१९ कबीर

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गउड़ी भगतां की बाणी ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥ गउड़ी गुआरेरी स्री कबीर जीउ के चउपदे १४ ॥

मूलम्

रागु गउड़ी भगतां की बाणी ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥ गउड़ी गुआरेरी स्री कबीर जीउ के चउपदे १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मोहि जलत राम जलु पाइआ ॥ राम उदकि तनु जलत बुझाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब मोहि जलत राम जलु पाइआ ॥ राम उदकि तनु जलत बुझाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मैं। जलत = जलते हुए, तपते हुए। राम जलु = प्रभु के नाम का पानी। राम उदकि = प्रभु (के नाम) के पानी ने। तनु = शरीर। बुझाइआ = बुझा दिया है, ठंडा कर दिया है।1। रहाउ।
अर्थ: (ढूँढते-ढूँढते) अब मैंने प्रभु के नाम का अमृत ढूँढ लिया है, उस नाम-अमृत ने मेरे तपते शरीर को ठंडा कर दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु मारण कारणि बन जाईऐ ॥ सो जलु बिनु भगवंत न पाईऐ ॥१॥

मूलम्

मनु मारण कारणि बन जाईऐ ॥ सो जलु बिनु भगवंत न पाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारण कारणि = मारने के वास्ते, काबू करने के लिए। बन = जंगलों की ओर। जाईऐ = जाते हैं। सो जलु = वह (नाम रूप) पानी (जो मन को मार सके)। भगवंत = परमात्मा।1।
अर्थ: जंगलों की ओर (तीर्थों आदि पर) मन को मारने के लिए (शांत करने के लिए) जाते हैं, पर वह (नाम-रूपी) अमृत (जो मन को शांत कर सके) प्रभु के बिना (प्रभु के स्मरण के बिना) नहीं मिल सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह पावक सुरि नर है जारे ॥ राम उदकि जन जलत उबारे ॥२॥

मूलम्

जिह पावक सुरि नर है जारे ॥ राम उदकि जन जलत उबारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह पावक = (विषियों की) जिस आग ने। पावक = आग। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। है जारे = जला दिए हैं। राम उदकि = प्रभु (के नाम) के नाम के पानी ने। जन = सेवक। उबारे = बचा लिए हैं।2।
अर्थ: (तृष्णा की) जिस आग ने देवते और मनुष्य जला डाले हैं, प्रभु के (नाम-) अमृत ने भक्त जनों को जलने से बचा लिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भव सागर सुख सागर माही ॥ पीवि रहे जल निखुटत नाही ॥३॥

मूलम्

भव सागर सुख सागर माही ॥ पीवि रहे जल निखुटत नाही ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भव सागर = संसार समुंदर। सुख सागर = सुखों का समुंदर। माही = में। पीवि रहे = लगातार पी रहे हैं। निखुटत नही = समाप्त नहीं होता।3।
अर्थ: (वह भक्त-जन जिनको ‘राम-उदक’ ने जलने से बचाया है) इस संसार समुंदर में (जो अब उनके लिए) सुखों का समुंदर (बन गया है) नाम-अमृत लगातार पी रहे हैं और वह अमृत कभी खत्म नहीं होता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कबीर भजु सारिंगपानी ॥ राम उदकि मेरी तिखा बुझानी ॥४॥१॥

मूलम्

कहि कबीर भजु सारिंगपानी ॥ राम उदकि मेरी तिखा बुझानी ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भजु = स्मरण कर। सारंगि पानी = परमात्मा (जिसके हाथ में ‘सारंग’ धनुष है)। सारिंग = विष्णु के धनुष का नाम है। पानी = पाणि, हाथ। तिखा = तृष्णा, प्यास। बुझानी = बुझा दी है, शांत कर दी है। कहि = कहे, कहता है।4।
अर्थ: कबीर कहता है: (हे मन!) परमात्मा का स्मरण कर, परमात्मा के नाम-अमृत ने मेरी (माया की) तृष्णा मिटा दी है।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: संसार समुंदर में जीवों के मनों को माया की तृष्णा रूपी आग तपा रही है; तीर्थों आदि का स्नान इस आग को बुझा नहीं सकता। परमातमा का नाम अमृत ही तपे हुए हृदयों को ठंडा करके सुख दे सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ माधउ जल की पिआस न जाइ ॥ जल महि अगनि उठी अधिकाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ माधउ जल की पिआस न जाइ ॥ जल महि अगनि उठी अधिकाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधउ = हे माधव! हे माया के पति प्रभु! (मा+धव; मा = माया, धव = पति)। पिआस = प्यास। न जाइ = खत्म नहीं होती। जल महि = नाम रूप पानी में। नाम रूप पानी पीते पीते, नाम जपते जपते। अगनि = चाहत रूपी अग्नि। उठी = पैदा हो गई है। अधिकाइ = अधिक।1। रहाउ।
अर्थ: हे माया के पति प्रभु! तेरे नाम-अमृत की प्यास मिटती नहीं (भाव, तेरा नाम जप-जप के मैं तृप्त नहीं होता), तेरा नाम अमृत पीते पीते और अधिक चाहत पैदा हो रही है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं जलनिधि हउ जल का मीनु ॥ जल महि रहउ जलहि बिनु खीनु ॥१॥

मूलम्

तूं जलनिधि हउ जल का मीनु ॥ जल महि रहउ जलहि बिनु खीनु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जल निधि = जल का खजाना, समुंदर। मीनु = मछली। रहउ = मैं रहता हूँ। जलहि बिनु = जल के बिना। खीनु = कमजोर, मुर्दा।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू जल का खजाना (समुंदर) है, मैं उस जल की मछली हूँ। जल में ही मैं जीवित रह सकती हूँ, जल के बिना मैं मर जाती हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं पिंजरु हउ सूअटा तोर ॥ जमु मंजारु कहा करै मोर ॥२॥

मूलम्

तूं पिंजरु हउ सूअटा तोर ॥ जमु मंजारु कहा करै मोर ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिंजरु = पिंजरा। हउ = मैं। सुअटा = कमजोर सा तोता।

दर्पण-टिप्पनी

(सूअ = शूक, तोता। पछेतर ‘टा’ = छोटापन जाहिर करने के वास्ते है, जैसे ‘चमरेटा’ का भाव है गरीब चमार)।

दर्पण-भाषार्थ

तोर = तेरा। मंजारु = बिल्ला। कहा करै = क्या कर सकता है? क्या बिगाड़ सकता है? मोर = मेरा।2।
अर्थ: तू मेरा पिंजरा है, मैं तेरा कमजोर सा तोता हूँ, (तेरे आसरे रहने पर) जम-रूपी बिल्ला मेरा क्या बिगाड़ लेगा?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं तरवरु हउ पंखी आहि ॥ मंदभागी तेरो दरसनु नाहि ॥३॥

मूलम्

तूं तरवरु हउ पंखी आहि ॥ मंदभागी तेरो दरसनु नाहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरवरु = सुंदर वृक्ष (तर = वृक्ष, वर = सुंदर, श्रेष्ठ)। आहि = हां। मंद भागी = बुरे भाग्य वाले को। नाहि = नहीं।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू सुंदर वृक्ष है और मैं (उस वृक्ष पर आसरा लेने वाला) पंछी हूँ। (मुझ) अभागे को (अभी तक) तेरे दर्शन नसीब नहीं हुए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं सतिगुरु हउ नउतनु चेला ॥ कहि कबीर मिलु अंत की बेला ॥४॥२॥

मूलम्

तूं सतिगुरु हउ नउतनु चेला ॥ कहि कबीर मिलु अंत की बेला ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नउतनु = नया। चेला = सिख। कहि = कहै, कहता है। अंत की बेला = आखिर के समय (भाव, ये मानव जनम, जो कई जूनियों में भटक के बाद मिला है)।4।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू (मेरा) गुरु है, मैं तेरा नया सिख हूँ (भाव, तेरे साथ वैसे ही प्यार है जैसे नया नया सिख अपने गुरु के साथ करता है)। कबीर कहता है: अब तो (मनुष्य जनम) आखिरी समय है, मुझे जरूर मिल।4।2।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: मनुष्य ज्यों-ज्यों नाम जपता है, त्यों-त्यों उसे नाम का ज्यादा रस आने लगता है, और वह प्रभु को अपना ओट आसरा समझता है। प्रभु भी उसके सिर पर हाथ रखता है, और उसे प्रत्यक्ष दीदार देता है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जब हम एको एकु करि जानिआ ॥ तब लोगह काहे दुखु मानिआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जब हम एको एकु करि जानिआ ॥ तब लोगह काहे दुखु मानिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम। एको एकु करि = ये निष्चय करके कि सब जगह एक परमात्मा ही व्यापक है। जानिया = समझा है। लोगहु = लोगों ने। काहे = क्यूँ? दुखु मानिआ = इस बात को बुरा समझा है, इस बात से दुखी हुए हैं।1।
अर्थ: जब हमने (भाव, मैंने) ये समझ लिया है कि सब जगह एक परमात्मा ही व्यापक है, तो (पता नहीं) लोगों ने इस बात को क्यों बुरा मनाया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम अपतह अपुनी पति खोई ॥ हमरै खोजि परहु मति कोई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हम अपतह अपुनी पति खोई ॥ हमरै खोजि परहु मति कोई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपतह = बेपता, निरलज्ज, जिसकी कोई इज्जत ना रह जाए। खोई = गवा ली है। खोजि = खोज पे, पीछे, राह पे। मति परहु = ना चलो।1। रहाउ।
अर्थ: मैं निसंग हो गया हूँ और मुझे ये परवाह नहीं कि कोई मनुष्य इज्जत करे या ना करे। (तुम लोगों को जगत में मान-सम्मान का ख्याल है, इस वास्ते जिस राह मैं पड़ा हूँ) उस राह पे मेरे पीछे ना चलो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम मंदे मंदे मन माही ॥ साझ पाति काहू सिउ नाही ॥२॥

मूलम्

हम मंदे मंदे मन माही ॥ साझ पाति काहू सिउ नाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माही = में। मंदे = बुरे। साझ पाति = भाईचारा, मेल मुलाकात। काहू सिउ = किसी के साथ।2।
अर्थ: अगर मैं बुरा हूँ तो अपने ही अंदर बुरा हूँ ना, (किसी को इससे क्या?); मैंने किसी के साथ (इसलिए) कोई मेल-जोल भी नहीं रखा हुआ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पति अपति ता की नही लाज ॥ तब जानहुगे जब उघरैगो पाज ॥३॥

मूलम्

पति अपति ता की नही लाज ॥ तब जानहुगे जब उघरैगो पाज ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति अपति = आदर निरादरी। लाज = परवाह। जानहुगे = तुम्हें समझ आएगी। पाज = दिखावा।3।
अर्थ: मेरी कोई इज्जत करे या निरादरी करे, मैं इसमें कोई हीनता नहीं समझता, क्योंकि तुम्हें भी तब समझ आएगी (कि असल इज्जत व निरादरी कौन सी है) जब तुम्हारा ये जगत दिखावा उघड़ जाएगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर पति हरि परवानु ॥ सरब तिआगि भजु केवल रामु ॥४॥३॥

मूलम्

कहु कबीर पति हरि परवानु ॥ सरब तिआगि भजु केवल रामु ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = (असल) इज्जत। परवानु = स्वीकार। तिआगि = छोड़ के। भजु = स्मरण कर।4।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: (असल) इज्जत उसी की है, जिसे प्रभु स्वीकार कर ले। (इसलिए, हे कबीर!) और सब कुछ (भाव, दुनिया की लोक-लज्जा) त्याग के परमात्मा का स्मरण कर।4।3।

दर्पण-भाव

भाव: दुनिया के बंदे लोक-लज्जा के पीछे मरते मरते भक्त जनों से कुतर्क करते हैं, क्योंकि बंदगी वाले मनुष्य लोक-लज्जा छोड़ के सब जीवों से एक-सा ही बर्ताव रखते हैं। पर, दुनिया की ये आदर-निरादरी प्रभु की हजूरी में किसी काम की नहीं। वहाँ तो बंदगी स्वीकार है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥ बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥ बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नगन फिरत = नंगे घूमते हुए। जौ = अगर। जोगु = (परमात्मा से) योग (मिलाप)। सभु मिरगु = हरेक पशु (हिरन आदि)। बन = जंगल। होगु = हो जाएगा।1।
अर्थ: अगर नंगे फिरने से परमात्मा के साथ मिलाप हो सकता तो जंगल के हरेक पशु की मुक्ति हो जानी चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ नागे किआ बाधे चाम ॥ जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ नागे किआ बाधे चाम ॥ जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाधे चाम = (मृगशाला आदि) चमड़ी (शरीर पर) पहनने से। किआ = क्या लाभ हो सकता है? नही चीनसि = तू नहीं पहिचान करता। आतम राम = परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जब तक तू परमात्मा को नहीं पहचानता, तब तक नंगे रहने से क्या सँवर जाना है और शरीर पर चमड़ी (मृगशाला) लपेटने से क्या मिल जाना है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥ मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥

मूलम्

मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥ मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूंड = सिर। जौ = यदि। काई = कोई। सिधि = सिद्धि, सफलता।2।
अर्थ: अगर सिर मुनाने से सिद्धि मिल सकती (तो क्या कारण है कि) कोई भी भेड़ (अब तक मुक्त नहीं हुई?)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥ खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥

मूलम्

बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥ खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य। राखि = रख के, संभाल के। बिंदु राखि = वीर्य संभालने से, बाल ब्रहमचारी रहने से भाई = हे भाई! हे सज्जन! परम गति = सबसे ऊूंची अवस्था, मुक्ति।3।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘बिंदु’ सदा ‘ु’ अंत है, वैसे ये स्त्रीलिंग है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! अगर ब्रहमचारी रहने से (संसार-समुंदर से) पार हो सकते हैं, तो हिजड़े को क्यों मुक्ति नहीं मिल जाती?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥ राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥

मूलम्

कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥ राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नर भाई = हे भाईयो! किनि = किस ने? (भाव, किसी ने नहीं)।4।4
अर्थ: हे कबीर! (बेशक) कह: हे भाईओ! परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना किसी को मुक्ति नहीं मिली।4।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: नंगे रह के जंगलों घूमना, सिर मुना के फकरी बन जाना, बाल जती बने रहना- ऐसा कोई साधन मनुष्य को संसार सागर से पार नहीं लंघा सकता। केवल परमात्मा का नाम ही बेड़ा पार कर सकता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ संधिआ प्रात इस्नानु कराही ॥ जिउ भए दादुर पानी माही ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ संधिआ प्रात इस्नानु कराही ॥ जिउ भए दादुर पानी माही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संधिआ = शाम के वक्त। प्रात = सवेरे। कराही = करते हैं। भए = होते हैं। दादुर = मेंढक। माही = में।1।
अर्थ: (जो मनुष्य) सवेरे और शाम को (भाव, दोनों वक्त निरा) स्नान ही करते हैं (और समझते हैं कि हम पवित्र हो गए हैं, वे इस तरह हैं) जैसे पानी में मेंढक बस रहे हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ पै राम राम रति नाही ॥ ते सभि धरम राइ कै जाही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जउ पै राम राम रति नाही ॥ ते सभि धरम राइ कै जाही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ पै = अगर (देखें सिरी राग रविदास जी: ‘जउ पै हम न पाप करंता’)। रति = प्यार। ते सभ = वह सारे (जीव)। धरमराइ कै = धर्मराज के वश में1। रहाउ।
अर्थ: पर अगर उनके हृदय में परमात्मा के नाम का प्यार नहीं है तो वे सारे धर्मराज के वश पड़ते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ रति बहु रूप रचाही ॥ तिन कउ दइआ सुपनै भी नाही ॥२॥

