विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी छंत महला ३ ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी छंत महला ३ ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा धन बिनउ करे जीउ हरि के गुण सारे ॥ खिनु पलु रहि न सकै जीउ बिनु हरि पिआरे ॥ बिनु हरि पिआरे रहि न साकै गुर बिनु महलु न पाईऐ ॥ जो गुरु कहै सोई परु कीजै तिसना अगनि बुझाईऐ ॥ हरि साचा सोई तिसु बिनु अवरु न कोई बिनु सेविऐ सुखु न पाए ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई जिस नो आपि मिलाए ॥१॥
मूलम्
सा धन बिनउ करे जीउ हरि के गुण सारे ॥ खिनु पलु रहि न सकै जीउ बिनु हरि पिआरे ॥ बिनु हरि पिआरे रहि न साकै गुर बिनु महलु न पाईऐ ॥ जो गुरु कहै सोई परु कीजै तिसना अगनि बुझाईऐ ॥ हरि साचा सोई तिसु बिनु अवरु न कोई बिनु सेविऐ सुखु न पाए ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई जिस नो आपि मिलाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधन = जीव-स्त्री। बिनउ = विनती। सारे = संभालती है, याद करती है। महलु = परमात्मा का ठिकाना। परु कीजै = अच्छी तरह करना चाहिए। तिसना अगनि = तृष्णा की आग। साचा = सदा स्थिर रहने वाला।1।
अर्थ: (जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु-मिलाप की चाहत पैदा होती है, वह) जीव-स्त्री (प्रभु-दर पे) विनती करती है और परमात्मा के गुण (अपने हृदय में) संभालती है, प्यारे परमात्मा (के दर्शनों) के बगैर वह एक छिन भर एक पल भर (शांत-चित्त) नहीं रह सकती। प्यारे परमात्मा के दर्शन के बिना वह (शांत-चित्त) नहीं रह सकती। पर परमात्मा का ठिकाना गुरु के बिना पाया नहीं जा सकता।
जो जो गुरु शिक्षा देता है उसे अच्छी तरह कमाया जाए तो, (मन में से) तृष्णा की आग बुझ जाती है। एक परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है, उसके बगैर (जगत में) और कोई (सदा साथ निभने वाला साथी) नहीं है, उसकी शरण पड़े बिना जीव-स्त्री सुख नहीं पा सकती। हे नानक! वही जीव-स्त्री (गुरु की) मिलाई हुई (प्रभु-चरणों में) मिल सकती है जिसे प्रभु स्वयं मेहर (करके, अपने चरणों में) मिला ले।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन रैणि सुहेलड़ीए जीउ हरि सिउ चितु लाए ॥ सतिगुरु सेवे भाउ करे जीउ विचहु आपु गवाए ॥ विचहु आपु गवाए हरि गुण गाए अनदिनु लागा भाओ ॥ सुणि सखी सहेली जीअ की मेली गुर कै सबदि समाओ ॥ हरि गुण सारी ता कंत पिआरी नामे धरी पिआरो ॥ नानक कामणि नाह पिआरी राम नामु गलि हारो ॥२॥
मूलम्
धन रैणि सुहेलड़ीए जीउ हरि सिउ चितु लाए ॥ सतिगुरु सेवे भाउ करे जीउ विचहु आपु गवाए ॥ विचहु आपु गवाए हरि गुण गाए अनदिनु लागा भाओ ॥ सुणि सखी सहेली जीअ की मेली गुर कै सबदि समाओ ॥ हरि गुण सारी ता कंत पिआरी नामे धरी पिआरो ॥ नानक कामणि नाह पिआरी राम नामु गलि हारो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। रैणि = रात। सिउ = साथ। भाउ = प्रेम। करे = कर के। आपु = स्वै भाव। अनदिनु = हर रोज, हर समय। भाओ = भाउ, प्यार। जीअ की मेली = जिंद का मेल रखने वाली, दिली प्यार वाली। सारी = संभाले। नामे = नाम में ही। कामणि = स्त्री। नाह पिआरी = पति की प्यारी। गलि = गले में।2।
अर्थ: जो जीव-स्त्री परमात्मा (के चरणों) से अपना चित्त जोड़े रखती है उस जीव-स्त्री की (जिंदगी रूपी) रात आसान बीतती है, वह जीव-स्त्री गुरु की शरण पड़ती है गुरु के साथ प्रेम करती है और अपने अंदर से अहं-अहंकार दूर करती है। जो जीव-स्त्री अपने अंदर से स्वैभाव दूर करती है सदा परमात्मा के गुण गाती रहती है, उसका हर वक्त प्रभु चरणों से प्यार बना रहता है। दिल-मिली (सत्संगी) सखियों-सहेलियों से (गुरु का शब्द) सुन के गुरु के शब्द में उसकी लीनता हुई रहती है।
जो जीव-स्त्री परमात्मा के नाम से प्यार डालती है परमात्मा के गुण (अपने हृदय में) संभालती है वह परमात्मा पति की प्यारी बन जाती है। हे नानक! जिस जीव-स्त्री के गले में परमात्मा का नाम रूपी हार पड़ा रहता है, वह जीव-स्त्री परमात्मा की प्यारी हो जाती है।2।
[[0244]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन एकलड़ी जीउ बिनु नाह पिआरे ॥ दूजै भाइ मुठी जीउ बिनु गुर सबद करारे ॥ बिनु सबद पिआरे कउणु दुतरु तारे माइआ मोहि खुआई ॥ कूड़ि विगुती ता पिरि मुती सा धन महलु न पाई ॥ गुर सबदे राती सहजे माती अनदिनु रहै समाए ॥ नानक कामणि सदा रंगि राती हरि जीउ आपि मिलाए ॥३॥
मूलम्
धन एकलड़ी जीउ बिनु नाह पिआरे ॥ दूजै भाइ मुठी जीउ बिनु गुर सबद करारे ॥ बिनु सबद पिआरे कउणु दुतरु तारे माइआ मोहि खुआई ॥ कूड़ि विगुती ता पिरि मुती सा धन महलु न पाई ॥ गुर सबदे राती सहजे माती अनदिनु रहै समाए ॥ नानक कामणि सदा रंगि राती हरि जीउ आपि मिलाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाइ = प्यार में। मुठी = ठगी गई। करारे = तगड़े। दुतरु = दुष्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल हो। मोहि = मोह में। खुआई = खुंझी हुई, वंचित। कूड़ि = झूठ में, झूठे मोह में। विगुती = ख्वार हुई, परेशान हुई। पिरि = पिर ने, पति ने। मुती = छोड़ दी। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त।3।
