१६ गुरु अर्जन-देव थिती

विश्वास-प्रस्तुतिः

थिती गउड़ी महला ५ ॥ सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

थिती गउड़ी महला ५ ॥ सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलि थलि महीअलि पूरिआ सुआमी सिरजनहारु ॥ अनिक भांति होइ पसरिआ नानक एकंकारु ॥१॥

मूलम्

जलि थलि महीअलि पूरिआ सुआमी सिरजनहारु ॥ अनिक भांति होइ पसरिआ नानक एकंकारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: जलि = पानी। थलि = धरती पर। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, पाताल में, आकाश में। भांति = तरीके। पसरिआ = पसरा हुआ, खिलरा हुआ। एकंकारु = एक अकाल-पुरख।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘थिती’ शब्द ‘थिति’ का बहुवचन; जैसे ‘राति’ से ‘राती’, ‘रुति’ से ‘रुती’।
नोट: अमावस्या के बाद चंद्रमा धीरे-धीरे एक-एक ‘कला’ करके बढ़न शुरू होता है और चौदह दिनों में मुकम्मल होता है, जिसे पूरनमासी कहते हैं। पूरनमासी के बाद एक-एक ‘कला’ करके घटना शुरू हो जाता है, और आखिर अमावस की रात को पूरी तरह अलोप हो जाता है। ‘थिति’ की संस्कृत शब्द ‘तिथि’ है, भाव चंद्रमा के घटने-बढ़ने का हिसाब दिवस। इनके नाम हैं: एकम, दूज, तीज, चतुर्थी, पंचमी, खट, सप्तमी, अष्टमी, नौमी, दसमी, एकादशी, द्वादशी, त्रियोदशी, चौदश, पूरनमाशी। पूरनमाशी के बाद फिर उसी तरह एकम, दूज आदि से चल के आखिर पर अमावस।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सलोकु: हे नानक! सारे जगत को पैदा करने वाला मालिक प्रभु जल में, धरती में और आकाश में भरपूर है, वह एक अकाल-पुरख अनेक ही तरीकों से (जगत में हर जगह) बिखरा हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ एकम एकंकारु प्रभु करउ बंदना धिआइ ॥ गुण गोबिंद गुपाल प्रभ सरनि परउ हरि राइ ॥ ता की आस कलिआण सुख जा ते सभु कछु होइ ॥ चारि कुंट दह दिसि भ्रमिओ तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुने बहु बिधि करउ बीचारु ॥ पतित उधारन भै हरन सुख सागर निरंकार ॥ दाता भुगता देनहारु तिसु बिनु अवरु न जाइ ॥ जो चाहहि सोई मिलै नानक हरि गुन गाइ ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ एकम एकंकारु प्रभु करउ बंदना धिआइ ॥ गुण गोबिंद गुपाल प्रभ सरनि परउ हरि राइ ॥ ता की आस कलिआण सुख जा ते सभु कछु होइ ॥ चारि कुंट दह दिसि भ्रमिओ तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुने बहु बिधि करउ बीचारु ॥ पतित उधारन भै हरन सुख सागर निरंकार ॥ दाता भुगता देनहारु तिसु बिनु अवरु न जाइ ॥ जो चाहहि सोई मिलै नानक हरि गुन गाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: एकम = पूरनमाशी से अगली ‘तिथि’ जब चंद्रमा की एक कला कम हो जाती है और चंद्रमा का आकार पूरे आकार से चौदहवाँ हिस्सा रौशन नहीं रहता। करउ = करूँ, मैं करता हूँ।
बंदना = नमस्कार। परउ = मैं पड़ता हूँ। ता की = उस (परमात्मा) की। जा ते = जिस (परमात्मा) से। कुंट = कूट, पासे। दह दिसि = दसों दिशाओं में (चढ़ता, उतरता, दक्षिण, पहाड़, चारों कोने, ऊपर, नीचे)। सुने = सुन के। पतित उधारन = (विकारों में) गिरे हुए को बचाने वाला। भै हरन = (सारे) डर दूर करने वाला। सागर = समुंदर। भुगता = (सब जीवों में व्यापक हो के) भोगने वाला। जाइ = जगह। चाहहि = तू चाहेगा।1।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) मैं एक अकाल-पुरख प्रभु को स्मरण करके (उसके आगे ही) नमस्कार करता हूँ, मैं गोबिंद, गोपाल, प्रभु के गुण (गाता हूँ, और उस) प्रभु पातशाह की शरण पड़ता हूँ। (हे भाई!) जिस मालिक प्रभु (के हुक्म) से ही (जगत में) सब कुछ हो रहा है, उसकी आस रखने से सारे सुख मिलते हैं। मैंने चारों कुंटों और दसों दिशाओं में घूम के देख लिया है उस (मालिक प्रभु) के बिना और कोई (रक्षक) नहीं है।
(हे भाई!) वेद, पुराण, स्मृतियां (आदि धर्म-पुस्तकें) सुन के मैं (और भी) अनेक ढंग-तरीकों से विचार करता हूँ (और, इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि) आकार-रहित परमात्मा ही (विकारों में) गिरे हुए जीवों को (विकारों से) बचाने वाला है (जीवों के) सारे डर दूर करने वाला है और सुखों का समुंदर है।
हे नानक! (सदा) परमात्मा के गुण गाता रह, (उससे) जो कुछ तू चाहेगा वही मिल जाता है। वह परमात्मा ही सब दातें देने वाला है, (सब जीवों में व्यापक हो के सारे पदार्थ) भोगने वाला है, सब कुछ देने की स्मर्था वाला है, उसके बिना (जीवों के लिए) और कोई जगह-आसरा नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिंद जसु गाईऐ हरि नीत ॥ मिलि भजीऐ साधसंगि मेरे मीत ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गोबिंद जसु गाईऐ हरि नीत ॥ मिलि भजीऐ साधसंगि मेरे मीत ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जसु = महिमा। गाईऐ = गाना चाहिए। नीत = सदा। मिलि = मिल के। साध संगि = साधु-संगत में। मीत = हे मित्र!। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र! सदा ही गोबिंद प्रभु की महिमा गाते रहना चाहिए, साधसंगति में मिल के (उसका) भजन स्मरण करना चाहिए। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ करउ बंदना अनिक वार सरनि परउ हरि राइ ॥ भ्रमु कटीऐ नानक साधसंगि दुतीआ भाउ मिटाइ ॥२॥

मूलम्

सलोकु ॥ करउ बंदना अनिक वार सरनि परउ हरि राइ ॥ भ्रमु कटीऐ नानक साधसंगि दुतीआ भाउ मिटाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: करउ = मैं करता हूँ। परउ = मैं पड़ता हूँ। हरि राइ = प्रभु पातशाह (की)। भ्रम = भटकना। साध संगि = साधु-संगत में रहने से। दुतिया = दूसरा। भाउ = प्यार। मिटाइ = मिटा के।2।
अर्थ: सलोकु: (हे भाई!) मैं प्रभु पातशाह की शरण पड़ता हूँ और (उसके दर पर) अनेक बार नमस्कार करता हूँ। हे नानक! साधु-संगत में रह के (प्रभु के बिना) और-और मोह-प्यार दूर करने से मन की भटकना दूर हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ दुतीआ दुरमति दूरि करि गुर सेवा करि नीत ॥ राम रतनु मनि तनि बसै तजि कामु क्रोधु लोभु मीत ॥ मरणु मिटै जीवनु मिलै बिनसहि सगल कलेस ॥ आपु तजहु गोबिंद भजहु भाउ भगति परवेस ॥ लाभु मिलै तोटा हिरै हरि दरगह पतिवंत ॥ राम नाम धनु संचवै साच साह भगवंत ॥ ऊठत बैठत हरि भजहु साधू संगि परीति ॥ नानक दुरमति छुटि गई पारब्रहम बसे चीति ॥२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ दुतीआ दुरमति दूरि करि गुर सेवा करि नीत ॥ राम रतनु मनि तनि बसै तजि कामु क्रोधु लोभु मीत ॥ मरणु मिटै जीवनु मिलै बिनसहि सगल कलेस ॥ आपु तजहु गोबिंद भजहु भाउ भगति परवेस ॥ लाभु मिलै तोटा हिरै हरि दरगह पतिवंत ॥ राम नाम धनु संचवै साच साह भगवंत ॥ ऊठत बैठत हरि भजहु साधू संगि परीति ॥ नानक दुरमति छुटि गई पारब्रहम बसे चीति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: दुतीआ = दूज की तिथि। दुरमति = खोटी मति। नीत = नित्य, सदा। मनि = मन में। तनि = हृदय में। तजि = दूर कर। मीत = हे मित्र! मरणु = आत्मिक मौत। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। सगल = सारे। आपु = स्वै भाव, अहंम्। भाउ = प्रेम। तोटा = (आत्मिक जीवन में पड़ रही) कमी। हिरै = दूर हो जाती है। पतिवंत = इज्ज़त वाले। संचवै = संचित करता है। साच = सदा कायम रहने वाले। भगवंत = भाग्यों वाले। चीति = चिक्त में।2।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) सदा गुरु की बताई हुई सेवा करता रह, (और इस तरह अपने अंदर से) खोटी मति निकाल। हे मित्र! (अपने अंदर से) काम-क्रोध-लोभ दूर कर, (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसके) मन में हृदय में रतन (जैसा कीमती) प्रभु नाम आ बसता है।
(हे मित्र! अपने मन में से) अहंकार दूर करो और परमात्मा का भजन करो। (जो मनुष्य ऐसा करने का प्रयत्न करता है उसको) आत्मिक जीवन मिल जाता है, उसे (स्वच्छ पवित्र) जीवन मिल जाता है। उसके सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं, उसके अंदर प्रभु प्रेम आ बसता है, प्रभु की भक्ति आ बसती है।
(हे भाई!) जो जो मनुष्य परमात्मा का नाम धन इकट्ठा करता है, वे सब भाग्यशाली हो जाते हैं, वह सदा के लिए शाहूकार बन जाते हैं, (आत्मिक जीवन में उन्हें) फायदा ही फायदा होता है और (आत्मिक जीवन में पड़ रही) घाट (उनके अंदर से) निकल जाती है, वे परमात्मा की दरगाह में इज्ज़त वाले हो जाते हैं।
(हे भाई!) उठते-बैठते हर वक्त परमात्मा का भजन करो और गुरु की संगति में प्रेम पैदा करो। हे नानक! (जिस मनुष्य ने ये उद्यम किया उसकी) खोटी मति नहीं रही, परमात्मा सदा के लिए उसके चिक्त में आ बसा।2।