मूलम्

काइआ रति बहु रूप रचाही ॥ तिन कउ दइआ सुपनै भी नाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। रति = मोह प्यार। बहु रूप = कई भेस। रचाई = रचते हैं, बनाते हैं। सुपने भी = सपने में भी, कभी भी। दइआ = तरस।2।
अर्थ: (कई मनुष्य) शरीर के मोह में ही (भाव, शरीर को पालने के खातिर ही) कई भेस बनाते हैं; उनको कभी सपने में दया नहीं आई (उनका हृदय कभी द्रवित नहीं हुआ)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारि चरन कहहि बहु आगर ॥ साधू सुखु पावहि कलि सागर ॥३॥

मूलम्

चारि चरन कहहि बहु आगर ॥ साधू सुखु पावहि कलि सागर ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चारि चरन = चार वेद। कहहि = उचारते हैं, पढ़ते हैं। बहु = बहत। आगर = समझदार मनुष्य। साधू = संत जन। कलि सागर = झगड़ों का समुंदर, संसार।3।
अर्थ: ब्हुत समझदार मनुष्य चार वेद (आदि धर्म पुस्तकों को) ही (निरे) पढ़ते हैं (पर निरा पढ़ने से क्या होना है?)। इस संसार समुंदर में (सिर्फ) संत-जन ही (असल) सुख पाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर बहु काइ करीजै ॥ सरबसु छोडि महा रसु पीजै ॥४॥५॥

मूलम्

कहु कबीर बहु काइ करीजै ॥ सरबसु छोडि महा रसु पीजै ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहु काइ करीजै = बहुत सारी विचारें किसलिए करनी? भाव, पते की बात ये है, सारी विचारों का निचोड़ ये है। सरबसु = सर्वस्व, अपना सब कुछ, सब पदार्थों का मोह। छोडि = त्याग के। महा रसु = सबसे ऊँचा नाम रस। पीजै = पीएं।4।5।
अर्थ: हे कबीर! कह: सारी विचारों का निष्कर्श ये है कि सब पदार्थों का मोह त्याग के परमात्मा के नाम का रस पीना चाहिए।4।5।

दर्पण-भाव

भाव: तीर्थों के स्नान, कई तरह के भेस, वेद आदि धर्म-पुस्तकों के निरे पाठ- ऐसा कोई कर्म भी सच्चा सुख नहीं दे सकता। जिसके हृदय में प्रभु के नाम का प्यार नहीं, उसने जमों के ही वश पड़ना है। कोशिशों में सबसे कोशिश यही है कि मोह त्याग के प्रभु का स्मरण करें।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जी गउड़ी ॥ किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥ जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥

मूलम्

कबीर जी गउड़ी ॥ किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥ जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै रिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। दूजा भाउ = परमात्मा के बिना और किसी का प्यार। किआ = कैसा? किस अर्थ? अर्थात किसी काम का नहीं।1।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के बिना और किसी का प्यार है, उसका जप करना किस अर्थ? उसका तप करना किस मतलब का? उसकी व्रत और पूजा के क्या गुण?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥ चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ॥

मूलम्

रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥ चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे जन = हे भाई! माधउ = माधव (मा = माया, धव = पति) माया का पति प्रभु। सिउ = साथ। चतुराई = समझदारियों से। चतुरभुजु = (चार बाहों वाला) परमातमा। न पाईऐ = नहीं मिलता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मन को परमात्मा के साथ जोड़ना चाहिए (स्मरण को त्याग के और) समझदारियों से ईश्वर नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥ परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥

मूलम्

परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥ परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परहरु = (संस्कृत: परि+हृ = त्याग देना) छोड़ दे। लोकाचारु = लोगों को ही दिखाने वाला काम, दिखावा, लोक पतियावा।2।
अर्थ: (हे भाई!) लालच, दिखावा, काम, क्रोध और अहंकार छोड़ दे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करम करत बधे अहमेव ॥ मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥

मूलम्

करम करत बधे अहमेव ॥ मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करम = कर्म कांड, धार्मिक रस्में। अहंमेव = (अहं = मैं। एव = ही) ‘मैं मैं’ का ख्याल, अहंकार। बधे = बंध गए हैं। मिलि = मिल के। करही = करते हैं। सेव = सेवा।3।
अर्थ: मनुष्य धार्मिक रस्में करते-करते अहंकार में बंधे हुए हैं, और मिल के पत्थरों ही की पूजा कर रहे हैं (पर ये सब कुछ व्यर्थ है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥ भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥

मूलम्

कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥ भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = करके, करने से। पाइआ = मिलता है। भोले भाइ = भोले स्वभाव से। रघुराइआ = प्रभु।4।
अर्थ: हे कबीर! कह: परमात्मा बंदगी करने से (ही) मिलता है, भोले स्वाभाव से प्राप्त होता है।4।6।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: भोले स्वाभाव (innocence) और अज्ञानता (ignorance) में फर्क समझने की जरूरत है। किसी ‘मूर्ति’ के लिए ये समझ लेना कि ये परमात्मा है, ये भोला स्वभाव नहीं है, ये अज्ञानता है, अन्जानपना है। भोला-पन छोटे बालक का स्वाभाव है; किसी के साथ पक्के वैर की गाँठ ना बाँध लेनी, ये भोलापन है; सब लोग एक जैसे ही लगने, ऊूंच-नीच का भेद ना होना - ये है भोलापन।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥ ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥ ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरभ वास = माँ के पेट में बसेरा। जाती = जानी (किसी ने भी)। ब्रहम बिंदु = परमात्मा की अंश। बिंदु ते = बिंद से। उतपाती = उत्पत्ति, अस्तित्व, जन्म।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘बिंदु’ के अंत में ‘ु’ मात्रा लगी होती है, ‘संबंधक’ (preposition) के साथ भी ये ‘ु’ कायम रहती है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सारे जीवों की उत्पत्ति परमात्मा के अंश से (हो रही) है (सब का मूल कारण परमात्मा स्वयं है); माँ के पेट में तो किसी को ये समझ नहीं होती कि मैं किस कुल का हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥ बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥ बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहु = बता। रे = हे! कब के होए = कब के बने हो (भाव, माँ के पेट में तो सब जीव एक जैसे ही होते हैं, बाहर आ के तुम कब के ब्राहमण बन गए?)। कहि कहि = कह कह के (भाव = ब्राहमणपन का गुमान कर के, अहंकार से ये कह कह के कि मैं ब्राहमण हूँ)। मत खोए = ना गवाओ।1। रहाउ।
अर्थ: बताओ, हे पण्डित! तुम ब्राहमण कब से बन गए हो? ये कह: कह के कि मैं ब्राहमण हूँ, मैं ब्राहमण हूँ, मानव जनम (अहंकार में व्यर्थ) ना गवाओ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥ तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥

मूलम्

जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥ तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जौ = यदि। ब्रहमणी जाइआ = ब्राहमण स्त्री से पैदा हुआ। तउ = तो। आन बाट = (किसी) और रास्ते। काहे = क्यूँ? आइआ = पैदा हुआ।2।
अर्थ: अगर (हे पण्डित!) तू (सचमुच) ब्राहमण है और ब्राहमणी के गर्भ से पैदा हुआ है, तो किसी और रास्ते से क्यों नहीं पैदा हो गया?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥ हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥

मूलम्

तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥ हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कत = कैसे? हम = हम। सूद = शूद्र, नीच जाति के। हम = हमारे (शरीर में)।3।
अर्थ: (हे पंडित!) तुम कैसे ब्राहमण (बन गए)? हम कैसे शूद्र (रह गए)? हमारे शरीर में कैसे निरा लहू ही है? तुम्हारे शरीर में कैसे (लहू की जगह) दूध है?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥ सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥

मूलम्

कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥ सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जो = जो मनुष्य। ब्रहमु = परमात्मा को। बिचारै = विचारता है, स्मरण करता है, याद रखता है। सो = वह मनुष्य। कहीअतु है = कहा जाता है। हमारै = हमारे मत में।4।7।
अर्थ: हे कबीर! कह: हम तो उस मनुष्य को ब्राहमण कहते हैं जो परमात्मा (ब्रहम) को स्मरण करता है।4।7।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य उच्च जाति का गुमान करते हैं, वे मानव जन्म व्यर्थ गवाते हैं। सारे जीव परमात्मा के ही अंश हैं। ऊँचा वही है जो प्रभु की बंदगी करता है।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ अंधकार सुखि कबहि न सोई है ॥ राजा रंकु दोऊ मिलि रोई है ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ अंधकार सुखि कबहि न सोई है ॥ राजा रंकु दोऊ मिलि रोई है ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधकार = अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा, परमात्मा को भूलने-रूपी अंधेरा। सुखि = सुख में। कबहि = कभी। सोई है = सो सकते है। रंकु = कंगाल। दोऊ = दोनों। रोई है = रोते हैं, दुखी होते हैं। मिलि = मिल के। दोऊ मिलि = दोनों ही।1।
अर्थ: (परमात्मा को भुला के अज्ञानता के) अंधकार में कभी सुखी नहीं सो सकते, राजा हो कंगाल, दोनों ही दुखी होते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ पै रसना रामु न कहिबो ॥ उपजत बिनसत रोवत रहिबो ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जउ पै रसना रामु न कहिबो ॥ उपजत बिनसत रोवत रहिबो ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउपै = अगर, जब तक। रसना = जीभ (से)। कहिबो = कहते, स्मरण करते, उचारते। उपजत = पैदा होते। बिनसत = मरते। रोवत = रोते। रहिबो = रहोगे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जब तक जीभ से परमात्मा को नहीं जपते, तब तक पैदा होते मरते व (इस दुख में) रोते रहोगे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जस देखीऐ तरवर की छाइआ ॥ प्रान गए कहु का की माइआ ॥२॥

मूलम्

जस देखीऐ तरवर की छाइआ ॥ प्रान गए कहु का की माइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जस = जैसे। तरवर = वृक्ष। कहु = बताओ। कां की = किस की? (भाव, किसी और की, बेगानी)।2।
अर्थ: जैसे वृक्ष की छाया देखते हैं (भाव, जैसे पेड़ की छाया सदा टिकी नहीं रहती, वैसे ही इस माया का हाल है); जब मनुष्य के प्राण निकल जाते हैं तो बताओ, ये माया किस की होती है? (भाव, किसी और की बन जाती है, इसलिए इसका क्या मान?)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जस जंती महि जीउ समाना ॥ मूए मरमु को का कर जाना ॥३॥

मूलम्

जस जंती महि जीउ समाना ॥ मूए मरमु को का कर जाना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जस = सैसे। जंती = (राग का) साज़। जीउ = जिंद, राग की जान, आवाज़। मरमु = भेद। मूए मरमु = मर गए प्राणी का भेद (कि वह कहाँ गया है)। को = कोई मनुष्य। का करि = कैसे?।3।
अर्थ: जैसे (जब गवईया अपना हाथ साज से हटा लेता है तो) राग की आवाज साज़ में (ही) लीन हो जाती है (कोई बता नहीं सकता कि वह कहाँ गई), वैसे ही मरे मनुष्य का भेद (कि उसकी जीवात्मा कहाँ गई) कोई मनुष्य कैसे जान सकता है?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसा सरवरु कालु सरीर ॥ राम रसाइन पीउ रे कबीर ॥४॥८॥

मूलम्

हंसा सरवरु कालु सरीर ॥ राम रसाइन पीउ रे कबीर ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरवरु = सरोवर, तालाब। कालु = मौत। रसाइन = (रस+अयन। अयन = घर) सब रसों का घर, नाम अमृत।4।
अर्थ: जैसे हंसों के लिए सरोवर है (भाव, जैसे हंस सरोवर के नजदीक ही उड़ते रहते हैं) वैसे ही मौत शरीरों (के लिए) है। इसलिए हे कबीर! सब रसों से श्रेष्ठ रस राम-रस पी।4।8।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा का नाम जपे बिना निरा दुख ही दुख है। ये माया और ये शरीर भी अंत में साथ नहीं देते। नाम ही असल साथी और सुखों का मूल है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जोति की जाति जाति की जोती ॥ तितु लागे कंचूआ फल मोती ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जोति की जाति जाति की जोती ॥ तितु लागे कंचूआ फल मोती ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोति = (रूहानी) नूर, परमात्मा। की = की (बनाई हुई)। जाति = पैदायश, सृष्टि। जाति की जोति = (इस) सृष्टि (के जीवों) की है जो बुद्धि। तितु = उस (बुद्धि) में। कंचूआ = कांच।1।
अर्थ: परमात्मा की बनाई हुई (सारी) सृष्टि है, इस सृष्टि के जीवों की (जो) बुद्धि है (उसे) काँच व मोती फल लगे हुए हैं (अर्थात, कोई भली तरफ लगे हुए हैं कोई बुरी तरफ)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवनु सु घरु जो निरभउ कहीऐ ॥ भउ भजि जाइ अभै होइ रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कवनु सु घरु जो निरभउ कहीऐ ॥ भउ भजि जाइ अभै होइ रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवनु = कौन सा? घरु = टिकाना। निरभउ = भय से मुक्त। भजि जाइ = दूर हो जाए। अभै = अभय, निडर।1। रहाउ।
अर्थ: वह कौन सी जगह है जो डर से खाली है? (जहाँ रहने से हृदय का) डर दूर हो सकता है, जहाँ निडर हो के रह सकते हैं?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तटि तीरथि नही मनु पतीआइ ॥ चार अचार रहे उरझाइ ॥२॥

मूलम्

तटि तीरथि नही मनु पतीआइ ॥ चार अचार रहे उरझाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तटि = तट पर, किनारे पर (किसी पवित्र नदी के) किनारे पर। तीरथि = तीर्थ पर। पतीआइ = पतीजता, धीरज करता, ठिकाने आता। चार = अच्छे (काम)। अचार = (अ+चार) बुरे कर्म। रहे उरझाइ = उलझ रहे हैं, फस रहे हैं।2।
अर्थ: किसी (पवित्र नदी के) किनारे अथवा तीर्थ पर (जा के भी) मन को धैर्य नहीं मिलता, वहाँ भी लोग पाप-पुंन्न में लगे हुए हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाप पुंन दुइ एक समान ॥ निज घरि पारसु तजहु गुन आन ॥३॥

मूलम्

पाप पुंन दुइ एक समान ॥ निज घरि पारसु तजहु गुन आन ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुइ = दोनों। एक समान = एक जैसे (भाव, दोनों ही मन को वासना में रखते हैं)। निज घर = अपने घर में, अपने अंदर ही। पारसु = लोहे आदि को सोना बनाने वाला (नीचे से ऊँचा करने वाला प्रभु)। तजहु = छोड़ दो। आन = और।3।
अर्थ: (पर) पाप और पुन्न दोनों ही एक जैसे हैं (भाव, दोनों ही वासना की और दोड़ाए फिरते हैं), (हे मन! नीचों से ऊँचा करने वाला) पारस (प्रभु) तेरे अपने अंदर ही है, (इसलिए, पाप-पुन्न वाले) और गुण (अंदर धारण करने) छोड़ दे (और प्रभु को अपने अंदर संभाल)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर निरगुण नाम न रोसु ॥ इसु परचाइ परचि रहु एसु ॥४॥९॥