अर्थ: हे जीउ! जो जीव-स्त्री प्यारे पति प्रभु के बिना अकेली (सूना जीवन व्यतीत कर रही) है, वह गुरु के सहारा देने वाले शब्द के बिना और ही प्यार में ठगी जा रही है। गुरु के शब्द के बिना और कोई नहीं जो उसे दुष्तर (संसार समुंदर) से पार लंघा सकता है, वह माया के मोह में (फसी) परेशान होती रहती है। जब जीव-स्त्री (माया के) झूठे मोह में परेशान होती है, तब (समझो कि) पति प्रभु से वह त्यागी हुई पड़ी है, वह जीव-स्त्री परमात्मा पति का ठिकाना नहीं ढूँढ सकती।
(पर) जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द में रंगी रहती है, वह आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है, वह हर वक्त (प्रभु चरणों में) लीन रहती है। हे नानक! वह जीव-स्त्री सदा (प्रभु पति के) प्रेम रंग में रंगी रहती है, उसे परमात्मा खुद (अपने चरणों में) मिलाए रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता मिलीऐ हरि मेले जीउ हरि बिनु कवणु मिलाए ॥ बिनु गुर प्रीतम आपणे जीउ कउणु भरमु चुकाए ॥ गुरु भरमु चुकाए इउ मिलीऐ माए ता सा धन सुखु पाए ॥ गुर सेवा बिनु घोर अंधारु बिनु गुर मगु न पाए ॥ कामणि रंगि राती सहजे माती गुर कै सबदि वीचारे ॥ नानक कामणि हरि वरु पाइआ गुर कै भाइ पिआरे ॥४॥१॥
मूलम्
ता मिलीऐ हरि मेले जीउ हरि बिनु कवणु मिलाए ॥ बिनु गुर प्रीतम आपणे जीउ कउणु भरमु चुकाए ॥ गुरु भरमु चुकाए इउ मिलीऐ माए ता सा धन सुखु पाए ॥ गुर सेवा बिनु घोर अंधारु बिनु गुर मगु न पाए ॥ कामणि रंगि राती सहजे माती गुर कै सबदि वीचारे ॥ नानक कामणि हरि वरु पाइआ गुर कै भाइ पिआरे ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमु = मन की भटकना। चुकाए = दूर करे। माए = हे माँ! घोर अंधारु = घुप अंधेरा। मगु = रास्ता। वरु = पति। भाइ = प्यार में।4।
अर्थ: हे जीउ! (प्रभु चरणों में) तब ही मिल सकते हैं, अगर प्रभु खुद ही मिला ले। परमात्मा के बिना (उसके चरणों में) और कौन मिला सकता है?
(क्योंकि,) हे जीउ! अपने प्रीतम गुरु के बिना और कोई (हमारे मन की) भटकना दूर नहीं कर सकता।
हे माँ! अगर गुरु (जीव-स्त्री के मन की) भटकना दूर कर दे, तो इस तरह (प्रभु चरणों में) मिल सकते हैं, तभी जीव-स्त्री आत्मिक आनंद पाती है। गुरु की शरण पड़े बिना उसे (जीवन का सही) रास्ता नहीं मिल सकता।
हे नानक! जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द की इनायत से (प्रभु पति के गुणों को) अपने सोच-मण्डल में टिकाती है, वह प्रभु के प्रेम रंग में रंगी रहती है, और आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है। गुरु के प्रेम में गुरु के प्यार में टिकने के कारण उस जीव-स्त्री का प्रभु पति से मिलाप हो जाता है।4।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पाठक सज्जन इस छंत में और गुरु नानक देव जी के पहले दो छंतों में शब्दों की गहरी समानता देखें, जो बा-सबब ही नहीं हो गई। गुरु नानक देव जी की वाणी गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थी।
उदाहरण के तौर पर कुछ समान शब्द यहां दिए जा रहे हैं;
साधन, नानक साधन मिलै मिलाई, ऐकलड़ी, नाह।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ३ ॥ पिर बिनु खरी निमाणी जीउ बिनु पिर किउ जीवा मेरी माई ॥ पिर बिनु नीद न आवै जीउ कापड़ु तनि न सुहाई ॥ कापरु तनि सुहावै जा पिर भावै गुरमती चितु लाईऐ ॥ सदा सुहागणि जा सतिगुरु सेवे गुर कै अंकि समाईऐ ॥ गुर सबदै मेला ता पिरु रावी लाहा नामु संसारे ॥ नानक कामणि नाह पिआरी जा हरि के गुण सारे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ३ ॥ पिर बिनु खरी निमाणी जीउ बिनु पिर किउ जीवा मेरी माई ॥ पिर बिनु नीद न आवै जीउ कापड़ु तनि न सुहाई ॥ कापरु तनि सुहावै जा पिर भावै गुरमती चितु लाईऐ ॥ सदा सुहागणि जा सतिगुरु सेवे गुर कै अंकि समाईऐ ॥ गुर सबदै मेला ता पिरु रावी लाहा नामु संसारे ॥ नानक कामणि नाह पिआरी जा हरि के गुण सारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खरी = बहुत। निमाणी = गरीब। किउ जीवा = मैं कैसे जी सकती हूँ? मेरे अंदर आत्मिक जीवन नहीं आ सकता। माई = हे माँ! नीद = सुख की नींद, शांति। कापड़ु = कपड़ा। तनि = शरीर पर। कापरु = कपड़ा। जा = जब। पिर भावै = पति को पसंद आती है। अंकि = अंक में, गोद में। सबदै = शब्द द्वारा। रावी = मिल सकती हूँ। लाहा = लाभ। संसारे = जगत में। कामणि = जीव-स्त्री। नाह = नाथ, पति। सारे = संभालती है।1।
अर्थ: हे मेरी माँ! पति प्रभु के मिलाप के बिना मेरी जीवात्मा बहुत कंगाल सी रहती है, प्रभु पति से मेल के बिना मेरे अंदर आत्मिक जीवन नहीं आ सकता। (हे माँ!) प्रभु पति के बिना मेरे अंदर शांति नहीं आती, मुझे अपने शरीर पर कोई कपड़ा नहीं सुहाता।
(हे माँ!) कपड़ा शरीर पर तभी सुहाता है जब मैं प्रभु पति को भा जाऊँ। (पर, हे माँ!) गुरु की मति पर चलने से ही प्रभु में चिक्त जुड़ सकता है। जब जीव-स्त्री गुरु की शरण पड़ती है, तब वह सदा वास्ते भाग्यशाली बन जाती है। (इस वास्ते, हे माँ!) गुरु की गोद में टिके रहना चाहिए।
(हे माँ!) जब गुरु के शब्द में (मेरा चिक्त) जुड़ता है, तब मैं प्रभु पति को मिल पड़ती हूँ। (हे माँ!) प्रभु का नाम ही जगत में (असल) कमाई है।
