[[0262]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥ एहु सलोकु आदि अंति पड़णा ॥
मूलम्
सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥ एहु सलोकु आदि अंति पड़णा ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखा = मित्र। अगिआन भंजनु = अज्ञान का नाश करने वाला। बंधपि = संबंधी। सहोदरा = (सह+उदर = एक ही माँ के पेट में से पैदा हुए) भाई। निरोधरा = जिसे रोका ना जा सके, जिसका असर गवाया ना जा सके। मंतु = मंत्र, उपदेश। सति = सत्य, सदा स्थिर प्रभु। बुधि = अक्ल। मूरति = स्वरूप। परस = छोह। अंम्रित सरोवरु = अमृत का सरोवर। मजनु = डुबकी, स्नान। अपरंपरा = परे से परे। सभि = सारे। हरता = दूर करने वाला। पतित = (विकारों में) गिरे हुए, विकारी। पवित करा = पवित्र करने वाला। जुगु जुगु = हरेक युग में। जपि = जप के। उधरा = (संसार समुंदर की विकारों की लहरों से) बच जाते हैं। प्रभ = हे प्रभु! जितु = जिससे। जितु लगि = जिस में लग के। नानक = हे नानक!।1।
अर्थ: गुरु ही मां है, गुरु ही पिता है (गुरु ही आत्मिक जन्म देने वाला है), गुरु मालिक प्रभु का रूप है। गुरु (माया के मोह का) अंधकार नाश करने वाला मित्र है, गुरु ही (तोड़ निभाने वाला) संबंधी व भाई है। गुरु (असली) दाता है जो प्रभु के नाम का उपदेश देता है, गुरु का उपदेश ऐसा है जिस का असर (कोई विकार आदि) गवा नहीं सकते।
गुरु शांति सत्य और बुद्धि का स्वरूप है, गुरु एक ऐसा पारस है जिसकी छोह पारस की छोह से श्रेष्ठ है।
गुरु (सच्चा) तीर्थ है, अमृत का सरोवर है, गुरु के ज्ञान (-जल) का स्नान (सारे तीर्थों के स्नानों से) बहुत श्रेष्ठ है। गुरु कर्तार का रूप है, सारे पापों को दूर करने वाला है, गुरु विकारी लोगों (के हृदय) को पवित्र करने वाला है। जब से जगत बना है गुरु शुरू से ही हरेक युग में (परमात्मा के नाम का उपदेश-दाता) है। गुरु का दिया हुआ हरि-नाम मंत्र जप के (संसार-समुंदर के विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं।
हे प्रभु! मेहर कर, हमें गुरु की संगति दे, ता कि हम मूर्ख पापी उसकी संगति में (रह के) तर जाएं। गुरु परमेश्वर पारब्रहम् का रूप है। हे नानक! हरि के रूप गुरु को (सदा) नमस्कार करनी चाहिए।1।
ये सलोक इस ‘बावन अखरी’ के आरम्भ में भी पढ़ना है, और आखिर में भी पढ़ना है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शलोक का अर्थ ‘बावन अखरी’ के शुरू में दिया गया है।
दर्पण-शीर्षक
गउड़ी सुखमनी महला ५॥
दर्पण-भाव
सुखमनी का केन्द्रिय भाव:
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में शब्द-अष्टपदियों आदि की संरचना को जरा गौर से देखने से ये पता चलता है कि हरेक शब्द में एक या दो तुकें (पंक्तियां) ऐसी होती हैं, जिनके आखिर में शब्द ‘रहाउ’ लिखा हुआ होता है। ‘रहाउ’ का अर्थ है: ‘ठहिर जाउ’, अर्थात, कि यदि इस सारे शब्द का केन्द्रिय भाव समझना है तो ‘रहाउ’ वाली पंक्तियों पर ‘अटक जाओ’, इन में ही सारे शब्द का ‘सार’ है।
‘शब्द’, ‘अष्टपदियों’ से अलग कई और लम्बी बाणियां भी हैं, जिनके शुरू में ‘रहाउ’ की तुकें मिलती हैं। इन बाणियों में भी ‘रहाउ’ लिखने का भाव यही है कि इस सारी वाणी का ‘मुख्य भाव’ ‘रहाउ’ की तुकों में है। मिसाल के तौर पर लें ‘सिध गोसटि’। इस वाणी की 73 पउड़ियां हैं, पर इसकी पहली पउड़ी के बाद निम्न-लिखित दो तुकें ‘रहाउ’ की है;
दर्पण-टिप्पनी
किआ भवीऐ सचि सूचा होइ॥ साच सबद बिनु मुकति न कोइ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाव
सारी ‘सिध गोसटि’ का केन्द्रिय भाव ये दो तुकें बता रही हैं। जोगी लोग देश-रटन को मुक्ति व पवित्रता का साधन समझते हैं, इस सारी वाणी में जोगियों के साथ चर्चा है और इन दो-तुकों में दो-हरफी बात यही बताई है कि देश-रटन या तीर्थ यात्रा ‘सुच’ व ‘मुक्ति’ के साधन नहीं हैं। गुरु-शब्द ही मनुष्य के मन को स्वच्छ (पवित्र) कर सकता है। सारी वाणी इसी ख्याल की व्याख्या है।
अब लें ‘ओअंकार’, जो राग ‘रामकली दखणी’ में है। इसकी सारी 54 पउड़ियां हैं, पर इसकी भी पहली पउड़ी के उपरंत इस प्रकार लिखा है;
दर्पण-टिप्पनी
सुणि पाडे किआ लिखहु जंजाला॥ लिखु राम नाम गुरमुखि गोपाला॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाव
यहां भी स्पष्ट है कि ये सारी वाणी किसी पण्डित के प्रथाय है जो ‘विद्या’ पर ज्यादा टेक रखता है। सत्गुरू जी ने इस सारी वाणी का सारांश ये बताया है कि अकाल पुरख की महिमा सब से उत्तम विद्या है।
इस तरह की और भी कई बाणियां हैं, जिस में एक ‘सुखमनी’ भी है। इसकी 24 अष्टपदियां हैं। पर पहली अष्टपदी की पहली पउड़ी के बाद आई ‘रहाउ’ की तुक बताती है कि इस सारी वाणी का दो-हरफी मुख्य भाव ‘रहाउ’ में है और सारी ही 24 अष्टपदियां इस ‘मुख्य भाव’ की व्याख्या हैं। सो ‘सुखमनी’ का ‘मुख्य भाव’ नीचे दी गई तुकें हैं:
दर्पण-टिप्पनी
सुखमनी सुख अंम्रित प्रभ नामु॥ भगत जना कै मनि बिस्राम॥ रहाउ॥
दर्पण-भाव
प्रभु का नाम सब सुखों का मूल है और ये मिलता है गुरमुखों से, क्योंकि ये बसता ही उनके हृदय में है।
समूची ‘सुखमनी’ इसी ख्याल की व्याख्या है।
सुखमनी की भाव: लड़ी:
(1) अकाल-पुरख के नाम का स्मरण और सभी धार्मिक कामों से श्रेष्ठ है। (अष्टपदियां नं: 1,2 व 3)।
(2) माया में फंसे जीव पर ईश्वर की ओर से ही मेहर हो तब इसे नाम की दाति मिलती है; क्योंकि माया के कई करिश्मे इसे मोहते रहते हैं। (अ: 4,5 व6)
(3) जब प्रभु की मेहर होती है तो मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के ‘नाम’ की इनायत हासिल करता है। वे गुरमुखि उच्च करनी वाले होते हैं, उन्हें साधु कहो, चाहे ब्रहम ज्ञानी, चाहे कोई और नाम रख लो, पर उनकी आत्मा सदा परमात्मा के साथ एक-रूप है। (अ: 7,8 व 9)
(4) उस अकाल पुरख की स्तुति जगत के सारे ही जीव कर रहे हैं, वह हर जगह व्यापक है, हरेक जीव को उससे क्षमता मिलती है। (अ: 10 व 11)।
(5) प्रभु की महिमा करने वाले भाग्यशाली ने अपने जीवन में और भी ख्याल रखने हैं कि (अ) स्वभाव गरीबी वाला रहे (अ: 12); (आ) निंदा करने से बचा रहे, (अ: 13); (इ) एक अकाल-पुरख की टेक रखे, हरेक जीव की जरूरतें जानने व पूरी करने वाला एक प्रभु ही है। (अष्टपदी 14 व 15)
(6) वह अकाल-पुरख कैसा है? सब में बसता हुआ भी माया से निर्लिप है (अ: 16)। सदा कायम रहने वाला है (अ: 17)। सतिगुरु की शरण पड़ने से उस प्रभु का प्रकाश हृदय में होता है (अ: 18)।
(7) प्रभु का नाम ही एक ऐसा धन है जो सदा मनुष्य के साथ निभता है (अ: 19); प्रभु के दर पे आरजू करने से इस धन की प्राप्ति होती है (अ: 20)।
(8) निर्गुण-रूप प्रभु ने खुद ही अपना सर्गुण स्वरूप जगत के रूप में बनाया है और हर जगह वह खुद ही व्यापक है, कोई और नहीं (अ: 21,22)। जब मनुष्य को ज्ञान रूपी अंजन (सुरमा) मिलता है, तभी इसके मन में ये प्रकाश होता है कि प्रभु हर जगह है (अ: 23)।
(9) प्रभु सारे गुणों का खजाना है, उसका नाम स्मरण करते हुए बेअंत गुण हासिल हो जाते हैं, इस वास्ते ‘नाम’ सुखों की मणी (सुखमनी) है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी सुखमनी मः ५ ॥
मूलम्
गउड़ी सुखमनी मः ५ ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: इस वाणी का नाम है ‘सुखमनी’ और ये गउड़ी राग में दर्ज है। इसे उच्चारने वाले गुरु अरजन साहिब जी हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि गुरए नमह ॥ जुगादि गुरए नमह ॥ सतिगुरए नमह ॥ स्री गुरदेवए नमह ॥१॥
मूलम्
आदि गुरए नमह ॥ जुगादि गुरए नमह ॥ सतिगुरए नमह ॥ स्री गुरदेवए नमह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नमह = (सब से) बड़े को। आदि = (सबका) आरम्भ। जुगादि = (जो) जुगों के आरम्भ से है। सतिगुरए = सतिगुरु को। स्री गुरदेवए = श्री गुरु जी को।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘नमह’ संप्रदान कारक के साथ इस्तेमाल होता है, ‘गुरऐ’ संप्रदान कारक में है। संस्कृत शब्द ‘गुरु’ से संप्रदान कारक ‘गुरवे’ है जो यहां ‘गुरऐ’ है। (और विस्तृत जानकारी ‘गुरबाणी व्याकरण’ में दर्ज की गई है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (मेरी) उस सबसे बड़े (अकाल पुरख) को नमस्कार है जो (सब का) आरम्भ है, और जो युगों के आरम्भ से है। सतिगुरु को (मेरा) नमस्कार है श्री गुरदेव जी को (मेरी) नमस्कार है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥ कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥ सिमरउ जासु बिसु्मभर एकै ॥ नामु जपत अगनत अनेकै ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥ कीने राम नाम इक आख्यर ॥ किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥ ता की महिमा गनी न आवै ॥ कांखी एकै दरस तुहारो ॥ नानक उन संगि मोहि उधारो ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥ कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥ सिमरउ जासु बिसु्मभर एकै ॥ नामु जपत अगनत अनेकै ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥ कीने राम नाम इक आख्यर ॥ किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥ ता की महिमा गनी न आवै ॥ कांखी एकै दरस तुहारो ॥ नानक उन संगि मोहि उधारो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असटपदी = आठ पदों वाली, आठ बंदों वाली। सिमरउ = मैं स्मरण करूँ। सिमरि = स्मरण करके। कलि = झगड़े। माहि = में। मिटावउ = मिटा लूं। बिसंभर = (विश्व+भर, भर = पालक) जगत का पालक। जासु नामु = जिस एक जगत पालक (हरि) का नाम। इक आख्यर = एकाक्षर (अकाल पुरख)। सुधाख्यर = शुद्ध अक्षर, पवित्र शब्द। जिसु जीअ = जिस के जीअ में। महिमा = स्तुति। कांखी = चाहवान। नानक मोहि = मुझे नानक को। उन संगि = उनकी संगति में (रख के)। उधारो = बचा लो।1।
अर्थ: मैं (अकाल-पुरख का नाम) स्मरण करूँ और स्मरण कर-कर के सुख हासिल करूँ; (इस तरह) शरीर में (जो) दुख व्याधियां हैं उनहें मिटा लूँ।
जिस एक जगत पालक (हरि) का नाम अनेक और अनगिनत (जीव) जपते हैं, मैं (भी उसको) स्मरण करूँ।
वेदों-पुराणों-स्मृतियों ने एक अकाल-पुरख के नाम को ही सबसे पवित्र नाम माना है।
जिस (मनुष्य) के जी में (अकाल-पुरख अपना नाम) थोड़ा सा भी बसाता है, उसकी वडियाई महिमा बयान नहीं की जा सकती।
(हे अकाल-पुरख!) जो मनुष्य तेरे दीदार के चाहवान हैं, उनकी संगति में (रख के) मुझे नानक को (संसार सागर से) बचा लो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमनी सुख अम्रित प्रभ नामु ॥ भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ॥
मूलम्
सुखमनी सुख अम्रित प्रभ नामु ॥ भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुखमनी = सुखों की मणी, सब से श्रेष्ठ सुख। प्रभ नामु = प्रभु का नाम। मनि = मन में। भगत जना कै मनि = भक्त जनों के मन में। बिस्राम = ठिकाना। रहाउ।
अर्थ: प्रभु का अमर करने वाला व सुखदाई नाम (सब) सुखों की मणी है, इसका ठिकाना भक्तों के हृदय में है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥ प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥ प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥ प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥ प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै ॥ प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥ प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥ सरब निधान नानक हरि रंगि ॥२॥
मूलम्
प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥ प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥ प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥ प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥ प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै ॥ प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥ प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥ सरब निधान नानक हरि रंगि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरनि = स्मरण द्वारा, स्मरण करने से। प्रभ कै सिमरनि = प्रभु का स्मरण करने से। गरभि = गर्भ में, माँ के पेट में, जून में, जनम (मरण) में। परहरै = संस्कृत में ‘परिहृ’ (to avoid, shun) परे हट जाता है। टरै = टल जाता है। सिमरत = स्मरण करते हुए, स्मरण करने से। कछु = कोई। बिघनु = रुकावट, बाधा। अनदिनु = हर रोज। जागै = सुचेत रहता है। भउ = डर। बिआपै = जोर डालता है। संतापै = तंग करता है। सरब = सारे। निधान = खजाने। नानक = हे नानक! रंगि = प्यार में।2।
अर्थ: प्रभु का स्मरण करने से (जीव) जनम में नहीं आता, (जीव का) दुख और जम (का डर) दूर हो जाता है। मौत (का भय) परे हट जाता है। (विकार रूपी) दुश्मन टल जाता है।
प्रभु को स्मरण करने से (जिंदगी की राह में) कोई रुकावट नहीं पड़ती, (क्योंकि) प्रभु का स्मरण करने से (मनुष्य) हर समय (विकारों की तरफ से) सुचेत रहता है।
प्रभु का स्मरण करने से (कोई) डर (जीव पर) दबाव नहीं डाल सकता और (कोई) दुख व्याकुल नहीं कर सकता।
अकाल-पुरख का स्मरण गुरमुखि की संगति में (मिलता है); (और जो मनुष्य स्मरण करता है, उसको) हे नानक! अकाल पुरख के प्यार में (ही) (दुनिया के) सारे खजाने (प्रतीत होते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥ प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥ प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि तीरथ इसनानी ॥ प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥ प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥ प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥ से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥ नानक ता कै लागउ पाए ॥३॥
मूलम्
प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥ प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥ प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि तीरथ इसनानी ॥ प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥ प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥ प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥ से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥ नानक ता कै लागउ पाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिधि = मानसिक ताकत। सिधि = (अणिमा लघिमा प्रप्ति: प्राकाम्ह महिमा तथा। ईशित्वं च तथा कामावसायिता॥) मानसिक ताकतें, जो आम तौर पर आठ प्रसिद्ध हैं। नउ निधि = (महापद्यश्च पद्मश्च शंखो मकरकक्ष्छपौ॥ मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नव॥) कुबेर देवते के नौ खजाने, भाव, जगत का सारा धन पदार्थ। ततु = अस्लियत, जगत का मूल। बुधि = अक्ल, समझ। बिनसै = नाश हो जाता है। मानी = मान वाला, इज्जत वाला। फला = फलीभूत हुआ, फल वाला हुआ। सुफल = अच्छे फल वाला। सुफल फला = (मानव जन्म का) उच्च उद्देश्य प्राप्त हो जाता है। जिन = जिन्हें। ता कै पाए = उनके पैरों में।3।
अर्थ: प्रभु के स्मरण में (ही) सारी रिद्धियां-सिद्धियां व नौ खजाने हैं, प्रभु स्मरण में ही ज्ञान, तवज्जो का टिकाव, और जगत के मूल (हरि) की समझ वाली बुद्धि है।
प्रभु के स्मरण में ही (सारे) जाप-ताप व (देव) पूजा हैं, (क्योंकि) स्मरण करने से प्रभु के बिना किसी और उस जैसी हस्ती के अस्तित्व का ख्याल ही दूर हो जाता है।
स्मरण करने वाला (आत्म-) तीर्थ का स्नान करने वाला हो जाता है, और, दरगाह में उसे आदर मिलता है, जगत में जो जो हो रहा है (उसे) भला प्रतीत होता है, और (उसका) मानव जन्म का श्रेष्ठ उद्देश्य सिद्ध हो जाता है।
(नाम) वही स्मरण करते हैं, जिन्हें प्रभु स्वयं प्रेरित करता है, (इसलिए, कह) हे नानक! मैं उन (स्मरण करने वालों) के पैर लगूँ।3।
[[0263]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा ॥ प्रभ कै सिमरनि उधरे मूचा ॥ प्रभ कै सिमरनि त्रिसना बुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि सभु किछु सुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि नाही जम त्रासा ॥ प्रभ कै सिमरनि पूरन आसा ॥ प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ ॥ अम्रित नामु रिद माहि समाइ ॥ प्रभ जी बसहि साध की रसना ॥ नानक जन का दासनि दसना ॥४॥
मूलम्
प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा ॥ प्रभ कै सिमरनि उधरे मूचा ॥ प्रभ कै सिमरनि त्रिसना बुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि सभु किछु सुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि नाही जम त्रासा ॥ प्रभ कै सिमरनि पूरन आसा ॥ प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ ॥ अम्रित नामु रिद माहि समाइ ॥ प्रभ जी बसहि साध की रसना ॥ नानक जन का दासनि दसना ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधरे = (विकारों से) बच जाते हैं। मूचा = महान ऊँचा, बहुत सारे। त्रिसना = तृष्णा, (माया की) प्यास। सभु किछु = हरेक बात। त्रास = डर। जम त्रासा = जमों का डर। रिद माहि = हृदय में। समाइ = टिक जाता है। रसना = जीभ। जन का = जन का, साधूओं का। साध = गुरमुख। दासनि दासा = दासों का दास।4।
अर्थ: प्रभु का स्मरण करना (और) सभी (कोशिशों) से बेहतर है; प्रभु का स्मरण करने से बहुत सारे (जीव) (विकारों से) बच जाते हैं।
प्रभु का स्मरण करने से (माया की) प्यास मिट जाती है, (क्योंकि माया के) हरेक (तेवर) की समझ पड़ जाती है।
प्रभु का स्मरण करने से जमों का डर खत्म हो जाता है, और, (जीव की) आस पूर्ण हो जाती है (भाव, आशाओं से मन तृप्त हो जाता है)।
प्रभु का स्मरण करने से मन की (विकारों की) मैल दूर हो जाती है, और मनुष्य के हृदय में (प्रभु का) अमर करने वाला नाम टिक जाता है।
प्रभु जी गुरमुख मनुष्यों की जीभ पर बसते हैं (भाव, साधु जन सदा प्रभु को जपते हैं)। (कह) हे नानक! (मैं) गुरमुखों के सेवकों का सेवक (बनूँ)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ कउ सिमरहि से धनवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पतिवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से जन परवान ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पुरख प्रधान ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि बेमुहताजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि सरब के राजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि से सुखवासी ॥ प्रभ कउ सिमरहि सदा अबिनासी ॥ सिमरन ते लागे जिन आपि दइआला ॥ नानक जन की मंगै रवाला ॥५॥
मूलम्
प्रभ कउ सिमरहि से धनवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पतिवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से जन परवान ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पुरख प्रधान ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि बेमुहताजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि सरब के राजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि से सुखवासी ॥ प्रभ कउ सिमरहि सदा अबिनासी ॥ सिमरन ते लागे जिन आपि दइआला ॥ नानक जन की मंगै रवाला ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरहि = (जो) स्मरण करते हैं। से = वे मनुष्य। धनवंते = धन वाले, धनाढ। पतिवंते = इज्जत वाले। परवान = स्वीकार, जाने माने। पुरख = मनुष्य। प्रधान = श्रेष्ठ, अच्छे। सि = वे, वह मनुष्य। बेमुहताजे = बे मुथाज, बेपरवाह। अबिनासी = नाश रहित, जनम मरन से रहित। सिमरनि = स्मरण में। ते = वे मनुष्य। जिन = जिस पे। आपि = प्रभु खुद। जन = सेवक। रवाल = चरणों की धूल।5।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, वे धनवान हैं, और वे आदरणीय हैं।
जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, वे जाने माने प्रसिद्ध हुए हें, और वे (सब मनुष्यों से) अच्छे हैं।
जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, वे किसी के मुहताज नहीं हैं, वे (तो बल्कि) सब के बादशाह हैं।
जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, वे सुखी बसते हैं और सदा के वास्ते जनम मरन से रहित हो जाते हैं।
(पर) प्रभु स्मरण में वही मनुष्य लगते हैं जिनपे प्रभु स्वयं मेहरबान (होता है); हे नानक! (कोई भाग्यशाली) इन गुरमुखों की चरण-धूल माँगता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ कउ सिमरहि से परउपकारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सद बलिहारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि से मुख सुहावे ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सूखि बिहावै ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन आतमु जीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन निरमल रीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन अनद घनेरे ॥ प्रभ कउ सिमरहि बसहि हरि नेरे ॥ संत क्रिपा ते अनदिनु जागि ॥ नानक सिमरनु पूरै भागि ॥६॥
मूलम्
प्रभ कउ सिमरहि से परउपकारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सद बलिहारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि से मुख सुहावे ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सूखि बिहावै ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन आतमु जीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन निरमल रीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन अनद घनेरे ॥ प्रभ कउ सिमरहि बसहि हरि नेरे ॥ संत क्रिपा ते अनदिनु जागि ॥ नानक सिमरनु पूरै भागि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपकार = भलाई, नेकी। उपकारी = भलाई करने वाला। परउपकारी = दूसरों के साथ भलाई करने वाले। तिन = उनसे। सद = सदा। बलिहारी = सदके, कुर्बान। सुहावे = सोहणे। तिन = उनकी। सूखि = सुख में। बिहावै = बीतती है। तिन = उन्होंने। आतमु = अपने आप को। तिन रीता = उनकी रीति। रीत = जिंदगी गुजारने का तरीका। निरमल = मल रहित, पवित्र। अनद = आनंद, खुशियां, सुख। घनेरे = बहुत। बसहि = बसते हैं। नेरे = नजदीक। अनदिनु = हर रोज, हर समय। जागि = जाग सकते हैं। नानक = हे नानक! पूरै भागि = पूरी किस्मत से।6।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, वे दूसरों के साथ भलाई करने वाले बन जाते हें, उनसे (मैं) सदा सदके हूँ।
जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, उनके मुंह सुंदर (लगते) हैं, उनकी (उम्र) सुख में गुजरती है।
जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, वे अपने आप को जीत लेते हैं और उनका जिंदगी गुजारने का तरीका पवित्र हो जाता है।
जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करते हैं, उन्हें खुशियां ही खुशियां हैं, (क्योंकि) वे प्रभु की हजूरी में बसते हैं।
संतों की कृपा से ही ये हर समय (स्मरण की) जाग आ सकती है; हे नानक! स्मरण (की दाति) बड़ी किस्मत से (मिलती है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ कै सिमरनि कारज पूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि कबहु न झूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि हरि गुन बानी ॥ प्रभ कै सिमरनि सहजि समानी ॥ प्रभ कै सिमरनि निहचल आसनु ॥ प्रभ कै सिमरनि कमल बिगासनु ॥ प्रभ कै सिमरनि अनहद झुनकार ॥ सुखु प्रभ सिमरन का अंतु न पार ॥ सिमरहि से जन जिन कउ प्रभ मइआ ॥ नानक तिन जन सरनी पइआ ॥७॥
मूलम्
प्रभ कै सिमरनि कारज पूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि कबहु न झूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि हरि गुन बानी ॥ प्रभ कै सिमरनि सहजि समानी ॥ प्रभ कै सिमरनि निहचल आसनु ॥ प्रभ कै सिमरनि कमल बिगासनु ॥ प्रभ कै सिमरनि अनहद झुनकार ॥ सुखु प्रभ सिमरन का अंतु न पार ॥ सिमरहि से जन जिन कउ प्रभ मइआ ॥ नानक तिन जन सरनी पइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झूरे = झुरता, चिन्ता करता। हरि गुन बानी = हरि के गुणों वाली वाणी। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। समानी = लीन हो जाता है। निहचल = ना हिलने वाला, टिका हुआ। कमल = हृदय रूपी कमल फूल। बिगासनु = खिलाव। अनहद = एक रस, लगातार। झुनकार = रसीली मीठी आवाज। मइआ = मेहर, दया।7।
अर्थ: प्रभु का स्मरण करने से मनुष्य के (सारे) काम पूरे हो जाते हैं (वह आवश्यक्ताओं के अधीन नहीं रहता) और कभी चिंताओं के वश नहीं पड़ता।
प्रभु का स्मरण करने से मनुष्य अकाल पुरख के गुण ही उच्चारता है (भाव, उसे महिमा की आदत पड़ जाती है) और सहज अवस्था में टिका रहता है।
प्रभु का स्मरण करने से मनुष्य का (मन रूपी) आसन डोलता नहीं और उसके (हृदय का) कमल-फूल खिला रहता है।
प्रभु का स्मरण करने से (मनुष्य के अंदर) एक-रस संगीत सा (होता रहता है), (भाव) प्रभु के स्मरण से जो सुख (उपजता) है वह (कभी) खत्म नहीं होता।
वही मनुष्य (प्रभु को) स्मरण करते हैं, जिस पर प्रभु की मेहर होती है; हे नानक! (कोई भाग्यशाली) उन (स्मरण करने वाले) जनों की शरण पड़ता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि सिमरनु करि भगत प्रगटाए ॥ हरि सिमरनि लगि बेद उपाए ॥ हरि सिमरनि भए सिध जती दाते ॥ हरि सिमरनि नीच चहु कुंट जाते ॥ हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥ सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥ हरि सिमरनि कीओ सगल अकारा ॥ हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥ करि किरपा जिसु आपि बुझाइआ ॥ नानक गुरमुखि हरि सिमरनु तिनि पाइआ ॥८॥१॥
मूलम्
हरि सिमरनु करि भगत प्रगटाए ॥ हरि सिमरनि लगि बेद उपाए ॥ हरि सिमरनि भए सिध जती दाते ॥ हरि सिमरनि नीच चहु कुंट जाते ॥ हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥ सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥ हरि सिमरनि कीओ सगल अकारा ॥ हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥ करि किरपा जिसु आपि बुझाइआ ॥ नानक गुरमुखि हरि सिमरनु तिनि पाइआ ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि सिमरनु = प्रभु का स्मरण। करि = कर के। प्रगटाए = मशहूर हुए। हरि सिमरनि = प्रभु के स्मरण में। लगि = लग के, जुड़ के। उपाए = पैदा किए। भए = हो गए। सिध = वह पुरुष जो साधना द्वारा आत्मिक अवस्था के शिखर तक पहुँच गए। जती = अपनी शारीरिक इंद्रियों को वश में रखने वाला। चहु कुंट = चारों तरफ, सारे जगत में। जाते = मशहूर। सिमरनि = स्मरण ने। धारी = टिकाई। धरना = धरती। कारन करन = जगत का कारन, जगत का मूल, सृष्टि का करता। आकारा = दृष्टिमान जगत। महि = में। जिसु = जिस को। नानक = हे नानक! तिनि = उस मनुष्य ने। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।8।
अर्थ: प्रभु का स्मरण करके भक्त (जगत में) मशहूर होते हैं, स्मरण में ही जुड़ के (ऋषियों ने) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) रचीं।
प्रभु के स्मरण द्वारा ही मनुष्य सिद्ध बन गए, जती बन गए, दाते बन गए; नाम जपने की इनायत से नीच मनुष्य सारे संसार में प्रगट हो गए।
प्रभु के स्मरण ने सारी धरती को आसरा दिया हुआ है; (इसलिए, हे भाई!) जगत के कर्ता प्रभु को सदा स्मरण कर।
प्रभु ने स्मरण के वास्ते सारा जगत बनाया है; जहाँ स्मरण है वहाँ निरंकार स्वयं बसता है।
मेहर करके जिस मनुष्य को (स्मरण करने की) समझ देता है, हे नानक! उस मनुष्य ने गुरु के द्वारा स्मरण (की दाति) प्राप्त कर ली है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ ॥ सरणि तुम्हारी आइओ नानक के प्रभ साथ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ ॥ सरणि तुम्हारी आइओ नानक के प्रभ साथ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन = गरीब, कंगाल, कमजोर। भंजना = तोड़ने वाला, नाश करने वाला। घटि = घट में, शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में (व्यापक)। नाथ = मालिक, पति। अनाथ = यतीम। नाथ = अनाथों का नाथ। आइओ = आया हूँ। प्रभ = हे प्रभु! नानक के साथ = गुरु के साथ, गुरु की चरणी पड़ के।1।
अर्थ: दीनों के दर्द और दुखों का नाश करने वाले हे प्रभु! हे हरेक शरीर में व्यापक हरि! हे अनाथों के नाथ!
हे प्रभु! गुरु नानक का पल्ला पकड़ के मैं तेरी शरण आया हूँ।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘तुमा्री’ के अक्षर ‘म’ के नीचे ‘्’ आधा ‘ह’ की ध्वनि देगा।
[[0264]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ जह मात पिता सुत मीत न भाई ॥ मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥ जह महा भइआन दूत जम दलै ॥ तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥ जह मुसकल होवै अति भारी ॥ हरि को नामु खिन माहि उधारी ॥ अनिक पुनहचरन करत नही तरै ॥ हरि को नामु कोटि पाप परहरै ॥ गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ॥ नानक पावहु सूख घनेरे ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ जह मात पिता सुत मीत न भाई ॥ मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥ जह महा भइआन दूत जम दलै ॥ तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥ जह मुसकल होवै अति भारी ॥ हरि को नामु खिन माहि उधारी ॥ अनिक पुनहचरन करत नही तरै ॥ हरि को नामु कोटि पाप परहरै ॥ गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ॥ नानक पावहु सूख घनेरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जहाँ (भाव, जिंदगी के इस सफर में)। सुत = पुत्र। मन = हे मन! ऊहा = वहाँ। महा = बड़ा। भइआन = भयानक, डरावना। दूत जम = जम दूत। दूत जम दलै = जम दूतों का दल। तह = वहाँ। केवल = सिर्फ। खिन माहि = छिन में। उधारी = बचाता है। अनिक = अनेक, बहुत। पुनह चरन = (संस्कृत: पुनः आचरण। आचरण = धार्मिक रस्म) बारंबार कोई धार्मिक रस्में करनीं। को = का। कोटि = करोड़। परहरै = दूर कर देता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।1।
अर्थ: जहाँ माता, पिता, पुत्र, मित्र, भाई कोई (साथी) नहीं (बनता), वहाँ हे मन! (प्रभु) का नाम तेरी सहायता करने वाला है।
जहाँ बड़े भयानक जमदूतों का दल है, वहाँ तेरे साथ सिर्फ प्रभु का नाम ही जाता है।
जहाँ बड़ी भारी मुश्किल होती है, (वहाँ) प्रभु का नाम पलक झपकने में बचा लेता है।
अनेक धार्मिक रस्में करके भी (मनुष्य पापों से) नहीं बचता, (पर) प्रभु का नाम करोड़ों पापों का नाश कर देता है।
(इसलिए) हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ के (प्रभु का) नाम जप। हे नानक! (नाम की इनायत से) बड़े सुख पाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल स्रिसटि को राजा दुखीआ ॥ हरि का नामु जपत होइ सुखीआ ॥ लाख करोरी बंधु न परै ॥ हरि का नामु जपत निसतरै ॥ अनिक माइआ रंग तिख न बुझावै ॥ हरि का नामु जपत आघावै ॥ जिह मारगि इहु जात इकेला ॥ तह हरि नामु संगि होत सुहेला ॥ ऐसा नामु मन सदा धिआईऐ ॥ नानक गुरमुखि परम गति पाईऐ ॥२॥
मूलम्
सगल स्रिसटि को राजा दुखीआ ॥ हरि का नामु जपत होइ सुखीआ ॥ लाख करोरी बंधु न परै ॥ हरि का नामु जपत निसतरै ॥ अनिक माइआ रंग तिख न बुझावै ॥ हरि का नामु जपत आघावै ॥ जिह मारगि इहु जात इकेला ॥ तह हरि नामु संगि होत सुहेला ॥ ऐसा नामु मन सदा धिआईऐ ॥ नानक गुरमुखि परम गति पाईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारी। स्रिसटि = दुनिया। को = का। लाख करोरी = लाखों करोड़ों (रुपयों) से, लाखों करोड़ों रुपए कमा के भी। बंधु = रोक, ठहरना। न परै = नही पड़ती। निसतरै = पार लांघ जाता है। अनिक माइआ रंग = माया के अनेक रंग, माया की अनेको मौजें (होते हुए भी)। तिख = प्यास, माया की प्यास। आघावै = तृप्त हो जाता है। जिह मारग = जिस रास्तों पे। सुहेला = सुख देने वाला। मन = हे मन! परम = ऊँचा। गति = दरजा। पाईऐ = पाते हैं, मिलता है।2।
अर्थ: (मनुष्य) सारी दुनिया का राजा (हो के भी) दुखी (रहता है) पर प्रभु का नाम जपने से सुखी (हो जाता है);
(क्योंकि) लाखों करोड़ों (रुपए) कमा के भी (माया की प्यास को) रोक नहीं पड़ती, (इस माया के दल दल से) प्रभु का नाम जप के ही मनुष्य पार लांघ जाता है;
माया की बेअंत मौजें होते हुए भी (माया की) प्यास नहीं बुझती, (पर) प्रभु का नाम जपने से (मनुष्य माया की तरफ से) तृप्त हो जाता है।
जिस राहों से ये जीव अकेला जाता है, (भाव, जिंदगी के जिस झमेलों में इस चिंतातुर जीव की कोई सहायता नहीं कर सकता) वहाँ प्रभु का नाम इसके साथ सुख देने वाला होता है।
(इस वास्ते) हे मन! ऐसा (सुहेला) नाम सदा स्मरण करें, हे नानक! गुरु के द्वारा (नाम जपने से) ऊँचा दर्जा मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छूटत नही कोटि लख बाही ॥ नामु जपत तह पारि पराही ॥ अनिक बिघन जह आइ संघारै ॥ हरि का नामु ततकाल उधारै ॥ अनिक जोनि जनमै मरि जाम ॥ नामु जपत पावै बिस्राम ॥ हउ मैला मलु कबहु न धोवै ॥ हरि का नामु कोटि पाप खोवै ॥ ऐसा नामु जपहु मन रंगि ॥ नानक पाईऐ साध कै संगि ॥३॥
मूलम्
छूटत नही कोटि लख बाही ॥ नामु जपत तह पारि पराही ॥ अनिक बिघन जह आइ संघारै ॥ हरि का नामु ततकाल उधारै ॥ अनिक जोनि जनमै मरि जाम ॥ नामु जपत पावै बिस्राम ॥ हउ मैला मलु कबहु न धोवै ॥ हरि का नामु कोटि पाप खोवै ॥ ऐसा नामु जपहु मन रंगि ॥ नानक पाईऐ साध कै संगि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छूटत = बच सकता, खलासी पाना। बाही = बाहों से, भाईयों के होते। पराही = पड़ते हैं। पारि पराही = पार लांघ जाते हैं। आइ = आ के। संघारै = (सं: संहृ) नाश करते हैं, दुखी करते हैं। ततकाल = तुरंत। बिस्राम = विश्राम, टिकाव। हउ = अपनत्व। कोटि = करोड़ों। मन = हे मन! रंगि = रंग में, प्यार से। नानक = हे नानक!।3।
अर्थ: लाखों करोड़ों भाईयों के होते हुए (मनुष्य जिस दीन अवस्था से) निजात नहीं पा सकता, वहाँ (प्रभु का) नाम जपने से (जीव) पार लांघ जाते हैं।
जहाँ अनेको मुश्किलें आ दबोचती हैं, (वहाँ) प्रभु का नाम तुरंत बचा लेता है।
(जीव) अनेक जूनियों में पैदा होता है मरता है (फिर) पैदा होता है (इसी तरह जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है), नाम जपने से (प्रभु चरणों में) टिक जाता है।
अहंकार से गंदा हुआ (जीव) कभी ये मैल धोता नहीं, (पर) प्रभु का नाम करोड़ों पाप नाश कर देता है।
हे मन! (प्रभु का) ऐसा नाम प्यार से जप। हे नानक! (प्रभु का नाम) गुरमुखों की संगति में मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह मारग के गने जाहि न कोसा ॥ हरि का नामु ऊहा संगि तोसा ॥ जिह पैडै महा अंध गुबारा ॥ हरि का नामु संगि उजीआरा ॥ जहा पंथि तेरा को न सिञानू ॥ हरि का नामु तह नालि पछानू ॥ जह महा भइआन तपति बहु घाम ॥ तह हरि के नाम की तुम ऊपरि छाम ॥ जहा त्रिखा मन तुझु आकरखै ॥ तह नानक हरि हरि अम्रितु बरखै ॥४॥
मूलम्
जिह मारग के गने जाहि न कोसा ॥ हरि का नामु ऊहा संगि तोसा ॥ जिह पैडै महा अंध गुबारा ॥ हरि का नामु संगि उजीआरा ॥ जहा पंथि तेरा को न सिञानू ॥ हरि का नामु तह नालि पछानू ॥ जह महा भइआन तपति बहु घाम ॥ तह हरि के नाम की तुम ऊपरि छाम ॥ जहा त्रिखा मन तुझु आकरखै ॥ तह नानक हरि हरि अम्रितु बरखै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह = जिस। मारग = रास्ता। ऊहा = वहाँ। संगि = (तेरे) साथ। तोसा = खर्च, राशि, पूंजी। जिह पैडै = जिस राह में। गुबारा = अंधेरा। उजीआरा = प्रकाश। पंथि = राह में। भइआन = भयानक। तपति = तपश। घाम = धूप, गरमी। छाम = छाया। त्रिखा = प्यास। आकरखै = आकर्षित करती है, घबराहट डालती है। तुझु = तुझे। बरखै = बरसता है।4।
अर्थ: जिस (जिंदगी रूपी) राह के कोस गिने नहीं जा सकते, वहाँ (भाव, उस लंबे सफर में) प्रभु का नाम (जीव की) राशि पूंजी है। साथ रौशनी है।
जिस (जिंदगी रूप) राह में (विकारों का) घोर अंधकार है, (वहाँ) प्रभु का नाम (जीव के) साथ रौशनी है।
जिस रास्ते में (हे जीव!) तेरा कोई (असली) महरम नहीं है, वहाँ प्रभु का नाम तेरे साथ (सच्चा) साथी है।
जहाँ (जिंदगी के सफर में) (विकारों की) बड़ी भयानक तपश व गरमी है, वहाँ (हे जीव!) प्रभु का नाम तेरे पर छाया है।
(हे जीव!) जहाँ (माया की) प्यास तुझे (सदा) आकर्षित करती है, वहाँ, हे नानक! प्रभु के नाम की बरखा होती है (जो तपश को बुझा देती है)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत जना की बरतनि नामु ॥ संत जना कै मनि बिस्रामु ॥ हरि का नामु दास की ओट ॥ हरि कै नामि उधरे जन कोटि ॥ हरि जसु करत संत दिनु राति ॥ हरि हरि अउखधु साध कमाति ॥ हरि जन कै हरि नामु निधानु ॥ पारब्रहमि जन कीनो दान ॥ मन तन रंगि रते रंग एकै ॥ नानक जन कै बिरति बिबेकै ॥५॥
मूलम्
भगत जना की बरतनि नामु ॥ संत जना कै मनि बिस्रामु ॥ हरि का नामु दास की ओट ॥ हरि कै नामि उधरे जन कोटि ॥ हरि जसु करत संत दिनु राति ॥ हरि हरि अउखधु साध कमाति ॥ हरि जन कै हरि नामु निधानु ॥ पारब्रहमि जन कीनो दान ॥ मन तन रंगि रते रंग एकै ॥ नानक जन कै बिरति बिबेकै ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बरतनि = इस्तेमाल, वह चीज जो हर समय जरूरी है, हथियार। मनि = मन में। ओट = आसरा। हरि कै नामि = प्रभु के नाम से। जन = मनुष्य। हरि जसु = हरि की कीर्ति, प्रभु की स्तुति। अउखधु = दवा। कमाति = कमाते हैं, हासिल करते हैं। हरि जन कै = प्रभु के सेवक के (पास)। निधानु = खजाना। पारब्रहमि = पारब्रहम ने, प्रभु ने। कीनो = किया है। जन = जनों को, अपने सेवकों को। रंग = प्यार। बिरति = स्वभाव, रुची। बिबेकै = परख, विचार। बिरति बिबेकै = अच्छे बुरे की परख करने का स्वभाव।5।
अर्थ: प्रभु का नाम भगतों का हथियार है, भक्तों के मन में ये टिका रहता है। प्रभु का नाम भक्तों का आसरा है, प्रभु के नाम से करोड़ों लोग (विकारों से) बच जाते हैं। भक्त जन दिन रात प्रभु की स्तुति करते हैं, और, प्रभु नाम रूपी दवा इकट्ठी करते हैं (जिससे अहंकार का रोग दूर होता है)।
भक्तों के पास प्रभु का नाम ही खजाना है, प्रभु ने नाम की बख्शिश अपने सेवकों पर स्वयं की है।
भक्त जन मन से तन से एक प्रभु के प्यार में रंगे रहते हैं; हे नानक! भक्तों के अंदर भले-बुरे की परख करने का स्वभाव बन जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु जन कउ मुकति जुगति ॥ हरि कै नामि जन कउ त्रिपति भुगति ॥ हरि का नामु जन का रूप रंगु ॥ हरि नामु जपत कब परै न भंगु ॥ हरि का नामु जन की वडिआई ॥ हरि कै नामि जन सोभा पाई ॥ हरि का नामु जन कउ भोग जोग ॥ हरि नामु जपत कछु नाहि बिओगु ॥ जनु राता हरि नाम की सेवा ॥ नानक पूजै हरि हरि देवा ॥६॥
मूलम्
हरि का नामु जन कउ मुकति जुगति ॥ हरि कै नामि जन कउ त्रिपति भुगति ॥ हरि का नामु जन का रूप रंगु ॥ हरि नामु जपत कब परै न भंगु ॥ हरि का नामु जन की वडिआई ॥ हरि कै नामि जन सोभा पाई ॥ हरि का नामु जन कउ भोग जोग ॥ हरि नामु जपत कछु नाहि बिओगु ॥ जनु राता हरि नाम की सेवा ॥ नानक पूजै हरि हरि देवा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन कउ = भक्तजनों के वास्ते। मुकति = (माया के बंधनों से) छुटकारा। जुगति = तरीका, साधन। त्रिपति = तृप्ति, तसल्ली। भुगति = (मायावी) भोग। रूप रंग = सुंदरता। भंगु = विघ्न। वडिआई = सम्मान। जन = (भक्त) जनों ने। बिओगु = वियोग, विछोड़ा, कष्ट, दुख। राता = रंगा हुआ, भीगा हुआ, मस्त। देवा = देव, प्रकाश रूप प्रभु।6।
अर्थ: भक्त के वास्ते प्रभु का नाम (ही) (माया के बंधनों से) छुटकारा पाने का साधन है, (क्योंकि) प्रभु के नाम से भक्त (माया के) भोगों की ओर से तृप्त हो जाता है।
प्रभु का नाम भक्त का सुहज सुंदरता है, प्रभु का नाम जपते हुए (भक्त के राह में) कभी (कोई) अटकाव नहीं पड़ता।
प्रभु का नाम (ही) भक्त का मान-सम्मान है, (क्योंकि) प्रभु के नाम द्वारा (ही) भक्तों ने (जगत में) मशहूरी पाई है।
(त्यागी की) योग (-साधना) और गृहस्थी का माया का भोग, भक्तजन के वास्ते प्रभु का नाम (ही) है, प्रभु का नाम जपते हुए (उसे) कोई दुख-कष्ट नहीं होता।
(प्रभु का) भक्त (सदा) प्रभु के नाम की सेवा (स्मरण) में मस्त रहता है; हे नानक! (भक्त सदा) प्रभु-देव को ही पूजता है।6।
[[0265]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि जन कै मालु खजीना ॥ हरि धनु जन कउ आपि प्रभि दीना ॥ हरि हरि जन कै ओट सताणी ॥ हरि प्रतापि जन अवर न जाणी ॥ ओति पोति जन हरि रसि राते ॥ सुंन समाधि नाम रस माते ॥ आठ पहर जनु हरि हरि जपै ॥ हरि का भगतु प्रगट नही छपै ॥ हरि की भगति मुकति बहु करे ॥ नानक जन संगि केते तरे ॥७॥
मूलम्
हरि हरि जन कै मालु खजीना ॥ हरि धनु जन कउ आपि प्रभि दीना ॥ हरि हरि जन कै ओट सताणी ॥ हरि प्रतापि जन अवर न जाणी ॥ ओति पोति जन हरि रसि राते ॥ सुंन समाधि नाम रस माते ॥ आठ पहर जनु हरि हरि जपै ॥ हरि का भगतु प्रगट नही छपै ॥ हरि की भगति मुकति बहु करे ॥ नानक जन संगि केते तरे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन कै = भक्त के (हृदय में), भक्त के वास्ते। खजीना = खजाना, धन। आप प्रभि = प्रभु ने खुद। सताणी = ताण वाली, बलवान, तगड़ी। हरि प्रतापि = प्रभु के प्रताप से। अवर = (कोई) और (आसरा)। ओति पोति = (सं: ओत प्रोत = sewn crosswise and lengthwise; extending in all directions) ताने बाने की तरह, भावए पूरे तौर पर हर तरफ से। रसि = रस में। राते = रंगे हुए, भीगे हुए। सुंन = जहाँ कुछ भी ना हो। सुंन समाधि = (मन का वह) टिकाव जिसमें कोई भी विचार ना रहे। माते = मस्त हुए। बहु = बहुतों को। केते = कई जीव।7।
अर्थ: प्रभु का नाम भक्त के लिए माल धन है, ये नाम रूपी धन प्रभु ने खुद अपने भक्त को दिया है।
भक्त के वास्ते प्रभु का नाम (ही) तगड़ा आसरा है, भक्तों ने प्रभु के प्रताप से किसी और आसरे को नहीं देखा।
भक्तजन प्रभु-नाम-रस में पूरे तौर पर भीगे रहते हैं, और नाम-रस में मस्त हुए (मन के) टिकाव (का वे आनंद लेते हैं), जो निर्विचार अवस्था होती है।
(प्रभु का) भक्त आठों पहर प्रभु को जपता है, (जगत में) भक्त प्रकट (हो जाता है) छुपा नहीं रहता।
प्रभु की भक्ती बेअंत जीवों को (विकारों से) छुटकारा दिलाती है; हे नानक! भक्त की संगति में कई और भी पार हो जाते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारजातु इहु हरि को नाम ॥ कामधेन हरि हरि गुण गाम ॥ सभ ते ऊतम हरि की कथा ॥ नामु सुनत दरद दुख लथा ॥ नाम की महिमा संत रिद वसै ॥ संत प्रतापि दुरतु सभु नसै ॥ संत का संगु वडभागी पाईऐ ॥ संत की सेवा नामु धिआईऐ ॥ नाम तुलि कछु अवरु न होइ ॥ नानक गुरमुखि नामु पावै जनु कोइ ॥८॥२॥
मूलम्
पारजातु इहु हरि को नाम ॥ कामधेन हरि हरि गुण गाम ॥ सभ ते ऊतम हरि की कथा ॥ नामु सुनत दरद दुख लथा ॥ नाम की महिमा संत रिद वसै ॥ संत प्रतापि दुरतु सभु नसै ॥ संत का संगु वडभागी पाईऐ ॥ संत की सेवा नामु धिआईऐ ॥ नाम तुलि कछु अवरु न होइ ॥ नानक गुरमुखि नामु पावै जनु कोइ ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारजातु = (स्वर्ग के पाँच वृक्ष: पचैते देवतरवो मंदार: पारिजातिक: ॥ संतान: कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम्॥) स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक का नाम ‘पारजात’ है, इसकी बाबत ये ख्याल बना हुआ हैकि ये हरेक की मनोकामना पूरी करता है। कामधेन = स्वर्ग की गाय जो हरेक मनोकामना पूरी करती है। गाम = गायन। दुरतु = पाप। नाम तुलि = नाम के बराबर। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जनु कोइ = कोई विरला मनुष्य।8।
अर्थ: प्रभु का ये नाम (ही) ‘पारजात’ वृक्ष है, प्रभु के गुण गाने (ही इच्छा पूरक) ‘कामधेनु’ है।
प्रभु की (महिमा की) बातें (और) सब (बातों) से अच्छी हैं (क्योंकि प्रभु का) नाम सुनने से सारे दुख-दर्द उतर जाते हैं।
(प्रभु के) नाम की बड़ाई संतों के हृदय में बसती है (और) संतों के प्रताप से सारे पाप दूर हो जाते हैं।
बड़े भाग्यों से संतों की संगति मिलती है (और) संतों की सेवा (करने से) (प्रभु का) नाम स्मरण किया जाता है।
प्रभु-नाम के बराबर और कोई (पदार्थ) नहीं, हे नानक! गुरु के सन्मुख हो के कोई विरला मनुष्य नाम की दाति पाता है।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ बहु सासत्र बहु सिम्रिती पेखे सरब ढढोलि ॥ पूजसि नाही हरि हरे नानक नाम अमोल ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ बहु सासत्र बहु सिम्रिती पेखे सरब ढढोलि ॥ पूजसि नाही हरि हरे नानक नाम अमोल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखे = देखे हैं। सरब = सारे। ढढोलि = ढूँढ के, खोज के। पूजसि नाही = नहीं पहुँचते, बराबरी नहीं करते। अमोल = जिसका मूल्य नहीं पाया जा सकता। सासत्र = (सं: शास्त्र) 1.धार्मिक पुस्तक, 2.पदार्थ विद्या की पुस्तक। सिम्रिति = स्मृति, हिन्दू कौम के लिए धार्मिक व भाईचारक कानून आदि की पुस्तकें जो मनु आदि नेताओं ने लिखी।1।
अर्थ: बहुत से शास्त्र व बहुत सारी स्मृतियां, सारे (हमने) खोज के देखे हैं; (ये पुस्तकें कई तरह की ज्ञान-चर्चाएं व कई धार्मिक व भाईचारक रस्में तो सिखाती हैं) (पर ये) अकाल-पुरख के नाम की बराबरी नहीं कर सकते। हे नानक! (प्रभु के) नाम का मूल नहीं पाया जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ जाप ताप गिआन सभि धिआन ॥ खट सासत्र सिम्रिति वखिआन ॥ जोग अभिआस करम ध्रम किरिआ ॥ सगल तिआगि बन मधे फिरिआ ॥ अनिक प्रकार कीए बहु जतना ॥ पुंन दान होमे बहु रतना ॥ सरीरु कटाइ होमै करि राती ॥ वरत नेम करै बहु भाती ॥ नही तुलि राम नाम बीचार ॥ नानक गुरमुखि नामु जपीऐ इक बार ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ जाप ताप गिआन सभि धिआन ॥ खट सासत्र सिम्रिति वखिआन ॥ जोग अभिआस करम ध्रम किरिआ ॥ सगल तिआगि बन मधे फिरिआ ॥ अनिक प्रकार कीए बहु जतना ॥ पुंन दान होमे बहु रतना ॥ सरीरु कटाइ होमै करि राती ॥ वरत नेम करै बहु भाती ॥ नही तुलि राम नाम बीचार ॥ नानक गुरमुखि नामु जपीऐ इक बार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाप = वेद आदि कि मंत्रों (व देवताओं के नाम) को धीरे-धीरे उचारने। ताप = शरीर को धूणियां आदि से कष्ट देने ताकि शारीरिक इंद्रिय मन और आत्मा पर जोर ना डाल सकें। धिआन = किसी देवता आदि के गुणों को मन के सामने रखना। खट सासत्र = छह शास्त्र, छह दर्शन (सांख, योग, निआइ, वैशेषिक, मीमांसा व वेदांत)। वखिआन = उपदेश। करम ध्रम किरिआ = कर्मकांड के धर्म के काम। तिआगि = छोड़ के। मधे = बीच में। होमै = हवन करे, आग में डाले। रतना = घी। करि राती = रक्ती रक्ती करके। नेम = बंधेज। इक बार = एक बार।1।
अर्थ: (यदि कोई) (वेद मंत्रों के) जाप करे, (शरीर को धुनी रमा के) तपाए, (और) कई ज्ञान (की बातें करे) और (देवताओं के) ध्यान धरे, छह शास्त्रों व स्मृतियों का उपदेश करे;
योग के साधन करे, कर्म काण्डी धर्म की क्रिया करे, (अथवा) सारे (काम) छोड़ के जंगलों में भटकता फिरे;
अनेक किस्म के बड़े बड़े यत्न करे, पुण्य-दान करके बहुत सारा घी हवन करे, अपने शरीर को रक्ती रक्ती करके कटाए और आग में जला दे, कई किस्मों के वर्तों के बंधन करे;
(पर ये सारे ही) प्रभु के नाम की विचार के बराबर नहीं हैं, (चाहे) हे नानक! ये नाम एक बार भी गुरु के सन्मुख हो के जपा जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउ खंड प्रिथमी फिरै चिरु जीवै ॥ महा उदासु तपीसरु थीवै ॥ अगनि माहि होमत परान ॥ कनिक अस्व हैवर भूमि दान ॥ निउली करम करै बहु आसन ॥ जैन मारग संजम अति साधन ॥ निमख निमख करि सरीरु कटावै ॥ तउ भी हउमै मैलु न जावै ॥ हरि के नाम समसरि कछु नाहि ॥ नानक गुरमुखि नामु जपत गति पाहि ॥२॥
मूलम्
नउ खंड प्रिथमी फिरै चिरु जीवै ॥ महा उदासु तपीसरु थीवै ॥ अगनि माहि होमत परान ॥ कनिक अस्व हैवर भूमि दान ॥ निउली करम करै बहु आसन ॥ जैन मारग संजम अति साधन ॥ निमख निमख करि सरीरु कटावै ॥ तउ भी हउमै मैलु न जावै ॥ हरि के नाम समसरि कछु नाहि ॥ नानक गुरमुखि नामु जपत गति पाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउ खंड = नौ हिस्से। प्रिथमी = धरती। नउ खंड प्रिथमी = धरती के नौ ही हिस्से, भाव, सारी धरती। चिरु = बहुत लंबी उम्र। तपीसरु = बड़ा तपस्वी। थीवै = हो जाए। निउली करम = योग का एक साधन है जिससे आँतें साफ करते हैं। सांस बाहर को निकाल के पेट को अंदर की ओर खींच लेते हैं, फिर आँतों को इकट्ठा करके घुमाते हैं। ये साधना सवेरे खाली पेट करते हैं। मारग = रास्ता। निमख निमख = थोड़ा थोड़ा। समसरि = बराबर। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के, वे मनुष्य जो गुरु के सन्मुख हैं। परान = जिंद। कनिक = सोना (Gold)। अस्व = अश्व, घोड़े। हैवर = हयवर, बढ़िया घोड़े। भूमि दान = जमीन का दान।2।
अर्थ: (अगर कोई मनुष्य) सारी धरती पर फिरे, लम्बी उम्र तक जीता रहे, (जगत से) बहुत उपराम हो के बड़ा तपस्वी बन जाए;
आग में (अपनी) जान हवन कर दे; सोना, घोड़े, बढ़िया घोड़े और जमीन दान करे;
न्योली कर्म व अन्य बहुत सारे (योग) आसन करे, जैनियों के रास्ते (चल के) बड़े कठिन साधन व संजम करे;
शरीर को रता रता के कटा देवे, तो भी (मन के) अहंकार की मैल दूर नहीं होती।
(ऐसा) कोई (उद्यम) प्रभु के नाम के बराबर नहीं है; हे नानक! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के नाम जपते हैं वे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल करते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन कामना तीरथ देह छुटै ॥ गरबु गुमानु न मन ते हुटै ॥ सोच करै दिनसु अरु राति ॥ मन की मैलु न तन ते जाति ॥ इसु देही कउ बहु साधना करै ॥ मन ते कबहू न बिखिआ टरै ॥ जलि धोवै बहु देह अनीति ॥ सुध कहा होइ काची भीति ॥ मन हरि के नाम की महिमा ऊच ॥ नानक नामि उधरे पतित बहु मूच ॥३॥
मूलम्
मन कामना तीरथ देह छुटै ॥ गरबु गुमानु न मन ते हुटै ॥ सोच करै दिनसु अरु राति ॥ मन की मैलु न तन ते जाति ॥ इसु देही कउ बहु साधना करै ॥ मन ते कबहू न बिखिआ टरै ॥ जलि धोवै बहु देह अनीति ॥ सुध कहा होइ काची भीति ॥ मन हरि के नाम की महिमा ऊच ॥ नानक नामि उधरे पतित बहु मूच ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन कामना = मन की कामना, मन की इच्छा। तीरथ = तीर्थों पर। छुटै = विछुड़े, (जीवात्मा से) अलग हो। गरबु = अहंकार। गुमानु = अहंकार। हुटै = घटता। सोच = शोच, स्नान। तन ते = शरीर से,शरीर को धोने से। न जाति = नहीं जाती। देही कउ = शरीर की खातिर। साधना = उद्यम। बिखिआ = माया। न टरै = नहीं टलती, नहीं हटती। जलि = पानी से। अनीति = ना नित्य रहने वाली (देह), नाशवान। भीति = पर्दा, दीवार। नामि = नाम द्वारा। बहु मूच = बहुत, अनगिनत (जीव)। पतित = गिरे हुए, बुरे कर्मों वाले।3।
अर्थ: (कई प्राणियों के) मन की इच्छा (होती है कि) तीर्थों पर (जा के) शरीरिक चोला छोड़ा जाए, (पर इस तरह भी) गर्व, अहंकार मन में कम नहीं होता।
(मनुष्य) दिन और रात (भाव, सदा) (तीर्थों पर) स्नान करे, (फिर भी) मन की मैल शरीर धोने से नहीं जाती।
(अगर) इस शरीर को (साधने की खातिर) कई प्रयत्न भी करें, (तो भी) कभी मन से माया (का प्रभाव) नहीं टलता।
(यदि) इस नाशवान शरीर को कई बार पानी से भी धोएं (तो भी इस शरीर रूपी) कच्ची दीवार कहाँ पवित्र हो सकती है?
