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विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गउड़ी बावन अखरी महला ५ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गउड़ी बावन अखरी महला ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बावन अखरी = ५२ अक्षरों वाली। महला = शरीर। महला ५ = गुरु नानक के पाँचवें शरीर में गुरु अरजन देव (जी की वाणी)।
सखा = मित्र। अगिआन भंजनु = अज्ञान का नाश करने वाला। बंधपि = संबंधी। सहोदरा = (सह+उदर = एक ही माँ के पेट में से पैदा हुए) भाई। निरोधरा = जिसे रोका ना जा सके, जिसका असर गवाया ना जा सके। मंतु = मंत्र, उपदेश। सति = सत्य, सदा स्थिर प्रभु। बुधि = अक्ल। मूरति = स्वरूप। परस = छोह। अंम्रित सरोवरु = अमृत का सरोवर। मजनु = डुबकी, स्नान। अपरंपरा = परे से परे। सभि = सारे। हरता = दूर करने वाला। पतित = (विकारों में) गिरे हुए, विकारी। पवित करा = पवित्र करने वाला। जुगु जुगु = हरेक युग में। जपि = जप के। उधरा = (संसार समुंदर की विकारों की लहरों से) बच जाते हैं। प्रभ = हे प्रभु! जितु = जिससे। जितु लगि = जिस में लग के। नानक = हे नानक!।1।
अर्थ: गुरु ही मां है, गुरु ही पिता है (गुरु ही आत्मिक जन्म देने वाला है), गुरु मालिक प्रभु का रूप है। गुरु (माया के मोह का) अंधकार नाश करने वाला मित्र है, गुरु ही (तोड़ निभाने वाला) संबंधी व भाई है। गुरु (असली) दाता है जो प्रभु के नाम का उपदेश देता है, गुरु का उपदेश ऐसा है जिस का असर (कोई विकार आदि) गवा नहीं सकते।
गुरु शांति सत्य और बुद्धि का स्वरूप है, गुरु एक ऐसा पारस है जिसकी छोह पारस की छोह से श्रेष्ठ है।
गुरु (सच्चा) तीर्थ है, अमृत का सरोवर है, गुरु के ज्ञान (-जल) का स्नान (सारे तीर्थों के स्नानों से) बहुत श्रेष्ठ है। गुरु कर्तार का रूप है, सारे पापों को दूर करने वाला है, गुरु विकारी लोगों (के हृदय) को पवित्र करने वाला है। जब से जगत बना है गुरु शुरू से ही हरेक युग में (परमात्मा के नाम का उपदेश-दाता) है। गुरु का दिया हुआ हरि-नाम मंत्र जप के (संसार-समुंदर के विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं।
हे प्रभु! मेहर कर, हमें गुरु की संगति दे, ता कि हम मूर्ख पापी उसकी संगति में (रह के) तर जाएं। गुरु परमेश्वर पारब्रहम् का रूप है। हे नानक! हरि के रूप गुरु को (सदा) नमस्कार करनी चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ आपहि कीआ कराइआ आपहि करनै जोगु ॥ नानक एको रवि रहिआ दूसर होआ न होगु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ आपहि कीआ कराइआ आपहि करनै जोगु ॥ नानक एको रवि रहिआ दूसर होआ न होगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपहि = आप ही। रवि रहिआ = व्याप्त है। होगु = होगा।1।
अर्थ: सारी जगत रचना प्रभु ने खुद ही की है, स्वयं ही करने की स्मर्था वाला है। हे नानक! वह आप ही सारे जगत में व्यापक है, उससे बिना कोई और दूसरा नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ओअं साध सतिगुर नमसकारं ॥ आदि मधि अंति निरंकारं ॥ आपहि सुंन आपहि सुख आसन ॥ आपहि सुनत आप ही जासन ॥ आपन आपु आपहि उपाइओ ॥ आपहि बाप आप ही माइओ ॥ आपहि सूखम आपहि असथूला ॥ लखी न जाई नानक लीला ॥१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ओअं साध सतिगुर नमसकारं ॥ आदि मधि अंति निरंकारं ॥ आपहि सुंन आपहि सुख आसन ॥ आपहि सुनत आप ही जासन ॥ आपन आपु आपहि उपाइओ ॥ आपहि बाप आप ही माइओ ॥ आपहि सूखम आपहि असथूला ॥ लखी न जाई नानक लीला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओअं = हिन्दी वर्णमाला का पहला अक्षर। आदि = जगत के शुरू में। मधि = जगत की मौजूदगी में। अंति = जगत के आखिर में। सुंन = सुन्न, जहाँ कुछ भी ना हो। जासन = यश। आपु = अपने आप को। माइओ = माँ। असथूला = दृष्टमान जगत। लीला = खेल।1।
अर्थ: पउड़ी: हमारी उस निरंकार को नमस्कार है जो स्वयं ही गुरु रूप धारण करता है, जो जगत के आरम्भ में भी स्वयं ही था, अब भी स्वयं ही है, जगत के अंत में भी स्वयं ही रहेगा। (जब जगत की हस्ती नहीं होती) निरा एकल-स्वरूप भी वह स्वयं ही होता है, स्वयं ही अपने सूक्ष्म-स्वरूप में टिका होता है, तब अपनी शोभा सुनने वाला भी स्वयं खुद ही होता है।
अपने आप को दिखाई देते स्वरूप में लाने वाला भी स्वयं ही है, स्वयं ही (अपनी) माँ है, स्वयं ही (अपना) पिता है। अन-दिखते और दिखते स्वरूप वाला खुद ही है।
हे नानक! (परमात्मा की ये जगत-रचना वाला) खेल बयान नहीं किया जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ तेरे संतन की मनु होइ रवाला ॥ रहाउ॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ तेरे संतन की मनु होइ रवाला ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवाला = चरण धूल। रहाउ = केंद्रिय भाव।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! मेरे पर मेहर कर। मेरा मन तेरे संत जनों के चरणों की धूल बना रहे।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सारी वाणी बावन अखरी का केंद्रिय विचार इन उक्त पंक्तियों में निहित है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ निरंकार आकार आपि निरगुन सरगुन एक ॥ एकहि एक बखाननो नानक एक अनेक ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ निरंकार आकार आपि निरगुन सरगुन एक ॥ एकहि एक बखाननो नानक एक अनेक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आकार = स्वरूप। निरंकार = आकार के बिना। गुन = माया के तीन स्वभाव (रज, तम व सत्व)। निरगुन = निर्गुण, जिस में माया के तीनों स्वभाव जोर नहीं डाल रहे। सरगुन = सर्गुण, वह स्वरूप जिस में माया के तीनों स्वाभाव मौजूद हैं। एकहि = एक ही।1।
अर्थ: आकार-रहित परमात्मा स्वयं ही (जगत-) अकार बनाता है। वह स्वयं ही (निरंकार रूप में) माया के तीनों स्वभावों से परे रहता है, और जगत रचना रच के माया के तीनों गुणों वाला हो जाता है। हे नानक! प्रभु अपने एक स्वरूप से अनेक रूप बना लेता है, (पर, ये अनेक रूप उससे अलग नहीं हैं)। यही कहा जा सकता है कि वह एक खुद ही खुद है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ओअं गुरमुखि कीओ अकारा ॥ एकहि सूति परोवनहारा ॥ भिंन भिंन त्रै गुण बिसथारं ॥ निरगुन ते सरगुन द्रिसटारं ॥ सगल भाति करि करहि उपाइओ ॥ जनम मरन मन मोहु बढाइओ ॥ दुहू भाति ते आपि निरारा ॥ नानक अंतु न पारावारा ॥२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ओअं गुरमुखि कीओ अकारा ॥ एकहि सूति परोवनहारा ॥ भिंन भिंन त्रै गुण बिसथारं ॥ निरगुन ते सरगुन द्रिसटारं ॥ सगल भाति करि करहि उपाइओ ॥ जनम मरन मन मोहु बढाइओ ॥ दुहू भाति ते आपि निरारा ॥ नानक अंतु न पारावारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: अकारा = जगत रचना। सूति = सूत्र में, हुक्म में। भिंन = अलग। बिसथार = विस्तार, खिलारा। द्रिषटारं = दृष्टमान हो गया, दिखाई दे गया। उपाइओ = उत्पक्ति। दुहू भाति = दोनों तरीके से, जन्म और मरण।
अर्थ: पउड़ी: गुरमुख बनने के वास्ते प्रभु ने जगत-रचना की है। सारे जीव-जंतुओं को अपने एक ही हुक्म-धागे में परो के रखने में समर्थ है। प्रभु ने अपने अदृष्य रूप से दृष्टमान जगत रचा है, माया के तीनों रूपों का अलग-अलग विस्तार कर दिया है।
हे प्रभु! तूने सारी (अनेक) किस्में बना के जगत उत्पक्ति की है, जनम-मरन का मूल जीवों के मन का मोह भी तूने ही बढ़ाया है, पर तू स्वयं इस जनम-मरन से अलग है। हे नानक! (कह:) प्रभु के इस छोर व उस छोर का अंत नहीं पाया जा सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ सेई साह भगवंत से सचु स्मपै हरि रासि ॥ नानक सचु सुचि पाईऐ तिह संतन कै पासि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ सेई साह भगवंत से सचु स्मपै हरि रासि ॥ नानक सचु सुचि पाईऐ तिह संतन कै पासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेई = वही लोग। भगवंत = धन वाले। से = वही लोग। संपै = संपक्ति, धन। रासि = पूंजी। सुचि = आत्मिक पवित्रता। तिह = उन।1।
अर्थ: सलोक- (जीव जगत में हरि नाम का वणज करने आए हैं) जिनके पास परमात्मा का नाम-धन है, हरि के नाम की (वणज करने के लिए) पूंजी है, वही शाहूकार हैं, वही धनवान हैं। हे नानक! ऐसे संत-जनों से ही नाम-धन व आत्मिक पवित्रता हासिल होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवड़ी ॥ ससा सति सति सति सोऊ ॥ सति पुरख ते भिंन न कोऊ ॥ सोऊ सरनि परै जिह पायं ॥ सिमरि सिमरि गुन गाइ सुनायं ॥ संसै भरमु नही कछु बिआपत ॥ प्रगट प्रतापु ताहू को जापत ॥ सो साधू इह पहुचनहारा ॥ नानक ता कै सद बलिहारा ॥३॥
मूलम्
पवड़ी ॥ ससा सति सति सति सोऊ ॥ सति पुरख ते भिंन न कोऊ ॥ सोऊ सरनि परै जिह पायं ॥ सिमरि सिमरि गुन गाइ सुनायं ॥ संसै भरमु नही कछु बिआपत ॥ प्रगट प्रतापु ताहू को जापत ॥ सो साधू इह पहुचनहारा ॥ नानक ता कै सद बलिहारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पवड़ी = सति = सदा स्थिर रहने वाला। सोऊ = वही आदमी जिसे। पायं = पाता है। संसै = सहसा, संशय, सहम। भरम = भटकना। बिआपत = व्याप्त, जोर डालता है। ताहू को = उस प्रभु का ही। जापत = प्रतीत होता है, दिखता है। इह = इस अवस्था तक।3।
अर्थ: पवड़ी- वह परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, सदा स्थिर रहने वाला है, उस सदा स्थिर व्यापक प्रभु से अलग हस्ती वाला और कोई नहीं है। जिस मनुष्य को प्रभु अपनी शरण में लेता है, वही (शरण में) आता है, वह मनुष्य प्रभु का स्मरण करके उसकी महिमा करके और लोगों को भी सुनाता है। कोई संशय, सहम, कोई भटकना उस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकता, (क्योंकि उसे हर जगह प्रभु ही प्रभु दिखता है) उसे हर जगह प्रभु का ही प्रताप प्रत्यक्ष दिखता है। जो मनुष्य इस आत्मिक अवस्था पर पहुँचता है, उसे साधु जानो। हे नानक! (कह:) मैं उससे सदा सदके हूँ।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ धनु धनु कहा पुकारते माइआ मोह सभ कूर ॥ नाम बिहूने नानका होत जात सभु धूर ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ धनु धनु कहा पुकारते माइआ मोह सभ कूर ॥ नाम बिहूने नानका होत जात सभु धूर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूर = झूठ, नाशवान। धूर = धूल।1।
अर्थ: (हे भाई!) क्यूं हर वक्त धन इकट्ठा करने के लिए चीखते-पुकारते रहते हो? माया का मोह तो झूठा ही है (इस धन ने सदा साथ नहीं निभना)। हे नानक! नाम से विहीन रहके सारा जगत ही व्यर्थ जीवन गुजार जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवड़ी ॥ धधा धूरि पुनीत तेरे जनूआ ॥ धनि तेऊ जिह रुच इआ मनूआ ॥ धनु नही बाछहि सुरग न आछहि ॥ अति प्रिअ प्रीति साध रज राचहि ॥ धंधे कहा बिआपहि ताहू ॥ जो एक छाडि अन कतहि न जाहू ॥ जा कै हीऐ दीओ प्रभ नाम ॥ नानक साध पूरन भगवान ॥४॥
मूलम्
पवड़ी ॥ धधा धूरि पुनीत तेरे जनूआ ॥ धनि तेऊ जिह रुच इआ मनूआ ॥ धनु नही बाछहि सुरग न आछहि ॥ अति प्रिअ प्रीति साध रज राचहि ॥ धंधे कहा बिआपहि ताहू ॥ जो एक छाडि अन कतहि न जाहू ॥ जा कै हीऐ दीओ प्रभ नाम ॥ नानक साध पूरन भगवान ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पवड़ी: पुनीत = पवित्र। जनूआ = दासों की। धनि = भाग्यों वाले। तेऊ = वह लोग। जिह मनूआ = जिस के मनों में। इआ रुच = इस (धूर) की तमन्ना। बाछहि = चाहते। आछहि = चाहते। रज = चरण धूल। राचहि = रचे रहते हैं, मस्त रहते हैं। धंधे = जंजाल। ताहू = उन्हें। अन कतहि = किसी और जगह। हीऐ = हृदय में।4।
अर्थ: पवड़ी: हे प्रभु! तेरे सेवकों के चरणों की धूल पवित्र (करने वाली होती) है। वह लोग भाग्यशाली हैं, जिनके मन में इस धूल की तमन्ना है। (ऐसे मनुष्य इस चरण-धूल के मुकाबले में दुनिया वाला) धन नहीं चाहते, स्वर्ग की भी चाहत नहीं रखते, वे तो अपने अति प्यारे प्रभु की प्रीति में और गुरमुखों की चरण-धूल में ही मस्त रहते हैं। जो मनुष्य एक परमात्मा की ओट छोड़ के किसी और तरफ नहीं जाते, माया के कोई जंजाल उन पर जोर नहीं डाल सकते।
हे नानक! प्रभु ने जिनके हृदय में अपना नाम बसा दिया है, वह भगवान का रूप पूरे संत हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ अनिक भेख अरु ङिआन धिआन मनहठि मिलिअउ न कोइ ॥ कहु नानक किरपा भई भगतु ङिआनी सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ अनिक भेख अरु ङिआन धिआन मनहठि मिलिअउ न कोइ ॥ कहु नानक किरपा भई भगतु ङिआनी सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ङिआन = ज्ञान, धर्म चर्चा। हठि = हठ से, जबरन, जोर लगा के। ङिआनी = ज्ञानी, परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला।1।
अर्थ: अनेक धार्मिक वेष धारण करने से, धर्म-चर्चा करने से, मन के हठ से समाधियां लगाने से कोई मनुष्य परमात्मा से नहीं मिल सकता। हे नानक! कह: जिस पर प्रभु की मेहर हो, वही भक्त बन सकता है, वही परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ङंङा ङिआनु नही मुख बातउ ॥ अनिक जुगति सासत्र करि भातउ ॥ ङिआनी सोइ जा कै द्रिड़ सोऊ ॥ कहत सुनत कछु जोगु न होऊ ॥ ङिआनी रहत आगिआ द्रिड़ु जा कै ॥ उसन सीत समसरि सभ ता कै ॥ ङिआनी ततु गुरमुखि बीचारी ॥ नानक जा कउ किरपा धारी ॥५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ङंङा ङिआनु नही मुख बातउ ॥ अनिक जुगति सासत्र करि भातउ ॥ ङिआनी सोइ जा कै द्रिड़ सोऊ ॥ कहत सुनत कछु जोगु न होऊ ॥ ङिआनी रहत आगिआ द्रिड़ु जा कै ॥ उसन सीत समसरि सभ ता कै ॥ ङिआनी ततु गुरमुखि बीचारी ॥ नानक जा कउ किरपा धारी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: ङिआनु = परमात्मा के साथ जान पहिचान। मुख बातउ = मुंह की बातों से। अनिक भातउ जुगति = अनेको भांति की युक्तियों से। जा कै = जिस के हृदय में। जोगु = मिलाप। आगिआ = रजा। उसन = गरमी, दुख। सीत = सरदी, सुख। समसरि = बराबर।5।
अर्थ: पउड़ी: निरी मुंह से की गई बातों से, शास्त्रों की अनेक किस्म की युक्तियों के इस्तेमाल से परमात्मा से जान-पहिचान नहीं हो सकती। निरी प्रभु मिलाप की बातें कहने-सुनने से प्रभु-मिलाप नहीं हो सकता। परमात्मा के साथ वही जान-पहिचान डाल सकता है, जिसके हृदय में प्रभु का पक्का निवास बने। जिसके दिल में परमात्मा की रजा पक्की टिकी रहे, वही असल ज्ञानी है, उसे सारा दुख-सुख एक समान प्रतीत होता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु कृपा करे, जो गुरु के द्वारा जगत के मूल प्रभु के गुणों का विचारवान बन जाए, उसकी सांझ परमात्मा के साथ बनती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ आवन आए स्रिसटि महि बिनु बूझे पसु ढोर ॥ नानक गुरमुखि सो बुझै जा कै भाग मथोर ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ आवन आए स्रिसटि महि बिनु बूझे पसु ढोर ॥ नानक गुरमुखि सो बुझै जा कै भाग मथोर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढोर = पशु, महा मूर्ख। आए = जन्मे। मथोर = माथे पर।1।
अर्थ: जगत में उन लोगों ने सिर्फ कहने मात्र को ही मानव जन्म लिया, पर जीवन का सही रास्ता समझे बिना वे पशु ही रहे (पशुओं वाली जिंदगी ही गुजारते रहे)। हे नानक! वह मनुष्य गुरु के द्वारा जीवन का सही रास्ता समझता है, जिसके माथे पर (पूबर्लि कर्मों के अच्छे कर्मों के) भाग्य जाग पड़ें।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ या जुग महि एकहि कउ आइआ ॥ जनमत मोहिओ मोहनी माइआ ॥ गरभ कुंट महि उरध तप करते ॥ सासि सासि सिमरत प्रभु रहते ॥ उरझि परे जो छोडि छडाना ॥ देवनहारु मनहि बिसराना ॥ धारहु किरपा जिसहि गुसाई ॥ इत उत नानक तिसु बिसरहु नाही ॥६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ या जुग महि एकहि कउ आइआ ॥ जनमत मोहिओ मोहनी माइआ ॥ गरभ कुंट महि उरध तप करते ॥ सासि सासि सिमरत प्रभु रहते ॥ उरझि परे जो छोडि छडाना ॥ देवनहारु मनहि बिसराना ॥ धारहु किरपा जिसहि गुसाई ॥ इत उत नानक तिसु बिसरहु नाही ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: या जुग महि = इस मानव जन्म में। जनमत = जन्मते ही, पैदा होते ही। मोहनी = ठगनी। गरभ कुंट महि = माँ के पेट में। उरध = उल्टा। उरझि परे = उलझ पड़े, फस गए। मनहि = मन में से। गुसाई = हे सृष्टि के मालिक! इत उत = लोक परलोक में।
अर्थ: पउड़ी: मनुष्य इस जन्म में सिर्फ परमात्मा का स्मरण करने के लिए जन्मा है, पर पैदा होते ही इसे ठगनी माया ठग लेती है। (ये आम प्रचलित विचार है कि) जीव माँ के पेट में उल्टे लटके हुए परमात्मा का भजन करते रहते हैं, वहां श्वास-श्वास प्रभु को स्मरण करते रहते हैं (पर प्रभु की अजब माया है कि) जिस माया को अवश्य ही छोड़ जाना है उससे सारी जिंदगी फसे रहते हैं। पर जो प्रभु सारे पदार्थ देने वाला है उसे मन से भुला देते हैं।
हे नानक! (कह:) हे मालिक प्रभु! जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है, उसके मन से तू लोक-परलोक में कभी नहीं बिसरता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ आवत हुकमि बिनास हुकमि आगिआ भिंन न कोइ ॥ आवन जाना तिह मिटै नानक जिह मनि सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ आवत हुकमि बिनास हुकमि आगिआ भिंन न कोइ ॥ आवन जाना तिह मिटै नानक जिह मनि सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुकमि = हुक्म अनुसार। आगिआ = आज्ञा, हुक्म। भिंन = अलग, आकी। आवन जाना = आना और जाना, जनम मरण। तिह = उस का। जिह मनि = जिसके मन में।1।