मूलम्

कबीर निरगुण नाम न रोसु ॥ इसु परचाइ परचि रहु एसु ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुण = (निर+गुण) तीन गुणों से रहित, जो माया के तीन गुणों से ऊपर है। निरगुण नाम = माया के प्रभाव से ऊपर प्रभु का नाम। न रोसु = ना रूठ, ना भुला। इसु = इस (मन) को। परचाइ = व्यस्त हो के लगा के। परचि रहु = पतीजे रहो, व्यस्त रहो। एसु = इस (नाम) में।4।9।
अर्थ: हे कबीर! माया के मोह से ऊँचे प्रभु के नाम को ना बिसार; अपने मन को नाम जपने में लगा के नाम में ही व्यस्त रह।4।9।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: तीर्थों पर जा के भी लोग पाप-पुन्न आदि कर्मों में लगे रहते हैं, मन को निर्भयता इस तरह भी नहीं मिलती। प्रभु का एक नाम ही है जिस में जुड़े रहके मन अडोल रह सकता है और वह नाम मनुष्य के अंदर ही है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जो जन परमिति परमनु जाना ॥ बातन ही बैकुंठ समाना ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जो जन परमिति परमनु जाना ॥ बातन ही बैकुंठ समाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जो जन = जो मनुष्य। परमिति = (मिति = अंदाजा, गिनती, हद बंदी) जो मिनती से परे है, जिसकी हद बंदी नहीं ढूँढी जा सकती। परमनु = जो मन की कल्पना से परे है, जिसका सही मुकम्मल स्वरूप मन की विचार में नहीं आ सकता। जाना = जान लिया है। बातन ही = निरी बातों से ही। समाना = समाए हैं, पहुँचे हैं।1।
अर्थ: जो मनुष्य (निरा कहते ही हैं कि) हमने उस प्रभु को जान लिया है, जिसकी सीमा नहीं ढूँढी जा सकती जो मन की पहुँच से परे है, वह मनुष्य निरी बातों से ही बैकुंठ में पहुँचे हैं (भाव, वे गप्पें ही मार रहे हैं, उन्होंने बैकुंठ असल में देखा ही नहीं है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना जाना बैकुंठ कहा ही ॥ जानु जानु सभि कहहि तहा ही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ना जाना बैकुंठ कहा ही ॥ जानु जानु सभि कहहि तहा ही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ना जाना = मैं नहीं जानता, मुझे नहीं पता। कहा ही = क्हाँ है? जानु जानु = चलना है चलना है। तहा ही = वहीं ही।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे तो पता ही नहीं, वह बैकुंठ कहाँ है, जहाँ ये सारे लोग कहते हैं, चलना है चलना है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहन कहावन नह पतीअई है ॥ तउ मनु मानै जा ते हउमै जई है ॥२॥

मूलम्

कहन कहावन नह पतीअई है ॥ तउ मनु मानै जा ते हउमै जई है ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहन कहावन = कहने कहलाने से, कहने सुनने से। पतीआई है = पतीज सकते हैं, तसल्ली हो सकती। तउ = तब ही। मानै = मानता है, पतीजता है। जा ते = जब। जई है = देर हो जाए।2।
अर्थ: निरा ये कहने से और सुनने से (कि हमने बैकुंठ जाना है) मन को तसल्ली नहीं हो सकती, मन को तभी धैर्य आ सकता है कि जब अहंकार दूर हो जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु मनि बैकुंठ की आस ॥ तब लगु होइ नही चरन निवासु ॥३॥

मूलम्

जब लगु मनि बैकुंठ की आस ॥ तब लगु होइ नही चरन निवासु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। चरन निवासु = (प्रभु के) चरणों में निवास।3।
अर्थ: (एक बार और याद रखने वाली है कि) जब तक मन में बैकुंठ जाने की चाहत बनी हुई है, तब तक प्रभु के चरणों में मन नहीं जुड़ सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर इह कहीऐ काहि ॥ साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥१०॥

मूलम्

कहु कबीर इह कहीऐ काहि ॥ साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहि = कैसे? कहीऐ = समझा के बताईए। आहि = है।4।10।
अर्थ: हे कबीर! कह: ये बात कैसे समझा के बताएं (भाव, ये स्पष्ट बात है कि) साधु-संगत ही (असली) बैकुंठ है।4।10।

दर्पण-भाव

भाव: असल बैकुंठ साधु-संगत है, यहीं मन का अहम् दूर हो सकता है, यहीं मन प्रभु के चरणों में जुड़ सकता है।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ उपजै निपजै निपजि समाई ॥ नैनह देखत इहु जगु जाई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ उपजै निपजै निपजि समाई ॥ नैनह देखत इहु जगु जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपजै = उगता है, शुरूआत होती है। निपजै = वजूद में आता है। निपजि = बन के, वजूद में आ के, अस्तित्व में आ के। समाई = नाश हो जाता है। नैनहु देखत = आँखों से देखते हुए। जाई = चला जाता है, चला जा रहा है।1।
अर्थ: (पहले इस जीव की पिता के बिंद से) शुरूआत होती है, (फिर माँ के पेट में यह) वजूद में आता है, वजूद में आ के (पुनः) नाश हो जाता है। (सो) हमारी आँखों के सामने ही ये संसार इसी तरह चलता जा रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाज न मरहु कहहु घरु मेरा ॥ अंत की बार नही कछु तेरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

लाज न मरहु कहहु घरु मेरा ॥ अंत की बार नही कछु तेरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाज = शर्म। कहहु = तुम कहते हो। अंत की बार = जिस वक्त मौत आएगी।1। रहाउ।
अर्थ: (इसलिए, हे जीव!) शर्म से क्यूँ नहीं डूब मरता (भाव, तुझे शर्म क्यूँ नहीं आती) जब तू ये कहता है कि ये घर मेरा है, (याद रख) जिस वक्त मौत आएगी, तब कोई भी चीज तेरी नहीं रहेगी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक जतन करि काइआ पाली ॥ मरती बार अगनि संगि जाली ॥२॥

मूलम्

अनिक जतन करि काइआ पाली ॥ मरती बार अगनि संगि जाली ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। मरती बार = मरने के समय। जाली = जलती है।2।
अर्थ: अनेक प्रयत्न करके ये शरीर पालते हैं, पर जब मौत आती है, इसे आग से जला देते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोआ चंदनु मरदन अंगा ॥ सो तनु जलै काठ कै संगा ॥३॥

मूलम्

चोआ चंदनु मरदन अंगा ॥ सो तनु जलै काठ कै संगा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोआ = इत्र। मरदन = मालिश। अंगा = शरीर के अंगों को। जलै = जल जाता है। काठ कै संगा = लकड़ियों के साथ।3।
अर्थ: (जिस शरीर के) अंगों को इत्र व चंदन मलते हैं, वह शरीर (आखिर को) लकड़ियों से जल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर सुनहु रे गुनीआ ॥ बिनसैगो रूपु देखै सभ दुनीआ ॥४॥११॥

मूलम्

कहु कबीर सुनहु रे गुनीआ ॥ बिनसैगो रूपु देखै सभ दुनीआ ॥४॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे गुनीआ = हे विचारवान मनुष्य! बिनसैगो = नाश हो जाएगा।4।11।
अर्थ: हे कबीर! कह: हे विचारवान मनुष्य! याद रख, सारी दुनिया देखेगी (भाव, सबके देखते-देखते) ये रूप नाश हो जाएगा।4।11।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: कोई चीज मनुष्य के साथ नहीं जा सकती। और तो और, ये शरीर भी यहीं नाश हो जाता है। इसलिए, धन पदार्थों को अपना कह कह के मोह में फंसना नहीं चाहिए।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: साधारण तौर पर जगत की आसारता का जिक्र करते हुए, कबीर जी कहते हैं कि मरने पर शरीर जला दिया जाता है। शरीर को जलाने संबंधी ये स्वाभाविक वचन जाहिर करते हैं कि कबीर जी हिन्दू घर में जन्में-पले थे, मुसलमान नहीं थे। बाबा फरीद जी की रची हुई वाणी पढ़ के देखो, वे हर जगह मुसलमानी बोली ही बरतते हैं, क्योंकि वे मुसलमान थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥ तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥ तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवर = और। करीजै = करें, करना चाहिए। जीजै = जीते रहना हो।1।
अर्थ: औरों के मरने पर शोक करने से क्या लाभ? (उनके विछोड़े का) तो तभी करें अगर खुद (यहाँ सदा) जीवित रहना हो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै न मरउ मरिबो संसारा ॥ अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मै न मरउ मरिबो संसारा ॥ अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरउ = (आत्मिक मौत) मरूँगा, मुर्दा (दिल) होऊँगा। मरिबो = मरेगा (भाव, परमात्मा की तरफ से मुर्दा रहेगा)। मोहि = मुझे। संसारा = दुनिया, जगत के धंधों में फंसे हुए जीव। जीआवनहारा = (सच्ची) जिंदगी देने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: मेरी आत्मा की कभी मौत नहीं होगी। मुर्दा हैं वो जीव जो जगत के धंधों में फंसे हुए हैं। मुझे (तो) अब (असल) जिंदगी देने वाला परमात्मा मिल गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इआ देही परमल महकंदा ॥ ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥

मूलम्

इआ देही परमल महकंदा ॥ ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इआ देही = इस शरीर को। परमल = खुशबुएं। महकंदा = महकाता है। ता सुखु = इन सुखों में। परमानंदा = ऊँचे से ऊँचा आनंद दाता।2।
अर्थ: (जीव) इस शरीर को कई प्रकार की सुगंधियों से महकाता है, इन ही सुखों में इसे परम आनन्द-स्वरूप परमात्मा भूल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥ टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥

मूलम्

कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥ टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूअटा = (कूप+टा। संस्कृत शब्द ‘कूप’ से ‘कूआँ’ प्राकृत रूप है; ‘टा’ साथ जोड़ के इसे ‘अल्पार्थक’नाम बनाया है, जैसे ‘चमार’ का ‘चमरटा’) छोटा सा कूआँ, कूई, शरीर रूपी कूई, शरीर का मोह रूपी कूप। पनिहारी = पानी भरने वालियां, चरखियां, पाँचों इंद्रियां, जो अपने-अपने तरीके से शरीर में सत्ता खींचते जाते हैं। मति हारी = हारी हुई मति, दुरमति, बुरी मति, अविद्या में फंसी हुई बुद्धि। भरै = भर रही है पानी। टूटी लाजु भरै = टूटी हुई रस्सी (लज) से पानी भर रही है (अर्थात, पानी भरने के व्यर्थ यत्न कर रही है, पानी नहीं मिलता)। लज (रस्सी) टूटी हुई है, ज्ञान नहीं है।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘लाजु’ शब्द के पीछे आमतौर पे ‘ु’ मात्रा के साथ इस्तेमाल होता है। संस्कृत शब्द ‘रज्जु’ से बना है जिसके आखिर में भी ‘ु’ है। पिछले शब्द का ‘लाज’ मुक्ता अंत है, वह संस्कृत के ‘लज्जा’ से बना है।
नोट: शरीर मोह की कुई है, विषौ-विकारों में फंसी हुई बुद्धि पानी भरने वाली है, इंद्रियां चरखियों का काम कर रही हैं, पर रस्सी नहीं है। जैसे, कोई स्त्री कूएं से पानी भरने जाए, चरखी भी कूएं पर लगी हुई हो, पर रस्सी ना हो तो रस्सी के बिना उसे पानी नहीं मिल सकता, उसका यत्न व्यर्थ होता है। वैसे ही दुर्मति इन इंद्रियों से शरीर में से विषौ-विकारों का आनंद लेने का व्यर्थ ही प्रयत्न करती है। जब तक शरीर के मोह में जीव लगा हुआ है सुख की जगह दुख ही मिलता है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (शरीर, जैसे) एक छोटा सा कूआँ है, (पाँचों ज्ञानेंदियां जैसे) पाँच चरखिआं हैं, भ्रष्ट हुई बुद्धि रस्सी के बिना (पानी) भरने की कोशिश कर रही है (भाव, विकारों में फंसी हुई बुद्धि ज्ञानेंद्रियों द्वारा विकारों में से सुख लेने के व्यर्थ यत्न कर रही है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥ ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥

मूलम्

कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥ ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! कह: (जब) विचार वाली बुद्धि अंदर (जाग गई), तब ना वह शरीरिक मोह रहा और ना ही (विकारों की तरफ खींचने वाली) वे इंद्रियां रहीं।4।12।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जिस मनुष्य को जिंदगी-दाता प्रभु मिल जाए, वह विषौ-विकारों का सुख भोगने में लग के प्रभु की तरफ से मुर्दा नहीं होता। मुर्दा वही है जो ईश्वर से विछुड़ा हुआ है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ असथावर जंगम कीट पतंगा ॥ अनिक जनम कीए बहु रंगा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ असथावर जंगम कीट पतंगा ॥ अनिक जनम कीए बहु रंगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असथावर = एक जगह पर अडिग खड़े रहने वाले पर्वत, वृक्ष आदि। जंगम = चलने-फिरने वाले पशु-पक्षी। कीट = कीड़े। पतंगा = पंखों वाले कीड़े। बहु रंगा = बहुत किस्मों के। कीए = हमने किए, हमने धारण किए।1।
अर्थ: हम (अब तक) अस्थावर, जंगम, कीट-पतंगे, ऐसे कई किस्मों और जन्मों में आ चुके हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे घर हम बहुतु बसाए ॥ जब हम राम गरभ होइ आए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसे घर हम बहुतु बसाए ॥ जब हम राम गरभ होइ आए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बसाए = बसाए, आबाद किए। घर = (भाव) जूनें, शरीर। राम = हे राम! गरभ होइ आए = जूनों में पैदा हो गए।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! जब हम जूनियों में पड़ते गए और ऐसे कई शरीरों में से गुजर के आए हैं।1। रहाउ।

[[0326]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोगी जती तपी ब्रहमचारी ॥ कबहू राजा छत्रपति कबहू भेखारी ॥२॥

मूलम्

जोगी जती तपी ब्रहमचारी ॥ कबहू राजा छत्रपति कबहू भेखारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कभी हम जोगी बने, कभी जती, कभी तपस्वी, कभी ब्रहमचारी, कभी छत्रपति राजे बने और कभी भिखारी।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत मरहि संत सभि जीवहि ॥ राम रसाइनु रसना पीवहि ॥३॥

मूलम्

साकत मरहि संत सभि जीवहि ॥ राम रसाइनु रसना पीवहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = (ईश्वर से) टूटे हुए मनुष्य। मरहि = मरते रहते हैं, जूनियों में पड़ते रहते हैं। जीवहि = जिंदा हैं। रसाइनु = (रस आइनु। अइनु = अयन, घर) रसों का घर, सब रसों से श्रेष्ठ नाम रस। रसना = जीभ (से)।3।
अर्थ: जो मनुष्य ईश्वर से टूटे रहते हैं वह सदा (इसी तरह) कई जूनियों में पड़े रहते हैं। पर संत जन सदा जीते हैं (भाव, जनम मरण के चक्र में नहीं पड़ते, क्योंकि) वह जीभ से प्रभु के नाम का श्रेष्ठ रस पीते रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर प्रभ किरपा कीजै ॥ हारि परे अब पूरा दीजै ॥४॥१३॥

