०१ गुरु-नानक

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला १ घरु १ सो दरु ॥

मूलम्

रागु आसा महला १ घरु १ सो दरु ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब सम्हाले ॥ वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावणहारे ॥ केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावणहारे ॥

मूलम्

सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब सम्हाले ॥ वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावणहारे ॥ केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावणहारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केहा = कैसा, बड़ा आश्चर्य भरा। दरु = दरवाजा। जितु = जहां। बहि = बैठ के। सरब = सारे जीवों को। समाले = तूने संभाल की है। नाद = आवाज, शब्द, राग। वावणहारे = बजाने वाले। परी = रागिनी। सिउ = समेत। परी सिउ = रागनियों समेत। कहीअहि = कहे जाते हैं।
अर्थ: वह दर बड़ा ही आश्चर्य भरा है, जहाँ बैठ के (हे निरंकार!) तू सारे जीवों की संभाल कर रहा है। (तेरी इस रची हुई कुदरति में) अनेक व अनगिनत बाजे और राग हैं, बेअंत ही जीव (उन बाजों को) बजाने वाले हैं। रागनियों समेत बेअंत ही राग कहे जाते हैं और अनेक ही जीव (इन रागों के) गाने वाले हैं (जो तुझे गा रहे हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावन्हि तुधनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरम दुआरे ॥ गावन्हि तुधनो चितु गुपतु लिखि जाणनि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥

मूलम्

गावन्हि तुधनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरम दुआरे ॥ गावन्हि तुधनो चितु गुपतु लिखि जाणनि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजा धरम = धर्म राज। दुआरे = तेरे दर पे (हे निरंकार!)। चितु गुपतु = वो व्यक्ति जो संसार के जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा लिखते हैं (हिंदू मत की पुस्तकों में ये ख्याल चला आ रहा है)। धरमु = धर्म राज। लिखि लिखि = लिख लिख के, जो कुछ वे चित्रगुप्त लिखते हैं। बैसंतरु = आग।
अर्थ: (हे निरंकार!) हवा, पानी, आग तेरे गुण गा रहे हैं। धर्मराज तेरे दर पे (खड़ा हो के) तेरी उपमा गा रहा है। वह चित्रगुप्त भी जो (जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों के लेख) लिखने जानते हैं और जिनके द्वारा लिखेलेख धर्मराज विचारता है, तेरी महिमा का गुणगान कर रहे हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पवन, पानी, बैसंतर आदि अचेतन पदार्थ अकाल पुरख की महिमा कर रहे हैं? इस का भाव ये है कि उसके पैदा किए सारे तत्व भी उसकी रज़ा में चल रहे हैं। रजा में चलना उसकी महिमा करनी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावन्हि तुधनो ईसरु ब्रहमा देवी सोहनि तेरे सदा सवारे ॥ गावन्हि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥

मूलम्

गावन्हि तुधनो ईसरु ब्रहमा देवी सोहनि तेरे सदा सवारे ॥ गावन्हि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईसरु = शिव। देवी = देवियां। सोहनि = सोहाते हैं, शोभयमान होते हैं। इंद्रासणि = इन्द्र के आसन पे। देवतिआ नाले = देवताओं समेत।
अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) देवियां, शिव और ब्रहमा जो तेरे सवारे हुए हैं और शोभायमान हैं, तूझे गा रहे हैं। कई इन्द्र अपने सिंहासन पर बैठे हुए देवताओं सहित तेरे दर पे तूझे सालाह रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावन्हि तुधनो सिध समाधी अंदरि गावन्हि तुधनो साध बीचारे ॥ गावन्हि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे ॥

मूलम्

गावन्हि तुधनो सिध समाधी अंदरि गावन्हि तुधनो साध बीचारे ॥ गावन्हि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समाधी अंदरि = समाधि में जुड़ के, समाधी लगा के। सिध = पुरातन संस्कृत पुस्तकों में सिद्ध वो व्यक्ति माने गए हैं जो मनुष्यों की श्रेणी से ऊपर देवताओं से नीचे थे। ये सिद्ध पवित्रता के पुँज थे, और आठों ही सिद्धियों के मालिक समझे जाते थे। बीचारे = विचार-विचार के। सती = दानी, दान करने वाला। वीर करारे = जबरदस्त सूरमे, शूरवीर।
अर्थ: सिद्ध लोग समाधियां लगा के तुझे गा रहे हैं, साधु विचार कर-कर के तुझे सलाह रहे हैं। जटाधारी, दानी और संतोषी पुरुष तेरे गुण गा रहे हैं, और (बेअंत) महान शूरवीर तेरी महिमा गा रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावनि तुधनो पंडित पड़े रखीसुर जुगु जुगु बेदा नाले ॥ गावनि तुधनो मोहणीआ मनु मोहनि सुरगु मछु पइआले ॥