हे नानक! जीव-स्त्री जब परमात्मा के गुण अपने हृदय में बसाती है, तब वह प्रभु पति को प्यारी लगने लग पड़ती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा धन रंगु माणे जीउ आपणे नालि पिआरे ॥ अहिनिसि रंगि राती जीउ गुर सबदु वीचारे ॥ गुर सबदु वीचारे हउमै मारे इन बिधि मिलहु पिआरे ॥ सा धन सोहागणि सदा रंगि राती साचै नामि पिआरे ॥ अपुने गुर मिलि रहीऐ अम्रितु गहीऐ दुबिधा मारि निवारे ॥ नानक कामणि हरि वरु पाइआ सगले दूख विसारे ॥२॥
मूलम्
सा धन रंगु माणे जीउ आपणे नालि पिआरे ॥ अहिनिसि रंगि राती जीउ गुर सबदु वीचारे ॥ गुर सबदु वीचारे हउमै मारे इन बिधि मिलहु पिआरे ॥ सा धन सोहागणि सदा रंगि राती साचै नामि पिआरे ॥ अपुने गुर मिलि रहीऐ अम्रितु गहीऐ दुबिधा मारि निवारे ॥ नानक कामणि हरि वरु पाइआ सगले दूख विसारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधन = जीव-स्त्री। अहि = दिन। निसि = रात। वीचारे = विचारती है, सोच मण्डल में टिकाती है। इन बिधि = इस तरीके से। सोहागणि = अच्छे भाग्यों वाली। रंगि = प्रेम रंग में। साचै नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। गहीऐ = प्राप्त कर लेते हैं। दुबिधा = मेर-तेर। निवारे = दूर कर लेती है। वरु = पति। सगले = सारे।2।
अर्थ: (हे मेरी माँ!) जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द को अपने सोच मण्डल में टिकाती है, वह दिन रात प्रभु पति के प्रेम रंग में रंगी रहती है। वह जीव-स्त्री अपने प्रभु पति के मिलाप में आत्मिक आनंद भोगती है (क्योंकि) गुरु के शब्द को विचार मण्डल में संभालती है वह अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेती है।
(हे सत्संगी सहेलियो! तुम भी) इस प्रकार प्रभु प्यारे को मिलो।
(हे माँ!) वह जीव-स्त्री हमेशा भाग्यशाली है, सदा प्रभु पति के प्रेम रंग में रंगी रहती है, जो सदा स्थिर प्रभु के नाम में प्रेम करती है।
हे सहेलियो! अपने गुरु को मिल के रहना चाहिए (गुरु से ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल ले सकते हैं। (जिसे ये नाम-जल मिल जाता है वह अपने अंदर से) मेर-तेर को समाप्त कर देती है। हे नानक! उस जीव-स्त्री ने पति प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया, उसने सारे दुख भुला लिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामणि पिरहु भुली जीउ माइआ मोहि पिआरे ॥ झूठी झूठि लगी जीउ कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥ कूड़ु निवारे गुरमति सारे जूऐ जनमु न हारे ॥ गुर सबदु सेवे सचि समावै विचहु हउमै मारे ॥ हरि का नामु रिदै वसाए ऐसा करे सीगारो ॥ नानक कामणि सहजि समाणी जिसु साचा नामु अधारो ॥३॥
मूलम्
कामणि पिरहु भुली जीउ माइआ मोहि पिआरे ॥ झूठी झूठि लगी जीउ कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥ कूड़ु निवारे गुरमति सारे जूऐ जनमु न हारे ॥ गुर सबदु सेवे सचि समावै विचहु हउमै मारे ॥ हरि का नामु रिदै वसाए ऐसा करे सीगारो ॥ नानक कामणि सहजि समाणी जिसु साचा नामु अधारो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरहु = पति से। मोहि = मोह में। झूठि = झूठ में, झूठे जगत के मोह में। मुठी = लूटी हुई। कूड़िआरे = झूठे पदार्थों की बंजारन। सारे = संभालती है। जूऐ = जूए में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। रिदै = हृदय में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अधारो = आसरा।3।
अर्थ: (हे माँ!) जो जीव-स्त्री प्रभु पति (की याद) से टूट जाती है, वह माया के मोह में (फंस के और पदार्थों को) प्यार करने लग पड़ती है। वह झूठे और कूड़ पदार्थों की वणजारन झूठे मोह में लगी रहती है, झूठे मोह में ठगी जाती है। पर जो जीव-स्त्री गुरु की मति को (अपने हृदय में) संभालती है, वह झूठे मोह को (अपने अंदर से) दूर कर लेती है, (और इस तरह) अपना जन्म व्यर्थ नहीं गवाती। वह जीव-स्त्री गुरु के शब्द को संभालती है, सदा स्थिर प्रभु में लीन हो जाती है और अपने अंदर से अहंकार को खत्म कर देती है, वह परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसा लेती है - वह ऐसा आत्मिक श्रृंगार करती है।
हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम जिस जीव-स्त्री का जीवन आसरा है, वह जीव-स्त्री आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलु मेरे प्रीतमा जीउ तुधु बिनु खरी निमाणी ॥ मै नैणी नीद न आवै जीउ भावै अंनु न पाणी ॥ पाणी अंनु न भावै मरीऐ हावै बिनु पिर किउ सुखु पाईऐ ॥ गुर आगै करउ बिनंती जे गुर भावै जिउ मिलै तिवै मिलाईऐ ॥ आपे मेलि लए सुखदाता आपि मिलिआ घरि आए ॥ नानक कामणि सदा सुहागणि ना पिरु मरै न जाए ॥४॥२॥
मूलम्
मिलु मेरे प्रीतमा जीउ तुधु बिनु खरी निमाणी ॥ मै नैणी नीद न आवै जीउ भावै अंनु न पाणी ॥ पाणी अंनु न भावै मरीऐ हावै बिनु पिर किउ सुखु पाईऐ ॥ गुर आगै करउ बिनंती जे गुर भावै जिउ मिलै तिवै मिलाईऐ ॥ आपे मेलि लए सुखदाता आपि मिलिआ घरि आए ॥ नानक कामणि सदा सुहागणि ना पिरु मरै न जाए ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। नैणी = आँखों में। भावै = अच्छा लगता है। हावै = हाहुके में। करउ = मैं करती हूँ। घरि = घर में। आए = आ के।4।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु जी! मुझे मिल, तेरे बिना मैं बहुत आजिज हूँ। (हे प्रीतम जी!) तेरे बिना मेरे आँखों में नींद नहीं आती। मुझे ना अन्न अच्छा लगता है ना पानी। (हे माँ! प्रीतम प्रभु के विछोड़े में) अन्न-पानी अच्छा नहीं लगता, सिसकियों में जिंद दुखी रहती है, पति प्रभु के बिना आत्मिक आनंद प्राप्त नहीं होता।
