विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी१ छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी१ छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै मनि बैरागु भइआ जीउ किउ देखा प्रभ दाते ॥ मेरे मीत सखा हरि जीउ गुर पुरख बिधाते ॥ पुरखो बिधाता एकु स्रीधरु किउ मिलह तुझै उडीणीआ ॥ कर करहि सेवा सीसु चरणी मनि आस दरस निमाणीआ ॥ सासि सासि न घड़ी विसरै पलु मूरतु दिनु राते ॥ नानक सारिंग जिउ पिआसे किउ मिलीऐ प्रभ दाते ॥१॥
मूलम्
मेरै मनि बैरागु भइआ जीउ किउ देखा प्रभ दाते ॥ मेरे मीत सखा हरि जीउ गुर पुरख बिधाते ॥ पुरखो बिधाता एकु स्रीधरु किउ मिलह तुझै उडीणीआ ॥ कर करहि सेवा सीसु चरणी मनि आस दरस निमाणीआ ॥ सासि सासि न घड़ी विसरै पलु मूरतु दिनु राते ॥ नानक सारिंग जिउ पिआसे किउ मिलीऐ प्रभ दाते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। बैरागु = उत्सुक्ता, उतावलापन, जल्दबाजी। देखा = मैं देखूँ। प्रभ = हे प्रभु! दाते = हे दातार! सखा = साथी। बिधाते = हे विधाता! स्री = श्री, लक्ष्मी। स्रीधरु = श्रीधर, लक्ष्मी का आसरा। मिलह = हम मिलें। उडीणीआ = व्याकुल। कर = हाथों से। करहि = (जो) करती हैं। आस दरस = दर्शन की आस। सासि सासि = हरेक श्वास से। मूरतु = महूरत, दो घड़ी का समय। सारंगि = पपीहा।1।
अर्थ: हे मेरे दातार प्रभु! हे मेरे मित्र! हे मेरे साथी! हे हरि! हे सबसे बड़े! हे सर्व व्यापक! हे विधाता जीउ! (तेरे दर्शन के बिना) मेरे मन में व्याकुलता पैदा हो रही है। (बता) मैं तुझे कैसे देखूँ? तू सर्व-व्यापक है, तू सबको पैदा करने वाला है, तू ही लक्ष्मी-पति है (तुझसे विछुड़ के) हम व्याकुल हो रही हैं, (बता) हम तुझे कैसे मिलें?
(हे जिंदे! जो जीव-स्त्रीयां) अहं त्याग के (अपने) हाथों से सेवा करती हैं, (अपना) सिर (गुरु के) चरणों में रखती हैं, और (अपने) मन में (प्रभु के) दर्शन की आस रखती हैं, उन्हें हरेक साँस के साथ (वह याद रहता है) उन्हें दिन रात (किसी भा समय) एक घड़ी भर, एक पल भर, एक महूरत भर वह प्रभु नहीं भूलता।
हे नानक! (कह:) हे दातार प्रभु! (हम जीव तेरे बिना) प्यासे पपीहे की तरह (तड़प रहे) हैं, (बता) तुझे कैसे मिलें?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक बिनउ करउ जीउ सुणि कंत पिआरे ॥ मेरा मनु तनु मोहि लीआ जीउ देखि चलत तुमारे ॥ चलता तुमारे देखि मोही उदास धन किउ धीरए ॥ गुणवंत नाह दइआलु बाला सरब गुण भरपूरए ॥ पिर दोसु नाही सुखह दाते हउ विछुड़ी बुरिआरे ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु घरि आवहु नाह पिआरे ॥२॥
मूलम्
इक बिनउ करउ जीउ सुणि कंत पिआरे ॥ मेरा मनु तनु मोहि लीआ जीउ देखि चलत तुमारे ॥ चलता तुमारे देखि मोही उदास धन किउ धीरए ॥ गुणवंत नाह दइआलु बाला सरब गुण भरपूरए ॥ पिर दोसु नाही सुखह दाते हउ विछुड़ी बुरिआरे ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु घरि आवहु नाह पिआरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनउ = विनती। करउ = करूँ, मैं करती हूँ। कंत = हे कंत! देखि = देख के। चलत = चरित्र, चमत्कार। मोही = मैं ठगी गई हूँ। धन = जीव-स्त्री। धीरए = धैर्य हासिल करे। नाह = हे नाथ! हे पति! बाला = सदा जवान रहने वाला। पिर = हे पति! हउ = मैं (खुद)। बुरिआरे = मंद कर्मण। घरि = हृदय घर में।2।
अर्थ: हे प्यारे कंत जीउ! सुन, मैं एक विनती करती हूँ। तेरे चमत्कार-तमाशे देख-देख के मैं ठगी गई हूँ। (तेरे चमत्कार-तमाशों ने) मेरा मन मोह लिया है मेरा तन (हरेक इंद्रिय) मोहे गए हैं। (पर अब ये) जीव-स्त्री (इन चमत्कार-तमाशों से) उदास हो गई है, (तेरे मिलाप के बिना इसे) धैर्य नहीं आ सकता।
हे सब गुणों के मालिक पति-प्रभु! तू दया का घर है, तू सदा जवान है, तू सारे गुणों से भरपूर है। हे सारे सुखों के दाते पति! (तेरे में कोई) दोश नहीं, मैं मंद-कर्मण्य स्वयं ही तुझसे विछुड़ी हुई हूँ।
हे नानक! (कह:) हे प्यारे पति! (ये जीव-स्त्री) विनती करती है, तू मेहर कर के इसके हृदय घर में आ बस।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ मनु अरपी सभु तनु अरपी अरपी सभि देसा ॥ हउ सिरु अरपी तिसु मीत पिआरे जो प्रभ देइ सदेसा ॥ अरपिआ त सीसु सुथानि गुर पहि संगि प्रभू दिखाइआ ॥ खिन माहि सगला दूखु मिटिआ मनहु चिंदिआ पाइआ ॥ दिनु रैणि रलीआ करै कामणि मिटे सगल अंदेसा ॥ बिनवंति नानकु कंतु मिलिआ लोड़ते हम जैसा ॥३॥
मूलम्