हे मन! प्रभु के नाम की महिमा बहुत बड़ी है। हे नानक! नाम की इनायत से अनगिनत बुरे कामों वाले जीव (विकारों से) बच जाते हैं।3।
[[0266]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुतु सिआणप जम का भउ बिआपै ॥ अनिक जतन करि त्रिसन ना ध्रापै ॥ भेख अनेक अगनि नही बुझै ॥ कोटि उपाव दरगह नही सिझै ॥ छूटसि नाही ऊभ पइआलि ॥ मोहि बिआपहि माइआ जालि ॥ अवर करतूति सगली जमु डानै ॥ गोविंद भजन बिनु तिलु नही मानै ॥ हरि का नामु जपत दुखु जाइ ॥ नानक बोलै सहजि सुभाइ ॥४॥
मूलम्
बहुतु सिआणप जम का भउ बिआपै ॥ अनिक जतन करि त्रिसन ना ध्रापै ॥ भेख अनेक अगनि नही बुझै ॥ कोटि उपाव दरगह नही सिझै ॥ छूटसि नाही ऊभ पइआलि ॥ मोहि बिआपहि माइआ जालि ॥ अवर करतूति सगली जमु डानै ॥ गोविंद भजन बिनु तिलु नही मानै ॥ हरि का नामु जपत दुखु जाइ ॥ नानक बोलै सहजि सुभाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिआणप = चतुराई। भउ = डर। बिआपै = व्यापता है, जोर डाल लेता है। करि = कर के, करने से। त्रिसन = प्यास, लालच। न ध्रापै = नहीं तृप्त होती, भूख नहीं मिटती। भेख = धार्मिक पोशाक। अगनि = आग, लालच की आग। कोटि = करोड़ों। उपाव = उपाय, तरीके, वसीले। सिझै = कामयाब होता। छूटसि नाही = बच नहीं सकता। ऊभ = ऊपर, आकाश में। पइआल = पाताल में। ऊभ पइआल = चाहे आकाश पे चढ़ जाए, चाहे पाताल में छुप जाए। मोहि = मोह में। बिआपहि = फस जाते हैं। जालि = जाल में। डानै = दण्ड लगाता है। तिलु = तिल मात्र भी। मानै = मानता है। सहजि = अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम से। भाउ = प्रेम।4।
अर्थ: (जीव की) बहुत चतुराई (के कारण) जमों का डर (जीव को) आ दबाता है (क्योंकि चतुराई के) अनेक यत्न करने से (माया की) प्यास नहीं बुझती।
अनेक (धार्मिक) भेख करने से (तृष्णा की) आग नहीं बुझती, (ऐसे) करोड़ों तरीके (बरतने से प्रभु की) दरगाह में सही स्वीकार नहीं होते।
(इन यत्नों से) जीव चाहे आकाश पे चढ़ जाए, चाहे पाताल में छुप जाए, (माया से) बच नहीं सकता, (बल्कि) जीव माया के जाल में व मोह में फंसते हैं।
(नाम के बिना) और सारी करतूतों को यमराज दण्ड लगाता है, प्रभु के भजन के बिना रक्ती भर भी नहीं पतीजता। हे नानक! (जो मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम से (हरि नाम) उच्चारता है (उसका दुख प्रभु का नाम जपते ही दूर हो जाता है)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पदारथ जे को मागै ॥ साध जना की सेवा लागै ॥ जे को आपुना दूखु मिटावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद गावै ॥ जे को अपुनी सोभा लोरै ॥ साधसंगि इह हउमै छोरै ॥ जे को जनम मरण ते डरै ॥ साध जना की सरनी परै ॥ जिसु जन कउ प्रभ दरस पिआसा ॥ नानक ता कै बलि बलि जासा ॥५॥
मूलम्
चारि पदारथ जे को मागै ॥ साध जना की सेवा लागै ॥ जे को आपुना दूखु मिटावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद गावै ॥ जे को अपुनी सोभा लोरै ॥ साधसंगि इह हउमै छोरै ॥ जे को जनम मरण ते डरै ॥ साध जना की सरनी परै ॥ जिसु जन कउ प्रभ दरस पिआसा ॥ नानक ता कै बलि बलि जासा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। को = कोई मनुष्य। रिदै = हृदय में। सद = सदा। लोरै = चाहे। साध संगि = भले लोगों की संगत में (रह के)। छोरै = छोड़ दे। प्रभ दरस पिआसा = प्रभु के दर्शन की चाह। ता कै = उस से। जासा = जाऊँ। बलि जासा = सदके जाऊँ।5।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) चार पदार्थों का अभिलाशी हो, (तो उसे चाहिए कि) गुरमुखों की सेवा में लगे।
अगर कोई मनुष्य अपना दुख मिटाना चाहे तो प्रभु का नाम सदा हृदय में स्मरण करे।
अगर कोई मनुष्य अपनी शोभा चाहता हो तो सत्संगि में (रह के) इस अहंकार का त्याग करे।
अगर कोई मनुष्य जनम मरन के चक्कर से डरता हो, तो वह संतों की चरणीं लगे।
हे नानक! (कह कि) जिस मनुष्य को प्रभु के दीदार की चाहत है, मैं उससे सदा सदके जाऊँ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल पुरख महि पुरखु प्रधानु ॥ साधसंगि जा का मिटै अभिमानु ॥ आपस कउ जो जाणै नीचा ॥ सोऊ गनीऐ सभ ते ऊचा ॥ जा का मनु होइ सगल की रीना ॥ हरि हरि नामु तिनि घटि घटि चीना ॥ मन अपुने ते बुरा मिटाना ॥ पेखै सगल स्रिसटि साजना ॥ सूख दूख जन सम द्रिसटेता ॥ नानक पाप पुंन नही लेपा ॥६॥
मूलम्
सगल पुरख महि पुरखु प्रधानु ॥ साधसंगि जा का मिटै अभिमानु ॥ आपस कउ जो जाणै नीचा ॥ सोऊ गनीऐ सभ ते ऊचा ॥ जा का मनु होइ सगल की रीना ॥ हरि हरि नामु तिनि घटि घटि चीना ॥ मन अपुने ते बुरा मिटाना ॥ पेखै सगल स्रिसटि साजना ॥ सूख दूख जन सम द्रिसटेता ॥ नानक पाप पुंन नही लेपा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। सगल = सारे। पुरख = मनुष्य। आपस कउ = अपने आप को। नीचा = नीचा, बुरा। सोऊ = उसी मनुष्य को। गनीऐ = जानें, समझें। रीना = धूल, चरणों की धूल। नामु = सर्व व्यापक ताकत। तिनि = उस (मनुष्य ने)। घटि घटि = हरेक शरीर में। चीना = पहिचान लिया है। बुरा = बुराई। पेखै = देखता है। सम = बराबर, एक जैसा। द्रिसटेता = देखने वाला। लेपा = असर, प्रभाव। जन = (वे) मनुष्य।6।
अर्थ: सत्संग में (रह के) जिस मनुष्य का अहंकार मिट जाता है (वह) मनुष्य सारे मनुष्यों में बड़ा है।
जो मनुष्य अपने आप को (सब से) बुरे कामों वाला मानता है, उसे सभी से बढ़िया समझना चाहिए।
जिस मनुष्य का मन सबके चरणों की धूल होता है (भाव, जो सबसे गरीबी-भाव बरतता है) उस मनुष्य ने हरेक शरीर में प्रभु की सत्ता पहिचान ली है।
जिसने अपने मन में से बुराई मिटा दी है, वह सारी सृष्टि (के जीवों को अपना) मित्र देखता है।
हे नानक! (ऐसे) मनुष्य सुखों और दुखों को एक जैसा समझते हैं, (तभी तो) पाप और पुण्य का उनपे असर नहीं होता (भाव, ना कोई बुरा कर्म उनके मन को फसा सकता है, और ना ही स्वर्ग आदि का लालच करके या दुख-कष्ट से डरके वे पुण्य-कर्म करते हैं, उनका स्वभाव ही नेकी करना बन जाता है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरधन कउ धनु तेरो नाउ ॥ निथावे कउ नाउ तेरा थाउ ॥ निमाने कउ प्रभ तेरो मानु ॥ सगल घटा कउ देवहु दानु ॥ करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ अपनी गति मिति जानहु आपे ॥ आपन संगि आपि प्रभ राते ॥ तुम्हरी उसतति तुम ते होइ ॥ नानक अवरु न जानसि कोइ ॥७॥
मूलम्
निरधन कउ धनु तेरो नाउ ॥ निथावे कउ नाउ तेरा थाउ ॥ निमाने कउ प्रभ तेरो मानु ॥ सगल घटा कउ देवहु दानु ॥ करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ अपनी गति मिति जानहु आपे ॥ आपन संगि आपि प्रभ राते ॥ तुम्हरी उसतति तुम ते होइ ॥ नानक अवरु न जानसि कोइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरधन = धन हीन, कंगाल। कउ = को, वास्ते। निथावे कउ = निआसरे को। थाउ = आसरा। निमाना = जिसे कहीं मान आदर ना मिले, दीन। घट = शरीर, प्राणी। देवहु = तू देता है। अंतरजामी = अंदर की जानने वाला, दिल की बूझने वाला। गति = हालत, अवस्था। प्रभ = हे प्रभु! राते = मगन, मस्त। उसतति = शोभा, महिमा। तुम ते = तुझसे। कोइ = कोई और।7।
अर्थ: (हे प्रभु!) कंगाल के लिए तेरा नाम ही धन है, निआसरे को तेरा आसरा है। निमाणे के वास्ते तेरा (नाम), हे प्रभु! आदर मान है,? तू सारे जीवों को दातें देता है।
हे स्वामी! हे सारे प्राणियों के दिल की जानने वाले! तू खुद ही सब कुछ करता है, और स्वयं ही कराता है।
हे प्रभु! तू अपनी हालत और अपनी (बड़ाई) की मर्यादा आप ही जानता है; तू अपने आप में खुद ही मगन है।
हे नानक! (कह कि, हे प्रभु!) तेरी महिमा (बड़ाई) तुझसे ही (बयान) हो सकती है, कोई और तेरी महिमा नहीं जानता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि को नामु जपि निरमल करमु ॥ सगल क्रिआ महि ऊतम किरिआ ॥ साधसंगि दुरमति मलु हिरिआ ॥ सगल उदम महि उदमु भला ॥ हरि का नामु जपहु जीअ सदा ॥ सगल बानी महि अम्रित बानी ॥ हरि को जसु सुनि रसन बखानी ॥ सगल थान ते ओहु ऊतम थानु ॥ नानक जिह घटि वसै हरि नामु ॥८॥३॥
मूलम्
सरब धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि को नामु जपि निरमल करमु ॥ सगल क्रिआ महि ऊतम किरिआ ॥ साधसंगि दुरमति मलु हिरिआ ॥ सगल उदम महि उदमु भला ॥ हरि का नामु जपहु जीअ सदा ॥ सगल बानी महि अम्रित बानी ॥ हरि को जसु सुनि रसन बखानी ॥ सगल थान ते ओहु ऊतम थानु ॥ नानक जिह घटि वसै हरि नामु ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रेसट = श्रेष्ठ, सबसे अच्छा। निरमल = पवित्र, शुद्ध। करमु = कर्म, आचरण। क्रिया = धार्मिक रस्म। दुरमति = बुरी मति। हिरिआ = दूर की। जीअ = हे जी! हे मन! अम्रित = अमृत, अमर करने वाली। रसन = जीभ। बखानी = उचार, बोल। जिह घट = जिस घट में, जिस शरीर में, जिस हृदय में।8।
अर्थ: (हे मन!) प्रभु का नाम जप (और) पवित्र आचरण (बना) - ये धर्म सारे धर्मों से बढ़िया है।
सत्संग में (रहके) बुरी मति (रूपी) मैल दूर की जाए-ये काम और सारे धार्मिक रस्मों से उत्तम है।
हे मन! सदा प्रभु का नाम जप- ये उद्यम (और) सारे उद्यमों से भला है। प्रभु का यश (कानों से) सुन (और) जीभ से बोल- (प्रभु के यश की ये) आत्मिक जीवन देने वाली वाणी और सब बाणियों से सुंदर है।
हे नानक! जिस हृदय में प्रभु का नाम बसता है, वह (हृदय-रूपी) जगह और सभी जगहों (तीर्थों) स्थानों से पवित्र है।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ निरगुनीआर इआनिआ सो प्रभु सदा समालि ॥ जिनि कीआ तिसु चीति रखु नानक निबही नालि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ निरगुनीआर इआनिआ सो प्रभु सदा समालि ॥ जिनि कीआ तिसु चीति रखु नानक निबही नालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुनीआर = हे निरगुण जीव! हे गुणहीन जीव! इआनीआ = हे अंजान! समालि = याद रख, याद कर। जिनि = जिस (प्रभु) ने। कीआ = पैदा किया। तिसु = उसे। चिति = चिक्त में। निबही = निभता है, साथ निभाता है।1।
अर्थ: हे अंजान! हे गुणहीन (मनुष्य)! उस मालिक को सदा याद कर। हे नानक! जिस ने तुझे पैदा किया है, उसे चिक्त में (परो के) रख, वही (तेरा) साथ निभाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ रमईआ के गुन चेति परानी ॥ कवन मूल ते कवन द्रिसटानी ॥ जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ ॥ गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ बार बिवसथा तुझहि पिआरै दूध ॥ भरि जोबन भोजन सुख सूध ॥ बिरधि भइआ ऊपरि साक सैन ॥ मुखि अपिआउ बैठ कउ दैन ॥ इहु निरगुनु गुनु कछू न बूझै ॥ बखसि लेहु तउ नानक सीझै ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ रमईआ के गुन चेति परानी ॥ कवन मूल ते कवन द्रिसटानी ॥ जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ ॥ गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ बार बिवसथा तुझहि पिआरै दूध ॥ भरि जोबन भोजन सुख सूध ॥ बिरधि भइआ ऊपरि साक सैन ॥ मुखि अपिआउ बैठ कउ दैन ॥ इहु निरगुनु गुनु कछू न बूझै ॥ बखसि लेहु तउ नानक सीझै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमईआ = सुंदर राम। चेति = याद कर। परानी = हे जीव! द्रिसटानी = दिखा दिया। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तूं = तुझे। साजि = पैदा करके। सवारि = सजा के। गरभ अगनि = पेट की आग। उबारिआ = बचाइआ। बार = बालक। बिवसथा = उम्र, हालत। पिआरै = पिलाता है। भरि जोबन = जवानी के भर में, भरी जवानी में। सूध = सूझ। बिरधि = बुढा। उपरि = ऊपर, सेवा करने को। सैन = सज्जन, मित्र। मुखि = मुंह में। अपिआउ = (संस्कृत: आप्य to grow fat. (cause) To make fat or comfortable, आप्यायनं) अच्छे भोजन। बैठ कउ = बैठे को। दैन = देते हैं।1।
अर्थ: हे जीव! सुंदर राम के गुण याद कर, (देख) किस आदि से (तुझे) कितना (सुंदर बना के उसने) दिखाया है।
जिस प्रभु ने बना सँवार के सुंदर किया है, जिसने तुझे पेट की आग में (भी) बचाया;
जो बाल उम्र में तुझे दूध पिलाता है, भरी जवानी में भोजन व सुखों की सूझ (देता है);
(जब तू) बुड्ढा हो जाता है (तो) सेवा करने को साक-सज्जन (तैयार कर देता है) जो बैठे हुए को मुंह में बढ़िया भोजन देते हैं, (उस प्रभ को चेते कर)।
(पर) हे नानक! (कह, हे प्रभु!) ये गुणहीन जीव (तेरा) कोई उपकार नहीं समझता, (अगर) तू खुद मेहर करे, तो (ये जन्म उद्देश्य में) सफल हो।1।
[[0267]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह प्रसादि धर ऊपरि सुखि बसहि ॥ सुत भ्रात मीत बनिता संगि हसहि ॥ जिह प्रसादि पीवहि सीतल जला ॥ सुखदाई पवनु पावकु अमुला ॥ जिह प्रसादि भोगहि सभि रसा ॥ सगल समग्री संगि साथि बसा ॥ दीने हसत पाव करन नेत्र रसना ॥ तिसहि तिआगि अवर संगि रचना ॥ ऐसे दोख मूड़ अंध बिआपे ॥ नानक काढि लेहु प्रभ आपे ॥२॥
मूलम्
जिह प्रसादि धर ऊपरि सुखि बसहि ॥ सुत भ्रात मीत बनिता संगि हसहि ॥ जिह प्रसादि पीवहि सीतल जला ॥ सुखदाई पवनु पावकु अमुला ॥ जिह प्रसादि भोगहि सभि रसा ॥ सगल समग्री संगि साथि बसा ॥ दीने हसत पाव करन नेत्र रसना ॥ तिसहि तिआगि अवर संगि रचना ॥ ऐसे दोख मूड़ अंध बिआपे ॥ नानक काढि लेहु प्रभ आपे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह प्रसादि = जिसकी कृपा से। धर = धरती। सुखि = सुख से। बसहि = तू बसता है। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। हसहि = तू हसता है। सीतल = ठंडा। पवनु = हवा। पावकु = आग। सगल = सारे। समग्री = पदार्थ। हसत = हाथ। पाव = पैर। करन = कान। नेत्र = आँखें। रसना = जीभ। तिसहि = उस (प्रभु) को। तिआगि = छोड़ के, विसार के। रचना = व्यस्त है, मगन है। दोख = बुरे कर्म। मूढ़ = मूर्ख जीव। बिआपे = फसे हुए हैं।2।
अर्थ: (हे जीव!) जिस (प्रभु) की कृपा से तू धरती पर सुखी बसता है, पुत्र भाई स्त्री के साथ हसता है;
जिसकी मेहर से तू ठंडा पानी पीता है, सुख देने वाली हवा व अमुल्य आग (इस्तेमाल करता है);
जिसकी कृपा से सारे रस भोगता है, सारे पदार्थों के साथ तू रहता है (भाव, सारे पदार्थ बरतने के लिए तुझे मिलते हैं);
(जिस ने) तुझे हाथ पैर कान नाक जीभ दिए हैं, उस (प्रभु) को विसार के (हे जीव!) तू औरों के साथ मगन है।
(ये) मूर्ख अंधे जीव (भलाई भुला देने वाले) ऐसे अवगुणों में फंसे हुए हैं। हे नानक! (इन जीवों के लिए प्रार्थना कर, और कह) - हे प्रभु! (इन्हें) स्वयं (इन अवगुणों में से) निकाल ले।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि अंति जो राखनहारु ॥ तिस सिउ प्रीति न करै गवारु ॥ जा की सेवा नव निधि पावै ॥ ता सिउ मूड़ा मनु नही लावै ॥ जो ठाकुरु सद सदा हजूरे ॥ ता कउ अंधा जानत दूरे ॥ जा की टहल पावै दरगह मानु ॥ तिसहि बिसारै मुगधु अजानु ॥ सदा सदा इहु भूलनहारु ॥ नानक राखनहारु अपारु ॥३॥
मूलम्
आदि अंति जो राखनहारु ॥ तिस सिउ प्रीति न करै गवारु ॥ जा की सेवा नव निधि पावै ॥ ता सिउ मूड़ा मनु नही लावै ॥ जो ठाकुरु सद सदा हजूरे ॥ ता कउ अंधा जानत दूरे ॥ जा की टहल पावै दरगह मानु ॥ तिसहि बिसारै मुगधु अजानु ॥ सदा सदा इहु भूलनहारु ॥ नानक राखनहारु अपारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = आरम्भ से (भाव, जन्म के समय से)। अंति = आखीर तक (भाव, मरने तक)। गवारु = मूर्ख मनुष्य। जा की = जिस (प्रभु) की। नव निधि = नौ खजाने। ता सिउ = उससे। मूढ़ा = मूर्ख। हजूरे = हाजर नाजर, अंग संग। ता कउ = उस को। तिसहि = उस (प्रभु) को। मुगध = मूर्ख। इहु = ये (जीव)। अपारु = बेअंत।3।
अर्थ: मूर्ख मनुष्य उस प्रभु से प्यार नहीं करता, जो (इसके) जनम से ले कर मरने के समय तक (इसकी) सक्षा करने वाला है।
मूर्ख जीव उस प्रभु के साथ चिक्त नहीं जोड़ता, जिसकी सेवा करने से (इसे सृष्टि के) नौ ही खजाने मिल जाते हैं।
अंधा मनुष्य उस ठाकुर को (कहीं) दूर (बैठा) समझता है, जो हर समय इसके अंग-संग है।
मूर्ख और अंजान जीव उस प्रभु को विसार बैठता है, जिसकी टहल करने से इसे (प्रभु की) दरगाह में आदर मिलता है।
(पर कौन कौन सा अवगुण चितारें?) ये जीव (तो) सदा ही भूलें करता रहता है; हे नानक! रक्षा करने वाला प्रभु बेअंत है (वह इस जीव के अवगुणों की तरफ नहीं देखता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतनु तिआगि कउडी संगि रचै ॥ साचु छोडि झूठ संगि मचै ॥ जो छडना सु असथिरु करि मानै ॥ जो होवनु सो दूरि परानै ॥ छोडि जाइ तिस का स्रमु करै ॥ संगि सहाई तिसु परहरै ॥ चंदन लेपु उतारै धोइ ॥ गरधब प्रीति भसम संगि होइ ॥ अंध कूप महि पतित बिकराल ॥ नानक काढि लेहु प्रभ दइआल ॥४॥
मूलम्
रतनु तिआगि कउडी संगि रचै ॥ साचु छोडि झूठ संगि मचै ॥ जो छडना सु असथिरु करि मानै ॥ जो होवनु सो दूरि परानै ॥ छोडि जाइ तिस का स्रमु करै ॥ संगि सहाई तिसु परहरै ॥ चंदन लेपु उतारै धोइ ॥ गरधब प्रीति भसम संगि होइ ॥ अंध कूप महि पतित बिकराल ॥ नानक काढि लेहु प्रभ दइआल ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रचै = व्यस्त रहता है, खुश रहता है। छोडि = छोड़ के। मचै = जलता है, आकड़ता है। जो = जो (धन पदार्थ)। सु = उसे। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। होवनु = होवनहार, जरूर होना है (भाव, मौत)। परानै = पहिचानता है, समझता है। तिस का = उस का, उस की खातिर। स्रम = मेहनत, श्रम। सहाई = सहायता करने वाला। परहरै = छोड़ देता है। उतारै = उतार देता है। गरधग प्रीति = गधे का प्यार। भसम = राख। कूप = कूआँ। पतित = गिरा हुआ। बिकराल = डरावना। बिकराल कूप महि = भयानक कूएं में। प्रभ = हे प्रभु!।4।
अर्थ: (माया धारी जीव) (नाम-) रत्न छोड़ के (माया रूपी) कौड़ी से खुश रहता है। सच्चे (प्रभु) को छोड़ के नाशवान (पदार्थों) के साथ जलता रहता है।
जो (माया) छोड़ जानी है, उसे सदा अटल समझता है; जो (मौत) जरूर घटित होनी है, उसे (कहीं) दूर (बैठी) ख्याल करता है।
उस (धन पदार्थ) की खातिर (नित्य) मुशक्कत करता (फिरता) है जो (आखिर में) छोड़ जानी है; जो (प्रभु) (इस) के साथ रक्षक है उसे विसार बैठा है।
गधे का प्यार (सदा) राख से (ही) होता है, चंदन का लेप धो के उतार देता है।
(जीव माया के) अंधेरे भयानक कूएं में गिरे पड़े हैं; हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे दयालु प्रभु! (इन्हें स्वयं इस कूएं में से) निकाल ले।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करतूति पसू की मानस जाति ॥ लोक पचारा करै दिनु राति ॥ बाहरि भेख अंतरि मलु माइआ ॥ छपसि नाहि कछु करै छपाइआ ॥ बाहरि गिआन धिआन इसनान ॥ अंतरि बिआपै लोभु सुआनु ॥ अंतरि अगनि बाहरि तनु सुआह ॥ गलि पाथर कैसे तरै अथाह ॥ जा कै अंतरि बसै प्रभु आपि ॥ नानक ते जन सहजि समाति ॥५॥
मूलम्
करतूति पसू की मानस जाति ॥ लोक पचारा करै दिनु राति ॥ बाहरि भेख अंतरि मलु माइआ ॥ छपसि नाहि कछु करै छपाइआ ॥ बाहरि गिआन धिआन इसनान ॥ अंतरि बिआपै लोभु सुआनु ॥ अंतरि अगनि बाहरि तनु सुआह ॥ गलि पाथर कैसे तरै अथाह ॥ जा कै अंतरि बसै प्रभु आपि ॥ नानक ते जन सहजि समाति ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानस = मनुष्य की। पचारा = (संस्कृत: ऊपचार) दिखावा। अंतरि = मन में। कछु करै = (चाहे) कोई (प्रयत्न) करे। बिआपै = जोर डाल रहा है। सुआनु = कुक्ता। अगनि = (तृष्णा की) आग। गलि = गले में। अथाह = जिसकी गहराई का पता ना लग सके। जा कै अंतरि = जिस मनुष्य के हृदय में। सहजि = सहज में, उस अवस्था में जहाँ मन डोलता नहीं। समाति = समा जाता है, टिक जाता है।5।
अर्थ: जाति मनुष्य की है (भाव, मनुष्य श्रेणी में पैदा हुआ है) पर काम पशुओं वाले हैं, (वैसे) दिन रात लोगों के लिए दिखावा कर रहा है।
बाहर (शरीर पर) धार्मिक पोशाक है पर मन में माया की मैल है, (बाहर के भेस से) छुपाने का यनत करने से (मन की मैल) छुपती नहीं।
बाहर (दिखावे के लिए) (तीर्थ) स्नान व ज्ञान की बातें करता है, समाधियां भी लगाता है, पर मन में लोभ (रूपी) कुक्ता अपना जोर डाल रहा है।
मन में (तृष्णा की) आग है, बाहर शरीर राख (से लिबड़ा हुआ है); (यदि) गले में (विकारों के) पत्थर (हों तो) अथाह (संसार समुंदर को जीव) कैसे तैरे?
जिस जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु आ बसता है, हे नानक! वही अडोल अवस्था में टिके रहते हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि अंधा कैसे मारगु पावै ॥ करु गहि लेहु ओड़ि निबहावै ॥ कहा बुझारति बूझै डोरा ॥ निसि कहीऐ तउ समझै भोरा ॥ कहा बिसनपद गावै गुंग ॥ जतन करै तउ भी सुर भंग ॥ कह पिंगुल परबत पर भवन ॥ नही होत ऊहा उसु गवन ॥ करतार करुणा मै दीनु बेनती करै ॥ नानक तुमरी किरपा तरै ॥६॥
मूलम्
सुनि अंधा कैसे मारगु पावै ॥ करु गहि लेहु ओड़ि निबहावै ॥ कहा बुझारति बूझै डोरा ॥ निसि कहीऐ तउ समझै भोरा ॥ कहा बिसनपद गावै गुंग ॥ जतन करै तउ भी सुर भंग ॥ कह पिंगुल परबत पर भवन ॥ नही होत ऊहा उसु गवन ॥ करतार करुणा मै दीनु बेनती करै ॥ नानक तुमरी किरपा तरै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनि = सुन के। मारगु = रास्ता। पावै = ढूँढ ले। करु = हाथ। गहि लेहु = पकड़ ले। ओड़ि = आखिर तक। बुझारति = पहेली। डोरा = बहरा। निसि = रात। भोरा = दिन। भंग = टूटी हुई। पिंगुल = लूला। परभवन = प्रभवन, यहां वहां घूमना। उस = उसकी। गवन = पहुँच। करुणा = तरस। करुणा मै = दया करने वाला। दीनु = निमाणा (जीव)।6।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: संस्कृत ‘मय’, पंजाबी ‘मै’ is an affix used to indicate ‘made of, consisting of, full of’)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अंधा मनुष्य (निरा) सुन के कैसे राह ढूँढ ले? (हे प्रभु! स्वयं इसका) हाथ पकड़ लो (ता कि ये) आखिर तक (प्रीति) निबाह सके।
बहरा मनुष्य (निरी) बुझारत को क्या समझे? (बुझारत से) कहें (ये) रात है तो वह समझ लेता है (ये) दिन (है)।
गूँगा कैसे विष्णु-पद गा सके? (कई) प्रयत्न (भी) करे तो भी उसकी सुर टूटी रहती है।
लंगड़ा कैसे पहाड़ों पे चढ़ सकता है? वहां उसकी पहुँच नहीं हो सकती।
हे नानक! (इस हालत में केवल अरदास कर और कह) हे कर्तार! हे दया के सागर! (ये) निमाणा दास विनती करता है, तेरी मेहर से (ही) तैर सकता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगि सहाई सु आवै न चीति ॥ जो बैराई ता सिउ प्रीति ॥ बलूआ के ग्रिह भीतरि बसै ॥ अनद केल माइआ रंगि रसै ॥ द्रिड़ु करि मानै मनहि प्रतीति ॥ कालु न आवै मूड़े चीति ॥ बैर बिरोध काम क्रोध मोह ॥ झूठ बिकार महा लोभ ध्रोह ॥ इआहू जुगति बिहाने कई जनम ॥ नानक राखि लेहु आपन करि करम ॥७॥
मूलम्
संगि सहाई सु आवै न चीति ॥ जो बैराई ता सिउ प्रीति ॥ बलूआ के ग्रिह भीतरि बसै ॥ अनद केल माइआ रंगि रसै ॥ द्रिड़ु करि मानै मनहि प्रतीति ॥ कालु न आवै मूड़े चीति ॥ बैर बिरोध काम क्रोध मोह ॥ झूठ बिकार महा लोभ ध्रोह ॥ इआहू जुगति बिहाने कई जनम ॥ नानक राखि लेहु आपन करि करम ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। बैराई = वैरी। बलूआ = रेत। ग्रिह = घर। भीतरि = में। रंगि = रंग में, मस्ती में। केल = खेल मस्ती। द्रिढ़ु = पक्का। मनहि = मन में। प्रतीति = यकीन। मूढ़े चिति = मूर्ख के चिक्त में। कालु = मौत। बिरोध = विरोध। ध्रोह = दगा, ठगी। इआहू जुगति = इस तरीके से। बिहाने = गुजर गए हैं। आपन करम = अपनी मेहर।7।
अर्थ: जो प्रभु (इस मूर्ख का) संगी-साथी है, उस को (ये) याद नहीं करता, (पर) जो वैरी है उससे प्यार कर रहा है।
रेत के घर में बसता है (भाव, रेत के कणों की भांति उम्र छिन छिन कर के किर रही है), (फिर भी) माया की मस्ती में आनंद मौजें मना रहा है।
(अपने आप को) अमर समझे बैठा है, मन में (यही) यकीन बना हुआ है; पर मूर्ख के चिक्त में (कभी) मौत (का ख्याल भी) नहीं आता।
वैर विरोध, काम, गुस्सा, मोह, झूठ, बुरे कर्म, खूब लालच और दगा- इसी राह पर पड़ के (इसके) कई जनम गुजर गए हैं। हे नानक! (इस बिचारे जीव के लिए प्रभु-दर पर प्रार्थना कर और कह:) अपनी मेहर करके (इसे) बचा लो।7।
[[0268]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू ठाकुरु तुम पहि अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरी रासि ॥ तुम मात पिता हम बारिक तेरे ॥ तुमरी क्रिपा महि सूख घनेरे ॥ कोइ न जानै तुमरा अंतु ॥ ऊचे ते ऊचा भगवंत ॥ सगल समग्री तुमरै सूत्रि धारी ॥ तुम ते होइ सु आगिआकारी ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानी ॥ नानक दास सदा कुरबानी ॥८॥४॥
मूलम्
तू ठाकुरु तुम पहि अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरी रासि ॥ तुम मात पिता हम बारिक तेरे ॥ तुमरी क्रिपा महि सूख घनेरे ॥ कोइ न जानै तुमरा अंतु ॥ ऊचे ते ऊचा भगवंत ॥ सगल समग्री तुमरै सूत्रि धारी ॥ तुम ते होइ सु आगिआकारी ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानी ॥ नानक दास सदा कुरबानी ॥८॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुम पहि = तेरे पास। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, पूंजी, बख्शीश। घनेरे = बहुत। समग्री = पदार्थ। सूति = सूत्र में, मर्यादा में, हुक्म में। धारी = टिकी हुई है। तुम ते = तुम से। होइ = (जो कुछ) अस्तित्व में आया है, पैदा हुआ है। आगिआकारी = (तेरे) हुक्म को मान रहा है। कुरबानी = सदके। मिति = मर्यादा, अंदाजा। गति = हालत।8।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू मालिक है (हम जीवों की) अर्ज तेरे आगे ही है, ये जिंद और शरीर (जो तूने हमें दिया है) सब तेरी ही कृपा है।
तू हमारा माँ-बाप है, हम तेरे बच्चे हैं, तेरी मेहर (की नजर) में बेअंत सुख हैं।
कोई तेरा अंत नहीं पा सकता, (क्योंकि) तू सबसे ऊँचा भगवान है।
(जगत के) सारे पदार्थ तेरे ही हुक्म में टिके हुए हैं; तेरी रची हुई सृष्टि तेरी ही आज्ञा में चल रही है।
तू कैसा है और कितना बड़ा है, ये तो तू स्वयं ही जानता है। हे नानक! (कह, हे प्रभु!) तेरे सेवक (तुझसे) सदा सदके जाते हैं।8।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ॥ नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ॥ नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लागहि = लगते हैं। आन = अन्य। सुआइ = स्वाद में, स्वार्थ में। कहू न = कभी नहीं। सीझई = सफल होता, कामयाब होता। पति = इज्जत।1।
अर्थ: (सारी दातें) देने वाले प्रभु को छोड़ के (जीव) अन्य स्वाद में लगते हैं; (पर) हे नानक! (ऐसा) कभी (कोई मनुष्य जीवन-यात्रा में) कामयाब नहीं होता (क्योंकि प्रभु के) नाम के बिना इज्जत नहीं रहती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ दस बसतू ले पाछै पावै ॥ एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥ एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ॥ तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥ जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ॥ ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥ जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ॥ सरब सूख ताहू मनि वूठा ॥ जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ॥ सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ दस बसतू ले पाछै पावै ॥ एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥ एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ॥ तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥ जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ॥ ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥ जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ॥ सरब सूख ताहू मनि वूठा ॥ जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ॥ सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसतू = चीजें। ले = ले कर। पाछै पावै = संभाल लेता है। बिखोटि = बि+खोट (संस्कृत: ख्रोटि a cunning or shrewed woman, बि = without) खोट हीनता, खरा पन, एतबार। हिरि लेइ = छीन ले। मूढ़ा = मूर्ख। कहा करेइ = क्या कर सकता है? चारा = जोर, पेश। सद = सदा। सरब = सारे। ताहू मनि = उसी के मन में। वूठा = आ बसते हैं। जिसु जन = जिस मनुष्य को। थोक = पदार्थ। तिनि = उस (मनुष्य) ने।1।
अर्थ: (मनुष्य प्रभु से) दस चीजें लेकर संभाल लेता है, (पर) एक चीज की खातिर अपना एतबार गवा लेता है (क्योंकि मिली हुई चीजों के बदले शुक्रिया तो करता नहीं, जो नहीं मिली उसका गिला करता रहता है)।
(अगर प्रभु) एक चीज भी ना दे, और, दस (दी हुई) भी छीन ले, तो बताओ, ये मूर्ख क्या कर सकता है?
जिस मालिक के साथ पेश नहीं चल सकती, उसके आगे सिर निवाना ही चाहिए, (क्योंकि) जिस मनुष्य के मन में प्रभु प्यारा लगता है, सारे सुख उसी के हृदय में आ बसते हैं।
हे नानक! जिस मनुष्य से प्रभु अपना हुक्म मनाता है, (दुनिया के) सारे पदार्थ (जैसे) उसने पा लिए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगनत साहु अपनी दे रासि ॥ खात पीत बरतै अनद उलासि ॥ अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ॥ अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥ अपनी परतीति आप ही खोवै ॥ बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥ जिस की बसतु तिसु आगै राखै ॥ प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥ उस ते चउगुन करै निहालु ॥ नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥
मूलम्
अगनत साहु अपनी दे रासि ॥ खात पीत बरतै अनद उलासि ॥ अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ॥ अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥ अपनी परतीति आप ही खोवै ॥ बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥ जिस की बसतु तिसु आगै राखै ॥ प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥ उस ते चउगुन करै निहालु ॥ नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगनत रासि = अनगिनत (पदार्थों) की पूंजी। दे = देता है। खात पीत = खाता पीता। बरतै = बरतता है। अनद उलासि = आनंद उल्लास, चाव खुशी से। अमान = अमानत। बहुरि = दुबारा। मनि = मन में। रोसु = गुस्सा। परतीति = एतबार। खोवै = गवा लेता है। बिस्वासु = विश्वास। निहालु = प्रसन्न, खुश।2।
अर्थ: (प्रभु) शाह अनगिनत (पदार्थों की) पूंजी (जीव बन्जारे को) देता है, (जीव) खता पीता चाव व खुशी से (इन पदार्थों को) बरतता है।
(यदि) शाह अपने कोई अमानत वापस ले ले, तो (ये) अज्ञानी मन में गुस्सा करता है;
(इस तरह) अपना एतबार स्वयं ही गवा लेता है, और पुनः इसका विश्वास नहीं किया जाता।
(अगर) जिस प्रभु की (बख्शी हुई) चीज है उसके आगे (खुद ही खुशी से) रख दे, और प्रभु का हुक्म (कोई चीज छीने जाने के समय) सिर माथे मान ले, तो (प्रभु उसे) आगे से चौगुना निहाल करता है। हे नानक! मालिक सदैव मेहर करने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक भाति माइआ के हेत ॥ सरपर होवत जानु अनेत ॥ बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ॥ ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥ जो दीसै सो चालनहारु ॥ लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥ बटाऊ सिउ जो लावै नेह ॥ ता कउ हाथि न आवै केह ॥ मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ॥ करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥
मूलम्
अनिक भाति माइआ के हेत ॥ सरपर होवत जानु अनेत ॥ बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ॥ ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥ जो दीसै सो चालनहारु ॥ लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥ बटाऊ सिउ जो लावै नेह ॥ ता कउ हाथि न आवै केह ॥ मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ॥ करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाति = किस्म। हेत = प्यार। सरपर = अंत को, अवश्य। जानु = समझ। अनेत = ना नित्य रहने वाले, नाशवान। बिरख = वृक्ष। रंगु = प्यार। ओह = वह (छाया)। उहु = वह मनुष्य (जो छाया के साथ प्यार डालता है)। मनि = मन में। दीसै = दिखाई देता है। चालनहारु = नाशवान, चले जाने वाला। लपटि रहिओ = जुड़ रहा है, लिपटा बैठा है। तह = वहाँ, उससे (जो चलायमान है)। अंध = अंधा। अंध अंधारु = अंधों का अंधा, महा मूर्ख। बटाऊ = राही, मुसाफिर। नेह = प्यार, मुहब्बत। ता कउ = उस को। हाथि = हाथ में। न केह = कुछ भी नहीं।3।
अर्थ: माया के प्यार अनेक किस्मों के हैं (भाव, माया के अनेक सुंदर रूप मनुष्य के मन को मोहते हैं), (पर ये सारे) अंत में नाश हो जाने वाले समझिए।
(अगर कोई मनुष्य) वृक्ष की छाया से प्यार डाल बैठे, (नतीजा क्या निकलेगा?) वह छाया नाश हो जाती है, और, वह मनुष्य मन में पछताता है।
(ये सारा जगत) जो दिखाई दे रहा है नाशवान है, इस (जगत) से ये अंधों का अंधा (जीव) चिपका बैठा है।
जो (भी) मनुष्य (किसी) राही से प्यार डाल बैठता है, (अंत को) उसके हाथ पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता।
हे मन! प्रभु के नाम का प्यार (ही) सुख देने वाला है; (पर) हे नानक! (ये प्यार उस मनुष्य को नसीब होता है, जिसे) प्रभु मेहर करके खुद लगाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिआ तनु धनु कुट्मबु सबाइआ ॥ मिथिआ हउमै ममता माइआ ॥ मिथिआ राज जोबन धन माल ॥ मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥ मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ॥ मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥ मिथिआ ध्रोह मोह अभिमानु ॥ मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥ असथिरु भगति साध की सरन ॥ नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥
मूलम्
मिथिआ तनु धनु कुट्मबु सबाइआ ॥ मिथिआ हउमै ममता माइआ ॥ मिथिआ राज जोबन धन माल ॥ मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥ मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ॥ मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥ मिथिआ ध्रोह मोह अभिमानु ॥ मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥ असथिरु भगति साध की सरन ॥ नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = सदा कायम ना रहने वाला, जिसका मान करना झूठा हो। कुटंबु = परिवार। सबाइआ = सारा। ममता = मल्कियत की पकड़, ये ख्याल कि ये चीज मेरी है। जोबन = जवानी। बिकराल = डरावना। हसती = हाथी। अस्व = अश्व, घोड़े। बसत्रा = कपड़े। रंग संगि = प्यार से। पेखि = देख के। हसता = हसता है। ध्रोह = दगा। आपस ऊपरि = अपने ऊपर। असथिरु = सदा कायम रहने वाली। भगति = बंदगी, भजन। जपि जपि = सदा जप के।4।
अर्थ: (जब ये) शरीर, धन और सारा परिवार नाशवान है, (तो) माया की मल्कियत और अहंकार (भाव, धन व परिवार के कारण बड़प्पन) -इन पे मान भी झूठा।
राज जवानी और धन माल सब नाशवान हैं, (इस वास्ते इनके कारण) काम (की लहर) और भयानक क्रोध ये भी व्यर्थ हैं।
रथ, हाथी, घोड़े और (सुंदर) कपड़े सदा कायम रहने वाले नहीं हें, (इस सारी) माया को प्यार से देख के (जीव) हसता है, (पर ये हसना व गुमान भी) व्यर्थ है।
दगा, मोह और अहंकार- (ये सारे ही मन की) व्यर्थ (तरंगें) हैं; अपने ऊपर गुमान करना भी झूठा (नशा) है।
सदा कायम रहने वाली (प्रभु की) भक्ति (ही है जो) गुरु की शरण पड़ कर (की जाए)। हे नानक! प्रभु के चरण (ही) सदा जप के (मनुष्य) असल जीवन जीता है।4।
[[0269]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिआ स्रवन पर निंदा सुनहि ॥ मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥ मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रूपाद ॥ मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥ मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ॥ मिथिआ मन पर लोभ लुभावहि ॥ मिथिआ तन नही परउपकारा ॥ मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥ बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ॥ सफल देह नानक हरि हरि नाम लए ॥५॥
मूलम्
मिथिआ स्रवन पर निंदा सुनहि ॥ मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥ मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रूपाद ॥ मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥ मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ॥ मिथिआ मन पर लोभ लुभावहि ॥ मिथिआ तन नही परउपकारा ॥ मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥ बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ॥ सफल देह नानक हरि हरि नाम लए ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = व्यर्थ। स्रवन = कान। हसत = हाथ। (‘हसत’ और ‘हसति’ दोनों अलग अलग है, अर्थ भी अलग हैं ‘हसत’ = हाथ, ‘हसति = हस्ति, हाथी)। दरब = धन। हिरहि = चराते हैं। नेत्र = आँखें। त्रिअ = स्त्री का। रसना = जीभ। अन स्वाद = अन्य स्वादों में। धावहि = दौड़ते हैं। बिकार = नुकसान। मन = हे मन! पर लोभु = पराए (धन आदि) का लोभ। परउपकार = दूसरों की भलाई। बासु = वासना, सुगंधि। बिनु बूझे = (अपने अस्तित्व का उद्देश्य) समझे बगैर। देह = शरीर।5।
अर्थ: (मनुष्य के) कान व्यर्थ हैं (अगर वे) पराई निंदा सुनते हैं, हाथ व्यर्थ हैं (अगर ये) पराए धन को चुराते हैं;
आँखें व्यर्थ हैं (यदि ये) पराई स्त्री का रूप देखती हैं। जीभ व्यर्थ है (अगर ये) खाने व अन्य सवादों में (लगी हुई है);
पैर व्यर्थ है (अगर ये) पराए नुकसान के लिए दौड़-भाग रहे हैं। हे मन! तू भी व्यर्थ है (यदि तू) पराए धन का लोभ कर रहा है।
(वह) शरीर व्यर्थ हैं जो दूसरों की भलाई नहीं करते, (नाक) व्यर्थ है (जो) विकारों की वासना ले रहा है।
(अपने-अपने अस्तित्व के उद्देश्य) को समझे बिना (ये) सारे (अंग) व्यर्थ हैं। हे नानक! वह शरीर सफल है जो प्रभु का नाम जपता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरथी साकत की आरजा ॥ साच बिना कह होवत सूचा ॥ बिरथा नाम बिना तनु अंध ॥ मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥ बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ॥ मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥ गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ॥ जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥ धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिओ हरि नाउ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥
मूलम्
बिरथी साकत की आरजा ॥ साच बिना कह होवत सूचा ॥ बिरथा नाम बिना तनु अंध ॥ मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥ बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ॥ मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥ गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ॥ जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥ धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिओ हरि नाउ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिरथी = व्यर्थ। साकत = (ईश्वर से) टूटा हुआ। आरजा = उम्र। तनु अंध = अंधे का शरीर। मुखि = मुंह में से। ता कै मुखि = उसके मुंह में से। दुरगंध = बद बू। रैनि = रात। बिहाइ = गुजर जाती है। मेघ = बादल। किरपन = कंजूस। निरारथ = व्यर्थ। दाम = पैसे, धन। धंनि = मुबारक। जिह घटि = जिनके हृदय में। ता कै = उन से। बलि बलि = सदके।6।
अर्थ: (ईश्वर से) टूटे हुए मनुष्य की उम्र व्यर्थ जाती है, (क्योंकि) सच्चे प्रभु (के नाम) के बिना वह कैसे स्वच्छ हो सकता है?
नाम के बिना अंधे (साकत) का शरीर (ही) किसी काम का नहीं, (क्योंकि) उसके मुंह में से (निंदा आदि) की बद बू आती है।
जैसे बरखा के बगैर खेती निष्फल जाती है, (वैसे) स्मरण के बगैर (साकत के) दिन रात बेकार चले जाते हैं।
प्रभु के भजन से वंचित रहने के कारण (मनुष्य के) सारे ही काम किसी अर्थ के नहीं, (क्योंकि ये काम इसका अपना कुछ नहीं सँवारते) जैसे कंजूस का धन उसके अपने किसी काम का नहीं।
वह मनुष्य मुबारक हैं, जिनके हृदय में प्रभु का नाम बसता है, हे नानक! (कह कि) मैं उन (गुरमुखों) से सदके जाता हूँ।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहत अवर कछु अवर कमावत ॥ मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥ जाननहार प्रभू परबीन ॥ बाहरि भेख न काहू भीन ॥ अवर उपदेसै आपि न करै ॥ आवत जावत जनमै मरै ॥ जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ॥ तिस की सीख तरै संसारु ॥ जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ॥ नानक उन जन चरन पराता ॥७॥
मूलम्
रहत अवर कछु अवर कमावत ॥ मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥ जाननहार प्रभू परबीन ॥ बाहरि भेख न काहू भीन ॥ अवर उपदेसै आपि न करै ॥ आवत जावत जनमै मरै ॥ जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ॥ तिस की सीख तरै संसारु ॥ जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ॥ नानक उन जन चरन पराता ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहत = धर्म के बाहरी चिन्ह जो धारण किए हुए हैं। अवर = और। कछु अवर = कुछ और। कमावत = कमाता है, अमली जिंदगी है। मनि = मन में। गंढ लावत = जोड़ तोड़ करता है। परबीन = चतुर, सियाना। काहू = किसी के। भीन = भीगता, प्रसन्न होता। अवर = और लोगों को। जिस कै अंतरि = जिस मनुष्य के मन में। सीख = शिक्षा। तिस की सीख = उसकी शिक्षा से। संसारु = जगत (भाव, जगत का हरेक जीव)। तुम भाने = तुझे भाते हैं, तुझे अच्छे लगते हैं। तिन = उन्होंने। उन जन चरन = उन मनुष्यों के पैरों पर। पराता = पड़ता है। मुखहु = मुंह से, मुंह की बातों से।7।
अर्थ: धर्म के बाहरी धारे हुए चिन्ह और हैं पर असल जिंदगी कुछ और है; मन में (तो) प्रभु से प्यार नहीं है, (पर) मुंह की बातों से घर पूरा करता है।
(पर दिलों की) जानने वाला प्रभु सयाना है, (वह कभी) किसी के बाहरी वेष से प्रसन्न नहीं हुआ।
(जो मनुष्य) और लोगों को सलाहें देता है (पर) खुद (उन सलाहों पर) नहीं चलता, वह सदा जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।
जिस मनुष्य के हृदय में निरंकार बसता है, उसकी शिक्षा से जगत (विकारों से) बचता है।
(हे प्रभु!) जो (भक्त) तुझे प्यारे लगते हैं उन्होंने तुझे पहिचाना है। हे नानक! (कह) -मैं उन (भक्तों) के चरणों में पड़ता हूँ।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ॥ अपना कीआ आपहि मानै ॥ आपहि आप आपि करत निबेरा ॥ किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥ उपाव सिआनप सगल ते रहत ॥ सभु कछु जानै आतम की रहत ॥ जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ॥ थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥ सो सेवकु जिसु किरपा करी ॥ निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥५॥
मूलम्
करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ॥ अपना कीआ आपहि मानै ॥ आपहि आप आपि करत निबेरा ॥ किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥ उपाव सिआनप सगल ते रहत ॥ सभु कछु जानै आतम की रहत ॥ जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ॥ थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥ सो सेवकु जिसु किरपा करी ॥ निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। कीआ = पैदा किया हुआ (जीव)। आपहि = खुद ही। मानै = गुमान करता है। आपहि आप = स्वयं ही। निबेरा = फैसला, निखेड़ा। नेरा = नजदीक। सगल ते रहत = सब से परे है। उपाव = प्रयत्न। रहत = रहन-सहन, रहनी। आतम की रहत = आत्मा की रहनी, आत्मिक जिंदगी। जिस भावै = जो उसे भाए, जो उसे भाता है। तिसु = उसे। थान थनंतरि = हर जगह। समाइ रहिआ = मौजूद है। निमख निमख = आँख के फरकने के समय में भी।8।
अर्थ: (जो जो) विनती मैं करता हूँ, प्रभु सब जानता है, अपने पैदा किए जीव को वह खुद ही सम्मान देता है।
(जीवों के किए कर्मों के मुताबिक) प्रभु खुद ही फैसला करता है, (भाव) किसी को ये बुद्धि बख्शता है कि प्रभु हमारे नजदीक है और किसी को ये जनाता है कि प्रभु कहीं दूर है।
सब तरीकों से चतुराईयों से (प्रभु) परे है (भाव, किसी हीले चतुराई से प्रभु प्रसन्न नहीं होता) (क्योंकि वह जीव की) आत्मिक रहने की शैली की हरेक बात जानता है।
जो (जीव) उसे भाता है उसे अपने साथ जोड़ लेता है, प्रभु हर जगह मौजूद है। वही मनुष्य (असली) सेवक बनता है जिस पर प्रभु मेहर करता है। हे नानक! (ऐसे) प्रभु को दम-ब-दम याद कर।8।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसि जाइ अहमेव ॥ नानक प्रभ सरणागती करि प्रसादु गुरदेव ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसि जाइ अहमेव ॥ नानक प्रभ सरणागती करि प्रसादु गुरदेव ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनस जाइ = नाश हो जाए, मिट जाए, दूर हो जाए। अहंमेव = (सं: अहं+एव। मैं ही हूँ), ये ख्याल कि मैं ही बड़ा हूँ, अहंकार। सरणागती = सरण आया हूँ। प्रसादु = कृपा, मेहर। गुरदेव = हे गुरदेव!।1।
अर्थ: हे नानक! (बिनती कर और कह) -हे गुरदेव! हे प्रभु! मैं शरण आया हूँ, (मेरे पर) मेहर कर, (मेरे) काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार दूर हो जाएं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘प्रसादु’ क्रिया (verb) ‘करि’ के साथ ‘कर्म कारक’ (Objective Case) है। आगे अष्टपदी में शब्द ‘प्रसादि’ आता है। (ि) ‘कर्ण कारक’ (Instrumental Case) का चिन्ह है, ‘प्रसादि’ का अर्थ है ‘कृपा से, कृपा द्वारा’। इसी तरह ‘मूल मंत्र’ में ‘गुर प्रसादि’ का अर्थ है ‘गुरु की कृपा से’, भाव, पहले शब्दों बताई गई सिफतों वाला अकाल-पुरख गुरु की कृपा से (मिलता है)। (देखो‘जपु’ सटीक)
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ जिह प्रसादि छतीह अम्रित खाहि ॥ तिसु ठाकुर कउ रखु मन माहि ॥ जिह प्रसादि सुगंधत तनि लावहि ॥ तिस कउ सिमरत परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि बसहि सुख मंदरि ॥ तिसहि धिआइ सदा मन अंदरि ॥ जिह प्रसादि ग्रिह संगि सुख बसना ॥ आठ पहर सिमरहु तिसु रसना ॥ जिह प्रसादि रंग रस भोग ॥ नानक सदा धिआईऐ धिआवन जोग ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ जिह प्रसादि छतीह अम्रित खाहि ॥ तिसु ठाकुर कउ रखु मन माहि ॥ जिह प्रसादि सुगंधत तनि लावहि ॥ तिस कउ सिमरत परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि बसहि सुख मंदरि ॥ तिसहि धिआइ सदा मन अंदरि ॥ जिह प्रसादि ग्रिह संगि सुख बसना ॥ आठ पहर सिमरहु तिसु रसना ॥ जिह प्रसादि रंग रस भोग ॥ नानक सदा धिआईऐ धिआवन जोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह प्रसादि = जिस (प्रभु) की कृपा से। अंम्रित = स्वादिष्ट भोजन। खाहि = तू खाता है। सुगंधत = सुंदर मीठी वासना वाली चीजें। तनि = शरीर पर। परम = ऊँची। गति = पदवी, दर्जा। मंदरि = मंदिर में, घर में। तिसहि = उसे। संगि सुख = सुख से, मौज से। रसना = जीभ।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस (प्रभु) की कृपा से तू कई किस्मों के स्वादिष्ट पकवान खाता है, उसे मन में (याद) रख।
जिसकी मेहर से अपने शरीर पर तू सुगंधियां लगाता है, उसे याद करने से तू उच्च पदवी हासिल कर लेगा।
जिसकी दया से तू सुख-महलों में बसता है, उसे सदा मन में स्मरण कर।
जिस (प्रभु) की कृपा से तू घर में मौजों से बस रहा है, उसे जीभ से आठों पहर याद कर।
हे नानक! जिस (प्रभु) की बख्शिश से खेल-तमाशे (मौज-मस्ती), स्वादिष्ट भोजन व पदार्थ (नसीब होते हैं) उस ध्यानयोग को सदा ही ध्याना चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह प्रसादि पाट पट्मबर हढावहि ॥ तिसहि तिआगि कत अवर लुभावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सेज सोईजै ॥ मन आठ पहर ता का जसु गावीजै ॥ जिह प्रसादि तुझु सभु कोऊ मानै ॥ मुखि ता को जसु रसन बखानै ॥ जिह प्रसादि तेरो रहता धरमु ॥ मन सदा धिआइ केवल पारब्रहमु ॥ प्रभ जी जपत दरगह मानु पावहि ॥ नानक पति सेती घरि जावहि ॥२॥
मूलम्
जिह प्रसादि पाट पट्मबर हढावहि ॥ तिसहि तिआगि कत अवर लुभावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सेज सोईजै ॥ मन आठ पहर ता का जसु गावीजै ॥ जिह प्रसादि तुझु सभु कोऊ मानै ॥ मुखि ता को जसु रसन बखानै ॥ जिह प्रसादि तेरो रहता धरमु ॥ मन सदा धिआइ केवल पारब्रहमु ॥ प्रभ जी जपत दरगह मानु पावहि ॥ नानक पति सेती घरि जावहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पटंबर = पट+अंबर, रेशम के कपड़े। कत अवर = और कहाँ? लुभावहि = तूं लोभ कर रहा है। सोईजै = सोना है। गावीजै = गाना चाहिए। सभु कउ = हरेक जीव। मानै = आदर करता है, मान देता है। मुखि = मुंह से। रसन = जीभ से। बखानै = उचार, बोले। केवल = सिर्फ। पति सेती = इज्जत से।2।
अर्थ: (हे मन!) जिस (प्रभु) की कृपा से तू रेशमी कपड़े पहनता है, उसे बिसार के और कहाँ लोभ कर रहा है?