मूलम्

गावनि तुधनो पंडित पड़े रखीसुर जुगु जुगु बेदा नाले ॥ गावनि तुधनो मोहणीआ मनु मोहनि सुरगु मछु पइआले ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पढ़े = पढ़े हुए। रखीसुर = (ऋषि+ईसुर) बड़े बड़े ऋषि, महर्षि। जुग जुग = हरेक युग में, सदा। बेदा नाले = वेदों समेत। मोहणीआं = सुंदर स्त्रीयां। मनु मोहनि = (जो) मन को मोहती हैं। मछु = मात्र लोक। पइआले = पाताल लोक।
अर्थ: (हे अकाल पुरख!) पढ़े हुए पण्डित और महाऋषि वेदों समेत तुझे गा रहे हैं। मन को मोहने वाली सुंदर स्त्रीयां तुझे गा रही हैं। स्वर्ग लोक, मात लोक, पाताल लोक तुझे गा रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावन्हि तुधनो रतन उपाए तेरे जेते अठसठि तीरथ नाले ॥ गावन्हि तुधनो जोध महाबल सूरा गावन्हि तुधनो खाणी चारे ॥ गावन्हि तुधनो खंड मंडल ब्रहमंडा करि करि रखे तेरे धारे ॥

मूलम्

गावन्हि तुधनो रतन उपाए तेरे जेते अठसठि तीरथ नाले ॥ गावन्हि तुधनो जोध महाबल सूरा गावन्हि तुधनो खाणी चारे ॥ गावन्हि तुधनो खंड मंडल ब्रहमंडा करि करि रखे तेरे धारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाए तेरे = तेरे पैदा किए हुए। अठ सठि = अड़सठ। तीरथ नाले = तीर्थों समेत। जेते = जितने भी, सारे। जोधे = योद्धे। महाबल = महाबली, बड़े बल वाले। सूरा = सूरमे। खाणी चारे = चारों खाणियां (उतपति के साधन): अंडज, जेरज, सेतज और उतभुज। खाणी = खान: जिसे खोद के अंदर से धातुएं व रत्न आदि पदार्थ निकाले जाएं। ये संस्कृत का शब्द है। धातु ‘खन’ है, जिसका अर्थ है: ‘खोदना’। (प्राचीन काल से ये ख्याल हिन्दू धर्म-पुस्तकों में चला आ रहा है कि जगत के सारे जड़-चेतन पदार्थों के बनने की चार खानें हैं: अण्डा, जिउर, पसीना और अपने आप उग पड़ना। चारे खाणी का भाव है चारों ही खानों के जीव जन्तु, सारी रचना)। खंड = टोटा, ब्रहमण्ड का टुकड़ा, हरेक धरती। मंडल = चक्र, ब्रहमाण्ड का एक चक्र, जिसमें एक सूरज, एक चंद्रमा और धरती आदि गिने जाते हैं। करि करि = बना के, रच के। धारे = टिकाए हुए।
अर्थ: (हे निरंकार!) जितने भी तेरे पैदा किए हुए रत्न हैं, वे अढ़सठ तीर्थों समेत तुझे गा रहे हैं। महाबली योद्धे और शूरवीर तेरी सराहना कर रहे हैं। सारी सृष्टि, सृष्टि के सारे खण्ड और चक्र, जो तूने पैदा करके टिकाए हुए हैं; तुझे गाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेई तुधनो गावन्हि जो तुधु भावन्हि रते तेरे भगत रसाले ॥ होरि केते तुधनो गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ बीचारे ॥