हउ मनु अरपी सभु तनु अरपी अरपी सभि देसा ॥ हउ सिरु अरपी तिसु मीत पिआरे जो प्रभ देइ सदेसा ॥ अरपिआ त सीसु सुथानि गुर पहि संगि प्रभू दिखाइआ ॥ खिन माहि सगला दूखु मिटिआ मनहु चिंदिआ पाइआ ॥ दिनु रैणि रलीआ करै कामणि मिटे सगल अंदेसा ॥ बिनवंति नानकु कंतु मिलिआ लोड़ते हम जैसा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। अरपी = मैं अर्पित करता हूँ। सभि = सारे। प्रभ सदेसा = प्रभु (के मिलाप का) संदेश। सुथानि = सुंदर स्थान में, साधु-संगत में (बैठ के)। पहि = पास। माहि = में। मनहु चिंदिआ = मन में चितवा हुआ, मन इच्छित। रैणि = रात। रलीआ = मौजें। कामणि = (जीव) स्त्री। अंदेसा = चिन्ता फिक्र।3।
अर्थ: जो मुझे प्रभु से मिलाप कराने वाला संदेशा दे, मैं उस मित्र-प्यारे को अपना मन भेट कर दूँ, अपना शरीर (हृदय) अर्पित कर दूँ, (ये) सारे देश (ज्ञानेंद्रियां) भेट कर दूँ, अपना सिर उसके हवाले कर दूँ।
(जिस जीव-स्त्री ने) साधु-संगत की इनायत से अपना सिर गुरु के हवाले कर दिया, गुरु ने उसे हृदय में बस रहा परमात्मा दिखला दिया; एक छिन में ही उस जीव-स्त्री का सारा ही (प्रभु से विछोड़े का) दुख दूर हो गया, (क्योंकि) उसे मन की मुराद मिल गई। वह जीव-स्त्री (प्रभु चरणों में जुड़ के) दिन रात आत्मिक आनंद पाती है, उसके सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं।
नानक विनती करता है: (जो जीव-स्त्री साधु-संगत का आसरा ले के अपने आप को गुरु के हवाले करती है उसे) पति प्रभु मिल जाता है और वह पति प्रभु ऐसा है, जैसा हम सारे जीव (सदा) ढूँढते रहते हैं, (वही है जिससे हम सारे मिलने की चाहत रखते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै मनि अनदु भइआ जीउ वजी वाधाई ॥ घरि लालु आइआ पिआरा सभ तिखा बुझाई ॥ मिलिआ त लालु गुपालु ठाकुरु सखी मंगलु गाइआ ॥ सभ मीत बंधप हरखु उपजिआ दूत थाउ गवाइआ ॥ अनहत वाजे वजहि घर महि पिर संगि सेज विछाई ॥ बिनवंति नानकु सहजि रहै हरि मिलिआ कंतु सुखदाई ॥४॥१॥
मूलम्
मेरै मनि अनदु भइआ जीउ वजी वाधाई ॥ घरि लालु आइआ पिआरा सभ तिखा बुझाई ॥ मिलिआ त लालु गुपालु ठाकुरु सखी मंगलु गाइआ ॥ सभ मीत बंधप हरखु उपजिआ दूत थाउ गवाइआ ॥ अनहत वाजे वजहि घर महि पिर संगि सेज विछाई ॥ बिनवंति नानकु सहजि रहै हरि मिलिआ कंतु सुखदाई ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। अनद = चाव। वधाई = वह आत्मिक हालत जब दिख प्रफुल्लित होता है, जब दिल को खुशी का हुलारा आता है। वजी = अपनी पूरी ताकत में आ रही है (जैसे ढोल बजने से अन्य छोटी-मोटी आवाजें मद्यम पड़ जाती हैं)। घरि = हृदय घर में। तिखा = तृखा, माया की तृष्णा। गुपालु = सृष्टि का पालणहार। सखी = सखियों ने, सहेलियों ने, ज्ञानेंद्रियों ने। मंगलु = खुशी के गीत। बंधप = सन्बंधी। हरखु = खुशी, चाव। दूत थाउ = दूतों की जगह, कामादिक वैरियों के नाम निशान। अनहत = अन+आहत, बिना बजाए, एक रस, लगातार। वजहि = बजते हैं। संगि = साथ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुखदाई = सुख देने वाला।4।
अर्थ: हे सहेलियो! (जब का) मेरे हृदय घर में सुंदर प्यारा प्रभु पति आ बसा है, मेरी सारी (माया की) तृष्णा मिट गई है, मेरे मन में (अब) चाव बना रहता है, मेरे अंदर वह आत्मिक हालत प्रबल बनी हुई है कि मेरा दिल हुलारे ले रहा है।
(जबसे) सोहणा प्यारा ठाकुर गोपाल मुझे मिला है, मेरी सहेलियों ने (मेरे ज्ञानेंद्रियों ने) खुशी के गीत गाना शुरू कर दिए हैं। मेरे इन मित्रों-संबन्धियों को (मेरी ज्ञानेंद्रियों को) चाव चढ़ा रहता है और (मेरे अंदर से) कामादिक वैरियों का नाम-निशान मिट गया है। मैंने प्रभु पति के साथ सेज बिछा ली है, (मैंने अपने दिल को प्रभु की याद के साथ जोड़ दिया है), अब मेरे हृय में बिन बजाए बाजे बज रहे हैं (मेरे हृदय में लगातारवह उल्लास बना रहता है जो बजते बाजों को सुन के अनुभव करते हैं।)
नानक विनती करता है: जिस जीव-स्त्री को सारे सुखों का दाता प्रभु पति मिल जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है।4।1।
[[0248]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी२ महला ५ ॥ मोहन तेरे ऊचे मंदर महल अपारा ॥ मोहन तेरे सोहनि दुआर जीउ संत धरम साला ॥ धरम साल अपार दैआर ठाकुर सदा कीरतनु गावहे ॥ जह साध संत इकत्र होवहि तहा तुझहि धिआवहे ॥ करि दइआ मइआ दइआल सुआमी होहु दीन क्रिपारा ॥ बिनवंति नानक दरस पिआसे मिलि दरसन सुखु सारा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी२ महला ५ ॥ मोहन तेरे ऊचे मंदर महल अपारा ॥ मोहन तेरे सोहनि दुआर जीउ संत धरम साला ॥ धरम साल अपार दैआर ठाकुर सदा कीरतनु गावहे ॥ जह साध संत इकत्र होवहि तहा तुझहि धिआवहे ॥ करि दइआ मइआ दइआल सुआमी होहु दीन क्रिपारा ॥ बिनवंति नानक दरस पिआसे मिलि दरसन सुखु सारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन, हे मन को मोह लेने वाले प्रभु!