जिसकी मेहर से सेज पर सुखी सोते हैं, हे मन! उस प्रभु का यश आठों पहर गाना चाहिए।
जिसकी मेहर से हरेक मनुष्य तेरा आदर करता है, उसकी बड़ाई (अपने) मुंह से जीभ से (सदा) कर।
जिस (प्रभु) की कृपा से तेरा धर्म (कायम) रहता है, हे मन! तू सदा उस परमेश्वर को स्मरण कर।
हे नानक! परमात्मा का भजन करने से (उसकी) दरगाह में मान पाएगा, और, (यहाँ से) इज्जत के साथ अपने (परलोक के) घर में जाएगा।2।
[[0270]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह प्रसादि आरोग कंचन देही ॥ लिव लावहु तिसु राम सनेही ॥ जिह प्रसादि तेरा ओला रहत ॥ मन सुखु पावहि हरि हरि जसु कहत ॥ जिह प्रसादि तेरे सगल छिद्र ढाके ॥ मन सरनी परु ठाकुर प्रभ ता कै ॥ जिह प्रसादि तुझु को न पहूचै ॥ मन सासि सासि सिमरहु प्रभ ऊचे ॥ जिह प्रसादि पाई द्रुलभ देह ॥ नानक ता की भगति करेह ॥३॥
मूलम्
जिह प्रसादि आरोग कंचन देही ॥ लिव लावहु तिसु राम सनेही ॥ जिह प्रसादि तेरा ओला रहत ॥ मन सुखु पावहि हरि हरि जसु कहत ॥ जिह प्रसादि तेरे सगल छिद्र ढाके ॥ मन सरनी परु ठाकुर प्रभ ता कै ॥ जिह प्रसादि तुझु को न पहूचै ॥ मन सासि सासि सिमरहु प्रभ ऊचे ॥ जिह प्रसादि पाई द्रुलभ देह ॥ नानक ता की भगति करेह ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आरोग = रोग रहित, निरोग। कंचन देही = सोने जैसा शरीर। सनेही = प्यार करने वाला, स्नेह करने वाला। ओला = पर्दा। पहूचै = पहुँचता है, बराबरी करता। सासि सासि = दम-ब-दम। द्रुलभ = दुर्लभ, जो बड़ी मुश्किल से मिले। करेह = कर।3।
अर्थ: जिस (प्रभु) की कृपा से सोने जैसा तेरा रोग-रहित जिस्म है, उस प्यारे राम से लगन जोड़।
जिसकी मेहर से तेरा पर्दा बना रहता है, हे मन!
जिसकी दया से तेरे सारे ऐब ढके रहते हैं, हे मन! उस प्रभु ठाकुर की शरण पड़।
जिस की कृपा से कोई तेरी बराबरी नहीं कर सकता, हे मन! उस उच्च प्रभु को सांस सांस याद कर।
हे नानक! जिसकी कृपा से तुझे ये मानव शरीर मिला है जो बड़ा मुश्किल से मिलता है, उस प्रभु की भक्ति कर।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह प्रसादि आभूखन पहिरीजै ॥ मन तिसु सिमरत किउ आलसु कीजै ॥ जिह प्रसादि अस्व हसति असवारी ॥ मन तिसु प्रभ कउ कबहू न बिसारी ॥ जिह प्रसादि बाग मिलख धना ॥ राखु परोइ प्रभु अपुने मना ॥ जिनि तेरी मन बनत बनाई ॥ ऊठत बैठत सद तिसहि धिआई ॥ तिसहि धिआइ जो एक अलखै ॥ ईहा ऊहा नानक तेरी रखै ॥४॥
मूलम्
जिह प्रसादि आभूखन पहिरीजै ॥ मन तिसु सिमरत किउ आलसु कीजै ॥ जिह प्रसादि अस्व हसति असवारी ॥ मन तिसु प्रभ कउ कबहू न बिसारी ॥ जिह प्रसादि बाग मिलख धना ॥ राखु परोइ प्रभु अपुने मना ॥ जिनि तेरी मन बनत बनाई ॥ ऊठत बैठत सद तिसहि धिआई ॥ तिसहि धिआइ जो एक अलखै ॥ ईहा ऊहा नानक तेरी रखै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आभूखन = गहने, जेवर। पहिरीजै = पहनते हैं। अस्व = अश्व, घोड़े। हसति = हाथी। मिलख = जमीन। जिनि = जिस (प्रभु) ने। बनत = बनावट। तेरी बनत बनाई = तेरी बनतर बनाई है, तुझे सजाया है। सद = सदा। अलख = जो लखा नहीं जा सकता, जो बयान नहीं किया जा सकता। ईहा = यहाँ, इस लोक में। ऊहा = वहाँ, परलोक में। रखै = तेरी लज्जा रखता है।4।
अर्थ: जिस (प्रभु) की कृपा से गहने पहनते हैं, हे मन! उसे स्मरण करते हुए आलस क्यूँ किया जाए?
जिसकी मेहर से घोड़े और हाथियों की सवारी करता है, हे मन! उस प्रभु को कभी ना विसारना।
जिसकी दया से बाग-जमीनें व धन (तुझे नसीब हैं) उस प्रभु को अपने मन में परो के रख।
हे मन! जिस (प्रभु) ने तुझे सजाया है, उठते बैठते (भाव, हर समय) उसी को सदा स्मरण कर।
हे नानक! उस प्रभु को स्मरण कर, जो एक है, और बेअंत है। लोक और परलोक में (वही) तेरी लज्जा रखने वाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह प्रसादि करहि पुंन बहु दान ॥ मन आठ पहर करि तिस का धिआन ॥ जिह प्रसादि तू आचार बिउहारी ॥ तिसु प्रभ कउ सासि सासि चितारी ॥ जिह प्रसादि तेरा सुंदर रूपु ॥ सो प्रभु सिमरहु सदा अनूपु ॥ जिह प्रसादि तेरी नीकी जाति ॥ सो प्रभु सिमरि सदा दिन राति ॥ जिह प्रसादि तेरी पति रहै ॥ गुर प्रसादि नानक जसु कहै ॥५॥
मूलम्
जिह प्रसादि करहि पुंन बहु दान ॥ मन आठ पहर करि तिस का धिआन ॥ जिह प्रसादि तू आचार बिउहारी ॥ तिसु प्रभ कउ सासि सासि चितारी ॥ जिह प्रसादि तेरा सुंदर रूपु ॥ सो प्रभु सिमरहु सदा अनूपु ॥ जिह प्रसादि तेरी नीकी जाति ॥ सो प्रभु सिमरि सदा दिन राति ॥ जिह प्रसादि तेरी पति रहै ॥ गुर प्रसादि नानक जसु कहै ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहि = तू करता है। आचार = (सं: आचार) रस्म रिवाज। बिउहारी = (सं: व्यवहारिन्) व्यवहार करने वाला, (रस्म रिवाज) करने वाला। अनूप = अन+ऊप, उपमा रहित, जिस जैसा कौई नही। नीकी = अच्छी। पति = इज्जत। कहै = कहता है।5।
अर्थ: जिस (प्रभु) की कृपा से बहुत दान-पुण्य करता है, हे मन! आठों पहर उसे याद कर।
जिसकी मेहर तू रीतें-रस्में करने के लायक हुआ है, उस प्रभु को श्वास-श्वास याद कर।
जिसकी दया से तेरी सुंदर शकल है, उस सुंदर मालिक को सदा स्मरण कर।
जिस प्रभु की कृपा से तूझे अच्छी (मनुष्य) जाति मिली है, उसे सदा दिन रात याद कर।
जिसकी मेहर से तेरी इज्जत (जगत में) बनी हुई है (उस का नाम स्मरण कर)। गुरु की इनायत लेकर (भाग्यशाली मनुष्य) उसकी महिमा करता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह प्रसादि सुनहि करन नाद ॥ जिह प्रसादि पेखहि बिसमाद ॥ जिह प्रसादि बोलहि अम्रित रसना ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजे बसना ॥ जिह प्रसादि हसत कर चलहि ॥ जिह प्रसादि स्मपूरन फलहि ॥ जिह प्रसादि परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजि समावहि ॥ ऐसा प्रभु तिआगि अवर कत लागहु ॥ गुर प्रसादि नानक मनि जागहु ॥६॥
मूलम्
जिह प्रसादि सुनहि करन नाद ॥ जिह प्रसादि पेखहि बिसमाद ॥ जिह प्रसादि बोलहि अम्रित रसना ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजे बसना ॥ जिह प्रसादि हसत कर चलहि ॥ जिह प्रसादि स्मपूरन फलहि ॥ जिह प्रसादि परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजि समावहि ॥ ऐसा प्रभु तिआगि अवर कत लागहु ॥ गुर प्रसादि नानक मनि जागहु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनहि = तू सुनता है। करन = कानों से। नाद = (रसीली) आवाज। पेखहि = तू देखता है। बिसमाद = आश्चर्यजनक (नजारे)। अंम्रित = मीठे बोल। रसना = जीभ (से)। सहजे = स्वाभाविक ही। हसत = हाथ। कर = हाथ। चलहि = चलते हैं, काम देते हैं। संपूरन = पूर्ण तौर पे, हरेक कार्य-व्यवहार में, हर तरफ। फलहि = फलता है, कामयाब होता है। सहजि = अडोल अवस्था में, बेफिक्री में। समावहि = तू टिका बैठा है। अवर कत = और कहाँ? मनि = मन में। जागहु = जागृत होवो, होशियार होवो।6।
अर्थ: जिसकी कृपा से तू (अपने) कानों से आवाज सुनता है (भाव, तुझे सुनने की ताकत मिली है), जिसकी मेहर से आश्चर्यजनक नजारे देखता है;
जिसकी इनायत पा के जीभ से मीठे बोल बोलता है; जिसकी कृपा से स्वाभाविक ही सुखी बस रहा है;
जिसकी दया से तेरे हाथ (आदि सारे अंग) काम कर रहे हैं, जिसकी मेहर से तू हरेक कार्य-व्यवहार में कामयाब होता है;
जिसकी बख्शिश से तुझे ऊँचा दर्जा मिलता है, और तू सुख और बे-फिक्री में मस्त है;
ऐसे प्रभु को विसार के तू और किस तरफ लग रहा है? हे नानक! गुरु की इनायत ले के मन में जागृत हो।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह प्रसादि तूं प्रगटु संसारि ॥ तिसु प्रभ कउ मूलि न मनहु बिसारि ॥ जिह प्रसादि तेरा परतापु ॥ रे मन मूड़ तू ता कउ जापु ॥ जिह प्रसादि तेरे कारज पूरे ॥ तिसहि जानु मन सदा हजूरे ॥ जिह प्रसादि तूं पावहि साचु ॥ रे मन मेरे तूं ता सिउ राचु ॥ जिह प्रसादि सभ की गति होइ ॥ नानक जापु जपै जपु सोइ ॥७॥
मूलम्
जिह प्रसादि तूं प्रगटु संसारि ॥ तिसु प्रभ कउ मूलि न मनहु बिसारि ॥ जिह प्रसादि तेरा परतापु ॥ रे मन मूड़ तू ता कउ जापु ॥ जिह प्रसादि तेरे कारज पूरे ॥ तिसहि जानु मन सदा हजूरे ॥ जिह प्रसादि तूं पावहि साचु ॥ रे मन मेरे तूं ता सिउ राचु ॥ जिह प्रसादि सभ की गति होइ ॥ नानक जापु जपै जपु सोइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिह प्रसादि = जिसकी कृपा से। प्रगटु = प्रसिद्ध, मशहूर, शोभा वाला। संसारि = संसार में। मनहु = मन से। मूढ़ = मूर्ख। ता कउ = उसे। जापु = याद कर। कारज = काम। पूरे = मुकम्मल। जानु = समझ ले। हजूरे = अंग संग। राचु = पच, व्यस्त, जुड़ा रह। सोइ = वही मनुष्य। सभ की = हरेक जीव की। गति = (सं: गति, access, entrance) पहुँच।7।
अर्थ: जिस प्रभु की कृपा से तू जगत में शोभा वाला है उसे कभी भी मन से ना भुला।
जिसकी मेहर से तुझे आदर-सम्मान मिला हुआ है, हे मूर्ख मन! तू उस प्रभु को जप।
जिस की कृपा से तेरे (सारे) काम सिरे चढ़ते हैं, हे मन! तू उस (प्रभु) को सदा अंग-संग जान।
जिसकी इनायत से तुझे सत्य प्राप्त होता है, हे मेरे मन! तू उस (प्रभु) के साथ जुड़ा रह।
जिस (परमात्मा) की दया से हरेक (जीव) की (उस तक) पहुँच हो जाती है, (उसे जप)। हे नानक! (जिसको ये दाति मिलती है) वह (हरि-) जाप ही जपता है।7।
[[0271]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि जपाए जपै सो नाउ ॥ आपि गावाए सु हरि गुन गाउ ॥ प्रभ किरपा ते होइ प्रगासु ॥ प्रभू दइआ ते कमल बिगासु ॥ प्रभ सुप्रसंन बसै मनि सोइ ॥ प्रभ दइआ ते मति ऊतम होइ ॥ सरब निधान प्रभ तेरी मइआ ॥ आपहु कछू न किनहू लइआ ॥ जितु जितु लावहु तितु लगहि हरि नाथ ॥ नानक इन कै कछू न हाथ ॥८॥६॥
मूलम्
आपि जपाए जपै सो नाउ ॥ आपि गावाए सु हरि गुन गाउ ॥ प्रभ किरपा ते होइ प्रगासु ॥ प्रभू दइआ ते कमल बिगासु ॥ प्रभ सुप्रसंन बसै मनि सोइ ॥ प्रभ दइआ ते मति ऊतम होइ ॥ सरब निधान प्रभ तेरी मइआ ॥ आपहु कछू न किनहू लइआ ॥ जितु जितु लावहु तितु लगहि हरि नाथ ॥ नानक इन कै कछू न हाथ ॥८॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावाए = गवाता है, गायन में सहायता करता है, गाने के लिए प्रेरित करता है। प्रगासु = प्रकाश। प्रभू दया = प्रभु की दया। कमल बिगासु = कमल का खिलना, हृदय रूपी कमल का खिलना। प्रसंन = खुश। सोइ = वह (प्रभु)। निधान = खजाने। माइआ = (सं: मयस्, n. pleasure, delight, satisfaction) खुशी, प्रसन्नता। आपहु = अपने आप से, अपने उद्यम से। किनहू = किसी ने भी। हरि नाथ = हे हरि! हे नाथ! इन कै हाथ = इन जीवों के हाथों में, इन जीवों के वश में।8।
अर्थ: वही मनुष्य प्रभु का नाम जपता है जिससे आप जपाता है, वही मनुष्य हरि के गुण गाता है जिसे गाने के लिए प्रेरता है।
प्रभु की मेहर से (मन में ज्ञान का) प्रकाश होता है; उसकी दया से हृदय रूपी कमल फूल खिलता है।
वह प्रभु (उस मनुष्य के) मन में बसता है जिस पे वह प्रसन्न होता है, प्रभु की मेहर से (मनुष्य की) बुद्धि अच्छी होती है।
हे प्रभु! तेरी मेहर की नजर में सारे खजाने हैं, अपने यत्न से किसी ने भी कुछ नहीं पाया (भाव, जीव की उद्यम तभी सफल होता है जब तू सीधी नजर करता है)।
हे हरि! हे नाथ! जिधर तू लगाता है उधर ये जीव लगते हैं। हे नानक! इन जीवों के वश में कुछ नहीं।8।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ अगम अगाधि पारब्रहमु सोइ ॥ जो जो कहै सु मुकता होइ ॥ सुनि मीता नानकु बिनवंता ॥ साध जना की अचरज कथा ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ अगम अगाधि पारब्रहमु सोइ ॥ जो जो कहै सु मुकता होइ ॥ सुनि मीता नानकु बिनवंता ॥ साध जना की अचरज कथा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके। अगाधि = अथाह। कहै = कहताहै, सलाहता है। मुकता = (माया के बंधनों से) आजाद। मीता = हे मित्र! नानकु बिनवंता = नानक विनती करता है। साध = वह मनुष्य जिसने अपने आप को साधा है, जिसने अपने मन को वश में किया है, गुरमुख। अचरज = हैरान करने वाली। कथा = जिक्र, बात चीत।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘नानकु’ Nominative Case, Singular number, Subject to the Verb बिनवंता, करता कारक, पुलिंग, एक वचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वह बेअंत प्रभु (जीव की) पहुँच से परे है और अथाह है।
जो जो (मनुष्य उसको) स्मरण करते हैं वे (विकारों के जाल से) निजात पा लेते हैं।
हे मित्र! सुन, नानक विनती करता है:
(स्मरण करने वाले) गुरमुखों (के गुणों) का जिक्र हैरान करने वाला है (भाव, नाम जपने की इनायत से भक्त जनों में इतने गुण पैदा हो जाते हैं कि उन गुणों की बात छेड़ के आश्चर्यचकित हो जाते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ साध कै संगि मुख ऊजल होत ॥ साधसंगि मलु सगली खोत ॥ साध कै संगि मिटै अभिमानु ॥ साध कै संगि प्रगटै सुगिआनु ॥ साध कै संगि बुझै प्रभु नेरा ॥ साधसंगि सभु होत निबेरा ॥ साध कै संगि पाए नाम रतनु ॥ साध कै संगि एक ऊपरि जतनु ॥ साध की महिमा बरनै कउनु प्रानी ॥ नानक साध की सोभा प्रभ माहि समानी ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ साध कै संगि मुख ऊजल होत ॥ साधसंगि मलु सगली खोत ॥ साध कै संगि मिटै अभिमानु ॥ साध कै संगि प्रगटै सुगिआनु ॥ साध कै संगि बुझै प्रभु नेरा ॥ साधसंगि सभु होत निबेरा ॥ साध कै संगि पाए नाम रतनु ॥ साध कै संगि एक ऊपरि जतनु ॥ साध की महिमा बरनै कउनु प्रानी ॥ नानक साध की सोभा प्रभ माहि समानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊजल = उज्जवल, साफ। मुख ऊजल होत = मुंह उज्जवल होता है, इज्जत बन आती है। सगली = सारी। खोत = नाश हो जाती है। सु गिआनु = श्रेष्ठ ज्ञान। नेरा = नजदीक, अंगसंग। निबेरा = फैसला, निबेड़ा। एक ऊपरि = एक प्रभु से मिलने के लिए। महिमा = बड़ाई। बरनै = बयान करे। प्रभ माहि समानी = प्रभु में टिकी हुई है, प्रभु की शोभा के बराबर है।1।
अर्थ: गुरमुखों की संगति में रहने से मुंह उजले होते हैं (भाव, इज्जत बनती है) (क्योंकि) साधु जनों के पास रहने से (विकारों की) सारी मैल मिट जाती है।
साधुओं की संगति में अहंकार दूर होता है, और श्रेष्ठ ज्ञान प्रगट होता है (अर्थात अच्छी बुद्धि आती है)।
संतों की संगति में प्रभु अंग-संग बसता प्रतीत होता है, (इस वास्ते बुरे संस्कारों या वासना का) सारा फैसला हो जाता है (भाव, बुरी तरफ जीव पड़ता ही नहीं)।
गुरमुखों की संगति में मनुष्य नाम-रूपी रत्न ढूँढ लेता है, और, एक प्रभु को मिलने का यत्न करता है।
साधुओं की महिमा कौन सा मनुष्य बयान कर सकता है? (क्योंकि) हे नानक! साधु जनों की शोभा प्रभु की शोभा के बराबर हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध कै संगि अगोचरु मिलै ॥ साध कै संगि सदा परफुलै ॥ साध कै संगि आवहि बसि पंचा ॥ साधसंगि अम्रित रसु भुंचा ॥ साधसंगि होइ सभ की रेन ॥ साध कै संगि मनोहर बैन ॥ साध कै संगि न कतहूं धावै ॥ साधसंगि असथिति मनु पावै ॥ साध कै संगि माइआ ते भिंन ॥ साधसंगि नानक प्रभ सुप्रसंन ॥२॥
मूलम्
साध कै संगि अगोचरु मिलै ॥ साध कै संगि सदा परफुलै ॥ साध कै संगि आवहि बसि पंचा ॥ साधसंगि अम्रित रसु भुंचा ॥ साधसंगि होइ सभ की रेन ॥ साध कै संगि मनोहर बैन ॥ साध कै संगि न कतहूं धावै ॥ साधसंगि असथिति मनु पावै ॥ साध कै संगि माइआ ते भिंन ॥ साधसंगि नानक प्रभ सुप्रसंन ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गो = ज्ञानेंद्रियां, वह इंद्रिय जो बाहरी पदार्थों का परिचय इन्सान को कराती हैं। गोचा = (सं) शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच। अगोचर = वह (प्रभु) जो शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच से परे है। परफुलै = खिलता है। बसि = काबू में। पंच = पाँच (प्रसिद्ध विकार): काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। अंम्रित रसु = नाम रूपी अमृत का स्वाद। भुंचा = चखा। रेन = (चरणों की) धूल। मनोहर = मन को हरने वाले, मन को आकर्षित करने वाले। बैन = वचन, बोल। कतहूँ = किसी तरफ। धावै = दौड़ता। असथिति = (सं: स्थिति) टिकाव। भिंन = अलग, निरलेप, बेदाग।2।
अर्थ: गुरमुखों की संगति में (मनुष्य को) वह प्रभु मिल जाता है जो शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच से परे है; और मनुष्य सदा खिले माथे रहता है।
साधु जनों की संगति में रहने से कामादिक पाँच विकार काबू में आ जाते हैं, (क्योंकि मनुष्य) नाम रूपी अमृत का रस चख लेता है।
साधु जनों की संगति करने से (मनुष्य) सब (प्राणियों) के चरणों की धूल बन जाता है और (सबसे) मीठे वचन बोलता है।
संत जनों के संग रहने से (मनुष्य का) मन किसी तरफ नहीं दौड़ता है, और (प्रभु के चरणों में) टिकाव हासिल कर लेता है।
हे नानक! गुरमुखों की संगति में टिकने से (मनुष्य) माया के (असर) से बेदाग रहता है और अकाल-पुरख इस पर दयावान होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि दुसमन सभि मीत ॥ साधू कै संगि महा पुनीत ॥ साधसंगि किस सिउ नही बैरु ॥ साध कै संगि न बीगा पैरु ॥ साध कै संगि नाही को मंदा ॥ साधसंगि जाने परमानंदा ॥ साध कै संगि नाही हउ तापु ॥ साध कै संगि तजै सभु आपु ॥ आपे जानै साध बडाई ॥ नानक साध प्रभू बनि आई ॥३॥
मूलम्
साधसंगि दुसमन सभि मीत ॥ साधू कै संगि महा पुनीत ॥ साधसंगि किस सिउ नही बैरु ॥ साध कै संगि न बीगा पैरु ॥ साध कै संगि नाही को मंदा ॥ साधसंगि जाने परमानंदा ॥ साध कै संगि नाही हउ तापु ॥ साध कै संगि तजै सभु आपु ॥ आपे जानै साध बडाई ॥ नानक साध प्रभू बनि आई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महा पुनीत = बहुत पवित्र। बैरु = वैर। बीगा = टेढ़ा। बीगा पैर = गलत तरफ कदम। को = कोई मनुष्य। परमानंदा = (परम-आनंदा) सब से ऊँचे सुख का मालिक। हउ = अहंकार, अपनी हस्ती का मान, सबसे अलग होने का ख्याल। आपु = स्वैभाव, अहंकार। तजै = दूर कर देता है। साध वडाई = साधु की बड़ाई। बनि आई = पक्की प्रीति बन जाती है।3।
अर्थ: गुरमुखों की संगति में रहने से सारे वैरी (भी) मित्र (दिखाई देने लग जाते हैं), (क्योंकि) साधु जनों की संगति में (मनुष्य का अपना हृदय) बहुत साफ हो जाता है।
संतों की संगति में बैठने से किसी के साथ वैर नहीं रह जाता और किसी बुरी तरफ पैर नहीं चलता।
भलों की संगति में कोई मनुष्य बुरा नहीं दिखता, (क्योंकि हर जगह मनुष्य) उच्च सुख के मालिक प्रभु को ही जानता है।
गुरमुख की संगति करने से अहंकार रूपी ताप नहीं रह जाता, (क्योंकि) साधु की संगति में मनुष्य सारे अपनत्व त्याग देता है।
साधु का बड़ापन (बड़ाई) प्रभु खुद ही जानता है, (क्योंकि) हे नानक! साधु का और प्रभु का पक्का प्यार पड़ जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध कै संगि न कबहू धावै ॥ साध कै संगि सदा सुखु पावै ॥ साधसंगि बसतु अगोचर लहै ॥ साधू कै संगि अजरु सहै ॥ साध कै संगि बसै थानि ऊचै ॥ साधू कै संगि महलि पहूचै ॥ साध कै संगि द्रिड़ै सभि धरम ॥ साध कै संगि केवल पारब्रहम ॥ साध कै संगि पाए नाम निधान ॥ नानक साधू कै कुरबान ॥४॥
मूलम्
साध कै संगि न कबहू धावै ॥ साध कै संगि सदा सुखु पावै ॥ साधसंगि बसतु अगोचर लहै ॥ साधू कै संगि अजरु सहै ॥ साध कै संगि बसै थानि ऊचै ॥ साधू कै संगि महलि पहूचै ॥ साध कै संगि द्रिड़ै सभि धरम ॥ साध कै संगि केवल पारब्रहम ॥ साध कै संगि पाए नाम निधान ॥ नानक साधू कै कुरबान ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कबहू = कभी भी। धावै = दौड़ता, भटकता। बसतु = वस्तु, चीज। अगोचर = जिस तक शारीरिक इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। लहै = ढूँढ लेता है। अजरु = (वह दर्जा) जो सहन किया ना जा सके। थानि ऊचै = ऊँचे स्थान पर। महलि = महल में, प्रभु के ठिकाने पर। द्रिढ़ै = दृढ़ कर लेता है, अच्छी तरह समझ लेता है। सभि = सारे। धरम = फर्ज। निधान = खजाना। कुरबान = सदके।4।
अर्थ: गुरमुखों की संगति में रहने से मनुष्य का मन कभी भटकता नहीं, (क्योंकि) साधु जनों की संगति में (मनुष्य) सदा सुख पाता है।
संत जनों की संगति में (प्रभु के) नाम रूपी अगोचर वस्तु प्राप्त हो जाती है, (और मनुष्य) ये ना संभाल पाने वाली मंजिल (दर्जा, अनूठी वस्तु) को संभाल लेता है (के काबिल हो जाता है)।
गुरमुखों की संगति में रह के मनुष्य ऊँचे (आत्मिक) ठिकाने पर बसता है और अकाल-पुरख के चरणों में जुड़ा रहता है।
संतों की संगति में रह के (मनुष्य) सारे धर्मों (फर्जों) को ठीक तरह समझ लेता है और सिर्फ अकाल-पुरख को (हर जगह देखता है)।
साधु जनों की संगति में (मनुष्य) नाम खजाना ढूँढ लेता है; (इस वास्ते) हे नानक! (कह:) मैं साधु जनों से सदके हूँ।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध कै संगि सभ कुल उधारै ॥ साधसंगि साजन मीत कुट्मब निसतारै ॥ साधू कै संगि सो धनु पावै ॥ जिसु धन ते सभु को वरसावै ॥ साधसंगि धरम राइ करे सेवा ॥ साध कै संगि सोभा सुरदेवा ॥ साधू कै संगि पाप पलाइन ॥ साधसंगि अम्रित गुन गाइन ॥ साध कै संगि स्रब थान गमि ॥ नानक साध कै संगि सफल जनम ॥५॥
मूलम्
साध कै संगि सभ कुल उधारै ॥ साधसंगि साजन मीत कुट्मब निसतारै ॥ साधू कै संगि सो धनु पावै ॥ जिसु धन ते सभु को वरसावै ॥ साधसंगि धरम राइ करे सेवा ॥ साध कै संगि सोभा सुरदेवा ॥ साधू कै संगि पाप पलाइन ॥ साधसंगि अम्रित गुन गाइन ॥ साध कै संगि स्रब थान गमि ॥ नानक साध कै संगि सफल जनम ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधारै = बचा लेता है। कुटंब = परिवार। निसतारै = तार लेता है। सभु को = हरेक जीव। वरसावै = (संस्कृत: वृष् A. वर्षयते = 1.To be powerful or eminent) बलवान हो जाता है, मशहूर हो जाता है। सुर = देवते। पलाइन = (संस्कृत: प्लु! A. fade away, disappear) नाश हो जाते हैं। स्रब = सर्व, सारे। गंमि = पहुँच।5।
अर्थ: गुरमुखों की संगति में रह के (मनुष्य अपनी) सारी कुलें (विकारों से) बचा लेता है और (अपने) सज्जन-मित्रों व परिवार को तार लेता है।
संतों की संगति में मनुष्य वह धन पा लेता है, जिस धन के मिलने से हरेक मनुष्य मशहूर हो जाता है।
साधु जनों की संगति में रहने से धर्मराज (भी) सेवा करता है और (देवते भी) शोभा करते हैं।
गुरमुखों की संगति में पाप दूर हो जाते हैं, (क्योंकि वहाँ) प्रभु के अमर करने वाले गुण (मनुष्य) गाते हैं।
संतों की संगति में रह के सब जगह पहुँच हो जाती है (भाव, ऊँची आत्मिक अवस्था आ जाती है); हे नानक! साधु की संगति में मानव जनम का फल मिल जाता है।5।
[[0272]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध कै संगि नही कछु घाल ॥ दरसनु भेटत होत निहाल ॥ साध कै संगि कलूखत हरै ॥ साध कै संगि नरक परहरै ॥ साध कै संगि ईहा ऊहा सुहेला ॥ साधसंगि बिछुरत हरि मेला ॥ जो इछै सोई फलु पावै ॥ साध कै संगि न बिरथा जावै ॥ पारब्रहमु साध रिद बसै ॥ नानक उधरै साध सुनि रसै ॥६॥
मूलम्
साध कै संगि नही कछु घाल ॥ दरसनु भेटत होत निहाल ॥ साध कै संगि कलूखत हरै ॥ साध कै संगि नरक परहरै ॥ साध कै संगि ईहा ऊहा सुहेला ॥ साधसंगि बिछुरत हरि मेला ॥ जो इछै सोई फलु पावै ॥ साध कै संगि न बिरथा जावै ॥ पारब्रहमु साध रिद बसै ॥ नानक उधरै साध सुनि रसै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाल = मेहनत, तप आदि बर्दाश्त करने। होत = हो जाते हैं। निहाल = प्रसन्न। कलूखत = पाप, विकार। हरै = दूर कर लेता है। परहरै = परे हटा लेता है। ईहा = इस जनम में, इस लोक में। ऊहा = परलोक में। सुहेला = सुखी। बिछुरत = (प्रभु से) विछुड़े हुए का। इछै = चाहता है। बिरथा = व्यर्थ, खाली। रिद = हृदय। साध रसै = साधू की रसना से, जीभ से।6।
अर्थ: साधु जनों की संगति में रहने से तप आदि में तपने की आवश्यक्ता नहीं रहती, (क्योंकि उनके) दर्शन ही करके हृदय खिला रहता है।
गुरमुखों की संगति में (मनुष्य अपने) पाप नाश कर लेता है, (और इस तरह) नर्कों से बच जाता है।
संतों की संगति में रह के (मनुष्य) बे-मुराद हो के नहीं जाता, (बल्कि) जो इच्छा करता है, वही फल पाता है।
संतों की संगत में रह के आदमी इस लोक में भी और परलोक में भी सुखी हो जाता है। और प्रभु से अलग हुआ (फिर) उसी में समा जाता है।
अकाल-पुरख संत जनों के हृदय में बसता है; हे नानक! (मनुष्य) साधु जनों की रसना से (उपदेश) सुन के (विकारों से) बच जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध कै संगि सुनउ हरि नाउ ॥ साधसंगि हरि के गुन गाउ ॥ साध कै संगि न मन ते बिसरै ॥ साधसंगि सरपर निसतरै ॥ साध कै संगि लगै प्रभु मीठा ॥ साधू कै संगि घटि घटि डीठा ॥ साधसंगि भए आगिआकारी ॥ साधसंगि गति भई हमारी ॥ साध कै संगि मिटे सभि रोग ॥ नानक साध भेटे संजोग ॥७॥
मूलम्
साध कै संगि सुनउ हरि नाउ ॥ साधसंगि हरि के गुन गाउ ॥ साध कै संगि न मन ते बिसरै ॥ साधसंगि सरपर निसतरै ॥ साध कै संगि लगै प्रभु मीठा ॥ साधू कै संगि घटि घटि डीठा ॥ साधसंगि भए आगिआकारी ॥ साधसंगि गति भई हमारी ॥ साध कै संगि मिटे सभि रोग ॥ नानक साध भेटे संजोग ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुनउ = मैं सुनूँ। गाउ = मैं गाऊँ। बिसरै = भूल जाए। सरपर = जरूर। घटि घटि = हरेक शरीर में। आगिआकारी = प्रभु की आज्ञा मानने वाला। गति = अच्छी हालत। भेटे = मिलते हैं। संजोग = भाग्यों से।7।
अर्थ: मैं गुरमुखों की संगति में रह के प्रभु का नाम सुनूँ और प्रभु के गुण गाऊँ (ये मेरी कामना है)।
संतों की संगति में रहने से प्रभु मन से भूलता नहीं, साधु जनों की संगति में मनुष्य जरूर (विकारों से) बच निकलता है।
भलों की संगति में रहने से प्रभु प्यारा लगने लग जाता है और वह हरेक शरीर में दिखाई देने लग जाता है।
साधुओं की संगति करने से (हम) प्रभु के आज्ञाकारी हो जाते हैं और हमारी आत्मिक अवस्था सुधर जाती है।
संत जनों की सुहबत में (विकार आदि) सारे रोग मिट जाते हैं; हे नानक! (बड़े) भाग्यों से साधु जन मिलते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध की महिमा बेद न जानहि ॥ जेता सुनहि तेता बखिआनहि ॥ साध की उपमा तिहु गुण ते दूरि ॥ साध की उपमा रही भरपूरि ॥ साध की सोभा का नाही अंत ॥ साध की सोभा सदा बेअंत ॥ साध की सोभा ऊच ते ऊची ॥ साध की सोभा मूच ते मूची ॥ साध की सोभा साध बनि आई ॥ नानक साध प्रभ भेदु न भाई ॥८॥७॥
मूलम्
साध की महिमा बेद न जानहि ॥ जेता सुनहि तेता बखिआनहि ॥ साध की उपमा तिहु गुण ते दूरि ॥ साध की उपमा रही भरपूरि ॥ साध की सोभा का नाही अंत ॥ साध की सोभा सदा बेअंत ॥ साध की सोभा ऊच ते ऊची ॥ साध की सोभा मूच ते मूची ॥ साध की सोभा साध बनि आई ॥ नानक साध प्रभ भेदु न भाई ॥८॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। न जानहि = नहीं जानते। जेता = जितना। तेता = उतना। बखिआनहि = बयान करते हैं। उपमा = समानता। रही भरपूरि = हर जगह व्यापक है। मूच = बड़ी। साध बनि आई = साधु को ही फबती है। भेदु = फर्क। भाई = हे भाई!।8।
अर्थ: साधु की बड़ाई वेद (भी) नहीं जानते, वो तो जितना सुनते हैं, उतना ही बयान करते हैं (पर साधु की महिमा बयान से परे है)।
साधु की समानता तीन गुणों से परे है (भाव, जगत की रचना में कोई ऐसी हस्ती नहीं जिसे साधु जैसा कहा जा सके; हां) साधु की समानता उस प्रभु से ही हो सकती है जो सर्व व्यापक है।
साधु की शोभा का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, सदा (इसको) बेअंत ही (कहा जा सकता) है।
साधु की शोभा और सब की शोभा से बहुत ऊँची है और बहुत बड़ी है।
साधु की शोभा साधु को ही फबती है (क्योंकि) हे नानक! (कह:) हे भाई! साधु और प्रभु में (कोई) फर्क नहीं है।8।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ मनि साचा मुखि साचा सोइ ॥ अवरु न पेखै एकसु बिनु कोइ ॥ नानक इह लछण ब्रहम गिआनी होइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ मनि साचा मुखि साचा सोइ ॥ अवरु न पेखै एकसु बिनु कोइ ॥ नानक इह लछण ब्रहम गिआनी होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। साचा = सदा कायम रहने वाला अकाल-पुरख। मुखि = मुंह में। अवरु कोइ = कोई और। पेखै = देखता है। एकसु बिनु = एक प्रभु के बिना। इह लछण = इन लक्षणों के कारन, इन गुणों करके। ब्रहमगिआनी = अकाल-पुरख के ज्ञान वाला। गिआन = जान पहिचान, गहरी सांझ।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य के) मन में सदा स्थिर रहने वाला प्रभु (बसता है), (जो) मुंह से (भी) उसी प्रभु को (जपता है), (जो मनुष्य) एक अकाल-पुरख के बिना (कहीं भी) किसी और को नहीं देखता, हे नानक! (वह मनुष्य) इन गुणों के कारण ब्रहमज्ञानी हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरलेप ॥ जैसे जल महि कमल अलेप ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरदोख ॥ जैसे सूरु सरब कउ सोख ॥ ब्रहम गिआनी कै द्रिसटि समानि ॥ जैसे राज रंक कउ लागै तुलि पवान ॥ ब्रहम गिआनी कै धीरजु एक ॥ जिउ बसुधा कोऊ खोदै कोऊ चंदन लेप ॥ ब्रहम गिआनी का इहै गुनाउ ॥ नानक जिउ पावक का सहज सुभाउ ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरलेप ॥ जैसे जल महि कमल अलेप ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरदोख ॥ जैसे सूरु सरब कउ सोख ॥ ब्रहम गिआनी कै द्रिसटि समानि ॥ जैसे राज रंक कउ लागै तुलि पवान ॥ ब्रहम गिआनी कै धीरजु एक ॥ जिउ बसुधा कोऊ खोदै कोऊ चंदन लेप ॥ ब्रहम गिआनी का इहै गुनाउ ॥ नानक जिउ पावक का सहज सुभाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरलेप = बेदाग। अलेप = (कीचड़ से) साफ। निरदोख = दोष रहित, पापों से बरी। सूरु = सूर्य। सोख = (संस्कृत में = शोषण) सुखाने वाला। द्रिसटि = नजर। समानि = एक जैसी। रंक = कंगाल। तुलि = बराबर। पवान = पवन, हवा। एक = एक तार। बसुधा = धरती। लेप = पोचै, लेपन। गुनाउ = गुण। पावक = आग। सहज = कुदरती।1।
अर्थ: ब्रहमज्ञानी (मनुष्य विकारों की तरफ से) सदा बेदाग (रहते हैं) जैसे पानी में (उगे हुए) कमल फूल (कीचड़ से) साफ होते हैं।
जैसे सूरज सारे (रसों) को सुखा देता है (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी (मनुष्य) (सारे पापों को जला देते हैं) पापों से बचे रहते हैं।
जैसे हवा राजे व कंगाल को एक जैसी ही लगती है (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी के अंदर (सबकी तरफ) एक जैसी नजर (के साथ देखने का स्वभाव होता) है।
(कोई भला कहे चाहे बुरा, पर) ब्रहमज्ञानी मनुष्यों में एक तार हौसला (सदा कायम रहता) है, जैसे धरती को कोई तो खोदता है कोई चंदन से लेप करता है (पर धरती को कोई परवाह नहीं)।
हे नानक! जैसे आग का कुदरती स्वभाव है (हरेक चीज की मैल जला देनी) (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी मनुष्य का (भी) यही गुण है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम गिआनी निरमल ते निरमला ॥ जैसे मैलु न लागै जला ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि होइ प्रगासु ॥ जैसे धर ऊपरि आकासु ॥ ब्रहम गिआनी कै मित्र सत्रु समानि ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही अभिमान ॥ ब्रहम गिआनी ऊच ते ऊचा ॥ मनि अपनै है सभ ते नीचा ॥ ब्रहम गिआनी से जन भए ॥ नानक जिन प्रभु आपि करेइ ॥२॥
मूलम्
ब्रहम गिआनी निरमल ते निरमला ॥ जैसे मैलु न लागै जला ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि होइ प्रगासु ॥ जैसे धर ऊपरि आकासु ॥ ब्रहम गिआनी कै मित्र सत्रु समानि ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही अभिमान ॥ ब्रहम गिआनी ऊच ते ऊचा ॥ मनि अपनै है सभ ते नीचा ॥ ब्रहम गिआनी से जन भए ॥ नानक जिन प्रभु आपि करेइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। प्रगासु = रौशनी, ज्ञान। धर = धरती। सत्रु = वैरी। जिन = जिन्हें। करेइ = करता है, बनाता है।2।
अर्थ: जैसे पानी को कभी मैल नहीं रह सकती (भाप बन के फिर साफ का साफ, वैसे ही) ब्रहमज्ञानी मनुष्य (विकारों की मैल से सदा बचा रहके) महा निर्मल है।
जैसे धरती पर आकाश (हर जगह व्यापक है, वैसे ही) ब्रहमानी के मन में (ये) रौशनी हो जाती है (कि प्रभु हर जगह मौजूद है)।
ब्रहमज्ञानी के लिए सज्जन व वैरी एक जैसा है (क्योंकि) उसके अंदर अहंकार नहीं है (किसी के अच्छे-बुरे सलूक का हर्ष-शोक नहीं)।
ब्रहमज्ञानी (आत्मिक अवस्था में) सबसे ऊँचा है, (पर) अपने मन में (अपने आप को) सबसे नीचा (जानता है)।
हे नानक! वही मनुष्य ब्रहमज्ञानी बनते हैं जिन्हें प्रभु खुद बनाता है।2।
[[0273]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम गिआनी सगल की रीना ॥ आतम रसु ब्रहम गिआनी चीना ॥ ब्रहम गिआनी की सभ ऊपरि मइआ ॥ ब्रहम गिआनी ते कछु बुरा न भइआ ॥ ब्रहम गिआनी सदा समदरसी ॥ ब्रहम गिआनी की द्रिसटि अम्रितु बरसी ॥ ब्रहम गिआनी बंधन ते मुकता ॥ ब्रहम गिआनी की निरमल जुगता ॥ ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन ॥ नानक ब्रहम गिआनी का ब्रहम धिआनु ॥३॥
मूलम्
ब्रहम गिआनी सगल की रीना ॥ आतम रसु ब्रहम गिआनी चीना ॥ ब्रहम गिआनी की सभ ऊपरि मइआ ॥ ब्रहम गिआनी ते कछु बुरा न भइआ ॥ ब्रहम गिआनी सदा समदरसी ॥ ब्रहम गिआनी की द्रिसटि अम्रितु बरसी ॥ ब्रहम गिआनी बंधन ते मुकता ॥ ब्रहम गिआनी की निरमल जुगता ॥ ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन ॥ नानक ब्रहम गिआनी का ब्रहम धिआनु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रीना = (चरणों की) धूल। आतम रसु = आत्मा का आनंद। चीना = पहिचाना। मइआ = खुशी, प्रसन्नता, मेहर। कछु = कोई, कोई (काम या बात)। सभदरसी = समदर्सी, (सब की तरफ) एक जैसा देखने वाला। बरसी = बरखा करने वाली। मुकता = आजाद। जुगता = युक्ति, तरीका, मर्यादा, जिंदगी गुजारने का तरीका।3।
अर्थ: ब्रहमज्ञानी सारे (बंदों) के पैरों की खाक (हो के रहता) है; ब्रहमज्ञानी ने आत्मिक आनंद को पहिचान लिया है।
बंहमज्ञानी की सब पर खुशी रहती है (भाव, ब्रहमज्ञानी सबके साथ हंसते माथे रहता है,) और वह कोई बुरा काम नहीं करता।
ब्रहमज्ञानी सदा सब ओर एक जैसी नजर से देखता है, उसकी नजर से (सब के ऊपर) अमृत की बरखा होती है।
ब्रहमज्ञानी (माया के) बंधनों से आजाद होता है, और उसकी जीवन-जुगति विकारों से रहित है।
(रूहानी-) ज्ञान ब्रहमज्ञानी की खुराक है (भाव, ब्रहमज्ञानी की आत्मिक जिंदगी का आसरा है), हे नानक! ब्रहमज्ञानी की तवज्जो अकाल-पुरख के साथ जुड़ी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम गिआनी एक ऊपरि आस ॥ ब्रहम गिआनी का नही बिनास ॥ ब्रहम गिआनी कै गरीबी समाहा ॥ ब्रहम गिआनी परउपकार उमाहा ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही धंधा ॥ ब्रहम गिआनी ले धावतु बंधा ॥ ब्रहम गिआनी कै होइ सु भला ॥ ब्रहम गिआनी सुफल फला ॥ ब्रहम गिआनी संगि सगल उधारु ॥ नानक ब्रहम गिआनी जपै सगल संसारु ॥४॥
मूलम्
ब्रहम गिआनी एक ऊपरि आस ॥ ब्रहम गिआनी का नही बिनास ॥ ब्रहम गिआनी कै गरीबी समाहा ॥ ब्रहम गिआनी परउपकार उमाहा ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही धंधा ॥ ब्रहम गिआनी ले धावतु बंधा ॥ ब्रहम गिआनी कै होइ सु भला ॥ ब्रहम गिआनी सुफल फला ॥ ब्रहम गिआनी संगि सगल उधारु ॥ नानक ब्रहम गिआनी जपै सगल संसारु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आस = टेक, आसरा। बिनास = नाश, अभाव। ब्रहमज्ञानी कै = ब्रहमज्ञानी के मन में। समाहा = समाई हुई है, टिकी हुई है। उमाहा = उत्साह, चाव। ले = ले कर, काबू करके। बंधा = रोके रखता है, बाँध रखता है। सुफल = अच्छे फल वाला हो के, अच्छी मुराद से। फला = फलता है, कामयाब होता है। ब्रहमज्ञानी जपै = ब्रहमज्ञानी के द्वारा जपता है।4।
अर्थ: ब्रहमज्ञानी एक अकाल-पुरख पर आस रखता है; ब्रहमज्ञानी (की ऊँची आत्मिक अवस्था) का कभी विनाश नहीं होता।
ब्रहमज्ञानी के हृदय में गरीबी टिकी रहती है, और उसे दूसरों की भलाई करने का (सदा) चाव (चढ़ा रहता) है।
ब्रहमज्ञानी के मन में (माया का) जंजाल नहीं व्यापता, (क्योंकि) वह भटकते मन को काबू करके (माया की तरफ से) रोक सकता है।
जो कुछ (प्रभु द्वारा) होता है, ब्रहमज्ञानी को अपने मन में भला प्रतीत होता है, (इस तरह) उसका मानव जनम अच्छी तरह कामयाब होता है।
ब्रहमज्ञानी की संगति में सबका बेड़ा पार होता है, (क्योंकि) हे नानक! ब्रहमज्ञानी के द्वारा सारा जगत (ही) (प्रभु का नाम) जपने लग पड़ता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम गिआनी कै एकै रंग ॥ ब्रहम गिआनी कै बसै प्रभु संग ॥ ब्रहम गिआनी कै नामु आधारु ॥ ब्रहम गिआनी कै नामु परवारु ॥ ब्रहम गिआनी सदा सद जागत ॥ ब्रहम गिआनी अह्मबुधि तिआगत ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि परमानंद ॥ ब्रहम गिआनी कै घरि सदा अनंद ॥ ब्रहम गिआनी सुख सहज निवास ॥ नानक ब्रहम गिआनी का नही बिनास ॥५॥
मूलम्
ब्रहम गिआनी कै एकै रंग ॥ ब्रहम गिआनी कै बसै प्रभु संग ॥ ब्रहम गिआनी कै नामु आधारु ॥ ब्रहम गिआनी कै नामु परवारु ॥ ब्रहम गिआनी सदा सद जागत ॥ ब्रहम गिआनी अह्मबुधि तिआगत ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि परमानंद ॥ ब्रहम गिआनी कै घरि सदा अनंद ॥ ब्रहम गिआनी सुख सहज निवास ॥ नानक ब्रहम गिआनी का नही बिनास ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकै = एक प्रभु का। रंग = प्यार। संग = साथ। अधारु = आसरा। सद = सदा। अहंबुधि = मैं मैं (कहने) वाली बुद्धि, अहंकार वाली मति। तिआगत = छोड़ देता है। मनि = मन में। परमानंद = परम आनंद वाला प्रभु, उच्च सुख का मालिक अकाल पुरख। सहज = अडोलता की हालत। बिनास = नाश, अभाव।5।
अर्थ: ब्रहमज्ञानी के हृदय में (सदा) एक अकाल-पुरख का प्यार (बसता है), (तभी तो) प्रभु ब्रहमज्ञानी के अंग-संग रहता है।
ब्रहमज्ञानी के मन में (प्रभु का) नाम (ही) टेक है और नाम ही उसका परिवार है।
ब्रहमज्ञानी सदा (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है, और ‘मैं मैं’ करने वाली मति त्याग देता है।
ब्रहमज्ञानी के मन में इस ऊँचे सुख का मालिक अकाल-पुरख बसता है, (तभी तो) उसके हृदय रूपी घर में सदा खुशी खिड़ाव है।
ब्रहमज्ञानी (मनुष्य) सुख और शांति में टिका रहता है; (और) हे नानक! ब्रहमज्ञानी (की इस ऊँची अवस्था) का कभी नाश नहीं होता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम गिआनी ब्रहम का बेता ॥ ब्रहम गिआनी एक संगि हेता ॥ ब्रहम गिआनी कै होइ अचिंत ॥ ब्रहम गिआनी का निरमल मंत ॥ ब्रहम गिआनी जिसु करै प्रभु आपि ॥ ब्रहम गिआनी का बड परताप ॥ ब्रहम गिआनी का दरसु बडभागी पाईऐ ॥ ब्रहम गिआनी कउ बलि बलि जाईऐ ॥ ब्रहम गिआनी कउ खोजहि महेसुर ॥ नानक ब्रहम गिआनी आपि परमेसुर ॥६॥
मूलम्
ब्रहम गिआनी ब्रहम का बेता ॥ ब्रहम गिआनी एक संगि हेता ॥ ब्रहम गिआनी कै होइ अचिंत ॥ ब्रहम गिआनी का निरमल मंत ॥ ब्रहम गिआनी जिसु करै प्रभु आपि ॥ ब्रहम गिआनी का बड परताप ॥ ब्रहम गिआनी का दरसु बडभागी पाईऐ ॥ ब्रहम गिआनी कउ बलि बलि जाईऐ ॥ ब्रहम गिआनी कउ खोजहि महेसुर ॥ नानक ब्रहम गिआनी आपि परमेसुर ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेता = (संस्कृत: विद् to know वेक्ता one who knows) जानने वाला, महिरम, वाकिफ। एक संगि = एक प्रभु से। हेता = हेत, प्यार। अचिंत = अनवेक्षा, बेफिक्री। निरमल = मल हीन, पवित्र करने वाला। मंत = मंत्र, उपदेश। बड = बड़ा। दरसु = दर्शन। पाईऐ = पाते हैं। बलि बलि = सदके। खोजहि = खोजते हैं, ढूँढते हैं। महेसुर = महा ईश्वर, शिव जी (आदि देवते)। परमेसुर = परमेश्वर, परमात्मा, अकाल-पुरख।6।
अर्थ: ब्रहमज्ञानी (मनुष्य) अकाल-पुरख का महरम बन जाता है और वह एक प्रभु के साथ ही प्यार करता है।
ब्रहमज्ञानी के मन में (सदैव) बेफिक्री रहती है, उसका उपदेश (भी और लोगों को) पवित्र करने वाला होता है।
ब्रहमज्ञानी का बड़ा नाम हो जाता है (पर, वही मनुष्य ब्रहमज्ञानी बनता है) जिसे प्रभु खुद बनाता है।
ब्रहमज्ञानी का दीदार बड़े भाग्यों से प्राप्त होता है, ब्रहमज्ञानी से सदा सदके जाएं।
शिव (आदि देवते भी) ब्रहमज्ञानी को तलाशते फिरते हैं; हे नानक! अकाल-पुरख स्वयं ही ब्रहमज्ञानी (का रूप) है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम गिआनी की कीमति नाहि ॥ ब्रहम गिआनी कै सगल मन माहि ॥ ब्रहम गिआनी का कउन जानै भेदु ॥ ब्रहम गिआनी कउ सदा अदेसु ॥ ब्रहम गिआनी का कथिआ न जाइ अधाख्यरु ॥ ब्रहम गिआनी सरब का ठाकुरु ॥ ब्रहम गिआनी की मिति कउनु बखानै ॥ ब्रहम गिआनी की गति ब्रहम गिआनी जानै ॥ ब्रहम गिआनी का अंतु न पारु ॥ नानक ब्रहम गिआनी कउ सदा नमसकारु ॥७॥
मूलम्
ब्रहम गिआनी की कीमति नाहि ॥ ब्रहम गिआनी कै सगल मन माहि ॥ ब्रहम गिआनी का कउन जानै भेदु ॥ ब्रहम गिआनी कउ सदा अदेसु ॥ ब्रहम गिआनी का कथिआ न जाइ अधाख्यरु ॥ ब्रहम गिआनी सरब का ठाकुरु ॥ ब्रहम गिआनी की मिति कउनु बखानै ॥ ब्रहम गिआनी की गति ब्रहम गिआनी जानै ॥ ब्रहम गिआनी का अंतु न पारु ॥ नानक ब्रहम गिआनी कउ सदा नमसकारु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। मन माहि = मन में। भेदु = राज, मर्म। आदेसु = प्रणाम, नमस्कार। अधाख्यर = (महिमा का) आधा अक्षर (भी)। मिति = नाप, मर्यादा, अंदाजा। गति = हालत। बखानै = बयान करे।7।
अर्थ: ब्रहमज्ञानी (के गुणों) का मूल्य नहीं पड़ सकता, सारे ही (गुण) ब्रहमज्ञानी के अंदर हैं।
कौन सा मनुष्य ब्रहमज्ञानी (की उच्च जिंदगी) का भेद पा सकता है? ब्रहमज्ञानी के आगे सदा झुकना ही (फबता) है।
ब्रहमज्ञानी (की महिमा) का आधा अक्षर भी कहा नहीं जा सकता; ब्रहमज्ञानी सारे जीवों का पूज्य है
ब्रहमज्ञानी (की ऊँची जिंदगी) का अंदाजा कौन लगा सकता है? उस हालत को (उस जैसा) ब्रहमज्ञानी ही जानता है।
ब्रहमज्ञानी (के गुणों के समुंदर) की कोई सीमा नहीं; हे नानक! सदा ब्रहमज्ञानी के चरणों में पड़ा रह।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहम गिआनी सभ स्रिसटि का करता ॥ ब्रहम गिआनी सद जीवै नही मरता ॥ ब्रहम गिआनी मुकति जुगति जीअ का दाता ॥ ब्रहम गिआनी पूरन पुरखु बिधाता ॥ ब्रहम गिआनी अनाथ का नाथु ॥ ब्रहम गिआनी का सभ ऊपरि हाथु ॥ ब्रहम गिआनी का सगल अकारु ॥ ब्रहम गिआनी आपि निरंकारु ॥ ब्रहम गिआनी की सोभा ब्रहम गिआनी बनी ॥ नानक ब्रहम गिआनी सरब का धनी ॥८॥८॥
मूलम्
ब्रहम गिआनी सभ स्रिसटि का करता ॥ ब्रहम गिआनी सद जीवै नही मरता ॥ ब्रहम गिआनी मुकति जुगति जीअ का दाता ॥ ब्रहम गिआनी पूरन पुरखु बिधाता ॥ ब्रहम गिआनी अनाथ का नाथु ॥ ब्रहम गिआनी का सभ ऊपरि हाथु ॥ ब्रहम गिआनी का सगल अकारु ॥ ब्रहम गिआनी आपि निरंकारु ॥ ब्रहम गिआनी की सोभा ब्रहम गिआनी बनी ॥ नानक ब्रहम गिआनी सरब का धनी ॥८॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रिसटि = दुनिया। सद = सदा। मुकति जुगति = मुक्ति का रास्ता। जीअ का दाता = (आत्मिक) जिंदगी देने वाला। बिधाता = पैदा करने वाला। पूरन पुरखु = सब में व्यापक प्रभु। नाथु = पति। सभ ऊपरि हाथु = सब की सहायता करता है। सगल अकारु = सारा दिखाई देता संसार। अकारु = स्वरूप। बनी = फबती है। धनी = मालिक।8।
अर्थ: ब्रहमज्ञानी सारे जगत को बनाने वाला है, सदा ही जीवित है, कभी (जनम) मरण के चक्कर में नहीं आता।
ब्रहमज्ञानी मुक्ति का राह (बताने वाला व उच्च आत्मिक) जिंदगी देने वाला है, वही पूर्ण पुरख व कादर है
ब्रहमज्ञानी निखस्मों का खसम है (अनाथों का नाथ है), सब की सहायता करता है।
सारा दिखाई देने वाला जगत ब्रहमज्ञानी का (अपना) है, वह (तो प्रत्यक्ष) स्वयं ही ईश्वर है।
ब्रहमज्ञानी की महिमा (कोई) ब्रहमज्ञानी ही कर सकता है; हे नानक! ब्रहमज्ञानी सब जीवों का मालिक है।8।8।
[[0274]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ उरि धारै जो अंतरि नामु ॥ सरब मै पेखै भगवानु ॥ निमख निमख ठाकुर नमसकारै ॥ नानक ओहु अपरसु सगल निसतारै ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ उरि धारै जो अंतरि नामु ॥ सरब मै पेखै भगवानु ॥ निमख निमख ठाकुर नमसकारै ॥ नानक ओहु अपरसु सगल निसतारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरि = हृदय में। अंतरि = अंदर, मन में। धारै = टिकाए। मै = (सं: ‘मय’) ‘मै’ व्याकरण का एक ‘पिछेक्तर’ है, जिसका भाव है ‘मिला हुआ, भरा हुआ, व्यापक’। सरब मै = सभी में व्यापक। निमख = आँख की फड़कना। अपरसु = अछोह (सं: अस्पर्श) जो किसी के साथ ना छूए।1।
अर्थ: जो मनुष्य सदा अपने हृदय में अकाल-पुरख का नाम टिकाए रखता है, और भगवान को सभी में व्यापक देखता है, जो पल पल अपने प्रभु को नमस्कार करता है; हे नानक! वह (असली) अछोह है और वह सब जीवों को (संसार समुंदर से) तार लेता है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: हिंदू मत में कई मनुष्य बड़ी स्वच्छता रखने के ऐसे भरमि में पड़ जाते हैं कि किसी और के साथ छूते भी नहीं, पर गुरमति अनुसार असली स्वच्छ वह मनुष्य है जो हर समय प्रभु का नाम हृदय में परोए रखता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ मिथिआ नाही रसना परस ॥ मन महि प्रीति निरंजन दरस ॥ पर त्रिअ रूपु न पेखै नेत्र ॥ साध की टहल संतसंगि हेत ॥ करन न सुनै काहू की निंदा ॥ सभ ते जानै आपस कउ मंदा ॥ गुर प्रसादि बिखिआ परहरै ॥ मन की बासना मन ते टरै ॥ इंद्री जित पंच दोख ते रहत ॥ नानक कोटि मधे को ऐसा अपरस ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ मिथिआ नाही रसना परस ॥ मन महि प्रीति निरंजन दरस ॥ पर त्रिअ रूपु न पेखै नेत्र ॥ साध की टहल संतसंगि हेत ॥ करन न सुनै काहू की निंदा ॥ सभ ते जानै आपस कउ मंदा ॥ गुर प्रसादि बिखिआ परहरै ॥ मन की बासना मन ते टरै ॥ इंद्री जित पंच दोख ते रहत ॥ नानक कोटि मधे को ऐसा अपरस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिथिआ = झूठ। परस = छोह। प्रीति निरंजन दरस = अंजन (कालिख-) रहित प्रभु के दर्शन की प्रीति। त्रिअ रूपु = स्त्री का रूप। हेत = प्यार। करन = कानों से। काहू की = किसी की भी। बिखिआ = माइआ। परहरै = त्याग दे। बासना = वासना, फुरना। टरै = टल जाए। इंद्री जित = इंन्द्रियों को जीतने वाला। दोख = विकार। पंच दोख = काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकारं। कोटि = करोड़। मधे = में। को = कोई विरला।1।
अर्थ: जो मनुष्य जीभ से झूठ को छूने नहीं देता, मन में अकाल-पुरख के दीदार की तमन्ना रखता है;
जो पराई स्त्री के हुस्न को अपनी आँखों से नहीं देखता, भले मनुष्यों की टहल (सेवा करता है) और संत जनों की संगति में प्रीति (रखता है);
जो कानों से किसी की भी निंदा नहीं सुनता, (बल्कि) सभी से अपने आप को बुरा समझता है;
जो गुरु की मेहर के सदका माइआ (का प्रभाव) परे हटा देता है, और जिसके मन की वासना मन से टल जाती है;
जो अपनी ज्ञान-इंद्रिय को वश में रख के कामादिक पाँचों विकारों से बचा रहता है, हे नानक! करोड़ों में से कोई ऐसा विरला मनुष्य ‘अपरस’ (कहा जा सकता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैसनो सो जिसु ऊपरि सुप्रसंन ॥ बिसन की माइआ ते होइ भिंन ॥ करम करत होवै निहकरम ॥ तिसु बैसनो का निरमल धरम ॥ काहू फल की इछा नही बाछै ॥ केवल भगति कीरतन संगि राचै ॥ मन तन अंतरि सिमरन गोपाल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ आपि द्रिड़ै अवरह नामु जपावै ॥ नानक ओहु बैसनो परम गति पावै ॥२॥
मूलम्