मूलम्

सेई तुधनो गावन्हि जो तुधु भावन्हि रते तेरे भगत रसाले ॥ होरि केते तुधनो गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ बीचारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेई = वह जीव। तुधु भावनि = तुझेअच्छे लगते हैं। राते = रंगे हुए, प्रेम में माते हुए। रसाले = (रस+आलय) रसों के घर, रसिए। होरि केते = और कितने ही, अनेक जीव। मै चिति = मेरे चित्त में। मै चिति न आवनि = मेरे चित्त में नहीं आते, मुझसे गिने नहीं जाते, मेरे ख्याल में नहीं आ रहे, मेरे विचार से परे हैं। किआ बीचारे = क्या विचार करे?
अर्थ: (हे अकाल पुरख!) (दरअसल तो) वही तेरे प्रेम में रंगे हुए रसिए भगतजन तुझे गाते हैं (भाव, उनका ही गाना सफल है) जो तुझे अच्छे लगते हैं। अनेक और जीव तुझे गा रहे हैं, जो मुझसे गिने भी नहीं जा सकते। (भला) नानक (बिचारा) क्या विचार कर सकता है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥ है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥

मूलम्

सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥ है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला, अटल। नाई = (अरबी शब्द: स्ना) महिमा। होसी = होएगा, स्थिर रहेगा। जाइ न = पैदा नहीं होता। न जासी = ना ही मरेगा। जिनि = अकाल पुरख ने। रचाई = पैदा की है।
अर्थ: जिस अकाल-पुरखु ने ये सृष्टि पैदा की है वह इस समय मौजूद है, सदा रहेगा, ना वह पैदा हुआ है ना ही मरेगा। वह परमात्मा सदा स्थिर है, वह सच्चा मालिक है, उसकी बड़ाई महिमा भी सदा अटल है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रंगी रंगी भाती जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥ करि करि देखै कीता अपणा जिउ तिस दी वडिआई ॥

मूलम्

रंगी रंगी भाती जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥ करि करि देखै कीता अपणा जिउ तिस दी वडिआई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगी रंगी = रंगों रंगों की, कई रंगों की। भाती = कई किस्मों की। जिनसी = कई जिनसों की। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। देखै = संभाल करता है। कीता आपणा = अपना रचा हुआ जगत। जिउ = जैसे। वडिआई = रजा, मर्जी।
अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई रंग, किस्मों और जिनसों की माया रच दी है, वह वैसे उसकी रजा है (भाव, जितना बड़ा वह खुद है उतने बड़े जिगरे के साथ जगत को रच के) अपने पैदा किए हुए की संभाल भी कर रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तिसु भावै सोई करसी फिरि हुकमु न करणा जाई ॥ सो पातिसाहु साहा पति साहिबु नानक रहणु रजाई ॥१॥१॥