दर्पण-टिप्पनी
(Mohan = an epithet of Siva) (‘मन मोहनि मोहि लीआ’ = गउड़ी म: ३ छंत, पन्ना245। ‘मोहनि मोहि लीआ मनु’ = तुखारी म: १, पन्ना1112। ‘मोहनि मोहि लीआ’ = बसंत म: १, पन्ना1187। ‘मोहन नीद न आवै’ - बिलावल म: ५, पन्ना 830। ‘मोहन माधव क्रिशन’ - मारू म: ५, पन्ना 1082)।
नोट: किसी मन घड़ंत कहानी पर ऐतबार करके इस शब्द ‘मोहन’ को बाबा मोहन के बाबत इस्तेमाल करना भारी भूल है। बाबा मोहन जी के छोटे से चुबारे को सतिगुरु जी ‘महल अपारा’ नहीं कह सकते थे।
दर्पण-भाषार्थ
सोहनि = शोभा दे रहे हैं। दैआर = दयाल। गावहे = गाते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: बाबा मोहन जी का कीर्तन कहीं भी किसी भी धर्मशाला में ना गाते रहे हैं, ना अब गाते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
तुझहि = (हे मोहन प्रभु!) तुझे। (बाबा मोहन जी को नहीं)। सुआमी = हे स्वामी प्रभु! (बाबा मोहन जी को नहीं कहा जा रहा)। क्रिपारा = कृपाल। दरसन सुखु = दर्शन का सुख। सारा = लेते हैं।1।
अर्थ: हे मन को मोह लेने वाले प्रभु! तेरे ऊँचे मंदिर हैं, तेरे महल ऐसे हैं कि उनका परला छोर नहीं दिखता। हे मोहन! तेरे दर पे तेरे धर्म-स्थानों में, तेरे संत जन (बैठे) सुंदर लग रहे हैं। हे बेअंत प्रभु! हे दयाल प्रभु! हे ठाकुर! तेरे धर्म स्थानों में, तेरे संत जन सदा तेरा कीर्तन गाते हैं। (हे मोहन!) जहाँ भी साधु-संत एकत्र होते हैं वहां तुझे ही ध्याते हैं।
हे दया के घर मोहन! हे सब के मालिक मोहन! तू दया करके तरस करके गरीबों-अनाथों पर कृपा करता है। (हे मोहन!) नानक विनती करता है: तेरे दर्शन के प्यासे (तेरे संत जन) तुझे मिल के तेरे दर्शन का सुख प्राप्त करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन तेरे बचन अनूप चाल निराली ॥ मोहन तूं मानहि एकु जी अवर सभ राली ॥ मानहि त एकु अलेखु ठाकुरु जिनहि सभ कल धारीआ ॥ तुधु बचनि गुर कै वसि कीआ आदि पुरखु बनवारीआ ॥ तूं आपि चलिआ आपि रहिआ आपि सभ कल धारीआ ॥ बिनवंति नानक पैज राखहु सभ सेवक सरनि तुमारीआ ॥२॥
मूलम्
मोहन तेरे बचन अनूप चाल निराली ॥ मोहन तूं मानहि एकु जी अवर सभ राली ॥ मानहि त एकु अलेखु ठाकुरु जिनहि सभ कल धारीआ ॥ तुधु बचनि गुर कै वसि कीआ आदि पुरखु बनवारीआ ॥ तूं आपि चलिआ आपि रहिआ आपि सभ कल धारीआ ॥ बिनवंति नानक पैज राखहु सभ सेवक सरनि तुमारीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन प्रभु! अनूप = सुंदर। निराली = अनोखी, अलग किस्म की। तूं = तुझे।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘तूं’ ‘तुझे’ के अर्थों अनेक बार बरता गया है। उदाहरण के तौर पर: ‘जिनि तूं साजि सवारिआ’ – सिरीराग म: ५, पन्ना 51। ‘जिन तूं सेविआ भाउ करि’ – सिरी राग म: ५, पन्ना 52। ‘गुरमति तूं सलाहणा’ – सिरी राग म: १, पन्ना 61। ‘जिन तूं जाता’ – माझ म: १, प: 100। ‘तिसु कुरबानी जिनि तूं सुणिआ’ – माझ म: ५, प: 102। ‘गुर परसादी तूं परवाणिआ’ – माझ म: ५, प: 130। ‘जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ’ – सुखमनी म: ५, प: 266।)
दर्पण-भाषार्थ
मानहि = (सारे जीव) मानते हैं। राली = मिट्टी, नाशवान। जिनहि = जिस ने। कल = सत्ता, ताकत। तुधु = तुझे। बचनि = वचन से। बनवारीआ = जगत का मालिक। पैज = लज्जा।2।
अर्थ: हे मोहन! तेरी महिमा के वचन सुंदर लगते हैं। तेरी चाल (जगत के जीवों की चाल से) अलग है। हे मोहन जी! (सारे जीव) सिर्फ तुझे ही (सदा कायम रहने वाला) मानते हैं, और सारी सृष्टि नाशवान है। हे मोहन! सिर्फ तुझ एक को (स्थिर) मानते हैं; सिर्फ तुझे, जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, जो तू सबका पालणहार है और जिस तुझ ने सारी सृष्टि में अपनी सत्ता वरताई हुई है। हे मोहन! तुझे (तेरे भक्तों ने) गुरु के वचन द्वारा (प्यार-) वश किया हुआ है, तू सब का आदि है, तू सर्व-व्यापक है, तू सारे जगत का मालिक है।
