विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखिआ अजहु सुरति सुख आसा ॥ कैसे होई है राजा राम निवासा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बिखिआ अजहु सुरति सुख आसा ॥ कैसे होई है राजा राम निवासा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखिआ = माया। सुरति = धिआन। होई है = होएगा, हो सकता है। राजा = ज्योति स्वरूप।1। रहाउ।
अर्थ: अभी भी हमारी तवज्जो माया में लगी हुई है और (इस माया से ही) सुखों की आस लगाए बैठा हूं; तो फिर ज्योति रूप निरंकार का निवास (इस तवज्जो में) कैसे हो?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु सुख ते सिव ब्रहम डराना ॥ सो सुखु हमहु साचु करि जाना ॥२॥
मूलम्
इसु सुख ते सिव ब्रहम डराना ॥ सो सुखु हमहु साचु करि जाना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डरना = डर गए, कानों को हाथ लगाए। हमहु = हम (संसारी जीवों) ने।2।
अर्थ: इस (माया-) सुख से तो शिव जी और ब्रहमा (जैसे देवताओं) ने भी कानों को हाथ लगाए; (पर संसारी जीवों ने) इस सुख को सच्चा समझा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनकादिक नारद मुनि सेखा ॥ तिन भी तन महि मनु नही पेखा ॥३॥
मूलम्
सनकादिक नारद मुनि सेखा ॥ तिन भी तन महि मनु नही पेखा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्नकादिक = सनक आदि, सनक और अन्य, ब्रहमा के चारों पुत्र (सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार)। सेखा = शेषनाग। तिन भी = इन्होंने भी। पेखा = देखा।3।
अर्थ: ब्रहमा के चारों पुत्र सनक आदि, नारद मुनि और शेषनाग -इन्होंने भी (इस माया-सुख की ओर तवज्जो लगी रहने के कारण) अपने मन को अपने शरीर में नहीं देखा (भाव, इनका मन भी अंतरात्मे टिका ना रह सका)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥ तन छूटे मनु कहा समाई ॥४॥
मूलम्
इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥ तन छूटे मनु कहा समाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तन छूटे = शरीर से विछोड़ा होने पर।4।
अर्थ: हे भाई! कोई पक्ष इस मन की भी खोज करो कि शरीर से विछोड़ा होने से ये मन कहाँ जा टिकता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी जैदेउ नामां ॥ भगति कै प्रेमि इन ही है जानां ॥५॥
मूलम्
गुर परसादी जैदेउ नामां ॥ भगति कै प्रेमि इन ही है जानां ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से। नामां = नामदेव जी। प्रेमि = प्रेम से, प्यार से। इनही = इन (जयदेव और नामदेव जी) ने। जानां है = समझा है।5।
अर्थ: सतिगुरु की कृपा से, इन जयदेव और नामदेव जी (जैसे भक्तों) ने ही भक्ति के चाव से ये बात समझी है (कि “तन छूटे मनु कहा समाई”)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मन कउ नही आवन जाना ॥ जिस का भरमु गइआ तिनि साचु पछाना ॥६॥
मूलम्
इसु मन कउ नही आवन जाना ॥ जिस का भरमु गइआ तिनि साचु पछाना ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिनि = उस मनुष्य ने। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।6।
अर्थ: जिस मनुष्य की (सुखों के वास्ते) भटकना दूर हो गई है, उसने प्रभु को पहिचान लिया है (प्रभु के साथ सांझ पा ली है); उस मनुष्य की इस आत्मा को जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मन कउ रूपु न रेखिआ काई ॥ हुकमे होइआ हुकमु बूझि समाई ॥७॥
मूलम्
इसु मन कउ रूपु न रेखिआ काई ॥ हुकमे होइआ हुकमु बूझि समाई ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूप = शकल। रेखिआ = निशान, लकीर। न काई = कोई नहीं।7।
अर्थ: (असल में) इस जीव का (प्रभु से अलग) कोई रूप अथवा चिन्ह नहीं है। प्रभु के हुक्म में ही यह (अलग स्वरूप वाला) बना है और प्रभु की रजा को समझ के उस में लीन हो जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इस मन का कोई जानै भेउ ॥ इह मनि लीण भए सुखदेउ ॥८॥
मूलम्
इस मन का कोई जानै भेउ ॥ इह मनि लीण भए सुखदेउ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोई = अगर कोई, जो मनुष्य। भेउ = भेद। इह मनि = इस मन में। लीण = समाइआ हुआ। सुखदेउ = सुख स्वरूप प्रभु।8।
अर्थ: जो मनुष्य इस मन का भेद जान लेता है, वह इस मन के द्वारा ही (अंतरात्मे) लीन हो के सुखदेव प्रभु का रूप हो जाता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ एकु अरु सगल सरीरा ॥ इसु मन कउ रवि रहे कबीरा ॥९॥१॥३६॥
मूलम्
जीउ एकु अरु सगल सरीरा ॥ इसु मन कउ रवि रहे कबीरा ॥९॥१॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ एकु = एक आत्मा, एक ईश्वरीय ज्योति। सगल = सारे। रवि रहे = रमे रहे, स्मरण कर रहा है।9।
अर्थ: कबीर उस (सर्व-व्यापक) मन (भाव, परमात्मा) का स्मरण कर रहा है जो खुद एक है और सारे शरीरों में मौजूद है।9।1।36।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जब तक मायावी सुखों की लालसा मन में टिकी रहती है, तब तक परमात्मा के साथ मिलाप नहीं होता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी ॥ अहिनिसि एक नाम जो जागे ॥ केतक सिध भए लिव लागे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी ॥ अहिनिसि एक नाम जो जागे ॥ केतक सिध भए लिव लागे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। जो जागे = जो मनुष्य जाग पड़ते हैं (भाव, माया की नींद में से उठ खड़े होते हैं)। केतक = कई मनुष्य। सिध = पहुँचे हुए, जिनकी मेहनत सफल हो गई है। लिव लागे = ध्यान लगा के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के।1। रहाउ।
अर्थ: बहुत सारे वह मनुष्य (जीवन सफर की दौड़ में) जीते हुए हैं जो दिन रात केवल प्रभु के नाम में सुचेत रहे हैं, जिन्होंने (नाम में ही) तवज्जो जोड़ के रखी है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधक सिध सगल मुनि हारे ॥ एक नाम कलिप तर तारे ॥१॥
मूलम्
साधक सिध सगल मुनि हारे ॥ एक नाम कलिप तर तारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधक = साधन करने वाले। सगल = सारे। हारे = थक गए हैं। कलिप तर = कल्प वृक्ष, (पुरातन हिंदू पुस्तकों में ये माना गया है कि स्वर्ग में पाँच वृक्ष हैं, जिनमें से एक कल्प-वृक्ष है, इसके नीचे जा के जो कामना करें पूरी करवा देता है)। तारे = तैरा लेता है, बेड़ा पार कर देता है।1।
अर्थ: (योग-) साधना करने वाले, (योग साधनों में) सिद्ध हुए जोगी और सारे मुनि लोक (संसार समुंदर से तैरने के और ही तरीके ढूँढ-ढूँढ के) थक गए हैं; केवल प्रभु का नाम ही कल्प-वृक्ष है जो (जीवों का) बेड़ा पार करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो हरि हरे सु होहि न आना ॥ कहि कबीर राम नाम पछाना ॥२॥३७॥
मूलम्
जो हरि हरे सु होहि न आना ॥ कहि कबीर राम नाम पछाना ॥२॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि हरे = हरि हरि ही, प्रभु प्रभु ही (जपते हैं)। होहि न = नहीं होते। आना = (प्रभु से) अलग। पहचाना = पहचान लिया है।2।
अर्थ: कबीर कहता है: जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करते हैं, वह प्रभु से अलग नहीं रह जाते, उन्होंने प्रभु के नाम को पहचान लिया है (नाम से गहरी सांझ डाल ली है)।2।37।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा का नाम जपने वाले बंदे परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाते हैं। प्रभु का नाम ही मनुष्य को वासना से बचाता है, और कोई साधन नहीं है।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी भी सोरठि भी ॥ रे जीअ निलज लाज तुोहि नाही ॥ हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी भी सोरठि भी ॥ रे जीअ निलज लाज तुोहि नाही ॥ हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निलज = बेशर्म। तुोहि = तुझे। तजि = छोड़ के। कत = कहाँ? काहू को = किस के पास?।1। रहाउ।
अर्थ: हे बेशर्म मन! तुझे शर्म नहीं आती? प्रभु को छोड़ के कहाँ और किसके पास तू जाता है? (भाव, क्यूँ और आसरे तू देखता है?)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥ सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
मूलम्
जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥ सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा को = जिस का। पर घर = पराए घरों में। जात = जाता। न सोही = नहीं शोभता।1।
अर्थ: जिस मनुष्य का मालिक बड़ा हो, वह पराए घर जाता अच्छा नहीं लगता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥ सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
मूलम्
सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥ सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरपूरि = सब जगह मौजूद, व्यापक।2।
अर्थ: (हे मन!) वह मालिक प्रभु सब जगह मौजूद है, सदा (तेरे) साथ है, (तुझसे) दूर नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवला चरन सरन है जा के ॥ कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
मूलम्
कवला चरन सरन है जा के ॥ कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवला = लक्ष्मी, माया। जा के = जिस (प्रभु) के। कहु = बताओ, कह। जन = हे मनुष्य! का नाही = कौन सी चीज नहीं? ता के = उस (प्रभु) के।3।
अर्थ: लक्ष्मी (भी) जिसके चरणों का आसरा लिए बैठी है, हे भाई! बताओ, उस प्रभु के घर किस चीज की कमी है?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥ सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
मूलम्
सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥ सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु कोऊ = हरेक जीव। जासु की = जिस (प्रभु) की। संम्रथु = सामर्थ्य वाला, सत्ता वाला। निज पति = हमारा पति। दाता = देने वाला।4।
अर्थ: जिस प्रभु की (महानता की) बातें हरेक जीव कर रहा है, वह प्रभु सब ताकतों का मालिक है, वह हमारा (सबका) पति है और सब पदार्थ देने वाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥ जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥
मूलम्
कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥ जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये शब्द गउड़ी रागिनी में भी गाना है और सोरठि रागिनी में भी।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन = भरा हुआ, सब गुणों वाला, जिसमें कोई कमी ना हो। सोई = वही मनुष्य। जा कै हिरदै = जिस मनुष्य के हृदय में। अवरु = (प्रभु के बिना) कोई और।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पहली ही तुक में शब्द ‘तुोहि’ में अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं लगी हैं: ‘ु’ और ‘ो’। शब्द की असल मात्रा है ‘ो’ है, पर यहाँ ‘ु’ को पढ़ना है, भाव शब्द ‘तोहि’ को ‘तुहि’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कबीर कहता है: संसार में केवल वही मनुष्य गुणवान है जिसके हृदय में (प्रभु के बिना) कोई और (दाता जचता) नहीं।5।38।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: प्रभु सब जीवों को पालने वाला है, हरेक के अंग-संग है, उसके घर में कोई कमी नहीं। उसे बिसार के कोई और आसरा देखना बड़ी हीनता वाली बात है।38।
[[0331]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउनु को पूतु पिता को का को ॥ कउनु मरै को देइ संतापो ॥१॥
मूलम्
कउनु को पूतु पिता को का को ॥ कउनु मरै को देइ संतापो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउन को = किस का? का को = किसका? को = कौन? देइ = देता है। संतापो = कष्ट।1।
अर्थ: कौन किसका पुत्र है? कौन किसका पिता है? (भाव, पिता और पुत्र वाला संबंध सदा कायम रहने वाला नहीं है, प्रभु ने एक खेल रची हुई है)। कौन मरता है और कौन (इस मौत के कारण पिछलों को) कष्ट देता है? (भाव, ना ही कोई किसी का मरता है और ना ही इस तरह पिछलों को कष्ट देता है, संजोगों के अनुसार चार दिनों का मेला है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि ठग जग कउ ठगउरी लाई ॥ हरि के बिओग कैसे जीअउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि ठग जग कउ ठगउरी लाई ॥ हरि के बिओग कैसे जीअउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। ठगउरी = ठग बूटी, धतूरा आदि, वह बूटी जो ठग लोग इस्तेमाल करते हैं किसी को ठगने के लिए। बिओग = विछोड़ा। जीअउ = मैं जीऊँ। मेरी माई = हे मेरी माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: प्रभु-ठग ने जगत (के जीवों) को मोह-रूपी ठग-बूटी लगाई हुई है (जिसके कारण जीव संबंधियों के मोह में प्रभु को भुला के कष्ट डाल रहे हैं), पर हे मेरी माँ! (मैं इस ठग-बूटी में नहीं फंसा, क्योंकि) मैं प्रभु से विछुड़ के जी ही नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउन को पुरखु कउन की नारी ॥ इआ तत लेहु सरीर बिचारी ॥२॥
मूलम्
कउन को पुरखु कउन की नारी ॥ इआ तत लेहु सरीर बिचारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखु = मनुष्य, मर्द, पति। नारी = स्त्री, पत्नी। इआ = इस का। इआ तत = इस अस्लियत का। सरीर = मानव जनम।2।
अर्थ: कौन किसका पति? कौन किस की पत्नी? (भाव, ये पति-पत्नी वाला रिश्ता भी जगत में सदा स्थिर रहने वाला नहीं, ये खेल आखिर खत्म हो जाती है) - इस अस्लियत को (हे भाई!) इस मानव शरीर में ही समझो (भाव, ये मानव जनम ही मौका है, जब ये अस्लियत समझी जा सकती है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर ठग सिउ मनु मानिआ ॥ गई ठगउरी ठगु पहिचानिआ ॥३॥३९॥
मूलम्
कहि कबीर ठग सिउ मनु मानिआ ॥ गई ठगउरी ठगु पहिचानिआ ॥३॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। मानिआ = मान गया, पतीज गया, एक-मेक हो गया।3।
अर्थ: कबीर कहता है: जिस जीव का मन (मोह-रूपी ठग-बूटी बनाने वाले प्रभु-) ठग से एक-मेक हो गया है, (उसके लिए) ठग-बूटी नाकाम हो गई (समझो), क्योंकि उसने मोह पैदा करने वाले के साथ ही सांझ डाल ली है।3।39।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा ने खुद ये माया का मोह बनाया है। सारे जीव इस पिता-पुत्र व पति-पत्नी आदि वाले संबंधों के मोह में फंस के परमात्मा को भुला के दुखी होते रहते हैं, पर जो मनुष्य प्रभु के चरणों में जुड़ता है, उसे ये मोह नहीं व्यापता।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मो कउ भए राजा राम सहाई ॥ जनम मरन कटि परम गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब मो कउ भए राजा राम सहाई ॥ जनम मरन कटि परम गति पाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मो कउ = मुझे, मेरे वास्ते। राजा = प्रकाश रूप, हर जगह रोशनी देने वाला। सहाई = मददगार। कटि = दूर करके। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। पाई = हासिल कर ली है।1। रहाउ।
अर्थ: हर जगह प्रकाश करने वाले प्रभु जी अब मेरी सहायता करने वाले बन गए हैं, (तभी तो) मैंने जनम-माण की (बेड़ियां) काट के सब से ऊूंची अवस्था हासिल कर ली है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू संगति दीओ रलाइ ॥ पंच दूत ते लीओ छडाइ ॥ अम्रित नामु जपउ जपु रसना ॥ अमोल दासु करि लीनो अपना ॥१॥
मूलम्
साधू संगति दीओ रलाइ ॥ पंच दूत ते लीओ छडाइ ॥ अम्रित नामु जपउ जपु रसना ॥ अमोल दासु करि लीनो अपना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच दूत = (काम आदि) पाँच वैरी। ते = से। रसना = जीभ (से।) जपउ = मैं जपता हूँ। अमोल = (अ+मोल) मूल्य दिए बिना, बिना दाम के।1।
अर्थ: (प्रभु ने) मुझे सत्संग में मिला दिया है और (काम आदिक) पाँच वैरियों से उसने मुझे बचा लिया है, अब मैं जीभ से उसका अमर करने वाला नाम रूपी जाप करता हूँ। मुझे तो उसने बिना दामों के ही अपना सेवक बना लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर कीनो परउपकारु ॥ काढि लीन सागर संसार ॥ चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ गोबिंदु बसै निता नित चीत ॥२॥
मूलम्
सतिगुर कीनो परउपकारु ॥ काढि लीन सागर संसार ॥ चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ गोबिंदु बसै निता नित चीत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागर = समुंदर। चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। निता नित = हर समय।2।
अर्थ: सतिगुरु ने (मेरे पर) बड़ी मेहर की है, मुझे उसने संसार-समुंदर में से निकाल लिया है, मेरी अब प्रभु के सुंदर चरणों से प्रीति बन गई है, प्रभु हर समय मेरे चित्त में बस रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ तपति बुझिआ अंगिआरु ॥ मनि संतोखु नामु आधारु ॥ जलि थलि पूरि रहे प्रभ सुआमी ॥ जत पेखउ तत अंतरजामी ॥३॥
मूलम्
माइआ तपति बुझिआ अंगिआरु ॥ मनि संतोखु नामु आधारु ॥ जलि थलि पूरि रहे प्रभ सुआमी ॥ जत पेखउ तत अंतरजामी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपति = तपस, जलन। मनि = मन में। आधारु = आसरा। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती पे। पूरि रहे = हर जगह मौजूद हैं। जत = जिधर। पेखउ = मैं देखता हूँ। तत = उधर ही।3।
अर्थ: (मेरे अंदर से) माया वाली तपष मिट गई है, माया का जलता शोला बुझ गया है; (अब) मेरे मन में संतोष है, (प्रभु का) नाम (माया की जगह मेरे मन का) आसरा बन गया है। पानी में, धरती पर, हर जगह प्रभु-पति ही बस रहे (प्रतीत होते) हैं। मैं जिधर देखता हूँ, उधर घट-घट की जानने वाला प्रभु ही (दिखाई देता) है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपनी भगति आप ही द्रिड़ाई ॥ पूरब लिखतु मिलिआ मेरे भाई ॥ जिसु क्रिपा करे तिसु पूरन साज ॥ कबीर को सुआमी गरीब निवाज ॥४॥४०॥
मूलम्
अपनी भगति आप ही द्रिड़ाई ॥ पूरब लिखतु मिलिआ मेरे भाई ॥ जिसु क्रिपा करे तिसु पूरन साज ॥ कबीर को सुआमी गरीब निवाज ॥४॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिढ़ाई = दृढ़ करवाई, पक्की की है। पूरब लिखत = पिछले जन्मों के किए कर्मों का लेखा। मेरे भाई = हे मेरे भाई! साज = बनाना, सबब। को = का।4।
अर्थ: प्रभु ने स्वयं ही अपनी भक्ति मेरे दिल में पक्की की है। हे प्यारे भाई! (मुझे तो) पिछले जनमों के किए कर्मों का लेख मिल गया है (मेरे तो भाग्य जाग पड़े हैं)। जिस (भी जीव) पर मेहर करता है, उसके लिए (ऐसा) सुंदर सबब बना देता है। कबीर का पति प्रभु गरीबों को निवाजने वाला है।4।40।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जिस जीव पर प्रभु मेहर करता है, उसे अपनी भक्ति में जोड़ता है, जिसकी इनायत से उसके अंदर से माया वाली गरमी मिट जाती है, उसे हर जगह प्रभु ही प्रभु नजर आता है।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई ॥ जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई ॥१॥
मूलम्
जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई ॥ जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलि = पानी में। सूतक = (सूत+कु। सूत = पैदा हुआ। सूतक = पैदा होने से संबंध रखने वाली अपवित्रता। जब किसी हिन्दू घर में कोई बच्चा पैदा हो जाए तो 13 दिन वह घर अपवित्र माना जाता है, ब्राहमण इन 13 दिन उस घर में खाना नहीं खाते। इसी तरह किसी प्राणी के मरने पर भी ‘क्रिया-कर्म’ के दिन तक वह घर अपवित्र रहता है) अपवित्रता, भिट। फुनि = फिर, भी। परज = प्रजा, दुनिया। बिगोई = दुखी हो रही है, ख्वार हो रही है। ओपति = उत्पत्ति, पैदायश।1।
अर्थ: (अगर जीवों के पैदा होने व मरने से सूतक-पातक की भिट पैदा हो जाती है तो) पानी में सूतक है, धरती पे सूतक है, (हर जगह) सूतक की उत्पत्ति है (भाव, हर जगह भिटी हुई, झूठी है, क्योंकि) किसी जीव के पैदा होने पर सूतक (पड़ जाता है) फिर मरने पर भी सूतक (आ पड़ता है); (इस) भिट (व भ्रम) में दुनिया ख्वार हो रही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु रे पंडीआ कउन पवीता ॥ ऐसा गिआनु जपहु मेरे मीता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कहु रे पंडीआ कउन पवीता ॥ ऐसा गिआनु जपहु मेरे मीता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे पंडीआ = हे पंडित! गिआनु = विचार। जपहु = जपो, दृढ़ करो, ध्यान से सोचो।1। रहाउ।
अर्थ: (तो फिर) हे प्यारे मित्र! इस बात को ध्यान से विचार के बताओ, हे पंडित! (जब हर जगह सूतक है तो) स्वच्छ (सूचा) कौन (हो सकता) है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्रवनी होई ॥ ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई ॥२॥
मूलम्
नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्रवनी होई ॥ ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैनहु = आँखों में। बैनहु = वचनों में। स्रवनी = कानों में। परै = पड़ती है। रसोई = खाना पकाने वाले कमरे में।2।
अर्थ: (सिर्फ इन आँखों से दिखाई देते जीव ही नहीं पैदा होते-मरते, हमारी बोल-चाल आदि हरकतों से भी कई सूक्ष्म जीव मर रहे हैं, तो फिर) आँखों में सूतक है, बोलने (भाव, जीभ) में सूतक है, कानों में भी सूतक है, उठते-बैठते हर वक्त (हमें) सूतक पड़ रहा है, (हमारी) रसोई में भी सूतक है।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस ‘बंद’ में पराए रूप, निंदा आदि के सूतक का जिक्र नहीं है, क्योंकि आखिर में ‘रसोई’ आदि का सूतक भी बताया गया है; सो, स्थूल व सूक्ष्म जीवों के सूतक का जिक्र ही प्रतीत होता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ॥ कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई ॥३॥४१॥
मूलम्
फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ॥ कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई ॥३॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधि = तरीका, विउंत। सभु कोऊ = हरेक जीव। इकु कोई = कोई एक, कोई विरला, दुर्लभ। तिनै = उन मनुष्यों को।3।
अर्थ: (जिधर देखो) हरेक जीव (सूतक के भरमों में) फंसने का ही ढंग जानता है, (इनमें से) निजात पाने की समझ किसी विरले को ही है। कबीर कहता है: जो जो मनुष्य (अपने) हृदय में प्रभु को स्मरण करता है, उनको ये भिट नहीं लगती।3।41।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: अगर जीवों के पैदा होने या मरने से घर भिट जाएं (झूठे हो जायं) तो जगत में स्वच्छ कोई भी जगह नहीं हो सकती, क्योंकि हर समय हर जगह जनम-मरन का सिलसिला जारी है। जो मनुष्य प्रभु का भजन करता है, उसे सूतक का भ्रम नहीं रहता।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ झगरा एकु निबेरहु राम ॥ जउ तुम अपने जन सौ कामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी ॥ झगरा एकु निबेरहु राम ॥ जउ तुम अपने जन सौ कामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झगरा = मन में पड़ रहा झगरा, शंका। राम = हे प्रभु! जउ = अगर। जन = सेवक। सौ = से। कामु = काम।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! अगर तुझे अपने सेवक के साथ काम है (भाव, अगर तूने मुझे अपने चरणों में जोड़े रखना है तो) यह एक (बड़ी) शंका दूर कर दे (भाव, ये शक मुझे तेरे चरणों में जुड़ने नहीं देगा)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु बडा कि जा सउ मनु मानिआ ॥ रामु बडा कै रामहि जानिआ ॥१॥
मूलम्
इहु मनु बडा कि जा सउ मनु मानिआ ॥ रामु बडा कै रामहि जानिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बडा = बड़ा, सत्कारयोग। कि = अथवा। जा सिउ = जिस (प्रभु) से। मानिआ = मान गया है, पतीज गया है, टिक गया है। रामु = प्रभु। रामहि = प्रभु को। जानिआ = (जिस ने) पहचान लिया है। कै = अथवा, या।1।
अर्थ: कि क्या ये मन बलवान है अथवा (इससे ज्यादा बलशाली वह प्रभु है) जिससे मन पतीज जाता है (और भटकने से हट जाता है)? कि क्या परमात्मा आदरणीय है, अथवा (उससे भी ज्यादा आदरणीय वे महांपुरख है), जिसने परमात्मा को पहचान लिया है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ ॥ बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥
मूलम्
ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ ॥ बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहमा = ब्रहमा आदि देवते। जासु = (यस्य) जिस का। उपाइआ = पैदा किया हुआ।2।
अर्थ: क्या ब्रहमा (आदि) देवता बली है, या (उससे भी ज्यादा वह प्रभु है) जिसका पैदा किया हुआ (ये ब्रहमा) है? क्या वेद (आदि धर्म-पुस्तकों का ज्ञान) सिर नमन करने के योग्य हैं या वह (महापुरुष) जिससे (ये ज्ञान) मिला?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर हउ भइआ उदासु ॥ तीरथु बडा कि हरि का दासु ॥३॥४२॥
मूलम्
कहि कबीर हउ भइआ उदासु ॥ तीरथु बडा कि हरि का दासु ॥३॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। हउ = मैं। उदासु = दुचित्ता (undecided)। कि = या। तीरथु = धर्म सनान।3।42।
अर्थ: कबीर कहता है: मेरे मन में एक शक उठ रहा है कि तीर्थ (धर्म-स्थल) पूजनीय है या प्रभु का (वह) भक्त (ज्यादा पूजनीय है जिसके सदका वह तीर्थ बना)।3।42।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के द्वारा कबीर जी ने धार्मिक रास्ते पर घटित होने वाले कई भुलेखे दूर किए हैं: 1. ‘मैं ब्रहम हूँ, मैं ईश्वर हूँ’ का ख्याल अहंकार की ओर ले जाता है। इस ‘मैं’ को, इस ‘मन’ को बेअंत प्रभु में लीन करना ही सही रास्ता है। 2. प्रभु से मिलाप तभी संभव हो सकेगा अगर सतिगुरु के आगे स्वै को वार दिया जाए, पूर्ण सर्मपण कर दिया जाए। 3. सभी देवताओं का सरताज विधाता प्रभु स्वयं ही है। 4. निरा ‘ज्ञान’ काफी नहीं, ज्ञान दाते सतिगुरु के साथ प्यार बनाना आवश्यक है। 5. असली तीर्थ ‘सतिगुरु’ है।
असल शिरोमणी विचार, मुख्य भाव, शब्द की आखिरी पंक्ति में है।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: असली तीर्थ ‘सतिगुरु’ है, जिससे प्यार करने सदका वह ज्ञान प्राप्त होता है जो प्रभु में जोड़ देता है।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी चेती ॥ देखौ भाई ग्यान की आई आंधी ॥ सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रागु गउड़ी चेती ॥ देखौ भाई ग्यान की आई आंधी ॥ सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्यान = समझ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अक्षर ‘ग’ के नीचे आधा अक्षर ‘य’ है, ज्ञान।
दर्पण-भाषार्थ
आंधी = अंधेरी, झक्खड़। सभै = सारी की सारी। टाटी = छपपर। रहै न = टिकी नहीं रह सकती। माइआ बांधी = माया से बंधी हुई, माया के आसरे खड़ी हुई।1। रहाउ।
अर्थ: हे सज्जन! देख, (जब) ज्ञान की अंधेरी आती है तो वहिम-भर्म का छप्पर सारे का सारा उड़ जाता है। माया के आसरे खड़ा हुआ (ये छप्पर ज्ञान की अंधेरी के सामने) टिका नहीं रह सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेडा टूटा ॥ तिसना छानि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥१॥
मूलम्
दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेडा टूटा ॥ तिसना छानि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुइ = द्वैत, प्रभु के बिना किसी और का आसरा देखना। थुनि = थंमीं, खम्भा, खंभी, स्तम्भ। बलेंडा = वला, बल्ली, (थंमियों को आपस में लकड़ी की बल्लियों से कसा जाता है, फिर उसके ऊपर छप्पर बाँध के झोपड़ी बनाई जाती है)। छानि = छपपर, कुली। धर = धरती। फूटा = टूट गया।1।
अर्थ: (भरमां-वहिमों में) डोलते मन का द्वैत-रूपी खम्भा गिर जाता है (भाव, प्रभु की टेक छोड़ के कभी कोई आसरा देखना, कभी कोई सहारा बनाना- मन की ये डावाँ-डोल हालत समाप्त हो जाती है)। (इस दुनियावी आसरे के खम्भे पर टिकी हुई) मोह रूपी बल्ली (भी गिर के) टूट जाती है। (इस मोह-रूपी बल्ली पर टिका हुआ) तृष्णा का छप्पर (बल्ली टूट जाने के कारण) जमीन पे आ गिरता है, और इस दुष्ट-बेसमझ मति का भांडा टूट जाता है (भाव, ये सारी की सारी दुष्ट-बेसमझ मति खत्म हो जाती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥ कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥२॥४३॥
मूलम्
आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥ कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥२॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरखै = बरसता है। तिहि = उस (बरसात) में। भीना = भीग गया। मनि = मन मे। प्रगासा = प्रकाश, रोशनी। उदै = उदय, चढ़ा हुआ। चीना = देख लिया।2।
अर्थ: कबीर कहता है: (ज्ञान की) अंधेरी के पीछे जो (‘नाम’ की) बरखा होती है, उस में (हे प्रभु! तेरी भक्ति करने वाला) तेरा भक्त भीग जाता है (भाव, ज्ञान की इनायत से वहिम-भ्रम खत्म हो जाने तथा ज्यों-ज्यों मनुष्य नाम जपता है, उसके मन में शांति और टिकाव पैदा होता है)। जब (हे प्रभु! तेरा सेवक) अपने अंदर (तेरे नाम का) सूरज चढ़ा हुआ देखता है तो उसके मन में प्रकाश (ही प्रकाश) हो जाता है।2।43।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जितना समय मनुष्य माया के बंधनों में जकड़ा रहता है, इसका डोलता मन प्रभु को विसार के अन्य आसरे-सहारे तलाशता है। मोह के कारण लालच-तृष्णा की ही सारी जीवन-इमारत बनाए रखता है। पर, सतिगुरु के ज्ञान की इनायत से ये दुष्ट इमारत ढह जाती है। फिर ज्यों-ज्यों ‘नाम’ स्मरण करता है, समझ ऊँची होती जाती है, और नाम-रस का आनंद आता है।43।
[[0332]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी चेती ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
गउड़ी चेती ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥ बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥
मूलम्
हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥ बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = यश, महानता, बड़ाई, महिमा। बातन ही = बातों से ही, निरी शेखी भरी बातों से।1।
अर्थ: (कई मनुष्य खुद) ना कभी प्रभु की महिमा सुनते हैं, ना हरि के गुण गाते हैं, पर शेखी भरी बातों से (जैसे) आसमान गिरा लेते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥ जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥ जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ, को। किआ कहीऐ = क्या कहें? समझाने का कोई फायदा नहीं। कीए = किए, बनाए। बाहज = बिना, खाली, बगैर। भगति ते बाहज कीए = भक्ति से वंचित रखे। डराने रहीऐ = डरते रहें, दूर-दूर ही रहना ठीक है।1। रहाउ।
अर्थ: ऐसे लोगों को समझाने का भी कोई फायदा नहीं, जिन्हें प्रभु ने भक्ति से वंचित रखा है (उन्हें समझाने की जगह बल्कि) उनसे सदा दूर-दूर ही रहना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥ तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥
मूलम्
आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥ तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न देहि = नहीं देते। चुरू भरि = एक चुल्ली जितना। तिह = उन (मनुष्यों) को। जिह = जिन्होंने। आनी = ले के आए, लाये, बहा दी।2।
अर्थ: (वह लोग) खुद तो (किसी को) एक चुल्ली जितना पानी भी नहीं देते, पर निंदा उनकी करते हैं जिन्होंने गंगा बहा दी हो।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥ आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥
मूलम्
बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥ आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुटिल = टेढ़ी चालें चलने वाले। कुटिलता = टेढ़ी चालें। आपु = अपने आप से। हू = भी। घालहि = भेजते हैं। (आपु) घालहि = उनको अपने आप से भेज देते हैं, उन्हें अपने असल से दूर कर देते हैं, कुमार्ग पर डाल देते हें, नाश कर देते हैं।3।
अर्थ: बैठते-उठते (हर समय वे) टेढ़ी चालें ही चलते हैं, वे अपने आप से तो गए-गुजरे हैं ही, और लोगों को भी गलत रास्ते पर डालते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥ ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥
मूलम्
छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥ ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुचर्चा = गलत चर्चा, थोथी बहिस। छाडि = छोड़ के, के बिना। आन = कोई और बात। ब्रहमा हू को कहिओ = ब्रहमा का कहा हुआ भी, बड़े से बड़े समझदार व्यक्ति की बात भी। को = का।4।
अर्थ: फोकी बहिस के बिना वे और कुछ करना जानते ही नहीं, किसी बड़े से बड़े जाने-माने सयाने की बात नहीं मानते।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु गए अउरन हू खोवहि ॥ आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥
मूलम्
आपु गए अउरन हू खोवहि ॥ आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोवहि = गवा लेते हैं। मंदर = घर। मै = में।5।
अर्थ: अपने आप से गए-गुजरे वे लोग और लोगों को भी भटकाते हैं, वे (मानो, अपने ही घर को) आग लगा के घर में ही सो रहे हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवरन हसत आप हहि कांने ॥ तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥
मूलम्
अवरन हसत आप हहि कांने ॥ तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हसत = हसते हैं, मजाक उड़ाते हैं। देखि = देख के। लजाने = शर्म आती है।6।
अर्थ: वे खुद तो काणे हैं (कई तरह के विकारों में फंसे हुए हैं) पर औरों का मजाक उड़ाते हैं। ऐसे लोगों को देख के, हे कबीर! शर्म आती है।6।1।14।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: शेखी-बाज बंदों पर किसी की शिक्षा का असर नहीं हो सकता, वे बल्कि और लोगों को भी बिगाड़ने का यत्न करते हैं। ऐसे लोगों से परे ही रहना ठीक होता है।44।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के 6 बंद हैं; अगले अंक नं: 1 का भाव ये है कि यह ‘गउड़ी चेती’ का पहला शब्द है। कबीर जी के शबदों के सिलसिले में ये 44वां शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी बैरागणि२ कबीर जी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी बैरागणि२ कबीर जी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥ पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
मूलम्
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥ पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवत = जीते जी। पितर = पित्र, पूर्वज, पिता, दादा, परदादा आदि जो मर के परलोक में जा चुके हैं। सिराध = पित्रों के नमित्त ब्राहमणों को खिलाया हुआ भोजन (मर चुके बुजुर्गों के लिए हिन्दू लोग हर साल अश्विन असू के महीने श्राद्ध करते हैं, ब्राहमणों को भोजन कराते हैं। प्रयोजन ये होता कि खिलाया हुआ भोजन पित्रों को पहुँच जाएगा। श्राद्ध अश्विन असू की पूर्णिमा से शुरू होकर अमावस्या तक रहते हैं; आखिरी श्राद्ध कौओं, कुत्तों का भी होता है। चंद्रमा के हिसाब से जिस तारिख (तिथि) को कोई मरे, श्राद्धों के दिनों में उसी तिथि पर उसका श्राद्ध कराते हैं। ब्राहमणों को खिला के कौओं = कुत्तों को भी श्राद्ध का भोजन खिलाते हैं)। बपुरे = बिचारे। कूकर = कुत्ते।1।
अर्थ: लोग जीवित माता-पिता का तो आदर-मान नहीं करते, पर मर गए पित्रों के नमित्त भोजन खिलाते हैं। विचारे पित्र भला वह श्राद्धों का भोजन कैसे हासिल करें? उसे तो कौए-कुत्ते खा जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥ कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥ कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुसलु = सुख शांति, आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे कोई बताए कि (पित्रों के नमित श्राद्ध खिलाने से पीछे घर में) कुशल-मंगल कैसे हो जाता है? सारा संसार (इसी वहिम-भ्रम में) खप रहा है कि (पित्रों के नमित श्राद्ध करने से घर में) सुख-आनंद बना रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥ ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
मूलम्
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥ ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = बना के। जीउ देही = बकरे आदि की कुर्बानी देते हैं।2।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: विवाह-शादियों के समय पुराने ख्यालों वाले हिंदू सज्जन अपने घरों में लड़के-लड़की को माईए डालने वाले दिन ‘वडे अडते’ हैं (भाव) घर में एक विशेष स्थान पर पोचा लगा के मिट्टी के ‘वडे’ अर्थात पूर्वजों की मूर्ति बना के उनके आगे पानी का घड़ा भर के रखते हैं। विवाह वाले लड़की और लड़का माथा टेकते हैं, और इस तरह अपने पित्रों से ‘कुशल’ की आशीश लेते हैं)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मिट्टी के देवी-देवते बना के लोग उस देवी या देवते के आगे (बकरे आदि की) कुर्बानी देते हैं, (हे भाई! इस तरह) के (मिट्टी के बनाए हुए) तुम्हारे पित्र कहलाते हैं (उनके आगे भी जो तुम्हारा चित्त करता है, रख देते हो) वे अपना मुंह मांगा कुछ नहीं ले सकते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥ राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
मूलम्
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥ राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरजीउ = सजीव, जिंद वाले, जीते जी। निरजीउ = निर्जीव, देवते और पित्र जो मिट्टी के बनाए होते हैं। काल = समय। गति = हालत, अवस्था। राम नाम की गति = वह आत्मिक अवस्था जो प्रभु का नाम स्मरण करने से बनती है। संसारी भै = संसारी डर में, लोकाचारी रस्मों के डर में, लोक-लज्जा में।3।
अर्थ: लोग लोकाचार की रस्मों में ग़र्क हो रहे हैं, जीते जी को (देवी-देवताओं के आगे भेटा करने के लिए) मारते हैं (और इस तरह मिट्टी आदि के बनाए हुए) निर्जीव देवताओं को पूजते हैं। अपना भविष्य बर्बाद किए जा रहे हैं (ऐसे लोगों को) उस आत्मिक अवस्था की समझ नहीं पड़ती जो प्रभु का नाम स्मरण करने से बनती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥ कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥
मूलम्
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥ कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डोलहि = डोलते हैं, सहमे रहते हैं। अकुलु = (अ+कुलु) वह प्रभु जो किसी कुल जाति में नहीं पैदा होता। बिखिआ = माया।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (ऐसे लोग मिट्टी के बनाए हुए) देवी-देवताओं को पूजते हैं और सहमें भी रहते हैं (क्योंकि असल ‘कुशल’ देने वाले) अकाल-पुरख को वे जानते ही नहीं हैं, वे जाति-कुल रहित प्रभु को नहीं स्मरण करते, वे (सदा) माया के साथ लिपटे रहते हैं।4।1।45।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: घर में हर तरह का सुख आनंद बनाए रखने की खातिर भरमीं लोग पित्रों के नमित्त श्राद्ध करते हैं, मिट्टी के देवी-देवते बना के उनके आगे कुर्बानी देते हैं; विवाह-शादियों पर ‘वडे अडते’ हैं, पर फिर भी सहम बना ही रहता है, क्योंकि सुख आनंद के श्रोत प्रभु को बिसार के माया के मोह में जकड़े रहते हैं।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ जीवत मरै मरै फुनि जीवै ऐसे सुंनि समाइआ ॥ अंजन माहि निरंजनि रहीऐ बहुड़ि न भवजलि पाइआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ जीवत मरै मरै फुनि जीवै ऐसे सुंनि समाइआ ॥ अंजन माहि निरंजनि रहीऐ बहुड़ि न भवजलि पाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवत मरै = जीते ही मर जाता है, नफ़सानी ख्वाहिशों की ओर से मर जाता है, मन को भटकाने वाली इच्छाएं मार लेता है, मन को विकारों के फुरनों से हटा लेता है। मरै मरै = बार बार मरता है, बार बार यत्न करके (नफ़सानी ख्वाहिशों की ओर से) मरता है। ऐसे = इस तरह के। फुनि = फिर। जीवै = जी पड़ता है। सुंनि = सुंन में, उस हालत में जहाँ विचार शून्य है, वह अवस्था जहाँ विकारों के विचार नहीं उठते। अंजन = कालिख, माया, दुनिया। निरंजनि = निरंजन में, अंजन रहित प्रभु में। बहुड़ि = दुबारा, फिर। भवजलि = भवजल में, बवंडर में।1।