[[0297]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ तीनि बिआपहि जगत कउ तुरीआ पावै कोइ ॥ नानक संत निरमल भए जिन मनि वसिआ सोइ ॥३॥

मूलम्

सलोकु ॥ तीनि बिआपहि जगत कउ तुरीआ पावै कोइ ॥ नानक संत निरमल भए जिन मनि वसिआ सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: तीनि = (माया के) तीन गुण (रजो, तमो व सतो)। बिआपहि = जोर डाले रखते हैं। तुरीआ = (तृरीय, तुर्य) चौथी। वेदांत फिलासफी के मुताबिक आत्मा की चौथी अवस्था जब ये परमात्मा के साथ एक रूप हो जाता है। कोइ = कोई विरला। मनि = मन में। सोइ = वह (परमात्मा) ही।3।
अर्थ: सलोक: हे नानक! जगत (के जीवों) पर (माया के) माया के तीन गुण अपना जोर डाल के रखते हैं। कोई विरला मनुष्य वह चौथी अवस्था प्राप्त करता है जहाँ वह परमात्मा से जुड़ा रहता है। जिस मनुष्यों के मन में वह परमात्मा ही सदा बसता है, वह संत जन पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ त्रितीआ त्रै गुण बिखै फल कब उतम कब नीचु ॥ नरक सुरग भ्रमतउ घणो सदा संघारै मीचु ॥ हरख सोग सहसा संसारु हउ हउ करत बिहाइ ॥ जिनि कीए तिसहि न जाणनी चितवहि अनिक उपाइ ॥ आधि बिआधि उपाधि रस कबहु न तूटै ताप ॥ पारब्रहम पूरन धनी नह बूझै परताप ॥ मोह भरम बूडत घणो महा नरक महि वास ॥ करि किरपा प्रभ राखि लेहु नानक तेरी आस ॥३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ त्रितीआ त्रै गुण बिखै फल कब उतम कब नीचु ॥ नरक सुरग भ्रमतउ घणो सदा संघारै मीचु ॥ हरख सोग सहसा संसारु हउ हउ करत बिहाइ ॥ जिनि कीए तिसहि न जाणनी चितवहि अनिक उपाइ ॥ आधि बिआधि उपाधि रस कबहु न तूटै ताप ॥ पारब्रहम पूरन धनी नह बूझै परताप ॥ मोह भरम बूडत घणो महा नरक महि वास ॥ करि किरपा प्रभ राखि लेहु नानक तेरी आस ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: त्रितीआ = तीसरी तिथि। बिखै फल = विषौ विकारों के फल। भ्रमतउ = भटकना। घणो = बहुत जीव। संघारै = मारती है, आत्मिक मौत लाती है। मीचु = मौत, मौत का सहम। हरख = खुशी। सोग = ग़मी। सहसा = सहम। हउ हउ करत = ‘मैं मैं’ करते, अहंकार में। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तिसहि = उस प्रभु को। जाणनी = जानते, गहरी सांझ डालते। उपाइ = ढंग। आधि = मन के रोग। व्याधि = शरीर के रोग। उपाधि = झगड़े ठगी फरेब आदि। रस = चस्के। धनी = मालिक। भरम = भटकना। प्रभ = हे प्रभु!।3।
अर्थ: पउड़ी: माया के तीनों गुणों के प्रभाव में जीवों को विषौ-विकार रूपी फल ही मिलते हैं, कभी कोई (थोड़े समय के लिए) अच्छी अवस्था पाते हैं कभी नीची अवस्था में गिर पड़ते हैं। जीवों को नर्क-स्वर्ग (दुख-सुख भोगने पड़ते हैं) बहुत भटकना लगी रहती है, और मौत का सहिम सदा उनकी आत्मिक मौत का कारण बना रहता है।
(तीन गुणों के अधीन जीवों की उम्र) अहंकार में बीतती है, कभी खुशी, कभी ग़मी, कभी सहम- ये चक्र (उनके वास्ते सदा बना रहता है)। जिस परमात्मा ने पैदा किया है, उससे गहरी सांझ नहीं डालते और (तीर्थ-स्नान वगैरा) और-और धार्मिक कर्मों (यत्नों) के बारे में वह सदा सोचते रहते हैं।
दुनिया के रसों (चस्कों) के कारन जीव को मन के रोग, शरीर के रोग व अन्य झगड़े-झमेले चिपके ही रहते हैं, कभी इसके मन का दुख-कष्ट मिटता ही नहीं है। (रसों में फंसा मनुष्य) पूरन पारब्रहम मालिक प्रभु के प्रताप को नहीं समझता।
बेअंत दुनिया माया के मोह और भटकना में गोते खा रही है, भारी नरकों (दुखों) में दिन काट रही है। (इससे बचने के लिए) हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे प्रभु! किरपा करके मेरी रक्षा कर, मुझे तेरी (सहायता की) आस है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ चतुर सिआणा सुघड़ु सोइ जिनि तजिआ अभिमानु ॥ चारि पदारथ असट सिधि भजु नानक हरि नामु ॥४॥