अर्थ: जीव प्रभु के हुक्म में पैदा होता है, हुक्म में ही मरता है। कोई भी जीव प्रभु के हुक्म से आकी नहीं हो सकता। हे नानक! (सिर्फ) उस जीव का जन्म मरण (का चक्कर) खत्म होता है जिस के मन में वह (हुक्म का मालिक प्रभु) बसता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ एऊ जीअ बहुतु ग्रभ वासे ॥ मोह मगन मीठ जोनि फासे ॥ इनि माइआ त्रै गुण बसि कीने ॥ आपन मोह घटे घटि दीने ॥ ए साजन कछु कहहु उपाइआ ॥ जा ते तरउ बिखम इह माइआ ॥ करि किरपा सतसंगि मिलाए ॥ नानक ता कै निकटि न माए ॥७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ एऊ जीअ बहुतु ग्रभ वासे ॥ मोह मगन मीठ जोनि फासे ॥ इनि माइआ त्रै गुण बसि कीने ॥ आपन मोह घटे घटि दीने ॥ ए साजन कछु कहहु उपाइआ ॥ जा ते तरउ बिखम इह माइआ ॥ करि किरपा सतसंगि मिलाए ॥ नानक ता कै निकटि न माए ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: एऊ = यह (बहुवचन)। ग्रभ = गर्भ, जूनियां। मगन = मस्त। इनि = इस ने। बसि = वश में। घटे घटि = घट घट में, हरेक शरीर में। ए = हे! उपाइआ = उपाय, उपचार, इलाज। तरउ = मैं तैरूँ। बिखम = मुश्किल। निकटि = नजदीक। माए = माइआ।7।
अर्थ: पउड़ी: ये जीव अनेक जूनियों में वास लेते हैं, मीठे मोह में मस्त हो के जूनियों के चक्कर में फंस जाते हैं। इस माया ने (जीवों को अपने) तीन गुणों के वश में कर रखा है, हरेक जीव के हृदय में इसने अपना मोह टिका दिया है।
हे सज्जन! कोई ऐसा इलाज बता, जिससे मैं इस मुश्किल माया (के मोह-रूप समुंदर) में से पार लांघ सकूँ। हे नानक! (कह:) प्रभु अपनी मेहर करके जिस जीव को सत्संग में मिलाता है, माया उसके नजदीक नहीं (फटक सकती)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ किरत कमावन सुभ असुभ कीने तिनि प्रभि आपि ॥ पसु आपन हउ हउ करै नानक बिनु हरि कहा कमाति ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ किरत कमावन सुभ असुभ कीने तिनि प्रभि आपि ॥ पसु आपन हउ हउ करै नानक बिनु हरि कहा कमाति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुभ असुभ किरत = अच्छे बुरे काम। तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। पसु = पशु, मूर्ख। हउ हउ करै = ‘मैं मैं’ करता है, अहंकार करता है कि मैं करता हूँ।1।
अर्थ: (हरेक जीव में बैठ के) सब अच्छे बुरे काम वह स्वयं ही कर रहा है (प्रभु ने खुद किए हैं)। पर हे नानक! मूर्ख मनुष्य गुमान करता है कि मैं करता हूँ। प्रभु की प्रेरणा के बिना जीव कुछ भी नहीं कर सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ एकहि आपि करावनहारा ॥ आपहि पाप पुंन बिसथारा ॥ इआ जुग जितु जितु आपहि लाइओ ॥ सो सो पाइओ जु आपि दिवाइओ ॥ उआ का अंतु न जानै कोऊ ॥ जो जो करै सोऊ फुनि होऊ ॥ एकहि ते सगला बिसथारा ॥ नानक आपि सवारनहारा ॥८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ एकहि आपि करावनहारा ॥ आपहि पाप पुंन बिसथारा ॥ इआ जुग जितु जितु आपहि लाइओ ॥ सो सो पाइओ जु आपि दिवाइओ ॥ उआ का अंतु न जानै कोऊ ॥ जो जो करै सोऊ फुनि होऊ ॥ एकहि ते सगला बिसथारा ॥ नानक आपि सवारनहारा ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: एकहि = सिर्फ। पाप पुंन = बुरे अच्छे काम। इआ जग = इस मानव जनम में। जितु = जिस द्वारा। आपहि = स्वयं ही। उआ का = उस प्रभु का। फुनि = फिर, दुबारा।8।
अर्थ: पउड़ी: (जीवों से अच्छे बुरे काम) कराने वाला प्रभु सिर्फ खुद ही है, उस ने खुद ही अच्छे बुरे कामों का पसारा पसारा हुआ है। इस मानव जनम में (भाव, जनम दे के) जिस जिस तरफ प्रभु खुद लगाता है (उधर ही जीव लगते हैं), जो (मति) प्रभु खुद जीवों को देता है, वही वे ग्रहण करते हैं। उस प्रभु के गुणों का कोई अंत नहीं जान सकता, (जगत में) वही कुछ हो रहा है जो प्रभु खुद करता है।
हे नानक! ये सारा जगत पसारा प्रभु का ही पसारा हुआ है, वह स्वयं ही जीवों को सीधे रास्ते पर डालने वाला है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ राचि रहे बनिता बिनोद कुसम रंग बिख सोर ॥ नानक तिह सरनी परउ बिनसि जाइ मै मोर ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ राचि रहे बनिता बिनोद कुसम रंग बिख सोर ॥ नानक तिह सरनी परउ बिनसि जाइ मै मोर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनिता = स्त्री। बिनोद = चोज तमाशे। कुसम = फूल, कुसंभ का फूल। बिख सोर = बिखिआ का शोर, माया की फूँ-फां। परउ = पड़ूँ। मैं = मेरी, ममता।1।
अर्थ: (हम जीव) स्त्री आदि के रंग-तमाशों में मस्त हो रहे हैं, पर ये माया की फूं-फां कुसंभ के रंग की तरह (क्षिण भंगुर ही है।) हे नानक! (कह:) मैं तो उस प्रभु की शरण पड़ता हूँ (जिसकी मेहर से) अहंकार और ममता दूर हो जाती है।1।
[[0252]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ रे मन बिनु हरि जह रचहु तह तह बंधन पाहि ॥ जिह बिधि कतहू न छूटीऐ साकत तेऊ कमाहि ॥ हउ हउ करते करम रत ता को भारु अफार ॥ प्रीति नही जउ नाम सिउ तउ एऊ करम बिकार ॥ बाधे जम की जेवरी मीठी माइआ रंग ॥ भ्रम के मोहे नह बुझहि सो प्रभु सदहू संग ॥ लेखै गणत न छूटीऐ काची भीति न सुधि ॥ जिसहि बुझाए नानका तिह गुरमुखि निरमल बुधि ॥९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ रे मन बिनु हरि जह रचहु तह तह बंधन पाहि ॥ जिह बिधि कतहू न छूटीऐ साकत तेऊ कमाहि ॥ हउ हउ करते करम रत ता को भारु अफार ॥ प्रीति नही जउ नाम सिउ तउ एऊ करम बिकार ॥ बाधे जम की जेवरी मीठी माइआ रंग ॥ भ्रम के मोहे नह बुझहि सो प्रभु सदहू संग ॥ लेखै गणत न छूटीऐ काची भीति न सुधि ॥ जिसहि बुझाए नानका तिह गुरमुखि निरमल बुधि ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: साकत = प्रभु से विछुड़े जीव। करम रत = पुन्न कर्मों के प्रेमी, कर्म काण्डी। अफार = ना बर्दाश्त किए जा सकने वाला, बहुत। भीति = दीवार। सुधि = सफाई, शुद्धि, पवित्रता।9।
अर्थ: पउड़ी: हे मेरे मन! प्रभु के बिना और जहां जहां प्रेम डालेगा, वहां वहां माया के बंधन पड़ेंगे। हरि से विछुड़े लोग वही काम करते हैं कि उस तरीके से कहीं भी इन बंधनों से खलासी ना हो सके।
(तीर्थ, दान अदिक) कर्मों के प्रेमी (ये कर्म करके, इनके किए का) गुमान करते फिरते हैं, इस अहंकार का भार भी असहि होता है। अगर प्रभु के नाम से प्यार नहीं बना, तो ये कर्म विकार रूप हो जाते हैं।
मीठी माया के चमत्कारों में (फंस के जीव) जम की फासी में बंध जाते हैं। भटकनों में फंसे हुओं को ये समझ नही आती कि प्रभु सदा हमारे साथ है।
(हम जीव इतने माया-ग्रसे हुए हैं कि हमारे किए कुकर्मों का) लेखा करने से हम बरी नहीं हो सकते, (पानी से धोने पर) गारे की दीवार की सफाई नहीं हो सकती (और-और गारा बनता जाएगा)।
हे नानक! (कह:) प्रभु जिस मनुष्य को सूझ बख्शता है, गुरु की शरण पड़ कर उसकी बुद्धि पवित्र हो जाती है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ टूटे बंधन जासु के होआ साधू संगु ॥ जो राते रंग एक कै नानक गूड़ा रंगु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ टूटे बंधन जासु के होआ साधू संगु ॥ जो राते रंग एक कै नानक गूड़ा रंगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जासु के = जिस मनुष्य के। गूढ़ा रंग = पक्का (मजीठी) रंग (कुसंभ वाला कच्चा नहीं)।1।
अर्थ: जिस मनुष्य के माया के बंधन टूटने पर आते हैं, उसे गुरु की संगति प्राप्त होती है। हे नानक! (गुरु की संगति में रह के) जो एक प्रभु के प्यार रंग में रंगे जाते हैं, वह रंग ऐसा गाढ़ा होता है (कि मजीठ के रंग की तरह कभी उतरता नहीं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ रारा रंगहु इआ मनु अपना ॥ हरि हरि नामु जपहु जपु रसना ॥ रे रे दरगह कहै न कोऊ ॥ आउ बैठु आदरु सुभ देऊ ॥ उआ महली पावहि तू बासा ॥ जनम मरन नह होइ बिनासा ॥ मसतकि करमु लिखिओ धुरि जा कै ॥ हरि स्मपै नानक घरि ता कै ॥१०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ रारा रंगहु इआ मनु अपना ॥ हरि हरि नामु जपहु जपु रसना ॥ रे रे दरगह कहै न कोऊ ॥ आउ बैठु आदरु सुभ देऊ ॥ उआ महली पावहि तू बासा ॥ जनम मरन नह होइ बिनासा ॥ मसतकि करमु लिखिओ धुरि जा कै ॥ हरि स्मपै नानक घरि ता कै ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: रसना = जीभ (से)। रे रे = ओए! ओए! (भाव, अनादरी के वचन, दुरकारने के बोल)। सुभ = अच्छा। मसतकि = माथे पर। करमु = प्रभु की बख्शिश। संपै = धन-पदार्थ।10
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) जीभ से सदा हरि के नाम का जाप जपो, (इस तरह) अपने इस मन को (प्रभु के नाम रंग में) रंगो! प्रभु की हजूरी में तुम्हें कोई अनादरी के बोल नहीं बोलेगा, (बल्कि) बढ़िया आदर-सत्कार मिलेगा, (कहेंगे) -आओ बैठो!
(हे भाई!) अगर तू नाम में मन रंग ले तो तुझे प्रभु की हजूरी में ठिकाना मिल जाएगा, ना जनम मरन का चक्कर रह जाएगा, और ना ही कभी आत्मिक मौत होगी।
पर हे नानक! धुर से ही जिस मनुष्य के माथे पर प्रभु की मेहर का लेख लिखा (उघड़ता) है, उसके ही हृदय-घर में ये नाम-धन इकट्ठा होता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ लालच झूठ बिकार मोह बिआपत मूड़े अंध ॥ लागि परे दुरगंध सिउ नानक माइआ बंध ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ लालच झूठ बिकार मोह बिआपत मूड़े अंध ॥ लागि परे दुरगंध सिउ नानक माइआ बंध ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिआपत = जोर डाल लेते हैं। अंध = सूझ-हीन, जिनके ज्ञान नेत्र बंद हैं। दुरगंध = गंदगी, बुरे काम। बंध = बंधन।1।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य माया के मोह के बंधनों में फंस जाते हैं, उन ज्ञान-हीन मूर्खों पर लालच झूठ विकार मोह आदि जोर डाल लेते हैं, और वह बुरे काम में लगे रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ लला लपटि बिखै रस राते ॥ अह्मबुधि माइआ मद माते ॥ इआ माइआ महि जनमहि मरना ॥ जिउ जिउ हुकमु तिवै तिउ करना ॥ कोऊ ऊन न कोऊ पूरा ॥ कोऊ सुघरु न कोऊ मूरा ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगना ॥ नानक ठाकुर सदा अलिपना ॥११॥
मूलम्
पउड़ी ॥ लला लपटि बिखै रस राते ॥ अह्मबुधि माइआ मद माते ॥ इआ माइआ महि जनमहि मरना ॥ जिउ जिउ हुकमु तिवै तिउ करना ॥ कोऊ ऊन न कोऊ पूरा ॥ कोऊ सुघरु न कोऊ मूरा ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगना ॥ नानक ठाकुर सदा अलिपना ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: लपटि = चिपके हुए। बिखै रस = विषियों के स्वाद। अहंबुधि = ‘मैं मैं’ करने वाली बुद्धि। मद = नशा। माते = मस्त। ऊन = वंचित, सखणा, ऊणा, कम। सुघरु = समझदार। मूरा = मूढ़, मूर्ख। अलिपना = अलेप, माया के प्रभाव से परे।11।
अर्थ: पउड़ी: जो मनुष्य माया के नशे में मस्त रहते हैं, जिनकी बुद्धि पर अहंकार का पर्दा पड़ जाता है, वे मनुष्य विषियों के स्वादों से चिपके रहते हैं, और इस माया में फंस के जनम मरन (के चक्कर में पड़ जाते हैं), (पर जीव के भी क्या वश?) जैसे जैसे प्रभु की रजा होती है, वैसे वैसे ही जीव कर्म करते हैं। (अपनी चतुराई से) ना कोई जीव पूर्ण बन सकता है, ना कोई कमजोर रह सकता है, ना कोई (अपने बूते पर) समझदार हो गया है, ना कोई मूर्ख रह गया है।
हे प्रभु! जिस जिस तरफ तू जीवों को प्रेरता है, उधर उधर ही ये लग पड़ते हैं।
हे नानक! (कैसी आश्चर्यजनक खेल है! सब जीवों में बैठ के पालणहार प्रभु प्रेरना कर रहा है, फिर भी) प्रभु खुद स्वयं माया के प्रभाव से परे है।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ लाल गुपाल गोबिंद प्रभ गहिर ग्मभीर अथाह ॥ दूसर नाही अवर को नानक बेपरवाह ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ लाल गुपाल गोबिंद प्रभ गहिर ग्मभीर अथाह ॥ दूसर नाही अवर को नानक बेपरवाह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाल = प्यारा। गोपाल = धरती का पालक। गहिर = गहिरा, जिसका भेद ना पाया जा सके। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। बेपरवाह = चिन्ता फिक्र से ऊपर।1।
अर्थ: परमात्मा सब का प्यारा है, सृष्टि कर रक्षक है, सब की जानने वाला है उसका भेद नहीं पाया जा सकता, बड़े जिगरे वाला है, उसे एक ऐसा समुंदर समझो, जिसकी गहराई व आकार समझ से परे है, कोई चिन्ता-फिक्र उसके नजदीक नहीं फटकते। हे नानक! उस जैसा और कोई दूसरा नहीं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ लला ता कै लवै न कोऊ ॥ एकहि आपि अवर नह होऊ ॥ होवनहारु होत सद आइआ ॥ उआ का अंतु न काहू पाइआ ॥ कीट हसति महि पूर समाने ॥ प्रगट पुरख सभ ठाऊ जाने ॥ जा कउ दीनो हरि रसु अपना ॥ नानक गुरमुखि हरि हरि तिह जपना ॥१२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ लला ता कै लवै न कोऊ ॥ एकहि आपि अवर नह होऊ ॥ होवनहारु होत सद आइआ ॥ उआ का अंतु न काहू पाइआ ॥ कीट हसति महि पूर समाने ॥ प्रगट पुरख सभ ठाऊ जाने ॥ जा कउ दीनो हरि रसु अपना ॥ नानक गुरमुखि हरि हरि तिह जपना ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: लवै = बराबर का, पास पास का। होवनहार = अस्तित्व वाला। काहू = किसी ने भी। कीट = कीड़ी। हसति = हाथी।12।
अर्थ: पउड़ी: उस परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं है, (अपने जैसा) वह खुद ही है स्वयं ही है (उस जैसा) और कोई नही। सदा से ही वह प्रभु अस्तित्व वाला चला आ रहा है, किसी ने उस (की) हस्ती का आखिरी छोर नहीं पाया। कीड़ी से लेकर हाथी तक सब में पूण तौर पर प्रभु व्यापक है, वह सर्व-व्यापक परमात्मा हर जगह प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है।
हे नानक! जिस आदमी को प्रभु ने अपने नाम का स्वाद बख्शा है, वह बंदा गुरु की शरण पड़ कर सदा उसे जपता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ आतम रसु जिह जानिआ हरि रंग सहजे माणु ॥ नानक धनि धनि धंनि जन आए ते परवाणु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ आतम रसु जिह जानिआ हरि रंग सहजे माणु ॥ नानक धनि धनि धंनि जन आए ते परवाणु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसु = आनंद। जिह = जिन्होंने। सहजे = सहजि, अडोलता में (टिक के)। धनि = धन्य, भाग्यशाली। परवाणु = स्वीकार।1।
अर्थ: हे नानक! जो लोग अडोल अवस्था में टिक के प्रभु की याद का स्वाद लेते हैं, जिन्होंने इस आत्मिक आनंद के साथ सांझ डाली है, वे भाग्यशाली है, उनका ही जगत में पैदा सफल है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ आइआ सफल ताहू को गनीऐ ॥ जासु रसन हरि हरि जसु भनीऐ ॥ आइ बसहि साधू कै संगे ॥ अनदिनु नामु धिआवहि रंगे ॥ आवत सो जनु नामहि राता ॥ जा कउ दइआ मइआ बिधाता ॥ एकहि आवन फिरि जोनि न आइआ ॥ नानक हरि कै दरसि समाइआ ॥१३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ आइआ सफल ताहू को गनीऐ ॥ जासु रसन हरि हरि जसु भनीऐ ॥ आइ बसहि साधू कै संगे ॥ अनदिनु नामु धिआवहि रंगे ॥ आवत सो जनु नामहि राता ॥ जा कउ दइआ मइआ बिधाता ॥ एकहि आवन फिरि जोनि न आइआ ॥ नानक हरि कै दरसि समाइआ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: ताहू को = उसी का। गनीऐ = समझना चाहिए। जासु रसन = जिस की जीभ। जसु = यश, महिमा। भनीऐ = उचारती है। साधू = गुरु। अनदिनु = हर रोज, हर समय। रंगे = रंग में, प्यार से। नामहि = नाम में। राता = मस्त। माइआ = मेहर, दया। बिधाता = बिधाते की, सुजनहार की। एकहि आवन = एक ही बार जनम। दरसि = दीदार में।13।
अर्थ: पउड़ी: (जगत में) उसी मनुष्य का आना सफल हुआ जानो, जिस की जीभ सदा परमात्मा की महिमा करती है। (जो लोग) गुरु की हजूरी में आ टिकते हैं, वह हर वक्त प्यार से प्रभु का नाम स्मरण करते हैं।
जिस मनुष्य पर विधाता की मेहर की किरपा हुई, वह सदा परमात्मा के नाम में मस्त रहता है, (जगत में वही) आया समझो।
हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के दीदार में लीन रहता है, (जगत में) उसका जनम एक ही बार होता है, वह मुड़ मुड़ जूनियों में नहीं आता।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ यासु जपत मनि होइ अनंदु बिनसै दूजा भाउ ॥ दूख दरद त्रिसना बुझै नानक नामि समाउ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ यासु जपत मनि होइ अनंदु बिनसै दूजा भाउ ॥ दूख दरद त्रिसना बुझै नानक नामि समाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: यासु = जासु, जिसे। मनि = मन मे। दूजा भाउ = किसी और के साथ प्यार। त्रिसना = तृष्णा, माया का लालच। नामि = नाम मे। समाउ = लीन हो।1।
अर्थ: हे नानक! जिस प्रभु का नाम जपने से मन में आनंद पैदा होता है, (प्रभु से अलग) किसी और का मोह दूर हो सकता है, माया का लालच (और लालच से पैदा हुआ) दुख-कष्ट मिट जाता है, उसके नाम में टिके रहो।1।