हे मोहन! (सारे जीवों में मौजूद होने के कारण) तू स्वयं ही (उम्र भोग के जगत से) चला जाता है, फिर भी तू ही खुद सदा कायम रहने वाला है, तूने ही जगत में अपनी सत्ता पसारी हुई है।
नानक विनती करता है: (अपने सेवकों की तू स्वयं ही) लज्जा रखता है, सारे सेवक-भक्त तेरी ही शरण पड़ते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन तुधु सतसंगति धिआवै दरस धिआना ॥ मोहन जमु नेड़ि न आवै तुधु जपहि निदाना ॥ जमकालु तिन कउ लगै नाही जो इक मनि धिआवहे ॥ मनि बचनि करमि जि तुधु अराधहि से सभे फल पावहे ॥ मल मूत मूड़ जि मुगध होते सि देखि दरसु सुगिआना ॥ बिनवंति नानक राजु निहचलु पूरन पुरख भगवाना ॥३॥
मूलम्
मोहन तुधु सतसंगति धिआवै दरस धिआना ॥ मोहन जमु नेड़ि न आवै तुधु जपहि निदाना ॥ जमकालु तिन कउ लगै नाही जो इक मनि धिआवहे ॥ मनि बचनि करमि जि तुधु अराधहि से सभे फल पावहे ॥ मल मूत मूड़ जि मुगध होते सि देखि दरसु सुगिआना ॥ बिनवंति नानक राजु निहचलु पूरन पुरख भगवाना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुधु = तुझे। मोहन = हे मोहन प्रभु! निदाना = अंत को। लगै नाही = छू नहीं सकता। इक मनि = एकाग्र मन से। धिआवहे = ध्याते हैं। मनि = मन से। बचनि = वचन से। करमि = करम से। पावहे = पाते हैं। मल मूत = गंदे विकारी। जि = जो मनुष्य। सि = वह। देखि = देख के। सुगिआना = सयाने, समझदार। पूरन पुरख = हे पूर्ण सर्व व्यापक! (बाबा मोहन जी को इस प्रकार संबोधन नहीं किया जा सकता था)।3।
अर्थ: हे मोहन प्रभु! तुझे साधु-संगत ध्याती है, तेरे दर्शन का ध्यान धरती है। हे मोहन प्रभु! जो जीव तुझे जपते हैं, अंत के समय मौत का सहम उनके नजदीक नहीं फटकता। जो एकाग्र मन से तेरा ध्यान धरते हैं, मौत का सहम उन्हें छू नहीं सकता (आत्मिक मौत उन पर प्रभाव नहीं डाल सकती)। जो मनुष्य अपने मन से, अपने बोलों से, अपने कर्मों से, तुझे याद करते रहते हैं, वे सारे (मन-इच्छित) फल प्राप्त कर लेते हैं।
हे सर्व-व्यापक! हे भगवान! वह मनुष्य भी तेरा दर्शन करके ऊूंची समझ वाले हो जाते हैं जो (पहले) गंदे-कुकर्मी व महामूर्ख होते हैं। नानक विनती करता है: हे मोहन! तेरा राज सदा कायम रहने वाला है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन तूं सुफलु फलिआ सणु परवारे ॥ मोहन पुत्र मीत भाई कुट्मब सभि तारे ॥ तारिआ जहानु लहिआ अभिमानु जिनी दरसनु पाइआ ॥ जिनी तुधनो धंनु कहिआ तिन जमु नेड़ि न आइआ ॥ बेअंत गुण तेरे कथे न जाही सतिगुर पुरख मुरारे ॥ बिनवंति नानक टेक राखी जितु लगि तरिआ संसारे ॥४॥२॥
मूलम्
मोहन तूं सुफलु फलिआ सणु परवारे ॥ मोहन पुत्र मीत भाई कुट्मब सभि तारे ॥ तारिआ जहानु लहिआ अभिमानु जिनी दरसनु पाइआ ॥ जिनी तुधनो धंनु कहिआ तिन जमु नेड़ि न आइआ ॥ बेअंत गुण तेरे कथे न जाही सतिगुर पुरख मुरारे ॥ बिनवंति नानक टेक राखी जितु लगि तरिआ संसारे ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन प्रभु! सुफलु = फल वाला, बाग परिवार वाला, जगत रूपी परिवार वाला। सणु = समेत। सणु परवारे = परिवार समेत हैं, बेअंत जीवों का पिता है। पुत्र मीत भाई कुटंब सभि = पुत्र मित्र भाईयों वाला सारा परिवार।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: बाबा मोहन जी ने सारी उम्र विवाह नहीं किया था, उनका कोई परिवार नहीं था)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तारिआ जहानु = तूने सारा जहां तार दिया (बाबा मोहन जी नहीं, ये मोहन प्रभु ही हो सकता है)। टेक = आसरा। जितु = जिस ‘टेक’ की इनायत से।4।
अर्थ: हे मोहन प्रभु! तू बहुत सुंदर फलीभूत है, तू बहुत बड़े परिवार वाला है। हे मोहन प्रभु! पुत्र, भाईयों, मित्रों वाले बड़े-बड़े परिवार तू सारे के सारे (संसार समुंदर से) पार लंघा देता है।
हे मोहन! जिन्होंने तेरा दर्शन किया, उनके अंदर से तूने अहंकार दूर कर दिया। तू सारे जहान को तारने की स्मर्था रखने वाला है। हे मोहन! जिस (भाग्यशालियों ने) तेरी महिमा की, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती।