मूलम्

सलोकु ॥ चतुर सिआणा सुघड़ु सोइ जिनि तजिआ अभिमानु ॥ चारि पदारथ असट सिधि भजु नानक हरि नामु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: चतुर = अक्लमंद। सुघड़ = सुजान। सोइ = वह (मनुष्य) ही। चारि पदारथ = (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)। असट = आठ। सिधि = सिद्धियां, करामाती ताकतें। भजु = सिमरु, जप।4।
अर्थ: सलोकु: हे नानक! परमात्मा का नाम (सदा) जपता रह (इसी में ही दुनिया के) चारों पदार्थ और (जोगियों वाली) आठों करामाती ताकतें। (नाम की इनायत से) जिस मनुष्य ने (अपने मन में से) अहंकार दूर कर लिया है, वही है अक्लमंद, सयाना और सुजान।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ चतुरथि चारे बेद सुणि सोधिओ ततु बीचारु ॥ सरब खेम कलिआण निधि राम नामु जपि सारु ॥ नरक निवारै दुख हरै तूटहि अनिक कलेस ॥ मीचु हुटै जम ते छुटै हरि कीरतन परवेस ॥ भउ बिनसै अम्रितु रसै रंगि रते निरंकार ॥ दुख दारिद अपवित्रता नासहि नाम अधार ॥ सुरि नर मुनि जन खोजते सुख सागर गोपाल ॥ मनु निरमलु मुखु ऊजला होइ नानक साध रवाल ॥४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ चतुरथि चारे बेद सुणि सोधिओ ततु बीचारु ॥ सरब खेम कलिआण निधि राम नामु जपि सारु ॥ नरक निवारै दुख हरै तूटहि अनिक कलेस ॥ मीचु हुटै जम ते छुटै हरि कीरतन परवेस ॥ भउ बिनसै अम्रितु रसै रंगि रते निरंकार ॥ दुख दारिद अपवित्रता नासहि नाम अधार ॥ सुरि नर मुनि जन खोजते सुख सागर गोपाल ॥ मनु निरमलु मुखु ऊजला होइ नानक साध रवाल ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: चतुरथि = चतुर्थी, चौथी तिथि। सुणि = सुन के। सोधिओ = निर्णय किया है। ततु = असल, निचोड़। खेम = खुशियां, सुख। निधि = खजाना। सारु = श्रेष्ठ। जपि = जप के। निवारै = दूर करता है। हरै = दूर करता है। तूटहि = टूट जाते हैं। मीचु = मौत, आत्मिक मौत। हुटै = समाप्त हो जाती है, थक जाती है। ते = से। रसै = रसता है, रच मिच जाता है। रंगि = रंग में। दारिद = दरिद्रता, गरीबी। अधार = आसरे। सुरि नर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। ऊजला = रौशन। रवाल = चरणों की धूल।4।
अर्थ: पउड़ी: चारों ही वेद सुन के (हमने तो यह) निर्णय किया है, (यही) असल विचार (की बात मिली) है कि परमातमा का श्रेष्ठ नाम जप जप के सारे सुख मिल जाते हैं, सुखों का खजाना प्राप्त हो जाता है। (परमातमा का नाम) नरकों से बचा लेता है, सारे दुख दूर कर देता है, (नाम की इनायत से) अनेक ही कष्ट मिट जाते हैं। (जिस मनुष्य के हृदय में) परमातमा की महिमा का प्रवेश रहता है, उसकी आत्मिक मौत मिट जाती है, वह जमों से निजात प्राप्त कर लेता है।
अगर निरंकार प्रभु के प्रेम रंग में रंगे जाएं तो (मन में से हरेक किस्म का) डर नाश हो जाता है और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (हृदय में) रच-मिच जाता है। परमात्मा के नाम के आसरे दुख, गरीबी और विकारों से पैदा हुई मलीनता- ये सब नाश हो जाते हैं।
हे नानक! दैवी गुणों वाले मनुष्य और ऋषि लोग जिस सुखों-के-समुंदर सृष्टि-के-पालनहार प्रभु की तलाश करते हैं, वह गुरु की चरण-धूल प्राप्त करने से मिल जाता है (और जिस मनुष्य को मिल जाता है उसका) मन पवित्र हो जाता है (लोक-परलोक में उसका) मुंह रौशन होता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ पंच बिकार मन महि बसे राचे माइआ संगि ॥ साधसंगि होइ निरमला नानक प्रभ कै रंगि ॥५॥

मूलम्

सलोकु ॥ पंच बिकार मन महि बसे राचे माइआ संगि ॥ साधसंगि होइ निरमला नानक प्रभ कै रंगि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: पंच = (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) पाँच (विकार)। महि = में। राचे = मस्त। संगि = साथ। साध संगि = साधु-संगत में। रंगि = (प्रेम) रंग में।5।
अर्थ: सलोकु: हे नानक! जो मनुष्य माया (के मोह) में मस्त रहते हैं, उनके मन में काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार (पाँचों विकार) टिके रहते हैं। पर जो मनुष्य गुरु की संगति में (रह के) परमात्मा के प्रेम रंग में रंगा रहता है, वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ पंचमि पंच प्रधान ते जिह जानिओ परपंचु ॥ कुसम बास बहु रंगु घणो सभ मिथिआ बलबंचु ॥ नह जापै नह बूझीऐ नह कछु करत बीचारु ॥ सुआद मोह रस बेधिओ अगिआनि रचिओ संसारु ॥ जनम मरण बहु जोनि भ्रमण कीने करम अनेक ॥ रचनहारु नह सिमरिओ मनि न बीचारि बिबेक ॥ भाउ भगति भगवान संगि माइआ लिपत न रंच ॥ नानक बिरले पाईअहि जो न रचहि परपंच ॥५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ पंचमि पंच प्रधान ते जिह जानिओ परपंचु ॥ कुसम बास बहु रंगु घणो सभ मिथिआ बलबंचु ॥ नह जापै नह बूझीऐ नह कछु करत बीचारु ॥ सुआद मोह रस बेधिओ अगिआनि रचिओ संसारु ॥ जनम मरण बहु जोनि भ्रमण कीने करम अनेक ॥ रचनहारु नह सिमरिओ मनि न बीचारि बिबेक ॥ भाउ भगति भगवान संगि माइआ लिपत न रंच ॥ नानक बिरले पाईअहि जो न रचहि परपंच ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: पंचमि = पाँचवीं तिथि। पंच = संत जन। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। जिह = जिन्होंने। परुपंचु = जगत पसारा। कुसमबास = फूल की सुगंधि। मिथिआ = नाशवान। बलबंचु = ठगी। जापै = सूझता। करत = करता। बेधिओ = बेधा हुआ। अगिआन = अज्ञान में। भ्रमण = भटकना। रचनहारु = विधाता कर्तार। मनि = मन में। बीचारि = विचार के। बिबेक = परख (की ताकत)। भाउ = प्रेम। रंच = रक्ती भर। पाईअहि = पाए जाते हैं, मिलते हैं। रचहि = रचते, मस्त होते।5।
अर्थ: पउड़ी: (जगत में) वह संत जन श्रेष्ठ माने जाते हैं जिन्होंने इस जगत पसारे को (ऐसे) समझ लिया है (कि ये) फूलों की सुगंधि (जैसा है, और भले ही) अनेक रंगों वाला है (फिर भी) है सारा नाशवान और ठगी ही।
जगत (आम तौर पर) अज्ञान में मस्त रहता है, स्वादों में मोह लेने वाले रसों में बेधित रहता है, इसको (सही जीवन-जुगति) सूझती नहीं, ये समझता नहीं, और (सही जीवन-जुगति के बारे में) कोई विचार नहीं करता।
जिस मनुष्य ने विधाता कर्तार का स्मरण नहीं किया, अपने मन में विचार के (भले-बुरे काम की) परख नहीं पैदा की, तथा और अनेक ही कर्म करता रहा, वह जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहा, वह अनेको जोनियों में भटकता रहा।
हे नानक! (जगत में ऐसे लोग) दुर्लभ ही मिलते हैं जो इस जगत-पसारे (के मोह) में नहीं फंसते। जिस पर माया अपना रक्ती भर भी प्रभाव नहीं डाल सकती, और जो भगवान से प्रेम करते हैं भगवान की भक्ति करते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ खट सासत्र ऊचौ कहहि अंतु न पारावार ॥ भगत सोहहि गुण गावते नानक प्रभ कै दुआर ॥६॥

मूलम्

सलोकु ॥ खट सासत्र ऊचौ कहहि अंतु न पारावार ॥ भगत सोहहि गुण गावते नानक प्रभ कै दुआर ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: खट = छह। खट सासत्र = (सांख, योग, न्याय, वैशैषिक, मीमांसा, वेदांत)। पारावार = पार अवार, उस पार का इस पार का छोर। सोहहि = शोभते हैं। कै दुआरि = के दर पर।6।
अर्थ: सलोकु: छह शास्त्र ऊँचा (पुकार के) कहते हैं कि परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, परमात्मा की हस्ती का इस पार का और उस पार का छोर नहीं मिल सकता। हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के दर पर उस के गुण गाते सुंदर लगते हैं।6।