[[0253]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ यया जारउ दुरमति दोऊ ॥ तिसहि तिआगि सुख सहजे सोऊ ॥ यया जाइ परहु संत सरना ॥ जिह आसर इआ भवजलु तरना ॥ यया जनमि न आवै सोऊ ॥ एक नाम ले मनहि परोऊ ॥ यया जनमु न हारीऐ गुर पूरे की टेक ॥ नानक तिह सुखु पाइआ जा कै हीअरै एक ॥१४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ यया जारउ दुरमति दोऊ ॥ तिसहि तिआगि सुख सहजे सोऊ ॥ यया जाइ परहु संत सरना ॥ जिह आसर इआ भवजलु तरना ॥ यया जनमि न आवै सोऊ ॥ एक नाम ले मनहि परोऊ ॥ यया जनमु न हारीऐ गुर पूरे की टेक ॥ नानक तिह सुखु पाइआ जा कै हीअरै एक ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउड़ी: जारउ = जला दो। दोऊ = दूसरा भाव। तिसहि = इस (दुर्मति) को। सोऊ = टिकोगे। मनहि = मन में। न हारीअै = व्यर्थ नहीं जाएगा। टेक = आसरा। तिह = उसने। हीअरै = हृदय में।14।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) बुरी मति और माया का प्यार जला दो, इसे त्याग के ही सुख में अडोल अवस्था में टिके रहोगे। जा के संतों की शरण पड़ो, इसी आसरे इस संसार-समुंद्र में से (सही सलामत) पार लांघ सकते हैं।
जो बंदा एक प्रभू का नाम ले के अपने मन में परो लेता है, वह बारंबार जन्मों में नहीं आता।
हे नानक! पूरे गुरू का आसरा लेने से मानस जनम व्यर्थ नहीं जाता। जिस मनुष्य के हृदय में एक प्रभू बस गया है, उसने आत्मिक आनंद हासिल कर लिया है।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ अंतरि मन तन बसि रहे ईत ऊत के मीत ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ नानक जपीऐ नीत ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ अंतरि मन तन बसि रहे ईत ऊत के मीत ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ नानक जपीऐ नीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। ईत ऊत के मीत = लोक परलोक में साथ देने वाला मित्र। गुरि = गुरू ने। उपदेसिआ = नजदीक दिखा दिया।1।
अर्थ: जिस मनुष्य को पूरा गुरू लोक-परलोक में साथ देने वाला परमात्मा नजदीक दिखा देता है, परमात्मा उस मनुष्य के मन में तन में हर समय आ बसता है। हे नानक! ऐसे प्रभू को सदा सिमरना चाहिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अनदिनु सिमरहु तासु कउ जो अंति सहाई होइ ॥ इह बिखिआ दिन चारि छिअ छाडि चलिओ सभु कोइ ॥ का को मात पिता सुत धीआ ॥ ग्रिह बनिता कछु संगि न लीआ ॥ ऐसी संचि जु बिनसत नाही ॥ पति सेती अपुनै घरि जाही ॥ साधसंगि कलि कीरतनु गाइआ ॥ नानक ते ते बहुरि न आइआ ॥१५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अनदिनु सिमरहु तासु कउ जो अंति सहाई होइ ॥ इह बिखिआ दिन चारि छिअ छाडि चलिओ सभु कोइ ॥ का को मात पिता सुत धीआ ॥ ग्रिह बनिता कछु संगि न लीआ ॥ ऐसी संचि जु बिनसत नाही ॥ पति सेती अपुनै घरि जाही ॥ साधसंगि कलि कीरतनु गाइआ ॥ नानक ते ते बहुरि न आइआ ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउड़ी: तासु कउ = उसे। बिखिआ = माया। चारि छिअ = दस। सभु कोइ = हरेक जीव। का को = किस का? किसी का नहीं। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। संचि = संचित करए इकट्ठी कर। पति = इज्जत। अपुनै घरि = अपने घर में, जिस घर में से कोई निकाल नहीं सकेगा। कलि = इस समय में, जनम ले के, जगत में आ के। ते ते = वह वह लोग।15।
अर्थ: पउड़ी: जो प्रभू आखिर में सहायता करता है, उसे हर वक्त याद रखो। ये माया तो दस दिनों की साथिन है, हरेक जीव इसे यहीं छोड़ के चला जाता है।
माता, पिता, पुत्र, पुत्री कोई भी किसी का साथी नहीं है। घर-स्त्री कोई भी चीज कोई जीव यहाँ से साथ ले के नहीं जा सकता। (हे भाई!) ऐसी राशि-पूंजी इकट्ठी कर जिसका कभी नाश ना हो, और इज्जत से उस घर में जा सकें, जहाँ से कोई निकाल ना सके।
हे नानक! जिन लोगों ने मानस जनम ले के सत्संग में प्रभू की सिफत-सालाह की, वे बार-बार जनम-मरण के चक्कर में नहीं आए।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ अति सुंदर कुलीन चतुर मुखि ङिआनी धनवंत ॥ मिरतक कहीअहि नानका जिह प्रीति नही भगवंत ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ अति सुंदर कुलीन चतुर मुखि ङिआनी धनवंत ॥ मिरतक कहीअहि नानका जिह प्रीति नही भगवंत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुखी, जाने-माने। मिरतक = मृतक, मुरदे।1।
अर्थ: यदि कोई बड़ा सुंदर, अच्छे कुल वाला, समझदार, ज्ञानवान व धनवान भी हो, पर, हे नानक! जिन के अंदर भगवान की प्रीति नहीं है, वे मुर्दे ही कहे जाते हैं (भाव, विकारों में मरी हुई आत्मा वाले)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ङंङा खटु सासत्र होइ ङिआता ॥ पूरकु कु्मभक रेचक करमाता ॥ ङिआन धिआन तीरथ इसनानी ॥ सोमपाक अपरस उदिआनी ॥ राम नाम संगि मनि नही हेता ॥ जो कछु कीनो सोऊ अनेता ॥ उआ ते ऊतमु गनउ चंडाला ॥ नानक जिह मनि बसहि गुपाला ॥१६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ङंङा खटु सासत्र होइ ङिआता ॥ पूरकु कु्मभक रेचक करमाता ॥ ङिआन धिआन तीरथ इसनानी ॥ सोमपाक अपरस उदिआनी ॥ राम नाम संगि मनि नही हेता ॥ जो कछु कीनो सोऊ अनेता ॥ उआ ते ऊतमु गनउ चंडाला ॥ नानक जिह मनि बसहि गुपाला ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउड़ी: खटु = छे। खटु सासत्र = छे शास्त्र (सांख, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, योग, वेदांत। इनके कर्ता: कपिल, गौतम, कणाद, जेमनी, पतंजली व व्यास)। पूरकु = प्राण ऊपर चढ़ाने। कुंभक = पाण रोक के रखने। रेचक = प्राण बाहर निकालने। सोम पाक = स्वयं पाक, अपने हाथों रोटी पकाने वाला। अपरस = अस्पर्श, जो किसी (शूद्र आदि से) ना छूए। अनेता = ना नित्य रहने वाला, व्यर्थ। गनउ = मैं समझता हूँ।16।
अर्थ: पउड़ी: कोई मनुष्य छे शास्त्रों को जानने वाला हो, (प्राणयाम के अभ्यास में) श्वास ऊपर चढ़ाने, रोक के रखने व नीचे उतारने के कर्म करता हो, धार्मिक चर्चा करता हो, समाधियां लगाता हो, (स्वच्छता की खातिर) अपने हाथों से रोटी पकाता हो, जंगलों में रहता हो, पर यदि उसके मन में परमात्मा के नाम का ध्यान नहीं, तो उसने जो कुछ किया व्यर्थ ही किया।
हे नानक! (कह–) जिस मनुष्य के मन में प्रभू जी नहीं बसते, उससे मैं एक नीच जाति के आदमी को बेहतर समझता हूँ।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ कुंट चारि दह दिसि भ्रमे करम किरति की रेख ॥ सूख दूख मुकति जोनि नानक लिखिओ लेख ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ कुंट चारि दह दिसि भ्रमे करम किरति की रेख ॥ सूख दूख मुकति जोनि नानक लिखिओ लेख ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुंट = कूट, तरफ। दह दिसि = दसों दिशाएं। रेख = रेखा, लकीर, संस्कार। किरति = किए हुये।1।
अर्थ: हे नानक! जीव अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार चारों तरफ दसों दिशाओं में भटकते हैं। लिखे लेखों के मुताबिक ही सुख-दुख-मुक्ति अथवा जनम-मरण के चक्कर मिलते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवड़ी ॥ कका कारन करता सोऊ ॥ लिखिओ लेखु न मेटत कोऊ ॥ नही होत कछु दोऊ बारा ॥ करनैहारु न भूलनहारा ॥ काहू पंथु दिखारै आपै ॥ काहू उदिआन भ्रमत पछुतापै ॥ आपन खेलु आप ही कीनो ॥ जो जो दीनो सु नानक लीनो ॥१७॥
मूलम्
पवड़ी ॥ कका कारन करता सोऊ ॥ लिखिओ लेखु न मेटत कोऊ ॥ नही होत कछु दोऊ बारा ॥ करनैहारु न भूलनहारा ॥ काहू पंथु दिखारै आपै ॥ काहू उदिआन भ्रमत पछुतापै ॥ आपन खेलु आप ही कीनो ॥ जो जो दीनो सु नानक लीनो ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवड़ी = पंथु = (जिंदगी का) रास्ता। उदिआन = उद्यान, जंगल।17।
अर्थ: पवड़ी- करतार स्वयं ही (जगत के कार्य-व्यवहार का) सबब बनाने वाला है। कोई जीव उसके द्वारा लिखे लेख को मिटा नहीं सकता। सृजनहार भूलने वाला नहीं है, (जो भी काम वह करता है, उसमें गलती नहीं रह जाती, इस वास्ते) कोई काम उसे दूसरी बार (ठीक करके) नहीं करना पड़ता।
किसी जीव को खुद ही (जिंदगी का सही) रास्ता दिखाता है, किसी को खुद ही जंगल में भटका के पछुतावे की ओर ले जाता है।
ये सारा जगत-खेल प्रभू ने स्वयं ही बनाया है। हे नानक! जो कुछ वह जीवों को देता है, वही उन्हें मिलता है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ खात खरचत बिलछत रहे टूटि न जाहि भंडार ॥ हरि हरि जपत अनेक जन नानक नाहि सुमार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ खात खरचत बिलछत रहे टूटि न जाहि भंडार ॥ हरि हरि जपत अनेक जन नानक नाहि सुमार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिलछत = विलसित, आत्मिक आनंद भोगते हुए।1।
अर्थ: हे नानक! अनेकों जीव, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती, परमात्मा का नाम जपते हैं (उनके पास सिफत-सालाह के इतने खजाने इकट्ठे हो जाते हैं कि) वे उन खजानों को खाते-खरचते-भोगते हैं, पर वह कभी खत्म नहीं होते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ खखा खूना कछु नही तिसु सम्रथ कै पाहि ॥ जो देना सो दे रहिओ भावै तह तह जाहि ॥ खरचु खजाना नाम धनु इआ भगतन की रासि ॥ खिमा गरीबी अनद सहज जपत रहहि गुणतास ॥ खेलहि बिगसहि अनद सिउ जा कउ होत क्रिपाल ॥ सदीव गनीव सुहावने राम नाम ग्रिहि माल ॥ खेदु न दूखु न डानु तिह जा कउ नदरि करी ॥ नानक जो प्रभ भाणिआ पूरी तिना परी ॥१८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ खखा खूना कछु नही तिसु सम्रथ कै पाहि ॥ जो देना सो दे रहिओ भावै तह तह जाहि ॥ खरचु खजाना नाम धनु इआ भगतन की रासि ॥ खिमा गरीबी अनद सहज जपत रहहि गुणतास ॥ खेलहि बिगसहि अनद सिउ जा कउ होत क्रिपाल ॥ सदीव गनीव सुहावने राम नाम ग्रिहि माल ॥ खेदु न दूखु न डानु तिह जा कउ नदरि करी ॥ नानक जो प्रभ भाणिआ पूरी तिना परी ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउड़ी: खूना = ऊन, कमी। पाहि = पास। भावै = जैसे प्रभू को भाता है। तह तह = वहां वहां। भावै तह तह जाहि = (भक्त जन) उसकी रजा में चलते हैं। सहज = अडोलता। गुणतास = गुणों का खजाना परमात्मा। बिगसहि = खिले रहते हैं। गनीव = धनाढ, ग़नी। ग्रिहि = हृदय घर में। खेदु = कलेश। डानु = दण्ड।18।
अर्थ: पउड़ी: प्रभू सब ताकतों का मालिक है, उसके पास किसी भी चीज की कमी नहीं। उसके भक्त जन उसकी रजा में चलते हैं, उन्हें वह सब कुछ देता है। प्रभू का नाम-धन भक्तों की राशि पूँजी है, इसी खजाने को वे सदा इस्तेमाल करते हैं। वे सदा गुणों के खजाने प्रभू को सिमरते हैं और इससे उनके अंदर क्षमा-निम्रता-आत्मिक आनंद व अडोलता (आदि गुण प्रफुल्लित होते हैं)।
वह जिन पर कृपा करता है, वह आत्मिक आनंद से जीवन की खेल खेलते हैं और सदा खिले रहते हैं। वे सदा ही धनवान हैं, उनके माथे चमकते हैं, उनके हृदय में बेअंत नाम-धन है।
जिन पर प्रभू मेहर की नजर करता है, उनकी आत्मा को कोई कलेश नहीं, कोई दुख नहीं (जीवन-वणज में उन्हें कोई जिंमेदारी) बोझ नहीं लगती। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू को अच्छे लगते हैं, (जीवन-व्यापार में) वह कामयाब हो जाते हैं।18।
[[0254]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ गनि मिनि देखहु मनै माहि सरपर चलनो लोग ॥ आस अनित गुरमुखि मिटै नानक नाम अरोग ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ गनि मिनि देखहु मनै माहि सरपर चलनो लोग ॥ आस अनित गुरमुखि मिटै नानक नाम अरोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गनि मिनि = गिन मिन के, गिन कि माप के। सरपर = अवश्य, जरूर। अनित आस = नित्य ना रहने वाले पदार्थों की आशा।1।
अर्थ: (हे भाई!) मन में अच्छी तरह विचार के देख लो, सारा जगत जरूर (अपनी अपनी बारी यहाँ से) चला जाएगा (फिर नाशवान के लिए आस क्यूँ?) हे नानक! प्रभु का नाम मनुष्य के मन को (आशा आदि के) रोगों से बचा लेता है, गुरु की शरण पड़ने से नाश-वंत पदार्थों की आस मिट जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ गगा गोबिद गुण रवहु सासि सासि जपि नीत ॥ कहा बिसासा देह का बिलम न करिहो मीत ॥ नह बारिक नह जोबनै नह बिरधी कछु बंधु ॥ ओह बेरा नह बूझीऐ जउ आइ परै जम फंधु ॥ गिआनी धिआनी चतुर पेखि रहनु नही इह ठाइ ॥ छाडि छाडि सगली गई मूड़ तहा लपटाहि ॥ गुर प्रसादि सिमरत रहै जाहू मसतकि भाग ॥ नानक आए सफल ते जा कउ प्रिअहि सुहाग ॥१९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ गगा गोबिद गुण रवहु सासि सासि जपि नीत ॥ कहा बिसासा देह का बिलम न करिहो मीत ॥ नह बारिक नह जोबनै नह बिरधी कछु बंधु ॥ ओह बेरा नह बूझीऐ जउ आइ परै जम फंधु ॥ गिआनी धिआनी चतुर पेखि रहनु नही इह ठाइ ॥ छाडि छाडि सगली गई मूड़ तहा लपटाहि ॥ गुर प्रसादि सिमरत रहै जाहू मसतकि भाग ॥ नानक आए सफल ते जा कउ प्रिअहि सुहाग ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: रवहु = याद करो। नीत = नित्य। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। बिसासा = विश्वास, एतबार। बिलम = विलम्ब, देरी। बंधु = बंधन, रुकावट। बेरा = बेला। फंधु = फंदा, रस्सा। पेखि = देख। लपटाहि = लिपटते हैं, चिपकते हैं। जाहू मसतकि = जिसके माथे पर। प्रिअहि = प्रिय के, प्यारे के।19।
अर्थ: पउड़ी: (हे मित्र!) श्वास-श्वास सदा गोबिंद का नाम जपो, प्रभु के गुण चेते करते रहो, (देखना) ढील ना करनी, इस शरीर का कोई भरोसा नहीं। बालपन हो, जवानी हो या बुढ़ापा हो (मौत के आने में किसी भी वक्त) कोई रुकावट नहीं है। उस वक्त का पता नहीं लग सकता, जब जम का फंदा (गले में) आ पड़ता है। देखो! ज्ञानवान हो, तवज्जो जोड़ने वाले हों, चाहे समझदार (सियाणे) हों, किसी ने भी सदा इस जगह टिके नहीं रहना। मूर्ख ही उन पदार्थों को जफ्फा मारते हैं जिन्हें (अपनी अपनी बारी) सारी दुनिया छोड़ गई।
जिस मनुष्य के माथे पर भाग्यों के लेख अंकुरित हों, वह गुरु की कृपा से सदा प्रभु का नाम स्मरण करता रहता है। हे नानक! जिन्होंने प्यारे प्रभु का सुहाग (खसमाना) नसीब है, उनका ही जगत में आना मुबारक है।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ घोखे सासत्र बेद सभ आन न कथतउ कोइ ॥ आदि जुगादी हुणि होवत नानक एकै सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ घोखे सासत्र बेद सभ आन न कथतउ कोइ ॥ आदि जुगादी हुणि होवत नानक एकै सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घोखे = बारीकी से पढ़ के देखे हैं। आन = कोई और। जुगादी = जुगों के आदि से। होवत = आगे को भी, कायम रहने वाला।1।
अर्थ: सारे वेद-शास्त्र विचार के देख लिए हैं, इनमें से कोई भी ये नहीं कहता कि परमातमा के बिना कोई और भी सदा स्थिर रहने वाला है। हे नानक! एक परमात्मा ही है जो जगत के शुरू से है, युगों के आरम्भ से है, अब भी है और आगे भी रहेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ घघा घालहु मनहि एह बिनु हरि दूसर नाहि ॥ नह होआ नह होवना जत कत ओही समाहि ॥ घूलहि तउ मन जउ आवहि सरना ॥ नाम ततु कलि महि पुनहचरना ॥ घालि घालि अनिक पछुतावहि ॥ बिनु हरि भगति कहा थिति पावहि ॥ घोलि महा रसु अम्रितु तिह पीआ ॥ नानक हरि गुरि जा कउ दीआ ॥२०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ घघा घालहु मनहि एह बिनु हरि दूसर नाहि ॥ नह होआ नह होवना जत कत ओही समाहि ॥ घूलहि तउ मन जउ आवहि सरना ॥ नाम ततु कलि महि पुनहचरना ॥ घालि घालि अनिक पछुतावहि ॥ बिनु हरि भगति कहा थिति पावहि ॥ घोलि महा रसु अम्रितु तिह पीआ ॥ नानक हरि गुरि जा कउ दीआ ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: घालहु = दृढ़ करो। मनहि = मन में। जत कत = हर जगह। घूलहि = भीगेगा, रस लेगा। मन = हे मन! कलि महि = मानव जीवन में।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: किसी खास युग के बारे में यहाँ जिक्र नहीं चल रहा)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुनह चरना = (पुनह+चरन, पुनह = दुबारा, दूसरी बार, चरन = आचरण, कर्म) किसी पाप कर्म का असर मिटाने के लिए किए गए कर्म, बतौर पश्चाताप किया गया कर्म। थिति = स्थिति, आत्मिक टिकाव, शांति। गुरि = गुरु ने।20।
अर्थ: पउड़ी।
(हे भाई!) अपने मन में (ये सच्चाई) अच्छी तरह बैठा लो कि प्रभु के बिना और कोई सदा स्थिर नहीं है, ना कोई अब तक हुआ है ना ही होगा। हर जगह वह प्रभु ही मौजूद है।
हे मन! अगर तू उस सदा स्थिर हरि की शरण पड़े, तो ही रस पाएगा। इस मानव जनम में एक प्रभु का नाम ही है जो किये विकारों का प्रभाव मिटा सकता है। परमात्मा की भक्ती के बिना और कहीं भी मन को शान्ति नहीं मिलती। अनेक ही लोग (हरि स्मरण के बिना) विभिन्न तरह की मेहनत कर करके आखिर में पछताते ही हैं।
हे नानक! गुरु ने जिस को हरि-नाम की दाति दे दी, उसने महा = रस वाला (अत्यंत स्वादिष्ट) नाम-अमृत घोल के पी लिया (भाव, उसने बड़े प्रेम के साथ नाम जपा जिस में से ऐसा स्वाद आया जैसे किसी अति मीठे शर्बत आदि में से)।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ ङणि घाले सभ दिवस सास नह बढन घटन तिलु सार ॥ जीवन लोरहि भरम मोह नानक तेऊ गवार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ ङणि घाले सभ दिवस सास नह बढन घटन तिलु सार ॥ जीवन लोरहि भरम मोह नानक तेऊ गवार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ङणि = गिन के। घाले = भेजता है। दिवस = दिन। तिलु सार = तिल जितना भी। लोरहि = लोचना, अभिलाशा रखना।