मूलम्

कहु कबीर प्रभ किरपा कीजै ॥ हारि परे अब पूरा दीजै ॥४॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! हारि = हार के, जूनियों में पड़ पड़ के थक के। परे = गिरे हैं (तेरे दर पे)। पूरा = ज्ञान।4।13।
अर्थ: (सो) हे कबीर! (परमात्मा के आगे इस तरह) अरदास कर- हे प्रभु! हम थके-टूट के (तेरे दर पर) आ गिरे हैं, मेहर करके अब अपना ज्ञान बख्श।4।13।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रभु से विछुड़ के जीव को कई जन्मों में भटकना पड़ता है। तभी निजात मिलती है जब अंदर से अहंकार को दूर करके नाम जपें।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५ ॥ ऐसो अचरजु देखिओ कबीर ॥ दधि कै भोलै बिरोलै नीरु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५ ॥ ऐसो अचरजु देखिओ कबीर ॥ दधि कै भोलै बिरोलै नीरु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचरजु = अनोखा चमत्कार, अजीब तमाशा। दधि = दही। भोलै = भुलेखे। बिरोलै = मथ रहा है, विरोल रहा है। नीरु = पाणी।1। रहाउ।
अर्थ: हे कबीर! मैंने एक अजीब तमाशा देखा है कि (जीव) दही के भुलेखे पानी मथ रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरी अंगूरी गदहा चरै ॥ नित उठि हासै हीगै मरै ॥१॥

मूलम्

हरी अंगूरी गदहा चरै ॥ नित उठि हासै हीगै मरै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गदहा = गधा, मूर्ख मन। हरी अंगूरी = विकारों की ताजा अंगूरी, मन भाते विकार। चरै = चुगता है, चरता है। उठि = उठ के। हासै = हसता है। मरै = (पैदा होता) मरता है।1।
अर्थ: मूर्ख जीव मन-भाते विकारों में खचित है, इसी तरह सदा हसता और (गधे की तरह) हींगता रहता है (आखिर) जनम-मरन के चक्कर में पड़ जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता भैसा अमुहा जाइ ॥ कुदि कुदि चरै रसातलि पाइ ॥२॥

मूलम्

माता भैसा अमुहा जाइ ॥ कुदि कुदि चरै रसातलि पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माता = मस्त हुआ। भैसा = सांड। अंमुहा = अमोड़। अंमुहा जाइ = अमोड़पना करता है, दकियानूसी। रसातलि = नर्क में। पाइ = पड़ता है।2।
अर्थ: मस्त सांड जैसा मन दकियानूसपना करता है, कूदता है (भाव, अहंकार करता है) विषियों की खेती चुगता रहता है, और नर्क में पड़ जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर परगटु भई खेड ॥ लेले कउ चूघै नित भेड ॥३॥

मूलम्

कहु कबीर परगटु भई खेड ॥ लेले कउ चूघै नित भेड ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परगटु भई = समझ में आ गई है। लेला = (भाव) मन। भेड = (भेड) मति, बुद्धि।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: (मुझे तो) ये अजीब तमाशा समझ में आ गया है (तमाशा यह है कि) संसारी जीवों की बुद्धि मन के पीछे लगी फिरती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम रमत मति परगटी आई ॥ कहु कबीर गुरि सोझी पाई ॥४॥१॥१४॥

मूलम्

राम रमत मति परगटी आई ॥ कहु कबीर गुरि सोझी पाई ॥४॥१॥१४॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द का शीर्षक बताता है कि ये अकेले कबीर जी का नहीं है, इसमें गुरु अरजन साहिब जी का भी हिस्सा है और कुदरती तौर पर वह आखिरी बंद ही हो सकता है। तीसरे बंद (तुक) में कबीर जी का नाम आता है और यहीं वे अपनी रचना समाप्त कर देते हैं। शुरू में लिखते हैं कि जगत में एक अजीब तमाशा हो रहा है, जीव, दही के भुलेखे पानी बिलो (रिड़क) रहा है (भाव, व्यर्थ और उलटा काम कर रहा है जिसका कोई लाभ नहीं)। लाभ वाला काम तो ये है जैसे सिख रोज अरदास करता है: ‘मन नीवां मति उच्ची, मति का राखा वाहिगुरू’, भाव, वाहिगुरू के स्मरण में जुड़ी रहे बुद्धि, और ऐसी बुद्धि के अधीन रहे मन। पर कबीर जी कहते हैं कि जगत में उल्टी खेल हो रही है। बुद्धि मन के पीछे भाग रही है, बुद्धि विकारी मन के पीछे लगी हुई है। लोगों को इस तमाशे की समझ नहीं आ रही, पर कबीर ने ये खेल समझ ली है।
कबीर जी ने ये जिक्र नहीं किया कि इस तमाशे की समझ कैसे आई है तथा और लोगों को भी कैसे आ सकती है। इस घूँडी को खोलने के लिए गुरु अरजन साहिब जी ने आखिरी पदा नं: 4 अपनी तरफ से लिख के मिला दिया है। अंक 4 के आगे अंक नं: 1 भी इस शब्द का अनोखापन बताने के वास्ते ही है। इन 35 शबदों में सिर्फ एक शब्द है जिसमें यह अनोखी बात आई है।
इस शब्द के इस अनोखे शीर्षक से एक बात और भी साफ हो जाती है कि भक्तों की वाणी गुरु अरजन देव जी ने खुद ‘बीड़’ में दर्ज करवाई थी।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम रमत = प्रभु को स्मरण करते हुए। मति = बुद्धि। परगटी आई = जाग पड़ी है। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: (ये समझ किस ने दी है?) हे कबीर कह: सतिगुरु ने ये समझ बख्शी है, (जिसकी इनायत से) प्रभु का स्मरण करते-करते (मेरी) बुद्धि जाग पड़ी है (और मन के पीछे चलने से हट गई है)।4।1।14।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जब तक मनुष्य गुरु से बेमुख है और नाम नहीं जपता, तब तक इसकी अक्ल भ्रष्टी रहती है, विकारी मन के पीछे लगी फिरती है। गुरु की मेहर से नाम जपें तो बुद्धि मन के पीछे चलने से हट जाती है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी पंचपदे२ ॥ जिउ जल छोडि बाहरि भइओ मीना ॥ पूरब जनम हउ तप का हीना ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी पंचपदे२ ॥ जिउ जल छोडि बाहरि भइओ मीना ॥ पूरब जनम हउ तप का हीना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीना = मछली। पूरब जनम = पिछले जन्मों का। हउ = मैं। हीना = विहीन।1।
अर्थ: (मुझे लोग कह रहे हैं कि) जैसे मछली पानी को छोड़ के बाहर निकल आती है (तो दुखी हो के मर जाती है, वैसे ही) मैंने भी पिछले जन्मों में तप नहीं किया (तभी मुक्ति देने वाली काशी को छोड़ के मगहर आ गया हूँ)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब कहु राम कवन गति मोरी ॥ तजी ले बनारस मति भई थोरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब कहु राम कवन गति मोरी ॥ तजी ले बनारस मति भई थोरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवन = कैसी, कौन सी? गति = हालत, हाल। मोरी = मेरी। तजीले = मैंने छोड़ दी है। बनारसि = काशी नगरी बनारस। थोरी = थोड़ी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! अब मुझे बता, मेरा क्या हाल होगा? मैं काशी छोड़ आया हूँ (क्या ये ठीक है कि) मेरी मति मारी गई है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल जनमु सिव पुरी गवाइआ ॥ मरती बार मगहरि उठि आइआ ॥२॥

मूलम्

सगल जनमु सिव पुरी गवाइआ ॥ मरती बार मगहरि उठि आइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल जनमु = सारी उम्र। शिव पुरी = शिव की नगरी काशी में। गवाइआ = व्यर्थ गुजार दिया। मरती बार = मरने के समय। उठि = उठ के, छोड़ के।2।
अर्थ: (हे राम! मुझे लोग कहते हैं:) ‘तूने सारी उम्र काशी में व्यर्थ ही गुजार दी (क्योंकि अब जब मुक्ति मिलने का समय आया तो) मरने के समय (काशी) छोड़ के मगहर चला आया है’।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुतु बरस तपु कीआ कासी ॥ मरनु भइआ मगहर की बासी ॥३॥

मूलम्

बहुतु बरस तपु कीआ कासी ॥ मरनु भइआ मगहर की बासी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहुतु बरस = कई सालों तक। कासी = कांशी में। मरनु = मौत। बासी = वास, बसेवा।3।
अर्थ: (हे प्रभु! लोग कहते हैं-) तूने काशी में रह कर कई साल तप किया (पर, उस तप का क्या लाभ?) जब मरने का वक्त आया तो मगहर आकर बस गया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कासी मगहर सम बीचारी ॥ ओछी भगति कैसे उतरसि पारी ॥४॥

मूलम्

कासी मगहर सम बीचारी ॥ ओछी भगति कैसे उतरसि पारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सम = एक जैसे। बीचारी = विचारे हैं, समझे हैं। ओछी = होछी, अधूरी। कैसे = किस तरह? उतरसि = तू उतरेगा। पारी = पार।4।
अर्थ: (हे राम! लोक ताना मारते हैं:) तूने काशी और मगहर को एक समान समझ लिया है, इस होछी भक्ति से (जो तू कर रहा है) कैसे संसार-समुंदर से पार गुजरेगा?।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु गुर गज सिव सभु को जानै ॥ मुआ कबीरु रमत स्री रामै ॥५॥१५॥

मूलम्

कहु गुर गज सिव सभु को जानै ॥ मुआ कबीरु रमत स्री रामै ॥५॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर गजि = गणेश! सभु को = हरेक मनुष्य। जानै = पहचानता है (भाव, समझता है कि यह गणेश और शिव ही मुक्ति देने वाले और छीनने वाले हैं)। मुआ कबीरु = कबीर मर गया है स्वै भाव से, कबीर की मैं मेरी मिट गई है। रमत = स्मरण कर-कर के।5।15।
अर्थ: (हे कबीर!) कह: ‘हरेक मनुष्य गणेश और शिव को ही पहचानता है (भाव, हरेक मनुष्य यही समझ रहा है कि शिव मुक्ति दाता है और गणेश की नगरी मुक्ति छीनने वाली है); पर कबीर तो प्रभु का स्मरण कर करके स्वै भाव ही मिटा बैठा है (कबीर को ये पता करने की जरूरत ही नहीं रही कि उसकी क्या गति होगी)।5।15।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: किसी खास देश अथवा नगरी में मुक्ति नहीं मिल सकती। मुक्त वही है जो प्रभु का भजन करकेअपने अंदर से ‘मैं मेरी’ मिटा चुका है।15।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: आम लोगों में यह वहिम पैदा किया हुआ है कि बनारस आदि तीर्थों पर शरीर त्यागने से मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है। कबीर जी लोगों का यह भ्रम दूर करने के लिए अपनी आखिरी उम्र में बनारस छोड़ आए और मगहर आ बसे। मगहर के बारे में ये वहिम है कि ये धरती श्रापित है। जो यहां मरता है, वह गधे की जोनि में पड़ता है। मगहर गोरखपुर से 15मील पर है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ चोआ चंदन मरदन अंगा ॥ सो तनु जलै काठ कै संगा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ चोआ चंदन मरदन अंगा ॥ सो तनु जलै काठ कै संगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोआ = इत्र। मरदन = मालिश। अंगा = (शरीर के) अंगों को। जलै = जल जाता है। काठ कै संगा = लकड़ियों के साथ।1।
अर्थ: (जिस शरीर के) अंगों को इत्र और चंदन मलते हैं, वह शरीर (आखिर को) लकड़ियों में डाल कर जलाया जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु तन धन की कवन बडाई ॥ धरनि परै उरवारि न जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इसु तन धन की कवन बडाई ॥ धरनि परै उरवारि न जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवन बडाई = कौन सा बड़प्पन है? क्या मान करना हुआ? धरनि = धरती पर। परै = पड़ा रह जाता है। उरवारि = इसी तरफ ही, यहीं। न जाई = (साथ) नहीं जाता।1। रहाउ।
अर्थ: इस शरीर और धन पर क्या गुमान करना? ये यहाँ ही धरती पर पड़े रह जाते हैं (जीव के साथ) नहीं जाते।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राति जि सोवहि दिन करहि काम ॥ इकु खिनु लेहि न हरि को नाम ॥२॥

मूलम्

राति जि सोवहि दिन करहि काम ॥ इकु खिनु लेहि न हरि को नाम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दिन = दिन में सारा दिन। काम = काम काज। करहि = करते हैं। जि = जो मनुष्य। इकु खिनु = रक्ती भर भी, पल मात्र भी। न लेहि = नहीं लेते।2।
अर्थ: जो मनुष्य रात को सोए रहते हैं (भाव, रात सो के गुजार देते हैं), और दिन में (दुनियावी) काम-धंधे करते रहते हैं, पर एक पल मात्र भी प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाथि त डोर मुखि खाइओ त्मबोर ॥ मरती बार कसि बाधिओ चोर ॥३॥

मूलम्

हाथि त डोर मुखि खाइओ त्मबोर ॥ मरती बार कसि बाधिओ चोर ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाथि = (उनके) हाथ मे। त = तो। डोर = (बाजों की) डोरें। मुखि = मुंह में। तंबोर = तंबोल, पान। कसि = कस के, जकड़ के। चोर = चोरों की तरह।3।
अर्थ: जो मनुष्य मुंह में तो पान चबा रहे हैं, और जिनके हाथ में (बाजों की) डोरियां हैं (भाव, जो शिकार आदि शुगल में उलझे रहते हैं), वे मरने के समय चोरों की तरह कस के बाँधे जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति रसि रसि हरि गुन गावै ॥ रामै राम रमत सुखु पावै ॥४॥

मूलम्

गुरमति रसि रसि हरि गुन गावै ॥ रामै राम रमत सुखु पावै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमति = गुरु की मति ले के। रसि रसि = स्वाद ले ले के, बड़े प्रेम से। रामै राम = केवल राम को। रमत = स्मरण कर-कर के।4।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की मति ले के बड़े प्रेम से प्रभु के गुण गाता है, वह केवल प्रभु को स्मरण कर-कर के सुख पाते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरपा करि कै नामु द्रिड़ाई ॥ हरि हरि बासु सुगंध बसाई ॥५॥

मूलम्

किरपा करि कै नामु द्रिड़ाई ॥ हरि हरि बासु सुगंध बसाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिड़ाई = (हृदय में) दृढ़ करवाता है, जपाता है। हरि हरि सुगंध = हरि के नाम की खुशबू। बसाई = बसाता है।5।
अर्थ: प्रभु अपनी मेहर करके जिसके हृदय में अपना नाम बसाता है, उसमें वह ‘नाम’ की खुशबू भी बसा देता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर चेति रे अंधा ॥ सति रामु झूठा सभु धंधा ॥६॥१६॥

