विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला १ चउपदे घरु २ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला १ चउपदे घरु २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि वडा आखै सभ कोई ॥ केवडु वडा डीठा होई ॥ कीमति पाइ न कहिआ जाइ ॥ कहणै वाले तेरे रहे समाइ ॥१॥
मूलम्
सुणि वडा आखै सभ कोई ॥ केवडु वडा डीठा होई ॥ कीमति पाइ न कहिआ जाइ ॥ कहणै वाले तेरे रहे समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ कोई = हरेक जीव। सुणि = सुन के। केवडु = कितना। डीठा = देखने से ही। होई = (बयान) हो सकता है, बताया जा सकता है। कीमति = मूल्य, बराबर की वस्तु। कीमति पाइ न = मूल्य नहीं आँका जा सकता, उसके बराबर की कोई हस्ती नहीं बताई जा सकती। रहे समाइ = लीन हो जाते हैं।1।
अर्थ: हरेक जीव (औरों से सिर्फ) सुन के (कि) कह देता है कि (हे प्रभु!) तू बड़ा है। पर तू कितना बड़ा है ये बात तुझे देख के ही बताई जा सकती है। तेरे बड़प्पन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। (यह) नहीं कहा जा सकता (कि तू कितना बड़ा है) तेरी बड़ाई (महानता) कहने वाले (खुद को भूल के) तेरे में (ही) लीन हो जाते हैं।1।
[[0349]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडे मेरे साहिबा गहिर ग्मभीरा गुणी गहीरा ॥ कोई न जाणै तेरा केता केवडु चीरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
वडे मेरे साहिबा गहिर ग्मभीरा गुणी गहीरा ॥ कोई न जाणै तेरा केता केवडु चीरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गुणी गहीरा = गुणों के कारण गहरा, बेअंत गुणों वाला। चीरा = पाट, चौड़ाई, नदी का पाट।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे बड़े मालिक! तू (मानो, एक) गहरा (समुंदर) है, तू बड़े जिगरे वाला है, और बेअंत गुणों वाला है। कोई भी जीव नहीं जानता कि तेरा विस्तार कितना बड़ा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि सुरती मिलि सुरति कमाई ॥ सभ कीमति मिलि कीमति पाई ॥ गिआनी धिआनी गुर गुर हाई ॥ कहणु न जाई तेरी तिलु वडिआई ॥२॥
मूलम्
सभि सुरती मिलि सुरति कमाई ॥ सभ कीमति मिलि कीमति पाई ॥ गिआनी धिआनी गुर गुर हाई ॥ कहणु न जाई तेरी तिलु वडिआई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सभी ने। सुरती = तवज्जो, ध्यान। सभि मिलि = सभी ने मिल के, एक दूसरे की सहायता ले के। सुरति कमाई = समाधि लगाई। गुर = बड़े। गुर भाई = बड़ों के भाई, ऐसे ही और कोई बड़े। गुर गुरहाई = कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ये शब्द ‘गुर गुरहाई’, शब्द ‘ज्ञानी-ध्यानी’ का विशेषण है)।
दर्पण-भाषार्थ
गिआनी = ज्ञानी, विचारवान, ऊँची समझ वाले। धिआनी = तवज्जो जोड़ने वाले। तिलु = रत्ती भर भी।2।
अर्थ: (तू कितना बड़ा है; ये बात जानने के लिए) समाधियां लगाने वाले कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध जोगियों ध्यान जोड़ने के यत्न किए, बार-बार प्रयत्न किए; बड़े-बड़े प्रसिद्ध (शास्त्र-वेत्ताओं) विचारवानों ने आपस में एक दूसरे की सहायता लेकर तेरे बराबर की कोई हस्ती तलाशने की कोशिश की, पर तेरी महानता का एक तिल जितना भी नहीं बता सके (गुर गुरहाई धियानी सभि मिलि सुरति कमाई, सुरति कमाई, गुर गुरहाई गिआनी सभ मिलि कीमति पाई कीमति पाई)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि सत सभि तप सभि चंगिआईआ ॥ सिधा पुरखा कीआ वडिआईआं ॥ तुधु विणु सिधी किनै न पाईआ ॥ करमि मिलै नाही ठाकि रहाईआ ॥३॥
मूलम्
सभि सत सभि तप सभि चंगिआईआ ॥ सिधा पुरखा कीआ वडिआईआं ॥ तुधु विणु सिधी किनै न पाईआ ॥ करमि मिलै नाही ठाकि रहाईआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि सत = सारे भले काम। तप = कष्ट, मुश्किलें। चंगिआईआं = अच्छे गुण। सिध = पहुँचे हुए, जीवन में सफल हुए मनुष्य। सिधी = सफलता, कामयाबी। करमि = मेहर से,बख्शिश से। ठाकि = वर्ज के, रोक के।3।
अर्थ: (विचारवान क्या और सिद्ध योगी क्या? तेरी महानता का अंदाजा तो कोई भी नहीं लगा सका; पर विचारवानों के) सारे भले काम, सारे तप, सारे अच्छे गुण, सिद्ध लोगों की (रिद्धियां-यिद्धियां आदि) बड़े-बड़े काम-किसी को भी ये कामयाबी तेरी सहायता के बिना हासिल नहीं हुई। (जिस किसी को सफलता हासिल हुई है) तेरी मेहर से प्राप्त हुई है, और कोई और (व्यक्ति) इस प्राप्ति के राह में रुकावट नहीं डाल सका।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखण वाला किआ बेचारा ॥ सिफती भरे तेरे भंडारा ॥ जिसु तूं देहि तिसै किआ चारा ॥ नानक सचु सवारणहारा ॥४॥१॥
मूलम्
आखण वाला किआ बेचारा ॥ सिफती भरे तेरे भंडारा ॥ जिसु तूं देहि तिसै किआ चारा ॥ नानक सचु सवारणहारा ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिफती = सिफतों से, गुणों से। चारा = जोर, तदबीर, प्रयत्न।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे गुणों के (मानो) खजाने भरे पड़े हैं। जीव की क्या मजाल (स्मर्था) है कि इन गुणों को बयान कर सके? जिसे तू महिमा करने की दाति बख्शता है, उसके राह में रुकावट डालने के लिए किसी का जोर नहीं चल सकता, क्योंकि, हे नानक! (कह: तू) सदा कायम रहने वाला प्रभु उस (भाग्यशाली) को सवारने वाला ख़ुद है।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शीर्षक पढ़ें। ‘चउपदे’ का अर्थ है ‘चार पद, चार बंद’। इन शबदों के चार-चार बंद हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ आखा जीवा विसरै मरि जाउ ॥ आखणि अउखा साचा नाउ ॥ साचे नाम की लागै भूख ॥ तितु भूखै खाइ चलीअहि दूख ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ आखा जीवा विसरै मरि जाउ ॥ आखणि अउखा साचा नाउ ॥ साचे नाम की लागै भूख ॥ तितु भूखै खाइ चलीअहि दूख ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखा = मैं कहता हूँ, मैं उचारता हूँ। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। तितु भूखै = इस भूख के कारण। खाइ = (नाम भोजन) खा के। चलीअहि = नाश किए जाते हैं।1।
अर्थ: ज्यों-ज्यों मैं प्रभु का नाम उचारता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। जब मुझे नाम भूल जाता है, मेरी आत्मिक मौत होने लग जाती है। (ये पता होते हुए भी प्रभु का) सदा स्थिर नाम स्मरणा (एक) मुश्किल काम है। (जिस मनुष्य के अंदर) प्रभु के सदा स्थिर नाम के नाम जपने की भूख पैदा होती है, इस भूख की इनायत से (नाम भोजन) खा के उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो किउ विसरै मेरी माइ ॥ साचा साहिबु साचै नाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सो किउ विसरै मेरी माइ ॥ साचा साहिबु साचै नाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरी माइ = हे मेरी माँ! सचा = सदा कायम रहने वाला। साचै = सच्चे के द्वारा। नाइ = नाम के द्वारा, ज्यों ज्यों सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करें। किउ विसरै = कभी ना बिसरे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! (अरदास कर कि) वह प्रभु मुझे कभी ना भूले। ज्यों-ज्यों उस सदा स्थिर रहने वाले का नाम स्मरण करें, त्यों-त्यों वह सदा स्थिर रहने वाला मालिक (मन में बसता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचे नाम की तिलु वडिआई ॥ आखि थके कीमति नही पाई ॥ जे सभि मिलि कै आखण पाहि ॥ वडा न होवै घाटि न जाइ ॥२॥
मूलम्
साचे नाम की तिलु वडिआई ॥ आखि थके कीमति नही पाई ॥ जे सभि मिलि कै आखण पाहि ॥ वडा न होवै घाटि न जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे जीव। आखण पाहि = कहने का यत्न करें।2।
अर्थ: सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम की रत्ती जितनी भी महिमा (सारे जीव) बयान करके थक गए है (बयान नहीं कर सकते)। कोई भी बता नहीं सका कि उसके बराबर की कौन सी और हस्ती है। अगर (जगत के) सारे ही जीव मिल के (परमात्मा की महिमा) बयान करने का यत्न करें, तो वह परमात्मा (अपने असल से) बड़ा नहीं हो जाता (और अगर कोई उसकी महिमा का बखान ना करे) तो वह (पहले से) कम नहीं हो जाता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना ओहु मरै न होवै सोगु ॥ देंदा रहै न चूकै भोगु ॥ गुणु एहो होरु नाही कोइ ॥ ना को होआ ना को होइ ॥३॥
मूलम्
ना ओहु मरै न होवै सोगु ॥ देंदा रहै न चूकै भोगु ॥ गुणु एहो होरु नाही कोइ ॥ ना को होआ ना को होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुणु एहो = यह ही (उसकी) खूबी है। होआ = हुआ है। ना होइ = नहीं होगा।3।
अर्थ: वह परमात्मा कभी मरता नहीं, ना ही (उसकी खातिर) सोग होता है। वह प्रभु सदा (जीवों को रिज़क) देता है। उसकी दी हुई दातों का वितरण कभी खत्म नहीं होता (भाव, जीव उस की दी हुई दातें सदैव बरतते हैं पर वे खत्म नहीं होतीं)। उस प्रभु की बड़ी खूबी ये है कि कोई और उस जैसा नहीं है, (उस जैसा अभी तक) ना कोई हुआ है ना ही कभी होगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेवडु आपि तेवड तेरी दाति ॥ जिनि दिनु करि कै कीती राति ॥ खसमु विसारहि ते कमजाति ॥ नानक नावै बाझु सनाति ॥४॥२॥
मूलम्
जेवडु आपि तेवड तेरी दाति ॥ जिनि दिनु करि कै कीती राति ॥ खसमु विसारहि ते कमजाति ॥ नानक नावै बाझु सनाति ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। तेवड = उतनी बड़ी। जिनि = जिस ने। कमजाति = बुरी अथवा नीच जाति वाली। सनाति = नीच।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) जितना (बेअंत तू) खुद है, उतनी (बेअंत) तेरी बख्शिश है, (तू ऐसा है) जिसने दिन बनाया है और रात बनाई है।
हे नानक! वह लोग बुरी अस्लियत वाले (बन जाते) हैं जो पति-प्रभु को बिसारते हैं। नाम से वंचित हुए जीव नीच हैं।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ जे दरि मांगतु कूक करे महली खसमु सुणे ॥ भावै धीरक भावै धके एक वडाई देइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ जे दरि मांगतु कूक करे महली खसमु सुणे ॥ भावै धीरक भावै धके एक वडाई देइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरि = (प्रभु के) दर पे। मांगतु = कोई भिखारी (चाहे किसी भी जाति का हो)। कूक = पुकार, फरियाद। महली = महल का मालिक। धीरक = धीरज, हौसला। देइ = देता है।1।
अर्थ: कोई भिखारी (चाहे किसी भी जाति का हो) प्रभु के दर पे पुकार करे, तो वह महल का मालिक पति-प्रभु (उसकी पुकार) सुन लेता है। (फिर) उसकी मर्जी, हौसला दे, उसकी मर्जी धक्के दे (भिखारी की अरदास सुन लेने में ही) प्रभु उसे इज्जत ही दे रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाणहु जोति न पूछहु जाती आगै जाति न हे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जाणहु जोति न पूछहु जाती आगै जाति न हे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणहु = पहचानो। आगै = परलोक में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सभी में एक प्रभु की ज्योति समझ के किसी की भी जाति ना पूछो (क्योंकि) आगे (परलोक में) किसी की जाति साथ नहीं जाती।१। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि कराए आपि करेइ ॥ आपि उलाम्हे चिति धरेइ ॥ जा तूं करणहारु करतारु ॥ किआ मुहताजी किआ संसारु ॥२॥
मूलम्
आपि कराए आपि करेइ ॥ आपि उलाम्हे चिति धरेइ ॥ जा तूं करणहारु करतारु ॥ किआ मुहताजी किआ संसारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलाम्हे = शिकायतें, गिले-शिकवे। चिति धरेइ = चित में धरता है, सुनता है।2।
अर्थ: (हरेक जीव के अंदर व्यापक हो के) प्रभु खुद ही (प्रेरणा करके जीव से पुकार) करवाता है, (हरेक में व्यापक हो के) खुद ही (पुकार) करता है, खुद ही प्रभु (हरेक जीव के) गिले-शिकवे सुनता है। जब (हे प्रभु! किसी जीव को तू ये निश्चय करा देता है कि) तू विधाता सब कुछ करने के समर्थ (सिर पर रक्षक) है, तो उसे (जगत की) कोई मुहताजी नहीं रहती, जगत उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि उपाए आपे देइ ॥ आपे दुरमति मनहि करेइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥ दुखु अन्हेरा विचहु जाइ ॥३॥
मूलम्
आपि उपाए आपे देइ ॥ आपे दुरमति मनहि करेइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥ दुखु अन्हेरा विचहु जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = खुद ही। मनहि करेइ = रोकता है, वर्जता है। मनि = मन मे।3।
अर्थ: परमात्मा खुद ही जीवों को पैदा करता है, खुद ही (सबको रिज़क आदि) देता है। प्रभु खुद ही जीवों को बुरी मति से बचाता है। गुरु की कृपा से प्रभु जिसके मन में आ बसता है, उसके अंदर से डर दूर हो जाता है, अज्ञानता मिट जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचु पिआरा आपि करेइ ॥ अवरी कउ साचु न देइ ॥ जे किसै देइ वखाणै नानकु आगै पूछ न लेइ ॥४॥३॥
मूलम्
साचु पिआरा आपि करेइ ॥ अवरी कउ साचु न देइ ॥ जे किसै देइ वखाणै नानकु आगै पूछ न लेइ ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरी कउ = और लोगों को आदर्श से अभी नीचे हैं। वखाणै = कहता है। पूछ न लेइ = लेखा नहीं मांगता।4।
अर्थ: प्रभु खुद ही जीवों के मन में अपना स्मरण प्यारा बनाता है (स्मरण का प्यार पैदा करता है); जिनके अंदर प्यार की अभी कमी है, उन्हें खुद ही नाम जपने की दाति नहीं देता। नानक कहता है जिस किसी को नाम जपने की दाति प्रभु देता है उससे फिर कर्मों का लेखा नहीं मांगता (भाव, वह जीव कोई ऐसे कर्म करता ही नहीं जिससे उसकी कोई खिचाई हो)।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ ताल मदीरे घट के घाट ॥ दोलक दुनीआ वाजहि वाज ॥ नारदु नाचै कलि का भाउ ॥ जती सती कह राखहि पाउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ ताल मदीरे घट के घाट ॥ दोलक दुनीआ वाजहि वाज ॥ नारदु नाचै कलि का भाउ ॥ जती सती कह राखहि पाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताल = छैणे। मदीरे = घुंघरू, झांझरें। घट = हृदय। घाट = रास्ता। घट के घाट = मन के रास्ते, संकल्प विकल्प। दोलक = ढोलकी। दुनिया = दुनिया का मोह। वाजहि = बज रहे हैं। वाज = बाजे, साज। नारदु = मन। कलि = कलियुग। भाउ = प्रभाव। कह = कहाँ? पाउ = पैर। जती…पाउ = जती सती कहां पैर रखें? जत सत को संसार में जगह नहीं रही।1।
अर्थ: (मनुष्य के) मन के संकल्प-विकल्प (जैसे) छैणे और पैरों के घुंघरू हैं, दुनिया का मुंह ढोलकी है; ये बाजे बज रहे हैं, और (प्रभु के नाम से सूना) मन (माया के हाथों पे) नाच रहा है। (इसे कहते हैं) कलियुग का प्रभाव। जत-सत को संसार में कहीं जगह नहीं रही।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक नाम विटहु कुरबाणु ॥ अंधी दुनीआ साहिबु जाणु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नानक नाम विटहु कुरबाणु ॥ अंधी दुनीआ साहिबु जाणु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! विटहु = से। अंधी = अंधी। जाणु = सुजान, आँखों वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा के नाम से सदके हो। (नाम के बिना) दुनिया (माया में) अंधी हो रही है, ये मालिक प्रभु स्वयं ही आँखों वाला है (उसकी शरण पड़ने से ही जिंदगी का सही रास्ता दिख सकता हैं1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरू पासहु फिरि चेला खाइ ॥ तामि परीति वसै घरि आइ ॥ जे सउ वर्हिआ जीवण खाणु ॥ खसम पछाणै सो दिनु परवाणु ॥२॥
मूलम्
गुरू पासहु फिरि चेला खाइ ॥ तामि परीति वसै घरि आइ ॥ जे सउ वर्हिआ जीवण खाणु ॥ खसम पछाणै सो दिनु परवाणु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पासहु = से। फिरि = उल्टा, बल्कि। खाइ = खाता है। तामि = मुआम, रोटी। घरि = घर में, गुरु के घर में। वसै घरि आइ = (गुरु के) घर में आ बसता है, गुरु का चेला आ बनता है। परवाणु = स्वीकार, भाग्यशाली।2।
अर्थ: (चेले ने गुरु की सेवा करनी होती है, अब) बल्कि चेला ही गुरु से उदर-पूर्ति करवाता है, रोटी की खातिर ही चेला आ बनता है। (इस हालत में) अगर सौ साल मनुष्य जी ले, और आराम का खाना-पीना बना रहे (तो भी ये उम्र व्यर्थ ही समझो)। (जिंदगी का सिर्फ) वही दिन भाग्यशाली है जब मनुष्य अपने मालिक प्रभु से सांझ पाता है।2।
[[0350]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसनि देखिऐ दइआ न होइ ॥ लए दिते विणु रहै न कोइ ॥ राजा निआउ करे हथि होइ ॥ कहै खुदाइ न मानै कोइ ॥३॥
मूलम्
दरसनि देखिऐ दइआ न होइ ॥ लए दिते विणु रहै न कोइ ॥ राजा निआउ करे हथि होइ ॥ कहै खुदाइ न मानै कोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दरसनि = दर्शनों के द्वारा। दरसनि देखिऐ = दर्शन करने से, एक दूसरे को देख के। लए दिते विणु = माया लिए दिए बिना, रिश्वत के बग़ैर। निआउ = न्याय। हथि होइ = हाथ में हो, कुछ देने को पल्ले हो। कहै खुदाइ = अगर कोई रब का वास्ता डाले।3।