अर्थ: (जीव की उम्र के) सारा दिन श्वास गिन के ही (जीव को जगत में) भेजता है, (उस गिनती से) एक तिल जितना भी कम-ज्यादा नहीं होता। हे नानक! वे लोग मूर्ख हैं जो मोह की भटकना में पड़ कर (प्रभु द्वारा मिली उम्र से ज्यादा) जीने की तमन्ना रखते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ङंङा ङ्रासै कालु तिह जो साकत प्रभि कीन ॥ अनिक जोनि जनमहि मरहि आतम रामु न चीन ॥ ङिआन धिआन ताहू कउ आए ॥ करि किरपा जिह आपि दिवाए ॥ ङणती ङणी नही कोऊ छूटै ॥ काची गागरि सरपर फूटै ॥ सो जीवत जिह जीवत जपिआ ॥ प्रगट भए नानक नह छपिआ ॥२१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ङंङा ङ्रासै कालु तिह जो साकत प्रभि कीन ॥ अनिक जोनि जनमहि मरहि आतम रामु न चीन ॥ ङिआन धिआन ताहू कउ आए ॥ करि किरपा जिह आपि दिवाए ॥ ङणती ङणी नही कोऊ छूटै ॥ काची गागरि सरपर फूटै ॥ सो जीवत जिह जीवत जपिआ ॥ प्रगट भए नानक नह छपिआ ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: ङ्रासै = ग्रसता है। साकत = माया से ग्रसे हुए, ईश्वर से टूटे हुए। प्रभि = प्रभु ने। चीन = पहचाना। ङणती ङणी = गिनती गिनने से, सोचें सोचने से। सरपर = अवश्य, जरूर।21।
अर्थ: पउड़ी: मौत का डर उन लोगों को ग्रसता है जिन्हें प्रभु ने अपने से विछोड़ दिया है, उन्होंने व्यापक प्रभु को नहीं पहिचाना, और वे अनेक जूनियों में जन्म लेते मरते रहते हैं।
(मौत का सहम उतार के) प्रभु के साथ सांझ उन्होंने ही डाली, प्रभु से तवज्जो उन्होंने ही जोड़ी, जिन्हें प्रभु ने मेहर करके ये दाति दी।
(ये शरीर) कच्चा घड़ा है इसने जरूर टूटना है, सोचें सोचने से (भी इस होनी से) कोई बच नहीं सकता।
(पर) हे नानक! (कोई लम्बी उम्र जी गया, कोई थोड़ी) उसी को जीना समझो जिसने जीते-जी परमात्मा का स्मरण किया है, स्मरण करने वाला मनुष्य छुपा नहीं रहता, जगत में नाम भी कमाता है।21।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 3 का भाव है कि अक्षर ‘ङ’ की 3 पउड़ीयां आ चुकी हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ चिति चितवउ चरणारबिंद ऊध कवल बिगसांत ॥ प्रगट भए आपहि गुोबिंद नानक संत मतांत ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ चिति चितवउ चरणारबिंद ऊध कवल बिगसांत ॥ प्रगट भए आपहि गुोबिंद नानक संत मतांत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। चितवउ = मैं चितवता हूँ। चरणारबिंद = चरण+अरविंद, चरण कमल, सुंदर चरण। ऊध = उलटा हुआ, माया की ओर पलटा हुआ। आपहि = खुद ही।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोबिंद’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ व ‘ो’ लगी हैं। असल शब्द ‘गोबिंद’ है, पर यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (मैं तो अपने) चिक्त में प्रभु सुंदर चरण टिकाता हूँ (जो जीव ये काम करता है उसका माया की ओर) उल्टा हुआ मन (सीधा हो के) कमल फूल की तरह खिल जाता है। हे नानक! गुरु की शिक्षा से गोबिंद स्वयं ही उस हृदय में आ प्रगट होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ चचा चरन कमल गुर लागा ॥ धनि धनि उआ दिन संजोग सभागा ॥ चारि कुंट दह दिसि भ्रमि आइओ ॥ भई क्रिपा तब दरसनु पाइओ ॥ चार बिचार बिनसिओ सभ दूआ ॥ साधसंगि मनु निरमल हूआ ॥ चिंत बिसारी एक द्रिसटेता ॥ नानक गिआन अंजनु जिह नेत्रा ॥२२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ चचा चरन कमल गुर लागा ॥ धनि धनि उआ दिन संजोग सभागा ॥ चारि कुंट दह दिसि भ्रमि आइओ ॥ भई क्रिपा तब दरसनु पाइओ ॥ चार बिचार बिनसिओ सभ दूआ ॥ साधसंगि मनु निरमल हूआ ॥ चिंत बिसारी एक द्रिसटेता ॥ नानक गिआन अंजनु जिह नेत्रा ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ऊआ दिन = उस दिन। चार = सुंदर। बिचार = विचार। दूआ = दूसरा भाव, माया का प्यार। द्रिसटेता = दर्शन किया। अंजनु = सुरमा। जिह = जिस की।22।
अर्थ: पउड़ी: वह दिन भाग्यों वाला, वह समय भाग्यशाली समझो जब (किसी जीव का माथा) गुरु के सुंदर चरणों से लगे। (प्रभु के दीदार की खातिर जीव) चारों तरफ दसों दिशाओं में भी भटक आए (तब भी सफलता नहीं मिलती) दीदार तभी होता है, जब उसकी मेहर हो (और मेहर होने से ही गुरु की संगति मिलती है)।
गुरु की संगति में मन पवित्र हो जाता है, विचार स्वच्छ हो जाते हैं, माया का सारा प्यार समाप्त हो जाता है।
हे नानक! (गुरु की बख्शी) सूझ का अंजन जिसकी आँखों में पड़ता है, उसे (हर जगह) एक परमात्मा के ही दर्शन होते हैं, वह और सभी चितवनें (सोचें) विसार देता है (और एक परमात्मा को ही चितवता रहता है)।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ छाती सीतल मनु सुखी छंत गोबिद गुन गाइ ॥ ऐसी किरपा करहु प्रभ नानक दास दसाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ छाती सीतल मनु सुखी छंत गोबिद गुन गाइ ॥ ऐसी किरपा करहु प्रभ नानक दास दसाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतल = ठण्डी। छंत = छंद, गीत। गाइ = गा के। दास दसाइ = दासों का दास।1।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मैं तेरे दासों का दास हूँ। मुझ पर ऐसी मेहर कर कि तेरी महिमा की वाणी गा के मेरे दिल में ठंड पड़ जाए, मेरा मन सुखी हो जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ छछा छोहरे दास तुमारे ॥ दास दासन के पानीहारे ॥ छछा छारु होत तेरे संता ॥ अपनी क्रिपा करहु भगवंता ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई ॥ संतन की मन टेक टिकाई ॥ छारु की पुतरी परम गति पाई ॥ नानक जा कउ संत सहाई ॥२३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ छछा छोहरे दास तुमारे ॥ दास दासन के पानीहारे ॥ छछा छारु होत तेरे संता ॥ अपनी क्रिपा करहु भगवंता ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई ॥ संतन की मन टेक टिकाई ॥ छारु की पुतरी परम गति पाई ॥ नानक जा कउ संत सहाई ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: छोहरे = बालके, दास। पानीहारे = पानी भरने वाले। छारु = चरण धूल। भगवंता = हे भगवान! छारु की पुतरी = मिट्टी की पुतली। मन = हे मन!।23।
अर्थ: पउड़ी: हे भगवान! अपनी मेहर कर, मैं तेरे संतजनों की चरणधूड़ हो जाऊँ। मैं तेरा दास हूँ, तेरा बच्चा हूँ (मेहर कर) तेरे दासों के दासों का मैं पानी भरने वाला बनूँ (उनकी सेवा में मुझे आनंद प्रतीत हो)।
हे मन! सारी चतुराई समझदारी छोड़ के संत जनों का आसरा पकड़।
हे नानक! संत जन जिस मनुष्य की सहायता करते हैं, उसका भी ये शरीर चाहे मिट्टी का पुतला है, पर इसी में वह ऊँची से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।23।
[[0255]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ जोर जुलम फूलहि घनो काची देह बिकार ॥ अह्मबुधि बंधन परे नानक नाम छुटार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ जोर जुलम फूलहि घनो काची देह बिकार ॥ अह्मबुधि बंधन परे नानक नाम छुटार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फूलहि = फूलते हैं, अकड़ते हैं, अहंकार करते हैं। काची = नाशवान। बिकार = बेकार, व्यर्थ। अहंबुधि = अहंकार भरी बुद्धि, मैं मैं करने वाली अक्ल।1।
अर्थ: जो लोग दूसरों पर धक्का जुल्म करके बहुत मान करते हैं, (शरीर तो उनका भी नाशवान है) उनका नाशवान शरीर व्यर्थ चला जाता है। वे ‘मैं बड़ा’ ‘मैं बड़ा’ करने वाली मति के बंधनों में जकड़े जाते हैं। हे नानक! इन बंधनों से प्रभु का नाम ही छुड़ा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ जजा जानै हउ कछु हूआ ॥ बाधिओ जिउ नलिनी भ्रमि सूआ ॥ जउ जानै हउ भगतु गिआनी ॥ आगै ठाकुरि तिलु नही मानी ॥ जउ जानै मै कथनी करता ॥ बिआपारी बसुधा जिउ फिरता ॥ साधसंगि जिह हउमै मारी ॥ नानक ता कउ मिले मुरारी ॥२४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ जजा जानै हउ कछु हूआ ॥ बाधिओ जिउ नलिनी भ्रमि सूआ ॥ जउ जानै हउ भगतु गिआनी ॥ आगै ठाकुरि तिलु नही मानी ॥ जउ जानै मै कथनी करता ॥ बिआपारी बसुधा जिउ फिरता ॥ साधसंगि जिह हउमै मारी ॥ नानक ता कउ मिले मुरारी ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: नलिनी = तोते को पकड़ने वाला यंत्र। एक चरखी जिस पर चोगा डाला जाता है, नीचे पानी का बरतन रखा होता है, तोता चोगे की लालच में उस पर बैठता है, चरखी पलट जाती है, तोता नीचे पानी देख के चरखी को कस के पकड़ लेता है और वह खुद ही पकड़ा जाता है। सूआ = तोता। ठाकुरि = ठाकुर ने। बसुधा = धरती। जिह = जिस ने। मुरारी = परमात्मा।24।
अर्थ: पउड़ी: जो मनुष्य ये समझने लग जाता है कि मैं बड़ा बन गया हूँ, वह इस अहंकार में ऐसे बंध जाता है जैसे तोता (चोगे के) भुलेखे में नलिनी से पकड़ा जाता है। जब मनुष्य ये समझता है कि मैं भक्त हो गया हूँ, मैं ज्ञानवान बन गया हूँ, तो आगे से प्रभु ने उसके इस अहंकार का मूल्य रक्ती भर भी नहीं डालना होता।
जब मनुष्य ये समझ लेता है कि मैं बढ़िया धार्मिक व्याख्यान कर लेता हूँ तो फिर वह एक फेरी वाले व्यापारी की तरह ही धरती पर चलता फिरता है (जैसे फेरी वाला सौदा और लोगों को ही बेचता है, वैसे ही ये खुद भी कोई आत्मिक लाभ नहीं कमाता)।
हे नानक! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में जा के अपने अहंकार का नाश किया है, उसे परमात्मा मिलता है।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ झालाघे उठि नामु जपि निसि बासुर आराधि ॥ कार्हा तुझै न बिआपई नानक मिटै उपाधि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ झालाघे उठि नामु जपि निसि बासुर आराधि ॥ कार्हा तुझै न बिआपई नानक मिटै उपाधि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झालाघे = सवेरे, अमृत बेला। उठि = उठ के। निसि = रात। बासुर = दिन। कारा = काढ़ा, झुरना, चिन्ता फिक्र। न बिआपई = जोर नहीं डाल सकेगा। उपाधि = झगड़े आदि का स्वाभाव।1।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) अमृत बेला में उठ के प्रभु का नाम जप (इतना ही नहीं) दिन रात हर वक्त याद कर। कोई चिन्ता-फिक्र तेरे पर जोर नहीं डाल सकेगा, तेरे अंदर से वैर-विरोध झगड़े वाला स्वभाव ही मिट जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ झझा झूरनु मिटै तुमारो ॥ राम नाम सिउ करि बिउहारो ॥ झूरत झूरत साकत मूआ ॥ जा कै रिदै होत भाउ बीआ ॥ झरहि कसमल पाप तेरे मनूआ ॥ अम्रित कथा संतसंगि सुनूआ ॥ झरहि काम क्रोध द्रुसटाई ॥ नानक जा कउ क्रिपा गुसाई ॥२५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ झझा झूरनु मिटै तुमारो ॥ राम नाम सिउ करि बिउहारो ॥ झूरत झूरत साकत मूआ ॥ जा कै रिदै होत भाउ बीआ ॥ झरहि कसमल पाप तेरे मनूआ ॥ अम्रित कथा संतसंगि सुनूआ ॥ झरहि काम क्रोध द्रुसटाई ॥ नानक जा कउ क्रिपा गुसाई ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: साकत = माया ग्रसित जीव, ईश्वर से टूटा हुआ। बीआ = दूसरा। कसंमल = पाप, कसमल। मनूआ = मन के। द्रुसटाई = दुष्ट, बुरे ख्याल। गुसाई = धरती का पति, प्रभु।25।
अर्थ: (हे वणजारे जीव!) परमात्मा के नाम का व्यापार कर, तेरा (हर किस्म का) चिन्ता-फिक्र मिट जाएगा। प्रभु से विछुड़ा हुआ आदमी चिन्ता-फिक्र में ही आत्मिक मौत मरता रहता है, क्योंकि उसके हृदय में (परमात्मा को बिसार के) माया का प्यार बना होता है।
हे भाई! सत्संग में जा के परमात्मा की आत्मिक जीवन देने वाली महिमा सुनने से, तेरे मन में से सारे पाप विकार झड़ जाएंगे।
हे नानक! जिस मनुष्य पर सृष्टि का मालिक प्रभु मेहर करता है (उसके अंदर नाम बसता है, और) उसके काम-क्रोध आदि सारे वैरीयों का नाश हो जाता है।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ ञतन करहु तुम अनिक बिधि रहनु न पावहु मीत ॥ जीवत रहहु हरि हरि भजहु नानक नाम परीति ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ ञतन करहु तुम अनिक बिधि रहनु न पावहु मीत ॥ जीवत रहहु हरि हरि भजहु नानक नाम परीति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! ञतन = जतन, यत्न। जीवत रहहु = आत्मिक जीवन हासिल करोगे।1।
अर्थ: हे मित्र! (बेशक) अनेक तरह के यत्न तुम करके देखो, (यहां सदा के लिए) टिके नहीं रह सकते। हे नानक! (कह:) यदि प्रभु के नाम से प्यार डालोगे, अगर सदैव हरि नाम सिमरोगे, तो आत्मिक जीवन मिलेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवड़ी ॥ ञंञा ञाणहु द्रिड़ु सही बिनसि जात एह हेत ॥ गणती गणउ न गणि सकउ ऊठि सिधारे केत ॥ ञो पेखउ सो बिनसतउ का सिउ करीऐ संगु ॥ ञाणहु इआ बिधि सही चित झूठउ माइआ रंगु ॥ ञाणत सोई संतु सुइ भ्रम ते कीचित भिंन ॥ अंध कूप ते तिह कढहु जिह होवहु सुप्रसंन ॥ ञा कै हाथि समरथ ते कारन करनै जोग ॥ नानक तिह उसतति करउ ञाहू कीओ संजोग ॥२६॥
मूलम्
पवड़ी ॥ ञंञा ञाणहु द्रिड़ु सही बिनसि जात एह हेत ॥ गणती गणउ न गणि सकउ ऊठि सिधारे केत ॥ ञो पेखउ सो बिनसतउ का सिउ करीऐ संगु ॥ ञाणहु इआ बिधि सही चित झूठउ माइआ रंगु ॥ ञाणत सोई संतु सुइ भ्रम ते कीचित भिंन ॥ अंध कूप ते तिह कढहु जिह होवहु सुप्रसंन ॥ ञा कै हाथि समरथ ते कारन करनै जोग ॥ नानक तिह उसतति करउ ञाहू कीओ संजोग ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवड़ी = हेत = मोह। ञाणहु = जानो, समझ लो। केत = कितने? गणउ = मैं गिनूँ। सकउ = सकूँ। न गणि सकउ = मैं गिन नही सकता। ञो = जो कुछ। पेखउ = मैं देखता हूँ। का सिउ = किस से? संगु = साथ। सही = ठीक। चित = हे चिक्त! कूप ते = कूएं में से। तिह = उस (मनुष्य) को। भ्रम ते = भटकना से। भिंन = भिन्न, अलग। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। कै हाथि = के हाथ में। ते कारन = वह सारे सबब।26।
अर्थ: पवड़ी- (हे भाई!) बात अच्छी तरह समझ लो कि ये दुनिया वाले मोह नाश हो जाएंगे। कितने (जीव जगत से) चले गए हैं, ये गिनती ना मैं करता हूं, ना कर सकता हूँ। जो कुछ मैं (आँखों से) देख रहा हूँ, वह नाशवान है, (फिर) पक्की प्रीति किस के साथ डाली जाए? हे मेरे चिक्त! ये दरुस्त जान कि माया के साथ प्यार झूठा है।
(हे प्रभु!) जिस मनुष्य पर तू मेहरवान होता है, उसे मोह के अंध-कूप में से तू निकाल लेता है। ऐसे मनुष्य माया वाली भटकना से बच जाते हैं। ऐसा आदमी ही संत है, वह ही सही जीवन को समझता है।
हे नानक! (कह:) मैं उस प्रभु की महिमा करता हूँ, जो (मेहर करके महिमा करने का ये) सबब मेरे वास्ते बनाता है, जिसके हाथ में ही ये करने की स्मर्था है, और जो सारे सबब बनाने के काबिल भी है (यही एक तरीका है, ‘माया रंग’ से बचे रहने का)।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ टूटे बंधन जनम मरन साध सेव सुखु पाइ ॥ नानक मनहु न बीसरै गुण निधि गोबिद राइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ टूटे बंधन जनम मरन साध सेव सुखु पाइ ॥ नानक मनहु न बीसरै गुण निधि गोबिद राइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! गुणों का खजाना गोबिंद जिस मनुष्य के मन से भूलता नहीं है, उसके वह मोह के बंधन टूट जाते हैं जो जनम मरन के चक्कर में डालते हैं, वह मनुष्य गुरु की सेवा करके आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ टहल करहु तउ एक की जा ते ब्रिथा न कोइ ॥ मनि तनि मुखि हीऐ बसै जो चाहहु सो होइ ॥ टहल महल ता कउ मिलै जा कउ साध क्रिपाल ॥ साधू संगति तउ बसै जउ आपन होहि दइआल ॥ टोहे टाहे बहु भवन बिनु नावै सुखु नाहि ॥ टलहि जाम के दूत तिह जु साधू संगि समाहि ॥ बारि बारि जाउ संत सदके ॥ नानक पाप बिनासे कदि के ॥२७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ टहल करहु तउ एक की जा ते ब्रिथा न कोइ ॥ मनि तनि मुखि हीऐ बसै जो चाहहु सो होइ ॥ टहल महल ता कउ मिलै जा कउ साध क्रिपाल ॥ साधू संगति तउ बसै जउ आपन होहि दइआल ॥ टोहे टाहे बहु भवन बिनु नावै सुखु नाहि ॥ टलहि जाम के दूत तिह जु साधू संगि समाहि ॥ बारि बारि जाउ संत सदके ॥ नानक पाप बिनासे कदि के ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउड़ी: ब्रिथा = खाली। हीऐ = हिरदै में। महल = अवसर, सबब। साध = गुरु। साध = गुरु। अपन = प्रभु खुद ही। टोहे टाहे = देखे भाले हैं। भवन = ठिकाने, आसरे, घर। तिह = उन लोगों ने। कदि के = चिर दे, कई जन्मों के किए हुए।27।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) सिर्फ एक परमात्मा की सेवा भक्ति करो जिसके दर से कोई (जाचक) खाली नहीं जाता। अगर तुम्हारे मन में तन में, मुंह में, हृदय में प्रभु बस जाए, तो मुंह मांगा पदार्थ मिलेगा।
पर इस सेवा-भक्ति का मौका उसी को मिलता है, जिस पर गुरु दयाल हो। और गुरु की संगति में मनुष्य तब टिकता है, अगर प्रभु स्वयं कृपा करे।
हमने सभी जगहें तलाश के देख ली हैं, प्रभु के भजन के बिना आत्मिक सुख कहीं भी नहीं। जो लोग गुरु की हजूरी में स्वयं को लीन कर लेते हैं, उनसे तो यमदूत भी एक किनारे हो जाते हैं (उन्हें तो मौत का डर भी छू नहीं सकता)।
हे नानक! (कह:) मैं बारंबार गुरु से कुर्बान जाता हूँ। जो मनुष्य गुरु के दर पर आ गिरता है, उसके कई जन्मों के किए बुरे कर्म के संस्कार नाश हो जाते हैं।27।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ ठाक न होती तिनहु दरि जिह होवहु सुप्रसंन ॥ जो जन प्रभि अपुने करे नानक ते धनि धंनि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ ठाक न होती तिनहु दरि जिह होवहु सुप्रसंन ॥ जो जन प्रभि अपुने करे नानक ते धनि धंनि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकि = रोक। दरि = प्रभु के दर पर। प्रभि = प्रभु ने। धनि धंनि = बड़े भाग्यों वाले।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस पर तू मेहर करता है, उनके राह में तेरे दर पर पहुँचने पर कोई रोक नहीं पैदा होती (कोई विकार उन्हें प्रभु चरणों में जुड़ने से रोक नहीं सकता)। हे नानक! (कह:) वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्हें प्रभु ने अपने बना लिया है।1।