(हे माँ!) मैं गुरु के आगे विनती करती हूँ - हे गुरु! अगर तुझे मेरी विनती ठीक लगे, तो जैसे भी हो सके मुझे (प्रीतम-प्रभु) मिला।
(हे माँ!) सारे सुखों का देने वाला प्रीतम प्रभु (जिसको मिलाता है) स्वयं ही मिला लेता है, उसके हृदय घर में खुद ही आ के मिल लेता है। हे नानक! वह जीव-स्त्री सदा के लिए भाग्यशाली हो जाती है क्योंकि उसका (ये प्रभु-) पति ना कभी मरता है ना ही उससे विछुड़ता है।4।2।
[[0245]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ३ ॥ कामणि हरि रसि बेधी जीउ हरि कै सहजि सुभाए ॥ मनु मोहनि मोहि लीआ जीउ दुबिधा सहजि समाए ॥ दुबिधा सहजि समाए कामणि वरु पाए गुरमती रंगु लाए ॥ इहु सरीरु कूड़ि कुसति भरिआ गल ताई पाप कमाए ॥ गुरमुखि भगति जितु सहज धुनि उपजै बिनु भगती मैलु न जाए ॥ नानक कामणि पिरहि पिआरी विचहु आपु गवाए ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ३ ॥ कामणि हरि रसि बेधी जीउ हरि कै सहजि सुभाए ॥ मनु मोहनि मोहि लीआ जीउ दुबिधा सहजि समाए ॥ दुबिधा सहजि समाए कामणि वरु पाए गुरमती रंगु लाए ॥ इहु सरीरु कूड़ि कुसति भरिआ गल ताई पाप कमाए ॥ गुरमुखि भगति जितु सहज धुनि उपजै बिनु भगती मैलु न जाए ॥ नानक कामणि पिरहि पिआरी विचहु आपु गवाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामणि = जीव-स्त्री। रसि = नाम रस में। बेधी = बेधी हुई। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्रेम में। मोहनि = मोहन ने, सुंदर प्रभु ने। दंबिधा = मेर-तेर। वरु = पति प्रभु। रंगु लाए = आत्मिक आनंद भोगती है। कूड़ि = झूठ से। कुसति = कु सत्य से, ठगी फरेब से। गल ताई = गले तक, नाको नाक। पिरहि पिआरी = पति प्रभु की प्यारी। आपु = स्वैभाव।1।
अर्थ: (भाग्यशाली है वह) जीव-स्त्री (जिसका मन) परमात्मा के नाम में बेधा रहता है, जो परमात्मा के प्यार में अडोलता में टिकी रहती है, और जिसके मन को सुंदर प्रभु ने मोह रखा है, (उस जीव-स्त्री की) मेरे तेर आत्मिक अडोलता में खतम हो जाती है, वह जीव-स्त्री प्रभु पति को मिल जाती है, गुरु की मति ले के वह आत्मिक रंग भोगती है।
(माया के मोह में फंस के मनुष्य का) ये शरीर झूठ ठगी फरेब से नाको नाक भरा रहता है और जीव पाप कमाता रहता है, पर गुरु शरण पड़ने से जीव प्रभु की भक्ति करता है, जिसकी इनायत से इसके अंदर आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हो जाती है (और सारे किए पाप विकार दूर हो जाते हैं) प्रभु भक्ति के बगैर (विकारों की) मैल दूर नहीं होती।
हे नानक! (वह) जीव-स्त्री प्रभु पति की प्यारी बन जाती है, जो अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर लेती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामणि पिरु पाइआ जीउ गुर कै भाइ पिआरे ॥ रैणि सुखि सुती जीउ अंतरि उरि धारे ॥ अंतरि उरि धारे मिलीऐ पिआरे अनदिनु दुखु निवारे ॥ अंतरि महलु पिरु रावे कामणि गुरमती वीचारे ॥ अम्रितु नामु पीआ दिन राती दुबिधा मारि निवारे ॥ नानक सचि मिली सोहागणि गुर कै हेति अपारे ॥२॥
मूलम्
कामणि पिरु पाइआ जीउ गुर कै भाइ पिआरे ॥ रैणि सुखि सुती जीउ अंतरि उरि धारे ॥ अंतरि उरि धारे मिलीऐ पिआरे अनदिनु दुखु निवारे ॥ अंतरि महलु पिरु रावे कामणि गुरमती वीचारे ॥ अम्रितु नामु पीआ दिन राती दुबिधा मारि निवारे ॥ नानक सचि मिली सोहागणि गुर कै हेति अपारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर कै भाइ = गुरु के प्रेम में (टिक के)। रैणि = (प्रभु की याद को) टिकाती है। अनदिनु = हर रोज। रावे = माणती है, भोगती है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। अपारे = बेअंत।2।
अर्थ: जो जीव-स्त्री गुरु के प्रेम-प्यार में टिकी रहती है, वह प्रभु पति को मिल जाती है। वह अपने अंदर अपने हृदय में (प्रभु-पति को) बसाती है और सारी जिंदगी-रूपी रात सुख में गुजारती है। जो जीव-स्त्री अपने अंदर प्रभु का निवास-स्थान ढूँढ लेती है, गुरु की मति ले के (प्रभु के गुणों को) विचारती है, वह प्रभु-पति के मिलाप का आत्मिक आनंद पाती है।
जिस जीव-स्त्री ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस दिन रात पीया है, वह अपने अंदर से मेर-तेर को खत्म कर देती है। हे नानक! गुरु के अथाह प्यार की इनायत से वह जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभु-पति में विलीन रहती है और भाग्यशाली बन जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवहु दइआ करे जीउ प्रीतम अति पिआरे ॥ कामणि बिनउ करे जीउ सचि सबदि सीगारे ॥ सचि सबदि सीगारे हउमै मारे गुरमुखि कारज सवारे ॥ जुगि जुगि एको सचा सोई बूझै गुर बीचारे ॥ मनमुखि कामि विआपी मोहि संतापी किसु आगै जाइ पुकारे ॥ नानक मनमुखि थाउ न पाए बिनु गुर अति पिआरे ॥३॥
मूलम्