अर्थ: जो मनुष्य बार-बार प्रयत्न करके मन को विकारों के विचारों से हटा लेता है, वह फिर (असल जीवन) जीता है और उस अवस्था में जहाँ विकारों के फुरने नहीं उठते, ऐसे लीन हो जाता है कि माया में रहते हुए भी वह माया-रहित प्रभु में टिका रहता है और दुबारा (माया के) बवंडर में नहीं फंसता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम ऐसा खीरु बिलोईऐ ॥ गुरमति मनूआ असथिरु राखहु इन बिधि अम्रितु पीओईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राम ऐसा खीरु बिलोईऐ ॥ गुरमति मनूआ असथिरु राखहु इन बिधि अम्रितु पीओईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे राम = हे प्यारे प्रभु! खीरु = दूध। बिलोईऐ = मथा जाता है। मनूआ = कमजोर मन। असथिरु राखहु = (हे मेरे राम! तू) अडोल रख। इन बिधि = इस तरीके से (भाव, अगर तू मेरे मन को अडोल रखे।) पीओईऐ = पी लेते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मुझे गुरु की मति दे के मेरे कमजोर मन को (माया की ओर से) अडोल रख।
हे प्रभु! तब ही दूध मथा जा सकता है (भाव, स्मरण का सफल उद्यम किया जा सकता है), और इसी तरीके से ही (भाव, अगर तू मेरे मन को अडोल रखे) तेरा नाम-अमृत पीया जा सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बाणि बजर कल छेदी प्रगटिआ पदु परगासा ॥ सकति अधेर जेवड़ी भ्रमु चूका निहचलु सिव घरि बासा ॥२॥
मूलम्
गुर कै बाणि बजर कल छेदी प्रगटिआ पदु परगासा ॥ सकति अधेर जेवड़ी भ्रमु चूका निहचलु सिव घरि बासा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: के = के द्वारा। गुर कै बाणि = गुरु के (शब्द-रूप) तीर से। बजर = बज्र, कड़ी, कठोर। कल = (मनो-) कल्पना। छेदी = छेद कर दी गई, भेद दी गई। पदु परगासा = प्रकाश का दर्जा, वह हालत जहाँ सही समझ पैदा हो जाती है। सकति = माया। अधेरा = अंधकार। जेवड़ी = रस्सी। भ्रमु = भ्रम, भुलेखा। सिव घरि = शिव के घर में, सदा आनंदित रहने वाले प्रभु के चरणों में। निहचलु बासा = अटल ठिकाना।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने सतिगुरु के (शब्द रूप) तीर से बज्र रूपी कठोर मनो कल्पना भेद ली है (भाव, मन के विकारों की दौड़ रोक ली है) उसके अंदर प्रकाश-पद पैदा हो जाता है (भाव, उसके अंदर वह अवस्था बन जाती है जहाँ ऐसा आत्मिक प्रकाश हो जाता है कि माया के अंधेरे में नहीं फंसता)। (जैसे अंधकार में) रस्सी (को साँप समझने) का भुलेखा (पड़ता है और रोशनी होने पर वह भुलेखा मिट जाता है वैसे ही) माया के (प्रभाव-रूपी) अंधेरे में (विकारों को ही सही समझ लेने का भुलेखा) ‘नाम’ के प्रकाश के साथ मिट जाता है, और उस मनुष्य का निवास सदा-आनंदित रहने वाले प्रभु के चरणों में सदा के लिए हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिनि बिनु बाणै धनखु चढाईऐ इहु जगु बेधिआ भाई ॥ दह दिस बूडी पवनु झुलावै डोरि रही लिव लाई ॥३॥
मूलम्
तिनि बिनु बाणै धनखु चढाईऐ इहु जगु बेधिआ भाई ॥ दह दिस बूडी पवनु झुलावै डोरि रही लिव लाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिनि = उस मनुष्य ने (जिस ने ‘गुर कै बाणि बजर कल छेदी’)। बाण = तीर। बेधिआ = बेध दिया है। भाई = हे सज्जन! दहदिस = दसों दिशाओं में। बूडी = गुड्डी, पतंग। पवनु = हवा। झुलावै = झकोले देती है, उड़ाती है। डोरि = तवज्जो की डोरी।3।
अर्थ: हे सज्जन! (जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द रूपी तीर का आसरा लिया है) उसने (मानो) तीर-कमान चलाए बिना ही इस जगत को जीत लिया है (भाव, माया का जोर अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया); (दुनिया के काम-काज रूपी) हवा उसकी (जिंदगी की) पतंग को (चाहे देखने मात्र) को दशों-दिशाओं में उड़ाती है (भाव, चाहे जीवन-निर्वाह की खातिर वह काम-काज करता है), पर, उसकी तवज्जो की डोर (प्रभु के साथ) जुड़ी रहती है।3।
[[0333]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
उनमनि मनूआ सुंनि समाना दुबिधा दुरमति भागी ॥ कहु कबीर अनभउ इकु देखिआ राम नामि लिव लागी ॥४॥२॥४६॥
मूलम्
उनमनि मनूआ सुंनि समाना दुबिधा दुरमति भागी ॥ कहु कबीर अनभउ इकु देखिआ राम नामि लिव लागी ॥४॥२॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उनमनि = उनमन में, बिरह अवस्था में, उस हालत में जहाँ मन प्रभु को मिलने के लिए बेताब हो जाता है। दुबिधा = (दु+बिधा = दो विधियों की, दो तरह के आसरे देखने की हालत) दुचित्तापन। भागी = भाग जाती है। कबीर = हे कबीर! अनभउ = अपने अंदर से पैदा हुआ ज्ञान। इक अनभउ = आश्चर्यजनक अनुभव हुआ करिश्मा। नामि = नाम में।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: उस मनुष्य का मन बिरह अवस्था में पहुँच के उस हालत में लीन हो जाता है, जहाँ विकारों के फुरने नहीं उठते। उसकी दुविधा और उसकी बुरी मति सब नाश हो जाती है। वह एक आश्चर्यजनक करिश्मा अपने अंदर देख लेता है। उसकी तवज्जो प्रभु के नाम में जुड़ जाती है।4।2।46।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है वह गुरु के शब्द की इनायत से अपने मन को विकारों की ओर से रोक लेता है। वह निरबाह के लिए काम-कार तो करता है, पर उसकी तवज्जो सदा प्रभु चरणों में ही रहती है।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि तिपदे३ ॥ उलटत पवन चक्र खटु भेदे सुरति सुंन अनरागी ॥ आवै न जाइ मरै न जीवै तासु खोजु बैरागी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि तिपदे३ ॥ उलटत पवन चक्र खटु भेदे सुरति सुंन अनरागी ॥ आवै न जाइ मरै न जीवै तासु खोजु बैरागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलटत = उलटते ही, पलटते ही। पवन = हवा, (मन की) हवा, मन की चंचलता, विकारों की दौड़। खटु = छह। चक्र खटु = छह चक्र (जोगी लोग शरीर में छह चक्र मानते हैं: 1. मूलाधार: गुदा मण्डल का चक्र; 2. स्वाध्षि्ठान: लिंग की जड़ में; 3. मणिपुर चक्र: नाभि के पास; 4. अनाहत चक्र: हृदय के पास; 5. विशुद्ध चक्र: गले में; 6. आज्ञा चक्र: भौहों के बीच)। जब जोगी लोग समाधि लगाने लगते हैं, तो प्राणयाम से शुद्ध की हुई पवन को गुदा के नजदीक एक कुण्डलनी नाड़ी में चढ़ाते हैं, वह नाड़ी गुदा के चक्र से ले के दसवाँ द्वार तक पहुँचती है। बीच के चक्रों के साथ भी उस नाड़ी का मेल होता है। सो, जोगी पवन को मूलाधार चक्र से खींच के, बीच के चक्रों में से गुजार के दसवाँ-द्वार में ले जाते हैं और वहाँ रोक लेते हैं। जितना समय समाधि लगाए रखनी हो, उतनी देर तक प्राणों को नीचे उतरने नहीं देते।) भेदे = भेद दिए जाते हैं। सुंन = शून्य, सुन अवस्था, मन की वह हालत जहाँ इसमें कोई मायावी फुरना नहीं उठता। अनुरागी = अनुराग करने वाला, प्रेम करने वाला, प्रेमी, आशिक। सुंन अनुरागी = सुंन का प्रेमी। जीवै = पैदा होता है। तासु = उस (प्रभु) को। खोजु = ढूँढ। बैरागी = वैरागवान (हो के), विकारों से उपराम हो के, नफ़सानी ख्वाहिशों से हट के।1।
अर्थ: (हे भाई! वैरागी हो के) माया की तरफ से उपराम हो के उस प्रभु को तलाश, जो ना आता है, ना जाता है, ना मरता है, ना पैदा होता है। मन की भटकना को पलटाते ही, (मानो,) (जोगियों के बताए हुए) छहों चक्र (एक साथ ही) भेदित हो जाते हैं, और तवज्जो उस अवस्था की आशिक हो जाती है जहाँ विकारों का कोई फुरना पैदा ही नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन मन ही उलटि समाना ॥ गुर परसादि अकलि भई अवरै नातरु था बेगाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन मन ही उलटि समाना ॥ गुर परसादि अकलि भई अवरै नातरु था बेगाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे मन = हे मेरे मन! मन ही उलटि = मन (की पवन) को उलटा के ही, मन की विकारों की तरफ की दौड़ को पलटा के ही। समाना = (प्रभु में) लीन हो सकते हैं। परसादि = कृपा से। भई अवरै = और हो जाती है, बदल जाती है। नातरु = नहीं तो, इससे पहले तो। था = था। बेगाना = पराया, (प्रभु से) अलग।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जीव पहले तो प्रभु से बेगाना-बेगाना सा रहता है (भाव, परमात्मा के बारे में इसे कोई सूझ नहीं होती, पर) सतिगुरु की कृपा से जिस की समझ और तरह की हो जाती है, वह मन की विकारों की ओर की दौड़ को ही उलटा के प्रभु में लीन हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवरै दूरि दूरि फुनि निवरै जिनि जैसा करि मानिआ ॥ अलउती का जैसे भइआ बरेडा जिनि पीआ तिनि जानिआ ॥२॥
मूलम्
निवरै दूरि दूरि फुनि निवरै जिनि जैसा करि मानिआ ॥ अलउती का जैसे भइआ बरेडा जिनि पीआ तिनि जानिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवरै = नजदीक, नियरे। जिनि = जिस मनुष्य ने। जैसा करि = ज्यों का त्यों समझ के, सही तरीके से, असल रूप को। अलउती = मिश्री। बरेडा = शर्बत।2।
अर्थ: (इस तरह) जिस मनुष्य ने प्रभु को सही स्वरूप में समझ लिया है, उससे (वह कामादिक) जो पहले नजदीक थे, दूर हो जाते हैं, और जो प्रभु पहले कहीं दूर था (भाव, कभी याद ही नहीं था आता) अब अंग-संग प्रतीत होता है (पर ये एक ऐसा अनुभव है जो बयान नहीं किया जा सकता, सिर्फ इसकी अनुभूति ही की जा सकती है) जैसे मिश्री की शर्बत हो, उसका आनंद उसी मनुष्य ने जाना है जिसने (वह शर्बत) पीया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरी निरगुन कथा काइ सिउ कहीऐ ऐसा कोइ बिबेकी ॥ कहु कबीर जिनि दीआ पलीता तिनि तैसी झल देखी ॥३॥३॥४७॥
मूलम्
तेरी निरगुन कथा काइ सिउ कहीऐ ऐसा कोइ बिबेकी ॥ कहु कबीर जिनि दीआ पलीता तिनि तैसी झल देखी ॥३॥३॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुन कथा = उस स्वरूप (के दीदार) का बयान जो माया के तीन गुणों से परे है; उस स्वरूप का जिक्र जिस की उपमा मायावी जगत में से किसी चीज के साथ ना दी जा सके। काइ सिउ = किस आदमी से? कोइ = कोई विरला। बिबेकी = विचारवान। जिनि = जिस मनुष्य ने। पलीता = (प्रेम का) पलीता। तिनि = उसी मनुष्य ने। झल = झलक, चमत्कार।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ’ की पंक्ति में और पहले ‘बंद’ में ‘मन’ को संबोधन किया गया है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे कबीर! कह: (हे प्रभु!) तेरे उस स्वरूप की बातें किससे की जाएं जिस (स्वरूप) जैसा कहीं कुछ है ही नहीं? (क्योंकि एक तो) कोई विरला ही ऐसा विचारवान है (जो तेरी ऐसी बातें सुनने का चाहवान हो, और दूसरा, ये आनंद लिया ही जा सकता है, बयान से परे है) जिसने (जितना) प्रेम का पलीता लगाया है, उसने उतनी ही झलक देखी है।3।3।47।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जब सतिगुरु के उपदेश की इनायत से मनुष्य की समझ में तबदीली आती है, तो उसका मन विकारों की ओर से हटता है, और तवज्जो प्रभु की महिमा में जुड़ती है। ज्यों-ज्यों प्रभु की याद और प्रभु का प्यार हृदय में बढ़ता है, जीवन में एक अजीब सरूर पैदा होता है। पर वह सरूर बयान नहीं हो सकता।47।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ तुक में हुआ करता है। पहली तुक में दिए हुए छह चक्रों के भेदने से ये मतलब कत्तई नहीं निकल सकता कि कबीर जी योग-समाधि की प्रोढ़ता कर रहे हैं। वे तो बल्कि कह रहे हैं कि गुरु की शरण आ के मन को माया की ओर से रोकने वाले मनुष्य के छह चक्र भेदे गए समझो। नर्म शब्दों कह दिया है कि इन छह चक्रों को भेदने की जरूरत ही नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ तह पावस सिंधु धूप नही छहीआ तह उतपति परलउ नाही ॥ जीवन मिरतु न दुखु सुखु बिआपै सुंन समाधि दोऊ तह नाही ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ तह पावस सिंधु धूप नही छहीआ तह उतपति परलउ नाही ॥ जीवन मिरतु न दुखु सुखु बिआपै सुंन समाधि दोऊ तह नाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तह = वहां, उस अवस्था में, सहज अवस्था में। पावस = बरखा (वर्षा का राजा इंद्र माना गया है। इस वास्ते यहां इसका सटीक अर्थ है ‘इंद्रपुरी’, जहां बरसात की कोई कमी ही नहीं हो सकती) इन्द्रपुरी। सिंधु = समुंद्, खीर समुंदर, विष्णुपुरी।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पुराणों के अनुसार विष्णु भगवान खीर समुंदर में निवास रखते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
धूप = धूप, धूप का श्रोत, सूरज, सूर्यलोक। छहीआ = छाया, चंद्रलोक। उतपति = पैदाइश।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सृष्टि को पैदा करने वाला ब्रहमा को माना गया है, सो ब्रहमपुरी।
दर्पण-भाषार्थ
परलउ = नाश (शिव, सारी सृष्टि को नाश करने वाला है, सो) शिवपुरी। समाधि = टिकाव, जुड़ी हुई तवज्जो, ध्यान। सुंन = शून्य, मन की वह अवस्था जहां कोई विचार ना उठे, मायावी विचारों से शून्य वाली आत्मिक अवस्था। सुंन समाधि = मन की वह ठहराव वाली हालत जहां विकारों वाले कोई फुरने नहीं उठते। दोऊ = द्वैत, भेदभाव, मेर तेर।1।
अर्थ: (वह अडोल अवस्था ऐसी है कि) उस में (पहुँच के मनुष्य को) इंद्रपुरी, विष्णुपुरी, सूर्यलोक, चंद्रलोक, ब्रहमपुरी, शिवपुरी - (किसी की भी चाहत) नहीं रहती। ना (और ज्यादा) जीने (की लालसा), ना मौत (का डर), ना कोई दुख, ना सुख (भाव, दुख से घबराहट अथवा सुख की चाहत), सहज अवस्था में पहुँच के कुछ भी नहीं सताता। वह मन की एक ऐसी ठहराव वाली हालत होती है कि उसमें विकारों का कोई विचार उठता ही नहीं, ना ही कोई मेर-तेर रह जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज की अकथ कथा है निरारी ॥ तुलि नही चढै जाइ न मुकाती हलुकी लगै न भारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सहज की अकथ कथा है निरारी ॥ तुलि नही चढै जाइ न मुकाती हलुकी लगै न भारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = (सह जायते इति सहजं) जो जीव के साथ ही पैदा होता है, जो आत्मा का अपना असल है, ईश्वरीय सत्य, शांति, अडोलता। अकथ = जो मुकम्मल तौर पर बयान ना की जा सके। निरारी = निराली, अनोखी। तुलि = तुला पर, तराजू पर। तुलि नही चढै = तोली नहीं जा सकती, नापी नहीं जा सकती। जाइ न मुकाती = खत्म नहीं की जा सकती, उसका अंत नहीं पाया जा सकता।1। रहाउ।
अर्थ: मनुष्य के मन की अडोलता एक ऐसी हालत है जो (निराली) अपने जैसी खुद ही है, (इस वास्ते) उसका सही रूप बयान नहीं किया जा सकता। ये अवस्था किसी बढ़िया से बढ़िया सुख के बदले भी नापी-तोली नहीं जा सकती। (दुनिया में कोई ऐसा सुख-ऐश्वर्य नहीं है जिसके मुकाबले में ये कहा जा सके कि ‘सहज’ अवस्था इससे घटिया है या बढ़िया है)। ये नहीं कहा जा सकता कि (दुनिया के बढ़िया से बढ़िया किसी सुख से) ये हलके मेल की है अथपा ठीक है (भाव, दुनिया का कोई भी सुख इस अवस्था से बराबरी नहीं कर सकता)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरध उरध दोऊ तह नाही राति दिनसु तह नाही ॥ जलु नही पवनु पावकु फुनि नाही सतिगुर तहा समाही ॥२॥
मूलम्
अरध उरध दोऊ तह नाही राति दिनसु तह नाही ॥ जलु नही पवनु पावकु फुनि नाही सतिगुर तहा समाही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरध = नीचा। उरध = ऊँचा। अरध उरध दोऊ = अर्ध उर्ध का भेद, नीच ऊच का भेदभाव, ये ख्याल कि फलाना उच्च जाति का है ओर फलाना नीच जाति का। राति दिनसु तह नाही = उस सहज अवस्था मेंजीवों की रात वाली हालत भी नहीं और दिन वाली भी नहीं। जीव रात सो के गुजार देते हैं और दिन माया की भटकना में = ये दोनों बातें सहज अवस्था में नहीं होती। गफ़लत की नींद और माया की तरफ भटकना = इन दोनों का वहां अभाव है। जलु = पानी, (संसार समुंदर के विकारों का) जल। पवनु = हवा, मन की चंचलता। पावकु = आग, तृष्णा की आग।2।
अर्थ: ‘सहज’ में पहुँच के नीच-ऊँच वाला कोई भेद-भाव नहीं रहता; (यहां पहुँचा मनुष्य) ना गफ़लत की नींद (सोता है), ना माया की भटकना (में भटकता है) (क्योंकि) उस अवस्था में विषौ-विकार, चंचलता और तृष्णा - इनका नामो निशान नहीं रहता। (बस!) सतिगुरु ही सतिगुरु उस अवस्था में (मनुष्य के हृदय में) टिके होते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम अगोचरु रहै निरंतरि गुर किरपा ते लहीऐ ॥ कहु कबीर बलि जाउ गुर अपुने सतसंगति मिलि रहीऐ ॥३॥४॥४८॥
मूलम्
अगम अगोचरु रहै निरंतरि गुर किरपा ते लहीऐ ॥ कहु कबीर बलि जाउ गुर अपुने सतसंगति मिलि रहीऐ ॥३॥४॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके, अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = अ+गो+चरु, जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच ना हो। निरंतरि = (अंतर+विथ) अंतर के बिना, एक रस, सदा ही।3।
अर्थ: तब अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर परमात्मा (भी मनुष्य के हृदय में) एक-रस सदा (प्रगट हुआ) रहता है, (पर) वह मिलता सतिगुरु की मेहर से ही है।
हे कबीर! (तू भी) कह: मैं अपने गुरु से सदके हूँ, मैं (अपने गुरु की) सोहानी संगत में ही जुड़ा रहूँ।3।4।48।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: टीकाकार सज्जनों ने इस शब्द के बारे में दो अलग-अलग ख्याल दिए हैं। किसी ने लिया है कि यहां गुरु के रहने के स्थान का जिक्र है; किसी ने इस शब्द में सहज रूप परमात्मा का बयान समझा है; और कई सज्जन यहाँ सहज अथवा चौथी अवस्था के हाल का बयान किया हुआ मानते हैं।
पर शब्द का अर्थ करते समय किसी सज्जन ने भी हरेक शब्द के अर्थ देने से आगे कबीर जी का भाव समझने की कोशिश नहीं की। सारे टीकाकार ऐसा ही लिखते चले गए है;
“वहाँ बरखा ऋतु नहीं है, ना समुंदर है, ना धूप है, ना छाँव। ….वह ना हल्की लगती है ना भारी। नीचे ऊपर दिशा का वहाँ विचार नहीं है। ना रात है ना दिन, ना पानी है ना हवा। सतिगुरु वहां बसता है।…..”
इस अर्थ में से ये समझ नहीं पड़ सकती कि कबीर जी का असल भाव क्या है, और असली जीवन में ये शब्द हमारी क्या अगुवाई कर सकता है।
हरेक शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुकों में होता है। यहाँ साफ तौर पर ‘सहज’ अवस्था का जिक्र है। सो ये कहना गलत है, कि इस शब्द में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है, या गुरु साहिबानों के रहने के स्थान का बयान है।
फिर भी सहज अवस्था बाबत ये कहना कि ‘वहाँ धूप नहीं, वहां छाया नहीं, वहां बरसात नहीं, वह हल्की नहीं वह भारी नहीं, वहाँ दिन नहीं वहाँ रात नहीं, वहां हवा नही, वहां पानी नहीं, वहां आग नहीं।” ये एक अजीब सी बात लगती है। महापुरुषों की ये वाणी हरेक मनुष्य की जीवन-यात्रा में रहिबर का काम करती है। कविता के दृष्टिकोण से चाहे कितनी भी ऊँची व गहरी आत्म-उड़ान हो, फिर भी इसे पढ़ने वाले ने पहली बात ये देखनी है कि मुझे इस में से जीवन-राह के लिए क्या संदेश मिलता है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में जगह-जगह पर ‘सहज’ अवस्था का जिक्र है। नाम-स्मरण और महिमा की इनायत से ये अवस्था मिलती है; जैसे:
‘रसना गुण गोपाल निधि गाइण॥ सांति सहजु रहसु मनि उपजिओ सगले दूख पलाइण॥1। रहाउ। (टोडी महला ५)
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु की महिमा करने से मनुष्य के मन में सहज अवस्था पैदा होती है, मन में शांति उपजती है, मन में रहस (खिड़ाव) पैदा होता है।
दर्पण-टिप्पनी
यहां से ये बात स्पष्ट हो गई है सहज अवस्था कोई ऐसी अवस्था है जिसमें शांति और आनंद की अनुभूति (खिड़ाव) होना लाजमी है।
इसी तरह:ससू ते पिरि कीनी वाखि। देर जिठाणी मुई दूखि संतापि॥ घर के जिठेरे की चूकी काणि। पिरि रखिआ कीनी सुघड़ सुजाणि।१। सुनहु लोका मै प्रेम रसु पाइआ। दुरजन मारे वैरी संघारे, सतिगुरि मोकउ हरि नामु दिवाइआ। रहाउ। प्रथमै तिआगी हउमै प्रीति। दुतीआ तिआगी लोगा रीति। त्रैगुण तिआगि दुरजन मीत समाने। तुरीआ गुण मिलि साध पछाने।2। सहज गुफा महि आसणु बाधिआ। जोति सरूप अनाहदु वाजिआ। महा अनंदु गुर सबदु वीचारि। प्रिअ सिउ राती धन सुहागणि नारि॥३।४। (आसा महला ५)
दर्पण-भाव
भाव: जब सतिगुरु ने नाम की दाति बख्शी तो प्रभु से प्रेम करने का ऐसा स्वाद आया कि माया की ओर से मोह टूट गया; अहंकार और लोकलाज समाप्त हो गए, मन सहज अवस्था में टिक गया। ज्यों-ज्यों सतिगुरु के शब्द में चित्त जोड़ा, आनंद ही आनंद पैदा होता गया।
दर्पण-टिप्पनी
सिरे की बात ये कि जिस किसी भी शब्द में ‘सहज’ अवस्था की खिंची हुई तस्वीर देखोगे, वहां शांति, ठंड, अहम् के त्याग, खिड़ाव आदि का जिक्र दिखाई देगा। वरना और वह कौन सा स्वरूप है ‘सहज’ का, जो इन्सानी समझ में आ सके और मनुष्य के अमली जीवन में काम आ सके? सतिगुरु की वाणी ने इन्सान के जीवन में तबदीली पैदा करनी है; निरा दिमाग़ी तौर पर ही नहीं बल्कि अमली जीवन में भी। साधारण तौर पर आसा-तृष्णा का मारा हुआ जीव दर-दर पर भटकता है, चंचल मन इसको हर तरफ दौड़ाए फिरता है। यहां की तमन्नाएं अभी खत्म नहीं होती, परलोक के भी कई नक्शे खड़े कर लेता है। स्वर्ग आदि की आशाएं बना के कई देवी-देवताओं की पूजा करता है। उन देवताओं के रहने के अजीबो-गरीब ठिकाने इसने मान रखे हैं। कई ‘लोक’ और कई ‘पुरीयां’ इसके मन को आकर्षित करती हैं। कभी ब्राहमणों-पंडितों से कहानियां सुन के देखो, इन्द्रपुरी, शिवपुरी, ब्रहमपुरी, विष्णुपुरी, सूर्य लोक, चंद्र लोक, पित्र लोक आदि के ही जिक्र होंगे। सुन-सुन के श्रोता के मुँह में पानी भर आता कि कैसे हमें भी वहाँ पहुँचना नसीब हो। तीर्थ यात्रा, दान-पुण्य आदि सारे कर्मकांडों का निशाना यही ‘पुरीयां’ व ‘लोक’ ही तो हैं। ये बात वहां कोई दुर्लभ व्यक्ति ही सोचता है कि कौन सा जीवन जी रहे हैं, इसका क्या हाल है, यहां मन को कोई ठंड-शांति मिलती है कि नहीं? और जो निशाने इन धार्मिक लोगों ने बनाए होते हैं उनकी अस्लियत ऐसे बताई जा रही है:
“इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो॥ ओछे तप करि बाहरि ऐबो॥१॥ किआ मांगउ किछु थिरु नाही॥ राम नाम रखु मन माही॥१॥ रहाउ॥ …कहत कबीर अवर नाही कामा॥ हमरै मन धन राम को नामा॥ (धनासरी कबीर जी)
दर्पण-भाव
भाव: तप आदि करके इन्द्रपुरी शिवपुरी आदि में पहुँचने की चाहत त्याग दो। तुम्हारे शास्त्र ही कहते हैं कि तपों का असर समाप्त होने पर इन पुरियों से भी निकाल दिए जाओगे। जबकि सदा साथ निभाने वाली राशि-पूंजी प्रभु का नाम ही है। और;
दर्पण-टिप्पनी
कवन असथानु जो कबहु न टरै॥ कवनु सबदु जितु दुरमति हरै॥१॥ रहाउ॥ इंद्रपुरी महि सरपर मरणा॥ ब्रहमपुरी निहचलु नही रहिणा॥ सिवपुरी का होइगा काला॥ त्रैगुण माइआ बिनसि बिताला॥२॥ …सहज सिफति भगति ततु गिआना॥ सदा अनंदु निहचलु सचु थाना॥ तहा संगति साध गुण रसै॥ अनभउ नगरु तहा सद वसै॥६॥४॥ (गउड़ी महला ५, असटपदीआं)
दर्पण-भाव
भाव: सहज अवस्था में पहुँच के प्रभु की महिमा करनी; ये सदा अटल रहने वाली बख्शिश है। इसके मुकाबले पर इंद्रपुरी, ब्रहमपुरी, शिवपुरी आदि सब तुच्छ हैं।
“सहज” इन्सानी मन की एक खास अवस्था का नाम है, पूर्ण खिड़ाव व अडोलता का नाम है, जहां पहुँच के दुनिया के बड़े से बड़े लालच आदमी को गिरा नहीं सकते। सो, कबीर जी के इस शब्द में चुँकि ‘सहज’ अवस्था का ही जिक्र है, इसका अर्थ करते समय यही ख्याल रखना है कि यहां मनुष्य की एक उच्च आत्मिक अवस्था का हाल है, जो पूरे तौर पर बयान नहीं की जा सकती। शब्द में जो पावस, सिंध आदि शब्द बरते गए हैं, इनके कोई और गहरे अर्थ हैं, जो ‘सहज’ के साथ दरुस्त बैठते हों।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी२ ॥ पापु पुंनु दुइ बैल बिसाहे पवनु पूजी परगासिओ ॥ त्रिसना गूणि भरी घट भीतरि इन बिधि टांड बिसाहिओ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी२ ॥ पापु पुंनु दुइ बैल बिसाहे पवनु पूजी परगासिओ ॥ त्रिसना गूणि भरी घट भीतरि इन बिधि टांड बिसाहिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैल = बल्द। बिसाहे = खरीदे हैं। पवनु = स्वास। पूजी = रास। परगासिओ = (‘सारा संसार’) प्रगट हुआ है, पैदा हुआ है। गूणि = थैला, माल (जिसका सौदा हुआ होता है)। घट भीतरि = हृदय में। इन बिधि = इस तरीके से। टांड = माल, सौदा, व्यापार के माल से लादा हुआ बैलों का कारवाँ। बिसाहिओ = खरीदा है।1।
अर्थ: (सारे संसारी जीव-रूपी बंजारों ने) पाप और पुण्य दो बैल मूल्य लिए हैं, श्वासों की पूंजी ले के पैदा हुए हैं (भाव, मानो, जगत में व्यापार करने आए हैं)। (हरेक के) हृदय में तृष्णा की थैली लदी हुई है। सो, इस तरह (इन जीवों ने) माल लादा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा नाइकु रामु हमारा ॥ सगल संसारु कीओ बनजारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा नाइकु रामु हमारा ॥ सगल संसारु कीओ बनजारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइकु = नायक, शाह।1। रहाउ।
अर्थ: हमारा प्रभु कुछ ऐसा शाह है कि उसने सारे जगत (भाव, सारे संसारी जीवों) को व्यापारी बना (के जगत में) भेजा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु क्रोधु दुइ भए जगाती मन तरंग बटवारा ॥ पंच ततु मिलि दानु निबेरहि टांडा उतरिओ पारा ॥२॥
मूलम्
कामु क्रोधु दुइ भए जगाती मन तरंग बटवारा ॥ पंच ततु मिलि दानु निबेरहि टांडा उतरिओ पारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगाती = महसूलिए। मन तरंग = मन की तरंगे, मन की लहरें। बटवारा = डाकू, लुटेरे। पंच ततु = पाँच तत्वी शरीर। दानु = बख्शिश, ईश्वर से मिली हुई स्वासों की पूंजी रूपी कृपा। निबेरहि = निपटाता है। टांडा = लादा हुआ व्यापार का माल। उतरिओ पारा = उस पार लांघ जाता है।2।
अर्थ: काम क्रोध दोनों (इन जीव-व्यापारियों के) राह में महसूलिए बने बैठे हैं (भाव,श्वासों की पूंजी का कुछ हिस्सा काम और क्रोध में फंसने के कारण खत्म होता जा रहा है), जीवों के मनों की तरंगे लुटेरे बन रही हैं (भाव, मन की कई किस्म की तरंगे उम्र का काफी हिस्सा खर्च किए जा रही हैं)। ये काम-क्रोध और मन की लहरें, शरीर के साथ मिल के सारी की सारी उम्र-रूपी राशि पूंजी को खत्म किए जा रहे हैं, और तृष्णा रूपी माल-असबाब (जो जीवों ने लादा हुआ है, हू-ब-हू) उस पार लांघता जा रहा है (भाव, जीव जगत से निरी तृष्णा ही अपने साथ लिए जाते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहत कबीरु सुनहु रे संतहु अब ऐसी बनि आई ॥ घाटी चढत बैलु इकु थाका चलो गोनि छिटकाई ॥३॥५॥४९॥
मूलम्
कहत कबीरु सुनहु रे संतहु अब ऐसी बनि आई ॥ घाटी चढत बैलु इकु थाका चलो गोनि छिटकाई ॥३॥५॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब (जब राम के नाम की घाटी चढ़नी शुरू की)। ऐसी बनि आई = एसी हालत बन गई है। बैलु इकु = (पाप और पुण्य दो बैलों में से) एक बैल, पाप रूपी बैल। चलो = चल पड़ा। गोनि = (तृष्णा की) थैली। छिटकाई = फेंक के, बिखरा के।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘चलो’ में अक्षर ‘ल’ के नीचे आधा ‘य’ पढ़ना है (‘चल्यो’), यह शब्द ‘हुकमी भविष्यत्’ imperative mood नहीं है, उसका जोड़ ‘चलहु’ होता है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो, अब ऐसी हालत बन रही है कि प्रभु का स्मरण रूपी चढ़ाई का मुश्किल रास्ता तय करने वाले जीव-बनजारों का पाप-रूपी एक बैल थक गया है। वह बैल तृष्णा वाला माल असबाब फेंक के भाग गया है (भाव, जो जीव वणजारे नाम-जपने वाले मुश्किल राह पर चलते हैं, वे पाप करने छोड़ देते हैं और उनकी तृष्णा समाप्त हो जाती है)।3।5।49।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: ये जगत व्यापार की मण्डी है, जीव व्यापारी हैं, हरेक जीव को स्वासों की राशि मिली हुई है। पर आम तौर पर हर कोई तृष्णा वाला माल असबाब उठाए घूम रहा है; काम-क्रोध और अन्य मन की तरंगों में जीव की उम्र खत्म हो जाती है और तृष्णा में बंधे हुए ही यहाँ से चले जाते हैं। जिस किसी दुर्लभ जीव ने प्रभु के नाम-स्मरण का मुश्किल राह अपनाया है, वह पापों से बच जाता है और उसकी तृष्णा यहीं समाप्त हो जाती है।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी३ पंचपदा ॥ पेवकड़ै दिन चारि है साहुरड़ै जाणा ॥ अंधा लोकु न जाणई मूरखु एआणा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी३ पंचपदा ॥ पेवकड़ै दिन चारि है साहुरड़ै जाणा ॥ अंधा लोकु न जाणई मूरखु एआणा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेवकड़ै = (पेवका = पिता का) घर, पिता के घर में, इस संसार में। साहुरड़ै = ससुर के घर में, परलोक में। एआणा = अंजान।1।
अर्थ: अंजान मूर्ख अंधा जगत नहीं जानता कि (जीव-स्त्री ने इस संसार-रूपी) पिता के घर में चार दिन (भाव, थोड़े दिन) ही रहना है, (हरेक ने परलोक रूपी) ससुराल घर (जरूर) जाना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु डडीआ बाधै धन खड़ी ॥ पाहू घरि आए मुकलाऊ आए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कहु डडीआ बाधै धन खड़ी ॥ पाहू घरि आए मुकलाऊ आए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = बताओ। डडीआ = आधी धोती जो घर में काम-काज करते समय बाँधी जाती है। धन = स्त्री। डडीआ…खड़ी = स्त्री अभी घर के काम काज वाली धोती ही बाँध के खड़ी हुई है, जीव-स्त्री अभी लापरवाह ही है। पाहू = प्राहुणे। घरि = घर में। मुकलाऊ = मुकलावा ले के जाने वाले (गउना ले के आने वाले)।1। रहाउ।
अर्थ: बताओ! (ये कैसी आश्चर्यजनक खेल है?) मुकलावा (गउना) ले के जाने वाले मेहमान (भाव, जिंद को ले जाने वाले जम) घर में आए बैठे हैं, और स्त्री अभी घर के काम-काज वाली आधी धोती ही बाँध के खड़ी है, तैयार हुए बगैर ही घूम रही है (भाव, जीव-स्त्री इस संसार के मोह में ही लापरवाह है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओह जि दिसै खूहड़ी कउन लाजु वहारी ॥ लाजु घड़ी सिउ तूटि पड़ी उठि चली पनिहारी ॥२॥
मूलम्
ओह जि दिसै खूहड़ी कउन लाजु वहारी ॥ लाजु घड़ी सिउ तूटि पड़ी उठि चली पनिहारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओह खूहड़ी = वह सुंदर सी कूई (छोटा कूआँ)। जि दिसै = जो दिखाई दे रही है। उह…खूहड़ी = ये जो सुंदर सी कूई दिख रही है, जो सुहाना जगत दिख रहा है। कउन = कौन सी जीव-स्त्री? लाजु = रस्सी। वहारी = डाल रही है। सिउ = समेत। पनिहारी = पानी भरने वाली, विषौ भोगने वाले जीव।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘लाजु’ और ‘लाज’ में फर्क है। ‘लाजु’ संस्कृत के शब्द ‘रज्जु’ से बना है, जिसके आखिर में ‘ु’ की मात्रा है। संस्कृत में यह पुलिंग था, पुरानी और नई पंजाबी में स्त्रीलिंग है। शब्द ‘लाज’ का अर्थ है ‘शर्म, हया’; इसके अंत में ‘ु’ मात्रा नहीं है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: ये जो सुंदर कूंई दिखाई दे रही है (भाव, ये जो सुंदर जगत दिख रहा है) इस में कौन सी स्त्री लज (रस्सी) बहा रही है (भाव, यहाँ जो भी आता है, अपनी उम्र संसारिक भोगों में गुजारने लग पड़ता है)। जिसकी रस्सी घड़े समेत टूट जाती है (भाव, जिसकी उम्र खत्म हो जाती है, और शरीर गिर पड़ता है) वह पानी भरने वाली (पनिहारिन) (भाव, भोगों में प्रवृत्त) यहाँ से उठ के (परलोक को) चल पड़ती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहिबु होइ दइआलु क्रिपा करे अपुना कारजु सवारे ॥ ता सोहागणि जाणीऐ गुर सबदु बीचारे ॥३॥
मूलम्
साहिबु होइ दइआलु क्रिपा करे अपुना कारजु सवारे ॥ ता सोहागणि जाणीऐ गुर सबदु बीचारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहागणि = सोहाग वाली, पति वाली, पति को याद रखने वाली।3।
अर्थ: अगर प्रभु मालिक दयाल हो जाए, (जीव-स्त्री पर) मेहर करे तो वह (जीव-स्त्री को संसार-कूप में से भोगों का पानी निकालने से बचाने का) काम अपना जान के खुद ही सिरे चढ़ाता है; (उसकी मेहर से जीव-स्त्री जब) गुरु के शब्द को विचारती है (भाव, चित्त में बसाती है) तो वह पति वाली समझी जाती है।3।
[[0334]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरत की बांधी सभ फिरै देखहु बीचारी ॥ एस नो किआ आखीऐ किआ करे विचारी ॥४॥
मूलम्
किरत की बांधी सभ फिरै देखहु बीचारी ॥ एस नो किआ आखीऐ किआ करे विचारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरत = किए हुए (काम)। किरत की बाँधी = पिछले किए हुए कर्मों के संस्कारों की बंधी हुई। सभ = सारी सृष्टि। बीचारी = विचार के। एस नो = इस जीव को। विचारी = बेचारी जीव-स्त्री।4।
अर्थ: (पर, हे भाई!) अगर विचार के देखो, तो इस जीव-स्त्री का क्या दोश? ये बिचारी क्या कर सकती है? (यहां तो) सारी दुनिया पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बंधी हुई भटक रही है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भई निरासी उठि चली चित बंधि न धीरा ॥ हरि की चरणी लागि रहु भजु सरणि कबीरा ॥५॥६॥५०॥
मूलम्
भई निरासी उठि चली चित बंधि न धीरा ॥ हरि की चरणी लागि रहु भजु सरणि कबीरा ॥५॥६॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरासी = आशाएं पूरी होने के बिना ही। न बंधि = ना बंधे, नहीं बंधती। धीरा = धैर्य, टिकाव। भजु = पड़।5।
अर्थ: आशाएं सिरे नहीं चढ़ रहीं (नहीं पूरी हो रहीं), मन धीरज नहीं धरता और (जीव-स्त्री यहाँ से) उठ चलती है। हे कबीर! (इस निराशता से बचने के लिए) तू प्रभु के चरणों में लगा रह, प्रभु का आसरा लिए रख।5।6।50।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: आश्चर्यजनक खेल बनी हुई है। जो भी जीव यहाँ आता है, मालिक प्रभु से गाफिल हो के (टूट के) दुनियां के भोगों में उलझ जाता है। पर फिर भी मौजों की मिथी हुई उम्मीदें पूरी नहीं होती। उम्र खत्म हो जाती है और निराशता में ही चलना पड़ता है। जिस जीव पर प्रभु मेहर करता है वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की याद में जुड़ता है।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी२ ॥ जोगी कहहि जोगु भल मीठा अवरु न दूजा भाई ॥ रुंडित मुंडित एकै सबदी एइ कहहि सिधि पाई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी२ ॥ जोगी कहहि जोगु भल मीठा अवरु न दूजा भाई ॥ रुंडित मुंडित एकै सबदी एइ कहहि सिधि पाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहहि = कहते हैं। भल = अच्छा। अवरु = कोई और साधन। भाई = हे भाई! रुंड = सिर से बिना निरा धड़। रुंडित सुंडित = रोड़ मोड किए हुए सिरों वाले, सरेवड़े और सन्यासी। एक सबदी = अलख अलख कहने वाले अवधूत, गुसांई दत्त मत के लोग, जो कमर से ऊन के गोले बाँध के रखते हैं और हाथों में चिप्पियां रखते हैं। एइ = ये सारे। सिधि = सफलता।1।
अर्थ: जोगी कहते हैं: हे भाई! जोग (का मार्ग ही) बढ़िया और मीठा है, (इस जैसा) और कोई (साधन) नहीं है। सरेवड़े सन्यासी अवधूत, ये सारे कहते हें- हमने ही सिद्धि पाई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु भरमि भुलाने अंधा ॥ जा पहि जाउ आपु छुटकावनि ते बाधे बहु फंधा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिनु भरमि भुलाने अंधा ॥ जा पहि जाउ आपु छुटकावनि ते बाधे बहु फंधा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमि = भर्म में, भुलेखे में। जा पहि = जिस के पास। जाउ = मैं जाता हूँ। आपु = स्वै भाव, अहंकार। छुटकावनि = दूर कराने के लिए। ते = वह सारे। फंधा = फंदों में।1। रहाउ।
अर्थ: अंधे लोग परमातमा को बिसार के (प्रभु का स्मरण छोड़ के) भुलेखे में पड़े हुए हैं; (यही कारण है कि) मैं जिस-जिस के पास अहंकार से छुटकारा कराने जाता हूँ, वह सारे खुद ही अहंकार कई रस्सियों में बंधे पड़े हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह ते उपजी तही समानी इह बिधि बिसरी तब ही ॥ पंडित गुणी सूर हम दाते एहि कहहि बड हम ही ॥२॥
मूलम्
जह ते उपजी तही समानी इह बिधि बिसरी तब ही ॥ पंडित गुणी सूर हम दाते एहि कहहि बड हम ही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह ते = जिस जगह से, जिस कारण से। उपजी = पैदा हुई है, ये अहंकार वाली हालत पैदा हुई है। तही = उसी में, उसी कारण में (जिसने अहं पैदा की)।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इस ‘उपजे’ अहंकार का कारण ‘रहाउ’ की पंक्ति में दिया गया है, वह है ‘हरि बिनु’ भाव, प्रभु से विछोड़ा)।
दर्पण-भाषार्थ
समानी = समाई हुई है, सारी लुकाई टिकी हुई है। इह बिधि = इस कारण। तब ही = तभी। बिसरी = भूली हुई है, दुनिया भुलेखे में पड़ी हुई है। सूर = सूरमे। दाते = दान करने वाले। एहि = यह सारे।2।
अर्थ: जिस (प्रभु-वियोग) से ये अहंकार उपजता है उस (प्रभु-वियोग) में ही (सारी लुकाई) टिकी हुई है (भाव, प्रभु की याद भुलाने से मनुष्य के अंदर अहंकार पैदा होता है और सारी दुनिया प्रभु को ही भुलाए बैठी है), इसी कारण, तभी तो दुनिया भुलेखे में है (भाव, हरेक वेष वाला अपने ही बाहरी चिन्ह आदि को जीवन का सही रास्ता कह रहा है)। पंडित, गुणी, सूरमे, दाते; ये सारे (नाम से विछुड़ के) यही कहते हैं कि हम सबसे बड़े हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसहि बुझाए सोई बूझै बिनु बूझे किउ रहीऐ ॥ सतिगुरु मिलै अंधेरा चूकै इन बिधि माणकु लहीऐ ॥३॥
मूलम्
जिसहि बुझाए सोई बूझै बिनु बूझे किउ रहीऐ ॥ सतिगुरु मिलै अंधेरा चूकै इन बिधि माणकु लहीऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसहि = जिसे। सोई = वही मनुष्य। किउ रहीऐ = रहा नहीं जा सकता, जीना व्यर्थ है। चूकै = समाप्त हो जाता है। माणकु = नाम-रूपी लाल। लहीऐ = मिलता है।3।
अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं मति देता है वही (असली बात) समझता है और (उस असली बात को) समझे बिना जीवन ही व्यर्थ है। (वह अस्लियत ये है कि जब मनुष्य को) सतिगुरु मिलता है (तो इसके मन में से अहंकार का) अंधेरा दूर हो जाता है और इस तरह (इसे अंदर से ही नाम-रूपी) लाल मिल जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि बावे दाहने बिकारा हरि पदु द्रिड़ु करि रहीऐ ॥ कहु कबीर गूंगै गुड़ु खाइआ पूछे ते किआ कहीऐ ॥४॥७॥५१॥
मूलम्
तजि बावे दाहने बिकारा हरि पदु द्रिड़ु करि रहीऐ ॥ कहु कबीर गूंगै गुड़ु खाइआ पूछे ते किआ कहीऐ ॥४॥७॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के, छोड़ के। बावे दाहने बिकारा = बाँए-दाएं के विकार। हरि पदु = प्रभु (के चरणों में जुड़े रहने) का दर्जा। द्रिढ़ु = दृढ़, पक्का। कहु = कहो। किआ कहीऐ = कहा नहीं जा सकता, क्या कहें, बयान नहीं हो सकता।4।
अर्थ: सो, हे कबीर! कह: दाएं-बाएं के (इधर-उधर के) विकारों के विचार छोड़ के प्रभु की याद का (सामने वाला) निशाना पक्का करके रखना चाहिए। (और जैसे) गूँगे मनुष्य ने गुड़ खाया हो (तो) पूछने पर (उसका स्वाद) नहीं बता सकता (वैसे ही प्रभु के चरणों में जुड़ने का आनंद बयान नहीं किया जा सकता)।4।7।51।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: कोई जोगी हो, सरेवड़ा हो, सन्यासी हो, पंडित हो, सूरमा हो, दानी हो- कोई भी हो, जो मनुष्य प्रभु की बंदगी नहीं करता उसका अहंकार दूर नहीं होता, और अहम् दूर हुए बिना वह अभी बीच में ही भटक रहा है। सही जीवन के लिए रौशनी करने वाला प्रभु का नाम ही है और ये नाम सतिगुरु से मिलता है।51।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी१ कबीर जी ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी१ कबीर जी ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह कछु अहा तहा किछु नाही पंच ततु तह नाही ॥ इड़ा पिंगुला सुखमन बंदे ए अवगन कत जाही ॥१॥
मूलम्
जह कछु अहा तहा किछु नाही पंच ततु तह नाही ॥ इड़ा पिंगुला सुखमन बंदे ए अवगन कत जाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस मन में। कछु = कुछ। अहा = थी। पंच ततु = पाँचों तत्वों से बने हुए शरीर (का मोह), देह अध्यास। इड़ा = दाहिनी नासिका, दाई सुर। पिंगला = बांई सुर। सुखमन = ईड़ा और पिंगुला के बीच (भौहों के बीच) नाड़ी की जगह जहाँ जोगी प्राणयाम के समय प्राण टिकाते हैं। बंदे = हे बंदे! हे भाई!
