विरक्त रहता है। वह आत्मिक मानव जीवन जूए में (भाव, व्यर्थ) नहीं गवाता, वह तो अटल आत्मिक जीवन दाते आनंद में मस्त रहता है।4।4।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ खुरासान खसमाना कीआ हिंदुसतानु डराइआ ॥ आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ ॥ एती मार पई करलाणे तैं की दरदु न आइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ खुरासान खसमाना कीआ हिंदुसतानु डराइआ ॥ आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ ॥ एती मार पई करलाणे तैं की दरदु न आइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खुरासान = ईरान के पूर्व और अफ़गानिस्तान के पश्चिम का देश जिसमें हरात और मशहद दो प्रसिद्ध नगर हैं। हिन्दुस्तान के लोग सिंध नदी के पश्चिम के देशों को खुरासान ही कह देते हैं। खसम = मालिक। खसमाना = सुपुर्दगी। आपै = अपने आप को। करता = कर्तार। मुगलु = बाबर। एती = इतनी। करलाणै = पुकार उठे। दरदु = दर्द, दुख, तरस।1।
अर्थ: खुरासान की सुपुर्दगी (किसी और को) कर के (बाबर मुग़ल ने हमला करके) हिन्दुस्तान को सहमा दिया है। (जो लोग अपने फर्ज भुला के रंग-रलियों में पड़ जाते हें उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ती है, इस बारे) ईश्वर अपने ऊपर दोष नहीं आने देता। (सो, फर्ज भुला के विकारों में मस्त पड़े पठान हाकमों को दण्ड देने के लिए कर्तार ने) मुग़ल बाबर को यमराज बना के (हिन्दोस्तान पर) चढ़ाई करवा दी। (पर, हे ईश्वर! बद-मस्त पठान हाकिमों के साथ गरीब निहत्थे भी पीसे गए) इतनी मार पड़ी कि वे (हाय-हाय) पुकार उठे। क्या (ये सब कुछ देख के) तुझे उन पे तरस नहीं आया?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करता तूं सभना का सोई ॥ जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करता तूं सभना का सोई ॥ जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करता = हे कर्तार! सोई = सार लेने वाला, रक्षा करने वाला। सकता = तगड़ा। मनि = मन में। रोसु = रोश, गिला, गुस्सा।1। रहाउ।
अर्थ: हे कर्तार! तू सभी जीवों की सार रखने वाला है। अगर कोई ताकतवान किसी ताकतवाले की मार-कुटाई करे तो (देखने वालों के) मन में गुस्सा-गिला नहीं होता (क्योंकि दोनों पक्ष एक-दूसरे को करारे हाथ दिखा लेते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकता सीहु मारे पै वगै खसमै सा पुरसाई ॥ रतन विगाड़ि विगोए कुतीं मुइआ सार न काई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े आपे वेखु तेरी वडिआई ॥२॥
मूलम्
सकता सीहु मारे पै वगै खसमै सा पुरसाई ॥ रतन विगाड़ि विगोए कुतीं मुइआ सार न काई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े आपे वेखु तेरी वडिआई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीहु = शेर। पै = हल्ला कर के। वगै = गायों के झुंड को, गायों के कारवां को, निहत्थों को, गरीबों को। पुरसाई = पुरशिश, पूछ पड़ताल। रतन = रत्नों जैसे स्त्री पुरुष। विगाड़ि = बिगाड़ के। विगोए = ख्वार किए, नाश कर दिए। कुतीं = कुत्तों ने, मुग़लों ने। सार = खबर। जोड़ि = जोड़ के। वेखु = हे प्रभु! देख।2।
अर्थ: पर, अगर कोई शेर (जैसा) शक्तिशाली गायों के झुंड (जैसे कमजोर निहत्थों) पर हमला करके मारने लगे, तो इसकी पूछ-पड़ताल (तो झुंड के) मालिक खसम से ही होती है (इसीलिए, हे कर्तार! मैं तेरे आगे पुकार करता हूँ)। (कुत्ते बाहर के कुत्तों को देख के बर्दाश्त नहीं कर सकते, फाड़ खाते हैं। इसी तरह मनुष्य को फाड़ खाने वाले इन मनुष्य-रूपी मुग़ल) कुत्तों ने (तेरे बनाए) सुंदर लोगों को मार-मार के मिट्टी में मिला दिया है, मरे हुओं की कोई सार नहीं लेता।
(हे कर्तार! तेरी रजा तू ही जाने) तू खुद ही (संबंध) जोड़ के खुद ही (इनको मौत के घाट उतार के आपस में) विछोड़ देता है। देख! हे कर्तार! ये तेरी ताकत का करिश्मा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को नाउ धराए वडा साद करे मनि भाणे ॥ खसमै नदरी कीड़ा आवै जेते चुगै दाणे ॥ मरि मरि जीवै ता किछु पाए नानक नामु वखाणे ॥३॥५॥३९॥
मूलम्
जे को नाउ धराए वडा साद करे मनि भाणे ॥ खसमै नदरी कीड़ा आवै जेते चुगै दाणे ॥ मरि मरि जीवै ता किछु पाए नानक नामु वखाणे ॥३॥५॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साद = रंग रलियां। मनि = मन में। भाणे = भाते। मनि भाणे = जो भी मन में अच्छे लगें। खसमै नदरी = खसम प्रभु की निगाहों में। जेते = जितने भी। मरि मरि = मर के मर के, अपने आप को विकारों से हटा के।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जब मक्के के ओर की तीसरी ‘उदासी’ (यात्रा) से गुरु नानक देव जी बग़दाद काबुल के रास्ते सन् 1521 में हिन्दोस्तान को वापस आ रहे थे, उन्हीं दिनों में बाबर ने भेरा सयालकोट मार के सैदपुर (ऐमनाबाद) पर हमला किया था। सतिगुरु जी भी ऐमनाबाद पहुँच चुके थे। बाबर के मुग़ल फौजियों के हाथों जो दुर्गति सैदपुर-निवासियों की आँखों देखी, उसका ज़िक्र सतिगुरु जी इस शब्द में कर रहे हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (धन-पदार्थ-हकूमत आदि के नशे में मनुष्य अपनी हस्ती को भूल जाता है और बड़ी अकड़ दिखा-दिखा के और लोगों को दुख देता है, पर ये नहीं समझता कि) अगर कोई मनुष्य अपने आप को बड़ा कहलवा ले, और मन-मर्जी की रंग-रलियां कर ले, तो भी वह खसम-प्रभु की नजरों में एक कीड़े समान ही है जो (धरती से) दाने चुग-चुग के निरवाह करता है (अहम् की बद्-मस्ती में वह मनुष्य जिंदगी बेकार ही गवा लेता है)।
हे नानक! जो मनुष्य विकारों की ओर से खुद को मार के (आत्मिक जीवन) जीता है, और प्रभु का नाम स्मरण करता है वही यहाँ से कुछ कमाता है।3।5।39।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु ६’ के कुल 5 शब्द हैं। आसा राग में गुरु नानक देव जी के 39 शब्द हैं।