अर्थ: मनुष्य एक-दूसरे को देख के (अपना भाई जान के आपस में) प्यार की भावना नहीं ला रहे (क्योंकि संबंध ही माया का बन रहा है), रिश्वत लिए-दिए बिना नहीं रहता। (यहां तक कि) राजा भी (हाकम भी) तभी इन्साफ़ करता है अगर उसे देने के लिए (सवाली के) हाथ-पल्ले माया हो। अगर कोई निरा रब का वास्ता डाले तो उसकी पुकार कोई नहीं सुनता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माणस मूरति नानकु नामु ॥ करणी कुता दरि फुरमानु ॥ गुर परसादि जाणै मिहमानु ॥ ता किछु दरगह पावै मानु ॥४॥४॥
मूलम्
माणस मूरति नानकु नामु ॥ करणी कुता दरि फुरमानु ॥ गुर परसादि जाणै मिहमानु ॥ ता किछु दरगह पावै मानु ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माणस मूरति = मनुष्य की शक्ल है। नानकु = नानक (कहता है)। नामु = नाम मात्र। करणी = करणी में, आचरण में। दरि = (मालिक के) दर पे। फुरमानु = हुक्म।4।
अर्थ: नानक (कहता है: देखने को ही) मनुष्य की शकल है, नाम-मात्र को ही मनुष्य है, पा आचरण में मनुष्य (वह) कुत्ता है जो (मालिक के) दर पर (रोटी की खातिर) हुक्म (मान रहा है)।
मनुष्य परमात्मा की हजूरी में तभी कुछ आदर-सत्कार ले सकता हैअगर गुरु की मेहर से (संसार में अपने आप को) मेहमान समझे (और माया से) इतनी पकड़ ना रखे।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ जेता सबदु सुरति धुनि तेती जेता रूपु काइआ तेरी ॥ तूं आपे रसना आपे बसना अवरु न दूजा कहउ माई ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ जेता सबदु सुरति धुनि तेती जेता रूपु काइआ तेरी ॥ तूं आपे रसना आपे बसना अवरु न दूजा कहउ माई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेता = जितना ही (ये सारा)। सबदु = आवाज, बोलना। सुरति = सुनना। धुनि = जीवन-लहर। धुनि तेती = तेती (तेरी) धुनि, ये सारी तेरी ही जीवन लहर है। रूपु = दिखता आकार। काइआ = शरीर। रसना = रस लेने वाला। आपे = खुद ही। बसना = जिंदगी। कहउ = कहूँ, मैं कह सकूँ। माई = हे माँ!।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) (जगत में) ये जितना बोलना और सुनना है (जितनी ये बोलने और सुनने की क्रिया है), ये सारी तेरी जीवन-लौअ (के सदके) है, ये जितना दिखाई देता आकार है, ये सारा तेरा ही शरीर है (तेरे स्वै का विस्तार है)। (सारे जीवों में व्यापक हो के) तू खुद ही रस लेने वाला है, तू खुद ही (जीवों की) जिंदगी है।
हे माँ! परमात्मा के बिना और कोई दूसरी हस्ती नहीं है जिसके प्रथाय मैं कह सकूँ (कि ये हस्ती परमात्मा के बराबर की है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहिबु मेरा एको है ॥ एको है भाई एको है ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साहिबु मेरा एको है ॥ एको है भाई एको है ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एको = एक ही, सिर्फ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही हमारा एकमेव पति-मालिक है, बस! वही एक मालिक है, उस जैसा, और कोई नहीं है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे मारे आपे छोडै आपे लेवै देइ ॥ आपे वेखै आपे विगसै आपे नदरि करेइ ॥२॥
मूलम्
आपे मारे आपे छोडै आपे लेवै देइ ॥ आपे वेखै आपे विगसै आपे नदरि करेइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेखै = संभाल करता है। विगसै = खुश होता है।2।
अर्थ: प्रभु खुद ही (सब जीवों को) मारता है खुद ही बचाता है, खुद ही (जिंद) ले लेता है खुद ही (जिंद) देता है। प्रभु स्वयं ही (सबकी) संभाल करता है, स्वयं ही (संभाल करके) खुश होता है, स्वयं ही (सब पर) मेहर की नजर करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करणा सो करि रहिआ अवरु न करणा जाई ॥ जैसा वरतै तैसो कहीऐ सभ तेरी वडिआई ॥३॥
मूलम्
जो किछु करणा सो करि रहिआ अवरु न करणा जाई ॥ जैसा वरतै तैसो कहीऐ सभ तेरी वडिआई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न करणा जाई = किया नहीं जा सकता। वरतै = काम काज चलाता है। तैसो कहीऐ = वैसा ही उसका नाम रखा जाता है।3।
अर्थ: (जगत में) जो कुछ घटित हो रहा है (प्रभु से आक़ी हो के किसी और जीव द्वारा) कुछ नहीं किया जा सकता। जैसी कार्यवाही प्रभु करता है, वैसा ही उसका नाम पड़ जाता है।
(हे प्रभु!) ये जो कुछ दिखाई दे रहा है तेरी ही बुजुर्गीयत (का प्रकाश) है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलि कलवाली माइआ मदु मीठा मनु मतवाला पीवतु रहै ॥ आपे रूप करे बहु भांतीं नानकु बपुड़ा एव कहै ॥४॥५॥
मूलम्
कलि कलवाली माइआ मदु मीठा मनु मतवाला पीवतु रहै ॥ आपे रूप करे बहु भांतीं नानकु बपुड़ा एव कहै ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = विवाद वाला स्वभाव। कलवाली = कलालन, शराब बेचने वाली। मदु = शराब। मतवाला = मस्त। बहु भांती = कई किस्मों के। बपुड़ा = बिचारा, अजिज़। एव = इस तरह।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पहली तुक में ‘रूपु’ एकवचन है; दूसरी तुक में ‘रूप’ बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जैसे एक शराब बेचने वाली है उसके पास शराब है; शराबी आ के रोज पीता रहता है वैसे ही जगत में विवाद वाला स्वभाव है (उसके असर तले) माया मीठी लग रही है, और जीवों का मन (माया में) मस्त हो रहा है; ऐ भांति-भांति के रूप भी प्रभु खुद ही बना रहा है (चाहे ये बात अलौकिक ही प्रतीत होती है; पर उस प्रभु को हर अच्छे-बुरे में व्यापक देख के) बिचारा नानक यही कह सकता है।4।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ वाजा मति पखावजु भाउ ॥ होइ अनंदु सदा मनि चाउ ॥ एहा भगति एहो तप ताउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ वाजा मति पखावजु भाउ ॥ होइ अनंदु सदा मनि चाउ ॥ एहा भगति एहो तप ताउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मति = श्रेष्ठ बुद्धि। पखावजु = जोड़ी, तबला। भाउ = प्रेम। अनंद = आत्मिक सुख। मनि = मन में। भगति = रास पानी। तप ताउ = तपकरना, तपना।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘ऐहा’ और ‘ऐहो’ का फर्क याद रखने वाला है। ‘ऐहा’ विशेषण, स्त्रीलिंग है, ‘इहो’ विशेषण पुलिंग है)।
दर्पण-भाषार्थ
इतु = इस में। इतु रंगि = इस रंग में, इस मौज में। रखि रखि पाउ = पैर रख रख के, जीवन-राह पर चल चल के।1।
अर्थ: जिस मनुष्य ने श्रेष्ठ बुद्धि को बाजा बनाया है, प्रभु के प्यार को तबला बनाया है (इन साजों के बजने से, श्रेष्ठ बुद्धि और प्रभु-प्रेम की इनायत से) उसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, उसके मन में उत्साह रहता है। असल भक्ति यही है, और यही है महान तप। इस आत्मिक आनंद में टिके रहके सदैव जीवन-राह पर चलो। बस! यही नृत्य करो (रासों में नाच-नाच के उसको कृष्ण लीला समझना भुलेखा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरे ताल जाणै सालाह ॥ होरु नचणा खुसीआ मन माह ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पूरे ताल जाणै सालाह ॥ होरु नचणा खुसीआ मन माह ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरे ताल = ताल पूरता है, ताल के साथ नाचता है। सालाह = परमात्मा की महिमा। मन माह = मन के उमाह, मन के चाव।1। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करनी जानता है वह (जीवन-नृत्य में) ताल में नाचता है (जीवन की सही राहों पर चलता है)। (रास आदि में कृष्ण मूर्ति के आगे ये) नाच और ही हैं निरी मन का परचावा मात्र हैं, मन के चाव हैं (ये भक्ति नहीं, ये तो मन के नचाए नाचना है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतु संतोखु वजहि दुइ ताल ॥ पैरी वाजा सदा निहाल ॥ रागु नादु नही दूजा भाउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥२॥
मूलम्
सतु संतोखु वजहि दुइ ताल ॥ पैरी वाजा सदा निहाल ॥ रागु नादु नही दूजा भाउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। ताल = छैणे। पैरी वाजा = घुंघरू। निहाल = प्रसन्न। दूजा भाउ = प्रभु के बिना और का प्यार।2।
अर्थ: (लोगों की) सेवा, संतोख (वाला जीवन) - ये दोनों छेणैं बजें, सदा प्रसन्न मुद्रा में रहना- ये पैरों में घुंघरू (बजें); (प्रभु-प्रेम के बिना) कोई और लगन ना हो - ये (हर समय अंदर) राग व अलाप (होता रहे)। (हे भाई!) इस आत्मिक आनंद में टिको, इस जीवन-राह पर चलो। बस! ये नाच नाचो (भाव, इस तरह जीवन के आत्मिक हिलोरों का आनंद लो)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ फेरी होवै मन चीति ॥ बहदिआ उठदिआ नीता नीति ॥ लेटणि लेटि जाणै तनु सुआहु ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥३॥
मूलम्
भउ फेरी होवै मन चीति ॥ बहदिआ उठदिआ नीता नीति ॥ लेटणि लेटि जाणै तनु सुआहु ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फेरी = चक्कर, घूमना। चीति = चित्त में। नीता नीत = रोजाना, सदा ही। लेटणि = लेटनी, लेट के नाचना। लेटि = लेट के। सुआह = नाशवान (राख की तरह)।3।
अर्थ: उठते-बैठते सदा हर समय प्रभु का डर-अदब मन-चित्त में टिका रहे- नृत्य का ये चक्कर हो; अपने शरीर को मनुष्य नाशवान समझे- ये लेट के नृत्यकारी हो। (हे भाई!) इस आनंद में टिके रहो; ये जीवन जीओ। बस! ये नाच नाचो (ये आत्मिक हिलोरे लो)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिख सभा दीखिआ का भाउ ॥ गुरमुखि सुणणा साचा नाउ ॥ नानक आखणु वेरा वेर ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पैर ॥४॥६॥
मूलम्
सिख सभा दीखिआ का भाउ ॥ गुरमुखि सुणणा साचा नाउ ॥ नानक आखणु वेरा वेर ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पैर ॥४॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिख सभा = सत्संग। दीखिआ = गुरु का उपदेश। भाउ = प्यार। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के। आखणु = (नाम) जपना। वेरा वेर = बार बार।4।
अर्थ: सत्संग में रहके गुरु के उपदेश का प्यार (अपने अंदर पैदा करना); गुरु के सन्मुख रहके परमात्मा का अटल नाम सुनते रहना; परमात्मा का नाम बरंबार जपना- इस रंग में, हे नानक! टिको, इस जीवन-राह पर पैर धरो। बस! ये नाच नाचो (ये जीवन आनंद लो)।4।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ पउणु उपाइ धरी सभ धरती जल अगनी का बंधु कीआ ॥ अंधुलै दहसिरि मूंडु कटाइआ रावणु मारि किआ वडा भइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ पउणु उपाइ धरी सभ धरती जल अगनी का बंधु कीआ ॥ अंधुलै दहसिरि मूंडु कटाइआ रावणु मारि किआ वडा भइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउणु = हवा। उपाइ = उपाई, पैदा की। धरी = टिकाई। बंधु = मेल। दहसिरि = दस सिर वाले ने, रावण ने। अंधुलै = अंधे ने, मूर्ख ने। मूंडु = सिर। मारि = मार के। किआ वडा भइआ = कौन सा बड़ा हो गया, बड़ा नहीं हो गया।1।
अर्थ: परमात्मा ने हवा बनाई, सारी धरती की रचना की, आग व पानी का मेल किया (भाव, ये सारे विरोधी तत्व इकट्ठे करके जगत रचना की। रचनहार प्रभु की ये एक आश्चर्य भरी लीला है, जिससे दिखता है किवह बेअंत बड़ी ताकतों वाला है, पर उसकी ये महिमा भूल के निरा रावण को मारने में ही उसकी महानता समझनी भूल है)। अकल के अंधे रावण ने अपनी मौत को (मूर्खता में) दावत दी, परमात्मा (निरा उस मूर्ख) रावण को ही मार के बड़ा नहीं हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ उपमा तेरी आखी जाइ ॥ तूं सरबे पूरि रहिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किआ उपमा तेरी आखी जाइ ॥ तूं सरबे पूरि रहिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपमा = महिमा। लिव लाइ = व्यापक हो के।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी महिमा बयान नहीं की जा सकती। तू सब जीवों में व्यापक है, मौजूद है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ उपाइ जुगति हथि कीनी काली नथि किआ वडा भइआ ॥ किसु तूं पुरखु जोरू कउण कहीऐ सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥२॥
मूलम्
जीअ उपाइ जुगति हथि कीनी काली नथि किआ वडा भइआ ॥ किसु तूं पुरखु जोरू कउण कहीऐ सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हथि कीनी = अपने हाथ में रखी हुई है। नथि = नाथ के, बस में करके। किसु = किस (स्त्री) का? पुरखु = पति। जोरू कउणु = कौन तेरी स्त्री? निरंतरि = (निर+अंतरि) बिना दूरी के, एक रस।2।
अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) सृष्टि के सारे जीव पैदा करके सब की जीवन जुगति तूने अपने हाथ में रखी हुई है, (सबको नाथा हुआ है) सिर्फ काली-नाग को नाथ के तू बड़ा नहीं हो गया। ना तू किसी खास स्त्री (स्त्री विशेष) का पति है, ना कोई स्त्री तेरी पत्नी है, तू सब जीवों के अंदर एक-रस मौजूद है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नालि कुट्मबु साथि वरदाता ब्रहमा भालण स्रिसटि गइआ ॥ आगै अंतु न पाइओ ता का कंसु छेदि किआ वडा भइआ ॥३॥
मूलम्
नालि कुट्मबु साथि वरदाता ब्रहमा भालण स्रिसटि गइआ ॥ आगै अंतु न पाइओ ता का कंसु छेदि किआ वडा भइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नालि = कमल फूल की नाली। कुटंबु = परिवार (कुटंबिनी = माँ, जननी)। साथि = साथ, पास। वरदाता = वर देने वाला, विष्णु। कंसु = राजा उग्रसेन का पुत्र, कृष्ण जी का मामा। इसे कृष्ण जी ने मार के पुनः उग्रसेन को सिंहासन पर बैठाया था।3।
अर्थ: (कहते हैं कि जो) ब्रहमा कमल की नाल में से पैदा हुआ था, विष्णु उसका हिमायती था, वह ब्रहमा परमात्मा का अंत तलाशने के लिए गया, (उस नालि में ही भटकता रहा) पर अंत ना मिल सका। (अकाल-पुरख बेअंत कुदरत का मालिक है) सिर्फ कंस को मार के वह कितना बड़ा बन गया? (ये तो उसके आगे एक साधारण सी बात है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतन उपाइ धरे खीरु मथिआ होरि भखलाए जि असी कीआ ॥ कहै नानकु छपै किउ छपिआ एकी एकी वंडि दीआ ॥४॥७॥
मूलम्
रतन उपाइ धरे खीरु मथिआ होरि भखलाए जि असी कीआ ॥ कहै नानकु छपै किउ छपिआ एकी एकी वंडि दीआ ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाइ धरे = पैदा किए। खीरु = समुंदर। मथिआ = मथा। (पुराणों की कथा है कि देवताओं और दैत्यों ने मिल के समुंदर मंथन किया था, उसमें से 14 रत्न निकले। बँटवारे के समय झगड़ा हो गया। विष्णु ने ये झगड़ा निपटाने के लिए मोहनी अवतार धारा और रत्न एक-एक करके बाँट दिए)। होरि = दैत्य और देवते। भखलाए = क्रोध में आकर बोलने लगे। जि = कि। अयी कीआ = हमने (रत्न समुंदर में से) निकाले हैं। एकी एकी = एक-एक करके।4।
अर्थ: (कहते हैं कि देवताओं और दैत्यों ने मिल के) समुंदर-मंथन किया और (उसमें से) चौदह रत्न निकाले, (बाँटने के समय दोनों धड़े) गुस्से में आ-आ के कहने लगे कि ये रत्न हमने निकाले हैं, हमने निकाले हैं (अपनी ओर से परमात्मा की महिमा बयान करने के लिए कहते हैं कि परमात्मा ने मोहनी अवतार धार के वह रत्न) एक-एक करके बाँट दिए, (पर) नानक कहता है (कि निरे ये रत्न बाँटने से परमात्मा की कौन सी महानता बन गई, उसकी महानता तो उसकी रची कुदरत में जगह-जगह दिखाई दे रही हैं) वह चाहे अपनी कुदरत में छुपा हुआ है, पर छुपा नहीं रह सकता (प्रत्यक्ष उसकी बेअंत कुदरत बता रही है किवह बहुत ताकतों का मालिक है)।4।7।
[[0351]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ करम करतूति बेलि बिसथारी राम नामु फलु हूआ ॥ तिसु रूपु न रेख अनाहदु वाजै सबदु निरंजनि कीआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ करम करतूति बेलि बिसथारी राम नामु फलु हूआ ॥ तिसु रूपु न रेख अनाहदु वाजै सबदु निरंजनि कीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम करतूति = अच्छे कर्म, अच्छा आचरण। बेलि = बेल। विसथारी = बिखरी हुई। रेख = चिन्ह। अनाहदु = बिना बाजों के, एक रस (साज तभी बजता है जब उसे उंगलियों से छेड़ें। जब उंगली की चोट बंद कर दें, साज बंद हो जाता है)। सबदु = महिमा की रौअ। निरंजनि = निरंजन ने, उस परमात्मा ने जो अंजन (माया की कालिख) से परे है।1।
अर्थ: (नाम जपने की इनायत से) उस मनुष्य का उच्च आचरण बनता है (ये, मानो, ऊँची मनुष्यता की फुटी हुई) फैली हुई बेल है, (इस बेल को) परमात्मा का नाम-फल लगता है (उसकी तवज्जो नाम में जुड़ी रहती है) माया-रहित प्रभु ने उसके अंदर महिमा का एक प्रवाह चला दिया होता है (वह प्रवाह, मानो, एक संगीत है) जो एक-रस (निरंतर) प्रभाव डाले रखता है, पर उसकी कोई रूप-रेखा बयान नहीं की जा सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करे वखिआणु जाणै जे कोई ॥ अम्रितु पीवै सोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करे वखिआणु जाणै जे कोई ॥ अम्रितु पीवै सोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणै = जान-पहिचान डाल ले।1। रहाउ।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य (स्मरण के द्वारा) परमात्मा से जान-पहिचान बना ले और उसकी महिमा करता रहे तो वह नाम-अमृत पीता है (स्मरण से पैदा होने वाला आत्मिक आनंद पाता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह पीआ से मसत भए है तूटे बंधन फाहे ॥ जोती जोति समाणी भीतरि ता छोडे माइआ के लाहे ॥२॥