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कई सज्जन इसका अर्थ करते हैं: “बंद करता था”। ये ठीक नहीं है; इस हालत में शब्द होना चाहिए था ‘बंधे’।
दर्पण-भाषार्थ
अवगन = अवगुण। कत जाही = कहाँ चले जाते हैं? (भाव, दूर हो जाते हैं)।1।
अर्थ: (हे कबीर! मेरी लगन प्रभु-चरणों में लग रही है) जिस (मेरे) मन में (पहले) ममता थी, अब (लगन की इनायत से) उस में से ममता समाप्त हो गई है, अपने शरीर का मोह भी नहीं रह गया। हे भाई! ईड़ा-पिंगला-सुखमना वाले (प्राण चढ़ाने और रोकने आदि के) तुच्छ कर्म तो पता ही नहीं कहां चले जाते हैं (भाव, जिस मनुष्य की तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ गई है, उसे प्राणयाम आदि साधन तो लगते ही बेमतलब के तुच्छ कार्य हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तागा तूटा गगनु बिनसि गइआ तेरा बोलतु कहा समाई ॥ एह संसा मो कउ अनदिनु बिआपै मो कउ को न कहै समझाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तागा तूटा गगनु बिनसि गइआ तेरा बोलतु कहा समाई ॥ एह संसा मो कउ अनदिनु बिआपै मो कउ को न कहै समझाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तागा = धागा, मोह की तार। गगनु = आकाश, पसारा, मोह का पसारा। तेरा बोलतु = ‘तेरा’ बोलने वाला (भाव, ‘मेर-तेर’ कहने वाला मन, भेदभाव करने का स्वभाव)। कहा समाई = कहाँ जा के लीन होता है? (भाव, पता नहीं कहाँ जाता है, नाश ही हो जाता है, उसका पता ठिकाना नहीं रहता कि कहां चला गया, नामो-निशान मिट जाता है)। संसा = शक, हैरानी। अनदिनु = हर रोज।1। रहाउ।
अर्थ: (प्रभु-चरणों में लगन से मेरा मोह का) धागा टूट गया है, मेरे अंदर से मोह का पसारा समाप्त हो गया है, भेदभाव करने वाले स्वभाव का नामो-निशान ही मिट गया है। (इस तबदीली की) हैरानी मुझे हर रोज होती है (कि ये कैसे हो गया, पर) कोई मनुष्य ये समझा नहीं सकता (क्योंकि, ये अवस्था समझाई नहीं जा सकती, अनुभव ही की जा सकती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह बरभंडु पिंडु तह नाही रचनहारु तह नाही ॥ जोड़नहारो सदा अतीता इह कहीऐ किसु माही ॥२॥
मूलम्
जह बरभंडु पिंडु तह नाही रचनहारु तह नाही ॥ जोड़नहारो सदा अतीता इह कहीऐ किसु माही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहां, जिस मन में। बरवंडु = सारा जगत, दुनिया का मोह। पिंडु = (अपना) शरीर, अपने शरीर का मोह, देह अध्यास। तह = उस मन में। रचनहारु = बनाने वाला, मोह का ताना-बाना बुनने वाला, मोह का जाल बनाने नाला मन। अतीता = माया के मोह से निर्लिप। किसु माही = किसे?।2।
अर्थ: जिस मन में (पहले) सारी दुनिया (के धन का मोह) था, (लगन की इनायत से) उस में अब अपने शरीर का भी मोह ना रहा, मोह के ताने बुनने वाला वह मन ही नही रहा। अब तो माया के मोह से निर्लिप जोड़ने वाला प्रभु खुद ही (मन में) बस रहा है। पर, यह अवस्था किसी के पास बयान नहीं की जा सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोड़ी जुड़ै न तोड़ी तूटै जब लगु होइ बिनासी ॥ का को ठाकुरु का को सेवकु को काहू कै जासी ॥३॥
मूलम्
जोड़ी जुड़ै न तोड़ी तूटै जब लगु होइ बिनासी ॥ का को ठाकुरु का को सेवकु को काहू कै जासी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। बिनासी = नाशवान शरीर के साथ एक रूप, शरीर के साथ प्यार करने वाला, देह अध्यासी। काहू कै = किस के पास? किसके घर? कौ = कौन?।3।
अर्थ: जब तक (मनुष्य का मन) नाशवान (शरीर के साथ एक-रूप) रहता है, तब तक इसकी प्रीति ना (प्रभु से) जोड़े जुड़ सकती है, ना ही (माया से) तोड़े टूट सकती है। (इस अवस्था में ग्रसे हुए) मन का ना ही प्रभु (सही मायने में) पति है (मालिक है), ना ये मन प्रभु का सेवक बन सकता है। फिर किस ने किस के पास जाना है? (भाव, यह देह अध्यासी मन शरीर के मोह में से ऊूंचा उठ के प्रभु के चरणों में जाता ही नहीं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु कबीर लिव लागि रही है जहा बसे दिन राती ॥ उआ का मरमु ओही परु जानै ओहु तउ सदा अबिनासी ॥४॥१॥५२॥
मूलम्
कहु कबीर लिव लागि रही है जहा बसे दिन राती ॥ उआ का मरमु ओही परु जानै ओहु तउ सदा अबिनासी ॥४॥१॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जहा = और वहां, उस प्रभु में। उआ का = उस (प्रभु) का। मरमु = भेद, अंत। ओही = वह (प्रभु) स्वयं ही।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द को ठीक तरह समझने की कूँजी शब्द के चौथे बंद की पहली पंक्ति में है “कहु कबीर, लिव लागि रही है”।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे कबीर! कह: मेरी तवज्जो (प्रभु के चरणों में) लगी रहती है और दिन रात वहीं ही टिकी रहती है (पर इस तरह मैं उसका भेद नहीं पा सकता)। उसका भेद वह खुद ही जानता है, और वह है सदा कायम रहने वाला।4।1।52।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में कहीं भी कोई ऐसा इशारा नहीं मिलता, जिससे ये अंदाजा लगाने की आवश्यक्ता पड़े कि किसी योगाभ्यासी जोगी के मरने पर ये शब्द उचारा गया है। भला, जोगी के मरने पे कबीर जी को हर रोज क्यूँ ये ‘संशय’ व्यापनी थी कि जोगी की ‘बोलती’ आत्मा कहां चली गई? ना ही इसमें प्राणयाम और योगाभ्यास के बारे में कोई प्रश्नोत्तर दिखते हैं। कबीर जी सिर्फ भक्त ही नहीं थे, वे एक महान ऊूंची उड़ान वाले कवि भी थे। उनकी वाणी की गहराई को समझने की कोशिश करें। कहानियां जोड़ जोड़ के आसान रास्ते तलाशने के यत्न ना करते रहें।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जिस मनुष्य की लिव प्रभु-चरणों में लगती है, उसके अंदर से जगत का और अपने शरीर का मोह मिट जाता है। एक ऐसी आश्चर्यजनक खेल बनती है कि उसके मन में भेदभाव का नामो-निशान नहीं रह जाता। इस आनंद के सामने उसे प्राणयाम आदि साधन होछे से दिखाई देते हैं।52।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ सुरति सिम्रिति दुइ कंनी मुंदा परमिति बाहरि खिंथा ॥ सुंन गुफा महि आसणु बैसणु कलप बिबरजित पंथा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ सुरति सिम्रिति दुइ कंनी मुंदा परमिति बाहरि खिंथा ॥ सुंन गुफा महि आसणु बैसणु कलप बिबरजित पंथा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरति = सुनना, (प्रभु में) ध्यान जोड़ना। सिम्रिति = स्मृति, याद करना, स्मरणा। परमिति = (संस्कृत: प्रमिति = accurate notion or conception) सही जानकारी, यर्थाथ ज्ञान। खिंथा = गोदड़ी। सुंन = शून्य, वह हालत जहां माया का कोई फुरना ना उठे। कलप = कल्पना। बिबरजित = विवर्जित, मना किया हुआ, रहित। पंथ = धार्मिक रास्ता।1।
अर्थ: प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़नी और प्रभु का नाम स्मरणा- ये मानो, मैंने दोनों कानों में मुंद्रें (कुण्डल) पहनी हुई हैं। प्रभु का सच्चा ज्ञान- ये मैंने अपने पर गोदड़ी ली हुई है। शून्य अवस्था रूपी गुफ़ा में मैं आसन लगाए बैठा हूँ (भाव, मेरा मन ही मेरी गुफा है; जहाँ मैं दुनियावी धंधों वाले कोई फुरने नहीं उठने देता और इस तरह अपने अंदर, जैसे, एक एकांत में ही बैठा हूँ)। दुनिया की कल्पनाएं त्याग देनी- यही है मेरा (जोग-) पंथ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राजन मै बैरागी जोगी ॥ मरत न सोग बिओगी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राजन मै बैरागी जोगी ॥ मरत न सोग बिओगी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागी = वैरागवान, लगन वाला। मरत = मौत। सोग = शोक। बिओगी = वियोग, विछोड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे पातशाह (प्रभु!) मैं (तेरी याद की) लगन वाला जोगी हूँ, (इस वास्ते) मौत (का डर) चिन्ता और बिछोड़ा मुझे नहीं सताते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खंड ब्रहमंड महि सिंङी मेरा बटूआ सभु जगु भसमाधारी ॥ ताड़ी लागी त्रिपलु पलटीऐ छूटै होइ पसारी ॥२॥
मूलम्
खंड ब्रहमंड महि सिंङी मेरा बटूआ सभु जगु भसमाधारी ॥ ताड़ी लागी त्रिपलु पलटीऐ छूटै होइ पसारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहमंड = सारा जगत। सिंङी = (उच्चारण: सिंगीं) (संस्कृत: श्रृंग = a horn used for blowing) श्रृंग जो जोगी बजाते हैं। बटूआ = भस्म रखने वाला जोगी का थैला। भसम = राख। भसमाधारी = भस्म आधारी, राख डालने वाला। पसारी = गृहस्थी। छूटै = मुक्त हूँ।2।
अर्थ: सारे खण्डों-ब्रहमण्डों में (प्रभु की व्यापक्ता का सब को संदेशा देना) - मानो, ये मैं श्रृंगी बजा रहा हूँ। सारे जगत को नाशवान समझना- ये है मेरा भस्म वाला थैला। त्रिगुणी माया के प्रभाव के प्रभाव को मैंने पलटा दिया है; यह मानो, मैंने ताड़ी लगाई हुई है। इस तरह मैं गृहस्थी होता हुआ भी मुक्त हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु पवनु दुइ तू्मबा करी है जुग जुग सारद साजी ॥ थिरु भई तंती तूटसि नाही अनहद किंगुरी बाजी ॥३॥
मूलम्
मनु पवनु दुइ तू्मबा करी है जुग जुग सारद साजी ॥ थिरु भई तंती तूटसि नाही अनहद किंगुरी बाजी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवनु = हवा, श्वास। तूंबा = एक किस्म का सूखा हुआ कद्दू, जो सितार, वीणा आदि तंती साजों में इस्तेमाल किया जाता है। वीणा की डंडी के दोनों तरफ दो तूंबे बंधे होते हैं, जिसके कारण तंती की सुर सुरीली बन जाती है। सारद = वीणा की डण्डी। साजी = बनाई। जुग जुग = जुगों-जुगों में स्थिर रही। अनहद = एक रस। थिरु = स्थिर।3।
अर्थ: (मेरे अंदर) एक-रस किंगुरी (वीणा) बज रही है। मेरा मन और साँसें (उस किंगुरी के) दोनों तूंबे हैं। सदा स्थिर रहने वाला प्रभु (मन और श्वास, दोनों तूंबों को जोड़ने वाली) मैंने डण्डी बनाई है। तवज्जो की तार (उस किंगुरी की बजने वाली तंती) मजबूत हो गई है, कभी टूटती नहीं।3।
[[0335]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि मन मगन भए है पूरे माइआ डोल न लागी ॥ कहु कबीर ता कउ पुनरपि जनमु नही खेलि गइओ बैरागी ॥४॥२॥५३॥
मूलम्
सुनि मन मगन भए है पूरे माइआ डोल न लागी ॥ कहु कबीर ता कउ पुनरपि जनमु नही खेलि गइओ बैरागी ॥४॥२॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनि = सुन के। पूरे = अच्छी तरह। डोल = लहर, हुलारे। न लागी = नहीं लगती। पुनरपि = (पुनह+अपि) फिर भी, फिर कभी। खेलि गइओ = एसी खेल खेल जाता है।4।
अर्थ: (इस अंदरूनी किंगुरी के राग को) सुन के मेरा मन इस प्रकार पूर्ण तौर पर मस्त हो गया है कि इसे माया का धक्का नहीं लग सकता। हे कबीर! कह: जो लगन वाला जोगी ऐसी खेल खेल के जाता है उसे फिर कभी जनम (मरण) नहीं होता।4।2।53।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: असली जोगी वह है जो गृहस्थ में रहता हुआ भी प्रभु की याद में तवज्जो जोड़ता है, अपने मन में विकारों के फुरने और कल्पनाएं नहीं उठने देता, जगत को नाशवान जान के इसके मोह में नहीं फंसता, दुनिया के काम काज करता हुआ भी श्वास-श्वास स्मरण करता है और याद की इस तार को कभी टूटने नहीं देता। ऐसे जोगी को माया कभी भरमा नहीं सकती।53।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ गज नव गज दस गज इकीस पुरीआ एक तनाई ॥ साठ सूत नव खंड बहतरि पाटु लगो अधिकाई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ गज नव गज दस गज इकीस पुरीआ एक तनाई ॥ साठ सूत नव खंड बहतरि पाटु लगो अधिकाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गज नव = नौ गज, नौ गोलकें। गज दस = दस इंद्रियां। गज इकीस = इक्कीस गज (पाँच सूक्ष्म तत्व, पाँच स्थूल तत्व, दस प्राण और एक मन = 21)। पुरीआ तनाई = पूरी (40 गज की) ताणी, ताना। साठ सूत = साठ नाड़ियां लंबी तरफ का ताना। नवखंड = नौ टुकड़े, नौ जोड़ ताने के (4 जोड़ बाहों के, 4 जोड़ लातों के और एक धड़ = 9)। बहतरि = बहत्तर छोटी नाड़ियां। पाटु = पेटा। लगो अधिकाई = ज्यादा लगा है।1।
अर्थ: (जब जीव जनम लेता है तो, मानो) पूरी एक ताणी (40 गजों की तैयार हो जाती है) जिसमें नौ गोलकें, दस इंद्रे ओर इक्कीस गज और होते हैं (भाव, पाँच सूक्षम तत्व, पाँच स्थूल तत्व, दस प्राण और एक मन- ये 21 गज ताणी के और हैं)। साठ नाड़ियां (ये उस ताणी की लम्बी तरफ का) सूत्र होता है, (शरीर के नौ जोड़ उस ताणी के) नौ टोटे हैं और बहत्तर छोटी नाड़ियां (ये उस ताणी को) ज्यादा पेटा लगा हुआ समझो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गई बुनावन माहो ॥ घर छोडिऐ जाइ जुलाहो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गई बुनावन माहो ॥ घर छोडिऐ जाइ जुलाहो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बुनावट = (ताना) बुनवाने के लिए। माहो = वासना। घरि छोडिऐ = घर छोड़ने के कारण, स्वै स्वरूप छोड़ने के कारण, प्रभु के चरण बिसारने के कारण। जाइ = चल पड़ता है, जनम में आता है। जुलाहो = जीव रूपी जुलाहा।1। रहाउ।
अर्थ: जब जीव-जुलाहा प्रभु के चरण बिसारता है, तो वासना (इस शरीर की ताणी) बुनवाने चल पड़ती है (भाव, प्रभु को बिसारने के कारण जीव वासना में बंध जाता है और ये वासना इसे शरीर में लाने का कारण बनती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजी न मिनीऐ तोलि न तुलीऐ पाचनु सेर अढाई ॥ जौ करि पाचनु बेगि न पावै झगरु करै घरहाई ॥२॥
मूलम्
गजी न मिनीऐ तोलि न तुलीऐ पाचनु सेर अढाई ॥ जौ करि पाचनु बेगि न पावै झगरु करै घरहाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गजी न मिनीए = गज़ों से न मिनीऐ (नहीं नापते)। तोलि = तोल से। पाचनु = पाण (जो कपड़ा बुनने से पहले ताणी को लगाया जाता है ता कि धागे पक्के रहें और बुनने के समय ना टूटें), खुराक। जौ करि = अगर। बेगि = जल्दी, समय पर। घर हाई = घर में ही। हाई = ही।2।
अर्थ: (शरीर रूपी ये ताणी) गजों से नहीं नापी जाती, और बाँट से तोली भी नहीं जाती (वैसे इस ताणी को भी हर रोज) ढाई सेर (खुराक रूपी) पाण चाहिए। अगर इसको ये पाण समय सिर ना मिले तो घर में ही शोर डाल देती है (भाव, अगर खुराक ना मिले तो शरीर में छटपछाहट मच जाती है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिन की बैठ खसम की बरकस इह बेला कत आई ॥ छूटे कूंडे भीगै पुरीआ चलिओ जुलाहो रीसाई ॥३॥
मूलम्
दिन की बैठ खसम की बरकस इह बेला कत आई ॥ छूटे कूंडे भीगै पुरीआ चलिओ जुलाहो रीसाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिन की बैठ = थोड़े दिनों की बैठक के लिए, कुछ समय के जीने के लिए। बरकसि = बर+अकस, अलट, आकी। खसम की बरकसि = मालिक प्रभु से आकी। इह बेला = (मानव जनम का) ये समय। कत आई = कहां से आ सकता है? दुबारा नहीं मिलता। छूटे = छूट जाते हैं, छिन जाते हैं। कूंडे = (भाव, जगत के पदार्थ) मिट्टी के बर्तन, जिनमें पानी डाल के सूत्र की नलियां कपड़ा उनने के समय भिगो के रखी जाती हैं। पुरीआ = नलियां, वासना। रीसाई = रिस के, खिझ के।3।
अर्थ: (वासना-बंधा जीव) थोड़े दिनों के जीने की खातिर पति-प्रभु से आकी हो जाता है (प्रभु की याद का समय गवा लेता है और फिर) ये समय हाथ नहीं आता। (आख़िर) ये पदार्थ छिन जाते हैं, मन की वासनाएं इन पदार्थों में फंसी ही रह जाती हैं, (इस विछोड़े के कारण) जीव-जुलाहा खिझ के यहाँ से चल पड़ता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोछी नली तंतु नही निकसै नतर रही उरझाई ॥ छोडि पसारु ईहा रहु बपुरी कहु कबीर समझाई ॥४॥३॥५४॥
मूलम्
छोछी नली तंतु नही निकसै नतर रही उरझाई ॥ छोडि पसारु ईहा रहु बपुरी कहु कबीर समझाई ॥४॥३॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छोछी = खाली। नली = नलकी। तंतु = तंद (भाव, श्वास)। छोछी नली = नली खाली हो जाती है (भाव, जीवात्मा शरीर को छोड़ जाती है)। तर = तुर, जिस पे उना हुआ कपड़ा लपेटा जाता है। उरझाई = उलझी हुई। न तर रही उरझाई = नाभि भी उलझी नहीं रहती, नाभि का जो श्वासों से संबंध था वह भी नहीं रहता। पसारु = पसारा, खिलारा। ईहा = यहीं। बपुरी = हे बुरी (वासना)! ईहा रहु = यहीं टिकी रह, जीव का साथ छोड़ दे, खलासी कर।4।
अर्थ: (आख़िर) नली खाली हो जाती है, तंद नहीं निकलती, तुर उलझी नहीं रहती (भाव, जीवात्मा शरीर को छोड़ देती है, श्वास चलने बंद हो जाते हैं, श्वासों का नाभि से संबंध टूट जाता है)। हे कबीर! अब तो इस वासना को समझा के कह: हे चंदरी वासना! ये जंजाल छोड़ दे, और अब तो इस जीव की खलासी कर।4।3।54।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जब जीव प्रभु की याद बिसार देता है तो वासना में बंध जाता है। वासना का बंधा हुआ जीव जगत में आता है। यहां चाहे थोड़े ही दिनों के लिए रहना होता है, पर दुनिया के पदार्थों में फंस जाता है, और प्रभु से आक़ी ही रहता है। आखिर मौत आ जाती है, पर फिर भी वासना इसकी खलासी नहीं करती।54।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ एक जोति एका मिली कि्मबा होइ महोइ ॥ जितु घटि नामु न ऊपजै फूटि मरै जनु सोइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ एक जोति एका मिली कि्मबा होइ महोइ ॥ जितु घटि नामु न ऊपजै फूटि मरै जनु सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किंबा होइ = क्या दुबारा वह (अलग हस्ती वाली) होती है? क्या फिर भी उसका अलग अस्तित्व रहता है? क्या उसमें स्वैभाव टिका रहता है? महोइ = नहीं होता, नहीं रहता। जितु घटि = जिस शरीर में। फूटि मरै = फूट मरता है, अहंकार के कारण दुखी होता है। जनु सोइ = वही मनुष्य।1।
अर्थ: (सतिगुरु के शब्द की इनायत से जिस मनुष्य की तवज्जो परमात्मा की) ज्योति से मिल के एक-रूप हो जाती है, उसके अंदर अहंकार बिल्कुल नहीं रहता। केवल वही मनुष्य अहंकार से दुखी होता है, जिसके अंदर परमात्मा का नाम पैदा नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावल सुंदर रामईआ ॥ मेरा मनु लागा तोहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सावल सुंदर रामईआ ॥ मेरा मनु लागा तोहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रामईआ = हे सुंदर राम! तोहि = तेरे में, तेरे चरणों में।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे साँवले सुंदर राम! (गुरु की कृपा से) मेरा मन तो तेरे चरणों में जुड़ा हुआ है (मुझे अहंकार क्यूँ दुखी करे?)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु मिलै सिधि पाईऐ कि एहु जोगु कि भोगु ॥ दुहु मिलि कारजु ऊपजै राम नाम संजोगु ॥२॥
मूलम्
साधु मिलै सिधि पाईऐ कि एहु जोगु कि भोगु ॥ दुहु मिलि कारजु ऊपजै राम नाम संजोगु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधु = गुरु। सिधि = सफलता, सिद्धि। कि = क्या है? (भाव, तुच्छ है)। भोगु = (दुनिया के पदार्थों को) भोगना। दुहु मिलि = सतिगुरु का शब्द और सिख की तवज्जो, इन दोनों के मिलने से। कारजु ऊपजै = काम सफल होता है। संजोग = मिलाप।2।
अर्थ: (अहंकार के अभाव और अंदरूनी शांति-ठंड की) ये सिद्धि, सतिगुरु को मिलने से ही मिलती है। जब सतिगुरु का शब्द और सिख की तवज्जो मिलते हैं, तो परमात्मा के नाम का मिलाप-रूपी नतीजा निकलता है। (फिर इस सिद्धी के सामने जोगियों का) जोग तुच्छ है, (दुनिया के पदार्थों का) भोगना भी कोई चीज नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचार ॥ जिउ कासी उपदेसु होइ मानस मरती बार ॥३॥
मूलम्
लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचार ॥ जिउ कासी उपदेसु होइ मानस मरती बार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इहु = ये गुरु शब्द, सतिगुरु की वाणी। तउ = तो, बार-बारी, वक्त।3।
अर्थ: जगत समझता है कि सतिगुरु का शब्द (कोई साधारण सा) गीत ही है, पर ये तो परमात्मा के गुणों की विचार है (जो अहंकार से जीते-जी मुक्ति दिलाता है), जैसे काशी में मनुष्य को मरने के समय (शिव जी का मुक्तिदाता) उपदेश मिलता ख्याल किया जाता है (भाव, काशी वाला उपदेश तो मरने केबाद काम करता होगा, पर सतिगुरु का शब्द तो यहीं पर जीवन-मुक्त कर देता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई गावै को सुणै हरि नामा चितु लाइ ॥ कहु कबीर संसा नही अंति परम गति पाइ ॥४॥१॥४॥५५॥
मूलम्
कोई गावै को सुणै हरि नामा चितु लाइ ॥ कहु कबीर संसा नही अंति परम गति पाइ ॥४॥१॥४॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चितु लाइ = मन लगा के, प्रेम से। संसा = शक। अंति = आखिर को, नतीजा ये निकलता है कि। परम = ऊँची से ऊँची। गति = आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: जो भी मनुष्य प्रेम से प्रभु का नाम गाता है अथवा सुनता है, हे कबीर! कह: इसमें कोई शक नहीं कि वह जरूर सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।4।1।4।55।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द में मन जोड़ के प्रभु का नाम स्मरण करता है, उसके अंदर अहंकार का रोग काटा जाता है, वह जीते-जी ही मुक्त है। ये पक्की बात है कि उसकी आत्मिक अवस्था बहुत ही ऊँची हो जाती है।55।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ जेते जतन करत ते डूबे भव सागरु नही तारिओ रे ॥ करम धरम करते बहु संजम अह्मबुधि मनु जारिओ रे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ जेते जतन करत ते डूबे भव सागरु नही तारिओ रे ॥ करम धरम करते बहु संजम अह्मबुधि मनु जारिओ रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने भी लोग। ते = वह सारे। भव सागरु = संसार समुंदर। रे = हे भाई! करम = धार्मिक रसमें। धरम = वर्ण आश्रम की अपनी अपनी रस्में करने फर्ज। संजम = धार्मिक प्रण। अहंबुधि = (अहं = मैं। बुधि = अक्ल) ‘मैं मैं’ करने वाली अक्ल, अहंकार। जारिओ = जला लिया।1।
अर्थ: हे भाई! धार्मिक रस्में, वर्ण आश्रम की अपनी-अपनी रस्म करने के फर्ज और अन्य कई किस्म के धार्मिक प्रण करने से अहंकार (मनुष्य के) मन को जला देता है। जो जो भी मनुष्य ऐसे प्रयत्न करते हैं, वह सारे (संसार समुंदर में) डूब जाते हैं। ये रस्में संसार समुंदर से पार नहीं लंघातीं (संसार के विकारों से बचा नहीं सकतीं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सास ग्रास को दातो ठाकुरु सो किउ मनहु बिसारिओ रे ॥ हीरा लालु अमोलु जनमु है कउडी बदलै हारिओ रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सास ग्रास को दातो ठाकुरु सो किउ मनहु बिसारिओ रे ॥ हीरा लालु अमोलु जनमु है कउडी बदलै हारिओ रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सास = श्वास, जिंद। ग्रास = ग्रास, रोजी। कउडी बदले = कौड़ियों की खातिर। हारिओ = गवा दिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिंद और रोजी देने वाला एक परमात्मा ही है। तूने उसको अपने मन से क्यूँ भुला दिया? ये (मानव) जनम (मानो) हीरा है, अमोलक लाल है, पर तूने इस कौड़ियों की खातिर गवा दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना त्रिखा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहि बीचारिओ रे ॥ उनमत मान हिरिओ मन माही गुर का सबदु न धारिओ रे ॥२॥
मूलम्
त्रिसना त्रिखा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहि बीचारिओ रे ॥ उनमत मान हिरिओ मन माही गुर का सबदु न धारिओ रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसना = तृष्णा, प्यास, लालसा। भ्रमि = भ्रम में, भटकना के कारण। उनमत = मस्त हुआ। हिरिओ = ठगा हुआ। मान हिरिओ = अहंकार का ठगा हुआ।2।
अर्थ: हे भाई! तूने कभी अपने दिल में विचार नहीं की कि भटकन के कारण तुझे तो माया की भूख-प्यास लगी हुई है। (कर्मों धर्मों में ही) तू मस्ता और अहंकारा रहता है। गुरु का शब्द तूने कभी अपने मन में नहीं बसाया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुआद लुभत इंद्री रस प्रेरिओ मद रस लैत बिकारिओ रे ॥ करम भाग संतन संगाने कासट लोह उधारिओ रे ॥३॥
मूलम्
सुआद लुभत इंद्री रस प्रेरिओ मद रस लैत बिकारिओ रे ॥ करम भाग संतन संगाने कासट लोह उधारिओ रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लुभत = लोभी। रस = चस्के। मद = नशा। करम = अच्छे कर्म। करम भाग = जिनके भाग्यों में पिछले किए कर्म हैं। कासट = लकड़ी।3।
अर्थ: (प्रभु को बिसारने के कारण) तू (दुनियां के) स्वादों का लोभी बन रहा है। इन्द्रियों के चस्कों से प्रेरित हुआ तू विकारों के नशे के स्वाद लेता रहता है। जिनके माथे पर अच्छे भाग्य जागते हैं, उन्हें साधु-संगत में (ला के प्रभु विकारों से ऐसे) बचाता है जैसे लकड़ी लोहे को (समंद्र से) पार लंघाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारिओ रे ॥ कहि कबीर गुर मिलत महा रसु प्रेम भगति निसतारिओ रे ॥४॥१॥५॥५६॥
मूलम्
धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारिओ रे ॥ कहि कबीर गुर मिलत महा रसु प्रेम भगति निसतारिओ रे ॥४॥१॥५॥५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धावत = दौड़ते दौड़ते। भ्रमि = भटकना में। दुख करि = दुख पा पा के। हारिओ = हार गया हूँ, थक गया हूँ। कहि = कहे, कहता है। गुर मिलत = गुरु को मिलते ही।4।
अर्थ: कबीर कहता है: जूनियों में, जन्मों में दौड़-दौड़ के, भटक-भटक मैं थक गया हूँ। दुख सह-सह के और आसरे छोड़ बैठा हूँ (और गुरु की शरण ली है) सतिगुरु को मिलते ही (प्रभु का नाम रूप) सबसे श्रेष्ठ रस पैदा होता है, और प्यार से की हुई प्रभु की भक्ति (संसार-समुंदर के विकारों की लहरों से) बचा लेती है।4।1।5।56।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: निरी धार्मिक रस्में और वर्ण आश्रम की रस्में तो बल्किअहंकार पैदा करती हैं, माया में ही फंसाती हैं। प्रभु की मेहर से जो मनुष्य सत्संग में आ के नाम स्मरण करता है, वही विकारों से बचता है।56।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ कालबूत की हसतनी मन बउरा रे चलतु रचिओ जगदीस ॥ काम सुआइ गज बसि परे मन बउरा रे अंकसु सहिओ सीस ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ कालबूत की हसतनी मन बउरा रे चलतु रचिओ जगदीस ॥ काम सुआइ गज बसि परे मन बउरा रे अंकसु सहिओ सीस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कालबूत = ढांचा, बुत। हसतनी = हथिनी (हाथी जंगल में से पकड़ने के लिए लोग लकड़ी का हथिनी का ढांचा बना के उस पर कागज लगा के हथिनी सी बना के कहीं गढे पर खड़ी कर देते हैं। काम में मस्त हुआ हाथी आ के उस बुत को हथिनी समझ के उसकी ओर बढ़ता है, पर गढे में गिर जाता है और पकड़ा जाता है)। बउरा = कमला। चलतु = खेल तमाशा। जगदीस = जगत का मालिक प्रभु। सुआइ = स्वाद के कारण, चस्के में, वासना के कारण। बसि परे = काबू आ जाता है। अंकसु = लोहे की शलाका जो हाथी को चलाने के लिए महावत उसकी गर्दन पर मारता है। सीसि = सिर पर।1।
अर्थ: हे पागल मन! (ये जगत) परमात्मा ने (जीवों को व्यस्त रखने के लिए) एक खेल बनाई है जैसे (लोग हाथी को पकड़ने के लिए) कलबूत (बुत) की हथनी (बनाते हैं); (उस हथनी को देख के) काम-वासना के कारण हाथी पकड़ा जाता है और अपने सिर पर (सदा महावत का) अंकुश बर्दाश्त करता है, (वैसे ही) हे पागल मन! (तू भी मन-मोहनी माया में फंस के दुख सहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखै बाचु हरि राचु समझु मन बउरा रे ॥ निरभै होइ न हरि भजे मन बउरा रे गहिओ न राम जहाजु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बिखै बाचु हरि राचु समझु मन बउरा रे ॥ निरभै होइ न हरि भजे मन बउरा रे गहिओ न राम जहाजु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखै = विष, विकार। बाचु = बच के रह। राचु = लीन हो। निरभै = निडर (आम तौर पर मनुष्य को रोजी का सहम लगा रहता है, लालच में फंसता है; जो रोजी पहले निरवाह के लिए कमाता है उसी को धीरे-धीरे जिंदगी का आसरा समझ बैठता है और इस तरह ये सहम बन जाता है कि कहीं ये धन-दौलत खो ना जाए, नुकसान ना हो जाए। बस! सारी उम्र इस सहम में ही गुजरती है)। गहिओ न = पकड़ा नहीं, आसरा नहीं लिया।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख मन! समझदार बन, विषियों से बचा रह और प्रभु में जुड़ा कर। तू सहम छोड़ के क्यूँ परमात्मा को नहीं स्मरण करता और क्यूँ प्रभु का आसरा नहीं लेता?।1। रहाउ।
[[0336]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरकट मुसटी अनाज की मन बउरा रे लीनी हाथु पसारि ॥ छूटन को सहसा परिआ मन बउरा रे नाचिओ घर घर बारि ॥२॥
मूलम्
मरकट मुसटी अनाज की मन बउरा रे लीनी हाथु पसारि ॥ छूटन को सहसा परिआ मन बउरा रे नाचिओ घर घर बारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरकट = बंदर। मुसटी = मुट्ठी। पसारि = खिलार के। सहसा = सहम। घर घर बारि = हरेक घर के दरवाजे पर। बारि = दरवाजे पर।2।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: लोग बंदरों को पकड़ने के लिए संकरे मुंह वाला बरतन ले के जमीन में दबा देते हैं, उसमें भुने हुए चने डाल के मुंह नंगा रखते हैं। बंदर अपना हाथ बरतन में डाल कर दानों की मुट्ठी भर लेता है। पर, भरी हुई मुट्ठी सँकरे मुंह मेंसे निकल नहीं सकती, और लोभ में फंसा हुआ बंदर दाने भी नहीं छोड़ता। इस तरह वहीं पकड़ा जाता है। ठीक यही हाल मनुष्य का होता है, धीरे-धीरे माया में मन फंसा के आखिर और-और माया की खतिर हरेक की खुशामद करता है)।
नलनी तोतों को पकड़ने वाले लोग लकड़ी का एक छोटा सा ढोल बना के दोनों तरफ से डण्डों के आसरे खड़ा कर देते हैं। बीच में तोते के लिए चोगा डाल देते हैं, और इस ढोल जैसे के नीचे पानी का भरा हुआ बरतन रखते हैं। तोता चोगे की खातिर उस चक्कर पर आ बैठता है। पर तोते के भार से चक्कर उलट जाता है, तोता नीचे की तरफ लटक पड़ता है। नीचे पानी देख के तोता सहम जाता है कि कहीं पानी में गिर के डूब ना जाऊँ। इस डर के कारण लकड़ी के यंत्र को कस के पकड़े रखता है और फस जाता है। यही हाल मनुष्य का है। पहले ये रोजी सिर्फ निर्वाह की खातिर कमाता है। धीरे-धीरे ये सहम बनता है कि अगर ये कमाई बह गयी तो क्या होगा, वृद्धावस्था के लिए अगर बचा के ना रखा तो कैसे गुजारा होगा। इस सहम में पड़ के मनुष्य माया के मोह के पिंजरे में फंस जाता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे कमले मन! बंदर ने हाथ पसार के दानों की मुट्ठी भर ली और उसे डर पड़ गया कि कैद में से कैसे निकले। (उस लालच के कारण अब) हरेक घर के दरवाजे पर नाचता फिरता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ नलनी सूअटा गहिओ मन बउरा रे माया इहु बिउहारु ॥ जैसा रंगु कसु्मभ का मन बउरा रे तिउ पसरिओ पासारु ॥३॥
मूलम्
जिउ नलनी सूअटा गहिओ मन बउरा रे माया इहु बिउहारु ॥ जैसा रंगु कसु्मभ का मन बउरा रे तिउ पसरिओ पासारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूअटा = अंजान तोता (संस्कृत: शूक = तोता। शूकटा = छोटा सा तोता, अंजान तोता। संस्कृत के ‘शूकट’ से ‘सूअटा’ प्राकृत रूप है)। गहिओ = पकड़ा जाता है। बिउहारु = सलूक, वरतारा। कुसंभ = एक किस्म का फूल है, इससे लोग कपड़े रंगा करते थे, रंग खासा भड़कीला होता है, पर एक-दो दिनों में ही फीका पड़ जाता है।3।
अर्थ: हे झल्ले मना! जगत की माया का ऐसा ही वरतारा है (भाव, माया जीव को ऐसे ही मोह में फंसाती है) जैसे तोता नलिनी (पर बैठ के) फंस जाता है। हे कमले मन! जैसे कुसंभ कारंग (थोड़े ही दिन रहता) है, इसी तरह जगत का पसारा (चार दिन के लिए ही) खिलरा हुआ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावन कउ तीरथ घने मन बउरा रे पूजन कउ बहु देव ॥ कहु कबीर छूटनु नही मन बउरा रे छूटनु हरि की सेव ॥४॥१॥६॥५७॥
मूलम्
नावन कउ तीरथ घने मन बउरा रे पूजन कउ बहु देव ॥ कहु कबीर छूटनु नही मन बउरा रे छूटनु हरि की सेव ॥४॥१॥६॥५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नावन कउ = स्नान करने के लिए। घने = बहुत सारे। पूजन कउ = पूजा करने के लिए। छूटनु = खलासी, माया के मोह और सहम से निजात। सेव = सेवा, बंदगी।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: हे झल्ले मन! (हलांकि) स्नान करने के लिए बहुत सारे तीर्थ हैं, और पूजने के लिए बहुत सारे देवते हैं (भाव, चाहे लोग कई तीर्थों पर जा के स्नान करते हैं और कई देवताओं की पूजा करते हैं) पर (पर इस सहम से और माया के मोह से) खलासी नहीं हो सकती। निजात सिर्फ प्रभु का स्मरण करने से ही मिलनी है।4।1।6।57।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जीव माया के मोह में फंस के अकाल-पुरख को विसार देता है, और कई किस्म के दुख सहता है। फिर इन दुखों से बचने के लिए कहीं तीर्थों के स्नान करता फिरता है, कहीं देवी-देवताओं की पूजा करता है, पर दुखों से बचाव नहीं होता। इनका इलाज एक प्रभु की याद ही है क्योंकि ये सहम होते ही तब हैं जब जीव प्रभु को भुला देता है।57।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ अगनि न दहै पवनु नही मगनै तसकरु नेरि न आवै ॥ राम नाम धनु करि संचउनी सो धनु कत ही न जावै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ अगनि न दहै पवनु नही मगनै तसकरु नेरि न आवै ॥ राम नाम धनु करि संचउनी सो धनु कत ही न जावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दहै = जलाती है। मगनै = गुंम करती, लोप करती, उड़ा ले जाती। तसकरु = चोर। नेरि = नजदीक। संचउनी करि = इकट्ठा कर, जोड़। कतही = कहीं भी।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रूपी धन एकत्र कर, यह कहीं नाश नहीं होता। इस धन को ना आग जला सकती है, ना हवा उड़ा के ले जा सकती है, और ना ही कोई चोर इसके नजदीक फटक सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरा धनु माधउ गोबिंदु धरणीधरु इहै सार धनु कहीऐ ॥ जो सुखु प्रभ गोबिंद की सेवा सो सुखु राजि न लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हमरा धनु माधउ गोबिंदु धरणीधरु इहै सार धनु कहीऐ ॥ जो सुखु प्रभ गोबिंद की सेवा सो सुखु राजि न लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरणी धरु = धरती का आसरा। सार = श्रेष्ठ, सबसे बढ़िया। राजि = राज में।1। रहाउ।
अर्थ: हमारा धन तो माधव गोबिंद ही है जो सारी धरती का आसरा है। (हमारे मति में तो) इसी धन को सब धनों से श्रेष्ठ, अच्छा और बढ़िया कहा जाता है। जो सुख परमात्मा गोबिंद के भजन में मिलता है, वह सुख राज में (भी) नहीं मिलता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु धन कारणि सिव सनकादिक खोजत भए उदासी ॥ मनि मुकंदु जिहबा नाराइनु परै न जम की फासी ॥२॥
मूलम्
इसु धन कारणि सिव सनकादिक खोजत भए उदासी ॥ मनि मुकंदु जिहबा नाराइनु परै न जम की फासी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्नकादिक = सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र। उदासी = विरक्त। मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। मुकंद = मुक्ति देने वाला प्रभु। फासी = फांसी।2।
अर्थ: इस (नाम) धन की खातिर शिव और सनक आदि (ब्रहमा के चारों पुत्र) तलाश करते-करते जगत से विरक्त हुए। जिस मनुष्य के मन में मुक्तिदाता प्रभु बसता है, जिसकी जीभ पे अकाल-पुरख टिका है, उसे जम की (मोह रूपी) फांसी पड़ नहीं सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज धनु गिआनु भगति गुरि दीनी तासु सुमति मनु लागा ॥ जलत अ्मभ थ्मभि मनु धावत भरम बंधन भउ भागा ॥३॥
मूलम्
निज धनु गिआनु भगति गुरि दीनी तासु सुमति मनु लागा ॥ जलत अ्मभ थ्मभि मनु धावत भरम बंधन भउ भागा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निज धनु = केवल अपना धन। गुरि = गुरु ने। तासु = उस (भक्ति) में। सुमति मनु = श्रेष्ठ मति वाले मानव का मन। जलत = जलते को। अंभ = पानी। थंभि = थंमी।3।
अर्थ: प्रभु की भक्ति, प्रभु का ज्ञान ही, (जीव का) केवल अपना धन (हो सकता) है। जिस चतुर मति वाले को गुरु ने (ये दात) दी है, उसका मन उस प्रभु में टिकता है। (माया की तृष्णा की आग में) जलते हुए के लिए (ये नाम-धन) पानी है, और भटकते मन के लिए स्तम्भ (थंमी, सहारा) है, (नाम की इनायत से) भरमों के बंधनों का डर दूर हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहै कबीरु मदन के माते हिरदै देखु बीचारी ॥ तुम घरि लाख कोटि अस्व हसती हम घरि एकु मुरारी ॥४॥१॥७॥५८॥
मूलम्
कहै कबीरु मदन के माते हिरदै देखु बीचारी ॥ तुम घरि लाख कोटि अस्व हसती हम घरि एकु मुरारी ॥४॥१॥७॥५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मदन = काम-वासना। माते = मस्ते हुए। बीचारी = विचार के, सोच के। तुम घरि = तुम्हारे घर में। कोटि = करोड़ों। अस्व = अश्व, घोड़े। हसती = हाथी। मुरारी = (मुर+अरि; मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे काम-वासना में मस्त हुए (राजन!) मन में सोच के देख, अगर तेरे घर में लाखों करोड़ों घोड़े और हाथी हैं तो हमारे (हृदय) घर में (ये सारे पदार्थ देने वाला) एक परमात्मा (बसता) है।4।1।7।58।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा का नाम ही असल धन है जो सदा साथ निभाता है, और जो सुख नाम धन में है, वह सुख राज-भाग की मौज में भी नहीं है।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ जिउ कपि के कर मुसटि चनन की लुबधि न तिआगु दइओ ॥ जो जो करम कीए लालच सिउ ते फिरि गरहि परिओ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ जिउ कपि के कर मुसटि चनन की लुबधि न तिआगु दइओ ॥ जो जो करम कीए लालच सिउ ते फिरि गरहि परिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कपि = बंदर (इस तुक में दिए ख्याल को समझने के लिए पढो शब्द नं: 57)। कर = हाथ। मुसटि = मुट्ठी। चनन = चने की। लुबधि = लोभी ने। गरहि = गले में।1।
अर्थ: जैसे (किसी) बंदर के हाथ (भुने हुए) चनों की मुट्ठी आ गई, पर लोभी बंदर ने (कुज्जे में हाथ फसा हुआ पा के भी चनों की मुट्ठी) नहीं छोड़ी (और काबू आ गया, इसी तरह) लोभ वश हो के जो जो काम जीव करता है, वह सारे दुबारा (मोह के बंधन रूप जंजीर बन के इस के) गले में पड़ते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति बिनु बिरथे जनमु गइओ ॥ साधसंगति भगवान भजन बिनु कही न सचु रहिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भगति बिनु बिरथे जनमु गइओ ॥ साधसंगति भगवान भजन बिनु कही न सचु रहिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कही = कहीं भी, किसी और जगह। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। बिरथे = खाली, व्यर्थ, सूना।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा की भक्ति के बिना मानव जनम व्यर्थ ही जाता है (क्योंकि हृदय में प्रभु आ के नहीं बसता)। और, साधु-संगत में (आ के) भगवान का स्मरण करे बिना वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु किसी के दिल में टिक नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ उदिआन कुसम परफुलित किनहि न घ्राउ लइओ ॥ तैसे भ्रमत अनेक जोनि महि फिरि फिरि काल हइओ ॥२॥