[[0256]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ठठा मनूआ ठाहहि नाही ॥ जो सगल तिआगि एकहि लपटाही ॥ ठहकि ठहकि माइआ संगि मूए ॥ उआ कै कुसल न कतहू हूए ॥ ठांढि परी संतह संगि बसिआ ॥ अम्रित नामु तहा जीअ रसिआ ॥ ठाकुर अपुने जो जनु भाइआ ॥ नानक उआ का मनु सीतलाइआ ॥२८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ठठा मनूआ ठाहहि नाही ॥ जो सगल तिआगि एकहि लपटाही ॥ ठहकि ठहकि माइआ संगि मूए ॥ उआ कै कुसल न कतहू हूए ॥ ठांढि परी संतह संगि बसिआ ॥ अम्रित नामु तहा जीअ रसिआ ॥ ठाकुर अपुने जो जनु भाइआ ॥ नानक उआ का मनु सीतलाइआ ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: ठाहहि = दुखाते। ठहकि ठहकि = खप खप के, खहि खहि के, दूसरों के साथ वैर विरोध बना बना के। जीअ रसिआ = जिंद में रच जाता है। भाइआ = प्यारा लगा।28।
अर्थ: पउड़ी: जो मनुष्य (माया के) सारे (मोह) त्याग के सिर्फ प्रभु-चरणों में जुड़े रहते हें, वह (फिर मायावी पदार्थों की खातिर दूसरों से) वैर-विरोध बना बना के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं, उनके अंदर कभी आत्मिक आनंद नहीं आ सकता।
जो मनुष्य गुरमुखों की संगति में निवास रखता है, उसके मन में शीतलता बनी रहती है, प्रभु का आत्मिक अमरता देने वाला नाम उसकी जिंद में रच जाता है।
हे नानक! जो मनुष्य प्यारे परमात्मा को अच्छा लगने लग जाता है, उसका मन (माया की तृष्णा रूपी आग में से बच के) सदा शांत रहता है।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ डंडउति बंदन अनिक बार सरब कला समरथ ॥ डोलन ते राखहु प्रभू नानक दे करि हथ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ डंडउति बंदन अनिक बार सरब कला समरथ ॥ डोलन ते राखहु प्रभू नानक दे करि हथ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दे करि = दे के। कला = ताकत। ते = से।1।
अर्थ: हे नानक! (ऐसे अरदास कर-) हे सारी ताकतें रखने वाले प्रभु! मैं अनेक बार तुझे नमस्कार करता हूँ। मुझे माया के मोह में फिसलने से अपना हाथ दे के बचा ले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ डडा डेरा इहु नही जह डेरा तह जानु ॥ उआ डेरा का संजमो गुर कै सबदि पछानु ॥ इआ डेरा कउ स्रमु करि घालै ॥ जा का तसू नही संगि चालै ॥ उआ डेरा की सो मिति जानै ॥ जा कउ द्रिसटि पूरन भगवानै ॥ डेरा निहचलु सचु साधसंग पाइआ ॥ नानक ते जन नह डोलाइआ ॥२९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ डडा डेरा इहु नही जह डेरा तह जानु ॥ उआ डेरा का संजमो गुर कै सबदि पछानु ॥ इआ डेरा कउ स्रमु करि घालै ॥ जा का तसू नही संगि चालै ॥ उआ डेरा की सो मिति जानै ॥ जा कउ द्रिसटि पूरन भगवानै ॥ डेरा निहचलु सचु साधसंग पाइआ ॥ नानक ते जन नह डोलाइआ ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: डेरा = सदा टिके रहने के लिए जगह। जानु = पहचान। संजम = (टिके रहने की) जुगति। सबदि = शब्द द्वारा। स्रम = श्रम, मेहनत। घालै = यत्न करता है, घालना घालने वाला। तसू = रक्ती भर भी। मिति = मर्यादा, रीति।29।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) ये संसार तेरे सदा टिके रहने वाली जगह नहीं है, उस ठिकाने को पहिचान, जो असल पक्की रिहायश वाला घर है। गुरु के शब्द में जुड़ के ये सूझ हासिल कर कि उस घर में सदा टिके रहने की क्या जुगति है।
मनुष्य इस दुनियावी डेरे की खातिर बड़ी मेहनत करके कोशिशें करता है, पर (मौत आने पर) इनमें से कुछ भी रक्ती भर भी इसके साथ नहीं जाता।
उस सदीवी ठिकाने की रीत-मर्यादा की सिर्फ उस मनुष्य को समझ पड़ती है, जिस पर पूरन प्रभु की मेहर की नजर होती है।
हे नानक! साधु-संगत में आ के जो मनुष्य सदीवी अटल आत्मिक आनंद वाला ठिकाना ढूँढ लेते हैं, उनका मन (इस नाशवान संसार के घरों आदि खातिर) नहीं डोलता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ ढाहन लागे धरम राइ किनहि न घालिओ बंध ॥ नानक उबरे जपि हरी साधसंगि सनबंध ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ ढाहन लागे धरम राइ किनहि न घालिओ बंध ॥ नानक उबरे जपि हरी साधसंगि सनबंध ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरमराइ ढाह = (आत्मिक जीवन के महल को) धर्मराज की ढाह, आत्मिक जीवन की इमारत को विकारों को बाढ़ की लपेट। किनहि = किसी भी विकार ने। बंध न घालिओ = आत्मिक जीवन के रास्ते में रोक नही डाली। सनबंध = संबंध, नाता, प्रीति।1।
अर्थ: हे नानक! जिस लोगों ने साधु-संगत में नाता जोड़ा, वह हरि का नाम जप के (विकारों के हड़ में से) बच निकले। उन (के आत्मिक जीवन की इमारत) को विकारों के बाढ़ से नुकसान नहीं होता। कोई भी विकार उनके जीवन-राह में रोक नहीं डाल सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ढढा ढूढत कह फिरहु ढूढनु इआ मन माहि ॥ संगि तुहारै प्रभु बसै बनु बनु कहा फिराहि ॥ ढेरी ढाहहु साधसंगि अह्मबुधि बिकराल ॥ सुखु पावहु सहजे बसहु दरसनु देखि निहाल ॥ ढेरी जामै जमि मरै गरभ जोनि दुख पाइ ॥ मोह मगन लपटत रहै हउ हउ आवै जाइ ॥ ढहत ढहत अब ढहि परे साध जना सरनाइ ॥ दुख के फाहे काटिआ नानक लीए समाइ ॥३०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ढढा ढूढत कह फिरहु ढूढनु इआ मन माहि ॥ संगि तुहारै प्रभु बसै बनु बनु कहा फिराहि ॥ ढेरी ढाहहु साधसंगि अह्मबुधि बिकराल ॥ सुखु पावहु सहजे बसहु दरसनु देखि निहाल ॥ ढेरी जामै जमि मरै गरभ जोनि दुख पाइ ॥ मोह मगन लपटत रहै हउ हउ आवै जाइ ॥ ढहत ढहत अब ढहि परे साध जना सरनाइ ॥ दुख के फाहे काटिआ नानक लीए समाइ ॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: बिकराल = डरावनी। सहजे = सहिज, अडोल अवस्था में। निहाल = प्रसन्न। जापै = पैदा होती है, बनी रहती है। जमि = पैदा हो के।30।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) प्रभु तुम्हारे साथ (हृदय में) बस रहा है, तुम उसे जंगल जंगल कहाँ ढूँढते फिरते हो? ओर कहाँ तलाशते फिरते हो? खोज इस मन में ही (करनी है)। साधु संगत में (पहुँच के) भयानक अहंकार वाली मति की बनी हुई ढेरी को गिरा दो (इस तरह अंदर ही प्रभु का दर्शन हो जाएगा, प्रभु का) दर्शन करके आत्मा खिल उठेगी, आत्मिक आनंद मिलेगा, अडोल अवस्था में टिक जाओगे।
जब तक अंदर अहंकार का ढेर बना रहता है, आदमी पैदा होता मरता है, जूनियों के चक्कर में दुख भोगता है, मोह में मस्त हो के (माया के साथ) चिपका रहता है, अहं के कारन जनम मरन में पड़ा रहता है।
हे नानक! जो लोग इस जनम में साधु जनों की शरण आ पड़ते हैं, उनकी (मोह से उपजी) दुखों की फाहियां (जंजीरें) काटी जाती हैं, उन्हें प्रभु अपने चरणों में जोड़ लेता है।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ जह साधू गोबिद भजनु कीरतनु नानक नीत ॥ णा हउ णा तूं णह छुटहि निकटि न जाईअहु दूत ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ जह साधू गोबिद भजनु कीरतनु नानक नीत ॥ णा हउ णा तूं णह छुटहि निकटि न जाईअहु दूत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूत = हे मेरे दूतो! (बताया गया है कि धर्मराज अपने दूतों से कह रहा है)।1।
अर्थ: (धर्मराज कहता है:) हे मेरे दूतो! जहाँ साधु जन परमात्मा का भजन कर रहे हों, जहाँ नित्य कीर्तन हो रहा हो, तुम उस जगह के पास ना जाना। (अगर तुम वहां चले गए तो इस खुनामी से) ना मैं बचूँगा, ना तुम बचोगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ णाणा रण ते सीझीऐ आतम जीतै कोइ ॥ हउमै अन सिउ लरि मरै सो सोभा दू होइ ॥ मणी मिटाइ जीवत मरै गुर पूरे उपदेस ॥ मनूआ जीतै हरि मिलै तिह सूरतण वेस ॥ णा को जाणै आपणो एकहि टेक अधार ॥ रैणि दिणसु सिमरत रहै सो प्रभु पुरखु अपार ॥ रेण सगल इआ मनु करै एऊ करम कमाइ ॥ हुकमै बूझै सदा सुखु नानक लिखिआ पाइ ॥३१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ णाणा रण ते सीझीऐ आतम जीतै कोइ ॥ हउमै अन सिउ लरि मरै सो सोभा दू होइ ॥ मणी मिटाइ जीवत मरै गुर पूरे उपदेस ॥ मनूआ जीतै हरि मिलै तिह सूरतण वेस ॥ णा को जाणै आपणो एकहि टेक अधार ॥ रैणि दिणसु सिमरत रहै सो प्रभु पुरखु अपार ॥ रेण सगल इआ मनु करै एऊ करम कमाइ ॥ हुकमै बूझै सदा सुखु नानक लिखिआ पाइ ॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: रण ते = जगत की रण भूमि से। सीझिऐ = जीतते हैं। आतम = अपने आप को। अन = द्वैत। मरै = स्वैभाव की ओर से मरे। सोभादु = दोनों बाहों से तलवार चलाने वाला सूरमा। मणी = अहंकार। सूरतण = शूरवीरता, बहादुरी। टेक = ओट। रैणि = रात। रेण = चरण धूल। एऊ = यही, ऐसे ही।31।
अर्थ: पउड़ी: इस जगत रण-भूमि में अहंकार से हो रही जंग से तभी कामयाब हो सकते हैं, अगर मनुष्य अपने आप को जीत ले। जो मनुष्य अहंकार व द्वैत से मुकाबला करके अहंकार की ओर से मर जाता है, वही बड़ा शूरबीर है।
जो मनुष्य गुरु की शिक्षा ले के अहंकार को खत्म कर लेता है, संसारिक वासना से अजेय हो जाता है, अपने मन को अपने वश में कर लेता है, वह मनुष्य परमात्मा को मिल जाता है (संसारिक रणभूमि में) उसी की पोशाक शूरवीरों वाली समझो।
हे नानक! जो मनुष्य एक परमात्मा का ही आसरा-सहारा लेता है, किसी और को अपना आसरा नहीं समझता, सर्व-व्यापक बेअंत प्रभु को दिन रात हर वक्त स्मरण करता रहता है, अपने इस मन को सभी की चरण-धूल बनाता है -जो मनुष्य ये कर्म कमाता है, वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है, सदा आत्मिक आनंद पाता है, पिछले किए कर्मों के लेख उसके माथे पर प्रगट हो जाते हैं।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ तनु मनु धनु अरपउ तिसै प्रभू मिलावै मोहि ॥ नानक भ्रम भउ काटीऐ चूकै जम की जोह ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ तनु मनु धनु अरपउ तिसै प्रभू मिलावै मोहि ॥ नानक भ्रम भउ काटीऐ चूकै जम की जोह ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरपउ = मैं अर्पित कर दूँ। मोहि = मुझे। जोह = देखनी, दृष्टि।1।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जो मनुष्य मुझे ईश्वर से मिला दे, मैं उसके आगे अपना तन-मन-धन सब कुछ भेट कर दूँ। (क्योंकि प्रभु को मिल के) मन की भटकना और सहम दूर हो जाते हैं, जम की नजर भी खत्म हो जाती है, (मौत का सहम भी खत्म हो जाता है)।1।
[[0257]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ तता ता सिउ प्रीति करि गुण निधि गोबिद राइ ॥ फल पावहि मन बाछते तपति तुहारी जाइ ॥ त्रास मिटै जम पंथ की जासु बसै मनि नाउ ॥ गति पावहि मति होइ प्रगास महली पावहि ठाउ ॥ ताहू संगि न धनु चलै ग्रिह जोबन नह राज ॥ संतसंगि सिमरत रहहु इहै तुहारै काज ॥ ताता कछू न होई है जउ ताप निवारै आप ॥ प्रतिपालै नानक हमहि आपहि माई बाप ॥३२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ तता ता सिउ प्रीति करि गुण निधि गोबिद राइ ॥ फल पावहि मन बाछते तपति तुहारी जाइ ॥ त्रास मिटै जम पंथ की जासु बसै मनि नाउ ॥ गति पावहि मति होइ प्रगास महली पावहि ठाउ ॥ ताहू संगि न धनु चलै ग्रिह जोबन नह राज ॥ संतसंगि सिमरत रहहु इहै तुहारै काज ॥ ताता कछू न होई है जउ ताप निवारै आप ॥ प्रतिपालै नानक हमहि आपहि माई बाप ॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधि = खजाना। तपति = जलना, तपश। त्रास = डर। पंथ = रास्ता। जासुमनि = जिसके मन में। महली = प्रभु के घर में। ठाउ = स्थान। ताह संगि = तेरे साथ। ताता = जलन, कष्ट। आपहि = खुद ही।32।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) उस गोबिंद राय के साथ प्यार डाल जो सारे गुणों का खजाना है, मन-इच्छित फल हासिल करेगा, तेरे मन की (तृष्णा की आग) तपश दूर हो जाएगी। जिस मनुष्य के मन में प्रभु का नाम बस पड़े, उसका जमों के रास्ते का डर मिट जाता है (मौत का सहम खत्म हो जाता है)।
(हे भाई! नाम की इनायत से) उच्च आत्मिक अवस्था हासिल करेगा, तेरी बुद्धि रौशन हो जाएगी, प्रभु चरणों में तेरी तवज्जो टिकी रहेगी। (माया वाली) भटकना छोड़, धन-जवानी-राज किसी चीज ने भी तेरे साथ नहीं जाना; सत्संग में रहके प्रभु का नाम स्मरण किया कर। बस! यही अंत में तेरे काम आएगा। (प्रभु का हो के रह) जब प्रभु स्वयं दुख-कष्ट दूर करने वाला (सिर पर) हो तो कोई मानसिक कष्ट नहीं रह सकता।
हे नानक! (कह:) प्रभु खुद माता-पिता की तरह हमारी पालना करता है।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ थाके बहु बिधि घालते त्रिपति न त्रिसना लाथ ॥ संचि संचि साकत मूए नानक माइआ न साथ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ थाके बहु बिधि घालते त्रिपति न त्रिसना लाथ ॥ संचि संचि साकत मूए नानक माइआ न साथ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संचि = इकट्ठी करके। साकत = माया ग्रसित जीव।1।
अर्थ: हे नानक! माया-ग्रसित जीव माया की खातिर कई तरह की दौड़-भाग करते हैं, पर संतुष्ट नहीं होते, तृष्णा खत्म नहीं होती, माया जोड़-जोड़ के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, माया भी साथ नहीं निभती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ थथा थिरु कोऊ नही काइ पसारहु पाव ॥ अनिक बंच बल छल करहु माइआ एक उपाव ॥ थैली संचहु स्रमु करहु थाकि परहु गावार ॥ मन कै कामि न आवई अंते अउसर बार ॥ थिति पावहु गोबिद भजहु संतह की सिख लेहु ॥ प्रीति करहु सद एक सिउ इआ साचा असनेहु ॥ कारन करन करावनो सभ बिधि एकै हाथ ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगहि नानक जंत अनाथ ॥३३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ थथा थिरु कोऊ नही काइ पसारहु पाव ॥ अनिक बंच बल छल करहु माइआ एक उपाव ॥ थैली संचहु स्रमु करहु थाकि परहु गावार ॥ मन कै कामि न आवई अंते अउसर बार ॥ थिति पावहु गोबिद भजहु संतह की सिख लेहु ॥ प्रीति करहु सद एक सिउ इआ साचा असनेहु ॥ कारन करन करावनो सभ बिधि एकै हाथ ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगहि नानक जंत अनाथ ॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: बंच = ठगी। बल छल = छल कपट, फरेब। स्रम = श्रम, मेहनत। गावार = हे मूर्ख! अउसर = अवसर, समय। थिति = शांति, टिकाव। सिख = शिक्षा। असनेहु = नेह, स्नेह, प्यार (दो पंजाबी रूप = ‘नेहु’ और ‘असनेहु’; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।33।
अर्थ: पउड़ी: हे मूर्ख! किसी ने भी यहाँ सदा बैठे नहीं रहना, क्यूँ पैर पसार रहा है? (क्यूँ माया के पसारे पसार रहा है?) तू सिर्फ माया वास्ते ही कई पापड़ वेल रहा है, अनेक ठगी-फरेब कर रहा है।
हे मूर्ख! तू धन जोड़ रहा है, (धन की खातिर) दौड़-भाग करता है, और थक-टूट जाता है, पर अंत के समय ये धन तेरी जिंद के काम नहीं आएगा।
(हे भाई!) गुरमुखों की शिक्षा ध्यान से सुन, परमात्मा का भजन कर, आत्मिक शान्ति (तभी) मिलेगी। सदा सिर्फ परमात्मा से (दिल से) प्रीति बना, यही प्यार सदा कायम रहने वाला है।
(पर) हे नानक! (कह: हे प्रभु!) ये जीव बिचारे (माया के मुकाबले में बेबस) हैं, जिधर तू इन्हें लगाता है, उधर ही लगते हैं, हरेक सबब तेरे हाथ में है, तू ही सब कुछ कर सकता है, (और जीव से) करवा सकता है।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ दासह एकु निहारिआ सभु कछु देवनहार ॥ सासि सासि सिमरत रहहि नानक दरस अधार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ दासह एकु निहारिआ सभु कछु देवनहार ॥ सासि सासि सिमरत रहहि नानक दरस अधार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासहि = दासों ने। निहारिआ = देखा है। अधार = आसरा।1।
अर्थ: हे नानक! प्रभु के सेवकों ने ये देख लिया है (ये निश्चय कर लिया है) कि हरेक दाति प्रभु खुद ही देने वाला है (इस वास्ते वह माया की टेक रखने की बजाय) प्रभु के दीदार को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना के श्वास-श्वास उसे याद करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ददा दाता एकु है सभ कउ देवनहार ॥ देंदे तोटि न आवई अगनत भरे भंडार ॥ दैनहारु सद जीवनहारा ॥ मन मूरख किउ ताहि बिसारा ॥ दोसु नही काहू कउ मीता ॥ माइआ मोह बंधु प्रभि कीता ॥ दरद निवारहि जा के आपे ॥ नानक ते ते गुरमुखि ध्रापे ॥३४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ददा दाता एकु है सभ कउ देवनहार ॥ देंदे तोटि न आवई अगनत भरे भंडार ॥ दैनहारु सद जीवनहारा ॥ मन मूरख किउ ताहि बिसारा ॥ दोसु नही काहू कउ मीता ॥ माइआ मोह बंधु प्रभि कीता ॥ दरद निवारहि जा के आपे ॥ नानक ते ते गुरमुखि ध्रापे ॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगनत = अ+गनत, जो गिने ना जा सकें। दैनहारु = दातार। ताहि = उसे। मीता = हे मित्र! प्रभि = प्रभु ने। बंधु = बाँध, रोक। ध्रापे = तृप्त हो जाते हैं। ते ते = वह वह लोग।34।
अर्थ: पउड़ी। एक प्रभु ही (ऐसा) दाता है जो सब जीवों को रिजक पहुँचाने के समर्थ है, उसके बेअंत खजाने भरे पड़े हैं, बाँटते हुए खजानों में कमी नहीं आती।
हे मूर्ख मन! तू सदा दातार को क्यूँ भुलाता है जो सदा तेरे सिर पर मौजूद है?