मूलम्

कहत कबीर चेति रे अंधा ॥ सति रामु झूठा सभु धंधा ॥६॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे अंधा = हे अंधे मनुष्य! चेति = याद कर। सति = सदा अटल रहने वाला, स्थिर ना रहने वाला।6।16।
अर्थ: कबीर कहता है: हे अज्ञानी जीव! प्रभु को स्मरण कर; प्रभु ही सदा स्थिर रहने वाला है, बाकी सारा जंजाल नाश हो जाने वाला है।6।16।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: ये शरीर, ये धन-पदार्थ, ये राज-रंग -कोई भी अंत समय मनुष्य के काम नहीं आ सकते। बल्कि, ज्यों-ज्यों जीव इन पदार्थों के मोह में उलझते हैं, त्यों-त्यों आखिर के समय ज्यादा दुखी होते हैं। प्रभु का एक ‘नाम’ ही सदा सहाई है। जिस पर प्रभु मेहर करे, उसे ‘नाम’ गुरु-दर से मिलता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दुनिया की असारता के साधारण बयान में, मरे मनुष्य के सिर्फ जलाए जाने का जिक्र साबित करता है कि कबीर जी हिन्दू घर में जन्में-पले थे। ‘बोली’ भी सारी हिन्दुओं वाली प्रयोग करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी तिपदे चारतुके२ ॥ जम ते उलटि भए है राम ॥ दुख बिनसे सुख कीओ बिसराम ॥ बैरी उलटि भए है मीता ॥ साकत उलटि सुजन भए चीता ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी तिपदे चारतुके२ ॥ जम ते उलटि भए है राम ॥ दुख बिनसे सुख कीओ बिसराम ॥ बैरी उलटि भए है मीता ॥ साकत उलटि सुजन भए चीता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उलटि = पलट के, बदल के। बिनसे = नाश हो गए हैं, दूर हो गये हैं। बिसराम = डेरा, ठिकाना। भए हैं = हो गए हैं, बन गए हैं। मीता = मित्र, सज्जन। साकत = ईश्वर से टूटे हुए जीव। सुजन = भले, गुरमुख। चीता = अंतर आतमे।1।
अर्थ: जमों से बदल के प्रभु (का रूप) हो गए हैं (भाव, पहले जो मुझे जम-रूप दिखते थे, अब वे प्रभु का रूप दिखाई देते हैं), मेरे दुख दूर हो गए हैं और सुखों ने (मेरे अंदर) डेरा आ जमाया है। जो पहले वैरी थे, अब वे सज्जन बन गए हैं (भाव, जो इंद्रियां पहले विकारों की तरफ जा के वैरियों वाला काम कर रही थीं, अब वही भली ओर ले जा रही हैं); पहले ये ईश्वर से टूटे हुए थे, अब उलट के अंतर-आतमे गुरमुख बन गए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मोहि सरब कुसल करि मानिआ ॥ सांति भई जब गोबिदु जानिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब मोहि सरब कुसल करि मानिआ ॥ सांति भई जब गोबिदु जानिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मैं। कुसल = सुख शांति, आनंद। जानिआ = जान लिया।1। रहाउ।
अर्थ: अब मुझे सारे सुख आनंद प्रतीत हो रहे हैं; जब का मैंने प्रभु को पहचान लिया है (प्रभु से सांझ डाल ली है) तब से ही (मेरे अंदर) ठंड पड़ गई हैं1। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

तन महि होती कोटि उपाधि ॥ उलटि भई सुख सहजि समाधि ॥ आपु पछानै आपै आप ॥ रोगु न बिआपै तीनौ ताप ॥२॥

मूलम्

तन महि होती कोटि उपाधि ॥ उलटि भई सुख सहजि समाधि ॥ आपु पछानै आपै आप ॥ रोगु न बिआपै तीनौ ताप ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तन महि = शरीर में। होती = होती थीं। कोटि उपाधि = करोड़ों बखेड़े (विकारों के)। उलटि = पलट के। भई = हो गए हैं। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में, प्रभु के नाम रस में। समाधि = समाधि लगाए रखने के कारण, जुड़े रहने के कारण। आपु = अपने आप को। आपै आप = प्रभु ही प्रभु (दिखाई दे रहा है)। न बिआपै = व्याप नहीं सकता, अपना दबाव नहीं डाल सकता।2।
अर्थ: (मेरे शरीर में विकारों के) करोड़ों बखेड़े थे; प्रभु के नाम-रस में जुड़े रहने के कारण वे सारे पलट के सुख बन गए हैं। (मेरे मन ने) अपने असल स्वरूप को पहचान लिया है (अब इसे) प्रभु ही प्रभु दिखाई दे रहा है, रोग और तीनों ताप (अब) छू नहीं सकते।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मनु उलटि सनातनु हूआ ॥ तब जानिआ जब जीवत मूआ ॥ कहु कबीर सुखि सहजि समावउ ॥ आपि न डरउ न अवर डरावउ ॥३॥१७॥

मूलम्

अब मनु उलटि सनातनु हूआ ॥ तब जानिआ जब जीवत मूआ ॥ कहु कबीर सुखि सहजि समावउ ॥ आपि न डरउ न अवर डरावउ ॥३॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उलटि = अपने पहले वाले स्वभाव से हट के, विकारों वाली वादी छोड़ के। सनातनु = पुराना, पुरातन, आदि, जो यह पहले पहल था; (अपने असल रूप में, प्रभु का रूप)। जानिआ = जाना, समझ पड़ी। जीवत मूआ = जीता ही मर गया, दुनिया में बसता हुआ भी दुनिया से निराश हो गया हूँ, लीन हो गया हूँ, मस्त हूँ। डरउ = डरता हूँ। अवर = और लोगों को।3।17।
अर्थ: अब मेरा मन (अपने पहले विकारों वाले स्वभाव से) हट के प्रभु का रूप हो गया है; (इस बात की) तब समझ आई है जब (यह मन) माया में विचरता हुआ भी माया के मोह से ऊँचा हो गया है।
हे कबीर! (अब बेशक) कह: मैं आत्मिक आनंद में अडोल अवस्था में जुड़ा हुआ हूँ; ना मैं खुद किसी और से डरता हूँ और ना ही और लोगों को डराता हूँ।3।17।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जब नाम स्मरण कर-कर के प्रभु के चरणों में जीव का चिक्त जुड़ जाए, तब ये सुखी हो जाता है, मन माया के विकारों की तरफ से हट जाता है, और माया में बरतता (रहता) हुआ भी माया के मोह में नहीं फंसता।17।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के शीर्षक के शब्द ‘तुके’ के नीचे एक छोटा सा अंक ‘2’ है। ये दो शब्द (नं: 17 और18) ऐसे हैं, जिनके हरेक ‘बंद’ में चार-चार तुकें हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ पिंडि मूऐ जीउ किह घरि जाता ॥ सबदि अतीति अनाहदि राता ॥ जिनि रामु जानिआ तिनहि पछानिआ ॥ जिउ गूंगे साकर मनु मानिआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ पिंडि मूऐ जीउ किह घरि जाता ॥ सबदि अतीति अनाहदि राता ॥ जिनि रामु जानिआ तिनहि पछानिआ ॥ जिउ गूंगे साकर मनु मानिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिंड = शरीर, शरीर का मोह, देह अध्यास। पिंडि मूऐ = शरीर के मरने से, शरीर के मोह के मरने से, देह अध्यास दूर होने से। जीउ = आत्मा। किह घरि = किस घर में, कहाँ? सबदि = (गुरु के) शब्द द्वारा, शब्द की इनायत से। अतीति = अतीत में, उस प्रभु में जो अतीत है जो माया के बंधनों से परे है। अनाहदि = अनाहद में, बेअंत प्रभु में। राता = रता रहता है, मस्त रहता है। जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनहि = उसी (मनुष्य) ने। गूँगे मनु = गूँगे का मन।1।
अर्थ: (प्रश्न:) शरीर का मोह दूर होने से आत्मा कहाँ टिकती है? (भाव, पहले तो जीव अपने शरीर के मोह के कारण माया में मस्त रहता है, जब ये मोह दूर हो जाए, तब जीव की तवज्जो कहाँ जुड़ी रहती है?) (उक्तर:) (तब आत्मा) सतिगुरु के शब्द की इनायत से उस प्रभु में जुड़ा रहता है जो माया के बंधनों से परे है और बेअंत है। (पर) जिस मनुष्य ने प्रभु को (अपने अंदर) जाना है उसने ही उसको पहचाना है, जैसे गूँगे का मन शक्कर में पतीजता है (कोई और उस स्वाद को नहीं समझता, किसी और को वह समझा भी नहीं सकता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा गिआनु कथै बनवारी ॥ मन रे पवन द्रिड़ सुखमन नारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा गिआनु कथै बनवारी ॥ मन रे पवन द्रिड़ सुखमन नारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथै = बता सकता है। बनवारी = जगत-रूप बन का मालिक प्रभु (खुद ही अपनी कृपा करके)। मन रे = हे मन! पवन द्रिढ़ु = श्वासों की संभाल (भाव,श्वासों को खाली ना जाने दे) स्वास स्वास नाम जप। सुखमन नारी = (यही है) सुखमना नाड़ी (का अभ्यास) (प्राणायाम का अभ्यास करने वाले जोगी तो बाई नासिका के रास्ते साँस ऊपर खींच के दोनों भरवटों के बीच माथे में सुखमन नाड़ी में टिकाते हैं और, फिर दाई नासिका के रास्ते उतार देते हैं कबीर जी इस साधन की जगह गुरु की शरण पड़ कर स्वास-स्वास नाम जपने की हिदायत करते हैं)।1। रहाउ।
अर्थ: ऐसा ज्ञान प्रभु खुद ही प्रगट करता है (भाव, प्रभु से मिलाप वाला ये स्वाद प्रभु खुद ही बख्शता है, इसलिए) हे मन! स्वास-स्वास नाम जप, यही है सुखमना नाड़ी का अभ्यास।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो गुरु करहु जि बहुरि न करना ॥ सो पदु रवहु जि बहुरि न रवना ॥ सो धिआनु धरहु जि बहुरि न धरना ॥ ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना ॥२॥

मूलम्

सो गुरु करहु जि बहुरि न करना ॥ सो पदु रवहु जि बहुरि न रवना ॥ सो धिआनु धरहु जि बहुरि न धरना ॥ ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहु = धारण करो। जि = कि। बहुरि = फेर, दूसरी बार। पदु = दर्जा, ठिकाना। रमहु = रम जाओ, भोगो। न रवना = भोगने की आवश्यक्ता ना रहे।2।
अर्थ: ऐसा गुरु धारण करो कि दूसरी बार गुरु धारण करने की जरूरत ना रहे; (भाव, पूरे गुरु की चरणी लगो); उस ठिकाने का आनंद लो कि किसी और स्वाद को भोगने की चाह ही ना रहे; ऐसी तवज्जो जोड़ो कि फिर (और कहीं) जोड़ने की जरूरत ही ना रहे; इस तरह मरो (भाव, स्वै भाव दूर करो कि) फिर (जनम) मरण में पड़ना ही ना पड़े।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलटी गंगा जमुन मिलावउ ॥ बिनु जल संगम मन महि न्हावउ ॥ लोचा समसरि इहु बिउहारा ॥ ततु बीचारि किआ अवरि बीचारा ॥३॥

मूलम्

उलटी गंगा जमुन मिलावउ ॥ बिनु जल संगम मन महि न्हावउ ॥ लोचा समसरि इहु बिउहारा ॥ ततु बीचारि किआ अवरि बीचारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उलटी = उलटाई है, मन की रुचि दुनिया से मोड़ ली है। गंगा जमुन मिलावउ = (इस तरह) मैं गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, जो संगम मैंने अपने अंदर बनाया हुआ है वहाँ त्रिवेणी वाला पानी नहीं है)। नावउ = मैं नहा रहा हूँ, स्नान कर रहा हूँ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नाव्उ’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (न्हावउ)।

दर्पण-भाषार्थ

लोचा = लाचन से, आखों से। समसरि = एक जैसा (सबको देखता हूँ)। बिउहारा = बर्ताव, अमल, वरतारा। ततु = असलियत, परमात्मा। बीचारि = स्मरण करके। अवरि = और। बीचारा = विचारें, सोचें।3।
अर्थ: मैंने अपने मन की रुचि को पलट दिया है (इस तरह) मैं गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, अपने अंदर तृवेणी का संगम बना रहा हूँ); (इस उद्यम से) मैं उस मन-स्वरूप (तृवेणी) संगम में स्नान कर रहा हूँ जहाँ (गंगा-जमुना-सरस्वती वाला) जल नहीं है; (अब मैं) इन आँखों से (सब को) एक सा देख रहा हूँ- ये मेरा व्यवहार है। एक प्रभु को स्मरण करके मुझे अब और विचारों की जरूरत नहीं रही।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपु तेजु बाइ प्रिथमी आकासा ॥ ऐसी रहत रहउ हरि पासा ॥ कहै कबीर निरंजन धिआवउ ॥ तितु घरि जाउ जि बहुरि न आवउ ॥४॥१८॥

मूलम्

अपु तेजु बाइ प्रिथमी आकासा ॥ ऐसी रहत रहउ हरि पासा ॥ कहै कबीर निरंजन धिआवउ ॥ तितु घरि जाउ जि बहुरि न आवउ ॥४॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपु = जल। तेजु = हवा। ऐसी = ऐसी। रहत = रहन-सहन, जिंदगी गुजारने का तरीका। रहउ = मैं रहता हूँ। हरि पासा = हरि के पास, प्रभु के चरणों में जुड़ के। धिआवउ = मैं स्मरण कर रहा हूँ। तितु घरि = उस घर में। जाउ = मैं चला गया हूँ, पहुँच गया हूँ। जि = कि। न आवउ = नहीं आऊँगा, आना नहीं पड़ेगा।4।18।
अर्थ: प्रभु के चरणों में जुड़ के मैं इस तरह का रहन-सहन (रहने की शैली) रह रहा हूँ, जैसे पानी, आग, हवा, धरती और आकाश (भाव, इन तत्वों के शीतलता आदि सब गुणों की तरह मैंने भी सब गुण धारण किए हैं)। कबीर कहता है: मैं माया से रहित प्रभु को स्मरण कर रहा हूँ, (स्मरण करके) उस घर (सहज अवस्था) में पहुँच गया हूँ कि फिर (पलट के वहाँ) आना नहीं पड़ेगा।4।18।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रभु की कृपा से जो मनुष्य पूरन गुरु का उपदेश ले के स्मरण करता है, वह सदा अपने अंतर-आत्मे नाम-अंमृत में डुबकी लगाए रखता है और सदा प्रभु में जुड़ा रहता है।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी तिपदे१५ ॥ कंचन सिउ पाईऐ नही तोलि ॥ मनु दे रामु लीआ है मोलि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी तिपदे१५ ॥ कंचन सिउ पाईऐ नही तोलि ॥ मनु दे रामु लीआ है मोलि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंचन सिउ = सोने से, सोना दे के, सोने के बदले। पाईऐ नही = नहीं मिलता। तोलि = तोल के। दे = दे के। मोलि = मुल्य की जगह, मोल।1।
अर्थ: शुद्ध सोना तोल के बदले में ईश्वर नहीं मिलता, मैंने तो बतौर मूल्य अपना मन दे के ईश्वर को पाया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मोहि रामु अपुना करि जानिआ ॥ सहज सुभाइ मेरा मनु मानिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब मोहि रामु अपुना करि जानिआ ॥ सहज सुभाइ मेरा मनु मानिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अब तो मुझे यकीन हो गया है कि ईश्वर मेरा अपना ही है, सहज ही मेरे मन में ये बात गाँठ की तरह बंध गई है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमै कथि कथि अंतु न पाइआ ॥ राम भगति बैठे घरि आइआ ॥२॥