आवहु दइआ करे जीउ प्रीतम अति पिआरे ॥ कामणि बिनउ करे जीउ सचि सबदि सीगारे ॥ सचि सबदि सीगारे हउमै मारे गुरमुखि कारज सवारे ॥ जुगि जुगि एको सचा सोई बूझै गुर बीचारे ॥ मनमुखि कामि विआपी मोहि संतापी किसु आगै जाइ पुकारे ॥ नानक मनमुखि थाउ न पाए बिनु गुर अति पिआरे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करे = करके। जीउ प्रीतम = हे प्रीतम जी! बिनउ = विनय, विनती। सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम से। सबदि = गुरु के शब्द से। सीगारो = श्रृंगार के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। कामि = काम में। विआपी = फसी हुई। मोहि = मोह में। जाइ = जा के।3।
अर्थ: (भाग्यशाली है वह) जीव-स्त्री जो सदा स्थिर प्रभु के नाम से व गुरु के शब्द से अपने आत्मिक जीवन को सुंदर बना के (प्रभु दर पे) विनती करती है (और कहती है:) हे अति प्यारे प्रीतम जी! मेहर करके (मेरे हृदय में) आ बसो। जो जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभु के नाम से गुरु के शब्द से अपने जीवन को खूबसूरत बना लेती है, वह अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेती है। गुरु की शरण पड़ कर वह अपने सारे कारज सवार लेती है, वह जीव-स्त्री गुरु की दी हुई विचार (के उपदेश) की इनायत से उस परमात्मा के साथ सांझ पा लेती है जो हरेक युग में ही सदा कायम रहने वाला है।
(पर) अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री काम-वासना में दबी रहती है, मोह में फंस के दुखी होती है। वह किस के आगे जा के (अपने दुखों की) पुकार करे? (कोई उसका ये दुख दूर नहीं कर सकता)। हे नानक! अति प्यारे गुरु के बिना अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री (प्रभु-चरणों में) स्थान हासिल नहीं कर सकती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुंध इआणी भोली निगुणीआ जीउ पिरु अगम अपारा ॥ आपे मेलि मिलीऐ जीउ आपे बखसणहारा ॥ अवगण बखसणहारा कामणि कंतु पिआरा घटि घटि रहिआ समाई ॥ प्रेम प्रीति भाइ भगती पाईऐ सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ सदा अनंदि रहै दिन राती अनदिनु रहै लिव लाई ॥ नानक सहजे हरि वरु पाइआ सा धन नउ निधि पाई ॥४॥३॥
मूलम्
मुंध इआणी भोली निगुणीआ जीउ पिरु अगम अपारा ॥ आपे मेलि मिलीऐ जीउ आपे बखसणहारा ॥ अवगण बखसणहारा कामणि कंतु पिआरा घटि घटि रहिआ समाई ॥ प्रेम प्रीति भाइ भगती पाईऐ सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ सदा अनंदि रहै दिन राती अनदिनु रहै लिव लाई ॥ नानक सहजे हरि वरु पाइआ सा धन नउ निधि पाई ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुंध = मुग्धा, मूर्ख स्त्री। निगुणीआ = गुण विहीन। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। मेलि = अगर मिलाए। घटि घटि = हरेक घट में। भाइ = प्रेम से। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अनंदि = आनंद में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव = लगन। हरि वरु = प्रभु पति। साधन = जीव-स्त्री। नउ निधि = धरती के सारे ही नौ खजाने।4।
अर्थ: (एक तरफ जीव-स्त्री) मूर्ख है अंजान है भोली है (कि विकारों की लपटों से बचना नहीं जानती) और गुण-हीन है, (दूसरी तरफ) प्रभु-पति अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है (ऐसी अवस्था में, ऐसी जीव-स्त्री का प्रभु-पति से मिलाप कैसे हो?)। यदि प्रभु स्वयं ही (जीव-स्त्री को) मिलाए तो मिलाप हो सकता है, वह खुद ही (जीव-स्त्रीयों की भूलें गलतियां) बख्शने वाला है। प्यारा प्रभु-कंत जीव-स्त्री के अवगुण माफ करने के समर्थ है, और वह हरेक शरीर में बस रहा है (इस तरह सब के गुण-अवगुण जानता है)।
सतिगुरु ने ये शिक्षा दी है कि वह कंत-प्रभु, प्रेम-प्रीति से प्राप्त होता है भक्ति भाव से मिलता है। हे नानक! (जो जीव-स्त्री गुरु की इस शिक्षा पर चलती है) वह हर वक्त दिन रात आनंद में रहती है, वह हर समय (प्रभु-चरणों में) तवज्जो जोड़े रखती है, आत्मिक अडोलता में टिक के वह प्रभु-पति से मिल जाती है, उस जीव-स्त्री ने, जैसे, दुनिया के नौ के नौ खजाने हासिल कर लिए हों।4।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ३ ॥ माइआ सरु सबलु वरतै जीउ किउ करि दुतरु तरिआ जाइ ॥ राम नामु करि बोहिथा जीउ सबदु खेवटु विचि पाइ ॥ सबदु खेवटु विचि पाए हरि आपि लघाए इन बिधि दुतरु तरीऐ ॥ गुरमुखि भगति परापति होवै जीवतिआ इउ मरीऐ ॥ खिन महि राम नामि किलविख काटे भए पवितु सरीरा ॥ नानक राम नामि निसतारा कंचन भए मनूरा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ३ ॥ माइआ सरु सबलु वरतै जीउ किउ करि दुतरु तरिआ जाइ ॥ राम नामु करि बोहिथा जीउ सबदु खेवटु विचि पाइ ॥ सबदु खेवटु विचि पाए हरि आपि लघाए इन बिधि दुतरु तरीऐ ॥ गुरमुखि भगति परापति होवै जीवतिआ इउ मरीऐ ॥ खिन महि राम नामि किलविख काटे भए पवितु सरीरा ॥ नानक राम नामि निसतारा कंचन भए मनूरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माया सरु = माया (के मोह) का सरोवर। सबलु = बलवान, तगड़ा। वरतै = अपना प्रभाव डाल रहा है। दुतरु = दुस्तर, जिससे पार गुजरना बहुत मुश्किल है। बोहिथा = जहाज। खेवटु = मल्लाह। इन बिधि = इस तरीके से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। इउ = इस तरह। राम नामि = परमात्मा के नाम ने। किलविख = पाप। मनूरा = जला हुआ लोहा, लोहे की मैल। कंचन = सोना।1।
अर्थ: माया (के मोह) का लबालब भरा समुंदर अपना जोर डाल रहा है, इसमें से तैरना बहुत ही मुश्किल है। (हे भाई!) कैसे इसमें से पार लंघा जाए?