मूलम्
जिन्ह पीआ से मसत भए है तूटे बंधन फाहे ॥ जोती जोति समाणी भीतरि ता छोडे माइआ के लाहे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन्ह = नित मनुष्यों ने। जोती जोति = परमात्मा की ज्योति। लाहे = लाभ।2।
अर्थ: जिस-जिस जीवों ने वह नाम रस पीया, वे मस्त हो गए। (उन) के (माया के) बंधन और जंजीरें छूट गई। उनके अंदर परमात्मा की ज्योति टिक गई, उन्होंने माया की खातिर (दिन-रात की) दौड़-भाग छोड़ दी (भा, वे माया के मोह-जाल में से निकल गए)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब जोति रूपु तेरा देखिआ सगल भवन तेरी माइआ ॥ रारै रूपि निरालमु बैठा नदरि करे विचि छाइआ ॥३॥
मूलम्
सरब जोति रूपु तेरा देखिआ सगल भवन तेरी माइआ ॥ रारै रूपि निरालमु बैठा नदरि करे विचि छाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब जोति = सारी जोतियों में। रारै = रात में, तकरार में, झगड़े में। रारै रूपि = तकरार रूप संसार में। निरालमु = निराला, अलग, निरलेप। छाइआ = प्रतिबिंब, अक्स।3।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने नाम जपने की इनायत से नाम-रस पीया, उस ने, हे प्रभु!) सारे जीवों में तेरा ही दीदार किया, उसने सारे भवनों में तेरी पैदा की हुई माया प्रभाव डालती देखी। (वह मनुष्य देखता है कि) परमात्मा इस झगड़ा-रूपी संसार से निराला बैठा हुआ है, और बीच में ही प्रतिबिंब की भांति व्यापक हो के देख भी रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीणा सबदु वजावै जोगी दरसनि रूपि अपारा ॥ सबदि अनाहदि सो सहु राता नानकु कहै विचारा ॥४॥८॥
मूलम्
बीणा सबदु वजावै जोगी दरसनि रूपि अपारा ॥ सबदि अनाहदि सो सहु राता नानकु कहै विचारा ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीणा = बीन। सबदु = महिमा की वाणी। दरसनि = दर्शनों में, दृश्य में। रूपि = रूप में, सुंदरता में। सबदि = शब्द में (जुड़ के) (शब्द ‘सबदु’ और ‘सबदि’ के जोड़ों में व्याकर्णिक फर्क है, अर्थ भी अलग-अलग)। अनाहदि = एक रस में। सहु राता = पति प्रभु के रंग में रंगा हुआ। विचारा = विचार, ख्याल।4।
अर्थ: वही (मनुष्य है असल) जोगी, जो अपार परमात्मा के (इस) दृश्य में (मस्त हो के) परमात्मा की महिमा रूपी वीणा बजाता रहता है। नानक (अपना ये) ख्याल बताता है कि एक-रस महिमा में जुड़े रहने के कारण वह मनुष्य पति-प्रभु के रंग में रंगा रहता है।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ मै गुण गला के सिरि भार ॥ गली गला सिरजणहार ॥ खाणा पीणा हसणा बादि ॥ जब लगु रिदै न आवहि यादि ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ मै गुण गला के सिरि भार ॥ गली गला सिरजणहार ॥ खाणा पीणा हसणा बादि ॥ जब लगु रिदै न आवहि यादि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। मै गुण = मेरे गुण (सिर्फ यही हैं)। गली गला = बातों में (अच्छी) बातें। गला सिरजणहार = विधाता की बातें। बादि = व्यर्थ। आवहि = तू आए (हे प्रभु!)।1।
अर्थ: (पर हे विधाता!) मेरे में तो सिर्फ यही गुण हैं (मैंने तो सिर्फ यही कमाई की है) कि मैंने अपने सिर पर (निरी) बातों का भार ही बाँधा हुआ है। बातों में से सिर्फ वही बातें ही ठीक हैं जो, हे विधाता! तेरी बातें हैं (तेरी महिमा करी बाते हैं)। जब तक, हे विधाता! तू मेरे दिल में याद ना आए, तब तक मेरा खाना-पीना मेरा हस-हस के समय गुजारना- ये सब व्यर्थ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ परवाह केही किआ कीजै ॥ जनमि जनमि किछु लीजी लीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तउ परवाह केही किआ कीजै ॥ जनमि जनमि किछु लीजी लीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तउ = तब। किआ परवाह कीजै = कोई परवाह नहीं करते, कोई अधीनता नहीं रह जाती। जनमि = जनम में। जनमि = जनम ले के। जनमि जनमि = मानव जनम में आ के। लीजी = लेने योग्य पदार्थ।1। रहाउ।
अर्थ: मनुष्य जनम में आ के कमाने लायक पदार्थ एकत्र करें, तो कोई परवाह नहीं रह जाती, किसी की मुहताजी नहीं रहती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन की मति मतागलु मता ॥ जो किछु बोलीऐ सभु खतो खता ॥ किआ मुहु लै कीचै अरदासि ॥ पापु पुंनु दुइ साखी पासि ॥२॥
मूलम्
मन की मति मतागलु मता ॥ जो किछु बोलीऐ सभु खतो खता ॥ किआ मुहु लै कीचै अरदासि ॥ पापु पुंनु दुइ साखी पासि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मतागलु = हाथी। मता = मस्त। खतो खता = ख़ता ही ख़ता, गलतियां ही गलतियां। किआ मुहु लै = कौन सा मुंह ले के? किस मुंह से? साखी = गवाही।2।
अर्थ: (हमने कमाने-योग्य पदार्थ नहीं कमाया, इसलिए) हमारी मन की मति यह है कि मन मस्त हाथी बना पड़ा है (इस अहंकारी मन की अगुवाई में) जो कुछ बोलते हैं सब बुरा ही बुरा है। (हे प्रभु! तेरे दर पर) अरदास भी किस मुंह से करें? (अपनी ढीठता में अरदास करते हुए भी शर्म आती है, क्योंकि) हमारा भला और हमारा बुरा (अच्छाईयों का संग्रह और बुराईयों का संग्रह) ये दोनों हमारी करतूतों के गवाह मौजूद हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसा तूं करहि तैसा को होइ ॥ तुझ बिनु दूजा नाही कोइ ॥ जेही तूं मति देहि तेही को पावै ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावै ॥३॥
मूलम्
जैसा तूं करहि तैसा को होइ ॥ तुझ बिनु दूजा नाही कोइ ॥ जेही तूं मति देहि तेही को पावै ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलावै = तू चला रहा है (जगत की कार्यवाही)।3।
अर्थ: (पर, हमारे बस में कुछ भी नहीं है, हे प्रभु!) तू खुद ही जीव को जैसा बनाता है वैसा हीवह बन जाता है। तेरे बगैर और कोई नहीं (जो हमें मति दे सके)। तू ही जैसी बुद्धि बख्शता है, वही मति जीव ग्रहण कर लेता है। जैसे तुझे ठीक लगता है, तू उसी तरह जगत का कार चला रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राग रतन परीआ परवार ॥ तिसु विचि उपजै अम्रितु सार ॥ नानक करते का इहु धनु मालु ॥ जे को बूझै एहु बीचारु ॥४॥९॥
मूलम्
राग रतन परीआ परवार ॥ तिसु विचि उपजै अम्रितु सार ॥ नानक करते का इहु धनु मालु ॥ जे को बूझै एहु बीचारु ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रतन राग = श्रेष्ठ बढ़िया राग। परीआ = रागों की परियां, रागनियां। तिसु विचि = इस (सारे परिवार) में। अंम्रितु सार = श्रेष्ठ अमृत, नाम रस।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘तिसु’ एकवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: श्रेष्ठ बढ़िया राग और उनकी रागनियां आदि ये सारा परिवार -अगर इस राग-परिवार में श्रेष्ठ नाम-रस भी पैदा हो जाए (तो इस मेल से आश्चर्यजनक आत्मिक आनंद पैदा होता है)। हे नानक! यदि किसी भाग्यशाली मनुष्य को ये समझ आ जाए (तो, वह इस आत्मिक आनंद को भोगे, और ये आत्मिक आनंद ही) ईश्वर तक पहुँचाने वाला माल-असबाब है।4।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ता मिलि सखीआ काजु रचाइआ ॥ खेलु देखि मनि अनदु भइआ सहु वीआहण आइआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ता मिलि सखीआ काजु रचाइआ ॥ खेलु देखि मनि अनदु भइआ सहु वीआहण आइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। घरि = घर में, मेरे हृदय घर में। ता = तब (शब्द ‘ता’ का भाव समझने के लिए पहली तुक के साथ शब्द ‘जब’ का प्रयोग करें)। मिलि = मिल के। सखीआ = इंद्रियों ने। काजु = विवाह। काजु रचाइआ = विवाह रचा दिया, प्रभु पति के साथ मेल के गीत गाने शुरू कर दिए, प्रभु पति की महिमा की ओर चल पड़ीं। खेलु = विवाह का खेल, विवाह का चाव मलार। देखि = देख के। मनि = मेरे मन में।1।
अर्थ: जब मेरा पति-प्रभु (मुझ जीव-स्त्री को अपना के मेरे दिल को अपने रहने का घर बना के) अपने घर में आ टिका, तो मेरी सहेलियों ने मिल के (जीभ-आँखों-कानों ने मिल के) प्रभु-पति के साथ मेल के गीत गान शुरू कर दिए। मेरा पति-प्रभु मुझे ब्याहने आया है (मुझे अपने चरणों में जोड़ने आया है) - प्रभु मिलाप के लिए ये उद्यम देख के मेरे मन में आनंद पैदा हो गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु ॥ हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु ॥ हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामणी = हे सि्त्रयो! हे इन्द्रियो! बिबेक = पुरख, ज्ञान। बिबेक बिचारु = ज्ञान पैदा करने वाला ख़्याल, प्रभु-पति के साथ गहरी सांझ पैदा करने वाला गीत। जगजीवनु = सारे जगत की जिंदगी (का आसरा)। भतारु = पति प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे सि्त्रयो! (हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! अच्छे-बुरे की) परख की विचार (पैदा करने वाला गीत) बारंबार गाओ (हे मेरी जीभ! महिमा में जुड़, ता कि तुझे निंदा करने से हटने की सूझ आ जाए। हे मेरे कानो! महिमा के गीत सुनते रहो, ताकि निंदा सुनने का चस्का हटे)। हमारे घर में (मेरे हृदय-घर में) वह पति-प्रभु आ बसा है जो सारे जगत की जिंदगी (का आसरा) है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ जां सहु मिलिआ तां जानिआ ॥ तिहु लोका महि सबदु रविआ है आपु गइआ मनु मानिआ ॥२॥
मूलम्
गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ जां सहु मिलिआ तां जानिआ ॥ तिहु लोका महि सबदु रविआ है आपु गइआ मनु मानिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरु दुआरै = गुरु के दर पर (पड़ के), गुरु की शरण पड़ने से। जां = जब। तां = तब। जानिआ = जान लिया, पहचान लिया, गहरी सांझ डाल ली, पूरी समझ आ गई। तिहु = उन्होंने। सबदु = जीवन रौअ (हो के)। रविआ = व्यापक है। आपु = स्वै भाव, स्वार्थ। मानिआ = मान गया।2।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से हमारा ये विवाह हुआ (गुरु ने मुझे प्रभु-पति के साथ जोड़ा), जब मुझे पति-प्रभु मिल गया, तब मुझे समझ आ गई कि वह प्रभु जीवन-रौअ बन के सारे जगत में व्यापक हो रहा है। मेरे अंदर से स्वैभाव दूर हो गया, मेरा मन उस प्रभु-पति की याद में रम गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपणा कारजु आपि सवारे होरनि कारजु न होई ॥ जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है गुरमुखि बूझै कोई ॥३॥
मूलम्
आपणा कारजु आपि सवारे होरनि कारजु न होई ॥ जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है गुरमुखि बूझै कोई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कारजु = काज, विवाह का उद्यम, मेल का प्रबंध। होरनि = किसी ओर से। जितु कारजि = जिस काम से, जिस विवाह से, जिस मेल की इनायत से। है = पैदा होता है।3।
अर्थ: प्रभु-पति जीव-स्त्री को अपने साथ मिलाने का ये काम अपना समझता है, और खुद ही इस कारज को सिरे चढ़ाता है, किसी और द्वारा ये काम नहीं किया जा सकता। इस मेल की इनायत से (जीव-स्त्री के अंदर) सेवा-संतोख-दया-धर्म आदि गुण पैदा होते हैं। इस भेद को वही मनुष्य समझता है जो गुरु के सन्मुख होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भनति नानकु सभना का पिरु एको सोइ ॥ जिस नो नदरि करे सा सोहागणि होइ ॥४॥१०॥
मूलम्
भनति नानकु सभना का पिरु एको सोइ ॥ जिस नो नदरि करे सा सोहागणि होइ ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भनति = कहता है। पिरु = पति। नदरि = कृपा की दृष्टि, मेहर की निगाह। सोहागणि = अच्छे भाग्यों वाली, पति वाली।4।
अर्थ: नानक कहता है: (चाहे जैसे) परमात्मा ही सब जीव-स्त्रीयों का पति है, (फिर भी) जिस के ऊपर मेहर की निगाह करता है (जिसके हृदय में आ के प्रगट होता है) वही भाग्यशाली होती है।4।10।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आसा राग में कबीर जी का शब्द नं: 24 देखें, पृष्ठ 482 पे। उस शब्द का ‘रहाउ’ की तुक इस प्रकार है;
“गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा॥
मेरे ग्रिह आए राजा राम भतारा॥ ”
कबीर जी ने अपने शब्द में ‘आत्मिक विवाह’ का वर्णन किया है, लिखते हैं:
“कहि कबीर मोहि बिआहि चलै है पुरख एक भगवाना॥3॥ ”
अब पढ़ें गुरु नानक देव जी के इस शब्द का ‘रहाउ’:
“गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु॥
हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु॥ ”
गुरु नानक देव जी भी इस शब्द में ‘आत्मिक विवाह’ का ही वर्णनल करते हैं और कहते हैं कि हमारा विवाह गुरु के द्वारा ही हुआ है:
“गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ,
जां सहु मिलिआ तां जानिआ॥ ”
कबीर जी गुरु नानक देव जी से पहले हो चुके थे। सतिगुरु जी इनकी वाणी पहली ‘उदासी’ के समय ले आए थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ ग्रिहु बनु समसरि सहजि सुभाइ ॥ दुरमति गतु भई कीरति ठाइ ॥ सच पउड़ी साचउ मुखि नांउ ॥ सतिगुरु सेवि पाए निज थाउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ ग्रिहु बनु समसरि सहजि सुभाइ ॥ दुरमति गतु भई कीरति ठाइ ॥ सच पउड़ी साचउ मुखि नांउ ॥ सतिगुरु सेवि पाए निज थाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनु = जंगल। समसरि = बराबर, एक जैसा। सहजि = अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। गतु भई = दूर हो जाती है। कीरति = कीर्ति, महिमा। ठाइ = (उसकी) जगह पर। मुखि = मुंह में। नांउ = परमात्मा का नाम। सेवि = सेव के, सेवा करके। निज = अपना। निज थाउ = वह जगह जो अपना बना रहेगा।1।
अर्थ: (जिसने मन को वश में कर लिया, उस मनुष्य के लिए) घर और जंगल एक समान है, क्योंकि वह अडोल अवस्था में रहता है, प्रभु के प्यार में (मस्त रहता) है, उस मनुष्य की बुरी मति दूर हो जाती है उसकी जगह उसके अंदर प्रभु की महिमा बसती है। प्रभु का सदा स्थिर रहने वाला नाम उसके मुंह में होता है, (नाम जपने की इस) सच्ची सीढ़ी के द्वारा सतिगुरु के बताए हुए रास्ते पे चल के वह मनुष्य वह आत्मिक ठिकाना हासिल कर लेता है जो सदा उसका अपना बना रहता है।1।
[[0352]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन चूरे खटु दरसन जाणु ॥ सरब जोति पूरन भगवानु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन चूरे खटु दरसन जाणु ॥ सरब जोति पूरन भगवानु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चूरे = चूरा चूरा करके, बुरे संस्कारों का नाश करे। खटु = छह। खटु दरसन = छह शास्त्र (सांख, न्याय, योग, वेदांत, मीमांसा, वैशेषिक)। जाणु = ज्ञाता। सरब जोति = सब जीवों में व्यापक ज्योति।1। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन को वश में कर लेता है, वह, मानो, छह शास्त्रों का ज्ञाता हो गया है उसको अकाल-पुरख की ज्योति सब जीवों में व्यापक दिखती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिक तिआस भेख बहु करै ॥ दुखु बिखिआ सुखु तनि परहरै ॥ कामु क्रोधु अंतरि धनु हिरै ॥ दुबिधा छोडि नामि निसतरै ॥२॥
मूलम्
अधिक तिआस भेख बहु करै ॥ दुखु बिखिआ सुखु तनि परहरै ॥ कामु क्रोधु अंतरि धनु हिरै ॥ दुबिधा छोडि नामि निसतरै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधिक = बहुत। तिआस = तृष्णा। दुखु बिखिआ = माया की तृष्णा से पैदा हुआ दुख। तनि = शरीर। विच परहरै = दूर कर देता है। धनु = नाम धन। हिरै = चुरा लेता है। छोडि = छोड़ के। नामि = नाम में (जुड़ के)। निसतरै = पार गुजर जाता है।2।
अर्थ: पर, अगर मनुष्य के अंदर माया की तृष्णा हो, तो (बाहर जगत दिखावे के लिए चाहे) बहुत धार्मिक लिबास पहने, पर माया के मोह से उपजे कष्ट उसके अंदर के आत्मिक सुख को दूर कर देते हैं, और काम-क्रोध उसके अंदर के नाम-धन को चुरा ले जाते हैं। (तृष्णा की बाढ़ में से वही मनुष्य) पार होता है जो प्रभु के नाम में जुड़ा रहता है और जो दुचिक्तापन छोड़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिफति सलाहणु सहज अनंद ॥ सखा सैनु प्रेमु गोबिंद ॥ आपे करे आपे बखसिंदु ॥ तनु मनु हरि पहि आगै जिंदु ॥३॥
मूलम्
सिफति सलाहणु सहज अनंद ॥ सखा सैनु प्रेमु गोबिंद ॥ आपे करे आपे बखसिंदु ॥ तनु मनु हरि पहि आगै जिंदु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज अनंद = अडोलता का आनंद। सैनु = मित्र। आगै = (हरि के) आगे।3।
अर्थ: (जिसने मन को मार लिया) वह परमात्मा की महिमा करता है आत्मिक अडोलता का आनंद पाता है, गोबिंद के प्रेम को अपना साथी-मित्र बनाता है, वह मनुष्य अपना तन, अपना मन अपनी जिंद प्रभु के हवाले किए रहता है। उसे यकीन रहता है कि प्रभु खुद ही (जीवों को) पैदा करता है और खुद ही दातें बख्शने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूठ विकार महा दुखु देह ॥ भेख वरन दीसहि सभि खेह ॥ जो उपजै सो आवै जाइ ॥ नानक असथिरु नामु रजाइ ॥४॥११॥
मूलम्
झूठ विकार महा दुखु देह ॥ भेख वरन दीसहि सभि खेह ॥ जो उपजै सो आवै जाइ ॥ नानक असथिरु नामु रजाइ ॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देह = शरीर। दीसहि = दिखते हैं। सभि = सारे। उपजै = पैदा होता है। जाइ = चला जाता है। असथिरु = सदा स्थिर रहने वाला।4।