मूलम्
जिउ उदिआन कुसम परफुलित किनहि न घ्राउ लइओ ॥ तैसे भ्रमत अनेक जोनि महि फिरि फिरि काल हइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदिआन = जंगल। कुसम = फूल। परफुलित = खिले हुए। किनहि = (किसी बंदे) ने ही। घ्राउ = सुगंधि। भ्रमत = भटकते हुए। हइओ = हनियो, नाश करता है।2।
अर्थ: जैसे जंगल में खिले हुए फूलों की सुगंधि कोई भी नहीं ले सकता (वह फूल उजाड़ में किसी प्राणी को सुगंधि ना देने के कारण अपना खिलना व्यर्थ में ही खेल जाते हैं), वैसे ही, (प्रभु की बंदगी के बगैर) जीव अनेक जूनियों में भटकते रहते हैं, और बार-बार काल-वश पड़ते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इआ धन जोबन अरु सुत दारा पेखन कउ जु दइओ ॥ तिन ही माहि अटकि जो उरझे इंद्री प्रेरि लइओ ॥३॥
मूलम्
इआ धन जोबन अरु सुत दारा पेखन कउ जु दइओ ॥ तिन ही माहि अटकि जो उरझे इंद्री प्रेरि लइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इआ = ये सारे। जोबन = जवानी। अरु = और। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री, पत्नी। पेखन कउ = देखने के लिए।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में मेल और अर्थ में फर्क याद रखने योग्य है; अरि = वैरी; अरु = और।
नोट: कोई खेल तमाशा देखने जाएं, उसमें चाहे कितने ही मन भरमाने वाले या दर्द भरी घटनाएं आएं, हम सिर्फ तमाशबीन ही रहते हैं। ना तो तमाशे के दुख भरे दृश्य से कोई गहरी चोट हमें बजती है, जिस तरह किसी अपने निजी दुख की बज सकती है और ना ही कोई मन को भरमाने वाली चीज हमें ठग सकती है। हम जानते हैं कि ये असल नहीं है, किसी हो चुके असल की नकल है। सो, उस तमाशों के दुखों-सुखों के दृश्यों में हम निर्लिप से रहते हैं। यह धन, जवानी, परिवार भी एक खेल प्रभु ने बनाया है, इन में रह के भी इन्हें देखना ही है, भाव, इन्हें तमाशे ही समझना है, इनमें निर्लिप ही रहना है।
दर्पण-भाषार्थ
अटकि = उलझ गए, जकड़े गए। प्रेरि लइओ = अपनी ओर खींच लिया।3।
अर्थ: धन-जवानी-पुत्र और स्त्री यह सारे प्रभु ने (जीव को किसी तमाशे में निर्लिप सा रहने की तरह) देखने के लिए दिए हैं (कि इस जगत तमाशे में ये निर्लिप ही रहे), पर जीव इनमें ही रुक के फंस जाते हैं; इंद्रियां जीव को खींच लेती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउध अनल तनु तिन को मंदरु चहु दिस ठाटु ठइओ ॥ कहि कबीर भै सागर तरन कउ मै सतिगुर ओट लइओ ॥४॥१॥८॥५९॥
मूलम्
अउध अनल तनु तिन को मंदरु चहु दिस ठाटु ठइओ ॥ कहि कबीर भै सागर तरन कउ मै सतिगुर ओट लइओ ॥४॥१॥८॥५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउध = उम्र, जिंदगी के समय का बीतते जाना। अनल = आग। तनु = शरीर। तिन को मंदरु = तृण का मंदिर, तीलों का घर। चहु दिस = चारों दिशाओं में, हर तरफ। ठाटु = बनतर। ठइओ = बनी हुई है। कहि = कहता है। भै सागर = डरावना संसार समंद्र। तरन कउ = तैरने के लिए, पार लांघने के लिए। ओट = आसरा।4
अर्थ: कबीर कहता है: यह शरीर (मानों) तीलों का बना हुआ कोठा है, उम्र (के दिन बीतते जाने हैं इस कोठे को) आग लगी हुई है, हर तरफ यही बनतर बनी हुई है, (पर कोई भी इस तरफ ध्यान नहीं देता; क्या आश्चर्यजनक भयानक दृश्य है!)। इस भयानक संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए मैंने तो सतिगुरु का आसरा लिया है।4।1।59।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: बंदगी के बिना जीवन व्यर्थ है। नाम की सुगंधि के बिना जगत फूलवाड़ी का जीव-फूल किस अर्थ का? दुनियां के रसों में फंस के ख्वार होता है।59।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी८ ॥ पानी मैला माटी गोरी ॥ इस माटी की पुतरी जोरी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी८ ॥ पानी मैला माटी गोरी ॥ इस माटी की पुतरी जोरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पानी = पिता का वीर्य। मैला = गंदा। माटी गोरी = लाल मिट्टी, मां की रक्त रूप धरती जिस में पिता की बूँद रूप बीज उगता है। पुतरी = पुतली। जोरी = जोड़ दी, बना दी।1।
अर्थ: (हे अहंकारी जीव! तू किस बात का गुमान करता है?) पिता की गंदी बूँद और माँ के रक्त- (इन दोनों से तो परमात्मा ने) जीव का यह मिट्टी का बुत बनाया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै नाही कछु आहि न मोरा ॥ तनु धनु सभु रसु गोबिंद तोरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मै नाही कछु आहि न मोरा ॥ तनु धनु सभु रसु गोबिंद तोरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (तुझसे अलग) मेरी कोई हस्ती नहीं है और कोई मेरी मल्कियत नहीं है। ये शरीर, धन और ये जिंद सब तेरे ही दिए हुए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इस माटी महि पवनु समाइआ ॥ झूठा परपंचु जोरि चलाइआ ॥२॥
मूलम्
इस माटी महि पवनु समाइआ ॥ झूठा परपंचु जोरि चलाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवनु = प्राण। परपंचु = पसारा। जोरि = जोड़ के।2।
अर्थ: इस मिट्टी (के पुतले) में (इसे खड़ा करने के लिए) प्राण टिके हुए हैं, (पर इस कमजोर से थंमी के सहारे को ना समझते हुए) जीव झूठा खिलारा खिलार बैठता है।2।
[[0337]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
किनहू लाख पांच की जोरी ॥ अंत की बार गगरीआ फोरी ॥३॥
मूलम्
किनहू लाख पांच की जोरी ॥ अंत की बार गगरीआ फोरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किनहू = कई जीवों ने, जिस जीवों ने। जोरी = इकट्ठी कर ली। फोरी = टूट गई।3।
अर्थ: जिस जीवों ने पाँच-पाँच लाख की जयदाद जोड़ ली है, मौत आने पर उनकी भी शरीर रूपी बरतन टूट जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर इक नीव उसारी ॥ खिन महि बिनसि जाइ अहंकारी ॥४॥१॥९॥६०॥
मूलम्
कहि कबीर इक नीव उसारी ॥ खिन महि बिनसि जाइ अहंकारी ॥४॥१॥९॥६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि = कहता है, कहे। नीव = नींव। उसारी = खड़ी की है। अहंकारी = हे अहंकारी!।4।
अर्थ: कबीर कहता है: हे अहंकारी जीव! तेरी तो जो नींव ही खड़ी की गई है वह एक पलक में नाश हो जाने वाली है।4।1।9।60।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: मनुष्य अपनी औकात को ना समझ के धन-पदार्थ का अहंकार करता है। पर लाखों जोड़े हुए रुपए भी यहीं रह जाते हैं, और इस शरीर के नाश होने में एक पल भी नहीं लगता।60।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥ ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥ ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपउ = जपूँ, मैं जपूँ। जीअ = हे जिंद! जैसे = जिस प्रेम और श्रद्धा से।1।
अर्थ: हे जिंदे! (ऐसे अरदास कर कि) हे प्रभु! मैं तुझे उस प्रेम और श्रद्धा से स्मरण कर; जिस प्रेम और श्रद्धा से ध्रूव और प्रहलाद भक्त ने, हे हरि! तुझे स्मरण किया था।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥ सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥ सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! सभु परवारु = सारा परिवार, जिंद का सारा परिवार, सारी इंद्रियां, तन और मन सब कुछ। बेड़े = जहाज पर, नाम रूपी जहाज पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! तेरी मेहर की उमीद पर मैंने अपना सारा परिवार तेरे (नाम के) जहाज पर चढ़ा दिया है (मैंने जीभ, आँख, कान आदि सब ज्ञानेंद्रियों को तेरी महिमा में जोड़ दिया है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥ इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
मूलम्
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥ इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। तिस भावै = उस प्रभु को ठीक लगता है, जब उसकी मरजी होती है।2।
अर्थ: जब प्रभु को भाता है तो वह (वह सारे परिवार को अपना) हुक्म मनवाता है (भाव, इन इंद्रियों से वही काम करवाता है जिस काम के लिए उसने ये इंद्रियां बनाई हैं), और इस तरह इस सारे पूर को (इन सब इंद्रियों को) विकारों की लहरों से बचा लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥ चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
मूलम्
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥ चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर परसादि = गुरु की कृपा से। समानी = समा जाती है, हृदय में प्रकट होती है। चूकि गई = खत्म हो जाती है।3।
अर्थ: सतिगुरु की कृपा से (जिस मनुष्य के अंदर) ऐसी बुद्धि प्रकट हो जाती है (भाव, जो मनुष्य सारी इंद्रियों को प्रभु के रंग में रंगता है), उसका बार-बार पैदा होना-मरना समाप्त हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥
मूलम्
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भजु = स्मरण कर। सारिगपानी = धनुष जिसके हाथ में है (सारगि = विष्णु के धनुष का नाम। पानी = पाणि, हाथ)। उरवारि = इस पार, इस संसार में। पारि = उस पार, परलोक में। दानी = जान, समझ।4।
अर्थ: हे कबीर! कह (अपने आप को समझा) - सारंगपानी प्रभु को स्मरण कर, और लोक-परलोक में हर जगह उस एक प्रभु को ही जान।4।2।10।61।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए मार्ग पर चल के अपने मन को और ज्ञानेंद्रियों को प्रभु की याद में जोड़ता है, वह संसार-समुंदर की विकारों की लहरों से बच जाता है, और इस तरह भटकना समाप्त हो जाती है।61।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ९ ॥ जोनि छाडि जउ जग महि आइओ ॥ लागत पवन खसमु बिसराइओ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ९ ॥ जोनि छाडि जउ जग महि आइओ ॥ लागत पवन खसमु बिसराइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ९ = घर नौवां। जोनि = गर्भ, माँ का पेट। जउ = जब। जग महि आइओ = जगत में आया, जीव पैदा हुआ। पवन = हवा, माया की हवा, माया का प्रभाव।1।
अर्थ: जब जीव माँ का पेट छोड़ के जनम लेता है, तो (माया की) हवा लगते ही पति प्रभु को भुला देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअरा हरि के गुना गाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीअरा हरि के गुना गाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअरा = हे जिंदे!।1। रहाउ।
अर्थ: हे जिंदे! प्रभु की महिमा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरभ जोनि महि उरध तपु करता ॥ तउ जठर अगनि महि रहता ॥२॥
मूलम्
गरभ जोनि महि उरध तपु करता ॥ तउ जठर अगनि महि रहता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरध = उलटा, उल्टा लटका हुआ। जठर अगनि = पेट की आग। रहता = बचा रहता है।2।
अर्थ: (जब जीव) माँ के पेट में सिर के भार टिका हुआ प्रभु की बंदगी करता है, तब पेट की आग में भी बचा रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख चउरासीह जोनि भ्रमि आइओ ॥ अब के छुटके ठउर न ठाइओ ॥३॥
मूलम्
लख चउरासीह जोनि भ्रमि आइओ ॥ अब के छुटके ठउर न ठाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के, भ्रमित हो के। आइओ = आया है, मानव जनम में आया है। अब के = इस बार भी। छुटके = रह जाने पर। ठउर ठाइओ = जगह स्थान। ठउर = (संस्कृत: स्थावर, स्थान, ठावर, ठौर) पक्का, टिकवाँ। ठाइओ = (संस्कृत: स्थान)।3।
अर्थ: (जीव) चौरासी लाख जूनियों में भटक-भटक के (भाग्यशाली मानव जनम में) आता है, पर यहाँ से भी समय गवा के (असफल हो के) रह जाता है फिर कोई जगह-ठिकाना (इसे) नहीं मिलता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ आवत दीसै जात न जानी ॥४॥१॥११॥६२॥
मूलम्
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ आवत दीसै जात न जानी ॥४॥१॥११॥६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = कह, जिंद को समझा। न आवत दीसै = जो ना आता दिखता है, जो ना ही पैदा होता है। न जात जानी = जो ना मरता जाना जाता है, जो ना मरता सुना जाता है।4।
अर्थ: हे कबीर! जिंद को समझा कि उस सारंगपानी प्रभु को स्मरण करे, जो पैदा हुआ दिखता है और ना ही मरा सुना जाता है।4।1।11।62।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जो प्रभु माँ के पेट में बचाए रखता है, वही जगत की माया की आग से बचाने के समर्थ है। इस वास्ते प्रभु का नाम जपना ही यहाँ आने का मनुष्य का उद्देश्य है, पर अगर जीव उसे इस मानव जनम में स्मरण करने से रह जाए तो फिर मौका नहीं बनता।62।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कई जोगी लोग उल्टा लटक के (सिर के भार हो के) तप करते हैं। इससे ये ख्याल आम प्रचलित है कि जीव माँ के पेट में उल्टा लटका हुआ जप करता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी ॥ सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥ होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी ॥ सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥ होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरग बासु = स्वर्ग का वासा। बाछीऐ = इच्छा करें, चाहें। नरकि = नर्क में। सो होई है = वही होगा। मनहि = मन में। न कीजै = ना करें।1।
अर्थ: ना ये चाहत रखनी चाहिए कि (मरने के बाद) स्वर्ग का बसेरा मिल जाए और ना इस बात से डरें कि कहीं नर्क में निवास ना मिल जाए। जो कुछ (प्रभु की रजा में) होना है वही होगा। सो, मन में आशाएं नहीं बनानी चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमईआ गुन गाईऐ ॥ जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रमईआ गुन गाईऐ ॥ जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमईआ = सोहाना राम। जा ते = जिससे। परम = सब से ऊँचा। निधानु = खजाना।1। रहाउ।
अर्थ: अकाल पुरख की महिमा करनी चाहिए और इसी उद्यम से वह (नाम रूपी) खजाना मिल जाता है, जो सब (सुखों) से ऊँचा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥ जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥
मूलम्
किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥ जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ = किस अर्थ? क्या लाभ? संजमो = मन और इंद्रियों को रोकने का यत्न। बरतु = व्रत, प्रण, इकरार (आम तौर पर खाना ना खाने के लिए बरतते हैं, ये प्रण कि आज कुछ नहीं खाना)। जुगति = विधि, तरीका। भाउ = प्रेम।2।
अर्थ: जब तक अकाल पुरख से प्यार और उसकी भक्ति की जुगति नहीं समझी (भाव, जब तक यह समझ नहीं पड़ी कि भगवान से प्यार करना ही जीवन की असल जुगति है), जप, तप, संजम, व्रत, स्नान- ये सब किसी काम के नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥ जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥
मूलम्
स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥ जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संपै = संपक्ति, ऐश्वर्य, राज भाग। देखि = देख के। न हरखीऐ = खुश ना होईए, फूले ना फिरें। बिपति = विपदा, मुसीबत। बिधि ने = परमात्मा ने।3।
अर्थ: राज-भाग देख के फूले नहीं फिरना चाहिए, मुसीबत देख के दुखी नहीं होना चाहिए। जो कुछ परमात्मा करता है वही होता है, जैसे राज-भाग (प्रभु का दिया ही मिलता) है वैसे ही बिपता (भी उसी की डाली हुई पड़ती) है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥ सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥
मूलम्
कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥ सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मझारि = में। भले = ठीक। जिह घट = जिस हृदयों में।4।
अर्थ: कबीर कहता है: अब ये समझ आई है (कि परमात्मा किसी बैकुंठ स्वर्ग में नहीं, परमात्मा) संतों के हृदय में बसता है, वही सेवक सेवा करते अच्छे लगते हैं जिनके मन में प्रभु बसता है (भाव, जो प्रभु की महिमा करते हैं)।4।1।12।63।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जप, तप, व्रत, तीरथ-स्नान आदि आसरे छोड़ के जो मनुष्य भगवान का भजन करता है, उसकी ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था बनती है कि जगत के दुख-सुख उसे प्रभु की रजा में आते दिखते हैं, इस वास्ते वह मनुष्य ना किसी स्वर्ग की चाहत करता है ना ही नर्क से डरता है।63।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥ बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥ बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = कि शायद। खिंचि = खींच के। पंखि = पंछी।1।
अर्थ: हे मेरे मन! (अंत को) तेरा कोई (साथी) नहीं बनेगा, कि शायद (और संबंधियों का) भार खींच के (तू अपने सिर पर) ले ले (भाव, संबंधियों की खातिर परपंच करके पराया धन लाना शुरू कर दे)। जैसे पंछियों का वृक्षों पर बसेरा होता है इसी तरह इस जगत (का वास) है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम रसु पीआ रे ॥ जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम रसु पीआ रे ॥ जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! पीआ = पीया है। जिह रस = जिस (राम-) रस की इनायत से। अउर रस = अन्य रस, और ही रस।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (गुरमुख) परमात्मा के नाम का रस पीते हैं और उस रस की इनायत से और सारे रस (चस्के) (उनको) बिसर जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥ जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥
मूलम्
अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥ जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ रोईऐ = रोने का क्या लाभ? जउ = जब। थिरु = सदा टिके रहने वाला। न रहाइ = नहीं रहता। बिनसि है = नाश हो जाएगा। दुख करि = दुखी हो के। रोवै बलाइ = मेरी बला रोए, मैं क्यूँ रोऊँ?।2।
अर्थ: किसी और के मरने पर रोने का क्या अर्थ, जब हमारा अपना आप ही सदा नहीं टिका रहेगा? (ये अटल नियम है कि) जो जो जीव पैदा होता है वह नाश हो जाता है, फिर (किसी के मरने पर) दुखी हो के रोना व्यर्थ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥ कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥
मूलम्
जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥ कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह की उपजी = जिस प्रभु से ये जिंद पैदा हुई। तह रची = उसी में लीन हो गई। पीवत = (नाम रस) पीते हुए। मरदन लाग = मर्दों की लाग से, गुरमुखों की संगति से। चिति = चिक्त में। सिमरि = स्मरण करके। बैराग = निर्मोहता।3।
अर्थ: कबीर कहता है: जिन्होंने अपने मन में प्रभु को याद किया है, प्रभु को स्मरण किया है, उनके अंदर जगत से निर्मोह पैदा हो जाता है, गुरमुखों की संगति में (नाम-रस) पीते-पीते उनकी आत्मा जिस प्रभु से पैदा हुई है उसी में जुड़ी रहती है।3।2।13।64।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: सत्संग में रह के नाम-रस की इनायत से मनुष्य का मन जगत के मोह में नहीं फंसता, क्योंकि ये समझ आ जाती है कि यहाँ पक्षियों जैसा रैन-बसेरा ही है, जो आया है उसने जरूर चले जाना है।64।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी ॥ पंथु निहारै कामनी लोचन भरी ले उसासा ॥ उर न भीजै पगु ना खिसै हरि दरसन की आसा ॥१॥
मूलम्
रागु गउड़ी ॥ पंथु निहारै कामनी लोचन भरी ले उसासा ॥ उर न भीजै पगु ना खिसै हरि दरसन की आसा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंथु = रास्ता। निहारै = देखती है। कामनी = स्त्री। लोचन = आँखें। भरीले = (आँसूओं से) भरे हुए। उसासा = हौके, सिसकियां। उर = दिल, हृदय। न भीजै = नहीं भीगता, नहीं तृप्त होता। पगु = पैर। खिसै = खिसकता है।1।
अर्थ: (जैसे परदेस गए पति के इंतजार में) स्त्री (उसका) राह निहारती है, (उसकी) आँखें आँसूओं से भरी हैं और वह सिसक रही है। (राह देखते उसका) दिल भरता नहीं, पैर खिसकते नहीं (भाव, खड़ी खड़ी थकती नहीं), (इसी तरह की हालत होती है) उस विरह भरे जीअड़े की, (जिसे) प्रभु के दीदार का इन्तजार होता है।1।
[[0338]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
उडहु न कागा कारे ॥ बेगि मिलीजै अपुने राम पिआरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
उडहु न कागा कारे ॥ बेगि मिलीजै अपुने राम पिआरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कागा कारे = हे काले कौए! उडहु न = उड़, मैं सदके जाऊँ। बेगि = वेग से, जल्दी से।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: “देखो ना, करो ना, खाओ ना”; ऐसे वाक्यों में शब्द ‘ना’ प्यार और लाभ प्रगट करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (विछुड़ी हुई विहवल नारि की तरह ही वैरागणि जीव-स्त्री कहती है) हे काले कौए! उड़, मैं सदके जाऊँ उड़, (भला) मैं अपने प्यारे प्रभु को जल्दी मिल जाऊँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कबीर जीवन पद कारनि हरि की भगति करीजै ॥ एकु आधारु नामु नाराइन रसना रामु रवीजै ॥२॥१॥१४॥६५॥
मूलम्
कहि कबीर जीवन पद कारनि हरि की भगति करीजै ॥ एकु आधारु नामु नाराइन रसना रामु रवीजै ॥२॥१॥१४॥६५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि = कहता है। जीवन पद = असल जिंदगी का दर्जा। आधारु = आसरा। रसना = जीभ (से)। रवीजै = स्मरणा चाहिए।2।
अर्थ: कबीर कहता है: (जैसे परदेस गए पति की राह निहारती नारि बिरह अवस्था में तरले लेती है, मिन्नतें करती है, वैसे ही) जिंदगी का असल दर्जा हासिल करने के लिए प्रभु की भक्ति करनी चाहिए, प्रभु के नाम का ही एक आसरा होना चाहिए और जीभ से उसे याद करना चाहिए।2।1।14।65।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: असल जीवन उन्हें ही मिला है जिन्हें प्रभु के याद की तलब लग गई है और जो उसके दीदार के लिए यूँ तड़फते हैं जैसे परदेस गए हुए पति के लिए की इंतजार में राह निहारती नारी मुंडेर से कौए उड़ाती है।65।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: किसी अति प्यारे के इंतजार में औंसीयां डाली जाती हैं (लकीरें डाल-डाल के देखते हैं कि औंसी राह देती है या नहीं), बनेरे (मुंडेर) पर आ के बैठे कौए को कहते हैं: हे कौए! उड़ मेरा प्यारा आ रहा है कि नहीं, अगर कौआ उड़ जाए तो मानते हैं कि आ रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी ११ ॥ आस पास घन तुरसी का बिरवा माझ बना रसि गाऊं रे ॥ उआ का सरूपु देखि मोही गुआरनि मो कउ छोडि न आउ न जाहू रे ॥१॥
मूलम्
रागु गउड़ी ११ ॥ आस पास घन तुरसी का बिरवा माझ बना रसि गाऊं रे ॥ उआ का सरूपु देखि मोही गुआरनि मो कउ छोडि न आउ न जाहू रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ११ ‘घर’ गियारहवाँ। घन = संघने। तुरसी = तुलसी। बिरवा = पौधा। माझ बना = बनों में, तुलसी के जंगल में। रसि = रस से, प्रेम से। गाऊ = गाता है। उआ का = उस का। रे = हे प्रीतम!।1।
अर्थ: (जिस कृष्ण जी के) आस-पास तुलसी के संघने पौधे थे (और जो) तुलसी के जंगल में प्रेम से गा रहा था उसका दर्शन करके (गोकुल की) ग्वालिनें मोहित हो गई (और कहने लगीं-) हे प्रीतम! मुझे छोड़ के किसी और जगह नहीं आना-जाना।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोहि चरन मनु लागो सारिंगधर ॥ सो मिलै जो बडभागो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तोहि चरन मनु लागो सारिंगधर ॥ सो मिलै जो बडभागो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेहि चरन = तेरे चरणों में। सारिंगधर = हे सारिंगधर! हे धनुषधारी!।1। रहाउ।
अर्थ: हे धर्नुधारी प्रभु! (जैसे वह ग्वालिन कृष्ण जी पर से वारने जाती थी वैसे ही मेरा भी) मन तेरे चरणों में परोया गया है, पर तुझे वही मिलता है जो बड़ा भाग्यशाली हो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिंद्राबन मन हरन मनोहर क्रिसन चरावत गाऊ रे ॥ जा का ठाकुरु तुही सारिंगधर मोहि कबीरा नाऊ रे ॥२॥२॥१५॥६६॥
मूलम्
बिंद्राबन मन हरन मनोहर क्रिसन चरावत गाऊ रे ॥ जा का ठाकुरु तुही सारिंगधर मोहि कबीरा नाऊ रे ॥२॥२॥१५॥६६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंद्राबन = (बिंद्रा+बन। संस्कृत: बिंद्रा = तुलसी) तुलसी का जंगल। मन हरन = मन को हर लेने वाला। गाऊ = गाएं, गाईयां। जा का = जिस का। मोहि नाउ = मेरा नाम। रे = हे सज्जन!।2।
अर्थ: हे प्रभु! बिंद्रावन में कृष्ण गाईयां चराता था (और वह गोकुल की ग्वालिनों का) मन मोहने वाला था, मन की खींच डालने वाला था और हे धर्नुधारी सज्जन! जिस का तू सांई है उस का नाम कबीर (जुलाहा) है (भाव, जिनका मन कृष्ण जी ने बिंद्राबन में गाईयां चरा के मोहा था उन्हें लोग गोकुल की गरीब गुआलिनें कहते हैं। हे सांई! मेरे पर तू मेहर कर, मुझे भी लोग गरीब जुलाहा कहते हैं। तू गरीबों पर जरूर मेहर करता है)।2।15।66।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: किसी भी बोली का वर्णनात्मक रूप समझने के लिए जरूरी है कि उसके व्याकरण और कोश की जहाँ तक वे मदद कर सकते हों सहायता ली जाए। जिस भाग्यशालियों को प्रभु के दर से ऊँची उड़ानें भरने की दाति मिली हुई है, वे जी सदके भरें, पर ये उड़ाने लगाते हुए भी वाणी के बाहरी रूप (वर्णनात्मक) को आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता।
विधाता ने हरेक जीव को जगत के करिश्मे देखने के लिए शरीरिक इंद्रियां दी हुई हैं, पर हरेक जीव के अपने-अपने असल अनुसार इन करिश्मों का भिन्न-भिन्न असर हरेक पर पड़ता है। धरती पर उगे हुए एक छोटे से फूल को, इस फूल की सार ना जानने वाला मनुष्य तो शायद पैरों के नीचे कुचल के लांघ जाता है, पर एक कोमल हृदय वाला शायर इसे देख के मस्त हो जाता है, और विचारों के समुंदर में कई लहरें चला देता है। यही हाल ‘रूहानी शायरों’ का है, उनके अंदर तो बल्कि ज्यादा गहिराईयों से ये तरंगें उठती हैं। जेठ के महीने में धतूरे (आक) की खखड़ियों को हम सभी देखते हैं, पर जब ‘रूहानी शायर’ प्रीतम की आँखें उन खखड़ियों पर पड़ती हैं, तो खुद उन्हें देख के एक गहरे बिरह के रंग में आते हैं, और गाते हैं;
खखड़ीआ सुहावीआ, लगड़ीआ अक कंठि॥
बिरह विछोड़ा धणी सिउ, नानक सहसै गंठि॥1॥7॥ (गउड़ी की वार महला ५)
सतिगुरु मेहर करे, उसके नाम लेना वाले सिखों के हृदय में भी इस दिखते जगत-नजारे को देख के भी यही उद्वेग उठें, यही ‘विरह’ वाली लहर चले। पर यदि कोई विद्वान सज्जन ‘अक खखड़ियों’ की जगह निरी मति, बुद्धि, अंतहकरण आदि शब्दों का इस्तेमाल करके आत्मज्ञान वाले अर्थ करने आरम्भ कर दे, तो पाठकजन स्वयं ही समझ लें कि जो उद्वेग उस खूबसूरत अलंकार ने पैदा करना था, वह कितना मद्यम पड़ जाता है।
ये बिरह अवस्था मनुष्य के हृदय में पैदा करने के लिए, प्रीतम जी कहीं चकवी के विछोड़े वाला दर्दनाक नजारा पेश कर रहे हैं, कहीं समुंदर में से विछुड़े हुए शंख के विरलाप का हाल बताते हैं और जलाशय से टूटे हुए पोखर (सरोवर) से पूछ रहे हैं कि तेरा रंग क्यूँ काला पड़ गया है, और तेरे में लय-लय करने वाले कमल फूल क्यूँ जल गए हैं।
ये जिंदगी-दाती ‘बिरहो’ अवस्था पैदा करने के लिए कभी-कभी विरह में ग्रस्त स्त्री के मनोवेग बयान करते हैं, और कबीर जी की रसना द्वारा यूँ कहते है;
पंथु निहारै कामनी, लोचन भरीले उसासा॥ उर न भीजै, पगु ना खिसै, हरि दरसन की आसा॥१॥ उडहु न कागा कारे॥ बेगि मिलीजै अपुने राम पिआरे॥१॥ रहाउ॥ कहि कबीर जीवन पद कारनि हरि की भगति करीजै॥ एकु आधारु नाम नाराइन रसना रामु रवीजै॥2॥1॥14॥65॥
इस गहरे मिन्नतों वाले दिली दर्द की सार वही जाने, जो सच-मुच अपने प्यारे प्राणनाथ पति से विछुड़ी हुई कौए उड़ा रही है और औसियां डाल रही है। ‘यह रूहानी बाण’ उस विरहणी के लिए सचमुच कारगर बाण है। दुनिया के समझदार से समझदार विद्वानों के ‘पतिब्रता’ पर दिए लैक्चर उस पर इतना असर नहीं कर सकते, जितनी ये एक अकेली पंक्ति “उडहु न कागा कारे”।
पर अगर कोई विद्वान सज्जन उस विरह-मारी को ये कह दे कि इसका अर्थ ये है: ‘हे काले पापो, दूर हो जाओ’, तो पूछ के देखो उस विरही हृदय से कि ‘कौओं’ को उड़ा के जो उद्वेग उसके अंदर से आता था, वह अब ‘काले पापों’ का नाम सुन के कहाँ गया।
श्री कृष्ण जी की बाल-लीला को ‘विरह’ और ‘प्यार’ के रंग में सुनाने वाले सज्जन एक साखी इस तरह सुनाया करते हैं;
“श्याम जी गोकुल की ग्वालिनों को बिलकती छोड़ के कंस को ‘कृतार्थ’ करने के लिए मथुरा आ गए, और दुबारा गोकुल जाने का समय ना मिला। जब विछोड़े में वो बहुत विहवल हुई, तो कृष्ण जी ने अपने भक्त ‘ऊधव’ को भेजा कि गोकुल जा के गोपियों को धीरज दे आए। पर अपने प्राण-प्यारे के बिना बिरही-हृदयों को कैसे धैर्य आए? जब और उपदेश कारगर ना हुआ, तब ‘ऊधव’ ने समझाया कि अब ‘जगदीश’ का स्मरण करो, श्याम जी यहाँ नहीं आ सकते। इस का उत्तर उनके दर्द भरे हृदयों में से इस प्रकार निकला;
“ऊधउ! मन नही दस बीस॥
इक मन सी जो श्याम जी लै गए, कउन भजे जगदीस॥ ”
इस दिल-चीरवें उत्तर का रस भी कोई वही जीव ले सकता है, जो स्वयं प्रेम नईया में तैर रहा है।
आओ, हम भी उसी प्रेम-नईया में पहुँच के ‘गोकुल’ की ‘ग्वालिन’ की तरह प्रीतम का पल्लू पकड़ के कहें, लाल! सुहणे लाल! छोड़ के ना जाना। जैसे गोकुल से चलते श्याम जी के आगे ‘ग्वालिन’ तरले-मिन्नतें करती थी, वैसे ही कबीर जी के साथ मिल के भी हम भी उसी अवस्था में पहुँच के कहें: दाता! “मो कउ छोडि न आउ न जाहू रे” “मो कउ छोडि न आउ न जाहू रे”
क्या अजीब तरला है! कैसी गहरी बिरह-नदी में से लहिर उठ रही है! खुद-ब-खुद चित्त यहीं गोते खाने को करता है।
जगत-अखाड़े में से गुजर चुके विरही-हृदयों के ऐसे नाट इसी ही नईया के सवारों के लिए प्रकाश स्तम्भ हुआ करते हैं। चाहे ये रौशन-मीनार सदियों के फासले पे कहीं दूर ठिकाने पर होता है, पर इसकी चोटी पर ये विरही-तरले वाली लाट (ज्वाला) लट-लट कर रही होती है, जो सदियों बाद भी आए पतंगों को अपनी ओर खींचे बगैर नहीं रह सकती।
ऊँचे वलवलों में पहुँचे हुए रूहानी आशिकों के विरह भीगे वचनों का आनंद भी पूर्ण तौर पे तभी आता है, जब उस आनंद का चाहवान सज्जन उसी वलवले में पहुँचने का प्रयत्न करे।
कई विद्वान सज्जन शब्द ‘गुआरनि’ का अर्थ “बुद्धि” रूपी गुआरिन करके उस विरह वाले चित्रण को आँखों से काफी धुंधला या मद्यम कर देते हैं।
पहली तुक के बीच के शब्द “बना रसि” का अर्थ कई सज्जन “बरसाना” गाँव करते हैं और कुछ सज्जन इसे “बनारसि” शहर समझते हैं। इसका ‘पाठ’ और “अर्थ” तजवीज करने से पहले पाठकों का ध्यान इस शब्द की दूसरी तुक के शब्द “उआ का” की ओर दिलाया जाता है। इस “उआ का” अर्थ किस तरह करना है? इसके वास्ते श्री गुरु ग्रंथ साहिब में से कुछ प्रमाण नीचे दिए जा रहे हैं;
उआ अउसर कै हउ बलि जाई॥
आठ पहिर अपना प्रभु सिमरनु वड भागी हरि पाई॥१॥ रहाउ॥ (सारंग म: ५)
भाव, “जब” आठों पहर अपना प्रभु स्मरण करूँ, ‘उआ अउसर कै’।
याहू जतन करि होत छुटारा॥ उआहू जतन साध संगारा॥४३॥ (गउड़ी बावन अखरी) भाव, ‘जिस’ प्रयत्न करके…‘उआहू जतन’।
उआ कउ कहीऐ सहज मतवारा॥ पीवत राम रसु गिआन बीचारा॥१॥ रहाउ॥२०॥ (गउड़ी कबीर जी) भाव, ‘जो’ पीवत राम सु…‘उआ कउ’।
राम नाम संगि मनि नही हेता॥ जो किछु कीनो सोऊ अनेता॥ …
उआ ते ऊतम गनउ चंडाला॥ नानक जिह मनि बसहि गुपाला॥१६॥ (गउड़ी बावन अखरी) … भाव, ‘जिस ने’ राम नाम संगि…‘उआ ते’….।
उपरोक्त प्रमाणों से पाठक जन देख चुके हैं कि जहाँ कहीं किेसी तुक में शब्द ‘उआ’ आया है, उसके साथ संबंध रखने वाला सर्वनाम (co-relative pronoun) ‘जो’ या ‘जिस ने’ आदि भी गुप्त या प्रकट रूप में साथ की तुक में मिलता है।
इस तरह इस शब्द की दूसरी तुक में के ‘उआ का’ के साथ संबंध रखने वाला ‘सर्वनाम’ भी ढूँढें और ऐसे पढ़ें;
“(जिसके) आस पास घन तुरसी का बिरवा…
गुआरनि उआ का सरूपु देखि मोही”
अर्थ: ग्वारन उसका सरूप देख के मस्त हो गई, जिसके आस-पास तुलसी के संघने पौधे थे। और
(‘जो’) ‘माझ बना रसि गाऊ रे’। भाव, और ‘जो’ (तुलसी के) बन में रस से (प्रेम से) गा रहा था।
अब फिर दोनों तुकों को मिला के पढ़ें और अर्थ करें तो यूँ बनता है;
(‘सिस’ कृष्णा जी के) आस-पास तुलसी के संघने पौधे थे (और जो) (तुलसी के) बनों में प्रेम से गा रहा था।
नोट: यहां कृष्ण जी की बाँसुरी की ओर इशारा है), उसका स्वरूप देख के ग्वालनि मोहित हो गई (और कहने लगी: प्रीतम!) मुझे छोड़ के किसी और जगह ना जाना-आना।1।
चर्चा पहले ही काफी लंबी हो चुकी है। अब पाठक जन खुद विचार कर लें कि पहली तुक में पाठ ‘बना’ और ‘रस’ अलग-अलग है। व्याकरण अनुसार शब्द ‘रसि’ का अर्थ है रस से, प्रेम से, जैसे ‘रसि रसि चोग चुगहि नित फासहि।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी १२ ॥ बिपल बसत्र केते है पहिरे किआ बन मधे बासा ॥ कहा भइआ नर देवा धोखे किआ जलि बोरिओ गिआता ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी १२ ॥ बिपल बसत्र केते है पहिरे किआ बन मधे बासा ॥ कहा भइआ नर देवा धोखे किआ जलि बोरिओ गिआता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: १२ = ‘घर’ बारहवाँ। बिपल = (संस्कृत: विपुल = लंबे खुले) लंबे चौड़े, खुले। केते = कई। पहिरे = पहन लिए। किआ = क्या लाभ हुआ? मधे = में। नर = हे नर! हे भाई! धोखे = (संस्कृत: धुक्ष = धुखाना, सुलगाना) धूप सुलगाना, पूजा की। देवा = देवता। जलि = पानी में। बोरिओ = डुबोया। गिआता = ज्ञाता, जानबूझ के।1।
अर्थ: कई लोग लम्बे-चौड़े चोले पहनते हैं (इसका क्या लाभ?) जंगलों में भी जा बसने के क्या गुण? हे भाई! अगर धूप आदि सुलगा के देवताओं की पूजा कर ली तो भी क्या बना? और अगर जान-बूझ के (किसी तीर्थ आदि के) जल में शरीर डुबो लिया तो भी क्या हुआ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअरे जाहिगा मै जानां ॥ अबिगत समझु इआना ॥ जत जत देखउ बहुरि न पेखउ संगि माइआ लपटाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जीअरे जाहिगा मै जानां ॥ अबिगत समझु इआना ॥ जत जत देखउ बहुरि न पेखउ संगि माइआ लपटाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ रे = हे जीव! हे जिंदे! मैं समझता हूँ। जाहिगा = तू भी जनम व्यर्थ गवा लेगा। अबिगतु = (संस्कृत: अव्यक्त = अदृश्य प्रभु) परमात्मा। इआना = हे अंजान! जत कत = जिधर किधर, हर तरफ। बहुरि = दुबारा (उसी रंग में)। न पेखउ = मैं नहीं देखता। संगि = संग में।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीव! तू (उस) माया में लिपट रहा है (जो) जिधर भी मैं देखता हूँ दुबारा (पहले रूप में) मैं नहीं देखता (जिधर देखता हूँ, माया नाशवान ही है, एक-रंग रहने वाली नहीं है)। हे अंजान जीव! एक परमात्मा को खोज। नहीं तो मैं समझता हूँ (इस माया के साथ) तू भी अपना आप व्यर्थ गवाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआनी धिआनी बहु उपदेसी इहु जगु सगलो धंधा ॥ कहि कबीर इक राम नाम बिनु इआ जगु माइआ अंधा ॥२॥१॥१६॥६७॥
मूलम्
गिआनी धिआनी बहु उपदेसी इहु जगु सगलो धंधा ॥ कहि कबीर इक राम नाम बिनु इआ जगु माइआ अंधा ॥२॥१॥१६॥६७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञान चर्चा करने वाले। धिआनी = समाधियां लगाने वाले। बहु उपदेसी = और लोगों को बड़ी शिक्षा देने वाले। धंधा = जंजाल।2।
अर्थ: कोई ज्ञान-चर्चा कर रहा है, कोई समाधि लगाए बैठा है, कोई और लोगों को उपदेश कर रहा है (पर असल में) ये सारा जगत माया का जंजाल ही है (भाव, माया के जंजाल में ही ये जीवन ग्रसे हुए हैं)। कबीर कहता है: परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना यह जगत माया में अंधा हुआ पड़ा है।2।1।16।67।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: लंबे-लंबे चोले पहने फिरना, जंगलों में डेरे लगाने, देवताओं की पूजा, तीर्थों पर शरीर त्यागना, ज्ञान-चर्चाएं करनीं, समाधियां लगानी, लोगों को धार्मिक उपदेश करने - ये सब माया के ही आडंबर है। जीवन का सही रास्ता एक ही है; वह है परमात्मा का स्मरण।67।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी १२ ॥ मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥ सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी १२ ॥ मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥ सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमु = भटकना, विकारों के पीछे दौड़ भाग। प्रगट होइ = प्रगट हो के, निडर हो के, विकारों का सहम दूर करके। नाचहु = नाच, दलेर हो के प्रभु की शरण आ। डांडे = डंन, ठगी। सूरु की = वह कैसा शूरवीर? (भाव, वह मनुष्य सूरमा नहीं)। रन = मैदाने जंग, रण भूमि। सती कि = (वह स्त्री) कैसी सती? सांचै = संचित किए, इकट्ठे करे।1।
अर्थ: हे मन! विकारों के पीछे दौड़ भाग छोड़ दे, ये (काम-क्रोध आदि) सब माया की ठगीयां हैं (जब तू सब से ऊँचे प्रभु की शरण आ गया, तो इनसे क्यों डरे? अब निडर हो के उत्साहित रह)। वह शूरवीर कैसा जो सामने दिखाई देती रण-भूमि से डर जाए? वह स्त्री सती नहीं हो सकती जो (घर के) बरतन संभालने लग जाए (शूरवीर की तरह और सती की तरह, हे मन! तूने भी काम आदि का सामना करना है और स्वैभाव जलाना है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डगमग छाडि रे मन बउरा ॥ अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
डगमग छाडि रे मन बउरा ॥ अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डगमग = डावाँ डोल अवस्था, निर्णय हीन अवस्था। जरे = (चिता में) जलने से। मरे = रण भूमि में शहीद होने से। सिधि = सिद्धि, सफलता। हाथि = हाथ में। संधउरा = सिंदूर लगाया हुआ नारीयल, (जो स्त्री अपने मरे पति के साथ चिता पर जलने के लिए सती होने के लिए तैयार होती थी, वह हाथ में नारीयल लेती थी और उस नारीयल पर सिंदूर लगा लेती थी; ये सिंदूरी नारीयल एक बार हाथ में लेने पर उसे जरूर सती होना पड़ता था, वरना लोग जबरदस्ती उसे जलती चिखा में फेंक के जला देते थे)।1। रहाउ।
अर्थ: हे कमले मन! (सबसे ऊँचे मालिक की शरण आ के अब) डावाँडोल होना छोड़ दे। (जिस स्त्री ने) हाथ में सिंदूरा हुआ नारीयल ले लिया, उसे तो अब मर के ही सिद्धि मिलेगी (भाव, सती वाला दर्जा मिलेगा), वैसे ही, हे मन! तूने प्रभु की ओट ली है, अब काम आदि के सामने डोलना छोड़ दे, अब तो स्वैभाव मार के ही ये प्रीति निभेगी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥ कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥२॥१७॥६८॥
मूलम्
काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥ कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥२॥१७॥६८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लीने = ठगे हुए। इआ बिधि = इन तरीकों से। बिगूता = ख्वार हो रहा है। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ूंगा।2।