हे सबसे बड़े! सर्व-व्यापक प्रभु! तेरे गुण बेअंत हैं, बयान नहीं किए जा सकते। नानक विनती करता है: मैंने तेरा ही आसरा लिया है, जिस आसरे की इनायत से मैं इस संसार समुंदर से पार लांघ रहा हूँ।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी३ महला ५ ॥ सलोकु ॥ पतित असंख पुनीत करि पुनह पुनह बलिहार ॥ नानक राम नामु जपि पावको तिन किलबिख दाहनहार ॥१॥
मूलम्
गउड़ी३ महला ५ ॥ सलोकु ॥ पतित असंख पुनीत करि पुनह पुनह बलिहार ॥ नानक राम नामु जपि पावको तिन किलबिख दाहनहार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। असंख = अनगिनत (संख्या = गिनती)। करि = करे, करता है। पुनह पुनह = पुनः पुनः , बार बार। पावको = पावक, आग। तिन = तृण, तिनका, तीला। किलबिख = पाप। दाहनहार = जलाने की स्मर्था रखने वाला।1।
अर्थ: सलोक। हे नानक! परमात्मा का नाम जप, (इस नाम से) बारंबार कुर्बान हो। ये नाम अनगिनत विकारियों को पवित्र कर देता है। (जैसे) आग (घास के) तीलों को, (वैसे ही ये हरि नाम) पापों को जलाने की ताकत रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छंत ॥ जपि मना तूं राम नराइणु गोविंदा हरि माधो ॥ धिआइ मना मुरारि मुकंदे कटीऐ काल दुख फाधो ॥ दुखहरण दीन सरण स्रीधर चरन कमल अराधीऐ ॥ जम पंथु बिखड़ा अगनि सागरु निमख सिमरत साधीऐ ॥ कलिमलह दहता सुधु करता दिनसु रैणि अराधो ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा गोपाल गोबिंद माधो ॥१॥
मूलम्
छंत ॥ जपि मना तूं राम नराइणु गोविंदा हरि माधो ॥ धिआइ मना मुरारि मुकंदे कटीऐ काल दुख फाधो ॥ दुखहरण दीन सरण स्रीधर चरन कमल अराधीऐ ॥ जम पंथु बिखड़ा अगनि सागरु निमख सिमरत साधीऐ ॥ कलिमलह दहता सुधु करता दिनसु रैणि अराधो ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा गोपाल गोबिंद माधो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
छंत: मना = हे मन! माधो = माधव, माया का पति (धव = पति) परमात्मा। मुरारि = मुर+अरि (अरि = वैरी) मुर दैत्य का वैरी, परमात्मा। मुकंद = मुक्ति दाता। फाधो = फाही। दुखहरण = दुखों का नाश करने वाला। दीन = गरीब। स्रीधर = श्री धर, लक्ष्मी का आसरा। पंथु = रास्ता। बिखड़ा = मुश्किल। निमख = आँख झपकने जितना समय। साधीऐ = साधु लेते हैं, ठीक कर लेते हैं। कलमलह = पापों को। दहता = जलाने वाला। सुधु = पवित्र। करता = करने वाला। रैणि = रात। गोपाल = हे गोपाल! 1।
अर्थ: छंत। हे मेरे मन! तू राम नारायण गोबिंद हरि माधव (के नाम) को जप। हे मेरे मन! तू मुकंद मुरारी की आराधना कर। (इस आराधना की इनायत से) मौत और दुखों की फाँसी काटी जाती है। (हे मन!) उस परमात्मा के सोहणे चरणों की आराधना करनी चाहिए, जो दुखों का नाश करने वाले हैं, जो गरीबों का सहारा हैं, जो लक्ष्मी का आसरा हैं। हे मन! जमों का मुश्किल रास्ता, और (विकारों की) आग (से भरा हुआ संसार-) समुंदर को रक्ती भर समय के नाम स्मरण से ही खूबसूरत बनाया जा सकता है। (हे मेरे मन! इसलिए) दिन रात उस हरि के नाम को स्मरण करता रह, जो पापों को जलाने वाला है और जो पवित्र करने वाला है।
नानक विनती करता है: हे गोपाल! हे गोबिंद! हे माधो! मेहर कर (मैं तेरा नाम हमेशा स्मरण करता रहूँ)।1।
[[0249]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरि मना दामोदरु दुखहरु भै भंजनु हरि राइआ ॥ स्रीरंगो दइआल मनोहरु भगति वछलु बिरदाइआ ॥ भगति वछल पुरख पूरन मनहि चिंदिआ पाईऐ ॥ तम अंध कूप ते उधारै नामु मंनि वसाईऐ ॥ सुर सिध गण गंधरब मुनि जन गुण अनिक भगती गाइआ ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा पारब्रहम हरि राइआ ॥२॥
मूलम्