मूलम्

जो तिसु भावै सोई करसी फिरि हुकमु न करणा जाई ॥ सो पातिसाहु साहा पति साहिबु नानक रहणु रजाई ॥१॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करसी = करेगा। न करणा जाई = नहीं किया जा सकता। साहा पति = शाहों का शाह, शाहों का पति। रहणु = रहना (हो सकता है), रहना फबता है। रजाई = अकाल पुरख की रजा में।
अर्थ: जो कुछ अकाल-पुरख को भाता है, वह ही वह करेगा। किसी जीव द्वारा परमात्मा को हुक्म नहीं किया जा सकता (उसे ये नहीं कह सकता-ऐसे ना करो, ऐसे करो)। अकाल पुरख बादशाह है, शाहों का शाह है, मालिक है। हे नानक! (हमें) उसकी रजा में रहना (ही फबता है)।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस वाक़ के आखिरी अंक को देखें। इसकी संरचना की ओर ध्यान दें। ‘शबदों’ की तरह इसके अलग-अलग बंद नहीं हैं। सारी 22 तुकों का एक ही संग्रह है और आखिर में अंक 1 है। सारे गुरु ग्रंथ साहिब में तरतीब ये है कि पहले गुरु नानक देव जी के सारे शब्द दर्ज हैं, फिर गुरु अमरदास जी के, गुरु रामदास जी और गुरु अरजन साहिब के। पर इस वाक़ से आगे गुरु रामदास जी का एक वाक़ है। उपरांत गुरु नानक देव जी के ‘शब्द’ शुरू होते हैं जो गिनती में 39 हैं। इस वाक़ को उन शबदों की गिनती में नहीं रखा गया। सो, ये वाक़ ‘शब्द’ नहीं है। इसका शीर्षक है ‘सोदरु’। गुरु रामदास जी का वाक़ है ‘सो पुरखु’। ये दोनों ‘सो दरु’ और ‘सो पुरखु’ अलग श्रेणी में रखे गए हैं। इस श्रेणी के बाद मूल-मंत्र नए सिरे से दर्ज है। इसका भी यही भाव है कि पहला संग्रह सम्पन्न हो गया है और अब दूसरा संग्रह आरम्भ होता है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ सो पुरखु निरंजनु हरि पुरखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा ॥ सभि धिआवहि सभि धिआवहि तुधु जी हरि सचे सिरजणहारा ॥ सभि जीअ तुमारे जी तूं जीआ का दातारा ॥ हरि धिआवहु संतहु जी सभि दूख विसारणहारा ॥ हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा ॥१॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ सो पुरखु निरंजनु हरि पुरखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा ॥ सभि धिआवहि सभि धिआवहि तुधु जी हरि सचे सिरजणहारा ॥ सभि जीअ तुमारे जी तूं जीआ का दातारा ॥ हरि धिआवहु संतहु जी सभि दूख विसारणहारा ॥ हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = वह। पुरखु = जो हरेक शरीर में व्यापक है। निरंजनु = निर+अंजन (अंजन = कालिख़, माया) जिस पे माया का प्रभाव नहीं है। अगम = अ+गम (गम = पहुँच) पहुँच से परे। अपार = (अ+पार) जिसका दूसरा छोर ना मिल सके, बेअंत। सभि = सारे जीव। सिरजणहार = हे कर्तार! दातार = राज़क। ठाकुरु = मालिक।1।
अर्थ: वह परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, (फिर भी) माया के प्रभाव से ऊपर है, अगम्य है और बेअंत है।
हे सदा कायम रहने वाले और सब जीवों को पैदा करने वाले हरि! सारे जीव-जंतु तुझे स्मरण करते हैं। सारे जीव तेरेही पैदा किए हुए हैं, तू सब जीवों को रिज़क देने वाला है।
हे संत जनों! उस प्रभु को स्मरण करो, वह सारे दुखों का नाश करने वाला है। वह प्रभु (जीवों में व्यापक होने के कारण) खुद ही मालिक है और खुद ही सेवक है।
हे नानक! जीव बिचारे क्या हैं? (भाव, जीवों की उस प्रभु से कोई अलग हस्ती नहीं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा ॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा ॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन्ह कुरबाणा ॥२॥

मूलम्

तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा ॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा ॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन्ह कुरबाणा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घट = शरीर। अंतरि = अंदर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर के अंदर। निरंतरि = अंदर एक रस। इकि = कई जीव। चोज = तमाशे, करिश्मे। विडाणा = आश्चर्य। भुगता = भोगने वाला, खाने वाला। आखि = कह के। वखाणा = मैं बताऊँ। इकि = कई जीव।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! तू हरेक शरीर में व्यापक है, तू सब जीवों में एक रस मौजूद है, तू एक स्वयं ही सब जीवों में समाया हुआ है। (फिर भी) कई जीव दानी हैं, कई जीव भिखारी हैं; ये तेरे ही आश्चर्यजनक तमाशे हैं (क्योंकि असल में) तू खुद ही दातें देने वाला है, और खुद ही (उन दातों को) बरतने वाला है। (सारी सृष्टि में) मैं तेरे बिना किसी और को नहीं जानता (भाव, तेरे बिना और कोई दूसरा नहीं दिखता)। मैं तेरे कौन-कौन से गुण कह के बताऊँ? तू बेअंत पारब्रहम है, तू बेअंत पारबंहम है। हे प्रभु! जो तुझे याद करते हैं जो तुझे स्मरण करते हैं, दास नानक उनसे सदके जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु जी से जन जुग महि सुख वासी ॥ से मुकतु से मुकतु भए जिन्ह हरि धिआइआ जीउ तिन टूटी जम की फासी ॥ जिन निरभउ जिन्ह हरि निरभउ धिआइआ जीउ तिन का भउ सभु गवासी ॥ जिन्ह सेविआ जिन्ह सेविआ मेरा हरि जीउ ते हरि हरि रूपि समासी ॥ से धंनु से धंनु जिन हरि धिआइआ जीउ जनु नानकु तिन बलि जासी ॥३॥