अर्थ: किसी को काम ने ठग लिया, किसी को क्रोध ने ठगा है, किसी को माया (की किसी और तरंग) ने- इस तरह सारा जग ख्वार हो रहा है। (इनसे बचने के लिए) कबीर (तो यही) कहता है (भाव, अरदास करता है) कि मैं सबसे ऊँचे मालिक परमात्मा को ना विसारूँ।2।2।17।68।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जिस मनुष्य ने परमात्मा के स्मरण का राह पकड़ा है, वह, मानो, किसी शूरवीर व सती के पद्-चिन्हों पर चलने लगा है, उसने निडर हो के कामादिक विकारों का मुकाबला करना है और अहंकार का नाश करना है।68।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी १३ ॥ फुरमानु तेरा सिरै ऊपरि फिरि न करत बीचार ॥ तुही दरीआ तुही करीआ तुझै ते निसतार ॥१॥
मूलम्
गउड़ी १३ ॥ फुरमानु तेरा सिरै ऊपरि फिरि न करत बीचार ॥ तुही दरीआ तुही करीआ तुझै ते निसतार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: 13 = ‘घर’ तेरहवाँ। फुरमानु = हुक्म। सिरै ऊपरि = सिर पे ही, सदा सिर माथे पे। फिरि = फिर के, उलट के, उसके उलट। दरीआ = (भाव, संसार समुंदर)। करीआ = मल्लाह। तूझै ते = तूझ से ही। निसतार = निस्तारा, पार उतारा, संसार समुंदर की विकारी लहरों से बचाव।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा हुक्म मेरे सिर माथे पर है, मैं इसमें कोई ना-नुकर नहीं करता। ये संसार समुंदर तू खुद ही है, (इसमें से पार लंघाने वाला) मल्लाह भी तू खुद ही है। तेरी मेहर से ही मैं इसमें से पार लांघ सकता हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंदे बंदगी इकतीआर ॥ साहिबु रोसु धरउ कि पिआरु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बंदे बंदगी इकतीआर ॥ साहिबु रोसु धरउ कि पिआरु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंदे = हे बंदे! इकतीआर = एख्तियार कर, स्वीकार कर। धरउ = चाहे धरे, बेशक धरे। कि = या। रोसु = गुस्सा।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘धरउ’ व्याकरण के अनुसार ये शब्द ‘हुकमी भविष्यत्’ imperative mood, अंन पूरुष, एकवचन है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’ का अंक ‘हुकमी भविखत’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे बंदे! तू (प्रभु की) भक्ति स्वीकार कर, (प्रभु-) मालिक चाहे (तेरे साथ) प्यार करे चाहे गुस्सा करे (तू इस बात की परवाह ना कर)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु तेरा आधारु मेरा जिउ फूलु जई है नारि ॥ कहि कबीर गुलामु घर का जीआइ भावै मारि ॥२॥१८॥६९॥
मूलम्
नामु तेरा आधारु मेरा जिउ फूलु जई है नारि ॥ कहि कबीर गुलामु घर का जीआइ भावै मारि ॥२॥१८॥६९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आधारु = आसरा। जई है = जी पड़ता है, खिल जाता है। नारि = नार में, पानी में (संस्कृत: आपो नारा इति प्रोक्ता। शब्द ‘नराइण’ भी शब्द ‘नार’ और ‘अयन’ से बना है; नार = जल; अयन = घर, जिसका घर जल में है)। जीआइ = जिआए, जिंदा रखे। भावै = चाहे।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘फूलु जई है’ का इकट्ठा अर्थ ‘फूल जाती है’ गलत है, क्योंकि शब्द ‘फूलु’ व्याकरण अनुसार संज्ञा (noun) है, क्रिया (verb) नहीं है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा नाम मेरा आसरा है (इसी तरह) जैसे फूल पानी में खिला रहता है (जैसे फूल को पानी का आसरा है)। कबीर कहता है: (हे प्रभु!) मैं तेरे घर का चाकर हूँ, (ये तेरी मर्जी है) चाहे जीवित रख चाहे मार दे।2।18।69।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: असल सेवक अपने प्रभु की रजा में पूरी तौर पर राजी रहता है। जैसे पानी फूल की जिंदगी का आसरा है, वैसे ही प्रभु का नाम सेवक के जीवन का आधार है। दुख और सुख दोनों ही उसे प्रभु की मेहर ही दिखाई देते हैं “भावै धीरक भावै धके ऐक वडाई देइ”।69।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी५ ॥ लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे ॥ भगति हेति अवतारु लीओ है भागु बडो बपुरा को रे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी५ ॥ लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे ॥ भगति हेति अवतारु लीओ है भागु बडो बपुरा को रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ जोनि महि = जीवों की जूनियों में। भ्रमत = भटकता। रे = हे भाई! भगति हेति = भक्ति की खातिर, उसकी भक्ति पे प्रसन्न हो के। अवतारु = जनम। बपुरा को = बिचारे का।1।
अर्थ: हे भाई! (तुम कहते हो कि जब) चौरासी लाख जीवों में भटक-भटक के नंद बहुत थक गया (तो उसे मानव जनम मिला तो उसने परमात्मा की भक्ति की), उसकी भक्ति से प्रसन्न हो के (परमात्मा ने उसके घर) जनम लिया, उस बिचारे नंद की बड़ी किस्मत जागी।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह जु कहत हउ नंद को नंदनु नंद सु नंदनु का को रे ॥ धरनि अकासु दसो दिस नाही तब इहु नंदु कहा थो रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम्ह जु कहत हउ नंद को नंदनु नंद सु नंदनु का को रे ॥ धरनि अकासु दसो दिस नाही तब इहु नंदु कहा थो रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जु = जो ये बात। नंदनु = पुत्र। नंद = ये गोकुल का एक ग्वाला था, इसकी पत्नी का नाम यशोधा था। जब कंस ने अपनी बहन देवकी के घर जनमें बालक कृष्ण को मारना चाहता था तो इनके पिता वासुदेव ने इनको मथुरा से रातो-रात ले जा के नंद के हवाले किया था। नंद और यशोदा ने कृष्ण जी को पाला था। सु = वह। का को = किसका? धरनि = धरती। दसो दिस = दसों दिशाओं में (भाव, ये सारा जगत)।1। रहाउ।
अर्थ: पर, हे भाई! तुम जो ये कहते हो कि (परमात्मा नंद के घर अवतार ले के) नंद का पुत्र बना, (ये बताओ कि) वह नंद किसका पुत्र था? और जब ना ये धरती ना आकाश था, तब ये नंद (जिसे तुम परमात्मा का पिता कह रहे हो) कहाँ था।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकटि नही परै जोनि नही आवै नामु निरंजन जा को रे ॥ कबीर को सुआमी ऐसो ठाकुरु जा कै माई न बापो रे ॥२॥१९॥७०॥
मूलम्
संकटि नही परै जोनि नही आवै नामु निरंजन जा को रे ॥ कबीर को सुआमी ऐसो ठाकुरु जा कै माई न बापो रे ॥२॥१९॥७०॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘गउड़ी’ के नीचे छोटा अंक ५ बताता है इस शब्द के समेत आगे कबीर जी के पाँच शब्द है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संकटि = संकट में, दुख में। निरंजन = अंजन रहित, माया के प्रभाव से ऊपर।2।
अर्थ: हे भाई! (दरअसल बात ये है कि जिस प्रभु) का नाम है निरंजन (भाव, जो प्रभु कभी माया के असर तले नहीं आ सकता), वह जूनियों में भी नहीं आता, वह (जनम-मरण के) दुख में नहीं पड़ता। कबीर का स्वामी (सारे जगत का) पालनहार ऐसा है जिसकी ना कोई माँ है, ओर ना ही पिता।2।19।70।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: परमात्मा खुद सारे जगत को रचने वाला है। माया के खेल को वह खुद ही बनाने वाला है; वह जनम मरन में नहीं आता, उसका कोई माता-पिता नहीं है। गोकुल के ग्वाले नंद को परमातमा का पिता कहना भारी भूल है।70।
[[0339]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥ निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥ निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी ॥ निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥ निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥ निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोगु निंदउ = बेशक जगत निंदा करे। मो कउ = मुझे। जन कउ = प्रभु के सेवक को। खरी = बहुत। महतारी = माँ।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘निंदउ’ हुकमी भविष्यत्, imperative mood, अन पुरख, एकवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जगत बेशक मेरी निंदा करे, बेशक मेरे अवगुण भंडे; प्रभु के सेवक को अपनी निंदा होती अच्छी लगती है, क्योंकि निंदा सेवक की माँ-बाप है (भाव, जैसे माँ-बाप अपने बच्चे में शुभ गुण बढ़ते हुए देखना चाहते हैं, वैसे ही निंदा भी अवगुणों को सामने ला के भले गुणों के लिए सहायता करती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥ नामु पदारथु मनहि बसाईऐ ॥ रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥ हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
मूलम्
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥ नामु पदारथु मनहि बसाईऐ ॥ रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥ हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैकुंठि = बैकुंठ में। मनहि = मन में। बसाईऐ = बसाया जा सकता है। रिदै सुध = पवित्र हृदय होते हुए। जउ = अगर। कपरे = कपड़े धोता है, मन के विकारों की मैल दूर करता है।1।
अर्थ: अगर लोग अवगुण सामने लाएं तभी बैकुंठ जा सकते हैं (क्योंकि इस तरह अपने अवगुण छोड़ के) प्रभु का नाम रूपी धन मन में बसा सकते हैं। अगर हृदय शुद्ध होते हुए हमारी निंदा हो (अगर शुद्ध भावना से हम अपने अवगुण नश्र होते सुनें) तो निंदक हमारे मन को पवित्र करने में सहायता करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदा करै सु हमरा मीतु ॥ निंदक माहि हमारा चीतु ॥ निंदकु सो जो निंदा होरै ॥ हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
मूलम्
निंदा करै सु हमरा मीतु ॥ निंदक माहि हमारा चीतु ॥ निंदकु सो जो निंदा होरै ॥ हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहि = में। होरै = रोकता है। लोरै = चाहता है। निंदकु = बुरा चितवने वाला।2।
अर्थ: (इसलिए) जो मनुष्य हमें भंडता है, वह हमारा मित्र है, क्योंकि हमारी तवज्जो अपने निंदक में रहती है (भाव, हम अपने निंदक की बात बड़े ध्यान से सुनते हैं)। (दरअसल) हमारा बुरा चितवने वाला मनुष्य वह है, जो हमारे ऐब नश्र होने से रोकता है। निंदक तो बल्कि ये चाहता है कि हमारा जीवन अच्छा बने।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥ निंदा हमरा करै उधारु ॥ जन कबीर कउ निंदा सारु ॥ निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥२०॥७१॥
मूलम्
निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥ निंदा हमरा करै उधारु ॥ जन कबीर कउ निंदा सारु ॥ निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥२०॥७१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधारु = बचाव। सारु = श्रेष्ठ धन।3।
अर्थ: ज्यों-ज्यों हमारी निंदा होती है, त्यो-त्यों हमारे अंदर प्रभु का प्रेम प्यार पैदा होता है, क्योंकि हमारी निंदा हमें अवगुणों से बचाती है।
सो, दास कबीर के लिए तो उसके अवगुणों का प्रचार सबसे बढ़िया बात है। पर (बिचारा) निंदक (सदा दूसरों के अवगुणों की बातें कर करके खुद उन अवगुणों में) डूब जाता है, और हम (अपने अवगुणों की चेतावनी से उनसे) बच निकलते हैं।3।20।71।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: अगर कोई मनुष्य ठंडे जिगरे से अपने ऐब नश्र (प्रचार) होते सुने, तो वह बल्कि इस तरह अपने अंदर से वह अवगुण ऐब दूर कर सकता है, और अपना जीवन पवित्र बना सकता है। पर, दूसरों के एैब फरोलने वाला अपने अंदर कभी ना झांकने के कारण खुद ही उन ऐबों में डूब जाता है। सो, परमात्मा की बंदगी वाले बंदे अपनी निंदा से घबराते नहीं हैं।71।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा राम तूं ऐसा निरभउ तरन तारन राम राइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राजा राम तूं ऐसा निरभउ तरन तारन राम राइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजा राम = हे सब के मालिक प्रभु! ऐसा = ऐसे स्वभाव वाला, अनोखा सा। तरन = बेड़ी, जहाज। तरन तारन = सब जीवों को तारने के लिए जहाज।1। रहाउ।
अर्थ: हे सब के मालिक प्रभु! हे सब जीवों को तारने के समर्थ राम! हे सब में व्यापक प्रभु! तू किसी से डरता नहीं है; तेरा स्वभाव कुछ अनोखा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब हम होते तब तुम नाही अब तुम हहु हम नाही ॥ अब हम तुम एक भए हहि एकै देखत मनु पतीआही ॥१॥
मूलम्
जब हम होते तब तुम नाही अब तुम हहु हम नाही ॥ अब हम तुम एक भए हहि एकै देखत मनु पतीआही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतीआही = पतीज गया है, मान गया है कि तू ही तू है हम तूझसे अलग कुछ भी नहीं हैं।1
अर्थ: जब तक हम कुछ बनें फिरते हैं (भाव, अहम्-अहंकार करते हैं) तब तक (हे प्रभु!) तू हमारे अंदर प्रकट नहीं होता (अपना प्रकाश नहीं करता), पर जब अब तूने खुद (हममें) निवास किया है तो हमारे में वह पहले वाला अहंकार नहीं रहा। अब (हे प्रभु!) तूम और हम एक-रूप हो गए हैं, अब तुझे देख के हमारा मन मान गया है (कि तू ही तू है, तूझसे अलग हम कुछ भी नहीं हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब बुधि होती तब बलु कैसा अब बुधि बलु न खटाई ॥ कहि कबीर बुधि हरि लई मेरी बुधि बदली सिधि पाई ॥२॥२१॥७२॥
मूलम्
जब बुधि होती तब बलु कैसा अब बुधि बलु न खटाई ॥ कहि कबीर बुधि हरि लई मेरी बुधि बदली सिधि पाई ॥२॥२१॥७२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलु कैसा = कैसा बल हो सकता था? (भाव, हमारे अंदर आत्मिक बल नहीं था)। न खटाई = समाई नहीं है। हरि लई = छीन ली है।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) जितने समय तक हम जीवों में अपनी अक्ल (का अहंकार) होता है तब तक हमारे में कोई आत्मिक बल नहीं होता (भाव, सहमे ही रहते हैं), पर अब (जब तू खुद हमारे में आ प्रगट हुआ है) हमें अपनी अकल और बल पे मान नहीं रहा।
कबीर कहता है: (हे प्रभु!) तूने मेरी (अहंकार वाली) बुद्धि छीन ली है, अब वह बुद्धि बदल गई है (भाव, “मैं मैं’ छोड़ के “तू ही तू” करने वाली हो गई है, इस वास्ते मानव जन्म के उद्देश्य की) सिद्धि हासिल हो गई है।2।21।72।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: जब तलक मनुष्य के अंदर अहंकार है, प्रभु का प्रकाश नहीं हो सकता। जब वह खुद अंदर आ बसता है तो अहम् का नाश हो जाता है और अहम् को दूर करना ही मानव जनम का उद्देश्य है।72।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: रविदास जी सोरठ में लिखते हैं;
‘जब हम होते तब तू नाही अब तू ही मै नाही।’
इस तुक को कबीर जी के इस शब्द के अंक नं: 1 की पहली तुक से मिलाएं। शब्दों की ये सांझ बा-सबब नहीं बन गई। कबीर और रविदास जी बनारस के रहने वाले थे, समकाली भी थे। हम-ख्याल होने के कारण दोनों आपस में मेल-जोल भी जरूर रखते होंगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ खट नेम करि कोठड़ी बांधी बसतु अनूपु बीच पाई ॥ कुंजी कुलफु प्रान करि राखे करते बार न लाई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी ॥ खट नेम करि कोठड़ी बांधी बसतु अनूपु बीच पाई ॥ कुंजी कुलफु प्रान करि राखे करते बार न लाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खट = छह। नेम = (संस्कृत: नेमि) चक्र, पहिए का ऊपर वाला घेरा। खट नेम = छह जोगी-चक्र (देखें शब्द नं: 47; जोगी लोग शरीर के छह चक्र मानते हैं, प्राणयाम द्वारा प्राणों को नीचे वाले चक्र से खींच के ऊपर वाले चक्र में पहुँचाते हैं। पर इस शब्द में जोगियों के इन चक्रों की तरफ इशारा नहीं प्रतीत होता); पाँच तत्व और छेवाँ मन (शरीर की संरचना पाँच तत्वों से मानी जाती है, और जीव को जनम में लाने वाला इसका ‘मन’ ही मूल कारण है, क्योंकि मन की वासनाएं जीव को भटकाती फिरती हैं। सो, यहाँ ‘खट नेम’ से भाव है पाँच तत्व और छेवां मन)। कोठड़ी = शरीर रूपी छोटा सा घर। बांधी = बनाई। बसतु = चीज। अनूप = (अन+ऊप। ऊप = उपमा) जिसकी उपमा नहीं हो सकती, जिस जैसी और कोई चीज नहीं। बसतु अनूप = वह चीज जिस जैसी और कोई चीज बताई नहीं जा सकती, परमात्मा की अपनी ज्योति। बीच = (उस ‘कोठड़ी’) में। कुलफु = ताला। करते = करते हुए, बनाते हुए। बार न लाई = देर नहीं लगाई।1।
दर्पण-टिप्पनी
(शब्द ‘बार’ स्त्रीलिंग है, क्योंकि इसकी क्रिया ‘लाई’ भी स्त्रीलिंग है; सो इसका अर्थ ‘दरवाजे’ नहीं जचता)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: छह चक्र बना के (प्रभु ने) ये (मानव-शरीर रूपी) छोटा सा घर रच दिया है और (इस घर) में (अपनी आत्मिक ज्योति रूप) आश्चर्य वस्तु रख दी है; (इस घर की) ताला चाभी (प्रभु ने) प्राणों को ही बना दिया है, और (ये खेल) बनाते हुए वह देर नहीं लगाता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मन जागत रहु रे भाई ॥ गाफलु होइ कै जनमु गवाइओ चोरु मुसै घरु जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब मन जागत रहु रे भाई ॥ गाफलु होइ कै जनमु गवाइओ चोरु मुसै घरु जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! रे भाई = हे भाई! रे भाई मन = हे प्यारे मन! गाफलु = बेपरवाह। मुसै घरु = घर को लूटता है। जाई = जा के।1। रहाउ।
अर्थ: (इस घर में रहने वाले) हे प्यारे मन! अब जागता रह, बेपरवाह हो के तूने (अब तक) जीवन व्यर्थ गवा लिया है; (जो कोई भी गाफ़िल होता है) चोर जा के उसका घर लूट लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच पहरूआ दर महि रहते तिन का नही पतीआरा ॥ चेति सुचेत चित होइ रहु तउ लै परगासु उजारा ॥२॥
मूलम्
पंच पहरूआ दर महि रहते तिन का नही पतीआरा ॥ चेति सुचेत चित होइ रहु तउ लै परगासु उजारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच पहरूआ = पाँच पहरेदार, पाँच ज्ञान-इंद्रिय (आँख, कान, नाक, जीभ, चमड़ी, इन पाँचों के द्वारा बाहरी पदार्थों की खबर दिमाग में पहुँचती है। शरीर को किसी तरह का खतरा आता है, वह भी इनके द्वारा ही पता लगता है, पर किसी चस्के की ओर, किसी विकार की तरफ प्रेरणा भी इनके द्वारा ही होती है। आँखें अगर पराया रूप देखने के चस्के में फसी हुई हों तो नेक जीवन पर पहरा देने की जगह ये विकारों की ओर प्रेरित करेंगीं। इसी तरह बाकी के ज्ञानेन्द्रिये)। दर महि = शरीर रूपी छोटे से घर के दरवाजे पर। पतीआरा = एतबार, विश्वास। सुचेत चित होइ = होशियार हो के। उजारा = उजाला, निखार। लै उजारा = निखर आना। परगासु = प्रकाश।2।
अर्थ: (ये जो) पाँचों पहरेदार (इस घर के) दरवाजों पे रहते हैं, इनका कोई भरोसा नहीं। होशियार हो के रह और (मालिक को) याद रख तब (तेरे अंदर आत्मिक ज्योति का) प्रकाश निखर आएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउ घर देखि जु कामनि भूली बसतु अनूप न पाई ॥ कहतु कबीर नवै घर मूसे दसवैं ततु समाई ॥३॥२२॥७३॥
मूलम्
नउ घर देखि जु कामनि भूली बसतु अनूप न पाई ॥ कहतु कबीर नवै घर मूसे दसवैं ततु समाई ॥३॥२२॥७३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउ घर = नौ गोलकें (दो कान, दो आँखें, दो नासिकाएं, मुंह, इन्द्रीय, गुदा; ये नौ ही रंध्र जो शरीर की क्रिया चला रहे हैं)। देखि = देख के। जु = जो। कामनि = जीव-स्त्री। नवै घर मूसे = जब नौ ही गोलकें ठगी जाती हैं, जब नौ ही घर वश में आ जाते हैं। दसवैं = दसवें घर में, दसवें द्वार में, दिमाग़ में (सोच विचार का काम मनुष्य के दिमाग़ को कुदरत ने सौंपा है, इसलिए इसे दसवाँ घर, दसवाँ द्वार कहा जाता है। जब तक शरीर की नौ गोलकें निरी शारीरिक क्रियाओं की ओर मन को लगाए रखती हैं, निरे संसारी कामों-धंधों में जोड़े रखती हैं, तब तक मनुष्य अपने आप को निरा शरीर ही समझे रखता है, निरे शरीर की परवरिश में मस्त रहता है, अंदर बसती आत्मिक ज्योति का ख्याल कभी नहीं आता।) ततु = अस्लियत, परमात्मा की ज्योति।3।
अर्थ: जो जीव-स्त्री (शरीर के) नौ घरों (नौ गोलकों दरवाजों, जो शरीर की क्रिया चलाने के लिए हैं) को देख के (अपने असल उद्देश्य से) रह जाती है, उसे (ज्योति रूप) आश्चर्य चीज (अंदर) नहीं मिलती (भाव, उसका ध्यान अंदर बसती आत्मिक ज्योति की ओर नहीं जाता)। कबीर कहता है जब ये नौ ही घर बस में आ जाते हैं, तो प्रभु की ज्योति दसवें घर में टिक जाती है (भाव, तब अंदर बसते प्रभु के अस्तित्व का विचार जीव को आता है, तभी तवज्जो प्रभु की याद में टिकती है)।3।22।73।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: काम-क्रोध आदि कोई विकार तब तक मनुष्य का जीवन बिगाड़ता रहता है, जब तक मनुष्य प्रभु की याद से गाफ़िल है। ये ज्ञान-इंद्रिय भी अन्य बुरी तरफ ही प्रेरित करती रहती हैं। नाम जपना ही एक ऐसी दाति है, जिसकी इनायत से आत्मिक जीवन विकारों की धुंध में से निकल के निखर के आता है।73।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी ॥ माई मोहि अवरु न जानिओ आनानां ॥ सिव सनकादि जासु गुन गावहि तासु बसहि मोरे प्रानानां ॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी ॥ माई मोहि अवरु न जानिओ आनानां ॥ सिव सनकादि जासु गुन गावहि तासु बसहि मोरे प्रानानां ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माई = हे माँ! मोहि = मैंने। अवरु = और। न जानिओ = नहीं जाना, जीवन का आसरा नहीं समझा। अनानां = आन, अन्य, कोई और। सनकादि = सनक आदि, सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र। जासु गुन = जिस के गुण। तासु = उस (प्रभु) में। प्रानानां = प्राण।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! मैंने किसी और को (अपने जीवन का आसरा) नहीं समझा, (क्योंकि) मेरे प्राण (तो) उस (प्रभु) में बस रहे हैं जिसके गुण शिव और सनक आदि गाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदे प्रगासु गिआन गुर गमित गगन मंडल महि धिआनानां ॥ बिखै रोग भै बंधन भागे मन निज घरि सुखु जानाना ॥१॥
मूलम्
हिरदे प्रगासु गिआन गुर गमित गगन मंडल महि धिआनानां ॥ बिखै रोग भै बंधन भागे मन निज घरि सुखु जानाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रगासु = प्रकाश। गंमति = पहुँचाया, दिया, बख्शा (संस्कृत: गम = जाना, पहुँचना। क्रिया ‘गम’ से ‘प्रेरणार्थक क्रिया’ गमय का अर्थ है पहुँचाना, देना, बख्शना)। गगन महि = आकाश में (भाव, दुनिया के पदार्थों में से उठ के उच्च मण्डलों में, प्रभु चरणों में)। धिआनानां = ध्यान (लग गया)। बिखै = विषौ। निज घरि = अपने घर में, अंदर ही। जानाना = जाना, जान लिया।1।
अर्थ: जब से सतिगुरु ने ऊँची सूझ बख्शी है, मेरे हृदय में, (मानो) प्रकाश हो गया है, और मेरा ध्यान ऊँचे मण्डलों में (भाव, प्रभु चरणों में) टिका रहता है। विषौ-विकार आदिक आत्मिक रोगों और सहम की जंजीरें टूट गई हैं, मुझे मन के अंदर ही सुख मिल गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक सुमति रति जानि मानि प्रभ दूसर मनहि न आनाना ॥ चंदन बासु भए मन बासन तिआगि घटिओ अभिमानाना ॥२॥
मूलम्
एक सुमति रति जानि मानि प्रभ दूसर मनहि न आनाना ॥ चंदन बासु भए मन बासन तिआगि घटिओ अभिमानाना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकसु = एक (प्रभु) में ही। मति = बुद्धि। रति = प्यार, लगन। जानि = जान के, समझ के। मानि = मान के, पतीज के। मनहि = मन में। अनाना = आना, लाए। बसु = सुगंधि। मन बासन = मन की वासनाएं। तिआगि = त्याग के।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘तिआगि’ का अर्थ है ‘त्याग के’। शब्द ‘घटिओ’ व्याकरण के अनुसार ‘भूतकाल’ है, जैसे इसी ही शब्द के शब्द ‘जानिआ’, ‘बसिओ’ और प्रगटिओ’ हैं; घटिओ = कम हो गया, घट गया। जानिओ = जाना, जान लिया। बसिओ = बसा, बस गया। प्रगासिओ = प्रकाशित हुआ, चमक पड़ा। सो, शब्द ‘घटिओ’ का अर्थ ‘घटता घटता’ नहीं हो सकता। ना ही इसका अर्थ ‘घट में से’ हो सकता है; उस हालत में ये शब्द होने चाहिए था ‘घटहु’, जैसे ‘मनहु’ = मन से, मन में से। शब्द ‘तिआगि’ की तरह ही जीनि = जान के। मानि = मान के। काटि = काट के। भेटि = भेट के मिल के।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मेरी बुद्धि का प्यार एक प्रभु में ही बन गया है। एक प्रभु को (आसरा) समझ के (और उस में) पतीज के, मैं किसी और को अब मन में नहीं लगाता (भाव, किसी और की ओट नहीं देखता)। मन की वासनाएं त्याग के (मेरे अंदर जैसे) चंदन की सुगंधि पैदा हो गई है, (मेरे अंदर से) अहंकार कम हो गया है (भाव, मिट गया है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जन गाइ धिआइ जसु ठाकुर तासु प्रभू है थानानां ॥ तिह बड भाग बसिओ मनि जा कै करम प्रधान मथानाना ॥३॥
मूलम्
जो जन गाइ धिआइ जसु ठाकुर तासु प्रभू है थानानां ॥ तिह बड भाग बसिओ मनि जा कै करम प्रधान मथानाना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तसु = उस (मनुष्य के हृदय) में। प्रभू थानानां = प्रभु की जगह, प्रभु का निवास। मनि जाकै = जिस मनुष्य के मन में। करम प्रधान = (उच्च) कर्म प्रगट हो आए हैं। मथनाना = माथे पर।3।
अर्थ: जो मनुष्य ठाकुर का यश गाता है, प्रभु को ध्याता है, प्रभु का निवास उसके हृदय में हो जाता है। और, जिसके मन में प्रभु बस गया, उसके बड़े भाग्य समझो, उसके माथे पर ऊँचे लेख उभर आए (जानो)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटि सकति सिव सहजु प्रगासिओ एकै एक समानाना ॥ कहि कबीर गुर भेटि महा सुख भ्रमत रहे मनु मानानां ॥४॥२३॥७४॥
मूलम्
काटि सकति सिव सहजु प्रगासिओ एकै एक समानाना ॥ कहि कबीर गुर भेटि महा सुख भ्रमत रहे मनु मानानां ॥४॥२३॥७४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काटि = काट के, दूर करके। सकति = माया (का प्रभाव)। सिव सहजु = शिव की सहज अवस्था, परमात्मा का ज्ञान, प्रभु का प्रकाश। एकै एक = सिर्फ एक प्रभु में। गुर भेटि = गुरु को मिल के। भ्रमत रहे = भटकना दूर हो जाती है। मानानां = मान जाता है, पतीज जाता है।4।
अर्थ: माया का प्रभाव दूर करके, जब रूहानी ज्योति का प्रकाश हो गया, तो सदा सिर्फ एक प्रभु में ही मन लीन रहता है। कबीर कहता है, सतिगुरु को मिल के ऊँचा सुख प्राप्त होता है, भटकना समाप्त हो जाती है और मन (प्रभु में) रच जाता है।4।23।74।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द की हरेक तुक के आखिरी शब्द का आखिरी अक्षर ‘ना’ सिर्फ पद-पूर्ति (तुक बंदी) के लिए है, ‘अर्थ’ करने में इसका कोई संबंध नहीं।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: सतिगुरु को मिल के जो मनुष्य प्रभु की याद में चित्त जोड़ता है, उसका मन विकारों की ओर से हट के प्रभु के देस की उड़ानें भरता है। वासना समाप्त हो जाने के कारण उसका जीवन पवित्र हो जाता है।74।
[[0340]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी बावन अखरी कबीर जीउ की ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी बावन अखरी कबीर जीउ की ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बावन अछर लोक त्रै सभु कछु इन ही माहि ॥ ए अखर खिरि जाहिगे ओइ अखर इन महि नाहि ॥१॥
मूलम्
बावन अछर लोक त्रै सभु कछु इन ही माहि ॥ ए अखर खिरि जाहिगे ओइ अखर इन महि नाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बावन = 52, बावन। अखरी = अक्षरों वाली। बावन अखरी = बावन अक्षरों वाली वाणी। अक्षर = अक्षर। लोक त्रै = तीन लोकों में, सारे जगत में (वरते जा रहे हैं)। सभु कछु = (जगत का) सारा वरतारा। इन ही माहि = इन (बावन अक्षरों) में ही। ए अखर = ये बावन अक्षर (जिस से जगत का वरतारा निभ रहा है)। खिरि जाहिगे = नाश हो जाएंगे। ओइ अखर = वह अक्षर (जो ‘अनुभव’ अवस्था बयान कर सकें, जो परमात्मा के मिलाप की अवस्था बता सकें)।1।
अर्थ: बावन अक्षर (भाव, लिपियों के अक्षर) सारे जगत में (प्रयोग किए जा रहे हैं), जगत का सारा कामकाज इन (लिपियों के) अक्षरों से चल रहा है। पर ये अक्षर नाश हो जाएंगे (भाव, जैसे जगत नाशवान है, जगत में बरती जाने वाली हरेक चीज भी नाशवान है, और बोलियों, भाषाओं में बरते जाने वाले अक्षर भी नाशवान हैं)। अकाल-पुरख से मिलाप जिस शकल में अनुभव होता है, उसके बयान करने के लिए कोई अक्षर ऐसे नहीं हैं जो इन अक्षरों में आ सकें।1।
दर्पण-भाव
भाव: जगत के मेल मिलाप के बरतारे को तो अक्षरों के माध्यम से बयान किया जा सकता है, पर अकाल पुरख का मिलाप वर्णन से परे है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहा बोल तह अछर आवा ॥ जह अबोल तह मनु न रहावा ॥ बोल अबोल मधि है सोई ॥ जस ओहु है तस लखै न कोई ॥२॥
मूलम्
जहा बोल तह अछर आवा ॥ जह अबोल तह मनु न रहावा ॥ बोल अबोल मधि है सोई ॥ जस ओहु है तस लखै न कोई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आवा = आते हैं, बरते जाते हैं। जहा बोल = जहाँ वचन हैं, जो अवस्था बयान की जा सकती है। तह = उस अवस्था में। अबोल = (अ+बोल) वह अवस्था जो बयान नहीं हो सकती। न रहावा = नहीं रहता, हस्ती मिट जाती है। मधि = में। सोई = वही अकाल पुरख। जस = जैसा। तस = तैसा। लखै = बयान करता है। ओहु = परमात्मा।2।
अर्थ: जो वरतारा बयान किया जा सकता है, अक्षर (केवल) वहीं (ही) बरते जाते हैं; जो अवस्था बयान से परे है (भाव, जब अकाल-पुरख में लीनता होती है) वहाँ (बयान करने वाला) मन (खुद ही) नहीं रह जाता। जहाँ अक्षर प्रयोग किए जा सकते हैं (भाव, जो अवस्था बयान की जा सकती है) और जिस हालत का बयान नहीं हो सकता (भाव, परमात्मा में लीनता की अवस्था) - इन (दोनों) जगह परमात्मा खुद ही है और जैसा वह (परमात्मा) है वैसा (हू-ब-हू) कोई बयान नहीं कर सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलह लहउ तउ किआ कहउ कहउ त को उपकार ॥ बटक बीज महि रवि रहिओ जा को तीनि लोक बिसथार ॥३॥
मूलम्
अलह लहउ तउ किआ कहउ कहउ त को उपकार ॥ बटक बीज महि रवि रहिओ जा को तीनि लोक बिसथार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलह = दुर्लभ, जो देखा नहीं जा सकता। लहउ = (अगर) मैं ढूँढ लूं। किआ कहउ = मैं क्या कहूँ? मुझसे बयान नहीं हो सकता। को = क्या? उपकार = भलाई। बटक = बोहड़, बरगद। जा को = जिस (अकाल-पुरख) का।3।
अर्थ: अगर वह दुर्लभ (परमात्मा) मैं ढूँढ भी लूँ तो मैं (उसका सही स्वरूप) बयान नहीं कर सकता; अगर (बयान) करूँ भी तो उसका किसी को लाभ नहीं हो सकता। (वैसे) जिस परमात्मा के ये तीनों लोक (भाव, सारा जगत) पसारा हैं, वह इसमें ऐसे व्यापक है जैसे बरगद (का पेड़) बीज में (और बीज, बोहड़ में) है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलह लहंता भेद छै कछु कछु पाइओ भेद ॥ उलटि भेद मनु बेधिओ पाइओ अभंग अछेद ॥४॥
मूलम्
अलह लहंता भेद छै कछु कछु पाइओ भेद ॥ उलटि भेद मनु बेधिओ पाइओ अभंग अछेद ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलह लहंता = दुर्लभ, ना मिलने वाले (अकाल-पुरख) को ढूँढते-ढूँढते। भेद छै = भेद का छय, दुबिधा का नाश। कछु कछु = कुछ कुछ, थोड़ा थोड़ा। भेद = भेद, सूझ। उलटि भेद = दुबिधा को उलटते हुए, दुविधा का नाश होने से। बेधिओ = बेधा गया। अभंग = (अ+भंग) जिसका नाश ना हो सके। अछेद = (अ+छेद) जो छेदा ना जा सके।4।
अर्थ: परमात्मा को मिलने का यत्न करते-करते (मेरी) दुविधा का नाश हो गया है, और (दुविधा का नाश होने से मैंने परमात्मा की) कुछ-कुछ रम्ज़ समझ ली है। दुविधा को उलटने से (मेरा) मन (परमात्मा में) छेदा (भेद दिया) गया है और मैंने उस अविनाशी व अभेदी प्रभु को प्राप्त कर लिया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुरक तरीकति जानीऐ हिंदू बेद पुरान ॥ मन समझावन कारने कछूअक पड़ीऐ गिआन ॥५॥
मूलम्
तुरक तरीकति जानीऐ हिंदू बेद पुरान ॥ मन समझावन कारने कछूअक पड़ीऐ गिआन ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरीकति = मुसलमान फकीर रब को मिलने के राह के चार दर्जे मानते हैं: शरीयत, तरीकत, मारफत और हकीकत। तरीकत दूसरा दर्जा है जिसमें हृदय की पवित्रता के ढंग बताए गए हैं। कारने = वास्ते। कछूअ क = थोड़ा सा, थोड़ा बहुत, कुछ न कुछ। समझावन कारने = समझाने के लिए। मन समझावन कारने = मन को समझाने के लिए, मन में से भेद का छय करने के लिए, मन में से दुविधा मिटाने के लिए, मन को उच्च जीवन की सूझ देने के लिए।5।
अर्थ: (दुविधा को मिटा के प्रभु के चरणों में जुड़े रहने के लिए) मन को उच्च जीवन की सूझ देने के वास्ते (ऊँची) विचार वाली वाणी थोड़ी बहुत पढ़नी जरूरी है; तभी तो (अच्छा) मुसलमान उसे समझा जाता है जो तरीकत में लगा हो, और (अच्छा) हिन्दू उसे, जो वेद-पुराणों की खोज करता हो।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ तक कबीर जी प्रसंग सा बाँधते हैं कि परमात्मा के मिलाप की अवस्था शब्दों से बयान नहीं हो सकती। क्योंकि बयान करने वाला मन खुद ही आपना आप मिटा चुका होता है, और अगर उस मिलाप के आनंद को थोड़ा बहुत बयान करने का यत्न भी करे तो सुनने वाले को निरा सुन के उस आनंद की समझ नहीं आ सकती। हाँ, जो मन उस मेल-अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न करता है, उसके अपने अंदर तबदीली आ जाती है, उसमें से मेर-तेर मिट जाती है; और इस अच्छे रास्ते की समझ आती है गुरु का ज्ञान प्राप्त करके, गुरु के बताए रास्तों को समझ के। गुरु के बताए वह रास्ते कौन से हैं? गुरु की बताई हुई वह विचार क्या है? इसका जिक्र कबीर जी अगली पउड़ियों में करते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओअंकार आदि मै जाना ॥ लिखि अरु मेटै ताहि न माना ॥ ओअंकार लखै जउ कोई ॥ सोई लखि मेटणा न होई ॥६॥
मूलम्
ओअंकार आदि मै जाना ॥ लिखि अरु मेटै ताहि न माना ॥ ओअंकार लखै जउ कोई ॥ सोई लखि मेटणा न होई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओअंकार = (ओअं+कार) एक रस हर जगह व्यापक परमात्मा। आदि = आदि, मूल, सबको बनाने वाला। मै जाना = मैं जानता हूँ, मैं (उस अमिट अविनाशी को) जानता हूँ। लिखि = लिखे, लिखता है, रचता है, पैदा करता है। अरु = और। मेटै = मिटा देता है, नाश कर देता है। ताहि = उस (व्यक्ति) को। जउ = अगर। लखै = समझ ले। सोई लखि = उस प्रभु को समझ के। मेटणा = नाश।6।
अर्थ: जो एक-रस सब जगह व्यापक परमात्मा सबको बनाने वाला है, मैं उसे अविनाशी समझता हूँ। और जिस व्याक्ति को वह प्रभु पैदा करता है और फिर मिटा देता है उसको मैं (परमात्मा के बराबर) नहीं मानता। अगर कोई मनुष्य उस सर्व-व्यापक परमात्मा को समझ ले (भाव, अपने अंदर अनुभव कर ले) तो उसे समझने से (उस मनुष्य की उस उच्च आत्मिक तवज्जो का) नाश नहीं होता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कका किरणि कमल महि पावा ॥ ससि बिगास स्मपट नही आवा ॥ अरु जे तहा कुसम रसु पावा ॥ अकह कहा कहि का समझावा ॥७॥
मूलम्
कका किरणि कमल महि पावा ॥ ससि बिगास स्मपट नही आवा ॥ अरु जे तहा कुसम रसु पावा ॥ अकह कहा कहि का समझावा ॥७॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सूरज उगने पर कमल का फूल खिलता है, और रात में चंद्रमा के चढ़ने पर बंद हो जाता है। कमल के फूल दिन में खिलते हैं और कलियां रात को खिलती हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कका = ‘क’ अक्षर। किरणि = सूरज की किरण, ज्ञान रूप सूर्य की किरन। पावा = अगर मैं पा लूँ। कमल महि = हृदय रूपी कमल फूल में। ससि = चंद्रमा। बिगास = प्रकाश। ससि बिगास = चंद्रमा की चाँदनी। संपट = (संस्कृत: संपुट) ढक्कन से ढका हुआ डब्बा। संपट नही आवा = ढका हुआ डब्बा नहीं बन जाता, (खिला हुआ कमल फूल दुबारा) बंद नहीं होता। अरु = और। तहा = वहाँ, उस खिली हालत में, वहाँ जहाँ हृदय का कमल फूल खिला हुआ है। कुसम रसु = (खिले हुए) फूल का रस, (ज्ञान रूपी सूरज की किरन से खिले हुए हृदय रूपी कमल) फूल का आनंद। पावा = पा लूँ। अकह = (अ+कह) बयान से परे। अकह कहा = उसका बयान कथन से परे। कहि = कह के। का = क्या?।7।
अर्थ: अगर मैं (ज्ञान रूपी सूरज की) किरन (हृदय-रूपी) कमल फूल में टिका लूं, तो (माया रूपी) चंद्रमा की चाँदनी से, वह (खिला हुआ हृदय-फूल) (दुबारा) बंद नहीं हो सकता। और अगर कभी मैं उस खिली हुई हालत में (पहुँच के) (उस खिले हुए हृदय-रूप कमल) फूल का आनंद (भी) ले सकूँ, तो उसका बयान कथन से परे है। वह मैं कह के क्या समझ सकता हूँ?।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खखा इहै खोड़ि मन आवा ॥ खोड़े छाडि न दह दिस धावा ॥ खसमहि जाणि खिमा करि रहै ॥ तउ होइ निखिअउ अखै पदु लहै ॥८॥
मूलम्
खखा इहै खोड़ि मन आवा ॥ खोड़े छाडि न दह दिस धावा ॥ खसमहि जाणि खिमा करि रहै ॥ तउ होइ निखिअउ अखै पदु लहै ॥८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कई पेड़ों की टहनियां अंदर से खोखली हो जाती हैं और उनमें खाली-पोली जगह बन जाती हैं। इन खाली जगहों (खोड़) में पंछी रहने लगते हैं। पेट भरने के सारा दिन बाहर दूर-दूर उड़ते फिरते हैं, पर रात को दुबारा उसी ठिकाने पर आ टिकते हैं। ये मानव-शरीर मन को रहने के लिए खोड़ मिली हुई है, पर ये मन-पंछी माया के मोह के कारण हर समय बाहर ही भटकता फिरता है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इहै मनु = ये मन जिसे ज्ञान किरण प्राप्त हो चुकी है। खोड़ि = अंतरात्मा रूपी खोड़ में, स्वै स्वरूप में, प्रभु चरणों में। आवा = आता हूँ। दह दिस = दसो दिशाओं में। न धावा = नहीं दौड़ता। खसमहि = पति प्रभु को। जाणि = जान के, पहचान के। खिमा आकर = क्ष्मा की खान, क्षमा का श्रोत, क्षमा के श्रोत परमात्मा में। रहै = टिका रहता है। निखिअउ = (नि+खिअउ। खिअउ = क्षय, नाश। नि = बिना) नाश रहित। अखै = (अ+खै) अ+क्षय,नाश रहित। पदु = दरजा, पदवी। लहै = हासल कर लेता है।8।
अर्थ: जब यह मन (-पंछी जिसे ज्ञान-किरण मिल चुकी है) स्वै-स्वरूप की खोड़ में (भाव, प्रभु चरणों में) आ टिकता है और इस घौंसले (भाव, प्रभु चरणों) को छोड़ के दसों दिशाओं में नहीं दौड़ता। पति प्रभु सब से सांझ डाल के क्षमा के श्रोत प्रभु में टिका रहता है, तो तब अविनाशी (प्रभु के साथ एक-रूप हो के) वह पदवी प्राप्त कर लेता है जो कभी नाश नहीं होती।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गगा गुर के बचन पछाना ॥ दूजी बात न धरई काना ॥ रहै बिहंगम कतहि न जाई ॥ अगह गहै गहि गगन रहाई ॥९॥
मूलम्
गगा गुर के बचन पछाना ॥ दूजी बात न धरई काना ॥ रहै बिहंगम कतहि न जाई ॥ अगह गहै गहि गगन रहाई ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पछाना = (प्रभु को) पहचान लिया है, प्रभु से सांझ डाल ली है। न धरई काना = कान नहीं धरता, ध्यान से नहीं सुनता, आकर्षित नहीं करती। बिहंगम = (संस्कृत: विहंगम = a bird) पंछी, वह मनुष्य जो जगत में अपना निवास ऐसे समझता है जैसे पंछी किसी वृक्ष पर रात काट के सवेरे उड़ जाता है, उस वृक्ष से मोह नहीं पाल लेता। कतहि = किसी और तरफ। अगह = (अ+गह) ना पकड़ा जाने वाला, जिसे माया ग्रस नहीं सकती। गहै = पकड़ लेता है, अपने अंदर बसा लेता है। गहि = पकड़ के, अंदर बसा के। गगन = आकाश। गगन रहाई = आकाश में रहता है, मन = पंछी आकाश में उड़ानें भरता है, दसवें द्वार में टिका रहता है, बुद्धि ऊँची रहती है, तवज्जो प्रभु चरणों में रहती है।9।