अर्थ: (मन मार के आत्मिक आनंद लेने वाले को) झूठ आदि विकार शरीर के लिए भारी कष्ट (का मूल) प्रतीत होते हैं, (जगत दिखावे वाले) सारे धार्मिक वेष और वर्ण (-आश्रमों का गुमान) मिट्टी के समान दिखाई देते हैं। हे नानक! उसे यकीन रहता है कि जगत तो पैदा होता है और नाश हो जाता है। परमात्मा का एक नाम ही सदा स्थिर रहने वाला है (इस वास्ते वह नाम जपता है)।4।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ एको सरवरु कमल अनूप ॥ सदा बिगासै परमल रूप ॥ ऊजल मोती चूगहि हंस ॥ सरब कला जगदीसै अंस ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ एको सरवरु कमल अनूप ॥ सदा बिगासै परमल रूप ॥ ऊजल मोती चूगहि हंस ॥ सरब कला जगदीसै अंस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरवरु = सोहाना तालाब, सरोवर। अनूप = सुंदर। बिगासे = खिलता है। परमल = सुगंधि। रूप = सुंदरता। हंस = सत्संगी, गुरमुख। सरब कला = सारी ताकतों वाला। जगदीसै = जगदीश का। अंस = हिस्सा।1।
अर्थ: (सत्संग) एक सरोवर है (जिस में) संत-जन सुंदर कमल-पुष्प हैं। (सत्संग उनको नाम-जल दे के) सदा खिलाए रखता है (उन्हें आत्मिक जीवन की) सुगंधि और सुंदरता देता है। संत-हंस (उस सत्संग-सरोवर में रहके प्रभु की महिमा के) सुंदर मोती चुग के खाते हैं (और इस तरह) सारी ताकतों के मालिक जगदीश का हिस्सा (बने रहते हैं; जगदीश से एक-रूप हुए रहते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो दीसै सो उपजै बिनसै ॥ बिनु जल सरवरि कमलु न दीसै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जो दीसै सो उपजै बिनसै ॥ बिनु जल सरवरि कमलु न दीसै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरवरि = सरोवर में।1। रहाउ।
अर्थ: जो कुछ दिखाई दे रहा है (भाव, ये दिखाई देता जगत) पैदा होता है और नाश होता है। पर सरोवर में (उगा हुआ) कमल फूल पानी के बिना नहीं है (इस वास्ते वह नाश होता) नहीं दिखता (भाव, जैसे सरोवर में उगा हुआ कमल फूल पानी के कारण हरा-भरा रहता है, वैसे ही सत्संग में टिके रहने वाले गुरमुख का दिल रूपी कमल सदा आत्मिक जीवन वाला है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरला बूझै पावै भेदु ॥ साखा तीनि कहै नित बेदु ॥ नाद बिंद की सुरति समाइ ॥ सतिगुरु सेवि परम पदु पाइ ॥२॥
मूलम्
बिरला बूझै पावै भेदु ॥ साखा तीनि कहै नित बेदु ॥ नाद बिंद की सुरति समाइ ॥ सतिगुरु सेवि परम पदु पाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेदु = (सत्संग सरोवर की) गुप्त कद्र। साखा तीनि = तीन अवस्थाएं (माया की)। नाद = शब्द, महिमा की वाणी। बिंद = जानना। नाद बिंद की सुरति = शब्द को जानने वाली बुद्धि में। समाइ = लीन होता है। परम = बहुत ऊँचा। पदु = आत्मिक दर्जा।2।
अर्थ: (सत्संग-सरोवर की इस) के इस गुप्त लाभ (के भेद) को कोई दुर्लभ व्यक्ति ही समझता है (जगत आम तौर पर त्रिगुणी संसार की बातें ही करता है) वेद (भी) त्रिगुणी संसार का ही वर्णन करते हैं। (सत्संग में रहके) जिस मनुष्य की तवज्जो परमात्मा की महिमा की वाणी की सूझ में लीन रहती है, वह अपने गुरु के बताए हुए राह पर चल के ऊँची से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकतो रातउ रंगि रवांतउ ॥ राजन राजि सदा बिगसांतउ ॥ जिसु तूं राखहि किरपा धारि ॥ बूडत पाहन तारहि तारि ॥३॥
मूलम्
मुकतो रातउ रंगि रवांतउ ॥ राजन राजि सदा बिगसांतउ ॥ जिसु तूं राखहि किरपा धारि ॥ बूडत पाहन तारहि तारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकतो = मुक्त, विकारों से आजाद। रातउ = रमा हुआ। रवांतउ = स्मरण करता है। राजन राजि = राजाओं के राजे (हरि) में। बिगसांतउ = बिगसता है, खिला रहता है। पाहन = पत्थर। तारि = बेड़ी।3।
अर्थ: (सत्संग-सरोवर में डुबकी लगाने वाला मनुष्य) माया के प्रभाव से स्वतंत्र है, प्रभु की याद में मस्त रहता है, प्रेम में टिक के स्मरण करता है; राजाओं के राजे प्रभु में (जुड़ा रह के) सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है।
(पर, हे प्रभु! ये तेरी ही मेहर है) तू मेहर करके जिसको (माया के असर से) बचा लेता है (वह बच जाता है), तू अपने नाम की बेड़ी में (बड़े-बड़े) पत्थर (-दिलों) को तैरा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभवण महि जोति त्रिभवण महि जाणिआ ॥ उलट भई घरु घर महि आणिआ ॥ अहिनिसि भगति करे लिव लाइ ॥ नानकु तिन कै लागै पाइ ॥४॥१२॥
मूलम्
त्रिभवण महि जोति त्रिभवण महि जाणिआ ॥ उलट भई घरु घर महि आणिआ ॥ अहिनिसि भगति करे लिव लाइ ॥ नानकु तिन कै लागै पाइ ॥४॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलट भई = तवज्जो माया के प्रभाव से पलट गई। घरु = परमात्मा का निवास स्थान। घर महि = (अपने) दिल में। आणिआ = ले आए। अहि = दिन। निसि = रात। पाइ = पैरों पर।4।
अर्थ: (जो मनुष्य सत्संग में टिका उसने) तीन भवनों में प्रभु की ज्योति देख ली, उसने सारे जगत में बसते को पहिचान लिया, उसकी तवज्जो माया के मोह से उलट गई, उसने परमात्मा का निवास-स्थान अपने दिल में बना लिया, वह तवज्जो जोड़ के दिन-रात भक्ति करता है।
नानक ऐसे (भाग्यशाली संत) जनों की चरनीं लगता है।4।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ गुरमति साची हुजति दूरि ॥ बहुतु सिआणप लागै धूरि ॥ लागी मैलु मिटै सच नाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ गुरमति साची हुजति दूरि ॥ बहुतु सिआणप लागै धूरि ॥ लागी मैलु मिटै सच नाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुजति = दलीलबाजी, अश्रद्धा। धूरि = मैल। नाइ = नाम के द्वारा। गुर परसादि = गुरु की कृपा से।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की (इस) मति को दृढ़ करके धारण करता है, (परमात्मा की अंग-संगता के बारे में) उस मनुष्य की अश्रद्धा दूर हो जाती है। (गुरु की मति पर श्रद्धा की जगह) मनुष्य की अपनी बहुत चतुराईयों से मन में (विकारों की) मैल इकट्ठी होती है। ये एकत्र हुई मैल सदा-स्थिर-प्रभु के नाम द्वारा ही मिट सकती है, और, गुरु की किरपा से ही मनुष्य (परमात्मा के चरणों में) तवज्जो टिका के रख सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
है हजूरि हाजरु अरदासि ॥ दुखु सुखु साचु करते प्रभ पासि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
है हजूरि हाजरु अरदासि ॥ दुखु सुखु साचु करते प्रभ पासि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हजूरि = अंग संग। हाजरु = हाजिर हो के, एक मन हो के। साचु = यह यकीन जानो। प्रभ पासि = प्रभु के पास, प्रभु जानता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा हर समय हमारे अंग-संग है, एक-मन हो के उसके आगे अरदास करो। ये यकीन जानो कि हरेक जीव का दुख-सुख वह कर्तार प्रभु जानता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूड़ु कमावै आवै जावै ॥ कहणि कथनि वारा नही आवै ॥ किआ देखा सूझ बूझ न पावै ॥ बिनु नावै मनि त्रिपति न आवै ॥२॥
मूलम्
कूड़ु कमावै आवै जावै ॥ कहणि कथनि वारा नही आवै ॥ किआ देखा सूझ बूझ न पावै ॥ बिनु नावै मनि त्रिपति न आवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ु = बहिसबाजी आदि जैसे व्यर्थ काम। वारा = अंत। कहणि कथनि = कहने में कथन में, व्यर्थ बातों में। किआ देखा = उसने देखा कुछ नहीं। मनि = मन में। त्रिपति = शांति।2।
अर्थ: जो मनुष्य (अश्रद्धा भरी चतुराईयों की) व्यर्थ कमाई करता है वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, उसकी ये बेकार की बातें कभी खत्म नहीं होती। (अज्ञानी-अंधे ने तुच्छ बातों में ही रहके) अस्लियत नहीं देखी, इस वास्ते उसे कोई समझ नहीं आती, और, परमात्मा के नाम के बिना उसके मन में शांति नहीं आती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जनमे से रोगि विआपे ॥ हउमै माइआ दूखि संतापे ॥ से जन बाचे जो प्रभि राखे ॥ सतिगुरु सेवि अम्रित रसु चाखे ॥३॥
मूलम्
जो जनमे से रोगि विआपे ॥ हउमै माइआ दूखि संतापे ॥ से जन बाचे जो प्रभि राखे ॥ सतिगुरु सेवि अम्रित रसु चाखे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रोगि = रोग में। विआपे = ग्रसे हुए। हउमै = मैं मैं, अहंकार, बड़ेपन की लालसा। बाचे = बचे। प्रभि = प्रभु ने।3।
अर्थ: जो भी जीव जगत में जनम लेते हैं (परमात्मा की हस्ती द्वारा अश्रद्धा के कारण) आत्मिक रोगो से दबे रहते हैं, और अहंकार के दुख में, माया के मोह और दुख में वे कष्ट पाते रहते हैं। इस रोग से, इस दुख से वही लोग बचते हैं, जिनकी प्रभु ने खुद रक्षा की; जिन्होंने गुरु के बताए रास्ते पर चल के प्रभु के अमृत-नाम चखा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलतउ मनु राखै अम्रितु चाखै ॥ सतिगुर सेवि अम्रित सबदु भाखै ॥ साचै सबदि मुकति गति पाए ॥ नानक विचहु आपु गवाए ॥४॥१३॥
मूलम्
चलतउ मनु राखै अम्रितु चाखै ॥ सतिगुर सेवि अम्रित सबदु भाखै ॥ साचै सबदि मुकति गति पाए ॥ नानक विचहु आपु गवाए ॥४॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलतउ = चंचल। सेवि = सेव के, हुक्म में चल के। भाखै = उचारता है। सबदि = शब्द द्वारा। विचहु = अपने अंदर से। आपु = स्वैभाव, स्वार्थ।4।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम-रस चखता है, और चंचल मन को काबू में रखता है, जो मनुष्य गुरु की शिक्षा पे चल के अटल आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी उचारता है, वह मनुष्य इस सच्ची वाणी के द्वारा विकारों से खलासी हासिल कर लेता है, उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है, और, हे नानक! वह अपने अंदर से (अपनी बुद्धि का) अहंकार खत्म कर लेता है।4।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ जो तिनि कीआ सो सचु थीआ ॥ अम्रित नामु सतिगुरि दीआ ॥ हिरदै नामु नाही मनि भंगु ॥ अनदिनु नालि पिआरे संगु ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ जो तिनि कीआ सो सचु थीआ ॥ अम्रित नामु सतिगुरि दीआ ॥ हिरदै नामु नाही मनि भंगु ॥ अनदिनु नालि पिआरे संगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो = जिस जीव को। तिनि = उस (परमात्मा) ने। कीआ = अपना बना लिया। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का रूप)। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अंम्रित = अटल आत्मिक जीवन देने वाला। मनि = मन में। भंगु = कमी, परमात्मा के नाम से विछोड़ा। अनदिनु = हर रोज।1।
अर्थ: जिस जीव को उस परमात्मा ने अपना बना लिया, वह उस सदा स्थिर प्रभु का ही रूप बन गया। उसे सतिगुरु ने अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम हरि-नाम दे दिया। उस जीव के हृदय में (सदा प्रभु का) नाम बसता है, उसका मन हमेशा प्रभु चरणों से जुड़ा रहता है, हर रोज (हर समय) प्यारे प्रभु से उसका साथ बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जीउ राखहु अपनी सरणाई ॥ गुर परसादी हरि रसु पाइआ नामु पदारथु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि जीउ राखहु अपनी सरणाई ॥ गुर परसादी हरि रसु पाइआ नामु पदारथु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखहु = रखते हो। नउ निधि = नौ खजाने।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! जिस मनुष्य को तू अपनी शरण में रखता है, गुरु की किरपा से वह तेरे नाम का स्वाद चख लेता है; उसे तेरा उत्तम नाम प्राप्त हो जाता है (जो उसके लिए, जैसे) नौ-खजाने हैं (भाव, धरती का सारा ही धन-पदार्थ नाम के मुकाबले में उसे तुच्छ प्रतीत होता है)।1। रहाउ।
[[0353]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम धरम सचु साचा नाउ ॥ ता कै सद बलिहारै जाउ ॥ जो हरि राते से जन परवाणु ॥ तिन की संगति परम निधानु ॥२॥
मूलम्
करम धरम सचु साचा नाउ ॥ ता कै सद बलिहारै जाउ ॥ जो हरि राते से जन परवाणु ॥ तिन की संगति परम निधानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = यज्ञ आदि कर्म। धरम = वर्णाश्रम के निर्धारित कर्तव्य। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का स्मरण)। परम = सब से ऊँचा। निधान = खजाना।2।
अर्थ: मैं उस मनुष्य से सदके जाता हूँ जो प्रभु के सदा स्थिर नाम को ही सब से श्रेष्ठ कर्म व धार्मिक फर्ज समझता है। प्रभु की हजूरी में वही मनुष्य स्वीकार हैं जो प्रभु के प्यार में रंगे रहते हैं, उनकी संगति करने से सबसे कीमती (नाम) खजाना मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि वरु जिनि पाइआ धन नारी ॥ हरि सिउ राती सबदु वीचारी ॥ आपि तरै संगति कुल तारै ॥ सतिगुरु सेवि ततु वीचारै ॥३॥
मूलम्
हरि वरु जिनि पाइआ धन नारी ॥ हरि सिउ राती सबदु वीचारी ॥ आपि तरै संगति कुल तारै ॥ सतिगुरु सेवि ततु वीचारै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरु = पति। जिनि = जिस ने। धन = धन्य, भाग्यशाली। राती = रती हुई। ततु = सार वस्तु (मानव जनम का असल लाभ)।3।
अर्थ: वह जीव-स्त्री भाग्यशाली है जिसने प्रभु-पति (को अपने दिल में) पा लिया है, जो प्रभु के प्यार में रंगी रहती है, जो प्रभु की महिमा की वाणी को (अपने मन में) विचारती है। वह जीव-स्त्री स्वयं (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाती है, और अपनी संगत में अपने कुल को पार लंघा लेती है। सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल कर मानव जन्म का असल लाभ वह अपनी आँखों के सामने रखती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरी जाति पति सचु नाउ ॥ करम धरम संजमु सत भाउ ॥ नानक बखसे पूछ न होइ ॥ दूजा मेटे एको सोइ ॥४॥१४॥
मूलम्
हमरी जाति पति सचु नाउ ॥ करम धरम संजमु सत भाउ ॥ नानक बखसे पूछ न होइ ॥ दूजा मेटे एको सोइ ॥४॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सत भाउ = सच्चा प्यार। दूजा = परमात्मा के बिना किसी और का प्यार।4।
अर्थ: (दुनियां में किसी को उच्च जाति का गुमान है, किसी का ऊँचे कुल का धरवास है। हे प्रभु! मेहर कर) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम ही मेरे वास्ते ऊँची जाति और कुल हो, तेरा सच्चा प्यार ही मेरे लिए धार्मिक कर्म, धर्म और जीवन-जुगति हो।
हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु अपने नाम की बख्शिश करता है (उसका जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का लेखा निपट जाता है) उससे (फिर) किए कर्मों का हिसाब नहीं लिया जाता, उसको (हर तरफ़) एक प्रभु ही दिखाई देता है, प्रभु के बिना किसी और के अस्तित्व का विचार ही उसके अंदर से मिट जाता है।4।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ इकि आवहि इकि जावहि आई ॥ इकि हरि राते रहहि समाई ॥ इकि धरनि गगन महि ठउर न पावहि ॥ से करमहीण हरि नामु न धिआवहि ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ इकि आवहि इकि जावहि आई ॥ इकि हरि राते रहहि समाई ॥ इकि धरनि गगन महि ठउर न पावहि ॥ से करमहीण हरि नामु न धिआवहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकि = कई, अनेक जीव। आवहि = जनम लेते हैं। आई = आ के, जनम ले के। जावहि = (खाली ही) चले जाते हैं। रहहि समाई = (प्रभु चरणों में) लीन रहते हैं। धरनि = धरती। गगन = आकाश। महि = में। ठउर = जगह, मन के टिकने के लिए जगह। करमहीण = कर्महीन, अभागे।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अनेक जीव जगत में जन्म लेते हैं और (ऊँची आत्मिक अवस्था की प्राप्ति के बिना) सिर्फ पैदा ही होते हैं और (फिर यहां से) चले जाते हैं। पर, एक (सौभाग्यशाली ऐसे) हैं जो प्रभु के प्यार में रंगे रहते हैं और प्रभु की याद में रहते हैं। जो लोग प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते, वे अभागे हैं (उनके मन सदा भटकते रहते हैं) सारी सृष्टि में उन्हें कहीं भी शांति नहीं मिलती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पूरे ते गति मिति पाई ॥ इहु संसारु बिखु वत अति भउजलु गुर सबदी हरि पारि लंघाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर पूरे ते गति मिति पाई ॥ इहु संसारु बिखु वत अति भउजलु गुर सबदी हरि पारि लंघाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। बिखु = विष, ज़हर। बिखु वत = विहुला, विषौला। अति = बहुत। भउजलु = घुम्मणघेरी।1। रहाउ।
अर्थ: ऊँचे आत्मिक जीवन की मर्यादा पूरे गुरु से ही मिलती है। ये संसार एक बहुत ही विषौला चक्रवात है। परमात्मा, गुरु के शब्द में जोड़ के और (उच्च आत्मिक जीवन बख्श के) इसमें से पार लंघाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह कउ आपि लए प्रभु मेलि ॥ तिन कउ कालु न साकै पेलि ॥ गुरमुखि निरमल रहहि पिआरे ॥ जिउ जल अ्मभ ऊपरि कमल निरारे ॥२॥
मूलम्