बैसनो सो जिसु ऊपरि सुप्रसंन ॥ बिसन की माइआ ते होइ भिंन ॥ करम करत होवै निहकरम ॥ तिसु बैसनो का निरमल धरम ॥ काहू फल की इछा नही बाछै ॥ केवल भगति कीरतन संगि राचै ॥ मन तन अंतरि सिमरन गोपाल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ आपि द्रिड़ै अवरह नामु जपावै ॥ नानक ओहु बैसनो परम गति पावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसनो = (संस्कृत: वैष्णव) विष्णु का पुजारी। बिसन = (सं. विष्णु, The second deity of the Sacred Hindu Triad, entrusted with the preservation of the world, which duty he is represented to have duly discharged by his various incarnations; The word is thus popularly derived; यस्माद्विश्वमिदं सर्वं तस्य शक्त्य: महात्मना॥ तस्मादेवोच्यते विष्णुर्विशधातो: प्रवेशनात्॥)।
जगत = पालक। निहकरम = कर्म रहित, किए हुए कर्मों के फलों की इच्छा ना रखता हुआ। बाछै = चाहता है। द्रिढै = पक्का करता है, अच्छी तरह मन में टिकाता है।2।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु की माया के असर से बेदाग है, और, जिस पर प्रभु खुद प्रसन्न होता है, वह है असली वैष्णव।
उस वैष्णव का धर्म (भी) पवित्र है जो (धर्म के) काम करता हुआ इन कामों के फल की इच्छा नहीं रखता।
जो मनुष्य निरा भक्ति व कीर्तन में मस्त रहता है, और किसी भी फल की ख्वाइश नहीं करता;
जिसके मन तन में प्रभु का स्मरण बस रहा है, जो सब जीवों पे दया करता है,
जो खुद (प्रभु के नाम को) अपने मन में टिकाता है व और लोगों को नाम जपाता है, हे नानक! वह वैष्णव उच्च स्थान हासिल करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगउती भगवंत भगति का रंगु ॥ सगल तिआगै दुसट का संगु ॥ मन ते बिनसै सगला भरमु ॥ करि पूजै सगल पारब्रहमु ॥ साधसंगि पापा मलु खोवै ॥ तिसु भगउती की मति ऊतम होवै ॥ भगवंत की टहल करै नित नीति ॥ मनु तनु अरपै बिसन परीति ॥ हरि के चरन हिरदै बसावै ॥ नानक ऐसा भगउती भगवंत कउ पावै ॥३॥
मूलम्
भगउती भगवंत भगति का रंगु ॥ सगल तिआगै दुसट का संगु ॥ मन ते बिनसै सगला भरमु ॥ करि पूजै सगल पारब्रहमु ॥ साधसंगि पापा मलु खोवै ॥ तिसु भगउती की मति ऊतम होवै ॥ भगवंत की टहल करै नित नीति ॥ मनु तनु अरपै बिसन परीति ॥ हरि के चरन हिरदै बसावै ॥ नानक ऐसा भगउती भगवंत कउ पावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगउती = (सं: भगवत्) भगवान का उपासक, पवित्र आत्मा। करि सगल = हर जगह व्यापक जान के। अरपै = सदके करता है, अर्पण करता है।3।
अर्थ: भगवान का (असली) उपासक (वह है जिसके हृदय में) भगवान की भक्ति का प्यार है और जो सब बुरे काम करने वालों का संग त्याग देता है।
जिसके मन में से हर तरह का वहम मिट जाता है, जो अकाल-पुरख को हर जगह मौजूद जान के पूजता है।
उस भगवती की मति उत्तम होती है, जो गुरमुखों की संगति में रह के पापों की मैल (मन से) दूर करता है।
जो नित्य भगवान का स्मरण करता है, जो प्रभु के प्यार में अपना मन व तन कुर्बान कर देता है;
जो प्रभु के चरण (सदा अपने) हृदय में बसाता है। हे नानक! ऐसा भगवती भगवान को पा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो पंडितु जो मनु परबोधै ॥ राम नामु आतम महि सोधै ॥ राम नाम सारु रसु पीवै ॥ उसु पंडित कै उपदेसि जगु जीवै ॥ हरि की कथा हिरदै बसावै ॥ सो पंडितु फिरि जोनि न आवै ॥ बेद पुरान सिम्रिति बूझै मूल ॥ सूखम महि जानै असथूलु ॥ चहु वरना कउ दे उपदेसु ॥ नानक उसु पंडित कउ सदा अदेसु ॥४॥
मूलम्
सो पंडितु जो मनु परबोधै ॥ राम नामु आतम महि सोधै ॥ राम नाम सारु रसु पीवै ॥ उसु पंडित कै उपदेसि जगु जीवै ॥ हरि की कथा हिरदै बसावै ॥ सो पंडितु फिरि जोनि न आवै ॥ बेद पुरान सिम्रिति बूझै मूल ॥ सूखम महि जानै असथूलु ॥ चहु वरना कउ दे उपदेसु ॥ नानक उसु पंडित कउ सदा अदेसु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परबोधै = जगाता है। आतम महि = अपने आप में, अपनी आत्मा में। सोधै = पड़ताल करता है, जांचता है। सारु = श्रेष्ठ, अच्छा, मीठा। उपदेसि = उपदेश से। जीवै = जीता है, रूहानी जिंदगी हासिल करता है। मूल = आरम्भ। पुरान = व्यास ऋषि के लिखे हुई 18 धर्म पुस्तकें। सूखम = सूक्षम, अदृश्य। असथूल = स्थूल, दृष्टमान जगत, आँखों से दिखता संसार। अदेसु = प्रणाम, नमस्कार।4।
अर्थ: (असली) पण्डित वह है जो अपने मन को शिक्षा देता है, और प्रभु के नाम को अपने मन में तलाशता है।
उस पण्डित के उपदेश से (सारा) संसार रूहानी जिंदगी हासिल करता है, जो प्रभु नाम का मीठा स्वाद चखता है।
वह पंडित दुबारा जनम (मरन) में नहीं आता, जो अकाल-पुरख (की महिमा) की बातें अपने हृदय में बसाता है।
जो वेद पुराण स्मृतियां (आदि सब धर्म-पुस्तकों) के मूल (प्रभु को) समझता है, जो यह जानता है कि ये सारा दृश्यमान संसार अदृश्य प्रभु के ही आसरे है।
जो (ब्राहमण,क्षत्रीय,वैश्य व शूद्र) चारों ही जातियों को शिक्षा देता है, हे नानक! (कह) उस पंडित के सामने हम सदा सिर निवाते हैं (नत्मस्तक होते हैं)।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीज मंत्रु सरब को गिआनु ॥ चहु वरना महि जपै कोऊ नामु ॥ जो जो जपै तिस की गति होइ ॥ साधसंगि पावै जनु कोइ ॥ करि किरपा अंतरि उर धारै ॥ पसु प्रेत मुघद पाथर कउ तारै ॥ सरब रोग का अउखदु नामु ॥ कलिआण रूप मंगल गुण गाम ॥ काहू जुगति कितै न पाईऐ धरमि ॥ नानक तिसु मिलै जिसु लिखिआ धुरि करमि ॥५॥
मूलम्
बीज मंत्रु सरब को गिआनु ॥ चहु वरना महि जपै कोऊ नामु ॥ जो जो जपै तिस की गति होइ ॥ साधसंगि पावै जनु कोइ ॥ करि किरपा अंतरि उर धारै ॥ पसु प्रेत मुघद पाथर कउ तारै ॥ सरब रोग का अउखदु नामु ॥ कलिआण रूप मंगल गुण गाम ॥ काहू जुगति कितै न पाईऐ धरमि ॥ नानक तिसु मिलै जिसु लिखिआ धुरि करमि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीज मंत्रु = (सब मंत्रों का) मूल मंत्र। को = का। अंतरि उर = उरि उंतरि, हृदय में। मुघध = मुगध, मूर्ख। प्रेत = (संस्कृत: प्रेत = 1.The departed spirit, the spirit before obsequial rites are performed, 2- A ghost, evil spirit) बुरी रूह। अउखदु = दवाई। कलिआण = सुख। मंगल = अच्छे भाग्य। गाम = गायन। काहू धरमि = किसी भी धर्म द्वारा, किसी भी धार्मिक रस्म रिवाज के करने से। धुरि = धुर से, ईश्वर की ओर से। करमि = मेहर अनुसार।5।
अर्थ: (ब्राहमण,क्षत्रीय,वैश्य व शूद्र) चारों ही जातियों में से कोई भी मनुष्य (प्रभु का) नाम जप (के देख ले), नाम (और सब मंत्रों का) मूल मंत्र है और सब का ज्ञान (दाता) है।
जो जो मनुष्य नाम जपता है उसकी जिंदगी ऊँची हो जाती है, (पर) कोई विरला मनुष्य ही साधु-संगत में (रह के) (इसे) हासिल करता है।
पशु, बुरी रूह, मूर्ख, पत्थर (-दिल) (कोई भी हो सब) को (नाम) तार देता है (अगर प्रभु) मेहर करके (उसके) हृदय में (नाम) टिका दे।
प्रभु का नाम सारे रोगों की दवाई है, प्रभु के गुण गाने सौभाग्य व सुख का रूप है।
(पर ये नाम और) किसी ढंग से अथवा किसी धार्मिक रस्म-रिवाज के करने से नहीं मिलता; हे नानक! (ये नाम) उस मनुष्य को मिलता है जिस (के माथे पर) धुर से (प्रभु की) मेहर मुताबक लिखा जाता है।5।
[[0275]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस कै मनि पारब्रहम का निवासु ॥ तिस का नामु सति रामदासु ॥ आतम रामु तिसु नदरी आइआ ॥ दास दसंतण भाइ तिनि पाइआ ॥ सदा निकटि निकटि हरि जानु ॥ सो दासु दरगह परवानु ॥ अपुने दास कउ आपि किरपा करै ॥ तिसु दास कउ सभ सोझी परै ॥ सगल संगि आतम उदासु ॥ ऐसी जुगति नानक रामदासु ॥६॥
मूलम्
जिस कै मनि पारब्रहम का निवासु ॥ तिस का नामु सति रामदासु ॥ आतम रामु तिसु नदरी आइआ ॥ दास दसंतण भाइ तिनि पाइआ ॥ सदा निकटि निकटि हरि जानु ॥ सो दासु दरगह परवानु ॥ अपुने दास कउ आपि किरपा करै ॥ तिसु दास कउ सभ सोझी परै ॥ सगल संगि आतम उदासु ॥ ऐसी जुगति नानक रामदासु ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = (सत्य, true, real, genuine.) असली। रामदासु = राम का दास, प्रभु का सेवक। आतम रामु = सब में व्यापक प्रभु। भाइ = भावना से, स्वभाव से। दास दसंतण भाइ = दासों का दास होने की भावना से। तिनि = उस (मनुष्य) ने। निकटि = नजदीक। जानु = (जो) जानता है। सोझी = समझ। परै = पड़े, पड़ती है। आतम उदासु = अंदर से निर्मोही।6।
अर्थ: जिसके मन में अकाल पुरख बसता है, उस मनुष्य का नाम असली (अर्थों में) ‘रामदासु’ (प्रभु का सेवक) है।
उसे सर्व-व्यापी प्रभु दिख जाता है, दासों के दास होने के स्वभाव से उसने प्रभु को पा लिया है।
जो (मनुष्य) सदा प्रभु को नजदीक जानता है, वह सेवक दरगाह में स्वीकार होता है।
प्रभु उस सेवक पर सदा मेहर करता है, और उस सेवक को सारी समझ आ जाती है।
सारे परिवार में (रहता हुआ भी) वह अंदर से निर्मोही होता है; हे नानक! ऐसी (जीवन) -जुगति से वह (सही मायनों में) ‘रामदास’ (राम का दास) बन जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की आगिआ आतम हितावै ॥ जीवन मुकति सोऊ कहावै ॥ तैसा हरखु तैसा उसु सोगु ॥ सदा अनंदु तह नही बिओगु ॥ तैसा सुवरनु तैसी उसु माटी ॥ तैसा अम्रितु तैसी बिखु खाटी ॥ तैसा मानु तैसा अभिमानु ॥ तैसा रंकु तैसा राजानु ॥ जो वरताए साई जुगति ॥ नानक ओहु पुरखु कहीऐ जीवन मुकति ॥७॥
मूलम्
प्रभ की आगिआ आतम हितावै ॥ जीवन मुकति सोऊ कहावै ॥ तैसा हरखु तैसा उसु सोगु ॥ सदा अनंदु तह नही बिओगु ॥ तैसा सुवरनु तैसी उसु माटी ॥ तैसा अम्रितु तैसी बिखु खाटी ॥ तैसा मानु तैसा अभिमानु ॥ तैसा रंकु तैसा राजानु ॥ जो वरताए साई जुगति ॥ नानक ओहु पुरखु कहीऐ जीवन मुकति ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआ = हुक्म, रजा। आतम = अपने अंदर। हितावै = हित वाली जाने, मीठी करके माने। जीवन मुकति = (वह मनुष्य जिसे) जीते जी ही (माया के बंधनों से) मुक्ति मिल गई है। हरखु = खुशी। सोगु = गमी। बिओगु = विछोड़ा। सुवरनु = स्वर्ण, सोना। बिखु = विष, जहर। खाटी = खट्टी, कड़वी, हानिकारक (संस्कृत: कटु)। मानु = आदर। रंकु = कंगाल। जुगति = राह, रास्ता, तरीका।7।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु की रजा को मन में मीठी करके मानता है, वही जीते जी मुक्त कहलाता है।
उसके लिए खुशी व गमी एक समान ही है, उसे सदा आनंद है (क्योंकि) वहाँ (भाव, उसके हृदय में प्रभु चरणों से) विछोड़ा नहीं है।
सोना और मिट्टी (भी उस मनुष्य के लिए) बराबर हैं (भाव, सोना देख के वह लोभ में नहीं फंसता), अमृत व कड़वा विष भी उसके लिए एक जैसा है। (किसी से) आदर (भरा व्यावहार हो) अथवा अहंकार (का) (उस मनुष्य के लिए) एक समान है, कंगाल और शहनशाह भी उसकी नजर में बराबर हैं।
जो (रजा प्रभु) वरताता है (जो प्रभु करता है), वही (उस के वास्ते) जिंदगी का असल राह है; हे नानक! वह मनुष्य जीवित मुक्त कहा जा सकता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम के सगले ठाउ ॥ जितु जितु घरि राखै तैसा तिन नाउ ॥ आपे करन करावन जोगु ॥ प्रभ भावै सोई फुनि होगु ॥ पसरिओ आपि होइ अनत तरंग ॥ लखे न जाहि पारब्रहम के रंग ॥ जैसी मति देइ तैसा परगास ॥ पारब्रहमु करता अबिनास ॥ सदा सदा सदा दइआल ॥ सिमरि सिमरि नानक भए निहाल ॥८॥९॥
मूलम्
पारब्रहम के सगले ठाउ ॥ जितु जितु घरि राखै तैसा तिन नाउ ॥ आपे करन करावन जोगु ॥ प्रभ भावै सोई फुनि होगु ॥ पसरिओ आपि होइ अनत तरंग ॥ लखे न जाहि पारब्रहम के रंग ॥ जैसी मति देइ तैसा परगास ॥ पारब्रहमु करता अबिनास ॥ सदा सदा सदा दइआल ॥ सिमरि सिमरि नानक भए निहाल ॥८॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगले = सारे। ठाउ = जगह। जितु = जिस में। जितु घरि = जिस घर में। तिन = उनका। जोगु = योग्य, समर्थ, ताकत वाला। प्रभ भावै = (जो कुछ) प्रभु को भाता है। फुनि = पुनः , दुबारा। होगु = होगा। पसरिओ = पसरा हुआ है, व्यापक है। अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहरें। होइ अनत तरंग = बेअंत लहरें हो के। लखे न जाहि = बयान नहीं किए जा सकते। रंग-तमाशे, खेल। परगास = रोशनी। अबिनास = नाश रहित। भए निहाल = (जीव) निहाल हो जाते हैं।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: (संस्कृत) निहारन् = 1. Diffusive, spreading wide as fragrance. 2. fragrant. सुगंधि देने वाले, (फूलों की तरह) खिले हुए।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सारी जगहें (शरीर-रूपी घर) अकाल पुरख के ही हैं, जिस जिस जगह जीवों को रखता है, वैसा ही उसका नाम (पड़ जाता) है।
प्रभु स्वयं ही (सब कुछ) करने की (और जीवों से) करवाने की ताकत रखता है जो प्रभु को ठीक लगता है वही होता है।
(जिंदगी की) बेअंत लहरें बन के (अकाल-पुरख) खुद सब जगह मौजूद है, अकाल-पुरख के खेल बयान नहीं किए जा सकते।
जिस तरह की बुद्धि देता है, वैसी ही रौशनी (जीव के अंदर) होती है; अकाल-पुरख (स्वयं सब कुछ) करने वाला है और कभी मरता नहीं।
प्रभु सदा मेहर करने वाला है, हे नानक! (जीव उसे) सदा स्मरण करके (फूलों की तरह) खिले रहते हैं।8।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ उसतति करहि अनेक जन अंतु न पारावार ॥ नानक रचना प्रभि रची बहु बिधि अनिक प्रकार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ उसतति करहि अनेक जन अंतु न पारावार ॥ नानक रचना प्रभि रची बहु बिधि अनिक प्रकार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = प्रशंसा। करहि = करते हैं। अंतु न पारावार = पार अवार का अंत न, इस पार उस पार का अंत नहीं, (गुणों के) इस छोर उस छोर का आखिरी किनारा नहीं (मिलता)। प्रभि = प्रभु ने। रचना = सृष्टि, जगत की बनतर। बहु बिधि = कई तरीकों से। प्रकार = किस्म। बिधि = तरीका।1।
अर्थ: अनेक लोग प्रभु के गुणों का जिक्र करते हैं, पर उन गुणों का सिरा नहीं मिलता। हे नानक! (ये सारी) सृष्टि (उस) प्रभु ने कई किस्मों कई तरीकों से बनाई है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ कई कोटि होए पूजारी ॥ कई कोटि आचार बिउहारी ॥ कई कोटि भए तीरथ वासी ॥ कई कोटि बन भ्रमहि उदासी ॥ कई कोटि बेद के स्रोते ॥ कई कोटि तपीसुर होते ॥ कई कोटि आतम धिआनु धारहि ॥ कई कोटि कबि काबि बीचारहि ॥ कई कोटि नवतन नाम धिआवहि ॥ नानक करते का अंतु न पावहि ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ कई कोटि होए पूजारी ॥ कई कोटि आचार बिउहारी ॥ कई कोटि भए तीरथ वासी ॥ कई कोटि बन भ्रमहि उदासी ॥ कई कोटि बेद के स्रोते ॥ कई कोटि तपीसुर होते ॥ कई कोटि आतम धिआनु धारहि ॥ कई कोटि कबि काबि बीचारहि ॥ कई कोटि नवतन नाम धिआवहि ॥ नानक करते का अंतु न पावहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़। आचार बिउहारी = धार्मिक रीतों रस्मों वाले। वासी = बसने वाले। बन = जंगलों में। भ्रमहि = फिरते हैं। उदासी = जगत से उपराम हो के। स्रोते = श्रोते, सुनने वाले। तपीसुर = तपी इसुर, बड़े बड़े तपी। आतम = मन में। धिआन धारहि = मन जोड़ते हैं। कबि = कवि, कवी। काबि = काव्य, कविता, कवियों की रचनाएं। बीचारहि = बिचारते हैं। नवतन = नया।1।
अर्थ: (प्रभु की इस रची हुई दुनिया में) कई करोड़ों प्राणी पुजारी हैं, और कई करोड़ों धार्मिक रीतें रस्में करने वाले हैं।
कई करोड़ों (लोग) तीर्थों के वासी हैं और कई करोड़ों (जगत से) उपराम हो के जंगलों में फिरते हैं।
कई करोड़ जीव वेदों के सुनने वाले हैं और कई करोड़ बड़े बड़े तपी बने हुए हैं।
कई करोड़ (मनुष्य) अपने अंदर तवज्जो जोड़ रहे हैं और कई करोड़ (मनुष्य) कवियों की रची कविताएं विचारते हैं।
कई करोड़ लोग (प्रभु का) नित्य नया नाम स्मरण करते हैं, (पर) हे नानक! उस कर्तार का कोई भी अंत नहीं पा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई कोटि भए अभिमानी ॥ कई कोटि अंध अगिआनी ॥ कई कोटि किरपन कठोर ॥ कई कोटि अभिग आतम निकोर ॥ कई कोटि पर दरब कउ हिरहि ॥ कई कोटि पर दूखना करहि ॥ कई कोटि माइआ स्रम माहि ॥ कई कोटि परदेस भ्रमाहि ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगना ॥ नानक करते की जानै करता रचना ॥२॥
मूलम्
कई कोटि भए अभिमानी ॥ कई कोटि अंध अगिआनी ॥ कई कोटि किरपन कठोर ॥ कई कोटि अभिग आतम निकोर ॥ कई कोटि पर दरब कउ हिरहि ॥ कई कोटि पर दूखना करहि ॥ कई कोटि माइआ स्रम माहि ॥ कई कोटि परदेस भ्रमाहि ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगना ॥ नानक करते की जानै करता रचना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अभिमानी = अहंकारी। अंध = अंधे। अगिआनी = अज्ञानी, जाहिल, मूर्ख। अंध अगिआनी = महा मूर्ख। किरपन = कंजूस। कठोर = सख्त दिल। अभिग = ना भीगने वाले, ना नर्म होने वाले। निकोर = निरे कोरे, बड़े रूखे। दरब = धन। पर = पराया, बेगाना। हिरहि = चुराते हैं। दूखना = निंदा। स्रम = श्रम, मेहनत। माइआ = धन पदार्थ। भ्रमाहि = भ्रमहि, फिरते हैं। जितु = जिस (काम में)। तितु = उस (व्यस्तता) में।2।
अर्थ: (इस जगत रचना में) करोड़ों अहंकारी जीव हैं करोड़ों ही लोग हद दर्जे के जाहिल हैं।
करोड़ों (मनुष्य) कंजूस व पत्थर-दिल हैं, और कई करोड़ अंदर से महा कोरे हैं (जो किसी का दुख देख के भी कभी) पसीजते नहीं।
करोड़ों लोग दूसरों का धन चुराते हैं, और करोड़ों ही दूसरों की निंदा करते हैं।
करोड़ों (मनुष्य) धन-पदार्थ की (खातिर) मेहनत में जुटे हुए हैं, और कई करोड़ दूसरे देशों में भटक रहे हैं।
(हे प्रभु!) जिस जिस आहर (व्यस्तता में) तू लगाता है उस उस आहर में जीव लगे हुए हैं। हे नानक! कर्तार की रचना (का भेद) कर्तार ही जानता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई कोटि सिध जती जोगी ॥ कई कोटि राजे रस भोगी ॥ कई कोटि पंखी सरप उपाए ॥ कई कोटि पाथर बिरख निपजाए ॥ कई कोटि पवण पाणी बैसंतर ॥ कई कोटि देस भू मंडल ॥ कई कोटि ससीअर सूर नख्यत्र ॥ कई कोटि देव दानव इंद्र सिरि छत्र ॥ सगल समग्री अपनै सूति धारै ॥ नानक जिसु जिसु भावै तिसु तिसु निसतारै ॥३॥
मूलम्
कई कोटि सिध जती जोगी ॥ कई कोटि राजे रस भोगी ॥ कई कोटि पंखी सरप उपाए ॥ कई कोटि पाथर बिरख निपजाए ॥ कई कोटि पवण पाणी बैसंतर ॥ कई कोटि देस भू मंडल ॥ कई कोटि ससीअर सूर नख्यत्र ॥ कई कोटि देव दानव इंद्र सिरि छत्र ॥ सगल समग्री अपनै सूति धारै ॥ नानक जिसु जिसु भावै तिसु तिसु निसतारै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिध = पहुँचा हुआ जोगी। जती = वह मनुष्य जिसने काम को वश में कर रखा है। रस भोगी = स्वादिष्ट पदार्थों को भोगने वाला। उपाए = पैदा किए। बिरख = वृक्ष। निपजाए = उगाए। बैसंतर = आग। भू = धरती। भू मंडल = धरती के चक्र। ससीअर = (सं: शशिधर) चंद्रमा। सूर = सूरज। नख्यत्र = नक्षत्र, तारे। दानव = दैत्य, राक्षस। सिरि = सिर पर। समग्री = पदार्थ। सूति = सूत्र में, लड़ी में, (मर्यादा के) धागे में।3।
अर्थ: (इस सृष्टि की रचना में) करोड़ों माहिर सिद्ध हैं, और काम को वश में रखने वाले जोगी हैं, और करोड़ों ही रस भोगने वाले राजे हैं।
करोड़ों पक्षी और साँप (प्रभु ने) पैदा किए हैं, और करोड़ों ही पत्थर और वृक्ष उगाए हैं।
करोड़ों हवा पानी और आग हैं, करोड़ों देश व धरती मण्डल हैं, कई करोड़ों चंद्रमा, सूर्य और तारे हैं, करोड़ों देवते और इंद्र हैं जिनके सिर पर छत्र हैं।
(इन) सारे (जीव-जंतुओं और) पदार्थों को (प्रभु ने) अपने (हुक्म के) सूत्र में परोया हुआ है। हे नानक! जो जो उसे भाता है, उस उसको (प्रभु) तार लेता है।3।
[[0276]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई कोटि राजस तामस सातक ॥ कई कोटि बेद पुरान सिम्रिति अरु सासत ॥ कई कोटि कीए रतन समुद ॥ कई कोटि नाना प्रकार जंत ॥ कई कोटि कीए चिर जीवे ॥ कई कोटि गिरी मेर सुवरन थीवे ॥ कई कोटि जख्य किंनर पिसाच ॥ कई कोटि भूत प्रेत सूकर म्रिगाच ॥ सभ ते नेरै सभहू ते दूरि ॥ नानक आपि अलिपतु रहिआ भरपूरि ॥४॥
मूलम्
कई कोटि राजस तामस सातक ॥ कई कोटि बेद पुरान सिम्रिति अरु सासत ॥ कई कोटि कीए रतन समुद ॥ कई कोटि नाना प्रकार जंत ॥ कई कोटि कीए चिर जीवे ॥ कई कोटि गिरी मेर सुवरन थीवे ॥ कई कोटि जख्य किंनर पिसाच ॥ कई कोटि भूत प्रेत सूकर म्रिगाच ॥ सभ ते नेरै सभहू ते दूरि ॥ नानक आपि अलिपतु रहिआ भरपूरि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजस…., (सं: रजस्, सत्व, तमस्) = माया के तीनों गुण। नाना प्रकार = कई किस्म के। चिर जीवे = चिर तक जीने वाले, लंबी उम्र वाले। गिरी = पहाड़। थीवे = हो गए, बन गए। जख्य = (सं: यक्ष) एक किस्म के देवते जो धन देवते के अधीन हैं। किंनर = (किन्नर) देवताओं की एक किस्म, जिनका धड़ मनुष्य का व सिर घोड़े का है। पिसाच = (पिशाच) नीची जाति के लोग। सूकर = सूअर। म्रिगाच = (मृग+अच) मृगों को खाने वाले, शेर। अलिपतु = निर लेप, बे दाग।4।
अर्थ: करोड़ों जीव (माया के तीनों गुणों) रजो, तमों और सतो में हैं, करोड़ों (बंदे) वेद पुरान स्मृतियों व शास्त्रों (के पढ़ने वाले) हैं।
समुंदर में करोड़ों रत्न पैदा कर दिए हैं और कई किस्म के जीव-जंतु बना दिए हैं।
करोड़ों जीव लंबी उम्र (दीर्घायु) वाले पैदा किए हैं, करोड़ों ही सोने के सुमेर पर्वत बन गए हैं।
करोड़ों ही यक्ष, किन्नर व पिशाच हैं और करोड़ों ही भूत, प्रेत, सूअर व शेर हैं। (प्रभु) इन सबके नजदीक भी है और दूर भी। हे नानक! प्रभु हर जगह व्यापक भी है और है भी निर्लिप।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई कोटि पाताल के वासी ॥ कई कोटि नरक सुरग निवासी ॥ कई कोटि जनमहि जीवहि मरहि ॥ कई कोटि बहु जोनी फिरहि ॥ कई कोटि बैठत ही खाहि ॥ कई कोटि घालहि थकि पाहि ॥ कई कोटि कीए धनवंत ॥ कई कोटि माइआ महि चिंत ॥ जह जह भाणा तह तह राखे ॥ नानक सभु किछु प्रभ कै हाथे ॥५॥
मूलम्
कई कोटि पाताल के वासी ॥ कई कोटि नरक सुरग निवासी ॥ कई कोटि जनमहि जीवहि मरहि ॥ कई कोटि बहु जोनी फिरहि ॥ कई कोटि बैठत ही खाहि ॥ कई कोटि घालहि थकि पाहि ॥ कई कोटि कीए धनवंत ॥ कई कोटि माइआ महि चिंत ॥ जह जह भाणा तह तह राखे ॥ नानक सभु किछु प्रभ कै हाथे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घालहि = मेहनत करते हैं। धनवंत = धन वाले। चिंत = चिन्ता, फिक्र। जह जह = जहाँ जहाँ। भाणा = (उस प्रभु की) रजा है।5।
अर्थ: करोड़ों जीव पाताल में बसने वाले हैं और करोड़ों ही नर्कों व स्वर्गों में बसते हें (भाव, दुखी व सुखी हैं)।
करोड़ों जीव पैदा होते हैं और करोड़ों जीव कई जूनियों में भटक रहे हैं।
करोड़ों जीव बैठे ही खाते हैं और करोड़ों (ऐसे हैं जो रोटी की खातिर) मेहनत करते हैं और थक टूट जाते हैं।
करोड़ों जीव (प्रभु ने) धन वान बनाए हैं और करोड़ों (ऐसे हैं जिन्हें) माया की चिन्ता लगी हुई है।
जहाँ जहाँ चाहता है, जीवों को वहीं वहीं ही रखता है। हे नानक! हरेक बात प्रभु के अपने हाथ में है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई कोटि भए बैरागी ॥ राम नाम संगि तिनि लिव लागी ॥ कई कोटि प्रभ कउ खोजंते ॥ आतम महि पारब्रहमु लहंते ॥ कई कोटि दरसन प्रभ पिआस ॥ तिन कउ मिलिओ प्रभु अबिनास ॥ कई कोटि मागहि सतसंगु ॥ पारब्रहम तिन लागा रंगु ॥ जिन कउ होए आपि सुप्रसंन ॥ नानक ते जन सदा धनि धंनि ॥६॥
मूलम्
कई कोटि भए बैरागी ॥ राम नाम संगि तिनि लिव लागी ॥ कई कोटि प्रभ कउ खोजंते ॥ आतम महि पारब्रहमु लहंते ॥ कई कोटि दरसन प्रभ पिआस ॥ तिन कउ मिलिओ प्रभु अबिनास ॥ कई कोटि मागहि सतसंगु ॥ पारब्रहम तिन लागा रंगु ॥ जिन कउ होए आपि सुप्रसंन ॥ नानक ते जन सदा धनि धंनि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिन = उनकी। आतम महि = अपने मन में। लहंते = ढूँढते हैं, तलाशते हैं। पिआस = प्यास, इच्छा, तमन्ना। अबिनास = नाश रहित, सदा स्थिर रहने वाला। रंगु = प्यार। धनि धंनि = भाग्यशाली।6।
अर्थ: (इस रचना में) करोड़ों जीव वैरागी हैं, जिनकी तवज्जो अकाल-पुरख के नाम के साथ लगी रहती है।
करोड़ों लोग प्रभु को खोजते हैं, अपने अंदर अकाल-पुरख को तलाशते हैं।
करोड़ों जीवों को प्रभु के दीदार की तमन्ना लगी रहती है, उन्हें अविनाशी प्रभु मिल जाता है।
करोड़ों मनुष्य सत्संग मांगते हैं, उन्हें अकाल-पुरख से इश्क रहता है।
हे नानक! वे मनुष्य सदा भाग्यशाली हैं, जिनपे प्रभु स्वयं मेहरवान होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई कोटि खाणी अरु खंड ॥ कई कोटि अकास ब्रहमंड ॥ कई कोटि होए अवतार ॥ कई जुगति कीनो बिसथार ॥ कई बार पसरिओ पासार ॥ सदा सदा इकु एकंकार ॥ कई कोटि कीने बहु भाति ॥ प्रभ ते होए प्रभ माहि समाति ॥ ता का अंतु न जानै कोइ ॥ आपे आपि नानक प्रभु सोइ ॥७॥
मूलम्
कई कोटि खाणी अरु खंड ॥ कई कोटि अकास ब्रहमंड ॥ कई कोटि होए अवतार ॥ कई जुगति कीनो बिसथार ॥ कई बार पसरिओ पासार ॥ सदा सदा इकु एकंकार ॥ कई कोटि कीने बहु भाति ॥ प्रभ ते होए प्रभ माहि समाति ॥ ता का अंतु न जानै कोइ ॥ आपे आपि नानक प्रभु सोइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाणी = सारे जगत जीवों की उत्पक्ति के चार ढंग (खानें) मानी गई हैं, अंडज: अण्डे से पैदा होने वाले जीव; जेरज: जिउर से पैदा होने वाले; सेतज: पसीने से और; उत्भुज: पानी द्वारा धरती में से पैदा होने वाले जीव। अरु = तथा। खंड = सारी धरती के नौ हिस्से व नौ खण्ड माने गए हैं। कई जुगति = कई युक्तियों से। पसरिओ = पसरा हुआ है। पासार = (सं: प्रसार) खिलारा। भाति = किस्म। समाति = लीन हो जाते हैं। अवतार = पैदा किए हुए जीव।7।
अर्थ: (धरती के नौ) खण्डों (चारों) खाणियों के द्वारा करोड़ों ही जीव उत्पन्न हुए हैं, सारे आकाशों, ब्रहमण्डों में करोड़ों ही जीव हैं।
करोड़ों ही प्राणी पैदा हो रहे हैं, कई तरीकों से प्रभु ने जगत की रचना की है।
(प्रभु ने) कई बार जगत रचना की है; (दुबारा इसे समेट के) सदा एक स्वयं ही हो जाता है।
प्रभु ने कई किस्मों के करोड़ों ही जीव पैदा किए हुए हैं, जो प्रभु से पैदा हो के फिर प्रभु में ही लीन हो जाते हैं।
उस प्रभु का अंत कोई भी नहीं जानता; (क्योंकि) हे नानक! वह प्रभु (अपने जैसा) स्वयं ही है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कई कोटि पारब्रहम के दास ॥ तिन होवत आतम परगास ॥ कई कोटि तत के बेते ॥ सदा निहारहि एको नेत्रे ॥ कई कोटि नाम रसु पीवहि ॥ अमर भए सद सद ही जीवहि ॥ कई कोटि नाम गुन गावहि ॥ आतम रसि सुखि सहजि समावहि ॥ अपुने जन कउ सासि सासि समारे ॥ नानक ओइ परमेसुर के पिआरे ॥८॥१०॥
मूलम्
कई कोटि पारब्रहम के दास ॥ तिन होवत आतम परगास ॥ कई कोटि तत के बेते ॥ सदा निहारहि एको नेत्रे ॥ कई कोटि नाम रसु पीवहि ॥ अमर भए सद सद ही जीवहि ॥ कई कोटि नाम गुन गावहि ॥ आतम रसि सुखि सहजि समावहि ॥ अपुने जन कउ सासि सासि समारे ॥ नानक ओइ परमेसुर के पिआरे ॥८॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परगास = प्रकाश, रौशनी। तत = अस्लियत। बेते = जानने वाले, महरम। निहारहि = देखते हैं। नेत्रे = आँखों से। अमर = जनम मरन से रहित। सद = सदा। आतम रसि = आत्मा के रस में, आत्मिक आनंद में। समावहि = टिके रहते हैं। सासि सासि = दम-ब-दम। समारे = संभालता है, याद रखता है। ओइ = वह (सेवक जो उसमें लीन रहते हैं)।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘ओइ’ बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (इस जगत रचना में) करोड़ों जीव प्रभु के सेवक (भक्त) हैं, उनके आतम में (प्रभु का) प्रकाश हो जाता है।
करोड़ों जीव (जगत की) अस्लियत (अकाल-पुरख) के महरम हैं जो सदा एक प्रभु को आँखों से (हर जगह) देखते हैं।
करोड़ों लोग प्रभु नाम का आनंद लेते हैं, वे जनम मरन से रहित हो के सदा ही जीते रहते हैं
करोड़ों मनुष्य प्रभु नाम के गुण गाते हैं, वे आत्मिक आनंद में सुख में व अडोल अवस्था में टिके रहते हैं।
प्रभु अपने भक्तों को हर दम याद रखता है, (क्योंकि) हे नानक! वह भक्त प्रभु के प्यारे होते हैं।8।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ करण कारण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ ॥ नानक तिसु बलिहारणै जलि थलि महीअलि सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ करण कारण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ ॥ नानक तिसु बलिहारणै जलि थलि महीअलि सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करण = (सं: करण) रचना। जलि = जल में। महीअलि = (संस्कृत: महीतल, the surface of the earth) धरती के तल पे। मही = धरती।1।
अर्थ: (इस सारे) जगत का (मूल-) कारण (भाव, बनाने वाला) एक अकाल-पुरख ही है, कोई दूसरा नहीं है। हे नानक! (मैं) उस प्रभु से सदके (हूँ), जो जल में थल में और धरती के तल पर (भाव, आकाश में मौजूद है)।1।
[[0277]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ करन करावन करनै जोगु ॥ जो तिसु भावै सोई होगु ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ अंतु नही किछु पारावारा ॥ हुकमे धारि अधर रहावै ॥ हुकमे उपजै हुकमि समावै ॥ हुकमे ऊच नीच बिउहार ॥ हुकमे अनिक रंग परकार ॥ करि करि देखै अपनी वडिआई ॥ नानक सभ महि रहिआ समाई ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ करन करावन करनै जोगु ॥ जो तिसु भावै सोई होगु ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ अंतु नही किछु पारावारा ॥ हुकमे धारि अधर रहावै ॥ हुकमे उपजै हुकमि समावै ॥ हुकमे ऊच नीच बिउहार ॥ हुकमे अनिक रंग परकार ॥ करि करि देखै अपनी वडिआई ॥ नानक सभ महि रहिआ समाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगु = समर्थ, ताकत वाला। होगु = होगा। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने वाला। पारावारा = पार और अवार, इस पार और उस पार। धारि = टिका के। अधर = अ+धर, बिना आसरे। रहावै = रखावे, रखता है। उपजै = पैदा होता है। परकार = किस्म।1।
अर्थ: प्रभु (सब कुछ) करने की स्मर्था रखता है, और (जीवों को) काम करने के लिए प्रेरित करने के समर्थ भी है, वही कुछ होता है जो कुछ उसे अच्छा लगता है।
आँख की झपक में जगत को पैदा करके नाश भी करने वाला है, (उसकी ताकत) की कोई सीमा नहीं है।
(सृष्टि को अपने) हुक्म में पैदा करके बिना किसी आसरे टिकाए रखता है, (जगत उसके) हुक्म में पैदा होता है और हुक्म में लीन हो जाता है।
ऊँचे और नीच लोगों की बरतों भी उसके हुक्म में ही है, अनेक किस्मों के खेल तमाशे उसके हुक्म में ही हो रहे हैं।
अपनी प्रतिभा (के काम) कर कर के खुद ही देख रहा है। हे नानक! प्रभु सब जीवों में व्यापक है।१।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ भावै मानुख गति पावै ॥ प्रभ भावै ता पाथर तरावै ॥ प्रभ भावै बिनु सास ते राखै ॥ प्रभ भावै ता हरि गुण भाखै ॥ प्रभ भावै ता पतित उधारै ॥ आपि करै आपन बीचारै ॥ दुहा सिरिआ का आपि सुआमी ॥ खेलै बिगसै अंतरजामी ॥ जो भावै सो कार करावै ॥ नानक द्रिसटी अवरु न आवै ॥२॥
मूलम्
प्रभ भावै मानुख गति पावै ॥ प्रभ भावै ता पाथर तरावै ॥ प्रभ भावै बिनु सास ते राखै ॥ प्रभ भावै ता हरि गुण भाखै ॥ प्रभ भावै ता पतित उधारै ॥ आपि करै आपन बीचारै ॥ दुहा सिरिआ का आपि सुआमी ॥ खेलै बिगसै अंतरजामी ॥ जो भावै सो कार करावै ॥ नानक द्रिसटी अवरु न आवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ भावै = अगर प्रभु को ठीक लगे। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पतित = (धर्म से) गिरे हुए। आपन बीचारै = अपने विचार अनुसार। दुहा सिरिआ का = लोक परलोक का। खेलै = खेल खेलता है, जगत रचना की खेल खेलता है। बिगसै = (ये खेल देख के) खुश होता है। अंतरजामी = (जीवों के) अंदर की जानने वाला। द्रिसटी = नजर में। अवरु = (कोई) और।2।
अर्थ: अगर प्रभु को ठीक लगे तो मनुष्य को उच्च आत्मिक अवस्था देता है और पत्थर (-दिलों) को भी पार लगा देता है।
अगर प्रभु चाहे तो स्वास के बिना भी प्राणी को (मौत से) बचाए रखता है, उसकी मेहर हो प्रभु मेहर के गुण गाता है।
अगर अकाल-पुरख की रजा हो तो गिरे चाल-चलन वालों को (विकारों से) बचा लेता है, जो कुछ करता है, अपनी सलाह अनुसार करता है।
प्रभु खुद ही लोक परलोक का मालिक है, वह सबके दिल की जानने वाला खुद जगत खेल खेलता है और (इसे देख के) खुश होता है।
जो उसे अच्छा लगता है वही काम करता है। हे नानक! (उस जैसा) कोई और नहीं दिखता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु मानुख ते किआ होइ आवै ॥ जो तिसु भावै सोई करावै ॥ इस कै हाथि होइ ता सभु किछु लेइ ॥ जो तिसु भावै सोई करेइ ॥ अनजानत बिखिआ महि रचै ॥ जे जानत आपन आप बचै ॥ भरमे भूला दह दिसि धावै ॥ निमख माहि चारि कुंट फिरि आवै ॥ करि किरपा जिसु अपनी भगति देइ ॥ नानक ते जन नामि मिलेइ ॥३॥
मूलम्
कहु मानुख ते किआ होइ आवै ॥ जो तिसु भावै सोई करावै ॥ इस कै हाथि होइ ता सभु किछु लेइ ॥ जो तिसु भावै सोई करेइ ॥ अनजानत बिखिआ महि रचै ॥ जे जानत आपन आप बचै ॥ भरमे भूला दह दिसि धावै ॥ निमख माहि चारि कुंट फिरि आवै ॥ करि किरपा जिसु अपनी भगति देइ ॥ नानक ते जन नामि मिलेइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = बताओ। हाथि = हाथ में, वश में। अनजानत = ना जानते हुए, मूर्ख होने के कारण। बिखिआ = माइआ। जानत = समझ वाला हो। दह = दस। दिसि = दिशाएं, तरफें। दहदिसि = दसों ओर। धावै = दौड़ता है। निमख = आँख फड़कने जितना समय। कुंट = कूट (सं: कूट = end, corner) कोने। नामि = नाम में। मिलेइ = जुड़ गए हैं, लीन हो गए हैं।3।
अर्थ: बताओ, मनुष्य से (अपने आप) कौन सा काम हो सकता है? जो प्रभु को ठीक लगता है वही (जीव से) कराता है।
इस (मनुष्य) के हाथ में हो तो हर चीज पर कब्जा कर ले, (पर) प्रभु वही कुछ करता है जो उसे भाता है।
मूर्खता के कारण मनुष्य माया में उलझ जाता है, यदि समझदार हो तो अपने आप (इससे) बचा रहे।
(पर इसका मन) भुलेखे में भूला हुआ (माया की खातिर) दसों दिशाओं में दौड़ता है, आँख की झपक में चारों कोनों में दौड़ भाग आता है।
(प्रभु) मेहर करके जिस जिस मनुष्य को अपनी भक्ति बख्शता है, हे नानक! वे मनुष्य नाम में टिके रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खिन महि नीच कीट कउ राज ॥ पारब्रहम गरीब निवाज ॥ जा का द्रिसटि कछू न आवै ॥ तिसु ततकाल दह दिस प्रगटावै ॥ जा कउ अपुनी करै बखसीस ॥ ता का लेखा न गनै जगदीस ॥ जीउ पिंडु सभ तिस की रासि ॥ घटि घटि पूरन ब्रहम प्रगास ॥ अपनी बणत आपि बनाई ॥ नानक जीवै देखि बडाई ॥४॥
मूलम्
खिन महि नीच कीट कउ राज ॥ पारब्रहम गरीब निवाज ॥ जा का द्रिसटि कछू न आवै ॥ तिसु ततकाल दह दिस प्रगटावै ॥ जा कउ अपुनी करै बखसीस ॥ ता का लेखा न गनै जगदीस ॥ जीउ पिंडु सभ तिस की रासि ॥ घटि घटि पूरन ब्रहम प्रगास ॥ अपनी बणत आपि बनाई ॥ नानक जीवै देखि बडाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीट = कीड़ा। निवाज = मेहर करने वाला। जा का कछू = जिसका कोई गुण। द्रिसटि न आवै = नहीं दिखता। ततकाल = तुरंत। बशसीस = बख्शिश, दया। जगदीस = जगत+ईश, जगत का मालिक। रासि = पूंजी। तिस की = उस प्रभु की। घटि घटि = हरेक घट में, हरेक शरीर में। पूरन = व्यापक। प्रगास = जलवा। बणत = बनावट, आकार, जगत रूपी घाड़त। जीवै = जी रहा है, प्रसन्न हो रहा है।4।
अर्थ: छिन में प्रभु कीड़े (जैसे) छोटे (मनुष्य) को राज दे देता है, प्रभु गरीबों पर मेहर करने वाला है।
जिस मनुष्य में कोई गुण नहीं दिखाई देता, उसे एक पल में ही दसों दिशाओं में चमका देता है।
जिस मनुष्य पर जगत का मालिक प्रभु अपनी बख्शिश करता है; उसके (कर्मों के) लेख नहीं गिनता।
ये जिंद और शरीर सब उस प्रभु की दी हुई पूंजी है, हरेक शरीर में व्यापक प्रभु का ही जलवा है।
ये (जगत) रचना उसने खुद रची है। हे नानक! अपनी (इस) प्रतिभा को खुद देख के खुश हो रहा है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इस का बलु नाही इसु हाथ ॥ करन करावन सरब को नाथ ॥ आगिआकारी बपुरा जीउ ॥ जो तिसु भावै सोई फुनि थीउ ॥ कबहू ऊच नीच महि बसै ॥ कबहू सोग हरख रंगि हसै ॥ कबहू निंद चिंद बिउहार ॥ कबहू ऊभ अकास पइआल ॥ कबहू बेता ब्रहम बीचार ॥ नानक आपि मिलावणहार ॥५॥
मूलम्
इस का बलु नाही इसु हाथ ॥ करन करावन सरब को नाथ ॥ आगिआकारी बपुरा जीउ ॥ जो तिसु भावै सोई फुनि थीउ ॥ कबहू ऊच नीच महि बसै ॥ कबहू सोग हरख रंगि हसै ॥ कबहू निंद चिंद बिउहार ॥ कबहू ऊभ अकास पइआल ॥ कबहू बेता ब्रहम बीचार ॥ नानक आपि मिलावणहार ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब को नाथ = सारे जीवों का मालिक। बपुरा = विचारा। आज्ञाकारी = हुक्म में चलने वाला। जीउ = जीव। थीउ = होता है, वरतता है। कबहू = कभी। सोग = चिन्ता। हरख = खुशी। निंद चिंद = निंदा की विचार। बिउहार = व्यवहार, सलूक। ऊभ = ऊँचा। पइआल = पाताल। बेता = जानने वाला, महरम। ब्रहम बीचार = ईश्वरीय विचार।5।
अर्थ: इस (जीव) की ताकत इसके अपने हाथ में नहीं है, सब जीवों का प्रभु स्वयं सब कुछ करने कराने के समर्थ है।
बिचारा जीव प्रभु के हुक्म में चलने वाला है (क्योंकि) होता वही है जो उस प्रभु को भाता है।
(प्रभु स्वयं) कभी ऊँचों में कभी छोटों में प्रगट हो रहा है, कभी चिन्ता में है और कभी खुशी की मौज में हँस रहा है।
कभी (दूसरों की) निंदा विचारने का व्यवहार बनाए बैठा है, कभी (खुशी के कारण) आकाश में ऊँचा (चढ़ता है) (कभी चिन्ता के कारण) पाताल में (गिरा पड़ा है)।
कभी खुद ही ईश्वरीय विचार का महरम है। हे नानक! जीवों को अपने में मेलने वाला स्वयं ही है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबहू निरति करै बहु भाति ॥ कबहू सोइ रहै दिनु राति ॥ कबहू महा क्रोध बिकराल ॥ कबहूं सरब की होत रवाल ॥ कबहू होइ बहै बड राजा ॥ कबहु भेखारी नीच का साजा ॥ कबहू अपकीरति महि आवै ॥ कबहू भला भला कहावै ॥ जिउ प्रभु राखै तिव ही रहै ॥ गुर प्रसादि नानक सचु कहै ॥६॥
मूलम्
कबहू निरति करै बहु भाति ॥ कबहू सोइ रहै दिनु राति ॥ कबहू महा क्रोध बिकराल ॥ कबहूं सरब की होत रवाल ॥ कबहू होइ बहै बड राजा ॥ कबहु भेखारी नीच का साजा ॥ कबहू अपकीरति महि आवै ॥ कबहू भला भला कहावै ॥ जिउ प्रभु राखै तिव ही रहै ॥ गुर प्रसादि नानक सचु कहै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरति = नाच। भाति = किस्म। सोइ रहै = सोया रहता है। बिकराल = भयानक। रवाल = चरणों की धूल। बड = बड़ा। भेखारी = भिखारी। साजा = स्वांग। अपकीरति = अपकीर्ति, बदनामी। सचु कहै = अकाल-पुरख को स्मरण करता है। तिव ही = उसी तरह।6।
अर्थ: (प्रभु जीवों में व्यापक हो के) कभी कई किस्मों के नाच कर रहा है, कभी दिन रात सोया रहता है।
कभी क्रोध (में आ के) बड़ा डरावना (लगता है), कभी जीवों के चरणों की धूल (बना रहता है)।
कभी बड़ा राजा बन बैठता है, कभी एक नीच जाति के भिखारी का स्वांग (बना लेता है)।
कभी अपनी बदनामी करा रहा है, कभी तारीफ करवा रहा है।
जीव उसी तरह जीवन व्यतीत करता है जैसे प्रभु करवाता है। हे नानक! (कोई विरला मनुष्य) गुरु की कृपा से प्रभु को स्मरण करता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबहू होइ पंडितु करे बख्यानु ॥ कबहू मोनिधारी लावै धिआनु ॥ कबहू तट तीरथ इसनान ॥ कबहू सिध साधिक मुखि गिआन ॥ कबहू कीट हसति पतंग होइ जीआ ॥ अनिक जोनि भरमै भरमीआ ॥ नाना रूप जिउ स्वागी दिखावै ॥ जिउ प्रभ भावै तिवै नचावै ॥ जो तिसु भावै सोई होइ ॥ नानक दूजा अवरु न कोइ ॥७॥
मूलम्
कबहू होइ पंडितु करे बख्यानु ॥ कबहू मोनिधारी लावै धिआनु ॥ कबहू तट तीरथ इसनान ॥ कबहू सिध साधिक मुखि गिआन ॥ कबहू कीट हसति पतंग होइ जीआ ॥ अनिक जोनि भरमै भरमीआ ॥ नाना रूप जिउ स्वागी दिखावै ॥ जिउ प्रभ भावै तिवै नचावै ॥ जो तिसु भावै सोई होइ ॥ नानक दूजा अवरु न कोइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बख्यानु = व्याख्यान, उपदेश। मोनधारी = चुप रहने वाला, कभी ना बोलने वाला। तट = नदी का किनारा। सिध = माहिर जोगी। साधिक = साधना करने वाले। मुखि = मुंह से। कीट = कीड़ा। हसति = हाथी। पतंग = पतंगा। भरमीआ = भ्रम में डाला हुआ, चक्कर खाया हुआ, बौंदला हुआ।7।
अर्थ: (सर्व-व्यापी प्रभु) कभी पंडित बन के (दूसरों को) उपदेश कर रहा है, कभी मोनी साधु हो के समाधि लगाए बैठा है।
कभी तीर्थों के किनारे स्नान कर रहा है, कभी सिद्ध और साधिक (के रूप में) मुंह से ज्ञान की बातें करता है।
कभी कीड़े, हाथी, पतंगा (आदि जीव) बना हुआ है और (अपना ही) भरमाया हुआ कई जूनियों में भटक रहा है।
बहु-रूपीए की तरह कई तरह के रूप दिखा रहा है, जैसे प्रभु को भाता है तैसे ही (जीवों को) नचाता है।
वही होता है जो उस मालिक को ठीक लगता है। हे नानक! (उस जैसा) कोई और दूसरा नहीं है।7।
[[0278]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबहू साधसंगति इहु पावै ॥ उसु असथान ते बहुरि न आवै ॥ अंतरि होइ गिआन परगासु ॥ उसु असथान का नही बिनासु ॥ मन तन नामि रते इक रंगि ॥ सदा बसहि पारब्रहम कै संगि ॥ जिउ जल महि जलु आइ खटाना ॥ तिउ जोती संगि जोति समाना ॥ मिटि गए गवन पाए बिस्राम ॥ नानक प्रभ कै सद कुरबान ॥८॥११॥
मूलम्
कबहू साधसंगति इहु पावै ॥ उसु असथान ते बहुरि न आवै ॥ अंतरि होइ गिआन परगासु ॥ उसु असथान का नही बिनासु ॥ मन तन नामि रते इक रंगि ॥ सदा बसहि पारब्रहम कै संगि ॥ जिउ जल महि जलु आइ खटाना ॥ तिउ जोती संगि जोति समाना ॥ मिटि गए गवन पाए बिस्राम ॥ नानक प्रभ कै सद कुरबान ॥८॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहुरि = दुबारा, वापस। गिआन परगासु = ज्ञान का प्रकाश, ज्ञान का जलवा। इक रंगि = एक प्रभु के प्यार में। खटाना = मिलता है। गवन = भटकना, जनम मरन के फेरे। बिस्राम = ठिकाना, आराम।8।
अर्थ: (जब) कभी (प्रभु की अंश) ये जीव सत्संग में पहुँचता है, तो उस स्थान से वापस नहीं आता।
(क्योंकि) इसके अंदर प्रभु के ज्ञान का प्रकाश हो जाता है (और) उस (ज्ञान के प्रकाश वाली) हालत का नाश नहीं होता।
(जिस मनुष्यों के) तन मन प्रभु के नाम में और प्यार में रंगे रहते हैं, वे सदा प्रभु की हजूरी में बसते हैं।
(सो) जैसे पानी में पानी आ मिलता है वैसे ही (सत्संग में टिके हुए की) आत्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है।
उस के (जनम मरन के) फेरे समाप्त हो जाते हैं, (प्रभु-चरणों में) उसे ठिकाना मिल जाता है। हे नानक! प्रभु से सदके जाएं।8।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले ॥ बडे बडे अहंकारीआ नानक गरबि गले ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले ॥ बडे बडे अहंकारीआ नानक गरबि गले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसकीनीआ = मसकीन मनुष्य, गरीबी स्वभाव वाला आदमी। आपु = स्वैभाव, अहम्। निवारि = दूर करके। तले = नीचे, झुक के। गरबि = गर्व में, अहंकार में। गले = गल गए।1।
अर्थ: गरीबी स्वभाव वाला आदमी स्वै-भाव दूर करके, और विनम्र रहके सुखी रहता है, (पर) बड़े बड़े अहंकारी मनुष्य, हे नानक! अहंकार में गल जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ जिस कै अंतरि राज अभिमानु ॥ सो नरकपाती होवत सुआनु ॥ जो जानै मै जोबनवंतु ॥ सो होवत बिसटा का जंतु ॥ आपस कउ करमवंतु कहावै ॥ जनमि मरै बहु जोनि भ्रमावै ॥ धन भूमि का जो करै गुमानु ॥ सो मूरखु अंधा अगिआनु ॥ करि किरपा जिस कै हिरदै गरीबी बसावै ॥ नानक ईहा मुकतु आगै सुखु पावै ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ जिस कै अंतरि राज अभिमानु ॥ सो नरकपाती होवत सुआनु ॥ जो जानै मै जोबनवंतु ॥ सो होवत बिसटा का जंतु ॥ आपस कउ करमवंतु कहावै ॥ जनमि मरै बहु जोनि भ्रमावै ॥ धन भूमि का जो करै गुमानु ॥ सो मूरखु अंधा अगिआनु ॥ करि किरपा जिस कै हिरदै गरीबी बसावै ॥ नानक ईहा मुकतु आगै सुखु पावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राज अभिमानु = राज का गुमान। सुआनु = कुक्ता। नरकपाती = नर्कों में पड़ने का अधिकारी। जोबनवंतु = यौवन वाला, जवानी का मालिक, बड़ा सुंदर। बिसटा = विष्टा, गुह। जंतु = कीड़ा। करमवंतु = (अच्छे) काम करने वाला। जनमि = पैदा हो के, जनम ले के। भ्रमावै = भटकता है। भूमि = धरती। अगिआनु = जाहिल। ईहा = यहाँ, इस जिंदगी में। मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। आगै = परलोक में।1।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में राज का गुमान है, वह कुक्ता नर्क में पड़ने का अधिकारी है।
जो मनुष्य अपने आप को बहुत सुंदर समझता है, वह विष्टा का ही कीड़ा होता है (क्योंकि सदा विषौ-विकारों के गंद में पड़ा रहता है)।
जो अपने आप को बढ़िया काम करने वाला कहलाता है, वह सदा पैदा होता है मरता है, कई जूनियों में भटकता फिरता है।
जो मनुष्य धन और धरती (की मल्कियत) का अहंकार करता है, वह मूर्ख है बड़ा जाहिल है।
मेहर करके जिस मनुष्य के दिल में गरीबी का (स्वभाव) डालता है, हे नानक! (वह मनुष्य) इस जिंदगी में विकारों से बचा रहता है और परलोक में सुख पाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनवंता होइ करि गरबावै ॥ त्रिण समानि कछु संगि न जावै ॥ बहु लसकर मानुख ऊपरि करे आस ॥ पल भीतरि ता का होइ बिनास ॥ सभ ते आप जानै बलवंतु ॥ खिन महि होइ जाइ भसमंतु ॥ किसै न बदै आपि अहंकारी ॥ धरम राइ तिसु करे खुआरी ॥ गुर प्रसादि जा का मिटै अभिमानु ॥ सो जनु नानक दरगह परवानु ॥२॥
मूलम्
धनवंता होइ करि गरबावै ॥ त्रिण समानि कछु संगि न जावै ॥ बहु लसकर मानुख ऊपरि करे आस ॥ पल भीतरि ता का होइ बिनास ॥ सभ ते आप जानै बलवंतु ॥ खिन महि होइ जाइ भसमंतु ॥ किसै न बदै आपि अहंकारी ॥ धरम राइ तिसु करे खुआरी ॥ गुर प्रसादि जा का मिटै अभिमानु ॥ सो जनु नानक दरगह परवानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनवंता = धन वाला, धनाढ। गरबावै = गर्व करता है। त्रिण = घास का तीला। समानि = बराबर। संगि = साथ। भीतरि = में। आप = अपने आप को। बलवंतु = बलशाली, बली, ताकतवाला। भसमंतु = राख। बदै = परवाह करता है।2।
अर्थ: मनुष्य धनवान हो के गुमान करता है, (पर उसके) साथ (अंत समय) कोई तीले जितनी चीज भी नहीं जाती।
बहुते लश्करों और मनुष्यों पर आदमी आशाएं लगाए रखता है, (पर) पल में उसका नाश हो जाता है (और उनमें से कोई भी सहायक नहीं होता)।
मनुष्य अपने आप को सब से बलशाली समझता है, (पर अंत के समय) एक छिन में (जल के) राख हो जाता है।
(जो आदमी) खुद (इतना) अहंकारी हो जाता है कि किसी की भी परवाह नहीं करता, धर्मराज (अंत के समय) उसकी मिट्टी पलीत करता है।
सतिगुरु की दया से जिसका अहंकार मिटता है, वह मनुष्य, हे नानक! प्रभु की दरगाह में स्वीकार होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि करम करै हउ धारे ॥ स्रमु पावै सगले बिरथारे ॥ अनिक तपसिआ करे अहंकार ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अवतार ॥ अनिक जतन करि आतम नही द्रवै ॥ हरि दरगह कहु कैसे गवै ॥ आपस कउ जो भला कहावै ॥ तिसहि भलाई निकटि न आवै ॥ सरब की रेन जा का मनु होइ ॥ कहु नानक ता की निरमल सोइ ॥३॥
मूलम्
कोटि करम करै हउ धारे ॥ स्रमु पावै सगले बिरथारे ॥ अनिक तपसिआ करे अहंकार ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अवतार ॥ अनिक जतन करि आतम नही द्रवै ॥ हरि दरगह कहु कैसे गवै ॥ आपस कउ जो भला कहावै ॥ तिसहि भलाई निकटि न आवै ॥ सरब की रेन जा का मनु होइ ॥ कहु नानक ता की निरमल सोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। हउ = अहंकार। स्रमु = थकावट। सगले = सारे (कर्म)। बिरथारे = व्यर्थ, बेफायदा। तपसिआ = तप के साधन। अवतार = जनम। द्रवै = द्रवित, नर्म होता। गवै = जाए, पहुँचे। आपस कउ = अपने आप को। तिसहि = उस को। निकटि = नजदीक। रेन = चरणों की धूल। सोइ = शोभा।3।
अर्थ: (यदि मनुष्य) करोड़ों (धार्मिक) कर्म करे (और उनका) अहंकार (भी) करे तो वह सारे काम व्यर्थ हैं, (उन कामों का फल उसे केवल) थकावट (ही) मिलती है।
अनेको तप और साधन करके अगर इनका मान करे, (तो वह भी) नर्कों-स्वर्गों में ही बारंबार पैदा होता है (भाव, कभी सुख और कभी दुख भोगता है)।
अनेक यत्न करने से अगर हृदय नरम नहीं होता तो बताओ, वह मनुष्य प्रभु की दरगाह में कैसे पहुँच सकता है?