हे भाई! परमात्मा के नाम को जहाज बना, गुरु के शब्द को मल्लाह बना के (उस जहाज) में बैठा। यदि मनुष्य परमात्मा के नाम-जहाज में गुरु के शब्द-मल्लाह को बैठा दे, तो परमात्मा स्वयं ही (माया के सरोवर से) पार लंघा देता है। (हे भाई!) इस दुश्वार माया-सरोवर में यूँ ही पार लांघ सकते हैं। गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो जाती है, इस तरह दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए माया की ओर से अछोह हो जाते हैं।
हे नानक! परमात्मा के नाम की इनायत से (सारे) पाप एक छिन में कट जाते हैं। (जिसके काटे जाते हैं, उसका) शरीर पवित्र हो जाता है। परमात्मा के नाम से ही (माया-सरोवर से) पार लांघ सकते हैं औार लोहे की मैल (जंग लगा लोहे) (जैसा नकारा हुआ मन) सोना बन जाता है।1।
[[0246]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसतरी पुरख कामि विआपे जीउ राम नाम की बिधि नही जाणी ॥ मात पिता सुत भाई खरे पिआरे जीउ डूबि मुए बिनु पाणी ॥ डूबि मुए बिनु पाणी गति नही जाणी हउमै धातु संसारे ॥ जो आइआ सो सभु को जासी उबरे गुर वीचारे ॥ गुरमुखि होवै राम नामु वखाणै आपि तरै कुल तारे ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमति मिले पिआरे ॥२॥
मूलम्
इसतरी पुरख कामि विआपे जीउ राम नाम की बिधि नही जाणी ॥ मात पिता सुत भाई खरे पिआरे जीउ डूबि मुए बिनु पाणी ॥ डूबि मुए बिनु पाणी गति नही जाणी हउमै धातु संसारे ॥ जो आइआ सो सभु को जासी उबरे गुर वीचारे ॥ गुरमुखि होवै राम नामु वखाणै आपि तरै कुल तारे ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमति मिले पिआरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम-वासना में। विआपे = फसे रहते हैं। बिधि = जुगति। सुत = पुत्र। खरे = बहुत। डूबि = डूब के, माया के मोह के सरोवर में नाको नाक फस के। मुए = आत्मिक मौत मर गए। गति = आत्मिक जीवन की हालत। धातु = भटकना। संसारे = संसार में। सभु को = हरेक जीव। जासी = फस जाएगा। उबरे = बच गए। वखाणै = उच्चारता है। घट = हृदय। गुरमति = गुरु की मति ले के।2।
अर्थ: (माया के मोह के प्रभाव में) स्त्री और मर्द काम-वासना में फसे रहते हैं, परमात्मा के नाम जपने की विधि नहीं सीखते। (माया के मोह में फसे जीवों को अपने) माता-पिता-पुत्र-भाई (ही) बहुत प्यारे लगते हैं, (जिस सरोवर में) पानी नहीं, (पानी की जगह मोह है उस में) डूब के (नाको नाक फंस के) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। मोह रूपी पानी वाले माया-सरोवर में नाको नाक फंस के जीव आत्मिक मौत ले लेते है और अपने आत्मिक जीवन को नहीं परखते-जाचते। (इस तरह) संसार में (जीवों को) अहंकार की भटकना लगी हुई है। जो भी जीव जगत में (जनम ले के) आता है वह (इस भटकना में) फंस जाता है, (इसमें से वही) बचते हैं जो गुरु के शब्द को अपनी सोच-मण्डल में बसाते हैं।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा का नाम उच्चारता है, वह खुद (इस माया-सरोवर से) पार लांघ जाता है, अपनी कुलों को भी पार लंघा लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह गुरु की मति का आसरा ले के प्यारे प्रभु को मिल जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नाम बिनु को थिरु नाही जीउ बाजी है संसारा ॥ द्रिड़ु भगति सची जीउ राम नामु वापारा ॥ राम नामु वापारा अगम अपारा गुरमती धनु पाईऐ ॥ सेवा सुरति भगति इह साची विचहु आपु गवाईऐ ॥ हम मति हीण मूरख मुगध अंधे सतिगुरि मारगि पाए ॥ नानक गुरमुखि सबदि सुहावे अनदिनु हरि गुण गाए ॥३॥
मूलम्
राम नाम बिनु को थिरु नाही जीउ बाजी है संसारा ॥ द्रिड़ु भगति सची जीउ राम नामु वापारा ॥ राम नामु वापारा अगम अपारा गुरमती धनु पाईऐ ॥ सेवा सुरति भगति इह साची विचहु आपु गवाईऐ ॥ हम मति हीण मूरख मुगध अंधे सतिगुरि मारगि पाए ॥ नानक गुरमुखि सबदि सुहावे अनदिनु हरि गुण गाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = कोई भी। थिरु = सदा कायम रहने वाला। बाजी = खेल। द्रिढ़ = दृढ़, पक्की करके टिका। सची = सदा कायम रहने वाली। वापारा = वणज। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। पाईऐ = हासिल करते हैं। आपु = स्वैभाव। मुगध = मूर्ख। सतिगुरि = सतिगुरु ने। मारगि = रास्ते पर। सुहावे = सुंदर जीवन वाले। अनदिनु = हर रोज।3।
अर्थ: हे भाई! ये जगत (परमात्मा की रची हुई एक) खेल है (इस में) परमात्मा के नाम के बिना और कोई सदा कायम रहने वाला नहीं है। हे भाई! परमात्मा का नाम-वणज ही सदा कायम रहने वाला है। अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम-वणज ही सदा कायम रहने वाला धन है, ये धन गुरु की मति पर चलने से मिलता है। प्रभु की सेवा भक्ति, प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़नी - ये सदा कायम रहने वाली (राशि) है (इसकी इनायत से अपने) अंदर से स्वैभाव दूर कर सकते हैं।
हम अल्प-बुद्धि वालों को, मूर्खों को, माया के मोह में अंधे हुओं को सतिगुरु ने ही जीवन के सही रास्ते पर डाला है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं, और, वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपि कराए करे आपि जीउ आपे सबदि सवारे ॥ आपे सतिगुरु आपि सबदु जीउ जुगु जुगु भगत पिआरे ॥ जुगु जुगु भगत पिआरे हरि आपि सवारे आपे भगती लाए ॥ आपे दाना आपे बीना आपे सेव कराए ॥ आपे गुणदाता अवगुण काटे हिरदै नामु वसाए ॥ नानक सद बलिहारी सचे विटहु आपे करे कराए ॥४॥४॥