सिमरि मना दामोदरु दुखहरु भै भंजनु हरि राइआ ॥ स्रीरंगो दइआल मनोहरु भगति वछलु बिरदाइआ ॥ भगति वछल पुरख पूरन मनहि चिंदिआ पाईऐ ॥ तम अंध कूप ते उधारै नामु मंनि वसाईऐ ॥ सुर सिध गण गंधरब मुनि जन गुण अनिक भगती गाइआ ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा पारब्रहम हरि राइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दामोदरु = दामन+उदर, (दामन = रस्सी। उदर = पेट) जिस पेट के इर्द-गिर्द रस्सी (तगाड़ी) बंधी है, अर्थात कृष्ण, परमात्मा। स्री रंगो = श्री रंग, माया का पति। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। बिरदाइआ = बिरद रखने वाला, मेहर करने वाला मूल स्वभाव। मनहि = मन में। चिंदिआ = चितवा हुआ, सोचा हुआ। तम = अंधेरा। अंध कूप = अंधा कूँआ। ते = से, में से। मंनि = मनि, मन में। सुर = देवते। सिध = सिद्ध, करामाती जोगी। गण = शिव जी के दास-देवते। गंधरब = गंधर्व, देवताओं के गवईए। मुनि जन = ऋषि जन। भगती = भगतीं, भगतों ने। हरि राइआ = हे प्रभु पातशाह!।2।
अर्थ: हे मेरे मन! उस प्रभु पातशाह दामोदर को स्मरण कर, जो दुखों को दूर करने वाला है, जो डरों का नाश करने वाला है, जो लक्ष्मी का पति है, जो दया का श्रोत है, जो मन को मोह लेने वाला है, और भक्ति से प्यार करना जिसका मेहर भरा मूल स्वाभाव है।
(हे भाई!) अगर भक्ति से प्यार करने वाले पूर्ण पुरख का नाम मन में बसा लें, तो मन में चितवा हुआ हरेक उद्देश्य पा लिया जाता है, वह हरि नाम माया के मोह के अंधे कूएँ के अंधकार में से निकाल लेता है। (हे मेरे मन!) देवते, करामाती जोगी, शिव जी के दास-देवते, देवताओं के गवईए, ऋषि लोग और अनेक ही भक्त जन उसी परमात्मा के गुण गाते आ रहे हैं।
नानक विनती करता है: हे प्रभु पातशाह! मेहर कर (कि मैं भी तेरा नाम सदा स्मरण करता रहूँ)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चेति मना पारब्रहमु परमेसरु सरब कला जिनि धारी ॥ करुणा मै समरथु सुआमी घट घट प्राण अधारी ॥ प्राण मन तन जीअ दाता बेअंत अगम अपारो ॥ सरणि जोगु समरथु मोहनु सरब दोख बिदारो ॥ रोग सोग सभि दोख बिनसहि जपत नामु मुरारी ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा समरथ सभ कल धारी ॥३॥
मूलम्
चेति मना पारब्रहमु परमेसरु सरब कला जिनि धारी ॥ करुणा मै समरथु सुआमी घट घट प्राण अधारी ॥ प्राण मन तन जीअ दाता बेअंत अगम अपारो ॥ सरणि जोगु समरथु मोहनु सरब दोख बिदारो ॥ रोग सोग सभि दोख बिनसहि जपत नामु मुरारी ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा समरथ सभ कल धारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब = सब में। जिनि = जिस ने। करुणा = तरस। करुणामै = करुणा+मय, तरस स्वरूप। अधारी = आसरा। जीअ दाता = जिंद देने वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सरणि जोगु = आसरा देने के काबिल। बिदारो = नाश करने वाला। सभि = सारे।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! पारब्रहम् परमेश्वर को याद रख, जिसने सब में अपनी सत्ता टिकाई हुई है, जो करुणामय है, सब ताकतों वाला है, सब का मालिक है, और जो हरेक शरीर का सबकी जिंद का आसरा है, जो प्राण मन तन और जिंद देने वाला है, बेअंत है, अगम्य (पहुँच से परे) है, और अपार है, जो शरण पड़ने वाले की सहायता करने के काबिल है, जो सब ताकतों का मालिक है सुंदर है और सारे विकारों का नाश करने वाला है।
हे मन! मुरारी प्रभु का नाम जपते ही सारे रोग, सारे फिक्र, सारे ऐब नाश हो जाते हैं। नानक विनती करता है: हे सब ताकतों के मालिक! हे सबमें अपनी सत्ता टिकाने वाले प्रभु! (मुझ पर) मेहर कर (मैं भी तेरा नाम सदा स्मरण करता रहूँ)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण गाउ मना अचुत अबिनासी सभ ते ऊच दइआला ॥ बिस्मभरु देवन कउ एकै सरब करै प्रतिपाला ॥ प्रतिपाल महा दइआल दाना दइआ धारे सभ किसै ॥ कालु कंटकु लोभु मोहु नासै जीअ जा कै प्रभु बसै ॥ सुप्रसंन देवा सफल सेवा भई पूरन घाला ॥ बिनवंत नानक इछ पुनी जपत दीन दैआला ॥४॥३॥
मूलम्