जो मनुष्य अपने आप को नेक कहलाता है, नेकी उसके नजदीक भी नहीं फटकती।
जिस मनुष्य का मन सबके चरणों की धूल हो जाता है, कह, हे नानक! उस मनुष्य की सुंदर शोभा फैलती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब लगु जानै मुझ ते कछु होइ ॥ तब इस कउ सुखु नाही कोइ ॥ जब इह जानै मै किछु करता ॥ तब लगु गरभ जोनि महि फिरता ॥ जब धारै कोऊ बैरी मीतु ॥ तब लगु निहचलु नाही चीतु ॥ जब लगु मोह मगन संगि माइ ॥ तब लगु धरम राइ देइ सजाइ ॥ प्रभ किरपा ते बंधन तूटै ॥ गुर प्रसादि नानक हउ छूटै ॥४॥
मूलम्
जब लगु जानै मुझ ते कछु होइ ॥ तब इस कउ सुखु नाही कोइ ॥ जब इह जानै मै किछु करता ॥ तब लगु गरभ जोनि महि फिरता ॥ जब धारै कोऊ बैरी मीतु ॥ तब लगु निहचलु नाही चीतु ॥ जब लगु मोह मगन संगि माइ ॥ तब लगु धरम राइ देइ सजाइ ॥ प्रभ किरपा ते बंधन तूटै ॥ गुर प्रसादि नानक हउ छूटै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। मुझ ते = मेरे से। कछु = कुछ। धारै = मिथता है, ख्याल करता है। निहचलु = अडोल, अपने जगह पर। चीतु = चिक्त। मोह मगन संगि माइ = माइ मोह संगि मगन, माया के मोह में डूबा हुआ। मगन = गर्क, डूबा हुआ। देइ = देता है। हउ = अहंकार, विलक्षता का गर्व। छूटै = खत्म होता है।4।
अर्थ: मनुष्य जब तक ये समझता है कि मुझसे कुछ हो सकता है, तब तक इसे कोई सुख नहीं होता।
जब तक ये समझता है कि मैं (अपने बल से) कुछ करता हूँ, तब तक (अलग-पन के अहंकार के कारण) जूनियों में पड़ा रहता है।
जब तक मनुष्य किसी को वैरी और किसी को मित्र समझता है, तब तक इसका मन ठिकाने नहीं आता।
जब तक आदमी माया के मोह में गरक रहता है, तब तक इसे धर्मराज दण्ड देता है।
(माया के) बंधन प्रभु की मेहर से टूटते हैं, हे नानक! मनुष्य का अहंकार गुरु की कृपा से खत्म होता है।4।
[[0279]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस खटे लख कउ उठि धावै ॥ त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै ॥ अनिक भोग बिखिआ के करै ॥ नह त्रिपतावै खपि खपि मरै ॥ बिना संतोख नही कोऊ राजै ॥ सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै ॥ नाम रंगि सरब सुखु होइ ॥ बडभागी किसै परापति होइ ॥ करन करावन आपे आपि ॥ सदा सदा नानक हरि जापि ॥५॥
मूलम्
सहस खटे लख कउ उठि धावै ॥ त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै ॥ अनिक भोग बिखिआ के करै ॥ नह त्रिपतावै खपि खपि मरै ॥ बिना संतोख नही कोऊ राजै ॥ सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै ॥ नाम रंगि सरब सुखु होइ ॥ बडभागी किसै परापति होइ ॥ करन करावन आपे आपि ॥ सदा सदा नानक हरि जापि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहस = हजारों (रुपए)। खटे = कमाता है। लख कउ = लाखों (रुपयों) की खातिर। धावै = दौड़ता है। त्रिपति = तृप्ति। पाछै पावै = जमा करता है। बिखिआ = माया। त्रिपतावै = तृप्त होता है। खपि खपि = दुखी हो हो के। मनोरथ = मन के रथ, मन की दौड़ें, ख्वाइशें। ब्रिथे = व्यर्थ।5।
अर्थ: (मनुष्य) हजारों (रुपए) कमाता है तो लाखों (रुपयों) की खतिर उठ के दौड़ता है; माया जमा किए जाता है, (पर) तृप्त नहीं होता।
माया की अनेक मौजें मानता है, तसल्ली नहीं होती, (भोगों के पीछे और दौड़ता है) बड़ा दुखी होता है।
अगर अंदर संतोष ना हो, तो कोई (मनुष्य) तृप्त नहीं होता, जैसे सपनों का कोई लाभ नहीं होता, वैसे (संतोष-हीन मनुष्य के) सारे काम और ख्वाहिशें व्यर्थ हैं।
प्रभु के नाम की मौज में (ही) सारा सुख है, (और ये सुख) किसी बड़े भाग्यशाली को मिलता है।
(जो) प्रभु खुद ही सब कुछ करने के और (जीवों से) कराने के समर्थ है, हे नानक! उस प्रभु को सदा स्मरण कर।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावन करनैहारु ॥ इस कै हाथि कहा बीचारु ॥ जैसी द्रिसटि करे तैसा होइ ॥ आपे आपि आपि प्रभु सोइ ॥ जो किछु कीनो सु अपनै रंगि ॥ सभ ते दूरि सभहू कै संगि ॥ बूझै देखै करै बिबेक ॥ आपहि एक आपहि अनेक ॥ मरै न बिनसै आवै न जाइ ॥ नानक सद ही रहिआ समाइ ॥६॥
मूलम्
करन करावन करनैहारु ॥ इस कै हाथि कहा बीचारु ॥ जैसी द्रिसटि करे तैसा होइ ॥ आपे आपि आपि प्रभु सोइ ॥ जो किछु कीनो सु अपनै रंगि ॥ सभ ते दूरि सभहू कै संगि ॥ बूझै देखै करै बिबेक ॥ आपहि एक आपहि अनेक ॥ मरै न बिनसै आवै न जाइ ॥ नानक सद ही रहिआ समाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = कहां? बीचारु = विचार कर, विचार के देख। द्रिसटि = नजर। अपनै रंगि = अपनी मौज में। सभहू कै = सभी के ही। संगि = साथ। बिबेक = पहचान, परख। आपहि = आप ही। आवै न जाइ = ना आता है ना जाता है, ना पैदा होता है ना मरता है। सद ही = सदा ही। रहिआ समाइ = समाए रहा, अपने आप में टिका हुआ है।6।
अर्थ: विचार के देख ले, इस जीव के हाथ में कुछ भी नहीं है, प्रभु खुद ही सब कुछ करने योग्य है, और (जीवों से) करवाने के समर्थ है।
प्रभु जैसी नजर (बंदे पर) करता है (बंदा) वैसा ही बन जाता है, वह प्रभु स्वयं ही स्वयं है।
जो कुछ उसने बनाया है अपनी मौज में बनाया है; सब जीवों के अंग संग भी है और सबसे अलग भी है।
प्रभु स्वयं ही एक है और स्वयं ही अनेक (रूप) धार रहा है, सब कुछ समझता है, देखता है और पहचानता है।
वह ना कभी मरता है ना बिनसता है; ना पैदा होता है ना मरता है; हे नानक! प्रभु सदा ही अपने आप में टिका रहता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि उपदेसै समझै आपि ॥ आपे रचिआ सभ कै साथि ॥ आपि कीनो आपन बिसथारु ॥ सभु कछु उस का ओहु करनैहारु ॥ उस ते भिंन कहहु किछु होइ ॥ थान थनंतरि एकै सोइ ॥ अपुने चलित आपि करणैहार ॥ कउतक करै रंग आपार ॥ मन महि आपि मन अपुने माहि ॥ नानक कीमति कहनु न जाइ ॥७॥
मूलम्
आपि उपदेसै समझै आपि ॥ आपे रचिआ सभ कै साथि ॥ आपि कीनो आपन बिसथारु ॥ सभु कछु उस का ओहु करनैहारु ॥ उस ते भिंन कहहु किछु होइ ॥ थान थनंतरि एकै सोइ ॥ अपुने चलित आपि करणैहार ॥ कउतक करै रंग आपार ॥ मन महि आपि मन अपुने माहि ॥ नानक कीमति कहनु न जाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रचिआ = मिला हुआ। बिसथारु = विस्तार। आपन = अपना। करनैहारु = करने के लायक। भिन्न = अलग। कहहु = बताओ। किछु = कुछ। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। चलित = चरित्र, तमाशे, खेलें। आपार = बेअंत। कीमति = मूल्य।7।
अर्थ: प्रभु खुद ही सब जीवों के साथ मिला हुआ है, (सो वह) स्वयं ही शिक्षा देता है और स्वयं ही (उस शिक्षा को) समझता है।
अपना फैलाव उसने खुद ही बनाया है, (जगत की) हरेक शै उसकी बनाई हुई है, वह बनाने के काबिल है।
बताओ, उससे अलग कुछ हो सकता है? हर जगह वह प्रभु खुद ही (मौजूद) है।
अपने खेल आप ही करने के लायक है, बेअंत रंगों के तमाशे करता है।
(जीवों के) मन में स्वयं बस रहा है, (जीवों को) अपने मन में टिकाए बैठा है; हे नानक! उसका मूल्य बताया नहीं जा सकता।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति सति सति प्रभु सुआमी ॥ गुर परसादि किनै वखिआनी ॥ सचु सचु सचु सभु कीना ॥ कोटि मधे किनै बिरलै चीना ॥ भला भला भला तेरा रूप ॥ अति सुंदर अपार अनूप ॥ निरमल निरमल निरमल तेरी बाणी ॥ घटि घटि सुनी स्रवन बख्याणी ॥ पवित्र पवित्र पवित्र पुनीत ॥ नामु जपै नानक मनि प्रीति ॥८॥१२॥
मूलम्
सति सति सति प्रभु सुआमी ॥ गुर परसादि किनै वखिआनी ॥ सचु सचु सचु सभु कीना ॥ कोटि मधे किनै बिरलै चीना ॥ भला भला भला तेरा रूप ॥ अति सुंदर अपार अनूप ॥ निरमल निरमल निरमल तेरी बाणी ॥ घटि घटि सुनी स्रवन बख्याणी ॥ पवित्र पवित्र पवित्र पुनीत ॥ नामु जपै नानक मनि प्रीति ॥८॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। किनै = किसी विरले ने। वखिआनी = बयान की है। सचु = सदा टिका रहने वाला, मुकंमल। चीना = पहिचाना है। अनूप = जिस जैसा और कोई नहीं। स्रवन = कानों (से)। बख्याणी = (जीभ से) बखान की जाती है। पुनीत = पवित्र।8।
अर्थ: (सब का) मालिक प्रभु सदा ही कायम रहने वाला है, गुरु की मेहर से किसी विरले ने (ये बात) बताई है।
जो कुछ उसने बनाया है वह भी मुकंमल है (संपूर्ण है, अधूरा नहीं) ये बात करोड़ों में से किसी विरले ने पहिचानी है।
हे अत्यंत सुंदर, बेअंत और बेमिसाल प्रभु! तेरा रूप क्या प्यारा प्यारा है?
तेरी बोली भी मीठी मीठी है, हरेक शरीर में कानों द्वारा सुनी जा रही है, और जीभ से उचारी जा रही है (भाव, हरेक शरीर में तू खुद ही बोल रहा है)।
हे नानक! (जो ऐसे प्रभु का) नाम प्रीति से मन में जपता है, वह पवित्र ही पवित्र हो जाता है।8।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ॥ संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ॥ संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनु = मनुष्य। परै = पड़ता है। उधरनहारु = (माया के हमले से) बचने के लायक। बहुरि बहुरि = बार बार। अवतार = जनम।1।
अर्थ: जो मनुष्य संतों की शरण पड़ता है, वह माया के बंधनों से बच जाता है; (पर) हे नानक! संतों की निंदा करने से बार बार पैदा होना पड़ता है (भाव, जनम मरन के चक्कर में पड़ जाते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ संत कै दूखनि आरजा घटै ॥ संत कै दूखनि जम ते नही छुटै ॥ संत कै दूखनि सुखु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नरक महि पाइ ॥ संत कै दूखनि मति होइ मलीन ॥ संत कै दूखनि सोभा ते हीन ॥ संत के हते कउ रखै न कोइ ॥ संत कै दूखनि थान भ्रसटु होइ ॥ संत क्रिपाल क्रिपा जे करै ॥ नानक संतसंगि निंदकु भी तरै ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ संत कै दूखनि आरजा घटै ॥ संत कै दूखनि जम ते नही छुटै ॥ संत कै दूखनि सुखु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नरक महि पाइ ॥ संत कै दूखनि मति होइ मलीन ॥ संत कै दूखनि सोभा ते हीन ॥ संत के हते कउ रखै न कोइ ॥ संत कै दूखनि थान भ्रसटु होइ ॥ संत क्रिपाल क्रिपा जे करै ॥ नानक संतसंगि निंदकु भी तरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूखनि = दूखन से, निंदा से। आरजा = उम्र। छुटै = बच सकता। मलीन = मैली, बुरी। मति = अक्ल, समझ। हीन = वंचित, ना होना। हते कउ = मारे को, धिक्कारे को। रखै = रख सकता, सहायता करता। थान = (हृदय रूपी) जगह। भ्रसटु = गंदा।1।
अर्थ: संत की निंदा करने से (मनुष्य की) उम्र (व्यर्थ ही) गुजर जाती है, (क्योंकि) संत की निंदा करने से जमों से बच नहीं सकता।
संत की निंदा करने से सारा (ही) सुख (नाश हो) जाता है, और मनुष्य नरक में (भाव, घोर दुखों में) पड़ जाता है।
संत की निंदा करने से (मनुष्य की) मति मैली हो जाती है, और (जगत में) मनुष्य शोभा से वंचित रह जाता है।
संत के धिक्कारे हुए आदमी की कोई मनुष्य सहायता नहीं कर सकता, (क्योंकि) संत की निंदा करने से (निंदक का) हृदय गंदा हो जाता है।
(पर) अगर कृपालु संत स्वयं कृपा करे तो, हे नानक! संत की संगति में निंदक भी (पापों से) बच जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत के दूखन ते मुखु भवै ॥ संतन कै दूखनि काग जिउ लवै ॥ संतन कै दूखनि सरप जोनि पाइ ॥ संत कै दूखनि त्रिगद जोनि किरमाइ ॥ संतन कै दूखनि त्रिसना महि जलै ॥ संत कै दूखनि सभु को छलै ॥ संत कै दूखनि तेजु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नीचु नीचाइ ॥ संत दोखी का थाउ को नाहि ॥ नानक संत भावै ता ओइ भी गति पाहि ॥२॥
मूलम्
संत के दूखन ते मुखु भवै ॥ संतन कै दूखनि काग जिउ लवै ॥ संतन कै दूखनि सरप जोनि पाइ ॥ संत कै दूखनि त्रिगद जोनि किरमाइ ॥ संतन कै दूखनि त्रिसना महि जलै ॥ संत कै दूखनि सभु को छलै ॥ संत कै दूखनि तेजु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नीचु नीचाइ ॥ संत दोखी का थाउ को नाहि ॥ नानक संत भावै ता ओइ भी गति पाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूखन ते = निंदा करने से। मुखु भवै = मुंह धिक्कारा जाता है। काग जिउ = कौए की तरह। लवै = लब लब करता है, भाव निंदा करने की आदत पड़ जाती है। सरप = सर्प। त्रिगद = (संस्कृत: तिर्यच्) पशु पक्षी की जूनि। किरमाइ = कृमि आदि। त्रिसना = लालच। जलै = जलता है। सभु को = हरेक प्राणी को। छलै = धोखा देता है। नीचु नीचाइ = नीचों से नीच, बहुत बुरा। दोखी = निंदक। ओइ = निंदा करने वाले। पाहि = पा लेते हैं।2।
अर्थ: संत की निंदा करने से (निंदक का) चेहरा ही भ्रष्ट हो जाता है, (और निंदक) (जगह-जगह) कौए की तरह लब-लब करता है (निंदा के वचन बोलता फिरता है)।
संत की निंदा करने से (खोटा स्वभाव बन जाने से) मनुष्य सांप की जोनि जा पड़ता है, और कृमि आदि छोटी जोनियों में भटकता है।
संत की निंदा के कारण (निंदक) तृष्णा (की आग) में जलता भुनता है, और हरेक मनुष्य को धोखा देता फिरता है।
संत की निंदा करने से सारा तेज प्रताप ही नष्ट हो जाता है और (निंदक) महा नीच बन जाता है।
संत की निंदा करने वालों का कोई आसरा नहीं रहता; (हाँ) हे नानक! अगर संतों को भाए तो वे निंदक भी बढ़िया अवस्था में पहुँच जाते हैं।2।
[[0280]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत का निंदकु महा अतताई ॥ संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई ॥ संत का निंदकु महा हतिआरा ॥ संत का निंदकु परमेसुरि मारा ॥ संत का निंदकु राज ते हीनु ॥ संत का निंदकु दुखीआ अरु दीनु ॥ संत के निंदक कउ सरब रोग ॥ संत के निंदक कउ सदा बिजोग ॥ संत की निंदा दोख महि दोखु ॥ नानक संत भावै ता उस का भी होइ मोखु ॥३॥
मूलम्
संत का निंदकु महा अतताई ॥ संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई ॥ संत का निंदकु महा हतिआरा ॥ संत का निंदकु परमेसुरि मारा ॥ संत का निंदकु राज ते हीनु ॥ संत का निंदकु दुखीआ अरु दीनु ॥ संत के निंदक कउ सरब रोग ॥ संत के निंदक कउ सदा बिजोग ॥ संत की निंदा दोख महि दोखु ॥ नानक संत भावै ता उस का भी होइ मोखु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अतताई = अति करने वाला, सदा कोई ना कोई जुलम करने वाला। टिकनु = टिकाव। हतिआरा = हत्यारा, जालिम। परमेसुरि = ईश्वर की ओर से। मारा = धिक्कारा हुआ। हीनु = वंचित हुआ। दीन = कंगाल, आतुर। बिजोग = (ईश्वर की ओर से) विछोड़ा। दोख महि दोखु = बहुत बुरा काम। मोखु = मोक्ष, मुक्ति, (निंदा से) छुटकारा।3।
अर्थ: संत की निंदा करने वाला सदा अति किए रखता है, और एक पलक भर भी (अपनी अत्याचारी आदत) से बाज नहीं आता।
संत का निंदक बड़ा जालिम बन जाता है, और रब द्वारा धिक्कारा जाता है।
संत का निंदक राज (भाव, दुनिया के सुखों) से वंचित रहता है, (सदा) दुखी और आतुर रहता है।
संत की निंदा करने वाले को सारे रोग व्याप्ते हैं (क्योंकि) उसका (सुखों के श्रोत प्रभु से) सदा विछोड़ा बना रहता है।
संत की निंदा करनी बहुत ही बुरा काम है। हे नानक! अगर संतों को भाए तो उस (निंदक) का भी (निंदा से) छुटकारा हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत का दोखी सदा अपवितु ॥ संत का दोखी किसै का नही मितु ॥ संत के दोखी कउ डानु लागै ॥ संत के दोखी कउ सभ तिआगै ॥ संत का दोखी महा अहंकारी ॥ संत का दोखी सदा बिकारी ॥ संत का दोखी जनमै मरै ॥ संत की दूखना सुख ते टरै ॥ संत के दोखी कउ नाही ठाउ ॥ नानक संत भावै ता लए मिलाइ ॥४॥
मूलम्
संत का दोखी सदा अपवितु ॥ संत का दोखी किसै का नही मितु ॥ संत के दोखी कउ डानु लागै ॥ संत के दोखी कउ सभ तिआगै ॥ संत का दोखी महा अहंकारी ॥ संत का दोखी सदा बिकारी ॥ संत का दोखी जनमै मरै ॥ संत की दूखना सुख ते टरै ॥ संत के दोखी कउ नाही ठाउ ॥ नानक संत भावै ता लए मिलाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपवितु = मैले मन वाला, खोटा। डानु = दण्ड (धर्मराज का)। सभ तिआगै = सारे साथ छोड़ जाते हैं। बिकारी = बुरे कामों वाला। दूखना = निंदा। टरै = टलै, टल जाए, वंचित रह जाता है। ठाउ = स्थान, सहारा।4।
अर्थ: संत का निंदक सदा मैले मन वाला है (तभी) वह (कभी) किसी का सज्जन नहीं बनता। (अंत समय) संत के निंदक को (धर्मराज से) सजा मिलती है और सारे उसका साथ छोड़ जाते हैं।
संत की निंदा करने वाला बड़े गुरूर वाला (अकड़ वाला) बन जाता है और सदा बुरे काम करता है।
(इन औगुणों में) संत का निंदक पैदा होता मरता रहता है, और संत की निंदा के कारण सुखों से वंचित रहता है।
संत के निंदक को कोई सहारा नहीं मिलता, (पर हाँ), हे नानक! अगर संत चाहे अपने साथ उस (निंदक) को मिला लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत का दोखी अध बीच ते टूटै ॥ संत का दोखी कितै काजि न पहूचै ॥ संत के दोखी कउ उदिआन भ्रमाईऐ ॥ संत का दोखी उझड़ि पाईऐ ॥ संत का दोखी अंतर ते थोथा ॥ जिउ सास बिना मिरतक की लोथा ॥ संत के दोखी की जड़ किछु नाहि ॥ आपन बीजि आपे ही खाहि ॥ संत के दोखी कउ अवरु न राखनहारु ॥ नानक संत भावै ता लए उबारि ॥५॥
मूलम्
संत का दोखी अध बीच ते टूटै ॥ संत का दोखी कितै काजि न पहूचै ॥ संत के दोखी कउ उदिआन भ्रमाईऐ ॥ संत का दोखी उझड़ि पाईऐ ॥ संत का दोखी अंतर ते थोथा ॥ जिउ सास बिना मिरतक की लोथा ॥ संत के दोखी की जड़ किछु नाहि ॥ आपन बीजि आपे ही खाहि ॥ संत के दोखी कउ अवरु न राखनहारु ॥ नानक संत भावै ता लए उबारि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अध बीच ते टूटे = आधे में से। कितै काजि = किसी काम काज में। उदिआन = जंगल। भ्रमाईऐ = भटकाते हैं। उझड़ि = उजाड़ में, गलत रास्ते पर। थोथा = खाली। मिरतक = मुर्दा। जड़ = पक्की नींव, पाए। बीजि = बीज के,कमाई करके। खाहि = खाते हैं। संत भावै = संत को ठीक लगे। लए उबारि = उबार ले, बचा लेता है।5।
अर्थ: संत की निंदा करने वाले का कोई काम सिरे नहीं चढ़ता, आधे बीच में ही रह जाता है।
संत के निंदक को, (मानो) जंगलों में परेशान किया जाता है और (राह से विछोड़ के) उजाड़ में डाल देते हैं।
जैसे प्राणों के बिना मुर्दा शव है, वैसे ही संत का निंदक अंदर से (असली जिंदगी से जो मनुष्य का आधार है) खाली होता है।
संत के निंदकों की (नेक कमाई और स्मरण वाली) कोई पक्की नींव नहीं होती, खुद ही (निंदा की) कमाई करके खुद ही (उसका बुरा फल) खाते हैं।
संत की निंदा करने वाले को कोई और मनुष्य (निंदा की वादी से) बचा नहीं सकता, (पर) हे नानक! अगर संत चाहे तो (निंदक को निंदा के स्वभाव से) बचा सकता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत का दोखी इउ बिललाइ ॥ जिउ जल बिहून मछुली तड़फड़ाइ ॥ संत का दोखी भूखा नही राजै ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै ॥ संत का दोखी छुटै इकेला ॥ जिउ बूआड़ु तिलु खेत माहि दुहेला ॥ संत का दोखी धरम ते रहत ॥ संत का दोखी सद मिथिआ कहत ॥ किरतु निंदक का धुरि ही पइआ ॥ नानक जो तिसु भावै सोई थिआ ॥६॥
मूलम्
संत का दोखी इउ बिललाइ ॥ जिउ जल बिहून मछुली तड़फड़ाइ ॥ संत का दोखी भूखा नही राजै ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै ॥ संत का दोखी छुटै इकेला ॥ जिउ बूआड़ु तिलु खेत माहि दुहेला ॥ संत का दोखी धरम ते रहत ॥ संत का दोखी सद मिथिआ कहत ॥ किरतु निंदक का धुरि ही पइआ ॥ नानक जो तिसु भावै सोई थिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिललाइ = बिलकता है। बिहून = बिना। तड़फड़ाइ = तड़फती है। भूखा = तृष्णालु, तृष्णा का मारा हुआ। राजै = तृप्त होता है। पावकु = आग। ध्रापै = तृप्त होती। ईधनि = ईधन से। छुटै = पड़ा रहता है। बूआड़ु = (सं: ब्युष्ट, Burnt) जला हुआ, जिसकी फली बीच में जली हुई हो। दुहेला = दुखी। मिथिआ = झूठ। किरतु = (संस्कृत) किए हुए काम का फल। धुरि ही = शुरू से ही (जब से कोई काम किया गया है)। तिसु = उस प्रभु को।6।
अर्थ: संत का निंदक ऐसे बिलकता है जैसे पानी के बिना मछली तड़फती है। संत का निंदक तृष्णा का मारा हुआ कभी संतुष्ट नहीं होता, जैसे आग ईधन से तृप्त नहीं होती (भाव, संत को शोभा का जला हुआ ईष्या के कारण निंदा करता है और ये ईरखा कम नहीं होती)।
जैसे अंदर से जला हुआ तिल का पौधा खेत में ही दुत्कारा सा पड़ा रहता है वैसे ही संत का निंदक भी अकेला त्यागा हुआ पड़ा रहता है (कोई उसके नजदीक नहीं आता)।
संत का निंदक धर्म से हीन होता है और सदा झूठ बोलता है। (पर) पहली की हुई निंदा का ये फल (-रूपी स्वभाव) निंदक का आरम्भ से ही (जब से उसने निंदा का काम पकड़ा) चला आ रहा है (सो, उस स्वभाव के कारण बिचारा और करे भी तो क्या?) हे नानक! (ये मालिक की रजा है) जो उसे ठीक लगता है वही होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत का दोखी बिगड़ रूपु होइ जाइ ॥ संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ ॥ संत का दोखी सदा सहकाईऐ ॥ संत का दोखी न मरै न जीवाईऐ ॥ संत के दोखी की पुजै न आसा ॥ संत का दोखी उठि चलै निरासा ॥ संत कै दोखि न त्रिसटै कोइ ॥ जैसा भावै तैसा कोई होइ ॥ पइआ किरतु न मेटै कोइ ॥ नानक जानै सचा सोइ ॥७॥
मूलम्
संत का दोखी बिगड़ रूपु होइ जाइ ॥ संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ ॥ संत का दोखी सदा सहकाईऐ ॥ संत का दोखी न मरै न जीवाईऐ ॥ संत के दोखी की पुजै न आसा ॥ संत का दोखी उठि चलै निरासा ॥ संत कै दोखि न त्रिसटै कोइ ॥ जैसा भावै तैसा कोई होइ ॥ पइआ किरतु न मेटै कोइ ॥ नानक जानै सचा सोइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिगड़ रूपु = बिगड़े हुए रूप वाला, भ्रष्टा हुआ। सहकाईऐ = सहकता है, तरले लेता है आतुर होता है। पुजै न = सिरे नहीं चढ़ती। त्रिसटै = संतुष्ट होता। जैसा भावै = जैसी भावना वाला होता है। पइआ किरतु = पिछले किए (बुरे कर्मों) का एकत्र हुआ फल।7।
अर्थ: संतों की निंदा करने वाला भ्रष्टा जाता है, प्रभु की दरगाह में उसको सजा मिलती है।
संत का निंदक सदा आतुर (सिसकता) रहता है, ना वह जीवितों में ना ही मरों में होता है।
संत के निंदक की आस कभी पूरी नहीं होती, जगत से निराश ही चला जाता है (भला संतों वाली शोभा उसे कैसे मिले?)।
जैसी मनुष्य की नीयति होती है, वैसा उसका स्वभाव बन जाता है (इस वास्ते) संत की निंदा करने कोई मनुष्य (निंदा की) इस प्यास से नहीं बचता।
(बचे भी कैसे?) पीछे की हुई (बुरी) कमाई के इकट्ठे हुए (स्वभाव रूपी) फल को कोई मिटा नहीं सकता। हे नानक! (इस भेद को) वह सच्चा प्रभु जानता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ घट तिस के ओहु करनैहारु ॥ सदा सदा तिस कउ नमसकारु ॥ प्रभ की उसतति करहु दिनु राति ॥ तिसहि धिआवहु सासि गिरासि ॥ सभु कछु वरतै तिस का कीआ ॥ जैसा करे तैसा को थीआ ॥ अपना खेलु आपि करनैहारु ॥ दूसर कउनु कहै बीचारु ॥ जिस नो क्रिपा करै तिसु आपन नामु देइ ॥ बडभागी नानक जन सेइ ॥८॥१३॥
मूलम्
सभ घट तिस के ओहु करनैहारु ॥ सदा सदा तिस कउ नमसकारु ॥ प्रभ की उसतति करहु दिनु राति ॥ तिसहि धिआवहु सासि गिरासि ॥ सभु कछु वरतै तिस का कीआ ॥ जैसा करे तैसा को थीआ ॥ अपना खेलु आपि करनैहारु ॥ दूसर कउनु कहै बीचारु ॥ जिस नो क्रिपा करै तिसु आपन नामु देइ ॥ बडभागी नानक जन सेइ ॥८॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घट = शरीर। तिस के = उस प्रभु के। ओह = वह प्रभु। उसतति = महिमा, बड़ाई। सासि गिरासि = साँस अंदर बाहर लेते हुए। थीआ = हो जाता है। दूसरु = दूसरा। बीचारु = ख्याल। जन सोइ = साई जन, वह मनुष्य (बहुवचन)। को = कोई, हरेक जीव।8।
अर्थ: सारे जीव-जंतु उस प्रभु के हैं, वही सब कुछ करने के समर्थ हैं, सदा उस प्रभु के आगे सिर निवाओ।
दिन रात प्रभु के गुण गाओ, हर दम के साथ उसे याद करो।
(जगत में) हरेक खेल उसी की चलाई हुई चल रही है, प्रभु (जीव को) जैसा बनाता है वैसा ही हरेक जीव बन जाता है।
(जगत रूपी) अपनी खेल खुद ही करने के काबिल है। कौन कोई दूसरा उसे सलाह दे सकता है?
जिस जिस जीव पर मेहर करता है उस उस को अपना नाम बख्शता है; और, हे नानक! वह मनुष्य बड़े भाग्यशाली हो जाते हैं।8।13।
[[0281]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥ एक आस हरि मनि रखहु नानक दूखु भरमु भउ जाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥ एक आस हरि मनि रखहु नानक दूखु भरमु भउ जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिआनप = चतुराई, अक्ल का मान। सुरि जनहु = हे भले पुरुषो! एक आस हरि = एक हरि आस, एक प्रभु की आशा। मनि = मन में। भरमु = भुलेखा। भउ = डर। जाइ = दूर हो जाता है।1।
अर्थ: हे भले मनुष्यो! चतुराई त्यागो और अकाल-पुरख को स्मरण करो। केवल एक प्रभु की आशा मन में रखो। हे नानक! (इस तरह) दुख वहिम और डर दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥ देवन कउ एकै भगवानु ॥ जिस कै दीऐ रहै अघाइ ॥ बहुरि न त्रिसना लागै आइ ॥ मारै राखै एको आपि ॥ मानुख कै किछु नाही हाथि ॥ तिस का हुकमु बूझि सुखु होइ ॥ तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ॥ नानक बिघनु न लागै कोइ ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥ देवन कउ एकै भगवानु ॥ जिस कै दीऐ रहै अघाइ ॥ बहुरि न त्रिसना लागै आइ ॥ मारै राखै एको आपि ॥ मानुख कै किछु नाही हाथि ॥ तिस का हुकमु बूझि सुखु होइ ॥ तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ॥ नानक बिघनु न लागै कोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेक = आसरा। ब्रिथी = व्यर्थ। जानु = समझ। एकै = एक ही। रहै अघाइ = संतुष्ट रहता है, तृप्त रहता है। बहुरि = दुबारा। हाथि = हाथ में, वश में। बूझि = समझ के। कंठि = गले में। रखु कंठि परोइ = हर समय याद कर। बिघनु = रुकावट।1।
अर्थ: (हे मन!) (किसी) मनुष्य का आसरा बिल्कुल ही व्यर्थ समझ, एक अकाल-पुरख ही (सब जीवों को) देने वाला है (समर्थ है)।
जिसके देने से (मनुष्य) तृप्त रहता है और दुबारा उसे लालच आ के नहीं दबाती।
प्रभु खुद ही (जीवों को) मारता है (अथवा) पालता है, मनुष्य के वश में कुछ भी नहीं है।
(इसलिए) उस मालिक का हुक्म समझ के सुख होता है। (हे मन!) उसका नाम हर वक्त याद कर।
उस प्रभु को सदा स्मरण कर। हे नानक! (नाम जपने की इनायत से) (जिंदगी के सफर में) कोई रुकावट नहीं पड़ती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उसतति मन महि करि निरंकार ॥ करि मन मेरे सति बिउहार ॥ निरमल रसना अम्रितु पीउ ॥ सदा सुहेला करि लेहि जीउ ॥ नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु ॥ साधसंगि बिनसै सभ संगु ॥ चरन चलउ मारगि गोबिंद ॥ मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥ कर हरि करम स्रवनि हरि कथा ॥ हरि दरगह नानक ऊजल मथा ॥२॥
मूलम्
उसतति मन महि करि निरंकार ॥ करि मन मेरे सति बिउहार ॥ निरमल रसना अम्रितु पीउ ॥ सदा सुहेला करि लेहि जीउ ॥ नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु ॥ साधसंगि बिनसै सभ संगु ॥ चरन चलउ मारगि गोबिंद ॥ मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥ कर हरि करम स्रवनि हरि कथा ॥ हरि दरगह नानक ऊजल मथा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = बड़ाई, महिमा। सति = सच्चा। बिउहार = व्यवहार। रसना = जीभ से। सुहेला = आसान, सुखी। जीउ = जिंद। नैनहु = आँखों से। रंगु = तमाशा, खेल। साध संगि = साधुओं की संगति में। सभ संगु = और सब संग, अन्य सभी का संग, और सभ का मोह। चलउ = चलो। मारगि = रास्ते पर। बिंद = रक्ती भर, थोड़ा सा। कर = हाथों से। करम = काम। स्रवनि = कानों से।2।
अर्थ: अपने अंदर अकाल-पुरख की महिमा कर। हे मेरे मन! ये सच्चा व्यवहार कर।
जीभ से मीठा (नाम-) अमृत पी, (इस तरह) अपनी जान को सदा सुखी कर ले।
आँखों से अकाल-पुरख का (जगत-) तमाशा देख, भलों की संगति में (टिकने से) और (कुटंब आदि का) मोह मिट जाता है।
पैरों से ईश्वर के रास्ते पर चल। प्रभु को रक्ती भर भी जपें तो पाप दूर हो जाते हैं।
हाथों से प्रभु (के राह) के काम कर और कानों से उसकी उपमा (सुन); (इस तरह) हे नानक! प्रभु की दरगाह में सुर्ख-रू हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बडभागी ते जन जग माहि ॥ सदा सदा हरि के गुन गाहि ॥ राम नाम जो करहि बीचार ॥ से धनवंत गनी संसार ॥ मनि तनि मुखि बोलहि हरि मुखी ॥ सदा सदा जानहु ते सुखी ॥ एको एकु एकु पछानै ॥ इत उत की ओहु सोझी जानै ॥ नाम संगि जिस का मनु मानिआ ॥ नानक तिनहि निरंजनु जानिआ ॥३॥
मूलम्
बडभागी ते जन जग माहि ॥ सदा सदा हरि के गुन गाहि ॥ राम नाम जो करहि बीचार ॥ से धनवंत गनी संसार ॥ मनि तनि मुखि बोलहि हरि मुखी ॥ सदा सदा जानहु ते सुखी ॥ एको एकु एकु पछानै ॥ इत उत की ओहु सोझी जानै ॥ नाम संगि जिस का मनु मानिआ ॥ नानक तिनहि निरंजनु जानिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते जन = वे लोग। गाहि = गाते हैं। सो = वह मनुष्य। गनी = ग़नी, धनाढ। मुखी = चुनिंदा अच्छे लोग। ते = उन्हें। इत उत की = लोक परलोक की। मानिआ = पतीजा। तिनहि = तिन ही, उसी ने। जानिआ = समझा है।3।
अर्थ: (जो मनुष्य) सदा ही प्रभु के गुण गाते हैं, वह मनुष्य जगत में बड़े भाग्यशाली हैं।
वह मनुष्य जगत में धनवान हैं जो संतुष्ट हैं जो अकाल-पुरख के नाम का ध्यान धरते हैं।
जो भले लोग मन तन और मुख से प्रभु का नाम उचारते हैं, उन्हें सदा सुखी जानो।
जो मनुष्य केवल एक प्रभु को (हर जगह) पहिचानता है, उसे लोक परलोक की (भाव, जीवन के सारे सफर की) समझ पड़ जाती है।
जिस मनुष्य का मन प्रभु के नाम से रच-मिच जाता है, हे नानक! उसने प्रभु को पहिचान लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर प्रसादि आपन आपु सुझै ॥ तिस की जानहु त्रिसना बुझै ॥ साधसंगि हरि हरि जसु कहत ॥ सरब रोग ते ओहु हरि जनु रहत ॥ अनदिनु कीरतनु केवल बख्यानु ॥ ग्रिहसत महि सोई निरबानु ॥ एक ऊपरि जिसु जन की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥ पारब्रहम की जिसु मनि भूख ॥ नानक तिसहि न लागहि दूख ॥४॥
मूलम्
गुर प्रसादि आपन आपु सुझै ॥ तिस की जानहु त्रिसना बुझै ॥ साधसंगि हरि हरि जसु कहत ॥ सरब रोग ते ओहु हरि जनु रहत ॥ अनदिनु कीरतनु केवल बख्यानु ॥ ग्रिहसत महि सोई निरबानु ॥ एक ऊपरि जिसु जन की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥ पारब्रहम की जिसु मनि भूख ॥ नानक तिसहि न लागहि दूख ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूझै = सूझ जाए, समझ आ जाए। बुझै = मिट जाती है। जसु = यश, बड़ाई। हरि जनु = प्रभु का सेवक। सरब रोग ते रहत = सारे रोगों से बचा हुआ। अनदिनु = हर रोज। बख्यानु = व्याख्यान, उच्चारण। निरबानु = निर्वाण, वासना से रहित। जिसु मनि = जिस मनुष्य के मन में। तिसहि = उस मनुष्य को।4।
अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु की कृपा से अपने आप की समझ आ जाती है, ये जान लो कि उसकी तृष्णा मिट जाती है।
जो रब का प्यारा सत्संग में अकाल-पुरख की महिमा करता है, वह सारे रोगों से बच जाता है।
जो मनुष्य हर रोज प्रभु का कीर्तन ही उचारता है, वह मनुष्य गृहस्थ में (रहता हुआ भी) निर्लिप है।
जिस मनुष्य की आस एक अकाल-पुरख पर है, उसके जमों की फासी काटी जाती है।
जिस मनुष्य के मन में प्रभु (के मिलने) की तमन्ना है, हे नानक! उस मनुष्य को कोई दुख नहीं छूता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस कउ हरि प्रभु मनि चिति आवै ॥ सो संतु सुहेला नही डुलावै ॥ जिसु प्रभु अपुना किरपा करै ॥ सो सेवकु कहु किस ते डरै ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाइआ ॥ अपुने कारज महि आपि समाइआ ॥ सोधत सोधत सोधत सीझिआ ॥ गुर प्रसादि ततु सभु बूझिआ ॥ जब देखउ तब सभु किछु मूलु ॥ नानक सो सूखमु सोई असथूलु ॥५॥
मूलम्
जिस कउ हरि प्रभु मनि चिति आवै ॥ सो संतु सुहेला नही डुलावै ॥ जिसु प्रभु अपुना किरपा करै ॥ सो सेवकु कहु किस ते डरै ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाइआ ॥ अपुने कारज महि आपि समाइआ ॥ सोधत सोधत सोधत सीझिआ ॥ गुर प्रसादि ततु सभु बूझिआ ॥ जब देखउ तब सभु किछु मूलु ॥ नानक सो सूखमु सोई असथूलु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुहेला = सुखी। किस ते = किस से? द्रिसटाइआ = दृष्टि आया, नजर आया, दिखा। सोधत = विचार करते हुए। सीझिआ = कामयाबी हो जाती है, सफलता हो जाती है। ततु = अस्लियत (संस्कृत: तत्वं, The real nature of the human soul or the material world as being identical with the Supreme Spirit pervading the universe. 2. The supreme being)। सूखमु = सुक्ष्मं, the subtle all pervading spirit, the Supreme Soul, सर्व-व्यापक ज्योति। असथूलु = दृष्टमान जगत (सं: स्थुल = Gross Coarse, rough)। कारज = किया हुआ जगत।5।
अर्थ: जिस मनुष्य को हरि प्रभु मन में सदा याद रहता है, वह संत है, सुखी है (वह कभी) घबराता नहीं।
जिस मनुष्य पर प्रभु अपनी मेहर करता है, बताओ (प्रभु का) वह सेवक (और) किस से डर सकता है?
(क्योंकि) उसे प्रभु वैसा ही दिखाई देता है, जैसा वह (असल में) है, (भाव, ये दिख पड़ता है कि) अपने रचे हुए जगत में स्वयं व्यापक है।
नित्य विचार करते हुए (उस सेवक को विचार में) सफलता मिल जाती है, (भाव) गुरु की कृपा से (उसे) सारी अस्लियत की समझ आ जाती है।
हे नानक! (मेरे ऊपर भी गुरु की मेहर हुई है, अब) मैं जग देखता हूँ तो हरेक चीज उस सब के आरम्भ (-प्रभु का रूप दिखती है), ये दिखता संसार भी वह स्वयं है और सब में व्यापक ज्योति भी खुद ही है।5।
[[0282]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह किछु जनमै नह किछु मरै ॥ आपन चलितु आप ही करै ॥ आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ॥ आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥ आपे आपि सगल महि आपि ॥ अनिक जुगति रचि थापि उथापि ॥ अबिनासी नाही किछु खंड ॥ धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥ अलख अभेव पुरख परताप ॥ आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥
मूलम्
नह किछु जनमै नह किछु मरै ॥ आपन चलितु आप ही करै ॥ आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ॥ आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥ आपे आपि सगल महि आपि ॥ अनिक जुगति रचि थापि उथापि ॥ अबिनासी नाही किछु खंड ॥ धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥ अलख अभेव पुरख परताप ॥ आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चलितु = तमाशा, खेल। आवनु जावनु = जनम मरन। द्रिसटि = दिखता जगत, अस्थूल संसार। अनद्रिसटि = ना दिखता संसार, सूक्ष्म जगत। आगिआकारी = हुक्म में चलने वाली। धारी = टिकाई है। जुगति = तरीकों से। उथापि = नाश करता है। खंड = टुकड़ा, नाश। धारण धारि रहिओ ब्रहमंड = ब्रहमंड (की) धारण धार रहिओ। अलख = जो बयान ना हो सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। त = तो।6।
अर्थ: ना कुछ पैदा होता है ना कुछ मरता है; (ये जनम मरन का तो) प्रभु स्वयं ही खेल कर रहा है।
पैदा होना, मरना, दिखाई देता और ना दिखाई देता- ये सारा संसार प्रभु ने अपने हुक्म में चलने वाला बना दिया है।
सारे जीवों में केवल खुद ही है, अनेक ढंगों से (जगत को) बना बना के नाश भी कर देता है।
प्रभु स्वयं अविनाशी है; उस का कुछ नाश नहीं होता, सारे ब्रहमंड की रचना भी स्वयं ही रच रहा है।
उस व्यापक प्रभु के प्रताप का भेद नहीं पाया जा सकता, बयान नहीं हो सकता; हे नानक! अगर वह स्वयं अपना जाप कराए तो ही जीव जाप करते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन प्रभु जाता सु सोभावंत ॥ सगल संसारु उधरै तिन मंत ॥ प्रभ के सेवक सगल उधारन ॥ प्रभ के सेवक दूख बिसारन ॥ आपे मेलि लए किरपाल ॥ गुर का सबदु जपि भए निहाल ॥ उन की सेवा सोई लागै ॥ जिस नो क्रिपा करहि बडभागै ॥ नामु जपत पावहि बिस्रामु ॥ नानक तिन पुरख कउ ऊतम करि मानु ॥७॥
मूलम्
जिन प्रभु जाता सु सोभावंत ॥ सगल संसारु उधरै तिन मंत ॥ प्रभ के सेवक सगल उधारन ॥ प्रभ के सेवक दूख बिसारन ॥ आपे मेलि लए किरपाल ॥ गुर का सबदु जपि भए निहाल ॥ उन की सेवा सोई लागै ॥ जिस नो क्रिपा करहि बडभागै ॥ नामु जपत पावहि बिस्रामु ॥ नानक तिन पुरख कउ ऊतम करि मानु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिस मनुष्यों ने। तिन मंत = उनके उपदेशों से। सगल उधारन = सभी को बचाने वाले। दूख बिसारन = दुखों का नाश करने वाले। जपि = जप के। निहाल = (फूलों की तरह) खिले हुए। करहि = तू करता है। बडभागै = बड़ी किस्मत वाले को। बिसरामु = ठिकाना, दुखों से विश्राम। मानु = समझ, जान ले।7।
अर्थ: जिस लोंगों ने प्रभु को पहिचान लिया, वह शोभा वाले हो गए; सारा जगत उनके उपदेशों से (विकारों से) बचता है।
हरि के भक्त सब (जीवों) को बचाने के लायक हैं, (सब के) दुख दूर करने के समर्थ होते हैं।
(सेवकों को) कृपालु प्रभु खुद (अपने साथ) मिला लेता है, सतिगुरु का शब्द ज पके वह (फूल जैसे) खिल उठते हैं।
वही मनुष्य उन (सेवकों) की सेवा में लगता है, जिस भाग्यशाली पर, (हे प्रभु!) तू खुद मेहर करता है।
(वह सेवक) नाम जपके अडोल अवस्था हासिल करते हैं; हे नानक! उन लोगों को बहुत ऊँचे मनुष्य समझो।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करै सु प्रभ कै रंगि ॥ सदा सदा बसै हरि संगि ॥ सहज सुभाइ होवै सो होइ ॥ करणैहारु पछाणै सोइ ॥ प्रभ का कीआ जन मीठ लगाना ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाना ॥ जिस ते उपजे तिसु माहि समाए ॥ ओइ सुख निधान उनहू बनि आए ॥ आपस कउ आपि दीनो मानु ॥ नानक प्रभ जनु एको जानु ॥८॥१४॥
मूलम्
जो किछु करै सु प्रभ कै रंगि ॥ सदा सदा बसै हरि संगि ॥ सहज सुभाइ होवै सो होइ ॥ करणैहारु पछाणै सोइ ॥ प्रभ का कीआ जन मीठ लगाना ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाना ॥ जिस ते उपजे तिसु माहि समाए ॥ ओइ सुख निधान उनहू बनि आए ॥ आपस कउ आपि दीनो मानु ॥ नानक प्रभ जनु एको जानु ॥८॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि = मौज में, रजा में। सहज सुभाइ = स्वाभाविक ही, सोये हुए ही। जन = सेवकों को। मीठ लगाना = मीठा लगता है। द्रिसटाना = दिखाई देता है। उपजे = पैदा होए। ओइ = प्रभु के वह सेवक। सुख निधान = सुखों के खजाने। उनहू = उन्हें ही। बनि आए = फबती है। आपस कउ = अपने आप को।8।
अर्थ: (प्रभु का सेवक) सदा ही प्रभु की हजूरी में बसता है और जो कुछ करता है, प्रभु की रजा में (रह के) करता है।
सहज ही जो कुछ होता है उसे प्रभु की रजा जानता है, और सब कुछ करने वाला प्रभु को ही समझता है।
(प्रभु के) सेवकों को प्रभु का किया हुआ मीठा लगता है, (क्योंकि) प्रभु जैसा (सर्व-व्यापक) है वैसा ही उन्हें नजर आता है।
जिस प्रभु से वे सेवक पैदा हुए हैं, उसी में लीन रहते हैं, वे सुखों का खजाना हो जाते हैं ओर ये दर्जा फबता भी उन्हीं को ही है।
हे नानक! प्रभु और प्रभु के सेवकों को एक रूप समझो, (संवकों को सम्मान दे के) प्रभु अपने आप को खुद सम्मान देता है (क्योंकि सेवक का सम्मान प्रभु का ही सम्मान है)।8।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार ॥ जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार ॥ जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कला = ताकत,शक्ति। भरपूर = भरा हुआ। बिरथा = (सं: व्यथा = pain) दुख, दर्द। जा कै सिमरनि = जिस के स्मरण से। उधरीऐ = (विकारों से) बच जाते हैं।1।
अर्थ: प्रभु सारी शक्तियों के साथ पूर्ण है, (सब जीवों के) दुख-दर्द जानता है। हे नानक! जिस (ऐसे प्रभु) के स्मरण से (विकारों से) बच सकते हैं, उससे (सदा) सदके जाएं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ टूटी गाढनहार गुोपाल ॥ सरब जीआ आपे प्रतिपाल ॥ सगल की चिंता जिसु मन माहि ॥ तिस ते बिरथा कोई नाहि ॥ रे मन मेरे सदा हरि जापि ॥ अबिनासी प्रभु आपे आपि ॥ आपन कीआ कछू न होइ ॥ जे सउ प्रानी लोचै कोइ ॥ तिसु बिनु नाही तेरै किछु काम ॥ गति नानक जपि एक हरि नाम ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ टूटी गाढनहार गुोपाल ॥ सरब जीआ आपे प्रतिपाल ॥ सगल की चिंता जिसु मन माहि ॥ तिस ते बिरथा कोई नाहि ॥ रे मन मेरे सदा हरि जापि ॥ अबिनासी प्रभु आपे आपि ॥ आपन कीआ कछू न होइ ॥ जे सउ प्रानी लोचै कोइ ॥ तिसु बिनु नाही तेरै किछु काम ॥ गति नानक जपि एक हरि नाम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिंता = फिक्र। बिरथा = खाली, नाउम्मीद। आपन कीआ = मनुष्य के अपने बल पर किया हुआ। सउ = सौ बार। लोचै = चाहे। गति = मुक्ति, बढ़िया आत्मिक हालत।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं प्रयोग की गई हैं असली शब्द ‘गोपाल’ है। पर छंद की चाल तभी पूरी रह सकती है अगर ‘गुरु’ मात्रा ‘ो’ की जगह ‘लघु’ मात्रा ‘ु’ प्रयोग की जाए। सो, पाठ में शब्द ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सारे जीवों की पालना करने वाला गोपाल प्रभु खुद है, (जीवों के दिल की) टूटी हुई (तार) को (अपने साथ) गाँठने वाला (भी स्वयं ही) है।
जिस प्रभु को अपने मन में सभी की (रोजी का) फिक्र है, उस (के दर) से कोई जीव ना-उम्मीद नहीं (आता)।
हे मेरे मन! सदा प्रभु को जप, वह नाश-रहित और अपने जैसा आप ही है।
अगर कोई प्राणी सौ बार चाहे तो भी प्राणी का अपने प्रयत्नों से किया हुआ कोई भी काम सिरे नहीं चढ़ता।
हे नानक! एक प्रभु का नाम जप, तो गति होगी। उस प्रभु के बिना और कोई चीज तेरे (असल) काम की नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपवंतु होइ नाही मोहै ॥ प्रभ की जोति सगल घट सोहै ॥ धनवंता होइ किआ को गरबै ॥ जा सभु किछु तिस का दीआ दरबै ॥ अति सूरा जे कोऊ कहावै ॥ प्रभ की कला बिना कह धावै ॥ जे को होइ बहै दातारु ॥ तिसु देनहारु जानै गावारु ॥ जिसु गुर प्रसादि तूटै हउ रोगु ॥ नानक सो जनु सदा अरोगु ॥२॥
मूलम्
रूपवंतु होइ नाही मोहै ॥ प्रभ की जोति सगल घट सोहै ॥ धनवंता होइ किआ को गरबै ॥ जा सभु किछु तिस का दीआ दरबै ॥ अति सूरा जे कोऊ कहावै ॥ प्रभ की कला बिना कह धावै ॥ जे को होइ बहै दातारु ॥ तिसु देनहारु जानै गावारु ॥ जिसु गुर प्रसादि तूटै हउ रोगु ॥ नानक सो जनु सदा अरोगु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहै नाही = मोह ना करे, मस्त ना हो, मान ना करे। सगल घट = सारे शरीरों में। गरबै = अहंकार करे। जा = जब। दरबै = धन। सूरा = शूरवीर, बहादुर। कहावै = कहलवाए। कह = कहाँ? धावै = दौड़े। होइ बहै = बन बैठे। गावारु = गवार, मूर्ख। हउ रोगु = अहंकार रूपी बिमारी। अरोगु = निरोग।2।
अर्थ: रूप वाला हो के कोई प्राणी (रूप का) गुमान ना करे, (क्योंकि) सारे शरीरों में प्रभु की ही ज्योति सुशोभित है।
धनवान हो के क्या कोई मनुष्य अहंकार करे, जबकि सारा धन उस प्रभु का ही बख्शा हुआ है?