जिन्ह कउ आपि लए प्रभु मेलि ॥ तिन कउ कालु न साकै पेलि ॥ गुरमुखि निरमल रहहि पिआरे ॥ जिउ जल अ्मभ ऊपरि कमल निरारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेलि न साकै = (पेलना = सरसों अलसी आदि को मशीन में पीढ़ के तेल निकालने की क्रिया) पीढ़ नहीं सकता, गिरा नहीं सकता। कालु = मौत (का डर)। निरमल = पवित्र आत्मा। अंभ = पानी। निरारे = निरलेप।2।
अर्थ: जिस लोगों को प्रभु स्वयं अपनी याद में जोड़ता है, उन्हें मौत का डर डरा नहीं सकता। गुरु के सन्मुख रहके (माया में रहते हुए भी) वह प्यारे ऐसे पवित्र-आत्मा बने रहते हैं जैसे पानी में कमल-फूल निर्लिप रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुरा भला कहु किस नो कहीऐ ॥ दीसै ब्रहमु गुरमुखि सचु लहीऐ ॥ अकथु कथउ गुरमति वीचारु ॥ मिलि गुर संगति पावउ पारु ॥३॥
मूलम्
बुरा भला कहु किस नो कहीऐ ॥ दीसै ब्रहमु गुरमुखि सचु लहीऐ ॥ अकथु कथउ गुरमति वीचारु ॥ मिलि गुर संगति पावउ पारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = कहो। सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरि। कथउ = मैं कहता हूँ। पावउ = मैं ढूँढता हूँ। पारु = परला छोर (शब्द ‘पारि’ और ‘पारु’ में अंदर है। “हरि पारि लंघाई” में शब्द ‘पारि’ क्रिया विशेषण है, इसका अर्थ है ‘परली ओर’ परली तरफ। “पावउ पारु” में ‘पारु’ संज्ञा है, अर्थ है ‘परला बन्ना’ परला किनारा)।3।
अर्थ: पर, ना किसी को बुरा ना किसी को अच्छा कहा जा सकता है क्योंकि हरेक में परमात्मा ही बसता दिखाई देता है। हाँ, वह सदा स्थिर प्रभु मिलता है गुरु के सन्मुख होने पर ही। परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है। गुरु की मति ले के ही मैं उस के (कुछ) गुण कह सकता हूँ और विचार सकता हूँ। गुरु की संगति में रहके ही मैं (इस विषौले चक्रवात का) परला सिरा पा सकता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासत बेद सिम्रिति बहु भेद ॥ अठसठि मजनु हरि रसु रेद ॥ गुरमुखि निरमलु मैलु न लागै ॥ नानक हिरदै नामु वडे धुरि भागै ॥४॥१५॥
मूलम्
सासत बेद सिम्रिति बहु भेद ॥ अठसठि मजनु हरि रसु रेद ॥ गुरमुखि निरमलु मैलु न लागै ॥ नानक हिरदै नामु वडे धुरि भागै ॥४॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासत = छह शस्त्र (वेदांत, न्याय, योग, सांख, मीमांसा, वैशैषिक)। भेद = अलग अलग विचार। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = डुबकी, स्नान। रेद = रिदै में, हृदय में। धुरि = धुर से, प्रभु की मेहर से।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम का आनंद हृदय में महसूस करो- यही है वेद-शास्त्रों स्मृतियों के विभिन्न पहलुओं का विचार, यही है अढ़सठ तीर्थों का स्नान। गुरु के सन्मुख रहके (नाम का आनंद लेने से) जीवन पवित्र रहता है और विकारों की मैल नहीं लगती। हे नानक! धुर से परमात्मा की द्वारा ही मेहर हो, तो नाम हृदय में बसता है।4।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ निवि निवि पाइ लगउ गुर अपुने आतम रामु निहारिआ ॥ करत बीचारु हिरदै हरि रविआ हिरदै देखि बीचारिआ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ निवि निवि पाइ लगउ गुर अपुने आतम रामु निहारिआ ॥ करत बीचारु हिरदै हरि रविआ हिरदै देखि बीचारिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवि = झुक के। पाइ = पैरों पर। लागउ = मैं लगूँ। आतम रामु = अपने अंदर बसता राम। निहारिआ = मैं देखता हूँ। रविआ = स्मरण किया है। देखि = देख के।1।
अर्थ: मैं बार-बार अपने गुरु के चरणों में नत्-मस्तक होता हूँ (गुरु की किरपा से) मैंने अपने अंदर बसता राम देख लिया है। (गुरु की सहायता से) परमात्मा के गुणों का विचार करके मैं उसे अपने हृदय में उसका दीदार कर रहा हूँ, उसकी सिफतों को विचार रहा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलहु रामु करे निसतारा ॥ गुर परसादि रतनु हरि लाभै मिटै अगिआनु होइ उजीआरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बोलहु रामु करे निसतारा ॥ गुर परसादि रतनु हरि लाभै मिटै अगिआनु होइ उजीआरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाभै = मिलता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करो। स्मरण (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। जब गुरु की किरपा से कीमती हरि-नाम मिल जाता है अंदर से अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है, और ज्ञान का प्रकाश हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रवनी रवै बंधन नही तूटहि विचि हउमै भरमु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त हउमै तूटै ता को लेखै पाई ॥२॥
मूलम्
रवनी रवै बंधन नही तूटहि विचि हउमै भरमु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त हउमै तूटै ता को लेखै पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवनी = रवाणी, ज़बानी ज़बानी। रवै = जो बोलता है। भरमु = भटकना। ता = तब। को = कोई मनुष्य। लेखै पाई = स्वीकार होता है।2।
अर्थ: (जो मनुष्य स्मरण तो नहीं करता, पर) सिर्फ ज़बानी-ज़बानी से (ब्रहमज्ञान की) बातें करता है, उसके (माया के) बंधन नहीं टूटते, वह अहंकार में ही फंसा रहता है (भाव, मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं बड़ा बन जाऊँ- इसी चक्रवात में फंसा रहता है), उसके मन की भटकना दूर नहीं होती। जब पूरा गुरु मिले तभी हउमें टूटती है, और तभी मनुष्य (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु भगति प्रिअ प्रीतमु सुख सागरु उर धारे ॥ भगति वछलु जगजीवनु दाता मति गुरमति हरि निसतारे ॥३॥
मूलम्
हरि हरि नामु भगति प्रिअ प्रीतमु सुख सागरु उर धारे ॥ भगति वछलु जगजीवनु दाता मति गुरमति हरि निसतारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगति प्रिअ = प्यारे की भक्ति। सुख सागरु = सुखों का समुंदर (प्रभु)। उर धारे = दिल में टिकाता है। वछलु = वत्सल, प्यार करने वाला। जग जीवनु = जगत का जीवन (प्रभु)।3।
अर्थ: जो मनुष्य हरि नाम स्मरण करता है, प्यारे की भक्ति करता है, सुखों के समुंदर प्रभु प्रीतम को अपने हृदय में बसाता है, उस मनुष्य को भक्ति को प्यार करने वाला प्रभु, जगत की जिंदगी का आसरा प्रभु, श्रेष्ठ मति देने वाला प्रभु, गुरु के उपदेश की इनायत से (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन सिउ जूझि मरै प्रभु पाए मनसा मनहि समाए ॥ नानक क्रिपा करे जगजीवनु सहज भाइ लिव लाए ॥४॥१६॥
मूलम्
मन सिउ जूझि मरै प्रभु पाए मनसा मनहि समाए ॥ नानक क्रिपा करे जगजीवनु सहज भाइ लिव लाए ॥४॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जूझि = जूझ के, लड़ के, तगड़ा मुकाबला करके। मनसा = मन का फुरना। मनहि = मन में ही। समाए = लीन कर दे। सहज भाइ = आसानी से ही।4।
अर्थ: जो जीव अपने मन से करारा मुकाबला करके अहंकार को मार लेता है, मन के फुरनों को मन के अंदर ही (प्रभु की याद में) लीन कर लेता है। हे नानक! जगत का जीवन, प्रभु, जिस मनुष्य पर मेहर करता है, वह अडोल चिक्त रहके (प्रभु चरणों में) जुड़ा रहता है।4।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ किस कउ कहहि सुणावहि किस कउ किसु समझावहि समझि रहे ॥ किसै पड़ावहि पड़ि गुणि बूझे सतिगुर सबदि संतोखि रहे ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ किस कउ कहहि सुणावहि किस कउ किसु समझावहि समझि रहे ॥ किसै पड़ावहि पड़ि गुणि बूझे सतिगुर सबदि संतोखि रहे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समझि रहे = जो ज्ञानवान हो गए। किसे पढ़ावहि = अपनी विद्या का दिखावा किसी के आगे नहीं करते। गुणि = विचार के। संतोखि = संतोष में। रहे = रहते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं।1।
अर्थ: (‘गहिर-गंभीर’ प्रभु को स्मरण करने से, स्मरण करने वाला भी गंभीर स्वभाव वाला हो जाता है, उसके अंदर दिखावा और होछापन नहीं रहता), जो मनुष्य (‘गहर गंभीर’ को स्मरण करके) ज्ञानवान हो जाते हैं, वे अपना आप ना किसी को बताते हैं ना सुनाते हैं ना समझाते हैं। जो मनुष्य (‘गहर गंभीर’ की तारीफ) पढ़ के विचार के (जीवन भेद को) समझ लेते हैं, वे अपनी विद्या का दिखावा नहीं करते, गुरु के शब्द में जुड़ के (होछापन त्याग के) वह संतोख का जीवन व्यतीत करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा गुरमति रमतु सरीरा ॥ हरि भजु मेरे मन गहिर ग्मभीरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा गुरमति रमतु सरीरा ॥ हरि भजु मेरे मन गहिर ग्मभीरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसा हरि = ऐसा परमात्मा। रमतु सरीरा = जो सब शरीरों में व्यापक है। रमतु = व्यापक। मन = हे मन! 1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की मति पर चल के उस अथाह और बड़े जिगरे वाले हरि का भजन कर जो सारे शरीरों में व्यापक है।1। रहाउ।
[[0354]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनत तरंग भगति हरि रंगा ॥ अनदिनु सूचे हरि गुण संगा ॥ मिथिआ जनमु साकत संसारा ॥ राम भगति जनु रहै निरारा ॥२॥
मूलम्
अनत तरंग भगति हरि रंगा ॥ अनदिनु सूचे हरि गुण संगा ॥ मिथिआ जनमु साकत संसारा ॥ राम भगति जनु रहै निरारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहरें। रंगु = प्यार। अनदिनु = हर रोज। मिथिआ = व्यर्थ। साकत = परमात्मा से टूटे हुए, माया में उलझे हुए। जनु = दास, सेवक।2।
अर्थ: जो मनुष्य हर रोज (हर समय) परमात्मा की महिमा से साथ बनाते हैं उनका जीवन पवित्र होता है, उनके अंदर प्रभु के प्यार की प्रभु की भक्ति की अनेक लहरें उठती रहती हैं। माया में फंसे जीव का जीवन व्यर्थ चला जाता है। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है वह (माया के मोह से) निर्लिप रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूची काइआ हरि गुण गाइआ ॥ आतमु चीनि रहै लिव लाइआ ॥ आदि अपारु अपर्मपरु हीरा ॥ लालि रता मेरा मनु धीरा ॥३॥
मूलम्
सूची काइआ हरि गुण गाइआ ॥ आतमु चीनि रहै लिव लाइआ ॥ आदि अपारु अपर्मपरु हीरा ॥ लालि रता मेरा मनु धीरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूची = पवित्र। काइआ = शरीर। आतमु = अपने आप को। चीनि = पहचान के। मेरा मनु = वह मन जो हर समय ‘मेरा मेरा’ करता रहता है।3।
अर्थ: जो मनुष्य हरि के गुण गाता है उसका शरीर (विकारों से बचा रह के) पवित्र रहता है। अपने आप को (अपने असल को) पहचान के वह सदा प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है। वह मनुष्य उस प्रभु का रूप हो जाता है जो सब का आदि है, जो बेअंत है, जो परे से परे है जो हीरे समान अमोलक है। उसका वह मन, जो पहले ममता का शिकार था, लाल रत्न के समान अमूल्य प्रभु के प्यार में रंगा जाता है और ठहराव वाले स्वभाव का हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथनी कहहि कहहि से मूए ॥ सो प्रभु दूरि नाही प्रभु तूं है ॥ सभु जगु देखिआ माइआ छाइआ ॥ नानक गुरमति नामु धिआइआ ॥४॥१७॥
मूलम्
कथनी कहहि कहहि से मूए ॥ सो प्रभु दूरि नाही प्रभु तूं है ॥ सभु जगु देखिआ माइआ छाइआ ॥ नानक गुरमति नामु धिआइआ ॥४॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहहि कहहि = हर वक्त कहते रहते हैं। छाइआ = छाया, परछांई।4।
अर्थ: जो मनुष्य (स्मरण से वंचित हैं और) निरी ज़बानी-ज़बानी ही ज्ञान की बाते करते हैं वे आत्मिक मौत मरे हुए हैं (उनके अंदर आत्मिक जीवन नहीं है)।
(पर) हे नानक! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति का आसरा ले के प्रभु का नाम स्मरण किया है, उन्हें परमात्मा अपने बहुत नजदीक दिखाई देता है (वे मनुष्य जगत के पदार्थों से मोह नहीं बनाते, क्योंकि) उन्हें सारा जगत माया का पसारा दिखाई देता है।4।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ तितुका ॥ कोई भीखकु भीखिआ खाइ ॥ कोई राजा रहिआ समाइ ॥ किस ही मानु किसै अपमानु ॥ ढाहि उसारे धरे धिआनु ॥ तुझ ते वडा नाही कोइ ॥ किसु वेखाली चंगा होइ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ तितुका ॥ कोई भीखकु भीखिआ खाइ ॥ कोई राजा रहिआ समाइ ॥ किस ही मानु किसै अपमानु ॥ ढाहि उसारे धरे धिआनु ॥ तुझ ते वडा नाही कोइ ॥ किसु वेखाली चंगा होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीखकु = भिक्षु, भिखारी। रहिआ समाइ = मस्त हो रहा है। मानु = इज्जत। अपमानु = निरादरी। ढाहि उसारे = गिरा के बनाता है, ख्यालों के लड्डू तोड़ता है बनाता है। ते = से। किसु वेखाली = मैं कोई ऐसा आदमी नहीं दिखा सकता।1।
अर्थ: (तेरा आसरा भुला के ही) कोई भिखारी भिक्षा (मांग-मांग के) खाता है (और गरीबी में निढाल हो रहा है, (तुझे भुला के ही) कोई मनुष्य राजा बन के (राज में) मस्त हो रहा है। किसी को आदर मिल रहा है (वह इस आदर में अहंकारी है), किसी की निरादरी हो रही है (जिस कारण वह अपने मानव जन्म का कौडी मूल्य नहीं समझता) (कोई मनुष्य मन के लड्डू तोड़ रहा है, अपने मन में ही) कई सलाहें बनाता है और गिराता है, बस! यही सोचें सोचता रहता है। पर, हे प्रभु! तूझसे बड़ा कोई नहीं (जिसे भी आदर मिलता है, तुझसे ही मिलता है)। मैं कोई भी ऐसा आदमी नहीं दिखा सकता जो (अपने आप ही) अच्छा बन गया हो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै तां नामु तेरा आधारु ॥ तूं दाता करणहारु करतारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मै तां नामु तेरा आधारु ॥ तूं दाता करणहारु करतारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आधारु = आसरा। दाता = देने वाला। करणहारु = करने के समर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: मेरे लिए सिर्फ तेरा नाम ही आसरा है (क्योंकि) तू ही (सब दातें) देने वाला है, तू सब कुछ करने के समर्थ है, तू सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाट न पावउ वीगा जाउ ॥ दरगह बैसण नाही थाउ ॥ मन का अंधुला माइआ का बंधु ॥ खीन खराबु होवै नित कंधु ॥ खाण जीवण की बहुती आस ॥ लेखै तेरै सास गिरास ॥२॥
मूलम्
वाट न पावउ वीगा जाउ ॥ दरगह बैसण नाही थाउ ॥ मन का अंधुला माइआ का बंधु ॥ खीन खराबु होवै नित कंधु ॥ खाण जीवण की बहुती आस ॥ लेखै तेरै सास गिरास ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न पावउ = मुझे नहीं मिलता। वाट = रास्ता। वीगा = टेढ़ा, कुराह। बैसण = बैठने के लिए। बंधु = बंधा हुआ। खीन = कमजोर। कंधु = शरीर। गिरास = ग्रास।2।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी ओट के बिना) मैं जीवन का सही रास्ता नहीं तलाश सकता, गलत रास्ते पर ही जाता हूँ, तेरी हजूरी में भी मुझे जगह नहीं मिल सकती। (जब तक मुझे तेरे से ज्ञान का प्रकाश ना मिले) मैं माया के मोह में बंधा रहता हूँ, मन का अंधा ही रहता हूँ, मेरा शरीर (विकारों में) सदा खचित और ख्वार होता है। मैं सदा और-और खाने व जीवन की आशाएं बनाता रहता हूँ (मुझे ये याद ही नहीं रहता कि) मेरी एक-एक सांस और एक-एक ग्रास तेरे हिसाब में है (तेरी मेहर से ही मिल रहे हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिनिसि अंधुले दीपकु देइ ॥ भउजल डूबत चिंत करेइ ॥ कहहि सुणहि जो मानहि नाउ ॥ हउ बलिहारै ता कै जाउ ॥ नानकु एक कहै अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥३॥
मूलम्
अहिनिसि अंधुले दीपकु देइ ॥ भउजल डूबत चिंत करेइ ॥ कहहि सुणहि जो मानहि नाउ ॥ हउ बलिहारै ता कै जाउ ॥ नानकु एक कहै अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। दीपकु = दीया। देइ = देता है। चिंत = फिक्र, ध्यान। करेइ = करता है। कहहि = जो कहते हैं। ता कै बलिहारै = उनसे कुर्बान। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तेरै पासि = तेरे हवाले, तेरे आसरे।3।
अर्थ: प्रभु (इतना दयालु है कि मेरे जैसे) अंधे को दिन-रात (ज्ञान का) दीपक बख्शता है, संसार समुंदर में डूबते का फिक्र रखता है। मैं उन लोगों से सदके जाता हूँ जो प्रभु का नाम जपते हैं, सुनते हैं, उस में श्रद्धा रखते हैं। हे प्रभु! नानक तेरे दर पे यही अरदास करता है कि हमारी जिंद और हमारा शरीर सब कुछ तेरे ही आसरे है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जां तूं देहि जपी तेरा नाउ ॥ दरगह बैसण होवै थाउ ॥ जां तुधु भावै ता दुरमति जाइ ॥ गिआन रतनु मनि वसै आइ ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मिलै ॥ प्रणवति नानकु भवजलु तरै ॥४॥१८॥
मूलम्
जां तूं देहि जपी तेरा नाउ ॥ दरगह बैसण होवै थाउ ॥ जां तुधु भावै ता दुरमति जाइ ॥ गिआन रतनु मनि वसै आइ ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मिलै ॥ प्रणवति नानकु भवजलु तरै ॥४॥१८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द का शीर्षक देखें। शब्द ‘तितुका’ बताता है कि शब्द के हरेक बंद की तीन-तीन तुकें हैं। सारी तुकें छोटी हैं, चौपाई के मेल की। दो-दो को मिला के एक तुक गिननी है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देहि = देता है। मनि = मन में। प्रणवति = विनती करता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘देइ’ और ‘देह’ में फर्क स्मरणीय है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्रभु! जब तू (अपने नाम की दाति मुझे) देता है, तभी मैं तेरा नाम जप सकता हूँ और तेरी हजूरी में मुझे बैठने के लिए जगह मिल सकती है। जब तेरी रजा हो तब ही मेरी बुरी मति दूर हो सकती है, और तेरा बख्शा हुआ श्रेष्ठ ज्ञान मेरे मन में आ के बस सकता है।