पर हे मित्र! किसी जीव को ये दोष भी नहीं दिया जा सकता (कि माया के मोह में फंस के तू दातार को क्यूं बिसर रहा है, दरअसल बात ये है कि जीव के आत्मिक जीवन की राह में) प्रभु ने खुद ही माया के मोह के बाँध बना रखे हैं।
हे नानक! (कह:) हे प्रभु! जिस लोगों के दिल में से तू खुद ही (माया के मोह की) चुभन दूर करता है, वह गुरु की शरण में पड़ कर माया की ओर से तृप्त हो जाते हैं (तृष्णा समाप्त कर लेते हैं)।34।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ धर जीअरे इक टेक तू लाहि बिडानी आस ॥ नानक नामु धिआईऐ कारजु आवै रासि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ धर जीअरे इक टेक तू लाहि बिडानी आस ॥ नानक नामु धिआईऐ कारजु आवै रासि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअरे = हे जिंदे! लाहि = दूर कर। बिडानी = बेगानी।1।
अर्थ: हे मेरी जिंदे! सिर्फ परमात्मा का आसरा ले, उस के बगैर किसी और (की सहायता) की उम्मीद छोड़ दे। हे नानक! सदा प्रभु की याद मन में बसानी चाहिए, हरेक काम सफल हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ धधा धावत तउ मिटै संतसंगि होइ बासु ॥ धुर ते किरपा करहु आपि तउ होइ मनहि परगासु ॥ धनु साचा तेऊ सच साहा ॥ हरि हरि पूंजी नाम बिसाहा ॥ धीरजु जसु सोभा तिह बनिआ ॥ हरि हरि नामु स्रवन जिह सुनिआ ॥ गुरमुखि जिह घटि रहे समाई ॥ नानक तिह जन मिली वडाई ॥३५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ धधा धावत तउ मिटै संतसंगि होइ बासु ॥ धुर ते किरपा करहु आपि तउ होइ मनहि परगासु ॥ धनु साचा तेऊ सच साहा ॥ हरि हरि पूंजी नाम बिसाहा ॥ धीरजु जसु सोभा तिह बनिआ ॥ हरि हरि नामु स्रवन जिह सुनिआ ॥ गुरमुखि जिह घटि रहे समाई ॥ नानक तिह जन मिली वडाई ॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धावत = (माया की खातिर) दौड़ना। तउ = तब। बासु = बसेरा। धुर ते = धुर से, अपने दर से। मनहि = मन में। परगासु = प्रकाश, सही जीवन की सूझ। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। तेऊ = वही लोग। विसाहा = पसारा, व्यापार किया। धीरजु = गंभीरता, जिगरा। तिह = उनका। स्रवन = श्रवण, कानों से। जिह घटि = जिनके हृदय में।३५।
अर्थ: पउड़ी: यदि संतों की संगत में उठना-बैठना हो जाए, तो (माया की खातिर मन की बेसब्री वाली) भटकना मिट जाती है। (पर ये कोई आसान खेल नहीं। हे प्रभु!) जिस जीव पर तू अपने दर से मेहर करता है, उसके मन में जीवन की सही सूझ पड़ती है (और उसकी भटकना समाप्त होती है)। (उसे ये ज्ञान होता है) कि असल सच्चे शाहूकार वे हैं (जिनके पास) सदा स्थिर रहने वाला नाम-धन है, जो हरि-नाम की पूंजी का व्यापार करते हैं। जो लोग हरि नाम (ध्यान से) कानों से सुनते हैं, उनके अंदर गंभीरता आती है, वे आदर सत्कार कमाते हैं।
हे नानक! गुरु के द्वारा जिनके हृदय में प्रभु का नाम बसता है, उन्हें (लोक-परलोक में) मान-सम्मान प्राप्त होता है।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ नानक नामु नामु जपु जपिआ अंतरि बाहरि रंगि ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ नरकु नाहि साधसंगि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ नानक नामु नामु जपु जपिआ अंतरि बाहरि रंगि ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ नरकु नाहि साधसंगि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामु नामु = प्रभु का नाम ही नाम। अंतरि बाहरि = अंदर बाहर, काम काज करते हुए, हर वक्त। रंगि = प्यार में। गुरि = गुरु को। उपदेसिआ = नजदीक दिखा दिया। नरकु = दुख-कष्ट।1।
अर्थ: हे नानक! जिस लोगों ने काम काज करते हुए प्यार से प्रभु का नाम ही जपा है (कभी भी भूले नहीं) उन्हें पूरे गुरु ने परमात्मा अपने नजदीक दिखा दिया है, गुरु की संगति में रह के उन्हें घोर दुख नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ नंना नरकि परहि ते नाही ॥ जा कै मनि तनि नामु बसाही ॥ नामु निधानु गुरमुखि जो जपते ॥ बिखु माइआ महि ना ओइ खपते ॥ नंनाकारु न होता ता कहु ॥ नामु मंत्रु गुरि दीनो जा कहु ॥ निधि निधान हरि अम्रित पूरे ॥ तह बाजे नानक अनहद तूरे ॥३६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ नंना नरकि परहि ते नाही ॥ जा कै मनि तनि नामु बसाही ॥ नामु निधानु गुरमुखि जो जपते ॥ बिखु माइआ महि ना ओइ खपते ॥ नंनाकारु न होता ता कहु ॥ नामु मंत्रु गुरि दीनो जा कहु ॥ निधि निधान हरि अम्रित पूरे ॥ तह बाजे नानक अनहद तूरे ॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: नरकि = नर्क में, घोर दुख में। ते = वह लोग। परहि = पड़ते हैं। निधानु = (सब गुणों का) खजाना। बिखु = विष, जहर, मौत का मूल। नंनकार = ना, इन्कार, रुकावट। मंत्रु = उपदेश। जा कहु = जिनको। निधि = खजाना। निधान = खजाने। पूरे = भरे हुए। तह = वहाँ, उस हृदय में। बाजे = बजते हैं। अनहद = (हन्: to strike, चोट लगानी, किसी साज को उंगलियों से बजाना) बिना बजाए, एक रस। तूरे = बाजे।36।
अर्थ: पउड़ी: जिनके मन में तन में प्रभु का नाम बसा रहता है वे घोर दुखों के गड्ढे में नहीं पड़ते। जो लोग गुरु के द्वारा प्रभु नाम को सब पदार्थों का खजाना जान के जपते हैं, वह (फिर) आत्मिक मौत मरने वाली माया (के मोह) में (दौड़-भाग करते) नहीं खपते। जिन्हें गुरु ने नाम मंत्र दे दिया, उनके जीवन-सफर में (माया) कोई रोक नहीं डाल सकती।
हे नानक! जो हृदय शुभ-गुणों के खजाने हरि-नाम अंमृत से भरे रहते हैं, उनके अंदर एक ऐसा आनंद बना रहता है जैसे एक-रस सब किस्मों के बाजे एक साथ मिल के बज रहे हों।36।
[[0258]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ पति राखी गुरि पारब्रहम तजि परपंच मोह बिकार ॥ नानक सोऊ आराधीऐ अंतु न पारावारु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ पति राखी गुरि पारब्रहम तजि परपंच मोह बिकार ॥ नानक सोऊ आराधीऐ अंतु न पारावारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। तजि = त्यागे, त्याग देता है।1।
अर्थ: जिस मनुष्य की इज्जत गुरु पारब्रहम ने रख ली, उस ने ठगी मोह विकार (आदि) त्याग दिए। हे नानक! (इस वास्ते) उस पारब्रहम को सदा आराधना चाहिए जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसकी हस्ती का इस पार उस पार (छोर) नहीं ढूँढा जा सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ पपा परमिति पारु न पाइआ ॥ पतित पावन अगम हरि राइआ ॥ होत पुनीत कोट अपराधू ॥ अम्रित नामु जपहि मिलि साधू ॥ परपच ध्रोह मोह मिटनाई ॥ जा कउ राखहु आपि गुसाई ॥ पातिसाहु छत्र सिर सोऊ ॥ नानक दूसर अवरु न कोऊ ॥३७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ पपा परमिति पारु न पाइआ ॥ पतित पावन अगम हरि राइआ ॥ होत पुनीत कोट अपराधू ॥ अम्रित नामु जपहि मिलि साधू ॥ परपच ध्रोह मोह मिटनाई ॥ जा कउ राखहु आपि गुसाई ॥ पातिसाहु छत्र सिर सोऊ ॥ नानक दूसर अवरु न कोऊ ॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परमिति = मिति से परे, जिसे नापा ना जा सके, जिसकी हस्ती का अंदाजा ना लगाया जा सके। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। कोटि अपराधू = करोड़ों अपराधी। साधू = गुरु। मिलि = मिल के। परपच = परपंच, ठगी, धोखा। मिट = मिटे, मिटता है। नाई = प्रभु की महिमा से। गुसाई = हे गुसाई।37।
अर्थ: पउड़ी: हरि प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, विकारों में गिरे हुए लोगों को पवित्र करने वाला है, उसकी हस्ती का अंदाजा नहीं लग सकता, अंत नहीं पाया जा सकता। करोड़ों ही वह अपराधी पवित्र हो जाते हैं जो गुरु को मिल के प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम जपते हैं।
हे सृष्टि के मालिक! जिस मनुष्य की तू खुद रक्षा करता है, तेरी महिमा की इनायत से उसके अंदर से ठगी-फरेब-मोह आदि विकार मिट जाते हैं।
हे नानक! प्रभु शाहों का शाह है, वही असल छत्र धारी है, कोई और दूसरा उसकी बराबरी करने के लायक नहीं है।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ फाहे काटे मिटे गवन फतिह भई मनि जीत ॥ नानक गुर ते थित पाई फिरन मिटे नित नीत ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ फाहे काटे मिटे गवन फतिह भई मनि जीत ॥ नानक गुर ते थित पाई फिरन मिटे नित नीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गवन = भटकन। फतहि = विकारों पर जीत। मनि जीत = मन को जीतने से। थिति = स्थिति, मन की अवस्था। नित नीत = सदा के लिए। फिरन = जनम मरन के फेर।1।
अर्थ: हे नानक! अगर अपने मन को जीत लें, (वश में कर लें) तो (विकारों पर) जीत प्राप्त हो जाती है, माया के मोह के बंधन काटे जाते हैं, और (माया के पीछे की) भटकना समाप्त हो जाती है। जिस मनुष्य को गुरु से मन की अडोलता मिल जाती है, उसके जनम मरन के चक्कर सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ फफा फिरत फिरत तू आइआ ॥ द्रुलभ देह कलिजुग महि पाइआ ॥ फिरि इआ अउसरु चरै न हाथा ॥ नामु जपहु तउ कटीअहि फासा ॥ फिरि फिरि आवन जानु न होई ॥ एकहि एक जपहु जपु सोई ॥ करहु क्रिपा प्रभ करनैहारे ॥ मेलि लेहु नानक बेचारे ॥३८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ फफा फिरत फिरत तू आइआ ॥ द्रुलभ देह कलिजुग महि पाइआ ॥ फिरि इआ अउसरु चरै न हाथा ॥ नामु जपहु तउ कटीअहि फासा ॥ फिरि फिरि आवन जानु न होई ॥ एकहि एक जपहु जपु सोई ॥ करहु क्रिपा प्रभ करनैहारे ॥ मेलि लेहु नानक बेचारे ॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: कलिजुग महि = संसार में। इआ अउसरु = ऐसा मौका। कटीअहि = काटे जाते हैं, काटे जाएंगे। बेचारे = बेवस जीव को, जिस के वश की बात नहीं।38।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: (कलिजुग महि) यहां युगों के निर्णय का जिक्र नहीं है, यहां भाव है = जगत में, संसार में।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) तू अनेक जूनियों में भटकता आया है, अब तुझे संसार में ये मानव जनम मिला है, जो बड़ी मुश्किल से ही मिला करता है। (अगर तू अब भी विकारों के बंधनों में फंसा रहा, तो) ऐसा (सुंदर) मौका फिर नहीं मिलेगा। (हे भाई!) अगर तू प्रभु का नाम जपेगा, तो माया वाले सारे बंधन काटे जाएंगे। केवल एक परमात्मा का नाम जपा कर, बार बार जनम मरन का चक्कर नहीं रह जाएगा।
(पर) हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर और कह:) हे विधाता प्रभु! (माया-ग्रसित जीव के वश की बात नहीं), तू स्वयं कृपा कर, और इस बिचारे को अपने चरणों में जोड़ ले।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ बिनउ सुनहु तुम पारब्रहम दीन दइआल गुपाल ॥ सुख स्मपै बहु भोग रस नानक साध रवाल ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ बिनउ सुनहु तुम पारब्रहम दीन दइआल गुपाल ॥ सुख स्मपै बहु भोग रस नानक साध रवाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनउ = विनय, विनती। संपै = धन। रवाल = चरण धूल।1।
अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे पारब्रहम! हे दीनों पर दया करने वाले! हे धरती के पालनहार! मेरी विनती सुन। (मुझे सबुद्धि दे कि) गुरमुखों की चरण धूल ही मुझे अनेक सुखों, धन-पदार्थों व अनेक रसों के भोग के बराबर प्रतीत हो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ बबा ब्रहमु जानत ते ब्रहमा ॥ बैसनो ते गुरमुखि सुच धरमा ॥ बीरा आपन बुरा मिटावै ॥ ताहू बुरा निकटि नही आवै ॥ बाधिओ आपन हउ हउ बंधा ॥ दोसु देत आगह कउ अंधा ॥ बात चीत सभ रही सिआनप ॥ जिसहि जनावहु सो जानै नानक ॥३९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ बबा ब्रहमु जानत ते ब्रहमा ॥ बैसनो ते गुरमुखि सुच धरमा ॥ बीरा आपन बुरा मिटावै ॥ ताहू बुरा निकटि नही आवै ॥ बाधिओ आपन हउ हउ बंधा ॥ दोसु देत आगह कउ अंधा ॥ बात चीत सभ रही सिआनप ॥ जिसहि जनावहु सो जानै नानक ॥३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: ब्रहमा = ब्राहमण। ते = वह लोग। बैसनो = खाने पीने आदि में स्वच्छता का ध्यान रखने वाले। सुच = आत्मिक पवित्रता। बीरा = वीर, शूरवीर। बुरा = दूसरों के लिए बुराई, दूसरों का बुरा देखना। ताहू निकटि = उस के नजदीक। बंधा = बंधन। आगह कउ = और लोगों को। रही = रह जाती है, पेश नहीं पड़ती।
अर्थ: पउड़ी: असल ब्राहमण वो हैं, जो ब्रहम (परमात्मा) के साथ सांझ डालते हैं, असल वैश्णव वे हैं जो गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक पवित्रता के फर्ज को पालते हैं। वह मनुष्य शूरवीर जानो जो (बनाए हुए वैरियों का खुरा खोज मिटाने की जगह) अपने अंदर से दूसरों का बुरा मांगने का स्वभाव का निशान मिटा दे। (जिस ने ये कर लिया) दूसरों की ओर से चितवी बुराई उसके पास नहीं फटकती। (पर मनुष्य) खुद ही अपने अहंकार के बंधनों में बंधा रहता है (और दूसरों के साथ उलझता है, अपने द्वारा की ज्यादती का ख्याल तक नहीं आता, किसी भी नुकसान का) दोष अंधा मनुष्य औरों पर लगाता है।
(पर) हे नानक! (ऐसा स्वाभाव बनाने के लिए) निरी ज्ञान की बातें और समझदारियों की पेश नहीं चलती। (प्रभु के आगे अरदास कर और कह:) हे प्रभु! जिसे तू इस अच्छे जीवन की सूझ बख्शता है वही समझता है।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ भै भंजन अघ दूख नास मनहि अराधि हरे ॥ संतसंग जिह रिद बसिओ नानक ते न भ्रमे ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ भै भंजन अघ दूख नास मनहि अराधि हरे ॥ संतसंग जिह रिद बसिओ नानक ते न भ्रमे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भंजन = तोड़ने वाला। अघ = पाप। मनहि = मन में। हरे = हरि को। संगि = संग में। जिह = जिस के। ते = वह लोग। भ्रमे = भुलेखे में पड़े।1।
अर्थ: (हे भाई! सब पापों के) हरने वाले को अपने मन में याद रख। वही सारे डरों को दूर करने वाला है, वही सारे पापों दुखों का नाश करने वाला है। हे नानक! सतसंग में रह के जिस मनुष्यों के हृदय में हरि आ टिकता है, वह पापों विकारों की भटकना में नहीं पड़ते।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ भभा भरमु मिटावहु अपना ॥ इआ संसारु सगल है सुपना ॥ भरमे सुरि नर देवी देवा ॥ भरमे सिध साधिक ब्रहमेवा ॥ भरमि भरमि मानुख डहकाए ॥ दुतर महा बिखम इह माए ॥ गुरमुखि भ्रम भै मोह मिटाइआ ॥ नानक तेह परम सुख पाइआ ॥४०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ भभा भरमु मिटावहु अपना ॥ इआ संसारु सगल है सुपना ॥ भरमे सुरि नर देवी देवा ॥ भरमे सिध साधिक ब्रहमेवा ॥ भरमि भरमि मानुख डहकाए ॥ दुतर महा बिखम इह माए ॥ गुरमुखि भ्रम भै मोह मिटाइआ ॥ नानक तेह परम सुख पाइआ ॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: भरमु = दौड़ भाग, भटकना। सगल = सारा। सुरि = स्वर्गीय जीव। सिध = योग साधना में माहिर जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। ब्रहमेवा = ब्रहमा जैसे। डहकाए = धोखे में आते गए। दुतर = जिससे पार लांघना मुश्किल हो। माए = माया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। तेह = उन्होंने।40।
अर्थ: पउड़ी: (हे भाई!) जैसे सपना है (जैसे सपने में कई पदार्थों से मेल जोल होता है पर जागते ही वह साथ समाप्त हो जाता है), वैसे ही इस सारे संसार का साथ है, इसके पीछे भटकने की बाण मिटा दो। (इस माया के चोज-तमाशों की खातिर) स्वर्गीय जीव, मनुष्य, देवी, देवते दुखी होते (सुने जाते) रहे, (धरती के) लोग (मायावी पदार्थों की खातिर) भटक-भटक के धोखे में आते चले आ रहे हैं, ये माया एक ऐसा महा-मुश्किल (समुंदर) है (जिस में) तैरना बहुत ही कठिन है।
हे नानक! जिस लोगों ने गुरु की शरण पड़ कर (माया के पीछे की) भटकना, सहम व मोह (को अपने अंदर से) मिटा लिया, उन्होंने सबसे श्रेष्ठ आत्मिक आनंद हासिल कर लिया है।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ माइआ डोलै बहु बिधी मनु लपटिओ तिह संग ॥ मागन ते जिह तुम रखहु सु नानक नामहि रंग ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ माइआ डोलै बहु बिधी मनु लपटिओ तिह संग ॥ मागन ते जिह तुम रखहु सु नानक नामहि रंग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माइआ = माया में, माया की खातिर। मागन ते = माया मांगने से। जिह = जिस जीव को। नामहि = नाम में ही। रंग = प्यार।1।
अर्थ: मनुष्य का मन कई तरीकों से माया की खातिर ही डोलता रहता है, माया के साथ ही चिपका रहता है। हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर और कह:) हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू निरी माया ही मांगने से रोक लेता है वह तेरे नाम से प्यार पा लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ममा मागनहार इआना ॥ देनहार दे रहिओ सुजाना ॥ जो दीनो सो एकहि बार ॥ मन मूरख कह करहि पुकार ॥ जउ मागहि तउ मागहि बीआ ॥ जा ते कुसल न काहू थीआ ॥ मागनि माग त एकहि माग ॥ नानक जा ते परहि पराग ॥४१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ममा मागनहार इआना ॥ देनहार दे रहिओ सुजाना ॥ जो दीनो सो एकहि बार ॥ मन मूरख कह करहि पुकार ॥ जउ मागहि तउ मागहि बीआ ॥ जा ते कुसल न काहू थीआ ॥ मागनि माग त एकहि माग ॥ नानक जा ते परहि पराग ॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: इआना = बेसमझ जीव। सुजाना = सब के दिल की जानने वाला। जो दीनो सो एकहि बार = उसने सब कुछ एक ही बार में दे दिया हुआ है, उसकी दी हुई दातें कभी खत्म होने वाली नहीं। पुकार = गिले। बीआ = नाम के बिना और पदार्थ ही। कुसल = आत्मिक सुख। काहू = किसी को भी। परहि पराग = (मायावी पदार्थों की मांग से) उस पार लांघ जाएं।41।
अर्थ: पउड़ी: बेसमझ जीव हर वक्त (माया ही माया) मांगता रहता है (ये नहीं समझता कि) सबके दिलों की जानने वाला दातार (सब पदार्थ) दिए जा रहा है। हे मूर्ख मन! तू क्यूं सदा माया के वास्ते गिड़गिड़ा रहा है? उसकी दी दातें तो कभी खतम होने वाली ही नहीं हैं। (हे मूर्ख!) तू जब भी मांगता है (नाम के बिना) और-और चीजें ही मांगता रहता है, जिनसे कभी किसी को भी आत्मिक सुख नहीं मिला।
हे नानक! (कह: हे मूर्ख मन!) अगर तूने मांग मांगनी ही है तो प्रभु का नाम ही मांग, जिसकी इनायत से तू मायावी पदार्थों की मांग से ऊपर उठ जाए।41।