मूलम्

ब्रहमै कथि कथि अंतु न पाइआ ॥ राम भगति बैठे घरि आइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मैं। अपुना करि = निश्चय से अपना। सहज सुभाइ = सहज से ही, बिना यत्न किए। घरि = घर में, हृदय में।2।
अर्थ: जिस ईश्वर के गुण बता-बता के ब्रहमा ने (भी) अंत ना पाया, वह ईश्वर मेरे भजन के कारण सहज स्वभाव ही मुझे मेरे हृदय में आ के मिल गया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर चंचल मति तिआगी ॥ केवल राम भगति निज भागी ॥३॥१॥१९॥

मूलम्

कहु कबीर चंचल मति तिआगी ॥ केवल राम भगति निज भागी ॥३॥१॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चंचल = चुलबुलापन। मति = अकल, बुद्धि। तिआगी = त्याग दी है, छोड़ दी है। केवल = निरी। निज भागी = मेरे हिस्से आई है।3।
अर्थ: हे कबीर! (अब) कह: मैंने चंचल स्वभाव छोड़ दिया है, (अब तो) निरी ईश्वर की भक्ति ही मेरे हिस्से आई हुई है।3।19।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: धन-पदार्थ आदि के बदले ईश्वर नहीं मिल सकता। जिस मनुष्य ने स्वैभाव दूर किया है, उसे आत्मिक अडोलता में आ मिला है, वह मनुष्य मन की चंचलता त्याग के सदा स्मरण में जुड़ा रहता है।19।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के शीर्षक के शब्द ‘तिपदे’ के नीचे छोटा सा अंक ‘15’ है। इस का भाव ये है कि शब्द नं: 19 से 33 तक के 15 शब्द तीन-तीन बंदों (पदों) वाले हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मरनै सभु जगतु तरासिआ ॥ सो मरना गुर सबदि प्रगासिआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मरनै सभु जगतु तरासिआ ॥ सो मरना गुर सबदि प्रगासिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह मरनै = जिस मौत से। तरासिआ = त्रास किया, डरा दिया। गुर सबदि = गुरु के शब्द (की इनायत) से। प्रगासिआ = प्रगट हो गया है, उसका असली रूप दिखाई दिया है, मालूम हो गया है कि असल में ये क्या है।1।
अर्थ: जिस मौत ने सारा संसार डराया हुआ है, गुरु के शब्द की इनायत से मुझे समझ आ गई है कि वह मौत असल में क्या चीज है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब कैसे मरउ मरनि मनु मानिआ ॥ मरि मरि जाते जिन रामु न जानिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब कैसे मरउ मरनि मनु मानिआ ॥ मरि मरि जाते जिन रामु न जानिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरउ = मैं मरूँ, जनम मरण में पड़ूँ। मरनि = मरने में, मौत में, संसारिक मोह की मौत में, स्वै भाव की मौत में। मरि मरि जाते = सदा मरते खपते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: अब मैं जनम-मरण के चक्कर में क्यूँ पड़ूंगा? (भाव, नहीं पड़ूंगा) (क्योंकि) मेरा मन स्वै भाव की मौत में पतीज गया है। (केवल) वह मनुष्य सदा पैदा होते मरते रहते हैं जिन्होंने प्रभु को नहीं पहचाना (प्रभु से सांझ नहीं डाली)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरनो मरनु कहै सभु कोई ॥ सहजे मरै अमरु होइ सोई ॥२॥

मूलम्

मरनो मरनु कहै सभु कोई ॥ सहजे मरै अमरु होइ सोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरनो मरनु = मौत आ जानी है, मर जाना है। सभु कोई = हरेक जीव। सहजे = सहज अडोलता में, स्थिर चिक्त हो के। मरै = मरता है, माया की ओर से मरता है, दुनियां की ख्वाहिशों से बेपरवाह हो जाता है। अमरु = मरने से रहित, सदा जिंदा। सोई = वह मनुष्य।2।
अर्थ: (दुनिया में) हरेक जीव ‘मौत मौत’ कह रहा है (भाव, हरेक जीव मौत से घबरा रहा है), (पर जो मनुष्य) अडोलता में (रह के) दुनियां की ख्वाहिशों से बेपरवाह हो जाता है वह अमर हो जाता है (उसे मौत डरा नहीं सकती)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर मनि भइआ अनंदा ॥ गइआ भरमु रहिआ परमानंदा ॥३॥२०॥

मूलम्

कहु कबीर मनि भइआ अनंदा ॥ गइआ भरमु रहिआ परमानंदा ॥३॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। भइआ = हुआ है, उपजा है, पैदा हो गया है। अनंदा = खुशी, खिड़ाव। भरमु = भुलेखा, शक। रहिआ = बाकी रह गया है, टिक गया है। परमानंदा = परम आनंद, परम सुख, बड़ी से बड़ी खुशी।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: (गुरु की कृपा से मेरे) मन में आनंद पैदा हो गया है, मेरा भुलेखा दूर हो चुका है, और परम सुख (मेरे हृदय में) टिक गया है।3।20।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करते हैं उन्हें मौत का डर नहीं रहता, बाकी सारा जहान मौत से डर रहा है।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ कत नही ठउर मूलु कत लावउ ॥ खोजत तन महि ठउर न पावउ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ कत नही ठउर मूलु कत लावउ ॥ खोजत तन महि ठउर न पावउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कत = कहाँ। ठउर = जगह। मूलु = जड़ी बूटी, दवाई। कत = कहाँ? लावउ = मैं लगाऊँ। खोजत = तलाश करके। तन महि = शरीर में। न पावउ = मैं नहीं तलाश सकता।1।
अर्थ: तलाश करते हुए भी शरीर में कहीं (ऐसी खास) जगह मुझे नहीं मिली (जहाँ विरह की पीड़ा बताई जा सके); (शरीर में) कहीं (ऐसी) जगह नहीं है, (तो फिर) मैं दवा कहाँ इस्तेमाल करूँ? (भाव, कोई बाहरी दवा प्रभु से विछोड़े का दुख दूर करने के समर्थ नहीं है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लागी होइ सु जानै पीर ॥ राम भगति अनीआले तीर ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

लागी होइ सु जानै पीर ॥ राम भगति अनीआले तीर ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सु = वह मनुष्य। लागी होइ = (जिसे) लगी हुई हो। पीर = पीड़ा। राम भगति = प्रभु की भक्ति। अनीआले = तेज धार वाले, नुकीले।1। रहाउ।
अर्थ: प्रभु की भक्ति तीखे तीर हैं, जिसे (इन तीरों के लगे हुए के जख्म की) दर्द हो रही हो वही जानता है (कि ये पीड़ा कैसी होती है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक भाइ देखउ सभ नारी ॥ किआ जानउ सह कउन पिआरी ॥२॥

मूलम्

एक भाइ देखउ सभ नारी ॥ किआ जानउ सह कउन पिआरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक भाइ = एक (प्रभु) के प्यार में (भाउ = प्यार। भाइ = प्यार में)। देखउ = मैं देखता हूँ। सभ नारी = सारी जीव स्त्रीयां। किआ जानउ = मैं क्या जानूं, मुझे क्या पता? सह प्यारी = पति की प्यारी।2।
अर्थ: मैं सभी जीव-स्त्रीयों को एक प्रभु के प्यार में देख रहा हूँ (पर) मैं क्या जानूं कि कौन सी (जीव-स्त्री) प्रभु पति की प्यारी है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर जा कै मसतकि भागु ॥ सभ परहरि ता कउ मिलै सुहागु ॥३॥२१॥

मूलम्

कहु कबीर जा कै मसतकि भागु ॥ सभ परहरि ता कउ मिलै सुहागु ॥३॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै मसतकि = जिसके माथे पर। भागु = अच्छे लेख। ता कउ = उस जीव-स्त्री को। सभ परहरि = सभी को छोड़ के। सुहागु = पति परमात्मा।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: जिस (जिज्ञासु) जीव-सत्री के माथे पे बढ़िया लेख हैं (जिसके भाग्य अच्छे हैं), पति प्रभु और सभी को छोड़ के उसे आ मिलता है (भाव, औरों से ज्यादा उससे प्यार करता है और उसका बिरह का दुख दूर हो जाता है)।3।21।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: देखने को तो सब जीव प्रभु से मिलने का उद्यम कर रहे हैं, पर प्रभु मिलता उसी भाग्यशाली को है, जिसका हृदय प्रेम से भेदा जाता है।21।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जा कै हरि सा ठाकुरु भाई ॥ मुकति अनंत पुकारणि जाई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जा कै हरि सा ठाकुरु भाई ॥ मुकति अनंत पुकारणि जाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै = जिसके हृदय रूप घर में। हरि सा = परमात्मा जैसा (भाव, परमात्मा स्वयं)। ठाकुरु = मालिक। भाई = हे भाई! अनंत = अनेक बार। पुकारणि जाई = बुलाने के लिए जाती है (अपना आप भेट करती है)।1।
अर्थ: हे सज्जन! जिस मनुष्य के हृदय रूपी घर में प्रभु मालिक खुद मौजूद है, मुक्ति उसके आगे अपना आप अनेक बार भेटा करती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब कहु राम भरोसा तोरा ॥ तब काहू का कवनु निहोरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब कहु राम भरोसा तोरा ॥ तब काहू का कवनु निहोरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अब = अब। कहु = कह। राम = हे प्रभु! तोरा = तेरा। काहू का = किसी और का। कवनु = कौन सा, क्या? निहोरा = अहसान।1। रहाउ।
अर्थ: (हे कबीर! प्रभु की हजूरी में) अब कह: हे प्रभु! जिस मनुष्य को एक तेरा आसरा है उसे अब किसी की खुशामद (करने की जरूरत) नहीं है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीनि लोक जा कै हहि भार ॥ सो काहे न करै प्रतिपार ॥२॥

मूलम्

तीनि लोक जा कै हहि भार ॥ सो काहे न करै प्रतिपार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै भार = जिस (प्रभु) के आसरे। काहे न = क्यूं ना? प्रतिपार = पालना।2।
अर्थ: जिस प्रभु के आसरे तीनों लोक हैं, वह (तेरी) पालना क्यूँ ना करेगा?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥ किआ बसु जउ बिखु दे महतारी ॥३॥२२॥

मूलम्

कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥ किआ बसु जउ बिखु दे महतारी ॥३॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुधि = अकल, सोच। बीचारी = विचारी है, सोची है। जउ = यदि, अगर। बिखु = विष, जहर। महतारी = माँ। बसु = वश, जोर।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: हमने एक सोच सोची है (वह ये है कि) अगर माँ ही जहर देने लगे तो (पुत्र का) कोई जोर नहीं चल सकता।3।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ बिनु सत सती होइ कैसे नारि ॥ पंडित देखहु रिदै बीचारि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ बिनु सत सती होइ कैसे नारि ॥ पंडित देखहु रिदै बीचारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होइ कैसे = कैसे हो सकती है? कैसे कह सकती है? सत = स्वच्छ आचरण। नारि = स्त्री। पंडित = हे पंडित! बीचारि = विचार करके।1।
अर्थ: हे पंडित! मन में विचार के देख, भला सत्य-धर्म के बिना कोई स्त्री सती कैसे बन सकती है?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति बिना कैसे बधै सनेहु ॥ जब लगु रसु तब लगु नही नेहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रीति बिना कैसे बधै सनेहु ॥ जब लगु रसु तब लगु नही नेहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बधै = बन सकता है। सनेहु = प्यार। रसु = माया का स्वाद।1। रहाउ।
अर्थ: (इसी तरह हृदय में) प्रीति के बिना (प्रभु पति से) प्यार कैसे बन सकता है? जब तक (मन में) माया का चस्का है, तब तक (पति परमात्मा से) प्यार नहीं हो सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहनि सतु करै जीअ अपनै ॥ सो रमये कउ मिलै न सुपनै ॥२॥

मूलम्

साहनि सतु करै जीअ अपनै ॥ सो रमये कउ मिलै न सुपनै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साहनि = शाह की बीवी, प्रभू = शाह की स्त्री, माया। सतु करै = सत्य समझता है। जीअ = हृदय में। रमये कउ = राम को।2।
अर्थ: जो मनुष्य माया को ही अपने दिल में सत्य समझता है वह प्रभु को सपने में भी (भाव, कभी भी) नहीं मिल सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु मनु धनु ग्रिहु सउपि सरीरु ॥ सोई सुहागनि कहै कबीरु ॥३॥२३॥

मूलम्

तनु मनु धनु ग्रिहु सउपि सरीरु ॥ सोई सुहागनि कहै कबीरु ॥३॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सउपि = सौंपे, हवाले कर दे। सुहागनि = सुहाग वाली, भाग्यशाली।3।
अर्थ: कबीर कहता है: वह (जीव-) स्त्री भाग्यशाली है जो अपना तन-मन-धन-घर और शरीर (अपने पति के) हवाले कर देती है।3।23।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: माया का मोह त्यागने से ही प्रभु के चरणों में प्यार बन सकता है। दोनों इकट्ठे नहीं टिक सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ बिखिआ बिआपिआ सगल संसारु ॥ बिखिआ लै डूबी परवारु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ बिखिआ बिआपिआ सगल संसारु ॥ बिखिआ लै डूबी परवारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। सगल = सारा। बिआपिआ = ग्रसा हुआ, दबा हुआ।1।
अर्थ: सारा जहान ही माया के (प्रभाव तले) दबा हुआ है; माया सारे ही कुटंब को (सारे ही जीवों को) डुबोए बैठी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे नर नाव चउड़ि कत बोड़ी ॥ हरि सिउ तोड़ि बिखिआ संगि जोड़ी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रे नर नाव चउड़ि कत बोड़ी ॥ हरि सिउ तोड़ि बिखिआ संगि जोड़ी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाव = बेड़ी। चउड़ि = खुली जगह, खुले मैदान में। बोड़ी = डुबाई। बिखिआ संगि = माया के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मनुष्य! तूने (अपनी जिंदगी की) बेड़ी क्यूँ खुली जगह पर डुबो ली है? तूने प्रभु से प्रीति तोड़ के माया के साथ गाँठी हुई है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरि नर दाधे लागी आगि ॥ निकटि नीरु पसु पीवसि न झागि ॥२॥

मूलम्

सुरि नर दाधे लागी आगि ॥ निकटि नीरु पसु पीवसि न झागि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुरि = देवते। नर = मनुष्य। दाधे = जल गए। निकटि = नजदीक। पीवसि न = नहीं पीता। झागि = मुश्किल से गुजर के, उद्यम करके।2।
अर्थ: (सारे जगत में माया की तृष्णा की) आग लगी हुई है (जिस में) देवते और मनुष्य जल रहे हैं। (इस आग को शांत करने के लिए नाम-रूपी) पानी भी नजदीक ही है पर (यह) पशु (जीव) कोशिश करके पीता नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेतत चेतत निकसिओ नीरु ॥ सो जलु निरमलु कथत कबीरु ॥३॥२४॥