[[0298]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ खसटमि खट सासत्र कहहि सिम्रिति कथहि अनेक ॥ ऊतमु ऊचौ पारब्रहमु गुण अंतु न जाणहि सेख ॥ नारद मुनि जन सुक बिआस जसु गावत गोबिंद ॥ रस गीधे हरि सिउ बीधे भगत रचे भगवंत ॥ मोह मान भ्रमु बिनसिओ पाई सरनि दइआल ॥ चरन कमल मनि तनि बसे दरसनु देखि निहाल ॥ लाभु मिलै तोटा हिरै साधसंगि लिव लाइ ॥ खाटि खजाना गुण निधि हरे नानक नामु धिआइ ॥६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ खसटमि खट सासत्र कहहि सिम्रिति कथहि अनेक ॥ ऊतमु ऊचौ पारब्रहमु गुण अंतु न जाणहि सेख ॥ नारद मुनि जन सुक बिआस जसु गावत गोबिंद ॥ रस गीधे हरि सिउ बीधे भगत रचे भगवंत ॥ मोह मान भ्रमु बिनसिओ पाई सरनि दइआल ॥ चरन कमल मनि तनि बसे दरसनु देखि निहाल ॥ लाभु मिलै तोटा हिरै साधसंगि लिव लाइ ॥ खाटि खजाना गुण निधि हरे नानक नामु धिआइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: खसटमि = छठी तिथि। कथहि = बयान करती हैं। सेख = शेशनाग (शेशनाग अपने हजार मुँहों से परमात्मा का नित्य नया नाम उचारता बताया गया है)। गुण अंत = गुणों का अंत। नारद = (ब्रहमां के दस पुत्रों में से एक, उसके जांघ में से पैदा हुआ। मनुष्यों और देवताओं के बीच का बिचोला, इनमें झगड़ा डालने में खुश रहता है। ‘वीणा’ इसी ने बनाई थी। एक स्मृति का कर्ता भी है)। सुक = मर्हिषी ब्यास का पुत्र (पैदा होता ही ज्ञानवान था। अप्सरा रम्भा ने बहुत भरमाया, पर डोला नहीं। राजा परीक्षित को भगवत् पुराण इसने सुनाई थी)।
गीधे = भीगे हुए। बीधे = बेधे हुए। भगवंत = भगवान (की भक्ति में)। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। देखि = देख के। हिरै = दूर हो जाता है। लिव लाइ = ध्यान लगा के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। खाटि = कमा के। गुण निधि = गुणों के भंडार।6।
अर्थ: पउड़ी: छह शास्त्र (परमात्मा का स्वरूप) बयान करते हैं, अनेको स्मृतियां (भी) बयान करती हैं (पर कोई उसके गुणों का अंत नहीं पा सकता)। परमात्मा (सबसे) श्रेष्ठ और (सबसे) ऊँचा है (किसी की उस तक पहुँच नहीं)। अनेक शेशनाग भी उसके गुणों का अंत नहीं जान सकते।
नारद ऋषि, अनेक मुनिवर, सुखदेव और ब्यास (आदि ऋषि) गोबिंद की महिमा गाते हैं। भगवान के भक्त उसके नाम-रस में भीगे रहते हैं, उसकी याद में परोए रहते हैं और भक्ति में मस्त रहते हैं।
जिस मनुष्यों ने दया के घर प्रभु का आसरा ले लिया (उनके अंदर से माया का) मोह, अहंकार और भटकना सब कुछ नाश हो गया। जिस के मन में, हृदय में परमात्मा के सुंदर चरण बस गए, परमात्मा के दर्शन करके उनका तन-मन खिल पड़ा।
साधसंगति के द्वारा प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़ के (उच्च आत्मिक जीवन-रूप) लाभ कमा लेते हैं (विकारों की तरफ पड़ने से जो आत्मिक जीवन में कमी आती है, वह) कमी दूर हो जाती है। हे नानक! तू भी परमात्मा का नाम स्मरण कर, और गुणों के खजाने परमात्मा के नाम का खजाना इकट्ठा कर।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ संत मंडल हरि जसु कथहि बोलहि सति सुभाइ ॥ नानक मनु संतोखीऐ एकसु सिउ लिव लाइ ॥७॥

मूलम्

सलोकु ॥ संत मंडल हरि जसु कथहि बोलहि सति सुभाइ ॥ नानक मनु संतोखीऐ एकसु सिउ लिव लाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: मंड = मण्डलियां, समूह। जसु = महिमा। सति = सदा स्थिर प्रभु (के गुण)। सुभाइ = प्रेम में। लिव = लगन।7।
अर्थ: सलोकु: हे नानक! संत जन (सदा) परमात्मा की महिमा उचारते हैं, प्रेम में टिक के सदा कायम रहने वाले प्रभु के गुण बयान करते हैं (क्योंकि) एक परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़े रखने से मन शांति रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सपतमि संचहु नाम धनु टूटि न जाहि भंडार ॥ संतसंगति महि पाईऐ अंतु न पारावार ॥ आपु तजहु गोबिंद भजहु सरनि परहु हरि राइ ॥ दूख हरै भवजलु तरै मन चिंदिआ फलु पाइ ॥ आठ पहर मनि हरि जपै सफलु जनमु परवाणु ॥ अंतरि बाहरि सदा संगि करनैहारु पछाणु ॥ सो साजनु सो सखा मीतु जो हरि की मति देइ ॥ नानक तिसु बलिहारणै हरि हरि नामु जपेइ ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सपतमि संचहु नाम धनु टूटि न जाहि भंडार ॥ संतसंगति महि पाईऐ अंतु न पारावार ॥ आपु तजहु गोबिंद भजहु सरनि परहु हरि राइ ॥ दूख हरै भवजलु तरै मन चिंदिआ फलु पाइ ॥ आठ पहर मनि हरि जपै सफलु जनमु परवाणु ॥ अंतरि बाहरि सदा संगि करनैहारु पछाणु ॥ सो साजनु सो सखा मीतु जो हरि की मति देइ ॥ नानक तिसु बलिहारणै हरि हरि नामु जपेइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: सपतमि = सप्तमी तिथि। संचहु = इकट्ठा करो। न जाहि = नहीं जाते। भंडार = खजाने। महि = में। पाईऐ = मिलता है। आपु = स्वै भाव। हरै = दूर करता है। भवजलु = संसार समुंदर। चिंदिआ = सोचा हुआ। मनि = मन में। संगि = साथ। पछाणु = साथी। सखा = मित्र। देइ = देता है। जपेइ = जपता है।7।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करो। नाम-धन के खजाने कभी खत्म नहीं होते, (पर, उस परमात्मा का ये नाम-धन) साधु-संगत में रहने से ही मिलता है, जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके स्वरूप के इस पार उस पार का छोर नहीं मिलता।
(हे भाई!) स्वै भाव दूर करो, परमात्मा का भजन करते रहो, प्रभु पातशाह की शरण पड़े रहो (जो मनुष्य प्रभु की शरण पड़ा रहता है, वह अपने सारे) दुख दूर कर लेता है, संसार समुंदर से पार लांघ जाता है, और मन-चाहा फल प्राप्त कर लेता है।
(हे भाई!) जो मनुष्य आठों पहर अपने मन में परमात्मा का नाम जपता है, उसका मानव जनम कामयाब हो जाता है, वह (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है, जो परमात्मा (हरेक जीव के) अंदर बाहर सदा साथ (बसता) है वह विधाता प्रभु उस मनुष्य का मित्र बन जाता है।
(हे भाई!) जो मनुष्य (हमें) परमात्मा (का नाम जपने) की मति देता है, वही (हमारा असली) सज्जन है, साथी है, मित्र है। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य सदा हरि-नाम जपता है, मैं उससे कुर्बान जाता हूँ।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ आठ पहर गुन गाईअहि तजीअहि अवरि जंजाल ॥ जमकंकरु जोहि न सकई नानक प्रभू दइआल ॥८॥

मूलम्

सलोकु ॥ आठ पहर गुन गाईअहि तजीअहि अवरि जंजाल ॥ जमकंकरु जोहि न सकई नानक प्रभू दइआल ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: गाईअहि = (अगर) गाए जाएं। तजीअहि = (अगर) त्यागे जाएं। अवरि = और (बहुवचन)। जंजाल = (माया में फंसाने वाले) बंधन। जम कंकरु = (किंकरु = नौकर) जमों के सेवक, जमदूत। जोहि न सकई = देख नहीं सकता।8।
अर्थ: सलोकु: हे नानक! अगर आठों पहर (परमात्मा) के गुण गाए जाएं, और अन्य सभी बंधन त्याग दिए जाएं, तो परमात्मा दयावान हो जाता है और जमदूत देख नहीं सकते (मौत का डर नजदीक नहीं फटकता, आत्मिक मौत पास नहीं आ सकती)।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ असटमी असट सिधि नव निधि ॥ सगल पदारथ पूरन बुधि ॥ कवल प्रगास सदा आनंद ॥ निरमल रीति निरोधर मंत ॥ सगल धरम पवित्र इसनानु ॥ सभ महि ऊच बिसेख गिआनु ॥ हरि हरि भजनु पूरे गुर संगि ॥ जपि तरीऐ नानक नाम हरि रंगि ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ असटमी असट सिधि नव निधि ॥ सगल पदारथ पूरन बुधि ॥ कवल प्रगास सदा आनंद ॥ निरमल रीति निरोधर मंत ॥ सगल धरम पवित्र इसनानु ॥ सभ महि ऊच बिसेख गिआनु ॥ हरि हरि भजनु पूरे गुर संगि ॥ जपि तरीऐ नानक नाम हरि रंगि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: असट = आठ। सिधि = सिद्धियां। नव = नौ। निधि = खजाने। पूरन = पूर्ण, जो कभी गलती ना खाय। बुधि = बुद्धि। कवल = (हृदय का) कमल फूल। रीति = मर्यादा, जीवन-जुगति। निरोधर = (निरुध्) जिसका असर रोका ना जा सके। मंत = मंतर। बिसेख = विशेष, खास तौर पर। संगि = साथ, संगति में। जपि = जप के। रंगि = प्रेम में।8।
अर्थ: पउड़ी: (परमात्मा का नाम एक ऐसा) मंत्र है जिस का असर बेकार नहीं जा सकता, (इस मंत्र की इनायत से) जीवन-जुगति पवित्र हो जाती है, (मन में) सदा चाव ही चाव टिका रहता है, (हृदय का) कमल-फूल खिल जाता है (जैसे सूरज की किरणों से कमल-फूल खिलता है, वैसे ही नाम की इनायत से हृदय खिला रहता है)। (नाम के प्रताप में ही) आठों करामाती ताकतें और दुनिया के नौ खजाने आ जाते हैं, सारे पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, वह बुद्धि मिल जाती है जो कभी गलती नहीं करती।
(हे भाई! परमात्मा का नाम ही) सारे धर्मों (का धर्म है, सारे तीर्थ-स्नानों से) पवित्र स्नान है। (नाम-जपना ही सारे शास्त्र आदि के दिए ज्ञान से) सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ ज्ञान है।
हे नानक! पूरे गुरु की संगति में रह के अगर हरि नाम का भजन किया जाए, परमात्मा के प्रेम रंग में टिक के हरि नाम जप के (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ नाराइणु नह सिमरिओ मोहिओ सुआद बिकार ॥ नानक नामि बिसारिऐ नरक सुरग अवतार ॥९॥