[[0259]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोक ॥ मति पूरी परधान ते गुर पूरे मन मंत ॥ जिह जानिओ प्रभु आपुना नानक ते भगवंत ॥१॥
मूलम्
सलोक ॥ मति पूरी परधान ते गुर पूरे मन मंत ॥ जिह जानिओ प्रभु आपुना नानक ते भगवंत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मति पूरी = पूर्ण बुद्धि, सही जीवन-राह की पूरी समझ। गुर पूरे मंत = पूरे गुरु का उपदेश। जानिओ = जान लिया, गहरी सांझ डाल ली। भगवंत = भाग्यशाली।1।
अर्थ: जिस मनुष्यों के मन में पूरे गुरु का उपदेश बस जाता है, उनकी अक्ल (जीवन-राह की) पूरी (समझ वाली) हो जाती है, वह (और लोगों को भी शिक्षा देने में) माहिर व माने पहचाने हो जाते हैं। जिन्होंने प्यारे प्रभु के साथ गहरी सांझ बना ली है, वे भाग्यशाली हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ममा जाहू मरमु पछाना ॥ भेटत साधसंग पतीआना ॥ दुख सुख उआ कै समत बीचारा ॥ नरक सुरग रहत अउतारा ॥ ताहू संग ताहू निरलेपा ॥ पूरन घट घट पुरख बिसेखा ॥ उआ रस महि उआहू सुखु पाइआ ॥ नानक लिपत नही तिह माइआ ॥४२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ममा जाहू मरमु पछाना ॥ भेटत साधसंग पतीआना ॥ दुख सुख उआ कै समत बीचारा ॥ नरक सुरग रहत अउतारा ॥ ताहू संग ताहू निरलेपा ॥ पूरन घट घट पुरख बिसेखा ॥ उआ रस महि उआहू सुखु पाइआ ॥ नानक लिपत नही तिह माइआ ॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: जाहू = जिस ने। मरमु = भेद (कि प्रभु मेरे अंग संग है)। पतीआना = पतीज जाता है, तसल्ली हो जाती है। समत = समान। रहत अउतारा = उतरने से रह जाता है। ताहू = उस प्रभु को। निरलेप = माया के प्रभाव से परे। बिसेख = खास तौर पर। उआहू = उसी बंदे ने। लिपत नही = जोर नहीं डालती, प्रभाव नहीं डालती।42।
अर्थ: पउड़ी: जिस मनुष्य ने ईश्वर का ये भेद पा लिया (कि वह सदा अंग-संग है) वह साधु-संगत में मिल के (इस पाए भेद के बारे में) पूरा यकीन बना लेता है। उसके हृदय में दुख और सुख एक समान प्रतीत होने लग पड़ते हैं (क्योंकि ये उसे अंग-संग बसते प्रभु द्वारा आए दिखते हैं, इस वास्ते) वह दुखों से आई घबराहट और सुखों से आई बहुत खुशी में फंसने से बच जाता है। उसे व्यापक प्रभु हरेक हृदय में बसता दिखता है और माया के प्रभाव से परे भी।
हे नानक! (ईश्वर की सर्व-व्याप्तता के यकीन से पैदा हुए) आत्मिक रस से उसे ऐसा सुख मिलता है कि माया उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।42।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ यार मीत सुनि साजनहु बिनु हरि छूटनु नाहि ॥ नानक तिह बंधन कटे गुर की चरनी पाहि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ यार मीत सुनि साजनहु बिनु हरि छूटनु नाहि ॥ नानक तिह बंधन कटे गुर की चरनी पाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छूटन = माया के बंधनों से छुटकारा। तिह = उनके। पाहि = पड़ते हैं।1।
अर्थ: हे मित्रो! हे सज्जनो! सुनो। परमात्मा का नाम जपे बिना माया के बंधनों से छुटकारा नहीं मिलता। हे नानक! जो लोग गुरु की चरणी पड़ते हैं, उनके (माया के मोह के) बंधन काटे जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवड़ी ॥ यया जतन करत बहु बिधीआ ॥ एक नाम बिनु कह लउ सिधीआ ॥ याहू जतन करि होत छुटारा ॥ उआहू जतन साध संगारा ॥ या उबरन धारै सभु कोऊ ॥ उआहि जपे बिनु उबर न होऊ ॥ याहू तरन तारन समराथा ॥ राखि लेहु निरगुन नरनाथा ॥ मन बच क्रम जिह आपि जनाई ॥ नानक तिह मति प्रगटी आई ॥४३॥
मूलम्
पवड़ी ॥ यया जतन करत बहु बिधीआ ॥ एक नाम बिनु कह लउ सिधीआ ॥ याहू जतन करि होत छुटारा ॥ उआहू जतन साध संगारा ॥ या उबरन धारै सभु कोऊ ॥ उआहि जपे बिनु उबर न होऊ ॥ याहू तरन तारन समराथा ॥ राखि लेहु निरगुन नरनाथा ॥ मन बच क्रम जिह आपि जनाई ॥ नानक तिह मति प्रगटी आई ॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवड़ी = कह लउ = कहां तक? सिधीआ = सफलता। याहू = जो। या उबरन = जो बचाव। सभु कोऊ = हर कोई। धारै = मन में धारता है। निरगुन = गुण हीन।43।
अर्थ: पवड़ी- मनुष्य (माया के मोह के बंधनों से छुटकारा पाने के लिए) कई तरह के यत्न करता है, पर परमात्मा का नाम जपे बिना बिल्कुल कामयाबी नहीं हो सकती। जिस प्रयत्नों से (इन बंधनों से) खलासी हो सकती है, वो प्रयत्न यही हैं कि साधु-संगत करो। हर कोई (माया के बंधनों से) बचने के तरीके (अपने मन में) धारता है, पर उस प्रभु का नाम जपे बिना खलासी नहीं हो सकती।
(हे भाई! प्रभु दर पे प्रार्थना ही करनी चाहिए कि) हे जीवों के नाथ! हम गुण-हीनों को बचा ले, तू खुद ही जीवों को (संसार-समुंदर में से) पार उतारने के लिए जहाज है, तू ही तैराने के समर्थ है।
हे नानक! जिस लोगों के मन में वचन में व कर्मों में प्रभु खुद (माया के मोह से बचने वाली) सूझ पैदा करता है, उनकी मति उज्जवल हो जाती है (और वे बंघनों से बच निकलते हैं)।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ रोसु न काहू संग करहु आपन आपु बीचारि ॥ होइ निमाना जगि रहहु नानक नदरी पारि ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ रोसु न काहू संग करहु आपन आपु बीचारि ॥ होइ निमाना जगि रहहु नानक नदरी पारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रोस = गुस्सा। आपन आपु = अपने आप को। निमाना = धीरे स्वभाव वाला। जगि = जगत में। नदरी = प्रभु की मेहर की नजर से।1।
अर्थ: (हे भाई!) किसी और से गुस्सा ना करो, (इसकी जगह) अपने आप को विचारो (आत्मचिंतन करो) (खुद को सुधारो, कि किसी से झगड़ने में अपना क्या-क्या दोष है)। हे नानक! अगर तू जगत में धैर्य-स्वभाव वाला बन के रहे, तो प्रभु की नजर से इस संसार समुंदर में से पार लांघ जाएगा (जिसमें क्रोध की बेअंत लहरें बह रही हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ रारा रेन होत सभ जा की ॥ तजि अभिमानु छुटै तेरी बाकी ॥ रणि दरगहि तउ सीझहि भाई ॥ जउ गुरमुखि राम नाम लिव लाई ॥ रहत रहत रहि जाहि बिकारा ॥ गुर पूरे कै सबदि अपारा ॥ राते रंग नाम रस माते ॥ नानक हरि गुर कीनी दाते ॥४४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ रारा रेन होत सभ जा की ॥ तजि अभिमानु छुटै तेरी बाकी ॥ रणि दरगहि तउ सीझहि भाई ॥ जउ गुरमुखि राम नाम लिव लाई ॥ रहत रहत रहि जाहि बिकारा ॥ गुर पूरे कै सबदि अपारा ॥ राते रंग नाम रस माते ॥ नानक हरि गुर कीनी दाते ॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: रेन = चरण धूल। सभ = सारी दुनिया। जा की = जिस (गुरु) की। तजि = त्याग। बाकी = (मन में इकट्ठे हो चुके क्रोध के संस्कारों का) लेखा। रणि = रण में, इस जगत रण भूमि में। दरगहि = प्रभु की हजूरी में। सीझहि = कामयाब होगा। जउ = अगर। रहत रहत = रहते रहते, धीरे-धीरे। रहि जाहि = रह जाता है, खत्म हो जाता है। सबदि = शब्द में (जुड़ने से)। अपारा = बेअंत। राते = रंगे हुए। माते = मस्त। गुरि = गुरु ने।44।
अर्थ: पउड़ी: सारी दुनिया जिस गुरु की चरण धूल होती है, तू भी उसके आगे अपने मन का अहंकार दूर कर, तेरे अंदर से क्रोध के संस्कारों का लेखा समाप्त हो जाए। हे भाई! इस जगत रण-भूमि में और प्रभु की हजूरी में तभी कामयाब होगा, जब गुरु की शरण पड़ कर प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ेगा। पूरे गुरु के शब्द में जुड़ने से बेअंत विकार धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।
हे नानक! जिस लोगों को गुरु ने हरि नाम की दाति दी है, वे प्रभु के नाम के प्यार में रंगे रहते हैं, वे हरि के नाम के स्वाद में मस्त रहते हैं (और वे दूसरों से रोश करने की बजाए अपने आप में सुधार करते हैं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ लालच झूठ बिखै बिआधि इआ देही महि बास ॥ हरि हरि अम्रितु गुरमुखि पीआ नानक सूखि निवास ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ लालच झूठ बिखै बिआधि इआ देही महि बास ॥ हरि हरि अम्रितु गुरमुखि पीआ नानक सूखि निवास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखै = विषौ विकार। बिआधि = बीमारीआं, रोग। इआ = इस। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सूखि = सुख में, आत्मिक आनंद में1।
अर्थ: (साधारण तौर पर हमारे) इस शरीर में लालच, झूठ विकारों और रोगों का ही जोर रहता है; (पर) हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम रस पी लिया, वह आत्मिक आनंद में टिका रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ लला लावउ अउखध जाहू ॥ दूख दरद तिह मिटहि खिनाहू ॥ नाम अउखधु जिह रिदै हितावै ॥ ताहि रोगु सुपनै नही आवै ॥ हरि अउखधु सभ घट है भाई ॥ गुर पूरे बिनु बिधि न बनाई ॥ गुरि पूरै संजमु करि दीआ ॥ नानक तउ फिरि दूख न थीआ ॥४५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ लला लावउ अउखध जाहू ॥ दूख दरद तिह मिटहि खिनाहू ॥ नाम अउखधु जिह रिदै हितावै ॥ ताहि रोगु सुपनै नही आवै ॥ हरि अउखधु सभ घट है भाई ॥ गुर पूरे बिनु बिधि न बनाई ॥ गुरि पूरै संजमु करि दीआ ॥ नानक तउ फिरि दूख न थीआ ॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: लावउ = मैं लगाता हूँ, मुझे यकीन है कि अगर कोई बरते। जाहू = जिसे। तिह = उसके। जिह रिदै = जिसके हृदय में। हितावै = प्यारी लगे। अउखधु = दवा। सभ घट = सारे शरीरों में। भाई = हे भाई! बिधि = तरीका, सबब। गुरि = गुरु ने। संजमु = पथ, परहेज।45।
अर्थ: पउड़ी: मुझे यकीन है कि अगर किसी को (प्रभु के नाम की) दवा दी जाए, एक क्षण में ही उसके (आत्मिक) दुख-दर्द मिट जाते हैं। जिस मनुष्य को अपने हृदय में रोग-नाशक प्रभु का नाम प्यारा लगने लग पड़े, सपने में भी कोई (आत्मिक) रोग (विकार) उसके नजदीक नहीं फटकता।
हे भाई! हरि नाम दवा हरेक के हृदय में मौजूद है, पर पूरे गुरु के बिना (इस्तेमाल का) तरीका कामयाब नहीं होता। हे नानक! पूरे गुरु ने (इस दवाई के इस्तेमाल के लिए) परहेज नीयत कर दिया है। (जो मनुष्य उस परहेज अनुसार दवाई लेता है) उसे मुड़ (कोई विकार) दुख छू नहीं सकता।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ वासुदेव सरबत्र मै ऊन न कतहू ठाइ ॥ अंतरि बाहरि संगि है नानक काइ दुराइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ वासुदेव सरबत्र मै ऊन न कतहू ठाइ ॥ अंतरि बाहरि संगि है नानक काइ दुराइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वासुदेव = (वासुदेव का पुत्र, कृष्ण जी) परमात्मा। ऊन = ना होना, कमी। कतहू ठाइ = किसी जगह में। काइ दुराइ = कौन छुपाएगा? ठाउ = जगह।1।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा सब जगह मौजूद है, किसी भी जगह उसका अस्तित्व ना हो ऐसा नहीं हैं। सब जीवों के अंदर व चारों तरफ प्रभु अंग-संग है, (उससे) कुछ भी छुपा हुआ नहीं हो सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ववा वैरु न करीऐ काहू ॥ घट घट अंतरि ब्रहम समाहू ॥ वासुदेव जल थल महि रविआ ॥ गुर प्रसादि विरलै ही गविआ ॥ वैर विरोध मिटे तिह मन ते ॥ हरि कीरतनु गुरमुखि जो सुनते ॥ वरन चिहन सगलह ते रहता ॥ नानक हरि हरि गुरमुखि जो कहता ॥४६॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ववा वैरु न करीऐ काहू ॥ घट घट अंतरि ब्रहम समाहू ॥ वासुदेव जल थल महि रविआ ॥ गुर प्रसादि विरलै ही गविआ ॥ वैर विरोध मिटे तिह मन ते ॥ हरि कीरतनु गुरमुखि जो सुनते ॥ वरन चिहन सगलह ते रहता ॥ नानक हरि हरि गुरमुखि जो कहता ॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: काहू = किसी से। समाहू = व्यापक है। रविआ = मौजूद है। गविआ = गमन किया, पहुँच हासिल की। वरन = वर्ण, रंग, जाति पाति। चिहन = निशान, रूप रेख। सगलह ते = सब (जाति पाति, रूप रेख) से। रहता = अलग। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।46।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: तीसरी चौथी तुक का अर्थ इकट्ठा ही करना है और चौथी तुक से शुरू करना है)।।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पउड़ी: हरेक शरीर में परमात्मा समाया हुआ है (इस वास्ते) किसी के साथ भी (कोई) वैर नहीं करना चाहिए। परमात्मा पानी में धरती में (जर्रे-जर्रे में) व्यापक है, पर किसी विरले ने ही गुरु की कृपा से (उस प्रभु तक) पहुँच हासिल की है।
परमात्मा जाति-पाति, रूप रेख से न्यारा है (उसकी कोई जाति पाति कोई रूप रेखा बयान नही की जा सकती)। (पर) हे नानक! जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर उस हरि को स्मरण करते हैं, उसकी महिमा सुनते हैं, उनके मन में से वैर-विरोध मिट जाते हैं।46।
[[0260]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ हउ हउ करत बिहानीआ साकत मुगध अजान ॥ ड़ड़कि मुए जिउ त्रिखावंत नानक किरति कमान ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ हउ हउ करत बिहानीआ साकत मुगध अजान ॥ ड़ड़कि मुए जिउ त्रिखावंत नानक किरति कमान ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ हउ = मैं (ही होऊँ) मैं (ही बड़ा बनूँ)। साकत = माया ग्रसे जीव। मुगध = मूर्ख। ड़ड़कि = (अहंकार का काँटा) चुभ चुभ के। मुए = आत्मिक मौत मरते हैं, आत्मिक आनंद गवा लेते हैं। त्रिखावंत = प्यासा। किरति = कृत अनुसार। किरति कमान = कमाई हुई कृत के अनुसार, अहंकार के आसरे किए कर्मों के अनुसार।1।
अर्थ: माया-ग्रसित मूर्ख बेसमझ मनुष्यों की उम्र इसी बहाव में बीत जाती है कि मैं बड़ा होऊँ। हे नानक! अहंकार के आसरे किए गलत कामों (के संस्कारों) के कारण, अहंकार का काँटा चुभ-चुभ के ही उनकी आत्मिक मौत हो जाती है, जैसे कोई प्यासा (पानी के बगैर मरता है, वे आत्मिक सुख के बगैर तड़फते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ड़ाड़ा ड़ाड़ि मिटै संगि साधू ॥ करम धरम ततु नाम अराधू ॥ रूड़ो जिह बसिओ रिद माही ॥ उआ की ड़ाड़ि मिटत बिनसाही ॥ ड़ाड़ि करत साकत गावारा ॥ जेह हीऐ अह्मबुधि बिकारा ॥ ड़ाड़ा गुरमुखि ड़ाड़ि मिटाई ॥ निमख माहि नानक समझाई ॥४७॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ड़ाड़ा ड़ाड़ि मिटै संगि साधू ॥ करम धरम ततु नाम अराधू ॥ रूड़ो जिह बसिओ रिद माही ॥ उआ की ड़ाड़ि मिटत बिनसाही ॥ ड़ाड़ि करत साकत गावारा ॥ जेह हीऐ अह्मबुधि बिकारा ॥ ड़ाड़ा गुरमुखि ड़ाड़ि मिटाई ॥ निमख माहि नानक समझाई ॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: ड़ाड़ि = रड़क, चुभन, खह खह। साधू = गुरु। करम धरम ततु = धार्मिक कामों का तत्व। रूड़ो = सुंदर हरि। जेह = जिस के। बिनसाही = नाश हो जाती है। हीऐ = हृदय में। अहंबुधि विकारा = मैं बड़ा बन जाऊँ (इस समझ के) अनुसार किए बुरे काम।47।
अर्थ: पउड़ी: (मनुष्य के अंदर अहंकार के काँटे की) चुभन गुरु की संगति में ही मिटती है (क्योंकि संगत में प्रभु का नाम मिलता है और) हरि-नाम का स्मरण सारे धार्मिक कर्मों का निचोड़ है। जिस मनुष्य के हृदय में सुंदर प्रभु आ बसे, उसके अंदर से अहंकार के काँटे की चुभन अवश्य नाश हो जाती है, मिट जाती है। ये अहंकार वाली चुभन (रड़क अपने अंदर) वही मूर्ख माया-ग्रसित लोग अपने अंदर कायम रखते हैं, जिनके हृदय में अहंकार वाली बुद्धि से उपजी बुराई टिकी रहती है।
(पर) हे नानक! जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर अहंकार वाली चुभन दूर कर ली, उन्हें गुरु आँख की एक झपक में ही आत्मिक आनंद की झलक दिखा देता है।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ साधू की मन ओट गहु उकति सिआनप तिआगु ॥ गुर दीखिआ जिह मनि बसै नानक मसतकि भागु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ साधू की मन ओट गहु उकति सिआनप तिआगु ॥ गुर दीखिआ जिह मनि बसै नानक मसतकि भागु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू = गुरु। मन = हे मन! गहु = पकड़। उकति = दलीलबाजी। दीखिआ = शिक्षा। जिह मनि = जिसके मन में। मसतकि = माथे पर। भागु = अच्छे लेख।1।
अर्थ: हे मन! (अगर अहंकार की चुभन से बचना है, तो) गुरु का आसरा ले, अपनी दलीलबाजियां और समझदारियां छोड़। हे नानक! जिस मनुष्य के मन में गुरु की शिक्षा बस जाती है, उसके माथे पर अच्छे लेख (उघड़े समझो)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ससा सरनि परे अब हारे ॥ सासत्र सिम्रिति बेद पूकारे ॥ सोधत सोधत सोधि बीचारा ॥ बिनु हरि भजन नही छुटकारा ॥ सासि सासि हम भूलनहारे ॥ तुम समरथ अगनत अपारे ॥ सरनि परे की राखु दइआला ॥ नानक तुमरे बाल गुपाला ॥४८॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ससा सरनि परे अब हारे ॥ सासत्र सिम्रिति बेद पूकारे ॥ सोधत सोधत सोधि बीचारा ॥ बिनु हरि भजन नही छुटकारा ॥ सासि सासि हम भूलनहारे ॥ तुम समरथ अगनत अपारे ॥ सरनि परे की राखु दइआला ॥ नानक तुमरे बाल गुपाला ॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: हारे = हार के। सासत्र = शास्त्र, हिन्दू फिलास्फी की छह पुस्तकें: सांख, जोग, न्याय, मीमांसा, वैशेषिक, वेदांत। छुटकारा = (माया के मोह से) खलासी। गुपाला = हे गोपाल! हे धरती के सांई!।48।
अर्थ: पउड़ी: हे धरती के सांई! (अहंकार की चुभन से बचने के लिए अनेको चतुराईयां, समझदारियां की, पर कुछ ना बना, अब) हार के तेरी शरण पड़े हैं। (पंडित लोग) स्मृतियों-शास्त्रों, वेद (आदि धर्म पुस्तकें) ऊँची ऊँची पढ़ते हैं। पर बहुत विचार विचार के इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि हरि नाम के स्मरण के बिना (अहंकार की चुभन से) छुटकारा नहीं हो सकता।
हे गोपाल! हम जीव हर सांस के साथ भूलें करते हैं। तू हमारी भूलों को बख्शने योग्य है, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता।
हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर, और कह:) हे गोपाल! हम तेरे बच्चे हैं, हे दयालु! शरण पड़े की लज्जा रख (और हमें अहंकार के काँटे की चुभन से बचाए रख)।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ खुदी मिटी तब सुख भए मन तन भए अरोग ॥ नानक द्रिसटी आइआ उसतति करनै जोगु ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ खुदी मिटी तब सुख भए मन तन भए अरोग ॥ नानक द्रिसटी आइआ उसतति करनै जोगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खुद = स्वयं, मैं खुद। खुदी = अहंम्, मैं मैं वाला स्वभाव। अरोग = निरोआ। द्रिसटी आइआ = दिखाई पड़ता है। उसतति करनै जोग = जो सचमुच स्तुति का हकदार है।1।