अर्थ: जिस मनुष्य ने सतिगुरु की वाणी के माध्यम से परमात्मा से सांझ डाल ली है, उसे (प्रभु की महिमा के बिना) कोई और बात आकर्षित नहीं कर पाती। वह पक्षी (की तरह सदा निर्मोही) रहता है; कहीं भी भटकता नहीं; जिस प्रभु को जगत की माया ग्रस नहीं सकती, उसे वह अपने हृदय में बसा लेता है; हृदय में बसा के अपनी तवज्जो को प्रभु चरणों में टिकाए रखता है (जैसे चोग से पेट भर के पक्षी मौज में आ के ऊँची आकाश में उड़ानें भरता है)।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: चील पेट भर के दूर ऊँचे आकाश में घंटों एक रस पंख बिखेर के उड़ानें भरती रहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घघा घटि घटि निमसै सोई ॥ घट फूटे घटि कबहि न होई ॥ ता घट माहि घाट जउ पावा ॥ सो घटु छाडि अवघट कत धावा ॥१०॥
मूलम्
घघा घटि घटि निमसै सोई ॥ घट फूटे घटि कबहि न होई ॥ ता घट माहि घाट जउ पावा ॥ सो घटु छाडि अवघट कत धावा ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि = घट में, शरीर में, शरीर रूपी घड़े में। निमसै = निवास करता है, बसता है। सोई = वह (प्रभु) ही। घट फूटे = अगर (शरीर रूपी) घड़ा टूट जाए। घटि न होई = घटता नहीं, कम नहीं होता, प्रभु की हस्ती में कोई कमी नहीं आती, कोई घाटा नहीं पड़ता।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पहली तुक में शब्द ‘घटि’ व्याकरण अनुसार ‘संज्ञा’ है, ‘अधिकरण कारक’ है; दूसरी तुक में ये शब्द ‘घटि’ शब्द ‘होई’ के साथ मिल के ‘क्रिया’ है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाट = घाट, पत्तन, जहाँ से नाव वगैरा द्वारा दरिया को पार करते हैं। जउ = अगर, जब। पावा = पा लिया, ढूँढ लिया। अवघट = (संस्कृत: अवघट) खड्ड। घटु = (संस्कृत: घट) नदी का घाट (संस्कृत: घट जीवी = घाट पे रोजी कमाने वाला, मल्लाह)। कत = कहाँ? धावा = दौड़ता है, धावत है। कत धावा = कहाँ दौड़ता है? (भाव) कहीं नहीं भटकता।10।
अर्थ: हरेक शरीर में वह प्रभु ही बसता है। अगर कोई शरीर (-रूपी घड़ा) टूट जाए तो कभी प्रभु के अस्तित्व में कोई घाटा नहीं पड़ता। जब (कोई जीव) इस शरीर के अंदर ही (संसार समुंदर से पार लांघने के लिए) पत्तन तलाश लेता है, तो इस घाट (पत्तन) को छोड़ के वह खड्डों में कहीं नहीं भटकता फिरता।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ङंङा निग्रहि सनेहु करि निरवारो संदेह ॥ नाही देखि न भाजीऐ परम सिआनप एह ॥११॥
मूलम्
ङंङा निग्रहि सनेहु करि निरवारो संदेह ॥ नाही देखि न भाजीऐ परम सिआनप एह ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निग्रहि = (संस्कृत: नि+ग्रहि; ग्रह = पकड़ना; निग्रह = अच्छी तरह पकड़ना, बस में लाना) अच्छी तरह पकड़ो, (मन को) बस में ले आओ, इंद्रियों को रोको। सनेहु = प्रेम, प्यार। संदेह = शक, सिदक हीनता। निरवारो = दूर करो। नाही देखि = ये देख के कि ये काम नहीं हो सकता। देखि = देख के। परम = सब से बड़ी।11।
अर्थ: (हे भाई! अपनी इंद्रियों को) अच्छी तरह रोक, (प्रभु से) प्यार बना, और सिदक-हीनता दूर कर। (ये काम मुश्किल जरूर है, पर) ये सोच के कि ये काम नहीं हो सकता (इस काम से) भागना नहीं चाहिए- (बस) सबसे बड़ी अकल (की बात) यही है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चचा रचित चित्र है भारी ॥ तजि चित्रै चेतहु चितकारी ॥ चित्र बचित्र इहै अवझेरा ॥ तजि चित्रै चितु राखि चितेरा ॥१२॥
मूलम्
चचा रचित चित्र है भारी ॥ तजि चित्रै चेतहु चितकारी ॥ चित्र बचित्र इहै अवझेरा ॥ तजि चित्रै चितु राखि चितेरा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रचित = रचा हुआ (जगत), बनाया हुआ। चित्र = तसवीर। तजि = छोड़ के। चेतहु = चेते राखो, याद करो। चितकारी = चित्रकार, तस्वीर को बनाने वाला। बचित्र = (संस्कृत: विचित्र) रंगा रंग की, बहुत सुंदर, हैरान कर देने वाली, मोह लेने वाली। अवझेरा = झमेला। चितेरा = चित्र बनाने वाला।12।
अर्थ: (प्रभु का) बनाया हुआ ये जगत (मानो) एक बहुत बड़ी तस्वीर है। (हे भाई!) इस तस्वीर के (के मोह को) छोड़ के तस्वीर बनाने वाले को याद रख; (क्योंकि बड़ा) झमेला ये है कि यह (संसार-रूपी) तस्वीर मन को मोह लेने वाली है। (सो, इस मोह से बचने के लिए) तस्वीर (का ख्याल) छोड़ के तस्वीर को बनाने वाले में अपना चित्त परो के रख।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छछा इहै छत्रपति पासा ॥ छकि कि न रहहु छाडि कि न आसा ॥ रे मन मै तउ छिन छिन समझावा ॥ ताहि छाडि कत आपु बधावा ॥१३॥
मूलम्
छछा इहै छत्रपति पासा ॥ छकि कि न रहहु छाडि कि न आसा ॥ रे मन मै तउ छिन छिन समझावा ॥ ताहि छाडि कत आपु बधावा ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छत्रपति = छत्र का मालिक, जिसके सिर पर छत्र झूल रहा है, राजा, बादशाह। इहै पासा = इसी के पास ही। छकि = (संस्कृत: शक = तगड़ा होना। शक्ति = ताकत) तगड़ा हो के, उद्यम से। कि न = क्यूँ नहीं? तउ = तुझे। छिनु छिनु = हर पल, हर समय। ताहि = उसे। कत = कहाँ? आपु = अपने आप को।13।
अर्थ: (हे मेरे मन! और) उम्मीदें छोड़ के तगड़ा हो के क्यूँ तू इस (चित्रकार प्रभु) के पास नहीं रहता जो (सबका) बादशाह है? हे मन! मैं तुझे हर समय समझाता हूँ कि उस (चित्रकार) को भुला के कहाँ (उसके बनाए हुए चित्र में) तू अपने आप को जकड़ रहा है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जजा जउ तन जीवत जरावै ॥ जोबन जारि जुगति सो पावै ॥ अस जरि पर जरि जरि जब रहै ॥ तब जाइ जोति उजारउ लहै ॥१४॥
मूलम्
जजा जउ तन जीवत जरावै ॥ जोबन जारि जुगति सो पावै ॥ अस जरि पर जरि जरि जब रहै ॥ तब जाइ जोति उजारउ लहै ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब, अगर। जरावै = जलावे, जलाता है। जीवत = जीते जी, माया में रहते हुए ही। जारि = जला के। जुगति = जीने की विधि। अस पर = हमारा और पराया, अपना पराया। जरि = जला के। जाइ = जा के, पहुँच के, उच्च अवस्था में पहुँच के। उजारउ = उजाला, रोशनी, प्रकाश। लहै = ढूँढ लेता है, प्राप्त कर लेता है। जरि रहै = जर के रहता है, अपने दायरे में रहता है।14।
अर्थ: जब (कोई जीव) माया में रहता हुआ ही शरीर (की वासनाएं) जला लेता है, वह मनुष्य जवानी (का मद) जला के जीने की (सही) विधि सीख लेता है। जब मनुष्य अपने (धन के अहंकार) को और पराई (दौलत की आस) को जला के अपने दायरे में रहता है, तब उच्च आत्मिक अवस्था में पहुँच के प्रभु की ज्योति का प्रकाश प्राप्त करता है।14।
[[0341]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
झझा उरझि सुरझि नही जाना ॥ रहिओ झझकि नाही परवाना ॥ कत झखि झखि अउरन समझावा ॥ झगरु कीए झगरउ ही पावा ॥१५॥
मूलम्
झझा उरझि सुरझि नही जाना ॥ रहिओ झझकि नाही परवाना ॥ कत झखि झखि अउरन समझावा ॥ झगरु कीए झगरउ ही पावा ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाना = जाना, समझा, सीखा। उरझि जाना = उलझना ही जाना, (जिसने) फंसना ही सीखा। सुरझि नहीं जाना = सुलझना नहीं सीखा, जाल में से निकलना नहीं सीखा। रहिओ झझकि = (वह) झिझकता ही रहा, संसा में ही पड़ा रहा, अनिर्णायक अवस्था में ही फसा रहा। परवाना = स्वीकार। कत = कहाँ? किस अर्थ? झखि झखि = झाख झाख के, भटक भटक के, खप खप के। समझावा = समझाता रहा। झगरु = बहस ही मिली, बहस करने की आदत ही बनी रही, चर्चा करने का स्वभाव बन गया।15।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (चर्चा आदि में पड़ कर निकम्मी) उलझनों में ही फंसना सीखा, उलझनों में से निकलने की विधि नहीं सीखी, वह (सारी उम्र) शंकाओं में ही पड़ा रहा, (उसका जीवन) स्वीकार ना हो सका। बहस कर करके और लोगों को समझाने का क्या लाभ? चर्चा करते-करते खुद को तो निरी चर्चा करने का ही स्वभाव पड़ गया।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ञंञा निकटि जु घट रहिओ दूरि कहा तजि जाइ ॥ जा कारणि जगु ढूढिअउ नेरउ पाइअउ ताहि ॥१६॥
मूलम्
ञंञा निकटि जु घट रहिओ दूरि कहा तजि जाइ ॥ जा कारणि जगु ढूढिअउ नेरउ पाइअउ ताहि ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। जु = जो (प्रभु)। घट = हृदय। रहिओ = रहता है। तजि = छोड़ के। कहा जाइ = कहाँ जाता है? जा कारणि = जिस (को मिलने) की खातिर। नेरउ = नजदीक ही। पाइअउ = ढूँढ लिया है।16।
अर्थ: (हे भाई!) जो प्रभु नजदीक बस रहा है, जो हृदय में बस रहा है, उसको छोड़ के दूर कहाँ जाता है? (जिस प्रभु को) मिलने की खातिर (हमने सारा) जगत तलाशा था, उसे नजदीक ही (अपने अंदर ही) पा लिया है।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
टटा बिकट घाट घट माही ॥ खोलि कपाट महलि कि न जाही ॥ देखि अटल टलि कतहि न जावा ॥ रहै लपटि घट परचउ पावा ॥१७॥
मूलम्
टटा बिकट घाट घट माही ॥ खोलि कपाट महलि कि न जाही ॥ देखि अटल टलि कतहि न जावा ॥ रहै लपटि घट परचउ पावा ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टटा = ‘ट’ अक्षर। बिकट = (संस्कृत: विकट) बिखड़ा, मुश्किल। घाट = पत्तन। घट माही = हृदय में ही। कपाट = किवाड़, माया के मोह के पर्दे। खोलि = खोल के। महलि = महल में, प्रभु की हजूरी में। कि न = क्यूँ नही।? देखि = देख के। टलि = टल के, डोल के, भटकना में पड़ के। कतहि = किस और जगह? लपटि रहै = लिपटे रहते हैं, चिपके रहते हैं, जुड़े रहते हैं। परचउ = (संस्कृत: परिचय) सांझ, प्यार।17।
अर्थ: (प्रभु के महल में पहुँचाने वाला) मुश्किल घाट है (पर वह घाट) हृदय में ही है। (हे भाई! माया के मोह वाले) किवाड़ खोल के तू प्रभु की हजूरी में क्यूं नहीं पहुँचता? (जिस मनुष्य ने हृदय में ही) सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का दीदार कर लिया है, वह डोल के किसी और तरफ नहीं जाता, वह (प्रभु चरणों से) सांझ पा लेता है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठठा इहै दूरि ठग नीरा ॥ नीठि नीठि मनु कीआ धीरा ॥ जिनि ठगि ठगिआ सगल जगु खावा ॥ सो ठगु ठगिआ ठउर मनु आवा ॥१८॥
मूलम्
ठठा इहै दूरि ठग नीरा ॥ नीठि नीठि मनु कीआ धीरा ॥ जिनि ठगि ठगिआ सगल जगु खावा ॥ सो ठगु ठगिआ ठउर मनु आवा ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इहै = यह माया। दूरि = दूर से (देखने पर)। ठगनीरा = (नीर = जल) ठगने वाली पानी, भुलेखे में डालने वाला पानी, वह रेत जो दूर से भुलेखे से पानी प्रतीत होती है, मरीचिका, मृगतृष्णा। नीठि = (संस्कृत: निरीक्ष) ध् लगा के, ध्यान से देख के। नीठि नीठि = अच्छी तरह ध्यान लगा के। कीआ = बना लिया है। धीरा = धीरज वाला, टिके रहने वाला। जिनि ठगि = जिस ठग ने। खावा = खा लिया, फसा लिया। ठगिआ = ठगा, काबू किया। ठउर = ठिकाने पे।18।
अर्थ: ये माया ऐसे है जैसा दूर से देखी हुई रेत जो पानी प्रतीत होती है। सो मैंने ध्यान से (इस माया की अस्लियत) देख के मन को धैर्यवान बना लिया है (भाव, मन को इसके पीछे दौड़ने से बचा लिया है)। जिस (मायावी मोह रूपी) ठग ने सारे जगत को भुलेखे में डाल दिया है, सारे जगत को अपने वश में कर लिया है, उस (मोह-) ठग को काबू करके मेरा मन ठिकाने पर आ गया है।18।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दूर से तपते रेत को देख के इसको पानी समझ के मृग (हिरन) उस पानी की ओर दौड़ता है। वह रेत की चमक दूर होने की वजह से ऐसे प्रतीत होती है जैसे पानी अभी और परे है। प्यासा हिरन इस प्रतीत होते पानी की खातिर ही दौड़-दौड़ के प्राण दे देता है। हिरन की तरह ही जीव माया के पीछे दौड़-दौड़ के सारा जीवन व्यर्थ गवा देता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डडा डर उपजे डरु जाई ॥ ता डर महि डरु रहिआ समाई ॥ जउ डर डरै त फिरि डरु लागै ॥ निडर हूआ डरु उर होइ भागै ॥१९॥
मूलम्
डडा डर उपजे डरु जाई ॥ ता डर महि डरु रहिआ समाई ॥ जउ डर डरै त फिरि डरु लागै ॥ निडर हूआ डरु उर होइ भागै ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपजे = पैदा हो जाए। जाई = दूर हो जाता है। ता डर महि = उस डर में। रहिआ समाई = समाए रहा, लीन हो जाता है, समाप्त हो जाता है। जउ = अगर। डर डरै = (परमात्मा के) डर से डरता रहे, प्रभु का डर हृदय में ना टिकने दे। त फिरि = तो दुबारा। डरु लागै = संसारिक डर आ चिपकता है। निडरु = निर्भय। डरु उर होइ = हृदय का जो भी डर हो। उर = हृदय।19।
अर्थ: अगर परमात्मा का डर (भाव, अदब-सत्कार) मनुष्य के हृदय में पैदा हो जाए तो (दुनिया वाला) डर (दिल से) दूर हो जाता है और उस डर में दुनिया वाला डर समाप्त हो जाता है। पर अगर मनुष्य प्रभु का डर मन में ना बसाए तो (दुनिया वाला) डर दुबारा आ चिपकता है। (और प्रभु का डर दिल में बसा के जो मनुष्य) निर्भय हो गया, उसके मन का जो भी सहम है, सब भाग जाता है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ढढा ढिग ढूढहि कत आना ॥ ढूढत ही ढहि गए पराना ॥ चड़ि सुमेरि ढूढि जब आवा ॥ जिह गड़ु गड़िओ सु गड़ महि पावा ॥२०॥
मूलम्
ढढा ढिग ढूढहि कत आना ॥ ढूढत ही ढहि गए पराना ॥ चड़ि सुमेरि ढूढि जब आवा ॥ जिह गड़ु गड़िओ सु गड़ महि पावा ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढिग = नजदीक (ही)। कत आना = कहां, और जगह? ढहि गए = थक गए हैं। पराना = प्राण, जिंद। चढ़ि = चढ़ के। सुमेरि = सुमेर पर्वत पे। ढूढि = ढूँढ के। आवा = आ गया। जिह = जिस परमात्मा ने। गढ़ु = (शरीर रूपी) गढ़, किला। गढ़िओ = बनाया है। सु = वह प्रभु। गढ़ महि = (शरीर रूपी) किले में। पावा = ढूँढ लिया।20।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा तो तेरे) नजदीक ही है, तू (उसे बाहर) और कहाँ ढूँढता है? (बाहर) ढूँढते-ढूँढते तेरे प्राण भी थक गए हैं। सुमेर पर्वत पे (भी) चढ़ के और (परमात्मा को वहाँ) ढूँढ-ढूँढ के जब मनुष्य (अपने शरीर में) आता है (भाव, जब अपने अंदर ही झांकता है), तो वह प्रभु इस (शरीर रूपी) किले में ही मिल जाता है जिसने ये शरीर किला बनाया है।20।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सुमेर पर चढ़ के’ का भाव है ‘पहाड़ों की चोटियों पे, पहाड़ों की गुफाओं में बैठ के, प्राणयाम द्वारा समाधियां लगा के’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
णाणा रणि रूतउ नर नेही करै ॥ ना निवै ना फुनि संचरै ॥ धंनि जनमु ताही को गणै ॥ मारै एकहि तजि जाइ घणै ॥२१॥
मूलम्
णाणा रणि रूतउ नर नेही करै ॥ ना निवै ना फुनि संचरै ॥ धंनि जनमु ताही को गणै ॥ मारै एकहि तजि जाइ घणै ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रणि = रण में, रणभूमि में (जहाँ काम आदि से मनुष्य की जंग होती रहती है)। रूतउ = व्यस्त हुआ। नेही = (संस्कृत: नह, नेहण लेना, वश में कर लेना) विकारों को वश में कर लेने की सामर्थ्य, दृढ़ता, धीरज। निवै = निवता है, झुकता है। ना फुनि = ना ही। संचरै = (संस्कृत: सं+चरै = संग चलता है) मेल करता है। धंनि = धन्य, मुबारक, भाग्यशाली। ताही को = उसी (मनुष्य) का ही। गणै = (जगत) गिनता है। एकहि = एक (मन को)। तजि जाइ = छोड़ देता है। घणे = बहुतों को (भाव, विकारों) को।21।
अर्थ: (जगत रूपी इस) रणभूमि में (विकारों के साथ युद्ध में) व्यस्त जो मनुष्य विकारों को वश में करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है जो (विकारों के आगे) ना झुकता है, ना ही (उनसे) मेल करता है, जगत उसी मनुष्य के जीवन को भाग्यशाली गिनता है, क्योंकि वह मनुष्य (अपने) एक मन को मारता है और बहुत सारे (विकारों) को छोड़ देता है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तता अतर तरिओ नह जाई ॥ तन त्रिभवण महि रहिओ समाई ॥ जउ त्रिभवण तन माहि समावा ॥ तउ ततहि तत मिलिआ सचु पावा ॥२२॥
मूलम्
तता अतर तरिओ नह जाई ॥ तन त्रिभवण महि रहिओ समाई ॥ जउ त्रिभवण तन माहि समावा ॥ तउ ततहि तत मिलिआ सचु पावा ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अतर = (अ+तर) जो तैरा ना जा सके, जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है (संसार एक एसा बेअंत समुंदर है जिस में विकारों की लहरें चल रही हैं और मानव जीवन की कमजोर सी बेड़ी को हर समय इन लहरों में डूबने का खतरा बना रहता है)। तन = शरीर, ज्ञान इंद्रियां। त्रिभवण माहि = तीन भवनों में, सारे जगत में, दुनिया के पदार्थों में।22।
अर्थ: ये जगत एक ऐसा समुंदर है जिसे तैरना मुश्किल है, जिसमें से पार लांघा नहीं जा सकता (तब तक जब तक) आँख, कान, नाक आदि ज्ञानेंद्रियां दुनियां (के रसों) में डूबी रहती हैं; पर जब संसार (के रस) शरीर के अंदर ही मिट जाते हैं (भाव, मनुष्य की इंद्रियों को आकर्षित करने में असफल हो जाते हैं), तब (जीव की) आत्मा (प्रभु की) ज्योति में मिल जाती है, तब सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा मिल जाता है।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
थथा अथाह थाह नही पावा ॥ ओहु अथाह इहु थिरु न रहावा ॥ थोड़ै थलि थानक आर्मभै ॥ बिनु ही थाभह मंदिरु थ्मभै ॥२३॥
मूलम्
थथा अथाह थाह नही पावा ॥ ओहु अथाह इहु थिरु न रहावा ॥ थोड़ै थलि थानक आर्मभै ॥ बिनु ही थाभह मंदिरु थ्मभै ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अथाह = (अ+थाह। थाह = गहराई, हाथ) जिसकी गहराई ना नापी जा सके। ओहु = वह प्रभु। इहु = ये मन। थिरु न रहावा = टिका नहीं रहता। थलि = थल में, जमीन पर। थाभह बिनु = खम्भों के बिना। मंदिरु = घर, मकान। थंभै = थंमता है, सहारा देता है, खड़ा करता है। थेड़ै थलि = थोड़ी जमीन में, थोड़ी सी उम्र में। थानक = स्थानक, शहर (भाव, बड़े-बड़े पसारे)।23।
अर्थ: (मनुष्य का मन) अथाह परमात्मा की थाह नहीं पा सकता (क्योंकि, एक तरफ तो) वह प्रभु बेअंत गहरा है (और, दूसरी तरफ, मनुष्य का) ये मन कभी टिक के नहीं रहता (भाव, कभी प्रभु चरणों मेंजुड़ने का उद्यम ही नहीं करता)। ये मन थोड़ी जितनी (मिली) जमीन में (कई) नगर (बनाने) आरम्भ कर देता है (भाव, थोड़ी जितनी मिली उम्र में कई पसारे पसार बैठता है); और इसके ये सारे पसारे पसारने व्यर्थ के काम हैं, ये (मानो) खम्भों (दीवारों) के बिना ही घर का निर्माण कर रहा है।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददा देखि जु बिनसनहारा ॥ जस अदेखि तस राखि बिचारा ॥ दसवै दुआरि कुंची जब दीजै ॥ तउ दइआल को दरसनु कीजै ॥२४॥
मूलम्
ददा देखि जु बिनसनहारा ॥ जस अदेखि तस राखि बिचारा ॥ दसवै दुआरि कुंची जब दीजै ॥ तउ दइआल को दरसनु कीजै ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = (संस्कृत: दृश्य) जो देखने में आ रहा है। जु = जो। जस अदेखि = जो अदृश्य है, जो आँखों से नहीं दिखता। तस = उस (प्रभु) को। राखि बिचारा = अपने विचारों में रख, उसमें तवज्जो जोड़। दसवै दुआरि = दसवें दर में। कूँजी = (भाव) गुरु, गुरवाणी।24।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: दो आँखे, दो कान, दो नासिकाएं, एक मुंह, इंद्री, गुदा; ये नौ गोलकें, शरीर के नौ दरवाजे शरीर की स्थूल क्रिया निभाते हैं। इनके अलावा मानव शरीर का एक और दरवाजा भी माना गया है, वह है मनुष्य का दिमाग़, जो विचार केन्द्र है।
नोट: माया में ग्रसे मनुष्य का दिमाग़ सदा माया ही की बातें सोचता है; परमात्मा की तरफ से उसे, मानो, ताला सा लगा रहता है; माया की ललक दसवाँ द्वार को ताला है, सतिगुरु की वाणी इस ताले को खोलती है, और मन माया के असर से निकल के प्रभु की याद में जुड़ता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जो ये संसार (इन आँखों से) दिखाई दे रहा है, ये सारा नाशवान है, (हे भाई!) तू सदा प्रभु में तवज्जो जोड़, जो (इन आँखों से) दिखाई नहीं देता (भाव, जो दिखाई देते त्रिगुणी संसार से अलग भी है)। पर, उस दयाल प्रभु का दीदार तभी किया जा सकता है, जब (गुरबाणी-रूपी) कूँजी दसवें द्वार में लगाएं (भाव, जब मन को सतिगुरु की वाणी के साथ जोड़ें)।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धधा अरधहि उरध निबेरा ॥ अरधहि उरधह मंझि बसेरा ॥ अरधह छाडि उरध जउ आवा ॥ तउ अरधहि उरध मिलिआ सुख पावा ॥२५॥
मूलम्
धधा अरधहि उरध निबेरा ॥ अरधहि उरधह मंझि बसेरा ॥ अरधह छाडि उरध जउ आवा ॥ तउ अरधहि उरध मिलिआ सुख पावा ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरध = ऊध्र्व, ऊँचा (भाव, परमात्मा)।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘अरधहि’ संस्कृत शब्द है ‘अर्ध’, इसका अर्थ है ‘आधा’, पर यहाँ ये अर्थ मेल नहीं खाता। संस्कृत शब्द ‘ऊध्र्व’, जिसका अर्थ है ‘ऊँचा’, के मुकाबले शब्द है ‘अधह’ इसका अर्थ है ‘नीचा’; इसी ही शब्द से बना है ‘अधोगती’। इस बंद में भी शब्द ‘अरधहि’ संस्कृत शब्द ‘अधह’ की जगह ही है) नीचे का, नीचा, निम्न विचारों में रहने वाली (भाव, जीवात्मा)।
दर्पण-भाषार्थ
निबेरा = फैसला, खात्मा, जनम मरण का खात्मा। उरधह मंझि = उच्च प्रभु में। बसेरा = निवास। अरधहि छाडि = नीची अवस्था को छोड़ के। जउ = जब। उरध आवा = उच्च अवस्था में पहुँचता है।25।
अर्थ: जब जीवात्मा का निवास परमात्मा में होता है (भाव, जब जीव प्रभु चरणों में जुड़ता है), तो प्रभु से (एक रूप) हो के ही जीव (के जनम-मरण) का खात्मा होता है। (जीवात्मा और परमात्मा की दूरी खत्म हो जाती है)। जब जीव निचली अवस्था को (भाव, माया के मोह को) छोड़ के उच्च अवस्था में पहुँचता है तो जीव को परमात्मा मिल जाता है, और इसे (असल) सुख प्राप्त हो जाता है।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नंना निसि दिनु निरखत जाई ॥ निरखत नैन रहे रतवाई ॥ निरखत निरखत जब जाइ पावा ॥ तब ले निरखहि निरख मिलावा ॥२६॥
मूलम्
नंना निसि दिनु निरखत जाई ॥ निरखत नैन रहे रतवाई ॥ निरखत निरखत जब जाइ पावा ॥ तब ले निरखहि निरख मिलावा ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निसि = रात। निरखत = (संस्कृत: निरीक्षत) देखते हुए, देखते हुए, तलाशते हुए, इन्तजार करते हुए। जाई = गुजरता है। नैन = आँखें। रतवाई = रंगे हुए, मतवाले, प्रेमी। जाइ पावा = जा के पा लिया, आखिर मिल गया, दीदार कर लिया। निरखहि = (संस्कृत: निरीक्षक् को), तलाश करने वाले को, दर्शनों की चाहत रखने वाले को। निरख = (सं: निरीक्ष्) जिसे देखते हैं, जिसकी तलाश की जाती है, वह प्रभु जिसके दीदार का इन्तजार जीव को लगा रहता है।26।
अर्थ: (जिस जीव के) दिन रात (भाव, सारा समय) (प्रभु के दीदार का) इन्तजार करते गुजरता है, देखते हुए (भाव, दीदार की लगन में ही) उसके नेत्र (प्रभु दीदार के लिए) मतवाले हो जाते हैं। दीदार की तमन्ना करते-करते जब आखिर दीदार होता है तो वह ईष्ट प्रभु के दर्शनों की चाहत रखने वाले (अपने प्रेमी) को अपने साथ मिला लेता है।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पपा अपर पारु नही पावा ॥ परम जोति सिउ परचउ लावा ॥ पांचउ इंद्री निग्रह करई ॥ पापु पुंनु दोऊ निरवरई ॥२७॥
मूलम्
पपा अपर पारु नही पावा ॥ परम जोति सिउ परचउ लावा ॥ पांचउ इंद्री निग्रह करई ॥ पापु पुंनु दोऊ निरवरई ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपर = (अ+पर, संस्कृत: नास्ति परों यस्मात्) जिससे परे और कोई नहीं, जिससे बड़ा और कोई नहीं। पारु = परला छोर, अंत। पावा = पाया। परचउ = (सं: परिचय) प्यार, सांझ। निग्रह करई = रोक लेता है। निरवरई = निवार देता है, दूर कर देता है। परम जोति = वह प्रकाश जो सब से ऊँचा है, सबको रोशनी देने वाली ज्योति।27।
अर्थ: परमात्मा सबसे बड़ा है, उसका किसी ने अंत नहीं पाया। जिस जीव ने रोशनी के श्रोत प्रभु से प्यार जोड़ा है, वह अपनी पाँचों ही ज्ञानेंद्रियों को (इस प्रकार) वश में कर लेता है कि वह जीव पाप और पुण्य दोनों को दूर कर देता है (भाव, पाँचों ज्ञानेंद्रियों को वह इस तरह पूर्ण तौर पर काबू करता हैकि उसको अपने कामों के बारे में ये सोचने की जरूरत नहीं रहती कि मैं जो काम करता हूँ ये पाप है अथवा पुण्य। सहज ही उसका हरेक काम कामादिक विकारों से बरी होता है)।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फफा बिनु फूलह फलु होई ॥ ता फल फंक लखै जउ कोई ॥ दूणि न परई फंक बिचारै ॥ ता फल फंक सभै तन फारै ॥२८॥
मूलम्
फफा बिनु फूलह फलु होई ॥ ता फल फंक लखै जउ कोई ॥ दूणि न परई फंक बिचारै ॥ ता फल फंक सभै तन फारै ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनु फूलह = फूले बिना, अगर जीव फूलना छोड़ दे, अगर जीव अपने शरीर पर फूलना छोड़ दे, अगर अपने आप पर मान करना त्याग दे, अगर जीव देह-अध्यास छोड़ दे। फलु = (मानव जनम का) फल, वह पदार्थ जिसकी खातिर मानव जनम मिला है, परमात्मा के नाम की सूझ। फंक = छोटी सी फाड़ी, थोड़ा सा हिस्सा। ता फल फंक = उस फल की छोटी सी फाड़ी, उस रूहानी सूझ का थोड़ा सी झलक। जउ = अगर। लखै = समझ ले। दूणि = दून, दो पहाड़ों के बीच का मैदानी इलाका, जनम और मरन का चक्कर। परई = पड़ता है। फंक = (ज्ञान की) थोड़ी सी झलक। सभै तन = सारे शरीरों को, सारा ही देह अध्यास, सारा ही शारीरिक मोह। फारै = फाड़ता है, नाश कर देता है।28।
अर्थ: अगर जीव अपने आप पर गुमान छोड़ दे, तो इसे (नाम-पदार्थ रूपी वह) फल प्राप्त हो जाता है (जिसकी खातिर मानव जनम मिला है)। और, अगर कोई उस रूहानी सूझ का रत्ती भर भी झलक समझ ले, और अगर उस झलक को विचारे, तो वह जनम-मरन के गड्ढे में नहीं गिरता। (क्योंकि) ईश्वरीय सूझ की वह छोटी सी चमक भी उसके देह-अध्यास (स्वै पर गुमान) को पूरे तौर पर खत्म कर देती है।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बबा बिंदहि बिंद मिलावा ॥ बिंदहि बिंदि न बिछुरन पावा ॥ बंदउ होइ बंदगी गहै ॥ बंदक होइ बंध सुधि लहै ॥२९॥
मूलम्
बबा बिंदहि बिंद मिलावा ॥ बिंदहि बिंदि न बिछुरन पावा ॥ बंदउ होइ बंदगी गहै ॥ बंदक होइ बंध सुधि लहै ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिंदहि = (पानी की) बूँद में। बिंद = पानी की बूँद। मिलावा = मिल गई। बिंदहि = बिंद मात्र, निमख मात्र, थोड़े से समय के लिए भी। बिंदि = बिंद के, जान के, सांझ डाल के। (संस्कृत: विन्दति = जानता है)। बंदउ = बंदा, गुलाम, सेवक। होइ = हो के, बन के। गहै = ग्रहण करता है, पकड़ लेता है, प्रेम से करता है। बंदक = (संस्कृत: वंदक, वंदना करने वाला) स्तुति करने वाला, महिमा करने वाला, ढाढी। बंध = जकड़, जंजीर। सुधि = सूझ, समझ। बंध सुधि = बंदों की सूझ, (माया के मोह के) जंजीरों की समझ। लहै = ढूँढ लेता है।29।
अर्थ: (जैसे पानी की) बूंद में (पानी की) बूंद मिल जाती है, (और, फिर अलग नहीं हो सकती, वैसे ही प्रभु से) निमख मात्र भी सांझ डाल के (जीव प्रभु से) विछुड़ नहीं सकता (क्योंकि जो मनुष्य प्रभु का) सेवक बन के प्रेम से (प्रभु की) भक्ति करता है, वह (प्रभु के दर का) ढाढी बन के (माया के मोह की) जंजीरों का भेद पा लेता है (और इनके धोखे में नहीं आता)।29।
[[0342]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
भभा भेदहि भेद मिलावा ॥ अब भउ भानि भरोसउ आवा ॥ जो बाहरि सो भीतरि जानिआ ॥ भइआ भेदु भूपति पहिचानिआ ॥३०॥
मूलम्
भभा भेदहि भेद मिलावा ॥ अब भउ भानि भरोसउ आवा ॥ जो बाहरि सो भीतरि जानिआ ॥ भइआ भेदु भूपति पहिचानिआ ॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेदहि = भेद को, (प्रभु से बनी हुई) दूरी को। भेदि = छेद के, समाप्त करके। मिलावा = मिला लिया, प्रभु से अपने आप को जोड़ लिया। अब = अब, उस याद की इनायत से। भानि = तोड़ के, दूर करके। भरोसउ = भरोसा, श्रद्धा, ये यकीन कि प्रभु मेरे अंग-संग है। भेदु = भेद, राज़, गुझी बात। भइआ = (प्रगट) हुआ। भूपति = (भू+पति, धरती का पति), सृष्टि का मालिक प्रभु। पहिचानिआ = पहचान लिया, सांझ बना ली।30।
अर्थ: जो मनुष्य (प्रभु से बनी हुई) दूरी को समाप्त करके (अपने मन को प्रभु की याद में) जोड़ता है, उस याद की इनायत से (सांसारिक) डर दूर करने से उसे प्रभु में श्रद्धा बन जाती है। जो परमात्मा सारे जगत में व्यापक है, उसे वह अपने अंदर बसता जान लेता है, (और ज्यों-ज्यों) ये राज उसे खुलता है (कि अंदर-बाहर हर जगह प्रभु बस रहा है) वह सृष्टि के मालिक-प्रभु से (यादों की) सांझ डाल लेता है।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममा मूल गहिआ मनु मानै ॥ मरमी होइ सु मन कउ जानै ॥ मत कोई मन मिलता बिलमावै ॥ मगन भइआ ते सो सचु पावै ॥३१॥
मूलम्
ममा मूल गहिआ मनु मानै ॥ मरमी होइ सु मन कउ जानै ॥ मत कोई मन मिलता बिलमावै ॥ मगन भइआ ते सो सचु पावै ॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूल = आदि, जगत का मूल, सारे जगत को पैदा करने वाला। गहिआ = पकड़ा, मन में बसाने से। मानै = मानता है, पतीजता है, टिक जाता है, भटकने से हट जाता है। मरम = भेत। मरमी = भेती, वाकफ। मरमी होइ = जो कोई भेती हो जाता है, जो जीव ये भेद पा लेता है (कि प्रभु में जुड़ने से मन भटकने से हट जाता है)। सु = वह जीव। मन कउ = मन को, मन की दौड़ भाग को। मत कोइ बिमलावै = कोई देर ना करे। मगन = मस्त। सचु = सदा सिथर रहने वाला प्रभु। पावै = पा लेता है। तै = और।31।
अर्थ: अगर जगत के मूल प्रभु को अपने मन में बसा लें, तो मन भटकने से हट जाता है। जो जीव ये भेद पा लेता है (कि प्रभु चरणों में टिकने से मन टिक जाता है) वह जीव मन (की दौड़ भाग) को समझ लेता है। (सो,) अगर मन (प्रभु चरणों में) जुड़ने लगे तो कोई (इस नेक काम में) देर ना करे; (क्योंकि, प्रभु चरणों में जुड़ने की इनायत से) मन (प्रभु में) लीन हो जाता है, और उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को प्राप्त कर लेता है।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ ॥ मन ही मन सिउ कहै कबीरा मन सा मिलिआ न कोइ ॥३२॥
मूलम्
ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ ॥ मन ही मन सिउ कहै कबीरा मन सा मिलिआ न कोइ ॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। काजु = (असल) काम। साधे = साधने से, वश में करने से। सिधि = सफलता, उस ‘काज’ की सफलता जिस वास्ते जीव जगत में आया है। मन ही मन सिउ = मन से ही, मन से ही, पूरी तरह मन से ही (काम है)। मन सा = मन जैसा।32।
अर्थ: (हरेक जीव का जगत में आने का असल) काम मन से है (वह काम ये है कि जीव अपने मन को काबू में रखे)। मन को वश में करने से ही (जीव को असल उद्देश्य की) कामयाबी होती है। कबीर कहता है (कि जीव का असल काम) पूरी तरह से सिर्फ मन से ही है, मन जैसा (जीव को) और कोई नहीं मिला (जिसके साथ इसका असल मतलब पड़ता हो)।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु मनु सकती इहु मनु सीउ ॥ इहु मनु पंच तत को जीउ ॥ इहु मनु ले जउ उनमनि रहै ॥ तउ तीनि लोक की बातै कहै ॥३३॥
मूलम्
इहु मनु सकती इहु मनु सीउ ॥ इहु मनु पंच तत को जीउ ॥ इहु मनु ले जउ उनमनि रहै ॥ तउ तीनि लोक की बातै कहै ॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सकती = माया। सीउ = शिव, आनंद स्वरूप प्रभु। पंच तत को जीउ = पाँच तत्वों का जीव, पाँच तत्वों का बना हुआ शरीर। ले = लेकर, वश में कर के। जउ = जब। उनमनि = खिड़ाव में। रहै = टिकता है। तउ = तब। तीनि लोक की बातै = सारे जगत में व्यापक प्रभु की बातें। कहै = कहता है।33।
अर्थ: (माया के साथ मिल के) ये मन माया (का रूप) हो जाता है। (आनंद स्वरूप हरि के साथ मिल के) ये मन आनंद स्वरूप हरि बन जाता है। (पर, शरीर के साथ जुड़ के) ये मन शरीर-रूप ही हो जाता है (भाव, अपने आप को शरीर से अलग नहीं समझता)।
पर जब मनुष्य इस मन को वश में करके पूर्ण खिड़ाव में टिकता है, तब वह सारे जगत में व्यापक प्रभु की ही बातें करता है।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यया जउ जानहि तउ दुरमति हनि करि बसि काइआ गाउ ॥ रणि रूतउ भाजै नही सूरउ थारउ नाउ ॥३४॥
मूलम्
यया जउ जानहि तउ दुरमति हनि करि बसि काइआ गाउ ॥ रणि रूतउ भाजै नही सूरउ थारउ नाउ ॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = अगर। जानहि = तू समझना चाहे, तू जीवन का सही रास्ता जानना चाहे। तउ = तो। दुरमति = खराब बुद्धि। हनि = नाश कर, दूर कर। करि बसि = वश में ला। काइआ = शरीर। गाउ = पिंड। रणि = रण में, युद्ध में। रूतउ = व्यस्त हुआ। सूरउ = सूरमा, शूरवीर। थारउ = तेरा।34।
अर्थ: (हे भाई!) अगर तू (जीवन का सही रास्ता) जानना चाहता है, तो (अपनी) बुरी मति को समाप्त कर दे, इस शरीर (-रूप) पिंड को (अपने) वश में ले आ (भाव, आँख, कान आदि ज्ञानेंद्रियों को विकारों की तरफ ना जाने दे)। (इस शरीर को वश में ले आना, मानो, एक युद्ध है) अगर तू इस युद्ध में उलझ के मात ना खाए तो तेरा नाम शूरवीर (हो सकता) है।34।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रारा रसु निरस करि जानिआ ॥ होइ निरस सु रसु पहिचानिआ ॥ इह रस छाडे उह रसु आवा ॥ उह रसु पीआ इह रसु नही भावा ॥३५॥
मूलम्
रारा रसु निरस करि जानिआ ॥ होइ निरस सु रसु पहिचानिआ ॥ इह रस छाडे उह रसु आवा ॥ उह रसु पीआ इह रसु नही भावा ॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसु = स्वाद, माया का स्वाद। निरस = (नि+रस) फीका। निरस करि = फीका करके, फीका सा। जानिआ = जान लिया, समझ लिया है। होइ निरस = निरस हो के, रसों से निराला हो के, रसों से उपराम हो के, मायावी चस्कों से बचे रहके। सु रसु = वह स्वाद, वह आत्मिक आनंद। आवा = आ गया। भावा = अच्छा लगा। पहिचानिआ = पहचान लिया है, सांझ डाल ली है।35।
अर्थ: जिस मनुष्य ने माया के स्वाद फीका सा समझ लिया है, उसने मायावी चस्कों से बचे रह के वह आत्मिक आनंद पा लिया है। जिसने ये (दुनिया वाले) चस्के छोड़ दिए हैं, उसे वह (प्रभु के नाम का) आनंद प्राप्त हो गया है; (क्योंकि) जिस ने वह (नाम-) रस पीया है उसे यह (माया वाला) स्वाद अच्छा नहीं लगता।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लला ऐसे लिव मनु लावै ॥ अनत न जाइ परम सचु पावै ॥ अरु जउ तहा प्रेम लिव लावै ॥ तउ अलह लहै लहि चरन समावै ॥३६॥
मूलम्
लला ऐसे लिव मनु लावै ॥ अनत न जाइ परम सचु पावै ॥ अरु जउ तहा प्रेम लिव लावै ॥ तउ अलह लहै लहि चरन समावै ॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऐसे = ऐसे तरीके से। लिव लावै = तवज्जो जोड़े, ध्यान लगाए। अनत = (अन्यत्र) किसी और जगह। न जाइ = ना जाऐ, ना भटके। परम = सब से ऊँचा। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु! पावै = प्राप्त कर लेता है, ढूँढ लेता है। अरु = और। जउ = अगर। तहा = उस लिवलीनता में। प्रेम लिव = प्रेम की तार। तउ = तो। अलह = ना मिलने वाला प्रभु (अलभ, जिसे ढूँढा ना जा सके)। लहै = मिल जाता है। लहि = ढूँढ के। समावै = सदा के लिए टिका रहता है।36।
अर्थ: अगर (किसी मनुष्य का) मन ऐसी एकग्रता से (प्रभु की याद में) तवज्जो जोड़ ले कि किसी और तरफ ना भटके तो उसे सबसे ऊँचा व सदा स्थिर रहने वाला प्रभु मिल जाता है। और अगर उस लगन की हालत में प्रेम की तार लगा ले तो (भाव, एक-तार मगन रहे) तो उस दुर्लभ प्रभु को वह पा लेता है और पा के सदा के लिए उसके चरणों में टिका रहता है।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ववा बार बार बिसन सम्हारि ॥ बिसन सम्हारि न आवै हारि ॥ बलि बलि जे बिसनतना जसु गावै ॥ विसन मिले सभ ही सचु पावै ॥३७॥
मूलम्
ववा बार बार बिसन सम्हारि ॥ बिसन सम्हारि न आवै हारि ॥ बलि बलि जे बिसनतना जसु गावै ॥ विसन मिले सभ ही सचु पावै ॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बार बार = बारंबार, हर समय। समारि = संभाल, याद कर, चेते कर। संमारि = संभाल के, याद करके, स्मरण करने से। हारि = हार के, मानव जनम की बाजी हार के। बलि बलि = सदके। बिसन तना = विष्णु का पुत्र, प्रभु का भक्त। मिले = मिल के। सभ ही = हर जगह। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।37।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंजान बालक अपने पिता की गोद में, पिता की उंगली पकड़ के बेफिक्र रहता है और पिता को ही रक्षक समझता है। इसी तरह प्रभु की बंदगी करने वाले बंदे प्रभु को अपना राखा जानते हैं, तभी तो भक्त जनों को प्रभु के पुत्र कहा है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) सदा प्रभु को (अपने हृदय में) याद रख के (जीव मानव जनम की बाजी) हार के नहीं आता। मैं उस भक्त-जन से सदके हूँ जो प्रभु के गुण गाता है। प्रभु को मिल के वह हर जगह सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु को ही देखता है।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वावा वाही जानीऐ वा जाने इहु होइ ॥ इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ ॥३८॥
मूलम्
वावा वाही जानीऐ वा जाने इहु होइ ॥ इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ ॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वा ही = उस (प्रभु) को ही। जानीऐ = समझें, जान पहिचान डालें, सांझ डालनी चाहिए। वा = उस (प्रभु) को। जाने = जानने से, सांझ डालने से। इहु = ये जीव। ओहु = वह प्रभु। अरु = और।38।
अर्थ: (हे भाई!) उस प्रभु से ही जान-पहिचान करनी चाहिए। उस प्रभु से सांझ डालने से यह जीव (उस प्रभु का रूप ही) हो जाता है। जब ये जीव और वह प्रभु एक-रूप हो जाते हैं, तो इन मिले हुओं को कोई और नहीं समझ सकता (भाव, फिर कोई इन मिले हुओं में दूरी नहीं डाल सकता)।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससा सो नीका करि सोधहु ॥ घट परचा की बात निरोधहु ॥ घट परचै जउ उपजै भाउ ॥ पूरि रहिआ तह त्रिभवण राउ ॥३९॥
मूलम्
ससा सो नीका करि सोधहु ॥ घट परचा की बात निरोधहु ॥ घट परचै जउ उपजै भाउ ॥ पूरि रहिआ तह त्रिभवण राउ ॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो = उस प्रभु को। नीका करि = अच्छी तरह। सोधहु = संभाल करो, याद करो। परचा = (संस्कृत: परिचय), मित्रता, सांझ। बात = बातें। निरोधहु = निरोध, अवरोध, रोको, टिकाओ। घट = हृदय, मन। जउ = जब। भाउ = प्यार। तह = उस अवस्था में। त्रिभवण राउ = तीन भवनों का मालिक परमात्मा।39।
अर्थ: अच्छी तरह उस परमात्मा की संभाल करो। अपने मन को उन वचनों में ला के जोड़ो, जिनसे ये मन परमात्मा में परच जाए। प्रभु में मन परचने से जब (अंदर) प्रेम उपजता है तो उस अवस्था में तीनों भवनों का मालिक परमात्मा ही (हर जगह) व्यापक दिखाई देता है।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खखा खोजि परै जउ कोई ॥ जो खोजै सो बहुरि न होई ॥ खोज बूझि जउ करै बीचारा ॥ तउ भवजल तरत न लावै बारा ॥४०॥
मूलम्