मूलम्

सलोकु ॥ नाराइणु नह सिमरिओ मोहिओ सुआद बिकार ॥ नानक नामि बिसारिऐ नरक सुरग अवतार ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: नामि बिसारिऐ = अगर (परमात्मा) का नाम विसार दिया जाए। अवतार = जनम।9।
अर्थ: सलोकु: (जिस मनुष्य ने कभी) परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया, (वह सदा) विकारों में (दुनिया के पदार्थों के) स्वादों में फंसा रहता है। हे नानक! अगर परमात्मा का नाम भुला दिया जाए तो नरक-स्वर्ग (भोगने के लिए बार-बार) जनम लेना पड़ता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ नउमी नवे छिद्र अपवीत ॥ हरि नामु न जपहि करत बिपरीति ॥ पर त्रिअ रमहि बकहि साध निंद ॥ करन न सुनही हरि जसु बिंद ॥ हिरहि पर दरबु उदर कै ताई ॥ अगनि न निवरै त्रिसना न बुझाई ॥ हरि सेवा बिनु एह फल लागे ॥ नानक प्रभ बिसरत मरि जमहि अभागे ॥९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ नउमी नवे छिद्र अपवीत ॥ हरि नामु न जपहि करत बिपरीति ॥ पर त्रिअ रमहि बकहि साध निंद ॥ करन न सुनही हरि जसु बिंद ॥ हिरहि पर दरबु उदर कै ताई ॥ अगनि न निवरै त्रिसना न बुझाई ॥ हरि सेवा बिनु एह फल लागे ॥ नानक प्रभ बिसरत मरि जमहि अभागे ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: नवे = नौ ही। छिद्र = छेद, गोलकें (कान, नाक आदिक)। अपवीत = अपवित्र, गंदे। बिपरीत = उलटी रीति। पर = पराई। त्रिअ = स्त्रीयां। रमहि = भोगते हैं। बकहि = बोलते हैं। करन = कानों से। सुनही = सुनते। बिंद = थोड़ा समय भी। हिरहि = चुराते हैं। परदरबु = पराया धन (द्रव्य)। उदर = पेट। कै ताई = की खातिर। अगनि = लालच की आग। निवरै = दूर होती। एह फल = (बहुवचन)। मरि = मर के। जमहि = पैदा होते हैं। अभागे = बदनसीब, भाग्यहीन।9।
अर्थ: पउड़ी: जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपते, वे (मानवता की मर्यादा के) उलट (बुरे) कर्म करते रहते हैं (इस वास्ते कान-नाक आदिक) नौवों इंद्रियां गंदी हुई रहती हैं। (प्रभु के स्मरण से टूटे हुए मनुष्य) पराई स्त्रीयां भोगते हैं और भले मनुष्यों की निंदा करते रहते हैं, वे कभी पल भर के लिए भी (अपने) कानों से परमात्मा की महिमा नहीं सुनते। (स्मरण-हीन लोग) अपना पेट भरने की खातिर पराया धन चुराते रहते हैं (फिर भी उनकी) लालच की आग नहीं बुझती, (उनके अंदर से) तृष्णा नहीं मिटती।
हे नानक! परमात्मा की सेवा भक्ति के बिना (उनके सारे उद्यमों को ऊपर बताए हुए) ऐसे फल ही लगते हैं, परमात्मा को बिसारने के कारण वह भाग-हीन मनुष्य नित्य जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ दस दिस खोजत मै फिरिओ जत देखउ तत सोइ ॥ मनु बसि आवै नानका जे पूरन किरपा होइ ॥१०॥

मूलम्

सलोकु ॥ दस दिस खोजत मै फिरिओ जत देखउ तत सोइ ॥ मनु बसि आवै नानका जे पूरन किरपा होइ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: दिस = (दिश्) तरफें। खोजत = ढूँढता। जत = (यत्र) जहाँ। देखउ = दूखूँ, मैं देखता हूँ। तत = तत्र, वहाँ। सोइ = वह (परमात्मा) ही। बसि = वश में।10।
अर्थ: सलोकु: हे नानक! (कह: वैसे तो) मैं जिधर देखता हूँ, उधर वह (परमात्मा) ही बस रहा है। (पर घर छोड़ के) दसों दिशाओं में मैं ढूँढता फिरा हूँ (जंगल आदि में कहीं भी मन वश में नहीं आता); मन तभी वश में आता है यदि सर्व-गुणों के मालिक परमात्मा की (अपनी) मेहर हो।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ दसमी दस दुआर बसि कीने ॥ मनि संतोखु नाम जपि लीने ॥ करनी सुनीऐ जसु गोपाल ॥ नैनी पेखत साध दइआल ॥ रसना गुन गावै बेअंत ॥ मन महि चितवै पूरन भगवंत ॥ हसत चरन संत टहल कमाईऐ ॥ नानक इहु संजमु प्रभ किरपा पाईऐ ॥१०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ दसमी दस दुआर बसि कीने ॥ मनि संतोखु नाम जपि लीने ॥ करनी सुनीऐ जसु गोपाल ॥ नैनी पेखत साध दइआल ॥ रसना गुन गावै बेअंत ॥ मन महि चितवै पूरन भगवंत ॥ हसत चरन संत टहल कमाईऐ ॥ नानक इहु संजमु प्रभ किरपा पाईऐ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: दस दुआर = दस दरवाजे (दो कान, दो आँखें, दो नासिकाएं, मुंह, गुदा, लिंग और दिमाग)। मनि = मन में। करनी = कानों से। जसु = महिमा। नैनी = आँखों से। साध = गुरु। रसना = जीभ। भगवंत = भगवान, प्रभु। हसत = हाथों से। संजमु = जीवन-जुगति।10।
अर्थ: पउड़ी: (जब परमात्मा की कृपा से मनुष्य) परमात्मा का नाम जपता है तो उसके मन में संतोख पैदा होता है, दसों ही इंद्रियों को मनुष्य अपने काबू में कर लेता है। (प्रभु की कृपा से) कानों से सृष्टि के पालनहार प्रभु की महिमा सुनी जाती है, आँखों से दया के घर गुरु का दर्शन करते हैं, जीभ बेअंत प्रभु के गुण गाने लग पड़ती है, और मनुष्य अपने मन में सर्व-व्यापक भगवान (के गुण) याद करता है। हाथों से संत जनों के चरणों की टहल की जाती है।
हे नानक! ये (ऊपर बताई) जीवन-जुगति परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होती है।10।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ एको एकु बखानीऐ बिरला जाणै स्वादु ॥ गुण गोबिंद न जाणीऐ नानक सभु बिसमादु ॥११॥