अर्थ: जब मनुष्य का अहंकार दूर हो जाता है, तब इसे आत्मिक आनंद मिलता है (जिसकी इनायत से) इसके मन और तन पुल्कित (नरोए) हो जाते हैं। हे नानक! (अहंकार के मिटते ही) मनुष्य को वह परमात्मा हर जगह दिखने लगता है, जो वाकई महिमा का हकदार है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ खखा खरा सराहउ ताहू ॥ जो खिन महि ऊने सुभर भराहू ॥ खरा निमाना होत परानी ॥ अनदिनु जापै प्रभ निरबानी ॥ भावै खसम त उआ सुखु देता ॥ पारब्रहमु ऐसो आगनता ॥ असंख खते खिन बखसनहारा ॥ नानक साहिब सदा दइआरा ॥४९॥
मूलम्
पउड़ी ॥ खखा खरा सराहउ ताहू ॥ जो खिन महि ऊने सुभर भराहू ॥ खरा निमाना होत परानी ॥ अनदिनु जापै प्रभ निरबानी ॥ भावै खसम त उआ सुखु देता ॥ पारब्रहमु ऐसो आगनता ॥ असंख खते खिन बखसनहारा ॥ नानक साहिब सदा दइआरा ॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: खरा = अच्छी तरह। सराहउ = सराहूँ, मैं सराहना करता हूँ। ऊने = खाली। सुभर = नाको नाक। निमाना = निर अहंकार। परानी = प्राणी, जीव। जापै = प्रतीत होता है। निरबानी = वासना से रहित। भावै खसम = पति को अच्छा लगता है। आगनता = बेअंत। असंख = अनगिनत, जिनकी गिनती ना हो सके। खते = पाप। दइआरा = दयाल।49।
अर्थ: पउड़ी: मैं उस प्रभु की महिमा मन लगा के करता हूँ, जो एक छिन में उन (हृदयों) को (भले गुणों से) लबालब भर देता है, जो पहले (गुणों से) वंचित थे। (खुदी मिटा के जब) आदमी अच्छी तरह निर-अहंकार हो जाता है तो हर वक्त वासना-रहित परमात्मा को स्मरण करता है। (इस तरह) पति प्रभु को प्यारा लगने लगता है, प्रभु उसे आत्मिक सुख बख्शता है।
हे नानक! पारब्रहम बड़ा बेअंत है (बेपरवाह है), मालिक प्रभु सदा ही दया करने वाला है, वह जीवों के अनगिनत पाप छण मात्र में बख्श देता है।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ सति कहउ सुनि मन मेरे सरनि परहु हरि राइ ॥ उकति सिआनप सगल तिआगि नानक लए समाइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ सति कहउ सुनि मन मेरे सरनि परहु हरि राइ ॥ उकति सिआनप सगल तिआगि नानक लए समाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सति = सच। कहउ = मैं कहता हूँ। मन = हे मन! उकति = दलील बाजी।1।
अर्थ: हे मेरे मन! मैं तुझे सच्ची बात बताता हूँ, (इसे) सुन। परमात्मा की शरण पड़। हे नानक! सारी ही दलीलबाजियां व समझदारियां छोड़ दे, (सरल स्वभाव हो के आसरा लेगा तो) प्रभु तुझे अपने चरणों में जोड़ लेगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ ससा सिआनप छाडु इआना ॥ हिकमति हुकमि न प्रभु पतीआना ॥ सहस भाति करहि चतुराई ॥ संगि तुहारै एक न जाई ॥ सोऊ सोऊ जपि दिन राती ॥ रे जीअ चलै तुहारै साथी ॥ साध सेवा लावै जिह आपै ॥ नानक ता कउ दूखु न बिआपै ॥५०॥
मूलम्
पउड़ी ॥ ससा सिआनप छाडु इआना ॥ हिकमति हुकमि न प्रभु पतीआना ॥ सहस भाति करहि चतुराई ॥ संगि तुहारै एक न जाई ॥ सोऊ सोऊ जपि दिन राती ॥ रे जीअ चलै तुहारै साथी ॥ साध सेवा लावै जिह आपै ॥ नानक ता कउ दूखु न बिआपै ॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: इआना = हे अंजान! हिकमति = चालाकी से। हुकमि = हुक्म से। सहस = हजारों। सोऊ = उस प्रभु को ही। रे जीअ = हे जिंदे! साध = गुरु। जिह = जिस को। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।50।
अर्थ: पउड़ी: हे मेरे अंजान मन! चालाकियां छोड़। परमात्मा चालाकियों से व हुक्म करने से (भाव, अकड़ दिखाने से) खुश नहीं होता। अगर तू हजारों किस्मों की चालाकियां भी करेगा, एक चालाकी भी तेरी मदद नहीं कर सकेगी (प्रभु की हजूरी में तेरे साथ नहीं जाएगी, मानी नहीं जा सकेगी)। हे मेरी जिंदे! बस! उस प्रभु को ही दिन-रात याद करती रह, प्रभु की याद ने ही तेरे साथ जाना है।
(पर ये स्मरण वही कर सकता है जिसे प्रभु खुद गुरु के दर पर लाए) हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं गुरु की सेवा में जोड़ता है, उस पर कोई दुख-कष्ट जोर नहीं डाल सकता।50।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ हरि हरि मुख ते बोलना मनि वूठै सुखु होइ ॥ नानक सभ महि रवि रहिआ थान थनंतरि सोइ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ हरि हरि मुख ते बोलना मनि वूठै सुखु होइ ॥ नानक सभ महि रवि रहिआ थान थनंतरि सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! वह प्रभु सब जीवों में व्यापक है, हरेक जगह में मौजूद है, उस हरि का जाप मुंह से करने से जब वह मन में आ बसता है, तो आत्मिक आनंद पैदा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हेरउ घटि घटि सगल कै पूरि रहे भगवान ॥ होवत आए सद सदीव दुख भंजन गुर गिआन ॥ हउ छुटकै होइ अनंदु तिह हउ नाही तह आपि ॥ हते दूख जनमह मरन संतसंग परताप ॥ हित करि नाम द्रिड़ै दइआला ॥ संतह संगि होत किरपाला ॥ ओरै कछू न किनहू कीआ ॥ नानक सभु कछु प्रभ ते हूआ ॥५१॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हेरउ घटि घटि सगल कै पूरि रहे भगवान ॥ होवत आए सद सदीव दुख भंजन गुर गिआन ॥ हउ छुटकै होइ अनंदु तिह हउ नाही तह आपि ॥ हते दूख जनमह मरन संतसंग परताप ॥ हित करि नाम द्रिड़ै दइआला ॥ संतह संगि होत किरपाला ॥ ओरै कछू न किनहू कीआ ॥ नानक सभु कछु प्रभ ते हूआ ॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हेरउ = मैं देखता हूँ, ढूँढता हूँ। घटि घटि = हरेक घट में। गुर गिआन = गुरु का ज्ञान (ये बताता है)। हउ = अहंकार। तिह हउ = उस मनुष्य का अहंकार। तह = वहाँ, उसके अंदर। हते = नाश हो गए। हित = प्यार, प्रेम। संतह संगि = संत जनों की संगति में। ओरै = परमात्मा से इधर।51।
अर्थ: पउड़ी: मैं सब जीवों के शरीर में देखता हूँ कि परमात्मा स्वयं ही मौजूद है।
परमात्मा का अस्तित्व सदा से ही है, वह जीवों के दुख नाश करने वाला है, ये सूझ गुरु का ज्ञान देता है (गुरु के उपदेश से ये समझ पैदा होती है)।
संतों की संगति की इनायत से मनुष्य के जनम-मरन के दुख नाश हो जाते हैं, मनुष्य का अहम् समाप्त हो जाता है, मन में आनंद पैदा हो जाता है, मन में से अहंकार का अभाव हो जाता है, वहां प्रभु स्वयं आ बसता है।
जो मनुष्य संत जनों की संगति में रह कर प्रेम से दयाल प्रभु का नाम अपने हृदय में टिकाता है, प्रभु उस पर कृपा करता है। हे नानक! (उस मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा से उरे और कोई कुछ भी करने के लायक नहीं है, ये सारा जगत-आकार परमात्मा से ही प्रगट हुआ है।51।
[[0261]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ लेखै कतहि न छूटीऐ खिनु खिनु भूलनहार ॥ बखसनहार बखसि लै नानक पारि उतार ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ लेखै कतहि न छूटीऐ खिनु खिनु भूलनहार ॥ बखसनहार बखसि लै नानक पारि उतार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न छूटीऐ = आजाद नहीं हो सकते, विकारों के कर्ज से निकल नहीं सकते।1।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हम जीव छिन छिन भूलें करने वाले हैं, अगर हमारी भूलों का हिसाब किताब हो, तो हम किसी भी तरह इस भार से आजाद नहीं हो सकते। हे बख्शिंद प्रभु! तू खुद ही हमारी भूलें बख्श, और हमें (विकारों के समुंदर में डूबतों को) पार लगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ लूण हरामी गुनहगार बेगाना अलप मति ॥ जीउ पिंडु जिनि सुख दीए ताहि न जानत तत ॥ लाहा माइआ कारने दह दिसि ढूढन जाइ ॥ देवनहार दातार प्रभ निमख न मनहि बसाइ ॥ लालच झूठ बिकार मोह इआ स्मपै मन माहि ॥ ल्मपट चोर निंदक महा तिनहू संगि बिहाइ ॥ तुधु भावै ता बखसि लैहि खोटे संगि खरे ॥ नानक भावै पारब्रहम पाहन नीरि तरे ॥५२॥
मूलम्
पउड़ी ॥ लूण हरामी गुनहगार बेगाना अलप मति ॥ जीउ पिंडु जिनि सुख दीए ताहि न जानत तत ॥ लाहा माइआ कारने दह दिसि ढूढन जाइ ॥ देवनहार दातार प्रभ निमख न मनहि बसाइ ॥ लालच झूठ बिकार मोह इआ स्मपै मन माहि ॥ ल्मपट चोर निंदक महा तिनहू संगि बिहाइ ॥ तुधु भावै ता बखसि लैहि खोटे संगि खरे ॥ नानक भावै पारब्रहम पाहन नीरि तरे ॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: लूण हरामी = नमक हराम, ना-शुक्र, अकृतज्ञ। बेगाना = पराया, सांझ ना पाने वाला। अलप = अल्प, थोड़ा। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तत = तत्व, (जिंद के शरीर के) असल को। लाहा = लाभ। दहदिसि = दसों दिशाओं में। निमख = (निमेष) आँख फड़कने जितना समय। मनहि = मन में। संपै = धन। लंपट = विषयी। बिहाइ = उम्र बीतती है। पाहन = पत्थर, पत्थर दिल बंदे। नीरि = पानी में, नाम अमृत से।52।
अर्थ: पउड़ी: मनुष्य ना-शुक्रगुजार है, गुनाहगार है, होछी मति वाला है, परमात्मा से बेगाना हो के रहता है, जिस प्रभु ने ये जिंद और शरीर दिए हैं, उस अस्लियत को पहचानता ही नहीं। माया कमाने की खातिर दसों दिशाओं में (माया) तलाशता फिरता है, पर जो प्रभु दातार सब कुछ देने के काबिल है, उसे आँख झपकने जितने समय के लिए भी मन में नहीं बसाता। लालच-झूठ-विकार और माया का मोह- बस! यही धन मनुष्य अपने मन में संभाले बैठा है। जो विषयी हैं, चोर हैं, महा निंदक हैं, उनकी संगति में इसकी उम्र बीतती है। (पर, हे प्रभु!) यदि तुझे ठीक लगे तो तू खुद ही खोटों को खरों की संगति में रख के बख्श लेता है।
हे नानक! अगर परमात्मा को ठीक लगे तो वह (विचारों से) पत्थर दिल हो चुके लोगों को नाम-अमृत की दाति दे कर (विकारों की लहरों में डूबने से) बचा लेता है।52।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ खात पीत खेलत हसत भरमे जनम अनेक ॥ भवजल ते काढहु प्रभू नानक तेरी टेक ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ खात पीत खेलत हसत भरमे जनम अनेक ॥ भवजल ते काढहु प्रभू नानक तेरी टेक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भवजल = संसार समुंदर। ते = से।1।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हम जीव मायावी पदार्थ ही खाते-पीते, और माया के रंग तमाशों में हंसते खेलते अनेक जूनियों में भटकते आ रहे हैं, हमें तू स्वयं ही संसार समुंदर में से निकाल, हमें तेरा ही आसरा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ खेलत खेलत आइओ अनिक जोनि दुख पाइ ॥ खेद मिटे साधू मिलत सतिगुर बचन समाइ ॥ खिमा गही सचु संचिओ खाइओ अम्रितु नाम ॥ खरी क्रिपा ठाकुर भई अनद सूख बिस्राम ॥ खेप निबाही बहुतु लाभ घरि आए पतिवंत ॥ खरा दिलासा गुरि दीआ आइ मिले भगवंत ॥ आपन कीआ करहि आपि आगै पाछै आपि ॥ नानक सोऊ सराहीऐ जि घटि घटि रहिआ बिआपि ॥५३॥
मूलम्
पउड़ी ॥ खेलत खेलत आइओ अनिक जोनि दुख पाइ ॥ खेद मिटे साधू मिलत सतिगुर बचन समाइ ॥ खिमा गही सचु संचिओ खाइओ अम्रितु नाम ॥ खरी क्रिपा ठाकुर भई अनद सूख बिस्राम ॥ खेप निबाही बहुतु लाभ घरि आए पतिवंत ॥ खरा दिलासा गुरि दीआ आइ मिले भगवंत ॥ आपन कीआ करहि आपि आगै पाछै आपि ॥ नानक सोऊ सराहीऐ जि घटि घटि रहिआ बिआपि ॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: खेलत खेलत = मन परचाते परचाते। खेद = दुख-कष्ट। साधू = गुरु। समाइ = लीन हो के, चिक्त जोड़ के। गही = पकड़ी, ग्रहण की। संचिओ = जोड़ा। खाइओ = खुराक बनाया। खेप = सौदा, वणज व्यापार। घरि आए = अंतर आत्मे टिक गए। पतिवंत = इज्जत वाले। गुरि = गुरु ने। दिलासा = दिल को ढारस। आगै पाछै = लोक परलोक में। सराहीऐ = स्तुति करें, महिमा करें।53।
अर्थ: पउड़ी: मनुष्य मायावी रंगों में मन परचाता परचाता अनेक जूनियों में से गुजरता दुख पाता आता है। अगर गुरु मिल जाए, अगर गुरु के वचन में चिक्त जुड़ जाए, तो सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं। जिसने (गुरु दर से) क्षमा का स्वभाव ग्रहण कर लिया, नाम-धन इकट्ठा किया, नाम अमृत को अपनी आत्मिक खुराक बनाया उस पर परमात्मा की बड़ी मेहर होती है, वह आत्मिक आनन्द-सुख में टिका रहता है।
जिस मनुष्य ने (गुरु से विधि सीख के महिमा का) वणज-व्यापार (सारी उम्र) भर निभाया, उसने लाभ कमाया, वह (भटकना से बच के) अडोल मन हो जाता है और आदर कमाता है। गुरु ने उसे और अच्छी दिलासा दी, और वह भगवान के चरणों में जुड़ा। (पर ये सब प्रभु की मेहर है)।
हे प्रभु! ये सारा खेल तूने ही किया है, अब भी तू ही सब कुछ कर रहा है। लोक-परलोक में जीवों का रक्षक तू स्वयं ही है। हे नानक! जो प्रभु हरेक शरीर में मौजूद है, सदा उसी की ही महिमा करनी चाहिए।53।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ आए प्रभ सरनागती किरपा निधि दइआल ॥ एक अखरु हरि मनि बसत नानक होत निहाल ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ आए प्रभ सरनागती किरपा निधि दइआल ॥ एक अखरु हरि मनि बसत नानक होत निहाल ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधि = खजाना। अखरु = (अक्षर) 1. अविनाशी प्रभु 2. प्रभु का हुक्म। मनि = मन में। निहाल = आनंदित, पुल्कित।1।
अर्थ: हे प्रभु! हे कृपा के खजाने! हे दयाल! हम तेरी शरण आए हैं। हे नानक! (कह:) जिनके मन में एक अविनाशी प्रभु बसता रहता है, उनका मन सदा खिला रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ अखर महि त्रिभवन प्रभि धारे ॥ अखर करि करि बेद बीचारे ॥ अखर सासत्र सिम्रिति पुराना ॥ अखर नाद कथन वख्याना ॥ अखर मुकति जुगति भै भरमा ॥ अखर करम किरति सुच धरमा ॥ द्रिसटिमान अखर है जेता ॥ नानक पारब्रहम निरलेपा ॥५४॥
मूलम्
पउड़ी ॥ अखर महि त्रिभवन प्रभि धारे ॥ अखर करि करि बेद बीचारे ॥ अखर सासत्र सिम्रिति पुराना ॥ अखर नाद कथन वख्याना ॥ अखर मुकति जुगति भै भरमा ॥ अखर करम किरति सुच धरमा ॥ द्रिसटिमान अखर है जेता ॥ नानक पारब्रहम निरलेपा ॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: अखर महि = हुक्म में। प्रभि = प्रभु ने। धारे = स्थापन किए। अखर करि = हुक्म कर के, हुक्म से। करि बेद = वेद बना के। नाद = आवाज, राग, कीर्तन। वख्याना = व्याख्यान, उपदेश। भै = दुनिया वाले डर। अखर है = अक्षर का (पसारा) है, हुक्म का पसारा है। किरति = कृत्य, करने योग्य।54।
अर्थ: पउड़ी: ये तीनों भवन (सारा ही जगत) प्रभु ने अपने हुक्म में ही रचे हैं। प्रभु के हुक्म के अनुसार ही वेद रचे गए, और विचारे गए।
सारे शास्त्र-स्मृतियां और पुराण प्रभु के हुक्म का प्रगटावा हैं। इन पुराणों-शास्त्रों और स्मृतियों की कीर्तन कथा और व्याख्या भी प्रभु के हुक्म का ही ज़हूर हैं।
दुनिया के डरों-भरमों से निजात ढूँढनी भी प्रभु के हुक्म का प्रकाश है। (मानव जन्म में) करनेयोग्य कामों की पहिचान करनी आत्मिक पवित्रता के नियमों की तलाश- ये भी प्रभु के हुक्म का ही दृश्य है।
हे नानक! जितना भी ये दिखाई दे रहा संसार है, ये सारा ही प्रभु के हुक्म का सरगुण स्वरूप है, पर (हुक्म का मालिक) प्रभु खुद (इस सारे पसारे के) प्रभाव से परे है।54।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ हथि कलम अगम मसतकि लिखावती ॥ उरझि रहिओ सभ संगि अनूप रूपावती ॥ उसतति कहनु न जाइ मुखहु तुहारीआ ॥ मोही देखि दरसु नानक बलिहारीआ ॥१॥
मूलम्
सलोकु ॥ हथि कलम अगम मसतकि लिखावती ॥ उरझि रहिओ सभ संगि अनूप रूपावती ॥ उसतति कहनु न जाइ मुखहु तुहारीआ ॥ मोही देखि दरसु नानक बलिहारीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हथि = हाथ में। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगंम हथि = अगम्य (पहुँच से परे) हरि के हाथ में। मसतकि = माथे पर। उरझि रहिओ = उलझा हुआ है (ताने-बाने की तरह)। अनूप = सुंदर। रूपावती = रूप वाला। मुखहु = मुँह से। मोही = मस्त हो गई है।1।
अर्थ: अगम्य (पहुँच से परे) हरि के हाथ में (हुक्म रूप) कलम (पकड़ी हुई) है, (सब जीवों के) माथे पर (अपनी हुक्म रूपी कलम से जीवों के किए कर्मों अनुसार लेख) लिखे जा रहा है। वह सुंदर रूप वाला प्रभु सब जीवों के साथ (ताने बाने की तरह) मिला हुआ है (इस वास्ते कोई लेख गलत नहीं लिखा जाता)। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मुझसे अपने मुँह से तेरी उपमा बयान नहीं की जा सकती। तेरा दर्शन करके मेरी जिंद मस्त हो रही है, सदके सदके हो रही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पउड़ी ॥ हे अचुत हे पारब्रहम अबिनासी अघनास ॥ हे पूरन हे सरब मै दुख भंजन गुणतास ॥ हे संगी हे निरंकार हे निरगुण सभ टेक ॥ हे गोबिद हे गुण निधान जा कै सदा बिबेक ॥ हे अपर्मपर हरि हरे हहि भी होवनहार ॥ हे संतह कै सदा संगि निधारा आधार ॥ हे ठाकुर हउ दासरो मै निरगुन गुनु नही कोइ ॥ नानक दीजै नाम दानु राखउ हीऐ परोइ ॥५५॥
मूलम्
पउड़ी ॥ हे अचुत हे पारब्रहम अबिनासी अघनास ॥ हे पूरन हे सरब मै दुख भंजन गुणतास ॥ हे संगी हे निरंकार हे निरगुण सभ टेक ॥ हे गोबिद हे गुण निधान जा कै सदा बिबेक ॥ हे अपर्मपर हरि हरे हहि भी होवनहार ॥ हे संतह कै सदा संगि निधारा आधार ॥ हे ठाकुर हउ दासरो मै निरगुन गुनु नही कोइ ॥ नानक दीजै नाम दानु राखउ हीऐ परोइ ॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पउड़ी: अचुत = (च्यू = गिर जाना) नाश ना होने वाला। अघ = पाप। सरबमै = सरब मय, सर्व व्यापक। गुणतास = गुणों का खजाना। निरंकार = आकार रहित। निरगुण = माया के तीन गुणों से अलग। निधान = खजाना। बिबेक = परख की ताकत। अपरंपर = परे से परे। हहि भी = अब भी मौजूद है। निधारा = निआसरों का। दासरो = छोटा सा दास। निरगुन = गुण हीन। राखउ = मैं रखूँगा। हीऐ = हृदय में।55।
अर्थ: पउड़ी: हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे कभी ना डोलने वाले परमात्मा! हे नाश रहित प्रभु! हे जीवों के पाप नाश करने वाले! हे सारे जीवों में व्यापक पूर्ण प्रभु! हे जीवों के दुख दूर करने वाले! हे गुणों के खजाने! हे सब के साथी! (और फिर भी) आकार-रहित प्रभु! हे माया के प्रभाव से अलग रहने वाले! हे सब जीवों के आसरे! हे सृष्टि की सार लेने वाले! हे गुणों के खजाने! जिसके अंदर परख करने की ताकत सदा कायम है! हे परे से परे प्रभु! तू अब भी मौजूद है, तू सदा के लिए कायम रहने वाला है। हे संतों के सदा सहाई! हे निआसरों के आसरे! हे सृष्टि के पालक! मैं तेरा छोटा सा दास हूँ, मैं गुण-हीन हूँ, मेरे में कोई गुण नहीं है। मुझे अपने नाम का दान बख्श, (ये दान) मैं अपने हृदय में परो के रखूँ।55।