खखा खोजि परै जउ कोई ॥ जो खोजै सो बहुरि न होई ॥ खोज बूझि जउ करै बीचारा ॥ तउ भवजल तरत न लावै बारा ॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजि परै = तलाश में लग जाए। जउ = अगर। खोजै = ढूँढ ले। सो = वह मनुष्य। बहुरि = दुबारा। न होई = नहीं पैदा होता (ना मरता)। खोज = लक्षण, निशान। बूझि = समझ के। जउ = यदि (कोई)। बीचार = प्रभु के गुणों की विचार। भवजल = संसार समुंदर। बार = देह।40।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य परमात्मा की तलाश में लग जाए, (इस तरह) जो भी मनुष्य प्रभु को पा लेता है वह फिर पैदा होता-मरता नहीं। अगर कोई जीव प्रभु के गुणों को समझ के उनको बारंबार याद करता है, उसे संसार-समंद्र को पार करने में देर नहीं लगती।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससा सो सह सेज सवारै ॥ सोई सही संदेह निवारै ॥ अलप सुख छाडि परम सुख पावा ॥ तब इह त्रीअ ओुहु कंतु कहावा ॥४१॥
मूलम्
ससा सो सह सेज सवारै ॥ सोई सही संदेह निवारै ॥ अलप सुख छाडि परम सुख पावा ॥ तब इह त्रीअ ओुहु कंतु कहावा ॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सह सेज = पति की सेज, (जीव-स्त्री का हृदय जो प्रभु-) पति की सेज है। सो = वह (सखी)। सोई सही = वही सखी। संदेह = शक, संसा, भ्रम। निवारै = दूर करती है। अलप = छोटा, होछा। पावा = प्राप्त करती है। त्रीअ = स्त्री। कंतु = पति।41।
अर्थ: जो (जीव-स्त्री दुनिया वाले) तुच्छ सुख छोड़ के (प्रभु के प्यार का) सबसे ऊँचा सुख हासिल करती है, वह (अपना हृदय-रूप) पति प्रभु की सेज सवारती है। वही (जीव) -सखी (अपने मन के) संशय दूर करती है। (इस अवस्था के बनने पर ही असल भाव में) तभी ये (जीव प्रभु की) स्त्री, और वह (प्रभु जीव-स्त्री का) पति कहलवाता है।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहा होत होइ नही जाना ॥ जब ही होइ तबहि मनु माना ॥ है तउ सही लखै जउ कोई ॥ तब ओही उहु एहु न होई ॥४२॥
मूलम्
हाहा होत होइ नही जाना ॥ जब ही होइ तबहि मनु माना ॥ है तउ सही लखै जउ कोई ॥ तब ओही उहु एहु न होई ॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होइ = हो के, जनम ले के, मानव जनम हासिल करके। होत = होता हुआ (प्रभु), अस्तित्व वाले प्रभु को, प्रभु को जो सचमुच हस्ती वाला है। होइ = (प्रभु के वजूद का निश्चय) हो जाए। माना = मान जाता है, पतीज जाता है। सही = सचमुच, जरूर। है तउ सही = है तो सचमुच। जउ = अगर। ओही उहु = वह प्रभु ही प्रभु। एहु = यह जीव।42।
अर्थ: जीव ने मानव जनम हासिल करके उस प्रभु को नहीं पहचाना, जो सचमुच हस्ती वाला है। जब जीव को प्रभु के वजूद का निश्चय हो जाता है, तब इसका मन (प्रभु में) पतीज जाता है। (परमात्मा) है तो जरूर (पर इस विश्वास का लाभ तब ही होता है) जब कोई जीव (इस बात को) समझ ले। तब ये जीव उस प्रभु का ही रूप हो जाता है, ये (अलग हस्ती वाला) नहीं रह जाता।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिंउ लिंउ करत फिरै सभु लोगु ॥ ता कारणि बिआपै बहु सोगु ॥ लखिमी बर सिउ जउ लिउ लावै ॥ सोगु मिटै सभ ही सुख पावै ॥४३॥
मूलम्
लिंउ लिंउ करत फिरै सभु लोगु ॥ ता कारणि बिआपै बहु सोगु ॥ लखिमी बर सिउ जउ लिउ लावै ॥ सोगु मिटै सभ ही सुख पावै ॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिंउ लिंउ = मैं (लक्ष्मी) हासिल कर लूं, मैं (माया) ले लूँ। करत फिरै = करता फिरता है। सभ लोगु = सारा जगत, हरेक जीव। ता कारणि = उस माया की खातिर। बिआपै = घटित होता है, अपना प्रभाव डालता है। सोगु = ग़म, फिक्र। लखमीबर = लक्ष्मी का वर, माया का पति, परमात्मा। सिउ = से। लिउ = लगन, प्रेम।43।
अर्थ: सारा जगत यही कहता फिरता है (भाव, इसी लालसा में भटकता फिरता है) कि मैं (माया) संभाल लूँ, मैं (माया) एकत्र कर लूँ। इस माया की खातिर ही (फिर जीव को) बड़ी चिंताएं आ घेरती हैं।
पर जब जीव, माया के पति परमात्मा के साथ प्रीत जोड़ता है तब (इसकी) चिंताएं समाप्त हो जाती हैं और ये सारे सुख हासिल कर लेता है।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खखा खिरत खपत गए केते ॥ खिरत खपत अजहूं नह चेते ॥ अब जगु जानि जउ मना रहै ॥ जह का बिछुरा तह थिरु लहै ॥४४॥
मूलम्
खखा खिरत खपत गए केते ॥ खिरत खपत अजहूं नह चेते ॥ अब जगु जानि जउ मना रहै ॥ जह का बिछुरा तह थिरु लहै ॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खिरत = (संस्कृत: क्षर = to glide, to waste away, perish) नाश होते होते। केते = कई, बेअंत (जनम)। अजहूँ = अभी तक। चेते = (परमात्मा को) याद करना। जगु जानि = जगत की अस्लियत को समझ के। जउ = अगर। मना = मन। रहे = टिक जाए। जह का = जिस (प्रभु) से। तह = उसी प्रभु में।44।
अर्थ: मरते-खपते जीव के कई जनम गुजर गए हैं, चक्करों में पड़ा अभी तक ये (प्रभु को) याद नहीं करता।
अब (इस जनम में ही) अगर जगत की अस्लियत को समझ के (इसका) मन (प्रभु में) टिक जाए तो जिस प्रभु से ये विछुड़ा हुआ है, उसी में इसे ठिकाना मिल सकता है।44।
[[0343]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बावन अखर जोरे आनि ॥ सकिआ न अखरु एकु पछानि ॥ सत का सबदु कबीरा कहै ॥ पंडित होइ सु अनभै रहै ॥ पंडित लोगह कउ बिउहार ॥ गिआनवंत कउ ततु बीचार ॥ जा कै जीअ जैसी बुधि होई ॥ कहि कबीर जानैगा सोई ॥४५॥
मूलम्
बावन अखर जोरे आनि ॥ सकिआ न अखरु एकु पछानि ॥ सत का सबदु कबीरा कहै ॥ पंडित होइ सु अनभै रहै ॥ पंडित लोगह कउ बिउहार ॥ गिआनवंत कउ ततु बीचार ॥ जा कै जीअ जैसी बुधि होई ॥ कहि कबीर जानैगा सोई ॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बावन = 52, बावन। जोरे आनि = ला के जोड़ दिए, (अक्षर) बरत के पुस्तकें लिख दीं। अखरु एकु = एक प्रभु को जो नाश रहित है। अखरु = (संस्कृत: अ+क्षर) नाश रहित। सत का सबदु = प्रभु की महिमा। कबीरा = हे कबीर! कहै = (जो मनुष्य) कहता है। सु = वह मनुष्य। अनभै = अनुभव में, ज्ञान अवस्था में। रहै = टिका रहता है। कउ = को, का। बिउहार = व्यवहार, रोजी कमाने का ढंग। ततु = अस्लियत। जा के जीअ = जिस मनुष्य के जीअ में, जिसके अंदर। जैसी बुधि = जैसी अकल। सोई = वही कुछ। कहि = कहे, कहता है।45।
अर्थ: (जगत ने) बावन अक्षरों का प्रयोग करके पुस्तकें लिख दी हैं, पर (ये जगत इन पुस्तकों के द्वारा) उस एक प्रभु को नहीं पहचान सका, जो नाश-रहित है।
हे कबीर! जो मनुष्य (इन अक्षरों की मदद से) प्रभु की महिमा करता है, वही है पंडित, और, वह ज्ञानावस्था में टिका रहता है।
पर पंडित लोगों को तो ये विचार मिला हुआ है (कि अक्षर जोड़ के और लोगों को सुना देते हैं), ज्ञानवान लोगों के लिए (ये अक्षर) तत्व के विचार का साधन हैं।
कबीर कहता है: जिस जीव के अंदर जैसी बुद्धि होती है, वह (इन अक्षरों के द्वारा भी) वही कुछ समझेगा (भाव, पुस्तकें लिख-पढ़ के आत्मिक जीवन को जानने वाला हो जाना जरूरी नहीं है)।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी थितीं कबीर जी कीं ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी थितीं कबीर जी कीं ॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘थिंती’ और ‘कीं’ में (ं) मात्रा का फर्क ध्यान से देखें। सतिगुरु जी के समय (ी) के साथ (ं) बरती जाती थी। (ी) की मात्रा बिंदी से पहले भी इस्तेमाल होती थी और बाद में भी।
नोट: हमारे देश में सूरज और चाँद, दोनों के अनुसार साल के महीनों व दिनों की गिनती की जाती है। सूरज 12 राशियों में से गुजरता है। जब नई राशि में पहुँचता है, नया महीना चढ़ता है। चंद्रमा के बढ़ने-घटने के हिसाब से दिनों को ‘थित’ कहा जाता है, संस्कृत में शब्द है ‘तिथि’। चंद्रमा के हिसाब से हरेक महीने के दो हिस्से, दो पक्ष, होते हैं: अंधेरा पक्ष (कृष्ण पक्ष) व उजाला पक्ष (शुक्ल पक्ष)। मसिया (अमावस, जिस रात पूरी तरह अंधेरा होता है और चाँद बिल्कुल नहीं दिखता) से आगे प्रकाश पक्ष शुरू होता है, क्योंकि चंद्रमा हर रोज बढ़ता जाता है। पूरनमाशी तक शुक्ल पक्ष होता है। इसके बाद चाँद घटने लग जाता है, इसे अंधेरा पक्ष कहते हैं। कम होता होता अमावस को बिल्कुल छुप जाता है। अमावस से आगे नीचे लिखे अनुसार दिनों (तिथियों) के नाम आते हैं;
एकम, दूज, तीज, चौथ, पंचमी, छट, सतमी, अष्टमी, नौमी, दसमी, इकादशी, द्वादशी, त्रियोदशी, चौदस, पूरनमाशी।
इसी तरह पूरनमाशी के आगे एकम से लेकर अमावस तक यही ‘थितियां’ हैं।
अंधेरे पक्ष की थितिओं को ‘वदी’ और उजाले पक्ष की थितियों को ‘सुदी’ कहते हैं; जैसे ‘जेठ सुदी चौथ’ का भाव है ‘जेठ के महीने की अमावस से आगे चौथा दिन’। वदी सुदी वाले महीने ‘वदी’ पक्ष से शुरू होते हैं, पूरनमासी से अगले दिन।
हिन्दू लोग इन थितियों पे व्रत रखते हैं, और शास्त्रों के बताए कर्मकांड अनुसार और कई किस्म के कर्म-धर्म करते हैं, जैसे एकादशी आदि थितियों पे व्रत रखे जाते हैं, वैसे ही इन सातों वारों के साथ भी कई तरह के कर्म-धर्म का संबंध बनाया गया है। ये ‘वार’ देवी-देवताओं अथवा ‘तारों’ के नामों के साथ संबंध रखते हैं। मंगलवार देवी का वार समझा जाता है, शनिवार शनि देवते का दिन है।
कभी किसी कर्मकांडी हिन्दू के पास चार दिन रह के देखो, तो उसके रोजाना कर्तव्य से पता चलेगा कि इन थितियों और वारों के द्वारा कर्मकांड का खासा जाल बिछा हुआ है, तगड़े वहिम-भ्रम बने हुए हैं।
कबीर जी इस वाणी के माध्यम से उपदेश करते हैं कि इन ‘थितियों-वारों’ के वहिम-भ्रम को छोड़ के सदा परमात्मा की भक्ति करो। पर कर्तार के रंग! गुरु अरजन साहिब की वाणी ‘बारहमाह’ और कबीर जी के इस ‘थिति’ को पढ़ते हुए हम लोग भी मसिआ और पंचमी को खास महत्वता देते हैं, संगरांद को बाकी दिनों से ज्यादा पवित्र दिन मानते हैं।
(नोट: इस बारे पढ़ो मेरी पुस्तक ‘बुराई का टाकरा’ में मेरा लेख ‘संगरांद’)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ पंद्रह थितीं सात वार ॥ कहि कबीर उरवार न पार ॥ साधिक सिध लखै जउ भेउ ॥ आपे करता आपे देउ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ पंद्रह थितीं सात वार ॥ कहि कबीर उरवार न पार ॥ साधिक सिध लखै जउ भेउ ॥ आपे करता आपे देउ ॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जैसे ‘सुखमनी’ के हरेक ‘श्लोक’ में जो भाव है, ‘अष्टपवदी’ में उसी की ही व्याख्या की गई है। वैसे ही कबीर जी ने इस ‘शलोक’ में मुख्य भाव दिया है, आगे ‘थिंती’ की पउड़ियों में उसका विस्तार है। पर इन पौड़ियों में एक ‘बंद’ रहाउ का भी है। ‘रहाउ’ इस सारी वाणी या शब्द का तत्व (केन्दिय भाव) होता है। इस नियम के मुताबिक यहाँ रहाउ और पहले शलोक का केन्द्रिय भाव एक ही है। ‘रहाउ’ में लिखा है;
चरन कमल गोबिंद रंगु लागा॥ संत प्रसादि भए मन निरमल, हरि कीरतन महि अनदिनु जागा॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। उरवार न पार = जिस प्रभु का ना इस पार ना उस पार का छोर दिखता है, जो परमात्मा बेअंत है। साधिक = महिमा की साधना करने वाले। सिध = पहुँचे हुए, जो प्रभु चरणों में जुड़ चुके हैं। भेउ = भेद। करता = कर्तार। देउ = प्रकाश स्वरूप प्रभु। आपे = खुद ही खुद, हर जगह व्यापक।1।
अर्थ: (भरमी या भ्रमित लोग तो व्रत आदि रख के) पंद्रह तिथियां और सात वार (मनाते हैं), पर कबीर (इन तिथयों-वारों द्वारा हर रोज) उस परमात्मा की महिमा करता है जो बेअंत है। महिमा की साधना करने वाला जो भी मनुष्य उस प्रभु का भेत पा लेता है (भाव, गहरा अपनत्व उसके साथ बना लेता है) उसको प्रकाश-स्वरूप कर्तार ही कर्तार हर जगह दिखाई देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
थितीं ॥ अमावस महि आस निवारहु ॥ अंतरजामी रामु समारहु ॥ जीवत पावहु मोख दुआर ॥ अनभउ सबदु ततु निजु सार ॥१॥
मूलम्
थितीं ॥ अमावस महि आस निवारहु ॥ अंतरजामी रामु समारहु ॥ जीवत पावहु मोख दुआर ॥ अनभउ सबदु ततु निजु सार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निवारहु = दूर करो। अंमावस महि = मसिआ वाले दिन। समारहु = याद करो, स्मरण करो। मोख = मुक्ति, वहिम भरमों से खलासी। अनभउ = (संस्कृत: अनुभव = Direct perception or cognition, knowledge derived from personal observation) वह सूझ जो धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने से नहीं बल्कि सीधे प्रभु-चरणों में जुड़ने से हासिल होती है। सबदु = सतिगुरु का शब्द। ततु = असल, तत्व। निजु = सिर्फ अपना। सार = श्रेष्ठ। निजु सार ततु = केवल अपना श्रेष्ठ असल।1।
अर्थ: अमावस वाले दिन (व्रत, तीर्थ-स्नान आदि और कर्मकांड) की आशाएं दूर करो, घट-घट के जानने वाले सर्व-व्यापक परमात्मा को हृदय में बसाओ। (तुम इन तिथियों से जुड़े हुए कर्मकांड करके मरने के बाद मुक्ति की आस रखते हो, पर अगर परमात्मा का स्मरण करोगे तो) इसी जनम में (विकारों, दुखों और वहिम-भरमों से) मुक्ति हासिल कर लोगे। (इस नाम जपने की इनायत से) तुम्हारा केवल असल जगमगा उठेगा (अपना स्वतंत्र अस्तित्व निखर आएगा), सतिगुरु का शब्द अनुभवी रूप में प्रगट हो जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल गोबिंद रंगु लागा ॥ संत प्रसादि भए मन निरमल हरि कीरतन महि अनदिनु जागा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
चरन कमल गोबिंद रंगु लागा ॥ संत प्रसादि भए मन निरमल हरि कीरतन महि अनदिनु जागा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगु = प्यार। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागा = जागता रहता है, विकारों से सुचेत रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य का प्यार गोबिंद के सुंदर चरणों के साथ बन जाता है, गुरु की कृपा से उसका मन पवित्र हो जाता है। परमात्मा की महिमा में जुड़ के वह मनुष्य विकारों से हर समय सुचेत रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिवा प्रीतम करहु बीचार ॥ घट महि खेलै अघट अपार ॥ काल कलपना कदे न खाइ ॥ आदि पुरख महि रहै समाइ ॥२॥
मूलम्
परिवा प्रीतम करहु बीचार ॥ घट महि खेलै अघट अपार ॥ काल कलपना कदे न खाइ ॥ आदि पुरख महि रहै समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परवा = (संस्कृत: पर्वन् = the day of the new moon) एकम थिति। अघट = अ+घट, जो शरीर रहित है, जो शरीरों की कैद में नहीं है। अपार = अ+पार, बेअंत। कलपना = चिन्ता फिक्र।2।
अर्थ: जो परमात्मा शरीरों की कैद में नहीं आता, बेअंत है, और (फिर भी) हरेक शरीर में खेल रहा है (हे भाई!) उस प्रीतम (के गुणों) का विचार करो (उस प्रीतम की महिमा करो, जो मनुष्य प्रभु-प्रीतम की महिमा करता है) उसे कभी मौत का डर नहीं सताता (क्योंकि) वह सदा सब के सिरजने वाले अकाल पुरख में जुड़ा रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुतीआ दुह करि जानै अंग ॥ माइआ ब्रहम रमै सभ संग ॥ ना ओहु बढै न घटता जाइ ॥ अकुल निरंजन एकै भाइ ॥३॥
मूलम्
दुतीआ दुह करि जानै अंग ॥ माइआ ब्रहम रमै सभ संग ॥ ना ओहु बढै न घटता जाइ ॥ अकुल निरंजन एकै भाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहै समाइ = लीन रहता है। अंग = हिस्से। दुह = दो। रमै = मौजूद है, व्यापक है। एकै भाइ = एकसार, एक समान, एक जैसा।3।
अर्थ: (वह मनुष्य ये समझ लेता है कि जगत निरा प्रकृति नहीं है, वह इस संसार के) दो अंग समझता है: माया और ब्रहम। ब्रहम (इस माया में) हरेक के साथ बस रहा है, वह कभी घटता-बढ़ता नहीं है, सदा एक जैसा ही रहता है, उसका कोई खास कुल नहीं है, वह निरंजन है (भाव, ये माया उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रितीआ तीने सम करि लिआवै ॥ आनद मूल परम पदु पावै ॥ साधसंगति उपजै बिस्वास ॥ बाहरि भीतरि सदा प्रगास ॥४॥
मूलम्
त्रितीआ तीने सम करि लिआवै ॥ आनद मूल परम पदु पावै ॥ साधसंगति उपजै बिस्वास ॥ बाहरि भीतरि सदा प्रगास ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सम करि = समान करके। पदु = दरजा, अवस्था। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। आनद मूल = आनंद का श्रोत। बिस्वास = विश्वास, यकीन, भरोसा, श्रद्धा। प्रगास = प्रकाश, रोशनी।4।
अर्थ: (प्रभु की महिमा करने वाले मनुष्य) माया के तीन गुणों को सहज अवस्था में समान रखता है (भाव, वह इन गुणों में कभी नहीं डोलता), वह मनुष्य सबसे उच्च आत्मिक अवस्था को हासिल कर लेता है जो आनंद का श्रोत है; सत्संग में रहके उस मनुष्य के अंदर ये यकीन पैदा हो जाता है कि अंदर-बाहर हर जगह सदा प्रभु का ही प्रकाश है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चउथहि चंचल मन कउ गहहु ॥ काम क्रोध संगि कबहु न बहहु ॥ जल थल माहे आपहि आप ॥ आपै जपहु आपना जाप ॥५॥
मूलम्
चउथहि चंचल मन कउ गहहु ॥ काम क्रोध संगि कबहु न बहहु ॥ जल थल माहे आपहि आप ॥ आपै जपहु आपना जाप ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चउथहि = चौथी तिथि को। कउ = को। गहहु = पकड़ के रखो, वश में लाओ। संगि = साथ। बहहु = बैठो। माहे = में। आपहि आप = खुद ही खुद, स्वयं ही। आपै = उस ‘स्वयं’ में ही, उसकी ज्योति में। आपना जापु = वह जाप जो तुम्हारे काम आएगा।
अर्थ: चौथी तिथि को (किसी कर्म-धर्म की जगह) इस चंचल मन को पकड़ के रखो, कभी काम-क्रोध की संगति में ना बैठो। जो परमात्मा जल में धरती पर (हर जगह) स्वयं ही स्वयं व्यापक है, उसकी ज्योति में जुड़ के वह नाम जपो जो तुम्हारे काम आने वाला है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पांचै पंच तत बिसथार ॥ कनिक कामिनी जुग बिउहार ॥ प्रेम सुधा रसु पीवै कोइ ॥ जरा मरण दुखु फेरि न होइ ॥६॥
मूलम्
पांचै पंच तत बिसथार ॥ कनिक कामिनी जुग बिउहार ॥ प्रेम सुधा रसु पीवै कोइ ॥ जरा मरण दुखु फेरि न होइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पांचै = पाँचवीं तिथि को, पंचमी को (ये याद रखो)। बिसथार = विस्तार, पसारा, खिलारा। कनिक = सोना, धन। कामिनी = स्त्री। जुग = दोनों में। बिउहार = व्यवहार, व्यस्तता। सुधा = अंमृत। कोइ = कोई, विरला, दुर्लभ। जरा = बुढ़ापा।
अर्थ: ये जगत पाँच तत्वों से (एक खेल सा) बना है (जो चार दिन में खत्म हो जाता है, पर ये बात भूल के ये जीव) धन और स्त्री दोनों की व्यस्तता में मस्त हो रहा है। यहाँ कोई दुर्लभ ही मनुष्य है जो परमात्मा के प्रेम अमृत का घूट पीता है, (जो पीता है) उसे फिर बुढ़ापे और मौत का सहम दुबारा कभी नहीं व्यापता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छठि खटु चक्र छहूं दिस धाइ ॥ बिनु परचै नही थिरा रहाइ ॥ दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु ॥ करम धरम की सूल न सहहु ॥७॥
मूलम्
छठि खटु चक्र छहूं दिस धाइ ॥ बिनु परचै नही थिरा रहाइ ॥ दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु ॥ करम धरम की सूल न सहहु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छठि = छेवीं, छेवीं तिथि। खटु चक्र = पाँच ज्ञानेंद्रियां और छेवां मन। छहूं दिस = छेयों दिशाओं में (चार तरफ और ऊपर नीचे) (भाव,) सारे संसार में। धाइ = भटकता है। बिनु परचै = प्रभु में पतीजे बिना, प्रभु में जुड़े बिना। दुबिधा = दुचिक्तापन, भटकना। खिमा = धीरज, जिरांद। गहि रहहु = धारण करो। सूल = दुख, कज़ीआ।
अर्थ: मनुष्य की पाँचों ज्ञानेंद्रियां और छेवां मन- ये सारा साथ संसार (के पदार्थों की लालसा) में भटकता फिरता है, जब तक मनुष्य प्रभु की याद में नहीं जुड़ता, तब तक ये सारा साथ (इस भटकना में से हट के) टिकता नहीं।
हे भाई! भटकना मिटा के धीरज धारण करो और छोड़ो कर्मों-धर्मों का ये लम्बा टंटा (जिससे कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सातैं सति करि बाचा जाणि ॥ आतम रामु लेहु परवाणि ॥ छूटै संसा मिटि जाहि दुख ॥ सुंन सरोवरि पावहु सुख ॥८॥
मूलम्
सातैं सति करि बाचा जाणि ॥ आतम रामु लेहु परवाणि ॥ छूटै संसा मिटि जाहि दुख ॥ सुंन सरोवरि पावहु सुख ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाचा = गुरु के वचन। सति करि जाणि = सच्चे समझ, पूरी श्रद्धा धार। आतम रामु = परमात्मा। लेहु परवाणि = परो लो। छूटै = दूर हो जाता है। संसा = सहिसा, सहम। सुंन = शून्य, वह अवस्था जहाँ सहम आदि कोई फुरने नहीं उठते। सरोवरि = सरोवर में।8।
अर्थ: हे भाई! सतिगुरु की वाणी में श्रद्धा धारो। (इस वाणी के माध्यम से) परमात्मा (के नाम) को (अपने हृदय में) परो लो। (इस तरह) सहम दूर हो जाएगा, दुख-कष्ट मिट जाएंगे, उस सरोवर में चुभ्भी लगा सकोगे, जहाँ सहम आदि कोई फुरने नहीं उठते और सुख भोगो।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटमी असट धातु की काइआ ॥ ता महि अकुल महा निधि राइआ ॥ गुर गम गिआन बतावै भेद ॥ उलटा रहै अभंग अछेद ॥९॥
मूलम्
असटमी असट धातु की काइआ ॥ ता महि अकुल महा निधि राइआ ॥ गुर गम गिआन बतावै भेद ॥ उलटा रहै अभंग अछेद ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असट = आठ। असट धातु = आठों धातें (रस, रुधिर, मास, मेधा, अस्थि, मिझ, वीर्य, नाड़ी)। अकुल = अ+कुल, जिसका कोई खास कुल नहीं। महा निधि = बड़ा खजाना, सब गुणों का खजाना। गुर गम गिआन = पहुँच वाले गुरु का ज्ञान। उलटा = देह अध्यास से पलट के, शारि रिक मोह त्याग के। अभंग = (अ+भंग) अविनाशी। अछेद = (अ+छेद) जो छेदा ना जा सके।9।
अर्थ: ये शरीर (लहू आदि) आठ धातों का बना हुआ है, इसमें वह परमात्मा बस रहा है जिसकी कोई खास कुल नहीं है, जो सब गुणों का खजाना है। जिस मनुष्य को पहुँच वाले गुरु का ज्ञान ये भेद (कि शरीर में ही है प्रभु) बताता है, वह शारीरिक मोह से विरक्त हो के अविनाशी प्रभु में जुड़ा रहता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउमी नवै दुआर कउ साधि ॥ बहती मनसा राखहु बांधि ॥ लोभ मोह सभ बीसरि जाहु ॥ जुगु जुगु जीवहु अमर फल खाहु ॥१०॥
मूलम्
नउमी नवै दुआर कउ साधि ॥ बहती मनसा राखहु बांधि ॥ लोभ मोह सभ बीसरि जाहु ॥ जुगु जुगु जीवहु अमर फल खाहु ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधि = (राखहु) सुधार के, वश में रखो। बहती मनसा = चलते विचार। बांधि = रोक के। जुग जुग = सदा ही। अमर = (अ+मर) कभी ना मरने वाला।10।
अर्थ: (हे भाई!) सारी शारीरिक इंद्रियों को काबू में रखो, इनसे उठते फुरनों को रोको, लोभ-मोह आदि सारे विकारों को भुला दो। (इस मेहनत का) ऐसा फल मिलेगा जो कभी खत्म नहीं होगा। ऐसा सुंदर जीवन जीओगे जो सदा कायम रहेगा।10।
[[0344]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसमी दह दिस होइ अनंद ॥ छूटै भरमु मिलै गोबिंद ॥ जोति सरूपी तत अनूप ॥ अमल न मल न छाह नही धूप ॥११॥
मूलम्
दसमी दह दिस होइ अनंद ॥ छूटै भरमु मिलै गोबिंद ॥ जोति सरूपी तत अनूप ॥ अमल न मल न छाह नही धूप ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दह दिसि = दसों दिशाओं में, हर तरफ, सारे संसार में। जोति सरूपी = वह प्रभु जो ज्योति स्वरूप है, वह प्रभु जो निरा नूर ही नूर है। तत = असल, सबका आदि। अनूप = जिस जैसा और कोई नहीं। अमल = अ+मल, मैल रहित, वकिार रहित। छाह = अंधेरा, अज्ञानता का अंधकार। धूप = धूप, विकारों की गरमी।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: बंद 10, 11, 12, 13 और 14 का सांझा भाव है: जो 10 से आरम्भ हो के 14 पर समाप्त होता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (इस उद्यम से) मन की भटकना दूर हो जाती है; वह परमात्मा मिल जाता है, जो निरा नूर ही नूर है, जो सारे जगत का असल है। जिस जैसा और कोई नहीं है, जिसमें विकारों की कोई भी मैल नहीं है, ना उसमें अज्ञानता का अंधकार है और ना ही तृष्णा आदि विकारों की आग है। (ऐसे परमात्मा के साथ मेल होने से) सारे संसार में ही मनुष्य के लिए आनंद ही आनंद होता है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकादसी एक दिस धावै ॥ तउ जोनी संकट बहुरि न आवै ॥ सीतल निरमल भइआ सरीरा ॥ दूरि बतावत पाइआ नीरा ॥१२॥
मूलम्
एकादसी एक दिस धावै ॥ तउ जोनी संकट बहुरि न आवै ॥ सीतल निरमल भइआ सरीरा ॥ दूरि बतावत पाइआ नीरा ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एक दिस = एक तरफ, एक परमात्मा की ओर। धावै = दौड़ता है, जाता है। तउ = तब। संकट = कष्ट, दुख-कष्ट। बहुरि = दुबारा। सीतल = ठण्डा। सरीरा = (भाव) ज्ञानेंद्रियां। नीरा = नजदीक, अपने अंदर ही।12।
अर्थ: (जब मनुष्य का मन विकारों की ओर से हट के) एक परमात्मा (की याद) की तरफ जाता है, तब वह दुबारा जनम-मरन के कष्टों में नहीं आता। जो परमात्मा कही दुर बताया जाता था वह उसके नजदीक (अपने अंदर ही) मिल जाता है, इसलिए उसके अंदर ठंड पड़ जाती है और उसका स्वै पवित्र हो जाता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बारसि बारह उगवै सूर ॥ अहिनिसि बाजे अनहद तूर ॥ देखिआ तिहूं लोक का पीउ ॥ अचरजु भइआ जीव ते सीउ ॥१३॥
मूलम्
बारसि बारह उगवै सूर ॥ अहिनिसि बाजे अनहद तूर ॥ देखिआ तिहूं लोक का पीउ ॥ अचरजु भइआ जीव ते सीउ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बारसि = दुआदसि थिति। बारह सूर = बारह सूरज। उगवै = उगते हैं। अहि = दिन। निसि = रात। बाजे = बजते हैं। अनहद = बिना बजाए, एक रस, सदा। तूर = बाजे। तिहूं लोक का = तीनों ही भवनो का। पीउ = मालिक। ते = से। सीउ = शिव, कल्याण स्वरूप परमात्मा।13।
अर्थ: (जिस मनुष्य का मन सिर्फ ‘ऐक दिस धावै’, जो मनुष्य सिर्फ एक प्रभु की याद में जुड़ता है, उसके अंदर, जैसे) बारह सूरज उग पड़ते हैं (भाव, उसके अंदर पूर्ण ज्ञान का प्रकाश हो जाता है), उसके अंदर (मानो) दिन-रात एक-रस बाजे बजते हैं, उसे तीनों भवनों के मालिक प्रभु का दीदार हो जाता है; एक आश्चर्यजनक खेल बन जाती है कि वह मनुष्य एक साधारण मनुष्य से कल्याण-स्वरूप परमात्मा का रूप हो जाता है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरसि तेरह अगम बखाणि ॥ अरध उरध बिचि सम पहिचाणि ॥ नीच ऊच नही मान अमान ॥ बिआपिक राम सगल सामान ॥१४॥
मूलम्
तेरसि तेरह अगम बखाणि ॥ अरध उरध बिचि सम पहिचाणि ॥ नीच ऊच नही मान अमान ॥ बिआपिक राम सगल सामान ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेरसि = त्रयोदशी। तेरह = त्रयोदशी थिति, अमावस के आगे तेरहवां दिन। अगम = (अ+गम = अगम्य) जिस परमात्मा तक पहुँच नहीं। बखाणि = बखाने, उचारता है, गुण गाता है, महिमा करता है। अरध = अधह, नीचे, पाताल। उरध = ऊपर, आकाश। अरध उरध बिचि = पाताल से आकाश तक, सारे संसार में। सम = बराबर, एक जैसा। मान = आदर। अमान = (अ+मान) निरादरी। सगल = सभी में।14।
अर्थ: (जिस मनुष्य का मन केवल ‘ऐक दिस धावै’) वह अगम परमात्मा की महिमा करता है, (इस महिमा की इनायत से) वह सारे संसार में उस प्रभु को एक-समान पहचानता है (देखता है)। ना उसे कोई नीच दिखाई देता है ना ऊँचा। किसी से आदर हो या निरादरी, उसके लिए एक से हैं, क्योंकि उसे सारे जीवों में परमात्मा ही व्यापक दिखता है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चउदसि चउदह लोक मझारि ॥ रोम रोम महि बसहि मुरारि ॥ सत संतोख का धरहु धिआन ॥ कथनी कथीऐ ब्रहम गिआन ॥१५॥
मूलम्
चउदसि चउदह लोक मझारि ॥ रोम रोम महि बसहि मुरारि ॥ सत संतोख का धरहु धिआन ॥ कथनी कथीऐ ब्रहम गिआन ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चउदसि = चौदवीं थिति, अमावस के बाद की चौदवीं रात। चौदह लोक = सात आकाश सात पताल (भाव,) सारी सृष्टि। मझारि = में। रोम रोम महि = चौदह लोकों के रोम रोम में, सारी सृष्टि के ज़रे-ज़रे में। बसहि = बसते हैं (प्रभु जी)। मुरारि = (मुर+आरि) मुर दैत्य का वैरी अर्थात प्रभु। कथनी कथीऐ = (वह) बातें करें, (वह) बोल बोलें। ब्रहम गिआन = (जिनके द्वारा) परमात्मा के साथ जान-पहिचान हो जाए, परमात्मा की (सर्व-व्यापकता की) सूझ पैदा हो। सत = दान, दूसरों की सेवा। संतोख = सब्र, उसकी बख्शी हुई दात में राजी रहना। सत…गिआन = सरू और संतोष को अपने भीतर टिकाओ, ये देख के कि परमात्मा हरेक घट में बसता है। जो कृपा तुम्हारे पर हुई है उसमें राजी रहो और इस दाति में से परमात्मा के पैदा किए हुए और जीवों की भी सेवा करो, क्योंकि सब में वही बस रहा है, जो तुम्हें रोजी दे रहा है।15।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु जी सारी कायनात में सृष्टि के कण-कण में बस रहे हैं। उसकी महिमा की बातें करो, ता कि उसके इस सही स्वरूप की सूझ बनी रहे। (ये यकीन ला के कि वह प्रभु तुम्हारे अंदर बस रहा है और सब जीवों में भी बस रहा है) दूसरों की सेवा की और जो कुछ प्रभु ने तुम्हें दिया है उसमें राजी रहने की तवज्जो पक्की करो।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूनिउ पूरा चंद अकास ॥ पसरहि कला सहज परगास ॥ आदि अंति मधि होइ रहिआ थीर ॥ सुख सागर महि रमहि कबीर ॥१६॥
मूलम्
पूनिउ पूरा चंद अकास ॥ पसरहि कला सहज परगास ॥ आदि अंति मधि होइ रहिआ थीर ॥ सुख सागर महि रमहि कबीर ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुनउ = पुनिंया, पूरनमासी, वह तिथि जब चाँद पूरा मुकम्मल होता है। अकास = आकाश, गगन, दसवाँ द्वार, चिदाकाश, चिक्त रूप आकाश। पसरहि = बिखरती हैं। कला = चाँद की सारी कलाएं।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: अमावस के बाद चाँद जब पहली बार आकाश में चढ़ता है, तो यह चाँद की एक कला कही जाती है। हरेक रात को एक-एक कला बढ़ती जाती है, और पूरनमाशी को चाँद की सारी ही कलाओं का प्रकाश हो जाता है)।
दर्पण-भाषार्थ
आदि अंत मधि = शुरू से, आखिर तक, बीच के समय में भी (भाव, सदा ही)। थीर = स्थिर, कायम। सुख सागर = सुखों का समुंदर प्रभु। रमहि = (अगर) तू स्मरण करे। कबीर = हे कबीर!।16।
अर्थ: जो परमात्मा सृष्टि के आरम्भ से आखिर तक और बीच के समय (इस अंतराल में) (भाव, सदा ही) मौजूद है, उस सुखों के समुंदर प्रभु में, हे कबीर! अगर तू डुबकी लगा के उसका स्मरण करे, तो जैसे पूरनमाशी को आकाश में पूरा चाँद चढ़ता है और चंद्रमा की सारी ही कलाएं प्रगट होती हैं वैसे ही तेरे अंदर भी सहज अवस्था का प्रकाश होगा।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी वार कबीर जीउ के ७ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी वार कबीर जीउ के ७ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वार = दिन।
अर्थ: यह वाणी दिनों के नामों पर है, जैसे पिछली वाणी थितियों के नाम बरत के रची गई है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार बार हरि के गुन गावउ ॥ गुर गमि भेदु सु हरि का पावउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बार बार हरि के गुन गावउ ॥ गुर गमि भेदु सु हरि का पावउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बार बार = बारंबार, हर समय, सदा। गावउ = गाओ, मैं गाता हूँ। गमि = गम के, जा के, पहुँच के। गम गमि = गुरु के पास जा के, गुरु के चरणों में पहुँच के। हरि का भेद = परमात्मा का भेद, परमात्मा को मिलने का भेद। वह गहरा राज़ जिससे परमात्मा मिल सकता है। पावउ = पाऊँ, मैं ढूंढ रहा हूँ, मैंने पा लिया है। सु = वह। सु भेदु = वह भेद।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के चरणों में पहुँच के मैंने वह भेद पा लिया है जिससे परमात्मा को मिल सकते हैं (और, वह ये है कि) मैं हर समय परमात्मा के गुण गाता हूँ (भाव, प्रभु की महिमा ही प्रभु को मिलने का सही तरीका है)।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ’ में दिए गए इस ख्याल की व्याख्या बाकी की वाणी में की गई है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित करै भगति आर्मभ ॥ काइआ मंदर मनसा थ्मभ ॥ अहिनिसि अखंड सुरही जाइ ॥ तउ अनहद बेणु सहज महि बाइ ॥१॥
मूलम्
आदित करै भगति आर्मभ ॥ काइआ मंदर मनसा थ्मभ ॥ अहिनिसि अखंड सुरही जाइ ॥ तउ अनहद बेणु सहज महि बाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदित = (संस्कृत: आदित्य), सूरज। आदित = आइत, ऐत। आदित वार = ऐतवार।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: (आदित वार = ऐतवार) ये दिन सूरज के नाम से संबंधित है, ये दिन सूरज का मिथा गया है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काया = शरीर। मंदर = घर। मनसा = फुरने। थंभ = स्तम्भ, खम्भा, सहारा, आसरा। अहि = दिन। निसि = रात। अखंड = अटूट, लगातार। सुरही = सुरभि, सुगंधि, भक्ति से सुगंधित हुई तवज्जो, ध्यान। जाइ = चली जाती है, जारी रहती है। तउ = तब। अनहद = एक रस। बैणु = वीणा, बाँसुरी। सहज महि = सहज अवस्था में। बाइ = बजती है।1।
अर्थ: (‘बार बार हरि के गुण’ गा के, जो मनुष्य) परमात्मा की भक्ति शुरू करता है, ये भक्ति उसके शरीर-घर के स्तम्भ का काम करती है, उसके मन के विचारों को सहारा देती है (भाव, उसकी ज्ञानेंद्रियां और उसके मन के फुरने भटकने से हट जाते हैं)। भक्ति से सुगंधित हुई उसकी तवज्जो दिन-रात लगातार (प्रभु चरणों में) जुड़ी रहती है, तब अडोलता में टिकने के कारण मन के अंदर (मानो) एक-रस बाँसुरी सी बजती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमवारि ससि अम्रितु झरै ॥ चाखत बेगि सगल बिख हरै ॥ बाणी रोकिआ रहै दुआर ॥ तउ मनु मतवारो पीवनहार ॥२॥
मूलम्
सोमवारि ससि अम्रितु झरै ॥ चाखत बेगि सगल बिख हरै ॥ बाणी रोकिआ रहै दुआर ॥ तउ मनु मतवारो पीवनहार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोम = चंद्रमा। सोमवार = चंद्रमा से संबंध रखने वाला दिन। सोमवारि = सोम के दिन। ससि = चंद्रमा, चाँद की ठंड। ससि अंम्रितु = शांति का अमृत। झरै = झड़ता है, बरसता है। चाखत = चखते हुए। बेगि = तुरंत, जल्दी। सगल = सारे। बिखु = जहर, विकार। हरै = दूर कर लेता है। हरै दुआरि = प्रभु के दर पर टिका रहता है। मतवारे = मतवाला, मस्त।2।
अर्थ: (‘बार बार हरि के गुण’ गाने से मनुष्य के मन में) शांति ठंड का अमृत बरसता है, (ये अमृत) चखने से मन तुरंत सारे विकार दूर कर देता है, सतिगुरु की वाणी की इनायत से (मनुष्य का विकारों से) रोका हुआ मन प्रभु के दर पर टिका रहता है और मस्त हुआ मन उस अमुत को पीता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंगलवारे ले माहीति ॥ पंच चोर की जाणै रीति ॥ घर छोडें बाहरि जिनि जाइ ॥ नातरु खरा रिसै है राइ ॥३॥
मूलम्
मंगलवारे ले माहीति ॥ पंच चोर की जाणै रीति ॥ घर छोडें बाहरि जिनि जाइ ॥ नातरु खरा रिसै है राइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंगल = (मंगल ग्रह the planate Mars) मंगल तारा। मंगल वार = मंगल तारे के संबंध रखने वाला दिन। लै = ले लेता है। माहीति = मुहीत, घेरा, किला। जाणै = जान लेता है। रीति = तरीका, ढंग। जिनि छोडें = ना छोड़ना, कहीं छोड़ ना देना। जिनि जाए = ना जाना, कहीं चले ना जाना। घर = हृदय घर जिसके चारों तरफ किला बन चुका है। नातरु = नहीं तो, अगर तू बाहर चला गया। रिसै है = खिझ जाएगा। रिस = (संस्कृत: रिष्, to be injured, to meet with a misfortune) बिपता में पड़ जाना, दुखी होना। राइ = राजा, मन राजा।3।
अर्थ: (‘बार बार हरि के गुण’ गा के) मनुष्य अपने मन के चारों तरफ, जैसे, किला बना लेता है, कामादिक पाँच चोरों के (हमला करने का) ढंग-तरीका समझ लेता है (इस प्रकार उनके वार होने नहीं देता)। (हे भाई!) तू भी (ऐसे) किले को छोड़ के बाहर ना जाना (भाव, अपने मन को बाहर भटकने बिलकुल ना देना), नहीं तो ये मन (विकारों में पड़ कर) बड़ा दुखी होगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुधवारि बुधि करै प्रगास ॥ हिरदै कमल महि हरि का बास ॥ गुर मिलि दोऊ एक सम धरै ॥ उरध पंक लै सूधा करै ॥४॥
मूलम्
बुधवारि बुधि करै प्रगास ॥ हिरदै कमल महि हरि का बास ॥ गुर मिलि दोऊ एक सम धरै ॥ उरध पंक लै सूधा करै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बुधि = अक्ल। प्रगासु = प्रकाश। बासु = निवास। गुर मिलि = गुरु को मिल के। दोऊ = दोनों, हृदय और परमात्मा। एक सम = इकट्ठे। उरध = (माया की तरफ) उलटा हुआ, पलटा हुआ। पंक = पंकज, हृदय कमल। सूधा = सीधा, परमात्मा के सन्मुख। लै = वश में करके।4।
अर्थ: (‘बार बार हरि के गुन’ गा के, मनुष्य अपनी) सूझ में प्रभु के नाम का प्रकाश पैदा कर लेता है, हृदय-कमल में परमात्मा का निवास बना लेता है; सतिगुरु को मिल के आत्मा और परमात्मा की सांझ बना लेता है, (पहले माया की ओर) चल रहे मन को वश में करके (पलट के) प्रभु के सन्मुख कर देता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रिहसपति बिखिआ देइ बहाइ ॥ तीनि देव एक संगि लाइ ॥ तीनि नदी तह त्रिकुटी माहि ॥ अहिनिसि कसमल धोवहि नाहि ॥५॥
मूलम्
ब्रिहसपति बिखिआ देइ बहाइ ॥ तीनि देव एक संगि लाइ ॥ तीनि नदी तह त्रिकुटी माहि ॥ अहिनिसि कसमल धोवहि नाहि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रिहसपति = (The planet jupiter) एक तारे का नाम है। ब्रिहसपति वार = बृहस्पति वार, वीरवार। बिखिआ = माया। देइ बहाइ = बहा देता है। तीनि देव = बिखिआ के तीनों देवते, माया के तीन गुण। एक संगि = एक संगत में। लाइ = जोड़ लेता है, लीन कर देता है।
तीनि नदी = माया के तीन गुणों की नदियां। त्रिकुटी = (त्रि+कुटी; त्रि = तीन, कुटी = टेढ़ी लकीर) तिउड़ी, तीन टेढ़ी लकीरें, माथे की तिउड़ी जो हृदय में खिझ पैदा होने से माथे पर पड़ जाती हैं, खिझ, भ्रिकुटी। अहिनिसि = दिन रात। कसमल = पाप। धोवहि नाहि = नहीं धोते।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: कई टीकाकार सज्जन शब्द ‘नाहि’ का अर्थ करते हैं: ‘नहा के’, ‘स्नान करके’। पर ये बिल्कुल गलत है। शब्द ‘नाहि’ का अर्थ सदा ‘नही’ ही होता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (‘बार बार हरि के गुन’ गा के, मनुष्य) माया के (प्रभाव) को (महिमा के प्रवाह में) बहा देता है, माया के तीनों ही (बली) गुणों को एक प्रभु (की याद में) लीन कर देता है।
(जो लोग महिमा छोड़ के माया की) खिझ में रहते हैं, वे माया की त्रिगुणी नदियों में ही (गोते खाते) हैं, दिन रात बुरे कर्म (करते हैं, महिमा से वंचित रहने के कारण उन्हें) धोते नहीं हैं।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘रहाउ’ की तुकों में कबीर जी ने लिखा है कि प्रभु को मिलने के वास्ते भेद की बात सिर्फ एक ही है: बारंबार प्रभु के गुण गाने। सारी वाणी में इसी ही ख्याल की व्याख्या है। शब्द ‘त्रिकुटी’ देख के तुरंत ये कह देना कि कबीर जी यहां ईड़ा-पिंगुला-सुखमना के अभ्यास की सिफारिश कर रहे हैं, भारी भूल है। कबीर जी कभी भी योगाभ्यासी अथवा प्राणायामी नहीं रहे, ना ही वे इस रास्ते को सही मानते हैं। हमने कबीर जी को उनकी वाणी में से देखना है, लोंगों की घड़ी हुई कहानियों में से नहीं। (पढ़ो मेरा लेख ‘क्या कबीर जी कभी प्राणयामी या योगाभ्यासी भी रहे हैं? ’)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुक्रितु सहारै सु इह ब्रति चड़ै ॥ अनदिन आपि आप सिउ लड़ै ॥ सुरखी पांचउ राखै सबै ॥ तउ दूजी द्रिसटि न पैसै कबै ॥६॥
मूलम्
सुक्रितु सहारै सु इह ब्रति चड़ै ॥ अनदिन आपि आप सिउ लड़ै ॥ सुरखी पांचउ राखै सबै ॥ तउ दूजी द्रिसटि न पैसै कबै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर समय। सिउ = साथ। सुरखी = (संस्कृत: हृषीक) इंद्रियां। राखै = बस में रखता है। दूजी द्रिसटि = मेर तेर वाली निगाह, भेदभाव वाली नजर। कबै = कभी भी।6।