मूलम्

सलोकु ॥ एको एकु बखानीऐ बिरला जाणै स्वादु ॥ गुण गोबिंद न जाणीऐ नानक सभु बिसमादु ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: एको एकु = सिर्फ एक परमात्मा। बखानीऐ = बयान करना चाहिए, महिमा करनी चाहिए। स्वाद = आनंद। गुण = गुणों (के बयान करने) से। न जाणीऐ = (पूरन तौर पर) नहीं जाना जा सकता, सही स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। बिसमादु = आश्चर्य।11।
अर्थ: सलोकु: (हे भाई!) सिर्फ एक परमात्मा की ही महिमा करनी चाहिए (महिमा में ही आत्मिक आनंद है पर) इस आत्मिक आनंद को कोई दुर्लभ मनुष्य ही पाता है। (परमात्मा के गुण गायन करने से आत्मिक आनंद तो मिलता है; पर) गुणों (के बयान करने) से परमात्मा का सही स्वरूप नहीं समझा जा सकता (क्योंकि) हे नानक! वह तो सारा आश्चर्य रूप है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ एकादसी निकटि पेखहु हरि रामु ॥ इंद्री बसि करि सुणहु हरि नामु ॥ मनि संतोखु सरब जीअ दइआ ॥ इन बिधि बरतु स्मपूरन भइआ ॥ धावत मनु राखै इक ठाइ ॥ मनु तनु सुधु जपत हरि नाइ ॥ सभ महि पूरि रहे पारब्रहम ॥ नानक हरि कीरतनु करि अटल एहु धरम ॥११॥

मूलम्

पउड़ी ॥ एकादसी निकटि पेखहु हरि रामु ॥ इंद्री बसि करि सुणहु हरि नामु ॥ मनि संतोखु सरब जीअ दइआ ॥ इन बिधि बरतु स्मपूरन भइआ ॥ धावत मनु राखै इक ठाइ ॥ मनु तनु सुधु जपत हरि नाइ ॥ सभ महि पूरि रहे पारब्रहम ॥ नानक हरि कीरतनु करि अटल एहु धरम ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: एकादसी = (एक और दस) ग्यारहवीं तिथि (इस तिथि पर अनेक हिन्दू स्त्रीयां-मर्द व्रत रखते हैं, सारा दिन अन्न नहीं खाते)। निकटि = नजदीक। पेखहु = देखो। बसि करि = काबू में करके। मनि = मन में। सरब जीआ = सारे जीवों पर। इन बिधि = इस तरीके से। धावत = विकारों की ओर दौड़ता है। ठाइ = जगह में। सुधु = पवित्र। नाइ = नाम में (जुड़ने से)। अटल = जिसका फल कभी टलता नहीं, जिसका फल जरूर मिलता है।11।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) परमात्मा को (सदा अपने) नजदीक (बसता) देखो, अपनी इंद्रियों को काबू में रख के परमात्मा का नाम सुना करो- यही है एकादशी (का व्रत।) (जो मनुष्य अपने) मन में संतोष (धारण करता है और) सब जीवों के साथ दया-प्यार वाला सलूक करता है, इस तरीके से (जीवन गुजारते हुए उसका) व्रत सफल हो जाता है (भाव, यही है असल व्रत)। (इस तरह के व्रत से वह मनुष्य विकारों की तरफ) दौड़ते (अपने) मन को एक ठिकाने पे टिकाए रखता है, परमात्मा का (नाम) जपते हुए (परमात्मा के) नाम में (जुड़ने से) उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है।
हे नानक! जो प्रभु सारे जगत में हर जगह व्यापक है, उस प्रभु की महिमा करता रह, यह ऐसा धर्म है जिसका फल जरूर मिलता है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ दुरमति हरी सेवा करी भेटे साध क्रिपाल ॥ नानक प्रभ सिउ मिलि रहे बिनसे सगल जंजाल ॥१२॥

मूलम्

सलोकु ॥ दुरमति हरी सेवा करी भेटे साध क्रिपाल ॥ नानक प्रभ सिउ मिलि रहे बिनसे सगल जंजाल ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: दुरमति = खोटी मति। हरी = दूर कर ली। भेटे = मिले। साध = गुरु। क्रिपाल = कृपा+आलय, दया का घर। सिउ = साथ। जंजाल = माया के मोह में फंसाने वाले बंधन।12।
अर्थ: सलोकु: जो भाग्यशाली मनुष्य दया-के-धर गुरु से मिल लिए और जिन्होंने गुरु के द्वारा बताई हुई सेवा की, उन्होंने (अपने अंदर से) खोटी मति दूर कर ली। हे नानक! जो लोग परमात्मा के चरणों में जुड़े रहते हैं, उनके (माया के मोह के) सारे बंधन नाश हो जाते हैं।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ दुआदसी दानु नामु इसनानु ॥ हरि की भगति करहु तजि मानु ॥ हरि अम्रित पान करहु साधसंगि ॥ मन त्रिपतासै कीरतन प्रभ रंगि ॥ कोमल बाणी सभ कउ संतोखै ॥ पंच भू आतमा हरि नाम रसि पोखै ॥ गुर पूरे ते एह निहचउ पाईऐ ॥ नानक राम रमत फिरि जोनि न आईऐ ॥१२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ दुआदसी दानु नामु इसनानु ॥ हरि की भगति करहु तजि मानु ॥ हरि अम्रित पान करहु साधसंगि ॥ मन त्रिपतासै कीरतन प्रभ रंगि ॥ कोमल बाणी सभ कउ संतोखै ॥ पंच भू आतमा हरि नाम रसि पोखै ॥ गुर पूरे ते एह निहचउ पाईऐ ॥ नानक राम रमत फिरि जोनि न आईऐ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: दुआदसी = (दो और दस) बारहवीं तिथि। दानु = सेवा (धन आदि से)। इसनान = (मन और शरीर की) पवित्रता। तजि = छोड़ के। मानु = अहंकार। पान करहु = पीवो। संगि = संगति में। त्रिपतासै = तृप्त हो जाता है, संतुष्ट हो जाता है। रंगि = प्रेम रंग में। कोमल = नरम, मीठी। संतोखै = आत्मिक आनंद देती है। पंच भू = पंच तत्व। पंच भू आत्मा = पाँचों तत्वों के सतो अंश से बना हुआ मन। रसि = रस में। पोखै = प्रफुल्लित होता है। निहचउ = यकीनी तौर पर। रमत = स्मरण करते हुए।12।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई! ख़लकति की) सेवा करो, परमात्मा का नाम जपो, और, जीवन पवित्र रखो। (मन में से) अहंकार त्याग के परमात्मा की भक्ति करते रहो। साधु-संगत में मिल के आत्मिक जीवन देने वाला प्रभु का नाम रस पीते रहो। परमात्मा के प्रेम रंग में रंग के परमात्मा की महिमा करने से मन (दुनिया के पदार्थों से विकारों से) तृप्त रहता है। (महिमा की) मीठी वाणी हरेक (इंद्रिय) को आत्मिक आनंद देती है, महिमा की इनायत से मन पाँच तत्वों के ‘सतो’ अंश की घाड़त में घड़ा जा के परमात्मा के नाम-रस में प्रफुल्लित होता है।
हे नानक! पूरे गुरु से ये दाति यकीनी तौर पर मिल जाती है। और, परमात्मा का नाम स्मरण करने से फिर जोनियों में नहीं आते।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ तीनि गुणा महि बिआपिआ पूरन होत न काम ॥ पतित उधारणु मनि बसै नानक छूटै नाम ॥१३॥