मूलम्

चेतत चेतत निकसिओ नीरु ॥ सो जलु निरमलु कथत कबीरु ॥३॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेतत चेतत = याद करते करते, स्मरण करने से। निकसिओ = निकल आया। निरमलु = साफ़। कथत = कहता है।3।
अर्थ: कबीर कहता है: (वह नाम-रूपी) पानी स्मरण करते करते ही (मनुष्य के दिल में) प्रगट होता है, और वह (अमृत) जल पवित्र होता है, (तृष्णा की आग उसी जल से बुझ सकती है)।3।24।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: वह तृष्णा की आग जिसमें सारा जगत जल रहा है, केवल प्रभु के नाम रूपी अमृत के साथ ही बुझ सकती है। सो, हर समय नाम ही स्मरण करो।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥ बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥ बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह कुलि = जिस कुल में। बिधवा = ठंडी। कस = क्यूं? महतारी = माँ।1।
अर्थ: जिस कुल में ज्ञान की विचार करने वाला (कोई) पुत्र नहीं (पैदा हुआ) उसकी माँ रंडी क्यों ना हो गई?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह नर राम भगति नहि साधी ॥ जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जिह नर राम भगति नहि साधी ॥ जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम भगति = प्रभु की बंदगी। साधी = की। जनमत = पैदा होते ही। अपराधी = पापी।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य ने प्रभु की बँदगी नहीं की, वह अपराधी पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया?।1।रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥ बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥

मूलम्

मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥ बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मचु मचु = बहुत सारे। कीन = क्यूँ? बुडभुज रूप = डुडे की तरह। मझिआ = में।2।
अर्थ: (संसार में) कई गर्भ छन गए हैं, ये (बंदगी-हीन चंदरा) क्यूँ बच रहा? (बंदगी से वंचित यह) जगत में एक कोढ़ी जी रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥ नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥

मूलम्

कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥ नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुबज = कुब्बा। कुरूप = भद्दे रूप वाले, बद्शकल।3।
अर्थ: हे कबीर! (बेशक) कह: जो मनुष्य नाम से वंचित हैं, वे (चाहे देखने में) सुंदर रूप वाले हैं (पर असल में) कुब्बे और बद्शकल हैं।3।24।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जो मनुष्य परमात्मा की बंदगी नहीं करता, वह बाहर से देखने में चाहे सुंदर हो, पर उसकी आत्मा मलीन होने के कारण जगत में उसका आना व्यर्थ है।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जो जन लेहि खसम का नाउ ॥ तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जो जन लेहि खसम का नाउ ॥ तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लेहि = लेते हैं। सद = सदा। बलिहारै जाउ = मैं सदके जाता हूँ।1।
अर्थ: जो मनुष्य मालिक प्रभु का नाम स्मरण करते हैं, मैं सदा उनके सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥ सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥ सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र। भाई = भ्राता। भावै = प्यारा लगता है।1। रहाउ।
अर्थ: जो भाई प्रभु के सुंदर गुण गाता है, वह पवित्र है, और वह मेरे मन को प्यारा लगता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥ तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥

मूलम्

जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥ तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह घट = जिस मनुष्यों के हृदयों में। रहिआ भरपूरि = नाकोनाक भरा हुआ है, प्रगट हो गया है। पग = पैर। पंकज = (पंक = कीचड़, ज = पैदा हुआ), कीचड़ में से पैदा हुआ, कँवल फूल। धूरि = धूल।2।
अर्थ: जिस मनुष्यों के हृदय में प्रभु प्रगट हो गया है, उनके कमल फूल जैसे (सुंदर) चरणों की हम धूल हैं (भाव, चरणों से सदके हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाति जुलाहा मति का धीरु ॥ सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥

मूलम्

जाति जुलाहा मति का धीरु ॥ सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धीरु = धैर्य वाला। सहजि = सहिज में, अडोल अवस्था में रह के। रमै = स्मरण करता है।3।
अर्थ: कबीर चाहे जाति का जुलाहा है, पर मति का धैर्यवान है (क्योंकि) अडोलता में रह के (प्रभु के) गुण गाता है।3।26।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: किसी भी जाति का हो, जो मनुष्य प्रभु के गुण गाता है, उसका मन पवित्र हो जाता है।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ गगनि रसाल चुऐ मेरी भाठी ॥ संचि महा रसु तनु भइआ काठी ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ गगनि रसाल चुऐ मेरी भाठी ॥ संचि महा रसु तनु भइआ काठी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गगन = आकाश, दसवाँ द्वार। गगनि = आकाश में से, दसवें द्वार में से। गगनि भाठी = दसवाँ-द्वार रूपी भट्ठी में से। रसाल = रसीला, स्वादिष्ट। चुऐ = चू रहा है (अमृत)। संचि = एकत्र करके। काठी = लकड़ियां। तनु = शरीर, शरीर की ममता, देह अध्यास।1।
अर्थ: मेरी गगन-रूपी भट्ठी में से स्वादिष्ट अमृत चू रहा है (भाव, ज्यों ज्यों मेरा मन प्रभु की याद में जुड़ता है, उस याद में जुड़े रहने की एक-तार लगन, जैसे अमृत की धार निकलनी शुरू हो जाती है), उस उच्च नाम-रस को एकत्र करने के कारण शरीर (की ममता) लकड़ियों का काम कर रही है (भाव, शरीर की ममता जल गई है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उआ कउ कहीऐ सहज मतवारा ॥ पीवत राम रसु गिआन बीचारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

उआ कउ कहीऐ सहज मतवारा ॥ पीवत राम रसु गिआन बीचारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उआ कउ = उस मनुष्य को। सहज = कुदरती तौर पर। मतवारा = मतवाला, मस्त। गिआन बीचारा = ज्ञान के विचार के द्वारा।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य ने ज्ञान के विचार के द्वारा (भाव, तवज्जो माया से ऊूंची करके) राम-रस पीया है, उसे कुदरती तौर पे (भाव, स्वभाविक ही) मस्त हुआ हुआ कहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज कलालनि जउ मिलि आई ॥ आनंदि माते अनदिनु जाई ॥२॥

मूलम्

सहज कलालनि जउ मिलि आई ॥ आनंदि माते अनदिनु जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = सहज अवस्था में, अडोलता। कलालनि = शराब पिलाने वाली। जउ = जब। माते = मस्त हो के। अनदिनु = हर रोज। जाई = गुजरता है, बीतता है।2।
अर्थ: जब सहज अवस्था-रूप शराब पिलाने वाली आ मिलती है तब आनंद में मस्त हो के (उम्र का) हरेक दिन बीतता है (भाव, नाम स्मरण करते हुए मन में एक ऐसी हालत पैदा होती है जहाँ मन माया के झोकों में डोलता नहीं। इस हालत को सहज अवस्था कहते हैं; ये सहज अवस्था जैसे, एक कलालिन है, जो नाम का नशा दिए जाती है; इस नशे से विछुड़ने को चित्त नहीं करता, और बार-बार नाम की लगन में ही टिका रहता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीनत चीतु निरंजन लाइआ ॥ कहु कबीर तौ अनभउ पाइआ ॥३॥२७॥

मूलम्

चीनत चीतु निरंजन लाइआ ॥ कहु कबीर तौ अनभउ पाइआ ॥३॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चीनत = देख देख के, आनंद ले के, परख परख के। तौ = तब। अनभउ = प्रकाश, ज्ञान, अंदरूनी प्रकाश।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: (इस तरह) आनंद ले ले के जब मैंने अपना मन निरंकार के साथ जोड़ा, तब मुझे अंदरूनी रौशनी मिल गई।3।27।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: (नाम जपने की इनायत): नाम स्मरण करते स्मरण करते मन माया में डोलने से हट जाता है, नाम में जुड़े रहने की लगन बढ़ती जाती है, शरीर का मोह मिट जाता है, और मानव जीवन की अस्लियत की असल सूझ पड़ जाती है।27।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द का केंद्रिय भाव ‘रहाउ’ की पंक्ति में होता है। यहाँ कहा है कि जो मनुष्य सदा नाम स्मरण करता है वह एक ऐसी दशा में पहुँचता है जहाँ उसका मन माया में डोलता नहीं। इस अवस्था में ज्यों ज्यों वह प्रभु की याद में जुड़ता है, त्यों त्यों हिलोरे आते हैं, मस्ती सी चढ़ती है।
जोगी लोग शराब पी के समाधि लगाते थे, पर कबीर जी ने उस साधन की यहाँ निंदा की है; और स्मरण को ही प्रभु चरणों में जुड़ने का सबसे ऊूंचा तरीका बताया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ मन का सुभाउ मनहि बिआपी ॥ मनहि मारि कवन सिधि थापी ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ मन का सुभाउ मनहि बिआपी ॥ मनहि मारि कवन सिधि थापी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनहि बिआपी = (सारे) मन पर प्रभाव डाले रखता है। मनहि मारि = मन को मार के। कवन सिधि = कौन सी सफलता? थापी = मिथ ली है, कमा ली है। सुभाउ = (स्व+भाव) निज की लगन, रुचि।1।
अर्थ: (हरेक मनुष्य के) मन की अंदरूनी लगन (जो भी हो, वह उस मनुष्य के) सारे मन (भाव, मन की सारी दौड़-भाग, सारे मानव जीवन) पर प्रभाव डाले रखती है, (तो फिर) मन को मार के कौन सी कमाई कर ली है (भाव, कोई कामयाबी नहीं होती)।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कवनु सु मुनि जो मनु मारै ॥ मन कउ मारि कहहु किसु तारै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कवनु सु मुनि जो मनु मारै ॥ मन कउ मारि कहहु किसु तारै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारि = मार के। कहहु = बताओ। किसु = किसे?।1। रहाउ।
अर्थ: वह कौन सा मुनि है जो मन को मारता है? बताओ, मन को मार के वह किसे पार लंघाता है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन अंतरि बोलै सभु कोई ॥ मन मारे बिनु भगति न होई ॥२॥

मूलम्

मन अंतरि बोलै सभु कोई ॥ मन मारे बिनु भगति न होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन अंतरि = मन के अंदर, मन के प्रभाव तहत, मन से प्रेरित हुआ। सभु कोई = सब जीव।2।
अर्थ: हरेक मनुष्य मन का प्रेरित हुआ ही बोलता है (भाव, जो अच्छे-बुरे काम मनुष्य करता है, उनके लिए प्रेरणा मन से ही होती है; इस वास्ते) मन को मारे बिना (भाव, मन को विकारों से हटाए बिना) भक्ति (भी) नहीं हो सकती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर जो जानै भेउ ॥ मनु मधुसूदनु त्रिभवण देउ ॥३॥२८॥

मूलम्

कहु कबीर जो जानै भेउ ॥ मनु मधुसूदनु त्रिभवण देउ ॥३॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेउ = भेद। मधु सूदनु = मधु दैंत को मारने वाला, परमात्मा। त्रिभवण देउ = तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: जो मनुष्य इस रम्ज़ को समझता है उसका मन तीन लोकों को प्रकाशित करने वाला परमात्मा का रूप हो जाता है।3।28।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: जो जो अच्छा-बुरा काम आदमी करता रहता है उन सबके संस्कार मनुष्य के अंदर एकत्र होते रहते हैं, संस्कारों के इस समूह का नाम है ‘मन’। जब कोई एक खास अच्छी या बुरी वादी बन जाए तो वह मन के बाकी संस्कारों को दबा के रखती है और मनुष्य के सारे जीवन को उधर ही पलटा लेती है। मनुष्य की सारी दौड़-भाग मन के इन संस्कारों की प्रेरणा के आसरे होती है। अगर मन को मारने का प्रयत्न किया जाए, मन को बिल्कुल ही खत्म कर देने की कोशिश की जाए तो मनुष्य के जीवन की सारी क्रिया ही ठहर जाएगी। सो, मन को मारना नहीं है, इसकी उन रुचियों को वश में लाना है जो बुरी तरफ़ ले जाती हैं, जैसे;
कामु क्रोधु दुइ करहु बसोले गोडहु धरती भाई॥ जिउ गोडहु तिउ सुखु पावहु किरतु न मेटिआ जाई॥ (बसंतु महला १)
काम (प्यार) और क्रोध को खत्म नहीं करना, इन्हें बसोले बनाना है। जैसे जिमींदार खेती में गोड़ी करके बेकार वाली घास बूटियां उखाड़ता है, पर फसल के पौधों को ध्यान से बचाए जाता है। इसी प्रकार मानव-जीवन रूपी फसल में से विकारों के संस्कारों वाले नदीनों को जड़ से उखाड़ना है; विकारों के संस्कारों पर, जैसे, क्रोध करना है, पर शुभ गुणों को प्यार करना है, संभाल के रखना है।28।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द में जोगियों के सुन्नमुन्न हो के बैठे रहने को व्यर्थ का उद्यम बताते हुए कबीर जी कहते हैं कि असल में मन को विकारों की तरफ से रोकना है, और जगत का कार्य भी करना है। सुन्नमुन्न हो के जो विकारों की तरफ से हटा, तो वह जड़ सा हो के भली तरफ से भी हटा रहा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ ओइ जु दीसहि अ्मबरि तारे ॥ किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ ओइ जु दीसहि अ्मबरि तारे ॥ किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओइ = वह। दीसहि = दिखाई दे रहे हैं। अंबरि = आकाश में। किनि = किस ने? चीते = चित्रित किए हैं। चीतनहारे = चित्रकार ने।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: वे तारे जो आकाश में दिखाई दे रहे हैं किस चित्रकार ने चित्रे हैं?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु रे पंडित अ्मबरु का सिउ लागा ॥ बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कहु रे पंडित अ्मबरु का सिउ लागा ॥ बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अबरु = आकाश। का सिउ = किससे, किस के आसरे? बूझनहारु = जानने वाला, सयाना।1। रहाउ।
अर्थ: बताओ, हे पंडित! आकाश किस के सहारे है? कोई भाग्यशाली समझदार व्यक्ति ही इस (रम्ज़ को) समझता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥ सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥

मूलम्

सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥ सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहि = कर रहे हैं। उजिआरा = रोशनी। ब्रहम पसारा = प्रभु का खिलारा, प्रभु की ज्योति का प्रकाश।2।
अर्थ: (ये जो) सूरज और चंद्रमा (आदि जगत में) प्रकाश कर रहे हैं (इन) सभी में प्रभु की जोति का (ही) प्रकाश बिखरा हुआ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर जानैगा सोइ ॥ हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥

मूलम्

कहु कबीर जानैगा सोइ ॥ हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। हिरदै = हृदय में। मुखि = मुंह में। रामै = राम ही (राम ई = रामै)।3।
अर्थ: हे कबीर! (बेशक) कह: (इस भेद को) वही मनुष्य समझेगा, जिसके हृदय में प्रभु बस रहा है, और मुंह में (भी) केवल प्रभु ही है (भाव, जो मुंह से भी प्रभु के गुण उचार रहा है)।3।29।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: इस सारे जगत को पैदा करने वाला और आसरा देने वाला प्रभु स्वयं ही है उसकी अपनी ज्योति का प्रकाश हर जगह हो रहा है, पर इस बात की समझ सिर्फ उस मनुष्य को ही आती है जो प्रभु की बंदगी करता है।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥ सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥ सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! बेद की पुत्री = वेदों की बेटी, वेदों की पैदा की हुई, वेदों के आधार पर बनी हुई। सांकल = (वर्ण आश्रम के) संगल, जंजीरें। जेवरी = (कर्मकांड की) रस्सियां। लै है आई = ले के आई हुई है।1।
अर्थ: हे भाई! ये स्मृतियां, जो वेदों के आधार पर बनीं हैं (ये तो अपने श्रद्धालुओं के वास्ते वर्ण-आश्रम की जैसे) जंजीरें (कर्म-कांड की) रस्सियां ले के आई हुई हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥ मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥ मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपन नगरु = अपना शहर, अपने श्रद्धालुओं की बस्ती, अपने सारे श्रद्धालु। आप ते = आप ही। मोह कै = मोह (की फासीं) में। फाधि = फसा के। काल सरु = मौत का तीर, जनम मरण का तीर। सांधिआ = खींचा हुआ है।1। रहाउ।
अर्थ: (इन स्मृतियों ने) अपने सारे श्रद्धालु स्वयं ही जकड़े हुए हैं, (इन को स्वर्ग आदि के) मोह की फांसी में फसा के (इनके सिर पे) मौत (के सहम) का तीर (इसने) खींचा हुआ है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कटी न कटै तूटि नह जाई ॥ सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥

मूलम्

कटी न कटै तूटि नह जाई ॥ सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सापनि = सँपनी। जग = संसार, अपने श्रद्धालुओं को।2।
अर्थ: (ये स्मृति रूपी फांसी की रस्सी श्रद्धालुओं द्वारा) काटे काटी नहीं जा सकती और ना ही (अपने आप) ये टूटती है। (अब तो) साँपिन बन के जगत को खा रही है (भाव, जैसे सांपिन अपने बच्चों को खा जाती है, वैसे ही स्मृति अपने ही श्रद्धालुओं का नाश कर रही है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥ कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥

मूलम्

हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥ कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम देखत = हमारे देखते ही। जिनि = जिस (स्मृति) ने। सभु जगु = सारे संसार को। राम कहि = राम राम कह के, प्रभु का स्मरण करके। छूटिआ = बच गया हूँ।3।
अर्थ: हे कबीर! कह: हमारे देखते-देखते जिस (स्मृति) ने सारे संसार को ठग लिया है, मैं प्रभु का स्मरण करके उससे बच गया हूँ।3।30।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: स्मृतियों के बनाए हुए वर्ण-आश्रम और कर्मकांड स्मृतियों में श्रद्धा रखने वाले के लिए गले की जंजीरें बन जाती हैं। उन्हें यह ऐसे वहिमों-भरमां में जकड़ देती हैं कि छुटकारा होना मुश्किल हो जाता है। प्रभु का नाम जपना ही इनसे बचाने में समर्थ है।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥ सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥ सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देइ = दे के, पा के। मुहार = घोड़े की पूजी जो मुंह से तंग के साथ नीचे से बंधी होती है (भाव, मुंह+हार, मुंह को बंद करना, निंदा स्तुति से बच के रहना)। लगामु = (भाव) प्रेम की लगन। लगाम पहिरावउ = मैं लगाम चढ़ाऊँ, भाव, मन को प्रेम की लगन लगाऊँ। सगलत = सर्व व्यापकता। गगन = आकाश, भाव, दसवाँ द्वार। गगन दउरावउ = दसवें द्वार में दौड़ाऊँ, मैं प्रभु के देश की उड़ानें भरूँ, मन को प्रभु की याद में जोड़ूँ।1।
अर्थ: मैं तो (अपने मन रूपी घोड़े को स्तुति-निंदा से रोकने) मुहार दे के (प्रेम की लगन की) लगाम डालता हूँ और प्रभूको हर जगह व्यापक जानना- ये काठी डाल के (मन को) निरंकार के देश की उड़ान लगवाता हूँ। (भाव, मन को प्रभु की याद में जोड़ता हूँ)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥ सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥ सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपनै बीचारि = अपने आप की विचार पे, अपने स्वरूप के ज्ञान (रूपी घोड़े) पर। असवारी कीजै = सवार हो जाईए। पावड़ै = सहिज अवस्था की रकाब में। पगु = पैर, बुद्धि रूपी पैर, ता कि गिर ना जाएं (मन विनम्रता भरा, मति ऊँची, मति का रक्षक स्वयं ईश्वर, ‘मन नीवां, मति ऊंची, मति का राखा वाहिगुरु’, इस अरदास में यही भाव है कि अकल प्रभु के अधीन रहके सहज अवस्था में टिकी रहे और मन पर काबू रखे)। धरि लीजै = रक्षा करें, रख लें।1। रहाउ।
अर्थ: (आओ भाई!) अपने स्वरूप के ज्ञान-रूप घोड़े पर सवार हो जाएं (भाव,हमारी असलियत क्या है, इस विचार को घोड़ा बना के इस पर सवार होएं), और अकल रूपी पैर को सहज अवस्था की रकाब में रखी रहें।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥ हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥

मूलम्

चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥ हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चलु रे = हे (मन!) चल। तुझहि = (हे मन!) तुझे। तारउ = ताऊँ, तैराऊं, तैराकी का आनंद दूँ। बैकुंठ तारउ = बैकुंठ की तैराकी का आनंद दूँ। हचहि = अगर तू जिद करेगा।2।
अर्थ: चल, हे (मन-रूप घोड़े)! तुझे बैकुंठ की सैर कराऊँ, अगर जिद की तो तुझे मैं प्रेम का चाबुक मारूँगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर भले असवारा ॥ बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥

मूलम्

कहत कबीर भले असवारा ॥ बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भले = अच्छे, सयाने। ते = से। निरारा = निराला, अलग। रहहि = रहते हैं।3।
अर्थ: कबीर कहता है: (ऐसे) सयाने सवार (जो अपने मन पे सवार होते हैं) वेदों और कतेबों (को सच्चे-झूठे कहने के झगड़े) से अलग रहते हैं।3।31।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: और मतों की धर्म-पुस्तकों की निंदा करने की बजाय, धर्म का सही रास्ता ये है कि अपने असल परमात्मा को हमेशा याद रखें, और इस तरह मन को विकारों में ना डोलने दें। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभु के चरणों से प्रेम जोड़ता है, वह मानो, बैकुंठ में उड़ानें भरता है।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मुखि पांचउ अम्रित खाए ॥ तिह मुख देखत लूकट लाए ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मुखि पांचउ अम्रित खाए ॥ तिह मुख देखत लूकट लाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह मुखि = जिस मुंह से। पांचउ = पाँचों ही। पांचउ अंम्रित = पाँचों ही अमृत, पाँचों ही उत्तम कहे जाने वाले भोजन: दूध, दहीं, घी, खण्ड, शहिद। खाए = खाते हैं। देखत = देखते ही। लूकट = छुपी, लांबू, चिंगारी लगाना।1।
अर्थ: जिस मुंह से पाँचों ही उत्तम पदार्थ खाते हैं, (मरने पर) उस मुंह को अपने ही लांबू (जला के) लगा देते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु दुखु राम राइ काटहु मेरा ॥ अगनि दहै अरु गरभ बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इकु दुखु राम राइ काटहु मेरा ॥ अगनि दहै अरु गरभ बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम राइ = हे सुंदर राम! काटहु = दूर करो। अगनि = आग। दहै = जलाती है। बसेरा = वासा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे सुंदर राम! ये जो तृष्णा की आग जलाती है, और गरभ का बसेरा है (अर्थात, ये जो बार-बार पैदा होना-मरना पड़ता है और तृष्णा की आग में जलते हैं) - मेरा एक ये दुख दूर कर दे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ बिगूती बहु बिधि भाती ॥ को जारे को गडि ले माटी ॥२॥

मूलम्

काइआ बिगूती बहु बिधि भाती ॥ को जारे को गडि ले माटी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिगूती = खराब होती है। बहु बिधि भाती = बहुत सी बिधि से बहुत भांति से, कई तरह से। को = कोई मनुष्य। जारे = जला देता है।2।
अर्थ: (मरने के बाद) ये शरीर कई तरह से खराब हो जाता है। कोई इसे जला देता है, कोई इसे मिट्टी में दबा देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर हरि चरण दिखावहु ॥ पाछै ते जमु किउ न पठावहु ॥३॥३२॥

मूलम्

कहु कबीर हरि चरण दिखावहु ॥ पाछै ते जमु किउ न पठावहु ॥३॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! दिखावहु = दर्शन करा दो। पाछै ते = उससे पीछे। किउं न = भले ही। पठावहु = भेज दो।3।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के दर पर ऐसे) कह: हे प्रभु! (मुझे) अपने चरणों के दर्शन करा दे, उसके बाद बेशक जम को ही (मेरे प्राण लेने के लिए) भेज देना।3।32।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: निरा इस शरीर को पालने के लगे रहना जीवन का लक्ष्य नहीं, क्योंकि मौत आने पर शरीर ने आखिर ख़ाक में मिल जाना है। जीव यहाँ आया है प्रभु का भजन करने।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ आपे पावकु आपे पवना ॥ जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ आपे पावकु आपे पवना ॥ जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = आप ही। पावकु = आग। पवना = हवा। जारै = जलाता है। त = तो। कवना = कौन?।1।
अर्थ: पति (प्रभु) खुद ही आग है, और खुद ही हवा है। अगर वह खुद ही (जीव को) जलाने लगे, तो कौन बचा सकता है?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥ राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥ राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम जपत = प्रभु का स्मरण करते हुए। की न = क्यूँ ना? चाहे, बेशक। जरि की न जाइ = बेशक जल जाए।1। रहाउ।
अर्थ: (जिस मनुष्य का) मन प्रभु के नाम में जुड़ रहा है, प्रभु का स्मरण करते करते (उसका) शरीर भी चाहे जल जाए (वह रक्ती भर भी परवाह नहीं करता)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

का को जरै काहि होइ हानि ॥ नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥

मूलम्

का को जरै काहि होइ हानि ॥ नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: का को = किस का कुछ? काहि = किस का? हानि = हानि, नुकसान। वट = भेस। सारिगपानि = (सारंग = धनुष, पानि = पाणि, हाथ), जिसके हाथ में सारंग धनुष है, जो सब जीवों को मारने वाला भी है, अर्थात परमात्मा।2।
अर्थ: (क्योंकि, बंदगी करने वाले को ये निश्चय होता है कि) ना किसी का कुछ जलता है ना किसी का कुछ नुकसान होता है, प्रभु खुद ही (सब जगह) नटों के भेस की तरह (बहरूपिया बन के) खेल रहा है, (भाव, कहीं खुद ही नुकसान कर रहा है, और कहीं खुद ही वह नुकसान सह रहा है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥ होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥

मूलम्

कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥ होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाखि = कह। अखर दुइ = दोनों अक्षर, दो ही बातें, एक छोटी सी बात। होइगा खसमु = अगर मालिक होगा, अगर पति को मंजूर होगा। लेइगा राखि = बचा लेगा।3।
अर्थ: (इस वास्ते) हे कबीर! (तू तो) ये छोटी सी बात याद रख कि यदि पति को मंजूर होगा तो (जहां कहीं भी जरूरत होगी, खुद ही) बचा लेगा।3।33।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: नाम जपने की इनायत से ये यकीन बन जाता है कि प्रभु स्वयं ही हर जगह रक्षक है, और कोई किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकता; वह खुद ही जगत की हरेक खेल, खेल रहा है।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी दुपदे२ ॥ ना मै जोग धिआन चितु लाइआ ॥ बिनु बैराग न छूटसि माइआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी दुपदे२ ॥ ना मै जोग धिआन चितु लाइआ ॥ बिनु बैराग न छूटसि माइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुपदे = दो पदों वाले शब्द (पद = बंद, stanza), दो बंदों वाले शब्द। चितु लाइआ = मन जोड़ा, ख्याल किया, विचार की। बैराग = संसार के मोह से उपरामता। छूटसि = दूर होगी। न छूटसि = खलासी नही होगी।1।
अर्थ: मैंने तो जोग (के बताए हुए) ध्यान (भाव, समाधियों) का विचार नहीं किया (क्योंकि इससे वैराग पैदा नहीं होता, और) वैराग के बिना माया (के मोह) से खलासी (मुक्ति) नहीं हो सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैसे जीवनु होइ हमारा ॥ जब न होइ राम नाम अधारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कैसे जीवनु होइ हमारा ॥ जब न होइ राम नाम अधारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जब = अगर, जब। आधारा = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: (माया इतनी प्रबल है कि) अगर हमें प्रभु के नाम का आसरा ना हो तो हम (सही जीवन) जी नही सकते।1। रहाउ।

[[0330]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कबीर खोजउ असमान ॥ राम समान न देखउ आन ॥२॥३४॥

मूलम्

कहु कबीर खोजउ असमान ॥ राम समान न देखउ आन ॥२॥३४॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘दोपदे’ के नीचे लिख अंक‘2’ का भाव ये है कि दो पदों वाले ‘दो’ (2) शब्द आगे दर्ज हैं नं: 34 और 35।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजउ = मैं खोजता हूँ, मैं तलाश चुका हूँ। असमान = आकाश तक। आन = कोई और, प्रभु के बिना कोई दूसरा। न देखउ = मैं नहीं देखता, मुझे कोई नहीं मिला।2।
अर्थ: हे कबीर! कह: मैं आकाश तक (भाव, सारी दुनिया) तलाश कर चुका हूँ (पर प्रभु के बिना) मुझे कोई और नहीं मिला (जो माया के मोह से बचा के असल जीवन दे सके)।2।34।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: प्रभु का एक नाम ही ऐसा है जो माया के मोह से बचा के सही जीवन-राह सकता है। ना कोई और व्यक्ति और ना ही (जोग आदि) कोई और साधन इस बात के समर्थ हैं।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥ सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥

मूलम्

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥ सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह सिरि = जिस सिर पर। रचि रचि = संवार संवार के। बाधत = बाँधता है। सो सिरु = उस सिर को। चुंच = चोंच।1।
अर्थ: जिस सिर पर (मनुष्य) संवार-संवार के पगड़ी बाँधता है, (मौत आने पे) उस सिर को कौए अपनी चोंच से संवारते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥ राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥ राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। किआ = क्या? गरबईआ = गरब, माण, अहंकार। काहे = क्यूँ? द्रिड़ीआ = दृढ़ करता है, जपता।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) इस शरीर का और इस धन का क्या मान करता है? प्रभु का नाम क्यूँ नहीं स्मरण करता?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥ इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥ गउड़ी गुआरेरी के पदे पैतीस ॥

मूलम्

कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥ इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥ गउड़ी गुआरेरी के पदे पैतीस ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कबीर कहता है: हे मेरे मन! सुन, (मौत आने पे) तेरे साथ भी ऐसा ही होगा।2।35।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: इस धन का ओर इस शरीर का गुमान करना बेसमझी है, कोई भी इस जीव के साथ नहीं निभता। प्रभु का नाम ही सच्चा साथी है।35।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस सारे संग्रह में मुख़्तलिफ़ बंदों वाले 35 शब्द है; जिनका वेरवा इस प्रकार है;

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गउड़ी गुआरेरी असटपदी कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गउड़ी गुआरेरी असटपदी कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखु मांगत दुखु आगै आवै ॥ सो सुखु हमहु न मांगिआ भावै ॥१॥

मूलम्

सुखु मांगत दुखु आगै आवै ॥ सो सुखु हमहु न मांगिआ भावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असटपदी = (असट = आठ, पद = बंद, stanza) आठ बंदों वाले शब्द। हमहु = हमें। न भावै = अच्छा नहीं लगता। मांगिआ न भावै = मांगना अच्छा नहीं लगता, मांगने की जरूरत नहीं।1।
अर्थ: मुझे उस सुख को मांगने की जरूरत नहीं, जिस सुख के मांगने से दुख मिलता है।1।