नानक विनती करता है कि जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है उसे गुरु मिलता है, और वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।4।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ पंचपदे६ ॥ दुध बिनु धेनु पंख बिनु पंखी जल बिनु उतभुज कामि नाही ॥ किआ सुलतानु सलाम विहूणा अंधी कोठी तेरा नामु नाही ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ पंचपदे६ ॥ दुध बिनु धेनु पंख बिनु पंखी जल बिनु उतभुज कामि नाही ॥ किआ सुलतानु सलाम विहूणा अंधी कोठी तेरा नामु नाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धेनु = गाय। पंख = पंख। उतभुज = बनस्पति। कामि = काम में। कामि नाही = किसी काम की नहीं, किसी काम नहीं आती, व्यर्थ है। किआ सुलतानु = वह बादशाह कैसा? अंधी = अंधकार भरी। कोठी = हृदय रूपी कोठी।1।
अर्थ: जो गाय दूध ना दे वह गाय किस काम की? जिस पक्षी के पंख ही ना हो उसे और कोई सहारा नहीं, वनस्पति पानी के बिना हरि नहीं रह सकती। वह बादशाह ही कैसा, जिसे कोई सलाम ना करे? इसी तरह हे प्रभु! जिस हृदय में तेरा नाम ना हो वह एक अंधेरी कोठी ही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
की विसरहि दुखु बहुता लागै ॥ दुखु लागै तूं विसरु नाही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
की विसरहि दुखु बहुता लागै ॥ दुखु लागै तूं विसरु नाही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: की विसरहि = क्यूँ बिसरता है?।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू मुझे क्यों विसारता है? तेरे बिसरने से मुझे बड़ा आत्मिक दुख होता है। हे प्रभु! (मेहर कर, मेरे मन से) ना विसर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखी अंधु जीभ रसु नाही कंनी पवणु न वाजै ॥ चरणी चलै पजूता आगै विणु सेवा फल लागे ॥२॥
मूलम्
अखी अंधु जीभ रसु नाही कंनी पवणु न वाजै ॥ चरणी चलै पजूता आगै विणु सेवा फल लागे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधु = अंधापन। रसु = स्वाद। पवणु न वाजै = आवाज बजती नहीं, आवाज सुनी नहीं जाती। पजूता = पकड़ा हुआ। आगै = आगे से। विणु सेवा = (प्रभु की) सेवा के बिना, प्रभु के स्मरण के बिना। फल = और-और फल।2।
अर्थ: आँखों के आगे अंधकार छाने लग पड़ता है, जीभ में खाने-पीने के स्वाद के आनंद लेने की ताकत नहीं रहती, कानों में (राग आदि) की आवाज सुनाई नहीं देती, पैरों से भी मनुष्य तभी चलता है जब कोई और आगे से उसकी डंगोरी पकड़े- (बुढ़ापे के कारण मनुष्य के शरीर की ये हालत बन जाती है, फिर भी) मनुष्य स्मरण से सूना ही रहता है, इसके जीवन-वृक्ष को और ही बेकार के फल लगते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखर बिरख बाग भुइ चोखी सिंचित भाउ करेही ॥ सभना फलु लागै नामु एको बिनु करमा कैसे लेही ॥३॥
मूलम्
अखर बिरख बाग भुइ चोखी सिंचित भाउ करेही ॥ सभना फलु लागै नामु एको बिनु करमा कैसे लेही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखर = गुरबाणी, गुरु के शब्द, गुरु का उपदेश। भुइ = धरती, हृदय रूपी धरती। चोखी = स्वच्छ, पवित्र। भाउ = प्रेम। करेही = करते हैं। फलु = मानव जीवन का लाभ। करमा = मेहर, बख्शिश।3।
अर्थ: जो मनुष्य स्वच्छ हृदय की भूमि में गुरु-शब्द-रूपी-बाग़ के वृक्ष लगाते हैं और प्रेम-रूपी पानी से सींचते हैं, उन सभी को अकाल-पुरख का नाम-फल लगता है। पर प्रभु की मेहर के बिना ये दाति नहीं मिलती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते जीअ तेते सभि तेरे विणु सेवा फलु किसै नाही ॥ दुखु सुखु भाणा तेरा होवै विणु नावै जीउ रहै नाही ॥४॥
मूलम्
जेते जीअ तेते सभि तेरे विणु सेवा फलु किसै नाही ॥ दुखु सुखु भाणा तेरा होवै विणु नावै जीउ रहै नाही ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। विणु सेवा = स्मरण के बग़ैर। भाणा = रजा। जीउ = जिंद। रहै नाही = रह नहीं सकती, धीरज नहीं आता।4।
अर्थ: हे प्रभु! ये सारे ही जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं, तेरा स्मरण किए बिना मानव जीवन का लाभ किसी को नहीं मिल सकता। (जो भी पैदा हुआ है उसे) कभी दुख और कभी सुख मिलना -ये तो तेरी रजा है (पर दुख में जीव घबरा जाता है, सुखों में आपे से बाहर होता है) तेरे नाम की टेक के बिना जिंद अडोल रह ही नहीं सकती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति विचि मरणु जीवणु होरु कैसा जा जीवा तां जुगति नाही ॥ कहै नानकु जीवाले जीआ जह भावै तह राखु तुही ॥५॥१९॥
मूलम्
मति विचि मरणु जीवणु होरु कैसा जा जीवा तां जुगति नाही ॥ कहै नानकु जीवाले जीआ जह भावै तह राखु तुही ॥५॥१९॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द का शीर्षक देखें। शब्द ‘पंचपदे’ बताता है कि आगे वे शब्द हैं जिनमें पाँच-पाँच बंद हैं। शब्द ‘पंचपदे’ के नीचे लगा अंक ६ बताता है कि ऐसे शब्द गिनती में छह हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरणु = मौत, स्वैभाव की मौत। जा = अगर। जीवा = मैं (और जीवन) जीऊँ। जुगति = युक्ति, ढंग, तरीका, सही ढंग। जीवाले = जीवित रखता है, आत्मिक जीवन देता है।5।
अर्थ: गुरु की बताई हुई मति पर चल कर स्वै भाव का मर जाना- यही है सही जीवन। अगर मनुष्य का स्वार्थी जीवन नहीं खत्म हुआ तो वह जीवन व्यर्थ है। अगर मैं यह स्वार्थी जीवन जीता हूँ, तो इसे जीवन का सही ढंग नहीं कहा जा सकता। नानक कहता है परमात्मा जिंदगी देने वाला है (उसी की हजूरी में अरदास करनी चाहिए कि) हे प्रभु! जहाँ तेरी रजा है वहाँ हमें रख (भाव, अपनी रज़ा में रख और नाम जपने की दाति बख्श)।5।19।
[[0355]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ काइआ ब्रहमा मनु है धोती ॥ गिआनु जनेऊ धिआनु कुसपाती ॥ हरि नामा जसु जाचउ नाउ ॥ गुर परसादी ब्रहमि समाउ ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ काइआ ब्रहमा मनु है धोती ॥ गिआनु जनेऊ धिआनु कुसपाती ॥ हरि नामा जसु जाचउ नाउ ॥ गुर परसादी ब्रहमि समाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर, मनुष्य का शरीर, विकारों से बचा हुआ शरीर। ब्रहमा = ब्राहमण। मनु = पवित्र मन। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। धिआनु = परमात्मा की याद में तवज्जो जोड़नी। कुस = कुश, दूब, दभ। कुस पाती = हरी घास का छल्ला, दूब का छल्ला (जो कानी उंगली के साथ की उंगली में पहना जाता है कोई पूजा आदि करने के समय)। जसु = महिमा। जाचउ = मैं मांगता हूँ। परसादी = प्रसादि, किरपा से। ब्रहमि = परमात्मा में। समाउ = मैं लीन रहूँ।1।
अर्थ: (नाम की इनायत से विकारों से बचा हुआ) मानव शरीर ही (उच्च जाति का) ब्राहमण है, (पवित्र हुआ) मन (ब्राहमण की) धोती है। परमात्मा के साथ गहरी जान-पहचान जनेऊ है और प्रभु चरणों में जुड़ी हुई तवज्जो दूब का छल्ला। मैं तो (हे पांडे!) परमात्मा का नाम ही (दक्षिणा) मांगता हूँ, महिमा ही मांगता हूँ, ताकि गुरु की किरपा से (नाम स्मरण करके) परमात्मा में लीन रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पांडे ऐसा ब्रहम बीचारु ॥ नामे सुचि नामो पड़उ नामे चजु आचारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पांडे ऐसा ब्रहम बीचारु ॥ नामे सुचि नामो पड़उ नामे चजु आचारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पांडे = हे पण्डित! नामे = नाम में ही। नामो पढ़उ = मैं नाम (-रूपी वेद आदि) पढ़ता हूँ। चजु = धार्मिक रस्में करनी। आचारु = धार्मिक रस्में करनीं।1। रहाउ।
अर्थ: हे पांडे! परमात्मा के नाम में ही स्वच्छता है, मैं तो परमातमा का नाम-स्मरण (रूपी वेद) पढ़ता हूँ। प्रभु के नाम में ही सारी धार्मिक रस्में आ जाती हैं। तू भी इसी तरह परमात्मा के गुणों की विचार कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहरि जनेऊ जिचरु जोति है नालि ॥ धोती टिका नामु समालि ॥ ऐथै ओथै निबही नालि ॥ विणु नावै होरि करम न भालि ॥२॥
मूलम्
बाहरि जनेऊ जिचरु जोति है नालि ॥ धोती टिका नामु समालि ॥ ऐथै ओथै निबही नालि ॥ विणु नावै होरि करम न भालि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरि = शरीर पर पहना हुआ। अेथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। होरि = और। भालि = ढूँढ।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे पांडे!) बाहरी जनेऊ तब तक ही है जब तक ज्योति शरीर में मौजूद है (फिर ये किस काम का?)। प्रभु का नाम दिल में संभाल- यही धोती है यही है टीका (तिलक)। ये नाम ही लोक-परलोक में साथ निभाता है। (हे पांडे!) नाम बिसार के धर्म के नाम पर और ही रस्में ना तलाशता फिर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजा प्रेम माइआ परजालि ॥ एको वेखहु अवरु न भालि ॥ चीन्है ततु गगन दस दुआर ॥ हरि मुखि पाठ पड़ै बीचार ॥३॥
मूलम्
पूजा प्रेम माइआ परजालि ॥ एको वेखहु अवरु न भालि ॥ चीन्है ततु गगन दस दुआर ॥ हरि मुखि पाठ पड़ै बीचार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूजा = मूर्ति के आगे धूप धुखाना। प्रेम माइआ = माया का मोह। परजालि = अच्छी तरह जला दे। चीनै = जो मनुष्य देखता है। ततु = सर्व-व्यापक ज्योति। गगन = आकाश, चित्त-रूपी आकाश, दिमाग। 3।
अर्थ: (नाम में जुड़ के) माया का मोह (अपने अंदर से) अच्छी तरह जला दे- यही है देव-पूजा। हर जगह एक परमात्मा को देख, (हे पांडे!) उसके बिना किसी और देवते को ना ढूँढता रह। जो मनुष्य हर जगह व्यापक परमात्मा को पहचान लेता है उसने मानों दसवें-द्वार में समाधि लगाई हुई है। जो मनुष्य प्रभु के नाम को सदा अपने मुँह में रखता है (उचारता है), वह (वेद आदि पुस्तकों के) विचार पढ़ रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजनु भाउ भरमु भउ भागै ॥ पाहरूअरा छबि चोरु न लागै ॥ तिलकु लिलाटि जाणै प्रभु एकु ॥ बूझै ब्रहमु अंतरि बिबेकु ॥४॥
मूलम्
भोजनु भाउ भरमु भउ भागै ॥ पाहरूअरा छबि चोरु न लागै ॥ तिलकु लिलाटि जाणै प्रभु एकु ॥ बूझै ब्रहमु अंतरि बिबेकु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिलाट = माथे पर। बिबेकु = दो चीजों में अंतर करने की सूझ।4।
अर्थ: (हे पांडे! प्रभु चरणों से) प्रीत (जोड़, ये) है (मूर्ति को) भोग, (इसकी इनायत से) मन की भटकना दूर हो जाती है, डर उतर जाता है। प्रभु-रक्षक के तेज से (अपने अंदर प्रकाश कर) कोई कामादिक चोर नजदीक नहीं फटकता। जो मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, उसने मानो, माथे पर तिलक लगाया हुआ है। जो अपने अंदर बसते प्रभु को पहचानता है वह अच्छे-बुरे कर्म की परख सीख लेता है (यही है असल बिबेक)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचारी नही जीतिआ जाइ ॥ पाठ पड़ै नही कीमति पाइ ॥ असट दसी चहु भेदु न पाइआ ॥ नानक सतिगुरि ब्रहमु दिखाइआ ॥५॥२०॥
मूलम्
आचारी नही जीतिआ जाइ ॥ पाठ पड़ै नही कीमति पाइ ॥ असट दसी चहु भेदु न पाइआ ॥ नानक सतिगुरि ब्रहमु दिखाइआ ॥५॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आचारी = धार्मिक रस्मों के द्वारा। कीमति = कद्र। असटदसी = अठारह (पुराणों) ने। चहु = चार वेदों ने। सतिगुरि = गुरु ने।5।
अर्थ: (हे पांडे!) परमात्मा निरी धार्मिक रस्मों से वश में नहीं किया जा सकता, वेद आदि पुस्तकों आदि के पाठ पढ़ने से भी उसकी समझ नहीं पड़ सकती। जिस परमात्मा का भेद अठारह पुराणों और चारों वेदों को नही मिला, हे नानक! सतिगुरु ने (हमें) वह (अंदर-बाहर हर जगह) दिखा दिया है।5।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ सेवकु दासु भगतु जनु सोई ॥ ठाकुर का दासु गुरमुखि होई ॥ जिनि सिरि साजी तिनि फुनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ सेवकु दासु भगतु जनु सोई ॥ ठाकुर का दासु गुरमुखि होई ॥ जिनि सिरि साजी तिनि फुनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की तरफ मुंह रखने वाला, जो गुरु के सन्मुख रहे, गुरु के बताए राह पर चलने वाला। जिनि = जिस प्रभु ने। सिरि = सृष्टि। फुनि = दुबारा। गोई = नाश की।1।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही परमात्मा का दास बनता है, वही मनुष्य (असल) सेवक है दास है भक्त है, (उसे सदा ये यकीन रहता है कि) जिस प्रभु ने ये सृष्टि रची है वही इसे दुबारा नाश करता है, उस जैसा और कोई दूसरा नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचु नामु गुर सबदि वीचारि ॥ गुरमुखि साचे साचै दरबारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साचु नामु गुर सबदि वीचारि ॥ गुरमुखि साचे साचै दरबारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = शब्द के द्वारा। विचारि = विचार के। साचे = सुर्ख़रू। दरबारि = दरबार में।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम विचार के गुरु के सन्मुख रहने वाले लोग सदा अटल प्रभु के दरबार में सही स्वीकार होते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा अरजु सची अरदासि ॥ महली खसमु सुणे साबासि ॥ सचै तखति बुलावै सोइ ॥ दे वडिआई करे सु होइ ॥२॥
मूलम्
सचा अरजु सची अरदासि ॥ महली खसमु सुणे साबासि ॥ सचै तखति बुलावै सोइ ॥ दे वडिआई करे सु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरजु = विनती। तखति = तख़्त पर। करे सु होइ = सब कुछ करने के समर्थ।2।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहके की हुई विनती और अरदास ही असल (प्रार्थना) है, महल का मालिक पति-प्रभु उस अरदास को सुनता है और आदर देता है (शाबाश कहता है), अपने सदा अटल तख़्त पर (बैठा हुआ प्रभु) उस सेवक को बुलाता है, और वह सब कुछ करने में समर्थ प्रभु उसे आदर-मान देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा ताणु तूहै दीबाणु ॥ गुर का सबदु सचु नीसाणु ॥ मंने हुकमु सु परगटु जाइ ॥ सचु नीसाणै ठाक न पाइ ॥३॥
मूलम्
तेरा ताणु तूहै दीबाणु ॥ गुर का सबदु सचु नीसाणु ॥ मंने हुकमु सु परगटु जाइ ॥ सचु नीसाणै ठाक न पाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताणु = ताकत। दीबाणु = आसरा। नीसाणु = परवाना, राहदारी। परगटु = मशहूर, आदर पा के। नीसाणै = राहदारी के कारण। ठाक = रोक।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) गुरमुख को तेरा ही ताण है (सहारा है) तेरा ही आसरा है। गुरु का शब्द ही उसके पास रहने वाला सदा चिर परवाना है। गुरमुखि परमात्मा की रज़ा को (सिर माथे, पूरी तरह से) मानता है, जगत में शोभा कमा के जाता है, गुरु-शब्द की सच्ची राहदारी के कारण उसकी जिंदगी के रास्ते में कोई विकार रुकावट नहीं डाल सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडित पड़हि वखाणहि वेदु ॥ अंतरि वसतु न जाणहि भेदु ॥ गुर बिनु सोझी बूझ न होइ ॥ साचा रवि रहिआ प्रभु सोइ ॥४॥
मूलम्
पंडित पड़हि वखाणहि वेदु ॥ अंतरि वसतु न जाणहि भेदु ॥ गुर बिनु सोझी बूझ न होइ ॥ साचा रवि रहिआ प्रभु सोइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखाणहि = व्याख्यान करते हैं, समझाते हैं। बूझ = समझ। रवि रहिआ = व्यापक है।4।
अर्थ: पण्डित लोग वेद पढ़ते हैं और-और लोगों को व्याख्या करके सुनाते हैं, पर (निरे विद्या के मान में रहके) ये भेद नहीं जानते कि परमात्मा का नाम-पदार्थ अंदर ही मौजूद है। सदा-स्थिर प्रभु हरेक के अंदर व्यापक हे, पर ये समझ गुरु की शरण पड़े बिना नहीं आती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ हउ आखा आखि वखाणी ॥ तूं आपे जाणहि सरब विडाणी ॥ नानक एको दरु दीबाणु ॥ गुरमुखि साचु तहा गुदराणु ॥५॥२१॥
मूलम्
किआ हउ आखा आखि वखाणी ॥ तूं आपे जाणहि सरब विडाणी ॥ नानक एको दरु दीबाणु ॥ गुरमुखि साचु तहा गुदराणु ॥५॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। आखि = कह के। सरब विडाणी = हे सारे करिश्में करने वाले! गुदराणु = गुजरान, जिंदगी का सहारा।5।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जैसे शब्द ‘काज़ी’ का दूसरा उच्चारण ‘कादी’ है, जैसे ‘नज़रि’ का दूसरा ‘नदरि’ है, वैसे ही शब्द ‘गुजराणु’ का ‘गुदराणु’ है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे चोजी प्रभु! गुरु के सन्मुख रहने का मैं क्या ज़िक्र करूँ? क्या कह के सुनाऊँ? तू (इस भेद) को खुद ही जानता है।