मूलम्

सलोकु ॥ तीनि गुणा महि बिआपिआ पूरन होत न काम ॥ पतित उधारणु मनि बसै नानक छूटै नाम ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: तीनि = तीन। तीनि गुणा महि = (माया के रजो तमो सतो) तीन गुणों में। बिआपिआ = दबा हुआ। काम = कामना, वासना। पतित उधारणु = (विकारों में) गिरे हुओं को (विकारों से) बचाने वाला। मनि = मन में। छुटै = (माया के पंजे से) बचता है।13।
अर्थ: सलोकु: जगत माया के तीन गुणों के दबाव में आया रहता है (इस वास्ते कभी भी इसकी) वासनाएं पूरी नहीं होती। हे नानक! वह मनुष्य (इस माया के पंजे में से) बच निकलता है जिसके मन में परमात्मा का नाम बस जाता है जिसके मन में वह परमात्मा आ बसता है जो विकारों में गिरे हुए मनुष्यों को विकारों में से बचाने की सामर्थ्य वाला है।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ त्रउदसी तीनि ताप संसार ॥ आवत जात नरक अवतार ॥ हरि हरि भजनु न मन महि आइओ ॥ सुख सागर प्रभु निमख न गाइओ ॥ हरख सोग का देह करि बाधिओ ॥ दीरघ रोगु माइआ आसाधिओ ॥ दिनहि बिकार करत स्रमु पाइओ ॥ नैनी नीद सुपन बरड़ाइओ ॥ हरि बिसरत होवत एह हाल ॥ सरनि नानक प्रभ पुरख दइआल ॥१३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ त्रउदसी तीनि ताप संसार ॥ आवत जात नरक अवतार ॥ हरि हरि भजनु न मन महि आइओ ॥ सुख सागर प्रभु निमख न गाइओ ॥ हरख सोग का देह करि बाधिओ ॥ दीरघ रोगु माइआ आसाधिओ ॥ दिनहि बिकार करत स्रमु पाइओ ॥ नैनी नीद सुपन बरड़ाइओ ॥ हरि बिसरत होवत एह हाल ॥ सरनि नानक प्रभ पुरख दइआल ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: त्रउदसी = (त्रय और दस) तेरहवीं तिथि। तीनि ताप = तीन किस्म के दुख। अवतार = जनम। सुख सागर = सुखों का समुंदर। निमख = आँख झपकने जितना समय। हरख = खुशी। सोग = ग़मी। देहु = पिंड,शरीर। करि = कर के, बना के। बाधिओ = बाँधा है, बसाया हुआ है। असाधिओ = असाध, काबू में ना आ सकने वाला। दिनहि = दिन में। स्रमु = थकावट। नैनी = आँखों में।13।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) जगत को तीन किस्म के दुख चिपके रहते हैं (जिसके कारण ये) जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है, दुखों में ही पैदा होता है। (तीन तापों के कारण मनुष्य के) मन में परमात्मा का भजन नहीं टिकता, पलक झपकने के जितने के समय के वास्ते भी मनुष्य सुखों-के-समुंदर प्रभु की महिमा नहीं करता। मनुष्य अपने आप को खुशी-ग़मी का पिण्ड बना के बसाए बैठा है, इसे माया (के मोह) का ऐसा लंबा रोग चिपका हुआ है जो काबू में नहीं आ सकता। (तीनों तापों के असर में मनुष्य) सारा दिन व्यर्थ काम करता-करता थक जाता है, (रात को जब) आँखों में नींद (आती है तब) सपनों में भी (दिन वाली दौड़-भाग की) बातें करता है। परमात्मा को भुला देने के कारण मनुष्य का ये हाल होता है।
हे नानक! (कह: अगर इस दुखदाई हालत से बचना है, तो) दया के श्रोत अकाल-पुरख प्रभु की शरण पड़।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ चारि कुंट चउदह भवन सगल बिआपत राम ॥ नानक ऊन न देखीऐ पूरन ता के काम ॥१४॥

मूलम्

सलोकु ॥ चारि कुंट चउदह भवन सगल बिआपत राम ॥ नानक ऊन न देखीऐ पूरन ता के काम ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: कुंट = कूट, तरफ। चउदह भवन = सात आकाश और सात पाताल। सगल = सभी में। बिआपत = मौजूद है, बस रहा है। ऊन = घाट, कमी। ता के = उस (परमात्मा) के।14।
अर्थ: सलोकु: चारों तरफ और चौदह लोक - सब में ही परमात्मा बस रहा है। हे नानक! (उस परमात्मा के भण्डारों में) कोई कमी नहीं देखी जाती, उसके किए सारे ही काम सफल होते हैं।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ चउदहि चारि कुंट प्रभ आप ॥ सगल भवन पूरन परताप ॥ दसे दिसा रविआ प्रभु एकु ॥ धरनि अकास सभ महि प्रभ पेखु ॥ जल थल बन परबत पाताल ॥ परमेस्वर तह बसहि दइआल ॥ सूखम असथूल सगल भगवान ॥ नानक गुरमुखि ब्रहमु पछान ॥१४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ चउदहि चारि कुंट प्रभ आप ॥ सगल भवन पूरन परताप ॥ दसे दिसा रविआ प्रभु एकु ॥ धरनि अकास सभ महि प्रभ पेखु ॥ जल थल बन परबत पाताल ॥ परमेस्वर तह बसहि दइआल ॥ सूखम असथूल सगल भगवान ॥ नानक गुरमुखि ब्रहमु पछान ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: चउदहि = चउ+दह, चार दस, चौदहवीं तिथि। परताप = तेज, ताकत। दसे दिसा = चार तरफ, चार कोने, ऊपर और नीचे। धरनि = धरती। पेखु = देखो। थल = धरती। बन = जंगल। परबत = पहाड़। तह = वहाँ, उनमें। सूखम = सूक्ष्म, अदृष्ट। असथूल = दिखता संसार। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य।14।
अर्थ: पउड़ी: चारों दिशाओं में परमात्मा स्वयं बस रहा है, सारे भवनों में उसका तेज-प्रताप चमकता है। सिर्फ एक प्रभु ही दसों दिशाओं में बसता है। (हे भाई!) धरती-आकाश सब में बसता परमात्मा देखो। पानी, धरती, जंगल, पहाड़, पाताल - इन सभी में ही दया-के-घर प्रभु जी बस रहे हैं। अदृश्य और दृष्टमान सारे ही जगत में भगवान मौजूद है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के बताए राह पर चलता है वह परमात्मा को (सब जगह बसता) पहिचान लेता है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ आतमु जीता गुरमती गुण गाए गोबिंद ॥ संत प्रसादी भै मिटे नानक बिनसी चिंद ॥१५॥

मूलम्

सलोकु ॥ आतमु जीता गुरमती गुण गाए गोबिंद ॥ संत प्रसादी भै मिटे नानक बिनसी चिंद ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: आतमु = अपने आप को। गुरमती = गुरु की शिक्षा से। संत प्रसादी = गुरु की कृपा से, संत के प्रसादि से। भै = डर, खतरे। चिंद = चिन्ता, फिक्र।15।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सलोकु: हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु की शिक्षा पर चल के अपने आप को (अपने मन को) बस में किया और परमात्मा की महिमा की, गुरु की कृपा से उसके सारे डर दूर हो गए और हरेक किस्म की चिन्ता-फिक्र का नाश हो गया।15।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ अमावस आतम सुखी भए संतोखु दीआ गुरदेव ॥ मनु तनु सीतलु सांति सहज लागा प्रभ की सेव ॥ टूटे बंधन बहु बिकार सफल पूरन ता के काम ॥ दुरमति मिटी हउमै छुटी सिमरत हरि को नाम ॥ सरनि गही पारब्रहम की मिटिआ आवा गवन ॥ आपि तरिआ कुट्मब सिउ गुण गुबिंद प्रभ रवन ॥ हरि की टहल कमावणी जपीऐ प्रभ का नामु ॥ गुर पूरे ते पाइआ नानक सुख बिस्रामु ॥१५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ अमावस आतम सुखी भए संतोखु दीआ गुरदेव ॥ मनु तनु सीतलु सांति सहज लागा प्रभ की सेव ॥ टूटे बंधन बहु बिकार सफल पूरन ता के काम ॥ दुरमति मिटी हउमै छुटी सिमरत हरि को नाम ॥ सरनि गही पारब्रहम की मिटिआ आवा गवन ॥ आपि तरिआ कुट्मब सिउ गुण गुबिंद प्रभ रवन ॥ हरि की टहल कमावणी जपीऐ प्रभ का नामु ॥ गुर पूरे ते पाइआ नानक सुख बिस्रामु ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: अमावसि = मसिआ, जिस रात चाँद बिल्कुल नहीं दिखता। सीतल = ठंडा। सहज = आत्मिक अडोलता। ता के = उस के। दुरमति = बुरी मति। को = का। गही = पकड़ी। आवा गवन = आना-जाना, जनम मरण। कुटंब सिउ = परिवार समेत। रवन = स्मरण (से)। ते = से। सुख बिस्राम = सुखों का ठिकाना परमातमा।15।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) जिस मनुष्य को सतिगुरु ने संतोख बख्शा, उसकी आत्मा सुखी हो गई। (गुरु की कृपा से) वह परमात्मा की सेवा-भक्ति में लगा (जिस करके) उसका मन उसका हृदय ठंडा-ठार हो गया।, उसके अंदर शांति और आत्मिक अडोलता पैदा हो गई।
(हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करने से अनेक विकारों (के संस्कारों के) बंधन टूट जाते हैं (जो मनुष्य स्मरण करता है) उसके सारे कारज रास आ जाते हैं, उसकी खोटी मति खत्म हो जाती है और उसे अहंकार से मुकती मिल जाती है।
(हे भाई!) जिस मनुष्य ने पारब्रहम परमेश्वर का आसरा लिया, उसका जनम-मरण (का चक्र) समाप्त हो जाता है। गोबिंद प्रभु के गुण गाने की इनायत से वह मनुष्य अपने परिवार समेत (संसार-समुंदर से) पार लांध जाता है।
(हे भाई!) परमात्मा की सेवा भक्ति करनी चाहिए, परमात्मा का नाम जपना चाहिए। हे नानक! सारे सुखों का मूल वह प्रभु पूरे गुरु की कृपा से मिल जाता है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ पूरनु कबहु न डोलता पूरा कीआ प्रभ आपि ॥ दिनु दिनु चड़ै सवाइआ नानक होत न घाटि ॥१६॥