मूलम्
आपि कराए करे आपि जीउ आपे सबदि सवारे ॥ आपे सतिगुरु आपि सबदु जीउ जुगु जुगु भगत पिआरे ॥ जुगु जुगु भगत पिआरे हरि आपि सवारे आपे भगती लाए ॥ आपे दाना आपे बीना आपे सेव कराए ॥ आपे गुणदाता अवगुण काटे हिरदै नामु वसाए ॥ नानक सद बलिहारी सचे विटहु आपे करे कराए ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कराए = (प्रेरणा करके जीवों से) करवाता है। आपे = खुद ही। सबदि = शब्द में (जोड़ के)। सवारे = (जीवों के जीवन) सुंदर बनाता है। जुगु जुगु = हरेक युग में। दाना = समझदार, जानने वाला। बीना = परखने वाला। हिरदै = हृदय में। विटहु = से।4।
अर्थ: (पर) हे भाई! (जीवों के वश कुछ नहीं। माया-सर में डूबने से बचाने वाला प्रभु स्वयं ही है) प्रभु खुद ही (प्रेरणा करके जीवों से काम) करवाता है (जीवों में व्यापक हो के) खुद ही (सब कुछ) करता है, प्रभु खुद ही गुरु के शब्द में जोड़ के (जीवों के) जीवन सुंदर बनाता है। प्रभु खुद ही सत्गुरू मिलाता है, खुद ही (गुरु का) शब्द बख्शता है, और खुद ही हरेक युग में अपने भक्तों को प्यार करता है। हरेक युग में हरि अपने भक्तों को प्यार करता है, खुद ही उनके जीवन को सँवारता है, खुद ही (उन्हें) भक्ति में जोड़ता है। वह खुद ही सबके दिल की जानने वाला और पहचानने वाला है, वह खुद ही (अपने भक्तों से अपनी) सेवा-भक्ति करवाता है। (हे भाई!) परमात्मा खुद ही (अपने) गुणों की दाति बख्शता है, (हमारे) अवगुण दूर करता है, और (हमारे) हृदय में (अपना) नाम बसाता है।
हे नानक! (कह: मैं) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा से सदके जाता हूँ, वह खुद ही सब कुछ करता है और स्वयं ही सब कुछ कराता है।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ३ ॥ गुर की सेवा करि पिरा जीउ हरि नामु धिआए ॥ मंञहु दूरि न जाहि पिरा जीउ घरि बैठिआ हरि पाए ॥ घरि बैठिआ हरि पाए सदा चितु लाए सहजे सति सुभाए ॥ गुर की सेवा खरी सुखाली जिस नो आपि कराए ॥ नामो बीजे नामो जमै नामो मंनि वसाए ॥ नानक सचि नामि वडिआई पूरबि लिखिआ पाए ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ३ ॥ गुर की सेवा करि पिरा जीउ हरि नामु धिआए ॥ मंञहु दूरि न जाहि पिरा जीउ घरि बैठिआ हरि पाए ॥ घरि बैठिआ हरि पाए सदा चितु लाए सहजे सति सुभाए ॥ गुर की सेवा खरी सुखाली जिस नो आपि कराए ॥ नामो बीजे नामो जमै नामो मंनि वसाए ॥ नानक सचि नामि वडिआई पूरबि लिखिआ पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरा जीउ = हे प्यारे जीव! हे प्यारी जिंदे! धिआए = याद कर। मंञहु = मंझहु, अपने आप में से। घरि = हृदय घर में। सहजे = आत्मिक अडोलता में, सहज। सति सुभाए = सदा स्थिर प्रभु के प्यार में टिक के। खरी = बहुत। सुखाली = सुख+आलय, सुख देने वाली। नामो = नाम ही। मंनि = मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। नामि = नाम में (जुड़ने से)। पूरबि = पहले जन्म में।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे प्यारी जिंदे! गुरु की सेवा कर (गुरु की शरण पड़, और) परमात्मा का नाम स्मरण कर, (इस तरह) तू अपने आप में से दूर नहीं जाएगी (माया कें मोह की भटकना से बच जाएगी)। (हे जिंदे!) हृदय घर में टिके रहने से परमात्मा मिल जाता है। जो जीव आत्मिक अडोलता में टिक के, सदा स्थिर प्रभु के प्रेम में जुड़ के सदा (प्रभु चरणों में) चित्त जोड़ता है, वह हृदय घर में टिका रह के परमात्मा को ढूँढ लेता है। (सो, हे जिंदे!) गुरु की बताई हुई सेवा बहुत सुख देने वाली है (पर ये सेवा वही मनुष्य करता है) जिससे परमात्मा खुद कराऐ (जिसे खुद प्रेरणा करे)। (वह मनुष्य फिर अपने हृदय खेत में) परमात्मा का नाम ही बीजता है (वहाँ) नाम ही उगता है, वह मनुष्य अपने मन में सदा नाम ही बसाए रखता है।
हे नानक! सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के, प्रभु नाम में टिक के (मनुष्य लोक-परलोक में) आदर पाता है, (नाम जपने की इनायत से) पहले जन्म में किए कर्मों के संस्कारों के लेख मनुष्य के अंदर अंकुरित हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु मीठा पिरा जीउ जा चाखहि चितु लाए ॥ रसना हरि रसु चाखु मुये जीउ अन रस साद गवाए ॥ सदा हरि रसु पाए जा हरि भाए रसना सबदि सुहाए ॥ नामु धिआए सदा सुखु पाए नामि रहै लिव लाए ॥ नामे उपजै नामे बिनसै नामे सचि समाए ॥ नानक नामु गुरमती पाईऐ आपे लए लवाए ॥२॥
मूलम्
हरि का नामु मीठा पिरा जीउ जा चाखहि चितु लाए ॥ रसना हरि रसु चाखु मुये जीउ अन रस साद गवाए ॥ सदा हरि रसु पाए जा हरि भाए रसना सबदि सुहाए ॥ नामु धिआए सदा सुखु पाए नामि रहै लिव लाए ॥ नामे उपजै नामे बिनसै नामे सचि समाए ॥ नानक नामु गुरमती पाईऐ आपे लए लवाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा = जब। चाखहि = तू चखेगी। लाए = लगा के। रसना मुये = हे निकर्मण्य जीभ! अन रस साद = और रसों का स्वाद। गवाए = गवा के, दूर कर। हरि भाए = हरि को पसंद आए। सबदि = शब्द में। नामि = नाम में। लिव लाए = लगन लगा के। उपजै = (हरि-रस) पैदा होता है। बिनसे = (अन रस साद) समाप्त हो जाता है। लए लवाए = लगा ले, लाम की लगन पैदा करता है।2।
अर्थ: हे प्यारी जिंदे! परमात्मा का नाम मीठा है (पर ये तुम्हें तभी समझ आएगी) जब तू चित्त जोड़ के (ये नाम-रस) चखेगी। हे मेरी निष्कर्मण्य जीभ! परमात्मा के नाम का स्वाद चख, और अन्य रसों के स्वाद त्याग दे। (पर जीभ के भी क्या वश?) जब परमात्मा को ठीक लगे, तभी जीभ सदा परमात्मा के नाम का स्वाद लेती है, और गुरु के शब्द में जुड़ के सुंदर हो जाती है।