अगर कोई मनुष्य (अपने आप को) बड़ा शूरवीर कहलवाए (तो रक्ती भर ये तो सोच ले कि) प्रभु की (दी हुई) ताकत के बिना कहाँ दौड़ सकता है।
अगर कोई बंदा (धनाढ हो के) दाता बन बैठे, तो वह मूर्ख उस प्रभु को पहिचाने जो (सब जीवों को) देने के समर्थ है।
हे नानक! वह मनुष्य सदा निरोग है जिसका अहंकार रूपी रोग गुरु की कृपा से दूर होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ मंदर कउ थामै थमनु ॥ तिउ गुर का सबदु मनहि असथमनु ॥ जिउ पाखाणु नाव चड़ि तरै ॥ प्राणी गुर चरण लगतु निसतरै ॥ जिउ अंधकार दीपक परगासु ॥ गुर दरसनु देखि मनि होइ बिगासु ॥ जिउ महा उदिआन महि मारगु पावै ॥ तिउ साधू संगि मिलि जोति प्रगटावै ॥ तिन संतन की बाछउ धूरि ॥ नानक की हरि लोचा पूरि ॥३॥
मूलम्
जिउ मंदर कउ थामै थमनु ॥ तिउ गुर का सबदु मनहि असथमनु ॥ जिउ पाखाणु नाव चड़ि तरै ॥ प्राणी गुर चरण लगतु निसतरै ॥ जिउ अंधकार दीपक परगासु ॥ गुर दरसनु देखि मनि होइ बिगासु ॥ जिउ महा उदिआन महि मारगु पावै ॥ तिउ साधू संगि मिलि जोति प्रगटावै ॥ तिन संतन की बाछउ धूरि ॥ नानक की हरि लोचा पूरि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंदर = घर। थामै = थामता है, सहारा दिए रखता है। मनहि = मन में। असथंमनु = स्तम्भ, खम्भा, सहारा। पाखाण = पत्थर। नाव = बेड़ी। लगतु = लगा हुआ। अंधकार = अंधेरा। दीपक = दीया। परगासु = प्रकाश। गुर दरसनु = गुरु का दर्शन। देखि = देख के। मनि = मन में। बिगासु = खिलाव। उदिआन = जंगल। मारगु = रास्ता। बाछउ = चाहता हूँ। धूरि = धूल। लोचा = ख्वाइश। पूरी = पूरी कर।3।
अर्थ: जैसे घर (की छत) को खंभा सहारा देता है, वैसे ही गुरु का शब्द मन का सहारा है।
जैसे पत्थर नाव में चढ़ के (नदी वगैरा से) पार लांघ जाता है, वैसे ही गुरु के चरण लगा हुआ आदमी (संसार समुंदर) तैर जाता है।
जैसे दीपक अंधकार (दूर कर के) रौशनी कर देता है, वैसे ही गुरु का दीदार करके मन में खिलाव (पैदा) हो जाता है।
जैसे (किसी) घने जंगल में (भटके हुए को) राह मिल जाए, वैसे ही साधु की संगति में बैठने से (अकाल पुरख की) ज्योति (मनुष्य के अंदर) प्रगट होती है।
मैं उन संतों के चरणों की धूल मांगता हूँ। हे प्रभु! नानक की ये ख्वाइश पूरी कर।3।
[[0283]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मूरख काहे बिललाईऐ ॥ पुरब लिखे का लिखिआ पाईऐ ॥ दूख सूख प्रभ देवनहारु ॥ अवर तिआगि तू तिसहि चितारु ॥ जो कछु करै सोई सुखु मानु ॥ भूला काहे फिरहि अजान ॥ कउन बसतु आई तेरै संग ॥ लपटि रहिओ रसि लोभी पतंग ॥ राम नाम जपि हिरदे माहि ॥ नानक पति सेती घरि जाहि ॥४॥
मूलम्
मन मूरख काहे बिललाईऐ ॥ पुरब लिखे का लिखिआ पाईऐ ॥ दूख सूख प्रभ देवनहारु ॥ अवर तिआगि तू तिसहि चितारु ॥ जो कछु करै सोई सुखु मानु ॥ भूला काहे फिरहि अजान ॥ कउन बसतु आई तेरै संग ॥ लपटि रहिओ रसि लोभी पतंग ॥ राम नाम जपि हिरदे माहि ॥ नानक पति सेती घरि जाहि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे = क्यूँ? बिललाईऐ = बिलकें, विरलाप करें। पुरब = पहले। पुरब लिखे का = पहले समय के किए कर्मों का, पूर्व बीजे का। लिखिआ = संस्कार रूपी लेख। सुभाउ = रूप बींज। अजान = हे अंजान! बसतु = चीज। रसि = रस में, स्वाद में। लोभी पतंग = हे लोभी पतंगे! पति सेती = बा-इज्जत।4।
अर्थ: हे मूर्ख मन! (दुख मिलने पर) क्यूँ बिलकता है? पूर्व बीजे का फल ही खाना पड़ता है।
दुख-सुख देने वाला प्रभु खुद ही है, (इसलिए) और (आसरे) छोड़ के तू उसी को याद कर।
हे अंजान! क्यूँ भूला फिरता है? जो कुछ प्रभु करता है उसी को सुख समझ।
हे लोभी पतंगे! तू (माया के) स्वाद में मस्त हो रहा है, (बता) कौन सी चीज तेरे साथ आई थी।
हे नानक! हृदय में प्रभु का नाम जप, (इस तरह) बा-इज्जत (परलोक वाले) घर में जाएगा।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु वखर कउ लैनि तू आइआ ॥ राम नामु संतन घरि पाइआ ॥ तजि अभिमानु लेहु मन मोलि ॥ राम नामु हिरदे महि तोलि ॥ लादि खेप संतह संगि चालु ॥ अवर तिआगि बिखिआ जंजाल ॥ धंनि धंनि कहै सभु कोइ ॥ मुख ऊजल हरि दरगह सोइ ॥ इहु वापारु विरला वापारै ॥ नानक ता कै सद बलिहारै ॥५॥
मूलम्
जिसु वखर कउ लैनि तू आइआ ॥ राम नामु संतन घरि पाइआ ॥ तजि अभिमानु लेहु मन मोलि ॥ राम नामु हिरदे महि तोलि ॥ लादि खेप संतह संगि चालु ॥ अवर तिआगि बिखिआ जंजाल ॥ धंनि धंनि कहै सभु कोइ ॥ मुख ऊजल हरि दरगह सोइ ॥ इहु वापारु विरला वापारै ॥ नानक ता कै सद बलिहारै ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखर = सौदा। तजि = छोड़ दे। मन मोलि = मन के मूल्य से, मन के बदले, मन दे कर। तोलि = जाँच। खेप = (सं: क्षेप) व्यापार के लिए ले जाने वाला सौदा। बिखिआ = माया। जंजाल = धंधे। धंनि = मुबारक, प्रशंसनीय।5।
अर्थ: (हे भाई!) जो सौदा खरीदने के लिए तू (जगत में) आया है; वह राम नाम (-रूपी सौदा) संतों के घर में मिलता है।
(इसलिए) अहंकार छोड़ दे, और मन के बदले (ये सौदा) खरीद ले, और प्रभु का नाम हृदय में परख।
संतों के साथ चल और राम नाम का ये सौदा लाद ले, माया के अन्य धंधे छोड़ दे।
(अगर ये उद्यम करेगा तो) हरेक जीव तुझे शाबाश देगा, और प्रभु की दरगाह में भी तेरा मुँह उज्जवल होगा।
(पर) ये व्यापार कोई विरला बंदा ही करता है। हे नानक! ऐसे (व्यापारी) पर से सदा सदके जाएं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन साध के धोइ धोइ पीउ ॥ अरपि साध कउ अपना जीउ ॥ साध की धूरि करहु इसनानु ॥ साध ऊपरि जाईऐ कुरबानु ॥ साध सेवा वडभागी पाईऐ ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ अनिक बिघन ते साधू राखै ॥ हरि गुन गाइ अम्रित रसु चाखै ॥ ओट गही संतह दरि आइआ ॥ सरब सूख नानक तिह पाइआ ॥६॥
मूलम्
चरन साध के धोइ धोइ पीउ ॥ अरपि साध कउ अपना जीउ ॥ साध की धूरि करहु इसनानु ॥ साध ऊपरि जाईऐ कुरबानु ॥ साध सेवा वडभागी पाईऐ ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ अनिक बिघन ते साधू राखै ॥ हरि गुन गाइ अम्रित रसु चाखै ॥ ओट गही संतह दरि आइआ ॥ सरब सूख नानक तिह पाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरपि = अर्पित कर दे, हवाले कर दे। जीउ = जिंद। धूरि = चरण धूल। कुरबानु = सदके। वडभागी = बड़े भाग्यों से। गाईऐ = गाया जा सकता है। राखै = बचा लेता है। अंम्रित रसु = नाम अमृत का स्वाद। ओट = आसरा। गही = पकड़ी। तिह = उसने।6।
अर्थ: (हे भाई!) साधु जनों के पैर धो-धो के (नाम जल) पी, साधु जनों पर से अपनी जिंद भी वार दे।
गुरमुख मनुष्य के पैरों की ख़ाक में स्नान कर, गुरमुख से सदके हो।
संत की सेवा बड़े भाग्यों से मिलती है, संत की संगत में ही प्रभु की महिमा की जा सकती है।
संत अनेक मुश्किलों से (जो आत्मिक जीवन के राह में आती हैं) बचा लेता है, संत प्रभु के गुण गा के नाम-अमृत का स्वाद लेता है।
(जिस मनुष्य ने) संतों का आसरा लिया है जो संतों के दर पर आ गिरा है, उसने, हे नानक! सारे सुख पा लिए हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिरतक कउ जीवालनहार ॥ भूखे कउ देवत अधार ॥ सरब निधान जा की द्रिसटी माहि ॥ पुरब लिखे का लहणा पाहि ॥ सभु किछु तिस का ओहु करनै जोगु ॥ तिसु बिनु दूसर होआ न होगु ॥ जपि जन सदा सदा दिनु रैणी ॥ सभ ते ऊच निरमल इह करणी ॥ करि किरपा जिस कउ नामु दीआ ॥ नानक सो जनु निरमलु थीआ ॥७॥
मूलम्
मिरतक कउ जीवालनहार ॥ भूखे कउ देवत अधार ॥ सरब निधान जा की द्रिसटी माहि ॥ पुरब लिखे का लहणा पाहि ॥ सभु किछु तिस का ओहु करनै जोगु ॥ तिसु बिनु दूसर होआ न होगु ॥ जपि जन सदा सदा दिनु रैणी ॥ सभ ते ऊच निरमल इह करणी ॥ करि किरपा जिस कउ नामु दीआ ॥ नानक सो जनु निरमलु थीआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिरतक = मरा हुआ, आत्मिक जिंदगी के बिना। भूखे = लालची, तृष्णा अधीन मनुष्य। अधार = आसरा। निधान = खजाने। पुरब लिखे का = पिछले समय में किए कर्मों का। लहणा = फल। पाहि = पाते हैं। होगु = होगा। रैणी = रात। करणी = आचरण।7।
अर्थ: (प्रभु) मरे हुए को जिंदा करने के काबिल है, भूखे को भी आसरा देता है।
सारे खजाने उस मालिक की नजर में हैं, (पर जीव) अपने पहले किये कर्मों के फल भोगते हैं।
सब कुछ उस प्रभु का ही है, और वही सब कुछ करने के समर्थ है; उससे बिना ना कोई दूसरा है ना ही होगा।
हे जन! सदा ही दिन रात प्रभु को याद कर, और सभी कर्मों से यही कर्म ऊँचा और स्वच्छ है।
मेहर करके जिस मनुष्य को नाम बख्शता है, हे नानक! वह मनुष्य पवित्र हो जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै मनि गुर की परतीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ भगतु भगतु सुनीऐ तिहु लोइ ॥ जा कै हिरदै एको होइ ॥ सचु करणी सचु ता की रहत ॥ सचु हिरदै सति मुखि कहत ॥ साची द्रिसटि साचा आकारु ॥ सचु वरतै साचा पासारु ॥ पारब्रहमु जिनि सचु करि जाता ॥ नानक सो जनु सचि समाता ॥८॥१५॥
मूलम्
जा कै मनि गुर की परतीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ भगतु भगतु सुनीऐ तिहु लोइ ॥ जा कै हिरदै एको होइ ॥ सचु करणी सचु ता की रहत ॥ सचु हिरदै सति मुखि कहत ॥ साची द्रिसटि साचा आकारु ॥ सचु वरतै साचा पासारु ॥ पारब्रहमु जिनि सचु करि जाता ॥ नानक सो जनु सचि समाता ॥८॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परतीति = यकीन, श्रद्धा। चीति = चिक्त में। सुनीऐ = सुना जाता है। तिहु लोइ = तीनों लोकों में, त्रिलोक में, सारे जगत में। करणी = अमली जिंदगी, चाल चलन। रहत = जिंदगी का असूल। सति = सच, सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। मुखि = मूह से। द्रिसटि = नजर। आकारु = स्वरूप, दृष्टमान जगत। वरतै = मौजूद है। पासारु = पसारा।8।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में सतिगुरु की श्रद्धा बन गई है उसके चिक्त में प्रभु टिक जाता है।
वह मनुष्य सारे जगत में भक्त-भक्त सुना जाता है, जिसके हृदय में एक प्रभु बसता है।
उसकी असल जिंदगी और जिंदगी के असूल एक समान हैं, सच्चा प्रभु उसके दिल में है, और प्रभु का नाम ही वह मुंह से उच्चारता है।
उस मनुष्य की नजर सच्चे प्रभु के रंग में रंगी हुई है, (तभी तो) सारा दिखाई देता जगत (उसको) प्रभु का रूप दिखता है, प्रभु ही (हर जगह) मौजूद (दिखता है, और) प्रभु का ही (सारा) पसारा दिखता है।
जिस मनुष्य ने अकाल-पुरख को सदा स्थिर रहने वाला समझा है, हे नानक! वह मनुष्य सदा उस स्थिर रहने वाले में लीन हो जाता है।8।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ रूपु न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन ॥ तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ रूपु न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन ॥ तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेख = (सं: रेखा) चिन्ह-चक्र। त्रिहु गुण ते = (माया के) तीनों गुणों से। भिन्न = अलग, निर्लिप, बेदाग। तिसहि = उसे ही। बुझाए = समझ देता है (अपने स्वरूप की)। सुप्रसंन = खुश।1।
अर्थ: प्रभु का ना कोई रूप है, ना चिन्ह-चक्र और ना कोई रंग। प्रभु माया के तीन गुणों से बेदाग है। हे नानक! प्रभु अपना आप उस मनुष्य को समझाता है जिस पर खुद मेहरबान होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ अबिनासी प्रभु मन महि राखु ॥ मानुख की तू प्रीति तिआगु ॥ तिस ते परै नाही किछु कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ आपे बीना आपे दाना ॥ गहिर ग्मभीरु गहीरु सुजाना ॥ पारब्रहम परमेसुर गोबिंद ॥ क्रिपा निधान दइआल बखसंद ॥ साध तेरे की चरनी पाउ ॥ नानक कै मनि इहु अनराउ ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ अबिनासी प्रभु मन महि राखु ॥ मानुख की तू प्रीति तिआगु ॥ तिस ते परै नाही किछु कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ आपे बीना आपे दाना ॥ गहिर ग्मभीरु गहीरु सुजाना ॥ पारब्रहम परमेसुर गोबिंद ॥ क्रिपा निधान दइआल बखसंद ॥ साध तेरे की चरनी पाउ ॥ नानक कै मनि इहु अनराउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगु = छोड़ दे। निरंतर = लगातार। बीना = पहिचानने वाला। दाना = समझने वाला। गहीरु = गहरा। सुजाना = सयाना। क्रिपा निधान = दया का खजाना। बखसंद = बख्शने वाला। पाउ = मैं पड़ूँ। मनि = मन में। अनुराउ = अनुराग, कसक, खींच।1।
अर्थ: (हे भाई!) अपने मन में अकाल पुरख को परो के रख और मनुष्य का प्यार (मोह) त्याग दे।
सब जीवों के अंदर एक अकाल-पुरख ही व्यापक है, उससे बाहर और कोई जीव नहीं, कोई चीज नहीं।
प्रभु बड़ा गंभीर है और गहरा है, समझदार है, वही खुद ही (जीवों के दिल की) पहचानने वाला और जानने वाला है।
हे पारब्रहम प्रभु! सबसे बड़े मालिक! और जीवों के पालक! दया के खजाने! दया के घर! और बख्शनहार!
नानक के मन में ये तमन्ना है कि मैं तेरे साधुओं की चरणों में पड़ूँ।1।
[[0284]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा पूरन सरना जोग ॥ जो करि पाइआ सोई होगु ॥ हरन भरन जा का नेत्र फोरु ॥ तिस का मंत्रु न जानै होरु ॥ अनद रूप मंगल सद जा कै ॥ सरब थोक सुनीअहि घरि ता कै ॥ राज महि राजु जोग महि जोगी ॥ तप महि तपीसरु ग्रिहसत महि भोगी ॥ धिआइ धिआइ भगतह सुखु पाइआ ॥ नानक तिसु पुरख का किनै अंतु न पाइआ ॥२॥
मूलम्
मनसा पूरन सरना जोग ॥ जो करि पाइआ सोई होगु ॥ हरन भरन जा का नेत्र फोरु ॥ तिस का मंत्रु न जानै होरु ॥ अनद रूप मंगल सद जा कै ॥ सरब थोक सुनीअहि घरि ता कै ॥ राज महि राजु जोग महि जोगी ॥ तप महि तपीसरु ग्रिहसत महि भोगी ॥ धिआइ धिआइ भगतह सुखु पाइआ ॥ नानक तिसु पुरख का किनै अंतु न पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना, ख्वाइश। सरना जोग = शरण देने के काबिल, शरण आए की सहायता करने के काबिल। करि = हाथ पर, जीव के हाथ पर। पाइआ = डाल दिया है, लिख दिया है। होगु = होगा। नेत्र फोरु = आँख का फरकना। हरन = नाश करना। भरन = पालना। मंत्र = गहरा भेद। मंगल = खुशियां। सुनीअहि = सुने जाते हैं। तपीसुर = बड़ा तपस्वी। भोगी = भोगने वाला, गृहस्थी।2।
अर्थ: प्रभु (जीवों के) मन के फुरने पूरे करने व शरण आए की सहायता करने के समर्थ है। जो उसने (जीवों के) हाथों में लिख दिया है, वही होता है।
जिस प्रभु का आँख फरकने का समय (जगत के) पालने और नाश करने के लिए (काफी) है, उसका छुपा हुआ भेद कोई और जीव नहीं जानता।
जिस प्रभु के घर में सदा आनंद और खुशियां हैं, (जगत के) सारे पदार्थ उसके घर में (मौजूद) सुने जाते हैं।
राजाओं में प्रभु खुद ही राजा है, जोगियों में जोगी है, तपस्वियों में स्वयं ही बड़ा तपस्वी है और गृहस्तियों में भी सवयं ही गृहस्थी है।
भक्त जनों ने (उस प्रभु को) स्मरण कर-कर के सुख पा लिया है। हे नानक! किसी जीव ने उस अकाल-पुरख का अंत नहीं पाया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा की लीला की मिति नाहि ॥ सगल देव हारे अवगाहि ॥ पिता का जनमु कि जानै पूतु ॥ सगल परोई अपुनै सूति ॥ सुमति गिआनु धिआनु जिन देइ ॥ जन दास नामु धिआवहि सेइ ॥ तिहु गुण महि जा कउ भरमाए ॥ जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥ ऊच नीच तिस के असथान ॥ जैसा जनावै तैसा नानक जान ॥३॥
मूलम्
जा की लीला की मिति नाहि ॥ सगल देव हारे अवगाहि ॥ पिता का जनमु कि जानै पूतु ॥ सगल परोई अपुनै सूति ॥ सुमति गिआनु धिआनु जिन देइ ॥ जन दास नामु धिआवहि सेइ ॥ तिहु गुण महि जा कउ भरमाए ॥ जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥ ऊच नीच तिस के असथान ॥ जैसा जनावै तैसा नानक जान ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लीला = (जगत रूपी) खेल। मिति = गिनती, अंदाजा। अवगाहि = गोता लगा के, खोज खोज के। सगल = सारी (सृष्टि)। सूति = सूत्र में, धागे में (जैसे माला के मणके)। गिआनु = ऊँची समझ। धिआनु = (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़नी। जिन देइ = जिन्हें देता है। सेइ = वह ही। भरमाए = भटकाता है। ऊच असथान = सुमति ज्ञान ध्यान वाले जीव। नीच असथान = तीन गुणों में भटकने वाले जीव। जनावै = समझ देता है।3।
अर्थ: जिस प्रभु की (जगत रूपी) खेल का लेखा कोई नहीं लगा सकता, उसे खोज-खोज के सारे देवते भी थक गए हैं।
(क्योंकि) पिता का जन्म पुत्र क्या जाने? (जैसे माला के मणके) धागे में परोए हुए होते हैं, (वैसे ही) सारी रचना प्रभु ने अपने (हुक्म रूपी) धागे में परोई हुई है।
जिस लोगों को प्रभु सुमति, ऊँची समझ और तवज्जो जोड़ने की दाति देता है, वही सेवक और दास उसका नाम स्मरण करते हैं।
(पर) जिनको (माया के) तीन गुणों में भटकाता है, वह पैदा होते मरते रहते हैं और बार बार (जगत में) आते और जाते रहते हैं।
सुमति वाले ऊँचे लोगों के हृदय त्रिगुणी नीच लोगों के मन- ये सारे उस प्रभु के अपने ही ठिकाने हैं (भाव, सब में बसता है)। हे नानक! जैसी बुद्धि-मति देता है, वैसी ही समझ वाला जीव बन जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना रूप नाना जा के रंग ॥ नाना भेख करहि इक रंग ॥ नाना बिधि कीनो बिसथारु ॥ प्रभु अबिनासी एकंकारु ॥ नाना चलित करे खिन माहि ॥ पूरि रहिओ पूरनु सभ ठाइ ॥ नाना बिधि करि बनत बनाई ॥ अपनी कीमति आपे पाई ॥ सभ घट तिस के सभ तिस के ठाउ ॥ जपि जपि जीवै नानक हरि नाउ ॥४॥
मूलम्
नाना रूप नाना जा के रंग ॥ नाना भेख करहि इक रंग ॥ नाना बिधि कीनो बिसथारु ॥ प्रभु अबिनासी एकंकारु ॥ नाना चलित करे खिन माहि ॥ पूरि रहिओ पूरनु सभ ठाइ ॥ नाना बिधि करि बनत बनाई ॥ अपनी कीमति आपे पाई ॥ सभ घट तिस के सभ तिस के ठाउ ॥ जपि जपि जीवै नानक हरि नाउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाना = कई किस्म के। इक रंग = एक ही किस्म का, एक रंग वालां। करहि = तू करता है। नाना बिधि = कई तरीकों से। चलित = चमत्कार, तमाशे।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू, जिस के कई रूप और रंग हैं, कई वेष धारण करता है (और फिर भी) एक ही तरह का है।
प्रभु नाश-रहित है, और सब जगह एक खुद ही खुद है, उसने जगत का पसारा कई तरीकों से किया है।
कई तमाशे प्रभु पलक में कर देता है, वह पूरन पुरख सब जगह व्यापक है।
जगत की रचना प्रभु ने कई तरीकों से रची है, अपनी (महिमा का) मूल्य वह खुद ही जानता है।
सारे शरीर उस प्रभु के ही हैं, सारी जगहें उसी की ही हैं। हे नानक! (उस का दास) उस का नाम जप-जप के जीता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम के धारे सगले जंत ॥ नाम के धारे खंड ब्रहमंड ॥ नाम के धारे सिम्रिति बेद पुरान ॥ नाम के धारे सुनन गिआन धिआन ॥ नाम के धारे आगास पाताल ॥ नाम के धारे सगल आकार ॥ नाम के धारे पुरीआ सभ भवन ॥ नाम कै संगि उधरे सुनि स्रवन ॥ करि किरपा जिसु आपनै नामि लाए ॥ नानक चउथे पद महि सो जनु गति पाए ॥५॥
मूलम्
नाम के धारे सगले जंत ॥ नाम के धारे खंड ब्रहमंड ॥ नाम के धारे सिम्रिति बेद पुरान ॥ नाम के धारे सुनन गिआन धिआन ॥ नाम के धारे आगास पाताल ॥ नाम के धारे सगल आकार ॥ नाम के धारे पुरीआ सभ भवन ॥ नाम कै संगि उधरे सुनि स्रवन ॥ करि किरपा जिसु आपनै नामि लाए ॥ नानक चउथे पद महि सो जनु गति पाए ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाम = अकाल-पुरख। धारे = टिकाए हुए, आसरे। ब्रहमंड = (सं: ब्रह्मांड = The egg of Brahman, the primordial egg from which the universe sprang, the world, universe) सृष्टि, जगत। खंड = हिस्से, टुकड़े। आगास = आकाश। आकार = स्वरूप,शरीर। पुरीआ = शहर, शरीर, 14 लोक। भवन = (सं: भुवन = A world, the number of world is either three, as in त्रिभुवन, or fourteen) लोक, जगत। स्रवन = कानों से। चउथे पद महि = माया के तीन गुणों को लांघ के ऊपरी सतह पर, माया के असर से ऊपर की अवस्था।5।
अर्थ: सारे जीव-जंतु अकाल-पुरख के आसरे हैं, जगत के सारे (हिस्से) भी प्रभु के टिकाए हुए हैं।
वेद, पुराण, स्मृतियां प्रभु के आधार पर हैं, ज्ञान की बातें सुननी और तवज्जो जोड़नी भी अकाल-पुरख के आसरे ही हैं।
सारे आकाश-पाताल प्रभु-आसरे हैं, सारे शरीर ही प्रभु के आधार पर हैं।
तीनों भवन और चौदह लोक अकाल-पुरख के टिकाए हुए हैं, जीव प्रभु में जुड़ के और उसका नाम कानों से सुन के विकारों से बचते हैं।
जिस को मेहर करके अपने नाम में जोड़ता है, हे नानक! वह मनुष्य (माया के असर से ऊपर) चौथे तल पर पहुँच कर उच्च अवस्था प्राप्त करता है।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘नाम’ का अर्थ ‘अकाल-पुरख’ है, और ‘अकाल-पुरख का नाम’ भी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपु सति जा का सति असथानु ॥ पुरखु सति केवल परधानु ॥ करतूति सति सति जा की बाणी ॥ सति पुरख सभ माहि समाणी ॥ सति करमु जा की रचना सति ॥ मूलु सति सति उतपति ॥ सति करणी निरमल निरमली ॥ जिसहि बुझाए तिसहि सभ भली ॥ सति नामु प्रभ का सुखदाई ॥ बिस्वासु सति नानक गुर ते पाई ॥६॥
मूलम्
रूपु सति जा का सति असथानु ॥ पुरखु सति केवल परधानु ॥ करतूति सति सति जा की बाणी ॥ सति पुरख सभ माहि समाणी ॥ सति करमु जा की रचना सति ॥ मूलु सति सति उतपति ॥ सति करणी निरमल निरमली ॥ जिसहि बुझाए तिसहि सभ भली ॥ सति नामु प्रभ का सुखदाई ॥ बिस्वासु सति नानक गुर ते पाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = 1.सदा स्थिर रहने वाला, 2.संपूर्ण, मुकम्मल, जो अधूरा नहीं, ना खोए जाने वाला, अटल। परधानु = जाना माना, सब के सिर पर। करतूति = काम। उतपति = पैदायश, रचना। निरमल निरमली = निर्मल से निर्मल, महा पवित्र। भली = सुखदाई। बिस्वास = विश्वास, श्रद्धा। करमु = बख्शिश। करणी = काम, रजा।6।
अर्थ: जिस प्रभु का रूप और ठिकाना सदा स्थिर रहने वाले हैं, केवल वही सर्व-व्यापक प्रभु सब के सिर पर है।
जिस सदा अटल अकाल-पुरख की वाणी सब जीवों में रमी हुई है (भाव, जो प्रभु सब जीवों में बोल रहा है) उसके काम भी अटल हैं।
जिस प्रभु की रचना सम्पूर्ण है (भाव, अधूरा नहीं), जो (सबका) मूल (रूप) सदा स्थिर है, जिसका पैदा होना भी संपूर्ण है, उसकी बख्शिश सदा कायम है।
प्रभु की महा पवित्र रजा है, जिस जीव को (रजा की) समझ देता है, उस को (वह रजा) पूरन तौर पर सुखदाई (लगती है)।
प्रभु का सदा स्थिर रहने वाला नाम सुख दाता है। हे नानक! (जीव को) ये अटल सिदक सतिगुरु से मिलता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति बचन साधू उपदेस ॥ सति ते जन जा कै रिदै प्रवेस ॥ सति निरति बूझै जे कोइ ॥ नामु जपत ता की गति होइ ॥ आपि सति कीआ सभु सति ॥ आपे जानै अपनी मिति गति ॥ जिस की स्रिसटि सु करणैहारु ॥ अवर न बूझि करत बीचारु ॥ करते की मिति न जानै कीआ ॥ नानक जो तिसु भावै सो वरतीआ ॥७॥
मूलम्
सति बचन साधू उपदेस ॥ सति ते जन जा कै रिदै प्रवेस ॥ सति निरति बूझै जे कोइ ॥ नामु जपत ता की गति होइ ॥ आपि सति कीआ सभु सति ॥ आपे जानै अपनी मिति गति ॥ जिस की स्रिसटि सु करणैहारु ॥ अवर न बूझि करत बीचारु ॥ करते की मिति न जानै कीआ ॥ नानक जो तिसु भावै सो वरतीआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरति = (सं: निरति strong attachment, fondness, devotion) प्यार। मिति = गिनती, अंदाजा। गति = पहुँच, अवस्था। कीआ = पैदा किया हुआ जीव। वरतीआ = वरतता है, विद्यमान है।7।
अर्थ: गुरु के उपदेश अटल वचन हैं, जिनके हृदय में (इस उपदेश का) प्रवेश होता है, वह भी अटल (भाव, जनम-मरन से रहित) हो जाते हैं।
अगर किसी मनुष्य को सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के प्यार की सूझ आ जाए, तो नाम जप के वह उच्च अवस्था हासिल कर लेता है।
प्रभु खुद सदा कायम रहने वाला है, उसका पैदा किया हुआ जगत भी सच-मुच अस्तित्व वाला है (भाव, मिथ्या नहीं है) प्रभु अपनी अवस्था और मर्यादा स्वयं ही जानता है।
जिस प्रभु का ये जगत है वह खुद इसे बनाने वाला है, किसी और को इस जगत का ख्याल रखने वाला (भी) ना समझो।
कर्तार (की प्रतिभा) का अंदाजा उसका पैदा किया हुआ आदमी नहीं लगा सकता। हे नानक! वही कुछ होता है जो उस प्रभु को भाता है।7।
[[0285]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसमन बिसम भए बिसमाद ॥ जिनि बूझिआ तिसु आइआ स्वाद ॥ प्रभ कै रंगि राचि जन रहे ॥ गुर कै बचनि पदारथ लहे ॥ ओइ दाते दुख काटनहार ॥ जा कै संगि तरै संसार ॥ जन का सेवकु सो वडभागी ॥ जन कै संगि एक लिव लागी ॥ गुन गोबिद कीरतनु जनु गावै ॥ गुर प्रसादि नानक फलु पावै ॥८॥१६॥
मूलम्
बिसमन बिसम भए बिसमाद ॥ जिनि बूझिआ तिसु आइआ स्वाद ॥ प्रभ कै रंगि राचि जन रहे ॥ गुर कै बचनि पदारथ लहे ॥ ओइ दाते दुख काटनहार ॥ जा कै संगि तरै संसार ॥ जन का सेवकु सो वडभागी ॥ जन कै संगि एक लिव लागी ॥ गुन गोबिद कीरतनु जनु गावै ॥ गुर प्रसादि नानक फलु पावै ॥८॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसमन बिसम = हैरान से हैरान। बिसमाद = हैरान। स्वाद = आनंद। राचि रहे = मस्त रहते हैं। ओइ = वह मनुष्य (जिस को नाम पदार्थ मिलता है)।8।
अर्थ: जिस जिस मनुष्य ने (प्रभु की बुजुर्गियत को) समझा है, उस उस को आनंद आया है, (महिमा देख के) वे बड़े हैरान और आश्चर्यमयी होते हैं।
प्रभु के दास प्रभु के प्यार में मस्त रहते हैं, और सत्गुरू के उपदेश की इनायत से (नाम) पदार्थ हासिल कर लेते हैं।
वह (सेवक खुद) नाम की दाति बाँटते हैं, और (जीवों के) दुख काटते हें, उनकी संगति से जगत के जीव (संसार समुंदर से) तैर जाते हैं।
ऐसे सेवकों का जो सेवक बनता है वह बड़ा भाग्यशाली होता है, उनकी संगति में जुड़ने से अकाल-पुरख के साथ तवज्जो जुड़ती है।
(प्रभु का) सेवक प्रभु के गुण गाता है, और महिमा करता है। हे नानक! सतिगुरु की कृपा से वह (प्रभु का नाम रूपी) फल पा लेता है।8।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ आदि सचु जुगादि सचु ॥ है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ आदि सचु जुगादि सचु ॥ है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला, हसती वाला। आदि = शुरू से। जुगादि = युगों से। नानक = हे नानक! होसी = होगा, रहेगा।1।
अर्थ: प्रभु आरम्भ से ही अस्तित्व में है, युगों के शुरू से मौजूद है। इस वक्त भी मौजूद है, हे नानक! आगे को भी सदा कायम रहेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ चरन सति सति परसनहार ॥ पूजा सति सति सेवदार ॥ दरसनु सति सति पेखनहार ॥ नामु सति सति धिआवनहार ॥ आपि सति सति सभ धारी ॥ आपे गुण आपे गुणकारी ॥ सबदु सति सति प्रभु बकता ॥ सुरति सति सति जसु सुनता ॥ बुझनहार कउ सति सभ होइ ॥ नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ चरन सति सति परसनहार ॥ पूजा सति सति सेवदार ॥ दरसनु सति सति पेखनहार ॥ नामु सति सति धिआवनहार ॥ आपि सति सति सभ धारी ॥ आपे गुण आपे गुणकारी ॥ सबदु सति सति प्रभु बकता ॥ सुरति सति सति जसु सुनता ॥ बुझनहार कउ सति सभ होइ ॥ नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा स्थिर रहने वाले, अटल। परसनहार = (चरणों को) छूने वाले। सेवदार = सेवा करने वाले, पूजा करने वाले। पेखनहार = देखने वाले। सभ = सारी सृष्टि। धारी = टिकाई हुई। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला। बकता = उच्चारण करने वाला, कहने वाला। सुरति = ध्यान। जसु = कीर्ति।1।
अर्थ: प्रभु के चरण सदा स्थिर हैं, चरणों को छूने वाले सेवक भी सदा अटल हो जाते हैं; प्रभु की पूजा एक सदा निभने वाला काम है, (सो) पूजा करने वाले सदा के लिए अटल हो जाते हैं।
प्रभु का दीदार सति- (कर्म) है, दीदार करने वाले भी जनम मरन से रहित हो जाते हैं; प्रभु का नाम अटल है, स्मरण करने वाले भी स्थिर हैं।
प्रभु खुद सदा अस्तित्व वाला है, उसकी टिकाई हुई रचना भी अस्तित्व वाली है, प्रभु खुद गुण- (रूप) है, स्वयं ही गुण पैदा करने वाला है।
(प्रभु की महिमा का) शब्द सदा कायम है, शब्द को उच्चारने वाला भी स्थिर हो जाता है, प्रभु में तवज्जो जोड़नी सति (-कर्म है), प्रभु यश सुनने वाला भी सति है।
(प्रभु का अस्तित्व) समझने वाले को उसका रचा हुआ जगत भी हसती वाला दिखता है (भाव, मिथ्या नहीं प्रतीत होता); हे नानक! प्रभु स्वयं सदा स्थिर रहने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥ करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥ जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ॥ ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥ भै ते निरभउ होइ बसाना ॥ जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ॥ बसतु माहि ले बसतु गडाई ॥ ता कउ भिंन न कहना जाई ॥ बूझै बूझनहारु बिबेक ॥ नाराइन मिले नानक एक ॥२॥
मूलम्
सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥ करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥ जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ॥ ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥ भै ते निरभउ होइ बसाना ॥ जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ॥ बसतु माहि ले बसतु गडाई ॥ ता कउ भिंन न कहना जाई ॥ बूझै बूझनहारु बिबेक ॥ नाराइन मिले नानक एक ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति सरूप = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की हस्ती। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। मूलु = आरम्भ, कारण। बिस्वासु = श्रद्धा। बसतु = चीज। गडाई = मिलाई। भिंन = अलग। बिबेक = विचार, परख। नाराइन = अकाल-पुरख।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने अटल प्रभु की हस्ती को सदा मन में टिकाया हुआ है, उसने सब कुछ करने वाले और (जीवों से) कराने वाले (जगत के) मूल को पहिचान लिया है।
जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु (की हस्ती) का यकीन बंध गया है, उसके मन में सच्चा ज्ञान प्रगट हो गया है।
(वह मनुष्य) (जगत के हरेक) डर से (रहित हो के) निडर हो के बसता है, (क्योंकि) वह सदा उस प्रभु में लीन रहता है जिस से वह पैदा हुआ है।
(जैसे) एक चीज ले के (उसी तरह की) चीज में मिला दी जाए (तो दोनों में कोई फर्क नहीं रह जाता, वैसे ही जो मनुष्य प्रभु चरणों में लीन है) उसे प्रभु से अलग नहीं कहा जा सकता।
(पर) इस विचार को विचारने वाला (कोई विरला) समझता है। हे नानक! जो जीव प्रभु को मिल गए हैं वे उसके साथ एक-रूप हो गए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥ ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥ ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥ ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥ ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥ प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥ सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥ सेवक की राखै निरंकारा ॥ सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥ नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥
मूलम्
ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥ ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥ ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥ ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥ ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥ प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥ सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥ सेवक की राखै निरंकारा ॥ सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥ नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगिआकारी = आज्ञा मानने वाला। पूजारी = पूजा करने वाला। सेवक कै मनि = सेवक के मन में। परतीति = श्रद्धा, सिदक। रीति = रीति रिवाज, जिंदगी निभाने का ढंग। कउ = को। संगि = (अपने) साथ। रंगि = प्यार में, मौज में। राखै = (इज्जत) रखता है। सासि सासि = हरेक सांस में, दम-ब-दम। समारै = याद करता है।3।
अर्थ: प्रभु का सेवक प्रभु की आज्ञा में चलता है और सदा उसकी पूजा करता है।
अकाल-पुरख के सेवक के मन में (उसकी हसती का) विश्वास रहता है, (तभी तो) उसकी जिंदगी की स्वच्छ मर्यादा होती है।
सेवक अपने मालिक प्रभु को (हर वक्त अपने) साथ जानता है और उसके नाम की मौज में रहता है।
प्रभु अपने सेवक को सदा पालने के समर्थ है, और अपने सेवक की (सदा) लज्जा रखता है।
(पर) सेवक वही मनुष्य (बन सकता) है जिस पर प्रभु खुद मेहर करता है; हे नानक! ऐसा सेवक प्रभु को दम-ब-दम याद रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने जन का परदा ढाकै ॥ अपने सेवक की सरपर राखै ॥ अपने दास कउ देइ वडाई ॥ अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥ अपने सेवक की आपि पति राखै ॥ ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥ प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ॥ प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥ जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ॥ नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥
मूलम्
अपुने जन का परदा ढाकै ॥ अपने सेवक की सरपर राखै ॥ अपने दास कउ देइ वडाई ॥ अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥ अपने सेवक की आपि पति राखै ॥ ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥ प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ॥ प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥ जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ॥ नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परदा ढाकै = लज्जा रखता है, अवगुणों पर पर्दा डालता है। सरपर = अवश्य, जरूर। राखै = (लज्जा) रखता है। वडाई = महिमा, सम्मान। पति = इज्जत। गति = हालत, अवस्था। मिति = गिनती, (बड़ेपन का) अंदाजा। न लाखै = नहीं समझ सकता। को न = कोई मनुष्य नहीं। प्रभि = प्रभु ने। दह = दस। दिसि = दिशाएं।4।
अर्थ: प्रभु अपने सेवक का पर्दा ढकता है, और उसकी लज्जा अवश्य रखता है।
प्रभु अपने सेवक को सम्मान बख्शता है और उसे अपना नाम जपाता है।
प्रभु अपने सेवक की इज्जत स्वयं रखता है, उसकी उच्च अवस्था और उसके बड़ेपन का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता।
कोई मनुष्य प्रभु के सेवक की बराबरी नहीं कर सकता, (क्योंकि) प्रभु के सेवक ऊँचों से भी ऊँचे होते हैं।
(पर) हे नानक! वह सेवक सारे जगत में प्रगट हुआ है, जिसे प्रभु ने खुद अपनी सेवा में लगाया है।4।
[[0286]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीकी कीरी महि कल राखै ॥ भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥ जिस का सासु न काढत आपि ॥ ता कउ राखत दे करि हाथ ॥ मानस जतन करत बहु भाति ॥ तिस के करतब बिरथे जाति ॥ मारै न राखै अवरु न कोइ ॥ सरब जीआ का राखा सोइ ॥ काहे सोच करहि रे प्राणी ॥ जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥
मूलम्
नीकी कीरी महि कल राखै ॥ भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥ जिस का सासु न काढत आपि ॥ ता कउ राखत दे करि हाथ ॥ मानस जतन करत बहु भाति ॥ तिस के करतब बिरथे जाति ॥ मारै न राखै अवरु न कोइ ॥ सरब जीआ का राखा सोइ ॥ काहे सोच करहि रे प्राणी ॥ जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीकी = छोटी। कीरी = कीड़ी। कल = ताकत। भसम = राख। कोटि = करोड़। दे करि = दे कर। मानस = मनुष्य। बहु भाति = बहुत किस्म के। करतब = काम। बिरथे = व्यर्थ। अवरु = अन्य। सरब = सारे। काहे = क्यूँ? किस काम के? करहि = तू करता है। अलख = जिस का बयान ना हो सके। विडाणी = आश्चर्य।5।
अर्थ: (जिस) छोटी सी कीड़ी में (प्रभु) ताकत भरता है, (वह कीड़ी) लाखों करोड़ों लश्करों को राख कर देती है।
जिस जीव के श्वास प्रभु खुद नहीं निकालता, उसको हाथ दे कर रखता है।
मनुष्य कई किस्मों के प्रयत्न करता है (पर अगर प्रभु सहायता ना करे तो) उसके काम व्यर्थ जाते हैं।
(प्रभु के बिना जीवों को) ना कोई मार सकता है, ना रख सकता है, (प्रभु जितना) और कोई नहीं है, सारे जीवों का रक्षक प्रभु खुद है।
हे प्राणी! तू क्यूँ फिक्र करता है? हे नानक! अलख व आश्चर्यजनक प्रभु को स्मरण कर।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बारं बार बार प्रभु जपीऐ ॥ पी अम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥ नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ॥ तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥ नामु धनु नामो रूपु रंगु ॥ नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥ नाम रसि जो जन त्रिपताने ॥ मन तन नामहि नामि समाने ॥ ऊठत बैठत सोवत नाम ॥ कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥
मूलम्
बारं बार बार प्रभु जपीऐ ॥ पी अम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥ नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ॥ तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥ नामु धनु नामो रूपु रंगु ॥ नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥ नाम रसि जो जन त्रिपताने ॥ मन तन नामहि नामि समाने ॥ ऊठत बैठत सोवत नाम ॥ कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पी = पी के। ध्रपीऐ = तृप्त करें। तनु = (भाव) शारीरिक इंद्रियां। जिन = जिस ने। गुरमुखि = जिसका मुख गुरु की ओर है। द्रिसटाइआ = देखा। नामो = नाम ही। नाम रसि = नाम के स्वाद में। त्रिपताने = तृप्त हो गए। नामहि नामि = नाम ही नाम में, केवल नाम में ही। समाने = जुड़े रहते हैं। सद = सदा। जन कै = सेवक के हृदय में। काम = काम, आहर।6।
अर्थ: (हे भाई!) घड़ी-मुड़ी प्रभु को स्मरण करें, और (नाम-) अमृत पी कर इस मन को और शरीरिक इंद्रियों को तृप्त कर लें।
जिस गुरमुख ने नाम रूपी रतन पा लिया है, उसे प्रभु के बिना और कहीं कुछ नहीं दिखता।
नाम (उस गुरमुख का) धन है, और प्रभु के नाम का वह सदा संग करता है।
जो मनुष्य नाम के स्वाद में तृप्त हो गए हैं, उनके मन तन केवल प्रभु नाम में जुड़े रहते हैं।
हे नानक! कह कि उठते-बैठते, सोते-जागते (हर समय) प्रभु का नाम स्मरणा ही सेवकों का सदा आहर होता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलहु जसु जिहबा दिनु राति ॥ प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥ करहि भगति आतम कै चाइ ॥ प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥ जो होआ होवत सो जानै ॥ प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥ तिस की महिमा कउन बखानउ ॥ तिस का गुनु कहि एक न जानउ ॥ आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ॥ कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥
मूलम्
बोलहु जसु जिहबा दिनु राति ॥ प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥ करहि भगति आतम कै चाइ ॥ प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥ जो होआ होवत सो जानै ॥ प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥ तिस की महिमा कउन बखानउ ॥ तिस का गुनु कहि एक न जानउ ॥ आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ॥ कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिहबा = जीभ से। जसु = बड़ाई। प्रभि = प्रभु ने। अपनै जन = अपने सेवकों को। कीनी = की है। करहि = करते हैं। चाइ = चाव से, उत्साह से। सिउ = साथ। महिमा = बड़ाई। बखानउ = मैं बताऊँ। कहि न जानउ = कहना नहीं जानता। बसहि = बसते हैं।7।
अर्थ: (हे भाई!) दिन रात अपनी जीभ से प्रभु के गुण गाओ, महिमा की ये बख्शिश प्रभु ने अपने सेवकों पर (ही) की है।
(सेवक) अंदरूनी उत्साह से भक्ति करते हैं और अपने प्रभु के साथ जुड़े रहते हैं।
(सेवक) अपने प्रभु का हुक्म पहिचान लेता है, और, जो कुछ हो रहा है, उसको (रजा में) जानता है।
ऐसे सेवक की कौन सी महिमा मैं बताऊँ? मैं उस सेवक का एक गुण भी बयान करना नहीं जानता।
हे नानक! कह: वह मनुष्य संपूर्ण पात्र हैं जो आठों पहर प्रभु की हजूरी में बसते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥ मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥ जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥ सो जनु सरब थोक का दाता ॥ तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥ तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥ अवर सिआनप सगली छाडु ॥ तिसु जन की तू सेवा लागु ॥ आवनु जानु न होवी तेरा ॥ नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥
मूलम्
मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥ मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥ जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥ सो जनु सरब थोक का दाता ॥ तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥ तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥ अवर सिआनप सगली छाडु ॥ तिसु जन की तू सेवा लागु ॥ आवनु जानु न होवी तेरा ॥ नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिन की = उन लोगों की। ओट = आसरा। तिन जन = उन सेवकों को। जिनि जनि = जिस मनुष्य ने। थोक = पदार्थ, चीज। दाता = देने वाला, देने में समर्थ। पावहि = तू पाएगा। दरसि = दीदार करने से। सिआनप = चतुराई। आवनु जानु = जनम और मरन। ना होवी = नहीं होगा।8।
अर्थ: हे मेरे मन! (जो मनुष्य सदा प्रभु की हजूरी में बसते हैं) उनकी शरण पड़ और अपना तन मन उनके सदके कर दे।
जिस मनुष्य ने अपने प्रभु को पहचान लिया है, वह मनुष्य सारे पदार्थ देने के समर्थ हो जाता है।
(हे मन!) उसकी शरण पड़ने से तू सारे सुख पाएगा। उसके दीदार से तू सारे पाप दूर कर लेगा।
और चतुराई त्याग दे, और उस सेवक की सेवा में जुट जा।
हे नानक! उस संत जन के सदा पैर पूज, (इस तरह बार बार जगत में) तेरा आना-जाना नहीं होगा।8।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ ॥ तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरि गुन गाउ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ ॥ तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरि गुन गाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला, अस्तित्व वाला। पुरखु = सब में व्यापक आत्मा। सति पुरखु = वह ज्योति जो सदा स्थिर और सब में व्यापक है। जिनि = जिस ने। तिस कै संगि = उस (सतिगुरु) की स्रगति में। उधरै = (विकारों से) बच जाता है।1।
अर्थ: जिस ने सदा स्थिर और व्यापक प्रभु को पहिचान लिया है, उस का नाम सतिगुरु है, उसकी संगति में (रह के) सिख (विकारों से) बच जाता है। (इसलिए) हे नानक! (तू भी गुरु की संगति में रह कर) अकाल पुरख के गुण गा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ सतिगुरु सिख की करै प्रतिपाल ॥ सेवक कउ गुरु सदा दइआल ॥ सिख की गुरु दुरमति मलु हिरै ॥ गुर बचनी हरि नामु उचरै ॥ सतिगुरु सिख के बंधन काटै ॥ गुर का सिखु बिकार ते हाटै ॥ सतिगुरु सिख कउ नाम धनु देइ ॥ गुर का सिखु वडभागी हे ॥ सतिगुरु सिख का हलतु पलतु सवारै ॥ नानक सतिगुरु सिख कउ जीअ नालि समारै ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ सतिगुरु सिख की करै प्रतिपाल ॥ सेवक कउ गुरु सदा दइआल ॥ सिख की गुरु दुरमति मलु हिरै ॥ गुर बचनी हरि नामु उचरै ॥ सतिगुरु सिख के बंधन काटै ॥ गुर का सिखु बिकार ते हाटै ॥ सतिगुरु सिख कउ नाम धनु देइ ॥ गुर का सिखु वडभागी हे ॥ सतिगुरु सिख का हलतु पलतु सवारै ॥ नानक सतिगुरु सिख कउ जीअ नालि समारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रतिपाल = रक्षा। कउ = को, पर। दुरमति = बुरी मति। हिरै = दूर करता है। गुरबचनी = गुरु के वचन से, गुरु के उपदेश से। हाटै = हट जाता है। देइ = देता है। वडभागी = बड़ा भाग्यशाली। हे = है। हलतु = (सं: अत्र = in this place, here) ये लोक। पलतु = (परत्र = in another world) पर लोक। जीअ नाल = जिंद के साथ।1।
अर्थ: सतिगुरु सिख की रक्षा करता है, सतिगुरु अपने सेवक पर सदा मेहर करता है।
सतिगुरु अपने सिख की बुरी मति रूपी मैल दूर कर देता है, क्योंकि सिख अपने सतिगुरु के उपदेश के द्वारा प्रभु का नाम स्मरण करता है।
सतिगुरु अपने सिख के (माया के) बंधन काट देता है (और) गुरु का सिख विकारों से हट जाता है।
(क्योंकि) सतिगुरु अपने सिख को प्रभु का नाम रूपी धन देता है (और इस तरह) सतिगुरु का सिख बहुत भाग्यशाली बन जाता है।
सतिगुरु अपने सिख के लोक परलोक सवार देता है। हे नानक! सतिगुरु अपने सिख को अपनी जिंद के साथ याद रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥ गुर की आगिआ मन महि सहै ॥ आपस कउ करि कछु न जनावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥ मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥ तिसु सेवक के कारज रासि ॥ सेवा करत होइ निहकामी ॥ तिस कउ होत परापति सुआमी ॥ अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥ नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ ॥२॥
मूलम्
गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥ गुर की आगिआ मन महि सहै ॥ आपस कउ करि कछु न जनावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥ मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥ तिसु सेवक के कारज रासि ॥ सेवा करत होइ निहकामी ॥ तिस कउ होत परापति सुआमी ॥ अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥ नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिहि = घर में। गुर कै ग्रिहि = गुरु के घर में। सहै = सहता है। आपस कउ = अपने आप को। जनावै = जताता। रासि = सफल, सिद्ध। निहकामी = कामना रहित, फल की इच्छा ना रखने वाला। सुआमी = मालिक, प्रभु।2।
अर्थ: जो सेवक (शिक्षा की खातिर) गुरु के घर में (भाव गुरु के दर पर) रहता है, और गुरु का हुक्म मन में मानता है।
जो अपने आप को बड़ा नहीं जताता, प्रभु का नाम सदा हृदय में ध्याता है।
जो अपना मन सतिगुरु के आगे बेच देता है (भाव, गुरु के हवाले कर देता है) उस सेवक के सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।
जो सेवक (गुरु की) सेवा करता हुआ किसी फल की इच्छा नहीं रखता, उसे मालिक प्रभु मिल जाता है।
हे नानक! वह सेवक सतिगुरु की शिक्षा लेता है जिस पर (प्रभु अपनी मेहर करता है)।2।
[[0287]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीस बिसवे गुर का मनु मानै ॥ सो सेवकु परमेसुर की गति जानै ॥ सो सतिगुरु जिसु रिदै हरि नाउ ॥ अनिक बार गुर कउ बलि जाउ ॥ सरब निधान जीअ का दाता ॥ आठ पहर पारब्रहम रंगि राता ॥ ब्रहम महि जनु जन महि पारब्रहमु ॥ एकहि आपि नही कछु भरमु ॥ सहस सिआनप लइआ न जाईऐ ॥ नानक ऐसा गुरु बडभागी पाईऐ ॥३॥
मूलम्
बीस बिसवे गुर का मनु मानै ॥ सो सेवकु परमेसुर की गति जानै ॥ सो सतिगुरु जिसु रिदै हरि नाउ ॥ अनिक बार गुर कउ बलि जाउ ॥ सरब निधान जीअ का दाता ॥ आठ पहर पारब्रहम रंगि राता ॥ ब्रहम महि जनु जन महि पारब्रहमु ॥ एकहि आपि नही कछु भरमु ॥ सहस सिआनप लइआ न जाईऐ ॥ नानक ऐसा गुरु बडभागी पाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीस बिसवे = पूरे तौर पर। मानै = मान ले, यकीन बना ले। अनिक बार = कई बार। निधान = खजाने। जीअ = जिंद, आत्मिक जीवन। पारब्रहम रंगि = पारब्रहम के प्यार में। राता = रंगा हुआ। जनु = सेवक। भरमु = भुलेखा। सहस = हजारों।3।
अर्थ: जो सेवक अपने सतिगुरु को अपनी श्रद्धा का पूरी तरह से यकीन दिलवा लेता है, वह अकाल-पुरख की अवस्था को समझ लेता है।
सतिगुरु (भी) वह है जिसके हृदय में प्रभु का नाम बसता है, (मैं ऐसे) गुरु से कई बार सदके जाता हूँ।
(सतिगुरु) सारे खजानों का और आत्मिक जिंदगी का देने वाला है, (क्योंकि) वह आठों पहर अकाल-पुरख के प्यार में रंगा रहता है।
(प्रभु का) सेवक (-सतिगुरु) प्रभु में (जुड़ा रहता है) और (प्रभु के) सेवक-सतिगुरु में प्रभु (सदा टिका हुआ है)। गुरु और प्रभु एक रूप हैं, इसमें भुलेखे वाली बात नहीं।
हे नानक! हजारों चतुराईयों से ऐसा गुरु नहीं मिलता, बहुत भाग्यों से मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥ परसत चरन गति निरमल रीति ॥ भेटत संगि राम गुन रवे ॥ पारब्रहम की दरगह गवे ॥ सुनि करि बचन करन आघाने ॥ मनि संतोखु आतम पतीआने ॥ पूरा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥ अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥ गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥ नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥
मूलम्
सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥ परसत चरन गति निरमल रीति ॥ भेटत संगि राम गुन रवे ॥ पारब्रहम की दरगह गवे ॥ सुनि करि बचन करन आघाने ॥ मनि संतोखु आतम पतीआने ॥ पूरा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥ अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥ गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥ नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल = फल देने वाला। पेखत = देखते ही। पुनीत = पवित्र। परसत = छूने से। गति निरमल रीति = निर्मल गति और निर्मल रीति, उच्च अवस्था और स्वच्छ रहन सहन। भेटत = मिलने से। रवे = गाए जाते हैं। गवे = पहुँच हो जाती है। करन = कान। आघाने = तृप्त हो जाते हैं। पतीआने = पतीज जाता है, मान जाता है। अख्यउ = नाश ना होने वाला, सदा कायम। पेखै = देखता है। मंत्र = उपदेश।4।
अर्थ: गुरु का दीदार (सारे) फल देने वाला है, दीदार करने से पवित्र हो जाते हैं, गुरु के चरण छूने से उच्च अवस्था और स्वच्छ रहन-सहन हो जाता है।
गुरु की संगति में रहने से प्रभु के गुण गा सकते हैं, और अकाल-पुरख की दरगाह में पहुँच हो जाती है।
गुरु के वचन सुन के कान तृप्त हो जाते हैं, मन में संतोष आ जाता है और आत्मा पतीज जाती है।
सतिगुरु पूरन पुरखु है, उसका उपदेश भी सदा के लिए अटल है, (जिस की ओर) अमर करने वाली नजर से देखता है वही संत हो जाता है।
सतिगुरु के गुण बेअंत हैं, मूल्य नहीं पड़ सकता। हे नानक! जो जीव (प्रभु को) अच्छा लगता है, उसे गुरु के साथ मिलाता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिहबा एक उसतति अनेक ॥ सति पुरख पूरन बिबेक ॥ काहू बोल न पहुचत प्रानी ॥ अगम अगोचर प्रभ निरबानी ॥ निराहार निरवैर सुखदाई ॥ ता की कीमति किनै न पाई ॥ अनिक भगत बंदन नित करहि ॥ चरन कमल हिरदै सिमरहि ॥ सद बलिहारी सतिगुर अपने ॥ नानक जिसु प्रसादि ऐसा प्रभु जपने ॥५॥
मूलम्
जिहबा एक उसतति अनेक ॥ सति पुरख पूरन बिबेक ॥ काहू बोल न पहुचत प्रानी ॥ अगम अगोचर प्रभ निरबानी ॥ निराहार निरवैर सुखदाई ॥ ता की कीमति किनै न पाई ॥ अनिक भगत बंदन नित करहि ॥ चरन कमल हिरदै सिमरहि ॥ सद बलिहारी सतिगुर अपने ॥ नानक जिसु प्रसादि ऐसा प्रभु जपने ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = महिमा, गुण। बिबेक = परख, विचार। काहू बोल = किसी बात से। अगोचर = जिस तक शारीरिक इंद्रियों की पहुँच नहीं। निरबानी = वासना रहित। निराहार = निर आहार, खुराक के बिना, जिस को किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं। बंदन = नमस्कार, प्रणाम। जिस प्रसादि = जिस की कृपा से।5।
अर्थ: (मनुष्य की) जीभ एक है पर पूरन पुरख सदा स्थिर व्यापक प्रभु के अनेक गुण हैं।
मनुष्य किसी बोल के द्वारा (प्रभु के गुणों तक) नहीं पहुँच सकता, प्रभु पहुँच से परे है, वासना-रहित है, और मनुष्य की शारीरिक इंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं।
अकाल-पुरख को किसी खुराक की जरूरत नहीं, प्रभु वैर-रहित है (बल्कि, सबको) सुख देने वाला है, कोई जीव उस (के गुणों) का मूल्य नहीं पा सका।
अनेक भक्त सदा (प्रभु को) नमस्कार करते हैं, और उसके कमल समान (सुंदर) चरणों को अपने हृदय में स्मरण करते हैं।
हे नानक! (कह:) जिस गुरु की मेहर से ऐसे प्रभु को जप सकते हैं, मैं अपने उस गुरु से सदा सदके जाता हूँ।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥ अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥ उसु पुरख का नाही कदे बिनास ॥ जा कै मनि प्रगटे गुनतास ॥ आठ पहर हरि का नामु लेइ ॥ सचु उपदेसु सेवक कउ देइ ॥ मोह माइआ कै संगि न लेपु ॥ मन महि राखै हरि हरि एकु ॥ अंधकार दीपक परगासे ॥ नानक भरम मोह दुख तह ते नासे ॥६॥
मूलम्
इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥ अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥ उसु पुरख का नाही कदे बिनास ॥ जा कै मनि प्रगटे गुनतास ॥ आठ पहर हरि का नामु लेइ ॥ सचु उपदेसु सेवक कउ देइ ॥ मोह माइआ कै संगि न लेपु ॥ मन महि राखै हरि हरि एकु ॥ अंधकार दीपक परगासे ॥ नानक भरम मोह दुख तह ते नासे ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनु कोइ = कोई विरला मनुष्य। गुनतास = गुणों के खजाने प्रभु जी। लेपु = लगाव, जोड़। अंधकार = अंधेरा। तह ते = उस (मनुष्य) से।6।
अर्थ: कोई विरला मनुष्य ही प्रभु के नाम का स्वाद लेता है (और जो लेता है) वह नाम-अमृत पीता है, और अमर हो जाता है।
जिसके मन में गुणों के खजाने प्रभु का प्रकाश होता है, उसका कभी नाश नहीं होता (भाव, वह बार बार मौत का शिकार नहीं होता)।
(सतिगुरु) आठों पहर प्रभु का नाम स्मरण करता है, और अपने सेवक को भी यही सच्चा उपदेश देता है। माया के मोह से उसका कभी लगाव नहीं होता, वह सदा अपने मन में एक प्रभु को टिकाता है।
हे नानक! (जिसके अंदर से) (नाम-रूपी) दीए से (अज्ञानता का) अंधेरा (हट के) प्रकाश हो जाता है, उसके भुलेखे और मोह के (कारण पैदा हुए) दुख दूर हो जाते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपति माहि ठाढि वरताई ॥ अनदु भइआ दुख नाठे भाई ॥ जनम मरन के मिटे अंदेसे ॥ साधू के पूरन उपदेसे ॥ भउ चूका निरभउ होइ बसे ॥ सगल बिआधि मन ते खै नसे ॥ जिस का सा तिनि किरपा धारी ॥ साधसंगि जपि नामु मुरारी ॥ थिति पाई चूके भ्रम गवन ॥ सुनि नानक हरि हरि जसु स्रवन ॥७॥
मूलम्
तपति माहि ठाढि वरताई ॥ अनदु भइआ दुख नाठे भाई ॥ जनम मरन के मिटे अंदेसे ॥ साधू के पूरन उपदेसे ॥ भउ चूका निरभउ होइ बसे ॥ सगल बिआधि मन ते खै नसे ॥ जिस का सा तिनि किरपा धारी ॥ साधसंगि जपि नामु मुरारी ॥ थिति पाई चूके भ्रम गवन ॥ सुनि नानक हरि हरि जसु स्रवन ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपति = तपष्, विकारों का जोश। ठाढि = ठंढ। भइआ = हो गया। अंदेसे = फिक्र, चिन्ता। साधू = गुरु। बिआधि = (सं: वयाधि) शारीरिक रोग। खै = क्षय, नाश हो के। जपि = जप के, जपने से। थिति = टिकाव, शांति। चूके = समाप्त हो गए। भ्रम = भ्रम भुलेखे। सुनि = सुन के।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु के पूरे उपदेश से (विकारों की) तपश में (बसते हुए भी, प्रभु ने हमारे अंदर) ठंड वरता दी है, सुख ही सुख हो गया है, दुख भाग गए हैं और जनम मरन के (चक्कर में पड़ने के) डर फिक्र मिट गए हैं।
(सारा) डर खत्म हो गया है, अब निडर बसते हैं और रोग नाश हो के मन से बिसर गए हैं।
जिस गुरु के बने थे, उसने (हमारे पर) कृपा की है; सत्संग में प्रभु का नाम जप के, और हे नानक! प्रभु का यश कानों से सुन के (हमने) शांति हासिल कर ली है और (हमारे) भुलेखे और भटकनें समाप्त हो गई हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरगुनु आपि सरगुनु भी ओही ॥ कला धारि जिनि सगली मोही ॥ अपने चरित प्रभि आपि बनाए ॥ अपुनी कीमति आपे पाए ॥ हरि बिनु दूजा नाही कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ ओति पोति रविआ रूप रंग ॥ भए प्रगास साध कै संग ॥ रचि रचना अपनी कल धारी ॥ अनिक बार नानक बलिहारी ॥८॥१८॥
मूलम्
निरगुनु आपि सरगुनु भी ओही ॥ कला धारि जिनि सगली मोही ॥ अपने चरित प्रभि आपि बनाए ॥ अपुनी कीमति आपे पाए ॥ हरि बिनु दूजा नाही कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ ओति पोति रविआ रूप रंग ॥ भए प्रगास साध कै संग ॥ रचि रचना अपनी कल धारी ॥ अनिक बार नानक बलिहारी ॥८॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुनु = माया के तीनों गुणों से अलग। सरगुनु = माया के तीनों गुणों के रूप वाला, सारा दिखाई देता जगत रूप। मोही = मोह ली है। ओति पोति = ओत प्रोत। रविआ = व्यापक है। कल = ताकत, कला।8।
अर्थ: जिस प्रभु ने अपनी ताकत कायम करके सारे जगत को मोह लिया है, वह स्वयं माया के तीनों गुणों से अलग है, त्रिगुणी संसार का रूप भी स्वयं ही है।
प्रभु ने अपने खेल तमाशे स्वयं ही बनाए हैं, अपनी प्रतिभा का मूल्य भी खुद ही डालता है।
प्रभु के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है, सब के अंदर प्रभु स्वयं ही (मौजूद) है।
ओत-प्रोत सारे रूपों और रंगों में व्यापक है; ये प्रकाश (भाव, समझ) सतिगुरु की संगति में प्रकाशित होता है।
सृष्टि रच के प्रभु ने अपनी सत्ता (इस सृष्टि में) टिकाई है। हे नानक! (कह) मैं कई बार (ऐसे प्रभु से) सदके हूँ।8।18।
[[0288]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ॥ हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ॥ हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखिआ = माया। सगली = सारी। छारु = राख। सारु = श्रेष्ठ, अच्छा।1।
अर्थ: (प्रभु के) भजन के बिना (और कोई चीज मनुष्य के) साथ नहीं जाती, सारी माया (जो मनुष्श् कमाता रहता है, जगत से चलने के वक्त इसके वास्ते) राख के समान है। हे नानक! अकाल-पुरख का नाम (स्मरण) की कमाई करना ही (सबसे) बढ़िया धन है (यही मनुष्य के साथ निभता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ संत जना मिलि करहु बीचारु ॥ एकु सिमरि नाम आधारु ॥ अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ॥ चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥ करन कारन सो प्रभु समरथु ॥ द्रिड़ु करि गहहु नामु हरि वथु ॥ इहु धनु संचहु होवहु भगवंत ॥ संत जना का निरमल मंत ॥ एक आस राखहु मन माहि ॥ सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ संत जना मिलि करहु बीचारु ॥ एकु सिमरि नाम आधारु ॥ अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ॥ चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥ करन कारन सो प्रभु समरथु ॥ द्रिड़ु करि गहहु नामु हरि वथु ॥ इहु धनु संचहु होवहु भगवंत ॥ संत जना का निरमल मंत ॥ एक आस राखहु मन माहि ॥ सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आधारु = आसरा। अवरि = अन्य (बहुवचन)। उपाव = इलाज, हीले। सभि = सारे। मीत = हे मित्र! चरन कमल = कमल फूल जैसे कोमल चरण। उरिधारहु = अंदर टिकाओ। द्रिढ़ = पक्का। गहहु = पकड़ो। वथु = चीज। संचहु = इकट्ठा करोए संचित करो। भगवंत = भाग्यों वाले। मंत = उपदेश, शिक्षा। मन माहि = मन में। उरि = हृदय में।1।
अर्थ: संतों से मिल के (प्रभु के गुणों का) विचार करो, एक प्रभु को स्मरण करो और प्रभु के नाम का आसरा (लो)।
हे मित्र! और सारे उपाय छोड़ दो और प्रभु के कमल (जैसे सुंदर) चरण हृदय में टिकाओ।
वह प्रभु (सब कुछ खुद) करने (और जीवों से) करवाने की क्षमता रखता है, उस प्रभु का नाम-रूपी (खूबसूरत) पदार्थ अच्छी तरह से संभाल लो।
(हे भाई!) (नाम-रूप) ये धन संचित करो और भाग्यशाली बनो, संतों का यही पवित्र उपदेश है। अपने मन में एक (प्रभु की) आस रखो, हे नानक! (इस प्रकार) सारे रोग मिट जाएंगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ॥ सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥ जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ॥ सो सुखु साधू संगि परीति ॥ जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ॥ सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥ अनिक उपावी रोगु न जाइ ॥ रोगु मिटै हरि अवखधु लाइ ॥ सरब निधान महि हरि नामु निधानु ॥ जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥
मूलम्
जिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ॥ सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥ जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ॥ सो सुखु साधू संगि परीति ॥ जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ॥ सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥ अनिक उपावी रोगु न जाइ ॥ रोगु मिटै हरि अवखधु लाइ ॥ सरब निधान महि हरि नामु निधानु ॥ जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु धन कउ = जिस धन के लिए। कुंट = तरफ, ओर। धावहि = दौड़ता है। बाछहि = चाहता है। मीत = हे मित्र! परीति = प्यार (करने से)। करनी = काम। भजु = जा, पड़। उपावी = उपायों से, तरीकों से। अवखधु = दवा। निधान = खजाने।2।
अर्थ: (हे मित्र!) जिस धन की खातिर (तू) चारों तरफ उठ दौड़ता है वह धन प्रभु की सेवा से मिलेगा।
हे मित्र! जिस सुख की तुझे सदा चाहत रहती है, वह सुख संतों की संगति में प्यार करने से (मिलता है)।
जिस शोभा के लिए तू नेक कमाई करता है, वह शोभा (कमाने के लिए) तू हरि की शरण पड़।
(जो अहंकार का) रोग अनेक तरीकों से दूर नहीं होता वह रोग प्रभु के नाम-रूपी दवाई के इस्तेमाल से मिट जाता है।
सारे (दुनियावी) खजानों में प्रभु का नाम (बढ़िया) खजाना है। हे नानक! (नाम) जप, दरगाह में स्वीकार (होगा)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु परबोधहु हरि कै नाइ ॥ दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥ ता कउ बिघनु न लागै कोइ ॥ जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥ कलि ताती ठांढा हरि नाउ ॥ सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ॥ भउ बिनसै पूरन होइ आस ॥ भगति भाइ आतम परगास ॥ तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ॥ कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥
मूलम्
मनु परबोधहु हरि कै नाइ ॥ दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥ ता कउ बिघनु न लागै कोइ ॥ जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥ कलि ताती ठांढा हरि नाउ ॥ सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ॥ भउ बिनसै पूरन होइ आस ॥ भगति भाइ आतम परगास ॥ तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ॥ कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परबोधहु = जगाओ। नाइ = नाम से। दह दिसि = दसों दिशाओं में। धावत = दौड़ता है। ठाइ = ठिकाने पे। ता कउ = उस को। बिघनु = रूकावट। ताती = गर्म (आग)। ठाढा = ठंडा, शीतल। बिनसै = नाश हो जाता है। भगति भाइ = भक्ति के भाव से, भक्ति के प्यार से। तितु घरि = उस (हृय) घर में।3।
अर्थ: (हे भाई! अपने) मन को प्रभु के नाम से जगाओ, (नाम की इनायत से) दसों दिशाओं में दौड़ता (ये मन) ठिकाने आ जाता है।
उस मनुष्य को कोई मुश्किल नहीं आती, जिसके हृदय में वह प्रभु बसता है।
कलियुग गर्म (आग) है (भाव, विकार जीवों को जला रहे हैं) प्रभु का नाम ठंडा है, उसे सदा स्मरण करो और सुख पाओ।
(नाम स्मरण करने से) डर उड़ जाता है, और, आस पूरी हो जाती है (भाव, ना ही मनुष्य आशाएं बाँधता फिरता है ना ही उन आशाओं के टूटने का कोई डर होता है) (क्योंकि) प्रभु की भक्ति से प्यार करके आत्मा चमक जाती है। (जो स्मरण करता है) उसके (हृदय) घर में अविनाशी प्रभु आ बसता है। हे नानक! कह (कि नाम जपने से) जमों की फाँसी कट जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततु बीचारु कहै जनु साचा ॥ जनमि मरै सो काचो काचा ॥ आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ॥ आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥ इउ रतन जनम का होइ उधारु ॥ हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥ अनिक उपाव न छूटनहारे ॥ सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ हरि की भगति करहु मनु लाइ ॥ मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥
मूलम्
ततु बीचारु कहै जनु साचा ॥ जनमि मरै सो काचो काचा ॥ आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ॥ आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥ इउ रतन जनम का होइ उधारु ॥ हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥ अनिक उपाव न छूटनहारे ॥ सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ हरि की भगति करहु मनु लाइ ॥ मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततु = (सं: तत्व) अकाल-पुरख। साचा = सच्चा, सच मुच (सेवक)। जनमि मरै = जो पैदा हो के (सिर्फ) मर जाता है। काचो काचा = कच्चा ही कच्चा। आवागवनु = जनम मरन का चक्र। सेव = सेवा। आपु = स्वैभाव। रतन जनम = कीमती मानव जनम। मनि बंछत = मन इच्छित, जिनकी मन चाहत करता है। मनि = मन में।4।
अर्थ: जा मनुष्य पारब्रहम की सिफति-रूप सोच सोचता है वह सचमुच मनुष्य है, पर जो पैदा हो के (सिर्फ) मर जाता है (और बंदगी नहीं करता) वह बिल्कुल कच्चा है।
स्वैभाव त्याग के, सतिगुरु की शरण पड़ के प्रभु का स्मरण करने से जनम मरन के चक्र समाप्त हो जाते हैं।
इस तरह कीमती मानव जन्म सफल हो जाता है (इसलिए, हे भाई!) प्रभु को स्मरण कर, (यही) प्राणों का आसरा है।
स्मृतियां-शास्त्र-वेद (आदिक) विचारने से (और ऐसे ही) अनेको उपाय करनेसे (आवगवन से) बच नहीं सकते।
मन लगा के केवल प्रभु की ही भक्ति करो। (जो भक्ति करता है) हे नानक! उसको मन-इच्छित फल मिल जाते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगि न चालसि तेरै धना ॥ तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥ सुत मीत कुट्मब अरु बनिता ॥ इन ते कहहु तुम कवन सनाथा ॥ राज रंग माइआ बिसथार ॥ इन ते कहहु कवन छुटकार ॥ असु हसती रथ असवारी ॥ झूठा ड्मफु झूठु पासारी ॥ जिनि दीए तिसु बुझै न बिगाना ॥ नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥
मूलम्
संगि न चालसि तेरै धना ॥ तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥ सुत मीत कुट्मब अरु बनिता ॥ इन ते कहहु तुम कवन सनाथा ॥ राज रंग माइआ बिसथार ॥ इन ते कहहु कवन छुटकार ॥ असु हसती रथ असवारी ॥ झूठा ड्मफु झूठु पासारी ॥ जिनि दीए तिसु बुझै न बिगाना ॥ नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ लपटावहि = क्यूँ लिपट रहा है, क्यूँ लिपटा बैठा है? सुत = पुत्र। कुटंब = परिवार। बनिता = स्त्री। इन ते = इनमें से। सनाथा = खसम वाला, नाथ वाला। छुटकार = सदा के लिए छूट, सदा वास्ते खलासी। कहहु = बताओ। असु = अश्व, घोड़े। हसती = हाथी। डंफु = दिखावा। पासारी = (दिखावे का) पसारा पसारने वाला। बिगाना = बे-ज्ञाना, मूर्ख।5।
अर्थ: हे मूर्ख मन! धन तेरे साथ नहीं जा सकता, तू क्यों इससे लिपटा बैठा है?
पुत्र-मित्र-परिवार व स्त्री इनमें से, बता, कौन तेरा साथ देने वाला है?
माया के आडंबर, राज और रंग-रलीयां - बता, इनमें से किस के साथ (मोह डालने से) सदा के लिए (माया से) मुक्ति मिल सकती है?
घोड़े, हाथी, रथों की सवारी करनी -ये सब झूठा दिखावा है, ये आडंबर रचाने वाला भी बिनसनहार है (विनाशवान है)।
मूर्ख मनुष्य उस प्रभु को नहीं पहिचानता जिसने ये सारे पदार्थ दिए हैं, और, नाम को भुला के, हे नानक! (आखिर) पछताता है।5।
[[0289]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की मति तूं लेहि इआने ॥ भगति बिना बहु डूबे सिआने ॥ हरि की भगति करहु मन मीत ॥ निरमल होइ तुम्हारो चीत ॥ चरन कमल राखहु मन माहि ॥ जनम जनम के किलबिख जाहि ॥ आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ॥ सुनत कहत रहत गति पावहु ॥ सार भूत सति हरि को नाउ ॥ सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥
मूलम्
गुर की मति तूं लेहि इआने ॥ भगति बिना बहु डूबे सिआने ॥ हरि की भगति करहु मन मीत ॥ निरमल होइ तुम्हारो चीत ॥ चरन कमल राखहु मन माहि ॥ जनम जनम के किलबिख जाहि ॥ आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ॥ सुनत कहत रहत गति पावहु ॥ सार भूत सति हरि को नाउ ॥ सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इआने = हे अंजान! बहु सिआने = कई समझदार लोग। किलबिख = पाप। सुनत = सुनते ही। रहत = रहते हुए, भाव, उत्तम जिंदगी बना के। गति = ऊँची अवस्था। सार = श्रेष्ठ, सबसे बढ़िया। भूत = पदार्थ, चीज। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम से।6।
अर्थ: हे अंजान! सतिगुरु की मति ले (भाव, शिक्षा पर चल) बड़े समझदार-समझदार लोग भी भक्ती के बिना (विकारों में ही) डूब जाते हैं।
हे मित्र मन! प्रभु की भक्ति कर, इस तरह तेरी बुद्धि पवित्र होगी।
(हे भाई!) प्रभु के कमल (जैसे सुंदर) चरण अपने मन में परो के रख, इस तरह कई जन्मों के पाप नाश हो जाएंगे।
(प्रभु का नाम) तू खुद जप, और, और लोगों को जपने के लिए प्रेरित कर, (नाम) सुनते हुए, उच्चारते हुए और निर्मल रहन-सहन रखते हुए उच्च अवस्था बन जाएगी।
प्रभु का नाम ही सब पदार्थों से उत्तम पदार्थ है; (इसलिए) हे नानक! आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम से प्रभु के गुण गा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥ बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥ होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥ सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥ छाडि सिआनप सगली मना ॥ साधसंगि पावहि सचु धना ॥ हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥ ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥ सरब निरंतरि एको देखु ॥ कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
मूलम्
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥ बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥ होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥ सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥ छाडि सिआनप सगली मना ॥ साधसंगि पावहि सचु धना ॥ हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥ ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥ सरब निरंतरि एको देखु ॥ कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर, विष। फैलु = फैलाव, पसारा। अचिंतु = बेफिक्र। सासि = सांस के साथ। ग्रासि = ग्रास के साथ। सचु धना = सच्चा धन, सदा निभने वाला धन। संचि = संचित कर। बिउहारु = व्यापार। ईहा = इस जनम में। जैकारु = सदा की जीत, आदर, अभिनंदन। सरब निरंतरि = सब के अंदर। जा कै मसतकि = जिसके माथे पर।7।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु के गुण गाते हुए तेरी (विकारों की) मैल उतर जाएगी, और अहंम् रूपी विष का पसारा भी मिट जाएगा।
हर दम प्रभु के नाम को याद कर, बेफिक्र हो जाएगा और सुखी जीवन व्यतीत होगा।
हे मन! सारी चतुराई छोड़ दे, सदा साथ निभने वाला धन सतिसंग में मिलेगा।
प्रभु के नाम की राशि संचित कर, यही व्यवहार कर। इस जीवन में सुख मिलेगा, और प्रभु की दरगाह में आदर होगा।
सब जीवों के अंदर एक अकाल-पुरख को ही देख, (पर) हे नानक! कह: (यह काम वही मनुष्य करता है) जिसके माथे पर भाग्य हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको जपि एको सालाहि ॥ एकु सिमरि एको मन आहि ॥ एकस के गुन गाउ अनंत ॥ मनि तनि जापि एक भगवंत ॥ एको एकु एकु हरि आपि ॥ पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥ अनिक बिसथार एक ते भए ॥ एकु अराधि पराछत गए ॥ मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ॥ गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥१९॥
मूलम्
एको जपि एको सालाहि ॥ एकु सिमरि एको मन आहि ॥ एकस के गुन गाउ अनंत ॥ मनि तनि जापि एक भगवंत ॥ एको एकु एकु हरि आपि ॥ पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥ अनिक बिसथार एक ते भए ॥ एकु अराधि पराछत गए ॥ मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ॥ गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एको = एक प्रभु को ही। मन = हे मन! आहि = चाह कर, तमन्ना रख। अनंत = बेअंत। भगवंत = भगवान। बिआपि रहिओ = सब में बस रहा है। पराछत = पाप। राता = रंगा हुआ।8।
अर्थ: एक प्रभु को ही जप, और एक प्रभु की ही कीर्ति कर, एक को स्मरण कर, और, हे मन! एक प्रभु के मिलने की तमन्ना रख।
एक प्रभु के ही गुण गा, मन में और शारीरिक इंद्रियों से एक भगवान को ही जप।
(सब जगह) प्रभु खुद ही खुद है, सब जीवों में प्रभु ही बस रहा है।
(जगत के) अनेक पसारे एक प्रभु से ही पसरे हुए हैं, एक प्रभु को स्मरण करने से पाप नाश हो जाते हैं।
जिस मनुष्य के मन और शरीर में एक प्रभु ही परोया गया है, हे नानक! उस ने गुरु की कृपा से उस एक प्रभु को पहचान लिया है।8।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ फिरत फिरत प्रभ आइआ परिआ तउ सरनाइ ॥ नानक की प्रभ बेनती अपनी भगती लाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ फिरत फिरत प्रभ आइआ परिआ तउ सरनाइ ॥ नानक की प्रभ बेनती अपनी भगती लाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! परिआ = पड़ा हूँ। तउ सरनाइ = तेरी शरण। प्रभ = हे प्रभु! लाइ = लगा ले।1।
अर्थ: हे प्रभु! भटकता भटकता मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ। हे प्रभु! नानक की ये विनती है कि मुझे अपनी भक्ति में जोड़।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ जाचक जनु जाचै प्रभ दानु ॥ करि किरपा देवहु हरि नामु ॥ साध जना की मागउ धूरि ॥ पारब्रहम मेरी सरधा पूरि ॥ सदा सदा प्रभ के गुन गावउ ॥ सासि सासि प्रभ तुमहि धिआवउ ॥ चरन कमल सिउ लागै प्रीति ॥ भगति करउ प्रभ की नित नीति ॥ एक ओट एको आधारु ॥ नानकु मागै नामु प्रभ सारु ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ जाचक जनु जाचै प्रभ दानु ॥ करि किरपा देवहु हरि नामु ॥ साध जना की मागउ धूरि ॥ पारब्रहम मेरी सरधा पूरि ॥ सदा सदा प्रभ के गुन गावउ ॥ सासि सासि प्रभ तुमहि धिआवउ ॥ चरन कमल सिउ लागै प्रीति ॥ भगति करउ प्रभ की नित नीति ॥ एक ओट एको आधारु ॥ नानकु मागै नामु प्रभ सारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचक जनु = याचना करता मनुष्य। जाचै = मांगता है। धूरि = धूल। मागउ = मैं मांगता हूँ। पारब्रहम = हे पारब्रहम! सरधा = इच्छा। पूरि = पूरी कर। गावउ = मैं गाऊँ। नित नीति = सदा ही। नानकु मागै = नानक मांगता है। नामु प्रभ सारु = प्रभ सार नाम, प्रभु का श्रेष्ठ नाम।1।
अर्थ: हे प्रभु! (यह) भिखारी (याचक) दास (तेरे नाम का) दान मांगता है; हे हरि! कृपा करके (अपना) नाम दे।
हे पारब्रहम! मेरी इच्छा पूरी कर, मैं साधु जनों के पैरों की खाक मांगता हूँ।
मैं सदा ही प्रभु के गुण गाऊँ। हे प्रभु! मैं हर दम तुझे ही स्मरण करूँ।
प्रभु के कमल (जैसे सुंदर) चरणों से मेरी प्रीति लगी रहे और सदा ही प्रभु की भक्ति करता रहूँ।
(प्रभु का नाम ही) एक ही मेरी ओट है और एक ही आसरा है, नानक प्रभु का श्रेष्ठ नाम मांगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥ हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥ जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ॥ पूरन पुरख नही डोलाने ॥ सुभर भरे प्रेम रस रंगि ॥ उपजै चाउ साध कै संगि ॥ परे सरनि आन सभ तिआगि ॥ अंतरि प्रगास अनदिनु लिव लागि ॥ बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥
मूलम्
प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥ हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥ जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ॥ पूरन पुरख नही डोलाने ॥ सुभर भरे प्रेम रस रंगि ॥ उपजै चाउ साध कै संगि ॥ परे सरनि आन सभ तिआगि ॥ अंतरि प्रगास अनदिनु लिव लागि ॥ बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिपताने = संतुष्ट, माया से बेपरवाह। सुभर = नाको नाक। प्रेम रस रंगि = प्रेम के स्वाद की मौज में। आन = अन्य। तिआगि = छोड़ के। प्रगास = प्रकाश। अनदिनु = हर रोज, हर समय। नामि रते = नाम में रंगे हुए को।2।
अर्थ: प्रभु की (मेहर की) नजर से बड़ा सुख होता है, (पर) कोई विरला मनुष्य ही प्रभु के नाम का स्वाद चखता है
जिन्होंने (नाम रस) चखा है, वह मनुष्य (माया की ओर से) संतुष्ट हो गए हैं, वह पूर्ण मनुष्य बन गए हैं, कभी (माया के फायदे नुकसान में) डोलते नहीं।
प्रभु के प्यार के स्वाद की मौज में वह सराबोर (नाको-नाक भरे) रहते हैं, साधु जनों की संगति में रह के (उनके अंदर) (प्रभु मिलाप का) चाव पैदा होता है।
और सारे (आसरे) छोड़ के वह प्रभु की शरण पड़ते हैं, उनके अंदर प्रकाश हो जाता है, और हर समय उनकी लगन (प्रभु चरणों में) लगी रहती है।
बहुत भाग्यशालियों ने प्रभु को स्मरण किया है। हे नानक! प्रभु के नाम में रंगे रहने से सुख होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक की मनसा पूरी भई ॥ सतिगुर ते निरमल मति लई ॥ जन कउ प्रभु होइओ दइआलु ॥ सेवकु कीनो सदा निहालु ॥ बंधन काटि मुकति जनु भइआ ॥ जनम मरन दूखु भ्रमु गइआ ॥ इछ पुनी सरधा सभ पूरी ॥ रवि रहिआ सद संगि हजूरी ॥ जिस का सा तिनि लीआ मिलाइ ॥ नानक भगती नामि समाइ ॥३॥
मूलम्
सेवक की मनसा पूरी भई ॥ सतिगुर ते निरमल मति लई ॥ जन कउ प्रभु होइओ दइआलु ॥ सेवकु कीनो सदा निहालु ॥ बंधन काटि मुकति जनु भइआ ॥ जनम मरन दूखु भ्रमु गइआ ॥ इछ पुनी सरधा सभ पूरी ॥ रवि रहिआ सद संगि हजूरी ॥ जिस का सा तिनि लीआ मिलाइ ॥ नानक भगती नामि समाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनसा = मन की इच्छा। मति = शिक्षा। जन कउ = अपने सेवक को। निहालु = प्रसन्न, खुश। भ्रम = भ्रम, भुलेखा, सहसा। रवि रहिआ = हर जगह मौजूद। सद = सदा। संगि = साथ। हजूरी = अंग संग। सा = था, बना। तिनि = उस प्रभु ने।3।
अर्थ: (जब सेवक) अपने गुरु से उत्तम शिक्षा लेता है (तब सेवक के मन के फुरने पूरे हो जाते हैं, माया की ओर से दौड़ समाप्त हो जाती है)।
प्रभु अपने (ऐसे) सेवक पर मेहर करता है, और, सेवक को सदा प्रसन्न रखता है।
सेवक (माया वाली) जंजीर तोड़ के मुक्त हो जाता है, उसका जनम मरण (का चक्र) का दुख और सहसा खत्म हो जाता है।
सेवक की इच्छा और श्रद्धा सफल हो जाती है, उसे प्रभु सब जगह व्यापक अपने अंग संग दिखता है।
हे नानक! जिस मालिक का वह सेवक बनता है, वह अपने साथ मिला लेता है, सेवक भक्ति करके नाम में टिका रहता है।3।
[[0290]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो किउ बिसरै जि घाल न भानै ॥ सो किउ बिसरै जि कीआ जानै ॥ सो किउ बिसरै जिनि सभु किछु दीआ ॥ सो किउ बिसरै जि जीवन जीआ ॥ सो किउ बिसरै जि अगनि महि राखै ॥ गुर प्रसादि को बिरला लाखै ॥ सो किउ बिसरै जि बिखु ते काढै ॥ जनम जनम का टूटा गाढै ॥ गुरि पूरै ततु इहै बुझाइआ ॥ प्रभु अपना नानक जन धिआइआ ॥४॥
मूलम्
सो किउ बिसरै जि घाल न भानै ॥ सो किउ बिसरै जि कीआ जानै ॥ सो किउ बिसरै जिनि सभु किछु दीआ ॥ सो किउ बिसरै जि जीवन जीआ ॥ सो किउ बिसरै जि अगनि महि राखै ॥ गुर प्रसादि को बिरला लाखै ॥ सो किउ बिसरै जि बिखु ते काढै ॥ जनम जनम का टूटा गाढै ॥ गुरि पूरै ततु इहै बुझाइआ ॥ प्रभु अपना नानक जन धिआइआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो = वह प्रभु। घाल = मेहनत। न भानै = नहीं तोड़ता, व्यर्थ नहीं जाने देता। कीआ = किया, की हुई कमाई। जानै = याद रखता है। जीवन जीआ = (जीवों की) जिंदगी का आसरा। अगनि = (माँ के पेट की) आग। लाखै = समझता है। बिखु = माया का विष। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। ततु = अस्लियत। जन = जनों ने, सेवकों ने।4।
अर्थ: (मनुष्य को) वह प्रभु क्यूँ बिसर जाए जो (मनुष्य की करी हुई) मेहनत को व्यर्थ नहीं जाने देता, जो की हुई कमाई को याद रखता है?
वह प्रभु क्यों भूल जाए जिसने सब कुछ दिया है, जो जीवों की जिंदगी का आसरा है?
वह अकाल-पुरख क्यूँ बिसर जाए जो (माया-रूप) जहर से बचाता है और कई जनम के बिछुड़े हुए जीव को (अपने साथ) जोड़ लेता है?
(जिस सेवकों को) पूरे गुरु ने ये बात समझाई है, हे नानक! उन्होंने अपने प्रभु को स्मरण किया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजन संत करहु इहु कामु ॥ आन तिआगि जपहु हरि नामु ॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुख पावहु ॥ आपि जपहु अवरह नामु जपावहु ॥ भगति भाइ तरीऐ संसारु ॥ बिनु भगती तनु होसी छारु ॥ सरब कलिआण सूख निधि नामु ॥ बूडत जात पाए बिस्रामु ॥ सगल दूख का होवत नासु ॥ नानक नामु जपहु गुनतासु ॥५॥
मूलम्
साजन संत करहु इहु कामु ॥ आन तिआगि जपहु हरि नामु ॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुख पावहु ॥ आपि जपहु अवरह नामु जपावहु ॥ भगति भाइ तरीऐ संसारु ॥ बिनु भगती तनु होसी छारु ॥ सरब कलिआण सूख निधि नामु ॥ बूडत जात पाए बिस्रामु ॥ सगल दूख का होवत नासु ॥ नानक नामु जपहु गुनतासु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = अन्य। तिआगि = छोड़ के। अवरह = और लोगों को। भगति भाइ = भक्ति के प्यार से। छारु = राख, व्यर्थ। कलिआण = भले भाग्य। निधि = खजाना। बूडत जात = डूबता जाता। बिस्रामु = विश्राम, ठिकाना। गुण तास = गुणों का खजाना।5।
अर्थ: हे सज्जनों! हे संत जनों! ये काम करो, अन्य सभी (प्रयास) छोड़ के प्रभु का नाम जपो।
सदा स्मरण करो और स्मरण करके सुख हासिल करो, प्रभु का नाम खुद जपो और-और लोगों को भी जपाओ।
प्रभु की भक्ति में नेह लगाने से ये संसार (समुंदर) तैरते हैं, भक्ति के बिना ये शरीर किसी काम का नहीं।
प्रभु का नाम भले भाग्यों और सारे सुखों का खजाना है, (नाम जपने से विकारों में) डूबते जाते को आसरा ठिकाना मिलता है।
(और) सारे दुखों का नाश हो जाता है। (इसलिए) हे नानक! नाम जपो, (नाम ही) गुणों का खजाना (है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपजी प्रीति प्रेम रसु चाउ ॥ मन तन अंतरि इही सुआउ ॥ नेत्रहु पेखि दरसु सुखु होइ ॥ मनु बिगसै साध चरन धोइ ॥ भगत जना कै मनि तनि रंगु ॥ बिरला कोऊ पावै संगु ॥ एक बसतु दीजै करि मइआ ॥ गुर प्रसादि नामु जपि लइआ ॥ ता की उपमा कही न जाइ ॥ नानक रहिआ सरब समाइ ॥६॥
मूलम्
उपजी प्रीति प्रेम रसु चाउ ॥ मन तन अंतरि इही सुआउ ॥ नेत्रहु पेखि दरसु सुखु होइ ॥ मनु बिगसै साध चरन धोइ ॥ भगत जना कै मनि तनि रंगु ॥ बिरला कोऊ पावै संगु ॥ एक बसतु दीजै करि मइआ ॥ गुर प्रसादि नामु जपि लइआ ॥ ता की उपमा कही न जाइ ॥ नानक रहिआ सरब समाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपजी = पैदा हुई। प्रेम रसु = प्रेम का स्वाद। सुआउ = स्वार्थ, चाहत। नेत्रहु = आँखों से। पेखि = देख के। दरसु = दर्शन। बिगसै = खिल जाता है। रंगु = मौज, प्यार। संगु = संगति, साथ। बसतु = चीज। मइआ = मेहर। उपमा = बड़ाई।6।
अर्थ: (जिसके अंदर प्रभु की) प्रीति पैदा होती है, प्रभु के प्यार का स्वाद और प्यार पैदा हुआ है, उसके मन में और तन में यही चाहत है (कि नाम की दाति मिले)।
आँखों से (गुरु का) दीदार करके उसे सुख होता है, गुरु के चरण धो के उसका मन खिल आता है।
भक्तों के मन और शरीर में (प्रभु का) प्यार टिका रहता है, (पर) किसी विरले भाग्यशाली को उनकी संगति नसीब होती है।
(हे प्रभु!) मेहर करके एक नाम-वस्तु (हमें) दे, (ता कि) गुरु की कृपा से तेरा नाम जप सकें।
हे नानक! वह प्रभु सब जगह मौजूद है, उसकी महिमा बयान नहीं की जा सकती।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ बखसंद दीन दइआल ॥ भगति वछल सदा किरपाल ॥ अनाथ नाथ गोबिंद गुपाल ॥ सरब घटा करत प्रतिपाल ॥ आदि पुरख कारण करतार ॥ भगत जना के प्रान अधार ॥ जो जो जपै सु होइ पुनीत ॥ भगति भाइ लावै मन हीत ॥ हम निरगुनीआर नीच अजान ॥ नानक तुमरी सरनि पुरख भगवान ॥७॥
मूलम्
प्रभ बखसंद दीन दइआल ॥ भगति वछल सदा किरपाल ॥ अनाथ नाथ गोबिंद गुपाल ॥ सरब घटा करत प्रतिपाल ॥ आदि पुरख कारण करतार ॥ भगत जना के प्रान अधार ॥ जो जो जपै सु होइ पुनीत ॥ भगति भाइ लावै मन हीत ॥ हम निरगुनीआर नीच अजान ॥ नानक तुमरी सरनि पुरख भगवान ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ बखसंद = हे बख्शनहार प्रभु! भगति वछल = हे भक्ति से प्यार करने वाले! प्रतिपाल = पालना। अधार = आसरा। पुनीत = पवित्र। हीत = हित, प्यार। निरगुनीआर = गुण हीन।7।
अर्थ: हे बख्शनहार प्रभु! हे गरीबों पे तरस करने वाले! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे सदा दया के घर!
हे अनाथों के नाथ! हे गोबिंद! हे गोपाल! हे सारे शरीरों की पालना करने वाले!
हे सब के आदि और सब में व्यापक प्रभु! हे (जगत के) मूल! ळे कर्तार! हे भक्तों की जिंदगी के आसरे!
जो जो मनुष्य भक्ति भाव से अपने मन में तेरा प्यार टिकाता है और तुझे जपता है, वह पवित्र हो जाता है।
हे नानक! (विनती कर और कह:) हे अकाल-पुरख! हे भगवान! हम तेरी शरण आए हैं, हम नीच हैं, अंजान हैं और गुण हीन हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब बैकुंठ मुकति मोख पाए ॥ एक निमख हरि के गुन गाए ॥ अनिक राज भोग बडिआई ॥ हरि के नाम की कथा मनि भाई ॥ बहु भोजन कापर संगीत ॥ रसना जपती हरि हरि नीत ॥ भली सु करनी सोभा धनवंत ॥ हिरदै बसे पूरन गुर मंत ॥ साधसंगि प्रभ देहु निवास ॥ सरब सूख नानक परगास ॥८॥२०॥
मूलम्
सरब बैकुंठ मुकति मोख पाए ॥ एक निमख हरि के गुन गाए ॥ अनिक राज भोग बडिआई ॥ हरि के नाम की कथा मनि भाई ॥ बहु भोजन कापर संगीत ॥ रसना जपती हरि हरि नीत ॥ भली सु करनी सोभा धनवंत ॥ हिरदै बसे पूरन गुर मंत ॥ साधसंगि प्रभ देहु निवास ॥ सरब सूख नानक परगास ॥८॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एक निमख = आँख की एक झपक। बैकुंठ = स्वर्ग। मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। कापर = कपड़े। संगीत = राग रंग। रसना = जीभ। नीत = नित्य, सदा। करनी = आचरन। गुरमुंत = गुरु का उपदेश।8।
अर्थ: जिस मनुष्य ने पलक झपकने मात्र समय के लिए भी प्रभु के गुण गाए हैं, उसने (मानो) सारे स्वर्ग और मोक्ष मुक्ति हासिल कर ली है।
जिस मनुष्य के मन को प्रभु के नाम की बातें मीठी लगी हैं, उसे (मानो) अनेक राज-भोग पदार्थ और महिमा मिल गई हैं।
जिस मनुष्य की जीभ सदा प्रभु का नाम जपती है, उसे (मानो) कई किस्म के खाने, कपड़े और राग रंग हासिल हो गए हैं।
जिस मनुष्य के हृदय में पूरे गुरु का उपदेश बसता है, उसी का ही आचरण भला है, उसी को ही शोभा मिलती है, वही धनवान है।
हे प्रभु! अपने संतों की संगत में जगह दे। हे नानक! (सत्संग में रहने से) सारे सुखों का प्रकाश हो जाता है।8।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥ आपन कीआ नानका आपे ही फिरि जापि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥ आपन कीआ नानका आपे ही फिरि जापि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरगुन = त्रिगुणी माया का रूप। निरगुन = माया के तीनों गुणों से परे। निरंकार = आकार रहित। सुंन = शून्य, जहाँ कुछ ना हो। सुंन समाधी = टिकाव की वह अवस्था जहाँ शून्य हो, कोई विचार ना उठे। कीआ = पैदा किया हुआ। जापि = जप रहा है, याद कर रहा है।1।
अर्थ: निरंकार (भाव, आकार रहित अकाल पुरख) त्रिगुणी माया का रूप (भाव, जगत रूप) भी खुद ही है और माया के तीनों गुणों से परे भी खुद ही है। निर्विचार अवस्था में टिका हुआ भी स्वयं ही है। हे नानक! (ये सारा जगत) प्रभु ने खुद ही रचा है (और जगत के जीवों में बैठ के) खुद ही (अपने आप को याद कर रहा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥ पाप पुंन तब कह ते होता ॥ जब धारी आपन सुंन समाधि ॥ तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति ॥ जब इस का बरनु चिहनु न जापत ॥ तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत ॥ जब आपन आप आपि पारब्रहम ॥ तब मोह कहा किसु होवत भरम ॥ आपन खेलु आपि वरतीजा ॥ नानक करनैहारु न दूजा ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥ पाप पुंन तब कह ते होता ॥ जब धारी आपन सुंन समाधि ॥ तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति ॥ जब इस का बरनु चिहनु न जापत ॥ तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत ॥ जब आपन आप आपि पारब्रहम ॥ तब मोह कहा किसु होवत भरम ॥ आपन खेलु आपि वरतीजा ॥ नानक करनैहारु न दूजा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकारु = स्वरूप,शकल। द्रिसटेता = दिखता। कह ते = किस (जीव) से? किसु संगि = किस के साथ? बरनु = वर्ण, रंग। चिहनु = निशान। न जापत = नहीं था प्रतीत होता, नहीं था दिखता। हरख = खुशी। सोग = चिन्ता। बिआपत = व्याप सकता था। वरतीजा = बरता।1।
अर्थ: जब (जगत के जीवों की अभी) कोई शकल नहीं दिखती थी, तब पाप या पुण्य किस जीव से हो सकता था?
जब (प्रभु ने) खुद शून्य अवस्था में समाधि लगाई हुई थी (भाव जब अपने आप में ही मस्त था) तब (किसने) किसके साथ वैर-विरोध कमाना था?
जब इस (जगत) का कोई रंग-रूप ही नहीं था दिखता, तब बताओ खुशी या चिन्ता किसे छू सकती थी?
जब अकाल-पुरख केवल स्वयं ही स्वयं था, तब मोह कहाँ हो सकता था, और भ्रम-भुलेखे किसको हो सकते थे?
हे नानक! (जगत रूपी) अपनी खेल प्रभु ने स्वयं बनाई है, (उसके बिना इस खेल को) बनाने वाला और कोई नहीं है।1।
[[0291]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब होवत प्रभ केवल धनी ॥ तब बंध मुकति कहु किस कउ गनी ॥ जब एकहि हरि अगम अपार ॥ तब नरक सुरग कहु कउन अउतार ॥ जब निरगुन प्रभ सहज सुभाइ ॥ तब सिव सकति कहहु कितु ठाइ ॥ जब आपहि आपि अपनी जोति धरै ॥ तब कवन निडरु कवन कत डरै ॥ आपन चलित आपि करनैहार ॥ नानक ठाकुर अगम अपार ॥२॥
मूलम्
जब होवत प्रभ केवल धनी ॥ तब बंध मुकति कहु किस कउ गनी ॥ जब एकहि हरि अगम अपार ॥ तब नरक सुरग कहु कउन अउतार ॥ जब निरगुन प्रभ सहज सुभाइ ॥ तब सिव सकति कहहु कितु ठाइ ॥ जब आपहि आपि अपनी जोति धरै ॥ तब कवन निडरु कवन कत डरै ॥ आपन चलित आपि करनैहार ॥ नानक ठाकुर अगम अपार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनी = मालिक। बंध = (माया के) बंधन। मुकति = माया से मुक्ति। गनी = समझें। अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके। अपार = बेअंत। अउतार = जनम लेने वाले। सिव = जीवात्मा। सकति = माया। कितु ठाइ = क्हाँ? चलित = तमाशे।2।
अर्थ: जब मालिक प्रभु सिर्फ (स्वयं ही) था, तब बताओ, किसे बंधनों में फंसा हुआ, और किसे मुक्त समझें?
जब अगम और बेअंत प्रभु एक खुद ही था, तब बताओ, नर्कों और स्वर्गों में आने वाले कौन से जीव थे?
जब सहज स्वभाव ही प्रभु निर्गुण था (त्रिगुणी माया से परे था), (भाव, जब उसने माया रची ही नहीं थी) तब बताओ, कहाँ थे जीव और कहाँ थी माया?
जब प्रभु खुद ही अपनी ज्योति जगाए बैठा था, तब कौन निडर थे और कौन किससे डरते थे?
हे नानक! अकाल-पुरख अगम और बेअंत है; अपने तमाश आप ही करने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबिनासी सुख आपन आसन ॥ तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥ जब पूरन करता प्रभु सोइ ॥ तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥ जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ॥ तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥ जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ॥ तब कउन छुटे कउन बंधन बाधे ॥ आपन आप आप ही अचरजा ॥ नानक आपन रूप आप ही उपरजा ॥३॥
मूलम्
अबिनासी सुख आपन आसन ॥ तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥ जब पूरन करता प्रभु सोइ ॥ तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥ जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ॥ तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥ जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ॥ तब कउन छुटे कउन बंधन बाधे ॥ आपन आप आप ही अचरजा ॥ नानक आपन रूप आप ही उपरजा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसन = तख्त, स्वरूप। तह = वहाँ। त्रास = डर। जम = (सं: यम) मौत। अबिगत = (सं: अव्यक्त) अदृष्य प्रभु। अगोचर = जिस तक शारीरिक इंद्रियों की पहुँच ना हो सके। चित्र गुपत = जीवों के किए कर्मों का लेखा पूछने वाले। अगाध = अथाह। अचरजा = हैरान करने वाला। उपरजा = पैदा किया है।3।
अर्थ: जब अकाल-पुरख अपनी मौज में अपने ही स्वरूप में टिका बैठा था, तब बताओ, पैदा होना, मरना व मौत कहाँ थी?
जब कर्तार पूरन प्रभु खुद ही था, तब बताओ, मौत का डर किस को हो सकता था?
जब अदृष्य और अगोचर प्रभु एक खुद ही था, तब चित्रगुप्त किससे लेखा पूछ सकते थे?
जब मालिक माया-रहित अथाह अगोचर स्वयं ही था, तो कौन माया के बंधनों से मुक्त था और कौन माया के बंधनों में बंधे हुए हैं?
वह आश्चर्य जनक प्रभु अपने जैसा खुद ही है। हे नानक! अपना आकार उसने स्वयं ही पैदा किया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह निरमल पुरखु पुरख पति होता ॥ तह बिनु मैलु कहहु किआ धोता ॥ जह निरंजन निरंकार निरबान ॥ तह कउन कउ मान कउन अभिमान ॥ जह सरूप केवल जगदीस ॥ तह छल छिद्र लगत कहु कीस ॥ जह जोति सरूपी जोति संगि समावै ॥ तह किसहि भूख कवनु त्रिपतावै ॥ करन करावन करनैहारु ॥ नानक करते का नाहि सुमारु ॥४॥
मूलम्
जह निरमल पुरखु पुरख पति होता ॥ तह बिनु मैलु कहहु किआ धोता ॥ जह निरंजन निरंकार निरबान ॥ तह कउन कउ मान कउन अभिमान ॥ जह सरूप केवल जगदीस ॥ तह छल छिद्र लगत कहु कीस ॥ जह जोति सरूपी जोति संगि समावै ॥ तह किसहि भूख कवनु त्रिपतावै ॥ करन करावन करनैहारु ॥ नानक करते का नाहि सुमारु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखु = अकाल-पुरख। पुरखपति = पुरखों का पति, जीवों का मालिक। निरबान = वासना रहित। जगदीस = जगत की (ईश) मालिक। छल = धोखा। छिद्र = एब। कीस = किस को? त्रिपतावै = तृप्त होता है। सुमारु = अंदाजा।4।
अर्थ: जिस अवस्था में जीवों का मालिक निर्मल प्रभु स्वयं ही था वहाँ वह मैल-रहित था, तो बताओ, उसने कौन सी मैल धोनी थी?
जहाँ माया रहित, आकार रहित और वासना रहित प्रभु ही था, वहाँ गुमान-अहंकार किसे होना था?
जहाँ केवल जगत के मालिक प्रभु की ही हस्ती थी, वहाँ बताएं, छल और ऐब किसे लग सकते थे?
जब ज्योति-रूप प्रभु खुद ही ज्योति में लीन था, तब किसे (माया की) भूख हो सकती थी और कौन तृप्त था?
कर्तार खुद ही सब कुछ करने वाला और जीवों से कराने वाला है। हे नानक! कर्तार का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई ॥ तब कवन माइ बाप मित्र सुत भाई ॥ जह सरब कला आपहि परबीन ॥ तह बेद कतेब कहा कोऊ चीन ॥ जब आपन आपु आपि उरि धारै ॥ तउ सगन अपसगन कहा बीचारै ॥ जह आपन ऊच आपन आपि नेरा ॥ तह कउन ठाकुरु कउनु कहीऐ चेरा ॥ बिसमन बिसम रहे बिसमाद ॥ नानक अपनी गति जानहु आपि ॥५॥
मूलम्
जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई ॥ तब कवन माइ बाप मित्र सुत भाई ॥ जह सरब कला आपहि परबीन ॥ तह बेद कतेब कहा कोऊ चीन ॥ जब आपन आपु आपि उरि धारै ॥ तउ सगन अपसगन कहा बीचारै ॥ जह आपन ऊच आपन आपि नेरा ॥ तह कउन ठाकुरु कउनु कहीऐ चेरा ॥ बिसमन बिसम रहे बिसमाद ॥ नानक अपनी गति जानहु आपि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। भाई = भ्राता। कला = ताकत। परबीन = प्रवीण, समझदार। चीन्ह = जानता, पहिचानता। आपन आपु = अपने आप को। उरिधारै = हृदय में टिकाता है। ठाकुरु = मालिक। चेरा = सेवक। कहा बीचारै = कहाँ कोई विचारता है? बिसमन बिसम = आश्चर्य से आश्चर्यजनक।5।
अर्थ: जब प्रभु ने अपनी शोभा अपने साथ बनाई थी (भाव, जब कोई और उसकी शोभा करने वाला नहीं था) तो कौन माँ, पिता, मित्र, पुत्र अथवा भाई थे?
जब अकाल पुरख स्वयं ही सारी ताकतों में प्रवीण था, तब कहाँ कोई वेद (हिंदू धर्म पुस्तक) और कतेबों को (मुसलमानों की धर्म पुस्तकें) विचारता था?
जब प्रभु अपने आप को खुद ही अपने आप में टिकाए बैठा था, अच्छे-बुरे शगुन (अपशगुन) कौन सोचता था? बताएं, मालिक कौन था और सेवक कौन था?
हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर और कह: हे प्रभु!) तू अपनी गति आप ही जानता है, जीव तेरी गति तलाशते हुए हैरान और आश्चर्यचकित हो रहे हैं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह अछल अछेद अभेद समाइआ ॥ ऊहा किसहि बिआपत माइआ ॥ आपस कउ आपहि आदेसु ॥ तिहु गुण का नाही परवेसु ॥ जह एकहि एक एक भगवंता ॥ तह कउनु अचिंतु किसु लागै चिंता ॥ जह आपन आपु आपि पतीआरा ॥ तह कउनु कथै कउनु सुननैहारा ॥ बहु बेअंत ऊच ते ऊचा ॥ नानक आपस कउ आपहि पहूचा ॥६॥
मूलम्
जह अछल अछेद अभेद समाइआ ॥ ऊहा किसहि बिआपत माइआ ॥ आपस कउ आपहि आदेसु ॥ तिहु गुण का नाही परवेसु ॥ जह एकहि एक एक भगवंता ॥ तह कउनु अचिंतु किसु लागै चिंता ॥ जह आपन आपु आपि पतीआरा ॥ तह कउनु कथै कउनु सुननैहारा ॥ बहु बेअंत ऊच ते ऊचा ॥ नानक आपस कउ आपहि पहूचा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अछल = जो छला ना जा सके, जिसे धोखा ना दिया जा सके। अछेद = जो छेदा ना जा सके। अभेद = जिसका भेद ना पाया जा सके। ऊहा = वहाँ। किसहि = कसको? आपस कउ = अपने आप को। आपहि = स्वयं ही। आदेसु = नमस्कार, प्रणाम। परवेसु = दखल, प्रभाव। अचिंतु = बेफिक्र। आपन आपु = अपने आप को। पतीआरा = पतिआने वाला। पहूचा = पहुँचा हुआ है।6।
अर्थ: जिस अवस्था में अछल-अबिनाशी और अभेद प्रभु (अपने आप में) टिका हुआ है, वहाँ किसे माया छू सकती है?
(जब) प्रभु अपने आप को ही नमस्कार करता है, (माया के) तीन गुणों का (उस पर) असर नहीं पड़ता।
जब भगवान केवल एक खुद ही था, तब कौन बेफिक्र था और किसको कोई चिन्ता लगती थी।
जब अपने आप को पतियाने वाला प्रभु स्वयं ही था,तब कौन बोलता था और कौन सुनने वाला था?