हे नानक! गुरमुखि के लिए प्रभु का ही एक दरवाजा है आसरा है जहाँ गुरु के सन्मुख रहके स्मरण करना उसकी जिंदगी का सहारा बना रहता है।5।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ काची गागरि देह दुहेली उपजै बिनसै दुखु पाई ॥ इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीऐ बिनु हरि गुर पारि न पाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ काची गागरि देह दुहेली उपजै बिनसै दुखु पाई ॥ इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीऐ बिनु हरि गुर पारि न पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काची गागरि = कच्चा घड़ा। देह = शरीर। दुहेली = दुखों का घर बनी हुई। दुतरु = जिसे तैरना मुश्किल है।1।
अर्थ: (नित्य विकारों में खचित रहने के कारण) ये शरीर दुखों का घर बन गया है (विकारों के असर से ये नहीं निकलता) और कच्चे घड़े के समान है (जो तुरंत पानी में गल जाता है), पैदा होता है, (सारी उम्र) दुख पाता है और फिर नाश हो जाता है (एक तरफ़ तो कच्चे घड़े जैसा ये शरीर है, दूसरी तरफ़) ये जगत एक ऐसा समुंदर है जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है, (इस विकार भरे शरीर का आसरा ले के) इसमें से तैरा नहीं जा सकता, गुरु परमात्मा का आसरा लिए बिना पार नहीं किया जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे पिआरे तुझ बिनु अवरु न कोइ हरे ॥ सरबी रंगी रूपी तूंहै तिसु बखसे जिसु नदरि करे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे पिआरे तुझ बिनु अवरु न कोइ हरे ॥ सरबी रंगी रूपी तूंहै तिसु बखसे जिसु नदरि करे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरे = हे हरि! रंगी रूपी = रंगों में रूपों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्यारे हरि! मेरा तेरे बिना और कोई (आसरा) नहीं, तेरे बिना मेरा कोई नहीं। तू सारे रंगों में, सारे रूपों में मौजूद है। (हे भाई!) जिस जीव पर (वह) मेहर की नजर करता है उसको बख्श लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासु बुरी घरि वासु न देवै पिर सिउ मिलण न देइ बुरी ॥ सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ हरि गुर किरपा ते नदरि धरी ॥२॥
मूलम्
सासु बुरी घरि वासु न देवै पिर सिउ मिलण न देइ बुरी ॥ सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ हरि गुर किरपा ते नदरि धरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासु = सास, माया। घरि = घर मे। बुरी = चंदरी, बुरे स्वभाव वाली। सखी साजनी = सजनियां सहेलियां, सत्संगी। हउ = मैं। सरेवउ = मैं सेवा करती हूँ।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘सासु’ संस्कृत के शब्द ‘श्वश्रु’ से बना है। अंत में ‘ु’ मात्रा होने के कारण पुलिंग प्रतीत होता है, पर है स्त्रीलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (मेरा प्रभु-पति मेरे हृदय-घर में ही बसता है, पर) ये बुरी सास (माया) मुझे हृदय-घर में टिकने ही नहीं देती (मेरे मन को सदा बाहर मायावी पदार्थों के पीछे भगाए फिरती है) ये चंद्री मुझे पति से मिलने नहीं देती। (इस बुरी औरत से बचने के लिए) मैं सत्संगी सहेलियों की सेवा करती हूँ (सत्संग में गुरु मिलता है), गुरु की किरपा से पति-प्रभु मेरे पर मेहर की नजर करता है।2।
[[0356]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु बीचारि मारि मनु देखिआ तुम सा मीतु न अवरु कोई ॥ जिउ तूं राखहि तिव ही रहणा दुखु सुखु देवहि करहि सोई ॥३॥
मूलम्
आपु बीचारि मारि मनु देखिआ तुम सा मीतु न अवरु कोई ॥ जिउ तूं राखहि तिव ही रहणा दुखु सुखु देवहि करहि सोई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। मारि = मार के। करहि = तू करता है।3।
अर्थ: हे प्रभु! (गुरु की किरपा से) जब मैंने अपने आप को सवार के अपना मन मार के देखा तो (मुझे दिखाई पड़ा कि) तेरे जैसा मित्र और कोई नहीं है। हम जीवों को तू जिस हालत में रखता है, उसी हालत में हम रह सकते हैं। दुख भी तू ही देता है, सुख भी तू ही देता है। जो कुछ तू करता है, वही होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा मनसा दोऊ बिनासत त्रिहु गुण आस निरास भई ॥ तुरीआवसथा गुरमुखि पाईऐ संत सभा की ओट लही ॥४॥
मूलम्
आसा मनसा दोऊ बिनासत त्रिहु गुण आस निरास भई ॥ तुरीआवसथा गुरमुखि पाईऐ संत सभा की ओट लही ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसा = उमीद। मनसा = मन का फुरना, चाहत, तमन्ना, लालसा। तुरीआवसथा = वह आत्मिक हालत जहाँ माया नहीं पकड़ सकती।4।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से ही माया वाली आस और लालसा मिटती हैं। त्रिगुणी माया की आशाओं से निर्लिप रह सकते हैं। जब सत्संग का आसरा लें, जब गुरु के बताए हुए राह पर चलें, तभी वह आत्मिक अवस्था बनती है जहाँ माया छू ना सके।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआन धिआन सगले सभि जप तप जिसु हरि हिरदै अलख अभेवा ॥ नानक राम नामि मनु राता गुरमति पाए सहज सेवा ॥५॥२२॥
मूलम्
गिआन धिआन सगले सभि जप तप जिसु हरि हिरदै अलख अभेवा ॥ नानक राम नामि मनु राता गुरमति पाए सहज सेवा ॥५॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआन = धर्म चर्चा। धिआन = समाधियां। सभि = सारे। अलख = जिसके गुण बयान ना हो सकें। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। नामि = नाम में। सेवा = स्मरण। सहज सेवा = अडोल अवस्था में टिक के स्मरण।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: नदियों के किनारे के तैराक बाढ़ के दौरान पक्के घड़ों का आसरा ले के दरिया से पार लांघ जाते हैं। रावी नदी के किनारे पर रहते हुए ये आँखों देखा नजारा यहाँ दृष्टांत के तौर पर यहाँ प्रयोग करते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में अलख व अभेव परमात्मा बस जाए, उसे मानो सारे जप-तप-ज्ञान-ध्यान प्राप्त हो गए। हे नानक! गुरु की मति पर चलने से मन प्रभु के नाम में रंगा जाता है, मन अडोल अवस्था में रहके स्मरण करता है।5।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ पंचपदे२ ॥ मोहु कुट्मबु मोहु सभ कार ॥ मोहु तुम तजहु सगल वेकार ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ पंचपदे२ ॥ मोहु कुट्मबु मोहु सभ कार ॥ मोहु तुम तजहु सगल वेकार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार, परिवार की ममता।1।
अर्थ: (हे भाई!) मोह (मनुष्य के मन में) परिवार की ममता पैदा करता है, मोह (जगत की) सारी कार चला रहा है, (पर मोह ही) विकार पैदा करता है, (इस वास्ते) मोह त्याग।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहु अरु भरमु तजहु तुम्ह बीर ॥ साचु नामु रिदे रवै सरीर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मोहु अरु भरमु तजहु तुम्ह बीर ॥ साचु नामु रिदे रवै सरीर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीर = हे वीर! हे भाई! सरीर = (भाव) मनुष्य। रवै = स्मरण करता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (दुनिया का) मोह छोड़ और मन की भटकना दूर कर। (मोह त्याग के ही) मनुष्य परमात्मा का अटल नाम हृदय में स्मरण कर सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचु नामु जा नव निधि पाई ॥ रोवै पूतु न कलपै माई ॥२॥
मूलम्
सचु नामु जा नव निधि पाई ॥ रोवै पूतु न कलपै माई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। नवनिधि = नौ खजाने। पूतु = माया का पुत्र मन, माया में खचित मन। माई = माया (की खातिर)।2।
अर्थ: जब मनुष्य परमात्मा का सदा स्थिर नाम (-रूपी) नौ-निधि प्राप्त कर लेता है (तो उसका मन माया में खचित नहीं रहता, फिर) मन माया की खातिर रोता नहीं, कलपता नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतु मोहि डूबा संसारु ॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि ॥३॥
मूलम्
एतु मोहि डूबा संसारु ॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एतु = इस में। मोहि = मोह में। एतु मोहि = इस मोह में।3।
अर्थ: इस मोह में सारा जगत डूबा पड़ा है, कोई विरला मनुष्य जो गुरु के बताए रास्ते पर चलता है (मोह के समुंदर में से) पार लांघता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतु मोहि फिरि जूनी पाहि ॥ मोहे लागा जम पुरि जाहि ॥४॥
मूलम्
एतु मोहि फिरि जूनी पाहि ॥ मोहे लागा जम पुरि जाहि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाहि = तू पाएगा। जमपुरि = जमके देश में। जाहि = तू जाएगा।4।
अर्थ: (हे भाई!) इस मोह में (फसा हुआ) तू बार-बार जूनियों में पड़ेगा, मोह में ही जकड़ा हुआ तू यमराज के देश में जाएगा।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर दीखिआ ले जपु तपु कमाहि ॥ ना मोहु तूटै ना थाइ पाहि ॥५॥
मूलम्
गुर दीखिआ ले जपु तपु कमाहि ॥ ना मोहु तूटै ना थाइ पाहि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीखिआ = दिक्षा, शिक्षा। कमाहि = लोग कमाते हैं। थाइ पाहि = स्वीकार होते हैं।5।
अर्थ: जो लोग (रिवाज के तौर पे) गुरु की शिक्षा ले के जप-तप कमाते हैं, उनका मोह नहीं टूटता, (इन जपों-तपों से) वह (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार नहीं होते।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ॥ नानक हरि सिउ रहै समाइ ॥६॥२३॥
मूलम्
नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ॥ नानक हरि सिउ रहै समाइ ॥६॥२३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द नं: 19 का शीर्षक था ‘पंचपदे’। सो, शब्द नंबर 24 तक पंचपदे ही हैं। पर यहां फिर शीर्षक आ गया ‘पंच पदे’। ये ‘पंचपदे’ उस संग्रह का हिस्सा ही हैं, वैसे इनके ‘बंद’ छोटे हैं। ये शब्द नंबर 23 छह बंदों का है, पर शीर्षक आम तौर पर चौपदे, पंचपदे, दुपदे ही हैं। ‘छेपदा’ शीर्षक कहीं भी नहीं बरता गया। सो, इसे भी ‘पंचपदा’ ही कहा गया है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहै समाइ = लीन हुआ रहता है।6।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पे प्रभु की नजर करता है, उसका ये मोह दूर होता है, वह सदा परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।6।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ आपि करे सचु अलख अपारु ॥ हउ पापी तूं बखसणहारु ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ आपि करे सचु अलख अपारु ॥ हउ पापी तूं बखसणहारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। अलखु = जिसका स्वरूप बयान ना हो सके।1।
अर्थ: (जो कुछ जगत में हो रहा है) सदा कायम रहने वाला अलख बेअंत परमात्मा (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद कर रहा है। (हे प्रभु! ये अटल नियम भुला के) मैं गुनाहगार हूँ (पर फिर भी तू) बख्शिश करने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा भाणा सभु किछु होवै ॥ मनहठि कीचै अंति विगोवै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरा भाणा सभु किछु होवै ॥ मनहठि कीचै अंति विगोवै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेरा भाणा = जो कुछ तुझे अच्छा लगता है। हठि = हठ से। अंति = आखिर को। विगोवै = ख्वार होता है।1। रहाउ।
अर्थ: जगत में जो कुछ होता है सब कुछ वही होता है जो (हे प्रभु!) तुझे अच्छा लगता है, (पर ये अटल सच्चाई भुला के) मनुष्य निरे अपने मन के हठ से (भाव, निरी अपनी अक्ल का आसरा ले के) काम करने पर आखिर दुखी होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख की मति कूड़ि विआपी ॥ बिनु हरि सिमरण पापि संतापी ॥२॥
मूलम्
मनमुख की मति कूड़ि विआपी ॥ बिनु हरि सिमरण पापि संतापी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = जो अपने मन के पीछे चलता है। कूड़ि = झूठ में, माया के मोह मे। विआपी = ग्रसी रहती है, फसी रहती है। पापि = पाप के कारण। संतापी = दुखी।2।
अर्थ: (निरे) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य की अक्ल माया के मोह में फंसी रहती है, (इस तरह) प्रभु के स्मरण से वंचित हो के (माया के लालच में किए) किसी बुरे कर्म के कारण दुखी होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरमति तिआगि लाहा किछु लेवहु ॥ जो उपजै सो अलख अभेवहु ॥३॥
मूलम्
दुरमति तिआगि लाहा किछु लेवहु ॥ जो उपजै सो अलख अभेवहु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरमति = बुरी मति। तिआगि = छोड़ के। लाहा = लाभ। अभेवहु = अभेव प्रभु से।3।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फसी) दुर्मति त्याग के कुछ आत्मिक लाभ भी कमाओ, (ये यकीन लाओ कि) जो कुछ पैदा हुआ है, उस अलख और अभेव प्रभु से ही पैदा हुआ है (भाव, परमातमा सब कुछ करने के समर्थ है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा हमरा सखा सहाई ॥ गुर हरि मिलिआ भगति द्रिड़ाई ॥४॥
मूलम्
ऐसा हमरा सखा सहाई ॥ गुर हरि मिलिआ भगति द्रिड़ाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहाई = मदद करने वाला। द्रिढ़ाई = मन में दृढ़ कर दी।4।
अर्थ: (हम जीव बार-बार भूलते हैं और अपनी अक्ल पर मान करते हैं, पर) हमारा मित्र प्रभु सदा सहायता करने वाला है (उसकी मेहर से) जो मनुष्य गुरु से मिल जाता है, गुरु उसे परमात्मा की भक्ति की ही ताकीद करता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगलीं सउदीं तोटा आवै ॥ नानक राम नामु मनि भावै ॥५॥२४॥
मूलम्
सगलीं सउदीं तोटा आवै ॥ नानक राम नामु मनि भावै ॥५॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सउदीं = सौदों में। तोटा = घाटा। मनि = मन में।5।
अर्थ: (प्रभु का स्मरण भुला के) सारे दुनियावी सौदों में घाटा ही घाटा है (उम्र व्यर्थ गुजरती जाती है); हे नानक! (उस मनुष्य को कोई कमी नहीं आती) जिसके मन में परमात्मा का नाम प्यारा लगता है।5।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ चउपदे४ ॥ विदिआ वीचारी तां परउपकारी ॥ जां पंच रासी तां तीरथ वासी ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ चउपदे४ ॥ विदिआ वीचारी तां परउपकारी ॥ जां पंच रासी तां तीरथ वासी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंचरासी = पाँच कामादिकों रास कर लेने वाला, वश में कर लेने वाला।1।
अर्थ: (विद्या प्राप्त करके) जो मनुष्य दूसरों के साथ भलाई करने वाला हो गया है तो ही समझो कि वह विद्या पा के विचारवान बना है। तीर्थों पर निवास रखने वाला तभी सफल है, अगर उसने पाँचो कामादिक वश में कर लिए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घुंघरू वाजै जे मनु लागै ॥ तउ जमु कहा करे मो सिउ आगै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
घुंघरू वाजै जे मनु लागै ॥ तउ जमु कहा करे मो सिउ आगै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै = परलोक में।1। रहाउ।
अर्थ: अगर मेरा मन प्रभु चरणों में जुड़ना सीख गया है तभी (भक्तिया बन के) घुंघरू बजाने सफल हैं। फिर परलोक में यम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस निरासी तउ संनिआसी ॥ जां जतु जोगी तां काइआ भोगी ॥२॥
मूलम्
आस निरासी तउ संनिआसी ॥ जां जतु जोगी तां काइआ भोगी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ भोगी = काया को भोगने वाला, गृहस्थी।2।
अर्थ: अगर सब मायावी-आशाओं से उपराम है तो समझो ये सन्यासी है। अगर (गृहस्थ में होते हुए) जोगी वाला जत (कायम) है तो उसे असल गृहस्थी जानो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दइआ दिग्मबरु देह बीचारी ॥ आपि मरै अवरा नह मारी ॥३॥
मूलम्
दइआ दिग्मबरु देह बीचारी ॥ आपि मरै अवरा नह मारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिगंबरु = (दिग+अंबर) दिशा हैं जिसके कपड़े, नंगा रहने वाला, नागा जैनी।3।
अर्थ: अगर (हृदय में) दया है, अगर शरीर को (विकारों की ओर से पवित्र रखने की) विचार वाला भी है,तो वह असल दिगंबर (नागा जैनी); जो मनुष्य खुद (विकारों की ओर से) मरा हुआ है वही है (असल अहिंसावादी) जो और लोगों को नहीं मारता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकु तू होरि वेस बहुतेरे ॥ नानकु जाणै चोज न तेरे ॥४॥२५॥
मूलम्
एकु तू होरि वेस बहुतेरे ॥ नानकु जाणै चोज न तेरे ॥४॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चोज = करिश्मे, तमाशे।4।
अर्थ: (पर किसी को बुरा नहीं कहा जा सकता, हे प्रभु!) ये सारे तेरे ही अनेको वेश है, हरेक वेश में तू खुद ही मौजूद है। नानक (बिचारा) तेरे करिश्मे-तमाशे समझ नहीं सकता।4।25।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये सारा संग्रह ‘घरु 2’ का चला आ रहा है। पहले 18 शब्द‘चउपदे’ हैं, फिर 6 शब्द ‘पंचपदे’ हैं। अब फिर ‘चउपदे’ आरम्भ हो गए हैं। ये गिनती में चार हैं। देखें शब्द ‘चउपदे’ के नीचे 4 लिखा है। पहले चउपदे शबदों के हरेक बंद में ‘चौपाई’ की तरह की कम से कम चार तुकें हैं, ‘दोहरा’ मेल की दो तुकें हैं। पर इस नए संग्रह में ‘चौपाई-मेल की तुकें ही सिर्फ दो-दो हैं। यह संग्रह पहले से अलग लिख दिया गया है।
नोट: इस शब्द की तुकों में दो-दो चीजों का मुकाबला करके एक से दूसरी बढ़िया बताई गई है:
तीरथवासी वही समझो जो पंचरासी है।
अगर ‘मनु लागै’ तो ‘घुंघरू वाजै’ स्वीकार है।
अगर ‘आस निरासी’ है तो ही ‘संनिआसी’ है।
अगर ‘जोगी जतु’ है तो ही असल ‘काइआ भोगी’ है।
अगर ‘दइआ’ है, अगर ‘देह बीचारी’ है तो ही ‘दिगंबर’ है।
अगर ‘आपि मरै’ तो ही समझो कि ‘अवरा नह मारी’।
इसी तरह पहली तुक में भी एक चीज के मुकाबले दूसरी स्वीकार की गई है; भाव, वही है ‘विदिआ वीचारी’ जो ‘परउपकारी’ है।
सो, पहली तुक के पाठ के समय शब्द ‘तां’ पे विश्राम करना है। अर्थ के समय शब्द ‘परउपकारी’ के साथ शब्द ‘या’ इस्तेमाल करना है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ एक न भरीआ गुण करि धोवा ॥ मेरा सहु जागै हउ निसि भरि सोवा ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ एक न भरीआ गुण करि धोवा ॥ मेरा सहु जागै हउ निसि भरि सोवा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निसि = रात। निसि भरि = सारी रात, सारी उम्र। सोवा = मैं सोऊँ, मैं मोह की नींद में सोई रहूँ। जागै = जागता है, विकार उसके नजदीक नहीं फटकते।1।
अर्थ: मैं सिर्फ किसी अवगुण से लिबड़ी हुई नहीं हूँ कि अपने अंदर गुण पैदा करके एक अवगुण को धो सकूँ (मेरे अंदर तो बेअंत अवगुण हैं, क्योंकि) मैं तो सारी उम्र-रात ही (मोह की नींद में) सोई रही और मेरा पति-प्रभु जागता रहता है (उसके नजदीक मोह फटक ही नहीं सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इउ किउ कंत पिआरी होवा ॥ सहु जागै हउ निस भरि सोवा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
इउ किउ कंत पिआरी होवा ॥ सहु जागै हउ निस भरि सोवा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: ऐसी हालत में, मैं पति-प्रभु को कैसे प्यारी लग सकती हूँ? पति जागता है और मैं सारी रात सोई रहती हूँ।1। रहाउ।
[[0357]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस पिआसी सेजै आवा ॥ आगै सह भावा कि न भावा ॥२॥
मूलम्
आस पिआसी सेजै आवा ॥ आगै सह भावा कि न भावा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिआसी = प्यास से व्याकुल। आस प्यासी = दुनिया की आशाओं की प्यास से व्याकुल।2।
अर्थ: मैं सेज पर आती हूँ (मैं हृदय रूपी सेज की तरफ पलटती हूँ, पर अभी भी) दुनिया की आशाओं की प्यास से मैं व्याकुल हूँ। (ऐसी आत्मिक दशा से कैसे यकीन बने, कैसे पक्का हो कि) मैं पति-प्रभु को पसंद आऊँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ जाना किआ होइगा री माई ॥ हरि दरसन बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किआ जाना किआ होइगा री माई ॥ हरि दरसन बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! (सारी उम्र माया की नींद में सोए रहने के कारण) मुझे समझ नहीं आ रही कि मेरा क्या बनेगा (मुझे पति-प्रभु स्वीकार करेगा कि नहीं, पर अब) प्रभु-पति के दर्शन के बिना मुझे ढाढस नहीं बंधता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेमु न चाखिआ मेरी तिस न बुझानी ॥ गइआ सु जोबनु धन पछुतानी ॥३॥
मूलम्
प्रेमु न चाखिआ मेरी तिस न बुझानी ॥ गइआ सु जोबनु धन पछुतानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिस = तिख, प्यास, माया की तृष्णा। धन = जीव-स्त्री।3।
अर्थ: (हे माँ! सारी उम्र) मैंने प्रभु-पति के प्रेमका स्वाद नहीं चखा; इस करके मेरी माया वाली तृष्णा (की आग) नहीं बुझ सकी। मेरी जवानी गुजर गई है, अब मेरी जिंद पछतावा कर रही है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजै सु जागउ आस पिआसी ॥ भईले उदासी रहउ निरासी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अजै सु जागउ आस पिआसी ॥ भईले उदासी रहउ निरासी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अजै = अब भी जब कि शरीर कायम है। रहउ = मैं रह जाऊँ, मैं हो जाऊँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे माँ! जवानी तो गुजर गई है, पर अरदास कर) अभी भी मैं माया की आशाओं की प्यास से उपराम हो के माया की आशाएं त्याग के जीवन गुजारूँ (शायद मेहर कर ही दे)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै खोइ करे सीगारु ॥ तउ कामणि सेजै रवै भतारु ॥४॥
मूलम्
हउमै खोइ करे सीगारु ॥ तउ कामणि सेजै रवै भतारु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोइ = नाश करके। सीगारु = आत्मिक श्रृंगार, आत्मा को सुंदर बनाने वाला उद्यम। भतारु = पति, खसम, प्रभु।4।
अर्थ: जब जीव-स्त्री अहंकार गवा देती है जब जिंद को सुंदर बनाने का ऐसा प्रयत्न करती है, तब उस जीव-स्त्री को पति-प्रभु उसकी हृदय-सेज पे आ के मिलता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ नानक कंतै मनि भावै ॥ छोडि वडाई अपणे खसम समावै ॥१॥ रहाउ॥२६॥
मूलम्
तउ नानक कंतै मनि भावै ॥ छोडि वडाई अपणे खसम समावै ॥१॥ रहाउ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! तब ही जीव-स्त्री पति-प्रभु के मन को भाती है, जब मान-बड़ाई (घमण्ड वगैरा) छोड़ के अपने पति की रज़ा में लीन होती है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आम तौर पर हरेक शब्द में एक बंद ‘रहाउ’ का होता है। शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाओ’। यही बंद है शब्द का ‘केन्द्रिय भाव’ वाला। उपरोक्त शब्द में चार ‘रहाउ’ के बंद हैं। शब्द के हरेक बंद के साथ एक-एक ‘रहाउ’ का बंद है। इनमें तरतीब वार मनुष्य की चारों अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, जिनमें से गुजर के जीव का प्रभु से मिलाप होता है: 1. पछतावा, 2. दर्शन की चाह, 3. व्याकुलता और 4. रज़ा में लीनता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ पेवकड़ै धन खरी इआणी ॥ तिसु सह की मै सार न जाणी ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ पेवकड़ै धन खरी इआणी ॥ तिसु सह की मै सार न जाणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेवकड़ै = पेके घर में, जगत के मोह में। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। खरी = बहुत। इआणी = अंजान, मूर्ख। सह की = पति की। सार = कद्र।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘सहु’ और ‘सह’ का फर्क याद रखने योग्य है। शब्द ‘सहु’ कर्ताकारक एकवचन है और ‘ु’ की मात्रा से शब्द समाप्त होता है। परन्तु संबंधक ‘की’ के कारण ये ‘ु’ की मात्रा हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर, जगत के मोह में फंस के जीव-स्त्री बहुत मूर्ख रहती है। (इस मोह में फंस के ही) मैं उस पति-प्रभु (के मेहर की नजर) की कद्र नहीं समझ सकी (और उसके चरणों से विछुड़ी रही)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहु मेरा एकु दूजा नही कोई ॥ नदरि करे मेलावा होई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सहु मेरा एकु दूजा नही कोई ॥ नदरि करे मेलावा होई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकु = सदा एक रस रहने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: मेरा पति-प्रभु हर समय एक रस रहता है, उस जैसा और कोई नहीं है। वह सदा मेहर की नजर करता है (उसकी मेहर की नजर से ही) मेरा उससे मिलाप हो सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहुरड़ै धन साचु पछाणिआ ॥ सहजि सुभाइ अपणा पिरु जाणिआ ॥२॥
मूलम्
साहुरड़ै धन साचु पछाणिआ ॥ सहजि सुभाइ अपणा पिरु जाणिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहुरड़ै = साहुरे घर में, जगत के मोह से निकल के, प्रभु चरणों में जुड़ के। सहजि = अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम में।2।
अर्थ: जो जीव-स्त्री जगत के मोह से निकल के प्रभु-चरणों में जुड़ती है वह (प्रभु की मेहर की नजर से) सदा उस स्थिर प्रभु (की कद्र) पहचान लेती है; अडोल अवस्था में टिक के प्रेम में जुड़ के वह अपने पति प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी ऐसी मति आवै ॥ तां कामणि कंतै मनि भावै ॥३॥
मूलम्
गुर परसादी ऐसी मति आवै ॥ तां कामणि कंतै मनि भावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर परसादी = गुर प्रसादि, गुरु की किरपा से। कंतै मनि = कंत के मन में।3।
अर्थ: जब गुरु की किरपा से (जीव-स्त्री को) ऐसी अक्ल आ जाती है (कि वह जगत का मोह छोड़ के प्रभु चरणों में जुड़ने का उद्यम करती है) तब जीव-स्त्री कंत (पति) प्रभु के मन को भाने लगती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहतु नानकु भै भाव का करे सीगारु ॥ सद ही सेजै रवै भतारु ॥४॥२७॥
मूलम्
कहतु नानकु भै भाव का करे सीगारु ॥ सद ही सेजै रवै भतारु ॥४॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै का = डर का। भाव का = प्रेम का। सीगारु = आत्मिक सोहज।4।
अर्थ: नानक कहता है जो जीव-स्त्री परमात्मा के डर का और प्रेम का श्रृंगार बनाती है, उसके हृदय-सेज पर प्रभु-पति सदा आ के टिका रहता है।4।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ न किस का पूतु न किस की माई ॥ झूठै मोहि भरमि भुलाई ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ न किस का पूतु न किस की माई ॥ झूठै मोहि भरमि भुलाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झूठै मोहि = झूठे मोह के कारण। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाई = (दुनिया) भूली हुई है, गलत रास्ते पर पड़ी हुई है।1।
अर्थ: झूठे मोह के कारण दुनिया भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ी हुई है (माता-पिता-पुत्र आदि को ही अपना सदा साथी जान के जीव परमात्मा को बिसारे बैठा है) असल में ना माँ, ना पुत्र कोई भी किसी का पक्का साथी नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे साहिब हउ कीता तेरा ॥ जां तूं देहि जपी नाउ तेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे साहिब हउ कीता तेरा ॥ जां तूं देहि जपी नाउ तेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीता तेरा = तेरा पैदा किया हुआ। जपी = मैं जपता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! मैं तेरा पैदा किया हुआ हूँ (मेरी सारी शारीरिक व आत्मिक जरूरतें तू ही जानता है और पूरी करने के समर्थ है, मेरे आत्मिक जीवन की खातिर) जब तू मुझे अपना नाम देता है, तभी मैं जप सकता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुते अउगण कूकै कोई ॥ जा तिसु भावै बखसे सोई ॥२॥
मूलम्
बहुते अउगण कूकै कोई ॥ जा तिसु भावै बखसे सोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूकै = पुकार करे। तिसु भावै = उस प्रभु को ठीक लगे।2।
अर्थ: अनेक ही पाप किए हुए हों, फिर भी अगर कोई मनुष्य (परमात्मा के दर पर) अरजोई करता है (परमात्मा पैदा किए की लज्जा रखता है) जब उसे (उस अति विकारी की भी आरजू) पसंद आती है तो वह बख्शिश करता है (और उसके आत्मिक जीवन के वास्ते उसको अपने नाम की दाति देता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी दुरमति खोई ॥ जह देखा तह एको सोई ॥३॥
मूलम्
गुर परसादी दुरमति खोई ॥ जह देखा तह एको सोई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुरमति = खोटी मति। जह = जिस तरफ, जिधर। देखा = मैं देखता हूँ।3।
अर्थ: मैं जिधर भी देखता हूँ उधर (सब जीवों को पैदा करने वाला) वह परमातमा ही व्यापक देखता हूँ (पर ये भी तभी दिखाई देता है जब) गुरु की किरपा से हमारी खोटी मति नाश होती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत नानक ऐसी मति आवै ॥ तां को सचे सचि समावै ॥४॥२८॥
मूलम्
कहत नानक ऐसी मति आवै ॥ तां को सचे सचि समावै ॥४॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचे = सच में ही, सदा कायम रहने वाले प्रभु में ही।4।
अर्थ: नानक कहता है कि जब (प्रभु की अपनी मेहर से गुरु के द्वारा) जीव को ऐसी अक्ल आ जाए कि हर तरफ उसे परमात्मा ही दिखे, तो जीव सदा उस सदा-स्थिर परमात्मा की याद में लीन रहता है।4।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ दुपदे ॥ तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥ पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ दुपदे ॥ तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥ पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुपदे = दा पदों वाले, दो बंदों वाले शब्द। तितु = उस में। सरवरड़ै = भयानक सरोवर में। तितु सरवरड़ै = उस डरावने सरोवर में। भईले = हुआ है। पावकु = आग। तिनहि = उस (प्रभु) ने (खुद ही)। पंक = कीचड़। पंकजु मोह = पंक जो मोह, मोह का कीचड़। पगु = पैर। हम देखा = हमारे देखते ही, हमारे सामने ही। तह = उस में, वहाँ। डूबीअले = डूब गए।1।
अर्थ: (हम जीवों का) उस भयानक सरोवर में बसेरा है जिसमें उस प्रभु ने खुद ही पानी की जगह (तृष्णा की) आग पैदा की है, (और उस सरोवर में) जो मोह का कीचड़ है (उसमें जीवों के) पैर चल नहीं सकते (भाव, जीव मोह के कीचड़ में फंसे हुए हैं), हमारे सामने ही कई जीव (मोह के कीचड़ में फंस के तृष्णा की आग के अथाह जल में) डूबते जा रहे हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! मूढ़ = हे मूर्ख! गलिआ = गलते जाते हैं, कम होते जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! हे मूर्ख मन! तू एक प्रभु को याद नहीं करता। तू ज्यों-ज्यों प्रभु को बिसारता है, तेरे (अंदर से) गुण कम होते जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥ प्रणवति नानक तिन्ह की सरणा जिन्ह तूं नाही वीसरिआ ॥२॥२९॥
मूलम्
ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥ प्रणवति नानक तिन्ह की सरणा जिन्ह तूं नाही वीसरिआ ॥२॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। जती = जत वाला, काम-वासना को रोक के रखने वाला। सती = सत वाला, उच्च आचरण वाला। मुगधा = मूर्ख, बेसमझ। जनमु = जीवन। प्रणवति = विनती करता है।2।
अर्थ: हे प्रभु! ना मैं जती हूँ, ना मैं सती हूँ, ना ही मैं पढ़ा (-लिखा) हूँ, मेरा जीवन तो मूर्खों बेसमझों वाला बना हुआ है, (भाव, जत-सत और विद्या इस तृष्णा की आग और मोह के कीचड़ में गिरने से बचा नहीं सकते। अगर मनुष्य प्रभु को बिसार दे, तो जत-सत-विद्या के होते हुए भी मनुष्य की जिंदगी महा मूर्खों वाली ही होती है)। (सो) नानक बिनती करता है: (हे प्रभु! मुझे) उन (गुरमुखों) की शरण में (रख) जिन्हें तू नहीं भूला (जिन्हें तेरी याद नहीं भूली)।2।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा महला १ ॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥ गुर गुरु एको वेस अनेक ॥१॥
मूलम्
आसा महला १ ॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥ गुर गुरु एको वेस अनेक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छिअ = छह। घर = शास्त्र। छिअ घर = (सांख, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, योग, वेदांत)। गुर = करता, शास्त्र के रचयता। छिअ गुर = (कल्प, गौतम, कणाद, जैमिनी, पतंजलि, व्यास)। उपदेस = शिक्षा, सिद्धांत। गुरु गुरु = ईष्ट गुरु। एको = एक ही।1।
अर्थ: छह शास्त्र हैं, छह ही (इन शास्त्रों के) चलाने वाले हैं, छह ही इनके सिद्धांत हैं। पर इन सभी का मूल-गुरु (परमातमा) एक ही है। (ये सारे सिद्धांत) उस एक प्रभु के ही अनेक वेश हैं (प्रभु की हस्ती के प्रकाश के कई रूप हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जै घरि करते कीरति होइ ॥ सो घरु राखु वडाई तोहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जै घरि करते कीरति होइ ॥ सो घरु राखु वडाई तोहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जै घरि = जिस घर के द्वारा, जिस सत्संग घर में। कीरति = कीर्ति, महिमा। वडाई = उपमा। तोहि = तुझे।1। रहाउ।
अर्थ: जिस (सत्संग-) घर में अकाल पुरख की महिमा होती है, (हे भाई!) तू घर को संभाल के रख (उस सत्संग का आसरा ले, इसी में) तुझे बड़ाई मिलेगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु भइआ ॥ सूरजु एको रुति अनेक ॥ नानक करते के केते वेस ॥२॥३०॥
मूलम्
विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु भइआ ॥ सूरजु एको रुति अनेक ॥ नानक करते के केते वेस ॥२॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आँख की 15 झपक =1 विसा। 15 विसुए = 1 चसा। 30 चसे = 1 पल। 30 पल = 1 घड़ी। 7.5 घड़ियां = 1 पहर। (15 तिथियां। 7 वार। 12 महीने। 6 ऋतुएं)। वेस = रूप। केते = कितने, अनेक।2।
अर्थ: जैसे विसूए, चसे, घड़ियां, पहर, तिथिएं, वार, महीने (आदि) व अनेक ऋतुएं हैं, पर सूरज एक ही है (जिसके ये सारें अलग-अलग स्वरूप हैं), वैसे ही, हे नानक! कर्तार के (ये सारे जीव-जंतु) अनेको स्वरूपों में हैं।2।30।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘घरु २’ के 30 शब्दों का संग्रह यहीं पर समाप्त होता है। आगे ‘घरु ३’ के शब्द शुरू होते हैं। नए सिरे से मूलमंत्र का लिखा जाना भी यही बताता है कि नया संग्रह आरम्भ हो रहा है।