मूलम्

हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु जी से जन जुग महि सुख वासी ॥ से मुकतु से मुकतु भए जिन्ह हरि धिआइआ जीउ तिन टूटी जम की फासी ॥ जिन निरभउ जिन्ह हरि निरभउ धिआइआ जीउ तिन का भउ सभु गवासी ॥ जिन्ह सेविआ जिन्ह सेविआ मेरा हरि जीउ ते हरि हरि रूपि समासी ॥ से धंनु से धंनु जिन हरि धिआइआ जीउ जनु नानकु तिन बलि जासी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से जन = वही मनुष्य (बहुवचन)। जुग महि = जिंदगी में। सुख वासी = सुखसे रहने वाले। मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। रूपि = रूप में। समासी = लीन हो जाते हैं। धंनु = धन्य, भाग्यशाली।3।
अर्थ: हे हरि! जो मनुष्य तुझे स्मरण करते हैं, जो तुझे ध्याते हैं, वो अपनी जिंदगी में सुखी बसते हैं।
जिस मनुष्यों ने हरि का नाम स्मरण किया है, वे सदा के लिए माया के बंधनों से आजाद हो गए हैं, उनकी जमों वाली फाँसी कट गई है। जिन्होंने निरभउ प्रभु को ध्याया है प्रभु उनका सारा डर दूर कर देता है। जिन्होंने प्यारे प्रभु को स्मरण किया है, वे प्रभु के स्वरूप् में ही लीन हो गए हैं। भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, धन्य हैं वे मनुष्य, जिन्होंने प्रभु को ध्याया है, दास नानक उनसे कुर्बान जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बेअंत बेअंता ॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता ॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता ॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिम्रिति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता ॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भावहि मेरे हरि भगवंता ॥४॥

मूलम्

तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बेअंत बेअंता ॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता ॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता ॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिम्रिति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता ॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भावहि मेरे हरि भगवंता ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति भंडार = भक्ति के खजाने। भगत = बंदगी करने वाले।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘भगति’ और ‘भगत’ में फर्क याद रखने योग्य है)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनिक = अनेक। तपु = धूणियों आदि का शारीरिक हठ। सिम्रिति = समृति, वह धार्मिक पुस्तक जो हिन्दू विद्वान ऋषियों ने वेदों को याद करके अपने समाज की अगुवाई के लिए लिखे, इनकी गिनती 27 के करीब है। सासत = शास्त्र, हिन्दू धर्म की फिलासफ़ी की पुस्तकें जो गिनती में छह हैं: सांख, योग, न्याय, विशैषिक, मीमांसा और वेदांत। किरिआ = क्रिया, धार्मिक संस्कार। खटु = छह। खटु करम = मनु = स्मृति के अनुसार ये छह कर्म यूँ हैं: पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना। करंता = करते हैं। भावहि = अच्छे लगते हैं।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं। हे हरि! अनेक और बेअंत तेरे भक्त तेरी महिमा करते हैं। हे प्रभु! अनेक जीव तेरी पूजा करते हैं, बेअंत जीव (तेरे मिलाप के लिए) तपसाधना करते हैं। तेरे अनेक सेवक कई समृतियां व शास्त्र पढ़ते हैं, (और उनके बताए हुए) छह धार्मिक कर्म और अन्य कर्म करते हैं।
हे दास नानक! वो भक्त भले हैं (अर्थात, उनकी मेहनत सफल हुई जानो) जो प्यारे हरि भगवंत को प्यारे लगते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई ॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई ॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई ॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई ॥५॥२॥

मूलम्

तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई ॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई ॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई ॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई ॥५॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपरंपर = (अ+परंपर) जिसके परले छोर से भी परला छोर ना मिल सके, बेअंत। जेवडु = जितना कि, बराबर का। जुगु जुगु = हरेक युग में। निहचलु = ना हिलने वाला, सदा स्थिर। वरतै = बर्तता है, होता है। सिरजि = पैदा करके। गोई = नाश कर दी। जाणोई = जानने वाला।5।
अर्थ: हे प्रभु! तू सबका मूल है, सब में व्यापक है, बेअंत है, सबको पैदा करने वाला है, तेरे बराबर का कोई नहीं है। तू हरेक युग में खुद ही है, तू सदा एक स्वयं ही है, तू सदा कायम रहने वाला है, सबका पैदा करने वाला है और सबकी सार लेने वाला है। जगत में वही कुछ होता है जो तुझे खुद को पसंद है, वही होता है जो तू स्वयं ही करता है। (हे प्रभु!) सारी सृष्टि तूने खुद ही पैदा की है, तू खुद ही पैदा करके खुद ही नाश करता है।
दास नानक उस कर्तार के गुण गाता है, जो हरेक के दिल की जानने वाला है।5।2।