अर्थ: (‘बार बार हरि के गुन’ गा के, मनुष्य इस महिमा की) नेक कमाई को (अपने जीवन का) सहारा बना लेता है, और इस मुश्किल घाटी पर चढ़ता है कि हर समय अपने साथ लड़ाई करता है (भाव, अपने मन को बारंबार विकारों से रोकता है), पाँचों ही ज्ञानेंद्रियों को बस में रखता है, तब (किसी पर भी) कभी उसकी मेर-तेर की निगाह नहीं पड़ती।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अब तक हम देखते आए हैं कि हरेक ‘वार’ के नाम का पहला अक्षर बरत के हरेक पौड़ी लिखी गई है; जैसे:
आदित————-से आरंभ
सोम—————-से ससि
मंगल—————से माहीति
बुध—————–से बुधि
ब्रिहसपति———से बिखिआ
थावर————–से थिरु
पर इस पौड़ी नं: 6 में शब्द ‘शुक्रवार’ नहीं इस्तेमाल किया गया, इसके पहले अक्षर के साथ मेल खाने वाला शब्द ‘सुक्रित’ बरत दिया है।
सुक्रित = भला काम, (‘बार बार हरि के गुण’ गाने का) शुभ काम। सहारै = सहारा बना लेता है, अपने जीवन का आसरा बनाता है। ब्रत = (संस्कृत: व्रत, a vow, mode of life) मुश्किल जीवन जुगति का प्रण, जीवन जुगति रूपी मुश्किल घाटी। ब्रति = मुश्किल जीवन जुगति के प्रण पर, जीवन जुगति रूपी मुश्किल घाटी पर। नोट: मन को विकारों की ओर से रोक के प्रभु का स्मरण करना एक बड़ा मुश्किल रास्ता है, पहाड़ी रास्ता है, घाटी पे चढ़ने के समान है;
“कबीर जिह मारगि पंडित गए, पाछै परी बहीर॥
इक अवघट घाटी राम की, तिह चढ़ि रहिओ कबीर॥ ” 165।
विश्वास-प्रस्तुतिः
थावर थिरु करि राखै सोइ ॥ जोति दी वटी घट महि जोइ ॥ बाहरि भीतरि भइआ प्रगासु ॥ तब हूआ सगल करम का नासु ॥७॥
मूलम्
थावर थिरु करि राखै सोइ ॥ जोति दी वटी घट महि जोइ ॥ बाहरि भीतरि भइआ प्रगासु ॥ तब हूआ सगल करम का नासु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थावर = शनिवार। थिरु = स्थिर, टिकवां। सोइ = सो (दीपक की ज्योति), उस ‘जोति दीवटी’ को। जोति दीवटी जोइ = जो ज्योति दीवटी। दीवटी = छोटा सा सुंदर सा दीपक। जाति = परमात्मा का नूर। घट महि = हृदय में, शरीर में। भीतरि = अंदर। प्रगासु = प्रकाश। करम = किए कर्मों के संस्कार। तब = तब, इस अवस्था में पहुँच के।7।
अर्थ: ईश्वरीय नूर की जो सुंदर सी छोटी सी ज्योति जो हरेक हृदय में होती है (‘बार बार हरि के गुण’ गा के, मनुष्य) उस ज्योति को अपने अंदर संभाल के रखता है (उसकी इनायत से उसके) अंदर-बाहर ज्योति का ही प्रकाश हो जाता है (भाव, उसको अपने अंदर और सारी सृष्टि में भी एक ही परमात्मा की ज्योति दिखाई देती है)। इस अवस्था में पहँच के उसके पिछले किए सारे कर्मों (के संस्कारों) का नाश हो जाता है।7।
[[0345]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब लगु घट महि दूजी आन ॥ तउ लउ महलि न लाभै जान ॥ रमत राम सिउ लागो रंगु ॥ कहि कबीर तब निरमल अंग ॥८॥१॥
मूलम्
जब लगु घट महि दूजी आन ॥ तउ लउ महलि न लाभै जान ॥ रमत राम सिउ लागो रंगु ॥ कहि कबीर तब निरमल अंग ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। आन = आण, परवाह। दूजी आन = जगत की अधीनता, लोक-लज्जा का ख्याल। महलि = महल में, प्रभु चरणों में। जान न लाभै = जाना नहीं मिलता, जुड़ नहीं सकता, पहुँच नहीं सकता। रमत = स्मरण कर-कर के। राम सिउ = परमात्मा से। रंगु = प्यार। कहि = कहे, कहता है। निरमल = पवित्र। अंग = शरीर, ज्ञानेंद्रियां आदि।8।
अर्थ: (पर) जब तक मनुष्य के मन में दुनियावी इज्जत आदि की वासना है, तब तक वह प्रभु के चरणों में नहीं जुड़ सकता।
कबीर कहता है: परमात्मा का स्मरण करते-करते परमात्मा के साथ प्यार हो जाता है और तब शरीर पवित्र हो जाता है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी चेती बाणी नामदेउ जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी चेती बाणी नामदेउ जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवा पाहन तारीअले ॥ राम कहत जन कस न तरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
देवा पाहन तारीअले ॥ राम कहत जन कस न तरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देवा = हे देव! हे प्रभु! पाहन = पत्थर, पाषाण। तारीअले = तारे गए, तार दिए, तैरा दिए।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इस शब्द में नामदेव जी ने उन उत्शाह भरी और प्रेम भरी साखियों का जिक्र करके मन को बंदगी की ओर उत्साहित किया है जो रामायण, महाभारत और पुराण आदि में आती हैं और जो आम लोगों में प्रचलित थीं। रामायण की ये कथा आम प्रसिद्ध है कि श्री राम जी ने लंका में पहुँचने के लिए समुंदर पर पुल बनाने के वास्ते पत्थरों पे ‘राम’ का नाम लिखवाया और पत्थर तैरने लगे।)
दर्पण-भाषार्थ
कस न = क्यूँ ना?।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (वह) पत्थर (भी समुंदर पर) तूने तैरा दिए (जिनपे तेरा ‘राम’ नाम लिखा गया था, भला) वह मनुष्य (संसार समुंदर से) क्यों नहीं तैरेंगे, जो तेरा नाम स्मरण करते हैं? रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारीले गनिका बिनु रूप कुबिजा बिआधि अजामलु तारीअले ॥ चरन बधिक जन तेऊ मुकति भए ॥ हउ बलि बलि जिन राम कहे ॥१॥
मूलम्
तारीले गनिका बिनु रूप कुबिजा बिआधि अजामलु तारीअले ॥ चरन बधिक जन तेऊ मुकति भए ॥ हउ बलि बलि जिन राम कहे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तारीले = तैरा दी। गनिका = वेश्वा (जिसे एक महापुरुष एक तोता दे गए और कह गए इसको राम नाम पढ़ाना)। बिनु रूप = रूप हीन। कुबिजा = कुब्जा, ये एक जवान लड़की कंस की दासी थी, पर थी कुब्बी। जब कृष्ण जी और बलराम मथुरा जा रहे थे, ये कुबिजा कंस के लिए सुगंधि का सामान ले के जाती इनको रास्ते पर मिली। कृष्ण जी के मांगने पर इसने कुछ इत्र आदि इनको दे भी दिया। इस पे कृष्ण जी ने प्रसन्न होकर इसका कुब दूर कर दिया, जिससे ये बड़ी सुंदर कुमारी दिखने लगी। बिआधी = रोग (ग्रस्त), विकारों में प्रवृक्त। बधिक = निशाना मारने वाला (शिकारी)। चरन बधिक = वह शिकारी (जिसने हिरन के भुलेखे में कृष्ण जी के) पैरों में निशाना मारा। बलि बलि = सदके।1।
अर्थ: हे प्रभु! तूने (बुरे कर्मों वाली) वेश्वा को (विकारों से) बचा लिया, तूने कुरूप कुबिजा का कुब्ब दूर कर दिया, तूने विकारों में गले हुए अजामल को तार दिया। (कृष्ण जी के) पैरों में निशाना मारने वाला शिकारी (और) ऐसे कई (विकारी) लोग (तेरी मेहर से) मुक्त हो गए। मैं सदके हूँ उनसे जिन्होंने प्रभु का नाम स्मरण किया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासी सुत जनु बिदरु सुदामा उग्रसैन कउ राज दीए ॥ जप हीन तप हीन कुल हीन क्रम हीन नामे के सुआमी तेऊ तरे ॥२॥१॥
मूलम्
दासी सुत जनु बिदरु सुदामा उग्रसैन कउ राज दीए ॥ जप हीन तप हीन कुल हीन क्रम हीन नामे के सुआमी तेऊ तरे ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासी सुत = दासी का पुत्र। जनु = (तेरा) भक्त। बिदरु = बिदुर, व्यास के आर्शीवाद से दासी के कोख से जन्मा पुत्र पाण्डवों का छोटा भाई, ये कृष्ण जी का भक्त था। सुदामा = (सुदामन्) एक बहुत ही गरीब ब्राहमण कृष्ण जी का हम जमाती और मित्र था। अपनी पत्नी की प्रेरणा पर एक मुठी चावल ले कर ये कृष्ण जी के पास द्वारका हाजिर हुआ और उन्होंने उसे मेहर की नजर से अथाह धन और शोभा बख्शी। उग्रसैन = कंस का पिता, कंस पिता को सिंहासन से उतार के खुद राज करने लगा था; कृष्ण जी ने कंस को मार के इसे पुनः राज बख्शा। क्रम हीन = कर्म हीन। तेऊ = वह सारे।2।
अर्थ: हे प्रभु! दासी का पुत्र बिदर तेरा भक्त (प्रसिद्ध हुआ), सुदामा (इसकी तूने दरिद्रता खत्म कर दी), उग्रसैन को तूने राज दिया। हे नामदेव के स्वामी! तेरी कृपा से वे सभी तैर गए जिन्होंने कोई जप नहीं किए, कोई तप नहीं साधे, जिनकी कोई ऊंची कुल नहीं थी, कोई अच्छे अमल नहीं थे।2।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में जिस साखियों की तरफ इशारा है वह श्री राम चंद्र और कृष्ण जी दोनों के साथ संबंध रखती हैं; इससे स्पष्ट होता है कि नामदेव जी इनमें से किसी खास एक के अवतार रूप में पुजारी नहीं थे। इनके द्वारा उद्धार हुए भगतों को परमात्मा की मेहर का पात्र समझते थे; तभी कहते हैं: ‘हउ बलि बलि जिन राम कहे’।
दर्पण-भाव
भाव: नाम जपने की महिमा- बड़े-बड़े कुकर्मी और नीच कुल लोग भी तैर जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी रविदास जी के पदे गउड़ी गुआरेरी ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी रविदास जी के पदे गउड़ी गुआरेरी ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी संगति पोच सोच दिनु राती ॥ मेरा करमु कुटिलता जनमु कुभांती ॥१॥
मूलम्
मेरी संगति पोच सोच दिनु राती ॥ मेरा करमु कुटिलता जनमु कुभांती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगति = उठना बैठना। पोच = नीच, बिचारा। सोच = चिन्ता, फिक्र। कुटि = टेढ़ी लकीर। कुटिल = टेढ़ी चालें चलने वाला, खोटा। कुटिलता = टेढ़ी चालें चलने वाला स्वभाव, खोट। कुभांती = (कु+भांति) बुरी भांति का, नीच किस्म का, नीच जाति का।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) दिन रात मुझे ये सोच रहती है (मेरा क्या बनेगा?) बुरे लोगों के साथ मेरा उठना-बैठना है, खोट मेरा (नित्य कर्म) है; मेरा जनम (भी) नीच जाति में से है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम गुसईआ जीअ के जीवना ॥ मोहि न बिसारहु मै जनु तेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम गुसईआ जीअ के जीवना ॥ मोहि न बिसारहु मै जनु तेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुसईआ = हे गुसाई! हे धरती के साई! जीअ के = जिंद के। मोहि = मुझे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे राम! हे धरती के साई! हे मेरी जिंद के आसरे! मुझे ना बिसारना, मैं तेरा दास हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी हरहु बिपति जन करहु सुभाई ॥ चरण न छाडउ सरीर कल जाई ॥२॥
मूलम्
मेरी हरहु बिपति जन करहु सुभाई ॥ चरण न छाडउ सरीर कल जाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरहु = दूर करो। बिपति = मुसीबत, बुरी संगति-रूपी बिपता। जन = मुझ दास को। करहु = बना लो। सुभाई = (सु+भाई) अच्छे भाव वाला, अच्छी भावना वाला। न छाडउ = मैं नहीं छोड़ूंगा। कल = क्षमता। जाई = चली जाए, नाश हो जाए।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) मेरी ये बिपता काट; मुझ सेवक को अच्छी भावना वाला बना ले; चाहे मेरे शरीर की क्षमता भी चली जाए, (हे राम!) मैं तेरे चरण नहीं छोड़ूँगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु रविदास परउ तेरी साभा ॥ बेगि मिलहु जन करि न बिलांबा ॥३॥१॥
मूलम्
कहु रविदास परउ तेरी साभा ॥ बेगि मिलहु जन करि न बिलांबा ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = कह। रविदास = हे रविदास! परउ = मैं पड़ता हूँ, मैं पड़ा हूँ। साभा = संभाल, शरण। बेगि = जल्दी। बिलांबा = विलंब, देरी, ढील।3।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: रविदास जी के पदे; रविदास जी के पाँच शब्द हैं; तीन शब्द ऐसे हैं जिनके तीन-तीन पद (बंद = stanzas) हैं; 1 शब्द चार बंदों वाला है और एक शब्द 8 बंदों वाला है। सो, सबके लिए सांझा शब्द ‘पदे’ इस्तेमाल किया गया है; तिपदे, चउपदा, अष्टपदी लिखने की जगह।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे रविदास! (प्रभु दर पर) कह: (हे प्रभु!) मैं तेरी शरण पड़ा हूँ, मुझ सेवक को जल्दी मिलो, ढील ना कर।3।1।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु दर पर अरदास- हे प्रभु! मैं बुरे कर्मों वाला हूँ, पर तेरी शरण आया हूँ। बुरी संगति से बचाए रख।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेगम पुरा सहर को नाउ ॥ दूखु अंदोहु नही तिहि ठाउ ॥ नां तसवीस खिराजु न मालु ॥ खउफु न खता न तरसु जवालु ॥१॥
मूलम्
बेगम पुरा सहर को नाउ ॥ दूखु अंदोहु नही तिहि ठाउ ॥ नां तसवीस खिराजु न मालु ॥ खउफु न खता न तरसु जवालु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेगम = (बे+गम) जहां कोई ग़म नहीं। को = का। अंदोह = चिन्ता। तिहि ठाउ = उस जगह पे, उस आत्मिक ठिकाने पे, उस अवस्था में। तसवीस = तशवश, सोच, घबराहट। खिराज = कर, मसूल, टैक्स। खता = दोष, पाप। तरसु = डर। जवाल = घाटा।1।
अर्थ: (जिस आत्मिक-अवस्था रूपी शहर में मैं बसता हूँ) उस शहर का नाम है बे-ग़मपुरा (भाव, उस अवस्था में कोई ग़म नहीं छू सकता); उस जगह पर ना कोई दुख है, ना चिन्ता और ना कोई घबराहट, वहां दुनिया वाली घबराहट नहीं और ना ही उस जायदाद को मसुल है; उस अवस्था में किसी पाप कर्म करने का खतरा नहीं; कोई डर नहीं; कोई गिरावट नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मोहि खूब वतन गह पाई ॥ ऊहां खैरि सदा मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अब मोहि खूब वतन गह पाई ॥ ऊहां खैरि सदा मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। वतन गह = वतन की जगह, रहने की जगह। खैरि = ख़ौरियत, सुख।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे वीर! अब मैंने बसने के लिए सुंदर जगह ढूँढ ली है, वहां सदा सुख ही सुख है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइमु दाइमु सदा पातिसाही ॥ दोम न सेम एक सो आही ॥ आबादानु सदा मसहूर ॥ ऊहां गनी बसहि मामूर ॥२॥
मूलम्
काइमु दाइमु सदा पातिसाही ॥ दोम न सेम एक सो आही ॥ आबादानु सदा मसहूर ॥ ऊहां गनी बसहि मामूर ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइमु = स्थिर रहने वाली। दाइमु = सदा। दोम सेम = दूसरा तीसरा (दर्जा)। एक सो = एक जैसे। आही = है। आबादानु = आबाद, बसता। गनी = धनी, धनाढ। मामूर = तृप्त।2।
अर्थ: वह (आत्मिक अवस्था एक ऐसी) बादशाहत (है जो) सदा ही टिकी रहने वाली है, वहाँ किसी का दूसरा-तीसरा दर्जा नहीं, सब एक जैसे ही हैं। वह शहर सदा सघन है और आबाद है, वहाँ धनी और तृप्त लोग ही बसते हैं (भाव, उस आत्मिक दर्जे पे जो जो पहुँचते हैं उनके अंदर कोई भेदभाव नहीं रहता ओर उन्हें दुनिया की भूख नहीं रहती)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै ॥ महरम महल न को अटकावै ॥ कहि रविदास खलास चमारा ॥ जो हम सहरी सु मीतु हमारा ॥३॥२॥
मूलम्
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै ॥ महरम महल न को अटकावै ॥ कहि रविदास खलास चमारा ॥ जो हम सहरी सु मीतु हमारा ॥३॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सैल करहि = मन मरजी से चलते फिरते हैं। महरम = वाकिफ। महरम महल = महल के वाकिफ। को = कोई। न अटकावै = रोकता नहीं। कहि = कहै, कहता है। खालस = जिसने दुख अंदोह तशवीश आदि मुक्ति पा ली है। हम सहरी = एक ही शहर का बसने वाला, हम वतन, सत्संगी।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में दुनिया के लोगों के कल्पित स्वर्ग-भिष्त के मुकाबले पर सचमुच की आत्मिक अवस्था का वर्णन है। स्वर्ग-भिष्त के तो सिर्फ एकरार ही हैं, मनुष्य सिर्फ आशाएं ही कर सकता हैकि मरने के बाद मिलेगा; पर जिस आत्मिक अवस्था का यहां जिक्र है, उसे मनुष्य यहाँ इस जिंदगी में ही अनुभव कर सकता है, अगर वह जीवन के सही रास्ते पर चलता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (उस आत्मिक शहर में पहुँचे हुए बंदे उस अवस्था में) आनंद से विचरते हैं; वह उस (ईश्वरीय) महल का भेद जानने वाले होते हैं; (इस वास्ते) कोई (उनके राह में) रोक नहीं डाल सकता। चमार रविदास जिसने (दुख-अंदोह-तशवीश आदि से) छुटकारा पा लिया है कहता है: हमारा मित्र वह है जो हमारा सत्संगी है।3।2।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु से मिलाप वाली आत्मि्क अवस्था में सदा आनंद ही आनंद बना रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गउड़ी बैरागणि रविदास जीउ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गउड़ी बैरागणि रविदास जीउ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घट अवघट डूगर घणा इकु निरगुणु बैलु हमार ॥ रमईए सिउ इक बेनती मेरी पूंजी राखु मुरारि ॥१॥
मूलम्
घट अवघट डूगर घणा इकु निरगुणु बैलु हमार ॥ रमईए सिउ इक बेनती मेरी पूंजी राखु मुरारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घट = रास्ते। अवघट = मुश्किल। डूगर = पहाड़ी, पहाड़ का। घणा = बहुत। निरगुन = गुण हीन। हमार = हमारा, मेरा। रमईआ = सुंदर राम। मुरारी = हे मुरारी! हे प्रभु!।1।
अर्थ: (जिस राहों से प्रभु के नाम का सौदा लाद के ले जाने वाला मेरा टांडा गुजरना है, वे) रास्ते बहुत मुश्किल पहाड़ी रास्ते हैं, और मेरा (मन-) बैल कमजोर सा है; प्यारे प्रभु के आगे ही मेरी आरजू है: हे प्रभु! मेरी राशि पूंजी की तूने स्वयं रक्षा करनीं1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: आँख, कान, नाक, जीभ आदि ज्ञानेंद्रियों का समूह मनुष्य-बन्जारे का टांडा है, इन्होंने नाम-व्यापार लादना है, पर इनके राह में रूप रस आदि अनेक मुश्किल घाटियां हैं।)
विश्वास-प्रस्तुतिः
को बनजारो राम को मेरा टांडा लादिआ जाइ रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
को बनजारो राम को मेरा टांडा लादिआ जाइ रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई। बनजारो = व्यापारी, बणज करने वाला। टांडा = बैलों व बैलगाड़ियों, रेड़ों का कारवाँ समूह जिनपे व्यापार-सौदागरी का माल लादा हुआ हो, काफ़ला। रे = हे भाई! लादिआ जाइ = लादा जा सके।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (अगर सोहाने प्रभु की कृपा से) प्रभु के नाम का वणज करने वाला कोई बंदा मुझे मिल जाए तो मेरा माल भी लादा जा सके (भाव, तो उस गुरमुखि की सहायता से मैं भी हरि-नाम रूपी वणज कर सकूँ)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ बनजारो राम को सहज करउ ब्यापारु ॥ मै राम नाम धनु लादिआ बिखु लादी संसारि ॥२॥
मूलम्
हउ बनजारो राम को सहज करउ ब्यापारु ॥ मै राम नाम धनु लादिआ बिखु लादी संसारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज बापारु = सहज का व्यापार, अडोलता का वणज, वह वणज जिसमें से शांति रूपी कमाई हासिल हो। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। हउ = मैं। बिखु = जहर, आत्मिक जीवन को मार देने वाली वस्तु। संसारि = संसार ने, दुनिया दारों ने।2।
अर्थ: मैं प्रभु के नाम का व्यापारी हूँ; मैं ये ऐसा व्यापार कर रहा हूँ जिसमें से मुझे सहज अवस्था की कमाई मिले। (प्रभु की मेहर से) मैंने प्रभु के नाम का सौदा लादा है, पर संसार ने (आत्मिक मौत लाने वाली माया रूप) जहर का व्यापार किया है।2।
[[0346]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
उरवार पार के दानीआ लिखि लेहु आल पतालु ॥ मोहि जम डंडु न लागई तजीले सरब जंजाल ॥३॥
मूलम्
उरवार पार के दानीआ लिखि लेहु आल पतालु ॥ मोहि जम डंडु न लागई तजीले सरब जंजाल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानीआ = जानने वालो! उरवार पार के दानिया = उस पार और उस पार के जानने वाले! जीवों के लोक = परलोक में किए कामों को जानने वाला! आल पतालु = ऊल जलूल, मन मर्जी की बातें। मोहि = मुझे। डंडु = दण्ड। तजीले = छोड़ दिए हैं।3।
अर्थ: जीवों के लोक-परलोक की सब करतूतें जानने वाले हे चित्रगुप्तो! (मेरे बारे) जो तुम्हारा जीअ करे लिख लेना (भाव, यमराज के पास पेश करने के लिए मेरे कामों में कोई बात तुम्हें मिलनी ही नहीं, क्योंकि प्रभु की कृपा से) मैंने सारे जंजाल छोड़ दिए हैं, तभी तो मुझे जम का दण्ड लगना ही नहीं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसा रंगु कसु्मभ का तैसा इहु संसारु ॥ मेरे रमईए रंगु मजीठ का कहु रविदास चमार ॥४॥१॥
मूलम्
जैसा रंगु कसु्मभ का तैसा इहु संसारु ॥ मेरे रमईए रंगु मजीठ का कहु रविदास चमार ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमईए रंगु = सोहाने राम (के नाम) का रंग। मजीठ रंगु = मजीठ का रंग, पक्का रंग जैसे मजीठ का रंग होता है, कभी ना उतरने वाला रंग।4।
अर्थ: हे चमार रविदास! कह: (ज्यों ज्यों मैं राम-नाम का वणज कर रहा हूं, मुझे यकीन आ रहा है कि) ये जगत ऐसे है जैसे कुसंभे का (कच्चा) रंग। और मेरे प्यारे राम के नाम का रंग ऐसा है जैसे मजीठ का (पक्का) रंग।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के पहले बंद में भक्त रविदास जी ‘रमईऐ’ के आगे विनती करते वक्त उसे ‘मुरारि’ शब्द से संबोधित करते हैं। अगर आप किसी खास एक अवतार के पुजारी होते तो श्री रामचंद्र के वास्ते ‘मुरारि’ शब्द का इस्तेमाल ना करते, क्योंकि ‘मुरारि’ तो कृष्ण जी का नाम है।
दर्पण-भाव
भाव: सत्संगियों में मिल के नाम-धन कमाने से विकारों का भार उतर जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी रविदास जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी रविदास जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूपु भरिओ जैसे दादिरा कछु देसु बिदेसु न बूझ ॥ ऐसे मेरा मनु बिखिआ बिमोहिआ कछु आरा पारु न सूझ ॥१॥
मूलम्
कूपु भरिओ जैसे दादिरा कछु देसु बिदेसु न बूझ ॥ ऐसे मेरा मनु बिखिआ बिमोहिआ कछु आरा पारु न सूझ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूप = कूआँ। दादिरा = मेंढक। बिदेसु = परदेस। बूझ = समझ, वाकफियत। ऐसे = इस तरह। बिखिआ = माया। बिमोहिआ = अच्छी तरह मोहा हुआ। आरा पारु = इस पार उस पार। न सूझ = नहीं सूझता।1।
अर्थ: जैसे (कोई) कूँआ मेंढकों से भरा हो, (उन मेंढकों को) कोई इलम नहीं होता (कि इस कूँएं से बाहर भी कोई और) देस परदेस भी है; वैसे ही मेरा मन माया (के कूँएं) में इतनी गहरी तरह फसा हुआ है कि इसे (माया के कूएं में से निकलने के लिए) कोई इस पार का उस पार का छोर नहीं सूझता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल भवन के नाइका इकु छिनु दरसु दिखाइ जी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सगल भवन के नाइका इकु छिनु दरसु दिखाइ जी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइका = हे मालिक! दरसु = दीदार।1। रहाउ।
अर्थ: हे सारे भवनों के सरदार! मुझे एक पल भर के लिए (ही) दीदार दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलिन भई मति माधवा तेरी गति लखी न जाइ ॥ करहु क्रिपा भ्रमु चूकई मै सुमति देहु समझाइ ॥२॥
मूलम्
मलिन भई मति माधवा तेरी गति लखी न जाइ ॥ करहु क्रिपा भ्रमु चूकई मै सुमति देहु समझाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मलिन = मलीन, मैली। मति = अक्ल। माधवा = हे प्रभु! गति = हालत। लखी न जाइ = पहचानी नहीं जा सकती। भ्रमु = भटकना। चूकई = खत्म हो जाए। मै = मुझे।2।
अर्थ: हे प्रभु! मेरी मति (विकारों से) मैली हुई पड़ी है, (इस वास्ते) मुझे तेरी गती की पहचान नहीं आती (अर्थात, मुझे समझ नहीं आती कि तू कैसा है)। हे प्रभु! मेहर कर, मुझे चतुर मति समझा, (ताकि) मेरा भटकना समाप्त हो जाए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगीसर पावहि नही तुअ गुण कथनु अपार ॥ प्रेम भगति कै कारणै कहु रविदास चमार ॥३॥१॥
मूलम्
जोगीसर पावहि नही तुअ गुण कथनु अपार ॥ प्रेम भगति कै कारणै कहु रविदास चमार ॥३॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगीसर = जोगी+ईसर, बड़े बड़े जोगी। कथनु नही पावहि = अंत नहीं पा सकते। कै कारणै = की खातिर। प्रेम कै कारणै = प्रेम (की दाति) हासिल करने के लिए। कहु = कह। गुण कहु = गुण बयान कर, महिमा कर। तुअ = तेरे।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) बड़े-बड़े जोगी (भी) तेरे बेअंत गुणों का अंत नहीं पा सकते, (पर) हे रविदास चमार! तू प्रभु की महिमा कर, ताकि तुझे प्रेम और भक्ति की दाति मिल सके।3।1।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु दर पर अरदास- हे प्रभु! मेरे माया-मोहे-मन को अपना दीदार बख्श के अच्छी तरह सुकर्म में लगाओ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतजुगि सतु तेता जगी दुआपरि पूजाचार ॥ तीनौ जुग तीनौ दिड़े कलि केवल नाम अधार ॥१॥
मूलम्
सतजुगि सतु तेता जगी दुआपरि पूजाचार ॥ तीनौ जुग तीनौ दिड़े कलि केवल नाम अधार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतजुगि = सतयुग में। सतु = दान, शास्त्रों की विधि के अनुसार किए हुए दान आदि कर्म। तेता जगी = त्रेता युग यज्ञों में (प्रवृत्त है)। दुआपरि = द्वापर में। पूजाचार = पूजा आचार, देवताओं की पूजा आदि कर्म। द्रिढ़ै = दृढ़ कर रहे हैं, जोर दे रहे हैं। नाम अधार = (श्री राम व श्री कृष्ण अवतार के) नाम का आसरा, श्री राम चंद्र और कृष्ण जी की मूर्ति में तवज्जो/ध्यान जोड़ के उनके नाम का जाप।1।
अर्थ: (हे पंडित जी! तुम कहते हो कि हरेक युग में अपना-अपना कर्म ही प्रधान है, इस अनुसार) सतिजुग में दान आदि प्रधान था, त्रेता युग यज्ञों में प्रवृत्त रहा, द्वापर में देवताओं की पूजा प्रधान कर्म था; (इसी तरह तुम कहते हो कि) तीनों युग इन तीनों कर्मों धर्मों पर जोर देते हैं; और अब कलियुग में सिर्फ (राम) नाम का आसरा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारु कैसे पाइबो रे ॥ मो सउ कोऊ न कहै समझाइ ॥ जा ते आवा गवनु बिलाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पारु कैसे पाइबो रे ॥ मो सउ कोऊ न कहै समझाइ ॥ जा ते आवा गवनु बिलाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारु = संसार समुंदर का परला छोर। पाइबो = पाओगे। रे = हे भाई! हे पंडित! मो कउ = मुझे। कोऊ = इन कर्म काण्डी पंडितों में से कोई भी। आवागवनु = पैदा होना मरना, जनम मरन का चक्कर। बिलाइ = दूर हो जाए।1। रहाउ।
अर्थ: पर हे पण्डित! (इन युगों के बँटे हुए कर्मों धर्मों से, संसार समुंदर का) परला छोर कैसे ढूँढोगे? (तुममें से) कोई भी मुझे ऐसा काम समझा के नहीं बता सका, जिसकी सहायता से (मनुष्य के) जन्म-मरण का चक्कर खत्म हो सकें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु बिधि धरम निरूपीऐ करता दीसै सभ लोइ ॥ कवन करम ते छूटीऐ जिह साधे सभ सिधि होइ ॥२॥
मूलम्
बहु बिधि धरम निरूपीऐ करता दीसै सभ लोइ ॥ कवन करम ते छूटीऐ जिह साधे सभ सिधि होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरीकों से। बिधि = विधि, तरीका। धरम = शास्त्रों के अनुसार बताए गए हरेक वर्ण-आश्रम के अलग-अलग कर्तव्य। निरूपीऐ = निरूपित, निर्धारित किए गए हैं, हद बंदी की गई है। सभ लोइ = सारा जगत। करता दीसै = उन धार्मिक रस्मों को करता दिखाई दे रहा है। जिह साधे = जिसके साधन से, जिस धार्मिक कर्म के करने से। सिधि = कामयाबी, मानव जनम के उद्देश्य की सफलता।2।
अर्थ: (शास्त्रों अनुसार) कई तरीकों से वर्ण आश्रमों के कर्तव्यों की हद-बंदी की गई है; (इन शास्त्रों को मानने वाला) सारा जगत यही निर्धारित कर्म-धर्म कर रहा है। पर किस कर्म-धर्म के करने से (आवागमन से) निजात मिल सकती है? वह कौन सा कर्म है जिसके साधने से जनम-उद्देश्य सफल होता है? - (ये बात तुम नहीं बता सके)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम अकरम बीचारीऐ संका सुनि बेद पुरान ॥ संसा सद हिरदै बसै कउनु हिरै अभिमानु ॥३॥
मूलम्
करम अकरम बीचारीऐ संका सुनि बेद पुरान ॥ संसा सद हिरदै बसै कउनु हिरै अभिमानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = वह धार्मिक रस्में जो शास्त्रों ने निर्धारित किए हैं। अकरम = अ+कर्म, वह काम जो शास्त्रों ने मना किए हैं। सुनि = सुन के। संसा = सहसा, सहम, फिक्र। हिरै = दूर करे।3।
अर्थ: वेदों और पुराणों को सुन के (बल्कि और ही) शंका बढ़ती है। यही विचार करते रह जाते हैं कि भला कौन सा कर्म शास्त्रोंके अनुसार है, और कौन सा कर्म शास्त्रों में वर्जित किया है। (वर्ण-आश्रमों के कर्म-धर्म करते हुए ही, मनुष्य के) दिल में सहम तो टिका रहता है, (फिर) वह कौन सा कर्म-धर्म (तुम बताते हो) जो मन का अहंकार दूर करे?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहरु उदकि पखारीऐ घट भीतरि बिबिधि बिकार ॥ सुध कवन पर होइबो सुच कुंचर बिधि बिउहार ॥४॥
मूलम्
बाहरु उदकि पखारीऐ घट भीतरि बिबिधि बिकार ॥ सुध कवन पर होइबो सुच कुंचर बिधि बिउहार ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरु = (शरीर का) बाहरी क्षेत्र।उदकि = उदक के साथ, पानी के साथ। पखारीऐ = धो दें। घट = हृदय। बिबिधि = वि+विधि, कई विधियों से, कई किस्म के। होइबो = होवोगे। कुंचर = हाथी। बिउहार = व्यवहार, काम।4।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘बाहरु’ और ‘बाहरि’ में फर्क है। ‘बाहरु’ है संज्ञा और ‘बाहरि’ क्रिया विशेषण)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे पण्डित! तूम तीर्थ-सनान पर जोर देते हो, पर तीर्थों पर जा के शरीर का) बाहरी क्षेत्र ही पानी में धोते हैं, दिल में कई किस्म के विकार टिके ही रहते हैं, (इस तीर्थ-स्नान से) कौन पवित्र हो सकता है? ये सुच तो ऐसी ही होती है जैसे हाथी का स्नान-कर्म है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रवि प्रगास रजनी जथा गति जानत सभ संसार ॥ पारस मानो ताबो छुए कनक होत नही बार ॥५॥
मूलम्
रवि प्रगास रजनी जथा गति जानत सभ संसार ॥ पारस मानो ताबो छुए कनक होत नही बार ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवि = सूरज। रजनी = रैन, रात। जथा गति = जैसे दूर हो जाती है। मानो = जानो। कनक = सोना। होत नही बार = चिन्ता नहीं लगती।5।
अर्थ: (पर, हे पण्डित!) सारा संसार ये बात जानता है कि सूरज के चढ़ने से कैसे रात (का अंधेरा) दूर हो जाता है। ये बात भी याद रखने वाली है कि तांबे के पारस के साथ छूने से उसके सोना बनने में देर नहीं लगती।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परम परस गुरु भेटीऐ पूरब लिखत लिलाट ॥ उनमन मन मन ही मिले छुटकत बजर कपाट ॥६॥
मूलम्
परम परस गुरु भेटीऐ पूरब लिखत लिलाट ॥ उनमन मन मन ही मिले छुटकत बजर कपाट ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परम परस = सब पारसों में बढ़िया पारस। भेटीऐ = मिल जाए। लिलाट = माथे पर। उनमन = (संस्कृत: उन्मनस् = Adj.- anxious, eager, impatient) तमन्ना भरा। उनमन मन = वह हृदय जिसमें प्रभु प्रीतम को मिलने की चाहत पैदा हो गई है। मन ही = मनि ही, मन में ही, अंदर ही, अंतरात्मे ही। बजर = वज्र, करड़े, सख्त, पक्के। कपाट = किवाड़, दरवाजे की भित्त।6।
अर्थ: (इसी तरह) यदि पूर्बले भाग्य जागें तो सतिगुरु मिल जाता है जो सब पारसों से बढ़िया पारस है। (गुरु की कृपा से) मन में परमात्मा के मिलने की चाहत पैदा हो जाती है, वह अंतरात्मे ही प्रभु से मिल लेता है, मन के कठोर किवाड़ खुल जाते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति जुगति मति सति करी भ्रम बंधन काटि बिकार ॥ सोई बसि रसि मन मिले गुन निरगुन एक बिचार ॥७॥
मूलम्
भगति जुगति मति सति करी भ्रम बंधन काटि बिकार ॥ सोई बसि रसि मन मिले गुन निरगुन एक बिचार ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगति = तरीका साधन। भगति जुगति = बंदगी-रूप साधन (प्रयोग करके)। मति = बुद्धि। सति करी = पक्की कर ली, दृढ़ कर ली, माया में डोलने से रोक ली। काटि = काट के। सोई = वही मनुष्य। बसि = बस के, टिक के, प्रभु की याद में टिक के। रसि = आनंद से। मन मिले = मन ही मिले, अंतरात्मे ही प्रभु को मिल जाते हैं। निरगुन = माया के तीनों गुणों से रहित प्रभु। गुन बिचार = गुणों की विचार, गुणों की याद।7।
अर्थ: जिस मनुष्य ने प्रभु की भक्ति में जुड़ के (इस भक्ति की इनायत से) भटकनों, विकारों और माया के बंधनों को काट के अपनी बुद्धि को माया में डोलने से रोक लिया है, वही मनुष्य (प्रभु की याद में) टिक के आनंद से (प्रभु को) अंतर-आत्मा में ही मिल लेता है, और उस एक परमात्मा के गुणों की याद में जुड़ा रहता है, जो माया के तीन गुणों से परे है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जतन निग्रह कीए टारी न टरै भ्रम फास ॥ प्रेम भगति नही ऊपजै ता ते रविदास उदास ॥८॥१॥
मूलम्
अनिक जतन निग्रह कीए टारी न टरै भ्रम फास ॥ प्रेम भगति नही ऊपजै ता ते रविदास उदास ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निग्रह = रोकना, मन को रोकना, मन को विकारों की ओर से रोकना। टारी न टरै = टाले नहीं टलती। भ्रम फास = भ्रम की फाही। प्रेम भगति = प्रेमा भक्ति, प्यार भरी याद, प्रभु की प्यार भरी याद। उदास = इन प्रयत्नों से निराश, इन कर्मों धर्मों से उपराम।8।
अर्थ: (प्रभु की याद के बिना) मन को विकारों से रोकने के अगर अन्य अनेक प्रयत्न भी किए जाएं, (तो भी विकारों में) भटकनों की फाँसी टाले नहीं टलती। (कर्मकांड के) इन यत्नों से प्रभु की प्यार भरी याद (दिल में) पैदा नहीं हो सकती। इसलिए मैं रविदास इन कर्मों-धर्मों से निराश हूँ।8।1।
दर्पण-भाव
शब्द का भाव: ये बात गलत है कि दिल में परमात्मा की प्रेमा-भक्ति पैदा करने के लिए हरेक युग में मनुष्य के वास्ते अलग-अलग कर्म-धर्म प्रधान रहे हैं। कोई दान, यज्ञ, देव पूजा, अवतार भक्ति, तीर्थ स्नान मनुष्य को माया की फाही से नहीं बचा सकता, और, ना ही प्रभु के चरणों में जोड़ सकता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गुरबाणी का यही आशय है कि चाहे कोई मिथा हुआ सतियुग है, चाहे त्रेता या द्वापर, और चाहे कलियुग है; दुनिया के विकारों से बच के जीवन का सही रास्ता तलाशने के लिए परमात्मा की भक्ति ही एक मात्र कठिन प्रयत्न है।
(इस शब्द का अर्थ 2 और 3 जून 1957 को लिखा गया)
नोट: ‘रहाउ’ की तुकों में रविदास जी कहते हैं कि कोई मनुष्य मुझे ये बात नहीं समझाता कि जनम-मरण का चक्कर कैसे खत्म होगा, और जगत के संसों में से कैसे खलासी होगी।
जब हम शब्द के बाकी बंद पढ़ते हैं, तो इनमें भक्त जी कहते हैं कि (पंडित) लोग कई तरह के कर्मकांड की आज्ञा कर रहे हें। पर रविदास जी के ख्याल अनुसार ये सारे कर्म-धर्म विकारो-संसों से पार नहीं लंघा सकते। बंद नंबर 4 तक आप यही बात कहते जा रहे हैं। बंद नं: 5 से भक्त जी ने अपना ज्ञान देना आरम्भ किया कि गुरु पारस को मिल के विकारों में मैला हुआ मन सोना बन जाता है। अखिरी बंद में फिर कहते हैं कि कर्मकांड आदि के और सारे यत्न व्यर्थ हैं, इनसे प्रभु की प्रेमा-भक्ति पैदा नहीं होती, इस वास्ते मैं ये कर्मकांड नहीं करता।
शब्द के बंदों की इस तरतीब से बात साफ दिखाई दे रही है कि पहले बंद में भी रविदास जी पंडित लोगों का ही ज्ञान बयान कर रहे हैं, उनके अपने ज्ञान का इसमें कोई वर्णन नहीं है। हिन्दुओं की पुरानी धर्म-पुस्तकें ही जुगों का बटवारा करती आई हैं, और, हरेक युग का अलग-अलग धर्म बताते आए हैं। मिसाल के तौर पर, पुस्तक ‘महाभारत’ में युगों के बटवारे के बारे में यूँ जिकर आता है:
द्वापरे मन्त्रशक्तिस्तु, ज्ञानशक्ति: कृते युगे॥
त्रैतायां युद्धशक्तिस्तु, संघशक्ति: कलौयुगै॥
पर, रविदास जी हिन्दू-शास्त्रों के किसी किस्म के युगों के बँटवारे की बात से सहमत नहीं हैं। अगर थोड़ा विचार के भी देखें तो ये कैसे हो सकता है कि कभी तो घोड़े आदि मार के यज्ञ करना जीवन का सही रास्ता हो, कभी तीर्थों का स्नान मानव जनम का मनोरथ हो, कभी देवताओं की पूजा कभी अवतारों की पूजा इन्सानी फर्ज हों। कुदरति के नियम सदा अटल हैं, जब से सृष्टि बनी है, और जब तक बनी रहेगी, इन नियमों कोई फर्क नहीं पड़ना। जगत के वही पाँच तत्व अब हैं जो सृष्टि के आरम्भ में थे। मनुष्य खुद भटकनों-भुलेखों में पड़ कर भले ही कई कुरीतियां पकड़ ले, पर परमात्मा और उसके पैदा हुए जीवों का परस्पर संबंध सदा एकसमान चला आ रहा है।
इस शब्द में जो खास ध्यान देने योग्य बात है वह ये है कि पहले बंद में रविदास जी हिन्दू-शास्त्रों का ही पक्ष बता रहे हैं, उनकी अपनी सम्मति इसके साथ नहीं है। इसमें कोई शक् नहीं कि इस बंद के आखिर में आधी तुक इस तरह है, ‘कलि केवल नाम अधार’। ऊपरी नजर से हम इस भुलेखे में पड़ जाते हैं कि ये भक्त जी का अपन सिद्धांत है, पर ये बात नहीं। रविदास जी इसकी बाबत भी यही कहते हैं कि;
“प्रेम भगति नही ऊपजे, ता ते रविदास उदास।”
आसा की वार की पउड़ी नंबर 6 के साथ पहला श्लोक भी इसी किस्म का है। इस श्लोक में गुरु नानक देव जी मुसलमान, हिन्दू, जोगी, दानी और विकारी; इनका जीवन-कर्तव्यबता के आखिर में और अपना ख्याल यूँ बताते हैं कि:
नानक भगता भुख सालाहणु, सचु नाम आधारु॥ सदा अनंदि रहहि दिनु राती, गुणवंतिआ पा छारु॥१॥६॥
पर टीकाकार सज्जन इस शलोक की पहली दो तुकों के अर्थ करने में गलती करते आ रहे हैं, ये तुके हैं;
“मुसलमाना सिफ़ति–सरीअति, पढ़ि पढ़ि करहि बीचारु॥ बंदे से जि पवहि विचि बंदी, वेखण कउ दीदारु”॥
यहां आम तौर पे लोग दूसरी तुक में दिए गए विचार को गुरु नानक देव जी का अपना सिद्धांत समझते हैं, पर ख्याल बिल्कुल ही ग़लत है; यहां मुसलमानी शरह का ही वर्णन है (पढ़ो मेरी ‘आसा दी वार सटीक’)।
इसी तरह रविदास जी “कलि केवल नाम अधार” में अपना ज्ञान नहीं बता रहे, वे तो ये बात कह के आगे साथ ये भी कहते हैं कि;
“पारु कैसे पाइबो रे॥ मो कउ कोऊ न कहै समझाइ॥ जा ते आवागवनु बिलाइ”॥१॥ रहाउ॥
तो फिर, जिस लोगों ने युगों का बटवारा करके ‘कलि केवल नाम अधार” कहा, उन्होंने यहाँ नाम को क्या समझा था, और रविदास जी क्यूँ इसका विरोध करते हैं?
इस प्रश्न का सही उत्तर ढूँढने के लिए भैरव राम में कबीर जी के एक शब्द से सहायता मिलती है। शब्द नंबर: 11 में कबीर जी मुल्ला, काजी, सुल्तान, जोगी और हिन्दू का वर्णन करते हुए आखिरी बंद में लिखते हैं;
“जोगी गोरखु गोरखु करै॥ हिंदू राम नाम उचरै॥ मुसलमान का एकु खुदाइ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ”॥४॥३॥११॥
यहां कबीर जी जोगी, हिंदू और मुसलमान के बनाए हुए ईष्ट-परमात्मा को नकारते हैं, और अपने स्वामी के बारे में कहते हैं कि वह ‘रहिआ समाइ’। ‘रहाउ’ में भी अपने ‘स्वामी’ के प्रथाए लिखते हैं;
“है हजूरि कति दूरि बतावहु॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु”॥
(नोट: इस शब्द के मरम को विस्तार से समझने के लिए भैरव राग में इस शब्द के साथ मेरा लिखा नोट पढ़ें)।
कबीर जी हिन्दू के जिस “राम नाम” को नकार रहे हैं, उसी “नाम आधार” की बाबत रविदास जी कहते हैं कि “पारु कैसे पाइबो रे”।
सो, ये ‘राम नाम’ कौन सा है? ये है “अवतारी राम का नाम”, ये है अवतार-भक्ति। शास्त्रों के बटवारे के अनुसार; दान आदि सतियुग का धर्म, देवताओं की पूजा द्वापर का धर्म और अवतार-भक्ति (मूर्ति पूजा) कलियुग का धर्म है। पर, रविदास जी लिखते हैं इन चारों ही धर्मों को कमाने से;
“प्रेम भगति नही ऊपजै, ता ते रविदास उदास॥ ”