गुण गाउ मना अचुत अबिनासी सभ ते ऊच दइआला ॥ बिस्मभरु देवन कउ एकै सरब करै प्रतिपाला ॥ प्रतिपाल महा दइआल दाना दइआ धारे सभ किसै ॥ कालु कंटकु लोभु मोहु नासै जीअ जा कै प्रभु बसै ॥ सुप्रसंन देवा सफल सेवा भई पूरन घाला ॥ बिनवंत नानक इछ पुनी जपत दीन दैआला ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचुत = (च्यु = गिर पड़ना, च्युत = गिरा हुआ) जो कभी ना गिरे, सदा अटल रहने वाला। बिसंभरु = विश्वं+भर, सारे जगत को पालने वाला। दाना = जानने वाला। सभ किसै = हरेक जीव पर। कंटकु = काँटा। कालु = मौत (का सहम)। जीअ जा कै = जिसके हृदय में। सुप्रसन्न = अच्छी तरह प्रसन्न। घाला = मेहनत। इछ = इच्छा। जपत = जपते हुए।4।
अर्थ: हे (मेरे) मन! तू उस पारब्रहम् के गुण गा, जो सदा अटल रहने वाला है, जो कभी नाश नहीं होता, जो सबसे ऊूंचा है और दया का घर है, जो सारे जगत को पालने वाला है, जो स्वयं ही सब कुछ देने के काबिल है, जो सब की पालना करता है।
(हे मेरे मन!) वह परमात्मा हरेक जीव पर दया करता है, हरेक के दिल की जानने वाला है। बड़ा ही दयालु और पालना करने वाला है। जिस मनुष्य के हृदय में वह प्रभु आ बसता है, उसके अंदर से लोभ मोह और दुखदाई (काँटे के समान चुभता रहने वाला) मौत का सहम दूर हो जाता है।
(हे मन!) जिस मनुष्य पर प्रभु-देव जी अच्छी तरह प्रसन्न हो जाएं, उसकी की हुई सेवा को फल लग जाता है, उसकी की मेहनत सफल हो जाती है। नानक विनती करता है: गरीबों पर दया करने वाले परमात्मा का नाम जपने से इच्छा पूरी हो जाती है।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सुणि सखीए मिलि उदमु करेहा मनाइ लैहि हरि कंतै ॥ मानु तिआगि करि भगति ठगउरी मोहह साधू मंतै ॥ सखी वसि आइआ फिरि छोडि न जाई इह रीति भली भगवंतै ॥ नानक जरा मरण भै नरक निवारै पुनीत करै तिसु जंतै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सुणि सखीए मिलि उदमु करेहा मनाइ लैहि हरि कंतै ॥ मानु तिआगि करि भगति ठगउरी मोहह साधू मंतै ॥ सखी वसि आइआ फिरि छोडि न जाई इह रीति भली भगवंतै ॥ नानक जरा मरण भै नरक निवारै पुनीत करै तिसु जंतै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखीए = हे सहेलिए! (हे सत्संगी सज्जन!) मिलि = मिल के। करेहा = हम करें। मनाइ लेहि = हम राजी कर लें। कंतै = कंत को। तिआगि = छोड़ के। करि = बना के। ठगउरी = ठग बूटी, वह बूटी जो ठग किसी को खिला के उसे बेहोश कर देता है और उसे लूट लेता है। मोहह = हम मोह लें। साधू मंते = गुरु के उपदेश से। सखी = हे सहेली! व्सि = वश में। भगवंतै = भगवान की। जरा = बुढ़ापा। मरण = मौत। निवारै = दूर करता है। पुनीत = पवित्र। जंते = जीव को।1।
अर्थ: हे सहेलिए! (हे सत्संगी सज्जन! मेरी विनती) सुन (आ,) मिल के भजन करें (और) कंत-प्रभु को (अपने ऊपर) खुश कर लें। अहंकार दूर करके (और कंत-प्रभु की) भक्ती को ठग-बूटी बना के (इस बूटी के साथ उस प्रभु-पति को) गुरु के उपदेश द्वारा (गुरु के उपदेश पर चल के) मोह लें। हे सहेली! उस भगवान की ये सुंदर मर्यादा है कि यदि वह एक बार प्रेम वश हो जाए तो फिर कभी छोड़ के नहीं जाता।
हे नानक! (जो जीव कंत-प्रभु की शरण आता है) उस जीव को वह पवित्र (जीवन वाला) बना देता है (उसके पवित्र आत्मिक जीवन को वह प्रभु) बुढ़ापा नहीं आने देता, मौत नहीं आने देता, उसके सारे सारे डर व नर्क (बड़े से बड़े दुख) दूर कर देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सखीए इह भली बिनंती एहु मतांतु पकाईऐ ॥ सहजि सुभाइ उपाधि रहत होइ गीत गोविंदहि गाईऐ ॥ कलि कलेस मिटहि भ्रम नासहि मनि चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ पारब्रहम पूरन परमेसर नानक नामु धिआईऐ ॥२॥
मूलम्
सुणि सखीए इह भली बिनंती एहु मतांतु पकाईऐ ॥ सहजि सुभाइ उपाधि रहत होइ गीत गोविंदहि गाईऐ ॥ कलि कलेस मिटहि भ्रम नासहि मनि चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ पारब्रहम पूरन परमेसर नानक नामु धिआईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मतांतु = सलाह मश्वरा। पकाइऐ = पक्का करें। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। उपाधि = छल, फरेब। गोविंदहि = गोविंद के। कलि = (विकारों की) खह खह, झगड़ा, कलेष। मिटहि = मिट जाते हैं। मनि = मन में। चिंदिआ = चितवा हुआ। पाईऐ = पा लेते हैं।2।