हे नानक! प्रभु बड़ा बेअंत है, सबसे ऊँचा है, अपने आप तक आप ही पहुँचने वाला है।6।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ॥ तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥ पापु पुंनु तह भई कहावत ॥ कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥ आल जाल माइआ जंजाल ॥ हउमै मोह भरम भै भार ॥ दूख सूख मान अपमान ॥ अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥ आपन खेलु आपि करि देखै ॥ खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥७॥
मूलम्
जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ॥ तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥ पापु पुंनु तह भई कहावत ॥ कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥ आल जाल माइआ जंजाल ॥ हउमै मोह भरम भै भार ॥ दूख सूख मान अपमान ॥ अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥ आपन खेलु आपि करि देखै ॥ खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परपंचु = (सं: प्रपंच) दृश्यमान संसार। बिसथारु = पसारा। कहावत = बात। बंछावत = चाहने वाला। आल जाल = घरों के बंधन। मान = आदर। अपमान = निरादरी। कीओ बख्यान = बताए गए। संकोचै = इकट्ठा करता है, समेटता है।7।
अर्थ: जब प्रभु ने स्वयं जगत की खेल रच दी, और माया के तीन गुणों का पसारा पसार दिया;
तब ये बात चल पड़ी कि ये पाप है ये पुण्य है, तब कोई जीव नर्कों का भागी और कोई स्वर्गों का चाहवान बना।
घरों के धंधे, माया के बंधन, अहंकार, मोह, भुलेखे, डर, दुख, सुख, आदर, निरादरी- ऐसी कई किस्मों की बातें चल पड़ीं।
हे नानक! प्रभु स्वयं तमाशा रच के स्वयं देख रहा है। जब इस खेल को समेटता है तो एक स्वयं ही स्वयं हो जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह अबिगतु भगतु तह आपि ॥ जह पसरै पासारु संत परतापि ॥ दुहू पाख का आपहि धनी ॥ उन की सोभा उनहू बनी ॥ आपहि कउतक करै अनद चोज ॥ आपहि रस भोगन निरजोग ॥ जिसु भावै तिसु आपन नाइ लावै ॥ जिसु भावै तिसु खेल खिलावै ॥ बेसुमार अथाह अगनत अतोलै ॥ जिउ बुलावहु तिउ नानक दास बोलै ॥८॥२१॥
मूलम्
जह अबिगतु भगतु तह आपि ॥ जह पसरै पासारु संत परतापि ॥ दुहू पाख का आपहि धनी ॥ उन की सोभा उनहू बनी ॥ आपहि कउतक करै अनद चोज ॥ आपहि रस भोगन निरजोग ॥ जिसु भावै तिसु आपन नाइ लावै ॥ जिसु भावै तिसु खेल खिलावै ॥ बेसुमार अथाह अगनत अतोलै ॥ जिउ बुलावहु तिउ नानक दास बोलै ॥८॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अबिगतु = (सं: अव्यक्त) अदृश्य प्रभु। संत परतापि = संतों के प्रताप वास्ते, संतों की महिमा बढ़ाने के लिए। धनी = मालिक। दुहू पाख का = (संतों का प्रताप और माया का प्रभाव रूप) दानों तरफ का। बनी = फबती है। निरजोग = निर्लिप। आपन नाइ = अपने नाम में। खेल = माया की खेलों में। बेसुमार = हे बेअंत!।8।
अर्थ: जहाँ अदृश्य प्रभु है वहाँ उसका भक्त है, जहाँ भक्त है वहाँ वह प्रभु स्वयं है। हर जगह संतों की महिमा के वास्ते प्रभु जगत का पसारा पसार रहा है।
प्रभु जी अपनी शोभा स्वयं ही जानते हैं, (संतों का प्रताप और माया का प्रभाव- इन) दोनों पक्षों का मालिक प्रभु स्वयं ही है।
प्रभु खुद ही खेलें खेल रहा है खुद ही आनंद तमाशे कर रहा है, खुद ही रसों को भोगने वाला है और खुद ही निर्लिप है।
जो उसे भाता है, उसे अपने नाम में जोड़ता है, और जिसको चाहता है माया की खेलें खिलाता है।
हे नानक! (ऐसे अरदास कर और कह:) हे बेअंत! हे अथाह! हे अगनत! हे अडोल प्रभु! जैसे तू बुलाता है वैसे तेरे दास बोलते हैं।8।21।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस अष्टपदी में इस ख्याल का खण्डन किया गया है कि जगत की रचना जीवों के कर्मों के कारण हुई। गुरु आशय अनुसार सिर्फ परमात्मा ही अनादि है। जब अभी जगत है ही नहीं था, केवल अकाल-पुरख ही था, तब ना कोई जीव था, ना ही माया थी। तब कर्मों का भी अभाव था। परमात्मा ने खुद ही ये खेल रचा। कर्मों का, नर्क-स्वर्ग का, पाप-पुण्य का सिलसिला तब से शुरू हुआ जब से जगत अस्तित्व में आया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ॥ नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ॥ नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरतणहार = सब जगह मौजूद। पसरिआ = सब जगह हाजिर है। कहु = कहाँ? द्रिसटार = देखने में आता है।1।
अर्थ: हे जीवों जंतुओं के पालने वाले प्रभु! तू खुद ही हर जगह में व्याप्त है। हे नानक! प्रभु स्वयं ही हर जगह मौजूद है, (उससे बिना कोई) दूसरा कहीं देखने में आया है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ आपि कथै आपि सुननैहारु ॥ आपहि एकु आपि बिसथारु ॥ जा तिसु भावै ता स्रिसटि उपाए ॥ आपनै भाणै लए समाए ॥ तुम ते भिंन नही किछु होइ ॥ आपन सूति सभु जगतु परोइ ॥ जा कउ प्रभ जीउ आपि बुझाए ॥ सचु नामु सोई जनु पाए ॥ सो समदरसी तत का बेता ॥ नानक सगल स्रिसटि का जेता ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ आपि कथै आपि सुननैहारु ॥ आपहि एकु आपि बिसथारु ॥ जा तिसु भावै ता स्रिसटि उपाए ॥ आपनै भाणै लए समाए ॥ तुम ते भिंन नही किछु होइ ॥ आपन सूति सभु जगतु परोइ ॥ जा कउ प्रभ जीउ आपि बुझाए ॥ सचु नामु सोई जनु पाए ॥ सो समदरसी तत का बेता ॥ नानक सगल स्रिसटि का जेता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथै = बोलता है। सुननैहारु = सुनने वाला। आपहि = आप ही। बिसथारु = विस्तार, पसारा, खिलारा। उपाए = पैदा करता है। लए समाए = समेट लेता है। भिंन = अलग। सूति = धागे में। बुझाए = सूझ देता है। समदरसी = सब को एक नजर से देखने वाला। जेता = जीतने वाला। तत = अस्लियत। बेता = वेक्ता, जानने वाला।1।
अर्थ: (सब जीवों में) प्रभु खुद बोल रहा है खुद ही सुनने वाला है, खुद ही एक है (सृष्टि रचने से पहले), और खुद ही (जगत को अपने में) समेट लेता है।
(हे प्रभु!) तुझसे अलग कुछ नहीं है, तूने (अपने हुक्म-रूप) धागे में सारे जगत को परो रखा है।
जिस मनुष्य को प्रभु जी स्वयं सूझ बख्शते हैं, वह मनुष्य प्रभु का सदा-स्थिर रहने वाला नाम हासिल कर लेता है।
वह मनुष्य सबकी ओर एक नजर से देखता है, अकाल-पुरख का महिरम हो जाता है। हे नानक! वह सारे जगत का जीतने वाला है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जंत्र सभ ता कै हाथ ॥ दीन दइआल अनाथ को नाथु ॥ जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ॥ सो मूआ जिसु मनहु बिसारै ॥ तिसु तजि अवर कहा को जाइ ॥ सभ सिरि एकु निरंजन राइ ॥ जीअ की जुगति जा कै सभ हाथि ॥ अंतरि बाहरि जानहु साथि ॥ गुन निधान बेअंत अपार ॥ नानक दास सदा बलिहार ॥२॥
मूलम्
जीअ जंत्र सभ ता कै हाथ ॥ दीन दइआल अनाथ को नाथु ॥ जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ॥ सो मूआ जिसु मनहु बिसारै ॥ तिसु तजि अवर कहा को जाइ ॥ सभ सिरि एकु निरंजन राइ ॥ जीअ की जुगति जा कै सभ हाथि ॥ अंतरि बाहरि जानहु साथि ॥ गुन निधान बेअंत अपार ॥ नानक दास सदा बलिहार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हाथ = वश में। को = का। नाथु = मालिक। मनहु = मन से। बिसारै = भुला देता है। तजि = छोड़ के। अवर कह = और कहाँ? को = कोई मनुष्य। सभ सिरि = सभी के सिर पर। निरंजन राइ = वह राजा जो माया के प्रभाव से परे है।2।
अर्थ: सारे जीव-जंतु उस प्रभु के वश में हैं, वह दीनों पर दया करने वाला है, और, अनाथों का मालिक है।
जिस जीव की प्रभु स्वयं रक्षा करता है उसको कोई मार नहीं सकता। मरा हुआ (तो) वह जीव है जिसको प्रभु भुला देता है।
उस प्रभु को छोड़ के और कहाँ कोई जाए? सब जीवों के सिर पर एक स्वयं प्रभु ही है जो माया के प्रभाव से परे है।
उस प्रभु को अंदर बाहर सब जगह अंग-संग जानो, जिसके वश में सब जीवों की जिंदगी का भेद है।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) सेवक उससे सदके हैं जो गुणों का खजाना है, बेअंत है और अपार है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन पूरि रहे दइआल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ अपने करतब जानै आपि ॥ अंतरजामी रहिओ बिआपि ॥ प्रतिपालै जीअन बहु भाति ॥ जो जो रचिओ सु तिसहि धिआति ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ भगति करहि हरि के गुण गाइ ॥ मन अंतरि बिस्वासु करि मानिआ ॥ करनहारु नानक इकु जानिआ ॥३॥
मूलम्
पूरन पूरि रहे दइआल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ अपने करतब जानै आपि ॥ अंतरजामी रहिओ बिआपि ॥ प्रतिपालै जीअन बहु भाति ॥ जो जो रचिओ सु तिसहि धिआति ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ भगति करहि हरि के गुण गाइ ॥ मन अंतरि बिस्वासु करि मानिआ ॥ करनहारु नानक इकु जानिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरि रहे = सब जगह व्यापक है। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। जीअन = जीवों को। बहु भाति = कई तरीकों से। बिस्वासु = विश्वास, यकीन, श्रद्धा।3।
अर्थ: दया के घर प्रभु जी हर जगह मौजूद हैं, और सब जीवों पर मेहर करते हैं।
प्रभु अपने खेल खुद जानता है, सबके दिल की जानने वाला प्रभु हर जगह मौजूद है।
जीवों को कई तरीकों से पालता है, जो जो जीव उसने पैदा किया है, वह उसी प्रभु को स्मरण करता है।
जिस पर प्रसन्न होता है उसको साथ जोड़ लेता है, (जिस पर प्रसन्न होता है) वह उसके गुण गा गा के उसकी भक्ति करते हैं।
हे नानक! जिस मनुष्य ने मन में श्रद्धा धार के प्रभु को (सचमुख अस्तित्व वाला) मान लिया है, उस ने एक कर्तार को ही पहिचाना है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनु लागा हरि एकै नाइ ॥ तिस की आस न बिरथी जाइ ॥ सेवक कउ सेवा बनि आई ॥ हुकमु बूझि परम पदु पाई ॥ इस ते ऊपरि नही बीचारु ॥ जा कै मनि बसिआ निरंकारु ॥ बंधन तोरि भए निरवैर ॥ अनदिनु पूजहि गुर के पैर ॥ इह लोक सुखीए परलोक सुहेले ॥ नानक हरि प्रभि आपहि मेले ॥४॥
मूलम्
जनु लागा हरि एकै नाइ ॥ तिस की आस न बिरथी जाइ ॥ सेवक कउ सेवा बनि आई ॥ हुकमु बूझि परम पदु पाई ॥ इस ते ऊपरि नही बीचारु ॥ जा कै मनि बसिआ निरंकारु ॥ बंधन तोरि भए निरवैर ॥ अनदिनु पूजहि गुर के पैर ॥ इह लोक सुखीए परलोक सुहेले ॥ नानक हरि प्रभि आपहि मेले ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइ = नाम में। बूझि = समझ के। परम पदु = ऊँचा दर्जा। इस ते ऊपरि = उससे ऊपर, इससे बढ़िया। जा के मनि = जिस के मन में। आपहि = आप ही।4।
अर्थ: (जो) सेवक एक प्रभु के नाम में टिका हुआ है, उसकी आस कभी खाली नहीं जाती।
सेवक को ये फबता है कि सब की सेवा करे। प्रभु की रजा समझ के उसे ऊँचा दर्जा मिल जाता है।
जिस के मन में अकाल-पुरख बसता है, उन्हें इस (नाम-स्मरण) से बड़ा और कोई विचार नहीं सूझता।
(माया के) बंधन तोड़ के वे निर्वैर हो जाते हैं और हर वक्त सतिगुरु के चरण पूजते हैं।
वह मनुष्य इस जनम में सुखी हैं, और परलोक में सुखी होते हैं (क्योंकि) हे नानक! प्रभु ने,खुद उनको (अपने साथ) मिला लिया है।4।
[[0293]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि मिलि करहु अनंद ॥ गुन गावहु प्रभ परमानंद ॥ राम नाम ततु करहु बीचारु ॥ द्रुलभ देह का करहु उधारु ॥ अम्रित बचन हरि के गुन गाउ ॥ प्रान तरन का इहै सुआउ ॥ आठ पहर प्रभ पेखहु नेरा ॥ मिटै अगिआनु बिनसै अंधेरा ॥ सुनि उपदेसु हिरदै बसावहु ॥ मन इछे नानक फल पावहु ॥५॥
मूलम्
साधसंगि मिलि करहु अनंद ॥ गुन गावहु प्रभ परमानंद ॥ राम नाम ततु करहु बीचारु ॥ द्रुलभ देह का करहु उधारु ॥ अम्रित बचन हरि के गुन गाउ ॥ प्रान तरन का इहै सुआउ ॥ आठ पहर प्रभ पेखहु नेरा ॥ मिटै अगिआनु बिनसै अंधेरा ॥ सुनि उपदेसु हिरदै बसावहु ॥ मन इछे नानक फल पावहु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनंद = खुशियां। प्रभ गुन = प्रभु के गुण। परमानंद = सबसे ऊँची खुशी वाला। उधारु = बचाव। सुआउ = साधन, ढंग। तरन = बचाना।5।
अर्थ: परम खुशियों वाले प्रभु की महिमा करो, सत्संग में मिल के ये (आत्मिक) आनंद लो।
प्रभु के नाम के भेद को विचारो और इस (मनुष्य-) शरीर का बचाव करो जो बड़ी मुश्किल से मिलता है।
अकाल-पुरख के गुण गाओ जो अमर करने वाले वचन हैं, जिंदगी को (विकारों से) बचाने का यही तरीका है।
आठों पहर प्रभु को अपने अंग-संग देखो (इस तरह) अज्ञानता मिट जाएगी और (माया वाला) अंधेरा नाश हो जाएगा।
हे नानक! (सतिगुरु का) उपदेश सुन के हृदय में बसाओ (इस तरह) मन-मांगी मुरादें मिलेंगीं।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हलतु पलतु दुइ लेहु सवारि ॥ राम नामु अंतरि उरि धारि ॥ पूरे गुर की पूरी दीखिआ ॥ जिसु मनि बसै तिसु साचु परीखिआ ॥ मनि तनि नामु जपहु लिव लाइ ॥ दूखु दरदु मन ते भउ जाइ ॥ सचु वापारु करहु वापारी ॥ दरगह निबहै खेप तुमारी ॥ एका टेक रखहु मन माहि ॥ नानक बहुरि न आवहि जाहि ॥६॥
मूलम्
हलतु पलतु दुइ लेहु सवारि ॥ राम नामु अंतरि उरि धारि ॥ पूरे गुर की पूरी दीखिआ ॥ जिसु मनि बसै तिसु साचु परीखिआ ॥ मनि तनि नामु जपहु लिव लाइ ॥ दूखु दरदु मन ते भउ जाइ ॥ सचु वापारु करहु वापारी ॥ दरगह निबहै खेप तुमारी ॥ एका टेक रखहु मन माहि ॥ नानक बहुरि न आवहि जाहि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हलतु = (सं: अत्र) ये लोक। पलतु = (सं: परत्र) परलोक। उरि धारि = हृदय में टिकाओ। दीखिआ = शिक्षा। जिसु मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। तिसु = उसे। परीखिआ = परख, समझ। वापारी = हे बंजारे जीव! निबहै = सफल हो जाए, निभ जाए। खेप = सौदा। बहुरि = फिर, दुबारा। साचु = सदा सिथर रहने वाला प्रभु।6।
अर्थ: प्रभु का नाम अंदर हृदय में टिकाओ, (इस तरह) लोक और परलोक दोनों सुधार लो।
पूरे सतिगुरु की शिक्षा भी पूर्ण (भाव, संपूर्ण, मुकम्मल) होती है, जिस मनुष्य के मन में (ये शिक्षा) बसती है उसको सदा स्थिर रहने वाला प्रभु समझ जाता है।
मन और शरीर के द्वारा ध्यान जोड़ के नाम जपो, दुख-दर्द और मन से डर दूर हो जाएगा।
हे बंजारे जीव! सच्चा वणज करो, (नाम रूपी सच्चे व्यापार से) तुम्हारा सौदा प्रभु की दरगाह में बिक जाएगा।
हे नानक! मन में एक अकाल-पुरख का आसरा रखो, बार-बार जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस ते दूरि कहा को जाइ ॥ उबरै राखनहारु धिआइ ॥ निरभउ जपै सगल भउ मिटै ॥ प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ॥ जिसु प्रभु राखै तिसु नाही दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥ चिंता जाइ मिटै अहंकारु ॥ तिसु जन कउ कोइ न पहुचनहारु ॥ सिर ऊपरि ठाढा गुरु सूरा ॥ नानक ता के कारज पूरा ॥७॥
मूलम्
तिस ते दूरि कहा को जाइ ॥ उबरै राखनहारु धिआइ ॥ निरभउ जपै सगल भउ मिटै ॥ प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ॥ जिसु प्रभु राखै तिसु नाही दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥ चिंता जाइ मिटै अहंकारु ॥ तिसु जन कउ कोइ न पहुचनहारु ॥ सिर ऊपरि ठाढा गुरु सूरा ॥ नानक ता के कारज पूरा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिस ते = उस प्रभु से। कहा = कहाँ? उबरै = बचता है। न पहुँचनहारु = बराबरी नहीं कर सकता। ठाढा = खड़ा। सूरा = सुरमा, शूरवीर। ता कै = उसके अंदर।7।
अर्थ: उस प्रभु से परे कहाँ कोई जीव जा सकता है? जीव बचता ही राखनहार प्रभु को स्मरण करके है।
जो मनुष्य निरभउ अकाल-पुरख को जपता है, उसका डर मिट जाता है, (क्योंकि) प्रभु की मेहर से ही बंदा (डर से) निजात पाता है।
जिस बंदे की प्रभु रक्षा करता है, उसे कोई दुख नहीं छूता, नाम जपने से मन में सुख पैदा होता है।
(नाम स्मरण करने से) चिन्ता दूर हो जाती है, अहंकार मिट जाता है, उस मनुष्य की कोई बराबरी ही नहीं कर सकता।
हे नानक! जिस आदमी के सिर पर सूरमा सतिगुरु (रक्षक बन के) खड़ा हुआ है, उसके सारे काम रास आ जाते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति पूरी अम्रितु जा की द्रिसटि ॥ दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥ चरन कमल जा के अनूप ॥ सफल दरसनु सुंदर हरि रूप ॥ धंनु सेवा सेवकु परवानु ॥ अंतरजामी पुरखु प्रधानु ॥ जिसु मनि बसै सु होत निहालु ॥ ता कै निकटि न आवत कालु ॥ अमर भए अमरा पदु पाइआ ॥ साधसंगि नानक हरि धिआइआ ॥८॥२२॥
मूलम्
मति पूरी अम्रितु जा की द्रिसटि ॥ दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥ चरन कमल जा के अनूप ॥ सफल दरसनु सुंदर हरि रूप ॥ धंनु सेवा सेवकु परवानु ॥ अंतरजामी पुरखु प्रधानु ॥ जिसु मनि बसै सु होत निहालु ॥ ता कै निकटि न आवत कालु ॥ अमर भए अमरा पदु पाइआ ॥ साधसंगि नानक हरि धिआइआ ॥८॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा की द्रिसटि = जिसकी नजर में। दरसनु पेखत = दीदार करके। अनूप = लासानी, बेमिसाल, अति सुंदर। सफल दरसनु = जिसका दीदार मुरादें पूरी करने वाला है। धंनु = मुबारक। परवानु = स्वीकार। प्रधानु = सब से बड़ा। ता कै निकटि = उसके नजदीक। अमरा पदु = सदा कायम रहने वाला दर्जा।8।
अर्थ: जिस प्रभु की समझ पूरन (infallible, अचूक) है, जिसकी नजर में से अमृत बरसता है, उसका दीदार करने से जगत का उद्धार होता है।
जिस प्रभु के कमलों (जैसे) अति सुंदर चरण हैं, उसका रूप सुंदर है, और, उसका दीदार मुरादें पूरी करने वाला है।
वह अकाल-पुरख घट घट की जानने वाला और सबसे बड़ा है, उसका सेवक (दरगाह में) स्वीकार हो जाता है (तभी तो) उसकी सेवा मुबारक है।
जिस मनुष्य के हृदय में (ऐसा प्रभु) बसता है वह (फूल जैसा) खिलता है, उसके नजदीक काल (भी) नहीं आता (भाव, मौत का डर उसे छूता नहीं)।
हे नानक! जिस मनुष्यों ने सत्संग में प्रभु को स्मरण किया है, वे जनम मरण से रहित हो जाते हैं, और सदा कायम रहने वाला दरजा हासिल कर लेते हैं।8।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। गुरि = गुरु ने। अंधेर बिनासु = अंधेरे का नाश। संत भेटिआ = गुरु को मिला। मनि = मन में। परगासु = प्रकाश।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य को) सतिगुरु ने ज्ञान का सुरमा बख्शा है, उसके अज्ञान (रूपी) अंधेरे का नाश हो जाता है।
हे नानक! (जो मनुष्य) अकाल-पुरख की मेहर से गुरु को मिला है, उसके मन में (ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ संतसंगि अंतरि प्रभु डीठा ॥ नामु प्रभू का लागा मीठा ॥ सगल समिग्री एकसु घट माहि ॥ अनिक रंग नाना द्रिसटाहि ॥ नउ निधि अम्रितु प्रभ का नामु ॥ देही महि इस का बिस्रामु ॥ सुंन समाधि अनहत तह नाद ॥ कहनु न जाई अचरज बिसमाद ॥ तिनि देखिआ जिसु आपि दिखाए ॥ नानक तिसु जन सोझी पाए ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ संतसंगि अंतरि प्रभु डीठा ॥ नामु प्रभू का लागा मीठा ॥ सगल समिग्री एकसु घट माहि ॥ अनिक रंग नाना द्रिसटाहि ॥ नउ निधि अम्रितु प्रभ का नामु ॥ देही महि इस का बिस्रामु ॥ सुंन समाधि अनहत तह नाद ॥ कहनु न जाई अचरज बिसमाद ॥ तिनि देखिआ जिसु आपि दिखाए ॥ नानक तिसु जन सोझी पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = (अपने) अंदर। नाना = कई किस्म के। द्रिसटाहि = देखने में आते हैं। समग्री = पदार्थ। एकसु = एक ही। घट माहि = घट में। एकसु घट माहि = एक (प्रभु) में ही! बिस्रामु = ठिकाना। सुंन समाधि = वह समाधि जिसमें कोई विचार ना उठे। अनहद = एक रस, लगातार। तह = वहाँ, उस शरीर में। नाद = आवाज, राग। बिसमाद = आश्चर्य।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने) गुरु की संगति में (रह के) अपने अंदर अकाल-पुरख को देखा है, उसे प्रभु का नाम प्यारा लग जाता है।
(जगत के) सारे पदार्थ (उसे) एक प्रभु में ही (लीन दिखते हैं), (उस प्रभु से ही) अनेक किस्मों के रंग तमाशे (निकले हुए) दिखते हैं
(उस मनुष्य के) शरीर में प्रभु के उस नाम का ठिकाना (हो जाता है) जो (मानो, जगत के) नौ ही खजानों (के बराबर) है और अमृत है।
उस मनुष्य के अंदर शून्य-समाधि की अवस्था (निरंतर-निर्विघ्न तवज्जो) बना रहती है, और, ऐसा आश्चर्य एक-रस राग (-रूपी आनंद बना रहता है) जिसका बयान नहीं हो सकता।
(पर) हे नानक! ये (आनंद) उस मनुष्य ने देखा है जिसे प्रभु खुद दिखाता है (क्योंकि) उस मनुष्य को (उस आनंद की) समझ देता है।1।
[[0294]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो अंतरि सो बाहरि अनंत ॥ घटि घटि बिआपि रहिआ भगवंत ॥ धरनि माहि आकास पइआल ॥ सरब लोक पूरन प्रतिपाल ॥ बनि तिनि परबति है पारब्रहमु ॥ जैसी आगिआ तैसा करमु ॥ पउण पाणी बैसंतर माहि ॥ चारि कुंट दह दिसे समाहि ॥ तिस ते भिंन नही को ठाउ ॥ गुर प्रसादि नानक सुखु पाउ ॥२॥
मूलम्
सो अंतरि सो बाहरि अनंत ॥ घटि घटि बिआपि रहिआ भगवंत ॥ धरनि माहि आकास पइआल ॥ सरब लोक पूरन प्रतिपाल ॥ बनि तिनि परबति है पारब्रहमु ॥ जैसी आगिआ तैसा करमु ॥ पउण पाणी बैसंतर माहि ॥ चारि कुंट दह दिसे समाहि ॥ तिस ते भिंन नही को ठाउ ॥ गुर प्रसादि नानक सुखु पाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरनि = धरती। पइआल = पाताल। सरब लोक = सारे भवनों में। बनि = जंगल में। तिनि = तृण में, घास आदि में। परबति = पर्वत में। आगिआ = आज्ञा, हुक्म। करमु = काम। बैसंतर = आग। कुंट = कूट। दिस = दिशा, तरफ। भिंन = भिन्न, अलग।2।
अर्थ: वह बेअंत भगवान अंदर-बाहर (सब जगह) हरेक शरीर में मौजूद है।
धरती, आकाश व पाताल में है, सारे भवनों में मौजूद है और सब की पालना करता है।
वह पारब्रहम जंगल में है, घास (आदि) में है और पर्वत में है; जैसा वह हुक्म करता है, वैसा ही (जीव) काम करता है।
पवन में, पानी में, आग में चहुँ कुंटों में दसों दिशाओं में (सब जगह) समाया हुआ है।
कोई (भी) जगह उस प्रभु से अलग नहीं है; (पर) हे नानक! (इस निश्चय का) आनंद गुरु की कृपा से ही मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पुरान सिम्रिति महि देखु ॥ ससीअर सूर नख्यत्र महि एकु ॥ बाणी प्रभ की सभु को बोलै ॥ आपि अडोलु न कबहू डोलै ॥ सरब कला करि खेलै खेल ॥ मोलि न पाईऐ गुणह अमोल ॥ सरब जोति महि जा की जोति ॥ धारि रहिओ सुआमी ओति पोति ॥ गुर परसादि भरम का नासु ॥ नानक तिन महि एहु बिसासु ॥३॥
मूलम्
बेद पुरान सिम्रिति महि देखु ॥ ससीअर सूर नख्यत्र महि एकु ॥ बाणी प्रभ की सभु को बोलै ॥ आपि अडोलु न कबहू डोलै ॥ सरब कला करि खेलै खेल ॥ मोलि न पाईऐ गुणह अमोल ॥ सरब जोति महि जा की जोति ॥ धारि रहिओ सुआमी ओति पोति ॥ गुर परसादि भरम का नासु ॥ नानक तिन महि एहु बिसासु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ससीअरु = (सं: शशधर) चंद्रमा। सूर = (सं: सूर्य) सूरज। नखत्र = (सं: नक्षत्र) तारे। सभु को = हरेक जीव। कला = देखते। करि = रच के। मोलि = मूल्य से। गुणह अमोल = अमूल्य गुणों वाला। धारि रहिओ = आसरा दे रहा है। ओति प्रोति = ताने बाने की तरह। बिसासु = विश्वास, यकीन।3।
अर्थ: वेदों में, पुराणों में, स्मृतियों में (उसी प्रभु को) देखो; चंद्रमा, सूरज, तारों में भी एक वही है।
हरेक जीव अकाल-पुरख की ही बोली बोलता है; (पर सब में विद्यमान होते हुए भी) वह आप अडोल है कभी डोलता नहीं।
सारी ताकतें रच के (जगत की) खेलें खेल रहा है, (पर वह) किसी मूल्य से नहीं मिलता (क्योंकि) अमूल्य गुणों वाला है।
जिस प्रभु की ज्योति सारी ही ज्योतियों में (जल रही है) वह मालिक ताने बाने की तरह (सबको) आसरा दे रहा है।
(पर) हे नानक! (अकाल-पुरख की इस सर्व-व्यापक हस्ती का) ये यकीन उन मनुष्यों के अंदर बनता है जिनका भ्रम गुरु की कृपा से मिट जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जना का पेखनु सभु ब्रहम ॥ संत जना कै हिरदै सभि धरम ॥ संत जना सुनहि सुभ बचन ॥ सरब बिआपी राम संगि रचन ॥ जिनि जाता तिस की इह रहत ॥ सति बचन साधू सभि कहत ॥ जो जो होइ सोई सुखु मानै ॥ करन करावनहारु प्रभु जानै ॥ अंतरि बसे बाहरि भी ओही ॥ नानक दरसनु देखि सभ मोही ॥४॥
मूलम्
संत जना का पेखनु सभु ब्रहम ॥ संत जना कै हिरदै सभि धरम ॥ संत जना सुनहि सुभ बचन ॥ सरब बिआपी राम संगि रचन ॥ जिनि जाता तिस की इह रहत ॥ सति बचन साधू सभि कहत ॥ जो जो होइ सोई सुखु मानै ॥ करन करावनहारु प्रभु जानै ॥ अंतरि बसे बाहरि भी ओही ॥ नानक दरसनु देखि सभ मोही ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखनु = देखना। सभु = सारा, हर जगह। सभि = सारे। धरम = धर्म के ख्याल। सुभ = शुभ। जिनि = जिस (साधु) ने। रहत = रहनी। सभि सति बचन = सारे सचचे वचन। मोही = मस्त हो जाती है। सभ = सारी सृष्टि।4।
अर्थ: संत जन हरेक जगह अकाल-पुरख को ही देखते हैं, उनके हृदय में सारे (विचार) धर्म के ही (उठते हैं)।
संत जन भले वचन ही सुनते हैं और सर्व-व्यापक अकाल-पुरख के साथ जुड़े रहते हैं।
जिस जिस संत जन ने (प्रभु को) जान लिया है उसकी रहनी ही ये हो जाती है कि वह सदा सच्चे वचन बोलता है।
(और) जो कुछ (प्रभु के द्वारा) होता है उसी को सुख मानता है, सब काम करने वाला और (जीवों से) करवाने वाला प्रभु को ही जानता है।
(साधु जनों के लिए) अंदर बाहर (सब जगह) वही प्रभु बसता है। (प्रभु के सर्व-व्यापी) दर्शन करके सारी सृष्टि मस्त हो जाती है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि सति कीआ सभु सति ॥ तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥ तिसु भावै ता करे बिसथारु ॥ तिसु भावै ता एकंकारु ॥ अनिक कला लखी नह जाइ ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ॥ आपे आपि आप भरपूरि ॥ अंतरगति जिसु आपि जनाए ॥ नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥
मूलम्
आपि सति कीआ सभु सति ॥ तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥ तिसु भावै ता करे बिसथारु ॥ तिसु भावै ता एकंकारु ॥ अनिक कला लखी नह जाइ ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ॥ आपे आपि आप भरपूरि ॥ अंतरगति जिसु आपि जनाए ॥ नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = अस्तित्व वाला। उतपति = उत्पक्ति, पैदायश, सृष्टि। जिस भावै = अगर उस प्रभु को ठीक लगे। कला = ताकत। निकटि = नजदीक। भरपूरि = व्यापक। अंतरगति = अंदर की ऊँची अवस्था। जनाए = सुझाता है।5।
अर्थ: प्रभु स्वयं हस्ती वाला है, जो कुछ उसने पैदा किया है वह सब अस्तित्व वाला है (भाव, भ्रम भुलेखा नहीं) सारी सृष्टि उस प्रभु से हुई है।
अगर उसकी रजा हो तो जगत का पसारा कर देता है, अगर उसे भाए, तो फिर एक खुद ही खुद हो जाता है।
उसकी अनेक ताकतें हैं, किसी का बयान नहीं हो सकता, जिस पर प्रसन्न होता है उसे अपने साथ मिला लेता है।
वह प्रभु कितनों के नजदीक, और कितनों से दूर कहा जा सकता है? वह प्रभु खुद ही हर जगह मौजूद है।
जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही अंदर की उच्च अवस्था सुझाता है, हे नानक! उस मनुष्य को (अपनी इस सर्व-व्यापक की) समझ बख्शता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब भूत आपि वरतारा ॥ सरब नैन आपि पेखनहारा ॥ सगल समग्री जा का तना ॥ आपन जसु आप ही सुना ॥ आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ॥ आगिआकारी कीनी माइआ ॥ सभ कै मधि अलिपतो रहै ॥ जो किछु कहणा सु आपे कहै ॥ आगिआ आवै आगिआ जाइ ॥ नानक जा भावै ता लए समाइ ॥६॥
मूलम्
सरब भूत आपि वरतारा ॥ सरब नैन आपि पेखनहारा ॥ सगल समग्री जा का तना ॥ आपन जसु आप ही सुना ॥ आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ॥ आगिआकारी कीनी माइआ ॥ सभ कै मधि अलिपतो रहै ॥ जो किछु कहणा सु आपे कहै ॥ आगिआ आवै आगिआ जाइ ॥ नानक जा भावै ता लए समाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूत = जीव। वरतारा = मौजूद है, बरत रहा है। नैन = आँखें। तना = शरीर। जस = शोभा। खेलु = तमाशा। आगिआकारी = हुक्म में चलने वाली। मधि = में, अंदर। अलिपतो = निर्लिप।6।
अर्थ: सारे जीवों में प्रभु स्वयं ही बरत रहा है, (उन जीवों की) सारी आँखों में से प्रभु खुद ही देख रहा है। (जगत के) सारे पदार्थ जिस प्रभु के शरीर हैं, (सब में व्यापक हो के) वह अपनी शोभा आप ही सुन रहा है।
(जीवों का) पैदा होना मरना प्रभु ने एक खेल बनाई है और अपने हुक्म में चलने वाली माया बना दी है।
हे नानक! (जीव) अकाल-पुरख के हुक्म में पैदा होता है और हुक्म में मरता है, जब उसकी रजा होती है तो उनको अपने में लीन कर लेता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इस ते होइ सु नाही बुरा ॥ ओरै कहहु किनै कछु करा ॥ आपि भला करतूति अति नीकी ॥ आपे जानै अपने जी की ॥ आपि साचु धारी सभ साचु ॥ ओति पोति आपन संगि राचु ॥ ता की गति मिति कही न जाइ ॥ दूसर होइ त सोझी पाइ ॥ तिस का कीआ सभु परवानु ॥ गुर प्रसादि नानक इहु जानु ॥७॥
मूलम्
इस ते होइ सु नाही बुरा ॥ ओरै कहहु किनै कछु करा ॥ आपि भला करतूति अति नीकी ॥ आपे जानै अपने जी की ॥ आपि साचु धारी सभ साचु ॥ ओति पोति आपन संगि राचु ॥ ता की गति मिति कही न जाइ ॥ दूसर होइ त सोझी पाइ ॥ तिस का कीआ सभु परवानु ॥ गुर प्रसादि नानक इहु जानु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इस ते = इस (प्रभु) से। ओरै = (ईश्वर से) उरे, रब के बिना। किनै = किसी ने। करतूति = काम। नीकी = अच्छी। जी की = दिल की। साचु = अस्तित्व वाला। सभ = सारी रचना। ओति पोति = ताने पेटे की तरह। मिति = मिनती।7।
अर्थ: जो कुछ प्रभु की ओर से होता है (जीवों के लिए) बुरा नहीं होता; और प्रभु के बिना, बताओ किसी ने कुछ कर दिखाया है?
प्रभु खुद ठीक है, उसका काम भी ठीक है, अपने दिल की बात वह खुद ही जानता है।
स्वयं हस्ती वाला है, सारी रचना जो उसके आसरे है, वह भी अस्तित्व वाली है (भ्रम नहीं), ताने-पेटे की तरह उसने अपने साथ मिलाई हुई है।
वह प्रभु कैसा है और कितना बड़ा है, ये बात बयान नहीं हो सकती, कोई दूसरा (अलग) हो तो समझ सके।
प्रभु का किया हुआ सब कुछ (जीवों को) सिर-माथे मानना पड़ता है, (पर) हे नानक! यह पहिचान गुरु की कृपा से आती है।7।
[[0295]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जानै तिसु सदा सुखु होइ ॥ आपि मिलाइ लए प्रभु सोइ ॥ ओहु धनवंतु कुलवंतु पतिवंतु ॥ जीवन मुकति जिसु रिदै भगवंतु ॥ धंनु धंनु धंनु जनु आइआ ॥ जिसु प्रसादि सभु जगतु तराइआ ॥ जन आवन का इहै सुआउ ॥ जन कै संगि चिति आवै नाउ ॥ आपि मुकतु मुकतु करै संसारु ॥ नानक तिसु जन कउ सदा नमसकारु ॥८॥२३॥
मूलम्
जो जानै तिसु सदा सुखु होइ ॥ आपि मिलाइ लए प्रभु सोइ ॥ ओहु धनवंतु कुलवंतु पतिवंतु ॥ जीवन मुकति जिसु रिदै भगवंतु ॥ धंनु धंनु धंनु जनु आइआ ॥ जिसु प्रसादि सभु जगतु तराइआ ॥ जन आवन का इहै सुआउ ॥ जन कै संगि चिति आवै नाउ ॥ आपि मुकतु मुकतु करै संसारु ॥ नानक तिसु जन कउ सदा नमसकारु ॥८॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुलवंतु = अच्छे कुल वाला। पतिवंतु = इज्ज़त वाला। जीवन मुकति = जिसने जीते जी ही (माया के बंधनों से) मुक्ति पा ली है। जिसु रिदै = जिस के हृदय में। धंनु = मुबारिक। सुआउ = प्रयोजन, उद्देश्य। चिति = चिक्त में।8।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु से सांझ पा लेता है उसे सदा सुख होता है, प्रभु उसे अपने साथ आप मिला लेता है।
जिस मनुष्य के हृदय में भगवान बसता है, वह जीवित ही मुक्त हो जाता है, वह धन वाला, कुल वाला और इज्ज़त वाला बन जाता है।
जिस मनुष्य की मेहर से सारा जगत का ही उद्धार होता है, उसका (जगत में) आना मुबारक है।
ऐसे मनुष्य के आने का यही उद्देश्य है कि उसकी संगति में (रह के और मनुष्यों को प्रभु का) नाम चेते आता है।
वह मनुष्य खुद (माया से) आजाद है, जगत को भी आजाद करता है; हे नानक! ऐसे (उत्तम) मनुष्य को हमारा सदा प्रणाम है।8।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ ॥ नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ ॥ नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरा = संपूर्ण, सदा कायम रहने वाला। पूरा जा का नाउ = जिसका नाम सदा कायम रहने वाला है, अटल नाम वाला। आराधिआ = (जिस मनुष्य ने) स्मरण किया है। पूरा पाइआ = (उसको) पूरन प्रभु मिल गया है। नानक = हे नानक! गाउ = (तू भी) गा।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने) अटल नाम वाले पूरन प्रभु को स्मरण किया है, उसे वह पूरन प्रभु मिल गया है, (इस वास्ते) हे नानक! तू भी पूरन प्रभु के गुण गा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असटपदी ॥ पूरे गुर का सुनि उपदेसु ॥ पारब्रहमु निकटि करि पेखु ॥ सासि सासि सिमरहु गोबिंद ॥ मन अंतर की उतरै चिंद ॥ आस अनित तिआगहु तरंग ॥ संत जना की धूरि मन मंग ॥ आपु छोडि बेनती करहु ॥ साधसंगि अगनि सागरु तरहु ॥ हरि धन के भरि लेहु भंडार ॥ नानक गुर पूरे नमसकार ॥१॥
मूलम्
असटपदी ॥ पूरे गुर का सुनि उपदेसु ॥ पारब्रहमु निकटि करि पेखु ॥ सासि सासि सिमरहु गोबिंद ॥ मन अंतर की उतरै चिंद ॥ आस अनित तिआगहु तरंग ॥ संत जना की धूरि मन मंग ॥ आपु छोडि बेनती करहु ॥ साधसंगि अगनि सागरु तरहु ॥ हरि धन के भरि लेहु भंडार ॥ नानक गुर पूरे नमसकार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। करि = कर के। पेखु = देख। मन अंतर की = मन के अंदर की। चिंद = चिन्ता। अनित = ना नित्य रहने वालियां। तरंग = लहरें। मन = हे मन! आपु छोडि = अपना आप छोड़ के। अगनि सागरु = (विकारों की) आग का समुंदर। भंडार = खजाने।1।
अर्थ: (हे मन!) पूरे सतिगुरु की शिक्षा सुन, और, अकाल-पुरख को (हर जगह) नजदीक जान के देख।
(हे भाई!) हर दम प्रभु को याद कर, (ताकि) तेरे मन के अंदर की चिन्ता मिट जाए।
हे मन! नित्य ना रहने वाली (चीजों की) आशाओं की लहरें त्याग दे, और संत जनों के पैरों की ख़ाक मांग।
(हे भाई!) स्वैभाव छोड़ के (प्रभु के आगे) अरदास कर, (और इस तरह) साधसंगति में (रह के) (विकारों की) आग के समुंदर से पार लांघ।
हे नानक! प्रभु-नाम-रूपी धन के खजाने भर ले और पूरे सतिगुरु को नमस्कार कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेम कुसल सहज आनंद ॥ साधसंगि भजु परमानंद ॥ नरक निवारि उधारहु जीउ ॥ गुन गोबिंद अम्रित रसु पीउ ॥ चिति चितवहु नाराइण एक ॥ एक रूप जा के रंग अनेक ॥ गोपाल दामोदर दीन दइआल ॥ दुख भंजन पूरन किरपाल ॥ सिमरि सिमरि नामु बारं बार ॥ नानक जीअ का इहै अधार ॥२॥
मूलम्
खेम कुसल सहज आनंद ॥ साधसंगि भजु परमानंद ॥ नरक निवारि उधारहु जीउ ॥ गुन गोबिंद अम्रित रसु पीउ ॥ चिति चितवहु नाराइण एक ॥ एक रूप जा के रंग अनेक ॥ गोपाल दामोदर दीन दइआल ॥ दुख भंजन पूरन किरपाल ॥ सिमरि सिमरि नामु बारं बार ॥ नानक जीअ का इहै अधार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेम = (सं: क्षेम) अटल सुख। कुसल = (सं: कुशल) सुख शांति, आसान जीवन। सहज = आत्मिक अडोलता। निवारि = हटा के। उधारहु = बचा ले। जीउ = जिंद। चिति = चिक्त में। चितवहु = सोचो। दुख भंजन = दुखों को नाश करने वाला। जीअ का = जिंद का। अधार = आसरा।2।
अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में परम-सुख प्रभु को स्मरण कर, (इस तरह) अटल सुख, आसान जीवन और आत्मिक अडोलता के आनंद प्राप्त होंगे।
गोबिंद के गुण गा (नाम-) अमृत का रस पी, (इस प्रकार) नर्कों को दूर करके जीवात्मा को बचा ले।
जिस एक अकाल-पुरख के अनेक रंग हैं, उस एक प्रभु का ध्यान चिक्त में धर।
दीनों पर दया करने वाला गोपाल दामोदर दुखों का नाश करने वाला सब में व्यापक और मेहर का जो घर है।
हे नानक! उस का नाम बारंबार याद कर, जिंद का आसरा ये नाम ही है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उतम सलोक साध के बचन ॥ अमुलीक लाल एहि रतन ॥ सुनत कमावत होत उधार ॥ आपि तरै लोकह निसतार ॥ सफल जीवनु सफलु ता का संगु ॥ जा कै मनि लागा हरि रंगु ॥ जै जै सबदु अनाहदु वाजै ॥ सुनि सुनि अनद करे प्रभु गाजै ॥ प्रगटे गुपाल महांत कै माथे ॥ नानक उधरे तिन कै साथे ॥३॥
मूलम्
उतम सलोक साध के बचन ॥ अमुलीक लाल एहि रतन ॥ सुनत कमावत होत उधार ॥ आपि तरै लोकह निसतार ॥ सफल जीवनु सफलु ता का संगु ॥ जा कै मनि लागा हरि रंगु ॥ जै जै सबदु अनाहदु वाजै ॥ सुनि सुनि अनद करे प्रभु गाजै ॥ प्रगटे गुपाल महांत कै माथे ॥ नानक उधरे तिन कै साथे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सलोक = महिमा की वाणी। अमुलीक = अमोलक। लोकह निसतार = लोगों का निसतारा। सफल = पूरी मुरादों वाला। हरि रंगु = प्रभु का प्यार। जै जै सबदु = फतह की आवाज, जैकार के नाद। अनाहदु = एक रस, सदा। गाजै = गरजते हैं, नूर प्रगट करता है। महांत = उच्च करणी वाला मनुष्य।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: साधु (गुरु) के वचन सबसे अच्छी महिमा की वाणी है, ये अमूल्य लाल हैं, अमोलक रत्न हैं।
(इन वचनों को) सुनने से और कमाने से बेड़ा पार होता है, (जो कमाता है) वह स्वयं तैरता है और लोगों का भी निस्तारा करता है।
जिस मनुष्य के मन में प्रभु के लिए प्यार बन जाता है, उसकी जिंदगी पूरी मुरादों वाली होती है उसकी संगति औरों की भी मुरादें पूरी करती है।
(उसके अंदर) जै-जैकार की गूँज हमेशा चलती रहती है जिसे सुन के (भाव महिसूस करके) वह खुश होता है (क्योंकि) प्रभु (उसके अंदर) अपना नूर रौशन करता है।
गोपाल, प्रभु की ऊँची करणी वाले बंदे के माथे पर प्रगट होते हैं, हे नानक! ऐसे मनुष्य के साथ और कई मनुष्यों का बेड़ा पार होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरनि जोगु सुनि सरनी आए ॥ करि किरपा प्रभ आप मिलाए ॥ मिटि गए बैर भए सभ रेन ॥ अम्रित नामु साधसंगि लैन ॥ सुप्रसंन भए गुरदेव ॥ पूरन होई सेवक की सेव ॥ आल जंजाल बिकार ते रहते ॥ राम नाम सुनि रसना कहते ॥ करि प्रसादु दइआ प्रभि धारी ॥ नानक निबही खेप हमारी ॥४॥
मूलम्
सरनि जोगु सुनि सरनी आए ॥ करि किरपा प्रभ आप मिलाए ॥ मिटि गए बैर भए सभ रेन ॥ अम्रित नामु साधसंगि लैन ॥ सुप्रसंन भए गुरदेव ॥ पूरन होई सेवक की सेव ॥ आल जंजाल बिकार ते रहते ॥ राम नाम सुनि रसना कहते ॥ करि प्रसादु दइआ प्रभि धारी ॥ नानक निबही खेप हमारी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरनि = (सं: शरण्य = fit to protect) दर आए की रक्षा करने में समर्थ। जोगु = समर्थ। प्रभ = हे प्रभु! सभ रेन = सब के पैरों की ख़ाक। आल जंजाल = घर के धंधे। बिकार ते = विकारों से। रहते = बच गए हैं। रसना = जीभ से। प्रभि = प्रभु ने। खेप = लादा हुआ सौदा, किया हुआ व्यापार। निबही = स्वीकार हो गई।4।
अर्थ: हे प्रभु! ये सुन के तू दर आए की बाँह थामने में समर्थ है, हम तेरे दर पर आए थे, तूने मेहर करके (हमें) अपने साथ मिला लिया है।
(अब हमारे) वैर मिट गए हैं, हम सब के पैरों की ख़ाक हो गए हैं (अब) साधु-संगत में अमर करने वाला नाम जप रहे हैं।
गुरदेव जी (हमारे पर) प्रसन्न हो गए हैं, इस वास्ते (हमारी) सेवकों की सेवा सफल हो गई है।
(हम अब) घर के धंधों और विकारों से बच गए हैं, प्रभु का नाम सुन के जीभ से (भी) उचारते हैं।
हे नानक! प्रभु ने मेहर करके (हम पर) दया की है, और हमारा किया हुआ व्यापार दरगाह में स्वीकार हो गया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की उसतति करहु संत मीत ॥ सावधान एकागर चीत ॥ सुखमनी सहज गोबिंद गुन नाम ॥ जिसु मनि बसै सु होत निधान ॥ सरब इछा ता की पूरन होइ ॥ प्रधान पुरखु प्रगटु सभ लोइ ॥ सभ ते ऊच पाए असथानु ॥ बहुरि न होवै आवन जानु ॥ हरि धनु खाटि चलै जनु सोइ ॥ नानक जिसहि परापति होइ ॥५॥
मूलम्
प्रभ की उसतति करहु संत मीत ॥ सावधान एकागर चीत ॥ सुखमनी सहज गोबिंद गुन नाम ॥ जिसु मनि बसै सु होत निधान ॥ सरब इछा ता की पूरन होइ ॥ प्रधान पुरखु प्रगटु सभ लोइ ॥ सभ ते ऊच पाए असथानु ॥ बहुरि न होवै आवन जानु ॥ हरि धनु खाटि चलै जनु सोइ ॥ नानक जिसहि परापति होइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सावधान = ध्यान से, अवधान सहित। एकागर = एकाग्र, एक निशाने पर टिका हुआ। सहज = अडोल अवस्था। गोबिंद गुन = प्रभु के गुण। निधान = (गुणों का) खजाना। प्रधान = सब से बड़ा। लोइ = जगत में, लोक में। प्रगटु = प्रसिद्ध, मशहूर। आवन जानु = आना-जाना, पैदा होना मरना। जिसहि = जिसे। परापति होइ = प्राप्त होती है, मिलती है, दाति होती है।5।
अर्थ: हे संत मित्र! ध्यान से चिक्त के एक निशाने पर टिका के अकाल-पुरख की महिमा करो।
प्रभु की महिमा और प्रभु का नाम अडोल अवस्था (का कारण है, और) सुखों की मणि (रतन) है, जिसके मन में (नाम) बसता है वह (गुणों का) खजाना हो जाता है।
उस मनुष्य की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, वह आदमी सबसे बड़ा बन जाता है, और सारे जगत में प्रसिद्ध हो जाता है।
उसको ऊँचे से ऊँचा ठिकाना मिल जाता है, दुबारा उसे जनम मरन (का चक्कर नहीं) व्यापता।
हे नानक! जिस मनुष्य को (धुर से ही) ये दाति मिलती है, वह मनुष्य प्रभु का नाम-रूपी धन कमा के (जगत से) जाता है।5।
[[0296]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेम सांति रिधि नव निधि ॥ बुधि गिआनु सरब तह सिधि ॥ बिदिआ तपु जोगु प्रभ धिआनु ॥ गिआनु स्रेसट ऊतम इसनानु ॥ चारि पदारथ कमल प्रगास ॥ सभ कै मधि सगल ते उदास ॥ सुंदरु चतुरु तत का बेता ॥ समदरसी एक द्रिसटेता ॥ इह फल तिसु जन कै मुखि भने ॥ गुर नानक नाम बचन मनि सुने ॥६॥
मूलम्
खेम सांति रिधि नव निधि ॥ बुधि गिआनु सरब तह सिधि ॥ बिदिआ तपु जोगु प्रभ धिआनु ॥ गिआनु स्रेसट ऊतम इसनानु ॥ चारि पदारथ कमल प्रगास ॥ सभ कै मधि सगल ते उदास ॥ सुंदरु चतुरु तत का बेता ॥ समदरसी एक द्रिसटेता ॥ इह फल तिसु जन कै मुखि भने ॥ गुर नानक नाम बचन मनि सुने ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेम = अटल सुख। सांति = मन का टिकाव। रिधि = योग की ताकतें। नव निधि = नौ खजाने, जगत के सारे ही पदार्थ। सिधि = करामातें। तह = वहाँ, उस मनुष्य में। कमल प्रगास = हृदय रूपी कमल के फूल का खिलना। सभ कै मधि सगल ते उदास = सब के बीच में रहता हुआ भी सब से उपराम। तत का बेता = प्रभु का महिरम, (जगत के) मूल तत्व को जानने वाला। समदरसी = (सभी को) एक सा देखने वाला। इह फल = ये सारे फल (जिनका ऊपर जिक्र किया गया है)। मुखि = मूह से। भने = उचारने से।6।
अर्थ: अटल सुख मन का टिकाव, रिद्धियां और नौ खजाने, अक्ल, ज्ञान और सारी ही करामातें उस मनुष्य में (आ जाती हैं)।
विद्या, तप, जोग, अकाल-पुरख का ध्यान, श्रेष्ठ ज्ञान, बढ़िया से बढ़िया (भाव, तीर्थों का) स्नान;
(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों पदार्थ, हृदय कमल का खिलना; सभी में रहते हुए भी सभी से उपराम रहना;
सुंदर, समझदार, (जगत के) मूल तत्व को जानने वाला, सब को ऐक जैसा जानना और सब को एक नजर से देखना;
ये सारे फल; हे नानक! उस मनुष्य के अंदर आ बसते हैं; जो गुरु के शब्द और प्रभु का नाम मुँह से उचारता है और मन लगा के सुनता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु निधानु जपै मनि कोइ ॥ सभ जुग महि ता की गति होइ ॥ गुण गोबिंद नाम धुनि बाणी ॥ सिम्रिति सासत्र बेद बखाणी ॥ सगल मतांत केवल हरि नाम ॥ गोबिंद भगत कै मनि बिस्राम ॥ कोटि अप्राध साधसंगि मिटै ॥ संत क्रिपा ते जम ते छुटै ॥ जा कै मसतकि करम प्रभि पाए ॥ साध सरणि नानक ते आए ॥७॥
मूलम्
इहु निधानु जपै मनि कोइ ॥ सभ जुग महि ता की गति होइ ॥ गुण गोबिंद नाम धुनि बाणी ॥ सिम्रिति सासत्र बेद बखाणी ॥ सगल मतांत केवल हरि नाम ॥ गोबिंद भगत कै मनि बिस्राम ॥ कोटि अप्राध साधसंगि मिटै ॥ संत क्रिपा ते जम ते छुटै ॥ जा कै मसतकि करम प्रभि पाए ॥ साध सरणि नानक ते आए ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुग = (सं: युग) जिंदगी का समय। गति = उच्च अवस्था। बाणी = (नाम जपने वाले की) वाणी, वचन। गुण गोबिंद = गोबिंद के गुण। नाम धुनि = प्रभु के नाम की धुनि, नाम की लहर। बखाणी = कही है। मतांत = मतों का अंत, मतों का नतीजा। करम = बख्शिश। प्रभि = प्रभु ने। कोइ = अगर कोई मनुष्य।7।
अर्थ: जो भी मनुष्य इस नाम को (जो गुणों का) खजाना है, जपता है, सारी उम्र उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बनी रहती है।
उस मनुष्य के (साधारण) वचन भी गोबिंद के गुण और नाम की लहर के ही होते हैं, स्मृतियों, शास्त्रों और वेदों ने भी यही बात कही है।
सारे मतों का निचोड़ प्रभु का नाम ही है, इस नाम का निवास प्रभु के भक्त के मन में होता है।
(जो मनुष्य नाम जपता है उस के) करोड़ों पाप सत्संग में रह के मिट जाते हैं, गुरु की कृपा से वह मनुष्य जमों से बच जाता है।
(पर) हे नानक! जिस के माथे पर प्रभु ने (नाम की) बख्शिश के लेख लिख धरे हैं, वह मनुष्य गुरु की शरण आते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु मनि बसै सुनै लाइ प्रीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ जनम मरन ता का दूखु निवारै ॥ दुलभ देह ततकाल उधारै ॥ निरमल सोभा अम्रित ता की बानी ॥ एकु नामु मन माहि समानी ॥ दूख रोग बिनसे भै भरम ॥ साध नाम निरमल ता के करम ॥ सभ ते ऊच ता की सोभा बनी ॥ नानक इह गुणि नामु सुखमनी ॥८॥२४॥
मूलम्
जिसु मनि बसै सुनै लाइ प्रीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ जनम मरन ता का दूखु निवारै ॥ दुलभ देह ततकाल उधारै ॥ निरमल सोभा अम्रित ता की बानी ॥ एकु नामु मन माहि समानी ॥ दूख रोग बिनसे भै भरम ॥ साध नाम निरमल ता के करम ॥ सभ ते ऊच ता की सोभा बनी ॥ नानक इह गुणि नामु सुखमनी ॥८॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततकाल = (सं: तद्+कालं, तत्कालं = instantly, at that time) उसी समय। ता की बानी = उस मनुष्य के वचन। करम = काम। इह गुणि = इस गुण के कारण। सुखमनी = सुखों की मणि। देह = शरीर।8।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में (नाम) बसता है जो प्रीत लगा के (नाम) सुनता है, उस को प्रभु याद आता है;
उस मनुष्य के पैदा होने मरने के कष्ट काटे जाते हैं, वह इस दुर्लभ मानव-शरीर को उसी वक्त (विकारों से) बचा लेता है।
उसकी बेदाग शोभा और उसकी वाणी (नाम-) अमृत से भरपूर होती है, (क्योंकि) उसके मन में प्रभु का नाम ही बसा रहता है।
दुख, रोग, डर और वहम उसके नाश हो जाते हैं, उसका नाम ‘साधु’ पड़ जाता है और उसके काम (विकारों की) मैल से साफ होते हैं।
सबसे ऊँची शोभा उसको मिलती है। हे नानक! इस गुण के कारण (प्रभु का) नाम सुखों की मणी है (भाव, सर्वोक्तम सुख है)।8।24।