मूलम्

सलोकु ॥ पूरनु कबहु न डोलता पूरा कीआ प्रभ आपि ॥ दिनु दिनु चड़ै सवाइआ नानक होत न घाटि ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: पूरन = कमी रहित जीवन वाला। प्रभ आपि = प्रभु ने आप। दिनु दिनु = दिनो दिन। चढ़ै सवाइआ = बढ़ता है, आत्मिक जीवन में चमकता है। घाटि = (आत्मिक जीवन में) कमी।16।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सलोकु: हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा ने खुद पूर्ण जीवन वाला बना दिया वह पूरन मनुष्य कभी (माया के आसरे तले आ के) नहीं डोलता, उसका आत्मिक जीवन दिनो-दिन ज्यादा चमकता है, उसके आत्मिक जीवन में कभी कमी नहीं आती।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ पूरनमा पूरन प्रभ एकु करण कारण समरथु ॥ जीअ जंत दइआल पुरखु सभ ऊपरि जा का हथु ॥ गुण निधान गोबिंद गुर कीआ जा का होइ ॥ अंतरजामी प्रभु सुजानु अलख निरंजन सोइ ॥ पारब्रहमु परमेसरो सभ बिधि जानणहार ॥ संत सहाई सरनि जोगु आठ पहर नमसकार ॥ अकथ कथा नह बूझीऐ सिमरहु हरि के चरन ॥ पतित उधारन अनाथ नाथ नानक प्रभ की सरन ॥१६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ पूरनमा पूरन प्रभ एकु करण कारण समरथु ॥ जीअ जंत दइआल पुरखु सभ ऊपरि जा का हथु ॥ गुण निधान गोबिंद गुर कीआ जा का होइ ॥ अंतरजामी प्रभु सुजानु अलख निरंजन सोइ ॥ पारब्रहमु परमेसरो सभ बिधि जानणहार ॥ संत सहाई सरनि जोगु आठ पहर नमसकार ॥ अकथ कथा नह बूझीऐ सिमरहु हरि के चरन ॥ पतित उधारन अनाथ नाथ नानक प्रभ की सरन ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पउड़ी: पूरनमा = पूरनमाशी, जिस रात चाँद पूरा होता है। करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सब ताकतों का मालिक। जा का = जिस का। निधान = खजाना। गुर = बड़ा। अंतरजामी = (हरेक के) अंदर की जानने वाला। सुजानु = सियाना। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। निरंजन = (निर+अंजन, अंजन = माया की कालिख) माया रहित प्रभु। सभ बिधि = हरेक ढंग। सरनि जोगु = शरण आए की सहायता करने के लायक। अकथ = जिसको बयान ना किया जा सके। पतित = (विकारों में) गिरे हुए।16।
अर्थ: पउड़ी: सिर्फ परमात्मा ही सारे गुणों से भरपूर है, सारे जगत का मूल हैऔर सारी ताकतों का मालिक है। वह सर्व-व्यापक प्रभु सब जीवों पर दयावान रहता है, सब जीवों पर उस (की सहायता) का हाथ है।
वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, सारी सृष्टि का पालक है, सबसे बड़ा है, सब कुछ उसी का किया घटित होता है। प्रभु सबके दिल की जानने वाला है, समझदार है, उसका संपूर्ण स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह माया के प्रभाव से परे है।
(हे भाई!) वह पारब्रहम सबसे बड़ा मालिक है (जीवों के भले का) हरेक ढंग जानने वाला है, संतों का रक्षक है, शरण आए की सहायता करने के लायक है - उस परमात्मा को आठों पहर नमस्कार कर।
हे नानक! परमात्मा के सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते, उसका सही स्वरूप समझा नहीं जा सकता। उस परमात्मा के चरणों का ध्यान धर। वह परमात्मा (विकारों में) गिरे लोगों को (विकारों से) बचाने वाला है, वह निखसमों का खसम है (अनाथों का नाथ है), उसका आसरा ले।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु ॥ दुख बिनसे सहसा गइओ सरनि गही हरि राइ ॥ मनि चिंदे फल पाइआ नानक हरि गुन गाइ ॥१७॥

मूलम्

सलोकु ॥ दुख बिनसे सहसा गइओ सरनि गही हरि राइ ॥ मनि चिंदे फल पाइआ नानक हरि गुन गाइ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

सलोकु: बिनसे = नाश हो गए। सहसा = सहम। गही = पकड़ी। हरि राइ = प्रभु पातशाह। मनि = मन में। चिंदे = चितवे हुए। नानक = हे नानक! गाइ = गा के।17।
अर्थ: अर्थ- हे नानक! (जिस मनुष्य ने) प्रभु पातशाह का आसरा लिया, (उसके) सारे दुख नाश हो गए, (उसके अंदर से हरेक किस्म का) सहम दूर हो गया। परमातमा के गुण गा के (उसने अपने) मन में चितवे हुए सारे ही फल हासिल कर लिए।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ कोई गावै को सुणै कोई करै बीचारु ॥ को उपदेसै को द्रिड़ै तिस का होइ उधारु ॥ किलबिख काटै होइ निरमला जनम जनम मलु जाइ ॥ हलति पलति मुखु ऊजला नह पोहै तिसु माइ ॥

मूलम्

पउड़ी ॥ कोई गावै को सुणै कोई करै बीचारु ॥ को उपदेसै को द्रिड़ै तिस का होइ उधारु ॥ किलबिख काटै होइ निरमला जनम जनम मलु जाइ ॥ हलति पलति मुखु ऊजला नह पोहै तिसु माइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोई = जो कोई मनुष्य। को = जो कोई मनुष्य। बीचारु = (परमात्मा के गुणों की) विचार। उपदेसै = और लोगों को उपदेश करता है। द्रिढ़ै = (अपने मन में) पक्का करता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण नहीं लगी है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उधारु = (पापों, किलविखों से) बचाव। किलविख = पाप। काटै = काट लेता है। निरमला = पवित्र (जीवन वाला)। मलु = (किए विकारों की) मैल। जाइ = दूर हो जाती है। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। ऊजल = रौशन। पोहै = अपना जोर नहीं डाल सकती। माइ = माया।
अर्थ: अर्थ- जो कोई मनुष्य (परमात्मा के गुण) गाता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा की महिमा) सुनता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा के गुणों को अपने) मन में बसाता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा की महिमा करने का और लोगों को) उपदेश देता है (और खुद भी उस महिमा को अपने मन में) पक्की तरह टिकाता है, उस मनुष्य का विकारों से बचाव हो जाता है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) विकार काट लेता है। उसका जीवन पवित्र हो जाता है, अनेको जन्मों (के किए हुए विकारों) की मैल (उसके अंदर से) दूर हो जाती है। इस लोक में (भी उसका) मुंह रौशन रहता है (क्योंकि) माया उसपे अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सुरता सो बैसनो सो गिआनी धनवंतु ॥ सो सूरा कुलवंतु सोइ जिनि भजिआ भगवंतु ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु बैसु उधरै सिमरि चंडाल ॥ जिनि जानिओ प्रभु आपना नानक तिसहि रवाल ॥१७॥

मूलम्

सो सुरता सो बैसनो सो गिआनी धनवंतु ॥ सो सूरा कुलवंतु सोइ जिनि भजिआ भगवंतु ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु बैसु उधरै सिमरि चंडाल ॥ जिनि जानिओ प्रभु आपना नानक तिसहि रवाल ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुरता = जिसने प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़ी हुई है। बैसनो = स्वच्छ आचरण वाला भक्त। गिआनी = परमात्मा से गहरी सांझ पाने वाला। सूरा = (विकारों का मुकाबला कर सकने वाला) शूरबीर। कुलवंतु = ऊँचे कुल वाला। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। भगवंतु = भगवान। सूदु = शूद्र। उधरै = (विकारों से) बच जाता है। सिमरि = स्मरण करके। जानिओ = गहरी सांझ डाली। तिसहि रवाल = उसकी चरण धूल (मांगता है)।
अर्थ: अर्थ- (हे भाई!) जिस (मनुष्य) ने भगवान का भजन किया है, वही उच्च कुल वाला है, वह (विकारों का टाकरा करने वाला असल) शूरवीर है; वह (असल) धनवान है; वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ वाला है; वह ऊँचे आचरन वाला है; वह प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखने वाला है।
(हे भाई! कोई) क्षत्रिय (हो, कोई) ब्राहमण (हो, कोई) शूद्र (हो, कोई) वैश (हो, कोई) चण्डाल (हो, किसी भी वर्ण का हो, परमात्मा का नाम) स्मरण करके (वह विकारों से) बच जाता है। जिस (भी मनुष्य) ने अपने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है, नानक उसके चरणों की धूल (मांगता है)।17।