अर्थ: हे सहेलिए! (हे सत्संगी सज्जन! मेरी) ये भली विनती (सुन। आ) ये सलाह पक्की करें (कि) आत्मिक अडोलता में प्रभु-प्रेम में टिक के (अपने अंदर से) छल-फरेब दूर करके गोबिंद (की महिमा) के गीत गाएं। (गोबिंद की महिमा करने से, अंदर से विकारों की) खह खह झगड़े और अन्य सारे कलेष मिट जाते हैं (माया के पीछे मन की) दौड़-भाग समाप्त हो जाती हैं, मन में चतवा हुआ फल प्राप्त हो जाता है।
हे नानक! (कह: हे सत्संगी सज्जन!) पारब्रहम् पूर्ण परमेश्वर का नाम (सदा) स्मरणा चाहिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी इछ करी नित सुख मनाई प्रभ मेरी आस पुजाए ॥ चरन पिआसी दरस बैरागनि पेखउ थान सबाए ॥ खोजि लहउ हरि संत जना संगु सम्रिथ पुरख मिलाए ॥ नानक तिन मिलिआ सुरिजनु सुखदाता से वडभागी माए ॥३॥
मूलम्
सखी इछ करी नित सुख मनाई प्रभ मेरी आस पुजाए ॥ चरन पिआसी दरस बैरागनि पेखउ थान सबाए ॥ खोजि लहउ हरि संत जना संगु सम्रिथ पुरख मिलाए ॥ नानक तिन मिलिआ सुरिजनु सुखदाता से वडभागी माए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इछ = इच्छा, चाहत। करी = करीं, मैं करती हूँ। सुख मनाई = मैं सुख मनाती हूँ, सुखना सुखती हूँ। प्रभ = हे प्रभु! पुजाए = पुजाए, पूरी कर। बैरागनि = उतावली, व्याकुल, वैराग में आई हुई। पेखउ = पेखउं, मैं देखती हूँ। सबाए = सभी। खोजि = खोज कर कर के। लहउ = लहउं, मैं ढूँढती हूँ। संगु = साथ। संम्रिथु = समर्थ, सारी ताकतों का मालिक। पुरख = सर्व व्यापक। सुरिजनु = देव लोक का वासी। से = वह (बहुवचन)। माए = हे माँ!।3।
अर्थ: (हे सहेलिए!) मैं सदा चाहत करती रहती हूँ और सुखना सुखती रहती हूँ (कि) हे प्रभु! मेरी आस पूरी कर, मैं तेरे दर्शनों के लिए उतावली हुई तुझे हर जगह तलाशती फिरती हूँ।
(हे सहेलीये! प्रभु की) खोज कर कर के मैं संत-जनों का साथ (जा) ढूँढती हूँ (साधु-संगत ही उस प्रभु का) मेल कराती है जो सारी ताकतों का मालिक है और जो सब में व्यापक है।
हे नानक! (कह:) हे माँ! (जो मनुष्य साधु-संगत में मिलते हैं) उन्हें ही देव-लोक का मालिक और सारे सुख देने वाला प्रभु मिलता है वही मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी नालि वसा अपुने नाह पिआरे मेरा मनु तनु हरि संगि हिलिआ ॥ सुणि सखीए मेरी नीद भली मै आपनड़ा पिरु मिलिआ ॥ भ्रमु खोइओ सांति सहजि सुआमी परगासु भइआ कउलु खिलिआ ॥ वरु पाइआ प्रभु अंतरजामी नानक सोहागु न टलिआ ॥४॥४॥२॥५॥११॥
मूलम्
सखी नालि वसा अपुने नाह पिआरे मेरा मनु तनु हरि संगि हिलिआ ॥ सुणि सखीए मेरी नीद भली मै आपनड़ा पिरु मिलिआ ॥ भ्रमु खोइओ सांति सहजि सुआमी परगासु भइआ कउलु खिलिआ ॥ वरु पाइआ प्रभु अंतरजामी नानक सोहागु न टलिआ ॥४॥४॥२॥५॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखी = हे सहेलीए! (हे सत्संगी सज्जन!)। वसा = वसां, मैं बसती हूँ। अपुने नाह नालि = अपने नाथ (पति) के साथ। संगि = साथ। हिलिआ = हिल मिल गया। भ्रमु = भटकना। सहजि = आत्मिक अडोलता में। परगासु = रोशनी। खिलिआ = खिल गया है। वरु = पति। अंतरजामी = सब के दिल की जानने वाला। सोहागु = सौभाग्य, अच्छा भाग्य।4।
अर्थ: हे सहेलिए! (साधु-संगत की इनायत से अब) मैं (सदा) अपने प्रभु पति के साथ आ बसती हूँ, मेरा मन उस हरि के साथ हिल-मिल गया है, मेरा तन (हृदय) उस हरि के साथ एक-मेक हो गया है। हे सहेलिए! सुन, (अब) मुझे नींद भी प्यारी लगती है, (क्योंकि, सपने में भी) मुझे अपना प्यारा पति मिलता है। उस मालिक प्रभु ने मेरी भटकना दूर कर दी है, मेरे अंदर अब शान्ति बनी रहती है, मैं आत्मिक अडोलता में टिकी रहती हूँ, (मेरे अंदर उसकी ज्योति की) रोशनी हो गई है (जैसे सूर्य की किरणों से) कमल-फूल खिल जाता है (वैसे ही उसकी ज्योति के प्रकाश से मेरा हृदय खिला, प्रसन्न-चिक्त रहता है)।
हे नानक! (कह: हे सहेलिए! साधु-संगत की इनायत से) मैंने अंतरजामी प्रभु-पति ढूँढ लिया है, और (मेरे सिर का) ये सुहाग कभी दूर होने वाला नहीं।4।4।2।5।11।