(हे जिंदे!) जो मनुष्य नाम स्मरण करता है नाम में तवज्जो जोड़े रखता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है, नाम की इनायत से उसके अंदर (नाम-रस की तमन्ना) पैदा होती है, नाम की इनायत से (उसके अंदर से और रसों की पकड़) दूर हो जाती है, नाम जपने की इनायत से वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है। (पर) हे नानक! परमात्मा का नाम गुरु की मति पर चलने से ही मिलता है, परमात्मा खुद ही अपने नाम की लगन पैदा करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एह विडाणी चाकरी पिरा जीउ धन छोडि परदेसि सिधाए ॥ दूजै किनै सुखु न पाइओ पिरा जीउ बिखिआ लोभि लुभाए ॥ बिखिआ लोभि लुभाए भरमि भुलाए ओहु किउ करि सुखु पाए ॥ चाकरी विडाणी खरी दुखाली आपु वेचि धरमु गवाए ॥ माइआ बंधन टिकै नाही खिनु खिनु दुखु संताए ॥ नानक माइआ का दुखु तदे चूकै जा गुर सबदी चितु लाए ॥३॥
मूलम्
एह विडाणी चाकरी पिरा जीउ धन छोडि परदेसि सिधाए ॥ दूजै किनै सुखु न पाइओ पिरा जीउ बिखिआ लोभि लुभाए ॥ बिखिआ लोभि लुभाए भरमि भुलाए ओहु किउ करि सुखु पाए ॥ चाकरी विडाणी खरी दुखाली आपु वेचि धरमु गवाए ॥ माइआ बंधन टिकै नाही खिनु खिनु दुखु संताए ॥ नानक माइआ का दुखु तदे चूकै जा गुर सबदी चितु लाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विडाणी = बिगानी, अपने असल साथी प्रभु के बिना किसी और की। चाकरी = नौकरी, खुशामद। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। छोडि = छोड़ के, (घर) छोड़ के, (आंतरिक ठहराव) छोड़ के। परदेसि = पराए देश में, (आत्मिक ठिकाना छोड़ के) जगह-जगह। दूजै = प्रभु के बिना किसी और के प्यार में। बिखिआ = माया। लुभाए = फसता है। भरमि = भटकना में। भुलाए = गलत रास्ते पर जाता है। दुखाली = दुख का घर, दुख देने वाली। आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। बंधन = बंधनों के कारण। चूकै = खत्म होता।3।
अर्थ: हे प्यारी जिंदे! (जैसे ये बेगानी नौकरी बड़ी दुखदाई होती है कि मनुष्य अपनी स्त्री को घर छोड़ के परदेस चला जाता है, वैसे ही परमात्मा को विसार के) और खुशामदें (बड़ी दुखदाई हैं क्योंकि) जीव-स्त्री (अपना आंतरिक आत्मिक ठिकाना) छोड़ के जगह-जगह बाहर भटकती फिरती है।
हे प्यारी जिंदे! माया के मोह में फंस के किसी ने कभी सुख नहीं पाया। मनुष्य माया के लोभ में फंस जाता है। (जब मनुष्य) माया के लोभ में फंसता है (तब माया की खातिर) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ जाता है (उस हालत में ये) सुख कैसे पा सकता है? (हे जिंदे! माया की खातिर ये दर-दर की खुशामद बहुत दुखदाई है) मनुष्य अपना आत्मिक जीवन (माया के बदले) बेच के अपना कर्तव्य छोड़ बैठता है। माया के (मोह के) बंधनों के कारण मनुष्य का मन (एक जगह) टिकता नहीं, (हरेक किस्म का) दुख इसे हर वक्त कष्ट देता है।
हे नानक! माया के मोह से पैदा हुआ दुख तभी खत्म होता है जब मनुष्य गुरु के शब्द में अपना चिक्त जोड़ता है।3।
[[0247]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख मुगध गावारु पिरा जीउ सबदु मनि न वसाए ॥ माइआ का भ्रमु अंधु पिरा जीउ हरि मारगु किउ पाए ॥ किउ मारगु पाए बिनु सतिगुर भाए मनमुखि आपु गणाए ॥ हरि के चाकर सदा सुहेले गुर चरणी चितु लाए ॥ जिस नो हरि जीउ करे किरपा सदा हरि के गुण गाए ॥ नानक नामु रतनु जगि लाहा गुरमुखि आपि बुझाए ॥४॥५॥७॥
मूलम्
मनमुख मुगध गावारु पिरा जीउ सबदु मनि न वसाए ॥ माइआ का भ्रमु अंधु पिरा जीउ हरि मारगु किउ पाए ॥ किउ मारगु पाए बिनु सतिगुर भाए मनमुखि आपु गणाए ॥ हरि के चाकर सदा सुहेले गुर चरणी चितु लाए ॥ जिस नो हरि जीउ करे किरपा सदा हरि के गुण गाए ॥ नानक नामु रतनु जगि लाहा गुरमुखि आपि बुझाए ॥४॥५॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगध = मूर्ख। गावारु = उजड्ड। मनि = मन में। भ्रमु = चक्कर, भटकना। अंधु = अंधा। मारगु = रास्ता। आपु = अपने आप को। गणाए = बड़ा जाहिर करता है। चाकर = सेवक। सुहेले = सुखी। लाए = लगा के। जिस नो = जिस पर। जगि = जगत में। लाहा = लाभ। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ के। आपि = (परमात्मा) स्वयं।4।
अर्थ: हे प्यारी जिंदे! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य मूर्ख और उजड्ड ही रहता है, वह गुरु के शब्द को अपने मन में नहीं बसाता। हे जिंदे! माया (के मोह) का चक्कर उसे (सही जीवन-राह से) अंधा कर देता है (इस वास्ते वह) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता नहीं ढूँढ सकता। गुरु की मर्जी के मुताबिक चले बिना मनुष्य हरि के मिलाप का रास्ता नहीं ढूँढ सकता (क्योंकि) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा अपने आप को बड़ा प्रगट करता रहता है (और उसके अंदर सेवक वाली निम्रता नहीं आ सकती)। (दूसरी तरफ) परमात्मा के सेवक-भक्त गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ के सदा सुखी रहते हैं।
(पर, हे जिंदे! किसी के वश की बात नहीं) जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं दया करता है, वही सदा परमात्मा के गुण गाता है। हे नानक! परमात्मा का नाम ही जगत में (असल) कमाई है, इस बात की सूझ परमात्मा स्वयं ही (मनुष्य को) गुरु की शरण में ला के देता है।4।5।